[दसवाँ अध्याय]
विषय
जातकर्म, नामकरण और विवाह-संस्कारकी विधि
मूलम् (वचनम्)
सगर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथितं चातुराश्रम्यं चातुर्वर्ण्यक्रियास्तथा।
पुंसः क्रियामहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम॥ १॥
मूलम्
कथितं चातुराश्रम्यं चातुर्वर्ण्यक्रियास्तथा।
पुंसः क्रियामहं श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
सगर बोले—हे द्विजश्रेष्ठ! आपने चारों आश्रम और चारों वर्णोंके कर्मोंका वर्णन किया। अब मैं आपके द्वारा मनुष्योंके (षोडश संस्काररूप) कर्मोंको सुनना चाहता हूँ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यनैमित्तिकाः काम्याः क्रियाः पुंसामशेषतः।
समाख्याहि भृगुश्रेष्ठ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः॥ २॥
मूलम्
नित्यनैमित्तिकाः काम्याः क्रियाः पुंसामशेषतः।
समाख्याहि भृगुश्रेष्ठ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भृगुश्रेष्ठ! मेरा विचार है कि आप सर्वज्ञ हैं। अतएव आप मनुष्योंके नित्य-नैमित्तिक और काम्य आदि सब प्रकारके कर्मोंका निरूपण कीजिये॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
और्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमित्तिकाश्रयम्।
तदहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना मम॥ ३॥
मूलम्
यदेतदुक्तं भवता नित्यनैमित्तिकाश्रयम्।
तदहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना मम॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और्व बोले—हे राजन्! आपने जो नित्य-नैमित्तिक आदि क्रियाकलापके विषयमें पूछा सो मैं सबका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातस्य जातकर्मादिक्रियाकाण्डमशेषतः।
पुत्रस्य कुर्वीत पिता श्राद्धं चाभ्युदयात्मकम्॥ ४॥
मूलम्
जातस्य जातकर्मादिक्रियाकाण्डमशेषतः।
पुत्रस्य कुर्वीत पिता श्राद्धं चाभ्युदयात्मकम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रके उत्पन्न होनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकाण्ड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युग्मांस्तु प्राङ्मुखान्विप्रान्भोजयेन्मनुजेश्वर।
यथा वृत्तिस्तथा कुर्याद्दैवं पित्र्यं द्विजन्मनाम्॥ ५॥
मूलम्
युग्मांस्तु प्राङ्मुखान्विप्रान्भोजयेन्मनुजेश्वर।
यथा वृत्तिस्तथा कुर्याद्दैवं पित्र्यं द्विजन्मनाम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नरेश्वर! पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा द्विजातियोंके व्यवहारके अनुसार देव और पितृपक्षकी तृप्तिके लिये श्राद्ध करे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दध्ना यवैः सबदरैर्मिश्रान्पिण्डान्मुदा युतः।
नान्दीमुखेभ्यस्तीर्थेन दद्याद्दैवेन पार्थिव॥ ६॥
मूलम्
दध्ना यवैः सबदरैर्मिश्रान्पिण्डान्मुदा युतः।
नान्दीमुखेभ्यस्तीर्थेन दद्याद्दैवेन पार्थिव॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे राजन्! प्रसन्नतापूर्वक दैवतीर्थ (अँगुलियोंके अग्रभाग)-द्वारा नान्दीमुख पितृगणको दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राजापत्येन वा सर्वमुपचारं प्रदक्षिणम्।
कुर्वीत तत्तथाशेषवृद्धिकालेषु भूपते॥ ७॥
मूलम्
प्राजापत्येन वा सर्वमुपचारं प्रदक्षिणम्।
कुर्वीत तत्तथाशेषवृद्धिकालेषु भूपते॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिकाके मूल)-द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्योंका दान करे। इसी प्रकार [कन्या अथवा पुत्रोंके विवाह आदि] समस्त वृद्धिकालोंमें भी करे॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम्॥ ८॥
मूलम्
ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पुत्रोत्पत्तिके दसवें दिन पिता नामकरण-संस्कार करे। पुरुषका नाम पुरुषवाचक होना चाहिये। उसके पूर्वमें देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा आदि होने चाहिये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः॥ ९॥
मूलम्
शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके नामके अन्तमें शर्मा, क्षत्रियके अन्तमें वर्मा तथा वैश्य और शूद्रोंके नामान्तमें क्रमशः गुप्त और दास शब्दोंका प्रयोग करना चाहिये॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा।
नामंगल्यं जुगुप्स्यं वा नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥ १०॥
मूलम्
नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा।
नामंगल्यं जुगुप्स्यं वा नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, अमांगलिक और निन्दनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिदीर्घं नातिह्रस्वं नातिगुर्वक्षरान्वितम्।
सुखोच्चार्यं तु तन्नाम कुर्याद्यत्प्रवणाक्षरम्॥ ११॥
मूलम्
नातिदीर्घं नातिह्रस्वं नातिगुर्वक्षरान्वितम्।
सुखोच्चार्यं तु तन्नाम कुर्याद्यत्प्रवणाक्षरम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरोंसे युक्त नाम न रखे। जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछेके वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनन्तरसंस्कारसंस्कृतो गुरुवेश्मनि।
यथोक्तविधिमाश्रित्य कुर्याद्विद्यापरिग्रहम्॥ १२॥
मूलम्
ततोऽनन्तरसंस्कारसंस्कृतो गुरुवेश्मनि।
यथोक्तविधिमाश्रित्य कुर्याद्विद्यापरिग्रहम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरुगृहमें रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीतविद्यो गुरवे दत्त्वा च गुरुदक्षिणाम्।
गार्हस्थ्यमिच्छन्भूपाल कुर्याद्दारपरिग्रहम्॥ १३॥
मूलम्
गृहीतविद्यो गुरवे दत्त्वा च गुरुदक्षिणाम्।
गार्हस्थ्यमिच्छन्भूपाल कुर्याद्दारपरिग्रहम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भूपाल! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरुको दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्येण वा कालं कुर्यात्संकल्पपूर्वकम्।
गुरोश्शुश्रूषणं कुर्यात्तत्पुत्रादेरथापि वा॥ १४॥
मूलम्
ब्रह्मचर्येण वा कालं कुर्यात्संकल्पपूर्वकम्।
गुरोश्शुश्रूषणं कुर्यात्तत्पुत्रादेरथापि वा॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
या दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रोंकी सेवा-शुश्रूषा करता रहे॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैखानसो वापि भवेत्परिव्राडथ वेच्छया।
पूर्वसंकल्पितं यादृक् तादृक्कुर्यान्नराधिप॥ १५॥
मूलम्
वैखानसो वापि भवेत्परिव्राडथ वेच्छया।
पूर्वसंकल्पितं यादृक् तादृक्कुर्यान्नराधिप॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले। हे राजन्! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्षैरेकगुणां भार्यामुद्वहेत्त्रिगुणस्स्वयम्।
नातिकेशामकेशां वा नातिकृष्णां न पिंगलाम्॥ १६॥
मूलम्
वर्षैरेकगुणां भार्यामुद्वहेत्त्रिगुणस्स्वयम्।
नातिकेशामकेशां वा नातिकृष्णां न पिंगलाम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
[यदि विवाह करना हो तो] अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्यासे विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पाण्डुवर्णा (भूरे रंगकी) स्रीसे सम्बन्ध न करे॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसर्गतोऽधिकांगीं वा न्यूनांगीमपि नोद्वहेत्।
नाविशुद्धां सरोमांवाकुलजां वापि रोगिणीम्॥ १७॥
मूलम्
निसर्गतोऽधिकांगीं वा न्यूनांगीमपि नोद्वहेत्।
नाविशुद्धां सरोमांवाकुलजां वापि रोगिणीम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके जन्मसे ही अधिक या न्यून अंग हों, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्रीसे पाणिग्रहण न करे॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दुष्टां दुष्टवाक्यां वा व्यंगिनीं पितृमातृतः।
न श्मश्रुव्यञ्जनवतीं न चैव पुरुषाकृतिम्॥ १८॥
न घर्घरस्वरां क्षामां तथा काकस्वरां न च।
नानिबन्धेक्षणां तद्वद्वृत्ताक्षीं नोद्वहेद्बुधः॥ १९॥
मूलम्
न दुष्टां दुष्टवाक्यां वा व्यंगिनीं पितृमातृतः।
न श्मश्रुव्यञ्जनवतीं न चैव पुरुषाकृतिम्॥ १८॥
न घर्घरस्वरां क्षामां तथा काकस्वरां न च।
नानिबन्धेक्षणां तद्वद्वृत्ताक्षीं नोद्वहेद्बुधः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिताके अनुसार अंगहीना हो, जिसके श्मश्रु (मूँछोंके) चिह्न हों, जो पुरुषके-से आकारवाली हो अथवा घर्घर शब्द करनेवाले अति मन्द या कौएके समान (कर्णकटु) स्वरवाली हो तथा पक्ष्मशून्या या गोल नेत्रोंवाली हो उस स्रीसे विवाह न करे॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्याश्च रोमशे जङ्घे गुल्फौ यस्यास्तथोन्नतौ।
गण्डयोः कूपरौ यस्या हसन्त्यास्तां न चोद्वहेत्॥ २०॥
मूलम्
यस्याश्च रोमशे जङ्घे गुल्फौ यस्यास्तथोन्नतौ।
गण्डयोः कूपरौ यस्या हसन्त्यास्तां न चोद्वहेत्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी जंघाओंपर रोम हों, जिसके गुल्फ (टखने) ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलोंमें गड्ढे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिरूक्षच्छविं पाण्डुकरजामरुणेक्षणाम्।
आपीनहस्तपादां च न कन्यामुद्वहेद् बुधः॥ २१॥
मूलम्
नातिरूक्षच्छविं पाण्डुकरजामरुणेक्षणाम्।
आपीनहस्तपादां च न कन्यामुद्वहेद् बुधः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी कान्ति अत्यन्त उदासीन न हो, नख पाण्डुवर्ण हों, नेत्र लाल हों तथा हाथ-पैर कुछ भारी हों, बुद्धिमान् पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वामनां नातिदीर्घां नोद्वहेत्संहतभ्रुवम्।
न चातिच्छिद्रदशनां न करालमुखीं नरः॥ २२॥
मूलम्
न वामनां नातिदीर्घां नोद्वहेत्संहतभ्रुवम्।
न चातिच्छिद्रदशनां न करालमुखीं नरः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अति वामन (नाटी) अथवा अति दीर्घ (लम्बी) हो, जिसकी भृकुटियाँ जुड़ी हुई हों, जिसके दाँतोंमें अधिक अन्तर हो तथा जो दन्तुर (आगेको दाँत निकले हुए) मुखवाली हो उस स्रीसे कभी विवाह न करे॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चमीं मातृपक्षाच्च पितृपक्षाच्च सप्तमीम्।
गृहस्थश्चोद्वहेत्कन्यां न्यायेन विधिना नृप॥ २३॥
मूलम्
पञ्चमीं मातृपक्षाच्च पितृपक्षाच्च सप्तमीम्।
गृहस्थश्चोद्वहेत्कन्यां न्यायेन विधिना नृप॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! मातृपक्षसे पाँचवीं पीढ़ीतक और पितृपक्षसे सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुषको नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।
गान्धर्वराक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्टमो मतः॥ २४॥
मूलम्
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।
गान्धर्वराक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्टमो मतः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच—ये आठ प्रकारके विवाह हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां यस्य यो धर्मो वर्णस्योक्तो महर्षिभिः।
कुर्वीत दारग्रहणं तेनान्यं परिवर्जयेत्॥ २५॥
मूलम्
एतेषां यस्य यो धर्मो वर्णस्योक्तो महर्षिभिः।
कुर्वीत दारग्रहणं तेनान्यं परिवर्जयेत्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमेंसे जिस विवाहको जिस वर्णके लिये महर्षियोंने धर्मानुकूल कहा है उसीके द्वारा दार-परिग्रह करे, अन्य विधियोंको छोड़ दे॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सधर्मचारिणीं प्राप्य गार्हस्थ्यं सहितस्तया।
समुद्वहेद्ददात्येतत्सम्यगूढं महाफलम्॥ २६॥
मूलम्
सधर्मचारिणीं प्राप्य गार्हस्थ्यं सहितस्तया।
समुद्वहेद्ददात्येतत्सम्यगूढं महाफलम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसप्रकार सहधर्मिणीको प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्मका पालन करे, क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान् फल देनेवाला होता है॥ २६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे दशमोऽध्यायः॥ १०॥