०८

[आठवाँ अध्याय]

विषय

विष्णु भगवान‍्की आराधना और चातुर्वर्ण्य-धर्मका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन‍्भगवान‍्देवः संसारविजिगीषुभिः।
समाख्याहि जगन्नाथो विष्णुराराध्यते यथा॥ १॥

मूलम्

भगवन‍्भगवान‍्देवः संसारविजिगीषुभिः।
समाख्याहि जगन्नाथो विष्णुराराध्यते यथा॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—हे भगवन्! जो लोग संसारको जीतना चाहते हैं, वे जिस प्रकार जगत्पति भगवान‍् विष्णुकी उपासना करते हैं, वह वर्णन कीजिये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आराधिताच्च गोविन्द दाराधनपरैर्नरैः।
यत्प्राप्यते फलं श्रोतुं तच्चेच्छामि महामुने॥ २॥

मूलम्

आराधिताच्च गोविन्द दाराधनपरैर्नरैः।
यत्प्राप्यते फलं श्रोतुं तच्चेच्छामि महामुने॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे महामुने! उन गोविन्दकी आराधना करनेपर आराधनपरायण पुरुषोंको जो फल मिलता है, वह भी मैं सुनना चाहता हूँ॥ २॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्पृच्छति भवानेतत्सगरेण महात्मना।
और्वः प्राह यथा पृष्टस्तन्मे निगदतश्शृणु॥ ३॥

मूलम्

यत्पृच्छति भवानेतत्सगरेण महात्मना।
और्वः प्राह यथा पृष्टस्तन्मे निगदतश्शृणु॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! तुम जो कुछ पूछते हो यही बात महात्मा सगरने और्वसे पूछी थी। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा वह मैं तुमको सुनाता हूँ, श्रवण करो॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगरः प्रणिपत्यैनमौर्वं पप्रच्छ भार्गवम्।
विष्णोराराधनोपायसम्बन्धं मुनिसत्तम॥ ४॥
फलं चाराधिते विष्णौ यत्पुंसामभिजायते।
स चाह पृष्टो यत्नेन तस्मै तन्मेऽखिलं शृणु॥ ५॥

मूलम्

सगरः प्रणिपत्यैनमौर्वं पप्रच्छ भार्गवम्।
विष्णोराराधनोपायसम्बन्धं मुनिसत्तम॥ ४॥
फलं चाराधिते विष्णौ यत्पुंसामभिजायते।
स चाह पृष्टो यत्नेन तस्मै तन्मेऽखिलं शृणु॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! सगरने भृगुवंशी महात्मा और्वको प्रणाम करके उनसे भगवान‍् विष्णुकी आराधनाके उपाय और विष्णुकी उपासना करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है उसके विषयमें पूछा था। उनके पूछनेपर और्वने यत्नपूर्वक जो कुछ कहा था वह सब सुनो॥ ४-५॥

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भौमं मनोरथं स्वर्गं स्वर्गे रम्यं च यत्पदम्।
प्राप्नोत्याराधिते विष्णौ निर्वाणमपि चोत्तमम्॥ ६॥

मूलम्

भौमं मनोरथं स्वर्गं स्वर्गे रम्यं च यत्पदम्।
प्राप्नोत्याराधिते विष्णौ निर्वाणमपि चोत्तमम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—भगवान‍् विष्णुकी आराधना करनेसे मनुष्य भूमण्डल-सम्बन्धी समस्त मनोरथ, स्वर्ग, स्वर्गसे भी श्रेष्ठ ब्रह्मपद और परम निर्वाण-पद भी प्राप्त कर लेता है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यदिच्छति यावच्च फलमाराधितेऽच्युते।
तत्तदाप्नोति राजेन्द्र भूरि स्वल्पमथापि वा॥ ७॥

मूलम्

यद्यदिच्छति यावच्च फलमाराधितेऽच्युते।
तत्तदाप्नोति राजेन्द्र भूरि स्वल्पमथापि वा॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेन्द्र! वह जिस-जिस फलकी जितनी-जितनी इच्छा करता है, अल्प हो या अधिक, श्रीअच्युतकी आराधनासे निश्चय ही वह सब प्राप्त कर लेता है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तु पृच्छसि भूपाल कथमाराध्यते हरिः।
तदहं सकलं तुभ्यं कथयामि निबोध मे॥ ८॥

मूलम्

यत्तु पृच्छसि भूपाल कथमाराध्यते हरिः।
तदहं सकलं तुभ्यं कथयामि निबोध मे॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे भूपाल! तुमने जो पूछा कि हरिकी आराधना किस प्रकार की जाय, सो सब मैं तुमसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनो॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्तत्तोषकारकः॥ ९॥

मूलम्

वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्तत्तोषकारकः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेवाला है वही परमपुरुष विष्णुकी आराधना कर सकता है; उनको सन्तुष्ट करनेका और कोई मार्ग नहीं है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजन्यज्ञान्यजत्येनं जपत्येनं जपन्नृप।
निघ्नन्नन्यान्हिनस्त्येनं सर्वभूतो यतो हरिः॥ १०॥

मूलम्

यजन्यज्ञान्यजत्येनं जपत्येनं जपन्नृप।
निघ्नन्नन्यान्हिनस्त्येनं सर्वभूतो यतो हरिः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! यज्ञोंका यजन करनेवाला पुरुष उन (विष्णु) ही का यजन करता है, जप करनेवाला उन्हींका जप करता है और दूसरोंकी हिंसा करनेवाला उन्हींकी हिंसा करता है; क्योंकि भगवान‍् हरि सर्वभूतमय हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्सदाचारवता पुरुषेण जनार्दनः।
आराध्यते स्ववर्णोक्तधर्मानुष्ठानकारिणा॥ ११॥

मूलम्

तस्मात्सदाचारवता पुरुषेण जनार्दनः।
आराध्यते स्ववर्णोक्तधर्मानुष्ठानकारिणा॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सदाचारयुक्त पुरुष अपने वर्णके लिये विहित धर्मका आचरण करते हुए श्रीजनार्दनहीकी उपासना करता है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्च पृथिवीपते।
स्वधर्मतत्परो विष्णुमाराधयति नान्यथा॥ १२॥

मूलम्

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्च पृथिवीपते।
स्वधर्मतत्परो विष्णुमाराधयति नान्यथा॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथिवीपते! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए ही विष्णुकी आराधना करते हैं, अन्य प्रकारसे नहीं॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परापवादं पैशुन्यमनृतं च न भाषते।
अन्योद्वेगकरं वापि तोष्यते तेन केशवः॥ १३॥

मूलम्

परापवादं पैशुन्यमनृतं च न भाषते।
अन्योद्वेगकरं वापि तोष्यते तेन केशवः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा, चुगली अथवा मिथ्याभाषण नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससे दूसरोंको खेद हो, उससे निश्चय ही भगवान‍् केशव प्रसन्न रहते हैं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारपरद्रव्यपरहिंसासु यो रतिम्।
न करोति पुमान्भूप तोष्यते तेन केशवः॥ १४॥

मूलम्

परदारपरद्रव्यपरहिंसासु यो रतिम्।
न करोति पुमान्भूप तोष्यते तेन केशवः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! जो पुरुष दूसरोंकी स्त्री, धन और हिंसामें रुचि नहीं करता उससे सर्वदा ही भगवान‍् केशव सन्तुष्ट रहते हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽन्यांश्च देहिनः।
यो मनुष्यो मनुष्येन्द्र तोष्यते तेन केशवः॥ १५॥

मूलम्

न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽन्यांश्च देहिनः।
यो मनुष्यो मनुष्येन्द्र तोष्यते तेन केशवः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेन्द्र! जो मनुष्य किसी प्राणी अथवा [वृक्षादि ]अन्य देहधारियोंको पीड़ित अथवा नष्ट नहीं करता उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रहते हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवद्विजगुरूणां च शुश्रूषासु सदोद्यतः।
तोष्यते तेन गोविन्दः पुरुषेण नरेश्वर॥ १६॥

मूलम्

देवद्विजगुरूणां च शुश्रूषासु सदोद्यतः।
तोष्यते तेन गोविन्दः पुरुषेण नरेश्वर॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और गुरुजनोंकी सेवामें सदा तत्पर रहता है, हे नरेश्वर! उससे गोविन्द सदा प्रसन्न रहते हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथात्मनि च पुत्रे च सर्वभूतेषु यस्तथा।
हितकामो हरिस्तेन सर्वदा तोष्यते सुखम्॥ १७॥

मूलम्

यथात्मनि च पुत्रे च सर्वभूतेषु यस्तथा।
हितकामो हरिस्तेन सर्वदा तोष्यते सुखम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रोंके समान ही समस्त प्राणियोंका भी हित-चिन्तक होता है वह सुगमतासे ही श्रीहरिको प्रसन्न कर लेता है॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य रागादिदोषेण न दुष्टं नृप मानसम्।
विशुद्धचेतसा विष्णुस्तोष्यते तेन सर्वदा॥ १८॥

मूलम्

यस्य रागादिदोषेण न दुष्टं नृप मानसम्।
विशुद्धचेतसा विष्णुस्तोष्यते तेन सर्वदा॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जिसका चित्त रागादि दोषोंसे दूषित नहीं है उस विशुद्ध-चित्त पुरुषसे भगवान‍् विष्णु सदा सन्तुष्ट रहते हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णाश्रमेषु ये धर्माश्शास्त्रोक्ता नृपसत्तम।
तेषु तिष्ठन्नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा॥ १९॥

मूलम्

वर्णाश्रमेषु ये धर्माश्शास्त्रोक्ता नृपसत्तम।
तेषु तिष्ठन्नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृपश्रेष्ठ! शास्त्रोंमें जो-जो वर्णाश्रम-धर्म कहे हैं उन-उनका ही आचरण करके पुरुष विष्णुकी आराधना कर सकता है; और किसी प्रकार नहीं॥ १९॥

मूलम् (वचनम्)

सगर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं श्रोतुमिच्छामि वर्णधर्मानशेषतः।
तथैवाश्रमधर्मांश्च द्विजवर्य ब्रवीहि तान्॥ २०॥

मूलम्

तदहं श्रोतुमिच्छामि वर्णधर्मानशेषतः।
तथैवाश्रमधर्मांश्च द्विजवर्य ब्रवीहि तान्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सगर बोले—हे द्विजश्रेष्ठ! अब मैं सम्पूर्ण वर्णधर्म और आश्रमधर्मोंको सुनना चाहता हूँ, कृपा करके वर्णन कीजिये॥ २०॥

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च यथाक्रमम्।
त्वमेकाग्रमतिर्भूत्वा शृणु धर्मान्मयोदितान्॥ २१॥

मूलम्

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च यथाक्रमम्।
त्वमेकाग्रमतिर्भूत्वा शृणु धर्मान्मयोदितान्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—जिनका मैं वर्णन करता हूँ, उन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके धर्मोंका तुम एकाग्रचित्त होकर क्रमशः श्रवण करो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं दद्याद्यजेद्देवान‍्यज्ञैस्स्वाध्यायतत्परः।
नित्योदकी भवेद्विप्रः कुर्याच्चाग्निपरिग्रहम्॥ २२॥

मूलम्

दानं दद्याद्यजेद्देवान‍्यज्ञैस्स्वाध्यायतत्परः।
नित्योदकी भवेद्विप्रः कुर्याच्चाग्निपरिग्रहम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणका कर्तव्य है कि दान दे, यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे, स्वाध्यायशील हो, नित्य स्नान-तर्पण करे और अग्न्याधान आदि कर्म करता रहे॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्त्यर्थं याजयेच्चान्यानन्यानध्यापयेत्तथा।
कुर्यात्प्रतिग्रहादानं शुक्लार्थान्न्यायतो द्विजः॥ २३॥

मूलम्

वृत्त्यर्थं याजयेच्चान्यानन्यानध्यापयेत्तथा।
कुर्यात्प्रतिग्रहादानं शुक्लार्थान्न्यायतो द्विजः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणको उचित है कि वृत्तिके लिये दूसरोंसे यज्ञ करावे, औरोंको पढ़ावे और न्यायोपार्जित शुद्ध धनमेंसे न्यायानुकूल द्रव्य संग्रह करे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतहितं कुर्यान्नाहितं कस्यचिद् द्विजः।
मैत्री समस्तभूतेषु ब्राह्मणस्योत्तमं धनम्॥ २४॥

मूलम्

सर्वभूतहितं कुर्यान्नाहितं कस्यचिद् द्विजः।
मैत्री समस्तभूतेषु ब्राह्मणस्योत्तमं धनम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणको कभी किसीका अहित नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियोंमें मैत्री रखना ही ब्राह्मणका परम धन है॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्राव्णि रत्ने च पारक्ये समबुद्धिर्भवेद् द्विजः।
ऋतावभिगमः पत्न्यां शस्यते चास्य पार्थिव॥ २५॥

मूलम्

ग्राव्णि रत्ने च पारक्ये समबुद्धिर्भवेद् द्विजः।
ऋतावभिगमः पत्न्यां शस्यते चास्य पार्थिव॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्थरमें और पराये रत्नमें ब्राह्मणको समान-बुद्धि रखनी चाहिये। हे राजन्! पत्नीके विषयमें ऋतुगामी होना ही ब्राह्मणके लिये प्रशंसनीय कर्म है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानानि दद्यादिच्छातो द्विजेभ्यः क्षत्रियोऽपि वा।
यजेच्च विविधैर्यज्ञैरधीयीत च पार्थिवः॥ २६॥

मूलम्

दानानि दद्यादिच्छातो द्विजेभ्यः क्षत्रियोऽपि वा।
यजेच्च विविधैर्यज्ञैरधीयीत च पार्थिवः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियको उचित है कि ब्राह्मणोंको यथेच्छ दान दे, विविध यज्ञोंका अनुष्ठान करे और अध्ययन करे॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्राजीवो महीरक्षा प्रवरा तस्य जीविका।
तत्रापि प्रथमः कल्पः पृथिवीपरिपालनम्॥ २७॥

मूलम्

शस्त्राजीवो महीरक्षा प्रवरा तस्य जीविका।
तत्रापि प्रथमः कल्पः पृथिवीपरिपालनम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्र धारण करना और पृथिवीकी रक्षा करना ही क्षत्रियकी उत्तम आजीविका है; इनमें भी पृथिवी-पालन ही उत्कृष्टतर है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरित्रीपालनेनैव कृतकृत्या नराधिपाः।
भवन्ति नृपतेरंशा यतो यज्ञादिकर्मणाम्॥ २८॥

मूलम्

धरित्रीपालनेनैव कृतकृत्या नराधिपाः।
भवन्ति नृपतेरंशा यतो यज्ञादिकर्मणाम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथिवी-पालनसे ही राजालोग कृतकृत्य हो जाते हैं, क्योंकि पृथिवीमें होनेवाले यज्ञादि कर्मोंका अंश राजाको मिलता है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टानां शासनाद्राजा शिष्टानां परिपालनात्।
प्राप्नोत्यभिमताँल्लोकान्वर्णसंस्थां करोति यः॥ २९॥

मूलम्

दुष्टानां शासनाद्राजा शिष्टानां परिपालनात्।
प्राप्नोत्यभिमताँल्लोकान्वर्णसंस्थां करोति यः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अपने वर्णधर्मको स्थिर रखता है वह दुष्टोंको दण्ड देने और साधुजनोंका पालन करनेसे अपने अभीष्ट लोकोंको प्राप्त कर लेता है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाशुपाल्यं च वाणिज्यं कृषिं च मनुजेश्वर।
वैश्याय जीविकां ब्रह्मा ददौ लोकपितामहः॥ ३०॥

मूलम्

पाशुपाल्यं च वाणिज्यं कृषिं च मनुजेश्वर।
वैश्याय जीविकां ब्रह्मा ददौ लोकपितामहः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरनाथ! लोकपितामह ब्रह्माजीने वैश्योंको पशु-पालन, वाणिज्य और कृषि—ये जीविकारूपसे दिये हैं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याप्यध्ययनं यज्ञो दानं धर्मश्च शस्यते।
नित्यनैमित्तिकादीनामनुष्ठानं च कर्मणाम्॥ ३१॥

मूलम्

तस्याप्यध्ययनं यज्ञो दानं धर्मश्च शस्यते।
नित्यनैमित्तिकादीनामनुष्ठानं च कर्मणाम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्ययन, यज्ञ, दान और नित्य-नैमित्तिकादि कर्मोंका अनुष्ठान—ये कर्म उसके लिये भी विहित हैं॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजातिसंश्रितं कर्म तादर्थ्यं तेन पोषणम्।
क्रयविक्रयजैर्वापि धनैः कारूद्भवेन वा॥ ३२॥

मूलम्

द्विजातिसंश्रितं कर्म तादर्थ्यं तेन पोषणम्।
क्रयविक्रयजैर्वापि धनैः कारूद्भवेन वा॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रका कर्तव्य यही है कि द्विजातियोंकी प्रयोजन-सिद्धिके लिये कर्म करे और उसीसे अपना पालन-पोषण करे, अथवा [आपत्कालमें, जब उक्त उपायसे जीविका-निर्वाह न हो सके तो] वस्तुओंके लेने-बेचने अथवा कारीगरीके कामोंसे निर्वाह करे॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रस्य सन्नतिश्शौचं सेवा स्वामिन्यमायया।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्सङ्गो विप्ररक्षणम्॥ ३३॥

मूलम्

शूद्रस्य सन्नतिश्शौचं सेवा स्वामिन्यमायया।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्सङ्गो विप्ररक्षणम्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अति नम्रता, शौच, निष्कपट स्वामि-सेवा, मन्त्रहीन यज्ञ, अस्तेय, सत्संग और ब्राह्मणकी रक्षा करना—ये शूद्रके प्रधान कर्म हैं॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं च दद्याच्छूद्रोऽपि पाकयज्ञैर्यजेत च।
पित्र्यादिकं च तत्सर्वं शूद्रः कुर्वीत तेन वै॥ ३४॥
भृत्यादिभरणार्थाय सर्वेषां च परिग्रहः।
ऋतुकालेऽभिगमनं स्वदारेषु महीपते॥ ३५॥

मूलम्

दानं च दद्याच्छूद्रोऽपि पाकयज्ञैर्यजेत च।
पित्र्यादिकं च तत्सर्वं शूद्रः कुर्वीत तेन वै॥ ३४॥
भृत्यादिभरणार्थाय सर्वेषां च परिग्रहः।
ऋतुकालेऽभिगमनं स्वदारेषु महीपते॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! शूद्रको भी उचित है कि दान दे, बलिवैश्वदेव अथवा नमस्कार आदि अल्प यज्ञोंका अनुष्ठान करे, पितृश्राद्ध आदि कर्म करे, अपने आश्रित कुटुम्बियोंके भरण-पोषणके लिये सकल वर्णोंसे द्रव्य संग्रह करे और ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे प्रसंग करे॥ ३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दया समस्तभूतेषु तितिक्षा नातिमानिता।
सत्यं शौचमनायासो मंगलं प्रियवादिता॥ ३६॥
मैत्र्यस्पृहा तथा तद्वदकार्पण्यं नरेश्वर।
अनसूया च सामान्यवर्णानां कथिता गुणाः॥ ३७॥

मूलम्

दया समस्तभूतेषु तितिक्षा नातिमानिता।
सत्यं शौचमनायासो मंगलं प्रियवादिता॥ ३६॥
मैत्र्यस्पृहा तथा तद्वदकार्पण्यं नरेश्वर।
अनसूया च सामान्यवर्णानां कथिता गुणाः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! इनके अतिरिक्त समस्त प्राणियोंपर दया, सहनशीलता, अमानिता, सत्य, शौच, अधिक परिश्रम न करना, मंगलाचरण, प्रियवादिता, मैत्री, निष्कामता, अकृपणता और किसीके दोष न देखना—ये समस्त वर्णोंके सामान्य गुण हैं॥ ३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमाणां च सर्वेषामेते सामान्यलक्षणाः।
गुणांस्तथापद्धर्मांश्च विप्रादीनामिमाञ्छृणु॥ ३८॥

मूलम्

आश्रमाणां च सर्वेषामेते सामान्यलक्षणाः।
गुणांस्तथापद्धर्मांश्च विप्रादीनामिमाञ्छृणु॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब वर्णोंके सामान्य लक्षण इसी प्रकार हैं। अब इन ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके आपद्धर्म और गुणोंका श्रवण करो॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षात्रं कर्म द्विजस्योक्तं वैश्यं कर्म तथाऽपदि।
राजन्यस्य च वैश्योक्तं शूद्रकर्म न चैतयोः॥ ३९॥

मूलम्

क्षात्रं कर्म द्विजस्योक्तं वैश्यं कर्म तथाऽपदि।
राजन्यस्य च वैश्योक्तं शूद्रकर्म न चैतयोः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपत्तिके समय ब्राह्मणको क्षत्रिय और वैश्य-वर्णोंकी वृत्तिका अवलम्बन करना चाहिये तथा क्षत्रियको केवल वैश्यवृत्तिका ही आश्रय लेना चाहिये। ये दोनों शूद्रका कर्म (सेवा आदि) कभी न करें॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामर्थ्ये सति तत्त्याज्यमुभाभ्यामपि पार्थिव।
तदेवापदि कर्तव्यं न कुर्यात्कर्मसङ्करम्॥ ४०॥

मूलम्

सामर्थ्ये सति तत्त्याज्यमुभाभ्यामपि पार्थिव।
तदेवापदि कर्तव्यं न कुर्यात्कर्मसङ्करम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! इन उपरोक्त वृत्तियोंको भी सामर्थ्य होनेपर त्याग दे; केवल आपत्कालमें ही इनका आश्रय ले, कर्म संकरता (कर्मोंका मेल) न करे॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येते कथिता राजन‍्वर्णधर्मा मया तव।
धर्मानाश्रमिणां सम्यग्ब्रुवतो मे निशामय॥ ४१॥

मूलम्

इत्येते कथिता राजन‍्वर्णधर्मा मया तव।
धर्मानाश्रमिणां सम्यग्ब्रुवतो मे निशामय॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! इस प्रकार वर्णधर्मोंका वर्णन तो मैंने तुमसे कर दिया; अब आश्रमधर्मोंका निरूपण और करता हूँ, सावधान होकर सुनो॥ ४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥