०७

[सातवाँ अध्याय]

विषय

यमगीता

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावत्कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽसि मया गुरो।
श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वेकं तद्भवान‍्प्रब्रवीतु मे॥ १॥

मूलम्

यथावत्कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽसि मया गुरो।
श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वेकं तद्भवान‍्प्रब्रवीतु मे॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—हे गुरो! मैंने जो कुछ पूछा था वह सब आपने यथावत् वर्णन किया। अब मैं एक बात और सुनना चाहता हूँ, वह आप मुझसे कहिये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्त द्वीपानि पातालविधयश्च महामुने।
सप्तलोकाश्च येऽन्तःस्था ब्रह्माण्डस्यास्य सर्वतः॥ २॥
स्थूलैः सूक्ष्मैस्तथा सूक्ष्मसूक्ष्मात्सूक्ष्मतरैस्तथा।
स्थूलात्स्थूलतरैश्चैव सर्वं प्राणिभिरावृतम्॥ ३॥

मूलम्

सप्त द्वीपानि पातालविधयश्च महामुने।
सप्तलोकाश्च येऽन्तःस्था ब्रह्माण्डस्यास्य सर्वतः॥ २॥
स्थूलैः सूक्ष्मैस्तथा सूक्ष्मसूक्ष्मात्सूक्ष्मतरैस्तथा।
स्थूलात्स्थूलतरैश्चैव सर्वं प्राणिभिरावृतम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! सातों द्वीप, सातों पाताल और सातों लोक—ये सभी स्थान जो इस ब्रह्माण्डके अन्तर्गत हैं, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा स्थूल और स्थूलतर जीवोंसे भरे हुए हैं॥ २-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंगुलस्याष्टभागोऽपि न सोऽस्ति मुनिसत्तम।
न सन्ति प्राणिनो यत्र कर्मबन्धनिबन्धनाः॥ ४॥

मूलम्

अंगुलस्याष्टभागोऽपि न सोऽस्ति मुनिसत्तम।
न सन्ति प्राणिनो यत्र कर्मबन्धनिबन्धनाः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिसत्तम! एक अंगुलका आठवाँ भाग भी कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ कर्म-बन्धनसे बँधे हुए जीव न रहते हों॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे चैते वशं यान्ति यमस्य भगवन् किल।
आयुषोऽन्ते तथा यान्ति यातनास्तत्प्रचोदिताः॥ ५॥

मूलम्

सर्वे चैते वशं यान्ति यमस्य भगवन् किल।
आयुषोऽन्ते तथा यान्ति यातनास्तत्प्रचोदिताः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु हे भगवन्! आयुके समाप्त होनेपर ये सभी यमराजके वशीभूत हो जाते हैं और उन्हींके आदेशानुसार नरक आदि नाना प्रकारकी यातनाएँ भोगते हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यातनाभ्यः परिभ्रष्टा देवाद्यास्वथ योनिषु।
जन्तवः परिवर्तन्ते शास्त्राणामेष निर्णयः॥ ६॥

मूलम्

यातनाभ्यः परिभ्रष्टा देवाद्यास्वथ योनिषु।
जन्तवः परिवर्तन्ते शास्त्राणामेष निर्णयः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पाप-भोगके समाप्त होनेपर वे देवादि योनियोंमें घूमते रहते हैं—सकल शास्त्रोंका ऐसा ही मत है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमिच्छामि तच्छ्रोतुं यमस्य वशवर्त्तिनः।
न भवन्ति नरा येन तत्कर्म कथयस्व मे॥ ७॥

मूलम्

सोऽहमिच्छामि तच्छ्रोतुं यमस्य वशवर्त्तिनः।
न भवन्ति नरा येन तत्कर्म कथयस्व मे॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप मुझे वह कर्म बताइये जिसे करनेसे मनुष्य यमराजके वशीभूत नहीं होता; मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ॥ ७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमेव मुने प्रश्नो नकुलेन महात्मना।
पृष्टः पितामहः प्राह भीष्मो यत्तच्छृणुष्व मे॥ ८॥

मूलम्

अयमेव मुने प्रश्नो नकुलेन महात्मना।
पृष्टः पितामहः प्राह भीष्मो यत्तच्छृणुष्व मे॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मुने! यही प्रश्न महात्मा नकुलने पितामह भीष्मसे पूछा था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था वह सुनो॥ ८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा ममागतो वत्स सखा कालिङ्गको द्विजः।
स मामुवाच पृष्टो वै मया जातिस्मरो मुनिः॥ ९॥
तेनाख्यातमिदं सर्वमित्थं चैतद्भविष्यति।
तथा च तदभूद्वत्स यथोक्तं तेन धीमता॥ १०॥

मूलम्

पुरा ममागतो वत्स सखा कालिङ्गको द्विजः।
स मामुवाच पृष्टो वै मया जातिस्मरो मुनिः॥ ९॥
तेनाख्यातमिदं सर्वमित्थं चैतद्भविष्यति।
तथा च तदभूद्वत्स यथोक्तं तेन धीमता॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा—हे वत्स! पूर्वकालमें मेरे पास एक कलिंगदेशीय ब्राह्मण-मित्र आया और मुझसे बोला—‘मेरे पूछनेपर एक जातिस्मर मुनिने बतलाया था कि ये सब बातें अमुक-अमुक प्रकार ही होंगी।’ हे वत्स! उस बुद्धिमान‍्ने जो-जो बातें जिस-जिस प्रकार होनेको कही थीं वे सब ज्यों-की-त्यों हुईं॥ ९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पृष्टश्च मया भूयः श्रद्दधानेन वै द्विजः।
यद्यदाह न तद्दृष्टमन्यथा हि मया क्वचित्॥ ११॥

मूलम्

स पृष्टश्च मया भूयः श्रद्दधानेन वै द्विजः।
यद्यदाह न तद्दृष्टमन्यथा हि मया क्वचित्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उसमें श्रद्धा हो जानेसे मैंने उससे फिर कुछ और भी प्रश्न किये और उनके उत्तरमें उस द्विजश्रेष्ठने जो-जो बातें बतलायीं उनके विपरीत मैंने कभी कुछ नहीं देखा॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा तु मया पृष्टमेतद्यद्भवतोदितम्।
प्राह कालिङ्गको विप्रस्स्मृत्वा तस्य मुनेर्वचः॥ १२॥
जातिस्मरेण कथितो रहस्यः परमो मम।
यमकिङ्करयोर्योऽभूत्संवादस्तं ब्रवीमि ते॥ १३॥

मूलम्

एकदा तु मया पृष्टमेतद्यद्भवतोदितम्।
प्राह कालिङ्गको विप्रस्स्मृत्वा तस्य मुनेर्वचः॥ १२॥
जातिस्मरेण कथितो रहस्यः परमो मम।
यमकिङ्करयोर्योऽभूत्संवादस्तं ब्रवीमि ते॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन, जो बात तुम मुझसे पूछते हो वही मैंने उस कालिंग ब्राह्मणसे पूछी। उस समय उसने उस मुनिके वचनोंको याद करके कहा कि उस जातिस्मर ब्राह्मणने, यम और उनके दूतोंके बीचमें जो संवाद हुआ था, वह अति गूढ़रहस्य मुझे सुनाया था। वही मैं तुमसे कहता हूँ॥ १२-१३॥

मूलम् (वचनम्)

कालिङ्ग उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं
वदति यमः किल तस्य कर्णमूले।
परिहर मधुसूदनप्रपन्नान्-
प्रभुरहमन्यनृणामवैष्णवानाम्॥ १४॥

मूलम्

स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं
वदति यमः किल तस्य कर्णमूले।
परिहर मधुसूदनप्रपन्नान्-
प्रभुरहमन्यनृणामवैष्णवानाम्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालिंग बोला—अपने अनुचरको हाथमें पाश लिये देखकर यमराजने उसके कानमें कहा—‘भगवान‍् मधुसूदनके शरणागत व्यक्तियोंको छोड़ देना, क्योंकि मैं वैष्णवोंसे अतिरिक्त और सब मनुष्योंका ही स्वामी हूँ॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहममरवरार्चितेन धात्रा
यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः।
हरिगुरुवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः
प्रभवति संयमने ममापि विष्णुः॥ १५॥

मूलम्

अहममरवरार्चितेन धात्रा
यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः।
हरिगुरुवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः
प्रभवति संयमने ममापि विष्णुः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव-पूज्य विधाताने मुझे ‘यम’ नामसे लोकोंके पाप-पुण्यका विचार करनेके लिये नियुक्त किया है। मैं अपने गुरु श्रीहरिके वशीभूत हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ। भगवान‍् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करनेमें समर्थ हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कटकमुकुटकर्णिकादिभेदैः
कनकमभेदमपीष्यते यथैकम्।
सुरपशुमनुजादिकल्पनाभि-
र्हरिरखिलाभिरुदीर्यते तथैकः॥ १६॥

मूलम्

कटकमुकुटकर्णिकादिभेदैः
कनकमभेदमपीष्यते यथैकम्।
सुरपशुमनुजादिकल्पनाभि-
र्हरिरखिलाभिरुदीर्यते तथैकः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार सुवर्ण भेदरहित और एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कर्णिका आदिके भेदसे नानारूप प्रतीत होता है उसी प्रकार एक ही हरिका देवता, मनुष्य और पशु आदि नाना-विध कल्पनाओंसे निर्देश किया जाता है॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षितितलपरमाणवोऽनिलान्ते
पुनरुपयान्ति यथैकतां धरित्र्याः।
सुरपशुमनुजादयस्तथान्ते
गुणकलुषेण सनातनेन तेन॥ १७॥

मूलम्

क्षितितलपरमाणवोऽनिलान्ते
पुनरुपयान्ति यथैकतां धरित्र्याः।
सुरपशुमनुजादयस्तथान्ते
गुणकलुषेण सनातनेन तेन॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार वायुके शान्त होनेपर उसमें उड़ते हुए परमाणु पृथिवीसे मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार गुण-क्षोभसे उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य और पशु आदि [उसका अन्त हो जानेपर] उस सनातन परमात्मामें लीन हो जाते हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिममरवरार्चिताङ्घ्रिपद्मं
प्रणमति यः परमार्थतो हि मर्त्यः।
तमपगतसमस्तपापबन्धं
व्रज परिहृत्य यथाग्निमाज्यसिक्तम्॥ १८॥

मूलम्

हरिममरवरार्चिताङ्घ्रिपद्मं
प्रणमति यः परमार्थतो हि मर्त्यः।
तमपगतसमस्तपापबन्धं
व्रज परिहृत्य यथाग्निमाज्यसिक्तम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भगवान‍्के सुरवरवन्दित चरण-कमलोंकी परमार्थ-बुद्धिसे वन्दना करता है, घृताहुतिसे प्रज्वलित अग्निके समान समस्त पाप-बन्धनसे मुक्त हुए उस पुरुषको तुम दूरहीसे छोड़कर निकल जाना’॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति यमवचनं निशम्य पाशी
यमपुरुषस्तमुवाच धर्मराजम्।
कथय मम विभो समस्तधातु-
र्भवति हरेः खलु यादृशोऽस्य भक्तः॥ १९॥

मूलम्

इति यमवचनं निशम्य पाशी
यमपुरुषस्तमुवाच धर्मराजम्।
कथय मम विभो समस्तधातु-
र्भवति हरेः खलु यादृशोऽस्य भक्तः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमराजके ऐसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूतने उनसे पूछा—‘प्रभो! सबके विधाता भगवान‍् हरिका भक्त कैसा होता है, यह आप मुझसे कहिये’॥ १९॥

मूलम् (वचनम्)

यम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चलति निजवर्णधर्मतो यः
सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे।
न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः
सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥ २०॥

मूलम्

न चलति निजवर्णधर्मतो यः
सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे।
न हरति न च हन्ति किञ्चिदुच्चैः
सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमराज बोले—जो पुरुष अपने वर्ण-धर्मसे विचलित नहीं होता, अपने सुहृद् और विपक्षियोंके प्रति समान भाव रखता है, किसीका द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी जीवकी हिंसा नहीं करता उस अत्यन्त रागादि-शून्य और निर्मलचित्त व्यक्तिको भगवान‍् विष्णुका भक्त जानो॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिकलुषमलेन यस्य नात्मा
विमलमतेर्मलिनीकृतस्तमेनम्।
मनसि कृतजनार्दनं मनुष्यं
सततमवेहि हरेरतीवभक्तम्॥ २१॥

मूलम्

कलिकलुषमलेन यस्य नात्मा
विमलमतेर्मलिनीकृतस्तमेनम्।
मनसि कृतजनार्दनं मनुष्यं
सततमवेहि हरेरतीवभक्तम्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस निर्मलमतिका चित्त कलि-कल्मषरूप मलसे मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने हृदयमें श्रीजनार्दनको बसाया हुआ है उस मनुष्यको भगवान‍्का अतीव भक्त समझो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनकमपि रहस्यवेक्ष्य बुद्ध्या
तृणमिव यस्समवैति वै परस्वम्।
भवति च भगवत्यनन्यचेताः
पुरुषवरं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥ २२॥

मूलम्

कनकमपि रहस्यवेक्ष्य बुद्ध्या
तृणमिव यस्समवैति वै परस्वम्।
भवति च भगवत्यनन्यचेताः
पुरुषवरं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एकान्तमें पड़े हुए दूसरेके सोनेको देखकर भी उसे अपनी बुद्धिद्वारा तृणके समान समझता है और निरन्तर भगवान‍्का अनन्यभावसे चिन्तन करता है उस नरश्रेष्ठको विष्णुका भक्त जानो॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्फटिकगिरिशिलामलः क्व विष्णु-
र्मनसि नृणां क्व च मत्सरादिदोषः।
न हि तुहिनमयूखरश्मिपुञ्जे
भवति हुताशनदीप्तिजः प्रतापः॥ २३॥

मूलम्

स्फटिकगिरिशिलामलः क्व विष्णु-
र्मनसि नृणां क्व च मत्सरादिदोषः।
न हि तुहिनमयूखरश्मिपुञ्जे
भवति हुताशनदीप्तिजः प्रतापः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ तो स्फटिकगिरि-शिलाके समान अति निर्मल भगवान‍् विष्णु और कहाँ मनुष्योंके चित्तमें रहनेवाले राग-द्वेषादि दोष? [इन दोनोंका संयोग किसी प्रकार नहीं हो सकता] हिमकर (चन्द्रमा)- के किरण जालमें अग्नि-तेजकी उष्णता कभी नहीं रह सकती है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमलमतिरमत्सरः प्रशान्त-
श्शुचिचरितोऽखिलसत्त्वमित्रभूतः।
प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो
वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः॥ २४॥

मूलम्

विमलमतिरमत्सरः प्रशान्त-
श्शुचिचरितोऽखिलसत्त्वमित्रभूतः।
प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो
वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यक्ति निर्मल-चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त, शुद्ध-चरित्र, समस्त जीवोंका सुहृद्, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं मायासे रहित होता है उसके हृदयमें भगवान‍् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसति हृदि सनातने च तस्मिन्
भवति पुमाञ्जगतोऽस्य सौम्यरूपः।
क्षितिरसमतिरम्यमात्मनोऽन्तः
कथयति चारुतयैव शालपोतः॥ २५॥

मूलम्

वसति हृदि सनातने च तस्मिन्
भवति पुमाञ्जगतोऽस्य सौम्यरूपः।
क्षितिरसमतिरम्यमात्मनोऽन्तः
कथयति चारुतयैव शालपोतः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सनातन भगवान‍्के हृदयमें विराजमान होनेपर पुरुष इस जगत‍्में सौम्यमूर्ति हो जाता है, जिस प्रकार नवीन शालवृक्ष अपने सौन्दर्यसे ही भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रसको बतला देता है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमनियमविधूतकल्मषाणा-
मनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम्।
अपगतमदमानमत्सराणां
त्यज भट दूरतरेण मानवानाम्॥ २६॥

मूलम्

यमनियमविधूतकल्मषाणा-
मनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम्।
अपगतमदमानमत्सराणां
त्यज भट दूरतरेण मानवानाम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दूत! यम और नियमके द्वारा जिनकी पापराशि दूर हो गयी है, जिनका हृदय निरन्तर श्रीअच्युतमें ही आसक्त रहता है, तथा जिनमें गर्व, अभिमान और मात्सर्यका लेश भी नहीं रहा है; उन मनुष्योंको तुम दूरहीसे त्याग देना॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदि यदि भगवाननादिरास्ते
हरिरसिशङ्खगदाधरोऽव्ययात्मा।
तदघमघविघातकर्त्तृभिन्नं
भवति कथं सति चान्धकारमर्के॥ २७॥

मूलम्

हृदि यदि भगवाननादिरास्ते
हरिरसिशङ्खगदाधरोऽव्ययात्मा।
तदघमघविघातकर्त्तृभिन्नं
भवति कथं सति चान्धकारमर्के॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि खड्ग, शंख और गदाधारी अव्ययात्मा भगवान‍् हरि हृदयमें विराजमान हैं तो उन पापनाशक भगवान‍्के द्वारा उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सूर्यके रहते हुए भला अन्धकार कैसे ठहर सकता है?॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरति परधनं निहन्ति जन्तून्
वदति तथाऽनृतनिष्ठुराणियश्च।
अशुभजनितदुर्मदस्य पुंसः
कलुषमतेर्हृदि तस्य नास्त्यनन्तः॥ २८॥

मूलम्

हरति परधनं निहन्ति जन्तून्
वदति तथाऽनृतनिष्ठुराणियश्च।
अशुभजनितदुर्मदस्य पुंसः
कलुषमतेर्हृदि तस्य नास्त्यनन्तः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष दूसरोंका धनहरण करता है, जीवोंकी हिंसा करता है, तथा मिथ्या और कटुभाषण करता है उस अशुभकर्मोन्मत्त दुष्टबुद्धिके हृदयमें भगवान‍् अनन्त नहीं टिक सकते॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सहति परसम्पदं विनिन्दां
कलुषमतिः कुरुते सतामसाधुः।
न यजति न ददाति यश्च सन्तं
मनसि न तस्य जनार्दनोऽधमस्य॥ २९॥

मूलम्

न सहति परसम्पदं विनिन्दां
कलुषमतिः कुरुते सतामसाधुः।
न यजति न ददाति यश्च सन्तं
मनसि न तस्य जनार्दनोऽधमस्य॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कुमति दूसरोंके वैभवको नहीं देख सकता, जो दूसरोंकी निन्दा करता है, साधुजनोंका अपकार करता है तथा [सम्पन्न होकर भी] न तो श्रीविष्णु भगवान‍्की पूजा ही करता है और न [उनके भक्तोंको] दान ही देता है; उस अधमके हृदयमें श्रीजनार्दनका निवास कभी नहीं हो सकता॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमसुहृदि बान्धवे कलत्रे
सुततनयापितृमातृभृत्यवर्गे।
शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां
तमधमचेष्टमवेहि नास्य भक्तम्॥ ३०॥

मूलम्

परमसुहृदि बान्धवे कलत्रे
सुततनयापितृमातृभृत्यवर्गे।
शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां
तमधमचेष्टमवेहि नास्य भक्तम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दुष्टबुद्धि अपने परम सुहृद्, बन्धु-बान्धव, स्त्री, पुत्र, कन्या, पिता तथा भृत्यवर्गके प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता है उस पापाचारीको भगवान‍्का भक्त मत समझो॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुभमतिरसत्प्रवृत्तिसक्त-
स्सततमनार्यकुशीलसंगमत्तः।
अनुदिनकृतपापबन्धयुक्तः
पुरुषपशुर्न हि वासुदेवभक्तः॥ ३१॥

मूलम्

अशुभमतिरसत्प्रवृत्तिसक्त-
स्सततमनार्यकुशीलसंगमत्तः।
अनुदिनकृतपापबन्धयुक्तः
पुरुषपशुर्न हि वासुदेवभक्तः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दुर्बुद्धि पुरुष असत्कर्मोंमें लगा रहता है, नीच पुरुषोंके आचार और उन्हींके संगमें उन्मत्त रहता है तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबन्धनसे ही बँधता जाता है वह मनुष्यरूप पशु ही है; वह भगवान‍् वासुदेवका भक्त नहीं हो सकता॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकलमिदमहं च वासुदेवः
परमपुमान्परमेश्वरस्स एकः।
इति मतिरचला भवत्यनन्ते
हृदयगते व्रज तान्विहाय दूरात्॥ ३२॥

मूलम्

सकलमिदमहं च वासुदेवः
परमपुमान्परमेश्वरस्स एकः।
इति मतिरचला भवत्यनन्ते
हृदयगते व्रज तान्विहाय दूरात्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सकल प्रपंच और मैं एक परमपुरुष परमेश्वर वासुदेव ही हैं, हृदयमें भगवान‍् अनन्तके स्थित होनेसे जिनकी ऐसी स्थिर बुद्धि हो गयी हो, उन्हें तुम दूरहीसे छोड़कर चले जाना॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमलनयन वासुदेव विष्णो
धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे।
भव शरणमितीरयन्ति ये वै
त्यज भट दूरतरेण तानपापान्॥ ३३॥

मूलम्

कमलनयन वासुदेव विष्णो
धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे।
भव शरणमितीरयन्ति ये वै
त्यज भट दूरतरेण तानपापान्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे कमलनयन! हे वासुदेव! हे विष्णो! हे धरणिधर! हे अच्युत! हे शंख-चक्र-पाणे! आप हमें शरण दीजिये’—जो लोग इस प्रकार पुकारते हों उन निष्पाप व्यक्तियोंको तुम दूरसे ही त्याग देना॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसति मनसि यस्य सोऽव्ययात्मा
पुरुषवरस्य न तस्य दृष्टिपाते।
तव गतिरथ वा ममास्ति चक्र-
प्रतिहतवीर्यबलस्य सोऽन्यलोक्यः॥ ३४॥

मूलम्

वसति मनसि यस्य सोऽव्ययात्मा
पुरुषवरस्य न तस्य दृष्टिपाते।
तव गतिरथ वा ममास्ति चक्र-
प्रतिहतवीर्यबलस्य सोऽन्यलोक्यः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस पुरुषश्रेष्ठके अन्तःकरणमें वे अव्ययात्मा भगवान‍् विराजते हैं, उसका जहाँतक दृष्टिपात होता है वहाँतक भगवान‍्के चक्रके प्रभावसे अपने बल-वीर्य नष्ट हो जानेके कारण तुम्हारी अथवा मेरी गति नहीं हो सकती। वह (महापुरुष) तो अन्य (वैकुण्ठादि) लोकोंका पात्र है॥ ३४॥

मूलम् (वचनम्)

कालिङ्ग उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति निजभटशासनाय देवो
रवितनयस्स किलाह धर्मराजः।
मम कथितमिदं च तेन तुभ्यं
कुरुवर सम्यगिदं मयापि चोक्तम्॥ ३५॥

मूलम्

इति निजभटशासनाय देवो
रवितनयस्स किलाह धर्मराजः।
मम कथितमिदं च तेन तुभ्यं
कुरुवर सम्यगिदं मयापि चोक्तम्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालिंग बोला—हे कुरुवर! अपने दूतको शिक्षा देनेके लिये सूर्यपुत्र धर्मराजने उससे इस प्रकार कहा। मुझसे यह प्रसंग उस जातिस्मर मुनिने कहा था और मैंने यह सम्पूर्ण कथा तुमको सुना दी है॥ ३५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलैतन्ममाख्यातं पूर्वं तेन द्विजन्मना।
कलिङ्गदेशादभ्येत्य प्रीतेन सुमहात्मना॥ ३६॥

मूलम्

नकुलैतन्ममाख्यातं पूर्वं तेन द्विजन्मना।
कलिङ्गदेशादभ्येत्य प्रीतेन सुमहात्मना॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभीष्मजी बोले—हे नकुल! पूर्वकालमें कलिंगदेशसे आये हुए उस महात्मा ब्राह्मणने प्रसन्न होकर मुझे यह सब विषय सुनाया था॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाप्येतद्यथान्यायं सम्यग्वत्स तवोदितम्।
यथा विष्णुमृते नान्यत्त्राणं संसारसागरे॥ ३७॥

मूलम्

मयाप्येतद्यथान्यायं सम्यग्वत्स तवोदितम्।
यथा विष्णुमृते नान्यत्त्राणं संसारसागरे॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वत्स! वही सम्पूर्ण वृत्तान्त, जिस प्रकार कि इस संसार-सागरमें एक विष्णु भगवान‍्को छोड़कर जीवका और कोई भी रक्षक नहीं है, मैंने ज्यों-का-त्यों तुम्हें सुना दिया॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंकराः पाशदण्डाश्च न यमो न च यातनाः।
समर्थास्तस्य यस्यात्मा केशवालम्बनस्सदा॥ ३८॥

मूलम्

किंकराः पाशदण्डाश्च न यमो न च यातनाः।
समर्थास्तस्य यस्यात्मा केशवालम्बनस्सदा॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका हृदय निरन्तर भगवत्परायण रहता है उसका यम, यमदूत, यमपाश, यमदण्ड अथवा यम-यातना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते॥ ३८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्मुने समाख्यातं गीतं वैवस्वतेन यत्।
त्वत्प्रश्नानुगतं सम्यक्‍किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि॥ ३९॥

मूलम्

एतन्मुने समाख्यातं गीतं वैवस्वतेन यत्।
त्वत्प्रश्नानुगतं सम्यक्‍किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मुने! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार जो कुछ यमने कहा था, वह सब मैंने तुम्हें भली प्रकार सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो?॥ ३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥