०५

[पाँचवाँ अध्याय]

विषय

शुक्लयजुर्वेद तथा तैत्तिरीय यजुःशाखाओंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजुर्वेदतरोश्शाखास्सप्तविंशन्महामुनिः।
वैशम्पायननामासौ व्यासशिष्यश्चकार वै॥ १॥
शिष्येभ्यः प्रददौ ताश्च जगृहुस्तेऽप्यनुक्रमात्॥ २॥

मूलम्

यजुर्वेदतरोश्शाखास्सप्तविंशन्महामुनिः।
वैशम्पायननामासौ व्यासशिष्यश्चकार वै॥ १॥
शिष्येभ्यः प्रददौ ताश्च जगृहुस्तेऽप्यनुक्रमात्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे महामुने! व्यासजीके शिष्य वैशम्पायनने यजुर्वेदरूपी वृक्षकी सत्ताईस शाखाओंकी रचना की; और उन्हें अपने शिष्योंको पढ़ाया तथा शिष्योंने भी क्रमशः ग्रहण किया॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्यस्तु तत्राभूद‍्ब्रह्मरातसुतो द्विज।
शिष्यः परमधर्मज्ञो गुरुवृत्तिपरस्सदा॥ ३॥

मूलम्

याज्ञवल्क्यस्तु तत्राभूद‍्ब्रह्मरातसुतो द्विज।
शिष्यः परमधर्मज्ञो गुरुवृत्तिपरस्सदा॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उनका एक परम धार्मिक और सदैव गुरुसेवामें तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरातका पुत्र याज्ञवल्क्य था॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिर्योऽद्य महामेरोः समाजे नागमिष्यति।
तस्य वै सप्तरात्रात्तु ब्रह्महत्या भविष्यति॥ ४॥

मूलम्

ऋषिर्योऽद्य महामेरोः समाजे नागमिष्यति।
तस्य वै सप्तरात्रात्तु ब्रह्महत्या भविष्यति॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

[एक समय समस्त ऋषिगणने मिलकर यह नियम किया कि] जो कोई महामेरुपर स्थित हमारे इस समाजमें सम्मिलित न होगा उसको सात रात्रियोंके भीतर ही ब्रह्महत्या लगेगी॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमेवं मुनिगणैस्समयो यः कृतो द्विज।
वैशम्पायन एकस्तु तं व्यतिक्रान्तवांस्तदा॥ ५॥

मूलम्

पूर्वमेवं मुनिगणैस्समयो यः कृतो द्विज।
वैशम्पायन एकस्तु तं व्यतिक्रान्तवांस्तदा॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! इस प्रकार मुनियोंने पहले जिस समयको नियत किया था उसका केवल एक वैशम्पायनने ही अतिक्रमण कर दिया॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्रीयं बालकं सोऽथ पदा स्पृष्टमघातयत्॥ ६॥
शिष्यानाह स भो शिष्या ब्रह्महत्यापहं व्रतम्।
चरध्वं मत्कृते सर्वे न विचार्यमिदं तथा॥ ७॥

मूलम्

स्वस्रीयं बालकं सोऽथ पदा स्पृष्टमघातयत्॥ ६॥
शिष्यानाह स भो शिष्या ब्रह्महत्यापहं व्रतम्।
चरध्वं मत्कृते सर्वे न विचार्यमिदं तथा॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पश्चात् उन्होंने [प्रमादवश] पैरसे छूए हुए अपने भानजेकी हत्या कर डाली; तब उन्होंने अपने शिष्योंसे कहा—‘हे शिष्यगण! तुम सब लोग किसी प्रकारका विचार न करके मेरे लिये ब्रह्महत्याको दूर करनेवाला व्रत करो’॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाह याज्ञवल्क्यस्तु किमेभिर्भगवन्द्विजैः।
क्लेशितैरल्पतेजोभिश्चरिष्येऽहमिदं व्रतम्॥ ८॥

मूलम्

अथाह याज्ञवल्क्यस्तु किमेभिर्भगवन्द्विजैः।
क्लेशितैरल्पतेजोभिश्चरिष्येऽहमिदं व्रतम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब याज्ञवल्क्य बोले—‘‘भगवन्! ये सब ब्राह्मण अत्यन्त निस्तेज हैं, इन्हें कष्ट देनेकी क्या आवश्यकता है? मैं अकेला ही इस व्रतका अनुष्ठान करूँगा’’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो गुरुः प्राह याज्ञवल्क्यं महामुनिम्।
मुच्यतां यत्त्वयाधीतं मत्तो विप्रावमानक॥ ९॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो गुरुः प्राह याज्ञवल्क्यं महामुनिम्।
मुच्यतां यत्त्वयाधीतं मत्तो विप्रावमानक॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे गुरु वैशम्पायनजीने क्रोधित होकर महामुनि याज्ञवल्क्यसे कहा—‘‘अरे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले! तूने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, वह सब त्याग दे॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निस्तेजसो वदस्येनान्यत्त्वं ब्राह्मणपुङ्गवान‍्।
तेन शिष्येण नार्थोऽस्ति ममाज्ञाभङ्गकारिणा॥ १०॥

मूलम्

निस्तेजसो वदस्येनान्यत्त्वं ब्राह्मणपुङ्गवान‍्।
तेन शिष्येण नार्थोऽस्ति ममाज्ञाभङ्गकारिणा॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू इन समस्त द्विजश्रेष्ठोंको निस्तेज बताता है, मुझे तुझ-जैसे आज्ञा-भंगकारी शिष्यसे कोई प्रयोजन नहीं है’’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्यस्ततः प्राह भक्त्यैतत्ते मयोदितम्।
ममाप्यलं त्वयाधीतं यन्मया तदिदं द्विज॥ ११॥

मूलम्

याज्ञवल्क्यस्ततः प्राह भक्त्यैतत्ते मयोदितम्।
ममाप्यलं त्वयाधीतं यन्मया तदिदं द्विज॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यने कहा—‘‘हे द्विज! मैंने तो भक्तिवश आपसे ऐसा कहा था, मुझे भी आपसे कोई प्रयोजन नहीं है; लीजिये, मैंने आपसे जो कुछ पढ़ा है वह यह मौजूद है’’॥ ११॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो रुधिराक्तानि सरूपाणि यजूंषि सः।
छर्दयित्वा ददौ तस्मै ययौ स स्वेच्छया मुनिः॥ १२॥

मूलम्

इत्युक्तो रुधिराक्तानि सरूपाणि यजूंषि सः।
छर्दयित्वा ददौ तस्मै ययौ स स्वेच्छया मुनिः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—ऐसा कह महामुनि याज्ञवल्क्यजीने रुधिरसे भरा हुआ मूर्तिमान् यजुर्वेद वमन करके उन्हें दे दिया; और स्वेच्छानुसार चले गये॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजूंष्यथ विसृष्टानि याज्ञवल्क्येन वै द्विज।
जगृहुस्तित्तिरा भूत्वा तैत्तिरीयास्तु ते ततः॥ १३॥

मूलम्

यजूंष्यथ विसृष्टानि याज्ञवल्क्येन वै द्विज।
जगृहुस्तित्तिरा भूत्वा तैत्तिरीयास्तु ते ततः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! याज्ञवल्क्यद्वारा वमन की हुई उन यजुःश्रुतियोंको अन्य शिष्योंने तित्तिर (तीतर) होकर ग्रहण कर लिया, इसलिये वे सब तैत्तिरीय कहलाये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णं गुरुणा चोदितैस्तु यैः।
चरकाध्वर्यवस्ते तु चरणान्मुनिसत्तम॥ १४॥

मूलम्

ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णं गुरुणा चोदितैस्तु यैः।
चरकाध्वर्यवस्ते तु चरणान्मुनिसत्तम॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिसत्तम! जिन विप्रगणने गुरुकी प्रेरणासे ब्रह्महत्या विनाशकव्रतका अनुष्ठान किया था, वे सब व्रताचरणके कारण यजुःशाखाध्यायी चरकाध्वर्यु हुए॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्योऽपि मैत्रेय प्राणायामपरायणः।
तुष्टाव प्रयतस्सूर्यं यजूंष्यभिलषंस्ततः॥ १५॥

मूलम्

याज्ञवल्क्योऽपि मैत्रेय प्राणायामपरायणः।
तुष्टाव प्रयतस्सूर्यं यजूंष्यभिलषंस्ततः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर याज्ञवल्क्यने भी यजुर्वेदकी प्राप्तिकी इच्छासे प्राणोंका संयम कर संयतचित्तसे सूर्यभगवान‍्की स्तुति की॥ १५॥

मूलम् (वचनम्)

याज्ञवल्क्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्सवित्रे द्वाराय मुक्तेरमिततेजसे।
ऋग्यजुस्सामभूताय त्रयीधाम्ने च ते नमः॥ १६॥

मूलम्

नमस्सवित्रे द्वाराय मुक्तेरमिततेजसे।
ऋग्यजुस्सामभूताय त्रयीधाम्ने च ते नमः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी बोले—अतुलित तेजस्वी, मुक्तिके द्वारस्वरूप तथा वेदत्रयरूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक्, यजुः तथा सामस्वरूप सवितादेवको नमस्कार है॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽग्नीषोमभूताय जगतः कारणात्मने।
भास्कराय परं तेजस्सौषुम्नरुचिबिभ्रते॥ १७॥

मूलम्

नमोऽग्नीषोमभूताय जगतः कारणात्मने।
भास्कराय परं तेजस्सौषुम्नरुचिबिभ्रते॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अग्नि और चन्द्रमारूप, जगत‍्के कारण और सुषुम्न नामक परमतेजको धारण करनेवाले हैं, उन भगवान‍् भास्करको नमस्कार है॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलाकाष्ठानिमेषादिकालज्ञानात्मरूपिणे।
ध्येयाय विष्णुरूपाय परमाक्षररूपिणे॥ १८॥

मूलम्

कलाकाष्ठानिमेषादिकालज्ञानात्मरूपिणे।
ध्येयाय विष्णुरूपाय परमाक्षररूपिणे॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कला, काष्ठा, निमेष आदि कालज्ञानके कारण तथा ध्यान करनेयोग्य परब्रह्मस्वरूप विष्णुमय श्रीसूर्यदेवको नमस्कार है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभर्त्ति यस्सुरगणानाप्यायेन्दुं स्वरश्मिभिः।
स्वधामृतेन च पितॄंस्तस्मै तृप्त्यात्मने नमः॥ १९॥

मूलम्

बिभर्त्ति यस्सुरगणानाप्यायेन्दुं स्वरश्मिभिः।
स्वधामृतेन च पितॄंस्तस्मै तृप्त्यात्मने नमः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी किरणोंसे चन्द्रमाको पोषित करते हुए देवताओंको तथा स्वधारूप अमृतसे पितृगणको तृप्त करते हैं, उन तृप्तिरूप सूर्यदेवको नमस्कार है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमाम्बुघर्मवृष्टीनां कर्ता भर्ता च यः प्रभुः।
तस्मै त्रिकालरूपाय नमस्सूर्याय वेधसे॥ २०॥

मूलम्

हिमाम्बुघर्मवृष्टीनां कर्ता भर्ता च यः प्रभुः।
तस्मै त्रिकालरूपाय नमस्सूर्याय वेधसे॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो हिम, जल और उष्णताके कर्ता [अर्थात् शीत, वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओंके कारण] हैं और [जगत् का] पोषण करनेवाले हैं, उन त्रिकालमूर्ति विधाता भगवान‍् सूर्यको नमस्कार है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपहन्ति तमो यश्च जगतोऽस्य जगत्पतिः।
सत्त्वधामधरो देवो नमस्तस्मै विवस्वते॥ २१॥

मूलम्

अपहन्ति तमो यश्च जगतोऽस्य जगत्पतिः।
सत्त्वधामधरो देवो नमस्तस्मै विवस्वते॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जगत्पति इस सम्पूर्ण जगत‍्के अन्धकारको दूर करते हैं, उन सत्त्वमूर्तिधारी-विवस्वान‍् को नमस्कार है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कर्मयोग्यो न जनो नैवापः शुद्धिकारणम्।
यस्मिन्ननुदिते तस्मै नमो देवाय भास्वते॥ २२॥

मूलम्

सत्कर्मयोग्यो न जनो नैवापः शुद्धिकारणम्।
यस्मिन्ननुदिते तस्मै नमो देवाय भास्वते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके उदित हुए बिना मनुष्य सत्कर्ममें प्रवृत्त नहीं हो सकते और जल शुद्धिका कारण नहीं हो सकता, उन भास्वान‍् ‍देवको नमस्कार है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृष्टो यदंशुभिर्लोकः क्रियायोग्यो हि जायते।
पवित्रताकारणाय तस्मै शुद्धात्मने नमः॥ २३॥

मूलम्

स्पृष्टो यदंशुभिर्लोकः क्रियायोग्यो हि जायते।
पवित्रताकारणाय तस्मै शुद्धात्मने नमः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके किरण-समूहका स्पर्श होनेपर लोक कर्मानुष्ठानके योग्य होता है, उन पवित्रताके कारण, शुद्धस्वरूप सूर्यदेवको नमस्कार है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमः सवित्रे सूर्याय भास्कराय विवस्वते।
आदित्यायादिभूताय देवादीनां नमो नमः॥ २४॥

मूलम्

नमः सवित्रे सूर्याय भास्कराय विवस्वते।
आदित्यायादिभूताय देवादीनां नमो नमः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् सविता, सूर्य, भास्कर और विवस्वान‍्को नमस्कार है; देवता आदि समस्त भूतोंके आदिभूत आदित्यदेवको बारम्बार नमस्कार है॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्मयं रथं यस्य केतवोऽमृतवाजिनः।
वहन्ति भुवनालोकिचक्षुषं तं नमाम्यहम्॥ २५॥

मूलम्

हिरण्मयं रथं यस्य केतवोऽमृतवाजिनः।
वहन्ति भुवनालोकिचक्षुषं तं नमाम्यहम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका तेजोमय रथ है, [प्रज्ञारूप] ध्वजाएँ हैं, जिन्हें [छन्दोमय]अमर अश्वगण वहन करते हैं तथा जो त्रिभुवनको प्रकाशित करनेवाले नेत्ररूप हैं, उन सूर्यदेवको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमादिभिस्तेन स्तूयमानस्स वै रविः।
वाजिरूपधरः प्राह व्रियतामिति वाञ्छितम्॥ २६॥

मूलम्

इत्येवमादिभिस्तेन स्तूयमानस्स वै रविः।
वाजिरूपधरः प्राह व्रियतामिति वाञ्छितम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान‍् सूर्य अश्वरूपसे प्रकट होकर बोले—‘तुम अपना अभीष्ट वर माँगो’॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्यस्तदा प्राह प्रणिपत्य दिवाकरम्।
यजूंषि तानि मे देहि यानि सन्ति न मे गुरौ॥ २७॥

मूलम्

याज्ञवल्क्यस्तदा प्राह प्रणिपत्य दिवाकरम्।
यजूंषि तानि मे देहि यानि सन्ति न मे गुरौ॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब याज्ञवल्क्यजीने उन्हें प्रणाम करके कहा—‘‘आप मुझे उन यजुःश्रुतियोंका उपदेश कीजिये जिन्हें मेरे गुरुजी भी न जानते हों’’॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो ददौ तस्मै यजूंषि भगवान‍् रविः।
अयातयामसंज्ञानि यानि वेत्ति न तद‍्गुरुः॥ २८॥

मूलम्

एवमुक्तो ददौ तस्मै यजूंषि भगवान‍् रविः।
अयातयामसंज्ञानि यानि वेत्ति न तद‍्गुरुः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर भगवान‍् सूर्यने उन्हें अयातयाम नामक यजुःश्रुतियोंका उपदेश दिया जिन्हें उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नहीं जानते थे॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजूंषि यैरधीतानि तानि विप्रैर्द्विजोत्तम।
वाजिनस्ते समाख्याताः सूर्योऽप्यश्वोऽभवद्यतः॥ २९॥

मूलम्

यजूंषि यैरधीतानि तानि विप्रैर्द्विजोत्तम।
वाजिनस्ते समाख्याताः सूर्योऽप्यश्वोऽभवद्यतः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विजोत्तम! उन श्रुतियोंको जिन ब्राह्मणोंने पढ़ा था वे वाजी नामसे विख्यात हुए क्योंकि उनका उपदेश करते समय सूर्य भी अश्वरूप हो गये थे॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाखाभेदास्तु तेषां वै दश पञ्च च वाजिनाम्।
काण्वाद्यास्सुमहाभाग याज्ञवल्क्याः प्रकीर्तिताः॥ ३०॥

मूलम्

शाखाभेदास्तु तेषां वै दश पञ्च च वाजिनाम्।
काण्वाद्यास्सुमहाभाग याज्ञवल्क्याः प्रकीर्तिताः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाभाग! उन वाजिश्रुतियोंकी काण्व आदि पन्द्रह शाखाएँ हैं; वे सब शाखाएँ महर्षि याज्ञवल्क्यकी प्रवृत्त की हुई कही जाती हैं॥ ३०॥