[पन्द्रहवाँ अध्याय]
विषय
ऋभुका निदाघको अद्वैतज्ञानोपदेश
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते मौनिनं भूयश्चिन्तयानं महीपतिम्।
प्रत्युवाचाथ विप्रोऽसावद्वैतान्तर्गतां कथाम्॥ १॥
मूलम्
इत्युक्ते मौनिनं भूयश्चिन्तयानं महीपतिम्।
प्रत्युवाचाथ विप्रोऽसावद्वैतान्तर्गतां कथाम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! ऐसा कहनेपर, राजाको मौन होकर मन-ही-मन सोच-विचार करते देख वे विप्रवर यह अद्वैत-सम्बन्धिनी कथा सुनाने लगे॥ १॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां नृपशार्दूल यद्गीतमृभुणा पुरा।
अवबोधं जनयता निदाघस्य महात्मनः॥ २॥
मूलम्
श्रूयतां नृपशार्दूल यद्गीतमृभुणा पुरा।
अवबोधं जनयता निदाघस्य महात्मनः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोले—हे राजशार्दूल! पूर्वकालमें महर्षि ऋभुने महात्मा निदाघको उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋभुर्नामाऽभवत्पुत्रो ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
विज्ञाततत्त्वसद्भावो निसर्गादेव भूपते॥ ३॥
मूलम्
ऋभुर्नामाऽभवत्पुत्रो ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
विज्ञाततत्त्वसद्भावो निसर्गादेव भूपते॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भूपते! परमेष्ठी श्रीब्रह्माजीका ऋभु नामक एक पुत्र था, वह स्वभावसे ही परमार्थतत्त्वको जाननेवाला था॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शिष्यो निदाघोऽभूत्पुलस्त्यतनयः पुरा।
प्रादादशेषविज्ञानं स तस्मै परया मुदा॥ ४॥
मूलम्
तस्य शिष्यो निदाघोऽभूत्पुलस्त्यतनयः पुरा।
प्रादादशेषविज्ञानं स तस्मै परया मुदा॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें महर्षि पुलस्त्यका पुत्र निदाघ उन ऋभुका शिष्य था। उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया था॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्तज्ञानतन्त्रस्य न तस्याद्वैतवासना।
स ऋभुस्तर्कयामास निदाघस्य नरेश्वर॥ ५॥
मूलम्
अवाप्तज्ञानतन्त्रस्य न तस्याद्वैतवासना।
स ऋभुस्तर्कयामास निदाघस्य नरेश्वर॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नरेश्वर! ऋभुने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान होते हुए भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वै पुरम्।
समृद्धमतिरम्यं च पुलस्त्येन निवेशितम्॥ ६॥
मूलम्
देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वै पुरम्।
समृद्धमतिरम्यं च पुलस्त्येन निवेशितम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देविकानदीके तीरपर पुलस्त्यजीका बसाया हुआ वीरनगर नामक एक अति रमणीक और समृद्धि-सम्पन्न नगर था॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रम्योपवनपर्यन्ते स तस्मिन्पार्थिवोत्तम।
निदाघो नाम योगज्ञ ऋभुशिष्योऽवसत्पुरा॥ ७॥
मूलम्
रम्योपवनपर्यन्ते स तस्मिन्पार्थिवोत्तम।
निदाघो नाम योगज्ञ ऋभुशिष्योऽवसत्पुरा॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पार्थिवोत्तम! रम्य उपवनोंसे सुशोभित उस पुरमें पूर्वकालमें ऋभुका शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्ये वर्षसहस्रे तु समतीतेऽस्य तत्पुरम्।
जगाम स ऋभुः शिष्यं निदाघमवलोककः॥ ८॥
मूलम्
दिव्ये वर्षसहस्रे तु समतीतेऽस्य तत्पुरम्।
जगाम स ऋभुः शिष्यं निदाघमवलोककः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये एक सहस्र दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगरमें गये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य वैश्वदेवान्ते द्वारालोकनगोचरे।
स्थितस्तेन गृहीतार्घ्यो निजवेश्म प्रवेशितः॥ ९॥
मूलम्
स तस्य वैश्वदेवान्ते द्वारालोकनगोचरे।
स्थितस्तेन गृहीतार्घ्यो निजवेश्म प्रवेशितः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेवके अनन्तर अपने द्वारपर [अतिथियोंकी] प्रतीक्षा कर रहा था, वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहुँच अर्घ्यदानपूर्वक अपने घरमें ले गया॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रक्षालिताङ्घ्रिपाणिं च कृतासनपरिग्रहम्।
उवाच स द्विजश्रेष्ठो भुज्यतामिति सादरम्॥ १०॥
मूलम्
प्रक्षालिताङ्घ्रिपाणिं च कृतासनपरिग्रहम्।
उवाच स द्विजश्रेष्ठो भुज्यतामिति सादरम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस द्विजश्रेष्ठने उनके हाथ-पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा—‘भोजन कीजिये’॥ १०॥
मूलम् (वचनम्)
ऋभुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो विप्रवर्य भोक्तव्यं यदन्नं भवतो गृहे।
तत्कथ्यतां कदन्नेषु न प्रीतिः सततं मम॥ ११॥
मूलम्
भो विप्रवर्य भोक्तव्यं यदन्नं भवतो गृहे।
तत्कथ्यतां कदन्नेषु न प्रीतिः सततं मम॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋभु बोले—हे विप्रवर! आपके यहाँ क्या-क्या अन्न भोजन करना होगा—यह बताइये, क्योंकि कुत्सित अन्नमें मेरी रुचि नहीं है॥ ११॥
मूलम् (वचनम्)
निदाघ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सक्तुयावकवाट्यानामपूपानां च मे गृहे।
यद्रोचते द्विजश्रेष्ठ तत्त्वं भुङ्क्ष्व यथेच्छया॥ १२॥
मूलम्
सक्तुयावकवाट्यानामपूपानां च मे गृहे।
यद्रोचते द्विजश्रेष्ठ तत्त्वं भुङ्क्ष्व यथेच्छया॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
निदाघने कहा—हे द्विजश्रेष्ठ! मेरे घरमें सत्तू, जौकी लप्सी, कन्द-मूल-फलादि तथा पूए बने हैं। आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये॥ १२॥
मूलम् (वचनम्)
ऋभुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदन्नानि द्विजैतानि मृष्टमन्नं प्रयच्छ मे।
संयावपायसादीनि द्रप्सफाणितवन्ति च॥ १३॥
मूलम्
कदन्नानि द्विजैतानि मृष्टमन्नं प्रयच्छ मे।
संयावपायसादीनि द्रप्सफाणितवन्ति च॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋभु बोले—हे द्विज! ये तो सभी कुत्सित अन्न हैं, मुझे तो तुम हलवा, खीर तथा मट्ठा और खाँड़से बने स्वादिष्ट भोजन कराओ॥ १३॥
मूलम् (वचनम्)
निदाघ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हे हे शालिनि मद्गेहे यत्किञ्चिदतिशोभनम्।
भक्ष्योपसाधनं मृष्टं तेनास्यान्नं प्रसाधय॥ १४॥
मूलम्
हे हे शालिनि मद्गेहे यत्किञ्चिदतिशोभनम्।
भक्ष्योपसाधनं मृष्टं तेनास्यान्नं प्रसाधय॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब निदाघने [अपनी स्त्रीसे] कहा—हे गृहदेवि! हमारे घरमें जो अच्छी-से-अच्छी वस्तु हो उसीसे इनके लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ॥ १४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता तेन सा पत्नी मृष्टमन्नं द्विजस्य यत्।
प्रसाधितवती तद्वै भर्तुर्वचनगौरवात्॥ १५॥
मूलम्
इत्युक्ता तेन सा पत्नी मृष्टमन्नं द्विजस्य यत्।
प्रसाधितवती तद्वै भर्तुर्वचनगौरवात्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण (जडभरत)-ने कहा—उसके ऐसा कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञासे उन विप्रवरके लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भुक्तवन्तमिच्छातो मृष्टमन्नं महामुनिम्।
निदाघः प्राह भूपाल प्रश्रयावनतः स्थितः॥ १६॥
मूलम्
तं भुक्तवन्तमिच्छातो मृष्टमन्नं महामुनिम्।
निदाघः प्राह भूपाल प्रश्रयावनतः स्थितः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! ऋभुके यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर निदाघने अति विनीत होकर उन महामुनिसे कहा॥ १६॥
मूलम् (वचनम्)
निदाघ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि ते परमा तृप्तिरुत्पन्ना तुष्टिरेव च।
अपि ते मानसं स्वस्थमाहारेण कृतं द्विज॥ १७॥
मूलम्
अपि ते परमा तृप्तिरुत्पन्ना तुष्टिरेव च।
अपि ते मानसं स्वस्थमाहारेण कृतं द्विज॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
निदाघ बोले—हे द्विज! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थ हुआ न? आप पूर्णतया तृप्त और सन्तुष्ट हो गये न?॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व निवासो भवान्विप्र क्व च गन्तुं समुद्यतः।
आगम्यते च भवता यतस्तच्च द्विजोच्यताम्॥ १८॥
मूलम्
क्व निवासो भवान्विप्र क्व च गन्तुं समुद्यतः।
आगम्यते च भवता यतस्तच्च द्विजोच्यताम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विप्रवर! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं? कहाँ जानेकी तैयारीमें हैं? और कहाँसे पधारे हैं?॥ १८॥
मूलम् (वचनम्)
ऋभुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुद्यस्य तस्य भुक्तेऽन्ने तृप्तिर्ब्राह्मण जायते।
न मे क्षुन्नाभवत्तृप्तिः कस्मान्मां परिपृच्छसि॥ १९॥
मूलम्
क्षुद्यस्य तस्य भुक्तेऽन्ने तृप्तिर्ब्राह्मण जायते।
न मे क्षुन्नाभवत्तृप्तिः कस्मान्मां परिपृच्छसि॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋभु बोले—हे ब्राह्मण! जिसको क्षुधा लगती है उसीकी तृप्ति भी हुआ करती है। मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी, फिर तृप्तिके विषयमें तुम क्या पूछते हो?॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वह्निना पार्थिवे धातौ क्षपिते क्षुत्समुद्भवः।
भवत्यम्भसि च क्षीणे नृणां तृडपि जायते॥ २०॥
मूलम्
वह्निना पार्थिवे धातौ क्षपिते क्षुत्समुद्भवः।
भवत्यम्भसि च क्षीणे नृणां तृडपि जायते॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जठराग्निके द्वारा पार्थिव (ठोस) धातुओंके क्षीण हो जानेसे मनुष्यको क्षुधाकी प्रतीति होती है और जलके क्षीण होनेसे तृषाका अनुभव होता है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्तृष्णे देहधर्माख्ये न ममैते यतो द्विज।
ततः क्षुत्सम्भवाभावात्तृप्तिरस्त्येव मे सदा॥ २१॥
मूलम्
क्षुत्तृष्णे देहधर्माख्ये न ममैते यतो द्विज।
ततः क्षुत्सम्भवाभावात्तृप्तिरस्त्येव मे सदा॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! ये क्षुधा और तृषा तो देहके ही धर्म हैं, मेरे नहीं; अतः कभी क्षुधित न होनेके कारण मैं तो सर्वदा तृप्त ही हूँ॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसः स्वस्थता तुष्टिश्चित्तधर्माविमौ द्विज।
चेतसो यस्य तत्पृच्छ पुमानेभिर्न युज्यते॥ २२॥
मूलम्
मनसः स्वस्थता तुष्टिश्चित्तधर्माविमौ द्विज।
चेतसो यस्य तत्पृच्छ पुमानेभिर्न युज्यते॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वस्थता और तुष्टि भी मनहीमें होते हैं, अतः ये मनहीके धर्म हैं; पुरुष (आत्मा)-से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये हे द्विज! ये जिसके धर्म हैं उसीसे इनके विषयमें पूछो॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व निवासस्तवेत्युक्तं क्व गन्तासि च यत्त्वया।
कुतश्चागम्यते तत्र त्रितयेऽपि निबोध मे॥ २३॥
मूलम्
क्व निवासस्तवेत्युक्तं क्व गन्तासि च यत्त्वया।
कुतश्चागम्यते तत्र त्रितयेऽपि निबोध मे॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुमने जो पूछा कि ‘आप कहाँ रहनेवाले हैं? कहाँ जा रहे हैं? तथा कहाँसे आये हैं’ सो इन तीनोंके विषयमें मेरा मत सुनो—॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुमान्सर्वगतो व्यापी आकाशवदयं यतः।
कुतः कुत्र क्व गन्तासीत्येतदप्यर्थवत्कथम्॥ २४॥
मूलम्
पुमान्सर्वगतो व्यापी आकाशवदयं यतः।
कुतः कुत्र क्व गन्तासीत्येतदप्यर्थवत्कथम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा सर्वगत है, क्योंकि यह आकाशके समान व्यापक है; अतः ‘कहाँसे आये हो, कहाँ रहते हो और कहाँ जाओगे?’ यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है?॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं गन्ता न चागन्ता नैकदेशनिकेतनः।
त्वं चान्ये च न च त्वं च नान्ये नैवाहमप्यहम्॥ २५॥
मूलम्
सोऽहं गन्ता न चागन्ता नैकदेशनिकेतनः।
त्वं चान्ये च न च त्वं च नान्ये नैवाहमप्यहम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ। [तू, मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक्-पृथक् दिखायी देते हैं वास्तवमें वैसे नहीं हैं] वस्तुतः तू तू नहीं है, अन्य अन्य नहीं है और मैं मैं नहीं हूँ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृष्टं न मृष्टमप्येषा जिज्ञासा मे कृता तव।
किं वक्ष्यसीति तत्रापि श्रूयतां द्विजसत्तम॥ २६॥
किमस्वाद्वथ वा मृष्टं भुञ्जतोऽस्ति द्विजोत्तम।
मृष्टमेव यदामृष्टं तदेवोद्वेगकारकम्॥ २७॥
मूलम्
मृष्टं न मृष्टमप्येषा जिज्ञासा मे कृता तव।
किं वक्ष्यसीति तत्रापि श्रूयतां द्विजसत्तम॥ २६॥
किमस्वाद्वथ वा मृष्टं भुञ्जतोऽस्ति द्विजोत्तम।
मृष्टमेव यदामृष्टं तदेवोद्वेगकारकम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें मधुर मधुर है भी नहीं; देखो, मैंने तुमसे जो मधुर अन्नकी याचना की थी उससे भी मैं यही देखना चाहता था कि ‘तुम क्या कहते हो।’ हे द्विजश्रेष्ठ! भोजन करनेवालेके लिये स्वादु और अस्वादु भी क्या है? क्योंकि स्वादिष्ट पदार्थ ही जब समयान्तरसे अस्वादु हो जाता है तो वही उद्वेगजनक होने लगता है॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृष्टं जायते मृष्टं मृष्टादुद्विजते जनः।
आदिमध्यावसानेषु किमन्नं रुचिकारकम्॥ २८॥
मूलम्
अमृष्टं जायते मृष्टं मृष्टादुद्विजते जनः।
आदिमध्यावसानेषु किमन्नं रुचिकारकम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते हैं और रुचिकर पदार्थोंसे मनुष्यको उद्वेग हो जाता है। ऐसा अन्न भला कौन-सा है जो आदि, मध्य और अन्त तीनों कालमें रुचिकर ही हो?॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृण्मयं हि गृहं यद्वन्मृदा लिप्तं स्थिरं भवेत्।
पार्थिवोऽयं तथा देहः पार्थिवैः परमाणुभिः॥ २९॥
मूलम्
मृण्मयं हि गृहं यद्वन्मृदा लिप्तं स्थिरं भवेत्।
पार्थिवोऽयं तथा देहः पार्थिवैः परमाणुभिः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपने-पोतनेसे दृढ़ होता है, उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट हो जाता है॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यवगोधूममुद्गादि घृतं तैलं पयो दधि।
गुडं फलादीनि तथा पार्थिवाः परमाणवः॥ ३०॥
मूलम्
यवगोधूममुद्गादि घृतं तैलं पयो दधि।
गुडं फलादीनि तथा पार्थिवाः परमाणवः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जौ, गेहूँ, मूँग, घृत, तैल, दूध, दही, गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं। [इनमेंसे किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु?]॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतद्भवता ज्ञात्वा मृष्टामृष्टविचारि यत्।
तन्मनस्समतालम्बि कार्यं साम्यं हि मुक्तये॥ ३१॥
मूलम्
तदेतद्भवता ज्ञात्वा मृष्टामृष्टविचारि यत्।
तन्मनस्समतालम्बि कार्यं साम्यं हि मुक्तये॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादु-अस्वादुका विचार करनेवाले चित्तको समदर्शी बनाना चाहिये, क्योंकि मोक्षका एकमात्र उपाय समता ही है॥ ३१॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य परमार्थाश्रितं नृप।
प्रणिपत्य महाभागो निदाघो वाक्यमब्रवीत्॥ ३२॥
मूलम्
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य परमार्थाश्रितं नृप।
प्रणिपत्य महाभागो निदाघो वाक्यमब्रवीत्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोले—हे राजन्! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा—॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद मद्धितार्थाय कथ्यतां यत्त्वमागतः।
नष्टो मोहस्तवाकर्ण्य वचांस्येतानि मे द्विज॥ ३३॥
मूलम्
प्रसीद मद्धितार्थाय कथ्यतां यत्त्वमागतः।
नष्टो मोहस्तवाकर्ण्य वचांस्येतानि मे द्विज॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘प्रभो! आप प्रसन्न होइये! कृपया बतलाइये, मेरे कल्याणकी कामनासे आये हुए आप कौन हैं? हे द्विज! आपके इन वचनोंको सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है’’॥ ३३॥
मूलम् (वचनम्)
ऋभुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋभुरस्मि तवाचार्यः प्रज्ञादानाय ते द्विज।
इहागतोऽहं यास्यामि परमार्थस्तवोदितः॥ ३४॥
मूलम्
ऋभुरस्मि तवाचार्यः प्रज्ञादानाय ते द्विज।
इहागतोऽहं यास्यामि परमार्थस्तवोदितः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋभु बोले—हे द्विज! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ; तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करनेके लिये मैं यहाँ आया था। अब मैं जाता हूँ; जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कह ही दिया है॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेकमिदं विद्धि न भेदि सकलं जगत्।
वासुदेवाभिधेयस्य स्वरूपं परमात्मनः॥ ३५॥
मूलम्
एवमेकमिदं विद्धि न भेदि सकलं जगत्।
वासुदेवाभिधेयस्य स्वरूपं परमात्मनः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस परमार्थतत्त्वका विचार करते हुए तू इस सम्पूर्ण जगत्को एक वासुदेव परमात्माहीका स्वरूप जान; इसमें भेद-भाव बिलकुल नहीं है॥ ३५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा निदाघेन प्रणिपातपुरःसरम्।
पूजितः परया भक्त्या इच्छातः प्रययावृभुः॥ ३६॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा निदाघेन प्रणिपातपुरःसरम्।
पूजितः परया भक्त्या इच्छातः प्रययावृभुः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोले—तदनन्तर निदाघने ‘बहुत अच्छा’ कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो ऋभु स्वेच्छानुसार चले गये॥ ३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥