१४

[चौदहवाँ अध्याय]

विषय

जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य तस्येति वचः परमार्थसमन्वितम्।
प्रश्रयावनतो भूत्वा तमाह नृपतिर्द्विजम्॥ १॥

मूलम्

निशम्य तस्येति वचः परमार्थसमन्वितम्।
प्रश्रयावनतो भूत्वा तमाह नृपतिर्द्विजम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवरसे कहा॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्यत्त्वया प्रोक्तं परमार्थमयं वचः।
श्रुते तस्मिन्भ्रमन्तीव मनसो मम वृत्तयः॥ २॥

मूलम्

भगवन्यत्त्वया प्रोक्तं परमार्थमयं वचः।
श्रुते तस्मिन्भ्रमन्तीव मनसो मम वृत्तयः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले—भगवन्! आपने जो परमार्थमय वचन कहे हैं उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रान्त-सी हो गयी हैं॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्विवेकविज्ञानं यदशेषेषु जन्तुषु।
भवता दर्शितं विप्र तत्परं प्रकृतेर्महत्॥ ३॥

मूलम्

एतद्विवेकविज्ञानं यदशेषेषु जन्तुषु।
भवता दर्शितं विप्र तत्परं प्रकृतेर्महत्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विप्र! आपने सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त जिस असंग विज्ञानका दिग्दर्शन कराया है वह प्रकृतिसे परे ब्रह्म ही है [इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है]॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं वहामि शिबिकां शिबिका न मयि स्थिता।
शरीरमन्यदस्मत्तो येनेयं शिबिका धृता॥ ४॥
गुणप्रवृत्त्या भूतानां प्रवृत्तिः कर्मचोदिता।
प्रवर्तन्ते गुणा ह्येते किं ममेति त्वयोदितम्॥ ५॥

मूलम्

नाहं वहामि शिबिकां शिबिका न मयि स्थिता।
शरीरमन्यदस्मत्तो येनेयं शिबिका धृता॥ ४॥
गुणप्रवृत्त्या भूतानां प्रवृत्तिः कर्मचोदिता।
प्रवर्तन्ते गुणा ह्येते किं ममेति त्वयोदितम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु आपने जो कहा कि मैं शिबिकाको वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा है वह शरीर मुझसे अत्यन्त पृथक् है। जीवोंकी प्रवृत्ति गुणों (सत्त्व, रज, तम)-की प्रेरणासे होती है और गुण कर्मोंसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं—इसमें मेरा कर्तृत्व कैसे माना जा सकता है?॥ ४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्परमार्थज्ञ मम श्रोत्रपथं गते।
मनो विह्वलतामेति परमार्थार्थितां गतम्॥ ६॥

मूलम्

एतस्मिन्परमार्थज्ञ मम श्रोत्रपथं गते।
मनो विह्वलतामेति परमार्थार्थितां गतम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परमार्थज्ञ! यह बात मेरे कानोंमें पड़ते ही मेरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमेव महाभागं कपिलर्षिमहं द्विज।
प्रष्टुमभ्युद्यतो गत्वा श्रेयः किं त्वत्र शंस मे॥ ७॥

मूलम्

पूर्वमेव महाभागं कपिलर्षिमहं द्विज।
प्रष्टुमभ्युद्यतो गत्वा श्रेयः किं त्वत्र शंस मे॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! मैं तो पहले ही महाभाग कपिल मुनिसे यह पूछनेके लिये कि बताइये ‘संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है’ उनके पास जानेको तत्पर हुआ हूँ॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्तरे च भवता यदेतद्वाक्यमीरितम्।
तेनैव परमार्थार्थं त्वयि चेतः प्रधावति॥ ८॥

मूलम्

तदन्तरे च भवता यदेतद्वाक्यमीरितम्।
तेनैव परमार्थार्थं त्वयि चेतः प्रधावति॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु बीचहीमें, आपने जो वाक्य कहे हैं उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ-श्रवण करनेके लिये आपकी ओर झुक गया है॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिलर्षिर्भगवतः सर्वभूतस्य वै द्विज।
विष्णोरंशो जगन्मोहनाशायोर्वीमुपागतः॥ ९॥

मूलम्

कपिलर्षिर्भगवतः सर्वभूतस्य वै द्विज।
विष्णोरंशो जगन्मोहनाशायोर्वीमुपागतः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! ये कपिल मुनि सर्वभूत भगवान‍् विष्णुके ही अंश हैं। इन्होंने संसारका मोह दूर करनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव भगवान‍्नूनमस्माकं हितकाम्यया।
प्रत्यक्षतामत्र गतो यथैतद्भवतोच्यते॥ १०॥

मूलम्

स एव भगवान‍्नूनमस्माकं हितकाम्यया।
प्रत्यक्षतामत्र गतो यथैतद्भवतोच्यते॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे हैं उससे मुझे निश्चय होता है कि वे ही भगवान‍् कपिलदेव मेरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रकट हो गये हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मह्यं प्रणताय त्वं यच्छ्रेयः परमं द्विज।
तद्वदाखिलविज्ञानजलवीच्युदधिर्भवान‍्॥ ११॥

मूलम्

तन्मह्यं प्रणताय त्वं यच्छ्रेयः परमं द्विज।
तद्वदाखिलविज्ञानजलवीच्युदधिर्भवान‍्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे द्विज! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीतसे कहिये। हे प्रभो! आप सम्पूर्ण विज्ञान-तरंगोंके मानो समुद्र ही हैं॥ ११॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूप पृच्छसि किं श्रेयः परमार्थं नु पृच्छसि।
श्रेयांस्यपरमार्थानि अशेषाणि च भूपते॥ १२॥

मूलम्

भूप पृच्छसि किं श्रेयः परमार्थं नु पृच्छसि।
श्रेयांस्यपरमार्थानि अशेषाणि च भूपते॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण बोले—हे राजन्! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ? क्योंकि हे भूपते! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही हैं॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवताराधनं कृत्वा धनसम्पदमिच्छति।
पुत्रानिच्छति राज्यं च श्रेयस्तस्यैव तन्नृप॥ १३॥

मूलम्

देवताराधनं कृत्वा धनसम्पदमिच्छति।
पुत्रानिच्छति राज्यं च श्रेयस्तस्यैव तन्नृप॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जो पुरुष देवताओंकी आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय हैं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्म यज्ञात्मकं श्रेयः फलं स्वर्गाप्तिलक्षणम्।
श्रेयः प्रधानं च फले तदेवानभिसंहिते॥ १४॥

मूलम्

कर्म यज्ञात्मकं श्रेयः फलं स्वर्गाप्तिलक्षणम्।
श्रेयः प्रधानं च फले तदेवानभिसंहिते॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका फल स्वर्गलोककी प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है; किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फलकी इच्छा न करनेमें ही है॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा ध्येयः सदा भूप योगयुक्तैस्तथा परम्।
श्रेयस्तस्यैव संयोगः श्रेयो यः परमात्मनः॥ १५॥

मूलम्

आत्मा ध्येयः सदा भूप योगयुक्तैस्तथा परम्।
श्रेयस्तस्यैव संयोगः श्रेयो यः परमात्मनः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राजन्! योगयुक्त पुरुषोंको प्रकृति आदिसे अतीत उस आत्माका ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकि उस परमात्माका संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयांस्येवमनेकानि शतशोऽथ सहस्रशः।
सन्त्यत्र परमार्थस्तु न त्वेते श्रूयतां च मे॥ १६॥

मूलम्

श्रेयांस्येवमनेकानि शतशोऽथ सहस्रशः।
सन्त्यत्र परमार्थस्तु न त्वेते श्रूयतां च मे॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ों-हजारों प्रकारके अनेकों हैं, किंतु ये सब परमार्थ नहीं हैं। अब जो परमार्थ है सो सुनो—॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माय त्यज्यते किन्नु परमार्थो धनं यदि।
व्ययश्च क्रियते कस्मात्कामप्राप्त्युपलक्षणः॥ १७॥

मूलम्

धर्माय त्यज्यते किन्नु परमार्थो धनं यदि।
व्ययश्च क्रियते कस्मात्कामप्राप्त्युपलक्षणः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि धन ही परमार्थ है तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता है? तथा इच्छित भोगोंकी प्राप्तिके लिये उसका व्यय क्यों किया जाता है? [अतः वह परमार्थ नहीं है]॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रश्चेत्परमार्थः स्यात्सोऽप्यन्यस्य नरेश्वर।
परमार्थभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तत्पिता॥ १८॥

मूलम्

पुत्रश्चेत्परमार्थः स्यात्सोऽप्यन्यस्य नरेश्वर।
परमार्थभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तत्पिता॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! यदि पुत्रको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य (अपने पिता)-का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दूसरेका पुत्र होनेके कारण उस (अपने पिता)-का परमार्थ होगा॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं न परमार्थोऽस्ति जगत्यस्मिञ्चराचरे।
परमार्थो हि कार्याणि कारणानामशेषतः॥ १९॥

मूलम्

एवं न परमार्थोऽस्ति जगत्यस्मिञ्चराचरे।
परमार्थो हि कार्याणि कारणानामशेषतः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इस चराचर जगत‍्में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है। क्योंकि फिर तो सभी कारणोंके कार्य परमार्थ हो जायँगे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता परमार्थतया यदि।
परमार्था भवन्त्यत्र न भवन्ति च वै ततः॥ २०॥

मूलम्

राज्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता परमार्थतया यदि।
परमार्था भवन्त्यत्र न भवन्ति च वै ततः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि संसारमें राज्यादिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते। अतः परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा। [इसलिये राज्यादि भी परमार्थ नहीं हो सकते]॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋग्यजुःसामनिष्पाद्यं यज्ञकर्म मतं तव।
परमार्थभूतं तत्रापि श्रूयतां गदतो मम॥ २१॥

मूलम्

ऋग्यजुःसामनिष्पाद्यं यज्ञकर्म मतं तव।
परमार्थभूतं तत्रापि श्रूयतां गदतो मम॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऋक्, यजुः और सामरूप वेदत्रयीसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको परमार्थ मानते हो तो उसके विषयमें मेरा ऐसा विचार है—॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तु निष्पाद्यते कार्यं मृदा कारणभूतया।
तत्कारणानुगमनाज्ज्ञायते नृप मृण्मयम्॥ २२॥

मूलम्

यत्तु निष्पाद्यते कार्यं मृदा कारणभूतया।
तत्कारणानुगमनाज्ज्ञायते नृप मृण्मयम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिकाका कार्य होती है वह कारणकी अनुगामिनी होनेसे मृत्तिकारूप ही जानी जाती है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विनाशिभिर्द्रव्यैः समिदाज्यकुशादिभिः।
निष्पाद्यते क्रिया या तु सा भवित्री विनाशिनी॥ २३॥

मूलम्

एवं विनाशिभिर्द्रव्यैः समिदाज्यकुशादिभिः।
निष्पाद्यते क्रिया या तु सा भवित्री विनाशिनी॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान‍् द्रव्योंसे सम्पन्न होती है वह भी नाशवान‍् ही होगी॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते।
तत्तु नाशि न सन्देहो नाशिद्रव्योपपादितम्॥ २४॥

मूलम्

अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते।
तत्तु नाशि न सन्देहो नाशिद्रव्योपपादितम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु परमार्थको तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलाते हैं और नाशवान‍् द्रव्योंसे निष्पन्न होनेके कारण कर्म [अथवा उनसे निष्पन्न होनेवाले स्वर्गादि] नाशवान‍् ही हैं—इसमें सन्देह नहीं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवाफलदं कर्म परमार्थो मतस्तव।
मुक्तिसाधनभूतत्वात्परमार्थो न साधनम्॥ २५॥

मूलम्

तदेवाफलदं कर्म परमार्थो मतस्तव।
मुक्तिसाधनभूतत्वात्परमार्थो न साधनम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि फलाशासे रहित निष्कामकर्मको परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फलका साधन होनेसे साधन ही है, परमार्थ नहीं॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानं चैवात्मनो भूप परमार्थार्थशब्दितम्।
भेदकारि परेभ्यस्तु परमार्थो न भेदवान‍्॥ २६॥

मूलम्

ध्यानं चैवात्मनो भूप परमार्थार्थशब्दितम्।
भेदकारि परेभ्यस्तु परमार्थो न भेदवान‍्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि देहादिसे आत्माका पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करनेको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनात्मासे आत्माका भेद करनेवाला है और परमार्थमें भेद है नहीं [अतः वह भी परमार्थ नहीं हो सकता]॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमात्मात्मनोर्योगः परमार्थ इतीष्यते।
मिथ्यैतदन्यद्‍द्रव्यं हि नैति तद्‍द्रव्यतां यतः॥ २७॥

मूलम्

परमात्मात्मनोर्योगः परमार्थ इतीष्यते।
मिथ्यैतदन्यद्‍द्रव्यं हि नैति तद्‍द्रव्यतां यतः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि परमात्मा और जीवात्माके संयोगको परमार्थ कहें तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि अन्य द्रव्यसे अन्य द्रव्यकी एकता कभी नहीं हो सकती*॥ २७॥

पादटिप्पनी
  • अर्थात् यदि आत्मा परमात्मासे भिन्न है तब तो गौ और अश्वके समान उनकी एकता हो नहीं सकती और यदि बिम्ब-प्रतिबिम्बकी भाँति अभिन्न है तो उपाधिके निराकरणके अतिरिक्त और उनका संयोग ही क्या होगा?
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्छ्रेयांस्यशेषाणि नृपैतानि न संशयः।
परमार्थस्तु भूपाल संक्षेपाच्छ्रूयतां मम॥ २८॥

मूलम्

तस्माच्छ्रेयांस्यशेषाणि नृपैतानि न संशयः।
परमार्थस्तु भूपाल संक्षेपाच्छ्रूयतां मम॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राजन्! निःसन्देह ये सब श्रेय ही हैं, [परमार्थ नहीं] अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेपसे सुनाता हूँ, श्रवण करो॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको व्यापी समः शुद्धो निर्गुणः प्रकृतेः परः।
जन्मवृद्ध्यादिरहित आत्मा सर्वगतोऽव्ययः॥ २९॥

मूलम्

एको व्यापी समः शुद्धो निर्गुणः प्रकृतेः परः।
जन्मवृद्ध्यादिरहित आत्मा सर्वगतोऽव्ययः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है; वह जन्म-वृद्धि आदिसे रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परज्ञानमयोऽसद्भिर्नामजात्यादिभिर्विभुः।
न योगवान‍्न युक्तोऽभून्नैव पार्थिव योक्ष्यते॥ ३०॥

मूलम्

परज्ञानमयोऽसद्भिर्नामजात्यादिभिर्विभुः।
न योगवान‍्न युक्तोऽभून्नैव पार्थिव योक्ष्यते॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! वह परम ज्ञानमय है, असत् नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापकका संयोग न कभी हुआ, न है और न होगा॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यात्मपरदेहेषु सतोऽप्येकमयं हि यत्।
विज्ञानं परमार्थोऽसौ द्वैतिनोऽतथ्यदर्शिनः॥ ३१॥

मूलम्

तस्यात्मपरदेहेषु सतोऽप्येकमयं हि यत्।
विज्ञानं परमार्थोऽसौ द्वैतिनोऽतथ्यदर्शिनः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह, अपने और अन्य प्राणियोंके शरीरमें विद्यमान रहते हुए भी, एक ही है’—इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी हैं॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेणुरन्ध्रप्रभेदेन भेदः षड्जादिसंज्ञितः।
अभेदव्यापिनो वायोस्तथास्य परमात्मनः॥ ३२॥

मूलम्

वेणुरन्ध्रप्रभेदेन भेदः षड्जादिसंज्ञितः।
अभेदव्यापिनो वायोस्तथास्य परमात्मनः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार अभिन्न भावसे व्याप्त एक ही वायुके बाँसुरीके छिद्रोंके भेदसे षड्ज आदि भेद होते हैं उसी प्रकार [शरीरादि उपाधियोंके कारण] एक ही परमात्माके [देवता-मनुष्यादि] अनेक भेद प्रतीत होते हैं॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्वरूपभेदश्च बाह्यकर्मप्रवृत्तिजः।
देवादिभेदेऽपध्वस्ते नास्त्येवावरणे हि सः॥ ३३॥

मूलम्

एकस्वरूपभेदश्च बाह्यकर्मप्रवृत्तिजः।
देवादिभेदेऽपध्वस्ते नास्त्येवावरणे हि सः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकरूप आत्माके जो नाना भेद हैं वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्तिके कारण ही हुए हैं। देवादि शरीरोंके भेदका निराकरण हो जानेपर वह नहीं रहता। उसकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही है॥ ३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः॥ १४॥