११

[ग्यारहवाँ अध्याय]

विषय

सूर्यशक्ति एवं वैष्णवी शक्तिका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेतद्भगवानाह गणः सप्तविधो रवेः।
मण्डले हिमतापादेः कारणं तन्मया श्रुतम्॥ १॥

मूलम्

यदेतद्भगवानाह गणः सप्तविधो रवेः।
मण्डले हिमतापादेः कारणं तन्मया श्रुतम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—भगवन्! आपने जो कहा कि सूर्यमण्डलमें स्थित सातों गण शीत-ग्रीष्म आदिके कारण होते हैं, सो मैंने सुना॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यापारश्चापि कथितो गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
ऋषीणां बालखिल्यानां तथैवाप्सरसां गुरो॥ २॥
यक्षाणां च रथे भानोर्विष्णुशक्तिधृतात्मनाम्।
किं चादित्यस्य यत्कर्म तन्नात्रोक्तं त्वया मुने॥ ३॥

मूलम्

व्यापारश्चापि कथितो गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
ऋषीणां बालखिल्यानां तथैवाप्सरसां गुरो॥ २॥
यक्षाणां च रथे भानोर्विष्णुशक्तिधृतात्मनाम्।
किं चादित्यस्य यत्कर्म तन्नात्रोक्तं त्वया मुने॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गुरो! आपने सूर्यके रथमें स्थित और विष्णु-शक्तिसे प्रभावित गन्धर्व, सर्प, राक्षस, ऋषि, बालखिल्यादि, अप्सरा तथा यक्षोंके तो पृथक्-पृथक् व्यापार बतलाये, किंतु हे मुने! यह नहीं बतलाया कि सूर्यका कार्य क्या है?॥ २-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सप्तगणो वारि हिममुष्णं च वर्षति।
तत्किमत्र रवेर्येन वृष्टिः सूर्यादितीर्यते॥ ४॥

मूलम्

यदि सप्तगणो वारि हिममुष्णं च वर्षति।
तत्किमत्र रवेर्येन वृष्टिः सूर्यादितीर्यते॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सातों गण ही शीत, ग्रीष्म और वर्षाके करनेवाले हैं तो फिर सूर्यका क्या प्रयोजन है? और यह कैसे कहा जाता है कि वृष्टि सूर्यसे होती है?॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवस्वानुदितो मध्ये यात्यस्तमिति किं जनः।
ब्रवीत्येतत्समं कर्म यदि सप्तगणस्य तत्॥ ५॥

मूलम्

विवस्वानुदितो मध्ये यात्यस्तमिति किं जनः।
ब्रवीत्येतत्समं कर्म यदि सप्तगणस्य तत्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सातों गणोंका यह वृष्टि आदि कार्य समान ही है तो ‘सूर्य उदय हुआ, अब मध्यमें है, अब अस्त होता है’ ऐसा लोग क्यों कहते हैं?॥ ५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैत्रेय श्रूयतामेतद्यद्भवान‍्परिपृच्छति।
यथा सप्तगणेऽप्येकः प्राधान्येनाधिको रविः॥ ६॥

मूलम्

मैत्रेय श्रूयतामेतद्यद्भवान‍्परिपृच्छति।
यथा सप्तगणेऽप्येकः प्राधान्येनाधिको रविः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! जो कुछ तुमने पूछा है उसका उत्तर सुनो, सूर्य सात गणोंमेंसे ही एक हैं तथापि उनमें प्रधान होनेसे उनकी विशेषता है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशक्तिः परा विष्णोर्ऋग्यजुःसामसंज्ञिता।
सैषा त्रयी तपत्यंहो जगतश्च हिनस्ति या॥ ७॥

मूलम्

सर्वशक्तिः परा विष्णोर्ऋग्यजुःसामसंज्ञिता।
सैषा त्रयी तपत्यंहो जगतश्च हिनस्ति या॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् विष्णुकी जो सर्वशक्तिमयी ऋक्, यजुः, साम नामकी परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्यको ताप प्रदान करती है और [उपासना किये जानेपर] संसारके समस्त पापोंको नष्ट कर देती है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैष विष्णुः स्थितः स्थित्यां जगतः पालनोद्यतः।
ऋग्यजुःसामभूतोऽन्तः सवितुर्द्विज तिष्ठति॥ ८॥

मूलम्

सैष विष्णुः स्थितः स्थित्यां जगतः पालनोद्यतः।
ऋग्यजुःसामभूतोऽन्तः सवितुर्द्विज तिष्ठति॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! जगत‍्की स्थिति और पालनके लिये वे ऋक्, यजुः और सामरूप विष्णु सूर्यके भीतर निवास करते हैं॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासि मासि रविर्यो यस्तत्र तत्र हि सा परा।
त्रयीमयी विष्णुशक्तिरवस्थानं करोति वै॥ ९॥

मूलम्

मासि मासि रविर्यो यस्तत्र तत्र हि सा परा।
त्रयीमयी विष्णुशक्तिरवस्थानं करोति वै॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक मासमें जो-जो सूर्य होता है उसी-उसीमें वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णुकी परा शक्ति निवास करती है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋचः स्तुवन्ति पूर्वाह्णे मध्याह्नेऽथ यजूंषि वै।
बृहद्रथन्तरादीनि सामान्यह्नः क्षये रविम्॥ १०॥

मूलम्

ऋचः स्तुवन्ति पूर्वाह्णे मध्याह्नेऽथ यजूंषि वै।
बृहद्रथन्तरादीनि सामान्यह्नः क्षये रविम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वाह्नमें ऋक्, मध्याह्नमें बृहद्रथन्तरादि यजुः तथा सायंकालमें सामश्रुतियाँ सूर्यकी स्तुति करती हैं *॥ १०॥

पादटिप्पनी
  • इस विषयमें यह श्रुति भी है—
    ‘ऋचः पूर्वाह्णे दिवि देव ईयते यजुर्वेदे तिष्ठति मध्ये अह्नः सामवेदेनास्तमये महीयते।’
विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गमेषा त्रयी विष्णोर्ऋग्यजुःसामसंज्ञिता।
विष्णुशक्तिरवस्थानं सदादित्ये करोति सा॥ ११॥

मूलम्

अङ्गमेषा त्रयी विष्णोर्ऋग्यजुःसामसंज्ञिता।
विष्णुशक्तिरवस्थानं सदादित्ये करोति सा॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ऋक्-यजुः-सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान‍् विष्णुका ही अंग है। यह विष्णु-शक्ति सर्वदा आदित्यमें रहती है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न केवलं रवेः शक्तिर्वैष्णवी सा त्रयीमयी।
ब्रह्माथ पुरुषो रुद्रस्त्रयमेतत्त्रयीमयम्॥ १२॥

मूलम्

न केवलं रवेः शक्तिर्वैष्णवी सा त्रयीमयी।
ब्रह्माथ पुरुषो रुद्रस्त्रयमेतत्त्रयीमयम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यहीकी अधिष्ठात्री हो, सो नहीं; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही हैं॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्गादौ ऋङ्मयो ब्रह्मा स्थितौ विष्णुर्यजुर्मयः।
रुद्रः साममयोऽन्ताय तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः॥ १३॥

मूलम्

सर्गादौ ऋङ्मयो ब्रह्मा स्थितौ विष्णुर्यजुर्मयः।
रुद्रः साममयोऽन्ताय तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्गके आदिमें ब्रह्मा ऋङ्मय हैं, उसकी स्थितिके समय विष्णु यजुर्मय हैं तथा अन्तकालमें रुद्र साममय हैं। इसीलिये सामगानकी ध्वनि अपवित्र* मानी गयी है॥ १३॥

पादटिप्पनी
  • रुद्रके नाशकारी होनेसे उनका नाम अपवित्र माना गया है अतः सामगानके समय (रातमें) ऋक् तथा यजुर्वेदके अध्ययनका निषेध किया गया है। इसमें गौतमकी स्मृति प्रमाण है—‘न सामध्वनावृग्यजुषी’ अर्थात् सामगानके समय ऋक्-यजुःका अध्ययन न करे।
विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सा सात्त्विकी शक्तिर्वैष्णवी या त्रयीमयी।
आत्मसप्तगणस्थं तं भास्वन्तमधितिष्ठति॥ १४॥

मूलम्

एवं सा सात्त्विकी शक्तिर्वैष्णवी या त्रयीमयी।
आत्मसप्तगणस्थं तं भास्वन्तमधितिष्ठति॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणोंमें स्थित आदित्यमें ही [अतिशयरूपसे] अवस्थित होती है॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तया चाधिष्ठितः सोऽपि जाज्वलीति स्वरश्मिभिः।
तमः समस्तजगतां नाशं नयति चाखिलम्॥ १५॥

मूलम्

तया चाधिष्ठितः सोऽपि जाज्वलीति स्वरश्मिभिः।
तमः समस्तजगतां नाशं नयति चाखिलम्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे अधिष्ठित सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियोंसे अत्यन्त प्रज्वलित होकर संसारके सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर देते हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तुवन्ति चैनं मुनयो गन्धर्वैर्गीयते पुरः।
नृत्यन्त्योऽप्सरसो यान्ति तस्य चानु निशाचराः॥ १६॥
वहन्ति पन्नगा यक्षैः क्रियतेऽभीषुसङ्ग्रहः।
बालखिल्यास्तथैवैनं परिवार्य समासते॥ १७॥

मूलम्

स्तुवन्ति चैनं मुनयो गन्धर्वैर्गीयते पुरः।
नृत्यन्त्योऽप्सरसो यान्ति तस्य चानु निशाचराः॥ १६॥
वहन्ति पन्नगा यक्षैः क्रियतेऽभीषुसङ्ग्रहः।
बालखिल्यास्तथैवैनं परिवार्य समासते॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सूर्यदेवकी मुनिगण स्तुति करते हैं, गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते हैं। अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती हैं, राक्षस रथके पीछे रहते हैं, सर्पगण रथका साज सजाते हैं और यक्ष घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हैं तथा बालखिल्यादि रथको सब ओरसे घेरे रहते हैं॥ १६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोदेता नास्तमेता च कदाचिच्छक्तिरूपधृक्।
विष्णुर्विष्णोः पृथक‍‍्तस्य गणस्सप्तविधोऽप्ययम्॥ १८॥

मूलम्

नोदेता नास्तमेता च कदाचिच्छक्तिरूपधृक्।
विष्णुर्विष्णोः पृथक‍‍्तस्य गणस्सप्तविधोऽप्ययम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रयीशक्तिरूप भगवान‍् विष्णुका न कभी उदय होता है और न अस्त [अर्थात् वे स्थायीरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं]; ये सात प्रकारके गण तो उनसे पृथक् हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तम्भस्थदर्पणस्येव योऽयमासन्नतां गतः।
छायादर्शनसंयोगं स तं प्राप्नोत्यथात्मनः॥ १९॥

मूलम्

स्तम्भस्थदर्पणस्येव योऽयमासन्नतां गतः।
छायादर्शनसंयोगं स तं प्राप्नोत्यथात्मनः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्तम्भमें लगे हुए दर्पणके निकट जो कोई जाता है उसीको अपनी छाया दिखायी देने लगती है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सा वैष्णवी शक्तिर्नैवापैति ततो द्विज।
मासानुमासं भास्वन्तमध्यास्ते तत्र संस्थितम्॥ २०॥

मूलम्

एवं सा वैष्णवी शक्तिर्नैवापैति ततो द्विज।
मासानुमासं भास्वन्तमध्यास्ते तत्र संस्थितम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्यके रथसे कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मासमें पृथक्-पृथक् सूर्यके [परिवर्तित होकर] उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृदेवमनुष्यादीन्स सदाप्याययन्प्रभुः।
परिवर्तत्यहोरात्रकारणं सविता द्विज॥ २१॥

मूलम्

पितृदेवमनुष्यादीन्स सदाप्याययन्प्रभुः।
परिवर्तत्यहोरात्रकारणं सविता द्विज॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! दिन और रात्रिके कारणस्वरूप भगवान‍् सूर्य पितृगण, देवगण और मनुष्यादिको सदा तृप्त करते घूमते रहते हैं॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यरश्मिः सुषुम्णा यस्तर्पितस्तेन चन्द्रमाः।
कृष्णपक्षेऽमरैः शश्वत्पीयते वै सुधामयः॥ २२॥

मूलम्

सूर्यरश्मिः सुषुम्णा यस्तर्पितस्तेन चन्द्रमाः।
कृष्णपक्षेऽमरैः शश्वत्पीयते वै सुधामयः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकी जो सुषुम्ना नामकी किरण है उससे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाका पोषण होता है और फिर कृष्णपक्षमें उस अमृतमय चन्द्रमाकी एक-एक कलाका देवगण निरन्तर पान करते हैं॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीतं तं द्विकलं सोमं कृष्णपक्षक्षये द्विज।
पिबन्ति पितरस्तेषां भास्करात्तर्पणं तथा॥ २३॥

मूलम्

पीतं तं द्विकलं सोमं कृष्णपक्षक्षये द्विज।
पिबन्ति पितरस्तेषां भास्करात्तर्पणं तथा॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! कृष्णपक्षके क्षय होनेपर [चतुर्दशीके अनन्तर] दो कलायुक्त चन्द्रमाका पितृगण पान करते हैं। इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगणका तर्पण होता है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदत्ते रश्मिभिर्यन्तु क्षितिसंस्थं रसं रविः।
तमुत्सृजति भूतानां पुष्ट्यर्थं सस्यवृद्धये॥ २४॥

मूलम्

आदत्ते रश्मिभिर्यन्तु क्षितिसंस्थं रसं रविः।
तमुत्सृजति भूतानां पुष्ट्यर्थं सस्यवृद्धये॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य अपनी किरणोंसे पृथिवीसे जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियोंकी पुष्टि और अन्नकी वृद्धिके लिये बरसा देता है॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन प्रीणात्यशेषाणि भूतानि भगवान‍् रविः।
पितृदेवमनुष्यादीनेवमाप्याययत्यसौ॥ २५॥

मूलम्

तेन प्रीणात्यशेषाणि भूतानि भगवान‍् रविः।
पितृदेवमनुष्यादीनेवमाप्याययत्यसौ॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे भगवान‍् सूर्य समस्त प्राणियोंको आनन्दित कर देते हैं और इस प्रकार वे देव, मनुष्य और पितृगण आदि सभीका पोषण करते हैं॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षतृप्तिं तु देवानां पितॄणां चैव मासिकीम्।
शश्वत्तृप्तिं च मर्त्यानां मैत्रेयार्कः प्रयच्छति॥ २६॥

मूलम्

पक्षतृप्तिं तु देवानां पितॄणां चैव मासिकीम्।
शश्वत्तृप्तिं च मर्त्यानां मैत्रेयार्कः प्रयच्छति॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इस रीतिसे सूर्यदेव देवताओंकी पाक्षिक, पितृगणकी मासिक तथा मनुष्योंकी नित्यप्रति तृप्ति करते रहते हैं॥ २६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥