०८

[आठवाँ अध्याय]

विषय

सूर्य, नक्षत्र एवं राशियोंकी व्यवस्था तथा कालचक्र, लोकपाल और गंगाविर्भावका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याख्यातमेतद‍्ब्रह्माण्डसंस्थानं तव सुव्रत।
ततः प्रमाणसंस्थाने सूर्यादीनां शृणुष्व मे॥ १॥

मूलम्

व्याख्यातमेतद‍्ब्रह्माण्डसंस्थानं तव सुव्रत।
ततः प्रमाणसंस्थाने सूर्यादीनां शृणुष्व मे॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे सुव्रत! मैंने तुमसे यह ब्रह्माण्डकी स्थिति कही, अब सूर्य आदि ग्रहोंकी स्थिति और उनके परिमाण सुनो॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥ २॥

मूलम्

योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ हजार योजन है तथा इससे दूना उसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथके बीचका भाग) है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्॥ ३॥

मूलम्

सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिनाभिमति पञ्चारे षण्नेमिन्यक्षयात्मके।
संवत्सरमये कृत्स्नं कालचक्रं प्रतिष्ठितम्॥ ४॥

मूलम्

त्रिनाभिमति पञ्चारे षण्नेमिन्यक्षयात्मके।
संवत्सरमये कृत्स्नं कालचक्रं प्रतिष्ठितम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्नरूप तीन नाभि, परिवत्सरादि पाँच अरे और षड्-ऋतुरूप छः नेमिवाले अक्षयस्वरूप संवत्सरात्मक चक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयाश्च सप्तच्छन्दांसि तेषां नामानि मे शृणु।
गायत्री च बृहत्युष्णिग्जगती त्रिष्टुबेव च।
अनुष्टुप्पङ्‍‍क्तिरित्युक्ता छन्दांसि हरयो रवेः॥ ५॥

मूलम्

हयाश्च सप्तच्छन्दांसि तेषां नामानि मे शृणु।
गायत्री च बृहत्युष्णिग्जगती त्रिष्टुबेव च।
अनुष्टुप्पङ्‍‍क्तिरित्युक्ता छन्दांसि हरयो रवेः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात छन्द ही उसके घोड़े हैं, उनके नाम सुनो—गायत्री, बृहती, उष्णिक्, जगती, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप् और पंक्ति—ये छन्द ही सूर्यके सात घोड़े कहे गये हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वितीयोऽक्षो विवस्वतः।
पञ्चान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य महामते॥ ६॥

मूलम्

चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वितीयोऽक्षो विवस्वतः।
पञ्चान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य महामते॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामते! भगवान‍् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षप्रमाणमुभयोः प्रमाणं तद्युगार्द्धयोः।
ह्रस्वोऽक्षस्तद्युगार्द्धेन ध्रुवाधारो रथस्य वै।
द्वितीयेऽक्षे तु तच्चक्रं संस्थितं मानसाचले॥ ७॥

मूलम्

अक्षप्रमाणमुभयोः प्रमाणं तद्युगार्द्धयोः।
ह्रस्वोऽक्षस्तद्युगार्द्धेन ध्रुवाधारो रथस्य वै।
द्वितीयेऽक्षे तु तच्चक्रं संस्थितं मानसाचले॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों धुरोंके परिमाणके तुल्य ही उसके युगार्द्धों (जूओं)-का परिमाण है, इनमेंसे छोटा धुरा उस रथके एक युगार्द्ध (जूए)-के सहित ध्रुवके आधारपर स्थित है और दूसरे धुरेका चक्र मानसोत्तरपर्वतपर स्थित है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वरुणस्य च।
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥ ८॥

मूलम्

मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वरुणस्य च।
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस मानसोत्तरपर्वतके पूर्वमें इन्द्रकी, दक्षिणमें यमकी, पश्चिममें वरुणकी और उत्तरमें चन्द्रमाकी पुरी है; उन पुरियोंके नाम सुनो॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा।
पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥ ९॥

मूलम्

वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा।
पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रकी पुरी वस्वौकसारा है, यमकी संयमनी है, वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काष्ठां गतो दक्षिणतः क्षिप्तेषुरिव सर्पति।
मैत्रेय भगवान‍्भानुर्ज्योतिषां चक्रसंयुतः॥ १०॥

मूलम्

काष्ठां गतो दक्षिणतः क्षिप्तेषुरिव सर्पति।
मैत्रेय भगवान‍्भानुर्ज्योतिषां चक्रसंयुतः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! ज्योतिश्चक्रके सहित भगवान‍् भानु दक्षिण-दिशामें प्रवेशकर छोड़े हुए बाणके समान तीव्र वेगसे चलते हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रव्यवस्थानकारणं भगवान‍् रविः।
देवयानः परः पन्था योगिनां क्लेशसङ्क्षये॥ ११॥

मूलम्

अहोरात्रव्यवस्थानकारणं भगवान‍् रविः।
देवयानः परः पन्था योगिनां क्लेशसङ्क्षये॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् सूर्यदेव दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके कारण हैं और रागादि क्लेशोंके क्षीण हो जानेपर वे ही क्रममुक्तिभागी योगिजनोंके देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग हैं॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवसस्य रविर्मध्ये सर्वकालं व्यवस्थितः।
सर्वद्वीपेषु मैत्रेय निशार्द्धस्य च सम्मुखः॥ १२॥

मूलम्

दिवसस्य रविर्मध्ये सर्वकालं व्यवस्थितः।
सर्वद्वीपेषु मैत्रेय निशार्द्धस्य च सम्मुखः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! सभी द्वीपोंमें सर्वदा मध्याह्न तथा मध्यरात्रिके समय सूर्यदेव मध्य आकाशमें सामनेकी ओर रहते हैं*॥ १२॥

पादटिप्पनी
  • अर्थात् जिस द्वीप या खण्डमें सूर्यदेव मध्याह्नके समय सम्मुख पड़ते हैं उसकी समान रेखापर दूसरी ओर स्थित द्वीपान्तरमें वे उसी प्रकार मध्यरात्रिके समय रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः

उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे।
विदिशासु त्वशेषासु तथा ब्रह्मन् दिशासु च॥ १३॥
यैर्यत्र दृश्यते भास्वान‍्स तेषामुदयः स्मृतः।
तिरोभावं च यत्रैति तत्रैवास्तमनं रवेः॥ १४॥

मूलम्

उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे।
विदिशासु त्वशेषासु तथा ब्रह्मन् दिशासु च॥ १३॥
यैर्यत्र दृश्यते भास्वान‍्स तेषामुदयः स्मृतः।
तिरोभावं च यत्रैति तत्रैवास्तमनं रवेः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक-दूसरेके सम्मुख ही होते हैं। हे ब्रह्मन्! समस्त दिशा और विदिशाओंमें जहाँके लोग [रात्रिका अन्त होनेपर] सूर्यको जिस स्थानपर देखते हैं उनके लिये वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिनके अन्तमें सूर्यका तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता है॥ १३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवास्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः।
उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः॥ १५॥

मूलम्

नैवास्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः।
उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वदा एक रूपसे स्थित सूर्यदेवका वास्तवमें न उदय होता है और न अस्त; बस, उनका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम्।
विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन‍्कोणान‍्द्वेपुरे तथा॥ १६॥

मूलम्

शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम्।
विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन‍्कोणान‍्द्वेपुरे तथा॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मध्याह्नकालमें इन्द्रादिमेंसे किसीकी पुरीपर प्रकाशित होते हुए सूर्यदेव [पार्श्ववर्ती दो पुरियोंके सहित] तीन पुरियों और दो कोणों (विदिशाओं)-को प्रकाशित करते हैं, इसी प्रकार अग्नि आदि कोणोंमेंसे किसी एक कोणमें प्रकाशित होते हुए वे [पार्श्ववर्ती दो कोणोंके सहित] तीन कोण और दो पुरियोंको प्रकाशित करते हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः।
ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥ १७॥

मूलम्

उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः।
ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यदेव उदय होनेके अनन्तर मध्याह्नपर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणोंसे तपते हैं और फिर क्षीण होती हुई किरणोंसे अस्त हो जाते हैं*॥ १७॥

पादटिप्पनी
  • किरणोंकी वृद्धि, ह्रास एवं तीव्रता-मन्दता आदि सूर्यके समीप और दूर होनेसे मनुष्यके अनुभवके अनुसार कही गयी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

उदयास्तमनाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे दिशौ।
यावत्पुरस्तात्तपति तावत्पृष्ठे च पार्श्वयोः॥ १८॥

मूलम्

उदयास्तमनाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे दिशौ।
यावत्पुरस्तात्तपति तावत्पृष्ठे च पार्श्वयोः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके उदय और अस्तसे ही पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंकी व्यवस्था हुई है। वास्तवमें तो, वे जिस प्रकार पूर्वमें प्रकाश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम तथा पार्श्ववर्तिनी [उत्तर और दक्षिण] दिशाओंमें भी करते हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतेऽमरगिरेर्मेरोरुपरि ब्रह्मणः सभाम्।
ये ये मरीचयोऽर्कस्य प्रयान्ति ब्रह्मणः सभाम्।
ते ते निरस्तास्तद्भासा प्रतीपमुपयान्ति वै॥ १९॥

मूलम्

ऋतेऽमरगिरेर्मेरोरुपरि ब्रह्मणः सभाम्।
ये ये मरीचयोऽर्कस्य प्रयान्ति ब्रह्मणः सभाम्।
ते ते निरस्तास्तद्भासा प्रतीपमुपयान्ति वै॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यदेव देवपर्वत सुमेरुके ऊपर स्थित ब्रह्माजीकी सभाके अतिरिक्त और सभी स्थानोंको प्रकाशित करते हैं; उनकी जो किरणें ब्रह्माजीकी सभामें जाती हैं वे उसके तेजसे निरस्त होकर उलटी लौट आती हैं॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद्दिश्युत्तरस्यां वै दिवारात्रिः सदैव हि।
सर्वेषां द्वीपवर्षाणां मेरुरुत्तरतो यतः॥ २०॥

मूलम्

तस्माद्दिश्युत्तरस्यां वै दिवारात्रिः सदैव हि।
सर्वेषां द्वीपवर्षाणां मेरुरुत्तरतो यतः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमेरुपर्वत समस्त द्वीप और वर्षोंके उत्तरमें है इसलिये उत्तरदिशामें (मेरुपर्वतपर) सदा [एक ओर ] दिन और [ दूसरी ओर ] रात रहते हैं॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभा विवस्वतो रात्रावस्तं गच्छति भास्करे।
विशत्यग्निमतो रात्रौ वह्निर्दूरात्प्रकाशते॥ २१॥

मूलम्

प्रभा विवस्वतो रात्रावस्तं गच्छति भास्करे।
विशत्यग्निमतो रात्रौ वह्निर्दूरात्प्रकाशते॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिके समय सूर्यके अस्त हो जानेपर उसका तेज अग्निमें प्रविष्ट हो जाता है; इसलिये उस समय अग्नि दूरहीसे प्रकाशित होने लगता है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वह्नेः प्रभा तथा भानुर्दिनेष्वाविशति द्विज।
अतीव वह्निसंयोगादतः सूर्यः प्रकाशते॥ २२॥

मूलम्

वह्नेः प्रभा तथा भानुर्दिनेष्वाविशति द्विज।
अतीव वह्निसंयोगादतः सूर्यः प्रकाशते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार, हे द्विज! दिनके समय अग्निका तेज सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है; अतः अग्निके संयोगसे ही सूर्य अत्यन्त प्रखरतासे प्रकाशित होता है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजसी भास्कराग्नेये प्रकाशोष्णस्वरूपिणी।
परस्परानुप्रवेशादाप्यायेते दिवानिशम्॥ २३॥

मूलम्

तेजसी भास्कराग्नेये प्रकाशोष्णस्वरूपिणी।
परस्परानुप्रवेशादाप्यायेते दिवानिशम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सूर्य और अग्निके प्रकाश तथा उष्णतामय तेज परस्पर मिलकर दिन-रातमें वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणोत्तरभूम्यर्द्धे समुत्तिष्ठति भास्करे।
अहोरात्रं विशत्यम्भस्तमःप्राकाश्यशीलवत्॥ २४॥

मूलम्

दक्षिणोत्तरभूम्यर्द्धे समुत्तिष्ठति भास्करे।
अहोरात्रं विशत्यम्भस्तमःप्राकाश्यशीलवत्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरुके दक्षिणी और उत्तरी भूम्यर्द्धमें सूर्यके प्रकाशित होते समय अन्धकारमयी रात्रि और प्रकाशमय दिन क्रमशः जलमें प्रवेश कर जाते हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आताम्रा हि भवन्त्यापो दिवा नक्तप्रवेशनात्।
दिनं विशति चैवाम्भो भास्करेऽस्तमुपेयुषि।
तस्माच्छुक्लाभवन्त्यापोनक्तमह्नःप्रवेशनात्॥ २५॥

मूलम्

आताम्रा हि भवन्त्यापो दिवा नक्तप्रवेशनात्।
दिनं विशति चैवाम्भो भास्करेऽस्तमुपेयुषि।
तस्माच्छुक्लाभवन्त्यापोनक्तमह्नःप्रवेशनात्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिनके समय रात्रिके प्रवेश करनेसे ही जल कुछ ताम्रवर्ण दिखायी देता है, किन्तु सूर्य-अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो जाता है; इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय वह शुक्लवर्ण हो जाता है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः।
त्रिंशद्भागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्तिकी गतिः॥ २६॥

मूलम्

एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः।
त्रिंशद्भागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्तिकी गतिः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें पहुँचकर पृथ्वीका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी वह गति एक मुहूर्तकी होती है। [ अर्थात् उतने भागके अतिक्रमण करनेमें उसे जितना समय लगता है वही मुहूर्त कहलाता है ]॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलालचक्रपर्यन्तो भ्रमन्नेष दिवाकरः।
करोत्यहस्तथा रात्रिं विमुञ्चन्मेदिनीं द्विज॥ २७॥

मूलम्

कुलालचक्रपर्यन्तो भ्रमन्नेष दिवाकरः।
करोत्यहस्तथा रात्रिं विमुञ्चन्मेदिनीं द्विज॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! कुलाल-चक्र (कुम्हारके चाक) के सिरेपर घूमते हुए जीवके समान भ्रमण करता हुआ यह सूर्य पृथिवीके तीसों भागोंका अतिक्रमण करनेपर एक दिन-रात्रि करता है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः।
ततः कुम्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं द्विज॥ २८॥

मूलम्

अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः।
ततः कुम्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं द्विज॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उत्तरायणके आरम्भमें सूर्य सबसे पहले मकरराशिमें जाता है, उसके पश्चात् वह कुम्भ और मीन राशियोंमें एक राशिसे दूसरी राशिमें जाता है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम्।
प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम्॥ २९॥

मूलम्

त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम्।
प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन तीनों राशियोंको भोग चुकनेपर सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ वैषुवती गतिका अवलम्बन करता है, [अर्थात् वह भूमध्य-रेखाके बीचमें ही चलता है]॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम्॥ ३०॥
ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः।
राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम्॥ ३१॥

मूलम्

ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम्॥ ३०॥
ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः।
राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके अनन्तर नित्यप्रति रात्रि क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने लगता है। फिर [ मेष तथा वृष राशिका अतिक्रमण कर ] मिथुनराशिसे निकलकर उत्तरायणकी अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कर्कराशिमें पहुँचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता है॥ ३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलालचक्रपर्यन्तो यथा शीघ्रं प्रवर्त्तते।
दक्षिणप्रक्रमे सूर्यस्तथा शीघ्रं प्रवर्तते॥ ३२॥

मूलम्

कुलालचक्रपर्यन्तो यथा शीघ्रं प्रवर्त्तते।
दक्षिणप्रक्रमे सूर्यस्तथा शीघ्रं प्रवर्तते॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार कुलाल-चक्रके सिरेपर स्थित जीव अति शीघ्रतासे घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायनको पार करनेमें अति शीघ्रतासे चलता है॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवेगितया कालं वायुवेगबलाच्चरन्।
तस्मात्प्रकृष्टां भूमिं तु कालेनाल्पेन गच्छति॥ ३३॥

मूलम्

अतिवेगितया कालं वायुवेगबलाच्चरन्।
तस्मात्प्रकृष्टां भूमिं तु कालेनाल्पेन गच्छति॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः वह अति शीघ्रतापूर्वक वायुवेगसे चलते हुए अपने उत्कृष्ट मार्गको थोड़े समयमें ही पार कर लेता है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यो द्वादशभिः शैघ्र्यान्मुहूर्तैर्दक्षिणायने।
त्रयोदशार्द्धमृक्षाणामह्ना तु चरति द्विज।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन्॥ ३४॥

मूलम्

सूर्यो द्वादशभिः शैघ्र्यान्मुहूर्तैर्दक्षिणायने।
त्रयोदशार्द्धमृक्षाणामह्ना तु चरति द्विज।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! दक्षिणायनमें दिनके समय शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको सूर्य बारह मुहूर्तोंमें पार कर लेता है, किन्तु रात्रिके समय (मन्दगामी होनेसे) उतने ही नक्षत्रोंको अठारह मुहूर्तोंमें पार करता है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसर्पति।
तथोदगयने सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः॥ ३५॥

मूलम्

कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसर्पति।
तथोदगयने सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलाल-चक्रके मध्यमें स्थित जीव जिस प्रकार धीरे-धीरे चलता है उसी प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलता है॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद्दीर्घेण कालेन भूमिमल्पां तु गच्छति।
अष्टादशमुहूर्तं यदुत्तरायणपश्चिमम्॥ ३६॥
अहर्भवति तच्चापि चरते मन्दविक्रमः॥ ३७॥
त्रयोदशार्द्धमह्ना तु ऋक्षाणां चरते रविः।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन्॥ ३८॥

मूलम्

तस्माद्दीर्घेण कालेन भूमिमल्पां तु गच्छति।
अष्टादशमुहूर्तं यदुत्तरायणपश्चिमम्॥ ३६॥
अहर्भवति तच्चापि चरते मन्दविक्रमः॥ ३७॥
त्रयोदशार्द्धमह्ना तु ऋक्षाणां चरते रविः।
मुहूर्तैस्तावदृक्षाणि रात्रौ द्वादशभिश्चरन्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये उस समय वह थोड़ी-सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता है,अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठारह मुहूर्तका होता है, उस दिन भी सूर्य अति मन्दगतिसे चलता है और ज्योतिश्चक्रार्धके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको एक दिनमें पार करता है किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही (साढ़े तेरह) नक्षत्रोंको बारह मुहूर्तोंमें ही पार कर लेता है॥ ३६—३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा।
मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो ध्रुवो भ्रमति वै तथा॥ ३९॥

मूलम्

अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा।
मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो ध्रुवो भ्रमति वै तथा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द-मन्द घूमनेसे वहाँका मृत्-पिण्ड भी मन्दगतिसे घूमता है उसी प्रकार ज्योतिश्चक्रके मध्यमें स्थित ध्रुव अति मन्द गतिसे घूमता है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलालचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैव वर्तते।
ध्रुवस्तथा हि मैत्रेय तत्रैव परिवर्तते॥ ४०॥

मूलम्

कुलालचक्रनाभिस्तु यथा तत्रैव वर्तते।
ध्रुवस्तथा हि मैत्रेय तत्रैव परिवर्तते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! जिस प्रकार कुलाल-चक्रकी नाभि अपने स्थानपर ही घूमती रहती है, उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर ही घूमता रहता है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु।
दिवा नक्तं च सूर्यस्य मन्दा शीघ्रा च वैगतिः॥ ४१॥

मूलम्

उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु।
दिवा नक्तं च सूर्यस्य मन्दा शीघ्रा च वैगतिः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाओंके मध्यमें मण्डलाकार घूमते रहनेसे सूर्यकी गति दिन अथवा रात्रिके समय मन्द अथवा शीघ्र हो जाती है॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दाह्नि यस्मिन्नयने शीघ्रा नक्तं तदा गतिः।
शीघ्रा निशि यदा चास्य तदा मन्दा दिवा गतिः॥ ४२॥

मूलम्

मन्दाह्नि यस्मिन्नयने शीघ्रा नक्तं तदा गतिः।
शीघ्रा निशि यदा चास्य तदा मन्दा दिवा गतिः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस अयनमें सूर्यकी गति दिनके समय मन्द होती है उसमें रात्रिके समय शीघ्र होती है तथा जिस समय रात्रि-कालमें शीघ्र होती है उस समय दिनमें मन्द हो जाती है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकप्रमाणमेवैष मार्गं याति दिवाकरः।
अहोरात्रेण यो भुङ्‍क्ते समस्ता राशयो द्विज॥ ४३॥

मूलम्

एकप्रमाणमेवैष मार्गं याति दिवाकरः।
अहोरात्रेण यो भुङ्‍क्ते समस्ता राशयो द्विज॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! सूर्यको सदा एक बराबर मार्ग ही पार करना पड़ता है; एक दिन-रात्रिमें यह समस्त राशियोंका भोग कर लेता है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षडेव राशीन‍्यो भुङ्‍क्ते रात्रावन्यांश्च षड‍‍्दिवा॥ ४४॥
राशिप्रमाणजनिता दीर्घह्रस्वात्मता दिने।
तथा निशायां राशीनां प्रमाणैर्लघुदीर्घता॥ ४५॥

मूलम्

षडेव राशीन‍्यो भुङ्‍क्ते रात्रावन्यांश्च षड‍‍्दिवा॥ ४४॥
राशिप्रमाणजनिता दीर्घह्रस्वात्मता दिने।
तथा निशायां राशीनां प्रमाणैर्लघुदीर्घता॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य छः राशियोंको रात्रिके समय भोगता है और छःको दिनके समय। राशियोंके परिमाणानुसार ही दिनका बढ़ना-घटना होता है तथा रात्रिकी लघुता-दीर्घता भी राशियोंके परिमाणसे ही होती है॥ ४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनादेर्दीर्घह्रस्वत्वं तद्भोगेनैव जायते।
उत्तरे प्रक्रमे शीघ्रा निशि मन्दा गतिर्दिवा॥ ४६॥
दक्षिणे त्वयने चैव विपरीता विवस्वतः॥ ४७॥

मूलम्

दिनादेर्दीर्घह्रस्वत्वं तद्भोगेनैव जायते।
उत्तरे प्रक्रमे शीघ्रा निशि मन्दा गतिर्दिवा॥ ४६॥
दक्षिणे त्वयने चैव विपरीता विवस्वतः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राशियोंके भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकी लघुता अथवा दीर्घता होती है। उत्तरायणमें सूर्यकी गति रात्रिकालमें शीघ्र होती है तथा दिनमें मन्द। दक्षिणायनमें उसकी गति इसके विपरीत होती है॥ ४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उषा रात्रिः समाख्याता व्युष्टिश्चाप्युच्यते दिनम्।
प्रोच्यते च तथा सन्ध्या उषाव्युष्ट्योर्यदन्तरम्॥ ४८॥

मूलम्

उषा रात्रिः समाख्याता व्युष्टिश्चाप्युच्यते दिनम्।
प्रोच्यते च तथा सन्ध्या उषाव्युष्ट्योर्यदन्तरम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रि उषा कहलाती है तथा दिन व्युष्टि (प्रभात)कहा जाता है; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समयको सन्ध्या कहते हैं *॥ ४८॥

पादटिप्पनी
  • ‘व्युष्टि’ और ‘उषा’ दिन और रात्रिके वैदिक नाम हैं; यथा—‘रात्रिर्वा उषा अहर्व्युष्टिः।’
विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ध्याकाले च सम्प्राप्ते रौद्रे परमदारुणे।
मन्देहा राक्षसा घोराः सूर्यमिच्छन्ति खादितुम्॥ ४९॥

मूलम्

सन्ध्याकाले च सम्प्राप्ते रौद्रे परमदारुणे।
मन्देहा राक्षसा घोराः सूर्यमिच्छन्ति खादितुम्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अति दारुण और भयानक सन्ध्याकालके उपस्थित होनेपर मन्देहा नामक भयंकर राक्षसगण सूर्यको खाना चाहते हैं॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिकृतः शापस्तेषां मैत्रेय रक्षसाम्।
अक्षयत्वं शरीराणां मरणं च दिने दिने॥ ५०॥

मूलम्

प्रजापतिकृतः शापस्तेषां मैत्रेय रक्षसाम्।
अक्षयत्वं शरीराणां मरणं च दिने दिने॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! उन राक्षसोंको प्रजापतिका यह शाप है कि उनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण नित्यप्रति हो॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सूर्यस्य तैर्युद्धं भवत्यत्यन्तदारुणम्।
ततो द्विजोत्तमास्तोयं संक्षिपन्ति महामुने॥ ५१॥
ॐकारब्रह्मसंयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्।
तेन दह्यन्ति ते पापा वज्रीभूतेन वारिणा॥ ५२॥

मूलम्

ततः सूर्यस्य तैर्युद्धं भवत्यत्यन्तदारुणम्।
ततो द्विजोत्तमास्तोयं संक्षिपन्ति महामुने॥ ५१॥
ॐकारब्रह्मसंयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्।
तेन दह्यन्ति ते पापा वज्रीभूतेन वारिणा॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सन्ध्याकालमें उनका सूर्यसे अति भीषण युद्ध होता है; हे महामुने! उस समय द्विजोत्तमगण जो ब्रह्मस्वरूप ॐकार तथा गायत्रीसे अभिमन्त्रित जल छोड़ते हैं, उस वज्रस्वरूप जलसे वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते हैं॥ ५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्रे हूयते या समन्त्रा प्रथमाहुतिः।
सूर्यो ज्योतिः सहस्रांशुस्तया दीप्यति भास्करः॥ ५३॥

मूलम्

अग्निहोत्रे हूयते या समन्त्रा प्रथमाहुतिः।
सूर्यो ज्योतिः सहस्रांशुस्तया दीप्यति भास्करः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निहोत्रमें जो ‘सूर्यो ज्योतिः’ इत्यादि मन्त्रसे प्रथम आहुति दी जाती है उससे सहस्रांशु दिननाथ देदीप्यमान हो जाते हैं॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओङ्कारो भगवान‍‍्वि‍ष्णुस्त्रिधामा वचसां पतिः।
तदुच्चारणतस्ते तु विनाशं यान्ति राक्षसाः॥ ५४॥

मूलम्

ओङ्कारो भगवान‍‍्वि‍ष्णुस्त्रिधामा वचसां पतिः।
तदुच्चारणतस्ते तु विनाशं यान्ति राक्षसाः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐकार विश्व, तैजस् और प्राज्ञरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान‍् विष्णु है तथा सम्पूर्ण वाणियों (वेदों)-का अधिपति है, उसके उच्चारणमात्रसे ही वे राक्षसगण नष्ट हो जाते हैं॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैष्णवोंऽशः परः सूर्यो योऽन्तर्ज्योतिरसम्प्लवम्।
अभिधायक ॐकारस्तस्य तत्प्रेरकः परः॥ ५५॥

मूलम्

वैष्णवोंऽशः परः सूर्यो योऽन्तर्ज्योतिरसम्प्लवम्।
अभिधायक ॐकारस्तस्य तत्प्रेरकः परः॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य विष्णुभगवान‍्का अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तर्ज्योतिःस्वरूप है। ॐकार उसका वाचक है और वह उसे उन राक्षसोंके वधमें अत्यन्त प्रेरित करनेवाला है॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन सम्प्रेरितं ज्योतिरोङ्कारेणाथ दीप्तिमत्।
दहत्यशेषरक्षांसि मन्देहाख्यान्यघानि वै॥ ५६॥

मूलम्

तेन सम्प्रेरितं ज्योतिरोङ्कारेणाथ दीप्तिमत्।
दहत्यशेषरक्षांसि मन्देहाख्यान्यघानि वै॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस ॐकारकी प्रेरणासे अति प्रदीप्त होकर वह ज्योति मन्देहा नामक सम्पूर्ण पापी राक्षसोंको दग्ध कर देती है॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्नोल्लङ्घनं कार्यं सन्ध्योपासनकर्मणः।
स हन्ति सूर्यं सन्ध्याया नोपास्तिं कुरुते तु यः॥ ५७॥

मूलम्

तस्मान्नोल्लङ्घनं कार्यं सन्ध्योपासनकर्मणः।
स हन्ति सूर्यं सन्ध्याया नोपास्तिं कुरुते तु यः॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये सन्ध्योपासन-कर्मका उल्लंघन कभी न करना चाहिये। जो पुरुष सन्ध्योपासन नहीं करता वह भगवान‍् सूर्यका घात करता है॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रयाति भगवान‍्ब्राह्मणैरभिरक्षितः।
बालखिल्यादिभिश्चैव जगतः पालनोद्यतः॥ ५८॥

मूलम्

ततः प्रयाति भगवान‍्ब्राह्मणैरभिरक्षितः।
बालखिल्यादिभिश्चैव जगतः पालनोद्यतः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर [उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात् ] भगवान‍् सूर्य संसारके पालनमें प्रवृत्त हो बालखिल्यादि ब्राह्मणोंसे सुरक्षित होकर गमन करते हैं॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव
त्रिंशच्च काष्ठा गणयेत्कलां च।
त्रिंशत्कलश्चैव भवेन्मुहूर्त-
स्तैस्त्रिंशता रात्र्यहनी समेते॥ ५९॥

मूलम्

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव
त्रिंशच्च काष्ठा गणयेत्कलां च।
त्रिंशत्कलश्चैव भवेन्मुहूर्त-
स्तैस्त्रिंशता रात्र्यहनी समेते॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

पन्द्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला गिनी जाती है। तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तोंके सम्पूर्ण रात्रि-दिन होते हैं॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रासवृद्धी त्वहर्भागैर्दिवसानां यथाक्रमम्।
सन्ध्या मुहूर्तमात्रा वै ह्रासवृद्ध्योः समा स्मृता॥ ६०॥

मूलम्

ह्रासवृद्धी त्वहर्भागैर्दिवसानां यथाक्रमम्।
सन्ध्या मुहूर्तमात्रा वै ह्रासवृद्ध्योः समा स्मृता॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिनोंका ह्रास अथवा वृद्धि क्रमशः प्रातःकाल, मध्याह्नकाल आदि दिवसांशोंके ह्रास-वृद्धिके कारण होते हैं; किन्तु दिनोंके घटते-बढ़ते रहनेपर भी सन्ध्या सर्वदा समान भावसे एक मुहूर्तकी ही होती है॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेखाप्रभृत्यथादित्ये त्रिमुहूर्तगते रवौ।
प्रातः स्मृतस्ततः कालो भागश्चाह्नः स पञ्चमः॥ ६१॥

मूलम्

रेखाप्रभृत्यथादित्ये त्रिमुहूर्तगते रवौ।
प्रातः स्मृतस्ततः कालो भागश्चाह्नः स पञ्चमः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदयसे लेकर सूर्यकी तीन मुहूर्तकी गतिके कालको ‘प्रातःकाल’ कहते हैं, यह सम्पूर्ण दिनका पाँचवाँ भाग होता है॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्प्रातस्तनात्कालात्त्रिमुहूर्तस्तु सङ्गवः।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु तस्मात्कालात्तु सङ्गवात्॥ ६२॥

मूलम्

तस्मात्प्रातस्तनात्कालात्त्रिमुहूर्तस्तु सङ्गवः।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु तस्मात्कालात्तु सङ्गवात्॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रातःकालके अनन्तर तीन मुहूर्तका समय ‘संगव’ कहलाता है तथा संगवकालके पश्चात् तीन मुहूर्तका ‘मध्याह्न’ होता है॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्माध्याह्निकात्कालादपराह्ण इति स्मृतः।
त्रय एव मुहूर्तास्तु कालभागः स्मृतो बुधैः॥ ६३॥

मूलम्

तस्मान्माध्याह्निकात्कालादपराह्ण इति स्मृतः।
त्रय एव मुहूर्तास्तु कालभागः स्मृतो बुधैः॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मध्याह्नकालसे पीछेका समय ‘अपराह्ण’ कहलाता है इस काल-भागको भी बुधजन तीन मुहूर्तका ही बताते हैं॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपराह्णे व्यतीते तु कालः सायाह्न एव च।
दशपञ्चमुहूर्ता वै मुहूर्तास्त्रय एव च॥ ६४॥

मूलम्

अपराह्णे व्यतीते तु कालः सायाह्न एव च।
दशपञ्चमुहूर्ता वै मुहूर्तास्त्रय एव च॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपराह्णके बीतनेपर ‘सायाह्न’ आता है। इस प्रकार [सम्पूर्ण दिनमें] पन्द्रह मुहूर्त और [प्रत्येक दिवसांशमें] तीन मुहूर्त होते हैं॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशपञ्चमुहूर्तं वै अहर्वैषुवतं स्मृतम्॥ ६५॥
वर्द्धते ह्रसते चैवाप्ययने दक्षिणोत्तरे।
अहस्तु ग्रसते रात्रिं रात्रिर्ग्रसति वासरम्॥ ६६॥

मूलम्

दशपञ्चमुहूर्तं वै अहर्वैषुवतं स्मृतम्॥ ६५॥
वर्द्धते ह्रसते चैवाप्ययने दक्षिणोत्तरे।
अहस्तु ग्रसते रात्रिं रात्रिर्ग्रसति वासरम्॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैषुवत दिवस पन्द्रह मुहूर्तका होता है, किन्तु उत्तरायण और दक्षिणायनमें क्रमशः उसके वृद्धि और ह्रास होने लगते हैं। इस प्रकार उत्तरायणमें दिन रात्रिका ग्रास करने लगता है और दक्षिणायनमें रात्रि दिनका ग्रास करती रहती है॥ ६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरद्वसन्तयोर्मध्ये विषुवं तु विभाव्यते।
तुलामेषगते भानौ समरात्रिदिनं तु तत्॥ ६७॥

मूलम्

शरद्वसन्तयोर्मध्ये विषुवं तु विभाव्यते।
तुलामेषगते भानौ समरात्रिदिनं तु तत्॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्यके तुला अथवा मेषराशिमें जानेपर ‘विषुव’ होता है। उस समय दिन और रात्रि समान होते हैं॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्कटावस्थिते भानौ दक्षिणायनमुच्यते।
उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरे॥ ६८॥

मूलम्

कर्कटावस्थिते भानौ दक्षिणायनमुच्यते।
उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरे॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके कर्कराशिमें उपस्थित होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है और उसके मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहलाता है॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिंशन्मुहूर्तं कथितमहोरात्रं तु यन्मया।
तानि पञ्चदश ब्रह्मन् पक्ष इत्यभिधीयते॥ ६९॥

मूलम्

त्रिंशन्मुहूर्तं कथितमहोरात्रं तु यन्मया।
तानि पञ्चदश ब्रह्मन् पक्ष इत्यभिधीयते॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ब्रह्मन्! मैंने जो तीस मुहूर्तके एक रात्रि-दिन कहे हैं, ऐसे पन्द्रह रात्रि-दिवसका एक ‘पक्ष’ कहा जाता है॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासः पक्षद्वयेनोक्तो द्वौ मासौ चार्कजावृतुः।
ऋतुत्रयं चाप्ययनं द्वेऽयने वर्षसंज्ञिते॥ ७०॥

मूलम्

मासः पक्षद्वयेनोक्तो द्वौ मासौ चार्कजावृतुः।
ऋतुत्रयं चाप्ययनं द्वेऽयने वर्षसंज्ञिते॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो पक्षका एक मास होता है, दो सौरमासकी एक ऋतु और तीन ऋतुका एक अयन होता है तथा दो अयन ही [मिलाकर] एक वर्ष कहे जाते हैं॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरादयः पञ्च चतुर्मासविकल्पिताः।
निश्चयः सर्वकालस्य युगमित्यभिधीयते॥ ७१॥

मूलम्

संवत्सरादयः पञ्च चतुर्मासविकल्पिताः।
निश्चयः सर्वकालस्य युगमित्यभिधीयते॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

[सौर, सावन, चान्द्र तथा नाक्षत्र—इन] चार प्रकारके मासोंके अनुसार विविधरूपसे कल्पित संवत्सरादि पाँच प्रकारके वर्ष ‘युग’ कहलाते हैं यह युग ही [मलमासादि] सब प्रकारके काल-निर्णयका कारण कहा जाता है॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरस्तु प्रथमो द्वितीयः परिवत्सरः।
इद्वत्सरस्तृतीयस्तु चतुर्थश्चानुवत्सरः।
वत्सरः पञ्चमश्चात्र कालोऽयं युगसंज्ञितः॥ ७२॥

मूलम्

संवत्सरस्तु प्रथमो द्वितीयः परिवत्सरः।
इद्वत्सरस्तृतीयस्तु चतुर्थश्चानुवत्सरः।
वत्सरः पञ्चमश्चात्र कालोऽयं युगसंज्ञितः॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें पहला संवत्सर, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ वत्सर है। यह काल ‘युग’ नामसे विख्यात है॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः श्वेतस्योत्तरः शैलः शृङ्गवानिति विश्रुतः।
त्रीणि तस्य तु शृङ्गाणि यैरयं शृङ्गवान‍्स्मृतः॥ ७३॥

मूलम्

यः श्वेतस्योत्तरः शैलः शृङ्गवानिति विश्रुतः।
त्रीणि तस्य तु शृङ्गाणि यैरयं शृङ्गवान‍्स्मृतः॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्वेतवर्षके उत्तरमें जो शृंगवान‍् नामसे विख्यातपर्वत है उसके तीन शृंग हैं, जिनके कारण यह शृंगवान‍् कहा जाता है॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणं चोत्तरं चैव मध्यं वैषुवतं तथा।
शरद्वसन्तयोर्मध्ये तद्भानुः प्रतिपद्यते।
मेषादौ च तुलादौ च मैत्रेय विषुवत्स्थितः॥ ७४॥
तदा तुल्यमहोरात्रं करोति तिमिरापहः।
दशपञ्चमुहूर्तं वै तदेतदुभयं स्मृतम्॥ ७५॥

मूलम्

दक्षिणं चोत्तरं चैव मध्यं वैषुवतं तथा।
शरद्वसन्तयोर्मध्ये तद्भानुः प्रतिपद्यते।
मेषादौ च तुलादौ च मैत्रेय विषुवत्स्थितः॥ ७४॥
तदा तुल्यमहोरात्रं करोति तिमिरापहः।
दशपञ्चमुहूर्तं वै तदेतदुभयं स्मृतम्॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे एक शृंग उत्तरमें, एक दक्षिणमें तथा एक मध्यमें है। मध्यशृंग ही ‘वैषुवत’ है। शरद् और वसन्त-ऋतुके मध्यमें सूर्य इस वैषुवतशृंगपर आते हैं; अतः हे मैत्रेय! मेष अथवा तुलाराशिके आरम्भमें तिमिरापहारी सूर्यदेव विषुवत् पर स्थित होकर दिन और रात्रिको समान परिमाण कर देते हैं। उस समय ये दोनों पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं॥ ७४-७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमे कृत्तिकाभागे यदा भास्वांस्तदा शशी।
विशाखानां चतुर्थेंऽशे मुने तिष्ठत्यसंशयम्॥ ७६॥
विशाखानां यदा सूर्यश्चरत्यंशं तृतीयकम्।
तदा चन्द्रं विजानीयात्कृत्तिकाशिरसि स्थितम्॥ ७७॥
तदैव विषुवाख्योऽयं कालः पुण्योऽभिधीयते।
तदा दानानि देयानि देवेभ्यः प्रयतात्मभिः॥ ७८॥
ब्राह्मणेभ्यः पितृभ्यश्च मुखमेतत्तु दानजम्।
दत्तदानस्तु विषुवे कृतकृत्योऽभिजायते॥ ७९॥

मूलम्

प्रथमे कृत्तिकाभागे यदा भास्वांस्तदा शशी।
विशाखानां चतुर्थेंऽशे मुने तिष्ठत्यसंशयम्॥ ७६॥
विशाखानां यदा सूर्यश्चरत्यंशं तृतीयकम्।
तदा चन्द्रं विजानीयात्कृत्तिकाशिरसि स्थितम्॥ ७७॥
तदैव विषुवाख्योऽयं कालः पुण्योऽभिधीयते।
तदा दानानि देयानि देवेभ्यः प्रयतात्मभिः॥ ७८॥
ब्राह्मणेभ्यः पितृभ्यश्च मुखमेतत्तु दानजम्।
दत्तदानस्तु विषुवे कृतकृत्योऽभिजायते॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुने! जिस समय सूर्य कृत्तिकानक्षत्रके प्रथम भाग अर्थात् मेषराशिके अन्तमें तथा चन्द्रमा निश्चय ही विशाखाके चतुर्थांश [अर्थात् वृश्चिकके आरम्भ ]-में हों; अथवा जिस समय सूर्य विशाखाके तृतीय भाग अर्थात् तुलाके अन्तिमांशका भोग करते हों और चन्द्रमा कृत्तिकाके प्रथम भाग अर्थात् मेषान्तमें स्थित जान पड़ें तभी यह ‘विषुव’ नामक अति पवित्र काल कहा जाता है; इस समय देवता, ब्राह्मण और पितृगणके उद्देश्यसे संयतचित्त होकर दानादि देने चाहिये। यह समय दानग्रहणके लिये मानो देवताओंके खुले हुए मुखके समान है। अतः ‘विषुव’ कालमें दान करनेवाला मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है॥ ७६—७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रार्द्धमासास्तु कलाः काष्ठाः क्षणास्तथा।
पौर्णमासी तथा ज्ञेया अमावास्या तथैव च।
सिनीवाली कुहूश्चैव राका चानुमतिस्तथा॥ ८०॥

मूलम्

अहोरात्रार्द्धमासास्तु कलाः काष्ठाः क्षणास्तथा।
पौर्णमासी तथा ज्ञेया अमावास्या तथैव च।
सिनीवाली कुहूश्चैव राका चानुमतिस्तथा॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यागादिके काल-निर्णयके लिये दिन, रात्रि, पक्ष, कला, काष्ठा और क्षण आदिका विषय भली प्रकार जानना चाहिये। राका और अनुमति दो प्रकारकी पूर्णमासी१ तथा सिनीवाली और कुहू दो प्रकारकी अमावास्या२ होती हैं॥ ८०॥

पादटिप्पनी

१-जिस पूर्णिमामें पूर्णचन्द्र विराजमान होता है वह ‘राका’ कहलाती है तथा जिसमें एक कलाहीन होती है वह ‘अनुमति’ कही जाती है।
२-दृष्टचन्द्रा अमावास्याका नाम ‘सिनीवाली’ है और नष्टचन्द्राका नाम ‘कुहू’ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपस्तपस्यौ मधुमाधवौ च
शुक्रः शुचिश्चायनमुत्तरं स्यात्।
नभोनभस्यौ च इषस्तथोर्ज-
स्सहःसहस्याविति दक्षिणं तत्॥ ८१॥

मूलम्

तपस्तपस्यौ मधुमाधवौ च
शुक्रः शुचिश्चायनमुत्तरं स्यात्।
नभोनभस्यौ च इषस्तथोर्ज-
स्सहःसहस्याविति दक्षिणं तत्॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख तथा ज्येष्ठ-आषाढ़—ये छः मास उत्तरायण होते हैं और श्रावण-भाद्र, आश्विन-कार्तिक तथा अगहन-पौष—ये छः दक्षिणायन कहलाते हैं॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकालोकश्च यश्शैलः प्रागुक्तो भवतो मया।
लोकपालास्तु चत्वारस्तत्र तिष्ठन्ति सुव्रताः॥ ८२॥

मूलम्

लोकालोकश्च यश्शैलः प्रागुक्तो भवतो मया।
लोकपालास्तु चत्वारस्तत्र तिष्ठन्ति सुव्रताः॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पहले तुमसे जिस लोकालोकपर्वतका वर्णन किया है, उसीपर चार व्रतशील लोकपाल निवास करते हैं॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुधामा शङ्खपाच्चैव कर्दमस्यात्मजो द्विज।
हिरण्यरोमा चैवान‍्यश्चतुर्थः केतुमानपि॥ ८३॥
निर्द्वन्द्वा निरभिमाना निस्तन्द्रा निष्परिग्रहाः।
लोकपालाः स्थिता ह्येते लोकालोके चतुर्दिशम्॥ ८४॥

मूलम्

सुधामा शङ्खपाच्चैव कर्दमस्यात्मजो द्विज।
हिरण्यरोमा चैवान‍्यश्चतुर्थः केतुमानपि॥ ८३॥
निर्द्वन्द्वा निरभिमाना निस्तन्द्रा निष्परिग्रहाः।
लोकपालाः स्थिता ह्येते लोकालोके चतुर्दिशम्॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! सुधामा, कर्दमके पुत्र शंखपाद और हिरण्यरोमा तथा केतुमान्—ये चारों निर्द्वन्द्व, निरभिमान, निरालस्य और निष्परिग्रह लोकपालगण लोकालोक-पर्वतकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं॥ ८३-८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम्।
पितृयानः स वै पन्था वैश्वानरपथाद‍्बहिः॥ ८५॥

मूलम्

उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम्।
पितृयानः स वै पन्था वैश्वानरपथाद‍्बहिः॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अगस्त्यके उत्तर तथा अजवीथिके दक्षिणमें वैश्वानरमार्गसे भिन्न [ मृगवीथि नामक ] मार्ग है वही पितृयानपथ है॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासते महात्मान ऋषयो येऽग्निहोत्रिणः।
भूतारम्भकृतं ब्रह्म शंसन्तो ऋत्विगुद्यताः।
प्रारभन्ते तु ये लोकास्तेषां पन्थाः स दक्षिणः॥ ८६॥

मूलम्

तत्रासते महात्मान ऋषयो येऽग्निहोत्रिणः।
भूतारम्भकृतं ब्रह्म शंसन्तो ऋत्विगुद्यताः।
प्रारभन्ते तु ये लोकास्तेषां पन्थाः स दक्षिणः॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पितृयानमार्गमें महात्मा-मुनिजन रहते हैं। जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणियोंकी उत्पत्तिके आरम्भक ब्रह्म (वेद)-की स्तुति करते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये उद्यत हो कर्मका आरम्भ करते हैं वह (पितृयान) उनका दक्षिणमार्ग है॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलितं ते पुनर्ब्रह्म स्थापयन्ति युगे युगे।
सन्तत्या तपसा चैव मर्यादाभिः श्रुतेन च॥ ८७॥

मूलम्

चलितं ते पुनर्ब्रह्म स्थापयन्ति युगे युगे।
सन्तत्या तपसा चैव मर्यादाभिः श्रुतेन च॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे युग-युगान्तरमें विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी सन्तान, तपस्या, वर्णाश्रम-मर्यादा और विविध शास्त्रोंके द्वारा पुनः स्थापना करते हैं॥ ८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जायमानास्तु पूर्वे च पश्चिमानां गृहेषु वै।
पश्चिमाश्चैव पूर्वेषां जायन्ते निधनेष्विह॥ ८८॥

मूलम्

जायमानास्तु पूर्वे च पश्चिमानां गृहेषु वै।
पश्चिमाश्चैव पूर्वेषां जायन्ते निधनेष्विह॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वतन धर्मप्रवर्तक ही अपनी उत्तरकालीन सन्तानके यहाँ उत्पन्न होते हैं और फिर उत्तरकालीन धर्म-प्रचारकगण अपने यहाँ सन्तानरूपसे उत्पन्न हुए अपने पितृगणके कुलोंमें जन्म लेते हैं॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमावर्तमानास्ते तिष्ठन्ति नियतव्रताः।
सवितुर्दक्षिणं मार्गं श्रिता ह्याचन्द्रतारकम्॥ ८९॥

मूलम्

एवमावर्तमानास्ते तिष्ठन्ति नियतव्रताः।
सवितुर्दक्षिणं मार्गं श्रिता ह्याचन्द्रतारकम्॥ ८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार, वे व्रतशील महर्षिगण चन्द्रमा और तारागणकी स्थितिपर्यन्त सूर्यके दक्षिणमार्गमें पुनः-पुनः आते-जाते रहते हैं॥ ८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम्।
उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः॥ ९०॥

मूलम्

नागवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम्।
उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागवीथिके उत्तर और सप्तर्षियोंके दक्षिणमें जो सूर्यका उत्तरीय मार्ग है उसे देवयानमार्ग कहते हैं॥ ९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ते वशिनः सिद्धा विमला ब्रह्मचारिणः।
सन्ततिं ते जुगुप्सन्ति तस्मान्मृत्युर्जितश्च तैः॥ ९१॥

मूलम्

तत्र ते वशिनः सिद्धा विमला ब्रह्मचारिणः।
सन्ततिं ते जुगुप्सन्ति तस्मान्मृत्युर्जितश्च तैः॥ ९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें जो प्रसिद्ध निर्मलस्वभाव और जितेन्द्रिय ब्रह्मचारिगण निवास करते हैं वे सन्तानकी इच्छा नहीं करते, अतः उन्होंने मृत्युको जीत लिया है॥ ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्।
उदक्पन्थानमर्यम्णः स्थितान्याभूतसम्प्लवम्॥ ९२॥

मूलम्

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्।
उदक्पन्थानमर्यम्णः स्थितान्याभूतसम्प्लवम्॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके उत्तरमार्गमें अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण प्रलयकालपर्यन्त निवास करते हैं॥ ९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽसम्प्रयोगाल्लोभस्य मैथुनस्य च वर्जनात्।
इच्छाद्वेषाप्रवृत्त्या च भूतारम्भविवर्जनात्॥ ९३॥
पुनश्च कामासंयोगाच्छब्दादेर्दोषदर्शनात्।
इत्येभिः कारणैः शुद्धास्तेऽमृतत्वं हि भेजिरे॥ ९४॥

मूलम्

तेऽसम्प्रयोगाल्लोभस्य मैथुनस्य च वर्जनात्।
इच्छाद्वेषाप्रवृत्त्या च भूतारम्भविवर्जनात्॥ ९३॥
पुनश्च कामासंयोगाच्छब्दादेर्दोषदर्शनात्।
इत्येभिः कारणैः शुद्धास्तेऽमृतत्वं हि भेजिरे॥ ९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने लोभके असंयोग, मैथुनके त्याग, इच्छा और द्वेषकी अप्रवृत्ति, कर्मानुष्ठानके त्याग, काम-वासनाके असंयोग और शब्दादि विषयोंके दोषदर्शन इत्यादि कारणोंसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्त कर ली है॥ ९३-९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आभूतसम्प्लवं स्थानममृतत्वं विभाव्यते।
त्रैलोक्यस्थितिकालोऽयमपुनर्मार उच्यते॥ ९५॥

मूलम्

आभूतसम्प्लवं स्थानममृतत्वं विभाव्यते।
त्रैलोक्यस्थितिकालोऽयमपुनर्मार उच्यते॥ ९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतोंके प्रलयपर्यन्त स्थिर रहनेको ही अमरता कहते हैं। त्रिलोकीकी स्थितितकके इस कालको ही अपुनर्मार (पुनर्मृत्युरहित) कहा जाता है॥ ९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महत्याश्वमेधाभ्यां पापपुण्यकृतो विधिः।
आभूतसम्प्लवान‍्तन्तु फलमुक्तं तयोर्द्विज॥ ९६॥

मूलम्

ब्रह्महत्याश्वमेधाभ्यां पापपुण्यकृतो विधिः।
आभूतसम्प्लवान‍्तन्तु फलमुक्तं तयोर्द्विज॥ ९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! ब्रह्महत्या और अश्वमेधयज्ञसे जो पाप और पुण्य होते हैं उनका फल प्रलयपर्यन्त कहा गया है॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्मात्रे प्रदेशे तु मैत्रेयावस्थितो ध्रुवः।
क्षयमायाति तावत्तु भूमेराभूतसम्प्लवात्॥ ९७॥

मूलम्

यावन्मात्रे प्रदेशे तु मैत्रेयावस्थितो ध्रुवः।
क्षयमायाति तावत्तु भूमेराभूतसम्प्लवात्॥ ९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! जितने प्रदेशमें ध्रुव स्थित है, पृथिवीसे लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है॥ ९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः।
एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भासुरम्॥ ९८॥

मूलम्

ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः।
एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भासुरम्॥ ९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सप्तर्षियोंसे उत्तर-दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है वह अति तेजोमय स्थान ही आकाशमें विष्णु भगवान‍्का तीसरा दिव्यधाम है॥ ९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्धूतदोषपङ्कानां यतीनां संयतात्मनाम्।
स्थानं तत्परमं विप्र पुण्यपापपरिक्षये॥ ९९॥

मूलम्

निर्धूतदोषपङ्कानां यतीनां संयतात्मनाम्।
स्थानं तत्परमं विप्र पुण्यपापपरिक्षये॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विप्र! पुण्य-पापके क्षीण हो जानेपर दोष-पंकशून्य संयतात्मा मुनिजनोंका यही परमस्थान है॥ ९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुण्यपुण्योपरमे क्षीणाशेषाप्तिहेतवः।
यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १००॥

मूलम्

अपुण्यपुण्योपरमे क्षीणाशेषाप्तिहेतवः।
यत्र गत्वा न शोचन्ति तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १००॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाप-पुण्यके निवृत्त हो जाने तथा देह-प्राप्तिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं करते वही भगवान‍् विष्णुका परमपद है॥ १००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मध्रुवाद्यास्तिष्ठन्ति यत्र ते लोकसाक्षिणः।
तत्सार्ष्ट्योत्पन्नयोगेद्धास्तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०१॥

मूलम्

धर्मध्रुवाद्यास्तिष्ठन्ति यत्र ते लोकसाक्षिणः।
तत्सार्ष्ट्योत्पन्नयोगेद्धास्तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ भगवान‍्की समान ऐश्वर्यतासे प्राप्त हुए योगद्वारा सतेज होकर धर्म और ध्रुव आदि लोक-साक्षिगण निवास करते हैं वही भगवान‍् विष्णुका परमपद है॥ १०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रोतमेतत्प्रोतं च यद्भूतं सचराचरम्।
भाव्यं च विश्वं मैत्रेय तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०२॥

मूलम्

यत्रोतमेतत्प्रोतं च यद्भूतं सचराचरम्।
भाव्यं च विश्वं मैत्रेय तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! जिसमें यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान चराचर जगत् ओत-प्रोत हो रहा है वही भगवान‍् विष्णुका परमपद है॥ १०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवीव चक्षुराततं योगिनां तन्मयात्मनाम्।
विवेकज्ञानदृष्टं च तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०३॥

मूलम्

दिवीव चक्षुराततं योगिनां तन्मयात्मनाम्।
विवेकज्ञानदृष्टं च तद्विष्णोः परमं पदम्॥ १०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तल्लीन योगिजनोंको आकाशमण्डलमें देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकाशक रूपसे प्रतीत होता है तथा जिसका विवेक-ज्ञानसे ही प्रत्यक्ष होता है वही भगवान‍् विष्णुका परमपद है॥ १०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान‍्मेढीभूतः स्वयं ध्रुवः।
ध्रुवे च सर्वज्योतींषि ज्योतिः ष्वम्भोमुचो द्विज॥ १०४॥
मेघेषु सङ्गता वृष्टिर्वृष्टेः सृष्टेश्च पोषणम्।
आप्यायनं च सर्वेषां देवादीनां महामुने॥ १०५॥

मूलम्

यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान‍्मेढीभूतः स्वयं ध्रुवः।
ध्रुवे च सर्वज्योतींषि ज्योतिः ष्वम्भोमुचो द्विज॥ १०४॥
मेघेषु सङ्गता वृष्टिर्वृष्टेः सृष्टेश्च पोषणम्।
आप्यायनं च सर्वेषां देवादीनां महामुने॥ १०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उस विष्णुपदमें ही सबके आधारभूत परमतेजस्वी ध्रुव स्थित हैं, तथा ध्रुवजीमें समस्त नक्षत्र, नक्षत्रोंमें मेघ और मेघोंमें वृष्टि आश्रित है। हे महामुने! उस वृष्टिसे ही समस्त सृष्टिका पोषण और सम्पूर्ण देव-मनुष्यादि प्राणियोंकी पुष्टि होती है॥ १०४-१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हविर्भुजः।
वृष्टेः कारणतां यान्ति भूतानां स्थितये पुनः॥ १०६॥

मूलम्

ततश्चाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हविर्भुजः।
वृष्टेः कारणतां यान्ति भूतानां स्थितये पुनः॥ १०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गौ आदि प्राणियोंसे उत्पन्न दुग्ध और घृत आदिकी आहुतियोंसे परितुष्ट अग्निदेव ही प्राणियोंकी स्थितिके लिये पुनःवृष्टिके कारण होते हैं॥ १०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत्पदं विष्णोस्तृतीयममलात्मकम्।
आधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम्॥ १०७॥

मूलम्

एवमेतत्पदं विष्णोस्तृतीयममलात्मकम्।
आधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम्॥ १०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विष्णु भगवान‍्का यह निर्मल तृतीय लोक (ध्रुव) ही त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टिका आदिकारण है॥ १०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभवति ब्रह्मन‍्सर्वपापहरा सरित्।
गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामनुलेपनपिञ्जरा॥ १०८॥

मूलम्

ततः प्रभवति ब्रह्मन‍्सर्वपापहरा सरित्।
गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामनुलेपनपिञ्जरा॥ १०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ब्रह्मन्! इस विष्णुपदसे ही देवांगनाओंके अंगरागसे पाण्डुरवर्ण हुई-सी सर्वपापापहारिणी श्रीगंगाजी उत्पन्न हुई हैं॥ १०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वामपादाम्बुजाङ्गुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम्।
विष्णोर्बिभर्ति यां भक्त्या शिरसाहर्निशं ध्रुवः॥ १०९॥

मूलम्

वामपादाम्बुजाङ्गुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम्।
विष्णोर्बिभर्ति यां भक्त्या शिरसाहर्निशं ध्रुवः॥ १०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्णुभगवान‍्के वाम चरण-कमलके अँगूठेके नखरूप स्रोतसे निकली हुई उन गंगाजीको ध्रुव दिन-रात अपने मस्तकपर धारण करता है॥ १०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सप्तर्षयो यस्याः प्राणायामपरायणाः।
तिष्ठन्ति वीचिमालाभिरुह्यमानजटा जले॥ ११०॥
वार्योघैः सन्ततैर्यस्याः प्लावितं शशिमण्डलम्।
भूयोऽधि कतरां कान्तिं वहत्येत दुह क्षये॥ १११॥
मेरुपृष्ठे पतत्युच्चैर्निष्क्रान्ता शशिमण्डलात्।
जगतः पावनार्थाय प्रयाति च चतुर्दिशम्॥ ११२॥

मूलम्

ततः सप्तर्षयो यस्याः प्राणायामपरायणाः।
तिष्ठन्ति वीचिमालाभिरुह्यमानजटा जले॥ ११०॥
वार्योघैः सन्ततैर्यस्याः प्लावितं शशिमण्डलम्।
भूयोऽधि कतरां कान्तिं वहत्येत दुह क्षये॥ १११॥
मेरुपृष्ठे पतत्युच्चैर्निष्क्रान्ता शशिमण्डलात्।
जगतः पावनार्थाय प्रयाति च चतुर्दिशम्॥ ११२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जिनके जलमें खड़े होकर प्राणायाम-परायण सप्तर्षिगण उनकी तरंगभंगीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हुए, अघमर्षण-मन्त्रका जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमूहसे आप्लावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके अनन्तर पुनः पहलेसे भी अधिक कान्ति धारण करता है, वे श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलसे निकलकर मेरुपर्वतके ऊपर गिरती हैं और संसारको पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें जाती हैं॥ ११०—११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता चालकनन्दा च चक्षुर्भद्रा चसंस्थिता।
एकैव या चतुर्भेदा दिग्भेदगतिलक्षणा॥ ११३॥

मूलम्

सीता चालकनन्दा च चक्षुर्भद्रा चसंस्थिता।
एकैव या चतुर्भेदा दिग्भेदगतिलक्षणा॥ ११३॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों दिशाओंमें जानेसे वे एक ही सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्र—इन चार भेदोंवाली हो जाती हैं॥ ११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेदं चालकनन्दाख्यं यस्याः शर्वोऽपि दक्षिणम्।
दधार शिरसा प्रीत्या वर्षाणामधिकं शतम्॥ ११४॥
शम्भोर्जटाकलापाच्च विनिष्क्रान्तास्थिशर्कराः।
प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान‍्सगरात्मजान्॥ ११५॥
स्नातस्य सलिले यस्याः सद्यः पापं प्रणश्यति।
अपूर्वपुण्यप्राप्तिश्च सद्यो मैत्रेय जायते॥ ११६॥

मूलम्

भेदं चालकनन्दाख्यं यस्याः शर्वोऽपि दक्षिणम्।
दधार शिरसा प्रीत्या वर्षाणामधिकं शतम्॥ ११४॥
शम्भोर्जटाकलापाच्च विनिष्क्रान्तास्थिशर्कराः।
प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान‍्सगरात्मजान्॥ ११५॥
स्नातस्य सलिले यस्याः सद्यः पापं प्रणश्यति।
अपूर्वपुण्यप्राप्तिश्च सद्यो मैत्रेय जायते॥ ११६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके अलकनन्दा नामक दक्षिणीय भेदको भगवान‍् शंकरने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सौ वर्षसे भी अधिक अपने मस्तकपर धारण किया था, जिसने श्रीशंकरके जटाकलापसे निकलकर पापी सगरपुत्रोंके अस्थिचूर्णको आप्लावित कर उन्हें स्वर्गमें पहुँचा दिया। हे मैत्रेय! जिसके जलमें स्नान करनेसे शीघ्र ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है॥ ११४—११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्ताः पितृभ्यो यत्रापस्तनयैः श्रद्धयान्वितैः।
समाशतं प्रयच्छन्ति तृप्तिं मैत्रेय दुर्लभाम्॥ ११७॥

मूलम्

दत्ताः पितृभ्यो यत्रापस्तनयैः श्रद्धयान्वितैः।
समाशतं प्रयच्छन्ति तृप्तिं मैत्रेय दुर्लभाम्॥ ११७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके प्रवाहमें पुत्रोंद्वारा पितरोंके लिये श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिनका भी तर्पण उन्हें सौ वर्षतक दुर्लभ तृप्ति देता है॥ ११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यामिष्ट्वा महायज्ञैर्यज्ञेशं पुरुषोत्तमम्।
द्विज भूपाः परां सिद्धिमवापुर्दिवि चेह च॥ ११८॥

मूलम्

यस्यामिष्ट्वा महायज्ञैर्यज्ञेशं पुरुषोत्तमम्।
द्विज भूपाः परां सिद्धिमवापुर्दिवि चेह च॥ ११८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! जिसके तटपर राजाओंने महायज्ञोंसे यज्ञेश्वर भगवान‍् पुरुषोत्तमका यजन करके इहलोक और स्वर्गलोकमें परमसिद्धि लाभ की है॥ ११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नानाद्विधूतपापाश्च यज्जलैर्यतयस्तथा।
केशवासक्तमनसः प्राप्ता निर्वाणमुत्तमम्॥ ११९॥

मूलम्

स्नानाद्विधूतपापाश्च यज्जलैर्यतयस्तथा।
केशवासक्तमनसः प्राप्ता निर्वाणमुत्तमम्॥ ११९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके जलमें स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजनोंने भगवान‍् केशवमें चित्त लगाकर अत्युत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया है॥ ११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुताऽभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीताऽवगाहिता।
या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने॥ १२०॥

मूलम्

श्रुताऽभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीताऽवगाहिता।
या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने॥ १२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपना श्रवण, इच्छा, दर्शन, स्पर्श, जलपान, स्नान तथा यशोगान करनेसे ही नित्यप्रति प्राणियोंको पवित्र करती रहती है॥ १२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गा गङ्गेति यैर्नाम योजनानां शतेष्वपि।
स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम्॥ १२१॥

मूलम्

गङ्गा गङ्गेति यैर्नाम योजनानां शतेष्वपि।
स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम्॥ १२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिसका ‘गंगा, गंगा’ ऐसा नाम सौ योजनकी दूरीसे भी उच्चारण किये जानेपर [ जीवके ] तीन जन्मोंके संचित पापोंको नष्ट कर देता है॥ १२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतः सा पावनायालं त्रयाणां जगतामपि।
समुद्भूता परं तत्तु तृतीयं भगवत्पदम्॥ १२२॥

मूलम्

यतः सा पावनायालं त्रयाणां जगतामपि।
समुद्भूता परं तत्तु तृतीयं भगवत्पदम्॥ १२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिलोकीको पवित्र करनेमें समर्थ वह गंगा जिससे उत्पन्न हुई है, वही भगवान‍्का तीसरा परमपद है॥ १२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥