[सातवाँ अध्याय]
विषय
भूर्भुवः आदि सात ऊर्ध्वलोकोंका वृत्तान्त
मूलम् (वचनम्)
श्रीमैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथितं भूतलं ब्रह्मन्ममैतदखिलं त्वया।
भुवर्लोकादिकाँल्लोकाञ्च्छ्रोतुमिच्छाम्यहं मुने॥ १॥
मूलम्
कथितं भूतलं ब्रह्मन्ममैतदखिलं त्वया।
भुवर्लोकादिकाँल्लोकाञ्च्छ्रोतुमिच्छाम्यहं मुने॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी बोले—ब्रह्मन्! आपने मुझसे समस्त भूमण्डलका वर्णन किया। हे मुने! अब मैं भुवर्लोक आदि समस्त लोकोंके विषयमें सुनना चाहता हूँ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव ग्रहसंस्थानं प्रमाणानि यथा तथा।
समाचक्ष्व महाभाग तन्मह्यं परिपृच्छते॥ २॥
मूलम्
तथैव ग्रहसंस्थानं प्रमाणानि यथा तथा।
समाचक्ष्व महाभाग तन्मह्यं परिपृच्छते॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाभाग! मुझ जिज्ञासुसे आप ग्रहगणकी स्थिति तथा उनके परिमाण आदिका यथावत् वर्णन कीजिये॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते।
ससमुद्रसरिच्छैला तावती पृथिवी स्मृता॥ ३॥
मूलम्
रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते।
ससमुद्रसरिच्छैला तावती पृथिवी स्मृता॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—जितनी दूरतक सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंका प्रकाश जाता है; समुद्र, नदी और पर्वतादिसे युक्त उतना प्रदेश पृथिवी कहलाता है॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डलात्।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज॥ ४॥
मूलम्
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डलात्।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! जितना पृथिवीका विस्तार और परिमण्डल (घेरा) है उतना ही विस्तार और परिमण्डल भुवर्लोकका भी है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्।
लक्षाद्दिवाकरस्यापि मण्डलं शशिनः स्थितम्॥ ५॥
मूलम्
भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्।
लक्षाद्दिवाकरस्यापि मण्डलं शशिनः स्थितम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! पृथिवीसे एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है और सूर्यमण्डलसे भी एक लक्ष योजनके अन्तरपर चन्द्रमण्डल है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्णे शतसहस्रे तु योजनानां निशाकरात्।
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नमुपरिष्टात्प्रकाशते॥ ६॥
मूलम्
पूर्णे शतसहस्रे तु योजनानां निशाकरात्।
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नमुपरिष्टात्प्रकाशते॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमासे पूरे सौ हजार (एक लाख) योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशित हो रहा है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वे लक्षे चोत्तरे ब्रह्मन् बुधो नक्षत्रमण्डलात्।
तावत्प्रमाणभागे तु बुधस्याप्युशनाः स्थितः॥ ७॥
मूलम्
द्वे लक्षे चोत्तरे ब्रह्मन् बुधो नक्षत्रमण्डलात्।
तावत्प्रमाणभागे तु बुधस्याप्युशनाः स्थितः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ब्रह्मन्! नक्षत्रमण्डलसे दो लाख योजन ऊपर बुध और बुधसे भी दो लक्ष योजन ऊपर शुक्र स्थित हैं॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गारकोऽपि शुक्रस्य तत्प्रमाणे व्यवस्थितः।
लक्षद्वये तु भौमस्य स्थितो देवपुरोहितः॥ ८॥
मूलम्
अङ्गारकोऽपि शुक्रस्य तत्प्रमाणे व्यवस्थितः।
लक्षद्वये तु भौमस्य स्थितो देवपुरोहितः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्रसे इतनी ही दूरीपर मंगल हैं और मंगलसे भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पतिजी हैं॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौरिर्बृहस्पतेश्चोर्ध्वं द्विलक्षे समवस्थितः।
सप्तर्षिमण्डलं तस्माल्लक्षमेकं द्विजोत्तम॥ ९॥
मूलम्
शौरिर्बृहस्पतेश्चोर्ध्वं द्विलक्षे समवस्थितः।
सप्तर्षिमण्डलं तस्माल्लक्षमेकं द्विजोत्तम॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! बृहस्पतिजीसे दो लाख योजन ऊपर शनि हैं और शनिसे एक लक्ष योजनके अन्तरपर सप्तर्षिमण्डल है॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिभ्यस्तु सहस्राणां शतादूर्ध्वं व्यवस्थितः।
मेढीभूतः समस्तस्य ज्योतिश्चक्रस्य वै ध्रुवः॥ १०॥
मूलम्
ऋषिभ्यस्तु सहस्राणां शतादूर्ध्वं व्यवस्थितः।
मेढीभूतः समस्तस्य ज्योतिश्चक्रस्य वै ध्रुवः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा सप्तर्षियोंसे भी सौ हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्चक्रकी नाभिरूप ध्रुवमण्डल स्थित है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यमेतत्कथितमुत्सेधेन महामुने।
इज्याफलस्य भूरेषा इज्या चात्र प्रतिष्ठिता॥ ११॥
मूलम्
त्रैलोक्यमेतत्कथितमुत्सेधेन महामुने।
इज्याफलस्य भूरेषा इज्या चात्र प्रतिष्ठिता॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामुने! मैंने तुमसे यह त्रिलोकीकी उच्चताके विषयमें वर्णन किया। यह त्रिलोकी यज्ञफलकी भोग-भूमि है और यज्ञानुष्ठानकी स्थिति इस भारतवर्षमें ही है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः।
एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥ १२॥
मूलम्
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः।
एकयोजनकोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्रुवसे एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है, जहाँ कल्पान्तपर्यन्त रहनेवाले भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः।
सनन्दनाद्याः प्रथिता मैत्रेयामलचेतसः॥ १३॥
मूलम्
द्वे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः।
सनन्दनाद्याः प्रथिता मैत्रेयामलचेतसः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उससे भी दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जिसमें ब्रह्माजीके प्रख्यात पुत्र निर्मलचित्त सनकादि रहते हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्गुणोत्तरे चोर्ध्वं जनलोकात्तपः स्थितम्।
वैराजा यत्र ते देवाः स्थिता दाहविवर्जिताः॥ १४॥
मूलम्
चतुर्गुणोत्तरे चोर्ध्वं जनलोकात्तपः स्थितम्।
वैराजा यत्र ते देवाः स्थिता दाहविवर्जिताः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनलोकसे चौगुना अर्थात् आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है; वहाँ वैराज नामक देवगणोंका निवास है जिनका कभी दाह नहीं होता॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षड्गुणेन तपोलोकात्सत्यलोको विराजते।
अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः॥ १५॥
मूलम्
षड्गुणेन तपोलोकात्सत्यलोको विराजते।
अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपलोकसे छःगुना अर्थात् बारह करोड़ योजनके अन्तरपर सत्यलोक सुशोभित है जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है और जिसमें फिर न मरनेवाले अमरगण निवास करते हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्।
स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः॥ १६॥
मूलम्
पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्।
स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भी पार्थिव वस्तु चरणसंचारके योग्य है वह भूर्लोक ही है। उसका विस्तार मैं कह चुका॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादिमुनिसेवितम्।
भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम॥ १७॥
मूलम्
भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादिमुनिसेवितम्।
भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिश्रेष्ठ! पृथिवी और सूर्यके मध्यमें जो सिद्धगण और मुनिगणसेवित स्थान है, वही दूसरा भुवर्लोक है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश।
स्वर्लोकः सोऽपि गदितो लोकसंस्थानचिन्तकैः॥ १८॥
मूलम्
ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश।
स्वर्लोकः सोऽपि गदितो लोकसंस्थानचिन्तकैः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य और ध्रुवके बीचमें जो चौदह लक्ष योजनका अन्तर है, उसीको लोकस्थितिका विचार करनेवालोंने स्वर्लोक कहा है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यमेतत्कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते।
जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्॥ १९॥
मूलम्
त्रैलोक्यमेतत्कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते।
जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! ये (भूः, भुवः, स्वः) ‘कृतक’ त्रैलोक्य कहलाते हैं और जन, तप तथा सत्य—ये तीनों ‘अकृतक’ लोक हैं॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतकाकृतयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः।
शून्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति॥ २०॥
मूलम्
कृतकाकृतयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः।
शून्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन कृतक और अकृतक त्रिलोकियोंके मध्यमें महर्लोक कहा जाता है, जो कल्पान्तमें केवल जनशून्य हो जाता है, अत्यन्त नष्ट नहीं होता [इसलिये यह ‘कृतकाकृत’ कहलाता है]॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्तव।
पातालानि च सप्तैव ब्रह्माण्डस्यैष विस्तरः॥ २१॥
मूलम्
एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्तव।
पातालानि च सप्तैव ब्रह्माण्डस्यैष विस्तरः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! इस प्रकार मैंने तुमसे ये सात लोक और सात ही पाताल कहे। इस ब्रह्माण्डका बस इतना ही विस्तार है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदण्डकटाहेन तिर्यक् चोर्ध्वमधस्तथा।
कपित्थस्य यथा बीजं सर्वतो वै समावृतम्॥ २२॥
मूलम्
एतदण्डकटाहेन तिर्यक् चोर्ध्वमधस्तथा।
कपित्थस्य यथा बीजं सर्वतो वै समावृतम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह ब्रह्माण्ड कपित्थ (कैथे)-के बीजके समान ऊपर-नीचे सब ओर अण्डकटाहसे घिरा हुआ है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशोत्तरेण पयसा मैत्रेयाण्डं च तद्वृतम्।
सर्वोऽम्बुपरिधानोऽसौ वह्निना वेष्टितो बहिः॥ २३॥
मूलम्
दशोत्तरेण पयसा मैत्रेयाण्डं च तद्वृतम्।
सर्वोऽम्बुपरिधानोऽसौ वह्निना वेष्टितो बहिः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! यह अण्ड अपनेसे दस गुने जलसे आवृत है और वह जलका सम्पूर्ण आवरण अग्निसे घिरा हुआ है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वह्निश्च वायुना वायुर्मैत्रेय नभसा वृतः।
भूतादिना नभः सोऽपि महता परिवेष्टितः।
दशोत्तराण्यशेषाणि मैत्रेयैतानि सप्त वै॥ २४॥
मूलम्
वह्निश्च वायुना वायुर्मैत्रेय नभसा वृतः।
भूतादिना नभः सोऽपि महता परिवेष्टितः।
दशोत्तराण्यशेषाणि मैत्रेयैतानि सप्त वै॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि वायुसे और वायु आकाशसे परिवेष्टित है तथा आकाश भूतोंके कारण तामस अहंकार और अहंकार महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है। हे मैत्रेय! ये सातों उत्तरोत्तर एक-दूसरेसे दस गुने हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महान्तं च समावृत्य प्रधानं समवस्थितम्।
अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि विद्यते॥ २५॥
तदनन्तमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः।
हेतुभूतमशेषस्य प्रकृतिः सा परा मुने॥ २६॥
मूलम्
महान्तं च समावृत्य प्रधानं समवस्थितम्।
अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि विद्यते॥ २५॥
तदनन्तमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः।
हेतुभूतमशेषस्य प्रकृतिः सा परा मुने॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्वको भी प्रधानने आवृत कर रखा है। वह अनन्त है; तथा उसका न कभी अन्त (नाश) होता है और न कोई संख्या ही है; क्योंकि हे मुने! वह अनन्त, असंख्येय, अपरिमेय और सम्पूर्ण जगत्का कारण है और वही परा प्रकृति है॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अण्डानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च।
ईदृशानां तथा तत्र कोटिकोटिशतानि च॥ २७॥
मूलम्
अण्डानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च।
ईदृशानां तथा तत्र कोटिकोटिशतानि च॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें ऐसे-ऐसे हजारों, लाखों तथा सैकड़ों करोड़ ब्रह्माण्ड हैं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारुण्यग्निर्यथा तैलं तिले तद्वत्पुमानपि।
प्रधानेऽवस्थितो व्यापी चेतनात्मात्मवेदनः॥ २८॥
मूलम्
दारुण्यग्निर्यथा तैलं तिले तद्वत्पुमानपि।
प्रधानेऽवस्थितो व्यापी चेतनात्मात्मवेदनः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार काष्ठमें अग्नि और तिलमें तैल रहता है उसी प्रकार स्वप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष प्रधानमें स्थित है॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रधानं च पुमांश्चैव सर्वभूतात्मभूतया।
विष्णुशक्त्या महाबुद्धे वृतौ संश्रयधर्मिणौ॥ २९॥
मूलम्
प्रधानं च पुमांश्चैव सर्वभूतात्मभूतया।
विष्णुशक्त्या महाबुद्धे वृतौ संश्रयधर्मिणौ॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाबुद्धे! ये संश्रयशील (आपसमें मिले हुए) प्रधान और पुरुष भी समस्त भूतोंकी स्वरूपभूता विष्णु-शक्तिसे आवृत हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः सैव पृथग्भावकारणं संश्रयस्य च।
क्षोभकारणभूता च सर्गकाले महामते॥ ३०॥
मूलम्
तयोः सैव पृथग्भावकारणं संश्रयस्य च।
क्षोभकारणभूता च सर्गकाले महामते॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामते! वह विष्णु-शक्ति ही [प्रलयके समय] उनके पार्थक्य और [स्थितिके समय] उनके सम्मिलनकी हेतु है तथा सर्गारम्भके समय वही उनके क्षोभकी कारण है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सक्तं जले वातो बिभर्त्ति कणिकाशतम्।
शक्तिः सापि तथा विष्णोः प्रधानपुरुषात्मकम्॥ ३१॥
मूलम्
यथा सक्तं जले वातो बिभर्त्ति कणिकाशतम्।
शक्तिः सापि तथा विष्णोः प्रधानपुरुषात्मकम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार जलके संसर्गसे वायु सैकड़ों जल-कणोंको धारण करता है उसी प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति भी प्रधान-पुरुषमय जगत्को धारण करती है॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च पादपो मूलस्कन्धशाखादिसंयुतः।
आदिबीजात्प्रभवति बीजान्यन्यानि वै ततः॥ ३२॥
प्रभवन्ति ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यपरे द्रुमाः।
तेऽपि तल्लक्षणद्रव्यकारणानुगता मुने॥ ३३॥
एवमव्याकृतात्पूर्वं जायन्ते महदादयः।
विशेषान्तास्ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यसुरादयः।
तेभ्यश्च पुत्रास्तेषां च पुत्राणामपरे सुताः॥ ३४॥
मूलम्
यथा च पादपो मूलस्कन्धशाखादिसंयुतः।
आदिबीजात्प्रभवति बीजान्यन्यानि वै ततः॥ ३२॥
प्रभवन्ति ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यपरे द्रुमाः।
तेऽपि तल्लक्षणद्रव्यकारणानुगता मुने॥ ३३॥
एवमव्याकृतात्पूर्वं जायन्ते महदादयः।
विशेषान्तास्ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यसुरादयः।
तेभ्यश्च पुत्रास्तेषां च पुत्राणामपरे सुताः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुने! जिस प्रकार आदि-बीजसे ही मूल, स्कन्ध और शाखा आदिके सहित वृक्ष उत्पन्न होता है और तदनन्तर उससे और भी बीज उत्पन्न होते हैं, तथा उन बीजोंसे अन्यान्य वृक्ष उत्पन्न होते हैं और वे भी उन्हीं लक्षण, द्रव्य और कारणोंसे युक्त होते हैं, उसी प्रकार पहले अव्याकृत (प्रधान)-से महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त [सम्पूर्ण विकार] उत्पन्न होते हैं तथा उनसे देव, असुर आदिका जन्म होता है और फिर उनके पुत्र तथा उन पुत्रोंके अन्य पुत्र होते हैं॥ ३२—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीजाद्वृक्षप्ररोहेण यथा नापचयस्तरोः।
भूतानां भूतसर्गेण नैवास्त्यपचयस्तथा॥ ३५॥
मूलम्
बीजाद्वृक्षप्ररोहेण यथा नापचयस्तरोः।
भूतानां भूतसर्गेण नैवास्त्यपचयस्तथा॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बीजसे अन्य वृक्षके उत्पन्न होनेसे जिस प्रकार पूर्ववृक्षकी कोई क्षति नहीं होती उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके उत्पन्न होनेसे उनके जन्मदाता प्राणियोंका ह्रास नहीं होता॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्निधानाद्यथाकाशकालाद्याः कारणं तरोः।
तथैवापरिणामेन विश्वस्य भगवान्हरिः॥ ३६॥
व्रीहिबीजे यथा मूलं नालं पत्राङ्कुरौ तथा।
काण्डं कोषस्तु पुष्पं च क्षीरं तद्वच्च तण्डुलाः॥ ३७॥
तुषाः कणाश्च सन्तो वै यान्त्याविर्भावमात्मनः।
प्ररोहहेतुसामग्रीमासाद्य मुनिसत्तम॥ ३८॥
तथा कर्मस्वनेकेषु देवाद्याः समवस्थिताः।
विष्णुशक्तिं समासाद्य प्ररोहमुपयान्ति वै॥ ३९॥
मूलम्
सन्निधानाद्यथाकाशकालाद्याः कारणं तरोः।
तथैवापरिणामेन विश्वस्य भगवान्हरिः॥ ३६॥
व्रीहिबीजे यथा मूलं नालं पत्राङ्कुरौ तथा।
काण्डं कोषस्तु पुष्पं च क्षीरं तद्वच्च तण्डुलाः॥ ३७॥
तुषाः कणाश्च सन्तो वै यान्त्याविर्भावमात्मनः।
प्ररोहहेतुसामग्रीमासाद्य मुनिसत्तम॥ ३८॥
तथा कर्मस्वनेकेषु देवाद्याः समवस्थिताः।
विष्णुशक्तिं समासाद्य प्ररोहमुपयान्ति वै॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिसत्तम! जिस प्रकार धानके बीजमें मूल, नाल, पत्ते, अंकुर, तना, कोष, पुष्प, क्षीर, तण्डुल, तुष और कण सभी रहते हैं; तथा अंकुरोत्पत्तिकी हेतुभूत [ भूमि एवं जल आदि] सामग्रीके प्राप्त होनेपर वे प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार अपने अनेक पूर्वकर्मोंमें स्थित देवता आदि विष्णु-शक्तिका आश्रय पानेपर आविर्भूत हो जाते हैं॥ ३७—३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च विष्णुः परं ब्रह्म यतः सर्वमिदं जगत्।
जगच्च यो यत्र चेदं यस्मिंश्च लयमेष्यति॥ ४०॥
मूलम्
स च विष्णुः परं ब्रह्म यतः सर्वमिदं जगत्।
जगच्च यो यत्र चेदं यस्मिंश्च लयमेष्यति॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जो स्वयं जगत् रूपसे स्थित है, जिसमें यह स्थित है तथा जिसमें यह लीन हो जायगा वह परब्रह्म ही विष्णुभगवान् हैं॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्ब्रह्म तत्परं धाम सदसत्परमं पदम्।
यस्य सर्वमभेदेन यतश्चैतच्चराचरम्॥ ४१॥
मूलम्
तद्ब्रह्म तत्परं धाम सदसत्परमं पदम्।
यस्य सर्वमभेदेन यतश्चैतच्चराचरम्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्रह्म ही उन (विष्णु)-का परमधाम (परस्वरूप) है, वह पद सत् और असत् दोनोंसे विलक्षण है तथा उससे अभिन्न हुआ ही यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उससे उत्पन्न हुआ है॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव मूलप्रकृतिर्व्यक्तरूपी जगच्च सः।
तस्मिन्नेव लयं सर्वं याति तत्र च तिष्ठति॥ ४२॥
मूलम्
स एव मूलप्रकृतिर्व्यक्तरूपी जगच्च सः।
तस्मिन्नेव लयं सर्वं याति तत्र च तिष्ठति॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही अव्यक्त मूलप्रकृति है, वही व्यक्तस्वरूप संसार है, उसीमें यह सम्पूर्ण जगत् लीन होता है तथा उसीके आश्रय स्थित है॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्ता क्रियाणां स च इज्यते क्रतुः
स एव तत्कर्मफलं च तस्य।
स्रुगादि यत्साधनमप्यशेषं
हरेर्न किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति॥ ४३॥
मूलम्
कर्ता क्रियाणां स च इज्यते क्रतुः
स एव तत्कर्मफलं च तस्य।
स्रुगादि यत्साधनमप्यशेषं
हरेर्न किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञादि क्रियाओंका कर्ता वही है, यज्ञरूपसे उसीका यजन किया जाता है,और उन यज्ञादिका फलस्वरूप भी वही है तथा यज्ञके साधनरूप जो स्रुवा आदि हैं वे सब भी हरिसे अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं॥ ४३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥