[छठा अध्याय]
विषय
भिन्न-भिन्न नरकोंका तथा भगवन्नामके माहात्म्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च नरका विप्र भुवोऽधः सलिलस्य च।
पापिनो येषु पात्यन्ते ताञ्छृणुष्व महामुने॥ १॥
मूलम्
ततश्च नरका विप्र भुवोऽधः सलिलस्य च।
पापिनो येषु पात्यन्ते ताञ्छृणुष्व महामुने॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे विप्र! तदनन्तर पृथिवी और जलके नीचे नरक हैं जिनमें पापी लोग गिराये जाते हैं। हे महामुने! उनका विवरण सुनो॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रौरवः सूकरो रोधस्तालो विशसनस्तथा।
महाज्वालस्तप्तकुम्भो लवणोऽथ विलोहितः॥ २॥
रुधिराम्भो वैतरणिः कृमीशः कृमिभोजनः।
असिपत्रवनं कृष्णो लालाभक्षश्च दारुणः॥ ३॥
तथा पूयवहः पापो वह्निज्वालो ह्यधःशिराः।
सन्दंशः कालसूत्रश्च तमश्चावीचिरेव च॥ ४॥
श्वभोजनोऽथाप्रतिष्ठश्चाप्रचिश्च तथा परः।
इत्येवमादयश्चान्ये नरका भृशदारुणाः॥ ५॥
यमस्य विषये घोराः शस्त्राग्निभयदायिनः।
पतन्ति येषु पुरुषाः पापकर्मरतास्तु ये॥ ६॥
मूलम्
रौरवः सूकरो रोधस्तालो विशसनस्तथा।
महाज्वालस्तप्तकुम्भो लवणोऽथ विलोहितः॥ २॥
रुधिराम्भो वैतरणिः कृमीशः कृमिभोजनः।
असिपत्रवनं कृष्णो लालाभक्षश्च दारुणः॥ ३॥
तथा पूयवहः पापो वह्निज्वालो ह्यधःशिराः।
सन्दंशः कालसूत्रश्च तमश्चावीचिरेव च॥ ४॥
श्वभोजनोऽथाप्रतिष्ठश्चाप्रचिश्च तथा परः।
इत्येवमादयश्चान्ये नरका भृशदारुणाः॥ ५॥
यमस्य विषये घोराः शस्त्राग्निभयदायिनः।
पतन्ति येषु पुरुषाः पापकर्मरतास्तु ये॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, कृमीश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पूयवह, पाप, वह्निज्वाल, अधःशिरा, सन्दंश, कालसूत्र, तमस्, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि—ये सब तथा इनके सिवा और भी अनेकों महाभयंकर नरक हैं, जो यमराजके शासनाधीन हैं और अति दारुण शस्त्र-भय तथा अग्नि-भय देनेवाले हैं और जिनमें जो पुरुष पापरत होते हैं वे ही गिरते हैं॥ २—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूटसाक्षी तथाऽसम्यक्पक्षपातेन यो वदेत्।
यश्चान्यदनृतं वक्ति स नरो याति रौरवम्॥ ७॥
मूलम्
कूटसाक्षी तथाऽसम्यक्पक्षपातेन यो वदेत्।
यश्चान्यदनृतं वक्ति स नरो याति रौरवम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष कूटसाक्षी (झूठा गवाह अर्थात् जानकर भी न बतलानेवाला या कुछ-का-कुछ कहनेवाला)होता है अथवा जो पक्षपातसे यथार्थ नहीं बोलता और जो मिथ्याभाषण करता है वह रौरवनरकमें जाता है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रूणहा पुरहन्ता च गोघ्नश्च मुनिसत्तम।
यान्ति ते नरकं रोधं यश्चोच्छ्वासनिरोधकः॥ ८॥
मूलम्
भ्रूणहा पुरहन्ता च गोघ्नश्च मुनिसत्तम।
यान्ति ते नरकं रोधं यश्चोच्छ्वासनिरोधकः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिसत्तम! भ्रूण (गर्भ) नष्ट करनेवाले, ग्रामनाशक और गो-हत्यारे लोग रोध नामक नरकमें जाते हैं जो श्वासोच्छ्वासको रोकनेवाला है॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरापो ब्रह्महा हर्ता सुवर्णस्य च सूकरे।
प्रयान्ति नरके यश्च तैः संसर्गमुपैति वै॥ ९॥
मूलम्
सुरापो ब्रह्महा हर्ता सुवर्णस्य च सूकरे।
प्रयान्ति नरके यश्च तैः संसर्गमुपैति वै॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मद्य-पान करनेवाला, ब्रह्मघाती, सुवर्ण चुरानेवाला तथा जो पुरुष इनका संग करता है ये सब सूकरनरकमें जाते हैं॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन्यवैश्यहा ताले तथैव गुरुतल्पगः।
तप्तकुण्डे स्वसृगामी हन्ति राजभटांश्च यः॥ १०॥
मूलम्
राजन्यवैश्यहा ताले तथैव गुरुतल्पगः।
तप्तकुण्डे स्वसृगामी हन्ति राजभटांश्च यः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय अथवा वैश्यका वध करनेवाला तालनरकमें तथा गुरु-स्त्रीके साथ गमन करनेवाला, भगिनीगामी और राजदूतोंको मारनेवाला पुरुष तप्तकुण्डनरकमें पड़ता है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्वीविक्रयकृद्बन्धपालः केसरिविक्रयी।
तप्तलोहे पतन्त्येते यश्च भक्तं परित्यजेत्॥ ११॥
मूलम्
साध्वीविक्रयकृद्बन्धपालः केसरिविक्रयी।
तप्तलोहे पतन्त्येते यश्च भक्तं परित्यजेत्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
सती स्त्रीको बेचनेवाला, कारागृहरक्षक, अश्वविक्रेता और भक्तपुरुषका त्याग करनेवाला—ये सब लोग तप्तलोहनरकमें गिरते हैं॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नुषां सुतां चापि गत्वा महाज्वाले निपात्यते।
अवमन्ता गुरूणां यो यश्चाक्रोष्टा नराधमः॥ १२॥
वेददूषयिता यश्च वेदविक्रयिकश्च यः।
अगम्यगामी यश्च स्यात्ते यान्ति लवणं द्विज॥ १३॥
मूलम्
स्नुषां सुतां चापि गत्वा महाज्वाले निपात्यते।
अवमन्ता गुरूणां यो यश्चाक्रोष्टा नराधमः॥ १२॥
वेददूषयिता यश्च वेदविक्रयिकश्च यः।
अगम्यगामी यश्च स्यात्ते यान्ति लवणं द्विज॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रवधू और पुत्रीके साथ विषय करनेवाला पुरुष महाज्वालनरकमें गिराया जाता है, तथा जो नराधम गुरुजनोंका अपमान करनेवाला और उनसे दुर्वचन बोलनेवाला होता है तथा जो वेदकी निन्दा करनेवाला, वेद बेचनेवाला या अगम्या स्त्रीसे सम्भोग करता है, हे द्विज! वे सब लवणनरकमें जाते हैं॥ १२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोरो विलोहे पतति मर्यादादूषकस्तथा॥ १४॥
मूलम्
चोरो विलोहे पतति मर्यादादूषकस्तथा॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
चोर तथा मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला पुरुष विलोहितनरकमें गिरता है॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवद्विजपितृद्वेष्टा रत्नदूषयिता च यः।
स याति कृमिभक्षे वै कृमीशे च दुरिष्टकृत्॥ १५॥
मूलम्
देवद्विजपितृद्वेष्टा रत्नदूषयिता च यः।
स याति कृमिभक्षे वै कृमीशे च दुरिष्टकृत्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव, द्विज और पितृगणसे द्वेष करनेवाला तथा रत्नको दूषित करनेवाला कृमिभक्षनरकमें और अनिष्ट यज्ञ करनेवाला कृमीशनरकमें जाता है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृदेवातिथींस्त्यक्त्वा पर्यश्नाति नराधमः।
लालाभक्षे स यात्युग्रे शरकर्त्ता च वेधके॥ १६॥
मूलम्
पितृदेवातिथींस्त्यक्त्वा पर्यश्नाति नराधमः।
लालाभक्षे स यात्युग्रे शरकर्त्ता च वेधके॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियोंको छोड़कर उनसे पहले भोजन कर लेता है वह अति उग्र लालाभक्षनरकमें पड़ता है; और बाण बनानेवाला वेधकनरकमें जाता है॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोति कर्णिनो यश्च यश्च खड्गादिकृन्नरः।
प्रयान्त्येते विशसने नरके भृशदारुणे॥ १७॥
मूलम्
करोति कर्णिनो यश्च यश्च खड्गादिकृन्नरः।
प्रयान्त्येते विशसने नरके भृशदारुणे॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य कर्णी नामक बाण बनाते हैं और जो खड्गादि शस्त्र बनानेवाले हैं वे अति दारुण विशसननरकमें गिरते हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्प्रतिगृहीता तु नरके यात्यधोमुखे।
अयाज्ययाजकश्चैव तथा नक्षत्रसूचकः॥ १८॥
मूलम्
असत्प्रतिगृहीता तु नरके यात्यधोमुखे।
अयाज्ययाजकश्चैव तथा नक्षत्रसूचकः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
असत्-प्रतिग्रह (दूषित उपायोंसे धन-संग्रह) करनेवाला, अयाज्य-याजक और नक्षत्रोपजीवी (नक्षत्र-विद्याको न जानकर भी उसका ढोंग रचनेवाला) पुरुष अधोमुखनरकमें पड़ता है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेगी पूयवहे चैको याति मिष्टान्नभुङ्नरः॥ १९॥
लाक्षामांसरसानां च तिलानां लवणस्य च।
विक्रेता ब्राह्मणो याति तमेव नरकं द्विज॥ २०॥
मूलम्
वेगी पूयवहे चैको याति मिष्टान्नभुङ्नरः॥ १९॥
लाक्षामांसरसानां च तिलानां लवणस्य च।
विक्रेता ब्राह्मणो याति तमेव नरकं द्विज॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
साहस (निष्ठुर कर्म) करनेवाला पुरुष पूयवहनरकमें जाता है, तथा [पुत्र-मित्रादिकी वंचना करके] अकेले ही स्वादु भोजन करनेवाला और लाख, मांस, रस, तिल तथा लवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी (पूयवह) नरकमें गिरता है॥ १९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्जारकुक्कुटच्छागश्ववराहविहङ्गमान्।
पोषयन्नरकं याति तमेव द्विजसत्तम॥ २१॥
मूलम्
मार्जारकुक्कुटच्छागश्ववराहविहङ्गमान्।
पोषयन्नरकं याति तमेव द्विजसत्तम॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजश्रेष्ठ! बिलाव, कुक्कुट, छाग, अश्व, शूकर तथा पक्षियोंको [जीविकाके लिये] पालनेसे भी पुरुष उसी नरकमें जाता है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रङ्गोपजीवी कैवर्त्तः कुण्डाशी गरदस्तथा।
सूची माहिषकश्चैव पर्वकारी च यो द्विजः॥ २२॥
आगारदाही मित्रघ्नः शाकुनिर्ग्रामयाजकः।
रुधिरान्धे पतन्त्येते सोमं विक्रीणते च ये॥ २३॥
मूलम्
रङ्गोपजीवी कैवर्त्तः कुण्डाशी गरदस्तथा।
सूची माहिषकश्चैव पर्वकारी च यो द्विजः॥ २२॥
आगारदाही मित्रघ्नः शाकुनिर्ग्रामयाजकः।
रुधिरान्धे पतन्त्येते सोमं विक्रीणते च ये॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
नट या मल्लवृत्तिसे रहनेवाला, धीवरका कर्म करनेवाला, कुण्ड (उपपतिसे उत्पन्न सन्तान)-का अन्न खानेवाला, विष देनेवाला, चुगलखोर, स्त्रीकी असद्वृत्तिके आश्रय रहनेवाला, धन आदिके लोभसे बिना पर्वके अमावास्या आदि पर्व दिनोंका कार्य करानेवाला द्विज, घरमें आग लगानेवाला, मित्रकी हत्या करनेवाला, शकुन आदि बतानेवाला, ग्रामका पुरोहित तथा सोम (मदिरा) बेचने-वाला—ये सब रुधिरान्धनरकमें गिरते हैं॥ २२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मखहा ग्रामहन्ता च याति वैतरणीं नरः॥ २४॥
रेतःपातादिकर्त्तारो मर्यादाभेदिनो हि ये।
ते कृष्णे यान्त्यशौचाश्च कुहकाजीविनश्च ये॥ २५॥
मूलम्
मखहा ग्रामहन्ता च याति वैतरणीं नरः॥ २४॥
रेतःपातादिकर्त्तारो मर्यादाभेदिनो हि ये।
ते कृष्णे यान्त्यशौचाश्च कुहकाजीविनश्च ये॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ अथवा ग्रामको नष्ट करनेवाला पुरुष वैतरणीनरकमें जाता है, तथा जो लोग वीर्यपातादि करनेवाले, खेतोंकी बाड़ तोड़नेवाले, अपवित्र और छलवृत्तिके आश्रय रहनेवाले होते हैं वे कृष्णनरकमें गिरते हैं॥ २४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असिपत्रवनं याति वनच्छेदी वृथैव यः।
औरभ्रिको मृगव्याधो वह्निज्वाले पतन्ति वै॥ २६॥
यान्त्येते द्विज तत्रैव ये चापाकेषु वह्निदाः॥ २७॥
मूलम्
असिपत्रवनं याति वनच्छेदी वृथैव यः।
औरभ्रिको मृगव्याधो वह्निज्वाले पतन्ति वै॥ २६॥
यान्त्येते द्विज तत्रैव ये चापाकेषु वह्निदाः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वृथा ही वनोंको काटता है वह असिपत्रवननरकमें जाता है। मेषोपजीवी (गड़रिये) और व्याधगण वह्निज्वालनरकमें गिरते हैं तथा हे द्विज! जो कच्चे घड़ों अथवा ईंट आदिको पकानेके लिये उनमें अग्नि डालते हैं, वे भी उस (वह्निज्वालनरक)-में ही जाते हैं॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतानां लोपको यश्च स्वाश्रमाद्विच्युतश्च यः।
सन्दंशयातनामध्ये पततस्तावुभावपि॥ २८॥
मूलम्
व्रतानां लोपको यश्च स्वाश्रमाद्विच्युतश्च यः।
सन्दंशयातनामध्ये पततस्तावुभावपि॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्रतोंको लोप करनेवाले तथा अपने आश्रमसे पतित दोनों ही प्रकारके पुरुष सन्दंश नामक नरकमें गिरते हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवा स्वप्ने च स्कन्दन्ते ये नरा ब्रह्मचारिणः।
पुत्रैरध्यापिता ये च ते पतन्ति श्वभोजने॥ २९॥
मूलम्
दिवा स्वप्ने च स्कन्दन्ते ये नरा ब्रह्मचारिणः।
पुत्रैरध्यापिता ये च ते पतन्ति श्वभोजने॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन ब्रह्मचारियोंका दिनमें तथा सोते समय [बुरी भावनासे] वीर्यपात हो जाता है, अथवा जो अपने ही पुत्रोंसे पढ़ते हैं वे लोग श्वभोजननरकमें गिरते हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च नरकाः शतशोऽथ सहस्रशः।
येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यन्ते यातनागताः॥ ३०॥
मूलम्
एते चान्ये च नरकाः शतशोऽथ सहस्रशः।
येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यन्ते यातनागताः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार, ये तथा अन्य सैकड़ों-हजारों नरक हैं, जिनमें दुष्कर्मी लोग नाना प्रकारकी यातनाएँ भोगा करते हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव पापान्येतानि तथान्यानि सहस्रशः।
भुज्यन्ते तानि पुरुषैर्नरकान्तरगोचरैः॥ ३१॥
मूलम्
यथैव पापान्येतानि तथान्यानि सहस्रशः।
भुज्यन्ते तानि पुरुषैर्नरकान्तरगोचरैः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन उपर्युक्त पापोंके समान और भी सहस्रों पाप-कर्म हैं, उनके फल मनुष्य भिन्न-भिन्न नरकोंमें भोगा करते हैं॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः।
कर्मणा मनसा वाचा निरयेषु पतन्ति ते॥ ३२॥
मूलम्
वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः।
कर्मणा मनसा वाचा निरयेषु पतन्ति ते॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग अपने वर्णाश्रम-धर्मके विरुद्ध मन, वचन अथवा कर्मसे कोई आचरण करते हैं वे नरकमें गिरते हैं॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधःशिरोभिर्दृश्यन्ते नारकैर्दिवि देवताः।
देवाश्चाधोमुखान्सर्वानधः पश्यन्तिनारकान्॥ ३३॥
मूलम्
अधःशिरोभिर्दृश्यन्ते नारकैर्दिवि देवताः।
देवाश्चाधोमुखान्सर्वानधः पश्यन्तिनारकान्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधोमुखनरक निवासियोंको स्वर्गलोकमें देवगण दिखायी दिया करते हैं और देवतालोग नीचेके लोकोंमें नारकी जीवोंको देखते हैं॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थावराः कृमयोऽब्जाश्च पक्षिणः पशवो नराः।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम्॥ ३४॥
मूलम्
स्थावराः कृमयोऽब्जाश्च पक्षिणः पशवो नराः।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापीलोग नरकभोगके अनन्तर क्रमसे स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण तथा मुमुक्षुहोकर जन्मग्रहण करते हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रभागप्रथमा द्वितीयानुक्रमास्तथा।
सर्वे ह्येते महाभाग यावन्मुक्तिसमाश्रयाः॥ ३५॥
मूलम्
सहस्रभागप्रथमा द्वितीयानुक्रमास्तथा।
सर्वे ह्येते महाभाग यावन्मुक्तिसमाश्रयाः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाभाग! मुमुक्षुपर्यन्त इन सबमें दूसरोंकी अपेक्षा पहले प्राणी [संख्यामें] सहस्र गुण अधिक हैं॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः।
पापकृद्याति नरकं प्रायश्चित्तपराङ्मुखः॥ ३६॥
मूलम्
यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः।
पापकृद्याति नरकं प्रायश्चित्तपराङ्मुखः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जितने जीव स्वर्गमें हैं उतने ही नरकमें है, जो पापी पुरुष [अपने पापका] प्रायश्चित्त नहीं करते वे ही नरकमें जाते हैं॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापानामनुरूपाणि प्रायश्चित्तानि यद्यथा।
तथा तथैव संस्मृत्य प्रोक्तानि परमर्षिभिः॥ ३७॥
मूलम्
पापानामनुरूपाणि प्रायश्चित्तानि यद्यथा।
तथा तथैव संस्मृत्य प्रोक्तानि परमर्षिभिः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिन्न-भिन्न पापोंके अनुरूप जो-जो प्रायश्चित्त हैं उन्हीं-उन्हींको महर्षियोंने वेदार्थका स्मरण करके बताया है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः।
प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः॥ ३८॥
मूलम्
पापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः।
प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! स्वायम्भुवमनु आदि स्मृतिकारोंने महान् पापोंके लिये महान् और अल्पोंके लिये अल्प प्रायश्चित्तोंकी व्यवस्था की है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै।
यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम्॥ ३९॥
मूलम्
प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै।
यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु जितने भी तपस्यात्मक और कर्मात्मक प्रायश्चित्त हैं उन सबमें श्रीकृष्णस्मरण सर्वश्रेष्ठ है॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृते पापेऽनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते।
प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम्॥ ४०॥
मूलम्
कृते पापेऽनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते।
प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस पुरुषके चित्तमें पाप-कर्मके अनन्तर पश्चात्ताप होता है उसके लिये ही प्रायश्चित्तोंका विधान है। किंतु यह हरिस्मरण तो एकमात्र स्वयं ही परम प्रायश्चित्त है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्नादिषु संस्मरन्।
नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः॥ ४१॥
मूलम्
प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्नादिषु संस्मरन्।
नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल, सायंकाल, रात्रिमें अथवा मध्याह्नमें किसी भी समय श्रीनारायणका स्मरण करनेसे पुरुषके समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते हैं॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुसंस्मरणात्क्षीणसमस्तक्लेशसञ्चयः।
मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नोऽनुमीयते॥ ४२॥
मूलम्
विष्णुसंस्मरणात्क्षीणसमस्तक्लेशसञ्चयः।
मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नोऽनुमीयते॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीविष्णुभगवान्के स्मरणसे समस्त पापराशिके भस्म हो जानेसे पुरुष मोक्षपद प्राप्त कर लेता है, स्वर्ग-लाभ तो उसके लिये विघ्नरूप माना जाता है॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु।
तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम्॥ ४३॥
मूलम्
वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु।
तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! जिसका चित्त जप, होम और अर्चनादि करते हुए निरन्तर भगवान् वासुदेवमें लगा रहता है उसके लिये इन्द्रपद आदि फल तो अन्तराय (विघ्न) हैं॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम्।
क्व जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम्॥ ४४॥
मूलम्
क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम्।
क्व जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहाँ तो पुनर्जन्मके चक्रमें डालनेवाली स्वर्ग-प्राप्ति और कहाँ मोक्षका सर्वोत्तम बीज ‘वासुदेव’ नामका जप!॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो मुने।
न याति नरकं मर्त्यः सङ्क्षीणाखिलपातकः॥ ४५॥
मूलम्
तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो मुने।
न याति नरकं मर्त्यः सङ्क्षीणाखिलपातकः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये हे मुने! श्रीविष्णु भगवान्का अहर्निश स्मरण करनेसे सम्पूर्ण पाप क्षीण हो जानेके कारण मनुष्य फिर नरकमें नहीं जाता॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनःप्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः।
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम॥ ४६॥
मूलम्
मनःप्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः।
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्तको प्रिय लगनेवाला ही स्वर्ग है और उसके विपरीत (अप्रिय लगनेवाला) हीनरक है। हे द्विजोत्तम! पाप और पुण्यहीके दूसरे नाम नरक और स्वर्ग हैं॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च।
कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु (नियत-स्वभावतया) वस्त्वात्मकं(→स्वतन्त्रं) कुतः॥ ४७॥
मूलम्
वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च।
कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कि एक ही वस्तु सुख और दुःख तथा ईर्ष्या और कोपका कारण हो जाती है तो उसमें वस्तुता (नियत स्वभावत्व) ही कहाँ है?॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते।
तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते॥ ४८॥
मूलम्
तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते।
तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि एक ही वस्तु कभी प्रीतिकी कारण होती है तो वही दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती है और वही कभी क्रोधकी हेतु होती है तो कभी प्रसन्नता देनेवाली हो जाती है॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम्।
मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः॥ ४९॥
मूलम्
तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम्।
मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कोई भी पदार्थ दुःखमय नहीं है और न कोई सुखमय है। ये सुख-दुःख तो मनके ही विकार हैं॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते।
ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम्॥ ५०॥
विद्याविद्येति मैत्रेय ज्ञानमेवोपधारय॥ ५१॥
मूलम्
ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते।
ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम्॥ ५०॥
विद्याविद्येति मैत्रेय ज्ञानमेवोपधारय॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
[परमार्थतः] ज्ञान ही परब्रह्म है और [अविद्याकी उपाधिसे] वही बन्धनका कारण है। यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय ही है; ज्ञानसे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है। हे मैत्रेय! विद्या और अविद्याको भी तुम ज्ञान ही समझो॥ ५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्मयाख्यातं भवतो मण्डलं भुवः।
पातालानि च सर्वाणि तथैव नरका द्विज॥ ५२॥
मूलम्
एवमेतन्मयाख्यातं भवतो मण्डलं भुवः।
पातालानि च सर्वाणि तथैव नरका द्विज॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! इस प्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमण्डल, सम्पूर्ण पाताललोक और नरकोंका वर्णन कर दिया॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्राः पर्वताश्चैव द्वीपा वर्षाणि निम्नगाः।
सङ्क्षेपात्सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ५३॥
मूलम्
समुद्राः पर्वताश्चैव द्वीपा वर्षाणि निम्नगाः।
सङ्क्षेपात्सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष और नदियाँ—इन सभीकी मैंने संक्षेपसे व्याख्या कर दी; अब, तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥ ५३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥