[पाँचवाँ अध्याय]
विषय
सात पाताललोकोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्तार एष कथितः पृथिव्या भवतो मया।
सप्ततिस्तु सहस्राणि द्विजोच्छ्रायोऽपि कथ्यते॥ १॥
मूलम्
विस्तार एष कथितः पृथिव्या भवतो मया।
सप्ततिस्तु सहस्राणि द्विजोच्छ्रायोऽपि कथ्यते॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! मैंने तुमसे यह पृथिवीका विस्तार कहा; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्र योजन कही जाती है॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्।
महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥ २॥
मूलम्
दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्।
महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिसत्तम! अतल, वितल, नितल, गभस्तिमान्, महातल, सुतल और पाताल—इन सातोंमेंसे प्रत्येक दस-दस सहस्र योजनकी दूरीपर है॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्लकृष्णारुणाः पीताः शर्कराः शैलकाञ्चनाः।
भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥ ३॥
मूलम्
शुक्लकृष्णारुणाः पीताः शर्कराः शैलकाञ्चनाः।
भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! सुन्दर महलोंसे सुशोभित वहाँकी भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्णकी तथा शर्करामयी (कँकरीली), शैली (पत्थरकी) और सुवर्णमयी है॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु दानवदैतेया यक्षाश्च शतशस्तथा।
निवसन्ति महानागजातयश्च महामुने॥ ४॥
मूलम्
तेषु दानवदैतेया यक्षाश्च शतशस्तथा।
निवसन्ति महानागजातयश्च महामुने॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामुने! उनमें दानव, दैत्य, यक्ष और बड़े-बड़े नाग आदिकोंकी सैकड़ों जातियाँ निवास करती हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति नारदः।
प्राह स्वर्गसदां मध्ये पातालाभ्यागतो दिवि॥ ५॥
मूलम्
स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति नारदः।
प्राह स्वर्गसदां मध्ये पातालाभ्यागतो दिवि॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार नारदजीने पाताललोकसे स्वर्गमें आकर वहाँके निवासियोंसे कहा था कि ‘पाताल तो स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह्लादकारिणः शुभ्रा मणयो यत्र सुप्रभाः।
नागाभरणभूषासु पातालं केन तत्समम्॥ ६॥
मूलम्
आह्लादकारिणः शुभ्रा मणयो यत्र सुप्रभाः।
नागाभरणभूषासु पातालं केन तत्समम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ नागगणके आभूषणोंमें सुन्दर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई हैं उस पातालको किसके समान कहें?॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैत्यदानवकन्याभिरितश्चेतश्च शोभिते।
पाताले कस्य न प्रीतिर्विमुक्तस्यापि जायते॥ ७॥
मूलम्
दैत्यदानवकन्याभिरितश्चेतश्च शोभिते।
पाताले कस्य न प्रीतिर्विमुक्तस्यापि जायते॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ-तहाँ दैत्य और दानवोंकी कन्याओंसे सुशोभित पाताललोकमें किस मुक्त पुरुषकी भी प्रीति न होगी॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवार्करश्मयो यत्र प्रभां तन्वन्ति नातपम्।
शशिरश्मिर्न शीताय निशि द्योताय केवलम्॥ ८॥
मूलम्
दिवार्करश्मयो यत्र प्रभां तन्वन्ति नातपम्।
शशिरश्मिर्न शीताय निशि द्योताय केवलम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ दिनमें सूर्यकी किरणें केवल प्रकाश ही करती हैं, घाम नहीं करतीं; तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणोंसे शीत नहीं होता, केवल चाँदनी ही फैलती है॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्यभोज्यमहापानमुदितैरपि भोगिभिः।
यत्र न ज्ञायते कालो गतोऽपि दनुजादिभिः॥ ९॥
मूलम्
भक्ष्यभोज्यमहापानमुदितैरपि भोगिभिः।
यत्र न ज्ञायते कालो गतोऽपि दनुजादिभिः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ भक्ष्य, भोज्य और महापानादिके भोगोंसे आनन्दित सर्पों तथा दानवादिकोंको समय जाता हुआ भी प्रतीत नहीं होता॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनानि नद्यो रम्याणि सरांसि कमलाकराः।
पुंस्कोकिलाभिलापाश्च मनोज्ञान्यम्बराणि च॥ १०॥
मूलम्
वनानि नद्यो रम्याणि सरांसि कमलाकराः।
पुंस्कोकिलाभिलापाश्च मनोज्ञान्यम्बराणि च॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सुन्दर वन, नदियाँ, रमणीय सरोवर और कमलोंके वन हैं, जहाँ नरकोकिलोंकी सुमधुर कूक गूँजती है एवं आकाश मनोहारी है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूषणान्यतिशुभ्राणि गन्धाढ्यं चानुलेपनम्।
वीणावेणुमृदङ्गानां स्वनास्तूर्याणि च द्विज॥ ११॥
एतान्यन्यानि चोदारभाग्यभोग्यानि दानवैः।
दैत्योरगैश्च भुज्यन्ते पातालान्तरगोचरैः॥ १२॥
मूलम्
भूषणान्यतिशुभ्राणि गन्धाढ्यं चानुलेपनम्।
वीणावेणुमृदङ्गानां स्वनास्तूर्याणि च द्विज॥ ११॥
एतान्यन्यानि चोदारभाग्यभोग्यानि दानवैः।
दैत्योरगैश्च भुज्यन्ते पातालान्तरगोचरैः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे द्विज! जहाँ पातालनिवासी दैत्य, दानव एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण, सुगन्धमय अनुलेपन, वीणा, वेणु और मृदंगादिके स्वर तथा तूर्य—ये सब एवं भाग्यशालियोंके भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते हैं॥ ११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः।
शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥ १३॥
मूलम्
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः।
शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पातालोंके नीचे विष्णु भगवान्का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणोंका दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्दैवो देवर्षिपूजितः।
स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥ १४॥
मूलम्
योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्दैवो देवर्षिपूजितः।
स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण ‘अनन्त’ कहकर बखान करते हैं वे अति निर्मल, स्पष्ट स्वस्तिक चिह्नोंसे विभूषित तथा सहस्र सिरवाले हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फणामणिसहस्रेण यः स विद्योतयन्दिशः।
सर्वान्करोति निर्वीर्यान् हिताय जगतोऽसुरान्॥ १५॥
मूलम्
फणामणिसहस्रेण यः स विद्योतयन्दिशः।
सर्वान्करोति निर्वीर्यान् हिताय जगतोऽसुरान्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने फणोंकी सहस्र मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए संसारके कल्याणके लिये समस्त असुरोंको वीर्यहीन करते रहते हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदाघूर्णितनेत्रोऽसौ यः सदैवैककुण्डलः।
किरीटी स्रग्धरो भाति साग्निः श्वेत इवाचलः॥ १६॥
मूलम्
मदाघूर्णितनेत्रोऽसौ यः सदैवैककुण्डलः।
किरीटी स्रग्धरो भाति साग्निः श्वेत इवाचलः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मदके कारण अरुण नयन, सदैव एक ही कुण्डल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वतके समान सुशोभित हैं॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलवासा मदोत्सिक्तः श्वेतहारोपशोभितः।
साभ्रगङ्गाप्रवाहोऽसौ कैलासाद्रिरिवापरः॥ १७॥
मूलम्
नीलवासा मदोत्सिक्तः श्वेतहारोपशोभितः।
साभ्रगङ्गाप्रवाहोऽसौ कैलासाद्रिरिवापरः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मदसे उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारोंसे सुशोभित होकर मेघमाला और गंगाप्रवाहसे युक्त दूसरे कैलास-पर्वतके समान विराजमान हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाङ्गलासक्तहस्ताग्रो बिभ्रन्मुसलमुत्तमम्।
उपास्यते स्वयं कान्त्या यो वारुण्या च मूर्त्तया॥ १८॥
मूलम्
लाङ्गलासक्तहस्ताग्रो बिभ्रन्मुसलमुत्तमम्।
उपास्यते स्वयं कान्त्या यो वारुण्या च मूर्त्तया॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने हाथोंमें हल और उत्तम मूसल धारण किये हैं तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो विषानलशिखोज्ज्वलः।
संकर्षणात्मको रुद्रो निष्क्रम्यात्ति जगत्त्रयम्॥ १९॥
मूलम्
कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो विषानलशिखोज्ज्वलः।
संकर्षणात्मको रुद्रो निष्क्रम्यात्ति जगत्त्रयम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्पान्तमें जिनके मुखोंसे विषाग्निशिखाके समान देदीप्यमान संकर्षण नामक रुद्र निकलकर तीनो लोकोंका भक्षण कर जाता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बिभ्रच्छेखरीभूतमशेषं क्षितिमण्डलम्।
आस्ते पातालमूलस्थः शेषोऽशेषसुरार्चितः॥ २०॥
मूलम्
स बिभ्रच्छेखरीभूतमशेषं क्षितिमण्डलम्।
आस्ते पातालमूलस्थः शेषोऽशेषसुरार्चितः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
व समस्त देवगणोंसे वन्दित शेषभगवान्् अशेष भूमण्डलको मुकुटवत् धारण किये हुए पाताल-तलमें विराजमान हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वीर्यं प्रभावश्च स्वरूपं रूपमेव च।
न हि वर्णयितुं शक्यं ज्ञातुं च त्रिदशैरपि॥ २१॥
मूलम्
तस्य वीर्यं प्रभावश्च स्वरूपं रूपमेव च।
न हि वर्णयितुं शक्यं ज्ञातुं च त्रिदशैरपि॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका बल-वीर्य, प्रभाव, स्वरूप (तत्त्व) और रूप (आकार) देवताओंसे भी नहीं जाना और कहा जा सकता॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यैषा सकला पृथ्वी फणामणिशिखारुणा।
आस्ते कुसुममालेव कस्तद्वीर्यं वदिष्यति॥ २२॥
मूलम्
यस्यैषा सकला पृथ्वी फणामणिशिखारुणा।
आस्ते कुसुममालेव कस्तद्वीर्यं वदिष्यति॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके फणोंकी मणियोंकी आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथिवी फूलोंकी मालाके समान रखी हुई है उनके बल-वीर्यका वर्णन भला कौन करेगा?॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा विजृम्भतेऽनन्तो मदाघूर्णितलोचनः।
तदा चलति भूरेषा साब्धितोया सकानना॥ २३॥
मूलम्
यदा विजृम्भतेऽनन्तो मदाघूर्णितलोचनः।
तदा चलति भूरेषा साब्धितोया सकानना॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते हैं उस समय समुद्र और वन आदिके सहित यह सम्पूर्ण पृथिवी चलायमान हो जाती है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः किन्नरोरगचारणाः।
नान्तं गुणानां गच्छन्ति तेनानन्तोऽयमव्ययः॥ २४॥
मूलम्
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः किन्नरोरगचारणाः।
नान्तं गुणानां गच्छन्ति तेनानन्तोऽयमव्ययः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके गुणोंका अन्त गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते; इसलिये ये अविनाशी देव ‘अनन्त’ कहलाते हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नागवधूहस्तैर्लेपितं हरिचन्दनम्।
मुहुः श्वासानिलापास्तं याति दिक्षूदवासताम्॥ २५॥
मूलम्
यस्य नागवधूहस्तैर्लेपितं हरिचन्दनम्।
मुहुः श्वासानिलापास्तं याति दिक्षूदवासताम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका नाग-वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन पुनः-पुनः श्वास-वायुसे छूट-छूटकर दिशाओंको सुगन्धित करता रहता है॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाराध्य पुराणर्षिर्गर्गो ज्योतींषि तत्त्वतः।
ज्ञातवान्सकलं चैव निमित्तपठितं फलम्॥ २६॥
मूलम्
यमाराध्य पुराणर्षिर्गर्गो ज्योतींषि तत्त्वतः।
ज्ञातवान्सकलं चैव निमित्तपठितं फलम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी आराधनासे पूर्वकालीन महर्षि गर्गने समस्त ज्योतिर्मण्डल (ग्रह-नक्षत्रादि) और शकुन-अपशकुनादि नैमित्तिक फलोंको तत्त्वतः जाना था॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता मही।
बिभर्ति मालां लोकानां सदेवासुरमानुषाम्॥ २७॥
मूलम्
तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता मही।
बिभर्ति मालां लोकानां सदेवासुरमानुषाम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन नागश्रेष्ठ शेषजीने इस पृथिवीको अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है, जो स्वयं भी देव, असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण लोकमाला (पातालादि समस्तलोकों)-को धारण किये हुए हैं॥ २७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥