२०

[बीसवाँ अध्याय]

विषय

प्रह्लादकृत भगवत्-स्तुति और भगवान‍्का आविर्भाव

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सञ्चिन्तयन्विष्णुमभेदेनात्मनो द्विज ।
तन्मयत्वमवाप्याग्र्यं मेने चात्मानमच्युतम्॥ १॥

मूलम्

एवं सञ्चिन्तयन्विष्णुमभेदेनात्मनो द्विज ।
तन्मयत्वमवाप्याग्र्यं मेने चात्मानमच्युतम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! इस प्रकार भगवान‍् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्युतरूप ही अनुभव किया॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसस्मार तथात्मानं नान्यत्किञ्चिदजानत ।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः परमात्मेत्यचिन्तयत्॥ २॥

मूलम्

विसस्मार तथात्मानं नान्यत्किञ्चिदजानत ।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः परमात्मेत्यचिन्तयत्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने-आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णु भगवान‍्के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस, केवल यही भावना चित्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद्भावनायोगात्क्षीणपापस्य वै क्रमात् ।
शुद्धेऽन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः॥ ३॥

मूलम्

तस्य तद्भावनायोगात्क्षीणपापस्य वै क्रमात् ।
शुद्धेऽन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भावनाके योगसे वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्तःकरणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णु भगवान‍् विराजमान हुए॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगप्रभावात्प्रह्लादे जाते विष्णुमयेऽसुरे ।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्मैत्रेय त्रुटितं क्षणात्॥ ४॥

मूलम्

योगप्रभावात्प्रह्लादे जाते विष्णुमयेऽसुरे ।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्मैत्रेय त्रुटितं क्षणात्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टूट गये॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रान्तग्राहगणः सोर्मिर्ययौ क्षोभं महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना॥ ५॥

मूलम्

भ्रान्तग्राहगणः सोर्मिर्ययौ क्षोभं महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तं शैलसङ्घातं दैत्यैर्न्यस्तमथोपरि ।
उत्क्षिप्य तस्मात्सलिलान्निश्चक्राम महामतिः॥ ६॥

मूलम्

स च तं शैलसङ्घातं दैत्यैर्न्यस्तमथोपरि ।
उत्क्षिप्य तस्मात्सलिलान्निश्चक्राम महामतिः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा च स जगद्भूयो गगनाद्युपलक्षणम् ।
प्रह्लादोऽस्मीति सस्मार पुनरात्मानमात्मनि॥ ७॥

मूलम्

दृष्ट्वा च स जगद्भूयो गगनाद्युपलक्षणम् ।
प्रह्लादोऽस्मीति सस्मार पुनरात्मानमात्मनि॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब आकाशादिरूप जगत‍्को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्‍कायमानसः॥ ८॥

मूलम्

तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्‍कायमानसः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन महाबुद्धिमान‍्ने मन, वाणी और शरीरके संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्रचित्तसे पुनः भगवान‍् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की॥ ८॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ नमः परमार्थार्थ स्थूलसूक्ष्म क्षराक्षर ।
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश निरञ्जन॥ ९॥

मूलम्

ॐ नमः परमार्थार्थ स्थूलसूक्ष्म क्षराक्षर ।
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश निरञ्जन॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी कहने लगे—हे परमार्थ! हे अर्थ (दृश्यरूप)! हे स्थूलसूक्ष्म (जाग्रत्-स्वप्नदृश्यस्वरूप)! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप)! हे व्यक्ताव्यक्त (दृश्यादृश्यस्वरूप)! हे कलातीत! हे सकलेश्वर! हे निरंजन देव! आपको नमस्कार है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन् गुणस्थित ।
मूर्त्तामूर्तमहामूर्ते सूक्ष्ममूर्ते स्फुटास्फुट॥ १०॥

मूलम्

गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन् गुणस्थित ।
मूर्त्तामूर्तमहामूर्ते सूक्ष्ममूर्ते स्फुटास्फुट॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गुणोंको अनुरंजित करनेवाले! हे गुणाधार! हे निर्गुणात्मन्! हे गुणस्थित! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमन्! हे सूक्ष्ममूर्ते! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप! [आपको नमस्कार है]॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करालसौम्यरूपात्मन‍‍्विद्याऽविद्यामयाच्युत ।
सदसद्‍रूपसद्भाव सदसद्भावभावन॥ ११॥

मूलम्

करालसौम्यरूपात्मन‍‍्विद्याऽविद्यामयाच्युत ।
सदसद्‍रूपसद्भाव सदसद्भावभावन॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विकराल और सुन्दररूप! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत! हे सदसत् (कार्यकारण) रूप जगत‍्के उद्भवस्थान और सदसज्जगत् के पालक! [आपको नमस्कार है]॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यानित्यप्रपञ्चात्मन्निष्प्रपञ्चामलाश्रित ।
एकानेक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण॥ १२॥

मूलम्

नित्यानित्यप्रपञ्चात्मन्निष्प्रपञ्चामलाश्रित ।
एकानेक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप) प्रपंचात्मन्! हे प्रपंचसे पृथक् रहनेवाले! हे ज्ञानियोंके आश्रयरूप! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव! [आपको नमस्कार है]॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटप्रकाशो
यः सर्वभूतो न च सर्वभूतः ।
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतो-
र्नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय॥ १३॥

मूलम्

यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटप्रकाशो
यः सर्वभूतो न च सर्वभूतः ।
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतो-
र्नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट-प्रकाशमय हैं, जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भूतादिसे परे हैं, विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है; उन पुरुषोत्तम भगवान‍्को नमस्कार है॥ १३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तच्चेतसो देवः स्तुतिमित्थं प्रकुर्वतः ।
आविर्बभूव भगवान‍् पीताम्बरधरो हरिः॥ १४॥

मूलम्

तस्य तच्चेतसो देवः स्तुतिमित्थं प्रकुर्वतः ।
आविर्बभूव भगवान‍् पीताम्बरधरो हरिः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान‍् हरि प्रकट हुए॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससम्भ्रमस्तमालोक्य समुत्थायाकुलाक्षरम् ।
नमोऽस्तु विष्णवेत्येतद् व्याजहारासकृद् द्विज॥ १५॥

मूलम्

ससम्भ्रमस्तमालोक्य समुत्थायाकुलाक्षरम् ।
नमोऽस्तु विष्णवेत्येतद् व्याजहारासकृद् द्विज॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गद‍्गद वाणीसे ‘विष्णु भगवान‍्को नमस्कार है! विष्णु भगवान‍्को नमस्कार है!’ ऐसा बारम्बार कहने लगे॥ १५॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव प्रपन्नार्त्तिहर प्रसादं कुरु केशव ।
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्युत॥ १६॥

मूलम्

देव प्रपन्नार्त्तिहर प्रसादं कुरु केशव ।
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्युत॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव! प्रसन्न होइये । हे अच्युत! अपने पुण्य-दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये॥ १६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वतस्ते प्रसन्नोऽहं भक्तिमव्यभिचारिणीम् ।
यथाभिलषितो मत्तः प्रह्लाद व्रियतां वरः॥ १७॥

मूलम्

कुर्वतस्ते प्रसन्नोऽहं भक्तिमव्यभिचारिणीम् ।
यथाभिलषितो मत्तः प्रह्लाद व्रियतां वरः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍् बोले—हे प्रह्लाद! मैं तेरी अनन्यभक्तिसे अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँग ले॥ १७॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि॥ १८॥

मूलम्

नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—हे नाथ! सहस्रों योनियोंमेंसे मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी-उसीमें, हे अच्युत! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी ।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु॥ १९॥

मूलम्

या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी ।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविवेकी पुरुषोंकी विषयोंमें जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदयसे कभी दूर न हो॥ १९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि भक्तिस्तवास्त्येव भूयोऽप्येवं भविष्यति ।
वरस्तु मत्तः प्रह्लाद व्रियतां यस्तवेप्सितः॥ २०॥

मूलम्

मयि भक्तिस्तवास्त्येव भूयोऽप्येवं भविष्यति ।
वरस्तु मत्तः प्रह्लाद व्रियतां यस्तवेप्सितः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍् बोले—हे प्रह्लाद! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा हो मुझसे माँग ले॥ २०॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि द्वेषानुबन्धोऽभूत्संस्तुतावुद्यते तव ।
मत्पितुस्तत्कृतं पापं देव तस्य प्रणश्यतु॥ २१॥

मूलम्

मयि द्वेषानुबन्धोऽभूत्संस्तुतावुद्यते तव ।
मत्पितुस्तत्कृतं पापं देव तस्य प्रणश्यतु॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—हे देव! आपकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है, उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्राणि पातितान्यङ्गे क्षिप्तो यच्चाग्निसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दत्तं यद्विषं मम भोजने॥ २२॥
बद्धा समुद्रे यत्क्षिप्तो यच्चितोऽस्मि शिलोच्चयैः ।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि पित्रा कृतानि मे॥ २३॥
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादघं तत्सम्भवं च यत् ।
त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्येत मे पिता॥ २४॥

मूलम्

शस्त्राणि पातितान्यङ्गे क्षिप्तो यच्चाग्निसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दत्तं यद्विषं मम भोजने॥ २२॥
बद्धा समुद्रे यत्क्षिप्तो यच्चितोऽस्मि शिलोच्चयैः ।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि पित्रा कृतानि मे॥ २३॥
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादघं तत्सम्भवं च यत् ।
त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्येत मे पिता॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके अतिरिक्त [ उनकी आज्ञासे ] मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये—मुझे अग्निसमूहमें डाला गया, सर्पोंसे कटवाया गया, भोजनमें विष दिया गया, बाँधकर समुद्रमें डाला गया, शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहार पिताजीने मेरे साथ किये हैं, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जायँ॥ २२—२४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रह्लाद सर्वमेतत्ते मत्प्रसादाद्भविष्यति ।
अन्यच्च ते वरं दद्मि व्रियतामसुरात्मज॥ २५॥

मूलम्

प्रह्लाद सर्वमेतत्ते मत्प्रसादाद्भविष्यति ।
अन्यच्च ते वरं दद्मि व्रियतामसुरात्मज॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍् बोले—हे प्रह्लाद! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी । हे असुरकुमार! मैं तुमको एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो॥ २५॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतकृत्योऽस्मि भगवन‍्वरेणानेन यत्त्वयि ।
भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी॥ २६॥

मूलम्

कृतकृत्योऽस्मि भगवन‍्वरेणानेन यत्त्वयि ।
भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—हे भगवन्! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता ।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि॥ २७॥

मूलम्

धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता ।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! सम्पूर्ण जगत‍्के कारणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है, फिर धर्म, अर्थ, कामसे तो उसे लेना ही क्या है?॥ २७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ते निश्चलं चेतो मयि भक्तिसमन्वितम् ।
तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणं परमाप्स्यसि॥ २८॥

मूलम्

यथा ते निश्चलं चेतो मयि भक्तिसमन्वितम् ।
तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणं परमाप्स्यसि॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍् बोले—हे प्रह्लाद! मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा॥ २८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वान‍्तर्दधे विष्णुस्तस्य मैत्रेय पश्यतः ।
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः॥ २९॥

मूलम्

इत्युक्त्वान‍्तर्दधे विष्णुस्तस्य मैत्रेय पश्यतः ।
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! ऐसा कह भगवान‍् उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये; और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पिता मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य च पीडितम् ।
जीवसीत्याह वत्सेति बाष्पार्द्रनयनो द्विज॥ ३०॥

मूलम्

तं पिता मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य च पीडितम् ।
जीवसीत्याह वत्सेति बाष्पार्द्रनयनो द्विज॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखोंमें आँसू भरकर कहा—‘बेटा, जीता तो है!’॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिमांश्चाऽभवत्तस्मिन्ननुतापी महासुरः ।
गुरुपित्रोश्चकारैवं शुश्रूषां सोऽपि धर्मवित्॥ ३१॥

मूलम्

प्रीतिमांश्चाऽभवत्तस्मिन्ननुतापी महासुरः ।
गुरुपित्रोश्चकारैवं शुश्रूषां सोऽपि धर्मवित्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता-पिताकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितर्युपरतिं नीते नरसिंहस्वरूपिणा ।
विष्णुना सोऽपि दैत्यानां मैत्रेयाभूत्पतिस्ततः॥ ३२॥

मूलम्

पितर्युपरतिं नीते नरसिंहस्वरूपिणा ।
विष्णुना सोऽपि दैत्यानां मैत्रेयाभूत्पतिस्ततः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान‍् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राज्यद्युतिं प्राप्य कर्मशुद्धिकरीं द्विज ।
पुत्रपौत्रांश्च सुबहूनवाप्यैश्वर्यमेव च॥ ३३॥
क्षीणाधिकारः स यदा पुण्यपापविवर्जितः ।
तदा स भगवद्ध्यानात्परं निर्वाणमाप्तवान‍्॥ ३४॥

मूलम्

ततो राज्यद्युतिं प्राप्य कर्मशुद्धिकरीं द्विज ।
पुत्रपौत्रांश्च सुबहूनवाप्यैश्वर्यमेव च॥ ३३॥
क्षीणाधिकारः स यदा पुण्यपापविवर्जितः ।
तदा स भगवद्ध्यानात्परं निर्वाणमाप्तवान‍्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत-से पुत्र-पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्य-पापसे रहित हो भगवान‍्का ध्यान करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंप्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीन्महामतिः ।
प्रह्लादो भगवद्भक्तो यं त्वं मामनुपृच्छसि॥ ३५॥

मूलम्

एवंप्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीन्महामतिः ।
प्रह्लादो भगवद्भक्तो यं त्वं मामनुपृच्छसि॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! जिनके विषयमें तुमने पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वेतच्चरितं तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः ।
शृणोति तस्य पापानि सद्यो गच्छन्ति सङ्क्षयम्॥ ३६॥

मूलम्

यस्त्वेतच्चरितं तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः ।
शृणोति तस्य पापानि सद्यो गच्छन्ति सङ्क्षयम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रकृतं पापं प्रह्लादचरितं नरः ।
शृण्वन‍्पठंश्च मैत्रेय व्यपोहति न संशयः॥ ३७॥

मूलम्

अहोरात्रकृतं पापं प्रह्लादचरितं नरः ।
शृण्वन‍्पठंश्च मैत्रेय व्यपोहति न संशयः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लाद-चरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन-रातके (निरन्तर) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौर्णमास्याममावास्यामष्टम्यामथ वा पठन् ।
द्वादश्यां वा तदाप्नोति गोप्रदानफलं द्विज॥ ३८॥

मूलम्

पौर्णमास्याममावास्यामष्टम्यामथ वा पठन् ।
द्वादश्यां वा तदाप्नोति गोप्रदानफलं द्विज॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढ़नेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान‍्हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य शृणोति चरितं सदा॥ ३९॥

मूलम्

प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान‍्हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य शृणोति चरितं सदा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार भगवान‍्ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है॥ ३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे विंशोऽध्यायः॥ २०॥