१९

[उन्नीसवाँ अध्याय]

विषय

प्रह्लादकृत भगवत्-गुण-वर्णन और प्रह्लादकी रक्षाके लिये भगवान‍्का सुदर्शनचक्रको भेजना

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यकशिपुः श्रुत्वा तां कृत्यां वितथीकृताम्।
आहूय पुत्रं पप्रच्छ प्रभावस्यास्य कारणम्॥ १॥

मूलम्

हिरण्यकशिपुः श्रुत्वा तां कृत्यां वितथीकृताम्।
आहूय पुत्रं पप्रच्छ प्रभावस्यास्य कारणम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हिरण्यकशिपुने कृत्याको भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्लादको बुलाकर उनके इस प्रभावका कारण पूछा॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रह्लाद सुप्रभावोऽसि किमेतत्ते विचेष्टितम्।
एतन्मन्त्रादिजनितमुताहो सहजं तव॥ २॥

मूलम्

प्रह्लाद सुप्रभावोऽसि किमेतत्ते विचेष्टितम्।
एतन्मन्त्रादिजनितमुताहो सहजं तव॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु बोला—अरे प्रह्लाद! तू बड़ा प्रभावशाली है! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित हैं या स्वाभाविक ही हैं॥ २॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पृष्टस्तदा पित्रा प्रह्लादोऽसुरबालकः।
प्रणिपत्य पितुः पादाविदं वचनमब्रवीत्॥ ३॥

मूलम्

एवं पृष्टस्तदा पित्रा प्रह्लादोऽसुरबालकः।
प्रणिपत्य पितुः पादाविदं वचनमब्रवीत्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—पिताके इस प्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रह्लादजीने उसके चरणोंमें प्रणाम कर इस प्रकार कहा—॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मन्त्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम।
प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि॥ ४॥

मूलम्

न मन्त्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम।
प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘पिताजी! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस-जिसके हृदयमें श्रीअच्युत भगवान‍्का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा।
तस्य पापागमस्तात हेत्वभावान‍्न विद्यते॥ ५॥

मूलम्

अन्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा।
तस्य पापागमस्तात हेत्वभावान‍्न विद्यते॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अपने समान दूसरोंका बुरा नहीं सोचता, हे तात! कोई कारण न रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं होता॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः।
तद‍्बीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाशुभम्॥ ६॥

मूलम्

कर्मणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः।
तद‍्बीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाशुभम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य मन, वचन या कर्मसे दूसरोंको कष्ट देता है उसके उस परपीडारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा।
चिन्तयन्सर्वभूतस्थमात्मन्यपि च केशवम्॥ ७॥

मूलम्

सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा।
चिन्तयन्सर्वभूतस्थमात्मन्यपि च केशवम्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सहित समस्त प्राणियोंमें श्रीकेशवको वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारीरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा।
सर्वत्र शुभचित्तस्य तस्य मे जायते कुतः॥ ८॥

मूलम्

शारीरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा।
सर्वत्र शुभचित्तस्य तस्य मे जायते कुतः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होनेसे मुझको शारीरिक, मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है?॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी।
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥ ९॥

मूलम्

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी।
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार भगवान‍्को सर्वभूतमय जानकर विद्वानोंको सभी प्राणियोंमें अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये’’॥ ९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा स दैत्येन्द्रः प्रासादशिखरे स्थितः।
क्रोधान्धकारितमुखः प्राह दैतेयकिङ्करान्॥ १०॥

मूलम्

इति श्रुत्वा स दैत्येन्द्रः प्रासादशिखरे स्थितः।
क्रोधान्धकारितमुखः प्राह दैतेयकिङ्करान्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—अपने महलकी अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य अनुचरोंसे कहा॥ १०॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरात्मा क्षिप्यतामस्मात्प्रासादाच्छतयोजनात्।
गिरिपृष्ठे पतत्वस्मिन् शिलाभिन्नाङ्गसंहतिः॥ ११॥

मूलम्

दुरात्मा क्षिप्यतामस्मात्प्रासादाच्छतयोजनात्।
गिरिपृष्ठे पतत्वस्मिन् शिलाभिन्नाङ्गसंहतिः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु बोला—यह बड़ा दुरात्मा है, इसे इस सौ योजन ऊँचे महलसे गिरा दो, जिससे यह इस पर्वतके ऊपर गिरे और शिलाओंसे इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायँ॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं चिक्षिपुः सर्वे बालं दैतेयदानवाः।
पपात सोप्यधः क्षिप्तो हृदयेनोद्वहन्हरिम्॥ १२॥

मूलम्

ततस्तं चिक्षिपुः सर्वे बालं दैतेयदानवाः।
पपात सोप्यधः क्षिप्तो हृदयेनोद्वहन्हरिम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महलसे गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलनेसे हृदयमें श्रीहरिका स्मरण करते-करते नीचे गिर गये॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतमानं जगद्धात्री जगद्धातरि केशवे।
भक्तियुक्तं दधारैनमुपसङ्गम्य मेदिनी॥ १३॥

मूलम्

पतमानं जगद्धात्री जगद्धातरि केशवे।
भक्तियुक्तं दधारैनमुपसङ्गम्य मेदिनी॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्कर्ता भगवान‍् केशवके परमभक्त प्रह्लादजीके गिरते समय उन्हें जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विलोक्य तं स्वस्थमविशीर्णास्थिपञ्जरम्।
हिरण्यकशिपुः प्राह शम्बरं मायिनां वरम्॥ १४॥

मूलम्

ततो विलोक्य तं स्वस्थमविशीर्णास्थिपञ्जरम्।
हिरण्यकशिपुः प्राह शम्बरं मायिनां वरम्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बिना किसी हड्डी-पसलीके टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कहा॥ १४॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्माभिः शक्यते हन्तुमसौ दुर्बुद्धिबालकः।
मायां वेत्ति भवांस्तस्मान्माययैनं निषूदय॥ १५॥

मूलम्

नास्माभिः शक्यते हन्तुमसौ दुर्बुद्धिबालकः।
मायां वेत्ति भवांस्तस्मान्माययैनं निषूदय॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु बोला—यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे यह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप मायासे ही इसे मार डालिये॥ १५॥

मूलम् (वचनम्)

शम्बर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूदयाम्येव दैत्येन्द्र पश्य मायाबलं मम।
सहस्रमत्र मायानां पश्य कोटिशतं तथा॥ १६॥

मूलम्

सूदयाम्येव दैत्येन्द्र पश्य मायाबलं मम।
सहस्रमत्र मायानां पश्य कोटिशतं तथा॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

शम्बरासुर बोला—हे दैत्येन्द्र! इस बालकको मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी मायाका बल देखो। देखो, मैं तुम्हें सैकड़ों-हजारों-करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ॥ १६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स ससृजे मायां प्रह्लादे शम्बरोऽसुरः।
विनाशमिच्छन्दुर्बुद्धिः सर्वत्र समदर्शिनि॥ १७॥

मूलम्

ततः स ससृजे मायां प्रह्लादे शम्बरोऽसुरः।
विनाशमिच्छन्दुर्बुद्धिः सर्वत्र समदर्शिनि॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुरने समदर्शी प्रह्लादके लिये, उनके नाशकी इच्छासे बहुत-सी मायाएँ रचीं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितमतिर्भूत्वा शम्बरेऽपि विमत्सरः।
मैत्रेय सोऽपि प्रह्लादः सस्मार मधुसूदनम्॥ १८॥

मूलम्

समाहितमतिर्भूत्वा शम्बरेऽपि विमत्सरः।
मैत्रेय सोऽपि प्रह्लादः सस्मार मधुसूदनम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु, हे मैत्रेय! शम्बरासुरके प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रह्लादजी सावधान चित्तसे श्रीमधुसूदन भगवान‍्का स्मरण करते रहे॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भगवता तस्य रक्षार्थं चक्रमुत्तमम्।
आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम्॥ १९॥

मूलम्

ततो भगवता तस्य रक्षार्थं चक्रमुत्तमम्।
आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान‍्की आज्ञासे उनकी रक्षाके लिये वहाँ ज्वाला-मालाओंसे युक्त सुदर्शन चक्र आ गया॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना।
बालस्य रक्षता देहमेकैकं च विशोधितम्॥ २०॥

मूलम्

तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना।
बालस्य रक्षता देहमेकैकं च विशोधितम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्रने उस बालककी रक्षा करते हुए शम्बरासुरकी सहस्रों मायाओंको एक-एक करके नष्ट कर दिया॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशोषकं तथा वायुं दैत्येन्द्रस्त्विदमब्रवीत्।
शीघ्रमेष ममादेशाद्दुरात्मा नीयतां क्षयम्॥ २१॥

मूलम्

संशोषकं तथा वायुं दैत्येन्द्रस्त्विदमब्रवीत्।
शीघ्रमेष ममादेशाद्दुरात्मा नीयतां क्षयम्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दैत्यराजने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र ही इस दुरात्माको नष्ट कर दो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा तु सोऽप्येनं विवेश पवनो लघु।
शीतोऽतिरूक्षः शोषाय तद्देहस्यातिदुःसहः॥ २२॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा तु सोऽप्येनं विवेश पवनो लघु।
शीतोऽतिरूक्षः शोषाय तद्देहस्यातिदुःसहः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उस अति तीव्र शीतल और रूक्ष वायुने, जो अति असहनीय था ‘जो आज्ञा’ कह उनके शरीरको सुखानेके लिये उसमें प्रवेश किया॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाविष्टमथात्मानं स बुद्‍ध्वा दैत्यबालकः।
हृदयेन महात्मानं दधार धरणीधरम्॥ २३॥

मूलम्

तेनाविष्टमथात्मानं स बुद्‍ध्वा दैत्यबालकः।
हृदयेन महात्मानं दधार धरणीधरम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने शरीरमें वायुका आवेश हुआ जान दैत्यकुमार प्रह्लादने भगवान‍् धरणीधरको हृदयमें धारण किया॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयस्थस्ततस्तस्य तं वायुमतिभीषणम्।
पपौ जनार्दनः क्रुद्धः स ययौ पवनः क्षयम्॥ २४॥

मूलम्

हृदयस्थस्ततस्तस्य तं वायुमतिभीषणम्।
पपौ जनार्दनः क्रुद्धः स ययौ पवनः क्षयम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके हृदयमें स्थित हुए श्रीजनार्दनने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायुको पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणासु सर्वमायासु पवने च क्षयं गते।
जगाम सोऽपि भवनं गुरोरेव महामतिः॥ २५॥

मूलम्

क्षीणासु सर्वमायासु पवने च क्षयं गते।
जगाम सोऽपि भवनं गुरोरेव महामतिः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओंके क्षीण हो जानेपर महामति प्रह्लादजी अपने गुरुके घर चले गये॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहन्यहन्यथाचार्यो नीतिं राज्यफलप्रदाम्।
ग्राहयामास तं बालं राज्ञामुशनसा कृताम्॥ २६॥

मूलम्

अहन्यहन्यथाचार्यो नीतिं राज्यफलप्रदाम्।
ग्राहयामास तं बालं राज्ञामुशनसा कृताम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गुरुजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजीकी बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीतिका अध्ययन कराने लगे॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतनीतिशास्त्रं तं विनीतं च यदा गुरुः।
मेने तदैनं तत्पित्रे कथयामास शिक्षितम्॥ २७॥

मूलम्

गृहीतनीतिशास्त्रं तं विनीतं च यदा गुरुः।
मेने तदैनं तत्पित्रे कथयामास शिक्षितम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब गुरुजीने उन्हें नीतिशास्त्रमें निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा—‘अब यह सुशिक्षित हो गया है’॥ २७॥

मूलम् (वचनम्)

आचार्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतनीतिशास्त्रस्ते पुत्रो दैत्यपते कृतः।
प्रह्लादस्तत्त्वतो वेत्ति भार्गवेण यदीरितम्॥ २८॥

मूलम्

गृहीतनीतिशास्त्रस्ते पुत्रो दैत्यपते कृतः।
प्रह्लादस्तत्त्वतो वेत्ति भार्गवेण यदीरितम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्य बोले—हे दैत्यराज! अब हमने तुम्हारे पुत्रको नीतिशास्त्रमें पूर्णतया निपुण कर दिया है, भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीने जो कुछ कहा है उसे प्रह्लाद तत्त्वतः जानता है॥ २८॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रेषु वर्तेत कथमरिवर्गेषु भूपतिः।
प्रह्लाद त्रिषु लोकेषु मध्यस्थेषु कथं चरेत्॥ २९॥

मूलम्

मित्रेषु वर्तेत कथमरिवर्गेषु भूपतिः।
प्रह्लाद त्रिषु लोकेषु मध्यस्थेषु कथं चरेत्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु बोला—प्रह्लाद! [यह तो बता] राजाको मित्रोंसे कैसा बर्ताव करना चाहिये? और शत्रुओंसे कैसा? तथा त्रिलोकीमें जो मध्यस्थ (दोनों पक्षोंके हितचिन्तक) हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे?॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं मन्त्रिष्वमात्येषु बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च।
चारेषु पौरवर्गेषु शङ्कितेष्वितरेषु च॥ ३०॥

मूलम्

कथं मन्त्रिष्वमात्येषु बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च।
चारेषु पौरवर्गेषु शङ्कितेष्वितरेषु च॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियों, अमात्यों, बाह्य और अन्तःपुरके सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों (जिन्हें जीतकर बलात् दास बना लिया हो) तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये?॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्याकृत्यविधानञ्च दुर्गाटविकसाधनम्।
प्रह्लाद कथ्यतां सम्यक् तथा कण्टकशोधनम्॥ ३१॥

मूलम्

कृत्याकृत्यविधानञ्च दुर्गाटविकसाधनम्।
प्रह्लाद कथ्यतां सम्यक् तथा कण्टकशोधनम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रह्लाद! यह ठीक-ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्योंका विधान किस प्रकार करे, दुर्ग और आटविक (जंगलीमनुष्य) आदिको किस प्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरूप काँटेको कैसे निकाले?॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चान्यच्च सकलमधीतं भवता यथा।
तथा मे कथ्यतां ज्ञातुं तवेच्छामि मनोगतम्॥ ३२॥

मूलम्

एतच्चान्यच्च सकलमधीतं भवता यथा।
तथा मे कथ्यतां ज्ञातुं तवेच्छामि मनोगतम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मैं तेरे मनके भावोंको जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ॥ ३२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणिपत्य पितुः पादौ तदा प्रश्रयभूषणः।
प्रह्लादः प्राह दैत्येन्द्रं कृताञ्जलिपुटस्तथा॥ ३३॥

मूलम्

प्रणिपत्य पितुः पादौ तदा प्रश्रयभूषणः।
प्रह्लादः प्राह दैत्येन्द्रं कृताञ्जलिपुटस्तथा॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तब विनयभूषण प्रह्लादजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे हाथ जोड़कर कहा॥ ३३॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममोपदिष्टं सकलं गुरुणा नात्र संशयः।
गृहीतं तु मया किन्तु न सदेतन्मतं मम॥ ३४॥

मूलम्

ममोपदिष्टं सकलं गुरुणा नात्र संशयः।
गृहीतं तु मया किन्तु न सदेतन्मतं मम॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—पिताजी! इसमें सन्देह नहीं, गुरुजीने तो मुझे इन सभी विषयोंकी शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नहीं हैं॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साम चोपप्रदानं च भेददण्डौ तथापरौ।
उपायाः कथिताः सर्वे मित्रादीनां च साधने॥ ३५॥

मूलम्

साम चोपप्रदानं च भेददण्डौ तथापरौ।
उपायाः कथिताः सर्वे मित्रादीनां च साधने॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

साम, दान तथा दण्ड और भेद—ये सब उपाय मित्रादिके साधनेके लिये बतलाये गये हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानेवाहं न पश्यामि मित्रादींस्तात मा क्रुधः।
साध्याभावे महाबाहो साधनैः किं प्रयोजनम्॥ ३६॥

मूलम्

तानेवाहं न पश्यामि मित्रादींस्तात मा क्रुधः।
साध्याभावे महाबाहो साधनैः किं प्रयोजनम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु, पिताजी! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे महाबाहो! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनोंसे लेना ही क्या है?॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये।
परमात्मनि गोविन्दे मित्रामित्रकथा कुतः॥ ३७॥

मूलम्

सर्वभूतात्मके तात जगन्नाथे जगन्मये।
परमात्मनि गोविन्दे मित्रामित्रकथा कुतः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमें भला शत्रु-मित्रकी बात ही कहाँ है?॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वय्यस्ति भगवान‍् विष्णुर्मयि चान्यत्र चास्ति सः।
यतस्ततोऽयं मित्रं मे शत्रुश्चेति पृथक्‍कुतः॥ ३८॥

मूलम्

त्वय्यस्ति भगवान‍् विष्णुर्मयि चान्यत्र चास्ति सः।
यतस्ततोऽयं मित्रं मे शत्रुश्चेति पृथक्‍कुतः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीविष्णु भगवान‍् तो आपमें, मुझमें और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान हैं, फिर ‘यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है’ ऐसे भेदभावको स्थान ही कहाँ है?॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेभिरलमत्यर्थं दुष्टारम्भोक्तिविस्तरैः।
अविद्यान्तर्गतैर्यत्नः कर्त्तव्यस्तात शोभने॥ ३९॥

मूलम्

तदेभिरलमत्यर्थं दुष्टारम्भोक्तिविस्तरैः।
अविद्यान्तर्गतैर्यत्नः कर्त्तव्यस्तात शोभने॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये, हे तात! अविद्याजन्य दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जालको सर्वथा छोड़कर अपने शुभके लिये ही यत्न करना चाहिये॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्याबुद्धिरविद्यायामज्ञानात्तात जायते।
बालोऽग्निं किं न खद्योतमसुरेश्वर मन्यते॥ ४०॥

मूलम्

विद्याबुद्धिरविद्यायामज्ञानात्तात जायते।
बालोऽग्निं किं न खद्योतमसुरेश्वर मन्यते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दैत्यराज! अज्ञानके कारण ही मनुष्योंकी अविद्यामें विद्या-बुद्धि होती है। बालक क्या अज्ञानवश खद्योतको ही अग्नि नहीं समझ लेता?॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥ ४१॥

मूलम्

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतदवगम्याहमसारं सारमुत्तमम्।
निशामय महाभाग प्रणिपत्य ब्रवीमि ते॥ ४२॥

मूलम्

तदेतदवगम्याहमसारं सारमुत्तमम्।
निशामय महाभाग प्रणिपत्य ब्रवीमि ते॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाभाग! इस प्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चिन्तयति को राज्यं को धनं नाभिवाञ्छति।
तथापि भाव्यमेवैतदुभयं प्राप्यते नरैः॥ ४३॥

मूलम्

न चिन्तयति को राज्यं को धनं नाभिवाञ्छति।
तथापि भाव्यमेवैतदुभयं प्राप्यते नरैः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

राज्य पानेकी चिन्ता किसे नहीं होती और धनकी अभिलाषा भी किसको नहीं है? तथापि ये दोनों मिलते उन्हींको हैं जिन्हें मिलनेवाले होते हैं॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व एव महाभाग महत्त्वं प्रति सोद्यमाः।
तथापि पुंसां भाग्यानि नोद्यमा भूतिहेतवः॥ ४४॥

मूलम्

सर्व एव महाभाग महत्त्वं प्रति सोद्यमाः।
तथापि पुंसां भाग्यानि नोद्यमा भूतिहेतवः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाभाग! महत्त्व-प्राप्तिके लिये सभी यत्न करते हैं, तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है, उद्यम नहीं॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जडानामविवेकानामशूराणामपि प्रभो।
भाग्यभोज्यानि राज्यानि सन्त्यनीतिमतामपि॥ ४५॥

मूलम्

जडानामविवेकानामशूराणामपि प्रभो।
भाग्यभोज्यानि राज्यानि सन्त्यनीतिमतामपि॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! जड, अविवेकी, निर्बल और अनीतिज्ञोंको भी भाग्यवश नाना प्रकारके भोग और राज्यादि प्राप्त होते हैं॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद्यतेत पुण्येषु य इच्छेन्महतीं श्रियम्।
यतितव्यं समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता॥ ४६॥

मूलम्

तस्माद्यतेत पुण्येषु य इच्छेन्महतीं श्रियम्।
यतितव्यं समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जिसे महान् वैभवकी इच्छा हो उसे केवल पुण्य संचयका ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्षकी इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः।
रूपमेतदनन्तस्य विष्णोर्भिन्नमिव स्थितम्॥ ४७॥

मूलम्

देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः।
रूपमेतदनन्तस्य विष्णोर्भिन्नमिव स्थितम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृप—ये सब भगवान‍् विष्णुसे भिन्न-से स्थित हुए भी वास्तवमें श्रीअनन्तके ही रूप हैं॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्विजानता सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
द्रष्टव्यमात्मवद्विष्णुर्यतोऽयं विश्वरूपधृक्॥ ४८॥

मूलम्

एतद्विजानता सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
द्रष्टव्यमात्मवद्विष्णुर्यतोऽयं विश्वरूपधृक्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस बातको जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत‍्को आत्मवत् देखे, क्योंकि यह सब विश्व-रूपधारी भगवान‍् विष्णु ही हैं॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ज्ञाते स भगवाननादिः परमेश्वरः।
प्रसीदत्यच्युतस्तस्मिन्प्रसन्ने क्लेशसङ्क्षयः॥ ४९॥

मूलम्

एवं ज्ञाते स भगवाननादिः परमेश्वरः।
प्रसीदत्यच्युतस्तस्मिन्प्रसन्ने क्लेशसङ्क्षयः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान‍् अच्युत प्रसन्न होते हैं और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते हैं॥ ४९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु कोपेन समुत्थाय वरासनात्।
हिरण्यकशिपुः पुत्रं पदा वक्षस्यताडयत्॥ ५०॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु कोपेन समुत्थाय वरासनात्।
हिरण्यकशिपुः पुत्रं पदा वक्षस्यताडयत्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासनसे उठकर पुत्र प्रह्लादके वक्षःस्थलमें लात मारी॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच च स कोपेन सामर्षः प्रज्वलन्निव।
निष्पिष्य पाणिना पाणिं हन्तुकामो जगद्यथा॥ ५१॥

मूलम्

उवाच च स कोपेन सामर्षः प्रज्वलन्निव।
निष्पिष्य पाणिना पाणिं हन्तुकामो जगद्यथा॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

और क्रोध तथा अमर्षसे जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसारको मार डालेगा इस प्रकार हाथ मलता हुआ बोला॥ ५१॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे विप्रचित्ते हे राहो हे बलैष महार्णवे।
नागपाशैर्दृढैर्बद्‍ध्वा क्षिप्यतां मा विलम्ब्यताम्॥ ५२॥

मूलम्

हे विप्रचित्ते हे राहो हे बलैष महार्णवे।
नागपाशैर्दृढैर्बद्‍ध्वा क्षिप्यतां मा विलम्ब्यताम्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपुने कहा—हे विप्रचित्ते! हे राहो! हे बल! तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाशसे बाँधकर महासागरमें डाल दो, देरी मत करो॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा सकला लोकास्तथा दैतेयदानवाः।
अनुयास्यन्ति मूढस्य मतमस्य दुरात्मनः॥ ५३॥

मूलम्

अन्यथा सकला लोकास्तथा दैतेयदानवाः।
अनुयास्यन्ति मूढस्य मतमस्य दुरात्मनः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य-दानव आदि भी इस मूढ दुरात्माके मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात् इसकी तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायँगे ]॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुशो वारितोऽस्माभिरयं पापस्तथाप्यरेः।
स्तुतिं करोति दुष्टानां वध एवोपकारकः॥ ५४॥

मूलम्

बहुशो वारितोऽस्माभिरयं पापस्तथाप्यरेः।
स्तुतिं करोति दुष्टानां वध एवोपकारकः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने इसे बहुतेरा रोका, तथापि यह दुष्ट शत्रुकी ही स्तुति किये जाता है। ठीक है, दुष्टोंको तो मार देना ही लाभदायक होता है॥ ५४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते सत्वरा दैत्या बद्‍ध्वा तं नागबन्धनैः।
भर्तुराज्ञां पुरस्कृत्य चिक्षिपुः सलिलार्णवे॥ ५५॥

मूलम्

ततस्ते सत्वरा दैत्या बद्‍ध्वा तं नागबन्धनैः।
भर्तुराज्ञां पुरस्कृत्य चिक्षिपुः सलिलार्णवे॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तब उन दैत्योंने अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य कर तुरन्त ही उन्हें नागपाशसे बाँधकर समुद्रमें डाल दिया॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चचाल चलता प्रह्लादेन महार्णवः।
उद्वेलोऽभूत्परं क्षोभमुपेत्य च समन्ततः॥ ५६॥

मूलम्

ततश्चचाल चलता प्रह्लादेन महार्णवः।
उद्वेलोऽभूत्परं क्षोभमुपेत्य च समन्ततः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय प्रह्लादजीके हिलने-डुलनेसे सम्पूर्ण महासागरमें हलचल मच गयी और अत्यन्त क्षोभके कारण उसमें सब ओर ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूर्लोकमखिलं दृष्ट्वा प्लाव्यमानं महाम्भसा।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यानिदमाह महामते॥ ५७॥

मूलम्

भूर्लोकमखिलं दृष्ट्वा प्लाव्यमानं महाम्भसा।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यानिदमाह महामते॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामते! उस महान् जल-पूरसे सम्पूर्ण पृथिवीको डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस प्रकार कहा॥ ५७॥

मूलम् (वचनम्)

हिरण्यकशिपुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैतेयाः सकलैः शैलैरत्रैव वरुणालये।
निश्छिद्रैः सर्वशः सर्वैश्चीयतामेष दुर्मतिः॥ ५८॥

मूलम्

दैतेयाः सकलैः शैलैरत्रैव वरुणालये।
निश्छिद्रैः सर्वशः सर्वैश्चीयतामेष दुर्मतिः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु बोला—अरे दैत्यो! तुम इस दुर्मतिको इस समुद्रके भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतोंसे दबा दो॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैश्छिन्नो न चोरगैः।
क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कृत्यया॥ ५९॥
न मायाभिर्न चैवोच्चात्पातितो न च दिग्गजैः।
बालोऽतिदुष्टचित्तोऽयं नानेनार्थोऽस्ति जीवता॥ ६०॥

मूलम्

नाग्निर्दहति नैवायं शस्त्रैश्छिन्नो न चोरगैः।
क्षयं नीतो न वातेन न विषेण न कृत्यया॥ ५९॥
न मायाभिर्न चैवोच्चात्पातितो न च दिग्गजैः।
बालोऽतिदुष्टचित्तोऽयं नानेनार्थोऽस्ति जीवता॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, इसे न तो अग्निने जलाया, न यह शस्त्रोंसे कटा, न सर्पोंसे नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओंसे, ऊपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोंसे ही मारा गया। यह बालक अत्यन्त दुष्ट-चित्त है, अब इसके जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है॥ ५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेष तोयमध्ये तु समाक्रान्तो महीधरैः।
तिष्ठत्वब्दसहस्रान्तं प्राणान्हास्यति दुर्मतिः॥ ६१॥

मूलम्

तदेष तोयमध्ये तु समाक्रान्तो महीधरैः।
तिष्ठत्वब्दसहस्रान्तं प्राणान्हास्यति दुर्मतिः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अब यह पर्वतोंसे लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दैत्या दानवाश्च पर्वतैस्तं महोदधौ।
आक्रम्य चयनं चक्रुर्योजनानि सहस्रशः॥ ६२॥

मूलम्

ततो दैत्या दानवाश्च पर्वतैस्तं महोदधौ।
आक्रम्य चयनं चक्रुर्योजनानि सहस्रशः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दैत्य और दानवोंने उसे समुद्रमें ही पर्वतोंसे ढँककर उसके ऊपर हजारों योजनका ढेर कर दिया॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चित्तः पर्वतैरन्तः समुद्रस्य महामतिः।
तुष्टावाह्निकवेलायामेकाग्रमतिरच्युतम्॥ ६३॥

मूलम्

स चित्तः पर्वतैरन्तः समुद्रस्य महामतिः।
तुष्टावाह्निकवेलायामेकाग्रमतिरच्युतम्॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महामतिने समुद्रमें पर्वतोंसे लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मोंके समय एकाग्रचित्तसे श्रीअच्युत भगवान‍्की इस प्रकार स्तुति की॥ ६३॥

मूलम् (वचनम्)

प्रह्लाद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम।
नमस्ते सर्वलोकात्मन्नमस्ते तिग्मचक्रिणे॥ ६४॥

मूलम्

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम।
नमस्ते सर्वलोकात्मन्नमस्ते तिग्मचक्रिणे॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रह्लादजी बोले—हे कमलनयन! आपको नमस्कार है। हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है। हे सर्वलोकात्मन्! आपको नमस्कार है। हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥ ६५॥

मूलम्

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

गो-ब्राह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान‍् कृष्णको नमस्कार है। जगत्-हितकारी श्रीगोविन्दको बारम्बार नमस्कार है॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः।
रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये॥ ६६॥

मूलम्

ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः।
रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ब्रह्मारूपसे विश्वकी रचना करते हैं, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूपसे पालन करते हैं और अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करते हैं—ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा यक्षासुराः सिद्धा नागा गन्धर्वकिन्नराः।
पिशाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा॥ ६७॥
पक्षिणः स्थावराश्चैव पिपीलिकसरीसृपाः।
भूम्यापोऽग्निर्नभो वायुः शब्दः स्पर्शस्तथा रसः॥ ६८॥
रूपं गन्धो मनो बुद्धिरात्मा कालस्तथा गुणाः।
एतेषां परमार्थश्च सर्वमेतत्त्वमच्युत॥ ६९॥

मूलम्

देवा यक्षासुराः सिद्धा नागा गन्धर्वकिन्नराः।
पिशाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः पशवस्तथा॥ ६७॥
पक्षिणः स्थावराश्चैव पिपीलिकसरीसृपाः।
भूम्यापोऽग्निर्नभो वायुः शब्दः स्पर्शस्तथा रसः॥ ६८॥
रूपं गन्धो मनो बुद्धिरात्मा कालस्तथा गुणाः।
एतेषां परमार्थश्च सर्वमेतत्त्वमच्युत॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अच्युत! देव, यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका (चींटी), सरीसृप, पृथिवी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुण—इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही हैं, वास्तवमें आप ही ये सब हैं॥ ६७—६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्याविद्ये भवान‍्सत्यमसत्यं त्वं विषामृते।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कर्म वेदोदितं भवान‍्॥ ७०॥

मूलम्

विद्याविद्ये भवान‍्सत्यमसत्यं त्वं विषामृते।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कर्म वेदोदितं भवान‍्॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत हैं तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म हैं॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समस्तकर्मभोक्ता च कर्मोपकरणानि च।
त्वमेव विष्णो सर्वाणि सर्वकर्मफलं च यत्॥ ७१॥

मूलम्

समस्तकर्मभोक्ता च कर्मोपकरणानि च।
त्वमेव विष्णो सर्वाणि सर्वकर्मफलं च यत्॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विष्णो! आप ही समस्त कर्मोंके भोक्ता और उनकी सामग्री हैं तथा सर्व कर्मोंके जितने भी फल हैं वे सब भी आप ही हैं॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु भुवनेषु च।
तवैव व्याप्तिरैश्वर्यगुणसंसूचिकी प्रभो॥ ७२॥

मूलम्

मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु भुवनेषु च।
तवैव व्याप्तिरैश्वर्यगुणसंसूचिकी प्रभो॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनोंमें आपहीके गुण और ऐश्वर्यकी सूचिका व्याप्ति हो रही है॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति त्वां यजन्ति च याजकाः।
हव्यकव्यभुगेकस्त्वं पितृदेवस्वरूपधृक्॥ ७३॥

मूलम्

त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति त्वां यजन्ति च याजकाः।
हव्यकव्यभुगेकस्त्वं पितृदेवस्वरूपधृक्॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगिगण आपहीका ध्यान धरते हैं और याज्ञिकगण आपहीका यजन करते हैं, तथा पितृगण और देवगणके रूपसे एक आप ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपं महत्ते स्थितमत्र विश्वं
ततश्च सूक्ष्मं जगदेतदीश।
रूपाणि सर्वाणि च भूतभेदा-
स्तेष्वन्तरात्माख्यमतीव सूक्ष्मम्॥ ७४॥

मूलम्

रूपं महत्ते स्थितमत्र विश्वं
ततश्च सूक्ष्मं जगदेतदीश।
रूपाणि सर्वाणि च भूतभेदा-
स्तेष्वन्तरात्माख्यमतीव सूक्ष्मम्॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ईश! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूल रूप है, उससे सूक्ष्म यह संसार (पृथिवीमण्डल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी हैं; उनमें भी जो अन्तरात्मा है वह और भी अत्यन्त सूक्ष्म है॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्च सूक्ष्मादिविशेषणाना-
मगोचरे यत्परमात्मरूपम्।
किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति
तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तमाय॥ ७५॥

मूलम्

तस्माच्च सूक्ष्मादिविशेषणाना-
मगोचरे यत्परमात्मरूपम्।
किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति
तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तमाय॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है॥ ७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतेषु सर्वात्मन्या शक्तिरपरा तव।
गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर॥ ७६॥

मूलम्

सर्वभूतेषु सर्वात्मन्या शक्तिरपरा तव।
गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै सुरेश्वर॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्वात्मन्! समस्त भूतोंमें आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर! उस नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है॥ ७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा।
ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे स्वेश्वरीं पराम्॥ ७७॥

मूलम्

यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा।
ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे स्वेश्वरीं पराम्॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वाणी और मनके परे है, विशेषणरहित तथा ज्ञानियोंके ज्ञानसे परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता हूँ॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा।
व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः॥ ७८॥

मूलम्

ॐ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा।
व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐ उन भगवान‍् वासुदेवको सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त (असंग) हैं॥ ७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने।
नाम रूपं न यस्यैको योऽस्तित्वेनोपलभ्यते॥ ७९॥

मूलम्

नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै महात्मने।
नाम रूपं न यस्यैको योऽस्तित्वेनोपलभ्यते॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपलब्ध होते हैं उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है॥ ७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति दिवौकसः।
अपश्यन्तः परं रूपं नमस्तस्मै महात्मने॥ ८०॥

मूलम्

यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति दिवौकसः।
अपश्यन्तः परं रूपं नमस्तस्मै महात्मने॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके पर स्वरूपको न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार-शरीरोंका सम्यक् अर्चन करते हैं उन महात्माको नमस्कार है॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽन्तस्तिष्ठन्नशेषस्य पश्यतीशः शुभाशुभम्।
तं सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये परेश्वरम्॥ ८१॥

मूलम्

योऽन्तस्तिष्ठन्नशेषस्य पश्यतीशः शुभाशुभम्।
तं सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये परेश्वरम्॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ईश्वर सबके अन्तःकरणोंमें स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोंको देखते हैं उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै यस्याभिन्नमिदं जगत्।
ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः॥ ८२॥

मूलम्

नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै यस्याभिन्नमिदं जगत्।
ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु मेऽव्ययः॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनसे यह जगत् सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णु भगवान‍्को नमस्कार है, वे जगत‍्के आदिकारण और योगियोंके ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हों॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रोतमेतत्प्रोतं च विश्वमक्षरमव्ययम्।
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे हरिः॥ ८३॥

मूलम्

यत्रोतमेतत्प्रोतं च विश्वमक्षरमव्ययम्।
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे हरिः॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनमें यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हों॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ नमो विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै पुनः पुनः।
यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वसंश्रयः॥ ८४॥

मूलम्

ॐ नमो विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै पुनः पुनः।
यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वसंश्रयः॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐ जिनमें सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं, उन श्रीविष्णु भगवान‍्को नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वगत्वादनन्तस्य स एवाहमवस्थितः।
मत्तः सर्वमहं सर्वं मयि सर्वं सनातने॥ ८५॥

मूलम्

सर्वगत्वादनन्तस्य स एवाहमवस्थितः।
मत्तः सर्वमहं सर्वं मयि सर्वं सनातने॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् अनन्त सर्वगामी हैं; अतः वे ही मेरे रूपसे स्थित हैं, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझहीसे हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातनमें ही यह सब स्थित है॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः।
ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च परः पुमान्॥ ८६॥

मूलम्

अहमेवाक्षयो नित्यः परमात्मात्मसंश्रयः।
ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च परः पुमान्॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही जगत‍्के आदि और अन्तमें स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ॥ ८६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकोनविंशतितमोऽध्यायः॥ १९॥