[तेरहवाँ अध्याय]
विषय
राजा वेन और पृथुका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवाच्छिष्टिं च भव्यं च भव्याच्छम्भुर्व्यजायत।
शिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्चपुत्रानकल्मषान्॥ १॥
रिपुं रिपुञ्जयं विप्रं वृकलं वृकतेजसम्।
रिपोराधत्त बृहती चाक्षुषं सर्वतेजसम्॥ २॥
मूलम्
ध्रुवाच्छिष्टिं च भव्यं च भव्याच्छम्भुर्व्यजायत।
शिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्चपुत्रानकल्मषान्॥ १॥
रिपुं रिपुञ्जयं विप्रं वृकलं वृकतेजसम्।
रिपोराधत्त बृहती चाक्षुषं सर्वतेजसम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! ध्रुवसे [ उसकी पत्नीने] शिष्टि और भव्यको उत्पन्न किया और भव्यसे शम्भुका जन्म हुआ तथा शिष्टिके द्वारा उसकी पत्नी सुच्छायाने रिपु, रिपुंजय, विप्र, वृकल और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे रिपुके द्वारा बृहतीके गर्भसे महातेजस्वी चाक्षुषका जन्म हुआ॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजीजनत्पुष्करिण्यां वारुण्यां चाक्षुषो मनुम्।
प्रजापतेरात्मजायां वीरणस्य महात्मनः॥ ३॥
मूलम्
अजीजनत्पुष्करिण्यां वारुण्यां चाक्षुषो मनुम्।
प्रजापतेरात्मजायां वीरणस्य महात्मनः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाक्षुषने अपनी भार्या पुष्करिणीसे, जो वरुण-कुलमें उत्पन्न और महात्मा वीरण प्रजापतिकी पुत्री थी, मनुको उत्पन्न किया [जो छठे मन्वन्तरके अधिपति हुए]॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरजायन्त दश नड्वलायां महौजसः।
कन्यायां तपतां श्रेष्ठ वैराजस्य प्रजापतेः॥ ४॥
मूलम्
मनोरजायन्त दश नड्वलायां महौजसः।
कन्यायां तपतां श्रेष्ठ वैराजस्य प्रजापतेः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापतिकी पुत्री नड्वलाके गर्भमें दस महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुः पुरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाञ्छुचिः।
अग्निष्टोमोऽतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चेति ते नव।
अभिमन्युश्च दशमो नड्वलायां महौजसः॥ ५॥
मूलम्
कुरुः पुरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाञ्छुचिः।
अग्निष्टोमोऽतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चेति ते नव।
अभिमन्युश्च दशमो नड्वलायां महौजसः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
नड्वलासे कुरु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवान्, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्न और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रोंका जन्म हुआ॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरोरजनयत्पुत्रान् षडाग्नेयी महाप्रभान्।
अङ्गं सुमनसं ख्यातिं क्रतुमङ्गिरसं शिबिम्॥ ६॥
मूलम्
कुरोरजनयत्पुत्रान् षडाग्नेयी महाप्रभान्।
अङ्गं सुमनसं ख्यातिं क्रतुमङ्गिरसं शिबिम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुके द्वारा उसकी पत्नी आग्नेयीने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन छः परम तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गात्सुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत।
प्रजार्थमृषयस्तस्य ममन्थुर्दक्षिणं करम्॥ ७॥
मूलम्
अङ्गात्सुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत।
प्रजार्थमृषयस्तस्य ममन्थुर्दक्षिणं करम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगसे सुनीथाके वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऋषियोंने उस (वेन)-के दाहिने हाथका सन्तानके लिये मन्थन किया था॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेनस्य पाणौ मथिते सम्बभूव महामुने।
वैन्यो नाम महीपालो यः पृथुः परिकीर्त्तितः॥ ८॥
येन दुग्धा मही पूर्वं प्रजानां हितकारणात्॥ ९॥
मूलम्
वेनस्य पाणौ मथिते सम्बभूव महामुने।
वैन्यो नाम महीपालो यः पृथुः परिकीर्त्तितः॥ ८॥
येन दुग्धा मही पूर्वं प्रजानां हितकारणात्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामुने! वेनके हाथका मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उत्पन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात हैं और जिन्होंने प्रजाके हितके लिये पूर्वकालमें पृथिवीको दुहा था॥ ८-९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं मथितः पाणिर्वेनस्य परमर्षिभिः।
यत्र जज्ञे महावीर्यः स पृथुर्मुनिसत्तम॥ १०॥
मूलम्
किमर्थं मथितः पाणिर्वेनस्य परमर्षिभिः।
यत्र जज्ञे महावीर्यः स पृथुर्मुनिसत्तम॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी बोले—हे मुनिश्रेष्ठ! परमर्षियोंने वेनके हाथको क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथुका जन्म हुआ?॥ १०॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनीथा नाम या कन्या मृत्योः प्रथमतोऽभवत्।
अङ्गस्य भार्या सा दत्ता तस्यां वेनो व्यजायत॥ ११॥
मूलम्
सुनीथा नाम या कन्या मृत्योः प्रथमतोऽभवत्।
अङ्गस्य भार्या सा दत्ता तस्यां वेनो व्यजायत॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मुने! मृत्युकी सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंगको पत्नीरूपसे दी (व्याही) गयी थी। उसीसे वेनका जन्म हुआ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मातामहदोषेण तेन मृत्योः सुतात्मजः।
निसर्गादेष मैत्रेय दुष्ट एव व्यजायत॥ १२॥
मूलम्
स मातामहदोषेण तेन मृत्योः सुतात्मजः।
निसर्गादेष मैत्रेय दुष्ट एव व्यजायत॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! वह मृत्युकी कन्याका पुत्र अपने मातामह (नाना)-के दोषसे स्वभावसे ही दुष्ट प्रकृति हुआ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिक्तो यदा राज्ये स वेनः परमर्षिभिः।
घोषयामास स तदा पृथिव्यां पृथिवीपतिः॥ १३॥
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं कथञ्चन।
भोक्ता यज्ञस्य कस्त्वन्यो ह्यहं यज्ञपतिः प्रभुः॥ १४॥
मूलम्
अभिषिक्तो यदा राज्ये स वेनः परमर्षिभिः।
घोषयामास स तदा पृथिव्यां पृथिवीपतिः॥ १३॥
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं कथञ्चन।
भोक्ता यज्ञस्य कस्त्वन्यो ह्यहं यज्ञपतिः प्रभुः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथिवीपतिने संसारभरमें यह घोषणा कर दी कि ‘भगवान्, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त यज्ञका भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है? इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करे’॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तमृषयः पूर्वं सम्पूज्य पृथिवीपतिम्।
ऊचुः सामकलं वाक्यं मैत्रेय समुपस्थिताः॥ १५॥
मूलम्
ततस्तमृषयः पूर्वं सम्पूज्य पृथिवीपतिम्।
ऊचुः सामकलं वाक्यं मैत्रेय समुपस्थिताः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! तब ऋषियोंने उस पृथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वाणीसे कहा॥ १५॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो राजन् शृणुष्व त्वं यद्वदाम महीपते।
राज्यदेहोपकाराय प्रजानां च हितं परम्॥ १६॥
मूलम्
भो भो राजन् शृणुष्व त्वं यद्वदाम महीपते।
राज्यदेहोपकाराय प्रजानां च हितं परम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषिगण बोले—हे राजन्! हे पृथिवीपते! तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रजाके हितके लिये हम जो बात कहते हैं, सुनो॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घसत्रेण देवेशं सर्वयज्ञेश्वरं हरिम्।
पूजयिष्याम भद्रं ते तस्यांशस्ते भविष्यति॥ १७॥
मूलम्
दीर्घसत्रेण देवेशं सर्वयज्ञेश्वरं हरिम्।
पूजयिष्याम भद्रं ते तस्यांशस्ते भविष्यति॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा जो सर्व-यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरिका पूजन करेंगे उसके फलमेंसे तुमको भी [छठा] भाग मिलेगा॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञेन यज्ञपुरुषो विष्णुः सम्प्रीणितो नृप।
अस्माभिर्भवतः कामान्सर्वानेव प्रदास्यति॥ १८॥
मूलम्
यज्ञेन यज्ञपुरुषो विष्णुः सम्प्रीणितो नृप।
अस्माभिर्भवतः कामान्सर्वानेव प्रदास्यति॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नृप! इस प्रकार यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगोंके साथ तुम्हारी भी सकल कामनाएँ पूर्ण करेंगे॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैर्यज्ञेश्वरो येषां राष्ट्रे सम्पूज्यते हरिः।
तेषां सर्वेप्सितावाप्तिं ददाति नृप भूभृताम्॥ १९॥
मूलम्
यज्ञैर्यज्ञेश्वरो येषां राष्ट्रे सम्पूज्यते हरिः।
तेषां सर्वेप्सितावाप्तिं ददाति नृप भूभृताम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन् जिन राजाओंके राज्यमें यज्ञेश्वर भगवान् हरिका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं॥ १९॥
मूलम् (वचनम्)
वेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तः कोऽभ्यधिकोऽन्योऽस्ति कश्चाराध्यो ममापरः।
कोऽयं हरिरिति ख्यातो यो वोय ज्ञेश्वरो मतः॥ २०॥
मूलम्
मत्तः कोऽभ्यधिकोऽन्योऽस्ति कश्चाराध्यो ममापरः।
कोऽयं हरिरिति ख्यातो यो वोय ज्ञेश्वरो मतः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेन बोला—मुझसे भी बढ़कर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह ‘हरि’ कहलानेवाला कौन है?॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुरिन्द्रो वायुर्यमो रविः।
हुतभुग्वरुणो धाता पूषा भूमिर्निशाकरः॥ २१॥
एते चान्ये च ये देवाः शापानुग्रहकारिणः।
नृपस्यैते शरीरस्थाः सर्वदेवमयो नृपः॥ २२॥
मूलम्
ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुरिन्द्रो वायुर्यमो रविः।
हुतभुग्वरुणो धाता पूषा भूमिर्निशाकरः॥ २१॥
एते चान्ये च ये देवाः शापानुग्रहकारिणः।
नृपस्यैते शरीरस्थाः सर्वदेवमयो नृपः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथिवी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी राजाके शरीरमें निवास करते हैं, इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है॥ २१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यद्यथा क्रियतां तथा।
न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च भो द्विजाः॥ २३॥
मूलम्
एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यद्यथा क्रियतां तथा।
न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च भो द्विजाः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ब्राह्मणो! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो। देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तृशुश्रूषणं धर्मो यथा स्त्रीणां परो मतः।
ममाज्ञापालनं धर्मो भवतां च तथा द्विजाः॥ २४॥
मूलम्
भर्तृशुश्रूषणं धर्मो यथा स्त्रीणां परो मतः।
ममाज्ञापालनं धर्मो भवतां च तथा द्विजाः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजगण! स्त्रीका परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगोंका धर्म भी मेरी आज्ञाका पालन करना ही है॥ २४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
देह्यनुज्ञां महाराज मा धर्मो यातु सङ्क्षयम्।
हविषां परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत्॥ २५॥
मूलम्
देह्यनुज्ञां महाराज मा धर्मो यातु सङ्क्षयम्।
हविषां परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषिगण बोले—महाराज! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्मका क्षय न हो। देखिये, यह सारा जगत् हवि (यज्ञमें हवन की हुई सामग्री)-का ही परिणाम है॥ २५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति विज्ञाप्यमानोऽपि स वेनः परमर्षिभिः।
यदा ददाति नानुज्ञां प्रोक्तः प्रोक्तः पुनः पुनः॥ २६॥
ततस्ते मुनयः सर्वे कोपामर्षसमन्विताः।
हन्यतां हन्यतां पाप इत्यूचुस्ते परस्परम्॥ २७॥
मूलम्
इति विज्ञाप्यमानोऽपि स वेनः परमर्षिभिः।
यदा ददाति नानुज्ञां प्रोक्तः प्रोक्तः पुनः पुनः॥ २६॥
ततस्ते मुनयः सर्वे कोपामर्षसमन्विताः।
हन्यतां हन्यतां पाप इत्यूचुस्ते परस्परम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—महर्षियोंके इस प्रकार बारम्बार समझाने और कहने-सुननेपर भी जब वेनने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपसमें कहने लगे—‘इस पापीको मारो, मारो!॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यज्ञपुरुषं विष्णुमनादिनिधनं प्रभुम्।
विनिन्दत्यधमाचारो न स योग्यो भुवः पतिः॥ २८॥
मूलम्
यो यज्ञपुरुषं विष्णुमनादिनिधनं प्रभुम्।
विनिन्दत्यधमाचारो न स योग्यो भुवः पतिः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु विष्णुकी निन्दा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथिवीपति होनेके योग्य नहीं है’॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा मन्त्रपूतैस्तैः कुशैर्मुनिगणा नृपम्।
निजघ्नुर्निहतं पूर्वं भगवन्निन्दनादिना॥ २९॥
मूलम्
इत्युक्त्वा मन्त्रपूतैस्तैः कुशैर्मुनिगणा नृपम्।
निजघ्नुर्निहतं पूर्वं भगवन्निन्दनादिना॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह मुनिगणोंने, भगवान्की निन्दा आदि करनेके कारण पहले ही मरे हुए उस राजाको मन्त्रसे पवित्र किये हुए कुशाओंसे मार डाला॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च मुनयो रेणुं ददृशुः सर्वतो द्विज।
किमेतदिति चासन्नान्पप्रच्छुस्ते जनांस्तदा॥ ३०॥
मूलम्
ततश्च मुनयो रेणुं ददृशुः सर्वतो द्विज।
किमेतदिति चासन्नान्पप्रच्छुस्ते जनांस्तदा॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने सब ओर बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोंसे पूछा—‘‘यह क्या है?’’॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्यातं च जनैस्तेषां चोरीभूतैरराजके।
राष्ट्रे तु लोकैरारब्धं परस्वादानमातुरैः॥ ३१॥
मूलम्
आख्यातं च जनैस्तेषां चोरीभूतैरराजके।
राष्ट्रे तु लोकैरारब्धं परस्वादानमातुरैः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पुरुषोंने कहा—‘‘राष्ट्रके राजाहीन हो जानेसे दीन-दुखिया लोगोंने चोर बनकर दूसरोंका धन लूटना आरम्भ कर दिया है॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामुदीर्णवेगानां चोराणां मुनिसत्तमाः।
सुमहान् दृश्यते रेणुः परवित्तापहारिणाम्॥ ३२॥
मूलम्
तेषामुदीर्णवेगानां चोराणां मुनिसत्तमाः।
सुमहान् दृश्यते रेणुः परवित्तापहारिणाम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिवरो! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चोरोंके उत्पातसे ही यह बड़ी भारी धूलि उड़ती दीख रही है’’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्मन्त्र्य ते सर्वे मुनयस्तस्य भूभृतः।
ममन्थुरूरुं पुत्रार्थमनपत्यस्य यत्नतः॥ ३३॥
मूलम्
ततः सम्मन्त्र्य ते सर्वे मुनयस्तस्य भूभृतः।
ममन्थुरूरुं पुत्रार्थमनपत्यस्य यत्नतः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन सब मुनीश्वरोंने आपसमें सलाह कर उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन किया॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमानात्समुत्तस्थौ तस्योरोः पुरुषः किल।
दग्धस्थूणाप्रतीकाशः खर्व्वाटास्योऽतिह्रस्वकः॥ ३४॥
मूलम्
मथ्यमानात्समुत्तस्थौ तस्योरोः पुरुषः किल।
दग्धस्थूणाप्रतीकाशः खर्व्वाटास्योऽतिह्रस्वकः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ठूँठके समान काला, अत्यन्त नाटा और छोटे मुखवाला था॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं करोमीति तान्सर्वान्स विप्रानाह चातुरः।
निषीदेति तमूचुस्ते निषादस्तेन सोऽभवत्॥ ३५॥
मूलम्
किं करोमीति तान्सर्वान्स विप्रानाह चातुरः।
निषीदेति तमूचुस्ते निषादस्तेन सोऽभवत्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणोंसे कहा—‘मैं क्या करूँ?’’ उन्होंने कहा—‘‘निषीद (बैठ)’’ अतः वह ‘निषाद’ कहलाया॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्सम्भवा जाता विन्ध्यशैलनिवासिनः।
निषादा मुनिशार्दूल पापकर्मोपलक्षणाः॥ ३६॥
मूलम्
ततस्तत्सम्भवा जाता विन्ध्यशैलनिवासिनः।
निषादा मुनिशार्दूल पापकर्मोपलक्षणाः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये हे मुनिशार्दूल! उससे उत्पन्न हुए लोग विन्ध्याचल निवासी पाप-परायण निषादगण हुए॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन द्वारेण तत्पापं निष्क्रान्तं तस्य भूपतेः।
निषादास्ते ततो जाता वेनकल्मषनाशनाः॥ ३७॥
मूलम्
तेन द्वारेण तत्पापं निष्क्रान्तं तस्य भूपतेः।
निषादास्ते ततो जाता वेनकल्मषनाशनाः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस निषादरूप द्वारसे राजा वेनका सम्पूर्ण पाप निकल गया। अतः निषादगण वेनके पापोंका नाश करनेवाले हुए॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैव दक्षिणं हस्तं ममन्थुस्ते ततो द्विजाः॥ ३८॥
मथ्यमाने च तत्राभूत्पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन्॥ ३९॥
मूलम्
तस्यैव दक्षिणं हस्तं ममन्थुस्ते ततो द्विजाः॥ ३८॥
मथ्यमाने च तत्राभूत्पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्थन किया। उसका मन्थन करनेसे परम प्रतापी वेन सुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान थे॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आद्यमाजगवं नाम खात्पपात ततो धनुः।
शराश्च दिव्या नभसः कवचं च पपात ह॥ ४०॥
मूलम्
आद्यमाजगवं नाम खात्पपात ततो धनुः।
शराश्च दिव्या नभसः कवचं च पपात ह॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय आजगव नामक आद्य (सर्वप्रथम) धनुष और दिव्य बाण तथा कवच आकाशसे गिरे॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् जाते तु भूतानि सम्प्रहृष्टानि सर्वशः॥ ४१॥
सत्पुत्रेणैव जातेन वेनोऽपि त्रिदिवं ययौ।
पुन्नाम्नो नरकात् त्रातः सुतेन सुमहात्मना॥ ४२॥
मूलम्
तस्मिन् जाते तु भूतानि सम्प्रहृष्टानि सर्वशः॥ ४१॥
सत्पुत्रेणैव जातेन वेनोऽपि त्रिदिवं ययौ।
पुन्नाम्नो नरकात् त्रातः सुतेन सुमहात्मना॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके उत्पन्न होनेसे सभी जीवोंको अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुत्रके ही जन्म लेनेसे वेन भी स्वर्गलोकको चला गया। इस प्रकार महात्मा पुत्रके कारण ही उसकी पुम् अर्थात् नरकसे रक्षा हुई॥ ४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समुद्राश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः।
तोयानि चाभिषेकार्थं सर्वाण्येवोपतस्थिरे॥ ४३॥
मूलम्
तं समुद्राश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः।
तोयानि चाभिषेकार्थं सर्वाण्येवोपतस्थिरे॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज पृथुके अभिषेकके लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकारके रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहश्च भगवान्देवैराङ्गिरसैः सह।
स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सर्वशः।
समागम्य तदा वैन्यमभ्यसिञ्चन्नराधिपम्॥ ४४॥
मूलम्
पितामहश्च भगवान्देवैराङ्गिरसैः सह।
स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सर्वशः।
समागम्य तदा वैन्यमभ्यसिञ्चन्नराधिपम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आंगिरस देवगणोंके सहित पितामह ब्रह्माजीने और समस्त स्थावर-जंगम प्राणियोंने वहाँ आकर महाराज वैन्य (वेनपुत्र)-का राज्याभिषेक किया॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ते तु दक्षिणे चक्रं दृष्ट्वा तस्य पितामहः।
विष्णोरंशं पृथुं मत्वा परितोषं परं ययौ॥ ४५॥
मूलम्
हस्ते तु दक्षिणे चक्रं दृष्ट्वा तस्य पितामहः।
विष्णोरंशं पृथुं मत्वा परितोषं परं ययौ॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखकर उन्हें विष्णुका अंश जान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुचक्रं करे चिह्नं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम्।
भवत्यव्याहतो यस्य प्रभावस्त्रिदशैरपि॥ ४६॥
मूलम्
विष्णुचक्रं करे चिह्नं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम्।
भवत्यव्याहतो यस्य प्रभावस्त्रिदशैरपि॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह श्रीविष्णु भगवान्के चक्रका चिह्न सभी चक्रवर्ती राजाओंके हाथमें हुआ करता है। उनका प्रभाव कभी देवताओंसे भी कुण्ठित नहीं होता॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता राजराज्येन पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
सोऽभिषिक्तो महातेजा विधिवद्धर्मकोविदैः॥ ४७॥
मूलम्
महता राजराज्येन पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
सोऽभिषिक्तो महातेजा विधिवद्धर्मकोविदैः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान् राजराजेश्वर पदपर अभिषिक्त हुए॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्राऽपरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः।
अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत॥ ४८॥
मूलम्
पित्राऽपरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः।
अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रजाको पिताने अपरक्त (अप्रसन्न) किया था उसीको उन्होंने अनुरंजित (प्रसन्न) किया, इसलिये अनुरंजन करनेसे उनका नाम ‘राजा’ हुआ॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्॥ ४९॥
मूलम्
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे समुद्रमें चलते थे तो जल बहनेसे रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्ध्यन्त्यन्नानि चिन्तया।
सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु॥ ५०॥
मूलम्
अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्ध्यन्त्यन्नानि चिन्तया।
सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवी बिना जोते-बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते-पत्तेमें मधु भरा रहता था॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वै जातमात्रस्य यज्ञे पैतामहे शुभे।
सूतः सूत्यां समुत्पन्नः सौत्येऽहनि महामतिः॥ ५१॥
मूलम्
तस्य वै जातमात्रस्य यज्ञे पैतामहे शुभे।
सूतः सूत्यां समुत्पन्नः सौत्येऽहनि महामतिः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पृथुने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषवके दिन सूति (सोमाभिषवभूमि)-से महामति सूतकी उत्पत्ति हुई॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः।
प्रोक्तौ तदा मुनिवरैस्तावुभौ सूतमागधौ॥ ५२॥
मूलम्
तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः।
प्रोक्तौ तदा मुनिवरैस्तावुभौ सूतमागधौ॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् मागधका भी जन्म हुआ। तब मुनिवरोंने उन दोनों सूत और मागधोंसे कहा—॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तूयतामेष नृपतिः पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
कर्मैतदनुरूपं वां पात्रं स्तोत्रस्य चापरम्॥ ५३॥
मूलम्
स्तूयतामेष नृपतिः पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
कर्मैतदनुरूपं वां पात्रं स्तोत्रस्य चापरम्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम इन प्रतापवान् वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करो। तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुतिके ही योग्य हैं’॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तावूचतुर्विप्रान्सर्वानेव कृताञ्जली।
अद्य जातस्य नो कर्म ज्ञायतेऽस्य महीपतेः॥ ५४॥
मूलम्
ततस्तावूचतुर्विप्रान्सर्वानेव कृताञ्जली।
अद्य जातस्य नो कर्म ज्ञायतेऽस्य महीपतेः॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणोंसे कहा—‘‘ये महाराज तो आज ही उत्पन्न हुए हैं, हम इनके कोई कर्म तो जानते ही नहीं हैं॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणा न चास्य ज्ञायन्ते न चास्य प्रथितं यशः।
स्तोत्रं किमाश्रयं त्वस्य कार्यमस्माभिरुच्यताम्॥ ५५॥
मूलम्
गुणा न चास्य ज्ञायन्ते न चास्य प्रथितं यशः।
स्तोत्रं किमाश्रयं त्वस्य कार्यमस्माभिरुच्यताम्॥ ५५॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
करिष्यत्येष यत्कर्म चक्रवर्ती महाबलः।
गुणा भविष्या ये चास्य तैरयं स्तूयतां नृपः॥ ५६॥
मूलम्
करिष्यत्येष यत्कर्म चक्रवर्ती महाबलः।
गुणा भविष्या ये चास्य तैरयं स्तूयतां नृपः॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें’’॥ ५५॥
ऋषिगण बोले—ये महाबली चक्रवर्ती महाराज भविष्यमें जो-जो कर्म करेंगे और इनके जो-जो भावी गुण होंगे उन्हींसे तुम इनका स्तवन करो॥ ५६॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स नृपतिस्तोषं तच्छ्रुत्वा परमं ययौ।
सद्गुणैः श्लाघ्यतामेति तस्माल्लभ्या गुणा मम॥ ५७॥
मूलम्
ततः स नृपतिस्तोषं तच्छ्रुत्वा परमं ययौ।
सद्गुणैः श्लाघ्यतामेति तस्माल्लभ्या गुणा मम॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—यह सुनकर राजाको भी परम सन्तोष हुआ; उन्होंने सोचा ‘मनुष्य सद्गुणोंके कारण ही प्रशंसाका पात्र होता है; अतः मुझको भी गुण उपार्जन करने चाहिये॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्यदद्य स्तोत्रेण गुणनिर्वर्णनं त्विमौ।
करिष्येते करिष्यामि तदेवाहं समाहितः॥ ५८॥
मूलम्
तस्माद्यदद्य स्तोत्रेण गुणनिर्वर्णनं त्विमौ।
करिष्येते करिष्यामि तदेवाहं समाहितः॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अब स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोंका वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिमौ वर्जनीयं च किञ्चिदत्र वदिष्यतः।
तदहं वर्जयिष्यामीत्येवं चक्रे मतिं नृपः॥ ५९॥
मूलम्
यदिमौ वर्जनीयं च किञ्चिदत्र वदिष्यतः।
तदहं वर्जयिष्यामीत्येवं चक्रे मतिं नृपः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यहाँपर ये कुछ त्याज्य अवगुणोंको भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा।’ इस प्रकार राजाने अपने चित्तमें निश्चय किया॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रं पृथोर्वैन्यस्य धीमतः।
भविष्यैः कर्मभिः सम्यक् सुस्वरौ सूतमागधौ॥ ६०॥
मूलम्
अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रं पृथोर्वैन्यस्य धीमतः।
भविष्यैः कर्मभिः सम्यक् सुस्वरौ सूतमागधौ॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन (सूत और मागध) दोनोंने परम बुद्धिमान् वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कर्मोंके आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यवाग्दानशीलोऽयं सत्यसन्धो नरेश्वरः।
ह्रीमान्मैत्रः क्षमाशीलो विक्रान्तो दुष्टशासनः॥ ६१॥
मूलम्
सत्यवाग्दानशीलोऽयं सत्यसन्धो नरेश्वरः।
ह्रीमान्मैत्रः क्षमाशीलो विक्रान्तो दुष्टशासनः॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
[उन्होंने कहा—] ‘ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्य मर्यादावाले, लज्जाशील, सुहृद्, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टोंका दमन करनेवाले हैं॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान् प्रियभाषकः।
मान्यान्मानयिता यज्वा ब्रह्मण्यः साधुसम्मतः॥ ६२॥
समः शत्रौ च मित्रे च व्यवहारस्थितौ नृपः॥ ६३॥
मूलम्
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान् प्रियभाषकः।
मान्यान्मानयिता यज्वा ब्रह्मण्यः साधुसम्मतः॥ ६२॥
समः शत्रौ च मित्रे च व्यवहारस्थितौ नृपः॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान्, प्रियभाषी, माननीयोंको मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्मण्य, साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मित्रके साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं’॥ ६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतेनोक्तान् गुणानित्थं स तदा मागधेन च।
चकार हृदि तादृक् च कर्मणा कृतवानसौ॥ ६४॥
मूलम्
सूतेनोक्तान् गुणानित्थं स तदा मागधेन च।
चकार हृदि तादृक् च कर्मणा कृतवानसौ॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सूत और मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तमें धारण किया और उसी प्रकारके कार्य किये॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु पृथिवीपालः पालयन्पृथिवीमिमाम्।
इयाज विविधैर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः॥ ६५॥
मूलम्
ततस्तु पृथिवीपालः पालयन्पृथिवीमिमाम्।
इयाज विविधैर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन पृथिवीपतिने पृथिवीका पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले अनेकों महान् यज्ञ किये॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रजाः पृथिवीनाथमुपतस्थुः क्षुधार्दिताः।
ओषधीषु प्रणष्टासु तस्मिन्काले ह्यराजके।
तमूचुस्ते नताः पृष्टास्तत्रागमनकारणम्॥ ६६॥
मूलम्
तं प्रजाः पृथिवीनाथमुपतस्थुः क्षुधार्दिताः।
ओषधीषु प्रणष्टासु तस्मिन्काले ह्यराजके।
तमूचुस्ते नताः पृष्टास्तत्रागमनकारणम्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अराजकताके समय ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे भूखसे व्याकुल हुई प्रजा पृथिवीनाथ पृथुके पास आयी और उनके पूछनेपर प्रणाम करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया॥ ६६॥
मूलम् (वचनम्)
प्रजा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजके नृपश्रेष्ठ धरित्र्या सकलौषधीः।
ग्रस्तास्ततः क्षयं यान्ति प्रजाः सर्वाः प्रजेश्वर॥ ६७॥
मूलम्
अराजके नृपश्रेष्ठ धरित्र्या सकलौषधीः।
ग्रस्तास्ततः क्षयं यान्ति प्रजाः सर्वाः प्रजेश्वर॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाने कहा—हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ! अराजकताके समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ अपनेमें लीन कर ली हैं, अतः आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्नो वृत्तिप्रदो धात्रा प्रजापालो निरूपितः।
देहि नः क्षुत्परीतानां प्रजानां जीवनौषधीः॥ ६८॥
मूलम्
त्वन्नो वृत्तिप्रदो धात्रा प्रजापालो निरूपितः।
देहि नः क्षुत्परीतानां प्रजानां जीवनौषधीः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अतः क्षुधारूप महारोगसे पीड़ित हम प्रजाजनोंको आप जीवनरूप ओषधि दीजिये॥ ६८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु नृपतिर्दिव्यमादायाजगवं धनुः।
शरांश्च दिव्यान्कुपितः सोन्वधावद्वसुन्धराम्॥ ६९॥
मूलम्
ततस्तु नृपतिर्दिव्यमादायाजगवं धनुः।
शरांश्च दिव्यान्कुपितः सोन्वधावद्वसुन्धराम्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्यबाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ननाश त्वरिता गौर्भूत्वा च वसुन्धरा।
सा लोकान्ब्रह्मलोकादीन्सन्त्रासादगमन्मही॥ ७०॥
मूलम्
ततो ननाश त्वरिता गौर्भूत्वा च वसुन्धरा।
सा लोकान्ब्रह्मलोकादीन्सन्त्रासादगमन्मही॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई पृथिवी गौका रूप धारणकर भागी और ब्रह्मलोक आदि सभी लोकोंमें गयी॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र ययौ देवी सा तदा भूतधारिणी।
तत्र तत्र तु सा वैन्यं ददृशेऽभ्युद्यतायुधम्॥ ७१॥
मूलम्
यत्र यत्र ययौ देवी सा तदा भूतधारिणी।
तत्र तत्र तु सा वैन्यं ददृशेऽभ्युद्यतायुधम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी जहाँ-जहाँ भी गयी वहीं-वहीं उसने वेनपुत्र पृथुको शस्त्र-सन्धान किये अपने पीछे आते देखा॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं प्राह वसुधा पृथुं पृथुपराक्रमम्।
प्रवेपमाना तद्बाणपरित्राणपरायणा॥ ७२॥
मूलम्
ततस्तं प्राह वसुधा पृथुं पृथुपराक्रमम्।
प्रवेपमाना तद्बाणपरित्राणपरायणा॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुसे, उनके बाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे काँपती हुई पृथिवी इस प्रकार बोली॥ ७२॥
मूलम् (वचनम्)
पृथिव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीवधे त्वं महापापं किं नरेन्द्र न पश्यसि।
येन मां हन्तुमत्यर्थं प्रकरोषि नृपोद्यमम्॥ ७३॥
मूलम्
स्त्रीवधे त्वं महापापं किं नरेन्द्र न पश्यसि।
येन मां हन्तुमत्यर्थं प्रकरोषि नृपोद्यमम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवीने कहा—हे राजेन्द्र! क्या आपको स्त्रीवधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे हैं?॥ ७३॥
मूलम् (वचनम्)
पृथुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्मिन् यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि।
बहूनां भवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः॥ ७४॥
मूलम्
एकस्मिन् यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि।
बहूनां भवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथु बोले—जहाँ एक अनर्थकारीको मार देनेसे बहुतोंको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद है॥ ७४॥
मूलम् (वचनम्)
पृथिव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजानामुपकाराय यदि मां त्वं हनिष्यसि।
आधारः कः प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति॥ ७५॥
मूलम्
प्रजानामुपकाराय यदि मां त्वं हनिष्यसि।
आधारः कः प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवी बोली—हे नृपश्रेष्ठ! यदि आप प्रजाके हितके लिये ही मुझे मारना चाहते हैं तो [मेरे मर जानेपर] आपकी प्रजाका आधार क्या होगा?॥ ७५॥
मूलम् (वचनम्)
पृथुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां हत्वा वसुधे बाणैर्मच्छासनपराङ्मुखीम्।
आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजाः॥ ७६॥
मूलम्
त्वां हत्वा वसुधे बाणैर्मच्छासनपराङ्मुखीम्।
आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजाः॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथुने कहा—अरी वसुधे! अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबलसे ही इस प्रजाको धारण करूँगा॥ ७६॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम्।
प्रवेपिताङ्गी परमं साध्वसं समुपागता॥ ७७॥
मूलम्
ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम्।
प्रवेपिताङ्गी परमं साध्वसं समुपागता॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तब अत्यन्त भयभीत एवं काँपती हुई पृथिवीने उन पृथिवीपतिको पुनः प्रणाम करके कहा॥ ७७॥
मूलम् (वचनम्)
पृथिव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायतः समारब्धाः सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः।
तस्माद्वदाम्युपायं ते तं कुरुष्व यदीच्छसि॥ ७८॥
मूलम्
उपायतः समारब्धाः सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः।
तस्माद्वदाम्युपायं ते तं कुरुष्व यदीच्छसि॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवी बोली—हे राजन्! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। अतः मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी इच्छा हो तो वैसा ही करें॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्ता या मया जीर्णा नरनाथ महौषधीः।
यदीच्छसि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः॥ ७९॥
मूलम्
समस्ता या मया जीर्णा नरनाथ महौषधीः।
यदीच्छसि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नरनाथ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंको पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं दे सकती हूँ॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्प्रजाहितार्थाय मम धर्मभृतां वर।
तं तु वत्सं कुरुष्व त्वं क्षरेयं येन वत्सला॥ ८०॥
मूलम्
तस्मात्प्रजाहितार्थाय मम धर्मभृतां वर।
तं तु वत्सं कुरुष्व त्वं क्षरेयं येन वत्सला॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज! आप प्रजाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स (बछड़ा) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे निकाल सकूँ॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समां च कुरु सर्वत्र येन क्षीरं समन्ततः।
वरौषधीबीजभूतं बीजं सर्वत्र भावये॥ ८१॥
मूलम्
समां च कुरु सर्वत्र येन क्षीरं समन्ततः।
वरौषधीबीजभूतं बीजं सर्वत्र भावये॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मुझको आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बीजरूप दुग्धको सर्वत्र उत्पन्न कर सकूँ॥ ८१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्सारयामास शैलान् शतसहस्रशः।
धनुष्कोट्या तदा वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः॥ ८२॥
मूलम्
तत उत्सारयामास शैलान् शतसहस्रशः।
धनुष्कोट्या तदा वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तब महाराज पृथुने अपने धनुषकी कोटिसे सैकड़ों-हजारों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले।
प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराऽभवत्॥ ८३॥
मूलम्
न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले।
प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराऽभवत्॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे पूर्व पृथिवीके समतल न होनेसे पुर और ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः।
वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः॥ ८४॥
मूलम्
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः।
वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उस समय अन्न, गोरक्षा, कृषि और व्यापारका भी कोई क्रम न था। यह सब तो वेनपुत्र पृथुके समयसे ही आरम्भ हुआ है॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र समं त्वस्या भूमेरासीद्द्विजोत्तम।
तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन्॥ ८५॥
मूलम्
यत्र यत्र समं त्वस्या भूमेरासीद्द्विजोत्तम।
तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन्॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं-वहींपर प्रजाने निवास करना पसन्द किया॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा।
कृच्छ्रेण महता सोऽपि प्रणष्टास्वोषधीषु वै॥ ८६॥
मूलम्
आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा।
कृच्छ्रेण महता सोऽपि प्रणष्टास्वोषधीषु वै॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मूलादि ही था; वह भी ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुम्।
स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः।
सस्यजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया॥ ८७॥
तेनान्नेन प्रजास्तात वर्तन्तेद्यापि नित्यशः॥ ८८॥
मूलम्
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुम्।
स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः।
सस्यजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया॥ ८७॥
तेनान्नेन प्रजास्तात वर्तन्तेद्यापि नित्यशः॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पृथिवीपति पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथिवीसे प्रजाके हितके लिये समस्त धान्योंको दुहा। हे तात! उसी अन्नके आधारसे अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है॥ ८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभूत्पिता।
ततस्तु पृथिवीसंज्ञामवापाखिलधारिणी॥ ८९॥
मूलम्
प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभूत्पिता।
ततस्तु पृथिवीसंज्ञामवापाखिलधारिणी॥ ८९॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज पृथु प्राणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए,* इसलिये उस सर्वभूतधारिणीको ‘पृथिवी’ नाम मिला॥ ८९॥
पादटिप्पनी
- जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, भयसे रक्षा करनेवाला तथा जो विद्यादान करे—ये पाँचों पिता माने गये हैं; जैसे कहा है—
जनकश्चोपनेता च यश्च विद्याः प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च देवैर्मुनिभिर्दैत्यै रक्षोभिरद्रिभिः।
गन्धर्वैरुरगैर्यक्षैः पितृभिस्तरुभिस्तथा॥ ९०॥
तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तद्दुग्धं मुने पयः।
वत्सदोग्धृविशेषाश्च तेषां तद्योनयोऽभवन्॥ ९१॥
मूलम्
ततश्च देवैर्मुनिभिर्दैत्यै रक्षोभिरद्रिभिः।
गन्धर्वैरुरगैर्यक्षैः पितृभिस्तरुभिस्तथा॥ ९०॥
तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तद्दुग्धं मुने पयः।
वत्सदोग्धृविशेषाश्च तेषां तद्योनयोऽभवन्॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुने! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर्व, सर्प, यक्ष और पितृगण आदिने अपने-अपने पात्रोंमें अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहनेवालोंके अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए॥ ९०-९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैषा धात्री विधात्री च धारिणी पोषणी तथा।
सर्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतलोद्भवा॥ ९२॥
मूलम्
सैषा धात्री विधात्री च धारिणी पोषणी तथा।
सर्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतलोद्भवा॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये विष्णुभगवान्के चरणोंसे प्रकट हुई यह पृथिवी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली है॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रभावस्स पृथुः पुत्रो वेनस्य वीर्यवान्।
जज्ञे महीपतिः पूर्वो राजाभूज्जनरञ्जनात्॥ ९३॥
मूलम्
एवं प्रभावस्स पृथुः पुत्रो वेनस्य वीर्यवान्।
जज्ञे महीपतिः पूर्वो राजाभूज्जनरञ्जनात्॥ ९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान् हुए। प्रजाका रंजन करनेके कारण वे ‘राजा’ कहलाये॥ ९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं जन्म वैन्यस्य पृथोः संकीर्त्तयेन्नरः।
न तस्य दुष्कृतं किञ्चित्फलदायि प्रजायते॥ ९४॥
मूलम्
य इदं जन्म वैन्यस्य पृथोः संकीर्त्तयेन्नरः।
न तस्य दुष्कृतं किञ्चित्फलदायि प्रजायते॥ ९४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नहीं होता॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुस्स्वप्नोपशमं नॄणां शृण्वतामेतदुत्तमम्।
पृथोर्जन्म प्रभावश्च करोति सततं नृणाम्॥ ९५॥
मूलम्
दुस्स्वप्नोपशमं नॄणां शृण्वतामेतदुत्तमम्।
पृथोर्जन्म प्रभावश्च करोति सततं नृणाम्॥ ९५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथुका यह अत्युत्तम जन्म-वृत्तान्त और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःस्वप्नोंको सर्वदा शान्त कर देता है॥ ९५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥