११

[ग्यारहवाँ अध्याय]

विषय

ध्रुवका वनगमन और मरीचि आदि ऋषियोंसे भेंट

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायंभुवस्य तु।
द्वौ पुत्रौ तु महावीर्यौ धर्मज्ञौ कथितौ तव॥ १॥

मूलम्

प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायंभुवस्य तु।
द्वौ पुत्रौ तु महावीर्यौ धर्मज्ञौ कथितौ तव॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! मैंने तुम्हें स्वायम्भुवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान‍् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः।
अभीष्टायामभूद‍्ब्रह्मन्पितुरत्यन्तवल्लभः॥ २॥
सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्यासीन्महिषी द्विज।
स नातिप्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या ध्रुवः सुतः॥ ३॥

मूलम्

तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः।
अभीष्टायामभूद‍्ब्रह्मन्पितुरत्यन्तवल्लभः॥ २॥
सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्यासीन्महिषी द्विज।
स नातिप्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या ध्रुवः सुतः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ब्रह्मन्! उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ॥ २॥ हे द्विज! उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था। उसका पुत्र ध्रुव हुआ॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजासनस्थितस्याङ्कं पितुर्भ्रातरमाश्रितम्।
दृष्ट्वोत्तमं ध्रुवश्चक्रे तमारोढुं मनोरथम्॥ ४॥

मूलम्

राजासनस्थितस्याङ्कं पितुर्भ्रातरमाश्रितम्।
दृष्ट्वोत्तमं ध्रुवश्चक्रे तमारोढुं मनोरथम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी गोदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत।
प्रणयेनागतं पुत्रमुत्सङ्गारोहणोत्सुकम्॥ ५॥

मूलम्

प्रत्यक्षं भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत।
प्रणयेनागतं पुत्रमुत्सङ्गारोहणोत्सुकम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने, गोदमें चढ़नेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपत्नीतनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम्।
स्वपुत्रं च तथारूढं सुरुचिर्वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥

मूलम्

सपत्नीतनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम्।
स्वपुत्रं च तथारूढं सुरुचिर्वाक्यमब्रवीत्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढ़नेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमें बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियते किं वृथा वत्स महानेष मनोरथः।
अन्यस्त्रीगर्भजातेन ह्यसम्भूय ममोदरे॥ ७॥

मूलम्

क्रियते किं वृथा वत्स महानेष मनोरथः।
अन्यस्त्रीगर्भजातेन ह्यसम्भूय ममोदरे॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरे लल्ला! बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है?॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि।
सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किन्तु न स्वं मया धृतः॥ ८॥

मूलम्

उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि।
सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किन्तु न स्वं मया धृतः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है। यह ठीक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया!॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्राजासनं सर्वभूभृत्संश्रयकेतनम्।
योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यते त्वया॥ ९॥

मूलम्

एतद्राजासनं सर्वभूभृत्संश्रयकेतनम्।
योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यते त्वया॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है?॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्चैर्मनोरथस्तेऽयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा।
सुनीत्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते॥ १०॥

मूलम्

उच्चैर्मनोरथस्तेऽयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा।
सुनीत्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है?’’॥ १०॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सृज्य पितरं बालस्तच्छ्रुत्वा मातृभाषितम्।
जगाम कुपितो मातुर्निजाया द्विज मन्दिरम्॥ ११॥

मूलम्

उत्सृज्य पितरं बालस्तच्छ्रुत्वा मातृभाषितम्।
जगाम कुपितो मातुर्निजाया द्विज मन्दिरम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोड़कर अपनी माताके महलको चल दिया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरिताधरम्।
सुनीतिरङ्कमारोप्य मैत्रेयेदमभाषत॥ १२॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरिताधरम्।
सुनीतिरङ्कमारोप्य मैत्रेयेदमभाषत॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे—ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा—॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभिनन्दति।
कोऽवजानाति पितरं वत्स यस्तेऽपराध्यति॥ १३॥

मूलम्

वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभिनन्दति।
कोऽवजानाति पितरं वत्स यस्तेऽपराध्यति॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘बेटा! तेरे क्रोधका क्या कारण है? तेरा किसने आदर नहीं किया? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है?’’॥ १३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः सकलं मात्रे कथयामास तद्यथा।
सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतिगर्विता॥ १४॥

मूलम्

इत्युक्तः सकलं मात्रे कथयामास तद्यथा।
सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतिगर्विता॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह दीं जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिःश्वस्येति कथिते तस्मिन्पुत्रेण दुर्मनाः।
श्वासक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १५॥

मूलम्

विनिःश्वस्येति कथिते तस्मिन्पुत्रेण दुर्मनाः।
श्वासक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पुत्रके सिसक-सिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्नचित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयना होकर कहा॥ १५॥

मूलम् (वचनम्)

सुनीतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरुचिः सत्यमाहेदं मन्दभाग्योऽसि पुत्रक।
न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यते॥ १६॥

मूलम्

सुरुचिः सत्यमाहेदं मन्दभाग्योऽसि पुत्रक।
न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यते॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुनीति बोली—बेटा! सुरुचिने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मन्दभाग्य है। हे वत्स! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोद्वेगस्तात कर्त्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा।
तत्कोऽपहर्त्तुं शक्नोति दातुं कश्चाकृतं त्वया॥ १७॥
तत्त्वया नात्र कर्त्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम्॥ १८॥

मूलम्

नोद्वेगस्तात कर्त्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा।
तत्कोऽपहर्त्तुं शक्नोति दातुं कश्चाकृतं त्वया॥ १७॥
तत्त्वया नात्र कर्त्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

बच्चा! तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व-जन्मोंमें जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है? और जो नहीं किया वह तुझे दे भी कौन सकता है? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये॥ १७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजासनं राजच्छत्रं वराश्ववरवारणाः।
यस्य पुण्यानि तस्यैते मत्वैतच्छाम्य पुत्रक॥ १९॥

मूलम्

राजासनं राजच्छत्रं वराश्ववरवारणाः।
यस्य पुण्यानि तस्यैते मत्वैतच्छाम्य पुत्रक॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वत्स! जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम-उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते हैं—ऐसा जानकर तू शान्त हो जा॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्यां सुरुचिर्नृपः।
भार्येति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता॥ २०॥

मूलम्

अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्यां सुरुचिर्नृपः।
भार्येति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य जन्मोंमें किये हुए पुण्य-कर्मोंके कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ-जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करनेयोग्य) ही कही जाती है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्योपचयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः।
मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान‍्॥ २१॥

मूलम्

पुण्योपचयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः।
मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान‍्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्यपुंज-सम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान‍् है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि दुःखं न भवान‍् कर्त्तुमर्हति पुत्रक।
यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः॥ २२॥

मूलम्

तथापि दुःखं न भवान‍् कर्त्तुमर्हति पुत्रक।
यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि बेटा! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्यको जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या वचसाभवत्।
तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे॥ २३॥

मूलम्

यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या वचसाभवत्।
तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्व फलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः।
निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः॥ २४॥

मूलम्

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः।
निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमिकी ओर ढलकता हुआ जल अपने-आप ही पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं॥ २४॥

मूलम् (वचनम्)

ध्रुव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्ब यत्त्वमिदं प्रात्थ प्रशमाय वचो मम।
नैतद्दुर्वचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति॥ २५॥

मूलम्

अम्ब यत्त्वमिदं प्रात्थ प्रशमाय वचो मम।
नैतद्दुर्वचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्रुव बोला—माताजी! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम्।
स्थानं प्राप्स्याम्यशेषाणां जगतामभिपूजितम्॥ २६॥

मूलम्

सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम्।
स्थानं प्राप्स्याम्यशेषाणां जगतामभिपूजितम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोऽस्मि नोदरात्।
प्रभावं पश्य मेऽम्ब त्वं वृद्धस्यापि तवोदरे॥ २७॥

मूलम्

सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोऽस्मि नोदरात्।
प्रभावं पश्य मेऽम्ब त्वं वृद्धस्यापि तवोदरे॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया।
स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत्॥ २८॥

मूलम्

उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया।
स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही है। पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे। [ भगवान‍् करें ] ऐसा ही हो॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यदत्तमभीप्सामि स्थानमम्ब स्वकर्मणा।
इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता मम॥ २९॥

मूलम्

नान्यदत्तमभीप्सामि स्थानमम्ब स्वकर्मणा।
इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता मम॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताजी! मैं किसी दूसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है॥ २९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं ध्रुवः।
पुराच्च निर्गम्य ततस्तद‍्बाह्योपवनं ययौ॥ ३०॥

मूलम्

निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं ध्रुवः।
पुराच्च निर्गम्य ततस्तद‍्बाह्योपवनं ययौ॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहुँचा॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श मुनींस्तत्र सप्त पूर्वागतान‍्ध्रुवः।
कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान्॥ ३१॥

मूलम्

स ददर्श मुनींस्तत्र सप्त पूर्वागतान‍्ध्रुवः।
कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरोंको कृष्ण मृग-चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा ॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजपुत्रस्तान‍्सर्वान‍‍्प्रणिपत्याभ्यभाषत।
प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम्॥ ३२॥

मूलम्

स राजपुत्रस्तान‍्सर्वान‍‍्प्रणिपत्याभ्यभाषत।
प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा॥ ३२॥

मूलम् (वचनम्)

ध्रुव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः।
जातं सुनीत्यां निर्वेदाद्युष्माकं प्राप्तमन्तिकम्॥ ३३॥

मूलम्

उत्तानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः।
जातं सुनीत्यां निर्वेदाद्युष्माकं प्राप्तमन्तिकम्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्रुवने कहा—हे महात्माओ! मुझे आप सुनीतिसे उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जानें। मैं आत्मग्लानिके कारण आपके निकट आया हूँ॥ ३३॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुःपञ्चाब्दसम्भूतो बालस्त्वं नृपनन्दन।
निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्त्तते॥ ३४॥

मूलम्

चतुःपञ्चाब्दसम्भूतो बालस्त्वं नृपनन्दन।
निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्त्तते॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले—राजकुमार! अभी तो तू चार-पाँच वर्षका ही बालक है। अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चिन्त्यं भवतः किञ्चिद‍‍्ध्रियते भूपतिः पिता।
न चैवेष्टवियोगादि तव पश्याम बालक॥ ३५॥

मूलम्

न चिन्त्यं भवतः किञ्चिद‍‍्ध्रियते भूपतिः पिता।
न चैवेष्टवियोगादि तव पश्याम बालक॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते।
निर्वेदः किन्निमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते॥ ३६॥

मूलम्

शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते।
निर्वेदः किन्निमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है?॥ ३६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम्।
तन्निशम्य ततः प्रोचुर्मुनयस्ते परस्परम्॥ ३७॥

मूलम्

ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम्।
तन्निशम्य ततः प्रोचुर्मुनयस्ते परस्परम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया। उसे सुनकर वे ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा।
सपत्न्या मातुरुक्तं यद् हृदयान्नापसर्पति॥ ३८॥

मूलम्

अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा।
सपत्न्या मातुरुक्तं यद् हृदयान्नापसर्पति॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका कथन उसके हृदयसे नहीं टलता’॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो क्षत्रियदायाद निर्वेदाद्यत्त्वयाधुना।
कर्तुं व्यवसितं तन्नः कथ्यतां यदि रोचते॥ ३९॥

मूलम्

भो भो क्षत्रियदायाद निर्वेदाद्यत्त्वयाधुना।
कर्तुं व्यवसितं तन्नः कथ्यतां यदि रोचते॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे क्षत्रियकुमार! इस निर्वेदके कारण तूने जो कुछ करनेका निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो, वह हमलोगोंसे कह दे॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च कार्यं तवास्माभिः साहाय्यममितद्युते।
तदुच्यतां विवक्षुस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे॥ ४०॥

मूलम्

यच्च कार्यं तवास्माभिः साहाय्यममितद्युते।
तदुच्यतां विवक्षुस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे अतुलित तेजस्वी! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है॥ ४०॥

मूलम् (वचनम्)

ध्रुव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहमर्थमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः।
तत्स्थानमेकमिच्छामि भुक्तं नान्येन यत्पुरा॥ ४१॥

मूलम्

नाहमर्थमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः।
तत्स्थानमेकमिच्छामि भुक्तं नान्येन यत्पुरा॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्रुवने कहा—हे द्विजश्रेष्ठ! मुझे न तो धनकी इच्छा है और न राज्यकी; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोगा हो॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्मे क्रियतां सम्यक् कथ्यतां प्राप्यते यथा।
स्थानमग्र्यं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः॥ ४२॥

मूलम्

एतन्मे क्रियतां सम्यक् कथ्यतां प्राप्यते यथा।
स्थानमग्र्यं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है॥ ४२॥

मूलम् (वचनम्)

मरीचिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मज।
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम्॥ ४३॥

मूलम्

अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मज।
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरीचि बोले—हे राजपुत्र! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अतः तू श्रीअच्युतकी आराधना कर॥ ४३॥

मूलम् (वचनम्)

अत्रिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनार्दनः।
स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम्॥ ४४॥

मूलम्

परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनार्दनः।
स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि बोले—जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ॥ ४४॥

मूलम् (वचनम्)

अङ्गिरा उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः।
तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्र्यं यदीच्छसि॥ ४५॥

मूलम्

यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः।
तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्र्यं यदीच्छसि॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगिरा बोले—यदि तू अग्र्य स्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है, उन गोविन्दकी ही आराधना कर॥ ४५॥

मूलम् (वचनम्)

पुलस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम्।
तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यतिदुर्लभाम्॥ ४६॥

मूलम्

परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम्।
तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यतिदुर्लभाम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलस्त्य बोले—जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं, उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है॥ ४६॥

मूलम् (वचनम्)

पुलह उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम्।
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत॥ ४७॥

मूलम्

ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम्।
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलह बोले—हे सुव्रत! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है, तू उन यज्ञपति भगवान‍् विष्णुकी आराधना कर॥ ४७॥

मूलम् (वचनम्)

क्रतुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यज्ञपुरुषो यज्ञो योगेशः परमः पुमान्।
तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किं तदस्ति जनार्दने॥ ४८॥

मूलम्

यो यज्ञपुरुषो यज्ञो योगेशः परमः पुमान्।
तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किं तदस्ति जनार्दने॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रतु बोले—जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दनके सन्तुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है?॥ ४८॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्नोष्याराधिते विष्णौ मनसा यद्यदिच्छसि।
त्रैलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमु वत्सोत्तमोत्तमम्॥ ४९॥

मूलम्

प्राप्नोष्याराधिते विष्णौ मनसा यद्यदिच्छसि।
त्रैलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमु वत्सोत्तमोत्तमम्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठ बोले—हे वत्स! विष्णु भगवान‍्की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकीके उत्तमोत्तम स्थानकी तो बात ही क्या है?॥ ४९॥

मूलम् (वचनम्)

ध्रुव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आराध्यः कथितो देवो भवद्भिः प्रणतस्य मे।
मया तत्परितोषाय यज्जप्तव्यं तदुच्यताम्॥ ५०॥
यथा चाराधनं तस्य मया कार्यं महात्मनः।
प्रसादसुमुखास्तन्मे कथयन्तु महर्षयः॥ ५१॥

मूलम्

आराध्यः कथितो देवो भवद्भिः प्रणतस्य मे।
मया तत्परितोषाय यज्जप्तव्यं तदुच्यताम्॥ ५०॥
यथा चाराधनं तस्य मया कार्यं महात्मनः।
प्रसादसुमुखास्तन्मे कथयन्तु महर्षयः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्रुवने कहा—हे महर्षिगण! मुझ विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया। अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये—यह बताइये। उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये॥ ५०-५१॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरैर्नरैः।
कार्यमाराधनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि॥ ५२॥

मूलम्

राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरैर्नरैः।
कार्यमाराधनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषिगण बोले—हे राजकुमार! विष्णुभगवान‍्की आराधनामें तत्पर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यार्थादखिलाच्चित्तं त्याजयेत्प्रथमं नरः।
तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततःकुर्वीत निश्चलम्॥ ५३॥

मूलम्

बाह्यार्थादखिलाच्चित्तं त्याजयेत्प्रथमं नरः।
तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततःकुर्वीत निश्चलम्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधारमें ही स्थिर कर दे॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धृतात्मना।
जप्तव्यं यन्निबोधैतत्तन्नः पार्थिवनन्दनः॥ ५४॥

मूलम्

एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धृतात्मना।
जप्तव्यं यन्निबोधैतत्तन्नः पार्थिवनन्दनः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजकुमार! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभावसे जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन—॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे ।
ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वरूपिणे॥ ५५॥

मूलम्

हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे ।
ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वरूपिणे॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्ध ज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है’॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतज्जजाप भगवान‍् जप्यं स्वायम्भुवो मनुः।
पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टो जनार्दनः॥ ५६॥
ददौ यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम्।
तथा त्वमपि गोविन्दं तोषयैतत्सदा जपन्॥ ५७॥

मूलम्

एतज्जजाप भगवान‍् जप्यं स्वायम्भुवो मनुः।
पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टो जनार्दनः॥ ५६॥
ददौ यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम्।
तथा त्वमपि गोविन्दं तोषयैतत्सदा जपन्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्रको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान‍् स्वायम्भुव मनुने जपा था। तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी। उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर॥ ५६-५७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥