[नवाँ अध्याय]
विषय
दुर्वासाजीके शापसे इन्द्रका पराजय, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे प्रसन्न हुए भगवान्का प्रकट होकर देवताओंको समुद्र-मन्थनका उपदेश करना तथा देवता और दैत्योंका समुद्र-मन्थन
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च शृणु मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह त्वया।
श्रीसम्बन्धं मयाप्येतच्छ्रुतमासीन्मरीचितः॥ १॥
मूलम्
इदं च शृणु मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह त्वया।
श्रीसम्बन्धं मयाप्येतच्छ्रुतमासीन्मरीचितः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! तुमने इस समय मुझसे जिसके विषयमें पूछा है वह श्रीसम्बन्ध (लक्ष्मीजीका इतिहास) मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, [सावधान होकर] सुनो॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्वासाः शङ्करस्यांशश्चचार पृथिवीमिमाम्।
स ददर्श स्रजं दिव्यामृषिर्विद्याधरीकरे॥ २॥
सन्तानकानामखिलं यस्या गन्धेन वासितम्।
अतिसेव्यमभूद्ब्रह्मन् तद्वनं वनचारिणाम्॥ ३॥
मूलम्
दुर्वासाः शङ्करस्यांशश्चचार पृथिवीमिमाम्।
स ददर्श स्रजं दिव्यामृषिर्विद्याधरीकरे॥ २॥
सन्तानकानामखिलं यस्या गन्धेन वासितम्।
अतिसेव्यमभूद्ब्रह्मन् तद्वनं वनचारिणाम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार शंकरके अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथिवीतलमें विचर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विद्याधरीके हाथोंमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी। हे ब्रह्मन्! उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्तव्रतधृग्विप्रस्तां दृष्ट्वा शोभनां स्रजम्।
तां ययाचे वरारोहां विद्याधरवधूं ततः॥ ४॥
मूलम्
उन्मत्तव्रतधृग्विप्रस्तां दृष्ट्वा शोभनां स्रजम्।
तां ययाचे वरारोहां विद्याधरवधूं ततः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन उन्मत्तवृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर-सुन्दरीसे माँगा॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याचिता तेन तन्वङ्गी मालां विद्याधराङ्गना।
ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं प्रणिपत्य तम्॥ ५॥
मूलम्
याचिता तेन तन्वङ्गी मालां विद्याधराङ्गना।
ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं प्रणिपत्य तम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके माँगनेपर उस बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामादायात्मनो मूर्ध्नि स्रजमुन्मत्तरूपधृक्।
कृत्वा स विप्रो मैत्रेय परिबभ्राम मेदिनीम्॥ ६॥
मूलम्
तामादायात्मनो मूर्ध्नि स्रजमुन्मत्तरूपधृक्।
कृत्वा स विप्रो मैत्रेय परिबभ्राम मेदिनीम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श तमायान्तमुन्मत्तैरावते स्थितम्।
त्रैलोक्याधिपतिं देवं सह देवैः शचीपतिम्॥ ७॥
मूलम्
स ददर्श तमायान्तमुन्मत्तैरावते स्थितम्।
त्रैलोक्याधिपतिं देवं सह देवैः शचीपतिम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्रको देखा॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामात्मनः स शिरसः स्रजमुन्मत्तषट्पदाम्।
आदायामरराजाय चिक्षेपोन्मत्तवन्मुनिः॥ ८॥
मूलम्
तामात्मनः स शिरसः स्रजमुन्मत्तषट्पदाम्।
आदायामरराजाय चिक्षेपोन्मत्तवन्मुनिः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्तके समान वह मतवाले भौंरोंसे गुंजायमान माला अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वाऽमरराजेन स्रगैरावतमूर्द्धनि।
न्यस्ता रराज कैलासशिखरे जाह्नवी यथा॥ ९॥
मूलम्
गृहीत्वाऽमरराजेन स्रगैरावतमूर्द्धनि।
न्यस्ता रराज कैलासशिखरे जाह्नवी यथा॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराजने उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदान्धकारिताक्षोऽसौ गन्धाकृष्टेन वारणः।
करेणाघ्राय चिक्षेप तां स्रजं धरणीतले॥ १०॥
मूलम्
मदान्धकारिताक्षोऽसौ गन्धाकृष्टेन वारणः।
करेणाघ्राय चिक्षेप तां स्रजं धरणीतले॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मदोन्मत्त हाथीने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँडसे सूँघकर पृथिवीपर फेंक दिया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चुक्रोध भगवान्दुर्वासा मुनिसत्तमः।
मैत्रेय देवराजं तं क्रुद्धश्चैतदुवाच ह॥ ११॥
मूलम्
ततश्चुक्रोध भगवान्दुर्वासा मुनिसत्तमः।
मैत्रेय देवराजं तं क्रुद्धश्चैतदुवाच ह॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले॥ ११॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्वासा उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐश्वर्यमददुष्टात्मन्नतिस्तब्धोऽसि वासव।
श्रियो धाम स्रजं यस्त्वं मद्दत्तां नाभिनन्दसि॥ १२॥
मूलम्
ऐश्वर्यमददुष्टात्मन्नतिस्तब्धोऽसि वासव।
श्रियो धाम स्रजं यस्त्वं मद्दत्तां नाभिनन्दसि॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजीने कहा—अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त इन्द्र! तू बड़ा ढीठ है, तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालाका कुछ भी आदर नहीं किया!॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसाद इति नोक्तं ते प्रणिपातपुरःसरम्।
हर्षोत्फुल्लकपोलेन न चापि शिरसा धृता॥ १३॥
मूलम्
प्रसाद इति नोक्तं ते प्रणिपातपुरःसरम्।
हर्षोत्फुल्लकपोलेन न चापि शिरसा धृता॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे! तूने न तो प्रणाम करके ‘बड़ी कृपा की’ ऐसा ही कहा और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न बहु मन्यसे।
त्रैलोक्यश्रीरतो मूढ विनाशमुपयास्यति॥ १४॥
मूलम्
मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न बहु मन्यसे।
त्रैलोक्यश्रीरतो मूढ विनाशमुपयास्यति॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रे मूढ़! तूने मेरी दी हुई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां मन्यसे त्वं सदृशं नूनं शक्रेतरद्विजैः।
अतोऽवमानमस्मासु मानिना भवता कृतम्॥ १५॥
मूलम्
मां मन्यसे त्वं सदृशं नूनं शक्रेतरद्विजैः।
अतोऽवमानमस्मासु मानिना भवता कृतम्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणोंके समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इस प्रकार अपमान किया है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्दत्ता भवता यस्मात्क्षिप्ता माला महीतले।
तस्मात्प्रणष्टलक्ष्मीकं त्रैलोक्यं ते भविष्यति॥ १६॥
मूलम्
मद्दत्ता भवता यस्मात्क्षिप्ता माला महीतले।
तस्मात्प्रणष्टलक्ष्मीकं त्रैलोक्यं ते भविष्यति॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, तूने मेरी दी हुई मालाको पृथिवीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य सञ्जातकोपस्य भयमेति चराचरम्।
तं त्वं मामतिगर्वेण देवराजावमन्यसे॥ १७॥
मूलम्
यस्य सञ्जातकोपस्य भयमेति चराचरम्।
तं त्वं मामतिगर्वेण देवराजावमन्यसे॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रे देवराज! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्वसे इस प्रकार अपमान किया!॥ १७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेन्द्रो वारणस्कन्धादवतीर्य त्वरान्वितः।
प्रसादयामास मुनिं दुर्वाससमकल्मषम्॥ १८॥
मूलम्
महेन्द्रो वारणस्कन्धादवतीर्य त्वरान्वितः।
प्रसादयामास मुनिं दुर्वाससमकल्मषम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तब तो इन्द्रने तुरन्त ही ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजीको [अनुनय-विनय करके] प्रसन्न किया॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसाद्यमानः स तदा प्रणिपातपुरःसरम्।
इत्युवाच सहस्राक्षं दुर्वासा मुनिसत्तमः॥ १९॥
मूलम्
प्रसाद्यमानः स तदा प्रणिपातपुरःसरम्।
इत्युवाच सहस्राक्षं दुर्वासा मुनिसत्तमः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसके प्रणामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे॥ १९॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्वासा उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं कृपालुहृदयो न च मां भजते क्षमा।
अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि माम्॥ २०॥
मूलम्
नाहं कृपालुहृदयो न च मां भजते क्षमा।
अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि माम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी बोले—इन्द्र! मैं कृपालु-चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तःकरणमें क्षमाको स्थान नहीं है। वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हूँ न?॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमादिभिरन्यैस्त्वं गर्वमारोपितो मुधा।
अक्षान्तिसारसर्वस्वं दुर्वाससमवेहि माम्॥ २१॥
मूलम्
गौतमादिभिरन्यैस्त्वं गर्वमारोपितो मुधा।
अक्षान्तिसारसर्वस्वं दुर्वाससमवेहि माम्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमादि अन्य मुनिजनोंने व्यर्थ ही तुझे इतना मुँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासाका सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठाद्यैर्दयासारैस्स्तोत्रं कुर्वद्भिरुच्चकैः।
गर्वं गतोऽसि येनैवं मामप्यद्यावमन्यसे॥ २२॥
मूलम्
वसिष्ठाद्यैर्दयासारैस्स्तोत्रं कुर्वद्भिरुच्चकैः।
गर्वं गतोऽसि येनैवं मामप्यद्यावमन्यसे॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके बढ़-बढ़कर स्तुति करनेसे तू इतना गर्वीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चला है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलज्जटाकलापस्य भृकुटीकुटिलं मुखम्।
निरीक्ष्य कस्त्रिभुवने मम यो न गतो भयम्॥ २३॥
मूलम्
ज्वलज्जटाकलापस्य भृकुटीकुटिलं मुखम्।
निरीक्ष्य कस्त्रिभुवने मम यो न गतो भयम्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे! आज त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटाकलाप और टेढ़ी भृकुटिको देखकर भयभीत न हो जाय?॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं क्षमिष्ये बहुना किमुक्तेन शतक्रतो।
विडम्बनामिमां भूयः करोष्यनुनयात्मिकाम्॥ २४॥
मूलम्
नाहं क्षमिष्ये बहुना किमुक्तेन शतक्रतो।
विडम्बनामिमां भूयः करोष्यनुनयात्मिकाम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रे शतक्रतो! तू बारम्बार अनुनय-विनय करनेका ढोंग क्यों करता है? तेरे इस कहने-सुननेसे क्या होगा? मैं क्षमा नहीं कर सकता॥ २४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोऽपि तं पुनः।
आरुह्यैरावतं ब्रह्मन् प्रययावमरावतीम्॥ २५॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोऽपि तं पुनः।
आरुह्यैरावतं ब्रह्मन् प्रययावमरावतीम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे ब्रह्मन्! इस प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर अमरावतीको चले गये॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रभृति निःश्रीकं सशक्रं भुवनत्रयम्।
मैत्रेयासीदपध्वस्तं सङ्क्षीणौषधिवीरुधम्॥ २६॥
मूलम्
ततः प्रभृति निःश्रीकं सशक्रं भुवनत्रयम्।
मैत्रेयासीदपध्वस्तं सङ्क्षीणौषधिवीरुधम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष-लता आदिके क्षीण हो जानेसे श्रीहीन और नष्ट-भ्रष्ट होने लगे॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यज्ञाः समवर्त्तन्त न तपस्यन्ति तापसाः।
न च दानादिधर्मेषु मनश्चक्रे तदा जनः॥ २७॥
मूलम्
न यज्ञाः समवर्त्तन्त न तपस्यन्ति तापसाः।
न च दानादिधर्मेषु मनश्चक्रे तदा जनः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबसे यज्ञोंका होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त नहीं रहा॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसत्त्वाः सकला लोका लोभाद्युपहतेन्द्रियाः।
स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तम॥ २८॥
मूलम्
निःसत्त्वाः सकला लोका लोभाद्युपहतेन्द्रियाः।
स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तम॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य (सामर्थ्यहीन) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः सत्त्वं ततो लक्ष्मीः सत्त्वं भूत्यनुसारि च।
निःश्रीकाणां कुतः सत्त्वं विना तेन गुणाः कुतः॥ २९॥
मूलम्
यतः सत्त्वं ततो लक्ष्मीः सत्त्वं भूत्यनुसारि च।
निःश्रीकाणां कुतः सत्त्वं विना तेन गुणाः कुतः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है। श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं?॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलशौर्याद्यभावश्च पुरुषाणां गुणैर्विना।
लङ्घनीयः समस्तस्य बलशौर्यविवर्जितः॥ ३०॥
मूलम्
बलशौर्याद्यभावश्च पुरुषाणां गुणैर्विना।
लङ्घनीयः समस्तस्य बलशौर्यविवर्जितः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिना गुणोंके पुरुषमें बल, शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्यपध्वस्तमतिर्लङ्घितः प्रथितः पुमान्॥ ३१॥
मूलम्
भवत्यपध्वस्तमतिर्लङ्घितः प्रथितः पुमान्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषकी बुद्धि बिगड़ जाती है॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमत्यन्तनिःश्रीके त्रैलोक्ये सत्त्ववर्जिते।
देवान् प्रति बलोद्योगं चक्रुर्दैतेयदानवाः॥ ३२॥
मूलम्
एवमत्यन्तनिःश्रीके त्रैलोक्ये सत्त्ववर्जिते।
देवान् प्रति बलोद्योगं चक्रुर्दैतेयदानवाः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढ़ाई कर दी॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभाभिभूता निःश्रीका दैत्याः सत्त्वविवर्जिताः।
श्रिया विहीनैर्निःसत्त्वैर्देवैश्चक्रुस्ततो रणम्॥ ३३॥
मूलम्
लोभाभिभूता निःश्रीका दैत्याः सत्त्वविवर्जिताः।
श्रिया विहीनैर्निःसत्त्वैर्देवैश्चक्रुस्ततो रणम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैत्योंने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोर युद्ध ठाना॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरणं ययुः।
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः॥ ३४॥
मूलम्
विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरणं ययुः।
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए। तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावत्कथितो देवैर्ब्रह्मा प्राह ततः सुरान्।
परावरेशं शरणं व्रजध्वमसुरार्दनम्॥ ३५॥
उत्पत्तिस्थितिनाशानामहेतुं हेतुमीश्वरम्।
प्रजापतिपतिं विष्णुमनन्तमपराजितम्॥ ३६॥
प्रधानपुंसोरजयोः कारणं कार्यभूतयोः।
प्रणतार्त्तिहरं विष्णुं स वः श्रेयो विधास्यति॥ ३७॥
मूलम्
यथावत्कथितो देवैर्ब्रह्मा प्राह ततः सुरान्।
परावरेशं शरणं व्रजध्वमसुरार्दनम्॥ ३५॥
उत्पत्तिस्थितिनाशानामहेतुं हेतुमीश्वरम्।
प्रजापतिपतिं विष्णुमनन्तमपराजितम्॥ ३६॥
प्रधानपुंसोरजयोः कारणं कार्यभूतयोः।
प्रणतार्त्तिहरं विष्णुं स वः श्रेयो विधास्यति॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंसे सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, ‘हे देवगण! तुम दैत्य-दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो [आरोपसे] संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं किन्तु [वास्तवमें] कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, प्रजापतियोंके स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान (मूलप्रकृति) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं। [शरण जानेपर] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे’॥ ३५—३७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान् ब्रह्मा लोकपितामहः।
क्षीरोदस्योत्तरं तीरं तैरेव सहितो ययौ॥ ३८॥
मूलम्
एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान् ब्रह्मा लोकपितामहः।
क्षीरोदस्योत्तरं तीरं तैरेव सहितो ययौ॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! सम्पूर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तटपर गये॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा त्रिदशैः सर्वैः समवेतः पितामहः।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परावरपतिं हरिम्॥ ३९॥
मूलम्
स गत्वा त्रिदशैः सर्वैः समवेतः पितामहः।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परावरपतिं हरिम्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ परावरनाथ श्रीविष्णु भगवान्की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुतिकी॥ ३९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम्।
लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम्॥ ४०॥
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम्।
समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम्॥ ४१॥
मूलम्
नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम्।
लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम्॥ ४०॥
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम्।
समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी कहने लगे—जो समस्त अणुओंसे भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं (भारी पदार्थों)-से भी गुरु (भारी) हैं; उन निखिललोक विश्राम, पृथिवीके आधारस्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं मत्पुरःसरम्।
सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः॥ ४२॥
परः परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक्।
योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभिः॥ ४३॥
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृता गुणाः।
स शुद्धः सर्वशुद्धेभ्यः पुमानाद्यः प्रसीदतु॥ ४४॥
मूलम्
यत्र सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं मत्पुरःसरम्।
सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः॥ ४२॥
परः परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक्।
योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभिः॥ ४३॥
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृता गुणाः।
स शुद्धः सर्वशुद्धेभ्यः पुमानाद्यः प्रसीदतु॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर (प्रधानादि) से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है, मुक्ति-लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि प्राकृतिक गुणोंका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हों॥ ४२—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलाकाष्ठामुहूर्त्तादिकालसूत्रस्य गोचरे।
यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णुः प्रसीदतु॥ ४५॥
मूलम्
कलाकाष्ठामुहूर्त्तादिकालसूत्रस्य गोचरे।
यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णुः प्रसीदतु॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस शुद्धस्वरूप भगवान्की शक्ति (विभूति) कला-काष्ठा और मुहूर्त आदि काल-क्रमका विषय नहीं है, वे भगवान् विष्णु हमपर प्रसन्न हों॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोच्यते परमेशो हि यः शुद्धोऽप्युपचारतः।
प्रसीदतु स नो विष्णुरात्मा यः सर्वदेहिनाम्॥ ४६॥
मूलम्
प्रोच्यते परमेशो हि यः शुद्धोऽप्युपचारतः।
प्रसीदतु स नो विष्णुरात्मा यः सर्वदेहिनाम्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचारसे परमेश्वर (परमा=महालक्ष्मी+ ईश्वर=पति) अर्थात् लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियोंके आत्मा हैं वे श्रीविष्णु भगवान् हमपर प्रसन्न हों॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कारणं च कार्यं च कारणस्यापि कारणम्।
कार्यस्यापि च यः कार्यं प्रसीदतु स नो हरिः॥ ४७॥
मूलम्
यः कारणं च कार्यं च कारणस्यापि कारणम्।
कार्यस्यापि च यः कार्यं प्रसीदतु स नो हरिः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारणके भी कारण और कार्यके भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हों॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यकार्यस्य यत्कार्यं तत्कार्यस्यापि यः स्वयम्।
तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः स्म तम्॥ ४८॥
मूलम्
कार्यकार्यस्य यत्कार्यं तत्कार्यस्यापि यः स्वयम्।
तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः स्म तम्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कार्य (महत्तत्त्व)-के कार्य (अहंकार)-का भी कार्य (तन्मात्रापंचक) है उसके कार्य (भूतपंचक)-का भी कार्य (ब्रह्माण्ड) जो स्वयं है और जो उसके कार्य (ब्रह्मा-दक्षादि)-का भी कार्यभूत (प्रजापतियोंके पुत्र-पौत्रादि) है उसे हम प्रणाम करते हैं॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम्।
तत्कारणानां हेतुं तं प्रणताः स्म परेश्वरम्॥ ४९॥
मूलम्
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम्।
तत्कारणानां हेतुं तं प्रणताः स्म परेश्वरम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जो जगत्के कारण (ब्रह्मादि)-का कारण (ब्रह्माण्ड) और उसके कारण (भूतपंचक)-के कारण (पंचतन्मात्रा)-के कारणों (अहंकार-महत्तत्त्वादि)-का भी हेतु (मूलप्रकृति) है उस परमेश्वरको हम प्रणाम करते हैं॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोक्तारं भोग्यभूतं च स्रष्टारं सृज्यमेव च।
कार्यकर्तृस्वरूपं तं प्रणताः स्म परं पदम्॥ ५०॥
मूलम्
भोक्तारं भोग्यभूतं च स्रष्टारं सृज्यमेव च।
कार्यकर्तृस्वरूपं तं प्रणताः स्म परं पदम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भोक्ता और भोग्य, स्रष्टा और सृज्य तथा कर्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम्।
अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५१॥
मूलम्
विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम्।
अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णुका परमपद (परस्वरूप) है॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम्।
तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः सदाऽमलम्॥ ५२॥
मूलम्
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम्।
तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः सदाऽमलम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो न स्थूल है न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषणका विषय है वही भगवान् विष्णुका नित्य-निर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते हैं॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता।
परब्रह्मस्वरूपं यत्प्रणमामस्तमव्ययम्॥ ५३॥
मूलम्
यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता।
परब्रह्मस्वरूपं यत्प्रणमामस्तमव्ययम्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके अयुतांश (दस हजारवें अंश) के अयुतांशमें यह विश्वरचनाकी शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्ययको हम प्रणाम करते हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्योगिनः सदोद्युक्ताः पुण्यपापक्षयेऽक्षयम्।
पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५४॥
मूलम्
यद्योगिनः सदोद्युक्ताः पुण्यपापक्षयेऽक्षयम्।
पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य-युक्त योगिगण अपने पुण्य-पापादिका क्षय हो जानेपर ॐकारद्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पदका साक्षात्कार करते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शङ्करः।
जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५५॥
मूलम्
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शङ्करः।
जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैं—कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५६॥
मूलम्
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं पदम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्व सर्वाश्रयाच्युत।
प्रसीद विष्णो भक्तानां व्रज नो दृष्टिगोचरम्॥ ५७॥
मूलम्
सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्व सर्वाश्रयाच्युत।
प्रसीद विष्णो भक्तानां व्रज नो दृष्टिगोचरम्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सर्वेश्वर! हे सर्वभूतात्मन्! हे सर्वरूप! हे सर्वाधार! हे अच्युत! हे विष्णो! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये॥ ५७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युदीरितमाकर्ण्य ब्रह्मणस्त्रिदशास्ततः।
प्रणम्योचुः प्रसीदेति व्रज नो दृष्टिगोचरम्॥ ५८
मूलम्
इत्युदीरितमाकर्ण्य ब्रह्मणस्त्रिदशास्ततः।
प्रणम्योचुः प्रसीदेति व्रज नो दृष्टिगोचरम्॥ ५८
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—ब्रह्माजीके इन उद्गारोंको सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले—‘प्रभो! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं पदम्।
तन्नताः स्म जगद्धाम तव सर्वगताच्युत॥ ५९॥
मूलम्
यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं पदम्।
तन्नताः स्म जगद्धाम तव सर्वगताच्युत॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत! जिसे ये भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं’॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां ब्रह्मणस्तथा।
ऊचुर्देवर्षयस्सर्वे बृहस्पतिपुरोगमाः॥ ६०॥
मूलम्
इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां ब्रह्मणस्तथा।
ऊचुर्देवर्षयस्सर्वे बृहस्पतिपुरोगमाः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे—॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आद्यो यज्ञपुमानीड्यः पूर्वेषां यश्च पूर्वजः।
तन्नताः स्म जगत्स्रष्टुः स्रष्टारमविशेषणम्॥ ६१॥
मूलम्
आद्यो यज्ञपुमानीड्यः पूर्वेषां यश्च पूर्वजः।
तन्नताः स्म जगत्स्रष्टुः स्रष्टारमविशेषणम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ-पुरुष हैं और पूर्वजोंके भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत्के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम नमस्कार करते हैं॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्त्तिधराव्यय।
प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां देहि दर्शनम्॥ ६२॥
मूलम्
भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्त्तिधराव्यय।
प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां देहि दर्शनम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन्! हे अव्यय! हम सब शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्रैस्त्रिलोचनः।
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं सहाग्निभिः॥ ६३॥
अश्विनौ वसवश्चेमे सर्वे चैते मरुद्गणाः।
साध्या विश्वे तथा देवा देवेन्द्रश्चायमीश्वरः॥ ६४॥
प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः पराजिताः।
शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ता देवतागणाः॥ ६५॥
मूलम्
एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्रैस्त्रिलोचनः।
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं सहाग्निभिः॥ ६३॥
अश्विनौ वसवश्चेमे सर्वे चैते मरुद्गणाः।
साध्या विश्वे तथा देवा देवेन्द्रश्चायमीश्वरः॥ ६४॥
प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः पराजिताः।
शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ता देवतागणाः॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रोंके सहित भगवान् शंकर, बारहों आदित्योंके सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्गण, साध्यगण, विश्वेदेव तथा देवराज इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरणमें आये हैं’॥ ६३—६५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संस्तूयमानस्तु भगवाञ्छङ्खचक्रधृक्।
जगाम दर्शनं तेषां मैत्रेय परमेश्वरः॥ ६६॥
मूलम्
एवं संस्तूयमानस्तु भगवाञ्छङ्खचक्रधृक्।
जगाम दर्शनं तेषां मैत्रेय परमेश्वरः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर शंख-चक्रधारी भगवान् परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा ते तदा देवाः शङ्खचक्रगदाधरम्।
अपूर्वरूपसंस्थानं तेजसां राशिमूर्जितम्॥ ६७॥
प्रणम्य प्रणताः सर्वे संक्षोभस्तिमितेक्षणाः।
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षं पितामहपुरोगमाः॥ ६८॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा ते तदा देवाः शङ्खचक्रगदाधरम्।
अपूर्वरूपसंस्थानं तेजसां राशिमूर्जितम्॥ ६७॥
प्रणम्य प्रणताः सर्वे संक्षोभस्तिमितेक्षणाः।
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षं पितामहपुरोगमाः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस शंख-चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित-नयन हो उन कमलनयन भगवान्की स्तुति करने लगे॥ ६७—६८॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा त्वं पिनाकधृक्।
इन्द्रस्त्वमग्निः पवनो वरुणः सविता यमः॥ ६९॥
मूलम्
नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा त्वं पिनाकधृक्।
इन्द्रस्त्वमग्निः पवनो वरुणः सविता यमः॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवगण बोले—हे प्रभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि, पवन, वरुण, सूर्य और यमराज हैं॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवगणाः भवान्।
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः।
स त्वमेव जगत्स्रष्टा यतः सर्वगतो भवान्॥ ७०॥
मूलम्
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवगणाः भवान्।
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः।
स त्वमेव जगत्स्रष्टा यतः सर्वगतो भवान्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्रष्टा! वह भी आप ही हैं क्योंकि आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोङ्कारः प्रजापतिः।
विद्या वेद्यं च सर्वात्मंस्त्वन्मयं चाखिलं जगत्॥ ७१॥
मूलम्
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोङ्कारः प्रजापतिः।
विद्या वेद्यं च सर्वात्मंस्त्वन्मयं चाखिलं जगत्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषट्कार हैं तथा आप ही ओंकार और प्रजापति हैं। हे सर्वात्मन्! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपहीका स्वरूप तो है॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामार्त्ताः शरणं विष्णो प्रयाता दैत्यनिर्जिताः।
वयं प्रसीद सर्वात्मंस्तेजसाप्याययस्व नः॥ ७२॥
मूलम्
त्वामार्त्ताः शरणं विष्णो प्रयाता दैत्यनिर्जिताः।
वयं प्रसीद सर्वात्मंस्तेजसाप्याययस्व नः॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विष्णो! दैत्योंसे परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरणमें आये हैं; हे सर्वस्वरूप! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिये॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावदार्त्तिस्तथा वाञ्छा तावन्मोहस्तथाऽसुखम्।
यावन्न याति शरणं त्वामशेषाघनाशनम्॥ ७३॥
मूलम्
तावदार्त्तिस्तथा वाञ्छा तावन्मोहस्तथाऽसुखम्।
यावन्न याति शरणं त्वामशेषाघनाशनम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! जबतक जीव सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले आपकी शरणमें नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता, इच्छा, मोह और दुःख आदि रहते हैं॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन् प्रपन्नानां कुरुष्व नः।
तेजसां नाथ सर्वेषां स्वशक्त्याप्यायनं कुरु॥ ७४॥
मूलम्
त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन् प्रपन्नानां कुरुष्व नः।
तेजसां नाथ सर्वेषां स्वशक्त्याप्यायनं कुरु॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रसन्नात्मन्! हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ! अपनी शक्तिसे हम सब देवताओंके [खोये हुए] तेजको फिर बढ़ाइये॥ ७४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संस्तूयमानस्तु प्रणतैरमरैर्हरिः।
प्रसन्नदृष्टिर्भगवानिदमाह स विश्वकृत्॥ ७५॥
मूलम्
एवं संस्तूयमानस्तु प्रणतैरमरैर्हरिः।
प्रसन्नदृष्टिर्भगवानिदमाह स विश्वकृत्॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—विनीत देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्ता भगवान् हरि प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले—॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसो भवतां देवाः करिष्याम्युपबृंहणम्।
वदाम्यहं यत्क्रियतां भवद्भिस्तदिदं सुराः॥ ७६॥
मूलम्
तेजसो भवतां देवाः करिष्याम्युपबृंहणम्।
वदाम्यहं यत्क्रियतां भवद्भिस्तदिदं सुराः॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवगण! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढ़ाऊँगा; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनीय सहिता दैत्यैः क्षीराब्धौ सकलौषधीः।
प्रक्षिप्यात्रामृतार्थं ताः सकला दैत्यदानवैः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्॥ ७७॥
मथ्यताममृतं देवाः सहाये मय्यवस्थिते॥ ७८॥
मूलम्
आनीय सहिता दैत्यैः क्षीराब्धौ सकलौषधीः।
प्रक्षिप्यात्रामृतार्थं ताः सकला दैत्यदानवैः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्॥ ७७॥
मथ्यताममृतं देवाः सहाये मय्यवस्थिते॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर-सागरमें डालो और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायतासे मथकर अमृत निकालो॥ ७७-७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र साहाय्यकर्मणि।
सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्यथ॥ ७९॥
मूलम्
सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र साहाय्यकर्मणि।
सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्यथ॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्योंसे कहो कि ‘इस काममें सहायता करनेसे आपलोग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगे’॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमाने च तत्राब्धौ यत्समुत्पत्स्यतेऽमृतम्।
तत्पानाद्बलिनो यूयममराश्च भविष्यथ॥ ८०॥
मूलम्
मथ्यमाने च तत्राब्धौ यत्समुत्पत्स्यतेऽमृतम्।
तत्पानाद्बलिनो यूयममराश्च भविष्यथ॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रके मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करनेसे तुम सबल और अमर हो जाओगे॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा चाहं करिष्यामि ते यथा त्रिदशद्विषः।
न प्राप्स्यन्त्यमृतं देवाः केवलं क्लेशभागिनः॥ ८१॥
मूलम्
तथा चाहं करिष्यामि ते यथा त्रिदशद्विषः।
न प्राप्स्यन्त्यमृतं देवाः केवलं क्लेशभागिनः॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवगण! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्योंको अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र-मन्थनका क्लेश ही आयेगा॥ ८१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा सुराः।
सन्धानमसुरैः कृत्वा यत्नवन्तोऽमृतेऽभवन्॥ ८२॥
मूलम्
इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा सुराः।
सन्धानमसुरैः कृत्वा यत्नवन्तोऽमृतेऽभवन्॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तब देवदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये यत्न करने लगे॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानौषधीः समानीय देवदैतेयदानवाः।
क्षिप्त्वा क्षीराब्धिपयसि शरदभ्रामलत्विषि॥ ८३॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्।
ततो मथितुमारब्धा मैत्रेय तरसाऽमृतम्॥ ८४॥
मूलम्
नानौषधीः समानीय देवदैतेयदानवाः।
क्षिप्त्वा क्षीराब्धिपयसि शरदभ्रामलत्विषि॥ ८३॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्।
ततो मथितुमारब्धा मैत्रेय तरसाऽमृतम्॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! देव, दानव और दैत्योंने नाना प्रकारकी ओषधियाँ लाकर उन्हें शरद्-ऋतुके आकाशकी-सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर-सागरके जलमें डाला और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेगसे अमृत मथना आरम्भ किया॥ ८३-८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः कृताः।
कृष्णेन वासुकेर्दैत्याः पूर्वकाये निवेशिताः॥ ८५॥
मूलम्
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः कृताः।
कृष्णेन वासुकेर्दैत्याः पूर्वकाये निवेशिताः॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापहतत्विषः।
निस्तेजसोऽसुराः सर्वे बभूवुरमितौजसः॥ ८६॥
मूलम्
ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापहतत्विषः।
निस्तेजसोऽसुराः सर्वे बभूवुरमितौजसः॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैव मुखनिश्वासवायुनास्तबलाहकैः।
पुच्छप्रदेशे वर्षद्भिस्तदा चाप्यायिताः सुराः॥ ८७॥
मूलम्
तेनैव मुखनिश्वासवायुनास्तबलाहकैः।
पुच्छप्रदेशे वर्षद्भिस्तदा चाप्यायिताः सुराः॥ ८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उसी श्वास-वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढ़ती गयी॥ ८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं हरिः।
मन्थनाद्रेरधिष्ठानं भ्रमतोऽभून्महामुने॥ ८८॥
मूलम्
क्षीरोदमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं हरिः।
मन्थनाद्रेरधिष्ठानं भ्रमतोऽभून्महामुने॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामुने! भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर-सागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए॥ ८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः।
चकर्ष नागराजानं दैत्यमध्येऽपरेण च॥ ८९॥
मूलम्
रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः।
चकर्ष नागराजानं दैत्यमध्येऽपरेण च॥ ८९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और वे ही चक्र-गदाधर भगवान् अपने एक अन्य रूपसे देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराजको खींचने लगे थे॥ ८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्याक्रान्तवाञ्च्छैलं बृहद्रूपेण केशवः।
तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं सुरासुरैः॥ ९०॥
मूलम्
उपर्याक्रान्तवाञ्च्छैलं बृहद्रूपेण केशवः।
तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं सुरासुरैः॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा हे मैत्रेय! एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता था श्रीकेशवने ऊपरसे पर्वतको दबा रखा था॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्हरिः।
अन्येन तेजसा देवानुपबृंहितवान्प्रभुः॥ ९१॥
मूलम्
तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्हरिः।
अन्येन तेजसा देवानुपबृंहितवान्प्रभुः॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकिमें बलका संचार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बढ़ा रहे थे॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमाने ततस्तस्मिन्क्षीराब्धौ देवदानवैः।
हविर्धामाऽभवत्पूर्वं सुरभिः सुरपूजिता॥ ९२॥
मूलम्
मथ्यमाने ततस्तस्मिन्क्षीराब्धौ देवदानवैः।
हविर्धामाऽभवत्पूर्वं सुरभिः सुरपूजिता॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार, देवता और दानवोंद्वारा क्षीर-समुद्रके मथे जानेपर पहले हवि (यज्ञ-सामग्री)-की आश्रयरूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग्मुर्मुदं ततो देवा दानवाश्च महामुने।
व्याक्षिप्तचेतसश्चैव बभूवुः स्तिमितेक्षणाः॥ ९३॥
मूलम्
जग्मुर्मुदं ततो देवा दानवाश्च महामुने।
व्याक्षिप्तचेतसश्चैव बभूवुः स्तिमितेक्षणाः॥ ९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामुने! उस समय देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी॥ ९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमेतदिति सिद्धानां दिवि चिन्तयतां ततः।
बभूव वारुणी देवी मदाघूर्णितलोचना॥ ९४॥
मूलम्
किमेतदिति सिद्धानां दिवि चिन्तयतां ततः।
बभूव वारुणी देवी मदाघूर्णितलोचना॥ ९४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर स्वर्गलोकमें ‘यह क्या है? यह क्या है?’ इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धोंके समक्ष मदसे घूमते हुए नेत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतावर्तात्ततस्तस्मात्क्षीरोदाद्वासयञ्जगत्।
गन्धेन पारिजातोऽभूद्देवस्त्रीनन्दनस्तरुः॥ ९५॥
मूलम्
कृतावर्तात्ततस्तस्मात्क्षीरोदाद्वासयञ्जगत्।
गन्धेन पारिजातोऽभूद्देवस्त्रीनन्दनस्तरुः॥ ९५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर-सागरसे, अपनी गन्धसे त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर-सुन्दरियोंका आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ॥ ९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां गणः।
क्षीरोदधेः समुत्पन्नो मैत्रेय परमाद्भुतः॥ ९६॥
मूलम्
रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां गणः।
क्षीरोदधेः समुत्पन्नो मैत्रेय परमाद्भुतः॥ ९६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! तत्पश्चात् क्षीर-सागरसे रूप और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुईं॥ ९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शीतांशुरभवज्जगृहे तं महेश्वरः।
जगृहुश्च विषं नागाः क्षीरोदाब्धिसमुत्थितम्॥ ९७॥
मूलम्
ततः शीतांशुरभवज्जगृहे तं महेश्वरः।
जगृहुश्च विषं नागाः क्षीरोदाब्धिसमुत्थितम्॥ ९७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार क्षीर-सागरसे उत्पन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया॥ ९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धन्वन्तरिर्देवः श्वेताम्बरधरस्स्वयम्।
बिभ्रत्कमण्डलुं पूर्णममृतस्य समुत्थितः॥ ९८॥
मूलम्
ततो धन्वन्तरिर्देवः श्वेताम्बरधरस्स्वयम्।
बिभ्रत्कमण्डलुं पूर्णममृतस्य समुत्थितः॥ ९८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान् धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए॥ ९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वे दैतेयदानवाः।
बभूवुर्मुदिताः सर्वे मैत्रेय मुनिभिः सह॥ ९९॥
मूलम्
ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वे दैतेयदानवाः।
बभूवुर्मुदिताः सर्वे मैत्रेय मुनिभिः सह॥ ९९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ-चित्त होकर अति प्रसन्न हुए॥ ९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्फुरत्कान्तिमती विकासिकमले स्थिता।
श्रीर्देवी पयसस्तस्मादुद्भूता धृतपङ्कजा॥ १००॥
मूलम्
ततः स्फुरत्कान्तिमती विकासिकमले स्थिता।
श्रीर्देवी पयसस्तस्मादुद्भूता धृतपङ्कजा॥ १००॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पश्चात् विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल-पुष्प धारण किये क्षीर-समुद्रसे प्रकट हुईं॥ १००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तुष्टुवुर्मुदा युक्ताः श्रीसूक्तेन महर्षयः॥ १०१॥
विश्वावसुमुखास्तस्या गन्धर्वाः पुरतो जगुः।
घृताचीप्रमुखास्तत्र ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ १०२॥
मूलम्
तां तुष्टुवुर्मुदा युक्ताः श्रीसूक्तेन महर्षयः॥ १०१॥
विश्वावसुमुखास्तस्या गन्धर्वाः पुरतो जगुः।
घृताचीप्रमुखास्तत्र ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ १०२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं॥ १०१-१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गाद्याःसरितस्तोयैः स्नानार्थमुपतस्थिरे।
दिग्गजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं जलम्।
स्नापयाञ्चक्रिरे देवीं सर्वलोकमहेश्वरीम्॥ १०३॥
मूलम्
गङ्गाद्याःसरितस्तोयैः स्नानार्थमुपतस्थिरे।
दिग्गजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं जलम्।
स्नापयाञ्चक्रिरे देवीं सर्वलोकमहेश्वरीम्॥ १०३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें अपने जलसे स्नान करानेके लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हुईं और दिग्गजोंने सुवर्ण-कलशोंमें भरे हुए उनके निर्मल जलसे सर्वलोक-महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया॥ १०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै मालामम्लानपङ्कजाम्।
ददौ विभूषणान्यङ्गे विश्वकर्मा चकार ह॥ १०४॥
मूलम्
क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै मालामम्लानपङ्कजाम्।
ददौ विभूषणान्यङ्गे विश्वकर्मा चकार ह॥ १०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षीर-सागरने मूर्तिमान् होकर उन्हें विकसित कमल-पुष्पोंकी माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग-प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये॥ १०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यमाल्याम्बरधरा स्नाता भूषणभूषिता।
पश्यतां सर्वदेवानां ययौ वक्षःस्थलं हरेः॥ १०५॥
मूलम्
दिव्यमाल्याम्बरधरा स्नाता भूषणभूषिता।
पश्यतां सर्वदेवानां ययौ वक्षःस्थलं हरेः॥ १०५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसे स्नान कर, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते-देखते श्रीविष्णु भगवान्के वक्षःस्थलमें विराजमान हुईं॥ १०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया विलोकिता देवा हरिवक्षःस्थलस्थया।
लक्ष्म्या मैत्रेय सहसा परां निर्वृतिमागताः॥ १०६॥
मूलम्
तया विलोकिता देवा हरिवक्षःस्थलस्थया।
लक्ष्म्या मैत्रेय सहसा परां निर्वृतिमागताः॥ १०६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! श्रीहरिके वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई॥ १०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वेगं परमं जग्मुर्दैत्या विष्णुपराङ्मुखाः।
त्यक्ता लक्ष्म्या महाभाग विप्रचित्तिपुरोगमाः॥ १०७॥
मूलम्
उद्वेगं परमं जग्मुर्दैत्या विष्णुपराङ्मुखाः।
त्यक्ता लक्ष्म्या महाभाग विप्रचित्तिपुरोगमाः॥ १०७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे महाभाग! लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण भगवान् विष्णुके विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्विग्न (व्याकुल) हुए॥ १०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते जगृहुर्दैत्या धन्वन्तरिकरस्थितम्।
कमण्डलुं महावीर्या यत्रास्तेऽमृतमुत्तमम्॥ १०८॥
मूलम्
ततस्ते जगृहुर्दैत्या धन्वन्तरिकरस्थितम्।
कमण्डलुं महावीर्या यत्रास्तेऽमृतमुत्तमम्॥ १०८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमण्डलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था॥ १०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायया मोहयित्वा तान्विष्णुः स्त्रीरूपसंस्थितः।
दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ प्रभुः॥ १०९॥
मूलम्
मायया मोहयित्वा तान्विष्णुः स्त्रीरूपसंस्थितः।
दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ प्रभुः॥ १०९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः स्त्री (मोहिनी) रूपधारी भगवान् विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमण्डलु लेकर देवताओंको दे दिया॥ १०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पपुः सुरगणाः शक्राद्यास्तत्तदाऽमृतम्।
उद्यतायुधनिस्त्रिंशा दैत्यास्तांश्च समभ्ययुः॥ ११०॥
मूलम्
ततः पपुः सुरगणाः शक्राद्यास्तत्तदाऽमृतम्।
उद्यतायुधनिस्त्रिंशा दैत्यास्तांश्च समभ्ययुः॥ ११०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खड्ग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पड़े॥ ११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीतेऽमृते च बलिभिर्देवैर्दैत्यचमूस्तदा।
बध्यमाना दिशो भेजे पातालं च विवेश वै॥ १११॥
मूलम्
पीतेऽमृते च बलिभिर्देवैर्दैत्यचमूस्तदा।
बध्यमाना दिशो भेजे पातालं च विवेश वै॥ १११॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु अमृत-पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी-काटी जाकर दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा-विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी॥ १११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवा मुदा युक्ताः शङ्खचक्रगदाभृतम्।
प्रणिपत्य यथापूर्वमाशासत्तत्त्रिविष्टपम्॥ ११२॥
मूलम्
ततो देवा मुदा युक्ताः शङ्खचक्रगदाभृतम्।
प्रणिपत्य यथापूर्वमाशासत्तत्त्रिविष्टपम्॥ ११२॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख-चक्र-गदा-धारी भगवान्को प्रणाम कर पहलेहीके समान स्वर्गका शासन करने लगे॥ ११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रसन्नभाः सूर्यः प्रययौ स्वेन वर्त्मना।
ज्योतींषि च यथामार्गं प्रययुर्मुनिसत्तम॥ ११३॥
मूलम्
ततः प्रसन्नभाः सूर्यः प्रययौ स्वेन वर्त्मना।
ज्योतींषि च यथामार्गं प्रययुर्मुनिसत्तम॥ ११३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिश्रेष्ठ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त भगवान्सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने-अपने मार्गसे चलने लगे॥ ११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जज्वाल भगवांश्चोच्चैश्चारुदीप्तिर्विभावसुः।
धर्मे च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत॥ ११४॥
मूलम्
जज्वाल भगवांश्चोच्चैश्चारुदीप्तिर्विभावसुः।
धर्मे च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत॥ ११४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और उसी समयसे समस्त प्राणियोंकी धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी॥ ११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यं च श्रिया जुष्टं बभूव द्विजसत्तम।
शक्रश्च त्रिदशश्रेष्ठः पुनः श्रीमानजायत॥ ११५॥
मूलम्
त्रैलोक्यं च श्रिया जुष्टं बभूव द्विजसत्तम।
शक्रश्च त्रिदशश्रेष्ठः पुनः श्रीमानजायत॥ ११५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान् हो गये॥ ११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः॥ ११६॥
मूलम्
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः॥ ११६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर इन्द्रने स्वर्गलोकमें जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरूढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की॥ ११६॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम्॥ ११७॥
मूलम्
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम्॥ ११७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले—सम्पूर्ण लोकोंकी जननी, विकसित कमलके सदृश नेत्रोंवाली, भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्।
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियामहम्॥ ११८॥
मूलम्
पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्।
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियामहम्॥ ११८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिनके कर-कमलोंमें सुशोभित है, तथा कमल-दलके समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाभ-प्रिया श्रीकमलादेवीकी मैं वन्दना करता हूँ॥ ११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती॥ ११९॥
मूलम्
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती॥ ११९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो॥ ११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी॥ १२०॥
मूलम्
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी॥ १२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शोभने! यज्ञ-विद्या (कर्म-काण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि! तुम्हीं मुक्ति-फलदायिनी आत्मविद्या हो॥ १२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन्वीक्षिकी त्रयीवार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम्॥ १२१॥
मूलम्
आन्वीक्षिकी त्रयीवार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम्॥ १२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवाणिज्यादि) और दण्डनीति (राजनीति) भी तुम्हीं हो। तुम्हींने अपने शान्त और उग्र रूपोंसे यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है॥ १२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः॥ १२२॥
मूलम्
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः॥ १२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके॥ १२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम्॥ १२३॥
मूलम्
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम्॥ १२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हींने उसे पुनः जीवन-दान दिया है॥ १२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाराः पुत्रास्तथागारसुहृद्धान्यधनादिकम्।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम्॥ १२४॥
मूलम्
दाराः पुत्रास्तथागारसुहृद्धान्यधनादिकम्।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम्॥ १२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाभागे! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद् ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योंको मिलते हैं॥ १२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम्।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम्॥ १२५॥
मूलम्
शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम्।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम्॥ १२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तुम्हारी कृपा-दृष्टिके पात्र पुरुषोंके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं॥ १२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम्॥ १२६॥
मूलम्
त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम्॥ १२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम सम्पूर्ण लोकोंकी माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हैं। हे मातः! तुमसे और श्रीविष्णु भगवान् से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है॥ १२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम्।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि॥ १२७॥
मूलम्
मानः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम्।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि॥ १२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सर्वपावनि मातेश्वरि! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुशाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात् इनमें भरपूर रहें॥ १२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गं मा पशून्मा विभूषणम्।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः स्थलालये॥ १२८॥
मूलम्
मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गं मा पशून्मा विभूषणम्।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः स्थलालये॥ १२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अयि विष्णुवक्षःस्थल निवासिनि! हमारे पुत्र, सुहृद्, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़ें॥ १२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः।
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले॥ १२९॥
मूलम्
सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः।
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले॥ १२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अमले! जिन मनुष्योंको तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं॥ १२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि॥ १३०॥
मूलम्
त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि॥ १३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुम्हारी कृपा-दृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हो जाते है॥ १३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान्।
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः॥ १३१॥
मूलम्
स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान्।
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः॥ १३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! जिसपर तुम्हारी कृपा-दृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान् है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है॥ १३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः।
पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे॥ १३२॥
मूलम्
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः।
पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे॥ १३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विष्णुप्रिये! हे जगज्जननि! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं॥ १३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वापि वेधसः।
प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन॥ १३३॥
मूलम्
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वापि वेधसः।
प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन॥ १३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तुम्हारे गुणोंका वर्णन करनेमें तो श्रीब्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नहीं है। [फिर मैं क्या कर सकता हूँ?] अतः हे कमलनयने! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोड़ो॥ १३३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम्।
शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज॥ १३४॥
मूलम्
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम्।
शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज॥ १३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओंके सुनते हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं॥ १३४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे।
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता॥ १३५
मूलम्
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे।
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता॥ १३५
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं—हे देवेश्वर इन्द्र! मैं तेरे इस स्तोत्रसे अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले। मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयी हूँ॥ १३५॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम्।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः॥ १३६॥
मूलम्
वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम्।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः॥ १३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले—हे देवि! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकीका कभी त्याग न करें॥ १३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे।
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम॥ १३७॥
मूलम्
स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे।
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम॥ १३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे समुद्रसम्भवे! दूसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी न त्यागें॥ १३७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव।
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया॥ १३८॥
मूलम्
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव।
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया॥ १३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं—हे देवश्रेष्ठ इन्द्र! मैं अब इस त्रिलोकीको कभी न छोड़ूँगी। तेरे स्तोत्रसे प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ॥ १३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी॥ १३९॥
मूलम्
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी॥ १३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायंकालके समय इस स्तोत्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी॥ १३९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ददौ वरं देवी देवराजाय वै पुरा।
मैत्रेय श्रीर्महाभागा स्तोत्राराधनतोषिता॥ १४०॥
मूलम्
एवं ददौ वरं देवी देवराजाय वै पुरा।
मैत्रेय श्रीर्महाभागा स्तोत्राराधनतोषिता॥ १४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! इस प्रकार पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोत्ररूप आराधनासे सन्तुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये॥ १४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः।
देवदानवयत्नेन प्रसूताऽमृतमन्थने॥ १४१॥
मूलम्
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः।
देवदानवयत्नेन प्रसूताऽमृतमन्थने॥ १४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मीजी पहले भृगुजीके द्वारा ख्याति नामक स्त्रीसे उत्पन्न हुई थीं, फिर अमृत-मन्थनके समय देव और दानवोंके प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हुईं॥ १४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः।
अवतारं करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सहायिनी॥ १४२॥
मूलम्
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः।
अवतारं करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सहायिनी॥ १४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णु भगवान् जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं॥ १४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योऽभूद्यदा हरिः।
यदा तु भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम्॥ १४३॥
मूलम्
पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योऽभूद्यदा हरिः।
यदा तु भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम्॥ १४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्मसे फिर उत्पन्न हुईं [और पद्मा कहलायीं]। तथा जब वे परशुराम हुए तो ये पृथिवी हुईं॥ १४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि।
अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी॥ १४४॥
मूलम्
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि।
अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी॥ १४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हुईं और कृष्णावतारमें श्रीरुक्मिणीजी हुईं। इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी ये भगवान् से कभी पृथक् नहीं होतीं॥ १४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम्॥ १४५॥
मूलम्
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम्॥ १४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के देवरूप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं। विष्णुभगवान्के शरीरके अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं॥ १४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैतच्छृणुयाज्जन्म लक्ष्म्या यश्च पठेन्नरः।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम्॥ १४६॥
मूलम्
यश्चैतच्छृणुयाज्जन्म लक्ष्म्या यश्च पठेन्नरः।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम्॥ १४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जन्मकी इस कथाको सुनेगा अथवा पढ़ेगा उसके घरमें (वर्तमान आगामी और भूत) तीनों कुलोंके रहते हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा॥ १४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिर्मुने।
अलक्ष्मीः कलहाधारा न तेष्वास्ते कदाचन॥ १४७॥
मूलम्
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिर्मुने।
अलक्ष्मीः कलहाधारा न तेष्वास्ते कदाचन॥ १४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुने! जिन घरोंमें लक्ष्मीजीके इस स्तोत्रका पाठ होता है उनमें कलहकी आधारभूता दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती॥ १४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्वं भृगुसुता सती॥ १४८॥
मूलम्
एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्वं भृगुसुता सती॥ १४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ब्रह्मन्! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर-समुद्रसे कैसे उत्पन्न हुईं सो मैंने तुमसे यह सब वृत्तान्त कह दिया॥ १४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतुः
स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः।
अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्यै-
र्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः॥ १४९॥
मूलम्
इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतुः
स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः।
अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्यै-
र्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः॥ १४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इन्द्रके मुखसे प्रकट हुई यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी प्राप्तिका कारण है। जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी॥ १४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे नवमोऽध्यायः॥ ९॥