०४

[चौथा अध्याय]

विषय

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति वराहभगवान‍्द्वारा पृथिवीका उद्धार और ब्रह्माजीकी लोक-रचना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मा नारायणाख्योऽसौ कल्पादौ भगवान‍्यथा।
ससर्ज सर्वभूतानि तदाचक्ष्व महामुने॥ १॥

मूलम्

ब्रह्मा नारायणाख्योऽसौ कल्पादौ भगवान‍्यथा।
ससर्ज सर्वभूतानि तदाचक्ष्व महामुने॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेय बोले—हे महामुने! कल्पके आदिमें नारायणाख्य भगवान‍् ब्रह्माजीने जिस प्रकार समस्त भूतोंकी रचना की वह आप वर्णन कीजिये॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाः ससर्ज भगवान‍्ब्रह्मा नारायणात्मकः।
प्रजापतिपतिर्देवो यथा तन्मे निशामय॥ २॥

मूलम्

प्रजाः ससर्ज भगवान‍्ब्रह्मा नारायणात्मकः।
प्रजापतिपतिर्देवो यथा तन्मे निशामय॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—प्रजापतियोंके स्वामी नारायणस्वरूप भगवान‍् ब्रह्माजीने जिस प्रकार प्रजाकी सृष्टि की थी वह मुझसे सुनो॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीतकल्पावसाने निशासुप्तोत्थितः प्रभुः।
सत्त्वोद्रिक्तस्तथा ब्रह्मा शून्यं लोकमवैक्षत॥ ३॥

मूलम्

अतीतकल्पावसाने निशासुप्तोत्थितः प्रभुः।
सत्त्वोद्रिक्तस्तथा ब्रह्मा शून्यं लोकमवैक्षत॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिछले कल्पका अन्त होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेपर सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त भगवान‍् ब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोकोंको शून्यमय देखा॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणः परोऽचिन्त्यः परेषामपि स प्रभुः।
ब्रह्मस्वरूपी भगवाननादिः सर्वसम्भवः॥ ४॥

मूलम्

नारायणः परोऽचिन्त्यः परेषामपि स प्रभुः।
ब्रह्मस्वरूपी भगवाननादिः सर्वसम्भवः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भगवान‍् नारायण पर हैं, अचिन्त्य हैं, ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, अनादि हैं और सबकी उत्पत्तिके स्थान हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति।
ब्रह्मस्वरूपिणं देवं जगतः प्रभवाप्ययम्॥ ५॥

मूलम्

इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति।
ब्रह्मस्वरूपिणं देवं जगतः प्रभवाप्ययम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

[मनु आदि स्मृतिकार] उन ब्रह्मस्वरूप श्रीनारायणदेवके विषयमें जो इस जगत‍्की उत्पत्ति और लयके स्थान हैं, यह श्लोक कहते हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ ६॥

मूलम्

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

नर [अर्थात् पुरुष—भगवान‍् पुरुषोत्तम]-से उत्पन्न होनेके कारण जलको ‘नार’ कहते हैं; वह नार(जल)ही उनका प्रथम अयन (निवास-स्थान) है। इसलिये भगवान‍्को ‘नारायण’ कहा है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोयान्तःस्थां महीं ज्ञात्वा जगत्येकार्णवीकृते।
अनुमानात्तदुद्धारं कर्तुकामः प्रजापतिः॥ ७॥
अकरोत्स्वतनूमन्यां कल्पादिषु यथा पुरा।
मत्स्यकूर्मादिकां तद्वद्वाराहं वपुरास्थितः॥ ८॥
वेदयज्ञमयं रूपमशेषजगतः स्थितौ।
स्थितः स्थिरात्मा सर्वात्मा परमात्मा प्रजापतिः॥ ९॥
जनलोकगतैस्सिद्धैस्सनकाद्यैरभिष्टुतः।
प्रविवेश तदा तोयमात्माधारो धराधरः॥ १०॥

मूलम्

तोयान्तःस्थां महीं ज्ञात्वा जगत्येकार्णवीकृते।
अनुमानात्तदुद्धारं कर्तुकामः प्रजापतिः॥ ७॥
अकरोत्स्वतनूमन्यां कल्पादिषु यथा पुरा।
मत्स्यकूर्मादिकां तद्वद्वाराहं वपुरास्थितः॥ ८॥
वेदयज्ञमयं रूपमशेषजगतः स्थितौ।
स्थितः स्थिरात्मा सर्वात्मा परमात्मा प्रजापतिः॥ ९॥
जनलोकगतैस्सिद्धैस्सनकाद्यैरभिष्टुतः।
प्रविवेश तदा तोयमात्माधारो धराधरः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण जगत् जलमय हो रहा था। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीने अनुमानसे पृथिवीको जलके भीतर जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छासे एक दूसरा शरीर धारण किया। उन्होंने पूर्व-कल्पोंके आदिमें जैसे मत्स्य, कूर्म आदि रूप धारण किये थे वैसे ही इस वाराह कल्पके आरम्भमें वेदयज्ञमय वाराह शरीर ग्रहण किया और सम्पूर्ण जगत‍्की स्थितिमें तत्पर हो सबके अन्तरात्मा और अविचल रूप वे परमात्मा प्रजापति ब्रह्माजी, जो पृथिवीको धारण करनेवाले और अपने ही आश्रयसे स्थित हैं, जन-लोकस्थित सनकादि सिद्धेश्वरोंसे स्तुति किये जाते हुए जलमें प्रविष्ट हुए॥ ७—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरीक्ष्य तं तदा देवी पातालतलमागतम्।
तुष्टाव प्रणता भूत्वा भक्तिनम्रा वसुन्धरा॥ ११॥

मूलम्

निरीक्ष्य तं तदा देवी पातालतलमागतम्।
तुष्टाव प्रणता भूत्वा भक्तिनम्रा वसुन्धरा॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्हें पाताललोकमें आये देख देवी वसुन्धरा अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी॥ ११॥

मूलम् (वचनम्)

पृथिव्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शङ्खचक्रगदाधर।
मामुद्धरास्मादद्य त्वं त्वत्तोऽहं पूर्वमुत्थिता॥ १२॥

मूलम्

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शङ्खचक्रगदाधर।
मामुद्धरास्मादद्य त्वं त्वत्तोऽहं पूर्वमुत्थिता॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथिवी बोली—हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले कमलनयन भगवन्! आपको नमस्कार है। आज आप इस पातालतलसे मेरा उद्धार कीजिये। पूर्वकालमें आपहीसे मैं उत्पन्न हुई थी॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयाहमुद्‍धृता पूर्वं त्वन्मयाहं जनार्दन।
तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यशेषतः॥ १३॥

मूलम्

त्वयाहमुद्‍धृता पूर्वं त्वन्मयाहं जनार्दन।
तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यशेषतः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जनार्दन! पहले भी आपहीने मेरा उद्धार किया था। और हे प्रभो! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतोंके भी आप ही उपादान-कारण हैं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते परमात्मात्मन‍्पुरुषात्मन‍्नमोऽस्तु ते।
प्रधानव्यक्तभूताय कालभूताय ते नमः॥ १४॥

मूलम्

नमस्ते परमात्मात्मन‍्पुरुषात्मन‍्नमोऽस्तु ते।
प्रधानव्यक्तभूताय कालभूताय ते नमः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परमात्मस्वरूप! आपको नमस्कार है। हे पुरुषात्मन्! आपको नमस्कार है। हे प्रधान (कारण) और व्यक्त (कार्य) रूप! आपको नमस्कार है। हे कालस्वरूप! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं कर्ता सर्वभूतानां त्वं पाता त्वं विनाशकृत्।
सर्गादिषु प्रभो ब्रह्मविष्णुरुद्रात्मरूपधृक्॥ १५॥

मूलम्

त्वं कर्ता सर्वभूतानां त्वं पाता त्वं विनाशकृत्।
सर्गादिषु प्रभो ब्रह्मविष्णुरुद्रात्मरूपधृक्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! जगत‍्की सृष्टि आदिके लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति, पालन और नाश करनेवाले हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भक्षयित्वा सकलं जगत्येकार्णवीकृते।
शेषे त्वमेव गोविन्द चिन्त्यमानो मनीषिभिः॥ १६॥

मूलम्

सम्भक्षयित्वा सकलं जगत्येकार्णवीकृते।
शेषे त्वमेव गोविन्द चिन्त्यमानो मनीषिभिः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जगत‍्के एकार्णवरूप (जलमय) हो जानेपर, हे गोविन्द! सबको भक्षणकर अन्तमें आप ही मनीषिजनोंद्वारा चिन्तित होते हुए जलमें शयन करते हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति कश्चन।
अवतारेषु यद्‍रूपं तदर्चन्ति दिवौकसः॥ १७॥

मूलम्

भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति कश्चन।
अवतारेषु यद्‍रूपं तदर्चन्ति दिवौकसः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपका जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जो रूप अवतारोंमें प्रकट होता है उसीकी देवगण पूजा करते हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं मुमुक्षवः।
वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्स्यति॥ १८॥

मूलम्

त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं मुमुक्षवः।
वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्स्यति॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप परब्रह्मकी ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त होते हैं। भला वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता है?॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्किञ्चिन्मनसा ग्राह्यं यद‍्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः।
बुद्‍ध्या च यत्परिच्छेद्यं तद्‍रूपमखिलं तव॥ १९॥

मूलम्

यत्किञ्चिन्मनसा ग्राह्यं यद‍्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः।
बुद्‍ध्या च यत्परिच्छेद्यं तद्‍रूपमखिलं तव॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता है, चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण (विषय) करनेयोग्य है, बुद्धिद्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आपहीका रूप है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वन्मयाहं त्वदाधारा त्वत्सृष्टा त्वत्समाश्रया।
माधवीमिति लोकोऽयमभिधत्ते ततो हि माम्॥ २०॥

मूलम्

त्वन्मयाहं त्वदाधारा त्वत्सृष्टा त्वत्समाश्रया।
माधवीमिति लोकोऽयमभिधत्ते ततो हि माम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मैं आपहीका रूप हूँ, आपहीके आश्रित हूँ और आपहीके द्वारा रची गयी हूँ तथा आपहीकी शरणमें हूँ। इसीलिये लोकमें मुझे ‘माधवी’ भी कहते हैं॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयाखिलज्ञानमय जय स्थूलमयाव्यय।
जयाऽनन्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय प्रभो॥ २१॥

मूलम्

जयाखिलज्ञानमय जय स्थूलमयाव्यय।
जयाऽनन्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय प्रभो॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सम्पूर्ण ज्ञानमय! हे स्थूलमय! हे अव्यय! आपकी जय हो। हे अनन्त! हे अव्यक्त! हे व्यक्तमय प्रभो! आपकी जय हो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परापरात्मन‍‍‍्विश्वात्मञ्जय यज्ञपतेऽनघ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोङ्कारस्त्वमग्नयः॥ २२॥

मूलम्

परापरात्मन‍‍‍्विश्वात्मञ्जय यज्ञपतेऽनघ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोङ्कारस्त्वमग्नयः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परापर-स्वरूप! हे विश्वात्मन्! हे यज्ञपते! हे अनघ! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषट्कार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही (आहवनीयादि) अग्नियाँ हैं॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वेदास्त्वं तदङ्गानि त्वं यज्ञपुरुषो हरे।
सूर्यादयो ग्रहास्तारा नक्षत्राण्यखिलं जगत्॥ २३॥

मूलम्

त्वं वेदास्त्वं तदङ्गानि त्वं यज्ञपुरुषो हरे।
सूर्यादयो ग्रहास्तारा नक्षत्राण्यखिलं जगत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हरे! आप ही वेद, वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह, तारे, नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत् भी आप ही हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्तामूर्तमदृश्यं च दृश्यं च पुरुषोत्तम।
यच्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र परमेश्वर।
तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नमः॥ २४॥

मूलम्

मूर्तामूर्तमदृश्यं च दृश्यं च पुरुषोत्तम।
यच्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र परमेश्वर।
तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नमः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुरुषोत्तम! हे परमेश्वर! मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैंने कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं। अतः आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है॥ २४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संस्तूयमानस्तु पृथिव्या धरणीधरः।
सामस्वरध्वनिः श्रीमाञ्जगर्ज परिघर्घरम्॥ २५॥

मूलम्

एवं संस्तूयमानस्तु पृथिव्या धरणीधरः।
सामस्वरध्वनिः श्रीमाञ्जगर्ज परिघर्घरम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—पृथिवीद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान‍् धरणीधरने घर्घर शब्दसे गर्जना की॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया
महावराहः स्फुटपद्मलोचनः।
रसातलादुत्पलपत्रसन्निभः
समुत्थितो नील इवाचलो महान्॥ २६॥

मूलम्

ततः समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया
महावराहः स्फुटपद्मलोचनः।
रसातलादुत्पलपत्रसन्निभः
समुत्थितो नील इवाचलो महान्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले उन महावराहने अपनी डाढ़ोंसे पृथिवीको उठा लिया और वे कमल-दलके समान श्याम तथा नीलाचलके सदृश विशालकाय भगवान‍् रसातलसे बाहर निकले॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठता तेन मुखानिलाहतं
तत्सम्भवाम्भो जनलोकसंश्रयान्।
प्रक्षालयामास हि तान्महाद्युतीन्
सनन्दनादीनपकल्मषान् मुनीन्॥ २७॥

मूलम्

उत्तिष्ठता तेन मुखानिलाहतं
तत्सम्भवाम्भो जनलोकसंश्रयान्।
प्रक्षालयामास हि तान्महाद्युतीन्
सनन्दनादीनपकल्मषान् मुनीन्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

निकलते समय उनके मुखके श्वाससे उछलते हुए जलने जनलोकमें रहनेवाले महातेजस्वी और निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरोंको भिगो दिया॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयान्ति तोयानि खुराग्रविक्षत-
रसातलेऽधः कृतशब्दसन्तति।
श्वासानिलास्ताः परितः प्रयान्ति
सिद्धा जने ये नियता वसन्ति॥ २८॥

मूलम्

प्रयान्ति तोयानि खुराग्रविक्षत-
रसातलेऽधः कृतशब्दसन्तति।
श्वासानिलास्ताः परितः प्रयान्ति
सिद्धा जने ये नियता वसन्ति॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरोंसे विदीर्ण हुए रसातलमें नीचेकी ओर जाने लगा और जनलोकमें रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास-वायुसे विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठतस्तस्य जलार्द्रकुक्षे-
र्महावराहस्य महीं विगृह्य।
विधुन्वतो वेदमयं शरीरं
रोमान्तरस्था मुनयः स्तुवन्ति॥ २९॥

मूलम्

उत्तिष्ठतस्तस्य जलार्द्रकुक्षे-
र्महावराहस्य महीं विगृह्य।
विधुन्वतो वेदमयं शरीरं
रोमान्तरस्था मुनयः स्तुवन्ति॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी कुक्षि जलमें भीगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावलीमें स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तुष्टुवुस्तोषपरीतचेतसो
लोके जने ये निवसन्ति योगिनः।
सनन्दनाद्या ह्यतिनम्रकन्धरा
धराधरं धीरतरोद्धतेक्षणम्॥ ३०॥

मूलम्

तं तुष्टुवुस्तोषपरीतचेतसो
लोके जने ये निवसन्ति योगिनः।
सनन्दनाद्या ह्यतिनम्रकन्धरा
धराधरं धीरतरोद्धतेक्षणम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान‍्की जनलोकमें रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरोंने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इस प्रकार स्तुति की॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयेश्वराणां परमेश केशव
प्रभो गदाशङ्खधरासिचक्रधृक्।
प्रसूतिनाशस्थितिहेतुरीश्वर-
स्त्वमेव नान्यत्परमं च यत्पदम्॥ ३१॥

मूलम्

जयेश्वराणां परमेश केशव
प्रभो गदाशङ्खधरासिचक्रधृक्।
प्रसूतिनाशस्थितिहेतुरीश्वर-
स्त्वमेव नान्यत्परमं च यत्पदम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी परम ईश्वर! हे केशव! हे शंख-गदाधर! हे खड्ग-चक्रधारी प्रभो! आपकी जय हो। आप ही संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशके कारण हैं, तथा आप ही ईश्वर हैं और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादेषु वेदास्तव यूपदंष्ट्र
दन्तेषु यज्ञाश्चितयश्च वक्त्रे।
हुताशजिह्वोऽसि तनूरुहाणि
दर्भाः प्रभो यज्ञपुमांस्त्वमेव॥ ३२॥

मूलम्

पादेषु वेदास्तव यूपदंष्ट्र
दन्तेषु यज्ञाश्चितयश्च वक्त्रे।
हुताशजिह्वोऽसि तनूरुहाणि
दर्भाः प्रभो यज्ञपुमांस्त्वमेव॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे यूपरूपी डाढ़ोंवाले प्रभो! आप ही यज्ञपुरुष हैं। आपके चरणोंमें चारों वेद हैं, दाँतोंमें यज्ञ हैं, मुखमें [श्येन चित आदि] चितियाँ हैं। हुताशन (यज्ञाग्नि) आपकी जिह्वा है तथा कुशाएँ रोमावलि हैं॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोचने रात्र्यहनी महात्मन‍्
सर्वाश्रयं ब्रह्म परं शिरस्ते।
सूक्तान्यशेषाणि सटाकलापो
घ्राणं समस्तानि हवींषि देव॥ ३३॥

मूलम्

विलोचने रात्र्यहनी महात्मन‍्
सर्वाश्रयं ब्रह्म परं शिरस्ते।
सूक्तान्यशेषाणि सटाकलापो
घ्राणं समस्तानि हवींषि देव॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महात्मन्! रात और दिन आपके नेत्र हैं तथा सबका आधारभूत परब्रह्म आपका सिर है। हे देव! वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप (स्कन्धके रोम-गुच्छ) हैं और समग्र हवि आपके प्राण हैं॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रुक‍‍्तुण्ड सामस्वरधीरनाद
प्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे।
पूर्तेष्टधर्मश्रवणोऽसि देव
सनातनात्मन‍् भगवन‍्प्रसीद॥ ३४॥

मूलम्

स्रुक‍‍्तुण्ड सामस्वरधीरनाद
प्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे।
पूर्तेष्टधर्मश्रवणोऽसि देव
सनातनात्मन‍् भगवन‍्प्रसीद॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! स्रुक् आपका तुण्ड (थूथनी) है, सामस्वर धीर-गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश (यजमानगृह) शरीर है तथा सत्र शरीरकी सन्धियाँ हैं। हे देव! इष्ट (श्रौत) और पूर्त (स्मार्त) धर्म आपके कान हैं। हे नित्यस्वरूप भगवन्! प्रसन्न होइये॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदक्रमाक्रान्तभुवं भवन्त-
मादिस्थितं चाक्षर विश्वमूर्ते।
विश्वस्य विद्मः परमेश्वरोऽसि
प्रसीद नाथोऽसि परावरस्य॥ ३५॥

मूलम्

पदक्रमाक्रान्तभुवं भवन्त-
मादिस्थितं चाक्षर विश्वमूर्ते।
विश्वस्य विद्मः परमेश्वरोऽसि
प्रसीद नाथोऽसि परावरस्य॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अक्षर! हे विश्वमूर्ते! अपने पाद-प्रहारसे भूमण्डलको व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्वके आदिकारण समझते हैं। आप सम्पूर्ण चराचर जगत‍्के परमेश्वर और नाथ हैं; अतः प्रसन्न होइये॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंष्ट्राग्रविन्यस्तमशेषमेतद्-
भूमण्डलं नाथ विभाव्यते ते।
विगाहतः पद्मवनं विलग्नं
सरोजिनीपत्रमिवोढपङ्कम्॥ ३६॥

मूलम्

दंष्ट्राग्रविन्यस्तमशेषमेतद्-
भूमण्डलं नाथ विभाव्यते ते।
विगाहतः पद्मवनं विलग्नं
सरोजिनीपत्रमिवोढपङ्कम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपकी डाढ़ोंपर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमण्डल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवनको रौंदते हुए गजराजके दाँतोंसे कोई कीचड़में सना हुआ कमलका पत्ता लगा हो॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यावापृथिव्योरतुलप्रभाव
यदन्तरं तद्वपुषा तवैव।
व्याप्तं जगद्‍व्याप्तिसमर्थदीप्ते
हिताय विश्वस्य विभो भव त्वम्॥ ३७॥

मूलम्

द्यावापृथिव्योरतुलप्रभाव
यदन्तरं तद्वपुषा तवैव।
व्याप्तं जगद्‍व्याप्तिसमर्थदीप्ते
हिताय विश्वस्य विभो भव त्वम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो! पृथिवी और आकाशके बीचमें जितना अन्तर है वह आपके शरीरसे ही व्याप्त है। हे विश्वको व्याप्त करनेमें समर्थ तेजयुक्त प्रभो! आप विश्वका कल्याण कीजिये॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमार्थस्त्वमेवैको नान्योऽस्ति जगतः पते।
तवैष महिमा येन व्याप्तमेतच्चराचरम्॥ ३८॥

मूलम्

परमार्थस्त्वमेवैको नान्योऽस्ति जगतः पते।
तवैष महिमा येन व्याप्तमेतच्चराचरम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगत्पते! परमार्थ (सत्य वस्तु) तो एकमात्र आप ही हैं, आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। यह आपकी ही महिमा (माया) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेतद् दृश्यते मूर्त्तमेतज्ज्ञानात्मनस्तव।
भ्रान्तिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्‍रूपमयोगिनः॥ ३९॥

मूलम्

यदेतद् दृश्यते मूर्त्तमेतज्ज्ञानात्मनस्तव।
भ्रान्तिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्‍रूपमयोगिनः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो कुछ भी मूर्तिमान् जगत् दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप आपहीका रूप है। अजितेन्द्रिय लोग भ्रमसे इसे जगत्-रूप देखते हैं॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतदबुद्धयः।
अर्थस्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यन्ते मोहसम्प्लवे॥ ४०॥

मूलम्

ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतदबुद्धयः।
अर्थस्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यन्ते मोहसम्प्लवे॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सम्पूर्ण ज्ञान-स्वरूप जगत‍्को बुद्धिहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अतः वे निरन्तर मोहमय संसार-सागरमें भटका करते हैं॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु ज्ञानविदः शुद्धचेतसस्तेऽखिलं जगत्।
ज्ञानात्मकं प्रपश्यन्ति त्वद‍‍्रूपं परमेश्वर॥ ४१॥

मूलम्

ये तु ज्ञानविदः शुद्धचेतसस्तेऽखिलं जगत्।
ज्ञानात्मकं प्रपश्यन्ति त्वद‍‍्रूपं परमेश्वर॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परमेश्वर! जो लोग शुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसारको आपका ज्ञानात्मक स्वरूपही देखते हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसीद सर्व सर्वात्मन्वासाय जगतामिमाम्।
उद्धरोर्वीममेयात्मञ्छन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४२॥

मूलम्

प्रसीद सर्व सर्वात्मन्वासाय जगतामिमाम्।
उद्धरोर्वीममेयात्मञ्छन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्व! हे सर्वात्मन्! प्रसन्न होइये। हे अप्रमेयात्मन्! हे कमलनयन! संसारके निवासके लिये पृथिवीका उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वोद्रिक्तोऽसि भगवन् गोविन्द पृथिवीमिमाम्।
समुद्धर भवायेश शन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४३॥

मूलम्

सत्त्वोद्रिक्तोऽसि भगवन् गोविन्द पृथिवीमिमाम्।
समुद्धर भवायेश शन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भगवन्! हे गोविन्द! इस समय आप सत्त्वप्रधान हैं; अतः हे ईश! जगत‍्के उद्भवके लिये आप इस पृथिवीका उद्धार कीजिये और हे कमलनयन! हमको शान्ति प्रदान कीजिये॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्गप्रवृत्तिर्भवतो जगतामुपकारिणी।
भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु शन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४४॥

मूलम्

सर्गप्रवृत्तिर्भवतो जगतामुपकारिणी।
भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु शन्नो देह्यब्जलोचन॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके द्वारा यह सर्गकी प्रवृत्ति संसारका उपकार करनेवाली हो। हे कमलनयन! आपको नमस्कार है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये॥ ४४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संस्तूयमानस्तु परमात्मा महीधरः।
उज्जहार क्षितिं क्षिप्रं न्यस्तवांश्च महाम्भसि॥ ४५॥

मूलम्

एवं संस्तूयमानस्तु परमात्मा महीधरः।
उज्जहार क्षितिं क्षिप्रं न्यस्तवांश्च महाम्भसि॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार स्तुति किये जानेपर पृथिवीको धारण करनेवाले परमात्मा वराहजीने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जलके ऊपर स्थापित कर दिया॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता।
विततत्वात्तु देहस्य न मही याति सम्प्लवम्॥ ४६॥

मूलम्

तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता।
विततत्वात्तु देहस्य न मही याति सम्प्लवम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस जलसमूहके ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौकाके समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होनेके कारण उसमें डूबती नहीं है॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षितिं समां कृत्वा पृथिव्यां सोऽचिनोद‍्गिरीन्।
यथाविभागं भगवाननादिः परमेश्वरः॥ ४७॥

मूलम्

ततः क्षितिं समां कृत्वा पृथिव्यां सोऽचिनोद‍्गिरीन्।
यथाविभागं भगवाननादिः परमेश्वरः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन अनादि परमेश्वरने पृथिवीको समतल कर उसपर जहाँ-तहाँ पर्वतोंको विभाग करके स्थापित कर दिया॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राक्सर्गदग्धानखिलान‍्पर्वतान‍्पृथिवीतले।
अमोघेन प्रभावेण ससर्जामोघवाञ्छितः॥ ४८॥

मूलम्

प्राक्सर्गदग्धानखिलान‍्पर्वतान‍्पृथिवीतले।
अमोघेन प्रभावेण ससर्जामोघवाञ्छितः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यसंकल्प भगवान‍्ने अपने अमोघ प्रभावसे पूर्वकल्पके अन्तमें दग्ध हुए समस्त पर्वतोंको पृथिवी-तलपर यथास्थान रच दिया॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूविभागं ततः कृत्वा सप्तद्वीपान्यथातथम्।
भूराद्यांश्चतुरो लोकान्पूर्ववत्समकल्पयत्॥ ४९॥

मूलम्

भूविभागं ततः कृत्वा सप्तद्वीपान्यथातथम्।
भूराद्यांश्चतुरो लोकान्पूर्ववत्समकल्पयत्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वीपादि-क्रमसे पृथिवीका यथायोग्य विभाग कर भूर्लोकादि चारों लोकोंकी पूर्ववत् कल्पना कर दी॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मरूपधरो देवस्ततोऽसौ रजसा वृतः।
चकार सृष्टिं भगवांश्चतुर्वक्त्रधरो हरिः॥ ५०॥

मूलम्

ब्रह्मरूपधरो देवस्ततोऽसौ रजसा वृतः।
चकार सृष्टिं भगवांश्चतुर्वक्त्रधरो हरिः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन भगवान‍् हरिने रजोगुणसे युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्रह्मारूप धारण कर सृष्टिकी रचना की॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तमात्रमेवाऽसौ सृज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः॥ ५१॥

मूलम्

निमित्तमात्रमेवाऽसौ सृज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सृष्टिकी रचनामें भगवान‍् तो केवल निमित्तमात्र ही हैं, क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो सृज्य पदार्थोंकी शक्तियाँ ही हैं॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तमात्रं मुक्त्वैवं नान्यत्किञ्चिदपेक्षते।
नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्॥ ५२॥

मूलम्

निमित्तमात्रं मुक्त्वैवं नान्यत्किञ्चिदपेक्षते।
नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय! वस्तुओंकी रचनामें निमित्तमात्रको छोड़कर और किसी बातकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही [परिणाम] शक्तिसे वस्तुता (स्थूलरूपता) को प्राप्त हो जाती है॥ ५२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥