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[[TODO: परिष्कार्यम्]]
- श्री हयग्रीवाय नमः
- श्री श्री वत्साङ्कमिश्रविरचित
- पञ्चस्त वी 5/1099
- प्र थ म सम्पु टमु (श्री वैकुण्ठातिमानुष स्तवमुलु)
- 8107
- कविशेखर - महोपाध्याय, विद्यालंकारि मध्वश्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत भावादर्शनाम कान्ध्र विवरण सहितमु
- दासकु टी
- प्रकाशितमु
- अङ्गलकुदुरु
- टी
- 4-00
- मूल्यमु : 200
- स म र्प ण मु
- श्री दासशेष बुध सेवित पादपद्मा : मोदादि सद्गुण समूह निवाससद्मा ! कोदण्डराम ! यिदिगो कॊनु काव्यकन्यका
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- नी दिव्य वैभवमुने कॊनियाडु मान्यज् ॥
- श्री हयग्रीवाय नमः
- लि प लु कु
- पञ्च स्तवी पवित्र कृतिकर्तलु प्रतिभाशालु लगु श्रीवत्साङ्क मिश्रुलु. वीरु कलि 4109 सौम्यसंवत्सर पुष्यमासमुन हस्तानक्षत्रमन्दु श्रीरामुनंशवलन हारीतान्वय सम्भू तुँडगु श्री मदनन्त भट्वार्युन कात्मजुलै यवतरिञ्चिरि. ‘नग रेषु काञ्ची’ अनि प्रसिद्धि गाञ्चिन काञ्चीपुरमुनकुँ ब्रतीचीदिग्भाग मुनँ ग्रो सॆँडु दव्वुनँगल ‘कूर’ नगरमु वीरि जन्मभूमि.
- मि. ई कूरनगरमुनकुँ ब्रभुवु लगुट चे वीरिकिँ गू रेशु लनियु द्रविडभाषलो ‘कूरत्ताळ्वा ननियुँ दिरुनाममु लेर्पडिनवि. वीरु ज्ञान भक्ति वैराग्यमुलकु निकषायमानुलु. इन्दुलकु वीरि पञ्चस्तविये निदर्शनमु.
- आगर्भ श्रीमन्तुलु वदान्युलु धर्मनिरतु लगु वीरु तामु कोरि पॆण्ड्लाडिन धर्मपत्नि याण्डाळ्ळु सहकरिम्पँ ब्रतिनित्यमु रवि युदयिञ्चिनदि मॊदलु रात्रि याम द्वयमुवऱकु ‘बधिर पङ्ग्वन्धभिक्षुक ब्रह्मचारि जटिपरि व्राजकातिथि’ ‘पूजलयन्दु निमग्नुलै युण्डॆडु वारु. अन्न शाला कलकलमुलु सन्नगिल्ल रात्रि पण्ड्रॆण्डु गण्टल वेळ मूयँबडु वीरिकोटगुम्मपुँ दलुपुल घण्टिका निनाद मुलु घल्लु मनि काञ्चीपुरमुनकु विनँबडुडु नेमिदि यनि श्री वरदराज प्रेयसि यगु श्रीमहालक्ष्मि विस्मितुरालै
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- भर्तृमुखमुनँ दत्कारण मारसि यी महनीयुनि दर्शनमुनकुँ दहतह लाडॆननँ गूरेशुल वैभवमुनु वेते वर्णिम्पवलॆना ?
- कू रेशु लन्तँ गॊन्नाळ्ळकु निर्विणुलै ‘मदत्रय विही सस्य मुक्ति स्तस्य करे स्थिता’ विद्याधनाभिजन मदमुलु लेनिवानि के कै वल्यमु करतलामलक मनि यॆञ्चि तन सर्वस्व मुनु सत्पात्रुल कॊसङ्गि सहधर्मिणितो श्रीरङ्गनाथुनि सेविम्प श्रीरङ्गमुनकु बयलु वॆडलिरि. धर्मपत्नि यगु नाण्डाळ्ळुमात्र मागर्भ श्रीमन्तुँ डगु
- तन भर्त क्षीरपान मॊनर्प नवरत्नखचित मगु नॊक बङ्गारु गिन्नॆनु वस्त्रमुलो दाँचि तॆच्चुचुण्डॆनु. अरण्यमार्गमुन भीतुरालै यातल्लि मुन्दु पोवुचुन्न भर्तनु जूचि नाथा ! यी यरण्यमार्गमुन भयमेमियु लेदुगदा ! यनि यडुग, ‘साध्वी! वित्तवन्तुनकु सर्वत्र भयमुगलदु. नीटिलोँ जेँपल चेत, नेलपैँ बुलुल चेत नाकसमुनँ बक्कुल चेत निमिषमु भक्षिम्पँबडुनट्लु धनवन्तुँ डॆल्लर चे भक्षिम्पँबडुनु. प्राणुलनु मृत्युवुवलॆ धनवन्तुलनु भयमु वॆण्टाडु’ ननि तॆलिपि, तदय काणमु नॆऱिङ्गि, यामॆ दाँचियुञ्चिन रतनाल पैडिगिन्नॆनु नावलँ बाऱ
- वै चॆनु. इदि श्री कूरेशुल पै राग्यमुनकु गीटुरायि.
- क्रममुगा नाळ्वानु धर्मपत्नितो श्रीरङ्गमुनु जेरु कॊनि, श्रीरङ्गेशुनि सेविञ्चि, यच्चटने वेञ्चेसियुन्न
- भगवद्रामानुजुलकु साष्टाङ्ग मर्पिम्प गुरुवुलु श्री कूरेशुलु लेव नॆत्ति गाढालिङ्गन मॊनर्चि प्रियशिष्युनि राक कत्यन्त मुप्पॊङ्गिरि. नाँडु मॊदलुकॊनि कूरनाथुलु श्रीहरि गुरुवुल सेविञ्चुकॊनुचु नुञ्छवृत्ति नॊनर्चुचु श्रीरङ्गमुन सद्दोष्ठितोँ गालमु गडुपुचुण्डिरि. इट्लुण्ड नॊकनाँडु जडिवान, यॆड तॆऱपि लेक कुरियुट चेतँ गूरेशुल युञ्छवृत्ति कन्तरायमु गलिगॆनु. नाँडु स्नान मॊनर्चि यनुष्ठानमुल निर्वर्तिञ्चि पॆरुमाळ्ळपूज सलिपि फलमु निवेदन मॊनर्चि तीर्थमुनु मात्रमु ग्रहिञ्चिरि. सायङ्कालमु को वॆललो श्रीरङ्गनाथुनि सेविञ्चि यिण्टि करुदॆञ्चि शठारिसूक्त मुनु जपिञ्चुचु स्वस्थमुगाँ बरुण्डिरि. अन्त रङ्गनाथुनि कोवॆललो सायङ्काल निवेदन समयमु नन्दलि काहळी निनादमुलु चॆविँबडुडु श्री आण्डाळ्लु तनभर्त पस्तुण्डुटकु वगचुचु ‘स्वामि! श्री रङ्गनाथा! नीभक्तुँ डाँकट नलमटिम्प नी वारगिञ्चु चुन्नावा?’ अनि मनस्सुलो ननुकॊनॆनु. भ क्त वत्सलुँ डगु रङ्गनाथुँ डा साध्वीमणि वाणि नालिञ्चि देवालय धर्माधिकारिकि स्वप्नमुन सा त्करिञ्चि शर्क राज्यादि सम्मिश्रमगु मत्प्रसादमुनु छत्र चामरादि वैभवमुतो श्रीकूरेशुल कर्पिम्पु मन धर्माधि कारियु नट्लु चेय श्रीवत्सचिह्नु लाश्चर्यभरितुलै यिदि येमन भार्य तानु मदिलो ननुकॊन्न माटनु मनवि चेसॆनु. इट्लु भगवानुनि नडुगवच्चुना ? अनि गृहिणिनि
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- मन्दलिञ्चि या प्रसादमुलो नॊक्किन्त तानु स्वीकरिञ्चि तक्किन प्रसादमु नर्धाङ्गि कीयङ्गा नासाध्वि दानिवलन गर्भमुनु दाल्चि विलक्षणुलगु निर्वुरँ गुमारुलँ ग नॆनु. वारि योग क्षेममुल नॆल्ल श्री रङ्गनाथुँडे चूचुकॊनु चुण्डॆनु. इदि वीरियॆड श्री रङ्गनाथुनकुँ गल वात्सल्याति शयमुनकुँ दार्काण.
- ऒकतऱि नुद्दण्ड पण्डितुलगु यादव प्रकाशुलु भगव द्रामानुजस्वामिवारि मठमुनकु वेञ्चेसि ‘स्वामि.! मी रॊनर्चु शङ्खचक्रोर्ध्वपुण्ड्रादि धारणमुनकु सगुण ब्रह्मो पासनमुनकुनु शास्त्रमुलँ ब्रमाणमुलु गानरावु. उन्न चो नुपन्यसिम्पुँ डन श्रीवारु तम शिष्युलगु कूरेशुल नियमिम्प ’ श्रूयता मभिधास्यामि शङ्खचक्रादिधारणे । सगुणब्रह्मसद्भावे’ अनि श्रीवत्साङ्कुलु गम्भीरोपन्यास मॊसँगि प्रतिपक्षुल नीरु त्तरुलँ जेसिन विषयमु वीरि पाण्डिती प्रतिभलकु श्रुति स्मृतीहासाभिज्ञतकु मञ्चिलक्ष्यमु.
- जूडँ
- श्री भगवद्रामानुजुलु श्री यामुनमुनुल सङ्कल्पमु नीडेर्प श्रीभाष्यमुनु रचिम्प नॆञ्चि काश्मीरमुन शारदा पीठमुन नुन्न बोधायन वृत्ति ग्रन्थमुनु गूरेशादि शिष्युलतो नट केँगि सौजन्यमुतो वृत्ति ग्रन्थमुन मॊदटि यध्यायमुनु साङ्गमुगाँ जूचिरि. कुशाग्रबुद्धुलगु कूरेशुलु तक्किन यध्यायमुल नवलोकिञ्चिरि. अन्तलोन मतान्तरुल
- ग्रन्थालयाधिकारुल
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- मायमाटलचे नधिकारु लाग्रन्थमुनु गैकॊनि मऱल नीयक पोवुटचे ना चार्युलवारु तपिञ्चुचुण्ड श्रीकूरे शुलु स्वामी ! विचारमु वलदु. दासुँडु तक्किन यध्या यत्रयिलो नेपङ्क्तियैन नप्पगिम्पँ गलँडनि विन्नविञ्चि गुरुपादुल चेत नोकू रेशा ! नी वुण्डुटवलन श्रीयामुन मुनुलु परमपद मलङ्करिञ्चिनट्लु नेनु भाविञ्चुट लेदनि प्रशंसिम्पँ बडुट वीरि धारणाशक्तिकि गुरुप्रसादलब्धिकिँ ब्रबलदृष्टान्तमु.
- इट्लु कूरनाथु लाचार्याभिमानमुनु जूऱ गॊनि श्रीरङ्गेशुनि सेविञ्चुकॊनुचु सुखमुगाँ गालमु गडुपु चुण्डँगा जरिगिन विचित्र सङ्घटन मॆट्टिवारि केनियु हृदय विदारकमु काकपोदु, अत्तऱि राजेन्द्र चोळ पुरमु राजधानिगाँ जोळमण्डल मेलुचुन्न कुलोत्तुङ्ग चोळराजु शैवमताभिमानियै विष्णुद्वेषमु पट्टँजालक वैष्णवपण्डितुल चे ‘शिवात् परतरं नास्ति’ अनु वाक्यमुनु व्रायिञ्चुचुण्ड ‘नालू रान्’ अनु नॊक वैष्णवुँ डितरु लॆन्द ऱट्लु व्रासिन नेमि प्रयोजनमु. भगवद्रामानु जुलु व्रासिनँगदा याव्रातकु विलुव यनँगा ना पाषण्ड राजु श्री रामानुजुलनु गॊनिरण्डनि यमकिङ्करुलँ बोलु तन किङ्करुलनु बम्प वारु श्रीरङ्गमुनँ गल रामानुज मठमुँ जेरुकॊनि रामानुजुलवा रॆच्चट अनि यडुग वारिनि जूडँग ने सूक्ष्मबुद्धियगु कूरे
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- शुँडु गुरुलकु रानुन्न यापदनु गुर्तिञ्चि स्नानमु केँगिन गुरुवुल काषाय त्रिदण्डमुलँ रामानुजुलनि वारि वॆण्ट
- वॆण्ट नु,
- ज
- धरिञ्चि ताने कूरेशुल वीड लेक
- वारि कण्डग श्री महापूर्णुलुनु वारितो राजसभ केगिरि, स्नान मॊनर्चि वच्चिन श्री रामानुजमुनु लन्तयु विनि शिष्युल केमि विपत्तु घटिल्लुनो यनि वगचिरि, इङ्क नचट नुण्डुट यनर हेतुवनि यचटिवारु पलुविधमुल विन्न विम्प श्रीरामानुजुलु तक्किन शिष्युलतोँ दिरु
- Ф
- नारायण पुरमुनकु वेञ्चेसिरि. अचट चोळराजु तन किङ्करुलु कॊनिवच्चिन वैष्णव पण्डितुलँ जूचि ‘शिवा त्परतरं नास्ति’ यनि व्रायुँडनि कोर वारु श्रुति स्मृति पुराणादुलनुण्डि प्रमाणमुलँ जूपुचुँ ब्रति पक्षुल निरुत्तरुलँ जेयुचु विष्णुवे परात्परुँडनि चाटिरि. अन्दुलकुँ जोळरा जाग्रहिञ्चि मीरु मी यिष्टमु वच्चिन ट्लेमेमो प्रसङ्गिञ्चुचुन्नारु. मेमु चॆप्पिनट्लु व्रायुदुरा ! कन्नुलँ दीयिम्पमन्दुरा ! अनि गट्टिगा ँ बलुकँ गूरेशुलु व्यङ्ग्यभङ्गिगा विष्णुसर्वोत्त मत्वमु ने चाटुचु ‘शिवात् परतरं नास्ति द्रोण मस्ति ततः परम्’ अनि व्रायुडुँ बाषण्डभूपति यदि ग्रहिञ्चि वारि ग्रुड्लु दीयिञ्चॆनु. इदि निजमुगा हृदयविदारक मेगदा ! दीनिच्चे वयोधिकुलगु महापूर्णुलु मार्गमध्यमुन ने मरणिञ्चिरि. कू रेशुलु श्रीरङ्गमुनु जेरँबोवु रामा
- H
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- नुज सम्बन्धु लिं दॆव्वरुनु ब्रवेशिम्परादु. इदि राजु शासन मनि द्वारा पालुरु निरोधिम्प ‘अवुनु. नेनु रामानुजुल सम्बन्धिनि, श्रीरङ्ग सेवनैननु मानुकॊन्दुनु गानि या चार्यसम्बन्धमुनु दॆगँ द्रॆञ्चुकॊनँ जाल’ननि यटनुण्डि सकुटुम्बमुगा सुन्दर भुज
- स्वामिनि सेविम्प वनगिरिकिँ ब्रयाण मॊनर्चिरि. मार्गमध्यमुन सत्वर मुगा सद्गुरुसमागम भाग्यलाभमुनकु नेत्रबाधास्मृति निरोधमुनकु भगवत्कल्याण गुणानुभव मॊनर्चुकॊनुचु महाकवुलगु श्री कूरेशुलु ‘पञ्च स्तवी’ रचन कुपक्र मिञ्चिरि. पञ्चानां स्तवानां समाहारः’ अनु विग्रह वाक्यमु चेत नी पदमुन कैदु स्तवमुल कूट मनि यर्थमु. लक्ष्मी कटाक्षमु पुरुष कारमुगा नन्निटिकि न पेक्षणीयमु · गानँ दॊलुदॊल्त ‘श्री स्तव मनु पेर
‘श्रीस्तव 11 श्लोकमुलतो श्री देविनि वर्णिञ्चिनारु. आवल वैकुण्ठ
- स्तवमनु पेर 101 श्लोकमुलतो श्री परम पदनाथुनि गुणानुभव मॊनर्चिरि. अटुपै अतिमानुष स्तवमु पेर 61 श्लोकमुलतो. . श्री रामकृष्णुल यतिमानुष श्री नद्भुतमुगाँ गॊनियाडिरि. आ मीँद सुन्दर बाहु_स्तवमु प्रेर 132 श्लोकमुलतो.. वनगिरिनाथुनि वैभवमुनु वर्णिञ्चिरि. इन्दु 129 व श्लोकमुन ‘श्रीरङ्गधामनि यधापुर मेष सोहं रामानुजार्यवशग स्समवर्ति षीय’ मऱल नेनु श्रीरङ्गमुनन्दु श्री रामानुजुल याज्ञावश्युँडनै’ (2) लीलल 3 8 मॆलँगुन ट्लनुग्रहिम्पु मनियु 130 व श्लोकमुन ‘श्रीरङ्ग श्रिय मन्वहं प्रगुणयं स्वद्भक्त भोग्यां कुरु श्रीरङ्गशोभनु दिनदिनाभिवृद्धि नॊनर्चुचु नीभ क्तुलकु भोग्य नुगाँ जेयु मनियुँ बलुसार्लु सुन्दरभुजस्वामिनि ब्रार्थिञ्चिरि. ‘न मे भक्तः प्रणश्यति’ भक्तुल प्रार्थननु भग वानुँ डेल मन्निम्पँडु ? इन्तलोँ बातकियगु ना चोळराजु तन मण्डलमुलोनि विष्णु क्षेत्रमुल विध्वंस मॊनर्चुचु श्रीरङ्गमु नट्ले काविम्प सैनिकुलतोँ जनु दॆञ्चुचु ‘अत्युत्क टैः पुण्यपापै रिहैव फल मश्नुते अन्न सूक्तिकि निदर्शनमुगा दारि नडुमने कण्ठमुनन्दु व्रण मेर्पडि पुच्चि पुरुगुलु पड दानिकि नुदर व्याधियुँ दोडुपड वॆण्टने यातँडु मरणिञ्चॆनु. आ वार्त नलु ‘दॆसलँ ब्राकँ गिल्बिषि यगु क्रिमिकण्ठुँ डणँगारिनन्दुल कानन्दिञ्चुचु श्री वैष्णवबृन्द मॆप्पटियट्ल श्रीरङ्गमुनु जेरुकॊनॆनु भगवद्रामानुजुलु दर्शनमु सकै तम दर्शनमुल बलि यॊसँगिन कूरेशुल नॆन्तयु नभिनन्दिञ्चि तम यॆडँबाटु तऱि शिष्युँडु व्रासिन स्तवमुलँ बुलकितगात्रमुलो नालिञ्चि कन्नुलु वच्चुटकु वारिचेत श्री वरदराज स्तवमुनु सैतमु व्रायिञ्चिरि. 102 श्लोकमुलुगल यी स्तवराजमुतोँ बञ्चस्तवि परि पूर्तिँ जॆन्दॆनु. स्तवमुन 23 व श्लोकमुलो 3 23व ‘नेत्रसा त्कुरु करीश ! सदामे’ अनि प्रार्थिञ्चुटचेत वरदराज मऱल 9 वरदराजस्वामि कूरेशुलकु सदादर्शनमुने यनुग्र हिञ्चुचु श्रीरामानुजुल मुखोल्लासमुन की कन्नुलतो ने तन्नु नॊज्जलनु गनुँगॊनु भाग्यमुनु सैतमु कटाक्षिञ्चिरि. क्रिमिकण्ठुँडु वैष्णववि द्वेषि यैननु पञ्च स्तवि प्रबन्धमु नकुँ गारकुँडगुटचे नॊक विधमुगा वैष्णवजन म हॆूप कारि यनक तप्पदु. आदिनुण्डियु भगवद्भागवताचार्य परिचर्यल के तन जीवितमन्तयु नङ्कित मॊनर्चि तत्कृपकुँ बूर्णपात्रमैन यी यी याळ्वानु दिव्य वैभवमुलो नॊक कण मिट्लु क्रोलुपुण्यमु गलिगिनन्दुलकुनु अमरभाष कनर्ह भूष यगु पञ्च स्तवि किट्लु भावादर्श मनॆडि यान्ध्र विवरणमु व्रायुनदृष्टमु चेकूरिनन्दुलकु नेनु कृता र्थुँडनैति ननि भाविञ्चुकॊनुचुन्नानु. नाकी सेवाभाग्य मुनु लभिम्पँजेसिन यङ्गलकुदुरु दासकुटी निवासुलगु श्री दास शेष स्वामुलकु ना धन्यवादमुल नमोवाकमुल नर्पिञ्चुकॊनु चुन्नानु. ዋ कवितागुणमुलु डागुणमुल श्री कूरनाथुल कवितागुणमुलु श्री वैकुण्ठनाधादु लने वश्युलनॊनर्चुकॊन्न वन नाबोटिवाँ वर्णिम्पँ बूनुकॊनुट चिन्न दीपमुतो नीतँडे सूर्युँडनि चूपुटवण्टि दे यगुनु. कानि वारि पञ्च स्तविकिँ बीठिक व्रायुचु बॊत्तिग नापनि विरमिञ्चुटयु नुचितमु कादेमो यनि यॊक्किन्त व्राय साहसिञ्चितिनि. वीरि कवित्वमु मृदुमधुर मै सर्वाङ्ग सुन्दरमै भक्ति रसमु नॊलिकिञ्चुचु भावुकुलनु दन्मयुलँ जेयुटलो दीनिकिदिये साटि. अधिकारिरुचिगुणानुसार मिन्दु विविध पाकमुलु चेर्पँबडिननु पूर्वजन्म पुण्यपरिपाकमु गलवाँडे. दीनिकिँ बूर्णाधिकारि. भक्ति रसमा ! कादा ! यनि संशयिञ्चु वारीकृतिनि बाऱँजूचिन चो भक्ति ये रसमुनु निर्णयमुनकु चो राँगलरनि ना विश्वासमु, श्लो॥ अम्भोद नील मरविन्द दळायताक्षं पिञ्छावतंस मुर रीकृत वेणुपाणिम्। त्वां गोप वेषपरि कर्मितकाय कान्तिं धन्या स्तदा ददृशुरुन्मथि तान्य भावाः । (अतिमानुष स्तवमु— श्लो॥ 45) इन्दलि यम्भोदनील त्वादि गुणविशिष्टुँ डगु गोपसुन्दरु दर्शनमुन कुव्विळुलूरु चुन्न यीविर क्तुनि यार्तिकिनि 11 श्लो॥ आलक्ष्यदन्त मुकुळान निमि त्तहासै रव्यक्त वर्णरमणीय वचः प्रवृत्ति । अङ्काश्रय प्रणयि नस्तनया धन्या स्त दङ्गरजसामलिनीभवन्ति ॥ वहन्तो (अभिज्ञानशाकुन्तलमु. अं.7–17) अनिमि त्तहासमुल चे ना लक्ष्यदन्त मुकुळुलगु नात्मजुल नॊडुलँ दाल्चुचुन्न यीयनुरक्तुल यार्तिकि नॆन्त तेडागलदो ! येदि धन्यता पादकमगुनो! विज्ञु लॆऱुङ्गनिदि कादु. रॆण्डवरकमु वा रेमगुदुरो कविये…. ‘रजपामलि नीभवन्ति’ अनि गूढमुगाँ दॆलुपु चुन्नाँडु. मुमुक्षु वुलकुँ गावलसिनदि भगवद्भक्ति येगानि विषयर क्ति गादु. अट्टि भक्तिकी पञ्चस्तवि पॆट्टिनदि पेरु. ली. ईकवि कवितार त्नापणमुनँ जतुर्दश विद्यलुनु क्रय्य मुले. सूक्ति रत्नमुल कन्तेलेदु. वेदमु वाल्मीकिनोट रामायण श्लोकमुलुगा वॆलसिन ट्लुपनिषत्तु ली कविवरुनोट सुश्राव्य श्लोकमुलुगा रूपॊन्दिनवि. दिक्रदर्शनमु. श्लो ॥ यः ख ल्वणो रणुतरो महतो महीया नात्माजनस्य जनकोजगतश्च यो2 भूत् । वेदात्मक प्रणव कारणवर्ण वाच्यं त्वां वयन्तु परमेश्वर मानुनामः ॥ (वैकुण्ठ स्तवमु−20) 12 इन्दु_ ‘अणोरणीया९ महतो महीयाक्’ इत्यादुलु पॊन्दुपडि युण्डुट गमनिम्पँदगुनु. ‘व्यो मां भोज मिदन्त या किलविद भ्रान्तो ऒय मित्युच्यते” (श्री स्तवमु - 8) तर्क रसिकु लिन्दुँ गूरेशुल तार्किक प्रतिभनु जविचूड वच्चुनु. कौतस्कु ताः - वाङ्मन सातिग श्रीः- ‘अब्दं न तेरिन नजि ग्यिथ राक्ष सेन्द्रम्’ इत्यादि प्रयोगमुलचे वीरि व्याकरण विज्ञानमुनु वि लूहिञ्चु कॊनवच्चुनु. पि त्तघ्नमञ्जन मनाप्नुषि जातु नेत्रे नैव प्रभाभि रपिशङ्ख सितत्वबुद्धिः 11 (वैकुण्ठ स्तवमु -16) इन्दु वीरि वैद्यशास्त्र परिचिति यास्वादनीयमु. ‘हास्यं तत्तुन मन्महे नहिच कोर्येकाखिलां चन्द्रिकां । नालं पातुमिति प्रगृह्यरसना मा सीत सत्यान्तृषि ’ श्री स्तवमु
इन्दु वीरिकिँगल झडिति स्फूर्तियु लोकज्ञानमु प्रशंस नीयमुलु. बाह्याकुदृष्टय इति द्वित येव्यपारं घोरन्तम स्समुपयान्ति न हीक्ष सेता । 13 जग्धस्य कानन मृगैर्मृग तृष्ठि के प्सोः कासार सत्व निहतस्य च को विशेषः ॥ (वैकुण्ठ स्तवमु–14) ई श्लोकमुलोनि भावपुष्टि यॆन्तयास्वादिञ्चिननु अक्ष यमै यलरारुचुन्नदि. अन्तियेकादु- इन्दलि परमत निराकरण परिपाटि यॆन्तयु श्लाघनीयमु, ‘तद्युक्तमेव तवराघव वंश जस्य तिर्यक्षु नैवहि विपक्षतयो पचारः’ (अतिमामष स्तवमु —21) इन्दु वालिवध विषयिक धर्मसन्देहमु नीकवि तीर्चिन विध मतिरमणीयमु. ‘सीतावियोग विवशोन च तद्गतिज्ञः । प्रादा स्तदा परगतिञ्च कथं जटायोः ॥ (अतिमानुष -17) अब्धिं न तेरिथ. . .तस्य प दे भ्यषिञ्चः । तस्यानुजं कथ मिदंहि विभीषणं च॥ (अतिमानुष —24) ई प्रश्नमुलकु श्रीरामुँ डैन नेमि समाधान मियँ गलँडु. मौनमु वहिञ्चवलयुनु. अदियु नर्धाङ्गी कारमे यगुनु गदा ! वीरि कवित्व रत्नाकरमुन सुभा षित रत्नमुलकुँ गॊऱँत येमि गलदु? परिशीलकुलुण्ड वलयुनु. 14 युको विधेय विष येषु हि कामचारः (अतिमासुव -13)
सर्वो ही वश्य विषये विवृणोति वीर्यम् (अतिमानुष—11) सर्वं गुणाय गुणिनामिति सत्यमेतत् (अतिमानुष -43) इत्यादुलु परश्शतमुलु, वीरिन्त महापण्डितुलु महाकवुलय्यु नतिविनयसम्पन्नुलु, ‘नश्वाव लीढ मस्ति तीर्थमु तीर्थ माहुर्नो दन्यतापि च शुना किल लज्जितव्यम्’ ‘कुक्क गतिकिन गङ्गकुँ गॊदवगलदॆ सिग्गुपडँ गुक्क रपिपास तग्गु पॆटु?’ 3 (35000-8) अनि तन्नु. शुनकमुतोँ बोल्चुकॊनुट वीरि महत्तने चाटुचुन्नदि. श्री वरदराजस्वामि तन स्तवमुनकु सन्त सिञ्चि नी केमि कावलयुननि यडुग गुरुलु कोल्पोयिन कन्नुलँ गोरुकॊम्मनि प्रोत्सहिञ्चिनप्पटिकि नी प्रपन्नुँडु केवल चर्मदृष्टुलँ गोरुकॊनक -शो॥ नील मेघ निभमं जनपुञ्ज श्यामकुन्तल मनन्त शयं त्वाम् । अब्दपाणि पदमम्बु जनेत्रं. नेत्र सात्कुरु करीश ! सदा मे ।.: . (वरद 28) 15 अनि ‘सदा पश्यन्ति सूरयः” अन्नट्लु नित्यनूरि योग्य मगु सदा दर्शनमु नपेक्षिञ्चुटये वीरि मह त्तकु निदर्शनमु. इट्टि महनीयुल पञ्च स्तवी कोशमु नेनॆन्तवऱ कान्ध्रुल कन्दुपा टॊनरिम्पँगलिगितिनो पाठक महाशयु ले निर्णयिम्प नधिकारुलु. नेनु ना भावादर्शान्ध्र विवरण मुन ना कुपलब्धमगु श्री श्रीनिवासाचार्य व्याख्यने अनुस रिञ्चितिनि. प्रति श्लोकमुन नी नियममुलु पाटिम्पँबडॆनु. ♡
- अवतारिक (अवसरमगुचोट)
- मूलश्लोकमु
- प्रति पदार्थमु
- विशेषमुलु
- तात्पर्यमु
- आन्ध्रपद्यमु पाठान्तरमुलु न्नॆडँ बरिशीलिञ्चितिनि. ना रुचि ननुस गिञ्चि कॊन्नि तावुल नॊक श्लोकमुनकु रॆण्डु पद्यमुल व्रासितिनि. चालवऱकु ना यनुवाद पद्यमुलु मूलानु सारमुलुग ने युण्डुनु. मच्चुनकु श्लो॥ पृच्छामि किञ्चन यदा किल राघवत्वे माया मृगस्य मनुजत्व माध्ध्यात् । सीतावियोग विवशो न च तद्दतिज्ञ ः प्रादा स्तदा परगतिं हि कथं खगाय ॥ (अतिमानुष—17) 16 च॥ अडिगॆदँ गोपमन्द कॊक यंशमु रामुँड वैनयपु म र्त्युँड वनिपिञ्चुकोँ दलँपु तो निजमञ्चुनु मायलेडि वॆं बडिँ बडि धर्मपत्नि नॆडँ बासि यॆऱुङ्गवुकानि तद्दतिन् गडुसरि ! यॆ टॆऱिङ्गिति ख कॊन्नि तावुल 3 गम्बुनकुन् दयचेय सद्दतिन्. मूलश्लोकमु समासमुगा नुन्न चो ना यनुवादपद्यमु व्यासरूपमुन नुण्डुनु. उदाहरणमु. श्लो॥ भक्ति प्रभाव—वैकुण्ठ स्तवमु 3 श्लो. इन्दुमूलमुन सङ्ग्रहरूपमुनँ जॆप्पँबडिन विषयमु ना यनुवादमुन सीसपद्यमुन विवरिम्पँबडिनदि. ऒकचो मूलमुन लेकुन्ननु अनुवादमुन उप मादुलु क्रॊत्तगाँ जेर्चुकॊनँबडॆनु. श्लो॥ सत्कर्म नैव किल किञ्चन सञ्चिनोमि विद्याप्य वद्यरहिता नतु विद्यते मे ! दञ्चितपदाम्बुज भ क्तिहीनः किञ्च त्व पात्रं भवामि भगव९ ! भवतो दयायाः ॥ (वैकुण्ठ स्तवमु —89)17 शा॥ कॊञ्चॆम्बेनियुँ गूडँ बॆट्टुकॊन वै कुं ठेश ! सत्कर्म मा बो र्जिञ्च बो ! निरवद्य विद्यनयिन क् श्रीवारि पादाल य त्किञ्चि द्भक्तियु लेदु संस्कृति पयो धि९ दाँट निर्हेतुको दञ्च’त्त्व त्कृपयॊण्डॆ नौकवलॆना धारम्बु देवोत्तमा ! मूलमुन लेकुन्ननु नौकवलॆननु नुपम अनु वादमुन नन्दमु कॊऱकुँ जेर्पँबडॆनु. कॊन्नि तावुल मनोहरम्बु लुगा नुण्डुटचे व्याख्यानस्थमुलगु श्लोकमुलुगूड ननुव डिम्पँबडिनवि. अतिमानुष स्तवमु
- श्लोक व्याख्यलोनि ‘शैल्कोग्निश्च जलाम्बभूव ’ अनु श्लोकमु. सी॥ Öशैलम्बु लग्नियु सलिलात्मक मुलायॆ’ अनि सीसपद्यमुलो अनूदितमायॆनु. मॊदल श्री स्तवमु नतिसुखमुगा मुगिञ्चितिनि गानि वैकुण्ठ स्तवमुलोने विघ्नमुलु वॆण्टाडिनवि. अन्दुचेतने - शा॥ वैकुण्ठ स्तवटीक व्रासॆडु तऱिक् वच्चॆक् महाविघ्नमुल् II 18 अनि व्रायवलसिवच्चॆनु. अलमुकॊनिन यन्तराय मुल नन्निटि सन्तरिम्पँ जेसि नेँटिकिट्लु पञ्चस्तवी प्रथम सम्पुटमु नाविष्करिम्पँ जेसिन दासकुटी निलय श्री कोदण्ड रामस्वामिवारि यव्याजकृपकु श्री दास शेषुल यनुग्र हमुनकुनु कै मोड्पु लर्चिञ्चुकॊनुचुन्नानु. इन्दलि दोषमुलु विडनाडि गुण लेशमुलने ग्रहिम्पँ बण्डित हंसलनु ब्रार्थिन्तुनु. गुण्टूरु 30 4 63 इटु बुध विधेयुँडु पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्युलु. प्रकाशक कृतज्ञत श्री भक्ति सञ्जीवनी मुखमुन श्री कूरेश प्रसादित पञ्च स्तवि भावान्ध्रानुवादमु प्रकाशितमगु चुण्डुट यॆल्लरकु तॆलिसिन विषयमे- ई महत्तरमगु सर्वप्रपन्न भक्त वैष्णवलोकमुन कत्यन्तोपकारकमगु नी कृतिनि कवि शेखर महोपाध्याय मध्वश्री श्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्युलवा रन्याजमगु वात्सल्य विशेषमे कारणमुगा ननुग्रहिञ्चि युन्नारु. वीरिकि श्री कोदण्ड राम प्रभु वेमि फलमिय नुन्नारो यदि यदृष्टमु. मादि दृष्टफलमु श्री याचार्युलवारिकि श्री भक्ति सञ्जीवनी पाठकुलु, श्री कोदण्ड राम सेवक धर्मसमाजुलु अननेल समस्त वैष्णवलोकमु तीरनि यप्पुपडियुन्नारनुट सत्यदूरमु कादु – अकिञ्चनुँ डगु दास शेषुँडु श्री याचार्युलवारिकि कृतज्ञता पूर्व कमुग वन्दनमु अर्पिञ्चुटकन्नँ जेयँगल देमि कलदु. श्री सीतारामुलु श्री याचार्युल वारि कनन्त कळ्याण परम्परल ननुग्रहिम्पँ ब्रार्थिञ्चुचुन्नाँडु. दा स कुटि अङ्गलकुदुरु 30-4-1963 इट्लु विन्नविञ्चु दास शेषु ( डु. विज्ञ प्ति कूरत्ताळ्वाननु श्रीवत्स मिश्रुलु प्रसादिञ्चिन पञ्च स्तवमु संस्कृत भाष्या व्याख्यान सहितमु श्री बृन्दा वनमुलो दास शेषुनकुँ ब्राप्तिञ्चिनदि. अदि नागर लिपिलो नुन्नदि. व्याख्यासमुतोडि ग्रन्थमे अलभ्यमु. मन वारिकि पनिकिवच्चुनट्लु मन भाषलोनिकि ननुवदिञ्चिन बागुण्डु ननि दास शेषुनकुँ दोँचि श्री श्री कविशेखर महोपाध्याय मध्वश्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञा चार्युलवारि नर्थिम्पँगाँ बरम प्रीतितो ननुग्रहिञ्चि यभयदान मॊसँगि प्रप्रथममुन श्री स्तनमुनु व्रासियिच्चिरि. क्रममुगाँ दक्किन नालुगु स्तवमुलुनु व्रासि यिय्यनुन्नारु. मॊट्टमॊदट श्री स्तव P मुनु सञ्जीवनिमुखमुनँ बाठकमहाशयुलकु निवेदिञ्चुकॊनु चुन्नामु. परमादरमुन मासेव स्वीकरिञ्चि मा यीलेश मात्रपु भगनत्कैङ्कर्यमुनकुँ जेयूँत यॊसँ गॆदरु गातमनि याशिञ्चु चुन्नामु - गुरुपरम्परा प्रभावमुन श्री कूर त्वाळ्वानुल पै भवमु विपुलमुगानुन्नदि. इचटनु 3 कु प्तमुगा व्रायँबडँ गलदु. इट्लु भ वच्चरणधूळि, दा स शेषु ( डु. श्री हयग्रीवाय नमः कृतज्ञत मद्राम पदारविन्द रतुँडुन् श्रीवासुदासीय चामोचा फलमाधुरी परवशस्वान्तुण्डु श्री दास शे षामो फेच्छुँडु श्री स्तनं बिटुल व्याख्यानिम्पँ ब्रेरेचि श्रे योमार्गम्बुनदिम्पॆ धन्युँड सुधन्युण्डस् महाधन्युँडन्. श्रीवत्साङ्क कवीन्द्र वागमृतमुन्जित्तम्बु रञ्जिल्ल ना ग्रीवा पूर्तिगँ ग्रोलु मेल् सुकृतमुन् श्री देवि दीव्यद्गुणा श्री वेद्याप्रतिम प्रभाव परिशीलित्वम्बु श्री दास शे षाविर्भूतमुलौट नी बुधुनके नर्पिन्तु धन्यो क्तुलन्, गी. चॆऱकुगडँ दिण्ट कॆव्वरो जीतमिच्चि रण्ट सुर भाष ना सूक्ति विण्टि नट्ले दक्कॆ वेतनमुग नाकु दास शेषु नान श्रीवत्सचिह्न वा गनुृतिमान. 0-0-0-0 श्री हयग्रीवायनमः श्री गुरुभ्योनमः
श्रीस्तवमु
कवि शेखर मध्य श्री पळ्ळॆ पूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत ण आन्ध्र टीका तात्पर्य सहितमु श्लो. श्रीवत्स चिह्न मिश्रेभ्यो ! नमो वाक मधीमहि यदु क्त यस्त्र यीकण्ठे ! यान्ति मङ्गळसूत्रताम् ॥ वन्दनमु लाचरिन्तु श्रीवत्स चिह्न मिश्रुलकु श्रीहरि पदाम्बुजाश्रयुलकु ताल्चु यत्सूक्ति माङ्गळ्यतन्तु शोभ चॆन्नु मीऱँ द्रयीकण्ठ सीममन्दु, प्रतिपदार्थमु मु :-यत् + उ क्तयः = ए महनीयुनिमाटलु, त्रयीकण्ठे = वेदत्रयि यनु कान्तयॊक्क कण्ठमु नन्दु, मङ्गळसूत्र ताम् मङ्गळसूत्रमगुटनु, पॊन्दुचुन्नवो ( तेभ्यः = अट्टि श्रीवत्सचिह्न यान्ति 11
मिश्रेभ्यः = कूरेशुलनु नामान्तरमुगल श्रीवत्साङ्क मिश्रुलकॊऱकु, नमक्तिम् = नमोवाकमुनु (नति यनु माटनु) अधीमहि अध्ययनमु चेयु चुन्नामु.
विशेषमु :- ’ अधीमहि ’ अनु क्रियापदमुनु प्रयोगिं चुटचे वेदमु नॆट्लु नियमपूर्वकमुगा भक्ति XG लतो स्तवमु अध्ययनमु चेयुदुरो यट्ले मन्त्रतुल्यमगु नेतची स्तवमुनकु द्रष्टयगु श्री श्री वत्साङ्क मिश्रुल पट्लँ गृतज्ञतनु भक्तिश्रद्धलनु जूपुचु नी नमस्कार श्लोकमुनु बठिञ्चुचुन्नामनि स्तोत्र पाठकमहाशयुल याशयमु सूचितमगुचुन्नदि. इन्दु श्रीवत्साङ्क मिश्रुल सूक्तुलनु त्रयीकान्त् मङ्गळसूत्रमुगाँ बोल्चुट चेत कि मङ्गळसूत्र मॆन्त मुख्यमो त्रयीकान्तकु श्रीवारि सूक्तु लन्त मुख्यमु लनियु, व्याख्यानप्रायमुलनियु भावमु. मऱियुँ गण्ठमु नन्दलि मङ्गळसूत्रमु स्त्रीनि जीनद्भर्तृकनुगाँ जाटु नट्लु ई त्रयीकान्त सदा जीवद्भर्तृक यनियु सकल प्रतिपाद्युँडुनु नित्युँडु नगु श्रीमन्नारायण मूर्तिये यी कान्तनु जेँबट्टिन परमपुरुषुँडनियु ध्वनित मगुचुन्नदि. दीनिकि गमकमु यान्ति वर्तमानकालिक क्रिय. वेद श्लो. स्वस्तिश्री र्दिशता द शेष जगतां सर्दि पसर स्थितिः यनु स्वर्गं दुर्गति मापवर्गिक पदं सर्वञ्च कुर्वक् हरिः । यस्या वीक्ष्य मुखं तदिङ्गितपराधीनो विध त्तेखिलं क्रीडेयं खलं नान्यथास्य रसदास्यादै करस्यात्तया ॥ अवतारिक :- भागवतोत्तमुलगु श्रीकूरेशुलवारु भगव त्समाश्रयणमुन कुद्युक्तु लगु समस्तचेतनुलकुँ बुरुष कारभूतुरा लगुट चेँ ब्रथममुन नाश्रय णीयुरालगु श्रीदेविनि बदुनॊकण्डु श्लोकमुलचे स्तुतिम्पँ श्री स्तवमु π बोवुचु नन्तराय परिहारम्बुनकै याशीर्वचनरूप मगु मङ्गळमुनु स्तोत्रारम्भमुन ‘स्वस्ति श्रीः’ अनु शोकमुतोँ जेयुचुन्नारु. 3 प्रति :- अ शेषजग ताम्
श्री सम स्तलोकमुलकु, सर्ग, उपसर्ग, स्थितीः = सृष्टिनि, संहारमुनु, रक्षणमुनु, स्वर्गम् स्वर्गमुनु, दुर्गतिम्= नरकमुनु, आपवर्गिकपदम् = मोक्ष स्थानमुनु, सर्वञ्च = (ऒक टेमि) अन्निटिनि, अनँगा ऐहिकामुष्मिक भोगवि शेषमु नन्तयुनु अनि भावमु) कुर्वज्=चेयुचु (चेयँबोवुचु), हरिः = श्रीमन्नारा यणमूर्ति, यस्याः =ए श्री देवियॊक्क, मुखम्=मुख मुनु, वीक्ष्य = चूचि, तदिङ्गित, पराधीनः = आ श्री देवि कनुबॊमल सूचनकु- बरतन्त्रुँडै, अखिलम् सम स मुनु, विध त्ते = चेयुचुन्नाँडो, अन्यथा = अट्लु कानि = अट्लुकानि यॆडल, अस्य - ईना रायणमूर्ति, तया - आश्री देवितो,
- ऐकरस्यात् = एकरुचिगलवाँडुगान, इय्यम् ई, क्रीडा सृष्ट्यादिक्रीड, रसदा=आनन्दमु निच्चुनदि, सस्यात् खलु=कादो, सा=अट्टि, श्रीः= श्रीदेवि, स्वस्ति=शुभ मुनु, दिश तात् =इच्चुँगाक, ता. समस्तलोकमुलकु सृष्टि स्थिति संहारमुलनु, स्वर्ग नरक मुलनु मोक्षमुनु ऒक टेमिटि समसैहिकामुष्मिक सुखवि शेषमुलनु गलिगिम्पँ बोवुचु श्रीमन्नारायण मूर्ति, ये तल्लिमुखमुनु दिलकिञ्चुचु नामॆ कनुबॊम जाडल ननुवर्तिञ्चुनो, ये देवि यिष्टानिष्टमुल ने तनकुँ 2 । श्री स्तवमु ब्रियाप्रियमुलुगा भाविञ्चुनो येयम किष्टमुगानि जगत्सर्जनादिक्रीड तन कानन्ददायिनि काँजालदनि यॆञ्चुनो यट्टि यु त्तमरालुनु, ऎल्लरुँ दन्नाश्रयिञ्चुट चेतनु तानु स र्वेश्वरुनाश्रयिञ्चुट चेतनु एमात श्रीशब्दमु ख्य वाच्युरालो अट्टिश्रीमहा देवि स्वस्तोत्रनिर्माणोद्युक्तुँड नगु नाकुँ ददनुकूलश ब्दार्थ भाव प्रसारणादिक मुनु, एतत् स्तोत्र पाठकमहाशयुल कभ्युदयनि कभ्युदयनि श्रेयस्तादुल ननुग्रहिञ्चुँगाक. श्रीनाथुण्डु सम स्तचेतनुलकु, सृष्ट्यादि लीलायुतं बे नीलालक मोमुँ जूचुचु यदीयेच्छानुसारम्बु सं धानिञ्चुक्, यदनिष्टमीदॊ मुद, मेतादृक भावाढ्यया श्रीनीलोत्पल नेत्र लोकमुलकु, जेकूर्चुँ गळ्याणमुल् . अवतारिक :- पैश्लोकमुनँ जॆप्पिन भावमु ने श्लोकमुन विवरिञ्चुचुन्नारु. M 1 यी क्रिन्दि श्लो॥ हेन्री र्देवि समस्तलोकजननीं त्वांस्तोतु महाम हे युक्तां, भावय भारतीं प्रगुणय प्रेम प्रधानान्धीयम् । भक्तिम्भन्दय नन्दयाश्रित मिमं दासं जनन्तावकं लक्ष्यंलक्ष्मि ! कटाक्षवीचि विसृते स्तेस्याम चावि वयम्॥ प्रति := श्रीः ! = ऎल्लरिचे नाश्रयिम्प बडुदाना! लेदा सर्वे. श्वरु नाश्रयिञ्चिनदाना ! देवि ! = क्रीडादि गुणविशिष्टु राला!, हेलक्ष्मि! = ओ लक्ष्मी देवी!, वयम् मेमु, सम स्तलोकजननीम्=ऎल्ललोकमुलकुँ दल्लिवगु, त्वाम् = निन्नु, स्तोतुम् = स्तुतिञ्चुटकु, ईहाम हे प्रयत्निञ्चु
=श्री स्तनमु धियम् =
तिये
चुन्नामु, युक्ताम् = स्तोत्र मुन क नुवगु, भारतीम्- वाक्कुनु, भावय = उत्पादिम्पँजेयुमु, प्रेमप्रधा नाम् = (नी लोकोत्तर कल्याणगुणमुलन्दु) प्रीति ये मुख्यमुगाँगल, बुद्धिनि, प्रगुणय वरिल ँजेयुमु, भक्तिम् भक्तिनि, भन्दय = कल्याण वतीनिगाँ जेयुमु. (अनगाँ परमभक्तिपर्यन्तमु परिपाक मुनु जॆन्दुदानिनिगाँ जेयुमनि भावमु ) आश्रितम् निन्नाश्रयिञ्चिन, इमम् = ई, तावकम् = नी सम्बन्धि यगु, दासम्, जनम् = दासजनुनि, नन्दय = PM
सन्तोष पॆट्टुमु, अमा=ई, वयम्=मेमु, ते= नीयॊक्क, कटाक्षवीचि विसृतेः = क्रेगण्टि कॆरटाल पॊङ्गु नकु, लक्ष्यम्= गुऱि, स्याम= अगुदुमु काक . ता॥ सर्वेश्वरु नाश्रयिञ्चि सकलचेतनाश्रयणीय न यो लक्ष्मी देवी! सकललोकजननिवगु निन्नु नुतिम्पँ ब्रय त्निञ्चु माकु मञ्चि वाक्कुल ननुग्रहिञ्चि, नीकल्याण गुणगणमुलन्दुँ ब्रेमातिशयमुगल बुद्धि नभिवृद्धिपऱिचि, भ क्तिनॊसँगि, या भ क्तिनि परमभक्तिपर्यन्तमु परिपाक मुनु बॊन्दिञ्चि नी याश्रितुँडगु नीदासुनि सन्तोष पॆट्टुमु. परमभक्ति समनन्तर भावियगु नित्यकैङ्कर्य निरतु नॊनर्पुमु. ईमेमु नित्यमुक्तुलवलॆ नी कटाक्षु तरङ्ग विजृम्भणमुनकु लक्ष्यभूतुल मगुदुमुगाक, देवी! लक्ष्मि! समस्तलोकजनयित्री ! निन्नुगॊण्डाडु ना कीवमा! मधुमुक्क वाक्कु, वलपुक्, हॆच्चिञ्चुदी वैभवं बीवम्मा ! दृढभक्तिनिच्चि कुतुकं, बीवम्म ! यीदासुनिं ब्रोव नीकडगण्टिचूपुँ गॆरटम्पु मुम्पुनिम्पुमा! 2 2 श्री स्तवमु अवतारिक :- इट्लु स्तोत्रानुगुणवाणि मॊदलुकॊनि नित्य कैङ्कर्यपर्यन्तमु गल निजमनोरथमुनु वेँडुकॊनि कूरेशु ली श्लोकमुनन्दु कविजनुल चेत निर्वचिम्पँबडिन स्तोत्रलक्षणमु निरवधि कातिविलक्षण गुणवति वगु नीयन्दुँ बॊसँगदनि चॆप्पुचुन्नारु.
3 श्लो॥ स्तोत्रं नामकिमामनन्ति कवयो यद्यन दीयाक् गुणाज् अन्यत्रित्व स्यरोप्यभणितिः सातर्षि वन्ध्यात्वयि ! सम्यक् सत्यगुणाभिवर्णन मरो ब्रूयुः कथं तादृशी वाक् वाचस्पति नापि शक्यरचनाश्व त्सद्गुणाल्लो निधौ ॥ प्रती :- कवयः=कवुलु, किञ्चाम= ऎट्टिदानिनि, स्तोत्रम् = स्तोत्रमुनुगा, आयनन्ति = चॆप्पुचुन्नारु ? (इदि प्रश्न) असतः = (स्तुतवस्तु वुनन्दु) लेनट्टियु, अन्यदीयाक् : अन्यवस्तु वुनन्दुन्न, गुणा= गुणमुलनु, अन्यत्र = मऱियॊक वस्तुवुनन्दु (स्तुत्यवस्तुवुनन्दु) अधिरोप्य = आरोपिञ्चि, भणितिः=उक्ति (चॆप्पुट) स्तोत्रंयदि = स्तोत्र मगुनेनि (इदि जवाबु) तर्हि = आपक्षमुन, सा= आरीतिगाँ जॆप्पुट, त्वयि=अपारगुणगणनिवगु नीयन्दु, वन्ध्या निरर्थकमैनदि. (अन्तुलेनि गुणगणमुलु गल नीयन्दु लेनि गुणमुलु दुर्लभमुलु गान नी लक्षणमु पॊसँगदनि भावमु. इदि या स्तोत्रलक्षणमुन कापत्ति.) अथो= अट्लु कानियॆडल, सम्यक् = चक्कँगा (उन्नवियुन्नट्लु) सत्य, गुण, अभिवर्णनम्=उन्न गुणमुलने पूर्णमुगा वर्णिञ्चुटये (स्तोत्रम् स्तोत्रमुनुगा,) ब्रूयुः
श्री स व मु यदि= चॆप्पुदु रेनि (स्तोत्रलक्षणमु नीविधमुगा मार्चि चॆप्पुदु रेनि) त्वत् , सद्गुण, अल्गोनिधौ = नीसुगुण समु द्रमुनन्दु, तादृशी =अट्टि, वाक् = उक्ति, उन्न गुणमुल नन्निटिनि साकल्यमुगाँ गूर्चि चॆप्पुट, वाचस्पतिना, अपि=बृहस्पतिचेत नै ननु, कथम् = ऎट्लु, शक्यरचना = वीलैन रचन गलदि, (स्यात् = अगुनु) कादनि भावमु. ता॥ ओ तल्ली! स्तोत्रमुनकुँ गवुलु लक्षण मेमिवचिन्तुरु? स्तुत्यवस्तुवुन लेनि यन्यदीय गुणमुल नारोपिञ्चि वर्णिञ्चुट स्तोत्रमँदु रेनि सकल कल्याण गुण निलयनगु नीयन्दालक्षण मसम्भवग्र स्तमगु (पॊसँगदनि भावमु) अट्लुगाक युन्न गुणमुलने साकल्यमुगा नुन्न वुन्नट्लु वर्णिञ्चुटये स्तोत्रमुनकु लक्षणमन्दु लेनि नीगुणसमु द्रमुनन्दु उन्न गुणमुल नन्निण्टिनि बॊल्लुपोकुण्ड वर्णिञ्चि चॆप्पुट बृहस्पति केनियु शक्यमुगादु गान नदियुँ बॊसँगनि लक्षणमे यगुचुन्नदि. सक लक ल्याण गुणनिधिनगु नी यन्दु लेनिगुणमुले लेवुगान मॊदटि लक्षणमु पॊसँगदु, कल्याणगुणपयोनिधिनगु नीगुणमु लनु साकल्यमुगा बृहस्पतियु वर्णिम्प लेँडुगान रॆण्डव लक्षणमुनु बॊसँगदनि भावमु. स्तोत्रं बॆट्टिदिगा वचिन्तुरु कवुल्? स्तुत्यम्बुनन् लेनि य न्यत्रव्य क्तमुलौ गुणम्बुलिट सन्धानिञ्चु टेनिन्, मृषा पात्रं बय्यदि नी’यॆडन्, गुणयथा वद्वर्णनं बन्न चोँ, जित्रिम्पं गलँडे बृहस्पतियु लक्ष्मी! नीगुणालन्नियुन् . 8 3 श्री स्तवमु अवतारिक :- इट्लु गुणमु लपरिमितमुलु गान स्तोत्र प्रवृत्ति यॆट्लु साध्यमगुननु शङ्कनु दृष्टान्तपूर्वकमुगाँ बरिहरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ येवाचां मनसाञ्च दुर्ग्रहत या ख्याता गुणास्तावका स्तानेन प्रतिसाम्बु जिह्वमुदिता हैमामिका भारती । हास्यं तत्तु नमन्म हे नहि चकोर्येकाखिलां चन्द्रिकां नालम्पातु मिति प्रगृह्यरसना मासीत सत्यां तृषि ॥
प्रति :- तावकाः = नी सम्बन्धमुलकु, ये = ए, गुणाः = कल्याणगुणमुलु, वाचाम् वाक्कुलकु, मनसाञ्च= हृदयमुलकुनु, दुर्ग्रहतया= ग्रहिञ्चुटकु नलवि कानि तनमु चेत, ख्याताः= प्रसिद्धिगाञ्चिनवो, ताज्, एव, प्रति वानि नेगूर्चि (आ गुणमुलने युद्देशिञ्चि) मामि का= ना सम्बन्धमगु, भारती= वाक्कु, स, अम्बु जिह्वम् = जलमुतोँ गूडिन नालुक गलुगुनट्लु, (नोरूरुनट्लु वर्णिञ्चुटकु) उदिता = (स्तुतिञ्चुटकु) प्रवर्तिञ्चिनदि, है =आश्चर्यमु, तत्, तु =अट्लु प्रव र्तिञ्चुटनु, हास्यम्=परिहास्यमुनुगा, न, मन्म हे= तलञ्चमु, हि=ऎन्दुकनँगा, एका= ऒक, चकोरी = आडु चकोरपक्षि (वॆन्नॆलत्रागु पिट्ट) तृषि = दप्पिक, सत्याम्=उण्डँगा, अखिलाम् = समस्तमगु, चन्द्रि काम् = वॆन्नॆलनु, पातुम् = त्रागुटकु, न, अलम् = समर्थु रालनुगानु, इति = अनि, रसनाम्=नालुकनु, प्रगृह्य = मुडुचुकॊनि, न+ आ सीत = ऊरकुण्डदु, श्री स्त व मु 00 ता॥ ओतल्ली! श्रीदेवि ! नी लोकोत्तर कल्याणगुणमुलु अवा ज्मानसगोचरमुलुगाँ ब्रसिद्धिँ बडसिननु ना नालुक यट्टि नी गुणमुल ने रसमुलूर वर्णिम्पँ ब्रवर्तिञ्चुट परिहास्यमुगादु. एलयन दप्पिगॊन्न चकोराङ्गन यी समस्तमगु वॆन्नॆलनु नेनॆट्लु त्रागँगलननि नालुक मुडुचुकॊनि यूरक कूर्चुण्डुना ? दप्पिगॊन्न वॆन्नॆल पिट्ट समस्तचन्द्रिकनु द्राग शक्यमुगाकुन्ननु मित मुगा ग्रहिञ्चि यॆट्लु दप्पिकनु दीर्चुकॊनुनो यट्ले ना नालुकयु नी कल्याणगुणमुलनु तन शक्तिकॊलँदि चवु लूर वर्णिञ्चि कृतार्थयगुननि भावमु, ओतल्ली ! विदितम्बु नीदु सुगुण, व्यूहम्बु वाज्मानसा तीतम्बञ्चु, मदु क्तिदाननॆ प्रवर्तिल्लॆन् रसम्बूर, नी रीतिन् हास्यमुगाँ दलम्पनु जकोरीजिह्व वॆन्नाडु ने एत च्चन्द्रिक नॆल्लँ ग्रोलँगलना ! येनञ्चु निर्वट्टुचोन्, 4 अवतारिक :- गुणळून्युँडगु तानी स्तोत्रमुनु रचिम्पँ गडङ्गुटकु लज्जाभयमु लेल कलुगलेदनु शङ्कनु, गुण रहितुँडगु तन स्पर्शचेँ बवित्रमगु नी विषयमुनकु दोषमण्टदा? अनु नाक्षेपमुनु कवि दृष्टान्तमुख मुन नी क्रिन्दिळ्लोशमुतोँ बरिहरिञ्चुचुन्नाँडु. श्लो॥ खैदीयानपि दुष्टबुद्धिरपि निः स्नेहो व्य नीहो2पि ते कीर्तिं देवि ! लिहन्नहञ्च बिभेन्युज्ञो नजि हेमिच । दुष्येत्सातुनतावता नहिशुनालीढापि भागीरथी दुष्येत् श्वापि न लज्जते नच बिभेत्यार्तिस्तु शाम्येच्छुनः ॥ 60 श्री स्तवमु
प्रति :- हे देवि ! = ओ श्रीदेवी!, दीयार्, अपि=मिक्किलि ऎरुद्रुँडनैननु, दुष्टबुद्धिः अपि = दुष्टमुतिनैननु, निः स्नेहः अपि = भक्तिलेनि वाँडनयिननु, अनीहः अपि= भक्तिकार्यमुलगु सेवादि चेष्टलु लेनिवाँडनैननु, ते= नी यॊक्क, कीर्तिम्=(गुणमुलुगल तल्लिवनु) प्रतिष्ठनु, लिह=आस्वादिञ्चुचु, अज्ञः = पा म रुँ ड न गु, अहम् = नेनु, न, च, बिभेमि = भयपडनु, न, जिप्रेमि च= सिग्गुपडनुगूड, सातु = आ नी प्रतिष्ठमैन नु, तावता=अन्तमात्रमुचे (पामरुँडनगु ने नास्वा दिञ्चुट चेत) न, दुष्येत् = दोषयुक्तमु कादु. (दृष्टान्तमुनु जूपुचुन्नाँडु) हि= ऎन्दुक नँगा, शुना= कुक्क चेत, लीढा, अपि = आस्वादिम्पँ बडिननु (नाकँ बडिननु) भागीरथी=गङ्गानदि, दुष्येत् = दुष्टमु कादु, श्वा, अपि=कुक्कयु, न, लज्जते= सिग्गुपडदु, न, बिभेति, च=भयपडदुकूड, तु मऱि येमनँगा, शुनः = कुक्ककु, आ_र्तिः=द प्पिक यनु बाध, शाम्येत् = शमिञ्चुनु. ता॥ ओ तल्ली ! अति नीचुँडनैननु दुष्टबुद्धिनैननु भक्ति हीनुँडनैननु भक्तिकार्यमुलगु परिचर्यादुलु लेनि वाँडनैननु नी कल्याणगुण प्रशस्तिनि आस्वादिञ्चुटकु नज्ञुँड ने ने यनि नेनु वॆऱुवनु. लज्जिम्पनु. अज्ञुँड नगु - अज्ञुँडनगु` नाचे ना नास्वादिम्पँबडिन मात्रमुन ना नी गुण प्रशस्ति श्री स्त व मु 03 कॆट्टिदोषमु नण्टदु. ऎट्लन - दप्पिगॊन्न यॊक कुक्क यास्वादिञ्चिनन्त मात्रमुन भागीरथि केमि लोपमु ? भागीरथि वण्टितिने यनि कुक्क सिग्गुपडुना ? भयपडुना? कुक्क के दप्पितीऱुनु. अट्ले नी गुण प्रशस्तिनि स्तोत्रमुगा रचिञ्चुटचे ना यिच्छये तीऱुनुगानि नी कॆट्टिदोषमु वण्टदनि भावमु, अतिनीचुण्डनु दुर्मति विगत सौहार्धुण्ड निश्चेष्टुँड वितथप्रज्ञुँडनय्यु नँटुचु भवद्विख्याति भीतुण्ड ल ज्जितुँडगा, नपवित्रया नॆ यदिलक्ष्मी’ यण्टु चोँ गुक्कनी र्गतुक९ गङ्गकुनण्टॆ? कुक्क कॆद सिग्गा ! तीऱुँद तृष्णये. अवतारिक :- इट्लु स्तवमुनु प्रशंसिञ्चि श्री देविनि चुन्नाँडु. तल्लक्ष्म्याः स्तुतिञ्चु श्लो॥ ऐश्वर्यं महदेववाल्प मधवादृश्येत पुंसांहियत् समुदीक्षणात् तवयतः सार्वत्रिकंवर्तते । तेनैतेन नविस्म येमहि जगन्नाथ् पि नारायणो धन्यम्मन्यत ईक्ष णा त्तवयतः स्वात्मानमात्मेश्वरः ॥ प्रति := सार्वत्रिकम्=सर्वत्र E
अनुभान्यमगु (अनँगा) ऐहिकमुनु, आमुष्मिकमुनगु, पुंसाम् = पुरुषुलकु सम्बन्धिञ्चिन, महत्, एव, वा= गॊप्पदिगानि, अथवा= लेक, अल्पंवा=स्वल्पमुगानि, यत् = ए, ऐश्वर्यम् = वैभवमु, दृश्येत=कनँबडुनो, तत् = आ वैभमु (ऐश्वर्यमु) लक्ष्म्याः = लक्ष्मी देविवगु, तव = नी यॊक्क, यतः = ए, समुदीक्षणात् -कटाक्षमुवलन, व वर्तते= प्रवर्तिल्लुचुन्नदो, तेन= अट्टि वैभवमुगल, एतेन = (3) श्री स्तवमु ई कटाक्षमुचेत, . न, विस्मयेमहि = आश्चर्यपडमु, यतः = ऎन्दुवलन ननँगा, जगत् + नाथः = लोकमुलकु ब्रभुवैनट्टियु, आत्मेश्वरः = स्वयम्प्रभुवै नट्टियु, नारायणः अपि=नारायणमूर्तिगूड, स्व+आत्मा नम्=तन य प्राकृत दिव्यविग्रहमुनु, तव=नीयॊक्क ईक्षणात् = चूपु वलन, धन्यम् = सौभाग्य वन्तमु धन्यम्=सौभाग्य नुगा, मन्यते=तलँचुचुन्नाँडु. ता॥ ओ तल्ली ! श्री देवी ! अधिकमुगनो! स्वल्पमुगनो! लोकमुनँ जेतनुलयन्दुँ गन्पडु नैहिकामुष्मि कैश्वर्यमन्तयुनीक रुणाकटाक्षमुवलन नेकलुगु चुन्नदि. नी कटाकु मिन्त महिमगलदि यनुटलो माकिञ्चुकयु नाश्चर्यमु लेदु. एलयन जगदीश्वरुँडुनु ‘पतिं विश्व स्या त्मेश्वरम्, नारायणं परम्ब्रह्म’ इत्यादिश्रुतुल बेर्कॊनँबडिन यात्मेश्वरुँडगु नारायणमूर्तियु नी कटाक्षमुवलनँ दन यप्राकृतदिव्यशरीरमु सौभाग्य वन्त मय्यॆननि तलँचुचुण्ड नीकटाक्ष मितरुल कैश्वर्य. मुनु गलिगिञ्चुचुन्न दनुटलो विस विस्मय मेमुण्डुनु, अम्मा ! यन्तयॊ यिन्तयो यॆचटने नैश्वर्य मॊप्पारिन९ नम्मुक् क् लोकमु नीकटाक्षमॆ निदा, नम्मञ्चु लेदिन्दुँ जि क्रम्मिते जगदीशुँडय्यु हरि सौं, दर्यैकतानम्बु स्वी यम्म कायमु त्वत्कटाक्षमुन ध, न्यम्मञ्चुँदा नॆञ्चँडे श्री स्त व मु श्लो॥ ऐश्वर्यं यन शेषपुंस् यदिदं सौन्दर्य लावण्ययो रूपं यच्चहिमङ्गलं किमपि यल्लो केस दित्युच्य ते । तत्सर्वं दधीन मेन यदतः श्रीरित्य भेदेनवा यद्वाश्री मदितीदृ शेन वचसा देवि ! प्रथा मश्नुते ॥ प्रति :- हे देवि !=ओ श्री देवि!, अशेषपुंसि = समस्तचेतनुल यन्दु,यत् =ए, ऐश्वर्यम् = ऐश्वर्यमुगलदो, सौन्दर्य लावण्ययोः = अवयव शोभारूपमगु सौन्दर्यमु यॊक्कयु, समुदाय शोभारूपमगु लावण्यमु यॊक्कयु, यत् = ए, इदम् = ई, रूपम् = रूपमु गलदो,लो के=लोकमुनन्दु, यत्, च= एदि, मङ्गलं” हि=मङ्गळवस्तुवनि प्रसिद्धि चॆन्दिनदो, यत् = एदि, किमपि = एमेनि, सत्, इति=मञ्चिवस्तुवनि, उच्यते = चॆप्पँबडु ते= चुन्नदो, तत् =अदि, सर्वम् = अन्तयु, यत् =ए कारणमुवलन, त्वत् + अधीनम्, एव =नी यधीन मैनदि गाने, (भवति= अगुचुन्नदि) अतः = इन्दुवलन, श्रीः, इति, अभेदेन, वा=श्रीयनुश ब्दार्थमुतोडिय भेदाध्यव सायमुचेँ गानि, यद्वा = लेक, श्रीमत्, इति, ईदृ शेन = श्रीमत् अनु निटुवँटि, वचसा, वा= शब्दमुतोँ गानि, प्रथाम्=प्रसिद्धिनि, अश्नुते = पॊन्दुचुन्नदि. ता ओ जननी ! चेतननिष्ठमगु ऐश्वर्यगानि सौन्दर्यलावण्य रूपमुलुगानि मङ्गळवस्तुवुलुगानि मञ्चिवनि चॆप्पँबडु द्रव्यमुलुगानि नी करुणाकटाक्षु सम्प्राप्तमुले. कनुक ने पैँ बेर्कॊनँबडिन मैश्वर्यादिपदार्थमु लन्नियु OE श्री
श्री श्रीमच्चब्दमुलकु वाच्यमुलै प्रसिद्धिजॆन्दि नी कटाक्ष प्रभावमुनु वेनोळ्ळ वॆल्लडिञ्चुचुन्नवि. ओ श्री देवि ! समस्तचेतनुललो, नॊप्पारु नैश्वर्यमो ! सुश्रीकम्बगु रामणीयक मॊ! मॆच्चु गूर्चु लावण्य मो! अश्रान्तम्मु शुभ म्मॊ ! सत्ता ! भवदा, यत्तं बॆ, नीकीर्ति ने श्री श्रीमत्पद वाच्य मासकलमुक्, जॆण्डावलॆ क् जूटॆडुक् . अवतारिक :- इट्टि भवदीयैश्वर्यमु नीकुँगानि नी वल्लभुँडगु श्रीरङ्गनाथुनकुँगानि यपरिच्छेद्यमनि तॆलुपुचुँ दन्म हात्म्यमुनु गॊनियाडुचुन्नारु. प्रति श्लो॥ देवि ! त्वन्महिमावधिर्न हरिणानापित्व याज्ञाज्जायते यद्य प्येव मधापिनैन युवयो स्सर्वज्ञता हीयते । यन्नास्त्येव,तदज्ञता मनुगुणां सर्वज्ञताया विदुः व्योमाम्भोज मिदन्तया कीलविद भ्रान्त्योय मित्युच्यते :- हे देवि ! = ओ तल्ली ! श्रीदेवी! त्वत्, महिम, अव नी माहात्म्यमु यॊक्क हद्दु, हरिणा, अपि= श्रीमन्नारायणमूर्ति चेतनु, त्वया अपि = नी चेतनु गूड, नज्ञाय ते= तॆलियबडदु, यदि + अपि= यद्यपि= विचारिम्पँगा, एवम् = इदि यिट्ले, अथापि= ऐननु, युवयोः =मी यिरुवुरियॊक्क, सर्वज्ञ ता= सर्वज्ञ त्वमु, (अन्निटिनि दॆलिसियुण्डुट) न+ एव, हीयते= कॊञ्चॆमेनियुँ गॊऱँतपडदु, यत् = एदि, ना सि एव = लेने लेदो, तदज्ञ ताम् = दानि तॆलियमिनि, सर्वज्ञश्री स्तवमु 02 तायाः= सर्वज्ञत्वमुनकु, अनुगुणाम्= अनुकूलमैन दानिनिगा, विदुः = तॆलिसिकॊनुचुन्नारु, (पण्डितुलनि भावमु) ई विषयमुन व्यतिरेक दृष्टान्तमु नॊसँगु चुन्नारु. व्योम + अम्भोजम् = आकाशपद्ममु (लेनिदनि भावमु) इदन्तयो =इदिगो अनि लक्ष्यनि देश्यमुतो, विद९ = तॆलिसिकॊनुचु, (तट फ्लै
- मध्यवर्तुल चेत) अयम् = इतँडु, भ्रान्तः, इति = भ्रमपडिनवाँडनि, उच्यते, किल = चॆप्पँबडु चुन्नाँडुगदा !
- ता ओ तल्ली ! नीमहिम मनवधिकमु, अट्टि नीमहिमयॊक्क यवधिनि श्रीहरिगानि नीवु गानि तॆलियँजालरु, इन्दुवलन मी सर्वज्ञत कॆट्टिलोटुनु लेदु. लेनि दॆन्नँडुनु लेनि दे गान दानि तॆलियमि सर्वज्ञत तकु भूषणमेगानि दूष णमु गादु. ऎट्लन : ऎन्नँडुनु लेनि याकाशपद्ममु नदिगोननि व्रेलितोँ जूपु वानिनि भ्रान्तुँडन्दुरुगानि विज्ञुँडनकुगदा ! कावुन यथार्थमुगा लेनि नीमहिमा वधिनि दॆलियमि सर्वज्ञत्वमुन कनुगुणमे कानि विरु द्धमु कादु.
- हरिगानी मऱि नीवुगानि जगदं, बा ! नीमहत्ता महा गुरु पारम्बु नॆऱुङ्गँजाल, रदि मी,कुङ्गल्गु सर्वज्ञत बरिभाविम्प, दॆऱुङ्गनँटयसदुक्, बै पॆच्चु सर्वज्ञत स्थिरमुञ्जेयु, न भेखपुष्पमनुना, देबॆल् महिज् भ्रान्तुले.
- श्री स्तवमु
- श्लो॥ लोके वनस्पति बृहस्पति तारतम्यं
- यस्यां प्रसाद परिणाम मुदाहरन्ति । साभारती भगवतीतु यदीयदासी
तां देवदेव महिषीं श्रिय माश्रयामः ॥ परिणा प्रति :- लो के=लोकमुनन्दु, वनस्पति, बृहस्पति, तार तम्यम् = ज्ञानमु लेनिवानिलो गॊप्पदियगु वृक्षमु नकुनु, ज्ञानुललो गॊप्पवाँडगु बृहस्पति यॊक्क यु, भेदमुनु, यस्याः = एतल्लि यॊक्क, प्रसाद, मम्=अनुग्रहमुयॊक्क परिपाकमुनुगा, उदाह रन्ति = चॆप्पुचुन्नारो, सा= अट्टि, भगवती = पूज्यु रा लगु, भारती= सरस्वती देवि, यदीय, दासी = ए जगज्जननि परिचारिक यो, ताम् = अट्टि, देव देवमहिषीम् = वेल्पुलकु वेल्पगु श्री रङ्गनाथुनिपट्टपु राणियैन, श्रियम्= श्रीदेविनि (रङ्गनायकिनि) आश्रयामः = आश्रयिञ्चुचुन्नामु. ता॥ लोकमुनँ दॆलिवि लेनिवानिलो मॊदटिदियगु वृक्षमु नकुनु, तॆलिविगलवारिलो मॊदटिवाँडगु बृहस्पतिकिनि गल भेदमे तल्लि यनुग्रह परिपाकमुलुगाँ बॆद्दलु चॆप्पुदुरो यट्टि पूज्युरालगु सरस्वतिये जगज्जननि दासियो या देव देवुनि पट्टपुराणियगु श्री देवि नाश्र यिञ्चुचुन्नामु. गी॥ क्षिति वनस्पतिकि बृहस्पतिकि भेद मे महिळ सत्कृपापरिणाममन्दु राज्यवाणि येतल्लि कनुँगुदासि अट्टि हरिपत्नि श्री देवि नाश्रयिन्तु, श्री स्त व मु श्लो॥ यस्याः कटाक्ष मृदु वीक्षण दीक्ष णेन, सद्यः समुल्लसित पल्लव मुल्ललास । विश्वं विपर्यय समुत्थ विपर्ययं प्राक् तां देवदेव महिषीं श्रियमाश्रयामः॥ OF 00 प्रति :- प्राक् = पूर्वमु (प्रळयकालमुन) विपर्यय, समुत्थ, विपर्ययम् -कटाक्षमु लेक पोवुट चेँ बुट्टिन विना शमुगल, विश्वम् -प्रपञ्चमु, यस्याः = एतल्लि यॊक्क, कटाकु, मृदु, वीक्षण, दीक्ष णेन कटाक्ष रूप मगु लेँतचूपुयॊक्क सङ्कल्पमुचेत, सद्यः = वॆण्टने, समुल्ल सितपल्ल वम् पॊडमिन चिगुरु (अङ्कुरमु) कलुगु नट्लु, उल्ल लास = प्रकाशिञ्चॆनो, ताम्-अट्टि, देव देव मही षीम् = वेल्पुलकु वेल्पगु रङ्गनायकुनि पट्टपुराणियैन, श्रियम्=लक्ष्मी देविनि,आश्रयामः - आश्रयिञ्चुचुन्नामु. ता॥ प्रळयकालमुन सर्वेश्वरुनि कटाक्षमु लेकपोवुटचे विनाशमन्दिन जगत्तु एतल्लि केँगण्टि लेँजूपु सङ्कल्प मुन मरल सङ्कुकोन्मुखमै युदयिञ्चॆनो या देव देवुनि पट्टपुराणियगु श्री देवि नाश्रयिञ्चुचुन्नामु. ए देवी कृप लेमिमु प्रळयमं, देमात्रमु नामरू पादुल् लेक यडङ्गॆ नाजगमॆ यिष्ठा देवि नेत्रान्तिक प्रादुर्भूत कृपेक्ष णेच्छ मगुडं, प्रत्य ग्रशोभाढ्यमो! श्रीद९ दादृशि देव देव महिषि, श्री देवि सेविञ्चॆदन्. अव तारिक : ईविधमुगानितरुल यॆडस्पष्टमुगागोचरिञ्चुचुन्न लक्ष्मीकटाकु वै लक्षण्य वैभवमुनु तनयन्दुनु जूपँ ब्रार्थिञ्चुचु श्रीकू रेशुली स्तोत्रमुनु मुगिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ यस्याः कटाक्ष वीष्, क्षणलक्ष्यं लक्षिता महेशाः स्युः । श्रीरङ्ग राजमहिषी, सामामपि वीक्षितां लक्ष्मीः !! ..90 श्री स्तवमु प्रति :- यस्याः =एकॆल्लियॊक्क, कटाक्षु, वीक्षा, क्षणलक्ष्यम् = क्रेँगण्टिचूपुनकु क्षणकालमु लक्ष्यमुगा (गुऱिगा) लक्ष्मी ताः = चूडँबडिनवारु, महेशाः = महैश्वर्य वन्तुलु (म हेश्वरुलु अनिय भावमु) स्युः - अगुदुरो, श्रीरङ्ग राजमहिषी = श्रीरङ्गनाथुनि पट्टपुराणियगु, सा=आ, लक्ष्मीः - लक्ष्मीदेवि, मांअपि - नन्नु गूड, वीक्षि, ताम् = कटाक्षिञ्चुँगात, ता॥ एतल्लि क्रेँगण्टिचूपुनकु क्षणकालमु गुऱियैन वारु महैश्वर्यवन्तुलु लेदा महेश्वरु लगुदुरो यट्टि श्रीरङ्गनाथुनि देवेगियगु महालक्ष्मि नन्नु ँगूडँ गटाक्षिञ्चुँगावुत, आतल्लि कटाक्षमुचे नेनुकृतकृत्युँड नगदुँ एक्षमावति करुणाकटाक्षमुलकु क्षणमु गुऱियगुवार् म हेश्वरुलगुदुरॊ ! अट्टि श्रीरङ्ग राजुल पट्टमहिषि. श्रीमहा देवि ननुँ गटाक्षिञ्चुँगात, तल्लिरॊ ! नादु पुष्पनविँ दज्ञुल मॆप्पुलनॊप्पु कै तय वल्लिकिँ बूचॆँ बूवुलिवि वाडवु वीडवु सौम्भम्बुल सल्ललितम्बु अर्पणमु सल्पँग नीकिविग गूर्चि मालँगा नल्लिति दीनि निल्पु गळमन्दुन निन्दिर ! पद्ममन्दिरा ! - रा!- गद्यमु :- इदि श्रीवत्साङ्क मिश्रविरचित श्री स्तवम्बुनकु, कवि शेखर, महोपाध्याय, मध्वश्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतम्बगु नान्ध्रविवरणमु समाप्तमु, श्री हयग्रीवाय नमः वत्साङ्क मिश्रविरचित पञ्चस्तवीस्थ
श्री वैकुण्ठ स्तवमु
कविशेखर मध्व श्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतान्ध्र विवरण पद्यसहितमु. अवतारिक :- भगवद्रामानुजसमीपमुन नित्यनि वासमु चेत नधिग ताखल वेदान्त तत्वार्थुलु अगु श्रीवत्सचिह्न मिश्रुलु करुणार्द्रहृदयमुतो सकलसज्जनुल नुज्जीविम्पँ जेयँ बञ्च _स्तवी व्याजमुन नर्थपञ्चकमुनु ब्रकाशिम्पँ बञ्चस्तवी जेयँ दलँचिनवारै मॊट्टमॊदट नकुण्ठ महीमु लगु भगवद्वैकुण्ठनाथुल स्वरूपरूपगुणमुलँ ब्रति पादिञ्चु टकु श्रीवैकुण्ठ स्तवमु नारम्भिञ्चुचु सदाचार्य’ प्रपत्तिरूप मगु मङ्गळम्बुनु स्तवादियन्दु निबं धिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ यो नित्य मच्युतपदाम्बुजयुग्म रुक्म व्यामोहत स्तदितराणि तृणाय मेने ! अस्मद्गुरो र्भगवतो ऒस्य दयैक सिन्धो रामानुजस्य चरिणॆ शरणं प्रपद्ये ॥ www प्रतिपदार्थमु-= यः एपूज्युँडु, नित्यम् ऎल्ल प्पुडु, अच्युत, पद, अम्बुज, युग्म, रुक्म, व्यामोहतः श्री वैकुण्ठनाथुनि पादपद्ममुलजण्ट यनु बङ्गारमु 2 श्री वैकुण्ठ स्तवमु मीँदि पेदासवलन, तत् + इतराणि = दानिकण्टॆ नित गड्डिपोचकॊऱकु, रमुलगु वस्तुवुलनु, तृणाय मन्ये = तलँचॆनो ! (गड्डिपोचनु वलॆ ननादरमुगाँ जूचॆ ननिभावमु.)
अस्य = इटुवण्टियु, दया एक, सिन्धोः = मुख्य गुणमगु दयकु समुद्रमुवण्टियु, अस्मद्गुरोः मामाचार्युँ डगु, भगवतः = कल्याण गुणग णा कारुँ डगु, रामानुजस्य श्रीमद्रामानुजयति सार्व भौमुनियॊक्क, चरण् = रॆण्डु पादमुलनु, शरणम्= शरणमुनुगा, प्रपद्ये = निश्चयिञ्चुकॊनि याश्रयिञ्चु चुन्नानु. (पपत्तिचेयु चुन्नानु.) विशेषमु– रुक्मव्यामोहत दित राणि तृणायमेने- बङ्गारमु दॊरकिनवाँडु इत्तडि, रागि, यिनुमु मुन्नगुवानि नॆट्लु निरादरमुगाँ जूचुनो! अट्ले भगवद्रामानुजुलुश्रीवैकुण्ठनाथुनि पादपद्ममुलजण्ट दॊरकँगा सार्वभौमान्तमगु प्रापञ्चिक सुखमुनु ब्रह्मान्त मगु नामुष्मिक सौख्यमुनु गड्डिपोचव लॆँ दुच्छमुगाँ जूचॆ ननिभावमु. ‘करुणै क सिन्धोः” इन्दलि मुख्यार्धक मगु एकशब्दमुचे भगवद्रामानुजुलयन्दुँ गल यितर कल्याणगुणमुल कण्टॆ दयागुणमुनकुँ ब्राचुर्यमु चॆप्पँ बडिनदि. ‘शरणम्’ अनिष्टनिवृत्ति पूर्व केष्टप्राप्ति. श्री वैकुण्ठस्त वमु साधनम् - अनिष्टमुलनु निवर्तिम्पँ जेयुचु इष्ट प्राप्तिकि साधन मगुदानिनि शरण मन्दुरु. श्रीवत्स चिह्नमिश्रुलकु श्रीरामानुज पाद समाश्रयमु जनन मरणाद्यनिष्टमुलनु बोँगॊट्टुकॊनि निरवधिक निरतिशय नित्यानन्दप्राप्तिरूप मगु निष्टमुनु बॊन्दुट कनि याशयमु, ई प्रथमश्लोकमु मङ्गळश्लोकमु ‘समा पिकामो ई मङ्गळ माच रेत’ अनु शिष्टानुमितश्रुतिवलन मङ्गळ मुनकु फलमु अन्तरायशान्तियु समा प्रियुँ गनुकँ ददर मी मङ्गळमुनु मनसुलोँ जेसिनँ जालुँ गदा! ग्रन्थमुनं दॆन्दुलकुँ जेर्पँ बडॆ ननँगा ‘मद्दुगुणा मङ्गळं कृतं मयापि मङ्गळं क कर्तव्य मिति शिष्यशिक्षायै’– ना गुरुवुचे ग्रन्थादियन्दु मङ्ग शमु चेयँबडुटचे नेनु गूड ग्रन्थमुनु व्रायु नपुडु मङ्गळमु चेय वलयुननि यसन्निहितशिष्युलु गूड ग्रहिञ्चुट कनि भावमु. तात्पर्यमु– ए पूज्य पादुलु नित्यमु श्री वैकुण्ठनाथुनि पादपद्मयुग्म मनु बङ्गारमु (भोग्य वस्तुवु) दॊरकु टचे दानिमीँदि व्यामोहमुतोँ ददितर भोग्य वस्तु वुलनु गड्डिपोचँगाँ जूचिरो यट्टि यस्मद्गुरुवु लगु श्री भगवद्रामानुजुलचरणम्बुलनु शरणमुगाँ ब्रपत्ति चेयुचुन्नानु. 3 श्री वैकुण्ठ स्तनमु नी अच्युत पदाब्जयुग्म रुक्माश्रयमुन नन्यमुल नेगुकुँडु तृण मट्लु दलँ चॆ अट्टिकरुणाम्बुराशि रामानुजार्य चरणसरसीदयुगळम्बु शरणु नाकु. अवतारिक :- तरुवात नेतत् स्तोत्रकर्त भगवद्भाष्य कारु लकुँ ब्राचार्यु लगु यामुन मुनुलचेत मातापिते त्यादि श्लोकमुचे निरङ्कुश वैभवुलुगा सङ्ग्रहरीतिनि बेर्कॊनँ बडिन श्रीपराङ्कुश मुनुलनु समाश्रय णीयुलुगनु समाधिक रहितुलुगनु रॆण्डुश्लोकमुलतो नुडुवु चुन्नाँडु. श्लो॥ ड्रैविद्य वृद्धजनमूर्ध विभूषणं यत् सम्प च्च सात्विक जनस्य य देव नित्यम् । य द्वा शरण्य मशरण्यजनस्य पुण्यं त त्संश्रयेम वकुळाभरणाम्फ्रियुग्मम्॥ प्रतिपदार्थमु–
दार्थमु– यत् = एदि, त्रैविद्य वृद्ध, जन, मूर्ध, विभूषणम् = ऋग्यजुस्साममु लनु विद्यलयन्दुँ बॆद्दलगु वारियॊक्क शिरस्सुनकु भूषणमो, यत् + एव एदि, नित्यम् = नित्यमु, (इक्कड नक्कड) सात्विक जनस्य = सत्वगुण प्रधान सत्वगुणप्रधान
मगु जनमुनकु, सम्पत् = सम्पदवलॆ भोग्यभूतमो, यत् + वा एदि, अशरण्य, जनस्य = दिक्कु लेनिजनमुनकु, शरण्यम् शरणु चॊच्चँ दगिनदो, पुण्यम् = पुण्यसाधन मगु, 1 तत् वैकुण्ठ स्तवमु = आ, वकुळाभरण, अम्फ्रि, युग्मम् पराङ्कुशमुनुल पादमुलजण्टनु, संश्रयेम यिन्तुमु गात. 5 विशेषमु– ‘त्रै विद्य वृद्धजन’ प्रधानविद्यलकु ऋग्यजु P स्साम वेदमुल यर्थमुलनु बलुसारुलु परिशीलिञ्चिन विद्यावृद्धुलु अनि भावमु. वारितललकु विभूषण मनँगा शठारि पराङ्कुशुलवारि स्वरूपमु गान - शठारि व्याजमुन श्रीप राङ्कुशुले वारिशिरमु नलङ्करिञ्चु चुन्नारनि भावमु. यद् वा’ वाडँ बडिनदि. इच्चट ‘वा’ शब्दमु ‘च’ अनु अर्थमुन ता– ए पादमुलजण्ट वेदत्रयमुनन्दु नाटि तेऱिन पॆद्दलकु शिरोभूषणमो, एदि यी लोकमुननु बरलोकमुननु सात्विकजनुलकु सम्पदवलॆ ननु भाव्यमो, एदि यकिं चनुलकु रक्षकमो पुण्यसाधन मगुनट्टि श्रीपराङ्कुश मुनुल पादमुलजण्ट नाश्रयिन्तुमु. उ. वेदपथाध्व नीनुलगु ‘विज्ञुल कॆद्दि शिरोZवतंसमो ! एदि सुसात्वि कावळुल कॆल्लपुडुन् बरमानुभोग्यमो! एदि यकिञ्चनात्मुलकु नेड्गडयो ! यॆदि पुण्यदायि यो! पुण्यदायियो! यादरणीय मट्टि वकु शाभरणाङ्घ्र युगम्बुँ गॊल्चॆदन्. 2 6 श्री वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ भक्ति प्रभावभव दद्भुतभावबन्ध सन्धु क्षित प्रणयसाररसौघपूर्णः । वेदार्थरत्ननिधि रच्युतदिव्य धामा जीयात् पराङ्कुश पयोधि रसीनुभूमा ॥ प्रति– भ क्ति . . . . . पूर्णः - भ क्ति = भ क्ति यॊक्क, प्रभाव= 4__ . . . . . . :— $_3 1 महिमचेत, भवत् = पुट्टुचुन्न, अद्भुत = आश्चर्य करमगु, भावबन्ध = अभिप्रायदार्थ्यमु चेत, सन्धु प्रकाशिम्पँ जेयँ बडिन, प्रणयसार क्षित
मगु प्रणयमु (प्रेममु) अनॆडु, रस = रसमु यॊक्क, ओघ = प्रवाहमुचे, पूर्णः = निण्डिनदियु, वेदार्थ, रत्न, निधिः = वेदार्थमु लनॆडु रत्नमुलकु गनियैनदियु, अच्युत, दिव्यधामा = श्रीमन्नारा यणमूर्तिकि दिव्यनिवासमैनदियु, असीम, भूमा हद्दुलेनि महिम गलदियु, अगु पराङ्कुशप योधिः पराङ्कुशमुनि यनु क्षीरसमुद्रमु जीनत् = सर्वो त्कर्षमै वॆलयुँ गाक. वि शेषमु– प्रपन्न जनकूटस्थ प्रथमाचार्युँ डगु श्रीपरां कुश महामुनुल निरङ्कुशभक्तिये श्री वैष्णवसन्ततिकिँ दारकं बनि सम्प्रदायसू क्ति. तात्पर्यमु– भ क्ति प्रभावमुन नुद्भविञ्चुचुन्न यद्भुत मगु नभिप्राययदार्थ्यमुचेँ ब्रकाशितमैन प्रेमरस प्रवाहमुतो निण्डिनदियु, वेदार्थमु लनॆडु रत्नमु लकु गनि यैनदियु, श्री मन्नारायणमूर्तिकि दिव्य’ =श्री वैकुण्ठ स्तवमु 7 निवास मैनदियु, हद्दु लेनिमहिम (विस्तारमु) गल दियु नगु पराङ्कुश महामुनि यनु पालसन्द्रमु सर्वोत्कर्षमै वॆलयुँगाक, सी॥ अतँडु श्रीहरिपचाद्भुत भ क्ति रसझरी पूरितुं डदि रसपूरितम्बु आकर म्मतँडु वेदार्थसूक्तुल काक र म्मद्दि युज्ज्वलरत्नमुलकु अच्युतुनकु दिव्य माधाम मातँ ड य्यदि दिव्यधाममा नच्युतुनकु निस्सीममहिमतो नॆगडु चुण्डु नतण्डु निस्सीममहीममै नॆगडु वद्दि गी श्रीपराङ्कुशमानिकि क्षीरवारि राशिकिन् भेद मिलँ गानरादु रवयु लक्ष्मी कमृतम्बुनकुँ दावलमुलु वीरु लोक कल्याणमुनकु वॆल्गुदुरु गाक. 3 अवतारिक :_ तरुवात श्रीभगवानुनि स्तुतिम्प नारम्भिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ यन्मङ्गलाय महते जगता मुशन्ति त्रिविष्टपा न्यपि पदानि यदाश्रयाणि ! वन्दाम हे सरसिजेक्षण मद्वितीयं वेदान्त वेद्य मनिदं प्रधमं महा स्तत् ॥ प्रति– (तत्वज्ञाः = तत्ववेत्तलु) यत् = देनिनि, जगताम् = लोकमुलयॊक्क, महते
गॊप्प, मङ्गलाय 8 श्री वैकुण्ठ स्तवमु शुभमुकॊऱकु, उशन्ति - कोरुचुन्नारो, त्रैविष्ट पानि = त्रिलोक मुलकु सम्बन्धिञ्चिन, पदानि+अपि स्थानमुलु कूड, यत् + आश्रयाणि एतेजस्सु आधारमुगाँ गलवियो, अनिदम्प्रथमम् = इदि मॊदलनि चॆप्पुटकु शक्यमुकानि (कालपरिच्छिन्न मुकानि) अद्वीतीयम् - निमि त्तान्तरान पेक्षमगु, वेदान्त वेद्यम् वेदान्तवाक्य मुलचेँ ब्रतिपाद्यमगु, सरसिज + ईक्षणम् वण्टि कन्नुलुगल, तत् स्सुनु, वन्दामहे नमस्करिञ्चु चुन्नामु. तामरल तेज आप्रसिद्धमगु, महः स्तुतिञ्चु चुन्नामु. (लेदा) वि शेषमु– भगवन्तुनकु जगज्जन्मादि क र्तृत्वमुनु यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते! येन जातान जीवन्ति । यत् प्रयुं त्यभिसंविशन्ति इत्यादि वेद वाक्यमुलु, ‘ॐ जन्मा द्यस्य यतः’ इत्यादि ब्रह्मसूत्रमुलु लक्षणमुगाँ जॆप्पु चुन्नवि. ई श्लोकमुनन्दुँ गूडँ दादृशलक्षणलक्षित मगु तेजस्सुने वर्णिञ्चुटचे नदि ‘नारायणपरो ज्योतिः’ अनि पेर्कॊनँबडिन परमज्योति यगु श्री मन्नारायणमूर्ति यनिये विशद मगु चुन्नदि. ऎट्लन ? ‘यत् जगतां महते मङ्गळाय उशन्ति’ ए तेजस्सुनु तत्ववेत्तलु सृष्टि कारणमुनुगा ग्रहिञ्चु चुन्नारो यनि प्रथमपादभावमु. दीनिचे वर्ण्यमानज्योति सृष्टिकर्तृत्वलक्षित मगुचुन्नदि. श्री वैकुण्ठ स्तवमु ‘महते मङ्गळाय’ अनि मूलमुनँ जॆप्पँ बडुट चेत ‘पूर्वप्रळय मर्थसिद्धमै संहारकर्तृत्व पूर्वक सृष्टि कर्तृत्वमु सिद्धिञ्चुटवलन नेतज्योति संहारक गृक मनियुँ देलुचुन्नदि. ‘त्रैविष्टपा न्यपि पदानि यदाश्रयाणि’ अनु द्वितीय पादमु चेत ’ स्थालीपुलक न्यायमुन विभूतिद्वय स्थितिक र्तृत्वमु प्रतिपादिम्पँ बडिनदि. कनुक एतच्छोक मुन वर्णिम्पँबडिन महस्सु श्रीमन्ना रायाणात्मक मनिये भावमु. तात्पर्यमु– देनिनि तत्वद्रष्टलु महामङ्गळमुकॊऱकु वाञ्छिन्तुरो भुवनत्रयमुनकु सम्बन्धिञ्चिन पदवुलकु एदि याधारभूतमो ! एदि कालाद्यपरिच्छिन्न मो ! एदि वेदान्त प्रतिपाद्यमो ! एदि सृष्टिस्थिति संहारमुलं दितर साहाय्या पेरहितमो! अट्टि तामरलवण्टि कन्नुलुगल दिव्यज्योतिनि स्तुतिञ्चु चुन्नामु. (लेदा) नमस्करिञ्चु चुन्नामु. 6 देनि मूलमु गाँग नॆन्तुरु धीव रेण्युलु सृष्टिकिन् देनियण्ड जगम्बु लन्नियुँ दीरुगा नटु निल्चॆडुन् कान मन्युलतोडु देनिकिँ गार्यकोटुल नैगमं बौननादिमहं बधोक्षज मम्बुजाक्षमुँ गॊल्चॆदन् . 9 10 श्री वैकुण्ठ स्तवमु अवतारिक :- पूर्वश्लोकमुन ‘सरसिजेक्षणम्’ अनु पदमुचे सङ्क्षिप्त मगु श्री भगवानुनि दिव्यमङ्गळ विग्रह मी क्रिन्दि श्लोकमुचे विवरिम्पँ बडुचुन्नदि. श्लो॥ पीताम्बरं वरदशीतलदृष्टि पात 0 माजानुलम्बिभुज मायतकर्ण पाशम्। त सेघ मेचक मुदग्रविशालवुतो लक्ष्मीधरं किमपि वस्तू ममाविरस्तु, मेचकम्
प्रतिः_ पीत+अम्बरम् = पच्चनि पट्टुवस्त्रमु गलदियु, वरद, शीतल, दृष्टिपातम् = वरमुल नॊसगुनट्टि चल्लनि क्रेगण्टिचूपु गलदियु, आजानुलम्बिभुजम् पिक्कल वऱकु व्रेलाडु भुजमुलु गलदियु, आयत, कर्ण पाशम् = विशालमु लगु प्रशस्तमु लैन वीनुलु गलदियु, मेघ मेघमुवलॆ नल्लनिदियु, उदग्र, विशाल, उन्नतमुनु, विशालमु नगु वक्षःस्थलमु गल दियु, लक्ष्मीधरम् = श्रीमहालक्ष्मिनि धरिञ्चिनदियु, क्षी मपि—इट्टिदि अनि निर्वचिम्प शक्यमुगानिदियु, तत् = आ पूर्वोक्तमगु, वस्तु=वस्तुवु, (श्रीमन्नारायण स्वरूप मगु ज्योति) मम नाकु, आविरस्तु=प्रत्यक्ष वक्षः
मगुँ गाक. वि शेषमु– ई श्लोकमुनन्दु ‘आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्, (आ वॆलुगु तमस्सुन कतीतमुनु सूर्यनर्णमु गलदियु) ‘तस्य महारजतं वासः’ (आ नारायणमूर्तिकि बङ्गा रमे वस्त्रमु पीताम्बरधारि यनिभावमु) ‘कप्यासं व ယူရာ वैकुण्ठ स्तवमु 11 ह्री श्च ह्रीं श्चते नीकु वेदसू क्तुलु पुण्डरीक मेवाक्षिणी’ (सूर्युनिवलन विकासमुनु बॊन्दिन तॆल्ल दामरये आ देवुनकुँ गन्नुलु) लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’ (ओ नारायणमू र्ती ! ह्री देवियु लक्ष्मी देवियु भार्यलु) अनु गर्भितमुलै युन्नवि. तात्पर्यमु– पीताम्बरधारियु वरप्रदमुलुनु शीतलमु लुनु अगु कटाक्षमुलु गलदियु, आजानु बाहुवुलु गलदियु, प्रश कर्णमुलु गलदियु, मेघश्यामल मैनदियु, उन्नत विशाल वक्षःस्थलमु गलदियु, लक्ष्मी धरमुनु अनिर्वाच्यमु नगु पूर्वोक्त दिव्यज्योति नाकुँ ब्रत्यक्षमगुँ गाक . 3 11 बङ्गरुँ बट्टुँ बुट्टपुँ ब्र भल् नलुदिक्कुलँ बर्व, शीतला पाङ्गमु कोर्कु लीय निज भ क्तुलँ बिल्वँग, जनुलम्बु लु त्तुङ्गभुजम्बु लॊप्प, नव तोयदतुल्यमु पीन वक्षमुन् मङ्गळकर्ण पाशमु र माधर मापरवस्तु चॊप्पुतन्. श्लो॥ य त्तत्त्व मक्षर मदृश्य मगोत्रवर्ण मग्राह्य मव्यय मनीदृश मद्वितीयम् । ईशान मस्य जगतो य दणो रणीयु सद्वैष्णवं पद मुदार मुदाहरामः 5 6 12 श्री वैकुण्ठ स्तवमु प्रति– यत् एदि, तत्वम् सत्यमो ! अक्षरम्=अनं तमो (अन्तमु लेनिदो) अदृश्यम् = कन्नुल कन्दनिदो, अगोत्र वर्णम्=नामरूपमुलु लेनिदो, अग्राह्यम् अविषयमो, (तर्कमुल = अनुमानादुलकु कन्ददो) अव्ययम्= असङ्कुचितमु लगु कल्याण गुण गणमुलु गलदियो, अनीदृशम्—इट्टिदनि चॆप्पुटकु शक्यमुगानिदो, (चेतनाचेतन विलक्षणमो अद्विती यम्=सममुनु अधिकमुनु अगु मऱियॊक वस्तुवु लेनिदो, अस्य=ई, जगतः = लोकमुनकु, ईशानम्= नियामक मैनदो, यत् -एदि अणोः — अणुवुललो, अणीयः= मिक्किलि यणुवो, उदारम्=महत्तुललो महत्तो, वैष्णवम्—विष्णुसम्बन्धियगु, तत् =अट्टि, उपास्यस्वरूपमुनु, पदम् स्तुतिञ्चु चुन्नामु. उदाहरामः पदमुलु वि शेषमु– ई श्लोकमुनन्दलि तत्व- अक्षर - ‘सत्यञ्ज्ञान मनन्तं ब्रह्म अनु नुपनिषद्वाक्यमु नन्दलि सत्य- अनन्त पदमुलनु स्मरिम्पँ जेयुचुन्नवि. ‘ईशान मस्य जगतः ’ अनुनदि ‘पतिं विश्व स्यात्मे श्वरम् ’ अनु वेद वाक्कुनु स्मरिम्पँ जेयुचु वर्ण्य मानव स्तुवु चेतनाचेतनात्मक सकलजगन्नियन्तृक मनि चाटुचुन्नदि. ’ अणो रणीयः, उदारम्,’ ई पदमुलु ‘अणो रणीयान् महतो महीयान् अनु वेद ឌ वाक्यमुनु ज्ञ प्तिचेयुचुन्नदि. ‘पदम्’ पद्यत इति ज्ञ पदम्’ अनु व्युत्प त्तिचेत उपास्यस्वरूपमु - अनु नर्थ मुनु चॆप्पुचुन्नदि. श्री वैकुण्ठ स्तवमु 13 तात्पर्यमु– एदि सत्यमो यनन्तमो यदृश्यमो नामरूपरहितमो, यतर्क्यमो, यसङ्कुचित कल्याणगुणगणमो, चेतनाचेतन विलक्षणमो, समाधिक वस्तुशून्यमो, चेतनाचेतन सकलजगन्नि यामक मो, अणुवुललोनणुवो, महत्तुललो महत्तो अट्टि विष्णुसं बन्धियगु नुपास्यस्वरूपमुनु स्तुतिञ्चुचुन्नामु. गी॥ अव्यय मगोत्र वर्णम्बनन्त मप्र दृश्यमग्राह्यमी शमनीदृशम्बु,1 अणुवुलन्दुन नणुवु महत्तुलन्दु बल् मह त्तगु विष्णुतत्वम्बु नॆन्तु. श्लो॥ अम्नायमूर्धनि च मूर्धनि चोर्ध्वपुम्पां य द्दाम वैष्णव मभीक्षतरं चकास्ति । न्मादृशा मपिच गोचर मेति वाचो मन्ये तदीय मिद माश्रित वत्सलत्वम् प्रति– वैष्णवम्—पिष्णुसम्बन्धियगु, यत् = ए, धाम ज्योति, (तेजोमयमगु दिव्यशरीरमु) आम्नाय मूर्धनि वेदान्तमुनन्दुनु, ऊर्ध्वपुंसाम् पूर्वाचार्युलयॊक्क, मूर्धनि, च = शिरसुनन्दुनु, अभीक्ष तरम् = मिक्किलि, चकास्ति—प्रकाशिञ्चु चुन्नदो! तत् धाम—आज्योति, मादृशाम्=माबोटिवारि यॊक्क, वाचः, अपिच= माटलकुँ गूड, गोचरम् (गोचरत्वमुनु)=विषयमगुटनु, एति (इतियत्) पॊन्दुचुन्न दनुट येदिगलदो, इदम्= इदि, तदीयम्=आ 6 7 14 श्री वैकुण्ठ स्तवमु विष्णुसम्बन्धियगु, आश्रितवत्सलत्वम् अश्रीत वात्सल्यमु (इति=अनि) मन्ये=तलँचु चुन्नानु. तात्पर्यमु-= ए तेजोमय मगु दिव्यशरीरमु वेदान्तमु लन्दुनु पूर्वाचार्युल शिरस्सुनन्दुनु मिक्किलि प्रका शिञ्चुचुन्नदो यट्टि यप्राकृत मगुदिव्यशरीरमु मा बोण्ट्ल वाक्कुलकुँ गूड विषय मगुचुण्डुट या विष्णुवुनकुँ गल याश्रितवात्सल्य मनि तलन्तुनु. उ॥ वेदसरस्वती मुकुट वीधुलँ ब्राक्तन देश काळि मे लौ दललन्दु वैष्णव म हामह मॆय्यदि ग्रालु नॆन्तयुन् मेदुरदी प्ति नाश्रितुल मीँदि तदीय सुवत्सलत्वमे मादृश पामरात्मकुल माटल कय्यदि गोचरिञ्चुटल् ( अव तारिक :_ श्री भगवानुनकु आश्रित वात्सल्य मुन्ननु चेत नारब्ध मगु नी स्तुतिचेतँ बरिच्छिन्न स्वरूपादि म त्त्वमु श्रीहरिकिनि -परिच्छिन्न विषयमु गल भगनत्तुृतिलो दिगिति नन्न सिग्गु स्तुतिक र्तकुनु गलुगदा ? अनु शङ्कनु क्रिन्दि श्लोकमुतोँ बरिहरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ जान न्नपीह किल मा मनपत्रपिष्णु र्विष्णोः पदप्रणयिनीं गिर माद्रिये ऒहम् !. न श्वावलीढ मपि तीर्थ मतीर्थ माहु र्नोदन्यताऒपिच शुना किल लज्जितव्यम्॥ 7 00 S प्रति– अहम्
श्री वैकुण्ठ स्तवमु 15 नेनु, मां=नन्नु, जानन् + अपि— अज्ञुँडनुगाँ दॆलिसिकॊनु चुन्ननु, अनपत्रपिष्णुः= सिग्गु लेनिवाँड नगुचु, विष्णोः = विष्णुमूर्तियॊक्क, पद= पादमुनन्दु, प्रणयिनीम् प्रेमगल, गिरम् वाक्कुनु, आद्रिये=आदरिञ्चुचुन्नानु. (ई विषय मुन दृष्टान्तमु निच्चुचुन्नारु) श्वावलीढम् + अपि= कुक्क चे नाकँबडिनप्पटिकि, तीर्थम् शुद्धिकर मगुगङ्गादि तीर्धमुनु, अतीर्थम्—तीर्थमु कानिदानिनिगा (सन्तः= सज्जनुलु) न + आहुः = चॆप्परु, उदन्यता=दप्पिगल, शुना + अपि = कुक्क चेँगूड, नलज्जित व्यङ्कील=सिग्गुचॆन्द नवसरमु लेदुगदा!
विशेषमु– इन्दु दृष्टान्त वाक्यमुनँ दन्नुँ गुक्कतोँ बोल्चुकॊनुट कवियॊक्क विनयमुनुँ ब्रकटिञ्चुचु श्री वैष्ण नसम्प्रदायसिद्ध मगु नैच्यानुसन्धानमुनु दॆलुपु चुन्नदि. ‘त्वद्भृत्य भृत्यपरिचारक भृत्यभृत्य भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ’ अनि कुल शेखराळ्वारि दिव्यसू क्ति. तात्पर्यमु– नेनु अज्ञुँड ननि तॆलिसियु सिग्गुलेनिवाड नै विष्णुपादमुनन्दलि प्रणयातिशयमुन भगवन्नुतिँ जेय नादरमु गलिगि युन्नानु. अदि युचितमे. अज्ञुँडु नगु नेनु मुट्टिनन्तमात्रमुन भगवन्नुतिकिँ गॊऱन्त गल्गुना? कुक्क गतिकिनन्तमात्रमुन शुद्धिकर मगु गङ्गा दितीर्थमु तीर्थमु गाक पोवुना ? पुण्यतीर्थमु मैल पडु नेमो यनि कुक्क मुट्ट देनि दानिदप्पि तीऱु डॆट्लु ? लज्जपडि लाभमु ले दनि भावमु. C 16 श्री वैकुण्ठ स्तवमु गी॥ नन्नु नज्ञुँग नॆऱिँगियु नान लेक हरिचरणरागिणिनि वाणि नादरिन्तु । कुक्क गतिकिन गङ्गकुँ गॊदव गलदॆ सिग्गुपडँ गुक्कु रपिप्तान तग्गु पॆट्लु? अवतारिक- कॊञ्चॆमु चविचूचि नन्दुवलन लाभमेमि ? अनुशङ्ककु समाधानमु. श्लो॥ देवस्य दैत्यमधनस्य गुणे ष्वियत्ता सङ्ख्या च वाङ्मनसगोचर मत्यभूताम् । प्येव म ण्वपिच तत्र ममार्तिशान्त्यै कीटस्य तृष्यत उदन्वति विप्रुषालम्. प्रति– दैत्य, मथनस्य देवस्य
8 = राक्षसुलनु संहरिञ्चुनट्टि, क्रीडादि गुणविशिष्टुँ डगु नारायणमू यॊक्क, गुणेषु==कल्याण गुणमुलन्दु, सङ्ख्या= इन्नि अनु लॆक्कयु, इयत्ता च = ऒक्कॊक्क गुणमु इन्त प्रमाणमु गलदि यनुकॊलतयु, वाङ्मनस, गोचरम् = वाक्कुनकु मनस्सुनकुनु विषय मगुटनु (अन्दुपाटुनु) अत्यभूताम्=अतिक्रमिञ्चिनवि एवम् अपि= इट्लुन्ननु, तत्र=आगुणमुलन्दु, अणु + अपि= ऒक गुणमुलो एक देश मैननु, मम=नायॊक्क, आ आर्ति शान्त्यै= बाधनु (दप्पिकनु) शमिम्पँ जेयुटकॊऱकु, अलम् = चालुनु. (ई विषयमुन दृष्टान्तमु निच्चु चुन्नारु) तृष्यतः=दप्पिक गल, कीटस्य= पुरुगुनकु, उदन्वति समुद्रमुनन्दु, विप्रुसा= नीटि बॊट्टु चेत,
अलम् = चालुनु. 9श्री वै कुण्ठ स्तवमु विशेषमु– ’ दै त्यमथ नस्य ’ दैत्यमथनस्य 17 अनु पदमुचेत भगवानु नकु हेय प्रत्यनीकत्वमु, ‘देवस्य’ अनु पदमुचेँ गल्याणगुणगणाकरत्वमु सूचिम्पँ बडिनवि. . आ ता॥ दैत्यमधनुँडुनु क्रीडादि गुणविशिष्टुँडु नगु श्री भग वानुनि गुणमुलन्दलि सङ्ख्ययु नेकैकगुणमुनन्दलि यिय त्तयु (मितियु) वाक्कुनकु मनसुनकु नन्दवु. (अट्टिचो साकल्यमुगँ दद्गुणानुभव मेरिकिनि साध्यमु गादनि भावमु) ऐननु ना यार्ति शमिञ्चुट का गुणमुललोनि यॊक नलसैननु जालुनु, ऒक चिन्नि पुरुगु दप्पि तीर्चुटकु मुन्नीटि नीटिचुक्क येनियुँ जालुनु गदा! गी॥ दनुजहरुँ डैन देवु नुदा तसुगुण सङ्ख्ययु निय त्त वाज्मानसमुल दाँटु ऐननु मदा र्तिशान्ति कॊक्कणुवु चालुँ बुरुगुतृषँ दीर्घ जलधिशीकरमॆ कॊल अवतारिक :- शक्त्यतिशय, रचनामाधुर्य चातुर्यवन्तु लगु महनीयुल के स्तोत्राधिकार मुण्डवलॆननु शङ्कनु परिहरिञ्चु चुन्नारु. (3) 9 18
वैकुण्ठस्तवमु
श्लो॥ प्रेमार्द्रविह्वलगिरः पुरुषाः पुराणा स्वां तुष्टुवु र्मधुरिपो ! मधुरै र्वचोभिः1 वाचो विडम्बन मिदं मम नीचवाचः क्षान्तिस्तु ते सविषया मम दुर्वचोभिः I प्रति– ( हे) मधुरिपो! 10 मधुवनु रक्कसुनकु विरोधि नगुनो वैकुण्ठुँडा ! प्रेम, आर्द्र, विह्वल, गिरः भक्तिचे द्रविञ्चिनवि गनुकने तॊट्रुपडुचुन्न ‘वाक्कुलुगल, पुराणाः प्राचीनुलगु, पुरुषाः’ पुरुषुलु (भगवद्यामुन मुनिप्रभृतुलु) मधुरै 8 = तिय्यनि, वचोभिः : माटलचेत, त्वाम् = निन्नु तुष्टुवुः = स्तुतिञ्चिरि नीचवाचः - नीचमैन वाक्कु गल, मम=नायॊक्क, इदम् = ई स्तोत्रमु, वाचो विडम्बनम्= प्राचीनुल वाक्कुल कनुकरणमु, (दीनिचे वारिकि सैतमु नगुँ बाटनि फलितमु) दीनिकिँ बरिहार मॆट्लन- मम – नायॊक्क, दुर्वचोभिः = दुष्ट वाक्कुलचेत, ते= नीयॊक्क, कान्तिः - ओर्पु, सविषया= विषयमुगलदि, भवति अगुचुन्नदि. (लाभमुतोँ गूडिनदनि भावमु,) लेनिचोँ दमयन्ति निर्विषयमै यप्रसिद्ध मगुननि तात्पर्यमु. तात्पर्यमु-= ओ मधुसूदना ! प्रेमार्द्रम्बुलुनु भक्त्यु द्रेकम्बुचे बदपदम्बुन स्खलितम्बुलुनगु मधुर वाक्षुलचेत भगवद्यामुन प्रभृतुलु निन्नु स्तुतिञ्चिरि. नीचवाक्युँडनगु नेनु चेयु नी स्तुति या पूर्वुल श्री वैकुण्ठ स्तवमु 19 वाक्कुल कनुकरणमै वारिकिँगूड नगुँ बाटुनु गल्पिञ्चि ननु ना दुर्वाक्कुल विनँ गलिगिन नी क्षमागुणमुनकु मञ्चि निदर्शन मगुचुन्नदि. उ॥ प्रेमरसार्द्रमुल् स्खलन a पेशलमुल्" मधुरम्बु लैनवाक् सोममुलन् बुराणपुरु षुल् नुतियिञ्चिरि निन्नु, नीचवा ग्धामुँड मत्कृत स्तवमु तद्वचनैक विडम्बनम्ब पो! मामक दुर्वचश्रुति र मापति! नी क्षम नुग्गडिञ्चॆडिन् . 10 अवतारिक := प्रकृतमु वेदान्त वाक्यार्थानुसारमु सर्वेश्व रुनि स्तुतिम्पँ बोवुचु तदितर दर्शनमुलु निन्दिञ्चुचु श्रुतिनि भूषिञ्चुचुन्नारु. आज्ञात वात्रभवती विदिता त्रयी सा तां हि प्रमाण मुपजग्मु रतीन्द्रियार्थे ! आभासभूय मभियां त्यपराणि दोपै रेषा तु दोषरहिता महिता पुराणी !। प्रति–. अत्रभवती 11 पूजनीययगु, सायिआ, त्रयी= वेदत्रयि (ऋग्यजुस्साम वेदमुलु मूडुनु.) तव— नीयॊक्क, आज्ञा=शासनमुगा, विदिता – प्रसिद्ध मैनदि. ताम् = आ वेदत्रयमुनु, अतीन्द्रिय + अर्थ = इन्द्रिय श्री वैकुण्ठ स्तवमु मुलकु गोचरिञ्चनि विषयमुनन्दु, (वैदिकाः वेद प्रमाणमुनुगा प्रामाण्यवादुलु) प्रमाणम् (यथार्थज्ञानमुनु गलिगिञ्चु दानिनिगा) उपजग्मुः =अङ्गी करिञ्चिरि. अपराणि वे देतरमुलगु प्रत्यक्षानु मानोपमानादि प्रमाणमुलु, दोषैः=दोषमुल चेत, आभासभूयम् आ भासत्वमुनु, अभियान्ति पॊन्दुचुन्नवि; पुराणी – नित्यमु, (कनुकने) दोष रहीता पौरुषेय प्रयुक्तभ्रम विप्रलम्भादि दोषमुलु लेनिदियु, अगु एषा, तु ई वेदत्रय ई मन्ननो, महीता=(प्रमाणमु लन्निण्टिलो) गॊप्पदि- कनुक श्रुत्यनुसारमे स्तुतिम्प वलयुननि भावमु. विशेषमु– ‘आज्ञा तवा त्रभवती विदिता त्रयी सा’ ‘श्रुति स्मृतीषमै वाळ्ले ’ श्रुतिस्मृतुलु नाज्ञावचनमुलनि भगवानुनिसू क्ति. तात्पर्यमु– पूजनीयमुलगु ऋग्यजुस्साम वेदमुलु नी याज्ञा रूपमुलुगाँ ब्रसिद्धमुलु कावुन “वैदि को त्तमु लतीन्द्रिय विषयमुलन्दु वानिने प्रमाणमु लुगा नङ्गीकरिञ्चु चुन्नारु. वेदेतरमुलगु प्रत्यक्षानु मानादुलु पुरुषदोषमुलचे नॊकप्पुडु दुष्टमुलगु चुण्डुनु, नित्यमु नपौरुषेयमुनगु वेदमुनन्दु भ्रमविप्रलम्भादि दोषमुलु कवकाशमु लेदुगावुन नदि प्रमाण श्रेष्ठमु. कनुक वेदानुगुणमुगा स्तुतिम्प वलयुनु. श्री वैकुण्ठ स्तवमु म॥ भवदीयम्बगु नाज्ञ पूज्यतनु नाज्ञ पूज्यतम मा प्राँबल्कु, विज्ञुल् प्रमा णवरं बन्दु रतीन्द्रयार्थमुल नॆ न्नन्, दक्कु मानम्बुलन् दवुलुन् दोष, मपौरुषेय मगुवे दम्बन्दुँ दादृक्षव . कृवचोदोषमु व्योमपुष्प मगुट श्रेष्ठ प्रमाणं बिदे. श्लो॥ अन्तर्हितो निधि रसि त्व म शेषपुंसां लभ्यो सि पुण्यपुरुपै रितरै र्दुराप्य । तत्र त्रयीं सुकृतिनः कृतिनो भिजग्मुः ‘बाह्येषु बाह्यचरितैरित रैर्नि प्रति– त्वम् = नीवु, अशेष पुंसाम् 11 12 सम स्त पुरुषुलकु गनिवि, असि = अगु ( योगुलकु सैतमु - अनि भावमु.) अन्तर्हि अतीन्द्रियमगु (कानरानि) निधिः चुन्नावु, पुण्यपुरुषैः = पुण्यात्मुलचेत, लभ्यः पॊन्दँ दगिनवाँडवु, असि= अगुचुन्नावु, इतरै 8= अन्युलचेत (पापात्मुलचेत) दुरापः = दुःखमुचेत, नेनियुँ बॊन्द शक्यमु गानिवाँडवु, (असि चुन्नावु) तत्र—नी स्वरूपज्ञानविषयमुन, सुकृतिनः = पुण्यात्मुलगु, कृतिनः पण्डितुलु, त्रयीम् वेद त्रयमुनु, अभिजग्मुः बाह्यचरि तै 8 = शास्त्रनिषिद्धचरित्रगल, इत रैः प्रमाणमुनुगाँ बॊन्दिरि, श्री वैकुण्ठ स्तवमु पामरुलचेत, बाह्येषु = वेदविरुद्धविषयमुलन्दु, निपे तेपडुट यगु चुन्नदि. विशेषमु– ‘त्वं अन्तर्हितो निधि रसि’ अनि भगवानुं डगु वैकुण्ठुनि अतीन्द्रियमगु निधिगा वर्णिञ्चुट चेत नानाशास्त्रमुलु सिद्धस्वरूपमगु ब्रह्मवस्तुवुने प्रति पादिञ्चु चुन्नवि. अनि याशं कापरिहार परसमन्वयाधि करणार्थमु सूचित मगुचुन्न दनि सम्प्रदाय विदुलु तॆलुपुचुन्नारु. ‘लभ्यो सि’ ‘लभि’ धातुवु प्रा व्यर्थ कमु गान ’ ये गत्यर्थका स्ते ज्ञानार्थकाः ’ (गत्यर्थक धातुवु लॆल्लनु ज्ञानार्धकमुलु) अनु न्यायमुचेत सि’ तॆलियँ दगिनवाँड वगु चुन्नावु अनि यर्दमु चॆप्पिकॊनवलॆनु. तात्पर्यमु-= ओ वै कुण्ठ मूर्ती ! नीवु समस्त पुरुषुलकु सतीन्द्रिय मगु निधिवि. पुण्यात्मुलचेतँ दॆलियँ दगिन वाँडवु. ऎन्त तन्नुकॊनिननु पापात्मुलु निन्नुँ जेर लेरु, निन्नुँ दॆलियुटकुँ बुण्यात्मुलगु ज्ञानुलु ऋग्यजुस्साम वेदमुलनु प्रमाणमुगा कृतार्थुलैरि. वेदनिषिद्धाचरणमु गल पामरुलु वेद बाह्यमु लगु तामसशास्त्रमुल नवलम्बनमुँ जेसि कॊनि नीकु दूरुलै पतितु लगुचुन्नारु. गी निखिल जनुल कतीन्द्रियनिधिवि नीवु पुण्यकृल्लभ्युँडवु दुरावुँड वितरुल काश्रयिन्तुरु श्रुतुल नि न्नरय विज्ञु लन्यु लसदागमम्बुलयन्दुँ बडिरि. नङ्गीकरिञ्चि वैकुण्ठ स्तवमु ( भङ्ग्यन्तरमु) 23 शा॥नीवन्तर्हितमै वॆलिङ्गॆडु महा निक्षेप राजम्ब वो देवा! चेतनकोटि कॆल्ल, सुकृतुल् धीरुल् निनुन् गान्तु, रा देवानां प्रियु लुण्ड्रु दव्वुगनॆ, नीदि व्याकृतिञ्जूड वि द्यावन्तुल् त्रयि नाश्रयिञ्चि, रितूरुल् तद्भिन्नमार्गा ध्वगुल्. अवतारिक :- इतरुलु गूडँ दमतम मतमुन कनुगुण मुगा वेदमु ने प्रमाणमुनुगा नुपन्यसिञ्चुचुन्ना रे! यनु शङ्ककुसमाधानमु नीक्रिन्दि श्लोकमुनँ जॆप्पँ बडुचुन्नदि. श्लो॥ चित्रं विधे र्विलसितं त्विद माविरस्त्री दुष्टात्मना मय महो ! किल दुर्विपाकः । यत् केचि दत्रभवतीं श्रुति माश्रयन्तो 2 व्यर्थे कुदृष्टि विनिविष्टधियो विनष्टाः ॥ 13 प्रति-– इदम्=ई, विधेः = दै वमुयॊक्क, विलसितम् - विला समु, चित्रम्=आश्चर्यकरमैनदिगा, आविरस्ति—प्रका शिञ्चुचुन्नदि, यत् = ऎन्दुवलन, केचित्— कॊन्दऱु अत्रभवतीम् — पूज्युरालुगु, श्रुतिम्
वेदमुनु, आश्रयन्तः+ अपि=प्रमाणमुगा अङ्गीकरिञ्चु चुन्ननु, अरे=पदार्थमुनन्दु, वाक्यार्थमुनन्दु, तात्पर्यार्थमु नन्दुनु, कुदृष्टि, विनिविष्णु, धियः = अपसिद्धान्तमुलन्दु विशेषमगु पट्टुदलतोँ गूडिन बुद्धिगलवारै, विन चॆडिपोयिरो ! (तत् = अन्दुवलन) दुष्टात्म श्री वैकुण्ठ स्तवमु चॆडुमनसुगलवारियॊक्क, अयम् $24 नाम् दुर्विपाकः = दुरदृष्ट परिपाकमु, आश्चर्यकरमैनदि गदा! विशेषमु– ‘दुष्टु + आत्मनाम् अहॆू, किल ई अनेक जन्ममुलनुण्डि वॆण्टाडिन कल्मषमुलचे दूषितुलैनवारिकि, ‘केचित्’ कॊन्दऱु, पेर्कॊनुटकु सैत मनर्हु लगु प्रच्छन्न बौद्धु लनि भावमु. लोपल शून्यवादुलै बैटिकि ब्रह्मवादुलवलॆँ गन्पडुवारु प्रच्छन्न बौद्धुलु. विनष्टाः प्राप्य वस्तुवुनु चेरकच्युतु लगुवा रनि भावमु. ‘नतु मा मभिजानन्ति त त्वे नैतत् च्यवन्ति ते’ (वारु नन्नुँ बरतत्वमुनुगाँ दॆलिसिकॊनक च्युतु लगु चुन्नारु.) तात्पर्यमु-= दै वविलासमु कडु चित्रमैनदि. ऎट्लनँगा- नामनिर्देशमुनकुँ गूड ननर्हुलगु कॊन्दऱु प्रच्छन्न बौद्धुलु परम पूज्यमगु श्रुतिनि ब्रमाणमुगा नङ्गीकरिञ्चियुँ बदार्थ, वाक्यार्थ, तात्पर्यार्थमुलन्दु नपसिद्धान्तमुलँ बट्टुदलतो नॊनर्चुचुँ बरतत्वमुनु गानक च्युतु लगुचुँ जॆडिपोवुचुन्नारु. आहा! अनेक जन्मानुवृ त्तकिल्बिष दूषि तात्मुल दुरदृष्ट परि पाळ्लमु नेमन वच्चुनु ? श्री वैकुण्ठ स्तवमु म॥ अहह! दैवविलास मे मनुदु न त्याश्चरमुं गॊल्पॆडुन् बहुजन्मावृत दोषदूषितुल दु प्पाकं बिदे! विस्मया वह मौँ, गॊन्दऱु पूज्यया श्रुतिनि भ व्यम्बौ प्रमाणम्बुगा C महिँ बेर्कॊञ्चुँ ददर्थ मॆल्लँ गुदृशुल् मार्तुर् विनाशम्बुकै . . अवतारिक :- वेदमुलोँ गॊन्तभागमुनु ब्रमाणमुगा स्वीकरिञ्चुटवलन वीरिनि वेदबाह्यु लनुट मॆट्लु शङ्किञ्चुकॊनि वेदबाह्युलतोडि 3 पॊसँगुनु ? अनि साम्यमुनु दृष्टान्तमुखमुन दृढपऱुचु चुन्नारु. श्लो॥ बाह्याः कुदृष्टय इति द्वितीये ऒ प्यपारं घोरं तम स्समुपयान्ति न हीक्षने तान् ! जग्धस्य काननमृगै र्मृगतृष्टि केपो ः कासारसत्व निहतस्य च को विशेषः ॥ 14 प्रति– बाह्यः= वेदमुनु प्रमाणमुनुगा सङ्गीकरिम्पनि माध्यमिकादु लगु ना स्तिकुलुनु, कुदृष्टयः = वेदै क ‘देशमुनु व्यावहारिक प्रमाणमुगा नङ्गीकरिञ्चियु नपसिद्धान्तपरु लगु मिध्यावादि प्रभृतुलुनु, इति -ई विधमुगाँ जॆप्पँबडु, द्वितये+अपि इरु तॆगल वादु लुनु, अपारम् =अन्तु लेनि, घोरम् = भयङ्करमगु, (4) *26 वै श्री वैकुण्ठ स्तवमु
तमः=तमोगुणमुनु, समुपयान्ति = पॊन्दुचुन्नारु, तान् = वारिनि, ( बाह्युलनु, कुदृष्टुलनु) न हीक्ष से = (वारु पुट्टुसमयमुन) कटाक्षिम्पवु, (ई विषयमुन दृष्टान्तमुनु जूपु चुन्नारु.) मृगतृप्तिका + ईप्सोः = (दप्पि तीर्चुकॊनुटकु) ऎण्डमावुलनु जेरँ दलँचिनट्टियु, काननमृगैः = (दारिनडुमु) अडवि मृगमु लगु सिंह शार्दूलादुल चेत, जर्धस्य = तिन बडिन वानिकिनि, कासार, सत्व, निहतस्य, च= सरस्सुलोनि जन्तुवुलचेतँ जम्पँ बडिनवानिकिनि (सरोवरमुनु जेरु कॊनि रेवु गानि रेवुलो दिगि नीटिलोँ बडि यन्दलि मॊसळ्ल चेतँ जम्पँबडिन वानिकिनि अनि भावमु) विशेषः = भेदमु, कः=एमिटि ? भेदमु लेदनि तात्पर्यमु. दप्पि तीरकपोवुटलोनु जीवितमुनु गोल्पोवुटलोनु उभयु लुनु समानुलनि तॆलिय वलयुनु. =तिनँ विशेषमु– ‘बाह्यः = वेदमुनु ब्रमाणमुगा नङ्गीकरिम्पनि माध्यमिकादु लगु ना स्तिकुलु, ‘कुदृष्टयः’ अनादि पाप वासनादोषमुचेत दूषितमतुलै वेदमुलोँ गॊन्त भागमुनु व्यावहारिक प्रमाणमुगा नङ्गीकरिं चियु अपसिद्दान्तमु लॊनर्चु मिथ्यावादुलु मुन्नगु वारु. ‘न हीक्ष से तान्’ जायमानदशयन्दु जीवुल भगवन्तुँडु कटाक्षिम्पनिचो ना जीवुलु, ‘घोरं तम स्समुपयान्ति’ घोरमगु तमोगुणमुनु बॊन्दु चुन्नारु.श्री वैकुण्ठ स्तवमु 27 इन्दुलकुँ ब्रमाणमु :- ‘जायमानं हि पुरुषं यं पश्ये न्मधुसूदनः “सात्विक स्स तु विज्ञेयः सवै मोक्षार्थचिन्तक मधुसूदनुँडु जायमानदशलो नुन्न पुरुषुनिँ गटाक्षिञ्चिनचो वाँडु सात्विकुँ डगुननि तॆलियव लॆनु. वाँडे मोक्ष प्रयोजनमुनु गूर्चि चिन्तिञ्चुनु.) ‘पश्य त्येनं जायमानं ब्रह्मा रुद्रोऒथवा पुनः रजसा तमसा चास्य मानसं समभिप्लुतम् (जायमानुँ डगु नी पुरुषुनि ब्रह्म चूचिनचो नीतनि मानसमु रजोगुण विशिष्टमगुनु. रुद्रुँडु चूचिनचोँ दमोगुण विशिष्टमगुनु.) दृष्टान्त विवरणमु– दप्पिगॊनि युदक मु गलदनुकॊनि यॆण्डमावुलकुँ बरुवॆत्तुचु नडिदारिलो नडविमृगमु लगु सिंह शार्दूलादुलचेतँ जम्पँ बडिनवाँडुनु, जलमुगल सरोवरमुनु जेरियुँ बरीक्षकुलु कनिपॆट्टिन मञ्चि रेवुनु विडनाडि मतिभ्रंशमुचे नेदो यॊक प्रमादकरमगु चोट दिगि नीटिलोँबडि क्रूरनकादुल बारिपडि प्राणमुलु गोलुपोयिनवाँडुनु, दप्पिक तीरक पोवुटलोनु, प्राणमुलँ बायुटलोनु समानुले गदा! अट्ले परम प्रमाणमगु वेदमु नप्रमाण मुगाँ दलँचि अप्रमाण मगु प्रतारक वाक्यमुनु प्रमाणमनुकॊनि दुस्समयमुलँ गल्पिञ्चु वेद 28. श्री वैकुण्ठ स्तपमु ‘बाह्युलुनु, परम प्रमाणमगु वेदैक देशमुनु व्यावहारिक प्रमाणमुगा नङ्गीकरिञ्चियुँ दद्वाक्य मुलकु स्वकपोलकल्पितमु लगु विरुद्धार्थमुलँ जॆप्पुचु अपसिद्धान्तमुलकु दारितीयु कुदृष्टुलुनु, तत्वनिर्ण यमु लेकपोवटलोनु अधःपतनमु चॆन्दुटलोनु तुल्युलनि भावमु, ‘तात्पर्यमु : - ओ वैकुण्ठनाथा ! परम प्रमाणमु लगु वेदमुल नप्रमाणमु लनि भाविञ्चु वेदबाह्यु लगु माध्यमिकादिनास्तिकुलुनु, वेदैक देशमुनकु व्यावहारिक प्रामाण्य मङ्गीकरिञ्चियुँ दद्वाक्यमुलकु विपरीतार्थ मुनु वचिञ्चुचु अपसिद्धान्तमुलु लेवँ दीयु कुदृष्टु लुनु, ई रॆण्डु तॆगलवारुनु घोरमगु तमोगुणं बुनु बॊन्दुचुन्नारु. जायमानदशयन्दु वारिनि नीवु कटाक्षिम्पवु, वेदप्रामाण्य मङ्गीकरिम्पनि बाह्यु लुनु, वेदप्रामाण्य मङ्गीकरिञ्चि या वेदमुनकु दुर र्थमुलँ गल्पिञ्चि यपसिद्धान्तुलगु कुदृष्टुलुनु, निन्नुँ दॆलियक चॆडुटलो समानुले यगुचुन्नारु. ऎट्लन– दप्पिँ गॊनि नीरु गलदनि भ्रमिञ्चि यॆण्डमावुलकुँ बरु वॆत्तुचु नडिदारिलो अडवि मृगमुल वातँबडि प्राण मुलँ गोल्पोयिन वानिकिनि, निजमुगा जलमुगल सरो वरमुँ जेरुकॊनि मञ्चि रेवुन दिगक मति भ्रान्तितोँ ग्रूरजलजन्तुवुलु गल रेवुगानि यॊक प्रमादकरमगु श्री वैकुण्ठ स्तवमु ód . 29 स्थलमुन दिगि नीटँ बडि मॊसळ्ळ बारिँ बडि मरणिञ्चिन वानिकिनि भेद मेमिगलदु? दप्पिक तीरक मरणिञ्चुटलो निद्दऱुनु तुल्युले यगुचुन्नारु. उ॥ देवर! वेदबाह्युलु कु दृष्टुलु नाँ बडुवीरि निर्वुरिन् नी वटु चूडँ बोवु, भज नीयमु घोरतमम्बॆ वारिकिन् पोवुचु नॆण्डमावुलकुँ बुट्टिनदप्पि नडम्प वन्यस त्वावळिभ तुण्डु ह्रद मन्दुन नक्रगृहीतुँ डॊक्कटे. अवतारिक :- अ प्लेनि श्रुत्यर्थ निर्णयमुन कुपाय मेमि ? अनुचो नुडुवु चुन्नाँडु. श्लो॥ न्यायश्रुतिप्रभृतिभि र्भवता निसृष्टि र्वेदोपबृंहणविधा वुचितै रुपायैः । श्रुत्यर्थ मर्थ मिव भानुकरै र्विभेज _स्वद्भक्ति भावित विकल्मष शेमुषी काः ॥ 15 प्रति– त्वत् , भक्ति, भावित, विकल्मष, शेमुषी काः यन्दलि भक्तिचेत भावन चेयँबडिनदि गनुकने निष्क ल्मषमैन बुद्धिगल पॆद्दलु, भवता - वैकुण्ठ नाथुँड वगु नीचेत, .. निसृपैकि बृंहणविधौ
इय्यँबडिनट्टियु, वेद + उप वेदमुनु विवरिञ्चु पनियन्दु, 160 श्री वैकुण्ठ स्तवमु उचि तै ः=योग्यमुलगु, उपायैः = साधन मुलगु, न्याय, स्मृति, प्रभृतिभिः = तर्क मीमांसान्याय मुलचेतनु, मन्वादि स्मृतुल चेतनु, इतिहासपुराणा दुल चेतनु, श्रुत्यर्थम्= वेदार्थमुनु, भानुक रै 8=सूर्यकिरणमुलचेत, अर्थम्+इव = घट पटादि पदार्थमुनु वलॆ, विभेजुः = विभागमु नॊनर्चिरि. वि शेषमु– ‘भवता, निसृषैः = नीचे नॊसँगँबडिन, इदि यॆट्लु पॊसँगुनु? एल यन तर्कमु नॊसँगिनवारु कणाद गौतमुलु, पूर्वमीमांस नॊसँगिनवारु जै मिनि, स्मृतुलु ननुग्रहिञ्चिनवारु मनुपराशरा दुलु, इतिहासपु राणमुलँ गटाक्षिञ्चिनवारु वाल्मीकि प्रभृतुलु गदा ! यन्नचो- समाधान मिदि. वैकुण्ठनाथुँडे वेदोपबृंहणमुनकै कणाद गौतम जै मिनि मनु, पराशर, वाल्मीकि प्रभृतुलु नावेशिञ्चि तर्कविमांसास्मृतीतिहास पुराणादुल ननुग्रहिं चॆनु. इप्पुडु ‘भवता निसृष्टिः’ अनुनदि युपपन्न मगुनु. ‘न्यायस्मृति प्रभृतिभिः’ इन्दलि ‘न्याय’ शब्दमु एक ना ळावलम्बि फलद्वयन्यायमुन (ऒक काडकु व्रेलाडु चुन्न रॆण्डुपण्ड्लु- अनु सामॆत ननुसरिञ्चि) तर्कमु (1) पूर्वमीमांस (2) अनि रॆण्डर्थमुलनु जॆप्पु श्री वैकुण्ठ स्तवमु चुन्नदि. तर्क मनगा- ऊह- ‘काकस्य कति दन्ताः’ अनु शुष्क तर्कमुगादु. श्लो॥ पूर्वोत्तराविरोधेन कोऒत्रार्थी 2 भीमतो भवेत् । इत्याद्य मूहनं तर्कः, शुष्क तर्कं तु वर्जयेत्” ॥ 31.9 (कार्मे) (पूर्वोत्तर सन्दर्भमुलकु विरोधमु लेकुण्ड इच्चट ने यर्थ मनुकूलमुगा नुण्डुनु. अनि यूहिञ्चुट तर्कमु गानि शुष्क तर्कमुनु गट्टि पॆट्टवलॆनु.) समीचीनतर्कमु, स्मृतुलु, इतिहासपुराणमुलु वेदोपबृंहकमु लनुटकुँ ब्रमाणमुलु, श्लो॥ आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ! य सर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः ॥ (ऎवँडु वेदशास्त्रमुलकु विरोधिञ्चनि तर्कमुचेत आर्षमगु धर्मोपदेशमु ननुसन्धान मॊनर्चुनो वाँडे धर्ममु नॆऱुँगुनु - इतरुँ डॆऱुँगडु) श्लो॥ वेदशास्त्ररथारूढाः । न्यायखड्गधरा द्विजाः । क्रीडार्ध मपि यत् ब्रूयु स्तत् धर्मः परमो मतः ॥ (वेदशास्त्रमु लनॆडु रथमुल नॆक्कि न्यायमुलु (तर्कमीमांसलु) अनु कत्तुलनु दाल्चि द्विजुलु विला सार्थ मेमि यन्ननु अदि परमधर्म मगुनु) 32 श्री वैकुण्ठ स्तवमु ‘इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्’ (इतिहासपुराणमुल चेत वेदमुनु विवरिम्पवलॆनु.). इत्यादुलु. ‘श्रुत्यर्थ मर्थ मिव भानुकरै र्विभेजुः’ अदिवऱकु गाढान्धकारमुलो विडँदीय शक्यमु गाक पडियुन्न पदार्थजातमुनु चक्षुष्मन्तु लगु पुरुषुलु सूर्य कीरणमुल सायमुतो इदि घटमु, इदि पटमु अनि यॆट्लु विडिविडिगाँ दॆलियुनुरो! यट्ले ओ वैकुण्ठ नाथुँडा ! त्वद्भक्ति भावित विकल्मष शेमुषीकु लगु पुरुषुलु न्यायस्मृति प्रभृतुल सायमुचेत इदि नित्यमु, इदि यनित्यमु, इदि हेयमु (विडिचि पॆट्टँ दगिनदि) इदि युपायमु (स्वीकरिम्पँ दगिनदि) अनि वेऱु वेऱुगाँ दॆलिसिकॊन्दुरु. ईशोकमुनन्दु भगव 3 द्भक्तियु तर्क मीमांसास्मृतीतिहास पुराणमुलुनु समीचीन ज्ञानमुनकु हेतुवुलुगाँ बेर्कॊनँ बडिनवि. तात्पर्यमु- ओ वैकुण्ठपती ! भवत्पादारविन्दमु लन्दलि भक्तिचे भावित मगु ‘निष्कल्मष शेमुषि (बुद्धि) गल ’ पूरुषुलु नीचे ननुग्रहिम्पँबडि वेदविवरण कुपाय भूतमु लगु तर्क मीमांसास्मृतीतिहासपुराणमुल चेत श्रुत्यर्थमुनु सूर्यकिरण प्रभचेत घटपटादि पदार्थमुनु मुनु वलॆ विडिविडिगाँ दॆलिसिकॊनुचुन्नारु. वैकुण्ठ स्तव मु च भव दमलाङ्घि भ क्तिरस भावित पावित शेमुषीपि के षविलसितुल् त्वदीयकृप सङ्गतमुल् श्रुतिपोषकम्बु लौ विविधनयस्मृति प्रभृति विश्रुतवा क्तति वैदिकार्थ व सुविदितमुं बॊनर्चॆदरु सूर्यकरम्बुल वस्तुवुं बलॆज्. 33 अव तारिक :- वेदार्थ निर्ण यसाधनमुललो भक्तिये प्रधान साधन मनि दृढपऱुचुटकु व्यति रेक मुखम्बुन दृष्टान्त मॊसँगु चुन्नारु. श्लो॥ येतु त्वदं सरसीरुह भक्तिहीना स्तेषा मविभि रपि नैव यथार्धबोधः । पित्तघ्न मञ्जन मनाप्नुषि जातु नेत्रे नैव प्रभाभि रपि शङ्ख तत्वबुद्धि ः ॥ 16 प्रति– ‘ये, तु = एपुरुषु लैते, त्वत्, अण्ड्रि, सर सीरुह, भ क्ति, हीनाः = नी पादारविन्दमुलन्दु भ (5) 84 वैकुण्ठ स्तवमु लेनिवारो ! तेषाम् == वारिकि, अमाभिः ई पै नि यथार्थबोधः पि न्यायस्मृतीति हासपु राणादुलचेत, समीचीन मगु ( मञ्चि) ज्ञानमु,
न+एव : नैव कलुगने कलुगदु. नेत्रे— कन्नु, पि त्तघ्नम् = पैत्यमुनु बोँगॊट्टु, अञ्जनम्=काटु कनु, अनाप्नुषि = पॊन्दनिदि काँगा, प्रभाभिः अपि पूर्वोक्तमुलगु सूर्यकिरण कान्तुल चेतँ गूड, शङ्ख, सितत्व, बुद्धिः : शङ्खमु तॆल्लनिदियनु बुद्धि, जातु= ऎन्नँटिकिनि (ऒकप्पुडुगूड) नैव = (न+ एव) कलुगसे कलुगदुगदा ! विशेषमु– न+एव इच्चट एव कारमु प्रसिद्धिनि सूचिं चुनु, तत्वज्ञानमुनकु भ क्ति प्रधान साधनमु, अदि लेक पोवुटचे नितर साधनमु लॆन्नि युन्ननु यथार्थज्ञानमु गलुगँ जालदु. तात्पर्यमु :- ओ वैकुण्ठनायका ! ऎवरिकि नी पादारविन्द’ मुलन्दु भक्ति गलुगदो वारिकि ई तर्क मीमांसा स्मृतीतिहासपुराणादुलचे यथार्थज्ञान मॆन्नँटिकिनि गलुगँ बोदु. पैत्यरोगमु नडञ्चु काटुकनु कण्टि कुप योगिम्पकुन्न चो नॆन्नँटिकि नातनिकि नॆन्तसूर्यकिरण प्रभ युन्ननु शङ्खमु तॆल्लनिदि यनु निश्चितज्ञानमु गलुगदु. ’ वैकुण्ठ स्तवमु (पैत्यरोगिकण्टिकि शङ्खमु पच्चगाँ गन्पडुनु.) उ॥ वारिजनाभ ! यॆव्वरु भ वच्चरणाम्बुजभ_क्तिहीनुलो ! वारल किट्टिसाधनल वल्ल जनिम्पदु तत्वबोध, मे तीरुनँ गल्गुशङ्ख मदि तॆल्लन यन्न मनीष पैत्यरु ग्वारक मञ्जनं बिडक कण्टिकि वेवॆलुँ गॆन्त वॆल्गिनन्. श्लो॥ वेदार्थधी स्वयितु भक्तित एव लभ्या यावा न्हि यश्च भगव न्नसि तत्वत स्त्वम् । ज्ञातुं तथा भुवनभावन ! वेदवेद्यं द्रष्टुं प्रवेष्टु मपि भ क्तित एव शक्यः ॥ (ई श्लोकमु व्याख्यान ग्रन्थमुन लेदु.) प्रति– ( हे) भगव ! 35 17 षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नुँड नगु ओ वैकुण्ठनाथा ! तत्वतः = यधार्थमुगा, त्वम् नीवु, यावाळ चुन्नावो !
ऎन्तटि वाँडवुगा, असि = अगु ज्ञातुम् यः च ऎवँडवुगा, असि तॆलिसिकॊनुटकु, वेद, अर्थ, यॊक्क अर्थज्ञानमु, त्वयि=नी यन्दलि, भक्तितः एव - भक्ति वलन ने, लभ्या = पॊन्दँ दगियुन्नदि. अगु चुन्नावो ! မိုး वेदमुल 36 वैकुण्ठ स्तवमु (हे)भुवन भावन ओ जगज्जनकुँड वगु ओ वैकुण्ठपती! तथा = अट्ले, वेद वेद्यम् - वेदमुलचेँ दॆलियँ दगिन = (त्वाम् = निन्नु) द्रष्टुम् चूचुटकुनु, प्रवेषुम्, अपि= प्रवेशिञ्चुटकुनु, भक्तितः, एव = भक्ति वलनने, शक्यः = नीलगुचुन्नदि. विशेषमु :- ‘भक्त्या त्वनन्यया शक्य अह मेवंविधो र्जुन ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ! गीता वचनमु) परन्तपुँड वगु नोयर्जुना ! विश्वरूप मुनु दाल्चिन यिट्टि नन्नु यथार्थमुगाँ दॆलिसिकॊनुट कुनु, दर्शिञ्चुटकुनु, प्रवेशिञ्चुटकुनु, अनन्य मगु भक्तिचेत ने शक्य मगुनु. अनि भावमु. दीनिचेत भ क्ति प्रभावमु वॆल्लडि यगु चुन्नदि. अन्दुचेतने श्रीभ सञ्जीवनी सम्पादकु लगु पूज्यश्री दास शेषुल वारु मुखपत्रमुनं दे ‘भ क्ति रेवैनं गमयति’ (भक्तिः एव = भक्तिये गीतललोँ जॆप्पिन यनन्य भक्तिये, एनम् = ई स र्वेश्वरुँ डगु वैकुण्ठनाथुनि, गमयति= पॊन्दिञ्चुचुन्नदि. ‘भक्ति `रे वैनं दर्शयति’ भक्तिः एव = भक्तिये, वीनम् = ई वैकुण्ठपतिनि, दर्शयति
= चूपिञ्चु चुन्नदि. परमपुरुषुँ डगु ‘भक्तिवशः पुरुषः’ पुरुषः वैकुण्ठनाथुँडु, भक्तिवशः = भक्तिकि वश्युँडु. अनि घण्टावैकुण्ठ स्तवमु 37 पथमुगाँ जाटु चुन्नारु. ‘भक्त्या तुष्यति केशवः’ भक्तिचेतने भगवानुँडु सन्तोषिञ्चुनु, ‘मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारन! इत्यादु ली श्लोकमुन कुपोद्बलकमुलु. तात्पर्यमु :- षड्गुणेश्वर्य सम्पन्नुँड नगु ओ वैकुण्ठपती! नीवु निजमुगा ऎटुवण्टिवाँडवो! यॆन्तटिवाँडवो ! तॆलिसिकॊनुटकुँ गावलसिन वेदार्थज्ञानमु नी यन्दलि भक्तिवलन ने लभिम्पँ दगियुन्नदि. ‘न ह्यासुर प्रकृत यः प्रभवन्ति बोद्धुम्’ अन्नट्लु नीयन्दु भक्तिलेनि यसुर प्रकृतुलकु अदि यगम्यगोचर मनि ‘एव’ अव्ययमु चॆप्पुचुन्नदि. जगज्जनकुँडा ! अश्लेट्ले वेद वेद्युँड नगु निन्नु दर्शिञ्चुटकुनु प्रवेशिञ्चुटकुनु भक्तिवलनने शक्य मगु चुन्नदि. उ! ई वॆटुवण्टिवाँडवो ! म तॆव्वँडवो! निज मोजगत्पती ! पावनमूर्ति! वेदमुलु पल्कुँ, ददर्थमु नीदु भ क्ति ने भावमुनन्दुँ दट्टु ननु भाव्यमु नीपदभक्ति ने जग द्भावन ! नीदुदर्शन सु भाग्यमु नीदुतनूप्रवेशमुन् . 38 वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ तत्वार्थ तत्पर परश्शत वेदवाक्यैः सामर्थ्यतः स्मृतिभि रप्यध तादृशीभिः । त्वा मेव तत्वपर सात्विक सत्पुराणै र्देवज्ञधीभि रपि निश्चिनमः परेशम् ॥ 18 प्रति– तत्वा…वाक्यैः - तत्व = नारायणशब्दमुयॊक्क (‘तत्वं नारायणः पर’ अनु श्रुतिवलस) अर्थ = अर्थ मगु श्री वैकुण्ठनाथुनियन्दु, तत्पर = तात्पर्यमु गल, परश्शत वन्दलकु मिञ्चिन अनन्तमु लगु) वेद नाक्यैः = वेद वाक्यमुल चेतनु, तादृशीभिः = अट्टि वेदो कवि शेषण विशिष्टमु लगु, स्मृतिभिः = स्मृतुल चेतनु, सामर्थ्यतः = श क्तिवलननु, तत्व, पर, सात्विक, सत्, पुराणै ः = विष्णुपरमुलु गनुक ने सात्विकमुलुनु श्रेष्ठमुलु नगु भागवतादि पुराणमुलचेतनु, दैवज्ञ धीभिः अपि = परदैवमु नॆऱिङ्गिन पराशर, पराङ्कुश, मुनिप्रभृतुल युप देशमुल चेतनु गूड, त्वाम्, एव, = निन्ने, पर+ ईशम् चेतनाचेतनमुलकु नियं
तनुगा, निश्चीनुमः = निश्चयिञ्चुकॊनु चुन्नामु. विशेषमुलु– ‘तत्वार्थ, तत्पर, परश्शत, वेदवाक्यैः’ तत्वार्थ मनँगा ? नारायणमूर्ति ‘तत्वं नारा यणः परः’ अनुश्रुति यी विषयमुनँ ब्रमाणमु. वेदमु लन्निण्टिकि नारायणमूर्तियन्दे तात्पर्यमु, तात्पर्यमुनु निर्णयिञ्चु लिङ्गमुलुगु ‘उपक्रमोप वैकुण्ठ स्तवमु 39 संहारा वभ्यास्को पूर्वताफलम् अर्थवादोपप ल्ती च लिङ्गं तात्पर्य निर्णये’ अनि चॆप्पँबडु उपक्रमोप संहारादि षड्विध तात्पर्यलिङ्ग मुलु नारायण मूर्तियन्दे कलवु. कनुकने ‘वेदैश्च सरै सर्वै रह मेव वेद्यः’ अनियु. ‘वेदे रामायणे चैव पुराणे भारतेतथा आदा वन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते’ इत्यादि प्रमाण इत्यादिप्रमाण वचनमुलु पॊसँगुचुन्नवि. ‘सामर्थ्यतः’ - सामर्थ्य मनँगा ? प्रतिपादितार्थमुनकु अविरुद्धमुलगु नर्थान्तरमुलनु बेर्कॊनुट. ‘तत्वपर, सात्विक, सत्पुराणिः’ विष्णुपरमु लगुपुराण मुलु सात्विकमुलु, पुराणान्तरमुलकण्टॆ श्रेष्ठमुलु ननि भावमु. इन्दुकुँ ब्रमाणमुलु- ‘सात्विके ष्वथ कल्पेषु माहात्म्य मधिकं हरेः’ ते ष्वेवयोगसंसिद्धा गमिष्यन्ति पराङ्गतिम् अग्ने श्शिवस्य माहात्म्यं ताम’सीषु प्रकीर्तितम्, राजनेषु च कल्पेषु अधिकं ब्रह्मणो विदुः ॥’ इत्यादुलु. म॥ परतत्वार्थ निरूपणम्बुन सता त्पर्यम्बुलौ तच्छतो त्तर वेदोक्तुलचे, स्मृतिप्रतति चे तन्, श क्तिसम्पत्तिचे, 40 वैकुण्ठ स्तवमु हरिँ गॊण्डाडुटँजेसि सात्विकमुलौ नम्मेल् पुराणम्मुलस्, गुरुसूक्तिस्, निनु निर्णयिञ्चिति मी वै कुं ठेश ! स र्वेशुँगान् . अवतारिक :- ईश शब्दमु देवतान्तरमुनन्दुँ मगुट चेत भगवद्वाचक मॆट्लगुनन्न शङ्क श्लोकमुचे निवारिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ अन्यत्र तु क्वचन शेचि दि हेशशब्दा ल्लोकप्रसिद्धि मुपगम्य त विूश माहुः । तैळ्ळ प्रसिद्धिविभवस्य समूल तायै ग्राह्या त्रयी त्वयि तु स्काच्युत ! सम्मुखीना ॥ प्रति :- केचित्तु कॊन्दऱन्न नो, इह क्वचन = कॊन्नि ग्रन्थमुलन्दु, अन्यत्र रमुनन्दु, ईश, शब्दात् लोक, प्रसिद्धिम्
ब्रसिद्ध नी क्रिन्दि 19 इक्कड, देवतान्ति ईशशब्दप्रयोगमुवलन, लौकिक मगु प्रसिद्धिनि, उपगम्य अङ्गीकरिञ्चि, तम् आ देवतान्तर मगु रुद्रुनि, ईशशब्दमुन कर्धमुनुगा, आहुः ईशम् चॆप्पु चुन्नारु, तैः, च = आ वादुलचेत, प्रसिद्धिविभवस्य = प्रसिद्धि प्राचुर्यमु यॊक्क, समूलतायै = (प्रसिद्धि प्रमाणमूलमा! कादा! अनु शङ्क कलुगँगा) प्रामाण्यमुकॊऱकु, त्रयी=वेदत्रयमु, ग्राह्या= प्रमाणमुगा स्वीकरिम्पँ दगियुन्नदि, सातु = आवेद वैकुण्ठ स्तव मु 41 त्रयि यन्ननो! (हे) अच्युत ! = च्युतिलेनि यो वैकुण्ठपती! त्वयि = नी यन्दु, सम्मुखीना = अभि मुख्यमु गलदि (भवति = अगुचुन्नदि . देवतान्तर मुनँ गा दनि भावमु). विशेषमुलु– ‘अन्यत्र = ईशशब्दात्’ ‘शम्भु रीशः पशुपतिः’ अनि यमरकोशमु मुन्नगुचोटुलं दनि भावमु. ‘समूल तायै’-लोक प्रसिद्धि प्रमाणमूलमा? कादा? अनुशङ्क राँगा- अप्पुडु लोक प्रसिद्धिकि मूलमु वेद मुलोँ ब्रसिद्धि यनि तेलुनु. आ वेदमु आ वेदमु ‘शाश्वतं शिव मच्युतम्’ अनु नारायणानुवाकमुनन्दु नीके यनु कूलमुगा नुन्नदि. इतरुलगु रुद्रादुलकुँ गादु. कावुन ईशशब्दवाच्युँडवु अच्युता ! नीवे यनि भावमु. ‘अच्युत! ई सम्बुद्धि हेतु गर्भितमु - जाऱु पाटु गलवाँ डीश्वरुँ डॆट्टुलगुनु? मऱियु नी पदमु ‘शाश्वतं शिव मच्युतम्’ अनु श्रुतिवाक्यमुनु ज्ञ प्ति चेयुचुन्नदि. तात्पर्यमु– कॊन्दऱु वादुलु लोकमुनँ गॊन्नि ग्रन्थ मुलन्दु देवतान्तरमुनं दीशशब्दप्रयोगमु लुण्डुट वलन लौकिक वाक्यप्रसिद्धि ननुसरिञ्चि रुद्र देवुनि ’ ईश’ शब्द वाच्युनिगाँ जॆप्पुचुन्नारु. कानी - लोक प्रसिद्धिकि मूल मे मनि विचारिम्पँगा वेद मनि तेलुचुन्नदि. ओ (6) 42 वैकुण्ठ स्तवमु यच्युता ! ‘शाश्वतं शिव मच्युतम्’ इत्यादिक मगु ना वेदमु नीके यभिमुखमुगा नुन्नदिगान नीवे ईश शब्द मुख्यवाच्युँडवु. रुद्रदेवुँडु काँडु. उ॥ कॊन्दऱु वादु लॊक्कयॆडँ गोशमुलन्दुन देवतान्तरं बन्दुँ ब्रसिद्ध मीश पद मारसि यीशपदाभिधेय मा चन्दुरुँ दाल्चु वेलु पन सागिरि, दानिकि मूल मद्दुचो नन्दुगु वेद मञ्चु, नदि यच्युत ! चाटुँद्वदाभिमुख्यमुन्. अवतारिक :- ई श्लोकमुन वैकुण्ठनाथुनियन्दु वेदाभि मुख्यमुनु विशदीकरिञ्चु चुन्नारु. M यः ख ल रणुकरि महतो महीया नात्मा जनस्य जनको जगत श्च यो६भूत् । वेदात्मक प्रणव कारण वर्ण वाच्यं तं त्वां वयं तु परमेश्वर माम नामः ॥ 20 प्रति :- वयन्तु == मेमु, यः =व, (भवान् = नीवु) अणोः = अणुवुकं पॆनु (नलुसुकण्टॆनु) अणुतरः परमाणुवु गानु, महतः महत्तुकं टॆनु, महीयान् अति महत्तु गानु, जगतः = अचेतन मुनकुनु, जनस्य, च = चेतनमुनकुनु, जनकः = वैकुण्ठ स्तवमु 43 तण्ड्रिवि गानु, (उत्पादकुँडवु गानु) आत्मा = अन्त र्यामिवि गानु, अभूत् ऐतिवो, तम् अट्टियु, वेदा… वाच्यम्—वेद, आत्मक वेदस्वरूपमगु, प्रणव ॐकारमुनकु, कारण वर हेतु वगु, पर ‘अ’ कार मनु अक्षरमुनकु, वाच्यम् अर मगु, त्वाम् निन्नु, पर मेश्वरम् मेश्वरुनिगा, आमनामः = आम्नायमुलचेत (वेद मुलचेत) तॆलिसिकॊनु चुन्नामु. विशेषमुलु-_ अणो रणुतरो - महतो महीयान् - ई वि शेषणद्वयमुचेत अणुभूत जीवान्तर्वा प्तियु, महदादिकारण प्रकृतिबहिर्व्याप्तियु विवक्षिम्पँ बडिनवि. वेदात्मक प्रणव कारणवर्ण मनँगा- अकारमु अकारो विष्णुवाचकः– अनि निघण्टुकारुलु तॆलुपु चुन्नारु. ‘अक्षराणा मकार्कोस्मि’ अनि गीत अट्टिवर्ण मुचे वाच्युँडु पै कुण्ठनाथुँडगु श्री महाविष्णुवे. ‘पर मेश्वरम्’ . परो मा यस्मात् सः अनु विग्रह वाक्यमुचे विष्णुवुकण्टॆनु पुरुषकार प्रदात्रि यगु लक्ष्मीये यधिकुरालु अनु श्रीवैष्णव सम्प्रदायमु विव किम्पँ बडुचुन्नदि. 44 वैकुण्ठ स्तवमु स चासौ ईश्वर श्च पर मेश्व रं तम् तनकण्डॆनु लक्ष्मीये यधिकुरालु गाँ गल यीश्वरुँडु पर मेश्वरुँ डनि भावमु. ई श्लोकमुनन्दलि ‘यः खलु’ अनुचोट ‘खलु’ शब्दमु वाक्यालङ्कारार्थमु, ई श्लोकमुनन्दुँ बूर्वार्ध मुन - ‘अणो रणीयान् महतो महीया नात्मा गुहायां निहितो ऒस्य जन्तोः त मक्रतुः पश्यति वीकशो धातुः प्रसादा न्महीमान मीशम् ॥ अनु श्रुतियु - उ त्तराद्धमुनन्दु ‘यद्वेदादौ स्वरः प्रो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः । तस्य प्रकृतिलीनस्य यः पर स्सम हेश्वः ॥ अनुश्रुतियु ‘त मिश्वराणां परमं महेश्वरम् उतामृतत्वस्येशानः
विश्वस्यात्मेश्वरम् ईशानो भूतभव्यस्य इत्यादि श्रुतुलुनु- ‘ईश्वर स्सर्वभूतानां हृद्दे शेर्जुन! तिष्ठति ँअनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकम हेश्वरम् ‘ईशानः प्राणदः प्राणळि वैकुण्ठ स्तवमु 45 इत्यादि स्मृतुलुनु शब्दतःअ र्थतः सङ्ग्रहिम्पँबडिनवि. तात्पर्यमु := ए वेल्पु अणुवुलकण्टॆ नणुतरम्बै मह त्तुलकण्टॆ नति महत्तॆ ईचराचराखल प्रपञ्चमुनकुँ गारणभूतमै अखलान्तर्यामियै युन्नाँडो ! अट्टि ँडो! वेदस्वरूप मगु प्रणवम्बुनकुँ गारणमैन अवर्णमु नकु वाच्य मयिन निन्नु मेमु पर मेश्वरुनिगा वेद मुलचेतँ दॆलिसिकॊनुचुन्नामु. च॥ अणुवुललो नॆवण्डु पर माणुवॊ!, यॆव्वँडु ता महत्तुलन् ब्रणुत महापदार्थ मॊ!, यॆ वण्डु चराचरसर्वविश्वका रणमॊ!, त्रयीमय प्रणन राजद कारप राभि धेयु स द्गुणुँ बर मेशुँगाँ दॆलिसि कॊन्दुमु निन् निगमाळिचेँ ब्रभू ! अवतारिक ;- पूर्वश्लोक मुनँ जॆप्पँबडिन यर्थमुने यिट विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ आत्मेश्वरो2सि न परोस्ति तवेश्वरो सैन्यो प्रती :- विश्वस्य चाधिपती रस्य परायणं च । नारायणाच्युत पर स्वमि हैक एव ब्रह्मादयो. पि भवदीक्ष णलब्दसत्ताः ॥ हे नारायण! ओ नारायणमूर्ती 21 46 अच्युत ! वैकुण्ठ स्तवमु इह = ईलोकमु ऒक्कँडवे, परः =
च्युति लेनिवाँडा ! नन्दु, त्वम् = नीवु, एकः एव श्रेष्ठुँडवु, आत्म + ईश्वरः = चेतनुलकु नियन्तवुनु, अगुचुन्नावु, तव नीकु, अन्यः = इतरुँ असि
डगु, परः
उत्कृष्टुँ डगु, ईश्वरः = नियन्त, न + अ सि लेँडु, विश्वस्य 3 प्रपञ्चमुनकु, अगु अधिपतिः, च = प्रभुवुनु (प्राप्युँडवुनु) असि चुन्नावु; अस्य = ई विश्वमुनकु, परायणं च शरणमुनु (प्रापकुँडवुनु) असि = अगु चुन्नावु, ब्रह्मादयः - अपि ई क्षण, लब्द, सत्याः
पुट्टुवु कलवारु, (भवन्ति विशेषमु :- ‘नारायण’ ब्रह्मादुलु गूड, भवत्, नी दर्शनमु चेतने पॊन्दँबडिन अगुचुन्नारु.) नार + अयन = नारशब्द वाच्युलगु चेतनाचेतनमुलकु अन्तर्यामि यैन वाँडा! अनि व्युत्पत्ति इन्दुकु ब्रमाणमु - “आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः शायदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृत ‘ब्रह्मादयोऒपि भवदी क्षणलब्धसत्ताः ब्रह्म नारायणुनि कुमारुँ डनुटकु ‘यो ब्रह्माणं विदछाति पूर्वं यो वै वेदां श्च प्रहिणोति तस्मै ’ इत्यादुलु प्रमाणमुलु.♡ वैकुण्ठ स्तव मु 47 तात्पर्यमु := च्युति रहितुँडा! चेतनाचेतनान्तर्यामि वगु ओ नारायणमूर्ती! ई लोकमुन नी वॊक्कँ डवे परमोत्कृष्टुँडवु, सर्वनियन्तवु नगु चुन्नावु. अन्युँ डॆव्वँडुनु नीकु नियामकुँडु लेँडु. परुँडुनु लेँडु. ई विश्वमुनकु नीवु प्राप्युँडवुनु प्रापकुँडवु नै युन्नावु. ब्रह्मादुलु सैतमु नी दर्शनमुचे नुद्भूतुलै युन्नारु. ओ वैकुण्ठनाथा ! नी विट्टि सर्वोत्कृष्टुँडवु. उ॥ ईयवनीतलिन् बरुँड वी नॊकरुण्ड वॆ, निन्नु मिञ्चुवाँ डोयॆड लेँडु, विश्वमुन कीशुँडवुस् शरणम्ब वीव, ना रायण ! यच्युता ! हरि ! च राचरसर्वजगन्नियन्त वी वे, यजमुख्यु लॆल्ल भव दीक्षणमात्र समुद्भवुल् प्रभू ! श्लो॥ नित्यः समाभ्यधिक वर्जित ऊर्जित श्री र्नि त्येऒक्ष रे दिवि वसन् पुरुषः पुराणः । सत्यप्रवर्तनकलो जXतो ऒस्य मूलं नान्य स्त्वदस्ति धरणीधर! वेदवेद्यः ॥ 22 48 प्रति-_ हेधरणीधर ! वैकुण्ठ स्तवमु = भूमण्डलमुनु धरिञ्चिन यो वैकुण्ठनाथा ! (त्वम्, एक एव = नी वॊकँड वे) नित्यः = कालापरिच्छिन्नुँ डवुनु; सम, अभ्यधिक, वर्जितः=समा नुँडु, अधिकुँडु, लेनि वाँडवुनु, (वस्तु परिच्चेद रहितुँ डवुनु) ऊर्जितश्रीः = दार्थ्यवतियगु लक्ष्मी गलवाँडवुनु, नित्ये = त्रिकालमुलन्दु नुण्डुनट्टियु अक्ष रे = कालकृतमगु मार्पु लेनट्टियु, दिवि = पर माकाशपद वाच्यमगु (परमपदे = परमपदमन्दु) वसकॊ निवसिञ्चुचु, अस्य = ई, जगतः =
जगत्तु नकु, मूलम् = कारणमैनवाँडवुनु. सत्व, प्रवर्तन, सत्वकार्यमगु पालनमुनु चेयुवाँडवुनु आद्युँडवगु, पुरुषः पुरुषुँ डवुनु करः पुराणः (असि अगु चुन्नावु) त्वत् = नीकण्टे, अन्यः इतरुँडगु, वेद वेद्यः वाँडु, न+अस्ति = लेँडु. वेदमुलचेँ दॆलियँ दगिन विशेषमु– धरणीधर - इन्दु धरणीपदमु वैकुण्ठमुनकुँ गूड उपलक्षकमु (ग्राहकमु) कनुक विभूतिद्वय निर्वाहकुँडा ! यनि यर्थमुनु जॆप्पिकॊन वलॆनु. त्वम् - एकः - एव - ई पदमुलनु ‘आत्मेश्वरो2सि’
- अनु श्लोकमुनुण्डि तॆच्चुकॊनवलॆनु. वेद वेद्यः - नित्य त्वादिगुणविशिष्टुँडै पुराणपुरुषुँडुगा वेदप्रति पादितुँडु अनि भावमु- वैकुण्ठ स्तवमु 49 ई श्लोकमुनं दी क्रिन्दि वाक्यमुलु भाव मनुसन्धिञ्चु कॊन वलयुनु.
- नित्यो नित्यानां चेतन श्चेतनानाम् 2. न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते
- ह्री श्च ते लक्ष्मी श्च पत्न्यौ
- त दक्ष रे वरमे व्योमक्
- यो वेद निहितं गुहायां वरमे व्यसन्
- यतो वा इमानि भूतानि जायं ते
- महान् प्रभु र्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः 8. सर्वे वेदा यत्पद मामनन्ति तात्पर्यमु-= विभूतिद्वय निर्वाहकुँडवगु ओ वैकुण्ठपती! नीवु नित्युँडवुनु (कालापरिच्छन्नुँ डवुनु) नीतो समुँडुगानि यधिकुँडुगानि . लेनिवाँडवुनु, गाढानु र क्त यगु लक्ष्मी गलवाँडवुनु, त्रिकाला बाध्यमुनु कालकृत परिणामरहितमु परमाकाशपदवाच्य मगु परम पदमुनन्दु वसिञ्चुचुन्न पुराणपुरुषुँडवु. ई जगत्तुनकु मूलमैन वाँडवु. सत्वगुण कार्यमगु पालनमुनु निर्वर्तिञ्चुवाँडवुनै युन्नावु. नीकण्टॆ नन्युँडगु वेदवेद्युँडु मऱियॊकँडु लेँडु. (7) 52 वैकुण्ठ स्तवमु
- मातरं पद्ममालिनीं श्रियं वासय. 4. सहस्रशीर्षा पुरुषः तात्पर्यमु :- ओ वैकुण्ठपती ! ए पुरुषुँडु भूत भविष्य द्वर्तमानकालमुल द्वर्तमान कालमुल नुण्डु नॆल्लरकुनु नियामकुँडो! तनकु मऱियॊक नियामकुँडु लेनिवाँडो ! ए पुरुषुँडु श्री राब्धिशायियो ! अनन्तरूपुँडो! त्रिलोक जननि यगु लक्ष्मी देवि ये पुरुषुनकुँ बट्टपुराणियो ! सात्औत्सहस्रशीर्षुँ डगु ना पुरुषुँडवु नीवेगदा ! च ऎवनिनि भूत भव्य भव दीशु ननीशुँग वेद मॆन्नुनो! ऎवँडु सरस्वदालयुँडॊ ! यॆव्वँ डनन्तवतारधारियो ! ऎवनिकि लोकमात यगु निन्दिर यालॊ ! सहस्रशीर्ष मुल् सुविपुलमुल् गलट्टि पुरु षुडवु नीवॆ विकुण्ठनायका ! अवतारिक :- इङ्क वैकुण्ठनाथुँडु पुरुषसूक्त ရွက် पाद्युँ डनियु निट निरूपिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ सर्वश्रुति व्वनुगतं स्थिर मप्रकम्प्यं M नारायणाह्वयधरं त्व मि वान पद्यम् । नू क्तं तु पौरुष मशेष जगत्ववित्रं त्वा मुत्तमं पुरुष मीश मुदाजहार ]] प्रति 24 वैकुण्ठ स्तवमु प्रति :- त्वम् + इव नीव लॆने, सर्वश्रुतिषु वेदमुलन्दुनु,
53 सम स अनुगतम् चॊच्चियुन्नट्टियु, स्थिरम् = (सर्ववादुलचेतनु भगवत्परमुगा) अङ्गीक रिम्पँ बडिनदियु, अप्रकम्प्यम् = (कुतर्कमुलचे देवतान्तर परमुगा) कदलिम्प शक्यमु गानिदियु, नारायण, आह्वय, धरम् नारायणनाममुनु धरिञ्चिनदियु, (पुरुषसूक्तमुनकु नारायणसूक्त मनियुँ ब्रसिद्धि गलदु.)अनवद्यम् निर्दुष्टमैनदियु, अशेष, जगत्, पवित्रम् = समस्तलोकमुलनु पावन मॊनर्चुनदियु, (अगु) पौरुषं, सूक्तं, तु वुरुषसूक्त मन्ननो, ईशम्
सर्वनियामकुँड वगु, त्वाम् निन्नु, उत्तमम् सर्वोत्तमुँड वगु, पुरुषम् पुरुषुनिगा, उदाजहार प्रति पादिं चॆनु. विशेषमु :- ‘सर्वश्रुति ष्वनुगतम्’- ई पुरुषसूक्तमु भगवन्तुनिव लॆने सर्व वेद व्यापियै युन्नदि. इन्दुकुँ ब्रमाणमु. ‘ऋग्वेदे षोडशर्चं स्यात्, यजु स्स्वष्टादशर्चकम् । सामवेदेषु सप्तर्चं, तथा वाजसनेयके ई सूक्तमु ऋग्वेदमुन 16 ऋक्कुलु गल्गि यजु र्वेद मुन 18 ऋक्कुलु गल्गि, सामवेदमुन 7 ऋक्कुलु गल्गि, 54 वैकुण्ठ स्तवमु यधर्व वेदमुन 7 ऋक्कुलु गल्गि, यन्नि वेदमुल ननुगत मैयुन्न दनि भावमु. ‘अनवद्यम् ’ श्रुतिसारांशमै निरवद्य मनि हृदयमु, श्लो॥ वेदेषु पौरुषं नूक्तं धर्मशास्त्रेषु मानवम् । भारते भगवद्गीता पुराणेषु च वैष्णवम् । वेदमुललोँ पुरुषसूक्तमु, धर्मशास्त्रमुललो मनु स्मृति, भारतमुलो भगवद्गीत, पुराणमुललो विष्णुपुरा णमु सारमुगनुक पुरुषसूक्त मनवद्यमनि तात्पर्यमु. ‘त्वा मुत्तमं पुरुष विशमुदाजहार’ ‘वेदाह मेतं पुरुषं महान्तम्’ अनि पुरुषसूक्तमु वैकुण्ठ नाथुनि महापुरुषुनिगा (उत्तमपुरुषुनिगा कण्ठर वेण चाटुचुन्नदि. ‘उत्तमः पुरुष स्वन्यः परमा त्मेत्यु दाहृतः, गीत दानिनि बलपऱुचु चुन्नदि. अनि ‘त्व मिव’ अनु उपमचे नी श्लोकमुनन्दलि विशेषणमु लन्नियुँ बुरुषसूक्तमुनकुनु वैकुण्ठनाथुनकुनु सम न्वितमु लगुचुन्नवि. तात्पर्यमु– ’ ओ वै कुण्ठ नाथा ! नी वलॆने सर्ववेदमुलन्दु ननुगत मैनदियु, सर्ववादुल चेतनु भगवत्परमुगा सङ्गीकरिम्पँ बडिनदियुँ गुतर्कमुलचेत देवतान्तर परमुगाँ गदलिम्प शक्यमु गानिदियु, नारायण वैकुण्ठ स्तवमु 55 सूक्तमनु नामान्तरमु गलदियु, श्रुति सारभूत मगुटचे निरवद्य मैनदियु, समस्तलोकमुलनु बवित्रमु चेयुनदियु नगु पुरुषसूक्तमु सर्वेशुँड नगु निन्नु ‘वेदाह मेतं पुरुषं महान्तम्’ अनि यु त्तम पुरुषुनिगाँ ब्रतिपादिञ्चु चुन्नदि. उ॥ ओ यखि लेश ! चाटुँ बुरु ♡ षो त्तमुगा निनु, नीवलॆन् स्थिरं बै यनवद्यमै श्रुतुल नन्निटँ जॊच्चि यचाल्य मौचु ना रायणनाम मूनुचुँ ज राचर विश्वविशुद्धिदायि या प्यायनकारि भ क्तुलकुँ बौरुषसूक्तमु देवतो त्तमा! श्लो॥ आनन्द मैश्वर मवाङ्मनसावगाह्य माम्ना सीषु शृतगुणो तरितक्र मेण । सोयं तवैव नृषु हि त्व मि हाङ्करात्मा त्वं पुण्डरीक नयनः पुरुष श्च पौष्णः ॥ प्रति– ऐश्वरम् 25 ईश्वरत्व प्रयुक्तमगु, (परब्रह्म मगुटचेँ ब्रापिञ्चिन) आनन्दम् आनन्दमुनु, शत गुण, उत्तरित, क्रमेण नूऱुमानुपानन्दमुल
कण्टॆ नॊक मनुष्य गन्धर्वानन्दमु हॆच्चनु वरु सगा, अवाङ्मनसावगाह्यम् = वाक्कुनकु मनस्सुनकु 56 वैकुण्ठ स्तवमु नन्दनि दानिनिगा (श्रुतयः
वेदमुलु) आम्ना मरल मरल सभ्यास मॊनर्चिनवो! सः = अट्टि अयम्
ईयानन्दमु, तवि + एव = नीदे, हि= ऎन्दु कनँगा, इह ईप्रकरणमुनन्दु, नृषु मा वुलयन्दु, त्वम् = नीवु. अन्तरात्मा = अन्तर्या मिगा, (व र्त से उन्नावु पुण्डरीक नयनः
तॆल्ल सूर्य दामरलवण्टि कन्नुलु गलवाँडवु, पौष्णः मण्डलान्तर्वर्तियगु, पुरुषः च = पुरुषुँडवुनु, अगुचुन्नावु.) त्वम् नीवु (असि
वि शेषमु :- ‘शतगुणो त्तरित क्रमेण ‘पै पानन्दस्य मीमांसा भवति’ अनि तैत्तिरीयानन्दवल्लिलोँ जॆप्पिन प्रकारमु ऒकरि यानन्दमुकण्टॆ मऱियॊकरि यानं दमु नूऱुरॆ ट्लधिक मनि वर्णिञ्चुचु ब्रह्मानन्द मन्नि यानन्दमुलकन्न मिन्न यनि निरूपिम्पँ बडिनदि. मऱियु आनन्दमु ‘अवाङ्मनसावगाह्यम्’ वाक्कुलकु मनस्सुनकु दूर मैनदि. इन्दुकुँ ब्रमाणमु. ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’- ‘त्वं पुण्डरीक नयनः’- कप्यासं पुण्डरीक मिवाक्षिणी तस्य’ - अनु श्रुति इन्दुलकु मूलमु. वैकुण्ठ स्तवमु ‘पुरुषश्च पौष्णः– य एषोन्त रादित्ये’ अनु यी यर्थमुन कनुग्राहकमु. 59 श्रुति तात्पर्यमु :- वेदमुलु नूऱु मानुषानन्दमु लॊक मनुष्यगन्धर्वानन्दमुअनियु, नूऱु मनुष्यगन्धर्वुल यानन्द मॊक देवगन्धर्वानन्द मनियु, नी क्रम मुन शतगुणो त्तरमुगा नानन्दमीमांस यॊनर्चि मैश्वर्यप्रयुक्त मगु नानन्दमु नवाङ्मननसगोचर मनि वर्णिञ्चिनवि. ओ वैकुण्ठपती ! आ यानन्दमु नीदे कदा ! एलयन नी प्रकरणमुनन्दु नीवु समस्तजीवुलकु नन्त र्यामिविगा नुन्नावु. मऱियु ‘कप्यासं पुण्डरीकमि वाक्षणीतस्य’ अनि वर्णिम्पँ बडु पुण्डरीकाक्षुँडवु नीवे. ‘य श्चासा वादित्ये’ अनि सूर्यमण्डलान्तर्वर्तिगा वर्णिम्पँ बडिन पुरुषुँडुवुनु नी वेगदा ! उ॥ ऒक्करि कौतुकम्बुनकु नॊक्करिहर्ष मु नूऱुनूऱुरॆ टैक्कुव यञ्चुँ ब्राँजदुवु लॆन्नुचुँ गौतुक मैश्वरम्बु हृ द्वाक्कुल कन्द दं चनियॆँ दानक मे यदि यन्तरात्म वी वॆक्कतनन् सिताम्बुज द (8) शेख ँडवो रविबिम्ब जृम्भिवो! 58 वैकुण्ठ स्तवमु श्लो!! यन्मूल कारण मबुध्यत सृष्टिवाक्यै रह्मेति वा सदितिवात्मगिराङथ वा तत् । नारायण स्त्विति महोपनिष दृवीति सौ बालिकीप्रभृतयो..प्यमुजग्मु रेनाम् ॥ प्रति– यत् S चेतनु, अथवा
26 ए वस्तुवु; सृष्टिवाक्यैः = सृष्टि कारण बोधक वाक्यमुलगु, ब्रह्मेति = ‘ब्रह्म वा इद मेवाग्र आसीत्’ अनु वाक्यमु चेतनु, सत् + इति, वा = ‘स देव सौम्येद मग्र आसीत्’ अनु वाक्यमु लेक, आत्मगिरा = ‘आत्मा वा इद मेक ए वाग्र आसीत्’ अनु वाक्यमुचेतनु, मूल कार णम् - प्राथमिक कारणमुगा (उपादान कारणमुगा) अबुध्यत तॆलियँबडॆनो ! तत् = आ मूल कारण मगु वस्तुवुनु, (कारणवाक्यमुलचेत ब्रह्म मनियु स त्तनियु आत्मयनियुँ जॆप्पँबडिन या वस्तुवु ननि भावमु) महोपनिषत् महोपनिषत्तु, नारा यणः इति = नारायणुँ डनि, ब्रवीति - चॆप्पुचुन्नदि. सौबालकी प्रभृतयः अपि सुबालोपनिषत्तु मॊद लुगाँगलवि कूड, एनाम् ई महोपनिषत्तुनु, अनु जग्मुः = = अनुसरिञ्चिनवि. वि शेषमुलु– ‘नारायण स्त्विति म हॆूपनिष द्रवीति-’वैकुण्ठ स्तवमु ‘एको ह वै नारायण आसीत् न ब्रह्मा नेशानः (महोपनिषद्वाक्यम्) य आत्मनि तिष्ठन् आत्मान मन्तलो य मयति यमात्मा न वेद एष सर्वभूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः - ( सुबालोपनिषत्) 59 तात्पर्यमु : ‘ब्रह्म वा इद ‘मेवाग्र आसीत्’ इत्यादि सृष्टि कारण वाक्यमुल चेत ए वस्तुवु मूल कारणमु TC दॆलियँ बडॆनो, यामूलकारण मगु व स्तुवुनु महोपनिषत्तु नारायणुँ डनि वाकॊनुचुन्नदि. ई महोपनिषत्तुने सुबालोपनिषत्प्रभृतुलु गूड ननु सरिञ्चुचुन्नवि. कावुन श्रीमन्नारायणमूर्तिये सृष्टिकि मूलकारण मनुट सर्वोपनिषन्मतमु. उ॥ एयदि सृष्टि वाक्यमुल नॆल्ल जगालकु मूल कारणं बै यलरारु नञ्चुँ दॆलि यम्बडॆँ, गा ददि मूल, मॊक्कना रायणुँडे निदान मनि याडॆ महोपनिषत्तु, तक्कुना म्नायशिरम्बु लन्नियु नि नाद मॊनर्चॆनु दानि यर्थमे. 60 वैकुण्ठ _स्तवमु अवतारिक :- पूर्वोक्त मगु नर्थमुने यिट विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ ज्योतिः परं परमतत्व मथो परात्मा ब्रह्मेति च श्रुतिषु यत् परव स्वधीतम् । नारायण स दिति त द्विशिनष्टि काचित् विष्णोः पदं परम मि त्यपरा गृणाति ॥ प्रति :- श्रुतिषु = पलु श्रुतुलयन्दु, परमतत्वम् परतत्वमु, परं, ज्योतिः 27 परज्योति, अथो = तरु वात, परात्मा = परमात्म, ब्रह्म, इतिच = ब्रह्म मनियु, यत् वस्तुवु, अधीतम् तत् = S 99
ए, परवस्तु – सर्वोत्तम मगु अध्ययनमु चेयँबडिनदो,
प्रसिद्ध मगु, तत् परवस्तुवु, नारायण नारायणुँ डनि, काचित् = ऒक युपनिषत्तु विशीनष्टि = विवरिञ्चु चुन्नदि, अपरा युपनिषत्तु, (कठवल्लि) विष्णोः = विष्णुमूर्तियॊक्क, परमम्
उत्कृष्ट मगु, पदम् मऱियॊक स्वरूपमु, इति = अनि, गृणाति = चॆप्पुचुन्नदि. विशेषमु– ‘परवस्तु’ पर - अनुटचेत ‘न तत्सम श्चाभ्य धिक श्च दृश्यते’ अन्नट्लु आ वस्तुवुतो समान मैन दियु अधिकमैनदियु मऱियॊक वस्तुवु लेदनि भावमु. सर्वोत्कृष्टमनि हृदयमु. वस्तु’ अनुटचेत इट्टि युत्कृष्टप दार्थमु लोकमुन नुन्नदिगानि औत्रेष् वैकुण्ठ स्तवमु 61 कमु कादनि रहस्यमु. अधीतम् - सम्प्रदायाविच्छेद रूपमुनँ दॆलियँ बडिनदि यनि भावमु. ‘नारायण _स्त दिति त द्विशिनष्टि काचित्’ नारायणानु वाकमुलो निट्लुन्नदि. नारायणपरं ब्रह्म तत्वं नारायणः परः नारायणपरो ज्योति रात्मा नारायणः परः ‘विष्णोः पदं परम मि त्यपरा गृणाति पद्यत इति पदं उपास्यम् - प्राप्यं च - स्वरूप मि त्यर्थः - उपास्य मनियु, प्राप्य मनियु स्वरूप मनियु पदशब्दमुन कर्थमुलु, करनल्लि यिट्लु वर्णिञ्चुचुन्नदि. ‘विज्ञान सारथि र्यस्तू मनःप्रग्रहवान् नरः सोध्वनः पार माप्नोति त द्विष्णोः परमं पडम् म॥ परतत्वम्बु परात्म ब्रह्म मनि दि व्यज्योति यञ्चुन् मह त्तर मैनट्टिप दार्थ मेदि समधी तं बय्यॆनो ! दानि नि द्धर नारायणुँ डञ्चु नॊक्क श्रुति यु दाटिञ्चॆ, वे तॊण्डु वाक् स्फुरणन् टॆँ बरम्मु विष्णुपद मं चुस् ब्राज्ञु लोहो! यनस्, । अवतारिक :-प्रकृतमु वस्तुसामर्थ्यमु वलनँगूड वैकुण्ठ नाथुनकुँ बरत्वमुनु ब्रतिपादिञ्चु चुन्नारु. 62 3 वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ सन्तीदृशः श्रुतिशिरस्सु परस्सहस्रा वाच स्तव प्रथयितुं पर मेशितृश्वम्। किञ्चेह न व्यजगणः कृमिधातृभेदं क्रामन् जगन्ति निगिरन् पुन रुद्धिरं श॥
28 प्रति :- तव नीयॊक्क, परम + ईशितृत्वम् = सर्वेश्व रत्वमुनु, प्रथयितुम् - वॆल्लडिञ्चुटकु, श्रुतिशिरस्सु = वेदान्तमुलन्दु (उपनिषत्तुलन्दु) परस्सहस्राः वेलकु मिञ्चिन, ईदृशः - इटुवण्टि (पूर्वोदाहृत श्रुतुलवण्टि) वाचः वाक्कुलु, सन्ति = उन्नवि, किञ्च = मऱियु, जगन्ति = लोकमुलनु, क्रामन् (त्रिविक्र मावतारमुन) आक्रमिञ्चुचु, निगिरन् = म्रिङ्गुचु (प्रळयमुनन्दु) पुनः = मरल, उद्गिरन् = क्रक्कुचु (सृष्टि कालमुन) त्वम् - नीवु, कृमि, धातृ, भेदम् इदि पुरु, इतँडु चतुर्मुखुँडु - अनुभेदमुनु, = ई याक्रमणादुलयन्दु, न, व्यजगणः : लॆक्किम्प लेदु, इह
वि शेषमु :- पर मेशीतृत्वम्- ‘त विश्वराणां परमं म हेश्वरम्’ अनु श्रुतिचे गोचरिञ्चुचुन्न सर्वेश्वर त्वमुनु– अनि भावमु, ‘कृमिधातृभेदम्’- त्रिविक्रमावतारमुन भग व च्च र णमु सत्यलोकमु नतिक्रमिञ्चि यूर्ध्वमुन केँगुट प्रसिद्धमु. वैकुण्ठ स्तवमु 63 सृष्टिलो भगवन्ना भिकमलमुनुण्डि ब्रह्म युद्भविञ्चुट वलन ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः’ अनु न्यायमुनँ ब्रळयमुन निगिरण मर्थात् सिद्ध मगुचुन्नदि. तात्पर्यमु := ओ पै कुण्ठ नाथा ! नीस र्वेश्वरत्वमुनु वैकुण्ठनाथा ! जाटु टकुँ बूर्वो दाहृतश्रुतुलवण्टिवि वेलकॊलँदि युप निषद्वाक्यमुलु गलवु. मऱियु नीवु त्रिविक्रमाव तार मुन लोकमुल नाक्रमिञ्चुचु म्रिङ्गुचु मरल वॆळ्ळं ग्रक्कु चुँ ब्रळयमुनन्दुनु सृष्टि कालमुननु इदि पुरुगु, इतँडु चतुर्मुखुँ डनु विशेषमुनु विचारिञ्च लेदु. गी॥ ईदृशोपनिषद्वाक्कु लॆन्नि वेलॊ ! नीदु स र्वेश्वरत्वम्मु निर्वचिञ्चु I लोकमुल नाक्रमिञ्चुचु लोन बैट नुञ्चुचु विरिञ्चि कृमिभेद मॆञ्च वीवु. अवतारिक :- ब्रह्मवेत्तलकुँ दत्वनिर्ण योपाय प्रकारमु निट विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ रूपश्रिया परमया, परमेण धाम्ना चित्रैश्च कै श्चि दुचितै र्भवत श्चरितैः । चिह्नै रिनिह्नवपरै रपरैश्च कैश्चि न्निश्चिन्वते त्वयि विपश्चित ईशितृत्वमे ॥ 29 64 वैकुण्ठ स्तवमु प्रति :- विपश्चितः ! ब्रह्मवेत्तलु, भवतः == एलिनवारि यॊक्क (तमयॊक्क) परमया श्रेष्ठमगु, रूप, श्रीया -स्वरूपमुयॊक्क शोभ चेत, पर मेण = सर्वोत्कृष्टमगु, धाम्ना - स्थानमुचेतनु, चित्रैः= आश्चर्यकरमुलुनु, उचितैः महिमानुगुणमुलुनु, अगु, कैश्चित्
= कॊन्नि, चरित्रैः, च = सकल जग त्कारणादि चरित्रमुल चेतनु, अनिह्नवपरैः = कप्पि पुच्चुटकु नलविगानि (तत्वनिर्णायकमुलैन) कै श्चित् कॊन्नि चिह्नमुल चेतनु, अपरैः = इतरमुलैन, चिह्नै श्च - लक्ष्मीपतित्वादि लक्षणमुलचेतनु, त्वयि = = नीयन्दु, ईशितृत्वम् = सर्वेश्वरत्वमुनु, निश्चिन्वते = निश्चयिञ्चु चुन्नारु. वि शेषमु :- विपश्चितः - विविधं, पश्यत्, चित्त्वम् - विप श्चित्वम् - अनु निर्वचनमुचेत स्वरूपमुचेतनु स्वभावमुचेतनु तत्वत्रयमुनु विमर्शिञ्चि तॆलिसिकॊनिन ज्ञानुलनि यर्थमु. ‘रूपश्रिया परमयो’ भगवन्तुनि स्वरूप कान्ति लोकोत्तर मनुटकुँ ब्रमाणमुलु.
- ‘तस्य भासा सर्व मिदं विभाति’
- दिवि सूर्यसहस्रस्य भवे द्युगप दुस्थिता यदि भा स्सदृशी सा स्या द्भास स्तस्य महात्मनः (स श्लेषमु) वैकुण्ठ स्तवमु 65 पर मेणधाम्ना - भगवन्तुनि स्थानमु सैतमु सर्वो त्तममु-‘आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्’ इत्यादु लिन्दुकुँ ब्रमाणमुलु. ‘चित्रैः- चरित्र ः - स्तम्भाविर्भावमु, हिरण्यकशिपु निबर्हणमु, सेतुनिर्माणमु, चराचरमोक्ष प्रदानमु, गोवर्धनोद्धरणमु, गीतोप देशमु मुन्नगु चित्र चरित्रमुल चेत, अनि भावमु. चिह्नै श्च- तत्वनिर्णयशक्तमु लगु लक्षणमुल चेतनु, लक्ष्मीपतित्व, शेषशायित्व, पैन तेयवाहन त्वादि लक्षण पै न मुलचेतनु, अनि तात्पर्यमु, तात्पर्यमु :- ओ वै कुण्ठनाथा ! ब्रह्मवेत्तलु श्रीवारि लोकोत्तर मगु शरीर कान्तिचेतनु, सर्वोत्तम मगु स्थानमुचेतनु, आश्चर्यकरमुलुनु महि मानुगुणमुलु नगु वेदापहारमहापातकि दैत्यशिक्षणादिकमुलुनु, स्तम्भोद्भव सेतुनिर्माणादुलु नगु कॊन्नि दिव्यचरित्र मुलचेतनु, कप्पिपुच्चिननु डाग निशङ्खचक्रादि चिह्नमुल चेतनु, लक्ष्मीपतित्व शेषशायि त्वादि लक्षणमुल चेतनु, भवदीयस र्वेश्वरत्वमुनु निश्चयिञ्चुचुन्नारु. (9) 66 वैकुण्ठ स्तवमु शाः देवा ! तावकदिव्य देहरुचि चे दिव्योरुधामम्बुचे, भावत्काद्भुत कारि कार्यमुल चेँ ब्रच्छादनाशक्य ल ्मवेशादुल, श्रीपतित्वफणि प र्यङ्कादि चिह्नम्बुलन्, नी. विश्वेशत निर्णयिन्तुरु बुधुल् नी रेजपत्रेक्षणा ! अवतारिक :- आ चिह्नमुल नन्निण्टिलोनु लक्ष्मी पतित्वरूप चिह्नमु सर्वोत्तम मनि यिन्दुँ बेर्कॊनुचुन्नारु. यस्याः कटाक्षण मनुक्षण मीश्वराणा मैश्वर्य हेतु रिति सार्वजनीन मेतत् । तां श्री रिति त्वदुपसंश्रयणा न्नि राहु स्वां च श्रियः श्रिय मुदाहु रुदार वाचः ॥ प्रति :- यस्याः
ए तल्लि यॊक्क, कटाक्षणम् 30 कटा क्षमु, अनुक्षणम् = क्षणक्षणमु, ईश्वराणाम् = इन्द्रादुलयॊक्क, ऐश्वर्य, हेतुः गारणमु, जनीनम् इति, एतत् .
ऐश्वर्यमुनकुँ = अनि यीचॆप्पुट, सार्व, सर्वजनप्रसिद्धमो ! ताम् = आ त्वत्, उपसंश्रयणात् आ तल्लिनि, निन्नाश्रयिञ्चि युण्डुट वलन, श्रीः, इति श्री अनि, उदारवाचः
गॊप्पवाक्कुलु गल विवेकुलु, निराहुः निर्वचिं वैकुण्ठ स्तवमु चिरि, त्वाम्, च (श्री देविकि) श्रियम्
हरिञ्चुचुन्नारु. 67 निन्नुँ गूड, श्रियक्ति श्रीनिगा, उदाहुः == उदा वि शेषमु :- श्रीः - इति-श्रयते इति श्रीः अनु व्युत्प त्तिचे श्रीः अनु शब्द मेर्पडुचुन्नदि. सर्वदा भगवन्तुनि आश्रयिञ्चि युण्डु नदि यनि भावमु. ‘त्वां च श्रियः श्रिय मुदाहु रुदारवाचः श्रियः श्री श्च भवदग्र्या कीर्तेः कीर्तिः क्षमाक्षमा (रामायणमु) ‘कः श्रीः श्रियः’ (अनि स्तोत्ररत्नमु) तात्पर्यमु := ए तल्लि यॊक्क क्रेगण्टिचूपु क्षणक्षण मिन्द्रादुल ’ मैश्वर्यमुनकु हेतु वनुट सर्वजन प्रसि द्धमो ! या तल्लि नी याश्रयमुवलन श्री यनि युदारवाक्कु लगु विज्ञुलचे निर्वचिम्पँ बडुचुन्नदि. निन्नुँ गूड नट्टितल्लि यगु श्री देविकि श्रीदातनुगा निर्व चिञ्चु चुन्नारु. च सकलजगत्प्रसिद्ध मिदि सर्वदिगीश्वरवै भव प्रस किकी मऱि मूल मेजननि दिव्यकटाक्ष मनुक्षणम्बु ना सुकविनुताङ्घ्र श्री यनँग शोभिलॆ नीपद माश्रयिञ्चि, पे 68 वैकुण्ठ स्तवमु रुकॊनुदु रु त्तमुल् कविव रुल् निनु श्रीकिनि श्री व टं चॊगिन्. अवतारिक :- इतरुल किट्टि प्रमाण गुणश्रवणमु लेदा ? यनु शङ्ककु समाधानमुनु जॆप्पुचुन्नारु. 02 श्लो॥ माया त्वया गुणमयी कील या निसृष्टा सा ते विभो ! कि मिक नग्म न निर्मिमिते 1 कौतस्कुताः स्थिरकुतर्क वळेन चित् सत्यां श्रुता च बधिगा स्वयि तन्महिम्ना ॥ 31 नी ते = प्रति :- ( हे) विभो ! ओ सर्वेश्वरा ! त्वया चेत, गुणमयी = सत्वरजस्तमोमयि यगु, या= ए, माया = प्रकृति, निसृष्टा ( दे हेन्द्रियादु लुगा) प्रयोगिम्पँ बडिनदो, सा = आमाय नीकु, कि मिव = देनिवलॆ, नर्म लीलनु (क्रीडनु) न, निर्मिचिते, कील = चेयदु? (सकलमैनलीलनु जेयु ननि भावमु) केचित् कॊन्तमन्दि, ( पेरु चॆप्पुटकुँ गूडँ दगनि वा रनि तात्पर्यमु) कातस्कु ताः हेतुवादुलु, स्थिर, कुतर्क, वशेन (प्रमाणमुल कननुगुणमुलै ननु) गट्टिपट्टुदलतोँ गूडिन कुतर्क मुल वशमुचेत, त्वयि नी विषयमुन, (नीपार म्यमुनन्दु) श्रुतौ वेदमु, सत्याम् अनु कूलमुगा नुन्ननु, तत् + महिम्ना आमाय यॊक्क महिमचेत, बधिराः = चॆविटिवाण्ड्रु, भवन्ति = अगु चुन्नारु.)वैकुण्ठ स्तवमु 69 वि शेषमु :– :– ‘गुणमयी’– ‘आजा मेकां लोहितशुक्लकृष्णां । बह्वीं प्रजां जनयन्तीं सरूपाम् II अनु श्रुतिचेँ बेर्कॊनँ बडिन लोहित शुक्लकृष्ण वर्णमुलु गल सत्वरजस्तमोगुणमुलतो निण्डिनदि यनि भावमु. ‘सत्वं रज स्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः (गीता) ‘माया’- प्रकृति- ‘मायां तु प्रकृतिं विद्यात् अनु श्रुति यीविषयमुनँ ब्रमाणमु. कील :- ई यव्ययमु मायाशब्दवाच्य मगु प्रकृति भगवल्लीलोपकरण मनु विषयमुनँ ब्रसिद्धिनि चाटु चुन्नदि. कौतस्कु ताः :- कुतः कुतः इति वदन्तः प्रतिदानिकि ऎन्दु वलन ? ऎन्दुवलन ? अनि प्रश्निञ्चु हेतुवादुलु ना स्तिकु लनि हृदयमु, ‘सत्यां श्रुते च बधिरा स्वयि तन्महिम्ना’ भगव त्पारम्यमुनु बोधिञ्चु श्रुतिशतमु लुन्ननु माया महिममुचेतँ ददर्थमुनु ग्रहिम्पँ जॆविटिवारलुव लॆ असमर्थु लगु चुन्नारु. -भगवदनुग्रहमु लेनिचो मायनु दाँट नेरिकि शक्य मगुनु? 70 वैकुण्ठ स्तवमु
‘दैवी ह्येषा गुणमयी मनु माया दुरत्यया मा मेव ये प्रपद्यन्ते माया मेतां तरन्तिते A अनि गीतावचनमुगदा ! |
---|
सर्वेश्वरुँड नगु नो वैकुण्ठनाथुँडा ! नीचेत दे हेन्द्रियादिरूपमुगा मार्पँ बडिन सत्वरजस्तमो रूपिणि यगु नेमाय (प्रकृति) गलदो, यदि नी केविध मगु लीलासाधनमु गादु? (सर्वविधलील कुपयोगिञ्चु ननि भावमु) कॊन्तमन्दि हेतुवादुलु पट्टुदलतोँ गुतर्कमु लॊनर्चुचु श्रुतिशतमुलु नी सर्वेश्वरत्व मुनु जाटुट कनुकूलमुलुगा नुन्ननु, मायावश मुनँ ददरबोधनमुन बधिरु लगुचुन्नारु. |
शा॥ वै कुण्ठेश! भवत्प्रयु क्तगुण सं |
वर्धिष्णु वामाय ता |
नी केलीलकुँ गादु साधनमु तं |
ड्री! चाटु चुन्नन् भव |
ल्लो केशत्व परत्वमुल् श्रुतिमत |
ल्लुल् पॆक्कु कौतस्कुतुल् |
चेको लेरु कुतर्कुलै चॆवुटुलो! जीर्णिञ्चिरो ! मायकुन् . |
अवतारिक :- कौतस्कुतु लगु मायावादुल प्रलोप |
मुल प्रकार मी ट्लुण्डु ननि नुडुवु चुन्नारु. |
वैकुण्ठ स्तवमु |
श्लो॥ यः स्थावर क्रिमि पतङ्ग |
मतङ्गजादि व्वन्येषु जन्तुषु सदैव विजायमानः! त्वं नित्य ! निर्मल ! निरँजन! विर्विकार ! कल्याणसद्गुणनि धे! स इतीरित सै । |
11 |
71 |
32 |
प्रति :- तैः = बधिरु लगु ना कौतस्कुतुलचेत, हे |
नित्य ! = ओ नित्युँडा!, |
ओ हे निर्मल! |
डा!, |
! |
हे निरञ्जन! |
- ओ परिशुद्धुँ
- ओ निस्सङ्गुँडा !, हे निर्वि
- कार! ओ परिणामरहितुँडा! (मार्पु लेनिवाँडा!) हे कल्याण, सत्, गुण, निधे!
- हे
- ओ मङ्गळप्रदमु
- लगु मेलिगुणमुलकु गनि वण्टिवाँडा ! यः = ए चेत
- नुँडु, स्थावर, क्रिमि, पतङ्ग, मतङ्गज, आदिषु जडमुलु पुरुगुलु पक्षुलु एनुँगुलु मॊदलुगाँ गल, जन्तुषु जन्तुवुलन्दुनु, अन्येषु इतर मुलं
- दुनु, सदा+ एव =
- ऎल्लप्पुडु,
- विजायमानः
- विविधरूपमुलतोँ बुट्टु चुन्नाँडो?, सः = चेतनुँडे, त्वम् = नीवु, इति = अनि, ईरितः
- पलुकँ बडितिवि.
- वि शेषमु :- ‘नित्य’ ! नित्यो नित्यानां
- नित्यो नित्यानां चेतन श्चेतनानाम् अनु श्रुति प्रतिपादित नित्युँडा ! यनि भावमु.
- ‘नित्यनिर्मल’ यनुनदि येक पदमुगा नैननु ग्रहीम्प
- वच्चुनु. इन्दलि सम्बुद्धु लन्नियु साभिप्रायमुलु,
- 72
- वैकुण्ठ स्तवमु
- ‘अपहतपास्मा विजरो विमृत्यु र्विशोको ! विजिघत्सोऒपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः ॥ अनु श्रुतिनि ज्ञ प्तियॊनर्चु चुन्नवि.
- ‘सः त्व मि तीरितः’ ब्रह्ममे स्वमायचेत मोहितमै जीवभावमुनु जॆन्दु ननि मायावादुल सिद्धान्तमु.
- ‘परब्रह्मैवाज्ञं भ्रमपरिगतं संसरति ’ अनि मायि सूक्ति. इदि यॆन्तयु नसमञ्जसमु. हेयप्रत्यनीकत्व कल्याणगुणाकरत्व, रूपोभयलिङ्ग
- विशिष्टु लगु देवर वारिकि कर्मवश्य मगुटचे नत्यन्त हेयता भाजन मगु जीवभाव
- कथन मनुचितमु गदा !
- ता॥ ओ नित्यनिर्मला ! निरञ्जना ! निर्विकाराकृती ! कल्याण
- ! गुणसागरा! वैकुण्ठनाथा ! नी पारम्यमुनु श्रुति शतमुलु नाकॊनुचुन्ननु आलिम्पँजालनि बधिरु लगु कुतर्क कर्कशु लैन मायावादुलु जडमुलन्दुनु, कीटपक्षि ग जादुलगु जन्तुवुलन्दुनु अन्यमुलन्दुनु कर्म वशमुचे नॆल्लप्पुडु विविधरूपमुलतोँ बुट्टुचुन्न चेतनुँडे नी वनि चॆप्पुचुन्नारु.
- शा॥ ओ नित्यामल ! निर्विकार ! गुणर
- त्नोदस्वदाभा ! शुभां
- गा ! निस्सङ्ग ! जडाण्ड जेभकृमि मु
- ख्यश्रेणि ख्य श्रेणि नन्यम्बुलन् ।
- वैकुण्ठ स्तवमु
- नाना योनुलँ गर्मपाक मुन
- न्मं बॆत्तु जीवुण्डु दे
- ज
- वा ! नीवे यनि यन्दु रिद्दि युचितं
- बा ! मायि कौतस्कुतुल् ॥
- श्लो॥ त्वदृष्टिजुष्ट मिद माविरभू दशेषं
- नो चेत् कटाक्षय नैव भवेत् प्रवृत्तिः । स्थातुं च वाञ्छति जगत् तप दृष्टिपातं तेन श्रुतौ जगदिपे हि जगत् त्व मेव ॥
- 73
- 33
- प्रति :- इदम्=प्रळयमुनं दतिसूक्ष्मरूपमुतो नुण्डि दृश्यमान मगुनिदि, त्वत्, दृष्टि, जुष्टम् नी सङ्कल्प रूप मगु ज्ञानमुतोँ गूडिनदै, अशेषम्=ई समस्त चिदचिदात्मक मगु प्रपञ्चमुगा, आविरभूत् = आविर्भावमुनु बॊन्दिनदि, नो, कटाक्ष यसि, चेत्तो = (ई प्रपञ्चमुनु नीवु) कटाक्षिम्प वेसि, प्रवृत्तिः - आविर्भावरूप मगु मार्पु, न, भवेत्, एव कलिगि युण्डॆडिदि काने कादु, जगत् प्रपञ्चमु, स्थातुम् -
- = निलुचुटकु, तव = नीयॊक्क, दृष्टि पातम् मुनु, च = प्रवेशमुनु, वाञ्छति कोरुचुन्नदि, तेन = आ कारणमुचेत, श्रुतौ वेदमुनन्दु, त्वम् +
- एव — नीवे, जगत् = लोकमुगा, जगदिपे, हिम मुगाँ जॆप्पँबडुचुन्नावु. 10 कटाक्ष हि=स्पष्ट 74 वैकुण्ठ स्तवमु विशेषमुलु :- ‘आविरभूत्’ ई पदमुचेतँ ब्रळयमन्दु ब्रपञ्चमु नारायणमूर्तियन्दु सूक्ष्मरूपमुन नुण्डुट व्यक्त मगुचुन्नदि. स्थातुं वाञ्छ जगत् तव दृष्टि पातम्’ इन्दुलकुँ ब्रमाणमु. ‘अन्तः स्रवि ष्टः शास्त्रा जनानां सर्वात्मा- तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ’ इत्यादि श्रुतिजालमु. " ते स श्रुता जगदिपे, हि जगत् त्व मेव । नीवे जग त्तनि चॆप्पुश्रुतु लॆव्वि? यन सर्वं खल्विदं ब्रह्म- ऐतदात्म्य मिदं सर्वम्- इत्यादुलु जगत्तु शरीरमु, श्रीवै कुण्ठनाथुँडु शरीरि यनि भावमु. जगत्पर मात्मुलकुँ गल सम्बन्धमु शरीरशरीरिभानसम्बन्ध मनि श्री वैष्णव सिद्धान्त रहस्यमु. ता :- ओ वैकुण्ठपती ! प्रळयकालमुनन्दु विभजिम्प नशक्य मै अति सूक्ष्मदशलो नुन्न यिदि, तरुवात (सृष्टि कालमुन) ‘त दैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेसि अन्न नी सङ्कल्परूपमगु ज्ञानमुतोँ गूडिनदै यी सम स्तजगज्जालमुगा नाविर्भविञ्चिनदि. नी वट्लु कटाक्षिम्प वेनि ईजगत्ते युण्डॆडिदि कादु. मऱियु जड मगु नी जगत्तु स्थितिकॊऱकु नी कटाक्षमुन नी यनु प्रवेश मुनु क्षणक्षणमु कोरुचुन्नदि. इट्लु नीवु जगत्तुनकु बरममुख्युँड वगुटचे वेदमुलु नीवे जगत्तु वनि स्पष्टमुगाँ जॆप्पुचुन्नवि. दानि भाव मेमन शरीरमु वैकुण्ठ स्तवमु 75 नकु शरीरि यॆन्त मुख्युँडो नीवीजगत्तुन कन्त मुख्युँड वनि चाटुटये. चः प्रळयमुनन्दु सूक्ष्मत वि भाग मॊनर्प नशक्य मौचु व र्तिलु निदि सृष्टि कालमुन देवरयिच्चकु दृष्टि कग्गमै वॆलसॆँ जराचरं बखिल .. विश्वमु नीकृपँ बाऱकुन्न चो निलुचुनॆ लोकमुल् कनुक ने जग मीवॆ यनुन् श्रुतुल् प्रभू अवतारिक :- पूर्वोक्तविषयमुने 3 विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ एवं भगो इह भवत्परतन्त्र ए व यी ! शोकमुनन्दु शब्दाऒपि रूपव दमुष्य चराचरस्य । ऐश्वर्य मीदृश मिदं श्रुति षूदितं ते पापीयसा मय महो! त्वयि मोहहेतुः ॥ 34 प्रति :- ( हे) भगोओ भगवानुँडा ! अमुष्य= ई कनँ = बडुचुन्न, चराचरस्य = चेतनाचेतनमुयॊक्क, शब्दः+ अपि - नाममुकूड, रूपवत् - रूपमुवलॆने, एवम् = इट्लु, (ई जीवुनितोँ बाटु शरीरमुलोँ ब्रवेशिञ्चि नाम रूपमुलु नेर्पाटु चेयुदुनु अन्नट्लु अनु प्रवेश कार्यमुगा) इह=इक्कड, (‘जगत् त्व मेव’ अनु
76 वैकुण्ठ स्तनमु
सामानाधिकरण्यमुनन्दु) भवत्परतन्त्रः एव = तम स्वामित्वमूलक मैनदिये, तेनीयॊक्क, ईदृशनु = विलक्षणमगु, इदम्=ई, ऐश्वर्यम् ईश्वरत्वमु, (महिम) श्रुतिषु= वेदमुलन्दु, उदितम् = पलुकँ बडिनदि, अयम्=ई मैश्वर्यगुणमु, पापीयसाम्= = नीविषयमुनन्दु, पापात्मुलकु, त्वयि हेतुः=भ्रान्तिकिँ गारणमु, (भवति = अगु चुन्नदि) अ हॆू=आश्चर्यमु.
विशेषमु :- ‘पापीयसाम्’ पुण्यमु चेसिकॊन्न जीवुलनु जननकालमुनन्दु श्रीमन्नारायणमूर्ति कटाक्षिंचुनुवारु सात्विकुलै मोक्ष चिन्तकु लगुदुरु.
अट्टि पुण्यमुनकु नोचनि पापुलनु जननकालमुन ब्रह्मयो! रुद्रुँडो ! चूतुरुवारु राजसुलो तामसुलो अगुदुकु. वारिकि मोक्षचिन्त युण्डक पोँगा विपरीत ज्ञानमु गूडनुण्डुनु.
अट्टि पापात्मुल कनि भावमु,
‘त्वयि मोह हेतुः’– जगत् त्वमेन अनुचोट
जगत् = प्रपञ्चमु, त्वं, एव
त्वत्स्वामिकमे (लेदा) त्वदन्तर्यामिकमे.
अनि अर्थमु चॆप्प वलयुने कानि
‘मृदघटः’ अनु चोटुन मृदभिन्नमु घट मन्नट्लु जगद भिन्नुँडु परमात्म यनि यर्थमु चॆप्प रादु. जड मगु जगत्तुतो - परमचेतनुँ डगु परमात्मकु अभेदमु विरुद्धमु अनुचितमु नगु चुन्नदि.
इट्लु अभेदपदमुगानर्थमु चॆप्पुट भ्रममूलकमनि भावमु,
[[77]]
‘अ हॆू !’- वेदमुलं दिन्त स्फुटमुगा राजमार्ग मगपिञ्चुचुन्ननु— अभेदवादु लट्लु पॊरपडुट याश्चर्य कर मनि तात्पर्यमु,
ता भगवानुँड नगु ओवैकुण्ठ नाधुँडा! ईपरिदृश्यमान चराचरमुनकु नामरूपविवरणमुलु नीवलनने कलुगु चुन्नवि. इट्टि विलक्षण मगुनीयैश्वर्यमु वेदमुलन्दु नुडुवँ बडियुन्ननु पापात्मुलु नीविषयमुन भ्रान्तु लगुट याश्चर्यकरमै युन्नदि. उ॥ ईपरिदृश्यमान मयि यॆन्तयु नॊप्पु चराचराळिकीन् रूपमुनट्ल नाममु नि रूपणमुं बॊनरिन्तु नी वॆ का श्रीपति! चाट वेदमॆ वि शिष्टमु तावक विश्वरत्वमुन्, पावुलु नीमह त्तयॆड भ्रान्ति वहिञ्चुट विस्मयं बगुन्. अवतारिक :- इतरुलयन्दु सै-त मीश्वरशब्दमु प्रयुक्त मगुट कुपपत्तिनि जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ ये त्वत्कटाक्षलवलक्ष्य मिव क्षणं तै रैश्वर्य मीदृश मलभ्य मलम्भि पुम्भिः ॥ 78 वैकुण्ठ स्तवमु यत्` ``ऒपि सञ्जगदिरे पर मेशितृत्वं तेषा मपि श्रुतिषु तन्महिमप्रसङ्गात् ॥ 35 क्षणकालमु, त्वत् ’ प्रति :- ये = ए पुरुषुलु, क्षणम् कटाक्षु, लव, लक्ष्यम्, इव नी क्रेगण्टिचूपुलोनि यॊक नलुसुनकु गुऱि यैनवारु वलॆ, (अभवन् ऐरो) तै = आ, पुम्भिः = पुरुषुलचेत, अलभ्यम् = इतरुलकु अन्दरानि, ईदृशम् = इटुवण्टि, (जगत्स र्डनरूप मगु) ऐश्वर्यम् = महिममु, अलम्भि = पॊन्दँ बडिनदि, यत् = ऎन्दुवलन, (कनुक ने) केपि= कॊन्दऱु, तेषां, अपि - अट्टिपुरुषुलकुँ गूड, तत्, महिम, प्रसङ्गात्
अट्टि मैश्वर्यातिशय मनु वर्तिञ्चुटवलन, परम + ईशितृत्वम् सर्वाधिक मगु नैश्वर्यमु, श्रुतिषु तम्
वेदमुलन्दु, (प्रतिपादि चॆप्पँबडिनदि. इति अनि) सञ्जगदि रे = चॆप्पिरि. विशेषमु :- हिरण्यगर्भ स्समवर्त ताग्रे- यो ब्रह्मा णं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै - (श्रुति) प्राजापत्यं त्वया कर्मसर्वं मयि निवेशितम्-(स्मृति) इत्यादि श्रुति स्मृतुलयन्दुँ जतुर्मुख ब्रह्मकु गोच रिञ्चु जगत्सर्जनाद्यैश्वर्यमुनकु मूलमु पै कुण्ठनाथुनि कटाक्षलवमुनकु क्षणकालमु गुऱियगुटगा वर्णिञ्चुट चेतँ दरुवातिवारि यैश्वर मुन मुन कन्तयु श्रियःपति करुणावैकुण्ठ स्तवमु 79 कटाक्षलवमे हेतु वनि कै मुतिकन्यायप्राप्त मगु कै चुन्नदि. इतरुलयं दीश्वरशब्द प्रयोगमु भगवत्कटाक्षु लवलभ्य मनि भावमु. लक्ष्यमिव - इच्चट ‘इव’ शब्द मनादरमुनु सूचिञ्चु चुन्नदि. लक्ष्यमु का नवसरमु लेदु. लक्ष्य मैनट्लु कनँबडिनँ जालु नन्नमाट. लक्ष्य मैनट्लु कनँ बडिन वारे यीश्वरशब्दभाजनु लैनप्पुडु लक्ष्य मैनवारि माट वेटे चॆप्प नवसरमु ले दनि भावमु. ता॥ ओ परमपदनाथुँडा ! नीनलुसन्तक टाक्षमुन कॊक क्षणमु गुऱि यैनट्लगुपिञ्चुवारे अनन्यल भ्य मगु निट्टि मैश्वर्यमुनु बॊन्दुदुरु. नीयनुग्रहमुचेत वारि कट्टि महिम सम्प्राप्त मगुटवलन श्रुतुलयन्दु वारिकि परमैश्वर्यमु प्रतिपादिम्पँ बडिनदि. दीनि कन्तयु मूलमु नीकटाक्ष लेशमु गान ई मैश्वर्य मन्तयु नीदे यनि तात्पर्यमु. उ॥ ऎव्वरु नीकटाक्षमुन केनलुसन्त लक्ष्य मैनटुल् पुव्विलुकानिँ गन्न नॆऱ पॊल्पुगलाँड ! क्षणम्बु पॊल्तुरो ! यव्वरु लीश्वरुल् ग श्रुतु लाडॆडु नीश्वरतानुष _क्तिचे, 80 वैकुण्ठ स्तवमु निव्वटिलन् महत्त्व मॆट ने नदि तत्करुणालवा प्तमे. श्लो॥ नित्येषु वस्तुषु भवन्निर पेक्ष मेव तत्तत्स्वरूप मिति केचि दिह भ्रमन्तः ! ऐश्वर्य मत्र तव सावधिकं गिरन्ते ब्रूते त्रयी तु निरुपाधिक विशनं ते ॥ प्रति
36 भ्रान्तु :- इह ई लोकमुनन्दु, भ्रमन्तः लगु, केचित् = कॊन्दऱु, नित्येषु = शाश्वतमु लगु, व स्तुषु
पदार्थमुल विषयमुन, तत्, तत्, स्वरूपम् आयानित्यपदार्थमुल स्वरूपमुनु, भवत्, निरपेक्षम्, एव
नीतो अपेक्ष लेनिदानिनिगाने, (स्वतस्सिद्धम् = स्वभावसिद्धमु, इति अनि, मत्वा तलँचि) अत्र = ईजगत्कारणत्वमुन, तव = नीयॊक्क ऐश्वर्यम् = महिममु, सावधिकम्, इति = हद्दुतोँ गूडिनदि अनि, गिरुते तु
चॆप्पु चुन्नारु. त्रयी, वेदत्रय मन्ननो, ते = नीयॊक्क, ईशनम् = ऐश्वर्यमुनु, निरुपाधिकम् स्वाभाविक मुनुगा,
ब्रूते = चॆप्पुचुन्नदि. वि शेषमु :- ‘भवत्, निर पेक्षम्’-नीकटाक्षमुतो जोक्यमु लेकुण्ड (नी सङ्कल्पमुतो निमित्तमु लेकये यनि भावमु) वैकुण्ठ स्तव मु ‘ब्रूते त्रयी तु निरुपाधिक विशनं ते पतीं विश्व स्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिव मच्युतम् । 81 रा “एष सर्वभूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः, पर्कास्यशक्ति र्विवि धैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” इत्यादि श्रुतुलु श्रीमन्ना· यणुनि यैश्वर्यमु निरुपाधिक मनि चाटुचुन्नवि. कनुक श्रुतुले प्रमाणमुलु गानि भ्रान्तुलवचनमु लॆन्नँटिकिनि प्रमाणमुलु गा नेरवु. मूँडवपादमुनँ सावधिकं गिरं ते’ अनुचोट ‘सावधिसङ्गिरं ते’ अनि पाठान्तरमुकलदु. ता॥ ई लोकमुन भ्रान्तुलु कॊन्दऱु नित्यवस्तुवुल तत्त त्स्वरूपमु नी जोक्यमु लेकुण्ड ने सहजसिद्ध मसि तलँचि जगत्कारणत्वविषयमुन नी यैश्वर्यमु नित्यवस्तुवर्जित मगुटचे सावधिक मनुचुन्नारु. श्रुतुलु मात्रमु नी यैश्वर्यमु निरुपाधिक मनि चाटु चुन्नवि. उ॥ भ्रान्तुलु कॊन्द जगतिँ बद्मद ळेक्षण ! नित्यव स्तुवुल् कॊन्तयु नीकटाक्षमुन कु९ गुऱि काकयॆ नैजभङ्गितो 11 82 वैकुण्ठ स्तनमु सन्ततमुन् वॆलुङ्गु ननि सावधिकम्बुग नीमह त्त रू पिन्तुरु सृष्टि वेदमुलु पेर्कॊ नॆडु९ निरुपाधिकम्बुग. अवतारिक :- नित्यवस्तुवुलयुनिकि भगवदधीन मॆट्लु? अनि शङ्किञ्चुकॊनि जवाबु चॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ इच्छात एव तव विश्वपदार्थसत्ता नित्यं प्रिया स्तवतु केचन तेहि नित्याः ! प्रियास्तवतु नित्यं त्वदेश परतन्त्र निजस्वरूपा भावत्कमङ्गळगुणाहि निदर्शनं नः ॥ 37 चो प्रति :- विश्व, पदार्थ, सत्ता नित्यमुलु ननित्यमु लगु सम स्तपदार्थमुलयॊक्क युत्पत्ति, तन नीयॊक्क, इच्छातः एन = (सृजिम्पवलयुनन्न) सङ्कल्पमुवलन ने, (अट्लेनि नित्यत्वमुनकु व्याघातमु नादा? अन्न समाधान मिदि) केचन कॊन्नि पदार्थमुलु, तव — नीकु, नित्यम्=नित्यमुगा, प्रियाः=प्रियमुलु, (अभ वक्=ऐनवि) ते=अवि, नित्याः = नित्यमुलु, ही= प्रसिद्धमु, (ई विषयमुन नुत्तरार्थमुतो दृष्टान्त मुनु चूपुचुन्नारु) नित्यम् = ऎल्लप्पुडु, त्वत्, एक, परतन्त्र, निज, स्वरूपाः = नीयॊक्कनिके यधीन मगु स्वस्वरूपमु गल, भावत्क, मङ्गळगुणाः — वैकुण्ठ स्तव मु 83 देवरवारि (तम) कल्याणगुणमुलु, नः =माकु, निदर्श नम् दृष्टान्तमु.
विशेषमु :-‘नित्यं प्रिया स्तव तु केचन ते हि नित्याः’ ई पादमुनन्दु नित्यानित्यवस्तु निवेचन मॊनर्पँबडिनदि. भगवदिच्छचेतने (सङ्कल्पमुचेतने अन्नि वस्तुवु लुत्प न्नमु लैसनु, भगवदिच्छलोँ गॊन्नि पदार्थमुलु नित्य मुगा नुण्ड वलयु ननि युद्देशिम्पँ बडिनवि मात्रमु नित्यपदार्थमुलुगाँ ब्रसिद्धि कॆक्किनवि. अवि ये वनँगा- ये ‘भावत्क मङ्गळ गुणाः’ अनि निदर्शनमुनु प्रसादिञ्चु चुन्नारु. नित्यमु नीयॊक्कनिके यधीनमगु निजस्वरूपमुगल नी कल्याणगुणमुलु, अनँगा भगवन्तुने केवलमु वलचिन भगवत्कल्याणगुणमुलु भगवन्तुनिवलॆने नित्यमु लनि भावमु. भगवद्गुणमुलु नित्यमुलनु टकु ’ सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः य स्सर्वज्ञ स्सर्ववित् ’ इत्यादि श्रुतुलु प्रमाणमुलु, गुणमुलु गुणि नाश्र यिम्पक निलुव लेवु गावुन निदि निदर्शनमुन कॆन्तयु नॊप्पि युन्नदि. कनुक नित्यवस्तुवुल सन्तयु भगवदधी नमे यनु विषय मी शोकमुन विशदीकरिम्पँ बडिनदि. ता॥ ओ जगत्पती! नित्यमुलु गानि यनित्यमुलु गानि समस्त पदार्थमुलु नी सङ्कल्पमुवलनने पुट्टुचुन्नवि. आ सङ्कल्पमुलो इवि नित्यमुलु गावलयु ननि नीचेत नुद्देशिम्पँ बडिनविमात्रमु नित्यपदार्थमु लगु चुन्नवि. 84 वैकुण्ठ स्तनमु ई विषयमुन - ऎल्लप्पुडु निजस्वरूपमुनु नी यॊक्क निके यङ्कित मॊनर्चिन तम कल्याणगुणमुले माकु निदर्शनमुलु, कावुन नित्यगुणमुल युनिकियु नेलिन वारिमीँदने आधारपडियुन्न दनि भावमु. म॥ भवदीयं बगु निच्छ चेतने कदा! पद्माकळत्रा ! समु द्भव मौ सर्वपदार्थ जाल त्यम्बुन् ब्रियम्बुल् ग नी P जालमुलु नि कवु नेवस्तुवु लापदार्दमुलॆ नि त्यम्बुल् त्वदेकाश्रय प्रवणम्बुल् भवदीयमङ्गळगुण प्रालम्बमुल् लक्ष्यमुल् • अवतारिक :- भगवन्तुँडे जगदु पादान कारण मगु नॆडल भगवानुँडु निर्विकारुँ डनि चॆप्पु श्रुतुलकु गति येमि? अनि शङ्किञ्चुकॊनि समाधानमुनु जॆप्पु चुन्नारु. श्लो॥ विश्वस्य विश्वविध कारण मच्युत ! त्वं 3 कार्यं त देत दखिलं चिदचित्स्वरूपम् ! त्वं निर्विकार इति वेदशिरस्सु घोषो निप्सीनु मेव तव दर्शय तीशितृतत्वम् ॥ 38 प्रति :- ( हे) अच्युत ! च्युति लेनि यो वैकुण्ठनाथा !,
त्वम् = नीवु, विश्वस्य कारणम् = समस्तमुनकुनु, विश्वविध, – विविधरूप मगु कारणमवु (भवसि वैकुण्ठ स्तवमु अगु चुन्नावु) अखलम् प्रसिद्धमैन , एतत्
सम स्त मगु, तत् : 85 ई, दित्, अचित्, स्वरू वेद पम् चिदचिद्रूप मगु प्रपञ्चमु, तव = नी यॊक्क, कार्यम् = कार्यमु (उत्पाद्यमु) शिरस्सु उपनिषत्तुलन्दु, त्वम् = नीवु, निर्विकारः विकाररहितुँडवु (मार्पुलेनिवाँडवु) इति अनु,
घोषः प्रवादमु, निस्सीमम् हद्दु लेनि, तव नी यॊक्क, ईशीतृत्वम् + एव = ऐश्वर्यमुने दर्शयति प्रकाशिम्पँ जेयु चुन्नदि. वि शेषमुलु :- अच्युत ! ईसम्बुद्धि साभिप्रायकमु. नीवु च्युतिलेनिवाँडवु गनुक जगत्कारणमवु. तक्किन वारु च्युति कलवारु गावुन जगत्तुनकुँ गारणमु काँजालरनि यभिप्रायमु. विश्वविध कारणम्-भगवन्तुँ डी चिदचिदात्मक प्रपञ्चमुनकु अन्नि विधमु लगु कारण मुलु नगुचुन्नाँ डनि युपनिषत्तुलु घोषिञ्चु चुन्नवि. ऎट्लन - भगवानुँ डीविश्वमुनकु सूक्ष्म चिद चिद्वि शेषमुतो शेषमुतो उपादान कारणमुनु, बहुस्यां प्रजायेयेति’ अन्नट्लु सङ्कल्पविशिष्ट वेषमुतो निमि त्त कारणमुनु, कालादिविशिष्ट वेषमुतो सहकारि कारण मुनु अगुन्नाँडु. ’ निर्विकारः’ - भगवानुँ डुपादान कारण मैननु निर्विकारुँ डनुट- ’ निस्सीम मेव तव दर्शयती शितृत्वम् - 86 वैकुण्ठ स्तवमु निरवधि कैश्वर्यमुनु वॆल्लडिञ्चुचुन्नदि. ईशितृत्वम् ’ अनु शब्दमुचे षड्गुणपूर्णत्वमु विवरिम्पँ बडिनदि. निर्वि कारत्वमु षड्गुणमुललो नॊक्कटि यगु वीर्यगुण कार्यमु. निर्विकारुँडुगा नुण्डि इतरुलु विकारमु नकुँ गारणमै युण्डुट वीर्यमनँ बडुनु. ता॥ च्युतिरहितुँड वगु ओ वैकुण्ठपती! नी नी प्रपञ्चमु नकु विविध कारणमै युन्नावु. चिदचिदात्मकमगु नी विश्व मन्तयु नीकार्यकोटिकिँ जॆन्दिन दे. उपनिषत्तुलु निन्नु निर्विकारुँड वनि चाटुट नीनिरवधिकै श्वर्यमुनु वॆल्ल डिञ्चुटये यगु चुन्नदि. शा॥ ऎन्नोरीतुल नॊप्पु कारणमुगा नीविश्वकोशानकुज् नि न्नोयच्युत ! पण्डितो त्तमुलु व नि ! र्णिन्तुर्, जगं बॆल्लनी विन्नाणं बगुसृष्टि, येविकृतियु वेदान्तमुल् नीकु ले वन्न निक्कमुगा नवार मगुनी मैश्वर्यमुं जाटु टे. अवतारिक :- भगवन्तुँडु लौकिकमु नगु घटादुलनु निर्मिञ्चु कुलालादुलवण्टिवाँडा ? अनु शङ्कनु वारिञ्चु चुन्नारु. वैकुण्ठ स्तवमु ॥ किंसाधनु क्व निवसन् कि मुपाददानः कस्मै फलाय सृज तीश इदं समस्तम् । इत्या द्यनिष्ठित कुतर्क मतर्क यन्त स्वद्वैभवं श्रुतिविदो विदु रप्रतर्क्यम् ॥ 87 39 प्रति := श्रुतिविदः = वेदान्ततत्वमुनु दॆलिसिन पॆद्दलु, ईशः = एसाधनमुलु गलवाँडै, स र्वेश्वरुँडु, किंसाधनः क्व=ऎक्कड, निवस९ - निवसिञ्चुचु, किम् उपाददानः उपादान कारणमुगाँ एव स्तुवुनु, दीसिकॊनुचु, क स्मै=ए, फलाय= प्रयोजनमुकॊऱकु, समस्तम्= समस्त मैन, इदम्=ईविश्वमुनु, सृजति=निर्मिञ्चु चुन्नाँडु, इति + आदि अनिष्ठित कुतर्कम् ई मॊदलुगा गल निलवनि शुष्क तर्कमुनु, अतर्क यन्तः पनिवा रगुचु, त्वत्, वैभनम् नी महिमनु, अप्र तर्क्यम्=ऊहीम्परानिदानिनिगा, विदुः : तॆलिसिकॊनिरि. चिन्तिं नि शेषमु :- कुम्मरिवाँडु दण्डचक्रादुलनु साधनमुलुगाँ गॊनि मृत्पिण्डमुनु (बङ्कमन्नुनु) उपादानमुगा स्वीकरिञ्चि सारॆमुन्दु निलिचि मञ्चितीर्थमुनु दॆच्चुकॊनु टकुँ गुण्डलु तयारु चेयुनट्लु सर्वेश्वरुँडु वेनिनि साधनमुलुगाँ गॊनि येवस्तुवु नुपादानमुगा स्वीक रिञ्चि यॆच्चट नुण्डि मे प्रयोजनमुन की समस्तविश्व मुनु सृजिञ्चु चुन्नाँ डनु निर्णयमु तेलनि शुष्क तर्कमुनकु दिगक वेदान्तर हस्यविदुलु ’ परास्य 88 वैकुण्ठ स्तवमु शक्ति र्विवि धैव श्रूयते। स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च’ अनु श्रुतिवाक्यमु ननुसरिञ्चि भगवानुँ डुचिन्त्यैश्व र्युँडु. श्रीहरिज्ञानबलक्रियलु स्वाभाविकमुलु. अनु निर्ण यमुने यनुसरिञ्चि रनि भावमु. उ॥ ऎय्यवि साधनम्बुलु ? म तॆय्यदि वस्तुवु? सृष्टिकिन् फल बॆय्यदि ? यॆन्दु नुण्डि सृजि यिञ्चु जगम्बुलु नीशुँ डञ्चुँ दा रय्ययि शुष्क तर्कमुल यन्दु व्ययिम्पक, काल मॆन्नॆदर् त्रय्यनुयायुलौ बुधु ल तर्क्यमु गाँग भवन्मह त्त्वमुन् . अवतारिक :- एमैननु अवा प्तसमस्तकामुनकु फलापेक्ष युण्डदु गनुकनु, ‘प्रयोजन मनुद्दिश्य न मन्दो2पि प्रवर्तते’ प्रयोजनमु नुद्देशिम्पक मन्दुँडु गूडँ ब्रवर्तिम्पँडु गनुकनु भगवन्तुनकु सृष्ट्यादि प्रवृत्ति यॆट्लु पॊसँगु? ननि शङ्किञ्चुकॊनि जवाबु चॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ यत् संवृतं दशगुणोत्तर सप्ततत्वै रण्डं चतुर्धश जग दृवधातृधाम । अण्डानि तत्सुसदृशानि परश्शतानि क्रीडाविधे स्तव परिच्छदता मगच्छन्. 40 प्रति :- दशगुण, उत्तर, सप्ततत्वैः = पदि रॆट्लु अधिकमु लगु सप्ततत्वमुल चेत, संवृतम्
कूडिनट्टियु,वैकुण्ठ स्तवमु 89 चतुर्दश, जगत् =पकुनाल्गु भुवनमुलु गलदियु, भव धातृ, धाम = शिवुनकु, ब्रह्मकु, निवास मैनट्टियु, यत् ए, अण्डम् अण्डमु, (अस्तिकलदो) तत्, सु, सदृशानि = दानिकि मिक्किलि समानमु लगु, परश्शतानि = वन्दलकु मिञ्चिन (असङ्ख्याकमु लगु) अण्डानि—अण्ड नीकु, क्री.शावि धेः लीलागोष्टिकि, परिच्छ मुलु. तन दताम्-उपकरण मगुटनु, अगच्छक् पॊन्दिनवि. वि शेषमुलु :- ’ दशगुणोत्तर स पतत्वैः’ पूर्वपूर्व तत्त्वापेक्षचे उ त्तगो तरतत्वमुलु पदिरॆट्लु हॆच्चनि भावमु, ’ स प्ततत्वैः’ पृथिवि, जलमु, अग्नि वायुवु, आकाशमु, अहङ्कारमु, महत्तु अनु नेडु तत्वमुल चेत, असङ्ख्याकमु लगु अण्डमुल निर्माणमुनकुँ ब्रयोजनमु लीलये यन सारांशमु, ’ लोकन त्तु लीलाकै वल्यम् ’ अनि ब्रह्मसूत्रमु कूड साक्ष्य मिच्चु चुन्नदि. ता॥ पूर्वपूर्वतत्वमुलकण्टॆँ बदि रॆट्लु हॆच्चगु नुत्त नो त्तर सप्ततत्वमुलतोँ गूडि पदुनाल्गु भुवनमुल काटपट्टॆ शिवधातृनिवास मैन यण्डमुनु बोलॆडु असङ्ख्याकमुलगु नण्डमुलो वैकुण्ठनाथा! नीकुँ ग्रीडास्थानमुलै युपकरणमुलँ बोलुचुन्नवि. 12 90 वैकुण्ठ स्तवमु गी दशगुणो त्तर सप्ततत्वमुलतोड संवृतं बयि पदुनाल्गुजगमु लॊप्पि हरविरिञ्चुलवारि मौनण्ड मट्टि बहुविधाण्डमुल् नीमाटपट्लु देव! अवतारिक :- पूर्वो क्तविषयमुने यनुवदिञ्चि विश्लेषिं चुचु नित्यविभूतियोगमुनु जॆप्पु चुन्नारु. श्लो॥ इच्छाविहार विधये विहिता स्यमूनि स्यात्वद्विभूतिलवलेशकलायुतांशः । या वै न जातु परिणामपदास्पदं सा कालातिगा तप परा महती विभूतिः ॥
41 प्रति :- इच्छा, विहार, विधये = स्वेच्छाविहार मॊनर्चुट कॊऱकु, विहितानि = सृजिम्पँ बडिन, अमूनि ई. यण्डमुलु, त्वत्……अंशः - त्वत् = नीयॊक्क विभूति महिमयॊक्क, लेश
= लव स्वल्पमुयॊक्क, नलुसुयॊक्क, कला=अतिसूक्ष्म भाग मुयॊक्क आयुत + अंशः = पदि वेलव भागमु, स्यात् अगुनु, या ए विभूति, जातु
ऎन्नँटिकि (ऒक आस्पदम् = परिणमिञ्चु प्पुडु कूड) परिणाम, पद,
नन्न व्यवहारमुनकुँ दावु. न, भवति कादो !,
कालकृत मगु परिणाममुनु गूड नतिक्रमिञ्चिनदो !, सा= आ,
- अतिगा = = परा विभूतिः विभूति (महिम) महती अन्य मगु,
गॊप्पदि. वैकुण्ठ स्तवमु 91 वि शेषमु :- ’ त्व द्विभूतिलव लेशकलायुतांशः ’ ई पदमु नन्दु _ ‘क स्यायु तायुतशतैक कलांशकांशे । विश्वं वीचित्रचिदचित्प्रविभागवृत्तम् ’ अनु स्तोत्ररत्नमुलोनि श्लोकार मनुसन्धिम्पँ बडिनदि. ’ महती विभूतिः ’ पाद्कोस्य विश्वा भूतानि ! त्रिपा दस्यामृतं दीनि - अनुश्रुति यी विषयमुनँ ब्रमाणमु. ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! नी स्वेच्छाविहारमुनकु सृजिम्पँबडिन यीयण्डमु लन्नियु नी विभूति (महिम) यॊक्क लव लेशकलादशसहस्रतमभागमुचे नेर्पडिनवि. ईविभूति कण्टॆनु विलक्षणमै यॆन्नँटिकिनि बरिणाममुँ जॆन्दक कालवशमु गाक मऱियॊक विभूति नीकुँ गलदु. आविभूति चाल गॊप्पदि. गी॥ नीवु स्वेच्छगा विहरिम्प निर्मितै त दण्डमुलु त्वाद्विभूति लेशायु तांश लवकणमु लीश ! मार्पुँ गालम्बु सेँतँ दॆलियनिभवन्महाविभूति यदि वेऱु. अवतारिक :- ई विूँद नैदु श्लोकमुलतोँ बरमपदमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. ॥ य द्वैष्णवं हि परमं पद मामनन्ति खं वा य देव परमं तमसः परस्तात् । तेजोमयं परमसत्वमयं ध्रुवं य दानन्दकन्द मतिनुन्दर मक्भुतं यत् ॥ य 42 वैकुण्ठ स्तवमु 02 प्रति :- यत्
देनिनि, वैष्णवम् परमम्
चुन्नवो, यत् + एव उत्तम मैन, पदम् स्थानमुनुगा (परमपदमुनुगा) आमनन्ति विष्णुसम्बन्धि यगु (वेदमुलु) चॆप्पु देनिने परमम् श्रेष्ठ मगु, खं, वा आकाशमुनु गानु, (आमनन्ति = वेदमुलु चॆप्पुचुन्नवो,) यत् - एदि, तमसः तमोगुणमुनकु, परसात् परम, सत्व, मयम् दियो, यत् एदि,
रूप मैनदियु, ध्रुवम् अगु चुन्नदो,) अतिसुन्दरम् गनुक ने, अद्भुतम् आनन्दकन्दम् चुन्नदो,) तत्
आवलनुं डॆडु नदियो श्रेष्ठ मगु सत्वरूप मैन तेजोमयम् तेजस्स्व स्थिर मैनदियु (भवति = मिक्किलि अन्दमैनदि आश्चर्यकर मगु, यत् = एदी, आनन्द हेतुवु, (भवति = अगु दानिनि, वैकुण्ठनाम वैकुण्ठ मनु पेरुगल, तन नीयॊक्क, धाम स्थानमुनुगा, आमनन्ति सत्यमु, चॆप्पु चुन्नारु, हि विशेषमुलु :- ईमीँदि यैदुश्लोकमुलकुनु ऐदवश्लोकमु लोनि “ वैकुण्ठनाम ! तव धाम त दामनन्ति ’ दानितो 6 अनु नन्वयमु. यद्वैष्णवं ही परमं पद मामनन्ति’ ई पादमुलोनि यरमु ‘त द्विपोः परमं यर्थमु ‘त द्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय्य’ अनु श्रुति सिद्धमु. वैकुण्ठ स्तवमु 6 93 आनन्द खं वा य देव परमम्’ दीनिलोनि विषयमु ‘तद क्ष रे पर मे व्योमन् ’ अनु श्रुति सिद्धमु. कन्दम् यत् वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वार् । न बिभेति कुतश्चन’ इत्यादि श्रुतिबोधित मगु नानन्दमुनकु मूल मनि भावमु. ता॥ वेदमुलु देनिनि विष्णुसम्बन्धि यगु परमपद मनि कॊनियाडुनो देनिनिँ दमोतीत मगु परमाकाश मन्दुरो! एदि तेजोमयमुनु परमसात्विकमुनै स्थिर मुगा नुण्डुनो ! एदि यतिसुन्दरमु नद्भुतमुनै यानन्द हेतु वगुनो! वैकुण्ठमनु नाममु गल दानिनि नीस्थानमुनुगाँ गॊनियाडुदुरु. उ॥ ऎय्यदि विष्णुमूर्ति वसि यिञ्चॆडु नुज्ज्वलदिव्यधाममो ! ऎय्यदि नि स्तमस्क मयि यॆन्निक कॆक्किन मेटिव्योममो ! ऎय्यदि तैजसम्बु ध्रुव मॆय्यदि सात्विक मॆद्दि सुन्दरं बॆय्यदि हर्षदं बॆदि य दे भवदालय मिन्दिरापती! श्लो॥ यद् ब्रह्मरुद्रपुरुहूतमुखै र्दुरा पं नित्यं निवृत्तिनिरतैः सनकादिभि र्वा । 94 वैकुण्ठ स्तवमु सायुज्य मुज्ज्वल मुशन्ति यदापरोक्ष्यं यस्मा त्परं न पद मञ्चित मस्ति किञ्चित् II 43 एदि प्रति :- ब्रह्मरुद्र, पुरुहूत, मुखै ः = सृष्टिक र्त यगु ब्रह्म, संहारक र्त यगु रुद्रुँडु, त्रिलोकाधिपतियगु कर्त देवेन्द्रुँडु मॊदलुगाँ गलवारिचेतनु, यत् दुरापम्=पॊन्द शक्यमु गानिदो, नित्यम् ऎल्लप्पुडु, निवृत्तिनिर तै ः = निवृत्तिमार्गमुनन्दु निष्ठ गल (प्रपत्ति धर्मनिष्ठु लगु) सनकादि भीः वा—सनकुँडु मॊदलुगाँ गलवारिचेत नैननु, (यत् -एदि, दुरापम् पॊन्द शक्यमु गानिदो) यत् + आपरोक्ष्यम् त्कारमुनु, उज्ज्वलम्=मुख्य मगु, सायुज्यम् ज्ञानानं दाद्याविर्भावमुनुगा, उशन्ति - चॆप्पुचुन्नारो यस्मात् = देनिकं टॆ, परम् इतर मगु, अञ्चितम् =
पूजित मगु, पदम्
- देनि सा
- स्थानमु, किञ्चित् == ऒकटियु,
- ना स्ति= लेदो, (वै कुण्ठनाम वैकुण्ठ मनु पेरुगल तत् =दानिनि, तव नीयॊक्क, धाम स्थानमु नुगा, आमनन्ति— चॆप्पुचुन्नारु.)
वि शेषमु :- ‘ब्रह्मरुद्रपुरुहूतमुखैः’ सृष्टिकर्तृत्व, संहारकर्तृत्व, त्रिलो काधिपतित्व, रूपमु लगु होदालतोँ गूडिन वारिकिगूडँ बरमपदमु दुर वाप मनुटचे दानि याधिक्यमु चाटँ बडिनदि. वैकुण्ठ स्तवमु 95 ता॥ सृष्टिक र्तृत्व, संहारकर्तृत्व, त्रैलोक्य पालनकर्तृ त्वादि श क्तुलतोँ गूडिन ब्रह्मरुद्रमहेन्द्र प्रभृ तुल चेतनु, नित्यमु निवृत्तिमार्गनिष्ठु लगु सनकसनन्द नादुलचेतनु एदि पॊन्द शक्यमु गादो, देनि साक्षा त्कारमु मुख्य मगु ज्ञानानन्दाद्याविर्भावमुनु EQ गटाक्षीञ्चुनो, देनिनि मिञ्चिनदि मऱियॊकटि लेदो यदिये वैकुण्ठ मनु पेर नीदिव्यधाम मनि वेदमुलु नुडुवुचुन्नवि. उ॥ ऎय्यदि ब्रह्मरुद्रदीवि जेश्वरमुख्युलकुन् दुरापमो ! ऎय्यदि ज्ञाननिष्ठ विधि हृद्भवतत्सन काद्यग म्यमो! ऎय्यदि कण्टँ बड्ड नुद यिञ्चुनॊ ! चित्प्रमुदाळि, लेदुपो ! ऎय्यदि मिञ्चु वेरॊक ट दे! भवदालय मिन्दिरापती ! रू पेण सद्गुणगणैः परया समृद्धा भावै रुदारमधुरै रपि वा महिम्ना ! तादृक्त दीदृ गिद मि त्युपवर्णयन्त्यो वाचो यदीयविभवस्य तिरस्क्रियायै ॥ 44 प्रति :- रूपेण रूपमुचेतनु, सत्, गुण, गणैः =
योग्यमु लगु गुणसमूहमुल चेतनु, परया== गॊप्प, समृद्ध्या = समृद्धिचेतनु, उदार, मधुरै : -गॊप्प 96 वैकुण्ठ स्तवमु वियु मधुरमु लैनवियु नगु, भापैः = पदार्थमुल a चेतनु, महिम्ना, अपि, वा = महिमचेतनु गूड, तत् = अदि, तादृक् = अट्टिदि, इदम्
- उपवर्णयन्त्यः
- ईदृक् = इट्टिदि, इति = अनि, उपवर्ण यन्त्यः
इदि, पैपैनि वर्णिञ्चुचुन्न, वाचः = वाक्कुलु, यदीय, विभवस्य = ए परमपदमहिमयॊक्क,
- तिरोधानमुकॊऱकु, भवन्ति
- तिरस्क्रि या अगुचुन्नवो)
- वैकुण्ठनाम = वै कुण्ठ मनु पेरु गल, तत् = दानिनि नीयॊक्क, धाम = : स्थानमुनुगा, आमनन्ति =
- तव
- चॆप्पुचुन्नारु.
- P
- वि शेषमुलु :- रूपेण ‘न तत्र सूर्योभाति’ अनु श्रुतिचेँ जॆप्पँ बडिन तेजस्सुचेत, सत्, गुण, गणैः-
- निरतिशयानन्दकरमु लगु गुणसमूहमुलचेत ननि
- भावमु. परया समृद्ध्या- ‘यत्र नान्यत् पश्यति नान्यच्छुणोति’ अनु श्रुतिवाक्यमुन वर्णिम्पँबडिन समृद्धिचेत ननि तात्पर्यमु.
- ‘भावै रुदारमधुरै :’- उदा त्तमुलुनु भोग्यमुलु नगु आस्थानरत्नादुल चेत, यदीय विभवस्य तिरस्क्रि यायै– अनाङ्मनसगोचररूपादिक मगु परमपदमुनु मितिगा वर्णिञ्चुट दानिनि दक्कुवपऱुचुट ये यनि
- भावमु,
- (सशेषमु)
- वैकुण्ठ स्तवमु
- 97
- जेर
- ता॥ रूपमुचेतनु निरतिशयानन्दावहमु लगु कल्याण गुणगणमुल चेतनु अधिकसमृद्धिचेतनु उदार मुलुनु भोग्यमुलु नगु पदार्दमुल चेतनु ब्रह्मादुलकुनु शक्यमुगानि महामहिमचेतनु अदि यट्टिदि, यिदि यिट्टिदि, यनि पै पैनि वर्णिञ्चुवाक्कुलु देनि वैभव मुनु क्रिन्दुसेयु चुन्नवो वैकुण्ठ मनँबडु दानिनि नी निवासमुनुगा ब्रह्मवेत्तलु नुडुवुचुन्नारु. ऊ त्रय्युदितस्वरूपमुनँ द त्तदुदा तलसद्गुणाळि न क्षय्यसमृद्धिचेत नुरुक मपदार्थतति महत्तु चे नय्यदि यट्टि दिट्टि दिदियञ्चु वचिञ्चुनुडुल् यदुन्नति व्रय्यलु सेयु, नट्टिदि भवन्निलयम्बु विकुण्ठ नायका !
- श्लो॥ य द्वृद्यपक्षयविनाशमुखै र्विकारै
- रेतै रसंस्तुत मन स्तमीता स्तीशब्दम् ! यदौरवा चुतीषु फल्गु फलं क्रियाणा मादिष्ट मन्य दसुखोत्तग मध्रुवं च
- 45
- पति :- यत् = एदि, वृद्धि, अपक्षय, विनाश, मुखैः=
- पॆऱुँगुट, तऱुगुट, नशिञ्चुट, मॊदलुगा गल, एतैः ई, विकारै ः=मार्पुलतो, असंस्तुतम् = परिचयमु लेनिदो, अन_स्तमित, अस्ति, शब्दम् =अस्तमिञ्चनि ‘अस्ति’ (कलदु) अनुशब्दमु कलदियो, यद्गारवात् 13 देनि 93 वैकुण्ठ स्तवमु गौरवमुवलन, श्रुतिषु = वेदमुलन्दु, अन्यत् = इतर मैन, क्रियाणाम्=ज्योतिष्टोमादि कर्ममुलयॊक्क, फलम् फलमु, फल्गु = निस्सार मैनदिगनु असुख, उत्त रम्= दुःखोदर्कमुगनु, अध्रुवञ्च—अस्थिरमुगनु, आदिष्टम् — चॆप्पुँ बडिनदो (वैकुण्ठ नाम ==वैकुण्ठमनु पेरुगल) तत् = दानिनि, तव=नीयॊक्क, धाम=स्थान मुनुगा, आमनन्ति = (ब्रह्मविदुलु) चॆप्पु चुन्नारु. विशेषमुलु– वृद्ध ्यपक्षयविनाशमुखै 8 - मुखशब्दमु चेत जननमु, परिणाममु, ग्राह्यमुलु, अन स्तमिता स्तीशब्दम्– ‘सदा पश्यन्ति सूरयः, अनि युण्डुटचे वै कुण्ठमु त्रिकालमुलन्दु अस्ति (कलदु) अनु शब्दमुनके पात्र मनि भावमु. ‘अस्ति’ (उन्नदि) 2 जायते (पुट्टुचुन्नदि) 3 परिणमते (मारुचुन्नदि) 4 एध ते (वृद्धि चॆन्दु चुन्नदि) 5 अपचीयते (तग्गिपोवुचुन्नदि) ते चॆन्दुचुन्नदि) ते प्रणश्यति (नशिञ्चिपोवुचुन्नदि) अनॆडु षड्भाविकार मुललो ‘अ स्ति’ अनुनदि यॊकटिये परमपदमुनन्दुँ गलदु कानि तक्किन यैदु विकारमुलुनु लेवनि तात्पर्यमु. दीनि चेँ बरमपदमहिम मनन्यादृश मनि तॆलियुचुन्नदि. 6 1 त दक्ष रे परमे व्योमन् 2 त द्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः न च पुन रावर्तते 4 तेह नाकं महिमान स्सचन्ते यत्र पूर्वे साध्यास्सन्ति देवाः——इत्यादुलन्दु नित्यमु कनिरन्तरानुभाव्य मगुवैकुण्ठ स्तव मु 99 परमपदमु यॊक्क गौरवमु विशदीकरिम्पँ बडिनदि. कर्म प्राप्य मगु स्वर्गादिकमु न्यूनतयु ई क्रिन्दि प्रमाणमु लन्दु निरूपिम्पँ बडिनदि.
- गतागतं कामकामा लभन्ते
- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति इच्चटँ गर्मचित मगुलोकमु क्षीणिञ्चुनट्ले परत्र कूडँ बुण्यचितमु लगु लोकमुलुनु क्षीणिञ्चुनु. अनुतर्कमु सैत मिन्दुल कनुकूलमु. ता॥ एदि षड्विध भावविकारमुललो ‘अस्ति’ अनुनदि तप्पँ दक्किनमार्पुलु लेनिदो, वेदमुलु देनिपै भवमुनु बुरस्करिञ्चुकॊनि यन्य मगु ज्योतिष्टोमादुल फलमु निस्सारमु दुःखोदर्कमु अस्थिर मनि चाटॆनो, यट्टि वैकुण्ठपती ! नी नॆलवनि ब्रह्मविदुलु परमपद मे नुडुवु चुन्नारु. उ॥ ऎय्यदि वृद्धि क्षीणत ल यिञ्चुट मुन्न गुमार्पु लन्ददो, ऎय्यदि ’ अ स्ति’ शब्दमुन के नॆलवो, त्रयि देनि गौरवं बॊय्यनँ जाटु यज्ञ फल मून मसारमु दुःख हेतुवु क्षय्य मटञ्चुँ बल्कि यदॆ ! गा ! भवदालय मिन्दिरापती! 100 वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ निष्कल्मषैर्निहतजन्म जरावि कारै र्भूयिष्ट भ क्तिविध वै रभवै रवाप्यम् । अन्यै धन्यपुरुपै र्मनसाऒप्य नाप्यं वैकुण्ठ नानु तप भारत दामनन्ति ॥ षॆः =
46 प्रति :- निष्कल्मषैः कल्मषमु लेनट्टियु, अभवैः संसारेच्छ ले नट्टियु, भूयिष्ट भक्ति, विभवैः अत्यधिक मगु भ क्तिवैभवमु गलट्टियु, निहत, जन्म, जरा, विकारैः कॊट्टिवेयँबडिन पुट्टुवु मुदिमि मार्पुलुगल धन्युल चेत, अवाप्यम् = पॊन्दँदगिनदियु, अन्यैः==इतरुलगु. अधन्यपुरुषैः - निर्भाग्युल चेत, मनसा, अपि—मनस्सुचेतँ गूड, अनाप्यम्
पॊन्द शक्यमु गानिदियु, (अगु) वैकुण्ठनाम= वैकुण्ठ मनु पेरु गल, तत् = दानिनि, तव नीयॊक्क, धाम= स्थानमुनुगा, आमनन्ति = चॆप्पु चुन्नारु. विशेषमुलु .= निष्कल्मषैः - कर्मयोगानुष्टानमु चेतँ बोयिन पापमु गल, अभवैः - ज्ञानयोगमु संसा रेच्छारहितुलु, भूयिष्ठ, भक्ति, विभवै :- भक्ति योगनिष्ठुलु, अगु धन्युलचेत ननि भावमु. वैकुण्ठनाम तव धाम त दामनन्ति - आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्- यो2स्याध्यक्षः परमे व्योमन् इत्यादि श्रुतु लिन्दुलकुँ ब्रमाणमु. वैकुण्ठ स्तवमु 101 ताक कर्मयोगानुस्थानमुचे निर्धूत पापुलुनु, ज्ञानयोग मुचे संसा रेच्छारहितुलुनु, भक्तियोगमुचे जन्म जराविकारमुलनु रूपुमापुकॊन्नवाकु नगु धन्युल चेत नेदि प्राप्यमो, कर्मज्ञानभक्तिविहीनु लगु सभा худо केदि मनस्सुचे नैन नगम्यमो वैकुण्ठ मनु पेरु गल यदि वैकुण्ठपती ! नी निवास मनि वेदमुलु पल्कुनु. उ॥ ऎय्यदि वीत कल्मषुलु हिंसितजन्मज रावि कारुलुस् जय्यभवामयुल् परम सत्वुलु भ क्तुलचे नवाप्यमो, ऎय्यदि भाग्यहीनुलकु नॆड्डँ दलम्पँग ने नशक्यमो अय्यदिये भवन्नि लय मैन विकुण्ठ मटन्दु रच्युता ! अवतारिक :- वैकुण्ठ वै भववर्णनमु नुपसंहरिञ्चुचु भग वानुनि यतिशयान्तरमुनु जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ नित्या तवान्यनिर पेक्ष महामहिम्नो 2 प्येतादृश्री निरवधि र्नियता विभूतिः । ज्ञानादयो गुणगणाः समतीतसीमा लक्ष्मीः प्रिया परिजनाः पत’गेन्द्रमुख्याः । 47 102 वैकुण्ठ स्तवमु इतरा पेक्ष प्रति :- अन्य, निर पेक्ष, महत्, महिम्नः लेनि गॊप्पमहिम गल, तप+अपि नीकुनु, नित्या == शाश्वत मैनट्टियु, निरवधिः - हद्दु लेनट्टियु, एता दृशी इटुवण्टि, विभूतिः वैभवमु, नियता = ऎडँ बायनिदिगा (भवति अगुचुन्नदि) समतीत, सीमाः = अतिक्रमिम्पँ बडिन हद्दु गल, (अन्तमु लेनि) ज्ञाना दयः=ज्ञानमु कासमु मॊदलुगा- गल, गुणगणाः = गुण समूहम लु, (नियताः=ऎडँ बायनिवि, भवन्ति.. अगुचुन्नवि) प्रिया प्रियुरालगु, लक्ष्मीः लक्ष्मी देवि (नियता -ऎडँबायनिदि, भवति अगुचुन्नदि) पतिग + इन्द्र, मुख्याः — पक्षुलकु राजैन गरुत्मन्तुँडु मॊदलु गाँगल, परिजनाः सेवकुलु, (नियताः बायनिवारु, भवन्ति अगु चुन्नारु)
ऎडं विशेषमुलु :- ज्ञानादयः ईपदमु चेत स्वरूपनिरूप कमु लगु ज्ञानानन्दादुलुनु, निरूपितस्वरूपविशेषण भूतमु लगु ज्ञानशक्त्यादुलुनु ग्रहिम्पँ बडुचुन्नवि. लक्ष्मीः प्रिया (नियता)-प्रियुरालैन लक्ष्मि भगवन्तुनि ऎन्नँडु नॆडँ बायदु. इन्दुलकुँ ब्रमाणमु. “राघवत्वे2भव त्सीता ! रुक्मिणी कृष्णजन्मनि आ न्येषु चावता रेषु । विष्णो रेषा ऒनपायिनी॥ श्रीमन्नारायणमूर्ति रामकृष्णुलुगा नवतरिञ्चि नप्पुडु श्रीमहालक्ष्मि सीतगा रुक्मिणिगा नवतरिं चॆनु. इत वैकुण्ठ स्त व मु 103 रावतारमुलन्दुनु श्रीमहालक्ष्मि यॆन्नँडुनु श्रीमहा विष्णुवु नॆडँ बासि युण्डदु. अनि पै श्लोकमुनकु भावमु. पत गेन्द्रमुख्याः- परिवारमुलो गरुत्मन्तुनकु मुख्यत्व मॆट्लन ? वेदमयुँ डगुट चेतनु, भगवन्तुनि स्वरूपरूपगुणविभू त्यादुलनु नित्यमु सन्निधिलो नुण्डि यनुभविञ्चुटकु अद्दमुवण्टिवाँ डगुट चेतनु अनि तॆलिय वलॆनु. श्रीपराशरभट्टारकुलु गूड ‘श्रुतिमय’ मनु श्लोकमुन नी विषयमुनु अनुसन्धिञ्चियुन्नारु. ता॥ ओ वैकुण्ठनाथा ! कारणान्तर निरपेक्षक मगु महा महिममु गल देवरवारिकिनि नित्ययु निरवधिकयु नगु निट्टि विभूतियु, अनन्तानन्तमु लगु ज्ञानानन्दादि गुणगणमुलुनु, प्रियुरालगु लक्ष्मियु, गरुत्मन्मुख्यु लगु परिजनुलुनु नित्यमु नियतभोगोपकरणमुलु. च॥ परनिर पेक्षकं बगुन पारमहामहिमम्बु गल्गु दे वरकुनु शाश्वतम्बु निर पद्य मनन्त मिदं विभूतियुन्, निरवधुला चिदादिगण नीयगुणम्बुलु, लक्ष्मीयुन् हृदी श्वरि, पतगेन्द्रमुख्यपरि चारुलु पायनि नित्यभोग्यमुल् • 104 वैकुण्ठ स्तवमु अवतारिक :. इप्पुडु भगवद्गुणमुलकु सर्वविधमुल नतिशय मुनु, वानिजोक्यमु लेकये भगवानुनि काधिक्यमु कलि मियु, वर्णिञ्चु चुन्नारु, श्लो॥ एकस्य येषु हि गुणस्य लवायुतांशः स्यात् कस्यचित् स खलु वाङ्म = सातिग श्रीः । ते तादृशो ऒत्यवधयः समतीत सङ्ख्या स्वत्सदुणा स्वमसि तन्निर पेक्ष लक्ष्मीः! 48 प्रति :- येषु= एनीगुणमुलन्दु, एक स्य ऒक, गुणस्य गुणमुयॊक्क, लव, अयुत, अंशः = लेशमु यॊक्क पदि वेलव भागमु, कस्यचित् • ऎवनि केनि यॊकनिकि, स्यात् (यदि) - उन्न यॆडल, ही = आ कारणमुचेत, सः=वाँडु, वाङ्मनस, अतिग, श्रीः = वाक्कुनु मनस्सुनु अतिक्रमिञ्चिनशोभ गलवाँडु, स्यात् खलु = अगुनु गदा!, तादृशः = अट्टिवियु, अत्यवधयः = हद्दुनु मीऱिनट्टिवियु, ते - प्रसिद्धमु लगु, त्वत्, सत्, गुणाः= नीकल्याणगुणमुलु, समतीति, सङ्ख्याः = सङ्ख्य सतिक्र मिञ्चिनवि (असङ्ख्याकमुलु, भवन्ति अगुचुन्नवि) त्वम् - नीवु, तन्निर पेक्षुलक्ष्मीः = आगुणमुलतो अपेक्ष. लेनिसम्पद गलवाँडवु, असि 1=3 अगुचुन्नावु.
विशेषमु :- ’ त्व मसि तन्निर पेक्ष लक्ष्मीः ’ ओवै कुण्ठपती ! नीयतिशयमु नीकल्याणगुणाय त्तमुकादु. मजेमनगा स्वाभाविकमु– स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च- अनि श्रुति. नैकुण्ठ स व मु 105 ता॥ ओ वैकुण्ठपती! देवर वारि गुणमुललो ऒक गुणमु यॊक्क लेशमुलोँ बडि नेलव वन्तु भाग मॆवरिकेनि कलिगियुन्न चो अतँडु वाक्कुलकु मनस्सुनकु नन्दनि यतिशयमु गलवाँ डगुनु. अट्टि निरवधिक महीममु लगु देवर वारि कल्याणगुणमु लसङ्ख्याकमुलै युन्नवि. कानि देवरवारि यतिशय माकल्याणगु · मुलमीँद नाधारपडि युण्ड लेदु. अदि स्वाभाविकमु. उ॥ देवरवारि सद्गुणति ति९ गलयॊक्क गुणम्बुलो लवं बै विलसिल्लुदानि युयु तांशमु गल्गिनवाँ डतीत वा ग्भावमहाप्रभावुँ डगु, वारिजलोचन ! यट्टिमेल्गॊनाल् तावकमुल् प्रसङ्ख्यमुलु तन्निर पेक्षमु नीमह त्त्वमु. अवतारिक :- पूर्वो क्तविषयमुने विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ सर्वस्य चैव गुणतो हि विलक्षणत्व मैश्वर्यत श्च किल कश्चि दुदञ्चितः स्यात् : तत् प्रत्युत त्वयि विभो! विभवो गुणाश्च सम्बन्धत स्तव भजन्ति हि मङ्गळक्वम् ॥ 49 प्रति :- सर्वस्य, च = प्रतिमानवुनकुनु, विलक्षणत्वम् = आधिक्यमु, गुणतः एव - गुणमुलवलनने, हि = अगु 14 106 उचित - वैकुण्ठ स्तवमु
चुन्नदि, (गुणवन्तुन के याधिक्यमनि भावमु) कश्चित् - ऒकानॊकँडु, ऐश्वर्यतः=च, कील ऐश्वर्यमुवलनँ गूडि, मिक्किलि पूजिम्पँ बडुवाँडु, स्यात् = अगुनु, `हेविभो ओ वैकुण्ठपती ! तत् =आयुभय मुनु, त्वयि = नीयन्दु, प्रत्युत = पै पॆच्चु (विपरी तम्=विरुद्धमु) ही-ऎन्दुक नँगा, विभवः ऐश्वर्यमुनु गुणाश्च - गुणमुलुनु, तन = नीयॊक्क, सम्बन्धतः = सम्बन्धमु वलन, मङ्गळत्वम् कल्याणत्वमुनु, भजन्ति—पॊन्दुचुन्नवि. वि शेषमुलु :- विलक्षणत्वम्- सजातीयेभ्यः उत्कृष्टत्वम्- तम जातिवारिकण्टॆ आधिक्यमु, 0 प्रत्युत- विपरीत मिति शेषः - नीयन्दु ऐश्वर्यमु गुण मुलु आधिक्यमुनु गल्गिम्पक पोँगाँ बै पॆच्चु नी सम्बन्धमु वलन अविये मङ्गळत्वमुनु बॊन्दुकुन्नवि. इट्लनुट चेत नी यतिशयमु ऐश्वर्यमुचेतँ गानि गुणमुल चेतँ गानि क्रॊत्तगा वच्चिनदिगादु. स्वाभाविकमैनदे यनि भावमु. जीवुनियन्दु ज्ञानानन्दादि स्वरूपगुणमु ज्ञानशक्त्यादि धर्मभूतगुणमु उन्ननु अदि ‘स एको मानुष आनन्दः’ इत्यादुलन्दुँ बरिच्छिन्नमुगाने कनँबडुचुन्नदि. आ गुण मुले नी सम्बन्धमुचेत ‘यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्यमनसा सह’ इत्यादुलन्दु अपरिच्छिन्नमुलै वैकुण्ठ स्तवमु 107 यॊप्पुचुन्नवि. कनुकने गुणमुल यतिशयमु स्वरूप प्रयु क्तमु का दनि सम्प्रदायज्ञुलनू क्ति ता॥ ओ वै कुण्ठनाथा! लोकमुलो नन्दऱकु गुणमुलवल नने याधिक्यमु गल्गुचुन्नदि. ऒकानॊकँ डैश्वर्यमु वलनँ गूडँ बूजिम्पँ बडुचुन्नाडु. देवा! रॆण्डुनु नी यॆडल विशुद्धमुलुगाँ गन्पडु चुन्नवि. ऐश्वर्यमु, गुणमुलु नी सम्बन्धमुवलनने कल्याणत्व मुनु बॊन्दुचुन्नवि. च॥ गुणमुलँ बट्टि यॆल्लरकु गॊप्पतनम्बु घटिल्लु, नॊक्कचो गणुति वहिञ्चु वैभवमु कल्मि नॊकानॊकरुण्डु दैवता ग्रणि! यिवि रॆण्डु नीयॆडलँ गल्ल विरुद्धमु गूड, भूतियुन् गुणमुलु नीदु सङ्गति वि कुण्ठपती ! क नॆ मङ्गळत्वमुन् . अवतारिक :- अश्लेनि निर्गुणश्रुतिकि गतियेमि? यन्न चोँ जॆप्पु चुन्नारु. श्लो॥ दूरे गुणा स्तव तु सत्वरजस्तमांसि तेन त्रयी प्रथयति त्वयि निर्गुणत्वम् । नित्यं हरे ! नि खिलसद्गुणसागरं हि त्वा मामनन्ति पर मेश्वर मीश्वराणाम् ॥ 50 108 वैकुण्ठ स्तवमु प्रति :- हेह रे!=ओपै कुण्ठपती!, सत्व रजः तमांसी सत्वमु, रजस्सु, तमस्सु, (अनाडु) गुणाः, तु =गुणमु लन्ननो, तव — नीकु, दूरे= दूरमुनन्दु, (भवन्ति= उन्नवि) नी वागुणमुलचेतँ दाँकँ बडनि केवलशुद्ध सत्वगुणाकरुँडवनि भावमु, तेन आकारणमुचेत, त्रयी वेदत्रयमु, त्वयि नी मुन्दु, निर्गुणत्वम्= गुणराहित्यमुनु, प्रथयति वॆल्लडिञ्चुचुन्नदि, ईश्व राणाम्=ऐश्वर्यवन्तुललो, पर मेश्वरम् = पर मॆ मै श्वर्यवन्तुँड नगु, त्वाम् निन्नु, नित्यम् ऎल्लप्पुडु, निखिल, सत्, गुण, सागरम् = समस्तकल्याण गुणमु लकु, समुद्रुनिवण्टिवानिनिगा, अमनन्ति चॆप्पुचुन्नारु, हि=सत्यमु, वि शेषमुलु :- ‘दूरे गुणा स्तव तु सत्वरज_स्तमांसि,– इन्दुलकुँ ब्रमाणमु ‘सत्वादयो न सन्तीशे यत ‘स्ते प्रकृतेर्गुणाः’ सत्वरजस्तमोगुणमुलु ‘प्रकृतिवि गनुकँ बरमात्मयन्दु लेवु. अन्दुवलनँ बरमात्म निर्गुणुँडु. ‘परमेश्वर मीश्वराणाम्’-त विश्वराणां परमं महेश्वरम् अनि प्रमाणमु. दीनिचेत ईश्व रुनिकि सगुणत्वमु परब्रह्मकु निर्गुणत्वमु कलदनु माटयुनिर स्त मैनदि. ’ निखिलसद्गुणसागरम् ’ निखिलसद्गुण मुलकु सागर मनि चॆप्पुटचेत गुणमुल कपरिच्छिन्नत्वमु सूचिम्पँ बडिनदि.वैकुण्ठ स्तव मु , 109 आगुणमुलनु ‘य स्सर्वज्ञः सर्ववित्, पराजस्य शक्ति र्विविधैन श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च, सत्य न कामः सत्यसङ्कल्पः ’ इत्यादि श्रुतुलु वर्णिञ्चुचुन्नवि. ता॥ ओ वै कुण्ठनाथा ! सत्वरजस्तमोगुणमुलु नीकुँ जाल दव्वुन नुन्नवि. कावुन वेदमुलु निन्नु ‘निर्गुणुँ डनि नुडुवुचुन्नवि. ईश्वरुलकु सैतमु पर मेश्वरुँड वगु निन्नु निगममुलु निखिलसद्गुण समुद्रुँड वनि वर्णिञ्चु चुन्नवि. च॥ निलुचुनु नीकु दूरमुन ने यलसत्वरजस्तमोगुणं बुलु मऱि दानिचे निगम मुल् निनु निर्गुणुँ डञ्चुँ जाटुँबो !! आलघुविभूति ! यीश्वरुल कन्दऱकुं बर बर मेश्वरुण्ड पै वॆलिँगॆनुनिन्नुँ बेरुकॊनु वेदमु सद्गुण वारिराशि गा९॥ अवतारिक :- ज्ञानस्वरूपुँ डगुभ ग वन्तुनकु ज्ञानगुणकत्व मॆट्लु? रॆण्डिटियन्दुनु ज्ञानत्वमु समान मगुटचे गुणगुणि भाव मुपपन्नमु गादु गदा! अनुशङ्कनु दृष्टान्त मुखमुनँ बरिहरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ ज्ञानात्मव स्तव त देव गुणं गृणन्ति तेजोमयस्य हि मणे रुण एव तेजः । 110 वैकुण्ठ स्तवमु तेनैन विश्व मपरोक्ष मुदीक्ष से त्वं रक्षा तदीक्षणत एव यतो ऒखिलस्य ॥ 51 प्रति := ज्ञान + आत्मनः===ज्ञानस्वरूपुँड वगु, तव नीकु, तत् + एव आ ज्ञानमे, गुणम्=गुण मुनुगा (धर्ममु नुगा) गृणन्ति चॆप्पुचुन्नारु. (ब्रह्मविदुलनि भावमु) हि—ऎन्दुवलन ननँगा, तेजोमयस्य
- तेजोरूप
- मगु, मणेः=मणिकी, तेजः प्रभ, गुण एव = गुणमे
- गदा! यतः=ऎन्दुवलन, आखिलस्य = सम स्तप्राणि वर्गमुनकु, र= रक्षणमु, त्वत् + ईक्षणतःपव= नी चूपुवलन ने भवति अगुचुन्नदो, ततः=अन्दुवलन, तेन, एव आ ज्ञानमुचेत ने. त्वम् नीवु, विश्वम् = सम स्त अपरोक्षम् प्रत्यक्षमुगा, उदीक्ष से = चूचु मुनु, चुन्नावु. विशेषमुलु– तेजोमयस्य ही मणेः- मणेः = रत्नमु सकु, द्युमणिकि (सूर्युनकु) तेजस्सुद्रव्य मैननु आश्रयाश्रयि भाव नियममुचेत प्रभाप्रभावद्रूपमुन गुणिगुण भाव मुपपन्न मगुनट्ले ज्ञानमु द्रव्य मैननु स्वरूपभूतज्ञानमुनकु धर्मभूत ज्ञानमुनकुनु आश्रयाश्रयि भावमु नियतमुगा नुण्डुट चेत गुणिगुणभाव मुपपन्न मगुचुन्नदि. ज्ञानमु ने ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! ज्ञानस्वरूपुँड नगु नीका धर्ममुनुगा ब्रह्मविदुलु नुडुवु चुन्नारु. ऎट्लनँगा वैकुण्ठ स्तवमु 111 तेजोरूप मगुमणिकिँ देजमे गुणमुगदा ! सकलजीव राशिकि . नी करुणावलोकनमु रक्ष गावुन नीवाज्ञानमु चेत ने सम स्तमुनु ब्रत्यक्षमुगाँ जूचुचुन्नावु. ज्ञानरूपुँड वै ननी कल ज्ञानमे गुण मञ्चु वि ज्ञानु लण्ड्रु गुणम्बु तेजमे गा ज्वलन्मणि कॆन्दु नेस् सूनृतप्रिय ! नीदुचल्लनि चूपॆ चेतन रक्षयाँ गान ज्ञानमुचेतने समु खानँ गान्तुवु विश्वमुन् . अवतारिक :- पूर्वमु भगवत्स्वरूप निरूपण प्रकरणमु नन्दुँ ब्रतिपादित मगु आनन्दमु यॊक्क यपरिच्छिन्न त्यमुने गुणप्रकरणमुनन्दु विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ त्रय्युन्यता तन युवत्वमुखै र्गुणाघ रानन्द मेधत मियानिति सन्नियन्तुम् । तेये शतं त्विति परम्परया प्रवृत्ता नैवैन वाङ्मनसगोचर इ त्युदाह ॥ 52
- प्रति : _ तव—नीयॊक्क, एधितम् वृद्धि चॆन्दिन, आनन्दम्
- आनन्दमुनु, युवत्व, मुखैः यौवनमु मॊदलुगाँ गल, गुण, ओघैः गुणसमूहमुल चेत, इयाज्,
- इति—इन्तपरिमाणमु गलदि यनि, सन्नि यन्तुम् चक्कँगा विभजिञ्चुटकु, उद्युक्ता उद्यमिञ्चिन दै, 112 त्रयी वैकुण्ठ स्तवमु आनन्दवल्लि, परम्परया =
नॊकटिगा, ते ये शतम्, इति, प्रवृत्तातेयेशतम्, अनु चॊप्पुनँ ब्रवर्तिल्लि नदै, एमः तु = ई ब्रह्मानन्द मन्ननो, वाङ्मनस, गोचरः = नाक्कुलकु, मनस्सुनकु गोचरिञ्चुनदि, न+ एव = काने कादु, इति उ
अनि, गट्टिगाँ जॆप्पिनदि, अन्दऱकुँ दॆलियुनट्लु पॆद्दगाँ जॆप्पिन दनि भावमु. वि शेषमुलु := युवत्वमु भैः 2 आनन्द तारतम्यमुनु स्या त्साधु युवाध्यायकः’ ई प्रकारमुगा नुपक्रमिञ्चि, ते ये शत मितिप्रवृत्ता ‘तेयेशतं मानुषानन्दाः’ पूर्वो क्तमुलन्दु आनन्दमुनकुँ बर्यवसानमु गोचरिं चकपोवुटवलन ‘ते ये शतम्’ अनुचुँ ब्रवृतयै " नै वै ष वाङ्मनसगोचर इत्युदाह - ईब्रह्मानन्दमु मनोवाचामगोचर मनि गट्टिगाँ जाटिन दनि भावमु. ईविषयमुनु आनन्दवल्लि युवा स्यात् साधु युवा ध्यायकः आशिष्ठ द्रढिस्ट्तो बलिष्ठः तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष अनन्दः । ते ये शतं मानुषाः आनन्दाः ! अनि आरम्भिञ्चि, ते ये शतं प्रजाप ते गानन्दाः । स एको ब्रह्मण आनन्दः- अनि नुडिवि पिदप - यतो वाचो निवर्तन्ते ! अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् अनि युपसंहरिं चॆनु. (सशेषमु) वैकुण्ठ स्तवमु 113 ता! ओ वैकुण्ठनाथा ! प्रवृद्ध मगुनीयानन्दमु नानन्द वल्लि (त्रयि) यौवनमुख्यमुलगु गुणसमूहमुल चेत निन्तपरिमाणमु गलदि (इट्टिदि) अनि कॊलुचुटकुँ बूनिनदै पूर्वपूर्वानन्दमुलन्दुँ बर्यवसानमु कनँबडक पोवुटवलन ‘ते येशतम्’ अनि नडुम विवरण मुनकु दिगिनदै चिवर कीयानन्दमु मनस्सुनकुनु वाक्कु लकु नन्द दानि सर्वजनुलकुँ दॆलियुनट्लु पॆद्दगा नुडिविनदि. शा॥नीयानन्दवि शेष मिट्टि दीनि व र्णिम्पं गँ दारुण्यवि (2) द्यायोगादिगुणाळिचेँ दॊलुतँ ब्र साविञ्चि, ‘ते ये शत’ प्रायो क्लिक् विवरिञ्चि कॊन्त नडुम९ वाक्रुच्चॆ वाज्मानसा” मेयं बञ्चुँ द्रयीमतल्लि यन स्वा मी ! शक्तुलेतक्कॊरुल्- अवतारिक :- आनन्दगुणमुनकुँ जॆप्पँबडिन अवाङ्मनसगोच रत्वमु स्थालीपुलाक न्यायमुन भगवन्तुनि सकलकल्याण गुणमुलकुनु अपरिच्छिन्नत्व प्रदर्शनमुन कनि यी श्लोक मुन नुडुवु चुन्नारु. 15 114 ♡ वैकुण्ठ स्तवमु शो॥एवं तया चतु या तन यौवनाद्याः सर्वे गुणा स्सह समस्तविभूतिभि श्च । प्रव्याहृताः स्यु रवधी नावधीरयन्तो वाचा मगोचर महामहिमान एव॥ प्रति– चतुरया 3
नेर्पुगल, तया 53 आआनन्दवल्लि चेत, एवम्=इट्लु, तव=नीयॊक्क, यौवनाद्याः = नमु मॊदलुगाँ गल, सर्वे = समस्तमु लगु, गुणाः= · गुणमुलु, समस्तविभूतिभि श्च, सह==सकलवै भवमु लतोँ गूड, अवधीन् हद्दुलनु, अनधीरयन्तः = तिरस्करिञ्चुचु, वाचाम् = वाक्कुलकु, (मनस्सुनकुनु) अगोचर, महत्, महिमानः, एव अन्दनिमहा महिम गलविगने, प्रव्याहृताः अधिकमुगाँ बलुकँ बडिनवि, स्युः= अगुनु. वि शेषमुलु– चतुरुया - आनन्तर गुणमुलकुनु, विभूतु लकुनु, अपरिच्छिन्नत्वमुनु ब्रतिपादिञ्चुटयन्दु समर्थ यनि भावमु. यावनाद्याः, सर्वे, गुणाः - यौवन सौन्द र्यादि शारीर गुणमुलु, ज्ञानादिस्वरूपगुणमुलुनु, अनि तात्प र्यमु, वाचाम् - वाक् शब्दमु मनस्सुनकुनु उपलक्षणमु, वाङ्मनसमुल कनि यर्गमु, ता॥ आनं देतरगुणमुलकुनु विभूतुलकुनु अपरिच्छिन्नत्व मुनु जाट समर्थ यगु नानन्दवल्लि चेत नी चॆप्पँ - बडिन वैकुण्ठ स्तवमु 115 विधमुगा नी यौवन सौन्दर्याधि शारीरगुणमुलुनु ज्ञानादिस्वरूपगुणमुलुनु सम स्तविभूतुलतोँ बाटु निर वधिक मुलु न वाज्मानसगोचरमुलु नगु महामहिम गलविग ने चॆप्पँ बडिनट्लय्यॆनु.
- शा॥ आनन्दं बटॆ नीदुयौवनसुरू पादुल् गुणानीकमुल् नानादिव्यविभूतुलुन् निरुपमा नं त्यापरिच्छिन्न ता स्थानुल् वाङ्मनसातिशायिमहीम स्तव्यम्बुले यञ्चु न य्यानन्दाभिधवल्लि नेर्पु मॆयि व्या हारिञ्चु लक्ष्मीपती ! अव तारिक :– इप्पुडु सङ्कल्प रूप मगु भगवन्तुनि ज्ञान वि शेष मुन कपरिच्छिन्न महिमत्वमुनु नुडुवु चुन्नारु, ‘श्लो॥ संवर्तवर्ति निखिलं निरभिज्ञ मज्ञं प्रति च चित्रे च कर्मणी यथार्ह महो नियच्छन् । सद्यः क्रिमिद्रुहिणभेद मभेद मेत जाविश्छकर्थ सकृदीक्षण दीक्ष णेन ॥
54 :- संवर्तवर्ति = प्रळयमुनं दुण्डुनट्टियु, अभे दम् - विभजिञ्चुटकु वीलु गानिदियु (सूक्ष्मदशनु बॊन्दि नदियु), निरभिज्ञम्=अनुभवरूप मगुज्ञानमु लेनि दियु, अज्ञम्= प्रत्यभिज्ञारूप मगुज्ञानमु लेनिदियु, 116 वैकुण्ठ स्तव मु
निखिलम् = समस्त मगु, एतत् = ई प्राणिलोकमुनु, कर्मणि=दानि कर्ममु, चित्रेच = (सत्यपि) विचित्र मैन दैननु, सकृत्, ईक्षण, दीक्ष णेन ऒक मारुचूचुट यनु दीक्ष चेत (सङ्कल्पमुचेत) यथार्हम् = त त्त त्कर्मानुरूपमुगा, नियच्छक् = नियमिञ्चुचु, सद्यः = तक्षणमे, कृमिद्रुहिण भेदम् - पुरुगु ‘मॊदलु कॊनि ब्रह्मवऱकु भेदमु गलिगिन दानिनिगा, अधीनम्= क्ष पातशून्यमुगा, आविश्चकः = आविर्भविम्पँ जेसितिवि, अहो! = औरा! कनुक नीसङ्कल्पमु महाप्रभावमु गलदि यनि भावमु.) पक्ष
- Ф
- विशेषमुलु– कारणवाक्यमुलं दन्निण्टियन्दुनु सृष्टि
- प्रळयपूर्वकमुग ने वर्णिम्पँबडिनदि. ऎट्लन?
- 1.स
- 1 स देव सौम्येद मग्र आसीत्, 2 ब्रह्म वा इद
- मेक एवाग्र आसीत्, 3 इत्यादि वेद वाक्कुलु,
- मनुस्मृति.
- आत्मा वा इदमेक ऎवाग्र आसीत्,
- 4 आसीदिदन्तमो भूतम्
- इट्ले यीश्लोकमुनन्दुनु सृष्टि प्रळयपूर्वकमुगा निरूपिम्पँ बडिनदि. सकृदीक्ष, णदीक्ष णेन त दै क्षत
- णेन—त दैक्षत बहुस्या मिति सङ्क ल्पि___
- ता॥ ओवै कुण्ठपती ! विभजिम्प वीलु गानि सूक्ष्मदशनु जॆन्दि यनुभवज्ञानशून्यमै प्रत्यभिज्ञारहितमै प्रळयमुलो
- वैकुण्ठ स्तवमु
- 117
- नुन्न समस्त मगु नी प्राणिलोकमुनु दानिदानि कर्म विशेषमु चित्रचित्र मैन दैननु ऒकमारु समीक्षण सङ्कल्पमु चेतँ दत्तत्क र्मानुगुणमुगा नियमिञ्चुचु वैषम्यमु गानि नैर्घृण्यमु गानि लेकुण्ड वॆण्टने कृमि
- मॊदलु ब्रह्मवऱकुँ गल भेदमुतो वानिनि सृजिं चुचुन्नावु औरा! नीसङ्कल्पमु महामहिममु गलदि. गी. प्रळयमुन सूक्ष्मदश नविभाज्य मगुचु
- ननुभ वप्रत्यभिज्ञ ल ल नॆनयकुण्डु
- जन्तुजालमुँ गर्मवश्यमु सृजिन्तु सममुगा नाकृमिविधातृकमु रमेश !
- भङ्ग्यन्तरमु
- म॥ प्रळयम्बं दतिसूक्ष्मतादशकुँ ब्रा
- पै, येर्पऱिम्पङ्गँ दा
- वलमुं गा कनुभूतिशून्यमु विलु प्रत्यभिज्ञम्बु प्रा
- णुलवर्गम्बु विचित्रकर्मवश मे
- नोदूर! याकिट मा
- जलजातासन मॊक्कभङ्गि सकृदी
- तॆदीक्ष, सृष्टिन्तुवौ ॥
- अवतारिक :- इप्पुडु सङ्कल्पमुतोँ बाटु शक्ति प्रभावमु
- ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु.
- 118
- m
- वैकुण्ठ स्तवमु
- श्लो॥॥अ स्तं य दुद्य दुपचा य्यपचायि चैव मीशं दरिद्र मध जङ्गम मप्यनिङ्गम् । विश्वं विचित्र मविलक्षणवीक्ष णेन विक्षोभय स्यनवधि रृत शक्ति रै शी॥
- 55
- प्रति– ( हे ईश=प्रभु वैनओवैकुण्ठनाथा!) अ स्तम्
- स्तम्- विनाशनमुनु, यत् = पॊन्दुनदियु, उद्यत् -उद्भ
- विञ्चुनदियु, उपचायि=वृद्धि चॆन्दु नदियु, अप चायि==क्षीणिञ्चुनदियु, ईशम्—सम्पद गलदियु, दरिद्रम्== सम्पद लेनिदियु, जङ्गमम्= चै तन्यमु गलदियु, अनिङ्गम् स्थावरमैनदियु, अनिङ्गम्=स्थावर a
= चै विचित्र पैनिँ जॆप्पिनप्रकारमु विचित्र मैनदियु, अगुविश्वम् समस्तमुनु, अविलक्षणवीक्ष णेन - एक रूप मगुसङ्क ल्पमुचेत, ( ऒक्कमारु सङ्कल्पिञ्चिनन्तमात्रमुचेत ) विशेषमुगा क्षोभयु क्तमुनुगा विभयिष्यसि जेयुचुन्नावु (तव नीयॊक्क), ऐशी प्रयुक्त मगु, शक्तिः ईश्वरत्व अघटितघटनासामर्थ्यमु, अनवधिः=अन्तु लेनिदि, बत आश्चर्यमु ! विशेषमु :- विठोभयसि = विशेषेण विकारयुक्तं करोषि - विशेषविकारमुलतो मार्पुलतोँ गूडिन दानिनिगाँ जेयु चुन्नावु. ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! अ स्तमिञ्चुनदियु नुदयिञ्चुनदियु, पॆऱुगुनदियुँ दऱुगुनदियु सम्पन्न मैनदियु दरिद्रवैकुण्ठ स्तवमु 119 मैनदियु चेतन मैनदियु स्थावर मैनदियुँगा विचित्र मन यी विश यी विश्वमु नेकरूप मगु सङ्कल्पमुचेत विशेष विकारयुक्त मैनदानिनिगा नॊनर्चुचुन्नावु. औरा ! ईश्वरत्वप्रयुक्तमगु नीयघटितघटना सामर्थ्य मपरि च्छिन्न मुगदा ! म॥कमलागा ! भव देक रूप मगु लवसं कल्पम्बुचेँ जित्र म समितम्बु ब्रभविष्णुवु सुबहुपु ष्टम्बु बरिक्षीण म त्यमितश्रीकमु निर्धनं बन्यम्बुगा नॆल्ल वि बसु युतं श्वमु मार्पिञ्चॆद वप्रमेयमु भव त्सामर्थ्य मैशं ब हॆू ! अवतारिक :- ई श्लोकमुनन्दु भगवन्तुनि स्वातन्त्य्रमु 00 निरङ्कुशमनि नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥रूपप्रकार परिणाम कृतव्यवस्थं, विश्वं विपर्यसितु मन्य दसच्चकर्तुम् ! क्षाम्यन् स्वभावनियमं किमुदी क्ष नेत्वं स्वातन्त्र्य मैश्वर मपर्यनुयोज्यमाहुः ॥ प्रती :- रूप 37 व्यवस्थम् - रूप =. रूपमुयॊक्क यु, प्रकार=स्वभावमुयॊक्कयु, परिणाम =मार्पु चेत, कृत=चेयँबडिन, व्यवस्थम् नियममुगल, विश्वम् =
120 वैकुण्ठ स्त पमु कमगु समस्तजगत्तुनु, विपर्यसितुम् चेतनाचेतनात्मक मगु श. क्तिगलवाँड Ф व्यत्य स्तमुनु (प्रलीनमुनु) चेयुटकुनु, असत् असत्कल्प मगुदानिनि (असत्तुनु) अन्यत्, च=सत्तुनु गानु, (कर्तुम् चेयुटकु) सम्यक् नगुचु, त्वम्—नीवु, स्वभावनियमम्=आयापदार्थ मुल कर्मफलस्वभावनियममुनु, उदीक्ष से, किम्=कटा वीक्षिञ्चॆद वेटिकि? (अतः = कनुक) ऐश्वरम् = ईश्वरत्वप्रयुक्त मगु, स्वातन्त्र्यम् - (श्रीवारि स्वातन्त्र्यमुनु, अप र्यनुयोज्यम् = प्रश्न मुन कनर्हमैन दानिनिगा, (वेदान्त विदः वेदान्त वेत्तलु) आहुः = चॆप्पुचुन्नारु.
वि शेषमुलु :- रूपप्रकार परिणामकृत व्यवस्थम् - जडपदार्थ मुलकुँ बरिणाममनँगा स्वरूपमु मऱियॊक विधमुगा नुण्डुट, चेतनपदार्थमुलकुँ बरिणाममनँगा स्वभा वमु वेटॊकविधमुगा माऱुट यनि ग्रहिम्पवलॆनु. स्वभावसियमं किमुदीक्षु सेत्वम् - पूर्वक र्मान पूर्वकर्मानुगुण मुगा देवादिशरीरमुल नॊसँगुचुन्ननु सृष्टि प्रळयमु लन्दलि यागपद्यमु श्रीवारि निरङ्कुश स्वातन्त्य्रमुनु चाटुचुन्नदि. ता॥ ओवै कुण्ठनायका! नीवु जडपदार्थमुलकु रूप परि णाममुलनु भेदमुलतोँ गूडिन यी समस्तजगत्तुनु प्रळयमु गाविञ्चुटकुनु सृजिञ्चुटकुनु शक्तुँडवै वैकुण्ठ स्तवमु 121 युण्डियु ना या पदार्थमुल स्वभावनियममु नेटिकिँ बरिशीलिञ्चॆदवु? कनुक देवर वारि स्वातन्त्य्रमु प्रश्ना. मैनदि कादनि वेदान्तुलु वचिञ्चॆदरु. गी रूपशीलान्य धात्व निरूफितम्मु जगमुँ ब्रळयिम्प सृजियिम्प क्ष मुँडवय्युक्त जूतु वेटिकिँ दत्कर्मसूत्रनियतिँ दगदु प्रश्नकु नीदु स्वातन्त्य्रमीश! अवतारिक :- इप्पुडु परुल नॆदिरिम्प समर्थमगु तेजस्सुनु वर्णिञ्चुचुन्नारु. श्लो ॥ संवर्त सम्भृतकरस्य सहस्रर श्मे रुसन्तमिस्रय जस्रविहारिहारि 1 नित्यानुकूल मनुकूल नृणां परेषा मुद्वेजनं च तवतेज उदाहरं ति ॥ 58 प्रति :- संवर्त, सम्भृत, करस्य = प्रळयकालमुनन्दु सम्पूर्ण किरणमुलुगल, सहस्ररश्मेः = (वेयिकिरणमुलु गल) सूर्युनियॊक्क, उस्रम् किरणमुनु, तमिस्र यत् अन्ध कारमुनुगाँ जेयुचुन्नट्टियु (तिरस्क रिञ्चुनट्टियु) अजस्र, विहारि - ऎल्लप्पुडु विहरिञ्चु नट्टियु, हारि=मनोहरमैनट्टियु, प रेषाम् = शत्रु वुलकु, उद्वेजनम् = वॆगटुकॊलुपुनट्टियु, (भयङ्कर मैनट्टियु) तव=नीयॊक्क तेजः तेजस्सु, प्रता 16 122 वैकुण्ठ स्तवमु पमु) अनुकूलनृणाम् भक्तुलकु, नित्यानुकूलम्= निरन्तरमु भोग्यमुनुगा, उदाहरन्ति चुन्नारु. चॆप्पु विशेषमु :- अजस्रविहारि - नित्यमु सङ्कुचितमुगानि, नित्यानुकूल मनुकूल नृणां परेषा मुद्वेजनम् ऒके तेजस्सु शत्रुवुलकु भयङ्करमुनु भ क्तुलकुँ बरम भोग्यमु नगुट याश्चर्यकरमनि भावमु. a ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! प्रळयकालमुनन्दु निण्डुगा वेयि किरणमुलतो नॊप्पु सूर्युनि करणमुनु सैतमु क्रिन्दु सेयुचु, नित्यविहारियै मनोहारियै शत्रुवुलकु भयमु गॊल्पु नी तेजस्सुनु भक्तुलकुँ बरमभोग्यमुनुगा विज्ञुलु नुडुवुचुन्नारु. ॥ च॥ प्रळयमुनन्दु लोकमुल विन्दु भस्ममॊनर्चॆडु पून्कि वॆल्लु वॆलुगु वॆलुङ्गु ध्वान्तमनि पिञ्चुचु नित्यविहारि हारियै नि वॆलसिन नीदु तेजमुनु विश्वपती!
- वचियिञ्चु वेदमुल् खलुलकु गुण्डॆगालमुनु गा सुजनाळिकि मेटिविन्दुगा! वे वैकुण्ठ स्तवमु 123 अवतारिक :- भगवन्तुनि यादार्यमुनु विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ नैव ह्यवाप्य मनवाप्य मिहास्त्रीयस्य सत्ता पितस्य तप वीक्षणतः प्रजानाम् । सम्पत्तुकिं पुनरितो नवदान्य मन्यं मन्येत्व मेव खलं मन्दिर मिन्दिरायाः ! 58 प्रति :- यस्य=ए, तव = नीकु, इह = इक्कड, (ई विभूति द्वयमुनन्दु) अनवाप्तम् पॊन्दँबडनदियु, अवा प्यम् = (ईमीँद) पॊन्दँदगिनदियु, नै वास्ति, हि= लेदुगदा ! तस्य=अट्टि, तव = नीयॊक्क, वीक्षणतः= चूपुवलन ने, प्रजानाम् - ब्रह्मादि सम्बपर्यन्त मुगल चेतनुलकु, सत्ता, अपि - उत्प त्तियु, (भवति = अगुचुन्नदि) त्वं, एव, खलु - नीवेगदा, इन्दिरायाः = लक्ष्मी देविकि, मन्दिरम् निवासमवु, सम्पत्, तु =सम्पदयन्ननो, किम्पुनः = उन्नदनि वेऱुगाँ जॆप्पवलयुना? इतः — ई कारणमुवलन, अन्यम् = मऱियॊक, वदान्यम्— दातनु, न, मन्ये = तलँचनु. विशेषमुलु :- सत्तापि - इन्दलि सत्ताशब्दमु स्थितिकि, प्रवृत्तिकि नुपलक्षणमु, . सम्पत् - तु - लक्ष्मीकटाधीनभोग्य वस्तुसमृद्धि. अवा प्त समस्तकामुँडवुनु, ब्रह्मादि सम्बपर्यन्त जीवु लकु सृष्ट्यादि कारणभूतुँडवुनु श्रीयःपतिवियु नगु देवर वारि यौदार्यमु सर्वातिशायि यनि सारांशमु. 124 वैकुण्ठ स्तवमु ता॥ ओ वैकुण्ठनायका ! नीकी विभूतिद्वयमुनन्दु लभिम्पँ बडनिदियु, लभिम्पवलसिनदियु नगु वस्तुवॊकटियु लेदु. कावुन अवा प्तसमस्तकामुँडवु. नी कटाक्षमुवलनने ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्तमुग ल ल चेतनुलकु सृष्टिस्थित्यादु लुप्पतिल्लुचुन्नवि. लक्ष्मी देविकि नीवु निवासभूतुँडवु, सम्पदलो लक्ष्मीकटाधीनमुलु. इट्टि सर्वोत्कृष्ट दातवु नीवुण्डँगा मे मन्युलँ जिन्तिम्पँबोवुदमा, -पोमु, पोमु. शा॥ देवा ! नीकु नवाप्यवस्तुवु विभू ति द्वन्द्व मं देदियु भाविम्प९’ गनरादु, ! ब्रह्म मॊदला स्तम्बम्बु नीदृष्टि नु जीविञ्चुक्, सिरिकीवुठावु, विभव श्रीलिन्दि रा सत्कटा वासम्बुलु, कोर नेमिटिकि मा कन्युक् वदान्युक् हरी! “पापैर नादिभव सम्भव वासनो दुःखेषु यःखलु मिमङ्क्षति हन्तजन्तु ! तं. केवलं नु कृपयैव समुद्धरिष्यं सदुष्कृतस्य ननु निष्कृतिमार्थशास्त्रैः । 59 उतैः - अनादि= आदि लेनि, भव = संसारमु, प्रति :- अनादि. ..उ क्रै नन्दु, सम्भव =पुट्टुक चेतँ गलिगिन, वासना = संस्का– वैकुण्ठ स्तवमु 125 धरमुवलन, उत्ते= बयलु वॆडलिन, पापैः = पापमुलचेत,
P
जीवुँडु, दुःखेषु=आया पापफलमुलैन नर कादि व्यसनमुलन्दु, मिमङ्क्षति मुनुँगदलँचु चुन्नाँडु, हन्त, खलु =अय्यो! यिदियाश्चर्यमुगदा, तम् आजीवुनि, केवलं, कृपया, एव निर्हेतुक कृप चेतने, समुद्धरिष्यक् = चक्कगा नुद्धरिम्पँ बोवुचु, शास्त्रैः मन्वादिशास्त्रमुलचेत, (लेदा) गीतादुल चेत, दुष्कृतस्य = वानि पापमुनकु, निष्कृतिम् प्रायश्चित्तमुनु, आत ननु = चॆप्पुचुन्नावु गदा ! तत् :
विशेषमुलु– हन्त, खलु इदि यॆन्तयु नाश्चर्यमु कदा! एल यन? स्वयमुगने स्वार्थकर मगु कार्य मॊनर्चुट विन्तये कदा ! केवलं नु कृप यैन निर्हेतुक कृपचेत कृप रॆण्डु रकमुलु. 1. स्वार्थनिर पेक्षुक मगुकृप, 2. परदुःखासहिष्णु रूप मगु कृप. कनुक वैकुण्ठनाथा ! नीकृपावैभवमु अपरिच्छिन्नमु अनि भावमु, नेर्पडिन ता॥ अनादिसंसार सम्भूत संस्कारविशेषमुचे पापमुलचेतँ जेतनुँडु त त्तत्पापफलभूतन दिव्यस नमुलन्दु मुनिँगि पोपु चुन्नाँडु. औरा ! तन यन र्गमुलकुँ दाने दारिचेसिकॊनुचुन्नाँडुगदा ! अट्टि 126 वैकुण्ठ स्तवमु चेतनुनि नीवु स्वार्थनिर पेक्षकमुनु परदुःखासहिष्णु रूपमु नगु कृपचेत नुद्धरिम्पँ बोवुचु मन्वादि शास्त्र मुलचेत वानि दुष्कृतमुनकुँ ब्रायश्चित्तमुनु विधिञ्चु चुन्नावु. देवा! नीकृपाविभव मनन्यादृशमु. उ॥ अदि यॆऱुङ्ग नट्टिभ व मन्दुनँ जिक्कि तदीय वासना पादित पापसम्भव दु पद्रवकोटुल म्रग्गुचेतनु, वेदन मान्पि प्रोव नति वेलकृप९ ब्रकटिञ्चिनापु म न्वादिस्मृतुल् तदुग्रवृजि नाळिकि निष्कृतिँ दॆल्प श्रीहरी! अवतारिक :- इदिवऱकुँ जॆप्पिनदानिने विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो ॥ शास्त्रि र नादिनिधनैः स्मृतिभि स्वदीय ‘दिव्यावतार चरितैः शुभया च दृष्ट्या ! निश्रेयसं य दुपकल्पयसि प्रजानां सा त्वत्कृपाजलधितल्लज वद्गित श्रीः ॥ 60 प्रति :- अनादिनिध नै 8 = आद्यन्तमुलु लेनि, शास्त्रैः = शास्त्र मुलचेतनु (श्रुतुलचेतनु), स्मृतिभिः = मन्वादि स्मृतुल चेतनु, त्वदीय, दिव्य, अवतार चरितै .ः = नीसम्बन्धमु लगु दिव्यमु लैन अवतार चरित्रमुल चेतनु, शुभय= वैकुण्ठ स्तवमु 127 मङ्गळकर मगु, दृष्ट्या = चूपु चेतनु, प्रजानाम् जनुलकु, निश्रेयसम् -मोक्षमुनु, उपकल्पयसि (इति) यत् =कल्पिञ्चुचुन्ना वनुट येदि गलदो! सा-अदि, त्वत्, कृपा, जलधि, तल्लज, वल्लित, श्रीः = नीकरुण यनॆडु समुद्र श्रेष्ठमुयॊक्क, (पालसमुद्रमुयॊक्क) तरङ्ग नै भवमु. वि शेषमुलु :- शास्त्रिः- शासनात् शा शास्त्रिः-शासनात् । शास्त्रम्—अनु व्युत्पत्ति चेत वेदमु लनि भावमु. अनादिनिधनैः - अनु विशे षण मी भावमुन कुपोद्बलकमु. स्मृतिभिः—ईपदमु इतिहासपुराणमुलकु नुपलक्षकमु, अविकूड स्मृतुलवलॆने वेदोपबृंहकमुले गदा! कावुन स्मृतिभिः - वेदोपबृंहकमु लगु स्मृतिपुराणेतिहासमुल चेत ननि यर्थमु. शुभमा च दृष्ट्या = श्रेयो हेतु भूत मगु कटाक्षमुचेत ननि भावमु. श्लो॥ जायमानं हि पुरुषं यं पश्ये न्मधुसूदनः । सात्विक स्सतु विज्ञेयः स वै मोक्षार्थचिन्तकः ॥ ॥ मधुसूदनुँडु जायमानुँडगु ने चेतनुनि गटा ञ्चुनो वाँडु सात्विकुँडै मोर्थचिन्तकुँ डगुनु. 128 वैकुण्ठ स्तवमु नी दयातरङ्गोल्लासमु भक्तुलकु मोक्षफलमु नॊसङ्गु ननि पिण्डि तार्थमु. ता, ओवै कुण्ठनाथा ! आद्यन्तमुलु लेनि वेदमुल चेतनु, वेदोपबृंहकमु लगु स्मृतिपुराणेतिहासमुलचेतनु, तम दिव्यावतार चरित्रमुलचेतनु, शुभकटाक्षमु चेतनु, चेतनुलकु मोक्षमुनु जेकूर्चु चुण्डुट श्रीवारि करुणाकलशाब्धाल हरीविलासमे सुमा! मतुदि येदो मॊद लेदो तेलनिवचः स्तोमम्बुचेत जग द्विदितम्बौ स्मृतिकोटिचे शुभदमा दृष्टिक् द्वदीयावता रदशोदन्तमुचेत भ क्तुलकु नि र्वाणम्बुँ गल्पिञ्चुट य्यदि युष्मत्करुणासुधाब्धिलहरी हारिप्रभोल्लास मे. अवतारिक :- ऒक्कचो भाग्यहीनुलयॆड कृपासङ्कोचमु ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. है हन्त जन्तुषु निरन्तर सन्ततात्मा! पाप्मा हि नाम वद कोऒय मचिन्त्यश क्तिः । य स्त्वत्कृपाजिलधि म व्यतिवेल खेल मुल्लङ्घय त्यकृत भासुर भाग धेयान् ॥ 61प्रति :- जन्तुषु आत्मा वैकुण्ठ स्तवमु 129 चेतनुलयन्दु, निरन्तर सन्तत, ऎल्लप्पुडुनु चक्कगा व्यापिञ्चिन स्वरूपमु
ई गलदियु. अचिन्त्य, शक्तिः = (मा बोण्ट्ल चेत) चिन्तिम्प शक्यमुगानि शक्ति गलदियु (अगु) अयम् - पाप्मा = पापमु, शः+नाम ऎटुवण्टि स्वरू पमु गलदि ? (लेदा) ऎटुवण्टि शक्तिगलदि ? वद चॆप्पुमु. है, हन्त अत्याश्चर्यकर मगुट चेत देवर वारिकिँ गूड अनिर्वचनीय मनि भावमु. हि= ऎन्दुकनँगा, यः ए पापमु, अकृत, भासुर, भाग धेयान् अनुष्ठिम्पँ युज्ज्वल मगु भाग्यमु गल पुरुषुलनु, अति वेलखेलम् - हद्दु मीऱिन लीललु गल, त्वत्, कृपा, जलधिम् अपि नी दया समुद्रमुनु गूड, उल्लङ्घयति जेयुचुन्नदि. दाँटिन वारिनिगाँ विशेषमु :- अकृत, भासुर, भाग धेयान् बडनि शरणवरणादिकमु लेनि कल मानवुलनु, आचरिम्प ता :- ओ वैकुण्ठनाथा ! प्राणुलयन्दु निरन्तरमु प्रस रिञ्चु स्वरूपमु गल यी पाप मनुनदि यॆट्टि स्वरू पमु गलदि ? मऱियु नॆट्टि शक्तिगलदि? सॆलविम्मु, 17 130 वैकुण्ठ स्तवमु अत्याश्चर्यकरमैन दगुटचेत निदि देवर वारिकि सैतमु निरूपिम्परानि देमो ! ऎन्दुकनँगा निन्नु शरणागति चेयनि मानवुलनु निरवधिकलील मगु नी दयासमुद्र मुनु दाँटिञ्चुचुन्नदि. अनँगा आ पापमु मूल मुन दुरदृष्टवन्तु लगु वारु नि नाश्रयिम्पक शरणागति चेयक नी दयासमुद्रमुनकु द व्वगुचुन्ना रनि भावमु. उ॥ ऎप्पुडु जन्तुसन्ततुल नीनड पॆट्टुचु वॆण्ट नण्टु नी दॆप्परमैन पातकमुँ दॆल्पुम यॆट्टिदॊ ! यॆट्टिशक्तितो नॊप्पुनॊ ! नीकु नन्ददॊ ! य हो ! यिदि दिव्यभवत्कृपाम्बुधिन् जॊप्पडनीक त्वच्छरण शून्युलँ द्रिप्पुलँ बॆट्टु श्रीपती! अवतारिक :- ई श्लोकमुन दयनु विकसिम्पँ जेयु नपराध सहिष्णुता रूपमुनु वात्सल्य हेतुवु नगु ओर्पु ननु सन्धिञ्चु चुन्नारु. य द्रृह्मकल्पनियुतानुभ वेऒ प्यनाश्यं त त्किल्बिषं सृजति जन्तु रिह क्षणारे! एवं सदा सकलजन्मनु सापराधं क्षाम्य स्यहो ! तदभिसन्धिविराममात्रात् 62 प्रति अपि वैकुण्ठ स्तवमु 131 यत् == ए पापमु, ब्रह्मकल्पनियुत, अनुभ वे, ब्रह्मकल्पमुल पदि वेलिण्टिचे अनुभविम्पँ बडि =3 ननु, अनाश्यम् = नशिम्पँ जेय शक्यमुगादो, तत् आ, किल्बिषम्= पापमुनु, इह ईलोकमुन, जन्तुः= प्राणि, क्षणारे = अऱक्षणमुलो, सृजति = चेयु चुन्नाँडु, एवम् = इट्ले, सदा = : ऎल्लप्पुडु, सकल जन्मसु = अन्नि जन्ममुलन्दु, सापराधम् राधमुलतोँ गूडिन या प्राणिनि, तत्, अभिसन्धि, विराम, मात्रात् =: इक मीँदँ बापमु नॊनर्प ननुसङ्कल्पमुतोँ दत्प्रवृत्तिनि विरमिञ्चिनन्तमात्रमु वलन, म्यनी = क्षमिञ्चुचुन्नावु, अहॆू ! आश्चर्यमु. विशेषमु : तत् किल्बिषम् - ब्रह्महत्यादि पापमुनु, सक लजन्मसु देवतिर्यगादि समस्तजन्ममुल न्दु . ता :- ओ वै कुण्ठपती ! देहि यॊक यऱ क्षणमुलोँ बदि वेल ब्रह्मकल्पमु लनुभविञ्चिननु नशिम्पनि ब्रह्महत्या दिकमगु पापमु नॊनर्चु चुन्नाँडु. इट्ले सकलजन लन्दुनु बाप मॊनर्चुचुन्न यीतनि इङ्क मीँद बापमु लॊनर्प ननि सङ्कल्पिञ्चि नन्तमात्रमुन ने क्षमिञ्चु चुन्नावु. देवा ! नी क्षमागुण माश्चर्यकर मैनदि. 132 वैकुण्ठ स्तवमु म॥ पदिवेल् ब्रह्मलकाल मे ननुभविं पन् दीऱ दे पाप, म य्यदि यी देहि त्रुटिं बॊनर्चु निटु ता रा ! जन्मजन्मम्बुलन् गॊद ले कुण्डँगँ दप्पुलन् सलुपु नी क्षुद्रुण्डु नेँ जेयँ द प्पिद मी पै ननुडुन् क्षमिन्तुवु दया भी! नीक्षमन् मॆच्चरे. अवतारिक :- ई श्लोकमुनँ बूर्वोक्तमगु नर्थमुने यनु वदिञ्चुचु क्षमागुणकार्य मगु वात्सल्य गुणमु ननु सन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ क्षान्ति स्त वेय मियती महती कथं नु मुह्ये दहू त्वयि कृताञ्जलिपञ्जरेषु । इत्थं स्वतो निखिलजन्तुषु निर्वि शेषं वात्सल्य मुत्सुकज नेषु कथं गुण स्ते H प्रति :- इयती = इट्टि प्रमाणमुगल, महती यगु, तव नीयॊक्क, भ्रान्तिः 63 गॊप्पदि ओर्पु, त्वयि = चेयँ नीविषयमुन, कृत, अञ्जलि, पञ्ज रेषु बडिन नमस्कारमुद्र यनॆडु कवचमु गलवारियॆडल,
कथम् = ऎट्लु, मु ह्येत् अहो !
मोहमुनु जॆन्दुनु? आश्चर्यमु, स्वतः = सहजमुगा, इत्थाम्= इट्लु, निखिलजन्तुषु समस्त प्राणुल विषयमुन निर्वि शेषम् वैकुण्ठ स्तवमु 133 पक्षपातमु लेनि, ते नीयॊक्क, वात्सल्यम् = दय, उत्सुक ज नेषु नीयॆडलँ ब्रीति गल जनुलयन्दु, कथम्
ऎट्लु, गुणः = -गुणमु, (स्यात् .
अगुनु?) विशेषमुलु :- इयती, महती = पूर्वोक्त मगु इट्टि महिम गल- कृताञ्जलिपञ्ज रेषु स्वदोषमुलँ बोँगॊट्टुटकु हेतु वगुटचे अञ्जलियन्दुँ बञ्जर त्वारोपण मॊनर्पँ बडिनदि. अहो ! आश्चर्यमु- इँकँ बाप मॊनर्प ननु सङ्कल्पमुन के तृप्तिँ गाञ्चिन नी योर्पु अञ्जलि लाभमु चेकूरँगा नॆट्लु मऱवँ गल दानि भावमु. ता :- ओ वैकुण्ठनाथा ! इन्तटि महामहिमगल देवर वारि योर्पु श्रीवारि नॆप्पुडु नञ्जलिमुद्र चे सेविञ्चु वारि नाटु मऱवँ गलदु ? इङ्कँ बाप मॊनर्प ननि सङ्कल्पिञ्चिनवारिकि तृप्ति चॆन्दिन तम क्षमागुणमु सर्वदा कै मोड्पु गाविञ्चु वारि नॆन्नँटिकिनि मऱव दनि भावमु. इट्लु सहजमुगा नाश्रितानाश्रित भेदमु लेनि तम वात्सल्यमु नीयॆडलँ ब्रीतिँ गलवारियॆडल गुण मॆट्लगुनु.? उ॥ इन्त महामह त्त्वमुन कॆन्तयुँ ’ बेरु वहिञ्चिनट्टिनी 184 वैकुण्ठ स्तवमु क्षान्ति महा ! यॆटुल् मऱचु सारॆकु नञ्जलिपञ्जर स्थुलै स्वान्तमु नीकुँ गान्क यिडु साधुलँ, ब्राणुल नॆल्लँ दुल्यत गान्तुवु वत्सलत्व मॆटु गा गुण माश्रितुलन्दु श्रीपती! अवतारिक :- इङ्कनु वात्सल्यातिशयमुने अनुसन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ विश्वं धियैव विरचय्य निचाय्य भूयः सञ्जह्रुषः सति समाश्रितवत्सलत्वे । आजग्मुवस्तव गजोत्तमबृंहि तेन पादं पराममृशुष्कोपी च का मनीषा ॥ 64 प्रति :- धिया+ एव = सङ्कल्परूप मगु ज्ञानमु चेत ने, विश्वम् प्रपञ्चमुनु, विरचय्य = निर्मिञ्चि, निचाय्य = पॆञ्चि, भूयः=मरल, सञ्जह्रुषः = संहरिञ्चु चुन्न नीकु, समाश्रित, वत्सल त्वे सति = आश्रितुल विषयमुन वात्सल्यमु पुट्टिनदि काँगा, गजोत्तम, बृंहि तेन (मॊसलिचे ग्रहिम्प बडिन पादमुगल) गजेन्द्रुनि घीङ्का ’ रमुचेत, आजग्मुषः=वच्चिनट्टियु, पादम् = गजेन्द्रुनि पादमुनु, पराममृशुषः परामर्शिञ्चिनट्टियु (ताँकिनट्टियु) तन =नीयॊक्क, मनीषा = बुद्धि, का= एमिटि ?
विशेषमुलु :- आजग्मुव स्तव …… का मनीसा - सङ्कल्प मात्रमुचेत ने विश्वमुनकु सृष्टिस्थितिलयमुलनु गटा वैकुण्ठ स्तव मु 135 क्षिञ्चु नीकु आश्रितवात्सल्य मेर्पडुचुण्डँगा गजेन्द्रुनि मॊऱचेत. म॥ सिरिकिं जॆप्पुँडु शङ्खचक्रयुगमुं जेदोयि सन्धिम्पँ डे परिवारम्बुनु जीरँ डभ्रगपति बन्निम्पँ डाकर्णिकां तर धम्मिल्लमु चक्क नॊत्तँडु विवा दप्रोद्धत श्रीकुचो परिचेलाञ्चल मैन वीडँडु गज प्राणावनोत्साहियै, अन्नन्त सम्भ्रममुतो मडुगु चॆन्तकु वच्चुटयु गज राजु पादमुनु बरामर्शिञ्चुटयु नेटिकि ? विश्वसर्जनादि कमुव लॆने सङ्कल्पमुचेतने गजेन्द्रुनिँ गाव रादा? ई यभिप्राय मेमिटि यन्नचो - भ क्तुलयॆडँ गल याश्रित वात्सल्यमु सङ्कल्पमुनु गूड जयिञ्चिन दनि भावमु. ता :- ओ वै कुण्ठनाथा ! आश्रितवात्सल्यमु रेकॆत्त सङ्कल्प मात्रमुचेत ने जगमुल सृजिञ्चि पॆञ्चि संहरिञ्चु नीकु गजेन्द्रुनि रक्षिञ्चुटयु सङ्कल्पमुचे पोयॆना ? दानि घीङ्कारमु विनि सर स्तीरमुन करुदॆञ्चि गजराजु पादमुनु बरामर्शिञ्चुट नीकु भक्तजनमु लन्दुँ गल वात्सल्यमु नीसङ्कल्प बलमुनकण्टॆ मिन्न यनि चाटु चुन्नदि. म॥ निजसङ्कल्पमुचे समस्तजगमुलो निर्मिञ्चि पोषिञ्चि ना be sure 136 वैकुण्ठ स्तवमु शज मौमार्पु घटिञ्चुचुन् स्वजन वा त्सल्यम्बु वे चाटु नी कजरुद्रेन्द्रमुखामरार्चितपदा ज्जा ! नीदु सङ्कल्पमे गजमुं गावदॆ? मद्दु केल चनितो ! कर्यम्म्रि ने लण्टितो ! अवतारिक :. तिर्यणानियन्दुँ बुट्टिन गजेन्द्रुनन्दु देवक वारि किन्त व्यामोह मेटि कनि शङ्किञ्चुकॊनि समा धानमु चॆप्पु चुन्नारु. 1॥ यः कश्चि देव यदि किञ्चन हन्त जन्तु र्भव्यो भजेत भगवन्त मनन्यचेताः । तं सोषिय मीदृश इया निति व्याजान है पैन तेयसम म फ्युररी करोषि 65 प्रति :- भव्यः=भविष्यत्तुन बागु पडँ गल, यः कश्चित् + एव = ऎवँडे गानि, जन्तुः - प्राणि, भगवन्तम् भगवानुँड वगु, (निन्नु) अनन्य, चेताः =एकाग्र मनस्सु गलवाँ डगुचु, किञ्चन = कॊञ्चॆमु, भजेत, यदि = सेविञ्चु नेनि, तम् आप्राणिनि, सः = अतँडु अयम्=ईजातिकिँ जॆन्दिनवाँडु, ईदृशः = इट्टि याचा रादुलु गलवाँडु, ‘इयाक् इन्नि गुणमुलु गल वाँडु, इति, वा अनि कानि, अजान= तॆलियनि (चूडनि) वाँडवगुचु, वै न तेयसमम् = गरुत्मन्तुनितो समा नुनिगा, उररीकरोषि = अङ्गीकरिञ्चुचुन्नावु. है -आश्च र्यमु, हन्त = सन्तोषमु, राजु उन्दि (सशेषमु )
वैकुण्ठ स्तवमु विशेषमुलु :- भव्यः यः कश्चि देव जन्तुः 137 जात्या दुलचे निकृष्टुँ डैननु भवदीयचरण समाश्रयणमुन कनुगुण मगु भावमु, शुभस्वभावमुगलवाँडु अनि भगवन्तम्- आश्रितुनि सदाचारादि गुणमुलँ जूडनि क्षमागुण मुगल निन्नु अनन्यचेताः = उपायोपेय वस्तुवुनन्दु मनस्सु लेनि 6 वाँडगुचु, सोय मीदृश इया निति वा प्यजानन् ’ दोषमुल पै दृष्टि लेनि स्नेहविशेषमे वात्सल्यमु गान आश्रितुनि जात्यादुलनु गमनिम्पक यनि याशयमु, वै न तेयसदृशम्- गरुडुँडुभगवत्कटाक्षु पात्रुँ डु गान वानितो समानुनिगा नुन्नदि. ननुट हृद्यमुगा अपिचे त्स दुराचारो भजते मा मनन्यभाक् । साधु रेव स मन्तव्यः । सम्यग्व्यवसितो हि सं H अनु गीतानू कि निट ननुसन्धिञ्चुकॊनुनदि. ता॥ ओ वैकुण्ठपती! जात्यादुल चेतनिकृष्टुँडे यगु नॆवँडे कानि तुदकु नीचरणसमाश्रयणमुनकु नुव्विळ्ळु लूरु मेलिस्वभावमु गलवाँडै याश्रितुलदोषमुलँ 18 138 वैकुण्ठ स्तवमु जूडनिक्षमावन्तुँड वगुनिन्न नन्यचित्तमुतो निञ्चुक भजिञ्चॆ नेनि वानि जातिनि गानि, याचारमुनु गानि, गुणमुलनु गानि, गमनिम्पक यायाश्रितुनि गरुत्मन्तुनि वलॆँ गटाक्षिञ्चि तत्तुल्यभ क्तुनिगा नङ्गीकरिन्तुवु. औरा सन्तोषमु. म॥ऎवँ डेनि भवदीयपादशरणं बेपारुशीलम्बुवाँ डवुचु निन्नु क्षमागुणाम्बुधि नन न्यं बै नचित्तम्बुतो रवसे पॆन्नँ ददीयजातिगुणच र्चल् वीडि तोड्तोडँ जू डवॆ नी प्रेमुकुँ बात्रमौ गरुडुतो डन् दुल्युँगा श्रीपती ! अवतारिक :- गॊप्पवानिकि मन्दुलतोडि यॆडँदॆगनि सह वासमे सौशील्य मनि निर्वचिम्पँबडिन या सौशील्यमु नी क्रिन्दिश्लोक मुन ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ त्वत्साम्य मेव भजता मभिवाञ्छनि त्वं तत्सात्कृतै र्विभवरूपगुणै स्वदीयैः । मुक्तिं ततो हि परमं तव साम्य माहु त्वद्दास्य मेव विदुषां परमं मतं तत् ॥ 66 प्रति :- भजताम्= सेविञ्चुचुन्न भ क्तुलगु) (पुंसाम् पुरुषुलकु, त त्सात्, कृतैः = वारि वशमु चेयँ= वैकुण्ठ स्तव मु बडिन, त्वदीयैः = नी सम्बन्धमुलगु, विभव, गुणै 8 विभवमुलचेतनु, विग्रहमुचेतनु, शक्त्यादि गुणमुल चेतनु, (उपलक्षितः
139 रूप ज्ञान चूडँ बडिन, आकारणमुवलन, त्वम् = नीवु) त्वत्, साम्यम् = नीतोडिसमानत्व मुनु, (उत्पादयितुम् पुट्टिञ्चुटकु, अभिवां छसि = कोरुचुन्नावु, ततः, हि = तव=नीयॊक्क, सरमम् अधिक मगु, साम्यम् सादृश्यमुनु, मु_क्तिम् मम्
मुक्तिनिगा, आहुः
चॆप्पु चुन्नारु, विदुषाम् ज्ञानुलकु, तत् प्रसिद्ध मगु, त्वत्, दास्यम् + एव नीकैङ्कर्यमे पर उत्कृष्ट मैनदिगा, मतम्= तलँचँबडिनदि. विशेषमुलु := त्व त्साम्यम्- नीतोडिसमान मगु ज्ञानादि धर्ममुलु गलिगि युण्डुटनु, मु क्लिं ततो हि परमं तव साम्य माहुः ’ साम्य मुपैति ’ ’ निरञ्जनः परमं मम साधर्म्य मागताः इत्यादि श्रुति स्मृतुली विषयमुनन्दुँ ब्रमाणमुलु. विदुषाम्- अनन्यार्ह मगु भगवच्चेषत्वरूप मगु स्वात्शयाथात्म्यज्ञानमु गलवारिकि, त्वमुनकु अनुरूप मगु, तत् अट्टि शेष त्वद्दास्य मेव परमं मतम्. नी कैङ्कर्यमे युत्कृष्ट मनि भाविम्पँ बडिनदि. निरन्तर (नीरन्ध्र) संश्लेषमे परम साम्यपद मनि भावमु, 140 वैकुण्ठ स्तवमु ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! नीवु भ क्तपराधीनुँड वगुट चेत निन्नु सेविञ्चु भक्तुलकु भवदीयमु लगु विभवरूसगुणमु लनु वारि वशमु चेयुचुन्नावु. अन्दु चेत ने नीतोडि परम साम्यमुने मुक्ति यन्दुरु. ने मुक्ति यन्दुरु. अनन्यार्ह मगु देवरवारि कै ङ्कर्यमुन के तामनि भाविञ्चु ता ज्ञानुलु श्रीवारि दास्यमुने युत्कृष्ट मनि तलञ्चुचुन्नारु. उ॥ निन्नु भजिञ्चु भ क्तुलकु नी विभवम्बुनु रूपमुन् गुणाल् मुन्नॆ यॊसङ्गि साम्यगुण मुन् दयचेयुदु. वन्दु चेत ने सन्नुति सेयुँ द्वत्परम साम्यमॆ मुक्तिग शास्त्रकोटि, वि द्वन्निकरम्बु तावकमु दास्यमै मिन्नग नॆञ्चु श्रीपती! अवतारिक :- पूर्वो क्तमगु सौशील्यमुने कारणान्तर मुचे ननुसन्धिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ तद्वै तथा2स्तुक तमोऒयमहो स्वभावो । यावान् यथाविधगुणो भजते भवन्तम् । तावांस्तथा विधगुण स्तद धीन वृत्तिः संळ्लि व्यसित्व मिह तेन समानधर्मा ॥ सौशील्यमु, अट्ले. प्रति :- तत् = पूर्वोक्तमगु यथार्थमुगा, तथा a 67 अस्तु = अगुँगाक, अन्तु वैकुण्ठ स्तवमु 141 यावान् = ऎन्तटि ज्ञानादिकमु गलवाँडु (ऎन्तटि वाँडु) यथाविधगुणः ऎटुवण्टि गुणमुलुगल वाँडु, (अगुचु) भवन्तम् = निन्नु, भजते सेविञ्चुनो, इह = ई मु_क्तिविषयमुन, तावान्== अटुवण्टि वाँडवुनु, तधाविधगुणः = अटुवण्टि गुण मुलु गलवाँ डवुनु, तत्, अधीन, वृत्तिः युपासकुन कधीनमगु नर्तनमुगलवाँडवुनै, त्वम् = आ युपासकुनितो, सधर्मा नीवु, तेन धर्ममुगलवाँड नगुचु, संश्लेष्यसि बॊन्दुचुन्नावु, अयम् ई, स्वभावः ‘वः = समान कलयिकनु स्वभा वमु, कतमः = ऎट्टिदि ? अ हॆू = आश्चर्यमु. वि शेषमुलु :- श्रीभाष्यमुनन्दु ‘तत्कतु श्च’ अनु नूत्रमुनकु विषयवाक्यमुगा ‘यथा क्रतु रस्मिन् लोके पुरुषो भवति एव मे वेतः प्रेत्य भवति’ अनु श्रुतिनि ग्रहिञ्चि चेतनुँडु भगवन्तुनि ऎट्टि स्वरूप रूपगुणादिविशिष्टुनिगा नुपासिञ्चुनो अट्टि स्वरूपरूप गुणादिविशिष्टुँ डगु भगवन्तु ने पॊन्दु ननि तात्पर्या ने र्थमु प्रतिपादिम्पँ बडिनदि. आयर्थमे यीश्लोक मुन विशदीकरिम्पँ बडिनदि. यावाळ्— ऎन्तमात्रमु ज्ञानादिकमु गल पुरुषुँडु अनि भावमु. 142 वैकुण्ठ स्तवमु तथाविधगुणः तनरुचि कनुगुणमुगा उपासिम्प ग्रहिम्पँ दगिनन्त गुणादिकमुतोँ गूडिनवाँडु, लेदा- सर्वविद्यासाधारणानन्दादि गुणविशिष्टुँडु. सङ्क्लिष्यसि—— सङ्गतिं प्राप्नोषि संश्लेषमुनु पॊन्दु चुन्नावु. कतिमो2य महो ! स्वभावः – निरङ्कुशस्वभावुँड वगु नीकु नीयिष्टमु वच्चिनट्लु फलमु नॊसङ्गुटकु शक्ति युन्ननु उपासनानुगुणमुगा ने फल मिच्चु निर्बन्ध मेमिटिकि ? आहा ! ई नी स्वभावमु - आवाज्मानसगोचरमु गदा! ता :- ओ नै कुण्ठनाथा ! उपासकुँ डॆट्टिज्ञानमुगलवाँडु नॆट्टि गुणमुलु गलवाँडु नै निन्नु भजिञ्चुनो ईमु विषयमुन नट्टि ज्ञानादिकमु गुणादिकमु गलवाँडवै यायु पास काधीनवृ त्तिवै यतनितो समानमु लगु धर्ममुलतो नतनिँ गटाक्षिञ्चुचुन्नावु. निरङ्कुश स्वतन्त्रुँड वगु नी कीनिर्बन्ध मेटिको! तॆलियदु. ई नी स्वभाव मवाजा ज्मानस गोचरमु महाश्चर्यकरमुनै युन्नदि. मरि अगुँगा कय्यदि य, यीप्रकृति य त्याश्चर्य, मिशीलमु९ बॊगडं जाल विभू ! युपासकुँ डॆटुल् पॊल्पारुनो यटै नी a वैकुण्ठ स्तवमु 143 वॊगिँ दत्तुल्य गुणुण्डवै यिडुदु त र्योग्यम्बुलौ भोगमुल्, भगवानुण्ड ! निरङ्कुशात्मुनकु नि र्बन्धम्बु नी केटिको ! अवतारिक :- इप्पुडु तनरुचि कनुवगु फलमुनु प्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ नीलाञ्जनाद्रिनिभ मुन्नस मायताक्ष m माजानुजैत्रभुज मायतकर्णपाशम् । श्रीवत्सलक्षण मुदारगभीर नाभिं पश्येनु देव! शरदां शत मीदृशं त्वाम् ॥
889 प्रति :- हे देव ! = ओवैकुण्ठनाथा! नील, अञ्जन, अद्रि, निभम् नल्ल निकाटुककॊण्डतो समान मैनट्टियु, उन्न सम् उन्नतमगु मुक्कु गलट्टियु, आयत, अक्षम् विशालमुलगु कन्नुलु गलट्टियु, आजानु, जैत्र भुजम्==पिक्कलवऱकु व्रेलाडु जयशीलमु लगु भुज मुलु गलिगिनट्टियु, आयत, कर्ण पाशम्= विशालमुलगु चॆवितम्मॆलु गलट्टियु, श्रीवत्स, लक्षणम् श्रीवत्स म नॆडु पुट्टुमच्च गुर्तुगाँ गलट्टियु, उदार, गभीर, नाभिम् = गॊप्पलो तै नबॊड्डु गलट्टियु, ईदृशम् इट्टिदिव्य मङ्गळ विग्रहमु गल, त्वाम् = निन्नु, शरदः शतम् नूजेण्ड्लु पश्येम—चूचॆदमुगाक, स्तवमु वि शेषमुलु :- देव !__‘दिव् =क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न कान्ति, गतिषु’ अनु धातुवु चेँ ब्रतिपाद्यमानमु लगु गूडिन वेलुपु श्री वैकुण्ठनाथुँडे यगुनु श्रीवै ओवै कुण्ठनाथा ! अनि यर्थमुव्रायँ बडिनदि. नीलाञ्जनाद्रिनिभम् श्यामुँ डनि प्रसिद्धि. गुणमुलतोँ गान श्रीवैकुण्ठ नाथुँडु काल मेघ पश्येम देव ! शरद श्शतम् ‘सदा पश्यन्ति सूरयः’ अनुनट्लु निरन्तरदर्शन मॊनर्तुननि भावमु. भगवत्स्वरू पानुभवमुकण्टॆ विग्रहानुभवमे हृद्यमनि याशयमु, ओवै कुण्ठपती ! नल्लनि काटुक कॊण्डकु दीटु वच्चु नट्टियु, उन्नत मगु नासिक गलट्टियु, आजानुलम्बु लुनु जयशीलमुलु नगु भुजमुलु गलट्टियु, आयतमु लगु कर्ण पाशमुलु गलट्टियु, श्रीवत्समनु पुट्टुमच्च गलट्टियु निन्नु नू जेण्ड्लुनु गनुगॊन्दुमु गाक, ण उ॥ उन्नस मायताक्षमु म होज्ज्वलकज्जल नीलभूमिभृ त्सन्निभरोचि जानुतत जै त्रभुजम्मु सुकर्ण पाशम्ु चॆन्नगुपुट्टुमच्च विल सिल्लुनुरम्मु गभीर नाभिसं. प्रति ♡ वैकुण्ठ स्तवमु पन्नमु नीदुरूप मभ– वा! कनुगॊन्दुनु वन्दयेडुलु९. #॥ आम्भोरुहाक्ष मरविन्दनि भाम्म्रियुग्म माताम्रतामर सरम्यक राग्र कान्ति । भृङ्गारिकं भ्रमरविभ्रम काय कान्ति पीताम्बरं वपु रदस्तु वयं स्तुवामः ॥
145 69 :- वयं, तु मे मन्ननो, अम्भोरुह, अक्षम् = तॆल्ल दामरलवण्टि कन्नुलु गलिगि नट्टियु, अरविन्द, निभ, अम्फ्रि, युग्मम् = पद्ममुलतो समान मगु पादमुलजण्ट गलिगिनट्टियु, आताम्र, तामरस, रम्य, कराग्र, कान्ति = ऎऱ्ऱकलुववलॆ नन्द मगु कराग्र मुल कान्ति गलिगिनट्टियि, भृङ्ग, अलकम् = तुम्मॆदल वण्टि मुङ्गुरुलु गलिगिनट्टियु भ्रमर विभ्रम, काय, तुम्मॆदल विलासमुवण्टि विलासमुलु कान्ति
गल शरीर कान्ति गलिगिनट्टियु, पीताम्बरम् पच्चनि पट्टु बट्टगलिगिनट्टियु, अदः ई वपुः शरीरमुनु, स्तुवामः स्तुतिञ्चु चुन्नामु, विशेषमुलु :- वयन्तु स्वरूपगुणानुभनिष्ठुलकण्टॆ भिन्नुल मगु मेमु, अनँगा भवदीय विग्रहानुभव प्रवणुल मगु मेमु- अनि भावमु. ‘पीताम्बरं वपु रद स्तव सं स्तवाम’ अनु पाठमु नन्दु - तव = नीयॊक्क, 19 अदः == ई वपुः 146 शरीरमुनु, अनि यर्थमु. वैकुण्ठ स्तवमु सं स्तवाम परिचित मॊनर्चुकॊन्दमु, ता :- पद्ममुलवण्टि कन्नुलु गलदियु, तामरलतो समानमु लगु पादमुलजण्ट गलदियु, चॆङ्गल्वलवलॆ नन्दमु लगु कराग्रमुल कान्तिगलदियु, तुम्मॆदल वण्टि मुङ्गुरुलु गलदियु, भ्रमरविलासमुल वण्टि देहकान्ति गलदियु, पीताम्बरधारियु नगु नी शरीर मुनु वैकुण्ठपती! मेमु स्तुतिञ्चुचुन्नामु. उकन्नुलु तॆल्ल दामरलु, कञ्जमु लङ्घ्रुलु, नॆऱगल्व बा गुन्न गुँ बो ! कराग्रमुलु कुन्तलमुल् भ्रमरीविलासमुल्, चॆन्नगुमैनिगन्निगलु, श्रीहरिनीलमु, लाक डानिये सन्ननिवल्व, नीतनुवु सन्नुतिँ जेतुमु मेमु श्रीपती! श्लो॥ भूविभ्र मेण मृदु शीतविलोकि तेन मन्दस्मि तेन मधुराक्षरया च वाचा । प्रेमप्रकर्ष पिशु नेन विकासिना च सम्भावयिष्यसि कदा मुखपङ्क जेन ॥ 70 प्रति :- भ्रू, विभ्रमेण कनुबॊमल विलासमु गलट्टियु, मृदु, शीत, विलोकि तेन= सौम्यमुनु, दयार्द्रमुनगु वैकुण्ठ स्तवमु — =
147
चूपुगलट्टियु, मन्दस्मितेन = अत्यल्प मगु चिऱुनव्वु गलट्टियु, प्रेम, प्रकर्ष, पिशु नेन वात्सल्यातिशय मुनु सूचिञ्चु नट्टियु, (कनुकने) विकासिना = विकसिञ्चु चुन्न, मुखपङ्कजे = मुखपद्ममु चेत, मधुराक्षु रया=तिय्यनी अक्षरमुलुगल, वाचा, च = माट चेतनु, कदा = ऎप्पुडु, (माम् = नन्नु) सम्भावयिष्यसि गौरविन्तुवु ? |
---|
जेन |
वि शेषमुलु :– ईश्लोकमुलोनि पूर्वार्धमुनन्दलि पदमु लनु स्वतन्त्रमुगा नैननु अन्वयिञ्चुकॊन वच्चुनु. ऎ ट्लन ? भ्रूविभ्रमेण = कनुबॊमल विलासमुचेतनु, मृदु, शीत, विलोकि तेन सौम्यमु दयार्द्रमु. नगु चूपुचेतनु, मन्दस्मि तेन अत्यल्प मगु चिऱुनव्वु चेतनु. अनि ता– ओवैकुण्ठनाथा ! ओपै कुण्ठनाथा ! कनुबॊमल विलासमुलु गलट्टियु सौम्यमुनु दयार्द्रमु नगु चूपुगलट्टियु, अत्यल्प मगु चिऱुनव्वु गलट्टियु, वात्सल्यातिशयमुनु सूचिञ्चु नट्टियु, विकासमु गलट्टियु, नीमुखपद्ममु चेतनु, मधुराक्षरमुलु गल वाक्कुलचेतनु न न्नॆप्पुडु गौरविन्तुवो कदा ! उ॥ भ्रूलति काविलासमुल पॊल्पुलु, शीतलदृष्टि पात मुल् 148 वैकुण्ठ स्तवमु लालितमन्दहासमु लॆ लर्पँग जालि वॆलार्चुतामर बो लॆडुमोमुतो. नमृत मुक्कुल वाक्कुल नन्नु नॆप्पुडो श्रीललनाक राम्बुजनि बहूकरिन्तुवो ! 1 वज्राङ्कुशध्वजसकोरुह शङ्खचक्र मत्सी सुधाकलश कल्पक कल्पिताङ्कम्! त्वत्पादपद्मयुगळं विगळत्प्रभाभि र्भूयो६भिषेक्ष्यति कदा नु शिरो मदीयम् ॥
71 अङ्कुशमु प्रति :- ( हे वै कुण्ठनाथ ! = ओ वैकुण्ठपती ! वज्र…… ताङ्कम् = वज्रायुधमुचेतनु, अङ्कुश चेतनु, ध्वज =ध्वजमुचेतनु, सरोरुह = पद्ममुचेतनु, _शङ्ख = शङ्खमुचेतनु, चक्र = चक्रमु चेतनु, मत्सी = चेप चेतनु, सुधाकलश अमृतकलशमुचेतनु, कल्पक = कल्पवृक्षमुचेतनु, कल्पित = एर्पऱँ बडिन, अङ्कम् चिह्नमुलु गलिगिन, त्वत्, पाद, पद्म, युगळम् देवरवारि पद्ममुलवण्टि पादमुलजण्ट, भूयः पलुसार्लु, विगळत्, प्रभाभिः जाऱु चुन्न कान्तुल चेत, कदा, नु = ऎप्पुडु, मदीयम् = ना सम्बन्धि यगु, शिरः = तलनु, अभिषेकक्ष्यति… अभिषेकमु चेयँगलदु. =वैकुण्ठ स्तवमु 149 वि शेषमुलु :- अखिलाण्डकोटि ब्रह्माण्डनायकुँ डगु श्री वैकुण्ठनाथुनि पादपद्ममुलन्दु रेखाकारमुलतो वज्राङ्कुशध्वजसरोरुह शङ्खचक्र मत्स्य सुधाकलशकल्पक चिह्नमु लुण्डॆ ननि भावमु. लेनिचोँ बुरुषो त्तमुँ टु लगु ? पॆट्टु ता :- ओ वैकुण्ठपती ! रेखाकारमु लगु वज्राङ्कुशध्वज सरोरुह शङ्खचक्रादि चिह्नमुलतो नलरारु नी पाद पद्म युगळमु पलुसार्लु कान्ति पूरम्बुल वर्षिञ्चुचु ना शीरमु नॊप्पु डभिषेकमु चेयँगलदो ! म॥कुलिशं बङ्कुशमुन् ध्वजम्बुनु सुधा कुम्भम्बु नी रेजमुन् जलजाता स्त्रु सिडम्बु कल्पतरुवुन् शङ्खम्बु चक्रम्बु गु र्तुलुगा नॊप्पुभवत्पदाब्जयुग म स्तोक प्रभावर्षियै कलितापापह ! नाशिरम्बु नभि षे कं बॆप्तु गाविञ्चुनो ! अव तारिक :- अप्राकृत सौकुमार्यादुलु गल मदीयचरण मुनु नीयु त्तमाङ्गमुनं दुञ्चुट यॆ ट्लनि भगवा नुनि यभिप्राय मेमो ! यनि शङ्किञ्चुकॊनि दानिकिँगा साधारणमुनु असाधारणमु नगु दृष्टान्तद्वयमुनु नुडुवुचुँ दन यभिलाषमु नाविष्करिञ्चुचुन्नारु.
150 वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ त्रैविक्रमक्रमकृताक्रमण त्रिलोक मुत्तंस मुत्तम मनु त्तमभ क्तिभाजाम् । नित्यं धनं मम कदा हि मदुत्तमाङ्ग मङ्गीकरिष्यति चिरं तव पाद पद्मम् ! प्रति :- त्रैविक्रम …… त्रिलोकम् 72 त्रैविक्रम= त्रिविक्रम मूर्तिसम्बन्धि यगु, क्रम=पादन्यासमुचेत, कृता क्रमण = आक्रमिम्पँबडिन, त्रिलोकम्=मूँडुलोकमुलु गलदियु, अनुत्तम, भक्ति, भाजाम् = एकान्त भक्ति सम्पन्नुलकु, प्रपन्नुलकु) उत्तमम् श्रेष्ठमगु, उत्तंसम्=शिरोभूषण मैनदियु, मम=नाकु, नित्यं धनम् = निरन्तरमु स्पृहणीय मैनदियु, (अगु) तव=नीयॊक्क, पादपद्मम् = पद्ममुवण्टि पादमु, कचा, हि=ऎप्पुडो, चिरम् चिरकालमुनकु, मत्, उ त्तमाङ्गम्=नाशिरस्सुनु, अङ्गीकरिष्यति = अङ्गीकरिम्पँ गलदु.
विशेषमुलु :- त्रिविक्रमावतारमुन मुज्जगमुलनुगॊलुचु कॊनुट चेत तदन्तः पाति यगु ना शिरस्सुनु देवरवारि वस्तुने गनुक नॆप्पुडो तन यङ्गीकार सूचक मगु पादमुद्रनु वेयँगलरनि भावमु, ता :- ओ वैकुण्ठपती ! त्रिविक्रमावतारमुन मुज्जगमुल ओ. नाक्रमिञ्चिनदियुँ ब्रफन्नुलकु नुत्तम शिरोभूषण वैकुण्ठ स्तवमु 151 मैनदियु नाकु निरन्तर स्पृहणीय मैनदियु नगु नी पादकमल मॆप्पुडो चिरकालमुनकु ना युत्तमां गमु सङ्गीकरिम्पँ गलदु. गी॥ मुज्जगमुँ गॊल्चॆ नडुगुल मूँट नेदि, ऎदि शिरोभूष भ क्तुल, कॆदि मदीय नित्यधन, मट्टि नीपाद नीरजं ब दॆपुडॊ ! यङ्गीकरिञ्चु ना यी शिरस्सु. श्लो ॥ उन्नि द्रपत्रशतपत्रसगोत्र मन्त रेखारविन्द मभिनन्दन मिन्द्रियाणाम् । मन्मूर्ट्नि हन्त ! करपल्लवतल्लजं ते कुर्वन् कदा कृतमनोरथयिष्यसे माम् ॥
73 विकसिञ्चिन प्रति :- उन्निद्र, पत्र, शतपत्र, सगोत्रम् रेकुलु गल पद्ममुतो समान मैनट्टियु, अन्तः, लेखा, अरविन्दम् = लोपल रेखारूपमगु पद्ममु गलट्टियु, इन्द्रियाणाम् इन्द्रियमुलकु, अभिनं दनम् आनन्दमुनु गलिगिञ्चुनट्टियु, तेनीयॊक्क कर, पल्लव, तल्लजम् ह स्तम नॆडु श्रेष्ठमगु चिगुरु टाकुनु, मत्, मूर्ध्नि=ना शिरस्सुनन्दु, कुर्वन् = चेयुचु (उञ्चुचु) कदा = ऎप्पुडु, माम् कृतमनोरथयिष्यसे = कृतार्थुनि जेयुदुवु. विशेषमु :- अभिनन्दन मिन्द्रियाणाम् -
नन्नु, मार्दवमु, औज्ज्वल्यमु, सौगन्ध्यमु मुन्नगु गुणमु लुण्डुट 152 ता वैकुण्ठ स्तवमु चेत, इवि पॆक्कु इन्द्रियमुलकु ननु भाव्यमु लगुट चेतनु इन्द्रियाणाम् अनि बहुवचनमु वेयँ बडिनदि, ओ वैकुण्ठनाथा ! विक सितदळम्बुलु गल पद्ममुनु बोलिनदियु लोपल रेखारूप मगु कमलमु गलदियु सक लेन्द्रियमुलकु मार्दव सौगन्ध्यादि गुणमुलचे नानन्ददायक मैनदियु, प्रशस्तमैनदियु नगु नी कर पल्ल वम्बुनु ना मौळिपै नुञ्चि नन्नॆप्पुडु कृतार्थु नॊनर्तुवो गदा ! म॥ शतपत्रम्बुनकुन् सगोत्रमु विला सश्रीदळो पेत मं चित रेखारुचि रान्तरज्ञमु गुणो त्सेकम्बुचे निन्द्रिय प्रततिन् दन्पु सुह स्तपल्लवमु भा वत्कम्बु नामाळि पैँ गुतुकं बॊप्पँग नुञ्चि यॆन्नँ डिँक वै कुण्ठेश ! सन् देल्चॆदो! श्लो॥ आङ्गी निसर्गनियता त्वयि हन्तकान्ति ♡ र्नित्यं तिवाल मिय मेव तथापि चान्या ! वैभूषणी भवति कान्ति रलं तरां सा है पुष्कलैन निखिलापि भवद्विभूतिः ॥ 74 प्रति :- वैकुण्ठ स्तवमु
153 शरीरमु नीविषयमुन (नीयन्दु) आङ्गी त्वयि नन्दुन्न, कान्तिः = कान्ति, निसर्गनियता = स्वाभाविक मैनदि, इय मेव इदिये, नित्यम् = ऎल्लप्पुडु, तव नीयॊक्क यनुभवमुनकु, अलम् = चालुनु, हन्त = आनन्दमु, तथापि
ऐननु, अन्या वै मऱियॊक, सा = प्रसिद्ध मगु, वै भूषणी= भूषण सम्बन्ध मगु कान्तिः - शोभ, अलन्त राम् = मिक्किलि चालिनदि, भवति अगुचुन्नदि, निखिला, अपी समस्त मैन, भवद्विभूतिः – नीवैभवमु, पुष्कला, परिपूर्ण मैनदिये, है = आश्चर्यमु. एव == ता– ओ वैकुण्ठनाथा ! नी शरीर कान्तिये स्वाभाविक मैनदि. इदि यॊकटिये निन्नु मुक्तपुरुषु लनुभविञ्चुटकुँ जालुनु. ऐननु प्रसिद्धमुलगु नाभरणमुलवलनँ गलि गॆडु मऱियॊक विलक्षण कान्ति यॆन्तयेनियु भोग्यतकुँ जालियुन्नदि. ऒक टेमि स्वामि ! नी सकलविभूतियु नानन्दमुनु गूर्चुटकुँ बरिपूर्ण मैनदिये, आश्चर्य माश्चर्यमु. गी॥ कडु सहज मैननी देहकान्ति यॊक ऒ मुक्तजनभोग्यतकुँ जालु मुरविदारि ! 20 - 154 वैकुण्ठ स्तवमु आभरणकान्ति पै पॆच्चु शोभ निच्चु a निखिलमुनु बुष्क लम्बॆ पो ! नीविभूति. अवतारिक :- इप्पुडु विभूषणकान्ति भोग्यतनु ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ श्रीवत्सकौस्तुभ किरीटललाटि काभिः केयूरहारकटको तमकर्णि काभिः । उद्दाम दाममणिनू पुर नीविबं धै र्भान्तं भवन्त मनि मेष मुदी क्षिषीय ॥
75 श्रीवत्स प्रति :- श्रीवत्स, कौस्तुभ, किरीट, ललाटि काभिः मनॆडु पुट्टुमच्चचेतनु, कौस्तुभमणि चेतनु, किरीटमु चेतनु, नॊसट नुञ्चुनाभरणमु चेतनु, केयूर, हार, कटक,
उत्तमकर्णि काभिः भुजकी र्तुलचेतनु, मुत्याल पेरुलचेतनु, मुरुगुल चेतनु, उत्तममु लगु कर्णाभरणमुलचेतनु, उद्दाम, दाम, मणिनूपुर, नीवि बन्धैः == प्रकाशिञ्चुचुन्न वनमाल चेतनु, रत नालयं दॆल चेतनु, मॊलकुँ गट्टिन पट्टबन्धमु चेतनु, भान्तम् = प्रकाशिञ्चु चुन्न, भवन्तम् अनि मेषम्
चूतुनु गाक.
तॆप्पपाटु ले कुण्ड, उदीकि पीय निन्नु. वि शेषमुलु :- श्रीवत्समु पुट्टुमच्चयैननु श्रीवारि दिव्य विग्रहमुन कलं कारमुगा नुण्डुटचे भूषणकोटिलोँ जेर्पँ बडिनदि. वैकुण्ठ स्तवमु 155 कर्णि काभिः— अनुचोट ’ कण्ठिकाभिः ’ अनि पाठान्तरमु गलदु. कण्ठिकाभिः = कण्ठाभरणमुलचेत ननि यर्थमु, नीविबन्धै — अनुचोट ‘पट्टबन्धैः ’ अनियुँ बाठां
- तरमु. अप्पुडु पट्टबन्धैः - उदर बन्धमु चेत ननि यर्थमु. ता :- ओ वै कुण्ठपती ! श्रीवत्स कौस्तुभ किरीट ललाटाभरण मुलचेतनु भुजकीर्तुलचेतनु मुत्याल पेरुलचेतनु मुरु गुलचेतनु उत्तम कर्णाभरणमुलचेतनु प्रकाशमान मगु वनमालचेतनु मणिनूपुरमुलचेतनु मणि मेखल चेतनु ब्रकाशिञ्चुचुन्न निन्नु तॆप्प वाल्चकुण्डँ जूतुनु गाक. शा॥श्रीवत्सम्बुनु गौस्तुभम्बु नॊसटं जॆन्नारु मेल् भूषयुक् वेवॆल्गट्टिकिरीटमु मुरुगुलु विभ्राजि केयूरमु कावल्ली वनमाल लन्दॆलु मॊदल् गा भूष लॊप्पारुनि न्नो वै कुण्ठपती ! कनुङ्गॊनुदु नॆं निर्नि मेषाझलक्. तो अवतारिक :- इप्पुडु भगवानुनि विग्र हावयवशोभनु आभरण शोभनु रॆण्टिनि अनुभविम्पँ ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ ऐन्दीपरी क्वचि दपि क्वच नारविन्दी 0 चन्द्रात पी क्वचन चक्वच नाध हैमी । 156 वैकुण्ठ स्तव मु कान्ति स्तवोढपर भाग परस्पर श्रीः पार्येत पारणयितुं कीमु चक्षुषो र्मे ॥ 76 प्रति :- क्वचित्, अपि = ऒकानॊक चोट, (विग्रहमु कण्टि पाप मुन्नगुवानियन्दु) ऐन्दीवरी : नल्लकल्वसम्बन्ध मैनदियु, क्वचन=ऒकानॊक चोट (मुखमु कर पाद तलमुलु मुन्नगुवानियन्दु) आरविन्दी पद्मसम्बन्ध मैनदियु, क्वचन, च = मऱियॊक चोट (मन्दहास मुक्ताहारादुलन्दु) चान्द्रातपी
- वॆन्नॆलसम्बन्ध मैनदियु, अथ=तरुवात, क्वचन = ऒक चोट (पीताम्ब रादुलन्दु) हैमा बङ्गारुसम्बन्ध मैनदियु, (अगु) ऊढ, पर भाग, परस्पर, श्रीः 13 == धरिम्पँबडिन वर्णान्तर सान्नि
- ध्यलब्धगुणोत्कर्ष गल यन्योन्यशोभ गलिगिन, तव = नीयॊक्क, कान्तिः = कान्ति, मे= नायॊक्क,
- कन्नुलकु, पारणयितुम्
गिञ्चुटकु, पाठ्येत, किमु= चालुना ? तृप्तिनि गलि विशेषमु :- पार्येत पारणयितुं किमु चक्षुषो र्मे - एतादृश मैन नीशरीर कान्ति नाकन्नुलनु धनियँ जेयु भाग्यमु ना कॆप्पटि कैननु गलुगुना ? अनि कवि यार्ति यिन्दु सूचित मगु चुन्नदि. ता– विग्रह कनीनि कादुलन्दु नीलोत्पल सम्बन्धिनियु, वदन करतलादुलन्दुँ बद्मसम्बन्धिनियु, मन्दहास मुक्ता हारादुलन्दुँ जन्द्रिकासम्बन्धिनियु, पीताम्बरादुलन्दु वैकुण्ठ स्तवमु 157 हेमसम्बन्धिनियु, ऐ, वर्णान्तरसान्निध्यलब्ध मगु वर्णा त्कर्ष मुतोँ गूडिन परस्परशोभ गल नीकान्ति यो वैकुण्ठपती ! नाकन्नुलँ दनि पॆडु भाग्यमु ना कॆन्नँटि कैननु गलुगुना ? उ॥ ऒक्कॆड नल्लकल्वजिगि, यॊक्कॆडँ दामरस प्रभाचयं, बॊक्कॆडँ बण्डु वॆन्नॆलल यॊप्पिद, मॊक्कॆडँ बैँडियन्द, मि ट्लॊक्कॊकदिव्यन स्तुसम योगमुचेँ बॆनुपॊन्दि युन्ननी चक्कनि मेनि कान्ति गुण सागर ! तन्पुनॆ नादु कन्नुल९॥ श्लो॥ त्वां सेवितं जलजच क्रगदासि- ♡ चक्रगदासिशा सार्येण सैन्यपतिना नुचरै स्तथा2 न्यैः । देव्या श्रिया सह वसन्त मनन्तभोगे भुञ्जीय साञ्जलि रसङ्कुचिताक्षि पक्ष्मा ॥ 77 प्रति :- :- जलज, चक्र, गदा, असि, शारैः = शङ्खमुचेतनु, चक्रमुचेतनु, कौमोदकि यनु गदचेतनु, नन्दक मनु कत्तिचेतनु, शार्ण मनु चापमुचेतनु, तार्येण गरुत्मन्तुनि चेतनु, सैन्यपतिना = सेनापति यगु विष्व क्सेनुनि चेतनु, तथा
अट्ले, अन्यैः = इतरु लगु, 158 वैकुण्ठ स्तवमु अनुचरै 8 = कुमुदचण्ड प्रचण्डादि सेवकुल चेतनु, सेवि 8 कुमुदचण्डप्रचण्डादि तम् = सेविम्पँबडिनट्टियु, श्रिया, देव्या सह = श्री देवितोँ गूड, अनन्त, भोगे - शेषुनि शरीरमुनन्दु, वसन्तम् निवसिञ्चु चुन्न, जलिः 1 त्वाम् = निन्नु, सां दोसिलितोँ गूडिनवाँडनै, असङ्कुचिताक्षी पत्मा = सङ्कोचमुलेनि कण्टि वॆण्ड्रुकलु गलवाँड नगुचु (जॆप्पपाटु लेनिवाँडनै) भुञ्जीय विन्तुनु गाक. अ
अनुभ ता :- ओ वै कुण्ठपती! शङ्खचक्रगदाखड्गमुल चेतनु चापमु चेतनु, गरुडुनिचेतनु, सेनाधिपति यगु विश्व क्सेनुनि चेतनु अट्ले यन्यु लगु ननुचरुल चेतनु सेविम्पँ बडु चुन्नट्टियु राणि यगु श्री देवितो गूड शेषतल्पमु नं दुन्नट्टि निन्नु निर्नि मेषदृष्टितो दोसिलि कट्टि यनु भविन्तुनु गाक, गी॥ शङ्खचक्र ग दाखड्ग शार्थलतलु गरुड सेनानुलन्युलुँ गलसि कॊलुव उविदऱो शेषशय्यपै नॊप्पुनिन्नुँ जेतुल् मोड्चि यनुभविञ्चॆदनु शौरि! श्लो॥ कैङ्कर्यनित्यनिरतै र्भपदेकभोगै र्नित्यै रनुक्ष णन वीनग सार्द्र भावै 8 । नित्याभिवाञ्छित परस्पर नी चभावै र्मदैवतैः परिजनै स्तव सङ्गसीय ॥ 78वैकुण्ठ स्तवमु 159 प्रति := कैङ्कर्य, नित्य, निरतैः =श्रीवारि कैङ्कर्यमुनं दे नित्यमु मिक्किलि आसक्ति गलवारुनु, भवत्, एक, भोगैः = नीयॊक नियन्दे अनुभवमु गलिगिनवारुनु, नित्यैः=नित्यसिद्धुलुनु, अनुक्षण, नवीन, रस, आर्द्र, भावैः=क्षणक्षणमु नूतन मगु भगवदनुभवराग मुचे द्रवीभूत मयिन भावमु गलवारुनु, नित्य, अभि वाञ्छित, परस्पर, नीचभावैः नित्यमुनु कोरँबडिन यॊण्डॊरुल शेषत्वमु (दास्यमु) गलवारुनु, मत्, दैवतैः 8 = नाकु दैवतमुल वण्टिवारुनु, अगु, तव नीयॊक्क, परिजनैः सेवकुलतो, सङ्गसीय कॊन्दुनु गाक. wid कलिसि वि शेषमुलु :- भव देकभोगैःनीयन्दुमात्रमे भोगमु गलवारनि भावमु, भवदनन्य भोगुलनि निष्कृष्टार्थमु. ‘नित्याभिवाञ्छितपरस्परनीचभावैः ’ भागवत शेष त्वमु सर्वप्रार्थनीयमु गनुक नट्लु पेर्कॊनँ बडिनदि. मदैव तैः = दै वतमुलवलॆ नाचे आराध्यमानु लनि भावमु. तव, परिजनैः—पूर्वश्लोक मुनँ जॆप्पँ बडिन गरुड विष्व क्सेनादुलतोडनु, आश्लोकमुन अनुक्तु लगुमु क्तपुरुषुल तोनु अनि याशयमु. ता– ओवैकुण्ठनाथा ! निरन्तरमु नी कैङ्कर्यमुनन्दे परि निष्ठितुलुनु, भवदनन्यभोगुलुनु नित्यसिद्धुलुनु, अनु 160 वैकुण्ठ स्तवमु क्षणमु नूतन मगुभगवदनुभवरसमुचेतँ गरँगिन भावमु गलवारुनु नित्य मॊण्डॊरुल ल शेषत्वमुनु गोरुकॊनुवारुनु नाकु दैवतमु लट्टु लाराध्यमानुलु नगु नीग रुडविष्व क्सेनादिपरिवारजनुलतोँ गलिसिकॊन्दुनु गाक. शा॥नीकै ङ्कर्यमुनन्दॆ नित्यनिरतुल् नीयन्दॆ भोगेच्छुवुल् नीक ल्याणगुणानुभूतिक लना नित्यद्रवन्मानसुल् नाकु दैवतमुल् परस्परमहा नै च्यानुसन्धायु लो वैकुण्ठा ! भवदीयु लाघनुलतो वाञ्छिन्तु सङ्गातमुक्. O अवतारिक :- परमप्राप्यमगु भगवत्परिजनमुयॊक्क समा गमानन्तर मनु षेय मगु श्रीभूनीलास मेतुँ डगु भगवानुनि यनुभवमुनु ब्रार्थिञ्चुचु मॊट्ट मॊदटँ ब्रधानमहिषि यगु देवितोडँ गूडिन देवरवारि यनुभ वरूपपरिचर्यनु श्लोकत्रयमुतोँ ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ य त्किञ्चि दुज्ज्वल मिदं यदुपाख्ययाहुः सौन्दर्यमृद्धि रिति यन्महिमांश लेशः । नाम्नैव यां श्रिय मुशन्ति यदीयधाम त्वा मामनन्ति यतमा यतमानसिद्दिः ॥ 79 प्रति := उज्ज्वलम् वैकुण्ठ स्तवमु
तेजस्वि यगु, मान मैन, यत्, किञ्चित् इदम् 161 ईदृश्य एवस्तु वेनियु. यत्, उपाख्याया ए श्री देवि पेरितो, चुन्नारो!, यत्, महिम, अंश, यॊक्क महिमैक देशमुलोनि नलुसु, अवयवशोभ, ऋद्दिः = सम्पद, इति चॆप्पँबडुचुन्न दो) एव
पेरिचेतने, याम् श्रियम् चॆप्पु चुन्नारो, त्वाम् = निन्नु, लेशः आहुः = चॆप्पु ए तल्लि सौन्दर्यम् अनि (उच्यते ए तल्लिनि, नाम्ना, श्रीनिगा, उशन्ति
यदीयधाम तलँचुचुन्नारो, योगुलकु एतल्लिकि स्थानमुनुगा, आमनन्ति यतमा ए तल्लि, यतमानसिद्धिः सिद्धिस्वरूपिणियो, (ताम् अट्टि, श्रियम्=श्री देविनि,
1 त्वां च = अञ्चितः निन्नुनु, उदीर्ण भावः पॊन्दिनवाँडनै, ण गॊप्प कैङ्कर्यभावमु गलवाँडनै, परिच रेयम् = सेविन्तुनु गाक- अनि मूँडवळ्लोक मुतो नन्वयमु.) वि शेषमुलु :- ’ य त्किञ्चि दुज्ज्वल दुज्ज्वल मिदं यदु पाख्य याहुः तेजस्वि यगु पदार्थमु नॆल्लनु श्री यनि 9 ये चॆप्पुदु गानि भावमु. यदीयधाम त्वा मामनं ति श्रीनिवासुँडु गदा ! वैकुण्ठ नाथुँडु (6) 162 वैकुण्ठ स्तवमु यतमा —— इदि यच्छब्दमुमीँद ‘तमप् ’ प्रत्य यान्तरूपमु, एतल्लि यनि यर्थमु. यतमानसिद्धिः - ‘मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चि द्यतति सिद्धये’ अनि गीतलोँ जॆप्पँ बडिनट्लु श्री देवि योगुलकु सिद्धिस्वरूपिणि यनि तॆलिय नगुनु, ता– ओवैकुण्ठपती ! तेजस्वि गाँ बरिदृश्यमान मगु ने वस्तुवु नेनि विज्ञुलु श्री पेरँ बिलुतुरो, सौन्दर्यमु गानि समृद्धि गानि येतल्लि महिमैक देश लेश मुवलन ब्रापिञ्चुनो, योगमुचेतनु रूढिचेतनु एतल्लिनि श्री यनि यन्दुलो, देवरवारिने येतल्लिकि निवास मनि यॆन्नुदुरो, योगुलयोग सिद्धि केतल्लि मूलमो, अट्टि श्री देविनि निन्नु नितरन्तर भक्तितो नुपचरिन्तुनु गाक. म अति तेजस्वी पदार्थ मे दयिन श्री यन् पेरितोँ बिल्तुरो ! ततसौन्दर्यमुवृद्धि यन्महिमगा धा लेशलक्षांश मो ! कृतु लेयम्मकु श्री य टं चिडिरॊ पे री वुन्कि येतल्लिकि९, यतमानाळिकि सिद्धि येजननि ने नायम्म सेविञ्चॆद ♡ वैकुण्ठ स्तवमु श्लो॥ या वै त्वया प्युदधिमन्थनयत्नलभ्या यान्तर्हि, तेति जगदुर्मधनोद्यतो भूः ! याच प्रतिक्षण मपूर्वर सानुबन्धा र्भावै र्भवन्त मभिनन्दयते स दैव ॥
163 80 प्रति := त्वया, अपि = सत्यसङ्कल्पुँड वगु नीचेतँ गूड, या=एतल्लि, उदधि, मुथन, यत्न, लभ्य= समुद्र मधन मनॆडु प्रयत्नमुचेतँ बॊन्दँदगिनदि यो, या = एतल्लि, अन्तर्हिता = अदृश्ययैनदि, इति=अनि, (त्वम्=नीवु) जगत्, उन्मथन, उद्यतः = जगत्संहार मुन कुद्युक्तुँडवु, अभूः= अयितिवो, या, च= एतल्लि, प्रतिक्षणम्=क्षणक्षणमु, अपूर्व, रस, अनु बन्धैः=क्रॊत्तवानिवलॆ नाश्चर्यकरमु लगु रसमुल प्रापु गल, भावै ः = सात्विकादि भावमुल चेत, भवं देवरवारिनि (तमनु) सदा + एव = ऎल्लप्पुडु, अभिनन्दय ते = आनन्द पॆट्टुचुन्नदो, (ताम् = अट्टि) श्रियम् = श्री देविनि, त्वां = निन्नुनु, अञ्चितः = प्रापिञ्चिनवाँडनै, उदीर्ण भावः = गॊप्पकैङ्कर्यभावमु गलवाँड नगुचु, परिच रेयम् = सेविन्तुनु गाक. तम्
वि शेषमुलु :- त्वया, अपि अनुटचेत सत्यसङ्कल्पु लगु देवरवारिकि सैत मितल्लि श्री राब्धिमधनप्रय्न मुचेत सम्पादित यय्यॆँ गावुन सत्युत्तमरा लनि तेलु चुन्नदि. 164 $ वैकुण्ठ स्तवमु यान्तर्हि तेति जगदुन्मथनोद्यतो भूः ई विष यमु श्रीमद्रामायणमुन अरण्य काण्डमुनन्दुनु उ.त्तर रामायणमुनन्दुनु जूड नगुनु. ता– एजननि सत्यसङ्कल्पु लगु देवरवारिकि सैतमु क्षीराब्धि मधनप्रयानमुचेत लभ्य यायॆनो ! येमात यदृश्युरा लैनप्पुडु देवरवारु जगत्संहारमुन कुद्युक्तुलै तिरो, एतल्लि निरन्तरानुभव मुन्ननु नूत नमुलवलॆ नाश्चर्यमुनुगूर्चु रसानु बद्धमु लगु सात्विकादि भावमुलचेत श्रीवारिनि सर्वदा यानन्द पॆट्टुनो अट्टिश्री देविनि श्रीवारिनि निरन्तरमु सेविन्तुनु ♡ गाक. च॥ वननिधिँ द्रच्चि येरमणि वल्ल भगाँ ब्रयतिञ्चि काञ्चितो ♡ कनँ बड कुन्न नेसति ज गम्मुलँ द्रुम्पँगँ जास मे त्तितो ! अनुकल मेलताङ्गि प्रण याञ्चितनित्यनवीन लीललन् निनुँ गरगिञ्चु नारमनु निन्नु भजिन्तु सदा परात्परा ! रूपश्रिया गुणगणै र्विभ वेन धाम्ना भावै रुदारमधुरै श्चतुरै श्चरितैः । वैकुण्ठ स्तवमु नित्यं तवैव सदृशीं श्रिय मीश्वरीं तां त्वां चाञ्चितः परिच य मुदीर्ण भावः ॥
165 81 उदार
प्रति– रूपक्रिया=सौन्दर्य मु यॊक्क शोभ चेतनु, विभ नेन = विभवावतारमुचेतन, गुणगणैः गुणसमू. हमुल चेतनु, धाम्ना = स्थानमुचेतनु, मधुरै ः=गॊप्पवियु मधुरमु लैनवियुनगु, भावैः= चि त्तवृत्तुलचेतनु, चतुरैः = नेर्पुगल, चरित्रैः नडतल चेतनु, नित्यम् = ऎल्लप्पुडु, तन + एव सदृशीम्=तगिनदियु, ईश्वरीम् = समस्त प्राणुलकु प्रभ्वि यैनट्टियु, ताम् ताम् = आ, श्रियम् श्री देविनि, त्वां च= निन्नुनु, अञ्चितः = प्रापिञ्चिन, (अहम् नेनु) = उदीर्ण, भावः = गॊप्पकैङ्कर्यभावमु गल वाँड नगुचु, परिच रेयम् = सेविन्तुनु गाक. वि शेषमुलु :- रूपश्रीया
रूपमुयॊक्क नी यनँगा लावण्यसौन्दर्य सौकुमार्यादु अनि भावमु. चतुरै श्चरित्रैः व्यापारमुल चेत, नित्यं तवैव सदृशीम् आश्रितसंरक्षणादिसमर्थमु लगु द्रामायणमुन श्रीम श्लो॥ तुल्यशीलवयोवृत्तां तुल्याभिजनलक्षणाम् । राघवोऒर्हति वैदेहीं तं चेय मसि तेक्ष णा ! तुल्यशीलवयोवृत्तमु, तुल्याभिजात्ययु नगु सीतकु रामुँडे तगुनु रामुनकु सीतये तगुनु. ऒकरि कॊकरु तगिनवा रनि भावमु. अन्नट्लु 166 वैकुण्ठ स्तवमु ईश्वरीम्— ’ ईश्वरी सर्वभूतानां त्वा मिहोप ह्वये श्रियम् ’ – ई श्रुतियन्दुँ जॆप्पँ बडिनट्लु सर्व भूतमुलकु प्रभ्वि यनि भावमु. ता :– ओ वैकुण्ठपती ! रूपलावण्य सौन्दर्य सौकुमार्या दुलचेतनु, दयावात्सल्यादि गुणसमूहमुल चेतनु, नी तारुक्मिण्याद्य न तार मुल चेतनु, स्थानमुचेतनु, उदार मधुरमु लगु चित्तवृत्तुलचेतनु, आश्रितसंरक्षणादि समर्थम्बु लगु व्यापारमुलचेतनु, सर्वदा नीके तगि समस्तभूतमुलकुँ ब्रभ्वि यैनदियु नगु श्री देविनि निन्नु सर्वदा भक्तिकैङ्कर्यमुलतो सेविन्तुनु नदियु
- गाक. शा॥ओ देवा ! यसमानरूपमु गुण व्यूहम्बु लोको त्तर प्रादुर्भावमु दिव्यधाममु श्रित त्राणम्बु मुन्नैन चि औदार्यादुलचेत नीकुँ दगुनि लै नयय्यीश्वरिक् श्री देवि निनु नाश्रयिञ्चि तलपै अ जेमोड्चि सेविञ्चॆद९. या बिभ्रती स्थिरचरात्मक मेव विश्वं विश्वम्भरा परमया क्षमया क्षमाच । तां मातरं च पितरं च भवन्त मस्य व्युच्छन्तु रात्रय इमा वरिवस्यतो मे ॥ वैकुण्ठ स्तवमु
167 प्रति :- या=पीदेवि, स्थिर, चर, आत्मकम् = स्थावरजङ्गमा त्मक मगु, विश्वम्=जगत्तुनु, बिभ्रती+ एव=भरिञ्चु चुने, विश्वम्भरा = विश्वम्भर यनु पेरु गलदियु, परमया=अधिक मगु, क्षमया = क्षमागुणमुचेत, (ओर्पुचेत) क्षमा, च = क्षम यनु पेरुगलदियु (भवति= अगुचुन्नदो,) ताम्=अट्टि मातरञ्च = तल्लि यगु भू देविनि, पितरम् = तण्ड्रि वगु, भवन्तं, च = निन्नुनु, वरिवस्यतः=सेविञ्चु चुन्न, अस्य=ई, मे= नाकु, इमाः=ई, रात्रयः = रात्रुलु, व्युच्छन्तु= तॆल्लवाऱुनु” गाक. जगत्तुनु भरिञ्चुनदि यनि ‘क्षमा’ क्षम वि शेषमुलु :- विश्वम्भ रा व्युत्पत्ति. भू देवि यनि यर्धमु. यनँगा - अपराधसहिष्णुत. अदि कलदि गनुक भूदेविकि क्षम यनि नामधेयमु, मातरम्—क्षमयु भरणमु तल्लि कुण्डवलसिन यसा धारण गुणमुलु, अवि पुष्कलमुगा नुण्डुट चेत भू देवि सर्वसाधारणनिरु पाधिकमात यनि तॆलिय नगुनु, ता :- ओवै कुण्ठनाथा ! एतल्लि स्थावरजङ्गमात्मक मगु नीविश्वमु नॆल्लनु भरिञ्चुट चेत विश्वम्भर यनियु निर वधिक मगु क्षमागुणमु चेत क्षम यनियुँ ब्रसिद्धिँ गाञ्चॆनो जननि यगुनाभू देविनि जनकुँड नगु निन्नुनु नित्यमु सेविञ्चु चुन्न यीनाकु रात्रुलु नी सेवकॊऱकु सुखमुगाँ दॆल्लवाऱुँ गाक. 168 वैकुण्ठ स्तवमु उ॥ शम्भुविरिञ्चि पूज्यपद सारस ! विश्वमु नॆल्लँ दाल्चि वि श्वम्भर नाँग, मेल् क्षमकुँ ब ट्ट गुचु क्षम नाँ कुम्भिनि मत्सवित्रि, जन ब्रसिद्ध या कु९ गुणराशिनि निन्नु नॆल्ल वे ळं भजियिञ्चुनाकु नवि लम्बत रात्रुलु तॆल्ल वाऱुत”. श्लो॥ भापै रुदारमधुरै र्विविधै र्विलासै प्रति : रूविभ्रमस्मितकटाक्ष निरीक्षणैश्च । या त्वन्मयी त्व मपि यन्मय एव सा मां नीला नितान्त मुररीकुरुता मुदारा ।
83 विलासमुल :- उदार, मधुरै ः = गम्भीरमुलुनु मनोहरमुलु नगु, भावैः = भावमुलचेतनु (चित्तवृत्तुलचेतनु) विविधै : = नानाविधमु लगु, विलासैः चेतनु, भ्रूविभ्रम, स्मित, कटाक्ष निरीक्षणैः च =बॊम मुडि, चिऱुनव्वु, क्रेगण्टिचूपुल चेतनु, या=एनीला देवि, त्वन्मयी= नीतो अनन्ययो, (ऎडँगायनिदो,) त्वमपि=नीवुनु, यस्मयः एव = एनीला देवितो अनन्युँ डवो(ऎडँबायनिवाँडवो)नितान्तम् = मिक्किलि, उदारा =उदारुरालगु, सा=आ, नीला नीला देवि, माम् नन्नु, नित्यकिङ्करुनिगा सङ्गीक रिञ्चुँगाक, उररीकुरु ताम् = =वैकुण्ठ स्तवमु 169 वि शेषमुलु-= विलासैः = चित्तवृत्तिसूचकशृङ्गार चेष्टल चेत. या त्वन्मयी त्वमपि यन्मय एव — ‘मनस्वी तद्गत स्तस्यां नित्यं हृदि समर्पितः’ अन्नट्लु अन्नट्लु नीलावै कुण्ठनाथु लन्योन्यभोग्यु लनि भावमु, नितान्तमुदारा =: आश्रिताभिलषित प्रदान शौण्ड यनि तात्पर्यमु. नीला नितान्त मुररीकुरु ताम् ‘नीलातुङ्ग स्तनगिरितटी सुप्त’ मित्यादि वर्णनलचेत नीला देवि भगवन्तुनकु अभिमत वल्लभ गनुकँ दन नित्यकैङ्कर्यमुनकु नीला देवि यङ्गी कार मावश्यक मनि भावमु. ता :- ओ वै कुण्ठपती! गम्भीरमुलु मनोहरमुलु नगु भावमुल चेतनु, भूभङ्गमन्दहासकटाक्ष वीक्षणमुल चेतनु, एतल्लियु नीवु नन्योन्यानुरक्तुलै युन्दुरो दान शौण्ड यगु ना नीला देवि नन्नु नित्यकिङ्क रुनिगा सङ्गीकरिञ्चुँगाक. शा॥भ्रूलीलास्मितदृग्विलासमुल निं पुल् निम्पु भावम्बुलन् 22 170 वैकुण्ठ स्तवमु लालित्यादुलँ गूडि याडॆदरु नी लन् नीवु निन् नीलयुन् वालायम्बुग नय्यु दारगुण नी वाल्ल भ्य पात्रम्बु नौ नीलालोलदृगज्ज किङ्करुँग वी निन् वे कटाक्षिञ्चुत. श्लो॥ भावै रनुक्षण मपूर्वरसानुविदै रत्यद्भुतै रभिन पै रभिनन्द्य देवीः ! भृत्याक् यथोचित परिच्छदिनो यथार्हं सम्भावयन्त मभितो भगवन् ! भवेयम् ॥ 84 प्रति :- हे भगव!= ओ वैकुण्ठपती! अनुक्षणम्=क्षण क्षणमु, अपूर्व, रस अनुविधैः= (भोग्यतातिशयमु वलन) क्रॊत्तदिवलॆँ दोँचु शृङ्गाररसविशेषमुतोँ गलसिनट्टियु, अत्यद्भु तैः मिक्किलि आश्चर्यकरमु लै नट्टियु, अभिनवै ः – नूतनमु लैन, भावैः = सात्वि कादि भावमुलचेत, देवी : श्रीभूनीला देवुलनु, अभि
नन्द्य =मिक्किलिगा नानन्द पॆट्टि, यथोचित, परिच्छदिनः== तमतम यधिकार मुनकुँ दगिनट्लु वेत्र, छत्रादिपरिकर मुलु गल, भृत्याक् = सेवकुलनु (विष्व क्सेनादुलनु) यथार्हम्=अधिकारमुनकुँदगिनट्लु, सम्भावयन्तम्= सत्करिञ्चु चुन्न, (भवन्तम् नीकु) अभितः = समी पमुन (सकलकैङ्कर्यमुलँ जेयुवाँडनै) भवेयम् उन्दुनु गाक.
वैकुण्ठ स्तवमु 171 ता :- ओवै कुण्ठनाथा ! क्षणक्षणमुनु भोग्यतातिशय मुन अपूर्वमुवलॆँ दोँचु शृङ्गाररसविशेषमुतोँ गूडिनवियु, अत्यद्भुतमु लै नवियु, नूतनमु लै न वियु नगु सात्विकादि भावमुलचेत श्रीभूनीला देवुल नानन्द पॆट्टि तमतम यधिकारमुनकुँ दगिनट्लु नेत्र च्छत्रादुल धरिञ्चिन विष्वक्सेनादिभृत्युलनु सम्भाविञ्चु चुन्न देवर वारि चॆन्त सकलकैङ्कर्यमुलु निर्वर्तिञ्चुचु नुन्दुनु गाक. उ॥ नूतनमुल् क्षणक्षण म नोहरमुल् रसभावमाधुरी स्फीतमुलौ विलासमुल श्रीतरळाक्षिनि भूमिनीलल गौतुकि तान्तरङ्गलनु गा नॊनरिञ्चुचु वेत्रभृन्मुखुल् जोत लॊनर्पँ गॊञ्चु दयँ जू चॆडु वेल्प ! निनु९ भजिञ्चॆद अवतारिक :- इट्लु परिपूर्ण भ ग वदनुभव प्रार्थन नॊनर्चि स्वनै च्यानुसन्धानमुचेत निट्टि प्रार्थनयु नाश्चर्य करमे यनि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ हा! हन्त ! हन्त ! हतकोZस्मि खलोस्मि थिङ्मां मुह्य न्नहो ! अह मिदं कि मुवाच वाचा J 1 172 वैकुण्ठ स्तवमु त्वा मङ्ग मङ्गलगुणास्पदमस्त हेय मा स्स्मर्तु मेव कथ मर्हति मादृगंहः॥ प्रति :- अङ्ग ओवैकुण्ठपती ! हा, हन्त, हन्त ! अय्यय्यो, हतकः हतप्रायुँडनु, अस्मि दीनिनि, किम्
85 = अगु अगु चुन्नानु, खलः = क्रूरुँडनु, अस्मि चुन्नानु, माम्=नन्नुँ गूर्चि, धिक् = छी, मुह्यक्= भ्रान्तुँड नगुचु, वाचा - केवल वाक्कुतो, इदम् = एमि, उवाच = पलिकितिनि, अहो! आश्चर्यमु ! अ स्त हेयम् = निरसिम्पँ बडिन समस्त हेयगुणमुलु गलट्टियु, मङ्गल, गुण, आस्पदम् कल्याणगुणमुलकु निलय मैनट्टियु, त्वाम् = देवर वारिनि (निन्नु) स्मर्तु मेव तलँचुट के, मादृक्, अंहः माबोटिवारिपापमु, कथम्=ऎट्लु, अर्हति तगुनु? (तग दनि भावमु) आः = ऎन्त बाध (कलुगु चुन्नदि). विशेषमुलु– अङ्ग- ई यव्ययमु सम्बोधनमुन वाडँ बडुनु. हा, हन्त, हन्त ई मूँडुनु गलिसि भेदातिशय मुनु सूचिञ्चुनु, हतक्कोस्मि—दुष्कर्ममुल चेत मृतप्रायुँडनुगाँ जेयँ बडितिनि, वैकुण्ठ स्तवमु 173 खलो2स्मि— विषयान्तर प्रवीणुँड नगु चुन्नानु, मुह्यन् . अभोग्यमु लगु शब्दादिविषयमुलनु भोग्यमुलनुगाँ दलञ्चिन भ्रान्तुँडनु. अह मिदं कि मुवाच वाचा इप्पुडु मति लेनि माटतो नेने मण्टिनि. पापात्मुँड नगु नाकु नी भोगानु भवमुनु ब्रार्थिम्प नेमिहक्कु गल दानि भावमु, मादृगंहः त्वां स्मर्तु मेव कथ मर्हति - ना बोण्ट्लपापमु निरस्तसमस्त हेयगुणुँडवुनु कल्याण गुणास्पदुँडवु नगु निन्नु नण्टुटकैन नॆट्लु तगुनु, आः— इट्लु निन्नुँ ब्रार्थिञ्चुट ना कॆन्त बाधाकरमु. ता- - ओ वै कुण्ठनाथा ! अय्यय्यो ! ने नॆन्त मृत प्रायुँड नैतिनि. ऎन्त विषयलम्पटुँडनु, छी नाजन्म मेल, अभोग्यमु लगु शब्दादि विषयमुलनु भोग्यमु लनुगाँ दलञ्चि यॆन्त मोसपोयितिनि. इट्टि खलुँड नगु नेनु मति लेनि माटतो नेमि प्रार्थिञ्चितिनि. ना बोण्ट्ल पापमु निर _स्त हेयगुणुँडवुनु समस्तकल्याणगुणनिल युँडवु नगु निन्नुँ बॊन्दुट माट यटुञ्चुमु, अण्टुटकु नैननु दगुना ? अविवेकिनै नी गुणानुभव ब्रार्थिञ्चि यन्दनिपण्डुन कऱ्ऱु चाचितिनि. इदि नाकु बाधगा नुन्नदि. ‘मुनु 174 वैकुण्ठ स्तवमु शा॥अय्यय्यो ! हतकुण्ड मूर्खुँडनु छी ! यज्ञुण्ड भोगाळि पै नॆय्यम्बुन् विडनट्टि भ्रान्तुँड वृथा ने नेमियण्टिन् रमा शय्योरस्थ्सल! य_स्तहेयगुणु वि श्व स्तुत्य भास्वद्गुणा क्षय्यावासु स्पृशिम्प नेनि निन्नु न स्मत्पापमुल् चालु ने? अवतारिक :- नन्नु स्मरिञ्चुयोग्यतनु लेकुण्डँ जेसिनदि पापप्राचुर्यमु गान दानिनि दॊलँगुनट्लु चेसि नी सेव नङ्गीकरिं चॆद ननि वैकुण्ठ नाथुँडु भाविञ्चिनट्लु शङ्किञ्चु कॊनि अनादिपापवासनादूषितुँड नगु नेनु देवरवारि परिचर्यकु ननर्हुँड ननि मनवि चेयुचुन्नारु. श्लो॥ आंहः प्रसह्य विनिगृह्य विशोध्य बुद्धिं व्यापूय विश्व मशिवं जनुष्का नुबद्धम् । आधाय सद्गुणगणा नवि नाह मल्ह स्वत्पादयो र्यदह मत्र चिरं निमग्नः II प्रति :- यत् =ऎन्दुवलन, अहम् – नेनु, अत्र . पापमुलन्दु, चिरम् = चाल कालमु, निमग्नः मुनिँगितिनो, (अतः = इन्दुवलन, 86 अंहः = (ना) पापमुनु, प्रसह्य = बलात्कारमुगा, विनिगृह्य = अणँचिवेसि, बुद्धिम् = बुद्धिनि, विशोध्य = बागु वेसि वैकुण्ठ स्तवमु 175 (मुरिकि लेकुण्डँ जेसि) जनुसा= जन्मतो, अनुबद्धम्= कूडियुन्न, विश्वम् – समस्त मगु, अशिवम् = अमङ्गळकर मैन विषय वासनादिकमुनु, व्यापूय शोधिञ्चि, सत्, गुण, गणान् मेलिगुणमुल समू हमुलनु, आधाय, अपि चेकूर्चुकॊनियु, नीपादमुल अहम् = नेनु, त्वत्, पादयोः
A यॊक्क (सेवकु) अर्हः = तगिनवाँडनु, न = कानु, विशेषमुलु :- अंहः प्रसह्य विनिगृह्य - धर्मेण पाप मपनुदति (प्र्रायश्चित्तादि धर्मकार्यमु चेतँ बाप मुनु पोँगॊट्टुकॊनुचुन्नाँडु) अनुन्यायमुचेतँ ग्रममुगाँ जीर कालानुष्ठित प्रायश्चित्तमुचेत दुष्प्रर्म जनितमु लगुपापमुल नणचि वेसि यनि भावमु, विशोध्य बुद्धिम्—— जन्मान्तर सहस्रेषु तपोज्ञान समाधिभिः । नराणां क्षीणपापानां कृष्ण भक्तिः प्रजायते ॥ - वेलकॊलँदि जन्ममुलकुँ दपोज्ञानसमाधुल चेत श्रीणपापु लगु मानवुलकु श्रीकृष्णुनियन्दु भक्ति जनिञ्चुनु.) अन्नविधमुगाँ ब्रक्षी णा शेषकल्मषुँ डगु पुरुषुनिचि त्त मुलो भक्ति जनिञ्चुनट्लु नाबुद्धिनि शोधिञ्चि भ क्ति नुद्भ विम्पँ जेसिकॊनि यनि याशयमु, व्यापूय — अनुचोट ’ व्याधूय’ अनि पाठान्त रमु. अप्पुडु - पोँगॊट्टि यनि यर्थमु. 176 वैकुण्ठ स्तवमु ता– ओवै कुण्ठपती! बलात्कारमुगा ना पापमुल नणँगँ द्रॊक्कि नाबुद्धिनि बागु चेसि भक्तिनि गलिगिञ्चि जन्मादि बद्धमै यमङ्गळकर मगु नी सम स्तविषयवासनादिक मुनु बोँद्रोलि सद्गुणजातमुनु गलिगिञ्चुकॊनियु नेनु चिरकालमु पापकूपमुलो मुनिँगिनवाँड नगुट चेत नीपादपरिचर्यकुँ दगनु, शा॥प्रायश्चित्तमुचेतँ बापमुल सं बाळिञ्चियु बुद्धि बुद्धि ना यायोगम्बुन शुद्धि सल्पियु नभ व्यम्बै जनुर्वासना भूयिष्ठं बगुना_र्तिँ बासियु गुणं बुल् चॆन्दियुन् नेँ दगन् नियम्फ्रिन् गॊलुव जिरम्बु दुरिता नीकाब्धिलो मुन्गुटक् . अवतारिक :- भगवानुनि दयावात्सल्यादि गुणमुल ननुसं धिञ्चुकॊनुचु मऱल समाहितचित्तु लगु चुन्नारु. श्लो॥ जानेऒधवा कि मह मङ्ग ! य देव सङ्गा दङ्गीकरोषि यदि मङ्गळ मन्य दस्मात् ! तेन त्व मेन मुररीकुरुषे जनं चे न्नैवामुतो भवति यु क्ततरो हि कश्चित् ॥ 87 प्रति :- अथवा = = अटु कानियॆडल, अङ्ग !
ओ वै कुण्ठ नाथुँडा !, अहम् – नेनु, किम् –एमि, जाने=ऎऱुँ वैकुण्ठ स्तव मु 177 गुदुनु ? यत् + एव == पूर्वोक्त मगु ए पापमु ने, स्वस्वामिभावरूप मगु सम्बन्धमुवलन, अस्मात् = ई पापमुकण्टॆनु, अन्यत् = इतर मगु, मङ्गलम्= (नीवु परिग्रहिञ्चुटकुँ गारण मगु) सुकृ तमु, सहि= लेदु, (इति, मत्वा=अनि तलँचि) अङ्गीक रोषि, ही = अङ्गीकरिञ्चु चुन्नावु गदा ! (पापमुने पुण्यमुनुगा अङ्गीकरिञ्चुचुण्टिवि गदा यनि भावमु) लेदा—अङ्ग ! = ओडेवा ! यत् + एव = एपापमु ने सङ्गात् =स्वस्वामि भावसम्बन्धमुवलन, अङ्गीकरोषि अङ्गीकरिञ्चु चुन्नावो, अस्मात् = ईनीयङ्गी कारमु कण्टॆनु, अन्यत् =इतर मगु, मङ्गलम्=सुकृतमु, नहि= लेदु, (अनि येनियुँ जॆप्पिकॊन वच्चुनु) तेन= अन्दुचेतँ दोषमुलन्दु गुणत्वबुद्धिकि मूलकारण मगु स्वस्वामिभाव सम्बन्धमु चेत, त्वम् = नीवु’ पूर्वो क्तक लुषदूषितुँड नगु ई नन्नु, वीनम् =
उंरीकुरु मे चेत् अङ्गीकरिन्तु वेनि, अमुतः = ईजनुनि कण्टॆ, युक्ततरः = मिक्किलि योग्युँ डगुवाँडु, कश्चित् =ऒक्कँडुनु, नैव, भवति, हि गदा!
लेनेलेदु विशेषमुलु :- य देव सङ्गात्, अङ्गीकरोषि नहि मङ्गल मन्यद स्मात् – ओ वै कुण्ठनाथुँडा! ना कुन्न पापमु ने 23 178 वैकुण्ठ स्तवमु स्वसामि भावसम्बन्धमुवलन नीवु दग्गऱदीयँ दगिन पुण्य मुनुगा नङ्गीकरिन्तु वेनि नन्नु मिञ्चिनवाँ डॆवँडु? अनि भावमु. भगवन्तुँडु भक्तुलयन्दलिदोषमुलनु गुणमुलनु गाने यनुभविञ्चु ननि भावमु. इन्दुलकु रामायणमु प्रमाणमु ‘दोषो यद्यपि तस्य स्यात् । सता मेत दगर्हितम् ! विभीषणो वा सुग्रीव । यदिवा रावणः स्वयम् एनञ्जनं, उररीकुरु षे चेत् - ‘आः स्मर्तु मेन कथ मर्हति मादृगंहः ’ अन्नट्लु निन्नुँ दलञ्चुटके योग्यत लेनि यॆन्नो पापमुलँ जेसिन यी जडुनि अनि याशयमु. ‘नैवामुतो भवति यु क्ततरो हि कश्चित् ’ तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः एक भक्ति र्विशिष्यते अनि गीतलोँ जॆप्पँ बडिन योगि। श्रेष्ठुँडु. गूड नितनितो समानुँडु काँ डनि तात्पर्यमु, ता :- ओ वै कुण्ठपती ! ने नेमि यॆऱुँगुदुनु, नी यङ्गी कारमुनकुँ गारण मगु भवदीय वात्सल्यादिक मुनु विडँदीसि यिदि यी यनुग्रहमुनकु हेतु वनि तॆलियँ जालनु, पाप मितनि दग्गऱँ बापमुकण्टॆ नितर मैनदि येमियु लेदु. स्वस्वामि भावसम्बन्धमुचेवैकुण्ठ स्तव मु 179 नी पापमुने पुण्यमुगा ग्रहिञ्चि वीनिनिँ जेपट्टॆद ननु कॊनि यो देवा ! पापदूषितुँड नगु नन्नुँ गनिकरिं चॆदवेनि ना कण्टॆ लोकमुन गॊप्पवाँ डॆवँ डुण्डुनु. उ॥ नन्नुँ बरिग्रहिं चॆडिगु णं बदि नीयॆड नेदॊ ! सद्गुणा भ्युन्नत ! ने नॆऱुङ्ग नघ पुञ्जमुदप्प गुणम्बु नायॆड जिन्नदि येनि ले ददियॆ श्रीपति ! भोग्यमुगाँ दलन्तु वे निक् निनुँ बोलु नॆव्वँ डव नीतिलिलो नखिलाण्डनायका ! अवतारिक :- निरन्तरमु पापमुलने याचरिञ्चु चुन्न तानु केवलवात्सल्यमूल मगु भगवत्कृप कॆट्लु विषय मगुदु ननि मरल शङ्किञ्चुकॊनु चुन्नारु. श्लो॥ य न्नाभवाम भवदीयकटाक्ष लक्ष्यं संसारग र्तपरिवर्त मतो गमाम । आगांसि ये खलु सहस्र मजस्र मेवं जन्म स्वतन्महि कथं त इमेनुकम्प्याः !! प्रति :- यत्
ए कारणमुवलन, भवदीय, कटाक्षु, लक्ष्यम्= देवर वारि सम्बन्ध मगु, क्रेगँटिचूपुनकु गुऱि, न+अभवाम= कामो, अतः = ई कारणमुवलन संसार, गर्त, परिवर्तम् संसार मनॆडु बिलमुनन्दु 180 वैकुण्ठ स्तवमु (गुण्टयन्दु) तिरुगुडुनु, अगमाम
पॊन्दितिमि, चेसितिमि, ते एवम्=इट्लु, जन्मसु=अनेक जन्ममुलन्दु, अजस्रम्= ऎल्लप्पुडु ( तॆम्पु लेकुण्ड) सहस्रम् = वेलु, आगांसि, खलु=अपराधमुल ने कदा, अतन्महि इमे=आवीरु, कथम्=ऎट्लु, अनुकम्प्याः =दयदलँचँ दगिनवारु, (भवेयुः=अगुदुरु) विशेषमुलु :- संसारग र्तपरिवर्तम् – संसारमुनु गुर्त मुतो (गुण्टतो) पोल्चुट दुरारोहत्व सूचनमु कॊऱकु, संसारमनॆडु गुण्टलोँ बडिनवाँडु मरलँ बैकि रालेँ डनि भावमु. जायमान कालमुनन्दुँ बरमात्म वारिनि गटाक्षिञ्चकुण्डुटये वारु नित्य संसारु लगुटकु हेतुवु. ‘त इमे ’ — अनेक जन्ममुलन्दु निरन्तर मनेकाप राध मुल नॊनर्चुनीमे मनि भावमु. वा वधार्ह मपि काकुत्थ्सः कृपया पर्यपालयत् ’ अन्तःपुरापराध मॊनर्चि वधार्हुँ डगु वधार्हुँ डगु काकासुरुनि श्री रामुँडु कृपचेसि कावलेदा? अन्न चो आ काकासुरुँ डॊकमारे यपराध मॊनर्चॆनु गानि, मावलॆ जन्म जन्ममुलन्दु न ने कापराधमु लॊनर्प ले दनि भावमु. ता :- ओवै कुण्ठपती ! देवरवारि करुणाकटाक्षमुनकु गुऱि काक पोवुट चेत मे मी संसारगर्तमुनँ बडि तिरुगु वैकुण्ठ स्तवमु 181 चुन्नामु. जन्मजन्ममुलन्दुनु वेलकॊलँदि यपराध मुल निरन्तर मॊनर्चु चुन्नामु. इट्टि मेमु नीदय कॆट्लु पात्रुलमु काँगलमु? उ॥ तामरसाक्ष! नीदुसमु दा त्त दृगन्त विलासलक्ष्यमुल् कामि निटुल् दुरन्तभव ग र्तमुलं बडि पॊर्लुचु सह प्रामितमुल् जनिं जनि म हाघमुलं बॊनरिञ्चुमे मॆटुल् कोमल देह ! नीकरुण कुं गुदु रय्यॆदमो ! यनूह्यमा. अन तारिक :- इप्पुडु संसारमनॆडु गुण्टलोँ बडि परिश्रम चॆन्दुचुँ गर्मज्ञानभ क्ति शून्युँडनै युन्न नाकु ‘एवं संसृतिचक्रस्थे भ्राम्यमाणे स्वकर्मभिः जीवे दुःखाकु ले विष्णोः कृपा का प्युपजायते’ (इट्लु संसारचक्रमुन नुण्डि निजकर्मलचेतँ द्रिप्पँ बडुचु दुःखाकुलुँडै युन्न जीवुनिपै विष्णुमूर्तिकि निरुपाधिककृप कलुगुनु) अनि नुडुवँ बडिन निर्हेतुक कृपये गति यनि विशदीक रिञ्चु चुन्नानु. 13 *॥ सत्कर्म नैन कील किञ्चन सञ्चिनोमि विद्याप्यपद्यरहिता न तु विद्यते मे । 182 वैकुण्ठ स्तवमु किञ्च त्वदञ्चितपदाम्बुजभ_क्तिहीनः पात्रं भवामि भगव= ! भवतो दयाया-]]
89 प्रति :- (हे) भगव९ ! = षड्गुणेश्वर्यसम्पन्नुँड नगु नो वैकुण्ठनायका !, किञ्चन = कॊञ्चॆ मेनियु, सत्, कर्म योग्य मगु कर्ममुनु, नैव, गुञ्चिनोमि = सम्पादिञ्चुकॊन ने लेदु, कील= प्रसिद्धमु, अवद्यरहिता= निर्दुष्ट मैन, विद्या, अपि = ज्ञान मैननु, मे = नाकु, नतु, विद्यते= लेदु, किञ्च= मऱियु, त्वत्, अञ्चित, पदाम्बुज, भ क्ति, हीनः : देवर वारियॊक्क, अन्दऱि चेतँ बूजिम्पँबडु पादपद्ममुलन्दुनु भक्ति लेनि वाँडनु, (अहम्=इट्टि नेनु) भवतः=नीयॊक्क, दया याः=निर्हेतुक मगु कृपकु पात्रम् भवामि= अगु चुन्नानु.
पात्रमुनु, विशेषमुलु :- सत्, कर्म - फलासक्ति, कर्तृत्वबुद्धियु, लेनि केवल भगवदाराधनरूपमगु यज्ञ दानादिक मुनु नित्यनैमित्तिक भेदमुचेत वर्णाश्रमविहितमु नगु कर मनि भावमु. कर्म विद्या व्यवद्यरहिता संशय, विपर्य, यादिदोष ता— मुलु लेनिज्ञान मनि याशयमु. अर्थपञ्चक विषयक मगु समीचीनज्ञान मनि सारांशमु, • भ क्तिहीनः - महनीयविषयक मगुप्रीतिनि भक्ति यन्दुरु. कर्मज्ञानभ क्ति योगमुललो नॊक्क दानियन्दुनु वैकुण्ठ स्तवमु 183 ब्रवेशमुलेनिवाँड ननि तात्पर्यमु. ता :- ओवै कुण्ठनायका ! नेनु कॊञ्चॆ मेनियु सत्कर्म मुनु गूडँ बॆट्टिकॊनि युण्ड लेदु. सन्देहमु मिथ्या ज्ञानमु मुन्न गुदोषमुलु लेनि य यर्थपञ्चक विषयमगु समीचीन ज्ञान मेनियु नाकु लेदु. अन्ते कादु. अन्दऱि चेत नाराधिम्पँ बडु देवर वारि पादपद्ममुलं दै.ननु भक्ति लेदु. इट्लु कर्मज्ञानभक्ति योगमुलकु दूरुँड नैननाकु श्रीवारि निर्हेतुक जायमानकृप यॊक्क टे यिङ्क दिक्कु. शा॥कॊञ्चॆं बेनियुँ गूडँ बॆट्टुकॊन वै कुण्ठेश ! सत्कर्म, मा र्जिञ्च बो! निरवद्यविद्य नयिन श्रीवारि पादाल य त्किञ्चिद्भक्तियु लेदु संसृतिपयो धी९. दाँट निर्हेतुको दञ्च त्वत्कृप यॊण्डॆ नौकवलॆ ना * धारम्बु देवो त्तमा! श्लो ॥ किं भूयसा प्रलपितेन य देव किञ्चित् पापाह्व मल्प मुरु वा त द शेष मेष 184 वैकुण्ठ स्तवमु जान न्नवा शतसहस्रपरार्धकृत्वो योऒ कार्ष - मेन मगतिं कृपया क्षमस्व!! 90 प्रति :- भूयसा
ऎक्कुव, प्रलपि तेन
प्रलापमुचेत (वागुडु चेत) किम्= एमि प्रयोजनमु? अल्पं, वा= कॊञ्चॆमु गानि, उरु, वा = ऎक्कुव गानि, यत्, एव, किञ्चित्=एकॊञ्चॆमे कानि, पापाह्वम् पाप मनॆडु पेरु गल येकर्ममु गलदो, तत् = दानिनि, अशेषम्= अन्तयुनु, जानक्, वा तॆलियुचुँ गानि, न, वा= तॆलियक कानि, यः= ए, एषः = ई, अहम् = नेनु, शत, सहस्र, परार्थ, कृत्वः = नूऱुसार्लु, वेयिसार्लु, परार्थमुसार्लु (पलुसार्लु) अकार्षम् = चेसितिनो, अग तिम्= दिक्कु लेनि (नीकण्टॆ वेटे रक्षकुँडु लेनि) एनम् वीनिनि, कृपया= केवलदयचेत, क्षमस्व=क्षमिम्पुमु, ता :- ओवै कुण्ठनायका! पॆक्कु माटलतो नेमि जनमु? कॊञ्चॆमु गानि, गॊप्प गानि, येमात्रमे यैननु पाप मनॆडि नादुष्कर्म मेदि गलदो दानि प्रयो नन्तयुँ दॆलिसियो तॆलियको नेनु वन्दलु वेलु परार्थमुलसार्लु चेसिये युन्नानु. देवा ! दिक्कु लेनि अनन्यशरणुँड नगु नन्नु नीवु नी निर्हेतुक जायमान कृपचेत रक्षिम्प वलयुनु, (स शेषमु ) वैकुण्ठ व मु 185 उ॥ एमि फलम्बु गल्गु निटु लॆन्नि वचिञ्चिनँ बापनामकं बै मही नॊप्पुदुष्कृतमु नन्तयॊ यिन्तयॊ ने नॆऱिङ्गि यो नामदिलो नॆऱुङ्गकॊ यॊ नर्चिति वन्दलु वेलु सारु लो स्वामि ! भवत्कृपागुण मॆ सैप्रवलॆन् गति लेनियीतनिन्. अवतारिक :- इप्पुडु श्रीवारिपरिग्र हातिशय सूचकम्बु लगु ज्ञानभ क्त्यादुलकु निलयमैन भगवद्रामानुजाचार्युल वारिचेँ बरिगृहीतुँड नैननु नन्नु विषय वासन लट्टिट्टु चेयुचुन्नवनि विचारपडुचुन्नारु. श्लो॥ देव! त्वदीयचरण प्रणयप्रवीण रामानुजार्यविषयीकृत मप्यहो ! माम् भूयः प्रधर्षयति वैषयिको विमोहो मत्कर्मणः कतर दत्र समानसारम् ॥ 91 प्रति :- देव= ओ वैकुण्ठ नायका ! त्वदीय…विषयी कृतम्—त्वदीय - नी सम्बन्धमु लगु, चरण = पादमु लन्दलि, प्रणय = भ_क्तियन्दु, प्रवीण = निपुणुँ डगु, रामानुजार्य = रामानुजाचार्य वर्युनि चेत, विमू 24 186 वैकुण्ठ स्तवमु बडिनवाँड कृतम्, अपि = परिग्रहिम्पँ बडिन वाँड नै नप्पटिकिनि. माम् नन्नु, वैषयिक्क विषयसम्बन्धि यगु, विमोहः = व्यामोहमु (भ्रान्ति) भूयः
माटि माटिकि, प्रधर्ष यति = परिभविञ्चुचुन्नदि (तनवललो वेसिकॊनु चुन्नदि) अहॆू = आश्चर्यमु, अत्र = ई लोकमुनन्दु, मत्, कर्मणः= नाकर्ममुनकु, समान सारम् तुल्यबलमु गलदि, कतरत् = एदि गलदु? वि शेषमुलु :– त्वदीयचरण अनुचोट ‘त्वदं अनि पाठान्तरमु गलदु - अप्पुडु त्वत् = नीयॊक्क, अम्फ्रि—पादमुलयॊक्क, युगळ = जण्टयन्दलि अनि यरमु. वैषयिकोविमोहः भोग्यताबुद्धि. युगळी अत्यन्त हेयविषयमुलन्दु ता :- ओवै कुण्ठनाथा ! नी पादारविन्दमुलन्दु भक्तिप्रप त्तुलु गल भगवद्रामानुजाचार्युल वारिचेँ जेपट्ट- बडिन नन्नु सैतमु विषयव्यामोहमु तनवललो वेसिकॊनि बाधिञ्चु चुन्नदि. आहा! नाकर्मकुँ दुल्य बलमु गलदि येदि गलदु? शा॥ देवा ! त्वच्चरणारविन्द युगळी देदीप्यमानोज्ज्वल द्भावुं डै नप्रसन्नमूर्ति भगव द्रामानुजाचार्युचे वैकुण्ठ स्तवमु मावाँ डञ्चु गृहीतुँडौ नितनि नी माड्किं गलम्पङ्ग भो गा वेशम्बु समानसार मॆदि या हा ! नादु दुष्कर्मकु ? ? 187 अवतारिक :- इप्पुडु सांसारिक दुःखमु अत्यन्तदुस्सहमु लनि यैदुश्लोकमुलतो निरूपिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ गर्भेषु निर्भर निपीडन खिन्न देहः खोदीयस्कोपि महतो ऒस्यखिलस्य जन्तो : 1 जन्मान्तरा ण्यनुनिचिन्त्य परः सहस्रा ण्यत्राह मप्रतिविधि र्निहत श्चरामि ॥ 92 प्रति :- जोदीयसः - मिक्किलि चिन्न दैनट्टियु, अतिमहतः = मिक्किलि गॊप्पदै नट्टियु, आखिलस्य = सम स्तमैन, जन्तोः प्राणिकि, गर्भेषु मातृगर्भमुलन्दु, निर्भर, निपीडन, अन्न, देहः मिक्किलि यॊ त्तिडिचेत केशमुनु बॊन्दिन देहमु गलवाँड नगुचु, परः 3
सहस्राणि = वेलनु मिञ्चिन, जन्मान्त राणि = इतर जन्ममु लनु, अनुविचिन्त्य= वरुसँगाँ दलँचुकॊनि, निहतः— मृतप्रायुँडनै, अहम् = नेनु, अत्र = ई कालमु नन्दु, अप्रतिविधि प्रतिक्रिय लेनिवाँडनै, चरामि= तिरुगुचुन्नानु
विशेषमुलु :- क्षोदीयसः - अल्प शरीर परिमाणमु गल चीम मुन्नगु प्राणियॊक्क. अतिमहतः——अतिस्थूलपरिमाणमु गल येनुँगु मॊद लगु प्राणियॊक्क. 188 वैकुण्ठ स्तव मु जन्मान्तरा ण्यनुविचिन्त्य प्राणिकि गर्भमुलो नुन्न प्पुडु जातिस्मरण मुण्डुनु. जन्मिञ्चिन तरुवात नाज्ञानमु भ्रष्ट मगुनु. ईविषयमु श्रीविष्णुपुराणमुनं दी क्रिन्दि शोकमुललोँ जूड नगुनु. 00 श्लो॥ निरुच्छ्वास स्सचैतस्य स्मरण जन्मशता व्यपि आस्ते गर्भे६तिदुःखेन निजकर्मनिबन्धनः विज्ञानभ्रंश माप्नोति जातश्च मुनिसत्तम ! ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! अत्यल्प शरीर परिमाणमुगल चीम, अति स्थूलशरीर परिमाणममुगल येनुँगु मुन्नगु प्राणुल गर्भमुनन्दु मिक्किलि ऒत्तिडिचेत क्लेशपडुचुन्न शरीर मुतो वेलसङ्ख्यकु मिञ्चिन तॊलुतटि जन्ममुलनु वरुसगाँ दलञ्चुकॊनुचु जीवच्छवम्बु नैनने नीकाल मुनँ ब्रतिक्रियाळून्युँड नगुचु सञ्चरिञ्चुचुन्नानु, उ॥ चिन्न शरीरमुल् गलुगु चीमलकड्पुन स्थूलकायसं पन्नग जाळि कुक्षुल न पारपुटॊ त्तिडि नल्गुचुन् गटा! यॆन्नि यॊ जन्ममुल् वरुस नॆञ्चुचु जीवमुतो शवम्बुनै वॆन्नुँड ! कुन्दि या वॆतल वीडँ ब्रतिक्रियँ जेय नि त्तऱिन्. भूयश्प जन्म समयेषु सुदुर्वचानि दुःखानि दुःख मतिरिच्य कि मप्यजानन् । मूड्कोनुभूय पुन रेव तु बालभावात् दुःखोत्तरं निजचरित्र ममुत्र सेवे ॥ 93वैकुण्ठ स्तवमु 189 प्रति :- भूयः, च—तिरिगियु ( गर्भ क्लेशानुभवानन्तरमु सैतमु) जन्म, समयेषु = जन्म कालमुलन्दु, सुदुर्व चानि = इट्टिवि यिन्नि यनि चॆप्पुटकु वीलुगानि, दुःखानि = दुःखमुलनु, अनुभूय अनुभविञ्चि, दुःखम् दुःखमुनु, अतिरिच्य कि मपि = देनिनि गूड, आजानस् नगुचु, मूढः = =
अतिक्रमिञ्चि, ऎऱुँगनि वाँड तॆलिवि लेनिवाँडनै, पुन, रेव बालत्वमुवलन, तु = तिरिगियु, बाल भावात्
अमुत्र परलोकमुनन्दु, दुःख + उ त्तरम् दुःखप्रचुर मगु निज, चरित्रम् स्वकर्ममुनु. = सेविन्तुनु. विशेषमुलु :- सुदुर्वचानि इट्टिवि, इन्नि अनि चॆप्प शक्यमुलु कानि, मूढः दुःखनिवृत्तिकि उपायज्ञानमु लेनिवाँडु (दुःखनिव र्तकोपायज्ञानशून्यः) अमुत्र नन्दु. परलोकमु ता :- ओ वै कुण्ठनाथा ! गर्भदुः खानुभवानन्तरमु जनन समयमुलन्दलि यिट्टिवि यिन्नि यनि निर्वचिञ्चुटकु शक्यमुलु कानि दुःखमुल ननुभविञ्चि दुःखमुतप्प मऱि यॊकदानि नॆऱुँगक दुःखनिवर्तनोपायमुनु दॆळियक बालुँड नगुट चेत सुभोपायानु स्थानमु लेनि वाँडु मरलँ बरलोकमुनन्दुनु दुःखप्रचुर मगु नाकर्ममु ने सेविम्पँ गलनु. 190 वैकुण्ठ स्तवमु उ॥ वॆण्डियु जन्नकालव जन्मकालमुल विस्तृतरूपमु लिट्टि वञ्चु नॆ व्वण्डुनु जॆप्प लेनिवल वन्तलँ बॊक्कुचु वन्तदप्प वे तॊण्डु नॆऱुङ्ग क व्वॆतल नूड्पँगँ जालक बाल्य लीललो नुण्डितिँ बॊन्दुवाँडँ दुदि नुग्रतरार्तुलने परम्बुन. अवतारिक :- इप्पुडु यौवन कालिक मगु जीवितमु ननुसं धिञ्चुकॊनु चुन्नामु. श्लो॥ भूयांसि भूय उपयज् विविधानि दुःखा न्यन्य च्च दुःख मनुभूय सुखभ्रमेण ! दुःखानुबन्ध मपि दुःखविमिश्र मल्पं क्षुद्रं जुगुप्सितसुखं सुख मि त्युपासे ॥ प्रति :- भूयः
II 94 तिरिगियु, विविधानि पॆक्कुरकमु लगु,
दुःखमुलनु, भूयांसि अनेकमु लैन, दुःखानि उपयक्=पॊन्दुचु, (अहम् = नेनु) अन्यत् = इतर मगु, दुःखं, च = दुःखमुनु गूड, सुख, भ्रमेण = सुख मनॆडु भ्रान्तितो, अनुभूय= अनुभविञ्चि, दुःख विमिश्रम् = ( (अनुभवदशयन्दे दुःखमुतोँ गलसि नट्टियु, दुःखानुबन्ध मपि =(कालान्तरमुन) दुःखो त्पादक मैनट्टियु, अल्पम् = स्वल्पमैनट्टियु. शुद्रम् अल्पकालिक मैनट्टियु, जुगुप्सितसुखम् शिष्टुल चेत
वैकुण्ठ स्तवमु 191 गर्हिम्पँ बडिन विषयसुखमुनु, सुखम्, इति—निज मैन सुख मनि, उपासे— सेविञ्चु चुन्नानु, वि शेषमुलु :- क्षुद्रम् अल्प कालमुमात्रमे युण्डु क्षीणिञ्चु नदियु, स्वप्नकल्प मैनदियु ननि भावमु, नदि. ता :- ओ वैकुण्ठपती! तिरिगि यौवन कालमुन नानाविधमु लगु न नेक दुःखमुल नॊन्दुचु वीनिकण्टॆ भिन्नमु लगु दुःखमुलनु गूड सुखभ्रान्तितो ननुभविञ्चि दुःखमु लतोँ गलसिनट्टियु, भाविकालमुन दुःखमुने पॆञ्चु नट्टियु, शिष्टुलचे गर्हिम्पँ बडिनट्टियु, अल्प मैनट्टियु, क्षुद्र मगु विषयसुखमुने निजमैन सर्वोत्तम मैन सुखमुनुगा नुपासिञ्चु चुन्नानु, शा॥तारुण्यम्बुनँ बॆक्कुदुःखमुल नि त्यं बन्दुचुक् दत्समा कारम्बौ पॆऱदुःखमुको सुखमतिक् गाङ्क्षिञ्चुचु दुःखनि स्तारोत्पादि विमिश्रदुःखमु नति स्वल्पम्बु गर्ह्यम्बु नि स्सारम्बौ कलँ बोलुग्राम्यसुख मे सौख्यम्बुगा नॆञ्चिति९. श्लो॥ लो लद्भि रिन्द्रियहयै रपथेषु नीकः दुष्प्र पदुर्लभमनोरध मध्यमानः । विद्याध नाभिजनजन्म मदन काम क्रोधादिभि श्च हतधी र्न शमं प्रयामि ॥ 95 192 वैकुण्ठ स्तवमु = अप प्रति := लोलद्भिः = चञ्चलमु लगु, इन्द्रियहयैः इन्द्रियमु लनॆडु गुऱ्ऱमुल चेत, अप थेषु मार्गमुलन्दु, नीतः तीसिकॊनि पोँबडिनवाँडनै, दुष्र्पप, दुर्भग, मनोरथ, मथ्यमानः- पॊन्दरानि वियु निन्दितमुलुनु अगु मनोरथमुलचेँ बीडिम्पँ बडुचु, विद्या, धन, अभिजन, जन्म, म देन वलन, धनमुवलन, अभिजात्यमुवलनँ बुट्टुक गल मदमुचेतनु, काम, क्रोधादिभिः, च = काममु क्रोधमु मॊदलुगाँ गलवानिचेतनु, हतधीः=कॊट्टँ बडिनबुद्धिगल वाँडनै, शमम् = शान्तिनि, न, प्रयामि= पॊन्दनु. विशेषमुलु :- लोलदि रिन्द्रियहयै रपथेषु नीतः ’ इन्द्रियाणि प्रमाधीनि हरन्ति प्रसभं मनः (इन्द्रि यमुलु वेधिञ्चि वेधिञ्चि बलवन्तमुगा मनस्सुनु हरिञ्चि वेयुनु.) अनि गीता वचनमु. श मम् ता॥ ओ इन्द्रियजयमुनु. वैकुण्ठनायका ! चञ्चलमु लगु निन्द्रियमु ल नॆडु गुऱ्ऱमुल चेतँ जॆडुदारिकि लागँ बडिनवाँडनै दुर्लभमुलुनु गर्हितमुलु नगु मनोरथशतमुल चेँ बीडिम्पँबडुचु, विद्याधनाभिजात्य मदमु चेतनु काम क्रोधादुलचेतनु कलुषितबुद्धिनै शान्तिनि जॆन्दुकुन्नानु, शा॥दुर्वा रेन्द्रियचञ्चलाश्वमुलु बल् दुर्मार्गमं दीड्वँगा, वैकुण्ठ स्तव मु नि र्वेलासुल भाभिलाषशतमुल् नित्यम्बुँ बीडिम्पँगा, गर्वम्बुल् सुक ळाधनाभिजन सं क्रान्तम्बु लाडिम्प, नं तर्वैरुल् मदिँ दूँटु सेय शम मॊं दन् रादु भक्तावना ! अवतारिक :– इदिवऱकुँ जॆप्पँ चुन्नारु. 193 बडिन दानिने विवरिञ्चु श्लो॥ लभ्येषु दुर्लभतरे ष्वपि वाञ्छि तेषु जाता सहस्रगुणतत्प्रति लम्भ नेपि । विघ्न र्हते व्वपिच तेषु समूल घातं वर्धिष्णु रेव नतु शाम्यति हन्त तृष्णा !
- 96
- प्रति := लभ्येषु=सुलभमुलुनु, दुर्लभ, त रेषु = अत्यन्त
- दुर्लभमुलुनु अगु, वाञ्छि तेषु
- इष्ट व स्तुवुलन्दु, जाता=पुट्टिन, तृष्णा- आश, सहस्रगुण, तत्, प्रति
- लम्भने, अपि = वेयिरॆट्लु हॆच्चुगा आसुलभ वाञ्चित मुल लाभमु गल्गिननु, तेषु, वि आ यत्यन्तदुर्ल भवाञ्छि तमुलु, समूलघातम् = मॊदलण्ट नाशमुतोँ गूडिनट्लु, विघ्नै8 8 = विघ्नमुल चेत, ह तेषु, अपि— हिंसिम्पँ बडिनप्पटिकि, वर्धिष्णुः एव = = वृद्धि चॆन्दु नदिये, (भवति अगुचुन्नदि, तु == इँक नेमि यनँगा न, शाम्यति—शमिम्पदु, हन्त ! अय्यो! वि शेषमुलु :- सहस्रगुणतः प्रतिलम्भ नेपि अनि पाठां तरमु 25 अप्पु डर्थमु. 194 वैकुण्ठ स्तव मु = आ सुलभगुण सह स्रगुणतः = वेयि रॆट्लुगा (तेषाम् मुल यॊक्क) प्रतिलम्भ नेपि लाभमु गल्गिननु अनि चॆप्पु कॊन वलॆनु. सुलभवाञ्छितमुलु वेयिरॆट्लु हॆच्चुगा सिद्धिञ्चिननु तृष्ण शमिम्पदु ; दुर्लभतर वाञ्छितमुलु मॊदलण्ट नशिञ्चिननु तृष्ण शमिम्प दनि भावमु. ता :- ओवै कुण्ठपती ! सुखलभ्यमु लगु वाञ्छितमु लनु कॊन्नदानिकण्टॆ वेयिरॆट्लु हॆच्चुगा लभिञ्चिननु वानिपै ँ दृष्ण शमिम्पदु. अत्यन्त दुर्लभमुलगु वाञ्छि तमुलु विघ्न मुलचेत मॊदलण्ट नशिञ्चिननु वानि मीँदनु दृष्ण तग्गुट लेदु. पै पॆच्चु वृद्धि चॆन्दु चुन्नदि. इदि चाल विचारकरमु, म॥सुलभम्बुल् कडु दुर्लभम्बु लगुचुन् जूपट्टुबल् वाञ्छितं बुलपै ँ दृष्ण शमिम्प दौर ! सुलभं बुल् वेयिरॆ पॆच्चुगा नलवड्डन् मऱि दुर्लभम्बुलुनु वि घ्ना रम्भ विध्वंसितं बुलुनै मूलमु मुट्टँगाँ जॆडिन नु ब्बुं गानि क्षीणिम्प दौ. अवतारिक :- प्रातिकूल्यमुनु विडनाडँ जालमिनि विवरिञ्चि यानुकूल्यसङ्कल्प मेनियु ले दनु चुन्नारु. श्लो॥ त्वतीर्तनस्तुतिनमस्कृति वेद नेषु श्रद्धा न भ क्ति रपि शक्ति रथो न चेच्छा ! नैवानुतापमति रे व्वकृतेषु किन्तु भूया नहो ! परिकरः प्रतिकूलपक्षे ॥ 97 वैकुण्ठ स्तन मु
की. न 195 प्रति :- त्वत्, कीर्तन, स्तुति, नमस्कृति, वेदनेषु वारि नामसङ्की र्तनमन्दुनु, स्तोत्रमुनन्दुनु, नमस्का रमुनन्दुनु ध्यानमुनन्दुनु, भ क्तिः लेदु, श्रद्धा = विश्वासत्वर, (न=लेदु) शक्तिः अपि= अनुष्ठानशी क्लियैननु, (स-लेदु) आथो=अवि लेकुन्नानु इच्छा, च = रुचियैननु, न = लेदु, एषु = इवि, (देवरवारिकीर्तन स्तुतिप्रणाम ध्यानमुलु) अकृतेषु= चेयँ बडनिवि काँगा, अनुतापमतिः, च = पश्चात्ताप बुद्धि यैननु, न + एव = लेने लेदु, किन्तु = कानि, प्रतिकूलप क्षे व्यति रेक पक्षमुनन्दु, भूयान् अधिकमगु. परिकरः सामग्रि (उपकरणमु) अस्ति उन्नदि. अहॆू ! =
आश्चर्यमु. विशेषमुलु :- भक्तिः मिक्किलि अभिनिवेशमुतोँ गूडिन भोग्यताबुद्धि. नै वानुतापमति रेष्वकृतेषु ऒक मुहूर्त कालमु भगविध्यानमु लेकुण्डँ गडचिननु मिक्किलि पश्चात्ताप पड वलॆ ननि प्रमाणमुलु घोषिञ्चु चुन्नवि, ता– श्लो॥ एकस्मि न्नस्यति क्रान्ते मुहूर्ते ध्यानवर्जिते । दस्युभि ग्मषि ते नेव युक्त माक्रन्दितुं नृणाम् !! ओवैकुण्ठनाथा ! नीनामकीर्तनमुनन्दुनु, स्तोत्रमु नन्दुनु, नमस्कारमुनन्दुनु, ध्यानमुनन्दुनु. श्रद्ध गानि भक्ति गानि यनुस्थानशक्ति गानि चिवर कभिरुचि गानि लेदु. इवि चेयक पोयितिने यन्न पश्चात्तापबुद्धिगानि 196 वैकुण्ठ स्तव मु नाकु लेदु. आहा! प्रतिकूलपक्षमुन नॆन्त सामग्री बलमु कलदु. म॥भवदीयं बगुकीर्तन स्तुति नमो वाकम्बुल९ ध्यानमं ! दवुरा ! श्रद्धयु भक्ति याचरणकृ त्यम्बन्दुन९ शक्तियुक् जवियु ले विवि चेयले द नॆडुप श्चात्तापमुक् ले दहो ! भुव नेड्या ! प्रतिकूलपक्ष मुन के पॊल्चुक् बलाधिक्यमुल् . अवतारिक :- ई श्लोकमुनन्दुँ ब्रतिकूल्यमु गल दनि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ ए तेन वै सुविदितं बत! मामकीनं दौरात्म्य मप्रतिविधेय मपार मीश ! । सम्मूर्छतोऒप्यपद मस्मि यत स्त्वदीय निस्सीमभूम करुणामृत वीचि वायोः ॥
98 प्रति :- हेईश ! ओवैकुण्ठपती!, यतः = ऎन्दुवलन, सम्मूर्छतः अपि=अन्तट विजृभिञ्चुचुन्न दै नप्पटिकिनि, त्वदीय, ….. वायोः त्वदीय नीसम्बन्ध मैन, निस्सीम = हद्दुलेनि, भूम = महिमगल, करुणा= करुण यनॆडु, अमृतवीचि अमृतपुटलकु सम्बं धिञ्चिन, वायोः= वायुवुनकुनु, अपदम् = पात्रमु कानिवाँडनु, अस्मि अगुचुन्नानो, ए तेन = ई कार णमुचेत, अपारम् = अन्तु लेसिदियु, अप्रतिविधे यम्
वैकुण्ठ स्तव मु 197 प्रतिक्रिय चेय शक्यमु कानिदियु, (अनि) मामकीनम्=नासम्बन्धमगु, दौरात्म्यम् = दुस्स्वभा वमु, सुविदितंवै अय्यो !
सुप्रसिद्धमु गदा. बत !
वि शेषमुलु– दौरात्म्यम् = दुस्स्वभावत्वम् सुविदितम्पै = इन्दलि ‘वै’ अनु अव्ययमु प्रसिद्धिवाचकमु. विषयविभागमु लेकुण्ड – अनँगा वीँ डर्लुँडु वीँ डनर्हुँ ँ डनु भेदमुनु जूडक सर्वत्र निराघाटमुगा वीचु चुन्न भगवदनुकम्पापयोनिधि तरङ्गशीकर सम्बन्धिगान्ध वाहमुनकु सैतमु गुऱि काक पोवुटचे ना दुष्कृतमु निष्कृतिशून्य मनि पिण्डि तार्दमु, ता :- ओ वैकुण्ठनायका ! सर्वत्र निराघाट प्रसारमु गल महामहिमो पेत मगु भवदीयक रुणामृत वीची भवदीयकरुणामृत समीरमुनकु सैतमु गुऱि काकपोवुट चेत ना दौरात्म्य मपारमुनु प्रतिक्रियाशून्य मनियु विदित मगुचुन्नदि. च निरवधिक प्रभावमह नीयभवत्करुणामृतोर्मिनि स्सरदतिमात्र सौरभवि सारि समीर कुमार विक्रम स्फुरण कपात्र मौट गुण भूषण ! यिय्यदि चाटदॊक्कॊ ! म द्दुरितमु नप्रतिक्रियमु दुर्गमपारमु दुस्स्वभावमुक् . 198 वैकुण्ठ स्तवमु अवतारिक :- अ प्लेनि- इङ्क गति येमियनि शङ्किञ्चुकॊनि नन्नुँ जेपट्टिनयॆडल श्रीवारि कल्याण गुणमुलकु विषय लाभमु गलुगु ननि नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ ऐश्वर्य वीर्यकरुणागरिमक्षमाद्याः स्वामि न्न कारणसुहृत्त्वमथो विशेषात् t सर्वे गुणा स्सबिषया स्तव मा मपार घोराघपूर्ण मगतीं निहतं समेत्य H 99 प्रति .- हेस्वामिन्=ओ स्वामी! वैकुण्ठनाथा ! ऐश्वर्य, वीर्य, करुणा, गरिम, क्षमा, आद्याः = ऐश्वर्यमु, वीर्यमु, कृप, गॊप्पतनमु (गरिम) ओर्पु, मॊदलुगाँ गल, तव नीयॊक्क, सर्वे सर्वे = \नमस्तमु लैन,
मृत
गुणाः = गुणमुलु, अदो - तरुवात, विशेषात् विशेषिञ्चि, अकारणसुहृत्त्वम् = निर्हेतुक मगु मैत्रि, अपार घोर अघ, पूर्णम् - अन्तु लेनि दारुण पापमुलतो निण्डिनट्टियु (कनुकने) निहतम् प्रायुँड नैनट्टियु, माम् = नन्नु, समेत्य चेरि, सविषयाः=चोटु गलवि ( भवन्ति = अगुचुन्नवि) विशेषमुलु :- स्वा स्वामिन् !- – ई सम्बुद्धि यनायासमुगा नाश्रितुनि दुःखमु नॆऱिङ्गि यनिष्टनिवारण पूर्वकमुगा निष्टप्राप्तिनि जेकूर्चुटलो भगवानुनकुँ गल शक्तिनि जाटु चुन्नदि. ‘ऐश्वर्य, वीर्य, करुणा, गरिम, क्षमा, द्याः ’ - इन्दलि भगवद्गुणम्बु लन्नियु साभिप्रायिकमुलु. ऎट्लन :- ऐश्वर्यवन्तुँडु गान भगवानुँ डाश्रितुनिवलनँ गिञ्चित्कावैकुण्ठ स्तवमु 199 रमु नपेक्षिम्पँडु. वीर्यवन्तुँडु गान श्रियःपति सङ्क ल्पानुगुणमुगा रक्षिञ्चुनु. करुणाशालि गावुन वैकुण्ठ नाथुँडु ‘व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखतः ’ अन्नट्लु स्वदुःखनिवृत्तिगा भाविञ्चि याश्रितुल दुःखमुनु निवर्तिम्पँ जेयुनु. गरिष्ठुँडु (गॊप्पवाँडु) कनुक माधवुँ डाश्रितुलदोषमुल नॆन्नकये दग्गऱ तीयुनु. क्षमावन्तुँडु गान नारायणुँ डाश्रितुल यपराधमु लनु सहिञ्चुनु, आद्यपदमुचेत वात्सल्य सौशील्यादुलु ग्राह्यमुलु. सुहृत्त्वम् = अनुप कारि ण्यपि सौहार्दम्, उपकारि कानिवानिपैँ गूड नॆय्यमु. ई गुणमु अनिष्टनिवृत्ति पूर्व केष्ट प्रापणमुनकु हेतुवु. अगतिम् = प्रायश्चित्तादि शून्युनि. ता :- ओ पै कुण्ठनाधप्रभू! अपार घोर पापपरिपूर्णुँ डनु निराश्रयुँडनु निहतप्रायुँड नगु नन्नुँ जेपट्टनिचो देवरवारि मैश्वर वीर्य करुणा गरिम क्षमादि कल्याण गुणमुलकुनु विशेषिञ्चि सुहृत्त्व गुणमुनकुनु विषयमु लभिञ्चुना? उ॥ नन्नु नपार घोर वृजि नम्मुलपाँतऱ दिक्कु लेनिवा नि न्निहतो पमानु रम णी रमणीय विशालवक्ष ! कॆ 200 वैकुण्ठ स्तवमु कॊन्नँ गदा ! त्वदीश्वरत कुन् गृपकुन् कमकुन् सुहृत्तकुन् सन्नु तवत्सलत्वमुख सर्वगुणाळिकिँ जोटु गल्गॆडिन्. अवतारिक :- एदो विधमुगा नपराधमुल सहिञ्चिननु मोक्षप्रदानमु साधनानुष्ठान मॊनर्चिन वारिके यनि भगवानुँ डनु नेमो ! यनि शङ्किञ्चुकॊनि समाधान मुनु नुडुवु चुन्नारु. ♡ श्लो॥ त्वत्पादसंश्रयण हेतुषु साधिकारा नुद्युञ्जत श्चरितकृत्स्ननिथीं श्च तांस्तान् । त्वं रक्षसीति महिमा तव नाल मेष मां चे दनीदृश मनन्यगतिं न रक्षेः ॥
100 प्रति := हेस्वामिन् ! = ओ प्रभू ! वैकुण्ठनाथा ! अनी ! दृशम्
ऎट्टियधिकारादि गुणमुलुनु लेनट्टियु, अनन्यगतिम् = गत्यन्तरमु लेनट्टियु, माम् = नन्नु, न, रक्षेः, चेत् = रक्षिम्प वेसि, त्वत्, पाद, संश्र यण, हेतुषु देवरवारि पादप्राप्तिकि साधन भूतमु लगु कर्मयोगादुलन्दु, साधिकारास् कारमुतोँ गूडिनट्टियु, गूडिनट्टियु, उद्युञ्जतः = अधि अनुष्टानमु नकु उद्युक्तुलैनट्टियु, चरित, कृत्स्न, विधीन् = आच रिम्पँ बडिन सम स्तविधुलु गलिगिनट्टियु, तान्, टौन् = वैकुण्ठ स्तव मु -= 201 आयासाधकुलनु, त्वम् नीवु, रक्षसि = रक्षिञ्चु चुन्नावु, इति अ त = नीयॊक्क, एषः = ई, महि-मा=गॊप्पतनमु (महिममु) न + अलम् नालम् = चालदु.
विशेषमुलु :- 99 व श्लोकमुनुण्डि ‘स्वामि’ अनु सम्बुद्धि यीश्लोकमुन कनुवर्तिञ्चुनु. साधिकाराक्—उपनयनाध्ययनाद्यधिकार सहितुलनु - अनि भावमु. अनीदृशम् श्लोकमुलोँ बूर्वार्धमुनँ जॆप्पँबडिन यधिकारमुलु (योग्यतलु) लेनि, त्वं रक्षसीति महिमा तव नाल मेषः – साङ्गमुगा साधनानुस्थान मॊनर्चिन वारिनि रक्षिञ्चुट ‘कृते तु प्रति क र्तव्य धर्म स्सनातनः ’ अन्नट्लु कृतमुनकुँ ब्रति कृतमुतो समान मगुने कानि यदि यॊक महिम मनि पिञ्चुकॊनदु. ए साधन मॊनर्पनि पापिनगु नन्नुँ गटा वीक्षिञ्चिन ने नी गॊप्पतनमु बैटँ बडु ननि कविमॊऱ. ता :- ओ वैकुण्ठपती ! नी पादमुलनु जेर्चुटकु साधन भूतमु लगु कर्मयोगादुलं दधिकारमु गल्गि यनु स्थानमुन कुद्यमिञ्चुचु साङ्गमुगा समस्त साधनमुल 26 202 वैकुण्ठ स्तव मु नॊनर्चिन याया पुण्यात्मुलनु रक्षिञ्चिनन्तमात्र मुन नी महिम वॆल्लडि कादु. अदि कृतमुनकुँ ब्रति कृत मॊनर्चुटवण्टिदि गान गॊप्पतनमुनकुँ गारणमु गादु. ए यधिकारमु लेक ये साधन मॊनर्चनि दिक्कु लेनि यी पापिनि गापाडिनचो नीमहिम लोक विश्रुत मगुनु, मः भवदीयाङ्घ्रुलँ जेर्चु साधनमुलन् ब्राप्ताधिकारुल् क्रिया प्रवणुल् सम्यगनुष्ठित श्रुति शुभ व्यापारु लौवारि मा धव ! रक्षिन्तु व टन्न नीमहिम मे तन्मात्र मुत्कृष्ट मॆ ट्लवु? ने योग्यत लेनि निश्शरणु नी यजुन् गटाक्षिम्प वेन्. अवतारिक :- अ प्लेनि मोक्ष साधनानुष्ठाननिधिकि वैयर्थ्यमु ♡ गलुगदा ? अनिन समाधानमुनु जॆप्पु चुन्नारु. शो॥ या कर्मणा मधिकृतिर्य इहोद्यम स्ते व्व य्ये व्वनुष्ठिति रशेष मिदं हि पुंसाम् । त्वा मन्तरेण न कथञ्चन शक्य माप्पु मेवं च तेषु मयि चास्तिन ते विशेषः ॥ 101 वैकुण्ठ स्तवमु
203 प्रति : या=ए, कर्मणाम् = कर्ममुलयॊक्क, अधिकृतिः = अधिकारमु, इह इक्कड, तेषु प्रसिद्धमु लगु, एषु=ई, कर्मनु=मुक्ति साधनमुलन्दु, उद्यमः प्रयत्नमु, अनुष्ठितिः, अपि = अनुष्ठानमुकूड. (ऒक टेमि) अशेषम्= समस्त मगु, इदम् = दीनिनि, त्वां, अन्त रेण=नीवु लेकुण्ड, नीसङ्कल्पमु लेकुण्ड) पुंसाम् पुरुषुलकु, आप्तुम्=पॊन्दुटकु, कथञ्चन अतिप्रया समुचेतँ गूड, शक्यम् = शक्य मैनदि, न = कादु, एवञ्च = इ ट्लुण्डँगा, (अन्तयु नीसङ्कल्पाधीनमै युण्ड) तेषु = वारियन्दुनु (साधनानुष्ठातल यन्दुनु) मयि, च = नायन्दुनु, तेनीकु, विशे षः =अतिशयमु, ना स्ति= लेदु.
विशेषमुलु :- अशेष मिदम् समस्त मगु दीनिनि अनँगा अधिकारमुनु, उद्यममुनु, अनुष्ठानमुनु अनि भावमु. एवं च तेषु मयि चास्तिन ते विशेषः सर्वमु नीसङ्कल्पाय त्तमै युण्डँगा साधनानुष्ठातलयन्दुनु नायन्दुनु विशेष मे मुन्नदि. ले दनि भावमु. साधकुल साधनानुष्ठानमु गूड देवरवारि सङ्कल्पाय त्त मैन 204 वैकुण्ठ स्तवमु प्पुडु नाकुनु श्रीवारु स्वीयपादाश्रयमुनु सङ्कल्पिम्प वच्चुनु गदा ! ता ओ वैक कुण्ठनायका ! पूर्वोक्तकर्माधिकारमु, ई लोकमुनँ ब्रसिद्धमु लगु तत्कर्मलयन्दुँ ब्रवृत्ति यनुष्ठानमु मुन्नगु समस्तमु देवरवारि सङ्कल्प बलमु लेकुण्ड नॆव्वरिकिनि बॊन्द शक शक्यमु गादु. अट्टिचो देवा ! सम्यगनुष्ठात लगु पूर्वोक्त साधकुलकुनु नाकुनु विशेष मेमि गलदु ? देवरवारु तम सङ्कल्प मुचे वारिनि साधकुलनुगाँ जेसिनट्लु नन्नु स्वीयपादा श्रयुनिगाँ जेयवच्चुनु गदा! उ॥ कर्ममुलं बॊनर्चु नदि कारमु पूनिक मुक्तिदम्बु ला धर्ममु लाचरिञ्चु चॆयि दं बॊकँ डेल यशेष मिद्दि नी कूर्मि त्वदिच्चलेक सम कूरुनॆ यॆव्वनि भर्मदुकूल ! वार कनु नट्टिचो पट्टुनॆ नाकुनु साध काळिकिन्. वैकुण्ठ स्तवमु 205 अवतारिक :- नाधनानुष्ठान मुखमुनने रक्षिम्प वलयु ननि भगवत्सङ्कल्प मेनि अप्पु डेमि चेयवलॆनो नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ निर्बन्ध एष यदि ते य दशेष वैध संसेविनो वरद! रक्षसि नेतरां स्त्वम् । तर्हि त्व मेव मयि शक्त्यधिकार वाञ्छाः प्रत्यूहशान्ति मितर च्च विधेहि विश्वम् ॥
प्रति :- हेवरद ! श्रेष्ठपुकुसार्थ मगु 102 नॊसङ्गॆडि ओ वै कुण्ठनाथा ! अशेष, वैध, संसेविनः = समस्तमैन विध्युक्तधर्ममुलनु सेविञ्चिन वारिने, त्वं= नीवु, रक्षसि
रक्षिञ्चु चुन्नावु, इत रान् = अन्यु लनु, न, रक्षसि रक्षिम्पवु, इतियत् = अनुट येदि गलदो, एषः इदि, ते नीकु, निर्बन्धः,
यदि = पट्टुदल येनि, त्वं, एव कार वाञ्छाः
तर्हि = आ पक्षमुन (अप्पुडु) नीवे, मयि = नायन्दु, शक्ति, अधि प्रत्यूह, शान्तिम् शक्तिनि, अधिकारमुनु, वाञ्छनु विघ्ननिवारणमुनु, इतरत्=’ इतर मगु, विश्वम् = समस्तमुनु, विधेहि चेयुमु, 206 वैकुण्ठ स्तवमु विशेषमुलु :- ร क्त्यधिकार वाञ्छाः इन्दलि शक्त्यधि कार शब्दमुलचेतँ दत्कार्यमु लगु उद्यममु, अनुष्ठानमु लक्षणावृत्तिचेतँ जॆप्पँ बडिनवि कनुक. शक्ति, अधिकार, वां छः मुनु, कोरिकनु - अनि यर्थमु तेलुचुन्नदि. प्रत्यूहशान्ति मितर उद्यममुनु, अनुवान विधेहि विश्वम् भग ई विषयमुनँ वानुँडे यन्दऱिकि नुपायभूतुँडु बॆद्दल यीनुडिनि अनुसन्धिञ्चुनदि. ‘1 ‘सु दुष्क रेण शोचे द्यो! येन ये नेष्टहेतुना ! स स तस्याह मेवेति चरमश्लोकसङ्ग्रहः ।1 ता :- पुरुषार्थ श्रेष्ठमगु मोक्षमु ननुग्रहिञ्चु ओ वैकुण्ठपती ! विध्युक्त समस्तसाधनानुष्ठातलने रक्षिं तुनु, अन्युलनु रक्षिम्पनु अनि नीकुँ बट्टुदल येनि आपक्षमुन नीवे नाकु पूनिकनु अनुष्ठानमुनु इच्छनु अनुग्रहिञ्चि विघ्नमुलनु वारिञ्चि साङ्गोपाङ्गमुगा नवि नॆऱवेऱुटकुँ गावलसिन वन्नियुँ गटाक्षिम्पुमु. वैकुण्ठ स्तवमु उ॥ वैदिक कर्मनिष्ठु लगु वारिनॆ काक त्रयीविदूरुलौ पेदलँ गाव ने ननुचु बिट्टु व्रतम्बुनु बट्टियुन्न चो श्रीदयिता ! तदर्हतलँ जेकुऱँ जेसि तदीयसिद्धि र्ड देदि यवश्यमो ! यॊसँगु मी! तॊलँगिञ्चुचु सन्त रायमुल्. शा॥ वैकुण्ठ स्तवटीक व्रा सॆडुतऱिन् वच्चॆन् महाविघ्नमुल् साकल्यं बिदि यौनॊ ! कादॊ ! यनुचुन् जं केटिको येर्प’डॆन् ना कीयूडिगमुं बॊनर्पँ दगुपु ण्यं बुन्नदो! लेदॊ ! यं चाकम्पिञ्चॆ मनम्बु, वासॆनु भयं बावेल्पु मेल्चूपुचे ॥ क॥ भयमु गलिगिञ्चु नतँडुक् भयमुनु दीरिचॆडु दीनबन्धुं दाश्री 207 208 वैकुण्ठ स्तवमु दयितुण्डॆ यनुचु ’ भयकृ द्भयनाशन ’ यन्नसूक्ति पादुकॊनॆ मदि९. सी॥ वैकुण्ठ नाथु दीव्यद्गुणाम्भो राशि निन्नाळ्ळुँ देलिनपुन्नॆमुननु मिञ्चुभ_क्तिस् ब्रबोधिञ्चु पञ्च स्तनी वरिवस्य कॊन्नाळ्ळु वरलुक तन तनदु पञ्च स्तविन् दॆनिँगिञ्चु नितनिपै श्रीवत्सचिह्नु नाशीस्सु कलिमि दास शेषस्वामि तनयिलु वेल्पुतो ननुँ गावु मनि वेँडुकॊनुटँ जेसि आ॥ वॆळ्लि वच्चु वॆतल नॆट्टिवैचि पूर्ण प्रज्ञ कोविदुण्डु पळ्ळॆकुलभवुण्डु तॆनुँगु टीक निट्टु लोनरिञ्चॆ वैकुण्ठु __स्तवमुनकुनु बुधुलु सन्तसिम्प. गद्यमु :- :— इदि श्रीश्री वत्साङ्क मिश्रविरचित श्री वैकुण्ठ स्तवम्बुनकु कवि शेखर, म हॆू पाध्याय मध्व श्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतम्बगु ’ भावादर्श ’ मनु नान्ध्र विवरणमु समा प्तमु. श्री श्री श्री.श्री हयग्रीवायनमः श्रीवत्साङ्क मिश्रविरचित पञ्चस्तवीविराजमानमु
अतिमानुष स्तवमु
ण कवि शेखर, मध्वश्री पल्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतान्ध्रविवरण प द्य स हि त मु अवतारिक :- श्रीवत्साङ्क मिश्रपादुलु श्रीवै कुण्ठनाथ विषयिकमगु श्री वै कुण्ठ स्तवमुनु बूर्तिगाविञ्चि व्यूहाव तारमु गूडँ दत्समान योग क्षेममु गलदि यगुटचेत दानि न ट्लुञ्चि भगवद्विभ वावतारमुनु स्तुतिम्पँ दलँचिन वारै अतिमानुषम्बुलगु भगवद्विचित्र चरित्रमुलं दासक्ति गल भगवद्वाल्मीकि पराशर पाराशर्यशुक प्रभृतुलचेतनु, भट्टनाथ, पराङ्कुश, परकाल, प्रभृति परमाचार्युल चेतनु आविष्कृतमै यतिरहस्यमै युन्न यतिमानुष चरित्र वैचित्र्यमुने यस्मदादुलकु सैतमु प्रकाशिम्पँ जेय मुन्मुन्दु नमस्क्रि रूरूप मगु मङ्गळमुनु शिष्य शिक्षार्थमु ग्रन्थमुनन्दु निबन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ अतिमानुषशील वृत्तवेषै 00 रतिवृत्तामर विक्रमप्रतापैः । अतिलङ्घित सर्वलोक साम्यं वरये वैष्णववैभवावतारम् ॥ प्रति :- अतिवृत्त, अमर, विक्रम, प्रतापैः 1 अति क्रमिञ्चिन वेल्पुल विक्रममु प्रतापमु गल अतिमानुष, 2 अतिमानुष _स्तवमु शील, वृत्त, वेषैरि. मानवातीतमुलैन सुस्वभाव सद्वर्तन, सुरूपमुलचेत, (लेदा) अतिवृत्त… प्रतापैः= अतिक्रमिञ्चिन देवतलुगल विक्रम प्रतापमुलुगल, अति… मानवातीतमुलैन सुस्वाभाव सद्वर्तन सुवे वेषैः
षमुलचेत, अतिलङ्घित, सर्व लोक, साम्यम् = अतिक्र मिम्पँ बडिन सर्वजनमुलतोडि (लेदा सकललोकमुल तोडि) पोलिकगल, वैष्णव
विष्णुसम्बन्धियगु, वैभवाव तारम् = विभ चाव तारमुनु (व्यूहावतारमुनु) वरये= समाश्रणीयमुगा स्वीकरिञ्चुचुन्नानु. विशेषमु :- ई श्लोकमुनन्दलि ‘विक्रम, प्रताप, शब्द मुल करमु - विक्रममु
जॊच्चुट. प्रतापमु निर्विशङ्कमुगा शत्रुसेन लोँ शत्रुवुलकु ऎदिरिम्प शक्यमु गाकुण्डुट, मऱियु, सहिम्पशक्यमु गाकुण्डुट. ’ अतिलङ्घितसर्वलोक साम्यम् ’ जन्म कर्म च मे दिव्ये’ अनु गीतावचनानुसारमु भगवन्तुनि जननमु चर्ययु विलक्षणमुलु गनुक वानितोँ बोल्चुट कि तरमुलु तगवु. ‘वरये ’ अट्टि श्री महाविष्णुवु विभवावतारमुने समा श्रयणीयमुगा वरिञ्चुचुन्नानु. भगवन्तुँडु त्तमोत्त मुँडु गान आतँडे समाश्रयणीयुँडु. 1 ’ सउश्रेयान् भवति जायमानः 2 य स्सर्वज्ञः सर्ववित् 3 पराश्य शक्ति र्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च 4 त विश्वराणां परमं महेश्वरं न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च अतिमानुष _स्तवमु 3 दृश्यते - 5 अपहतपाप्मा विजरः इत्यादि श्रुतुललोँ बेर्कॊनँ बडिन कल्याणगुणगणमु लवताररू पमुलं दे चक्कगाँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नवि गनुक विभवावतारमे विशे पिञ्चि समाश्रयणीय मनि भावमु, तात्पर्यमु := मानवुल नतिक्रमिञ्चिन सुशील सुवर्तन सुरूपमुल चेतनु, वेलुपुल नतिशयिञ्चिन विक्रमप्रता पमुलचेतनु, जगत्तुलो नॆव्वरितोनु बोल्प शक्यमुगानि श्रीमहाविष्णुवु विभवावतारमुनु समाश्रयणीयमुगा वरिञ्चु चुन्नानु. उ शीलमु साधुवर्तनमु चॆल्वगुवेषमु हेलमै मनु प्याळि नतिक्रमिम्पँ बर माद्भुतविक्रममुं प्रतापमु वेलुपुल९ जयिम्प नति वेल निरस्त समस्तसाम्यमु श्रीलमु वैष्णवं बॆद व रिञ्चॆन श्रीविभवावतारमुज्". 1 अवतारिक :- तरुवात सर्वावतार प्रधान श्री दाशरथि प्रतिनिधि श्रीरङ्गनाथ चरणारविन्द प्रणामरूपम्बु लगु नालुशोकम्बुल नुडुवु चुन्नारु. 03 श्लो ॥ श्रेयः कीरन्तु कीरणा श्चरणारविन्द निष्यन्दमान मकरन्दर सौमदेश्याः । 4 अतिमानुष स्तवमु : तज्जाः श्रुते र्मथुन उत्स इति प्रतीता माङ्गल्यरङ्ग निलयस्य परस्य धाम्नः H प्रति :- माङ्गल्य, रङ्ग, निलयस्य= मङ्गळप्रद मगु श्री कङ्गविमानमे निवासमु गाँगल, परस्य = मैन, धाम्नः ** 2 उ त्तम तेजस्सु यॊक्क, (परन्धामुनियॊक्क) चरण, अरविन्द, निष्यन्दमान, मकरन्द, रस, ओघ, देश्याः = पादपद्ममुलनुण्डि स्रविञ्चु चुन्न पूँदॆ नॆसोनलँ बोलुनट्टियु, श्रुतेः= वेदमुनुण्डि (पॊडमिन) मधुनः= मकरन्दमुयॊक्क, उत्स इति— प्रवाह मनि, प्रतीताः : प्रसिद्धि कॆक्किन, तज्जाः - (तत् + जाः) आरङ्गनाथुनि पादमुल नुण्डि वॆडलॆडु, किरणाः == कान्तुलु, श्रेयः =श्रेयस्सुनु (मेलुनु) किरन्तु विस्तरिम्पँ जेयुँ गाक, विशेषमु :- ’ परस्य,धाम्नः ’ नारायणवरो ज्योतिः अनि वेदप्रसिद्ध मगु परञ्ज्योति यनि भावमु. ’ श्रुते र्मधुन उत्स इति प्रतीताः ’ विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः - अनु श्रुतियन्दुँ ब्रसिद्धिँ जॆन्दिन वनि तात्पर्यमु. ’ श्रेयः कीरन्तु किरणाः ” नाकु शरण्यमु लगु श्रीरङ्ग नाध चरणारविन्दमुल यॊक्क किरणमुलु मत्क रिष्य मत्करिष्य माणातिमानुष चरित्रस्तोत्रानुगुण मधुर वाणिनि नाकुँ मधुरवाणिनि गटाक्षिञ्चुँ गाक यनि कविगारि हृदयमु, . अतिमानुष स्तवमु 5 ता :- मङ्गळप्रद मगु श्रीरङ्गमुन वेञ्चेसि युन्न परन्धामुँ डगु श्रीरङ्गनाथस्वामि पादपद्ममकरन्द प्रवाहमुनु बोलि श्रुति यन्दुँ बेर्कॊनँ बडिनट्लु मधुधारलो ! यन नॊप्पु नप्परमज्योति पादकिरणमुलु श्रेयस्सुनु वर्तिलँ जेयुँ गाक, उ॥ मङ्गळदायि यन्नगरि मम्बु गणिञ्चिन रङ्गधाममं दुं गल दिव्यरुक्चरण तोयज राजिमरन्दपूरमुल् पॊङ्गॆनॊ ! ‘मध्व उत्स’ श्रुति बोधितमुल् मधुधारलो! यनन् रङ्गनि यङ्घ्रुलन् गॆरलु रम्यगभस्तुलु श्रेय वियुतन्, श्लो॥ श्रीमत्पराङ्कुशमुनीन्द्र मनो निवासात् तज्जानुरागरसमज्जन मञ्ज स्काऒप्य । आद्या प्यनारततदुस्थित रागयोगः श्रीरङ्ग नाथचरणाम्बुज मुन्नयानुः ॥ मनः, निवासात्
प्रति :- श्रीमत्, पराङ्कुश, (मुनि + इन्द्र) मुनीन्द्र, श्रीपराङ्कुशमुनीन्द्रुल मनस्सुनन्दु निरन्तरमु वासमु चेयुटवलन, तज्ञ – (तत् +ज) अनु राग, रस, मज्जनम्=आमनस्सुनँ बुट्टिन प्रेमरसमुनन्दु स्नानमुनु, अञ्जसा= त्वरगा, आप्य = पॊन्दि, अद्य, अपि= 6 अतिमानुष स्तवमु नेँटिकिनि, अनारत, तत्, उत्तित, राग, ‘योगम् = ऎड योगम्=ऎड तॆगनि या यनुरागरसमुचे नेर्पडिन रक्तिमसम्पर्कमु गलदानिनिगा, श्रीरङ्ग राज, चरणाम्बुजम् = श्रीरङ्ग नाथुनि पादपद्ममुनु, उन्न यामः – ऊहिञ्चु चुन्नामु. (लेदा) नमस्करिञ्चु चुन्नामु. विशेषमु :- अनुरागरस मॆऱ्ऱगा नुण्डु ननि कविसम यमु, अन्दुचे नि ट्लु त्प्रेक्षिम्पँ बडिनदि. उन्न यामः = उन्नतं कुर्मः अनँगा नमस्करिञ्चिन वार मगुचुन्नामु. अनि यर्थमु, श्रीपराङ्कुशमुनीन्द्रुल यन्तरङ्गमु श्रीरङ्गनाथ स्वामि चरणविषयकानुराग भरितमु गान नन्दु निरं तरमु निवसिञ्चुटचे श्रीरङ्गनाथुनि पादमुनकु श्रीपरां कुशुल यनुराग मण्टिनदनि भावमु. ता :- श्रीपराङ्कुशमुनीन्द्रुल मनस्सुन नित्यनिवासमु चेयुटवलन सम्मुनीन्द्रुल यन्तरङ्गानुरागरसमुन नव गाहन माचरिञ्चुटचेत नय्यनु रागर क्तिम मण्टि नेँटि किनि श्रीस्वामिवारि पादपद्म मॆऱ्ऱगा नुन्नदनि यूहिञ्चु चुन्नामु. उ॥ मानक श्रीपराशर स माख्य महामुनि मानसम्बुनं अतिमानुष क्रैस्तवमु दे निरतम्बु वर्तिलुट निप्पटिकिन् हृदयानुराग पू रानुदिनावगाहमुल नाश्रितमानस रागर क्तिमं बौ ननँ दोँचुरङ्ग विभु सङ्घ्रप योजयुगम्बुँ गॊल्चॆदन् श्लो॥ वज्रध्वजाङ्कुश सुधाकलशातपत्र पङ्केरुहाङ्क परिकर्म परीत मन्तः । आपादपङ्कज विशृङ्खल दी प्तमा शेः श्रीरङ्गिण श्चरणयो र्युग माश्रयामः ॥ प्रति :_ अन्तः लोपल, वज्र… परीतम् - वज्र पताक यॊक्क, अङ्कुश = 7 वज्रायुधमु यॊक्क, ध्वज अङ्क
अङ्कुशमुयॊक्क, सुधा, कलश = अमृतकलशमु यॊक्क, आतपत्र = गॊडुगुयॊक्क, पङ्केरुह = पद्ममुयॊक्क, गुर्तु लनॆडु, परिकर्म= अलङ्कारमुतो, परीतम् = कूडिनदियु, आ, पादपङ्कज, विशृङ्खलु, दीप्तमौळेः पादपद्ममुलवजकु, अड्डु लेकुण्डँ ब्रकाशिञ्चिन किरीटमुगल, रङ्गनायकुनि यॊक्क, चरणयोः = पाद श्रीरङ्गिणः
मुलयॊक्क, युगम् = जण्टनु, आश्रयामः
यिञ्चुचुन्नामु. वि शेषमु :- श्रीरङ्गनाथुनि पादतलमुलकु वज्रध्वजां . कुश सुधाकल शातपत्रपं केरुह रेखाङ्कमुले दिव्याभरण .00 8 अतिमानुष स्तवमु शोभनु गल्पिञ्चुचु भ क्तुलकुँ बरमभोग्यमुलै श्रीवारि सर्वेश्वरत्वमुनु जाटुचुन्नवि. ता :- पादतलमुलन्दु वज्रध्वजामृत कलशातपत्र पङ्केरुहाङ्कमु लनॆडु सर्वेश्वरत्व सूचकाभरणमुल नॊप्पि यड्डु लेकुण्डँ बादपद्ममुलवऱकुँ ब्रसरिञ्चु किरीट कान्तुलुगल श्रीरङ्गनायकुल चरण युगळमु नाश्र यिञ्चुचुन्नामु. 00 उ॥ पादमुदाक मौळिमणि पं क्तुल कान्तुलु पर्वु लॆत्ति सू र्योदयशोभँ गूर्प नग लो! यनँ बद्म, पवि, ध्वजाङ्कुशा ह्लादक रातपत्र, कल शाद्भुतचिह्नमु लुल्लसिल्लुल क्ष्मीदयितम्बु रङ्ग विभु श्रीचरणद्वय माश्रयिं चॆद. श्लो॥ श्रीरङ्गराजचरणा प्रणुमो ययोः ख ल्वेक स्त्रीविक्रमविधौ वसुधा म शेषाम् । व्यक्रंस्त साचलकुला मापि विप्रकीर्ण स्थूलावलग्नसिकता मिव निर्णतोच्चम् । प्रति ययोः = ए रॆण्डु पादमुललो, एकः = ऒक
पादमु, त्रि, विक्रम, विधौ = मूँडु पादमुल मेरनु गॊलुचुकॊनु पनियन्दु, साचलकु लाम् कुलपर्वतमु अतिमानुष स्तवमु 9 लतोँ गूडिन, अ शेषां अपि—समस्त मैन, वसुधाम्= भूमिनि, विप्रकीर्ण, स्थूल, अवलग्न, सिकतां इव = वॆदँ जल्लँबडिनवियु, लावैनवियु, पादमुन कण्टुकॊन्न वियु नगु इसुक रेणुवुलु गलदानिनिगा, निर्णतोच्चम् – पल्लमु मिट्ट लेनट्लु, व्यक्रं स्त, खलु = आक्रमिञ्चॆनो (त्रे = अटु वण्टि) श्रीरङ्ग राजचरण् = श्रीरङ्गनायकुलवारि रॆण्डु पादमुलनु, प्रणुमः =भक्तिश्रद्धलतो स्तुतिञ्चु चुन्नामु. 3 ए पादमुलजण्टलो नॊकटि बलिचक्रवर्तिमुन्दु मूँ डडुगुल नेलँ गॊलचुकॊन्नप्पुडु कुलाचलमुलतोँ गूडिन यी नेल नन्तयु वॆद ँजल्लँ बडि पादमुन नण्टु कॊनँ बडिन स्थूलमु लगु निसुक रेणुवुलु गलदानिनि वलॆ नॆगुडुदिगुडु लेनट्टु लाक्रमिञ्चुकॊनॆनो यट्टि श्रीरङ्ग नायकुल चरणयुगळमुनु भ क्तितो नुतिञ्चु चुन्नामु. अनि वि शेषमु– ‘स+अचल, कुलाम्’ आहिताग्नि, अग्न्या हितुँडु, अन्नट्लु साचलकुलाम् - सकुलाचलाम् यगुनु. इदि आह् ताग्निगण माकृतिगणमु गान दानिलोँ जेर्चुकॊन वलॆनु. ’ व्यक्तं स्त = विक्रमिञ्चॆनो ! विष्णुवु मूँडडुगुलतोँ गॊल्चुट वेद प्रसिद्धमु. इदं विष्णु र्विचक्रमे । त्रेधा निदधे पदम्’. शा॥ए पादम्बुललो नॊकण्डु बलिमुं देवाँडु त्रैविक्रम 10 अतिमानुष स्तवमु व्यापारम्बुन साद्रिया धरणि नि र्व्यत्यासलीलन् सवि क्षेपस्तूलविलम्बमानसिक ता P श्रीकै वडिन् दाल्चे नो पापघ्नम्बुल नट्टि रङ्गपति श्री पादम्बुलन् गॊल्चॆदन्. श्लो॥ ज्ञानं बलं विपुल मिशन वीर्यशक्ति तेजान्नि च त्रियुगभूय मुपागतानि । पूर्णानि षट् च परिगृह्य भावं श्चतुर्था भक्तं जनं त्व मनुजग्रहि थानुरागात् ॥
- प्रति :- विपुलम् Q विस्तार मगु, ज्ञानम् = ज्ञानमु, बलम् — बलमु, (विपुलानि = विस्तारमु लगु) ईशन वीर्य - शक्ति, तेजांसि = ऐश्वर्य वीर्यमुलु, शक्ति तेज स्सुलु, (इति = अनॆडु) त्रियुगभूयम् लगुटनु, उपागतानि - पॊन्दिन, पूर्णानि = समस्तमु लगु, षट्, च = आऱिण्टिनि, परिगृह्य
चतुर्धा = नाल्गु विधमुलुगा, भवन्
मूँडुजण्ट स्वीकरिञ्चि, = अगुचु, त्वम् = नीवु, अनुरागात् प्रेमवलन, भक्तम् = नीयॆडल भ क्ति गल, जनम्
जनमुनु, अनुग्रहिथ = अनुग्र हिञ्चितिवि. वि शेषमुलु :_ त्रियुगभूय मुपागतानि - बलमुलु ऒक जण्ट, ऐश्वर्य, वीर्यमुलु - ऒक जण्ट, शक्ति, ज्ञान,तेज मुलु - अतिमानुष स्तवमु 11 ऒक जण्ट. ई विधमुगा मूँडु जण्ट लनि भावमु. चतुर्था भवन् - वासुदेव, सङ्कर्षण; प्रद्यु, म्नानिरुद्ध, रूपमुलतो नाल्गु विधमुलुगा नगुचु. भ क्तं जनं त्व मनुजग्रहीथ - ईनाल्गु रूपमु लनु दाल्चुट भ क्तजनानु ग्रहार्थमनि भावमु. ई यभियुको कि निट ननुसन्धिञ्चु कॊनुनदि. श्लो॥ षाड्गुण्या द्वासु देवः पर इति सम्भवाज्, मुक्तभोग्यो, बलाढ्यात् । बोधा त्सङ्कर्ष ण स्त्वं रहपि वितनुषे शास्त्र मैश्वर्य वीर्यात् । प्रद्युम्न स्सर्गधर्मो नयनि च भगवाज् शक्ति तेजोनिरुद्धो ! बिभ्राणः पासि च त्वं गमयसि च तथा व्यूह्य रङ्गाधि राज ! रङ्गनायका ! नीवु षड्गुणेश्वर्यसम्पन्नुँड वयि पर वासु देवुँ डनु पेर मुक्तभोग्युँडवै यॊप्पुचुन्नावु. ज्ञानबलमुल जण्टतोँ गूडिनवाँडवै सङ्कर्षणुँ डनु पेर शास्त्रमुनु विस्तरिम्पँ जेयु चुन्नावु. वीर्यैश्वर्यमु लनॆडु जण्टतोँ गूडिनवाँडवै प्रद्युम्नुँ डनु पेर सृष्टि कार्यमु नॊनर्चुचुन्नावु. शक्ति तेजमु ल नॆडु जण्टतो नलरारुचु ननिरुद्धुँ डनु पेर नॆल्लर रक्षिञ्चुचुन्नावु, इट्लु चतुर्व्यूहरूपमुलँ दाल्चि लोकमु ननुग्र हिञ्चुचुँ गालमुनु बुच्चु चुन्नावु.). 12 अतिमानुष स्तवमु ता :- ओ वैकुण्ठपती ! आश्रितानुरागमुचेत विस्तारमु लगु ज्ञानबलमुलु, वीर्यैश्वर्यमुलु, शक्ति तेजस्सुलु, अ नॆडु ई मूँडुजण्टलनु धरिञ्चि नीवु वासु देवसङ्कर्षण, प्रद्यु, म्ना निरुद्धरूपमुलतो नलरारुचु भक्तुल सनुग्र हिञ्चु चुन्नावु. शा॥ज्ञानम्बुन् बलमुन् मह त्तरमहे श्वर्यम्बु वीर्यम्बु नॆं तेनिन् श क्तियुँ देजु नाँ द्रियुगळं बीषट्क मुं दाल्चि निं डौनम्माड्कि_ँ जतुर्विधाकृतुलतो नाह्लादमुं गूर्पवे श्रीनीलाधरणीकळत्र ! सुजन श्रेणिन् गटाक्षिञ्चुचुन्. श्लो॥ एकान्तमङ्गळगुणास्पद मस्त हेयं CO नित्यं पदं तव यत स्तत एव देव! आम्नायते त दिह विश्वविरूपरूपं तेनैव न न्विद मशब्द मरूप माहुः ॥ प्रति :- हे देव ! क्रीडादिगुणविशिष्टुँडवगु नो वै कुण्ठ
नाथा!, तव=नीयॊक्क, पदम् स्वरूपमु, यतः= ऎन्दुवलन, नित्यम्= शाश्वत मैनदियो, एकान्त, मङ्गळ गुण, आस्पदम्
असाधारणमु लगु कल्याण गुणमुलकु = नशिञ्चिन दोषमुलु निलय मैनदियो, अ स्त हेयम्
- अतिमानुष स्तवमु
- =3
- 13
- गलदियो, तत एव = . अन्दुवलनने, तत् = आस्वरूपमु,
- इह = इच्चट, विश्व, विरूप, रूपम् सकलविलक्षणा कारमु गलदिगा, आम्नायते वेदमुल चेतँ ब्रति पादिम्पँ बडु चुन्नदि. तेन + एव =अन्दु चेत ने, इदम् - ई स्वरूपमुनु, अरूपम् = रूपरहितमु गानु, अशब्दम् नामरहीतमु गानु, आहुः + ननु - वेदमुलु चॆप्पु चुन्नवि गदा ! नि शेषमुलु :- पदम् पद्यते, प्राप्यते, इदि, उपा सकुलचेतँ बॊन्दँ बडुनदि. भगवत्स्वरूप मनि भावमु, अशब्द मरूप माहुः - लौकिक सकलविलक्षणत्व, हेय प्रत्यनीक सकलकल्याणगुणैक तानत्व, रूपलिङ्ग विशिष्ट मगुट चेत भगवत्स्वरूपमुनु वेदमु लशब्द मरूप मनि चॆप्पु चुन्नवे कानि निजमुनकु भगवत्स्वरूप मटुवण्टिदि गादु. अट्टिदे यैनचो नीश्रुति यिन्त स्पष्टमुगा ना परमात्मकु नामरूपमुलु नॆट्लु निर्वचिञ्चुनु ? ‘य एषोन्त रादि त्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते तस्यो दिति नाम’ सूर्य मण्डलान्तर्वर्तियै येहिरण्मयुँ डगुपुरुषुँडु कन्पिञ्चु चुन्नाँडो! आदिव्यपुरुषुनकु ‘उत्’ अनि नाममु, पै श्रुतिकि भावमु. इन्दु हिरण्मयुँ डनुटवलन रूपमु ‘उत्’ अनुटवलन नाममु चॆप्पँ बडु चुन्नवि गदा. 1 अनि ओवैकुण्ठपती ! नी स्वरूपमु नित्य मगुट चेत अनन्यसाधारणमु लगु कल्याणगुणमुलकु निलयमुनु 14 अतिमानुष क्रैस्तवमु हेयगुण प्रत्यनीकमु नगु चुन्नदि. कनुकने वेदमुलु नीस्वरूपमुनु सकलविलक्षणाकार मनि नुडुवु चुन्नवि. अन्दुचेतने देवरवारि स्वरूप मशब्द मरूप मनि या वेदमुलु चाटुट यॊप्पिदमै युन्नदि. उ॥ नीदुस्वरूप मोसुगुण ! नित्यमु मङ्गळसद्गुणाळिकिं बादु निरस्त हेय मनि पल्कॆडु वेदमु लन्दु चेतने कादॆ जगद्विलक्षणत गल्गॆ नशब्द मरूप मं च नॆ वेदशिरस्सु स्वर्णमय विग्रहुँ डुत्पदुँ डट्टिँ डॆ ट्लगुन् ? अवतारिक :- उक्तार्थमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. श्री॥ शब्दादि हेय इह गोचर इन्द्रियाणां तत्प्रत्यनीकविभवस्त्व मतीन्द्रियोसि ! तेनैव ते न बत दर्शन मस्ति किञ्चित् वाचो धिय श्च तत एव न गोचरो2सि ॥ प्रति :- इह=ईलोकमुनन्दु, शब्द, आदि, हेयः = हेयमुलु (दुष्टमुलु) अगु शब्दादुलकु विषयमैन अतिमानुष स्तवमु 15 ट्टियु, इन्द्रियाणाम् –श्रोत्रादीन्द्रियमुलकु, गोचरः = कनँबडुनट्टिदियु, (यः - एदि, अस्ति = कलदो) तत्, प्रत्यनीक, विभवः 1= दानिकिँ ब्रतिभट मगुकल्याण गुण वैभवमु गल, त्वम् = नीवु, अतीन्द्रियः = इन्द्रियमुलकुँ गान रानिवाँडवु, असि अगु चुन्नावु, तेन + एव = आ कारणमुचेतने, ते = नीयॊक्क, दर्शनम् = साक्षात्कारमु, किञ्चित् = कॊञ्चे मैननु, न+अस्ति = लेदु, ततः एव - अन्दुवलनने, वाचः = वाक्कुनकु, धियःच= बुद्धिकिनि, न गोचरः गोचरिम्पनि वाँडवु, असि अगु चुन्नावु बत! = अय्यो !
विशेषमुलु :- तत् प्रत्यनीक विभवः अन्धकारमुनकु आतपमुनकु नॆट्लु सहावस्थान मुण्डदो यट्ले हेय गुणम्बुलकुनु भगवानुनि कल्याणगुणमुलकुनु एकाधिकर ण्यमु ले दनि भावमु. तेनैव तेन बत दर्शन मस्ति किञ्चित् ‘न मांसचकु रभिवीकु ते तम्’ इत्यादिश्रुतु लीविषयमुनँ ब्रमाणमुलु, मांसचक्षुवु नन्नुँ जूडँ जालँ डनि पै श्रुति कर्थमु. ‘वाचो धिय श्च तत एव न गोचरो स्त्री’ वैकुण्ठ वाचा नाथुँडु मनोवाचामगोचरुँ डनुट, इन्दुलकुँ ब्रमाणमुलु, ’ न चतुषा गृह्यते नापि (भगवानुँडु कण्टिचेतनु वाक्कु चेतनु ग्रहिम्पं बडँडु) ‘ यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ’ (ऎवँडु भगवत्स्वरूपमु तॆलियँ बडनिदिगाँ 16 अतिमानुष क्रैस्तवमु दलञ्चुनो वाँडु कॊन्तवऱकु भगवत्स्वरूपमुनु दॆलिसिनवाँडु. ऎवँडु तत्स्वरूपमुनु दॆलिसिकॊण्टि ननुकॊनुनो वाँडु तॆलियनिवाँडे यगु चुन्नाँडु) · बत - ई यव्ययमु भेदमुनु दॆल्पुनु. इट्टि देवरवारि दर्शनमु ना कॆन्नटिकि सम्भविम्पदु काँबोलु ननि श्रीवत्साङ्कुलकुँ जिन्त, इन्द्रिय ता :- ओ वैकुण्ठनाथा ! हेयमुलुनु ग्राह्यमुलु नगु दोषमुलतोँ देज स्तिरमुलकुँ बोलॆ सहावस्थानमु नॊल्लनि यनन्तक ल्याण गुणसम्पद गलवाँडवु गनुक ने नी वतीन्द्रियुँड वगु चुन्नावु. कनुक ने नी दर्शन मिञ्चु केनियुँ गादु. कावुनने वाक्कुलकुनु बुद्दिकिनि अन्द कुन्नावु. अय्यो ! नी दर्शन भाग्यमु नाकु लेदु काँबोलु, उ॥ हेयपदाभि धेयमुलु निन्द्रियगम्यमु लौनवद्यमुल् दायलु वॆल्गु- जीकटि वि धान भवत्सुगुणाळिको सुर ध्येयपदाब्ज ! यन्दुकॆ य तीन्द्रियुँ डन्दुरु निन्नु दानँग स्धायिकिँ गानरावु सरॆ तोँपवु वाणिकि बुद्धि केनियुन्. अतिमानुष स्तवमु श्लो॥ एवं स्थिते त्वदु पसंश्रयणाभ्युपायो मा नेन केनचि दलप्स्यत नोपलब्धुम् । नोचे दमर्त्यमनुजादिषु योनिघ त्व मिच्छाविहार विधिना समवाशरिष्यः ॥ Ф 17 प्रति :- एनम्=इट्लु, स्थिते== उण्डँगा, (अतीन्द्रियत्व मेर्पडि युण्डँगा) त्वम् –नीवु, इच्छा, विहार, विधिना स्वेच्छासञ्चारविधानमुचेत, अमर्थ्य, मनुज, आदिषु= देव तलु मनुजुलु मॊदलुगाँगल, योनिषु=योनुलयन्दु नो, समवातरिष्यः, चेत् = अवतरिञ्चनि यॆडल, त्वत्, उप संश्रयण, अभ्युपायः = देवरवारि (तम) आश्रय मनॆडु उपायमु, उपलब्धुम् = तॆलिसिकॊटकु, केन चित् . = एदे नॊक, मानेन =प्रमाणमुचेत, (ए प्रमाणमु चेतनैननु) न X अलप्स्यत =दुर्लभमै युण्डॆडिदि. विशेषमुलु– अम_र्त्यमनुजादिषु
इन्दलि आदिपद ग्राह्यमुलु तिर्यक्, स्थावरमुलु, ‘त्व दुपसंश्रयणाभ्यु पायोमानेन केनचि दलप्स्यत नोपलब्धुम्’ - अवतारमु ’ समस्त जनमुलकुनु नयनगोचर मगुनु गनुक देवरवारि नाश्रयिम्प वलॆ ननु ज्ञानमु सुलभमुगाँ गलुगुनु. कावुन श्रीवारु देवमनुष्य तिर्यक् स्थावरादुललो नवत रिञ्चुट जनुलकु महोपकारकमु, श्रीरामकृष्णादुलुगा (3) 18 अतिमानुष _स्तवमु नवतरिञ्चुटचेत ने कदा ! ‘त मेव शरणं गतः, राघवं शरणं गतः, मा मेकं शरणं व्रज, नम श्चक्रुर्जनार्द नम्’– इत्यादि महाभाग्यमु लानाँटिवारिकिँ जेकू रॆनु. ता– देवा! अतीन्द्रियु लगु श्रीवारिदर्शन भाग्य मॆन्नि जन्ममुलकै ननु सामान्यजनमुल कॆट्लु गल्लैडिनि. श्रीवारु स्वैरलीलाविहारमु कारणमुगा देवमानवतिर्यक् स्थावर योनुलन्दु नवतार मॆत्तनियॆडल निन्नाश्रयिञ्च वलॆ ननु नुपायज्ञान मैननु ए प्रमाणमुचेँ दॆलिय वी लय्यॆ डिनि. निन्नुँ जेरुटकु मूलमगु ‘राघवं शरणं गतः, मा मेकं शरणं व्रजेत्यादि शरणागति ज्ञानमु नीयवता रमुले गदा ! यनुग्रहिञ्चिनवि. उ॥ धीरुल केनिँ गल्गुनॆ य तीन्द्रियुलौ तमदर्शनं बटुल् स्वैरविहारलील यनु साकुन देवमनुष्यतिर्यगा कारजडम्बुल९ बॊडमि कन्नुलकुं बॊडसूप कुन्न निक् जेर नुसाय मेनि दरि सिम्पँगँगर्वयि युं डॆडिं गदा ! अवतारिक– वॆनुकटिविषयमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ शीलःक एष तप हन्त दयैकसिन्धो ! क्षुद्रे पृथक् जनपदे जगदण्डमध्ये । अतिमानुष स्तवमु 19 10 = दयकु मुख्यमुगा दीयस्कोपि हि जनस्य कृते कृती त्व मत्रावतीर्य ननु लोचनगोचरो भूः ॥ प्रति. - हेदया X एक, सिन्ध् ! समुद्रमुवण्टि यो वैकुण्ठपती! कृती - कृतकृत्युँड वगु, त्वम् = नीवु, जगत्, अण्ड, मध्ये = प्रपञ्चरूप मगु नी ब्रह्माण्डमुनडुम, झुदे मैन) पृथर्जन, पदे = पामरजनुलकु = नीच मगु (अत्यल्प निवास मैन, अत्र=इच्चट, दीयसः= अतिक्षुद्र मगु, जनस्य, कृते, अपि=जनमुकॊऱकु सैतमु, अवतीर्य = अवतरिञ्चि, लोचन गोचरः = कन्नुलकुँ गनँबडुवाँडवु, अभूः ननु = अयितिवि गदा ! तव=नीयॊक्क, एषः = ई, शीलः = शीलमु, कः=ऎट्टिदि (ऎन्त गॊप्पदि!) हन्त ! वि शेषमुलु- शीलः
सन्तोषमु. महतः मन्दैः सह संश्लेषः – गॊप्पवानिकि मन्दुलतोँ गलसि मॆलसि वर्तिञ्चुट. कः-इट्टिदि. इन्त यनि कॊलचि चॆप्पुटकु साध्यमु गादनि भावमु. al- हन्त—इदि हर्ष मुनन्दु वाडँ बडिनदि. शेष शेषा सनादि सूरिपरिष, तेसेव्युलुनु, उभयविभूतुलकु नाथु लुनु, अगु श्रीवारिकि ऒक ब्रह्माण्डमुनडुम नतिक्षुद्र मगु पामर जनपदं बगु नॊक जनपदम्बुन अतिक्षुद्र जन निमित्तमै यवतार मॆत्तॆडु शीलमुनकु इयत्त ले दनि भावमु. इट्टिशीलमु म म्मानन्द पॆट्टु चुन्नदि. 20 अतिमानुष स्तवमु ता॥ दयाम्बुराशि वगु नो वैकुण्ठनाथा ! अवाप्त समस्तकामुँडवै कृतार्थुँड वगु नीनी जगदण्ड मध्यमुन अतिक्षुद्रमुनु पामर जनावासमु नगु नॊक जनपदम्बुन नॊक चोट क्षुद्रजननिमि त्त मवतरिञ्चि कनुलपण्डु वॊनर्चितिवि. शील मॆट्टिदि. दीनिकि हद्दु लॆक्कड? आहा! देवरवारि दीनिनि गॊलुचुटकु साधन मेमि? शा॥ ईशीलम्बुन केमि पेरु? तुदि ह दॆच्चोटँ गारुण्यवा राशी! यीजगदण्डमध्य मुन तन द्रम्बै यति कुद्ररू पाशेषप्रज किक्कयौ निचट मु द्रार्थम्बुगा नुद्भवं बै शय्यासन खेलनादुल वय स्याळिं गटाक्षिञ्चि ते॥ अव तारिक :- इप्पुडु सौशील्यप्रयुक्त मगु स्वातन्त्र्यमु नुडुवु चुन्नारु. श्लो!! यं पात कात् सुमहतो 2 प्युदधारयस्त्वं त्वत्पाद वारि परिपूतशिरा श्चयो भूत् । तं वन्द ने कील ततश्च वरं वृणीषेक - क्रीडाविधि र्बत! विलक्षणलक्षण स्ते॥ प्रति :- त्वम् = नीवु, यम् -ऎवनीनि, सुमहतः = 11 = मिक्किलि गॊप्पदि यगु, पात कात्, अपि - पापमुनुण्डियु, उदअतिमानुष स्तवमु 21 धारयः = उद्धरिञ्चितिवो, यः = ऎवँडु, त्वत्, पाद, वारि, परिपूतशिराः च = देवरवारि पादजलमुचेँ बवित्र मैन शिरस्सु गलवाँडुनु, अभूत्=आयॆनो! तम् = आ रुद्रुनि, वन्द = नमस्करिञ्चुचुन्नावु, ततः = आ रुद्रुनिवलन, वरं च=वरमुनु सैतमु, नृणीषे = वरिञ्चुचुन्नावु. किल = पुराणमुलु नुडुवु चुन्नवि. ते = नीयॊक्क, क्रीडा विधिः=लीलाव्यापारमु, विलक्षणलक्षणः=लोक विलक्षणलक्षण मुलु गलदि, बत = औरा !
वि शेषमुलु– ‘यं पातठात् सुमहतः’ _तण्ड्रियगु ब्रह्मदेवुनि तलँ द्रुञ्चिन महापापमुनुण्डि. ईश्वरुँडु ब्रह्मतलद्रुञ्चुट पुराण प्रसिद्धमु तं वन्द से किल तत श्च वरं वृणीषे - कै लास यात्रलो श्रीकृष्णुँडु सदाशिवुनि नमस्करिञ्चि पुत्रो त्प त्तिरूप मगुवरमुनु गोरुट हरिवंशादि पुराण प्रसिद्धमु. बत—आश्चर्यार्थकमु, इच्चट नाश्चर्यमुनकुँ गारण मे मन? तनकु रक्षणीयुँडगु शिवुनकु म्रॊक्कुटयु वरमुनु गोरुटयु आश्चर्यकरमुलु, भगवन्तुनिलील लनि भावमु.
- ता– ओ वैकुण्ठनाथा ! एरुद्रुनि नीवु स्वपितृवदनिच्छे दनरूप मगुघोर पातकमुनुण्डि काचितिनो ! नी पादोदक 22 अतिमानुष स्तवमु मुनु शीरमुनँ दाल्चि ये शिवुँडु पवित्रुँ डायॆनो! आ सदाशिवुनि नीवु म्रॊक्कु_टयु नतनिनुण्डि वुत्रोत्प त्तिरूप वरमुनु गोरुटयु नाश्चर्यकरमुलु, स्वामी! नी लीललु लोक विलक्षणमुलु गदा! च॥ जनकुशिरम्बु त्रुञ्चिन प्र चण्डत राघमुनुण्डि काचि तॆ व्वनि, तलँ दाल्पँ द्वच्चरण- वार्त हरिन् बरिपूतुँ जेसि तॆ ♡ व्वनि, नटुवण्टि धूर्जटिकि वन्दनमुं बॊनरिञ्चि पुत्र भि क्षनु मऱि वेँडु टच्चॆरुवु गादॆ, विलक्षणमुल्. भवत्कृतुल् अवतारिक :-श्रीकृष्णुँडु प्रणामादिक मॊनर्प रुद्रुँडु तन्महिमनु दॆलियनिवानिवलॆ नट्लूरकुण्डुटकु हेतुवुनु दॆलुपु चुन्नारु. श्लो॥ क्रीडाविधेः परिकर स्तव यातु माया सा मोहिनी न कतमस्य तु हन्त जन्तोः । हैमर्त्यसिंहवपुषस्तव तेजसोंशे शम्भु र्भवन् हि शरभ श्शलभो बभूव ॥ 12 प्रति : :- या, तु = एदि, तव देवर वारियॊक्क, क्रीडा विधेः = लीलाविधिकि, परिकरः = उपकरणमो, सा=अट्टि, = माया=माय, (प्रकृति) कतरस्य–ए, जन्तोः अतिमानुष स्तवमु =ओ 23 प्राणिकि, मोहीनी= मोह पॆट्टु नदि (अज्ञानमुनु गलिगिञ्चु नदि) न—कादु?, है= ओ वैकुण्ठनाथा!, शरभः = शरभ मृगमु (सिंहमुनु जम्पॆडु नॆनिमिदि काळ्ळ मृगमु) भवन् == अगुचु, मर्त्यसिंह, वपुषः = नरसिंह देहमु गल, तवनीयॊक्क, तेजसः= तेजस्सु यॊक्क अंशे भागमुनन्दु, शम्भुः = शिवुँडु, शलभः = मिडुत, बभूव=
विशेषमुलु :- ‘या तु माया’ परिदृश्यमानमु लगु वस्तुवुलन्दु विचित्रस्वभाव वैषम्यमुलनु दोँपँ जेयु प्रकृति. मोहिनी, न? :- माय ज्ञानाधिकु लगु जीवुल सै तमु मोहिम्पँ जेयु ननि भावमु, ‘शम्भु र्भवन् हि शरभ श्मलभो बभूव’ ई पुराणवचनमु लीविषयमुनँ ब्रमा णमुलु, " हन्तु मभ्यागतं रौद्रं शरभं नरकेसरी नखै र्विदारयामास हिरण्यकशिपुं यथा नमोस्तु नरसिंहा य लक्ष्मीस्थितिजितकु दे यत् क्रोधाग्नौ पुरा रौद्रः शरभ श्शलभायितः (ता॥ नरसिंहमूर्ति तन्नु संहरिञ्चुट कभिमुख मुगा वच्चिन रुद्रसम्बन्धि यगु शरभमुनु हिरण्यकशिपुनि वलॆने गोळ्ळतोँ जील्चि वैचॆनु. पूर्व मॆवनि क्रोधाग्नि यन्दु रुद्रात्मक मगु शरभमृगमु शलभमुवलॆ दग्ध 24 अतिमानुष स्तवमु मायॆनो ! लक्ष्मी सान्निध्यमुचेतँ ग्रोधमुनु जयिञ्चिन यट्टि नरसिंहमूर्तिकि नमोवाकमु लॊनर्चु चुन्नानु.) माय :- भगवत्स्वरूपमुनु स्वविषयक मगु भोग्य ताबुद्धिनि तिरोधानपऱुचुचु जनिं जेयुनु. ‘मायया मोहितं जगत्’ ‘अनीशया शोचति मुह्य इत्यादु लीविषयमुनु जाटुनु, भगवन्माय चेत मोहितुँडै शरभरूपमुतो युद्धमुनके सन्नद्धुँडैन शिवुँडु श्रीकृष्णप्रणामादुलनु स्वीकरिञ्चुट यॊक विन्त गादु, उचितमे. ता॥ ओ वैकुण्ठपती! गुणमयि यगु नी देवमाय नीलीलाविधि कॊक याटवस्तुवु. अदि यॆन्तटि ज्ञानाधिकुल नै ननु मोहिम्पँ जेयँगलदु. देवा! देवरवारु नरसिंहरूप मुनु दाल्चिनपुँडु ज्ञानाधिकुँडौ रुद्र देवुनन्तवाँडु शरभरूपमुनु धरिञ्चि श्रीवारि तेजोंशमुनन्दु मिडुत वलॆ भस्ममु गालेदा? शा॥ नीलीलाविधि काट व स्तुवु रमा नीलाम्बुजा तेक्षणा लोला! माय, य दॆन्तवारि नयिनन् लोँगॊञ्चु वर्तिम्प दे? शूलिन् नाँडु भ्रमिम्पँ जेसि शरभ स्फूर्तिन् रिन् बयं बम्पि या अतिमानुष _स्तवमु भीलत्वन्नृहरिश्रुधाग्नि शलभं बौ नट्लु गाविम्प दे? 25 अवतारिक :- भगवानुनि पारतन्त्र्यमु कूड स्वातं त्र्यमुवलॆ नतीशयावहमे यनि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ यस्यात्मतां त्रिपुरभङ्ग विधावधास्त्वं त्वच्छक्तितेजित शरोविजयी चयो भूत् । दक्षक्रतौ तु कील लेन विनिर्जित स्त्वं युक्तो विधेयविष येषु हि कामचार ः ॥
13 प्रति– त्रिपुर, भङ्ग, विधा त्रिपुरासुर संहार कार्यमुनन्दु, यस्य = ऎवनिकि, आत्मताम् = अन्तरात्म यगुटनु, त्वम्=नीवु, अधाः =धरिञ्चितिवो, यः=ऎवँडु, त्वत्, शक्ति, तेजित, शरः = देवरवारिशक्तिचे मॆऱुँगु पॆट्टँबडिन बाणमु गलवाँडै, विजयी, च = जयमु गल वाँडुनु, अभूत् =आयॆनो, तेन= अट्टि रुद्र देवुनिचेत, दक्षक्रतौ,तु—दक्षुनि यज्ञमुनन्दु, त्वम् नीवु, विनि र्जितःकिल= = जयिम्पँ बडितिवँट, विधेयविष येषु वश्युल पट्ल, कामचारः == स्वेच्छावर्तनमु, युक्तः, ही = न्याय्यमे कदा !
विशेषमुलु-– त्यच्छक्ति तेजितशरः - शराग्रमुनन्दु नी शक्तिचे नुञ्चँ बडिन तेजस्सु गलवाँडै
पूर्वार्धमुलोनि विषयमुनकुँ ब्रमाणमु (4) 26 अतिमानुष _स्तवमु 6विष्णु रात्मा भगवतो भव स्यामित तेजसः तस्मात् धनु र्ज्यासंस्पर्शं स विषेहे महेश्वरः पुरा पराभवं प्राप्य समरे त्रिपुरानुरात् “युक्तो विधेय निष येषु हि कामचार स्वाधीनजनुलयॆडँ बारतन्त्य्र्य मतिशयावहमे युनि भावमु, ता– त्रिपुरासुर संहार कार्यमुन नॆवनिकि नी वन्त रात्मवो, शराग्रमुन नी शक्तिचेत मोपँ बडिन तेजमु गल वाँडै विजयमु नार्जिञ्चॆनो यट्टि रुद्रुनिचेत दक्षयज्ञ मुन नीवु जयिम्पँ बडुट वश्युल विषयमुनँ बार तन्त्र्यमु सैत मतिशयावहमे यनॆडु नी नियममुनु जाटु चुन्नदि. च॥ अलत्रिपुरारुल९ गॆलचु न त्तऱि नीवु यदन्तरात्मलो! निलिपिशरान शक्ति नॆव नि९ गॆलिपिञ्चितॊ! यट्टिरुद्रुचे नलिनदळाक्ष! दक्षसव नम्बुन नीवु जितुण्ड वौट व श्युलयॆडँ गामचार मदि शूरुलकुं दगु नञ्चुँ जा औडु. श्लो॥ मुग्ध श्शिशु र्वटदळे शयि तो ऒतितन्वा तन्वा जगन्ति बिकृषे सविकास मेपु ऐशी मिमां तु तव शक्ति मतर्कितव्या मव्याजठः प्रथयने कि मिहावतीर्णः ॥ 14 प्रति– वटद ळे अतिमानुष स्तवमु 27 मऱियाकुनन्दु, शयितः = (प्रळ यार्णवमुनन्दु) परुण्डिन, मुग्धः = अन्दगाँ डवुनु, शिशुः=पसिवाँडवुनु, (अगु) त्वम् – नीवु, अतितन्वा मिक्किलि सूक्ष्ममुगु, तन्वा = शरीरमुचेत, जगन्ति= लोक मुलनु, सविकासं एव = विशालमुगने (ऒत्तिडि लेकुण्ड) बिभृषे =धरिञ्चु चुन्नावु. अतर्कितव्याम् : ऊहि रानि, इमाम्=ई, तव नीयॊक्क, ऐशीम् ईश्वरत्व प्रयुक्त मगु, शक्तिं. तु = शक्तिने, इह
इक्कड, अवतीर्णः = मुगा, प्रथयसे, किम् चाटु चुन्नावा? अवतरिञ्चिनवाँडवै, अव्याजतः = अकृत्रिम
विशेषमुलु– वटदळे शयितः - प्रळय समुद्रमुनं दनि भावमु. ‘अतितन्वा तन्वा जगन्ति बिषे सविकास मेव’ मिक्किलि पसिपाँपडु तन चिन्नि बॊज्जलोँ ब्रळयकालिक सर्वभुवनमुलनु विशालमुगाँ दाल्चि मुन्नीटिलोँ बॊडमिन मऱियाकु पैँ बव्वळिञ्चुट तन परत्वमुनु सूचिञ्चुचुन्न दनि भावमु. 2825°C……….§ Do ण 8 मिमां… कि मि हावतीर्ण ः- यशोदा देविकी वश्यमगु शैशवरूपसौलभ्यमु नन्दुनु परत्वाविष्कर णमु नोटिलो विश्वमुनु जूपुट मुन्नगु लीललु मिक्किलि आश्चर्यजनकमुले यनि याशयमु, 28 अतिमानुष स्तवमु ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! नीवु प्रळयसमुद्रमुलो अन्द मगु चिन्नारि पसिकन्दै चिन्नि बॊज्जलो लॆक्क लेनि ब्रह्माण्ड मुलँ दाल्चु चुन्नावु. अचिन्त्यमहिमगल मैश्वर मगु शक्तिने देवरवा रिट नवतरिञ्चियु वॆल्लडिञ्चु चुन्नारा ? म॥ प्रळयाम्भोनिधि यण्ट यन्दु वटप त्रं बण्ट यद्धानिलो ललिता कारुँडु चिन्न बालुँ डँट य ल्पं बैन तत्कुलो यी पल ब्रह्माण्डमु लॆन्नॊ ! युण्डु नँट नि र्बाधम्बु बल् विन्त ! नी विल जन्मिञ्चि यचिन्त्य मैश्वरमु नी यीश क्ति नेचाटॆदे? अवतारिक :- स उ श्रेयान् भवति जायमानः (आ नारायणमूर्ति यवतरिञ्चुचुने -श्रेष्ठुँ डगु चुन्नाडु) अनि नुडिविन प्रकारमु अवतार सौलभ्यमु सैतमु परत्वमे यनि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ ब्रह्मेशमध्यगणना गणनार्क पङ्क्ता विन्द्रानुजत्व मदिते स्तनयत्वयोगात् ! इक्ष्वाकुवंशयदुवंशजनि श्च हन्त श्लाघ्या न्यमू न्यनुपमस्य परस्य धाम्नः ॥
15 प्रति :– अनुपमस्य=साटि लेनि, परस्य = सर्वोत्तम मैन, धाम्नः = तेजस्सुनकु, (तेजस्सु वगुनीकु ब्रह्म,
अतिमानुष स्तवमु 29 ईश, मध्य, गणना = ब्रह्मकुनु, शिवुनकुनु नडुम लॆक्किञ्चुटयु, अर्क, पङ्क्ता द्वादशादित्युलपं क्ति यन्दु, गणना= लॆक्कयु, अदितेः = कश्यपुनि भार्य यगु अदिति देविकि, तनयत्व योगात् = पुत्रत्वसम्बन्धमु वलन, इन्द्रानुजत्वम् नकुँ दम्मुँ डगुटयु) इक्ष्वाकु वंश, यदुवंश, जनिः, च=इक्ष्वावंशमुन, यदु वंशमुनँ बुट्टुटयु, (राव) कृष्णावतारमुलुनु) अमूनि= इवि, श्लाघ्यनि उपेन्द्रावतारमु देवेन्द्रु याडँ दगिनवि, हन्त—सन्तसमु, कॊनि विशेषमुलु :- अनुपमस्य- ‘न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते’ अन्नट्लु भगवानुनितो समानुँडु गानि यधि कुँडु गानि लेँडु गावुन श्रीहरि साटिलेनिवाँडु,
परस्य, धाम्नः – ‘नारायणपरो ज्योतिः’ अनुश्रुति सिद्धमगु नर्थमु निटँ दॆलिय नगुनु. ब्र ह्मेश मध्यगणना ‘मध्ये विरिञ्चिगिरिशं प्रथमाव तारः’ इत्यादु लिन्दुलकुँ ब्रमाणमुलु. अर्कपङ्क्ता गणना- ‘आदित्याना महं विष्णुः’ गीता वचनमु, ता॥ ओ वैकुण्ठनायका! साटिलेनि परमधामुँड वगु नीकु ब्रह्म, विष्णु, महेश्वरु लनि ब्रह्मकुनु शिवुनकुनु नडुम लॆक्कयु द्वादशादित्युललो नॆन्निकयु अदिति देविकिँ 30 अतिमानुष स्तवमु बुत्रुँडवैन सम्बन्धमुचेत नु पेन्द्रुँड नगुटयु, राम कृष्णुलुगा नवतार मॆत्तुटयु निवि यॆल्ल मिक्किलि कॊनि याडँ दगि युन्नवि. आनन्दजनक मुलुगा नुन्नवि. म॥ अनघा ! पङ्कजगर्भ शङ्करुल म ध्यन् निन्नु लॆक्किञ्चुटल् दिनकृत्पं क्तिनि निन्नु नॊक्कँ डनुटल् देवेन्द्रुगा राबु मे लनुँगुन्दम्मुँड वण्ट यय्यदितिवि य्यानन् रवीन्द्वन्वयं बुन जन्मिञ्चुट यॊप्पु मेल् वॆलुँगुनाँ बॊल्पॊन्दु नी कच्युता ! अवतारिक :- इप्पुडु त्रिविक्रमावतार सौलभ्यमु ननु सन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ त्वन्निर्मिता जठरगा च तप त्रिलोकी 3 किं भिक्षणा दिय मृते भवता दुरापा । मध्ये कदातु न विचक्रमिषे जग च्चेत् त्वद्विक्रमैः कथ मीद श्रुति रञ्चिता स्यात् ॥ 16 प्रति := त्वत्, निर्मिता नीचेत निर्मिम्पँ बडिनदियु, तवनीयॊक्क, जठर, गा=उदरमुनु पॊन्दिनदियु, (अगु) इयम्=ई, त्रिलोकी लोकत्रयमु, भिक्षणात्, ऋते याचन लेकुण्ड, भवता - देवरवारिचेत, दुरापा, किम्=पॊन्द शक्यमु कानिदा? (कादनिअतिमानुष स्तवमु 31 भावमु) मध्ये =: (सृष्टि प्रळयमुलकु) नडुम, कदा, तु= ऎप्पु डैननु, जगत् = लोकमुनु, न, विक्रमिस्ते, चेत् = विक्रमिञ्चनियॆडल, (कॊलचुकॊनिन यॆडल) कथ
मिव=ऎट्लु, त्वत्, विक्रमैः
नी पादविन्यासमुल चेत, (नी विक्रममुलचेत) श्रुतिः= वेदमु, अञ्चिता= पूजिम्पँ बडिनदि, स्यात्=अगुनु? वि शेषमुलु :- त्वन्निर्मिता- ‘अप एव ससर्जादा’ अनु क्रममुचेत अण्डसृष्टि पर्यन्तमु स्वयमुगाने चेसि तरु वातँ दनचेतने सृजिम्पँबडि तनयंश मगु चतुर्मुख ब्रह्मचेत निर्मिम्पँ बडिनट्टियु अनि भावमु. Ф ‘त्वद्विक्रमैः कथ मिव श्रुति रञ्चिता स्यात् - इदं विष्णु र्विचक्रमे! त्रेथा निदधे पदम् । त्रीणि पदा विचक्रमे! विचक्रमाण स्त्री धोरुगायः उरुक्रमस्य स हि बन्धु रिता । विष्णोः पदे परमे मध्य उत्सः - इत्यादि त्रिविक्रम मूर्ति विक्रमगाधलचेतने श्रुति यलङ्करिम्पँ बडिनदि. इट्लु श्रुति नलङ्करिञ्चुटके कानिचो मॊदट नीचे सृजिम्पँ बडि पिदप नीचे सृजिम्पँ बडि नीयंश मगु चतुर्मुखुनि चेँ बूर्ति चेयँबडि प्रळयमुन नुदरमुन नुञ्चुकॊनि नीचे भद्रमु चेयँबडिन त्रिलोकि नीदै युण्डँगा नॊरुलनु बिच्च मॆत्त नेल ? भवदीय त्रिविक्रमविस्फूर्ति श्रुतुलकु सार्थक्य मुनु गूर्चि वानि नलङ्करिञ्चुट के यनि पिण्डितार्थमु, 32 अतिमानुष स्तवमु ता॥ ओ वैकुण्ठ पती ! तॊलुत नीचे सृजिम्पँबडि प्रळ यमुन नीचे भद्रमुगा नुदरमुन दाचँ बडिन यी त्रिलोकि बिच्च मॆत्तनि यॆडल नीदि काकपोवुना ? नडुम नॆप्पुडैन नॊकमारु जगमुनु विक्रमिम्प वेसि नी विक्रम गाधलचेत श्रुति यॆ ट्ललङ्करिम्पँ बडुनु. शा॥ नीचे मुन्नु सृजिम्पँगाँबडुट मु न्नी रेकमौ नत्तऱिन् नी चिन्नारिव रालबॊज्ज मनुटन् नीवे जगा लन्नियुन् याचिम्पन् बनि येमि यॊक्करुनि दे वा! वा ! यीत्रिलोकिन् द्रयी श्रीचार्वङ्गिकि नीत्रिविक्रमकळन् श्रीँ गूर्पँ गा कुन्नचो. अवतारिक :- तरुवात श्रीरामावतारमु नन्दलि यति मानुषम्बु लगु चरित्रवि शेषमुलँ बदु नेडु श्लोकमुलतो 3 सङ्ग्रहमुगाँ जॆप्पँ दलँचि मॊट्ट मॊदट गृध्रराजमगु जटायुवुनकु मोक्ष मॊसँगुटलोनि वैचित्र्यमुनु नुडु वुचु तत्परिहारमु तनकु दुरूहमगुटचे श्री रामुने यडुगु चुन्नारु, पृच्छामि किञ्चन यदा कील राघवत्वे मायामृगस्य वशगो मनुजत्वमाग्द्यात् 1 सीतावियोगविवशो नच तद्दतिज्ञः प्रादा स्तदा परगतिं हि कथं खगाय ॥ (सशेषमु) 17 अतिमानुष स्तवमु 33 प्रति :- किञ्चन - आश्चर्यकर मगु नॊक विषयमुनु, पृच्छामि - अडुगु चुन्नानु. यदा, किल - ऎप्पुडु, राघ वत्वे=रामुँडुगा नवतरिञ्चिन समयमुनन्दु, मनुजत्व, मौग्ध्यात् =मानवुँडुगाँ बुट्टुटवलन नेर्पडिन मोहमु वलस, मायामृगस्य = मायलेडिकि, वशगः = वश्युँडवै, सीता, वियोग, विवशः = सीता देवि यॆडँ बाटु चेत परवशुँ आसीता डवै (ऒडलु तॆलियनिवाँडवै) तत्, मार्गमुनु दॆलिसिनवाँडवु, न, च, कावु, लेदा = अप्पुडु, खगाय- पक्षिकॊऱकु, परगतिम्=उत्तमगतिनि, कथम्-ऎट्लु, प्रादाः = इच्चितिवि. X, *. वि शेषमुलु :- मनुजत्व, माध्यात्- ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अनि श्रीरामुँडु तन्नु नरुनिगा भाविञ्चुट गमनिम्पँ दगिनदि. मानवत्व प्रयुक्त मगु मोहमुवलन सीतामार्गमुने यॆऱुँग नट्लु नटिञ्चिन नीवु ‘प्रादा स्तदा परगतिं हि कथं खगाय’ जटायुवु नकु मोक्ष मॊसङ्गुट परत्वमुनु सूचिञ्चुनु गदा ! ‘मय त्वं समनुज्ञतो गच्छ लोका ननु तमान्’ अनि चॆप्पुट विरुद्धमु कादा ? दीनिकिँ बरिहार मेमि चॆप्पुदुरु ? (5) 34 अतिमानुष स्तवमु ता॥ ओ वैकुण्ठनाथा ! नीवु श्री रामुडुगा नवतरिञ्चि नप्पुडु नेनु मानवुँडनु गा ने नटिन्तु ननि दानिकिँ दगिनट्लु मायलेडि वॆण्टँ बडि पोयि सीतावियोगमुनु बॊन्दि सीतामार्गमुनु दॆलियवु गानि देवा ! जटायुवुन कॆट्लु मोक्षमु नीयँ दॆलिसितिवि? ई प्रश्नमुनकुँ बरिहार मेमि चॆप्पुदुरु ? च अडिगॆदँ गोप मन्द कॊक ई यंशमु रामुँड वैनयपु म को दलँपु तो निज मञ्चुनु मायलेडि वॆं बडिँ बडि धर्मपत्नि नॆडँ बासी यॆऱुङ्गवु कानि तद्दतिन् गडुसरि ! यॆ टैऱिङ्गिति ख गम्बुनकुन् दयचेय सद्गतिन्. 3 अवतारिक :- पूर्वोक्त विषयमुने भङ्ग्यन्तरमुगाँ जॆप्पु चुन्नारु. श्लो॥ अक्षुण्णयोग पथ मग्र्यहतं जटायुं 3 तिर्यञ्च मेव जत मोक्षपथे नियोक्तुम् । शक्नोषि वेत्सि च यदा स तदा कथं त्वं देवी मवाप्तु मनलो व्यथितो विचिन्वन् II
18 प्रति :- अक्षुण्ण, योगपथम् अभ्यसिम्पँ बडनि योग मार्गमु गलट्टियु, तिर्यञ्चम् तिर्यग्दन्तु वैनट्टियु, अतिमानुष स्तवमु 35 वगु अग्र्य, हतम्= ब्राह्मणुनिचेँ जम्पँ बडिनट्टियु, जटा युम् =जटायु वनॆडुपक्षिनि, मोक्षपथे = मोक्षमार्ग मुन, नियो क्तुम् अनुमति निच्चुटकु, यदा= ऎन्दुवलन, नेत्सि - तॆलियु चुन्नावो! शक्नोषि च= श क्तुँड
=शक्तुँड चुन्नावो, तदा= अन्दुवलन, सः आ, त्वम् = नीवु, देवीम् = सीता देविनि, विचिन्वन् = वॆदकुचु, अवा फ्रुम्= पॊन्दुटकु, अनलः(सन् ) -अश क्तुँड नगुचु, कथम् ऎट्लु, व्यथितः = बाध गलवाँडवु, (भवसि - अगु चुन्नावु) बत आश्चर्यमु.
विशेषमुलु :- अक्षुण्णयोग पथम् - साधनानुष्ठानमु लेनियनि भावमु. तिर्यञ्चम् - तिर्यग्जातिलोँ बुट्टुट वलन साधनानुष्ठानानुगुण जन्मविहीन मनि तॆलिय वलॆनु. अग्र्यहतम्— नाग्र्यहतस्य लोको स्ति मुन्नगु प्रमाणमुलचे ब्राह्मणुनिचे निहतुँ डगुवानिकि गतु लुण्डवु, पै ँगा जटायुवुन की प्रतिबन्धकमु सै तमुगलदु. ओ 6
कुण्ठनाथा ! नीवु रामावतारमुन जटायुवुन केमि यर्हत गल दनि मोक्षमिच्चितिवि. योगमार्गमा ! अभ्यसिम्प लेदु. साधनानुष्ठानमुन कनुकूलमैन जन्ममा! कादु. तिर्यक्कुलमुन जन्मिञ्चॆनु. रावणब्रह्म ब्राह्म णुँडु गावुन नतनिचेँ जम्पँ बडुट ‘नाग्यहतस्य लोक्को स्त्री’अनु प्रमाणमुचे नुत्तमलोकमुलु चॆन्दु टकुँ ब्रतिबन्धकमु कूड. इट्टि जटायुवुनकु मोक्ष चॆलिसितिविगानि भार्यामार्गमुनु गालिञ्चियु मी 36 अतिमानुष _स्तवमु नॆऱुँगँजालक बाधपडिति वेल ? दीनि केमि समाधान मिच्चॆदवु ? लम्बु गी॥ आरयदु योगपथमु तिर्यक्कु विप्रहत मन्दुलो नट्टिविहगमुनकॆ 1 पलुकुचेतने मोक्ष मीँ दॆलिसिनावु तॆऱव तॆरुवुनु वॆनकीयुँ दॆलिय वेल ? अवतारिक :- पूर्वश्लोक मुनन्दु वलॆने यूह ननुभविञ्चु चुन्नारु. प्रति लास् श्लो॥ सालान् हि सप्त सगिरीन् सरसातलान् यान् एकेषु मन्दजवतो निरपत्रय स्त्वम् ! ते ष्वेक विव्यथन भिन्न क पिप्रणुन्नं
- शाखामृगं मृगयसे स्म कथं सहायम् ॥
- सगिरीन् = कॊण्डलतो
- श कि लेमि
- 19
- गूडिनट्टियु, सरसात
- पाताळमुतोँ गूडिनट्टियु, यान् =
- 5,
- सालास् =वृक्षमुलनु, लेदा मद्दुलनु, एक, इष्टु, मन्द, जवतः = ऒ केयॊक बाणमुयॊक्क स्वल्प वेग मुवलन, त्वम्→नीवु, निरपत्रयः-आकुलु लेनिवानिनिगा नॊनरिञ्चि तिवो, ( लेदा भेदिञ्चितिवो) तेषु = आवृक्षमुलन्दु, एक, विव्यथन, भिन्न, कपि, प्रणुन्नम् ऒक वृक्ष मुनु भेदिञ्चुट यन्दु अलसिन कोतिचेत वालिचेत) निरसिम्पँ बडिन वानरुँ डगु सुग्रीवुनि, कथम् = ऎट्लु, सहायम् = सहायुनिगा, मृगयसे स्म= वॆदकितिवि ?
अतिमानुष स्तवमु 37 वि शेषमुलु- ए केषु मन्दजवतः - मन्द वेगमु काक यति वेगमगुनेनि ब्रह्माण्डभित्तियु ब्रद्दलगु ननि भावमु. निरपत्रयः– आकु लन्नियु रालुदाँक दुलिपितिवि. (लेदा) भेदिञ्चितिवि. ‘बिभेद च पुन स्सालान् सप्लैकेन महे षुणा । गिरिं रसातलं चैव’ ‘ते स्वेकविव्यथ नभिन्न कपि प्रणुन्नम् ’ वालि सप्तसालमुललो नॊकदानियाकुलु राल्पुट के यलसिपोवुवाँ डँट- इन्दुकुँ ब्रमाणमु ‘इमे च विपुला स्सालाः । सप्तशाखावलम्बिनः यत्रैकङ्घट ते वाली / निष्पत्रयितु मोजसा’ (रामायणमु - किष्किन्ध). निरपत्रयः इदि रामायणप्रयोगानुगुणमु. मृगयसे स्म कथं सहायम्- अधिकशक्तिकल वानिनि गदा सहायमु कोरुकॊन वलॆनु ऒक चॆट्टुनु भेदिञ्चु ट के यलसिपोयॆडु वालि चेतने दॆब्बलु तिनिनकोति यगु सुग्रीवुना ! सहायुनिगा वॆदकुट. इदि याश्चर्यमुगा नुन्नदि. दीनि केमि परिहारमु चॆप्पॆदवु ? ता॥ ओ पै कुण्ठनाथा ! नीवु रामावतारमुन ऒके यॊक बाण मुयॊक्क स्वल्प वेगमुन कॊण्डतोँबाटु पाताळमुतोँ बाटु सप्तसालमुलनु भेदिञ्चितिवि. वानिलो नॊक दानिनि भेदिञ्चुटके चॆमटलु पट्ट नलसिपोयॆडु वालि चेत दॆब्बलु तिनिन वानरुनि सुग्रीवु नॆट्लु सहायुनिगा वॆदकु कॊण्टिवि ? इदि आश्चर्यमुगा नुन्नदि. 38 अतिमानुष _स्तवमु म॥ सकुभृद्वर्गरसातलम्बुग हरी ! सप्तावनीजाळि सा यक मॊक्कण्ट नेडुल्ल नेसितिवि स त्वाढ्युण्ड वी वन्दुलो · नॊकदानिन् विदळिम्प डय्युकपिचे नुड्डाडुकोँतिन् सहा यकुँगा स्वीयवधूग वेषणकु ट्लर्थिञ्चितो राघवा ! अवतारिक :- स प्तसालादिविदारणमु सैतमु सुग्रीवुनि विषयमुनँ जूपिन सौशील्यकृत्यमे अनि यीश्लोक मुन नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ दास स्पखा समभव त्तव यः कपीन्द्रः तद्विद्विषं कपि ममर्ष वशौ मांसुः । त्वर्स्नेहविक्लबधियं त मिमं कपीन्द्रं विस्रम्भयन् सपदि सालगिरी नविध्यः ॥
20 प्रति :– यः =ए, कपीन्द्रः = वानर राजगु सुग्रीवुँडु, :- तव =नीकु, दासः= दासुँडु, सखा, च—मित्रुँडुनु, समभवत् =आयॆनो !, तत्, विद्विषम् = आ सुग्रीवुनकु शत्रुवगु, कपिम्=कोतिनि (वालिनि) अमर्ष वशात्—कोप पारवश्यमुवलन, जिघांसुः = चम्पँ दलँचिनवाँडवै, त्वम् = नीवु, त्वत्, स्नेह, विक्लब, धियम् = नी स्नेहमु चेत विवश मगुबुद्धि गल, तम्- आ, इमम् ई, कवीन्द्रम् =
अतिमानुष स्तवमु 89 वान रेन्द्रुँ डगु सुग्रीवुनि, सपदि= वॆण्टने, विस्रम्भयन्- विश्वसिम्पँ जेयुचु, सालगिरीन् = चॆट्लनु, कॊण्डनु, अविध्यः= कॊट्टितिरि. अनँगा भेदिञ्चितिवि. , हः विशेषमुलु :- त्वत् स्नेहविक्ल बधियम्- ‘अतिस्नेह पापश की ’ अनुलोको क्तिनिबट्टि सुग्रीवुनकु नीयॆडल भक्ति मॆण्डु गनुक बलाढ्युँ डगु वालिवलन देवरवारि केमैन नपायमु कलुगु नेमो! यनि प्रेमान्ध बुद्धि यगुवानिनि. ता॥ ओ वैकुण्ठपती ! नीवु रामुँडवुगा नवतरिञ्चिनप्पुडु एवान रेन्द्रुँडु देवरवारिकि दासुँडु सखुँडु नायॆनो यायी सुग्रीवुनि नीयन्दलि भ क्ति चेतँ ब्रेमान्धबुद्धि यगु वानिनि वॆण्टने नम्मिम्पँ जेसि स्वस्थमानसुनि जेयुटकुँ दामु सप्तसालमुलनु पर्वतमुनु भेदिञ्चितिरि. इदि तमकु सुग्रीवुनिपट्लँ गल सौशील्यमुने तॆल्पुचुन्नदि. गी॥ दासुँडु सखुण्डु नेकपि तमकु वानि शत्रुवौ वानरुनि गिन्कँ जम्पँ दलँचिकि नीदु नॆय्यनँ गलँतँ जॆन्दिन पीन्द्रु दिगुलु चनँ दरु गिरुल भेदिञ्चि तीश ! श्लो॥ यद्वा मृगं मृगयुव न्मृगयापथेन च्छन्नो जघन्ध न तु शत्रुव दाभिमुख्यात् ! ई द्युक्त मेव तव राघववंशजस्य क्त तिर्यक्षु नैव हि विपक्षत योपचारः ॥ 21 40 अतिमानुष स्तवमु
प्रति :- मृगयुवत् -बोय नलॆ, मृगम् = शाखा मृग मगु वालिनि, मृग मापथेन = वेँट बाटचे, छन्नः, वा = दागिनवाँडवे ययि, जघन्थ = चम्पिति वँट, शत्रुवत् = शत्रुवुवलॆ, अभिमुख्यात् ऎदुगुगा नुण्डि, न जघन्थ, इति. यत् == चम्प वनुट येदिगलदो, तत् = अदि, राघववंशजस्य=रघुकुलीनुल कुलमुन नवतरिञ्चिन, तव= देवरवारिकि, युक्तं एव =न्यायमे, हि ऎन्दु कनँगा, तिर्यमु=तिर्यग्दन्तुनलन्दु, विपक्षतया= शत्रुत्व. मुतो, उपचारः == सत्कारमु, न+एव = नैव लेनेलेदु. विशेषमुलु :- यद्वा- पक्षान्तरमुन - लेदा- यत्, वा, अनि रॆण्डु पदमुलुगा विभजिञ्चुकॊन वच्चुनु, ‘वा’ अवधारणार्थकमु. रॆण्डु पदमुलुगा विभजिञ्चिये यिचट अर्थमु व्रायँ बडिनदि. श्रीरामुँडु वालिनि चॆट्टुचाटुन नुण्डि चम्पॆननु ना क्षेपमुन की शोकमुन समाधानमु चॆप्पँ बडिनदि. ‘त द्युक्त मेव तव राघववंशजस्य । तिर्यमु नैव हि विपक्षत योपचारः’ असदृशपराक्रमशालुलुनु सार्वभौमुलु नगु रघु वंशपु राजुलु तिर्यग्दन्तुवुलतो नभिमुखमुगाँ बोरुट गौरनमु गादु. तुल्यबलप्रतिपत्ति युन्नप्पुडे वारिकिअतिमानुष स्तवमु 41 वारॆदुट निलिचि पोरुदु रनि भावमु. कनुक श्रीरामुँडु मृगमगु वालिनि चॆट्टुचाटुनँ बॊञ्चियुण्डि चम्पुट युचित मनिये कवियाशयमु. ता॥ बोयवाँडु मृगमुनुवलॆ वेँटमर्याद ननुस रिञ्चि शाखामृग मगु वालिनि नीवु चॆट्टु चाटुन नुण्डि चम्पिति वँट, शत्रुवुवलॆ नभिमुखमुगा नुण्डि चम्प ले चँट. इदि रघुकुलीनुलवंशमुनँ बुट्टिन देवर वारिकि युक्तमे. एल यन? सार्वभौमुलुनु महाबलशालुलु नगु रघुवंशपु राजुलकु तिर्यग्दन्तुवुलपै विपक्षत्वबुद्धि यॆट्लु गल्गुनु? वारु तुल्यबलुलगु वारिने विपक्षुलुगा गौरविन्तुरु. उ॥ बोय मृगम्बुँ बो लॆँ गपि पुङ्गवु वालिनि जॆट्टु माटुगा नायमुवीटि कम्पि तँट याजि नॆदुर्कॊन वण्ट शत्रुस, ट्लीयदि युक्त मे रघु म हीशुलवंश मलङ्करिञ्चु नी केयॆड नेन् विपक्षुलुग नॆन्तुरॆ वारलु तिर्यगादुलन्. अवतारिक :- तरुवात सेतुनिर्माणरूप मगु मानुष कार्यमु ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. 6 नति 42 अतिमानुष _स्तवमु 8 1 श्लो॥ मानुष्यकं चरित माचरितुं प्रवृत्तो देवातिगं चरित मङ्ग कि मङ्ग्य कार्षी! य त्सागरे बत बबन्धिध नाथ ! सेतुं शैलै : प्लवङ्गम समिङ्गित सम्प्रणुन्नैः ॥
22 प्रति :- अङ्ग, नाथ ! ! ओ स्वामी! मानुष्यकम्= ! मनुष्यसम्बन्धि यगु, चरितम् चरित्रनु, आ चरितुम् आचरिञ्चुटकु, प्रवृत्तः = प्रवर्तिञ्चिन, (त्वम् = नीवु), देवातिगम् देवतलनतिशयिञ्चिन, चरितम् चरित्रमुनु, : किम् = अङ्गीकरिञ्चिति वेल? यत् = ऎन्दु कनँगा, अङ्ग्य कार्षी ः प्लवङ्गम, समिङ्गित, सम्प्रणुन्नैः = वानरुल चेतँ देँबडि विसरिवेयँ बडिन, शैलैः = कॊण्डलचेत, साग रे - समु द्रमुनन्दु, सेतुम् = वारधिनि, बबन्धिध = बन्धिञ्चितिवि. बत ! आश्चर्यमु. विशेषमुलु :- ‘कि मङ्ग्य कार्षीः’ अनुचोट कॊन्नि प्रतु लन्दु ‘कि म स्यकार्षीः’ अनु पाठमुगलदु. अप्पुडु- कि मपि= नीवनुकॊन्न दानिकण्टॆ वेऱुगा नेदो मऱियॊक दानिनि, अकार्षीः = चेसितिवि. अनि यर्थमु. बत- मनु ष्युँडुगा मॆलँग वलयु ननुकॊन्न नीवु देवतलकुँ गूड शक्यमुगानि सेतुवुनु निर्मिञ्चुट आश्चर्यावह मनि भावमु.
ता॥ ओ श्रीरामा! नीवु मनुष्युनिवलॆ मॆलँगँ दलँचि यमानुष मगु चर्य नॊनर्चिति वेमि? देवतलु सैत मिट्टि कार्यमु नॊनर्पँ गलरा? कोँतुलु कॊनिवच्चि विसरि अतिमानुष स्तवमु 43 वैचिन कॊण्डलतो समुद्रमुनकु सेतुवु नॊनर्चितिवि. इदि सामान्य कार्यमा? गी॥ अवनि मानुषमुं जूप नवतरिञ्चि और ! यति देवमहिमतो नलरिनावु ! कपिवरानीत शैल सङ्घमुल चेतँ ! गडलि कॆव्वारु सेतुवुँ गट्टँ गलरु ? अवतारिक :- पूर्वो क्तमगु नर्थमुने मार्चि चॆप्पु चुन्नारु. ॥ यो विक्र मेण मनुजत्वविभूषणेन देवं वरं वरुणराज मज ! व्यजेष्ठाः ! कृत्वोपदां दशरथं विधिमुद्रमुख्य देवैः स्तुत श्च सु किलेन्द्रजिता जितो ऒसि ॥ ( 23 प्रति := हेअज ! =जन्मरहितुँड वगु ओ वैकुण्ठनाथा ! तदवतार मगु ओ श्री रामा! मनुजत्व विभूष णेन मनुजत्वमे यलङ्कारमुगाँगल, विक्रमेण = पराक्रममु चेत, वरम् = श्रेष्ठुँ डगु, देवम् = देवुँडैन, वरुण राजम् = वरुण राजुनु, व्यक्तेष्ठः = जयिञ्चितिवि, दशरथम् =दशरथमहाराजुनु, उपदाम्=कानुकनुगा, कृत्वा = चेसिकॊनि, विधि रुद्रमुख्यैः ब्रह्मयु रुद्रुँडुनु मॊदलुगाँगल, देवैः = देवतलचे, स्तुतः च = स्तुतिम्पँ बडितिविकूड, सःकिल=अतँडवेयगु (त्वम् = नीवु) इन्द्र जिता = इन्द्रजित्तुचेत जितः = जयिम्पँ बडिनवाँडवु, असि = अगु चुन्नावु. 44 अतिमानुष स्तवमु वि शेषमुलु :- यो विक्र मेण मनुजत्वविभूषणेन- विक्र ममुलकु मनुजत्वविभूषणत्व मनँगा - समुद्रं राघवो राजा शरणं गन्तु मर्हति’ अनि चॆप्पिनट्लु समुद्रुनि शरणागतिपूर्वकमुगा जयिञ्चुट. कृत्वोपदां दशरथम्- दशरथप्रदानमु रामुनिँ ब्रसन्नुनिँ जेसिकॊनुटकुँ गान उपदगा वर्णिम्पँ बडिनदि. विधिरुद्रमुख्यै देवैः स्तुत श्च - ‘सीता लक्ष्मी र्भवान् विष्णुः’ ईविधमुगा ननि भावमु, सकिलेन्द्रजिता जितो 2 सि- समुद्राधि देवत यगु वरुण राजुनु सैतमु जयिञ्चि ब्रह्मरुद्रादुलचे दशरथप्रदान पूर्वकमुगा विष्णुवुगा स्तुतिम्पँबडिन देवरवारिकि इन्द्रजित्तु वलन नोटमि मानवभौननानुगुण मनि ग्रहिम्पवलॆनु. ता॥ ओ रामा ! मानवत्वमे यलङ्कारमुगाँ गल विक्रममु चेत देव श्रेष्ठुँ डगु वरुण राजुनु जयिञ्चितिनि. दशरथदर्शनमुनु कानुकगा समर्पिञ्चि ब्रह्मादुल चेत श्रीमहाविष्णुवुगा स्तुतिम्पँ बडितिवि. अट्टि महामहिमो पेतुँड वगुना नीवे यिन्द्रजित्तुन कोडिति वेल? च॥ नरजननै कभूषण म नं दगुनट्टिपराक्रमम्बु चे दरिचिति वम्बुधिन् दशर थक्षितिपालुँडु कान्न काँग ना सरसिजसम्भवप्रभृति सन्नुतिँ गाञ्चिति वट्टिनी वहो ! अतिमानुष स्तवमु दुरमुन निन्द्रजित्तुन कॆ दुर्कॊनँ जाल व देमि राघवा ! 45 अवतारिक :- मनुष्यभावनयन्दु सैतमु परत्वा विष्कारमुनु मार्गान्तरमुग नुडुवु चुन्नारु. 3 ॥ अबिं न तेरिध न जिग्यथ राक्षसेन्द्रं नैवास्य जिज्ञाथ यदा न बलाबलं त्वम् । निस्संशय स्सपदि तस्य पदेभ्यषिञ्च स्तस्यानुजं कथ मिदं हि विभीषणं च 24 प्रति :- यदा = ऎप्पुडु, अब्धिम् = समुद्रमुनु, न तेरिध दाँट लेदो, राक्ष सेन्द्रम् = राक्षस राजगु रावणुनि, न, जिग्यथ = जयिञ्च लेदो, अस्य = ई रावणुनि यॊक्क, बलाबलं, च = बलाबलमुनु गूड, न जिजि. जिज्ञ थ = तॆलियवो, (तदा=अप्पुडे) त्वम्= नीवु, निस्संशयः= सन्देहमु लेनिवाँडवै, तस्य = आ रावणुनियॊक्क, अनु जम्=तम्मुँ डगु विभीषणुनि, तस्य = आ रावणुनियॊक्क, तस्य=आ प दे = स्थानमुनन्दु, सपदि = वॆण्टने, अभ्यषिञ्चः पट्टाभिषेक मॊनर्चितिवि, हि= प्रसिद्धमु, इदम्= इदि, कथम्=ऎट्लु ? पदे 9000 विशेषमुलु :- कथ मिदम्- समुद्रमुनु दाँट लेदु, राक्ष सेन्द्रुनिबलाबलमुलँ दॆलिय लेदु, रावणुनि जयिम्प ‘लेदु, अन्तकुमुन्दे रावणुनि सोदरुँ डगु विभीषणुनि राक्ष सेन्द्रुनिगा रावणुनि स्थानमुलोँ बट्टाभिषेक मॊन 46 अतिमानुष _स्तवमु र्चुट देवरवारि सत्यसङ्कल्पत्वाविष्कारपूर्वकमुगाँ बरत्वमुनु जाटुचुने युन्नदि. P ता॥ ओ श्रीरामा ! नीवु समुद्रमु नैननु दाँट लेदु, राक्ष सेन्द्रुनि बलाबलमुल नैननु दॆलियलेदु, रावणुनि जयिम्पनैननु लेदु, अप्पुडे रावणुनि स्थानमुन अतनिसोदरुँ डगु विभीषणुनिकिँ बट्टाभिषेक मॊनर्चुट यॆट्लु पॊसँगुनु. इदि देवरवारि यमानुषत्वमुनु जाटदा? उ॥ वारिधि दाँट वय्यसुरु वल्लभु गॆल्ववु तद्बलाबलं बारय वॊक्क यिञ्चुक यु नप्पुडॆ तत्पदमन्दु निर्मला चारु नुदारुनिक् ददनु जन्मु विभीषणु संशयिम्प को श्रीरघुराम ! यॆट्टु लभि षि. क्तुनि जेसिति वय्य ! तॆल्पुमा. अवतारिक :- समुद्रुनिपै ँ ब्रयोगिम्पँ बडिन बाणमु चेत नत्यन्तदूरमुन नुन्न तद्वीपमुल वसिञ्चु दस्युलँ दुनुमाडिन भगवानुनि यतिमानुषशीलविशेषमु ननुभ विञ्चुचुँ जॆप्पु चुन्नारु. श्लो॥ त्वं दक्षिणस्य निवस न्नुदधी पे2पि दूरान्तरो त्तरपयोधिमहान्तरी पे । दैत्याक् निजैकशरपारणय कि मेतां लङ्कां स्थितो ऒत्र कुरुषे किल न स्म भस्म त 25 अतिमानुष स्तवमु 47 प्रति :- दक्षिणस्य, उद धेः = दक्षिणसमुद्रमुयॊक्क तपे=ऒड्डुन, निवसन्, अपि=निवसिञ्चुचुँ गूड, दूर-अन्त ऎक्कुव यॆडमु गल, उत्तर रीपे दूर, अन्तर उत्तरदिक्कु नन्दलि, पयोधि = समुद्रमुयॊक्क, महत् = गॊप्प, अन्तरी पे
राक्षसु द्वीपमुनन्दलि, दैत्यान् लनु, निज, एकशर, पारणयन् –स्वकीय मगु ऒके बाणमु नकु उपवासानन्तरभोजनमुगाँ जेयुचुन्न (गुऱिचेयु चुन्न) त्वम् = नीवु, अत्र= इच्चट, स्थितः = उन्नवाँड नगुचु, लङ्काम् = लङ्कापुरिनि, भस्म = बूडिदनुगा, न, कुरु षे, स्म, किल, किम् चेय वेमि ? वि शेषमुलु :- ‘लङ्कां सितो ऒत्र कुरु पे कील नस्मभस्म - श्रीरामा ! नीवु दक्षिणसमुद्रतीरमुन नुण्डि चाल दव्वुन नुन्न युत्तर सागरद्वीपमुलोनि बलाड्यु लगु ननेक राक्ष सुल नॊक बाणमुन कॆर चेसितिवे, यट्ले दग्गऱलो नुन्न लङ्क निच्चट नुण्डिये येल भस्ममु चेयलेदनि भावमु. ता॥ ओ रामा ! नीवु दक्षिण समुद्रतीरमुन निवसिञ्चुचुँ दव्वुगा नुन्न युत्तरसमुद्रद्वीपमुलो वसिञ्चु चुन्न दैत्युल नॊक बाणमुन के यॆर चेसिन महावीरुँडवु गदा ! दक्षिणसमुद्रतटमुन नुन्न नीकुँ गडु दग्गऱलो नुन्न लङ्क नेटिकि निच्चट नुण्डिये भस्ममु चेय लेदु. जाल मः अर रे ! दक्षिणवारितीरमुन नी ф वट्लुण्डि दूरान्तरो 48 अतिमानुष स्तवमु त्तरवाराशिमहान्तरीपमुन दॆ त्यश्रेणि नॊक्कम्मुचेँ बरलोकम्बुनु जेर्पवे यटुलॆ दे वा ! यिन्दुने युण्डि नी ! शरतीवार्चुल लङ्क नेमिटिकि भ स्मं बीवु गाविम्पवो, अवतारिक :- समुद्रमथन कालिकं बगु नाश्चर्यमुनु सैतमु प्रसङ्गवशमुन नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ एतत् कथं कथय? न्मथितस्त्वयासौ हित्वा स्वभावनियमं प्रथितं त्रिलोक्याम् । अश्वाप्सरोविष सुधाविधुपारिजात लक्ष्म्यात्मना परिणतो जलधि र्बभूव ॥ प्रति :- त्वया = देवर वारिचे, मथितः 26 चिलुक ँबडिन,
असौ=ई, जलधिः = समुद्रमु, त्रिलो क्याम् = मूँडु लोक मुलन्दुनु, प्रथितम्=प्रसिद्धि कॆक्किन, स्वभावनियमम् =सहजमगु मार्पुनु, हित्वा = विडिचिपॆट्टि, अश्व…… लक्ष्म्यात्मना, अश्व = गुऱ्ऱमुयॊक्क (उच्चैश्रवमु यॊक्क) अप्सरः = अप्सर कान्तल यॊक्क, विष = विषमु यॊक्क, सुधा= अमृतमुयॊक्क, विधु=चन्द्रुनियॊक्क, पारिजात - पारिजातवृक्षमुयॊक्क, लक्ष्मी लक्ष्मी देवि यॊक्क, आत्मना = स्वरूपमुतो, परिणतः = माऱिपोयिनदि इति यत् = अनुट येदिगलदो, एतत् माऱुट) कथम्=ऎट्लु? कथय = चॆप्पुमु. इदि (इट्लु अतिमानुष स्तवमु 49 पालु विशेषमुलु :- हित्वा स्वभाव नियमम्—— पॆरुगुगा माऱुनु, वॆन्न नेयिगा माऱुनु. इदि यी विधमुगा माऱु नन्नलोक प्रसिद्ध मगु मार्पुनु विडिचि पॆट्टि यनि भावमु, एतत् कथं कथय - नीचेत मधिम्पँ बडिन समुद्रमु लोक प्रसिद्धमगु मार्पुनु जॆन्दक अश्वापुरः कान्तादिरूपमगु परिणाममुनु जॆन्दुट श्रीवरवारि यघटितघटना पटीय स्त्वमुनु जाटुचुन्नदा लेदा तामे चॆप्पवलॆ ननुट. ता॥ ओ रामचन्द्रा ! नीवु नाँडु श्री राब्धिनि जिल्कँगा नदि लोक प्रसिद्धमगु सहजमैन मार्पुनु वीडि युच्चैश्र वमुगानु अप्सर कान्तलुगानु विषमुगानु अमृतमु गानु चन्द्रुँडुगानु पारिजातमुगानु श्रीमहालक्ष्मि गानु माऱिपोयिनदि. इट्लु माऱुटकु हेतुवु माकु गोचरिम्प कुन्नदि. इट्लगुटकुँ गारणमेमो नीवे चॆप्पुमु. इदि नी यमानुष चर्यनु दॆलुपु चुन्नदनि भावमु. म॥ इदि येमो वचियिम्पु रामनृपती! यी वम्बुधिन् जिल्कँगा नदि स्वाभाविक मैनमार्पु विडि य त्याश्चर्य मुच्चैश्रव (7) 50 अतिमानुष स्तवमु स्त्री दशस्त्रैण, सुधा, हलाहलसुरो र्वीजात पद्मालया मदि राश्री तुहिनांशु रूपपरिणा मं बन्दि यॆप्पारुटल् • अवतारिक :- अन्तुलेनि यपराधमु लोनर्चिन विरोधु लपै : सैत मड्डु लेकुण्डँ ब्रसरिञ्चुचुन्न श्रीवारि करुण ननुभविञ्चुचु नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ य त्तादृशागस मरिं रघुवीर! वीक्ष्य विश्राम्यता मिति मुमोचिध मुद्द माज् । ऒयं गुणः कतरकोटिगतः क्रिया न्वा कस्य स्तुतेः पद महो !वद कस्य भूमिः॥ 27 प्रति : – हे रघुवीर! = ओ रामा!, तादृश + आगसम्= अट्टि यपराधमु गलट्टियु, युद्धमुनन्दु, मुग्धम् मूर्छनु बॊन्दिनट्टियु, अरिम् शत्रुवगु, रावणुनि, वीक्ष्य—चूचि, विश्राम्यताम् = विश्रमिम्पँ बड वलयुनु, इति—अनि, मुमोचिथ — विडिचि पॆट्टितिवि, इति यत् —अनुट येदिगलदो, अयम् -ई, गुणः= गुणमु, कः=एदि, (दीनिकिँ बेरेमि) कतर, कोटिगतः - एकोटिकिँ जॆन्दि नदि? कियान् वा=ऎन्तपरिमाणमु गलदि? कस्य : ऎवनि यॊक्क, स्तुतेः=स्तोत्रमुनकु, पदम् आस्पदमु, कन्य= ऎवनिकि, भूमिः= अन्दुँ बाटुलोनिदि? अहो! वद= चॆप्पुमु. औरा!अतिमानुष स्तवमु 51 विशेषमुलु– तादृशागसम् इय त्तनु (हद्दुनु) मिञ्चिन नेर मॊनर्चिन.. भार्यापहरणमु निरवधिकमुनु दुस्सहमु नगु नपराधमु, दानिनि जेसिनवाँ डनि भावमु, विश्राम्यता मिति मुमोचिथ अट्टिशत्रुवु रणमुलो बडलि चेतँजिक्किनपुँडु चम्पक अलसटँ दीर्चुकॊनि रम्मनि सॆल विच्चितिवि. इदि स्वामिवारि यनन्य साधारणमगु दयागुणमु श्रीमद्रामायणमु, ‘गच्छानु जानामि रणार्धित स्त्वं प्रविश्य रात्रिं चरराज! लङ्काम्! आश्वास्य निर्याहि शतरकोटिगतः- गुणमुलु रॆण्डुविधमुलु, आश्रयण सौक र्या पादकमुलु उदा- सौशील्यमु, सौलभ्यमु, ‘मॊद लगुनवि. 2 आश्रित कार्यापादकमुलु. उदा- ज्ञानशक्त्या दुलु, अन्दुलो श्रीवारु रावणुनिपैँ जूपिन यी कृपा गुणमु एकोटिकिँ जॆन्दिनदि यनि प्रश्नकु अभिप्रायमु. इच्चट कोटिशब्दमु ‘तॆग’ अनु नर्थमुनु दॆलुपुनु. लेदा ‘अञ्चु’ अनि येनियुँ जॆप्पुकॊनवच्चुनु. वद- दय परदुःखासहिष्णुवे यैननु अन्तटि महापराधुलयन्दु दानिकिँ ब्रवृत्ति युण्डने युण्डदु. अट्लु प्रवर्तिञ्चिन देवरवारि यी दयागुणमुनकु स्वरूप स्वभावपरिमाण निर्णयस्तुति साक्षात्कारमुलु सम्भविम्पवनि भावमु, 52 अतिमानुष _स्तवमु ता॥ रघुवीरुँड वगु ओ रामचन्द्रा ! हद्दु मी तिन यपराध मॊनर्चिन वैरियगु रावणुँ डलसि चेँ जिक्कि नप्पु डतनि यश क्ततनु जूचि विश्रान्तिँ दीसिकॊनि रम्मनि विडिचि पॆट्टिति वँट! ई गुणमुनकुँ बे रेमि ? इदि येकोटिकिँ जॆन्दिनदि. दीनि परिमाण मॆन्त? दीनि नॆवँडु स्तुतिम्पँ जालुनु, इदि यॆवनि कन्दु बाटुलोनिदि- स्वामि! चॆप्पुमु. आश्चर्यमुनु गलिगिञ्चुचुन्नदि. उ॥ ऎन्तमहापराधि यरि यॆन्तयु डस्सिन नालमन्दु वि श्रान्तिनि जॆन्दि रम्मनि प्र सन्नतँ बल्किति वण्ट, मेलु मे लॆन्त दयामयुण्डवय! यीगुणनाम म देमि ? दीनि के मन्त, मॆवण्डु दीनि सह हा! नुतियिञ्चुनु जॆप्पु राघवा! अवतारिक :- रावणुनि रूपुमापँ जालिन भुजबलमु गल रामभद्रुन किन्द्र जिन्नागास्त्र बन्धनमुवलन मूर्छ यॆट्लु सङ्घटिल्लुननि शङ्किञ्चुकॊनि समाधान मिच्चु चुन्नारु, श्लो॥ य लक्ष्मण स्वदनुजो रिपुश क्तिमुग्धः शत्रो र्दुकु र्हिनुमत स्तु लघु र्बभूवु एतेन वै नुविदितो ऒभव दिन्द्रशतो र्मायास्त्र बन्धन निबन्धनजो विमोहः॥ 28 अतिमानुष स्तवमु
53 शत्रुवुयॊक्क शक्त्या
प्रति :- रिपु, शक्ति, मुग्धः युधमुचेत मूर्छ चॆन्दिन, त्वत्, अनुजः नीतम्मुँ डगु, लक्ष्मणः=लक्ष्मणुँडु, शत्रोः= शत्रुवुनकु, गुरुः= बरु वैनवाँडुनु, हनुमतः, तु = हनुमन्तुन कन्ननो, लघुः= तेलिक यैन वाँडुनु, बभूव = आयॆनु, इति यत् इ ट्लगुट येदि कलदो, ए तेन = दीनिचेत, (ईपनिचेत) इन्द्र शत्रोः = इन्द्रजित्तुयॊक्क, माया, अस्त्र बन्धन, निबन्धन, जः=माया स्त्रबन्धन मनॆडु कारणमुवलनँ बुट्टिन, विमोहः=मूर्छ, सुविदितः = बागुगाँ दॆलियँ बडिनदि, अभवत् =आयॆनु, वै = प्रसिद्धमु.
वि शेषमुलु :- शत्रो रुरु र्तनुमत स्तु लघु र्बभूव - इन्द्रजित्तु श क्ति प्रहारमुचेत मूर्छितुँडैन लक्ष्मणस्वामि शत्रुवुनकु दुरुद्धरुँडुनु हनुमन्तुनकुँ बुष्पमाल वलॆँ देलिक यैनवाँडुग नुण्डॆ ननुटकुँ ब्रमाणमु. ‘हिमवास् मन्दरो मेरुः त्रैलोक्यं वा सहामरै : शक्यं भुजाभ्या मुद्धर्तुं न सङ्ख्ये भरतार्जुनः शत्रूणा मप्रकम्प्यो६पि लघुत्व मगमत् पेः’ मद्रामायणमु—युद्ध काण्ड. (मेरुमन्दर हिमवत्पर्वतमुल नैननु वेल्पुलतो सह मूँडुलोकमुल नैननु भुजमुलतो नॆत्त शक्यमु कावच्चुनु गानि युद्धमुन लक्ष्मणुनि ऎत्त शक्यमु गादु. 54 अतिमानुष स्तवमु इट्लु लक्ष्मणुँडु शत्रुवुलकुँ गदलिम्प शक्यमु गानि वाँ डै ननु हनुमन्तुनकुँ गडु तेलिकगा नुण्डॆनु) 호 प्रसिद्धमु—— शत्रुशक्ति मूर्छितुँडगु लक्ष्मण स्वामिये वैरिकि दुरुद्धरुँडु काँगा इन्द्रजन्माया. बन्धनमु देवा ! नीकॊक लॆक्क या ? बद्दुँडु वोलॆ नीवु कॊन वच्चुट मानवत्वनटनमे कानि वेऱु कादु. ता॥ ओरामा! वैरिशक्त्यायुधमूर्छितुँडगु नीतम्मुँ डैन लक्ष्मणुँडु शत्रुवुनकु दुर्भरुँडुनु हनुमन्तुनकु तेलिक वाँडु नगुट चेतने यिन्द्रजित्तुमाया स्त्रजनित मैन मूर्छ मानवभावनतो नीवु नटिञ्चिन दे यनि चॆप्पक चॆप्पु चुन्नदि. उ. नीयनुजुण्डु लक्ष्मणुँ ड नीदृशुँ डय्यरिश क्ति मुग्धुँडै मोयँग दुश्शकुं डरिकिँ बू वटु मारुति कल्कनायॆँ बो ! ईयदि मर्त्यतानटन मे यनि तावक मिन्द्र जेतय म्मायपुट_स्त्रबन्धमुन मैमऱपुन् दॆलुपुन् रघूद्वहा! अवतारिक :- इप्पुडु चराचरमुक्ति प्रदान वै चित्रमु ननुभविञ्चुचु नप्पुडु तनकु निश्रेयसमु लभिम्पमिकि वगचु चुन्नारु. अतिमानुष स्तवमु श्लो!! हा हन्त हन्त! भवत श्चरणारविन्द द्वन्द्वं कदा नु भविता विषयो ममाः योऒहं निरर्गळ विनिर्गलदन्ध का रै र्वृमै स्तृणै श्च सुलभं समयं व्यतीतः ॥ 55 29 प्रति :- यः = ए, अहम् = नेनु, निरर्देळ, विनिर्गलत्, अन्धकारै 8=अड्डु लेकुण्ड वॆळ्ळिपोवुचुन्न यज्ञानमुगल, वृतैः= चॆट्ल चेतनु, तृणैः= गड्डिपऱकलचेतनु, सुलभम्- सुखमुगाँ बॊन्दँ दगिन, समयम्=कालमुनु, व्यतीतः अतिक्रमिञ्चितिनो, (तस्य=अटुवण्टि) मम = नायॊक्क, अक्टोः=कन्नुलकु, भवतः - देवर वारियॊक्क, चरणारविन्द, द्वन्द्वम् = पादपद्ममुलजण्ट, कदा,नु=ऎप्पुडु, विषयः लक्ष्यमु, भविता = काँगलदु? ऎन्नँटिकि श्रीवारि पादपद्मदर्शनमु नाकु घटिल्लदु अनि भावमु, हा हन्त, हन्त=अय्यय्यो ! विचार मगुचुन्नदि. विशेषमुलु– निरर्गळ विनिर्गळ दन्धकारैः दन्धकारैः वृक्षेः तृणैश्च – वृक्षत्व, तृणत्व, प्रयुक्ताज्ञत्व शून्यमुलगु वृक्षमुल चेत, तृणमुल चेत, समयं+व्यतीतः – कालमु नतिक्रमिञ्चितिनि. अनँगा- अप्पटि वृक्षतृणमु लन्दु ऒकटिगाँ बुट्टक पोतिननि मनस्सुलोनि यार्ति. हाहन्तहन्त ई यव्ययसमुदायमु शोकालि शयमुनु दॆलुपुचुन्नदि. भूरिसं भाव समयमुलोने 56 अतिमानुष _स्तवमु धनमुनकु नोचुकॊननिवानिकिँ बरीक्षिञ्चि यिच्चु दानमुन नाश ये मुण्डुनु अनि भावमु. ता॥ ओ श्रीरामा ! अड्डु लेकुण्ड नज्ञानान्धकारमुनुण्डि विडुदलँ गाञ्चिन तृणवृक्षमुलकु सैत मन्दुँ बाटुलो नुन्न याकालमुनँ बुट्टक पोयितिनि. इङ्क नेनु देवर पादपद्ममुलजण्ट वारि अय्यय्यो! यॆन्त विचारमु, न चूडँ गलनु, गिII अय्यो! राघव! त्वच्चरणाब्दयुग ळिँ गाञ्चुभाग्यम्बु ना कॆफ्टु गलुगु नॊक्कॊ! मिञ्चिपोयॆनु दैववञ्चितुण्डँ ! दरुतृणम्बुलतोँ बाटु तरुण मद्दि. सम्भ अवतारिक :- मुक्ति कुपायमुलु भ क्ति प्रवत्तुलु, अवि लेनिवृक्षमुलकु सैतमु मोक्षमु नॊसँगुट मॆट्लु. विञ्चु ननि शङ्किञ्चुकॊनि समाधानमुनु जॆप्पुचुन्नारु. श्लो ॥ वंशं रघा रनुजिमृडु रिहावतीणो दिव्यै र्ववर्षिद तथात्र भवद्गुणाभैः । त्वत्सन्निधि प्रभव शैत्यजुषो यथाहि वृक्षा श्च शान्ति मलभन्त भवद्वियो गे॥॥ 30 प्रति– रघोः=रघुमहाराजुयॊक्क, वंशम् = वंश मुनु, अनुजिघृतुः
अनुग्रहिम्पँ दलँचिनवाँडवै, इह=इच्चट, अवतीर्णः=अवतरिञ्चिन (त्वम्=सीवु) त्वत्, सन्निधि प्रभव, शैत्य, जुषः = नीसन्निधानमुचेँ बॊडमिन चलुवनु अतिमानुष स्तवमु 57 बॊन्दिन, वृक्षाः, च= चॆट्लु सैतमु, भवत्, वियोगे नी यॆडँबाटु नन्दु, यथा एरीतिगा तान्तिम्= वाड/टनु, अलभन्त-पॊन्दिनवो, तथा आ रीतिगा, अत्र = ई भूलोकमुन, दिव्यैः = अप्राकृतमु लगु, भवत्, गुण, ओघैः = देवरवारि कल्याणगुणसमू हमुलचेत, ववर्षिथ= वर्षिञ्चितिवि विशेषमुलु– वंशं रघा रनुजिमृतुः - श्रीरामुँ डीलोकमुन नवतरिञ्चुट रघुवंशानुग्रहार्थ मनि भावमु. वृ. श्च - श्रीवारि यॆडँ बाटु नॆऱुङ्गनि वैननु - अनि ‘च’ शब्दमुन कर्थमु, लेदा- सलिलमात्रधारकमु लैनप्पटिकी अनि यैननु जॆप्पिकॊन वच्चुनु. ई श्लोकमुनन्दु श्री रामविरहमुवलनि ग्लानिचेत वृक्ष मुलन्दुँ बरमभक्ति सूचित मगुचुन्नदि. परमभक्ति यनँगा ‘पुनर्वि श्लेष भीरुत्वं परमा भक्ति रुच्यते’ अट्टि परमभ क्तिरूप मोतो पायमु वृक्षमुलन्दुँ गन्प ट्टुट चेत श्रीरामुँडु वानिकि मोक्षमुनु ब्रसादिञ्चिनाँ डनि साम्प्रदायि कुलयाशयमु, ता॥ श्रीरामचन्द्रप्रभू! रघुवंशमु ननुग्रहीम्प नीलोकमुन नवतरिञ्चिन नीवु नी सन्निधिवलनँ बॊडमिन चलु वतो वर्धिल्लिन वृक्षमुलु नी यॆडँबाटु समयमुन नॆट्लु (8) 58 अतिमानुष _स्तवमु वाडिपोवुनो यट्लुगा भवदीयमुलगु अप्राकृत कल्याण गुणगणमुलु वर्षिञ्चितिवि. गी! इनकुल मनुग्रहिम्प नी विन्दुँ बुट्टि नीगणेघम्बु वर्षिञ्चि नॆगडिनावु । दान ने चॆट्लु नीसन्नि छानमहीमँ बण्डॆ, नीविरहम्बुचे नॆण्डॆ, राम! अवतारिक :- ‘देशोऒयं सर्वकामधुक्’ (ई देशमु सर्वकाममुलनु बितुकुनदि) ‘ते वयं भवता रष्या भव द्विषयवासिनः’ (देवरवारि देश वासुलमु गान मेमु श्रीवारिकि रक्षणीयुलमु) अन्नट्लु भगवद्भाग व ताभिमत देश वासमुगूडँ ब्रपत्तिलोँ जेरि साधन मगुट चेत अट्टि मोक्ष साधनमु तृणादुल कुन्नदनि नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ ये धर्म चरितु मभ्यसितुं च योगं बोद्धुं च किञ्चन न जात्वधिकार भाजःः तेपि त्वदाचरितभूतलबन्ध गन्धात् बन्धातिगाः परगतिं गमिता सृणाद्याः ॥ 31 प्रति– ये -वजीवुलु, धर्मम् धर्ममुनु, (कर्मयोग मुनु) आचरितुम् = अनुष्ठान मॊनर्चुटकुनु, किञ्चन = कॊञ्चॆमैननु, बोद्धुं च = तॆलिसिकॊनुटकुनु, (ज्ञान योगमु ननुष्ठिञ्चुटकुनु) योगं=ध्यानमुनु, अभ्य सितुं च अलवाटु चेयुटकुनु (भक्तियोगमु ननुष्ठिं
चुटकुनु) जातु = ऒकप्पुडैननु, अधिकार भाजः == अधिकार अतिमानुष स्तवमु 59 मुनु (योग्यतनु) पॊन्दिनवि, न-कावो, तृणाद्याः तृणमु मॊदलुगाँ गल, ते अपि= आ जीवुलु कूड, त्वत्, आचरित, भूतल, बन्ध, गन्धात् =नीचे नडुवँबडिन नेलतो सम्बन्ध मनॆडु पुण्यमुवलन, बन्ध + अतिगा ः = कर्मबन्ध मुल नतिक्रमिञ्चिनवै, परगतिम्=उत्तमगतिनि (मोक्ष मुनु) गमिताः=पॊन्दिम्पँ बडिनवि. वि शेषारमुलु – बन्धातिगा ः - वि — ः अतिक्रमिम्पँ बडिन कर्म Ф बन्धमु गलवियै, परगतिं गमिताः- मु किनि नीचेँ बॊन्दिम्पँ बडरि, देशवास मनॆडु साकु पॆट्टि तृणादुलकु सैतमु मोक्षमु ननुग्रहिञ्चिति वनि भावमु. ‘उभय परिकर्मित स्वान्त स्यैकान्ति कात्यन्तिक परभक्ति योगलभ्यः’ भगव ल्लाभमु कर्मज्ञान योगमुलचेत निर्मलिनीकृत स्वान्तुन केकान्ति कात्यन्तिक भक्ति योगलभ्यमु गावुनँ दृणादुल कट्टि भ क्ति योगमु लेकपोवुट चेत देश वासमु चेत ने परम गतिप्राप्तिनि जॆप्पुट वलन देशवासमुनकुँ ब्रस त्तिमुख भेदत्वमु सिद्धमनि सम्प्रदायज्ञुल सूक्ति, ता॥ श्रीरामा ! कर्मयोगमुनुगानि, ज्ञान योगमुनु गानि, भक्ति योगमुनुगानि, कॊञ्चॆमैन ननुष्ठिञ्चुटकु योग्यत लेनि तृणादिजीवुलु नीवु सञ्चरिञ्चिन भूतलमुतो OU 3 अतिमानुष स्तवमु सम्बन्धमुन्न पुण्यमुवलनँ गर्मबन्धविमुक्तुलै नी चेँ बरमपदमुनु बॊन्दिम्पँ बडिरि. एमि नी वात्सल्यमु ! उ॥ कान वॊकिन्त येनि नधि कारमु धर्म मॊनर्प, योगमुं बूनँग ज्ञानमुन् बडय भूतलि निट्टितृणादुलन् भव न्मानित पादपङ्क जस मर्पणधन्यतमावनीभवा न्यूनवि शेष पुण्यमुन नॊन्दँगँ जेयवॆ मुक्ति राघवा! अवतारिक :- वेयि माट लेल? परमपदनाथुनिकण्टॆँ गाकुत्सुनियन्दे कल्याणगुणाधिक्यमु कल दानि सयुक्ति कमुगा नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ तादृग्गुणो ननु बभूविध राघव! त्वं य स्तावकं चरित मन्वह मव्वभुङ्क्त! स्को त्रैव हन्त हनुमान् परमां विमुक्तिं बुद्ध्यावभूय चरितं तव सेव ते सौ ॥
32 ए हनुमं प्रति :- ‘हेराघव ! = ओरामा ! यः = तुँडु, तावकम् = नीसम्बन्धि यगु, चरितम् = चरित्रनु, अन्वहम् = प्रतिदिनमु, अन्वभुङ्क्त = अनुभविं चॆनो, सः= अटुवण्टि, असौ=ई, हनुमान् – हनुमन्तुँडु, पर माम्=उत्कृष्टमगु, विमुक्तिम् = मोक्षमुनु, अवअतिमानुष स्तवमु 63 धूय=त्रोसिवैचि, अत्र+एव = ई लीलाविभूतियन्दे, तव=नीयॊक्क, चरितम्= चरित्रमुनु, बुद्ध्या = बुद्धितो (मनस्सुतो) सेव ते= सेविञ्चु चुन्नाँडु, त्वम् + नीवु, तादृग्गुणः अटुवण्टि कल्याणगुणमुलु गलवाँडवु बभूविध, ननु = ऐतिवि गदा! हन्त!=सन्तोषमु. वि शेषमुलु– तादृग्गुणः परमपद नाथुनकण्टॆ नधिक कल्याणगुणमुलु गलवाँडवु. कनुकने श्री मद्रामाय णमुन ‘बहवो दुर्लभा लोके येत्वया कीर्तिता गुणाः मुने व्य म्यहं बुद्ध्वा तैरुक्तः श्रूयतां नरः अनि श्रीरामुँ डनेक दुर्लभ गुण निलयुँडुगा वर्णिम्पँ बडॆनु. इदि मानुषत्वमुन सैतमु रामुनियॆडँ बरत्व मुनु सूचिञ्चु चुन्नदि. सो त्रैव हन्ति हनुमान् सरमां विमुक्तिं बुद्ध्या वधूय——हनुमन्तुँडु मुक्तिनि सैतमु कादनि राम चरित्रमुने यिचट ननुभविञ्चॆ ननुटकु श्रीमद्रामाय णमु, ‘स्नेहो मे परमो राजन् त्वयि नित्यं प्रतिष्ठितः भक्ति श्च नियता वीर! भावो नान्यत्र गच्छति कॊन्नि प्रतुलन्दु ’ मॊदटि पादमुचिवर ‘राघव त्वे’ अनि पाठमु कलदु. अप्पुडु राघव त्वे नीवु रामुँडवुगा नवतरिञ्चिनप्पुडनि भावमु. व्याख्यलो मात्रमु राघव! 62 अतिमानुष स्तवमु त्वम् - अनिये कन्पट्टुचुण्डुटचेत नेनु राघव! त्वम् – अनु पाठमुने ग्रहिञ्चितिनि. ता ओ सीतापती! हनुमन्तुँडु नित्यमु नी चरित्रमुने यनुभविञ्चुचुँ बरमपुरुषार्थ मगु मुक्तिनि सैतमु का यी लीलाविभूतिलो मनसार नी चरितामृतमु ने क्रोलुट चेतँ बर मपदनाथुनिकण्टॆ नीयन्दे कल्याणगुण कलदनि तेलुचुन्नदि, समृद्धि उ। नीदगु सच्चरित्रमुनु निच्चलुँ ग्रोलुचु वायुपुत्रुँ डे कादनि मुक्तिँ गिम्पुरुषु खण्डमुनन्दुन नेँटिकिन् भव त्पादग तान्तरङ्गुँ डयि पल्मरु नीचरितम्बॆ यॆञ्चु निं केदियु लेक डॆन्दमुन निट्टिगुणाढ्युँड वीवु राघवा! अवतारिक :- ‘छातूना मिव शैलेन्द्रो गुणाना माकरो महान्’ (गैरिकादिधातुवुलकु शैलेन्द्रमुवलॆ गुणमुलकुँ बॆन्निधि) अन्नट्लु काकुत्सुँडु सकलकल्याण गुणाकरुँ डैननु ‘पधार्ह मपि काकुत्थ्सः कृपया पर्य पालयत् ’ अन्नसू क्ति चेत कृपये महापराधुलकु शरण मनि यी विषयमु नुपसंहरिञ्चु चुन्नारु. अतिमानुष स्तवमु श्लो॥ य स्त्वं कृतागस मपि प्रणति प्रसक्तं तं वायसं पॆरमया दयया क्ष मिष्ठाः ! तेनैव मादृशजनस्य महाग स्कोपि युक्तं समाश्वसन मी त्युपधारयामि ॥ 63 33 प्रति :- यः=ए,त्वम्=नीवु, कृतागसम्, आपि=चेयँ बडिन नेरमु गलवाँ डैनप्पटिकी, प्रणति, प्रसक्तम् नम स्कारमुनं दुद्यु क्तुँडगु, तम्=आ, वायसम्=काका सुरुनि, परमया=निरवधिक मैन, दयया=कृपचेत, अक्ष मिस्थाः = क्षमिञ्चितिवो तेन= एव ई कारणमुचेत ने महागसोपि=महापराधि यैननु, मादृश, जनस्य= नाबोटिजनमुनकु, समाश्वसनम् = रक्षिम्पँ गलँडनु विश्वा समु, युक्तम्=योग्य मैनदि, इति=अनि, उपधार यामि=निश्चियिञ्चुकॊनु चुन्नानु. विशेषमुलु :- प्रणति प्रस क्तम्- ‘सतं निपतितं भूमा’ अनि चॆप्पुट चेत आनेलमीँदँ बडुट ने काकासुरुँडु प्रणाम मॊनर्चुटकुँ ब्रयत्निञ्चॆ ननि श्री रामु ँ डभिप्रायपडॆनु. ‘त्रीन् लोकान् सम्परिक्रम्य त मेव शरणं गतः’ अनुटचे अधिकापराध मॊनर्चॆ ननि तण्ड्रि मॊदलगु वारिचे विडुवँ बडियुँ गा कासुरुँडु श्रीरामाश्रममुनु जेरु कॊनॆनु. अन्तःपुरावराधि यगु काकासुरुने काचुट चेत माबोटि यपराधुल कूऱट गलुगु चुन्नदनि ‘युक्तं समाश्वसनम्’- अनुपदमु चाटुचुन्नदि. 64 अतिमानुष स्तवमु ता॥ ओ रामचन्द्रा ! नीवु अन्तःपुर द्रोहियगु काका सुरुँडु नेलँ पैँ बडिनन्तने नमस्कारमुन कुद्युक्तुँ डैनट्लु भाविञ्चि परमदयतो क्षमिञ्चुटँजेसि महापरा धुलमगु मम्मुँगूड नट्ले क्षमिन्तुवनि माकु विश्वासमु कलुगु चुन्नदि. उ॥ अन्तिपुरम्बुनन्दु नॆ म हापकृतिं बॊनरिञ्चि निन्नु नॊ क्किन्त नमस्करिम्प क्षमि यिञ्चिति काकमु रामचन्द्र! नी यन्तर मट्टि दौटनॆ म हाकलुषात्मुल मय्यु मेमु नी यन्तिक मेगु देरँग भ यं बॆडलिन्तु वटञ्चु नम्मुटल्. अवतारिक :- इट्लु श्री रामावता रातिमानुषच रि वैचित्र ननुभविञ्चि यिरुवदि श्लोकमुलतो श्रीकृष्णावता रातिमानुष चरित्र वैचित्र्यमुनु गूड ननुभविम्पँ दलँ चुचु मॊट्टमॊदटँ बाराडुटकु सैतमु चेतँ गानि बाल्यदशलो प्रबलपूत नाशकटयमलार्जुन भञ्जनादुल नॊनर्चिन नीवु श्रीकृष्णा! कंसभयमुवलन नन्दव्रजमुन केल चेरितिवनि प्रश्निञ्चु चुन्नारु. अतिमानुष _स्तवमु श्लो॥ सा पूतना शकट मर्जुनयो श्च युग्मं बाल्योति ते७न्यपर चेष्टित विस्फुलिङ्गे । यस्यालभन्त शलभत्व महो निगूढः स त्वं प्रजे ववृधिषे कील कम्पभीत्या ॥ 65
प्रति :–यस्य=ए, तव=नीयॊक्क, बाल्योचिते = शैश वमुनकुँ दगिनदियु, अन्य, पर, चेष्टत, विस्फुलिङ्गे=लीलानु गुणमगु व्यापाररूपमैन निप्पुरवयन्दु, सा= आ शिशु हन्त्रि यनि पेरुम्रोगिन) पूतना पूतनयु, शक टम्=(असुराविष्टमगु) बण्डियु, अर्जुन योः = मद्दि चॆट्ल यॊक्क, युग्मं, च = जण्टयु, शलभत्वम् मिडुत लगुटनु, अलभन्त=पॊन्दिनवो, सः=अटुवण्टि, त्वम् नीवु, कंसभीत्या= कंसुनि भयमुचेत, निगूढः= दाँगिन वाँडवै, व्रजे=नन्दगोकुलमुन, ववृधि षे, किल= पॆरिँगिति वँट, अहो! =आश्चर्यमु. |
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वि शेषमुलु :– अन्यपक, लीलानुगुणमे कानि हिंसावरमु कादु, चेष्टित विस्फुलिङ्गे — विस्फुलिङ्ग सादृ श्यमुवलन — पूतनाशकटार्जुनभञ्जनमु चिन्न लील लनि भावमु. अहॆू! चिन्न बाललीलल चेतने पूतनादि संहार मॊनर्चिन नीकुँ गंसुँडु सैत मट्टिलीलचे वध्युँडै युण्ड वानिभयमुचेत मऱियॊक चोट दागुट याश्चर्य |
करमनि भावमु. |
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अतिमानुष सवमु |
ता॥ ओ यदुसिंहा ! कृष्णा! शिशुहन्त्रि यनि पेरु गाञ्चिन पूतनयु शकटासुरुँडुनु मद्दि चॆट्लजण्टयु बाल्योचित लीलानुगुणमगु नी चिन्नि पनिपेरि निप्पुर वयन्दु मिडुतलै पोयिनविगदा ! आ नीवु कंसभयमुन गोकुलमु नन्दु रहस्यमुगाँ बॆरिँगिति वँट. इदि चाला विन्तगा नुन्नदि. |
गी1 पूतनाशकटार्जुन भूरुहमुल बाललीलाग्नि कणमुन भस्म मट्लु नलुपुनी वॊक्क मामकु जडिसि दाँगि ना वँट य देल व्रेपल्लॆ नन्दबाल ! ना |
अवतारिक :- श्रियःपतिवियु नित्यसूरि सेव्युँडवुनु विभूतिद्वय नायकुँडवुनु योगिजनान्विष्यमाणुँडवु नगु नीकु वॆन्न म्रुच्चिलिञ्चुट यॆट्टिपनि यनि प्रश्निञ्चु चुन्नारु. |
श्लो॥ पश्यत्सु नूरिषु सदा परमं पदं ते |
देव्या श्रिया सह वसन् परया विभूत्या ! योगेन योग निर तैः परिमृग्यमाणः |
किं त्वं प्रजेषु नवनीत महो! व्यमुष्णाः ॥ |
35 |
प्रति := ते=नीयॊक्क, परमम् – श्रेष्ठमगु, पदम् : |
स्थानमुनु, सूरिषु |
नित्यसूरुलु, सदा = ऎल्लप्पुडु, पश्यत्सु, सत्सु .—चूचुचुण्डँगा, परया = श्रेष्ठमगु, विभूत्या=(उभयविभूतुलनु निर्वहिञ्चॆडु’ सम्पदतो, अतिमानुष स्तवमु 67 (उपलक्षी त = चूडँबडिन वाँडवै) श्रिया, देव्या, सह = श्री देवितोँ गूड, शेषपर्यं के शेषतल्पमु नन्दु) वसन्—निवसिञ्चुचु, योगनिरतैः = दॆ = योगीश्वरुल चेत, योगेन =ध्यानमुचेत, परिमृग्यमाणः= वॆदक ँ बडुचुन्न, त्वम्=नीवु, प्रजेषु== गॊल्लपल्लॆलन्दु, नव नीतिम्= वॆन्ननु, किम्=ऎन्दुकनि, व्यमुसाः= दॊङ्गिलिञ्चि तिवि, अहो!=औगा ! नीचर्यलु विरुद्धमुलुगा नुन्नवि. विशेषार्थमुलु :- ‘पश्यत्सु सूरिषु सदा परम पदं ते’ त द्विष्णोः कोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ईश्रुति यिन्दुलकुँ ब्रमाणमु. अहो !– इवि विरुद्ध चर्यलु. एमि यॆऱुँगनि प्रज वासुलकु साक्षात्कारमु योगीश्वरुलकु अन्वेष्यत्वमु- इदि विरुद्धमु गदा ! उभयविभूति नायकुँडगु श्रियःपति यॆक्कड ? नवनीतचौर्य मॆक्कड? इदियु विरुद्ध मे कनुक ‘अहो’ अनि कवि याश्चर्यमुनु सूचिञ्चॆनु. ता॥ देवरवारि परमपदमुनु नित्यसूरुलु सदा चूचुचुण्ड उभयविभूतुलनु निर्वहिञ्चॆडु सम्पदतो नॊप्पुचु शेषपर्यङ्क मुन श्री देविचे सेविम्पँबडुचु योगीं द्रुलु ध्यान मॊनर्प नॊप्पारु श्रीवारु गॊल्लपल्लॆललो वॆन्नलनेल म्रुच्चिलिञ्चितिरो ! 68 अतिमानुष _स्तवमु गी॥ अरय सूरुल् सदा’ नीदुपरमपदमु परविभूति दलिर्प श्री सरसँ ग्राल वॆदक लोदृष्टि योगुलु वॆलयुनीवु वॆदकुदे वॆन्न म्रुच्चिल व्रेतलिण्ड्लु. अवतारिक :- ‘दाम्ना चै वोदरे बद्ध्वा प्रत्यबध्ना दुलूखले! यदि शक्नोषि गच्छ त्व मतिचञ्चल चेष्टित ! ’ (यशोद कृष्णुनिपॊट्ट कॊकत्राडु गट्टि दानिनि रोटिकि बन्धिञ्चि यॊक चोट निलवनियो यलरिपिल्ल वाँडा! श युन्नचो निङ्क वॆळ्लुमु) अन्न वॆन्न दॊङ्गिलिञ्चिनन्दुवलन नेर्पडिन बन्धनमु ननुभविञ्चुचु नुडुवु चुन्नारु. दुर्ग्रहं सुमनसो मनसापि नित्यं श्लो॥ यं बन्धच्छिदं परम मीश मुदाहरन्ति । M दाम्ना निबद्द इति शुश्रुम तं भवन्तं -नालं बभूविध बत श्लथनाय तस्य !! 36 प्रति– यम्=ऎवनिनि, सुमनसः= निर्मलान्तःकरणुँडगु योगियॊक्क, मनसा, अपि = मनस्सुचे सैतमु, दुर्ग हम्=ग्रहिम्प शक्यमु कानट्टियु, नित्यम् शाश्वतुँडै नट्टियु, बन्धच्छिदम् संसार बन्धमुनु छेदिञ्चुनट्टियु, परमम् श्रेष्ठुँडै नट्टियु, ईशम् = नियामकुनिगा (प्रभुवुनुगा) उदाहरन्ति चॆप्पुचुन्नारो, तम् अटु = - तम्=अटु वण्टि, भवन्तम्= निन्नु. दाम्ना= त्राटिचेत, निबद्धः= बन्धिम्पँ बडिनवाँडु, इति = अनि, शुश्रुम = विण्टिमि, तस्य अतिमानुव स्तवमु 69 आ बन्धमुयॊक्क, श्रथनाय विप्पुकॊनुट कॊऱकु, अलम् समर्थुँडवु, न, बभूविध = कालेदँट, बत! औरा! वि शेषार्थमुलु — सुमनसः– कर्मयोग, ज्ञानयोगमुल चेत निर्मलीकृतमगु नन्तःकरणमुगल योगियॊक्क, बन्ध च्छिदम्–संसारबन्धनिवर्तकुनि, परम मीश मुदाहरन्ति - ‘त विश्वराणां परमं महेश्वरम्’ अन्नट्लु ईश्वर त्वाभिमानुलकु सैत विश्वरुँडवैन, बत! - विस्मया मन्त्रणे बत-अनु निघण्टुप्रकार विशब्द माश्चर्यमुनु बोधिञ्चुनु, योगिमनो दुर्ग्रहुँ डवुनु संसारबन्ध मोचकुँडवु नगु नी वॊक स्त्रीकिँ बट्टुपडि यामॆ कट्टिन बन्धमुनु द्रॆम्पुकॊनँ जालक पोवुट याश्चर्यकरमनि भावमु. ता॥ ए निन्नु योगिजनुल मनस्सुलकु सैत मन्द वनियु नित्युँडवनियु संसारबन्धमुल छेदिन्तुवनियु नीश्वरुल मनि विऱ्ऱवीगुवारिकि सैत विश्वरुँड वनियु " वेद मुलु, चाटुनो यट्टि निन्नु दामबद्धुनिगा विण्टिमि त्राटिनि नीवु विप्पुकॊन लेक पोतिवँट - कृष्णा ! यिदि याश्चर्यकरमुगा नुन्नदि. गी मनसुनकु नन्दि वनियु बन्धनमु लूडु वनियु नीशुल कीशुँड वनियु बिरुदु, आ 70 अतिमानुष _स्तवमु इट्टिनिनुँ बट्टुकॊनि त्राटँ गट्ट नो र्तु एल गोवाल! तॆञ्चुकोँ जाल वैति ? अवतारिक– वॆनुकटि ‘सा पूतना शकट’ श्लोकयत्रयमुनु ऐदु श्लोकमुलतो विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ ऐशं हि शैशव मपि व्यति वेल वेलं य त्पूतना शकट मर्जुनयो श्च युग्मम् । बाल्योचिता न्यपरसा चिवि चेष्टि तेन हन्तालभिन्त शलभायित मोजस स्तेH
37 प्रति– ऐशम्= ईश्वर सम्बन्धियगु, शैशवम्, अपि = बाल्यमु सयितमु, व्यति वेल खेलम् हद्दुलुमीऱिन क्रीडलु गलदि, यत् = ऎन्दुकनँगा, पूतना = पूतनयु, शकटम् = बण्डियु, अर्जुन योः = मद्दि चॆट्लयॊक्क, युग्मं च=जण्टयु, ते= नीयॊक्क, बाल्य… विचेष्टि तेन बाल्य = पसितनमुनकु, उचित =तगिन, अन्यपर = लीलापर मगु, साचि = सहजमैन, विचेष्टि तेन = व्यापारमुचेत, (ते =नीयॊक्क) ओजसः= तेजस्सुनकु, शल भायितम् भन्त=पॊन्दिनवि, हन्त= सन्तोषमु,
मिडुतल पाटुनु, अल वि शेषमुलु-– व्यति वेल खेलम्-इन्नि यनि हद्दु पॆट्टरानि लीललु गलदि. शलभायितम् शलभव दाचरितम् अनँगा मिडुतल पाटुनु. ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! ईश्वर सम्बन्धि यगु शैशवमु कूड निन्नि यनियु निन्त प्रमाणमुगलवि यनियु निर्वचिम्पअतिमानुष स्तवमु 71 वीलुगानि लीललुगलदि. कनुकने नी तेजस्सुनन्दु बालोचित लीललचेँ बूतनयु शकटासुरुँडु मद्दिवृक्षमुलु मिडुतल वलॆ माडी पोयिनवि. सज्जनुल किदि यॆन्तयु सन्तोष दायकमु, उ॥ ऐशमु शैशवम्बु नह a हा! यनिपिञ्चु नवेल वेल मै याशकटम्बु मद्दु लसु राङ्गनतोड भवत्प्रभावह ताशनकीललन्दु मिडु तल् वलॆ माड वॆ? क्षीरपान, पा दाशुविसार, चङ्क्रमण सोरि शिशूचित लीललन् हरी! श्लो॥ सत्येव गव्यनिवहे निजधाम्नि भूम्ना पर्यन्तसद्मनु किमर्थ मचूचुर स्त्वम् । मुष्टं श्च किं व्यजमटो घट शेष मग्रे गोपीजनस्य परिहसपदङ्कि मासीः ॥ 38 प्रति :_त्वम्=नीवु, निजधाम्नि = सॊन्तयिण्टियन्दु, भूम्ना =अधिकमुगा, (कावलसिनन्त) गव्य, निवहे गोसम्बन्धि यगु पालु, पॆरुँगु, वॆन्न मॊदलगु वस्तु समूहमु, सति+एवयि उण्डँगने, पर्यन्त, सद्मनु = इरुगुपॊरुगिण्ड्लयन्दु, किमर्थम् – ऎन्दुकॊऱकु, अचूचु ई दॊङ्गिलिञ्चितिवि ? मुष्णन्, च = दॊङ्गिलिञ्चुचु, घट 72 अतिमानुष स्तवमु शेषम्=कडवलो मिगिलियुन्न दानिनि, किम्=ऎन्दुकॊऱकु, व्यजघटः = ऒलुक ँबोसितिवि, गोपीजनस्य गोपिक लयॊक्क, अग्रे=ऎदुट, परिहास, पदम् परिहासमुनकुँ बात्रमवु, किम्=ऎन्दुकॊऱकु, आसीः अयितिवि ? विशेषमु — इन्दलि प्रश्नत्रयमुनकुनु ऒकटे समा धानमुअन्तयु भगवानुनि लीलये -ता॥ ओकृष्णा ! नीयिण्टिलोँ गावलसिनन्त पालु पॆरुगु मीगड वॆन्न युन्नदिगदा पॊरुगिण्ड्ललो नॆन्दुकु दॊङ्ग तन मॊनर्चितिवि. दॊङ्गिलिञ्चितिवि सरे तिनि मिगिलिन दानिनि पारँबोसिति वेटिकि, इट्लु चेसि गॊल्ल तॆऱवल यॆगताळि कॆन्दुलकुँ बात्र मैनावु ? गी॥ भवनमुन नुन्नँ बॊरुगिण्ड्लँ बालु वॆन्नँ गृष्ण! दॊङ्गिल नेल? दॊङ्गिलिति वनुमु, पगुलँ गॊट्टङ्ग नेटिकि भाण्डमुलनु एलगोपी पठिहास वेल वयिती ? श्लो॥ य न्नाथ! नाम नवनीत मचूचुर स्त्वं तच्छादनाय यदि ते मति राविरासीत् ! किं मुग्ध! दिग्ध ममुना करपल्लवं ते गात्रे प्रमृज्य निरगाः किल निर्विशङ्कः ॥
- 39
- प्रति :— हेनाथ ! ओस्वामी! त्वम् नीवु, नवनीतम् = वॆन्ननु, अचूचुरः = अपहरिञ्चितिवि, नाम = प्रसिद्धमु, इति यत् = अनुट येदि गलदो, तत्, छादनाय = दानिनि
- अतिमानुष _स्तवमु
- 73
- गप्पिपुच्चुकॊनुटकॊऱकु, तेनीकु, मतिः =
- बुद्धि, आविरा सीत्, यदि—उदयिञ्चिनयॆडल, हेमुग्ध! = दापऱिक मु तॆलियनिवाँडा!, अमुना ई वॆन्नतो, दिग्डम् = पुलमँ बडिन, करपल्लवम् चिगुराकुवण्टि चेतिनि, ते = नीयॊक्क, गात्रे= देहमुनन्दु, प्रमृज्य= तुडुचुकॊनि, निर्विशङ्कः = निर्विचारुँडवै, निरगाः किल= वॆळ्ळितिवँट, किम्=ऎन्दुकु.
- वि शेषमुलु :—मुग्ध— दाँचुकॊन नु पायमॆऱुङ्गनि वाँडा! गात्रे प्रमृज्य निरगाः किल वॆन्न चेतिनि देह मुन राचुकॊनुट वॆन्न दॊङ्गतनमुनु दाँचुकॊनुट कनु कूलमु गादु. पै पॆच्चु आदॊङ्गतनमुनु बट्टि यिच्चुनु, अट्लेल चेसितिवि? इदियन्तयुनु नी बाललील. चॆ ता॥ ओनन्दकुमारा ! नीवु नवनीतमुनु दॊङ्गिलिञ्चिति. वनुकॊनुमु. आ दॊङ्गतनमुनु गप्पिपुच्चुटकु नीकु मनस्सु गलिगिनपुडु वॆन्न चेतिनि ऒडलिकिँ बुलुमुकॊण्टिवेल ? अदि दॊङ्गतनमुने बैटँ बॆट्टदा? ईमात्रमु तॆलियदा? म नवनीतम्बुनु म्रुच्चिलिञ्चितिवि पो! नातण्ड्रि तच्चौर्यमुन् भुवनख्यातमुँ गप्पिपुच्चुकॊनँगा बुद्धिं दलं पॊप्पिनन् सुवि वेकम्बॊकॊ! वॆन्न चेयि मॆयिकिन् जॊब्बिल्लँ गाँ बुल्मुकॊं विशङ्कम्बुग नेँगि तण्ट यिदि दे वा! गोपनोपायमा ! ?- (10) 74 अतिमानुष स्तवमु श्लो॥ त्या मन्यगोपगृहगव्यमुषं यशोदा गुर्वी त्वदीय मवमान महृष्यमाणा। प्रेमाऒध दामपरिणामजूषा बबन्ध तादृज्न ते चरित मार्यजना स्सहन्ते ॥ 40 प्रति– गुर्वी = मिक्किलि अभिमानवतियगु, यशोदा= यशोदा देवि, त्वदीयम् = नी सम्बन्धियगु, अनमानम् = तिरस्कारमुनु (निन्दनु) अमृष्यमाणा = सहिम्पनिदियै, अन्य, गोप, गृह, गव्य, मुषम् = इतरुलगु गॊल्लल यिण्ड्ललो पालु वॆन्ननु दॊङ्गिलुचुन्न त्वाम् = निन्नु, अथ तरुवात, दाम, परिणाम, जुषा त्राडुगा मार्पु चॆन्दिन, प्रेमा =प्रेमचेत, बबन्ध = कट्टिवेसॆनु, आर्य जनाः = पॆद्दलु, ते=नीयॊक्क, तादृक्=अटुवण्टि, चरितम् = चरित्रनु, न, सहन्ते सहिम्परु. वि शेषमुलु– गुर्वी त्वदीय मवमान ममृष्यमाणा- मिक्किलि अभिमानवतिगान यशोदा देवि - यशोदकॊडुकु मायिण्ट बालु दॊङ्गिलिञ्चॆनु, मायिण्ट वॆन्न नपह रिं चॆनु, मायिण्ट जुन्नु म्रुच्चिलिञ्चॆननि प्रजाङ्गन लनॆडु निन्दावाक्यमुल सहिम्पलेक पोयॆननि भावमु. तादृक् न ते चरित मार्यजना स्सहन्ते - आर्यजनाः शुकपराशरादुलु, भट्टनाथ, पराङ्कुश, पर कालादुलुनु, यदि शक्नोषि गच्छ त्व मतिचञ्चल चेष्टित’ अनि यशोद निन्नुँ ब्रेममयदाममुतो बन्धिञ्चुटनु सहिम्परु, सहिम्पक पोवुटकु हेतुवु ‘यदि शक्नोषि गच्छ त्वम् ’ अतिमानुष स्तवमु 75 (चेतनैनचो निङ्क वॆळ्लुमु) अनि सर्वश क्ति गल (श्रीकृष्णुननुट येयनि ग्रहिम्पव लॆनु, ता अत्यन्ताभिमानवति यगु यशोद यशोदबिड्ड दॊङ्ग यनि प्रजाङ्गनलु निन्नुँ गूर्चि निन्दिञ्चु चुण्ड नी या यवमानमुनु सहिम्प लेक पॊरुगिण्ड्ललोँ बालु पॆरुगुनु दॊङ्गिलिञ्चॆडु निन्नु प्रेमरूप मगु त्राटितोँ गट्टिवेसॆ नँट. आर्युलट्टि नीनडतनु सहिम्पँ जालकुन्नारु. च अतिशयि ताभिमानवति यम्म यशोद प्रजम्बुवारु नी सुतुँडु गुरुण्डु दॊङ्गलकु जुन्नुनु वॆन्ननु म्रुच्चिलिञ्चॆ नान् मति सहियिम्प लेक यव मानमु दाममु पेरि प्रेमतो c जतुरतँ गट्टि यिङ्कँ जनु शक्तुँडवे ननॆ सै प रुत्तमुल् अवतारिक– ‘तादृ ङ्न ते चरित मार्यजना स्संहते’ अनु विषयमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. ♡ श्लो॥ मात्रा यदि त्वमसि दामनि सन्निबद्धः तच्छाविणा मुदितचाक्षुषनिर्द राणाम्। बध्नानि हन्त! हृदयं भगवन्! कुतस्त्वं सर्वो हि वश्यविषये विवृणोति वीर्यम् ॥ 41 अतिमानुष सवमु 76 प्रति- हे भगवन्! =
निन्नुँ गट्टि षड्गुणैश्वर्य सम्पन्नुँडवगु ओ कृष्णा!, त्वम् = नीवु, मात्रा = तल्लियगु यशोद चेत, दामनि=त्राटियन्दु, सन्नि बद्दः = बन्धिम्पँ बडिनवाँडवु, आसि, यदि=ऱगुदु वेनि, तत्, श्राविणाम् वेयुटनु विनुनट्टियु, (कनुकने) उदित, चाक्षुष, निर्द राणाम्=पुट्टिनकन्नीटिप्रवाहमु गल, (आर्यजनानाम् = पॆद्दल यॊक्क, हृदयम् = मनस्सुनु, कुतः = ऎन्दुवलन, बध्ना सि = बन्धिञ्चुचुन्नावु, हन्त! = आश्चर्यमु, सर्वः= प्रतिवाँडुनु, वश्यविषये = लॊङ्गिन वारि विषयमुन, वीर्यम्=पराक्रममुनु, विवृणोति = विवरिञ्चुचुन्नाँडु. गदा!
वि शेषमुलु– ई श्लोकमुनँ बूर्वश्लोकमुनुण्डि ‘आर्य जनाः’ अनुपदमुनु दॆच्चुकॊनि विभक्ति व्यत्यासमुतो ‘आर्यजनानाम्’ अनि मार्चुकॊनव लॆनु. चतुर्थ पादमुन अर्थान्तर न्यासालङ्कारमुनुञ्चि पै मूँडुपादमुललोनि विषयमुनु समर्थिञ्चिरि. ओ कृष्णा! तल्लिकि नीवु वश्युँडवु, नीकु आर्यजनुलु वश्युलु, कावुनने तल्लि नी मीँदनु नी वार्यजनुलविँद निट्लु वीर्यमुनु जूपुचुन्नारु. ता॥ ओ श्रीकृष्णा! नीवु तल्लियगु यशोद चेतँ द्राटिचेत बन्धिम्पँ बडिति वेनि चेतनैनचो नामॆनु बन्धिञ्चुमु. कानि यामाट विनिनतोडने कन्नीरु पॆट्टुचुन्न यार्युल अतिमानुष स्तवमु 77 मनस्सुनु बन्धिञ्चु चुन्ना वेटिकि? औरा! अन्दऱुनु तमकु लॊङ्गिन वश्युलविषयम मुनँ दमप्रतापमुनु जूपुदुरु गदा! च॥ निनु नॊकत्राटँ गट्टु जन निं गनि ये मनलेवु वल्ल वी वनजदळेक्षणा हृदय वल्लभ ! यय्यदी विन्नतोड ने कनुलनु बाष्पपूरमुलु गाऱुचु मामदिँ गट्टिवैतु, वे मनँ गनिपिन्त्रु वश्यविष यम्बुन विक्रम मॆल्लवारलुक्. श्लो॥ कान्ताल कान्त ममलं कमलायताक्ष मुद्र्भूविलास मुदितस्मित मुन्नसञ्च। वक्त्रं वहā परम ! गोपगृहेषु किं त्वं गोपीमनांसि नवनीत मुताभ्यमोषीः II 42 प्रति– हेपरम!=ओस र्वेश्वर! कान्त, अलक, अन्तम्= अन्दमुलगु मुङ्गुरुल कॊनलुगलिगिनट्टियु, अमलम्= 78 अतिमानुष _स्तवमु तामरलवलॆ निर्मल मैनट्टियु, कमल, आयत, अक्षम् विशालमुलगु कन्नुलु गलिगिनट्टियु, उत्, भूविलासम्= उन्नतमुलगु कनुबॊमल यन्दमुलु गलिगिनट्टियु, उदित स्मितम् = उदयिञ्चिन चिऱुनगवु गलट्टियु, उन्न सञ्च= उन्नतमगु नासिक (मुक्कु) गलदियु, अगु व क्त्रम् मॊगमुनु, वहक्=वहिञ्चुचुन्न, त्वम् = नीवु, गोपी मनांसि=गोपिकल हृदयमुलनु, अभ्यमोषीः = दॊङ्गि लिञ्चितिवा? उत= लेक, नवनीतम् वॆन्ननु, अभ्यमोषी8= दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? वि शेषमुलु :- परम !— परः, मा, यस्मात् इति परमः = ऎवनिकण्टॆँ बरुँडु लेँडो यतँडु अनँगा सर्वोत्तमुँ डनि भावमु. दानि सम्बुद्धि ‘परम!” अनि यगुनु. गोपीमनांसि नवनीत मुताभ्यमोषीः- कृष्णा ! नी विट्टि मनोहरमुखमुतो गॊल्लयिण्ड्ललो गोपिकल मन स्सुल दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? लेक वॆन्ननु दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? उभयमुनु दॊङ्गिलिञ्चिति वनि भावमु. श्रीकृष्णुण्डु नवनीतहरुँडुनु गोपि कामनोहरुँडुनु गदा! अतिमानुष स्तवमु 79 ता॥ ओ स र्वेश्वरा ! श्रीकृष्णा ! अन्दमुलगु मुङ्गुरुल कॊनलु गलिगि आकर्णायतमुलै कमलमुलनु बोलिन कन्नुलु गलिगि निर्मलमै उन्नतभूविलासमु लॊप्पि मनो हर नासिकमै चिऱुनव्वुतोँ दनरु मोमुतो गॊल्ल लयिण्ड्ललो गोपीमनस्सुल म्रुच्चिलिञ्चितिवा ? लेक वॆन्ननु दॊङ्गिलिञ्चितिवा? लेक रॆण्डिटिनि गॊल्लकॊट्टितिवा ? उ॥ चॆन्नलरारु मुङ्गुरुलु चिन्दँग मोमुनँ दामरल् वलॆक् गन्नुलु नुन्नतभ्रुवुलु क्रालँगँजिर्नग वॊप्पुमोमुतोँ जिन्नतनम्बुनन्दु सर सीरुहलोचन ! गॊल्लयिण्ड्ललो वॆन्न नॆ म्रुच्चिलिञ्चितिवो ! व्रेँतलयुल्ल मॆ म्रुच्चिलिञ्चितो ! नीवु श्लो॥ सर्वं गुणाय गुणिना मिति सत्य मेतत् यत् खल्वि हेतरज ने मलिनत्व हेतुः 1 80 अतिमानुष सवमु यद्धोप वेषविनि षेवण मुत्तमं ते गोपालनं च गणयन्ति गुणं गुणेषु ॥
43 एदि, प्रति :- यत् = ऎन्दुवलन, ते= नीयॊक्क, गोप, वेष, विनि षेवणम्=गॊल्ल वेषमुनु सेविञ्चुट, गोपालनं, च आवुलनु रक्षिञ्चुटयु, गुणेषु = गुणमुलन्दु, उत्त मम् = श्रेष्ठमगु, गुणम् गुणमुनुगा, गणयन्ति = लॆक्किञ्चुचुन्नारो, (तत् = अन्दुवलन) यत् इतरज ने=गुणहीनुँडगु जनुनियन्दु, मलिनत्व हेतुः = दोषमुनकुँगारणमो, (तत् =अदि) सर्वम् = अन्तयु, गुणिनाम् = गुणवन्तुलकु, गुणाय मञ्चिगुणमुकॊऱके, (भवति = अगु चुन्नदि) इति, एतत् = ईमाट, सत्यम् = यथार्थमु. विशेषमु :- ‘गोपालनं च गणयन्ति गुणं गुणेषु’ कृष्णा ! परात्परुँडवैन नीकु अत्यन्त सौलभ्यमु सैत ! मुत्क रावहमे यनि भावमु. ता॥ गुणहीनुलयॆड नेदि दोषमुनकुँ गारण मगुनो यदि यॆल्लनु गुणवन्तुलपट्ल नतिशयमुन के हेतुवगुअतिमानुष स्तवमु 81 न नॆडु सूक्ति यथार्थमु, ओ कृष्णा! नीवु गॊल्ल वेषमुनु बूनुटयु गोवुलनु गाचुटयु नुत्कर्षमुन के हेतु वायॆनु गदा! च॥ ऎदि गुणहीनुनं दॆसँगु नॆन्तयु दोषनिदान मौचु न य्यदि यखिलम्मु नौ सुगुणु नन्दु गुणं बनुमाट सत्यमे यदुकुलदीप ! लॆक्क यिड रय्य ! गुणम्बुल मेल् गुणम्बुगा मुदमुन गोप वेषमुनु बूनुट गोगणरक्ष नीयॆडन्. श्लो!! गोपालपोतकतया निभृतं धरित्री मावस्तु काम इव स न्नपि बाल्यलौल्यात् 1 ऐन्द्रं निहत्य मख मद्रि महो दधानः कीं तर्थि षे सुरगणाय सवासवाय ॥ पोतकतया
44 प्रति– निभृतम्=निगूढमुगा (रहस्यमुग) गोपाल नन्दगोपुनि कुमारुँडवनु भावमुतो, धरित्रीम् = भूमियन्दु, आवस्तु कामः इव निवसिम्पँ दलँ चिन वानिवलॆ, सन्, अपि = अगुचुँ गूड, बाल्यलौ ल्यात् = बाल्यचापल्यमु वलन, अथो = तरुवात, ऐन्द्रम् = (11) 82. अतिमानुष _स्तवमु इन्द्र देवताकमगु, मखम्
यागमुनु, निहत्य =
धरिं अणँचि वेसि, अद्रिम्=गोवर्धन पर्वतमुनु, दधानः चुचु, सवासवाय दे वेन्द्रुनितोँ गूडिन, सुरग णाय = देवसमूहमुकॊऱकु, तस्थि षे, किम् निलिचिति वेल ? ऎदुरु विशेषमुलु :- ऐन्द्रं निहत्य मखम् अनुचोट ‘ऐन्द्रं निहत्य महम्’ अनि महम् पाठान्तरमु उत्सवमनि यर्थमु, कलदु. अप्पुडु तस्थिपे सुरगणाय सवासवाय’ इन्द्रयागमु नकु विघ्न मॊनर्चॆ ननु कोपमुतो देवेन्द्रुँ डेडुदिनमु . लॆड तॆगकुण्डँ गुम्भवर्ष मुनु गुरिपिम्प गोगोपबृन्दमुनु गापाड नेडुदिनमुलुनु गोवर्धन पर्वतमुनु जेयि मार्च कुण्ड धरिञ्चि मुक्कोटि देवतलतोडँ गूडिन देवेन्द्रुन कॆदुरु निलिचितिवनि भावमु. गॊल्ल पिल्लवाँडुगा दागियुण्डँ दलँचिन नी किट्लु सेयुट यॆट्लु बयलुपड नीयदु? ता॥ ओ कृष्णा! नीवु गॊल्लपिल्लवानिवलॆ नॊरुलकुँ दॆलिय कुण्ड भूमिलो दागँ दलँचिन चो इन्द्रयागमुनु मान्पिञ्चि दानिवलनँ गोपिञ्चिन देवेन्द्रुनकु देवतलकुँ ब्रतिभटुँडवै. वारु कुरिपिञ्चिन वर्ष मुनु व्यर्ध मॊनर्प गोवर्धनपर्वतमुनु गॊडुगुवलॆ नेल धरिञ्चितिवि. देवबृन्द अतिमानुष स्तवमु 83 सहितुँडगु देवेन्द्रु नेल यॆदुरुकॊण्टिवि? इदि नी यति मानुष चर्यनु वॆल्लडिम्पदा ? उ॥ गोपकुमारुन ट्लवनि गूढमुगा निवसिम्प नॆञ्चियुन् श्रीपति ! बाल्यचापलमु चे दिवि जेश्वरुँ डल्गँ दन्मखं बापिति वेल ? छत्र मटु लद्रिनि दालिचि राळ्ळ वानया टोपमु मान्पुचुन् ब्रतिभ टुण्डुग निल्चिति वेल वज्रकिन्. श्लो॥ वेणुक्वणप्रणयिनि त्वयि लोक नाथ ! बृन्दावनं चरणसञ्चर णैः पुनाने । भावा स्तदा वनभुवः किल कीदृश स्ते त्वद्गीत सि कनिकतानु वसुन्धरासु ॥ प्रति :- हेलोकनाथ ! त्वयि
45 ओ जगन्नाथुँड वगु कृष्णा ! वेणु, क्वण, प्रणयिनि=मुरळीगानमुनँ ब्रीति गलवाँडवै, नीवु, बृन्दावनम् बृन्दावनमुनु, चरण, सञ्चर णै ः= पाद सञ्चारमुलचेत, पुनाने पवित्रमु चेयु चुण्डँगा, तदा= अप्पुडु, वसुन्धरासु = यमुना तीर सम्बन्धि भूभागमुलु, त्वत्, गीत, सिक्त, सिकतासु = नी गानमुचेतँ दडुपँ बडिनयिसुक तिन्नॆलु गलवि काँगा, वनभुवः =बृन्दावनमुनँ बुट्टिन, तेज आ, भावाः=
84 अतिमानुष _स्तनमु जन्तुवुलु, कीदृशः किल = ऎटुवण्टि स्वभावमु गलवि मैनवो गदा ! वि शेषमुलु :- वसुन्धरासु . इच्चट बहुवचनमु यमुनातीर्थ भेदमु चेतँ ब्रयोगिम्पँ बडिनदि. त्वद्गीत सि क्त सिक तानु——सि क्त पदप्रयोगमु चेत गीतमुनं दमृत त्वमु व्यङ्ग्यमु, वेणुगान रूप मगु नमृतधार चेत बृन्दावन प्रान्त यमुनासै कतमुलु शीतलमुलुगाँ जेयँ बडिन वनि भावमु. ‘भावा स्तदा वनभुवः किल किदृश स्ते’ नी वेणुगान श्रवण प्रवणमुलै बृन्दावनमुलोनि जन्तुजालमुलु जडमुलु स्वभावान्तरमुनु बॊन्दिन वनि यभिप्रायमु. ऎट्लन ? ♡ II शैलो ऒग्नि श्च जलाम्बभूव मुसयो मूढां बभूवुर्खडाः । प्राज्ञामासु रगा स्सगोस ममृतामासु र्महाशीविषाः । गोव्याघ्रा स्सहजाम्बभूवु रपठे त्वन्याम्बभूवुः प्रभो ! त्वं ते ष्वन्यतमाम्बभूविध भवद्वेणुक्यणोन्माद ने॥ 45 ई शोकमुनकु ना यनुवादमु- सी॥ शैलम्बु लग्नियु सलिलात्मकमु लायॆ मुनु लॊड लॆऱुँगनि मूडु लैरि गॊल्ललतोड शाखुलु तॆल्वि गल वायॆ नाशी विषमुलकु नमृत मॊदवॆ गोव्याघ्रमुलु जतगूडि मैत्रिँ दनर्चॆ मुन्दु पो लेक काळिन्दि यागॆ अतिमानुष स्तवमु निलिचि बालसमीरमुलु पाट नालिञ्चॆं बुलकितलै लतल् तलल नूचॆ गी॥ ऒकटि चूचुचु नुण्ड वे तॊकटि ग्यारं दसरॆ नव्वानिलो नन्यतमुँड नगुचु नीवु गनिपिञ्चिना वँट, देव! नीदु मुरळिगानम्बु मोदाब्धि मुञ्च जगमु, 85 ता॥ जगन्नाथुँडवगु ओ श्रीकृष्णा ! नीवु मुरळिनि नी पादसञ्चारमुल चेत बृन्दावनमुनु वायिञ्चुचु बवित्र मॊनर्चु चुण्डँगा नी गानामृतधारलचेत दडुपँ बडिन यिसुकतिन्नॆलुगल यमुनातीर्थ भूभागमुलन्दुँ बॊडमिन स्थावरजङ्गममु लॆट्टि मार्पुनु जॆन्दिनवो गदा! उ!! ओ नलिनाक्षु ! यम्मुरळि नूदुचु बृन्दनु बाद मुद्रलन् मानितगा नॊनर्चुचु स मञ्चितरीतिँ जरिम्प नौर! त्व धानसुधारसार्द्रसिक तातलि यैनवसुन्धरास्थलिन् ब्राणुलु स्थावरम्बुलु स्व भावमुनन् गनॆ नण्ट मारुपुल्. पै विषयमुने विवरिञ्चुचुन्नारु. अवतारिक :- पै 86 3 अतिमानुष स्तवमु धन्यैः श्रुतं त दिह तानकरासकाले गीतेन येन हि शिला स्सलिलाम्बभूवुः॥ पञ्चापि किञ्च परिवृत्तगुणानि भूता न्युर्वी, कृशानु, मरु, दम्बर, शम्बराणि ॥ 46 प्रति :- इह=ईजगत्तुनन्दु, तावक, रास काले = नीसं बन्धमगु रासक्रीडा समयमन्दु, येन = ए, गीतेन : वेणुगानमुचेत, शिलाः = राळ्लु, सलिलाम्बभूवुः = नीळ्ळ यॆनो. किञ्च—मऱियु, उर्वी, कृशानु, मरुत्, अम्बर, शम्बराणि=भूमि, अग्नि, गालि, आकाशमु, नीरु, अनॆडु, पञ्च= अयिदु, भूतानि, अपि - भूतमुलु सैतमु, परि वृत्त, गुणानि— गुणानि= व्यत्यस्त (मारिन) स्वभावमु गलवि, (आसन् = ऐनवो) तत् = आवेणुगानमु, धन्यैः = भाग्याधि कुलचेत, श्रुतम् विनँबडिनदि. विशेषमुलु :- परिवृत्तगुणानि भूतानि - पञ्चभूतमु लकु गुणव्यत्यास मॆट्लनँगा 1. भूमि– काठिन्यमुनु वीडि मार्दवमुनु जॆन्दॆनु 2. जलमु - वेगमुनु वीडि निलु 3. अग्नि वेडिनि वीडि चल्लँदनमुनु कडनु जॆन्दॆनु.
बॊन्दॆनु, 4. वायुवु - सदागतित्वमुनु वीडि निश्चलत्वमु नन्दॆनु. 5. आकाशमु शून्यतनु वीडि रूप मुनु धरिञ्चॆनु. ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! ईलोकमुन नीरासक्रीडा समयमु नन्दु जगन्मोहनमगु नी वेणुगान श्रवणमु चेत राळ्ळु अतिमानुष स्तवमु 87 सैतमु करँगि नीळ्ळवलॆँ ब्रवहिञ्चॆ नँट, मऱियुँ बृधिव्य पेजो वाय्वाकाशमु लैदुनु व्यत्य स्तस्वभावमु गलवि यायॆनँट, अदृष्टवन्तु लॆवरो! अप्पुडु नीपाटनु विनिरि. गी॥ नाँडु बृन्दावनिनि यदुनाथ ! नीदु गानरसमुन राळुलु गरँगॆ नण्ट ताऱुमातायॆ नण्ट भूतम्बु लैदु विनि रपुडु धन्युलॆवरॊ! नी वेणुरवमु, अवतारिक :- पैनिँ जॆप्पँबडिन मार्पुनु सर्पमुल यन्दु सैतमु कलदनि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ तेभ्यः कृती न किल कश्चि दिहास्ति ये वै रासोत्सवोत्सुकधिय स्तव काननान्ते! वेणुस्वनन्रुतर सौघ परिपुतां ते स्वे सृक्विणी रसनया लिलिहु र्भुजङ्गाः ! 47 प्रति-_ ये=ए, भुजङ्गाः = सर्पमुलु, कानन, अन्ते= बृन्दावनमु नडुम, रासोत्सव, उत्सुक, धिय 8= रास क्रीडयन्दु वेडुकगल बुद्धिगलवियै, तव = नीयॊक्क, अन्ते — वेणु = पिल्लनग्रोवियॊक्क, स्वन= वेणु …..
नादमुनुण्डि, स्रुत स्रविञ्चिन, रस = अमृतरसमु यॊक्क, ओघ = प्रवाहमुचेत, परिध्धुत = तडुपँबडिन, अन्ते= प्रान्तमुलुगल, स्वे= तम, सृक्विणी = सॆलवुलनु (पॆदवि मूललनु) रसनया = नालुकतो, लिलिहुः = नाकी 88 अतिमानुष स्तवमु कॊनिनवो, तेभ्यः = आ सर्पमुलकण्टे, इह = ई लोक मुन, कश्चित् = ऒक ँडुनु, कृती = सुकृति, नास्ति किल = लेँडुगदा, वै
इदि प्रसिद्धमु. वि शेषमु– तेभ्यः कृती न किल
वेणुगान श्रवणमुचेत विषधरमुलगु सर्पमुलयॊक्क यन्तर्गतमगु विषमे अमृतमुगाँ बरिणाममुनु जॆन्दुटचेत ना सर्पमुलकण्टॆ भाग्याधिकुलॆवरुनु लेरनि भावमु. ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! आनाँडु बृन्दावनमुलो नी रास लीलादर्शनोत्सुक बुद्धुलै नी वेणुरवमुनुण्डि स्रविञ्चिन यमृतधारलचेतँ दडुपँबडिन सॆलवुलनु (पॆदवि मूल लनु) नालुकतो नाकिकॊनुचुन्न सर्पमुलकण्टॆँ बुण्य मॊनर्चिवा री लोकमुन ‘नॆवरु गलरु ? उ॥ ओसरसीरुहाक्ष! कृतु लुन्दु रॆ? वारलकण्टॆ नुर्वि नी रासमहोत्सवम्बुँ गनि रञ्जिलि त्वन्मुर ळी निनादनि र्याससुधारसाञ्चितमु लौ सॆलवुल् रसनाद्वयम्बुनन् वासिगा नाकिञ्चु नट वर्तिलि रण्ट भुजङ्गवल्लभुल् . ♡ अतिमानुष स्तवमु
- अम्भोदनील मरविन्ददळायताक्षं पिञ्छावतंस मुररीकृत वेणुपाणीम् । त्वां गोपवेष परिकर्मित काय कान्तिं धन्या स्तदा ददृशु रुस्मथितान्यभावाः
89 48 प्रति– तदा = आ रासलीला समयमुनन्दु, अम्भोद नीलम् = मेघमुवलॆ नल्लनि वाँडवुनु, अरविन्द, दळ, आयत, अक्षम्= तामर रेकुलवलॆ विशालमुलैन कन्नुलु गलवाँडवुनु, पिञ्छ, अवतंसम् = नॆमलिपिञ्चॆमु शीरो भूषगाँ गलवाँडवुनु, उररीकृत, वेणु, पाणिम्=अङ्गीक रिम्पँबडिन पिल्लनग्रोवि चेतियन्दुँ गलवाँडवुनु, गोपवेष परिकर्मित, काय कान्तिम् गॊल्ल वेषमु चेत नलङ्करिम्पँबडिन शरीर कान्ति गलवाँडवुनु अगु, त्वाम् = निन्नु, धन्याः= भाग्याधिकुलु, उन्मथित, अन्य, भावाः बडिन यितर भावमुलु गलवारै, ददृशुः वि शेषमुलु– उन्मथि तान्य भावाः
= नशिम्पँजेयँ
चूचिरि.
- अन्यविषयकः अनँगा इतर विषयमुलन्दु अभि
भावः अन्यभावः प्रायमु अदि नशिञ्चिनवारु उन्मथितान्य भावुलु - धन्या स्तदा ददृशुः = विषयान्तरवै मुख्यमुतोँ गूडिन भगवद्विग्रह सौन्दर्याद्यनुभवमु भाग्याधिकुलके सम्भ विञ्चुनु. ता ॥ श्रीकृष्णा ! नील मेघश्यामलुडवुनु, तामर रेकुल वण्टि विशालमुलगु कन्नुलुगल वाँडवुनु नॆमिलिपिञ्चॆमु (12) 90 अतिमानुष स्तवमु शिरोभूषणमुगाँ गलवाँडवुनु, पिल्लनग्रोवि चेतँ गल वाँडवुनु, गोपवेषमुतो नलङ्कृतमगु शरीर कान्ति गल वाँडवुनु, नगु निन्नु रासलीलासमयमं दनन्य भावमु लतो धन्यु लॆव्वरो ! चूचिरि, उ॥ नल्लनिकल्व लट्टिनय नम्मुलु श्यामलकोमलाङ्ग मुन् पिल्लनग्रोवियुन् नॆमिलि पिञ्चॆमुँ गल्गि मनोज्ञ मैन या गॊल्लनिरूपुतो हॊयलु गुल्कॆडुनिन् गृतपुण्यु लॆव्वरो तॊल्लि यनन्यमानसमु तोँ गन नोचिरि रासलीललन्- श्लो॥ गोवर्धनो गिरि वरो यमुना नदी सा ♡ बृन्दावनं च मधुरा च पुरी पुराणी। अद्याऒपि हन्त सुलभाः कृतिनां जनाना मेते भवच्चरणचारजुषः प्रदेशाः ॥ प्रति– गिरिवरः = नमु, सा 49 पर्वत श्रेष्ठमगु, गोवर्धनः = गोवर्ध प्रसिद्धमगु, यमुना = यमुसय नॆडु
नदियु, बृन्दावनं च = बृन्दावनमुनु, पुराणी = पुरातनमैन, मथुरा = मधुरय नॆडु, पुरी, च = पट्टण मुनु, भवत्, चरण, चार, जुषः = तम पादसञ्चारमु लनु पॊन्दिन, ए ते ई, प्रदेशाः
प्रदेशमुलु,अतिमानुष स्तवमु 91 जनुलकु, साक्षात्कारमुन कृतिनाम् सुकृतमुनु जेसिकॊनिन, जनानाम्
अद्य, अपि = नेँटिकिनि, सुल भौः कर्हव
मुलु ( भवन्ति = अगुचुन्नवि) हन्त ! सन्तोषमु, विशेषमुलु– गोवर्धनो गिरिवरः - गोवर्धन पर्वतमु श्रीकृष्णकरस्पर्शमु नेडुदिनमुलु निरन्तरमुगा ननुभविञ्चि नदि कान — गिरिवरः – पर्वत श्रेष्ठमनि चॆप्पँबडॆनु.— मथुरा च पुरी पुराणी - मथुरापट्टणमु कृष्णावतार मुनकुँ बूर्वमे श्रीरामुनि तम्मुँडगु शत्रुघ्नु निचेतँ बरिपालिम्पँ बडुट वलनँ बुरातन पट्टणमुगाँ बेर्कॊनँ बडिनदि. अद्यापि - भगवदवतार कालमु चाल दव्वै नप्पटिकि ननि भावमु. नुल भाः - साक्षात्कारार्हमुलै युन्नवि यनुट वलस भगवत्साक्षात्कारमुवलॆ भगवदधिष्ठित देश सा त्कारमु सैतमु सुकृतवन्तुलके लभिञ्चुननि तेलुनु. ई श्लोकमुनन्दु भगवत्सम्बन्धमुगल देशमे परमप्राप्य मनि चॆप्पुट गमनिम्पँदगिन विषयमु ता॥ ओ कृष्णा ! नी करस्पर्शमुचेत गिरिवरमनु कीर्तिगडिं चिन गोवर्धन पर्वतमु, प्रसिद्धमगु प्रसिद्धमगु यमुनानदि, बृन्दा वनमु, पुरातनमैन या मधु रापट्टण म नॆडु तम पाद सञ्चारमुल ननुभविञ्चिन यी तापुलु नेँटिकिनि सुकृ तात्मुलगु जनुलकु साक्षात्का राष्ट्रमुलै यलरारु चुन्नवि ऎन्त सन्तोषमु! 92 अतिमानुष स्तवमु म॥ अदिगो! यय्यमुना स्रवन्ति यदॆ बृं दारण्य भूभाग म य्यदॆ गोवर्धन मल्लदे मधुर दि व्यम्बौ पुरं बीळ! त्व त्पदसञ्चार पवित्रताञ्चितमुलै भव्यम्बुलै यिव्वि पु ण्यदमुल् नेँटिकि भक्तकोटिभज नी यम्बुल् सुयात्रास्थलुल् . अवतारिक :- ‘ते नयं भवता रष्या भवद्विषय वासिनः’ (मेमु मी देशमुन नुण्डुवारमु गावुन मीचे रक्षिम्पँ दगिनवारमु) अनि नुडिविन प्रकारमु देशमु भग वल्लाभप्रापक मनुटनु भङ्ग्यन्तरमुगँ चुन्नारु, श्लो॥ बृन्दाव ने स्थिरचरात्मक कीटदूर्वा पर्यन्तजन्तुनिचये बत ये तदानीम् । नैवाल भामहि जनं हतका स्थ एते पापाः पदं तप कदा पुन राश्रयामः ॥ ब्रतिपादिञ्चु 50 प्रति :- तदानीम्—अप्पुडु (श्रीकृष्ण सञ्चार कालमुन)
वरमुल यॊक्कयु, चर =
स्थिर……निचये स्थिर = स्थावरं जङ्गममुल यॊक्कयु, आत्मक = स्वरूपमु गल, कीट पुरुगुलु, दूर्वा = गऱिक गड्डि, पर्यन्त हद्दुगाँगल, जन्तु =प्राणुलयॊक्क, चये समूहमुगल, बृन्दा अतिमानुष स्तवमु 93
वने बृन्दावन पुण्यक्षेत्रमुनन्दु, ये- ए, वयम् = मेमु, जनिम् = जन्ममुनु, न + एव, अलभामहि = पॊन्द ने लेदु, हत काः =जीवन्मृतुलमगु, ते=आ, ए ते=-ई, पापाः= पापिष्ठुलमगु मेमु, कदा ऎप्पुडु, पुनः मऱल, तव = नीयॊक्क, पदम् = पादमुनु, आश्रयामः = आश्रयिन्तुमु, ऎन्नटिकि नाश्रयिम्प लेमनि भावमु, बत ! = अय्यो !
विशेषमुलु :- ‘स्थिरचरात्मकण्टदूर्वा पर्यन्तजन्तु नीचये’——इच्चट यथास्थितपाठमु ननुसरिञ्चि यर्थमु चॆप्पिनयॆडल स्थिरात्मकमु कीटमु, चरात्मकमु दूर्व कावलसिवच्चुनु. इदि लोक विरुद्धमु कावुन ‘पाठक्रमा दर्थक्रमो बलीयान्’ (यथास्थित पाठक्रममुकण्टॆ नर्थक्र ममे बलिष्ठमु) अनु नियममु ननुसरिञ्चि अर्थ मनुकू लिञ्चुनट्लु व्याख्य चेयवलयुनु, स्थिरात्मक = स्थावरात्मक मैन, दूर्वा = गऱिकयु, चरात्मक = गऱिकयु, चरात्मक = जङ्गमात्मक मगु, कीट—पुरुगुनु, अनि यॆट्लो समाधानमु चॆप्पु कॊनवलॆनु. पर्यन्तपदमु चेत स्थिर मु ल लोँ जीवरदि दूर्वयु, चरमुललोँ जीवरदि कीट मनियु ग्राह्यमु गऱिक (दूर्व) कूड वृद्धिक्षयमुलु गलदि गनुक जन्तु पद मिचट वाडँबडिनदि. ता! ओ श्रीकृष्णा ! नीवु क्रीडिञ्चिन कालमुनन्दु स्थावर जङ्ग मात्मक मु मु लगु दूर्वा कीटादुलकु निलयमैन बृन्दा. 94 अतिमानुष स्तवमु वसमुलो मेमु जन्मिञ्चक पोतिमि. अय्यो ! जीवन्मृतु लमु. ई पापात्मुल मगु मेमु प्रजनाथा! मऱल नॆन्नँटिकि नी पादमु नाश्रयिन्तुमो गदा ! शा॥ बृन्दारण्यमुनन्दु नी वपुडु गो बृन्दम्बुँ बालिञ्चुचुन् नन्दागारमुनन्दु नुन्नतऱिँ गृ ष्णा ! नीदुमार्गम्बुनं दं दॆन्देनियुँ गीटमो! तृणमुनो! यै नेनु जन्मिम्प ने मन्दुन् बापुँड नॆन्नि नाळ्ळ किँक नी यम्फ्रिद्वयिं गॊल्तुनो ! अवतारिक :- भगवत्सम्बन्धि सम्बन्धमु गल कॊन्नि तावुलन्दु जन्मिञ्चुटयुँ दरणोपाय मनि कटाक्षिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ हा! जन्म तानु सिकतानु मया न लब्धं राने त्वया विरहिताः किल गोपकन्याः ! या स्तावकीनपनपु क्तिजुषो जुषन्त निक्षिप्य तत्र निज मङ्ग मनङ्गत प्तम् ॥ 51 प्रति
- := रासे = रासक्रीडयन्दु, त्वया = नीतो, विर हिताः = ऎडँबाटु चॆन्दिन, याः= ए, गोपक न्याः गॊल्लकन्नॆलु, तत्र= आयॆडँबाटु समयमुनन्दु, अनङ्ग त प्तम् = मन्मथुनिचेँ दपिम्पँ जेयँबडिन, निजम् = स्वकीय
मगु, आङ्गम् अतिमानुष _स्तवमु 95 अवयवमुनु, निषाप्य = उञ्चि, ताव कीन, पद, पङ्क्ति, जुषः = नीसम्बधमुलगु पाधन्या मुल पङ्क्तिनि पॊन्दियुन्न, याः = ए, सिकताः =इसुकतिन्नॆलनु, सेविञ्चिरो, तानु = अटुवण्टि, सिक तासु अजुषन्त
इसुक तिन्नॆलन्दु, मया पॊन्दँ बड लेदु. हा! =
नाचेत, जन्म= पुट्टुक न,लब्धम्= अय्यो! विशेषमुलु– रासे ऒण्डॊरुलचेतुलनु बट्टुकॊनि पॆक्कुमन्दि पॆक्कुरकमुलगु ताळमुलतो मण्डलाकार मुग नुण्डि चेयु नृत्यविशेषमु रास मनँ बडुनु, अजुषन्त = सन्तसिञ्चिरो (प्रीति जॆन्दिरो) जुषी =प्रीति सेव न योः—अनु धातुवुनुण्डि येर्पडिन रूपमु ई यर्धमु गूड निचटँ बॊसँगुनु. कृष्णवियोग कालमुनन्दुँ दत्पाद मुद्राङ्कितमुमगु सैकतमुले विरहिणुलगु गोप कन्यल कालिङ्गनादुल कनुकूलमुलै मदन तापमुनु बोँगॊट्टँ जूलिन वनि भावमु. हा! जन्म तानु सिक तासु मया न लब्धम्- अट्टि यिसुक तिन्नॆललो नॊक यिसुक तिन्नॆगा नैननु बुट्टक पोयितिने यनि कवियार्ति. ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! रासक्रीडलो नि न्नॆडँ बासिन गोपकन्य कलु त्वत्पादमुद्राङ्कितमुलगु नेयिसुकतिन्नॆलन्दु मन्म थाग्नितप्तमुलै ननिजावयमुल नुञ्चुकॊनि प्रीतिँ जॆन्दिरो या यिसुकतिन्नॆललो नॊकटिगा नैननु नेनु जन्मिम्प नै तिनि. अय्यो ! यॆन्त दौर्भाग्यमु. नै 96 अतिमानुष _स्तवमु गी रासलीलल नि न्नॆडँ बासि नाँडु गोपिकलु स्वीय तापम्बुँ बासिकॊनिरि त्वत्पदाङ्कम्बु लैनये तावुलन्दु अट्टिसिक तातलुल नैनँ बुट्ट नैति. श्लो॥ आचिन्वतः कुसुम मम्फ्रिसरोरुहं ते ये भेजिरे बत ! वनस्पतयो लता वा। अद्याऒपि तत्कुलभुवः कुलदैवतं मे बृन्दावनं मम धियं च सनाथयन्ति ॥ प्रति– ये ए, वनस्पतयः, वा 52 वृक्षमुलो, (याः==ए) लताः, वा तीगॆलो, कुसुमम् पूलनु (जा त्येक वचनमु) आचिन्वतः = कोयुचुन्न, ते=सी यॊक्क, अम्फ्रिसरोरुहम् पादपद्ममुनु, भेजि रे= सेविञ्चिनवो, बत = औरा !, तत्, कुल, भुवः
(नी वॆक्कि पूलुकोसिन चॆट्ल यॊक्कयु तीगॆलयॊक्क यु) वंशमुनँ बुट्टिन, चॆट्लुनु तीगॆलुनु, अद्या—पि = इप्पटिकिनि, मे नायॊक्क, कुलदै वतम्
कुलदै वमगु, बृन्दावनम् = बृन्दावन मुनु, मम = नायॊक्क, धियञ्च = बुद्धिनि, सनाथ यन्ति = अलङ्करिञ्चु चुन्नवि. वि शेषमुलु :- ‘अम्फ्रिसरोरुहं ते । ये भेजिरे’ ये - पूलु कोयुटकुँ जॆट्ल नॆक्कुनप्पुडु दिगुनप्पुडु नी पाद पद्ममुनु सेविञ्छिन चॆट्लु तीगॆलु अनि यर्लमु. 3 अतिमानुमा स्तवमु ‘बृन्दावनं मन धियं च सनाथयन्ति 97 बृन्दा वनमुन कलङ्कारभूतमुलुनु तत्कुलसम्भवमुलु नगु चॆट्लु तीँ गॆलु ना बुद्धिकि भोग्यमुलुगा ननुसन्धिम्पँबडु चुन्नवि. वॆनुकटि श्लोकमुनँ बरम्परगा भगवत्सम्बन्धि जड प्राप्तिये परमु प्राप्यमगु ब्रह्मानन्दमुनकुँ गारणमु गाँ जॆप्पँबडिनदि. ई श्लोकमुनन्दुँ बरम्पुरा सम्बन्धमु गल वनस्पत्यादुलु स्वयमुगाँ बरमप्राप्यमु लनि नुडुवँबडिनदि. इन्दुवलनँ बरम्परासम्बन्धुलकु सैतमु ऊपायत्वमु, उपेयत्वमु गलवनि सम्प्रदायमु, ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! पूलकॊऱकु नी वॆक्कि दिगुवप्पुडु ए चॆट्लुनु तीँ गॆलुनु नी पादपद्ममुनु सेविञ्चिनवो वानिवंश मुलोँ बुट्टिन याचॆट्लु तीवॆले नेँटिकिनि नाकुलदै व मगु बृन्दावनमुनु नाबुद्धिनि अलङ्करिञ्चि युन्नवि. उ, पूवुलँ गोयुपॊण्टॆ यदु पुङ्गव! चॆट्टुल नॆक्कु वेळ नी पावन पादपद्ममुल प्रापुनु गाञ्चँगँ गल्गॆ नेतरुल् ती वॆलु, वानिसन्ततु लॆ (13) 98 अतिमानुष स्तवमु तीयक नेँटिकिँ बूलँ बण्ड्ल बृं दावनि नादु डॆन्दमुनु दामरसाक्ष! यलङ्करिञ्चॆडुन्. अवतारिक :- भगवच्चेष्टित मन्तयुँ बावनमे यनि यी शोकमुन ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. 0 0 श्लो॥ यत् त्वत्प्रप्रियं त दिह पुण्य मपुण्य मन्य न्नान्य ‘त्तयो र्भवति लक्ष्मण मत्र जातु । धूरायितं तव हि यत् कील रासगोष्ठ्यां तत्कीर्तनं परमपावन मामनन्ति ॥ 53 प्रति :- :- इह=ई लोक मुनन्दु, यत् -एदि, त्वत्, प्रियम् = नीकुँ ब्रीतिकरमो, तत् = अदि, पुण्यम् =पुण्यमु, अन्यत् = नीकु -नीकु अप्रियमैनदि, अपुण्यम् = पापमु, अत्र ई विषयमुन, तयोः = आ पुण्यपापमुलकु, अन्यत् नी प्रियत्वाप्रियत्वमुलकण्टॆ नितरमैनदि, जातु ऒक प्पु डुनु, लक्षणम् लक्षणमु, न, भवति
= कादु, रासगो रासक्रीडा विनोदमुनन्दु, तव = नीयॊक्क, फ्याम् यत्
ए, धूर्तायितम्
धूर्त कृत्यमु, गलदो, तत् की र्त नम् = दानिनि सङ्कीर्तन मॊनर्चुट, परमपावनम्= अत्यन्त शुद्धिकरमुगा, आमनन्ति - तलँचु चुन्नारु. विशेषमुलु :- धूर्तायितम् ’ अङ्गना मङ्गना मन्त रे माधवो माधवं माधवं चान्तरे णाङ्गना’ अतिमानु व स्तवमु 99 ईप्रकारमुगा नॊनर्चिन धूरकृत्यमु. (लील) ‘तक्क र्तनं परमपावन मामनन्ति’ रासक्रीडलोनि धूर्ता यितमुनु स्मरिञ्चुट पवित्रता हेतु वनि शुकपराश रादुलु नुडिविरनि भावमु. सारांशमेमन देवरवारि याज्ञा रूपमुलगु श्रुतिस्मृतुलचेत विहितमुलगु विधिनिषेधमु लन्दुनु श्रीवारि प्रियत्वाप्रियत्वमुले पुण्यपापमुलकु अनुगत मुलगु लक्षणमुलु, ता! श्रीकृष्णा ! नीकुँ ब्रीतिकरमु पुण्यमु, अप्रीतिकरमु पापमु, अनुनदिये पुण्यपापमुल कनुगतमगु लक्षणमु, अन्दुचेत ने शुकपराश रादुलगु पॆद्दलु रासगोष्ठिलोनि नी लीलाविशेष मेदिगलदो तत्सङ्कीर्तनमुनु परमपावनमुगाँ दलञ्चिरि. 8. D वुण्य मगुँ द्वत्रियम्बॆ, यपुण्य मन्य, मनिय लक्षणमुलु वानि कवु निजम्मु रासगोष्ठिँ द्वदीय धू रायितम्बु वनजलोचन! परमपावनमु माकु. श्लो॥ या कंसमुख्यनृपकीटनिबर्हणोत्था सा निर्णीतत्रिजगत स्तव नैव कीर्तिः । गोपालनादि य दिदं भवदीयक र्मे त्यार्द्रीकरोति विदुषां हृदयं त देतत् ॥ प्रति :- शंस, मुख्य, नृप, कीट, निबर्हण, उता 54 कंसुँडु मॊदलुगाँगल राजकीटमुलनु संहरिञ्चुटवलन 100 अतिमानुष स्तवमु वच्चिन, या==एकी र्ति गलदो, सा=अदि, निर्जित, त्रिजगतः जयिम्पँबडिन मूँडु लोकमुलुगल, तव : नीकु, कीर्तिः = कीर्ति, नैव—कानेकादु, यत् -ए, इदिम् ई, गोपाल नादि = आवुलनु गाचुट मॊदलुगाँ गल, तत्, एतत् आयिदि, भवदीयकर्म= तमपनि, इति ज्ञानुलयॊक्क, हृदयम् करँगिञ्चुचुन्नदि. विशेषमुलु :– भवदीयक र्मेति अनि, विदुषाम् ज
मनस्सुनु, आर्द्रीकरोति = उभयविभूतुलकु नाथुँडवगु नी कुद्योगमायॆनु गदा ! यनि भावमु, कंसादिजयानुसन्धानमु कण्टॆनु देवरवारि यालँ गाचुट मुन्नगु चर्यये तत्ववेत्तल चित्तमुनकु व्यामो हमुनु गलिगिञ्चुचुन्नदि. अनि सारांशमु, ता ओ कृष्णा ! नीकु राजकीटमुलवण्टि कंसादुलनु संहरिञ्चुटवलनँ गलिगिनकीर्ति यॊककीर्ति कादु. मूँडु लोकमुलनु जयिञ्चिन श्रीवारिकिदि यॆन्त? कानि उभय विभूतिनाथुलगु तामु गोपालनाथुलँ गाविम्पवलसॆने यनि मात्रमु पण्डितुल मनस्सु तऱिगिकॊनि पोवुचुन्नदि. गी, कंसमुख राजकीटक खण्डनम्बु मनतये निर्जितत्रिलोकुवकु नीकु ? कानि नीयन्तवाँ डालँ गाय वलसॆँ, दऱिगीकॊनिपोवु मदि नदि तलँपँ गृष्ण!अतिमानुष स्तवमु श्लो!! गोपाल वेष परिकर्म पराव देशं यन्नामु धाम परहं तमसः परस्तात् । तत् पिञ्छलाञ्छनमुदामकृतो पवीतं गोधूलिधू परितकुन्तल मन्त रास्ताम् ॥ 101 55 एदि, प्रति :- पर, अवर, ईशम् उत्कृष्टुलगु अनन्त गरुडादुलकुनु, निकृष्टुलगु ब्रह्मरुद्रादुलकुनु पालक मैनट्टियु, परमम्=उत्कृष्टमैनट्टियु, यत् तमसः=प्रकृतिकि, परस्तात् = आवलिदियै (वर्तते = उन्नदो) नाम = प्रसिद्ध मैनट्टियः, गोपाल, वेष, परिकर्म = गॊल्ल वेष मे
अलङ्कारमुगाँ गलिगिनट्टियु, पिञ्छलाञ्छन, सुदाम, कृत, उपवीतम् नॆमिलिपिं चॆमु गुर्तुगाँगल दियु, पुष्पमाल चेतँ जेयँबडिन युपवीतमु गलदियु, गो, धूळि, धूसरित, कुन्तलम् –आवुल (गिट्टलवलन रेगिन) दुम्मुचेत मायँजेयँबडिन मुङ्गुरुलु गलदियु, अगु, तत् = आ, परमम्== श्रेष्ठमगु, धाम तेजस्सु, अन्तः नालोपल, आस्ताम् = उण्डुँगाक, वि शेषमुलु :- पराव रेशम्..परुलगु अनन्तगरुड विष्व क्सेनादुलकुनु, अवरुलगु ब्रह्मरुद्रादुलकुनु प्रभु वै नदियु - अनँगा उभयविभूतुलनु निर्वहिञ्चुनदि यनि भावमु. नाम— प्रसिद्धमु_ ‘आदित्यवर्णं तमसः वरस्तात् अनु श्रुतिप्रसिद्धमु, अन्त रास्ताम्- भगवत्पा रम्यमुकण्टॆ अवतार सौशील्यमे भोग्यमै निरन्तरानु भाव्यमगु चुन्नदि. 102 अतिमानुष स्तवमु ता॥ पराव रेशमैयुभयविभूतुलनु पालिञ्चुनदियु प्रकृति कशीतमैनदियु, गोपाल वेषमे यलङ्कारमुगाँ गलदियु, नॆमिलिपिं चॆमुनु दाल्चिनदियु पुष्पमाल धरिञ्चि नदियु, गोपरागधूसरालक मैनदियुँ ब्रसिद्दमैनदियु नगु गॊप्पवॆल्गु नालो नॆल्लप्पुडुनु ब्रकाशिञ्चुँ गाक. च. प्रकृति कतीतमुन् बरम पावनमुन् शिखिपिञ्छमौळि पा लकमु परावराळि कळ शङ्कमु दामकृतोपवीतमुन् ब्रकटित गोप वेष मनु भाव्यमु गोखुरधूळिधूसरा लकमु प्रजाङ्गनाक्षी सु फलम्मु वॆलुङ्गु वॆलुङ्गु नामदिन्. श्लो॥ यद्वै जरासुरभयात् विशजलायिथा स्त्वं त च्चे न्म नुष्यचरितानु विधानजं ते । तर्षि त्रिलोकगुरु विश्वर मीश्वराणां बाणाहवे कि मिति शम्भु मजृम्भय स्त्वम् ॥ 56 प्रति :- जरासुतभयात् –जरासन्धुनि भयमुवलन, त्वम्=नीवु, विपलायिथाः, (इति) यत् = परुगॆत्ति पोति वनुटयेदि गलदो, वै= प्रसिद्धमगु आ पाऱिपोवुट, ते = नीकु, मनुष्य, चरित, अनु विधानजं, चेत् चरित्रनटनमु वलनँ गलिगिनदि यैनयॆडल, तर्हि मनुष्य आपक्ष
अतिमानुष स्तवमु 108 मुन, त्रिलोक, गुरुम् = म्यूडुलोकमुलकु गुरुवै नट्टियु, ईश्वराणाम्लोक पालुरकुँ गूड, ईश्वरम्= प्रभुवैन, शम्भुम्=ईश्वरुनि, बाण, आहवे= बाणासुरुनि तोडि युद्धमुनन्दु, कि मिति ऎन्दुकनि, त्वम् अजृम्भयः आवुलिम्पँ जेसितिवि ?
नीवु, वि शेषमुलु :- ‘बाणाहवे कि मिति शम्भु मजृम्भय स्त्वम्’— बाणासुरुनकु सायमुचेय वच्चिन यीश्व रुनि श्रीकृष्णुँडु जृम्भणास्त्रमुनु ब्रयोगिञ्चि यावु लिम्पँ जेसि युद्धमुनन्दशकु नॊनर्चॆननि भारतमु “चॆप्पु चुन्नदि, ‘जृम्भणास्त्रप्रयोगेण जृम्भयामास शङ्करम् जृम्भाभिभूत स्तुहरो रथोपस्थ मुपाविशत् नशशाक तदा योद्धुं कृष्टे. नाक्लिष्टकर्मणा’ जरासन्धुनिकिँ बाऱिपोयिति वेनि ईश्वरु नॆट्टु लोडिञ्चँ गल्गितिवि? कावुन मानुषत्व नटनमुनँगूडँ बारम्यमु दाँपशक्यमु गाकुन्नदनि भावमु, ता॥ ओ कृष्णा ! नीवु जरासन्धुनिभयमु वलनँ बाऱि पोवुट मानवत्वमुनु नटिञ्चुट कैनचो बाणासुरुनितो युद्धमु चेयुनप्पुडु त्रिलोक गुरुवुनु ईश्वरुलकु सैतमु (इन्द्रादिदिगीश्वरुलकु) ईश्वरुँडगु शङ्करुनि जृम्भणास्त्र प्रयोगमुन नेमनि यावुलिम्पँ जेसितिवि ? इदि मनुष्यत्व नटनकु भञ्जकमु गादा ! 104 अतिमानुमा स्तवमु गी. भयपडि ज रासुतुन कीवु परुगु लिडुट मुरहरा ! नरचरितानुकरण मेनि ईश्वरुल कीश्वरुण्डौ म हेश्वरु नॆटु बाणुपोराटमुन भङ्गवऱिचिनावु ? श्लो॥ जातं ठुत प्त दकृतज्ञविचेष्टितं ते पुत्त्रियया किल नरं ववृषे वृषाङ्कात् । अक्षेषु सक्तमतिना च निरादरेण वाराणसी हरपुरी भवता विदर्था॥ प्रति :- पु ‘स्त्रीयया 57 पुत्रुँडु कावलयु ननु इच्छचेत, वृषाङ्कात् = ईश्वरुनिवलन, वरम् =वरमुनु, ववृषे किल कोरिति ‘वँट, अक्षेषु पाचिकलयन्दु, पट्टु सक्त मतिना= लग्नमगु बुद्धिगलट्टियु, निरादरण दल लेनट्टियु, भवता नीचेत, हरपुरी = ईश्वरुनि पट्टण मगु, वाराणसी=काशि, विदग्धा=वि शेषमुगा दहिम्पँजेयँ बडिनदि, (भस्ममु चेयँबडिनदि) ते = नीकु, तत् अकृतज्ञ, विचेष्टितम् = कृतघ्नुनि कृत्यमु, कुतः जातम् एर्पडिनदि ? =, ऎट्लु, वि शेषमुलु :- वाराणसी हरपुरी भवता विदग्धा पौण्ड्रक वासु देवुनकु सहायमु वच्चिन तनतण्ड्रिनि श्रीकृष्णुँडु चम्पॆनन्न कोपमुतोँ गाशीराजु रुद्रवर प्रसादमुचेत नुद्भविम्पँ जेयँबडिन कृत्य द्वार कापट्टण अतिमानुष _स्तवमु 105 मुनु दहिम्पँ बूनुकॊनँगा रुक्मिणी देवितोँ बाचिक लाडु चुन्ना श्रीकृष्णुँडु काशी राजु चेँ बम्पँबडिन कृत्यनु काशी नगरमुनु काशीराजुनु भस्ममॊनर्चॆननॆडि भाग वतकथ यिट ननुसन्धिञ्चुकॊनुनदि. ’ जातं कुति स्त दकृतज्ञ विचेष्टितं ते ‘— पशुपतिवलनँ बुत्प्रुनिकॊऱकु वरमुनु बॊन्दिन नीवु कृतघ्नुनिवलॆँ दत्पट्टणमगु काशिनि गाल्चि वेयुट यनुचितमुगदा! अट्लेल नीवण्टिवाँडु चेयुनु, यथार्थमुनकु सर्वेश्वरुँडु वगु नीकु पुत्र प्रार्थनादिक मु मनुष्यत्वविडम्बमुन के यनि सारांशमु. ता॥ श्रीकृष्णा ! नीवु पुत्रार्थमु शङ्करुनिवलन वरमुनु बॊन्दितिविगदा ! आकृतिज्ञत लेशमैननु लेकुण्डँ दद्राजधानि यगु काशीनगरमु नवलीलगा रुक्मिणितोँ बाचिक लाडुचु गाल्चि वेसिति वेल? इदि युचितमा ? उ. शङ्करुँ गूर्चि बल् तपमु सल्पि कुमारुनि वेँडि तण्ट नि श्शङ्कमुगा दहिञ्चितिवि शम्भुनिवासमुँ गाळि रुक्मिणी पङ्कज नेत्रतोड नटु पाचिक लाडुचुने कृतज्ञच र्याङ्क मॆ यिद्दि पुत्रवर णादुलु त्वन्नर ताविडम्बमुल् . (14) 106 अतिमानुष स्तवमु श्लो॥ सञ्जीवय न्नपि मृतं सुत मुत्तरायाः सान्दीपि ने श्चिर मृतं सुत मानयं श्च । धाम्नो निजात् द्विजसुतान् पुन रानय स्वा स्वा मेव तां तनु महो कथ मानय स्वम् ॥ प्रति :- मृतम् =मरणिञ्चिन, उत्तरायाः =अभिमन्युनि भार्ययगु उत्तरयॊक्क, सुतम् = गर्भस्थितुँडैन कुमा रुनि, सञ्जीवयन्, अपी= ब्रतिकिञ्चि नप्पटिकिनि, चिरमृतम् a गुरुवैन मऱल, चाल कालमु क्रिन्दँ जनिपोयिन, सान्दीपि नेः कालमुक्रिन्दँ सान्दीपिनियॊक्क, सुतम् कुमारुनि, आसयन्, च = तीसि कॊनि वच्चिनप्पटिकिनि, निजात् = सॊन्तमगु, धाम्नः = स्थानमु नुण्डि, (श्री वै कुण्ठ लोकमुनुण्डि) द्विजसुतान् = द्वारका वासियगु ऒक ब्राह्मणुनि कुमारुलनु, पुनः आनयन्, वा तीसिकॊनि वच्चिनप्पटिकिनि, त्वम् = नीवु, स्वाम्=स्वकीयमगु, ताम्=आ, तनुम्, एव (मरण ‘कालिक मगु) शरीरमु ने, कथम् – ऎट्लु, आनयः = तॆच्चितिवि ? औरा ! ऎन्नडो भस्ममयिन देहमुनु अहो!
गॊनिवच्चुट याश्चर्यमुललो नाश्चर्यमनि भावमु. विशेषमुलु :- ‘सञ्जीवय न्नपि मृतं सुत मुत्त रायाः’—अश्वत्थामप्रयुक्तमगु अपाण्डवास्त्रमुचेत न युत्तरादेवि कुमारुनि श्रीकृष्णुँडु ब्रतिकिञ्चिन दग्गुँडैन कथ निट ननुसन्धिञ्चुनदि. अतिमानुष _स्तवमु क. ‘चॆल्लॆलिकोडल, नीमे नल्लुँडु शत्रुवुलचेत हतुँ डय्यॆनु सं फुल्लारविन्दलोचन ! भल्लाग्नि नडञ्चि शिशुवु ब्रतिकिम्पँ गदे (श्रीमदान्ध्र भागवतमु) 107 इट्लु त्त रा देविचेँ ब्रार्थितुँडै श्रीकृष्णुँडु ‘पा देन कमलाभे । ब्रह्मरुद्रार्चि तेनच पस्पर्श पुण्डरीकाक्षु आपादतलम स्तकम्’ यदि मे ब्रह्मचर्यं स्वात् । सत्यं च मयि तिष्ठति अव्याहतं ममैश्वर्यं तेन जीवतु बालकः ईविधमुगा नुत्तकागर्भस्थ मृतशिशुवुनु रक्षिं चॆनु. ‘सान्दीपिने श्चिर मृतं सुत मानयं श्च - विद्यागुरुवगु सान्दीपिनिकि गुरुदक्षिणगा ऎन्नँडो समुद्र स्नानमुनकु वॆळ्ळि समुद्रमुलोनि पञ्चजनासुरुनि चेत भक्षिम्पँबडिन कुमारुनि दॆच्चियिच्चिन गाध निट गमनिम्प व इट्ले तक्किन विषयमुल भागवतादुलनुण्डि तॆलिय वलॆनु. अहो !— आश्चर्यमु. मृतुलनु गॊनिवच्चुट येरि तरमु. ऒक भगवानुनके आश क्ति कलदु. ऎन्दुवलन? ‘पर्कास्य शक्ति र्विवि धैव श्रूयते’ 108 अतिमानुष स्तवमु ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! उत्तराप्रार्थनचेत अश्वत्थामास्त्र दग्धुँडैन गर्भस्थमृतशिशुवुनु गापाडिनप्पटिकिनि, ऎन्नँडो समुद्रस्नानमुन केँगि मरणिञ्चिन गुरुपुत्रुनि गुरुवगु सान्दीपिनिकि गुरुदक्षिणगा ँ दॆच्चियिच्चिननु, द्वारकावासि यगु ब्राह्मणुँडु वेँडिकॊनँगा मरणिञ्चिन यतनि कुमारुलनु वै कुण्ठमुनुण्डि तॆच्चियिच्चिननु वीनि यन्निटि कण्टॆ नाश्चर्यकरमगु भस्मीभूतमैन नी शरीरमु नॆट्लु तीसिकॊनि राँगलिगितिवो यूहिम्प लेमु. च. उदरमुनन्दॆ यस्त्रीहतु नु त्तर चिन्नि कुमारुँ गाचितौ मुद मॊनँ गूर्चिनावु सुतु मुन् मृतुँ गान्कग निच्चि यॊज्जकुन्, सदयुँडवै यॊसङ्गितिवि स्वर्गतुलन् सुतुलन् द्विजातिकिन् मन्दि वॆऱ गन्दु भस्म मग्गु मैँ गनिपिञ्चिति वॆट्लु माधवा ! अवतारिक :- इट्लु अतिमानुषशीलवृत्तवेषैः’ अन्न श्लोकमुतो नुपक्रमिञ्चि, ‘आत्मानम्मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ ‘अहं लो बान्धवो जातः’ अन्न प्र कारमु मनुष्यत्व भावनयन्दु सैतमु अतिमानुषज्ञान शक्त्यादि गुणगणमु ननुभविञ्चि यतिमा नुषस्तोत्रमु नुपसंह अतिमानुष _स्तवमु 109 रिम्पँबोवुचु शरणागति पूर्वकमुगा शरणागति पूर्वकमुगा स्वाभिमतमुनु मूँडु श्लोकमुलतोँ ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आद्या पि ना न्युपरति स्त्रिविधापचाराल् ती पापः परे निपतितो ऒस्मि तम स्वपारे । एतादृशो ऒह मगति र्भवतो दयायाः पात्रं त्वदीयचरणा शरणं प्रपद्ये ॥
59
प्रति :- पापः = पापिष्ठुँडनगु, अहम् = नेनु, परे गॊप्पदियु, अपारे = दुस्तरमैनदियु, (अगु) तमसि = अज्ञानमुनन्दु, निपतितः = पडिपोयिन वाँडनु, अस्मि अगु चुन्नानु. त्रिविध, अपचारात् -त्रिविधमगुँ (मूँडु रकमुलैन) अपचारमुनुण्डि, उपरतिः निवृत्ति, अद्य, अपी=इप्पटिकिनि, नास्ति = लेदु, एतादृशः अगतिः
इटुवण्टि, उपायान्तरमु लेनि, भवतः = नीयॊक्क, दया कृपकु, पात्रम् स्थानमुनुगु, अहम्= नेनु,
नीपादमुलनु, शरणम् = शरणमुनुगा, त्वदीय, चरण् = प्रपद्ये= प्रपत्ति चेयुचुन्नानु (पॊन्दुचुन्नानु) वि शेषमुलु :- पापः - अनुट चेतँ गर्मयोगमु लेमि चॆप्पँबडॆनु. दानिचेतने ‘कषाये कर्मभिः पक्वेततो ज्ञानं प्रवर्तते’ अनु प्रमाणमुनुबट्टि ज्ञान योगमु लेमियुँ जॆप्पँबडिनट्लय्यॆनु, त्रिविधापचारात् अप चारमुलु मूँडुरकमुलु 1. भगवदवचारमु 2. भाग 110 अतिमानुष स्तवमु वतापचारमु 3. असह्यापचारमु. अद्यापि ना स्त्युव रतिः— नेँटिकिनि ई त्रिविधापचारमुलनुण्डि निवृत्तिलेदु. निजमे अपचारमुलु ज्ञानमुचेत निवृत्तमुलगुनु. ज्ञान योगमु लेकपोवुट चेत अपचारमुलनुण्डि तॊलगुट सम्भ विम्पदु. कर्मयोग, ज्ञान योगमुलु लेक पोवुट चेतँ दत्साध्यमगु भक्ति योगमुनु सिद्धिम्प लेदनि तेलिनदि. लेकपोवुट एतादृशोzह मगतिः अगति यनुटचेत कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्ति योगमु लनॆडि युपायमुलु लेनि वाँडनयितिनि गान भवतो दयायाः पात्रम् ‘अकिञ्च नानां कृपै वोत्तारिका’ अन्नट्लु एयु पायसम्पत्ति यु लेनिनाकु नी निरुपाधिककृपये तारकमु. कनुक त्वदीय चरणा शरणं प्रपद्ये नीपादमुलनु शरणुचॊच्चु चुन्नानु. अद्यापि ना स्युपरति स्त्रिविधापचारात्- अनु चोट नीविधमुगा नै ननु जॆप्पिकॊनवच्चुनु. तरणोपाय मुनु गोरुवारिकि भगवन्तुनियॆडल 1. प्रातिकूल्यवर्धनमु, 2. अनुकूल्य सङ्कल्पमु, 3. रक्षिम्पँगलँ डनु महा विश्वासमु उण्डवलॆनु. इवि लेवनि यिन्दुँ दॆलुपँबडिनवि. इप्पटिकिनि त्रिविधापचारमुलनुण्डि निवृत्ति लेदनुट चेत 1. प्रातिकूल्यवर्णना भावमु, ‘पापः’ – अनुटचेत 2. आनु कूल्यसङ्कल्पा भावमु, ‘तमसि निपतितो 2 स्मि’ अनुट चेत महाविश्वासाभावमु, तॆलुपँबडिनवि. ईविधमुदिक्कु लेनि नाकु नीकृपये दिक्कनिभावमु, -ओ अतिमानुष स्तवमु JIE ! 111 ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! पापिष्टुँडनु, अपारमैन महा तमस्सुनँ बडिपोयितिनि, इप्पटिकिनि त्रिविधापचारमुलनुण्डि निवृत्ति गलुग लेदु. इट्लु पायान्तर शून्युँड नगु नेनु नी निरुपाधिकदयकुँ बात्रुँडनु. नी चरणम्बुलु शरणुँ जॊच्चुचुन्नानु. उ. पापुँड मुनिपोयिति न पारमहातममन्दु, नेँटिकिन् चापलवृत्ति नामनमु चक्रधरा ! त्रिविधापचारदु र्व्यापृतिनुण्डि मान दनु पायुँड नीकरुणैक पात्र मी कापुरुषुण्डु त्वच्चरण कञ्जमुलन् शरणम्बु चॊच्चॆडुन्. अवतारिक :- पूर्वोक्तमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. न ॥ विस्रम्भणं त्वयि न यद्यपि मेस्त्रि नापी श्रद्धायथो क्तवचनार्थगता तथा2पि । वाचं त्विमां सकृदथाप्यसकृन्मयोक्तां सत्यां कुरुष्व दय यैव दयैकसिन्धो II 60 प्रति :- हेदयैकसन्धो! दयकु मुख्यमुगा समु द्रमुवण्टि ऒकृष्णा!, यद्यपि = विचारिम्पँगा, त्वयि नीयन्दु, विस्रम्भणम् रक्षिम्पँ गलँडनु विश्वासमु,
- न, अस्ति = लेदु, यज्ञोक्त, वचन, अर्थ, गता = चॆप्पं
- 112
- अतिमानुष स्तवमु
- बडिन वाक्यार्थमुनु ननुसरिञ्चिन, श्रद्धा, अपि = ना स्त्री= लेदु, तथापि
= ऐननु, सकृत् श्रद्धयु, ऒक्कमारु, मया=नाचेत, उक्लाम् पलुक ँबडिन, इमाम् = 3, वाक्कुनु, अथापि वाचम् = तरुवात, असकृत्
पलुमार्लु, उक्ताम्=पलुक ँबडिन दानिनिगानु, सत्याम् = त्रिकरणशुद्धिगा ननुष्ठिम्पँबडिन दानिनिगानु, (लेदा) हृदय पूर्वकमैन दानिनिगानु, दयया, एव
कुरुष्व चेयुमु.
दयचेतने, ‘एता वि शेषमुलु :- श्रद्धा यथोक्त वचनार्थगता दृश्कोय मगति र्भवतो दयायाः पात्रं त्वदीय चरणा शरणं प्रपद्ये अनि पूर्वश्लोकमुनँ जॆप्पँबडिन वाक्यार्थमुन कनुगतमैन श्रद्धयु लेदु. श्रद्ध यनँग यनुष्ठान पर्यव लेदनि भावमु. विश्वासत्वर – माट चॆप्पितिने कानि यदि सायि कादु. चॆप्पिनप्रकार मनुष्ठानमु दययैन———इन्दलि एवकारमु चेत दयये साङ्गमगु साधनमनि चॆप्पिन ट्लैनदि. तागि दयासमुद्रुँडवगु ओश्रीकृष्णा ! विचारिम्पँगा निजमुनकु नाकु नीयॆडल रक्षिम्पँगलवनु विश्वासमु शून्यमु, ‘त्रिविधापचारमुलनुण्डि निवृत्तुँडनु कानि महा पापिनि दिक्कु लेनिवाँडनु, नी दयापात्रमुनु नीपादमुल शरणु पॊन्दितिनि, चॆप्पिनप्रकार माचरणमु लेनि श्रद्धाहीनुँ अतिमानुष स्तवमु 113 डनु, ऒकमारु पलुकँबडिन नायी वाक्कुनु पलुमार्लु पलुकँबडिन दानिनिगानु त्रिकरणशुद्धमैन दानिनिगानु सत्य मैनदानिनि दयतोँ जेयुमु. शा. रक्षिम्पं गल वञ्चु नीयॆडल. नी रन्ध्रम्बु विस्रम्भ मो कुष् स्थाखललोक! लेदु, गति ना कुन् नीवॆ यन् वाक्कुले साक्षिऔ द्वक्त्रगतम्बु लाचरणनि स्वम्बुल्, कृपन् बुण्डरी कालि! नानुडुलन्. द्रिशुद्धमुलु स त्यम्बुल् पॊनर्पं दगुन्. श्लो॥ पापीयस्कोपि शरणागतिशब्दनाजो नो पेक्षणं मम त वोचित मीश्वरस्य । त्वज् ज्ञानशक्तिकरुणासु सतीषु नेह पापं पराक्रमितु मर्हति मामकीनम् ॥ 61 प्रति := ( हेदयैक सिन्धो ! = करुणासमुद्रुँड वगु ओ श्रीकृष्णा!, पापीयसः, अपि= अत्यन्तमु (मिक्किलि) पापि नैनप्पटिकिनि, शरणागति, शब्द, भाजः = शरणागति शब्दमुनु मात्रमे पॊन्दियुन्न वाँडनगु, मम=नायॊक्क, उपे क्षणम्=उपेक्ष, ईश्वरस्य = शक्तिमन्तुँडवगु, तव=नीकु, न, उचितम् = = तगदु, (उचितमु कादु) त्वत्, ज्ञान, शक्ति, देवरवारि ज्ञानमु “नमु शक्तिदयलु, सतीषु करुणा (15) 114 अतिमानुष स्तवमु उण्डँगा, मामकीनम् = नासम्बन्धि यगु, पापम् = पापमु, इह=इक्कड, पराक्रमितुम्=बलमुनु जूपुटकु (प्रति बन्धक मगुटकु) न, अ अर्हति = तगदु. वि शेषमुलु :- त्वज् ज्ञानश क्ति करणासु सतीसु नेह! पापं क्ति पराक्रमितु मर्हति मामकीनम्- शरणागतुँडनु माटये फलसाधन मैननु आफलसिद्धिकिँ ब्रतिबन्धकमुलगु पापमुलु प्रायश्चित्तादुलवलन नुपशमिम्पँ जेसिकॊन वलयुनु, नी वट्टि प्रायश्चित्तादुल नॊनर्चुकॊनक पोवुटचेत फलमॆट्लु सिद्धिञ्चुनु ? अनि भगवानुँ डन्नट्लु शङ्किञ्चुकॊनि ई युत्त रार्थमुचेत समाधान मिच्चुचुन्नारु. ओ कृष्णा ! नी ज्ञानशक्ति करुणलु प्रकाशिञ्चु चुण्डँग ने नी नापापमुन किन्तपराक्रममु चॆल्लदु. नी ज्ञानश क्तीकरुणलनु त्रोसि राजनुटकु ना पापमुनकु बलमुन्न चो ना पापमे मिन्नयगुनु गदा.! सारांश मेमन —— ओ देवा! एदृष्टितो एविधमुगाने कानी शरणागतुल मन्न वारिकिँ ब्रतिबन्धकमुलगु पापमु लनु निरसिञ्चुट मूलमुन नीचरणारविन्दमुलन्दु निरन्तरमु दास्यमु ननुग्रहिञ्चुलकुँ गङ्कणमु कट्टु कॊनियुन्न नीज्ञानश क्ति करुणलु राजिल्लुचुण्डँगा नापापमु फलमुनु ब्रतिबन्धिम्पँजालदु गान श्रीवारु नन्न वश्यमु चेँबट्टि रक्षिम्प वलयुनु. ‘त्वज् ज्ञानशक्ति करुणासु’ — अनु चोट ‘दयायाः पात्रम्’ ‘दयैन’ - ‘एवकारेण दयैन अतिमानुष _स्तवमु 115 साङ्गं साधनम्’ इत्यादि वाक्यमुल चेत प्रकरणानुगुण मुगा दयये प्रधानसाधन मनियु ज्ञानशक्तुलु दयकु अङ्गभूतमु लनियु सम्प्रदायमु. ता॥ ओ श्रीकृष्णा ! ने नत्यन्त पापि नैननु ‘शरणागतुँ डनु’ अनु शब्दमु नुच्चरिञ्चितिनि गान समर्थुँडवु शक्ति सम्पन्नुँडवु नगु नीकु नन्नु पेक्षिञ्चुट तगदु. देवर वारि ज्ञानशक्ति करुणलमुन्दु नापाप मॆन्तदि? तमयु पेक्ष वलन ना पापमुन किट्टिपराक्रममुनु गल्गिञ्चि गौरवमिच्चुट ग गी. परमपापिनॆ यगुदुँ बो ! पद्मनाभ ! अर्ह मे नीकु ननु शरणार्धि वीड? नीकृपाज्ञानशक्तुलु नॆगडु’ चुण्ड नक्रममु नादु पापपराक्रमन्दु. एविद्वन्मणि भारतीहरिकि था हेलावती स्वर्धुनी सेवाभाग्यमुचेत निन्नि दिनमुल् सेमम्बुगा नेँगॆ ना श्रीवत्साङ्कुँडु कूरनाथुँ डिटुपै स्वीयस्तुतिन् शेषमुन् भावादर्शमदान्ध्रटिप्पणमुतो भासिल्ल दीविञ्चुतन्. उ, काकिकि नॆन्नि दन्तमुलु कम्बळिरोममु लॆन्नॊ तॆल्पुमा 116-43 अतिमानुष स्तवमु एकगु पॆट्टु चोळमुन ‘नेमि कब्बु र्लनुनट्लु काक यी नाकुँ दरिञ्चुमार्गमु नो नर्चॆनु श्रीयुतदास शेषमै त्रीकलनम्बु कूरपति दिव्यव चोलहरीपरिफ्लुतिन् . सी, तरतरम्बुनु माकु दास शेषस्वामि नॆय्यम्बुविय्यम्बु नॆगडुँ गाक विष्णु वैष्णवगोष्ठि वेळँ बदे पदे दासकुटीयात्र तनरुँ गाक दासकुटी मुखद्वारालयश्रीम दाञ्ज नेयुनि सेव यलरुँ गात कोदन्द रामुलगुरुकृपापीयूष धार नामीद नेपारुँ गात गी. गण्यमै दास शेषप्रकाशित मयि पत्रिकाराज मनि पेरु वडिन मेटि भ क्ति सञ्जीवनिकि माकुँ ब्रबलुँ गाक नित्यसम्बन्ध मुज्जवनीय मगुचु, गद्यमु : इदि श्री श्रीवत्साङ्क मिश्र विरचितम्बगु नतिमानुषस्त वम्बु नकु कविशेखर, महोपाध्याय, मध्वश्री प ळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतम्बु भावादर्शं बनु नान्ध्र विवरणमु, समाप्त मु स्त व मु पुट पं क्ति तप्पु ऒप्पु 6 9 लीलायुतं लीलायितं 8 7 त्वसध्यो त्वसतो ऒधि 22 10 8 नी सम्बन्धमुलकु 12 13 दुष्येत् 15 1 यव नी सम्बन्धमुलगु नदु ष्येत् यद 15 3 दधीन त्वदधीन 15 20 ऐश्वर्य ऐश्वर्यमु 16 जन्म दन्मा 16 13 भ्रान्त्योय भ्रान्तो ऒय 17 5 इदन्तयो इद 17 6 तट पै तट सैः 17 21 127 नभे न 19 26 श्रीरङ्ग श्रीरङ्ग 19 26 वीक्षितां वीक्षतां 20 6 20 17 दज्ञुल डबुल 20 19 नीकि नीकि 2 श्री वैकुण्ठ स्तवमु पुट पङ्क्ति तप्पु ऒप्पु 2 11 पपत्ति प्रपत्ति 3 7 समा प्लि هـ 8 13 प्रयुं 8888 36 5 पोवट पोवुट 39 17 स्तत् 43 10 र्वाप्तियु 43 17 परि 63 20 ईशितृत्व मे र्व्याप्तियु परा (सरो) 67 23 8 भव ईळितृत्वम् भवे 76 19 द घ ट تنو 84 19 तीशितृतत्वम् तीशितृत्वम् 98 10 चॆप्पु चॆप्प 119 6 लवसङ्कलम्बुचे सङ्कल्पम्बुचे 130 20 क्षणारॆ क्षणार्धे 132 13 दहो 161 3 उपाख्याया उपाख्यया 188 9 परिमाणममु परिमाणमु अतिमा नुष क्रैस्त व मु फुट पङ्क्ति तप्पु सुस्वाभाव 2 19 00 8 15 17 16 19 18 ऒप्पु व्यूहाव गोचरो सि तेज स्तिरमुलकु सुस्वभाव रामकृष्णाद्यव गोचरिसि तेज स्तिमिरमुलकु सनादि शनादि 31 00 38 13 39 10 40 00 8 कॊलचुकॊनिन ममर्ष वशौ पापशकी तिर्यग्जन्तुवलन्दु कॊलचुकॊननि ममर्ष वशा पापशङ्की तिर्यन्तुवुलन्दु 71 16 परिहस परिस 105 12 नवलीलगा नवलीलगा 115 13 पराक्रमन्दु पराक्रमम्बु 116 18 मुज्जिवनीय मुज्जीवनीय H सूच न वैकुण्ठ स्तनमुनन्दु 18व श्लोकमुनकुँ दात्पर्यमु ता॥ नारायण शब्दमुन कर्थमगु श्री वैकुण्ठनाथुनि यन्दुँ दात्पर्यमु गल वन्दलकॊलँदि वेदवाक्यमुल चेतनु, अट्टिवे यगु स्मृतुलचेतनु, शब्दशक्ति वलननु (सामर्थ्यमु चेतनु) नारायण परमुलु गनुकने सात्त्वि कमुलु श्रेष्ठमुलु नगु भागवतादि पुराणमुल चेतनु, परदैवमु नॆऱिङ्गिन पराशर, पराङ्कुशादिमुनुल युप देश मुल चेतनु, ओ वैकुण्ठनाथा! निन्ने चेतनाचेतन नियन्त नुगा निश्चयिञ्चु कॊनुचुन्नामुँ वैकुण्ठ स्तवमुलो 27 व श्लोकमुनकुँ दात्पर्यमु- ता॥ वेदमुलं देपरवस्तुवु परम तत्त्वमनियु, परञ्ज्योति यनियु, परमात्म यनियु, ब्रह्म मनियु नध्ययनमु चेयँबडिनदो यापरवस्तुवु नॊक युपनिषत्तु नारायणुँ डनियु, मऱियॊक युपनिषत्तु विष्णुमूर्ति यॊक्क परमस्वरूप मनियु नुडुवु चुन्नदि.
श्री हयग्रीवायननुः श्री श्रीवत्साङ्कमिश्रविरचित पञ्चस्तवी द्वि तीय स य सम्पुटमु ( श्री सुन्दरि बाहु श्री वरदराज स्तवमुलु) कविशेखर
महोपाध्याय - विद्यालङ्कार - साहित्यरत्न मध्वश्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य विरचित भावादर्शनामकान्ध्र विवरण पद्यसहितमु दासकुटि प्रकाशितमु अङ्गलकुदुरु मूल्यमु : 6-00 2 श्री सुन्दर बाहु वरदराज स्तवमुलकुँ गूड दित्प्रदर्शन श्री सुन्दरबाहु मुगा मनवि चेसिकॊन्दुनु. भगवत्कल्याण गुणानु भवमुनु जेयिञ्चुनु भगवत्पादार विन्दमुल नचञ्चल भक्तिनि कलिगिञ्चुटलो श्री कूरेशुल मैदु स्तवमुलु सद्वितीयमु ले यैननु ई स्तनद्वयमुनकुँ गल विशिष्टत यनन्यादृशमु. दीनियन्दुँ गवितासरस्वति निजरूप दर्शन मॊसँगुचुन्नदि. ‘अन्य देवास्य गाम्भीर्य मन्य धैर्यं महीपतेः’ अन्नट्लु वरदराज स्तवमुलोनि प्रपत्ति निष्ठकॊक प्रत्येकत गलदु, ई स्तवमुलो 102 श्लोकमुलु गलवु. पदिपदि श्लोकमुल नॊक्कॊक्क वृत्तमुलोँ जॆप्पि सर्ववृत्तमुललोनु तन कवितासरस्वति निरर्गळमुगाँ ब्रवहिम्पँ गलदनि यी कवि यिन्दु विशदीकरिञ्चॆनु. Por नी ई स्तवमु मन्त्ररत्नमुनकु विवरण मगुट चेँ बञ्चस्तवी मालकु मणिपूस मणिपूस यगुचुन्नदि. ई विषयमु कोशमुनकु संस्कृतमुन व्याख्यान मॊनर्चिन श्री श्रीनिवासा चार्य विद्वन्मळुलु श्लोकावतारि कललो विवरिञ्चिये युन्नारु. दित्प्रदर्शनमु. ‘श्रीनिधिम्’ अनु 21 व श्लोकमुन ‘श्रीनिधि’ पदमु चेत मन्त्रिरत्नस्थ मगु श्री मत्पदमुनु नारायण पदैक देशमगु नारपदमुन कर्थमुगा श्री वरदराजस्वामि निवासमगु करिगिरिनि ब्रथम दशकमुचेत वर्णिञ्चि नारायणशब्दमु गुणप्राचुर्यमु चेत श्री भगवानुनि वरिञ्चिन्दि गनुक द्वितीय दशशमुचे श्रीवारि वक्काणिञ्चि 3 कल्याणगुणमुल विवरिञ्चि दिव्यविग्रह योगमु सैतमु नारायणशब्दमुन कर्ध मगुटवलननु शरणशब्दमुचे नाटि स्त मगुटवलननु 33 श्लोकमुल चेत ना मूर्खपादमु श्री स्वामि वारि दिव्यमङ्गळ विग्रह सौन्दर्यमु ननुभविञ्चि दानितोँ दनिवि चनक विभवावतारमुलोनि वैभवमुल नास्वादिञ्चि यन्दुनु नरसिंहावतारमुलोँ ब्रह्लादुनि यॆडँ जूपिन वात्सल्यमुनकु रामावतारमुलोँ गोसलवासुलु यॆडँ ब्रदर्शिञ्चिन कृपकुँ, गृष्णावतारमुन गोगोपबृन्दमुल वॆल्लिविऱिसिन सौशील्य सौलभ्यमुलकु, मुग्धुलै स्वकीयकृप चे साधुरक्षणार्थमु कृतावतारुँडगु श्री वरदराजस्वामिने “रायणशब्दार्थमुगाँ ब्रतिपादिञ्चि तदीय चरणम्बुल शरणुँ जॆन्दँ दलँचि ‘अनुजो रावण स्याहं तेन चास्म्यवमानितः त्यक्त्या पुत्रांश्च दारां श्च राघवं शरणं गतः’ अनि चॆप्पिनट्लु तानु सम स्तदोष निलयंँडननि 18 श्लोकमुलतोँ दॆलुपुकॊनि भगवद्दास्यैकरनुण्डै तत्र्पाप्तिकि मन्त्ररत्नोक्त प्रकारमु ‘वरद! शरण मि त्यहं त्वां वृणे’ वरद 82 ‘नगद मुरुदयं गतिं – त्वां वृणे वरद 83 अनि शरणवरण मॊनर्चुट चेत नी स्तवमु पाठकमहाशयुलकुँ ब्रव त्तिरिष्टनु बोधिञ्चुचुँ दरणोपाय मगुचुन्नदि. ई सवमु व्रायुनाँटिकि श्री कूरेशुलु परिपक्वहृदयुलै ब्रह्मादि पदवुलनु गूडँ दृणीकरिञ्चि भगवद्दास्य महारसज्ञुलैरि. कनुँडु. 6 4 या श्लोII भोगा इमे विधिशिवादिपदं च किञ्च स्वात्मानुभूति रिति या किल मुक्ति शुक्ता! सर्वं त दूषजलजोष महं जुषेय ह स्त्यद्रिनाथ ! तव दास्यमहारसज्ञः ॥ वरद –SI च धनकनकादि वस्तुसमुदायमु नन्दनभूमि नप्सरों गनलनु गूडुट ब्जभवकन्तु विरोधि सुरेन्द्रपट्टमुल् गॊनुटलु, स्वात्मभोगमनुकॊं चॆपुमुक्ति ँगरीश! यूष रा वनिजल मट्ल यॆन्तुनु भवत्पददास्य महारसज्ञतन्. कनुक ने यी _स्तवमुनन्दुँ बलुचोट्ल ‘प्रसह्य मां प्रापय दास्य मेव ते’ -93 ‘कदा विधास्ये वरिवस्यनं 3 तव 93 अनि मोक्षमुनन्दु सैतमु भगवद्दास्यमुन के आराटपडिरि. इट्टि मुमुक्षु मूर्धन्युलगु श्रीकूरेशुल कवित्वमुलो ना बोटिमूढुँडु गुणविमर्श मॊनर्पँ . बूनुटकु ‘न श्वावलीढ मपि तीर्थ मतीर्थ माहु र्नोदन्य त्कापीच शुना न च लज्जितव्यम्’ अनि श्रीवा रॊसँगिन धैर्यमे हेतुवनि विज्ञुलकु विन्नविञ्चुकॊनुचु दोँचिन कॊन्नि कवितागुणमुलु निवेदिञ्चुकॊन्दुनु. 3 नाकुँ 13 श्लो॥ ’ सुसुन्दर भुजाह्वयं मधु निपीय मत्ता यथा’ ‘न सुरां पिबेत्’ अनि वेदमु निषेधिञ्चि युण्डँगा विज्ञुलकु कूरेशु लिट मधुपानमुनु वर्णिञ्चुटयॆट्लु ? अनि शङ्किम्परादु. ई मधुवु सुन्दर बाहुमूरि ये कावुनशिष्टुलु गूड दीनिनिँ ग्रोलवच्चुनु. 5 रालु 12 श्लो॥ वकुळधर सरस्वती- मुं दॆन्नँडो पुट्टँबोवु शठकोपमुनुल द्राविडोपनिषत्तुल किन्नर कान्तलु करुगुनट्लु गान ‘मॊनर्चि रनुचोँ गालदोषमु पट्टदा? पट्टदु शठकोपमुनुलु पुट्टि द्रविशोपनिषत्तुनु रचिञ्चिन तरुवात सुन्दर बाहुस्वामिवारि सेव केतॆञ्चिन किन्नर कान्त लॊ युपनिषत्तुनु भगवत्रीतिकि गान मॊनर्चि रन्न नेदोषमुनु लेदु. 14 श्लो॥ पीताम्बरं वरद शीतल दृष्टिपातं उ॥ पच्चनिपट्टु बट्ट… एतिच्छोक प्रतिपाद्य दिव्यमङ्गळ विग्रहमे श्रीकू रेशुल युपास्यमूर्तिगा स्फुरिञ्चु चुन्नदि. 17 श्लो॥ पतिं विश्व स्यात्मेश्वर मिजि - ई श्लोकमु वेद वाक्यमुलतो छन्दो बद्धमुगा नॆन्त हृद्यमुगाँ गूर्पँ बडिनदो तिलकिम्पुँडु. 31 शो निहीनो जा जात्या ना- ई श्लोकमुनँ गू रीशुल यभिप्रायमुलो नुन्न जातिहीनुँडु वृत्तहीनुँडु, अज्ञुँडुनु सुग्रीवुँडनि तॆलियनगुनु. नरजातिकण्टे वासर जाति हीन मेगदा ! भ्रातृभाग्यागामिनि वृत्तिहीनुँ डनुटकु नभ्यन्तर मेमिगलदु. इट्टि पनि कॊडिगट्टिनि वाँ डज्ञुँडु डु गाक प्राज्ञुँडगुना? इट्टि हीनुँडु सैतमु शरणु ã 6 चॊच्चिनचो ‘भजन्तं तं पश्ये द्भुजगपतिना तुल्य मपि यो’ निवासशय्या सनपादुकांशुकादि सर्वविध कैङ्कर्य मुल कुपयोगपडु शेषुनितो समानुनिगाँ जू मनँट. चूडलेदा सुन्दर बाहुस्वामि रामुँडुगा नवतरिञ्चि नप्पुडु सुग्रीवुनितो’ ‘त्व मन्माकं चतुर्णां वै भ्राता सुग्रीव ! पञ्चमः’ अनुट चेत शेषावतारमुगाँ “शेषावतारमुगाँ ब्रसिद्धुँ डगु लक्ष्मणुनितोँ दुल्यत्वमु वर्णिम्पँबडुट सुग्रीवु ननुग्रहिञ्चुटे गदा! विशेषमु श्लोकवि शेषमुलन्दुँ जूडनगुनु. 102 श्लो॥ अनवा प्त मत्र किल- ई श्लोकमुन मुन्दु पुट्टँ बोवुवारु श्रीरामुनिपै जेयँबोवु ‘गव्यं दुद्ध मपास्य पास्यति जनः को वा यवागूरसम्’ (रामुँडु कोसल राज्यपट्टाभिषेकमुनु मानुकॊनि वनवासमुन केँगॆननि या क्षेपिञ्चुचु रामुँडु दप्प या नॆवँडु गोक्षीरमुनु द्रोसिराजनि गञ्जिनीळ्ळनु द्रागुनु) अनु प्रश्नकु ‘ना नृषिः कुरुते काव्यम्’ अन्नट्लु त्रिकाल वेदु लगु कूरेशुलु चक्कँगा समाधान मिच्चिरि. श्रीमन्नारायणाव तारुँड वगु श्रीरामा ! अवा प्त समस्तकामुँड वगु नीकुँ गोसल राज्य मॊक गॊप्पया? अन्दुवलनने नी चेत ‘जगति नीचेत त्वर तृण मवै क्षि सुन्दर!’ कोसलभूमि तृणमुगाँ जूडँ बडॆनु. ई समाधानमु कूरेशुलु श्रीरामु नवतारमु गावुनँ दन हृदयमुनु विवरिञ्चॆना ? अन्नट्लु हृद्य । 7 मुगा नुन्नदि. ईकवि ईकवि यॊकनर्णवमु नन्दुँ बुरु कि निवारणार्थमु कॊन्त नूतन विषयमुनु गूर्चि पाठकुल हृदयमु नाकर्षिञ्चुनु. वीरि श्लो॥ सुन्दर स्यकिल सुन्दर बाहोः’ अनि सुन्दर बाहु मूर्ति नडुमु समस्त जगमुलकु निवास मय्यु नॆं क सन्नगा नुन्नदि यनि यट्ले वरदराजस्वामि युदरमुनु गूड वर्णिञ्चुचु- वरदराज स्तवमु 49 श्लो॥ ‘अण्डानां त्वमुदर मामनन्ति सन्तः स्थानं तद्वरद! कथं नु काग्य मस्य । माहत्म्यं स्वत इह येषु नूनॆ मेषां बुद्धि स्स्या न्महिमकरी न हीतलेषाकु अनि यर्थान्त रन्यासमुतो समर्थिञ्चुचु नव वतास्वादन मॊनर्चिरि. इट्ले सुन्दर - स्तव - 68 ’ यो जातक्रशिमा, अनु श्लोकमुनु, वगद - स्तन - 61 ‘शम्भो गम्भोरुहमुख, अनु शोकमुनु पोल्चि चूडुँडु. इट्टि वनेकमुलु गलवु. ई पऱिचि सालङ्कार मगु
नलङ्कारमुलँ बॊन्दु ई महाकवि युचित स्थानमुन नलङ्कारमुलँ मगु तन वाणि नलङ्कार प्रियुँडगु श्रीमहाविष्णुवुनकु समर्पिञ्चुकॊनि धन्युँ डायॆनु.
- आञ्जनं करिगिरे रसि शृङ्गम्- वन्द .-21 इन्दलि युपमनास्वादिम्पुँडु,
- पारिजात चिटपा नभितो च - वरद 28 पारिजातनिटह मा
- अञ्जनक्ष्मीण भृतो यदी नग द - 30 8 इन्दलि यभूतोपमु लॆन्त हृद्यमुलुगा नुन्न वो यरयुनदि.
- पर भाग मिया द्रवेस्तमिस्रा इन्दलि श्लेष गमनिञ्चुनदि. ♡ वरद - 31
- करि का तव करीश ! कि मेसा- वरद - 27 ण इन्दलि चतुष्कोटिक सन्देहालङ्कारमु श्री नगद राजस्वामि कर्णाभरणरामणीयकमु YZ नॆन्तहृद्यमुगा वर्णिम्पँ दोडुपडिनदो तिलकिम्पुँडु. उत्तरोत्तर सन्देहमु प्राबल्यमु नॊसँगुट परिपाटिगाँ गानवच्चुनु. 6. आश्ले षेवरद! भुज स्तवेन्दिरा. नूः - वरद - 43 ई कवि सन्देहालङ्कारमुलोँ जीवर सन्देहमु ने निर्णयमुगा सूचिञ्चुनु. ओ वरद राजस्वामी! नीकधिक मोदमु गूर्चिनदी यिन्दिगा बाहुबन्धनमा? (कौँगिलिया ) लेक रासगोष्ठिलो अभि मत गोपिका बाहुबन्धनमा? अदियुँ गानिचो वॆन्ननु दॊङ्गिलिञ्चिति वनि यशोद यॊनर्चिन दामबन्धनमा ? अनु पै श्लोकार्थमुनन्दुँ बरत्वसूचक मगु इन्दि रालिङ्गनमु कण्टे अति प्रणयसूचि यगु अभिमत गोपाङ्गनालिङ्गन मे मुदावहमु, अन्तकण्टॆँ दननिन्द कोर्वनि प्रेम पाशि बद्ध शिबद्ध यगु यशोद दामबन्धमे सौलभ्यसूचकमु मातृ देवताभीष्ट साधकमु नगुट चेँ जीवरिसं “देहमुनन्दे यी कवि तन मॊग्गुदलनु जूपुचुन्नाँडु. इट्ले 1
- शङ्खातो प्रजसदनाङ्ग णेषु किं ते पाणीनां वरद तवारुणत्व मासीत् - वरद - 46 श्लोकमुनँ गल यन्दमुनु सैत मनुभविम्पवच्चुनु. इट्ले पञ्च स्तवी म हॆूदधिनि मधिञ्चिनचो नॆन्नि येनि गुणरत्न मुलु बयलु पडुनु. विस्तरभीतिचे विरमिञ्चुचुन्नानु.
- 20 श्लो॥ अनन्या धीनत्वम्- ई श्लोकमुनन्दलि व्याजस्तुत्यलं कारमुन कॆवरु शिरः कम्प मॊनर्परु ?
- नील मेघनिभ मञ्जन पुञ्ज श्यामकुन्तल मनन्तशयं त्वाम् अब्जपाणिपद मम्बुज नेत्रं नेत्रसा त्कुरु करीश ! सदा मे ॥ । ई श्लोकमु काव्यगुणमुलकुँ बुट्टिनिल्लै पाठकुल मनस्सु नॆन्तयु नाकर्षिञ्चुचुन्नदि. ‘अञ्जनपुञ्ज श्याम कुन्त लम्” अब्जपाणिम्- इत्यादुलु गाढबन्धरूपमगु नोजोगुणमु, शोक मन्तट बहुपदमु लेक पदमु लट्लु भासिल्लुट चे ‘मसृणात्मक मगु श्लेषगुणमु, आरम्भिञ्चिन मार्गमु ने तुदवऱकु निर्वहिञ्चुटवलन मार्गा भेदरूप मगु समता गुणमु, ‘नेत्रसात् कुरु करीश ! सदा मे’ अनि पृधक्पद प्रयोगमुचे माधुर्यगुणमु, झटित्यर्थ प्रतिपत्ति कलिमिचे ‘नर्थव्यक्ति यनु गुणमु बन्ध मुज्ज्वलमै यॊप्पु टचेँ गान्ति यनु गुणमु :कलिगि यिन्दलि पदरचन (b)10 यॆन्तयु विशिष्टमै यलरारुचुन्नदि. दीनिने कदा वामनाचार्युँडु रीति रात्मा. काव्यस्य’ अनि मॆच्चु लॊनॆनु. इं दर्थ गुणमुलु गूडँ बुष्कलमुलुगा ँ गानवच्चु चुन्नवि. अर्थप्रौडि यल रारुटचे नोजमु, अर्थस्फुटत यॊप्पुटवलनँ ब्रसादगुणमु, घटना वै चित्रि वरलुटचे श्लेषमु, उक्ति वैचित्र्य रूपमगु माधुर्यमु, भ क्ति रस मुद्दीपिञ्चुट चेँ गान्ति यनु गुणमु अञ्जनपुञ्ज, अम्बुज नेत्रं नेत्रसात्कुरु - इत्यादुलन्दलि यनुप्रासमु, उपमालङ्कारमु, समृद्धिमद्वर्णन रूपमगु नुदात्ता लङ्कारमुनु पाठकुल मनस्सुनु रञ्जिम्पँ जेयुचुन्नदि. कनुक ने भगवद्रामानुजाचार्युल वारीश्लोकमुनु जदुवु तऱि शिष्युलगु कू रेशुल कन्नुलनु बरिशीलिञ्चि येमि यिदि, इन्त मनोहर श्लोकमुनु विनियु दयाळुवगु वरदराज स्वामि नेत्रमुल ननुग्रहिम्प ले दे यन श्रीवत्सचिह्नुलु देवर वा रनुग्रहिञ्चिरि कानि नेने नाकु दर्शनमुलु (कनुलु) वलदु. सदादर्शनमुनु गटाक्षिम्पुँ डनि कोरु गॊण्टि ननि रँट. दीनिनिबट्टि चूड नीश्लोकमु भगवद्भाष्य कारुलने काक श्री वरदराजस्वामुलनु सैतमु मॆप्पिञ्चि सदादर्शनमुनु बडयँ जेसिन दगुट चेँ बञ्च स्तवीकि ब्राणपद मनिन नतिशयोक्ति लेदु. T
- ई क्रिन्दि प्रयोगमु लीकविवर्युनकुँ बाणिनीय मुनँ गल बहुमुखपाण्डितिकि निदर्शनमु लगुचुन्नवि. [ 11
- वष्टि मृष्टवरदं त माश्रये वरद -4
- पारणीयति वरप्रद! दृजे-
- नेत्रसात्कुरु करीश ! सदा मे-
- ईळ ! ते पिशुनयं कील मौळिः- 22 “9 " 23 25 संव देत– वाङ्मनसयोः= उन्नसम्- व्या वक्रोश्री इट्ली पञ्चस्तवी रत्नखनिलोँ बरिशीलिञ्चिन कॊलँदि नॆन्नि यो गुणरत्नमुलु बयलुपडुचुने युण्डुनु. ग्रन्थ विस्तर भीतिचे विरमिञ्चुचु नायान्ध्रीकरण फक्कि नॊक्किन्त मुच्च टिन्तुनु. नेनु पूज्युपादुलगु श्री दास शेषस्वामिवारु नाकुँ ब्रसादिञ्चिन श्री श्रीनिवासा चार्य विद्वद्विरचित व्याख्यानानु सार मी पञ्चस्तवि नान्ध्रीकरिञ्चितिनि. पद्यमुलनु गूडल जलवऱकु मूलानुसारमुगने व्रासितिनि कॊन्नि तावुल व्याससमासगूपमुन नुण्डुनु कॊन्नि चोटुल वीलुनु बट्टि सन्दर्भोचितमुलुग नूतनमुलनु व्याख्यान स्थमुल जेर्चितिनि, मञ्चि चॆड्डल निर्णयिम्प सहृदय हृदयमुले ’ कलवु, 1 श्लो॥ अदीर म प्रेमदुहं क्षणोज्ज्वलं नचोर मन्तःकरणस्य पश्यताम् । अनुब्जमज्जं नु कथं निदर्शनं वनाद्रिनाधस्य विशालयोर्दृशोः ॥ सुन्दर -13 लतो 14 श्लो लक्ष्म्याः पदं कौस्तुभ संस्कृतं च श्रीवत्सभूमि र्वमलं विशालम् । विभाति वक्षो वनमाल याढ्यं वनाद्रिनाथस्य मुकुन्दरस्य ॥ मुं56 ई श्लोकमुनकु नापद्यमु व्यासरूपमुन नलङ्कारमु नॊप्पुचुन्नदि. लक्ष पदम् अनुदानिकि सी॥ श्री राब्धिलो जनिञ्चिन सुन्दरिकि रमा लीलावतिकि नेदि केळिगृहमु कौस्तुभ संस्कृतं. च- अनुदानिकि राजिल्लु ने मन्दिरमुन शाणेली ने ढ घनरत्नदीपमै कौस्तुभम्बु वलमाल याढ्यम्- अनुदानिकि ऎच्चोट सिङ्गार मिनुमडिञ्चॆडु वन माल यन्दालयू येल वोलॆ श्री वत्सभूमिः- अनुटकु नादि यीता वनु श्री देवि मुद्र ना श्रीवत्स मॆच्चोटँ जॆन्नु मीऱु गीः अति विशालमु निर्मल मद्द मट्लु श्रीवनाद्रीशु नित्यलक्ष्मीयुतम्बु स्थलम्बुलु सुन्दरो ईः सलम्बुलु जूड वलयु नन्नँ गावलॆ नॊक वेयिकन्नुलैन अन्दमुनकु मुरिसि यॊकचो व्याख्यानस्थ मगु मुनु गूड ननुवदिञ्चितिनि. सुन्दरि भावालु शिवमु : 221 व्याख्यास्थ श्लोकमु. मा el mes Want to ephy #grea पिङ्गुः प्रभापति ( sop′′S अन्नि प्रपश्यति मतं अनि तेच मुक्त्या तं देव मीन वरदं शरणं प्रपद्ये ॥ अनुवादमु. r गी॥ चॆविटि विनु, ग्रुड्ल मानु, वधिञ्चु मूँग गुबण्टि परुवत्तु गॊड्रालु कॊमगुँडबयं, नवस I 353 more 38 unro 300w 35) • अनुवाद पर्कमु जै)मुँ दॆलुपुटकु बापुटकु मऱिरॆण्डु पद्यमुल मच्चुचूपि यि नी विषयमुनु मुगिन्तुनु. A 73 ** 137 च वनगरि नास्मिन सरि पम्प्युडु सुन्दरि बाहुमूर्तिकिस् दनथुतितीर मन्तयु सदा तसुकोमल वारु शय्यगाँ दनगुचु भीष ताकति वाल्चुट सीतँडु शेषुँ डं चनन् मनमुनँबॊङ्गिपोपुन मण्डनुँडायभिधानमूनँगन्. वाहनालन 73 A# 137 च॥ ऒक परि यॊक्कपु दानिमस् विशान मिं कतमरम्बु मणि यॊक्कपु मुद्रयीमयुण्डु प उ॥
- 16
- कुल विभुण्डु नित्यमुनु
- सेव यॊनर्पँग नॊप्पु देवता
- मकुटमु काननाचलमु
- मन्कि ग नुण्डुट भाग्यमॆन्तयुन्.
- श्लो - सुन्दरोरुभुज - सुं 110 पेजि 201
- अल्ल यशोद बिड्डवयि
- नप्पुडु कासन शैलवल्ल भा !
- नल्लनि गण्डुतुम्मॆदल
- “नै गनिगल् गल मुङ्गुरुल् विरा
- जिल्लॆडु मोमुतोड प्रज
- सीमल वॆन्नल म्रुच्चिलिञ्चितो !
- गॊल्ल विटारि कत्तियल
- कोमलमानसमुल् हरिञ्चितो!
- I
- श्री हयग्रीवाय नमः
- प्रार्थनादिक मु
- उ॥ श्री रमणी कुचाद्रुलकुँ
- जॆन्नगु नीलमणी विभूषणं
- बॆ रहि मिञ्चि मेनँगन
- काम्बररोचुलु ‘मॆर्पु लट्टु लिं
- पार स्वभक्त चातक च
- यम्बुलकुन् मुद मिच्चुचुन् गृपा
- पूर सुवर्षिया वरद
- भूपमहाभ्रमु नाश्रयिं चॆदन्.
- शा॥ काञ्चीप तन रामणीयकरमा
- काञ्चीस्थली शोभ पै
- I
- मञ्चं गोरिक, पॊञ्चिचूड विभवो
- न्मील त्स्व वैकुण्ठ सा
- म्याञ्चद्वारण भूमि भृच्छिखर म
- ध्यासिञ्चु शृङ्गारि नी
- क्षिञ्चुं गावुत देवराजु करुणन्
- श्रीदास शेष प्रभुन्.
- च दरि करुदॆञ्चि यड्गुटयॆ
- (0)
- दव्वुग नर्थुल कन्नि चेतुलन्
- L
- विज्ञप्ति
- शा! श्री वत्साङ्क कवीन्द्र वागमृतमुं
- जिन्दिञ्चु पञ्चस्तविन्
- देवा ! तावकमा स्तवम्बॆ मिगिलॆन्
- दीनिन् गटाक्षिम्पुमा
- भावादर्श मदान्ध्र टिप्पणमुतो
- भासिल्ल, नेतन्महा
- सेवन् जेयँग दास शेषुलकु वा
- सिन् बासँ गाविञ्चितिन्.
- च॥ जर कडु हॆच्चॆ नब्दमुलु
- सप्ततिकिन् दरिदापुवच्चॆ, ज
- र्जरित मॊनर्चॆ देहमु न
- रातु लटुल् दयमालि जाड्यमुल्
- वरद ! महाप्रभू ! यॆटु भ
- वत् स्तवमुन् विवरिम्पँ जूलुदुन्
- करिगिरिनाथ ! नी करुण
- कावलॆ वीनिँ गृताग्गुँ, जेयँगन्,
- उ॥ वीँपुन लेचॆँ गु र्पॊकटि,
- "” वॆज्जुलु पेरिडिस्तारु दीनिकिन्
- भूपुलकुन् जनिञ्चु नॊक
- “वुण्डनी, भीतिल नेल ? पुट्टुवा
- 1
- 21
- रावयि गिट्टुवारि कध
- यन्दऱु नी स्तवगाङ्ग वारितो
- श्रीपति! नादुवाग्यमुन
- चेरनिचो मदिलोँ दपिञ्चॆदन्.
- उ॥ मुन्नल कूरनाथकवि
‘मुख्यु स्तवम्बुन कात्म मॆच्चुचुन् गन्नु लनिच्चि तण्ट निनुँ गाञ्च गुरुस् दरिसिम्प दानिकिन् बन्नुगँ डीक, तीयनगु पद्यमुलन् विरचिन्तुँगा ! ननुन् गन्ननँ जेयरा दॊकॊ ! नि रामयुँगाँ गरिगिर्यधीश्वरा..! क॥ तेलिकयैन परीक्षकुँ चाळुदु ने कानि, देव! दानवसूनं बोलॆँ गरीन्द्रुनिँ बोलॆन् गालिञ्चिनँ दाळँजालँ गरिगिरिपाला ! व॥ वरदुँड वौटँ गूर्चॆदवु वाञ्छित विवनि गोगिनैन ने सरुजु नॊनर्पु न न्ननु चु अड्डुचुनुण्टिँ बदेप डे मुखं बरुणमु सेयँबोकु, मिटु, 1 लड्डु नितं डॆऱुँगण्डु नाडु तॊं स म र्प ण मु मुनु कूरेशुलु पल्किरै दगु स्तन म्मुल्, यात्रलो लब्दम ध य्यॆनु बृन्दावनि दास शेषुन कॆटो यी दिव्यकोशम्बु, दी नि विटुल् व्रायँग नाकु नाज्ञ नॊसँगस् नेँ बूर्ति गाविञ्चितिन् गोनु मी सत्कृति नीकॆ यङ्कितमु श्री कोदण्ड रामप्रभू ! تھ تي في E 1 श्री हयग्रीवाय नमः श्री वत्साङ्क मिश्र विरचित पञ्चस्तवी विराजमानमु
सुन्दरबाहु स्तवमु
कविशेखर मध्य श्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत भावादर्श रूपान्ध्र विवरण पद्य सहितमु अवतारिक :– श्री भगवद्भाष्य कार परमकृपालब्ध तत्वज्ञानुलुनु तदीय पादारविन्द सेवैकधारकुलु नगु श्रीवत्साङ्क मिश्रुलु पाषण्ड प्रभुवुचे नॆडँ बापँ बडिन श्री रामानुजमुनुल वियोगमुनु सहिम्पनिवारै विभ वावतार स्तवानन्तर मर्चावतारस्तुति प्रस्तुतमु कावुन समाश्रितुलकु सर्वाभीष्टमुल ननुग्रहिञ्चु वनगिरिमन्दिरुँ डगु सुन्दरबाहु देवुनि स्तुतिम्पँ बोवुचु स्तवारम्भमु नन्दे भाष्यकारुलु चरण सरोजमुल सन्दर्शनमु ने स्तोत्रमुनकु फलमुनुगा सङ्कल्पिञ्चि सकल वेदान्त तत्व राशिनि ब्रकाशिम्पँजेय नारम्भिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ श्रीमन्तौ हरिचरणा समाश्रितो श्री रामावरज मुनीन्द्रलब्धबोधः । निर्भीक स्तत इह सुन्दरोई बाहुं स्तोष्ये तच्चरणविलोक नाभिलाषी हं 1 प्रति :- श्रीरामावरज, मुनीन्द्र, लब्ध, बोधः = श्रीरा मानुजयोगीन्द्रुल वलनँ बॊन्दँबडिन वेदान्तज्ञानमु2 सुन्दर बाहु सवमु आश्र गलवाँडनु गनुक ने, श्रीमन्ता कान्ति मन्तमुलगु, हरिचरण्=विष्णुमूर्ति पादमुलनु, समाश्रितः यिञ्चिनट्टियु, ततः= कनुकने, इह =इक्कड, निर्भीक ः = इह== भयमु लेनट्टियु, अहम् – नेनु, तत्, चरण, विलोकन, अभि लाषी=(श्रीरामानुजलवारि पादपद्मदर्शनमुनु गोरुचु, सुन्दर, उरु, बाहुम् = अन्दमुलगु बलिसिन भुजमुलु गल सुन्दर बाहु देवुनि, स्तो ष्ये स्तुतिम्पँबोवु चुन्नानु. वि शेषमुलु :— ‘सुन्दरोरु बाहुं स्तो ष्ये तच्चरण । सोष्ये विलोक नाभिलाषी’— श्री रामानुजुल पादमुल नवलोकिम्पँ दलँचिनवाँडनै सुन्दर बाहु देवुनि स्तुतिम्पँ बोवुचुन्ना -ननि भावमु. उपसंहारमुनन्दुँ गूड 4 विज्ञवनासु (129) अनु श्लोकमुन श्रीरङ्गमुलो श्री रामानुजुल वश्युँडनै युण्डुनट्लु प्रार्थिञ्चि युन्नारु. श्लोकारियन्दु श्री शब्दप्रयोगमुचे ग्रन्थमुनकु मङ्गळ ‘मॊनर्पँबडॆनु. अहं सुन्दरोरु बाहुं स्तोम्ये अनि वस्तुनि देश रूप मगु मङ्गळमु चेयँबडे ननुकॊन्ननु सरिपोवुनु. ‘आशीर्नमस्क्रियाव’स्तु निर्देशो वापितन्मुखमु’ अनि कारिक सूक्ति, . मालं ता॥ श्रीरामानुज मुनीन्द्रुलवलन वेदान्तज्ञानमुनु बडिसि श्रीहरि चरणम्बुल नाश्रयिञ्चिन नेनु निर्भयुँडनै श्रीभाष्यकारुल पादपद्ममु नभिलषिञ्चुचु श्रीसुन्दर बाहु देवुनि स्तुतिम्पँ बोवुचुन्नानु. सुन्दर बाहु स्तवमु शा. श्रीरामानुज योगिपुङ्गव कृपा शी क्लब्धवेदान्त वि द्वारम्युण्डनु श्रीम दच्युतपद द्वन्द्वाश्रीतुण्डन् भय द्वारात्य-तविदुरुँडन् गुरुलपा दम्बुल् विलोकिम्पँगा, नूरुन् सुन्दर बाहुनामधरु वि हुन् स्तोत्रमुं जेयुदुन्, 3 अवतारिक : श्री सुन्दर बाहु विष्णुवु वलॆने वनाद्रि. नुण्डि पॊडमिन नूपुरापगयु नभीष्टवरमुल नॊसङ्गु ननि यी श्लोकमुनँ जॆप्पुचुन्नारु. 1 श्लो॥ सुन्दररायठभुजं भजाम हे • वृक्ष षण्डमय मर्रि माश्रितम् । यत्र सुप्रथितनूपुरापगा तीर्थ मर्थितफलप्रदं विदुः ॥ प्रति :- यत्र -ए कॊण्डयन्दु, सुप्रधित, नूपुरापगा, तीर्थम् = मिक्किलि प्रसिद्धमैन नूपुर नदियॊक्क तीर्थमुनु, अर्थित, फलप्रदम् = कोरँबडिन फलमुल नॊसङ्गु दानिनिगा (सन्तः= सज्जनुलु) विदुः तॆलिसिकॊनु चुन्नारो, (तम्= अटुवण्टि) वृक्षखण्ड, मयम् चॆट्ल गुम्पुलतो निण्डिन, अड्रिम्=कॊण्डनु, आश्रितमे = आश्रयिञ्चियुन्न, सुन्दर, आयत, भुजम्=सुन्दरमुलुनु, दीर्घ मुलुनु अगु भुज घ 6 सुन्दर बाहु स्तवमु वॆळ्ळुचुण्डुनो या वनाद्रि नाश्रयिञ्चिन सुन्दरभुजुनि भजिञ्चॆदमु. म. ऒकचोट वडि नेँगु मन्दगतितो नॊप्पारु निङ्कॊक्कचो, नॊक चोँ दॊट्रिलु सुळ्ळुवाऱु नॊकचो होरॆण्टुँ ग्रक्कु नुरुं गॊक चोँ ग्रिन्दिकि दूकु नन्दॆ यनु पे रॊप्पारुन य्येऱु त्रा वि कलु सुन्दरनामकम्बु विपिनो र्वीध्रम्बऱनज्” मत्तना”. श्लो॥ उदधिगमन्दराद्रि मथि मन्थनलब्धपयो मधुरर नेन्दिराह्वसुध सुन्दरदोः परिघम् । आशरण मादृशात्म शरणं शरणार्थिजन प्रवणधियं भजेम तीरु खण्डमयाद्रिपतिम् ॥ प्रति :- उदधि….. दोः परिघम् उदधि= समुद्र • मुनु, ग, पॊन्दिन, (चॊच्चिन) मन्दर, अद्रि = मन्दर पर्वत म नॆडु, मथि=कव्वमु चेत, मन्थन= चिलुकुट चेत, लब्ध= पॊन्दँबडिन, पयः = पाललोनि, मधुर = तिय्यनि, रस= = रसमु, इन्दिरा=लक्ष्मीयनु, आह्व= पेरुगल, सुध अमृतमुगल, सुन्दर = अन्दमुलगु, दोःपरिघम् परिघायुधमु (इनुपकट्लगुदिय) वण्टि बाहुवुलु गलिगि नट्टियु, अशरण, मादृश, आत्म, शरणम्=दिक्कु लेनि माबोटि चेतनुलकु दिक्कैनट्टियु, शरणार्थि, जन, प्रवण, सुन्दर बाहु स्तवमु धियम्=शरणुगोरु जनुलयन्दु लग्नमैनबुद्धि गलट्टियु, तरुषण्डमय, अड्रि, पतिम् 7 ननगिरिनाथुँडैन सुन्दर बाहुमूर्तिनि, भजेम= सेविञ्चॆदमु गाक. ता॥ श्री राब्धिलोँ जॊच्चिन मुन्दर मनॆडु कव्वमुचेत मधिञ्चुटवलन लब्धमुलैन पाललोनि मधुररसमु लक्ष्मी पेरि सुधयुँ गलिगि यन्दमुलगु परिघलँ बोलिन बाहु वुलु गलवाँडुनु दिक्कु लेनि माबोटि चेतनुलकु दिक्कैन वाँडुनु, शरणागतुल यॆड नादरमु गलवाँडुनगु वसगिरि नाथुडैन श्रीसुुन्दर बाहुमूर्तिनि सेविन्तुमु गाक. उ. ऎव्वनि बाहुदण्डमु ल हीशुँडु त्राडुग श्रीरवारिथि गव्वपुँगॊण्डतोँ जिलिकि कम्मनि कुद्धमुनिग्गु मेल् सुध बुव्विलु कानितल्लि बुवु बोणिनि जॆन्दॆ ननाथनाथुँडौ अव्विभुनि भजिञ्चॆद व नाद्रिपति९ शरणार्थि सन्मति. श्लो॥ शशधररिङ्खणाढ्यशिख मुच्छि खग प्रकरं तिमिर निभप्रभूततरुष अडमयं भ्रमदम् । वनगिरि मावसन्त मुपयामि हरिं शरणं भिदुरितसप्तलोक सुविशृङ्खल शङ्खरवम् ॥ प्रति :- शशधर, रिङ्खण, आढ्य, शिखम् = = चन्द्रपञ्चा शिखम्== == ‘रमुतो नॊप्पिदमैन शिखाभागमु गलदियु, उत्, 8
सुन्दर बाहु स्तवमु शिखर, प्रकरम्=ऎत्तैन शिखरमुल समूहमु गलदियु, तिमिर, निभ, प्रभूत, तरु, षण्ड, मयम्-चीँकटितो समानमगु पलु चॆट्लगमुलतो निण्डिनदियु, (कनुकने) भ्रम दम् = भ्रमनु गॊल्पुनदियु, चॆट्लगुबुरा ! अनि भ्रान्तिनि गल्गिञ्चु नदियु, अगु, वनगिरिम् = वनाद्रियन्दु, आवसन्तम् = निवसिञ्चु चुन्नट्टियु, भिदुरित रवम्- भिदुरित = ब्रद्दलु चेयँबडिन, सप्तलोक लन्दुनु, सुविशृङ्खल = अड्डुलेनि, शङ्खरवम् मनुशङ्खमुयॊक्क ध्वनिगल, हरिम् विष्णुवुनु, शरणम् = चुन्नानु. शरणुनु, उपयामि एडुलोकमु पाञ्चजन्य सुन्दर बाहु . पॊन्दु ’ विशेषमुलु :- तरुषण्डमयम्- इच्चट प्रॊदु र्यार्थमुन मय ट्रत्ययमु. तरुसमूहप्रचुर मनि यरमु. भ्रमदम्——तरुषण्डप्रचुर मगुटचेत निदि चॆट्लगुं पे कानि कॊण्डगादु अनु भ्रान्ति निच्चुनदि. भिदुरितस प्तलोक सुविशृङ्खल शङ्खरवम्- सुन्दर बाहु देवुनि पाणितलमुन नुन्न पाञ्चजन्यमु ध्वनिचेतँ दॊलिम्रोँत वलन सप्त लोक स्थितमुलगु पदार्थमुलु भिन्नमुलैनवि, मलिम्रोँत वलन सप्तलोकमुले भिन्नमुलैनवि. अनि भेदमु ग्रहिम्पँ दगिनदि. सुन्दर बाहु स्तवमु 9 पूर्वश्लोकमु नन्दलि विशेषणमुलुनु, वतच्छोकमु लोनि विशेषणमुलुनु दिव्यप्रबन्धानु सारमुगा ग्रहिम्पँ बडिनवि. ता॥ चन्द्रसञ्चारमुतो नॊप्पुकॊनलुगल उन्नतमु लगु शिखरसमूहमुलु गलदियु, चीँकटुलवण्टि पलुचॆट्ल गुबुरुलतो निण्डिनदियु, कनुकने चॆट्लगुबुरे कानि कॊण्ड गाद नेडु भ्रान्तिनि गलिगिञ्चुनदियु, आगुवनाद्रि यन्दु निवसिञ्चुचुन्नट्टिमु, ब्रद्दलैन सप्तलोक मुलन्दु निराघाट सञ्चारमु गल पाञ्चजन्यरवमु गल श्री सुन्दर बाहुविष्णुवुनु शरणुचॊच्चु चुन्नानु. शा, सञ्चारं बॊनरिञ्चु देनिशिखल जन्द्रुण्डु, विष्ण्वम्फ्रीँ 0.2 बिञ्चु देनियभङ्गशृङ्गरमु, य त्पृध्वीजमुल् चीँकटुल् पॆञ्चुकॊ, दादृशमौ वनाद्रिँ गलश्री विष्णु भजिन्तु गरो दञ्चद्यत्पटु पाञ्चजन्यरवमुल् चारिञ्चु लोकम्मुलन् . श्लो॥ यत्तुङ्गशृङ्ग विनिषङ्गि सुराङ्गनानां न्यस्त्रोर्ध्वपुण्ड्र मुखमण्डन मण्डिता नाकु। दर्पण्यभूत् धृत मपाङ्क शशाङ्क पृष्ठं त बाम सुन्दरभुजस्य महान् वनाद्रिः ॥ (2) त 10 प्रति : बडिनदियु, सुन्दर बाहु स्तवमु धृतम्=(कॊञ्चॆमु चिन्न शिखरमुन) धरिंहा अपाङ्क कळङ्कमु लेनट्टियु, Ф पृष्ठम् = चन्द्रुनि वॆनुक भागमु. लेदा चन्द्रुनि चरम = लेदा. भागमु, न्यस्त, ऊर्थ्वपुण्ड्र, मुख, मण्डव, मण्डि नाम् = उञ्चुकॊनँबडिन यूर्थ्वपुण्ड्र मनॆडु मुखा लङ्कारमुचेत नलङ्कृत लगु, यत्, तुङ्ग, शृङ्ग, विनिषङ्गि, सुराङ्गनानाम् = देनियॊक्क यॆत्तैन शिखरमु नन्दुँ गूर्चुण्डिन देवताकान्तलकु, दर्पण्यभूत् अद्दमायॆनो, तत् = अटुवण्टिदियु, सुन्दर भुजव्य सुन्दर बाहु देवुनकु, धाम - स्थानमगु, वनाद्रिः .. तरुषण्ड पर्वतमु, महाक् = गॊप्पदि. विशेषमुलु :- ‘यत्तुङ्गशृङ्ग विनिषङ्गि सुराङ्गना नाम्, वनाद्रिसम्बन्धि यगु महोन्नत शिखरमुपै ँ पैँ गूर्चुण्डिन देवकान्तलकु मुखालङ्कार मगु नूर्ध्व पुण्ड्रमुनु धरिञ्चुटकु धृत, मपाङ्कशशाङ्क कृष्णनु अन्तकण्टॆँ ग्रिन्दुगा नुन्नप्पुडु पृष्ठ भाग मगुटचे निष्कळङ्कमगु चन्द्रुँडु. दर्पण्यभूत् दर्पणी + अभूत् इदि येक पदमु. अद्द मायॆनो ! अनि यर्थमु. महा वनाद्रिः- वनगिरि औन्नत्यमु चेतनु गॊप्पदि महिमचेतनु गॊप्पदि यनि भावमु. दिव्यवैभवमु गल दनि सारमु, " सुन्दरबाहु स्तवमु, 11 ता॥ चन्द्रुँडु वनाद्रियॊक्क क्रिन्दिशिखरमुनँ बोवु चुन्नप्पुडु निष्कळङ्कमगु चन्द्रुनि पृष्ठ भागमुपै शाख रमुनँ गूर्चुण्डि यूर्ध्वपुण्ड्रमुनु मुखालङ्कार मुगा धरिञ्चु देवताङ्गनलकु निर्मलमगु नद्दमुन लॆ नुपयोगपडु चुन्नदि. सुन्दर बाहु देवुनकु स्थानमैन यावनिगिरि यौन्नत्यमु चेतनु दिव्यवैभवमु चेतनु चाल गॊप्पदि. उ. ऎं दॊकयॆत्तु शृङ्गमुन निन्दुनि भावन लैन देवता सुन्दरु लूर लूर्ध्वपुण्ड्रमुल सॊम्पुग मोमुल दिद्दुकॊञ्चु ना क्रिन्दुग नेँगु चन्दुरुनि पृष्ठमु नङ्क विहीनदर्पणं बुं दगँ जेसिकॊन्दु रदॆ पो ! हरियुन्कि वनाचलं बनन्. श्लो॥ यदीय शिखरागतां शशिकलां तु शाखामृगाः निरीक्ष्य हर शेखरीभवन मामृळन्त स्ततः ॥ स्पृशन्ति सहि देवतान्तर समाश्रि तेति स्फुटं स एव सुमहातरुप्रजगिरि गृहं श्रीपतेः ॥ 7 प्रति :- शाखामृगाः, तु=कोतु लन्ननो, यदीय, शिखर, आगताम्=एपर्वतसम्बन्धि यगु शिखरमु मीँदिकि वच्चिन, शशीकलाम्= चन्द्रकळनु, निरीक्ष्य = चूचि, हर, 12 सुन्दर बाहु सनमु H शेखरीभवनम् = ईश्वरुनकु शिरो ब लं कार मनुटनु, अन्बु शन्तः == विचारिञ्चुचुन्नवियै, ततः = आ कारणमुवलन, देवतान्तर, समाश्रिता अन्यदेवुनि आश्रयिञ्चिनदि, इति = अनि स, स्पृशन्ति, हि = ताँकनैननु वाणिवो, सः अटुवण्टि, विषः ई, सुमहातगुप्रजगिरि = मञ्चि महावृक्ष मुलगुम्पु गल वनाद्रि, श्रीपतेः = लक्ष्मीपति यगु सुन्दर बाहुमूर्तिकि, स्फुटमी प्रसिद्धमगु, गृहम् =इल्लु. (आलयमु). विशेषमुलु :- शाखामृगाः- अतिचपलमु लनि भावमु. ‘स्पृशन्ति सहिदेवतान्तरसमाश्रिता’- शशिकल रकरक मैनप्पटिकिनि, कोतुलु चञ्चलप्रकृति गल वैनप्पटिकिनि, अन्य देवत यगु शिवुनि नाश्रयिञ्चिन पेरुपुचेत दानिनि मुट्टलेदनि चॆप्पुटवलन नक्कॊण्डपै नुन्न कोतुलु सैतमु देवतान्तर सम्बन्धि सम्बन्धमु नॊल्लनि हरि परायणत्वमु गलवनि तेलुनु, इन्दुलकु हेतुव वनाद्रियट्टि सुप्रसिद्ध विष्णुस्थल मगुटये. ई विषयमुनु स्फुटं… गृहं श्रीवतेः - अनुपदमुलु स्पष्टपुचु चुन्नवि. शशिकळनु जूचि न ता॥ कोतुलु सैत मा कॊण्ड शिखरमु मीँदिकि नच्चिन दानियन्दमु नॆञ्चि ग्रहिम्प वलॆनिनि तलञ्चियु नदि शिवशिरोभूषण मगुटचे देवतान्तरमगु रुद्रु नाश्रयिञ्चिन दनि दानिनि दाँकनैननु लेदु. चपल सुन्दर बाहु सवमु 13 प्रकृतुलनु कोतुले यिट्लु चेसिन वनिन ना पनाद्रि चेसिनवनिन सुप्र सिस्टमगु विष्णुसलमनि वॆल्लडियगु चुन्नदि. ळा. आगॊण्डं गपिकाण्ड मुच्चशिखरा ग्रामातशीतांशुहृ द्याकारन् गोळॆँ गाञ्चि शूलितलपू वञ्चुको विचारिञ्चि चेँ दाँक “सि पपु देवतान्तर निष क स्वान्तं गा नॆञ्चि ल क्ष्मीकान्तालय माननाद्रि सुहरि क्षेत्रम्बुल मिन्नगा ! श्लो॥ सुन्दरचो व्याज्ञा लुभन कातरवशानुयायिनि करिणि ! प्रणयजकलहसमाधि ग्यत्र वनाद्रि स्स एव सुन्दरदोष्णः ॥ OC प्रति :- यत्र - एकॊण्डयन्दु, करिणि= अडवि येनुँगु, सुन्दरमायिनि - सुन्दरगोः सुन्दर बाहु देवुनि यॊक्क, दिव्य - दिन्य मगु (दाँटरानि) आज्ञा आज यॊक्क, लम्भस == स्पर्शचेत, कातर = भयस्वभावमुगल, वळा आँदेनुँगुनु, अनुयायिनि अनुसरिञ्चु चुण्डँगा, प्रणय, ज, कलरा, समाधिः= प्रेमवलनँ बुट्टिन कलहमु नकु समाधानमु, (भवति = अगु चुन्नदो) सः= अबुवण्टि, एमः= ननाद्रिःननगिरि, एव = ई, वनाद्रिः = ननगिरि, सुन्दर दोमः – सुन्दर बाहु सम्बन्धियगु दिव्य निवासमु,14 पदं शास्तुभ संस्कृतं च श्रीवत्सभूमि ध्वनुलं विशालम् । विभाति मा पनमाल गूढ्यं + वनाद्रि वाथस्य सुसुन्दर स्य ई श्लोकमुनकु नापद्यमु व्यासरूपमुनि नलङ्कारमु नॊप्पुचुन्नदि. ल पदम् - अनु दानिकि सी श्री राब्धिलो जनिञ्चिन सुन्दरिकि गमा लीलावतिकि नेदि केळिगृहमु कौस्तुभ संस्कृतं च- अनुदानिकि शास्त्रोल्ली राजिल्लु ने मन्दिरमुन शाखल्ली ढ घनरत्नदीपमै कौस्तुभम्बु वलमाल माध्यम्- अनुदानिकि वोटी श्री वत्सभूमिः- अनुटकु ऎच्चोट सिङ्गार मिनुमडिञ्चॆडु वस माल यन्दालयूयेल वो नादि यीता वनु श्री देवि मुद्र ना श्रीवत्स मॆच्चोटँ जॆन्नु मी गीः अति विशालमु निर्मल मद्द मटु श्रीवनाद्रीशु नित्यलक्ष्मीयुतम्बु सुन्दगोर नलम्बुलु जूड वलयु नन्नँ गावलॆ नॊक “वेयिकन्नुलैना, अन्दमुनकु मरिसि यॊकचो व्याख्यासस्थ गु मुनु गूड ननुवदिञ्चितिनि. सुन्दर बहु स्तवमु च.. सरसपुटल्क नॊक्कवश सामजमुं गिकुरिञ्चि पाऱ न क्करिपति दानि वॆण्टँ बडि गासीलु चुण्ड ननुग्रहिञ्चि सुं दरभुजुँ डाज सेय वॆऱँ डा दत् क्षण माकरिकोर्किँ दीर्चु ने गिरिँ गरिकान्त यॆन्तु हरि कि९ नॆल वातरु खण्ड शैलमुन्. श्लो॥ स एष सौन्दर्यनि दृतश्रियो वनाचलो नाम सुधाम यत्र हि । भुजङ्ग राजस्य कुलस्य गौरवा न्न खण्डिताः कुण्डलिन शिखण्डिभिः ॥ 15 प्रति :- य त = एकॊण्डयन्दु, कुण्डलिनः = पामुलु, भुजङ्ग राज्य सर्पराजगु शेषुनियॊक्क, कुलस्य =कुलमु यॊक्क, गौरवात् गौरवमुवलन, शिखण्डिभिः = नॆमिळ्ळ चेत, न खण्डि ताः, ही= खण्डिम्पँ बडवो, सः - अटिवण्टि, एमः = ई, वनाचलः, वनगिरि, सौन्दर्यनि धेः = चक्कँदनमुन किक्क यगु, धृतश्रियः = धरिम्पँबडिन लक्ष्मीगलवाडै आरूढश्री यनु नामान्तरमु गल श्री सुन्दर बाहु देवुनकु, सुधाम, नाम = दिव्यस्थलमनि प्रसिद्धि गन्नदि. विशेषमुलु :- सुधाम—— दिव्य क्षेत्रमु. ई दिव्य त्वमुने युत्तरार्धमुन निरूपिञ्चिनारु. ‘भुजङ्ग राजस्य … शिखण्डिभिः - भुजङ्ग राजकुल गौरवमुवलन नॆमिळ्लु 16 सुन्दर बाहु स्तवमु सैत मचटिपामुलनु खण्डिम्प वनुट चेत सहजवैरमु गल वारिकिँगूड निर्वैरत्वमुनु जेकूर्चु महिम सूप नाद्रिकिँ गलदनि दानिदिव्यत्वमु चाटँ बडिनदि. धृत क्रियः आरूढ श्रीकि_ सुन्दर बाहुन किदि नामान्तरमु.
ता॥ एकॊण्डयन्दु नॆमिळ्ळु सैतमु भुजङ्ग राजरुल गौरवमुचेत सर्पमुलनु खण्डिम्पक सहजविरोधमुनु गूड… विडिचि वर्तिञ्चुनो यट्टि महिममु गल सौन्दर्यनिधि यगु श्री सुन्दर बाहु देवुनकु दिव्यसिवासमु. 1 उ. कुण्डलि राजवंशमुनँ गॊण्डॊक गौरव भाव मुञ्चि य क्कॊण्ड निर्वरमुनु गूडँ दृजिञ्चि शिखण्डि काण्डमुल् चॆण्डवु पाँपतण्डमुल श्रीपति कन्दमु मेरकु मही 4 मण्डलि मेलिधाम मनु मन्नन गन्न वनाद्रि वॆन्नॆदक्षा. वृषगिरि रय मच्युतस्य यस्मिन् स्वमत मलङ्घयितुं परस्परेभ्यः । खगपतिचरणा खगा शृपन्ते र्भुजगा श्च सर्व एव भुजग प ते • प्रति :- यस्मिक् = ए कॊण्डयन्दु, मू वनगिरि . 10 स्वमतत् = स्वाभि = मत मगु प्रतिज्ञनु, अलङ्घयितुम् उल्लङ्घिम्प कुण्डुट कॊऱकु, सर्वे = समस्तमुलगु, खगाः
- पक्षुलु, खगवति,
- परस्प रेभ्यः
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 17
- चरण्, एव=पक्षुलकुँ ब्रभुवगु गरुत्मन्तुनि पादमुलने, ऒण्डॊरुलकॊऱकु, शपन्ते ऒट्टु पॆट्टुकॊनु
- ते चुन्नवो, स र्वे= समस्तमुलगु, भुजगाः, च = पामुलु गूड, भुजगप तेः= पाँपतेँडगु शेषुनियॊक्क, चरण्, एव = पादमुल ने, शपं तेऒट्टिडुकॊनुचुन्नवो, अयम् इटुवण्टि, वृषगिरिः वृषभ पर्वतमु (वनगिरि) अच्यु तस्य सुन्दर बाहुविष्णुमूर्ति सम्बन्धि यगु दिव्य
- धाममु.
- विशेषमुलु :- ‘वृषगिरि रय मच्युतस्य ’ प्रतिज्ञ नुण्डि यॆन्नँडुनु च्युतुँडु गाक सत्यप्रतिज्ञुँडै ‘अच्युतुँडु’ अन्न बिरुदु वहिञ्चिन श्री सुन्दर बाहु दिव्यधाम मगु वनाद्रि यिदि अनि भावमु. भगवानुँडु प्रतिज्ञ नुल्लं घिम्पँ डनुटकु ‘अ व्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणाम् । सहि प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो
- विशेषतः’
- (श्रीमद्रामायणमु)
- सत्यप्रतिज्ञुँ डगु मुन्दर बाहुनकु निवासमगुट चेतने यी वनाद्रियन्दुँगल तिर्यक्कुलगु पक्षुलु पामुलुनु प्रतिज्ञा पालन मुन बद्धश्रद्धमुलै यनुमानिञ्चुवानिकि नम्म कमु कलुगुटकुँ दम प्रभुवुलगु गरुत्मन्तुनि पादमुल
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- 18
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- यान यनियु शेषुनिपादमुल तोडनियु नॊट्टिडुकॊनु चुन्नवनि युत्तरार्धमुन वर्णिञ्चुट यॆन्तयु नॊप्पिदमै युन्नदि.
- ता ए कॊण्डयन्दुँ बक्षुलुनु बामुलुनु समप्रतिज्ञ नुल्लङ्घिम्प मनु विषयमुनँ बरस्पर विश्वासमु कॊऱकुँ दम प्रभुवुलगु गरुड शेषुल पादमुलपै बॊट्लुपॆट्टु कॊनुनो, सत्यप्रतिज्ञुँडै यच्युतुँ डन्न बिरुदु वहिञ्चिन यट्टि श्री सुन्दर बाहुवुनकु निलयमैन दीवनाद्रि.
उ. पक्षुलु पामुलुन् ब्रतिन पालनपट्टुन ‘नॆन्दु स्वीयमा दीक्षनु जाटँगा खगप तिप्रियपादमुलुन् भुजङ्गमा लॊ ध्यक्ष पदम्बु लॊ ट्टेडुनो ! ! यट्टिदि सुन्दर बाहुपुण्डरी काक्षुनि युन्कि पट्टगु व नाद्रि वॆलुङ्गु सुभद्रदायि मॆ श्लो॥ हरिकुल मखिलं हनूमदङ्घिं स्वकुल पजाम्बवत स्तदैव भल्लाः । निजरुलपजटायुष श्च गृध्राः स्वकुलपते श्च गजा गजेन्द्रनाम्नः ॥ प्रति := (स्वमतम् 11 तम किष्टमगु प्रतिननु, अलङ्घ यितुम्= दाँटकुण्डुट कॊऱकु, परस्परेभ्यः =ऒण्डॊरुल सुन्दर बाहु स्तवमु 19 कॊऱकु, यस्मिन् = एकॊण्डयन्दु) हरिकुलम्= वानर समू हमु, अखिलम् अन्तयु, हनूमत्, अम्फ्रिम् हनुमन्तुनि पादमुनु, तथा, एव = अट्ले, भल्लाः - ऎलुँगु बण्ट्लु, स्वकुलपजाम्बवतिः = तम कुलप्रभुवगु जाम्बवन्तुनि यॊक्कयु, गृध्राः= गद्दलु, निज, कुलवि, जटायुषः तमकुलस्वामि यगु जटायुवु यॊक्कयु, गजाः = एनुँगुलु, स्व, कुल, व ते तम वंशमुनकु राजगु, गजेन्द्रनाम्नः = ग जें दुँडनु नाममुगलदानि यॊक्कयु, (अम्फ्रिम् = पादमुनु, शवन्ते ऒट्टॆडुकॊनुचुन्नवो अयम् = इट्टि, वृषगिरिः=वृषभाचलमु, (वनाद्रि) अच्यु तस्य सुन्दर बाहुविष्णुवुनकु सम्बन्धि यगु दिव्य धाममु.) T वि शेषमुलु :- कुण्डलचिह्नमुलोनि पदमु लन्नियुँ बूर्वश्लोकानु वृत्तमुलु, 10, 11, श्लोकमुल चेत दिव्य स्थलमुनकु भागवतभक्ति समृद्धियु नॊकलक्षण मनि सूचित मगुचुन्नदि. ता॥ ए कॊण्डयन्दुँ ब्रतिन चेयु सन्दर्भमुनन्दु वानर कुलमु तम मूलपुरुषुँडगु हनुमन्तुनि पादमुल मीँदनु, भल्लूकमुलु तमकुलमु पॆद्दयगु जाम्बवन्तुनि चरणमुल मीँदनु, गद्दलु तम कॊलमुसामि यगु जटायुवु पदमुलमीँदनु, गजमुलु गजेन्द्रुनि काळ्ळ मीँदनु ऒट्टु पॆट्टुकॊनुचुँ दम भागवतभक्तिनि दॆलुपु 20 सुन्दर बाहु स्तवमु चुण्डुनो यट्टि यी वनाद्रि श्री सुन्दर बाहुमूर्तिकि दिव्यनिवासमु. च, हरिकुल मन्तयुन् हनुम दंष्ट्रुलु, भल्लमु लॆल्ल जाम्बव च्चरणमुलुन् कॊलम्बुनकु सामि जटायुवु कार्लु ग्रद्दलुन् करुलु गजेन्द्रु पादमुलु, गट्टिग नॊ ट्टिडु वेळिलस् बर स्परमु वचिञ्चु नॆन्दु व मा, शैल मदे हरिदिव्यधाम सू. श्लो॥ वकुलधर सरस्वती विष क स्वररसभावयुतानु कन्न रीषु। द्रवति दृष दपि प्रसक्ति गाना स्विह वनशैलतटीषु सुं-रस्य ॥॥ 11 12 प्रति :- वकुळ. …..युतासु… वरुळधर शठकोप मुनियॊक्क, सरस्वती=वाक्कु_लगु द्रविणोपनिषत्तुलयन्दु, विष क लग्नमुलै युन्न, स्वक निषादादिस्वरमुल तोनु, रस=शृङ्गारादि रसमुलतोनु, भाव रत्यादि स्थायि भावमुलतोनु, युतानु= कूडिनवारै, किन्नरीषु= किन्नराङ्गनलु, प्रसक्त, गानासु प्रारम्भिम्पँबडिन गानमु गलवारु काँगा, सुन्दर स्य = सुन्दर बाहु विष्णुवुयॊक्क, इह = ई, वन, शैल, तटीषु – वनाद्रि सुन्दरबाहु स्तवमु चरियलयन्दु, दृषत्, आपि= रायि सैतमु, द्रवति करँगिपोवु चुन्नदि. 21 विशेषमुलु :- प्रस क्त गानासु – किन्न राङ्गनलु स्वरस्व भावो न्मेषपूर्वकमुगा द्रविडोपनिषद्दानमुनकुँ ब्रारं भिम्पँगा ननि भावमु, द्रवति दृषदपि - द्रवति दृषदपि— सङ्गीतमुनकु राळ्ळु करँगुननि कवुलु वर्णिन्तुरु, ‘रहि वुट्ट जन्त्रगात्र मुल राल् गरँगिञ्चु विमलगान्धर्वम्बु विद्य माकु (आन्ध्र कविता पितामहुँडु) अचटि किन्नराङ्गनलकुँ गूड ननन्यादृश मगुनट्टि द्रविडो पनिषदनुभवमु वर्णिम्पँ बडुट चेत दिव्यस्थलमु ज्ञानमुनु गूडँ ब्रसादिञ्चु ननि चॆप्पँबडि नट्लय्यॆनु. ता॥ श्रीशठकोपमुनुलचेतँ ब्रणीतमुलैन द्राविडोपनि षत्तुलनु स्वररसभावयुक्तमुगाँ गिन्नर कान्तलु पाडु चुण्डँगा सुन्दर बाहुनिवास मगु वनशैलमु सम्बन्धु लगु तटमुलन्दु रालु सैतमु करँगि पोयॆनु. उ, श्रीशठकोपनाममुनि सिंहमुखाब्दमरन्द माधुरी रसग पेशल भावमु भीरमु सुस्वर शोभि द्रामिणो शमुँ गिन्न राङ्गनलु कुत्तुकलतो सवरिञ्चि पाडँगा श्रीशनिवासभू वनगि रीशतटीशिललुन् द्रविञ्चॆडिन् . 22 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ भृङ्गी गायति हंसतालनिधृतन्तो त्पुष्णनी कोकिला प्युदाय त्यध नल्लि शिल्लजमुखा दास्त्रं मनु संवते । निष्पन्द स्तिमिताः कुरङ्गततयः शीतं शिला प्रकतं सायाह्ने कील यत्र सुन्दरभुज सस्मिन् वन्न स रे ॥ 13
प्रति :- यत्र = ऎच्चट, सुन्दरिभुज शी सुन्दरि भावालु
= आँडु स्वामि, तिष्ठति= उण्डुनो, तस्मिन् = आ, वन ष्मीध शिख वनाद्रि = यन्दु, सायाह्ने = सायङ्कालमुनन्दु, हिंस, ताल, निभृतम् हंसलयॊक्क पाठ ताळमुलतो निण्डुगा, भृङ्गी = आँडुतुम्मॆद, गायति= गानमु चेयुनु, तल् आगानमुनु, पुष्णती = पोषिञ्चुचु, गोकिल, असि ‘यिलयु, उद्गायति = बिग्गऱगा गानमु चेयुनु, अथ = वानि गानानन्तरमु, वल्लि, तल्लज, मुखात् “शीष्ठमगु तीँ गॆल कॊननुण्डि, मधु= तेनॆयनॆडु, आड्रम्=कन्नीरु, स्यन्दते, स्रविञ्चुनु, कुरङ्ग, शतयः - लेडिगुम्पुलु, निष्पन्द, स्तिमि शाः = कदलनिवियु मॆदलनियु (भवन्ति = अगुचुन्नवि शीला सैकतम् गायियु इनुक तिन्नॆँमु, शीतम् चल्लनिदि. (भवति, कील= अगु नँट.) विशेषमुलु :- पूर्वश्लोकमुन ‘किन्नरीषु’ अनियु, ई श्लोकमुन ‘भृङ्गी,’ ‘कोकिला’ अनिय स्त्रीलिङ्ग शब्दमुलनु ग्रहिञ्चुट गानमुन स्त्रीकण्ठ स्वारस्यद्योतनमुन कनि यॆऱुङ्ग वलॆनु. हंस तालनिभृतम्—– भृङ्गाङ्गना गानमुनकु हंस गति ताळमुवलॆ नॊप्पि निण्डुतनमुनु गूर्चुचुन्नदनि सुन्दर बाहु स्तवमु 23 भावमु. पूर्व श्लोकमुनँ गिन्न राङ्गनलु द्राविड प्रबन्ध मुने गानमु चेसिनट्लु चॆप्पँबडि युण्डुटवलन निच्चटँ गूड भृङ्गी कोकिललु दानिने (दिव्यप्रबन्धमुने) गानमु चेसिनवनि कवि याशयमु, हंसस्वनमु गूडँ दाळस्व नमु ननुकरिञ्चुचुन्न वनि कॊन्दलु चॆप्पुदुरु. निष्पन्दस्ति मिताः- निष्पन्दशब्दमुचेतँ गरचरणादि चलन राहित्यमु, स्तिमितशब्दमुचेत नयनादि स्पन्दन राहित्यमु चॆप्पँबडु चुन्नवि. शीतं शिलासैकतम् — शिला सैकतमुलु सैतमु चल्लनै नवि यनुटचेत गानसौभाग्यमु वॆल्लडियगु चुन्नदि. इट्लु सायङ्कालमुन द्राविड प्रबन्धपठन वर्णनमुचेत निदि दिव्यस्थल मनि चाटँ बडिनदि. ता॥ श्री सुन्दर बाहुस्वामि सायङ्कालमुन दुण्डुनो! यावनाद्रियन्दु दिनदिनमु सेवाकालमु जरु गुनु. भृङ्गाङ्गन हंसगतु ल नॆडु ताळस्वनमुलतो दिव्यप्रबन्धमुनु मधुरमुगाँ बाडुनु. दानिकिँ बोष कमुगा नाँडु कोयिलयु बिग्गऱगाँ गण्ठ मॆत्ति गानमु चेयुनु. ई गानमुनु विनुट चेत वल्लीमतल्लुलु तेनॆ पेर नानन्द बाष्पमुलु विडुचुनु. लेण्ड्ल गुम्पुलु कदलक मॆदलक निलँबडि पोवुनु. शिललु सॆकतमुलुनु गानरसमुचेतँ जल्लपडिपोवुनु, शा. सायं वेळ वनाद्रि सुन्दरभुजा सॊनम्बुनन् हंसता24 सुन्दर बाहु स्तवमु ळायामम्बुग भृङ्गि पाड श्रवणा ह्लादम्बुगा द्राविडा म्नायम्बुन् बिकि यालसिञ्चु व्रततुलॊ मध्वश्रुवुल् गाजुचुन् हायिन् ले ळ्ळगमुल् विनुन् जलुवलै ना सैकतम्बुल् शिलल् अवतारिक :- ईमीँद वेदान्तो दिति प्रक्रियत” स्तुतं • पँ दलँचिनवारै स्वरूपमुकण्टे दिव्यमङ्गळ विग्रहमु शुभाश्रय मगुटचेतँ ददै शिष्यमु सनुसन्धिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ पीताम्बरं वरदशीतल दृष्टिपाति माजानुलम्बिभुज मायतकर्णपाशम् । श्रीमन्महावनगिरीन्द्र निवासदी गं लक्ष्मीधरं किमपि वस्तु म माविगिस्तु ॥ 14 प्रति := पीत, अम्बरम्= पच्चनि पट्टुवस्त्रमु गलट्टियु, वरद, शीतल, दृष्टि पातम्=आश्रितुलकु वरमुल निच्चुनदियु, चल्लनिदियु, अगु कटाक्षमु गलट्टियु, आजानु, लम्बि, भुजम् पिक्कलवऱकु व्रेलाडु बाहुवुलु गलट्टिँझु, आयत, कर्णपाशम्=विशालमुलगु श्रेष्ठमुलैन चॆवुलु गलट्टियु, श्रीमत्, महत्, ननगिरीन्द्र, निवास दीनि सु श्री गलदियु, गॊप्पदियुनगु वसगिरिराजमुनन्दु, सिञ्चुटयन्दु दीक्षगलट्टियु, लक्ष्मीधरम् वक्षःगलमु स्थलमु नन्दु लक्ष्मीनि दाल्चिनट्टियु, किमपि = अनिर्वाच्य मैनट्टियु, निव वस्तु सुन्दर बाहु स्तवमु 25 सुन्दर बाहुरूपमुतो नुन्न परब्रह्मवस्तुवु, मम नाकु, आविर सु राक. साक्षात्कारयोग्य मगुँ विशेषमुलु :- वैकुण्ठ स्तवमुलोनि 5व श्लोकमे तृतीय पादमु मार्पुतो निन्दु 16व श्लोकमुगाँ गूर्पँ बडिनदि. दिव्यमङ्गळ विग्रहवर्णनमु सर्वत्र एकरूपमे गदा ! पीताम्बरम् ‘महारजतं वासः’ अनि चॆप्पबडुनट्लु कनकाम्बरमुगलदि अनि यरमु. आजानुलम्बि भुजम् — ‘आयता श्च सुनृत्ताश्च बाहवः परिघोपमाः’ अनि श्रीमद्रामायणमुनँ जॆप्पँबडिनट्लु सुवृत्त स्फी तायत भुजमुलु गलदि यनि भावमु. ‘किमपि वस्तु म मावि ’ ’ रस्तु’ — ‘स ते रूपं नचाकारो नायुधानि नचास्पदम् । ते तथापि पुरुषाकारो भक्तानां त्वं प्रकाश्य’ से’ अन्नट्लु वाङ्मनसागम्य लावण्यादि विशिष्टवस्तुवुगा गोचरिञ्चुँगाक. ता॥ पीताम्बरमु गलदियु, वरमुल नॊसँगु चल्लनि कटाक्षमु गलदियु, आजानु बाहुवुलु गलदियु, आय तमुलुनु प्रशस्तमुलु नगु कर्णमुलु गलदियु, श्रीमद्व नाद्रिनिवासदीक्ष गलदियु, वक्षःस्थलमुन लक्ष्मि गलदियु, नगु नॊकानॊक वस्तुवु नाकण्टिकि गोचरिञ्चुँ गाक. 4 26 सुन्दर बाहु स्तवमु उ. पच्चनिपट्टुबट्ट निज भक्तुलपैँ गडुँ जल्लन लिच्चॆडुचूपु चूपुँ दनि यिञ्चॆडु वीनुलु जानु ( ऋग्ममु जानुँऋग्ममु मच्चिक सेयु बाहुलु ग नूरमणीय मुरम्मु जूसिना त्युच्छशिलोच्चयं बिलु ग नॊप्पॆडुवस्तुवु जल्लु नामदि. श्लो॥ जनिजीव नाप्ययविमुक्तियो तो जगता मिती श्रुतिशिरस्सु गीमते । त दिदं समसदुरि तैक भेषजं वन शैलसम्भव महां भगे महः ॥ प्रति :- जगताम् 15 लोकमुलकु, जनि, जीवन, अव्यय, स विमुक्तयः = सृष्टि, स्थिति, संहार, संसारबन्ध विमोचन मुलु, यतः = देनिवलन, (भवन्ति - अगुचुन्नवि) इदि अनि, श्रुतिशिरस्सु वेदान्तमुलन्दु, गीयते गानमु चेयँ बडुचुन्नदो, सम स्त, दुरित, एक, भेषजमु = समस्त पापमु लकु ऒकेमुन्दैन, वन शैलसम्भवम् – वनाद्रिलो सिद्धमगु, तत् =आ, इदम्=ई, महः तेजस्सुनु, अहसु भजे सेविञ्चुचुन्नानु. विशेषमुलु :- जगताम् तिष्ठन्ति इति, जगन्ति- अनु व्युत्पत्ति चेतँ गदलक निलुचुण्डुनवि यनु नर्थमु वच्चुट सुन्दर बाहु स्तवमु 27 चेत स्थावरमु लनियु, गच्छन्ति, मु लनियु, गच्छन्ति, इति, जगँति अनु व्वुत्पत्ति’ चेत सञ्चरिञ्चुनवि यनुनर्थ मेर्पडुट चेत जङ्ग ममु लनियुँ जॆप्प वलनु पडुटचे जगताम् स्थावरजङ्ग मात्मकमु लगु सकललोक मुलकु अनि निष्कृष्टार्थमु. ‘जनिजीवनाप्ययविमुक्त योयतः’- ‘श्रुतिशिरस्सु गीयते’- आ वेदान्त वाक्यमु लिवि, ‘यतो लिवि, ‘यतो वा इमानि भूतानि जायं ते । येन जातानि जीवन्ति । यत् प्रयं त्यभिनंवि शन्ति । त द्विजिज्ञासस्व । त दह्म’ ‘सर्वदुरि तैक भेषजम्’- त सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः - अन्नट्लु सर्व दुष्कर्मनिवर्तक मनि भावमु, वनशैल सम्भवम् वनाद्रि औषधालयमुलो मुद्भव मैनदि. त दिदं महः - ‘नारायणपरो ज्योतिः’ अनि पेरु वहिञ्चिनदियु, चेरु वलोनुन्न यी तेजस्सुनु, अहं भजे नेनु सेविञ्चु चुन्नानु भ क्ति प्रपत्तु लनॆडु ननुपानमुलतो ननि भावमु. जग उन्मादिकारण मगु परब्रह्ममु सकल मुमुकु समाश्रयणीयमु गावुन नापरवस्तुवु वनाद्रिलो सुलभ प्राप्यमु गान भ क्तुलनु सेविम्पुँडनि हॆच्चरिञ्चु चुन्नारु. ता॥ स्थावरजङ्गमात्मकमु लगु सकललोकमुलकु सृष्टि स्थिति संहार संसारविमोचनमु ले वॆल्गुवलनँ गलुगुननि वेदान्तमुलु घण्टापथमुगा घोषिञ्चुचुन्नवो सकल बाप नेकै कौषधमगु वनाद्रिसम्भवमैन पापमुलनु या वॆल्लुनु नेनु सेविञ्चुचुन्नानु. 23 सुन्दर बाहु स्तवमु शा. वेदान्तम्बुलु चाटु नेकमुग ने वॆल्गिजगा लॆल्ल नु त्पादिञ्चुन् मऱि पॆञ्चुँ द्रुञ्चु भववि ध्वंसम्बु गाविञ्चु नं चादित्यं बघशोषणोषधमुगा • ख्यातं बरण्याचल प्रादुर्भूतमु तन्महामहमु सं भाविञ्चि सेविञ्चॆद. श्लो॥ सद्बह्मात्म पडै स्त्रयीशिरसि यो नारायणि क्त्या तथा व्याख्यातो गतिसाम्यलब्धविषया नन्यत्वबोधोज्ज्वलैः । निस्तुल्याधिक मद्वितीय ममृतं तं पुण्डरीक्ष क्षणं प्रारूढश्रिय माश्रये वनगिरेः कुञ्जोदितं सुन्दरम् ॥ 19 सत्तु, प्रति :- त्रयीशिरसि उपनिषत्तुनन्दु (वेदान्तमु नन्दु) गति… ……..उज्ज्वलै :– गति= वाक्यगमनिक लन्दलि, साम्य=पोलिक चेत, लब्ध=पॊन्दँबडिन, विषय, अनन्यत्व= विषयैक्यमुयॊक्क, बोध ज्ञानमुचेत, उज्ज्वलै :: प्रकाशिञ्चुचुन्न, सत्, ब्रह्म, आत्म, पदैशि ब्रह्ममु, आत्म, अनु पदमुलचेत, (कारणमुगाँ ब्रतिपा दिम्पँबडिन, यः = ऎवँडु, तथा=अट्लु (देवता विशेष वाचियै) ‘नारायण, उक्त्या नारायणुँडनु शब्दमु चेत, व्याख्यातः = निर्णयिम्पँबडॆनो, नि निर्णयिम्पँबडॆनो, निस्तुल्याधिकम् तनतो समानुँडुगानि अधिकुँडुगानि लेनट्टियु, (कनुकने) सुन्दर बाहु स्तवमु 29 अद्वितीयम्=साटिवाँडु लेनट्टियु, अमृतम्= अमृतमु वलॆ भोग्यभूतुँडै नट्टियु, पुण्डरीक + ईक्षणम् = तॆल्लँ दामरलवण्टि कन्नुलुगलट्टियु, वनगिरे = वनाद्रियॊक्क ’ कुञ्ज, उदितम्= पॊदरिण्टिलो आविर्भविञ्चिनट्टियु, आकूढ श्रियम् = ‘आरूढश्री’ अनु नामान्तरमुगल, तम्=आ, सुन्दरम्=सुन्दर बाहुस्वामिनि, आश्रये=शरणुगा नाश्र यिञ्चु चुन्नानु. विशेषमुलु :- ‘गतिसाम्य…. उज्ज्वलैः’ –‘स देव सौम्येदमग्र आसीत्, ब्रह्म वा इद मेक मेवाग्र आसीत्, आत्मावा इद मेक एवाग्र आसीत् ’ इत्यादि वाक्यमुलन्दु ‘इद मग्र आसीत्’ अनु पोलिकलतोँ बेर्कॊनँबडि विष मैक्य ज्ञानमुतोँ ब्रकाशिञ्चुचुन्न सत्, ब्रह्म, आत्म, पदैः— मॊदट सूक्ष्मविभुसाधारण्यमुचेत सन्मात्र वाचकमगु ‘सत्’ शब्दमु ‘स दैव सौम्य द मग्र आसीत्’ अनु चोट वाडँबडिनदि. तरुवात ब्रह्मशब्दमु सूक्ष्म मुनकुँ गारणत्वमुनु निराकरिञ्चि चेतनाचेतन साधारणमुगा विभुवस्तुवुनकुँ गारणत्वमुनु चॆप्पिनदि. आ तरुवात आत्मशब्दमु चेतन मात्रवाचकमै येदो यॊक चेतनमुनकुँ गारणत्वमुनु ब्रतिपादिञ्चुचुन्नदि. चिवरकु ‘एको ह वै नारायण आसीत् न ब्रह्मा वेशानः’ अनु ह तावुनन्दलि नारायणशब्द माचेतनुँडु नारायणशब्द मुख्यवाच्युँडगु भगवानुँडु श्री महाविष्णुवे जगज्ज न्मादि कारणभूतुँ डनि निर्णयिञ्चु चुन्नदि. अनि भावमु, 30 सुन्दर बाहु स्तवमु निस्तुल्याधिकम्— ‘न तत्सम श्चाभ्यनिकि श्च दृश्यणे’ अनुश्रुति यी विषयमुनँ ब्रमाणमु, अमृतमु — अमृतमुवलॆ ननुभविम्पँ दगिनवाँडु भगवानुँडु, ‘गसो वै सः’ अनि श्रुति चाटुनु. ता॥ वेदान्त शास्त्रमुनन्दु ‘स देव सौ सौम्यसमग्र आसीत्’ इत्यादि वाक्यमुललोनि गमनिक पोलिकनु बट्टि येक विषयकमुलुगाँ गारणकोटिलोँ बेट्का नम्बडिन सत्, ब्रह्म, आत्म, पदमुल चेत सामान्यनि शेषन्यायमु वॆलसिन नँ गारणमुँगाँ ब्रतिपादिम्पँ बडिनदि. कावुन समुडु गानि यधिकुँडु गानि लेक यद्वितीयुँ डनि पेरु चॆन्दि यस्सु तमुवलॆ ननुभाव्युँडैन वनाद्रिनिकुञ्जमुलो पुण्डरीकाक्षुँडगु सुन्दर बाहुस्वामिनि नेनु शरणमुगा नाश्रयिञ्चु चुन्नानु. गति स शा, तत्तत्कारण वाक्य साम्यगति द्भह्मात्मशब्दम्बु वेत्त गर्तिगँ जॆप्पु वेदशिर मा वेल्पल्लनारायणा ख्यात्तुण्डे जग दादिमूल मगु न य्य औलीषु सद्वन्द्वु श्री चित्तानन्दु वनाद्रिकुञ्जसदनु सेविन्तु नासुन्दरु. सुन्दरबाहु स्तवमु 31 17 एसुन्दर श्लो॥ जतिं विश्व स्यात्मेश्वर मिति ‘परं ब्रह्म पुरुषः परं ज्योति स्तत्वं पर मिति च ‘नारायण’इति । श्रुति रह्मेशादीन् तदुदित विभूतिंस्तु गृणती य मा हारूढश्रीः स वन गिरिभामा विजयते ग प्रति := श्रुतिः= वेदमु, ब्रह्म, ईश, आदी = चतु र्मुखब्रह्म, ईश्वरुँडु, मॊदलुगाँ गलवारिनि, तत्, उदित, विभूतीज्, तु = आनारायणुनि वलनँ बुट्टिन वै भ वमु गलवारिनिगाने, गृणती= चॆप्पुचु, यम् बाहुस्वामिनि, ‘पति विश्वस्या त्मेश्वर’ मिति = ‘पतिं विश्व स्यात्मेश्वर’ म्मनियु, ‘परं ‘परं ब्रह्म’ ब्रह्म’ इति, च =अनियु ‘पुरुषः’, इत्ति, च == च= ‘विश्व मे वेदं पुरुषः’ अनियु, परं ज्योति स्तत्वं वर मिति च नारायणः इति=‘नारायण परञ्ज्योति स्तत्वं नारा यणः परः’ अनियु, आह=चॆप्पुचुन्नदो, वनगिरिधामा= वनाद्रि निवासमुगाँ गल, सःऱअ, आरूढ श्रीः ‘आरूढश्री’ अनुनामान्तरमु गल सुन्दर बाहुविष्णुवु, विजयते सर्वोत्कृष्टुँडै वॆलयु चुन्नाँडु. = ‘नारायण परं विशेषमुलु :- ईश्लोकमुन सुन्दर बाहुविष्णुवुयॊक्क सर्वोत्कृष्टत्वमुनु श्रुतिवाक्यमुलचेत निरूपिञ्चु चुन्नारु. आ श्रुतिवाक्यमुल यर्थमिट व्रायँबडु चुन्नदि. ‘श्रुति र्द्रह्मे शादीं स्तदुदितुभूतीं सुगृणती’- ब्रह्मेशानादुलु नारायणुनि वलनँ बुट्टि रनुटकु विस्पष्ट मैन श्रुति येदनँगा? ‘नारायणा दृह्म जूय’ 32 अनुनदि सुन्दर बाहु स्तवमु
- दीनिकर्थ मेमन. नारायणात् = श्रीमन्ना रायणमूर्ति वलन, ब्रह्मा= चतुर्मुखब्रह्म, जाय ते पुट्टुचुन्नाँडु, नारायणात् = श्रीमन्नारायणमूर्ति वलन, रुद्रः=रुद्रुँडु, जायते= पुट्टुचुन्नाँडु. ‘पतिं विश्वस्या त्शेश्वरम्’—— विश्वस्य समस्तप्रपञ्चमुनकुनु, पतिम् = पालकुँ डै नट्टियु, आत्मेश्वरम् = जीवात्मलकुनु प्रभु वै नट्टियु, ‘नारायणपरं ब्रह्म
- ब्रह्म’ = श्रीमन्ना यणमूर्ति ये परब्रह्ममु, ‘विश्व मे वेदं पुरुषः’ ईदृश्य मानविश्वमे पुरुषुँडु. ‘नारायणपरो ज्योति स्तत्वं नारायणः परः’ नारायणमूर्तिये परम ज्योति, नारायणमूर्ति ये परमतत्वमु. (विश्व मे वेदं
- ये पुरुषः अनु चोट ई विश्वमन्तयु आ पुरुषुनि अधीन मनि माध्वसम्प्रदायार्थमु) विजयते सर्व देवतो त्क रेण वर्तते अन्दऱि देवतलकण्टॆ नधिकुँडै राजिल्लु चुन्नाँडु. परत्वशङ्कास्पद भूतुलगु ब्रह्मरुद्रादुलकु सैतमु विभूति कारण मनुटचे श्री मन्नारायणुनि आधि क्यमु स्पष्टमे कदा!
- षा
- ता॥ ब्रह्मरुद्रादुल विभूतिकि सैतमु नारायण
- मूर्ति कारणमनि ‘पतिं विश्व
- पतीं विश्व स्याण्मेश्वर ’ मित्यादि वाक्यमुलचेत कीर्तिञ्चुचु श्रुति येवेल्पुनु सर्वोत्तमुनि गाँ बेर्कॊनॆनो, ‘आरूढश्री’ अनु नामान्तरमु गल वनाद्रिवासि या सुन्दर बाहुमूर्ति सर्वोत्कृष्टुँडै वॆलयु चुन्नाँडु.
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- म. श्रुति यत्कीर्तिमहत्त चाटुनो ‘परं
- ज्योतिः’ ‘परम्ब्रह्म’ यन्
- शतसङ्ख्याधिक वाक्परम्परल ना
- स र्वेश्वरुण्डौ रमा पति ब्रह्मेश विभूति दात परदै
- वं बॊक्कँडे श्रीवन क्षितिभृच्छृङ्गविहारि सुन्दर भुज
- श्री देव देवुण्डॆ पो !
- श्लो ॥ पृथिव्याद्यात्मान्तं नियमयति य स्तत्वनिकरं तदन्तर्यामि तद्वपु रविदित स्त्रीनि भगवान् । स एव स्वैश्वर्यं न विजहद शेषं वनगिरिं समध्यासीनो नोविळतु हृदयं सुन्दरभुजः ॥
- 33
- 18
- प्रति :- यः = ए, भगवान् भगवन्तुँडु, पृथिवी, आदि, आत्म, अन्तम् =पृधिवि मॊदलुकॊनि आत्म तुदिगाँगल, तत्वनिकरम् - तत्वसमूहमुनु, नियमयति=नियमिञ्चु चुन्नाँडो,तत्, अन्तः;यामि = पृथिव्यादि आत्मपर्यन्तमु गल यातत्वमुलकुँ बेरकुँडै, तत्, वपुः = आतत्वमुले शरीरमुगा ँ गलवाँडै, तेन
- आतत्वसमूहमुचेत, अविदितः = तॆलियँ बडनिवाँडु, भवति = अगुचुन्नाँडो) अशेषम् = समस्तमैन, स्वैश्वर्यम् = तनयैश्वर्यमुनु, स, विजहत् = √डिचि पॆट्टनि वाँडगुचुने, ननगिरिम् वनाद्रिनि,
- (5)34
- समध्यासीनः
- एषः
- सुन्दर बाहु स वमु स्तवमु
- चक्कगा अधिष्टिञ्चि युन्नाँडो, सः = आ,
- ई, सुन्दरभुजः
- UL
- सुन्द बाहुस्वामि, सङ्ग्रामा यॊक्क, हृदयम्= मनस्सुनु, विशतु= प्रवेशिञ्चुँ गाक,
- हृदयम्=मनस्सुनु, विशेषमुलु : पृथिव्या द्यात्मान्तं नियमय … ई श्लोकमुनन्दु मॊदटि रॆण्डु पादमुलन्दुनु अन्तर्यामि ब्रह्मणमुलोनि यीवाक्यमुल यर्थमु विवरिम्पँ बडिनदि.
- ‘यः पृथिव्यां तिष्ठन्, पृथिव्या अन्तरो, यं पृथिवी नवेद, यस्य पृथिवीशरीरं, यः पृथिवी मन्तरो यमयति. (ऎवँडु पृथिनिनि जॊच्चि पृथिवियन्दु निवसिञ्चुचुन्नाँडो, ऎवनिनि पृथिवि यॆऱुँगदो, ऎवनिकिँ बृथनि शरीरमो, ऎवँडु पृथिविकि अन्तर्यामियै दानिनि ब्रेरेपिञ्चुनो,) अनि यारम्भिञ्चि ‘य आत्मनि तिष्ठन्, आत्मनों तरः, य मात्मा न वेद, यस्यात्मा शरीरं, य आत्मान मन्तिरो यम न यति’ (ए भगवानुँडु आत्मनु ब्रवेशिञ्चि यात्म. मुन्दु वसिञ्चुचुन्नाँडो, आत्म यॆवनि नॆऱुँगदो, आत्म यननिकि शरीर मो, ए देवुँ डात्मकु अन्तर्यामियै प्रेरेपिञ्चु
- ए चुन्नाँडो) अन्तवऱकुँ गल वाक्यमुल तात्पर्य मनुरं
- धिञ्चु कॊनवलॆनु.
- ‘नो विशतु हृदयं सुन्दर भुज ’ सर्वान्तर्वामित्वमु स्वामिकि साधारणधर्म मैनप्पटिकिनि आश्रितानुग्रहमु कॊऱकु दिव्यसुन्दर विग्रहमुतो सुन्दरभुज जीवुँडु मा हृदयमुन सन्निधिचेयुँ गाक यनि भक्तुनि प्रार्थन.
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 85
- 012
- ता॥ ए भगवानुँडु पृधिवि मॊदलुकॊनि यात्म यन्त मुगाँ दत्वमुल सृजिञ्चि वानिलोँ जॊच्चि यवि शरीरमुलु गाँ गलिगि वानि कन्तर्यामि यय्यु वानिकिँ दॆलिय शक्यमु गाकुन्नाँडो या भगवानुँडु निजवैभवमुतो श्री वना द्रियन्दु वेञ्चेसि युन्नाँडु. आ सुन्दर भुजस्वामि तन दिव्य विग्रहमुतो सर्वदा ना हृदयमुनन्दु सन्निधि
- चेयुँ गाक.
- उ. एभगवानुँ डादिग म
- प्रति
- हिन् दुदि यात्मगँ गूर्चि तत्वमुल्’
- शोभिलँ दत्प्रविष्टुँ डगु
- चुन् नियमिञ्चुनॊ तद्वपुष्कुँडै
- स्वाभिमतम्बु लेक तॆलि
- यं बडँडो वनशैलवासि या शोभनमूर्ति सुन्दर भु
- जुण्डु मदन्तरमन्दु वॆल्गुतन्. श्लो॥ प्रत्यगात्मनि कदा व्यसम्भव
- द्भूमभूमि मभिवक्ति यं श्रुतिः । तं पनाद्रिनिलयं सुसुन्दरं सुन्दरायतभुजं श्री जामहे ॥
- यम् = ए वेल्पुनु, प्रत्येगात्मनि
- (मोक्षदशयन्दु
- 19
- जीवात्म
- यन्दु, कदा, अपि= ऎन्नँटिकिनि, (मोक्ष दशयन्दु सैतमु) असम्भवत्, भूम, भूमिम्=सम्भविम्पनि महिमकु जन्म स्थानमुनुगा, श्रुतिः= वेदमु, अभिव्यक्ति = अन्तटनु जॆप्पु
- 4
- 36
- सुन्दरबाहु सनमु
- चुन्नदो, वनाद्रि, निलयमु वस शैलमु निवासमुगाँगल, सुन्दर, आयत, भुजम् = अन्दम्मुलुनु विशालकुलु नगु बाहुवुलु गलवाँडु गनुकने, सुसुन्दर भुज
- भुजुँडनि पेरुगाञ्चिन, तस्स् == आ नेल्पुनु, भजामहे सेविञ्चुचुन्नामु,
- सुन्दर
- विशेषमुलु : ~ ई श्लोकमु पूर्वार्धमुनँ जॆप्पँबडिन
- :- विषयमुन कनुग्राहकमैन प्रमाणश्रुति.
- ‘एष सर्व भूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा, दिव्यो देव एको नागा यणः’ सर्वचेतनाचेतनान्तर्यामिगा नुन्नप्पटिकिनि सर्वेश्व रुँडु तत्तत्प्रत्यगात्मल यन्दुण्डु दोषमुलतो लेश मैननु सम्बन्धमु लेक हेय प्रत्यनीक कल्याणगुणीकता नुण्डै पै श्रुति वर्णिञ्चिन प्रकारमे युण्डुनु.
- ता॥ जीवात्मलयन्दु नॆन्नँटिकिनि सम्भविम्पनि महश्र मुनकुँ बुट्टिनिल्लनि येवेल्पुनु श्रुति प्रतिपादिञ्चु चुन्नदो वनाद्रिवासियु सुन्दर दीर्घ भुजुँडु नगु ना सुन्दर बाहु देवुनि भजिन्तुमु
- उ. जीवुनियन्दु मोक्षदश
- चेरुऱु कालमुनाँटिके नसं
- भावित मैनदिव्यमहि
- मम्बुनकुन् जनिभूमिगा ँग ने
- देवुँ द्रयीमतल्लि विनु
- तिञ्चुनो ! दीर्घ सुवृत्त दोर्युगुन्
- ख
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- श्रीवनशैलवासुनि भ
- जिञ्चॆद सुन्दर बाहुविष्णुवुन् . श्लो॥ वन्देय सुन्दरभुजं भुजगेन्द्रभोग
- सक्तं महावनगिरि प्रणयप्रवीणम् । यं तं विदु र्दहर मष्टगुणो पजष्ट माकाश मापनिषदीषु सरस्वतीषु !!
- प्रति :- यम् = ऎवनिनि, औपनिषदीषु
- वाक्कुलन्दु,
- 37
- 20
- उपनिषत्सं
- अष्ट, गुण,
- बन्धमुलगु, सरस्वतीषु उपजष्टम् = अपहत पाप्मत्वमु मॊदलुगा गल यॆनिमिदि गुणमुलतोँ गूडिनट्टियु, दहरम् =दहरनामः पुण्डरी कमुनन्दु उन्नट्टियु, आकाशम् = आकाशनामक परमात्म नुगा, (ब्रह्मविदः
- ब्रह्मवेत्तलु) विदुः = तॆलिसिकॊनु चुन्नारो, तम्=अटुवण्टियु, भुजगेन्द्र, भोग, सक्तम्= शेषशरीरमुनन्दुँ बव्वळिञ्चिनट्टियु, महा, वनगिरि, प्रणय, प्रवीणम् गॊप्पदियगु वनाद्रि यन्दलि प्रीति विषयमुन रसिकुँडै नट्टियु, सुन्दर भुजम् सुन्दर बाहुस्वामिनि, वन्देय = नमस्करिन्तुनु गाक,
- विशेषमुलु :- भुजगेन्द्र, भोग, सक्तम् - शेष पर्यङ्कशायि
- शायियनि भावमु. महावनगिरि प्रणय प्रवीणम्.. वनाद्रि भोग्यता रसिकुँ डनि तात्पर्यमु. ई रॆण्डु विशेष णमुलचेत ‘एष नारायणः श्रीमान् श्री रार्ल वनि केतनः शेषपर्यङ्क मुत्सृज्य ह्यागतो मधुरापुरीम्’ अन्न विध मुगा राब्धिनाथुँडे वनाद्रिनाथुँडुगा वॆलसिनाँडनि पर्यव
- 33
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- J2DJ ́58
- सिञ्चॆनु. ‘अष्टगुणोपजुष्टमी’ आकाशीनामक प्रमान्नि यन्दुण्डु अष्टगुणमु लॆव्वि यन? एमि आश पाप्मा विजरो विजृत्यु र्विळोलो विजित” " कामः सत्यसङ्कल्पः (उपनिषत्) 1. अपहति स्वामु पापमुलु लेमि, 2, विजरत्वमु = Dandien, B. Day) त्युत= चावु लेमि, 4. विशोकत्वमु = दःःखमु लेमि, 5. विजिष्ट
- 6. अपिपासत्वमु
- तृत्वमु
- मुदिमि लेदु,
- आकलिलेमि, 6. अपिपासत
- 7. सत्यकामत्वमु = यधार्धमुलगु कल्याणगुणमु.
- कलिमि, 8. सत्यसङ्कल्पत्वमु
- कलिगियुण्डुट यनुनवि.
- आकाशम् आ = समन्तात्
- दप्पिक लेमि,
- यथार्थमगु सङ्कल्पमु
- काशी इदि ने
- A
- अनुव्युत्पत्तिचेत नी शब्दमु भगवद्वाचक मगु चुन्नदि. भगवानुँडन्तटँ ब्रकाशिञ्चुवाँडी कदा!
- गोच
- ता ए वेल्पुनु ब्रह्मवेत्त लुपनिषद्वाक्यं रिञ्चॆडि यष्टगुणमुलतो नॊप्पु दहराकाशमुनु दॆलियुदुरो शेषपर्यङ्कशायि. मु वनाद्रि सौभाग्यनु
- भवरसिकुँडु नगु ना सुन्दर
- रिन्तुनुगाक.
- उ. भोगिकुलाधि नाथुँ डनु
- भाहुमू गिनि समस्य.
- पुव्वुल सॆज्जँ बरुण्डुनट्टि बल्
- भोगि वनाद्रि सम्पदनु
- .भूति रसज्ञुनि
- वेनि
- सर्वदा
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- आगम सिद्धमा दहर
- मष्ट गुणोज्ज्वल माक सम्बुगा
- योगिवरुल् मदिं दलँतु
- गो! यलसुन्दर बाहु म्रॊक्कुदुन्.
- 39
- यत् स्वाय तस्वरूप स्थिति कृतिक निजेच्छानियाम्यस्व शेषा नन्ता शेषप्रपञ्च स्तत इह चिदि वाचिद्वपुर्वाचि शभ्दाः । विश्व श्शदैः प्रवाच्यो हतवृजिनतया नित्य मे वानवद्य स्तं वन्दे सुन्दराह्वं वनगिरि निलयं पुण्डरीकायताक्षम् ॥ 21
- प्रति :
- ऎन्दुवलन, स्वायत्त……… …प्रपञ्चः = स्व, आयत्त = स्वाधीनमुलयिन, श्वरूप, स्थिति, कृतिक = स्वरूपमु, स्थिति, प्रवृत्तियुँ गलिगिनट्टियु, निज, इच्छा, नियाम्य = स्वेच्छ चेत नियमिम्पँदगिनट्टियु,
- स्व शेष
- ततः
यत् तनकु दासुँडै नट्टियु, अनन्त = अन्तु लेनि. अशेष = समस्तमगु, प्रपञ्चः प्रपञ्चमुगल वाँडो, अन्दुवलन, इह = ई = ई जगत्तुनन्दु, अचित्, नवुः, वाचि, शबैः = अचित् (जड) परिणाममुलगु देव मनुष्यतिर्यगादि शरीर वाचि शब्दमुल चेत, चित्, इव चेतनुँडु (जीवुँडु) वलॆने विश्यैः = समस्तमु लगु श मुलचेत, प्रवाच्यः = मुख्य वृत्तिचेतँ जॆप्पँ दगिन वाँडुनु, हत, वृजिन, तया = कॊट्टिवेयँबडिन पाप मुलु गलवाँडगुटचेत, नित्यम् = ऎल्लप्पुडुनु, अनवद्यः, == निर्दोषुँडुगने, (भवति = अगुचुन्नाँडो,) गिरिवर, एव =
- शब्द
- 40
- सुन्दरबाहु स वमु
- निलयम् = पर्वत श्रेष्ठमगु वनाद्रिये वास मु गाँ गलट्टियु, पुण्डरीक, आयत, अक्षम् =
- विशालमुलगु कन्नुलुगल, तम् = आ, सुन्दर, आह्वम् सुन्दर बाहुवनु पेरुगल वेल्पुनु, वन्दे रिञ्चु चुन्नानु. (लेदा) स्तुतिञ्चु चुन्नानु.
- विशेषमुलु
- H
- नम -
- भगवानुलगु
- भाष्यकारुलु शेष शेषि भावमु निल्लु निरूपिञ्चिनारु ‘पॆर
- स्व शेष
- गतातिशयाधा नेच्छया स्वरूपं स शेषः
- ऊपा देय
- ऊपादेयत्व
- मेव यस्य परः शेषी — हतवृजिनत. रू नित्य मे वानवद्यः हेय प्रत्यनीकुँडे यनि भावमु, दीनि भाव मिदि प्रकृति परिणाम भूतमुलगु पञ्च भूतमुल चेत नेर्पडिन देवमनुष्यादि शरीरमुलनु जॆप्पु शब्दमुल चेत ‘पुमान्न देहो न न स तिर्यक् स्थावरोपिवा ।
- ! ज्ञानानं दमयस्त्वात्मा शेषो हि परमात्मनः’ अन्नट्टु लात्माधार कत्व, नियन्तृत्व शेषि त्वादुल चेत नीतँडु देवुँडु मासवुँ डनि चॆप्पँ बडुचुन्नाँडु. इट्लु स्वाधीन त्रिविध चेतना चेतन स्वरूपस्थिति प्रवृत्तिभेदमु वलननु नियन्तृत्वमु वलननु, शेषित्वमु वलननु, सकलचेतना चेतनवाचि शब्दमुलचेत ‘त दे वानु प्राविशत्, तदनुप्रविश्य, सच्चत्यच्चाभवत्, त देवाग्नि स्त द्वायुः तत्सूर्य स्तदु चन्द्रमाः, ज्योतिम्पि विष्णु र्भुवनानि विष्णु र्वनानि विष्णुरिरयो दिशश्च अनि चॆप्पिन विधमुगा श्री महाविष्णुवे पेर्कॊनँ बडुचुन्नाँडु. जीव
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 41
- शरीर प्रवेशमुवलन स्वभावान्यथाभावरूप ज्ञानसङ्कोच विकासादि दोषमुलु सम्भविञ्चिननु चेतनाचेतनानु प्रवेश प्रस क्त तद्गत दोष संस्पर्श मेमात्रमु लेदु गनुक भग वानुँडु नित्यनिरवद्युँडे यगुनु. इट्टि विशेषमुलन्नियु वनाद्रिनिलयुँडगु श्री सुन्दर बाहुवुनन्दे कलिगि युं डुटचे ना वेल्पे वन्दनीयुँडनि हृदयमु.
- ता॥ निजेच्छानियम्यमुनु स्व शेषभूतमु नगु नीविविध प्रपञ्चमुनकु सृष्टिस्थिति प्रवृत्त्यादिकमु लॆवनियधीनमुन नुन्नवो, अन्दुवलन ने यॆवँ डचिद्वपुर्वाचि शब्दमुल चेतनु अचित्परिणाम देवनुनुष्यादि शरीर वाचि शब्दमुल चेतनु जीवुनिवलॆँ जेतना चेतनवाचि सकल शब्दमुल चेत मुख्य वाच्युँडो, अपहत पाप्मुँ डगुट चेत नित्यनिरवद्युँडो ! यट्टि पुण्डरीकाक्षुँडुनु वनाद्रिनिलयुँडु नगु श्री सुन्दर बाहुमूर्तिनि निरन्तरमु स्तुतिञ्चि नमस्करिन्तुनु.
- उ. ई विविध प्रपञ्चमुन
- केन्गड यीळित शेषियै यचि
- द्भावित देवतादितनु
- वाचिपदम्बुल जीवि वोलॆ ने
- देवुँडु सर्ववाक्समभि
- धेयुँडॊ ! `हेयगुणातिदूरुँडो !
- यावन शैलवासी जल
- (6 )
- जाक्षुनि सुन्दर बाहु म्रॊक्कॆदन्.
- 34
- प्रति :
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- श्लो॥ गुणजं गुणिनो हि मङ्गलत्वं
- प्रमितं प्रत्युत यत्स्वरूप मेत्य त मनन्तसुखावबोधरूपं विमलं सुन्दर बाहु माश्रये ॥
- 22
- गुणिनः = गुणवन्तमगु वस्तुवु यॊक्क, मङ्गळत्वम् = शोभनत्वमु, (श्रेष्ठत्वमु) गुणजं, ही= गुणमुलवलन आविर्भविञ्चिन दनि प्रसिद्धमु गदा, (तत् = अदि) यत्, स्वरूपम्= ए भगवानुनि सहजमैन “हेय
- प्रत्यनीककल्याणगुणैक तान मगु स्वरूपमुनु, एत्य. पॊन्दि, प्रत्युत = वै परीत्यमुगा, पै पॆच्चु) प्रमितम् (गुणमुलकु श्रेष्ठत्वमु गुण्यधीनमनि) निर्णयिम्पँ बडॆनो,
- तम् = अटुवण्टियु, अनन्त, सुख, अवबोध, रूपम्
- अन्तु लेनिसुखमु ज्ञानमु स्वरूपमुगाँ गलट्टियु, विम लम्= निर्मल ’ मैनट्टियु, सुन्दर बाहुम् = सुन्दर बाहु स्वामिनि, आश्रये=शरणु चॊच्चुचुन्नानु. (आश्रयिञ्चु चुन्नानु.)
- विशेषमुलु :- गुणजं गुणिनो हि मङ्गळत्वम् मणि, द्युमणि (सूर्युँडु) चन्दनमु, चम्पकमु, अरविं दमु मॊदलुगाँगल वस्तुवुलकु श्रेष्ठत्वमु प्रभ, प्रसा दमु, सौरभ्यमु मुन्नगु गुणमुलचेत वच्चुट लोक प्रसिद्धमु. इट्लुण्डँगा दीनिकि विपरीतमुगा, प्रमितं प्रत्युत यत्स्वरूप मेत्य – श्रीभगवानुनि स्वाभाविकमैन हेय प्रत्यनीकमुनु कल्याणगुणैकतानमु नगु स्वरूपमुनु
- ស
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- 85
- जॆन्दुट चेत गुणमुलकु श्रेष्ठत्वमु गलिगॆननि श्रुतुलु चाटुचुन्नवनि भावमु. आश्रुतु लॆव्वि यन - ‘सत्यस्य सत्यं, ज्योतिषां ज्योतिः, पवित्राणां पवित्रं यो मङ्ग लानां च मङ्गलम्’ सत्यं ज्ञान मनन्तं ब्रह्म, विज्ञान मानन्दं ब्रह्म, अपहतपाप्मा
- विजरः इत्यादुलु.
- ता॥ तेजस्सुचेत मणि दिनमणुलकुनु, कान्तिचेतँ जन्द्रु नकुनु, . सौगन्ध्यमुचेतँ
- जन्दन चम्पकारवि दादुलकुनु, गॊप्पतनमु गलिगि गुणवद्वस्तुवुनकुँ गल्गिन गॊप्पतनमु गुणमुलवलन ननि जगत्तुलोँ ब्रसिद्धमैनदि. दानिकि विरुद्ध मुगा श्रुतिस्मृतुलु गुणमुलकु गॊप्पतनमु हेयप्रत्य नीक कल्याणगुणैक तान मगु भगवत्स्वरूपमु नाश्र यिञ्चुटचेत ननि चाटुट गुण गौरवमु गुण्यधीन मनि घण्टापथमुगा घोषिञ्चुचुन्नवो यट्टि दोषदूरुँडुनु कल्याणगुणनिलयुँडुनु ज्ञानानन्दस्वरूपुँडु नगु श्री सुन्दर बाहुस्वामिनि शरणु चॊच्चॆदनु.
- च. गुणमुलचे महत्त्व मॊनँ
- गूडुनु बो! गुणिकोटिकिन् नभो
- ‘मणि प्रभचेत शीतघृणि
- मञ्जुलकान्तिनिगा दॆ मिन्नधा
- गुणिँ दलक्रिन्दु दीनिकि स्व
- रूपमुगा सयि वेसिकिन् गुणाल्
- न
- गणुति वहिञ्चॆ म्रॊक्कॆद न
- खण्डुनि सुन्दर बाहु नाविभुन्.
- ।44
- सुन्दर बाहु सवमु
- श्लोH अतिपतितावधिस्व महिमानुभव प्रभवत् सुखकृतनि स्तरङ्गजल दीयितनित्यदशम् । प्रतिभट मेव हेयनिकरस्य सदा
- .
- प्रतिमं
- 1
- हरि मिह सुन्दराह्व मुपयामि वनाद्रितटे! 23 प्रति : अति, …….. नित्यदशम् अतिपतित = अतिक्र
- . = मिम्पँबडिन, अवधि=हद्दुगल, स्व=तन, महिम वैभ भीमुयॊक्क, अनुभव = अनुभवमुचेत, प्रभवत् = पुट्टु चुन्न, सुख=आनन्दमुचेत, कृत चेयँबडिन, निस्तरङ्ग = अललु लेनि, जलधीयित=समुद्रमुवलॆनुन्न, नित्यदळम् नित्यदश गलिगिनट्टियु, सदा= ऎल्लप्पुडु, हेयनिकरस्य दोषसमूहमुनकु, प्रतिभटम् = प्रतिद्वन्दि यैनट्टियु (विरोधियैनट्टियु) अप्रतिमम् ’ साटि लेनट्टियु, सुन्दरा ह्वम् सुन्दर बाहु नामकुँडगु, हरीम्-श्रीमहा विष्णुवुनु, इह ई, वनाद्रित पे वन शैलमुचरिय
- यन्दु, उपयामि = शरणु चॊच्चुचुन्नानु.
- वि शेषमुलु :- भगवन्तुनकु नित्योदितदश यनियु, शान्तो दितदश मनियु रॆण्डुदशलु गलवु. वानिलो स्ववैभवानुभवदशनु नित्योदितदश यन्दुरु. विभूत्यनु भवदश शान्तो दितदश. नित्योदितदशये यी श्लोकमुन विवरिम्पँबडिनदि. ई दशयन्दु भगवन्तुँडु तन्नु वासु देवुनिगाँ जिन्तिञ्चुकॊनिञ्चुँ दच्चिन्तनाजनितसुखमुचेत नि स्तरङ्ग महोदधिवलॆ नानन्दमयुँडै युण्डुनु,
- सुन्दरबाहु स्तवमु .
- 45
- ता॥ अवधिलेनि स्ववैभवानुभवमुचेत नुत्पन्नमगु सुखमुचेत निस्तरङ्ग महोदधिसदृश मगु नित्योदितदश गलवाँडै तमस्सुनकुँ देजम्बुवलॆ हेयगुणनिकरम्बुनकुँ ब्रतिभटुण्डै यप्रतिमानुण्डै यॊप्पुवनाद्रितट वासियगु श्री सुन्दर बाहुमूर्ति निट शरणु चॊच्चुचुन्नानु.
- उ. अन्त विहीन नैज विभ
- वानुभवप्रभवत्सुखम्बुचे
- शान्ततरङ्ग वारि निधि
- चन्दमु नित्यदशोपपन्नुँडै
- ऎन्तयु हेयकोटि कॆदु
- रॆत्तयि
- चीँकटिकिन् वॆलुं गटुल्
- चिन्तक पाळिँ दन्पुहरि
- श्रीवन शैलगु नाश्रयिञ्चॆदन्.
- श्लो॥ सदापाड्गुण्याखै, पृधुलबल विज्ञानशकन
- प्रभावीर्यैश्वर्यै रवधि विधुरै रेधितदशम् । द्रुमस्तोमक्ष्माभृत् परिसर महोद्यानमुडितं
- प्रपद्ये ध्यारूढ श्रिय मिमु महं सुन्दरभुजम्॥
- 24
- प्रति : सदा = ऎल्लप्पुडु, षाड्गुण्य, आख्यैः षड्गुणमुल नॆडु पेरुगलिगिनट्टियु, अवधि, विधुरै : हद्दु लेनट्टियु, पृधुल…श्वर्यैः - पृधुल गॊप्प, बल = बलमुचेतनु, विज्ञान - विशेषज्ञानमु चेतनु, शकन = शक्ति प्रभा = कान्तिचेतनु, वीर्य = वीर्यमुचेतनु,
- ऐश्वर्यमुचेतनु, एधितदशम्
- चेतनु,
- ऐश्वर्यैः
- वृद्धि चॆं
- 38
- सुन्दर बाहु स वमु
- दिम्पँ बडिन दश गलिगिनट्टियु, द्रुम … मुदितम्
- द्रुम
- चॆट्लयॊक्क, स्तोम
- त्मॆभृत् कॊण्डयॊक्क
- = समूहमुतो (कूडिन)
- (वनाद्रियॊक्क) परिसर
- समीपमुलोनि, महत् गॊप्प, ऊद्यान पूल तोँटयन्दु, मुदितम् प्रीतिगल, अध्यारूढश्रियम् = ‘अध्यारूढश्री’ अनु नामान्तरमु गल, सुन्दर भुजम्= सुन्दर बाहु देवुनि, अहम् नेनु, प्रपद्ये = शरणु चॊच्चु चुन्नानु.
- विशेषमुलु :- षाड्गुण्याख्यैः षड्गुणमु लनि पेरु
- गलवि. अवि ये वनङ्गा
- बल
- तेजोवीर्यैश्वर्य
- ई विशेषणमु आनन्द
- ई
- विज्ञानशक्ति तेजोवी र्यैश्वर्य मुलु. पृथुल बल इन्दलि ‘पृधुल शब्द विशेषणमु चेतन निष्ठमुलगु परिमित ज्ञान शक्त्यादुल व्यावृत्तिकॊऱकु वेयँ बडिनदि अवधिविधुरै 8 वल्लिलोँ जॆप्पँ ब डिन यानन्दगुणीयता राहित्यमु ने स्थालीपुलाक न्यायमुचेत सकलगुण समानमनि सूचिञ्चु चुन्नदि.
- समुदायमुनकुनु
- ता॥ ऎल्लप्पुडु षड्गुणमुलनॆडु लोकोत्तरमुलु इय त्तारहितमुलु नगु बलज्ञान शक्ति तेजोवीर्यैश्वर्यमुलतो अभिवर्धमानदश गलिगि नट्टियु, वनाद्रिपरसरमहोद्यान मुन निवसिम्पँ ब्रीति गलिगिनट्टियु, ‘आरढश्री.’ अनु ना मान्तरमुगल श्री सुन्दर बाहुमूर्तिनि शरणु चॊच्चु चुन्नानु.
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- शा॥ प्रौढ ज्ञानबलप्रभाशकनवी
- र्यम्बुल् महेश्वर्य म
- रूढिक् बॊल्चॆडुषड्गुणम्बुल समा
- दोहद्दळो पेतुनिकॊ
- गाडोत्कण्ठ भजिन्तु सुन्दरभुजुन् गञ्जातपत्राक्षु ना रूढश्रीकु वनाद्रिनिष्कुलविहा
- रु९ नीवॆ दिक्कं चॆद.
- 1
- 39
- अवतारिक :- पूर्योक्त षाड्गुण्यपरिणाम वित ति रूपम्बुलगु सौशील्यादुलकु स्वरूप गुणमुलनु, विग्रह गुणम्बुलगु सौन्दर्यादुलु निन्दु वर्णिम्पँबडुचुन्नवि.
- श्लो॥ सौशील्याश्रित वत्सलत्वमृदुता सौहार्द सौम्यार्थ वै
- धैर्य स्थैर्य सुवीर्यशौर्यकृतिता गाम्भीर्यचातुर्यकैः । सौन्दर्यान्वित सौकुमार्य समता लावण्यमुख्यै र्गुणै र्देवः श्रीतरुषण्ड शैलनिलयो नित्यं स्थितः सुन्दरः ॥ 25 प्रति : — सौशील्या. … .. आरवै :- सौशील्य = मञ्चि शीलमुचेतनु, आश्रितवत्सलत्व = आश्रयिञ्चिन वारियॆडँ गल वात्सल्यमुचेतनु, मृदुता= मार्दवमुचेतनु, सौहार्द = स्नेहमुचेतनु, साम्य = समत्वमुचेतनुँ आक्षकै ः=
- ऋजु भावमु चेतनु, धैर्य चातुर्य कै– धैर्य= धैर्यमुचेतनु, स्थैर्य= स्थैर्यमुचेतनु, सुवीर्य= मञ्चि वीरत्वमुचेतनु, शौर्य = शूरत्वमुचेतनु, कृतिता- 48 सुन्दरबाहु स्तवमु कृतकृत्यतचेतनु, गाम्भीर्य= लोतुतनमु चेतनु, चातुर्य कैः= चतुरत्वमुचेतनु, सौदर्यामुख्यैः – सौन्दर्य= चक्कँदनमुतो, अन्वित = कूडिन, सौकुमार्य = सुकुमारत, समता अवयवपरिमाण समत्वमु, लावण्य = कान्तिवि शेषमु, मुख्यैः = मॊदलुगाँगल, गुणैः= गुणमुल चेत, (उपलक्षिष् तः = चूडँबडिन वाँडै) देवः =क्रीडादिगुणविशिष्टुँडै, सुन्दरः = सुन्दर बाहुमूर्ति, नित्यम् = ऎल्लप्पुडु, श्रीतरुषण्ड शैलनिलयः = श्रीवनाद्रि निवासुँडै, स्थितः = उन्नाँडु. नड विशेषमुलु :- सौशील्यम् महतो मन्दै स्सह नीरन्धेण संश्लेषः, गॊप्पवानिकिँ गॊलँदिवार लतो तॆगकुण्डँ गलसि मेलसि युण्डुट सौशील्यमु, वात्सल्यमु = दोषमुलनु लॆक्क सेयनि स्नेह विशेषमु, मृदुति लॆक्कचेयनि आश्रितुल यॆडँबाटुनु सहिंम्प लेनि मॆत्तदनमु, सौहार्दमु = आश्रितुँडनियु अनाश्रितुँडनियु भेदमु लेकुण्ड निल्ल वारि मेलु कोरुट, साम्यमु = कुलमु विद्य प्रवर्तनमुनु जूडकये यॆल्ल वारिकि नाश्रयणीयुँडै युण्डुट, आर्जवमु मनोवाक्कायकर्ममुलन्दु ‘नेक रूपमुतो नुण्डुट, धैर्यमु = मिक्किलिगा ननिष्टमुलु वच्चिननु गुण्डॆ चॆदरकुण्डुट, स्थैर्यमु शरणागत विषय मुनँ बुरुव कारभूतुरालगु लक्ष्मी देवि दोपोद्घाटन मॊनर्चिननु ब्रतिज्ञनु बरिपालिञ्चुट. सुन्दरबाहु स्तवमु (गतसञ्चिक तरुवायि) वीर्यमु अतिदुष्करमगु युद्धमु नन्दुनु श्रमँ जॆन्दकुण्डुट, शौर्यमु तोडुलेकुन्ननु अतिभयङ्करमु कृत लगु वैरुललोनिकिँ जॊच्चुकॊनि पोवुशक्ति, कृतित कृत्यत, गाम्भीर्यमु = तॆलिय शक्यमुगानि हृदयमु गलिगि युण्डुट, चातुर्यमु इतरुलकु शक्यमुलुकानि यॆल्लपनुलनु सुलुवुगाँ जेयु नेर्पु, सौन्दर्यमु=दृष्टिनि चित्तमुनु आकर्षिञ्चुनवयवशोभ, सौकुमार्यमु=पूवु कण्टॆ अधिकमगु मार्दवमु, समत = सामुद्रिक शास्त्रोक्त समपरिमाणावयव शालित्वमु, लावण्यमु=समुदाय शोभ, इट्लीश्लोकमु नन्दलि पदमुल कर्थमु नॆऱुङ्ग वलयुनु. ता॥ क्रीडादि गुणविशिष्टुँ डगु श्री सुन्दर बाहुमू र्ति सौशील्य वात्सल्यमार्दव सौहार्दादि दिव्य स्वरूपगुणमुल तोडनु, सौन्दर्य सौकुमार्य समतालावण्यादि दिव्य विग्रहगुणमुलतोडनु ऒप्पुचु द्रुमषण्डमण्डितम्बगु वनाद्रियन्दु नित्यनिवास मॊनर्चु चुन्नाँडु. आदेव देवुनि शरणु चॊच्चॆदनु. शा. सौशील्याश्रित वत्सलत्वमृदु ता सौहार्ट् साम्यार्जन 7 50 सुन्दर बाहु स्तवमु श्रीशूरत्वमुनीर्य धैर्यकृतिता… श्री णोरुगाम्भीर्याल क्ष्मीशोभित्वनिजस्वरूप गुण रा शिन् मञ्जुतॊ सौकुमा र्या शेषाङ्गगुणाळि सुन्दरभुजुं डाकॊण्डपै नुण्डॆडुन् . श्लो॥ ये ष्वेकस्य गुणस्य विपु डपि पै लोकोत्तरं स्वाश्रयं कुर्या त्तादृश वैभवै रगणितैर्निस्सीम भूमान्वि तैः । नित्यैर्धिव्यगुणै स्ततो ऒधिकशुभ त्वैकास्पदात्माश्रय रिद्दं सुन्दर बाहु मस्मि शरणु यातो सनाद्रीश्वरम् ॥ प्रति येषु एगुणमुलन्दु, एकस्य गुणमुयॊक्क, विप्रुट्, अपि गुणस्य स्वाश्रयम् 26 ऒक, बिन्दु वेनियु, लोकोत्तरम् = लॆक्क तन काधारमगु गुणिनि, सर्वाधिकुनिगा, कुर्यात् = चेयुनो, तादृश वैभवैः अटुवण्टि वै भवमुलु गलिगिनट्टिमु, अगणितैः लेनट्टियु, निस्सीम, भूमि, अन्वितैः = हद्दुलेनि महिम लतोँ गूडिनट्टियु, नित्यैः=नित्यमु लैनट्टियु, ततो आश्रयैः ततोऒधिक= अन्तकण्टॆनु (वॆनुकँ जॆप्पँबडिन
- दानिकण्टॆनु) अधिक मैन, शुभत्व=ता नाश्रयमु गाँगल शुभत्वमुनकु, एक = मुख्यमुगा, अस्पद = आधारमुलैन, सुन्दर बाहु स्तवमु आत्माश्रयैः= दिव्यात्मस्वरू पाधारमु लैन, दिव्यगुणैः = ज्ञानशक्त्यादि पूर्वोक्त गुणमुलचेत, इद्दम्=प्रकाशिञ्चु चुन्न, ननाद्रीश्वरम्=वनाद्रिनाथुँ डगु, सुन्दर बाहुम् – सुन्दर बाहु देवुनि, शरणम् = शरणुनु, पॊन्दिनवाँडनु, अस्मि = अगुचुन्नानु. यातः विशेषमुलु :- तादृश वैभवैः – स्वाश्रयमुनकु लोकोत्त रत्वमुनु जेकूर्चु वैभवमुगल, अस्मि शरणं यतः—— ए तादृश कल्याण गुण विशिष्टुँ डगु सुन्दर बाहु स्वामिये शरणु चॊच्चँ दगिनवाँडु. ता एक ल्याणगुणमुललो नॊक गुणमुयॊक्क बिन्दु वेनियु निजाश्रयमगु व्यक्तिनि लोगो तरुनिगाँ जेयुनो, अट्टिवैभवमुलु गलवियु असङ्ख्यातमु लैनवियु निरवधि कमुलगु महिमलु गलवियु नित्यमुलै नवियुँ बूर्वोक्त गुणमुलकण्टॆ सत्यधिक शुभास्पदमुलैन दिव्यगुणमुलतोँ ब्रकाशिञ्चु वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुमूर्तिनि शरणु चॊच्चॆदनु, शा. ऎं चेयॊक्क गुणम्बुलोनियॊक बॊ स्टेनिस् निजाधारभू तुं दाँ जेयुनि सर्वलोकमुल ना थुन् दादृशैश्वर्यनि 52 सुन्दर बाहु स्तवमु वृन्दो क्ताधिक मङ्ग ळास्पदगुणा सारोज्ज्वलाम्भोद मै सन्दीपिञ्चु वनाद्रिसुन्दर भुजू ! चल्लार्पु ना तापमुन् . ॥ सदा समस्तं जग दीक्षले हि यः प्रत्यक्ष दृष्ट्या युगप द्भुवा स्वतः । स ईदृशज्ञाननिधि र्निधिस्तुनः सिंहाद्रिकुञ्जेषु चकान्ति सुन्दरं ॥ 27 प्रति :- यः = एवेल्पु, सदा= ऎल्लप्पुडु, स्वतः सहजमगु, युगपत्, भुवा= ऒकेमाऱु पुट्टिन, प्रत्यक्ष दृष्ट्या = प्रत्यक्ष ज्ञानमुचेत, समस्तम् = सम स्तमगु, जगत् = प्रपञ्चमुनु, ईक्षते हि = चूचुचुन्नाँडो, ईदृश, ज्ञान, निधिः= इटुवण्टि युत्त मज्ञानमुनकु गनियु, नः = मायॊक्क, निधिः, तु पॆन्निधियुनगु, सः आसुन्दर बाहुमूर्ति, सिंहाद्रि कुञ्जेषु = वनाद्रिमीँदि पॊदरिण्ड्ल कुञ्जेषु=वनाद्रिमीँदि यन्दु, चका स्ति= प्रकाशिञ्चु चुन्नाँडु. विशेषमुलु :– ईश्लोकमुनन्दलि ‘युगपद्भुवा’ अनु पदमु क्रममुगा सर्वसाक्षात्कारक्षमु लगु चेतन विशेषुल व्यावृत्ति कॊऱकुनु, ‘स्वतः’ अनुपदमु योगिजन व्यावृत्ति कॊऱकुनु सुन्दर बाहु स्तवमु " सदा ’ अनु पदमु 53 मुक्त पुरुष सकल व्यावृत्तिकॊऱुकुनु निबन्धिम्पँबडिनवि. लेदा – ‘सदा’ अनु ऒक पदमुचेत ने योगिमुक्त जन व्यावृत्ति सिद्धिञ्चुनुगान ‘स्वतः’ अनु पदमु भगवत्सङ्कल्पायत्त मुलगु नित्यज्ञान व्यावृत्तिनि जेयुचुन्नदि. ‘स्वतः, युगपद्भुवा’ अनु रॆण्डुपदमुलुनु ‘नयनश्रवणोदृशाश्रुणोषि’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु तत्तद्विषय ग्रहणमुनन्दुँ ब्रतिनियत करणनियमाभावमु करणापेक्ष लेकये साक्षात्कार मुनु गर्भितमुलैन वनि नुडुवुचुन्नवि. मॊत्तमुमीँद ई श्लोकमुलोनि पै पदमुलु ज्ञानमुनकुँ गावलसिन हङ्गुल नॆल्ल विवरिञ्चुचुन्नवि. इट्टि ज्ञाननिधियगु सुन्दर बाहुवु मापालिटि पॆन्निधियनि सारांशमु. वनाद्रिके सिंहाद्रि यनियु नामान्तरमु, : ता॥ ए देव देवुँडु सर्वदा युगपदुद्भूत मगु सहजमैन दिव्यदृष्टि चेत समस्त प्रपञ्चमुनु नॆदुटनुन्न नस्तुवुनु बोलॆँ जूचुनो तादृशदिव्यज्ञाननिधि यगु मा पालिटि पॆन्निधियैन श्री सुन्दर बाहुमूर्ति वनाद्रि निकुञ्जमुलन्दुँ ब्रकाशिञ्चुचुन्नाँडु. उ.. वेलुपु वेलुपॊ नॆवँडु विश्वमु सर्वमु नॊक्कमाऱियु A 854 1 सुन्दर बाहु स्तवमु न्मीलित दिव्यदृष्टिनि न मी पपदार्थमुँबोलॆँ जूचुनो आललितुण्डु सुन्दरभु जाख्युँडु तादृशचित्पयोधि मा पालिटि पॆन्नि धानमु द्रु पर्वतकुञ्जमुलन्दु राजिलुस्. अवतारिक : इट्लु भगवानुनि ज्ञानमुनकु विविध चेतन वैलक्षण्यमुनु निरूपिञ्चि ऐश्वर्यादि गुणपञ्चक मुनकु जगत्कारणत्वादुल कुपयुक्त विधमुगा वैलक्षण्यमुनु दिज्मात्रमुगाँ ब्रदर्शिञ्चु चुन्नारु. प्रति श्लो॥ ऐश्वर्य तेजोबल वीर्यश क्तयः ‘बलवीर्यशक्तयः कीदृग्विधाः सुन्दर बाहुसंश्रयाः । यो६ सौ जगज्जन्मलयस्थितिक्रियाः सङ्कल्पतो ऒल्पा दुपकल्पय त्यज
28 सङ्कल्पमु यः = ए, असौ= ई, अजः अजः = जन्मरहितुँडगु परमात्म, अल्पात् =स्वल्पमुगु, सङ्कल्पतः वलन, जगत्, जन्म, लय, स्थिति, क्रियाः लोक मुयॊक्क सृष्टि संहार रक्षणप्रवृत्ति निवृत्ति क्रियलनु, उपकल्प चेयुचुन्नाँडो सुन्दर बाहु संश्रयाः यति अट्टिमुन्दर बाहु वाश्रयमुगाँ गल, ऐश्वर्य, तेजः, बल, सुन्दर बाहु स्तवमु 55 वीर्य, शक्तयः ऐश्वर्यमु, तेजस्सु, बलमु, वीर्यमु, शक्तियु, कीदृग्विधाः=इट्टिवनि चॆप्पुटकु शक्यमु गानिवि, विशेषमुलु :- एमहात्मुनि लव लेशमगु सङ्कल्पमु वलन सकलजगत् सृष्टिस्थिति संहारादुलु प्रवर्तिल्लुचुन्नवो यामहनीयुँ डगु श्री सुन्दर बाहुमूर्ति नवलम्बिञ्चि युन्न याश्वर्यादु लनन्यादृशमु लपरिच्छिन्नम्बुलु नैयुन्नवि. ता॥ ए देवुँडु स्वल्पसङ्कल्पमु चेतनु जगत्सृष्टि संहार रक्षण प्रवृत्ति निवृत्तुल नॊनर्चुनो यट्टिसुन्दर बाहुवु नाश्रयिञ्चियुन्न यैश्वर्य तेजोबल वीर्यश क्तुलु लोकोत्त रमु लैनवि. उ. ए भगवानुँ डल्प मगु निच्छ सृष्टिलयावनादिकं बीभुवनाळि कॆल्ल घटि यिञ्चुनो ! यट्टिमहाप्रभावते जोभरशालि सुन्दरभु जुण्डॆ निवासमुगाँगँ गल्गुस त्र्पाभ व वीर्यश क्ति बल भागुणमुल् जगदप्रमेयमुल्. 56 सुन्दरबाहु स्तवमु श्लो॥ यत् कल्पायुतभोगतोपि कृशतां याया न्न ये ष्वेकस्य तथाविधै स्सततजै रंहोभि रुत्सीम स्त्रः । अस्तादा विह संसृता वुपचितै श्छन्नं सुसन्नं जनं सन्नत्या क्षमते क्षणा द्वनगिरि प्रस्थप्रिय स्सुन्दगः !!
ना तत्फलं
- 29
- प्रति
- यत् एपापफलमु, कल्प, अयुत, भोग तः, अपि = पदि वेलकल्पमु लनुभविञ्चिनप्पटिकिनि, कार्श्यम् कृशत्वमुनु, यायात्, वा = पॊन्दुनो! नवा लेदो, (कॊञ्चॆमेनियुँ दऱुँग दनि निर्णयमु) तत् अट्टि, फलम् फलमु, अंहस्सु पापमुलयन्दु (पापमुललो) एकस्य = ऒकदानिदि, तथाविधैः अटु वण्टि मु, सततजैः= ऎड तॆगकुण्ड अनुष्ठिम्पँ बडिनट्टियु, उत्सीमभिः हद्दुमीऱिनट्टियु, अस्त+आदौ=नशिञ्चिन मॊदलु गलिगिनट्टियु (अनादि यैनट्टियु) संसृतौ संसारमुनन्दु, इह=ई कर
- ई कर्मभूमियन्दु, उपचितैः= वृद्धिपॊन्दिपँ बडिनट्टियु, अंहोभिः पापमुल चेति, छन्नम्=कप्पि वेयँ बडिनट्टियु, सुसन्नम् = मिक्किलि विनाश मुनु पॊन्दिनट्टियु, जनम् = ऒक सामान्य नरुनि, सन्नत्या नमस्कारमात्रमुचेत, क्षणात् = क्षणमुलो (अप्पुडे)
- = वन, गिरि, प्रस्थ, प्रियः वनाद्रिचऱियन्दुँ ब्रेमगल, सुन्दरः = सुन्दर
- सुन्दर बाहुस्वामि,
- क्षमु ते श्रीमिञ्चु
- चुन्नाँडु.
- विशेषमुलु :
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 57
- तथाविधैः=ऒक्कॊक्कटियु 10 वेल कल्पमु लनुभविञ्चिननु तऱुँगनि पापफलमुगल, उत्सी मभिः= नॆक्क लेनि (लेदा) कॊलतलेनि, तिरोहितम्= आत्म स्वरूपविवेकमु लेनि, जनम् = जन्मगुणादि तारतम्यपर्या
लोचन लेनि युक यनामकुनि, क्षमतेज ‘स तं निपतितं भूमा’ अनि श्रीमद्रामायणम्बुनँ जॆप्पिनट्लु, नेलपैँ बडुट ने शरणागतिगा भाविञ्चि अन्तःपुरद्रोह मॊनर्चुट चेति अत्यन्तापराधि मैननु, काकासुरुनि क्षमिञ्चि रक्षिञ्चि नट्लु - अनि भावमु. नॊक दानि ता॥ सामि स्वप पवुँडु नित्यमॊनर्चु पापमुललो फलमु, पडि वेटकल्पमुलकाल मनुभविञ्चिननु तॆलुँग दीनि पनुलु शास्त्रमुलचे निर्णयिञ्चिरि. अनादि प्रवृत्तमगु नी संसारमन्दु, ऒक नी बानिकिँ गोटि रॆट्लुगा फलमु चेकूर्चु ई कर्मभूमिकुण्डु निरन्तरमु ऎन्नि वेल कल्पमु लनुभविञ्चिननु नीटिनि हचुपचुलेनि यट्टि पापमुल नॊनर्चुनु अन्निस्वरूपिनि नेन ‘पनि शिवनमु लेक यात्मघातकुँडै चॆडिपोवुनु जन्मनु भारतम्यमुलनु बरिशीलिञ्चुकॊन लेनि यॊक मन “मरुडु प्रणामु मॊनरिञ्चिनन्त मात्रमुन वानिनि वॆनाद्रियिरि यगु मुन्दरि ब हुस्वामि आनाँ उन्तःपुर द्रोहि मुगु शाखनुगुँडु काळ्ळमुन्दु नेलपैँ €8 सुन्दर बाहु स्तवमु बडँगा अदिये शरणागति यनि भाविञ्चि श्रीरामुँ डॆट्लु क्षमिञ्चि रक्षिञ्चॆनो !. अटे क्षमिञ्चि रक्षिञ्चु ननि भावमु. (Y) म. पदिवेल् कल्पमु लेन् भुजिम्प नॊक पा पम्पुन् फलं बेनि त ग्गदॊ ! तादृग्वृजिनम्बुलन् जनि जनिन् गर्मावनिन् जालँ बॆं पॊदवन् जे सॆडु नात्मघातुकुँ डभ व्युं डॊक्कमार् म्रॊक्कँगा चु दयन् सुन्दरुँ डल्ल काकदनुजुन् क्षोणीसुतेशुं डटुल्. श्लो॥ यज्जातीयो यादृशो यत्स्वभावः पादच्छायासंश्रितो यो जॆपी कोडिपि 1 तज्जातीय सादृश स्तत्स्वभावः श्लेष्य त्येनं सुन्दरो वत्सलत्वात् M 30 प्रति :- यत्, जातीयः ऎटुवण्टि जातिगलवाँडु, यादृशः=ऎटुवण्टि याचारमु कलवाँडु, यत्, स्वभावः = ऎटुवण्टि स्वभावमु गलवाँडु, यः, अपि, कः, अपि=ऎव्वँडेकानि, पाद, छाया, संश्रितः= पादमुल ‘नीडनु आश्रयिञ्चिनवाँडु, (भवति = अगु चुन्नाँडो !) सुन्दर बाहु स्तवमु 59
एनम् = ईजनुनि, सुन्दरः= सुन्दर बाहु देवुँडु, वत्सल त्वात् = वात्सल्यमु गलवाँडगुटवलन, तत्, जातीयः = अट्टिजाति गलवाँडुनु, तादृशः अट्टि याचरमुगल वाँडुनु, तत्, स्वभावः = अट्टि स्वभावमु गलवाँडुनु, (सन् = अगुचु) श्लेष्यति = आलिङ्गनमु चेसिकॊनु चुन्नाँडु. विशेषमुलु :- यज्ञातीयः— देव, मनुष्य, तिर्य गादिजातुललो एजाति वाँडैननु अनि अर्थमु. यादृशः, यत्स्वभावः — भगवदाश्रयमुनकु जातितो विद्यतो वृत्तमुतो नपेक्ष लेक ऎव्वँ डेनियु नर्हुँडनि भावमु. ऎव्वँडेनियु वत्सलत्वात् वत्संलालयतीति = वत्सला, अनु व्युत्पत्ति . चेत, अप्पुडे यीनिन यावुदूडपै गल प्रेमचेत दानि यॊडलिनिण्ड नण्टुकॊनियुन्न हेयपदार्थ मगु माविनि (दोषमुनु) तननालुकतो अमृतमुनुवलॆ नॆट्लु भुजिं चुनो यट्ले भगवन्तुँडु वनाद्रि सुन्दर बाहुमूर्ति आश्रितुलयन्दुँगल दोषमुलनु गुणमुलनुगा सनुभ विञ्चु प्रेममयमूर्ति यनि भावमु. ‘दोषा यद्यपि तस्य स्यात्सता मेत दगर्हितम्’ अन्नट्लु सदोषुलै ननु आश्रितुलयन्दुँ ब्रीतियुण्डुटवलनँ दत्समानजात्याचार शीलमुलु गलवाँडै ‘अहं वो बान्धवो जातः’’ आत्मा 1 60 सुन्दर बाहु स्तवमु नं मानुषं मन्ये ग्रामं दशरथात्मजम्’ अनि चॆप्पिनट्लु त त्त दाश्रितानुगुणमु लगु आभिजात्यविद्यावृत्तमुलतो नलरारुचु तत्सं श्लेषभोगमुल ननुभविञ्चु चुन्नाँडु. पूर्वश्लोकमुन भ्रान्ति यनँगा- अपराधसहिष्णुत्व मनियु, ई श्लोकमुन – वात्सल्य मनँगा - दोषमुलन्दु सैतमु
- भोग्यताबुद्धि यनियु निरूपिम्पँ बडिनदि. गलवाँडे · ता। एजातिवाँडेकानि, ऎट्टि याचारमुलु कानि, ऎट्टि स्वभावमुगलवाँडे गानि अगुँगाक वाँ डॆवँ डैननु सरे. तन पादसन्निधानमु नाश्रयिञ्चिन यॆडल नितनिनि . श्री सुन्दर बाहुस्वामि वात्सल्यमुवलनँ दत्स मानजात्याचार स्वभावमुलु गलवाँडै तत्संश्ले पैक भोगु डगुचुन्नाँडु. शा, यज्ञातीयुँडॊ ! यादृशाचरणुँणो! यच्छीलुँडो! यानुँ गा कज्जात्यादुल नॆन्न कुण्डनॆ वना हार्याधिनाधुं ड हेू ! पज्जं जेरिनँ जालु वत्सलत पॆं पारङ्ग भोगिं चॆडुको तजातीयुँडु तादृगाचरणुँडु तच्छीलुँडै याश्रितु, सुन्दर बाहु स्तवमु 61 अवतारिक :- गॊप्पवानिकि अल्पुलतोँ गूड (मन्दु लतोँ गूड) निरन्तरमु गलसि युण्डुट यनॆडु सौशी ल्यमु सुन्दर भुजुन कत्यन्त मसदृश मैननु मन्दुँडनगु ना का स्वामिये शरणमनि यी शोकमुनं दनुसन्धिचु चुन्नारु. श्लो॥ ♡ ॥ निहीनो जात्या वा भृळ मकुशलै र्वा स्वरितैः पुमान् वै यः कश्चित् बहुतृण मपि स्या दगुणतः । भजन्तं तं पश्येत् भुजगपतिना तुल्य मपि यो वनाद्रि प्रसस्थः समम शरणं सुन्दरभुजः ॥ 13 प्रति : भृशम्= मिक्किलि, जात्या, वा= जातिचेतिँ गानि, आकुश लै 8 अशुभमुलगु, स्व, चरितैः, वा = तन नडतलचेतँ गानि, निहीनः मिक्किलि हीनुँडगु, यः, कश्चित्, पुमान् = ऊरुनु पेरुनु लेनि मनुष्युँडु अगु णतः, अपि = गुणमुलु लेकुण्डुटचे सैतमु, बहुतृणम्, अपि अल्प मगुगड्डिपऱक वण्टिवाँडु गूड, स्यात् अगुँ गाक, भजन्तम् (तननु) सेविञ्चुचुन्न, तम् अतनिनि (जात्यादिहीनुनि) यः = एवेलुपु, भुजगपतिना, अपि = आदि शेषुनितो सैतमु, तुल्यम् समानुनिगा, पश्यीत् चूचुनो, वनाद्रि प्रस्थ, स्थः = वनगिरि सानु पुनन्दु वेञ्चेसियुन्न, सः = आ आ, सुन्दरभुजः सुन्दर बाहुस्वामि, मम = नाकु, शरणम् 9
दिक्कु 62 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- बहुतृणम्- ईषत्, असमाप्तं तृ बहुतृणम्- अल्पौपम्यार्थ मुन णम् = ‘बहुच् ’ प्रत्ययमु वच्चिनदि. भजन्तं तं- पूर्वपुनडत पैनि पेर्कॊन्न प्रकार मुँडिननु प्रस्तुतमु ‘मा मेकं शरणं प्रज’ अन्न विधमुगा शरणु चॊच्चुचुन्न जाति, वृत्ति, चैतन्य, हीनुँडगु आयनामकुनि अनिभावमु. भुजगपतिना, अपि = निवास शय्यासन पादु कांशुक ’ अनि दूरं भिञ्चि ’ य थोचितं शेष इतीर्य तेजनैः’ अनि शेषत्वा वधिकिँ जीवर मॆट्टुगाँ जूपँबडिन शेषुनितो सयितमु सममुगाँ जूचुनो यनुटवलन ‘त्वमस्माकं चतुर्णां हि भ्राता सुग्रीव! पञ्चमः ’ अनि शेषावतारमुगाँ ब्रसिद्धुँडगुलक्ष्म णुनितो समानभोगुनिगा सुग्रीवु ननुग्रहिञ्चुट यिन्दभि प्रेतमै युन्नदि. ई श्लोकमुनँ बेर्कॊनँबडिन जाति हीनुँडु, वृत्ति हीनुँडु. ज्ञानहीनुँडु, नगु ’ यः कृश्चित् ’ पुमाक् ’ ऊरु पेरु लेनियातँडु सुग्रीवुँडे यनि कवि याशयमैनट्लु कन्पिञ्चुचुन्नदि. ऎट्लन? ‘वानराणां नराणां च कथ नूसी तृमागमः’ नीच मैन वानरजातितो उत्कृष्टमैन नरजातिवारिकि सहवास मॆट्लु घटिल्लॆनु? अनुटचेत वानरुँडगु सुग्रीवुँडु जाति हीनुँडनुटयु, भ्रातृ भार्ययगु तारतोनुण्डुट चेत वृत्ति हीनुँडनुटयु, ई वृत्त हैन्यमुनकु हेतुव ज्ञानमगुटचेत ज्ञानहीनुँडनियु भावुकुलकुँदोँचकपोदु. सुन्दर बाहु स्तवमु 63 कावुन लोकोत्त रगुणोत्तरु ँडगु श्री रामुनकु जातिवृत्त विवेकहीनुँडगुटचे मन्दुँडैन सुग्रीवुनितोडि नीरन्ध्रमगु मैत्रि श्री रामुनि सौशील्यमुनु जाटुचुन्नदि. अट्ले वना द्रिवासुलु ननुग्रहिञ्चुचुन्न सुन्दर बाहुमूर्ति यु अनि भावमु. ता॥ जातिहीनुँडु मङ्गळाचारशून्युँडु विवेकरहि तुँडुनै नामग्रहणमुनकुनु योग्युँडुगानि यॆवँडेनि तन्नु भजिञ्चिनयॆडल वानिनि ए वेल्पु तन शेषत्वमुनकुँ बराकाष्ठमैन पोूदि शेषुनितोँ दुल्युनिगाँ गटाक्षिञ्चुनो वनगिरि सानुनिवासि यगु आ सुन्दर बाहुमूर्ति ये मन्दुँड नगु नाकु शरणमु. उ. जातिकिँ दग्गि पोवुत, ल स तरवृत्तमु लेक पोवुतन् भूतलियन्दु ज्ञानमुनँ बोलक पोवुत गड्डिपोच के नातँडु तन् भजिम्प भुज गाधिपुनट्लुगँ जूचु नॆव्वँ स्फीतवनाद्रिसानु सर सीरुह नेत्रुँडे नाकुदिक्किँकन्. ॥ एकैक मङ्गळगुणानुभवाभिनन्द च विदृक्त्विया निति च सुन्दरदोष्ण कृष्ण । ‘ते ये शतं त्विति नियन्तु मनाः श्रुतुम्हा ‘नै वैष वाङ्मनसगोचर इ त्युदाह ॥64 प्रति कृष्णा सुन्दर बाहु स्तवमु सुन्दर दोपि सुन्दर बाहु व नॆडु, = इटु श्री कृष्णुनियन्दु, एक, एक, मङ्गळ, गुण, अनु भव, अभिनन्दम् ऒक्कॊक्क कल्याण गुणमु यॊक्क, अनुभवमुवलन,ँ गलिगिन यानन्द मुनु, ई दृक् वण्टिदि, इयान् इन्त परिमाणमु गलदि, इति, च अनियु, नियन्तुमनाः= कॊलुचुटकु मनस्सुगलदियै, ‘ते ‘ये शतन्त्व’ तिमते ये शतं मानुषा आनन्दाः अनॆडु, श्रुतिःतु वेदवाक्कन्ननो, एषः = सुन्दर बाहु स्वामियॊक्क ऒक्कॊक्क कल्याणगुणानुभवमुवलनँ गलि गॆडि यानन्दमु, वाक्, मनस, गोचरः वाक्कुलकु मनस्सुनकुनु गोचरिञ्चॆडिदि, न + एव = नैव कादु, इति अनि, उदाह बिग्गऱ गाँ जॆप्पॆनु. ‘है आश्चर्यमु. नियन्तुमनाः “काने कॊलगार मुनकुँ वि शेषमुलु :- बूनिन मनस्सु गलदियै अनि भावमु- उत् + आह : उदाह पॆद्दगाँ जॆप्पॆनु. दग्गऱनुन्न वारिकि दव्वुन नुन्न वारि कन्दऱकु विनँबडुनट्लु अनि ‘उत्’ अनु उपसग्ग वलन द्योतक मगुचुन्नदि. ‘सैपानन्दस्य मीमांसा भवति । युवा स्यात् साधु युवाध्यायकः। आशिस्थो द्रथिष्ठा बलिष्ठः । त स्येयं पृथिनी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः । ते ये शतं मानुपा आनन्दाः । स एको मनुष्य गन्धर्वाणा मानन्दः’ अनि सुन्दर बाहु स्तवमु 65 पैनिँ जॆप्पिन क्रममुगा देवगन्धर्वपितृ चिरलोक लोक देवा जान देव कर्म देवेन्द्र बृहस्पति पर्यन्तमु चॆप्पि ‘ते ये शतं प्रजापते रानन्दाः । स एको ब्रह्मण आनन्दः’ अन्न तरुवात ‘ते ये शतं ब्रह्मण आनन्दाः’ अनि चॆप्पक ‘यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह, आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्’ अनु श्रुतियन्दु ‘स एको ब्रह्मण आनन्दः’ अनि एकशब्दमुनु ब्रयोगिञ्चुट वलन एकैक गुणानुभवमु वलनँ गलिगॆडि यानन्दमे यपरिच्छिन्न मनि श्रुतिहृदयमु. ता॥ असङ्ख्येयमु लगु कल्याण गुणमुलतोँ गूडिन श्री सुन्दर बाहु भगवानु नन्दलि एकैक कल्याणगुणानु भवजनित मगु नानन्दमु इट्टेदि, यिन्त प्रमाणमुगलदि. यनि कॊलगार मॊनर्पँ दलचिनदै ‘ते ये शति’ म्मनॆडु श्रुतिय मानन्दमु मनस्सुनकु वाक्कुलकु सन्दनि दानि बिग्गऱगाँ जाटिनदि. इदि यत्यन्त माश्चर्यकरमु, सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क ऒक कल्याणगुणानुभव जन्यानन्द मे यपरिच्छिन्न मनँगा सकल कल्याण गुणानुभूति वलनँ कल्याणगुणानुभूति गलुगु नानन्दमु नॆवरु वर्तिम्पँगलरनि भावमु, उ. सुन्दर बाहु कृष्णु नॆड शोभिलु सद्गुण बृन्दमन्दु ने मन्दु नॊकॊक्क दिव्य सुगु णानुभवम्बुनँ गल्गुचुन्न या 66 सुन्दर बाहु स्तवमु नन्दमु वेदमात गण नं बॊनरिम्पँगँ बूनि चेत का कन्ददु माटकुन् मदि क टञ्चु सहा! वॆनुकञ्ज वेयदे! श्लो॥ अब्जपाद मरविन्दलोचनं पद्मपाणितलु मञ्जन प्रभम् सुन्दरोरुभुज मिन्दिरापतिं वन्दिषीय वरदं वनाद्रिगम् ॥ 33 प्रति : अब्द, पादम् = पद्ममुलवण्टि पादमुलु गल वाँडुनु, अरविन्द, लोचनम् = कमलमुलवण्टि कन्नुलु गलवाँडुनु, पद्म, पाणि, तलम् = तामरलवण्टि चेतुलु गलवाँडुनु, अञ्जन, प्रभम् काटुक कान्तिवण्टि कान्ति गलवाँडुनु, सुन्दर, उरु, भुजम् = अन्दमु गलवियु, पॆद्दवियु, अगु भुजमुलु गलवाँडुनु, इन्दिरा, पतिपु= लक्ष्मीनाथुँडुनु, वन, अद्रि, गम् – वनगिरियन्दु वेञ्चेसि युन्न वाँडुनु, वरदम् = वरप्रदातयुनगु सुन्दर बाहुस्वामिनि, वन्दिषीय = नमस्करिन्तुनु गाक. विशेषमुलु :– वनाद्रिगं वरदम् – इन्दु वनाद्रि निवासमे वरप्रदानमु नन्दु हेतुवुगा सूचिम्पँबडिनदि. श्रीमन्तु लेयन्तःपुरमुलो नॆक्कडनो युण्डुट चे वारिसिरि याचकुल कन्दुबाटुलो नुण्डदु. ई श्रीमन्तुँ डगु सुन्दर बाहु देवुँडु वनाद्रिशिखरमुन नुण्डुट चे · सुन्दर बाहु स्तवमु 67 अन्दऱिकिँ गनँबडुचु भक्तुलकु अड्डुलेक दर्शनमिच्चुचु भ वारुकोरिन वरमुलनु गूड निच्चुननि भावमु. रोरुभुजम्— ई स्वामिनाममु ई सुन्दर सुन्दर बाहु वनि यीपदमु चाटु चुन्नदि. मऱियु सुन्दर, ऊरु, भुजम्-. अनि पदच्छेदमु गाविञ्चुकॊन्न यॆडल अन्दमुलगु तोडलु भुजमुलुनु गलवाँडनि यर्थमिच्चुनु. अप्पुडु श्रीस्वामि वारि भुजमुले काक तॊडलु गूड सुन्दरमुलनि मणि यॊक गुणानुभवमु चेय वीलगुनु. ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्’ अनि गदा प्राज्ञुलनू क्ति. ! अत्यन्तभोग्यविग्रहुँ डगु वनाद्रिनाधुँडे परमै कान्तिकुल कु पान्यमूर्ति यनि भावमु. ता॥ पद्ममुलवण्टि पादमुलु, कमलमुलवण्टि कन्नुलु, तामरलवण्टि चेतुलु, काटुकवण्टि काय कान्ति, सुन्द कायकान्ति, राजानुबाहुवुलु गलिगि लक्ष्मी लक्ष्मी देविचेत सैतमु पतिगा वरिम्पँबडिन वनाद्रिवासियु वरप्रदातयु नगु सुन्दर बाहुस्वामिनि वन्दन मॊनर्तुनु. गी॥ कमलमुलँ बोलुकरमुलु काळ्ळु कनुलु गलुगुदॊर सञ्जन प्र भाकलितकायु सिरि वलचुवानि नन्दालँ जिन्दु बॊहु ललरुवरचुनि वनगिरिनिलयुँ गॊलुतु, अवतारिक :— दिव्यविग्रह लावण्यमुने लावण्यमुने इङ्कनु वर्णिञ्चुचुन्नारु. 68 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ कनकमरकताञ्जनद्रवाणां मथन समुस्थितसार मेलनोतम् । जयति किमपिरूप मस्य तेजो प्रति वनगिरिनन्दन सुन्दरोरु बाहो ः ॥ 8 34 अस्य=ई, वन…… बाहोः – वनगिरि= वनाद्रिवासु लगु जनुलनु, नन्दन = सन्तोषपॆट्टु, सुन्दर, उरु, बाहोः= अन्दमुलगु आजानु बाहुवुलुगल सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, कनक, मरकत, अञ्जन, द्रवाणाम् = (प्रत्येकमु भिन्न भिन्न कान्तुलुगल) बङ्गारमु, मरकत मणुलु, काटुक, वीनि रसमुलयॊक्क, मथन, स समुत्थत, ‘सार, मेलन, उत्तम् = चिलुकुट चेतँ बुट्टिन सारांशमु यॊक्क कलयिक चेतँ गलिगिन, किमपि, रूपम्=अनिर्वाच्य मगु स्वरूपमुगल. तेजः= कान्ति, जयति=सरो जयति=सर्वोत्कृ ष्टमै प्रकाशिञ्चुचुन्नदि. वि शेषमुलु : ‘वनगिरि नन्दन’ अनु चोट ‘मञ्चाः क्रोशन्ति’ अनु चोटुनन्दु वलॆ तास्थ्यलक्षणचेत वनगिरि वासुलनि यर्दमु चॆप्पुकॊनवलॆनु, किमपि रूपम् - इदि येक पदमु, इट्टिदि यनि चॆप्पुटकु शक्यमुगानि रूपमु गलदि यनि भावमु, सारांश मेमन- प्रत्येक पात्र लन्दुँ ब्रत्येकमुगा - कनकद्रवमुनु, मरकतद्रवमुनु, अञ्जनद्रवमुनु उञ्चि पॆरुँगुनु जिलिकिनट्लु चिलुकँगा वॆन्न वलॆँ देलिन याद्रवत्रय सारांशमुल मूँटिनि मेळनमु चेयँगा नेर्पडिन पीत, हरित, नील, वर्णात्मक मगु मिळित सुन्दर बाहु स्तवमु 69 सारांशत्रयरूपमुन इदि बङ्गारु वन्नॆ, इदि गरुड पच्चलवन्नॆ, इदि काटुकवन्नॆ, यनि यॆट्लु विडिविडिगा ँ दॆलिय शक्यमुगादो यट्ले सुन्दर बाहुस्वामिवारि विग्रह समुदायशोभ विडिगाँ दॆलिय दॆलिय शक्यमुगाक सर्वोत्कृष्टमै युन्नदनि भावमु. ស लनु मऱलँ ता॥ बङ्गारमु गरुडपच्चलु काटुक वीनि द्रवमुलनु वेऱु वेऱु पात्रमुलं दुञ्चि चिलुकँगा नेर्पडिन सारांशमु गलुपँगा बॊडँगट्टु नचिन्त्यरूपमु गल श्री वनाद्रिनिवासि यगु सुन्दर बाहुस्वामि वारि तेजस्सु सर्वोत्कृष्टमै वॆलुँगु चुन्नदि. च, कनक गरुत्मदश्म नव कज्जल सुद्रवमुल् मधिम्प व च्चिननिकरम्पुँ देटलनु जिल्कँग नॊक्कॆड नुञ्चि वॆण्डियुन् कनुलनु दन्पुतद्रुचिर कान्तुल नेदि यदीयमो ! यॆऱुं गनियटु काननाद्रिहरि कायम हॆूज्ज्वल तेज मॊप्पॆडिन्. श्लो॥ किं नु स्वयं स्वात्मविभूषणं भव न्नसा वलङ्कार इतीरिलो जनैः । वर्धिष्णु बालद्रुमषण्ड मण्डितं वनाचलं वा परितः प्रसाधयिन् ॥ 35 10 70 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु असौ = ईसुन्दर बाहुस्वामि, स्वयम्= ताने, स्व, आत्म, विभूषणम् = तन दिव्यविग्रहमुनकु अलङ्कारमु, भवन् = अगुचु, जनैः 8 = (तन दिव्यविग्रह मुनु ब्रत्यक्ष मुगाँ जूचु) जनुल चेत, अलङ्कार ः इति अलङ्कारमनि, ईरितः, किन्नु= पलुकँबडॆना? वा= = लेक, वर्धिष्णु, बाल, द्रुम, षण्ड, मण्डितम् =वृद्धि चॆन्दुचुन्न तरुण वृक्षमुल समूहमुचेत नलङ्करिम्पँबडिन, वना वनगिरिचुट्टु भागमुनु, प्रसाधयन् अलङ्करिञ्चुचु, अलङ्कारः इति= अलङ्कार मनि, ईरितः, किन्नु = पलुक ँबडॆना ? चलं, परितः = विशेषमुलु : श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारिकि भक्त :- जनप्रसिद्ध मगु ‘अलं कार’ नाममु गलदु. आनाम मिन्दु वलन वच्चियुण्डुना यनि यी श्लोकमुन नुत्प्रेक्षिम्पँ बडिनदि. यी ता॥ ई सुन्दर बाहुस्वामि ताने तनदिव्य विग्रहमु नाकु अलङ्कारमगुचु प्रत्यक्षमुगाँ दन दिव्य विग्रह मुनु जूचु भ क्त जनुलचेत अलङ्कार नाममुनँ गॊनि याडँबडॆना ! लेक नानाँडु समृद्धिगाँ बॆरुगुचुन्न तरुण वृक्ष मुल चेत शोभायमानमुगा नुन्न वनाचलमु नकु नलङ्कारमुगा नुण्डुटवलन जनुलचेत नलङ्कार नाममुनँ गॊनियाडँ बडॆना ! . सुन्दर बाहु स्तवमु उ. सारसलोचनुण्डु वन शैलविभुण्डु स्वमू र्तिकिन् प्रभा पूरित दिव्यरत्नमय भूषणमै धरियिञ्चॆनो ! यलं कारमु पेरु, लेक तरु काण्ड्असुमण्डित काननाद्रिशृं गारनिदानमण्डनमु गाँ दन रारि तदाख्यँ गाञ्चॆनो ! श्लो॥ सुखस्पर्शै र्नित्यैः कुसुमसुकुमाराङ्ग सुखदैः सुसौगन्ध्यै र्दिव्याभरणगणदिव्यायुध गणैः । अलङ्कार्यै स्सर्वै र्निगदित मलङ्कार इति यः समाख्यानं धत्ते स वनगिरिनाथ् ऒस्तु शरणम् ॥ 71 36 प्रति :- सुख, स्पर्शैः= सुखमुनु गलिगिञ्चु स्पर्शगलिगि नट्टियु, (अतिसुकुमारमु लैनट्टियु) सुसौगन्ध्यैः मञ्चि सुवासन गलिगिनट्टियु, (कनुकने) कुसुम, सुकुमार्, अङ्ग. सुखदै ः = पूवुलकण्टॆ सुकुमारमु लगु दिव्या नयवमुलकु सुखमु निच्चुनट्टियु, निश्यैः = (भगवद्वि ग्रहमुवलॆने तामु कूड) नित्यमु लैनट्टियु, दिव्य, आभरण, गण, दिव्य, आयुध, गणैः = दिव्यमुलगु नाभ रणसमूहमुलु, दिव्यमुलैन यायुध समूहमु ल नॆडु, सर्वैः = समस्तमु लैन, अलङ्कार्यैः = स्वदिव्य विग्रहमु चेत, अलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिन सॊम्मुल चेत, अलं 72 सुन्दर बाहु स्तवमु कारः, इति= अलङ्कारमनि, निगदितम् = निर्वचिम्पँबडिन, समाख्यानम्= पेरुनु, यः = ए वेल्पु, धत्ते = धरिञ्चु
चुन्नाँडो!, सः = आ, वनगिरिनाथः सुन्दर बाहुस्वामि, (मम अस्तु= अगुँगाक, विशेषमुलु :- वनाद्रिविभुँडगु नाकु) शरणम् दिक्कु, कुसुमसुकुमाराङ्ग सुखदैः पूवुलकण्टे मृदुवुलगु उत्तमाङ्गादि पादारविन्द पर्यन्तमुलगु दिव्यावयवमुलकु मालती मालादुलवलॆ सुखमुनु गलिगिञ्चुनवि यनि भावमु. अलङ्कार्यैः सर्वैः—- किरीटादि दिव्याभरणगण रूपमुलुनु, सुदर्शन पाञ्चजन्यादि दिव्यायुध गणरूपमुलु नगु स्वदिव्य विग्रहमुचेत नलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिन सर्वभूषणमुलचेत ननि तात्पर्यमु. श्री विष्णुपुराणमुनन्दु अस्त्रभूषणा ध्यायमुन सकल तत्वमुलकु अस्त्रभूषणत्वमु विवरिम्पं बडिनदि. ‘सर्वज्ञा समुचितशक्तय स्स दैव, त्वळ्से वानि यमजुष स्व देश भोगाः ! हेतीना मधिपतय स्पदा कि मेतान्, शोभार्थं वरद! बिभर्षि हर्षतो वा’ अनि वरद राज स्तवमुनँ जॆप्पिनट्लु सुदर्शनाद्यायुधमुलकुँ गूड भूषणत्वमु सर्वपूर्वाचार्य सम्मतमु, स्वविग्रहालं कार मुलुगाँ ब्रसिद्धमुलगु आभरणमुलकु नायुधमुलकुनु विविध शोभासमग्रमगु स्वविग्रहमु वलन अतिशयशोभ येर्पडुट चेत अलं कार्यत्वमु तन कनुक सुन्दरबाहु स्तवमु 73 विग्रहमुनकु शोभनु जेकूर्चुटवलन आलं कारत्वमुनु सिद्धिञ्चुचुन्न दनि याशयमु, ता॥ सुखकरमगु स्पर्शगलनियु, मञ्चि सुवासन गल वियु, कुसुमसुकुमारमुलगु उत्तमाङ्गादि पादपर्यं तमुलगु तनदिव्यावयवमुलकु मालती मालादुलवलॆ सुखमुनु गलिगिञ्चुनवियु, नित्यमु लैनवियु, स्वविग्रहमु चेत नलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिनवियु, स्वमूर्ति कलङ्कार मुलुगा नुन्नवियु अगु समस्त किरीटादि दिव्याभरणमुल चेतनु, समस्त सुदर्शनादि दिव्यायुधमुल चेतनु निर्व चिम्पँबडिन ‘अलङ्कार नाममुनु ए देव देवुँडु धरिञ्चुनो या वनगिरिनाथुँ डगु सुन्दर बाहुस्वामिनाकु शरण मगुँ गाक. म. करमु९ स्पर्शसुखम्बुतोँ दनरि सौ गन्ध्यम्बु चॆन्नारि पू सरमुल् वोलॆ स्वकोमलाङ्ग मुलकुन् सौख्यम्बुँ जेकूर्चु नु स्थिर दिव्याभरणायुधाळिँ दनुल ऎट्मन् न् शोभिलन् जेसि श्री करुँ डू नॆ९ वन शैल वल्लभुँ डलं अवतारिक काराख्य, दिक्कातँडे, ‘दिव्याभरणगण दिव्यायुध गणै’ अनि वै श्लोकमुनँ बेर्कॊनँबडिन यावर्गद्वय मॆट्टु लाभ74 सुन्दर बाहु स्तवमु रणम्बु लय्यॆनो यी क्रिन्दि श्लोकद्वयमुतो निरूपिञ्चु चुन्नारु. 8 1 !! मकुट मकुट मालोत्तं सचूडाललाम स्वलकतिल कमालाकुण्डलै स्सोर्ध्वपुण्ड्रैः । मणिवरवन मालाहारकेयूरकं र्यै तुलसि कटक काञ्चीनूपुराद्यै श्च भूश्लेषः । श्लो॥ अनि जलजरछाङ्गै ः शार्षका मोसिकी भव्य दगणितगुणजूलै रायुभै रव्यथा वः । सततविततशोभं पद्मनाभं वनाद्रे रुपवनसुखलीलं सुन्दरं वन्दिखीय प्रति : । 37 38 पै रॆण्डु श्लोकमलकुँ गलिपि येकान्वयमु. दीनिनि ‘कुलक’ मन्दुकु. मकुट… …. कुण्ड लै 8 मकुट किरीटमु चेतनु, मकुटमाला किरीटमुनकुँ जुट्टॆडु रत्नमाल चेतनु, लेदा पुष्पमाल चेतनु, उत्तंस —किरीटशिरोरत्नमुचेतनु, चूडाललाम = प्रशस्त मगु जुट्टुचेतनु, (सु+अलक) स्वलक मञ्चि मुङ्गुरुल चेतनु, तिलक माला नॊसटिकि अलङ्कार मगु मुत्यमुलु पॊदिगिन बङ्गारु बॊट्टुलदण्ड चेतनु, कुण्डलै 8=क र्णाभरण मुलचेतनु, स+ऊर +ऊर्थ्वपुण्डै ः = ऊर्ध्वपुण्ड्रमुलतो गूडिन, मणि…….कंर्यैः - मणिवर = मणिश्रेष्ठ मगु कौस्तुभमुचेतनु, वनमाला = वनमालचेतनु, (पादमुलवऱकु व्रेलाडु विविध पुष्पमुलु चेर्चिकट्टिनदण्ड) हार = मुत्याल पेरुलचेतनु, केयूर = भुजकीर्तुल चेतनु
सुन्दर बाहु स्तवमु 75 कण्ठ्येः नूपुर, आद्यैः,=तुलसि मुरुगुलु, मॊलत्राडु, अन्दॆलु, मॊदलुगाँगल, भूषैः, च= अलङ्कार मुल चेतनु, (इन्त वऱकु मॊदटि श्लोकमुनकु अर्थमु). कण्ठाभरणमुल चेतनु, तुलसिकटक, काञ्ची, आसि, जलज, रथाङ्गैः नन्दक, पाञ्चजन्य सुदर्शनमु लनॆडु खड्गशङ्खचक्रमुल चेतनु, शार्ण, कौमोदकी भ्याम् आनाममुलुगल धनुस्सुचेतनु, गद चेतनु, अद = तरुवात, अन्यैः=इतरमुलगु, आयुधैः, अपि=आयुधमुल चेतनु, अगणित, गुण, जलैः लॆक्क लेनन्नि गुणसमूहमुल चेतनु, सतत, वितत, शोभम् निरन्तरमु वृद्धिचेयँबडिन सौन्दर्यमु गलिगिनट्टियु, वनादेशि वनगिरियॊक्क, उप वन, सुख, लीलम् उद्यानवनमुनन्दु सुखकरमुल गु क्रीडलुगल, सुन्दरम् – सुन्दर बाहुस्वामि यनु, पद्म नाभम् श्री महाविष्णुवुनु, वन्दिपी.य तुनु गाक. इदि रॆण्डव श्लोकमुन शर्थमु.) नमस्करिं विशेषमुलु :- ‘भूषैः’ — भूषाशब्दमा कारान्त स्त्री लिङ्गमुगाँ ब्रसिद्धमु — अप्पुडु भूषाभिः अनि युण्डुनु. ईलिङ्ग व्यत्ययमुव्याकरण निपुणुलचे विचार णीयमु, कॊन्दऱिदि घइन्त रूपमु पुलिङ्गमुगा निर निर्धुष्ट मन्दुरु. अगणितगुणजूलै 8=== सर्वज्ञत्व, सर्वश क्ति त्वाद्य नन्तगुणगणमुलचेति, मऱियु - अगणित गुणजूलै- 76 सुन्दर बाहु स्तवमु आसङ्ख्यात गुणगणमुनुगल, अनि दीनिनि ‘असि, जलज, रथाङ्गैः शार्ण, कॊनँदगुनु. यर्थमुनु जॆप्पिकॊनि, कौमोदकी ब्यान्’ - अनु वानिनिगूड विभ कि विपरिणाममु चेत विशेषणमु चेसि अन्यैः, आयुधैः हल, मुसल, परशु, प्रभृतुलचेत, श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि दिव्या भरणधारणमुवलॆने दिव्यायुधधारणमु सैतमु तत्तद्दि व्यावयवमुलकु शोभातिशयाधायक मुनि भावमु. ता॥ किरीटमु, किरीटमुनकुँ जुट्टडु मणिमाल, किरीट शिरोमणि, नॆमलिपिञ्चॆमु (श्रेष्ठमुगु चूड) अन्दमुलगु मुङ्गुरुलु, नॊसटिकि, आभरण मगु मुत्यालु पॊदगिन बङ्गारु बॊट्लदण्ड, कर्णाभरणमुलु, कौस्तुभमणि, वनमाल, हारमुलु, भुजकीर्तुलु, कण्ठाभरणमुलु, तुलसिकटकमुलु, रत्न मेखल, अन्दॆलु, मॊदलगु भूषणमुलचेतनु, नन्दक पाञ्चजन्य सुदर्शन कौमोदकी शार्णमुलचेतनु, तदितरमु लगु हल मुसलपरशु प्रभृति दिव्यायुधमुल चेतनु. सर्वज्ञत्व, सर्वश क्ति त्वाद्यगण्य गुणमुल चेतनु, वर्धमान सौन्दर्यवि शेषमु गलट्टियु वनाचलोद्यान वीधुल’ लीला नन्दमु ननुभविञ्चुचुन्न सुन्दरबाहु महाविष्णुवुनकु वन्दन मॊनर्तुनु. शा॥ राजद्दिव्यकिरीटमु ठा ददुपरि प्रत्यग्ररत्नम्बु वि भ्राजिष्णूत्त मफालभूषणमु हा रम्बुल् श्रवोऒलङ्कृतुल् सुन्दर बाहु स्तवमु तेजःपुञ्जमु कौस्तुभं बितरमुल् दीप्तोर्ध्वपुण्ड्रम्बुलुन् राजिल्लन् वनशैल मेलुहरि ना राधिन्तु नॆल्लप्पुडुन्, म, घनकौमोदकि पाञ्चजन्य मनुशं खश्रेष्ठमु९ श्रीसुद र्शन चक्रम्बुनु नन्द कासियुनु शा र्थम्बुन् ददन्यम्बुलौ मे अनवद्यायुधमुल् द्युतुल् पॆनुप मे लौसद्गुणा लॊप्पुश्री वनशै लेन्द्रविहारि सुन्दर भुजु वर्णिन्तुँ गेल् मोड्चुचुको. 77 अवतारिक :—— ईमीँद श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि केशादिपादपर्यन्तमुलगु नवयवमुलनु मुप्पदियॊक्क श्लोकमुलतो वर्णिञ्चु चुन्नारु. प्रति आजनजस्वगतबन्धुरगन्धलुब्ध भ्राम्यद्विदग्ध मधुपाळि सदेश केशम् । विश्वाधिराज्य परिबर्ह किरीट राजं है सुन्दरस्य बत सुन्दर मुत्तमाङ्गम् ॥ आजानज. सिद्धमगु (सहजमैन) स्वगत 39 केशम्— आजानज= जन्म केशमुलकुँ जॆन्दिन, बं (11) 78 धुर सुन्दर बाहु स्तवमु दट्टमैन, लेदा - समृद्धमैन, गन्ध सुवासन यन्दु, लुब्ध= पेरासगलवि गनुकने, भ्राम्यत् मधुप तिरुगु तुम्मॆदलयॊक्क, चुन्न, विदग्ध = रसिक मुलगु, आळि= पङ्क्ति तो, सदेश = समानमगु, केशम्- केशपाशमु पङ्क्तितो, = गलिगिनट्टियु, विश्व, अधिराज्य, परिबर्ह, किरीट जम्-= सर्वे श्वरत्वमुनकु योग्यचिह्नमु श्रेष्ठमगु किरीटमु गलट्टियु, सुन्दरस्य= सुन्दर बाहुमूर्ति यॊक्क माङ्गम्=शिरस्सु, सुन्दरम् उत्त औशार ! विशेषमुलु : अन्दमैनदि, हि, बत : विश्वाधिराज्यपरिबर्ह किरीट राजनु उभयविभूतिनिर्वहणलक्षणातिनिलक्षण दिव्यकिरीटमु गलवाँ डनि भावमु. है, बत ई निपातद्वयमु सुन्दर बाहुस्वामिवारि विलक्षण केश पाशयुत मगु नुत्तमाङ्ग मॆन्त अन्दमुगानुन्नदि ! अनि यश्च र्यातिशयमुनु दॆलुपु चुन्नदि. ता॥ सहजमयि सान्द्रमुनु समृद्धमु नगु सुगन्धमु मीँदि पेरानतो नटँ दिरुगुचुन्न रसिकमु लगु तुम्मॆ दलतो सदृश मैन (नल्लनि) केशपाशमु गलिगि युभय विभूतुलनु निर्वहिम्पँदगिन सर्वेश्वरत्वमुनकुँ जिह्न मगु किरीटराजमुलोँ ब्रकाशिञ्चु श्री सुन्दर बाहुस्वामि युत्तमाङ्ग मॆन्त सुन्दरमुगा नुन्नदि. आहाहा ! सुन्दर बाहु स्तवमु म॥ तन नैसर्गिक भव्य बन्धुर सुगं धं बानँगाँ जुटुमूँ अ ल गिन चुट्टालकुँ देण्ट्लकुको निगनिगल् गीलिञ्चु कै श्यम्बुतो तन लो केश्वर तासुचिह्न मगुहृ द्यम्मा किरीटम्मुतो मननीयम्बु वनाद्रिसुन्दरुनि त न्मौळिं ब्रशंसिञ्चॆद९. श्लो॥ आन्धन्तम स्तिमिर निर्मितमे वयत् स्यात् तत्सार साधित सुतन्त्वति वृत्तवार्तम् । ईशस्य केशवगि रेरल कालिजालं 11 79 40 तत्तुल्य कुल्यमधुपाढ्य महावनस्य ॥ प्रति : तत्, तुल्य, कुल्य, मधुप, आढ्य, महत्, वनस्य=आमुङ्गुरुलतो, समानकुलमुनँ बुट्टिन, तुम्मॆ दलतो नॊप्पुचुन्न मुहावनमु गल, केशवगि रेशि=वना द्रिकि, ईशस्य = नाथुँडै नट्टि, सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, अलक, अळि, जालम् तुम्मॆदलवण्टि मुङ्गुरुल गुम्पु, अनु, यत् = ए, अन्धम् = ग्रुड्डिनिगाँ जेयु, तमः चीँकटि गलदो, (तत् =अदि) तिमिर, निर्मितम्, एव=चीकँटि चेत निर्मिम्पँबडिन दे, स्वात् = अगुनु, (कनुकने तत्, सार, साधित, सुतन्तु, अतिवृत्त, वार्तम् तिमिर निर्मित मगु अन्धतमसमुयॊक्क सारमुचेत निर्मिम्पँबडिनयं 80 सुन्दर बाहु स्तवमु दमुलगु दारमुलनु मिञ्चिन सङ्गति गलदि, (भवति अगु चुन्नदि.) विशेषमुलु :- तत्तुल्य कुल्य मधुसाध्य महावनस्य - इन्दलि तत् शब्दमु सुन्दर बाहुस्वामि वारि यलकलनु जॆप्पुनु, अन्दुचेत सुन्दर बाहुस्वामि मुङ्गुरुलगुम्पु तोड समान कान्तिगल तुम्मॆदलतो निण्डिन पॆद्दवनमुगल यनि यर्थ मेर्पडु चुन्नदि. केशवगिरे केशवुँ डनि — सुन्दर भुजस्वामिवारिकि नामान्तरमु, वारिकि सम्बन्धिञ्चिन गिरि यनँगा वनाद्रि अनि भावमु. तिमिकनिर्मित मेव- चीँकटिये उपादानकारणमुगाँ गलदि. कवुलु मुङ्गुरु लकु सहजमुगाने अन्धकारमु नुपमानमुगाँ जॆप्पु दुरु. ई श्लोकमुन चीँकटिचेत नुद्भविम्पँ जेयँबडिन गाढान्धकार सारांशमुवलनँ दीयँबडिन सन्ननि दारमु लनु मिञ्चियुन्नवि देवरवारि मुङ्गुरु लनि वर्णिञ्चिनन्दु वलन सुन्दर बाहुस्वामुल मुङ्गुरुलु मिक्किलि नल्लगा निगनिग लाडुचुन्न वनि भावमु. ता॥ श्री सुन्दरभुजस्वामिवारि मुङ्गुरुलतो समा नमु लगु तुम्मॆदलतो नॊप्पु महावनमुगल श्रीवनाद्रि किँ ब्रभुवगु सुन्दरभुजस्वामियॊक्क तुम्मॆदलनु बोलु मुङ्गुरुलगुम्पु अनॆडु कटिकि चीँकटि यन्धकारमे युपा दान कारणमुगाँ गलदि ययि युण्डुनु, अन्दुचेत ने अन्धकार सारांशमुवलनँ दीयँबडिन यन्दमुलगु दार सुन्दर बाहु स्तवमु 81 मुल नतिक्रमिञ्चिन सौन्दर्यवार्त गलदियै मिक्किलि नल्लनै यलरारुचुन्नदि. च॥ वनगिरिनाथु मुङ्गुरुल वण्टि यळुल् चॆलरेँगुकॊनलको दन रॆडुकॊण्ड नेलुहरि तद्भमगो पम कुन्तल व्रजं बनुनिबिडान्ध कारमु म हातिमिरम्बुन ने जनिञ्चियुं डुनु दिमिरम्पुँ देट जिगि नूलु निगनिग लेपुँ जूपॆडिक् अवतारिक : – ई श्लोकमुन सुन्दर बाहुस्वामिवारि ललाटमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. प्रति : श्लो!! जुष मिक ज्वलदिन्दुसन्निभं धृतोर्ध्वपुण्ड्रं विलसर्वि शेषकम् । भूम्ना ललाटं विमलं विराजते वनाद्रिनाथस्य समुचित श्रियः ॥ 41 समुच्छितश्रियः ’ आरूढश्री ’ अनु नामान्तरमु गल, वनाद्रि, नाथस्य वनगिरि प्रभुवगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, जुष्ट, अष्टमीक, ज्वलत्, इन्दु. सन्निभम्= सेविम्पँबडिन यष्टमि तिथि गलवाँडुनु, प्रकाशमानुँडु नगु चन्द्रुनितो समान मयिनट्टियु, धृत, ऊर्ध्वपुण्ड्रम् धरिम्पँबडिन यूर्ध्वपुण्ड्रमुलु सुन्दर बाहु स्तवमु 82 गलिगिनट्टियु, विलसत्, विशेषकम् प्रकाशिञ्चुचुन्न चूर्णतिलकमु गलिगिनट्टियु, (लेदा) कस्तूरि तिलकमु गलिगि नट्टियु, विमलम्=निर्मलमैनट्टि मु, ललाटनु : नॊसलु, भूम्ना = तेजस्सुतो, विराजते = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
जुष्टा. . सन्निभम् अमन्द भम्- भावमु, प्रकाशमगु अर्धचन्द्रुनितो समान मनि विशेषमुलु :- भूम्ना.=अधिकमुगा तेजस्सुतो अनि यग्गद्वयमुनु जॆप्पिकॊन वच्चुनु. विमलम् अनु नोट ‘विलनु’ अनु पाठान्तरमुन – विशालमु, अनि अर्थमु. ता! प्रकाशमानुँडगु अष्टमी चन्द्रुनितो (अज चन्द्रुनितो) समान मैनदियु, ऊर्ध्वपुण्ड्रमुलु गलदियु, वानिनडुम श्रीचूर्ण (लेदा - कस्तूरि) तिलकमु गलदिँ मु, विशालमुनु निर्मलमुनु अयिनदियु, नगु ‘आगूढश्री अनु नामान्तरमु गल वनाद्रिनाधुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि नॊसलु मिक्किलि तेजस्सुतोँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि. गी॥ अष्टमीचन्द्रुव लॆँ ग्रालुनदियु, नूर्ध्व पुण्ड्रमुलमध्यँ गस्तुरिबॊट्टु वॆलयु नदियु, वॆडँदयु निर्मल मा वनाद्रि नाथुनिटलम्मु तेजस्सुनि वॆलुङ्गु, अवतारिक :- ई श्लोकमुन स्वामिवारि कनुबॊमल जण्टनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ सुचारुचापद्वयविभ्रमं भ्रुवो र्युगं सुनेत्राह्वसहस्रपत्रयोः । उपान्तगं वा मधुपावळीयुगं विराजते सुन्दरबाहुसंश्रयम् II 83 42 प्रति :— सुन्दर बाहु, संश्रयम् = श्री सुन्दर बाहु स्वामिये आश्रयमुगाँ गलट्टियु, सुचारु, चाप, द्वय, विभ्रमम् अतिसुन्दरमगु विण्टिजण्ट यॊक्क विलासमु वण्टि विलासमु गलट्टियु, भ्रुवोः कनुबॊमलयॊक्क, युगम्= जण्ट, सुनेत्र, आह्व, सहस्रपत्रयोः = मञ्चि कन्नु ल नॆडु पेरु गल तामर रेकुल यॊक्क, उपान्त, गम् = ल समीपमुनु बॊङ्गियुन्न, मधुप, आवली, युगं, वा तुम्मॆद बन्तुलजण्ट वलॆ, विराजते= मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. वि शेषमुलु ई श्लोकमुनन्दलि उपान्तरं वा- अनुचोट गल ‘वा’ अनु शब्दमु ‘इव’ अनु नर्थमुनँ ब्रयुक्त मैनदि. नेत्रमुलन्दु सहस्र पत्रभ्रान्ति चेत मकरन्दपानासक्ति तो नेत्रप्रान्तमुल बारुदीर्चिन भ्रमर पङ्क्ति द्वयमुवलॆ श्रीसुन्दर बाहुस्वामिवारि कनुबॊमल जण्ट प्रकाशिञ्चु चुन्नदनि भावमु. ता॥ श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि कनुबॊमल जण्ट यन्दमगु विण्टिजण्ट यॊक्क विलासमुवण्टि विलासमुतो नॊप्पुचु मनोहर नेत्रमु लनॆडु सहस्रपत्रमुल समीप84 किमिडि प्राचीनान्ध्र चारित्रक भूगोळमु वनपतिलेक बनपतिदी रासि शासनमुलो नतडु गॆल्चिन देशमुललो निदि यॊकटि. (श. स, 897) ख सी. श्री शकुनेणुलु भूसतिपै शैल नद्धाब भवसङ्ख्यनॊन्दि वेङ्गि देशम्बु गिमिडिय गोसलगिड्डिसिङ्गि देशम्बु मुऱि यॊड्ड देशमनङ्ग जनिन भूपालुरननि नोर्चॆ…. किमिडियनुनदि नेटि ऒरिस्सा राष्ट्रमुलो गञ्जामुमण्डलमुलो नॊक जमीन्दारी यैयुन्नदि. पॆद्दकिमिडि, चिन्न किमिडियनि रॆण्डु भागमु लुग विभजिम्पबडिन चिन्न विषयभागमु. E. I Vol IV. No. 45. किरणपुरमु चाळुक्यभीमुनि धर्मवरमु शासनमुलो पण्डरङ्गनि विजय धाटिनि वर्णिञ्चु सीसपद्यमु नन्दलि ऎत्तुगीतलो नतडु किरणपुरमुनु गॆल्चॆननि वर्णिम्पबडिनदि. आ. किरणपुरमु डहलनिरुतम्बु दजॆनाडु न च ल पुरमु सॊच्चॆन चलितुण्डु वल्लभुण्डु गुण कॆनल्लुण्डु पञ्चिन पण्डरङ्गु चूरॆ पण्डरङ्गु. ई पै ई पाण्डुरङ्गनि पै विजयमु पूर्व चाळुक्युल शासनमुललो सहितमु पेर्कॊनबडिनदि. ई किरणपुरमु मध्यप्रदेशमुलोनि बालॆघाटु जिल्लायन्दलि किरणपुरमनु ग्राममु. भारति विभव सं॥ चैत्रमासमु -धर्मवरशासनमुलु. E. I. Vol IU. मल्ल पदेवुनि पिठापुर शासनमु No. 93 E. I.. Vol IX. मॊदटि अम्मराजु मलियम्पूडि शासनमु. P. 47 सुन्दर बाहु स्तवमु 85 प्रभु वगुसुन्दर बाहुस्वामियॊक्क विशाल योः= पॆद्दवि यगु,दृनोg= कन्नुलकु,कथं नु= ऎट्लु, निदर्शनम् = दृष्टां दमु.(भ वेत् =अगुनु) का दनि भावमु. वि शेषमुलु :- अप्रेमदुहम्——प्रेममु अनँगा स्नेहमु, दानिनि पितुकु नदि. लेदा-निम्पु नदि लेदा स्रविञ्चु नदि, प्रेमदुहम्-अगुनु. अट्टिदि कानिदि, अप्रेमदुहम्= स्नेहमुनु स्रपिम्पनिदि, पद्ममु कॊञ्चॆमु पूँदेनॆनु स्रविञ्चुने कानि प्रेमनु स्रविम्प दनि भावमु. क्षणोज्ज्वलम् क्षणकालमु दाँटिनचोँ बद्ममु क्रममुगा वाडिपोवु ननि भावमु. अनुब्जम्- उज्ज- आर्ज वे;अनुधातुवुनुण्डि येर्प डिनँ उब्जपदमुनकु अर्जव मनि यर्थमु अदि लेनिदि यनुज्ञमु. पद्ममु सूर्योदयमुन विकसिञ्चुनट्लु चन्द्रोदयमुन विकसिम्पदु. अन्दुचेत ऋजुमार्गमु लेनिदि यगु चुन्नदि. विशालयोः =दीर्घमु लगु, अनँगा-क र्णान्तविश्रान्तमु लनि यभिप्रायमु. ता॥ कर्णान्त विशालमुलुनु आश्रितुलयॆडलँ ब्रेम पूरमुनु ब्रवहिञ्चुनवियु, सदा एकरूपमगु विकासमु गलवियु, चूचुवारियन्तःकरणमुल नाकर्षिञ्चुनवियु नगु वनाद्रि नाथुँडगु सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क दिव्य नेत्रमुलकु गुण्ड्रनिदियुँ गॊञ्चॆमु पूँदे नॆनु मात्रमे स्रविञ्चुनदियु, पगलु विकसिञ्चि रात्रि मुकुळिञ्चु नदियुँ जूचु वारिमदिनन्तगा नाकर्षिम्प लेनिदियुनै तन्नेत्र (12) I 86 सुन्दर बाहु सवमु गुणमुलतो सरितूग लेनिपद्ममॆट्लु विवर्शनमुकाँगलदु ? पद्ममु श्रीवारिकन्नुलकुँ बोल्पँ दगदनि भावमु, म. निडुवाल् का दँट प्रेमपूरमुनु जिं दिम्पङ्ग ले दण्ट व्रे ल्मिडिलो वाडॆडु नण्ट द्रष्टृहृदया शिक्षा लाग ले दण्ट रे मुडुँगं बाटॆडु नण्ट पद्म मदि ये मो मॊप्पँगा नीडु व च्चॆडु श्रीसुन्दरबाहु नेत्रयुगळ श्री कायत त्वादुल. अवतारिक :- अलङ्कारनामुँ डगु श्री वनाद्रि नाथुँडु अट्टि कन्नुलतो नन्नुँ गटाक्षिञ्चुँ गाक यनि प्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ प्रश्योतत् प्रेमसारामृतरसचुळुक प्रक्रमप्रक्रियाभि"्यं विक्षिप्तालोकितोर्मि प्रसरणमुषित स्वान्त कान्ताजनाभ’्यम् । विश्वोत्पत्ति प्रवृत्ति स्थितिलयकरणै कान्त शान्त क्रियाभ्यं देवोऒलङ्कारनामा वनगिरि निलयो वीक्षतो मीक्षणाभ्याम् ॥ conte प्रति :- वनगिरिनिलयः=वनाद्रि निवासियु, अलङ्कार’ नामा= अलङ्कार नामधेयुँडुनु अगु, देवः = सुन्दर बाहु देवुँडु, प्रश्च्योतत् प्रक्रिया भ्याम् प्रश्च्योतत् = मिक्किलि स्रविञ्चुचुन्न, प्रेम, सार= श्रेष्ठ मगु प्रेम यनॆडु, अमृतरस * सुधारसमु गल, सुन्दर बाहु स्तवमु 87 चुळुक = पुडिसिलियॊक्क, प्रक्रम= विधमुवण्टि, प्रक्रिया भ्याम्=विधमुलु गलिगिनट्टियु, विक्षिप्त. जनाभ्याम् विष प्त = पे रेपिम्पँबडिन, आलोकित चूपुल नॆडु, ऊर्मि= अललयॊक्क, प्रसरण प्रसारमुचेत ( व्याप्ति चेत, मुषित दॊङ्गिलिम्पँबडिन, स्वान्त = मनस्सुगल, कान्ता जनाभ्याम् = स्त्रीजनमु गलट्टियु, विश्वक्रिया भ्याम् विश्व=नमस्त चेतनाचेतन समूहमुयॊक्क, उत्पत्ति = पुट्टुकनु, प्रवृत्ति = प्रवर्तनमुनु, स्थिति पोषणमुनु, लय नाशनमुनु, करण = चेयुटयन्दु, एकान्त, शॊन्त, क्रियाभ्याम्= मिक्किलि शान्त व्यापारमु गलट्टियु, ईक्ष णाभ्याम्=कन्नुलतो, वीक्ष ताम् चूचुँगाक, विशेषार्थमुलु अमृतरसचुळुक…… एककरोदरपरि माणमगु चुळकमुनु (पुडिसिलिनि) दृष्टान्तमुनुगाँ जॆप्पुट भक्तुलु सुन्दर बाहुस्वामिवारि नेत्रमुलनुण्डि स्यन्दिञ्चु प्रेमरसामृतमुनु मॆल्लमॆल्लगाँ सुखमुगाँ द्रागँ गलरनि सूचिञ्चुनिमि त्त मनि तॆलिय नगुनु. विकी पा ឌ जना दनिविदीर नाभ्याम् सुन्दरीजन मनोविलास शालि मनोज्ञलोकनमुल चेत नानि भावमु. क्रियाभ्याम्— सकलजग त्सृष्टिस्थिति प्रळय विश्वा विधानमुलन्दु मिक्किलि प्रवर्तमानमु लगुचुन्न- अनि तात्पर्यमु. वीक्ष ताम् अनन्यलक्ष्यमु लगु सम 88 सुन्दर बाहु स्तवमु ग्रानुग्रहमुगल कटाक्षमुलकु नन्नु लक्ष्यमुनु जीयुँ गाक अनि याशयमु, ता॥ वनगिरि नित्यनिवासुँडुनु, ‘अलङ्कार नाम धेयुँ डुनु अगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि निरन्तरमु सृन्दिञ्चु चुन्न प्रेमसार मनॆडु अमृतरसमुनकुँ जुरुकमुलवण्टि वियु, तरङ्गमुलँ बोलिन कटलोकमुल चेत सुन्दरी जनमुल मनस्सुल नाकर्षिञ्चुचुन्ननि, सकल जगत्सृष्टि स्थिति प्रळयविधानमुलन्दुँ ब्रशान्ति व्यापारमुलु गलवियु ब्रशान्तिव्यापार नगु लोचनमुलतो नन्नु निरन्तरमु कटाक्षिञ्चुँ गाक. शा॥ भूरिप्रेम रसामृतं पुँजुळुकं बुल्, मञ्जुलालोकसं चाराकृष्ण विलासिनी जनमन स्सर्वस्वकम्बुल्’, जग त्पारम्भस्थिति संहृतीड्यमुलु ने त्रोल् विप्पि स न्नायल? राख्युं डगुकाननाद्रिहरि श्री कञ्जाक्षुँ डिक्षिञ्चुतक्षा. अवतारिक :- ई श्लोकमुनन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि नासासौन्दर्यमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ प्रेमानुृतौघपरिवाहिमहाक्षिनिं धु मध्ये प्रबद्ध समुदञ्चितनेतुकल्पा ! ऋज्वी सुसुन्दरभुजस्य विभाति नासा कल्पद्रुमाङ्कुरनिभा वन शैलभरुः ॥ सुन्दर बाहु स्तवमु प्रति : वन, शैल, भर्तुः सुन्दर 89 वनाद्रिनाथुँ डगु दर बाहुस्वामियॊक्क, ऋज्वी == वङ्करटिङ्करलु लेक सरिगानुन्नट्टियु, कल्पद्रुम, अङ्कुर, निभा== कल्पवृक्षमु यॊक्क, चिगुराकुतो समानमैनट्टियु, नासा== मुक्कु, प्रेम—मध्ये—प्रेम= प्रेम मनॆडु, अमृत + ओम = परिवाहि अमृतप्रवाहमुनु महत् = पॆद्द, अक्षी कन्नुल नॆडु, यॊक्क, म मध्ये = नडुम, प्रबद्ध, प्रवहिम्पँजेयु, सिन्धु= समुद्रमुल समुदञ्चित, सेतु, कल्पा=कट्टँबडिनदियु, अत्यन्तसम्भावित मैनदियु, नगु सेतुवुतो समानमैनदि, भवति अगुचुन्नदि. विशेषमुलु :- ऋज्वी निरन्तरमनु भविम्पँबडु चुन्ननु, ऎप्पटि कप्पुडु क्रॊत्त दानिवलॆ नगपिञ्चु एकरूप मगु शोभ गलदि. दिगि ई श्लोकमुलोनि पूर्वार्थमु यॊक्क भावमिदि. सुन्दर बा हुमूर्ति नेत्रशोभानुभवमु कॊऱकुँ अन्दलि । प्रेमरसमुलो मुनिँगि पोवुटचे अवयवान्तर शोभानुभवमुनकुँ बोव शक्ति लेनि प्रेक्षकुल कन्नुलकु स्वामिवारि नासिक सेतुवुन लॆ नावलि यॆक्टुँ जेरुटकु साधन मगु चुन्नदि. ता॥ ऎल्लप्पुडु ननुभविम्पँ बडुचुन्ननु शश्व देश प्रकार मगु नवनवशोभ गलदियु, कल्पवृक्ष किसलयमु वलॆ मनो 90 सुन्दर बाहु सवमु हरमैनदियु नगु सुन्दर बाहुस्वामिवारि नासिक प्रेमा मृतपूरमुनु ब्रवहिम्पँजेयु कन्नु लनॆडु समुद्रमुल नडुम बन्धिम्पँबडि यॊप्पिदमुगा नुन्न सेतुवुवलॆँ ब्रका शिञ्चु चुन्नदि. u च. निरुपमशोभ यॆप्तु रम णीयत नेकविधान नॊप्प स्व __स्तरु नवप वाळृतिँ ब्र शस्ति वहिञ्चु वनाद्रिवासि नुं दरभुजुनास प्रेमरस धारलँ बूर्णमु लैन नेत्रसा गरमुल सन्त राळमुनँ गन्पडु नूतन सेतुवो ! यन९. अवतारिक :- ई श्लोकमुन श्री स्वामिवारिवदन सौन्द र्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. M श्री व्याभाषिताभ्यधि क नन्दन भन्दनं मन्दस्मितामृत परिस्रव संस्तवाढ्यम् । आ भौति विद्रुमसमाधर मास्य मस्य देवस्य सुन्दरभुजस्य वनाद्रि भर्तुः ॥ 40 प्रति :- वन, अद्रि, भर्तुः वनगिरि नाथुँडै, सुन्दर भुजस्य=सुन्दर बाहुमूर्तियनु, अस्य= ई, देवस्य = आढ्यम् व्याभाषित, अभ्यधिक, नन्दन, भन्दन, ऋद्धि = माट लाडुनपु डत्यन्ता
- स्वामियॊक्क, व्याभा
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 91
- नन्दकरमुनु शुभदमु नगु समृद्धि गल, मन्दस्मित, अमृत, परिस्रव, संस्तव, आढ्यम् = चिऱुनव्वु अनॆडु
- आढ्यम्=चिऱुनव्वु अमृतरसमुयॊक्क परिचयमुतो नॊप्पुनदियु, विद्रुम, सम, अधरम्= पॊगडमुतो समानमगु पॆदविगलदियु अगु, आस्यम् = मॊगमु, आभाति = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- विशेषमुलु :- इन्दलि पूर्वार्धमु ‘स्मितपूर्वाभि भाषिणम् ’ अन्नट्लु
- अन्नट्लु श्री मुन्दर बाहुस्वामि प्रियुलतो माटलाडु नप्पुडु श्रीवारि मुखमुनं दानन्दकरमुनु शुभप्रदमुनगु मन्दहास सुधानिष्यन्द परिचयमुतो नॊप्पुशो भौतिशयमुनु जाटुचुन्नदि. माटलाडु नपुडु देवरवारि चिऱुनव्वु वॆन्नॆललु गायुनॆम्मोमु भक्तुल कत्यन्तभोग्यमुगा नुण्डुननि पिण्डितार्थमु.
- विद्रुमसमाधरम्
- सम्भाषणसमयमुनँ बॊगडमु वण्टिवा तॆऱ कॆञ्जायलतोँ गूडिन स्वामिवारि चिऱुनव्वे देवरवारि मोमुन कन्तयु शोभ चेकूर्चु चुन्नदनि
- याशयमु.
- ता॥ वनाद्रिनाथुँ डगु नी श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि
- मुखमु सम्भाषणसमयमं दधिकानन्दकरमुनु शुभ
- प्रदमुनगु समृद्धिगल मन्दहासमनु
- मन्दहासमनु अमृत निष्यन्द मुतोँ बुष्टिँ गाञ्चि पॊगडमुवण्टि वा तॆऱपॊलुपुतो नॆन्तयुँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि
- 92
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- क. पलिकॆडु तऱि नमृतम्बुं
- जिलुकुचु लेनव्वु गायँ जिऱु वॆन्नॆलल तुल लेनिमोवि पगडपुँ
- दळुकुलँ गुरिय
- वनाद्रिधवुमो मलरु.
- अवतारिक :– ई श्लोकमुनन्दु श्रीवनाद्रिनाथुनि कपोल सौभाग्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु
- श्लो॥ यशो दाङ्गुळ्यग्रो न्नमितचुबुकाघ्राणमुदिते
- कपोला वद्यापि ह्यनु परततध्धर गम । विराजेते विष्वग्वितत सहकारासनगस
- प्रमाद्य द्भृङ्गाढ्य द्रुमवनगिरे स्सुन्दरहरेः ॥
- प्रति :
- विष्वग्विततगिरे
- 4.7
- विष्वक् जनलु वैपुल, वितत = व्यापिञ्चिन, सहकार = तिय्यमामिडि पण्ड्ल यॊक्क, आसव = आसवमुयॊक्क, रस = रसमुचेत, प्रमाद्यत् मडिञ्चुचुन्न, भृङ्ग= तुम्मॆदल चेत, आढ्य= ऒप्पुचुन्न, द्रुम = चॆट्लुगल, वनगिरे – वनाद्रिगल, सुन्दरहरे
- सुन्दरभुजस्यामि यॊक्क, यशोदा… मुदिते – यशोदा=यशोदा देवियॊक्क, अङ्गुळि = वेळ्ळयॊक्क, अग्र कॊनलचेत, उन्न मित=पै कॆत्तबडिन, चिबुक गड्डमुयॊक्क, आघ्राण मूचूचुट चेत, मुदितौ सन्तसिञ्चिनवियु, (विकसिञ्चिनवियु) अद्यावी अनुपरत, तत्, हर्ष, गमक् मुगियनि यासन्तोष विकासमुनु सूचिञ्चु नवियु, अगु, कपोता— चॆक्किळ्ळु, विराजेते, मिक्किलि प्रकाशिञ्चुचुन्नवि, हि=सत्यमु.
- नेँटिकिनि,
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 93
- यशोदा
- विशेषमुलु : यशोदा..
- यशोदा, …. .मुदितौ देवि वात्सल्यातिशयमु चेत श्री बालकृष्णुनि गड्डमुनु तन व्रेळ्ळकॊनलतो नॆत्ति पट्टि मूर्कॊनँगाँ जॆक्किळ्ळ यन्दु सन्तोषमु चेत नॊक विकासमु गलिगॆननि भावमु. अच्यापि— इप्पटिकिनि अनँगाँ जाल कालमु गतिञ्चि नप्पटिकिनि, सुन्दर भुजावतारमुनँ गूड आसन्तोष विकास मनुवर्तिञ्चुचुने युन्नदनि याशयमु. ‘हि’ हि शब्द प्रयोगमुवलवँ बूर्वोक्त सुन्दर भुज स्वामिवारिकपोल विकासमु श्रीवारि सेविम्पवच्चिन भक्तुलॆल्लरकुँ ब्रत्यनु भाव्यमगु चुन्नदनि सुस्पष्ट मगुचुन्नदि.
- ता॥ नलुवैपुल विजृम्भिञ्चिन. तिय्यमामिळ्ळ यासव रसम्बुनु ग्रोलि मदिञ्चिन तुम्मॆदलतो नॊप्पु वृक्षमुलु गल वनाद्रिकि नाधुँडैन श्री सुन्दरभुजस्वामियॊक्क चॆक्किळ्ळु कृष्णावतारमुन यशोद वात्सल्यातिशयमु चेत गड्डमुनु बैकॆत्ति मुद्दाडुट चेँ गलिगिन
- विकासमुतो
- नेँटिकिनि भ क्तजनुल कनुभाव्यमुलै यलरारु चुन्नवि.
- भ
- उ. चिन्नतनान गड्डमुनु
- H
- 1
- जेँ गॊनि नन्दुनिराणि मुद्दुलन्
- गॊन्नदि, तद्विकास मॊक
- कॊञ्चॆमुँ दग्गक विन्दु गूर्चॆडुन्
- +
- (13)94
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- गन्नुल किष्ठु व्याप्त सह
- कार फलासवमत्त भृङ्ग सं
- पन्न ननाद्रि सुन्दर सु
- बाहु मनोज्ञकपोल मण्डलीस्.
- अवतारिक :_ ई श्लोकमुनन्दु श्रीस्वामिवारि कर्ण पाश सौन्दर्यमुनु वर्णिञ्चुचुन्नारु.
- प्रति
- श्लो॥ व्यालम्बिकुण्डल मुदग्र सुवर्ण पुष्प
- निष्पन्न कल्पलति कायमुलनु कारम् । यत्कर्ण पाळयुगलं निगडं धियां नः सोडियं सुसुन्दरभुजो वन शैल भूषा ॥
- व्यालम्बि, कुण्डलम्
- 1
- 49
- (मूपुलविगाँव) व्रेलाडुचुन्न कर्णाभरणमुलु गलदियु, उदग्र अनु कारम्
- ya
- उदग्र उज्ज्वलमगु, सुनग = बङ्गारपु, पुष्प= पुव्वुलतो, सम्पन्न = कूडिन, कल्पलनि का=कल्पलतल यॊक्क, यमल=जण्ट यॊक्क, अनुकारम् = सारूप्यमु गल, यत्, कर्णपाश, युगळम् = एसुन्दर बाहुमूर्ति यॊक्क प्रशस्तमुलगु चॆवुलजण्ट, नः = मा यॊक्क, धियाम्=बुद्धुलकु, निगडम्=सङ्कॆल, (भवति= अगु चुन्न गो) सः=अट्टि, अयम्=ई सुन्दर भुजः = सुन्दर बाहुस्वामि, वनशैल, भूषा=वनाद्रिकि अलङ्कारमुवण्टिवाँडु.
- विशेषमुलु : : ‘य त्कर्ण पाशयुगळं निगणं धिमां नः’ श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि कर्णपाळयुगळमु मिक्किलि अन्दमुगा नुण्डुटवलन माबुद्धुलकुँ ददितर दिव्यानय
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 95
- वानुभवम्बु नॊनर्प सङ्कॆल वलॆ नाटङ्कमु गलिगिञ्चु चुन्नदि. लेदा—— माबुद्धुलनु विषयान्तरानुभवमु नकुँ बोनीयक यरिकट्टुचुन्न दनि भावमु. अट्टि त्रिलोक सुन्दरुँ डगु श्री सुन्दर भुजस्वामि
- A
- यमूल्यालं कारमुगा तात्पर्यमु.
- यी वनाद्रि कॊक नुण्डुट वनगिरि भाग्यमनि
- ता॥ मूँपुलपै व्रेलाडुचुन्न कर्णाभरणमुलु गल दियु, देदीप्यमानमु लगु बङ्गारु पुव्वुलतोँ गूडिन कल्पलतलजण्टनु बोलिनदियु नगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारि प्रश स्तमुलगु वीनुलजण्ट माबुद्धुल इतर दिव्याव यव सौन्द र्यानुभवमुनकुँ गानि विषयान्तर सञ्चारमु नकुँ गानि पोनीयक सङ्कॆलवलॆ नरिकट्टु चुन्नदि. एतादृश कर्ण पाश सौन्दर्यविशिष्टुँ डगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वनाद्रि कर्णपाश कॊक दिव्यभूषणमुगाँ ब्रकाशिञ्चुचुन्नाँडु.
- उ. मूँपुलपैनि नाडुनटु
- मुच्चटँ गॊल्पँगँ गुण्डलम्मु
- द्दीपित हेमपुष्पमुलु
- तीर्चिन कल्पल ताद्वयं बटुल्
- दापुन वॆल्गुस्वामि चॆवि
- तम्मॆलु सङ्कॆल मादुबुद्धिकिन्,
- जूपरि दिव्यभूषणमु
- सुन्दर बाहुवु काननाद्रिकिन्.
- लु
- 96
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- अवतारिक :— ई श्लोकमुन श्रीवारि कण्ठ सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- प्रति :
- श्लो॥ पदंससंसञ्जित कुन्तलान्ति का
- सतीर्णकर्णाभरणाढ्य कन्धरः सुबन्धुर स्कन्ध निबन्धनो युवा सुसुंवर स्सुन्दरदोर्विजृम्भणे ॥
- सदंसकन्धरः सत्
- योग्यमु
- लगु (अन्दमु लैन) अंस
- मूपुलमीँद, संसञ्जित =
- ‘बागुगा नण्टुकॊनियुन्न, कुन्तल मुङ्गुरुल यॊक्क, (चूर्ण कुन्तलमुलयॊक्क) अन्तिक = समीपमुनन्दु, अव तीर्ण= वेलाडुचुन्न, कर्णाभरण = कुण्डलमुलतो,
- आध्य. ऒप्पुचुन्न, कन्धरः = कण्ठमुगल वाडुनु, सुबन्धुर, स्कन्ध, निबन्धनः = मिक्किलि दृढमगु मूपुल यॊक्क सन्धि बन्धमुलु गलवाँडुनु, युना “वनवन्तुँडुनु, सुन्दरदोः= सुन्दरमुलगु बाहुवुलु गिलानाँडुनु, अगु सुन्दर भुजस्वामि, सुसुन्दर मिक्किलि सुन्दरुँडगुचु, विजृम्भ ते= विजृम्भिञ्चु चुन्नाँडु (चॆलरेगु चुन्नाँडु.)
- t
- विशेषमुलु पूर्वार्धमु भान मेमन? मूपुलँ दाँकुचुन्न पिल्लजुट्टुवऱकु व्रेलाडु कर्णाभरणमुलतो नलङ्कृतमगु कण्ठमु गलवाँडु. युवाद =‘बाल्य- भूवन
- सन्धिलोनि वाँडनि भावमु.
- ता॥ सुन्दर बाहुस्वामि यन्दमु लगु मूपुल नण्टि युन्न पिल्ल जुट्टु वऱकु व्रेलाडु चुन्न गुण्डलमुलतो सुन्दर
- B
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 97
- मगु कण्ठमु गलवाँडुनु, दृढमुलगु भुजशिरस्सुल सन्धुलु गलवाँडुनु, बाल्ययौवनमुलु सन्धिलो नुन्न वाडुनै मिक्किलि सुन्दर रूपमुलो विजृम्भिञ्चु चुन्नाँडु.
- उ. मूँपुल मूगि यॆन्तयुनु
- मुच्चटँ गॊल्पॆडु पिल्ल जुट्टु पॆन्
- दापुनँ गुण्डलच्छवुल
- ताण्डव मॊप्पि सुसन्धिबन्धुरं
- बॆ पॊलुपारँ गन्धरमु
- यौवन नव्य विलासमञ्जुला टोपमुतो वनाचल कु
- टुम्बि सुसुन्दरुँ डेपुँ जूपॆडुन्.
- श्लो॥ व्यूढगूढ भुजजत्रु मुल्लस
- त्कम्बु कन्धरधरं धराधरम् । वृक्ष वण्डमय भूभृत स्तपे सुन्दरायती भुजु भजामहे ॥
- प्रति — व्यूढ, गूढ, भुज, जत्रुम्=बलिसिनवियु ‘(भारमुनु सहिञ्चु नवियु) दागिनवियु (मांसमुलो) अगु’ भुजमुलदग्गऱ नुन्न मॆडयॆमुकलु गलवाँडुनु, उल्लसत्, कम्बु, कन्धर, धरम् = प्रकाशिञ्चुचुन्न शङ्खमु वण्टि मॆडकलवाँडुनु, सर्वमुनु धरिञ्चुवाँडुनु, वृक्ष, षण्ड, मय, भूभृतः = चॆट्लगुबुरुलतो निण्डिन पर्वतमु यॊक्क, तटे=चऱियन्दु, धराधरम् = भूमिनि रक्षिञ्चु
- 98
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- चुन्नवाँडुनु, अगु, सुसुन्दर, आयत, भुजम् = मिक्किलि अन्दमुलुनु दीर्घ मुलुनु अगु भुजमुलुगल सुन्दर बाहु स्वामिनि, भजामहे= सेविञ्चु चुन्नामु.
- वि शेषमुलु :– उल्लसत्कम्बु कन्धरधरम् कन्धरा शब्दमु स्त्रीलिङ्गमुगनुक- कन्धराधरम् अनि युण्डवलसि युन्नदि. श्री कू रेशुलवारु अकारान्तमुगाँ ब्रयो गिञ्चुटं जेसि _ ‘कन्धर’ वऱकु बहुव्रीही चेसिकॊनि तरुवात ‘धर’ शब्दमुतो विशेषणोभय पदकर्मधारय मॊनर्पँ बडिनदि. तदनुसारमुगने यर्थमु व्रायँबडिनदि. धरं वृक्ष षण्डमय भूभृतः, तटे, इन्दलि ‘मयट्’ प्रत्ययमु प्राचुर्यार्थमुन वच्चिनदि. श्री सुन्दर भुज स्वामि अन्दऱिनि रक्षिम्प बद्धकङ्कणुँडै युन्ननु माबोण्ट्ल संरक्षण सौलभ्यमुनकै वनाद्रितटमुन वेञ्चेसि युण्डॆ
- ननि याशयमु,
- धगा
- ता॥ बलिसि कण्डपट्टिन मॆडयॆमुकलु गलिगि यन्दमगु शङ्खमुवण्टि कण्ठमु गलिगि वनाद्रिसानुतलमुनन्दु भ क्त रक्षण सौलभ्यमुनकु वेञ्चेसियुन्न यायत बाहु वगु
- श्री सुन्दरभुजस्वामिनि भजिञ्चुचुन्नामु.
- म. बलसम्पन्नमु मांसगर्भितमु
- शुम्भज्ञत्रु देशम्बु नु
- ज्ज्वलकम्बूपम भव्यकन्धरमु भा
- स्वद्दीर्घ बाहाद्वयं
- ।
- ‘सुन्दर बाहु स्तवमु
- बलरारस् दरुषण्ड मण्डितवना
- हार
- र्यम्बुनं दॊक्कचोट
- जॆलुवॊप्पस् निवसिञ्चु सुन्दर भुजुन् सेविन्तु मश्रान्तमुस्
- 99
- श्री
- अवतारिक : ई क्रिन्दि यैदु श्लोकमुलयन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि दिव्यभुजमुल सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु
- चुन्नारु.
- श्लो॥ मन्दर भ्रमण विभ्रमोद्भटाः
- सुन्दरस्य विलसन्ति बाहवः ।
- इन्दिरा समभिनन्द भन्दना श्चन्दनागरु विलेपभूषिताः ॥
- प्रति :— मन्दर, भ्रमण, विभ्रम, उद्भटाशि
- 1
- 51
- मन्दर
- मनॆडु कव्वपुँगॊण्डनु द्रिप्पुटयन्दु उत्साहमु गल वियु, इन्दिरा, समभिनन्दन, भन्दनाः
- लक्ष्मी देविनि सन्तोष पॆट्टु विषयमुन मङ्गळकरमुलुनु, (लेदा) सुख करमुलुनु, चन्दन, अगरु, विलेप, भूषिताः = गन्धमु - अगरु मैपूँतलतो अलङ्करिम्पँ बडिनवियु अगु, सुन्द रस्य = सुन्दर बाहुमूर्ति वारि यॊक्क, बाहवः भुजमुलु, विलसन्ति = मिक्किलि प्रकाशिञ्चुन्नवि.
- विशेषमुलु ‘भन्दनाः’ भदि कल्याणे - सुखे च - अनु धातुवुवलन नेर्पडिन रूपमु गावुन - कल्याणकर मुलु लेदा सुखकरमुलु- अनि यर्थ मॊसँगुनु. क्षीराब्धि
- P
- 100
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- मथन कालमुनन्दे लक्ष्मी देवि आविर्भविञ्चुटवलन मन्दर भ्रमण विलासम हॆूत्साह मिन्दिरानन्दावाप्तिकि हेतु वुगा वर्णिम्पँ बडिनदि.
- ता॥ मन्दराचलभ्रमण विलासोत्साहम्बुलुनु इन्दिरा नन्द समवाप्ति हेतुवुलुनु चन्दना गरुविलेपनालङ्कृत मुलु नगु सुन्दर बाहुस्वामि बाहुवुलु मऱिमऱि प्रशा शिञ्चु चुन्नवि.
- गी मन्दरा घूर्णन विलासमञ्जुलमुलु
- इन्दिरा नन्दसमवा पि कन्दळमुलु. चन्दनागरुलि प्तमुल् सुन्दरभुज
- बाहुदण्डम्बु लतिलोक मोहनमुलु,
- श्लो॥ ज्याकिणाङ्क परिकर्म धर्मिणो
- भान्ति सुन्दरभुजस्य बाहवः पारिजात विटपायितीर्धयः प्रार्थितार्थ परिदान दीक्षिताः ॥
- P
- 52
- प्रति : ज्या, किण, अङ्क, परिकर्म, धर्मिणः = विण्टिनारि वलनिकाय यनॆडु गुर्ते अलङ्कार रूपमगु धर्ममुगाँ गलवियु, प्रार्थित, अर्थ, परिदान, दीक्षिताः (आश्रितजनुल चेत) प्रार्थिम्पँ बडिन, पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटयन्दु दीक्षु गलवियु, ’ (कनुकने) पारिजात, विटपायिती, ऋद्धयः पारिजातवुँ गॊम्मवण्टि समृद्धि गलवियु, अगु, सुन्दर भुजस्य = सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, बाहवः=भुजमुलु, भ्रान्ति = प्रकाशिञ्चु चुन्नवि.
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- 101
- विशेषमुलु :- ज्याकिणाङ्क. … ..धर्मिणः ज्याकिण मनँगा— धनुस्सु नॆक्कु वॆट्टि बाणमुनु सन्धिञ्चु समय मुन विण्टिनारि दॆब्बचेत नेर्पडिन मुञ्जेति यन्दलि प्रणविशे षमु. इदि महावीरुलु भुजमुन कलङ्कारमु. ई यलं
- ផ
- कारमु सुन्दर भुजस्वामिवारिभुजमु लन्निण्टिकिँ बेंo्कनुट वलन नास्वामि सव्यसाचि यनि स्पष्टमगु चुन्नदि. ईवि शेष णमु स्वामिवारि शौर्यमुनु जूटुचुन्नदि. प्रार्थिता. . .. .. दीक्षिताः– आश्रित जनुलकुँ जतुर्विध पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटलो दीक्ष वहिञ्चिन वनि भावमु. ई विशेषणमु स्वामिवारि यौचार्यविशेष स्फोरकमु. दीनिवलन शौश्या दार्यमुले भुजमुलकु शोभाजनकमु लनुट स्पष्टमगु
- ले चुन्नदि.
- +
- डा॥ विण्टिनारिवलन नेर्पडिन कायले आभरणमुलुगाँ गलिगि, आश्रितुल यभीष्टमु लॊसङ्गुटकु दीक्ष वहिञ्चि, पारिज•तशाखासमानसमृद्धि चॆन्नारि श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि दिव्य बाहुवुलु मिक्किलि शोभिल्लुचुन्नवि.
- गी. ज्याकिणाङ्काढ्य वीरभूषलु धरिञ्चि
- संश्रि शेष्टार्थदान दीँखायुतमुलु । पारिजात द्रुविटपशोभावहमुलु सुन्दरुभुजार्गळम्मु लानन्ददमुलु.
- (14)
- ॥ सागराम्बरतमाल कानन
- श्यामलर्धय उदार पीवराः ?
- 1
- 102
- प्रति
- सुन्दर बाहु स्तनमु
- शेषभोग परिभोगभागिन
- स्तन्नि भा वनगिरीशितुर्भुजः H
- सागरा.
- 53
- …. ऋद्धयः - सागर समुद्रमु
- चीँकटि
- वलॆनु, अम्बर=आकाशमुवलॆनु, तमाल कॊनस म्राँकुल यडववलॆनु, श्यामल नल्लनि, ऋद्धयः= शोभासमृद्धि गलवियु, उदार, पीवराः = दीर्घमु लै नवियु, बलिष्ठमु लै नवियुनु, शेषभोग, परिभोग, भागिनः शेष शरीररूपमगु शय्यासुखमु ननुभविं चुटयन्दु भागमु (पालु) गलवियु, तत् + निभाः आ शेष शरीरमुतो समा नमु लैनवियुनै, वन, गिरि, ईशितुः वनाद्रि नाथुँडैन श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, भुजः (भ्रान्ति प्रकाशिञ्चु चुन्नवि.)
- विशेषमुलु :
- :— सागर, . . ., . ऋद्धयः भुजस्वामिवारि बाहुवुलकु सागरमुलु,
- “बाहुवुलु,
- श्री सुन्दर
- आकाशमु,
- तमाल काननमु- ई मूण्डिण्टि नुपमानमुलुगाँ जॆप्पुट चेत मिक्किलि श्यामल ताळो भासमृद्धिगल्गि युन्नवनि भावमु ई समासमुलोनि चिवरदि यगु ‘ऋद्धि’ पदमु शोभासमृद्धि परमु. सागरमुलु विविधवर्णमुलु गलवियैननु सामान्य मुगा दानिरङ्गु कविसमयमुन नैल्यमुगने वर्णिम्पँबडु चुन्नदि. आकाशमुगूड ‘नीलं सभः ’ इत्यादि प्रतीति चेत नल्लनिदिगाने कवुलव्यवहारमुलो गोचरिञ्चु चुन्नदि.
- तमाल काननमु नीलमे कदा!
- ‘उत्तंसाय तमालपल्लव इति च्छिन्दन्ति यं गोपिकाः’
- (कृष्णकर्णामृतमु)
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 103
- ता॥ समुद्रमुव लॆनु, आकाशमुवलॆनु, चीँकटि म्राँकुल यडविव लॆनु, श्यामलशोभासमृद्धिगलिगि, पॊडवुलै कण्डपट्टि
- शय्यासुखानुभवमुलो
- शेषशरीरमुनन्दु
- भागमु
- गलवियै आकारमुन शेष शरीरमुनु बोलि वनाद्रिनाथुँ डगु श्री सुन्दर भुजस्वामिवारि बाहुवु लॆन्तयुँ ब्रका शिञ्चु चुन्नवि.
- El
- उ. सागरमट्टु लम्बरमु
- चाय विशालतमाल कानना
- भोगमुलील नीलरुग
- 1
- पूर्वमु लायतपीनवृत्तमुल्
- भोगिकु लेन्द्र दिव्यतनु
- भोगमुनं गृतभागमुल् सदा
- योगि जनाभयप्रदमु
- लोमुत सुन्दर बाहु बाहुवुल्.
- II अहमहमिकाभाळो गोवर्धनोद्धृति नर्मणि प्रमधनविधा वभे र्लब्ध प्रबन्ध समक्रियाः । अभिमतबहू भावाः कान्ताभिरम्भणसम्भ्रमे वनगिरिप ते
- र्भाहाः शुम्भन्ति सुन्दरदो र्हा रे ॥
- 54
- प्रति : गोवर्धन, उद्धृति, निर्मणि = गोवर्धन पर्वतमु नॆत्तुट यनु लीलयन्दु, अहमहमिका भाजः = नेनु मुन्दु, नेनु मुन्दु, अनुतॊन्दरनु पॊन्दिनवियु, अबेः समुद्रमुयॊक्क-, प्रमधनविधौ= चिलिकॆडु पनियन्दु, लब्द,104
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- NA VAN D
- प्रबन्ध, सम, क्रियाः
- पॊन्दँबडिन यनु बन्धमुग”
- Gray
- (तॆम्पुलेनि) समान व्यापारमुलु गलनिँमु, कान्ता, अभि रम्भण, सम्भ्रमे भार्यनु गौँगिलिञ्चुकॊनु सम्बरमु नन्दु ’ ( लेदा-त्वरलो) अभिमति, बहू भावः बडिन बहुत्वमु गलवियु अगु, नसगिरिषि शेः =वनाद्रिनाथुँ डैन, सुन्दरदोः
- सुन्दर बाहु ननॆट्लु, ह रीशि = मूर्ति यॊक्क, बाहाः = बाहुवुलु, शुन्धति प्रका शिञ्चु चुन्नवि.
- वि शेषमुलु
- अहमहमिकॊ= अहिम्पु
- पूर्व मिति या प्रवृत्तिः सा, नेनु मुंसं नेनु मुन्दऱ यनु प्रवृत्तिनि ‘अहमहमिक युन्दुरु, नानिनि भाजः’=पॊन्दिनवि, अनि सुन्दर बाहु- स्वामि बाहुवुलकु
- विश्लेषणमु.
- श्री
- ता॥ गोवर्धसपर्वत द्धरण मनॆडु क्रीणयन्दु ‘नेनु मुन्दऱ नेनु मुन्दऱ यनु तॊन्दरलोँ गूडिनवि (मु, श्री राब्धिनि मथिञ्चुटयन्दु ऎड तॆगनि समासव्यापारमुलु गलवि. मु, अप्पुडे पालसमुद्रमुलोँ बुट्टिन यिन्दिगा कां तनु जाँगिलिञ्चुकॊनु सम्बरम्बुन अभिलषिम्पँबडिन बहु त्वमुगलवियु, (कान्तनु कौगिलिञ्चु कॊनुटकु नालु बाहुवु लेमि चालँगलवु, इङ्कनु “पॆक्कु ‘बाहुवुलुण्डिन बागुण्डुननि स्वामिवारि यभिलाष यनि भावमु) अगु वनाद्रिनाथुँ डगु सुन्दर बाहुस्वामि यनु विष्णुमूर्ति यॊक्क बाहुवुलु मिक्किलि शोभिल्लुचुन्नवि.
- !
- सुन्दर बाहु स्तवमु . म. वरगोवर्धन पर्वतोद्वहन भ व्यक्रीड ने मुन्दु, मुं
- दऱ ने नं चॆवि पोरुं, जिल्कुतऱि सं द्रं बॆव्वि बल् प्रॊद्दुपो
- करयं जालवु, कोरुँ बॆच्चु नॆवि भा र्यन् गौँगिटञ्जेर्चु सं बरमन्दुन् वसशैलवासिहरि त
- द्भाहुल् प्रभागेहमुल्.
- श्लो॥ श्रीमद्वनाद्रि पतिपाणितलाब्जयुग्म
- मारूढयो र्विमलशङ्खरथाङ्गयोस्तु । एक्कोब माश्रित इवो
- त्तमराजहंसः पद्मप्रिया ऒर्क इव तत्समितो द्वितीयः ॥
- 105
- 55
- प्रति : श्रीमत्, ननाद्रिपति, पाणितल, अब्द, युग्मम् श्रीमन्तुडगु वनगिरि प्रभुवु यॊक्क, करतलमु लनॆडु, पद्ममुल जण्टनु, आरूढयोः=अधिष्ठिञ्चियुन्न, विमल, शङ्ख, रथाङ्ग योः
- निर्मलमुलैन शङ्खचक्रमुललो, एकः तु ऒक्कटियगु शङ्खमु, अब्जम् = पद्ममुनु, आश्रितः=आश्रयिञ्चिन, उत्तम, राजहंसः इव = श्रेष्ठमगु राजहंसवलॆनु, तत्, सम्मितः = दानिवलॆने पद्ममुनु पॊन्दिन, द्वितीयः तु = = रॆण्डवदि यगु चक्रमो, पद्म प्रियः= पद्ममुनन्दुँ ब्रेमगल, अर्कः इव = सूर्युनि वलॆ, (भ्राति= प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.)
- वि शेषमुलु : ईश्लोकमुन’ भाति’अनुक्रियनु जेर्चुकॊनि यस्वयमु चॆप्पुकॊनवलॆनु. अलङ्कारमु-अभूतोपम -
- J
- 106
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ता॥ वनाद्रिनाथुँ डगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क करतलमु लनॆडु पद्ममुलजण्ट नधिष्ठिञ्चियुन्न निर्मलमु लगु शङ्खचक्रमुललो नॊक्कटियगु शङ्खमु पद्ममु पै नुन्न श्रेष्ठमगु राजहंसमु वलॆनु, अट्टि देयगु” “रॆण्ड वदियैन चक्रमु पद्ममुनन्दुँ ब्रेमगल सूर्युनिवलॆनु ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- उ. चक्कगँ गाननाद्रिगत
- शौरिक राब्जयुगाधिरूढमुल्
- मिक्किलि कान्तिपुञ्जमुल
- मिञ्चॆडि शङ्खरथाङ्ग युग्ममं
- दॊक्कटि पद्मसंश्रितमु
- नु त्तम हंसवरम्बुँ बोलु, वे
- तॊक्कटि पद्ममित्रुँ डयि
- यॊप्पु नभोमणिँ बोलि क्रालॆडुन्.
- अवतारिक : ई श्लोकमुनन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि
- वारि सर्वगुणो पेत मगु वक्षःस्थल सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु
- चुन्नारु.
- पति :
- लक्ष्या पदं शास्तुभसंस्कृतं च श्रीवत्सभूमि र्विमलं विशालम् । विभाति वक्षो वनमाल याढ्यं वनाद्रिनाथस्य सुनुन्दिरस्य ॥
- ल्यः = लक्ष्मी देविकि, पदम् =
- 56
- निवासस्थान
- Ф
- मुनु, कौस्तुभ, संस्कृतं, च= कौस्तुभमणिचेत नलङ्क
- रिम्पँबडिनदियु, श्रीवत्स, भूमिः श्रीवत्स मनॆडु पुट्टुमच्च
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 107
- कुँ दावैनदियु, वनमालया = वनमाल यनॆडु पूल दण्ड चेत, आढ्यम्=ऒप्पिनदियु, विमलम्= निर्मलमैनदियु, ।विशालम् = वॆडँद यैनदियु, अगु वनाद्रिनाथस्य = वन
- वनगिरि प्रभुवैन, सुसुन्दरस्य श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क,
- वक्षः
- वक्षःस्थलमु, विभाति= मिक्किलि प्रकाशिञ्चुचुन्नदि.
- विभाति=मिक्किलि वि शेषमुलु : इन्दु सुन्दरभुजस्वामि वक्षःस्थल मनन्यसाधारण चिह्नमुलगु लक्ष्मीकौस्तुभ श्रीवत्सवनमाल लचेत नतिविलक्षणलक्ष्मी सम्पन्न मनुटचेत भक्तुल हृद यमु नाकर्षिञ्चि स्वायत्त मॊनर्पँ दगियुन्नदनि भावमु. ता॥ लक्ष्मीनिवासमुनु कौस्तुभालङ्कृतमुनु श्रीवत्स मनु पुट्टुमच्च कलदियु वनमालाशोभितमुनु निर्मलमुनु विशालमुनयि वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वक्षःस्थलमु मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- क्षी राब्धिलो जनिञ्चिन सुन्दरिकि रमा लीलावतिकि नेदि केळिगृहमु
- राजिल्लु मन्दिरमुन शाणोल्ली ढ
- मनरत्नदीपमै कौस्तुभम्बु
- ऎच्चोट सिङ्गार मिनुमडिं चॆडु वन
- माल यन्दालयूयेल वोलॆ ‘नादि यीता’ वनु श्री देवि मुद्र ना
- श्रीवत्स मॆच्चोटँ जॆन्नु मीऱु
- गी. अतिविशालम्मु निर्मल मद्दमट्लु श्रीवनाद्रीशु नित्यलक्ष्म्म्मीयुतम्बु
- 108
- सुन्दर बाहु सनमु
- सुंवगो रस्थलम्बुनु जूड वलयु सन्नँ गावलॆ नौक वेयिकन्नु लैनि
- अवतारिक : ईश्लोकमुन श्री सुन्दग बाहुस्वामिवारि नाभि सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ सौन्दर्यामृतसारपूरपरिवा हावर्तगत्तायितं
- M
- ॥
- 57
- यातः किञ्च विधिञ्चिसम्भवन भूम्यम्भोज सम्भूतिभूः । नाभिः शुम्भति कुम्भिकुम्भनिभ निर्भात स्तनस्वर्वमू सम्भु क्त्रद्रुमषण्ड शैलवसते रारूढलक्ष्म्या हर्मे ॥ प्रति कुम्भि.. . वसतेः.
- वस तेः कुम्भी एन्गुलयॊक्क, कुम्भ = कुम्भ स्थलमुलतो, निभ= समासमुलगु, निर्भात= मिक्किलि प्रकाशिम्पँ जेयँबडिन, स्तन= पालिण्ड्लु गल, स्वर्’, वधू = देव कान्तल चेत, सम्भुक्त = चक्कगा ननुभविम्पँ
- = ‘बडिन, द्रुमषण्ड शैल = (वृक्षसमूहमुतोँ गूडिन कॊण्ड) वनगिरि, वसतेः = निवासमुगाँ गल, आरूधलु..“शृ
- आरूढश्री अनु नामान्तरमु गल, ह रीशि =सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, सौन्दर्या.. गगायितीनु सौन्दर्य= चक्कँदन मनॆडु, अमृतसार = अमृतपुँ डेट यॊक्क, पूर प्रवाहमुयॊक्क परिवाह=पाय यॊक्क (चिन्न प्रवाहमुयॊक्क) आवर्तगळ्तायितम् सुडिगुण्डमुयॊक्क, साम्यमुनु, यातः == किञ्च= मऱियु, विरिञ्चि, भू विरिञ्चि ब्रह्मयॊक्क, सम्भवन= पुट्टुककु, भूमि=स्थानमगु, अम्भोज नकु, सम्भूतिभूः = उत्पत्ति स्थानमैन, नाभिः शुम्भति= प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- पॊन्दिनदियु,
- पद्ममु
- बॊड्डु,
- विशेषमुलु :
- शैल
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 109
- स्वर्वधू सम्भुक्त द्रुममण्ड
- सुर सुन्दरी मणुलकु सैतमु विहारयोग्य मी शैल मनुट चेति वनाद्रियॊक्क औन्नत्यमु भोग्यतयु व्यक्तमु लगुचुन्नवि. ‘आरूढ लक्ष्म्याः’ इदि सुन्दर बाहु स्वामिवारिकि नामान्तरमु,
- ता॥ एनुँगुल कुम्भस्थलमुलँ बोलु मॆऱुगुपालिण्डु गल वेलुपु जवराण्ड्रकु भोग्यमगु वनाद्रियन्दु नित्य
- · निवास मॊनर्चुचु आरूढ श्री नामान्तरमुतो नॊप्पु श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि नाभि नालुगु मोमुल वेलुपुँ बॆद्द नुगन्न तम्मिपूवुनकुँ बुट्टिनिल्लॆ सौन्दर्या मृत सार पूरपु टलुगुनकु सुडिगुण्डमट्लु प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- शा॥ पालिण्ड्लन् मदकुम्भि कुम्भमुलतोँ
- बन्तालु गाविञ्चु मेल्
- वालुं जूपुल `वेल्पु जव्वनुलकुन् ľ ब्रापौ वनाद्रिस्थलिन्
- ‘लोलुण्डे हरिदिव्यनाभि विलसि
- ल्लुन् बद्मभूमूल प
- m
- द्मालम्बम्बु सुरूप कान्त्यमृत पू
- 15
- रावर्त गर्तं बटुल्
110 सुन्दर बाहु स्तवमु अवतारिक :- ई श्लोकमुन ग्रन्थक र्तगारु श्री स्वामि वारि नडुमुनँ गल सोयगमु ननुभविञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ सुन्दरस्य किल सुन्दर बाह्यो श्री महातरु पशाचल भर्तुः । हन्त ‘यत्र निवसन्ति जगन्ति प्रापित दशिम त तनु मध्यम् ॥ 58 प्रति श्री महातरु, वनाचल, भर्तुः = शोभायुक मुनु महावृक्षमुलु गलदियु नगु वनगिरिकिँ ब्रभुनै नट्टियु, सुन्दरस्य=अन्दगाँडै नट्टियु, सुन्दर बाहोः = सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, यत्र = ए मध्य भागमुनन्दु, जगन्ति=लोकमुलु, निवसन्ति= (प्रळयकालमुनन्दु) निन सिञ्चुचुन्नवो, तत् =अट्टि, तनुमध्यम् = दिव्यविग्रहमु यॊक्क मध्य भागमु, प्रापित, क्रशिम, किल= पॊन्दिम्पँबडिन कृशत्वमु गल दँट, हन्त = आश्चर्यमु ! विशेषमुलु :- तत्त नुमध्यम् — इदि येकपदमुगाँ गूडँ जेसिकॊनवच्चुनु. आ सुन्दर बाहुस्वामि दिव्य विग्रहमुयॊक्क मध्यभागमु अनँगा उदर मनि भावमु. हन्त—— इदि याश्चर्यार्थकमगु अव्ययमु. आश्चर्य मेमनँगा- प्रळयकालमुन सकल लोकमुलु विशालमुगा निवसिञ्चिन भगवदुदरमु कृशिञ्चि पोवुट विन्त गदा! सुन्दर बाहु स्तवमु 111 ता॥ प्रळयकालमुनन्दु समस्त लोकमुलकु निवास भूतमगु श्रीमद्वनाद्रिनाथुँडैन यन्दगाँडगु सुन्दर बाहुस्वामि मध्य भाग मॆन्तयुँ गृशत्वमु नन्दुट विन्तगा नुन्नदि. (नडुमु सन्नमुगा नुण्डुट यन्दमु) गी॥ सलिलमयमैन यामहाप्रळयमन्दु जगमुलु विशालमुग निवासम्बु सलुपु नॆलवयिन श्रीवनाचल नेत मध्य मॆन्त कृशियिञ्चियुन्नदि! विन्त विन्त. अवतारिक : — ई शोकमुन ♡ सौन्दर्यमु सनुभविञ्चु चुन्नारु. प्रति 33 11 पिष्ट दुष्ट मधुकैटभ कीटौ श्रीस्वामिवारि “यूरु हस्ति हस्तयुगळाभसुवृत्त ! राजतः क्रमकृशौ च सदूरू सुन्दरस्य वनभूधर भर्तुः ! 46 59 पिष्ट.. कीचा पिष्ट = पॊडिचेयँबडि नट्टियु, दुष्ट = ( वेबापहरणादुल चेत) दोषुलै नट्टियु, मधु, कै टभ, कीऔ पुरुगुलवण्टि मधु कैटभुलु गल वियु, ह स्ति, हस्त, युगळाभ, सुवृत्ता = एनुँगु तॊण्ड मुल जण्टव लॆँ ब्रकाशिञ्चुनवियु, मिक्किलि गुण्ड्र तनमु गलवियु, क्रमकृशौ क्रममुगा (पै नुण्डिक्रिन्दिकि) कार्श्य मुगलवियु अगु, वनभूधर भर्तुः वनाद्रि नाथुँडगु, 112 11 सुन्दर बाहु स्तवमु सुन्दरस्य सुन्दर बाहु स्वामि यॊक्क, सत्, ऊरू=“श्रेष्ठमुलगु तॊडलु, राजतः = प्रकाशिञ्चुचुन्नवि. वि शेषमुलु-—-पिष्ट दुष्ट मधु कैटभ कीणा-भगवानुँडगु नारायणुँडु वेदापहरण मॊनर्चिन शीन्द्रुलगु मधु कै टभुलनु तॊडलतोँ बॊडि पॊडि चेसॆनु. अनि पुराण प्रसिद्धि, ‘ऊरुद्व येन निष्पष्य जघान भगवान् इति क्रम कृशा एनुँगु तॊण्डमुवलॆँ बॆ नुण्डि क्रिन्दिनऱकुँ गार्श्यमुनु बॊन्दिन ननि भावमु. इट्लुण्डुट सौन्दर्य सम्पादकमु. ता॥ वेदापहरणादु लॊनर्चि दोषुलैन पुरुगुल वण्टि मधुकैटभु लनॆडु राक्षसुलनु पॊडिपॊडि चेसिनवियु, एन्गु तॊण्डमुल वलॆँ ब्रकाशिञ्चु नवियु, गुण्ड्रनिवियु, क्रमकृशमुलै नवियु नगु श्री वनगिरि नाथुँडगु सुन्दर बाहु स्वामि वारि श्रेष्ठमुलगु तॊडलु मिक्क लि प्रका शिञ्चुचुन्नवि. उ॥ दुण्डगुलैन क्षुद्रुल म धुन्. मऱि कै टभु नॊक्क सारिगाँ बिण्डियॊनर्चॆ नॆव्वि, मऱ पिं चॆडु नन्दमुनन्दु नॆव्वियु द्दण्डकरीन्द्र हस्तमुलँ दादृशमुल् वनशैल सार्वभौ मुं डगु शौरियूरुवुलु मुज्जगमुन् भ्रमियिम्पँ जेसॆडुस् सुन्दर बाहु स्तवमु 113 अव तारिक :- ई श्लोकमुनन्दु श्री स्वामिवारि जानुद्वय लावण्यमु ननुभविञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ यौवनवृष कुदो ‘द्भेदनिभं नितरां भौति विभो रुभयं जूनु शुभाकृतिकम् । सुन्दरभुजना म्नो मन्दरमथिता बे श्चन्दनवन विलसत्कन्दर वृषभप तेः ॥ प्रति :_ चन्दन. . . . .पतेः 60 चन्दन = मञ्चिगन्धपुँ नृष भाचलमुनकु जॆट्ल यॊक्क, वन = अडवितो, विलसत् = प्रकाशिञ्चॆडु, कन्दर = गुहलुगल, वृषभप तेः स्वामियैनट्टियु, मन्दर, मथित, अभेः मन्दर पर्वतमु चेतँ जिल्कँबडिन समुद्रमु गलट्टियु, सुन्दर भुजनाम्न :- सुन्दर बाहु वनॆडु पेरुगल, विभोः प्रभुवुयॊक्क यौवन, निभम् यौवन = जव्वन मनॆडु, वृष = ऎद्दुयॊक्क, ककुद मूपुरमुयॊक्क., उद्भेद= अङ्कु रमुतो (मॊलकतो) निभम् = समानमैनट्टियु, शुभ+ आकृतिकम्=मङ्गळकरमगु आकारमु गलिगिनट्टियु, उभयं, जानु=मोकाळ्ळजण्ट, नितगाम् = मिक्किलि, भाति= प्रका शिञ्चुचुन्नदि. विशेषमुलु :– यौवनवृष ककुदो द्भेदनिभम् - ककुद मनँगा— वृषभमुयॊक्क पृष्ठ मध्य भागमुन नुण्डॆडु उन्न तावयवविशेषमु. पॆनुँगुन दीनिनि मूपुर मन्दुरु. `इन्दुलकु निघण्टुवु ‘प्राधान्ये राजलिङ्गे –114 सुन्दर बाहु स्तनमु M ‘च वृषाङ्गे ककुदोऒस्त्रियाम् ’ श्री सुन्दर बहुन्नाडु वारि यन्दमुँजिल्कु मोकाळ्ळ जण्ट श्री सा श्री स्वामिहिरि यौवनवृषभमुनकुँ बॊटमरिञ्चिन बॊटमरिञ्चिन मूपुरमु मुद्दुलॊल्कुचुन्नदनि भावमु. विकी ता॥ चॆन्दिन वसम्बुलतो नन्दमुलगु कन्दर मुलुगल वनाचलमुलकु नाथुँडै मन्दरम्बुतो जिल्किन श्री सुन्दर बाहुस्वामि परि समुद्रमुनु जनुँयुगळिमु (मोँकाळ्ळजण्ट) (श्रीवारि यवन वृषभमुनकुँ बॊटन रिञ्चिन मूपुरमुवलॆ मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. उ. गन्दपुम्राँकुलन् बॊलुचु कन्दरमुल् गल काननाद्रिकं जॆन्दिन वेल्पु मन्दरमु चेँ गडलिन् मथियिञ्चु मेटिया सुन्दर बाहु चक्रधरु शोभन जूनुयुगम्बु गम्बु चॆल्व मन्दुँ ददीय यावन वृ षाग्रणिमूपुर मट्लु राजीलुन्. अवतारिक :– ई श्लोकमुनन्दु वनाद्रिनाथुनि जङ्घा ई सौभाग्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आधोमुखं न्यस्तपदारविन्दयो उरुदञ्चितोदा तीसुनाशसन्नि भे विलङ्घ्य जङ्घे क्वनु रंहतो दृश” वनाद्रिनाथस्य सुसुन्दरस्य वे॥ 61 प्रति सुन्दर बाहु सवमु 115 वनाद्रि, नाथस्य = = वनगिरिकि स्वामियगु, सुसुन्दरस्य श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, अधो मुखम् = क्रिन्दिकि _ मॊगमु गलुगुनट्लु, व्यस्त पदार विन्दयोः उञ्चँबडिन पादपद्ममुलयॊक्क, उदञ्चित, उदात्त, सु, नाळ, सन्नि भे= गुण्ड्रनि निडुदलैन यन्दमु लगु काडलतो समानमुलगु, जङ्घे= पिक्कलनु, विलङ्घ्य =अतिक्रमिञ्चि, मे= नायॊक्क, दृशा चूपुलु, क्व, नु = ऎक्कडिकि, रंहतः = वॆळुनु C विशेषमुलु :- विलङ्घ्य जङ्घे क्वनु रंहतो दृशौ’ सुन्दर बाहुस्वामिवारि जङ्घलु (पिक्कलु) अतिलोक सौन्दर्यमुगलवि गनुकँ दल्लावण्यानुभव प्रवृत्तमुलगु नाकन्नु लवयवान्तर शोभावलोकमुनकु वॆळ्ळँ जालकुन्न वनि पादमुनकुँ दात्पर्यमु. रंहतः - इच्चट रहि धातुवु गत्यर्थकमु. ता वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क यधोमुखमुगा नुन्न यडुगुँचामरलु गुण्ड्रनि निडुपैन यन्दमुलगु तूण्ड्लनु बोलिन जङ्घलनु विडिचि पॆट्टि नाकन्नुलु मऱि यॆच्चटिकिँ बोवुनु? अन्दमुल मेर यगु ना पिक्कलनु जूचुचु नन्दे युण्डुननि भावमु. गी॥ क्रिन्दि मॊग मगु पादारविन्दयुगळि वर्तुलायत नाळमुल वलॆ वॆलुङ्गु वनगिरि वसिञ्चु सुन्दर बाहुमूरि जङ्घलनु वीडि नाकनुल् सागु नॆटकु ? 116 सुन्दर बॊहु स्तवमु 4
. अवतारिक : ई क्रिन्दि श्लोकपञ्चकमुतो श्रीस्वामिन |
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पादपद्म सौन्दर्यादुल ननुभविञ्चु चुन्नारु. |
श्लो॥ सुसुन्दर स्यास्य पदारविन्दे पादारविन्दाधिक सौकुमार्ये । आतोऒन्न था ते बिभृयातो कथन्नु तदासनं नाकु सहस्रपत्रम् ॥ |
प्रती |
62 |
अस्य=ळ, सुसुञ्चगस्य = श्री सुन्दर बाहु स्वामियॊक्क, पदाग विं दे = पादपद्ममुलु, पाद, अरविन्द, अधिक, सौकुमार्ये = पादपीठमगु पद्ममुकण्टे मिक्किलि मार्दवमु गलवि, (भवतः = अगुचुन्ननि) अतः, अन्यथा= इट्लुकानि यॆडल, आसनं, नाम = पादपीठमुगा (आसनमुगा) प्रसिद्धि चॆन्दिन, तत् =आ, सहस्रपत्रम् कमलमु, ते= आपादपद्ममुलनु, कथनं ऎट्लु, बिभ्बयात्, नु= |
भरिञ्चुनु. |
विशेषमुलु :- अतो. |
“ऒन्यथा (चेत्)=पैनिँ जॆप्पिन |
दानिकि भिन्नमुगानैन यॆडल, नाम ' |
प्रसिद्धिनि सूचिञ्चु अव्ययमु. कथं बिभृया न्नु ऎट्लु धरिं |
- चुनु. श्री स्वामिवारि पादपद्ममुलजण्ट अतिसुकुमारमु रॆण्डु पादपद्ममुल कानियॆडल नॊक पादपीठकमलमु धरिम्पँ जालदनि हृदयमु. ता! श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि पादारविन्दमुलु पादपीठकमलमुकण्टे अधिक सौकुमार्यमु गलवि. अट्लु सुन्दर बाहु स्तवमु 117 कानिचोँ बादपीठमुगाँ ब्रसिद्धिगाञ्चिन कमलमु श्रीवारि वादपद्ममुलजण्ट नॆट्लु भरिञ्चँ गलदु? शा. श्री मत्सुन्दर बाहुमूर्ति पदरा जीव द्वयं बौर ! त त्स्वौमि श्रीपदपीठपद्ममुनकुन् दत्सौकुमार्यम्बुनन् वेमड्गुल् घन, मट्लुकानियॆडलन् विद्वांसुलारा ! यॆटुल् प्रति : मोयं गलुगुन् वनाचल विभू द्यत्पादपद्मद्वयिन् . श्लो॥ सौन्दर्यमार्दव सुगन्धरसप्रवाहै रेते हि सुन्दरभुजस्य पदारविञ्चे । अम्भोजडम्भ परिरम्भण मध्य जैस्थां ई द्वै पराजित मिमे शिरसा बिभर्ति f 63 ए ते ई, सुन्दर भुजस्य = सुन्दर बाहु मूर्ति यॊक्क, पदारविञ्चे पदपद्ममुलु, सौन्दर्य, मार्दव, सुगन्ध, रसप्रवाहैः = अन्दमु चेतनु, सौकु मार्यमुचेतनु, सुगन्धमु चेतनु, मकरन्दरस प्रवाहमु चेतनु, अम्भोज, डम्भ, परिरम्भणम् पद्ममुयॊक्क प्रतिपक्ष तासाम्य प्रसङ्गमुनु, अभ्यजै स्थाम्= जयिञ्चिनवि. पराजितम् = ओडिपोयिन, तत् = आयासनमुगानुन्न पद्ममु, इमे=ईपादारविन्दमुलनु, शिरसा तलतो, बिभ र्ति = मोयु चुन्नदि, वै= सत्यमु. (16) 118
- विशेषमुलु :- सुन्धर बाहु स्तवमु रसप्रवाहैः ’ ‘विष्णोः पदे — परमे मध्य उत्सः’ अनु श्रुतिलोँ जॆप्पँबडिनट्लु मकरन्द प्रवाहमनि भावमु. ‘त बॆ पराजित मि मे शिरसा बिभूर्ति, नित्यनिरवद्य, निरतिशय, सौन्दर्य, सौकुम र्य, सौगन्ध्य, मकरन्द प्रवाहमुलु गल श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि पादारविन्दमुल चेत नोडिम्पँ बडिनपै लौकिक मगु पद्ममु श्रीवारि पादपीठमुगा नवतरिञ्चि स्वामिवारि पादारविन्दमुलनु मोयुचुन्न दनि भावमु. कनुक ने ता॥ श्री सुन्दरभुजस्वामिवारि यी पादारविन्दमुलु सौन्दर्य, सौकुमार्य, सौगन्ध्य, मकरन्द प्रवाहमुल चेतँ बङ्मातिशय प्रसङ्गमुनु जयिञ्चिनवि. पराजितमगु पद्ममु देवरवारि सानपीठमुगा नेर्पडि श्रीवारि पादपद्ममुलनु नेँटिकिनि दलतो मोयु गुन्नदि. उ. अन्दमु सौकुमाग्यमु म हत्तर दिव्य परीमळम्बु मा रन्दझरम्बु गलि रुचि 1 गं बयि यॊप्पॆडु काननाट्रिसं क्रन्दनु पादपङ्कजयु गम्बुन कोडि सरोरुहम्बु सुन्दरु ‘पादपद्ममुल गोडु तलन् नहियिञ्चु नेँटिकस् . एते ते बत सुन्दराह्वयजुषः पादारविन्दे शुभे यन्नि श्लेज समुद्धीतत्रिपथगा प्रोतन्सु किञ्चित्किल सुन्दर बाहु स्तवमु ध त्ते सौ शिरसा ध्रुव सदपरं स्रोतो भवानीपति र्यस्यास्यालकनन्दि केति. निजगु र्नामैन मन्वर्थकम् ॥ प्रति : ສ 119 64 यत्, निर्णेज, समुत्थत, त्रिपथगा, प्रोतस्सु= ए देव देवुनि पादप्रक्षाळनमु चेत बयलु वॆडलिन गङ्गा प्रवाहमुलयन्दु, किञ्चित्, किल = ऒकटियगु, प्रोतः= प्रवाहमुनु, असौ=ई, ध्रुवः ध्रुवुँडु (ज्योतिश्चक्र मुन काधारभूतमुगानुन्न युत्तान पादुनिकुमारुँडु) धत्ते=धरिञ्चु चुन्नाँडो! तत्, अपरम् == आध्रुवुँडु ताल्चुप्रवाहमुकण्टॆ नितरमगु, प्रोतः = प्रवाहमुनु, भवानीपतिः = पार्वतीपति यगु शिवुँडु, शिरसा तलतो, ध त्ते=धरिञ्चु चुन्नाँडो!, यस्य = ए, अस्य=ई शिव शिरोधृतमगु प्रवाहमुनकु, (पौराणिकाः = पुराणवेत्तलु) अलकनन्दिका, इति अलक नन्दिक यनि, एनम् इट्लु, अन्वर्थ कम्=सार्थकमगु, नाम= पेरुनु, निजगुः=पलिकिरो, ते अटुवण्टियु, सुन्दर, आह्वय, जुषः = सुन्दरुँ डनॆडु पेरुनुपॊन्दिन सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, एते पादारविं दे, = पादपद्ममुलु, शुभे = = (भवतः = अगुचुन्नवि) बत = आश्चर्यमु.
ई भोग्यमुलैनवि, विशेषमुलु :- असौ ध्रुवः ज्योतिश्चक्रमुन काधारभूतुँडगु ध्रुवुँडु, ‘अलकनन्दि. केति निजगु र्नामैन मन्वर्थकम् ’ अलकं नन्दयति, इति, अलकनन्दिका शिवुँडु तलपै धरिञ्चिनप्पु डीपाय यामहेशुनलक्षल नानन्द पॆट्टुट चेत दीनिकि ‘अलकनन्दिक’ अनु पेरु सार्थकमनि भावमु. 120 सुन्दर बाहु स्तवमु एते- ते पादारविं दे गङ्ग नुत्पागिम्पँ जेयुट चेत न पै )लोक्य पावनि यगु अत्यन्त पासिसमुलैन सुन्दर आश्चर्यार्थक भुजस्वामि पादपद्ममुलु, बत आश्च र्यार्थकमगु नव्य यमु. इच्चट आश्चर्यमेमन पावनमुलगु स्वामि वारि पादाब्जमुले भोग्यमुलुगा सैति मगुटये. ता॥ ए वेल्पु पादारविन्दमुलँ गडुगुटवलन नेर्पडि मूँडु पायलतोँ ब्रवहिञ्चु मिन्नेटि यॊक पायनु ज्योतिश्चक्रमुन काधारभूतुँडगु ध्रुवुँडु धरिञ्चॆनो ! मऱियॊक पाय नळिक नन्द यनु दानि पेरु सार्थकमगुनट्लु पार्वतीपति यगु शिवुँडु शिरस्सुनँ चाल्चॆनो ! अट्टि त्रिभुवनपावनि यगु गङ्गकुँ गारणभूतमुलगु नट्टि सुन्दर बाहुस्वामि पादारविन्दमुलु भोग्यमुलै यु रारु चुन्नवि. शा. ए पादम्बुलँ गड्ड नुप्पतिलु मि न्नेर् पायलन् मूँट नॊं डौपायस् धरियिञ्चॆ नाध्रुवुँडु वे तौपाय मूर्धम्बु पै ना पादिञ्चुकोनेन् शिवुं डळिकनं दाभिख्य पॆम्पार, ना श्री पद्मेषणुपादपद्ममुलु मीं चॆन् भोग्यमुल् गा न हॆू ! 1 सुन्दर बाहु सवमु ॥ आम्नायि कल्पलतिकोत सुगन्धि पुष्पं योगीन्द्रहार्द सरसीरुह राजहंसम् । उत्पक्वधर्म सहकारफलप्रकाण्डं वन्देय सुन्दरभुजस्य पदारविन्दम् ॥ । 121 65 सुगन्धि, प्रति : आम्नाय, कल्पलतिका, उत, पुष्पम्= श्रुति यनॆडु कल्पलतयन्दुँ बॊडमिन सुवासन गल पूवुनु, (अनँगा-पूवुवण्टिदियु) योगीन्द्र, हार्द, सरसीरुह, राजहंसम् = योगीश्वरुल हृदयकमलमु नन्दु राजहंसमु वण्टिदियु, उत्पक्व धर्म, सहकार, फल, प्रकाण्डम् = परिपक्वमगु(पण्डिन) धर्ममनॆडु तिय्यमामिडि मेलिपण्डु वण्टिदियुनगु सुन्दर भुजस्य = सुन्दर भुज स्वामि यॊक्क, पदारविन्दम्=पादपद्ममुनु, वण्डेय= नमस्क रिन्तुनु गाक (लेदा) स्तुतिन्तुनु गाक. विशेषमुलु : ई शोकमुनन्दुँ गवि सुन्दर बाहु :- स्वामिवारि पादारविन्दमु श्रुतिशिरः प्रतिपाद्यमु, योगि ध्येयमु, ध्यान फल मनि मात्रमे चॆप्पक श्रुतिकल्पलता पुष्पमुगानु, योगिहृत्पद्मराजहंसमु गानु, धर्म सहकारपक्वफलराजमु गानु आरोपिञ्चि चॆप्पुटवलन श्रुति शिरस्सुल कन्दुपाटुलोनि दनियु, योगिहृदया वासर सिक मनियुँ, बरम पुरुषार्थरूप मनियु स्तुतिकर्तयभि प्रायमैनट्लु तॆलियु चुन्नदि. (17) 122 सुन्दर बाहु स्तवमु ता॥ श्रुतिकल्पलत यन्दुँ बॊडमिन सुगन्धि पुष्पमुनु, योगीन्द्र हृदयकमलमन्दु विहरिञ्चु गाजहंसम्बुनु, धर्मसहकार तरुवुनकुँ बण्डिन मेलि फलम्बु नगु श्री सुन्दर बाहुमूरि पादारविन्दमुनु नमस्करिन्तुनु गॊक. च॥ श्रुति यनु कल्पवल्लीँ बॊडँ जूपिन दिव्यसुगन्धिपुष्प मं चित निय मिन्द्रचित्त सर सीज विराजि मराळ राज मु न्नत परिपक्व धर्मशुभ नाम रसाल फलो त्तमम्बु सं श्रितजनकल्पमा वनगि रि प्रभुपादपयोज मॆन्नॆदन् श्लो॥ संसुन्दर स्यास्यतु वामनाकृते क्रमत्रयप्रार्धिनि मानसे किल । इमे पदी ताव दि हासहिष्णुनी विचक्रमाते त्रिजग तृडद्वये ॥ प्रति :- वामन X आकृतेः 11 66 ‘समना कारमुगल, अस्य=ई, सुसुन्दर स्य = सुन्दर बाहुस्वामि वारियॊक्क मानसे, तु=मनस्सन्ननो, क्रम, त्रय, प्रार्धिनि= (बलिचक्र वर्ति यॊद्दनुण्डि) अडुगुल मूँटिनि प्रार्थिञ्चुनदि काँगा, इमे ई, प दे= पादमुलु, इह ईभूमियन्दु, सुन्दर बाहु स्तवमु ’ 123 तानत् = अन्तमात्रपु नेलनु, (मूँडडुगुलनु) असहि ष्णुनी=सहिम्पनिवै, त्रिजगत् = मुज्जगमुनु, विक्रमद्वये = अडुगुल जण्टयन्दे (रॆण्डडुगुलयं दे)विचक्रमा ते किल =आक्रमिञ्चु कॊनिनवँट. वि शेषमुलु : ‘विचक्रमाते त्रिजगत् पदद्वये” वामनावतारमुन श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि रॆण्डु पादमुले मूँडुलोकमुल नाक्रमिञ्चु कॊनिनवनि वर्णिञ्चुट वलन श्रीवारि पादमुलकुँ गल याश्रित संरक्षणत्वर यटुवण्टि दनि भावमु. ता॥ वामना कारमुनु दाल्चिन श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि मनस्सु बलिचक्रवर्तिवलन मूँडडुगुल परिमिति गल भूमिनि ब्रार्थिम्पवलसि वच्चिनप्पुडु स्वामिवारि रॆण्डु पादमुलु भूमियन्दलि मूँडडुगुल नेलनु सहिम्पनिवै मुज्जगमुनु रॆण्डडुगुललोने याक्रमिञ्चुकॊनिन वँट. उ॥ वामनमूरि रूपमुन वर्तिलु सुन्दरबाहुडॆन्द मी भूमिनि ना कॊसङ्गु मॊक मूँडडुगुल् स्थल मञ्चु वेँडँगा Ф स्वामि पदद्वयं बपुडु सैपक यब्बलि विस्मयम्बुतो ने मिदि ना निमुड्चुकॊनि यॆन् द्रिजगम्मु पदद्वयम्मुनन्,124 सुन्दर बाहु स्तवमु अवतारिक :ई श्लोकमुन श्रीशु रीतुलु श्री स्वामि वारि पादाङ्गुळीनख सौन्दर्यमु नास्वादिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ सौन्दर्यसारामृतसिन्धु वीचि प्रति शेणीषु पादाङ्गुळि नामि कानु । न्यक्कृत्य चन्द्रश्रिय मात्म कान्त्या नखावळी शुम्भति सुन्दरस्य ॥ सुन्दर स्य 67 पेरुगल, सुन्दर भाहु,स्वामि यॊक्क-1 पाद, अङ्गुळि, नामि कासु = कालिव्रेळ्ळु, अनॆडु नामिकासु=कालि सौन्दर्य…श्रेणीषु. सौन्दर्य. . .श्रेणीषु— सौन्दर्य सार = श्रेष्ठमिुगु सौन्दर्य म नॆडु, अमृतसिन्धु = अमृतसमुद्रमु यॊक्क.., वीचि= तरङ्गमुल यॊक्क, श्रेणीषु= पङ्क्तुलयन्दु, सख, आनळी= गोळ्ळपङ्क्ति, आत्म, कान्त्या= तनकान्ति चेत, चन्द्रश्रियम = चन्द्र (पङ्क्ति यॊक्क) शोभनु, न्यक्कृत्य द्रॊक्कि, शुम्भति अङ्ग प्रकाशिञ्चु चुन्नदि, हि = प्रसिद्धमु. वि शेषमुलु : — ई श्लोकमुन स्वामिवारि पादाङ्गुकु लनु सौन्दर्यसारामृत सिन्धुतरङ्ग पङ्क्तुलनुगा निग पिञ्चुटवलन अन्दुँ ब्रति फलिञ्चिन चन्द्रसं क्तिगा सखावळि युत्रेणिम्पँ बडिनदि. हि— इदि प्रसिद्धि द्योतकमगु नव्ययमु. लोकमुलोँ ब्रतितरङ्गमुनन्दुनु चन्द्र बिम्बमु प्रतिफलिञ्चुट प्रसिद्धमे कदा! ता॥ श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि सौन्दर्यसार मनॆडु नमृतसमुद्रमुयॊक्क तरङ्गपङ्क्तुलवलॆ नुन्न कालिवेळ्ळ सुन्दर बाहु स्तवमु 125 यन्दलि गोळ्ळवरुस तम कान्ति चेतँ जन्द्रपङ्क्ति कान्तिनि क्रिन्दुपऱिचि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. उ॥ सुण्डं बाहु देवु मॆयि सोयगपुञ्जिगि यन् सुधाब्धिँ गन् विं दगु नूर्मिपं क्तु लनि पिञ्चु पदाङ्गुळुलन् नखाळि पॊ ल्चॆं दमलोपलन् ब्रति फ लिञ्चॆडु चन्द्रपरम्प रेन्दिरन् ग्रिन्दिकिँ द्रॊक्कि निस्तुलतँ गेरुनबल् रमणीय कान्तिचेन्, श्लो ॥ यो जातक्रशिमा मली च शिरसा सम्भाविति श्शम्भुना सोडियं यच्चरणाश्रयी शशधरो नूनं सखव्याजतः! पूर्णत्वं विमलत्व मुज्ज्वलतयासार्थं बहुत्वं तथा यात स्तं तरुषण्ड शैल निलयं वन्दामहे सुन्दरम् ॥ 68 प्रति : –— शम्भुना= शिवुनि चेत, शिरसातलचेत, सम्भा वितः = गौरविम्पँबडिन, (धरिम्पँबडिन) यः= ऎवँडु (एचं द्रुँडु) सञ्जात, क्रशिमा= पुट्टिन कार्म्यमु गलवाँडुनु (क्षयरोगमु गलवाँडुनु) मली, च कळङ्कमु गल वाँडुनु, (अभूत् =आयॆनो) सः=अटुवण्टि, अयम्= ई, शशधरः = चन्द्रुँडु, नख, व्याजतः = गोऱुल नेपमु वलन, यत्, चरण, आश्रयी= ए देव देवुनि पादमुलयण्ड गलवाँ डगुचु, पूर्णत्वम् = निण्डुतनमुनु, विमलत्वम् = निर्मलत्वमुनु, तथा= अट्ले, उज्ज्वलतया, सार्थम् www
126 सुन्दर बाहु स्तवमु प्रकाशाधिक्यमुतोँ बाटु, बहुत्वम् दश विध शरीगमुलु
गलिगियुण्डुटनु, नूनम् = निजमुगा, नूतः = पॊन्दॆनो, तरु, षण्ड, शैल, निलयम् = ननगिरि निवासमुगाँगल, तम् - आ, सुन्दरम्=सुन्दर बाहु-स्वामिनि, सन्दानु पे नमस्करिञ्चु चुन्नामु. + वि शेषमुलु :– शशधरः –
- कुन्देटिनि धरिञ्चिनवाडु- चन्द्रुँडु. बहुत्वम् सुन्दर बाहु- स्वामिवारि पाद नखमुलु पदिण्टियन्दुनु चन्द्रुँडु प्रति फलिञ्चुटचेत बहुत्वमुनु (दशविधशरीगत्वमुनु) पॊन्दि युन्नाँडनि भावमु. शिवुँडु चन्द्रुनि शिरसावहिञ्चि गौरविञ्चिननु आ चन्द्रुनि क्षीणत्वमुगानि, कळङ्कमुगानि पोयि युण्ड लेदु. आ चन्द्रुँणी कालिगोळ्ळयन्दुँ ब्रतिफलिञ्चुट यनु चेत श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि पादमुल नाश्रयिं पँगा वॆण्टने या चन्द्रुँडु परिपूर्णुँडु, निष्कळङ्कुँडु, प्रकाशाधिकुँडु, बहुत्वमु गलवाँडय्यॆनु. कनुक श्रेय स्कामुलकु सर्वशक्ति सम्पन्नुँडगु श्री सुन्दर बाहु स्वामिये याश्रयणीयुँडनि भावमु. नखव्याजमु चेत सुन्दर बाहुपादमुलु नाश्रयिञ्चिन चन्द्रुँडे यिन्त श्रेयस्सुनु जॆन्दगाँ द्रिकरणशुद्धितो श्री स्वामिवारि पाद मुल युडँ जेरिन वारिमाट वेते चॆप्पवलयुना? ता॥ शिवुनिचेत शिरसा गौरविम्पँबडियु नेचन्द्रुँडु तन क्षीणत्वमुनु, कळङ्कमुनु बायलेदो ! या चन्द्रुँ सुन्दर बाहु स्तवमु 127 डिप्पुडु पादनखमुलन्दुँ ब्रति फलिञ्चुट यनु नॆपमु चेत ने देव देवुनि पादमुल नाश्रयिञ्चि परिपूर्णतनु, निष्क शङ्कतनु, प्रकाशानिशयमुनु, बहुत्वमुनु पॊन्दॆनो वनगिरिनिवासि यगु आ सुन्दर बाहुस्वामिनि रिन्तुमु. च॥ शिवुँडु तलस् धरिञ्चिननु क्षीणत मच्चयुँ बाय कुण्डॆनो यॆवनिकिँ जन्दमाम यतँ डे परदै वमुगोळ्ळ सोकु कै तवमुनँ गालु वट्टि क नॆं दत्परिपूर्णत मच्च लेमि मेल् छवियु बहुत्वमुन् नतुलु प्रति : स्वामिकि नावनशै लवासिकिन् . श्लो॥ यस्याः कटाक्षण मनुक्षण मीश्वराणा मैश्वर्य हेतु रिति सार्वजनीन मेतत् ! श्री स्सेति सुन्दरनिषेवणतो निराहु नमस्क स्त्वां हि श्रिय श्रिय मुदाहु उदार वाचः ॥ 69 ईश्वराणाम्=(ऐश्वर्यवन्तुलुगाँ बेर्वडिन) इन्द्रादुलयॊक्क, ऐश्वर्य हेतुः वारिवारियधि कार सम्पदकुँ गारणमु, अनुक्षणम् प्रतिक्षणमुनु, यस्याः = एतल्लियॊक्क, कटाक्षणम्=क्रेगण्टिचूपु, इति, एतत् अनॆडि यी विषयमु, सार्वजनीनम् = सर्वजन प्रसिद्धमो, 128 सुन्दरणाहलु ननमु सुन्दर निषेवणतः = सुन्दर बाहुस्वामिनरी सेववलन, सा=कटाक्षमात्रमु चेतने यिन्द्रादुलकु सैतमैश्वर्य प्रचात्रि यगु नातल्लि, श्रीः इति = श्री अनि, निराहुः = निर्वचनमु चेसिरि, उदार, वाचः = गॊप्पवाक्कुलु गल वाल्मीकि यामुना चार्यादुलु, त्वाम् = निन्नु, श्रियः = अट्टि श्री देविकि, श्रियम् = श्रीप्रदुनिगा (सम्पत्प्रदुनिगा) उदाहुः, हि= पॆद्दगा ँ जॆप्पिरिगदा ! वि शेषमुलु :- ‘श्रीः इति, निराहुः’ श्री यनि निर्मि चन मॊनर्चिरि. अनँगा श्री शब्दमुन किट्लु व्युत्पत्तिनि जॆप्पिरि. अनि भावमु. श्री स्सेति सुन्दरनि षेवणतः ‘श्रिख् = सेनायाम्’ अनु ‘सेनार्धकमगु धातुवुवलन नेरु डिन श्रीशब्दमु कटा.क्षमात्रमु चेत निन्द्रादुल कट्टि यैश्व र्यमु ननुग्रहिञ्चु नैश्वर्यमु लक्ष्मी देविकि श्री सुन्दर बाहुस्वामिनि निरन्तरमु सेविञ्चुटवलनँ गलिगिनदनि हृदयमु, श्रयते - इति - श्रीः = श्री सुन्दर बाहु स्वामिनि सबा सेविञ्चुचुण्डु नदि यनि श्री शब्दमुनकु निर्वचनमु. उदारवाचः सर्वं त्यार्थ प्रद स्वप्रबन्धाः, सर्वतत्वार्थप्रद अनि व्याख्यलोँ गलदु. भगवद्वाल्मीकि यमुना चार्य यामुनाचार्य प्रभृतुल प्रबन्धमुललो समस्त तत्वार्थमुलु गलवनि तात्पर्यमु. वीरिग्रन्थमुललो श्रीदेविकि सैतमु श्रीप्रदुँडु भगवानुँडे यनु सूक्ति यॆक्कडँ गल दन्न चो- सुन्दर बाहु स्तवमु 129 ‘श्रिय श्री श्च भवे दग्र्या कीर्त्याः कीर्तिः क्षमा क्षमा’ (श्री मद्रामायणम्) ‘कः श्रीश्री श्रियः परमसत्वसमाश्रयः कः ?’ (स्तोत्ररत्नम् ) ता॥ ईश्वरुलुगाँ बेर्वडिन यिन्द्रादुल यधिकार सम्पद कनुक्षणमु नेतल्लि क्रेगण्टि चूपनुनदि सर्वजन सम्प्रतिपन्न मो सुन्दर बाहुस्वामिवारि निरन्तर सेववल न ने यातल्लिकि‘श्री’यनु नाम मन्वर्थ मनि चॆप्पुचुन्नारु. उदार वाक्कुलगु वाल्मीकि यामुनाचार्यप्रभृतु लो (श्री ! श्री सुन्दर बाहुस्वामी ! निन्नु श्रीकि सैतमु श्री वनि गट्टिगा नुडिवियुन्नारु. इन्द्रादुलकु सैतमु तन कटा शमुचेत नतिशयमुनु गूर्चु लक्ष्मिकि श्री सुन्दर बाहु स्वामि यतिशयमुनु गलिगिञ्चुचुन्नाँ डनुटचे स्वामि वारि घनति वॆल्लडियगु चुन्नदि. शा॥ देवेन्द्रादुलकल्मि कन्तटिकि ने देवी कटाक्षम्बै सं भाविम्पं बडॆ मुख्य हेतुवुग ना भव्यात्म श्रीसुन्दरुन् सेवल् ‘सेयुट ‘श्री’ यनं बठँगॆ नी सिद्धान्तमुन् बूर्वमे धावुल् चाटिरि श्रीकि श्री वनुचु ग्रं थालन् निनुं दॆल्पुचुन्. (18) 130 सुन्दर बाहु सनमु श्लो॥ दिन्याचिन्त्य महास्बुतो त्तमगु श्री सार्यावण्यक् प्रायै रद्भुत भावगर्भ सततापूर्वमु र्वश्रमः । रूपाकार विभूतिभि श्च सदृशं नित्यान सीतां श्रियं नीलां भूमि म सीदृशीं रमयिता नित्यं वनाद्रीश्वरः ॥ 70 प्रति दिव्य दिव्य आअप्राकृतमु लुनु, अचिन्त्य इट्टिवि, इन्त परिमाणमु गलवि यनि यूहिम्प शक्यमु गानिवियु, महाद्भुत = अत्याश्चर्य करमु लैनवियु, उत्तम = श्रेष्ठमु लैनवियु, अगु, गुणैः= ज्ञानशक्त्यादि, दयावात्सल्यादि, स्वरू पगुणमुल चेतनु, तारुण्य, लावण्यक, प्रायनि याननमु लाव ण्यमु वण्टि शारीर गुणमुल चेतनु, अद्भुति, भाव, गर्भ, सततापूर्व, प्रियैः=आश्चर्यकरमु लगु अभिप्रायमुलु, लोपलगलवियु नॆप्पटि कप्पुडु क्रॊत्त लनिपिञ्चुनवियुँ ब्रियमु लैनवियुनगु, विभ्र मैशि विलासमुलचेतनु, रूप, आकार, विभूतिभिः, छ स्वरूपमुचेतनु, विग्रह सन्नि वेशमु चेतनु, सम्पद चेतनु, इटुवण्टि भू देविनि सदृशीम्. = तनकुँदगि नट्टियु, नित्य, अनवेताम् = ऎन्नडुनु ऎबोयनट्टि दियु नगु, श्रियम्= लक्ष्मी ्म देविनि, ईदृशील दिये अगु, नीळाम् नीला देविनि, भूमिक, अपि = गूड, वनाद्रि’X ईश्वरः = वनाद्रिनाथुँ डगु श्रीसुन्दर बाहुस्वामि, नित्यम् = ऎल्लप्पुडु, रमयिता = रमिम्पँ जेयुवाँडु, आनन्द पॆट्टुवाँडु अनि भावमु. (भवति = अगुचुन्नाँडु)::… I सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- लावण्य मनँगा 131 अवयवसमु यनि भावमु, दायशोभ— सततापूर्व…… निरन्तर मनुभविञ्चु चुन्ननु भोग्यतातिशयमुचेत ऎन्नँडु ननुभविम्पँ बडनि वानिवलॆँ क्रॊत्तलुगाँ गनँ बडुनवि. विभूति सम्पद…’ उभय विभूत्यैश्वर्यमु, सदृशीम्- ‘तुल्यशीलव यो वृत्तां तुल्याभिजनलक्षणाम् राघवो ऒर्हति वै देहीं तं चेय मसितेक्षणा’ अनि सीतारामुल यॆडलँ जॆप्पिनट्लु सर्वप्रकार सादृश्यमुलतोँ गूडिनदि नित्यान पेताम्— ’ राघनत्वे भवेत् सीता ! रुकि रुक्मिणी कृष्णजन्मनि अन्येषु चावतारेषु विष्णो रेषा2नपायिनी’ अन्नट्टु लॆन्नँडु नॆडँ बायनिदि अनि आशीयमु. ‘श्रियं नीलां भूमि मपीदृशीं रमयिता नित्यंवनाद्रीश्वरः’ श्री सुन्दर न्दर बाहुस्वामि श्री भूनीललनु सन्तोष पॆट्टु चुन्नाँ डनुटवलन श्रीस्वामिवारि पादार विन्दमुलनु शरणुचॊच्चु वारिकिँ बुरुषकार सान्निध्यमु समृद्धिगाँ गलदनि सूचिम्पँ बडिनदि. ता॥ अप्राकृतमुलुनु इट्टिवि यिन्त परिमाणमु गलवि यनि चिन्तिम्प नलवि कानिवियुँ गनुकने याश्चर्यमुनु गलिगिञ्चुनवियु नुत्तममुलै नवियु नगु ज्ञानानन्द शक्त्या मुलु दयावात्सल्यादुलु नगु स्वरूपगुणमुल चेतनु तारुण्यमु लावण्यमु मुन्नगु विग्रहगुणमुल चेतनु अद्भुत भावगर्भितमुलुनु अनुभविञ्चिन कॊलँदि नित्यनूत 132 सुन्दर बाहु स्तनमु नमु लनिपिञ्चॆनु कोरँदगिन विलासमुल चेतनु, सौन्दर्यमु चेतनु, आकृतिवि शेषमु चेतनु, उभय व्यश्वर्यमु चेतनु तन कॆन्तयुँ दगिन श्री देविनि अट्टिना गे प्रति भू देविनि नीला देविनि श्रीवनाद्रिना सँ डनु मुन्दु बावलु स्वामि नित्यमु रमिम्पँ जेयुनु. शा॥ औरा ! दिन्यमु अद्भुतम्बुलु नचिं 1 त्यम्बुल् शुभम्बुल् मू दारम्बुल् सहजम्बुल्” गुजमुलसि दारुण्यलावण्य नि स्तारश्री स्पृहणीयनूतन एला सस्फूर्ति ँ दुल्यात्मलन् श्री रामन् महिनीललस् दनि पॆडुस् अवतारिक :- श्रीसुन्दरुं चॆप्पुडुन्. अत्यन्ताप राधुलनै ननु मिञ्चिनगु शनि लक्ष्मी ्म देवि नुडिविनचो भगवानुँ जमाट नादरिञ्चु ननु नभिप्रायमु नी श्लोकमुन ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. प्रति श्लो॥ अन्योन्यचेष्टित निरीक्षण हार्दभाव प्रेमानुभाव मधुर प्रणय प्रभावः । आजस्रनव्यतर दिव्यर सानुभूतिः स्वां प्रेयसीं रमयिता वन शैलनाथः ॥ 71 पर अन्योन्य.. -प्रभावः अन्योन्य ‘स्परमु, चेष्टित=बॊममुडि, चिऱुनव्वु मॊदलगु विलास सुन्दर बाहु स्तवमु व्यापारमुल चेतनु, निरीक्षण
- हार्द = हृदयमुलोनि, भाव
- 133
- क्रेगण्टिचूपु चेतनु,
- अभिप्रायमु चेतनु
- (कारुण्य, लावण्यादुलनु तलपोयुट चेतनु) प्रेमानु भान= प्रेमातिशयमुचेतनु, मधुर स्वादुतर मैन, (तेनॆवलॆ ननुभविम्पँदगिन) प्रणय प्रभावः = अनुरागाति शयमुगल, वन शैलनाथः वनगिरिप्रभुवगु श्री सुन्दर भुजस्वामि, आजस्र, नव्यतर, दिव्यरस, अनुभूतिः ऎल्लप्पुडुनु अपूर्वमगु अप्राकृतानन्दमुल यॊक्क अनुभवमु कलवाडु सन् = अगुचु) स्वाम्= स्वकीय यगु, प्रेयसीम् प्रियुरालिनि, रमयिता = सन्तोष पॆट्टुवाँडु, भवति= अगुचुन्नाँडु.
- विशेषमुलु :.. प्रेमानुभाव = प्रेमातिशयमु- अनँगा, आलिङ्गन कालमन्दु सैतमु सौकुमार्य परा मग्शमु, प्रणयानि राधमुल लॆक्क चेयकुण्डुट, प्रेमां ध्यमु. स्वां प्रियनं गमयि ता’
- ई विषयमुन
- गाम स्तु सीत नू सार्धं विजहार बहून् ऋतून् । मनस्वी तग्गत स्तस्यां नित्यं हृदि समर्पितः, प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इतिगुणात् रूपगुणा च्चापि प्रीति र्भूयो__प्यवर्धत, तस्याश्च भक्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते ।
- ते अन्तर्जात मपि व्यक्त माख्याति हृदयं हृदा’ इत्यादि श्रीमद्रामायण श्लोकमुलु प्रमाण
- मुलुगा ननुसन्धेयमुलु.
- H134
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ता॥ परस्परमुयॊक्क भूभङ्गमन्द हासादि विलास व्यापारमुल चेतनु, क्रेगण्टिचूपुल चेतनु, तारुण्य लावण्यादुल तलसोँतल चेतनु, प्रेमातिशयमु चेतनु, तेनॆवलॆँ ग्रोलँदगिन यनुरागातिशयमु गल श्रीवनाद्रि नाथुँडु ऎप्पटि कप्पु डपूर्वमुगा नॊप्पुअप्राकृता नन्दानुभवमु गलवाँडै तन प्रियुरालिनि रमिम्पँ जेयुनु.
- T
- म॥ चिऱुनव्वुल् कडगण्टि चूपुलु नय
- ၁၂ သ
- मिञ्चुलावण्य वि
स्फुरणम्बुल् दलपोसिकॊण्ट सरसं पुञ्जिन्नि क य्यम्बुलन् बरिकम्भम्बुल नॊच्चुकोनिगतुलुन् भासिल्लु प्रेमोन्नतिन् सिरि नात्माङ्गनँ जॊक्कँ जेयु हरि श्रीसुन्दरुं डॆप्पडुन्. प्रति : सुन्दरस्य वनशैलवासिनो भोग मेप निजभोग माछजन् । शेष एष इति शेषताकृतेः प्रीतिमा नहिपति सस्वानामनि 72 वनशैलवासिनः = वनगिरिनिवासि यगु, सुन्द
रस्य = श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि, भोगम्, एव भोगसाधनमे यगु, निज, भोगम् = तन शरीरमुनु, आभ सुन्दर बाहु स्तवमु 135 जन् = पॊन्दुचु, अहपतिः सर्पराजु, शेषता, आकृत्ये = शेषत्वाकारमुवलन, एषः = इतँडु, शेषः = श्रीहरिकि शेषभूतुँडु, (आदिशेषुँ डनि अर्थान्तरमु) इति= अनि, स्वनामनि=तन पेरुनन्दु, = तन पेरुनन्दु, प्रीतिमान् प्रीति गलवाँडु, (भवति = अगुचुन्नाँडु). वि शेषमुलु :- ‘भोग मेव निजभोग भजन्’ भोग मेव - अनुचोट कार्यमुनन्दु कारणत्वोपचारनु चेत भोग कारणमनि यर्दमु चॆप्पुकॊनवलॆनु. लेदा भोग Ф Ф शब्दमु ’ सुखप र्यायमु गान सुखकरमनि यर्दमु गूड सुखपर्याय सङ्गतमगुनु. मॊत्तमुमीँद नीपादमुनकु सुन्दर बाहु स्वामिकि सुखशय्य भूतनिजशरीरुँ डनि पिण्डितारमु. 3_4 पादमुल भाव मे मनँगा अहिपति (सर्पराजु) तनभोगमु (शरीरमु) श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि भोग कर मगुटवलन ई विधमुगा शेषत्वमु सिद्धिञ्चुट चेत सार्थकमगु शेषुँडनु नाममुनन्दुँ बरमपुरुषार्थबुद्धि गलवाँ डायॆननि भावमु. ‘परग तातिशयाधा नेच्छयो पादेयत्वमेव यस्य स्वरूपं स शेषः परः शेषी. अनि शेष शेषि भावमु नॆऱुङ्ग’ वलॆनु. Ф Ф ता॥ वनगिरिनिवासि यगु सुन्दर बाहुस्वामिवारि भोग साधनमुनुगाँ दनभोगमुनु (शरीरमुनु) धरिञ्चुचु सर्प राजु शेष शेषत्वाकारमु (दास्यस्वरूपमु) सिद्धिञ्चुटवलन 136 सुन्दर बाहु स्तनमु I ‘इतँडु ‘शेषु’डनि यॆलगु सनुकॊ नेडु तननाममुन नॆन्तयुँ ब्रीतिगलवाँ डायॆनु. च पनगिरिवासि यैन सुं नन्द्युँडु सुन्दर् बाहुमूर्ति क्लिस् जनदुशरीरि मॆन्तयु नु गत दात्तसुकोमल वाळुः क्युगाल दनरुचु शेष ताकृतिनि दाल्चुट नीतँडु शेषुँ डिं चनन् मनमुनँ बॊङ्गिपोवु सिह मण्डनुँ जयभिधान मूसँगन्. श्लो॥ वाहनासन वितान चामरा नै द्याकृतिः खगपति स्त्रयीमयः । नित्यदास्यरति रेव यस्य “ह्येष सुन्दरभु” वनाद्रिगः ॥ 73 प्रति : :– वाहन, आसन, वितान, नामु, आदि, आकृतिः = वाहनमु, आसनमु, चान्दिनि (मीलुकट्टु) विञ्जूनु र
मुलु, मॊदलुगाँ मॊदलुगाँ गलवानि यॊक्क माकारमुवण्टि याकारमुगलवाँ डगु, त्रयीमय्य वेदस्वरूपुँ डैन, खगपतिः=पक्षुलकु राजगु गरुत्मन्तुँडु, यस्य ए सुन्दर भुजस्वामियॊक्क, नित्यदास्य, गतिः, एव नित्यमु कैङ्कर्यमुनन्दु आसक्ति गलवाँडे, (अनि) पै प्रसिद्धमो, एषः=ई सुन्दर बाहुस्वामि, वनाद्रिगः, हि=वनाद्रि यं दुण्डुवाँडे गदा ! पै ’ सुन्दर बाहु स्तवमु " 137 वि शेषमुलु :— वाहनासन… आकृतिः ’ दास स्सखा वाहन मासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयी मयः’ अनि स्तोत्ररत्नमुनँ जॆप्पिनट्लु वाहनाद्या कारमु गलवाँडनि भावमु. त्रयीमयः — ’ वेदात्मा विह गेश्वरः ’ अनि प्रमाणमु. हि - वेदस्वरूपुँडगु गरुत्मन्तुनिचे निरन्तरमु सेविम्पँबडु पादार विन्दमुलु गल सुन्दर बाहुस्वामि अन्दऱकु सुलभुँडुगा नुण्डुटकै वनशैलमुन वेञ्चेसियुन्नाँडनि प्रसिद्धार्थकमगु ‘हि’ अनु अव्ययमुनकुँ दात्पर्यमु. ता॥ वाहनमु, आसनमु, मेल्कट्टु, विञ्जामरमुलु ‘मॊदलगु वानि याकारमुलँ दाल्चि वेदस्वरूपुँडगु गरुत्मन्तुँ डे सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क नित्यकैङ्कर्य निरतुँडै युण्डुनो यास्वामि यन्दऱकु नन्दु बाटुन कै वनगिरियन्दु वेञ्चेसि युन्नाँडु. ऎन्त भक्तसुलभुँडु ! च. ऒक परिवाहनम्बु, मऱि यॊक्क पुडासनमुन्, वितान मिं कॊकतऱिँ, जूमरम्बु मऱि यॊक्कपु, डौचुँ द्रयीमयुण्डु प क्षिकुलविभुण्डु नित्यमुनु सेव यॊनर्पँग नॊप्पु देवता मकुटमु काननाचलमु मन्किग नुण्डुट, भाग्य मॆन्तयुन्. (19) 138 प्रति :- सुन्दर बाहु स्तवमु वनाद्रिनाथस्य सुसुन्दरस्य वै प्रभुक्तशिष्ट श्यध सैन्यसत्पतिः । समस्तलो कैक धुरन्धरः सदा कटाक्ष वीक्ष्योऒस्य च सर्वकर्मनु ॥ 1 74 अथ अनन्तरमु, सुसुन्दरस्य = मिक्किलि अन्दगाँडगु, वनाद्रि, नाथस्य वनगिरिप्रभुनगु, सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क, प्रभुक्त, शिष्ट, अशी= भुजिञ्चि विडिचि पॆट्टिन शेषमुनु भुजिञ्चुनट्टियु, सर्वकर्मसु=सकलजगत्’ सृष्ट्यादि व्यापारमुलन्दु, अस्य = ईवनाद्रि नाथुनकु, कटाक्ष वीक्ष्यः = क्रीँगण्टिचूपु चेँ जूडँदगिन वाँडुनु, अगु, सैन्य, सत्, पतिः= योग्युँडगु सेनाधिपति, सदा- ऎल्लप्पुडु, समस्त लोक, एक, धुरन्धरः = उभयविभूतुल मुख्यकैङ्कर्य निर्वाहकुँडु, वै= प्रसिद्धमु.
विशेषमुलु :- प्रभु क्तशिष्टाशी— ‘त्वदीय भुक्तो त शेषभोजिने’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु भगवदनुभूत शेषमु ने अनुभविञ्चुवाँ डनि भावमु. ‘कटाक्ष वीक्ष्यः’ - ‘‘सेना पतिना निवेदितं, तथा… सुजानन्त मुदारवीडु’ अन्नट्लु इङ्गितपात्रुँ इङ्गित पात्रुँ डनि तात्पर्यमु. सैन्यसत् पतिः- इतर सेनापतु लुन्ननु इतँडे यन्दऱिलोनु श्रेष्ठुँडनि याश यमु, वै प्रसिद्धमु, ऎवनि श्रेष्ठुँडगु सेनाधिपतिये सर्वनिर्वाहकुँडो! आ प्रभुवे यन्दऱकु सुलभुँडनि हृदयमु, । … सुन्दर बाहु स्तवमु 139 ता॥ मिक्किलि अन्दगाँ डगु वनाद्रिनाथुँडैन सुन्दर भुजस्वामिवारि भुक्त शेषमु नारगिञ्चुवाँडुनु, सृष्ट्यादि सकलव्यापारमुलन्दुनु श्री स्वामिवारिकिँ गटाक नीकु णीयुँडै यिङ्गितानुसारमु मॆलँगुवाँडुनु सेनाधिपतु ललो मुख्युँडैन विष्वक्सेनुँडु ऎल्लप्पुडु नुभयविभूतु ललो मुख्यकैङ्कर्य निर्वाहकुँडनु प्रसिद्धिनि वहिञ्चॆनु. ता नॊनर्चुपनुल नन्निण्टिनि सेनाधिपतिये चूचुकॊनिपोवु चुन्नप्पु डाप्रभुवु मिक्किलि विश्रान्ति गलवाँडै भक्तुलकु सुलभुँडुगा नुण्डुननि सारमु, उ॥ सुन्दरमूर्तितो ँ दनरु चुन् वनशैलमु नेलु देवता वन्दित पादपद्मुँ डगु वारिजलोचनु भुक शेष मे विन्दुगँ दज्जगत्सृजन विश्रुतकृत्यमुलन्दुँ दत्कटा क्षेन्दिर स्वागतम्बुँ गॊनु ♡ नीप्रभु सैन्यविभुण्डु सेवलस्. श्लो ॥ छत्रचामरमुखाः परिच्छदाः नूरयः परिजना श्च नैत्यगाः ! सुन्दरोरुभुज मिन्ध ते सदा ज्ञानशक्ति मुखनित्य सद्गुणाः !! 75 प्रति : नैत्यगाः नित्यकैङ्कर्यमु नॊनर्चॆडु, सूरय्य- ज्ञानुलैन, (शेषि हृदयमु नॆऱिङ्गिन) परिजनाः 140 सुन्दर बाहु स्तनमु अनन्तगरुडादि सेवकुलु, छत्र, तामर, मुखाः छत्रमु (गॊडुगु) विञ्जामरलु मुन्नु गॊँगल, परिच्छदाः, च= परिकरमुलुनु, ज्ञान, शक्ति, मुख, नित्य, स, गुणाः ज्ञानमु, शक्ति, मुन्नु गाँगल स्वाभाविक कल्याणगुणमुलुनु, सदा= ऎल्लप्पुडु, सुन्दर, उरु, भुजमु = सुन्दरि’बाहु स्वामिनि, (प्राप्य = पॊन्दि) इन्धते = प्रकाशिञ्चुचुन्नवि. विशेषमुलु :– नैत्यगाः – सत्यम्भ वमु == अनँगा नित्यकैङ्कर्य मनि भावमु. अत् गच्छलो, इति, नैत्यगाः =नित्यकैङ्कर्यमुनु पॊन्दिनवाडु. ( दुलु) इन्धते - प्रकाशिम्पँ जेयुचुन्नवि, अनु अर्दमु चॆप्पुटकु वीलुगादु. णिजन्तमु (परणार्धकमु) कादुगनुक - मऱियु ‘गुणजं गुणिनो हि मङ्गळत्वमु’ इत्यादिसूर्तु लकु विरोधमुगूड वच्चुनु. कॊन ‘प्राप्य’ अनुल्य बन्तमु नध्याहार मॊनर्चुकॊनि श्लोक मन्वयिञ्चवलॆनु. ता॥ नित्यकैङ्कर्यनिष्ठुलगु अनन्तगगुडिदि नित्यसूरु लगु परिजनुलुनु, ‘छत्रचामर प्रभृतु लगु परिकरम्बुलुनु, ज्ञानशक्ति मुख्यमु लगु कल्याणगुणमुलुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि यण्ड चेत सर्वदा प्रकाशिञ्चु चुन्नवि. गी नित्यकैङ्कर्यनिरतुलै नॆगडु सूरि वरुलु, धवळातपत्रचामर मुखमुलु ज्ञानश क्ति प्रभृत्युरु सद्गुणमुलु श्रीवनाद्रीशुँ जेरि राजलु सतम्बु, ॥ प्रति : सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ द्वार नाथ गणनाध तल्लजाः पारिषद्य पदभागिन स्तथा ।
- 141
- 76
- मामका श्च गुरपः पुरातनाः सुन्दरं वनमहीध्रगं श्रिताः ॥ द्वारनाथ, गणनाथ, तल्ल जाः = श्रेष्ठुलगु चण्डप्रचण्डादि द्वार पालुरु, कुमुद, कुमुदा मोदि गण पालुरु, अनु पारिषद्य, पद, भागिनः = आस्थानोद्योगु ल नॆडु शब्दमुनु बॊन्दिनवारुनु, तथा=अट्ले, पुरातनाः = प्राचीनुलगु, मामकाः = नासम्बन्धुलैन, गुरुवः, च = गुरुवुलुनु (पराङ्कुश, परकाल यति वरादुलुनु) वन, महीध्रगम् = वनगिरियन्दु वेञ्चेसियुन्न, सुन्दरम्= सुन्दर भुजस्वामिनि, श्रिताः = आश्रयिञ्चिरि.
- विशेषमुलु : ‘द्वारनाथ गणनाथ तल्लजाः’ इन्दलि श्रेष्ठवाचक मगु तल्लजशब्दमुनु द्वारनाथ, गणनाथपदमु लतोँ ब्रत्येक मन्वयिञ्चुकॊनवलॆनु. अन्दुवलन- श्रेष्ठु लगु चण्ड प्रचण्डादि द्वारपालकुलु, श्रेष्ठुलगु कुमुद, कुमुदा दिगणपालकुलु- अनि यर्ग मेर्पडुनु. ‘सुन्दरं वन महीध्रगं श्रिताः’ द्वारा पालुरु गणपालुरु, आस्था श्री नोद्योगि प्रमुखुलु मा पूर्वाचार्यवर्युलुनु सुन्दर बाहुस्वामिने निरन्तरमु सेविञ्चु चुन्नारनि
- भावमु,
- ता॥ श्रेष्ठुलगु चण्डप्रचण्डादि द्वारपालकुलु, कुमुद कुमुदाĪगादि गणपालुरु, आस्थानमुख्युलु, मा पूर्वा
- 142
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- चार्यवर्युलु, वनशैलमुन वेञ्चेसियुन्न श्री सुन्दर बाहुस्वामिने निरन्तरमु आश्रयिञ्चि सेविञ्चु चुन्नारु. म. अलचण्डुण्डु प्रचण्डुँडादि यगुद्वाराधीशुलुस् सद्गु दुल मे लौकुमुद प्रधानगणनाथुल् पारिषद्याग्रग ण्युलु, प्राचीन मदीय देशिकव रेण्युल्, श्रीवनाद्रीश्वरस् जलजाताक्षुसमाश्रयिञ्चिरिरमासं भावितुस् सुन्दरुस्.
- प्रति :
- श्लो।॥ ईदृशैः परिजनैः परिच्छदै
- र्नित्यसिद्ध निजभोग भूमिगः । सुन्दरो वनगिरे स्तटीषु वै राज्यते सकलदृष्टिगोचरः ॥
- ईदृशै ः = इटुवण्टि, परिजनैः
- +
- 77
- अनन्तगरु
- डादि परिजनुलतोनु, परिच्छदैः = छत्रचामरादि परिकरमु लतोनु, नित्यसिद्ध, निज, भोगभूमिगः = ऎल्लप्पु डॊ"कि विधमुगा नुण्डु सहजमगु (तनकु मात्र परिमितमैन) नित्य विभूतिनि पॊन्दिन वैकुण्ठनाथुँडु, सकल, दृष्टि, गोचरः ऎल्ल वारिकनुलकु गोचरिञ्चुचु, सुन्दरः (सन् ) = सुन्दर बाहु
- सुन्दरः(सस्) मूर्ति यगुचु, वनगिरेः= वन शैलमुयॊक्क, तटीषु= चरियलयन्दु, रज्यते = अनुरक्तुँडगुचुन्नाँडु, पै
- प्रसिद्धमु.
- विशेषमुलु :
- तेज
- नित्यसिद्धनिजभोगभूमिगः…
- श्लो॥ वैङ्कुण्ठेतु परे लोके श्रिया सार्धं जगत्पतिः
- आस्ते विष्णु रचिन्त्यात्मा भक्ति र्भागवतै स्सह॥
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 143
- ता॥ परमपद मगु वैकुण्ठमुनन्दु जगदीश्वरुँडुनु अचिन्त्य स्वरूपुँडुनगु श्री मन्नारायणमूर्ति लक्ष्मी समेतुँडै भक्तुलतो भागवतुलतो नुण्डुनु अन्नट्लु दिव्यविभूतिलो वेञ्चेसियुन्न श्री वैकुण्ठ नाथुँडु. नित्य निरवद्यनित्यसूरिपरिवृत परमपदनिलयुँ डनि निष्कृ ष्टार्थमु. 1. न चतुषा पश्यति कश्च नैनम् 2. न मांस चक्रपै रभिवी ते तम् 8. द्रष्टव्यः श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासित व्यः अन्नट्लु दुर्लभदर्शनुँडै ननु अव्याजकरुण चेत वनगिरि प्रान्तमुन सकल जन नेत्रगोचरुँ डगुट सुन्दर बाहुस्वामि सौलभ्यमुनु चाटुचुन्नदि.
- ता॥ इट्टि भागवतो त्तमुलगु शेषगरुडादुलतोनु, इटु वण्टि छत्रचामरादुलतोनु गूडि शश्व देक प्रकारमुगा नुण्डु नित्यविभूतिलो महानन्द मनुभविञ्चु वैकुण्ठ नाथुँडु सकलजनदृग्गोचरुँडै सुन्दर बाहुमूर्तिगा वनगिरि सानुवुल ननुरक्तुँडै विहरिञ्चु चुन्नाँडु. ऎन्त भक्त सुलभुँडु !
- उ. इट्टि विशिष्ट भागवतु लीदृश दिव्यपरिच्छदम्बु लु
- न्नट्टि स्वदिव्यलोकमुन नङ्गनतो सुखया सुपर्वस म्राट्टु वनाद्रिभू परिसरम्बुन सुन्दरुँडै चरिञ्चुचुन् बुट्टुवुधन्यमुन् सलुपुँबो! प्रजकुङ्गनुविन्दॊनर्चुचुन्.144
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- अवतारिक : नरमपदमुनं दप्राकृत दिव्य भोग लकु
दिन्यभोग नकु, वनाद्रिनिवासमु वैरस्यमुनु कलिगिम्पदा? अनु शङ्क नी श्लोकमुनँ बरिहरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आक्रीडभूमिषु सुगन्धिषु पौष्पिकीषु वैकुण्ठधामनि समृद्धनु वापी कासु । श्रीमल्लतागृहवतीषु यथा तव लक्ष्मीधरः सजति सिंहगिरे स्तटीषु । 78 शोभ प्रति-— सैकुण्ठधामनि = कुण्ठलोक मुनन्दु, समृद्ध कुण्ठलोकमुनन्दु, सुवापि कासु= (अमृतमुवण्टि नीटितो) निण्डिन मञ्चि दिगुडु बावुलु गलिगिनट्टियु, श्रीमत्, लतागृहवतीषु गल पॊदरिण्ड्लु गलवियु, सॊप्पिकीषु = पुष्पमुलतोँ दुलँ दूगुनवियु (कनुकने) सुगन्धिषु - सुवासन गलवियुनगु, आक्रीड भूमिषु=उद्यानभूमुलन्दु, लक्ष्मीधरः = श्रीपति, यथा=ऎट्लु, सजति = आसक्तुँडगु चुन्नाँडो, तथा, एव =अट्ले, सिंहगि रे = वनाद्रियॊक्क, तटीषु यन्दु, सजति आसक्ति गलवाँडगु चुन्नाँडु. चरियल विशेषमुलु :– ‘तथैव लक्ष्मीनर’ सृजति सिंहगिरे _स्तटीषु ’ वैकुण्णोद्यान भूमुलवलॆने वनाद्रिकानन भूमुलु श्री सुन्दर बाहुस्वामिकि भोग्यता पात्रमु लगु चुन्नवनि भावमु. ता॥ श्री मन्नारायणमूर्ति ‘सकुण्ठलोकमुन अमृतमुवण्टि नीटितो निण्डिन दिगुडु बावुलु शोभाय सुन्दर बाहु स्तवमु ♡ 145 मानमुलगु लतागृहमुलु (पॊदरिण्ड्लु) सुगन्धिपुष्प मुलु गलिगिन पूँदोँटलयन्दॆ ट्लनुरक्तुँडै युण्डुनो यट्ले सकलभोग्यता समृद्धिगल वनगिरि तटमुलन्दुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि यनुर क्तुँडै विहरिञ्चु चुण्डुनु. च. परमपदम्बुनन् जॆऱकुँ बा नकमुन् मऱपिञ्चुनीटितो वर लॆडु दीरिकल्, सिरिकिँ ब ट्टगु मेल् पॊदरिण्ड्लु पुष्पमं जरुलघुमं घुमल् मदिकि सन्तसमाँ बुवुँदोँटलन्दु श्री हरि यॆटॊ ! यटे सुन्दरुँडहा ! विहरिञ्चु वनाद्रि सीमलन्. प्रति : 33 श्लो॥ आनन्दमन्दिर महामणि मण्डपान्त र्लक्ष्म्या भुवा प्यहिपतौ सह नीलया च । निस्सङ्ख्य नित्यनिजदिव्य जनैक सेव्यो नित्यं वसन् सजति सुन्दरदो र्वनादौ ॥ 79 आनन्द……अन्तः - आनन्दमन्दिर = आनं
दोत्पत्ति गृहमगु, महत् = पॆद्द, मणी, मण्डप, अं तः=मणुलु चॆक्किन, वॆय्यि स्तम्भमुल मण्डपमुलोपल, अहिपतौ=सर्पराजगु शेषुनियन्दु, लक्ष्म्या= लक्ष्मी देवि तोनु, भुवा अपि=भू देवितोनु; नीलया, चजनीला देवि तोनु, वसन् निवसिञ्चुचु, निस्सङ्ख्य, नित्य, निज, दिव्यजन, (20) 146 सुन्दर बाहु स्तनमु एक सेव्यः=== लॆक्ककु मिञ्चिन, तन अप्राकृतुलगु परिजनुलकु मात्रमे अनुभविम्पँ दगिनवाँडै, सुन्दरगोः = सुन्दर बाहुन्वामि, वनाद्रौ=वनगिरियन्दु, नित्यसु= ऎल्लप्पुडु, सजति = युन्नाँडु. आ कु ม विशेषमुलु :‘आनन्दमन्दिर महामणि मण्ड पान्तः’ स्वरूपरूपगुणविभूति नित्यमुक्त संयुक्त भगवदनुभव जन्यम हानन्दमुनकुँ बुट्टिनिलैन वॆय्यि स्तम्भमुल पॆद्द मणिमण्डपमु मध्य भागमुनं दनि भावमु. नित्यं वसन् सजति सुन्दरदो र्वनाद्रि र्वनागौ— पत्नी परिजनादुलतो नित्य निवासयोग्यमगु वनगिरि, सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि आनन्द मन्दिरमहामणिमण्डपमुकण्टे अत्यन्त भोग्यमुगा नुन्न दनि तात्पर्यमु. ता।॥ भगवदनुभवजन्य महानन्दमुनकुँ बुटिनि लगु वेयि स्तम्भमुलु गल मह त्तरमगु मणिमण्डपाद"न मध्य भागमुनन्दु शेषपर्यङ्कमुन श्रीभूनीला समेतुडन लॆक्ककु मीऱिन यप्राकृतुलगु निजपरिजनम्बुल चेत ‘सेव्य मानुँडगु वैकुण्ठपति सुन्दर बाहु स्वामियै नित्यमु वनाद्रियं दास क्तुँडै युन्नाँडु. शा. आनन्दै कनिधान रत्नमय दि व्य स्तम्भ^बाभासुरा स्थानीमण्डपमध्यमन्दु नहिरा ट्रल्पम्बुनन् श्रीरमा सुन्दर बाहु स्तवमु म्मोनीलल् भजियिम्पँ गिङ्कर ततुल् कै वारमुल् सल्पँगा श्रीनाथुं डॆटॊ सुन्दरुं डटॆ वना द्रिन् ग्रीडँ गाविञ्चॆडुन् . 3 प्रत्यर्थिनि त्रिगुणक प्रकृते रसीम्नि वैकुण्ठधामनि पराम्बर नाम्नि नित्ये । नित्यं वसन् परमसत्वमये व्यतीत योगीन्द्रवाङ्मनस एष हरि र्वनादौ ॥
a. 147 80 प्रति-—— परम, सत्व, मये= शुद्धसत्वमय मैनट्टियु, (कनुकने) त्रिगुणक, प्रकृतेः सत्वरज स्तमोमय मैन मूलप्रकृतिकि, प्रत्यर्थिनि प्रतिभट मैनट्टियु, (विरोधि यैनट्टियु) असीम्नि = हद्दु लेनट्टियु, पर, अम्बर, नाम्नि = परमाकाश मनु पेरुगलट्टियु, नित्ये = सनातन मैन ट्टियु, वैकुण्ठधामनि वैकुण्ठलोकमुनन्दु, नित्यम्== ऎल्लप्पुडु, वसन् = निवसिञ्चुचु, अतीत, योगीन्द्र, वाङ्म नसः, अपि = योगीन्द्रुल वाक्कुलकु मनस्सुनकु अन्दनि वाँडैननु, हरिः = श्रीमहाविष्णुवु, वनाद्रौ= वनगिरि यन्दु, एषः = इतँडे यनि व्रेलितोँ जूपँदगिनवाँडु, (प्रत्यक्षार्हुँडुगा नुन्ना ँडुगा नुन्नाँडनि यर्थमु). विशेषमुलु :- असीम्नि=अपरिच्छिन्न परिमाणमुगल, अतीतयोगीन्द्र वाङ्मनसः अपि= अपरिच्छेद्य स्वरूपगुण विभूत्यादुलु गलवाँडैननु, ‘अतीतयोगीन्द्रवाङ्मन’ने, 148 सुन्दरबाहु स्तवमु अनि पदच्छेद मॊनर्चिनपुडु पैकुण्ठलोकमुनकु विश्लेषण मगुनु, ता॥ शुद्धसत्वमयमुनु त्रिगुणस्वरूप मगु प्रकृतिकिँ ब्रतिभटमुनु, अपरिच्छिन्न परिमाणमु गलदियु, पगमा काशमनँबडु नित्यमगु वैकुण्ठमुन नित्यनिवासिनु योगी श्वरुलवाक्कुलकु मनस्सुनकु नन्दनि वाडैन श्रीपति वनगिरिलो नितँडे यनि चूपुटकु वीलै मन्दटिक दृग्गो चरुँ डगु चुन्नाँडु. म. परिमाणं बतिमात्रमै प्रकृतिकिं ब्रत्यर्थिभूतम्बु नै वरसत्वस्फुर णाञ्चितम्बु नयि भा स्वद्रूपमै नित्यमै परमाशाश पदाभिधेय मगु श्री वैकुण्ठमन्दुन् मुनी श्वर वाज्मानसदूरुँडे” हरि यिटस् ब्रत्यक्षदृश्युं ड हॆू ! होला अवतारिक :– ई मीँद श्रीवारि लीला विभूति योग मुनु श्लोकद्वयमुतोँ जॆप्पुचुन्नारु. I श्लो लो कांश्चतुर्दश दधत् कील सुन्दरस्य पङ्क्ती गुणो तरितसप्तवृ तीद मण्डम् । अव्यानि चाप्य ससदॄंशि. परश्शतानि क्रीडाविधे रिह परिच्छदता मगच्छन् । विभूतियोग 81 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु 149 चतुर्दश पदुनालुगु, लोकान् = लोकमु लनु, दधत् =धरिञ्चु चुन्नट्टिमु, पङ्क्ती……सप्तवृति= पङ्क्ती गुण=पदि रॆट्लु, उत्तरित = ऒकदानिकण्टॆ नॊकटि पॆद्दवि यगु, सप्तवृति= एडु आवरणमुलु गल, इदम् =ई, अण्डम् =ब्रह्माण्डमु, अस्य = दीनिकि, सुसदॄंशी मिक्किलि सदृ शमुलैन, परश्शतानि= लॆक्क लेनि, अन्यानि, च= इतरमु लगु ब्रह्माण्डमुलुनु, इह=ई लीलाविभूतियन्दु, सुन्द रस्य=सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, क्रीडाविधेः = लीला कार्य मुनकु, परिच्छद ताम्=उपकरण मगुटनु (आटवस्तु वगु टनु) अगच्छन्, कील,= पॊन्दिनविगदा ! इदि विशेषमुलु :- लोकास् चतुर्दश दधत् अण्डमुनकु विशेषणमु. दीनि चेत नय्यण्ड वैशाल्यमु प्रकटिम्पँ बडुचुन्नदि. ‘परश्शतानि’ वन्दलकु दाँटिनवि, अनँगा अनेकमुलनि भावमु. ता॥ पदुनालुगु लोकमुलनु तनलो धरिञ्चु वैशाल्य मुनु ऒकदानिकण्टॆ नॊकटि पदिरॆट्लु विस्तारमु गलयेडु आवरणमुलतोँ गूडिन यी ब्रह्माण्डमु, इट्टिवे यगु वन्दलकॊलँदि ब्रह्माण्डमुलुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारि कीलीलाविभूतिलो आटवस्तुवु लगुचुन्नवि. म. पदुनालौ जगमुल् विशालत वसिं पन् बॊल्चि यॊण्डॊण्डु ताँ बदिरे ट्लायति मिञ्चुन_प्तवृतुलन् भासिल्लु नीयण्ड, मि 150 प्रति सुन्दरबाहु स्तवमु ट्टिदॆ यानण्डपरश्शतम्बु तगँ ग्री डिम्पङ्ग नेतद्विभू तिँ दलिर्चुन् वनशैलनाथुनकु नॆं ते नाटबॊम्मल् वलॆस् . व श्लो॥ सुरनरतिर्य गादि बहु भेदक भिन्न मिदं जग दथ चाण्ड मण्ड वरणानि चससृतथा । गुणपुरुषा च मुक्तिपुरुषा श्च पनाद्रि पते रुपकरणानि वर्म विधये ऒ पि भवन्ति विभः ॥ I 82 सुर, नर, तिर्यक्, आदि, बहु, भेदक, भिन्न मी = देवतलु, मनुष्युलु, तिर्यक्कुलु (पशुप शिव्यादुलु) मॊदलगु पॆक्कु विशेषणमुल चेत भिन्न मन, (वेऱयिन) इदम्=ई, जगत् = प्रपञ्चमु, अथ = अनिँद, अण्डञ्च अण्डमुनु, तथा= अनी, सप्त= एडु, वरणानि, च= आवरणमुलुनु, (परिधुलुनु) गुण, पुरुष, च प्रकृति पुरुषुलुनु, मुक्त पुरुषाः च मुक्त पुरुषुलुनु, विभोगि, अपि= सर्वस्वामि यैननु, वनाद्रिप ते वनगिरिनाथुँडैन सुन्दर बाहुस्वामिकि, नर्म, विधये लीलाचरणमुकॊऱकु, उपकरणानि = साधनमुलु, भवन्ति अगु चुन्नवि. विशेषमुलु : तिर्यगादि- अनुचोट ‘आदि’ पदमु चेत तमकण्टॆँ दक्कुववि यगु स्थावरादुलु ग्रहिम्पँ बडुनु. गुणपुरुषौ= गुणशब्दमु चेत गुणत्रय विशिष्टमगु प्रकृ तियु, पुरुषशब्दमु चेतँ दत्सम्बद्धुँडगु पुरुषुँडुनु ग्रहिम्पँबडुनु. मुक्त पुरुषाः- इच्चटँ ब्रकृति चेतिविडुवँ Ф सुन्दर बाहु स्तवमु बडुचुन्न पुरुषु लनि यरमु, यर्थमु. 151 लीलाविभूतियोगमु प्राकृतमु गनुकँ गेवल मुक्त पुरुषु लुण्डुटकु वीलु लेदु. Ф ता॥ देवतलु मनुष्युलु पशुपक्ष्यादुलु स्थावरमुलु मुन्नगु नुपाधुल चेत भिन्नमगु नी प्रपञ्चमु, ब्रह्मां डमु, सप्तावरणमुलु, प्रकृतिपुरुषुलु, मुक्त पुरुषुलु, ईसर्वमु सर्वव्यापियु, सर्वस्वामियु नैननु वनाद्रि नाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि लीलाचरणमुन कुपकरण मगुचुन्नदि. म. अमरुल् मर्युलु पक्षुलुं बशुवु लि त्याद्याकृतुल् पॊल्चु लो कमु ब्रह्माण्डमु दानि कावरणमुल् गा नॊप्पुनासप्तकं बु म ऱिङ्कन् गुणपूरुषुल् प्रकृतिनि र्मुक्तुल् नरुल् श्रीवना द्रिमु रारातिकि नाटव स्तुवुलुगा दीपिञ्चु स्वक्रीडलन् . अवतारिक- गतश्लोकमुन मु क्तपुरुष प्रस्तावन वच्चुट चेत मुक्तु लॆट्टिवारो विवरिञ्चु चुन्नारु. प्रति ज्ञानिन सृततयोगिनो हि ये सुन्दराम्फ्री पदभ क्ति भागिनः । ‘मुक्ति माप्य परमां परे पडे नित्यकिङ्करपदं भजन्ति ते ॥ £3 सतत योगिनः = ऎल्लप्पुडुनु कर्मयोगानु स्थानशीलुरुनु, ज्ञानिनः =ज्ञानयोगनिष्ठुलुनु, (अगु) ये- 1 152 सुन्दरि बॊहु सनमु एजनुलु, सुन्दर, अम्फ्रि, पद, भक्ति, भागिसजारा सन्दर बाहुस्वामिवारि चरणमुलन्दु भक्ति योगमुनु पॊन्दन वारु,(भवन्ति = अगु चुन्नारो!, श्री आजनुलु, पॆरिमाटु उत्कृष्टमगु, मुक्ति मी= मोक्षमुनु, आव्य Heु. प रे, पधे= परमपदमुनन्दु, नित्य, किङ्करि, पॆदमु ना सत्य किङ्करुलु) अनु शब्दमुनु, भजन्ति = पॊन्दु मुन्नारु. विशेषमुलु :— परमां मु स्त्रीम अपुन रावृत्ति मु किम् पुनरावृत्ति लेनि मोक्षमुनु ‘सस पुन गान र्तते न स पुन रावर्तते’ अनि श्रुति. ‘म्मोमुनकु वॆळ्ळिनवाँडु तिरिगि पुट्टँडु. ‘नित्यकिङ्करपदं भजन्ति ते कर्म ज्ञानभक्ति योगमुलु भगवन्नित्यकङ्करत्व साधनमु लनि भावमु, ता॥ ऎल्लप्पुडु कर्मयोगमु नादरिञ्चुवारुनु, ज्ञान योगनिष्ठुलुनु, श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि चरणमु लन्दु भक्ति युक्तुलै पुनरावृत्तिरहित मगु मोक्षमुनु बॊन्दि परमपदमुनन्दु नित्यकिङ्करु लनॆडु शब्दमुनु बॊन्दुदुरु. गी. सन्ततमु कर्मयोगनिष्टागरिष्टु लनवरतमुनु ज्ञानयोगाभिरतुलु ! सुन्दर पदार विन्दभ क्षिं दरिञ्चि नित्यकिङ्करपदमु गणिन्तु रचट. अवतारिक :– इटुमीँद मुप्पदियॆनिमिदि श्लोकमुल चेत, भगवदवतार सौशील्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. सुन्दर बाहु स्तवमु ॥ देवस्य सुन्दरभुजस्य वनाद्रिभर्तुः है शीलवत्त्व मध वाश्रितवत्सलत्वम् । ऐश्वर्यभाव मजहद्भि रिहावतारै र्योऒलङ्कार जगदाश्रिततुल्यधर्मा ॥ 153 84 प्रति :- :— यः=ए सुन्दर बाहुस्वामि, ऐश्वर्य, स्वभा नम्=ईश्वर सम्बन्धियगु स्वभावमुनु, अजहद्भिः= विड नाडनट्टि, अवतारै 8 = अव तार मुल चेत, इह = ई लीला विभूतियन्दु, आश्रित, तुल्य, धर्मा = स्वाश्रित जनमुतो समानशीलमुगल वाँडगुचु, जगत् लोकमुनु, अलं चकार = अलङ्करिं चॆनो ! वनाद्रि, भर्तुः=वनगिरिनाथुँडैन, सुन्दर भुजस्य = = सुन्दर बाहु व नॆडु, देवस्य = देवर वारि यॊक्क, शीलवत्वम् शीलमु, है आश्चर्यकरमु, अथवा= अदि कानिचो, आश्रितवत्सलत्वम्=आश्रितुलयॆडँ गल प्रेमातिशयमु, है=आश्चर्यजनकमु, (भवति= अगु चुन्नदि.) विशेषमुलु ऐश्वर्य भावम् == ईश्वरत्वमुन कनु रूपमगु रूपगुण विभवादिकमु, लेदा सर्वज्ञत्व, सर्व शक्तित्वादिकमु. शीलवत्त्वम् शीलमु, शील मनँगा ‘महतो मन्दै स्सह नीरन्ध्रीण संश्लेषः शीलम्’ (गॊप्प वानिकि मन्दुलतोँगल दट्टमैन कलयिकनु शील मन्दुरु) अनु लक्षणमु गलदि. आश्रित वत्सलत्वम् आश्रितजनुल दोषमुलन्दु भोग्यताबुद्धि. (20-a)154 स सुन्दरबाहु स्तवमु I श्लो॥ आजोऒपि स न्नव्ययात्मा । भूताना मिश्वगोऒपिसन् । प्रकृतिं स्वो मधिष्ठाय सम्भवा म्यात्ममायया ॥ अनिनट्लु स्वासाधारण दिव्यस्वभावमुनु वीडकुण्ड स्वेच्छतो नवतरिञ्चि नप्पटिकीनि श्लो ॥ ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् । ‘अहं वो बान्धवो जातः’ इत्यादुलँ बेर्कॊनँबडिन बान्धवत्व प्रयुक्त वात्सल्यमु, सौशील्यमु विस्मयकरमनि भावमु, ता॥ सर्वज्ञत्व, सर्वश क्ति त्वादि सर्वेश्वरत्व प्रयु क्त कल्याणगुणमुलनु बायलेनि यवतारमुलचे ने देवुँ डी विश्वमु नलङ्करिञ्चॆनो देव देवुँडगु वनाद्रीश्वरुँडैन या सुन्दर बाहुस्वामि सौशील्यवात्सल्यमु अत्याश्चर्य करमुलु.. उ॥ एगुणवारि राशि तनु नॆन्नँडुँ बायनि मैश भावमुन् त्याग मॊनर्पलेनि यवतारमुलस् जग देश भूषणं बौ गति नॊप्पॆ नावनधराधिपु शील नुवत्सलत्वमुल् चाँगुरॆ! मेल् ! बळी! यनु प्रशंसकुँ बात्रमुलै तन र्चॆडिन्. सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ सिंहाद्रिनाथ! तव वाङ्मनसातिवृत्तं रूपं त्वतीन्द्रिय मुदाह रहस्यवाणी ! एवं च न त्व मिह चेत् समवातरिष्यः त्वज् ज्ञान भक्ति विधयोद्य मुधाभविष्यन् वृत्तम् 155 85 प्रति : (हे) सिंहाद्रिनाथ ! ओ सुन्दर बाहु स्वामि, रहस्यवाणी उपनिषत्तु, वाङ्मनस, अति, वाक्कुलकु मनस्सुनकु नन्दनि, तन = नीयॊक्क, रूपं तु = रूपमुनन्न नो, अतीन्द्रियम्=इन्द्रियमुलकु गोचरमु कानि दानिनिगा, उदाह = पॆद्दगाँ जॆप्पॆनु. एवञ्च (सति) इट्लु काँगा, इह = ई लीलाविभूतियन्दु, अद्य = इप्पुडु, त्वम् = नीवु, न, समवातरिष्यः चेत् अवतरिम्पक पोयॆद वेसि, त्वत्, ज्ञान, भक्ति, विधयः = तम = ज्ञानभ क्ति विधायक शास्त्रमुलु, मुधा = व्यर्थमुलु, अभ विष्यन् ऐ युण्डॆडिवि. विशेषमुलु :- सिंहाद्रिनाथ -सिंहाद्रिनाथ वनगिरिकि सिंहाद्रि यनि नामान्तरमु. कनुक ओ वनगिरिप्रभुवा! यनि यर्थमु. रूपम्————इच्चट रूपशब्दमु विग्रहपरमु. एवञ्च (सति) वाक्कुलकु मनस्सुनकु अन्दनि तारुण्य लावण्यमुलु गल देवर वारि दिव्यविग्रहमु कण्टिकि गोचरमु
कादनि. न चक्षुषा पश्यति कश्च नैनम्’ (ऎवँडुनु ई पर मात्मनु कण्टितोँ जूडँ जालँडु.) ‘न मांसचक्षु रभिवीडु ते तम् (मांसचक्षुष्कुँ परात्परुनि जूड लेँडु.) 153 सुन्दर बाहु स्थनमु इत्याच्युपनिष द्वाक्यमुलचेतँ ब्रतिपादिम्पँ बडिँगा ननि भावमु. ’ न त्व मिह चेत् समवाशिरिष्यति त्वं ज्ञान भ क्ति विध’योद्य मुधा.. भविष्यस्’ शुभाश्रयमगु विग्र हमु नाश्रयिञ्चि प्रवर्तिल्लिन देवर वारि ज्ञानभग विषय कमु लगु शास्त्रमुलु श्रीवारि यवतारमु ले लेनि चो पॊसँगवनि भावमु. ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! युपनिष ! द्वाणि नाङ्मनसम्बुल कन्दनि देवरवारि विग्रहमु सतीन्द्रिय मनि पॆद्दगा नुडुवु चुन्नदि. इट्लु नी दिव्यविग्रहमु चटुरगोचरमु काँगा नीलीलाविभूतिलोँ दामे यवतरिम्पनि यॆडल जीवरवारि ज्ञानभ क्ति प्रतिपादक शास्त्रमुलु व्यर्थमुलै पोयॆडिनि. अवत प्रतिपादकशास्त्रमुलु रिञ्चितिरि गान नवि सार्लकमु लगुचुन्नवि. उ. सुन्दबाहुरूप मधु सूदन ! दिव्यननाचलस्थ) मन्दिर ! नीदु विग्रहमु माटलकु मदिकि रनन्त ये नन्द दटञ्चुँ बल्कॆ श्रुति यट्टुलुगा नवतार मॆत्त वे निन्दु वृधायगुं गद! ह 8 ! तमज्ञान सुभक्ति शास्त्रमुल् . सुन्दर बाहु स्तवमु ! 157 £6 !! ये भक्ता भवदेक भोगमनस्कोनन्यात्म सञ्जीवनाः तत्सं श्लेषणतद्विरोधिनि धवाद्यर्थं वनाद्रीश्वर ! मध्येण्डं य दवातर स्सुरनराद्याकारदि व्याकृति स्ते नैव त्रिदशै र्नरै श्च सुकरं स्वप्रार्थित प्रार्धनम् ॥ प्रति. हे हे वनाद्रीश्वर ओ सुन्दर बाहुमूरी ! अनन्य, आत्म, सञ्जीवनाः = मऱि यॊकटि आत्मोज्जीवनमुगा लेनिवारुनु, भवत्, एक, भोग, मनसः = नी वॊक्कँडवे भोग्य मनॆडु मनस्सुगलवारुनु, अगु, ये= ए, भक्ताः = भक्तुलु, (सन्ति कलरो) तत्, संश्लेषण, तत्, विरोधि, निधन, आदि, अरम् = वारिनि रक्षिञ्चुट, वारिविरोधुलनु शिक्षिञ्चुट (संहरिञ्चुट) धर्ममुनु स्थापिञ्चुट, यनु प्रयोजनमु कॊऱकु, मध्येण्डम् = ब्रह्माण्डमध्यमुन, सुर, नर, आदि, आकार, दिव्य, आकृतिः= देवतलु मानवुलु मॊदलगुवारि याकारमुवण्टि दिव्यविग्रहमुगलवाँडवै, अवातरः, इति, यत् अवतरिञ्चितिवनुट येदि गलदो तेन, एव = आयवतार कारणमु चेतने, त्रिदशैः तलचेतनु, नरैः मानवुल चेतनु, स्व, प्रार्थित, प्रार्ध नम् Ф तमकोरिकलनु वेँडुकॊनुट, सुकरम् = नदि, (अभूत् आयॆनु.) " देव सुलुवै विशेषमुलु : अनन्यात्मसञ्जीव नाः, - भव देशभोग मनसः’- अनु विशेषणद्वयमु चेत नीवे युपायमुगनु, उपेयमुगनु गलवारु. अनि भ क्तुलयॆडँगल पराकाष्ठनु (21) 158 सुन्दरबाहु स्थनमु यनि भावमु, दॆलियवलॆनु. अट्टि भक्तुले गीतयन्दलि ‘परित्राणाय साधूनाम्’ अनुचोट साधुपनमुचेँ बेस्किनँबडिरि. ‘त त्संश्लेषण तद्विगोधि निधनाद्यममु’ ई पॆनमुनन्दु भग वदवतार प्रयोजनमुलु सूचिञ्चुनु ‘परित्राणाय’ अनु गीताश्लोकमु विवरिम्पँबडिनदि. ‘अशीषण’ मनँगा, अट्टि साधुवुलतो नॆडमु लेक कलसियुण्डुनु - अनँगा नारिनि रक्षिञ्चुटयन्दु बद्धवीशाखपै युण्डुट अन्दुलकै ‘तद्वि^ ^धासनं’ अट्टि साधुपुल कसि’ कारमुलनु
- चेयुनारिनि संहरिम्पवलयुनु ‘विनाशाय च दुष्कृ ताम्’ अनि गीत, ई रॆण्डुपनुलॆण्डु शनङ्गा ‘अद्यर्थम् इच्चट आदिपद ग्राह्यमु धर्ममु. दानिनि स्थापिञ्चुटकॊऱकु ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ अनि गीत. सुकरसु नीवु सुन्दरनूप मुन निट नवतरिञ्चुट चेतने सुरलकु नरुलकु नी धर्ममु लभिञ्चि तमकोरिकलनु नी वलनँबडियुट सुलभमय्यननि याशयमु. ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! नीकण्टे मन यॊक्क तात्नोजीव कुँडु लेँडनि निन्ने युपायमुगानु उपेयमुगानु भाविञ्चि निरन्तरमु सेविञ्चुचुन्न भ क्तुलनु रक्षिञ्चुटगुनु, वारि कपकारमु लॊनर्चु दुर्मार्गुलनु शिक्षिञ्चुटकुनु, धर्ममुनु नॆलकॊल्पुटकुनु, नी नी ब्रह्माण्डमुन सुगन गादी दिव्यविग्रहुँडवै यवतरिञ्चितिवि कनुकने देवतलकु मानवु लकु नीवलन नभीष्टमुलनु बडयुट सुलुवय्यॆनु. सुन्दर बाहु । स्तवमु च॥ वनगिरिनाथ ! निन्नु नॆ यु पाय मु पेयमुगाँ, दलञ्चि या त्मनु गड देर्चुकोँ दिवुरु धन्युलँ ब्रोवँगँ दद्विरोधुलन् दुनुमँग, धर्ममुन् निलुपँ, दोड नीविलँ बुट्टकुन्न नी मनुजुलु वेलुपुल् पडयु प्रति : मात्रमुवारॆ निजेप्सितम्बुलन्. 159 $7 श्लो॥ श्रीमन्महावनगिरीश ! विधीळयो स्ते मध्ये तु विष्णु रिति यः प्रथमावतारः ! ते नैव चे त्तव महिम्नि जनाः कि लान्धाः त्वन्मत्स्यभाव मनगम्य कथं भवेयुः ॥ श्रीमन् = श्रीमन्तुँडवगु, महावनगिरि + ईश=महावनाद्रिनाथा!, विधि, ईशयोः = ब्रह्मरुद्रुल यॊक्क, मध्ये, तु=नडुमने, तेज नीकु, विष्णुः, इति = विष्णुव नॆडु, यः= ए, प्रथम, अवतारः = मॊदटि अवता रमु, (अस्ति=कलको) तेन, एव = आयवतारमु चेतने, तव=नीयॊक्क, महिम्नि=महिमयन्दु, (परत्वविषय मुन) जनाः=जनुलु, अन्धाः, चेत् = ग्रुड्डिवारै नयॆडल, त्वत् , मत्स्य भावम् नीमान सजातीय रूपमुनु, अवगम्य = तॆलिसिकॊनि, कथम्=ऎट्लु, भवेयुः, किल = अगुदुको! (समुद्रसञ्चारु लगु मीनमुललो निदिकूड नॊकटि यनि तलन्तुरा ?) 160 विशेषमुलु :- सुन्दर बाहु स्तवमु श्रीमन्महाननिगिपोत अनि येक पदमुगा सैतमु चेसिकॊनि वच्चुनु - अप्पुडु श्रीमन्त मगु पॆद्दवनाद्रिकिँ ब्रभुवा ! अनि युद्धमु. मध्य, तु= इच्चट ‘तु’ अनु सव्यय मनःकमु. तु स्या द्भे देवधारणी – अनि निघण्टुवु. विष्णु जनि यः प्रथमाव
- तारः’- ब्रह्म विष्णुगुड्रुलु- अनु परिगणमुन कनुगुण मुगा विष्णु ननि प्रथमुमुन नॊक मॆट्टु दिगुट येदि गलतो, ‘ते नैन चेत्तो तन महिम्नि ‘बनाः कि लान्धाः’ अन्तमात्रमु चेतने नीपरत्व विषयमुन अनँगा- सृष्टि स्थितिसंहारकर्तलु मुग्गुरुनु स्वतन्त्रुलु तुल्यु अनि नीप्रत्येक सर्वेश्वरत्वमुनु गणिम्पनि वारु अगुदु रेनि ‘त्व स्मत्स्य भान मनगम्य कथं भवेयुः’- समुद्रमुनँ जरिञ्चु मीनमुललो निदियु नॊकटानमु (चेप) अनियु मनस्सुलोँ दलन्तु रेमो! ता॥ श्रीमन्तुँडवगु ओ वनाद्रिनाथ् ! ब्रह्म विष्णु रुद्रुल नॆडु परिगणनमुनु बट्टि नीवु तॊलिसारिगा ब्रह्म रुद्रुल मध्यमुनन्दु अवतरिञ्चुट चेत (दिगुट चेत जनुलु सृष्टिस्थितिसंहारकर्तलु मुग्गुकुनु प्रत्येकमु स्वतन्त्रुलु ननि नी प नी पर्वतविषयमुन ग्रुड्डिवाडैनचो नी मीनावतारमुनु दॆलिसिकॊनि यदियु समुद्रमुलोँ जरिञ्चु नॊक सामान्यमगु चेपये यनि भाविन्तुरु. कलसियुन्ननु समुद्रमुलोँ दिरिगॆडि यितर मत्स्यमुलकु समानुलु सुन्दर बाहु स्तवमु 161 मीनाव तारुँड वगु नीकु नॆन्त भेवमु गलदो यट्ले ब्रह्म विष्णुरुद्र पदमुलतोँ गलसियुन्ननु विष्णुवु नीकुनु ब्रह्मपद्रुलकुनु गावलसिनन्त भेदमु कलदनि भावमु. शा॥ देवा ! याविधिरुद्रुलन्दु नडुमन् देवाधि देवुण्ड नौ तो श्रीविष्णुण्डवु नीवु तॊल्त दिगुटन् सृष्टिस्थितिध्वंसकृ देवुल् मूवुरु- दुल्युलन्दु भवदु त्कृष्टत्वमं दन्धुता ना रॆन्नरॆ चिन्नि चेपगँ द्वदी यं बै नमोनाकृतिन् . श्लो!! हेदेव ! सुन्दरभुज त्व मि हाण्डम ध्ये सौलभ्यतो विसदृशं चःतं महिम्नः 1 अङ्गीक रोषि यदि तत्र सुरै रमीभिः साम्या न्निकर्षपरिपालन मेव साधु 88 प्रति : हे देव = ओस्वामी ! सुन्दरभुज ! = सुन्दर बाहुमूर्ती !, त्वम्= नीवु, सौलभ्यतः = सुलभत्व मनॆडु सौलभ्यतः=सुलभत्व म गुणमुवलन, महिम्नः = स रेश्वरत्व महत्तकु, विसदृशम् = तगनि, चरितम् = नडतनु, अङ्गीकरोषि, यदि = अङ्गीकरिन्तु
- = वेनि, तत्र== आतगनि नडतविषयमुन, अमाभिः = ई, सुरैः - देवतलतोड, (ब्रह्मरुद्रेन्द्रादुलतोड) साम्यात् = पोलिककण्टॆ, निकर्ष, परिपालनम्, एव, तक्कुववारितोडि 1 162 सुं- बाहु स्तवमु सौम्यमु नभिनयिं चुटये, साधु H योग्यमैनदि. अनँगा मत्स्यकूर्म सजातीय ताभिनय मी ‘मेलनि भावमु. विशेषमुलु : ‘तत्र सुरै रमीभिः सौम्या न्निकर्ष परिपालन मेव साधु’— ओ सुन्दर बॊहुस्वामि ! तम सर्वस्व मगु सौलभ्यमुनु ब्रकटिञ्चुटकु श्रीवारि परत्वमु नकु असनुगुणमु लगु चेष्टलनु ब्रदर्शिम्पवलसि वच्चिनपुडु ब्रह्मरुद्रेन्द्रादुलतो साम्यमुनु साम्यमुनु ब्रकटिञ्चु विष्णू वेन्द्राद्यवतारमुल कण्टे अन्दऱिकि नन्दुपाटुलो नुण्डु मत्स्यकूर्मादि सजातीयावतारमे वियत्यन्त सौलभ्य मुनु जॆप्पुनु गनुक नट्टियवतारमुल नभिनयिञ्चुटे मेलनि भावमु. ता॥ ता श्री सुन्दरभुज देवा ! ता मी ब्रह्माण्डमुलो श्रीवारि सौलभ्यगुणमुनु ब्रदर्शिम्प परत्वमुनकु विरुद्धमु लगु पनुलनु सलुपवलसि वच्चिनपुडु ब्रह्मरु देन्द्रादु लतोँ बोलिक बालिक नभिनयिञ्चुटकण्टे सल्पमुलगु मत्स्य कूर्मादुलतो सजातीयमुलगु सवरमुल सभिनयिञ्चु टये मेलनिपिञ्चु चुन्नदि. शा॥ सौलभ्यं बनुनीदु मेलिगुणमुन् जाटन् बरत्वप्रभा जलाच्छादक वेषधारण तऱिन् स्रष्टन् शिवेन्द्रादुलन् सुन्दर बाहु स्तवमु बोलं जूलॆडु विष्णुवामनुल रू पुल् दाल्चु कण्टेन् वनी शै लै कालय ! मत्स्य कूर्ममुख वे षस्वीकृतुल् श्लाघ्यमुल् . अवतारिक :— निकर्ष परिपालन प्रस्तावन वलन 163 सत्याव तार प्रधानमुलगु रामकृष्णा दृवतारमुललोनि कॊन्नि लीलल ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ इ हावतीर्णस्य वनाद्रि नाथ ! ते निगूहतः स्वं महेमान मैश्वरम् । उमाप तेः कीं विजयः प्रियङ्करः प्रियङ्करा वेन्द्रजिदस्त्र बन्धना ॥ 89 प्रति : (हे) वनाद्रिनाथ !=ओ वनगिरि प्रभू !, ऐश्व रम् = ईश्वर सम्बन्धि यगु, (सर्वेश्वरत्व बोधकमगु) स्वम्=सहजमैन, महिमारम् महिळुनु, निगूहतः =कप्पिपुच्चुचुन्नट्टियु, इह = ईलीलाविभूतिलो, अव तीर्णस्य=अवतरिञ्चिन, ते= नीयॊक्क, उमापते = पार्वती
पतियगु शिवुनियॊक्क, विजयः = गॆलुपु, प्रियङ्करः, किम् =प्रियमुनु गलिगिञ्चुनदिया? इन्द्रजित्, अस्त्रबन्धना इन्द्रजित्तु यॊक्क, ब्रह्मास्त्र नागास्त्र पाशबन्धमु, प्रियङ्क रा, वा=प्रियमुनु गलिगिञ्चुनदि मा ? विशेषमुलु : अवतीर्णस्य – स र्वेश्वरत्व तिरोधानमु कॊऱु कवतरिञ्चि– ‘उमापतेः किं विजयः प्रियङ्करः164 सुन्दरनिवारं स्तवमु बाणासुरुनि तोडियुद्धकालमुनँ दन्निगं रक्षकुँडैन यीश्वरुनि जयिञ्चुट यनि भावमु. (इदि कृष्णावतार मुन) ‘प्रियङ्करा ‘वेन्द्रः दस्त्रबन्धना’ - (इदि रामाव तारमुन) ई रॆण्डिण्टिलोँ दम परत्वमहिमनु गप्पि पुच्चुटलो निन्द्रज दस्त्रबन्धनमे प्रमुखपात्रमुनु नहिञ्चुट चेत नदिये मिक्किलि प्रियकरमनि भावमु. कनुक वॆनुकटि श्लोकमुनँ जॆप्पिन ‘निकर्त परिपालन मेन साधु’ अनुटये समञ्जसमु. स नि ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! सहजमुनु स र्वेश्वरत्व निबन्ध नमु सगु नी महिमनु गप्पि वेसिकॊनुचु ई विभूतिलो नवतरिञ्चिन नीकुँ गृष्णावतारमुलोनि बाण"सुरयुद्धकालिक मगु परमशिवुनि जयिञ्चुट मुदावहमा ? रामाव तागमुलो निन्द्रजिन्ना गपाशमुलकुँ गट्टुवडुट मुदाव हमा? तॆल्पुमु. शा॥ देवा ! नीदु परत्वबोधक महा दिव्यत्वमुन्’ उञ्चि यि) I दाविर्भूतुँड वैननीकु ननगि र्यध्यक्षपादा ! महा रा! देवुन् गॆल्चुट यिष्टमो! रणभुविन् देवेन्द्र जिन्नागपा शावळ्यूर्जितबन्धनम्बु प्रियमो ! यालिञ्चॆदन् दॆल्पवे. सुन्दर बाहु स्तवमु 165 अवतारिक : परत्वप्रयुक्त महिमनु सर्वविधमुलँ गप्पिपुच्चुटयु दुश्शक मनि यीश्लोकमुन नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ पुच्छोत्पुच्छन मूर्छनोद्धति धुत व्यावर्ति तावर्तवत् संवर्तार्णव नीरपूर विलुठत्पाशीन दिव्याकृतेः । प्रति सिंहाद्रीश ! न वैभवं तप कथं स्वालक्ष्य मालक्ष्यते पद्माक्ष स्य जुमुक्षतो ऒपि विभवं लक्ष्मीध काधोक्षज ! 90 अधोक्षज ! उपासकहृदयकमलवासी ! सिंहाद्रीश ! =वनगिरिनाथा ! लक्ष्मीधर ! = श्री महालक्ष्मिनि = श्री धरिञ्चिन सुन्दर बाहुस्वामि!, विभवम् महिमनु, जुघुक्षतः, अपि = दाँचँदलँचु चुन्नप्पटिकिनि, पुच्छ… आकृतेः — पुच्छ=तोँक यॊक्क उत्पुच्छन = पै कॆत्तुट, मूर्छन = अड्डमुगाँ द्रिप्पुटल यॊक्क, उद्धति = वडि चेत, धुत = कदलिम्पँ बडिनदियु, व्यावर्तित= त्रिप्पँबडिनदियु, (कनुकने) आव र्त वत् = सुडुलुगल, संवर्त, अर्णव= प्रळय समुद्रमुयॊक्क, नीर, पूर = जलप्रवाहमुनन्दु, विलुठत् = पॊर्लुचुन्न (वडिवडिगाँ दिरुगुचुन्न) पाठीन= चेँपयॊक्क, दिव्य=अप्राकृतमैन, आकृतेः विग्रहमु गलट्टियु, पद्माक्षस्य ट्टियु, तव = नीयॊक्क, स्वालक्ष्यम्
तॆल्लँदामरलवण्टि कन्नुलुगल चक्कँगा नन्तट साक्षात्करिञ्चुकॊनँ दगिन, वैभवम् = महिम, कथम् = ऎट्लु, न, आलक्ष्यते = चूडँबडदु? (स्पष्टमुगाँ जूडँ बडु चुन्नदनि भावमु.) (22) 166 सुन्दर बाहु स्तवमु
- =
विशेषमुलु : - अधोक्ष, ज! अधः = अन्तर्मुखमु लैन (बैटिकिँबोन्नि अक्ष = इन्द्रियमुलु गलवारु - अनँगा– योगुलु लेदा उपासकुलु, वारियन्दु, ज आविर्भविञ्चिनवाँड ! उपासकुल हृदयकमलमुन निवसिञ्चु वाँडा ! यनि भावमु. पुच्च… आकृतेः प्रीणीयार्णव जलप्रवाहमुनु अल्लकल्लोलमु चेयु वालसञ्चलन मुगल विलक्षण मत्स्यमू र्ति यॊक्क यनि तात्पर्यमु.
पद्माक्षस्य — विनशरीरमुनु दाल्चिनप्पुडु सैतमु कन्नुलु पुण्डरीकमुलँ बोलियुन्न दनि भावमु. वालसञ्च लनमु चेतँ ब्रळयार्णवमुनु सङ्क्षोभिम्पँ जेयुटयु, मी सशरीरधारणमु नन्दु सैतमु पुण्डरीकमुलँ बोलु
कनुलसोयगमु गलिगि
भगवल्ल क्षणमुलु.
युण्डुटयु, दाँचिननु दागनि
ता॥ उपासक हृदयकमलमुन निवसिञ्चु लक्ष्मी ्मपती! सुन्दर बाहुस्वामी ! नीमहिमनु नी वॆन्तदाँचँ दलँचु चुन्ननु तोँक नॆत्तुट यन्दलि वडिचेतनु अड्डमुगा द्रिप्पुटयन्दलि नडिचेतनु कम्पिञ्चि जोक्षोभिल्लुचु सुडुलतो नॊप्पुचुन्न प्रळय समुद्रमुलो नवलीलगा नीँदुचुण्डियुँ बुण्डरीकमुलँबोलु कनुलनी पॆगल नी दिव्यमगु मीन शरीरमु नी लोकोत्तर महिमनु वॆल्लडिञ्चु चुन्नदि.
शा॥ श्रीलक्ष्मीधर ! योगिचि त्त कमला
सीना ! वनाद्रिप्रभू !
मीनशरीरमु
सुन्दर बाहु स्तवमु
वालोद्धूनन तिर्यगीरणकळा
वैदुष्यसंशुब्ध नि
र्वेलावर्त शताञ्चित प्रळय वा
रिन् मीन मौन तऱिन्
बोलॆन् गन्नुलु तॆल्लँदम्मि नॆटु ल
ब्बुन् दाँच, नीचिह्नमुल्.
श्लो॥ साचलावट तटाकदीर्घका
जाह्न वीजल विवर्धितः क्षये । शृङ्ग सङ्गमितनौ र्मनो रभू रग्रतो ऒण्ड जवपुरि सुन्दरि!
प्रति :– 167 91 सुन्दर ! ओ सुन्दर भुजस्वामि ! अण्डज, वपुः=मत्स्यशरीरमु गलवाँडवै, साचला… विवर्धितः स, अचला, अवट = भूग र्तमुतोँ गूडिन, तटाक = चॆऱुवुयॊक्क, दीर्घका, दिगुडु बावियॊक्क, जाह्नवी= गङ्गानदियॊक्कयु, जल= नीटियन्दु, विवर्तितः =
मिक्कि लिगाँ बॆञ्चँबडिन वाँडवै, (त्वम् =नीवु) क्षये= प्रळय कालमन्दु, प्रळयार्णवमन्दु) मनोः = मनुवुयॊक्क, अग्रतः=ऎदुट, शृङ्ग, सङ्गमित, नौः = कॊम्मुनकुँ
दगिलिञ्चुकॊनँबडिन, योडगलवाँडवु, अभूः, हि = अयितिवि गदा! विशेषमुलु :- पूर्वमु मनुवुतर्पण मॊनर्चुचुँ दनकमण्डुलुवुनन्दुँ बुट्टि पॆरुँगुचुन्न चेपनु विशाल P 168 Ф सुन्दर बाहु स्तनमु Ф मगु नॊक नीटिगुण्टलो नैचॆनु. अदि यच्चटँ बॆरिँगि स्थलमु चालकपोँगाँ जॆऱुवुलो नै चॆनु. अय्यवि तन वृद्धिकिँ जालक पोवुटँ जूचि क्रममुगा दीर्घकलोनु गङ्गानदि लोनु समुद्रमुलोनु बडवैचॆनु. अन्त नामत्स्यमु प्रळय समुद्रमुलो मनुवुतो ँबाटु स्थिरचरपदार्थमुल नॊकयोडलो नुञ्चुकॊनि या योडनु दन शृङ्गमु नकुँ दगिलिञ्चुकॊनि धर्ममुल नुपदेशिञ्चॆ ननु पुराणगाध निट ननुसन्धिञ्चुकॊन वलॆनु. ई श्लोकमुलोनि युत्तरार मुनकुँ दात्पर्यमु. अवान्तर प्रळयमन्दु सृष्टिकि बीजभूतुँडगु मनुवुनु ओडयं दिडुकॊनि या योडनु कॊम्मुवण्टि यवयवमुनकुँ दगिलिञ्चुकॊनि मनुवु नग्र भागमुन धर्मोप देशपरुँडै मीनावतारमुन श्रीहरि प्रळयाब्धिलोँ दिरिगॆनु. ईयर्थमे श्रीरङ्ग राज स्तवमुन नी क्रिन्दि श्लोकमुन ननुसन्धिम्पँ बडिनदि. बॆरिङ्गि श्लो॥ मीनतनु स्त्वं नावि निभाय स्थिरचरपरिकर मनु मम भगवन् । वेदन नाभिस्वोक्ति विनोदै रकलितलयभयलव ममु मवहः ॥ ता ओ श्रीसुन्दर भुज स्वामी ! नीवु मत्स्यशरीरमुनु दाल्चि क्रममुगा भूगर्त तटाक जाह्नवी जलमुलन्दुँ प्रळयपयोधिलो शृङ्गमुन कण्टँगट्टँबडिन योडतो मनुवुन कग्रभागमुन दर्शनमिच्चितिवि गदा! च॥ मनुजलकुण्डिँ गन्पडि क्र मम्बुग गुर्ततटाक वापुलं सुन्दरबाहु सवमु दुन नलगङ्गँ बॆल्लि लय तोयधिलो मनुनग्रमन्दु शृं गनिगडित प्लवुण्ड वयि कन्नुलपण्डुवु गाँगँ जेँपरू पुन नगपिञ्चिना वँट न मोनम श्रीवन शैलसुन्दरा ! श्लो॥ प्रशयज नीर पूर परिपूरित स्वनिलयापसन्न वदन भ्रमदशरण्य भूतशरणार्थि नाकिशरणं भवन् स्वकृपया । चलदुबधीरिताम्बु कलुषीक्रियाढ्यगमन स्वपृष्ठ विधृता चलकुल एव मीनतनु रात्रि सुन्दरभुजो वनाद्रिनिलये ॥ स्व, कृपया प्रति : 16: 92 स्वतस्सिद्धमगु दय चेत, प्रळय. . ….शरणम्- प्रळय= प्रळयकालमन्दु, ज = पुट्टिन, नीर= नीटियॊक्क, पूर= वॆल्लुव चेत, परिपूरित निम्पँबडिन (आक्रमिम्पँबडिन) स्व= सॊन्त, निलय= स्थानमुलु गलवारु गनुकने, अवसन्न = भेदमुतोँ गूडिन, वदन = “मॊगमुलु गलवारुनु, भ्रमत् = (रक्ष कुल कॊऱकु) इटु नटु तिरुगुचुन्न वारुनु, अशरण्यभूत = शरण्युलु लेनि वारुनु, शरणार्थि=शरणुकोरुचुन्न वारुनु, अगु, नाकि = देवतलकु, शरणम् = रक्षकुँडु, भवन् = अगुचु, चलत्… गमनः चलत् = ( तनसञ्चारमु चेत ) कदलुचुन्न, उदधि=समुद्रमु चेत, ईरित = त्रोसिवेयँबडिन, अम्बु = नीटियॊक्क, कलुषीक्रिया मलिनमु चेयुटयन्दु, 170 सुन्दर बाहु स्तवमु आढ्य= ऒप्पिदमैन, गमनः = सञ्चारमु गलिगिनट्टियु, स्व, पृष्ठ, विधृत, अचल, कुलः तनवीँपुपै धरिम्पँबडिन, कॊण्डल गुम्पु गलट्टियु, सनतनुः मत्स्यमूर्ति, अत्र=ई, वनाद्रिनिलये = वनगिरि मन्दिरमु नन्दलि, एषः = ई, सुन्दरभुजः सुन्दर बाहुमूरिये. वि शेषमुलु :- प्रलयज ……शरणं, भवन् – स्वत स्सिद्धमगु दय चेत ने रक्षका वीक्षकुलगु निट्टि वेल्पुलकु रक्षकुँ चेतने डगुचु - ‘एष मीनतनु रात्रि सुन्दरभुजः’ - प्रळयार्णव नीर पूर निमग्न मन्दिरुलै यति विषण्णवदनु लै अल्लाडु चुन्न शरणागतुलगु देवतलनु रक्षिञ्चुट कॊऱकु नत्तऱि निवसिम्पयोग्यमु अगु कॊण्डलनु वीँपुमीँद मोसिकॊनि वच्चिन यामिनविग्रहुँडे संसारार्णवमग्नुल मगु मनल नुद्धरिम्प निच्चट सुन्दरभुजस्वामियै युन्नाँडनि याशयमु. ता॥ प्रळयु समुद्रमुलोनि नीटि वॆल्लुवलु तम तम निलयमुलनु मुञ्चि ‘वेयँगा निलुवँ दावु लेक दीन वदनु लै रक्षणकॊऱ कटुनिटु तिरुगुचुन्न दिक्कु.. लेनि वेल्पुलकु जालि चेत शरणमै तन गमन वेगमुचेत मुन्नीटिनीरु कलुषमुगु नट्लु देवतलु वसिञ्चुटकुँ बॆद्द पॆद्द कॊण्डलनु वीँपुपै मोसि तॆच्चिन दिव्यमत्स्यरूपधरुँ जीवनाद्रि निलयुँडगु सुन्दरभुजस्वामिये सं देहमु लेदु. भ क्तुलमगु मनलँ गूड संसारार्णवमुनु दाँटिञ्चुनु. 170 सुन्दर बाहु स्तनमु आढ्य= ऒप्पिदमैन, गमनः = सञ्चारमु गलिगिनट्टियु, स्व, पृष्ठ, विधृत, अचल, कुलः तनवीँपुपै धरिम्पँबडिन, कॊण्डल गुम्पु गलट्टियु, विनतिनुः = मत्स्यमूर्ति, अत्र=ई, वनाद्रिनिलये=वनगिरि मन्दिरमु नन्दलि, एषः = ई, सुन्दरभुजः सुन्दर बाहुमूरिये. वि शेषमुलु :- प्रलयज ……शरणं, भवन् – स्वत स्सिद्धमगु दयचेतने रक्षका वीक्षकुलगु निट्टि वेल्पुलकु रक्षकुँ ने डगुचु - ‘एष मीनतनु रत्र सुन्दरभुजः’ प्रळयार्णव नीर पूर निमग्न मन्दिरुलै यति विषण्णवदनु लै अल्लाडु चुन्न शरणागतुलगु देवतलनु रक्षिञ्चुट कॊऱकु नत्तऱि निवसिम्पयोग्यमु लगु कॊण्डलनु वीँपुमीँद मोसिकॊनि वच्चिन यामिनविग्रहुँडे संसारार्णवमग्नुल मगु मनल नुद्धरिम्प निच्चट सुन्दरभुजस्वामियै युन्नाँडनि याशयमु. ता॥ प्रळय समुद्रमुलोनि नीटिवॆल्लुवलु तम तम निलयमुलनु मुञ्चि वेयँगा निलुवँ दावु लेक दीन वदनु लै रक्षणकॊऱ कटुनिटु तिरुगुचुन्न दिक्कु.. लेनि वेल्पुलकु जालि चेत शरणमै तन गमन वेगमुचेत मुन्नीटिनीरु कलुषमगु नट्लु देवतलु वसिञ्चुटकुँ बॆद्द पॆद्द कॊण्डलनु वीँपुपै ‘मोसि तॆच्चिन दिव्यमत्स्यरूपधरुँ जीवनाद्रि निलयुँडगु सुन्दरभुजस्वामिये सन्देहमु लेदु. भक्तुलमगु मसलँ गूड संसारार्णवमुनु दाँटिञ्चुनु. सुन्दर बाहु स्तवमु 172 कन्नुलकान्तिगल, कच्चपवपुः वाँडवु, अभूः = अयितिवि. ताँबेलु शरीरमु कल विशेषमुलु : अविस्पन्दः - तनवीँपुमीँद मन्दरा चलमुनुञ्चि त्रिप्पुटलचेतँ दनकुनु दिरुगुडु सम्भविम्प वच्चुनु, मन्थनाचल निमि त्तमु कव्वपुँद्राडैन वासुकि चेतँ जिलुकुटवलन मिक्किलि कल्लोलितमगु समुद्रपु नीटि चेतनु तनकुँ गदलिक सम्भविम्पवच्चुनु. अट्टि कारणमु लुन्ननु कदलनिवाँडै युण्डुट कूर्मरूपियगु श्रीहरि यॊक्क स्थैर्यमुनु जाटुचुन्नदि. नन्दन्. समाश्रित संरक्षणक्षमुनकुँ गूड भारलाभमुचेत नति प्रीति कलुगु ननि भावमु. तन शरीरमुनकुँ ग्लेशमु कलिगिननु भक्तजनु लनु रक्षिञ्चुट यनु लाभमु चेकूरिनन्दुल कानन्दिञ्चुचु अनि सारांशमु. ता॥ वन शैलवल्ल भा ! ओ सुन्दर बाहुस्वामि! श्रीहरी! नीवु नी वीपु पै श्रेष्ठमगु मन्दर पर्वतमुनुञ्चि गिरगिर त्रिप्पिननु, कव्वपुँ दाडुगानुन्न वासुकिनि ऒकवैपु देवत लॊकवैपु राक्षसुलु निलिचि यटुनिटु लागँगा मिक्किलि जोभिल्लिन पालसमुद्रमुनीटि कदलिकल चेतनु एमात्रमु कदलनिवाँडवै आश्रितसंरक्षण भारमनॆडु लाभमु दॊरकि नन्दुलकु आनन्दिञ्चुचु आ यानन्दमुनु विच्चिन तामरल वण्टि कन्नुल कान्तितोँ जाटुचुँ बूर्वमु कूर्मरूपुँड वैतिवि गदा ! सुन्दर बाहु स्तवमु उ॥ वीँपुन मन्दराद्रि निडि प्रति वेमऱु द्रिप्पिन वासुकिन् फणि श्मीपति योक्त्रमुन् सलिपि सन्द्रमुँ जिल्कँग नीरु रॆच्चि ता नूँपिन नूँग काश्रितुल नोमिनलाभमु मोद मीयँगाँ जूपुलँ दम्मुलन् नगुचु सुन्दर ! नाँ डॊक कूर्ममैतिवा ! 1 श्लो॥ जगत् प्रलीनं पुनरुद्दि धीर्घतेः सिंहक्षितिक्षि न्निलयस्थ ! सुन्दर । ! पुरा वराहस्य त वेय मुर्वरा दृस्ट्राह्वयेन्दोः किल लक्ष्म लक्षिता ॥ 173 94 सिंहक्षितित्, निलय, स्थ= सिंहाद्रिय नॆडु निवासस्थलमुननुन्न, सुन्दर = ओ सुन्दरभुजस्वामि ! पुरा= पूर्वमु, प्रलीनम् प्रळयार्णवमुन मुनिँगिन, जगत् = लोकमुनु, पुनः=मऱल, उद्दिदीर्घतः = उद्धरिम्पँ दलँचुचुन्न, वराहस्य = वराहावतारुँडनगु, तवनी - मॊक्क, दंष्ट्रा, आह्वय, इन्दोः=कोऱय नॆडु पेरुगल चन्द्रुनिकि, इयम्=ई, उर्वरा= भूमि, लक्ष्म, लक्षिता, कील= मच्चगाँ जूडँबडिनदि गदा ! विशेषमुलु :- जगत् प्रलीनं पुनरुद्दिदीर्घ तः - प्रशयार्णव मध्यनिमग्न जगदुद्धारककुँडवु अगु नीवु (23) !174 सुन्दर बाहु स्तनमु संसारमग्नुल मगु मम्मुँ गूड नुद्धरिम्पुमनि कवि ध्वनिम्पँजेयु चुन्नाँडु. ‘दंष्ट्राह्वयेन्दोः कील लक्ष्म लक्ष्मि ता’ दंष्ट्र यनॆडु चन्द्रुनकु भूमि मच्चगा नुन्न दनुट चेत श्री वराहमूर्तिवारि विग्रहमन्त लोको तरमैनदनि भावमु. Co नी ता॥ वनगिरिनाथुण्डवगु श्री सुन्दर भुजस्वामी ! नीवु पूर्वमु प्रशय समुद्रमुलो मुनिँगिपोयिन लोकमु नुद्धरिम्पँ दलँचि पगाहमूर्ति विगा नवतरिञ्चिनप्पुडु नी दंष्ट्र यन्दु गोचरिञ्चिन भूदेवि चन्द्रुनन्दु मच्चव लॆँ गानवच्चिन दँट. अट्टिचो नी दिव्यविग्रहमुयॊक्क युन्नति नॆवँडु वर्णिम्पँ गलँडु. गी॥ प्रळयवार्धि निमग्न प्रपञ्च युद्ध रिम्पँ दलँचि वराहमूर्तिनि ग्रहिञ्चु नीदु कोऱनु वनगिरि नेत ! भूमि चन्दुरुनियन्दुँ गलमच्च चायँ दोँच. श्लो॥ न वायुः पस्पन्दे ययतु रथवास्तं शशिरवी दिशोऒनश्यन् विश्वा प्यचल दचला साचलकुला ! सभ श्च प्रश्च्योति क्वथित मपि पाथो नरहरौ त्वयि स्तम्भे शुम्भद्वपुषि सति हे सुन्दरभुज ! K प्रति 95 हे सुन्दर भुज ! ओ सुन्दरभुजस्वामी ! नरहरौ=नरसिंहमूर्तिवगु, त्वयि = नीवु, स्तम्भे = ( हिरण्यकशिपुनि दर्बारुलोनि) स्तम्भमुनन्दु, शुम्भत्, सुन्दर बाहु स्तवमु 175 वपुषिसति=शोभमान मगु शरीरमु गलवाँडवु काँगा, वायुः = गालि, न, पस्पन्दे= कॊञ्चॆमैननु गदल लेदु, (भयमुचेत) अथवा तरुवात, शशिरवी= चन्द्रसूर्युलु, ययतुः = अ स्तमिञ्चिरँट, दिशः = दिक्कुलु, अ अस्तं, अनश्य्= नशिञ्चिनवि (इदि तूर्पु, इदि पडमर यनि तॆलिसि कॊन वीलुगा लेदु) साचलकुला = पर्वत समूहमुतोँ = सम समैन, अचला, अपि = भूमियु, गूडिन, विश्वा अचलत् =कम्पिञ्चॆनु, नभः, च = आकाशमुगूड, प्रच्योति =मिक्किलि जाऱिपोयिनदि, पाथः अपि=समुद्रमुलोनि नीरु कूड, क्वथितम्=सलसल तॆर्लिनदि. वि शेषमुलु : न वायुः पस्पं दे श्रीनरसिंह न स्पं… विग्रहदर्शन जनितभयमुचेत गाड्पुकॊञ्चॆमुनु कदल लेदु. अचल दचला– भूमि यचल यय्युँ जलिञ्चॆनु. नरसिंहदर्शन भयमुचेत व्युत्पत्तिकि विरुद्धमुगाँ ब्रवर्तिञ्चिन दनि भावमु. क्वथितमपि पाथः — मपि पाथः उष्णत्वाति शयमुचे समुद्रोदकमु गूड सलसल मसलिपोयॆनु. प्रह्लादप्रतिपक्ष शिक्षणमुनकै प्रादुर्भविञ्चुचुन्न नरसिंह विग्रहसाक्षात्कारक्षममु लैन पञ्चभूतमुल यॊक्क वेगिरपाटिन्दु वर्णिम्पँबडिनदि. a वगु ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूरी ! नरसिंहमूरि नीवु हिरण्यकशिपुनि सभा स्तम्भमुन शोभमान शरीरमु गलवाँडवयि याविर्भविञ्चु चुण्डँगा भयमुचे गालि 176 सुन्दर बाहुलु नवमु यिञ्चुकयुँ गदल लेदु. दिक्कुलु मासिनवि. गदल लेदु. सूर्यचन्द्रु ल सङ्गतुलैरि. चलिम्पमिचेत सेवल यनि प्रख्याति गाञ्चिन भूमियुँ गुलाचलमुलतो गूँ गम्पिञ्चॆनु. मिन्नु पडॆनु. ऒक पेल “अ"यॆनु. Sonic समुद्रोदकमु सलसल मसलि पोयनु. ताअणुमा समस्त प्रकृतियु भयग्र समु म॥ अरिकुम्भीन्द्रमुँ जील्चि भ क्तुँ ब्र नरसिंहाकृति नीवु स्तम्भमुनँ ग ! गा स्पट्टङ्ग गा उप्पडि द द्दिर ! चन्द्रारुणु ल स्तमिञ्चिरि दॆसल् दीपिम्प नम्भोनिधुल् סי तॆर लॆन् मन्नु वडेस् वडङ्कॆ महि सॊ द्रिस्मौज यै सुन्दरा ! अवतारिक : - पै पै विषयमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आराळं पाताळं त्रिदशनिलयः प्रापितलयो धरित्री निरूताययु गफी दिशः का मळ्ली दिशनु । अजृम्भि साम्भोधि ‘रुमुमु’ मिति घूर्जन् सुगरपो र्विम्भिदाने वक्ष स्त्वयि नरहरि सुन्दरभुज ! ॥ 96 प्रति . “हे सुन्दरभुज ! = ओ सुन्दर बहुस्वामि ! नरहरौ – नरसिंहमूर्ति नगु, त्वयि = नीवु, सुररिपोः=
= देव वैरियगु हिरण्यकशिपुनि यॊक्क, वक्षः == ’ ऱोम्मुनु, सुन्दर बाहु स्तवमु 177 विभिन्दाने (सति) चील्चि वेयु चुण्डँगा, पाताळम् = पाताळ लोकमु, अराळम्= वक्त्रमैनदि (आसीत् = आयॆनु) त्रिदिश निलयः = स्वर्गमु ( वेल्पुलनिवासमु), प्रापितलयः पॊन्दिम्पँबडिन नाशनमुगलदि, (अभूत्=आयॆनु) धरित्री= भूमि, निर्धूता मिक्किलि वणँ कॆनु, दिशः दिल कां अपि=ऒकानॊक, दिशम्= विधमुनु, ययुः = पॊन्दिनवि, अम्भोधिः=समुद्रमु, घुमुघुम्, इति= घुमुघुम्मनि, घार्णन् =ध्वनिञ्चुचु, अजृम्भिष्ट विजृम्भिञ्चॆनु. वि शेषमुलु :— अराळम् व्यत्य स्तमु अनँगा प्रकृ तिकिँ दलक्रिन्दु. ययु रप दिशः का मपि दिशम्- दिक्कुलु कूड नेदो यॊक दिक्कुनु पॊन्दॆ ननँगा अन्तर्हितमु लायॆ ननि भावमु, ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! नीवु नरसिंहावतार मॆत्ति प्रबलशत्रुवगु हिरण्यकशिपुनि वक्षःस्थलमुनु वच्चु चुण्डँगा ना भयङ्कर दृश्यमुनकुँ बाताळ मराळ मायॆनु, त्रिदिशनिलयमु लयमुनु बॊन्दॆनु, वसुध वडवड वडँ कॆनु, दिक्कुलु तब्बिब्बायॆनु, समुद्रमुलु घुमुघुमुघु म्मनि निनाद मॊनर्चुचुँ बॊङ्गि पोयॆनँट. म॥ अलपाताळ मगाळ मायॆ विलयं बायॆन् सुपर्वालयं बिल यॆन्तेनि वणङ्कॆ नन्दॆ दिशलुन् हीनातिहीनन् दशन् 178 सुन्दरबाहु नमु स्तनमु चॆलरेँगॆन् घुमुघुम्मटञ्चु जलधुल् श्रीमन्न ृसिंहुण्ड नै बलि यादैत्युनुरम्मु वच्चुतु तुं भद्री वनाद्रीश्वरा ! الله श्लो॥ सख । कक चक प्रथि कणत दैत्य वक्षः स्थली समुलै रुधिरच्छ काच्छुगति बिम्बितं स्वं वपुः । विलोक्य रुषितः पुनः प्रतिमृगेन्द्र शङ्कावशात् य एष नरकेसरी स इह दृश्यते सुन्दरः ॥ प्रति
- सख. ..बिम्बितम् नख अन्दुचेत, 97 गोरनॆडु, क्रकचक = अम्पमु यॊक्क, प्रथी = अञ्चु चेत, क्रथत = चील्चँ बडिन, दैत्य राक्षसुनियॊक्क, (हिरण्यकशिवुनि यॊक्क) वशीःस्थली= बॊम्मुप्र देशमुनुण्डि, समुस्था H देशमुनुण्डि, समुत्त=बयलु देऱिन, रुधिग = नॆत्तुटियॊक्क, इटा = समूहमुचेत (प्रवा हमु चेत) चरित प्रसक्तमै, बिम्बितम = प्रतिबिम्बिञ्चिन, स्वम् = स्वकीय मगु, वपुः = नीरमुनु, विलोक्य= चूचि, यः=ए, नर् केसरी= नरसिंहमूर्ति, प्रतिमृगेन्द्रशङ्काव शात् = प्रतिभटमगु सिंहमुयॊक्क शङ्कनलनि, पुनः = मऱल, रुषितः= रोषमु कलवाँडायनो, स्मयि आसरि सिंह मूर्तिये, इह= इक्कड, (ईवनाद्रियन्दु) सुन्दरः = सुन्दर भुजस्वामिगा, दृश्यते = चूडँबडु चुन्नाँडु. विशेषमुलु : प्रतिमृगेन्द्र शङ्कावशात् - इदि मऱल स्वामिवारिकि रोष मॊदवुटकुँ गारणमुगाँ सुन्दर बाहु स्तवमु 179 बेर्कॊनँ बडिनदि. सर्वज्ञुँडगु नरकेसरि शत्रुर क्त पूर प्रतिबिम्बित मगु तन विग्रहमुनु सिंहान्तरमुगाँ दलँ चुट मृगस्वभावोक्तिगा भाविम्पवलॆनु. ‘स इह दृश्यते सुन्दरः’ — आनाँडु भ क्त द्वेषि यगु हिरण्यकशिपुनि वच्चिन नर केसरिये यिच्चट सुन्दर बाहुमूर्तियै आश्रित द्वेषि निरसनमुनकु बद्धकङ्कणुँडै युन्नाँडनि भावमु. ता॥ गोळ्ळ नॆडु ऱम्पमुलकॊनलतोँ जिल्चि वेयँबडिन हिरण्यकशिपुनि तॊम्मुनुण्डि दॊरलिन रक्तप्रवाहमु नन्दु सङ्क्रान्तमै प्रतिबिम्बिञ्चिन तन देहमुने चूचि मृगेन्द्र स्वभावानुगुणमुगा मऱियॊक सिंहमनि शङ्किञ्चि येनरसिंहमूर्ति मऱल रोषिञ्चॆनो या नर सिंहुँडे ई वनाद्रियन्दु निजाश्रित द्वेषुल नणँच बद्धकङ्क णुँडै सुन्दरभुज सूपमुतो नुन्नाँडु. च॥ शित नखराञ्चलक्रकच शृङ्ग विदारितदैत्य राडुर श्च्युत रुधिर प्रपूर परि शोभिनिजाकृतिँ बाऱँ जूचि लोँ ब्रतिमृग राण्मतिस् मऱल फालनटद्भृकुटीकुँडैन श्री 1 पति यलनारसिंहुँ डिट 1 I भासिलु सुन्दर बाहुनामुँडै . 180 सुन्दर बाहु सनमु श्लो॥ क्षिति रियं जनिसंहृतिपालपै ग्नि गिरणोद्दिर णोद्धरणै रपि । वनगिरीश ! आ वैव सती कथल वरद! वामन ! भिक्षण मुगति ॥ " 99 प्रति (सें) वगद! = अन्दरिकि नन्नि वरमुल निच्चु वाँडॊ !, वामन ! वामनरूपिधारी ! वनगिरि, ईश ! = वनगिरिनाथुँड नगु सुन्दरभुजस्वामि ! जनि, संहृति, पालनै 8 - सृष्टि संहारि, गणमुल चेतनु, निगिरण, उद्दिरण, उद्धर = 118, अपि म्रिङ्गुट, क्रक्कुलु, उद्धरिं चुटल चेतँ गूड, तव, एव = नीके, सती = भार्य (द्रव्यभूत) अगु, ‘इयम्= ई, क्षितिः=भूमि, कथं वा = ऎट्लुगा, भिक्षणन् = भिक्षनु (ऒकरिवलस याचिञ्चुटनु गूर्चि) अर्हति = “योग्यमगु चुन्नदि. ’’ निगिरण विशेषमुलु : वामन ! बलिचक्रं गि यॊद्द नुण्डि मूँडडुगुल नेल नडुगुट कॊऱकु स्वीकरिम्पँबडिन वामन वेषमु गलवाँड! ‘निगिपोतोण्णण्णोद्धर मनँगाँ ब्रळयमुनन्दु स्वरुशलो निडुकॊनुट, उद्धरण मनँगा, समुद्रमध्यमु नुण्डि लेनि नॆत्तुट वीनि चेत ‘तवैव सती कथं वरद वामन भिक्षण मर्हति’ वामन रूपि वगुनो देवा ! परद्रव्यमुग ना बिच्चमॆत्तँ दगिनदि पै कारणमुल चेत नीद्रव्यमेयैन भूमि नॆन्दुलकु बिच्च (सशेषमु) मॆ तितिवि ? ? सुन्दर बाहु स्तवमु 181 नी वामनवृत्तान्तमु चेत नाश्रितुल कड्डुतगुलु वारिकिँ गूड मेलुकलिगिम्पवलसि वच्चिनपुडु तदनुगुणमुगा नवत रिञ्चि वारल मन्दलिञ्चुट श्रीवारि कभिमतमनि तॆलियु चुन्नदि. सत्पात्रुँडवगु नीकु मूँडडुगुल नेल निच्चुट चेतने गधा बलि पाताळलोकमुनकुँ जक्रवर्ति यय्यॆनु. रिय ता॥ वरदा! वामनरूपि वगु श्री सुन्दर बाहु देवा! सृष्टिसंहार रक्षणमुलचेतनु, प्रळयमुनँ बॊट्टलो निडुकॊनि सृष्टि कालमुन बैटिकिँ बम्पि समुद्रमुनुण्डि लेव नॆत्ति कापाडुट चेतनु ईभूमि नीसतियु सॊत्तुनै युण्ड दीनिनि बलिचक्रवर्ति नुण्डि बिच्चमॆत्तुट मॆट्लु पॊसङ्गुनु परद्रव्यमुनु गदा! लोकमुन बिच्च मॆत्तुदुरु ! गी॥ जनन संहाररक्षण सर्वविधुल निगिरणोद्दिरणोद्धार नियममुलनु नेल नी भार्य भिक्षिम्प नेल बलिनि? वामनाकार ! वरद! श्रीवनगिरीश ! भार्गवः किल भवन् भवान् पुरा कुन्द सुन्दरवनाचलेश्वर ! अर्जुनस्य बलदर्पितस्य तु च्छेत्स्यति स्मरति बाहु काननम् ॥ ॥ 99 (24) 182 सुन्दर बाहु स्तवमु प्रति : (हे) कुन्दसुन्दर वनाचल, ईश्वर! मल्लॆलचेत नन्दमगु वनगिरिकिँ ब्रभुननगु ओ सुन्दर भुज स्वामी!, पुरा, किल= पूर्वमु, भार्गवः = परशुरामुँ डवु, भवन् अगुचु, भवान् = नीवु, बल, दर्पितस्य बाहुबलमु चेत गर्वितुँडगु, अर्जुनस्य का र्त वीर्यार्जु नुनियॊक्क, बाहुकाननं, तु वनमुनुबोलु वेयि बाहुवुलनु, छेत्स्यति छेदिञ्चितिवि, स्मरति? = ज्ञ प्ति युन्नदा? विशेषमुलु : छत्स्यति स्मरति बाहुशाननम्…. अनेक क्षत्त्रिययूधमुल संहरिञ्चुटकण्टॆनु बाहु बल दर्पितुँडगु कार्त वीर्यार्जुनि बाहु काननमुनु छेदिं चुट यति दुष्करमनि भावमु. ता॥ मल्लॆतीँगलचे नन्दमगु वनाद्रिकि नाथुँडवगु श्री सुन्दरभुजस्वामि ! पूर्वमु श्रीवारु परशुरामाव तारमॆत्ति बाहुबल गर्वितुँडगु कार्तवीर्यार्जुनि बाहु T काननमुनु छेदिञ्चिन विषयमु ज्ञ स्त्रीयुन्नदा? उ॥ कुन्दमनोज्ञ वल्लरुल कुन् नॆल वौवन शैल मेलुनो सुन्दर बाहुमूर्ति ! गुण Q शोभित ! मुन् जमदग्नि पट्टिवे तन्दर लेक बाहुबल दर्पितुँडौ कृतवीर्यपुत्रुनि । सुन्दर बाहु स्तवमु ष्पन्द भुजाटविन् नऱकि विदिता= वैचिति गॊड्डट ज्ञ प्ति युन्न दे. श्लो॥ आज्ञातवात्र भवती विदिता त्रयी सा धर्मं तदुक्त मखिलेन वनाद्रिनाथ ! अन्यून माचरितु मा न्तिकशिक्षणार्थ म त्रावतीर्य किल सुन्दर ! राघवो भूः ॥ 183 100 प्रति :— वनाद्रि, नाथ ! = वनगिरिप्रभुवु वगु, सुन्दर! = सुन्दभुजस्वामि!, आत्रभवती= पूजनीययगु, सा=आ, त्रयी= वेदत्रयमु, तव नीयॊक्क, आज्ञा= आज्ञ गा, आज्ञगा, -प्रसिद्धमैनदि, तत्, उक्तम्=आ वेदत्रयमन्दुँ जॆप्पँबडिन, धर्मम् = धर्ममुनु, आस्तिक, शिक्षणार्थम्= शास्त्रवश्युल शिक्षकॊऱकु, ‘अखि लेन =खिलमुगाकुण्ड, अन्यू नम्= अङ्ग वैकल्यमु लेकुण्ड, आ चरितुम् आचरिञ्चुटकु, अत्र= इच्चट (अयोध्ययन्दु अवतीर्य राघनः = रामुँडवु, अभूः, किल = अयितिवँट. अवतरिञ्चि, विशेषमुलु :- अत्रभवती… ईशब्दमु पूज्यार्थकमु. प्रमाणमु लन्निण्टिलो ‘त्रयि’ श्रेष्ठमैनदि गनुकँ बूज्य यनि चॆप्पँबडॆनु. ‘त्रयी’ - ऋग्यजुस्साम वेदमुलकुँ गलिपि त्रयि यनि पेरु, आस्तिक शिक्ष णारम् वेदमुलु स्तिकशिक्षणार्थम्. दुरवगाहमुलु गनुक वानिचेँ जॆप्पँबडिन धर्ममु लन्दऱिकिँ दॆलियक पोवुटवलन नवि खिलमुगा कुण्ड अङ्ग वैकल्यमु लेकुण्ड नाचरिञ्चि चूपि या स्तिकुलकु शिक्ष यॊसङ्गुटकु, ‘अत्रावतीर्य किल सुन्दर राघवो2भूः’.184 सुन्दर बाहु स्तवमु रामो विग्रहवान् धर्मः’ अन्नट्लु पितृवचन परिपालन, शरणागत संरक्षणादि सकलधर्म व्यवस्थापकुँडनै रामुँ डनि प्रसिद्धिँ बॊन्दितिवि. ता॥ वनगिरिनाथुँड वगु ओ सुन्दर बाहुमू री प्रमाणो त्तममुगाँ बूजनीयमगु वेदत्रयि देवर वारि याज्ञगा याज्ञगाँ ब्रसिद्धि कॆक्किनदि. दानिचेँ जॆप्पँबडिन धर्ममु खलमुगाकुण्ड नङ्गलोपमु लेकुण्ड नॆल्लूरु नाच आस्तिक महाशयुलकु शिक्षण मॊसङ्गुटकु ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ अन्नट्लु नीवु श्री रामुँडनै रिञ्चुटकु
यवतरिञ्चि याचरिञ्चि चूपितिवि. उ॥ पूजित वेदवाक्कु वन ! भूधर भूषण ! तानकाज्ञ भूजनु लॆन्नुचुन्दु रटँ बॊल्चॆडु धर्ममु नार्यशिक्षकै यी जगमन्दु नीवु जनि यिञ्चि यथाविधि नाचरिञ्चुचुस् राजकुलावतंस मगु रामुँड वैतिवि धर्ममो ! यनन्. वनगिरिपति 8शी तेति जीव 8 पुरहर त्रिपुरघ्न चापभङ्गात् । व्यगणि परशुराम दर्शितस्य स्वकधनु मः परिमर्शदर्शनाच्च ॥ 101 प्रति : सुन्दु बाहु स्तवमु 4 185 देवैः = देवतल चेत, त्रिपुरहर, त्रिपुरघ्न,
चाप, भङ्गात् =रुद्रुनियॊक्क, त्रिपुर संहार मॊनर्चिन धनुस्सुनु विऱुचुटवलननु, परशुराम दर्शितस्य = परशु रामुनिचेतँ जूपँबडिन, स्वकधनुषः = स्वीयमगु वैष्णव धनुस्सु यॊक्क, परिमर्श, दर्शनात्, च = अवलीलगा नॆक्किडुटनु जूचुटवलननु, वनगिरिपतिः = वनाद्रिनाथुँ डगु सुन्दर भुज स्वामि, ईशिता = सर्वेश्वरुँडु, इति सुन्दरभुजस्वामि, अनि, व्यगणि = परिगणिम्पँ बडिनदि (निर्णयिम्पँ बडिनदि) वि शेषमुलु :- ई ‘त्रिपुरहर त्रिपुरघ्न चाप भङ्गात् ‘— ईश्वरुँडु त्रिपुरसंहार मॊनर्चिन विण्टिनि भक्तुँडगु जनकुनि कॊसँगॆनु. आमहाराजु सीतापरिणय परिपणमुनुगा नाधनुस्सु नेर्पाटु चेसॆनु. श्री रामुँडु दानि नवलीलगा विऱि चॆनु. ई कथ निट ननुसन्धिञ्चुकॊन वलॆनु. ‘वनगिरिपति रीशि तेति देवैः (व्यगणि) श्री रामुँडु ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अनि निजमाहात्म्यमु नॆन्त दाँचँ धनुर्भङ्गमु वलननु, परशुरामुनि वैष्णवधनुस्सु नॆक्कु पॆट्टुट वलननु, दॆल्ल मय्यॆननि भावमु. दलँचिननु अदि शिव ता॥ वनगिरिनाथुँडगु सुन्दर बाहुमूर्ति श्री श्रीरा मुँडुगा नवतरिञ्चि ता नॆन्तगा मानवत्वमु नभिनयिम्पँ जूचिननु त्रिपुरसंहार मॊनर्चिन शिवुनिविल्लु विऱुचुट वलननु, परशुरामदत्त मगु वैष्णवधनुस्सु नवलीलगा 186 सुन्दर बाहु स्तनमु EL IM नॆक्कु पॆट्टट चेतनु नेल्पुलु परात्परुडगु सर्वेश्व रुनिगा निर्णयिञ्चिरि. च॥ ननगिरिनाथुँ डिन्दु रघु नल्ल भुँडै जनियिञ्चि मुन्तगा मनुजतँ जाट नॆञ्चिन न मर्यु लॆऱिङ्गिरि तत्परत्वमुस् दुनियलु सेयुटन् ‘मुदल धूर्जटि चापमु, ‘नक्कु “पट्टु मी धनु वनि भार्गवुं डॊसँगँ दत् क्षणमे हरिविल्लु वञ्चुटरी . श्लो॥ अनवाप्त पात्र कि लिप्स्य ज्ञान् र्नच लब्ध मेत दिह भोक्तु मिष्य णी। अनवाप्त मत्र शील नास्ति ग्राम ! त जगती त्वया तृणमज्ञश्री सुन्दर! ॥ 102 प्रति : (हे) रानु ! सुन्दर ! = श्री रामुँडवुगा नवतरिञ्चिन यो सुन्दर बाहुमूर्ती! ईलोकमुन, जनै : जनुलचेत, . अनवा स्तं, कल पॊन्दँबडनिदि गदा, भो क्तुम्= अनुभविञ्चुटकु, लिस्स्यने कोरँदलँचँ बडुचुन्नदि. इह इक्कड, भो सैनु लब्धम् = पॊन्दँबडिन, एतत् ईन स्तुवु, (ई नाञ्छित वस्तुवु) न च, इष्यते = इष्टमुकादु, अत्र ईलोकमु नन्दु, अनवा स्तम् पॊन्दँबडनिदि, ना स्ति कील = लेदु भुजिञ्चुटकु, सुन्दर बाहु स्तवमु 187 गदा, तत् = अन्दुवलन (अवा प्तसमस्त कामुँडवु नी चेत, जगती भूमि, तृणम् = गड्डि गनुक) त्वया पऱकगा, अवै&=चूडँबडिनदि. वि शेषमुलु :- ‘नच ಲ मेत दिह भो क्तु मिष्यते’- लब्धमगु वस्तुवु ननुभविञ्चुट किष्ट मुण्डदु. सिद्धवस्तुवु कनुक, तृणमवैक्षि गड्डिपऱकवलॆ नल्पमुगाँ जूडँ बडिनदि. उभय विभूति नायकुँडवगु नीकु इं्वकु राज्य मत्यल्पमुगाँ दोँचिनदि. लेकुन्नचो राज्यमुनु वीडुट सम्भविम्पदु. ता॥ श्रीरामुँडवुगा नवतरिञ्चिन यो सुन्दर बाहु मूर्ती! ईलोकमुन जनुलु लभिञ्चनि वस्तुवु ननुभविम्पँ गोरुदुरु. कोरँबडिन यी वस्तुवु लभिञ्चॆनेनि सिद्धमगुट चे दानियन्दु निष्टमुण्डदु. अवाप्त समस्तकामुँडवगु नी किक्कड ननवा स्त मेदियु लेदु. कनुक नुभयविभूति नाय कुँडवगु नीकु भूमि (कोसलराज्यमु) गड्डिपऱकगाँ दोँचिनदि, उ. रामुँडवै जनिञ्चिन प रात्पर ! सुन्दर बाहुमूर्ति! दे वा! महिँ गोरुचुन्दु रन वा प्तमु नद्दि लभिम्पँ दानिपै ँ ब्रेममु वोवुँ जॆन्तँ गनि पिञ्चुट नीकु नना प्त मुन्न दे? 188 3 सुन्दर बाहु सवमु कोमल देह ! दानँ गद! कोसललक्ष्मि तृणम्बु नीमणि. श्लो॥ शिखरिषु विपिनेष्व प्यापगा स्वच्छतोया स्वनुभवसि रसज्ञो दण्ड कारण्यवासान्” । त दिह तदनुभूतौ साभिलाषोद्य गानु ! श्रयनि वनगिरीन्द्रं सुन्दरीभूम भूयः ॥ 208 प्रति (हे) राम! ओ रामुँड!, रसज्ञ रसिकुँडवगु नीवु, शिखरिषु=चित्रकूटानि पर्वतमुलन्दुनु. विपि नेषु = वनमुलन्दु, अच्चतो यासु निर्मलमुलगु नीरुगल, आपगासु, अपि नदुलयन्दुनु, दण्डकारण्य ‘वासान् दण्डकावनमु नन्दलि निवाससुखमुलनु, अनु भवसि=अनुभविञ्चु चुन्नावु, तत् hy M.WI अन्दुवलन, तत् + अनुभूतौ वानिनि (कॊण्डलनु, अडवुलनु, नदुलनु) अनुभविञ्चुटयन्दु, सॊभिलाषः कोरिकतोँ गूडिन वाँडवगुचु, इह ई जगत्तुनन्दु, अद्य= इप्पुडु, भूयः =मऱल, (रामावतारानन्तरमु कूड) सुन्दरी सुन्दर भुजस्वामि वयि वनगिरीन्द्रम् नूपु रापगतो नॊप्पु वनशैलराजमुनु, आश्रयसि आश्र यिञ्चु चुन्नावु. भूय विशेषमुलु :‘अनुभवसि रसज्ञो दण्डकारण्यवासान्’ श्रीरामा! नीरसिकत्वमु लोकोत्तरमु. दण्डकावनवास मुनु सुखकरमुगा ननुभविञ्चितिवि. इटँ गॊण्डलयन्दु सुन्दर बाहु स्तवमु 189 वनमुलन्दु निर्मलतोयमुलुगल नदुलन्दु विहरिञ्चितिवि गानि श्रमपड लेदु. वनवासमुनु सुखमुगा मार्चुकॊन्न नीवे रसिकुँडवु. यणमुन.. इन्दुलकुँ ब्रमाणमु - श्रीमद्रामा श्लो॥ चित्रकूट मनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् रम्य मावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः देवगन्धर्व सङ्काशा स्तत्र ते व्यवसन् सुखम् ॥ अनुभवसि :— ‘चिर निर्वृत्त म स्येतत् प्रत्यक्ष मिव दर्शितम् ’ चाल कालमु क्रिन्द ननुभविम्पँ बडिनदिकूडँ गळ्ळकुँ गट्टिनट्लु वर्णिञ्चुटवलन वर्तमानकाल क्रिय युप योगिम्पँ बडिनदि. तदनुभूते साभिलाषः– शिखरिविपिन स्रवन्ति सुखानुभवमुनँ गोरिक गलवाँडवै ‘अद्य’ - - वर्तमानकालमुन- ‘भूयः’ - मऱल - रामावतारा नन्तरमुकूड. ‘श्रयसि वनगिरीन्द्रं सुन्दरीभूय’- श्री रा मुँडु नाँडु चित्रकूटमु नाश्रयिञ्चिनट्लु सुन्दबाहु मूर्ती ! नीवु नेँडु वनगिरिराजमु नाश्रयिञ्चु चुन्नावनि भावमु. ‘सुभग श्चित्रकूटो सौ । गिरिराजोपमो गिरिः यस्मिन् वसति काकुत्थ्सः ऎ कुबेर इव नन्दने’ अनि वर्णिम्पँ बडिन चित्रकूट पर्वतमुतो ईननि शैलमु समानमनि सारांशमु, ता॥ श्री रामा ! नी वॆन्तयु रसीकुँडवु. चित्रकूटादि पर्वतमुलन्दु, वानि यनुबन्धुलगु वनमुलन्दु, माल्य (25) 190 सुन्दर बाहु स्तवमु वन्तमु नन्दलि निर्मलोदकमुलगु मन्दाकिनी सम्पादिनदुल यन्दुनु विहरिञ्चुचु दण्डकारण्यवासमु सुखरूपमुगा मार्चुकॊनिनावु. अन्दुवलन निच्चट नायनुभूतियं दभिलाषतो रामावतारानन्तमु गूड मऱल सुन्दर भुजस्वामिपै नूपुरापगतो नॊप्पु ननगिरिगाजमु नाश्र यिञ्चु चुन्नावु. शा. रामा ! नीवु रसज्ञ शेखरुँड वा रा! कॊण्डलन् गॊनलन् भूमिहार निभम्बुलौ तटीनुलन् भोगिञ्चि तौदण्डकन् नेमं बॊप्प वसिञ्चुनाळ्ळु सुख मा नॆय्यम्बुँ बायङ्ग ले “केमि चेरिति सुन्दरुण्ड वयि नेँ अवतारिक- विशेषमुनु डीकानना हार्यमुन्, दण्डकावनवास मॊक्कॊक्कचोट श्रम गलिगिञ्चिनदि. वनगिरिनिवास मट्टि श्रमलनु हरिञ्चिनदि यनि चॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ उपवनतरुषं डै र्मण्डिते गण्डशैल प्रणयिभवदुडन्तो ग्गायि गन्धर्वसिद्धे । वनगिरितट भूमिश्रुस्तरे सुन्दर ! त्वं 1 भजसि नु मृगयानानन्द्रव क्रान्तिकान्तिम् । I 105 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु 191 हे सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! उपवन, तरु, षण्डै 8 = उद्यानवनमु नन्दलि चॆट्ल गुबुरुल चेत, मण्डि ते= अलङ्करिम्पँ बडिनट्टियु, गण्ड……सिद्धे— गण्ड शैल प्रणयि
कॊण्डलनुण्डि जाऱिपडिन पॆद्दबण्डलयन्दु, प्रेमगलिगि नट्टियु, भवत् = तमयॊक्क, उदन्त= चरितमुनु, उत्, गायि= पॆद्दगा गानमु चेयु स्वभावमुगल, गन्धर्वसिद्धे = गन्धर्वुलु सिद्धुलु गलिगि नट्टियु, वनगिरि, तट, भूमि, प्रस्त रे=वन्न शैलमुयॊक्क सानुतलसन्निहित शिलयन्दु, त्वम् = नीवु, मृग…… शान्तिम्– मृग =मायलेडियॊक्क, यान= गमनमुनु, अनुद्रव = अनुसरिञ्चि परुगॆत्तुटवलनि, श्रान्ति = अलुपु यॊक्क, शान्तिम्=तीर्चुकॊनुटनु, भजसि, नु = पॊन्दु चुन्नावो ! यन्नट्लुन्नावु, विशेषमुलु : इन्दलि यु इन्दलि युत्व रारमु सारांशमिदि. मुत्तरार्थमु ओ सुन्दर भुजस्वामी ! नीवु रामावतारमुनँ गान्तार सुन्दरभुजस्वामि वासमुन मायलेडि वॆम्बडि परुवॆत्तिनन्दु वलनँ गलिगिन श्रमनु सिद्धगन्धर्वगान मनोहरमगु वनाद्रितटमुनँ दीर्चुकॊनुचुन्नट्लुन्नावु. दण्डकारण्यवासमुन मृगानु धावनश्रमनु वनाद्रि पोँगॊट्टिन दनुटचे वनगिरि यति शयमु वॆल्लडि यगुचुन्नदि. भजसिनु- इन्दलि ‘नु’ अनु नव्ययमु उत्प्रेऔद्योतकमु. 192 सुन्दर बाहु स्थनमु ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी! पूँदोँटललो नि ओ गुबुरुलचे नलङ्कृतमै कॊण्डलनुण्डि जातन “पिनुबण्डलँ गूर्चुण्डि प्रेमतोँ दम चरित्रमुनु गण्ट मिचि पाडु सिद्धुलतो गन्धर्वुलतोँ गूडिन्नदि यप्प सनाद्रितटा oंशिश शिलातलमुन नीवु रामावतारमुनाडु माय लेडि पॆम्बडि परुवॆत्तिन श्रमनु दीर्चुकॊनु चुन्नावो यन्नि ट्लल गारु चुन्नावु. शा॥ पूँदोँटन् गुबुरैन चॆट्टग मुलस् बॊल्पारि, गन्धर्वु ह्लादं बॊप्पँग गण्ड शैलगतु लै यालापमुल् सेयँगा नीदिव्यत्कथ गेयभङ्गि विनु चुस् वेदिन् बायुदॆ सुन्दरा ! हरिणमुन् वॆण्टाडु नायासमुन्’. श्लो॥ कूले. बे कील दक्षिणस्य निवभन् दूगो त्त गा ल भोधिगान् दैत्या नेकपतत्रिणाऒच्चिन इ तीयं किंवदन्ति भ्रुणा ! तत्रे वेश्वर मन्धसां व्यजयथा स्थस्मा द्विनाद्रीश्वर । श्रीमन् सुन्दर! सेतुबन्धन मुखाः क्रीडा स्तवाद बरम् ॥ 105
- प्रति :
वनाद्रि + ईश्वर ! = ननगिरिप्रभुवा! श्रीमन् = सम्पन्नुँडा!, सुन्दर श्री सुन्दर बाहु, स्वामी !! दक्षिणस्य = दक्षिणवु, अब्देः = समुद्रमुयॊक्क, कूले= लक्ष्मी सुन्दर बाहु स्तवमु 193 तीरमुन, निवसन् –निवसिञ्चुचु (त्वम् = नीवु) दूर, उत्तर, अम्भोधिगान् = दूर मन्दुन्न युत्तर समुद्र द्वीपमुनु जॊच्चिन, दैत्यान् दै त्यान् = राक्षसुलनु, एक पतत्रिणा - ऒक टे बाणमुतो, अच्चिनः, कल = छेदिञ्चितिनँट, इति = अनि, = इयम् = ई, किंवदन्ती वार्त, श्रुता विनँबडिनदि. (रामायणमुन) तत्र, एव आदक्षि णाब्धि तीरमुनने, अम्भ साम् = नीरमुलकु, ईश्वरम् ईश्वरुँडगु समुद्रुनि, व्यजयथाः = गॆलिचितिवि, तस्मात् = अन्दुवलन, तव = नीकु, सेतुबन्धनमु खाळि सेतुवु (वन्तॆन) कट्टुट मुन्नगु, क्रीडाः डाः === आटलु, आडम्बरम् = ख्याति कॊऱकगु व्यापारमु. विशेषमुलु :— ‘सेतुबन्धन मुखाः क्रीडास्त वाडम्ब रम्’— ऒ के यॊक बाणमु चेत नुत्तरसमुद्र द्वीपमुलो नुन्न रक्कसिमूँकनु द्रुञ्चिन नीकु निक्कड नुण्डिये लङ्काद्वीपमु नन्दलि राक्षसनिर्मूलनमु सुलुवै युण्ड सागरुनि शरणागतुँ जेसिकॊनि सेतुनिर्माण मॊनर्चि रावण नध मॊनर्चुट मुन्नगु नी लीललु लोक विख्याति कॊऱकु अनि हृदयमु. ता॥ वनाद्रिनाथुँड वगु नोसुन्दर बाहुमूर्ती ! नीवु दक्षिण समुद्रतीरमुन निवसिञ्चुचु नॆन्तो दूरमगु नुत्तर समुद्रद्वीपमुन नुन्न राक्षसकोटुल नॊक्क कोल चेत ने छेदिञ्चिति पनि किंवदन्तिनि श्रीमद्रामायणमुन विनि युन्नामु. अन्तेकादु अच्चटने युण्डि साममु चेतँ Л194 सुन्दर बाहु सवमु जक्कँबडनि सॊगरुनि सायकमुचेत राणिञ्चि जयिञ्चितिवि. अन्दुवलन निच्चटनुण्डिये लङ्कागा,सुल निर्मूलिञ्चुट नीकु सुलुवैननु सेतुबन्धना! घनकार्य मुल द्वारा शत्रुवुल जयिञ्चु नी लीललु ख्यात्मिलुकनि तॆल्लमगु चुन्नदि. उ. दक्षिणवार्ध वेल नॊक कावुन नुण्डि यदर्प योगा ट्कुक्षिगतानु राळि नॊक कोलनॆ कूल्चि पयोधि गॆल्चुनी कक्षयकीर्ति निल्पुट ? यय्यॆ वनाद्र्यधिनाथ ! प्रतुबं धक्षण दाच राधिप न धप्रभृतुल् भनवीड्य खिलमुल्. अवतारिक :- गामानताग मनोहरि व्यापारमुल नुपसंहरिम्पँ बोवुचु ‘उपवनतरुमल’ अनु 104 s श्लोकमुन ननुभविञ्चिन भावमु ने ननगिगिभोग्यजातिशयमुनु सूचिञ्चुटकु मऱल मऱल ननुभविञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ रघुकुलतिलक त्वं जातुचि द्यातुधान च्छलमृगमृगयायां सम्प्रसक्तिः पुरा भूः । तदुपजनित भेदच्छेदना याद्य गाय न्मधुकरतरुषण्डं राज्यने किं वनाद्रिकि प्रति :- (हे) रघुतिलक ! 108 रघुवंशमुनकु बॊट्लु वलॆ नलङ्कारभूतुँड वगु नोरामा! त्वम् नीवु’ सुन्दर बाहु स्तवमु मुनुपु, जातुचित् ऒकप्पुडु, 195 पुरा यातुधान, छलमृग, मृगयायाम् = राक्षसुँड नॆडु मायलेडि यॊक्क वेटयन्दु, सम्प्रसक्तः= बागुगा नासक्ति गलवाँ डवु, अभूः =अयितिवि, तत्, उपजनित, भेद, छेदनाय= दानिवलनँ बुट्टिनश्रमनु बोँगॊट्टुकॊनुट कॊऱकु, अद्य= इप्पुडु, गायत्, मधुकर, तरुषण्डम् झङ्करिञ्चुचुन्न तुम्मॆदलु गल चॆट्लगुबुरु गल, वनाद्रिम्=वन शैलमुनु, (गूर्चि) रज्यसे, किम्= अनुरक्तुँडवगुचुन्नावा ? विशेषमुलु : यातुधानच्छल मृगमृगया याम्’ अदि निजमुगा मृगमुगादु. मायलेडि, लो मुलो बङ्गारु लेडि नॆव्वरुनु विन लेदु कनलेदु. श्रुतो नैन च दृष्ट पूर्वो लोके क्वचि देममयः ! कुरङ्गः’ - अट्लयिन नॆवरु? यातुधानः- राक्षसुँ डगु मारीचुँडु. मृगयायाम् तत्संहारमुनकु अनुगुण मगु व्यापारमुनन्दु रज्यने, किं वनाद्रिम् आनाँटि माय लेडि वॆण्टँ बरुगॆत्तिन यायासमुनु दीर्चुकॊनु चुन्नावा ? अनु प्रश्न चेत वनगिरि भोग्यतातिशयमु ध्वनितमगु चुन्नदि. अ ‘न च ता॥ रघुवं शालङ्कारभूतुँड नगुलो श्री रामा! नी वानाँडु मायलेडि यैन मारीचुनि वॆण्ट मृगमु वॆण्ट मृगयुनिवलॆँ बरु गॆत्तुट वलनँ गलिगिन श्रमनु दीर्चुकॊनुट कॊऱकुँ बूँदे नॆलँ ग्रोलि जुम्मनि गान 196 सुन्दर बाहु स्तवमु मॊनर्चुचुन्न तुम्मॆदलतो नॊप्पु पूँजॆट्ल गुबुरुलतो निण्डिन वनशैलमु नॆन्नु कॊण्टिवा ? उ. ओ रघुवंश मौक्तिकम ! युज्ज्वल हेममृगम्बु वॆण्टँ गां तारमुनन्दुँ बर्विडिन तच्छम मिप्पुडु दीर्चुको मनं बॆ गसलोलमत्त मधु पारव गानकळाभिराम धा त्रीरुहषण्डमण्डितमु दिव्यवनाचल मॆन्नु कॊण्टिना ? श्लो॥ हे सुन्दरैकतरजन्मनि कृष्ण भाने ज्वे मातरौ च पितरौ च कुले अपि द्वे ! एकक्षणा दनुगृहीतपरः परं गे नीला कुलेन सदृशी शील रुक्मिणी च॥ 107 प्रति : हे सुन्दर ! = ओ सुन्दर् बाहु मूगी ! एकतर जन्मनि = ऒक यवतारमुनन्दु, कृष्णभावे कृष्णुँड = वैनप्पुडु, (द्वे इद्दऱु) मातगा= तल्लुलनु, (देवकी यशोदलनु(द्वौ= इद्दऱु) पितिका, च=तण्ड्रुलनु (वसु देव
- नन्दगोपुलनु) द्वे= रॆण्डु, कुले, अपि कुलमुलनुगूड, द्वे=रॆण्डु, (क्षत्रियकुल नन्दगोपकुलमुलनु) एकक्षणात् मुलो, परम् = मिक्किलि अनुगृहीतवतः = अनुग्रहिञ्चि नट्टि, तेनीकु, रुक्मिणी - क्षत्रियकन्य यगु रुक्मिणी देवि, नीला छ = नीला देवियु, कुलेन - वंशमु चेत, सदृशी, वंशमुचेत, किल ± तगिनदि. कदा ! A ऒकण सुन्दर बाहु स्तवमु च_ 197 वि शेषमुलु :—— एकक्षणात् = स्वल्पकालमुलो, ‘नीला कुलेन सदृशी किल रुक्मिणी च’ - मातृकुल मगु क्षत्रिय कुलमुनकुँ दगिन भार्य रुक्मिणि यनियु, तण्ड्रिकुल मगु गोपकुलमुनकुँ दगिन भार्य नील यनियु भावमु. नीवु भिन्न भिन्न कुलमुललोँ बुट्टिन पत्नीद्वयमुनु बरिग्र हिञ्चुटकॊऱके रॆण्डु कुलमुलनु अनुग्रहिञ्चिति वनि सारांशमु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! नी वॊक जन्ममुनँ गृष्णुँड वैनप्पु डिद्दऱुतल्लुलु निद्दऱुतण्ड्रुल रॆण्डुकुलमुल नॊक क्षणमुलो नादर पूर्वकमुगाँ बरिग्रहिञ्चुट तल्लि कुलमगु क्षत्रियकुलमुन कुचित यगु रुक्मिणी देविनि, तण्ड्रि कुलमगु गोपकुलमुन कनुगुण यगु नीला देविनि भार्यलनु गाँ बडयुट के गदा! उ॥ सुन्दर बाह ! नीवु प्रज सुन्दररूपुँडवै जनिञ्चिन पन्दऱु मॆच्चँगा निरुवु रम्मल नय्यल नन्वयम्बुल९ बॊन्द नॊकेक्षणान नटु पूनुट क्षत्त्रियकन्य भीष्मरा ण्णन्दन गॊल्ल वङ्गडपु नातिनि नीलनु बॆण्डि याडना ? (26) 198 सुन्दग बाहु सवमु श्लो॥ त्वं हि सुन्दरि । यदा सनन्धयः ♡ पूतवासन मधा स्थदा नु किम् । जीर्ण `मेन जठरे पविषं दुर्जरं वद तिदात्म
ना सह ॥ + 1 AMWH K 108 प्रति : — सुन्दर ! ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! त्वम् = नीवु, यदा, ही= ऎप्पुडैते, स्तसन्धयः (सस्)= पालु त्रागुवाँडवगुचु, (पिसिवाड वै) पूतना स्तनमु = पूतन यॊक्क, स्तनमुनु, अधाः तागितिवो ! तदानु अप्पुडु, दुर्जरम् (इतुरुलचेत) जीर्णमु चेसिकॊन शक्यमुकानि, वयोविषम् पालरूपमुतो नुन्न विषमुनु, तदात्मना, सह = तत्, आपूतन यॊक्क, अत्मिना, सहज जीवमुतोँ गूड, जठ’रे = उदरमुनन्दु, जीर्णं, एव, कमु - चेसिकॊनँबडिनदा ? पद चॆप्पुमु. जीर्ण मु विशेषमुलु :– वद्द = नी चेतने प्रत्युत्तर वियँ = बडवलॆनु, अनँगा- पालुत्रागु प्रायमुनन्दे पूतना प्राणमुलतो ँ बाटु इतरुलु जीर्णिञ्चुकॊनलेनि यारक्कसि स्तनविषमुनु जीर्णमु चेसिकॊनिन बालुँडवु नी वेना ? ई शङ्कनु दीर्पुमनि भावमु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुस्वामी ! नीवु पालुत्रागु पसि वाँडवै युन्नप्पु डितरुलु जीर्णिञ्चुकॊनलेनि पूतना स्तन मुनु ग्रोलिनप्पुडु आ रक्कसि पालरूपुननुन्न विषमुनु आमॆ प्राणमुलतोँबाटु जीर्णिञ्चुकॊण्टिवा ? ई शङ्कनु दीर्पुमु. सुन्दर बाहु स्तवमु उ॥ चेतुललोनि बिड्ड वयि क्षीरमुँ द्रावॆडु लेँतयीडुनन् बूतन चण्टि नोविपिन भूधर वल्लभ ! ग्रोलि तण्टगा ! आतऱि नन्यदुर्जरमु नैन तदुग्रपयो ‘विषम्बु त दातुकि जीवमुन् सममु गा नुदरम्बुन जीर्णमय्यॆना ? ॥ आश्रयेषु सुलभो भवन् ववान् मर्त्यतां यदि जगाम सुन्दर! अस्तु नाम त दुलूखले कीय दौम बद्ध इति किं तदा ऒरुदः ॥ 199 109 प्रति :— सुन्दर ! = ओ सुन्दरभुजस्वामि ! भवान् = नीवु आश्रयेषु = आश्रितुल विषयमुन, सुलभः = नुल भुँडवु, भवन् = अगुचु, मर्त्यताम्=मानवत्वमुनु, जगाम, यदि=पॊन्दितिवेसि, तत् = अदि (आमर्त्यत्वमु) अस्तुनाम= अगुँगाक, तदा= अप्पुडु, उलूखले= तोटि यन्दु, कियत्, दाम, बद्धः, इति = चिन्नि त्राटिचेत बन्धिम्पँबडितिननि, कीम् ऎन्दुलकु, अरुदः वच्चितिवि ? (लेदा) दामबद्दः इति कियत् =ऎन्तो सेपु, ऎन्तो किं = ऎन्दुकु. त्राटचेँ गट्टँबडितिननि, पॆद्दगा, अरुदः = एड्चितिवि, 200 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :– आश्रयेषु सुलभोभवन्’ आश्रयमु चेत फलार्थमु परिचरणयोग्युँड नगुनु, ‘मर्त्यतां यदि जगाम’– मग्गं ‘योग्या मन्याशि (मरणिम्पँ दगिनवारु) अनुव्युत्प त्तिकिँ दगिनट्लु मर्त्यत्वमुनु बॊन्दिति वेनि, ‘अस्तु नाम तळ् देवरवारिचे सङ्कल्पिम्पँबडिन सौलभ्यमुन कन्नुल मैन याम गृत्वमु कलुगुट मञ्चिदे कदा ! अप्पुडु कोटि केमात्रपु ताटितोनो तलि कट्टिवेसिनदनि यन्त सेपु अन्त पॆद्दगा नेल एड्चितिवि? उशाखल बन्धनमु नी याश्रित सौलभ्यमुन कत्यन्तानुमाल मनि सन्तोषिम्पँ वलसिन समयमुन नी पट्टु दुःखिञ्चुट शङ्कनु गलिगिञ्चुचुन्न दनि भावमु, वॆनुकटि श्लोकमुन ‘जीर्ण मेव जठरे पयोविषम्’ अनु प्रश्न परत्वपूचकमु. ई श्लोक मुन ‘किं तदा_रुदः’ अनु प्रश्न सौलभ्य सूचक मनि तॆलियव लॆनु. ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी! आश्रितसौलभ्यमु कॊऱकु ओ देवरवारु मर्त्यत्वमुनु स्वीकरिञ्चुट निजसङ्कल्पमुन कनुगुणमै युण्ड नाँडु तोटि केमात्रपुत्राटितोनो कट्टँबडितिननि यन्तगा ‘नेड्व नेल? उ॥ आश्रितकोटिकिन् सुलभ तातिशयार्थमु नीवु मर्त पाश्रयणं बॊनर्चि तदि मर्त्यगू यन्तयु नीकृति कॊप्पिदम्बॆ का ! J प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु एश्रम मब्बॆ नीकु नॊक यिञ्चुक तॊटनु तोटँ गट्टँगा
नश्रुलु काल्वलै परँग |
---|
नव्विधि नेड्वँग नेल सुन्दरा ! |
॥ सुन्दरोरुभुज नन्दनन्दन |
स्वं भवन् भ्रमरविभ्रमालकः । मन्दि रेषु नवनीततल्लजून् |
वल्लवीधिय मुत व्यचूचुरः !! |
सुन्दर ! उरु, भुज ! |
201 |
110 |
अन्दमुलगु गॊप्प |
भुजमुलुगल योसुन्दर बाहुस्वामि ! भ्रमर, विभ्रम, अलकः=तु म्मॆदलयॊक्क विलासमुलवण्टि विलासमुलुगल मुङ्गुरुलु गलिगिन, नन्दनन्दनः = गोपकुमारुँडवु, भवन् = अगुचु, त्वम्=नीवु, मन्दि रेषु=गॊल्ल लयिण्ड्ललो, नवनीततल्ल जान् = श्रेष्ठमुलगु वॆन्नलनु, उत= लेक, वल्ल वीधियम् = गोपिक लबुद्धिनि, व्यचूचुरः=दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? (लेक रॆण्डिटिनि दॊङ्गिलिञ्चितिवा ?) |
? |
विशेषमुलु :- ‘नवनीततल्ल जान्’ इच्चटँ दल्लज शब्दमु श्रेष्ठवाचकमु. इन्दलि युत्तरार्धमुयॊक्क सार मिदि. ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! अत्यन्त कान्त दिव्यमङ्गळ विग्रहमुतो नीवु नन्दनन्दनुँडवै नवनीतापहरण मॊनर्चुट गोपीजनमुयॊक्क मनोपहरणमुन कायॆनु, नी वॆन्न दॊङ्गतनमु नी सौन्दर्यमुनु दिलकिञ्चुचुन्न |
गोपाङ्गनल कॆन्तयु मुच्चट गॊल्पॆनु. अनि तात्पर्यमु. |
202 |
सुन्दर बाहु स्तवमु |
ता! ओ सुन्दरि बहु स्वामि ! तुम्मॆदलवण्टि नल्लनि |
बहु,स्वामि मुङ्गुगुलतो नीवु सन्दगोपे कुमारुडवै नप्पुडु गोपिका मन्दिरमुलन्दु मञ्चिमञ्चि वॆन्नमुद्दलु दॊङ्गिलिञ्चितिवा? लेक गॊल्लयिल्लाण्ड्र युल्लमुलनु म्रुच्चिलिञ्चितिवा? लेक |
या रॆण्डिटिनि गॊल्लँ गॊट्टितिवा ? |
उ॥ अल्ल यशोद बिडवयि |
नप्पुडु कानन शैल वल्लभा ! |
नल्लनि गण्डुतुम्मॆदल |
नैगनिगल् गल मुङ्गुगुल् विगा |
जिलॆडु मोमुतोड प्रज |
सीमल वॆन्नल म्रुच्चिलिञ्चितो ? |
गॊल्लमिटारि कत्तियल |
कोमल मानसमुल् हगिञ्चितो ? |
श्लो॥ काळियस्य फणतां शिरस्तु ‘मे |
सत्कदम्ब शिखरत्व मेव वा । वष्टि जुष्टपन शैल सुन्दर ! त्वत्पदाब्जयुग मर्पितं ययोः ॥ प्रति : जुष्ट, वन शैल |
111 |
-सेविम्पँबडिन ननाद्रिगल, |
सुन्दर ! = ओ सुन्दरभुजस्वामि! त्वद्, पदाब्ज, युगमु - |
!= नी पादपद्ममुलजण्ट, ययोः = एकाळियाहिफण शिखर मन्दुनु, एकडिमि चॆट्टु कॊनयन्दुनु, अर्पितमु = उञ्चं बडिनदो, ‘मे = नायॊक्क, शिरः, तु शिरस्सैते, (ताम्= |
J |
सुन्दर बाहु स्तवमु |
203 |
अट्टि) काळियस्य= काळियसर्पमुयॊक्क, फणताम् वा- पडगरूपमुनुगानि, सत्, कदम्ब, शिखरत्वं, एव, वा= योग्यमगु कडिमिम्रानि कॊम्मकॊन यगुटनुगानि, वष्टि— कोरुचुन्नदि. |
ट |
विशेषमुलु :- ‘ययोः’- एकाळियाहि फणाग्र मन्दुनु, एकडिमिम्रानि कॊनयन्दुनु, वष्टि = कोरुचुन्नदि. ऎन्दुलकनँगा ‘दुर्लभो मानुषो देहॆू देहिनां क्षणभङ्गुरः’ (क्षणभङ्गुरमैननु मनुष्य देहमु दुर्ल भमु.) अनियु, ‘अरण्ये सन्ति पत्राणि नद्यां स्वादूद कानिच सन्ति, हस्ता च पादौ च । कथं नाराध्यते हरिः’ (अडविलोँ दुळसीपत्रमुलु गलवु, नदिलो मञ्चिनीरमु गलदु, ‘काळ्लु चेतुलु गलवु. श्रीहरि येल याराधिम्पँ बडँडु) अनियु भगवदाश्रयणोपयोगि करचरणादि विशिष्टमगु मनुष्यत्वमुनन्दुनु ना कन्त मोजु लेदु. भगवच्चरणार्पणमुन कुपयुक्तमु लगु नेनि तिर्यक् स्थावरत्वमुलु गूड ना कुपा देयमुले यनि भावमु. |
ता॥ वनशैल वल्लभुँडवगु ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! नी पादपद्ममुलजण्ट वेनियन्दुञ्चँबडॆनो याकाळियाहि फणाग्र भागमो आकडिमि चॆट्टु कॊम्मचिवर भागमो यगु टकु नाशिरस्सु कोरुकॊनु चुन्नदि. |
उ॥ सुन्दर बाहु देव! वन |
शोभित दिव्यशिलोच्चयाधिरा201 |
सुन्दरबाहु स्तनमु |
ण्मन्दिर ! नीपदद्वयि स |
मर्पित माटनु जेसि काळिमा |
हीन्द्रु फणाग्र भाग मु ! य |
हीनकदम्ब मही रुहाग्रमो! |
नन्दसुतुण्ड पै सं |
नाशिर मॆटिकँ गाक पोयॆनो ! |
श्लो॥ गूहितस्वमहिमाऒपि सुन्दर 1 |
त्वं प्रजे कि मिति शश्र माक्रमाः । सप्तरात्र मदधा श्च किं गिरिं पृच्छत श्च सुहृदः कि मुधः !! |
मक्रुधः प्रति : — सुन्दरि ! = ओ सुन्दर भुजस्वामी ! गूहित, स्व, महिमा, अपि= दाचुकॊनँबडिन स्वाभाविक वैभवमु गलवाँडवय्यु, त्वम् = नीवु, प्रजे = नन्दगोकुलमुनन्दु, किमिति=एमनि, शक्रम् = देवेन्द्रुनि, आक्रमागि = आक्रमिञ्चितिवि, सप्तरात्रम् = एडु रेयिम्बवळ्लु, गिगिसु - गोवर्धन पर्वत मुनु, किं==ऎन्दुलकु, अदभाः= धरिञ्चितिवि, पृच्छतः= (इन्त पॆद्द पर्वतमुनु नॆत्तितिवि नीवु देवुँडवा ? सिद्धुँ डवा ? अनि अडुगुचुन्न, सुहृदः = मित्रुलनु, किं= ऎन्दुलकु, अक्रुधः कोपिञ्चितिवि ? |
A.. |
तन |
विशेषमुलु :- ‘कि मिति शक्र माक्रमाः’. पूज कड्डुवच्चॆननि युद्धोन्मुखुँ डगु देवेन्द्रुनि श्रीकृष्णुँ डॆदुर्कॊनॆ ननि भावमु. लेदा देवेन्द्रुनि पूज कड्डु तगुलुटये यिटु नॆदुर्कॊनुट यनि तॆलिय वलॆनु. |
सुन्दर बाहु स्तवमु |
205 |
सप्त स प्त रात्रम्— इच्चट रात्रिशब्दमु दिवारात्रपरमु. कि मक्रुधः — ऎन्दुलकुँ गोपिञ्चितिवि? तन महिमनु दाचु कॊनँ दलँचिनवानिकि देवेन्द्रु नॆदुर्कॊनुट, एडुनाळ्लु रेयिम्बवळ्लु गोवर्धनगिरि नॆत्ति पट्टुट, इदि येमि ? नीवु देवुँडवा ? सिद्धुँडवा ? ? यनि प्रश्निञ्चु मित्रुलनु कोपिञ्चुट परस्परमु व्याहतमु (विरुद्धमु) अगुचुन्न |
दनि भावमु. |
ता॥ सुन्दर बाहुमूर्ती! नी महिमनु नीवु दाचु कॊनँदलञ्चिन यॆडल नन्दगोकुलमुन निन्द्रयागमु चेय वलदनि देवेन्द्रुनिपै नेल दाडि वॆडलितिवि. एडुनाळ्ळु रेयिम्बवळ्ळु नॆन्दुलकु गोवर्धन पर्वतमु नॆत्ति पट्टुकॊण्टिवि, इदि येमि? नीवु देवतवा ? सिद्धुँडवा? अनि प्रश्निञ्चु मित्रुलपै ँ गोपपडिति वेल? चॆप्पुमु. |
शा॥ देवा ! नीमहिमम्बु दाचुकॊनुनु |
देशम्ब येन् नन्दगो |
पावासम्बुन निन्द्रयागमुनु जे |
यन् रा दटं चिन्द्रुपैँ |
बोवं गाँ बनि येमि ? येडुदिनमुल् |
पूनङ्ग नेलागिरिन् ? |
नी वॆव्वाँड वटन्न नॆच्चॆलुलपै |
नी केटिको कोपमुल् ? |
(27) |
206 |
सुन्दरबाहु स्तनमु |
श्लो॥ ही नन्दनन्दनि ! सुन्दर सुन्दराह्य ! |
वृन्दावने विहृत स्तव वलवी 3 1 |
वेणुध्वनि श्रवणं सगुभि सदा वै वेणुस्वनिश्रवणत सग्राविभि रैतु विलानु महा |
प्रति : “ओसी नन्दनन्दन ! |
113 |
नन्दगोपुन कानन्द |
संवर बाहु |
बृन्दावनमु |
करुँडा ! सुसुन्दर, सुन्दराह्य! रा मिक्किलि यन्दगाँड वगुटवलन सुन्दरुडनु पेरु गलवाडा! |
ने |
मूर्ती !) तदा = अप्पुडु, सृन्दाव ने नन्दु, वल्ल वीभिः – गोपिकलतो, विवारतः |
क्रीणिं दु दुन्न, |
तव= नीयॊक्क, ‘णुध्वनि श्रवणतः वेणुनादमुनु विनुट वलन, सग्रावभिः=ँ गूडिन, तरुभिः चट्ल चेत, (अळ्ळचेतनु चॆट्लचेशानु) जरुपूरुपु = लक्क करगि नट्लु, विलिल्ये= करँगुु यायनँट, समगुट भूयॆ नँट) अहॆू = आ्चग्यमु. |
विशेषमुलु :- 29 प्रसिद्धमु अनु सिग्गमुनु तॆलुपु नव्ययमु, ‘जकु विलाय म’ हॆू विलिट्ये’- |
‘जणुविलाय देवा ! नीवु नन्दनन्दनुँडवुगा नवतरिञ्चि बृन्दावनमुन गोपिकलतो विहरिञ्चुचुँ बिल्लनग्रोवि यूँदु नापाट कन्दलि बण्डलु चॆट्लु कठिनमुलय्यु लक्कवलॆँ गरँगिपोयिनवँट. ऎन्त याश्चर्यमु ! अनि भावमु. |
चुण्डगा |
ता॥ नन्दगोपु नानन्द पॆट्टुचु सुन्दर विग्रहमु गलिगि युण्डुटचेत ‘सुन्दर’ अनु सार्लकनाममुनु जॆञ्चि अप्पुडु |
P |
सुन्दर बाहु स्तनमु |
207 |
बृन्दावनमुन गोपिकलतो विहरिञ्चुचुन्न नी वेणुनादमुनु विनि यच्चटिबण्डलु वृक्षषण्डमुलु लक्कवलॆँ करँगि पोयिनवँट. ऎन्त याश्चर्यमु ! |
शा॥ नन्दानन्द करुण्डवै यधिक सौं |
3 |
दर्यम्बु मैँ ग्रालुटक् |
बृन्दावासुलु सुन्दरा ! यनुचु निक् बिल्वङ्ग गोपाङ्गना |
सन्दोहम्बुनु गूडि नीवु मुरळी |
स्वानम्बुँ गाविम्पँगा |
नं दॊप्पारु शिलल् तरुल् गरँगॆ नं |
औरौर ! लक्कं बलॆज् ॥ |
॥ गायं गायं वनगिरिपते! त्वं हि वृन्दावनान्त गोपी सङ्घै र्विहरसि यदा सुन्दर व्यूढबाहो । रासारम्भोत्सव बहुविध प्रेमु सीमन्तिनी नां |
चेत श्चेत स्तव च तु लेदा कां दशा मन्वभूताम् ॥ 114 प्रति : व्यूढ बा हॆू ! |
प्रसिद्धमुलु, (लेदा दृढमुलु) अगु बाहुवुलु गल, वनगिरिप ते ! = वनाद्रि नाथुँडवगु, सुन्दर! ओ सुन्दर भुजस्वामि !, त्वम् = नीवु, यदा = ऎप्पुडु, वृन्दावनान्तः = बृन्दावनमु लोपल, गायङ्गायम् = गान मॊनर्चिन मॊनर्चि (पाडि पाडि) गोपीसं घैः = गोपिका समूहमुलतो, विहरसि=विहरिञ्चु चुन्नावो, हि = |
प्रसिद्धमु, तदा= आसमयमुनन्दु, रासा… प्रेम-रासारम्भ = रासारम्भ |
• |
208 |
सुन्दर बाहु स्तवमु |
मनॆडु, उत्सव= उत्सवमुनन्दु, बहुविधअनेक विधमुलु गल, प्रेम= प्रणयमु गलिगिन, सीमन्तिनीनाम् गोपिकल यॊक्क (पापट गलवारु) चेतः = मनस्सु, तव = नीयॊक्क, चेतः च = मनस्सुनु, काम् ए, दशाम् स्थितिनि, अन्व भूताम्=अनुभविञ्चिनचो ! (अनिर्वचनीय मगु महानन्द मुनु बॊन्दिनवि) |
- 6 विशेषमुलु : सुन्दरव्युड बाहू. बा इदि येक पदमुगा नन्वयिञ्चु कॊनवच्चुनु. अप्पुडु अन्दमुलैन दृढमुलगु बाहुवुलु गल वाँडा! यनि यर्थमु. लेदा- सुन्दर ! न्यूढ बासॆू ! अनि विडिविडिगा वर्गमु चॆप्पिकॊन वच्चुनु लेदा गोपी सङ्घैः ! गोपिकासमू हमुलचेत, न्यूढबा हॆू ! आश्लेषिम्पँ बडिन (मॆल वेसि कॊनँबडिन) भुजमुलु गलवाँडा! यनियु नन्वयिञ्चु कॊननगुनु. ‘रासारं भोत्सवबहुविध प्रेम’ श्लो ॥ “ आङ्गना मङ्गळा मन्तरे माधवो माधवं माधवं छान्तरे जाङ्गना । इट्टे माकल्पिते मण्डले मध्यगः सञ्जगा वेणुगा देवकीनन्दनः H अनि वर्णिम्पँबडिनट्लु श्रीकृष्णुँ डनेक विग्रहमुलँ बरिग्रहिञ्चि यनेक गोपिकाशान्तलचे सङ्क्लिष्टभुजुँडै मुरळिनि वायिञ्चुचुँ गाविञ्चिन नृत्य विशेषमुनु रासु मन्दुरु. अट्टि रासोत्सव प्रारम्भमुन नाविर्भविञ्चिन सुन्दर बाहु स्तवमु 209 बहुविध प्रणयरसमुगल गोपिकलयॊक्क यु नीयॊक्क यु मनस्सु सुन्दर सुन्दरीजन मनस्सुलकु सैत मन्दनि यवा ज्मानसगोचर मगु नानन्दमु ननुभविञ्चिनदनि तात्पर्यमु. ता॥ दृढ बाहुवुलु गलिगि, वनगिरि नाथुँडवैन यो सुन्दर बाहुमू र्ती ! ऎप्पुडु नीवु बृन्दावनमुलो गोपिका बृन्दमुलतोँ गूडि पिल्लनग्रोवितोँ बाडुचु विहरिञ्चितिवो ! यप्पुडु रासक्रीडामहोत्स वारम्भमुन बहुप्रकारक मगु प्रणयरसमुतो नॊप्पॆडु गोपिकल हृदयमुनु नीहृदयमुनु अनिर्वचनीय मगु नॊका नॊकसिति ननुभविञ्चिनवि. P उ॥ ओ वन शैलसुन्दरुँड ! यूँदुचुँ बिल्लनग्रोवि, नाँडु बृं दावनिलोन गोपवनि ताततितो विहरिञ्चु रासली लाविभवम्बुनन् ब्रणय लालित माजवराण्ड्रयुल्लमुन् तावकमानसम्बुँ ब्रम दं बतिवाङ्मनसम्बुँ गाञ्चॆने. इङ्गितं निमिषितं च तावकं रम्य मद्भुत मतिप्रियङ्करम् । तेन कंसमुखकीटशासनं सुन्दराल्पक मपि प्रशस्यते ॥ 115 210 सुन्दरबाहु स्थलमु प्रति : सुन्दर् ! सुन्दरनु ऒस्वामी!, तावकसु नी सम्बन्धियगु, इङ्गितम्स् ना कनुबॊममुलु मुन्नगु चेष्टितमु, निमिषितं, चकट श्मि मुनु, अद्भुतमे = आश्चर्य करमु, अभिप्रियङ्करम= मिक्कलि स्त्रीनि गलिगिञ्चुनदियि, मनोहर मैनदि यि, (भवति डम्यम् अगुचुन्नदि) तेन = आ कारणमु चेत, अलकमनि स्वल्पमैन चसनु, कंस, मुख, कीट, शासलनु कञ्चुँडु मुन्नगु जन्तुवुलनु संहरिञ्चुट, प्रशस्यते = पॊगडँबडुचुन्नदि. वि शेषमुलु : तेनि….. ..प्रजासत्य श्री ओ सुन्दरि भुज स्वामी ! नीवुनन्त रूत्रमु चेरिने सर्वमु विस्मर वहमु प्रीतिकरमु मनोहरमु गावुन नी सृष्टिलोँ गीट मुलवण्टि कंसादुलनु दुमुमापट चेतने सकलजगत्तुनु संहरिन्नु नीकु सङ्कल्पमात्रमु प्राप्राभङ्ग साध्यम यैननु लोकमन्तिगा दानिनि प्रशिंसिञ्चु सुन्निदि. ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी ! नीसं बलं ऎरुगु भूभङ्गां चेष्टयुँ गटा नी कणमुकु विष्मकमु प्रतिकरमु मनोहरमु नगु चुन्नदि. कनुकने नीरु स्वल्पविषयु मैनप्पटिकँ गीटमुलँगोलु कं.मलनु मिक्किलि प्रशंसिम्पँबडु चुन्नदि. उ॥ मङ्गळविग्रहा ! सुगुण I संयोगिं चुट मण्डन ! सुन्दर् ! तानकम्बु ग्रू J I । सुन्दर बाहु स्तवमु भङ्गमु वेङ्गितम्बु सद पाङ्ग निरीक्षण मद्भु तावहं बुं गमनीयमुन्’ ब्रियद मुं जुम ! कंसमुखाल्पकीट हृ द्भङ्ग मॊनर्चु कार्य मिदि मा. पद्मद ळेक्षण ! नीकु नल्प मा भङ्गिम मानुँ गाक निज भ क्त जनम्बु प्रशंस चेसॆडुन्. ‘श्लो वाराणसीदहन, पौण्ड्रक, भौम, भङ्ग, कल्पद्रुमाहरण, शङ्करजृम्भणाद्याः । अन्या श्च भारतबल कथनादय स्ते क्रीडा स्सुसुन्दरभुज ! श्रवणाृमतानि ॥ प्रति 211 116 हे सुसुन्दरभुज ! ओ सुन्दरभुजस्वामि! वाराणासी… .. भस्म णाद्याः — वारणसीदहन = काळीनि मॊनर्चुट, पौण्ड्रक= पौण्ड्रक वासु देवुनि, भौम=नरका सुरुनि, भङ्ग = संहरिञ्चुट, कल्पद्रुम कल्पवृक्षमगु पारिजातमुनु, आहरण = तॆच्चुट, शङ्कर, जृम्भण= जृम्भणास्त्रमुचेत शङ्करुनि स्तम्भिम्पँ जेयुट, आद्याः= मॊदलुगाँ गलवियु, भारत, बल, क्रथन, आदयः= भारतयुद्धमुनन्दुँ बदु नॆनिमिदि यक्षौहिणुल बलमुनु शिम्पँ जेयुट मॊदलुगाँ गलवियु, अन्याः= इतरमु गु, ते=नीयॊक्क, क्रीडाः, च= लीललुनु, श्रवण, अमृ नि=कर्णामृतमुलवण्टिवि. (वीनुलकु विन्दु गूर्चुननि 212 सुन्दर बाहु स्तवमु वि शेषमुलु : ई श्लोकमुनन्दलि गाधलु पुराण वानि प्रसिद्धमुलु. ‘अन्याश्च’ - ग्रन्थ विस्तरभयमु चेत भगवल्लीललु सङ्ग्रहमुगा श्लोकमुन विवरिम्पँबडिन भावमु, श्रवणामृतानि भगवल्लीललु त्रेन्द्रियमु नमृतमुव लॆ सन्तोष पॆट्टु ननुट सुप्रसिद्धमे. ‘भूषण मुलु चॆवुलकु, बुधतोषणमु लनेक जन्मदुगिते “मविनि श्शोषणमुलु मङ्गळतर घोषणमुलु गरुडगमनगुण भूषणमुल् '
- श्रीपोतनामात्युँडु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! शाशिनि दग्ग “मॊनर्चुट, पौण्ड्रक वासु देवुनिँ गूल्चुट, नरकासुरुनि नाश मॊनर्चुट, जृम्भकास्त्रमुचेत शङ्करुनि स्तम्भिम्पँ जीयुट, मुन्नगु नवियु, भारतरणमुन अष्टादशान्निहिणुल बलमुनु भस्म मॊनर्चुट मॊदलैन देवरवारि लीललु कृष्णामृतमुलै न भ ‘क्तुल नानन्दपऱचु चुन्नवि. शा॥ श्रीवाराणसि पट्टणम्बु नटु भस्म स्मीभूतमुं जेयुटल्, नी वेषम्बुनु दाल्चु पौण्ड्रकुनि णिं गूल्चुटल्, भौमु दु र्भावुन् जॆण्डुट, बृम्भणम्बुन हरुन् भञ्जिञ्चुटल्, देव! भू देवी भारमुँ दीर्चु नी कृतुलु स्यं दिञ्चुन् सुधन् वीनुलन्. सुन्दर बाहु स्तवमु 205 अवतारिक :-अति सन्निहितमगु कृष्णावतार प्रसङ्गमु चेतँ दत्तुल्य योग क्षेममगु नवतारत्रयमु नन्दुण्डि नीवे याश्रित जनम्बुलकु नखिलाभीष्टमुल ननुग्रहिञ्चु चुन्नावनि मूँडु श्लोकमुल चेत श्री सुन्दर बाहुमूर्ति वारि महिमनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ त्वं हि सुन्दर ! वनाद्रिनाथ ! हे वेङ्कटाह्वय न गेन्द्रमूर्धनि । देवसेवित पदाम्बुजद्वयः संश्रितेभ्य इह तिष्ठने सदा ॥ : 117 प्रति :– वन+अद्रि, नाथ !=वनाद्रि प्रभुवगु, हे सुन्दर ! = त्वम्= ओ सुन्दर भुजस्वामि !, त्वम् = नीवु, वॆङ्कट, आह्वय, नागेन्द्र, मूर्धनि = वेङ्कट मनॆडु पेरुगल पर्वतराजमु यॊक्क शिखरमुनन्दु, सदा = ऎल्लप्पुडु, देव, सेवित, पदाम्बुज, द्वयः (सन्) नित्यसूरुल चेत सेविम्पँबडिन पादपद्ममुल जण्टगलवाँड नगुचु, इह इक्कड, संश्रि तेभ्यः =आश्रितुलकॊऱकु, तिष्ठसे हि= = प्रसिद्धमु. उन्नावु, विशेषमुलु :— वेङ्कट, आह्वय, नागेन्द्र, मूर्धनि - ‘सर्वपापानि वें प्राहुः कट सद्दाह उच्यते’ अनु प्रमाणमु चेत सर्वपापमुलनु दहिञ्चुट चेत आन गेन्द्रमु नकु वेङ्कट अनु नाममु वच्चिन दनि भावमु. वें (27) -A206 सुन्दरबाहु स्तवमु सर्वपापमुलनु, कट=दहिञ्चुनदि. देन सेवित….. .इच्चट देवशब्दमुनकु नित्यसूरु लनि यर्थमु. इन्दुलकुँ ब्रमा णमु ‘यत्र पूर्वे साध्या स्सन्ति देवाः’ संश्री तेभ्यः संश्रितेभ्यः तिष्ठ——— अनुचोट चतुर्थी विभक्तियु, आत्मनेपदमुनु …. इच्चटि याश्रितुलकॊ ऱरु सकलाभीष्टमुल नॊसङ्गुटकुँ गङ्क णमु कट्टुकॊनि युन्नान नॆडु स्वाभिप्रायमुनु वॆल्लडिञ्चु चुन्नदि. इन्दुलकुँ ब्रमाणमु ‘सू॥ श्लाघन् हुज्, सा शपां ज्ञोव्स्यमासः’ अनु पाणिनि सूत्रमु. ता॥ वनाद्रीश्वरुँड नगु ओ सुन्दर बाहुस्वामि 9 देवरवारु पापमुलु नॆल्लँ बटापञ्चलु सेयु वेङ्कटाचल शिखरमुन वेञ्चेसि नित्यसूरुल चेत सेविम्पँबडिन पादार विन्दमुलु गलवारलै यिच्चट नुण्डुट सकलाश्रितुलकु सर्वाभीष्टमुल नॊसङ्गुटके य नाडु तम यभिप्रायमुनु देटपऱुचु चुन्नारु. गी. श्रीहरि ! वनाद्रिसुन्दर बाहुमूर्ति ! नित्य सूरीडितुण्ड पै नीवु शेष शिखरि नि ट्लुण्ट यिचटि याश्रितुलकीप्सि तार्थमुल निच्चुतलँ पनि व्यक्त मय्यॆ. शो॥ हनीळॆ लनिलयो भवः भवाणि” साम्प्रतं वरदराजसाह्वयः । इष्ट मर्द मनुकम्पया ददत् विश्व मेव दयने हि सुन्दर ! 118 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु (हे) सुन्दर ! 207 ओ सुन्दर बाहुमूर्ती!, वरदराजसाह्वयः= मः = वरदरा ज नॆडु पेरितोँ गूडिन वाँडवै, ह स्त्रीशैलनिलयः = करिगिरि वासमुगाँ गलवाँडवु, भव =अगुचु, भवान् = देवरवारु, साम्प्रतम् = इप्पुडु, इष्तम् = प्रार्थिम्पँबडिन (इष्टमैन) अर्थम् = पुरुषार्थमुनु, अनुकम्पया, एव= दयचेतने, ददत् =इच्चुचु, विश्वम् प्रपञ्चमुनु, दयसे = कनिकरिञ्चु चुन्नावु, हि= प्रसिद्धमु. वि शेषमुलु :- अनुकम्पया, एव = त त्तत्साधनानु स्थानमु लेकये यनि भावमु, दयने दयाविषय मुनुगाँ जेयुचुन्नावु. ता ॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! नीवु वरद राजस्वामि यनु पेरितोँ गरिगिरियन्दु वासमु चेयुचु निप्पुडु भ क्तुलु कोरिन पुरुषार्थमु नव्याजकृपतोने यिच्चुचुँ ब्रपञ्चमुनु कनिकरिञ्चु चुन्नावु. इदि प्रसिद्धमु. गी. देव ! सुन्दर बाहुमूर्ति ! वनाद्रि वल्ल भा ! ह स्तिगिरियन्दु वरदराजु पेरँ गृपतो नॆ श्रितुल कीप्सितमु लिडुचुँ गनिकरिञ्चुचु नुन्नावुगा! जगम्मु. श्लो!! मध्ये क्षीरपयोधि शेषशयने शेषे सदा सुन्दर ! त्वं त द्वैभव मात्मनो भुवि भव द्भक्तेषु वात्सल्यतः विश्राण्याखिल नेत्रपात्र मिह सक् सह्योद्भवायास्तपे श्रीरङ्गे निजधाम्नि शेषशयने शेषे वनाद्रीश्वर ! ॥ 119 208 प्रति : सुन्दर बाहु स्तवमु (हे) वनाद्रीश्वर, सुन्दरि ! ent वनाद्रिप्रभुव वगु ओ सुन्दर बाहुस्वामि!, त्वमु - नीवु, मध्येश्री र पयोधि = पालसन्द्रमुनडुम, सदा = ऎल्लप्पुडु, शेष शयने= “शेषपर्यङ्कमुनन्दु, शेषे = पगुण्डु चुन्नावु, तत् = अट्टि, आत्मसः = नी मुक्क, वैभवमु = प्रभावमुनु, भुवि=भूमि कुन्दु, भवत् , भक्तिमि = देनग वारि भक्तुल विषयमुन, वात्सल्यतः=“स्नेहवि शेषमुनलन, विश्राण्य= इच्चि, अखिल नेत्र पात्रमे, सन् अन्दरिकि गोचरमैन वाँड नगुचु, इह- इप्पुडु (इक्कड स हॆ्यूद्भवा याः = कावेरीनदियॊक्क, तॆन्से ऒड्डुन, निजधाम्नि = स्वनिवास मगु, श्रीगङ्गे= श्रीगङ्गमन्दु, शेषशयने= शेषपर्यङ्कमुन, `शे’पी. J शयनिञ्चुचुन्नावु. “शीव विशेषमुलु :- त द्वैभव मात्मसः’ शेषपर्यङ्क शायित्वरूप मगु श्रीवारि या वैभवमु ननि भावमु. वात्सल्यतः ‘ई’ अनुनदि पञ्चम्यगमुनि वच्चिन ‘तासिल् ’ प्रत्ययमु, दोषमुलनु बाटिम्पनि “स्नेहवि शेषमु वलन अनि यर्थमु. श्रीरङ्गे निजधाम्नि श्रीरङ्गमुनकु ‘निजम्नि’ अनु विशेषणमु वेयुटवलन श्रीरङ्गमु वैकुण्ठ विमानमनि व्यक्तमगु चुन्नदि. “शेषशयने शेषे- श्री राब्धशायिनि साक्षात्तुगाँ जूड नश क्तुलगु भक्तजनुलकुँ दत्सेव ननुग्रहिम्प निञ्चि यिच्चट समस्तार्चावतारमु लकु मूलकन्दमगु श्रीरङ्गशायि नगुचुन्ना वनि भावमु. ॥ सुन्दर बाहु स्तवमु 209 ता॥ वनाचलनाथुँड वगु नोसुन्दर बाहुमू री ! देवरवारु पालसन्द्रमु नन्दु सर्वदा शेषपर्यङ्कमुन शयनिञ्चियुण्डु दिव्यवैभवमुनु दोषमुल वैपु दृष्टिनि बोनीयनि प्रेमवि शेषमुवलन नश क्तुलगु भूलोकवासुलै न भ क्तुलकु ननुग्रहिम्प निच्चट, अन्दऱिकन्नुलकु गोचरिञ्चुचु कावेरीतीरमुन भूलोक वैकुण्ठ मगु श्रीरङ्गमुन शेष तल्पमुनन्दु शयनिञ्चु चुन्नावु. L शा. श्रीमत्कानन शैल सुन्दरभुजा ! श्री राब्धि भोगीन्द्रुपै नामोदम्बुन नीवु पण्डु विभवं बत्रत्य भक्ताळि कु द्दाम प्रेम ननुग्रहिम्पँग भवद्धामम्बु श्रीरङ्ग मं दीमाद्रि९ भुजगेन्द्रशायिनयितो ? यीसह्यजा तातटि९। श्लो॥ कल्की भविष्य कलिकल्क दूषिताज् दुष्टा नशेषात् भगवत् ! हनिष्यसि । स एषतस्यावसर स्सुसुन्दर प्रशाधि लक्ष्मीश ! समक्ष मेवनः॥ 120 प्रति : लक्ष्मीश ! = लक्ष्मीनाथुँड नगु, भगव९ != ओ भगवानुँडा ! सुसुन्दरः मिक्किलि अन्दगाँड वगु (सुन्दर नाममुगल) त्वम् = नीवु, कल्की=कल्किवि गॊप्प गुऱ्ऱपुरौतु) गुऱ्ऱपु रौतु) भविष्यज्= काँबोवुचु, (कल्किविगा नवत रिम्पँबोवुचु) कलि, कल्क, दूषिता = कलिकालप्रयुक्त मगु मालिन्यमु चेतँ बाडयिन, अशेषा= समस्तमैन, दुष्टाक् - दुर्मार्गुलनु, हनिष्यसि = चम्पँगलवु, तस्य =
210 सुन्दरबाहु स्तवमु समक्षम्, आकल्क्यवतारमुनकु, सः = आनीहृद्गतमगु, अवसरः = समयमु, एषः = इदिये नः=मा यॊक्क एव=कन्नुलयॆदुटने, प्रशाधि= (दुष्टुलनु) शिक्षिम्पुमु. विशेषमुलु :- कल्की = हयसादिवि शेषः - अनँगा नॊक विधमगु गुऱ्ऱपु रौतु, तस्य गुऱ्ऱपुरातु, तस्य = कलिकल्मष दूषितु लगु दुष्टुलनु संहरिम्प ननुवगु कल्किरूपमु नॆत्तुटकु. ‘प्रशाधि लक्ष्मीश ! समक्ष मेव सः’ - देवरवा रिप्पुडे कल्क्यवतारमु नॆत्ति दुष्टसंहारमु चेयनियॆडल नाश्रितुल मगु माकु विनाशमु तप्पदनि भावमु. ता॥ लक्ष्मी ्मशुँड वगुनो भगवानुँडा ! सुन्दर बाहु मूर्ति वगु नीवु कल्किविगा नवतरिम्पँ बोवुचुँ गलिकल्मष दूषितुलगु दुर्मार्गुलनु वधिम्पँगलवु आसमय मिदिये कावुन नादुष्टुलनु माकन्नुल यॆदुट निप्पुडे निर्मू लिम्पुमु. उ.सामि! रमेश! सुन्दरभु जा! यिँक मुन्दऱँ दामु कल्किगा भूमि जनिञ्चि दुष्टजन मुं गलिकल्मष चूपितम्मु नि स्सीमबलम्मुतो नसिनि जॆण्डॆद रण्ट ! मुहूर्त मिय्यदे या महनीय कार्यमुन काखलुल दुनुमाडु मिप्पुडे. । I
सुन्दर बाहु स्तवमु 211 अवतारिक इट्लु पॆक्कुविधमुल नाश्रितजनोपकारम्बु लगु नवतारमुल नीवे ताल्चिति ननि पलुसारुलु चॆप्पँबडिन श्री सुन्दर भुज स्वामिवारि विहारलीलनु मुगिञ्चि यी कार णमु चेत देवरवा रे याश्रयणीयु लनि शरणु चॊच्चु चुन्नारु. श्लो॥ ईदृशा स्वदवतारस त्तमाः सर्व एव भवदाश्रिता जनाज् । त्रातु मेव न कदाचि दन्यथा तेन सुन्दर ! भवन्त माश्रये ॥ प्रति :- हे सुन्दर! ईदृशाः =इटुवण्टि, सर्वे, एव । 121 ओ सुन्दर बाहुस्वामी !, = सम स्तमुलैन, त्वत्, अवतार, सत्तमाः= देवरवारि मुख्यमुलगु नवतार मुलु, भवत्, आश्रिताक् = देवर वारि नाश्रयिञ्चिन, जनाक्=साधुजनुलनु, त्रातुं एव = रक्षिञ्चुट कॊऱके, कदाचित्, अपि = ऒकप्पुडु गूड, अन्यथा= इतर प्रयो जनमुकॊऱकु, न = कावु, तेन = अन्दु चेत, भवन्तम् श्रीवारिनि, आश्रये=आश्रयिञ्चु चुन्नानु.
वि शेषमुलु : — त्रातु मेव — ‘परित्राणाय साधू नाम्’ अनि चॆप्पँबडिन प्रयोजनमु कॊऱके यनि भावमु, ऎक्कड नैननु साधुरक्षणमु दुष्ट विनाशमु लेकुण्ड जरुगदो यच्चट दुष्टविनाशमु गूडननि याशयमु. ‘तेन ’ _ वनाद्रियन्दु सुन्दर बाहुमूर्तिगा नवतरिञ्चुट याश्रित परित्राणमुन के कान, भवन्त माश्रये— ज्ञान, ।
- 212
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- शक्ति, सौलभ्य, सौशील्य, वात्सल्यादि कल्याण गुण सम्पन्नुँ डवुनु, आश्रितरक्षणैक दीक्षितुँडवुनु, अगु निन्नु शरणु चॊच्चु चुन्नानु. अनि भावमु,
- ता ओ सुन्दर बाहुमूर्ति ! इटुवण्टि नीमुख्याव तारमु लन्नियु नीयाश्रितजनुलनु रक्षिञ्चुटके कानि यितर प्रयोजनमुलकुँ गावु. प्रकृत मी वनाद्रियन्दु सुन्दर बाहुमूर्तिगा नवतरिञ्चुट
- नवतरिञ्चुट कूड नाश्रितुल रक्षिञ्चुट के कान ज्ञानशक्ति सौलभ्य सौशील्यादि गुणसम्पन्नुँ डवु नाश्रितरक्षण बद्धदीक्षुँड वगु निन्नु शरणु वॊच्चु चुन्नानु.
- ୪
- शा. ओ देवा ! जग देक मङ्गळ विधा
- युल् मुख्यमुल् तानक
- प्रादुर्भावमु लॆल्ल सुन्दर भुज
- स्वामि! वनाद्रीश! नी
- पादाब्जम्बुलँ गॊल्चुभ क्त ततुल
- बालिम्प; नन्वार मॆ
- नन्यार्थमै
- शादिं केल समाश्रयिञ्चॆद निनु
- गारुण्य वारान्निधि९,
- श्लो॥ त्वा मामनन्ति कवयः करुणामृताब्धं
- त्वामेव संश्रितजनिघ्न मुपन्नु मेपाम् । एषां प्रज न्निह हि लोचनगोचरत्वं
- हे सुन्दराह्व ! परिचस्करिस्ते वनाद्रिम् ॥
- 122
- प्रति :-
- 등
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- हे सुन्दराह्व !
- 213
- = सुन्दरनाम धेयुँड वगु ओ देवा ! कवयः = कवुलु, करुणा, अमृत, अब्धिम् = करुणय नॆडु अमृतमुनकुँ बुट्टिनिल्लगु वानिनिगा (लेदा) करुणकु श्री राब्धिवण्टि वानिनिगा, त्वाम् = निन्नु, आमनन्ति= चॆप्पुचुन्नारु, त्वांएव=निन्ने, संश्रित, जनि, घ्नम्= आश्रितुल संसार दुःखमुलनु नशिम्पँ जेयुवानिनि गानु, एषाम् = ईयाश्रितुलकु, उपघ्नम् = आश्रय भूतुनिगानु, (आमनन्ति = चॆप्पुचुन्नारु) एषाम् = ई याश्रितजनुलकु, लोचन, गोचरत्वम्= कन्नुलकुँ गानवच्चुटनु, प्रज पॊन्दुचु, इह=इच्चट, (ई लीलाविभूतिलो) वनाद्रिम्= वनगिरिनि, परिचस्करिपे = अलङ्करिञ्चु चुन्नावु, हि
- = प्रसिद्धमु.
- विशेषमुलु :- कवयः– कवनशीलु रगु भगव द्वाल्मीकि, पराशर, पाराशर्य, पराङ्कुश, परकाल, प्रभृ तुलु. उपघ्नम् =दग्गऱगा नुन्न यण्ड ’ स्या दुपघ्नोन्ति काश्रयः’ अनि यमरमु.
- यमरमु. परिचस्करिषे वनाद्रिम्- निर्हेतुक जायमान करुणापरिपूर्णुँड वगुट शरण्युँड वगुटवलननु शरणवरण सौकर्यमुकॊऱकु आश्रित नेत्रपात्रमवै वनाद्रि नलङ्करिञ्चु चुन्नावनि भावमु.
- !
- वलसनु
- ता॥ ओ सुन्दरभुजस्वामि ! भगवद्वाल्मीकि प्रभृतिमहा कवुलु निन्नुँ गरुणामृत परिपूर्णुनिगा नुडिविरि. मऱियु नाश्रितजनुलु जरामरणमुलँ बापुदग्ग ऱनुण्डु नण्डनु
- (28)
- 214
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- गानु निन्ने वर्णिञ्चिरि. इट्लु समाश्रितुलकु लोचनगोचर मगुचु नीलीला विभूति यन्दु शरणवरण सौकर्यमुन की वनाद्रि नलङ्करिञ्चि युन्नावु.
- उ. नाकुजमुख्य सत्क विज
- नम्बुलु निन्नुँ गृपामृताब्धिँगा
- वाकॊनि राश्रिताळि भव
- पाश विनाशकुँगाँग दापुलो
- ने कलयण्डगाँग गरु
- णिञ्चिरि संश्रितिकोटिकण्टिमुं
- “दॆ कडु नन्दुपाटुग व
- नाचलसीम नलङ्करिञ्चिते.
- श्लो॥ अशक्यं नो किञ्चित् तव न च न जानानि निखिलं
- दयालुः क्षन्तो चा सृह मपि च ना गान्नि तरगुम् । क्ष मोऒक स्त्वच्छेषो ह्यगति रिति च मुद्र इति च क्षम स्वैताव न्नो बल मिह हरे! सं. दर भुज ! ।
- च
- 123
- प्रति :
- हे सुन्दरभुज ! = ओ सुन्दर बाहुस्वामि!, हरे! = विष्णुमूर्ती ! तव नीकु, अशक्यमु = साध्यमु गानिदि, किञ्चम्=कॊञ्चॆमुनु (ऒकटियु) भो= लेदु, निज लञ्च= अन्तयुनु, न, जानासि, इति, न ऎऱुँगवनि लेदु, (ऎऱुँगुदु वन्नमाट) दयालु- - दयगलवाँडवु, क्षन्ता, च=ओर्पुगलवाँडवुगूड, अहंअपि नेनु गूड, आगांसे = अप राधमुलनु, तरितुञ्च दाँटुटकुँ (प्राय श्चित्तादुल चेत नशिम्पँजेसिकॊनुट कॊऱकु) न, क्षमः== सुन्दर बाहु स्तवमु 215 समर्थुँडनुगानु, अतः = इन्दुवलन, त्वत् + शेषः, हि= नी दासुँडनियु, अगतिः इति च= गतिलेनिवाँडनियु (उपा यान्तररहितुँ डनियु) क्षुद्रः इति च = अकिञ्चनुँडनियु, क्षमस्व=(नेरमुलनु) क्षमिम्पुमु. इह = ई संसारमु नन्दु, नः = माकु, एतावत् = ईमात्रमे, बलम् =बलमु, वाँडनु वि शेषमुलु :— प्रथमचरणमुनकु सर्वश क्तिवि, सर्व ज्ञुँडवु ननि भावमु. दयालुः =परदुःखासहिष्णुः — ऒरुलदुःखमुनु जूचि सहिम्प लेनिवाँडनि भावमु. ‘क्षन्ता’- अप राधसहिष्णुः नेरमुलनु सहिञ्चु शीलमुगलवाँडु, अतः इन्दुवलन अनँगा, नीवु सर्वशक्तिवि, सर्वज्ञुँडवु, — दयाक्षमाविशिष्टुँडवु गनुक, नेनु दुष्कृतमुलँ ब्रायश्चित्तादुल चेतिँ बोँगॊट्टुकॊनँजालनि गनुकनु - अनि भावमु. त्वच्छेषः हि = नी दासुँडननि- हि=नी - इच्चट ‘हि’ शब्दमु इत्यर्थकमु. मुद्रः इति च = क्षुद्रमु लगु पुरुषार्थमुल चेतने तृप्ति चॆन्दिन वाँडननियु, लेदा– अकिञ्चनुँड ननियु- ‘एताव न्नो बल मिह’ - ई संसार मुलो माकु देवरवारि विषयमुन ज्ञान, शक्ति, दया, क्षमा, वैशिष्ट्यमु, मा विषयमुन भवच्छेष त्वाकिञ्च मा न त्वानन्यग तिकत्वमु ननुसन्धिञ्चुकॊनुटये बलमु. अनँगाँ दरणोपाय मनि तात्पर्यमु. Ф ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी! नी कशक्यमैन देदियु लेदु. ओ नीवु समस्तमु नॆऱुँग वनुमाटयु लेदु. सर्वशक्तिवि216 सुन्दर बाहु स्तनमु सर्वज्ञुँडवु दयगलवाँडवु ऎन्तवुनै युन्नावु, नेनो नायपराधमुल दाँट शक्ति लेनिवाँडनु. कावुन नीदासुँड ननियु अनन्यगति ननियु नकिञ्चनुण्ड ननियु ना यपराध मुल क्षमिम्पुमु. ई संसारमुलो मा की यनुसन्धानमे बलमु (साधनमु.) शा॥ नीरुस्’ शक्यमुगानि दॊक्कटियु ले ने लेदु, सर्वं बिलसि नीकुस् ह स्ततल स्थितामलक मा नी जालियुन् निंँययस् लोकातीतमु ‘लेँ दरिम्पँ गलने लोकेश ! यागोम्बुधिस् नीकुन् दासुँड दिक्कु लेनि यनदन् नेरम्बुलन् सेपवे ! ! वगु श्लो॥ लङ्कायुद्धहतान् हरीस् द्विजसुतं शंषा स्मृतं सान्दीपन्य ज. मृतं द्विजसुतॆनि बारांश्च वैकुण्ठ गान् । गर्भं चार्जुनिसम्भवं व्युदधरः स्वी सैव गू श्रेण यः स्वाभीष्टं मम मनुगो श्च ददसे नो Hं ननाद्रीश्वर । ॥ 124 प्रति : हे वनाद्रीश्वर ! ओ वनगिरिप्रभुव सुन्दर बाहुमूर्ती!, यः=एनीवु, लङ्कायुद्धहतान् लङ्कापुरी युद्धमुनँ जम्पँबडिन, हरीस् - वानरुलनु, शम्बूकदोषात् = शम्बूकुनि यपराधमुवलन, मृतम्= मरणिञ्चिन, द्विजसुतम् = ब्राह्मणकुमारुनि, मृतम्= चनिपोयिन, सान्दीपिनि X अभिजम् सान्दीपिनियॊक्क (कृष्णुनि a सुन्दर बाहु स्तवमु
- 217
- गुरुवु) कुमारुनि, वैकुण्ठगान्
- वैकुण्ठगान् = वैकुण्ठलोकमुनकु वॆळ्ळिन, बालान् = चिन्न वारुगु, द्विजसुतान् = ब्राह्मण पुत्रुलनु, आर्जुनिसम्भवम् अर्जुन कुमारुँडगु अभिमन्युनि वलनँ बुट्टुकगल, गर्भम् च= गर्भमुनु (परीक्षित्तुनु) स्वेन, एव, रूपेण=सॊन्तरूपमुतोने, व्युदधरः= उद्ध रिञ्चितिवो, (सः= आनीवु) मत्, गुरोः = ना गुरुवगु भगव द्रामानुजा चार्युलयॊक्कयु, मम, च= नायॊक्कयु, स्वाभीष्टम्=स्वीयमगु मनोरथमुनु, नो, दद से, किम्= इय्य वेमि ?
- ब्राह्मण बालपु
- विशेषमुलु : इन्दु मॊदटिपादमुलोनि लङ्का युद्ध हतवानरोज्जीवनमु शम्बूक दोषमृत नर्जीवनमुलु रामावतार कालिक मुलु, तक्किन रॆण्डु मूँडु _ पादमुललोनि मृतसञ्जीवनमुलु कृष्णावतार कालिकमु लनि तॆलियवलॆनु. स्वे नैव रूपेण – मरण कालमुनन्दलि वयस्सु, वेषमु, भूषणादुलतोँ गूडिन याकारमुतोने ‘स्वाभीष्टं मम मद्दुरो श्च ददसे नो श्री भगवद्रामानुज गुरुल यभिलषित मे मन– श्रीरङ्गनाथ सन्निधिनिवासमु, तत्परि
- सन्निधिनिवासमु, तत्परि चर्याभाग्यमु. श्री कूरेशुलयभिलाष मे मन- भगवद्रामानुजुल सन्निधि नुण्डुट तत्परि चर्यादिक मॊनर्चुट यनि तॆलिय वलॆनु. कालान्तरमुन मृतुलैनवारिनि, पुनरावृत्ति सैतमु मरण कालमुनाँटि वयो वेषभूषणमुलतोँ गॊनिवच्चि यिच्चिन देवरवारि
- कीम्’
- रहितलो कान्तरगतुलनु
- 218
- सुन्दरबाहु सनमु
- कशक्यमेदियु लेदु गदा ! भवदाश्रितुल मगुनू यभि लाषल निङ्कनु दीर्चवेमि? अनि दूशयमु.
- M
- ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! लंशायुद्धमुन मरणिञ्चिन वानरुलनु, शम्बूकतपश्चर्यचे मृतुँडैन ब्राह्मण बालुनि रामावतारमुन ब्रदिकिञ्चितिवि. अट्ले कृष्णावतार मुनँ गूड मरणिञ्चिन गुरुपुत्रुनि, मरणिञ्चि पुन रावृत्ति रहितमगु वैकुण्ठमुनु जीरुकॊनिन बालुरगु ब्राह्मण सुतुलनु, अभिमन्युनिवलन नेर्पडिन युत्तरागर्भमुनु, मरणकालिक वयो वेषभूषणमुलतो नॊप्पु रूपमुतोँ गॊनिवच्चिन नीवु नि न्नाश्रयिञ्चिन मद्गुरुपादुलगु भगव द्रामानुजुल यभिलाषनु ना वाञ्छितमुनु दीर्प वेल?
- शा॥ लङ्कासङ्गररङ्ग नष्टकरमु
- ल्लश्रेणि, शम्बूकमु
- न्यङ्का स्तङ्गत विप्रबालु, मृतुँ डौ
- ना चार्यसूनुन्, निरा ना-
- तङ्कस्थानुल नष्टनिप्रसुतुलन्,
- दद्धोत्तरा पत्यमुन्
- सङ्कोचिम्पक यिच्चि येल यिक वि ष्टं बीश ! ना कॊज्जकुन् .
- अवतारिक :—निज देशवासु लनॆडु तृप्ति चेतने वारिकिँ ब्रबल फलप्रदुँड नगुचुन्नावनि नाल्गु श्लोकमुलतो नुडुवु चुन्नारु.
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- श्लो॥ आयोध्य गान् सपशुकीटतृणांश्च जन्तून् कि-कर्मणो नु बत कीदृश वेदनाढ्यान् I सायुज्य लभ्य विभ वान् निजनित्यलो
- कान् सान्तानिका नगमयो वनशैलनाथ !
- प्रति :हे वन शैलनाथ !
- सुन्दरभुजस्वामी ! आयोध्यगान् देशमुलनु बॊन्दिन, सपशु कीट
- 219
- 125
- वनिगिरिनाथुँडवगु ओ
- अयोध्यानुबन्धि तृणान् = पशुवुलतो,
- कीटमुलतो, तृणमुलतोँ गूडिन, जन्तून् = प्राणुलनु, किङ्कर्मणः, नु= एमि कर्मगलवि यनि, बत मऱियु, कीदृश, वेदन, आख्यान् = ऎटुवण्टिज्ञानमुतो ऒप्पुनवि यनियु, सायुज्य, लभ्य, विभवान् = सायुज्यमोक्षमु नन्दुँ बॊन्दँदगिन वैभवमु गलट्टियु, सान्तानिकान् = सान्ता निकमु लनॆडु, निज, नित्यलो कान् = तन
- नित्यलोकान् = ‘शाश्वतमुलगु लोक मुलनु, अगमयः=पॊन्दिञ्चितिवि ?
- वैकुण्ठमुवलॆ
- वि शेषमुलु :_आयोध्यगान् केवल मयोध्या ‘वासुलने कादु – अयोध्यानुबन्धि देशमुललो नुन्न वारिनि गूड ननि भावमु. सपशुकीटतृणान् च केवलमु मनुष्युलने कादु चतुष्पाज्जन्तुवुलनु, अतिक्षुद्रमुलगु पुरुगुलनु, गड्डिपऱकलनु गूड ननि- ‘किङ्कर्मणो नु बत कीदृश वेदनाढ्यान्’– एमि कर्म
- एमि कर्मयोगनिष्ठुलनि, ज्ञान योगनिष्ठुलनि— तलँचि यट्टि श्री वैकुण्ठ तुल्यमुलगु सान्तानिकलोकमुल नॊसङ्गितिवि? अदि केवल मयोध्यानु बन्धि देशवासुलनिये यिच्चिति वनि याशयमु.
- 220
- Qu
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ता॥ ओ नन शैलनाथा ! सुन्दरभुजू ! नी वानाँडु तृण पशुकीटादि प्राणुलकु भवदनुभव योग्य सम्पत्ति गल वैकुण्ठ लोकतुल्यम्बुलगु सां तानिक लोकम्बुल
- नॊसङ्गुट वानि
- ज्ञाननिष्ठनु कर्मनिष्टनु जूचिया? कादु कादु- अयो ध्यानुबन्धि देशसम्बन्धमुनुबट्टि यॊसङ्गितिवि. कान देवर वारिकि स्वीय देशवासुल यॆडँगल यभिमान मनन्या दृशमु.
- शा. आसान्तानिकलोकमुल् परम धा
- माभम्बुल नी वयो
- ध्यासम्बन्धिनु देश वासु लनिये
- यर्पिञ्चिना वन्तये
- ओसर्वोत्तम! यट्लु गानियॆन
- नोत्कृष्टमुल् कर्मनि
- स्थासन्तुष्टमुला ! तृणक्रिमि चतु
- स्पाज्जन्तु सन्तानमुल् .
- ני
- 1
- श्लो॥ हरितवारण भृत्य समाह्वय
- करिगिरा वन्द स्य म पूर्व कालु दृश मलुभय एव हि सुवर! स्फुट मदा श्च परश्शत मीदृशमे ॥
- I
- 126
- प्रति :——— “हे सुन्दर!= ओसुन्दर भुजस्वामि! करिगिरा=
- करिगिरियन्दु, वरदः = वरदराज
- हरितवारणदास
- वरदराजस्वामि नगुचु, त्वम्= नीवु, हरित वारण भृत्यसमाह्व मी नाममु गल भक्तुनि, अपूर्विकाम् - पूर्वमु लेनि, दृशम्= दृष्टिनि, अलम्भयः एव पॊन्दिञ्चितिवि, ईदृशम्= ई प्रकारमुगा, परश्शतम् पलुसारुलु, स्फुटम्= प्रसिद्धमुगा, अदाः च— इच्चितिवि कूड, हि प्रसिद्धमु. .
- सुन्दर बाहु सवमु
- 221
- विशेषमुलु :‘अपूर्विकान्दृश मलम्भय एव’ — वरदराजस्वामि ग्रुड्डिवाँ डगु हरितवारणदा सनॆडु भाग वतुनकुँ गन्नुल ननुग्रहिञ्चॆ ननि प्रसिद्धि कलदु. परश्शतम्
- वन्दलकु हॆच्चुगा अनियु नर्थमु.
- ई सन्दर्भमुन नी श्लोकमु निच्चट सनुसन्धिञ्चुकॊनुनदि.
- श्लो॥ यस्य प्रसादकळया बधिर श्र्शुणोति
- सङ्गुः प्रधावति जवेन च, वक्ति मूकः । अन्धः प्रपश्यति, सुतं लभते च वन्ध्या तं देव मेव वरदं शरणं प्रपद्ये ॥
- ता॥ ऎवनि नलुसन्त यनुग्रहमुचेतँ जॆविटिवाँडु विनुनो, कुण्टिवाँडु वडिगा ँ बर्वॆत्तुनो, मूगवाँडु माटलाडुनो, ग्रुड्डि चूचुनो, गॊड्रालु बिड्डनु गनुनो, आवरदराजस्वामिनि शरणु चॊच्चु चुन्नानु दीनिकि
- ना तॆलुँगु पद्यमु.
- गी. चॆविटि विनु, ग्रुड्डि चूचु, वचिञ्चु मूँग,
- कुण्टि परुगॆत्तु, गॊड्रालुँ गॊमरुँ बडयु, नॆवनि क्रेगण्टि चू पिन्त यॆसँग, नट्टि
- वरद राजुल चरणम्बु शरणु नाकु.
- इँक मूलश्लोकमुनकुँ दात्पर्यमु.
- ता॥ ओ सुन्दर बाहु मूर्ती ! नीवु करिगिरियन्दु वरद राजस्वामि नाममुतो वॆलयुचु, ‘हरित वारिणदासु’ अनॆडु ऒक ग्रुड्डिभागवतुनकुँ गन्नुल ननुग्रहिञ्चितिवि. ऒक टेल? इट्टि वॆन्निमार्लो भ क्तुल कॊसँगितिवि. इदि सुप्रसिद्धमु.
- च, करिगिरियन्दु नीवु सुभ
- गा ! वरदुं डनु सार्थ काख्यतो
- 29
- 222
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- वरलुचु भक्तुँ डौ हरित
- वारणदा सनु ग्रुड्डिवानिकिका
- वरनयनम्मुलतो सुगुण
- नुं
- वारिनि! यिच्चिति वण्ट स मं
- दरभुज! यिट्टि दानमुलु
- तानकमुल् शतमु सूस्रमुल्.
- कोनि च
- इह च देव सदानॆ नरा॥,” परा :-
- मद ! सुन्दर ! सुन्दर गोदर ! ।
- वनगिरे रभित पट मामु
- निखिलञ्चन गोचर वैभवः ॥
- 11
- ऎन्तो
- 127
- प्रति :- नगद! =वरमुल नॊसङ्गु ! सुन्दरदो धर ! = अन्दमुलगु बाहुवुलनु धरिञ्चुवाँडा ! सुन्दर! = ओ सुन्दर बाहुस्वामी !
- ! देव ! = क्रीणादिगुणनिशिष्टुँडा! वनगिरेः, तटं, अभितः = ननाद्रितट समीपमुनन्दु, आवसक् =निवसिञ्चुचु, निखल, लोचन, गोचर, प्रभवः = अन्दऱि
- = कन्नुलकुँ गनँबडु महिम गलवाँडनगुडु, त्वम् = नीवु, इह च = ईवनगिरियन्दुँ गूडि, पराळ्ल = अतिशयितमु लगु, पराक्” वरमुलनु, ददासि = इच्चु चुन्नावु.
- “ता॥ वरमुल कॊनँगुचु सुन्दरमुलगु बाहुवुल धरिञ्चुकतन सुन्दर बाहुस्वामि यनु सार्थक नाममुगल यो देवा ! वनाद्रितट समीपमुन निवसिञ्चुचु अन्द शगपिञ्चु दिव्यवैभवमु गलवाँडपै नी विच्चटँ गूड भ क्तुल कधिकवरमुल ननुग्रहिञ्चु चुन्नावु.
- गी. वरद! सुन्दर बाहु देवा ! वनाद्रि
- तटि निखिलगोच रात्मवै भवुँड नगुचु । निचट सैतमु निनुँ गॊल्चु सुचरितुलकु निच्चुचुन्नावु मेल् व राल् हॆच्चु गानु.
- अवतारिक
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 223
- ‘इह च देव ददासि वराज् परा’
- अवि सामान्यरीतितोँ जॆप्पिनदानिने स्थालीपुलाक न्यायमुतो
- वि शेषा कारमुनँ जॆप्पुचुन्नारु.
- प्रति :
- श्लो॥ इद मिमे श्रुणुमो मलयध्वज)
- नृप मिह स्वय मेव हि सुन्दर चरणसात् कृतवा निति त द्वयं वनगिरीश्वर ! जातमनोरथाः ॥
- ई, वयम्
- ! ।
- 128
- हे वनगिरीश्वर ! = ओ वनाद्रिप्रभू !, इमे= मेमु, इह इच्चट, (वनाद्रियन्दु) स्वयं, एव, हि=स्वयमुगाने, मलयध्वजम्=मलय ध्वजुँड नॆडु, नृपम्= पाण्ड्यराजुनु, चरणसात्, कृत वाक् = पादपरिच र्यार्हुनि जेसितिवि, इति अनि, इदम् ई पादपरिचर्यार्हुनि पूर्ववृत्तमुनु, श्रुणुमः अन्दुवलन, जात, मनोरथाः (भवामः= अगुचुन्नामु.)
- विनुचुन्नामु, तत् पुट्टिनकोरिक गलवारमु,
- विशेषमुलु स्वय मेव हि ‘_ साधनानुष्ठान मुलतो अपेक्ष लेकये केवलमु स्वकृप चेतने यनि भावमु. ‘जातमनोरथाः’- अकारण जायमान करुणा कटाक्षमु चेतँ बाण्ड्य राजगु मलयध्वजुनकु निजपाद
- बाण्ड्यराजगु परिचर्या भाग्यमु नॊसँगिनट्लु माकुनु गरुणिन्तु वनि याशगलिगि युन्नामनि याशयमु.
- ता॥ ओवनाद्रिनाथा! यीमे मी वनाद्रियन्दु साधना नुष्ठानादुलतो न पेक्ष लेकये मलयध्वज महाराजुगारु
- देवरवारि यहेतुक जायमान करुणाकटाक्षमु चेतँ जरणपरिच र्या भाग्यमुनु बॊन्दिना रन्न गाधनु विनि माकु नट्टिभाग्यमुनु गलिगिन्तुरनि पुट्टॆँडाशतो नुन्नामु.
- 224
- सुन्दर बाहलु स्तवमु
- च. इतर विशेष साधनमु
- लॆव्वियु लेकट तॊल्लि पाण्ड्यभू
- पति मलयध्वजावैपु न
- सारिकृपारसदृष्ट जाचि यि
- च्चिति वँट नीपदाम्बुगुवा
- नेनु भाग्यमु विण्टिविरा ! रा
- शत सकलम्मु, नट्टिन,कुँ
- अवतारिक
- <
- (AD
- गाञ्चँग नुण्टिमि पुपैँ डासतोक् ॥
- ना शोकमुलतो सुन्दरभुङ स्वामि सर्वाभीष्टप्रदुँ डनि चॆप्पि आनाँटि चण्ड पाषण्ड प्रभु वगु क्रिमिकण्ठनि मूलमुनँ ब्रवासितुलैन भगव द्रामानुजुल चरणनलिन विश्लेषम्बुन कोर्वक प्रारम्भमु नन्दे ‘सुन्दरोरुबाहुं! साप्ये इच्चरण विलोक नाभि लाषी’ अनु निजाभिलाषनु त्वरगा नॊसँगु मनु स्वमनो रथमुनु सङ्क्षिप्तमुगा नालु श्लोकमुलतो नुपसंहरिञ्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ विज्ञापना चनगिरीश्वर ! सत्यरूपा
- मङ्गी रुष्व करुणार्णन ! माकीनानु ! मङ्गीÑरुष्व
- श्रीरङ्गनि यथापुर “मेष सो बहु.. रामानुजार्यपशगः परिवर्तषीय ॥
- 126
- प्रति : हे करुणार्णव ! दयासमुद्रुँड वगु, वनगिरि + ईश्वर !
- वनाद्रिनाथुँड वगु सुन्दर बाहु मूर्ती!, सत्यरूपाम् = यथार्थमगु, मामकीनाम् सासम्बन्धमैन, विज्ञापनाम्=मनविनि, अङ्गीरुरुष्व= अङ्गीक रिम्पुमु. (विनि सफल मॊनप्पमु) आमनवि येमनँगा. एषः= ई, सः = आ, अहन् = नेनु, यभापुरम् - पूर्वमु
- सुन्दर् बाहु स्तवमु
- 225
- नन्दु वलॆ, श्रीरङ्गधामनि देवरवारि निवासस्थानमैन श्रीरङ्गमु नन्दु, रामानुजार्यवशगः = भगवद्रामा नुजाचार्य गुरुचरणुल वशवर्ति नगुचु, परिव र्ति षीय
- समीपमुनं दुन्दुनु गाक.
- विशेषमुलु :- करुणार्णव !—‘व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखतः’ अनि श्रीमद्रामायणमुनँ जॆप्पिन प्रकारमु परदुःखमुनु जूचि दुःखिञ्चुट यनु स्वरू पमुगल कृपतो निण्डिनवाँडा ! अनि भावमु. वनगिरीश्वर- अकिञ्चनुल मगु मम्मु संरक्षिञ्चुटकु वनाद्रि नाश्रयिञ्चिन वाँडा ! यनि याशयमु. एष सो हम्
- सोहम् इप्पु जाचार्यवि श्लेषमु चे विषण्णहृदयँडनै आचार्यसमागम निमि त्तमु नीस्तोत्रमुनु नुडुवँ ब्रवृत्तुँड नगु नेननि
- " तात्पर्यमु, ‘रामानुजार्यवशगः परिवर्तिषीय’ सुन्दर बाहुस्वामि सर्वाभीष्ट प्रदुँ डैननु तत्वज्ञु लगु श्रीवत्स चिह्नमिश्रु लाचार्यवशवर्ति त्वमु ने परम पुरुषार्थमुगाँ ब्रार्थिञ्चुटचेत निदिये सर्वोत्तीर्ण मनि यॆऱुङ्गव लॆनु.
- ण
- ता॥ करुणासमुद्रुँड वगु ओवनगिरिनाथा ! यथार्थ मगु नायीमनविनि अङ्गीकरिञ्चि त्वरगा सफल मॊनर्पुमु. आ मनवि येमन आचार्युलु यॆडँ बाटु चेत विषण्णहृद युण्डनै वारि समागमाभिलाषिनै देवरवारि स्तुतिनि व्रायँ ब्रवृत्तुँड नगु नेनु श्रीवारि निवासमगु श्रीरङ्गमुनन्दु भगवद्रामानुज गुरुचरणुल वशवर्तिने
- युन्दुनु गाक.
- उ. ओनिरवद्य दिव्यकरु
- णोदधि! कानन शै लनाथ ! नी2226
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- वीनुलँ बॆट्टि ना दयिन
- विन्नपमुकॊ सफलं बॊनर्पु, रा
- मानुज देशि केन्द्र चर
- णाम्बुज सेवन भाग्य मन्दु चु
- ने निवसिञ्चुलु दय
नी युँड गङ्गनि मन्दिरम्बुनकॊ. 130 श्लो॥ कं चेदं न विरिञ्चि भावन ! वनाद्रीश! प्रभो! सुन्दर! प्रत्याभ्यास पराङ्मुलो परदतां सश्य न्नवश्यं श्रुणु । श्रीरङ्गश्रेय सुस्वहं प्रगुणयु स्वद्भक्तभो ग्यां कुगु प्रत्यक्षं सुनिरस्त मेव विवधत् प्रत्यर्थिनां प्रार्धनम् ॥ प्रति ः_— विरिञ्चि भावन! = ब्रह्म नुद्भविल्लँ जेसिनवाँडा!, ननाद्रीश = वनगिरिनाथ्, प्रभो! प्रभुवा!, सुन्दर ! = सुन्दर बाहुमूरी!, सरवत्सासु नीवर प्रदत्वप्रसिद्धिनि, सश्य=चूचुनु, प्रत्याभ्यास, पराङ्मुखः त्रोसि चेयुटयन्दुँ बॆनु मॊगमु गलवाँड नगुचु, किञ्च= मरियु (पूर्वश्लोकोक्त विज्ञप्ति कण्टॆँ गूड) इदम् = ईमाटनु, अवश्यम्=मुख्यमुगा, श्रुणु (अनि येमन) प्रत्यर्थिनाम् = प्रतिपरुलगु पाषण्डुलयॊक्क, विनुमु. = प्रार्थननु (भगवद्रामानुजुलनु प्रवासमु गाविम्पँ जेसि श्रीरङ्गशोभ नणचिवेय वलयुननु कोरिकनु) प्रत्यक्षम्, एव = माकन्नुल यॆदुटने, सुनिर स्तम्= बागुगाँ दॊलगिम्पँ बडिनदानिनिगा, विदधत् = चेयुचु, श्री कङ्गश्रियम् = श्रीरङ्ग सम्पत्तिनि, अन्वहम् = प्रतिदिनमु, प्रगुणय = =वर्धिल्लँ जेयुचु, त्वत्, भक्त, भोग्याम्= देवरवारि भ क्तजनुलचेत ननुभविम्पँ दगिन दानिनिगा, कुरु= चेयुमु, सुन्दर बाहु स्तवमु
227 विशेषमुलु :विरिञ्चि भावन ! — विरिञ्चिं भावयति (उत्पादयति) इति— ब्रह्मनु उद्भविम्पँ जेसिनवाँडनि भावमु. ‘त्वद्भ क्तभोग्यां कुरु ’ - भगवद्रामानुज चार्य प्रभृतुलगु श्रीवारि भक्तुल चेत ननुभविम्पँदगिन दानिनिगाँ जेयुमु. प्रत्यर्थिनिरसन पूर्वकमुगा श्रीरङ्ग मङ्गळानुभवमु कॊजुकु भवदीयुलगु रामानुजार्य प्रभृतुलनु रप्पिम्पु मनि याशयमु. ता॥ ब्रह्मनु गन्नतण्ड्रि वगु वनगिरिनाथुँड पैन योसुन्दर बाहुमूर्ती! वरप्रदुँड वनु प्रसिद्धिनि दॆलुपु नी वरद राजनाममुनु मनस्सुलोँ बॆट्टुकॊनि मा विज्ञ प्तिनि त्रोसिवेयुट यन्दुँ बॆड मॊगमु गलवाँड नगुम . अनँगा मा विन्नपमुनु मन्निम्पुमु. अन्तिये कादु. ईमाटनु तप्पक विनि मुख्यमुगा मन्निम्प वलॆनु. भगवद्रामानुजुलनु दऱिमिवैचि श्रीरङ्ग वैभवमु नणँचि वेय वलयुननु प्रत्यर्थुलगु पाषण्डुल कृत्यमुलनु मा कन्नुलमुन्दे विफल मॊनर्चि यथापूर्वकमुगा श्रीरङ्ग शोभनु वरिलँ जेयुचु भवदीय भक्तुल कनुभाव्य मॊनर्पमु, p बी म. परमेष्ठि प्रभवा ! वनाचल विभू! भावम्बुनं दॆन्नि वरदतो ्वरुयशम्बुँ, गा दनक देवा! सल्पुमा यिद्दि च्चॆर श्रीरङ्गमुशोभ वर्धिलँग दुश्चेष्टुल् तलल् वम्प मे मरय९ पै ष्णवकोटिभोग्यमुग नत्यन्तम्बु श्रीरङ्गमु९. अवतारिक :– इट्लु प्रार्थिम्पँबडिन विषयमुने याद रातिशयमुचेत मटॊकसारि भङ्ग्यन्तरमुगाँ ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. 228 (Y)
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- श्लो॥ कारुण्यामृत वारिधी! वृषपणि! हेसत्य सङ्कल्पन!
- श्रीमः ! सुन्दर! योग्यता विरहिता मुत्सार्य सर्वाजा किलः औम्यः - साधुज सैः कृतांस्तु निखिता सेवापचाराज् क्षणात् तद्भोग्या मनिशं कुरुष्व भगवः ! श्रीरङ्गधामश्रियम् ॥ 131 प्रति : - भगव ! मदुरैश्वर्य सम्पन्नुँडा !, हे सत्यसङ्कल्पन! == ओ
- ! = ओ सत्यसङ्कल्पुँडि”!, सद्वत्सल! सज्जनुलयन्दु वात्सल्यमु गलवाँडा ! कारुण्य, अमृत, वारिधे = दयकु क्षि राब्धिनण्टिवाँड!, वृषप तेजु वनगिरि नाथा ! श्रीम९=पुरुषकारभूतुगा लगु लक्ष्मी देवितो नॆडँ^बायनिवाँडा!, सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुस्वामि!
- ! = योग्यता, विरहिता - योग्यत लेनि पाषण्डुलनु, उत्सार्य पाऱँदोलि, साधुजनै
- 8 = सात्विक जनुल चेत, कृता= चेयँबडिन, निखलाक् = सम स्तमुलगु, अपचा राज्, एव
- अपराधमुलनु, बॊम्यज् = क्षमिञ्चुचु, मणात् क्षणमुलो, (त्वरगा) श्रीरङ्ग धामश्रियम् श्रीरङ्ग क्षेत्रमु यॊक्क सम्पदनु, अनिशम् = ऎल्लप्पुडु, तद्भोग्यास् = आसाधुजनुल चेत ननुभविम्पँदगिन दानिनिगा, कुरुष्व= चेयुमु, A यथारमगु विशेषमुलु :- ई श्लोकमुनन्दलि सम्बुद्धु लन्नियु साभिप्रायकमुलु, हे हे सत्यसङ्कल्पन ! प्रतिज्ञ गलवाँडा ! ‘अ व्यहं जीवितं जह्यां त्वां सीते। सलक्षणाम् । नहि प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः’ अनि रामायणमुन देवरवारु सॆलविच्चिनट्लु ‘द्वयमुनु अर्थानुसन्धानमुतोँ गूड सतत मिट्ले नुडुवुचु शरीर पात पर्यन्त मी श्रीरङ्ग मनं चे सुखमुगा नुण्डु’ मनि श्री भगन्द्रामानुज गुरुपादुल नुद्देशिञ्चि सुन्दं बाहु स्तवमु 3 229 सङ्कल्पिञ्चितिरि गदा ! अदि सत्यप्रतिज्ञ कावलदा ? अनि सम्बुद्धियॊक्क याकूतमु. कारुण्यामृतवारि धे सामान्यमुगाँ बरदुःखासहिष्णुवुनकु आश्रितुल क्लेशमुल विषयमुन उपेक्ष युचितमु कादनि भावमु. अपचा राक् चेयरानि वानिनिँ जेयुट चेयवलसिन वानिनि मानुट मॊदलगु अपराधमुलनु, (अकृत्यकरण, कृत्या करणादिरूपा अपचारा इत्युच्यन्ते) ‘तद्भोग्या मनिशं कुरुष्व भगवन् श्रीरङ्गधामश्रियम्’ श्रीरङ्ग क्षेत्र वैभवमुनु भगवद्रामानुजतच्छिव्य प्रशिष्यादि सात्विक जनानु भाव्यमुगाँ जेयवलसिन श्रीकू रेशुलवारि गूढाभिप्रायमु. “ दनि T ता॥. षड्गुणे श्वर्य सम्पन्नुँडवुनु, सत्यसङ्कल्पुँडवुनु, सद्वत्सलुँडवुनु, दयासमुद्रुँडवुनु, वनगिरिनाथुँडवुनु, रमान पायिवियुनगु ओसुन्दर बाहुस्वामि! योग्यता विरहितुलगु पाषण्डुलनु बाऱँदोलि नाधुजनुलॊनर्चिन अपचारमु लेवेनि युन्न वानि नन्निटिनि क्षमिञ्चि त्वरगा श्रीरङ्ग क्षेत्र वैभवमुनु भागवतानुभाव्यमु नॊनर्पुमु. शा. कारुण्यामृतवारिधी ! प्रणतर 1 30 तेडा ! सत्यसङ्कल्प ! श्री दारा ! संश्रितवत्सला! वगिरिं द्रा! दुष्ट पाषण्डुलक् `बाऱं दोलि श्रितापचारमु लेद बाटिम्प को-देव ! यी श्रीरङ्गानुभवम्बु भ सिद्धिम्पँगाँ जेयवे ! ! 230 सुन्दर बाहु सवमु र रो॥ इदं भूभू भूयः पुन रसिन भूयः पुन रपि स्फुटं विज्ञास्स्या मात्यगति रध मनस्यशरणः । कृतागा दुष्टात्मा कलुषमुनि गन्मीत्यनवधी रयाया स्टे पात्रल वनगिरिपते! मुञ्चगभुजु ॥ प्रति :- वनगिरिप ते ! ॥ 132 वनाद्रिनाथुँड वगु, सुन्दर भुज ओ सुन्दर बाहुमूर्ती!, अगतिः दिक्कु लेनि अबुधः पामरुँडनु, अनन्यशरणः = इतर वाँडनु, M शरणमु (रक्षणमु) लेनिवाँडनु (अगु अहम् = नेनु इदम् = दीनिनि, भूयः भूयः = मऱल मऱल, पुन रविच= तिरिगियु, भूयः=मऱल, पुनः, अपि= तिरिगियु, स्फुटम्= स्पष्टमुगा, विज्ञा प्यामि= मनविचेसिकॊनँ दलँचुचुन्नानु, विज्ञाप्स्यामि- दुष्टात्मा= दुष्टचित्तुँडनु, कलुषमतिः मलिनबुद्धियु नगु नेनु, कृतागाः = चेयँबडिन नेरमुलु गलवाँडनु, अस्मि, इति= अगुचुन्नाननु कारणमुवलन, तेनीयॊक्क अनवधेः हद्दुलु लेनि, दया नः = कृपकु पात्रम् = पात्रमुनु. विशेषमुलु :– अगतिरबुधः ‘– ज्ञान राहित्यपर मगु ‘अबुध’ पदमुतोँ गलिपि चॆप्पुटवलन ‘अगतिपदमु कर्मराहित्यमुनु जॆप्पुनु. कावुन निच्चट अगतिः - कर्मयोगरहितुँडनु, अबुधः = ज्ञानयोगरहितुँडनु अनि यर्थमु. कनुकने कर्मज्ञान योगमुलचेत साध्यमगु भक्ति योगमुगूड लेदु गावुन (एयुपायमु लेदुगान) नी वॊकडवे शरणमुगाँ गलवाँड ननि अनन्यशरणः चॆप्पुट पॊसँगुनु. ‘इदं भूयो भूयः’ - ऒक मारु मनवि चेसिकॊनुटये चालियुण्डँ बिच्चिवानिव लॆँ ब देप दे पलुसारु लिट्लु मनवि चेयुट अपराधमे यैननु प्रिय सुन्दर बाहु स्तवमु 231 तरुलगु गुरुचरणुल यॆडँबाटु चेँ गलिगिन विषादमु चे नितँ डिट्लु चेयुचुन्नाँडनि तमरु कृपँदलँचि नाविन्न पमुनु मन्निञ्चि गुरुल साङ्गत्यमु मरलँ द्वरलो नाकु श्रीरङ्गमुनँ गल्गिम्पुँडनि भावमु. ता॥ वनाद्रिनाथुँडवगु ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! कर्म ज्ञान भ क्ति रूपमुलगु उपायमु लॆऱुङ्गनिवाँडनै नीवे शरणुगा नम्मियुन्नने निदिवऱकुँ जेसियुन्न यी विन्न पमुने मऱल मऱलँ दिरिगि तिरिगि चेसिकॊनुचुन्नानु. दुष्टचित्तुँडु कलुषबुद्धि यपराधि यनि नन्नुँ दलपोसि हद्दुलु लेनि नी कृपकुँ बात्रमु नॊनर्पुमु. उ. सुन्दर बाहुमूर्ति ! वन शोभित भूधरवर्ति ! नेँ गडु मन्दुँड ज्ञानकर्ममुल माट यॆऱुङ्गनु दिक्कु नीवॆ नी मुन्दऱ माटिमाटिकि न मोनम यं चिदि विन्नविञ्चॆदक् वन्दलमार्लु नीकृपकुँ ! बात्रुँड क्षुद्रुँड दुष्टचित्तुँडु. शा. स्वामि ! मीस्तुति टीक व्रायुटकु ने श क्तुण्डना ! कानु, ले देमात्रम्बुनु शास्त्रवैदुषियु सा हित्य प्रवेशादुलु९, सामान्युण्डनु दास शेषुलदया सारम्बॆ ना कुन्नया 1 282 सुन्दरबाहु स्तवमु सामग्रीबल बुल्ल दोषमुलकु F भ्रान्तिन्युँड नुन्द गा! 1 शा. स्तोत्रव्याख्यनु मुडडुगा पसिगिरि ! ‘कुतायन्तृणकल्प’ यं चश श्री कोदण्ड रामप्रभु क्षेत्रास्थानकवीन्द्र पट्टमु ना सं “गळ् दास शेषुण्डु भ कत्राता ! भवदीय सं नमह त्वञ्चुन्न नाशक्यमे ॥ 1 शा. टीक व्रास यॊसङ्गुँडं चदडग न सेयण्टिँबञ्च पनिको साकल्यम्बुग व्रासियी वगदगा जस्तोत्र मॊक्कं डिँकज् बाकी युण्टिनि ‘दास शेषुलकु डे वा! दीनिँ जॆलिञ्चि ना वाकु सत्यमुँ जेसि कॊण्टगु भव द्वात्सल्य मर्थिचॆद . । गद्यमु. इदि श्री श्रीवत्साङ्क मिश्र विरचितम्बगु पञ्च सवीसं बगु श्री सुन्दर बाहं स्तवम्बुनकु कवि शेखर, महो पाध्याय, मध्यश्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञ नाग्य कृतं बगु भावादर्शम्बनु सपद्यान्ध्र विवरणंलु. समा॥ परा बु हयग्रीवाय नमः श्री वत्साङ्कमिश्र विरचित पञ्चस्तवीस्थ
श्री वरदराज स्तवमु
ण कविशेखर मध्वत्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत भावादर्शनामकान्ध्र विवरण प द्य स हि त मु अवतारिक :— श्री भाष्यकार सकाशनिवास प्रकाशिता श्री खल वेदान्तत त्वार्थ लगु श्री वत्सचिह्न मिश्रुलु दया परुलै सकलसज्जन सञ्जीवनमुनकुँ बञ्चस्तवी व्याजमुन नर्थपञ्चकमुनु ब्रकाशिम्पँ जेयँदलँचि ब्रकाशिम्पँ जेयँदलँचि मॊट्ट मॊदटँ ब्रधानमुगा नकुण्ठमहिमुँ डगु श्री वैकुण्ठ नाथुनि स्वरूपरूपादिकमुनु दानि कुपसर्जनमुगाँ ब्रत्यगात्मादि स्वरूपमुनु, वैकुण्ठस्तवमुनन्दु गुरुवन्दन पूर्व कमुगाँ ब्रदर्शिञ्चि व्यूहान्तर्यामुलु गूड नचिन्त्य वैभवमुलु गल नगुट चेँ ददन्तर्भूतमुलुग ने भाविञ्चि विभवावतार भावुक व्यापार विषयकमुगा अतिमानुष स्तवमुनु रचिञ्चि अर्चावतार प्रस्तावमुन सम काङ्क्षित प्रदानदीक्षितुँ डगु वनाद्रिमन्दिरु सुन्दर बाहु मूर्तिनि पलुसारुलु स्वाचार्यु लगु भगवद्रामानुजुल चरणकमल सेवाफलमु ननुग्रहिम्पुँ डनि स्तुतिञ्चि ‘ह स्ति I 282 सुन्दर बाहु श्रवमु सामग्रीबलमु दोषमुलकु ऎन्तस्युँड नुञ्चि गा! शा. स्तोत्र व्याख्यलु । म्पुडु पसगिरि R! ! मेमिण्टे… ‘कुग्रामन्न्निकल’ यं चेसि शेत्रास्थानकवीन्द्र पट्टमु नसं ‘र’ दास ’ जीषाण्डु भ क्षत्राता ! भवनीय सं स्थवमह राम्बिन्न नाशक्यमे । शा. टीक व्रासि युपङ्गुँडं सेयण्टिँबञ्च स्थविरा साकल्यम्बुग व्रासं मदगा जत्र मुक्कं डिँकज् बाकी युण्टिनि दानि जेषुलकु डे वा! दीनिँ जॆलिगिञ्चि ना वाकु सत्यमुँजेसि कॊण्टगु भव द्वात्सल्य मर्थिचॆद. + ग न 1 । । । गद्यमु. इदि श्री श्रीवत्साङ्क मिश्र विरचितम्बगु पञ्चस्तवीर्णं बगु श्री सुन्दर बाहु स्तवम्बुनकु कवि शेखर, महो पाध्याय, मध्यश्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञ कार्य कृतं बगु भावादर्शम्बनु सवद्यान्ध्र विवरणं. पम्बं 1 समाप्तं बन्ध श्री हयग्रीवाय नमः श्री वत्साङ्कमिश्र विरचित पञ्चस्तवीस्थ श्री वरदराज स्तवमु ण कविशेखर मध्वश्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत भावादर्शनामकान्ध्र विवरण पद्यसहितमु 16 अवतारिक :– श्री भाष्य कारस काशनिवास प्रकाशिता अल वेदान्ततत्वार्थुलगु श्री वत्सचिह्नमिश्रुलु दया परुलै सकलसज्जन सञ्जीवनमुनकुँ बञ्चस्तवी व्याजमुन नर्थपञ्चकमुनु ब्रकाशिम्पँ जेयँदलँचि मॊट्ट मॊदटँ ब्रधानमुगा नकुण्ठमहिमुँ डगु श्री वै कुण्ठनाथुनि स्वरूपरूपादिकमुनु दानि कुपसर्जनमुगाँ ब्रत्यगात्मादि स्वरूपमुनु, वैकुण्ठ स्तवमुनन्दु गुरुवन्दन पूर्व कमुगाँ ब्रदर्शिञ्चि व्यूहान्तर्यामुलु गूड नचिन्त्य वैभवमुलु गल वगुट चेँ ददन्तर्भूतमुलुग ने भाविञ्चि विभवावतार भावुक व्यापार विषयकमुगा अतिमानुष स्तवमुनु रचिञ्चि अर्चावतार प्रस्तावमुन समस्त काङ्क्षित प्रदानदीक्षितुँ डगु वनाद्रिमन्दिरु सुन्दर बाहु मूर्तिनि पलुसारुलु स्वाचार्यु लगु भगवद्रामानुजुल चरणकमल सेवाफलमु ननुग्रहिम्पुँ डनि स्तुतिञ्चि ‘हस्ति2 श्री वरदराज स्तवमु शैलनिलयो भवाक्’ अनि प्रस्ताविम्पँबडिन करिगिरिनाथुनि शरणागति मन्त्रविधमुगा निपुडु स्तुतिम्पँ बोवुचुँ ब्रारम्भिम्पँ दलँचँबडिन वरदराज स्तवमु निर्विष्नुमुगा समाप्तिँ जॆन्दुटकु आशीर्वचनरूप मगु मङ्गळमुनु शिष्यशिक्षार्थमु स्तवारम्भमुन नॊनर्चु चुन्नारु. श्लो॥ स्वस्ति ह स्तिगिरिमस्त शेखरः प्रति सन्तनोतु मयि सन्ततं हरिः ! निष्समाभ्यधिक मभ्यध त्त यं देव मापनिषदी सरस्वती ॥
farad I औपनिषदी = उपनिषत्सम्बन्धिनि अगु, सरस्वती = वाक्कु, वेदान्तवाक्कु), देवम् = सकल कल्याणगुण विशिष्टुँ डगु, यम् = एवेल्पुनु, निस्सम, अभ्यधिकम्= समानुँडुगानि अधिकुँडु गानि लेनिवानिनिगा, अभ्यद त्त पलिकॆनो, ह स्तिगिरि, मस्त, शेखरः = करिगिरिशिखरमुन कलङ्कार भूतुँडगु, (सः= आ) हरिः प्रणतार्ति हरुँडगु वरद राजस्वामि, मयि=नाविषयमुन, सन्ततम् = – ऎल्लप्पुडु, स्वस्ति श्रेयस्सुनु, सन्तनोतु बागुगा विस्तरिम्पँ जेयुँ गाक, विशेषमुलु- स्तोत्रारम्भमुन स्वस्ति पदप्रयोगमु. वक्तकुनु, पाठकुलकुनु मङ्गळार्थमु. ‘निस्समाभ्यधिकम्—— इन्दुलकुँ ब्रमाणमगु उपनिषद्वाक्केदि यन ‘न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते’ (आपरमात्मतो समानुँडुगानि वरदराज स्तवमु 1 3 यन्तकण्टॆ नधिकुँडुगानि कानँबडँडु) देवम् दिवु क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न कान्ति गतिषु— अनु धातुपाठमुनँ जॆप्पँबडिनट्लु सकल कल्याणगुणगणमुलु कलवाँ डनि यर्थमु. ता॥ ता ‘न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते’ इत्याद्युपनि षद्वाणि कल्याण गुणविशिष्टुँ डगु नेवेल्पुनु समाधिकुलु लेनिवानिनिगा नुडि वॆनो करिगिरि शिखरालङ्कारभूतुँ डगु नावरदराजस्वामि नाकु सन्ततमु श्रेयस्सुनु विस्तरिम्पँ जेयुँगाक, गी॥ देवु नॆव्वनि नुपनिषद्दिव्य वाणि पलुकुनॊ ! समाधिकुलु लेनि प्रभुवुँ गाँग करिमहीधर शिखर शेखर सदृक्षुँ डा वरदराजु नाकु श्रेयस्सु लिडुत. श्लो॥ श्रीनिधिं निधि मपार मर्थिना मर्थितार्थ परिदान दीक्षितम् ॥ सर्वभूत सुहृदं दयानिधिं देवराज मधिराज माश्रये ॥ प्रति :—श्रीनिधिम्=लक्ष्मीनिलय मैनट्टियु, अर्थिनाम्= याचकुलकु, अपारम् –अन्तु लेनि (तऱुँगनि) निधिम्=गनि यैनट्टियु, अर्थित, अर्थ, परिदान, दीक्षितम् = प्रार्थिम्पँबडिन = पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटकु दीक्षवहिञ्चि नट्टियु, सर्व, भूत, सुहृदम् = समस्तप्राणुलकु अनिमित्तोपकारि यैनट्टियु, 4 श्री वरदराज स्तवमु दयानिधिम्= दयकु गनि यैनट्टियु, अधिराजम् = स्वामि यैनट्टियु, देवराजम् = देवतासार्वभौमुँ डगु श्री वरद राजस्वामिनि, आश्रये=शरणुचॊच्चु चुन्नानु. वि शेषमुलु :— ई श्लोकमुनन्दु मन्त्ररत्नमुयॊक्क पूर्वखण्डार्थमु सङ्ग्रहिम्पँ बडुचुन्नदि. पूर्वखण्ड मिदि श्रीमन्ना रायणचरणा शरणमहं प्रपद्ये श्रीनिधिम्——श्रीः निधीयते, अस्मिन् इति, श्रीनिधिः, तम् श्री देवि यिचट नुञ्चँबडुचुन्नदि, (लेदा) श्रीलकु निधि अनँगा निधिवलॆँ ब्रार्धनीयुँ डनि भावमु. दीनिचे मन्त्ररत्नमु पूर्वखण्डमुलोनि ‘श्रीमत् ’ पदार्थमु सङ्ग्रहिम्पँबडॆनु. नारयण पदवाच्यमुलगु कॊन्नि गुणमुलु वर्णिम्पँ बडुटचे नारायणपदार्थ मीमीँदँ जॆप्पँबडुचुन्नदि. ‘निधि मपार मर्थिनाम् – अर्थुल कपरिच्छिन्न मगु निधि यनुट चेत - परमप्राप्यत्वमु चॆप्पँबडॆ. अर्थितार्थ - अनु रॆण्डवपादमु चेत ‘प्रापकत्वमु’ सङ्ग्रहिम्पँबडॆनु. सर्वभूतसुहृदम्— अनुट चेतँ ब्रापकत्वमुनँ गिञ्चि त्कार नैर पेक्ष्यमु चॆप्पँबडिनदि. दयानिधिँ— अनुट चेत सौहार्दमु लेकुन्ननु परदुःखासहिष्णुत्व मुण्डुट चेत रक्षण विषयमुन स्वाभाविक प्रवृत्ति नुडुवँबडॆनु अधिराजम् अनुटचेत स्वामित्वमु विवरिम्पँबडॆनु. देव राजम्— ‘त विश्वराणां परमं महेश्वरं 1 तं देवतानां परमं च दैवतम् ’ अनि चॆप्पिनट्लु देवता श्री वरदराज स्तवमु 10 5 सार्वभौमुँ डनि भावमु. आश्रये शरणं प्रपद्ये) शरणु चॊच्चुचुन्नानु. श्रीमन्तुँडु, प्राप्युँडु, प्राप कुँडु, सौहार्ध, दया, स्वामित्व, विशिष्टुँडु नगु देवता सार्वभौमुनि चरणमुल शरणुचॊच्चु चुन्नानु. अनि यी श्लोकसारमु कावुन मन्त्ररत्नमुयॊक्क पूर्व खण्डार्थमु दीनिलो सङ्क्षिप्तमुगा भक्तजनानुग्रहमुनकु श्रीवत्साङ्कुलु चेर्चि युन्नारु. ता॥ श्रीनिधियु नर्दुल कक्षयनिधियु वाञ्छितार्थमुल नॊसङ्ग बद्धदीक्षुँडु सर्वभूतमुलकु ननिमित्तो प कारियु दयानिधियु देवतासार्वभौमुँडु नगु देवराजगु वरद राजुनु शरणुचॊच्चु चुन्नानु. P गी॥ श्रीनिधियु नर्तुलकुँ बॆन्निधानमाश्रि ताळिवाञ्छितदान दीन्वितुण्डु अखिलभूतहितुँडु करुणाश्रयुण्डु नैनश्री देवराजु अने नाश्रयिन्तु. 2 अवतारिक : इन्द्रियमार्गातिक्रान्तुँ डैननु भगवा नुनि यिन्द्रियगोचरत्वरूपमुनु शरणवरणोपयु क्त मु नगु सौलभ्यगुणमुनु श्रीवत्साङ्क मिश्रु लिट सनुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ नित्य मिन्द्रिय पथातिगं महो योगिना मपि सुदूरगं धियः 1 अ प्यनुश्रव शिरस्सु दुर्ग्रहं प्रादुरस्ति करिशैल मस्तके ॥ 3 6 श्री वरदराज स्तवमु शाश्वतमैनदियु, प्रति : नित्यम् = शाश्वत मैनदियु, इन्द्रिय, पथ, अतिगम् = इन्द्रियमार्गमु नतिक्रमिञ्चिनदियु, योगिनाम् योगुल यॊक्क, धियः आपि = बुद्धिकिँ गूड, सुदूर गम् मिक्किलि दूरमुनु जॆन्दिनदियु (अन्दनिदियु) अनुश्रवशिरस्सु, अपि= वेदान्तमुल यन्दुँ गूड, सुदुर्ग्र हम् कष्टमुचेत ग्रहिम्पँ दगिनदियु (सुग्रहमु कानिदियु) अगु महः= तेजस्सु (वरद राजस्वामि) करिशैल करिगिरि शिखरमुनन्दु, प्रादुर स्त्री = आविर्भविञ्चि म सके युन्नदि. विशेषमुलु : इन्द्रियपथातिगम् न मांसचक्षु रभिवीक्ष, ते तम्— अन्नट्लु इन्द्रिया गोचर मनि भावमु. सुदूरगम्— विभजिञ्चि तॆलिसिकॊन शक्यमुगानिदि. अनुश्रव शिरस्सु—आचार्योच्चारणमु ननुसरिञ्चि श्रूयमाणमुलु गनुक वेदमुलकु अनुश्रवमुलनि पेरु. तच्छिरमुलु उपनि षत्तुलु ( वेदान्तमुलु) वानियन्दु. दुर्ग्रहम् हमु कानिदि. प्रमाणमु. सुग्र ‘यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह इत्यादुलु. ‘प्रादु र स्त्री करिशै लमस्तके’ इन्दुकुँ ब्रमाण श्लोक मुलु. ‘गङ्गाया दक्षिणे भागे 1 योजनानां शतद्वये पञ्चयोजन मात्रेण । पूर्वाम्भोधेस्तू पश्चिमे ! श्री वरदराज स्तवमु वेगवत्युत्तरे तीरे पुण्यकोट्यां हरि सस्वयम् वरद स्सर्वभूताना मद्याऒपि परिदिृश्यते । वपाहो मे प्रवृत्ते तु प्रात स्सवनकर्मणि धातु रुत्तर वेद्यन्तः प्रादु रासी जनार्दनः ॥ 7 (गङ्गकु दक्षिणमुन रॆण्डुवन्दल यामडललो नुन्न पूर्वसमुद्रपुँ बडमटि तीरमुन वेगवतीनदि युत्तर तटमुनन्दु ‘पुण्यकोटी क्षेत्रमुन श्रीहरि यन्दऱिकि वरमुलु निच्चुचु वरदनाममुतो नेँटिकिनि गानवच्चु चुन्नाँडु. ब्रह्मचेयु यज्ञमुलो प्रातस्सवनकर्म यन्दु वपा हॆूममु जरुगुचुण्डँगा नुत्तरवेदि यन्दु साक्षा ज्जनार्दनुँडु वरदराज रूपमुतो नाविर्भविञ्चॆनु. ) दिग्ग जमुल चेतँ बूजिम्पँबडुटचे नीकॊण्डकु ह सिगिरि यनि पेरु. ता॥ शाश्वतमुनु, इन्द्रियातीतमुनु, योगुलबुद्धिकि सैत मन्दनिदियु, वेदान्तमुलन्दु सैतमु सुलभ ग्राह्यमु कानिदियु नगु नॊक तेजस्सु करिगिरि शिखरमुन नाविर्भविञ्चि युन्नदि. च. परिमिति लेनियट्टिदि, य पारजवेन्द्रिय वाजिराजमुल् परुगिड दव्वुगा नॆ कनु पट्टॆडु नट्टिदि, योगिबुद्धिकि क् जॊरँ बड रानि दागमिक सूक्तुल कन्दनि दॆद्दि यद्दिये करिगिरि मस्तकम्बुन नॊ कानॊक वॆल्दुग गोचरिं चॆडुज्. 3 8 श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक :– इप्पुडु वरदराजुलवारिकि करिगिरिशिखरा वासमु नन्दलि रसिक तातिशयमु श्रुतिकि सैत मादरणीय मनि नुडुवुचुन्नारु. प्रति श्लो॥ वल्लिका श्रुतिमतल्लि कामयी येन पल्लवितविश्वशाखया । स्वश्रया करिगिरे रनुक्रियां वष्टी मृष्टवरदं त माश्रये ॥ श्रुति, मतल्लिका, मयी = श्रेष्ठमगु श्रुति स्वरूपमयिन, वल्लिका= तीँगॆ, (श्रेष्ठमगु श्रुति यनॆडु तीँगॆ) येन शाखया एवरद राजस्वामि चेत, पल्लवित, विश्व, पल्लविञ्चिन समस्तमुलगु काण्व, कारक, काला पादि, वेद शाखलुगल, (वनगिरिपक्षमुन) चिगिर्चिन सम स्तमुलगु कॊम्मलु गल, स्वश्रिया= स्वकीयशोभ चेत, करिगि रेः=ह स्ति स्वक्रिया=स्वकीयशोभ = शैलमुयॊक्क, अनुक्रियाम् = पोलिकनु (अनुकरणमुनु) वष्टि = कोरुचुन्नदो, तम् = अटुवण्टि, मृष्ट, वरदम्= पूर्ण वरप्रदुँ डगु वरदराजस्वामिनि, आश्रये= शरणु चॊच्चुचुन्नानु. ण वि शेषमुलु : ‘वल्लिका श्रुतिमतल्लि कामयी’-मतल्लिका शब्दमु श्रेष्ठवाचकमु. श्रुति (वेदमु) प्रमाणमुललो श्रेष्ठमुगान श्रुतिमतल्लिक मैनदि. दीनियन्दु वल्लिकात्व मारोपिम्पँबडिनदि. श्रेष्ठमगु वेदमु नॆडु तीँगॆ अनि भावमु. ‘येन पल्लवित विश्वशाखया’- वेदै श्च सर्वै रह मेव वेद्यः— स र्वे वेदा यत्पद मामनन्ति - इत्यादि श्रुतु सर्वे श्री वरदराज स्तवमु 9 लचेँ जॆप्पँबडिनट्लु सर्ववेद प्रतिपाद्युँ डगु भगवानुँडु गेयमुलकुँ ब देप दे नुडुवँबडु पल्लविवलॆ भगवन्तुनिकि गेयमुलवण्टि काण्व, काठक, सुबालादि, वेद शाखलकु ‘पल्ल व’ स्थानमुवलॆ नलङ्कार भूतुँ डनि ‘पल्लवित’ शब्दमु चे ध्वनित मगुचुन्नदि. ‘वष्टि - ‘वश = कान्तौ, कान्ति रिच्चा अनु धातुवुनकु लट्_रूपमु कोरुचुन्नदि यनि यर्थमु. मृष्ट वरदम् वाञ्छिताधिक फलप्रदम् कोरँबडिन दानिकण्टॆ नधिक फलप्रदुँ डनि भावमु. मृष्ट मनँगा समृद्धि. करिगि रे रनुक्रियां वष्टि- श्रीवरदराजस्वामि यन्द ऱिकि गोचरिञ्चुनट्लु करिगिरिशिखरमुन वेञ्चेसि यन्दलि शाख लकु (कॊम्मलकु) पल्लवमुवलॆ (चिगुरु वलॆ) नलङ्कारमै तन सौलभ्यमुनु जूपिनट्लु तन शाखलयन्दु (काण, काठक, सु बालादि वेद शाखलयन्दु) पल्लवमु (पल्लवि)व लॆ नलं कार मगुचु नट्टि सौलभ्यमुनु जूप लेदनि श्रुतिमतल्लि करिगिरि साम्यमुनु दनकुँ गोरुकॊनु चुन्नदि अनि भावमु. ता॥ श्रुतिमतल्लि यनॆडु वल्लि (तीँगॆ) ए वेल्पु चेतँ जगिरिञ्चिन काण्व, काठ, कालाप, सुबालादि शाखलु गल(करिगिरि पक्षमुन कॊम्मलुगल) स्वकीयशोभ चेतँ गरिगिरिसाम्य मुनु कोरुचुन्नदो! कोरिनदानिकण्टे नधिकमुगा वरमुल निच्चु आ वरदराजस्वामिनि शरणु चॊच्चुचुन्नानु. आ.वॆ. श्रुतिमतल्लि वल्लि शोभिल्लियु नॆवण्डु पल्लवमुग शाख लॆल्लँ ग्राल (2) 10 श्री वरदराज स्तवमु सर्वदृश्यवरद चारुकिरीट मा ह स्त्रीशैल साम्य मभिलषिञ्चु. 4 अव तारिक :— श्रुतिकं टॆनु हस्तिगिरिये अधिकमनि नुडुवु चुन्नारु. प्रति :- श्लो॥ यं परोक्ष मुपदेशत स्ट्रयि नेति नेति पर पर्युदासतः । सक्ति य स्त मपरोक्ष मीक्षय त्येष तं करिगिरिं समाश्रये ॥ त्रयी 5 श्रुति, (बृहदारण्यकोपनिषत्) उप देशतः = उप देशमुवलन, नेति, नेति = (न X इति_न × इति) कादु कादनि (परब्रह्ममु चॆप्पँबडिन दानि वण्टिदि कादु कादनि) पर, पर्युदासतः = इतर मुयॊक्क निषेधमुवलन, यम्=ऎवनि, परोक्षम् = चाटुगा, व्यक्ति = चॆप्पुचुन्नदो, यः, एषः = ए यीकॊण्ड, तम= आ परब्रह्ममगु वरद राजस्वामिनि, अपरोक्षम् = प्रत्यक्षमुगा (कन्नुलमुन्दु) ईक्षयति = चूपिञ्चुचुन्नदो, तम् = अटुवण्टि, करि गिरिम्=ह स्त्रीशैलमुनु, समाश्रये=भक्तितो आश्रयिञ्चु चुन्नानु. विशेषमुलु : पर, पर्युदासतः — श्रुति द्वे — वान ब्रह्मणो रूपे, - मूर्तं चामूर्तं च, सत्यं चानृतं च इत्यादि वाक्यमुल यन्दलि मूर्त, सत्य, शब्दमुल चेतनु, अमूर्तानृत शब्दमुलचेतनु, प्रतिपादिम्पँ श्री वरदराज स्तवमु 11 बडिन चिदचि त्तत्वरूपादुल पर्युदासमु (निषेधमु) वलन चिदचि त्त त्वमात्र रूपत्वाद्युक्त प्रकारमु ब्रह्ममु कादनि दानिनि निरसिञ्चुटये चिवरकुँ देलुट वलन, परोक्षम् = अप्रत्यक्षमुगा (चाटुगा) ब्रह्मस्वरूप प्रकारमुनु निरूपिम्पकये यनि भावमु, अपरोक्ष मीक्षयति=बृहदारण्यकोपनिषत्तु विविच्य (स्पष्टमुगाँ जॆप्पँजालनि ब्रह्मव स्तुवुनु इदिगो ! ई वरदराजस्वामिये या ब्रह्ममनि करिगिरि स्पष्टमुगा नॆल्लरिकिँ जूपिञ्चुचुन्न दानि सारांशमु, ई विषयमे ‘नित्य मिन्द्रिय पथा तिग’म्म नॆडु नॆडु 3व श्लोकमुन वर्णिम्पँ बडिनदि. ‘तं करिगिरिं समाश्रये’– परब्रह्ममगु वरदराजस्वामिनि साक्षात्क रिम्पँ जेयुटवलनँ गरिगिरि समाश्रयणीय मनि भावमु. बृहदारण्य कोपनिषत्तुनन्दु ‘द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं च सत्यं चानृतं च’ अनि युपक्रमिञ्चि, तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपं यथा महारजनं वासः पाण्डवाविकः यथेन्द्र गोपा यथा ग्न्यर्चि र्यथा पुण्डरीकम् ’ ई मॊदलगु वाक्यमुल चेत मूर्तामूर्त कनकाम्बर पाण्डुकम्बळादि नुडिवि ‘अधात आदेशो नेति नेति ने त्यन्य त्पर मस्ति. अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यम् तेषा मेव सत्यम्’ अनि चॆप्पँबडिनदि. पै श्रुतिवाक्यमुल कन्निण्टिकि सू॥ प्रकृतैता वत्वं हि प्रतिषेधति ततो ब्रवीति च रूपमुलनु12 श्री वरदराज स्तवमु भूयः 3–2–21 ब्रह्म सूत्रमुन अर्थनिर्णय मॊनर्पँ बडिनदि. कलदि ता॥ त्रयि (बृहदारण्यकोपनिषत्तु) उप देशमुवलनँ बरब्रह्ममु पूर्वमु चॆप्पँबडिन लक्षणमुलु मात्रमे कादु— कादु- अनि परपर्युदासवलनने वरदराज स्वामिनि अप्रत्यक्षमुगा नुडुवुचुन्नदो! या वरदराज स्वामिनि ई करिगिरि यन्द ऱकुँ ब्रत्यक्ष मुगाँ जूपुचुन्नदि. कावुन वरद राजस्वामिनि परब्रह्ममनि स्पष्टमुगाँ जॆप्पँ जालनि श्रुति कण्टॆ सन्दऱिकन्नुलकुँ बर ब्रह्ममगु श्री वरद राजस्वामिनि स्पष्टमुगाँ जूपिञ्चुचुन्न करिगिरिये मिन्न ई यनि भावमु. आ वॆ नेति नेतिश्रुतुल चेत वेसिँ बरोकु पति : भङ्गिँ ब्रोँतपलुकु पलुकु नट्टि परमदै वतम्बुँ ब्रत्यक्ष मुगँ जूपु नट्टि ह स्तिशिखरि नाश्रयिन्तु. श्लोII एष ईश इति निर्णयं त्रयी भाग धेयरहि तेषु नो दिशेत् । हस्तिधामनिन निर्णयेत को देवराज मय मीश्वर स्त्विति ॥ 5 10 6 त्रयी
वेदत्रयमु, भाग धेय, रहि एषः = ई वरद राज तेषु= अदृष्ट हीनुल विषयमुन, स्वामि, ईशः=स र्वेश्वरुँडु, इति = अनि, निर्णयम्=निश्चय श्री वरदराज स्तवमु
13 मुनु, नो, दिशेत्= इय्य लेदु, (कानी) हस्तिधामनि, तु= करिगिरियं दन्ननो, देवराजम् वरदराजस्वामिनि, अयम्= इतँडु, ईश्वरः = सर्वेश्वरुँडु, इति = अनि, कः=ऎवँडु, न, निर्णयेत = निर्णयिम्प लेँडु. (ऎल्लरुनु निर्णयिन्तुरनि भावमु.) विशेषमुलु :- त्रयी— ‘इति वेदास्त्रय स्त्रयी’ अमरमु. ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेदमुलु. इन्दलि पूर्वार्धमुलोनि विषयमे वैकुण्ठ स्तवमु 13व श्लोकमुन विवरिम्पँबडिनदि. ‘य त्केचि दत्र भवतीं श्रुति माश्रयन्तो व्यर्थे कुदृष्टि विनिविष्ट धियो विनष्टाः’ ‘कॊन्दऱु पूज्य याश्रुतिनि भव्यम्बौ प्रमाणम्बुगा महिँ बेर्कॊञ्चुँ ददर मॆल्लँ गुदृशुल् मार्तुर् विना शम्बुकै ’ (मदीय पद्यभागमु) उत्तरार्थ भावमिदि—— करिगिरि निवासमु देवराजगु वरदराजस्वामिकि सर्वेश्वर त्वादुलतो नॆडँ बाटु लेनि समस्तकल्याण गुणात्मकत्वमुनु जूटुचुन्नदि. ता॥ वेदमुलु दुरदृष्टवन्तुल विषयमुन नी वरद राजस्वामि सर्वेश्वरुँडनि निर्णयिम्पँ जालक पोयिननु, श्री करिगिरियन्दुँ ब्रतिजनुँडुनु वरदराजस्वामिये सर्वेश्व रुँडनि निर्णयिम्पँजालुनु, 14 श्री वरदराज स्तवमु क दुर दृष्टुलकुन् यि यी श्वरुँ डितँ डनि निर्णयिम्पँ जालदु गानी, करीगिरियं डितँडे यी श्वरुँडनि निर्धारणम्बु सलुपु जडुण्डुन्, 6 अव : वॆनुकँ जॆप्पिनदानिने तेट तॆल्ल मॊनर्चु चुन्नारु. प्रति : श्लो॥ है कुदृष्ट्यभिनि विष्ट चेतसां निर्विशेष, सविशेषतौ, श्रयम् । संशयं करिगिकि र्नुव त्यसौ तुङ्ग मङ्गळ गुणास्पदे हरौ ॥ 7 तुङ्ग, मङ्गळ, गुण, आस्पदे= उन्नतमु लुनु (आनन्दगुणमु वलॆने अपरिच्छेद्यम्बुलुनु), कल्याण करमुलुनु अगु गुणमुलकु निलयमैन, हरौ=श्री मन्ना रायणमूर्ति विषयमुन, कुदृष्टि, अभिनिविष्ट, चेतसाम्=कुदृष्टि चेत (अयथार्थ ज्ञानमु चेत) नाटुकॊनिन मनस्सु गलवारिकि, निर्विशेष, सविशेषता, आश्रयम् निर्गुणत्व, सगुणत्वमुलकु नॆलवैन, संशयम्=सं देह मुनु, असौ= ई, करिगिरिः = ह स्तिशैलमु, नुदति = पो गॊट्टुचुन्नदि. विशेषमुलु : — निर्वि शेष, सविशेष, ताश्रयं संश यम् श्रीमन्ना रायणमूर्ति निर्गुणुँडा! सगुणुँडा! श्री वरदराज स्तवमु यी 15 अनु कोटिद्वयावलम्बि सन्देहमुनु अनि भावमु, असौ, करिगिरिः– नित,निरवद्य, निरतिशय, कल्याण गुणमुलु पुष्कल मुगा नुण्डि यन्दऱकुँ गन्नुलमुन्दु कनिपिञ्चु देव राजुनु दलतो म्रोयुचुन्न यी करिगिरि अनि तात्पर्यमु. सुदति निरसिञ्चु चुन्नदि. कुदृष्टुलकु उपनिषत्तुलवलनँ गूड नेर्पडनि ‘ देव राजु मङ्गळ गुणगणाकरुँ’डनु निर्णय मुनु करिगिरि सुलुवुगाँ गलिगिञ्चुचुन्नदि यनि सारांशमु. है— ई शब्दमु (अव्ययमु) प्रसिद्धिनि दॆलुपुनु. शङ्कर पक्षी युलगु मायावादुलु ब्रह्ममुनकु सगुणत्वमु नङ्गींरिम्पक पोयिननु वारिलो नॊक तॆगवारगु यादव प्रकाश पक्षीयुलु दशाभेदमु चेत ब्रह्ममु नङ्गीकरिञ्चुट चेत ब्रह्ममु सगुणमा निरुणमा ! अनि कोटि द्वयाव लम्बि संशय मेर्पडॆननि तॆलियवलॆनु. ता॥ आनन्दगुणमुवलॆ नपरिच्छिन्नम्बुलगु कल्याण गुणमुलकु नित्यनिलयुँडगु श्री ना रायणुनि विषयमुन श्रीहरि सगुणुँडा ! निर्गुणुँडा ! यनि हृदयमुन गाढ मुगा नाटुकॊनिन कुदृष्टुल संशयमु नी करिगिरि सुलुवुगा निवारिञ्चुनुन्नदि प्रसिद्धमु, उ॥ ऎन्दुनु मेरलन् नुडुव 1 नेरिकि शक्यमुगानि यट्टि या नन्दगुणम्बु न टॆ सुगु ♡ णम्बुल कालयमैन चक्रिपै 16 श्री वरदराज स्तवमु नॆन्दुलको ! कुदृष्टुलकु नेर्पडु निर्गुणुँडो ! परुण्डॊ ! यन् सन्दियमुन् तॊलञ्चुँ गरि शैलवरं बिदि चूचि नन्तने 7 अवतारिक :– सात्विकुलु कूड नुपबृंहण वाक्यमु लतोँ गूडिन श्रुतिचेतँ द्वनिर्णयमु नॆट्लो चेसिननु करिगिरि मात्रमु विलक्षणमुगा नन्दऱकु स्वयमुगा भग वन्तुनि अनुभविम्पँ जेयु चुन्नदनि यी श्लोकमुन ननुग्र हिञ्चु चुन्नारु. प्रति श्लो॥ न्यायतर्कमुनि मुख्यभाषि तैः शोधितैः सह कथं चन त्रयी ! जोषये द्धरि मनंहसो जनान् ह स्तीधाम सकलं जनं स्वयम् ॥ त्रयी= वेदत्रयमु, शोधि तैः=शुद्धमुलैन, 8 CO न्याय, तर्क, मुनिमुख्य, भाषितैः सह = न्यायमुल चेतनु, तर्कमुल चेतनु, मुनिश्रेष्ठुल वाक्यमुल चेतनु, कूड, अनंहसः = पापरहितुलगु, (श्रीणकल्मषुलगु) जनान् = जनुलनु, हरिम् = देवराजुनु, कथञ्चन=ऎटो कष्टमुमीँद, जोषयेत् = सेविम्पँ जेयुनु, ह स्तिधाम= करिगिरि, सकलम्= समस्तमगु, जनम् =जनमुनु, स्वयम्= स्वयमुगाने (इतरुलय पेक्ष लेकुण्डने (हरिम्= देव राजुनु (भगवन्तुनि) जोषयेत् = सेविम्पँ जेयुनु.) श्री वरदराज स्तवमु 17 विशेषमुलु : शोधि तैः_ शोधन चेयँबडिन – अनँगा अपन्यायमुलु तर्का भासमुलु चेरकुण्ड राजस तामस पुराणमुलु काकुण्ड गालिम्पँबडिन, न्याय- तर्क— मुनिमुख्य भाषि. तैः न्याय = पूर्वोत्तर मी ए मांसान्यायमुल चेतनु - तर्क अनुकूल तर्कमुल चेतनु, अनँगा— पर्वतो वह्निमान् भूमात्- (पॊगयुण्डुटवलनँ गॊण्ड निप्पुकलदि) अनु अनुमान प्रमाणमुन - प्रतिपक्षि - धूमोस्तु वह्नि र्मास्तु (पॊगयुण्डिननु वह्नि लेकपोवुँगाक) अनि यप्रयोजक शङ्क चेसिनप्पुडु — ‘यदि वह्नि र स्यात् तर्हि र्न धूमोपि न स्यात्’ (वह्नि लेनिचो धूममु गूड लेकपोनी) अनि चॆप्पुटलु अनुकूल तर्कमुलु, मुनि मुख्य भाषि तैः=मुनि श्रेष्ठुलगु वाल्मीकि, पराशर, व्यास, भाषितमुलैन श्रीमद्रामायण, विष्णुपुराण, भारतादि सात्विकपुराणमुल चेतनु, अंहसः चेतनु, अनंहसः – क्षीणकल्मषुलै न ‘जन्मान्तर सहस्रेषु तपोध्यान समाधिभिः। नराणां क्षीण पापानां कृप्ले, भ क्ति ः प्रजायते’ (वेलकॊलँदि जन्मान्त रमुलन्दुँ दपस्सुल चेत, ध्यानमुल चेत, समाधिनिष्ठ ल चेत क्षीणपापुलगु जनुलकु श्रीकृष्णुनियन्दु भक्ति जनिञ्चुनु.) सकलं जनम् = पण्डितुलनु पामरुलनु, (3) 18 श्री वरदराज स्तवमु ता ! परिशुद्धमुलगु पूर्वोत्तर मीमांसान्याय मुल चेतनु, अनुकूलतक्क मुल चेतनु, सात्विकमुलगु श्रीमद्रामायण, विष्णुपुराण, भारतादुल चेतनु, उप बृंहितमै “वेदत्रयि अनेक जन्ममुललोँ जेसिन तपस्सुल चेत क्षीणकल्मषुलगु जनुल नॆट्लो भगवन्तुँडगु देव राजुनु सेविम्पँ जेयुनु. करिगिरि यन्ननो यट्लु अन्यनिर पेक्षकमुगा ने तनन्तँ दाने या बालगोपालमु चेत श्री देव राजुनु सेविम्पँ जेयुचुन्नदि. कावुनँ द्रयि कण्टॆ श्री करिगिरिये मिन्न. म परिशुद्धम्बुलु न्यायतर्कमुल चे भद्रायितम्बै मुनी स्वर भाषावळिभूषितं बगु त्रयी क्कॆट्टुलो ! यॆट्टुलो ! हरि सेविम्पँगँ जेयु निष्कलुषुलन्, हस्त्यद्रियो सुल्वुगा हरि दर्शिम्पँगँ जेयु नॆल्लरकुँ दा नै कोर केसायमुन् . प्रति : 3 श्लो॥ आद्भुतं मह दसीम भूमकं, किञ्चि द स्त्री किल वस्तु निस्तुलम् इ त्यघोषि य दिदं त दग्रत स्तथ्य मेव करिधाम्नि दृश्यते । 15 यटु गाक अद्भुतम् = आश्चर्यकरमैनदियु, महात् : गॊप्पदियु, असीम भूमकम् अपरिच्छिन्न महिम गलदियु, श्री वरदराज स्तवमु 19 निस्तुलम् = साटि लेनिदियु अगु, किञ्चित् = ऒकानॊक, वस्तु= = वस्तुवु, अस्ति, किल=उन्नदि सुमा, इति अनि, यत् = एदि, अघोषि = चाटँबडॆनो, तत् = आ प्रसिद्धमगु वस्तुवु, करिधाम्नि = करिगिरियन्दु. इदम् = इदिगो, अग्रतः=ऎट्ट यॆदुट, तथ्यम्, एव=यथार्थमुगाने, दृश्यते=कनँबडु चुन्नदि. विशेषमुलु :– अद्भुतम् = समस्तमुलैन विजातीय सजातीयमुलकण्टॆ नत्याश्चर्यकरमु ऐन - असीम भूम कम्=अपरिच्छिन्न स्वभावमुगल, किञ्चित्= तॆलियँबडिन यंशमुलोँ गूड निदि यिट्टिदनि चॆप्पुटकु साध्यमुगानि, अग्रतः मांसचकुष्कुलमगु मनयॆदुटँ गूड, दृश्य ते= प्रत्यक्षी क्रिय ते चूडँबडुचुन्नाँडु. ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, a यत् प्रयं त्यभिसं विशन्ति, त द्विजिज्ञासस्व, तद्भह्मेति, त देव सौम्येद मग्र आसीत्, एक मेवा द्वितीयं ब्रह्म, यः सर्वज्ञ स्सर्ववित्, पराजस्य शक्ति र्विविधैव श्रूय ते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रियाच, न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते, एष सर्वभूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायण’ ई मॊदलगु श्रुति शतमुलचेतँ बेर्कॊनँबडिन वैभवातिशयमु गल नारायणुँडु करिगिरियन्दुँ जक्कगाँ गनँबडुचुन्नाँडनि भावमु. 20 श्री वरदराज स्तवमु ता अद्भुतमुनु, मह त्तममुनु, अपरिच्छिन्न महिममुनु, अपरिच्छिन्न स्वभावमुनु, निरुपमानम्बुनु, अगु वस्तु वॊकटि कलदनि श्रुतिशतम्बुलु देनिनिँ जाटु चुन्नवो या परवस्तुवु करिगिरियन्दु नन्दऱि कन्नुल मुन्दऱ निदिगोननि चूपुटकु ननुवुगा सत्यमुगाँ जाटँबडु चुन्नदि. उ॥ निस्तुलमुन् महाद्भुत म नी दृशरूप मसीमभूम मौ वस्तु वॊकण्डु वेदमुल वाकॊनँगाँ बडॆ नेदि मिन्नगा, श स्त मुदा त्त मा परम सत्यमु वस्तु वॆ कण्टिमुन्द जन् ह स्ति महामहीधरमु नन्दु वॆलिङ्गॆडुँ जूड नॆल रुन् . अवतारिक :– प्रत्यदि प्रमाणान्तरमुल संवाद मुन्नप्पुडे यागममुनकुँ ब्रामाण्यमुण्डुननि वादिञ्चु वेदबाह्युल मतमुनन्दु सैतमु वरदराजस्वामिनि सकल जन साक्षात्कारक्षमुनिगाँ जेयु चुन्न करिगिरिचेत वेदत्रयि प्रामाण्यमु ननुभविञ्चुचुन्न दानि यी जोक मुन नुडुवुचुन्नारु. प्रति : श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ सम्पदेत किल यत् प्रमान्त रै सत्त् प्रमाण मिति येहि मेनि रे! तन्म शेऒपि किल मानतां गता हस्तिनाद्य परवस्तुनि त्रयी ॥ 21 10 ये=एवादुलु, यत्, किल= एदि, प्रमाण मुगा नभिमतमो, (तत् = अदि) प्रमान्त रैः = इतर प्रमाणमुलतो, संव देत – अनुकूलपडि युण्डवलॆनु, = (विरुद्धमु काकूडदु) तत् = अट्टिदि, प्रमाणं, हि, इति= प्रमाणमनि तलँचिरो, तन्मते, अपि = अट्टिवारल मतमु वेदत्रयि, अद्य = इप्पुडु, नन्दुँ गूड, त्रयी ह स्तिना
(परवस्तुवगु वरदराजस्वामिनि कनुलमुन्दु प्रत्यक्षमुगाँ जूपुचुन्न) करिगिरिचेत, परवस्तुनि= परवस्तु विषयमुन, मान ताम्= प्रमाणत्वमुनु, गता, किल= पॊन्दिनदि कदा ! वि शेषमुलु :— ह स्तिना — नामैकदेशे नामग्रह णम् — अनु परिभाष चेत हस्तिगिरि अनु पेरिलो नॊक भागमगु ह स्तिपदग्रहणमु चेत हस्तिगिरिग्रहण मेर्प डुनु. भीमपदमु चेत भीमसेन ग्रहणमुवलॆ. त्रयी परवस्तुनि- मान ताङ्गत्वा सर्वज्ञुँडु सर्वशक्ति, सर्व शरण्युँडु, सकल फलप्रदुँडु, पुण्डरीकाक्षुँडु, लक्ष्मीपति, परमपुरुषुँडु, सर्वनिर्वाहकुँडनि श्रुति प्रतिपादित22 वरदराज सनमु परवस्तुवुनु ह स्तिगिरि यन्दऱकुँ ब्रत्यक्ष मुगाँ दन शिरस्सुनन्दुँ दाल्चुट चेत श्रुति य बाधित विषयमगु चुन्नदनि भावमु. अदि यितर ताळि एदि प्रमाणमुगा नभिमतमो प्रमाणमुलकु ननुगृहीतमै युण्डवलॆननि येवादुलु तलँचिको वारि मतमुनन्दुँगूड वेदत्रयि परवस्तुवगु श्री वरदराजस्वामिनि ब्रत्यक्षमुगा शिरमुनन्दु दाल्चि चूपुचुन्न ह स्तिगिरिचेतँ बरम प्रमाण पदविनि बॊन्दिम्पँ बडिनदि. उ एदि प्रमाणरूपमुग निष्ट मॊ. यद्दि प्रमान्त रैक सं वादिग नुण्ड नौ न नॆडु वादुलकुं गडुसम्मतम्बुगा नादिमत त्त्वमौ वरदु नौदलँ दालिचि हस्तिशैल मी मादिरिँ जूपुचुं द्रयिँ ब्र माणतमम्बनि चाटुचुण्डॆडिन्, ई स्तवमुनन्दु मॊदटि पदिश्लोकमुलु रथोद्धतावृत्त निबद्धमुलु. रान्न रा रान्नरा विह रथोद्धता लगौर,न,र, गणमुलु । लघुवु । गुरुवु पादपादमुन रथोद्धता वृत्तमुन कुण्डुनु, श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक : — इट्लु मन्त्ररत्नमुनँ 23 गल ‘नार’ पदमुनकु अर्थमगु करिगिरि वैभवमु नुग्गडिञ्चि तदयन पदाभि धेयमगु भगवानुनि वैभवमुनु विस्तरिञ्चि चॆप्पँ बोवुचुँ दॊलुदॊ गुण योगमुनु ब्रतिपादिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ गुणाय त्तं लोके गुणिषु हि मतं मङ्गळपदं विपर्यस्तं ह स्तिक्षिशिधर पते तत् त्वयि पुनः । गुणा स्सत्यज्ञान प्रभृतय उत त्वद्दततया शुभीभूयं याता इति हि निरणैम्म श्रुतिवशात् ॥
11 प्रति : लो के= लोकमुनन्दु, गुणिषु गुणवन्तुल विषयमुन, मङ्गळपदम् = मङ्गळशब्दमु (वीरु मङ्गळ करुलु अनि) गुणाय त्तम् गुणाधीनमु (गुणमुलँबट्टि प्रयोगिम्पँबडुनदिगा) मतं हि–तलँचँबडिनदि गदा! हे ह स्तिक्षितिधरप ते= करिगिरि प्रभुवगु ओ वरदराजस्वामि! त्वयि, पुनः=नी विषयमुनन्दो, विपर्य स्तम् = तलक्रिन्दुलु, (भवति अगुचुन्नदि) सत्यज्ञान प्रभृतयः = सत्यमु, ज्ञानमु, मुन्नुगाँगल, गुणाः उत= गुणमुलन्न नो, त्वत् गततया=निन्नाश्रयिञ्चुट चेत, शुभीभूयम्=मङ्गळत्व मुनु, याताः इति = पॊन्दिनवनि, श्रुतिवशात् = वेद साहाय्यमुवलन, निरणॆम्म, हि=निश्चयिञ्चुकॊण्टिमि.
24 विशेषमुलु : श्री वरदराज स्तवमु ‘गुणायत्तं लोके गुणिषु हि शोभातपचन्द्रिका मतं मङ्गळपदम्— मणि, द्युमणि (सूर्युँडु) चन्द्र, चन्दनादुलन्दु शोभन ता हेतुवु सुगन्धभरादि सम्बन्धमे यनि यॆल्लरु नॆऱिँगिन विषयमे. तत्, त्वयि. पुःः, विपर्य स्तम् – आ नियममु नी विषय विपर्यस्तम्. मुनँ दल किन्दुलैनदि. अनँगा - मङ्गळपदमु गुणा य त्तमु गाक गुण्याय त्त मैनदि यनि भावमु. तृतीय चतुर्ध पादमुलु पै विषयमुनु समर्थिञ्चुचुन्नवि. भवदीयस्वरूप निरूपकमुलगु सत्वज्ञाना सत्वज्ञानादि गुणमुलु निन्नुँ जेरुट चेतने मङ्गळत्वमुनु बॊन्दिन वि. यॆ पॆङ्गितिरि? निरणैम्म श्रुतिबलात् सत्यस्य सत्यम् ज्योतिषां ज्योतिः- समाधानमु.
इदि B इत्यादिश्रुतुल मूलमुन सनि ता॥ कान्तिनिबट्टि यिदि मञ्चिरत्नमु, सुगन्धमुनु बट्टि यिदि मञ्चि चन्दन मन्नट्लु वीरु मञ्चिवारनुटकु लोकमुन गुणमुलु कारणमै युन्नवि. ओ करिगिरीशा ! वरद राज ! स्वामी ! नीयं दीलकुणमु तलक्रिन्दुलुगा ँ गन्पट्टु चुन्नदि. मङ्गळत्वमु गुणमुलनुबट्टि रादु गुणिनिबट्टि वच्चुननि भावमु. ऎट्लन सत्यज्ञान प्रभृतिगुणम्बुलु मङ्गळ करुँडवगु निन्नाश्रयिञ्चुट चेतने मङ्गळत्वमुनु बॊन्दॆ ननि ‘सत्यस्य सत्यम्,- ज्योतिषां ज्योतिः’ इत्याति श्रुति वाक्यमुलवलन निर्णयिञ्चु कॊण्टिमि. ಬ श्री वरदराज स्तवमु म॥ भुवि देवा ! गुणुलन्दु मङ्गळपदं बुन् गूरुतुर् सद्गुणा ळि विराजिल्लुटचे मणिद्युमणु लो लिन् लक्ष्यमुल्, तल्लक्रिं दवु नीयं दिदि नीगुणम्बु लगु स त्यज्ञान मुख्यम्बुलुन् भवदाधारत वन्नॆँ गाञ्चॆँ द्रयिचे भाविन्तु मी यगमुन्, 25 अवतारिक भगवन्तुन किट्टि गुणविशिष्ट स्वरूपमु वेदमुनन्दु सैत मवाज्मानसगोचर मनि प्रतिपादिम्पँ बडिन दनुचुन्नारु. श्लो॥ निराबाधं नित्यं निरवधि निरंलो निरुपमं
सदा शान्तं शुद्धं प्रतिभट मवद्यस्य सततम् । परं ब्रह्माम्नातं श्रुतिशिरसि य द्वरद ! ते परं रूपं साक्षात् त दिद मपदं वाङ्मनसयोः ॥ |
---|
॥ 12 |
प्रति :—— निराबाधम्=निर्विकार मैनट्टियु, नित्यम्= शाश्वत मैनट्टियु, निरवधि= हद्दु लेनट्टियु, निरंहः = निर्मल मैनट्टियु, निरुपमम् = साटि लेनट्टियु, सदाशां तम् नित्यानुकूल मैनट्टियु, (भोग्य मनि भावमु) शुद्धम् = शुद्धसत्वस्वरूप मैनट्टियु, (कनुकने) सततम् → ऎल्लप्पुडु, अवद्यस्य = दोषमुनकु, प्रतिभटम्=विरोधि |
(4) |
26 |
श्री वरदराज स्तवमु |
यैनट्टियु, यत् = एदि, (अस्ति |
यत् = एदि, (अस्ति =कलदो) तत् =आ, परं, ब्रह्म=परब्रह्ममु, श्रुतिशिरसि= उपनिषत्तुलन्दु, वाङ्मन सयोशि= वाक्कुलकु मनस्सुनकुनु, अपदम् = अन्दनिदिगा, |
वरद! पेर्कॊनँबडिनदि आम्ना तम् |
ओ वरदराज |
स्वामि! तत् = आ, इदम् = इदि, ते= नीयॊक्क, साक्षात् = प्रत्यक्ष मगु, परम् = श्रेष्ठमैन, रूपम् (भवति = अगु चुन्नदि.) वि शेषमुलु :- नित्यम् स्वरूपमु. कालपरि च्छेदर हितम्. कालमु यॊक्क मिति लेनिदि, निरवधि = देशपरिच्चेद रहितम् - सर्व देशमुलन्दुँ गलगि यनि भावमु. ‘प्रतिभट मवद्यस्य सततम्’ तन सम्बन्धुलकु सैतमु दोष लेशमुनु गूड सहिम्पनिदि यनि तात्पर्यमु. दोष विरोधि (निर्दोषमु) अनि मात्रमे चॆप्पिनचो ‘निरंहः’ अनु पदमुतोँ बुनरुक्ति वच्चुनु. दोषविरोधि अपदं वाङ्मनस योः - - ‘न चक्षुषा ‘न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा,— य त्त दद्रेश्य मग्राह्यम्’ इत्यादि वेदान्त वाक्यमुलु परब्रह्म मवाज्मानसगोचर मनि नुडुवु चुन्नवि. वरद! ते परं रूपं साक्षात्त दिदम् — ಇಟ್ಟೆ परस्वरूपरूपविशिष्टुँड वगु नीवु भक्तुल सौलभ्यमुनकै करिगिरिशिखरमुन कलङ्कारमुगा वेञ्चेसियुन्ना वनि भावमु. श्री वरदराज स्तवमु 27 ता॥ निर्विकारमु नित्यमु निरवधियु निर्मलमु निरुप मानमु सदा भोग्यमु शुद्धमु स्वसम्बन्धुलकुँ गूड दोष लेशमुनु सैतमु सहिम्पनिदियु नगु एपरब्रह्ममु वेदान्तमुलं दवाङ्मनसगोचर मनि पेर्कॊनँ बडिनदो यदि योवरदराजस्वामी! प्रत्यक्ष मगु नी निष्कृष्ट परम स्वरूपमे. च॥ निरुपममुन् विनिर्मलमु नित्यमु केवल शुद्ध सत्वमुन् निरवधि निर्विकारमुनु नित्यसुभोग्य मवद्यशून्यमुस् परमु वचोमनोतिगमु ब्रह्ममु वेदशिगोनिरूढ मो वरद! भवत्स्वरूप मयि वर्ति लॆ वारण शै लभूषगान् ॥ श्लो॥ प्रशान्तानन्तात्मानुभवज महानन्द महिम प्रसक्त सैमित्यानुकृत वितरं गार्ल वदळम् । परं यत्ते रूपं स्वसदृशदरिद्रं वरद! ते त्रयी विस्रृक्षन्ती परनिरसने श्राम्यति परम् ॥ 13 13 प्रति : हे वरद! = ओ वरदराजस्वामि ! प्रशान्त
.दशम्— प्रशान्त= अत्यन्तानु कूलमुनु, अनन्त =अपरिच्छिन्नमुनु, (अगु) आत्म = स्वस्वरूपमुयॊक्क, 28 श्री वरदराज स्तवमु तत्=आ अनुभव, ज = साक्षात्कारमुवलनँ बुट्टिन, महानन्द = आनन्दातिशयमुयॊक्क, महिम =आधिक्यमु महत्त्वमु) चेत, प्रसक्त = एर्पडिन, सैमित्य = निश्चलत्वमु चेत, अनुकृत = अनुशरिम्पँबडिन, वितरङ्ग = अललु लेनि, अर्णव= समुद्रमु यॊक्क, दशम्=अवस्थगलिगिनट्टियु, स्व, सदृश, दरिद्रम्= (निस्त रङ्गसमुद्रमुकण्टॆ) इतर समान वस्तुवुलेनि, यत् =ए, ते= नीयॊक्क, परम् = अत्युत्कृष्ट मगु, रूपम् = स्वरूपमु (अस्ति = कलदो) तत् = आ कलदो) तत् = आ स्वरूपमुनु, विस्त्रृक्षन्ति = प्रतिपादिम्पँ दलचुचु, त्रयी = वेदत्रयि, परनिरसने, परम् = हेयावयवविकारादुलनु निरसिञ्चुट यं दे, श्राम्यति= अलसिपोवु चुन्नदि. (आँगिपोवुचुन्नदि) वि शेषमुलु :भगवानुनकु शान्तो दितदश यनियु, दितदश यनियु रॆण्डु दशलु गलवु. वानिलो हेय प्रत्यनीककल्याणि क तानस्वस्वरूपानुभवदश मॊदटिदि, विभू त्यनु भवदश रॆण्डवदि. ई श्लोकमुन भगवन्तुनि शान्तो दितदश वर्णिम्पँबडिनदि. पूर्वार्ध मुयॊक्क भावमिदि, अत्यन्तानुकूलमुनु, अपरिच्छिन्नमुनु अगु स्वस्वरू पमुयॊक्क साक्षात्कारमुवलनँ बॊडमि नयवरिच्चि न्नानन्द वैभवमुवलन नेर्पडिन निश्चलत्वमु चेत निस्तरङ्ग सागरमुव लॆ नुन्न यनि भगवत्स्वरूपमुनकु वि शेषणमु. स्वसदृशदरिद्रम्— कॊञ्चॆमु पोलुचुन्न नि स्तरङ्गार्णवमु कण्टॆ नितर मगु सदृशवस्तुवु लेनि दनि भावमु. 4 व पादमु नितो श्री वरदराज स्तवमु 29 यॊक्क सारांशमिदि. भगवानुनि यत्युत्कृष्ट स्वरूप मुनु ब्रतिपादिम्पँ दलँचि त्रयि ‘निष्कलं निष्क्रियं शान्तम्— य त्त दद्देश्य मग्राह्यम्’ इत्यादि वाक्य मुलचेत हेयावयव विकारादि निरसनमुतोने याँगि पोयिनदि. कानि युन्नदि युन्नट्लु वर्णिम्पलेक पोयॆनु. अनि अट्टि शान्तो दिदश सनुभविञ्चु भगवानुँ डिट्लु करिगिरि यन्दु वॆलसि सुलभुँ डगुट माबोण्ट्ल सनुग्रहिञ्चुट कनि यभिप्रायमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! अत्यन्त भोग्यमु नपरि च्छिन्नमु नगु स्वस्वरूपमुयॊक्क साक्षात्कारमुवलन जनिञ्चिन यानन्दातिशयवैभवमुनँ गलिगिन निश्चलत्वमु चे नललु लेनियब्धिनि बोलुचु नितर सदृशवस्तुवु लेनि नी युत्कृष्ट स्वरूप मेदिकलदो दानिनि वेदत्रयि प्रतिपा दिम्पँ दलँचि केवलमु परनिरसनमुतोने विश्रमिञ्चिनदि. साकल्यमुगा नी स्वरूपमुनु वर्णिम्प नॆवरिशक्यमु ? म॥ अति भोग्यानवलोकि तान्त निजरू पास्वादनानन्द सं तति लब्धाचल भावतन् स्तिमितत द्वार्धिन् विडम्बिञ्चुचुन् 30 श्री वरदराज स्तवमु गतकुल्येतर वस्तु वैन भवदा कारम्बु वर्णिम्प नॆं चि त्रयीवाणि श्रमिञ्चॆ नन्यमु निरा सिम्पन् रमावल्ल भा ! अवतारिक :– चॆप्पँबडिन विषयमुने स्पष्टमुगा विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ न वक्तुं न श्रोतुं न मनितु मथोपानिषयिकुं न च द्रष्टुं प्रेमा तदनु न च भोक्तुं हि सुशकम् । परं य द्वस्तूक्तं ननु वरद साक्षात्तदनि भोः कथं विश्वस्मै त्वं करिगिरिपुर सिष्ठस इह ॥ 14 प्रति :- वरद! ओ वरदराजस्वामी ! परम् अन्निटिकण्टॆ श्रेष्ठमगु, यत् एतत्वमु, व क्तुम्= उप देशिञ्चुटकु, न, सुशकम् = सुलभमुगानिदियु (शक्यमु गानिदियु) (उपदेशिम्पँबडिननु श्रोतुम् विनुटकु (ग्रहिञ्चुटकु) न, सुशकम्=शक्यमुगानिदियु, ग्रहिम्पँ बडिननु) मनितुं च मननमु चेयुटकुनु, न, सुशकम् सुलभमुगानिदियु, अथ = मननान्तरमु, उपासिषयितुं, च=उपासन चेय, वाञ्छिञ्चुटकुनु, न, सुशकम् = सुलभमु गानिदियु, प्रेमा=प्रेमतो, द्रष्टुं, च, न सुशकम्= चूचुटकुनु शक्यमुगानिदियु, तदनु= तरुवात, भोक्तुं, च, न सुशकम् = अनुभविञ्चुटकुनु शक्यमुगानिदियु, श्री वरदराज स्तवमु 31 (इति=अनि, श्रुत्या=नेदमुचेत) उक्तम्= चॆप्पँबडिनदो, तत् = आ, वस्तु= परतत्वमु, भोः = ओ स्वामि! साक्षात् प्रत्यक्षमुगा, त्वम् - नीवु, असि,
- ननु = अगुचुन्नावु गदा! कथम्=ऎट्लु, इह = ई भूतलमुनन्दु, करिगिरि पुरः =करिगिरिमुन्दु, त्वम् = नीवु, विश्वस्म= समस्तजनमु कॊऱकु, तिष्ठ से=उन्नावु.
- विशेषमुलु :- - ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः’ अनु श्रुतिचेँ बरतत्वमुयॊक्क श्रवण मनन साक्षात्कार मुलु विधिम्पँबडिननु ‘न चक्षुसा गृह्यते नापि वाचा,- यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह— इत्यादि श्रुतुल चेतँ बरतत्वस्वरूपमु गुणमुलु अवाङ्मनस गोचरमुलनि वर्णिञ्चुटवलन श्रवणमुनकु मॊदटिदि यगु नुप देशमुतोँगूड साक्षात्का रानन्तरमु गलिगॆडु निरन्तरानुभव पर्यन्तमु गलषट्कमु – अनँगा 1 उप देशमु 2 श्रवणमु 3 मननमु 4 निदिध्यास मु 5 सा त्कारमु 6 अनुभवमु इवि यशक्यमुलनि भावमु.
- 3
- श्रवणमु :- तत्वदर्शियगु नाचार्युनिवलन न्याय युक्तमगु नर्थमुनु ग्रहिञ्चुट.
- Д
- मननमु :- यु क्तुल चेत विन्न यर्थमुनु
- चेयुट.
- धारण32
- निदिध्यासनमु
- सन्तानमु.
- श्री वरदराज स्तवमु
- तैलधारवलॆँ दॆम्पु लेनि
- स्मृति
- कन्दनि
- ‘साक्षि’ त्तदसिभोः’- उपदेशादि षट्कमुन
- या परवस्तुवु नीवे गदा ! चतुर्ध पादमुलो ‘विश्वस्मै’
- चतुर्दपादमुलो अनुचोट चतुर्थी विभ क्ति वलननु ‘तिष्ठसे’ अनु चोट अत्मने
- पदिवलननु आ पादमुनकु नायाश्रितुलनु रक्षिम्पँ गल ननि सम स्तजनुलकु स्वाभिप्रायमुनु ब्रकटिञ्चुचु नुन्ना
- वनि भावमु.
- ताः वरद राजस्वामि ! ए परतत्वमु उप देशिञ्चुटकुँ गानि श्रवण मॊनर्चुटकुँगानी, मननमु चेयुटकुँगानि, दर्शिञ्चुटकुँगानि,
- यनुभविञ्चुटकुँगानि शक्यमुगादनि श्रुति चॆप्पुचुन्नदो! आ परतत्वमु
- आ परतत्वमु साक्षात्तुगा नीवे यगुचुन्नावु गदा ! उप देशादुलकु सैत मन्दनि दुर्ल भुँडवगु नीवु ना याश्रितुल रक्षिम्पँगल ननि तॆलुपुचु नीलोकमुन नी करिगिरिमुन्दु निलिचि युण्डुट देवा ! नी वात्सल्य सौलभ्यमुलँ जाटु चुन्नदि.
- म॥ चॆविलोँ जॆप्पँग नूँकॊनङ्ग मदिलोँ
- गा
- जिन्तिम्प ध्यानिम्पँ गा
- नवलोकिम्प भुजिम्प नॆय्यदि यश
- क्यं बट्टि दुष्प्रपव
- स्तुवु नीवे गद देव याश्रितुलँ गा
- तुकॊ ने नटञ्चु
- जनुल्
- भवदञ्झुल् गॊलुवङ्ग नीगिरिपुरो
- भागम्बुन निल्चिते ?
- 14
- श्री वरदराज स्तवमु
- अवतारिक :-
- ई शोकमुन
- षाड्गुण्यपरिपूर्तिनि नुडुवु चुन्नारु.
- 33
- श्री वरदराजस्वामिकि
- श्लो॥ प्रकृष्टं विज्ञानं बल मतुल मैश्वर्य मखिलं विमर्यादं वीर्यं वरद! परमा शक्ति रपि च परं तेज श्चेति प्रवर गुणषट्कं प्रथमजं
- प्रति :
- गुणानां निस्सीम्नां गणनविगुणानां प्रसवभूः ॥ 15
- हेवरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, प्रकृष्टम् = श्रेष्ठमगु, विज्ञानम्=विविधज्ञानमु, अतुलम्= साटि लेनि, बलम् = बलमु, अखिलम् = समग्रमगु, ऐश्वर्यम् = ऐश्व र्यमु, विमर्यादम् हद्दुलेनि, वीर्यम् = वीर्यमु परमा = गॊप्प, शक्तिःअपिच =शक्ति युनु, परम् = उत्कृष्ट मगु, तेजः च = तेजः च = = तेजस्सुनु, इति = अनॆडु, प्रथमजम्= अन्नि कल्याण गुणमुलकण्टॆ मुन्दुपुट्टिन (प्रथमगण्य मगु) प्रवरगुणषट्कम्= श्रेष्ठमगु नीगुणषट्कमु (आऱुगुण मुलु) निस्सीम्नाम्= हद्दुलेनि, गणनविगुणानाम् = लॆक्क पॆट्ट शक्यमुकानि, गुणानाम् = दयाक्षमादिगुणमुलकु, प्रसवभूः = उत्पत्ति स्थानमु, (भवति = अगुचुन्नदि) विशेषमुलु :— इन्दु विज्ञानादुलकु वेसिन उत्कृष्टे त्यादि विशेषणमु लितर चेतनुलु विज्ञानादु अट्टिवि कावनि तॆलुपुटकनि तॆलियवलॆनु. (B) 34 ता॥ श्री वरदराज स्तवमु ता ओ वरदराजस्वामि ! ! गुणमुललोँ ब्रथम गण्यमुलगु श्रेष्ठमगु ज्ञानमु, साटि लेनिबलमु, समग्र मगु नैश्वर्यमु, अवधि लेनि वीर्यमु, उत्कृष्टमगु शक्ति, यधिकमगु तेजस्सु, अनॆडि यी याऱुगुणमुलु हद्दुलेनि लॆक्क पॆट्टरानि दयाक्षमादि कल्याणगुणमुलकु ँ बुट्टिनिल्लु. च॥ च॥ गुरुतरमैन ज्ञानमु, न कुण्ठबलम्बु, समग्र मैन यी श्वरत, यपारवीर्य मुरु शक्ति, म हॆूज्ज्वल तेज, मन् मह त्तर गुणषट्क मिद्दि वर दा! प्रथमप्रभवम्बु जन्ममं दिरमु दयाक्षमादिगण नीयगुणाळि कनन्त सङ्ख्यकुन् . 15 ननु अवतारिक :_ भगवानुँडु समस्तकल्याणगुणुँडैन परव्यूह विभागमुनन्दु गुणाविर्भावमुनु तिरोभावमु नी क्रिन्दिश्लोकमुतोँ जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ गुणैष्पड्चि स्वेतैः प्रथमतरमूर्ति स्तव बभौ तत स्र स्तेषां त्रियुग युगभैरै त्रिभि रभुः । व्यवस्था या चैसा ननु वरद! साविष्कृशिवशात् भवान् सर्वत्रैव त्वगणित महामङ्गळ गुणः ॥ 16 (षड्गुणमुलुगल) श्री वरदराज स्तवमु 35 प्रति : त्रियुग ! = मूँडु जण्टल गुणमुलुगल हे वरद! ओ वरदराजस्वामि ! तव=नीयॊक्क, प्रथमतरमूर्तिः = मॊट्टमॊदटि मूर्ति (परवासु देवमूर्ति) एतैः= ई, षड्भिः = आऱु, गुणैः= बभौ प्रकाशिञ्चॆनु, ततः = तरुवात, गुणमुल चेत, तिस्रः=मूँडु मूर्तुलु, त्रिभिः= मूँडु, तेषाम् = आ गुणमुललो, सा युग लै 8 = जण्टल चेत, अभुः = प्रका शिञ्चिनवि, हि= प्रमाणप्रसिद्धमु, एषा= ई, व्यवस्था= एर्पाटु, या एदि, (अस्ति कलदो) सा = अदि, आविष्कृति, वशात् = (उपासक सौकर्यमुनकुँगा) सङ्क ल्पिञ्चुटवलन, अभूत् = आयॆनु, भवान्, तु = नी वन्ननो तु=नी सर्वत्र = सकलमूर्तुलयन्दुनु अगणित, महत्, मङ्गळ गुणः एव, ननु–असङ्ख्याकमुलु अपरिच्छिन्नमुलु नगु कल्याणगुणमुलु गलवाँडवे कदा !
विशेषमुलु :- त्रियुग— त्रीणि, युगानि, यस्यसः तस्यसम्बुद्धिः—— ज्ञानबलैश्वर्य वीर्यशक्ति तेजस्सु लनॆडु आऱुगुणमुलु गलवाँडा! प्रथमतरमूर्तिः – भग वानुनकु नाल्गुमूर्तुलु गलवु
- परवासु देवमूर्ति. इदि परमपदमुनं दुण्डुनु. दीनियन्दु पैनिँ जॆप्प बडिन ज्ञानादि षड्गुणमुलुनु गलवु.
- सङ्कर्षण मूर्ति- दीनियन्दु ज्ञानमु, बलमु, अनु जण्टये (रॆण्डुगुणमुले) उण्डुनु. 36 श्री वरदराज स्तवमु
- प्रद्युम्नु मूर्ति- दीनियन्दु ऐश्वर्यमु, वीर्यमु अनु जण्टये युण्डुनु.
- अनिरुद्धमूर्ति - दीनियन्दु शक्ति, तेजस्सु, अनु जण्टये उण्डुनु. आविष्कृतिवशात्— ई व्यवस्थ उपासकुल सौकर्यमु कॊऱकु सङ्कल्पिम्पँबडिनदि. श्री वरद राजस्वामियं दन्ननो गुणसङ्कोचमु लेदु - भवान् सर्वत्रैव त्वगणित महा मङ्ग लगुणः— अनि चॆप्पुटवलन श्लो॥ षाड्गुण्या द्वासु देवः ई विषय मे. पर इति स भवान् मुक्तभोग्यो । बला ढ्यात् बोधा त्सङ्कर्षण स्वं॥ अनु श्रीरङ्ग राज स्तव श्लोकमुनँ बेर्कॊनँबडिनदि. अनँगा ज्ञान, बलमुल ♡ ओ ता! षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नुँडवगु ओ वरदराजस्वामि नी मॊदटि मूर्तियगु परवासु देवमूर्ति यी यी जानादि ज्ञानादि षड्गुणमुल चेतँ ब्रकाशिञ्चिनवि. तक्किन मूँडु मूर्तु लुनु आ गुणमुललो मूँडु जण्टलचेतँ ब्रकाशिञ्चिनवि. जण्ट चेत सङ्कर्षणमूर्तियु, ऐश्वर्य, वीर्यमुल जण्ट चेतँ ब्रद्युम्न मूर्तियु, शक्ति तेजस्सुल जण्ट चेत ननिरुद्धमूर्तियुँ, ब्रकाशिञ्चिन वनि भावमु. ई व्यवस्थ उपासक सौकर्यमुनकु सङ्कल्पिम्पँबडिनदि. देवर वारुमात्र मन्नि मू र्तुलयन्दुनु अगणितानन्त कल्याणगुण विशिष्टुले. ! श्री वरदराज स्तवमु उ॥ मोहनरूप ! नी प्रथम मूर्ति सदा विलसिल्लु षड्गुणा व्याहतवृत्ति नापयिन वर्तिलु मूर्तुलमूँट नी गुण व्यूहमु मूँडुजण्टलयि यॊप्पु, नुपासक दृष्टितोड न मी भ्यूहित मी पथम्बु सुगु णोदधि वीवु समस्तमूर्तुलन्. 37 16 अवतारिक :- भगवानुँडु समस्त कल्याण गुणगण स्त कल्याणगुणगण विशिष्टुँडु गनुक विभवावतारमुलन्दु सकलगुणाविर्भाव मुण्डु ननि याशङ्किञ्चुकॊनि यन्दुँ गूड गुणाविर्भाव तिरोभावमुलु स्वामिवारि सङ्कल्पानुसारमे युण्डुननि नुडुवु चुन्नारु, श्लो॥ इयं वैयूही वै स्थिति रथ कि लेच्छाविहृतये विभूतीनां मध्ये सुरनरतिरश्चा मवतरन् । सजातीय श्लेषा मिति तु विभवाख्या मपि भजन् करीश ! त्वं पूणॆ वरगुणगणै स्तान् स्थगयसि ण 17 प्रति : हेकरीश ! =ओ नरद राजस्वामि! इयम्=ई, (पूर्वोक्तमगु) स्थितिः = व्यवस्थ, वैयूही = व्यूह सम्बन्धिनि, वै= प्रसिद्धमु, अथ, किल= तरुवात, इच्छा विहृतये स्वेच्छाविहारमु कॊऱकु, विभूतीनाम्
नी लीलकुँ बरिकर भूतमुलगु, सुरनरतिरश्चां मध्ये= 38 श्री वरदराज स्तवमु देवता, मानव, तिर्यक्कुल नडुम, अवतरन् =अव तार मॆत्तुचु, वरगुणगणैः
- कल्याणगुणसमूहमुल चेत, पूर्णः=निण्डिनवाँड वै, (कनुकने) विभवाख्याम् अपि= विभवावतार मनॆडु पेरिनि सैतमु, भजन् = पॊन्दुचु, त्वम् = नीवु, तेषाम् = वारिकि ( देवमानवतिर्यक्कुलकु) सजातीयः, इति, तु = सजीतीयुँड नन्न कारणमु चेतने, तान् = आ कल्याणगुणमुलनु,
- सगयसि कप्पि वेयं
- चुन्नावु.
- ቀ
- विशेषमुलु : ‘करीश करिगिरीश, अनि ग्रहिम्पवलॆनु.
- ‘करीश—
- आत्मानं
- तानु
- मध्यमपदमगु ‘गिरि’ अनुनदि लोपिञ्चिनदि. लेदा नामैक देशमुनु ग्रहिञ्चिनचो नाममात्रमुनकु ग्रहण मगुनु. अनु नियममुवलनँ बै यर्थमु वच्चुनु. सजातीय स्तेषा मिति तु रामुँडु परवासु देवुँ डय्यु मनुष्युँडुगा नवतरिञ्चुट चेत - मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्— मानवुँडुग दशरथ पुत्रुँडुग भाविञ्चिनट्लु, तान् स्थग यसि— आ कल्याणगुणमुलँ दिरोधान मॊनर्चु चुन्नावु. सकलकल्याणगुण वैभवमु चेत विभवावतार मनु प्रसिद्धि युन्ननु त त्तत्सजातीयत्वमुनु नटिञ्चुटकु गुणतिरोधान मॊनर्चु चुन्नावनि याशयमु.
- —
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- ता ओ करिगिरिनाथा ! ई पूर्वोक्त मगु व्यवस्थ व्यूह सम्बन्धमैनदि नी मनोरधानुकूलमगु लीलल कॊऱकु साधन
- वरदराज स्तवमु
- 39
- भूतमुलैन देवमानवतिर्यक्कुललो नवतार मॆत्तुचुँ गल्याणगुण परिपूर्णुँडवय्यु वैभवविशिष्टमगुटचे विभवावतार मनु नाममुनु बॊन्दियु नीवु देवमानव तिर्यक्कुल सजातीयुँड ननुकॊनुचु ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अन्नट्लु नटिञ्चुचु नी कल्याणगुणमुल मऱुँगु पुच्चुचुन्नावु.
- उ॥ ओ वर देश ! वारणशि
- लोच्चय शेखरभूत ! व्यूहसं
- भावित मी व्यवस्थ प्रभु
- वा! गुणपूर्णुँडवय्यु लील कै
- देव मनुष्य जन्तुवुल
- देननॊ ! युद्भवमन्दि वैभव
- श्री विलसिल्लियुन् नटनँ
- जेयँग वारि गुणाळिदाँतुवौ.
- 17
- अवतारिक :
- कल्याण गुणमुल
- याविर्भाव तिरो
- भावमुल की श्लोकमुन विषयविभागमु नॊनर्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ परो वा व्यूहो ना विभव उत वार्चावतरणो
- भवन् वान्तर्यामि वरवरद! यो यो भवसी वै स स त्वं सन्नैशान् वरगुणगणान् बिभ्र दखिलान् स स भजद्भ्यो भा स्येवं सतत मितरेख्य स्वतर था ॥
- हे वरवरद! श्रेष्ठमुलगु
- प्रति :
- 13
- वरमुल
- नॊसँगु वरदराजस्वामी ! परः, भवन्, वा= परवासु
- 40
- वरदराज स्तवमु
- देवुँड नगुचुँगानि, व्यू हॆू, भवन्, वा= व्यूह मूर्ति वगुचुँगानि, विभवः, भवन्, उत= विभवावतारुँड नगुचुँगानि, अर्चावतरणः भवन् वा= अर्चावतारुँड
- वा
- वरगुण
- नगु चुँगानि, अन्तर्यामि, भवन्, वा= अन्त र्यामि वगुचुँगानि, यः यः, भवसि, वै = ऎवँड वॆवँड वगुदुवो, सः, सः, सन् = वाँडवु वाँडवगुचु, ऐशान् = = ईश्वर सम्बन्धुलगु, अखिलान् = समस्तमुलैन, गणान् = कल्याणगुणगणमुलनु, सततम् = ऎल्लप्पुडु, बिभ्रत् =धरिञ्चुचु, त्वम् = नीवु, एवम् = इट्लु, (कल्याणगुण विशिष्ट स्वरूपमुतो) भजद्भ्यः = भक्तुलकॊऱकु, प्रकाशिञ्चुचुन्नावु, इत रेभ्यः, तु = इतरुलकॊऱ कन्ननो (भजिम्पनिवारि कॊऱकु) इतर था=मऱियॊकरीतिगा, (निर्गु णुँडवुगा) भासि= प्रकाशिञ्चुचुन्नावु.
- विशेषमुलु : ऐशान् वरगुणगणान् ——
भासि= सर्वेश्वरु नकु सम्बन्धिञ्चिन सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तित्वादि कल्याणगुणमु लनु, एवम्= समस्त कल्याणगुणगण विशिष्टमगु नाकार मुतो. इतर था—— अन्यविधमुगा (निर्गुणुँडवुगा) पराशरपाराशर्य वाल्मीकि प्रह्लाद भीष्मादि भ क्तुलकुँ भ जक्कगाँ ब्रकाशिम्पँ जेयँबडिन कल्याणगुणगणमुले भक्ति लेनि बाह्यकुदृष्टि शिशुपालादुलकुँ दिरोहितमुलैन वनि भावमु. श्री वरदराज स्तवमु 41 ता॥ मुचिमञ्चि वरमुलँ ब्रसादिञ्चुनो करिगिरिनाथा ! नीवु परवानु देवुँडवो! प्यूहमूर्तिवो ! विभवान तारुँडवो ! अर्चावतारुँडवो! अन्त र्यामिवो! ए स्वामिवो ! यगुदुवुगाक, अत्तऱि नीश्वरत्वप्रयु क्त मुलगु सर्वकल्याणगुण गणमुलतो विशिष्टुँडवु गाने निन्नु सेविञ्चु भ क्तुलकु गोचरिन्तुवु. नी यॆडल भक्ति लेनि यितरु लकु गुणहीनुँडवुगा ने गोचरिन्तुवु. वि च॥ परुँडवो! व्यूहमूर्तिवॊ! वि • भासि विभूतिवॊ ! यार्चरूपिवो ! वरद! मनोनियन्तवॊ ! यॆ वण्ड वॆवण्डवॊ ! यादु गाक यै श्वरमुलु शोभनम्बुलगु सर्वगुणम्बुल नॊप्पु चट्टुले दरि सॆन मिच्चुचुण्डॆदवु दासुल, कन्युल कन्यरीतिगन्. ! ! 18 अवतारिक : – स्वरूपगुणादुलगु दयादुलु, रूप गुणमुलगु सौन्दर्यादुलुनु भक्त जनुलकु भोग्यमु लगुट यिन्दु वर्णिम्पँबडुचुन्नदि. श्लो॥ दयाक्षान्त्याचार्य मदिमसमता सौहृदधृति प्रसाद प्रेमाज्ञा22 श्रित सुलभताद्या वरगुणाः । तथा सौन्दर्याद्या स्तव वरद राजोत्तमगुणा विसीमान्कोसङ्ख्याः प्रणतजनभोगं प्रसुव ते ॥ (6) 1942 नीयॊक्क—, श्री वरदराज स्तवमु न! ओ प्रति : हे वरदराज ! = ओ वरदराजस्वामी!, तव = विसीमानः=हद्दुलेनट्टियु, असङ्ख्याः = लॆक्क लेनट्टियु, दया…. सुलभ ताद्याः - . सुलभ ताद्याः - दया=दययु, न्ति=ओर्पु, औदार्य= ईवि, म्रदिम=मार्दवमु, तोन्ति समता = समत्वमु, सौहृद = स्नेहमु, धृति धैर्यमु, प्रसाद=अनुग्रहमु, प्रेमा= प्रेममु, आज्ञा आज्ञ आ शितसुलभता आश्रितुलकु सुलभुँडै युण्डुट, आद्याः= मॊदलुगाँगल, वरगुणाः = कल्याण = गुणमुलु, तथा=अट्ले, सौन्दर्याध्याः = चक्कँदनमु मॊदलुगाँगल, उ त्तमगुणाः= श्रेष्ठमुलगु गुणमुलु, प्रणत, जन, भोगम् = भ क्त जनमुनकु सौख्यमुनु, प्रसु व ते=कनुचुन्नवि उद्भविम्पँ जेयुचुन्नवि. जा= विशेषमुलु :-
- दय- स्वार्थनिरपेक्ष मुगाँ बरदुःखमुनु सहिम्प लेनि स्वभावमु.
- क्षान्ति – (क्षम) शिक्षिम्पँदगिन नेरमुनु सैत मोर्चु कॊनुट,
- औदार्यमु - अर्थु लनुकॊन्नन्त कण्टे मिन्नगा निच्चुट.
- म्रदिम- आश्रितुल यॆडँबाटुनु सहिम्प लेकुण्डुट. 5. समत- जातिगुणवृत्तादुलनु जूडके यन्दऱियॆडल नादरमुनु जूपुट, (समोऒहं सर्वभूतेषु) सुन्दर बाहु स्तवमु 85 जॆन्दुट चेत गुणमुलकु श्रेष्ठत्वमु गलिगॆननि श्रुतुलु चाटुचुन्नवनि भावमु. आश्रुतु लॆव्वि यन ‘सत्यस्य सत्यं, ज्योतिषां ज्योतिः, पवित्राणां पवित्रं यो मङ्ग लानां च मङ्गलम्’ सत्यं ज्ञान मनन्तं ब्रह्म, विज्ञान मानन्दं ब्रह्म, अपहतपाप्मा अपहतपाप्मा विजरः इत्यादुलु. ता॥ तेजस्सुचेत मणि दिनमणुलकुनु, कान्तिचेतँ जन्द्रु नकुनु, . . सौगन्ध्यमु चेतँ जन्दन चम्प कारवि दादुलकुनु, गॊप्पतनमु गलिगि गुणवद्वस्तुवुनकुँ गल्गिन गॊप्पतनमु गुणमुलवलन ननि जगत्तुलोँ ब्रसिद्धमैनदि. दानिकि विरुद्ध मुगा श्रुतिस्मृतुलु गुणमुलकु गॊप्पतनमु हेयप्रत्य नीक कल्याणगुणैकतान मगु भगवत्स्वरूपमु नाश्र यिञ्चुट चेति ननि चाटुट गुण गौरवमु . गुण्यधीन मनि घण्टापथमुगा घोषिञ्चुचुन्नवो यट्टि दोषदूरुँडुनु कल्याणगुणनिलयुँडुनु ज्ञानानन्दस्वरूपुँडु नगु सुन्दर दर बाहुस्वामिनि शरणु चॊच्चॆदनु. च. गुणमुलचे महत्त्व मॊनँ गूडुनु बो! गुणिकोटिकिन् नभो मणि प्रभचेत शीतघृणि मञ्जुल कान्तिनिगा दॆ मिन्नधा गुणिँ दलक्रिन्दु दीनिकि स्व रूपमुगा सयि वेसिकिन् गुणाल् गणुति वहिञ्चॆ म्रॊक्कॆद न खण्डुनि सुन्दर बाहु नाविभुन्. 44
श्री वरद राज स्तवमु प्रियतौदार्य मृदुत्वमुख्यमुलु नी विख्यात दीव्यद्गुणा ळियु, सौन्दर्यविलास कान्ति तनुला लित्यादुलुन् संश्रिता भयदा ! हद्दुनु बद्दुलेक सुख मु त्पादिञ्चु भक्ताळिकिन्. अवतारिक ई श्लोकमुन भगवन्तुनि 19 स्वातन्त्य्र मुनु सर्वज्ञत्वमुनु पैकि निन्दतोँचुनट्लु स्तुतिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ अनन्याधीनत्वं तव किल जगु र्वैदिकगिरः पराधीनं त्वां तु प्रणतपरतन्त्रं मनुम हे ! उपालम्भो2यं भोः श्रयति बत सार्वज्ञ्य मपि ते यतो दोषं भ क्ते ष्विह वरद ! नैवाकलयसि 20 प्रति : — भो वरद! = ओ वरदराजस्वामि ! वैदिक गिरः = वेदसम्बन्धमुलगु वाक्कुलु (उपनिषत्तुलु) तव - नीकु, अनन्याधीनत्वम् इतरुल यधीनमुन लेमिनि (स्वातन्त्र्यमुनु) जगुः किल गानमु चेसिनवि गदा! (वयं) तु= मे मन्ननो, प्रणत, परतन्त्रम् = भ क्त परतन्त्रुँड वैन, त्वाम् = निन्नु, पराधीनम् = अस्वतन्त्रुनिगा, मनु म हे=तलँचुचुन्नामु, यतः = ऎन्दुवलन, इह= ई लीलाविभूतियन्दु, भ क्तेषु = भ क्तुल विषयमुन, दोषं एव = दोषमु ने, न+ आकलयसि=गमनिम्पवो, सुन्दर बाहु स्तवमु . 45 ता॥ अवधिलेनि स्ववैभवानुभवमुचेत नुत्पन्नमगु सुखमुचेत _स्तरङ्गमहोदधिसदृश मगु नित्योदितदश गलवाँडै तमस्सुनकुँ जम्बुवलॆ हेयगुणनिकरम्बुनकुँ ब्रतिभटुण्डै यप्रतिमानुण्डै यॊप्पुवनाद्रितटवासियगु श्री सुन्दर बाहुमूर्ति निट शरणु चॊच्चुचुन्नानु. उ. अन्त विहीन नैज विभ.. वानुभवप्रभवत्सुखम्बुचे शान्ततरङ्ग वारि निधि चन्दमु नित्यदशोपपन्नुँडै. ऎन्तयु हेयकोटि कॆदु 度 रॆत्तयि चीँकटिकिन् वॆलुं गटुल् चिन्तक पाळिँ दन्पुहरि श्रीवनशैलगु नाश्रयिं चॆदन्. श्लो॥ सदाषाड्गुण्याखैः पृथुलबल विज्ञानशकन प्रभावीर्यैश्वर्यै रवधि विधुरै रेधितदशम् । द्रुमस्तोमक्ष्माधृत् परिसरमहोद्यानमुडितं प्रपद्येऒध्यारूढ श्रिय मीम महं सुन्दरभुजम्॥
- 24
- हद्दु
- प्रति :- सदा = ऎल्लप्पुडु, पॊद्गुण्य, आख्यैः षड्गुणमुल नॆडु पेरुगलिगिनट्टियु, अवधि, विधुरैः लेनट्टियु, पृधुल…श्वर्यैः - पृधुल गॊप्प, बल= बलमुचेतनु, विज्ञान == वि शेषज्ञानमुचेतनु, शकन चेतनु, प्रभा कान्तिचेतनु, वीर्य = वीर्यमु चेतनु, ऐश्वर्यैः = ऐश्वर्यमुचेतनु, एधितदळम्
- वृद्धि चॆं
- शक्ति
- 46
- श्री वरदराज स्तवमु
- 7
- सौशील्यगुणमु ने
- C
- मॆलसि वर्तिञ्चुट यनु स्वामिवारि सौशील्य गुणमु ने स्तुतिञ्चुचुन्नदि. अट्ले भ क्तुलयन्दुँ गल दोषमुने यॆऱुँगनि भगवानुँ डेमि सर्वज्ञुँडनि पैकि निन्दगा दोँचिननु इदि आश्रितुलदोषमुनु गमनिम्पनि स्वामिवारि वात्सल्यगुणमुने स्तुतिञ्चु चुन्नदि. कान व्याजस्तुति यनु नलङ्कारमु. ई श्लोकमुतो द्वितीयदशकमु पूर्ति मैनदि. ईपदियु शिखरिणी वृत्तमुलु.
- ता। वरदराजस्वामी! सर्वस्य वशी सर्व स्वे शानः– इत्यादि वेदवाणि निन्नुँ बर मस्वतन्त्रुँड वनि गान मॊनर्चिननु मेमु मात्रमु भ क्त परतन्त्रुँड वनि निन्नुँ दलँचु चुन्नामु. स्वामी! नीवु भ क्तुलयॆडल दोषमु ने भ ने काञ्चवु. इदि यॊक दूषणमु क्रिन्द नेर्पडि नी सर्वज्ञत्वमु ने अधिक्षेपिञ्चु चुन्नदि. चित्रमु,
- म॥ अभिभाषिञ्चुनु वेदमुल् निनु नन
- न्याधीनुँ डञ्चु सरे!
- इभ शैलेश ! निनु दलञ्चॆदमु मे
- मॆन्ते श्रिताधीनुँगा ँ
- ब्रभुवा! भ क्तुलयन्दु दोषमुनु
- ल्पं
- बेनि वीक्षिम्प वे
- सभल बण्डितु लॆटु नि९ बिलुतुगो
- 3
- 55 ॥
- सर्वज्ञुँ गाँ जित्र मौ ॥
- ऎञ
- स्व
- 20
- सुन्दरबाहु स्तवमु
- शा॥ प्रौढज्ञान बलप्रभाशक नवी
- र्यम्बुल् महेश्वर्य मक्
- रूढिक् बॊल्चॆडु षड्गुणम्बुल समा
- लोहद्दळो पेतुनि९
- गाडोत्कण्ठ भजिन्तु सुन्दरभुजुन् गञ्जातपत्राक्षु ना रूढ श्रीकु वनाद्रिनिष्कुलविहा
- रु९ नीवॆ दिक्क चॆन.
- ।
- 39
- 1
- 25
- अवतारिक : पूर्योक्त षाड्गुण्यपरिणाम वित ति कूपम्बुलगु सौशील्यादुलगु स्वरूप गुणमुलनु, विग्रह गुणम्बुलगु सौन्दर्यादुलु निन्दु वर्णिम्पँबडुचुन्नवि.
- श्लो॥ सौशील्याश्रित वत्सलत्वमृदुता सौहार्द सौम्यार्थ वे
- धैर्य स्थैर्य सुवीर्यशौर्यकृतिता गाम्भीर्यचातुर्य कै ः सौन्दर्यान्वित सौकुमार्य समता लावण्यमुख्यैर्गुणै र्देवः श्रीतरुषण्ड शैलनिलयो नित्यं स्थितः सुन्दर ः ॥ प्रति : सौशील्या……. आर्जवै :- सौशील्य शीलमुचेतनु, आश्रितवत्सलत्व = आश्रयिञ्चिन वारियॆडँ गल वात्सल्यमुचेतनु, मृदुता= मार्दवमु चेतनु, सौहार्द= स्नेहमुचेतनु, साम्य = समत्वमुचेतनुँ आर्द्रकैः=
- ऋजु भावमुचेतनु, धैर्य चातुर्य कै– धैर्य= धैर्यमुचेतनु, स्थैर्य= स्थैर्यमुचेतनु, सुवीर्य= मञ्चि वीरत्वमुचेतनु, शौर्य = शूरत्वमुचेतनु, कृतिता= मञ्चि 48 श्री वरदराज स्तवमु विकारमगु, शृङ्गम् = चऱियवु, लेदा शिखरमवु, असि= अगुचुन्नावु. ; वि शेषमुलु : आञ्जनं करिगिरे रसि शृङ्गम् इन्दलि शृङ्गशब्दमुनकु ‘शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च’ अनु कोशमु वलन सानुवनुसरमु चॆप्पँबडॆनु. शिखरमनु नर्थमे समञ्जसमुगाँ दोँ चॆडिनि पर्वत शिखरमुन कुपरिभागमुनँ बद्ममुलुनु तमालवृक्ष मुलु नुण्डवच्चुनु गान वरदराजस्वामि ! पद्ममुलवण्टि पाणिपादवदन नयनमुलु गलिगि, तमालवृक्षमुलवण्टि बाहुवुलु गलिगियॊप्पु नील मेघ श्यामुँड वगु नीवु काटुक कॊण्डनुबोलु करिगिरिकि सञ्जनशृङ्गमुवलॆँ ब्रका शिञ्चुचुन्ना वनि भावमु. ओ ता॥ ओ वरदराजस्वामी! करचरणमुखनयनमु लनु पेर्लुगल यवयवमुल चेतँ बद्ममुलनु बाहुवुल चेत विशालतमाल वृक्षमुलनु निरसिञ्चुचुन्न नीवु करिगिरिकि नञ्जन शृङ्गमुवलॆँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नावु. गी वरद! बाहुवुलँ दमालतरुलँ बाणि पादवद नेक्षणम्मुलँ बद्ममुलनु गॆलुचुचु देव ! यीकरिगिरिकि नीवु सिरि घटिञ्चिति वञ्जन शिखर मट्ल. 21 सुन्दरबाहु स्तवमु (गतसञ्चिक तरुवायि) वीर्यमु अतिदुष्करमगु युद्धमु नन्दुनु श्रमँ जॆन्दकुण्डुट, शौर्यमु तोडुलेकुन्ननु अतिभयङ्करमु लगुवैरुललोनिकिँ जॊच्चुकॊनि पोवुशक्ति, कृतित कृत शृत्यत, गाम्भीर्यमु तॆलिय शक्यमुगानि हृदयमु गलिगि युण्डुट, चातुर्यमु इतरुलकु शक्यमुलुकानि यॆल्लपनुलनु सुलुवुगाँ जेयु नेर्पु, सौन्दर्यमु=दृष्टिनि चित्तमुनु आकर्षिञ्चुनवयवशोभ, सौकुमार्यमु=पूवु कण्टॆ अधिकमगु मार्दवमु, समत सामुद्रिक शास्त्रोक्त समपरिमाणावयव शालित्वमु, लावण्यमु=समुदाय शोभ, इटी शोकमु नन्दलि पदमुल करमु नॆऱुङ्ग वलयुनु. 33 ता॥ क्रीडादिगुणविशिष्टुँ डगु श्री सुन्दर बाहुमू र्ति सौशील्य वात्सल्यमार्दव सौहार्दादि दिव्य स्वरूपगुण मुल तोडनु, सौन्दर्य सौकुमार्य समतालावण्यादि दिव्य विग्रहगुणमुलतोडनु ऒप्पुचु द्रुमषण्डमण्डितं बगु वनाद्रियन्दु नित्यनिवास मॊनर्चु चुन्नाँडु. आदेव देवुनि शरणु चॊच्चॆदनु. • शा, सौशील्याश्रित वत्सलत्वमृदु ता सौहार्द साम्यार्जन 7 50 श्री वरदराज स्तवमु ! ण ता॥ ओ वरदराजप्रभू! पीनमुलु वृत्तमुलु नगु बाहुवुलुनु उन्नतमगु नासिकयु, विशालमुलगु कर्ण पाशमुले भूषणमुलु गाँगल सुन्दरभुज शिरस्सुलु, विशाललोचनमुलु मञ्चिपुट्टुक गल चॆक्किळ्लुगलिगि यन्दमुँ जिन्दुनिन्नु नाकन्नुलु पूर्णमुगा ननुभविम्पँ गोरु चुन्नवि. उ॥ चारुसुदीर्घ बाहुवुलु चक्कनिनासिक, कर्ण पाशशो भारुचिरम्बु लंसमुलु, भासुरगण्डतलम्बु दृङ्मनो हारि विशाल नेत्रमु ल हा! यनिपिञ्चॆडु निन्नु नाशनुल्. पारण सेय ह स्तिगिरि पार्दिव! पार्थिव ! बल् गुटकल् पॊनर्चॆडु. श्लो॥ नील मेघनिभ मञ्जन पुञ्ज श्यामकुन्तल मनन्तशयं त्वाम् । अब्जपाणिपद मम्बुज नेत्रं नेत्रसात्कुरु करीश ! सदा मे ॥ ओ 1 22 23
- प्रति : — हेकरीश ! ओ वरदराजस्वामी!, नीलमेघ
निभम्=नीलमेघमुतो समानमैनट्टियु, अञ्जन, पुञ्ज, श्याम, कुन्तलम्=काटुक मुद्दवलॆ नल्लनि तलवॆण्ड्रुकलु गलट्टियु, अनन्त, शयम्= शेषुनिपै शयनिञ्चिनट्टियु,
सुन्दर बाहु स्तवमु
आत्माश्रयैः=दिव्यात्मस्वरू साधारमु लैन, दिव्यगुणैः = ज्ञानशक्त्यादि पूर्वोक्त गुणमुलचेत, इद्दम् = प्रकाशिञ्चु चुन्न, वनाद्रीश्वरम्=वनाद्रिनाथुँ डगु, सुन्दर बाहुम् - सुन्दर बाहु देवुनि, शरणम् = शरणुनु, यातः
पॊन्दिनवाँडनु, अस्मि
अगुचुन्नानु.
विशेषमुलु :— तादृशवैभवैः
स्वाश्रयमुनकु
लोकोत्तरित्वमुनु जेकूर्चु वैभवमुगल, अस्मि शरणं यातः— ए तादृश कल्याण गुण विशिष्टुँ डगु सुन्दर बाहु स्वामिये शरणु चॊच्चँ दगिनवाँडु.
ता एक ल्याणगुणमुललो नॊक गुणमु यॊक्क बिन्दु वेनियु निजाश्रयमगु व्यक्ति नि
नि लोकोत्तरुनिगाँ जेयुनो, अट्टिवैभवमुलु गलवियु असङ्ख्यातमु लैनवियु निरवधि क मुलगु महिमलु गलवियु नित्यमुलै नवियुँ बूर्वोक्त गुणमुलकं पै सत्यधिक शुभास्पदमुलैन दिव्यगुणमुलतोँ ब्रकाशिञ्चु वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुमूर्तिनि शरणु चॊच्चॆदनु,
शा. ऎं चेयॊक्क गुणम्बुलोनियॊक बॊ
निन् निजाधारभू
तुं दाँ जेयुनो सर्वलोकमुल ना थुन् दादृवैश्वर्यनि52
श्री वरदराज स्तवमु
गी॥ मॊयिलु मै चाय काटुक होयलुजुट्टु
पाँपरा सॆज्ज, तम्मुलपगिदि नॊप्पु
करमुलु, पदम्बु, लक्षलु, ग्रालु निन्नुँ गनुलमुन्दु सदा चूपु करिगिरीश.
श्लो॥ त्वक दृक निपिपासति जिह्वा
विह्वला श्रवणव त्परवृत्ता ! नासिका त्वयि करीश ! त थेति
प्राप्नुयां कथ मिमां स्वि दवस्थाम् ॥
23
24
प्रति हे करीश ओ वरदराजस्वामि !, त्वयि= नीविषयमुन, (मम= नायॊक्क) त्वक्, च = त्वगिन्द्रि यमु, दृक्, च= चक्षुरिन्द्रियमुनु (कन्नु) निपिपासति= मिक्किलि त्रावँ दलँचुचुन्नदि. (रसनेन्द्रिय व्यापारमुनु गोरुचुन्नदि) जिह्वा = रसनेन्द्रियमु (नालुक) श्रवणवत् =कर्णेन्द्रियमुवलॆ, परवृत्ता दर्शनमु स्पर्शनमु मॊदलगु इत रेन्द्रिय व्यापारमुनन्दु, विह्वला व्याकुलमैनदि लेदा चपलमैनदि, (भवति अगुचुन्नदि) नासिका, च= घ्राणेन्द्रियमु कूड (मुक्कु) तथा=अट्ले यिन्द्रियान्तर व्यापारमुन व्याकुलमै युन्नदि. इति= कनुक, कथंस्वित् एविधमुगा, इमाम् इटुवण्टि, अवस्थाम् = दशनु, प्राप्नु याम् = पॊन्दुदुनु !
विशेषमुलु :- श्रवणवत्- श्रवणेन्द्रियमु इन्द्रि यान्तर व्यापारमुन नॆट्लु व्याकुलमै युन्नदो यट्ले
सुन्दर बाहु स्तवमु
53
सकल
‘सदा ’ अनु पदमु मुक्तपुरुष व्यावृत्ति कॊऱकुनु व्यावृत्तिकॊऱकुनु निबन्धिम्पँबडिनवि. लेदा ‘सदा’ अनु ऒक पदमुचेतने योगिमुक्तजनव्यावृत्ति सिद्धिञ्चुनुगान ‘स्वतः’ अनु पदमु भगवत्सङ्कल्पायत्तमुलगु नित्यज्ञान व्यावृत्तिनि जेयुचुन्नदि. “स्वतः, युगपद्भुवा’ अनु रॆण्डुपदमुलुनु ‘नयनश्रवणोदृशाश्रुणोषि’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु तत्तिद्विषय ग्रहणमुनन्दुँ ब्रतिनियत करणनियमाभावमु करणा पेक्ष लेकये स्कात्कार मुनु गर्भितमुलैन वनि नुडुवुचुन्नवि. मॊत्तमुमीँद ई श्लोकमुलोनि पै पदमुलु ज्ञान मुनकुँ गावलसिन हङ्गुल नॆल्ल विवरिञ्चुचुन्नवि. इट्टि ज्ञाननिधियगु सुन्दर बाहुवु मापालिटि पॆन्निधियनि सारांशमु, वनाद्रिके सिंहाद्रि
यनियु नामान्तरमु,
:
ता॥ ए देव देवुँडु सर्वदा- युगपदुद्भूत मगु सहजमैन दिव्यदृष्टि चेत समस्त प्रपञ्चमुनु नॆदुटनुन्न नस्तुवुनु बोलॆँ जूचुनो तादृशदिव्यज्ञाननिधि यगु मा पालिटि पॆन्निधियैन श्री सुन्दर बाहुमू र्ति निकुञ्जमुलन्दुँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नाँडु.
उ.. वेलुपु वेलुपॊ नॆवँडु
00
विश्वमु सर्वमु नॊक्कमाऱियु
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वनाद्रि
"
54
श्री वरदराज स्तवमु
अवतारिक :-
इट्लु नाल्गु श्लोकमुलतो
दिव्यमङ्गळ
विग्रहशोभ ननुभविञ्चि प्रत्यवयवशोभ ननुभविम्प नारं
भिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ आधिराज्य मधिकं भुवनाना मीश ! ते पिशुनय किल मौळिः चूळि कामणि सहस्रमरीचे र स्त्रीभूषण ! भव त्युदयाद्रिः ॥ . प्रति :—— ह स्ति भूषण ! हस्ति वगु, ईश ! 25 करिगिरिकि अलङ्कारभूतुँड ओवरदराजस्वामि !, भुवनानाम्=(सकल) लोकमुलयॊक्क, आधि राज्यम् = साम्राज्यमुनु, अधिकम्= ऎक्कुवगा, लेदा - अधिकम्= गॊप्पदियगु, आधिराज्यम्= साम्राज्यमुनु, पिशुनयक्=सूचिञ्चुचु, तेनीयॊक्क, मौळिः=किरीटमु, चूळिकामणि, सहस्रमरी चेः = किरीटशिख रमुन नुण्डॆडु मणि यनॆडु सूर्युनकु, उदयाद्रि, भवति, किल=उदयपर्वतमो ! यन्नट्लुन्नदि. विशेषमुलु :- मौळिः मौळिसमगु किरीटमु P (तार्थ्येलक्षणा) किल- उत्प्रेक्षा वाचकमु’ चूळि कामणि सहस्रमरीचेः उदयाद्रिः भवति किल- उभयविभूति सूचक देव राजकिरीटमु विशृङ्खल मयूखसङ्घातमु गल स्वशिखा मणियनु नभोमणिकि मुदयगिरिव लॆँ ब्रकाशिञ्चुचुन्न दनि भावमु. इन्दु— किरीटमुनकु – उदयाद्रिकि, चूडामणिकि— सूर्युनकुँ बोलिकलु, सुन्दर बाहु स्तवमु 55 वीर्य, शक्तयः ऐश्वर्यमु, तेजस्सु, बलमु, वीर्यमु, श क्तियु, कीदृग्विधाः=इट्टिवनि चॆप्पुटकु शक्यमु गानिवि, वि शेषमुलु :—— एमहात्मुनि लवलेशमगु सङ्कल्पमु वलन सकलजगत् सृष्टिस्थिति संहारादुलु प्रवर्तिल्लुचुन्नवो यामहनीयुँडगु श्री सुन्दर बाहुमूर्ति नवलम्बिञ्चि युन्न यौश्वर्यादु लनन्यादृशमु लपरिच्छिन्नम्बुलु नैयुन्नवि. ता॥ ए देवुँडु स्वल्पसङ्कल्पमुचेतनु जगत्सृष्टि संहार रक्षण प्रवृत्ति निवृत्तुल नॊनर्चुनो यट्टिसुन्दर बाहुवु नाश्रयिञ्चियुन्न यैश्वर्य तेजोबल वीर्यश क्तुलु लोकोत्त रमु लैनवि. उ. ए भगवानुँ डल्प मगु निच्छनॆ सृष्टिलयावनादिकं बी भुवनाळि कॆल्ल घटि यिञ्चुनो ! यट्टिमहाप्रभावते जोभरशालि सुन्दरभु जुण्डॆ निवासमुगाँगँ गल्गुस त्प्र्पभववीर्यश क्ति ऒ बल भागुणमुल् जगदप्रमेयमुल् . 56 श्री वरदराज स्तवमु बडिन यर्थश क्ति गल, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलकमुनु, बहुमानात् =गौरवमुवलन, स्वलला पे नीनुदुट, बिभर्षि, किम् ? = धरिञ्चुचुन्नावा ? विशेषमुलु :- ऊर्ल ऊर्ध्वं (ऊर्ध्वगतिं) प्रापयति इ त्यूर्ध्वपुण्ड्रम् - अनि व्युत्पत्ति ऊर्ध्वलोकमुलनु पॊं दिञ्चुनदि. बहुमानात् नाभ क्तुल नुद्धरिञ्चुचुन्न दनु गौरवमुवलन किम्भिभर्षि वरद! स्वललाटे ?- ‘स्नानं दानं जपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम् भष्मीभवति तत्सर्वमूर्ध्वपुण्ड्रं विना कृतम् ’ ऊर्द ऊर्ध्वपुण्ड्रमुल धरिम्पक चेसिन स्नानदानजपादु लन्नियु निष्फलमु लनि पै श्लोकमुनकु भावमु. इदि कर्माङ्गमुगाँ जॆप्पँबडुट चेत भगवानुन कन्दुलकै यूर्ध्वपुण्ड्रधारणमु सम्भ विम्पदु गान- बहुमानात्- अनि चॆप्पँबडॆनु. ऊ ता॥ ओ वरदराजास्वामी ! ऊर्ध्वपुण्ड्रतिलकमु स्वधार ! णमु चेत भ क्त जनुल नूर्ध्वलोकमुलनु बॊन्दिञ्चु चुन्नदि. व्युत्प त्ति चेत ने ऊर्ध्वकार वैशिष्ट्यमुनु ज्ञप्ति चेयुचुन्न यी यूर्ध्वपुण्ड्रतिलकमुनु नाभ क्तुल नुद्धरिञ्चुचुन्नदि यनु गौरवमुवलन नीललाटमुन धरिञ्चुचुन्नावा? गीII ऊर्ध्वपुण्ड्रम्बु भ क्तुल नूर्ध्वगतिकिँ जेर्चु निजधारणम्बुनँ जेसि यनुचु दीनिपै ँ गलबहुमानदृष्टि नुदुट नूर्ध्वपुण्ड्रम्बुँ दाल्चिति वॊकॊ ! करीश ! 26 सुन्दर बाहु स्तवमु 57 ‘विशेषमुलु : तथा!विधैः = ऒक्कॊक्कटियु 10 वेल कल्पमु लनुभविञ्चिननु तऱुँगनि पापफलमुगल, उत्सी मभिः= नॆक्क लेनि (लेदा) कॊलतलेनि, तिरोहितम्=आत्म स्वरूपविवेकमु लेनि, जनम् = जन्मगुणादि तारतम्यपर्या लोचन लेनि यॊक यनामकुनि, क्षमतेज ‘स तं निपतितं भूमा’ अनि श्रीमद्रामायणम्बुनँ जॆप्पिनट्लु, नेलपैँ बडुट ने शरणागतिगा भाविञ्चि अन्तःपुरद्रोह मॊनर्चुट चेत अत्यन्तापराधि यैननु, काकासुरुनि क्षमिञ्चि रक्षिञ्चि नट्लु - अनि भावमु. • नॊकदानि ता॥ सामान्यमानवुँडु नित्यमॊनर्चु पापमुललो फलमु . पडि वेलकल्पमुलकाल मनुभविञ्चिननु तऱुँग दनि पॆद्दलु शास्त्रमुलचे निर्णयिञ्चिरि. अनादि प्रवृत्तमगु नी संसारमन्दु, ऒक दानिकिँ गोटि रॆट्लुगा फलमु चेकूर्चु ई कर्मभूमियन्दु निरन्तरमु ऎन्नि वेल कल्पमु लनुभविञ्चिननु तीऱनि हद्दुपद्दुलेनि यट्टि पापमुल नॊनर्चुचु आत्मस्वरूपविवेचनमु लेक यात्मघातकुँ डै चॆडिपोवुचु जन्मगुण तारतम्यमुलनु बरिशीलिञ्चुकॊन लेनि यॊक यनामकुँडु प्रणाम मॊनरिञ्चिनन्त मात्रमुन वानिनि वनाद्रिप्रणयि यगु सुन्दर ब हुस्वामि आनाँ ब डन्तःपुरद्रोहि यगु काकासुरुँडु काळ्ळमुन्दु नेलपैँ £8 सुन्दर बाहु स्तवमु बडँगा अदिये शरणागति यनि भाविञ्चि श्रीरामुँ डॆट्लु क्षमिञ्चि रक्षिञ्चॆनो ! आपे क्षमिञ्चि रक्षिञ्चु ननि भावमु, म. पदिवेल् कल्पमु लेन् भुजिम्प नॊकपा पम्पुन् फलं बेनि त ग्लदॊ ! तादृग्वृजिनम्बुलन् जनि जनिन् गर्मावनिन् जालँ बॆं पॊदवन् जेसॆडु नात्मघातुकुँ डभ व्युं डॊक्कमार् म्रॊक्कँगा चु दयन् सुन्दरुँ डल्ल काक दनुजुन् जोणीसु केशुं डटुल्. यज्जातीयो यादृशो यत्स्वभावः पादच्छायासंश्रितो य्कोपि कोडिपि । तज्ञातीय सादृश स्तत्स्वभावः श्लेष्य त्येनं मन्दरो वत्सलत्वात् 30 यत्, प्रति :- यत्, जातीयः = ऎटुवण्टि जातिगलवाँडु, यादृशः = ऎटुवण्टि याचारमु कलवाँडु, = स्वभावः=ऎटुवण्टि स्वभावमु गलवाँडु, यः, अपि, कः, अपि=ऎव्वँडेकानि, पाद, छाया, संश्रितः= पादमुल नीडनु आश्रयिञ्चिनवाँडु, (भवति = = अगु चुन्नाँडो !) सुन्दर बाहु स्तवमु 59 एनम्= ईजनुनि, सुन्दरः = सुन्दर बाहु देवुँडु, वत्सल त्वात् = वात्सल्यमु गलवाँडगुटवलन, तत्, जातीयः = अट्टिजाति गलवाँडुनु, तादृशः अट्टि याचारमुगल वाँडुनु, तत्, स्वभावः= अट्टि स्वभावमु गलवाँडुनु, (सन् = अगुचु) शिष्यति आलिङ्गनमु चेसिकॊनु चुन्नाँडु. वि शेषमुलु : यज्ञातीयः देव, मनुष्य, तिर्य गादिजातुललो एजातिवाँडैननु अनि अर्थमु. यादृशः, यत्स्वभावः— भगवदाश्रयमुनकु जातितो विद्यतो वृत्तमुतो न पेक्ष लेक ऎव्वँ डेनियु नर्हुँडनि भावमु. वत्सलत्वात् — वत्संलालयतीति = वत्सला, अनु व्युत्पत्ति चेत, अप्पुडे यीनिनयावुदूडपै ँगल प्रेमचेत दानि पै यॊडलिनिण्ड नण्टुकॊनियुन्न हेयपदार्थ मगु माविनि (दोषमुनु) तननालुकतो अमृतमुनुवलॆ नॆट्लु भुजिं चुनो यट्ले भगवन्तुँडु वनाद्रि सुन्दर बाहुमूर्ति आश्रितुलयन्दुँगल दोषमुलनु गुणमुलनुगा ननुभ विञ्चु प्रेममयमूर्ति यनि भावमु. ‘दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सता मेत डगर्हितम्’ अन्नट्लु सदोषुलैननु : आश्रितुलयन्दुँ ब्रीतियुण्डुटवलनँ दत्समानजात्याचार शीलमुलु गलवाँडै ‘अहं वो बान्धवो जातः,’ आत्मा 60 सुन्दर बाहु स्तवमु नं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अनि चॆप्पिनट्लु त त्त दाश्रितानुगुणमु लगु आभिजात्यविद्यावृत्तमुलतो नलरारुचु तत्सं श्लेषभोगमुल ननुभविञ्चु चुन्नाँडु. पूर्वश्लोकमुन भ्रान्ति यनँगा - अपराधसहिष्णुत्व मनियु, ई श्लोकमुन – वात्सल्य मनँगा - दोषमुलन्दु सैतमु
- भोग्यताबुद्धि यनियु निरूपिम्पँ बडिनदि. ता॥ एजातिवाँडेकानि, ऎट्टियाचारमुलु गलवाँडे कानि, ऎट्टि स्वभावमुगलवाँडे गानि अगुँगाक वाँ डॆवँ डैननु सरे. तन पादसन्निधानमु नाश्रयिञ्चिन यॆडल नि नितनिनि . श्री सुन्दर बाहुस्वामि वात्सल्यमुवलनँ दत्स मानजात्याचार स्वभावमुलु गलवाँडै तत्संश्ले पैक भोगु डगुचुन्नाँडु. यज्ञतीयुँडॊ ! यादृशाचरणुँडो ! यच्छीलुँडो! यौनुँ गा कज्जात्यादुल नॆन्नकुण्ड वना हार्याधिनाधुं ड हॆू ! पज्जं जेरिनँ जालु वत्सलत पॆं पारङ्ग भोगिञ्चॆडुकॊ तर्जातीयुँडु तादृगाचरणुँडु तच्छीलुँडै याश्रितु९. सुन्दर बाहु स्तवमु 61 अवतारिक := गॊप्पवानिकि अल्पुलतोँ गूड (मन्दु लतोँ गूड) निरन्तरमु गलसि युण्डुट यनॆडु सौशी ल्यमु सुन्दर भुजुन कत्यन्त मसदृश मैननु मन्दुँडनगु नाका ना का स्वामिये शरणमनि ये यी श्लोकमुनं दनुसन्धिचु चुन्नारु. श्लो॥ निहीनो जात्या वा भृश मकुशलै र्वा स्वरि तैः पुमान् पै यः कश्चित् बहुतृण मपि स्यादगुणतः । भजन्तं तं पश्येत् भुजगपतिना तुल्य मपि यो वनाद्रि प्रस्थस्थः स मम शरणं सुन्दरभुजः ॥ 13 प्रति : भृशम्= मिक्किलि, जात्या, वा= जातिचेँ गानि, आकुशलैः = अशुभमुलगु, स्व, चरितैः, कश्चित्, पुमान् वा= तन नडतलचेतँ गानि, निहीनः मिक्किलि हीनुँडगु, यः, ऊरुनु पेरुनु लेनि मनुष्युँडु अगु णतः, अपि = गुणमुलु लेकुण्डुटचे सैतमु, बहुतृणम्, अपि अल्प मगुगड्डिपऱक वण्टिवाँडु गूड, स्यात् अगुँ गाक, भजन्तम् (तननु सेविञ्चुचुन्न, तम् अतनिनि (जात्यादिहीनुनि) यः = ए वेलुपु, भुजगपतिना, अपि = आदि शेषुनितो सैतमु, तुल्यम्
समानुनिगा, सुन्दर पश्येत् चूचुनो, वनाद्रि प्रस्थ, स्थः = वनगिरि सानु वुनन्दु वेञ्चेसियुन्न, सः आ, सुन्दरभुजः बाहुस्वामि, मम = नाकु, शरणम् दिक्कु 962 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- बहुतृणम्- ईषत्, असमाप्तं तृ बहुतृणम् - अल्पौसम्यार्थ मुन णम् = बहुच् प्रत्ययमु वच्चिनदि. भजन्तं तं- पूर्वपुनडत पैनि पेर्कॊन्न प्रकार मुण्डिननु प्रस्तुतमु ‘मा अवि = मेकं शरणं प्रज’ अन्न विधमुगा शरणु चॊच्चुचुन्न जाति, वृत्त, चैतन्य, हीनुँडगु आयनामकुनि अनिभावमु, भुजगपतिना, ‘निवास शय्यासन पादु कांशुक ’ अनि यारं भिञ्चि • य थोचितं शेष इतीर्य तेजनैः’ अनि शेषत्वा वधिकिँ जिवर मॆट्टुगाँ जूपँबडिन शेषुनितो सयितमु सममुगाँ जूचुनो यनुटवलन ‘त्वमस्माकं चतुर्णां हि भ्राता सुग्रीव! पञ्चमः ’ अनि शेषावतारमुगाँ ब्रसिद्धुँडगुलक्ष णुनितो समानभोगुनिगा सुग्रीवु ननुग्रहिञ्चुट यिन्दभि प्रेतमै युन्नदि. ई श्लोकमुनँ बेर्कॊनँबडिन जाति हीनुँडु, वृत्त हीनुँडु. ज्ञानहीनुँडु, नगु ’ यः कृश्चित् पुमाक् ’ ऊरु पेरु लेनियातँडु सुग्रीवुँडे यनि कवि याशयमैनट्लु कन्पिञ्चुचुन्नदि. ऎट्लन? ‘वानराणां नराणां च कथ मासी तृमागमः’ नीच मैन वानरजातितो उत्कृष्टमैन नरजातिवारिकि सहवास मॆट्लु घटिल्लॆनु? अनुट चेत वानरुँडगु सुग्रीवुँडु जाति हीनुँडनुटयु, भ्रातृ भार्ययगु तारतो नुण्डुट चेत वृत्ति हीनुँडनुटयु, ई वृत्त हैन्यमुनकु हेतुव ज्ञानमगुटचेत ज्ञानहीनुँडनियु भावुकुलकुँदोँचकपोदु. सुन्दर बाहु स्तवमु 63 कावुन लोकोत्त रगुणोत्तरु ँडगु श्री रामुनकु जातिवृत्त विवेकहीनुँडगुटचे मन्दुँडैन सुग्रीवुनितोडि नीरन्ध्रमगु मैत्रि श्री रामुनि सौशील्यमुनु जाटुचुन्नदि. अट्ले वना द्रिवासुलु ननुग्रहिञ्चुचुन्न सुन्दर बाहुमूर्ति यु अनि भावमु. ता॥ जातिहीनुँडु मङ्गळाचार शून्युँडु विवेकरहि तुँडुनै नामग्रहणमुनकुनु योग्युँडुगानि यॆवँडेनि तॆन्नु भजिञ्चिनयॆडल वानिनि ए वेल्पु तन शेषत्वमुनकुँ बरा काष्ठयैन यादि शेषुनितोँ दुल्युनिगाँ गटाक्षिञ्चुनो वनगिरि सानुनिवासि यगु आ सुन्दर बाहुमूरिये मन्दुँड नगु नाकु शरणमु. उ. जातिकिँ दग्गि पोवुत, ल सत्तरवृत्तमु लेक पोवुतन् भूतलियन्दु ज्ञानमुनँ बोलक पोवुत गड्डिपोच के नातँडु तन् भजिम्प भुज गाधिपुनट्लुगँ जूचु नॆव्वँ डा स्फीतवनाद्रिसानु सर सीरुह नेत्रुँडे नाकुदिक्किँकन्. श्लो॥ ए कैकमङ्गळगुणानुभवाभिनन्द विदृक्त्विया निति च सुन्दरदोष्ण कृष्ण । ‘ते ये शतं त्विति नियन्तु मनाः श्रुतु नै वैष वाङ्मनसगोचर इ त्युदाह 64 प्रति कृष्णा भव, सुन्दर बाहु स्तवमु सुन्दरदोष्ठि सुन्दर बाहु व नेडु, श्री कृष्णुनियन्दु, एक, एक, मङ्गळ, गुण, अनु अभिनन्दम् ऒक्कॊक्क कल्याणगुणमु यॊक्क, अनुभवमुवलन,ँ गलिगिन यानन्दमुनु, ई दृक् वण्टिदि, इयान् इन्तपरिमाणमु गलदि, इति, च = इटु अनियु, नियन्तुमनाः= कॊलुचुटकु मनस्सुगलदियै, ‘ते ये शतन्त्वि’ ति=ते ये शतं मानुषा आनन्दाः अनॆडु, ‘ये श्रुतिःतु वेदवाक्कन्ननो, एमः एषः = सुन्दर बाहु स्वामियॊक्क ऒक्कॊक्क कल्याणगुणानुभवमुवलनँ गलि गॆडि यानन्दमु, वाक्, मनस, गोचरः = वाक्कुलकु मनस्सुनकुनु गोचरिञ्चॆडिदि, न + एव = = नैव कादु, इति अनि, उदाह बिग्गऱगाँ जॆप्पॆनु. है- आश्चर्यमु, वि शेषमुलु :- नियन्तुमनाः = काने कॊलगारमुनकुँ बूनिन मनस्सु गलदियै अनि भावमु उत् + आह= उदाह पॆद्द गाँ जॆप्पॆनु. दग्गऱनुन्न वारिकि दव्वुन नुन्न वारि कन्दऱकु विनँबडुनट्लु अनि ‘उत्’ अनु उपसर्ग वलन द्योतक मगुचुन्नदि. ‘सैपानन्दस्य मीमांसा भवति । युवा स्यात् साधु यु वाध्यायकः । न्यायकः । आशिष्टो द्रफिप्टो बलिष्ठः । त न्येयं पृथिवी सर्वे वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः । ते ये शतं मानुषा आनन्दाः । स एको मनुष्य गन्धर्वाणा मानन्दः’ अनि सुन्दर बाहु स्तवमु 65 पै निँ जॆप्पिन क्रममुगा देवगन्धर्वपितृ चिरलोक लोक देवा जान देव कर्म देवेन्द्र बृहस्पति पर्यन्तमु चॆप्पि ‘जे ये शतं प्रजापते रानन्दाः । स एरो ब्रह्मण आनन्दः’ अन्न तरुवात ‘ते ये शतं ब्रह्मण आनन्दाः’ अनि चॆप्पक ‘यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह, आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्’ अनु श्रुतियन्दु ‘स एरो ब्रह्मण आनन्दः’ अनि एकशब्दमुनु ब्रयोगिञ्चुट वलन एकैक गुणानुभवमु वलनँ गलिगॆडि यानन्द मे यपरिच्छिन्न मनि श्रुतिहृदयमु. ता॥ असङ्ख्येयमु लगु कल्याण गुणमुलतोँ गूडिन सुन्दर बाहु भगवानु नन्दलि एकैक कल्याण गुणानु भवजनित मगु नानन्दमु इट्टिदि, यिन्त प्रमाणमुगलदि. यनि कॊलगार मॊनर्पँ दलचिनदै ते ये शत’ म्मनॆडु श्रुति या यानन्दमु मनस्सुनकु वाक्कुलकु नन्दनि दानि यू बिग्गऱगाँ जाटिनदि. इदि यत्यन्त माश्चर्यकरमु. सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क ऒक कल्याणगुणानुभव जन्यानन्दमे यपरिच्छिन्न मनँगा सकल कल्याण गुणानुभूति वलनँ गलुगु नानन्दमु नॆवरु वर्णिम्पँगलरनि भावमु. उ. सुन्दर बाहु कृष्णुनॆड शोभिलु सद्गुण बृन्दमन्दु ने मन्दु नॊकॊक्क दिव्य सुगु णानुभवम्बुनँ गल्गुचुन्न या 66 सुन्दर बाहु स्तवमु नन्दमु वेदमात गण नं बॊनरिम्पँगँ बूनि चेत का कन्ददु माटकुन् मदि क टञ्चु सहा! वॆनुकञ्ज वेयदे! श्लो॥ अब्जपाद मरविन्दलोचनं पद्मपाणितल मञ्जिनप्रभम् M सुन्दरोरुभुज मिन्दिरापतिं वन्दिषीय वरदं वनाद्रिगम् ॥ 33 प्रति : अब्द, पादम् = पद्ममुलवण्टि पादमुलु गल वाँडुनु, अरविन्द, लोचनम् = कमलमुलवण्टि कन्नुलु गलवाँडुनु, पद्म, पाणि, तलम् = तामरलवण्टि चेतुलु गलवाँडुनु, अञ्जन, प्रभम् काटुक कान्तिवण्टि कान्ति गलवाँडुनु, सुन्दर, उरु, भुजम् = अन्दमु गलवियु, पॆद्दवियु, अगु भुजमुलु गलवाँडुनु, इन्दिरा, पतिम्= लक्ष्मीनाथुँडुनु, वन, अद्रि, गम् = वनगिरियन्दु वेञ्चेसि युन्न वाँडुनु, वरदम् वरप्रदातयुनगु सुन्दर = बाहुस्वामिनि, वन्दिषीय = नमस्करिन्तुनु गाक. विशेषमुलु :– वनाद्रिगं वरदम् – इन्दु वनाद्रि निवासमे वरप्रदानमु नन्दु हेतुवुगा सूचिम्पँबडिनदि. श्रीमन्तु लेयन्तःपुरमुलो नॆक्कडनो युण्डुटचे वारिसिगि याचकुल कन्दुबाटुलो नुण्डदु. ई श्रीमन्तुँ डगु सुन्दर बाहु देवुँडु वनाद्रिशिखरमुन नुण्डुट चे सुन्दर बाहु स्तवमु 67 अन्दऱिकिँ गनँबडुचु भक्तुलकु अड्डुलेक दर्शनमिच्चुचु वारुकोरिन वरमुलनु गूड निच्चुननि भावमु. सुन्दर रोरुभुजम् ई स्वामिनाममु सुन्दर बाहु पनि यीपदमु चाटुचुन्नदि. मऱियु सुन्दर, ऊरु, भुजम्- अनि पदच्छेदमु गाविञ्चुकॊन्न यॆडल अन्दमुलगु तॊडलु भुजमुलुनु गलवाँडनि यर्थमिच्चुनु. अप्पुडु श्रीस्वामि वारि भुजमुले काक तॊडलु गूड सुन्दरमुलनि मऱि यॊक गुणानुभवमु चेय वीलगुनु. ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्’ अनि गदा प्राज्ञुलनू क्ति . ! अत्यन्तभोग्यविग्रहुँ डगु वनाद्रिनाधुँडे वरमै कान्तिकुल कु पास्यमूर्ति यनि भावमु. ता॥ पद्ममुलवण्टि पादमुलु, कमलमुलवण्टि कन्नुलु, तामरलवण्टि चेतुलु, काटुक वण्टि काय कान्ति, सुन्द राजानु बाहुवुलु गलिगि लक्ष्मी देविचेत सैतमु पतिगा वरिम्पँबडिन वनाद्रिवासियु वरप्रदातयु नगु सुन्दर बाहुस्वामिनि वन्दन मॊनर्तुनु, गी॥ कमलमुलँ बोलु करमुलु काळ्ळु कनुलु गलुगुदॊर सञ्जन प्रभाकलितकायु सिरि वलचुवानि नन्दालँ जिन्दु बाहु ललरु वरदुनि वनगिरिनिलयुँ गॊलुतु, अवतारिक :- दिव्यविग्रह लावण्यमुने इङ्कनु वर्णिञ्चुचुन्नारु. 68 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ कनक मरक ताञ्जनद्रवाणां मधनसमुस्थितसार मेलनोतम् । जयति किमपिरूप मस्य तेजो वनगिरिनन्दन सुन्दरो रु बाहोः ॥ 34 प्रति : अस्य= ई, वस…… बाहो :- बाहोः - वनगिरि = वना द्रिवासु लगु जनुलनु, नन्दन = सन्तोष पॆट्टु, सुन्दर, उरु, बाहोः = अन्दमुलगु आजानु बाहुवुलुगल सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, कनक, मरळत, अञ्जन, द्रवाणाम्= (प्रत्येकमु भिन्न भिन्न कान्तुलु गल) बङ्गारमु, मरकत मणुलु, काटुक, वीनि रसमुलयॊक्क, मधन, समुत्तित, ‘सार, मेलन, उत्थम् चिलुकुट चेतँ बुट्टिन सारांशमु = यॊक्क कलयिक चेतँ गलिगिन, किमपि रूपम् =अनिर्वाच्य रूपम्=अनिर्वाच्य मगु स्वरूपमुगल. तेजः= कान्ति, जयति=सर्वोत्कृ ष्टमै प्रकाशिञ्चुचुन्नदि. ዋ वि शेषमुलु : — ‘वनगिरि नन्दन’ अनु चोट ‘मञ्चाः क्रोशन्ति’ अनु चोटुनन्दु वलॆ तास्थ्यलक्षण चेत वनगिरि वासुलनि यर्दमु चॆप्पुकॊनवलॆनु. किमपिरूपम् – इदि येक पदमु. इट्टिदि यनि चॆप्पुटकु शक्यमुगानि रूपमु गलदि यनि भावमु, सारांश मेमन - प्रत्येक पात्र लन्दुँ ब्रत्येकमुगा - कनकद्रवमुनु, मरकतद्रवमुनु, अञ्जनद्रवमुनु उञ्चि पॆरुँगुनु जिलिकिनट्लु चिलुकँगा वॆन्न वलॆँ देलिन याद्रवत्रय सारांशमुल मूँटिनि मेळनमु चेयँगा ‘नेर्पडिन पीत, हरित, नील, वर्णात्मक मगु मिळित सुन्दर बाहु स्तवमु 69 सारांशत्रयरूपमुन इदि बङ्गारु वन्नॆ, इदि गरुड पच्चल वन्नॆ, इदि काटुकवन्नॆ, यनि यॆट्लु विडिविडिगाँ दॆलिय शक्यमुगादो यट्ले सुन्दर बाहुस्वामिवारि विग्रह समुदायशोभ विडिगाँ दॆलिय शक्यमुगाक सर्वोत्कृष्टमै युन्नदनि भावमु. ता॥ बङ्गारमु गरुडपच्चलु काटुक वीनि द्रवमुलनु वेऱु वेऱु पात्रमुलं दुञ्चि चिलुकँ गा नेर्पडिन सारांशमु लनु मऱलँ गलुपँगा बॊडँ गट्टु नचिन्त्यरूपमु गल श्री वनाद्रिनिवासि यगु सुन्दर बाहुस्वामि वारि तेजस्सु सर्वोत्कृष्टमै वॆलुँगु चुन्नदि. च, कनक गरुत्मदश्म नव कज्जल सुद्रवमुल् मथिम्प व च्चिननिकरम्पुँ देटलनु जिल्कँग नॊक्कॆड नुञ्चि वॆण्डियुन् कनुलनु दन्पुतद्रुचिर कान्तुल नेदि यदीयमो ! यॆऱुं गनियटु काननाद्रिहरि कायम हॆूज्ज्वल तेज मॊप्पॆडिन्. श्लो॥ किं नु स्वयं स्वात्मविभूषणं भव न्नसा वलङ्कार इतीरिलो जनैः । वर्धिष्णु बालद्रुमषण्ड मण्डितं वनाचलं वा परितः प्रसाधयन् 35 10 70 सुन्दर बाहु स्तवमु प्रति : असौ = ईसुन्दर बाहुस्वामि, स्वयम्= ताने, स्व, आत्म, विभूषणम् तन दिव्यविग्रहमुनकु अलङ्कारमु, भवन् = अगुचु, जनैः = (तन दिव्यविग्रह मुनु ब्रत्यक्षमुगाँ जूचु) जनुल चेत, अलङ्कार ः इति अलङ्कारमनि, ईरितः, किन्नु= पलुकँबडॆना ? वा= लेक, वर्धिष्णु, बाल, द्रुम, षण्ड, मण्डितम् = वृद्धि चॆन्दुचुन्न तरुण वृक्षमुल समूहमुचेत नलङ्करिम्पँबडिन, वना चलं, परितः = वनगिरिचुट्टु भागमुनु, प्रसाधयन् आलङ्करिञ्चुचु, अलङ्कारः इति= अलङ्कार मनि, ईरितः, किन्नु = पलुकँबडॆना ?
विशेषमुलु :- श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारिकि भक्त जनप्रसिद्ध मगु ‘अलं कार’ नाममु गलदु. आनाम मिन्दु वलन वच्चियुण्डुना यनि यी श्लोकमुन नुत्रेम्पँ `बडिनदि. ता॥ ई सुन्दर बाहुस्वामि ताने तनदिव्य विग्रहमु नाकु अलङ्कारमगुचु प्रत्यक्षमुगाँ दन दिव्य विग्रह मुनु जूचु भ क्त जनुलचेत अलङ्कार नाममुनँ गॊनि याडँबडॆना ! लेक नानाँडु समृद्धिगाँ बॆरुगुचुन्न ! तरुणवृक्षमुलचेत शोभायमानमुगा नुन्न वनाचलमु नकु नलङ्कारमुगा नुण्डुटवलन जनुलचेत नलङ्कार . नाममुनँ गॊनियाडँ बडॆना ! ! सुन्दर बाहु स्तवमु उ. सारसलोचनुण्डु वन शैलविभुण्डु स्वमूर्तिकिन् प्रभा पूरित दिव्यरत्नमय भूषणमै धरियिञ्चॆनो ! यलं कारमु पेरु, लेक तरु काण्डसुमण्डित काननाद्रिशृं गारनिदान मण्डनमु गाँ दनरारि तदाख्यँ गाञ्चॆनो ! श्लो॥ सुखस्पर्शै र्नित्यैः कुनुमसुकुमाराङ्ग सुखदैः सुसौगन्ध्यै र्दिव्याभरणगणदि व्यायुध गणैः । अलङ्कार्यै स्सर्वैर्निगदि मलङ्कार इति यः समाख्यानं धत्ते सवनगिरिनाथो ऒस्तू शरणम् ॥ + 71 36 प्रति :- सुख, स्पर्शैः=सुखमुनु गलिगिञ्चु स्पर्शग लिगि नट्टियु, (अतिसुकुमारमु लैनट्टियु) सुसौगन्ध्यैः मञ्चि सुवासन गलिगिनट्टियु, (कनुकने) कुसुम, सुकुमार, अङ्ग. सुखदै 8 पूवुलकण्टॆ सुकुमारमु लगु दिव्या नयवमुलकु सुखमु निच्चुनट्टियु, नित्यैः = (भगवद्वि ग्रहमुवलॆने तामु कूड) नित्यमु लैनट्टियु, दिव्य, आभरण, गण, दिव्य, आयुध, गणैः = दिव्यमुलगु नाभ रणसमूहमुलु, दिव्यमुलैन यायुध समूहमु ल नॆडु, सर्वैः समस्तमु लैन, अलङ्कार्यैः = स्वदिव्य विग्रहमु चेत, अलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिन सॊम्मुलचेत, अलं72 सुन्दर बाहु स्तवमु कारः, इति = अलङ्कारमनि, निगदितम् = समाख्यानम् = पेरुनु, यः = ए वेल्पु, - ए वेल्पु, निर्वचिम्पँबडिन, धत्ते = धरिञ्चु चुन्नाँडो !, सः = आ, वनगिरिनाथः वनाद्रिविभुँडगु नाकु) शरणम् = दिक्कु, सुन्दर बाहुस्वामि, (मम अस्तु=अगुँगाक, विशेषमुलु :- कुसुमसुकुमाराङ्ग सुखदैः पूवुलकण्टे मृदुवुलगु उत्तमाङ्गादि पादारविन्द पर्यन्तमुलगु दिव्यावयवमुलकु मालती मालादुलवलॆ सुखमुनु गलिगिञ्चुनवि यनि भावमु, अलङ्कार्यैः सर्वैः——- किरीटाधि दिव्याभरणगण रूपमुलुनु, सुदर्शन पाञ्चजन्यादि दिव्यायुध गणरूपमुलु नगु स्वदिव्य विग्रहमुचेत नलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिन सर्वभूषणमुल चेत ननि तात्पर्यमु, श्री विष्णुपुराणमुनन्दु अस्त्रभूषणा श्री ध्यायमुन सकल तत्वमुलकु अस्त्रभूषणत्वमु विवरिम्पँ बडिनदि. ‘सर्वज्ञा समुचितशक्तय स्स दैव, त्वत्से वानि यमजुष स्व देश भोगाः ! हेतीना मधिपतय स्पदाकि स्वदे मेतान्, शोभार्थं वरद! बिभर्षि हर्षतो वा’ अनि वरद राज स्तवमुनँ जॆप्पिनट्लु सुदर्शनाद्यायुधमुलकुँ गूड भूषणत्वमु सर्वपूर्वाचार्य सम्मतमु. स्वविग्रहालं कारमुलुगाँ ब्रसिद्ध मुलगु आभरणमुलकु नायुधमुलकुनु विविध शोभासमग्रमगु स्वविग्रहमु वलन अतिशयशोभ येर्पडुट चेत अलं लं कार्यत्वमु तन कनुक सुन्दर बाहु स्तवमु 73 विग्रहमुनकु शोभनु जेकूर्चुट वलन आलं कारत्वमुनु सिद्धिञ्चुचुन्न दनि याशयमु, ता॥ सुखकरमगु स्पर्शगलनियु, मञ्चि सुवासन गल वियु, कुसुमसुकुमारमुलगु उत्तमाङ्गादि पादपर्यं तमुलगु तनदिव्यावयवमुलकु मालती मालादुलवलॆ सुखमुनु गलिगिञ्चुनवियु, नित्यमु लैनवियु, स्वविग्रहमु चेत नलङ्करिञ्चुकॊनँ दगिनवियु, स्वमूर्ति कलङ्कार मुलुगा नुन्नवियु अगु समस्त किरीटाधि दिव्याभरणमुल चेतनु, समस्त सुदर्शनादि दिव्यायुधमुल चेतनु निर्व चिम्पँबडिन अलङ्कार नाममुनु ए देव देवुँडु धरिञ्चुनो या वनगिरिनाथुँ मगुँ गाक. डगु सुन्दर बाहुस्वामिनाकु शरण म. करमु९ स्पर्शसुखम्बुतोँ दनरि सौ गन्ध्यम्बु चॆन्नारि पू सरमुल् वोलॆ स्वकोमलाङ्ग मुलकुन् सौख्यम्बुँ जेकूर्चु नु स्थिर दिव्याभरणायुधाळिँ दनुल श्मीन् शोभिलन् जेसि श्री करुँ डू नॆक् वन शैल वल्लभुँ डलं काराख्य, दिक्कातँडे. अवतारिक : ‘दिव्याभरणगण दिव्यायुध गणैः’ अनि वै श्लोकमुनँ बेर्कॊनँबडिन यावर्गद्वय मॆट्टु लाभ 74 सुन्दर बाहु स्तवमु रणम्बु लय्यॆनो यी क्रिन्दि क्रिन्दि श्लोकद्वयमुतो निरूपिञ्चु चुन्नारु. !! मकुट मकुट मालो त्तं सचूडाललाम स्वलकतिल कमालाकुण्डलै स्पोर्ध्वपुण्ड्रैः । मणिवरवन मालाहारकेयूरकं र्यैः तुलसि कटक काञ्चीनूपुराद्यै श्च भूषैः । श्लो॥ असि जलजरथाङ्गैः शार्णकौमोदकी ब्या मगणितगुणजालै रायुधै रप्य था-न्यैः । सततविततशोभं पद्मनाभं वनादे प्रति : रुपवनसुखलीलं सुन्दरं वन्दिय !! 37 38 पै रॆण्डु श्लोकमुलकुँ गलिपि येकान्वयमु, दीनिनि ‘कुलक’ मन्दुकु. मकुट.. .. कुण्डलै 8 लै 8 मकुट = किरीटमु चेतनु, मकुटमाला = किरीटमुनकुँ जुट्टॆडु रत्नमालचेतनु, लेदा पुष्पमाल चेतनु, उत्तंस -किरीटशिरोरत्नमुचेतनु, चूडाललाम = प्रशस्त मगु जुट्टु चेतनु, (सु+अलक) स्वलक – मञ्चि मुङ्गुरुल चेतनु, तिलकमाला नॊसटिकि अलङ्कार मगु मुत्यमुलु पॊदिगिन बङ्गारु बॊट्टुलदण्ड चेतनु, कुण्डलै ः=कर्णाभरण मुलचेतनु, स+ऊर्थ्वपुण्डै ः 18 = ऊर्ध्वपुण्ड्रमुलतोँ ….कण्ठ्येः— मणिवर = मणि श्रेष्ठ गूडिन, मणि……..
वनमालचेतनु, मगु कौस्तुभमुचेतनु, वनमाला = वनमाल चेतनु, (पादमुलवऱकु व्रेलाडु विविध पुष्पमुलु चेर्चिकट्टिनदण्ड) हार=मुत्याल पेरुलचेतनु, केयूर = भुजकीर्तुलचेतनु कण्ठ्येः सुन्दर बाहु स्तवमु 75 कण्ठाभरणमुलचेतनु, तुलसिकटक, काञ्ची, नूपुर, आद्यैः = तुलसि मुरुगुलु, ‘मॊलत्राडु, अन्दॆलु, मॊदलुगाँगल, भूषैः, च = अलङ्कारमुल चेतनु, (‘इन्त वऱकु ‘मॊदटि श्लोकमुनकु अर्थमु). असि, जलज, रथाङ्गैःनन्दक, पाञ्चजन्य सुदर्शनमु लनॆडु खड्गशङ्खचक्रमुल चेतनु, 2013 C कौमोदकी भ्याम् = आनाममुलुगल धनुस्सुचेतनु, गदचेतनु, अथ = तरुवात, अन्यैः= इतरमुलगु, आयुधैः, अपि=आयुधमुल चेतनु, अन्यैः=इतरमुलगु, अगणित, गुण, जलैः = लॆक्क लेनन्नि गुणसमूहमुल चेतनु, सतत, वितत, शोभम् निरन्तरमु वृद्धिचेयँबडिन सौन्दर्यमु गलिगिनट्टियु, वनादेशि वनगिरियॊक्क, उप वन, सुख, लीलम् उद्यानवनमुनन्दु सुखकर मुल गु क्रीडलुगल, सुन्दरम् सुन्दर बाहुस्वामि यनु, पद्म नाभम् श्री महाविष्णुवुनु, वन्दिपीय तुनु गाक. इदि रॆण्डव श्लोकमुन शर्थमु.) नमस्करिं विशेषमुलु :– ‘भूषैः’ – भूषाशब्दमा कारान्त स्त्री लिङ्गमुगाँ ब्रसिद्धमु — अप्पुडु भूषाभिः अनि युण्डुनु, ईलिङ्ग व्यत्ययमु व्याकरण निपुणुलचे विचार णीयमु, कॊन्दऱिदि घइ्यन्तरूपमु पुलिङ्गमुगा निर्दुष
मन्दुरु. अगणितगुणजालै 8 = सर्वज्ञत्व, सर्वशक्ति त्वाद्य नन्तगुणगणमुल चेत, मऱियु - अगणित गुणजूलै 8 8 76 सुन्दर बाहु स्तवमु आसङ्ख्यात गुणगणमुनुगल, अनि दीनिनि ‘असि, जलज, रथाङ्गैः शार्ण, कॊनँडगुनु. यर्थमुनु जॆप्पिकॊनि, कौमोदकी भ्याम् ’ – अनु वानिनिगूड विभक्ति विपरिणाममु चेत विशेषणमु चेसि अन्यैः, आयुधैः हल, मुसल, परशु, प्रभृतुलचेत, श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि दिव्या भरणधारणमुवलॆने दिव्यायुधधारणमु सैतमु तत्तद्दि व्यावयवमुलकु शोभौतिशयाधायक नुनि भावमु. ता॥ किरीटमु, किरीटमुनकुँ जुट्टॆडु मणिमाल, किरीट शिरोमणि, नॆमलिपिं चॆमु (श्रेष्ठमुगु चूड) अन्दमुलगु मुङ्गुरुलु, नॊसटिकि, आभरण मगु मुत्यालु पॊदगिन बङ्गारु बॊट्लदण्ड, कर्णाभरणमुलु, कौस्तुभमणि, वनमाल, हारमुलु, भुजकीर्तुलु, कण्ठाभरणमुलु, तुलसिकटकमुलु, रत्न मेखल, अन्दॆलु, मॊदलगु भूषणमुलचेतनु, नन्दक पाञ्चजन्य सुदर्शन कौमोदकी शार्जमुल चेतनु, तदितरमु लगु हल मुसलपरशु प्रभृति दिव्यायुधमुल चेतनु. सर्वज्ञत्व, सर्वश क्ति त्वाद्यगण्यगुणमुलचेतनु, वर्धमान सौन्दर्यवि शेषमु गलट्टियु वनाचलोद्यान वीधुलु लीला नन्दमु ननुभविञ्चुचुन्न सुन्दर बाहु महाविष्णुवुनकु वन्दन मॊनर्तुनु. शा॥ राजद्दिव्यकिरीटमु ददुपरि प्रत्यग्ररत्नम्बु वि भ्राजिष्णूत्त मफालभूषणमु हा ‘रम्बुल् श्रवो2लङ्कृतुल् 1 सुन्दर बाहु स्तवमु तेजःपुञ्जमु कौस्तुभं बितरमुल् दीप्तोर्ध्वपुण्ड्रम्बुलुन् राजिल्लन् वनशैल मेलुहरि ना राधिन्तु नॆल्लप्पुडुन् . म. घनकौमोदकी पाञ्चजन्य मनुशं खश्रेष्ठ मु९ श्रीसुद र्शन चक्रम्बुनु नन्द कासियुनु शा र्षम्बुन् ददन्यम्बुलौ अनवद्यायुधमुल् द्युतुल् पॆनुप मे लौसद्गुणा लॊप्पुश्री वनशै लेन्द्रविहारि सुन्दर भुजु वर्णिन्तुँ गेल् मोड्चुचुको. 77 अवतारिक :— ईमीँद श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि केशादिपादपर्यन्तमुलगु नवयवमुलनु मुप्पदियॊक्क श्लोकमुलतो वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आजानजस्वगतबन्धुरगन्धलुब्ध भ्राम्यद्विदग्ध मधुपाळि सदेशकेशम् । विश्वाधिराज्य परिबर्ह किरीट राजं है सुन्दरस्य बत सुन्दर मुत्तमाङ्गम् ॥ प्रति आजानज. सिद्धमगु (सहजमैन) स्वगत केशम्– आजानङ== 39 जन्म केशमुलकुँ जॆन्दिन, बं (11) 78 धुर सुन्दर बाहु स्तवमु तिरुगु दट्टमैन, लेदा - समृद्धमैन, गन्ध सुवासन यन्दु, लुब्ध=पेरासगलवि गनुक ने पेरासगलवि गनुक ने, भ्राम्यत् चुन्न, विदग्ध =रसिकमुलगु, मधुप
तुम्मॆदलयॊक्क, आळि=पङ्क्ति तो, सदेश समानमगु, केशम् = केशपाशमु गलिगिनट्टियु, विश्व, अधि राज्य, परिबर्ह, किरीट राजम्=स र्वे श्वरत्वमुनकु योग्यचिह्नमगु श्रेष्ठमगु किरीटमु गलट्टियु, सुन्दरस्य - सुन्दरस्य = सुन्दर बाहुमूर्ति यॊक्क, उत्त माङ्गम्=शिरस्सु, सुन्दरम् = अन्दमैनदि, है, बत= औशार ! विशेषमुलु :-
विश्वाधि राज्यपरिबर्ह किरीट राजम् उभयविभूतिनिर्वहणलक्षणातिविलक्षण दिव्यकिरीटमु गलवाँ डनि भावमु. है, बत ई निपातद्वयमु सुन्दर बाहुस्वामिवारि विलक्षण केश पाशयुत मगु नुत्तमाङ्ग मॆन्त अन्दमुगानुन्नदि ! अनि याश्च र्यातिशयमुनु दॆलुपु चुन्नदि. ता॥ सहजमयि सान्द्रमुनु समृद्धमु नगु सुगन्धमु मीँदि पेरासतो नटँ दिरुगुचुन्न रसिकमु लगु तुम्मॆ दलतो सदृश मैन (नल्लनि) केशपाशमु गलिगि युभय विभूतुलनु निर्वहिम्पँदगिन सर्वेश्वरत्वमुनकुँ जिह्न मगु किरीट राजमुतोँ ब्रकाशिञ्चु श्री सुन्दर बाहुस्वामि युत्तमाङ्ग मॆन्त सुन्दरमुगा नुन्नदि. आहाहा ! सुन्दर बाहु स्तवमु म॥ तन नैसर्गिक भव्य बन्धुर सुगं धं बानँगाँ जुट्टुमूँ गिन चुट्टालकुँ देण्ट्लकु निगनिगल् गीलिञ्चु कै श्यम्बुतो तन लो केश्वर तासुचिह्न मगुहृ द्यम्मा किरीटम्मुतो मननीयम्बु वनाद्रिसुन्दरुनि त न्मौळिं ब्रशंसिञ्चॆद९. प्रति :- श्लो॥ अन्धन्तम स्तिमिर निर्मितमे व यत् स्यात् तत्सारसाधित सुतन्त्वति वृत्तवार्तम् । ईशस्य केशवगि रेरल कालिजालं तत्तुल्य कुल्यमधुपाढ्य महावनस्य ॥ 79 40 तत्, तुल्य, कुल्य, मधुप, आढ्य, महत्, वनस्य=आमुङ्गुरुलतो, समानकुलमुनँ बुट्टिन, तुम्मॆ दलतो नॊप्पुचुन्न मुहावनमु गल, केशवगिरेः = वना द्रिकि, ईशस्य = नाथुँडै नट्टि, सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क, अलक, अळि, जालम् तुम्मॆदलवण्टि मुङ्गुरुलगुम्पु, अनु, यत् = ए, अन्धम् = ग्रुड्डिनिगाँ जेयु, तमः चीँकटि गलदो, (तत् =अदि) तिमिर, निर्मितम्, एव = चीक ँटि चीकँटि चेत निर्मिम्पँबडिन दे, स्वात् = अगुनु, (कनुक ने) तत्, सार, साधित, सुतन्तु, अतिवृत्त, वार्तम् = तिमिर निर्मित मगु अन्धतमसमुयॊक्क सारमुचेत निर्मिम्पँबडिनयं 80 सुन्दर बाहु स्तवमु दमुलगु दारमुलनु मिञ्चिनसङ्गति गलदि, (भवति अगु चुन्नदि.) विशेषमुलु :- तत्तुल्य कुल्य मधुपाढ्य महावनस्य - इन्दलि तत्—शब्दमु सुन्दर बाहुस्वामि वारि यलकलनु जॆप्पुनु, अन्दुचेत सुन्दर बाहुस्वामि मुङ्गुरुल गुम्पु तोड समान कान्तिगल तुम्मॆदलतो निण्डिन पॆद्दवनमुगल यनि यर्थ मेर्पडु चुन्नदि. केशवगिरे केशवुँ डनि रेः– सुन्दर भुजस्वामिवारिकि नामान्तरमु. वारिकि सम्बन्धिञ्चिन गिरि यनँगा वनाद्रि अनि भावमु, तिमिक निर्मित चीँकटिये उपादान कारणमुगाँ गलदि. कवुलु मुङ्गुरु लकु सहजमुगा ने अन्धकारमु नुपमानमुगाँ जॆप्पु दुरु. ई श्लोकमुन चीँकटिचेत नुद्भविम्पँ जेयँबडिन गाढान्धकार सारांशमुवलनँ दीयँबडिन सन्ननि दारमु लनु मिञ्चियुन्नवि देवरवारि मुङ्गुरु लनि वर्णिञ्चिनन्दु वलन सुन्दर बाहुस्वामुलु मुङ्गुरुलु मिक्किलि नल्लगा निगनिग लाडुचुन्न वनि भावमु. ता॥ श्री सुन्दरभुजस्वामिवारि मुङ्गुरुलतो समा नमु लगु तुम्मॆदलतो नॊप्पु महावनमुगल श्रीवनाद्रि किँ ब्रभुवगु सुन्दरभुजस्वामियॊक्क तुम्मॆदलनु बोलु मुङ्गुरुलगुम्पु अनॆडु कटिकि चीँकटि यन्धकारमे युपा दान कारणमुगाँ गलदि ययि युण्डुनु, अन्दुचेत ने अन्धकारसारांशमुवलनँ दीयँबडिन यन्दमुलगु दार सुन्दर बाहु स्तवमु 81 मुल नतिक्रमिञ्चिन सौन्दर्यवार्त गलदियै मिक्किलि नल्लनै यलरारुचुन्नदि. च॥ वनगिरिनाथु मुङ्गुरुल वण्टि यळुल् चॆलरेँगुकानलक् दन रॆडुकॊण्ड नेलुहरि तदमगोपम कुन्तल व्रजं बनुनिबिडान्धकारमु म हातिमिरम्बुन ने जनिञ्चियुं डुनु दिमिरम्पुँ देट जिगि नूलु निगन्निग लेपुँ जूपॆडिक् . अवतारिक :- ई श्लोकमुन सुन्दर बाहुस्वामिवारि ललाटमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. प्रति श्लो!! जुष्टान मिक ज्वलदिन्दुसन्निभं धृतोर्ध्वपुण्ड्रं विलसर्वि शेषकम् । भूम्ना ललाटं विमलं विराजते वनाद्रिनाथस्य समुच्छितश्रियः ॥ 41 अनु समुच्छितश्रियः आरूढश्री ’ नामान्तरमु गल, वनाद्रि, नाथस्य वनगिरि प्रभुवगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, जुष्ट, अष्टमीक, ज्वलत्, इन्दु. सन्निभम्=सेविम्पँबडिन यष्टमि तिधि गलवाँडुनु, प्रकाशमानुँडु नगु चन्द्रुनितो समान मयिनट्टियु, धरिम्पँबडिन यूर्ध्वपुण्ड्रमुलु धृत, ऊर्ध्वपुण्ड्रम् =82 सुन्दर बाहु स्तवमु गलिगिनट्टियु, विलसत्, विशेषकम् = प्रकाशिञ्चुचुन्न चूर्णतिलक मु गलिगिनट्टियु, (लेदा) कस्तूरि तिलकमु गलिगि नट्टियु, विमलम्=निर्मलमैनट्टि मु, ललाटम्= नॊसलु, भूम्ना = तेजस्सुतो, विराजते = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. विशेषमुलु :— " . ’ जुष्टा सन्निभम्— अमन्द प्रकाशमगु अर्धचन्द्रुनितो समानमनि भावमु, भूम्ना =अधिकमुगा- तेजस्सुतो अनि यर्थद्वयमुनु जॆप्पिकॊन वच्चुनु. विमलम् – अनु चोट ‘विपुलम्’ अनु पाठान्तरमुन विशालमु, अनि अरमु, ता॥ प्रकाशमानुँडगु अष्टमी चन्द्रुनितो (अऱ चन्द्रुनितो) समान मैनदियु, ऊर्ध्वपुण्ड्रमुलु गलदियु, वानिनडुम श्रीचूर्ण (लेदा - कस्तूरि) तिलकमु गलदियु, विशालमुनु निर्मलमुनु अयिनदियु, नगु ‘आरूढश्री’ अनु नामान्तरमु गल वनाद्रिनाधुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि नॊसलु मिक्किलि तेजस्सुतोँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि. गी॥ अष्टमीचन्द्रुव लॆँ ग्रालुनदियु, नूर्ध्व पुण्ड्रमुलमध्यँ ग स्तुरिबॊट्टु वॆलयु नदियु, वॆडँदयु निर्मल मौ वनाद्रि नाथुनिटलम्मु तेजस्सुनू वॆलुङ्गु, अवतारिक : ई श्लोकमुन स्वामिवारि कनुबॊमल जण्टनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. प्रति :- सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ सुचारुचापद्वयविभ्रमं भ्रुवो र्युगं सुनेत्राह्वसहस्रपत्रयोः । उपान्तगं वा मधुपावळी युगं विराज ते सुन्दर बाहुसंश्रयम् ॥ 83 42 सुन्दर बाहु, संश्रयम् = श्री सुन्दर बाहु स्वामिये आश्रयमुगाँ गलट्टियु, सुचारु, चाप, द्वय, विभ्रमम् अतिसुन्दरमगु विण्टिजण्ट यॊक्क विलासमु वण्टि विलासमु गलट्टियु, भ्रुवोः कनुबॊमलयॊक्क, युगम्=जण्ट, सुनेत्र, आह्व, सहस्रपत्रयोः = मञ्चि कन्नु ल नॆडु पेरु गलतामर रेकुल यॊक्क, उपान्त, गम् = समीपमुनु बॊङ्गियुन्न, मधुप, आवली, युगं, वा तुम्मॆद बन्तुल जण्ट वलॆ, विराजतेज मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. वि शेषमुलु :- ई शोकमुनन्दलि उपान्तगं अनुचोट गल ‘वा’ अनु शब्दमु ‘इव’ अनु न नर्थ मुनँ ब्रयुक्त मैनदि. नेत्रमुलन्दु सहस्र पत्र भ्रान्ति चेत मकरन्दपानास क्ति तो नेत्रप्रान्तमुल बारुदीर्चिन भ्रमर पङ्क्ति द्वयमुवलॆ श्रीसुन्दर बाहुस्वामिवारि कनुबॊमल जण्ट प्रकाशिञ्चु चुन्नदनि भावमु. ता॥ श्री सुन्दर बाहु स्वामि वारि कनुबॊमल जण्ट यन्दमगु विण्टिजण्ट यॊक्क विलासमुवण्टि विलासमुतो नॊप्पुचु मनोहर नेत्रमु लनॆडु सहस्रपत्रमुल समीप 84 सुन्दरबाहु स्तवमु मुन रॆण्डु बारुलु दीर्चिन तुम्मॆद बन्तुलवलॆँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि. वि उ॥ श्री युतमु धनुर्द्वय वि श्री शिष्टविलासमु सुन्दर प्रभु भ्रूयुगळम्बु लोचनस रोरुहसन्निधियन्दु नासतोँ बायक रॆण्डु बन्तुलुग बारुलु दीर्चि चलिम्पकुण्डु तें ट्लो! यनँ जूचुभ क्तुल क नुङ्गवकुं गडु विं दॊनर्चॆडुको. अवतारिक :– ई श्लोकमुन श्री सुन्दर बाहुस्वामि नेत्रसौन्दर्यमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ आदीर मप्रेमदुहं क्षणोज्ज्वलं नचोर मन्तः करणस्य पश्यताम् । अनुब्ज मब्जं नु कथं निदर्शनं वनाद्रिनाथस्य विशालयो र्दृशोः ॥ 43 प्रति-— अदीर्घम्=गुण्ड्रनिदियु (दीर्घमु कानिदियु) आप्रेम,दुहम्=प्रेमनु स्रविम्प नदियु क्षण, उज्ज्वलम्= क्षणकालमु मात्रमे प्रकाशिञ्चु नदियु, पश्यताम् चूचुवारियॊक्क, अन्तःकरणस्य= मनस्सुनकु, रम्=आकर्षिञ्चनिदियु, (हरिञ्च नदियु) अनुब्जम्-आर्जवमु लेनिदियु,(आगु)अब्जम्= पद्ममु, वस, अद्रि, नाथस्य = वनगिरि नचो सुन्दर बाहु स्तवमु 85 योः= पॆद्दवि प्रभु वगुसुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, विशाल यगु,दृशोg=कन्नुलकु,कथं नु= ऎट्लु, निदर्शनम् = दृष्टां दमु,(भ वेत् = अगुनु) का दनि भावमु. विशेषमुलु : — अप्रेमदुहम् प्रेममु अनँगा स्नेहमु, दानिनि पितुकु नदि. लेदा-निम्पु नदि लेदा स्रविञ्चु नदि, प्रेमदुहम्-अगुनु. अट्टिदि कानिदि, अप्रेमदुहम्= स्नेहमुनु स्रपिम्पनिदि, पद्ममु कॊञ्चॆमु कॊञ्चॆमु पूँ देनॆनु स्रविञ्चुने कानि प्रेमनु स्रविम्प दनि भावमु. क्षणोज्ज्वलम्- क्षणकालमु दाँटिनचोँ बद्ममु क्रममुगा वाडिपोवु ननि भावमु. अनुब्जम्-उब्ज- आर्ज वे;अनुधातुवुनुण्डि येर्प डिनँउज्ञपदमुनकु अर्जव मनि यर्थमु अदि लेनिदि यनुज्ञमु. पद्ममु सूर्योदयमुन विकसिञ्चुनट्लु चन्द्रोदयमुन विकसिम्पदु, अन्दु चेत ऋजुमार्गमु लेनिदि यगु चुन्नदि. विशालयोः=दीर्घमु ः = दीर्घमु लगु, अनँगा - क र्णान्तविश्रान्तमु लनि यभिप्रायमु. ता॥ कर्णान्त विशालमुलुनु आश्रितुलयॆडलँ ब्रेम पूरमुनु ब्रवहिञ्चुनवियु, सदा एक रूपमगु विकासमु गलवियु, चूचुवारियन्तःकरणमुलु नाकर्षिञ्चुननियु नगु वनाद्रि नाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क दिव्य नेत्रमुलकु गुण्ड्रनिदियुँ गॊञ्चॆमु पूँदे नॆनु मात्रमे स्रविञ्चुनदियु, पगलु विकसिञ्चि रात्रि मुकुळिञ्चु नदियुँ जूचु वारिमदिनन्तगा नाकर्षिम्प लेनिदियुनै तन्नेत्र (12) 86 सुन्दर बाहु स्तवमु गुणमुलतो सरितूग लेनिपद्ममॆट्लु निदर्शनमुकाँगलदु ? पद्ममु श्रीवारिकन्नुलकुँ बोल्पँगदगदनि भावमु. म. निडुवाल् का दँट प्रेमपूरमुनु जिं दिम्पङ्ग ले दण्ट व्रे ल्मिडिलो वाडॆडु नण्ट द्रष्टृहृदया शिक्षा लाग ले दण्ट रे मुडुँगं बातॆडु नण्ट पद्म मदि ये मो मॊप्पँगा नीडु व च्चॆडु श्रीसुन्दर बाहु नेत्रयुगळ श्री कायत त्वादुलक् , ? अवतारिक :— अलङ्कारनामुँ डगु श्री वनाद्रि नाथुँडु अट्टि कन्नुलतो नन्नुँ गटाक्षिञ्चुँ गाक यनि प्रार्थिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ प्रश्योतत् प्रेमसारामृतरसचुळुक प्रक्रमप्रक्रियाभ्यां विक्षिप्तालोकितोर्मि प्रसरणमुषित स्वान्त कान्ताजनाभ्याम् । विश्वोत्पत्ति प्रवृत्ति स्थितिलयकरणै कान्त शान्त क्रियाभ्यां देवोऒलङ्कार नामा वनगिरि निलयो वीक्षता मिक्षणाभ्याम् ॥ 414 बाहु देवुँडु, प्रश्च्योतत् प्रति वनगिरिनिलयः = वनाद्रि निवासियु, अलङ्कार नामा=अलङ्कार नामधेयुँडुनु अगु, देवः = सुन्दर प्रक्रियाभ्याम्— प्रश्च्योतत् = मिक्किलि स्रविञ्चुचुन्न, प्रेम, सार= श्रेष्ठ मगु प्रेम यनॆडु, अमृतरन = सुधारसमु गल,
सुन्दर बाहु स्तवमु 87 चुळुक = पुडिसिलियॊक्क, प्रक्रम= विधमुवण्टि, प्रक्रिया भ्याम्=विधमुलु गलिगिनट्टियु, विक्षिप्तजनाभ्याम् - विष प्त पेरेपिम्पँबडिन, आलोकित चूपुल नॆडु, ऊर्मि= अलल यॊक्क, प्रसरण प्रसारमुचेत ( व्याप्ति चेत, मुषित=दॊङ्गिलिम्पँबडिन, स्वान्त = मनस्सुगल, कान्ता जनाभ्याम्=स्त्रीजनमु गलट्टियु, विश्वक्रिया भ्याम्- विश्व=नमस्त चेतनाचेतन समूहमुयॊक्क, उत्पत्ति = पुट्टुकनु, प्रवृत्ति = प्रवर्तनमुनु, स्थिति पोषणमुनु, लय = नाशनमुनु, करण = चेयुटयन्दु, एकान्त, P शान्त, क्रियाभ्याम्=मिक्किलि शान्त व्यापारमु गलट्टियु, ईक्षणा भ्याम्=कन्नुलतो, वीक्ष ताम् = चूचुँगाक. वि शेषार्थमुलु अमृतरसचुळुक… एककरोदर परि माणमगु चुळकमुनु (पुडिसिलिनि) दृष्टान्तमुनुगाँ जॆप्पुट भक्तुलु सुन्दर बाहुस्वामिवारि नेत्रमुलनुण्डि स्यन्दिञ्चु प्रेमरसामृतमुनु मॆल्लमॆल्लगाँ दनिविदीर सुखमुगाँ द्रागँ गलरनि सूचिञ्चुनिमि त्त मनि तॆलिय जना भ्याम्— सुन्दरीजन नगुनु. ឌ मनोविलास शालि मनोज्ञालोकनमुल चेत ननि भावमु. क्रियाभ्याम्~ सकलजग त्सृष्टिस्थिति प्रळय विश्वा विधानमुलन्दु मिक्किलि प्रवर्तमानमु लगुचुन्न- अनि तात्पर्यमु, वीक्ष ताम्- अनन्यलक्ष्यमु लगु सम 88 सुन्दर बाहु स्तवमु ग्रानुग्रहमुगल कटाक्षमुलकु नन्नु लक्ष्यमुनु जेयुँ गाक अनि याशयमु. ता॥ वनगिरि नित्यनिवासुँडुनु, ‘अलङ्कार नाम धेयुँ डुनु अगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि निरन्तरमु स्यन्दिञ्चु चुन्न प्रेमसार मनॆडु अमृतरसमुनकुँ जुळुकमुलवण्टि वियु, तरङ्गमुलँ बोलिनकटा लोकमुल चेत सुन्दरी जनमुल मनस्सुल नाकर्षिञ्चुचुन्नवियु, सकलजगत्सृष्टि स्थिति प्रळयविधानमुलन्दुँ ब्रशान्त व्यापार मुलु गलवियु नगु लोचनमुलतो नन्नु निरन्तरमु कटाक्षिञ्चुँ गाक, शा॥ भूरिप्रेम रसामृतं पुँजुळुकं ዋ बुल्, मञ्जुलालोकसं चाराकृष्ण विलासिनी जनमन स्सर्वस्वकम्बुल् , जग त्रारम्भस्थिति संहृतीड्यमुलु ने त्राल् विप्पि स न्नायलु काराख्युं डगुकाननाद्रिहरि श्री कञ्जाक्षुँ डीक्षिञ्चुले. अवतारिक :- ई श्लोकमुनन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि नासासौन्दर्यमुनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ प्रेमामृतौ घपरिवाहिमहाक्षीनं धु मध्ये प्रबद्ध समुदञ्चित नेतुकल्पा ! ऋज्वी सुसुन्दरभुजस्य विभाति नासा कल्पद्रुमाङ्कुरनिभावन शैलभर्तुः ॥ सुन्दर बाहु स्तवमु 89 प्रति वन, शैल, भर्तुः वनाद्रिनाथुँ डगु वङ्करटिङ्करलु लेक सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, ऋज्वी सरिगानुन्नट्टियु, कल्पद्रुम, अङ्कुर, निभा==कल्पवृक्षमु यॆुक्क, चिगुराकुतो समानमैनट्टियु, नासा==मुक्कु, प्रेम—मध्ये प्रेम= प्रेम मनॆडु, अमृत + ओघ= अमृतप्रवाहमुनु परिवाहि प्रवहिम्पँजेयु, महत् = पॆद्द, अक्ष्मी - कन्नुल नॆडु, सिन्धु= समुद्रमुल यॊक्क, म मध्ये नडुम, प्रबद्ध, समुदञ्चित, सेतु, कल्पा=कट्टँबडिनदियु, अत्यन्तसम्भावित मैनदियु, नगु सेतुवुतो समानमैनदि, भवति अगुचुन्नदि. वि शेषमुलु :- ऋज्वी निरन्तरमनु भविम्पँबडु चुन्ननु, ऎप्पटि कप्पुडु क्रॊत्त दानिवलॆ नगपिञ्चु एकरूप मगु शोभ गलदि. ई श्लोकमुलोनि पूर्वार्थमु यॊक्क भावमिदि. सुन्दर बाहुमूर्ति नेत्रशोभानुभवमु कॊऱकुँ दिगि अन्दलि प्रेमरसमुलो मुनिँगि पोवुटचे अवयवान्तर शोभानुभवमुनकुँ बोव शक्ति लेनि प्रेक्षकुल कन्नुलकु स्वामिवारिनासिक सेतुवुवलॆ नावलियॊड्डुँ जेरुटकु साधन मगु चुन्नदि. ता॥ ऎल्लप्पुडु ननुभविम्पँ बडुचुन्ननु शश्व देश प्रकार मगु नवनवशोभ गलदियु, कल्पवृक्षकिसलयमु वलॆ मनो 90 सुन्दरबाहु स्तवमु हरमैनदियु नगु सुन्दर बाहुस्वामिवारि नासिक प्रेमा मृतपूरमुनु ब्रवहिम्पँ जेयु कन्नु ल नॆडु समुद्रमुल नडुमु बन्धिम्पँबडि यॊप्पिदमुगा नुन्न सेतुवुवलॆँ ब्रका शिञ्चु चुन्नदि. च. निरुपमशोभ यॆफ्टु रम णीयत नेकविधान नॊप्प स्व स्तरु नवपल्ल वाकृतिँ ब्र शक्ति वहिञ्चु वनाद्रिवासि सुं दरभुजुनास प्रेमरस धारलँ बूर्णमु लैन नेत्रसा गरमुल नन्त राळमुनँ गन्पडु नूतन सेतुवो ! यन९. अव तारिक :- ई श्लोकमुन श्री स्वामिवारिवदन सौन्द र्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ व्याभाषिताभ्यधि कनन्दन भन्दनर्धि मन्दस्मितामृत परिस्रव संस्तवाढ्यम् । आ भौति विद्रुमसमाधर मास्य मस्य देवस्य सुन्दरभुजस्य वनाद्रि भर्तुः ॥ 46 प्रति :- वन, अद्रि, भर्तुः = वनगिरि नाथुँडै, सुन्दर भुजस्य=सुन्दर बाहुमूर्तियनु, अस्य=ई, देवस्य= स्वामियॊक्क, व्याभा. आढ्यम्- व्याभाषित, अभ्यधिक, नन्दन, भन्दन, ऋद्धि = माट लाडुनपु डत्यन्ता
सुन्दर बाहु सवमु 91 नन्दकरमुनु शुभदमु नगु समृद्धि गल, मन्दस्मित, अमृत, परिस्रव, संस्तव, आढ्यम् = चिऱुनव्वु अनॆडु अमृतरसमुयॊक्क परिचयमुतो नॊप्पुनदियु, विद्रुम, सम, अधरम्=पॊगडमुतो समानमगु पॆदविगलदियु अगु, आस्यम्=मॊगमु, आभाति = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. विशेषमुलु :- इन्दलि पूर्वार्धमु ‘स्मितपूर्वाभि भाषिणम् ’ अन्नट्लु श्री नुन्दर बाहुस्वामि प्रियुलतो माटलाडु नप्पुडु श्रीवारि मुखमुनं दानन्दकरमुनु शुभप्रदमुनगु मन्दहास सुधानिष्यन्द परिचयमुतो नॊप्पुळो भौतिशयमुनु जाटुचुन्नदि. माटलाडु नपुडु देवरवारि चिऱुनव्वु वॆन्नॆललु गायुनॆम्मोमु भक्तुल कत्यन्तभोग्यमुगा नुण्डुननि पिण्डि तार्धमु, विद्रुमसमाधरम् - सम्भाषणसमयमुनँ बॊगडमु वण्टिवा तॆऱ कॆञ्जायलतोँ गूडिन स्वामिवारि चिऱुनव्वे देवरवारि मोमुन कन्तयु शोभ चेकूर्चु चुन्नदनि याशयमु, ता॥ वनाद्रिनाथुँ डगु नी श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि मुखमु सम्भाषणसमयमं दधिकानन्दकरमुनु शुभ प्रदमुनगु समृद्धिगल मन्दहासमनु अमृतनिष्यन्द मुतोँ बुट्टिँ गाञ्चि पॊगडमुवण्टि वातॆऱपॊलुपुतो नॆन्तयुँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि92 सुन्दर बाहु स्तवमु क. पलिकॆडु तऱि नमृतम्बुं जिलुकुचु लेनव्वु गायँ जिऱु वॆन्नॆलल तुल लेनिमोवि पगडपुँ दळुकुलँ गुरिय९ वनाद्रिधवुमो मलरु. अव तारिक :- ई श्लोकमुनन्दु श्रीवनाद्रिनाथुनि कपोल सौभाग्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु श्लो॥ यशोदाङ्गुळ्यग्रो न्नमिकचुबुकाघ्राणमुदितौ कपोला वद्यापि ह्यनुपरततद्धर्ष ग म । ‘गमको विराजेते विष्वग्वितत सहकारासवरस प्रमाद्य द्भृङ्गाढ्य द्रुमवनगिरे स्सुन्दरह रेः ॥
प्रति : |
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47 विष्वग्विततगिरे विष्वक् कानलुवैपुल, वितत = व्यापिञ्चिन, सहकार तिय्यमामिडिपण्ड्लयॊक्क, आसव=आसवमुयॊक्क, रस= रसमुचेत, प्रमाद्यत् मदिञ्चुचुन्न, भृङ्ग= तुम्मॆदल चेत, आढ्य= ऒप्पुचुन्न, द्रुम= चॆट्लुगल, वनगिरेः = वनाद्रिगल, सुन्दरहरेः = सुन्दर भुजस्यामि यॊक्क, यशोदा……… मुदितौ – यशोदा=यशोदा देवियॊक्क, अङ्गुळि = व्रेळ्ळयॊक्क, अग्र=कॊनलचेत, उन्नमित= पै कॆत्त बडिन, चिबुक गड्डमुयॊक्क, आघ्राण मूचूचुट चेत, मुदिते = सन्तसिञ्चिनवियु, (विकसिञ्चिनवियु) अद्यापि नेँटिकिनि, अनुपरत, तत्, हर्ष, गम = मुगियनि यासन्तोष विकासमुनु सूचिञ्चु नवियु, अगु, कपोता चॆक्किळ्ळु, विराजेते, मिक्किलि प्रकाशिञ्चुचुन्नवि, हि= सत्यमु. सुन्दर बाहु स्तवमु 93 वि शेषमुलु :- दुरोदा. . .मुदिते यशोदा देवि वात्सल्यातिशयमु चेत श्री बालकृष्णुनि गड्डमुनु तन व्रेळ्ळकॊनलतो नॆत्ति पट्टि मूर्कॊनँगाँ जॆक्किळ्ळ यन्दु सन्तोषमु चेत नॊक विकासमु गलिगॆननि भावमु, अद्यापि इप्पटिकिनि अनँगाँ जालकालमु गतिञ्चि नप्पटिकिनि, सुन्दर भुजावतारमुनँ गूड आसन्तोष विकास मनुवर्तिञ्चुचुने युन्नदनि याशयमु. ‘हि’ हि शब्द प्रयोगमुवलनँ बूर्वोक्त सुन्दर भुज स्वामिवारिकपोल विकासमु श्रीवारि सेविम्पवच्चिन भक्तुलॆल्लरकुँ ब्रत्यङ्गानु भाव्यमगु चुन्नदनि सुस्पष्ट मगुचुन्नदि. ता॥ नलुवैपुल विजृम्भिञ्चिन तिय्यमामिळ्ळ यासव रसम्बुनु ग्रोलि मदिञ्चिन तुम्मॆदलतो नॊप्पु वृक्षमुलु गल वनाद्रिकि नाथुँडैन श्री सुन्दरभुजस्वामियॊक्क चॆक्किळ्ळु कृष्णावतारमुन यशोद वात्सल्यातिशयमु चेत गड्डमुनु बैकॆत्ति मुद्दाडुट चेँ गलिगिन विकासमुतो नेँटिकिनि भ क्त जनुल कनुभाव्यमुलै यलरारु चुन्नवि. उ. चिन्नतनान गड्डमुनु जेँ गॊनि नन्दुनिराणि मुद्दुलन् . गॊन्नदि, तद्विकास मॊक (13) कॊञ्चॆमुँ दग्गक विन्दु गूर्चॆडुन् 94 सुन्दर बाहु स्तवमु गन्नुल किष्ठु व्याप्त सह कार फलासवम त्त भृङ्ग सं पन्न वनाद्रि सुन्दर सु
बाहु मनोज्ञकपोल मण्डलिन्. |
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अवतारिक :— ई श्लोकमुनन्दु श्रीस्वामिवारि कर्णपाश सौन्दर्यमुनु वर्णिञ्चुचुन्नारु. |
प्रति |
‘11 व्यालम्बिकुण्डल मुदग्र सुवर्ण पुष्प |
निष्पन्नकल्पलति कायमलानु कारम् । यत्कर्णपाशयुगलं निगडन्धियां नः सोडियं सुसुन्दरभुजो वन शैलभूषा ॥ |
49 |
व्यालम्बि, कुण्डलम् (मूपुलवि ँद) |
ण |
व्रेलाडुचुन्न कर्णाभरणमुलु गलदियु, उदग्र अनु कारम् उदग्र = उज्ज्वलमगु, सुवर्ण = बङ्गारवु, |
- पुष्प= पुव्वुलतो, सम्पन्न = कूडिन, कल्पलतिका=कल्पलतल यॊक्क, यमल=‘जण्टयॊक्क, अनुकारम् = सारूप्यमु गल, यत्, कर्णपाश, युगळम् = एसुन्दर बाहुमू र्ति यॊक्क प्रशस्तमुलगु चॆवुलजण्ट, नः = मायॊक्क, धियाम्=बुद्धुलकु, निगडम्=सङ्कॆल, (भवति= अगुचुन्नदो) सः=अट्टि, अयम्=ई सुन्दर भुजः = सुन्दर बाहुस्वामि, = वनशैल, भूषा=वनाद्रिकि अलङ्कारमुवण्टिवाँडु. विशेषमुलु :— ‘य त्कर्ण पाळयुगळं निगडं धियां नः श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि कर्णपाशयुगळमु मिक्किलि अन्दमुगा नुण्डुटवलन माबुद्धुलकुँ ददितर दिव्यावय सुन्दर बाहु स्तवमु 95 वानुभवम्बु नॊनर्प सङ्कॆलवलॆ नाटङ्कमु गलिगिञ्चु चुन्नदि. . लेदा — माबुद्धुलनु विषयान्तरानुभवमु नकुँ बोनीयक यरिकट्टुचुन्न दनि भावमु. अट्टि त्रिलोक सुन्दरुँ डगु श्री सुन्दर भुजस्वामि यी वनाद्रि कॊक यमूल्यालं कारमुगा नुण्डुट वनगिरि भाग्यमनि तात्पर्यमु. ता॥ मूँवुलपै व्रेलाडुचुन्न कर्णाभरणमुलु गल दियु, देदीप्यमानमु लगु बङ्गारु पुव्वुलतोँ गूडिन कल्पलतलजण्टनु बोलिनदियु नगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारि प्रशस्तमुलगु वीनुलजण्ट माबुद्धुल इतर दिव्याव यव सौन्द र्यानुभवमुनकुँ गानि विषयान्तर सञ्चारमु नकुँ गानि पोनीयक सङ्कॆलवलॆ नरिकट्टु चुन्नदि. एतादृश कर्ण पाश सौन्दर्य विशिष्टुँ डगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वनाद्रि कॊक दिव्यभूषणमुगाँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नाँडु. उ. मूँपुलपैनि नाडुनटु मुच्चटँ गॊल्पँगँ गुण्डलम्मु द्दीपित हेमपुष्पमुलु तीर्चिन कल्पल ताद्वयं बटुल् दापुन वॆल्गुस्वामि चॆवि तम्मॆलु सङ्कॆल मादुबुद्धिकिन्, जूपरि दिव्यभूषणमु सुन्दर बाहुवु काननाद्रिकिन्, लु 96 सुन्दर बाहु स्तवमु अवतारिक :— ई श्लोकमुन श्रीवारि कण्ठ सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. ‘Hपडंससंसञ्जित कुन्तलान्तिका वतीर्लक र्णाभरणाढ्य कन्धरः सुबन्धुर स्कन्ध निबन्धनो युवा सुनुंवर स्सुन्दरदो र्विजृम्भते । …कन्धरः- ॥ प्रति : सदंस… कन्धरः सत् 49 योग्यमु लगु (अन्दमु लैन) अंस = मूपुलमीँद, संसञ्जित = बागुगा नण्टुकॊनियुन्न, कुन्तल मुङ्गुरुलयॊक्क, (चूर्ण कुन्तलमुलयॊक्क) अन्तिक = समीपमुनन्दु, अव तीर्ण= वेलाडु चुन्न, कर्णाभरण = कुण्डलमुलतोड, आध्य. ऒप्पुचुन्न, कन्धरः = कण्ठमुगल वाँडुनु, सुबन्धुर, स्कन्ध, निबन्धनः = मिक्किलि दृढमगु मूपुलयॊक्क सन्धी बन्धमुलु गलवाँडुनु, युवा = यौवनवन्तुँडुनु, सुन्दरदोः=सुन्दरमुलगु बाहुवुलु गलवाँडुनु, अगु सुन्दर भुज स्वामि, सुसुन्दरः भुजस्वामि, मिक्किलि सुन्दरुँडगुचु, विजृम्भ ते=विजृम्भिञ्चु चुन्नाँडु (चॆलरेगु चुन्नाँडु.) विशेषमुलु :- पूर्वार्धमु भावमेमन? मूपुलँ दाँकुचुन्न पिल्लजुट्टुवऱकु व्रेलाडु कर्णाभरणमुलतो नलङ्कृतमगु कण्ठमु गलवाँडु. युवा= बाल्ययौवन सन्धिलोनि वाँडनि भावमु. ता॥ सुन्दर न्दर बाहुस्वामि यन्दमु लगु मूपुल नण्टि युन्न पिल्ल जुट्टु वऱकु व्रेलाडुचुन्न कुण्डलमुलतो सुन्दर • सुन्दर बाहु स्तवमु 97 मगु कण्ठमु गलवाँडुनु; दृढमुलगु भुजशिरस्सुल सन्धुलु गलवाँडुनु, बाल्य यौवनमुल सन्धिलो नुन्न वाँडुनै मिक्किलि सुन्दर रूपमुलो विजृम्भिञ्चु चुन्नाँडु. . उ. मूँपुल मूगि यॆन्तयुनु मुच्चटँ गॊल्पॆडु पिल्लजुट्टु पॆन् दापुनँ गुण्डलच्छवुल ताण्डव मॊप्पि सुसन्धिबन्धुरं बॆ पॊलुपारँ गन्धरमु यौवन नव्य विलासमञ्जुला टोपमुतो वनाचल कु टुम्बि सुसुन्दरुँ डेपुँ जूपॆडुन्. श्लो॥ व्यूढगूढ भुजजत्रु मुल्लस त्कम्बु कन्धरधरं धराधरम् । वृक्षषण्डमय भूभृत स्तपे सुन्दरायती भुजु भजामहे ॥ प्रति : व्यूढ, गूढ, भुज, जत्रुम्=बलिसिनवियु (भारमुनु सहिञ्चु नवियु) दागिनवियु (मांसमुलो) अगु भुजमुलदग्गऱ नुन्न मॆडयॆमुकलु गलवाँडुनु, उल्लसत्, कम्बु, कन्धर, धरम् - प्रकाशिञ्चुचुन्न शङ्खमु वण्टि मॆडकलवाँडुनु, सर्वमुनु धरिञ्चुवाँडुनु, वृक्ष, षण्ड, मय, भूभृतः=चॆट्ल गुबुरुलतो निण्डिन पर्वतमु यॊक्क, त पे=चऱियन्दु, धराधरम् = भूमिनि रक्षिञ्चु .98 सुन्दर बाहु स्तवमु चुन्नवाँडुनु, अगु, सुसुन्दर, आयत, भुजम् = मिक्किलि अन्दमुलुनु दीर्घ मुलुनु अगु भुजमुलुगल सुन्दर बाहु दीर्घमुलुनु स्वामिनि, भजाम हे= सेविञ्चु चुन्नामु. विशेषमुलु : उल्लसत्कम्बु कन्धरधरम् कन्धरा शब्दमु स्त्रीलिङ्गमुगनुक- कन्ध राधरम् अनि युण्डवलसि युन्नदि. श्री कूरेशुलवारु अकारान्तमुगाँ ब्रयो गिञ्चुटं जेसि ‘कन्धर’ वऱकु बहुव्रीहि चेसिकॊनि तरुवात ‘धर’ शब्दमुतो विशेषणोभय पदकर्मधारय मॊनर्पँ बडिनदि. तदनुसारमुग ने यर्थमु व्रायँबडिनदि. धरा धरं वृक्षषण्डमय भूभृतः, तटे, इन्दलि ‘मयट्’ प्रत्ययमु प्राचुर्यार्थमुन वच्चिनदि. श्री सुन्दर भुज स्वामि अन्दऱिनि रक्षिम्प बद्धकङ्कणुँडै युन्ननु माबोण्ट्ल संरक्षण सौलभ्यमुनकै वनाद्रितटमुन वेञ्चेसि युण्डॆ ननि याशयमु, ता॥ बलिसि कण्डपट्टिन मॆडयॆमुकलु गलिगि यन्दमगु शङ्खमुवण्टि कण्ठमु गलिगि वनाद्रिसानुतलमुनन्दु भ क्त रक्षण सौलभ्यमुनकु वेञ्चेसियुन्न यायत बाहु वगु श्री सुन्दर भुजस्वामिनि भजिञ्चुचुन्नामु. म. बलसम्पन्नमु मांसगर्भितमु शुम्भज्ञत्रु देशम्बु नु ज्ज्वलकम्बूपम भव्यकन्धरमु भा स्वद्दीर बाहाद्वयं ‘सुन्दरबाहु स्तवमु बलरारन् दरुषण्ड मण्डितवना हार्यम्बुनं दॊक्कचोट जॆलुवॊप्पस् निवसिञ्चु सुन्दर भुजुन् सेविन्तु मश्रान्तमुस् 99 अवतारिक ई क्रिन्दि यैदु श्लोकमुलयन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि दिव्यभुजमुल सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ मन्दरभ्रमण विभ्रमोद्भटा सुन्दरस्य विलसन्ति बाहवः । इन्दिरा समभिनन्द भन्दना श्चन्दनागरु विलेपभूषिताः ॥ 51 प्रति :- मन्दर, भ्रमण, विभ्रम, उद्भटाः = मन्दर मनॆडु कव्वपुँगॊण्डनु द्रिप्पुटयन्दु उत्साहमु गल वियु, इन्दिरा, समभिनन्दन, भन्दनाः लक्ष्मी देविनि सन्तोष पॆट्टु विषयमुन मङ्गळकरमुलुनु, (लेदा) सुख करमुलुनु, चन्दन, अगरु, विलेप, भूषिताः – गन्धमु - अगरु - मैपूँतलतो अलङ्करिम्पँ बडिनवियु अगु, सुन्द रस्य = सुन्दर बाहुमूर्ति वारि यॊक्क, बाहवः = भुजमुलु, विलसन्ति = मिक्किलि प्रकाशिञ्चुन्नवि. विशेषमुलु ‘भन्दनाः’ भदि कल्याणे - सुखे च - अनु धातुवुवलनु नेर्पडिन रूपमु गावुन कल्याणकर मुलु लेदा सुखकरमुलु - अनि यर्थ मॊसँगुनु. श्री राब्धि I 100 सुन्दर बाहु स्तवमु . मथन कालमुनन्दे लक्ष्मीदेवि आविर्भविञ्चुटवलन मन्दर भ्रमण विलासम हॆूत्साह मिन्दि रानन्दावाप्तिकि हेतु वुगा वर्णिम्पँ बडिनदि. ता॥ मन्दराचलभ्रमण विलासोत्साहम्बुलुनु इन्दिरा नन्द समवा प्ति हेतुवुलुनु चन्दना गरुविलेपनालङ्कृत मुलु नगु सुन्दर बाहुस्वामि बाहुवुलु मऱिमऱि प्रका शिञ्चु चुन्नवि. गी॥ मन्दरा घूर्णन विलासमञ्जुलमुलु इन्दि रा नन्दसमवा पि. कन्दळमुलु. चन्दनागरुलि प्तमुल् सुन्दर भुज बाहुदण्डम्बु लतिलोक मोहनमुलु. श्लो॥ ज्याकिणाङ्क परिकर्म धर्मिणो भान्ति सुन्दरभुजस्य बाहवः पारिजात विटपायितर्धयः प्रार्थितार्थ परिदान दीक्षिताः ॥ प्रति ज्या, किण, अङ्क, परिकर्म, धर्मिणः P 52 विण्टिनारि
वलनिकाय यनॆडु गुर्ते अलङ्कार रूपमगु धर्ममुगाँ गलवियु, प्रार्थित, अर्थ, परिदान, दीक्षिताः (आश्रितजनुल चेत) प्रार्थिम्पँ बडिन, पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटयन्दु दीक्षु गलवियु, ’ (कनुक ने) पारिजात, विटपायिती, ऋद्धयः= पारिजातपुँ गॊम्मवण्टि समृद्धि गलवियु, अगु, सुन्दर भुजस्य= सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, बाहवः = भुजमुलु, भ्रान्ति = प्रकाशिञ्चु चुन्नवि. सुन्दरबाहु स्तवमु विशेषमुलु :– 101 ज्याकिण ज्याकिणाङ्क. . .. . .धर्मिणः मनँगा— धनुस्सु नॆक्कु पॆट्टि बाणमुनु सन्धिञ्चु समय मुन विण्टिनारि दॆब्ब चेत नेर्पडिन मुञ्जेति यन्दलि प्रणविशे षमु. “इदि महावीरुल भुजमुन कलङ्कारमु. ई यलं कारमु सुन्दर भुजस्वामिवारिभुजमु लन्निण्टिकिँ बेर्कॊनुट वलन नास्वामि सव्यसाचि यनि स्पष्टमगु चुन्नदि. ईवि शेष णमु स्वामिवारि शौर्यमुनु जाटुचुन्नदि. प्रार्थिता…… दीक्षिताः आश्रित जनुलकुँ जतुर्विध पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटलो दीक्ष वहिञ्चिन वनि भावमु. ई विशेषणमु स्वामिवारि याचार्यवि शेष स्फोरकमु. दीनिवलन शौर्या दार्यमुले भुजमुलकु शोभाजनकमु लनुट स्पष्टमगु चुन्नदि. ता॥ विण्टिनारिवलन नेर्पडिन कायले आभरणमुलुगाँ गलिगि, आश्रितुल यभीष्टमु लॊसङ्गुटकु दीक्षवहिञ्चि, पारिज तशाखासमानसमृद्धि चॆन्नारि श्री सुन्दर बाहु “त स्वामिवारि दिव्य बाहुवुलु मिक्किलि शोभिल्लुचुन्नवि. गी. ज्याकिणाङ्काढ्य वीरभूषल धरिञ्चि संश्रि तेष्टार्थदान दीर्घायुतमुलु । पारिजात द्रुविटपशोभावहमुलु सुन्दरुभुजार्गळम्मु लानन्ददमुलु. ॥ सागराम्बरतमाल कावन श्यामलर्धय उदारपीवराः F ( (14)102 सुन्दर बाहु स्तवमु शेषभोग परिभोग भागिन स्तन्नि भावनगिरीशितुर्भुजाः H 53 प्रति :- सागरा….. . . ऋद्धयः – सागर=समुद्रमु चीँकटि वलॆनु, अम्बर = आकाशमुव लॆनु, तमाल कानन म्राँकुल यडविव लॆनु, श्यामल नल्लनि, ऋद्धयः= शोभासमृद्धि गलवियु, उदार, पीवराः = दीर्घमु लै नवियु, बलिष्ठमु लै नवियुनु, शेषभोग, परिभोग, भागिनः = शेष शरीर रूपमगु शय्यासुखमु ननुभविञ्चुटयन्दु भागमु (पालु) गलवियु, तत् + निभाः आ शेषशरीरमुतो समा नमु लै नवियुनै, वन, गिरि, ईशितुः=वनाद्रि नाथुँडैन श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, भुजाः बाहुवुलु, (भ्रान्ति प्रकाशिञ्चु चुन्नवि.) विशेषमुलु :—— सागर…… ऋद्धयः — . भुजस्वामिवारि बाहुवुलकु सागरमुलु, श्री ་ श्री सुन्दर आकाशमु, तमाल काननमु- ई मूण्डिण्टि नुपमानमुलुगाँ जॆप्पुट चेत मिक्किलि श्यामल ताळो भासमृद्धिगल्गि युन्नवनि भावमु ई समासमुलोनि चिवरदि यगु ‘ऋद्धि’ पदमु शोभासमृद्धि परमु. सागरमुलु विविधवर्णमुलु गलवियैननु सामान्य मुगा दानिरङ्गु कविसमयमुन नैल्यमुगने वर्णिम्पँबडु ने चुन्नदि. आकाशमुगूड ‘नीलं सभः ’ इत्यादि प्रतीति चेत नल्लनिदिगाने कवुलव्यव हारमुलो गोचरिञ्चु चुन्नदि. तमाल कॊननमु नीलमे कदा! “उत्तंसाय तमाल पल्लव इति चिन्दन्ति यां गोपिकाः’ (कृष्णकर्णामृतमु) सुन्दर बाहु स्तवमु 103 ता॥ समुद्रमुव लॆनु, आकाशमुवलॆनु, चीँकटि म्राँकुल यडविव लॆनु, श्यामलशो भासमृद्धिगलिगि, पॊडवुलै कण्डपट्टि शेषशरीरमुनन्दु शय्यासुखानुभवमुलो भागमु गलवियै आकारमुन शेष शरीरमुनु बोलि वनाद्रिनाथुँ डगु श्री सुन्दरभुजस्वामिवारि बाहुवु लॆन्तयुँ ब्रका शिञ्चु चुन्नवि. उ. सागरमट्टु लम्बरमु चाय विशालतमालकानना भोगमुलील नीलरुग I पूर्वमु लायतपीनवृत्तमुल् भोगिकु लेन्द्र दिव्यतनु भोगमुनं गृतभागमुल् सदा योगि जनाभयप्रदमु लोमुत सुन्दर बाहु बाहुवुल्. श्लो॥ अहमहमिकाभाजो गोवर्धनोद्धृति नर्मणि प्रमथनविधा वभे र्लब्ध प्रबन्ध समक्रियाः । my- अभिमतबहूभावाः कान्ताभिरम्भणसम्भ्रमे वनगिरिपते र्भाहाः शुम्भन्ति सुन्दरदोर्हारे ॥ 8 नर्मणि=गोवर्धन 54 प्रति :- गोवर्धन, उद्धृति, नर्मणि = गोवर्धन पर्वतमु नॆत्तुट यनु लीलयन्दु, अहमहमिकाभाजः = नेनु मुन्दु, नेनु मुन्दु, अनुतॊन्दरनु पॊन्दिनवियु, अब्देशि समुद्रमुयॊक्क, प्रमथनविधा= चिलिकॆडु पनियन्दु, लब्द, 104 सुन्दर बाहु स्तवमु 1 = पॊन्दँबडिन यनु बन्धमुगल प्रबन्ध, सम, क्रियाः (तॆम्पुलेनि) समान व्यापारमुलु गलवियु, ‘कान्ता, अभि रम्भण, सम्भ्रमे भार्यनु गौँगिलिञ्चुकॊनु सम्बरमु कोर नन्दु (लेदा—त्वरलो) अभिमत, बहू भावाः बडिन बहुत्वमु गलवियु अगु, ननगिरिप तेः= वनाद्रिनाथुँ डैन, सुन्दरदोः सुन्दर बाहु वनॆडु, हरेः == मूर्ति यॊक्क, बाहाः = बाहुवुलु, शुम्भन्ति = प्रका शिञ्चु चुन्नवि. • विष्णु वि शेषमुलु :— अहमहमि का= अहम्पूर्व महं अहमहमिका=अहम्पूर्व. पूर्व मिति या प्रवृत्तिः सा, नेनु मुन्दऱ नेनु मुन्दऱ यनु प्रवृत्तिनि ‘अहमहमिक यन्दुरु, दानिनि ‘भौजः’=पॊन्दिनवि, अनि सुन्दर बाहुस्वामि बाहुवुलकु विशेषणमु. गोवर्धन पर्वतोद्धरण मनॆडु क्रीडयन्दु नेनु मुन्दऱ नेनु मुन्दऱ यनु तॊन्दरतोँ गूडिनवियु, श्री राब्धिनि मधिञ्चुटयन्दु ऎड तॆगनि समानव्यापारमुलु गलवि. मु, अप्पुडे पालसमुद्रमुलोँ बुट्टिन यिन्दिरा कां तनु गौँगिलिञ्चुकॊनु सम्बरम्बुन अभिलषिम्पँबडिन बहु त्वमुगलवियु, (कान्तनु कौँगिलिञ्चु कॊनुटकु नाल्गु बाहुवु लेमि चालँगलवु, इङ्कनु पॆक्कु बाहुवुलुण्डिन बागुण्डुननि स्वामिवारि यभिलाष यनि भावमु) अगु वनाद्रिनाथुँ डगु सुन्दर बाहुस्वामि यनु विष्णुमू यॊक्क बाहुवुलु मिक्किलि शोभिल्लुचुन्नवि. सुन्दर बाहु स्तनमु . म. वरगोवर्धन पर्वतोद्वहन भ व्यक्रीड ने मुन्दु, मुं दऱ ने नं चॆवि पोरुं, जिल्कु तऱि सं द्रं बॆव्वि बल् प्रॊद्दुपो करयं जालवु, कोरुँ बॆच्चु नॆवि भा र्यन् गौँगिटञ्जेर्चु सं बरमन्दुन् वन शैलवासिहरि त द्भाहुल् प्रभागेहमुल्. 11 105 55 श्लो॥ श्रीमद्वनाद्रि पतिपाणितलाब्जयुग्म मारूढयो र्विमलशङ्खरथाङ्गयोस्तु । एकोऒज्ज माश्रित इवो त्तमराजहंसः पद्मप्रियाऒर्क इव तत्समितो द्वितीयः ॥ प्रति : श्रीमत् , वनाद्रिपति, पाणितल, अब्ज, युग्मम् श्रीमन्तुडगु वनगिरि प्रभुवु यॊक्क, करतलमु लनॆडु, पद्ममुल जण्टनु, आरूढयोः=अधिष्ठिञ्चियुन्न, विमल, शङ्ख, रथाङ्ग योः = निर निर्मलमुलैन शङ्खचक्रमुललो, एकः, तु ऒक्कटियगु शङ्खमु, अब्जम् = पद्ममुनु, आश्रितः=आश्रयिञ्चिन, उत्तम, राजहंसः इव = श्रेष्टमगु राजहंसव लॆनु, तत्, सम्मितः = दानिवलॆने पद्ममुनु पॊन्दिन, द्वितीयः तु = रॆण्डवदि यगु चक्रमो, पद्म प्रियः= पद्ममुनन्दुँ ब्रेमगल, अर्कः इव = सूर्युनि वलॆ, (भाति = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.) विशेषमुलु : ईश्लोकमुन’ भाति’ अनुक्रियनु जेर्चुकॊनि यन्वयमु चॆप्पुकॊनवलॆनु. अलङ्कारमु अभूतोपम
- T
- 106
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ता॥ ननाद्रिनाथुँ डगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क करतलमु लनॆडु पद्ममुलजण्ट नधिष्ठिञ्चियुन्न निर्मलमु लगु शङ्खचक्रमुललो नॊक्कटियगु शङ्खमु पद्ममुपै नुन्न श्रेष्ठमगु राजहंसमु वलॆनु, अट्टि देयगु रॆण्ड वदियैन चक्रमु पद्ममुनन्दुँ ब्रेमगल सूर्युनिव लॆनु ब्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- उ. चक्कगँ गाननाद्रिगत
- शौरिक राब्जयुगाधिरूढमुल्
- मिक्किलि कान्तिपुञ्जमुल
- मिञ्चॆडि शङ्खरथाङ्गयुग्ममं
- दॊक्कटि पद्मसंश्रितमु
- नु त्तम हंसवरम्बुँ बोलु, वे तॊक्कटि पद्ममित्रुँ डयि
- यॊप्पु नभोमणिँ बोलि कालेडुन्.
- अवतारिक : ई श्लोकमुनन्दु श्री सुन्दर बाहुस्वामि
- वारि सर्वगुणो पेत मगु वक्षःस्थल सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु
- चुन्नारु.
- प्रति
- लक्ष्याः पदं कौस्तुभसंस्कृतं च श्रीवत्सभूमि र्विमलं विशालम् । विभाति वक्षो वनमाल याढ्यं वनाद्रिनाथस्य सुनुन्दिरस्य ॥
- लक्ष्याः = लक्ष्मी देविकि, पदम्
- 56
- निवासस्थान
- P
- मुनु, कौस्तुभ, संस्कृतं, च= कौस्तुभमणिचेत नलङ्क
- रिम्पँबडिनदियु, श्रीवत्स, भूमिः=श्रीवत्स मनॆडु पुट्टुमच्च
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 107
- कुँ दावैनदियु, वनमालया = वनमाल यनॆडु पूल दण्ड चेत, आढ्यम्=ऒप्पिनदियु, विमलम्=निर्मलमैनदियु, विशालम् = वॆडँद यैनदियु, अगु वनाद्रिनाथस्य = वनगिरि प्रभुवैन, सुसुन्दरस्य श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, वक्षः वक्षःस्थलमु, विभाति= मिक्किलि प्रकाशिञ्चुचुन्नदि. विशेषमुलु : इन्दु सुन्दर भुज स्वामि वक्षःस्थल
- भुजस्वामि मनन्यसाधारण चिह्नमुलगु लक्ष्मीकौस्तुभ श्रीवत्सवनमाल लचेत नतिविलक्षणलक्ष्मी सम्पन्न मनुटचेत भ क्तुल हृद यमु नाकर्षिञ्चि स्वायत्त मॊनर्पँ दगियुन्न दनि भावमु. ता॥ लक्ष्मीनिवासमुनु कौस्तुभालङ्कृतमुनु श्रीवत्स मनु पुट्टुमच्च कलदियु वनमालाशोभितमुनु निर्मलमुनु विशालमुनयि वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वक्षःस्थलमु मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- Ф
- सी. श्री राब्धिलो जनिञ्चिन सुन्दरिकि रमा लीलावतिकि नेदि केळिगृहमु
- 3
- राजिल्लु नेमन्दिरमुन शाणोलीढ
- घनरत्नदीपमै कौस्तुभम्बु
- ऎच्चोट सिङ्गार मिनुमडिञ्चॆडु वन
- माल यन्दालयूयेल वोलॆ ‘नादि यीता’ वनु श्री देविमुद्र ना
- श्रीवत्स मॆच्चोटँ जॆन्नु मीऱु
- गी. अतिविशालम्मु निर्मल मद्दमट्लु श्रीवनाद्रीशु नित्यलक्ष्मीयुतम्बु
- 108
- सुन्दरबाहु सनमु
- 2
- सुन्दरोरस्थलम्बुनु जूड वलयु नन्नँ गावलॆ नॊक वेयिकन्नु लैन. अवतारिक :_ ईश्लोकमुन श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि नाभि सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ सौन्दर्यामृतसारपूरपरिवा हावर्तगत्तायितं
- 57
- यातः किञ्च विधिञ्चिसम्भवन भूम्यम्भोज सुभूतिभूः । नाभिः शुम्भति कुम्भिकुम्भनिभ निर्भात स्तनस्वर्वनू सम्भु क्तद्रुमषण्ड शैलवसते रारूढलक्ष्म्याहरेः ॥ प्रति :- -
- कुम्भि….. वसतेः कुम्भि एन्गुलयॊक्क, कुम्भ = कुम्भस्थलमुलतो, निभ=समानमुलगु, निर्भात= मिक्किलि प्रकाशिम्पँ जेयँबडिन, स्तन = पालिण्ड्लु गल, स्वर्, वधू= देवकान्तल चेत, सम्भुक्त = चक्कगा ननुभविम्पँ बडिन, द्रुमषण्ड शैल = (वृक्ष समूहमुतोँ गूडिन कॊण्ड) वनगिरि, नसतेः = निवासमुगाँ गल, आरूढल आरूढल्म्य आरूढश्री अनु नामान्तरमु गल, हरेः = सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, सौन्दर्या गर्तयितम् सौन्दर्य = चक्कँदन मनॆडु, अमृतसार = अमृतवुँ देट यॊक्क, पूर प्रवाहमुयॊक्क परिवाह=पाय यॊक्क; (चिन्न प्रवाहमुयॊक्क) आवर्तग रायितम् सुडिगुण्डमुयॊक्क-, साम्यमुनु, यातः = पॊन्दिनदियु, किञ्च=मऱियु, विरिञ्चि, भूः विरिञ्चि - ब्रह्मयॊक्क, सम्भवन = पुट्टुककु, भूमि=स्थानमगु, अम्भोज पद्ममु नकु, सम्भूतिभूः
- उत्पत्ति स्थानमैन नाभिः बॊड्डु,
- शुम्भति= प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- विशेषमुलु :
- “शैल .
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 109
- स्वर्वधू सम्भु क्त द्रुमषण्ड
- सुर सुन्दरी मणुलकु सैतमु विहारयोग्य मी शैल मनुट चेति वनाद्रियॊक्क औन्नत्यमु भोग्यतीयु व्यक्तमु लगुचुन्नवि. ‘आरूढ लक्ष्म्याः’ इदि सुन्दर बाहु स्वामिवारिकि नामान्तरमु,
- ता॥ एनुँगुलु कुम्भस्थलमुलँ बोलु मॆऱुगु पालिण्ड्लु गल वेलुपु जवराण्ड्रकु भोग्यमगु वनाद्रियन्दु नित्य ‘निवास मॊनर्चुचु आरूढ श्री नामान्तरमुतो नॊप्पु श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि नाभि नालुगु मोमुल वेलुपुँ बॆद्दनु गन्न तम्मिपूवुनकुँ बुट्टिनिल्लॆ सौन्दर्या मृत सार पूरपु टलुगुनकु सुडिगुण्डमट्लु प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- शा॥ पालिण्ड्लन् मदकुम्भि कुम्भमुलतोँ
- बन्तालु गाविञ्चु मेल्
- वालुं जूपुल वेल्पु जव्वनुलकुन् ब्रापौ वनाद्रिस्थलिन्
- लोलुण्डौ हरिदिव्यनाभि विलसि ल्लुन् बद्मभूमूल प
- ‘द्मालम्बम्बु सुरूप कान्त्यमृत पू
- राव रं गरं बटुल्
- 15
- 110
- अवतारिक
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ई श्लोकमुन ग्रन्थकर्तगारु श्री स्वामि
- वारि नडुमुनँ गल सोयगमु ननुभविञ्चुचुन्नारु.
- सुन्दरस्य किल नुन्दर बाह्यो
- श्री महातरु पशाचल भर्तुः । हन्त यत्र निवसन्ति जगन्ति
- प्रापित श्रशिम त त्तनु मध्यम् ॥
- 58
- प्रति श्री महातकु, वनाचल, भर्तुः = शोभायुक्त मुनु महावृक्षमुलु गलदियु नगु वनगिरिकिँ ब्रभुवै नट्टियु, सुञ्चरस्य=अन्दगाँडै नट्टियु, सुन्दर बाहोः= सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, यत्र= ए मध्य भागमुनन्दु, जगन्ति=लोकमुलु, निवसन्ति=(प्रळयकालमुनन्दु) निव सिञ्चुचुन्नवो, तत् =अट्टि, तनुमध्यम्=दिव्यविग्रहमु यॊक्क मध्यभागमु, प्रापित, क्रशिम, किल= पॊन्दिम्पँबडिन कृशत्वमु गल दँट, हन्त= आश्चर्यमु !
- विशेषमुलु :- तत्त नुमध्यम्— इदि येकपदमुगाँ गूडँ जेसिकॊनवच्चुनु. आ सुन्दर बाहुस्वामि दिव्य विग्रहमुयॊक्क मध्यभागमु अनँगा उदर मनि भावमु. हन्त—— इदि याश्चर्यार्थकमगु अव्ययमु. आश्चर्य मेमनँगा- प्रळयकालमुन सकल लोकमुलु विशालमुगा निवसिञ्चिन भगनदुदरमु कृशिञ्चि पोवुट विन्त गदा!
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 111
- ता।॥ प्रळयकालमुनन्दु समस्त लोकमुलकु निवास भूतमगु श्रीमद्वनाद्रिनाथुँडैन यन्दगाँडगु सुन्दर बाहुस्वामि मध्य भाग मॆन्तयुँ गृशत्वमु नन्दुट विन्तगा नुन्नदि.
- (नडुमु सन्नमुगा नुण्डुट यन्दमु) गी॥ सलिलमयमैन यामहाप्रळयमन्दु
- जगमुलु विशालमुग निवासम्बु सलुपु
- नॆलवयिन श्रीवनाचल नेत मध्य
- मॆन्त कृशियिञ्चियुन्नदि! विन्त विन्त. अवतारिक ई श्लोकमुन श्रीस्वामिवारि “यूरु सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- प्रति
- श्लो॥ पिष्ट दुष्ट मधुकैटभ कीटा
- हस्ति हस्तयुगळाभसुवृत्ता ! राजतः क्रमकृशौ च सदूरू सुन्दरस्य वनभूधर भर्तु पिष्ट. … . . कीबा
- पिष्ट
- 59
- पॊडिचेयँबडि
- नट्टियु, दुष्ट = (वेचापहरणादुल चेत) दोषुलै नट्टियु,
- मधु, कै टभ, कीचा कैटभ,
- पुरुगुलवण्टि मधु कैटभुलु गल
- वियु, हस्ति, हस्त, युगळाभ, सुवृत्ता = एनुँगु तॊण्ड
- मुल जण्टवलॆँ ब्रकाशिञ्चुनवियु, मिक्किलि गुण्ड्र तनमु गलवियु, क्रमकृशौ
- **
- क्रममुगा (पै नुण्डिक्रिन्दिकि) कार्भ्य
- मुगलवियु अगु, वनभूधर भर्तुः = वनाद्रि नाथुँडगु,112
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- कीचा-
- सुन्दर स्य
- सुन्दर बाहु
- बाहु स्वामि यॊक्क, सत्, ऊरू=श्रेष्ठमुलगु तॊडलु, राजतः = प्रकाशिञ्चुचुन्नवि. वि शेषमुलु-—पिष्ट दुष्ट मधुकै टभ की टॆ- भगवानुँडगु नारायणुँडु वेदापहरण मॊनर्चिन क्षुद्रुलगु मधु कै टभुलनु तॊडलतोँ बॊडि पॊडि चेसॆनु. अनि पुराण प्रसिद्धि, ‘ऊरुद्वयेन निष्पष्य जघान भगवान् इति क्रम कृशा एनुँगु तॊण्डमुवलॆँ बै नुण्डि क्रिन्दिवऱकुँ गार्श्यमुनु बॊन्दिन ननि भावमु. इट्लुण्डुट सौन्दर्य
- सम्पादकमु.
- ता॥ वेदापहरणादु लॊनर्चि दोषुलैन पुरुगुल वण्टि मधुकै टबु लनॆडु राक्षसुलनु पॊडिपॊडि चेसिनवियु, एन्गु तॊण्डमुल वलॆँ ब्रकाशिञ्चु नवियु, गुण्ड्रनिवियु, क्रमकृशमुलै नवियु नगु श्री9 ननगिरि नाथुँडगु सुन्दर बाहु स्वामि वारि श्रेष्ठमुलगु तॊडलु मिक्किलि प्रका शिञ्चुचुन्नवि.
- उ॥ दुण्डगुलैन क्षुद्रुल म
- धुन्. मऱि कै टभु नॊक्कसारिगाँ
- बिण्डियॊनर्चॆ नॆव्वि, मऱ
- पिं चॆडु नन्दमुनन्दु नॆव्वियु
- द्दण्डकरीन्द्र हस्तमुलँ
- दादृशमुल् वनशैल सार्वभौ
- मुं डगु शौरियूरुवुलु
- मुज्जगमुन् भ्रमियिम्पँ जेसॆडुन्
- J
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 113
- अवतारिक :- ई श्लोकमुनन्दु श्री स्वामिवारि जानुद्वय लावण्यमु ननुभविञ्चुचुन्नारु.
- श्लो॥ यौवनवृष कुदो द्भेदनिभं नितरां
- प्रति
- भाति विभो रुभयं जानु शुभाकृतिकम् । सुन्दरभुजनाम्नो मन्दरमथिता भे श्चन्दनवन विलसत्कन्दर वृषभवि तेः ॥
- 60
- चन्दन……प
- .प तेः चन्दन =मञ्चिगन्धपुँ
- जॆट्ल यॊक्क, वन = अडवितो, विलसत् = प्रकाशिञ्चॆडु, कन्दर = गुहलुगल, वृषभप तेः वृष भाचलमुनकु स्वामियैनट्टियु, मन्दर, मथित, अब्धिः = मन्दर पर्वतमु चेतँ जिल्क_ँबडिन समुद्रमु गलट्टियु, सुन्दरभुजनाम्न :- सुन्दर बाहु वनॆडु पेरुगल, विभोः प्रभुवुयॊक्क यौवन,…..निभम् यौवन = जव्वन मनॆडु, वृष= ऎद्दुयॊक्क, ककुद मूपुर मुयॊक्क, उद्भेद= अङ्कु रमुतो ( मॊलकतो) निभम्= समानमैनट्टियु, शुभ+ आकृतिकम् = मङ्गळकरमगु आकारमु गलिगिनट्टियु, उभयं, जानु=मोकाळ्ळजण्ट, नित राम् = मिक्किलि, भाति= प्रका
- = शिञ्चुचुन्नदि.
- विशेषमुलु : यौवनवृष ककुदो द्भेदनिभम् ककुद मनँगा — वृषभमुयॊक्क पृष्ठ मध्य भागमुन नुण्डॆडु उन्न तावयवविशेषमु. तॆनुँगुन दीनिनि मूपुर मन्दुरु. `इन्दुलकु निघण्टुवु ‘प्राधान्ये राजलिङ्गे
- 114
- सुन्दर बाहु सनमु
- श्री
- च वृषाङ्गे ककुद्कोप्रियाम् ’ श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारि यन्दमुँजिल्कु मोकाळ्ळ जण्ट श्री स्वामिवारि यौवनवृषभमुनकुँ बॊटमरिञ्चिन मुद्दुलॊल्कु चुन्नदनि भावमु.
- मूपुरमु लॆ
- ता॥ चन्दनवनम्बुलतो नन्दमुलगु कन्दरमुलुगल वनाचलमुनकु नाथुँडै मन्दरम्बुतो समुद्रमुनु जिल्किन श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि
- जानुयुगळमु
- (मोँकाळ्ळजण्ट) (श्रीवारि सवन वृषभमुनकुँ बॊटम रिञ्चिन मूपुरमुवलॆ मिक्किलि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि.
- उ. गन्दपुम्राँकुलन् बॊलुचु
- कन्दरमुल् गल काननाद्रिकिं
- जॆन्दिन वेल्पु मन्दरमु
- चेँ गडलिन् मथियिञ्चु मेटिया
- सुन्दर बाहु चक्रधरु
- शोभन जानुयुगम्बु चॆल्व मे
- मन्दुँ ददीय यौवन वृ
- षाग्रणिमूपुर मट्लु राजिलुन्.
- अवतारिक :– ई श्लोकमुनन्दु वनाद्रिनाथुनि जङ्घा सौभाग्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ आधोमुखं न्य सपदारविन्दयो रुदञ्चितो दा तनु नाळ सन्नि भे ! विलङ्घ्य जङ्घे क्वनु रंहतो
- · दृशा वनाद्रिनाथस्य ससुन्दरस्य मे ।
- 61
- प्रति
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 115
- वनाद्रि, नाथस्य = वनगिरिकि स्वामियगु, सुसुन्दरस्य श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, अधो मुखम्=क्रिन्दिकि मॊगमु गलुगुनट्लु, व्यस्त, पदार विन्दयोः = उञ्चँबडिन पादपद्ममुलयॊक्क, उदञ्चित, उदात्त, सु, नाळ, सन्नि भे=गुण्ड्रनि निडुदलैन यन्दमु लगु काडलतो समानमुलगु, जङ्घे=पिक्कलनु, विलङ्घ्य = अतिक्रमिञ्चि, मे= नायॊक्क, दृशा = चूपुलु, क्व, नु = ऎक्कडिकि, रंहतः = वॆळ्लुनु ?
- विशेषमुलु :– ‘विलङ्घ्य जङ्घे क्वनु रंहतो दृशा’ सुन्दर बाहुस्वामिवारि जङ्घलु (पिक्कलु) अतिलोक सौन्दर्यमुगलवि गनुकँ दल्लावण्यानुभव प्रवृत्तमुलगु नाकन्नु लवयवान्तर शोभावलोकमुनकु वॆळ्ळँ जालकुन्न वनि पादमुनकुँ दात्पर्यमु. रंहतः - इच्चट रहि धातुवु गत्यर्थकमु.
- ता॥ वनाद्रिनाथुँडगु श्री सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क युद्धोमुखमुगा नुन्न यडुगुँ दामरल गुण्ड्रनि निडुपैन यन्दमुलगु तूण्ड्लनु बोलिन जङ्घलनु विडिचि पॆट्टि नाकन्नुलु मऱि यॆच्चटिकिँ बोवुनु? अन्दमुल मेर यगु ना पिक्कलनु जूचुचु नन्दे युण्डुननि भावमु,
- गी॥ क्रिन्दि मॊग मगु पादारविन्दयुगळि
- व रुलायत नाळमुल वलॆ वॆलुङ्गु वनगिरि वसिञ्चु सुन्दर बाहुमूरि जङ्घलनु वीडि नाकनुल् सागु नॆटकु ?
- 116
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- अवतारिक :— ई क्रिन्दि श्लोकपञ्चकमुतो श्रीस्वामिवारि पादपद्म सौन्दर्यादुल ननुभविञ्चु चुन्नारु.
- प्रति :-
- ॥ सुसुन्दर स्यास्य पदारविन्दे पादारविन्दाधिक सौकुमार्ये । आतोऒन्यथा ते बिभ्बयाल् कधन्नु तदासनं नाकु सहस्रपत्रम् ।
- "
- 62
- अस्य=ई, सुसुन्दर स्य = श्री सुन्दर बाहु स्वामियॊक्क, पदारविन्दे = पादपद्ममुलु, पाद, अरविन्द, अधिक, सौकुमा र्ये
- पादपीठमगु पद्ममुकण्टॆ मिक्किलि मार्दवमु गलवि, (भवतः = अगुचुन्नवि) अतः, अन्यथा= इट्लुकानि यॆडल, आसनं, नाम = पादपीठमुगा(आसनमुगा) प्रसिद्धि चॆन्दिन, तत् =आ, सहस्रपत्रम् कमलमु, ते= आपादपद्ममुलनु, कथम् ऎट्लु, बिभृयात्, नु=
- भरिञ्चुनु.
- विशेषमुलु : अतोऒन्यथा (चेत्) = पैनिँ जॆप्पिन दानिकि भिन्नमुगानैन यॆडल,
- नाम प्रसिद्धिनि सूचिञ्चु अव्ययमु. कथं बिभृया न्नु ऎट्लु धरिं चुनु. श्री स्वामिवारि पादपद्ममुलजण्ट अतिसुकुमारमु
- कानियॆडल नॊक पादपीठकमलमु
- धरिम्पँ जालदनि हृदयमु.
- रॆण्डु पादपद्ममुल
- ता॥ श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि पादारविन्दमुलु पादपीठकमलमुकण्टॆ नधिक सौकुमार्यमु गलवि. अट्लु
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 117
- कानिचोँ औदवीठमुगाँ ब्रसिद्धिगाञ्चिन कमलमु श्रीवारि पादपद्ममुलजण्ट नॆट्लु भरिञ्चँ गलदु?
- शा. श्री मत्सुन्दर बाहुमूर्ति पदरा जीव द्वयं बौर ! त
- त्स्वौमि श्रीपदपीठपद्ममुनकुन्
- दत्सौकुमार्यम्बुनन्
- वेमड्गुल् घन, मट्लु कानियॆडलन् विद्वांसुलारा ! यॆटुल् मोयं गलुगुन् वनाचल विभू
- प्रति :-
- द्यत्पादपद्मद्वयिन् .
- श्लो॥ सौन्दर्यमार्दव सुगन्धरसप्रवाहै रेते हि सुन्दर भुजस्य पदारविण्टे । आम्भोजडम्भ परिरम्भण मभ्यपै स्थां श द्वै पराजित मिमे शिरसा बिभर्ति
63 एते ई, सुन्दरभुजस्य = सुन्दर बाहु मूर्ति यॊक्क, पदारविञ्चे पदपद्ममुलु, सौन्दर्य, मार्दव, सुगन्ध, रसप्रवाहैः = अन्दमु चेतनु, सौकु मार्यमुचेतनु, सुगन्धमु चेतनु, मकरन्दरस प्रवाहमु चेतनु, अम्भोज, डम्भ, परिरम्भणम् पद्ममुयॊक्क प्रतिपक्ष तासाम्य प्रसङ्गमुनु, अभ्यजै ष्ठाम् = जयिञ्चिनवि. पराजितम् = ओडिपोयिन, तत् = आयासनमुगानुन्न पद्ममु, इमे=ईपादारविन्दमुलनु, शिरसा - तलतो, बिभक्ति = मोयुचुन्नदि, वै = सत्यमु. (16) वै= A + 118 विशेषमुलु सुन्धर बाहु स्तवमु
रसप्रवा हैः ’ ‘विष्णोः पदे परमे मध्य उत्सः’ अनु श्रुतिलोँ जॆप्पँबडिनट्लु मकरन्द प्रवाहमनि भावमु. ‘त द्वै पराजित मिमे शिरसा बिभुर्ति, नित्यनिरवद्य, निरतिशय सौन्दर्य, सौकुमार्य, सौगन्ध्य, मकरन्द प्रवाहमुलु गल श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि पादारविन्दमुल चेत नोडिम्पँ बडिनदै लौकिक मगु पद्ममु श्रीवारि पादपीठमुगा नवतरिञ्चि स्वामिवारि पादारविन्दमुलनु मोयुचुन्न दनि भावमु. कनुक ने ता॥ श्री सुन्दर भुजस्वामिवारि यी पादारविन्दमुलु सौन्दर्य, सौकुमार्य, सौगन्ध्य, मकरन्द प्रवाहमुल चेतँ बद्मातिशय प्रसङ्गमुनु जयिञ्चिनवि. पराजितमगु पद पद्ममु देवरवारि पादपीठमुगा नेर्पडि श्रीवारि पादपद्ममुलनु नेँटिकिनि दलतो मोयुचुन्नदि. उ. अन्दमु सौकुमार्यमु म हत्तर दिव्य परीमळम्बु मा रन्दझरम्बु गल्गि रुचि रं बयि यॊप्पॆडु काननाद्रिसं क्रन्दनु पादपङ्कजयु गम्बुन कोडि सरोरुहम्बु सुन्दरु ‘पादपद्ममुल ‘जोडु तलन् वहियिञ्चु नेँटिकिन् . श्लो॥ ए ते ते बत सुन्दराह्वयजुषः पादारविन्दे शुभे यन्नि रेज समुद्धि तत्रिपथगा प्रोतस्सु किञ्चित्किल सुन्दर बाहु स्तवमु ध त्ते सौ शिरसा ध्रुव सदपरं स्रोतो भवानीपति र्यस्यास्यालकनन्दि ‘चेति निजगु र्नामैन मन्वर्थकम् । 119 64 प्रति यत्, निर्णेज, समुत्थत, त्रिपथगा, प्रोतस्सु= ए देव देवुनि पादप्रक्षाळनमु चेत बयलु वॆडलिन गङ्गा प्रवाहमुलयन्दु, किञ्चित्, किल= ऒकटियगु, प्रोतः= प्रवाहमुनु, असौ=ई, ध्रुवः = ध्रुवुँडु (ज्योतिश्चक्र मुन काधारभूतमुगानुन्न युत्तान पादुनिकुमारुँडु) ध त्ते=धरिञ्चु चुन्नाँडो! तत्, अपरम् आध्रुवुँडु ताल्चुप्रवाहमुकण्टॆ नितरमगु, प्रोतः = प्रवाहमुनु, भवानीपतीः = पार्वतीपति यगु शिवुँडु, शिरसा तलतो.. धत्ते=धरिञ्चु चुन्नाँडो!, यस्य = ए, अस्य=ई शिव शिरोधृतमगु प्रवाहमुनकु, (पौराणिकाः = पुराण वेत्तलु) अलक नन्दिका, इति = अलकनन्दिक यनि, एनम् इट्लु, अन्वर्थ कम्=सार्थकमगु, नाम= पेरुनु, निजगुः = पलिकिरो, ते= अटुवण्टियु, सुन्दर, आह्वय, जुषः = सुन्दरुँ डनॆडु पेरुनु पॊन्दिन सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, ए ते ई पादारविं दे, = पादपद्ममुलु, शुभे (भवतः = अगुचुन्नवि) बत = आश्चर्यमु. विशेषमुलु :- असौ ध्रुवः — ज्योतिश्चक्रमुन काधारभूतुँडगु ध्रुवुँडु, ‘अलकनन्दि. केति निजगु रामैन मन्वर्थकम्’ अलकं नन्दयति, इति, अलकनन्दि शिवुँडु तलपै धरिञ्चिनप्पु डीपाय याम हेशुनलक्षल नानन्द पॆट्टुट चेत दीनिकि ‘अलकनन्दिक’ अनु पेरु सार्थकमनि भावमु. P
भोग्यमु लैनवि, सुन्दर बाहु स्तवमु 120 पते… ते. पादारविं दे त्रैलोक्यपावनि यगु गङ्ग नुत्पादिम्पँ जेयुट चेत अत्यन्त पावनमुलैन सुन्दर भुजस्वामि पादपद्ममुलु, बत आश्चर्यार्थकमगु नव्य यमु. इच्चट आश्चर्यमेमन पावनमुलगु स्वामि वारि पादाब्जमु ले भोग्यमुलुगा सैत मगुटये. ता॥ ए वेल्पु पादारविन्दमुलँ गडुगुटवलन नेर्पडि मूँडु पायलतोँ ब्रवहिञ्चु मिन्नेटि यॊक पायनु ज्योतिश्चक्रमुन काधारभूतुँडगु ध्रुवुँडु धरिञ्चॆनो ! मऱियॊक पाय नळिकनन्द यनु दानि पेरु सार्थकमगुनट्लु पार्वतीपति यगु शिवुँडु शिरस्सुनँ दाल्चॆनो ! अट्टि त्रिभुवनपावनि यगु गङ्गकुँ गारणभूतमुलगु नट्टि सुन्दर बाहुस्वामि पादारविन्दमुलु भोग्यमुलै यु रारु चुन्नवि. शा. ए पादम्बुलँ गड्ड नुप्पतिलु मी न्नेर््पयलन् मूँट नॊं डौपायन् धरियिञ्चॆ नाध्रुवुँडु वे तौपाय मूर्धम्बु पै पै नापादिञ्चुको नेन् शिवुं डळिकनं मीं दाभिख्य पॆम्पॊर, ना श्री प द्मेक्षणुपादपद्ममुलु चॆन् गा भोग्यमुल् न हॆू ! 1 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ आम्नाय कल्पलतिकोत सुगन्धि पुष्पं योगीन्द्रहार्द सरसीरुह राजहंसम् । उत्पक्वधर्म सहकारफलप्रकाण्डं वञ्चेय सुन्दरभुजस्य पदारविन्दम् ॥ 121 65 आम्नाय, कल्पलतिका, उर्ध, सुगन्धि, पुष्पम्= श्रुति यनॆडु कल्पलतयन्दुँ बॊडमिन सुवासन गल पूवुनु, (अनँगा-पूवुवण्टिदियु) योगीन्द्र, हार्ड्, सरसीरुह, राजहंसम्= योगीश्वरुल हृदयकमलमु नन्दु राजहंसमु वण्टिदियु, उत्पक्व धर्म, सहकार, फल, प्रकाण्डम् = परिपक्वमगु(पण्डिन) धर्ममनॆडु तिय्यमामिडि मेलिपण्डु वण्टिदियुनगु सुन्दर भुजस्य = सुन्दर भुज स्वामि यॊक्क, पदारविन्दम्=पादपद्ममुनु, वन्देय= नमस्क रिन्तुनु गाक (लेदा) स्तुतिन्तुनु गाक. विशेषमुलु : ई श्लोकमुनन्दुँ गवि सुन्दर बाहु
- स्वामिवारि पादार विन्दमु श्रुतिशिरः प्रतिपाद्यमु, योगि ध्येयमु, ध्यान फल मनि मात्रमे चॆप्पक श्रुतिकल्पलता पुष्पमुगानु, योगिहृत्पद्म राजहंसमु गानु, धर्म सहकारपक्व फल राजमु गानु आरोपिञ्चि चॆप्पुटवलन श्रुति शिरस्सुल कन्दुपाटुलोनि दनियु, योगिहृदयावासर सिक मनियुँ, बरम पुरुषार्थरूप मनियु स्तुतिकर्तयभि प्रायमैनट्लु तॆलियु चुन्नदि. (17)122 सुन्दर बाहु स्तवमु ता॥ श्रुतिकल्पलत यन्दुँ बॊडमिन सुगन्धि पुष्पमुनु, योगीन्द्र हृदयकमलमन्दु विहरिञ्चु राजहंसम्बुनु, धर्मसहकार तरुवुनकुँ बण्डिन मेलि फलम्बु नगु श्री सुन्दर बाहुमूरि पादारविन्दमुनु नमस्करिन्तुनु गाक. च॥ श्रुति यनु कल्पवल्लिँ बॊडँ जूपिन दिव्यसुगन्धिपुष्प मं चित निय मिन्द्रचित्त सर सीज विराजि मराळ राज मु न्नत परिपक्व धर्मशुभ नाम रसाल फलो तमम्बु सं श्रितजनकल्पमा वनगि रि प्रभुपादपयोज मॆन्नॆदन्.. श्लो॥ संसुन्दरस्यास्यतं वामनाकृते क्रमत्रयप्रार्थिनि मानसे किल 1 इमे पदे ताप दि हासहिष्णुनी विचश्रमाते त्रिजग तृडद्वये ॥ 66 प्रति :- पॊमन X आकृतेः = वामनाकारमुगल, अस्य=ई, सुसुन्दरस्य = सुन्दर बाहुस्वामिवारियॊक्क, मानसे, तं=मनस्सन्ननो, क्रम, त्रय, प्रार्थिनि=(बलिचक्र वर्ति यॊद्दनुण्डि) अडुगुल मूँटिनि प्रार्थिञ्चुनदि काँगा, ई, पदे= पादमुलु, ‘इह = ईभूमियन्दु, इमे सुन्दर बाहु स्तवमु 123 तानत् = अन्तमात्रपु नेलनु, (मूँडडुगुलनु) असहि ष्णुनी=सहिम्पनिवै, त्रिजगत् = मुज्जगमुनु, विक्रमद्वये = अडुगुल जण्टयं दे (रॆण्डडुगुलयं दे)विचक्रमाते किल =आक्रमिञ्चु कॊनिनवँट. विशेषमुलु :– ‘विचक्रमाते त्रिजगत् पदद्वये’ वामनावतारमुन श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि रॆण्डु पादमुले मूँडुलोकमुल नाक्रमिञ्चु कॊनिनवनि वर्णिञ्चुट वलन श्रीवारि पादमुलकुँ गल पादमुलकुँगल याश्रित संरक्षणत्वर यटुवण्टि दनि भावमु. ता॥ चामनाकारमुनु दाल्चिन श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि मनस्सु बलिचक्रवर्तिवलन मूँडडुगुल परिमिति गल भूमिनि ब्रार्थिम्पवलसि वच्चिनप्पुडु स्वामिवारि रॆण्डु पादमुलु भूमियन्दलि मूँडडुगुल नेलनु सहिम्पनिवै मुज्जगमुनु रॆण्डडुगुललोने याक्रमिञ्चुकॊनिन वँट. उ॥ वामनमूर्ति रूपमुन वर्तिलु सुन्दर बाहुडॆन्द मी भूमिनि ना कॊसङ्गु मॊक मूँडडुगुल् सल मञ्चु वेँडँगा स्वामि पदद्वयं बपुडु सैपक यब्बलि विस्मयम्बुतो ने मिदि ना निमुड्चुकॊनि यॆन् द्रिजगम्मु पदद्वयम्मुनन् . 124 सुन्दर बाहु स्तवमु अव तारिक :— ई श्लोकमुन श्रीकू रीशुलु श्री स्वामि वारि पादाङ्गुळी नख सौन्दर्यमु नास्वादिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ सौन्दर्यसारामृतसिन्धु वीचि . प्रति श्रेणीषु पादाङ्गुळि नामि कानु । न्यक्कृत्य चन्द्रश्रिय मात्म कान्त्या नखावळी शुम्भति सुन्दर स्य ॥ सुन्दर स्य दरस्य 67 सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क पाद, अङ्गुळि, नामिकासु = कालिव्रेळ्ळु, अनॆडु पेरुगल, सौन्दर्य. . .श्रेणीषु— सौन्दर्य सार= श्रेष्ठमगु सौन्दर्य म नॆडु, अमृतसिन्धु = अमृतसमुद्रमु यॊक्क, वीचि तरङ्गमुल यॊक्क, श्रेणीषु= पङ्क्तुलयन्दु, सख, आवळी = गोळ्ळ सङ्क्ति, आत्म, कान्त्या= तन कान्ति चेत, चन्द्रश्रियम् = चन्द्र (पङ्क्ति यॊक्क) शोभनु, व्यक्कृत्य द्रॊक्कि, शुम्भति ނ = emacko अणँगँ प्रकाशिञ्चु चुन्नदि, हि = प्रसिद्धमु. वि शेषमुलु :— ई श्लोकमुन स्वामिवारि पादाङ्गुळु लनु सौन्दर्यसारामृत सिन्धुतरङ्ग पङ्क्तुलनुगा निर पिञ्चुटवलन अन्दुँ ब्रतिफलिञ्चिन चन्द्रपङ्क्तिगा नखावळि युतेक्षिम्पँ बडिनदि. हि—— इदि प्रसिद्धि द्योतकमगु नव्ययमु. लोकमुलोँ ब्रतितरङ्गमुनन्दुनु चन्द्र बिम्बमु प्रतिफलिञ्चुट प्रसिद्धमे कदा! ता॥ श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि सौन्दर्यसार मनॆडु यॊक्क तरङ्गपङ्क्तुलवलॆ नुन्न कालि व्रेळ्ळ सुन्दर बाहु स्तवमु 125 यन्दलि गोळ्ळवरुस तमकान्ति चेतँ जन्द्रपङ्क्ति कान्तिनि क्रिन्दुपऱिचि प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. उ॥ सुन्दर बाहु देवु मॆयि सोयगपुञ्जिगि यस् सुधाब्धिँ गन् विं दगु नूर्मिपं क्तु लनि पिञ्चु पदाङ्गुळुलन् नखाळि पॊ ल्चॆं दमलोपलन् ब्रति फ लिञ्चॆडु चन्द्रपरम्प रेन्दिरन् क्रिन्दिकिँ द्रॊक्क निस्तुलतँ गेरुनटुल् रमणीय कान्ति चेस्. 1 68 श्लो ॥ यो जातक्रशिमा मली च शिरसा सम्भाविति श्शम्भुना
- यं यच्चरणाश्रयी शशधरो नूनं सखव्याजतः पूर्णत्वं विमलत्व मुज्ज्वलतया सार्धं बहुत्वं तथा यात स्तं तरुषण्डशैल निलयं वन्दाम हे सुन्दरम् ॥ प्रति :- शम्भुना= शिवुनि चेत, शिरसातल चेत, सम्भा वितः = गौरविम्पँबडिन, (धरिम्पँबडिन) यः= ऎवँडु (एचं = द्रुँडु) सञ्जात, क्रशिमा = पुट्टिन कार्म्यमु गलवाँडुनु (क्षयरोगमु गलवाँडुनु) मली, च = कळङ्कमु गल वाँडुनु, (अभूत् =आयॆनो) सः=अटुवण्टि, अयम्= ई, शशधरः = चन्द्रुँडु, नख, व्याजतः = गोऱुल नेपमु वलन, यत्, चरण, आश्रयी= ए देव देवुनि पादमुलयण्ड गलवाँ डगुचु, पूर्णत्वम् = निण्डुतनमुनु, विमलत्वम् = निर्मलत्वमुनु, तथा= अट्ले, उज्ज्वलतया, सार्थम् 126 सुन्दर बाहु स्तवमु प्रकाशाधिक्यमुतोँ बाटु, बहुत्वम् = दशविधशरीर मुलु गलिगियुण्डुटनु, नूनम् = निजमुगा, यातः = पॊन्दॆनो, तरु, षण्ड, शैल, निलयम् = ननगिरि निवासमुगाँगल, तम् = आ, सुन्दरम्= सुन्दर बाहु स्वामिनि, नन्दाम हे नमस्करिञ्चु चुन्नामु. — वि शेषमुलु : शशधरः कुं देटिनि धरिञ्चिनवाँडु— चन्द्रुँडु. बहुत्वम् सुन्दर बाहुस्वामिवारि पाद नखमुलु पदिण्टियन्दुनु चन्द्रुँडु प्रतिफलिञ्चुटचेत बहुत्वमुनु (दशविधशरीरत्वमुनु) पॊन्दि युन्नाँडनि भावमु. शिवुँडु चन्द्रुनि शिरसावहिञ्चि गौरविञ्चिननु आ चन्द्रुनि क्षीणत्वमुगानि, कळङ्कमुगानि पोयि युण्ड लेदु. आ चन्द्रुँडे कालिगोळ्ळयन्दुँ ब्र फलिञ्चुट यनु मिष चेत - श्री सुन्दर बाहु स्वामिवारि पादमुल नाश्रयिं पँगा वॆण्टने या चन्द्रुँडु परिपूर्णुँडु, निष्कळङ्कुँडु, प्रकाशाधिकुँडु, बहुत्वमु गलवाँडय्यॆनु. कनुक श्रेय स्कामुलकु सर्वशक्ति सम्पन्नुँडगु श्री सुन्दर बाहु स्वामिये याश्रयणीयुँडनि भावमु. नखव्याजमु चेत सुन्दर बाहुपादमुल नाश्रयिञ्चिन चन्द्रुँडे यिन्त श्रेयस्सुनु जॆन्दगाँ द्रिकरणशुद्धितो श्री स्वामिवारि पाद मुल यण्डँ जेरिनवारिमाट वेते चॆप्पवलयुना? ता॥ शिवुनिचेत शिरसा गौरविम्पँबडियु नेचन्द्रुँडु तन क्षीणत्वमुनु, कळङ्कमुनु बायलेदो ! या चन्द्रुँ सुन्दर बाहु स्तवमु 127 डिप्पुडु पादनखमुलन्दुँ ब्रति फलिञ्चुट यनु नॆपमु चेत ने देव देवुनि पादमुलु नाश्रयिञ्चि परिपूर्णतनु, निष्क इङ्कतनु, प्रकाशातिशयमुनु, बहुत्वमुनु पॊन्दॆनो वनगिरिनिवासि डुगु आ सुन्दर बाहुस्वामिनि रिन्तुमु. च शिवुँडु तलन् धरिञ्चिननु क्षीणत मच्चयुँ बाय कुण्डॆनो यॆवनिकिँ जन्दमाम यतँ डे परदै वमुगोळ्ळ सोकु कै तवमुनँ गालु वट्टि क नॆं दत्परिपूर्णत मच्च लेमि मेल् छवियु बहुत्वमुन् नतुलु स्वामिकि नावन शैलवासिकिन् . 3 ण श्लो॥ यस्याः कटाक्षण मनुक्षण मीश्वराणा मैश्वर्य हेतु रिति सार्वजनीन मेतत् श्री सेृति सुन्दरनिषेवण निराहु प्रति :- I नमस्क स्वां हि श्रिय श्रिय मुदाहु रुदार वाचः ॥ 69 ईश्वराणाम्= (ऐश्वर्यवन्तुलुगा ँ बेर्वडिन) इन्द्रादुलयॊक्क, ऐश्वर्य हेतुः वारिवारियधि कार सम्पदकुँ गारणमु, अनुक्षणम् =प्रतिक्षणमुनु, यस्याः = एतल्लियॊक्क, कटाक्ष णम्=क्रेगण्टिचूपु, इति, एतत् कटाक्षणम्
11 अनॆडि यीविषयमु, सार्वजनीनम् = सर्वजन प्रसिद्धमो, सर्वजनप्रसिद्धमो, 128 सुन्दरबाहु स्तवमु सुन्दर निषेवणतः = सुन्दर बाहुस्वामिवारि सेवनलन, सा=कटाक्षमात्रमु चेतने यिन्द्रादुलकु सैतमैश्वर्य प्रवात्रि यगु नातल्लि, श्रीः इति = श्री-अनि, निराहुः = निर्वचनमु चेसिरि, उदार, वाचः = गॊप्पवाक्कुलु गल वाल्मीकि यमुना चार्यादुलु, त्वाम् निन्नु, श्रियः = अट्टि श्री देविकि, श्रियम् = श्रीप्रदुनिगा (सम्पत्प्रदुनिगा) उदाहुः, हि= पॆद्दगाँ जॆप्पिरिगदा! ዋ
विशेषमुलु : ‘श्रीः इति, निराहुः’ श्री यनि निर्म चन मॊनर्चिरि. अनँगा श्री शब्दमुन किट्लु व्युत्पत्ति नि जॆप्पिरि. अनि भावमु. श्री स्सेति सुन्दरनि पे.वणतः ‘श्रि = सेवायाम्’ अनु सेवार्थकमगु धातुवुवलन नेर्प डिन श्रीशब्दमु कटाक्षमात्रमु चेत निन्द्रादुलु कट्टि मैश्व र्यमु ननुग्रहिञ्चु नैश्वर्यमु लक्ष्मीदेविकि श्री सुन्दर श्री बाहुस्वामिनि निरन्तरमु सेविञ्चुटवलनँ गलिगिनदनि हृदयमु. श्रय ते - इति - (श्रीः 18= श्री सुन्दर बाहु स्वामिनि सदा सेविञ्चुचुण्डु नदि यनि श्री शब्दमुनकु श्री निर्वचनमु. उदारवाचः — सर्वतत्वार्थप्रद स्वप्रबन्धाः, अनि व्याख्यलोँ गलदु. भगवद्वाल्मीकि यमुना चार्य प्रभृतुल प्रबन्धमुललो समस्त तत्वार्धमुलु गलवनि तात्पर्यमु. वीरिग्रन्थमुललो श्री देविकि सैतमु श्रीप्रदुँडु भगवानुँडे’यनु सूक्ति यॆक्कडँ गल दुन्नचो - सुन्दरबाहु स्तवमु 129 ‘श्रिय श्री श्च भवे द्य कीर्त्याः कीर्तिः श्रीमा क्षमा’ (श्री मद्रामायणम्) ‘कः श्रीश्री श्रियः परमसत्वसमाश्रयः कः ?’ (स्तोत्ररत्नम्) ता॥ ईश्वरुलुगाँ बेर्वडिन यिन्द्रादुल यधिकार सम्पद कनुक्षणमु नेतल्लि क्रेगण्टि चूपनुनदि सर्वजन सम्प्रतिपन्न मो सुन्दर बाहुस्वामिवारि निरन्तर सेववल न ने यातल्लिकि ‘श्री’ यनु नाम मन्वर्थ मनि चॆप्पुचुन्नारु. उदार वाक्कुलगु वाल्मीकि यामुनाचार्य प्रभृतु लो (श्री सुन्दर बाहुस्वामी ! निन्नु श्रीकि सैतमु श्री वनि ! गट्टिगा नुडिवियुन्नारु. इन्द्रादुलकु सैतमु सैतमु तन कटा श्रीमुचेत नतिशयमुनु गूर्चु लक्ष्मिकि श्री सुन्दर बाहु स्वामि यतिशयमुनु गलिगिञ्चुचुन्नाँ डनुटचे स्वामि वारि घनत वॆल्लडियगु चुन्नदि. शा॥ देवेन्द्रादुलकल्मि कन्तटिकि ने देवी कटाक्षुम्बै सं भाविम्पं बडॆ मुख्य हेतुवुग ना भव्यात्म श्रीसुन्दरुन् सेवल् सेयुट ‘श्री’ यनं बठँगॆ नी सिद्धान्तमुन् बूर्वमे धावुल् चाटिरि श्रीकि श्री वनुचु ग्रं थालन् निनुं दॆल्पुचुन्’. (18) 180 मुन्दर बाहु स्तवमु श्लो उन्याचित्व महामुतो त्तमगुणै पारण्य लावण्यक प्रायै कनु तभानगर्भ सततापूर्वप्रियै र्विभ मैः ! रूपाकार विभूतिभि श्च सदृशीं नित्यान पेतां श्रियं नीलां भूमि म ओदृशीं रमयिता नित्यं वनाद्रीश्वरः ॥ 70 तिभिश्च जिव्व. गुणैः दिव्य अप्राकृतमु -तरु. आचित्य = इट्टिवि, इन्त परिमाणमु गलवि यनि रामारावु शक्यमु गानिवियु, महाद्भुत = अत्याश्चर्य भानु चैनवियु, उत्तम= श्रेष्ठमु लैनवियु, अगु, =वरित्यादि, कयावात्सल्यादि, स्वरूपगुणमुल शास्य, लावण्यक, प्रायैः = यौवनमु _ लाव रामु इण्टि शारीरगुणमुल चेतनु, अद्भुत, भाव, गर्भ, सत्या, पियै? = आश्चर्यकरमु लगु अभिप्रायमुलु, गोलकलखियु नॆप्पटि कप्पुडु क्रॊत्त लनिपिञ्चुनवियुँ प्रियमु लैनवियुनगु, विभ्रमैः ‘विलासमुलचेतनु, ह. आ क, विभूतिभिः, छ = स्वरूपमु चेतनु, विग्रह * वेमु चेतनु, सम्पद चेतनु, सदृशीम् = तनकुँदगि नट्टिमु. विक, आन पेताम् = ऎन्नँडुनु ऎडँबायनट्टि नियु नगु, श्रियम्= लक्ष्मी देविनि, ईदृशीम्
इटुवण्टि डिमे आगु, नीळाम् = नीला देविनि, भूमिम्, अपि = भू देविनि गूड, वनाद्रिX ईश्वरः = वनाद्रिनाथुँ डगु श्रीसुन्दर “बाहुस्वामि, नित्यम्= ऎल्लप्पुडु, रमयिता = जेयुवाँडु, आनन्द पॆट्टुवाँडु अनि भावमु. (भवति= अगुचुन्नाँडु). = रमिम्पँ सुन्दर बाहु स्तवमु नि नेनमुलु :- लावण्य मनँगा 131 अवयवसमु निगलिन मनुभविञ्चु चुन्ननु भोग्यतानि यमुचेत ऎन्नडु सनुभविम्पँ बडनि वानिवलॆँ ग्रोलुगाँ गॊनँ बडुननि. विभूति सम्पद– Ja उभय विभूद्यश्वर्यमु. पकृतीषं ‘मिलशीलन या वृत्तां तुल्याभिजनलक्ष्मिणाकु राघवोति " . • तं चेय मनिशेटु’ अनि सीतारामुल पॆलँ जॆप्पिनट्लु सर्वप्रकारसादृश्यमुलतोँ गूडिनदि नि I Fa 1 I भावमु. LUGO कृष्ण जन्मनि अन्येषु बाविता गीतं विल्लो डिपासा ससायिनी’ अन्नट्टु तन्नडु नडिञ्चि यसि अनि आकामु. ‘त्रिं नीलां भूमि मिपीदृशीं रमयि नित्यं नाटि चा श्री मन्दु बाहुस्वामि श्री भूनीललनु तो मॆलि पॆट्लु चुन्नाँ डनुटवलन श्रीस्वामिवारि पादा निण्डमुलनु शरणुच"च्चु वारिकिँ बुगुमार सान्निध्यमु समृद्धिगा गलदनि सूचिम्पँ बडिनदि. ता॥ अप्राकृतमुलुनु कट्टिवि यतिपरम रामु गिल यनि चिन्तिम्प नलवि कानिवियुँ गनुनि नी निश्छर्यमनु गलिगिञ्चुनिवियु नु ग्रामम्मुट्टि नमु sh भावानिलन 2 S 4 “तारु- ज्यमु राविण्यमु मुन्नाडु विक्रमारुमुल चेतनु अद्कृति भ वगर्भितमुलुनु अनुभविञ्चि लँटि सत्यनूत- . 132 सुन्दर बाहु स्तवमु. समु लनिपिञ्चॆनु कोरँदगिन विलासमुल चेतनु, सौन्दर्यमु चेतनु, आकृतिवि शेषमु चेतनु, उभयविभू व्यश्वर्यमु चेतनु तन कॆन्तयुँ दगिन श्री देविनि अट्टिवारे यस भू देविनि नीला देविनि श्रीवनाद्रिनागुँ डगु सुन्दर बाहु स्वामि नित्यमु रमिम्पँ जेयुनु. शा॥ औरा ! दिन्यमु लद्भुतम्बुलु सचिं त्यम्बुल् शुभम्बुल् महॆरा दारम्बुल् सहजम्बुलौ गुणमुलन् TA दारुण्यलावण्य वि स्तारश्री स्पृहणीयनूतन विला सस्फूर्ति ँ दुल्यात्मलन् र्ति.ँ श्रीश्रीश्रीश्री रामन् महिनीललस् दनि पॆडुस् (श्री सुन्दरुं डॆप्पुडुन् . ‘अवतारिक :— अत्यन्ताप साधुलनैननु क्षमिम्पनगु शनि लक्ष्मी देवि नुडिविनचो भगवानुँ डामाट नादरिञ्चु ननु नभिप्रायमु नी श्लोकमुन ननुसन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ अन्योन्यचेष्टित निरीक्षण हार्दभाव प्रेमानुभाव मधुर प्रणय प्रभवः । आजस्रनव्यतर दिव्यर सानुभूतिः स्वां प्रेयसीं रमयिता वनशैलनाथः !! 71 प्रति : - अन्योन्य. .प्रभावः – अन्योन्य = पर स्परमु, चेष्टित=बॊममुडि, चिऱुनव्वु मॊदलगु विलास ( सुन्दर बाहु स्तवमु व्यापारमुल चेतनु, निरीक्षण हार्द = हृदयमुलोनि, भाव 133 क्रेगण्टिचूपु चेतनु, अभिप्रायमु चेतनु { कारुण्य, लावण्यादुलनु तलपोयुट चेतनु) प्रेमानु भाव = प्रेमातिशयमुचेतनु, मधुर स्वादुतरमैन, (तेनॆवलॆ ननुभविम्पँदगिन) प्रणय प्रभावः अनुरागाति शीयमुगल, वन शैलनाथः वनगिरिप्रभुवगु श्री सुन्दर भुजस्वामि, आजस्र, नव्यतर, दिव्यरस, अनुभूतिः ऎल्लप्पुडुनु अपूर्वमगु अप्राकृतानन्दमुल यॊक्क अनुभवमु कलवाँडु (स्रन् अगुचु) स्वाम्=स्वकीय यगु, प्रेयसीम् प्रियुरालिनि, रमयिता = सन्तोष पॆट्टुवाँडु, भवति= अगुचुन्नाँडु. ई विषयमुन वि शेषमुलु :-.. ..प्रेमानुभाव=प्रेमातिशयमु- अनँगा, आलिङ्गन कालमन्दु सैतमु सौकुमार्य परा मर्शमु, प्रणयानि राधमुल लॆक्क चेयकुण्डुट, प्रेमां ध्यमु. ‘स्वां प्रेयसीं गमयिता’ “राम स्तु सीतया सार्थं विजहार बहून् ऋतून् मनस्वी तद्गत स्तस्यां नित्यं हृदि समर्पितः, प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इतिगुणात् रूपगुणा च्चापि प्रीति र्भूय्कोप्यवर्धत, तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्त ते । अन्तर्जात मपि व्यक्त माख्याति हृदयं हृदा’ इत्यादि श्रीमद्रामायण श्लोकमुलु प्रमाण मुलुगा ननुसन्धेयमुलु. 134 सुन्दर बाहु स्तवमु ता॥ परस्परमुयॊक्क भूभङ्गमन्द हासादिविलास व्यापारमुल चेतनु, क्रेगण्टिचूपुल चेतनु, तारुण्य लावण्यादुल तलपोँतल चेतनु, प्रेमातिशयमु चेतनु, तेनॆवलॆँ ग्रोलँदगिन यनुरागातिशयमु गल श्रीवनाद्रि नाथुँडु ऎप्पटि कप्पु डपूर्वमुगा नॊप्पुअप्राकृता नन्दानुभवमु गलवाँडै तन प्रियुरालिनि रमिम्पँ जेयुनु. रस्य म चिऱुनव्वुल् कडगण्टि चूपुलु वय प्रती श्री मिञ्चुलावण्य वि स्फुरणम्बुल् दलपोसिकॊण्ट सरसं पुञ्जिन्निक य्यम्बुलन् बरिकम्भम्बुल नॊच्चुकोनिग तुलुन् सिरि नाता भासिल्लु प्रेमोन्नतिन् नात्माङ्गनँ जॊक्कँ जेयु हरिया श्रीसुन्दरुं डॆप्पडुन्. सुन्दरस्य वनशैलवासिनो भोग मेप निजभोग माछजन् । शेष एष इति शेषताकृते प्रीतिमा नहिपति स्स्वनामनि 72 वन शैलवासिनः =वनगिरिनिवासि यगु, सुन्द श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि, भोगम्, एव = भोगसाधनमे यगु, निज, भोगम् = तन शरीरमुनु, आभ सुन्दं बहु स्तवमु 135 जन् = पॊन्दुडु, अवि पतिः = सर्पराजु, शेषता, आकृतेः = शेष त्वाकारमुनलन, एषः = इतँडु, शेषः = श्रीहरिकि शेषभूतुँडु, (आदि शेषुँ डनि अर्धान्तरमु) इति= अनि, स्वनामनि=तन “पेरुनन्दु, प्रीतिमान् प्रीति गलवाँडु, (भवति = अगुचुन्नाँडु). विशेषमुलु : भोग मेव निजभोग माभजन्’ भोग कार्यमुनन्दु कारणत्वोपचारमु मेव अनु चोट Ф चेत भोग कारणमनि यर्दमु चॆप्पुकॊनवलॆनु. लेदा भोग शब्दमु ’ सुखप र्यायमु गान सुखकरमनि यर्दमु गूड सङ्गतमगुनु. मॊति मुमीँद नीपादमुनकु सुन्दरबाहु Ф स्वामिकि सुखशय्य भूतनिजशरीरुँ डनि पिण्डि तारमु. 8-4 पादमुल भाव मे मनँगा - अहिपति (सर्पराजु) तनभोगमु (शरीरमु) श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि भोग कर मगुटवलन ई विधमुगा शेषत्वमु सिद्धिञ्चुट चेत सार्थकमगु शेषुँडनु नाममुनन्दुँ बरमपुरुषार्थबुद्धि गलवाँ डायॆननि भावमु. ‘परग तातिशयाधा नेच्छयो पादयत्वमेव यस्य स्वरूपं स शेषः परः शेषा. अनि शेष शेषि भावमु नॆऱुङ्ग’ वलॆनु. ता॥ वनगिरिनिवासि यगु सुन्दर बाहुस्वामिवारि भोग साधनमुनुगाँ दनभोगमुनु (शरीरमुनु) धरिञ्चुचु सर्प राजु शेष शेष त्वाकारमु (दास्यस्वरूपमु) सिद्धिञ्चुटवलन . 136 सुण्डरबाहु स्तवमु ‘इतँडु शेषुँ’डनि यॆल्लरु ननुकॊ नेडु तननाममुन नॆन्तयुँ ब्रीतिगलवाँ डायॆनु. च पनगिरिवासि यैन सुर प्रति वन्द्युँडु सुन्दर बाहुमू रिकिन् वनदुशरीर मॆन्तियु नु दात्तसुकोमलचारु शय्यगा दनरुचु शेष ताकृतिनि दाल्चुट नीतँडु शेषुँ डं चनन् मनमुनँ बॊङ्गिपोवु सहे मण्डनुँ डायभिधान मूनँगन्. श्लो॥ वाहवासन वितान चामरा रेव द्याकृतिः खगपति स्त्रयीमयः । नित्यदास्यरति यस्य नै ह्येष सुन्दरभुजो वनाद्रिगः ॥ 73 :– वाहन, आसन, वितान, चामर, आदि, आकृतिः = वाहनमु, आसनमु, चान्दिनि (मेलुकट्टु) विञ्जामर मुलु, मॊदलुगाँ गलवानि यॊक्क याकारमुवण्टि याकारमुगलवाँ डगु, त्रयीमयः वेदस्वरूपुँ डैन, खगपतिः=पक्षुलकु राजगु गरुत्मन्तुँडु, यस्य ए सुन्दर भुजस्वामियॊक्क, नित्यदास्य, रतिः, एन=नित्यमु कैङ्कर्यमुनन्दु आसक्ति गलवाँडे, (अनि) नै=प्रसिद्धमो, एषः=ई सुन्दर बाहुस्वामि, वनाद्रिगः, हि=वनाद्रि यं दुण्डुवाँडे गदा ! विशेषमुलु : सुन्दर बाहु स्तवमु 137 वाहनासन… आकृतिः ‘दास स्सखा . वाहन मासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयी मयः’ अनि स्तोत्ररत्नमुनँ जॆप्पिनट्लु वाहनाद्या कारमु गलवाँडनि भावमु. त्रयीमयः- ‘वेदात्मा विह गेश्वरः ’ अनि प्रमाणमु. हि - वेदस्वरूपुँडगु गरुत्मन्तुनिचे निरन्तरमु सेविम्पँबडु पादार विन्दमुलु गल सुन्दर बाहुस्वामि अन्दऱकु सुलभुँडुगा नुण्डुटकै वन शैलमुन वेञ्चेसियुन्नाँडनि प्रसिद्धार्थकमगु ‘हि’ अनु अव्ययमुनकुँ दात्पर्यमु. ता॥ वाहनमु, आसनमु, मेल्कट्टु, विञ्जामरमुलु ‘मॊदलगु वानि या कारमुलँ दाल्चि वेदस्वरूपुँडगु गरुत्मन्तुँ डे सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क नित्यकैङ्कर्य निरतुँडै युण्डुनो यास्वामि यन्दऱकु सन्दु बाटुन कै वनगिरियन्दु वेञ्चेसि युन्नाँडु. ऎन्त भ क्तसुलभुँडु ! च. ऒक परि वाहनम्बु, मऱि यॊक्क पुडासनमुन्, वितान मिं कॊकतऱिँ, जामरम्बु मऱि यॊक्कपु, डौचुँ द्रयीमयुण्डु प क्षिकुलविभुण्डु नित्यमुनु सेव यॊनर्पँग नॊप्पु देवता मकुटमु काननाचलमु मन्किग नुण्डुट, भाग्य मॆन्तयुन्. (19) 138 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ वनाद्रिनाथस्य सुसुन्दरस्य वै प्रभु क्तशिष्टा श्यध सैन्यसत्पतिः । समस्तलो कैक धुरन्धरः सदा कटाक्ष वीड्योऒस्य च सर्वकर्मनु ॥ 74 मिक्किलि प्रति :- अथ अनन्तरमु, सुसुन्दरस्य अन्दगाँडगु, वनाद्रि, नाथस्य वनगिरिप्रभुवगु, सुन्दर बाहुस्वामि यॊक्क, प्रभुक्त, शिष्ट, अशी = भुजिञ्चि विडिचि पॆट्टिन शेषमुनु भुजिञ्चुनट्टियु, सर्वकर्मसु=सकलजगत् सृष्ट्यादि व्यापारमुलन्दु, अस्य= ईवनाद्रि नाथुनकु, कटाक्षवीक्ष्यः क्रीँगण्टिचूपु चेँ जूडँदगिन वाँडुनु, अगु, सैन्य, सत्, पतिः = योग्युँडगु सेनाधिपति, सदा= = ऎल्लप्पुडु, समस्त लोक, एक, धुरन्धरः= उभयविभूतुल मुख्यकैङ्कर्य निर्वाहकुँडु, वै= प्रसिद्धमु. a त वि शेषमुलु :- प्रभु क्तशिष्टाशी— ‘त्वदीय भुक्तोष्ठी शेषभोजिने’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु भगवदनुभूत शेषमु ने अनुभविञ्चुवाँ डनि भावमु. ‘कटाक्ष वीक्ष्यः’ - ‘सेना पतिना निवेदितं, तथा2 नुङानन्त मुदारवीक्षणैः’ अन्नट्लु इङ्गितपात्रुँ डनि तात्पर्यमु. सैन्यसत्पतिः- इतर सेनापतु लुन्ननु इतँडे यन्दऱिलोनु श्रेष्ठुँडनि याळ यमु, वै = प्रसिद्धमु, ऎवनिश्रेष्ठुँडगु सेनाधिपतिये सर्वनिर्वाहकुँडो ! आ प्रभुवे यन्दऱकु सुलभुँडनि हृदयमु. सुन्दर बाहु स्तवमु 139 ता॥ मिक्किलि अन्दगाँ डगु वनाद्रिनाथुँडैन सुन्दर भुजस्वामिवारि भुक्त शेषमु नारगिञ्चुवाँडुनु, सृष्ट्यादि सकलव्यापारमुलन्दुनु श्री स्वामिवारिकिँ गटाक्ष वीक्ष णीयुँडै यिङ्गितानुसारमु मॆलँगुवाँडुनु सेनाधिपतु ललो मुख्युँडैन विष्वक्सेनुँडु ऎल्लप्पुडु नुभयविभूतु ललो मुख्यकैङ्कर्य निर्वाहकुँडनु प्रसिद्धिनि वहिञ्चॆनु. ता नॊनर्चुपनुल नन्निण्टिनि सेनाधिपतिये चूचुकॊनिपोवु चुन्नप्पु डा प्रभुवु मिक्किलि विश्रान्ति गलवाँडै भक्तुलकु सुलभुँडुगा नुण्डुननि सारमु. उ॥ सुन्दरमू रितोँ दनरु प्रति चुन् वन शैलमु नेलु देवता वन्दित पादपद्मुँ डगु वारिजलोचनु भुक्त शेषमे विन्दुगँ दज्जगत्सृजन विश्रुतकृत्यमुलन्दुँ दत्कटा तेषेन्दिर स्वागतम्बुँ गॊनु नीप्रभु सै न्यविभुण्डु सेवलन्. श्लो ॥ छत्रचामरमुखाः परिच्छदाः मारयः परिजनाश्च नैत्यगाः । सुन्दरोरुभुज मिन्ध ते सदा ज्ञानशक्ति मुखनित्य सद्गुणाः !!
75 नैत्यगाः नित्यकैङ्कर्यमु नॊनर्चॆडु, सूरयः=ज्ञानुलैन, (शेष हृदयमु नॆऱिङ्गिन) परिजनाः 140 सुन्दर बाहु स्तवमु अनन्तगरुडादि सेवकुलु, छत्र, चामर, मुखाः- छत्रमु (गॊडुगु) विञ्जामरलु मुन्नु गाँगल, परिच्छदाः, च= परिकरमुलुनु, ज्ञान, शक्ति, मुख, नित्य, सत्, गुणाः= ज्ञानमु,श क्ति, मुन्नु गाँगल स्वाभाविक कल्याणगुणमुलुनु, सदा= ऎल्लप्पुडु, सुन्दर, उरु, भुजम् = सुन्दर बाहु स्वामिनि, (प्राप्य= पॊन्दि) इन्धते = प्रकाशिञ्चुचुन्नवि. वि शेषमुलु :- नैत्यगाः — नित्यम्भवम् = नैत्यं, अनँगा नित्यकैङ्कर्य मनि भावमु. तत् गच्छन्ति, इति, नैत्यगाः = नित्यकैङ्कर्यमुनु पॊन्दिनवारु. (शेषगरुडा दुलु) इन्धते = प्रकाशिम्पँ जेयुचुन्नवि, अनु अरमु चॆप्पुटकु वीलुगादु. णिजन्तमु (प्रेरणार्थकमु) कादुगनुक- मऱियु ‘गुणजं गुणिनो हि मङ्गळत्वम् ’ इत्यादिसूक्तु लकु विरोधमुगूड वच्चुनु. कान ‘प्राप्य’ अनुल्यबन्तमु नध्याहार मॊनर्चुकॊनि श्लोक मन्वयिञ्चवलॆनु. ता॥ नित्यकैङ्कर्यनिष्ठुलगु अनन्तगरुडादि नित्यसूरु लगु परिजनुलुनु, छत्रचामर प्रभृतु लगु परिकरम्बुलुनु, ज्ञानश क्ति मुख्यमु लगु कल्याणगुणमुलुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि यण्डचेत सर सर्वदा प्रकाशिञ्चु चुन्नवि. गी॥ नित्यकैङ्कर्यनिरतुलै नॆगडु सूरि गी वरुलु, धवळातपत्र चामर मुखमुलु ज्ञानश क्ति प्रभृत्युरु सद्गुणमुलु श्रीवनाद्रीशुँ जेरि राजिलु सतम्बु. प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ द्वार नाथ गणनाध तल्लजाः पारिषद्य पदभागिन स्तथा । मामका श्च गुरवः पुरातनाः सुन्दरं वनमहीध्रगं श्रिताः ॥
141 76 द्वारनाथ, गणनाथ, तल्लजाः = श्रेष्ठुलगु चण्डप्रचण्डादि द्वार पालुरु, कुमुद, कुमुदादि गण पालुरु, अनु पारिषद्य, पद, भागिनः आस्थानोद्योगु ल नॆडु शब्दमुनु बॊन्दिनवारुनु, तथा=अट्ले, पुरातनाः - प्राचीनुलगु, मामकाः = नासम्बन्धुलैन, गुरवः, च = गुरुवुलुनु (पराङ्कुश, परकाल यति वरादुलुनु) वन, महीध्रगम् = वनगिरियन्दु वेञ्चेसियुन्न, सुन्दरम्= सुन्दर भुजस्वामिनि, श्रिताः = आश्रयिञ्चिरि. x= विशेषमुलु : - ‘द्वारनाथ गणनाथ तल्लजाः’ इन्दलि श्रेष्ठवाचक मगु तल्लज शब्दमुनु द्वारनाथ, गणनाथपदमु लतोँ ब्रत्येक मन्वयिञ्चुकॊनवलॆनु. अन्दुवलन- श्रेष्ठु लगु चण्डप्रचण्डादि द्वार पालकुलु, श्रेष्ठुलगु कुमुद, कुमुदा दिगण पालकुलु- अनि यर्ल मेर्पडुनु. ‘सुन्दरं वन महीध्रगं श्रिताः’ द्वारा पालुरु गणपालुरु, आस्था मा नोद्योगि प्रमुखुलु मा पूर्वाचार्यवर्युलुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामिने निरन्तरमु सेविञ्चु चुन्नारनि भावमु. Ф ता॥ श्रेष्ठुलगु चण्डप्रचण्डादि द्वार पालकुलु, कुमुद कुमुदादि गणपालुरु, आस्थानमुख्युलु, मा पूर्वा मा142 सुन्दर बाहु स्तवमु श्री चार्यवर्युलु, वनशैलमुन वेञ्चेसियुन्न श्री सुन्दर बाहुस्वामिने निरन्तरमु आश्रयिञ्चि सेविञ्चु चुन्नारु. म. अलचण्डुण्डु प्रचण्डुँडादि यगुद्वाराधीशुलुन् सद्गुणा दुल मे लौकुमुदप्रधानगणनाथुल् पारिषद्याग्रग ण्युलु, प्राचीन मदीय देशिकव रेण्युल्, श्रीवनाद्रीश्वरुन् जलजा ताकुसमाश्रयिञ्चिरिरमासम्भावितुन् सुन्दरुन्. प्रति : श्लो॥ ईदृशैः परिजनैः परिच्छदै र्नित्यसिद्ध निजभोग भूमिगः । सुन्दरो वनगिरे स्तटीषु पै रज्य ते सकलदृष्टिगोचरः U 77 ईदृशैः = इटुवण्टि, परिजनैः = अनन्तगरु डादि परिजनुलतोनु, परिच्छदैः = छत्रचामरादि परिकरमु लतोनु, नित्यसिद्ध, निज, भोगभूमिगः = ऎल्लप्पु डॊके विधमुगा नुण्डु सहजमगु (तनकु मात्र परिमितमैन) नित्य विभूतिनि पॊन्दिन वैकुण्ठनाथुँडु, सकल, दृष्टि, गोचरः ऎल्ल वारिकनुलकु गोचरिञ्चुचु, सुन्दरः (सस्) = सुन्दर बाहु मूर्ति यगुचु, वनगि रेः = वन शैलमुयॊक्क, तटीषु= चरियलयन्दु, रज्यते = अनुरक्तुँडगु चुन्नाँडु, वै= प्रसिद्धमु. विशेषमुलु :- to E नित्यसिद्धनिजभोगभूमिगः— ॥ वैङ्कुण्टे तु परे लोके श्रिया सार्धं जगत्पतिः आस्ते विष्णु रचिन्त्यात्मा भक्ति र्भागवतै स्सह ॥ सुन्दर बाहु स्तवमु 143 ता॥ परमपद मगु वैकुण्ठमुनन्दु जगदीश्वरुँडुनु अचिन्त्य स्वरूपुँडुनगु श्री मन्नारायणमूर्ति लक्ष्मी समेतुँडै भक्तुलतो भागवतुलतो नुण्डुनु- अन्नट्लु दिव्यविभूतिलो वेञ्चेसियुन्न श्री वैकुण्ठनाथुँडु. नित्य निरवद्यनित्य सूरिपरिवृत परमपदनिलयुँ डनि निष्कृ प्रार्थमु. 1. न चक्षुषा पश्यति कश्च नैनम् 2. न न मांस चकु रभिवीक्ष, ते तम् 3. द्रष्टव्यः श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासित व्यः अन्नट्लु दुर्लभदर्शनुँडै ननु अव्याजकरुण चेत वनगिरि प्रान्तमुन सकल जन नेत्रगोचरुँ डगुट सुन्दर बाहुस्वामि सौलभ्यमुनु चाटुचुन्नदि. ता इट्टि भागवतो त्तमुलगु शेष गरुडादुलतोनु, इटु वण्टि छत्रचामरादुलतोनु गूडि शश्व देक प्र कारमुगा नुण्डु नित्यविभूतिलो महानन्द मनुभविञ्चु वैकुण्ठ नाथुँडु सकलजनदृग्गोचरुँडै सुन्दर बाहुमू वनगिरि सानुवुल ननुर क्तुँडै विहरिञ्चु चुन्नाँडु. ऎन्त भ क्त सुलभुँडु ! उ. इट्टि विशिष्ट भागवतु लीदृश दिव्यपरिच्छदम्बु म्बु लु न्नट्टि स्वदिव्यलोकमुन नङ्गनतो सुखया सुपर्वस म्राट्टु वनाद्रिभूपरिसरम्बुन सुन्दरुँडै चरिञ्चुचुन् बुट्टुवुधन्यमुन् सलुपुँबो! प्रजकुङ्ग नुविन्दॊनर्चुचुन्. 144 सुन्दर बाहु स्तवमु अवतारिक : वरमपदमुनं दप्राकृत दिव्यभोगर सिकु रसिकु नकु, वनाद्रिनिवासमु वैरस्यमुनु कलिगिम्पदा? अनु शङ्क नी शोकमुनँ बरिहरिञ्चु चुन्नारु. ♡ श्लो!! आक्रीडभूमिषु सुगन्धिषु पौष्पिकीषु वैकुण्ठधामनि समृद्धनु वापी कासु ! श्रीमल्लतागृहवतीषु यथा त शैव लक्ष्मीधरः सजति सिंहगिरे स्तटीषु ॥ 78 शोभ प्रति-—— वैकुण्ठधामनि = वै कुण्ठलोकमुनन्दु, समृद्ध सुवापि कासु= (अमृतमुवण्टि नीटितो निण्डिन मञ्चि दिगुडु बावुलु गलिगिनट्टियु, श्रीमत्, लतागृहवतीषु गल पॊदरिण्ड्लु गलवियु, पौष्पिकीषु=पुष्पमुलतोँ दुलँ दूगुनवियु (कनुकने) सुगन्धिषु= सुवासन गलवियुनगु, आक्रीड भूमिषु=उद्यानभूमुलन्दु, लक्ष्मीधरः = श्रीपति, = यथा=ऎट्लु, सजति = आसक्तुँडगु चुन्नाँडो, तथा, एव =अट्ले, सिंहगि रे = वनाद्रियॊक्क, तटीषु चरियल यन्दु, सजति आसक्ति गलवाँडगु चुन्नाँडु. विशेषमुलु :- ‘तदैव लक्ष्मीधर स्सजति सिंहगिरे टीषु वैकुण्ठोद्यान भूमुलव लॆने वनाद्रिकानन भूमुलु श्री सुन्दर बाहुस्वामिकि भोग्यता पात्रमु लगु चुन्नवनि भावमु, ता॥ श्री मन्ना रायणमूर्ति वैकुण्ठलोकमुन अमृतमुवण्टि नीटितो निण्डिन दिगुडु बावुलु शोभाय सुन्दर बाहु स्तवमु 145 मानमुलगु लतागृहमुलु (पॊदरिण्ड्लु) सुगन्धिपुष्प मुलु गलिगिन पूँदोँटलयन्दॆ ट्लनुरक्तुँडै युण्डुनो यट्ले सकलभोग्यता समृद्धिगल वनगिरि तटमुलन्दुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि यनुर क्तुँडै विहरिञ्चु चुण्डुनु. च. परमपदम्बुनन् जॆऱकुँ बा नकमुन् मऱपिञ्चुनीटितो वर लेदु दीरिकल्, सिरिकिँ ब ट्टगुमेल् पॊदरिण्ड्लु पुष्पमं जरुलघुमं घुमल् मदिकि सन्तसमीँ बुवुँदोँटलन्दु हरि यॆटॊ ! यट्ले सुन्दरुँडहा! 32 विहरिञ्चु वनाद्रि सीमलन्. " आनन्दमन्दिर महामणि मण्डपान्त र्लक्ष्म्या भुवा प्यहिपतौ सह नीलया च । निस्सङ्ख्य नित्यनिजदिव्य जनैकसेव्यो नित्यं वसन् सजाति सुन्दरदो र्वनादौ ॥ 1 79 प्रति : आनन्द, अन्तः - आनन्दमन्दिर = आनं ति दोत्पत्ति गृहमगु, महत् = पॆद्द, मणी, मण्डप, अं ई=मणुलु चॆक्किन, वॆय्यि स्तम्भमुल मण्डपमुलोपल, अहिपतौ= सर्पराजगु शेषुनियन्दु, लक्ष्म्या= लक्ष्मीर् देवि तोनु, भुवा अपि=भू देवितोनु; नीलया, चजनीला देवि तोनु, वसन् (20) निवसिञ्चुचु, निस्सङ्ख्य, नित्य, निज, दिव्यजन, 146 सुन्दर बाहु सवमु एक सेव्यः= लॆक्ककु मिञ्चिन, तन अप्राकृतुलगु परिजनुलकु मात्रमे अनुभविम्पँ दगिनवाँडै, सुन्दरदोः = सुन्दर बाहुन्वामि, वनादौ=वनगिरियन्दु, नित्यम्= ऎल्लप्पुडु, सजति = आसक्तुँडै युन्नाँडु. विशेषमुलु : ‘आनन्दमन्दिर महामणि मण्डपान्तः’ स्वरूपरूपगुणविभूति नित्यमुक्त संयुक्त भगवदनुभव जन्यमहानन्दमुनकुँ बुट्टिनिल्लैन वॆय्यि स्तम्भमुल पॆद्द मणिमण्डपमु मध्यभागमुनं दनि भावमु. नित्यं वसन् सजति सुन्दरदो र्वनादौ पत्नी परिजनादुलतो नित्य निवासयोग्य मगु वनगिरि, सुन्दर बाहुस्वामिवारिकि आनन्द मन्दिरम हामणिमण्डपमुकण्टॆ अत्यन्त भोग्यमुगा नुन्न दनि तात्पर्यमु. ता॥ भगवदनुभवजन्य महानन्दमुनकुँ बुट्टिनिल्लगु वेयि स्तम्भमुलु गल महत्तरमगु मणिमण्ड पास्थान मध्य भागमुनन्दु शेष पर्यङ्कमुन श्रीभूनीला समेतुँडै लॆक्ककु मीऱिन यप्राकृतुलगु निजपरिजनम्बुल चेत सेव्य मानुँडगु वैकुण्ठपति सुन्दर बाहुस्वामियै नित्यमु वनाद्रियं दास क्तुँडै युन्नाँडु. शा. आनन्दै कनिधान रत्नमय दि व्य स्तम्भ बाभासुरा स्थानीमण्डपमध्यमन्दु नहीरा ट्रल्पम्बुनन् श्रीरमा श्री सुन्दर बाहु स्तवमु -्मनीलल् भजियिम्पँ गिङ्कर ततुल् कै वारमुल् सल्पँगा श्रीनाथुं डॆटॊ सुन्दरुं डटॆ वना द्रिन् ग्रीडँ गाविञ्चॆडुन् . श्लो॥ प्रत्यर्थिनि त्रिगुणक प्रकृते रसीम्नि वैकुण्ठधामनि पराम्बर नाम्नि नित्ये । नित्यं वसन् परमसत्वमये व्यतीत योगीन्द्रवाङ्मनस एव हरि र्वनादौ ॥ 147 80 प्रति : परम, सत्व, मये=शुद्धसत्वमय मैनट्टियु, (कनुक ने) त्रिगुणक, प्रकृतेः सत्वरज स्तमोमय मैन मूलप्रकृतिकि, प्रत्यर्थिनि प्रतिभट मैनट्टियु, (विरोधि यैनट्टियु) असीम्नि = हद्दु लेनट्टियु, पर, अम्बर, नाम्नि = परमाकाश मनु पेरुगलट्टियु, नित्ये = सनातन मैन ट्टियु, नै कुण्ठधामनि = वैकुण्ठलोकमुनन्दु, नित्यम्= ऎल्लप्पुडु, वसन् = निवसिञ्चुचु, अतीत, योगीन्द्र, वाङ्म नसः, अपि योगीन्द्रुल वाक्कुलकु मनस्सुनकु अन्दनि वाँडैननु, हरिः = श्रीमहाविष्णुवु, वनाड्रा= वनगिरि
यन्दु, एषः = इतँडे यनि व्रेलितोँ जूपँदगिनवाँडु, (प्रत्यर्हुँडुगा नुन्नाँडनि यर्थमु). विशेषमुलु :—— असीम्नि= अपरिच्छिन्न परिमाणमुगल, अतीतयोगीन्द्र वाङ्मनसः अपि = अपरिच्छेद्य स्वरूपगुण विभूत्यादुलु गलवाँडैननु, ‘अतीतयोगीन्द्रवाङ्मन से, 148 सुन्दर बाहु स्तवमु अनि पदच्छेद मॊनर्चिनपुडु पैकुण्ठलोकमुनकु विशेषण मगुनु, ता॥ शुद्धसत्वमयमुनु त्रिगुणस्वरूप मगु प्रकृतिकिँ ब्रतिभटमुनु, अपरिच्छिन्न परिमाणमु गलदियु, परमा काशमनँबडु नित्यमगु वैकुण्ठमुन नित्यनिवासियै योगी श्वरुलवाक्कुलकु मनस्सुनकु नन्दनि वाँडैन श्रीपति वनगिरिलो नितँडे यनि चूपुटकु वीलै यन्दऱिकि दृग्गो चरुँ डगु चुन्नाँडु. म. परिमाणं बतिमात्रमै प्रकृतिकिं ब्रत्यर्थिभूतम्बु नै वर सत्वस्फुरणाञ्चितम्बुनयि भा स्वद्रूपमै नित्यमै परमाकाशपदाभि धेय मगु श्री वॆ कुण्ठमन्दुन् मुनी श्वर वाज्मानसदूरुँडौ हरि यिटन् ब्रत्यक्षदृश्युं ड हॆू ! अवतारिक :- ई मीँद श्रीवारि लीला विभूतियोग मुनु श्लोकद्वयमुतोँ जॆप्पुचुन्नारु. लो कां श्चतुर्दश दधत् किल संन्दरस्य, पङ्क्ती गुणो तरितसप्त वृ तीद मण्डम् । अन्यानि चाप्य मसदॄंशि/ परश्शतानि क्रीडाविधे रिह परिच्छदता मगच्छन् ॥ 81 प्रति www सुन्दर बाहु स्तवमु चतुर्दश 149 पदुनालुगु, लोकान् = लोकमु लनु, दधत् = धगिञ्चु चुन्नट्टिमु, पङ्क्ती….. .स प्तवृति= पङ्क्ती गुण = पदिरॆट्लु, उत्तरित = ऒक दानिकण्टे नॊकटि पॆद्दवि यगु, स प्रवृति = एडु आवरणमुलु गल, इदम् ई, अण्डम् =ब्रह्माण्डमु, अस्य = दीनिकि, सुसदॄंशी मिक्किलि सदृ शमुलैन, परश्शतानि= लॆक्क लेनि, अन्यानि, च= इतरमु लगु ब्रह्माण्डमुलुनु, इह=ई लीला विभूतियन्दु, सुन्द रस्य = सुन्दर बाहुस्वामियॊक्क, क्रीडावि धेः = लीला कार्य मुनकु, परिच्छद ताम्=उसकरण मगुटनु (आटवस्तु वगु टनु) अगच्छन्, कील,=पॊन्दिनविग दा ! इदि विशेषमुलु :- लोकान् चतुर्दश दधत् अण्डमुनकु विशेषणमु. दीनिचेत नय्यण्ड वैशाल्यमु प्रकटिम्पँ बडुचुन्नदि. ‘परश्शतानि’ वन्दलकु दाँटिनवि, अनँगा अनेकमुलनि भावमु. ता॥ पदुनालुगु लोकमुलनु तनलो धरिञ्चु वैशाल्य मुनु ऒकदानिकण्टे नॊकटि पदिरॆट्लु विस्तारमु गलयेडु आवरणमुलतोँ गूडिन यी ब्रह्माण्डमु, इट्टिवे यगु वन्दलकॊलँदि ब्रह्माण्डमुलुनु श्री सुन्दर बाहुस्वामि वारि कीलीलाविभूतिलो आटवस्तुवु लगुचुन्नवि. म. पदुनाल्गो जगमुल् विशालत वसिं पन् बॊल्चि यॊण्डॊण्डु ताँ बदिरॆ ट्लायति मिञ्चुन स्तवृतुलन् भासिल्लु नीयण्ड, मि 150 सुन्दरबाहु स्तवमु ट्टिदॆ यौनण्डपरश्शतम्बु तगँ ग्री डिम्पङ्ग नेतद्विभू तिँ दलिर्चुन् वनशैलनाथुनकु नॆं ते नाटबॊम्मल् ’ वलॆन् . श्लो॥ सुरनरतिर्य गादि बहु भेदक भिन्न मिदं जग दथ चाण्ड मण्डवरणानि च सप्त तथा । गुणपुरुषा च मुक्तपुरुषा श्च वनाद्रि पते रुपकरणानि नर्मविधये ऒपि भवन्ति विभोः ! f 82 प्रति : सुर, नर, तिर्यक्, आदि, बहु, भेदक, भिन्नम् देवतलु, मनुष्युलु, तिर्यक्कुलु (पशुपक्ष्यादुलु) मॊदलगु पॆक्कु विशेषणमुल चेत भिन्नमैन, (वेऱयिन) इदम्=ई, जगत्= प्रपञ्चमु, अथ= आविँद, अण्डञ्च अण्डमुनु, तथा=अट्ले, सप्त = एडु, वरणानि, च= आवरणमुलुनु, (परिधुलुनु) गुण, पुरुषा, च = प्रकृति पुरुषुलुनु, मुक्त पुरुषाः च = मुक्तपुरुषुलुनु, विभोः, अपि=सर्वस्वामि यैननु, वनाद्रिप तेः वनगिरिनाथुँडैन सुन्दर बाहुस्वामिकि, नर्म, विधये लीलाचरणमुकॊऱकु, उपकरणानि = साधनमुलु, भवन्ति अगुचुन्नवि. विशेषमुलु :- तिर्यगादि- अनुचोट ‘आदि’ पदमु चेत तमकण्टॆँ दक्कुववि यगु स्थावरादुलु ग्रहिम्पँ बडुनु. गुणपुरुषौ=गुणशब्दमु चेत गुणत्रय विशिष्टमगु प्रकृ तियु, पुरुष शब्दमु चेतँ दत्सम्बद्धुँडगु पुरुषुँडुनु ग्रहिम्पँबडुनु. मुक्त पुरुषाः- इच्चटँ ब्रकृति चेतविडुवँ 150 ट सुन्दर बाहु स्तवमु ट्टिदॆ यानण्डपरश्शतम्बु तगँ ग्री डिम्पङ्ग नेतद्विभू तिँ दलिर्चुन् वनशैलनाथुनकु नॆं ते नाटबॊम्मल् वलॆन् . श्लो॥ सुरनरतिर्य गादि बहु भेदक भिन्न मिदं जग दध चाण्ड मण्डवरणानिच सप्त तथा । गुणपुरुषा च मुक्तपुरुषा श्च वनाद्रि पते रुपकरणानि नर्मविधयेऒपि भवन्ति विभोः ॥ f 82 प्रति : सुर, नर, तिर्यक्, आदि, बहु, भेदक, भिन्नम् देवतलु, मनुष्युलु, तिर्यक्कुलु (पशुपक्ष्यादुलु) मॊदलगु पॆक्कु विशेषणमुल चेत भिन्नमैन, (वेऱयिन) इदम्=ई, जगत्= प्रपञ्चमु, अथ= आमीँद, अण्डञ्च अण्डमुनु, तथा= अट्ले, सप्त = एडु, वरणानि, च= आवरणमुलुनु, (परिधुलुनु) गुण, पुरुषा, च = प्रकृति पुरुषुलुनु, मुक्त पुरुषाः च =मुक्त पुरुषुलुनु, विभोः, अपि=सर्वस्वामि यैननु, वनाद्रिप तेः वनगिरिनाथुँडै न सुन्दर बाहुस्वामिकि, सर्म, विधये लीलाचरणमुकॊऱकु, उपकरणानि = साधनमुलु, भवन्ति अगुचुन्नवि. विशेषमुलु :- तिर्यगादि- अनुचोट ‘आदि’ पदमु चेत तमकण्टॆँ दक्कुवनि यगु स्थावरादुलु ग्रहिम्पँ बडुनु. गुणपुरुषौ= गुणशब्दमु चेत गुणत्रय विशिष्टमगु प्रकृ तियु, पुरुष शब्दमु चेतँ दत्सम्बद्धुँडगु पुरुषुँडुनु ग्रहिम्पँबडुनु. मुक्त पुरुषाः- इच्चटँ ब्रकृति चेतविडुवँ P152 सुन्दर बाहु स्तवमु एजनुलु, सुन्दर, अम्फ्रि, पद, भ क्ति, भागिनः = सुन्दर बाहुस्वामिवारि चरणमुलन्दु भक्ति योगमुनु पॊन्दिन वारु,(भवन्ति=अगुचुन्नारो!, ते=आजनुलु, परमाम्= उत्कृष्टमगु, मुक्तिम्=मोक्षमुनु, आप्य पॊन्दि, प रे, पधे= परमपदमुनन्दु, नित्य, किङ्कर, पदम् नित्य किङ्करुलु) अनु शब्दमुनु, भजन्ति = पॊन्दु चुन्नारु. विशेषमुलु : :— परमां मु क्तिम् अवुन रावृत्ति मु किम् पुन रावृत्ति लेनि मोक्षमुनु ‘न स पुन राव रते न स पुन रावर्तते’ अनि श्रुति. मोक्षमुनकु वॆळ्ळिनवाँडु तिरिगि पुट्टँडु. ‘नित्यकिङ्करपदं भजन्ति ते’ कर्म ज्ञानभक्ति योगमुलु भगवन्नित्यकिङ्करत्वसाधनमु लनि भावमु, ता॥ ऎल्लप्पुडु कर्मयोगमु नाचरिञ्चुवारुनु, ज्ञान योगनिष्ठुलुनु, श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि छरणमु लन्दु भक्तियुक्तुलै पुनरावृत्ति रहित मगु मोक्षमुनु परमपदमुनन्दु नित्यकिङ्करु लनॆडु शब्दमुनु बॊन्दि बॊन्दुदुरु. गी. सन्ततमु कर्मयोगनिष्ठागरिष्ठु लनवरतमुनु ज्ञान योगाभिरतुलु 1 सुन्दर पदार विन्दभ क्तिं दरिञ्चि नित्यकिङ्करपदमु गणिन्तु रचट. अवतारिक :— इटुमीँद मुप्पदियॆनिमिदि श्लोकमुल चेत. भगवदवतार सौशील्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. 152 सुन्दर बाहु स्तवमु एजनुलु, सुन्दर, अम्फ्रि, पद, भक्ति, भागिनः = सुन्दर बाहुस्वामिवारि चरणमुलन्दु भक्ति योगमुनु पॊन्दिन भ वारु,(भवन्ति=अगुचुन्नारो!, ते=आजनुलु, परमाम्= उत्कृष्टमगु, मुक्तिम्=मोक्षमुनु, आप्य पॊन्दि. प रे, पधे= परमपदमुनन्दु, नित्य, किङ्कर, पदम् नित्य किङ्करुलु) अनु शब्दमुनु, भजन्ति = पॊन्दु चुन्नारु. विशेषमुलु : :— परमां मु क्तिम् अपुन रावृत्ति मु किम् पुन रावृत्ति लेनि मोक्षमुनु ‘न स पुन राव रते न स पुन रावर्तते’ अनि श्रुति. मोक्षमुनकु वॆळ्ळिनवाँडु तिरिगि पुट्टँडु. ‘नित्यकिङ्करपदं भजन्ति ते’ कर्म ज्ञानभक्ति योगमुलु भगवन्नित्यकिङ्करत्वसाधनमु लनि भावमु, ता॥ ऎल्लप्पुडु कर्मयोगमु नाचरिञ्चुवारुनु, ज्ञान योगनिष्ठुलुनु, श्री सुन्दर बाहुस्वामिवारि चरणमु लन्दु भक्ति युक्तुलै पुनरावृत्तिरहित मगु मोक्षमुनु बॊन्दि परमपदमुनन्दु नित्यकिङ्करु लनॆडु शब्दमुनु बॊन्दुदुरु. गी. सन्ततमु कर्मयोगनिष्ठागरिष्ठु लनवरतमुनु ज्ञान योगाभिरतुलु । सुन्दर पदारविन्दभक्तिं दरिञ्चि नित्यकिङ्करपदमु गणिन्तु रचट. अवतारिक :— इटुमीँद मुप्पदियॆनिमिदि श्लोकमुल चेत. भगवदवतार सौशील्यमु ननुभविञ्चु चुन्नारु. 154 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ आजोऒपि स न्नव्ययात्मा ! भूताना मीश्वरोपिसन् , प्रकृतिं स्वा मधिष्ठाय सम्भवा म्यात्ममायया ॥ अनिनट्लु स्वासाधारण दिव्यस्वभावमुनु वीडकुण्ड स्वेच्छतो नवतरिञ्चि नप्पटिकिनि श्लो ॥ ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ‘अहं वो बान्धवो जातः’ इत्यादुलँ बेर्कॊनँबडिन बान्धवत्व प्रयुक्त वात्सल्यमु, सौशील्यमु विस्मयकरमनि भावमु. ता॥ सर सर्वज्ञत्व, सर्वश क्ति त्वादि सर्वेश्वरत्व प्रयु क्त कल्याणगुणमुलनु बायलेनि यवतारमुलचे ने देवुँ डी विश्वमु नलङ्करिञ्चॆनो देव देवुँडगु वनाद्रीश्वरुँडैन या सुन्दर बाहुस्वामि सौशील्यवात्सल्यमु अत्याश्चर्य र करमुलु- उll एगुणवारि राशि तनु नॆन्नँडुँ बायनि यैश भावमुन् त्याग मॊनर्पलेनि यवतारमुलन् जग देक भूषणं जौ गति नॊप्पॆ सावनधराधिपु शील नुवत्सलत्वमुल् चाँगुरे! मेल् ! बळी! यनु प्रशंसकुँ 2 बॊत्रमुलै तन र्चॆडिस्. सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो ॥ सिंहाद्रिनाथ ! तव वाङ्मनसातिवृत्तं रूपं त्वतीन्द्रिय मुदाह रहस्यवाणी । एवं च न त्व मिह चेत् समवातरिष्यः त्वज् ज्ञान भक्ति विधयोऒद्य मुधाभ विष्यन् प्रति 155 85 (हे) सिंहाद्रिनाथ ! ओ सुन्दर बाहु स्वामि, रहस्यवाणी उपनिषत्तु, वाङ्मनस, अति, वृत्तम् वाक्कुलकु मनस्सुनकु नन्दनि, तन = नीयॊक्क, रूपं तु = रूपमुनन्ननो, अतीन्द्रियम्=इन्द्रियमुलकु गोचरमु कानि दानिनिगा, उदाह = पॆद्दगाँ जॆप्पॆनु. एवञ्च (सति) इट्लु काँगा, इह = ई लीलाविभूतियन्दु, अद्य = इप्पुडु, त्वम् = नीवु, न, समवातरिष्यः चेत् अवतरिम्पक पोयॆद वेसि, त्वत्, ज्ञान, भक्ति, विधयः = तम ज्ञानभ क्ति विधायक शास्त्रमुलु, मुधा = व्यर्थमुलु, अभ विष्यन् ऐ युण्डॆडिवि. P विशेषमुलु : -सिंहाद्रिनाथ वनगिरिकि सिंहाद्रि यनि नामान्तरमु. कनुक ओ वनगिरि प्रभुवा! यनि यर्थमु. रूपम्——इच्चट रूपशब्दमु विग्रहपरमु. एवञ्च (सति) = वाक्कुलकु मनस्सुनकु अन्दनि तारुण्यलावण्यमुलु गल देवर वारि दिव्यविग्रहमु कण्टिकि गोचरमु कादनि. ई पर ’ न चदुषा पश्यति कश्च नैनम् ’ (ऎवँडुनु मात्मनु कण्टितोँ जूडँ जालँडु.)न मांसचयु रभिवीडु ते तम् (मांसचक्षुष्कुँ डाव रात्परुनि जूड लेँडु.) 153 सुन्दर बाहु स्तवमु ननि इत्याद्युपनिष द्वाक्यमुलचेतँ ब्रतिपादिम्पँ बडँगा भावमु. ‘न त्व मिह चेत् समवातरिष्यः त्वज् ज्ञान भ क्ति विधयोद्य मुधा भविष्यन्’ शुभाश्रयमगु विग्र हमु नाश्रयिञ्चि प्रवर्तिल्लिन देवरवारि ज्ञानभ क्ति विषय कमु लगु शास्त्रमुलु श्रीवारि यवतारमु ले लेनिचो शा पॊसँगवनि भावमु. ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! युपनिष द्वाणि वाङ्मनसम्बुल कन्दनि देवरवारि विग्रहमु नतीन्द्रिय मनि पॆद्दगा नुडुवु चुन्नदि. इट्लु नी दिव्यविग्रहमु चक्कर गोचरमु काँगा नीलीलाविभूतिलोँ दामे यवतरिम्पनि यॆडल देवरवारि ज्ञानभ क्ति प्रतिपादक शास्त्रमुलु व्यर्थमुलै पोयॆडिनि. अवत रिञ्चितिरि गान नवि सार्थकमु लगुचुन्नवि. उ. सुन्द बाहुरूप मधु सूदन ! दिव्यवनाचलस्थली मन्दिर ! नीदु विग्रहमु माटलकु मदिकिक् रवन्तये नन्द दटञ्चुँ बल्कॆ श्रुति यट्टुलुगा नवतार मॆत्तवे निन्दु वृधायगुं गद! ह री ! तमज्ञान सुभक्ति शास्त्रमुल् . सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो!! ये भक्ता भवदेक भोगमनस्कोनव्यात्म सञ्जीवनाः तत्सं श्लेषणतद्विरोधिनि धवाद्यर्थं पनाद्रीश्वर ! म ध्येण्डं य दवातर स्सुरनराद्याकारदि व्याकृति स्ते नैन त्रिदशै र्नरै श्च सुकरं स्वप्रार्थित प्रार्धनम् ॥ भक्तुलु, (सन्ति Ф 157 £6 प्रति - हे हे वनाद्रीश्वर ! = ओ सुन्दर बाहुमू री ! अनन्य, आत्म, सञ्जीवनाः = मऱि यॊकटि आतो “ज्जीवनमुगा लेनिवारुनु, भवत्, एक, भोग, मनसः = नी वॊक्कँडवे भोग्य मनॆडु मनस्सुगलवारुनु, अगु, ये= ए, भक्ताः= कलरो) तत्, संश्लेषण, तत्, विरोधि, निधन, आदि, अरम् = वारिनि रक्षिञ्चुट, वारिविरोधुलनु शिक्षिञ्चुट (संहरिञ्चुट) धर्ममुनु स्थापिञ्चुट, यनु प्रयोजनमु कॊऱकु, मध्येण्डम् = ब्रह्माण्डमध्यमुन, सुर, नर, आदि, आकार, दिव्य, आकृतिः = देवतलु मानवुलु मॊदलगुवारि याकारमुवण्टि दिव्यविग्रहमुगलवाँडनै, अवातरः, इति, यत् = अवतरिञ्चितिवनुट येदि गलदो, तेन, एव = आयवतार कारणमु चेतने, त्रिदशैः = देव तलचेतनु, नरैः मानवुल चेतनु, स्व, प्रार्थित, प्रार्ध नम् = तमकोरिकलनु वेँडुकॊनुट, सुकरम् सुलुवै नदि, (अभूत् विशेषमुलु आयॆनु.) 6 अनन्यात्मसञ्जीव नाशि, - भव देशभोग मनसः’ – अनु विशेषणद्वयमु चेत नीवे युपायमुगनु, उपेयमुगनु गलवारु. अनि भ क्तुलयॆडँगल प राकाष्ठनु (21) 158 सुन्दर बाहु स्तवमु दॆलियवलॆनु. अट्टि भक्तुले गीतयन्दलि ‘परित्राणाय साधूनाम्’ अनुचोट साधुपनमुचेँ बेर्कॊनँबडिरि. ‘त त्संश्लेषण तद्विरोधि निधनाद्यर्थम्’ ई पदमुनन्दु भग ई वदवतार प्रयोजनमुलु सूचिञ्चुचु ‘परित्राणाय’ अनु गीताश्लोकमु विवरिम्पँबडिनदि. ‘त त्संश्लेषण’ मनँगा, अट्टि साधुवुलतो नॆडमु लेक कलसियुण्डुट - अनँगा वारिनि रक्षिञ्चुटयन्दु बद्धदीक्षुँडै युण्डुट यनि भावमु. अन्दुलकै ‘तद्विरोधिनिधन’ अट्टि साधुवुल कपकारमुलनु चेयुवारिनि संहरिम्पवलयुनु ‘विनाशाय च दुष्कृ ताम्’ अनि गीत, ई रॆण्डुपनुलॆन्दु कनँगा ‘आद्यर्थम् इच्चट आदिपदग्राह्यमु धर्ममु. दानिनि स्थापिञ्चुटकॊऱकु ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ अनि गीत. सुकरम् नीवु सुन्दररूप मुन निट नवतरिञ्चुट चेतने सुरलकु नरुलकु नी धर्ममु लभिञ्चि तमकोरिकलनु नी वलनँबडयुट सुलभमय्यॆननि नी याशयमु. ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! नीकण्टॆ मऱियॊकँ डात्मोजीव कुँडु लेँडनि निन्ने युपायमुगानु उपेयमुगानु भाविञ्चि निरन्तरमु सेविञ्चुचुन्न भ क्तुलनु रक्षिञ्चुटकुनु, वारि कपकारमु लॊनर्चु दुर्मार्गुलनु शिक्षिञ्चुटकुनु, धर्ममुनु नॆलकॊल्पुटकुनु, नी वी ब्रह्माण्डमुन सुरनरादि दिव्यविग्रहुँडवै यवतरिञ्चितिवि कनुकने देवतलकु मानवु लकु नीवलन नभीष्टमुलनु बडयुट सुलुवय्यॆनु. सुण्डर बाहु ।स्तवमु 159 च वनगिरिनाथ ! निन्नु नॆ यु पाय मुपेयमुगाँ, दलञ्चि या त्मनु गड देर्चुकोँ दिवुरु धन्युलँ ब्रोवँगँ दद्विकोधुलन् दुनुमँग, धर्ममुन् निलुपँ, दोड नॆ नीविलँ बुट्टकुन्न नी मनुजुलु वेलुपुल् पडयु ရွက် मात्रमुवारॆ निजेप्सितम्बुलन्. श्लो ! श्रीमन्महावनगिरीश ! विधीशयो स्ते मध्ये तु विष्णु रिति यः प्रथमावतारः । ते नैव चे त्तव महीम्नि जनाः कि लान्धाः त्वन्मत्स्यभाव मनगम्य कथं भवेयुः ॥
87 प्रति : श्रीमन् = श्रीमन्तुँडवगु, महावनगिरि + ईश=महावनाद्रिनाथा!, विधि, ईशयोः= ब्रह्मरुद्रुल यॊक्क, मध्ये, तु=नडुमने, ते= नीकु, विष्णुः, इति= विष्णुव नॆडु, यः= ए, प्रथम, अवतारः = मॊदटि अवता रमु, (अस्ति=कललो) तेन, एव = आयवतारमु चेतने, तव=नीयॊक्क, महीम्नि =महिमयन्दु, (परत्वविषय मुन) जनाः= जनुलु. अन्धाः, चेत् - ग्रुड्डिवारै नयॆडल, त्वत् मत्स्य भावम् , नीविन सजातीय हपमुनु, अवगम्य= तॆलिसिकॊनि, कथम् = ऎट्लु, भवेयुः, किल = अगुदुरो ! (समुद्रसञ्चारु लगु मीसमुललो निदिकूड नॊकटि यनि तलन्तुरा?) 160 विशेषमुलु : सुन्दर बाहु स्तवमु श्रीमन्महावनगिरीश ! अनि येक पदमुगा सैतमु चेसिकॊन वच्चुनु - अप्पुडु श्रीमन्त मगु पॆद्दवनाद्रिकिँ ब्रभुवा ! अनि यर्थमु. मध्ये, तु== इच्चट ‘तु’ अनु नव्यय मवधारणार्थकमु. तु स्या द्भे देवधारणे— अनि निघण्टुवु. ‘विष्णु रति यः प्रथमाव तारः’ – ब्रह्म विष्णुरुद्रुलु- अनु परिगणमुन कनुगुण मुगा विष्णु ननि प्रथमुमुन नॊक मॆट्टु दिगुट येदि गलदो, ‘ते नैव चेत् तव महिम्नि बनाः कि लाङ्गाः’ अन्तमात्रमु चेतने नीपरत्व विषयमुन अनँगा- सृष्टि स्थितिसंहारकर्तलु मुग्गुरुनु स्वतन्त्रुलु तुलु अनि नीप्रत्येक सर्वेश्वरत्वमुनु गणिम्पनिवारु P अगुदु रेनि ‘त्व स्मत्स्यभाव मनगम्य कथं भवेयुः’ समुद्रमुनँ जरिञ्चु मीनमुललो निदियु नॊकमीनमु (चेँप) अनियु मनस्सुलोँ दलन्तु रेमो! ता॥ श्रीमन्तुँडवगु ओ वनाद्रिनाथा ! ब्रह्म विष्णु रुद्रुल नॆडु परिगणनमुनु बट्टि नीवु तॊलिसारिगा ब्रह्म रुद्रुल मध्यमुनन्दु अवतरिञ्चुट चेत (दिगुट चेत जनुलु सृष्टिस्थितिसंहारक र्तलु मुग्गुरुनु प्रत्येकमु स्वतन्त्रुलु समानुलु ननि नी नी नी पर्वतविषयमुन ग्रुड्डिवारैनचो नी मीनावतारमुनु दॆलिसिकॊनि यदियु समुद्रमुलोँ जरिञ्चु नॊक सामान्यमगु चेपये यनि भाविन्तुरु. कलसियुन्ननु समुद्रमुलोँ दिरि गॆडि यितर मत्स्यमुलकु सुन्दर बाहु स्तवमु 161 मीनावतारुँड वगु नीकु नॆन्त भेदमु गलदो यट्ले ब्रह्म विष्णुरुद्र पदमुलतोँ गलसियुन्ननु विष्णुवु नीकुनु ब्रह्मरुद्रुलकुनु गावलसिनन्त भेदमु कलदनि भावमु. शा॥ देवा ! याविधिरुद्रुलन्दु नडुमन् देवाधि देवुण्ड नौ श्रीविष्णुण्डवु नीवु तॊल्त दिगुटन् सृष्टिस्थितिध्वंसकृ देवुल् मूवुरु- दुब्युलन्दु भवदु त्कृष्टत्वमं दन्धुलौ आवा रॆन्नरॆ चिन्नि चेपगँ द्वदी यं बैनमीनाकृतिन्. श्लो॥ हेदेव ! सुन्दरभुज त्व मि हाण्डम ध्ये सौलभ्यतो विसदृशं चःतिं महिन्नु ः । अङ्गीकरोषि यदि तत्र सुरै रमाभिः साम्या न्निकर्ष परिपालन मेव साधु ॥ 88 प्रति : हे देव = ओस्वामी! सुन्दरभुज ! =सुन्दर बाहुमूर्ती!, त्वम्= नीवु, सौलभ्यतः = सुलभत्व मनॆडु सौलभ्यतः=सुलभत्व गुणमुनलन, महिम्नः = स रेश्वरत्व मह त्तकु, विसदृशम् -तगनि, = तगनि, चरितम् =नडतनु, अङ्गीकरोषि, नदि= अङ्गीकरिन्तु वेनि, तत्र= आतगनि नडतविषयमुन, अवि भिः= ई, सुरैः = देवतलतोड, (ब्रह्मरु देन्द्रादुलतोड) साम्यात् = पोलिककण्टॆ, सिकर्ष, परिपालनम्, एव, तक्कुववारितोडिसुण्ड- बाहु स्तवमु 162 सौम्यमु नभिनयिञ्चुटये, साधु योग्यमैनदि, अनँगा मत्स्यकूर्म सजातीयताभिनयमे मेलनि भावमु, विशेषमुलु :- ‘तत्र सुरै रमोभिः सौम्या न्निकर्ष परिपालन मेन साधु’ ओ सुन्दर बाहुस्वामी ! तम सर्वस्व मगु सौलभ्यमुनु ब्रकटिञ्चुटकु श्रीवारि परत्वमु नकु अननुगुणमु लगु चेष्टलनु ब्रदर्शिम्पवलसि वच्चिनपुडु द्रेन्द्रादुलतो साम्यमुनु ब्रकटिञ्चु विष्णू पेन्द्राद्यव तारमुल कण्टॆ अन्दऱिकि नन्दुपाटुलो नुण्डु मत्स्यकू र्मादि सजातीयाव तार मे वियत्यन्त सौलभ्य मुनु जॆप्पुनु गनुक नट्टियवतारमुल नभिनयिञ्चुटे मेलनि भावमु. ता॥ श्री सुन्दरभुज देना ! ता मी ब्रह्माण्डमुलो श्रीवारि सौलभ्यगुणमुनु ब्रदर्शिम्प परत्वमुनकु विरुद्धमु लगु पनुलनु सलुपवलसि वच्चिनपुडु ब्रह्मरु देन्द्रादु लतोँ बोलिक नभिनयिञ्चुटकण्टॆ नल्पमुलगु मत्स्य कूर्मादुलतो सजातीयमुलगु नवतारमुल नभिनयिञ्चु टये मेलनिपिञ्चु चुन्नदि. शा॥ सौलभ्यं बनुनीदु मेलिगुणमुन् जाटन् बरत्वप्रभा जालाच्छादक वेषधारण तऱिन् स्रष्टन् शिवेन्द्रादुलन् सुन्दर बाहु स्तवमु बोलं जालॆडु विष्णुवामनुल रू पुल् दाल्चु कण्टॆन् ननी शै लै कालय ! मत्स्य मान्ममुख वे षस्वीकृतुल् श्लाघ्यमुल् . अवतारिक :– निकर्ष परिपालन प्रस्तावन वलन 163 सर्वाव तार प्रधानमुलगु रामकृष्णा दृवतारमुललोनि कॊन्नि लीलल ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ इ हावतीर्णस्य वनाद्रि नाथ ! ते निगूहतः स्वं महिमान मैश्वरम् ॥ उमापतेः किं विजयः प्रियङ्करः प्रियङ्करा वेन्द्रजिदस्त्र बन्धना ॥ 89 महिनुनु, निगूहतः प्रति : (हे) वनाद्रिनाथ ! = ओ वनगिरि प्रभू!, ऐश्व रम् = ईश्वर सम्बन्धि यगु, (सर्वेश्वरत्व बोधकमगु) स्वम्=सहजमैन, महिचूरम् = =कप्पिपुच्चुचुन्नट्टियु, इह ईलीलाविभूतिलो, अव तीर्थस्य=अवतरिञ्चिन, ते= नीयॊक्क, उमापतेः = पार्वती पतियगु शिवुनियॊक्क, विजयः = गॆलुपु, प्रियङ्करः, किम् प्रियमुनु गलिगिञ्चुनदिया? इन्द्रजित्, अस्त्रबन्धना इन्द्रजित्तु यॊक्क, ब्रह्मास्त्र नागास्त्र पाशबन्धमु, प्रियङ्करा, वा= = प्रियमुनु गलिगिञ्चुनदि. या ? नि शेषमुलु : — अवतीर्णस्य - सर्वेश्वरत्व तिरोधानमु कॊऱु कवतरिञ्चिन- ‘उमापतेः कं विजयः प्रियङ्करः 1 164 सुन्दरबाहु सवमु बाणासुरुनि तोडियुद्धकालमुनँ दन्नगर रक्षकुँडैन यीश्वरुनि जयिञ्चुट यनि भावमु. (इदि कृष्णावतार मुन) ‘प्रियङ्क रा वेन्द्रजि दस्त्रबन्धना’ (इदि रामाव तारमुन) ई रॆण्डिण्टिलोँ दम परत्वमहिमनु गप्पि पुच्चुटलो निन्द्रजि दस्त्रबन्धनमे मे प्रमुखपात्रमुनु वहिञ्चुटचेत नदिये मिक्किलि प्रियकरमनि भावमु. कनुक वॆनुकटि श्लोकमुनँ जॆप्पिन ‘निकर्त परिपालन मेव साधु‘ अनुटये समञ्जसमु. a ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! सहजमुनु सर्वेश्वरत्व निबन्ध नमु नगु नी महिमनु गप्पि वेसिकॊनुचु ईलीलाविभूतिलो नवतरिञ्चिन नीकुँ गृष्णावतारमुलोनि बाणासुर युद्ध कालिक मगु परमशिवुनि जयिञ्चुट मुदावहमा? रामाव तारमुलो निन्द्रजिन्नाग पाशमुलकुँ गट्टुवडुट मुदाव हमा? तॆल्पुमु. शा॥ देना ! नीदु परत्वबोधक महा दिव्यत्वमुन् डाचि यि दाविर्भूतुँड वैननीकु वनगि र्यध्यक्ष पादा ! महा देवुन् गॆल्चुट यिष्टमो ! रणभुविन् देवेन्द्र जिन्नागपा वळ्यूर्जितबन्धनम्बु प्रियमो! यालिञ्चॆदन् दॆल्पवे. सुन्दर बाहु स्तवमु 165 अवतारिक परत्वप्रयुक्त महिमनु सर्वविधमुलँ गप्पिपुच्चुटयु दुश्शक मनि यीळ्लोकमुन नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ पुच्छोत्पुछ्छन मूर्छनोद्धति धुत व्यावर्ति तावर्तवत् संवर्तार्णव नीरपूर विलुठत्पाठिन दिव्याकृतेः । सिंहाद्रीश ! न वैभवं तव कथं स्वालक्ष्य मालक्ष्यते पद्माक्षस्य जुमुक्षतो ऒपि विभवं लक्ष्मीधराधोक्षज ! 90 प्रति : अधोक्षज ! उपासकहृदयकमलवासी ! सिंहाद्रीश ! = वनगिरिनाथा ! लक्ष्मीधर ! = श्री महालक्ष्मिनि धरिञ्चिन सुन्दर बाहुस्वामि! विभवम् महिमनु, जुघुक्षतः, अपि = दाँचँदलँचु चुन्नप्पटिकिनि, पुच्छ… आकृतेः—— पुच्छ=तोँक यॊक्क, उत्पुच्छन = पै कॆत्तुट, पै मूर्छन = अड्डमुगाँ द्रिप्पुटलयॊक्क, उद्धति = वडि चेत, धुत = कदलिम्पँ बडिनदियु, व्यावर्तित = त्रिप्पँबडिनदियु, (कनुकने) आव र्त वत् = सुडुलुगल, संवर्त, अर्णव = प्रळय समुद्रमुयॊक्क, नीर, पूर = जलप्रवाहमुनन्दु, विलुठत् = पॊर्लुचुन्न (वडिवडिगाँ दिरुगुचुन्न) पाठीन= चेँपयॊक्क, दिव्य=अप्राकृतमैन, आकृतेः विग्रहमु गलट्टियु, पद्माक्षस्य तॆल्लँदामरलवण्टि कन्नुलुगल ट्टियु, तव = नीयॊक्क, स्वालक्युम् चक्कँगा नन्तट साक्षात्करिञ्चुकॊनँ दगिन, वैभवम् = महिम, कथम्= ऎट्लु, न, आलक्ष्यते = चूडँबडदु? (स्पष्टमुगाँ जूडँ बडु चुन्नदनि भावमु.) (22) 166 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- अधोक्ष, ज! अधः= अन्तर्मुखमु लैन (बैटिकिँबोनि) अक्ष इन्द्रियमुलु गलवारु- अनँगा– योगुलु लेदा उपासकुलु, वारियन्दु, ज आविर्भविञ्चिनवाँडा ! उपासकुल हृदयकमलमुन निवसिञ्चु वाँडा! यनि भावमु. पुच्च… आकृतेः प्रळयार्णव जलप्रवाहमुनु अल्लकल्लोलमु चेयु वालसञ्चलनमुगल विलक्षण मत्स्यमू र्ति यॊक्क यनि तात्पर्यमु. पद्माक्षस्य — विनशरीरमुनु दाल्चिनप्पुडु सैतमु
- कन्नुलु पुण्डरीकमुलँ बोलियुन्न दनि भावमु. वालसञ्च लनमु चेतँ ब्रळयार्णवमुनु सङ्क्षोभिम्पँ जेयुटयु, विनशरीरधारणमु नन्दु सैतमु पुण्डरीकमुलँ बोलु कनुलसोयगमु गलिगि युण्डुटयु, दाँचिननु दागनि भगवल्ल क्षणमुलु. ता॥ उपासकु हृदयकमलमुन निवसिञ्चु लक्ष्मीपती सुन्दर बाहुस्वामी ! नीमहिमनु नी वॆन्तदाँचँ दलँचु चुन्ननु तोँक नॆत्तुट यन्दलि वडिचेतनु अड्डमुगाँ द्रिप्पुटयन्दलि वडिचेतनु कम्पिञ्चि जोभिल्लुचु सुडुलतो नॊप्पुचुन्न प्रळय समुद्रमुलो नवलीलगा नीँदुचुण्डियुँ बुण्डरीकमुलँबोलु कनुलनी टॆगल नी दिव्यमगु विनशरीरमु नी लोकोत्तर महिमनु वॆल्लडिञ्चु चुन्नदि. शा॥ श्रीलक्ष्मीधर ! योगिचि त्त कमला सीना ! वनाद्रिप्रभू ! 1 सुन्दर बाहु स्तवमु वालोद्धूनन तिर्यगीरणकळा वैदुष्यसं शुद्ध नि र्त र्वेलावर्त शताञ्चित प्रळय वा रिन् विन मौन त्तऱिन् बोलॆन् गन्नुलु तॆल्लँदम्मि नॆटु ल ब्बुन् दाँच, नीचिह्नमुल् . श्लो॥ साचलावट तटाक दीर्घ का जाह्नवीजल विवर्धितः क्षये । शृङ्गसङ्गमितनौ र्मनो रभू रग्रतो ऒण्ड जवपु सुन्दरि! ख 167 91 प्रति : :- सुन्दर ! ओसुन्दर भुजस्वामी ! अण्डज, वपुः=मत्स्यशरीरमु गलवाँडवै, साचला. . . विवर्दितः - स, अचला, अवट = भूग र्तमुतोँ गूडिन, तटाक चॆऱुवुयॊक्क, दीर्घका, दिगुडु बावियॊक्क, जाह्नवी= गङ्गानदियॊक्कयु, जल= नीटियन्दु, विवर्धितः मिक्कि लिगाँ बॆञ्चँबडिन वाँडवै, (त्वम् = नीवु) क्षये = प्रळय कालमन्दु, प्रळयार्णवमन्दु) मनोः = मनुवुयॊक्क, अग्रतः=ऎदुट, शृङ्ग, सङ्गमित, सौः = कॊम्मुनकुँ
दगिलिञ्चुकॊनँबडिन, योडगलवाँडवु, अभूः, हि = अयितिवि गदा! विशेषमुलु : पूर्वमु मनुवुतर्पण मॊनर्चुचुँ दनक मण्डुलुवुनन्दुँ बुट्टि पॆरुँगुचुन्न चेँपनु विशाल 168 सुन्दरबाहु स्तवमु ख मगु नॊक नीटिगुण्टलो पै चॆनु. अदि यच्चटँ बॆरिँगि स्थलमु चालकपोँगाँ जॆऱुवुलो वैचॆनु. अय्यवि तन वृद्धिकिँ जालक पोवुटँ जूचि क्रममुगा दीर्षिकलोनु गङ्गानदि लोनु समुद्रमुलोनु बडपै चॆनु. अन्त नामत्स्यमु प्रळय समुद्रमुलो मनुवुतोँ बाटु स्थिर चरपदार्थमुल नॊकयोडलो नुञ्चुकॊनि या योडनु दन शृङ्गमु नकुँ दगिलिञ्चुकॊनि धर्ममुल नुपदेशिञ्चॆ ननु पुराणगाध निट ननुसन्धिञ्चुकॊन वलॆनु. ई शोकमुलोनि युत्तरार मुनकुँ दात्पर्यमु. अवान्तर प्रळयमन्दु सृष्टि बीजभूतुँडगु मनुवुनु ओडयं दिडुकॊनि या योडनु कॊम्मुवण्टि यवयवमुनकुँ दगिलिञ्चुकॊनि मनुवु नग्र भागमुन धर्मोप देशपरुँडै मीनावतारमुन श्रीहरि प्रशयाब्धिलोँ दिरिगॆनु. ईयर्थमे श्रीरङ्ग राज स्तवमुन नी क्रिन्दि श्लोकमुन ननुसन्धिम्पँ बडिनदि. श्लो॥ मीनतनु स्त्वं नानि निभाय स्थिरचरपरिकर मनु मन भगवन् । वेदन नाभिस्वोक्ति विनोदै रकलितलयभयलव ममु मवहः !! ता ओ श्रीसुन्दर भुजस्वामी ! नीवु मत्स्यशरीरमुनु दाल्चि क्रममुगा भूगर्त तटाक जाह्नवी जलमुलन्दुँ प्रळयपयोधिलो शृङ्गमुन कण्टँगट्टँबडिन योडतो मनुवुन कग्रभागमुन दर्शनमिच्चितिवि च मनुजलकुण्डिँ गन्पडि क्र मम्बुग गुर्ततटा कवुलं तिवि गदा ! सुन्दर बाहु सवमु दुन नलगङ्गँ बॆर्गि लय तोयधिलो मनुनग्रमन्दु शृं गनिगडित प्लवुण्ड वयि कन्नुलपण्डुवु गाँगँ जेँपरू पुन नगपिञ्चिना वँट न मोनम श्रीवन शैलसुन्दरा ! श्लो॥ प्रशयज नीर पूर परिपूरित स्वनिलयावसन्न वदन भ्रमदशरण्य भूतशरणार्थि नाकि शरणं भवन् स्वकृपया । चलदुबधीरिताम्बु कलुषीक्रियाढ्यगमन स्वपृष्ठ विधृता चलकुल एव मीनतनु रत्र सुन्दरभु प्रति स्व, कृपया वनाद्रिनिलये ॥ ज 169 92 स्वतस्सिद्धमगु दय चेत, प्रळय. . . . . .शरणम्- प्रळय= प्रळयकालमन्दु, ज = पुट्टिन, नीर= नीटियॊक्क, पूर = वॆल्लुव चेत, परिपूरित = निम्पँबडिन (आक्रमिम्पँबडिन) स्व=सॊन्त, निलय= स्थानमुलु गलवारु गनुकने, अवसन्न = भेदमुतोँगूडिन, वदन = “मॊगमुलु गलवारुनु, भ्रमत् = (रक्षकुलकॊऱकु) इटु नटु तिरुगुचुन्न वारुनु, अशरण्यभूत = शरण्युलु लेनि वारुनु, शरणार्थि=शरणुकोरुचुन्न वारुनु, अगु, नाकि= देवतलकु, शरणम् रक्षकुँडु, भवन् = अगुचु, चलत् गनुनः — चलत् = ( तनसञ्चारमु चेत ) कदलुचुन्न, उदधि= समुद्रमु चेत, ईरित = त्रोसिवेयँबडिन, अम्बु = नीटियॊक्क, कलुषी क्रिया मलिनमु चेयुटयन्दु,
170 सुन्दर बाहु स्तवमु आढ्य=ऒप्पिदमैन, गमनः = सञ्चारमु गलिगिनट्टियु, स्व, पृष्ठ, विस्तृत, अचल, कुलः = कॊण्डल गुम्पु गलट्टियु, तनवीँपुपै धरिम्पँबडिन, मीनतनुः = मत्स्यमूर्ति, अत्र=ई, वनाद्रिनिलये=वनगिरि मन्दिरमु नन्दलि, एषः = सुन्दर बाहुमूर्तिये. ई. सुन्दरभुजः वि शेषमुलु : प्रलयज शरणं, भवन् स्वत स्सिद्धमगु डयचेत ने रक्षका पेक्षकुलगु निट्टि वेल्पुलकु रक्षकुँ डगुचु- ‘एष विकानतनु रत्र सुन्दरभुजः’ — प्रळयार्णव नीर पूर निमग्न मन्दिरुलै यति विषण्णवदनुलै अल्लाडु चुन्न शरणागतुलगु देवतलनु रक्षिञ्चुट कॊऱकु नत्तऱि निवसिम्प योग्यमु लगु कॊण्डलनु वीँपुमीँद मोसिकॊनि वच्चिन यामिनविग्रहुँडे संसारार्णवमग्नुल मगु मनल नुद्धरिम्प निच्चट सुन्दर भुजस्वामियै युन्नाँडनि चूशयमु. ता॥ प्रळय समुद्रमुलोनि नीटि वॆल्लुवलु तम तम निलयमुलनु मुञ्चि वेयँगा निलुवँ दावु लेक दीनवदनुलै रक्षण कटुनिटु तिरुगुचुन्न दिक्कु लेनि वेल्पुलकु जालि चेत शरणमै तन गमन वेगमुचेत मुन्नीटिनीरु कलुषमगु नट्लु देवतलु वसिञ्चुटकुँ बॆद्द पॆद्द कॊण्डलनु वीँपुपै मोसि तॆच्चिन दिव्यमत्स्यरूपधरुँ जीवनाद्रि निलयुँडगु सुन्दरभुजस्वामिये सन्देहमु लेदु. भ क्तुलमगु मनलँ गूड संसारार्णवमुनु दाँटिञ्चुनु. सुन्दर बाहु स्तवमु म प्रळ रूम्भोनिधि नीटि वॆलुवलु मुं सन् स्थानविभ्रष्टुलै, Ф कलँतन् बाऱुचु दिक्कु गोरु सुगलन् गापाड वा पण्टकै जलधिन् क्षोभिलँ जेयु शीघ्रगतितो शैलम्बुलन् वीँपुपै सुलु वॊप्पन् गॊनिवच्चु वि न शुभ वे षुं ओ वनाद्रीशुँडे. श्लो॥ स्वप्प, प्रष्ठाद्रिभ्रमणकरणैः किञ्च फणिनो विकृष्टि व्याकृष्टि व्यतिविधुतदु गाब्दि चलितैः । आविस्पन्दो नन्दन् विक सदर विं देक्षणरुचि 171 मिक्किलि पुराजभूत् सिंहाद्रेः प्रियतम हरे कच्छपवपुः ॥ 93 प्रति सिंहादेशि वनगिरिकि, प्रियतम ! प्रियुडनगु, (‘पी) ह री=ओ सुन्दर भुजस्वामि! पुरा= पूर्वकालमुन, स्वप्पि प्ले. तन वीँपुमीँदि, प्रज्ञ, अद्रि, भ्रमण, कर्मणः = श्रेष्टमगु मन्द गाद्रिनि त्रिप्पुटलचेतनु, कञ्च =ममु, फणिनः = कव्वपुँ द्राडुगानुन्न) वासुकि = यनु सर्पमुयॊक्क, विकृष्टि.. • — विकृष्टि मुन्दुकु लागुट चेतनु, व्याकृष्टि = जनुककु विडुचुट चेतनु, व्य विधुत = मिक्किलि कम्पिम्पँ जेयँबडिन, दुग्गाब्दि पालसमुद्रमुयॊक्क, चन) मनः कदलिकलचेतनु, अविस्पं दः = एमात्रमुनु चलिम्पिनि वाँडपै, नन्दन् = सन्तसिञ्चुचु विकसत्, अरविन्द, ईईलु, रुचि = विच्चिन पद्ममुलवण्टि चलिसुन्दर बाहु स्तवमु 172 कन्नुल काङ्गल, कच्छपवपुः वाँडवु, अभूः= अयितिवि. ताँजेलु शरीरमु कल विशेषमुलु : — अविस्पन्दः तनवीँपुमीँद मन्दरा
- रा चलमुनुञ्चि त्रिप्पुटल चेतँ दनकुनु दिरुगुडु सम्भविम्प वच्चुनु, मन्थनाचल निमि त्तमु कव्वपुँद्राडैन वासुकि चेतँ जिलुकुटवलन मिक्किलि कल्लोलितमगु समुद्रपु नीटि चेतनु तनकुँ गदलिक सम्भविम्पवच्चुनु. अट्टि कारणमु लुन्ननु कदलनिवाँडै युण्डुट कूर्मरूपियगु श्रीहरि यॊक्क स्थैर्यमुनु जाटुचुन्नदि. नन्दन् समाश्रित संरक्षणक्षमुनकुँ गूड भारलाभमु चेत नति प्रीति कलुगु ननि भावमु. तन शरीरमुनकुँ ग्लेशमु कलिगिननु भ क्तजनु लनु रक्षिञ्चुट यनु लाभमु चेकूरिनन्दुल कानन्दिञ्चुचु अनि सारांशमु. ता॥ वन शैलवल्ल भा ! ओ सुन्दर बाहुस्वामि! श्रीहरी! नीवु नी वीँवुपै श्रेष्ठमगु मन्दरपर्वतमुनुञ्चि गिरगिर त्रिप्पिननु, कव्ववुँ दाडुगानुन्न नासुकिनि ऒकवैपु देवत लॊकवैपु राक्षसुलु निलिचि यटुनिटु लागँगा मिक्किलि क्षोभिल्लिन पालसमुद्रमुनीटि कदलिकल चेतनु एमात्रमु कदलनिवाँडवै आश्रितसंरक्षण भारमनॆडु लाभमु दॊरकि नन्दुलकु आनन्दिञ्चुचु आ यानन्दमुनु विच्चिन तामरल वण्टि कन्नुल कान्तितोँ जाटुचुँ बूर्वमु कूर्मरूपुँड वैतिवि गदा ! सुन्दरबाहु स्तवमु उ॥ वीँपुन मन्दगाद्रि निडि यो नेमऱु द्रिप्पिन वासुकॆन् फणि श्रीपति योगमुन् सलिपि सन्द्रमुँ इल्कँग नीरु रॆच्चि ता नूँपिन नूँग काश्रितुल नोमिसलाभमु मोद मीयँ गाँ जूपुलँ दम्मुलन् नगुचु सुन्दर ! नाँ डॊक कूर्ममैतिवा ! श्लो॥ जगत् प्रलीनं पुनरुद्दि धीर्घणः सिंहक्षितिक्षि न्नि लयस्थ ! सुन्दर!! पुगा वराहस्य त वेयि मुर्वरा दृस्ट्राह्वयेन्दो कल लक्ष्म लक्षिता ॥ ! 173 94 प्रति : — संहृतिक्षित्, निलय, स्थ= सिंहाद्रिय नॆडु निवासस्थलमुननुन्नि, सुन्दर ! = ओ सुन्दरभुजस्वामि ! पुगापूर्वमु, प्रतीजमु = प्रळ सर्णवमुन मुनिँगिन, जगत् ==लोकमुनु, पुसिनिजनुलु, उण्णधीर्घ त = उद्दरिम्पँ नलँमचुन्न, नगा नान्यगा हाव तागुँड नगु, तव=नी वगानास्य गा तागुँडनगु, मुक्क, दंष्ट्रा, आव्वाय, इङ्गोवा कोरिय नॆडु ` पेरुगल चन्द्रुनिक, इयषु, उर्वरा= भूमि, लक्ष्मि, लक्ष्मिता, कल- मच्चगा बडँबडिनदि गदा !
. वि श्लेषमुलु : - जगत् प्रिणीनं पुनगुद्दिदीर्घतः- प्रशयार्णव मध्यनिमग्न जगदुद्धारककुँडवु अगु नीवु (23) 174 सुन्दर बाहु स्तवमु संसारमग्नुल मगु मम्मुँ गूड नुद्धरिम्पुमनि कवि ध्वनिम्पँ जेयु चुन्नाँडु. ‘दंष्ट्राह्वयेन्दोः किल लक्ष्म लक्ष्मी ता’ दंष्ट्र यनेडु चन्द्रुनकु भूमि मच्चगा नुन्न दनुटचेत श्री वराहमूर्तिवारि विग्रहमन्त श्री लोको त्तर मैनदनि भावमु. ता वनगिरिनाथुण्डवगु श्री सुन्दरभुजस्वामी ! नीवु पूर्वमु प्रळय समुद्रमुलो मुनिँगिपोयिन लोकमु नुद्धरिम्पं दरिम्पँ दलँचि पराहमूर्ति विगा नवतरिञ्चिनप्पुडु नी दंष्ट्र यन्दु गोचरिञ्चिन भूदेवि चन्द्रुनन्दु मच्चवलॆँ गानवच्चिन दँट. अट्टिचो नी दिव्यविग्रहमुयॊक्क युन्नति नॆवँडु वर्णिम्पँ गलँडु. À प्रळयवार्धि निमग्न प्रपञ्च मुद्ध रिम्पँ दलँचि वराहमूर्तिनि ग्रहिञ्चु नीदु रोजुनु वनगिरि नेत ! भूमि चन्दुरुनियन्दुँ गलमच्च चायँ दोँचॆ. कोन वायुः पस्पन्दे ययतु रथवा स्तं शशिगवी दिशोऒनश्यन् विश्वा प्यचल दचला साचलकुला ! सभ श्च प्रश्च्योति क्वथित मपि पाथो नरहरौ त्वयि स्तम्भे शुम्भद्वपुषि सति हे सुन्दरभुज ! A 95 प्रति :———— हे सुन्दरभुज ! हे सुन्दरभुज ! = ओ सुन्दर भुजस्वामी! नरहरौ=नरसिंहमूर्तिवगु, त्वयि = नीवु, स्तम्भे= = ( हिरण्यकशिपुनि दर्बारुलोनि) स्तम्भमुनन्दु, शुम्भत्, सुन्दर बाहु स्तवमु 175 वपुषि सति = शोभमान मगु शरीरमु गलवाँडवु काँगा, वायुः = गालि, न, पस्पन्दे= कॊञ्चॆमैननु गदल लेदु, (भयमु चेत) अथवा = तरुवात, शशिरवी चन्द्रसूर्युलु, ययतुः = अ स्तमिञ्चिरँट, दिशः = दिक्कुलु, = नशिञ्चिनवि (इदि तूर्पु, इदि पडमर यनि तॆलिसि कॊन वीलुगा लेदु) नाचलकुला = अ स्तं, पर्वत समूहमुतोँ = सम स्यमैन, अचला, अपि भूमियु, गूडिन, विश्वा अचलत् = कम्पिञ्चॆनु, नभः, च = आकाशमुगूड, प्रच्योति = मिक्किलि जाऱिपोयिनदि, पाथः अप्= समुद्रमुलोनि नीरु कूड, क्वथितम्=सलसल तॆर्लिनदि. विशेषमुलु : न वायुः सस्पं दे श्रीनरसिंह विग्रहदर्शन जनितभयमु चेत गाड्पुकॊञ्चॆमुनु कदल लेदु. अचल दचला— भूमि यचल यय्युँ जलिञ्चॆनु. नरसिंहदर्शन भयमुचेत व्युत्पत्तिकि विरुद्धमुगाँ ब्रवर्तिञ्चिन दनि भावमु. स्वन्तमपि पाथः — उष्णत्वाति — शयमुचे समुद्रोदकमु गूड सलसल मसलिपोयॆनु. प्रह्लादप्रतिपक्ष शिक्षणमुनकै प्रादुर्भविञ्चुचुन्न नरसिंह विग्रहसाक्षात्कारक्षममु लैन पञ्चभूतमुल यॊक्क वेगिरपाटिन्दु वर्णिम्पँबडिनदि. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! नरसिंहमूर्ति वगु नीवु हिरण्यकशिपुनि सभा स्तम्भमुन शोभमान शरीरमु गलवाँडवयि याविर्भविञ्चु चुण्डँगा भयमुचे गालि 176 सुन्दर बाहु स्तवमु यिञ्चुकयुँ गदल लेदु. सूर्यचन्द्रु लस्तङ्गतुलैरि. दिक्कुलु मासिनवि. चलिम्पमिचेत नचल यनि प्रख्यातिँ गाञ्चिन भूमियुँ गुलाचलमुलतोँ गूडँ गम्पिञ्चॆनु. मिन्नुपडॆनु. समुद्रोदकमु सलसल मसलि पोयॆनु. ऒक पेल समस्त प्रकृतियु भयग्रस्तमै ताऱुमा जायॆनु. मु अरिकुम्भीन्द्रमुँ जील्चि भक्तवरुँ ब्र हादुन् गटाक्षिम्पँगा नरसिंहाकृति नीवु स्तम्भमुनँ ग स्पट्टङ्ग गा ज्पाड द स्दिर ! चन्द्रारुणु ल स्तमिञ्चिरि दॆसल् दीपिम्प वम्भोनिधुल् तॆर लॆन् मिन्नु वडॆन् वडङ्कॆ महि सा द्र्मिज यै सुन्दरा ! अवतारिक :— पै विषयमुने विवरिञ्चु चुन्नारु. श्लो आराशं पाताळं त्रिदशनिलयः प्रापितलयो धरित्री निर्दूताययु रपि दिशः कामपी दिशम् । आजृम्भि प्राम्भोधि ‘रुमुमु” मिति मूर्णन् सुरपो र्विण्ढीदाने वक्ष स्त्वयि नरहरौ सुन्दरभुज ! ] 96 प्रति :- हे सुन्दरभुज ! = ओ सुन्दर बाहुस्वामी ! नरहरौ=नरसिंहमूर्ति नगु, त्वयि = नीवु, सुररिपोः = = देव वै रियगु हिरण्यकशिपुनि यॊक्क, वक्षः = = बॊम्मुनु, सुन्दर बाहु स्तवमु 177 विभिन्दाने (सति) चील्चि वेयु चुण्डँगा, पाताळम्= पाताळ लोकमु, अराळम् = वक्त्रमैनदि (आसीत्=आयॆनु) त्रिदिश निलयः = स्वर्गमु (वेल्पुलनिवासमु), प्रापितलयः पॊन्दिम्पँबडिन नाशनमुगलदि, (अभूत्=आयॆनु) धरित्री= भूमि, निर्धूता मिक्किलि वणँकॆनु, दिशः दिक्कुलु. कां अपि=ऒकानॊक, डिशम्= विधमुनु, ययुः = पॊन्दिनवि, अम्भोधिः=समुद्रमु, घुमुघुम्, इति= घुमुघुम्मनि, घार्णन् =ध्वनिञ्चुचु, अजृम्भिष्ट विजृम्भिं चॆनु. वि शेषमुलु :— अकाळम्– व्यत्य स्तमु अनँगा प्रकृ तिकिँ दलक्रिन्दु. ययु रपि दिशः का मपी दिशम्- दिक्कुलु कूड नेडो यॊक दिक्कुनु पॊन्दॆ ननँगा अन्तरि अन्त र्हितमु लायॆ ननि भावमु. नीवु नरसिंहावतार ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ति! नीवु मॆत्ति प्रबलशत्रुवगु हिरण्यकशिपुनि वक्षःस्थलमुनु वच्चु चुण्डँगा नाभयङ्कर दृश्यमुनकुँ बाताळ मराळ मायॆनु, त्रिदिशनिलयमु लयमुनु बॊन्दॆनु, वसुध वडवड वडँकॆनु, दिक्कुलु तब्बिब्बायॆनु, समुद्रमुलु घुमुघुमुघु म्मनि निनाद मॊनर्चुचुँ बॊङ्गि पोयॆनँट. म॥ अलपाताळ मराळ मायॆ विलयं बायॆन् सुपर्वालयं बिल यॆन्तेनि वणङ्कॆ नन्दॆ दिशलुन् हीनातिहीनन् दशन् 173 सन्दरखाहु कवमु चॆलरेँगॆन् घुमुघुम्मटञ्चु जलधुल् श्रीमन्न ृसिंहुण्ड पै बलि जैळ्ळुनुकम्मु प्रच्चुतऱि शुं भ च्ची वनाद्रीश्वरा ! चैत्यवक्षः श्लोनि कः ककचक प्रथि कवित नैत्य वक्षः स्थली समुलै कुधिरच्च बाच्फुरित बिम्बितं स्वं वपुः । विलोक्य मिषतिः पुनः प्रतिमृगेन्द्र शङ्कावशात् य एव नरकेपकि स इह वृश्यते सुन्दरः । 97 प्रति : :— नख….. ॐऔतम् सख = गोरनॆडु, क्रकचक = जम्पमु यॊक्क प्रज्ञ = अञ्चु चेत, कथित = चील्च ऒडिष, दैत्य = राक्षसुनि यॊक्क, (हिरण्यकशिवुनि यॊक्क) वक्षःस्थली=जॊम्मु प देशमुनुण्डि, समुत्थ =बयलु देऱिन, रुधिक = नॆत्तुटि यॊक्क, छिबा = नॆत्तुटियॊक्क, समूहमु चेत (प्रवा हमु चेत) छ्-रित त प्रस्तकमै, बिम्बितम् = प्रतिबिम्बिञ्चिन, स्वम् = स्वकीय मगळ्लु, वपुः = शरीरमुनु, विलोक्य=चूचि, यः=ए, सर केसरी= नरसिंहमूर्ति, प्रतिमृगेन्द्रशङ्काव शात् = प्रतिभटमगु सिंहमु यॊक्क शङ्कवलन, पुनः = मऱल, रुषीतः= रोषमु कलवाँडायॆनो, सः=आनर सिंह मूर्ति ये, इह= इक्कड, ईवनाद्रियन्दु) सुन्दरः= सुन्दरभुजन्वामिगा, दृश्यते = चूडँबडु चुन्नाँडु. विशेषमुलु :— प्रतिम गेन्द्र शङ्काव शात् - इदि स्वामिवारिकि रोष रोष मॊदवुटकुँ गारणमुगाँ मऱल सुन्दरबाहु स्तवमु 179 बेर्कॊनँ बडिनदि. सर्वज्ञुँडगु नर केसरि शत्रुरक्त पूर प्रतिबिम्बित मगु तन विग्रहमुनु सिंहान्तरमुगाँ दलँ चुट मृगस्वभावोक्तिगा भाविम्पवलॆनु. ‘स इह दृश्यते सुन्दरः’ – आनाँडु भ क्त द्वेषि यगु हिरण्यकशिपुनि वच्चिन
- नर केसरिये यिच्चट सुन्दर बाहुमूर्तियै आश्रित द्वेषि ये निरसनमुनकु बद्धकङ्कणुँडै युन्नाँडनि भावमु. ता॥ गोळ्ळ नॆडु हिरण्यकशिपुनि तॊम्मुनुण्डि दॊरलिन रक्त प्रवाहमु नन्दु सङ्क्रान्तमैन प्रतिबिम्बिञ्चिन तन देहमुने चूचि मृगेन्द्र स्वभावानुगुणमुगा मऱियॊक सिंहमनि ऱम्पमुल कॊनलतोँ जील्चि वेयँबडिन शङ्किञ्चि येनरसिंहमूर्ति मजल गोषिञ्चॆनो या नर सिंहुँडे ई वनाद्रियन्दु निजाश्रित द्वेषुल नणँच बद्धकङ्क णुँडै सुन्दरभुज रूपमुतो नुन्नाँडु. च॥ शित नखराञ्चलक्रकच शृङ्ग विदारितदैत्यराडुर श्च्युत रुधिर प्रपूर परि शोभिनिजाकृतिँ बाऱँ जूचि लोँ ब्रतिमृग राण्मतिन् मजुल फालनटद्भृकुटीकुँ डैन श्री पति यलनारसिंहुँ डिट भासिलु सुन्दर बाहुनामुँडै . 130 प्रति सुन्दर बाहु नवमु श्लो॥ क्षिति क्रियं जनिसंहृतिपालनै र्निगिरणोद्दिर णोद्धरणै रपि । वनगिरीश ! त वैव सती कथं परव! वामन ! भिक्षण मर्हति ॥ 99 ( हे॥ वरद!=अन्दऱिकि नन्नि वरमुल निच्चु वाँडा!, वामः ! = वामनरूपधारी ! वनगिरि, ईश! = वनगिरिनाथुँड नगु नुण्डुभुजस्वामी ! जनि, संहृति, पालनै 8 = सृष्टी संहार, क्षणमुल चेतनु, निगिरण, उद्गारण, उद्ध- स्थिति, अपि=म्रिङ्गुट, क्रक्कुट, उद्धरिञ्चुटल चेतँ गूडि, तव, एव = नी के, सती= भार्य (द्रव्यभूत) अगु, इयम्= ई, षीतिः=भूमि, कथं वा= ऎट्लुगा, भिक्षुणम्=भिक्षनु (ऒकरिवलन सूचिञ्चुटनु गूर्चि) अर्हति = योग्यमगु चुन्नदि. विशेषमुलु :— वामन ! — बलिचक्रवर्ति यॊद्द नुण्डि मूँडडुगुल नेल नडुगुलु कॊजुकु स्वीकरिम्पँबडिन वामन वेषमु गलवाँडा ! ‘निगिरिणोद्दॆकुणोद्धरणैति’ निगिरण मनँगाँ ब्रशयमुनन्दु स्वकुलो निडुकॊनुट, उद्दिरण मनँगा, समुद्रमध्यमु नुण्डि लेव नॆत्तुब ‘तवैव व सती कथं वकन वामन भिक्षण रूपि वगुनो देवा ! परद्रव्यमुग डा वीनिचेत मर्हति’ — वामन पै कारणमुलचेत नीद्रव्यमेयैन भूमि मॆत्तितिवि ? बिच्चमॆत्तँ दगिनदि नॆन्दुलकु बिच्च (सशेषमु) सुन्दर बाहु स्तवमु 181 नी वामनवृत्तान्तमु चेत नाश्रितुल कड्डुतगुलु वारिकिँ गूड मेलुकलिगिम्पवलसि वच्चिनपुडु तदनुगुणमुगा नवत रिञ्चि वारल मन्दलिञ्चुट श्रीवारि कभिमतमनि तॆलियु चुन्नदि. सत्पात्रुँडवगु नीकु मूँडडुगुल नेल निच्चुट चेतने गदा बलि पाताळलोकमुनकुँ जक्रवर्ति यय्यॆनु. ता॥ वरदा! वामनरूपि वगु (श्री सुन्दर बाहु देवा! सृष्टिसंहार रक्षणमुल चेतनु, रक्षणमुल चेतनु, प्रळयमुनँ बॊट्टलो निडुकॊनि सृष्टि कालमुन बैटिकिँ बम्पि समुद्रमुनुण्डि लेव नॆत्ति कापाडुटचेतनु ईभूमि नीसतियु सॊत्तुनै युण्ड दीनिनि बलिचक्रवर्ति नुण्डि बिच्चमॆत्तुट यॆट्लु पॊसङ्गुनु परद्रव्यमुनु गदा! लोकमुन बिच्चमॆत्तुदुरु ! गी॥ जनन संहाररक्षण सर्वविधुल निगिरणोद्दिरणोद्धार नियममुलनु नेल नी भार्य भिक्षिम्प नेल बलिनि ? वामनाकार ! वरद ! श्रीवनगिरीश ! श्लो ॥ भार्गवः किल भवन् भवान् पुरा कुन्द सुन्दरवनाचलेश्वर ! अर्जुनस्य बलदर्पितस्य तु च्छेत्स्यति स्मरति बाहु काननम् ॥ 99 (24)182 सुन्दर बाहु स्तवमु प्रति :- (हे) कुन्दसुन्दर वनाचल, ईश्वर! मल्लॆलचेत नन्दमगु वनगिरिकिँ ब्रभुवगु ओ सुन्दर भुज स्वामी!, पुरा, किल= पूर्वमु, भार्गवः = परशुरामुँ डवु, भवन् अगुचु, भवान् = नीवु, बल, दर्पितस्य बाहुबलमु चेत गर्वितुँडगु, अर्जुनस्य = का
कार्त वीर्यार्दु मुनियॊक्क, बाहुकाननं, तु = वनमुनुबोलु वेयि बाहुवुलनु, छेत्स्यति युन्नदा ?
छेदिञ्चितिवि, स्मरति? बाहु वि शेषमुलु :– छेत्स्यति स्मरति बाहु काननम्…. अनेक क्षत्त्रिययूधमुल संहरिञ्चुटकण्टॆनु बल दर्पितुँडगु कार्त वीर्यार्जुनि बाहु काननमुनु छेदिं चुट यति दुष्करमनि भावमु. ता॥ मल्लॆतीँगलचे नन्दमगु वनाद्रिकि नाथुँडवगु सुन्दरभुजस्वामि ! पूर्वमु श्रीवारु परशुरामाव तारमॆत्ति बाहुबल गर्वितुँडगु कार्त वीर्यार्जुनि बाहु काननमुनु छेदिञ्चिन विषयमु ज्ञ प्ति युन्नदा? उ कुन्दमनोज्ञ वल्लरुल कुन् नॆल वौवनशैल मेलुनो सुन्दर बाहुमूर्ति ! गुण शोभित ! मुन् जमदग्नि पट्टिवै तन्दर लेक बाहुबल दर्पितुँडौ कृतवीर्यपुत्रुनि सुन्दर बाहु स्तवमु प्पन्द भुजाटविन् नऱकि प्रति : वैचिति गॊड्डट ज्ञ प्ति युन्न दे. श्लो॥ आज्ञातवात्र भवती विदिता त्रयी सा धर्मं तदु क्त मखिलेन वनाद्रिनाथ ! अन्यून माचरितु मा न्तिकशिक्षणार्थ म त्रावतीर्य किल सुन्दर ! राघवो भूः ॥ 183 100 वनाद्रि, नाथ !=वनगिरि प्रभुवु वगु, सुन्दर!= सुन्दभुजस्वामी!, आत्रभवती = पूजनीययगु, सा=आ, त्रयी= वेदत्रयमु, तव नीयॊक्क, आज्ञा= आज्ञगा, विदिता = प्रसिद्धमैनदि, तत्, उक्तम्=आवेदत्रयमन्दुँ जॆप्पँबडिन, धर्मम् = धर्ममुनु, आस्तिक, शिक्षणार्थम्= शास्त्रवश्युल शिक्षकॊऱकु, अखि लेन =खिलमुगाकुण्ड, अन्यू नम्= अङ्ग वैकल्यमु लेकुण्ड, आचरितुम्=आचरिञ्चुटकु, नम्=अङ्ग अत्र= इच्चट (अयोध्ययन्दु) अवतीर्य अवतरिञ्चि, राघवः = रामुँडवु, अभूः, कील= अयितिवँट.
विशेषमुलु : - अत्रभवती ईशब्दमु पूज्यार्थकमु. प्रमाणमु लन्निण्टिलो ‘त्रयि’ श्रेष्ठमैनदि गनुकँ बूज्य यनि चॆप्पँबडॆनु. ‘त्रयी’ – ऋग्यजुस्साम वेदमुलकुँ गलिपि त्रयि यनि पेरु. आस्तिक शिक्षणार्थम् वेदमुलु दुरवगाहमुलु गनुक वानिचेँ जॆप्पँबडिन धर्ममु लन्दऱिकिँ दॆलियक पोवुटवलन नवि खिलमुगाकुण्ड अङ्ग वैकल्यमु लेकुण्ड नाचरिञ्चि चूपि या स्तिकुलकु शिक्ष यॊसङ्गुटकु, ‘अत्रावतीर्य किल सुन्दर राघवो2 भूः’- 184 सुन्दर बाहु स्तवमु ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ अन्नट्लु पितृवचन परिपालन, शरणागत संरक्षणादि सकलधर्म व्यवस्थापकुँडवै रामुँ डनि प्रसिद्धिँ बॊन्दितिवि. वारि याज्ञगा ता वनगिरिनाथुँड वगु ओ सुन्दर बाहुमूर्ती प्रमाणो त्तममुगाँ बूजनीयमगु वेदत्रयि देवर याज्ञ गाँ ब्रसिद्धि कॆक्किनदि. दानिचेँ जॆप्पँबडिन धर्ममु खलमुगाकुण्ड नङ्गलोपमु लेकुण्ड नॆल्लूरु नाच रिञ्चुटकु आस्तिक महाशयुलकु शिक्षण मॊसङ्गुटकु ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ अन्नट्लु नीवु श्रीरामुँड वै यवतरिञ्चि याचरिञ्चि चूपितिवि. उ॥ पूजित वेदवाक्कु वन भूधर भूषण ! तावकाज्ञगा भूजनु लॆन्नुचुन्दु रटँ बॊल्चॆडु धर्ममु नार्यशिक्षकै यी जगमन्दु नीवु जनि यिञ्चि यथाविधि नाचरिञ्चुचुन् राजकुलावतंस मगु रामुँड वैतिवि धर्ममो ! यनन्. श्लोकि वनगिरिपति राशि तेति देवै स्त्रीपुरहर त्रिपुरघ्न चापभङ्गात् । व्यगणि परशुराम दर्शितस्य स्वकधनुषः परिमर्शदर्शना च्च ॥ 101 h सुन्दु बाहु स्तवमु J 185 प्रति : देवैः = देवतल चेत; त्रिपुरहार, त्रिपुरघ्न, चाप, भङ्गात् =रुद्रुनियॊक्क, त्रिपुर संहार मॊनर्चिन धनुस्सुनु विऱुचुटवलननु, परशुराम दर्शितस्य = परशु रामुनिचेतँ जूपँबडिन, स्वकधनुषः स्वीयमगु वैष्णव = धनुस्सु यॊक्क, परिमर्श, दर्शनात्, च = अवलीलगा च = नॆक्किडुटनु जूचुटवलननु, वनगिरिपतिः = वनाद्रिनाथुँ डगु सुन्दरभुजस्वामि, ईशिता = सर्वेश्वरुँडु, इति = अनि, व्यगणि = परिगणिम्पँ बडिनदि (निर्णयिम्पँ बडिनदि) विशेषमुलु :——— ‘त्रिपुरहर त्रिपुरघ्न · चाप भङ्गात्’- ईश्वरुँडु त्रिपुरसंहार मॊनर्चिन विण्टिनि भक्तुँडगु जनकुनि कॊसँगॆनु. आमहाराजु सीतापरिणय परिपणमुनुगा नाधनुस्सु नेर्पाटु चेसॆनु. श्री रामुँडु श्री दानि नवलीलगा विऱि चॆनु. ई कथ निट ननुसन्धिञ्चुकॊन वलॆनु. ‘वनगिरिपति रीशि तेति देवैः (व्यगणि) श्रीरामुँडु ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अनि निजमाहात्म्यमु नॆन्त दाँचँ धनुर्भङ्गमु वलननु, परशुरामुनि वैष्णवधनुस्सु नॆक्कु पॆट्टुट वलननु, दॆल्ल मय्यॆननि भावमु. दलँचिननु अदि शिव ता॥ वनगिरिनाथुँडगु सुन्दर बाहुमूरि श्री शिका मुँडुगा नवतरिञ्चि ता नॆन्तगा मानवत्वमु नभिनयिम्पँ जूचिननु त्रिपुरसंहार मॊनर्चिन शिवुनिविल्लु विऱुचुट वलननु, परशुरामदत्त मगु वैष्णवधनुस्सु नवलीलगा 136 सुन्दर बाहु स्तवमु नॆक्कु पॆट्टॆटचेतनु वेल्पुलु परात्परुँडगु सर्वेश्व रुनिगा निर्णयिञ्चिरि. ‘च॥ वनगिरिनाथुँ डिन्दु रघु वल्ल भुँडै जनियिञ्चि यॆन्तगा मनुजतँ जाट नॆञ्चिन न मर्त्यु लॆऱिङ्गिरि तत्परत्वमुन् - दुनियलु सेयुटन् मॊदल धूर्जटि चापमु, ’ नॆक्कु पॆट्टु मी धनु वनि भार्गवुं डॊसँगँ 8 = दत् क्षणमे हरिविल्लु वञ्चुटन्. श्लो॥ आनवाप्त पात्र किल लिप्स्यते जनै र्नच अब्ध मेत दिह भोक्तु मिष्यते ! अनवाप्त मत्र कील नास्ति राम! त ज्जगत् त्वया तृणमवैक्षि सुन्दर ! ॥ (हे) राम ! सुन्धर ! = J 102 प्रति श्री रामुँडवुगा नवतरिञ्चिन यो सुन्दर बाहुमूर्ती! अत्र = ईलोकमुन, जनैः जनुलचेत, अनवाप्तं, किल पॊन्दँबडनिदि गदा, भो क्तुम्= अनुभविञ्चुटकु, लिप्स्यते = कोरँदलँचँ बडुचुन्नदि. इह इक्कड, भो कुम् भुजिञ्चुटकु, लब्धम् = पॊन्दँबडिन, एतत् ईवस्तुवु, (ई वाञ्छित वस्तुवु) न च, इष्यते इष्टमु कादु, अत्र= ईलोकमु नन्दु, = अनवा स्तम् = पॊन्दँबडनिदि, ना स्ति किल = लेदु सुन्दर बाहु स्तवमु 187 गदा, तत् = अन्दुवलन (अवा प्तसमस्त कामुँडवु नी चेत, जगती = भूमि, तृणम् = गड्डि गनुक) त्वया पऱकगा, अवै&=चूडँबडिनदि. विशेषमुलु : ‘नच लब्ध मेत दिह भो क्तु मिष्य ते’ लब्धमगु वस्तुवु ननुभविञ्चुट किष्ट मुण्डदु. सिद्धवस्तुवु कनुक, तृणमवैक्षि गड्डिपऱकवलॆ नल्पमुगाँ जूडँ
- बडिनदि. उभय विभूति नायकुँडवगु नीकु इव्वाकु राज्य मत्यल्पमुगाँ दोँचिनदि. लेकुन्नचो राज्यमुनु वीडुट सम्भविम्पदु. ता॥ श्री रामुँडवुगा नवतरिञ्चिन यो सुन्दर बाहु मूर्ती! ईलोकमुन जनुलु लभिञ्चनि वस्तुवु ननुभविम्पँ गोरुदुरु, कोरँबडिन यी वस्तुवु लभिञ्चॆनेनि सिद्धमगुट चे दानियन्दु निष्टमुण्डदु. अवाप्त समस्तकामुँडवगु नी किक्कड ननवा प्त मेदियु लेदु. कनुक नुभयविभूति नाय कुँडवगु नीकु भूमि (कोसल राज्यमु ) गड्डिपऱकगाँ दोँचिनदि. bes उ. रामुँडवै जनिञ्चिन प रात्पर ! सुन्दर बाहुमूर्ति! दे वा! महिँ गोरुचुन्दु रन वा प्तमु नद्दि लभिम्पँ दानिपै ब्रेममु वोवुँ जॆन्तँ गनि पिञ्चुट नीकु नना प्त मुन्न दे? 138 सुन्दर बाहु स्तवमु कोमल देह ! दानँ गद! कोसललक्ष्मि तृणम्बु नीमदि९. श्लो ॥ शिखरिषु विपिनेव्व प्यापगा स्वच्छतोया स्वनुभवसि रसज्ञो दण्डकारण्यवासान् ! त दिह तदनुभूतौ साखिलाषोद्य राम ! श्रयसि वनगिरीन्द्रं सुन्दरीभूय भूयः ॥ प्रति : 203 (हे) राम! ओरामुँड!, रसज्ञः रसिकुँडवगु नीवु, शिखरिषु=चित्रकूटादि पर्वतमुलन्दुनु, विपिनेषु = वनमुलन्दु, अच्चतोयानु = निर्मलमुलगु नीरुगल, आपगानु, अपि - नदुलयन्दुनु, दण्ड कारण्य निर वासान् दण्डकावनमु नन्दलि निवाससुखमुलनु, अनु भवसि=अनुभविञ्चु चुन्नावु, तत् अन्दुवलन, तत् + अनुभूतौ = वानिनि (कॊण्डलनु, अडवुलनु, नदुलनु) अनुभविञ्चुटयन्दु, साभिलाषः कोरिकतोँ गूडिन वाँडवगुचु, इह = ई जगत्तुनन्दु, अद्य = इप्पुडु, भूयः=मऱल, (रामावतारानन्तरमु कूड) सुन्दरी भूय सुन्दर भुजस्वामि वयि वनगिरीन्द्रम् रापगतो नॊप्पु वनशैल राजमुनु, आश्रयसि यिञ्चु चुन्नावु.
नूपु आश्र विशेषमुलु :- - ‘अनुभवसि रसज्ञो दण्ड कारण्यवासान्’ श्रीरामा! नीरसिकत्वमु लोकोत्तरमु, दण्डकावनवास मुनु सुखकरमुगा ननुभविञ्चितिवि. इटँ गॊण्डलयन्दु सुन्दर बाहु स्तवमु 189 वनमुलन्दु निर्मलतोयमुलुगल नदुलन्दु विहरिञ्चितिवि गानि श्रमपड लेदु. वनवासमुनु सुखमुगा मार्चुकॊन्न नीवे रसिकुँडवु. इन्दुलकुँ ब्रमाणमु - श्रीमद्रामा यणमुन… श्लो॥ चित्रकूट मनुप्राप्य भरद्वाजस्य कॊननाल् रम्य मावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रय्य देवगन्धर्व सङ्काशा स्तत्र ते व्यवसन् सङ्खम् H अनुभनसि : ‘चिरनिर्वृत्त म स्येतत् प्रत्यक्ष मिव दर्शितम् ’ चाल कालमु क्रिन्द ननुभविम्पँ बडिनदिकूडँ गळ्ळकुँ गट्टिनट्लु वर्णिञ्चुटवलन वर्तमानकाल क्रिय युप योगिम्पँ बडिनदि. तदनुभूते साभिलाषः शिखरिविपिन स्रवन्ति सुखानुभवमुनँ गोरिक गलवाँडवै ‘अद्य’ - वर्तमान कालमुन.- ‘भूयः’- मऱल रामावतारा नन्तरमुकूड. ‘श्रयसि वनगिरीन्द्रं सुन्दरीभूय’- श्रीरा मुँडु नाँडु चित्रकूटमु नाश्रयिञ्चिनट्लु सुन्द बाहु मूर्ती! नीवु नेँडु वनगिरि राजमु नाश्रयिञ्चु चुन्नावनि भावमु. ‘सुभग श्चित्रकूटो सौ ॥ गिरिराजोपमो गिरिः यस्मिन् वसति काकुत्थ्सः कुबेर इव नन्दने’ अनि वर्णि बडिन चित्रकूट पर्वतमुतो ईनस शैलमु समानमनि सारांशमु, ण ता॥ श्रीरामा ! नी वॆन्तयु रसीकुँडवु. चित्रकूटादि पर्वतमुलन्दु, वानि यनुबन्धुलगु वनमुलन्दु, माल्य (25) 190 सुन्दर बाहु सवमु वन्तमु नन्दलि निर्मलोदकमुलगु मन्दाकिनी पम्पादिनदुल यन्दुनु विहरिञ्चुचु दण्ड कारण्यवासमु सुखरूपमुगा मार्चुकॊनिनावु. अन्दुवलन निच्चट नायनुभूतियं दभिलाषतो रामावतारानन्तमु गूड मऱल भुजस्वामिपै नूपुरापगतो नॊप्पु वनगिरिराजमु नाश्र यिञ्चु चुन्नावु. शा. रामा ! नीवु रसज्ञ शेखरुँड चौ रा! कॊण्डलन् गानलन् भूमिहार निभम्बुलौ तटिनुलन् भोगिञ्चि तौदण्डकन् नेमं बॊप्प वसिञ्चुनाळ्ळु सुख मा नॆय्यम्बुँ बायङ्ग ले केमी चेरिति सुन्दरुण्ड वयि नेँ डीशानना हार्यमुन् . सुन्दर अवतारिक :_ दण्डकावनवास मॊक्कॊक्कचोट श्रम गलिगिञ्चिनदि. वनगिरिनिवास मट्टि श्रमलनु विशेषमुनु हरिञ्चिनदि यनि चॆप्पुचुन्नारु. श्लोकि उपवनतीरुषं डै र्मण्डिते गण्डशैल प्रणयिभवदुडन्तो द्दायि गन्धर्वसिद्धे । वनगिरितट भूमिप्रस्तरे सुन्दर! त्वं भजिन् नु मृगयानानु द्रव शान्ति शान्तिम् । 105 सुन्दर बाहु स्तवमु 191 प्रति :— हे सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! उपवन, तरु, षण्डै 8 = उद्यानवनमु नन्दलि चॆट्ल गुबुरुल षण्डैः= चेत, मण्डि ते= अलङ्करिम्पँ बडिनट्टियु, गण्ड. गलिगि गण्ड शैल = कॊण्डलनुण्डि जातिपडिन पॆद्दबण्डलयन्दु, प्रणयि प्रेमगलिगि नट्टियु, भवत् = तमयॊक्क, उदन्त = चरितमुनु, उत्, गायि = पॆद्दगा गानमु चेयु स्वभावमुगल, गन्धर्वसिद्धे = गन्धर्वुलु सिद्धुलु नट्टियु, वनगिरि, तट, भूमि, प्रस्तरे=वन शैलमुयॊक्क सानुतलसन्निहित शिलयन्दु, त्वम् = नीवु, मृग…… शान्तिम्_ मृग =मायलेडियॊक्क, यान = गमनमुनु, अनुद्रव = अनुसरिञ्चि परु गॆत्तुटवलनि, श्रान्ति अलुपु यॊक्क, शान्तिम्= तीर्चुकॊनुटनु, भजसि, नु चुन्नावो ! यन्नट्लुन्नावु.
- पॊन्दु
- विशेषमुलु :— इन्दलि युत्त रार्थमु सारांशमिदि. ओ सुन्दर भुज स्वामि ! नीवु रामावतारमुनँ गान्तार
- भुजस्वामी वासमुन मायलेडि वॆम्बडि परु वॆत्तिनन्दु वलनँ गलिगिन श्रमनु सिद्धगन्धर्वगान मनोहरमगु वनाद्रितटमुनँ दीर्चुकॊनुचुन्नट्लुन्नावु. दण्डकारण्यवासमुन मृगानु धावनश्रमनु वनाद्रि पोँगॊट्टिन दनुटचे वनगिरि यति शयमु वॆल्लडि यगुचुन्नदि. भजसीनु - इन्दलि ‘नु’ अनु नव्ययमु उत्प्रेक्षा द्योतकमु.192
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- ता ओ सुन्दरभुजस्वामि! पूँदोँटललोनि चॆट्ल गुबुरुलचे नलङ्कृतमै कॊण्डलनुण्डि जाऱिन पॆनुबण्डलँ गूर्चुण्डि प्रेमतोँ दम चरित्रमुनु गण्ठ मॆत्ति पाडु सिद्धुलतो गन्धर्वुलतोँ गूडिनदै यॊप्पु वनाद्रितटान्तिक शिलातलमुन नीवु रामावतारमुनाँडु माय लेडि वॆम्बडि परुवॆत्तिन श्रमनु दीर्चुकॊनुचुन्नानो यन्न ट्लल रारु चुन्नावु.
- शा॥ पूँदोँटन् गुबुरैन चॆट्लगमुलन्
- बॊल्पारि, गन्धर्वु
- ला
- ह्लादं बॊप्पँग गण्ड शै लगतु लै यालापमुल् सेयँगा नीदिव्यत्कथ गेयभङ्गि विनुचुन् नी वीवनाद्रिस्थली वेदिस् बॊयुदॆ सुन्दरा ! हरिणमुन् वॆण्टाडु नायासमुन्. कूले द्धेः किल दक्षिणस्य निवनन् दूरोत्तराम्भोधिगान् दैत्या नेकपतत्रिणाऒच्छिन इ तीयं किंवदन्ती श्रुता ! ततै वेश्वर मन्धसां व्यजयथा स्तस्मा द्वनाद्रीश्वर ! श्रीमन् सुन्दर! नेतुबन्ध न मुखाः क्रीडा स्तवाड- बरम् ॥ 105 · प्रति : वनाद्रि+ईश्वर ! = वनगिरिप्रभुवा! श्रीमन् लक्ष्मी सम्पन्नुँडा!, सुन्दर = श्रीसुन्दर बाहुस्वामि !, दक्षिणस्य = दक्षिणवु, अब्देः = समुद्रमुयॊक्क, कूले= सुन्दर बाहु स्तवमु इयम्= ई, किंवदन्ती
193 = ऒक टे तीरमुन, निवसन् = निवसिञ्चुचु (त्वम् = नीवु) दूर, उ त्तर, अम्भोधिगान् = दूर मन्दुन्न युत्तर समुद्र द्वीपमुनु जॊच्चिन, दैत्यान्= राक्षसुलनु, एक पतत्रिणा बाणमुतो, अच्चिनः, कील = छेदिञ्चितिवँट, इति = अनि, वार्त, श्रुता = विनँबडिनदि. (रामायणमुन) तत्र, एव = आदक्षिणाब्धि तीरमुनने, अम्भ साम्= नीरमुलकु, ईश्वरम् ईश्वरुँडगु समुद्रुनि, व्यजयथाः = गॆलिचितिवि, तस्मात् = अन्दुवलन, तव = नीकु, सेतुबन्धन मुखाः सेतुवु (वन्तॆन कट्टुट मुन्नगु, क्रीडाः = आटलु, आडम्बरम् = ख्यातिकॊऱकगु व्यापारमु. विशेषमुलु : — ‘सेतुबन्धनमुखाः क्रीडास्त वाडम्ब :- रम्’— ऒ के यॊक बाणमु चेत नुत्तरसमुद्र द्वीपमुलो नुन्न रक्कसिमूँडनु द्रुञ्चिन नीकु निक्कड नुण्डिये लङ्काद्वीपमु नन्दलि राक्षसनिर्मूलनमु सुलुवै युण्ड सागरुनि शरणागतुँ जेसिकॊनि सेतु निर्माण मॊनर्चि रावण वध मॊनर्चुट मुन्नगु नी लीललु लोक विख्याति कॊऱकु अनि हृदयमु. ता॥ वनाद्रिनाथुँड वगु नोसुन्दर बाहुमूर्ती ! नीवु दक्षिणसमुद्रतीरमुन निवसिञ्चुचु नॆन्तो दूरमगु नुत्तर समुद्रद्वीपमुन नुन्न राक्षसकोटुल नॊक्क कोल चेत ने छेदिञ्चिति वनि किंवदन्तिनि श्रीमद्रामायणमुन विनि युन्नामु, अन्तेकादु अच्चटने युण्डि साममु चेतँ सुन्दर बाहु स्तवमु 194 सायकमुचेत जक्कँबडनि सागरुनि सायकमुचेत गडगड लाडिञ्चि जयिञ्चितिवि. अन्दुवलन निच्चटनुण्डिये लङ्काराक्षनुल निर्मूलिञ्चुट नीकु सुलुवैननु सेतुबन्धनादि मन कार्य मुल द्वारा शत्रुवुल जयिञ्चु नी लीललु ख्यातिकॊऱकनि नी तॆलमगु चुन्नदि. उ. दक्षिणवार्धि वेल नॊक तावुन नुण्डि युदक्पयोधिरा ट्कु गतानु काळि नॊक कोलनॆ कूल्चि पयोधि गॆल्चुनी कक्षयकीर्ति निल्पुट कॆ यय्यॆ वनाद्र्यधिनाथ ! सेतुबं धक्षणदाचराधिप व अवतारिक धप्रभृतुल् भवदीड्य भेलमुल् . रामावतार मनोहर व्यापारमुल नुपसंहरिम्पँ बोवुचु ‘उपवनतरुवण्डै’ अनु 104 व श्लोकमुन ननुभविञ्चिन भावमु ने वनगिरिभोग्यतातिशयमुनु सूचिञ्चुटकु मऱल मऱल ननुभविञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ रघुकुलतिलक त्वं जातुचि द्यातुधान च्छलमृगमृगयायां सम्प्रसक्तः पुरा भूः । तदुपजनित भेदच्छेदना याद्य गाय न्मधुकरतरुषण्डं रज्यने किं वनाद्रिम् ॥ 106 प्रति :- ! (हे) रघुतिलक ! = रघुवंशमुनकु बॊट्टु वलॆ नलङ्कारभूतुँड वगु नोरामा ! त्वम् = नीवु ’ पुरा सुन्दर बाहु स्तवमु मुनुपु, जातुचित 195 ऒकप्पुडु, यातुधान, छलमृग, मृगयायाम् = राक्षसुँड नॆडु मायलेडि यॊक्क वेटयन्दु, सम्प्रसक्तः = बागुगा नासक्ति गलवाँ डवु, अभूः = अयितिवि, तत्, उपजनित, भेद, छेदनाय= दानिवलनँ बुट्टिनश्रमनु बोँगॊट्टुकॊनुट कॊऱकु, अद्य= इप्पुडु, गायत्, मधुकर, तरुषण्डम् झङ्करिञ्चुचुन्न तुम्मॆदलु गल चॆट्ल गुबुरु गल, वनाद्रिम्=वन शै लमुनु, (गूर्चि) रज्यसे, किम् = अनुरक्तुँडवगु चुन्नावा ? विशेषमुलु :- याम्’ अदि निजमुगा ! वा यातुधानच्छल मृगमृगया मृगमुगादु. मायलेडि, लोक मुलो बङ्गारु लेडि नॆव्वरुनु विनलेदु कनलेदु. ‘न च श्रुतो नैव च दृष्ट पूर्वो लोके क्वचि देममयः च कुरङ्गः’ – अट्लयिन नॆवरु? यातुधानः- राक्षसुँ डगु मारीचुँडु. मृगयायाम् तत्संहारमुनकु अनुगुण मगु व्यापारमुनन्दु राज्यसे, किं वनाद्रिम् आनाँटि मायलेडि वॆण्टँ बरुगॆत्तिन यायासमुनु दीर्चुकॊनु चुन्नावा ? अनु प्रश्न चेत वनगिरि भोग्य तातिशयम भोग्यतातिशयमु ध्वनितमगु चुन्नदि. ता॥ रघुवं शालं कारभूतुँड. वगुको श्रीरामा ! नी वानाँडु मायलेडि यैन मारीचुनि वॆण्ट मृगमु वॆण्ट मृग युनिव लॆँ बरु गॆत्तुट वलनँ गलिगिन श्रमनु मृगयुनिवलॆँ दीर्चुकॊनुट कॊऱकुँ कॊऱकुँ बूँदे नॆलँ ग्रोलि जुम्मनि गान 196 सुन्दर बाहु स्तवमु मॊनर्चुचुन्न तुम्मॆदलतो नॊप्पु पूँ जॆट्ल गुबुरुलतो निण्डिन वनशैलमु नॆन्नु कॊण्टिवा ? उ. ओ रघुवंश मौक्तिकम! युज्ज्वल हेममृगम्बु वॆण्टँ गां तारमुनन्दुँ बर्विडिन तच्छम मिप्पुडु दीर्चुको मनं बॆ रसलोलमत मधु पारव गानकळाभिराम धा· · त्रीरुहषण्डमण्डितमु दिव्यवनाचल मॆन्नु कॊण्टिवा ? श्लो॥ हे सुन्द रैकतरजव्मनि कृष्णभावे द्वे मातरौ च पितरौ च कुले अपि द्वे ! एकक्षणा दनुगृहीतवतः परं ते नीला कुलेन सदृशी किल रुक्मिणी च ॥ प्रति ते ॥ * 107 हे सुन्दर ! ओ सुन्दर बाहुमूठी! एशतर जन्मनि = ऒक यवतारमुनन्दु, कृष्णभावे = कृष्णुँड पैनप्पुडु, (द्वे इद्दऱु) मातरौ= तल्लुलनु, (देवकी यशोदलनु(द्वौ= इद्दऱु) पितिरौ, च=तण्ड्रुलनु (वसु देव नन्दगोपुलनु) ‘द्वे= रॆण्डु, कुले, अपि ± कुलमुलनुगूड, ( क्षत्रियकुल नन्दगोपकुलमुलनु) एक क्षणात्. = ऒक क्षण लो, परम् = मिक्किलि अनुगृहीतवतः = अनुग्रहिञ्चि वट्टी, ते=नीकु, रुक्मिणी = क्षत्रियकन्य यगु रुक्मिणी देवि, ऎला च = नीला देवियु, कुलेन = वंशमुचेत; सदृशी, किल तगिन कदा! सुन्दर बाहु स्तवमु
- 197
- वि शेषमुलु :— एकक्षणात् = स्वल्पकालमुलो, ‘नीला कुलेन सदृशी किल रुक्मिणी च’- मातृकुल मगु क्षत्रिय कुलमुनकुँ दगिन भार्य रुक्मिणि यनियु, तण्ड्रिकुल मगु गोपकुलमुनकुँ दगिन भार्य नील यनियु भावमु. नीवु भिन्न भिन्न कुलमुललोँ बुट्टिन पत्नीद्वयमुनु बरिग्र हिञ्चुटकॊऱके रॆण्डु कुलमुलनु अनुग्रहिञ्चिति वनि सारांशमु.
- ता ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! नी वॊक जन्ममुनँ गृष्णुँड वैनप्पु डिद्दऱुतल्लुलु निद्दऱुतण्ड्रुल रॆण्डुकुलमुल नॊक क्षणमुलो नादर पूर्वकमुगाँ बरिग्रहिञ्चुट
- तल्लि कुलमगु क्षत्रियकुलमुन कुचित यगु रुक्मिणी देविनि, तण्ड्रि कुलमगु गोपकुलमुन कनुगुण यगु नीला देविनि भार्यलनु गाँ बडयुट के गदा!
- उ॥ सुन्दर बाह ! नीवु प्रज
- सुन्दररूपुँडवै जनिञ्चिन
- पन्दऱु मॆच्चँगा निरुवु
- रम्मल नय्यल नन्वयम्बुलक्
- बॊन्द नॊकेक्षणान नटु
- पूनुट क्ष त्त्रियकन्य भीष्मरा
- ण्णन्दन गॊल्लवङ्गडपु
- नातिनि नीलनु बॆण्डि याडना ?
- (26)
- 198
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- श्लो॥ त्वं हि सुन्दर ! यदा स्तनन्धयः पूतनास्तनमधास्तदा नु किम् । जीर्ण मेव जक रे योविषं दुर्जरं पद लेदात्म ना सह ॥
- H
- 108
- प्रति :-
- सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! त्वम् = ! नीवु, यदा, हि=ऎप्पुडैते, स्तनन्धयः (सन् ) =पालु (सन्)पालु त्रागुवाँडवगुचु, (पसिवाँडवै) पूतना स्तनम् = पूतन यॊक्क, _स्तनमुनु, अधाः = त्रागितिवो ! तदानु=अप्पुडु, दुर्जरम् = (इतुरुल चेत) जीर्णमु चेसिकॊन शक्यमुकानि, प योविषम्=पालरूपमुतो नुन्न विषमुनु, तदात्मना, सह = तत्, आपूतनयॊक्क, आत्मना, सह=जीवमुतोँ गूड, जठ रे = उदरमुनन्दु, जीर्णं, एव, किम् चेसिकॊनँबडिनदा ? वद चॆप्पुमु. जीर्ण मु ण विशेषमुलु :- वद = नीचेतने प्रत्युत्तर मियँ बडवलॆनु, अनँगा- पालुत्रागु प्रायमुनन्दे पूतना प्राणमुलतोँ बाटु इतरुलु जीर्णिञ्चुकॊन लेनि यारक्कसि स्तनविषमुनु जीर्णमु चेसिकॊनिन बालुँडवु नी वेना ? नी ई शङ्कनु दीर्पुमनि भावमु. ता ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! नीवु पालुत्रागु पसि वाँडवै युन्नप्पु डितरुलु जीर्णिञ्चुकॊनलेनि पूतना स्तन मुनु ग्रोलिनप्पुडु आ रक्कसि पालरूपुननुन्न विषमुनु आमॆ प्राणमुलतोँबाटु जीर्णिञ्चुकॊण्टिवा ? ई शङ्कनु दीर्पुमु. सुन्दर बाहु स्तवमु उ॥ चेतुललोनि बिड्ड वयि 3 क्षीरमुँ द्रावॆडु लेँतयीडुनन् बूतन चण्टि नोविपिन भूधर वल्लभ ! श्रोलि तण्टगा ! आतऱि नन्यदुर्जरमु नैन तदुग्रपयो विषम्बु त दातुकि जीवमुन् सममु गा नुदरम्बुन जीर्णमय्यॆना ? ॥ आश्रयेषु सुलभो भवन् ववान् मर्त्यतां यदि जगाम सुन्दर! नाम त दलूखले किय दौम बद्ध इति किं तद्का ईदः ॥ ओ 199 109
प्रति : सुन्दर ! = ओ सुन्दरभुजस्वामि ! भवान् = नीवु आश्रयेषु आश्रितुल विषयमुन, सुलभः = सुल भुँडवु, भवन् = अगुचु, मर्त्यताम् = मानवत्वमुनु, जगाम, यदि=पॊन्दिति वेसि, तत् = अदि (आमर्त्यत्वमु) अस्तुनाम = अगुँगाक, तदा = अप्पुडु, उलूखले= तोटि यन्दु, कियत्, दाम, बद्धः, इति = चिन्नि त्राटिचेत बन्धिम्पँबडितिननि, किम् ऎन्दुलकु, अरुदः वच्चितिवि ? (लेदा) दामबद्दः इति कियत्=ऎन्तो सेपु, ऎन्तो किं = ऎन्दुकु.
त्राटचेँ गट्टँबडितिननि, पॆद्दगा, अरुदः = वच्चितिवि, 200 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- आश्रयेषु सुलभोभवन्’ आश्रयमु चेत फलार्थमु परिचुणयोग्युँड नगुचु, ‘मर्त्यतां यदि जगाम’— मर्तं योग्या मर्त्याः (मरणिम्पँ दगिनवारु) अनुव्युत्पत्तिकिँ दगिनट्लु मर्त्यत्वमुनु बॊन्दिति वेनि, ‘अस्तु नाम तत् देवरवारिचे सङ्कल्पिम्पँबडिन सौलभ्यमुन कनुकूल मैन यामर्त्यत्वमु कलुगुट मञ्चिदे कदा ! अप्पुडु तोटि केमात्रपुत्राटितोनो तल्लि कट्टिवेसिनदनि यन्तसेपु अन्त पॆद्दगा नेल वच्चितिवि? उलूखल बन्धनमु नी याश्रित सौलभ्यमुन कत्यन्तानुकूल मनि सन्तोषिम्पँ वलसिन समयमुन नी वट्लु दुःखिञ्चुट शङ्कनु गलिगिञ्चुचुन्न दनि भावमु. वॆनुकटि श्लोकमुन ‘जीर्ण मेव जठ रे पयोविषम्’ अनु प्रश्न परत्वसूचकमु. ई श्लोक मुन ‘किं तदा रुदः’ अनु प्रश्न सौलभ्यसूचक मनि तॆलियव लॆनु. सुन्दरभुजस्वामि ता! ओ सुन्दर भुजस्वामि ! आश्रित सौलभ्यमु कॊऱकु देवरवारु मर्त्यत्वमुनु स्वीकरिञ्चुट निजसङ्कल्पमुन कनुगुणमै युण्ड नाँडु तोटि केमात्रपुत्राटितोनो कट्टँबडितिननि यन्तगा नेड्व नेल? उ। आश्रितकोटिकिन् सुलभ तातिशयार्थमु नीवु मर्त्यरू पाश्रयणं बॊनर्चि तदि यन्तयु नीकृति कॊप्पिदम्बॆ का! सुन्दर बाहु स्तवमु एश्रम मब्बॆ नीकु नॊक यिञ्चुकत्राटनु तोटँ गट्टँगा नश्रुलु काल्वलै परँग नव्विधि नेड्वँग नेल सुन्दरा ! श्लो॥ सुन्दरोरुभुज नन्दनन्दन 201 110 अन्दमुलगु गॊप्प स्वं भवन् भ्रमरविभ्रमालकः। मन्दि रेषु नवनीततल्लजान् वल्लवीधिय मुत व्यचूचुरः !! प्रति :- सुन्दर ! उरु, भुज ! भुजमुलुगल योसुन्दर बाहुस्वामि ! भ्रमर, विभ्रम, अलकः=तुम्मॆदलयॊक्क विलासमुलवण्टि विलासमुलु गल मुङ्गुरुलु गलिगिन, नन्दनन्दनः == गोपकुमारुँडवु, भवन् = अगुचु, त्वम्=नीवु, मन्दि रेषु=गॊल्ल लयिण्ड्ललो, नवनीततल्ल जान् = श्रेष्ठमुलगु वॆन्नलनु, उत= लेक, वल्ल वीधियम्=गोपिक लबुद्धिनि, व्यचूचुरः दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? (लेक रॆण्डिटिनि दॊङ्गिलिञ्चितिवा ?)
वि शेषमुलु : — ‘नवनीततल्लि जान्’ इच्चटँ दल्लज शब्दमु श्रेष्ठवाचकमु. इन्दलि युत्तरार्धमुयॊक्क सार मिदि. ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! अत्यन्त कान्त दिव्यमङ्गळ विग्रहमुतो नीवु नन्दनन्दनुँडवै नवनीतापहरण मॊनर्चुट गोपीजनमुयॊक्क मनो..पहरणमुन कायॆनु, नी वॆन्न दॊङ्गतनमु नी सौन्दर्यमुनु दिलकिञ्चुचुन्न गोपाङ्गनल कॆन्तयु मुच्चट गॊल्पॆनु. अनि तात्पर्यमु.202 सुन्दर बाहु स्तवमु ता॥ ओ सुन्दर औहुस्वामि ! तुम्मॆदलवण्टि नल्लनि मुङ्गुरुलतो नीवु नन्दगोपकुमारुँडपै नप्पुडु गोपिका मन्दिरमुलन्दु मञ्चिमञ्चि वॆन्नमुद्दलु दॊङ्गिलिञ्चितिवा ? लेक गॊल्लयिल्लाण्ड्र युल्लमुलनु म्रुच्चिलिञ्चितिवा? लेक या रॆण्डिटिनि गॊल्लँ गॊट्टितिवा ? नी उ॥ अल्ल यशोद बिड्डवयि नप्पुडु कानन शैल वल्लभा ! नल्लनि गण्डुतुम्मॆदल नैगनिगल् गल मुङ्गुरुल् विरा जिलॆडु मोमुतोड प्रज सीमल वॆन्नल म्रुच्चिलिञ्चितो ? गॊल्लमिटारि कत्तियल कोमल मानसमुल् हरिञ्चितो ? श्लो॥ काळियस्य फणतां शिरस्तु मे सक्कदम्ब शिखरत्व मेव वा । वष्टि जुष्टवनशैल सुन्दर! त्वत्पदाब्जयुग मर्पितं ययोः । प्रति : जुष्ट, वनशैल 111 ल == सेविम्पँबडिन वनाद्रिगल, सुन्दर ! = ओ सुन्दरभुजस्वामि! त्वद्, पदाब्ज, युगम् = पादपद्ममुलजण्ट, ययोः= ए काळियाहि फणा शिखर मन्दुनु, एकडिमि चॆट्टु कॊनयन्दुनु, अर्पितम्=उञ्चँ बडिनदो, मे=नायॊक्क, शिरः, तु =शिरस्सैते, (ताम्= सुन्दर बाहु स्तवमु 203 अट्टि) काळियस्य= काळियसर्पमुयॊक्क, फणताम् वा= पडगरूपमुनुगानि, सत्, कदम्ब, शिखरत्वं, एव, वा= योग्यमगु कडिमिम्रानिकॊम्मकॊन यगुटनुगानि, वष्टि कोरुचुन्नदि. वि शेषमुलु :— ‘ययोः’– एकाळियाहि फणाग्र :- मन्दुनु, एकडिमिम्रानि कॊनयन्दुनु, वष्टि = कोरुचुन्नदि. ऎन्दुलकनँगा ‘दुर्लभो मानुपो देहॆू देहिनां क्षणभङ्गुरः’ (क्षणभङ्गुरमैननु मनुष्य देहमु दुर्ल भमु.) अनियु, ‘अरण्ये सन्ति पत्राणि नद्यां स्वादूद कानिच सन्ति, हस्ता च पादौ च ! कथं नाराध्यते हरिः’ (अडविलोँ दुळ सीपत्रमुलु गलवु, नदिलो मञ्चिनीरमु गलदु, काळ्लु चेतुलु गलवु. श्रीहरि येल या राधिम्पँ बडँडु) अनियु भगवदाश्रयणोपयोगि करचरणादि विशिष्टमगु मनुष्यत्वमुनन्दुनु ना कन्त मोजु लेदु. भगवच्चरणार्पणमुन कुपयुक्तमु लगु नेनि तिर्यक् स्थावरत्वमुलु गूड ना कुपा देयमुले यनि भावमु. ता॥ ता वनशैल वल्लभुँडवगु ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! नी पादपद्ममुलजण्ट वेनियन्दुञ्चँबडॆनो याकाळियाहि फणाग्रभागमो आकडिमि चॆट्टु कॊम्म चिवर भागमो यगु टकु नाशिरस्सु कोरुकॊनु चुन्नदि. उ॥ सुन्दर बाहु देव! वन शोभित दिव्यशिलोच्चयाधिरा 204 सुन्दर बाहु स्तवमु ण्मन्दिर ! नीपदद्वयि स मर्पित माटनु जेसि काळिया हीन्द्रुफणाग्र भाग मॊ ! य हीनकदम्ब महीरुहाग्रमो! नन्दसुतुण्ड वै नतऱि नाशिर मेटिकिँ गाक पोयॆनो ! श्लो॥ गूहितस्वमहिमाऒपि सुन्दर ! त्वं प्रजे कि मिति शक्र माक्रमिः । सप्तरात्र मदभा श्च किं गिरिं पृच्छत श्च संहृदः कि मक्रुधः प्रति : सुन्दर ! =ओ सुन्दरभुजस्वामी! गूहित, स्व, महिमा, अपि=दाचुकॊनँबडिन स्वाभाविक वैभवमु गलवाँडवय्यु, त्वम् = नीवु, प्रजे= नन्दगोकुलमुनन्दु, किमिति=एमनि, शक्रम्= देवेन्द्रुनि, आक्रमिः = आक्रमिञ्चितिवि, स प्तरात्रम्=एडु रेयिम्बवळ्लु, गिरिम् = गोवर्धन पर्वत मुनु, किं=ऎन्दुलकु, अदधाः= धरिञ्चितिवि, पृच्छतः = (इन्त पॆद्द पर्वतमुनु नॆत्तितिवि नीवु देवुँडवा ? सिद्धुँ डवा? अनि अडुगुचुन्न, सुहृदः =मित्रुलनु, किं= ऎन्दुलकु, आक्रुधः = कोपिञ्चितिवि ? विशेषमुलु :- ‘कि मिति शक्र माक्रमिः’ तन पूज कड्डुव च्चॆननि युद्धोन्मुखुँ डगु देवेन्द्रुनि श्रीकृष्णुँ डॆदुर्कॊ नॆ ननि भावमु. लेदा देवेन्द्रुनि पूज कड्डु तगुलुटये यिट नॆदुर्कॊनुट यनि तॆलिय वलॆनु. सुन्दर बाहु स्तवमु 205 स प्त रात्रम्— इच्चट रात्रिशब्दमु दिवारात्रपरमु. कि मक्रुधः — ऎन्दुलकुँ गोपिञ्चितिवि ? तन महिमनु दाचु कॊनँ दलँचिनवानिकि देवेन्द्रु नॆदुर्कॊनुट, एडुनाळ्लु रेयिम्बवळ्लु गोवर्धनगिरि नॆत्ति पट्टुट, इदि येमि? नीवु देवुँडवा ? सिद्धुँडवा ? यनि प्रश्निञ्चु मित्रुलनु कोपिञ्चुट परस्परमु व्याहतमु (विरुद्धमु) अगुचुन्न दनि भावमु. ता॥ सुन्दर बाहुमूर्ती! नी महिमनु नीवु दाचु कॊनँदलञ्चिन यॆडल नन्दगोकुलमुन निन्द्रयागमु चेय वलदनि देवेन्द्रुनिपै नेल दाडि वॆडलितिवि. एडुनाळ्ळु रेयिम्बवळ्ळु नॆन्दुलकु गोवर्धन पर्वतमु नॆत्ति पट्टुकॊण्टिवि. इदि येमि? नीवु देवतवा ? सिद्धुँडवा? अनि प्रश्निञ्चु मित्रुलपै ँ गोपपडिति वेल? चॆप्पुमु. ? शा॥ देवा ! नीमहिमम्बु दाचुकॊनुनु देशम्ब येन् नन्दगो पावासम्बुन निन्द्रयागमुनु जे यन् रा दटं चिन्द्रुपैँ बोवं गाँ बनि येमि ? येडुदिनमुल् पूनङ्ग नेलागिरिन् ? नी वॆव्वाँड वटन्न नॆच्चॆलुलपै नी केटिको कोपमुल् ? 206 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ हे नन्दनन्दन! सुसुन्दर सुन्दराह्व ! वृन्दावने विहरत स्तव वल्लवीभिः । वेणुध्वनिश्रवणत स्तरुभि स्तदा वै सग्रावभि र्जितुविलाय महो विलील्ये ॥ 113 प्रति : हे नन्दनन्दन! नन्दगोपुन कानन्द करुँडा ! सुसुन्दर, सुन्दराह्व ! = मिक्किलि यन्दगाँड वगुटवलन सुन्दरुँडनु पेरु गलवाँडा ! (सुन्दर बाहु मूर्ती !) तदा = अप्पुडु, वृन्दाव ने नन्दु, वल्ल वीभिः = गोपिकलतो, विहरतः -
- बृन्दावनमु क्रीडिञ्चुचुन्न,
- तव = नीयॊक्क, केणुध्वनि श्रवणतः = वेणुनादमुनु विनुट वलन, सग्रावभिः = ताळ्ळतोँ गूडिन, तरुभिः चॆट चेत, (ताळ्ळ चेतनु चॆट्लचेतनु) जतु विलायम्=लक्क करँगि नट्लु, विलिल्ये= करँगुट यायॆनँट, (लीनमगुट यायॆ नँट) अहॆू= आश्चर्यमु.
- विशेषमुलु : वै प्रसिद्धमु अनु नर्थमुनु तॆलुपु नव्ययमु. ‘जतुविलाय महॆू विलित्ये’. देवा ! नीवु नन्दनन्दनुँडवुगा नवतरिञ्चि बृन्दावनमुन गोपिकलतो विहरिञ्चुचुँ बिल्लनग्रोवि यूँदु चुण्डगा नापाट कन्दलि बण्डलु चॆट्लु कठिनमुलय्यु लक्कवलॆँ गरँगिपोयिनवँट. ऎन्त याश्चर्यमु ! अनि भावमु.
- ता॥ नन्दगोपु नानन्द पॆट्टुचु सुन्दर विग्रहमु गलिगि युण्डुट चेत ‘सुन्दर’ अनु सारकनाममुनु जॆन्दि अप्पुडु
- सुन्दर बाहु स्तनमु
- 207
- बृन्दावनमुन गोपिकलतो विहरिञ्चुचुन्न नी वेणुनादमुनु विनि यच्चटिबण्डलु वृक्षषण्डमुलु लक्कवलॆँ करगि पोयिनवँट. ऎन्त याश्चर्यमु !
- शा॥ नन्दानन्द करुण्डवै यधिक सौं
- दर्यम्बु मैँ ग्रालुटक्
- बृन्दावासुलु सुन्दरा ! यनुचु निक् बिल्वङ्ग गोपाङ्गना
- सन्दोहम्बुनु गूडि नीवु मुरळी
- स्वानम्बुँ गाविम्पँगा
- नं दॊप्पारुशीलल् तरुल् गरँगॆ नं
- औरौर! लक्कं बलॆक्
- 114
- (लेदा
- श्लो॥ गायङ्गायं वनगिरिपते! त्वं हि वृन्दावनान्त
- गोपी सङ्घै र्विहरसि यदा सुन्दर व्यूढबाहो ! रासारम्भोत्सव बहुविध प्रेम सीमन्तिनी नां चेत श्चेत स्तव च तु तदा कां दशा मन्वभूता प्रति :- व्यूढ बा हॆू ! = प्रसिद्धमुलु, दृढमुलु) अगु बाहुवुलु गल, वनगिरिपते ! = वनाद्रि नाथुँडवगु, सुन्दर ! ओ सुन्दर भुजस्वामि !, त्वम् =
- सुन्दरभुजस्वामि नीवु, यदा = ऎप्पुडु, वृन्दावनान्तः = बृन्दावनमु लोपल, गायङ्गायम् = गान मॊनर्चिगान मॊनर्चि (पाडि पाडि) गोपीसं घैः = गोपिका समूहमुलतो, विहरसि=विहरिञ्चु चुन्नावो, हि =
- प्रसिद्धमु, तदा= आसमयमुनन्दु, रासा… प्रेम-रासारम्भ =रासारम्भ
- 208
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- गोपिकल
- मनॆडु, उत्सव=उत्सवमुनन्दु, बहुविध=अनेक विधमुलु गल, प्रेम= प्रणयमु गलिगिन, सीमन्तिनी नाम् यॊक्क (पापट गलवारु) चेतः = मनस्सु, तव = नीयॊक्क, चेतः च= मनस्सुनु, काम् ए, दशाम् स्थितिनि, अन्व भू ताम्=अनुभविञ्चिनवो ! (अनिर्वचनीय मगु महानन्द
- मुनु बॊन्दिनवि)
- P
- विशेषमुलु :- सुन्दरव्यूड बा हॆू— इदि येक पदमुगा नन्वयिञ्चु कॊनवच्चुनु. अप्पुडु- अन्दमु लैन दृढमुलगु बाहुवुलु गल वाँडा ! यनि यरमु. लेदा — सुन्दर ! व्यूढ बाहॆू ! अनि विडिविडिगा नर्थमु चॆप्पिकॊन वच्चुनु लेदा गोपीसं
- सङ्घैः गोपिकासमू हमुल
- चेत, व्यूढ बा हॆू ! = आश्लेषिम्पँ बडिन (मॆ
- = (मॆल वेसि कॊनँबडिन) भुजमुलु गलवाँडा! यनियु नन्वयिञ्चु कॊननगुनु. ‘रासारं भोत्सवबहुविध प्रेम’-
- श्लो॥ “आङ्ग ना मङ्ग ना मन्तरे माधवो
- माधवं माधवं चान्तरे जाङ्गना ! इफ्ट्ल माकल्पिते मण्डले मध्यगः
- सञ्जगा वेणुना देवकीनन्दनः ॥
- अनि वर्णिम्पँबडिनट्लु श्रीकृष्णुँ डनेक विग्रहमुलँ बरिग्रहिञ्चि यनेक गोपिका कान्तलचे सङ्क्लिष्टभुजुँडै मुरळिनि वायिञ्चुचुँ गाविञ्चिन नृत्य विशेषमुनु रास मन्दुरु. अट्टि रासोत्सव प्रारम्भमुन नाविर्भविञ्चिन
- .
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- 209
- बहुविध प्रणयरसमुगल गोपिकलयॊक्क यु नीयॊक्कयु मनस्सु सुन्दर सुन्दरीजन मनस्सुलकु सैत मन्दनि यवा ज्मानसगोचर मगु नानन्दमु ननुभविञ्चिनदनि तात्पर्यमु.
- ता॥ दृढ बाहुवुलु गलिगि, वनगिरि नाथुँडवैन यो सुन्दर बाहुमूर्ती! ऎप्पुडु नीवु बृन्दावनमुलो गोपिका बृन्दमुलतोँ गूडि पिल्लनग्रोवितोँ बाडुचु विहरिञ्चितिवो ! यप्पुडु रासक्रीडामहोत्स वारम्भमुन बहुप्रकारक मगु प्रणयरसमुतो नॊप्पॆडु गोपिकल हृदयमुनु नीहृदयमुनु अनिर्वचनीय मगु नॊका नॊकसिति ननुभविञ्चिनवि.
- उ॥
- उ ओ वन शैलसुन्दरुँड !
- यूँदुचुँ बिल्लनग्रोवि, नाँडु बृं
- दावनिलोन गोपवनि
- ताततितो विहरिञ्चु रासली
- लाविभवम्बुनन् ब्रणय
- लालित माजवराण्ड्रयुल्लमुन्
- तावकमानसम्बुँ ब्रम
- दं बतिवाङ्मनसम्बुँ गाञ्चॆने,
- श्लो. इङ्गितं निमिषितं च तावकं
- रम्य मद्भुत मतिप्रियङ्करम् । तेन कंसमुखकीटशासनं सुन्दराल्पक मपि प्रशस्य ते H
- 115
- 210
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- प्रति :- सुन्दर!
- नी सम्बन्धियगु,
- इङ्गितम्
- सुन्दरभुजस्वामी!, तावकम्= कनुबॊममुडि मुन्नगु
- चेष्टितमु, निमिषितं, च = कटाक्षमुनु, अद्भुतम् आश्चर्य करमु, अतिप्रियङ्करम् = मिक्किलि प्रीतिनि गलिगिञ्चुनदियु, रम्यम् मनोहर मैनदियु, (भवति = अगुचुन्नदि) तेन = आ कारणमु चेत, अल्पकुरुपि = स्वल्पमैन दैननु, कंस, मुख, कीट, शासनम् = कंसुँडु मुन्नगु जन्तुवुलनु संहरिञ्चुट, प्रशस्यते = पॊगडँबडुचुन्नदि. ते=
- वि शेषमुलु :— तेन. प्रशस्यते ओ सुन्दर भुज स्वामी ! नीदयिनन्तमात्रमु चेतने सर्वमु विस्मया वहमु प्रीतिकरमु मनोहरमु गावुन नी दृष्टिलोँ गीट मुलवण्टि कंसादुलनु दुरुमाकुट
- सङ्कल्पमात्रमु भूभङ्ग साध्यमे यैननु लोकमन्तगा दानिनि प्रशंसिञ्चु चुन्नदि.
- चेतने सकलजगत्तुकु संहरिञ्चु नीकु
- ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी ! नी सम्बन्धि यगु भूभङ्गादि चेष्टयुँ गटाकु. वीक्षणमुकु विस्मयकरमु प्रीतिकरमु मनोहरमु नगु चुन्नदि. कनुकने नीकु स्वल्पविषय मैनप्पटिकीँ.. गीटमुलँबोलु कंसादुलनु
- मिक्किलि प्रशंसिम्पँबडु चुन्नदि.
- उ॥ मङ्गळविग्रहा ! सुगुण
- संहरिञ्चुट
- मण्डन ! सुन्दर ! तावकम्बु भ्रू
- I
- सुन्दर बाहु स्तवमु
- भङ्गमुखेङ्गितम्बु सद
- पाङ्ग निरीक्षण मद्भुतावहं
- बुं गमनीयमुन् ब्रियद
- मुं जुम ! कंसमुखाल्पकीट हृ
- द्भङ्ग मॊनर्चु कार्य मिदि
- पद्मदळेक्षण ! नीकु नल्प मा..
- भङ्गिम मौनुँ गाक निज
- भ क्त जनम्बु प्रशंस चेसॆडुन्.
- श्लो॥ वाराणसीदहन, पौण्ड्रक, भौम, भङ्ग, कल्पद्रुमाहरण, शङ्करजृम्भणाद्याः । अन्या श्च भारतबल श्रधनादय स्ते : क्रीडा स्सुसुन्दरभुज ! श्रवणाृमतानि ॥
- प्रति :
- 211
- L
- 116
- हे सुसुन्दरभुज ! ओ सुन्दरभुजस्वामि! णाद्याः — वारणसीदहन = काशिनि भस्म राणासी… मॊनर्चुट, पौण्ड्रक = पौण्ड्रक वासु देवुनि, भौम = नरका
- सुरुनि, भङ्ग = संहरिञ्चुट, कल्पद्रुम पारिजातमुनु, आहरण = तॆच्चुट, शङ्कर, कल्पवृक्ष मगु जृम्भण= आद्याः = जृम्भणास्त्रमुचेत शङ्करुनि स्तम्भिम्पँ जेयुट, मॊदलुगाँ गलवियु, भारत, बल, क्रथन, आदयः = भारतयुद्धमुनन्दुँ बदु नॆनिमिदि यक्षौहिणुल बलमुनु नशिम्पँ जेयुट मॊदलुगाँ गलवियु, अन्याः= इतरमु लगु, ते=नीयॊक्क, क्रीडाः, च = लीललुनु, श्रवण, अमृ च= तानि=कर्णामृतमुलवण्टिवि. (वीनुलकु विन्दु गूर्चुनवि)212 सुन्दर बाहु स्तवमु विशेषमुलु :- ई शोकमुनन्दलि गाधलु पुराण प्रसिद्धमुलु. ‘अन्याश्च’ ग्रन्थ विस्तरभयमु चेत
- भगवल्लीललु सङ्ग्रहमुगा श्लोकमुन विवरिम्पँबडिन वनि भावमु, श्रवणामृतानि - भगवल्लीललु श्रोत्रेन्द्रियमु नमृतमुवलॆ सन्तोष पॆट्टु ननुट सुप्रसिद्धमे. ‘भूषण मुलु चॆवुलकु, बुधतोषणमु लनेक जन्मदुरितौघविनि श्शोषणमुलु मङ्गळतर घोषणमुलु गरुडगमनगुण भूषणमुल् '
- श्री पोतनामात्युँडु. ता॥ ता ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! काशिनि दग्ध मॊनर्चुट, पौण्ड्रक वासु देवुनिँ गूल्चुट, नरकासुरुनि नाश मॊनर्चुट, जृम्भ कास्त्रमुचेत शङ्करुनि स्तम्भिम्पँ जेयुट, मुन्नगु नवियु, भारतरणमुन अष्टादशाक्षौहिणुल बलमुनु भस्म मॊनर्चुट मॊदलैन देवरवारि लीललु कर्णामृतमु लै भ क्तुल नानन्दपऱचुचुन्नवि. शा॥ श्रीवाराणसि पट्टणम्बु नटु भस्म स्मीभूतमुं जेयुटल्, तो नी वेषम्बुनु दाल्चु पौण्ड्रकुनि तो णिं गूल्चुटल्, भौमु दु र्भावुन् जॆण्डुट, जृम्भणम्बुन हरुन् भञ्जिञ्चुटल्, देव! भू देवी भारमुँ दीर्चु नी कृतुलु स्यं दिञ्चुन् सुधन् वीनुलन्. सुन्दर बाहु स्तवमु 205 अवतारिक :-अति सन्निहितमगु कृष्णावतार प्रसङ्गमु चेतँ दत्तुल्य योग क्षेममुगु नवता रत्रयमु नन्दुण्डि नीवे याश्रित जनम्बुलकु नखिलाभीष्टमुल ननुग्रहिञ्चु चुन्नावनि मूँडु श्लोकमुल चेत श्री सुन्दर बाहुमूरि वारि महिमनु वर्णिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ त्वं हि सुन्दर ! वनाद्रिनाथ ! हे वेङ्कटाह्वय न गेन्द्रमूर्धनि । देवसेवित पदाम्बुजद्वयः ॥ संश्रितेभ्य इह तिष्ठने सदा ॥ प्रति :- वन+अद्रि, नाथ ! = वनाद्रि सुन्दर 117 प्रभुवगु, हे
ओ सुन्दर भुजस्वामी!, त्वम् = नीवु, वॆङ्कट, आह्वय, नागेन्द्र, मूर्धनि = वेङ्कट मनॆडु पेरुगल पर्वतराजमु यॊक्क शिखरमुनन्दु, सदा = ऎल्लप्पुडु, देव, सेवित, पदाम्बुज, द्वयः (सन्) = नित्यसूरुल चेत सेविम्पँबडिन पादपद्ममुल जण्टगलवाँड वगुचु, इह= इक्कड, संश्रि तेभ्यः =आश्रितुलकॊऱकु, तिष्ठसे हि= प्रसिद्धमु. उन्नावु, वि शेषमुलु :— वेङ्कट, आह्वय, नागेन्द्र, मूर्धनि - ‘सर्वपापानि वें प्राहुः कट स्तदाह उच्यते’ अनु प्रमाणमुचेत सर्वपापमुलनु दहिञ्चुट चेत आन गेन्द्रमु नकु वेङ्कट अनु नाममु वच्चिन दनि भावमु. वें (27) —A 206 सुन्दर बाहु स्तवमु सर्वपापमुलनु, कट= दहिञ्चुनदि. देवसेवित……इच्चट देवशब्दमुनकु नित्यसूरु लनि यर्थमु. इन्दुलकुँ ब्रमा णमु ‘यत्र पूर्वे साध्या स्सन्ति देवाः’ संश्रि तेभ्यः तिष्ठ से—— अनुचोट चतुर्थी विभक्तियु, आत्मनेपदमुनु इच्चटि याश्रितुलकॊऱकु सकलाभीष्टमुल नॊसङ्गुटकुँ गङ्क णमु कट्टुकॊनि युन्नान नॆडु स्वाभिप्रायमुनु वॆल्लडिञ्चु चुन्नदि. इन्दुलकुँ ब्रमाणमु ‘सू॥ श्लाघन् हुज्, स्टा शपां ज्ञाप्स्यमानः’ — अनु पाणिनि सूत्रमु.
ता॥ वनाद्रीश्वरुँड वगु ओ सुन्दर बाहुस्वामी ! देवरवारु पापमुलु नॆलँ बटापञ्चलु सेयु वेङ्कटाचल शिखरमुन वेञ्चेसि नित्यसूरुल चेत सेविम्पँबडिन पादार विन्दमुलु गलवारलै यिच्चट नुण्डुट सकलाश्रितुलकु सर्वाभीष्टमुल नॊसङ्गुटके यनॆडु तम यभिप्रायमुनु देटपऱुचु चुन्नारु. गी. श्रीहरि ! वनाद्रिसुन्दर बाहुमूर्ति! नित्य सूरीडितुण्डवै नीवु शेष शिखरि नि ट्लुण्ट यिचटि याश्रितुलकीप्सि तार्दमुल निच्चुतलँ पनि व्यक्त मय्यॆ. ळो ह सिशॆलनिलयो भवतौ भवाक् साम्प्रतं वरदराजसाह्वयः । इष्ट मर्द मनुकम्पया ददत् विश्व मेव दयने हि सुन्दर ! 118 प्रति : सुन्दर बाहु स्तवमु 207 (हे) सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुमूर्ती!, वरद राजसाह्वयः= 8 = वरद रा वरदरा ज नॆडु पेरितोँ गूडिन वाँडवै, ह स्त्रीशै लनिलयः = करिगिरि वासमुगाँ गलवाँडवु, भव९=अगुचु, भवा= देवरवारु, साम्प्रतम् – इप्पुडु, इष्टम् = प्रार्थिम्पँबडिन (इष्टमैन) अर्थम् = पुरुषार्थमुनु, अनुकम्पया, एव=दयचेतने, ददत् = इच्चुचु, विश्वम् प्रपञ्चमुनु, दयसे कनिकरिञ्चु चुन्नावु, हि= प्रसिद्धमु. विशेषमुलु :- अनुकम्पया, एव
त त्तत्साधनानु स्थानमु लेक ये यनि भावमु. दयसे— दयाविषय लेकये मुनुगाँ जेयुचुन्नावु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! नीवु वरदराजस्वामि यनु पेरितोँ गरिगिरियन्दु वासमु चेयुचु निप्पुडु भ क्तुलु कोरिन पुरुषार्थमु नव्याजकृपतोने यिच्चुचुँ ब्रपञ्चमुनु कनिकरिञ्चुचुन्नावु. इदि प्रसिद्धमु. गी. देव ! सुन्दर बाहुमूर्ती! वनाद्रि वल्ल भा ! ह स्तिगिरियन्दु वरदराजु पेरँ गृपतो नॆ श्रितुल कीप्सितमु लिडुचुँ गनिकरिञ्चुचु नुन्नावुगा! जगम्मु. श्लो॥ मध्येश्री रपयोधि शेषशयने शेषे सदा सुन्दर ! त्वं त द्वैभव मात्मनो भुवि भवद्भक्तेषु वात्सल्यतः । विश्राण्याखिल नेत्रपात्र मिह सज् सह्योद्भवायास्तटे श्रीरङ्गे निजधाम्नि शेषशयने शेषे वनाद्रीश्वर ! ॥ ! 119 208 प्रति सुन्दर बाहु स्तवमु (हे) वनाद्रीश्वर, सुन्दर! वनाद्रिप्रभुव वगु ओ सुन्दर बाहुस्वामि!, त्वम् = नीवु, मध्येश्रीर पयोधि = पालसन्द्रमुनडुम, सदा = ऎल्लप्पुडु, शेष शयने= शेषपर्यङ्क मुनन्दु, शेषे = परुण्डु चुन्नावु, तत्=अट्टि, आत्मनः = नीयॊक्क, वैभवम्= प्रभावमुनु,
= भुवि=भूमियन्दु, भवत्, भ क्तेषु = देवरवारि भक्तुल विषयमुन, वात्सल्यतः = स्नेहवि शेषमुवलन, विश्राण्य= इच्चि, अखिलनेत्र पात्रम्, सन् = अन्दऱिदृष्टिकि गोचरमैन वाँड नगुचु, इह= इप्पुडु (इक्कड) सहॆ्यूद्भवा यारि = कावेरीनदियॊक्क, तपे तटे = ऒड्डुन, निजधाम्नि = स्वनिवास मगु, श्रीरङ्गे= श्रीरङ्गमन्दु, शेषशयने= शेषपर्यङ्कमुन, शेषे शयनिञ्चुचुन्नावु. विशेषमुलु :- “त त द्वैभव मात्मनः’ शेषपर्यङ्क शायित्वरूप मगु श्रीवारि या वैभवमु ननि भावमु. वात्सल्यतः — ‘ई’ अनुनदि पञ्चम्यर्थमुन वच्चिन ‘तसिल्’ ~ प्रत्ययमु. दोषमुलनु बाटिम्पनि स्नेहवि शेषमु वलन अनि यर्थमु. श्रीरङ्गे निजधान्नि श्रीरङ्गमुनकु ‘निजधाम्नि’ अनु विशेषणमु वेयुटवलन श्रीरङ्गमु वैकुण्ठ विमानमनि व्यक्तमगु चुन्नदि. शेषशयने शेषे- राब्धशायिनि शायिनि सात्तुगाँ जूड नश क्तुलगु भक्तजनुलकुँ दत्सेव ननुग्रहिम्प नॆञ्चि यिच्चट समस्तार्चावतारमु लकु मूलकन्दमगु श्रीरङ्गशायि वगुचुन्ना वनि भावमु. सुन्दर बाहु स्तवमु 209 ता॥ वनाचलनाथुँड वगु नोसुन्दर बाहुमूर्ती ! देवरवारु पालसन्द्रमु नन्दु सर्वदा शेषपर्यङ्कमुन शयनिञ्चियुण्डु दिव्यवैभवमुनु दोषमुल वैपु दृष्टिनि बोनीयनि प्रेमविशेषमुवलन नश क्तुलगु भूलोकवासुलैन भ क्तुलकु ननुग्रहिम्प निच्चट, अन्दऱिकन्नुलकु गोचरिञ्चुचु कावेरीतीर मुन भूलोक वैकुण्ठ मगु श्रीरङ्गमुन शेष तल्पमुनन्दु शयनिञ्चु चुन्नावु. शा. श्रीमत्कासनशैल सुन्दरभुजा ! श्री राब्धि भोगीन्द्रुपै नामोदम्बुन नीवु पण्डु विभवं बत्रत्यभक्ताळि कु द्दाम प्रेम ननुग्रहिम्पँग भवद्धामम्बु श्रीरङ्ग मं दीमाद्रि९ भुज गेन्द्रशायिवयितो यीसह्यजा तातटि९॥ श्लो॥ कल्की भविष्य कलिकल्क दूषिताज् ♡ दुष्टा नशेषाज् भगवत् ! हनिष्यसि । स एषतस्यावसर स्सुसुन्दरः प्रशाधि लक्ष्मीश ! समक्षमेवनः 120 प्रति :- लक्ष्मीश ! = लक्ष्मीनाथुँड नगु, भगव != मिक्किलि अन्दगाँड वगु ओ भगवानुँडा ! सुसुन्दरः (सुन्दर नाममुगल) त्वम् = नीवु, कल्कि = कल्किवि गॊप्प गुऱ्ऱपुरौतु) गुऱ्ऱपु रौतु) भविष्य= काँबोवुचु, (कल्किविगा नवत रिम्पँबोवुचु) कलि, कल्क, दूषिता = - कलिकालप्रयुक्त मगु मालिन्यमु चेतँ बाडयिन, अशेषाक्= समस्तमैन, दुष्टाक् - दुर्मार्गुलनु, हनिष्यसि = चम्पँगलवु, तस्य = ! 210 सुन्दरबाहु स्तवमु आकल्क्यवतारमुनकु, सः = आनीहृद्दतमगु, अवसरः = समयमु, एषः= इदिये, नः = मा यॊक्क समक्षम्, एव=कन्नुलयॆदुटने, प्रशाधि= (दुष्टुलनु) शिक्षिम्पुमु. विशेषमुलु :- कल्की = हयसादिवि शेषः - अनँगा नॊक विधमगु गुऱ्ऱपु रौतु, तस्य = कलिकल्मष दूषितु लगु दुष्टुलनु संहरिम्प ननुवगु कल्किरूपमु नॆत्तुटकु. ‘प्रशाधि लक्ष्मीश ! समक्ष मेव नः’ – देवरवा रिप्पुडे कल्क्यवतारमु नॆत्ति दुष्ट संहारमु
चेयनियॆडल नाश्रितुल मगु माकु विनाशमु तप्पदनि भावमु, ता॥ लक्ष्मीशुँड वगुनो भगवानुँडा ! सुन्दर बाहु मूर्ति वगु नीवु कल्किविगा नवतरिम्पँ बोवुचुँ गलिकल्मष र्मार्गुलनु वधिम्पँगलवु आसमय मिदिये कावुन नादुष्टुलनु माकन्नुल यॆदुट निप्पुडे निर्मू दूषितुलगु दुरा लिम्पुमु. उ. सामि! रमेश! सुन्दरभु जा! यिँक मुन्दऱँ दामु कल्किगा भूमि जनिञ्चि दुष्ट जन मुं गलिकल्मष दूषितम्मु नि स्सीमबलम्मुतो नसिनि जॆण्डॆद रण्ट! मुहूर्त मिय्यदे या महनीय कार्यमुन काखलुल९ दुनुमाडु मिप्पुडे. . सुन्दर बाहु स्तवमु 211 अवतारिक इट्लु पॆक्कुविधमुल नाश्रितजनोपकारम्बु लगु नवतारमुल नीवे ताल्चिति ननि पलुसारुलु चॆप्पँबडिन श्री सुन्दर भुज स्वामिवारि विहारलीलनु मुगिञ्चि यी कार णमु चेत देवरवारे याश्रयणीयु लनि शरणु चॊच्चु चुन्नारु. श्लो॥ ईदृशा स्वदवतार सत्तमाः सर्व एव भवदाश्रिता जनाज्” । त्रातु मेव न कदाचि दन्यथा तेन सुन्दर ! भवन्त माश्रये ॥ 121 प्रति :— हे सुन्दर! ओ सुन्दर बाहुस्वामी !, ईदृशाः =इटुवण्टि, सर्वे, एव अवतार, सत्तमाः = देवरवारि = सम समस्तमुलैन, त्वत् , मुख्यमुलगु नव तार नाश्रयिञ्चिन, मुलु, भवत्, आश्रिताक् = देवर वारि जनाक्=साधुजनुलनु, त्रातुं एव = रक्षिञ्चुट कॊऱके, कदाचित्, अपि = ऒकप्पुडु गूड, अन्यथा= इतर प्रयो जनमुकॊऱकु, न = कावु, तेन = अन्दुचेत, भवन्तम् श्रीवारिनि, आश्रये= आश्रयिञ्चु चुन्नानु. विशेषमुलु :- त्रातु मेव ‘परित्राणाय साधू
- नाम्’ अनि चॆप्पँबडिन प्रयोजनमु कॊऱके यनि भावमु, ऎक्कड नैननु साधुरक्षणमु दुष्ट विनाशमु . लेकुण्ड जरुगदो यच्चट दुष्टविनाशमु गूडननि याशयमु. ’ तेन’ वनाद्रियन्दु सुन्दर बाहुमूर्तिगा नवतरिञ्चुट याश्रित परित्राणमुन के कान, भवन्त माश्रये ज्ञान, 212 सुन्दर बाहु स्तवमु शक्ति, सौलभ्य, सौशील्य, वात्सल्यादि कल्याणगुण सम्पन्नुँ डवुनु, आश्रितरक्षणैक दीक्षितुँडवुनु, अगु निन्नु शरणु चॊच्चु चुन्नानु. अनि भावमु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ति ! इटुवण्टि नी मुख्याव तारमु लन्नियु नीयाश्रितजनुलनु रक्षिञ्चुटके कानि यितर प्रयोजनमुलकुँ गावु. प्रकृत मी वनाद्रियन्दु सुन्दर बाहुमूर्तिगा नवतरिञ्चुट नवतरिञ्चुट कूड नाश्रितुल रक्षिञ्चुट के कान ज्ञानशक्ति सौलभ्य सौशील्यादि गुणसम्पन्नुँ डवु नाश्रितरक्षण बद्धदीक्षुँड वगु निन्नु शरणु चॊच्चु चुन्नानु. शा. ओ देवा ! जग देशमङ्गळ विधा युल् मुख्यमुल् तावक प्रादुर्भावमु लॆल्ल सुन्दर भुज स्वामि! वनाद्रीश ! नी पादाब्जम्बुलँ गॊल्चुभ क्त ततुल बालिम्प; नन्यार्थमै का दिं केल समाश्रयिञ्चॆद निनुकॊ त्वा गारुण्य वारान्निधि९. मामनन्ति कवयः करुणामृताब्धं त्वा मेव संश्रितजनिघ्न मुपन्नु मेषाम् । एषां प्रज न्निह हि लोचनगोचरत्वं हेनुन्दराह्व ! परिचस्करिस्ते वनाद्रिम् ॥ ! 122 सुन्दर बाहु स्तवमु 213 प्रति हे सुन्दराह्व ! ! = सुन्दरनाम धेयुँड वगु ओ देवा ! कवयः = कवुलु, करुणा, अमृत, अब्धिम्= करुणय नॆडु अमृतमुनकुँ बुट्टिनिल्लगु वानिनिगा (लेदा) करुणकु श्री राब्धिवण्टि वानिनिगा, त्वाम् = निन्नु, आमनन्ति = चॆप्पुचुन्नारु, त्वांएव=निन्ने, संश्रित, जनि, घ्नम् आश्रितुल संसार दुःखमुलनु नशिम्पँ जेयुवानिनि गानु, एषाम्=ईयाश्रितुलकु, उपघ्नम्= आश्रय भूतुनिगानु, (आमनन्ति = चॆप्पुचुन्नारु) एषाम् = ई याश्रितजनुलकु, लोचन, गोचरत्वम्=कन्नुलकुँ गानवच्चुटनु, प्रज पॊन्दुचु, इह=इच्चट, (ईलीलाविभूतिलो) वनाद्रिम् वनगिरिनि, परिचस्करिपे = अलङ्करिञ्चु चुन्नावु, हि प्रसिद्धमु. विशेषमुलु :- कवयः कवनशीलु रगु भगव द्वाल्मीकि, पराशर, पाराशर्य, पराङ्कुश, परकाल, प्रभृ तुलु. उपघ्नम्=दग्गऱगा नुन्न यण्ड’ स्या दुप्नन्ति काश्रयः’ अनि यमरमु. परिचस्करिपे वनाद्रिम् निर्हेतुक जायमान करुणापरिपूर्णुँड वगुट वलननु शरण्युँड वगुटवलननु शरणवरण सौकर्यमुकॊऱकु आश्रित नेत्रपात्रमवै वनाद्रि नलङ्करिञ्चु चुन्नावनि भावमु. ता॥ ओ सुन्दरभुजस्वामि ! भगवद्वाल्मीकि प्रभृतिमहा कवुलु निन्नुँ गरुणामृत परिपूर्णुनिगा नुडिविरि. मऱियु नाश्रितजनुल जरामरणमुलँ बापुदग्गऱनुण्डु नण्डनु (28)214 सुन्दर बाहु स्तवमु गानु निन्ने वर्णिञ्चिरि. इट्लु समाश्रितुलकु लोचनगोचर मगुचु नीलीला विभूति यन्दु शरणवरण सौकर्यमुन की वनाद्रि नलङ्करिञ्चि युन्नावु. उ. नाकुजमुख्य सत्क विज नम्बुलु निन्नुँ गृपामृताब्धिँगा वारिनि राश्रिताळि भव पाश विनाशकुँगाँग दापुलो ने कलयण्डगाँग गरु णिञ्चिरि संश्रितकोटिकण्टिमुं दै कडु नन्दुपाटुग प नाचलसीम नलङ्करिञ्चिते. श्लो॥ अशक्यं नो किञ्चित् तव न चन जानापि निखिलं दयालुः क्षन्ता चा स्यह मपि च ना गांसि तरिकुम् । क्ष मोऒक स्वच्छेषो ह्यगति रिति च क्षुद्र इति च क्षम स्वैताव न्नो बल मिह हरे! सुन्दरभुज! ॥ 123 प्रति :-— हे सुन्दरभुज ! ओ सुन्दर बाहुस्वामि!, हरे! = विष्णुमू विष्णुमूर्ती ! तव = नीकु, आशक्यम् = साध्यमु गानिदि, किञ्चम्=कॊञ्चॆमुनु (ऒकटियु) नो= लेदु, निखि लञ्च=अन्तयुनु, स, जानासि, इति, न ऎऱुँगवनि लेदु, (ऎऱुँगुदु वन्नमाट) दयालुः = दयगलवाँडवु, क्षन्ता, च=ओर्पुगलवाँडवुगूड, अहंअपि= नेनु गूड, आगांसि = अपराधमुलनु, तरितुञ्चडाँटुटकुँ (प्राय श्चित्तादुल चेत नशिम्पँजेसिकॊनुट कॊऱकु) न, क्षमः= सुन्दर बाहु स्तवमु
215 समर्थुँडनुगानु, अतः = इन्दुवलन, त्वत् + शेषः, हि= नी दासुँडनियु, अगतिः इति च= गति लेनिवाँडनियु (उपा यान्तर रहितुँ डनियु) मुद्रः इति च = अकिञ्चनुँडनियु, क्षमस्व=(नेरमुलनु) क्षमिम्पुमु. इह=ई संसारमु नन्दु, नः= माकु, एतावत् = ईमात्रमे, बलम्=बलमु, विशेषमुलु :- प्रथमचरणमुनकु सर्वश क्तिवि, सर्व ज्ञुँडवु ननि भावमु, दयालुः=परदुःखासहिष्णुः — वाँडनु ऒरुलदुःखमुनु जूचि सहिम्प लेनिवाँडनि भावमु. ‘क्षन्ता’- अप राधसहिष्णुः – नेरमुलनु सहिञ्चु शीलमुगलवाँडु, अतः इन्दुवलन अनँगा, नीवु सर्वशक्तिवि, सर्वज्ञुँडवु,
- दयाक्षमाविशिष्टुँडवु गनुक, नेनु दुष्कृतमुलँ ब्रायश्चित्तादुल चेतिँ बोँगॊट्टुकॊनँजालनि गनुकनु अनि भावमु. त्वच्छेषः हि=नी दासुँडननि.. — इच्चट ‘हि’ शब्दमु इत्यर्थकमु. क्षुद्रः इति च क्षुद्रमु लगु पुरुषार्थमुल चेतने तृप्ति चॆन्दिन वाँडननियु, लेदा- अकिञ्चनुँड ननियु- ‘एताव न्नो बल मिह’ ई संसार मुलो माकु देवरवारि विषयमुन ज्ञान, शक्ति, दया, क्षमा, वैशिष्ट्यमु, मा विषयमुन भवच्छेष त्वाकिञ्च न त्वानन्यगतिकत्वमु ननुसन्धिञ्चुकॊनुटये अनँगाँ दरणोपाय मनि तात्पर्यमु. मा नी बलमु. ता॥ ओ सुन्दर भुजस्वामी! नी कशक्यमैन देदियु लेदु. नीवु समस्तमु नॆऱुँग वनुमाटयु लेदु. सर्वश क्ति वि _ 216 सुन्दर बाहु स्तवमु सर्वज्ञुँडवु दयगलवाँडवु क्षन्तवुनै युन्नावु, नेनो नायप राधमुल दाँट शक्ति लेनिवाँडनु. कावुन नीदासुँड ननियु अनन्यगति ननियु नकिञ्चनुँड ननियु ना यपराध मुल क्षमिम्पुमु. ई संसारमुलो मा की यनुसन्धान मे बलमु (साधनमु.) शा॥ नीकुन् शक्यमुगानि दॊक्कटियु ले ने लेदु, सर सर्वं बिलन् नीकुन् ह स्ततलस्थितामलक मौ ह नी जालियुन् श्रीशान्तियुन् लोकातीतमु लेँ दरिम्पँ गलने लोकेश ! यागोम्बुधिस् नीकुन् दासुँड दिक्कु लेनि यनदन् नेरम्बुलन् सैपवे ! श्लो॥ लङ्कायुद्दहतान् हरीन् द्विजनुतं शम्बूकदोषा स्मृतं सान्दीपिन्यभिजं मृतं द्विजसुतान् बालां श्च वैकुण्ठ गान् ! गर्भं चार्जुनिसम्भवं व्युदधरः स्वे नैव रूपेण यः स्वाभीष्टं मम मद्दुरोश्च ददने नो किं वनाद्रीश्वर! ॥ 124 प्रति : :— हे वनाद्रीश्वर ! = ओ वनगिरिप्रभुव सुन्दर बाहुमूर्ती!, यः = एनीवु, लंशायुद्ध हतान् लङ्कापुरी युद्धमुनँ जम्पँबडिन, हरीस् वगु वानरुलनु, शम्बूकदोषात् = शम्बूकुनि यप राधमुवलन, मृतम्= मरणिञ्चिन, द्विजसुतम् = ब्राह्मणकुमारुनि, मृतम्= चनिपोयिन, सान्दीपिनि X अभिजम् = सान्दीपिनियॊक्क (कृष्णुनि सुन्दर बाहु स्तवमु 217 गुरुवु) कुमारुनि, वैकुण्ठगान् = वैकुण्ठलोकमुनकु वॆळ्ळिन, बालान् = चिन्न वारुगु, द्विजसुतान् = ब्राह्मण पुत्रुलनु, आर्जुनिसम्भवम् अर्जुन कुमारुँडगु अभिमन्युनि वलनँ बुट्टुकगल, गर्भम् च= गर्भमुनु (परीक्षित्तुनु)
- स्वेन, एव, रूपेण=सॊन्तरूपमुतोने, व्युदधरः= उद्ध रिञ्चितिवो, (सः = आनीवु) मत्, गुरोः= ना गुरुवगु भगव द्रामानुजा चार्युलयॊक्क यु, मम, च= नायॊक्क यु, स्वाभीष्टम्= स्वीयमगु मनोरथमुनु, नो, ददसे, किम्= इय्य वेमि ? विशेषमुलु : इन्दु मॊदटि पादमुलोनि लङ्का युद्ध
हतवानरोज्जीवनमु शम्बूक दोषमृत ब्राह्मण बालपु नर्जीवनमुलु रामावतार कालिकमुलु, तक्किन रॆण्डु मूँडु पादमुललोनि मृतसञ्जीवनमुलु कृष्णावतार कालिकमु लनि तॆलियवलॆनु. स्वे नैव रूपेण – मरण कालमुनन्दलि वयस्सु, वेषमु, भूषणादुलतोँ गूडिन याकारमुतोने ‘स्वाभीष्टं मम मद्दुरो श्च ददसे नो किम् ‘. श्री भगवद्रामानुज गुरुल यभिलषित मे मन (श्रीरङ्गनाथ सन्निधिनिवासमु, तत्परि चर्यभाग्यमु. श्री कूरेशुलयभिलाष मे मन- भगवद्रामानुजुल सन्निधि नुण्डुट तत्परि चर्यादिक मॊनर्चुट यनि तॆलिय कालान्तरमुन मृतुलैनवारिनि, पुनरावृत्ति व लॆनु. रहितलो कान्तरगतुलनु सैत सै तमु मरणकालमुनाँटि वयो वेषभूषणमुलतोँ गॊनिवच्चि यिच्चिन देवर वारि 218 सुन्दर बाहु स्तवमु कशक्यमेदियु लेदु गदा ! भवदाश्रितुल मगुमा यभि लाषुल निङ्कनु दीर्चवेमि? अनि याशयमु. ता॥ ओ वनाद्रिनाथा ! कायुद्धमुन मरणिञ्चिन वानरुलनु, शम्बूकतपश्चर्यचे मृतुँडैन ब्राह्मण बालुनि रामावतारमुन ब्रदिकिञ्चितिवि. अट्ले कृष्णावतार मुनँ गूड मरणिञ्चिन गुरुपुत्रुनि, मरणिञ्चि पुन रावृत्ति रहितमगु वैकुण्ठमुनु जेरुकॊनिन बालुरगु ब्राह्मण सुतुलनु, अभिमन्युनिवलन नेर्पडिन युत्तरागर्भमुनु, मरणकालिक वयो वेष भूषणमुलतो नॊप्पु रूपमुतोँ गॊनिवच्चिन नीवु नि न्नाश्रयिञ्चिन मद्गुरुपादुलगु भगव द्रामानुजुल यभिलाषनु ना वाञ्छितमुनु दीर्प वेल? शा॥ लं कासङ्गर रङ्ग नष्टकपिमु ल्लश्रेणि, शम्बूकमु न्यङ्का स्तङ्गत विप्रबालु, मृतुँ डौ नाचार्यसूनुन्, निरा तङ्कस्थानुल नष्टविप्रसुतुलन्, दद्धोत्तरा पत्यमुन् सङ्कोचिम्पक यिच्चि येल यिक वि ष्टं बीश ! ना कॊज्जकुन् . ना अवतारिक :- - निज देशवासु ल नॆडु तृप्ति चेतने वारिकिँ C ब्रबल फलप्रदुँड वगुचुन्नावनि नाल्गु श्लोकमुलतो नुडुवु चुन्नारु. सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ आयोध्य गान् सपशुकीटतृणांश्च जन्तून् किकर्मणो नु बत कीदृश वेद नाढ्यान् । सायुज्यलभ्य विभ वान् निजनित्यलो कान् सान्तानिका नगमयो वन शैलनाथ !
प्रति : — हे वन शैलनाथ ! सुन्दरभुजस्वामी ! आयोध्यगान् ! देशमुलनु बॊन्दिन, सपशु कीट 219 125 वनिगिरिनाथुँडवगु ओ अयोध्यानुबन्धि तृणास् = पशुवुलतो, कीटमुलतो, तृणमुलतोँ गूडिन, जन्तून् = प्राणुलनु, किङ्क र्मणः, नु= एमि कर्मगलवि यनि, बत=मऱियु, कीदृश, वेदन, आढ्यान् = ऎटुवण्टिज्ञानमुतो ऒप्पुनवि यनियु, सायुज्य, लभ्य, विभवान् = सायुज्यमोक्षमु नन्दुँ बॊन्दँदगिन वैभवमु गलट्टियु, सान्तानिकान् = सान्ता = निकमु लनॆडु, निज, नित्यलोकान् = तन वैकुण्ठमुवलॆ ‘शाश्वतमुलगु लोकमुलनु, अगमयः=पॊन्दिञ्चितिवि ?
विशेषमुलु :_आयोध्यगान् – केवल मयोध्या ‘वासुलने कादु अयोध्यानुबन्धि देशमुललो नुन्न वारिनि गूड ननि भावमु. सपशुकीटतृणान् च केवलमु मनुष्युलने कादु चतुष्पाज्जन्तुवुलनु, अतिशुद्रमुलगु पुरुगुलनु, गड्डिपऱकलनु गूड ननि- ‘किङ्कर्मणो नु बत कीदृश वेदनाढ्यान् ’ – एमि कर्मयोगनिष्ठुलनि, एमि ज्ञान योगनिष्ठुलनि— तलँचि यट्टि श्री वैकुण्ठ तुल्यमुलगु सान्तानिकलोकमुल नॊसङ्गितिवि? अदि केवल नयोध्यानु बन्धि देशवासुलनिये यिच्चिति वनि याशयमु. 220 Q सुन्दर बाहु स्तवमु ता॥ ओ वन शैलनाथा ! सुन्दरभुजा ! नी वानाँडु तृण पशुकीटादि प्राणुलकु भवदनुभवयोग्यसम्पत्ति गल वैकुण्ठ लोकतुल्यम्बुलगु सां तानिक लोकम्बुल नॊसङ्गुट वानि ज्ञाननिष्ठनु कर्मनिष्ठनु जूचिया? कादु कादु- अयो ध्यानुबन्धि देशसम्बन्धमुनुबट्टि यॊसङ्गितिवि. कान देवर वारिकि स्वीय देशवासुल यॆडँगल यभिमान मनन्या दृशमु. शा. आसान्तानिकलोकमुल् परम धा माछम्बुल९ नी वयो ध्यासम्बन्धिसु देश वासु लनिये यर्पिञ्चिना वन्तये ओसर्वोत्तम ! यट्लु गानियॆड नोत्कृष्टमुल् कर्मनि स्थासन्तुष्टमुला ! तृणक्रिमि चतु ष्पाज्जन्तु सन्तानमुल् . ♡ प्रति : 126 श्लो॥ हरितवारण भृत्यसमाह्वयं करिगिरौ वरिद स्त्व मपूर्वीकाम् ! दृश मलम्भय एव हि सुन्दर ! स्फुट मदा श्च परश्शत मीदृशम् ॥ हेसुन्दर!=ओसुन्दरभुजस्वामि! करिगिरा= करिगिरियन्दु, वरदः = वरदराजस्वामि नगुचु, त्वम्= नीवु, हरितवारणभृत्यसमाह्वयम् = हरितवारणदास नाममु गल भक्तुनि, अपूर्विकाम् = पूर्वमु लेनि, दृशम्= दृष्टिनि, अलम्भयः एव=पॊन्दिञ्चितिवि, ईदृशम्= ई प्रकारमुगा, परश्शतम् पलुसारुलु, स्फुटम् प्रसिद्धमुगा, अदाः च इच्चितिवि कूड, हि= प्रसिद्धमु.
4 … सुन्दर बाहु स्तवमु 221 विशेषमुलु : ‘अपूर्वि कान्दृश मलम्भय -‘अपूर्विकॊन्दृश एव’ वरदराजस्वामि ग्रुड्डिवाँ डगु हरित वारणदा सनॆडुभाग वतुनकुँ गन्नुल ननुग्रहिञ्चॆ ननि प्रसिद्धि कलदु. परश्शतम् = वन्दलकु हॆच्चुगा अनियु नर्थमु. ई सन्दर्भमुन नी श्लोकमु निच्चट ननुसन्धिञ्चुकॊनुनदि. यस्य प्रसादकळया बधिर श्र्शुणोति सङ्गुः प्रधावति जवेन च, वक्ति मूकः । अन्धः प्रपश्यति, सुतं लभते च वन्ध्या तं देव मेव वरदं शरणं प्रपद्ये ॥ ता॥ ऎवनि नलुसन्त यनुग्रहमुचेतँ जॆविटिवाँडु विनुनो, कुण्टिवाँडु वडिगाँ बर्वॆत्तुनो, मूगवाँडु माटलाडुनो, ग्रुड्डि चूचुनो, गॊड्रालु बिड्डनु गनुनो, आवरदराजस्वामिनि शरणु चॊच्चु चुन्नानु दीनिकि ना तॆलुँगु पद्यमु. गी. चॆविटि विनु, ग्रुड्डि चूचु, वचिञ्चु मूँग, कुण्टि परु गॆत्तु, गॊड्रालुँ गॊमरुँ बडयु, नॆवनि क्रेगण्टि चू पिन्त यॆसँग, नट्टि वरदराजुल चरणम्बु शरणु नाकु. इँक मूलश्लोकमुनकुँ दात्पर्यमु. ता॥ ओ सुन्दर बाहुमूर्ती! नीवु करिगिरियन्दु वरद राजस्वामि नाममुतो वॆलयुचु, ‘हरित वारणदासु’ अनॆडु ऒक ग्रुड्डि भागवतुनकुँ गन्नुल ननुग्रहिञ्चितिवि. ऒक पेल? इट्टि वॆन्निमार्लो भ क्तुल कॊसँगितिवि. इदि सुप्रसिद्धमु. च. करिगिरियन्दु नीवु सुभ गा ! वरदुं डनु सार्थ काख्यतो 29 222 सुन्दर बाहु स्तवमु वरलुचु भ क्तुँ डौ हरित वारणदा सनु ग्रुड्डि वानिकि वरनयनम्मुल९ सुगुण ! वारिनि ! यिच्चिति वण्ट तॊल्लि सुं दरभुज ! यिट्टि दानमुलु प्रति : तावकमुल् शतमुल् सहस्रमुल्• इह च देव ददासि पराज् पराज् वद! सुन्दर ! सुन्दरिदोर्टर् ! । वनगिरे रभित स्तट मावसको सिखिललोचन गोचर वैभवः ॥ 127 वरद ! = वरमुल नॊसङ्गुवाँडा ! सुन्दरदोः धर ! = अन्दमुलगु बाहुवुलनु धरिञ्चुवाँडा ! सुन्दर! = ओ सुन्दर बाहुस्वामि ! देव ! = क्रीडादिगुणनिशिष्टुँडा!! वनगि रेः, तटं, अभितः = वनाद्रितट समीपमुनन्दु, आवस = निवसिञ्चुचु, निखिल, लोचन, गोचर, वैभवः = अन्दऱि = कन्नुलकुँ गनँबडु महिम गलवाँडवगुचु, त्वम् = नीवु, इह च = ईवन गिरियन्दुँगूड, परा= अतिशयितमु लगु, वराज्वरमुलनु, ददासि= इच्चु चुन्नावु. ‘ता वरमुल नॊसँगुचु सुन्दरमुलगु बाहुवुल धरिञ्चुकतन सुन्दर बाहुस्वामि यनु सार्थक नाममुगल यो देवा ! वनाद्रितट समीपमुन निवसिञ्चुचु अन्दऱि शगपिञ्चु दिव्यवैभवमु गलवाँडवै नी विच्चटँ गूड भ क्तुल कधिकवरमुल ननुग्रहिञ्चु चुन्नावु. गी. वरद ! सुन्दर बाहु देवा ! वनाद्रि तटि निखिलगोच रात्मवैभवुँड नगुचु । निचट सैतमु निनुँ गॊल्चु सुचरितुलकु निच्चुचुन्नावु मेल् व राल् हॆच्चु गानु. 1 अवतारिक सुन्दर बाहु स्तवमु 223 ‘इह च देव ददासि वराज् परा’ अनि सामान्यरीतितोँ जॆप्पिनदानिने स्थालीपुलाक न्यायमुतो वि शेषा कारमुनँ जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ इद मिमे श्रुणुमो मलयध्वज) नृप मिह स्वय मेव हि सुन्दर! । चरणसात् कृतवा निति त द्वयं वनगिरीश्वर ! जातमनोरथाः ॥ प्रति : ई, वयम् ॥ 128 हे वनगिरीश्वर ! ओ वनाद्रिप्रभू!, इमे= मेमु, इह = इच्चट, (वनाद्रियन्दु) स्वयं, एव, हि=स्वयमुगाने, मलयध्वजम्=मलय ध्वजुँड नॆडु, नृपम् पाण्ड्यराजुनु, चरणसात्, कृत वाळ्= पादपरिच र्यार्हुनि जेसितिवि, इति अनि, इदम्=ई पूर्ववृत्तमुनु, श्रुणुमः अन्दुवलन, जाति, मनोरथाः (भवामः = अगुचुन्नामु.) " विनुचुन्नामु, तत् पुट्टिनकोरिक गलवारमु, विशेषमुलु :- स्वय मेव हि ’ साधनानुष्ठान मुलतो अपेक्ष लेकये केवलमु स्वकृप चेतने यनि भावमु. ‘जातमनोरथाः’- अकारण जायमान करुणा कटाक्षमु चेतँ बाण्ड्य राजगु मलयध्वजुनकु निजपाद बाण्ड्यराजगु परिचर्या भाग्यमु नॊसँगिनट्लु माकुनु गरुणिन्तु वनि याशगलिगि युन्नामनि याशयमु. ता॥ ओवनाद्रिनाथा! यीमे मी ननाद्रियन्दु साधना नुष्ठानादुलतो न पेक्ष लेक ये मलयध्वज महाराजुगारु देवरवारि य हेतुक जायमान करुणाकटाक्षमु चेतँ जरणपरिचर्या भाग्यमुनु बॊन्दिना रन्न गाधनुविनि माकु नट्टिभाग्यमुनु गलिगिन्तुरनि पुट्टॆँडाशतोनुन्नामु.224 सुन्दर बाहु स्तवमु च. इतर विशेष साधनमु लॆव्वियु लेकयॆ तॊल्लि पाण्ड्यभू पति मलयध्वजाधिपु न पारकृपार सदृष्टि ँ जूचि यि च्चिति वँट नीपदाम्बुरुह सेवन भाग्यमु विण्टि मीश ! मीू कत सकलम्मु, नट्टिदयँ अवतारिक 13 गाञ्चँग नुण्टिमि पुटॆँ डासतोक् 1 इटु नालु नोकमुलतो सुन्दरभुज स्वामि सर्वाभीष्ट प्रदुँ डनि चॆप्पि आनाँटि चण्ड पाषण्ड प्रभु वगु क्रिमिकण्ठुनि मूलमुनँ ब्रवासितुलैन भगव द्रामानुजुल चरणनलिन विश्लेषम्बुन कोर्वक स्तोत्रारम्भमु नन्दे ‘सुन्दरोरुबाहुं स्तोम्ये तच्चरण विलोक नाभि लाषी.’ अनु निजाभिलाषनु त्वरगा नॊसँगु मनु स्वमनो रथमुनु सं प्तमुगा नाल्गु श्लोकमुलतो नुपसंहरिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ विज्ञापनां वनगिरीश्वर! सत्यरूपा मङ्गीकुरुष्व करुणार्णव ! मामकी नाम् । श्रीरङ्गधामनि यथापुर मेष सोहं रामानुजार्यवशगः परिवर्तिषीय॥ प्रति : हे करुणार्णव ! P 126 दयासमुद्रुँड वगु, वनगिरि + ईश्वर ! ! वनाद्रिनाथुँड वगु सुन्दर बाहु मूर्ती!, सत्यरूपाम् = यथार्थमगु, मामकीनाम् सासम्बन्धमैन, विज्ञापनाम् = मनविनि, अङ्गीकुरुष्व= अङ्गीक रिम्पुमु. (विनि सफल मॊनर्पमु) आमनवि येमनँगा- एषः= ई, सः = आ, अहम् = नेनु, यथापुरम्=पूर्वमु सुन्दर् बाहु स्तवमु
225 नन्दु वलॆ, श्रीरङ्गधामनि देवरवारि निवासस्थानमैन श्रीरङ्गमु नन्दु, रामानुजार्यवशगः भगवद्रामा नुजाचार्य गुरुचरणुल वशवर्ति नगुचु, परिवर्तिषीय समीपमुनं दुन्दुनु गाक. विशेषमुलु : करुणार्णव ! _‘व्यस नेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःख-3ः’ अनि श्रीमद्रामायणमुनँ जॆप्पिन प्रकारमु परदुःखमुनु जूचि दुःखिञ्चुट यनु स्वरू पमुगल कृपतो निण्डिनवाँडा ! अनि भावमु. वनगिरीश्वर- अकिञ्चनुल मगु मम्मु संरक्षिञ्चुटकु वनाद्रि नाश्रयिञ्चिन वाँडा! यनि याशयमु. एष सोहम् इप्पु डा चार्यवि श्लेषमु चे विषण्णहृदयुँडनै आचार्यसमागम निमित्तमु नीस्तोत्रमुनु " नुडुवँ ब्रवृत्तुँड नगु नेननि तात्पर्यमु. ‘रामानुजार्यवशगः परिवर्ति षीय’ सुन्दर बाहुस्वामि सर्वाभीष्ट प्रदुँ डैननु तत्वज्ञु लगु श्रीवत्स चिह्न मिश्रु लाचार्यवशवर्तित्वमु ने परम पुरुषार्थमुगाँ ब्रार्थिञ्चुटचेत निदिये सर्वोत्तीर्ण मनि यॆऱुङ्गव लेनु. ण ता॥ करुणासमुद्रुँड वगु ओवनगिरिनाथा ! यथार मगु नायीमनविनि अङ्गीकरिञ्चि त्वरगा सफल मॊनप्पुमु. आ मनवि येमन आचार्युलु यॆडँ बाटु चेत विषण्णहृद युण्डनै वारि समागमाभिलाषिनै देवरवारि स्तुतिनि व्रायँ ब्रवृत्तुँड नगु नेनु श्रीवारि निवासमगु श्रीरङ्गमुनन्दु भगवद्रामानुज गुरुचरणुल वशवर्तिनै युन्दुनु गाक. उ. ओनिरवद्य दिव्यकरु णोदधि! कानन शैलनाथ ! नी 226 सुन्दर बाहु स्तवमु वीनुलँ बॆट्टि ना दयिन विन्नपमु९ सफलं बॊनर्पु, रा मानुज देशि केन्द्र चर णाम्बुज सेवन भाग्य मन्दुचुको ने निवसिञ्चुनुलु दय नीयुँड रङ्गनि मन्दिरम्बुनक् . 130 श्लो॥ किं दञ्च विरिञ्चि भावन ! वनाद्रीश! प्रभो! सुन्दर! प्रत्याख्यान पराङ्मुखो वरदतां पश्य न्नवश्यं श्रुणु । श्रीरङ्गश्रिय मन्वहं प्रगुणयं स्वद्भक्तभोग्यां कुरु प्रत्यक्षं सुनिरस्त मेव विदधत् प्रत्यर्थिनां प्रार्थनम् ॥ प्रति : विरिञ्चि भावन! = ब्रह्म नुद्भविल्लँ जेसिनवाँडा!, वनाद्रीश = वनगिरिनाथा, प्रभो ! = प्रभुवा!, सुन्दर ! = सुन्दर बाहुमूर्ती!, वरदताम् = नीवर प्रदत्वप्रसिद्धिनि, पश्य=चूचुचु, प्रत्याख्यान, पराङ्मुखः वेयुटयन्दुँ बॆड मॊगमु गलवाँड वगुचु, किञ्च= मऱियु - (पूर्वश्लोकोक्त विज्ञ प्ति कण्टॆँ गूड) इदम्= ईमाटनु, अवश्यम्=मुख्यमुगा, श्रुणु = विनुमु. (अनि येमन) प्रत्यर्थि नाम् = प्रतिप क्षुलगु पाषण्डुलयॊक्क, प्रानम् == प्रार्थननु र्तननु (भगवद्रामानुजुलनु प्रवासमु गामिपँ जेसि श्रीरङ्ग शोभ नणँचिवेय वलयुननु कोरिकनु) प्रत्यक्षम्, एव = माकन्नुल यॆदुटने, सुनिरस्तम् बागुगाँ दॊलगिम्पँ बडिन दानिनिगा, विदधत् = चेयुचु, श्रीकङ्ग श्रियम् = श्रीरङ्गसम्पत्तिनि, अन्वहम् = प्रतिदिनमु, प्रगुणयज्= वर्धिल्लँ जेयुचु, त्वत् भक्त, भोग्याम्= , = देवरवारि भक्तजनुलचेत ननुभविम्पँ दगिन दानिनिगा, कुरु = चेयुमु, सुन्दर बाहु स्तवमु 227 विशेषमुलु :- विरिञ्चि भावन !–विरिञ्चिं भावयति (उत्पादयति) इति— ब्रह्मनु उद्भविम्पँ जेसिनवाँडनि भावमु. ‘त्वद्भक्तभोग्यां कुरु’ भगवद्रामानुजा चार्य प्रभृतुलगु श्रीवारि भक्तुल चेत ननुभविम्पँदगिन दानिनिगाँ जेयुमु, प्रत्यर्थिनिरसन पूर्वकमुगा श्रीरङ्ग मङ्गळानुभवमु कॊऱकु भवदीयुलगु रामानुजार्य प्रभृतुलनु रप्पिम्पु मनि याशयमु. ता॥ ब्रह्मनु गन्नतण्ड्रि गु वनगिरिनाथुँड पैन योसुन्दर बाहुमूर्ती ! वरप्रदुँड वनु प्रसिद्धिनि दॆलुपु नी वरद राजनाममुनु मनस्सुलोँ बॆट्टुकॊनि मा विज्ञ पिनि त्रोसिवेयुट यन्दुँ बॆड मॊगमु गलवाँड वगुम . अनँगा मा विन्नपमुनु मन्निम्पुमु. अन्तिये कादु. ईमाटनु तप्पक विनि मुख्यमुगा मन्निम्प वलॆनु. भगवद्रामानुजुलनु दऱिमिवैचि श्रीरङ्ग वैभवमु नणचि वेय वलयुननु प्रत्यर्थुलगु पाषण्डुल कृत्यमुलनु मा कन्नुलमुन्दे विफल मॊनर्चि यथापूर्वकमुगा श्रीरङ्ग शोभनु वरिलँ जेयुचु भवदीय भक्तुल कनुभाव्य मॊनर्पुमु. ရာ म. परमेष्ठि प्रभवा ! वनाचल विभू! भावम्बुनं दॆन्नि वरदत्वोरुयशम्बुँ,गा दनक देवा! सल्पुमा यिद्दि च्चॆर श्रीरङ्गमुशोभवर्धिलँग दु श्चेष्टुल् तलल् वम्प मे मरयर् वैष्णवकोटिभोग्यमुग नत्यन्तम्बु श्रीरङ्गमु९. अवतारिक :—— इट्लु प्रार्थिम्पँबडिन विषयमुने याद रातिशयमुचेत मऱकसारि भङ्ग्यन्तरमुगाँ ब्रार्थिञ्चु . चुन्नारु. 228 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ कारुण्यामृत वारिधे! वृषपते! हेसत्य सङ्कल्पन! ♡. ओ श्रीम् ! सुन्दर! योग्यताविरहिता नुत्सार्य सर्वाज् किल 1 क्षाम्यक् साधुजनैः कृतां स्तु निखिला सेवापचाराज् क्षणात् • तद्भोग्या मनिशं कुरुष्व भगवण्! श्रीरङ्गधामश्रियम् ॥ 131 प्रति :- भगव९ ! षड्गुणैश्वर्य सम्पन्नु ँडा!, हे सत्यसङ्कल्पन! = ओ सत्यसङ्कल्पुँडा!, सद्वत्सल ! सज्जनुलयन्दु वात्सल्यमु गलवाँडा! कारुण्य, अमृत, वारिधे = दयकु & राब्दिवण्टिवाँडा!, वृषप ते = वनगिरि & नाथा ! श्रीम९=पुरुष कारभूतुरालगु लक्ष्मी देवितो नॆडँ बायनिवाँडा !, सुन्दर ! = ओ सुन्दर बाहुस्वामी !, योग्यता, विरहिताक् योग्यत लेनि पाषण्डुलनु, उत्सार्य पाऱँदोलि, साधुजनैः सात्विक जनुल चेत, कृताज्= चेयँबडिन, निखिला= समस्तमुलगु, अप चा राज्, एव अपराधमुलनु, बॊम्यक् = क्षमिञ्चुचु, = क्षणात् क्षणमुलो, (त्वरगा) श्रीरङ्ग धामश्रियम् श्रीरङ्ग क्षेत्रमुयॊक्क सम्पदनु, अनिशम् = ऎल्लप्पुडु, तद्भोग्याम् = आसाधुजनुलचेत ननुभविम्पँदगिन दानिनिगा, कुरुष्व= चेयुमु. वा वि शेषमुलु :— ई श्लोकमुनन्दलि सम्बुद्धु लन्नियु साभिप्रायकमुलु, हे सत्यसङ्कल्पन !— यथार्थमगु प्रतिज्ञ गलवाँडा ! ‘अ व्यहं जीवितं जह्यां त्वां सीते ! सलक्षणाम् । नहि प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः’ अनि रामायणमुन देवरवारु सॆलविच्चिनट्लु ‘द्वयमुनु अर्दानुसन्धानमुतोँ गूड सतत मिटे नुडुवुचु शरीर पातपर्यन्त मी श्रीरङ्गमुनन्दे सुखमुगा नुण्डु’ मनि श्री भगवद्रामानुज गुरुपादुल नुद्देशिञ्चि श्री सुन्दं बाहु स्तवमु 229 सङ्कल्पिञ्चितिरि गदा ! अदि सत्यप्रतिज्ञ कावलदा ? अनि सम्बुद्धियॊक्क याकूतमु. कारुण्यामृत वारि धे सामान्यमुगाँ बरदुःखा सहिष्णुवुनकु आश्रितुल क्लेशमुल विषयमुन उपेक्ष युचितमु कादनि भावमु. अपचा 3
- चेयरानि वानिनिँ जेयुट चेयवलसिन वानिनि मानुट मॊदलगु अपराधमुलनु, (अकृत्यकरण, कृत्या करणादिरूपा अपचारा इत्युच्यन्ते) ‘तद्भोग्या मनिशं कुरुष्व भगवन् श्रीरङ्गधामश्रियम्’ श्रीरङ्ग क्षेत्र वैभवमुनु भगवद्रामानुजतच्छिष्य प्रशिष्यादि सात्विक जनानु भाव्यमुगाँ जेयवलसिन दनि श्रीकू रेशुलवारि गूढाभिप्रायमु. 7 ता॥ षड्गुणैश्वर्य सम्पन्नुँडवुनु, सत्यसङ्कल्पुँडवुनु, सद्वत्सलुँडवुनु, दयासमुद्रुँडवुनु, वनगिरिनाथुँडवुनु, रमान पायिवियुनगु ओसुन्दर बाहुस्वामि! योग्यता विरहितुलगु पाषण्डुलनु बाऱँदोलि नाधुजनुलॊनर्चिन अपचारमु लेवेनि युन्न वानि नन्निटिनि श्रमिञ्चि त्वरगा श्रीरङ्ग क्षेत्र वै भवमुनु भागवतानुभाव्यमु नॊनर्पुमु. शा. कारुण्यामृत वारिधी ! प्रणतर . 30 डा ! सत्यसङ्कल्प ! श्री दारा ! संश्रितवत्सला ! वङ्गिरीं द्रा! दुष्ट पाषण्डुल ९. ल ‘बाऱं दोलि - श्रितापचारमु लॆद बाटिम्प कोदेव ! यी श्रीरङ्गानुभवम्बु भ क्तततिकि९- सिद्धिम्पँगाँ जेयवे ! 230 सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो॥ इदं भूयो भूयः पुनरपिच भूयः पुन रपि स्फुटं विज्ञाप्स्या मित्यगति रबुधो नन्यशरणः । कृतागा दुष्टात्मा कलुषमति रस्मीत्यनवधे र्दयाया स्ते पात्रं वनगिरिपते! सुन्दरभुज प्रति : वनगिरिप ते ! 132 वनाद्रिनाथुँड वगु, सुन्दर भुज ओ सुन्दर बाहुमूर्ती!, अगतिः दिक्कु लेनि वाँडनु, अबुधः पामरुँडनु, अनन्यशरणः = इतर = शरणमु (रक्षणमु) लेनिवाँडनु (अगु अहम् – नेनु इदम् = दीनिनि, भूयः भूयः = मऱल मऱल, पुन रपिच= तिरिगियु, भूयः=मऱल, पुनः, अपि=तिरिगियु, स्फुटम्= स्पष्टमुगा, विज्ञाप्स्यामि=मनविचेसिकॊनँ दलँचुचुन्नानु, दुष्टात्मा=दुष्टचित्तुँडनु, दुष्टात्मा= दुष्टचित्तुँडनु, कलुष मतिः = मलिनबुद्धियु नगु नेनु, कृतागाः = चेयँबडिन नेरमुलु गलवाँडनु, अस्मि, इति= अगुचुन्नाननु कारणमुवलन, ते=नीयॊक्क, अनव छेः हद्दुलु लेनि, दयायाः= कृपकु पात्रम्= पात्रमुनु. विशेषमुलु :- अगतिरबुधः ’— ज्ञान राहित्यपर मगु ‘अबुध’ पदमुतोँ गलिपि चॆप्पुटवलन ‘अगतिपदमु कर्मराहित्यमुनु जॆप्पुनु. कावुन निच्चट अगतिः - कर्मयोगरहितुँडनु, अबुधः = ज्ञान योगरहितुँडनु अनि यर्थमु. कनुकने कर्मज्ञान योगमुलचेत साध्यमगु भक्ति योगमुगूड लेदु गावुन (एयुपायमु लेदुगान) अनन्यशरणः नी वॊकडवे शरणमुगाँ गलवाँड ननि चॆप्पुट पॊसँगुनु. ‘इदं भूयो भूयः’- ऒक मारु मनवि चेसिकॊनुटये चालियुण्डँ बिच्चिवानिवलॆँ ब देप दे पलुसारु लिट्लु मनवि चेयुट अपराधमे यैननु प्रिय सुन्दर बाहु स्तवमु 231 तरुलगु गुरुचरणुल यॆडँबाटु चेँ गलिगिन विषादमुचे नितँ डिट्लु चेयुचुन्नाँडनि तमरु कृपँदलँचि नाविन्न पमुनु मन्निञ्चि गुरुल साङ्गत्यमु मरलँ द्वरलो नाकु श्रीरङ्गमुनँ गल्गिम्पुँडनि भावमु. ता॥ वनाद्रिनाथुँडवगु ओ सुन्दर बाहुमूर्ती ! कर ज्ञान भक्ति रूपमुलगु उपायमु लॆऱुङ्गनिवाँडनै नीवे शरणुगा नम्मियुन्नने निदिवऱकुँ जेसियुन्न यी विन्न पमुने मऱल मऱलँ दिरिगि तिरिगि चेसिकॊनुचुन्नानु. दुष्टचित्तुँडु कलुषबुद्धि यपराधि यनि नन्नुँ दलपोसि हद्दुलु लेनि नी कृपकुँ बात्रमु नॊनर्पुमु. उ. सुन्दर बाहुमूरि ! वन शोभित भूधरवर्ति! नेँ गडु मन्दुँड ज्ञानकर्ममुल माट यॆऱुङ्गनु दिक्कु नीवॆ नी मुन्दऱ माटिमाटिकि न मोसम यं चिदि विन्नविञ्चॆद वन्दलमार्लु नीकृपकुँ बात्रुँड क्षुद्रुँड दुष्टचित्तुँड. शा. स्वामी ! विू स्तुति टीक व्रायुटकु ने श क्तुण्डना ! कानु, ले देमात्रम्बुनु शास्त्र वैदुषियु सा हित्य प्रवेशादुलु९, सामान्युण्डनु दास शेषुलदया सारम्बॆ ना कुन्नया 282 1 सुन्दर बाहु स्तवमु ♡ सामग्रीबल मॆल्ल दोषमुलकु क्षन्तव्युँड नुन्द रा.! शा. स्तोत्रव्याख्यकु मॊग्गुडु” वनगिरि क्षोणिश ! येमण्टिवो ‘कुत्रायन्तृणकल्प’ यं चनक श्री कोदण्ड रामप्रभु क्षेत्रास्थानकवीन्द्र पट्टमु नॊसं गॆ९८ दास शेषुण्डु भ कत्राता । भवदीय सं स्तवमह त्त्वम्बॆन्न नाशक्यमे ॥ शा. टीक९ व्रासि यॊसङ्गुँडं चडुग न ‘टेयण्टिँबञ्च स्तविक् साकल्यम्बुग व्रासियी वरदरा जस्तोत्र मॊक्कं डिँक बाकी युण्टिनि दास शेषुलकु डे वा ! दीनिँ जॆल्लिञ्चि ना वाकु सत्यमुँजेसि कॊण्टकु भव द्वात्सल्य मर्थिचॆदक् . A गद्यमु. इदि श्री श्रीवत्साङ्क मिश्र विरचितम्बगु पञ्च स्तभीष्ठं बगु श्री सुन्दर बाहु स्तवम्बुनकु कविशेखर, महो पाध्याय, मध्यश्री पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्य कृतं बगु भावादर्शम्बनु सपद्यान्ध्र विवरणम्बु, समाप्तम्बु. 1 श्री हयग्रीवाय नमः श्री वत्साङ्कमिश्र विरचित पञ्चस्तवीस्थ श्री वरदराज स्तवमु कविशेखर मध्वश्री पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्यकृत खावादर्शनामकान्ध्र विवरण पद्य सहितमु अवतारिक :– श्री भाष्यकारस काशनिवास प्रकाशिता अल वेदान्तत त्वार्थु लगु श्री वत्सचिह्नमिश्रुलु दया परुलै सकलसज्जन सञ्जीवनमुनकुँ बञ्चस्तवी व्याजमुन वर्णपञ्चकमुनु ब्रकाशिम्पँ जेयँदलँचि मॊट्ट मॊदटँ ब्रधानमुगा नकुण्ठमहिमुँ डगु श्री वैकुण्ठनाथुनि स्वरूपरूपादिकमुनु दानि कुपसर्जनमुगाँ ब्रत्यगात्मादि स्वरूपमुनु, वैकुण्ठ स्तवमुनन्दु गुरुवन्दन पूर्व कमुगाँ ब्रदर्शिञ्चि व्यूहान्तर्यामुलु गूड नचिन्त्य वैभवमुलु गल वगुट चेँ ददन्तर्भूतमुलुग ने भाविञ्चि विभवावतार भावुक व्यापार विषयकमुगा अतिमानुष स्तवमुनु रचिञ्चि अर्चावतार प्रस्तावमुन सम स काङ्क्षित प्रदानदीक्षितुँ डगु वनाद्रिमन्दिरु सुन्दर बाहु मूर्तिनि पलुसारुलु स्वाचार्यु लगु भगवद्रामानुजुल चरणकमल सेवाफलमु ननुग्रहिम्पुँ डनि स्तुतिञ्चि ‘ह स्ति2 श्री वरदराज स्तवमु शैलनिलयो भवान्’ अनि प्रस्ताविम्पँबडिन करिगिरिनाथुनि शरणागति मन्त्रविधमुगा निपुडु स्तुतिम्पँ बोवुचुँ ब्रारम्भिम्पँ दलँचँबडिन वरद राज स्तवमु निर्विघ्नमुगा समाप्तिँ जॆन्दुटकु आशीर्वचनरूप मगु मङ्गळमुनु शिष्यशिक्षार्थमु सवारम्भमुन नॊनर्चु चुन्नारु. प्रति श्लो॥ स्वस्ति ह स्तिगिरिम स्त शेखरः सन्तनोतु मयि सन्ततं हरिः ! निस्समाभ्यधिक मभ्यध त्त यं देव मापनिषदी सरस्वती ॥ I औपनिषदी = उपनिषत्सम्बन्धिनि अगु, सरस्वती= वाक्कु, (वेदान्त वाक्कु), देवम् सकल कल्याणगुण विशिष्टुँ डगु, यम् = ए वेल्पुनु, निस्सम, अभ्यधिकम्= समानुँडुगानि अधिकुँडु गानि लेनिवानिनिगा, अभ्यदत्त पलिकॆनो, ह स्तिगिरि, म स्त, शेखरः = करिगिरिशिखरमुन कलङ्कार भूतुँडगु, (सः=आ) हरिः प्रणतार्ति हरुँडगु वरद राजस्वामि, मयि=नाविषयमुन, सन्ततम्= ऎल्लप्पुडु, स्वस्ति श्रेयस्सुनु, सन्तनोतु बागुगा वि स्तरिम्पँ जेयुँ गाक, विशेषमुलु- स्तोत्रारम्भमुन स्वस्ति पदप्रयोगमु. वक्तकुनु, पाठकुलकुनु मङ्गळार्थमु. ‘निस्समाभ्यधिकम्- इन्दुलकुँ ब्रमाणमगु उपनिषद्वाक्केदि यन ‘न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते’ (आपरमात्मतो समानुँडुगानि श्री वरदराज स्तवमु 3 यन्तकण्टॆ नधिकुँडुगानि कानँबडँडु) देवम् दीवु क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न कान्ति गतिषु—— अनु धातुपाठमुनँ जॆप्पँबडिनट्लु सकल कल्याणगुणगणमुलु कलवाँ डनि यर्थमु. ता॥ ‘न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते’ इत्याद्युपनि पद्वाणि कल्याणगुण विशिष्टुँ डगु नेवेल्पुनु समाधिकुलु लेनिवानिनिगा नुडि वॆनो करिगिरि शिखरालङ्कारभूतुँ डगु नावरदराजस्वामि नाकु सन्ततमु श्रेयस्सुनु विस्तरिम्पँ जेयुँगाक, गी॥ देवु नॆव्वनि नुपनिषद्दिव्य वाणि पलुकुनॊ ! समाधिकुलु लेनि प्रभुवुँ गाँग करिमहीधर शिखर शेखर सदृक्षुँ डा वरदराजु नाकु श्रेयस्सु लिडुत. श्लो॥ श्रीनिधिं निधि मपार मर्थिना मर्थितार्थ परिदान दीक्षितम् ॥ सर्वभूत सुहृदं दयानिधिं देवराज मधिराज माश्रये ॥ प्रति :—श्रीनिधिम्=लक्ष्मी निलयमैनट्टियु, अर्थिनाम्= याचकुलकु, अपारम् 2 अन्तु लेनि (तऱुँगनि) निधिम्=गनि यैनट्टियु, अर्थित, अर्थ, परिदान, दीक्षितम् = प्रार्थिम्पँबडिन पुरुषार्थमुल नॊसङ्गुटकु दीक्ष वहिञ्चि नट्टियु, सर्व, भूत, सुहृदम् = सम स्तप्राणुलकु अनिमित्तोपकारि यैनट्टियु, 4 श्री वरदराज स्तवमु दयानिधिम्= दयकु गनि यैनट्टियु, अधिराजम् = स्वामि यैनट्टियु, देवराजम्= देवतासार्वभौमुँ डगु श्री वरद राजस्वामिनि, आश्रये= शरणुचॊच्चु चुन्नानु. मिदि ♡ वि शेषमुलु : ई श्लोकमुनन्दु मन्त्ररत्नमुयॊक्क पूर्वखण्डार्थमु सङ्ग्रहिम्पँ बडुचुन्नदि. पूर्वखण्ड श्रीमन्नारायणचरणा शरणमहं प्रपद्ये ’ श्रीनिधिम्——श्रीः निधीयते, अस्मिन् इति, श्रीनिधिः, तम् श्री देवि यिचट नुञ्चँबडुचुन्नदि, (लेदा) श्रीलकु निधि अनँगा निधिवलॆँ ब्रार्धनीयुँ डनि भावमु. दीनिचे मन्त्ररत्नमु पूर्वखण्डमुलोनि ‘श्रीमत् ’ पदार्थमु सङ्ग्रहिम्पँबडॆनु. नारयण पदवाच्यमुलगु कॊन्नि गुणमुलु वर्णिम्पँ बडुटचे नारायणपदार्थ मी मीँदँ जॆप्पँबडुचुन्नदि. ‘निधि मपार मर्थिनाम् - अर्थुल कपरिच्छिन्न मगु निधि यनुटचेत - परमप्राप्यत्वमु चॆप्पँबडॆनु. अर्थितार्थ अनु रॆण्डवपादमु चेत ‘प्रापकत्वमु’ सङ्ग्रहिम्पँबडॆनु. सर्वभूतसुहृदम्— अनुट चेतँ ब्रापकत्वमुनँ गिञ्चि
- त्कार नैरपेक्ष्यमु चॆप्पँबडिनदि. दयानिधिं अनुट चेत सौहार्दमु लेकुन्ननु परदुःखासहिष्णुत्व मुण्डुट चेत रक्षण विषयमुन स्वाभाविक प्रवृत्ति नुडुवँबडॆनु. अधिराजम् अनुट चेत स्वामित्वमु विवरिम्पँबडॆनु. देवराजम्— ‘त मीश्वराणां परमं महेश्वरं । तं देवतानां परमं च दैवतम्’ अनि चॆप्पिनट्लु देवता श्री वरदराज स्तवमु 5 10 सार्वभौमुँ डनि भावमु. आश्रये शरणं प्रपद्ये) शरणु चॊच्चुचुन्नानु. श्रीमन्तुँडु, प्राप्युँडु, प्राप कुँडु, सौहार्ध, दया, स्वामित्व, विशिष्टुँडु नगु देवता सार्वभौमुनि चरणमुल शरणुचॊच्चु चुन्नानु. अनि यी श्लोकसारमु कावुन मन्त्ररत्नमुयॊक्क पूर्व खण्डार्थमु दीनिलो सङ्क्षि स्तमुगा भक्त जनानुग्रहमुनकु सङ्क्षिप्तमुगा श्रीवत्साङ्कुलु चेर्चि युन्नारु. ता॥ श्रीनिधियु सर्दुल कक्षयनिधियु वाञ्छितार्थमुल नॊसङ्ग बद्धदीक्षुँडु सर्वभूतमुलकु ननिमित्तो प कारियु दयानिधियु देव ता सार्वभौमुँडु नगु देवराजगु वरद राजुनु शरणुचॊच्चु चुन्नानु. गी॥ श्रीनिधियु नरुलकुँ बॆन्निधानमाश्रि ताळिवाञ्छितदान दीन्वितुण्डु अखिलभूतहितुँडु करुणाश्रयुण्डु नैनश्री देवराजुने नाश्रयिन्तु. 2 अवतारिक : - इन्द्रियमारालिक्रान्तुँ डैननु भगवा नुनि यिन्द्रियगोचरत्वरूपमुनु शरणवरणोपयु क्त मु नगु सौलभ्यगुणमुनु श्रीवत्साङ्क मिश्रु लिट ननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ नित्य मिन्द्रियपथातीगं महो योगिना मपि सुदूरगं धियः ! आ प्यनुश्रव शिरस्सु दुर्ग्रहं प्रादुर स्त्री करिशैल मस्तके । 3 6 प्रति : श्री वरदराज स्तवमु नित्यम्= शाश्वत मैनदियु, इन्द्रिय, पथ, अतिगम् =इन्द्रियमार्गमु नतिक्रमिञ्चिनदियु, योगिनाम् = योगुलयॊक्क, धियः आपि = बुद्दिकिँ गूड, सुदूर आपि= गम् मिक्किलि दूरमुनु जॆन्दिनदियु (अन्दनिदियु) अनुश्रवशिरस्सु, अपि= वेदान्तमुल यन्दुँ गूड, सुदुर्ग हम् कष्टमुचेत ग्रहिम्पँ दगिनदियु (सुग्रहमु कानिदियु) अगु महः = तेजस्सु (वरदराजस्वामि) करिशैल म स के युन्नदि. करिगिरि शिखरमुनन्दु, प्रादुर स्त्री = आविर्भविञ्चि विशेषमुलु : इन्द्रियपथातिगम् न मांसचक्षु रभिवीक्ष ते तम् अन्नट्लु इन्द्रिया गोचर मनि भावमु. सुदूरगम्… विभजिञ्चि तॆलिसिकॊन शक्यमुगानिदि. अनुश्रव शिरस्सु—आचार्योच्चारणमु ननुसरिञ्चि श्रूयमाणमुलु गनुक वेदमुलकु अनुश्रवमुलनि पेरु. तच्छिरमुलु उपनि षत्तुलु (वेदान्तमुलु) वानियन्दु. दुर्ग्रहम् हमु कानिदि. प्रमाणमु. सुग्र ‘यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह इत्यादुलु. ‘प्रादु रस्ति करिशैलमस्तके’ इन्दुकुँ ब्रमाण श्लोक मुलु. “गङ्गाया दक्षिणे भागे । योजनानां शतद्वये पञ्चयोजन मात्रेण । पूर्वाम्भोधेस्तु पश्चिमे । श्री वरदराज स्तवमु ! वेगवत्युत्तरे तीरे पुण्यकोट्यां हरि सस्वयम् वरद स्सर्वभूताना मद्याऒपि परिदृश्यते ! वपाहो मे प्रवृत्ते तु प्रात स्सवनकर्मणि धातु रुत्तर वेद्यन्तः प्रादु रासी ज्जनार्दनः ॥ ॥ 7 (गङ्गकु दक्षिणमुन रॆण्डुवन्दल यामडललो नुन्न पूर्वसमुद्रवुँ बडमटि तीरमुन वेगवतीनदि युत्तर तटमुनन्दु ‘पुण्यकोटी क्षेत्रमुन श्रीहरि यन्दऱिकि वरमुल निच्चुचु वरदनाममुतो नेँटिकिनि गानवच्चु चुन्नाँडु. ब्रह्मचेयु यज्ञमुलो प्रातस्सवनकर्म यन्दु वपा हॆूममु जरुगुचुण्डँगा नु तरवेदि यन्दु साक्षा ज्जनार्दनुँडु वरदराज रूपमुतो नाविर्भविञ्चॆनु.) दिग्ग जमुल चेतँ बूजिम्पँबडुट चे नीकॊण्डकु ह सिगिरि यनि पेरु. ता॥ शाश्वतमुनु, इन्द्रियातीतमुनु, योगुलबुद्धिकि सैत मन्दनिदियु, वेदान्तमुलन्दु सैतमु सुलभ ग्राह्यमु कानिदियु नगु नॊक तेजस्सु करिगिरि शिखरमुन नाविर्भविञ्चि युन्नदि. च. परिमिति लेनियट्टिदि, य परुगिड पारजवेन्द्रिय वाजिराजमुल् नॆ कनु दव्वुगा नॆ पट्टॆडु नट्टिदि, योगिबुदिकि क् जॊरँ बड रानि दागमिक सूक्तुल कन्दनि दॆद्दि यद्दिये करिगिरि मस्तकम्बुन नॊ कानॊक पॆल्लुग गोचरिं चॆडुक्. 3 4 8 श्री श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक :- इप्पुडु वरदराजुलवारिकि करिगिरिशिखरा वासमु नन्दलि रसिकतातिशयमु श्रुतिकि सैत मादरणीय मनि नुडुवुचुन्नारु. प्रति : . श्लो॥ वल्लि का श्रुतिमतल्लि कामयी येन पल्लवितविश्वशाखया । स्वश्रिया करिगिरे रनुक्रियां 11 4 वष्टि कृष्टवरदं तो माश्रये ॥ श्रुति, मतल्लिका, मयी = श्रेष्ठमगु श्रुति स्वरूपमयिन, वल्लिका= तीँगॆ, (श्रेष्ठमगु श्रुति यनॆडु तीँगॆ) येन एवरदराजस्वामि चेत, पल्लवित, विश्व, शाखया = पल्लविञ्चिन समस्तमुलगु काण्व, काठक काला पादि, वेद शाखलुग ल, (वनगिरिपक्षमुन) चिगिर्चिन सम स्तमुलगु कॊम्मलु गल, स्वश्रिया=स्वकीयशोभ चेत, करिगि रेः=हस्ति शैलमुयॊक्क, अनुक्रियाम् = पोलिकनु (अनुकरणमुनु) वष्टि कोरुचुन्नदो, तम्= अटुवण्टि, मृष्ट, वरदम् = पूर्ण वरप्रदुँ डगु वरदराजस्वामिनि, आश्रये= शरणु चॊच्चुचुन्नानु. वि शेषमुलु :- ‘वल्लिका श्रुतिमतल्लि कामयी’ -मतल्लिका शब्दमु श्रेष्ठवाचकमु, श्रुति (वेदमु) प्रमाणमुललो श्रेष्ठमुगान श्रुतिमतल्लिक यैनदि. दीनियन्दु वल्लिकात्व मारोपिम्पँबडिनदि. श्रेष्ठमगु वेदमनॆडु तीँगॆ अनि भावमु. ‘येन पल्लवित विश्वशाखया’- वेदै श्च सर्वै रह मेव वेद्यः— सर्वे वेदा यत्पद मामनन्ति - इत्यादि श्रुतु श्री वरदराज स्तवमु 9 लचेँ जॆप्पँबडिनट्लु सर्ववेदप्रतिपाद्युँ डगु भगवानुँडु गेयमुलकुँ ब देप दे नुडुवँबडु पल्लविवलॆ भगवन्तुनिकि गेयमुलवण्टि काण्व, काठक, सु बालादि, वेद शाखलकु’ पल्लव’ स्थानमुवलॆ नलङ्कार भूतुँ डनि ‘पल्लवित’ शब्दमु चे ध्वनित मगुचुन्नदि. ‘वष्टि- ‘वश = कान्त्, कान्ति = रिच्छा अनु धातुवुनकु लट्—रूपमु कोरुचुन्नदि यनि यर्थमु. मृष्ट वरदम् वाञ्छिताधिक फलप्रदम् कोरँबडिन दानिकण्टॆ नधिक फलप्रदुँ डनि भावमु. मृष्ट मनँगा समृद्धि. करिगि रे रनुक्रियां वष्टि - श्रीवरदराजस्वामि यन्द ऱिकि गोचरिञ्चुनट्लु करिगिरिशिखरमुन वेञ्चेसि यन्दलि शाख लकु (कॊम्मलकु) पल्लवमुवलॆ (चिगुरु वलॆ) नलङ्कारमै तन सौलभ्यमुनु जूपिनट्लु तन शाखलयन्दु (काण, काठक, सु बालादि वेद शाखलयन्दु) पल्लवमु (पल्लवि) वलॆ नलं कार मगुचु नट्टि सौलभ्यमुनु जूप लेदनि श्रुतिमतल्लि करिगिरि साम्यमुनु दनकुँ गोरुकॊनु चुन्नदि अनि भावमु. ता॥ श्रुतिमतल्लि यनॆडु वल्लि (तीँगॆ) ए वेल्पु चेतँ जिगिरिञ्चिन काण्व, ‘काठ, कालाप, सुबालादि शाखलु गल करिगिरि पक्षमुन कॊम्मलुगल) स्वकीयशोभ चेतँ गरिगिरिसाम्य मुनु कोरुचुन्नदो! कोरिनदानिकण्टे नधिकमुगा वरमुलु निच्चु आ वरदराजस्वामिनि शरणु चॊच्चुचुन्नानु. आ आ.वॆ. श्रुतिमतल्लि वल्लि शोभिल्लियु नॆवण्डु पल्लवमुग शाख लॆल्लँ ग्राल, (2) 10 श्री वरदराज स्तवमु सर्वदृश्यवरद चारुकिरीट मा ह स्त्रीशैल साम्य मभिलषिञ्चु. 4 अवतारिक :- श्रुतिकण्टॆनु हस्तिगिरिये अधिकमनि नुडुवु चुन्नारु. प्रति : — श्लो॥ यं परोक्ष मुपदेशत स्त्रयी नेति नेति पर पर्युदासतः । सक्ति य स्त मपरोक्ष मीक्षय त्येष तं करिगिरिं समाश्रये ॥ त्रयी
11 5 श्रुति, (बृहदारण्यकोपनिषत्) उप देशतः = उप देशमुवलन, नेति, नेति = (न × इति-न × इति) कादु कादनि (परब्रह्ममु चॆप्पँबडिन दानि वण्टिदि कादु कादनि) पर, पर्युदासतः = इतर मुयॊक्क निषेधमुवलन, यम्=ऎवनि, परोक्षम् = चाटुगा, वक्ति = चॆप्पुचुन्नदो, यः, एषः = ए यीकॊण्ड, तम् = आ परब्रह्ममगु वरद राजस्वामिनि, अपरोक्षम् = प्रत्यक्षमुगा (कन्नुलमुन्दु) ईक्षयति = चूपिञ्चुचुन्नदो तम् अटुवण्टि, करि गिरिम्=ह स्त्रीशैलमुनु, समाश्रये= भक्तितो आश्रयिञ्चु चुन्नानु. विशेषमुलु : पर, पर्युदासतः – श्रुति द्वे वाप ब्रह्मणो रु ब्रह्मणो रूपे,— मूर्तं चामूर्तं च, सत्यं चानृतं च इत्यादि वाक्यमुल यन्दलि मूर्त, सत्य, शब्दमुल चेतनु, अमूर्तानृत शब्दमुल चेतनु, प्रतिपादिम्पँ परोक्षम् = = या श्री श्री वरदराज स्तवमु 11 बडिन चिदचि त्तत्वरूपादुल पर्युदानमु (निषेधमु) वलन चिदचि त्त त्वमात्र रूपत्वाद्युक्त प्रकारमु ब्रह्ममु कादनि दानिनि निरसिञ्चुटये चिवरकुँ देलुट वलन, अप्रत्यक्षमुगा (चाटुगा) ब्रह्मस्वरूप प्रकारमुनु निरूपिम्पकये यनि भावमु. अपरोक्ष मिक्षयति=बृहदारण्यकोपनिषत्तु विविच्य (स्पष्टमुगाँ जॆप्पँजालनि ब्रह्मवस्तुवुनु इदिगो ! ई वरदराजस्वामिये या ब्रह्ममनि करिगिरि स्पष्टमुगा नॆल्लरिकिँ जूपिञ्चुचुन्न दनि सारांशमु, ई विषयमे ‘नित्य मिन्द्रिय पथा तिग’म्मनॆडु 3व श्लोकमुन वर्णिम्पँ बडिनदि. ‘तं करिगिरिं समाश्रये’ - परब्रह्ममगु वरदराजस्वामिनि साक्षात्क रिम्पँ जेयुटवलनँ गरिगिरि समाश्रयणीय मनि भावमु. बृहदारण्य कोपनिषत्तुनन्दु ‘द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं च सत्यं चानृतं च’ अनि युपक्रमिञ्चि, तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपं यथा महारजनं वासः पाण्डवानिकः यथेन्द्र गोपा यथा ग्न्यर्चि र्यथा पुण्डरीकम् ’ ई मॊदलगु वाक्यमुल चेत मूर्तामूर्त कनकाम्बर पाण्डुकम्बळादि नुडिवि ‘अथात आ देशो नेति नेति ने त्यन्य त्पर मस्ति, अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यम्- तेषा मेव सत्यम्’ अनि चॆप्पँबडिनदि. पै श्रुतिवाक्यमुल कन्निण्टिकि सू॥ प्रकृतैता वत्वं हि प्रतिषेधति ततो ब्रवीति च रूपमुलनु12 श्री वरदराज स्तनमु भूयः 3–2–21 ब्रह्म सूत्रमुन अर्थनिर्णय मॊनर्पँ बडिनदि. कलदि ता॥ त्रयि (बृहदारण्यकोपनिषत्तु) उप देशमुवलनँ बरब्रह्ममु पूर्वमु चॆप्पँबडिन पूर्वमु चॆप्पँबडिन लक्षणमुलु मात्रमे कादु— कादु- अनि परपर्युदासवलनने वरदराज स्वामिनि अप्रत्यक्षमुगा नुडुवुचुन्नदो! या वरदराज स्वामिनि ई करिगिरि यन्दऱकुँ ब्रत्यक्षमुगाँ जूपुचुन्नदि. कावुन वरदराजस्वामिनि परब्रह्ममनि स्पष्टमुगाँ जॆप्पँ जालनि श्रुति कं टॆ नन्दऱिकन्नुलकुँ बरब्रह्ममगु श्री वरद राजस्वामिनि स्पष्टमुगाँ जूपिञ्चुचुन्न करिगिरिये मिन्न यनि भावमु. आ॥ वॆ॥ नेति नेतिश्रुतुलचेत वेनिँ बरोकु प्रति : भङ्गिँ ब्राँतपलुकु पलुकु नट्टि परमदै वतम्बुँ ब्रत्यक्ष मुगँ जूपु नट्टि ह स्तिशिखरि नाश्रयिन्तु. श्लो॥ एष ईश इति निर्णयं त्रयी भाग धेयरहि तेषु नो दिशेत् । हस्तिथामनिन निर्णयेत को देवराज मय विश्वर स्त्विति ॥ त्रयी
10 5 6 वेदत्रयमु, भाग धेय, रहि तेषु= अदृष्ट हीनुल विषयमुन, एषः = ई वरदराज स्वामि, ईशः=स र्वेश्वरुँडु, इति = अनि, निर्णयम्=निश्चय श्री वरदराज स्तवमु 13 = अनि, मुनु, नो, दिशेत् = इय्य लेदु, (कानी) ह स्तिधामनि, तु= करिगिरियं दन्ननो, देवराजम् वरदराजस्वामिनि, = अयम्=इतँडु, ईश्वरः = सर्वेश्वरुँडु, इति = कः=ऎवँडु, न, निर्णयेत निर्णयिम्प लेँडु. (ऎल्लर निर्णयिन्तुरनि भावमु.) रुनु विशेषमुलु :– त्रयी— ‘इति वेदास्त्रय स्त्रयी’ अमरमु. ऋग्वेद यजुर्वेद साम वेदमुलु. इन्दलि पूर्वार्थमुलोनि विषयमे वैकुण्ठ स्तवमु 18व श्लोकमुन विवरिम्पँबडिनदि. ‘य त्केचि दत्र भवतीं श्रुति माश्रयन्तो व्यर्थे कुदृष्टि विनि विष्टधियो विनष्टाः ‘कॊन्दऱु पूज्य याश्रुतिनि भव्यम्बौ प्रमाणम्बुगा महिँ बेर्कॊञ्चुँ ददर मॆल्लँ गुदृशुल् मार्तुर् विना शम्बुकै ’ (मदीय पद्यभागमु) निवासमु देव राजगु उत्तरार्थ भावमिदि— करिगिरि निवासमु वरदराजस्वामिकि सर्वेश्वर त्वादुलतो नॆडँ बाटु लेनि समस्तकल्याण गुणात्मकत्वमुनु जूटुचुन्नदि. ता॥ वेदमुलु दुरदृष्टवन्तुल विषयमुन नी वरद राजस्वामि सर्वेश्वरुँडनि निर्णयिम्पँ जालक पोयिननु, श्रीकरिगिरियन्दुँ ब्रतिजनुँडुनु वरद राजस्वामिये सर्वेश्व रुँडनि निर्णयिम्पँजालुनु, श्री वरदराज स्तवमु 14 क॥ दुर दृष्टुलकुन् यि यी श्वरुँ डितँ डनि निर्णयिम्पँ जालदु गानी, करिगिरियं दितँडे यी श्वरुँडनि निर्धारणम्बु सलुपु जडुण्डुन्. अव :: वॆनुकँ जॆप्पिनदानिने चुन्नारु. प्रति : श्लो॥ है कुदृष्ट्यभिनिविष्ट चेतसां निर्विशेष, सविशेषता, श्रयम् । संशयं करिगिरि र्नुद त्य सौ तुङ्ग मङ्गळ गुणास्पदे हरौ ॥ 6 तेट तॆल्ल मॊनर्चु 7 तुङ्ग, मङ्गळ, गुण, आस्पदे= उन्नतमु लुनु (आनन्दगुणमु वलॆने अपरिच्छेद्यम्बुलुनु), कल्याण करमुलुनु अगु गुणमुलकु निलयमैन, हरौ=श्री मन्ना रायणमूर्ति विषयमुन, कुदृष्टि, अभिनिविष्ट, र्ति चेतसाम्=कुदृष्टि चेत (अयथार्थ ज्ञानमुचेत) नाटुकॊनिन मनस्सु गलवारिकि, निर्विशेष, सविशेषता, आश्रयम् निर्गुणत्व, सगुणत्वमुलकु नॆलवैन, संशयम्=सं देह मुनु, असौ=ई, करिगिरिः = ह स्त्रीशैलमु, नुदति = पो गॊट्टुचुन्नदि. था वि शेषमुलु :– निर्वि शेष, सविशेष, ताश्रयं संश यम् — श्रीमन्ना रायणमूर्ति निर्गुणुँडा! सगुणुँडा! श्री वरदराज स्तवमु 15 अनु कोटिद्वयावलम्बि सन्देहमुनु अनि भावमु, असौ, करिगिरिः– नित्य,निरवद्य, निरतिशय, कल्याण गुणमुलु पुष्कल मुगा नुण्डि यन्दऱकुँ गन्नुलमुन्दु कनिपिञ्चु देव राजुनु दलतो म्रोयुचुन्न यी करिगिरि अनि तात्पर्यमु. नुदति निरसिञ्चु चुन्नदि. कुदृष्टुलकु उपनिषत्तुलवलनँ गूड नेर्पडनि ‘ देवराजु मङ्गळ गुणगणाकरुँ’डनु निर्णय मुनु करिगिरि सुलुवुगाँ गलिगिञ्चुचुन्नदि यनि सारांशमु. है— ई शब्दमु (अव्ययमु) प्रसिद्धिनि दॆलुपुनु. शङ्कर पक्षी युलगु मायावादुलु ब्रह्ममुनकु सगुणत्वमु नङ्गींरिम्पक पोयिननु वारिलो नॊक तॆगवारगु यादव प्रकाश पक्षीयुलु दशाभेदमुचेत ब्रह्ममु नङ्गीकरिञ्चुट चेत ब्रह्ममु सगुणमा निरुणमा! अनि कोटि द्वयाव लम्बि संशय मेर्पडॆननि तॆलियवलॆनु. ता॥ आनन्दगुणमुवलॆ नपरिच्छिन्नम्बुलगु कल्याण गुणमुलकु नित्यनिलयुँडगु श्री नारायणुनि विषयमुन श्रीहरि सगुणुँडा! निर्गुणुँडा ! यनि हृदयमुन गाढ मुगा नाटुकॊनिन कुदृष्टुल संशयमु नी करिगिरि सुलुवुगा निवारिञ्चुनुन्नदि प्रसिद्धमु, उ॥ ऎन्दुनु मेरलन् नुडुव नेरिकि शक्यमुगानि यट्टि या नन्दगुणम्बु न टॆ सुगु 3 णम्बुलु कालयमैन चक्रिपै 16 श्री वरदराज स्तवमु नॆन्दुलको ! कुदृष्टुलकु नेर्पडु निर्गुणुँडो ! परुण्डॊ ! यन् सन्दियमुन् तॊलञ्चुँ गरि शैलवरं बिदि चूचि नन्तने 7 अवतारिक :—– सात्विकुलु कूड नुपबृंहण वाक्यमु लतोँ गूडिन श्रुतिचेतँ दत्त्वनिर्णयमु नॆट्लो चेसिननु करिगिरि मात्रमु विलक्षणमुगा नन्दऱकु स्वयमुगा भग वन्तुनि अनुभविम्पँ जेयुचुन्नदनि यी श्लोकमुन ननुग्र हिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ न्यायतर्कमुनि मुख्यभाषि तैः शोधि तैः सह कथं चन त्रयी । जोषये द्धरि मनंहसो जनान् ह स्तिधाम सकलं जनं स्वयम्
1 11 8 प्रति त्रयी= वेदत्रयमु, शोधि तैः= शुद्धमुलैन, न्याय, तर्क, मुनिमुख्य, भाषितैः, सह= न्यायमुल = चेतनु, तर्कमुल चेतनु, मुनिश्रेष्ठुल वाक्यमुलचेतनु, कूड, अनंहसः = पापरहितुलगु, (श्रीणकल्मषुलगु) जनान् = जनुलनु, हरिम् देवराजुनु, कथञ्चन=ऎट्लो कष्टमुमीँद, जोषयेत् = सेविम्पँ जेयुनु, ह स्तिधाम= करिगिरि, सकलम्= समस्तमगु, जनम्=जनमुनु, स्वयम्= स्वयमुगाने (इतरुलय पेक्ष लेकुण्डने (हरिम् = देव राजुनु (भगवन्तुनि) जोषयेत् = सेविम्पँ जेयुनु.)
श्री वरदराज स्तवमु 17 विशेषमुलु :- शोधि तॆः शोधन चेयँबडिन अनँगा अपन्यायमुलु तर्का भासमुलु चेरकुण्ड राजन तामस पुराणमुलु काकुण्ड गालिम्पँबडिन, न्याय- तर्क— मुनिमुख्य भाषि तैः- न्याय = पूर्वोत्तर मी ऎ = मांसान्यायमुल चेतनु तर्क अनुकूल तर्कमुल चेतनु, अनँगा— पर्वतो वह्निमान् धूमात्- (पॊगयुण्डुटवलनँ गॊण्ड निप्पुकलदि) अनु अनुमान प्रमाणमुन प्रतिपक्षि - धूमोस्तु वह्नि र्मास्तु (पॊगयुण्डिननु वह्नि लेकपोवुँगाक) अनि यप्रयोजक शङ्क चेसिनप्पुडु—— ‘यदि वह्नि र स्यात् तर्हि J धूमोऒपि स स्यात्’ (वह्नि लेनिचो धूममु गूड लेकपोनी) अनि चॆप्पुटलु - अनुकूल तर्कमुलु, मुनि मुख्य भाषि. तैः =मुनि श्रेष्ठुलगु वाल्मीकि, पराशर, व्यास, भाषितमु लैन श्रीमद्रामायण, विष्णुपुराण, भारतादि सात्विकपुराणमुल चेतनु, अनंहसः – क्षीणकल्मषुलैन, ‘जन्मान्तर सहस्रेषु तपोध्यान समाधिभिः। नराणां क्षीण पापानां कृष्ण. भ क्ति ः प्रजायते’ (वेलकॊलँदि जन्मान्त रमुलन्दुँ दपस्सुल चेत, ध्यानमुल चेत, समाधिनिष्ठल चेत क्षीण पापुलगु जनुलकु श्रीकृष्णुनियन्दु भक्ति जनिञ्चुनु.) सकलं जनम् = पण्डितुलनु पामरुलनु. (3) ण 18 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ परिशुद्धमुलगु पूर्वोत्तर मीमांसान्याय मुल चेतनु, अनुकूलतर्कमुल चेतनु, सात्विकमुलगु श्रीमद्रामायण, विष्णुपुराण, भारतादुल चेतनु, उप बृंहितमै वेदत्रयि अनेक जन्ममुललोँ जेसिन तपस्सुल चेत क्षीणकल्मषुलगु जनुल नॆट्लो भगवन्तुँडगु देव राजुनु सेविम्पँ जेयुनु, करिगिरि यन्ननो यट्लु गाक अन्यनिर पेक्षकमुगा ने तनन्तँ दाने या बालगोपालमु ने चेत श्री देव राजुनु सेविम्पँ जेयुचुन्नदि. कावुनँ द्रयि कण्टॆ श्री करिगिरिये मिन्न. मळ्ली म॥ परिशुद्धम्बुलु न्यायतर्क मुल चे भद्रायितम्बै मुनी प्रति स्वर भाषावळिभूषितं बगुत्रयी वा ! क्कॆट्टुलो ! यॆट्टुलो ! हरि सेविम्पँगँजेयं निष्कलुषुलस्, ह स्त्यद्रियो सुल्वुगा हरि दर्शिम्पँगँ जेयु नॆल्लरकुँ दा नै कोर केसायमुन् . श्लो॥ आद्भुतं मह दसीम भूमकं, किञ्चि द स्त्री किल वस्तु निस्तुलम् । ta इ त्यघोषि य दिदं त दग्रत स्तथ्य मेव करिधाम्नि दृश्य ते ॥ अद्भुतम् = आश्चर्यकरमैनदियु, महात् = 9 गॊप्पदियु, असीम भूमकम् = अपरिच्छिन्न महिम गलदियु, श्री वरदराज स्तवमु
19 नि स्तुलम् = साटि लेनिदियु अगु, किञ्चित्=ऒकानॊक, वस्तु= वस्तुवु, अस्ति, किल=उन्नदि सुमा, इति अनि, यत्= एदि, अघोषि = चाटँबडॆनो, तत् = आ प्रसिद्धमगु वस्तुवु, करिधाम्नि = करिगिरियन्दु. इदम् = इदिगो, अग्रतः = ऎट्ट यॆदुट, तथ्यम्, एव = यथार्थमुगाने, दृश्यते =कनँबडु चुन्नदि. विशेषमुलु :- अद्भुतम्= समस्तमुलैन विजातीय सजातीयमुलकण्टॆ न त्याश्चर्यकरमु ऐन — असीम भूम कम्=अपरिच्छिन्न स्वभावमुगल, किञ्चित्= तॆलियँबडिन यंशमुलोँ गूड निदि यिट्टिदनि चॆप्पुटकु साध्यमुगानि, अग्रतः मांसचक्षुष्कुलमगु मनयॆदुटँ गूड, दृश्य ते= प्रत्यक्षी क्रिय ते— चूडँबडुचुन्नाँडु. ँडु. ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयं त्यभिसं विशन्ति, त द्विजिज्ञासस्व, त त्प्रह्मेति, त देव सौम्येद मग्र आसीत्, एक मेवा द्वितीयं ब्रह्म, यः सर्वज्ञ स्सर्ववित्, पराजस्य शक्ति र्विविधैव श्रूय ते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रियाच, न तत्सम श्चाभ्यधिक श्च दृश्यते, एष सर्वभूतान्तरात्मा अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायण’ ई मॊदलगु श्रुति शतमुलचेतँ बेर्कॊनँबडिन वैभवातिशयमु गल नारायणुँडु करिगिरियन्दुँ जक्कगाँ गनँबडुचुन्नाँडनि भावमु. 20 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ अद्भुतमुनु, मह त्तममुनु, अपरिच्छिन्न महिममुनु, अपरिच्छिन्न स्वभावमुनु, निरुपमानम्बुनु, अगु वस्तु वॊकटि कलदनि श्रुतिशतम्बुलु देनिनिँ जाटु चुन्नवो या परवस्तुवु करिगिरियन्दु नन्दटि कन्नुल मुन्दऱ निदिगोननि चूपुटकु ननुवुगा जाटँबडु चुन्नदि. उ॥ निस्तुलमुन् महाद्भुत म ननुवुगा सत्यमुगाँ नी दृशरूप मसीमभूम मौ वस्तु वॊकण्डु वेदमुल वाकॊनँगाँ बडॆ नेदि मिन्नगा, श स्त मुदात्त मा परम सत्यमु वस्तु वॆ कण्टिमुन्द जन् ह स्ति महामहीधरमु नन्दु वॆलिङ्गॆडुँ जूड नॆल्लरुन्. अवतारिक : - प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरमुल संवाद मुन्नप्पुडे यागममुनकुँ ब्रामाण्य मुण्डुननि वादिञ्चु वेद बाह्युल मतमुनन्दु सैतमु वरदराजस्वामिनि सकल जनसाक्षात्कारक्षमुनिगाँ जेयु चुन्न करिगिरिचेत वेदत्रयि प्रामाण्यमु ननुभविञ्चुचुन्न दनि मुन नुडुवुचुन्नारु. यी शोक 3 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ सम्पदेत किल यत् प्रमान्त रै सळ् प्रमाण मिति येहि मेनिरे। तन्म तेऒपि किल मानतां गीता हस्तिनाद्य परवस्तुनि त्रयी ॥ 21 10 ये=एवादुलु, यत्, किल= एदि प्रमाण प्रति : मुगा नभिमतमो, (तत् = अदि)
प्रमान्त रै 8 = इतर प्रमाणमुलतो, संव देत= अनुकूलपडि युण्डवलॆनु, (विरुद्धमु काकूडदु) तत् = अट्टिदि, प्रमाणं, हि, इति = प्रमाणमनि तलँचिलो, तन्मते, अपि= अपि= अट्टिवारल मतमु नन्दुँ गूड, त्रयी वेदत्रयि, अद्य इप्पुडु, ह स्तिना (परवस्तुवगु वरदराजस्वामिनि कनुलमुन्दु प्रत्यक्षमुगाँ जूपुचुन्न) करिगिरिचेत, परवस्तुनि= परवस्तु विषयमुन, मानताम् = प्रमाणत्वमुनु, गता, कील= पॊन्दिनदि कदा! विशेषमुलु :— ह स्तीना- नामैकदेशे नामग्रह ह णम्— अनु परिभाष चेत हस्तिगिरि अनु पेरिलो नॊक भागमगु ह स्तिपदग्रहणमु चेत हस्तिगिरिग्रहण मेर्प डुनु. भीमपदमु चेत भीमसेन ग्रहणमुवलॆ. त्रयी परवस्तुनि- मानताङ्ग ता सर्वज्ञुँडु सर्वशक्ति, सर्व शरण्युँडु, सकलफलप्रदुँडु, पुण्डरीकाक्षुँडु, लक्ष्मीपति, परमपुरुषुँडु, सर्वनिर्वाहकुँडनि श्रुति प्रतिपादित22 VÕLU वरदराज स्तवमु गाँ दन परवस्तुवुनु ह स्तिगिरि यन्दऱकुँ ब्रत्यक्ष मुगाँ शिरस्सुनन्दुँ दाल्चुट चेत श्रुति य बाधित विषयमगु चुन्नदनि भावमु. अदि यितर ता॥ एदि प्रमाणमुगा नभिमतमो प्रमाणमुलकु ननुगृहीतमै युण्डवलॆननि येवादुलु तलँचिरो वारि मतमुनन्दुँगूड वेदत्रयि परवस्तुवगु श्री वरदराजस्वामिनि ब्रत्यक्षमुगा शिरमुनन्दु दाल्चि चूपुचुन्न ह स्तिगिरिचेतँ बरम प्रमाणपदविनि बॊन्दिम्पँ बडिनदि. उ॥ एदि प्रमाणरूपमुग I निष्ट मॊ, यद्दि प्रमान्त रैक सं वादिग नुण्ड नौ ननॆडु ग वादुलकुं गडुसम्मतम्बुगा नादिमत त्त्वमौ वरदु नौदलँ दालिचि ह स्तीशैल मी मादिरिँ जूपुचुं द्रयिँ ब्र माणतमम्बनि चाटुचुण्डॆडिन्. ई स्तवमुनन्दु मॊदटि पदिश्लोकमुलु रथोद्धतावृ निबद्धमुलु. रा न्नरा विह रथोद्धता लगौ- र, स, र, गणमुलु । लघुवु । गुरुवु पादपादमुन रथोद्धता वृत्तमुन कुण्डुनु. श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक :— इट्लु मन्त्ररत्नमुनँ 23 गल “नार” पदमुनकु अर्थमगु करिगिरि वैभवमु नुग्गडिञ्चि तदयन पदाभि धेयमगु भगवानुनि वैभवमुनु विस्तरिञ्चि चॆप्पँ बोवुचुँ दॊलुदॊल्त चुन्नारु. गुण योगमुनु ब्रतिपादिञ्चु श्लो॥ गुणाय त्तं लोके गुणिषु हि मतं मङ्गळ पदं विपर्य स्तं ह स्तिक्षितिधर पते तत् त्वयि पुनः । गुणा स्सत्यज्ञान प्रभृतय उत त्वद्दततया शुभीभूयं याता इति हि निरणैम्म श्रुतिवशात् ॥ 11
प्रति लो के=लोकमुनन्दु, गुणिषु=गुणवन्तुल विषयमुन, मङ्गळपदम् = मङ्गळशब्दमु (वीरु मङ्गळ करुलु अनि) गुणाय त्तम् गुणाधीनमु (गुणमुलँबट्टि प्रयोगिम्पँबडुनदिगा) मतं हि=तलँचँबडिनदि गदा! हे ह स्तितिधरपते= करिगिरिप्रभुवगु ओ वरदराजस्वामि! त्वयि, पुनः = नी विषयमुनन्दो, विपर्य स्तम्= तलक्रिन्दुलु, (भवति अगुचुन्नदि) सत्यज्ञान प्रभृतयः = सत्यमु, ज्ञानमु, मुन्नुगाँगल, गुणाः उत= गुणमुलन्न नो, त्वत् गततया=निन्नाश्रयिञ्चुट चेत, शुभीभूयम्=मङ्गळत्व मुनु, याताः इति = पॊन्दिनवनि, श्रुतिवशात् = वेद साहाय्यमुवलन, निरणॆम्म, हि=निश्चयिञ्चुकॊण्टिमि. 24 वि शेषमुलु :- श्री वरदराज स्तवमु ‘गुणायत्तं लोके गुणिषु हि हि मतं मङ्गळपदम्— मणि, द्युमणि (सूर्युँडु) चन्द्र, चन्दनादुलन्दु शोभन ता हेतुवु शोभातपचन्द्रिका सुगन्धभरादि सम्बन्धमे यनि यॆल्लरु नॆऱिँगिन विषयमे, तत्, त्वयि, पुनः, विपर्य स्तम् – आ नियममु नी विषय मुनँ दलक्रिन्दुलैनदि. अनँगा - मङ्गळपदमु गुणा य त्तमु गाक गुण्याय त्त मैनदि यनि भावमु. तृतीय चतुर्थ पादमुलु पै विषयमुनु समर्थिञ्चुचुन्नवि. भवदीयस्वरूप निरूपकमुलगु सत्वज्ञानादि गुणमुलु निन्नुँ जेरुट चेतने मङ्गळत्वमुनु बॊन्दिनवि. यॆड्लङ्गितिरि? निरणैष्म श्रुतिबलात् - सत्यस्य सत्यम्- ज्योतिषां ज्योतिः- इत्यादिश्रुतुल मूलमुन ननि समाधानमु. इदि ता॥ कान्तिनिबट्टि यिदि मञ्चिरत्नमु, सुगन्धमुनु बट्टि यिदि मञ्चि चन्दन मन्नट्लु वीरु मञ्चिवारनुटकु लोकमुन गुणमुलु कारणमै युन्नवि. ओ करिगिरीशा ! ‘वरदराज स्वामी! नीयं दीलकुणमु तलक्रिन्दुलुगाँ गन्पट्टु चुन्नदि. मङ्गळत्वमु गुणमुलनुबट्टि रादु गुणिनिबट्टि वच्चुननि भावमु, ऎट्लन सत्यज्ञान प्रभृतिगुणम्बुलु मङ्गळ करुँडवगु निन्नाश्रयिञ्चुट चेतने मङ्गळत्वमुनु बॊन्दॆ ननि ‘सत्यस्य सत्यम्,– ज्योतिषां ज्योतिः’ इत्याति श्रुति वाक्यमुलवलन निर्णयिञ्चु कॊण्टिमि. श्री वरदराज स्तवमु म॥ भुवि देवा ! गुणुलन्दु मङ्गळपदं बुन् गूरुतुर् सद्गुणा ळि विराजिल्लुटचे मणिद्युमणु लो लिन् लक्ष्यमुल्, तल्लक्रिं दवु नीयं दिदि नीगुणम्बु लगु स त्यज्ञान मुख्यम्बुलुन् भवदाधारत वन्नॆँ गाञ्चॆँ द्रयि चे भाविन्तु विूयक्तमुन्, मा 25 अवतारिक :— भगवन्तुन किट्टि गुणविशिष्टस्वरूपमु वेदमुनन्दु सैत मवाज्मानसगोचर मनि प्रतिपादिम्पँ बडिन दनुचुन्नारु. श्लो॥ निराबाधं नित्यं निरवधि निरंहो निरुपमं सदा शान्तं शुद्धं प्रतिभट मवद्यस्य सततम् । परं ब्रह्माम्नातं श्रुतिशिरनि य द्विरद! ते परं रूपं साक्षात् त दिद मपदं वाङ्मनसयोः ॥ 12 प्रति :- निराबाधम् = निर्विकार मैनट्टियु, नित्यम् = शाश्वत मैनट्टियु, निरवधि=हद्दु लेनट्टियु, निरंहः = निर्मल मैनट्टियु, निरुपमम् = साटि लेनट्टियु, सदाशां तम् नित्यानुकूल मैनट्टियु, (भोग्य मनि भावमु) शुद्धम्= शुद्धसत्वस्वरूप मैनट्टियु, (कनुकने) सततम् ऎल्लप्पुडु, अवद्यस्य = दोषमुनकु, प्रतिभटम्= विरोधि (4) a 26 श्री वरदराज स्तवमु यैनट्टियु, यत् = एदि, (अस्ति =कलदो) तत् = आ, परं, ब्रह्म=परब्रह्ममु, श्रुतिशिरसि = उपनिषत्तुलन्दु, वाङ्मन सयोः= वाक्कुलकु मनस्सुनकुनु, अपदम् = अन्दनिदिगा, आम्नातम् = पेर्कॊनँबडिनदि वरद! ओ वरदराज स्वामि! तत् = आ, इदम् = इदि, ते= नीयॊक्क, साक्षात् = प्रत्यक्ष मगु, परम् = श्रेष्ठमैन, रूपम् =
स्वरूपमु. (भवति = अगु चुन्नदि.) विशेषमुलु :- नित्यम् कालपरि च्छेदर हितम् कालमु यॊक्क मिति लेनिदि, निरवधि = देशपरिच्चेद रहितम्- देशमुलन्दुँ गलदि यनि भावमु. ‘प्रतिभट मवद्यस्य सततम्’ तन सम्बन्धुलकु सैतमु दोष लेशमुनु गूड सर्व सहिम्पनिदि यनि तात्पर्यमु. दोष विरोधि (निर्दोषमु) दोषविरोधि अनि मात्रमे चॆप्पिनचो ‘निरंहः’ अनु पदमुतोँ बुनरु स्र्ती वच्चुनु. अपदं वाङ्मनस योः– ‘न चक्षुसा गृह्यते नापि वाचा,— य त्त द देश्य मग्राह्यम्’- इत्यादि वेदान्त त्त दद्देश्य वाक्यमुलु परब्रह्म मवाज्मानसगोचर मनि नुडुवु चुन्नवि. वरद! ते परं रूपं साक्षात्त दिदम् — इट्टि परस्वरूपरूपविशिष्टुँड वगु नीवु भ क्तुल सौलभ्यमुनकै करिगिरिशिखरमुन कलङ्कारमुगा वेञ्चेसियुन्ना वनि भावमु. . श्री वरदराज स्तवमु 27 ता॥ निर्विकारमु नित्यमु निरवधियु निर्मलमु निरुव मानमु सदा भोग्यमु शुद्धमु स्वसम्बन्धुलकुँ गूड दोष लेशमुनु सैतमु सहिम्पनिदियु नगु एपरब्रह्ममु वेदान्तमुलं दवाज्मानसगोचर मनि पेर्कॊनँ बडिनदो यदि योवरदराजस्वामी ! प्रत्यक्ष मगु नी निष्कृष्ट परम स्वरूपमे. च॥ निरुपममुन् विनिर्मलमु नित्यमु केवल शुद्ध सत्वमुन् निरवधि निर्विकारमुनु नित्यसुभोग्य मपद्यशून्यमुन् परमु वचोमनोतिगमु ब्रह्ममु वेदशिगोनिरूढ मो वरद! भवत्स्वरूप मयि वर्ति लॆ वारण शै लभूषगान् ॥ श्लो॥ प्रशान्तानन्तात्मानुभवज महानन्दमहिम प्रसक्त सैमित्यानुकृत वितरं गार्णवदशम् । परं यत्ते रूपं स्वसदृशदरिद्रं वरद! ते त्रयी विस्रृक्षन्ती परनिरससे श्राम्यति परम् ॥ 13 13 प्रति :— हे वरद! = ओ वरदराजस्वामि ! प्रशान्त .दशम् — प्रशान्त = अत्यन्तानु कूलमुनु, अनन्त =अपरिच्छिन्नमुनु, (अगु) आत्म = स्वस्वरूपमुयॊक्क; 28 * श्री वरदराज स्तवमु अनुभव, ज = साक्षात्कारमुवलनँ बुट्टिन, महानन्द = आनन्दातिशयमु यॊक्क, महिम= आधिक्यमु मह त्त्वमु) चेत, प्रसक्त = एर्पडिन, सैमित्य = निश्चलत्वमु चेत, अनुकृत अनुकरिम्पँबडिन, वितरङ्ग = अललु लेनि, अल्लव = समुद्रमु यॊक्क, दशम्=अवस्थगलिगिनट्टियु, स्व, सदृश, दरिद्रम् (निस्त रङ्गसमुद्रमुकण्टॆ) इतर समानवस्तुवु लेनि, यत् =ए, ते= नीयॊक्क, परम् = अत्युत्कृष्ट मगु, रूपम् =स्वरूपमु (अस्ति = कलदो) तत्=आ स्वरूपमुनु, आ विस्त्रृक्षन्ती = प्रतिपादिम्पँ दलचुचु, त्रयी= वेदत्रयि, परनिरसने, परम् = हेयावयवविकारादुलनु निरसिञ्चुट यं दे, श्राम्यति= अलसिपोवु चुन्नदि. (आँगिपोवुचुन्नदि) विशेषमुलु : भगवानुनकु शान्तो दितदश यनियु, नित्योजतदश दितदश यनियु रॆण्डु दशलु गलवु. वानिलो `हेय प्रत्यनीककल्याणि क तानस्वस्वरूपानुभवदश मॊदटिदि, विभू त्यनु भवदश रॆण्डवदि. ई श्लोकमुन भगवन्तुनि शान्तो दितदश वर्णिम्पँबडिनदि. पूर्वार्धमुयॊक्क भावमिदि, अत्यन्तानुकूलमुनु, अपरिच्छिन्नमुनु अपरिच्छिन्नमुनु अगु स्वस्वरू पमुयॊक्क साक्षात्कारमुवलनँ बॊडमि नयपरिच्छि न्नानन्द वैभवमुवलन नेर्पडिन निश्चलत्वमु चेत निस्तरङ्ग सागरमुवलॆ नुन्न यनि भगवत्स्वरूपमुनकु वि शेषणमु. स्वसदृशदरिद्रम्— कॊञ्चॆमु पोलुचुन्न नि स्तरङ्गार्णवमु कण्टॆ नितर मगु सदृशवस्तुवु लेनि दनि भावमु. 4 व पादमु श्री वरदराज स्तवमु 29 यॊक्क सारांशमिदि. भगवानुनि यत्युत्कृष्ट स्वरूप मुनु ब्रतिपादिम्पँ दलँचि त्रयि ‘निष्कलं निष्क्रियं शान्तम्— य त्त दद्देश्य मग्राह्यम्’- इत्यादि वाक्य मुलचेत हेयावयव विकारादि निरसनमुतोने याँगि पोयिनदि. कानि युन्नदि युन्नट्लु वर्णिम्प लेक पोयॆनु. अनि अट्टि शान्तो दितदश ननुभविञ्चु भगवानुँ डिट्लु करिगिरि यन्दु वॆलसि सुलभुँ डगुट माबोण्ट्ल ननुग्रहिञ्चुट कनि यभिप्रायमु. ता ॥ ओ वरदराजस्वामि ! अत्यन्त भोग्यमु नपरि ता ॥ओ ! च्छिन्नमु नगु स्वस्वरूपमुयॊक्क साक्षात्कारमुवलन जनिञ्चिन यानन्दातिशयवैभवमुनँ गलिगिन निश्चलत्वमु चे नललु लेनियब्धिनि बोलुचु नितर सदृशवस्तुवु लेनि नी युत्कृष्टस्वरूप मेदिकलदो दानिनि वेदत्रयि प्रतिपा दिम्पँ दलँचि केवलमु परनिरसनमुतो ने विश्रमिञ्चिनदि. साकल्यमुगा नी स्वरूपमुनु वर्णिम्प नॆवरिशक्यमु? म॥ अति भोग्यानवलोकि तान्त निजरू पास्वादनानन्द सं तति लब्दाचल भावतन् स्तिमितत द्वार्धिन् न् विडम्बिञ्चुचुन् 30 श्री वरदराज स्तवमु አ गततुल्येतर वस्तु वैन भवदा कारम्बु वर्णिम्प नॆं चि त्रयीवाणि श्रमिञ्चॆ नन्यमु निरा
सिम्पन् रमावल्ल भा ! अवतारिक :- चॆप्पँबडिन विषयमुने स्पष्टमुगा विवरिञ्चु चुन्नारु. 32 प्रति ॥ न वक्तुं न श्रोतुं न मनितु मथोपानिषयिकुं न च द्रष्टुं पेट्ल्लो तदनु न च भोक्तुं हि सुशकम् । परं य द्वस्तूक्तं ननु वरद साक्षा त्त दसि भोः कथं विश्वस्मै त्वं करिगिरिपुर सिष्ठस इह ॥ वरद! ओ वरदराजस्वामि ! परम् ओ अन्निटिकण्टॆ श्रेष्ठमगु, यत् 14 एतत्वमु, व क्तुम्= उप देशिञ्चुटकु, न, सुशकम्= सुलभमुगानिदियु (शक्यमु गानिदियु) (उप देशिम्पँबडिननु श्रोतुम् विनुटकु (ग्रहिञ्चुटकु) न, सुशकम् = शक्यमुगानिदियु, ग्रहिम्पँ बडिननु) मनितुं च= मननमु चेयुटकुनु, न, सुशकम् सुलभमुगानिदियु, अथ – मननान्तरमु, उपासिषयितुं, च=उपासन चेय, वाञ्छिञ्चुटकुनु, न, सुशकम्=सुलभमु गानिदियु, प्रेम्ला= प्रेमतो, द्रष्टुं, च, न सुशकम् = = चूचुटकुनु शक्यमुगानिदियु, तदनु=तरुवात, भोक्तुं, च, न सुशकम् = अनुभविञ्चुटकुनु शक्यमुगानिदियु, श्री वरदराज स्तवमु 31 (इति=अनि, श्रुत्या= वेदमुचेत) उक्तम्= चॆप्पँबडिनदो, तत् =आ, वस्तु= परतत्वमु, भोः= ओ स्वामी! साटॆत् = प्रत्यक्षमुगा, त्वम् = नीवु, असि, ननु = अगुचुन्नावु गदा! कथम्=ऎट्लु, इह = ई भूतलमुनन्दु, करिगिरि पुरः =करिगिरिमुन्दु, त्वम् नीवु, विश्वस्मै= समस्तजनमु
- कॊऱकु, तिष्ठ से= उन्नावु, विशेषमुलु :- ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः’ अनु श्रुतिचेँ बरतत्वमु यॊक्क श्रवण मनन साक्षात्कार मुलु विधिम्पँबडिननु ‘न चक्रुषा गृह्यते नापि वाचा,- यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह— इत्यादि श्रुतुल चेतँ बरतत्वस्वरूपमु गुणमुलु अवाज्ङ्मानस गोचरमुलनि वर्णिञ्चुटवलन श्रवणमुनकु मॊदटिदि यगु नुप देशमुतो गूड साक्षात्का रानन्तरमु गलिगॆडु निरन्तरानुभव पर्यन्तमु गलषट्कमु अनँगा 1 उप देशमु 2 श्रवणमु 3 मननमु 4 निदिध्यासनमु 5 सा त्कारमु 6 अनुभवमु इवि यशक्यमुलनि भावमु. श्रवणमु :- तत्वदर्शियगु नाचार्युनिवलन न्याय युक्तमगु वर्गमुनु ग्रहिञ्चुट. Ф मननमु :- युक्तुल चेत विन्न यर्थमुनु चेयुट. धारण32 श्री वरदराज स्तवमु तैलधारवलॆँ दॆम्पुलेनि स्मृति निदिध्यासनमु :— तैलधारवलॆँ सन्तानमु. ‘सात् त्तदसिभोः’ उपदेशादि षट्कमुन कन्दनि या परवस्तुवु नीवे गदा! चतुर्ध पादमुलो ‘विश्वसै अनुचोट चतुर्थी विभ क्तिवलननु ‘तिष्ठसे’ अनु चोट अत्मने पदिवलननु आ पादमुनकु नायाश्रितुलनु रक्षिम्पँ गल ननि समस्तजनुलकु स्वाभिप्रायमुनु ब्रकटिञ्चुचु नुन्ना वनि भावमु. ताः वरद राजस्वामि ! ए परतत्वमु उप देशिञ्चुटकुँ गानि श्रवण मॊनर्चुटकुँगानी, मननमु चेयुटकुँगानि, दर्शिञ्चुटकुँगानि, यनुभविञ्चुटकुँगानि शक्यमुगादनि श्रुति चॆप्पुचुन्नदो! आ परतत्वमु साक्षात्तुगा नीवे यगुचुन्नावु गदा ! उप देशादुलकु सैत मन्दनि दुर्ग भुँडवगु नीवु ना याश्रितुल रक्षिम्पँगल ननि तॆलुपु चु नीलोकमुन नी करिगिरिमुन्दु निलिचि युण्डुट वात्सल्य सौलभ्यमुलँ जाटु चुन्नदि. म॥ चॆविलोँ जॆप्पँग नूँकॊनङ्ग मदिलोँ जिन्तिम्प ध्यानिम्पँ गा नवलोकिम्प भुजिम्प नॆय्यदि यश क्यं बट्टि दुष्प्रपव स्तुवु नीवे गद देव याश्रितुलँ गा तु ने नटञ्चु जनुल् भवदङ्घ्रुल् गॊलु वङ्ग नीगिरिपुरो भागम्बुन निल्चिते? देवा ! नी 14 श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक :- ई श्लोकमुन षाड्गुण्यपरिपूर्ति नि नुडुवु चुन्नारु. 33 श्री वरदराजस्वामिकि प्रकृष्टं विज्ञानं बल मतुल मैश्वर्य मखिलं विमर्यादं वीर्यं वरद ! परमा शक्ति रपिच। परं तेज श्चेति प्रवरगुणषट्कं प्रथमजं गुणानां निस्सीम्नां गणनविगुणानां प्रसवभूः ॥ 15 प्रति : : हेवरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, प्रकृष्टम् = श्रेष्ठमगु, विज्ञानम्= विविधज्ञानमु, अतुलम्=साटि लेनि, बलम्=बलमु, अखिलम् = समग्रमगु, ऐश्वर्यम् ऐश्व र्यमु, विमर्यादम् हद्दुलेनि, वीर्यम् == वीर्यमु परमा= गॊप्प, श क्तिः अपिच = शक्ति युनु, परम् = उत्कृष्ट मगु, तेजः च = तेजस्सुनु, इति= अनॆडु, प्रथमजम्= च= अन्नि कल्याण गुणमुलकण्टॆ मुन्दुपुट्टिन (प्रथमगण्य मगु) प्रवरगुणषट्कम्= श्रेष्ठमगु नीगुणषट्कमु (आऱुगुण मुलु) निस्सीम्नाम्= हद्दुलेनि, गणनविगुणानाम् = लॆक्क पॆट्ट शक्यमुकानि, गुणानाम्= दयाक्षमादिगुणमुलकु, प्रसवभूः=उत्पत्ति स्थानमु, (भवति = अगुचुन्नदि)
विशेषमुलु :— इन्दु विज्ञानादुलकु वेसिन उत्कृष्टे त्यादि वि शेषणमु लितरचेतनुलु विज्ञानादु लट्टिवि कावनि तॆलुपुटकनि तॆलियवलॆनु. (5) 34 श्री वरदराज स्तवमु ता ओ वरदराजस्वामी ! ! गुणमुललोँ ब्रथम गण्यमुलगु श्रेष्ठमगु ज्ञानमु, साटिलेनिबलमु, समग्र मगु नैश्वर्यमु, अवधि लेनि वीर्यमु, उत्कृष्टमगु शक्ति, यधिकमगु तेजस्सु, अनॆडि यी याऱुगुणमुलु हद्दु लेनि लॆक्क पॆट्ट रानि दयाक्षमादि कल्याणगुणमुलकु बुट्टिनिल्लु. च॥ गुरुतरमैन ज्ञानमु, न कुण्ठबलम्बु, समग्र मैन यी श्वरत, यपारवीर्य मुरु शक्ति, म हॆूज्ज्वल तेज, मन् मह त्तर गुणषट्क मिद्दि वर दा! प्रथमप्रभवम्बु जन्ममं दिरमु दयाक्षमादिगण नीयगुणाळि कनन्त सङ्ख्यकुन्. 15 ननु अव तारिक :— भगवानुँडु समस्तकल्याणगुणुँडै परव्यूह विभागमुनन्दु गुणाविर्भावमुनु तिरोभावमु नी क्रिन्दिश्लोकमुतोँ जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ गुणैप्पडि स्वेतैः प्रथम तरमूर्ति स्तव बभौ 1 तत स्र्तीस्र स्तेषां त्रियुग युगभैरि त्रिभि रभुः । व्यवस्था या चैपा ननु वरद ! साविष्कृतिवशात् भवान् सर्वत्रैव त्वगणित महामङ्गळगुण॥ 16 श्री वरदराज स्तवमु 35 प्रति : :- त्रियुग ! = मूँडु जण्टल गुणमुलुगल (षड्गुणमुलुगल) हे वरद ! ओ वरदराजस्वामि ! तव=नीयॊक्क, प्रथमतरमूर्तिः = मॊट्ट मॊदटि मूर्ति (परवासु देवमूर्ति) एतैः= ई, षड्भिः = आऱु, गुणैः=
गुणमुल चेत, बभौ तिस्रः = मूँडु त्रिभिः = मूँडु,
प्रकाशिं चॆनु, ततः == तरुवात, मूर्तुलु, तेषाम् = आ गुणमुललो, युगळै 8 = जण्टल चेत, 8= अभुः = प्रका शिञ्चिनवि, हि= प्रमाणप्रसिद्धमु, एपा=ई, व्यवस्था= एर्पाटु, या = एदि, (अस्ति = कलदो) सा = अदि, आविष्कृति, वशात् = (उपासक सौकर्यमुनकुँगा) सङ्क ल्पिञ्चुटवलन, अभूत् = आयॆनु, भवान्, तु = नी वन्ननो सर्वत्र=सकलमू र्तुलयन्दुनु अगणित, महत्, मङ्गळ गुणः एव, ननु—असङ्ख्याकमुलु अपरिच्छिन्नमुलु नगु कल्याणगुणमुलु गलवाँडवे कदा ! विशेषमुलु :- त्रियुग — त्रीणि, युगानि, यस्यसः तस्यसम्बुद्धिः — ज्ञानबलैश्वर्य वीर्यशक्ति तेजस्सु लनॆडु आऱुगुणमुलु गलवाँडा! प्रथमतरमूर्तिः – भग वानुनकु नाल्गुमूर्तुलु गलवु
- परवासु देवमूर्ति. इदि परमपदमुनं दुण्डुनु. दीनियन्दु पैनिँ जॆप्प बडिन ज्ञानादि षड्गुणमुलुनु गलवु.
- सङ्कर्षणमूर्ति- दीनियन्दु ज्ञानमु, बलमु, अनु जण्टये (रॆण्डुगुणमुले) उण्डुनु, 36 श्री वरदराज स्तवमु
- प्रद्युम्न मूर्ति- दीनियन्दु ऐश्वर्यमु, वीर्यमु अनु जण्टये युण्डुनु.
- अनिरुद्धमूर्ति- दीनियन्दु शक्ति, तेजस्सु, अनु जण्टये उण्डुनु, आविष्कृतिवशात्— ई व्यवस्थ उपासकुल सौकर्यमु कॊऱकु सङ्कल्पिम्पँबडिनदि, श्री वरद राजस्वामियं दन्ननो श्री गुणसङ्कोचमु लेदु- भवान् सर्वत्रैव त्वगणित महा मङ्गल गुणः - अनि चॆप्पुटवलन श्लो॥ षाड्गुण्या द्वासु देवः ई विषयमे. पर इति स भवान् मुक्तभोग्यो । बलाढ्यात् बोधा त्सङ्कर्षण स्वं ॥ 11 अनु श्रीरङ्ग राज स्तव श्लोकमुनँ बेर्कॊ सँबडिनदि. ता! षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नुँडवगु ओ वरदराजस्वामि ! नी मॊदटि मूर्तियगु परवासु देवमूर्ति यी ज्ञानादि षड्गुणमुल चेतँ ब्रकाशिञ्चिनवि. तक्किन मूँडु मूर्तु लुनु आ गुणमुललो मूँडु जण्टल चेतँ ब्रकाशिञ्चिनवि. अनँगा ज्ञान, बलमुल जण्ट चेत सङ्कर्षणमूर्तियु, ऐश्वर्य, वीर्यमुल जण्ट चेतँ ब्रद्युम्न मूर्तियु, शक्ति तेजस्सुल जण्ट चेत ननिरुद्धमूर्तियुँ, ब्रकाशिञ्चिन वनि भावमु. ई व्यवस्थ उपासक सौकर्यमुनकु सङ्कल्पिम्पँबडिनदि. देवरवारुमात्र मन्नि मूर्तुलयन्दुनु अगणितानन्त कल्याणगुण विशिष्टुले. श्री वरदराज स्तवमु उ॥ मोहनरूप ! नी प्रथम मूर्ति सदा विलसिल्लु षड्गुणा व्याहतवृत्ति नापयिन वर्तिलु मूर्तुलमूँट नी गुण व्यूहमु मूँडुजण्टलयि यॊप्पु, नुपासकदृष्टितोड न भ्यूहित मी पथम्बु सुगु णोदधि वीवु सम स्तमूर्तुलन्. 37 16 अवतारिक :- भगवानुँडु समस्त कल्याण गुणगण कल्याणगुणगण विशिष्टुँडु गनुक विभवावतारमुलन्दु सकलगुणाविर्भाव मुण्डु ननि याशङ्किञ्चुकॊनि यन्दुँ गूड गुणाविर्भाव तिरोभावमुलु स्वामिवारि सङ्कल्पानुसारमे युण्डुननि नुडुवु चुन्नारु. श्लो॥ इयं वैयूही वै स्थिति रथ कि लेच्छा विहृतये विभूतीनां मध्ये सुरनर तिरश्चा मवतरन् । सजातीय स्तेषा मिति तु विभवाख्या मपी भजन् करीश ! त्वं पूणॆ वरगुणगणै स्तान् स्थगयसि 17 प्रति :- हेकरीश! = ओ वरद राजस्वामि! इयम्=ई, (पूर्वोक्तमगु) स्थितिः = Ф
व्यवस्थ, वैयूही व्यूह सम्बन्धिनि, वै=प्रसिद्धमु, अथ, किल= तरुवात, इच्छा विहृतये = स्वेच्छाविहारमु कॊऱकु, विभूतीनाम्= नी लीलकुँ बरिकर भूतमुलगु, सुरनरतिरश्चां मध्ये= 38 श्री वरदराज स्तवमु देवता, मानव, तिर्यक्कुल नडुम, अवतरन् =अव तार मॆत्तुचु, वरगुणगणैः = कल्याणगुणसमूहमुल चेत, पूर्णः = निण्डिन वाँडवै, (कनुकने) विभवाभ्याम् अपि= विभवावतार मनॆडु पेरिनि सैतमु, भजन् = पॊन्दुचु, त्वम् = नीवु, तेषाम् = वारिकि ( देवमानवतिर्यक्कुलकु) सजातीयः, इति, तु= सजीतीयुँड नन्न कारणमु चेतने, सगयसि आ कल्याणगुणमुलनु, कप्पि वेयं तान् = चुन्नावु. विशेषमुलु :— ‘करीश— करिगिरीश, अनि ग्रहिम्पवलॆनु. मध्यमपदमगु ‘गिरि’ अनुनदि लोपिञ्चिनदि. लेदा नामैक देशमुनु ग्रहिञ्चिनचो नाममात्रमुनकु ग्रहण मगुनु. अनु नियममुवलनँ बै यर्थमु वच्चुनु. सजातीय स्तेषा मिति तु तु– रामुँडु परवासु देवुँ डय्यु मनुष्युँडुगा नवतरिञ्चुट चेत - आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्— तानु मानवुँडुग दशरथ पुत्रुँडुग भाविञ्चिनट्लु तान् स्टग यसी— आ कल्याणगुणमुलँ दिरोधान मॊनर्चु चुन्नावु. सकलकल्याणगुण वैभवमु चेत विभवावतार मनु प्रसिद्धि युन्ननु त त्तत्सजातीयत्वमुनु नटिञ्चुटकु गुणतिरोधान मॊनर्चु चुन्नावनि याशयमु. क्त ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! ई पूर्वोक्त मगु व्यवस्थ व्यूह सम्बन्धमैनदि नी मनोरधानुकूलमगु लीलल कॊऱकु साधन वरदराज स्तवमु 39 भूतमुलैन देवमानवतिर्यक्कुललो नवतार मॆत्तुचुँ गल्याणगुण परिपूर्णुँडवय्यु वैभवविशिष्टमगुट चे विभवावतार मनु नाममुनु बॊन्दियु नीवु देवमानव तिर्यक्कुल सजातीयुँड ननुकॊनुचु ‘आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्’ अन्नट्लु टु नटिञ्चुचु नी कल्याणगुणमुल मऱुँगु पुच्चुचुन्नावु. उ॥ ओ वर देश ! वारणशि लोच्चय शेखरभूत ! व्यूहसं भावित मी व्यवस्थ प्रभु वा! गुणपूर्णुँडवय्यु लीलकै देव मनुष्य जन्तुवुल देननॊ ! युद्भवमन्दि वैभव श्री विलसिल्लियुन् नटनँ अवतारिक : जेयँग वारि गुणाळिदाँतुवौ. कल्याण गुणमुल याविर्भाव 17 तिरो भावमुल की श्लोकमुन विषयविभागमु नॊनर्चु चुन्नारु. शो॥ परो वा व्यूहो वा विभव उत वार्चावतरणो भवन् वान्तर्यामि वरवरद! यो यो भवनि वै । स स त्वं स न्नैशान् वरगुणगणान् बिभ्र दखिलान् भजद्भ्यो भा स्येवं सतत मितरेख्य स्त्वितर था । 13 प्रति :— हे वरवरद! श्रेष्ठमुलगु वरमुल नॊसँगु वरदराजस्वामि ! परः, भवन्, वा= परवासु
40 श्री वरदराज स्तवमु वरगुण देवुँड नगुचुँगानि, व्यू हॆू, भवन्, वा= व्यूह मूर्ति नगुचुँगानि, विभवः, भवन्, उत= विभवावतारुँड नगुचुँगानि, अर्चावतरणः भवन् वा= अर्चावतारुँड नगुचुँगानि, अन्तर्यामि, भवन्, वा= अन्त र्यामि वगुचुँगानि, यः यः, भवसि, वै भवसि, वै = ऎवँड वॆवँड वगुदुवो, सः, सः, सन् = वाँडवु वाँडवगुचु, ऐशान् = ईश्वर सम्बन्धुलगु, अखिलान् = समस्तमुलैन, गणान् = कल्याणगुणगणमुलनु, सततम् = ऎल्लप्पुडु, बिभ्रत् =धरिञ्चुचु, त्वम्= नीवु, एवम्=इट्लु, (कल्याणगुण विशिष्ट स्वरूपमुतो) भजद्भ्यः = भक्तुल कॊऱकु, भासि= प्रकाशिञ्चुचुन्नावु, इत रेभ्यः, तु = इतरुलकॊऱ कन्ननो (भजिम्पनिवारि कॊऱकु) इतर था= मऱियॊकरीतिगा, (निर्गु णुँडवुगा) भासि= प्रकाशिञ्चुचुन्नावु. ट विशेषमुलु : ऐशान् वरगुणगणान् — . सर्वेश्वरु नकु सम्बन्धिञ्चिन सर्वज्ञत्व, सर्वशक्ति त्वादि कल्याणगुणमु लनु, एवम्= समस्त कल्याणगुणगण विशिष्टमगु नाकार मुतो - इतर था— अन्यविधमुगा (निर्गुणुँडवुगा) पराशरपाराशर्य वाल्मीकि प्रह्लाद भीष्मादि भक्तुलकुँ जक्कगाँ ब्रकाशिम्पँजेयँबडिन कल्याण गुणगणमुले भक्ति लेनि बाह्यकुदृष्टि शिशुपालादुलकुँ दिरोहितमुलैन वनि भावमु, श्री वरदराज स्तवमु 41 ता॥ मञ्चिमञ्चि वरमुलँ ब्रसादिञ्चुनो करिगिरिनाथा ! नीवु परवासु देवुँडवो! प्यूहमूर्तिवो! विभवाव तारुँडवो ! अर्चावतारुँडवो ! अन्तर्यामिवो ! ए स्वामिवो ! यगुदुवुगाक. अ त्तऱि नीश्वरत्वप्रयुक्त मुलगु सर्वकल्याणगुण गणमुलतो विशिष्टुँडवु गाने निन्नु सेविञ्चु भ क्तुलकु गोचरिन्तुवु. नी यॆडल भक्ति लेनि यितरु लकु गुणहीनुँडवुगाने गोचरिन्तुवु. वि च॥ परुँडवॊ ! व्यूहमूर्ति वॊ! वि भासि विभूतिवॊ ! यार्चरूपिवो ! वरद ! मनोनियन्तिवॊ ! यॆ वण्ड वॆवण्डवॊ ! यौदु गाक यै श्वरमुलु शोभनम्बुलगु सर्वगुणम्बुल नॊप्पु चट्टुले दरिसॆन मिच्चुचुं डॆदवु दासुल, कन्युल कन्यरीतिगन्. 18 अवतारिक :- स्वरूपगुणादुलगु दयादुलु, रूप गुणमुलगु सौन्दर्यादुलुनु भक्तजनुलकु भोग्यमु लगुट यिन्दु वर्णिम्पँबडु चुन्नदि. श्लो॥ दयाक्षान्त्यौचार्य मदिमसमता सौहृदधृति प्रसाद प्रेमाज्ञा श्रित सुलभताद्या वरगुणाः । तथा सौन्दर्याद्या स्तव वरदराजो त्तमगुणा विसीमान्कोसङ्ख्याः प्रणतजनभोगं प्रसुव ते ॥ (6) 1942 श्री वरदराज स्तवमु प्रति :— हे वरदराज ! = ओ वरदराजस्वामी!, तव = नीयॊक्क, विसीमानः= हद्दु लेनट्टियु, असङ्ख्याः = लॆक्क लेनट्टियु, दया…… सुलभ ताद्याः - दया=दययु, तॆन्ति = ओर्पु, समता = धैर्यमु, औदार्य = ईवि, म्रदिम =मार्दवमु, = म्रदिम=मार्दवमु, समत्वमु, सौहृद प्रसाद = अनुग्रहमु,
आज्ञ = आज्ञ, आश्रितसुलभ ता
स्नेहमु, धृति प्रेमा= प्रेममु, आश्रितुलकु सुलभुँडै * युण्डुट, आद्याः = मॊदलुगाँगल, वरगुणाः = कल्याण गुणमुलु, तथा=अट्ले, सौन्दर्याध्याः = चक्कँदनमु मॊदलुगाँगल, उ त्तमगुणाः = श्रेष्ठमुलगु गुणमुलु, प्रणत, जन, भोगम्=भ क्त जनमुनकु सौख्यमुनु, प्रसु वते=कनुचुन्नवि उद्भविम्पँ जेयुचुन्नवि. विशेषमुलु :-
- दय- स्वार्थनिरपेक्षमुगाँ बरदुःखमुनु सहिम्प लेनि स्वभावमु.
- कान्ति (क्षम) शिक्षिम्पँदगिन नेरमुनु सैत मोर्चु कॊनुट.
- औदार्यमु - अर्थु लनुकॊन्नन्त कण्टे मिन्नगा
- निच्चुट,
- मदिम- आश्रितुल यॆडँबाटुनु सहिम्प लेकुण्डुट. 5. समत- जातिगुणवृत्तादुलनु जूड के यन्दऱियॆडल नादरमुनु जूपुट, (समोहं सर्वभूतेषु) वरदराज स्तवमु 43
- सौहृदमु- परुलकु मेलुचेयुट यन्दे मनस्सु गलिगि युण्डुट.
- धृति- नेरमुल बैटँ बॆट्टिननु दयगलिगि युण्डुट. 8. प्रसादमु कारणमु लेकये नित्यमु सुमुखुँडुगा नुण्डुट. L
- प्रेम - आश्रितसं श्लेषैक रसिकत्वमु. (आश्रितुलतोँ गलसियुँडव लॆननु अभिरुचि.)
- आज. आज्ञ - कृत्याकृत्यमुलनु दॆलुपुट, (सत्यं वद न सुराम्पिबेत्)
- आश्रितसुलभत– आश्रितुलु कन्दुबाटुलो नुण्डुट. आद्याः - आद्यपदमु चेत सौशील्यादुलु ग्राह्यमुलु इवि भगवानुनि आत्मगुणमुलु (स्वरूपगुणमुलु) सौन्द र्याद्याः - इन्दलि आद्यपदमु चेत लावण्यादुलु ग्राह्यमुलु. इवि भगवन्तुनि दिव्यमङ्गळविग्रह गुणमुलु (रूपगुणमुलु) ता ॥ ओ वरदराजस्वामी ! अन्तु लेनिवियु नसङ्ख्याक मु लैनवियुनगु नी दयाक्ष मादा र्यादि कल्याणगुणमुलुनु सौन्दर्यादि दिव्यमङ्गळविग्रह गुणमुलुनु, भक्त जनुलकु भोग्यमुलै युन्नवि. म॥ दययुन् क्षान्ति समत्वमुन् धृति प्रसा दं बाज्ञ सौहार्दमुन् 44 श्री वरदराज स्तवमु प्रियतौदार्य मृदुत्वमुख्यमुलु विख्यात दीव्यद्गुणा ळियु, सौन्दर्यविलास कान्ति तनुला लित्यादुलुन् संश्रिता भयदा ! हद्दुनु बद्दुलेक सुख मु त्पादिञ्चु भक्ताळिकिन्. नी अवतारिक ई श्लोकमुन भगवन्तुनि 19 स्वातन्त्य्र मुनु सर्वज्ञत्वमुनु पैकि निन्दतोँचुनट्लु स्तुतिञ्चु चुन्नारु.
- श्लो॥ अनन्याधीनत्वं तन किल जगु र्यैदिकगिरः
- पराधीनं त्वां तु प्रणतपरतन्त्रं मनुम हे ! उपालम्भोयं भोः श्रयति बत सार्वज्ञ्य मपि ते यतो दोषं भ क्ते ष्विह वरद ! नैवाक लयनि 11
- 20
- प्रति : -— भो वरद ! = ओ वरदराजस्वामि ! वैदिक
- ओ गिरः = वेदसम्बन्धमुलगु वाक्कुलु (उपनिषत्तुलु) तव नीकु, अनन्याधीनत्वम् इतरुल यधीनमुन लेमिनि (स्वातन्त्र्यमुनु) जगुः किल= गानमु चेसिनवि गदा! (वयं) तु= मे मन्ननो, प्रणत, परतन्त्रम् = भ क्त परतन्त्रुँड वैन, त्वाम्= निन्नु, पराधीनम् =अस्वतन्त्रुनिगा, मनु म हे=तलँचुचुन्नामु, यतः = ऎन्दुवलन, इह= ई लीलाविभूतियन्दु, भ क्तेषु भक्तुल विषयमुन, दोषं एव = दोषमुने, न+आकलयसि=गमनिम्पवो, अयम्=ई श्री वरदराज स्तवमु 45 उपालम्भः = निन्द (दूषणमु) ते=नी यॊक्क, सार्वज्ञ्यं अपि सर्वज्ञत्वमुनु सैतमु, श्रयति=आश्रयिञ्चुचुन्नदि (आक्षेपिञ्चुचुन्नदि- लेदा ताँकुचुन्नदि) बत ! = आश्चर्यमु ! वि शेषमुलु :- वैदिकगिरः— भगवन्तुँडु स्वतन्त्रुँ डनि नुडुवु वेदवाक्कुलिवि. न तस्येशे कश्चन तस्य मह द्यशः- सर्वस्य वशी सर्व स्येशानः - नाम त विश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्- 호 प्रणत परतन्त्रं मनुम हे- भक्ति क्रीतो जनार्दनः, भगवन्तुँडु बडॆनु. भ क्ति चेँ गॊनँ भक्त परतन्त्रुँडनि भावमु. ‘इमा स्म मुनि शार्दूल ! किङ्क रौ समुपस्थितौ’ अनि रामलक्ष्मणुलु विश्वा मित्रुनितो.c दम किङ्करुलमनि चॆप्पुकॊनुचुन्नारु. मपि ते उपालम्भो2यं भोःश्रयति बत! सार सार्वज्ञ्य भ क्तुलदोषमु ने तॆलियनि यीयन येमि सर्वज्ञुँडनि लोक मा क्षेपिञ्चुननि निन्द. ई श्लोकमुन ‘व्याजस्तुति’ अनु अलङ्कारमु गलदु. निन्दचेत स्तुतियु, स्तुतिचेत निन्दयु, गोचरिञ्चुट दीनिकि लक्ष्मणमु, इच्चट निन्द चे स्तुति गोचरिञ्चुचुन्नदि. ऎट्लन वेदान्तमुल चेतँ गीर्तिम्पँ बडिन परमस्वतन्त्रुँडगु भगवानुँ डस्वतन्त्रुलगु नाश्रितुल चेतिलोँ गीलुबॊम्मगा नुण्डॆननुट पैकि निन्दगाँ गनँबडिननु गॊप्पवाडु तक्कुववारितोँ गूडँ गलसि 46 श्री वरदराज स्तवमु मॆलसि वर्तिञ्चुट यनु स्वामिवारि सौशील्यगुणमु ने स्तुतिञ्चुचुन्नदि. अट्ले भ क्तुलयन्दुँ गल दोषमुने यॆऱुँगनि भगवानुँ डेमि सर्वज्ञुँडनि पैकि निन्दगा दोँचिननु इदि आश्रितुलदोषमुनु गमनिम्पनि स्वामिवारि वात्सल्यगुणमु ने स्तुतिञ्चु चुन्नदि. कान् व्याजस्तुति यनु नलङ्कारमु. ई श्लोकमुतो द्वितीयदशकमु पूर्ति यैनदि. ईपदियु शिखरिणी वृत्तमुलु. ँ गान ता॥ वरदराजस्वामी! सर्वस्य वशी सर्व स्वेशानः- त्यादि वेद वाणि निन्नुँ बरमस्वतन्त्रुँड वनि मॊनर्चिननु मेमु मात्रमु भ क्त परतन्त्रुँड वनि निन्नुँ दलँचु चुन्नामु. स्वामी! नीवु भ क्तुलयॆडल दोषमु ने काञ्चवु. इदि यॊक दूषणमु क्रिन्द नेर्पडि नीसर्वज्ञत्वमु ने अधिक्षेपिञ्चु चुन्नदि. चित्रमु. म॥ अभिभाषिञ्चुनु वेदमुल् निनु नन न्याधीनुँ डञ्चु सरे! इभ शैलेश ! निनु दलञ्चॆदमु मे मॆन्ते श्रिताधीनुँगा ँ ब्रभुवा ! भ क्तुलयन्दु दोषमुनु ल्पं बेनि वीक्षिम्प वे सभल९ बण्डितु लॆटु नि९ बिलुतुगो ~ सर्वज्ञुँ गाँ जित्र मा ॥ स्व 20 श्री वरदराज स्तवमु 47 अव तारिक :— ईरीतिगा मन्त्ररत्नमुलोनि श्रीमत्पद मुनु ‘श्रीनिधिम्’ अनु रॆण्डव श्लोकमु चेत व्याख्यानिञ्चि नारायण शबैक देश मगु ‘नार’ शब्दार्थमुगा मॊदटि पदिश्लोकमुल चेतँ गरिगिरि महिमनु वर्णिञ्चि नारायण पदमुयॊक्क गुणप्राधान्यमुनु जॆप्पँदलँचि कल्याण गुणमुलनु द्वितीयदशकमु चेँ जॆप्पि दिव्यविग्रहयोगमु गूड नारायणश ब्दार्थ मगुटवलननु ‘चरण’ शब्दमु चेत नाकि प्त मगुटवलननु मुप्पदिमूँडु श्लोकमुल चेत शिरमु मॊदलुकॊनि पादमुलवऱकु दिव्यमङ्गळ विग्रह मुनु वर्णिञ्चुटकुँ ब्रारम्भिञ्चु चुन्नारु. प्रति : श्लो॥ पाणिपादवद नेक्षणश जै रम्बुजा न्यपदिश वरद! त्वम् । बाहुभि स्त्वतिविशालतमाला नाञ्जनं करिगि रे रसि शृङ्गम् । 21 हे वरद ! = ओवरदराजस्वामि !, पाणि, पाद, वदन, ईक्षणश बैः = चेतुलु, काळ्ळु, मुखमु, कन्नुलु अनु पेर्लुगल (अवयवैः= अवयवमुल चेत) अम्बुजानि = पद्ममुलनु, अपदिशळा = निरसिञ्चुचु, बाहु भिः,तु भुजमुल चेत, अतिवि शालतमालाक्= मिक्किलिविशा लमुलगु चीँकटि म्राँकुलनु, (अपदिश = निरसिञ्चुचु) त्वम्= नीवु, करिगि रेः = करिगिरियॊक्क, आञ्जनम् काटुक 48 श्री वरदराज क्रैस्तवमु विकारमगु, शृङ्गम् = चऱियवु, लेदा शिखरमवु, असि= अगुचुन्नावु. विशेषमुलु :
- आञ्जनं करिगिरे रसि शृङ्गम् इन्दलि शृङ्गशब्दमुनकु ‘शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च’ अनु कोशमु वलन सानुवनुसरमु चॆप्पँबडॆनु. P शिखरमनु नर्थमे समञ्जसमुगाँ दोँ चॆडिनि पर्वत शिखरमुन कुपरिभागमुनँ बद्ममुलुनु तमालवृक्षमुलु नुण्डवच्चुनु गान वरदराजस्वामि ! पद्ममुलवण्टि पाणिपादवदन नयनमुलु गलिगि, तमालवृक्ष मुलवण्टि तमालवृक्षमुलवण्टि बाहुवुलु गलिगियॊप्पु नील मेघ श्यामुँड वगु नीवु काटुक कॊण्डनुबोलु करिगिरिकि सञ्जनशृङ्गमुवलॆँ ब्रका शिञ्चुचुन्ना वनि भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! करचरणमुखनयनमु लनु पेर्लुगल यवयवमुल चेतँ बद्ममुलनु बाहुवुल चेत विशालतमाल वृक्षमुलनु निरसिञ्चुचुन्न नीवु करिगिरिकि नञ्जन शृङ्गमुवलॆँ ब्रकाशिञ्चु चुन्नावु. गी वरद! बाहुवुलँ दमालतरुलँ बाणि पादवद नेक्षणम्मुलँ बद्ममुलनु गॆलुचुचु देव ! यीकरिगिरिकि नीवु सिरि घटिञ्चिति वञ्जन शिखर मट्ल. 21 प्रति श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ त्वा मुदारभुजमुन्नस मायत् कर्ण पाश परिकर्म सदंसम् । आयताक्ष मभिजातकपोलं पारणीयति वरप्रद ! दृ ज्मे !! 49 22 हेवरप्रद ! = ओ वरद राजस्वामि!, मे= नायॊक्क, दृक्=कन्नु, उदार, भुजम् = गॊप्प बाहुवुलु गलट्टियु, उन्न सम् उन्नतमगु नासिक (मुक्कु) गलट्टियु, आयत्, कर्णपाश, परिकर्म सत्, अंसम्= विशालमु लगु प्रशस्तमुलैन चॆवुले यलङ्कारमुलुगा ँ गल मेलैन मूँपुलु गलट्टियु, आयत + अक्षम्= दीर्घमुलगु कन्नुलु गलट्टियु, अभिजात, कपोलम्= मञ्चि = पुट्टुकगल चॆक्किळ्ळु गलट्टियु, त्वाम् निन्नु, पारणीयति = पारण चेयँ दलँचुचुन्नदि. (पूर्णमुगा) ननुभविम्प दलँचुचुन्नदि.) विशेषमुलु :— - कर्णपाशौ = प्रशस्ताक, ‘पाश’ अनुनदि प्रशस्तार्थमुन वच्चिनदि केशपाश मिट्टिदे पारणीयति_ उप वासानन्तर भोजनमुनु ‘पारण’ मन्दुरु, क्रिमिकण्ठुँडु कन्नुलु वीँकिञ्चिनदि मॊदलु नीदर्शनमनु भोजनमु लेक युपवास मॊनर्चुचुन्न नाकनुलु नीव नॆडु (नी दर्शन मनॆडु) पारणमुन कॆप्पुडॆप्पुडा ! यनि यॆदुरु चूचु चुन्नदनि याशयमु. एकादशि नुपवसिञ्चिनवाँडु द्वादशि पारणकु वलॆ ननि तॆलियवलॆनु. (7) 50 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ ओ वरदराजप्रभू ! पीनमुलु वृत्तमुलु नगु बाहुवुलुनु उन्न तमगु नासिकयु, विशालमुलगु कर्ण पाशमुले भूषणमुलु गाँगल सुन्दरभुज शिरस्सुलु, विशाललोचनमुलु मञ्चिपुट्टुक गल चॆक्किळ्लुगलिगि यन्दमुँ जिन्दुनिन्नु नाकन्नुलु पूर्णमुगा ननुभविम्पँ गोरु चुन्नवि. उ॥ चारुसुदीर्घ बाहुवुलु चक्कनिनासिक, कर्ण पाशशो भारुचिरम्बु लंसमुलु, ण भासुर गण्डतलम्बु दृङ्मनो हारि विशाल नेत्रमु ल हा! यनिपिञ्चॆडु निन्नु नाशनुल्.. पारण सेय ह सिगिरि पार्थिव! बल् गुटकल् पॊनर्चॆडु. श्लो॥ नील मेघनिभ मञ्जन पुञ्ज श्यामकुन्तल मनन्तशयं त्वाम् अब्जपाणिपद मम्बुज नेत्रं नेत्रसात्कुरु करीश ! सदा मे । प्रति : — हेकरीश !
ओ 1 1 22 23 ओ वरदराजस्वामी!, नीलमेघ निभम्=नीलमेघमुतो समानमैनट्टियु, अञ्जन, पुञ्ज, श्याम, कुन्तलम्=काटुक मुद्दवलॆ नल्लनि तल वॆण्ड्रुकलु गलट्टियु, अनन्त, शयम्= शेषुनिपै शयनिञ्चिनट्टियु,
- श्री वरदराज स्तवमु
- 51
- अब्ज, पाणिपदम् = पद्ममुलवण्टि करचरणमुलु गलट्टियु, अम्बुज नेत्रम् = तामरलवण्टि कन्नुलु गलट्टियु, त्वाम् = निन्नु, सदा=ऎल्लप्पुडु, मे=नाकु, नेत्रसात् =कन्नुलकु आधीनमु, (कन्नुलमुन्दऱ) कुरु = चेयुमु.
- वि शेषमुलु :—त्वां सदा मे नेत्रसात् कुरु - निन्नु सदा नाकनुलमुन्दऱ नुञ्चुमु ‘त द्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः’ अनुचोटँ जॆप्पिन सदादर्शनमु
- नॊसङ्गुमनि याशयमु.
- तरुवात
- ई श्लोकमुनन्दु सम्प्रदायज्ञु लीयैतिह्यमुनु जॆप्पु चुन्दुरु. ‘भाष्य कार वि श्लेष कालमुनँ ग्रिमिकण्ठुनि दौष्ट्यमु चेत नेत्रमुलँ गोल्पोयिन श्री वत्सचिह्नमिश्रुल चेत निर्मितमगु नीवरदराज स्तवमुनु दिरिगिवच्चिन विन्नवारै भाष्यकारु ली श्लोकमुनु विनुनप्पुडु श्रीवत्स चिह्नमिश्रुल कण्टिनि जूचि येमिदि ! दयानिधि यगु वरद राजस्वामि यॆन्दुलकु नेत्रमु ननुग्रहिम्प लेदनि शङ्किञ्चि रँट. अप्पुडु श्रीवत्सचिह्नुलु सदादर्शनमे ना चेतँ ब्रार्थिम्पँ बडिनदनि समाधानमिच्चिरँट. कनुकने यिन्दु सदादर्शनमु ने चक्कगा विवरिञ्चुचुँ ब्रार्थिञ्चुचुन्नारु.
- ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! नीलमेघमुनु बोलिनट्टियु, काटुक मुद्दव लॆ नल्लनिकुरुलु गलट्टियु, शेषुनिपै शयनिञ्चि नट्टियु, पद्ममुलवण्टि करचरणनयनमुलु गलट्टि निन्नु नाकु स दादर्शिम्पँ जेयुमु.52
- श्री वरदराज स्तवमु
- गी मॊयिलुमैचाय काटुक
- होयलुजुट्टु पाँपरा सॆज्ज, तम्मुलपगिदि नॊप्पु
- करमुलु, पदम्बु, लक्षलु, ग्रालु निन्नुँ गनुलमुन्दु सदा चूपु करिगिरीश.
- श्लो॥ त्वक दृक निपिपासति जिह्वा
- विह्वला श्रवणव त्परवृत्ता ! नासिका त्वयि करीश ! त थेति
- प्राप्नुयां कथ मिमां स्वि दवस्थाम्
- ww
- ओ
- 23
- 24
- प्रति :– हे करीश ओ वरदराजस्वामि !, त्वयि= नीविषयमुन, (मम = ना यॊक्क) त्वक् , च = त्वगिन्द्रि यमु, दृक्, च= चक्षुरिन्द्रियमुनु (कन्नु) निपिपासति= मिक्किलि त्रावँ दलँचुचुन्नदि. (रसनेन्द्रिय व्यापारमुनु गोरुचुन्नदि) जिह्वा = रसनेन्द्रियमु (नालुक) श्रवणवत् =क र्णेन्द्रियमुवलॆ, परवृत्ता दर्शनमु स्पर्शनमु मॊदलगु इत रेन्द्रिय व्यापारमुनन्दु, विह्वला व्याकुलमैनदि लेदा चपलमैनदि, (भवति अगुचुन्नदि) नासिका, च = घ्राणेन्द्रियमु कूड (मुक्कु) तथा=अट्ले यिन्द्रियान्तर व्यापारमुन व्याकुलमै युन्नदि. इति =
- कनुक, कथंस्वित् एविधमुगा, इमाम् इटुवण्टि, अवस्थाम् = दशनु, प्राप्नु याम् = पॊन्दुदुनु ! ण विशेषमुलु :- श्रवणवत् - श्रवणेन्द्रियमु इन्द्रि यान्तर व्यापारमुन नॆट्लु व्याकुलमै युन्नदो य यटे रस नेन्द्रियमु श्री वरदराज स्तवमु गूड निन्द्रियान्तर 53 व्यापारमुन व्याकुलमै युन्नदनि यर्धमु. ‘प्राप्नुयां कथमिमां स्वि दवस्थाम्’ - ‘पश्य त्यचक्षु स्स शृणो त्यकर्णः विश्वत श्चमु रुत विश्वतोमुखः_ इत्यादि प्रमाण कोटियन्दुँ ब्रतिपादित मगु सार्वपधीन प्रत्यक्षमु गल भगवन्तुनि सार्वपधीनप्रत्यक्षमु यॊक्क परमसाम्याप त्तिरूप मगु मुक्तिनि बॊन्दि यट्टि प्रत्यक्षमुतो निष्टमु वच्चिनट्लु भगवन्तु ननुभविम्पवलॆ ननि श्रीवत्सचिह्नमिश्रुल युत्कण्ठ. ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! नीविषयमुन नाचक्षुरिन्द्रिय, त्वगिन्द्रियमुलु त्रावँ दलँचुचुन्नवि (रसनेन्द्रियवृत्ति गलिगियुन्नवि. जिह्वयु नासिकयु श्रवणेन्द्रियमुवलॆने यिन्द्रियान्तर व्यापारमुलु गलिगियुन्नवि. ऎट्लीपरम साम्यरूपदशनु बॊन्दुदुनो ! उ॥ ओ वर देश ! ह स्तिगिरि नॊ प्पॆडु वेल्प ! मदकि चर्ममुल् त्रावँगँ गोरु नीयॆडलँ दत्परतन् मऱि नादुजिह्वयुक् देवर ! नासयु९ श्रुतिग ति गनिपिं चॆडु सन्यवृत्तुलै येविधि साम्यरूप मगु नीदृशमौ स्थितिँ गाञ्चुवाँडनो ! 24 54 श्री वरदराज स्तवमु अवतारिक इट्लु नाल्गु श्लोकमुलतो दिव्यमङ्गळ विग्रहशोभ ननुभविञ्चि प्रत्यवयवशोभ ननुभविम्प नारं भिञ्चुचुन्नारु. . प्रति : वगु, ईश ! श्लो॥॥ आधिराज्य मधिकं भुवनाना मीश ! ते पिशुनय किल माळिः 8 चूळि कामणि सहस्रमरीचे र स्त्रीभूषण ! भव त्युदयाद्रिः ॥ 25 ह स्ति भूषण ! करिगिरिकि अलङ्कारभूतुँड. ओवरदराजस्वामी!, भुवनानाम्=(सकल) लोकमुलयॊक्क, आधिराज्यम् = साम्राज्यमुनु, अधिकम्= ऎक्कुवगा, लेदा - अधिकम् = गॊप्पदियगु, आधि राज्यम् = । साम्राज्यमुनु, पिशुनय=सूचिञ्चुचु, ते=नीयॊक्क, मौळिः = किरीटमु, चूळिकामणि, सहस्रमरी चेः = किरीटशिख = रमुन नुण्डॆडु मणि यनॆडु सूर्युनकु, उदयाद्रि, भवति, कील=उदयपर्वतमो ! यन्नट्लुन्नदि. विशेषमुलु : माळिः मौळिसमगु किरीटमु ዋ (तार्थ्येलक्षणा) किल— उत्प्रे वाचकमु चूळिकामणि सहस्रमरी चेः उदयाद्रिः भवति किल- उभयविभूति सूचक देव राजकिरीटमु विशृङ्खल मयूखसङ्घातमु गल स्वशिखा मुणियनु नभोमणिकि मुदयगिरिवलॆँ ब्रकाशिञ्चुचुन्न दनि भावमु. इन्दु—— किरीटमुनकु- उदयाद्रिकि, चूडामणिकि — सूर्युनकुँ बोलिकलु, श्री श्री वरदराज स्तवमु 55 ता॥ करिगिरि कलङ्कारभूतुँड वगु ओ वरदराजस्वामी ! नी किरीटमु सर्वलोक साम्राज्यमुनु सूचिञ्चुचु किरीट शिखरस्थितमगु चूडामणियनु सूर्युन कुदयाद्रियो! यन नॊप्पु चुन्नदि. 1 च॥ अदिगो! किरीट मादल म हामणि भासुर मग्रभागमं ददि भवदीयसर्वभुव नाधिपतित्वमु नुग्गडीञ्चुचु त्रिदिशव रेड्य ! रुक्मिचय दी प्र शिरोमणिचण्डरश्मि प्रति :-
य्युदय महीधरम्बॊ ! यन नॊप्पॆडु वारण शैलभूषणा ! श्लो॥ उद्धर त्युपरि भ क्त ज नानि त्यूर्थ्वताश्रयण सूचितश क्तिम् । ऊर्ध्वपुण्ड्रतिलकं बहुमानात् किं बिभर्षि वरद 1 स्वलला टी ॥ स्री 25 26 हेवरद! ओवरद राजस्वामि!, (अयं ऊर्ध्वपुण्ड्रतिलकः = ईऊर्ध्वपुण्ड्र तिलकमु) भक्तजना = भगवद्भक्ति गल जनुलनु, उपरि= ऊर्ध्वगतिकि, उद्धर नि = ऎत्तु कॊनि पोवुचुन्नदि. (स्वधारणमु चेत नूर्ध्वगतिनि बॊन्दिञ्चु चुन्नदि यनि भावमु) इति=इट्लु, ऊर्ध्वता, आश्रयण, सूचित, शक्तिम्=ऊर्ध्वाकाराश्रयणमु चेत सूचिम्पँ ! 56 श्री वरदराज स्तवमु बडिन यर्थश क्ति गल, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलकमुनु, बहुमानात् = गौरवमुवलन, स्वलला पे नीनुदुट, बिभर्षि, किम् ? = धरिञ्चुचुन्नावा? वि शेषमुलु :– ऊर्ध्वं (ऊर्ध्वगतिं) प्रापयति इ त्यूर्ध्वपुण्ड्रम् - अनि व्युत्पत्ति ऊर्ध्वलोकमुलनु पॊं दिञ्चुनदि. बहुमानात् नाभ क्तुल सुद्दरिञ्चुचुन्न दनु गौरवमुवलन किम्भिभर्षि वरद! स्वललाटे :- ‘स्नानं दानं जपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम् भस्मीभवति तत्सर्वमूर्ध्वपुण्ड्रं विना कृतम् ॥’ ऊर्ध्वपुण्ड्रमुल धरिम्पक चेसिन स्नानदानजपादु लन्नियु निष्फलमु लनि पै श्लोकमुनकु भावमु. इदि कर्माङ्गमुगाँ जॆप्पँबडुट चेत भगवानुन कन्दुलकै यूर्ध्वपुण्ड्रधारणमु सम्भ विम्पदु गान– बहुमानात् अनि चॆप्पँबडॆनु. ता ओ वरदराजास्वामी ! ऊर्ध्वपुण्ड्रतिलकमु. स्वधार णमुचेत भ क्त जनुल नूर्ध्वलोकमुलनु बॊन्दिञ्चु चुन्नदि. व्युत्पत्ति चेत ने ऊर्ध्वा कार वैशिष्ट्यमुनु ज्ञप्ति चेयुचुन्न यी यूर्ध्वपुण्ड्रतिलकमुनु नाभ क्तुल नुद्धरिञ्चुचुन्नदि यनु गौरवमुवलन नीललाटमुन धरिञ्चुचुन्नावा? गी ऊर्थ्वपुण्ड्रम्बु भ क्तुल नूर्ध्वगतिकिँ जेर्चु निजधारणम्बुनँ जेसि यनुचु दीनिपै ँ गलबहुमानदृष्टि नुदुट नूर्ध्वपुण्ड्रम्बुँ दाल्चिति वॊकॊ ! करीश ! 26 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ कर्णिका तप करीश ! कि मेषा कर्णभूषण मु तांसविभूषा । अंसलम्ब्यलक भूषण माहो ! वा मानसस्य मम वा परिकर्म ॥ ओ 57 27 प्रति : हे करीश ! ओ वरदराजस्वामि ! तव= नीयॊक्क, एषा=ई, कर्णिका= कर्णालङ्कार मगु मकर कुण्डलमु, कर्णभूषणं किम्=कर्णमुलकु मात्रमे यलं कारमा ? उत - लेक, अंसविभूषा भुजशिरस्सुलकु मात्रमे यलङ्कारमा? (मूँपुलपै वेलाडुट चेत वानि के यलङ्कारमा ? अनि भावमु) आहॆू = अदियुँ गानिचो, अंस, लम्बि, अलक, भूषणम् मूँपुलपै व्रेलाडुचुन्न चिन्नि कुरुलकु नलङ्कारमा? मम = नायॊक्क, मानसस्य कारमा ?
मनस्सुनकु, परिकर्मवा= अ अलं विशेषमुलु :– कर्णशा— सू॥ कर्णिललाटात् क न्नलं कारे- अनु सूत्रमुवलन अलङ्कारमनु नर्थमुन ‘कर्ण’ शब्दमुमीँद क प्रत्ययमु राँगा नेर्पडिनरूपमु. क इट्ले ललाटशब्दमुमीँद कन्प्रत्ययमु राँगा ‘ललाटिका’ अगुनु- नॊसटिभूषणमु. इन्दु कोटिचतुष्टयावगाहि संशयमु प्रदर्शिम्पँ बडिनदि. (1) प्रथमकोटि- स्वामी! तम चॆवुलकुँगल सॊम्मु कर्णमुल के भूषणमा? लेक (8) 58 श्री वरदराज स्तवमु (2) द्वितीयकोटि- मूँपुलपै वेलु चुण्डुट चे भूषणमा ? लेक अंस (B) तृतीयकोटि- अंसमुलपै ँ बडुचुन्नयलकलकु भूष णमा? लेक (4) पै शोभल नन्नियु ननुभविम्पँ गोरुचुन्न नामनस्सु नकुँ भूषणमा ? अनि पैनिँ बेर्कॊनँबडिन नाल्गिण्टि किनि भूषणमे यनि भावमु, ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! नीचॆवुल नॊप्पुसॊम्मु कर्णमुलके भूषणमा? लेक भुजशिरस्सुलकु नलङ्कारमा? कानिचो अंसमुल व्रेलुनलकल कलङ्कृतिया? अदियुँ गानिचो नामानसमुन के मण्डनमा ? तॆलुप वेँडॆदनु. उ॥ एनिक कॊण्ड तेँड ! वर देश ! प्रभू ! मक राञ्चितम्बु नी वीनुलँ ग्रालुवस्तु वदि वे वचियिम्पुमु कर्णभूषणं बौनॊ ! निजांसमण्डन मॆ योनॊ ! यलङ्कृति यानो ! तन्मिळ न्मानितकुन्तलावळिकि, नादु मनम्बुनकु विभूषयो ! 27 श्लो॥ पारिजातविटपा नभितो या पुष्पसम्प दन्दियात् करिनाथ ! तां विडम्बयति तावक बाहु स्वातता तु कटकाङ्गदलक्ष्मीः ॥ 28 श्री वरदराज स्तवमु 59 प्रति हे करिनाथ ! = ओ वरदराजस्वामी!, तावक बाहुषु=नी सम्बन्धमुलगु बाहुवुलयन्दु, आतता विस्तृतमैन, कटक, अङ्गद, लक्ष्मीः मुरुगुल यॊक्क भुजकीर्तुलयॊक्क यु शोभ, पारिजात, विटपाक्, अभितः कल्पवृक्ष शाखलचुट्टु (निण्ड) या = ए, पुष्प, सम्पत् = पूलशोभ, उदियात् = पुट्टुनो, ताम् = दानिनि (आपुष्प शोभनु) विडम्बयति= अनुकरिञ्चु चुन्नदि. वि शेषमुलु :– तावक बाहुषु- अनुबहुवचनमु चेत वरद राजस्वामि चतुर्भुजुँ डनि तॆलियुचुन्नदि. ई श्लोकमुन भक्तुलकुँ गोरिनवरमुलँ ब्रसादिञ्चु वरदराजस्वामिनि पारिजात वृक्षमुतोनु, स्वामिवारि बाहुवुलनु . पारिजातविटपमुलतोनु, श्रीवारि कटक केयूरशोभनु पारिजात विटप पुष्पलक्ष्मितोनु, बोल्चुट यॆन्तयु हृदयङ्गममुगा नुन्नदि. ता॥ ओ करिगिरीशा ! नी बाहुवुलयन्दलि विस्तृत मगु कटक केयूरशोभ पारिजातविटपमुलँ बॊडमिन पुष्पसम्पद ननुकरिञ्चु चुन्नदि. उ॥ भासुर पारिजातविट पम्बुल निण्डुगँ बुष्पशोभ यु द्भासित मय्यॆ ने नपुडु दानिनिँ बोलु सम सदॆ वता 60 श्री वरदराज स्तवमु ग्रेसर ! वारणाद्रितट खेलन पण्डित ! नीदु भाहुल मीसरकङ्कणाङ्गद स मेधितलक्ष्मि वरप्रदाग्रणी! श्लो॥॥ मध्यमानचल फेनिलसिन्धु प्रोस्थितक्षणदशां गमितौ ते । पक्षनि स्फुरितमौक्तिकहारे कौस्तुभ श्च कमला च करीश ! ! 29 प्रति : -हे करीश ! = ओ वरदराजस्वामी!, स्फुरित, मौक्तिक, हारे= मॆऱयुचुन्न (कदलुचुन्न) मुत्याल पेरुगल, ते=नीयॊक्क, वक्षसि तॊम्मुनन्दु, कौस्तुभः, च=कौस्तुभमणियु, कमला, च = लक्ष्मी देवियु, मध्य मान - - दशाम्— मध्यमान = चिलुकँ बडुचुन्न, (कनुक ने) चल=कदलुचुन्न, फेनिल= नुऱुगुगल, सिन्धु= समुद्रमुनुण्डि, प्रोत्तित = बयलु देऱुट यॊक्क, समय कालमुनन्दलि, दशाम् = स्थितिनि, गमिते = पॊन्दिम्पँ बडिनवि. विशेषमुलु :— फेनिल- मत्वर्थमुन फेनशब्दमीँद ‘इलच्’ प्रत्ययमुनु जेसिकॊनँगा नीरूपमु सिद्धिञ्चु चुन्नदि. नुऱुगुगलदि यनि यर्थमु. लक्ष्मीकौस्तुभाधिष्ठि तमु स्फुरितमुक्ताहारमु नगु भगवानुनि वक्षःस्थलमुनकु आविर्भवल्लक्ष्मी कौस्तुभमुल निमित्तमु चिलुकँ बडु चु नललतो नुऱुगुतो नॊप्पुसमुद्रमुतोडि साम्य मिन्दु श्री वरदराज स्तवमु 61 हृद्यमुगा वर्णिम्पबडिनदि. इन्दु ‘प्रार्थित’ अनुचोट ‘प्रोजित’ अनि पाठान्ततमुगलदु. अर्थमु समानमु. यि Ф ता॥ ओ करिगिरिनाथा! तळतळलाडु मुत्याल पेरु गल नीवःस्थलमु नन्दलि कौस्तुभमणि लक्ष्मी देवियुँ जिलुकँ बडुचुण्डुट चेत नललु नुऱुगुगल समुद्रमुनुण्डि युद्भ विञ्चुसमयसितिनि बॊन्दिम्पँबडिरि. गी॥ तरळमा किक हारम्बु तनरु नीदु प्रति वक्षमुनँ गौस्तुभमु लक्ष्मि वरदराज ! चिलुकँ बडुट नलल् नुरु चॆन्नु मीऱु जलधिँ बॊड मॆडुसमयम्बुँ जाटु चुण्डॆ. श्लो॥ अञ्जनक्षितिधृतो यदिनामो पत्यका वरद ! हेममयी स्यात् । तादृशी तप विभौति शु लक्ष्मी राम्बरी बत विडम्बित विद्युत् ॥
29 30 हेवरद ! = ओवरद राजस्वामी!, अञ्जन क्षिति उपत्यका भृतः = काटुक कॊण्ड यॊक्क, आसन्न भूमि, हेमनुयी, स्यात्, यदि, नाम = बङ्गारुवि कार मैनदि यगुनेनि विडम्बित विद्युत् = अनुकरिम्पँबडिन मॆऱुपुँ दीँ गॆगल, तव = नीयॊक्क, आम्बरी = पीताम्बर सम्बन्धिनि यगु, लक्ष्मीः, तु=शोभ, तादृशी = अट्टिदिगा, विभाति = प्रकाशिञ्चु चुन्नदि. बत ! =आश्चर्यमु. =62 श्री वरदराज स्तवमु विशेषमुलु :– उपत्यका = पर्वतपर्यन्तभूमि ‘उपत्य कादे रासन्नभूमिः’ अमरमु. बत- आश्चर्यार्थकमु. एमिनीपीताम्बरशोभ यनि याश्चर्यमु. इन्दलि यभू तॊपम कुमारसम्भवमुलोनि पार्वतीवर्णनमु नन्दलि यी श्लोकमुनु ज्ञ प्तिकिँ दॆच्चुचुन्नदि. यी श्लो॥ पुष्पं प्रवाळो पहितं यदि स्यात् मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् । ततोऒनुकुर्या द्विशदस्य तस्याः ताम्राष्ठ पर्यस्तरुचः स्मितस्य ॥ दीनितो स्वागतादशकमु मुगिसिनदि. ओ ता॥ ओ वरदराजस्वामी! अञ्जन पर्वतमुयॊक्क पर्यन्तभूमि बङ्गारुविकार मैनचो नप्पुडु मॆऱुपुँ दीँ गॆ ननुकरिञ्चु नी पीताम्बरशोभ दानिनिँ बोलँगलदु’ आहा! एमि नी पीताम्बरमुनीटु. उ॥ काटुक कॊण्ड चेरुवुगं ग्रालॆडु नेल य ‘चॆप्पु डेनियुक् हाटक सन्निभं बयिन नप्पुडु पोलॆडु मॆर्पुँदीँगॆतोँ बोटि यॊनर्चु नीपसिँडि पुट्टपु मेल् सिरि ह स्तिभूमिभृ त्कूटविहार ! कैटभव C धूमुखकुङ्कुम पश्यतोहरा ! 30 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ परभाग मिया द्रवे स्तमिस्रा वर दाद्य त्वयि त न्नि शामयामः गमिता तव व क्त्रचित्रभानोः परभागं ननु कौन्तली तमिस्रा ॥ ! 63 31 प्रती : हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, तमिस्रा = चीँकटि रात्रि, रवेः = सूर्युनिकि, पर भागम् = पश्चा द्भागमुनु, इयात् = पॊन्दुनु, (सूर्युँड स्तमिञ्चिन तरुवातने रात्रि यारम्भमगुनु गनुक) तत् = आपर भाग गमनमुनु, अद्य = इप्पुडु, त्वयि नीयन्दु (नीदिव्य विग्रहमुनन्दु) निशामयामः = चूचुचुन्नामु, तव= नीयॊक्क, कौन्तली= कुरुलसम्बन्धिनि यगु, तमिस्रा= रात्रि (कुन्तलाख्ययगु रात्रि) वक्त्रचित्रभानोः = मुखसूर्युनि यॊक्क, पर भागम्=वर्णोत्कर्षमुनु, (पश्चाद्भागमुनु) गमिता, ननु= पॊन्दिम्पँ बडिनदिकदा ! वि शेषमुलु :- तमिस्रा- तामसी रात्रिः चीकटि रेयि. पर भागम्- पश्चाद्भागम् - वॆनुक भागमुनु - वर्णोत्कर्ष मुनु अनि रॆण्डवयर्थमु. वर्णान्तरसन्निधानजन्य वर्णा त्कर्षस्य पर भाग इति नाम = वर्णान्तरसन्निधानमु वलनँ गलुगु वर्णोत्कर्ष मुनकु ‘पर भाग’ मनि पेरु. श्लेष रूप कमु. रात्रिकि सूर्यपर भाग प्राप्ति लोक प्रसिद्धमु. ईवाक्य मुन ‘पर भाग’ शब्दमुनकुँ बश्चाद्भाग मनि य ‘परभाग’ सूर्यास्तमयमु वॆनुक रात्रिवच्चुननि लोक प्रसिद्धि गदा! यरमु. 64 श्री वरदराज स्तवमु पर भाग परभाग अदि नी कल्याणविग्रहमुन गोचरिञ्चुचुन्नदि. ऎट्लन ? त्वदी यमुखचित्रभानुनिकड नीकुन्तलावळि यनु रेयि मुनु (वर्णोत्कर्षमुनु) पॊन्दुचुन्नदि गदा ! वरदराजस्वामिवारि मुखमु सूर्युनिवलॆ वॆलुँगु चुण्डँगा आ सूर्युनि वॆलुतुरु सन्निधानमुन स्वामवारि केशपाशमु मऱिन्त नल्लगाँ ब्रकाशिञ्चुचुन्नदनि भावमु, ता॥ ओवरदराजस्वामि ! रात्रि सूर्युनकु ‘पर भाग मुनु (पश्चाद्भागमुनु) पॊन्दुनु. दानि निप्पुडु नीदिव्य मङ्गळविग्रहमुनँ जूचुचुन्नामु. देवर वारि कुन्त लावळि यनुरात्रि वदनसूर्युनि पर भागमुनु (वर्णोत्कर्ष मुनु) पॊन्दिम्पँ बडॆनु गदा ! उ॥ भानुनकुं दमिस्र पर भाग मटन्दुरु, ह स्तिभूधरे शान ! वरप्रदानसुय शा! यदि तावक दिव्यमूर्तिलोँ गानँग वच्चु नॆट्टुलनँ गा भवदीयक चाळिरात्रि मी यानन चित्रभानु नॆड नय्यॆँ गदा ! पर भाग भाक्कहो! 31 । श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ उभयो रपि पक्षयो स्तिथि र्या विषविभाव निरासदाऒष्टमीति । उपमानजसम्पदे हि सेन्दो र्वरदाभू e र्वर दाभू द्भवतो अलाटलक्ष्य्मा!! 65 32 प्रति योः= रॆण्डु, पक्षयोः, अपि= पक्षमुलयन्दु सैतमु सै चन्द्रुनकु, हे वरद ! ओ वरदराजस्वामी!, उभ (शुक्ल कृष्ण पक्षमुलन्दुँ गूड) इन्दोः विषविभाव, निरास, दा= वैषम्यमुयॊक्क (भेदमु यॊक्क) त्रोसि वेँत नॊसँगुचुन्न, अष्टमा, इति, या, तिथिः= अष्टमि यनु एतिथि, (अस्ति =कलदो) सा= आतिथि, भवतः - तमयॊक्क, ललाटलत्योः = नॊसटिसिरियॊक्क, उपमान, ज, सम्प दे = उपमानव स्तुवुनन्दुँ शोभासमृद्धिकॊऱकु, अभूत् =आयॆनु. 8 = बॊडमु निरासदाष्टमी वि शेषमुलु : विषवि भाव अष्टमि शुक्ल कृष्ण पक्षमुल रॆण्डिण्टनु चन्द्रकळलन्दु वैषम्यमु लेकुण्डँ जेयुचुण्डुट ऎन्दुकनँगा - उपमानजसम्प दे देवर वारि ललाटलक्ष्मीनि बोल्चुटकु नर्ध चन्द्रोपमानमुनु सम्पादिञ्चुकॊनुट कनि भावमु. दीनिचे नुभयपक्षमुलन्दुनु, अष्टमीतिथि चन्द्रुनकुँ गळासाम्यप्रदमात्रमे काक वरदराज स्वामि वरदराजस्वामि ललाट (9) 66 श्री वरदराज स्तवमु नाम्यप्रडयु ननि तेलिनदि. वरदराजु ललाटमु पक्ष द्वयाष्टमी चन्द्रुनिवलॆ शोभायमानमुगा नुन्न दनि सारांशमु. ता! ओ वरदराजस्वामी ! शुक्ल कृष्ण पक्षमुलन्दु सैतमु चन्द्रुनकुँ गळावैषम्यमुनु निरसिञ्चुचुन्न यष्टमि तिथि देवर वारि ललाटलक्ष्मिकि नुपमिम्पँ जन्द्रुनि यन्दु शोभासमृद्धिनि गूर्चुकॊनुचुन्नदि. गी॥ उभयपक्षाल विधुन कभ्युदयहानु लिञ्चुकयु नीनियष्टमि यीश ! नीदु नॊसटिसिरि कुपमिम्प मेल् पसनु गूर्प दिद्दु चुन्नदि शशि सरियुद्दिँ जेय. श्लो॥ आलकालि चिकीर्ष या किलात्ता सुपरीचिक्षिषया ललाटपट्टे । सुमषी निकषीकृता भ्रुवौ ते वरद! स्या दकृतत्वतस्तु नैवम् ॥ ऎ 32 $3 प्रति :— वरद !=ओ वरदराजस्वामि! (विधात्रा= ब्रह्म देवुनि चेत) अलक, आळि, चिकीर्ष या = मुङ्गुरुल या बन्तिनि निर्मिम्पवलयुननु निच्छ चेत, आत्ता= ग्रहिम्पँ बडिनदियु, सुपरीचिकिषया= चक्कँगाँ बरीक्षिम्पवलॆ ननु कोरिक चेत, ललाटपट्टे=नॊसलु अनॆनु पलकयन्दु, निकषी कृता = गीयँबडिन, सुमपी = मञ्चिकाटुक (मसि) ते नीकु, भ्रुवौ=कनुबॊमलुगा, अभूत्, किल=आयॆना येमि ? श्री वरदराज स्तवमु 67 अकृतित्वतः तु = देवर वारि दिव्यविग्रहमु) नित्यमगुट वलन, एवम् =इट्लु ऊहिञ्चुट, न, स्यात् = सम्भविम्पदु. (पॊसँगदु) वि शेषमुलु :– इन्दु ‘विधात्रा’ अनु पद मध्या हार्यमु, अलकाळि_ अलक + आळि मुङ्गुरुलपं क्ति, अलक + अळि = तुम्मॆदलवण्टि मुङ्गुरुलु, अकृतत्वतस्तु भग – वानुनि दिव्य देहमु कृतकमु कादु इन्दुकुँ ब्रमाण मुलु— इच्छागृहीताभिमतोरु देहः (इच्छास्वी कृतमुनु अभिमतमु नगु दिव्य देहमु गलवाँडु) ‘प्रकृतिं स्वा मधिष्ठाय सम्भवा म्यात्ममायया’ (ना यधीनमुलोनुन्न प्रकृति नाधारमु चेसिकॊनि ना यिच चेतने ने नवतरिञ्चु चुन्नानु.) ‘न तस्य प्राकृता मूर्तिः’ (आ परमात्मकुँ ब्राकृतशरीरमु लेदु) कनुक ‘नैवम् ’ नित्युँडगु श्री वरदराजस्वामिवारि यल काळिनि ब्रह्म सृजिम्पँजेसि नट्लूहिम्पँबडिन व्यापारमु पॊसँग दनि भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी! ब्रह्मदेवुँडु तम मुङ्गु रुल सृजिम्प नॆञ्चि दानि कुपादान कारणमगु मषिनि (नल्लनि काटुकनु) दीसिकॊनि यिदि मेलुरकमा? कादा? अनि परीक्षिम्पँ दलँचि फालपट्टिक यनु गीटुरायिपै गीय नेर्पडिन या रेखले तम कनुबॊम्म लायॆना? कादु. पॊरपाटूह; नित्युँडवगु नीकु निर्माण मॆक्कडिदि? 63 श्री वरदराज स्तवमु च॥ अलपर मेष्टि युम्मदल काळि सृजिम्पँ दलञ्चि दानिकै वलसिन मेल् मषीकणिक वासिँ गनुङ्गॊन फालपट्टिपै ( बॊलुपुग गीय रेख लवि ! भ्रूलत लय्यॆनॊको ! करीश ! यी तलँपु निराकरम्बु वर 3022 दा ! जनि यॆट्लगु नीकु नित्युँडा ! ते ॥ 34 ते= श्लो॥ श्रवस श्च दृश श्च शब्दरूप ग्रहणे ते नहि जीवव द्व्यवस्था ! उभयो रखिलेक्षणक्ष मत्वात् वर दात श्रृवणाश्रये दृशा ते ॥ प्रति :- हे वर दातः = ओ वरदराजस्वामि! नीयॊक्क, श्रवसः, च= चॆविकिनि, दृशः च = कण्टिकिनि, शब्द, रूप, ग्रहणे=(क्रमालङ्कारमु) शब्दमुनु ग्रहिञ्चुट यन्दु रूपमुनु ग्रहिञ्चुटयन्दुनु, जीववत् = जीवुनकु वलॆ, व्यवस्था=नियममु, न हि= लेदु, उभयोः = रॆण्डुनु (चॆवुलु कन्नुलुनु) अखिल, ईक्षण, क्षमत्वात् = सक लेन्द्रिय विषयमुलनु दर्शिञ्चुटयन्दु समर्थव मु लगुटवलन, ते = नीयॊक्क, दृशा= कन्नुलु, श्रव णाश्रये= चॆवुलु आश्रयमुगाँ गलवि (भवतः = अगु
चुन्नवि. श्री वरदराज स्तवमु 69 चॆवि विशेषमुलु :– श्रवस श्च…… ग्रहणे - ..ग्रहं…… शब्दमुनु ग्रहिञ्चुटयन्दु, कन्नु रूपमुनु ग्रहिञ्चुट यन्दु अनि यथाक्रममुगा नर्थमु ग्राह्यमु, श्रव णाश्रये दृशौ ते— स्वयमुगाने कर्णां तायतमु लगु भगवल्लोचनमुल निट्लुत्प्रेक्षिञ्चु चुन्नारु. चेतनुल श्रोत्रादुलु शब्दाद्येकैक विषयग्राहकमु लैनट्लु भगवदिन्द्रियमुलु कट्टि नियममु लेदु गावुनँ गण्टितो शब्दमुनु विनुट, चॆवितो रूपमुनु जूचुटयुँ गलदु. गावुन नी रॆण्डु इन्द्रियमुलु कलसियुन्न वनि युत्रेडु.. ता।॥ ओ वरद राजस्वामि ! जीवुलकु वलॆ नीकुँ जॆवितो ने शब्दमुनु ग्रहिञ्चुट कण्टितोने रूपमुनु ग्रहिञ्चुट यनु नियममु लेदु. नी चॆवि कन्नु गूड सकलेक्षण दक्षमुलु गनुक (अनँगा नी चॆवुलु चूचुटकु, नी कन्नुलु विनुटकुँ गूड, समर्दमुलु गावुन नी कन्नुलु चॆवुलतोँ गलसियुन्नवि. भगवन्तुनि कन्नु लाकर्णान्त विशालमु लनि भावमु. उ॥ जीवुल कट नीकुँ जॆवि चे विनँगा वलॆँ गण्टने कनं गा वलॆ नन्न शासनमु कर्यचलेश्वर ! लेदु रॆण्डु नो देवव रेण्य ! सर्वसमु दीक्ष णदक्षिमु लन्दु चेत ने 70 श्री वरदराज स्तवमु कावलॆ नीनु नेत्रमुलु प्रति : कर्णपुटीतटिँ जॆल्मिँ जेयुटल्, श्लो॥ ककुणारस वाहि वीक्षणोर्मे र्वरद! प्रेममयप्रवाहभाजः ! तततीरवनावळी भ्रुवौडृ कलसिन्धो स्तव नानि कैवनेतुः ॥ 34 35 हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि! करुणा, रस, वाहि, वीक्षण, ऊर्मेः = कृपारसमुनु ब्रवहिञ्चु कटाक्षमु लनु तरङ्गमुलु
गलदियु, प्रेममय, प्रवाह, भाजः = प्रणयम नॆडु भाजः=प्रणयम प्रवाहमुनु बॊन्दि नदियु, (अगु) ते=नीयॊक्क, दृक्, चल, सिन्धोः = दृष्टि यनॆडु चञ्चलमगु समुद्रमुनकु, भ्रुवौ देवरवारि कनुबॊमलु, तत, तीर, ननावळि=विशालमुलगु चॆलियलि कट्टकड नुन्न वनपङ्क्तुलु (भवतः = अगुचुन्नवि) नासिका, एव = मुक्के, सेतुः – वं तॆन, (भवति = अगुचुन्नदि.)
श्री विशेषमुलु :– ‘दृक्, चलसिन्धोः’- श्री करिगिरि नाथुनि दृष्टि नॊक चलसमुद्रमुगा नारोपिञ्चुट चेत दानि कनुगुणमुगा— करुणयन्दु रसत्वमु, कटाक्षमु लन्दु नूर्मित्वमु, पेनुमुनन्दुँ ब्रवाहत्वमु, भ्रूयुगमुनन्दुँ दीरवनावळित्वमु, नास्तिक यन्दु सेतुत्वमु चक्कगा नारोपिम्पँबडिनवि. करुणासमुद्रुँडगु श्री वरदराजुल भ्रूयुगमु नासिकयु नत्यन्तभोग्यमु श्री वरदराज स्तवमु 71 लुगा नुन्न वनि भावमु- नासिकै व- अनुचोट ‘नासि केव’ अनि पाठान्तरमु गलदु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी! करुणारसमुतोँ गटाक्ष तरङ्गमुलतोँ ब्रेमप्रवाहमुतो नॊप्पु नी दृष्टि यनु चलसमुद्रमुनकु नी कनुबॊमलु तीरवनावळुलव लॆनु, नी नासिक सेतुवु वलॆनु दर्शनीयमुलै यलरु चुन्नवि. च॥ करुणयॆ मेलरसम्बु, कडिगन्नुल वॆल्वडुचूपुले यलल्, करिपति ! प्रेमुनिर्घरमु गल्गु भवच्चल दृक्प योधिकिन् दरिनि वनावळुल् बॊमलु, दापुन नासयॆ सेतुवौर ! नी सुरुचिर दिव्यविग्रहमुँ जूडँगँ गन्नुलु चालवो प्रभू ! श्लो॥ विभवं विवृणोति विस्तृणी ते रुच माविष्कुकुते कृष्णा मपाराम् : अभिनर्षति हर्ष मार्द्र भावं तनुते ते वर दैव दृष्टिपातः ॥ ! 35 36 प्रति :— हे वरद! = ओ वरदराजस्वामि! ते = नीयॊक्क, एषः=ई, (माकुनु साक्षात्कारयोग्यमगु) दृष्टि पातः =कटाक्षमु, विभवम् =नी युभयविभूति सार्व भौमत्वमुनु, विवृणोति = विवरिञ्चुचुन्नदि, रुचम्72 श्री वरदराज स्तवमु नॆल्ल 3 शोभनु, वि स्तृणीते= विस्तरिम्पँ जेयु चुन्नदि, अपाराम्= अन्तु लेनि, कृपाम् डयनु, आविष्कुरुते = नॆल डि चुन्नदि. हर्षम् = आनन्दमुनु, अभिवर्षति = कुरियु चुन्नदि, आर्द्रभावम् = आर्द्रत्वमुनु (भक्ति चेँ गरँगि पोवुटनु) तनु ते= चेयु चुन्नदि. विशेषमुलु :- विस्तृ-शीते रुचम्— ‘तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीक मेवाक्षिणी’ अन्नट्लु, अन्नट्लु, ‘रामो राजी वलोचनः’ कृष्णं कमलपत्राक्षम् इत्यादुलँ बेर्कॊनँ बडिन यखण्डोल्लास पुण्डरीक सदृशलोचन वत्ता प्रदर्शित शोभनु विस्तरिम्पँ जेयुचुन्न दनि याशयमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामि !! ओ साक्षात्कारयोग्य मगु नीयी मादृशुलकुँ गूड कटाक्ष पातमु नी युभयलोश विभूतिनि विवरिञ्चु चुन्नदि दिव्यमङ्गळ विग्रहशोभनु विस्तरिम्पँ जेयुचुन्नदि. नी यपारकृपा रसमुनु वॆल्लडिञ्चुचुन्नदि. आनन्दमुनु वर्षिञ्चुचुन्नदि. आर्द्रत्वमुनु विस्तरिम्पँ जेयु चुन्नदि. ວ उ॥ तावक दृष्टि पात मिदि दन्तिगिरीन्द्र विभूषणा! दया तू! वर देश ! नी यु भ य लोक विभूतिनि जाटुँ, गान्ति नॆं ते वॆलिँबुच्चु, नी निरव धिन् गृपँदॆल्पु नॊसङ्गु हर्ष मुन् श्री वरदराज स्तवमु भावमु नार्द्रमुन् सलुपु, प्रति : भद्रमुलिच्चु, नडञ्चु छिद्रमुल्. श्लो॥ अरुणाधर पल्लवे लसन्ती वरदासौ द्विजचन्द्रचन्द्रिका ते ! आधिविद्रुमम स नि स्तलाली रुच माविष्कुरुते हि पुष्कराक्ष ! 73 36 37 पुष्क राक्ष ! = पद्ममुलवण्टि कन्नुलुगल, * लसन्ती = प्रका हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, अरुण, अधर, पल्ल वे= चिगुरुटाकुवण्टि यॆऱ्ऱनि पॆदवियन्दु, शिञ्चुचुन्न, असौ=ई, ते=नीयॊक्क, द्विज, चन्द्र, चन्द्रिका=दन्तमु लनॆडु चन्द्रुलयॊक्क वॆन्नॆल, अधि विद्रुमम्= पॊगडपुँ दीवॆयन्दु, अस्त, निस्तुल, आली, रुचम्=उञ्चँबडिन मुत्यमुल बन्ति यॊक्क शोभनु, आविष्कुरु ते= प्रकाशिम्पँजेयु चुन्नदि. हि=निजमु. विशेषमुलु :- द्विजचन्द्रचन्द्रिका- द्विः जायं ते इति द्विजाः अनु व्युत्पत्तिचेत रॆण्डुमार्लु पुट्टुनवि दन्त मुलु. अवि यनुचन्द्रुलु- अनँगा दन्तमुलु चन्द्रुल वलॆ शुभ्रमुलुगा नुन्नवनि भावमु. वानि वॆन्नॆल मुप्पदियिद्दऱु चन्द्रु लॊक्कमा ऱुदयिञ्चिन वॆन्नॆल प्रकाशिञ्चुनो स्वामिवारि दन्त कान्ति यॆऱ्ऱनि यधरमुपै नट्लु प्रकाशिञ्चु चुन्नदनि भावमु. (10) नॆन्त 74 श्री वरदराज स्तवमु नि स्तलशब्दमु मौक्तिकवाचकमु ‘नि स्तलं वर्तुले मुक्ता फले च चप्ले पिच’ अनि निघण्टुवु. भगवन्तुनकु समुद्र साम्यमु, अधरमुनकु विद्रुमल तासाम्यमु, तदुपरि प्रकाशिञ्चुडन्त पङ्क्ति शोभकु मौक्ति काळीशोभासाम्यमु निन्दुँ दॆलिय नगुनु. ता॥ पद्ममुलँबोलु कन्नुलु गल योवरदराज स्वामी ! चिगुरुटाकुवलॆ नॆऱ्ऱनि यधरमुनन्दुँ ब्रका शिञ्चु वॆन्नॆलवण्टि यी नी दन्त कान्ति पॊगडपुँ दीवॆयं दुञ्चँबडिन मौक्तिक पङ्क्ति शोभनु ब्रकाशिम्पँ जेयु चुन्नदि निजमु. म॥ चिगुराकुं बुरडिञ्चु वा तॆऱपयिज् जॆन्नारि, ज्योत्स्नम्ब लॆज् सॊगसौ तावक दन्तपङ्क्ति रुचि यो सुत्राममुख्यार्चिता ! पगडम्पु नुनुँदी वॆ मुत्तॆमुल निं प९ गल्गु नेकान्ति या जिगिँ ब्रत्यक्ष मॊनर्चु शक्तुँड नॆ नी चॆ न्नॆन्नँ बद्मेक्षणा! (ब श्लो॥ स्मितनिर्हरिका विनिष्पतन्ती तव वक्षःस्थल भूतले विशीर्णा ! वरद ! प्रबिभर्ति हारलक्ष्मि मपि मुक्तावळिका नदीप तज्जा ॥ B 37 38
श्री वरदराज स्तवमु ण 75 प्रति : :- हेवरद ! = ओ वरदराजस्वामी ! विनिष्प तन्ती = (पै नुण्डि क्रिन्दिकि) पडुचुन्न, तव= नीयॊक्क, स्मित, निर्घरिका = चिऱुन व्वनॆडु प्रवाहमु, वक्षःस्थल, भूतले= बॊम्मनॆडु भूमियन्दु, विशीर्णा चीलिक लैन दै हार दै, लक्ष्मीम् = नूऱु पेटलु वेयि पेटलु गल मुत्याल पेरुयॊक्क शोभनु, प्रबिभर्ति= मिक्किलि धरिञ्चुचुन्नदि, मुक्तावलिका, अपि = एकावळि कूड (ऒण्टिपेट मुत्याल पेरु) तत् +जा=तज्जा=आप्रवाहमुवलनँ बुट्टिन, नदी, इव = नदिवलॆ (अस्ति= उन्नदि). वि शेषमुलु : विनिष्पतन्ती - वक्षःस्थलमुकण्टॆ मुखमु पै भाग मगुट चेँ जिर्नगवु अनु प्रवाहमु वक्षमनु भूमिपै ँबडु चुन्नदनि वर्णिम्पँबडिनदि. प्रबिभर्ति हारलक्ष्मी मपि——— वक्षःस्थलमुनँबडिन स्मितनिर्घरिक शतसहस्रमुलुगाँ जीलि शतयष्टि, सहस्रयष्टि, हारशोभनु गलिगिञ्चुचुन्नदनि हारमुललो ननेक भेदमुलु गलवु. ‘हारो भावमु, मुक्तावळी देवच्छन्दो2सौ शतयष्टिका । हार भेदा यष्टि भेदात् गुच्छगुच्छार्धगो स्तनाः’ श्री वरदराजुल चिऱुनगवु क्रिन्दँ बडुचुँ गूड नन्दमुनु जिन्दिञ्चुट गमनिम्पँ ण दगिनदि. विशीर्णा - अनुचोट ‘प्रकीर्णा’ अनु पाठान्तरमु अर्थमु गलदु. अरमु समानमु, ता॥ ओवरदराजस्वामी ! नी चिऱुनगव नॆडु प्रवाहमु वक्षःस्थलम नॆडु भूमिपै ँबडि पलुचीलिकलै शतयष्टि सहस्र 76 60 वरद राज स्तवमु यष्ट्यादिहारमुलशोभ नॆन्तेनि वहिञ्चु चुन्नदि. एकावळि यनुऒण्टि पेटमु त्यालदण्ड गूड नाचिर्नग वनु प्रवा वामुनुण्डि पुट्टिनयॊक नदिये. च चिऱुनग वन्ननि रिक श्रीकरिगीर्यधिनाथ ! नीमुखां बुरुहमुनुण्डि वक्ष मनु भूमिपयिं बडि विप्रकीर्णयै तरळरुचुल् दलिर्प वर
दा ! शतयष्टि सहस्रयष्टि हा ररुचि वहिञ्चुँ दद्भवत रङ्गिणि यॊण्टिसरम्बु हारमुक् श्लो॥ परिमण्डितरासमण्डलाभि र्वरदाघ्रात मभीष्टगोपिकाभिः । अनुवर्ति तदातन प्रहर्ष दिव फुल्लं हि कपोलियो र्युगम् ॥ 39 39 प्रति : हे वरद !=ओ वरदराजस्वामि! परिमण्डित, रास, मण्डलाभिः = अलङ्करिम्पँबडिन रासगोष्टिगल, अभीष्टु, गोपिकाभिः मिक्किलि यिष्टु राण्ड्रगु गोपकान्तल चेत, आघ्रातम् = मूर्कॊनँबडिन, ते= नीयॊक्क, कपोल योः =गण्डस्थलमुल यॊक्क (चॆक्किळ्ळ यॊक्क) युगम् जण्ट, अनुवर्ति, तदातन, प्रहर्षात्, इव = अनुवर्तिञ्चुचुन्न यप्पटि यानन्दातिशयमु वलननो यन्नट्लु, फुल्लम् विकसिञ्चि युन्नदि, हि = सत्यमु. श्री वरदराज स्तवमु 77 विशेषमुलु : अनुवर्ति तदातन प्रहर्षादिन रास मनुनदि यॊकक्रीड परस्पर संश्लेष बाहुवुलु कलवारै अनेक विग्रहमुलँ दाल्चि कृष्णुँडु गोपाङ्गनलुनु मण्डला कारमुगाँ दिरुगुचुँ जेयु नी नृत्यवि शेषमुनन्दु निरुप्रक्कल नुण्डु प्रियगोपिकल चेतँ ब्रीत्यतिशयमु चे मूर्कॊनँबडिन कृष्णुनि कपोलयुगमुनँ गलिगिन विकासमु श्री वरद राजुलनाँटिकिँ गूड ननुवर्तिञ्चिनदा ? यन्नट्ल स्वामिवारि चॆक्किळ्ळु पीकसितमुलै युन्नवनि भावमु. ‘हि’ अनुटचे निदि यथार्थकथनमु. उत्प्रेक्ष गादु. इन्दलि इवशब्दमु वाक्यालङ्कारमुनँ ब्रयोगिम्पँ बडिनदि यनि यी यरमुनँ दॆलियवलॆनु. यर्थमुनँ Ф टु ता॥ ओ वरद राजस्वामी ! रासगोष्ठि नलङ्करिञ्चिन प्रिय गोपिकलचे मूर्कॊनँबडिन (मुद्दाडँबडिन) नीकपोलद्वय मानाँटि यानन्दातिशयमु नेँडुगूड ननुवरिञ्चॆनो! यन्नट्लु विकसितमै युन्नदि. च॥ प्रिय लगु गोपिकाङ्गनलु प्रीतिवशम्बुन रासलीललो दयितुँड वैन निन्नु निरु दण्डल मूर्कॊनँ बुल्करिञ्चिन ट्लयिनत्वदीय गण्डयुग मासुख मि स्थनुवृत्त मय्यॆनो क्कॊ ! यनँ ब्रफुल्लमै मुदमुँ गूरुचु भ क्तुलकु गरिप्रभू ! 39 78 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ मुख मुन्नस मायताक्षि मुद्यत् स्मितदन्तं रुचिराधरं नतभ्रु । असडंसविलम्बि कर्णपाशं मयि ते निश्चल मस्तु हस्तिनाध ॥ 40 प्रति : हे ह स्तिनाथ !=ओ करिगिरिप्रभू!, उन्न सम् =ऎत्तैन मुक्कुगलवेयु, आयत, अक्षम्= विशालमु = लगु कन्नुलु गलदियु, उद्यत्, स्मित, दन्तम्=उदयिञ्चु चुन्न चिऱुनव्वुगल दन्तमुलु गलदियु, रुचिर + अधरम् = अन्दमुलगु पॆदवुलु गलदियु, सतभ्रु = सङ्कुचितमुलगु (वङ्कलुदिद्दिन) कनुबॊमलु गलदियु, लसत्, अंस, विलम्बि कर्ण पाशम् प्रकाशिञ्चुचुन्न मूँपुलपै व्रेलाडु प्रश स्तमुलगु चॆवुलु गलदियुनगु, ते नीयॊक्क, मुखम्=मुखमु, मयि=नायन्दु, निश्चलम् निदि, अस्तु = अगुँगाक. चलिञ्च विशेषमुलु :- उन्न सम्— ‘उपसर्गा च्च’ अनु सूत्रमु चेत नासिकाशब्दमुनकु नसा देशमु रागा नेर्पडिन रूपमु. मयि ते निश्चल मस्तु— नन्नुँ जूचुटयं दास क्तमैनदि. यगुँगाक. ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! चक्कनिमुक्कु, विशालमुलगु कन्नुलु, चिऱुनगवुलु वॆल्लिविरियु दन्तमुलु, ऎऱ्ऱनि वातॆऱ, तीरैन कनुबॊमलु, अन्दमुलगु संसमुल वेलाडु श्रेष्ठमुलगु चॆवुलु गलिगि यन्द मुट्टिपडु श्री वरदराज स्तवमु 79 देवर वारिमुखमु नन्नुँ गनुँगॊन निश्चलमगुँ गाक. (अनँगा) नाकुँ ब्रसन्न मगुँ गाक. उ॥ नासिक युन्नतम्बु, नय नम्मुलु चेरॆँडु, नव्वु वॆन्नॆलल् भासिलु दन्तमुल्, चिगुरु वातॆजि, यन्दमु लैन भूलतल् श्रीसमुदञ्चदंसतल जृम्भिसुकर्णमु लॊप्पि देव! य औसन वन्द्य मैनभव दास्यमु नाभवदास्य मूड्चुतक्. 40 वस न्तमालिका वृत्तदशकमु मुगिसिनदि. श्लो॥ पद्मायाः प्रणयर सात् समासजन्त्याः स्वं बाहुं सुबहुमतो भुजेन तेन कां नामान्वभव दहो! दशां तदात्वे कण्ठ स्ते करिगिरिनाथ ! कम्बु कान्तः ॥
41 प्रति : हे करिगिरिनाथ ! = करिगिगि प्रभुवैन यो वरद राजस्वामी!, कम्बु कान्तः = शङ्खमुवलॆ मनोहरमगु, ते=नीयॊक्क, कण्ठः= मॆड, प्रणयर सात् = प्रेमरसमु वलन, तेन = प्रसिद्धमगु, भुजेन = (देवर वारि) भुजमुतो, स्वबाहुम् = तन बाहुवुनु, समासजन्त्याः = चक्कगाँ गलपँबडिनदिगाँ जेयुचुन्न, पद्मायाः= लक्ष्मी देविकि, पद्मायाः=लक्ष्मी सुबहुमतः=मिक्किलि सत्करिम्पँबडिन दगुचु, तदात्वे= 80 श्री वरदराज स्तवमु
आ समयमुनन्दु, काम् ऎटुवण्टि, दशाम् = सितिनि, अस्वभवत्, नाम = अनुभविञ्चिनदो, अहॆू ! आश्चर्यमु. P विशेषमुलु :- भुजेन तेन समुद्रमथन समर्त मगु— लेदा- आश्रितुलकु विपक्षु लगुवारिनि शिकिम्प दक्षु मगु भुजमुतो- अनि तच्चब्दार्थमु. कां दशा मन्वभव न्नाम— अनिर्वचनीयभोगमुगल यादश भगवन्तुनि कण्ठमुन कॊक दानिके तॆलियँदगिनदि. तॆलियँदगिनदि. यनि रहस्यमु. लक्ष्मीकृतमगु नी यालिङ्गनमु क्षीराब्धिलोँ बुट्टिनप्पुडु जरिगिन दनि ग्राह्यमु, ‘क्षीरोदात् श्री स्समुद्भूता सर्व भूषणभूषिता दिव्यमाल्याम्बरधरा माधवं परिषस्व लेदा — ‘तं दृष्ट्वा शत्रुहन्तारं महर्षीणां सुखाव हम् । बभूव हृष्टा वैदेही भर्तारं परिषस्वजे’ अनि रामायण वर्णितमगु ख रादिवधसमयानन्तर कालिक मैन सीताकृतालिङ्गनमु कानि कावच्चुनु. ता! ओ करिगिरिनाथा ! अत्यन्त प्रेमरसमु चेँ दन बाहुवुनु समुद्रमथन क्ष मम्बुनु, आश्रितविपक्ष शिक्षण दक्षम्बु, नगु (नाथु) नी भुजम्बुतो लग्न मॊनर्चि लक्ष्मी देविचे मिक्किलि सत्कृतम्बयिन शङ्खमनोहरम्बगु नी कण्ठ मप्पु डॆट्टि यनिर्वाच्यसुखदश नन्दॆनो ! यदि नी दानिके तॆलियुनु. श्री वरदराज स्तवमु उ॥ सम्बर मॊप्पगा निज भु नीलाळि जम्बुनु नी सुभुजम्बुतोड स कम्बॊनरिञ्चि कौँगिलिकिँ दारिचि यिन्दिर गारविम्प नी कम्बु मनोहरम्बु वर कण्ठ म द तऱि नॆन्त पारव ! श्यम्बुनु गाञ्चॆनो ! यॆऱुँगँ जालु न दे करिगिर्यधीश्वरा ! श्लो॥ सायामा धृतपरिणद्धयोऒद्धियो तादृश्यः स्फुट मथवा दिश श्चतस्रः । चत्वारो वरद ! वरप्रदा स्वदीया भासन्ते भुजपरिघा_स्तमालनी लाः ॥ !=ओ 81 41 4.2 प्रति :— हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामी!, तमाल चीँकटि माँकुलवलॆ नल्लनिवियु वरप्रदाः = भ क्तुलकु वरमुलँ ब्रसादिञ्चुनवियु, चत्वारः = नाल गयिन, त्वदीयाः = नी सम्बन्धमुलगु, भुजपरिघाः = ग डॆ म्राँकुलवण्टि बाहुवुलु, सायामाः = पॊडवुतोँ गूडिनवियु, धृति, परिणद्धयः =धरिम्पँबडिन वैशाल्यमु (वॆडल्पु) गलवियुनगु, चत्वारः = नाल्गु, अब्धयः वा= समुद्रमुलवलॆ, भासं ते = प्रकाशिञ्चुचुन्नवी, अथ तरुवात, तादृश्यः=अट्टिवेयगु, चतस्रः=नाल्गु, दिशः वा=दिक्कुलव लॆ, भासन्ते = प्रकाशिञ्चुचुन्नवि, स्फुटम्= स्पष्टमु. वि शेषमुलु :— अब्धयोवा- इन्दलि ‘वा’ अनु अव्ययमु इवार्थकमु. ’ इव व द्वा यथा शब्दाः- इव, (11)82 श्री वरदराज स्तवमु वत्, वा, यथाशब्दमु लुपमावाचकमुलु समुद्रमु नकु नैल्यमु सुप्रसिद्धमु. दिक्कुलु सभः प्र देश विशेषमु ले गान वानिकिनि नैल्य मव्याहतमु. चतुस्सङ्ख्यात्व नैल्य पीवरत्वमुल चेत समुद्रमुलकु दिक्कुलकु भुजसाम्यमु तॆलियव लॆनु. ता ओ वरदराजस्वामी ! तमालनीलमुलु वरप्रद दैर्घ्यमु वैशाल्यमु नाल्गु समुद्रमुलवलॆनु अट्टिवे यगु नालुगु दिक्कुलव लॆनु ब्रकाशिञ्चुचुन्नवि. स्पष्टमु. मुलु परिघाकारमुलगु नी भुजमुलु नालुगु दैर गल उ॥ नीलतलोँ दमालमुल, निड्पुन बल्गडॆ म्राँकुमेल्सिरिन्, बोल चुँ, बूरुषार्थमुलँ बॊल्पुग नर्तुल कीयँ जालु नी नालुगु बाहुवुल् वरद! नालुगुवार्धुलॊ ! नाल्गु दिक्कुलो ! पोलिक लॊप्पॆडुन् ‘वॆडलु पुन् निडुपुन् समसङ्ख्य मुन्नुगा. श्लो॥ आश्लेष वरद! भुजास्तवेन्दिराया गोपीना मभिमतरा सबन्धने वा! बन्धे वा मुद मधिकां यशोदया22 हो ! सम्प्राप्ता स्तव नवनीत मोषदोषात् ॥ 42 43 प्रति : हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि! तव नीयॊक्क, भुजाः= भुजमुलु, इन्दिरायाः = लक्ष्मी देवि यॊक्क, आश्लेषे वा = आलिङ्गनमन्दा ? गोपीनाम् गोपाङ्गनलकु, अभिमत, रास, बन्धने, वा= इष्टमगु श्री वरदराज स्तवमु 83 रासक्रीडलयन्दलि कौँगिलिन्तयन्दा ? आ हॆू = अदि कानि यॆडल, यशोदया= यशोदा देवि चे नवनीत, मोक्ष, दोषात् = वॆन्न दॊङ्गतनमुवलनि दोषमुवलन (कृते= चेयँबडिन) बन्धे वा= बन्धे वा= (तोटिकि)
- (तोटिकि) कट्टुपडुटयन्दा ? अधिकाम्=ऎक्कुव, मुदम् = सन्तोषमुनु, सम्प्राप्ताः?= पॊन्दिनवि. वि शेषमुलु : ई श्लोकमुन मूँडु प्रश्नलु गलवु. 1. ओ नरदराजा ! नी बाहुवुलु लक्ष्मी देवि कौँगिलिञ्चिनप्पु डॆक्कुव यानन्दमुनु बॊन्दॆना ? लेक 2. गोपाङ्गनलतोडि रासक्रीडलो वारि नॆक्कुव यानन्दमन्दॆना ? लेक भुजबन्धनमुन
- नवनीत चोरुँड वनि यशोद तोटिकि बन्धिञ्चिनप्पु डॆक्कुव यानन्दमुनु जॆन्दॆना ? अनि ລ इन्दु श्लोकमुलो निर्देशिञ्चिन प्रकारमु उत्तरो त्तरमु बलीयमुगाँ दोँचुचुन्नदि. ऎट्लन ? परत्वदशनु सूचिञ्चु निन्दि रालिङ्गनमु कण्टॆ स्वेच्छासङ्गतलगु अन्तकण्टॆनु गोपाङ्गनल भुजबन्धन मे यति प्रीतिकर मु यशोदाकृत मगु नुलूखलबन्धन मॆं तेनियु नानन्द प्रदमु. प्रेमान्धयगु यशोद तन यन्तरमु कृष्णु नन्तरमु तॆलियक बन्धिञ्चुट यतिसाहसमु, ऐननु किटु निरङ्कुश स्वतन्त्रुँडगु श्रीकृष्णुँडु दानि कॊदिगियुण्डुट श्रीकृष्णुनि सौशील्यमुनु वेनोळ्लँ जाटुचुँ दल्लि विधेयुँडुगा नुण्डवलॆ ननु ‘मातृ देवोभव” अनु वाक्यमुनु आचरणपूर्वकमुगा ँ जूपुचुन्नदि. 84 श्री वरदराज स्तवमु ! ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! नी भुजमुलु लक्ष्मी देवि कौँगिलिञ्चुकॊन्नप्पु डॆक्कुव मुदमन्दॆना? लेक रास क्रीडलो गोपाङ्गनलु बाहुवुलतो बन्धिञ्चिनपु डॆक्कुव मुदमन्दॆना? लेक वॆन्न दॊङ्गिलिञ्चिति वनि तल्लि यशोद तोटिकि बन्धिञ्चिनप्पु डॆक्कुव मुदमन्दॆना ? उ॥ इन्दिर कौँगिलिन्त बिगि यिञ्चिनयप्पुडॊ ? गोपसुन्दरी बृन्दमु रासगोष्ठि निनु बिट्टुगँ बट्टिनयÔ? ऱोटिकिन् नन्दुनिपत्नि दॊङ्ग वनि नाँ डटु बद्धुनॊनर्चिनप्पुडा ? अन्दॆ भवद्भुजम्बुलु प्र हर्षमु श्री करिशै लभूषणा ! प्रति : श्लो॥ सालीया इव विटपा स्पपल्लवाग्राः कल्लोला इव जलधे स्सविद्रुमागाः । भोगीन्द्रा इव च फणामणीद्धवक्त्रः 8 भासन्ते वरद ! भुजा स्त वारुणाग्राः II 43 44 हे वरद ! = ओ वरद राजस्वामी!, अरुण = चिगुरु अग्राः= ऎऱ्ऱनि यग्रभागमुलु (कॊनलु) गल, तव=नी यॊक्क, भुजाः बाहुवुलु, सपल्ल वाग्राः टाकुलतोँ गूडिन यग्रभागमुलु गल, सालीयाः= सालवृक्ष (मद्दि चॆट्टु) सम्बन्धुलगु, विटपाः इव = कॊम्मल वलॆनु, सविद्रुमाग्राः = पगडमुलतो. ँ गूडिन चिवर भागमुलुगल, जल धेः = समुद्रमुयॊक्क, कल्लोलाः इव= पॆद्द यललव लेनु, फणा, मणि, इद्ध, वक्त्रः = पडगल
श्री वरदराज स्तवमु 85 यन्दलि मणुल चेत, प्रकाशिञ्चु मुखमुलु गल, भोगि= इन्द्राः, इव, च= सर्पराजुलवलॆनु, भासन्ते= प्रकाशिञ्चु चुन्नवि. विशेषमुलु :- अरुणाग्राः – अरुणवर्णमुलगु करतल मुलु अङ्गुळुलु (वेळ्लु) गल
- इट्लुण्डुट महाभाग्य सूचकमु. भोगीन्द्राः इव - शेष वासुकि प्रभृति सर्पराजुल वलॆ .1 पादमुन. उपमानमु सालवृक्षमु - विटपमुलु— चिगुळ्लु. 2 पादमुन जलधि कल्लोलमुलु पगडमुलु उप मेयमुलु— वरदराजस्वामि भुजमुलु— लाङ्गुळुलु. 3 पादमुन - स्वामिकि उपमानमु चूपँ
बड लेदु. आयन निरुपमानुँडे गदा- करत ता॥ ओ वरदराजस्वामी! ऎऱ्ऱनि चेतुलु व्रेळ्लुनु गल नी भुजमुलु, चिगुरुटाकुलु कॊनलँगल सालवृक्षु सम्बन्धुलगु कॊम्मलवलॆनु, कॊनल यन्दुँ बगडमुलु गल समुद्रकल्लोलमुलवलॆनु, पडगलयन्दलि मणुल चेतँ ब्रकाशमानमुलगु मुखमुलु गल शेषवासुकि प्रभृति सर्पराजुलवलॆनु ब्रकाशिञ्चुचुन्नवि. म॥ स्फुरदग्रस्थ किसालसाल विटवं बुल् वोलॆ, नग्रस्थलिन् गर मॊप्पन् बगडालु कालुजलधिन् गल्लोलमुल् भङ्गि, भा सुरमूर्त समणी विराजित फणी शुल् माड्कि भासिल्लुँ बो अरुणाग्रम्बुलु नीदु दिव्य भुजमुल् ह स्तिक्षमाभृत्प्रभू ! 44 86 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ अम्भोधेः स्वयमभिमन्थनं चकर्थ क्षोणीध्रं पुन रभिभ श्च सप्तरात्रम् । सप्तानां विवलयसि स्म कण्ठ मुक्ते मम्लाना वरद ! तथापि पाणय स्ते !! 45
प्रति :_ हे वरद! = ओ वरदराजस्वामि ! स्वयम्= स्वयमुगा, अम्भो धेः =समुद्रमुयॊक्क, मन्थनम् = चिलुकुटनु चकर्ध = चेसितिवि, पुरःजमुलु, सप्त रात्रम् = = एडुरात्रुलु, क्षोणीध्रम् = कॊण्डनु (गोवर्धनपर्वतमुनु) अभिभः च= ऎत्तितिवि कूड, सप्तानाम् = एडु, उक्लाम् = ऎद्दुलयॊक्क, कण्ठम्= मॆडनु, विवलयसि, स्म= मॆल वेसितिवि, तथापि=ऐननु ( इन्नि पनुलु चेसिननु) तेनी यॊक्क, पाणयः = चेतुलु, अम्ला नाः = वाडवु (कन्दवु). विशेषमुलु :— सप्तरात्रम्- सप्तानां रात्रीणां समाहारः- इदि येकवचनमुलो नुण्डुनु. कण्ठम् इदि जा त्येकवचनमु- कण्ठमुलनु अनि यर्थमु. ‘सप्ताशां उष्ण्यों कण्ठं विवलयसी स्म’ नीलासुन्दरी विवाहकालमुन नामॆ तण्ड्रि यट्टि कन्याशुल्कमुनु बॆट्टिनट्लु प्रसिद्धि. तथापि— अट्लैननु — जलधिमधनमु, गोवर्धनोद्धरणमु, वृषभभञ्जनमु चेसिननु नीकरमु ललय लेदु. इवि नीकु लीललु. इट्टि नीकु मम्मुल रक्षिञ्चुट यॆन्तपनि यनि याळयमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! स्वयमुगाँ बालसन्द्र ओ ! मुनु जिलिकितिवि. गोवनपर्वतमु नेडु रात्रुलु धरिञ्चितिवि. वृषभसप्तकमुयॊक्क कण्ठमुनु कण्ठमुनु मॆल वेसि मॆल वेसि कूल्चितिवि, ऐननु नी चेतुलु कन्दवु. श्री वरदराज स्तवमु उ॥ त्राडुग वासुकिन् सलिपि त्रच्चिति वम्बुधि, राळ्ळवानलो नेडुदिनम्बु लॊण्टिकयि नॆत्ति धरिञ्चितिवद्रिँ, गूल्चिते वेडुक मीऱँगा मॆलिय वेसि मॆडन् वृषस प्तकं बहॆू ! वाडवु नीदु चेतुलु ल 87 45 वं बिटु चेसियु ह स्तिभूषणा ! श्लोII रिङ्खातो प्रजसदनाङ्ग णेषु किं ते गोयष्टि ग्रहणवळा न्नु गोपगोष्ठ्याम् 1 आलम्बा द्धयनयसूत्रतोत्रयो र्वा पाणीनां ‘वरद ! त वारुणत्व मासीत् ॥ प्रति :- हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामी ! ! प्रज, सदन, अङ्गणेषु=गोकुलमुलोनि यिण्ड्ल मुङ्गिळ्ल यन्दु, ते= नीकु, रिङ्खातः, किम् दोँगाडुटवलनना ? गोप 46 गोष्ठ्याम्=गॊल्लल कूटमुलो (गुम्पुलो) गोयष्टि ग्रहण वशात्, नु= गोरक्षण साधन मगु दण्डमुनु ग्रहिञ्चुट वलनना?, हय, नय, सूत्र, तोत्रयोः = (पार्थसारथि तोत्रयोः=(पार्थसारथि विगा नुन्नप्पुडु) गुऱ्ऱमुलँ दोलुटकुँ गल्लॆपुँ द्राळ्ळनु, मुल्लुकऱ्ऱनु, आलं बात् पट्टुकॊनुट वलनना ? तव = नीयॊक्क, पाणीनाम् = चेतुलकु, अरुणत्वम्=ऎऱ्ऱँ
दनमु, आसीत् = आयॆनु ? |
---|
वा |
वि शेषमुलु :— रिङ्खातः पञ्चम्यर्थमुन ‘तसिल्’ प्रत्ययमु वच्चिनदि. ‘बालानां हस्तपादगमनं रिङ्खा’ पिल्ललु चेतुलतोँ गाळ्ळतोँ बाकि वॆळुट अनँगा दोँगाडुट |
' |
88 |
श्री वरदराज स्तवमु |
वलन नानि भावमु. ‘आलम्बा द्धयनयसूत्रतोत्रयो र्वा’ अर्जुनुनकु सारथ्य मॊनर्चु कालमुनँ दॊन्दरगा वॆळ्लुचुन्न गुऱ्ऱमुल लागि निलुपुटकु वानि मॆडकुँ गट्टिन त्राळ्ळु सूत्रशब्दमुन कर्थमु (कळ्लॆमु) त्वरगा वॆळ्लुटकु गुऱ्ऱमुलँ दोलु साधनमु क्षेत्रमु (मुल्लुकऱ्ऱ) ‘पाणीनां वरद! तवारुणत्व मासीत् ’ सुकुमारमुलगु भगव त्करमुलन्दु सहजमुगा नुन्न यरुणिमकु हेतुवुलु गानि रिङ्खादुलनु (दोँगाडुट मुन्नगुवानिनि) हेतुवुल नुगा नूहिञ्चुटचे निट हेतूत्प्रेलं कारमु. ‘अहेतो र्हेतुभावे नोत्प्रेक्षा हेतूत्प्रे’ अनि |
लक्षणमु, |
ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! नी चेतुलयं |
दरुणिम |
गोकुलमुनँ ब्रतिगृहमु मुङ्गिट दोँग्राडुटवलनँ गलिगिनदा ? गोपगोष्ठिलो नालँ गाचुटकै ग्रहिम्पँबडिन दण्डमुनु बट्टुकॊनुटवलनँ गलिगिनदा ? पार्थसारथिविगा नुन्नतऱि गुऱ्ऱमुलँ दोलु निमि त्तमु कॊरडानु कळ्लॆमु |
लनु धरिञ्चुटवलनँ गलिगॆना ? |
उ॥ नाँडु प्रजम्बुलोनि सद |
नम्बुल मुङ्गिळुलन्दु नॆल दोँ |
गाडुट चेतना? पशुच |
यम्बुनु गावँग दण्ड मॆप्पुडुन् वीडनिदानना ? रण भु |
विन् गॊरडा हयरश्मु लूनुटन् |
गूडिन यारि ना ? वरद! |
कूडॆनु र कि चु नीदु चेतुलन्. |
46 |
प्रति |
श्री वरदराज स्तवमु |
ओ |
89 |
47 |
श्लो॥ सर्वज्ञा स्समुचितळ क्तय स्स दैव |
त्वत्सेवानि यनुजुष स्वदेश भोगाः । हेतीना मधिपतय स्सदा कि मेतान् शोभार्थं वरद ! बिभर्षि हर्षतो वा ॥ |
हे वरद! = ओ वरदराजस्वामी! हेती नाम् = आयुधमुलकु, अधिपतयः=अधीश्वरुलैन सुदर्श नादुलु, सर्वज्ञाः=सर्वविदुलुनु, समुचित, शक्तयः = = तॆगिनश कि कलवारुनु, त्व देश भोगाः= नी वॊकँड वे भोग्यपदार्थमुगाँ गलवारुनु, (कनुकने) सदा, एव = ऎल्लप्पुडु, त्वत्, सेवा, नियम, जुषः = नियममुतो नी सेवनु पॊन्दिनवारु नगु, एतान् = वीरिनि, (सुदर्शन, पाञ्चजन्य. शार्जकौमोदकी नन्दकमुलनु, सदा= ऎल्लप्पुडु, शोभारम् = अलङ्कारमुकॊऱकु, बिभर्षि किम् = धरिञ्चु चुन्नावा ? हर्षतः = सन्तोषमुवलन, बिभर्षि वा= |
वा? |
धरिञ्चुचुन्नावा ? |
विशेषमुलु :– |
सर्वज्ञा - |
भगवन्तुनि भावमु |
लनि |
नॆऱिङ्गिन वारनि यर्थमु. समुचितश क्त यः- चेतितोँ बट्टुकॊनि प्रयोगिम्पकुन्ननु शत्रुविजयसमर्थु तात्पर्यमु. त्व देशभोगाः– ऎडँबाटु नोर्वनिवारनि भावमु. शोभार्दं वरद! बिभर्षि हर्षतो वा- इवि यायुधमुलैननु सर्वश क्ति सम्पन्नुँडगु भगवानुन किवि |
क्ति यायुधमुलुगा धरिञ्चुट वृधये गावुन भूषणमुल नुगा धरिञ्चुचुन्नावा ? लेदा- सर्वज्ञ त्वादि वैशिष्ट्यजनित हर्षातिशयमुचेत धरिञ्चुचुन्नावा ? अनि प्रश्निञ्चुट समुचितमुगा नुन्नदि. |
(12) |
90 |
श्री वरदराज स्तवमु |
सुदर्शनादुलनु |
ता ओ वरदराजस्वामी! सर्वज्ञुलु |
लु समुचित श की युक्तुलु नी यॆडँबाटु नोर्वनिवारु नियममुगा नी सेवनु जेयुवारु सगु आयुधाधिपतुलगु शोभकै सदा धरिञ्चुचुन्नावा? वारि जनित हर्षमुवलन धरिञ्चुचुन्नावा ? |
च॥ समुचितशक्ति भासुरुलु |
सर्वविदुल् भव देशभोगुलु |
त्तमुलु त्व देक सेवन स |
सर्वज्ञ त्वादि गुण |
दा नियमाढ्युलु हेत्यधीशु ली |
यमलिनुलन् धरिन्तु वह |
हा! निज देहमुनन्दु शोभका ? प्रमदमु चेतना ? तॆलुपु |
पद्मनिभेक्षण ! ह स्तिभूषणा ! |
! |
। |
47 |
48 |
श्लो॥ किं धातुर्गगनविधानमातृक्काभूत् |
वक्ष स्ते वरदवरेण्य ! यत्र नाम । पद्माया मुख मथ कौस्तुभ श्च जातौ चन्द्रार्का वुडुनिक रायते तुहारः ॥ प्रति :- हे वरदव रेण्य ! |
ओ वरदराजा ! यत्र, नाम= ऎच्चट, पद्मायाः = लक्ष्मी देवियॊक्क, मुखम्= मुखमु, अथ=अटुपै, कौस्तुभः, च = कौस्तुभमणियु, चन्द्रार्कौ = चन्द्रुँडु, सुर्युँडुगा, जातौ = आयिरो, हारः, तु=मुत्याल पेरु, उडुनिक राय ते=निक्ष त्रमुल गुम्पुवलॆ नगुचुन्नदो, तत् = आ) ते = नीयॊक्क, |
4 |
श्री वरद राज स्तवमु |
91 |
वक्षः=वक्षःस्थलमु, धातुः = ब्रह्म देवुनकु, गगन, विधान’ मातृका आकाशमुनु निर्मिञ्चुटयन्दुँ ब्रतिकृति, |
- अभूत्, किम् = आयॆना येमि ?
- वि शेषमुलु :-किं धातुः गगनविधान मातृक्काभूत् वक्ष स्ते— वरदराजस्वामि! ब्रह्म विवक्षःस्थलमुनु मातृकगाँ बॆट्टुकॊनि याकाशमुनु निर्मिञ्चॆनु. कनुक ने
- रॆण्डिटिकिँ बोलिकलु गलवु.
- वक्षःस्थलमुन
- इन्दि रामुखमु-कौस्तुभमु मुत्याल पेर्लु नैल्यमु
- नित्यत
- आकाशमुन
- चन्द्रुँडु—सूर्युँडु
- नक्षत्रसमूहमु
- नैल्यमु
- नित्यत
- तागि ओ परद राजप्रभू ! ऎन्दु लक्ष्मी देविमुखमु चन्द्रुँडुगानु, कौस्तुभमणि सूर्युँडुगानु, मुत्याल सरमु नक्षत्रजालमुगा नुन्नवो यट्टि नीवशःस्थलमुनु मातृकगाँ गॊनि ब्रह्म देवुँडु गगनमुनु निर्मिञ्चॆना
- येमि ?
- उ॥ इन्दिरयन्द मावदन
- मिन्दुवु कौस्तुभ मद्दि तम्मिपू
- विन्दगु मुत्तॆपुन् सरु लि
- वे युडुजालमु, लॆन्दु नट्टि नी92
- श्री वरदराज स्तवमु
- सुन्दर मैनवक्ष मदि
- शोभनरूप ! करीश! याशता
- नन्दुनकु सृजिम्प गग
नम्बुनु मातृक यय्यॆना ? प्रभू! 43 श्लो॥ आण्डा नां त्वदुदर मामनन्ति सन्तः स्थानं तद्वरद ! कथं नु कार्श्य मस्य । माहात्म्यं स्वत इह येषु नून मेषा मृद्धिः स्या स्महिमकरी न हीतरेषाम् ॥ 49 प्रति : वरद!=ओ वरदराजस्वामी!, सन्तः = सज्जनुलु नीयुदरमुनु (बॊज्जनु) ब्रह्मवादुलु, त्वत्, उदरम् अण्डानाम् = ब्रह्माण्डमुलकु, (प्रळयकालमुन) स्थानम् = उनिकिनिगा, आमनन्ति = तलँचुचुन्नारु, तत् = कनुक, अस्य=ईनीयुदरमुनकु, कार्श्यम् = कृशत्वमु, कथन्नु= ऎटु पॊसँगुनु? इह= ईलोकमुन, येषु = एवस्तुवुल यन्दु, स्वतः = स्वतस्सिद्धमगु, माहात्म्यम्= गॊप्पतनमु, = अस्ति उन्नदो, एषाम् = ई वस्तुवुलकु सम्बन्धिञ्चिन, अभिवृद्धि, महिमकरी स्यात् = अगुनु, इत रेषाम् अन्युलयॊक्क (स्वतस्सिद्ध माहात्म्यमु लेनि वारियॊक्क) ऋद्धिः - अभिवृद्धि, महिम करी=महिमनु गलिगिञ्चुनदि, न, स्यात्= कादु, नूनम् 200088 = ऋदिः = निजमु. = महिमनु गलिगिञ्चुनदि, वि शेषमुलु :— अण्डानां त्वदुदर मामनन्ति सन्तः स्थानम्– प्रळयवि शेषमुन ब्रह्माण्डमु लन्नियु नीकु श्री वरदराज स्तवमु 93 क्षियं दुण्डु ननि पराशरादि ब्रह्मवेत्तलु तलञ्चुचुन्ना रनि भावमु, महात्म्यं स्वतः स्वत सिसिद्धमाहात्म्य गुणकृतमहत्वमु. मनँगा मुनुलु
ता॥ ओ वरद राजन्वामि ! ब्रह्मवेत्तलगु पराशरादि प्रळयवि शेषमुन समस्त ब्रह्माण्डमुलु नीयुदरमुन नुण्डुननि तलञ्चुचुन्नारु. अन्दुवलन नी युदरमुन किन्त कार्श्य मॆट्लु पॊसँगुनु? अवुनु. ईलोकमुन महात्य्ममु स्वतस्सिद्धमै यॆवरि कुण्डुनो ! वारिकि सम्बन्धिञ्चिन यभिवृद्धि महिम गलदियै युण्डुनु इतरुल कट्लुण्डदु. सत्यमु, गी॥ उण्डुँ ब्रळयम्बुनन् दावकोदरमुन नण्डमु ल टण्ड्रु बुधुलु, कार्श्यं बि दॆट्लु ? वरलुनु स्वतोमहत्त्व मॆव्वरिकि वीरि ऋद्धि महिमान्वितम्ब का दितरुलु कटु. प्रति :- श्लो॥ सौन्दर्यामृत रसवाहवेगज स्स्यात् आवर्तः किल तव पद्म नाभ ! नाभिः । तत्पद्मं वरद ! विभाति कान्तिमय्या लक्ष्म्या स्ते सकलवपुर्जुषो नु सद्म ॥
11 ? 49 50 हे पद्मनाभ ! = पद्ममु नाभियन्दुँ गल, वरद ! = ओ वरद राजस्वामि! तव = नीयॊक्क, =ओ नाभिः = बॊड्डु, सौन्दर्य, अमृत, रस, वाह, वेग, जः= सौन्दर्य मनॆडु अमृतरस प्रवाहमुवलन बुट्टिन, आवर्तः = सुडि, 94 श्री वरदराज स्तवमु स्याक्, किल=अगुना ? तत्पद्मम्= अन्दुन्न तामर पूवु, ते = नीयॊक्क, सकल, वपुः, जुषः = समस्त शरीरमुनु जॆन्दियन्न, कान्तिमय्याः = कान्तिस्वरूपयगु, लक्ष्माः= श्रीकि, सद्मनु=गृहमुवलॆ, विभाति प्रकाशिञ्चुचुन्नदि. वि शेषमुलु :— आव र्तः ‘स्या दावं भसां भ्रमः’ नीटि सुडि, इदि लोँतुगा गुण्ड्रमुगा नुण्डुनु गान नाभि कुपमानमुगाँ गवुलु वाडुदुकु. सौण्ड र्यामृतरस - सौन्दर्यमु मिक्किलि चर्वणीयमुगा नुण्डुटवलन अमृत रसमुगाँ जॆप्पँबडिनदि. ‘नु’ अनु अव्ययमु उपमा वाचकमु. ता। पद्मनाभा ! श्री वरदराजस्वामि ! नी नाभि सौन्दर्य मनॆडु अमृतरसमु यॊक्क प्रवाहवेगमु वलन नेर्पडिन नीटिसुडि यगुना? एलयं - अन्दलि पद्ममु नी शरीरमन्तयु व्यापिञ्चियुन्न कान्ति यनु लक्ष्मिकि मन्दिरमुवलॆँ ब्रकाशिञ्चुचुन्नदि. शा॥ बृन्दा रार्चित ! पद्मनाभ ! सुगुणा बी ! नीदु मेल् नाभि त्व त्सौन्दर्यामृतसार पूरजवजा तं बैन यावर्तमौ, अन्दुं ग्रालॆडु तम्मिपूवु भवदी याङ्ग प्रभालक्ष्मिकिन् कन्दोयिन् वलपिञ्चुमन्दिरमु नाँ गाँ गान्तिँ जॆन्ना रॆडुन्. 50 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ या दामोदर इति नामदा तहसील् सा दामा किल किणकारिणी बभूव । त न्नूनं वरद! वळित्रयच्छ लेन त्वन्मध्य प्रथमविभूषणी बभूव ॥
95 51 प्रति : :— हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामी! या=ए, दामा =रज्जुवु, तव = नीकु, दामोदरः इति = दामोदरुँ डनु, नामदा= पेरि निच्चिनदि, आसीत् = आयॆनो, सा=आ, दामा=रज्जुवु (ताडु) किणकारिणी= कायलनु कलिगिञ्चिनदि, बभूव, किल= आयॆनँट, तत् अकिरणमु (कायलु) पळित्रयच्छ लेन= मूँडु मुडुलेल नेडु नॆपमु चेत, त त्वत्, मध्य, प्रथम, विभूषणी बभूव नी मध्यप्र देशमुनकु मॊदटि सॊम्मुगा नायॆनु, नूनम् =निजमु, वि शेषमुलु :- दामोदर इति नामदा- दामा, उदरे, यस्य सः— सः- अनु अनु विग्रहवाक्यमुचेतँ दाडु पॊट्टयन्दुँ गलवाँडनि यर्थमु अल्लरि चेयँगाँ दल्लि — यशोद त्राटितोँ गृष्णुनि तोटिकिँ गट्टुट प्रसिद्धमे गदा! ई शोकमुन नी यरमे समञ्जसमु. 3 मऱियु दामानि, (लोकाः) उद रेयस्यसः अनियुँ जॆप्पुकॊन वच्चुनु. कुक्षि स्थाखल भुवनुँडनि यर्थमु. दामशब्दमु लोकार्थक मनुटकुँ ब्रमाणमु. ‘दामानि लोकनामानि भान्ति यस्योद रान्तरे तेन दामोदरो देवाः’ उत्त रार्थमुयॊक्क सारांशमिदि. ‘दाम्ना चैवोदरे ऒद्धा प्रत्यबध्ना दुलूखले’ अन्नट्लु त्राटितो मूँडु चुट्लु वच्चुनट्लु पॊट्टकुँगट्टि तोटिकि बन्धिञ्चिनप्पुडु सुकमार 96 श्री वरदराज स्तवमु मगु कृष्णु नुदरमुनँ द्राटि यॊ त्तिडिवलन मूँडु यवि चूचुवारिकिँ गृष्णुनि कायलु बयलु वॆडलि युदरमु विूँद मूँडु मुडुतलवलॆ दॊलिसारि याभरणमुवलॆ नन्दमुँ गूर्चिनदि. अन्ते कादु तम सौलभ्य सौशील्यादि गुणाभरणमुलनु गूडँ ब्रकटिम्पँ जेसि नवि, शुष्कमुलगु कायले यॆन्त यन्दमुनु गूर्चिनवि! अनु नाश्चर्यमुनकु ‘कि मिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्’ अनु काळिदाससूक्तिये दीनिकि समाधानमु, दीनितोँ प्रहर्षिणी वृत्तदशकमु मुगिसिनदि. ता॥ ओ वरदराजस्वामि! एदाममु (ताडु) नीकु दामोदरुँ डन्न पेरु तॆच्चिपॆट्टॆनो! आदाममु मूँडु पेटलतो बिगिञ्चि कटुटचे मूँडुकायलनु मात्रमे कलिगिञ्चॆनु. आकायलु त्रिवळिगाँ दोँचि नीमध्य भागमुन कॊक प्रथमाभरणमुगा शोभगलिगिं चॆनु. उ॥ एदि गुणाम्बुधी ! करिम हीधर भूषण ! निन्नुँ जेसॆ दा मोदरनामु दाम मदि मूँ डगु पेटलँ जुट्टुट गिणा पादियॆ यय्यॆ गुर्तु लवि भासि लॆडु नीदु सुमध्य भागमुन द्रिवळिच्छलम्बुतो नी टगुनादिम भूषणम्बु ग९. श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ यादृग्बी जाध्युषि तभुनि य द्वस्तु हस्तीश ! जातं त त्तादृक्षं फलति हि फलं त्व य्यपीक्षामहे तत् । यस्मा दण्डाम्यषित उदरे तावके जायमानं 97 पद्मं पद्मानन ! किल फल त्यण्डषण्डा नखण्डान् ॥ 52 प्रति : पद्माननि = पद्ममुवण्टि मुखमुगल, हे ह स्तीश !=ओ करिगिरिप्रभुवगु वरदराजस्वामी!, यादृक्, बीज, अध्युषित, भुवि=एजातिगिञ्जल चेत नाटँबडिन नेल यन्दु, यत्, वस्तु= ए वस्तुवु, (एसस्यादिकमु) जातम् = पुट्टिनदो, तत् = आ व स्तुवु, तादृक्षम् = अटुवण्टि, (दानि कनुगुणमगु) फलम् फलमुनु, फलति = उद्भविम्पँ जेयु – चुन्नदि, हि = सत्यमु, इति यत् = अनुट येदिगलदो, तत् = दानिनि, त्वयि, अपि = नीयन्दुँ गूड, ईग्राम हे= चूचुचुन्नामु, यस्मात् = ऎन्दुवलन ननँगा, अण्ड, अध्युषि ते अण्डमुलचे नधिष्ठिम्पँबडिन, तावके = देवर वारि सम्बन्धियगु, उदरे=बॊज्जयन्दु, जायमानं= पुट्टुचुन्न, पद्मम्= तामर पूवु, अखण्डान् = पूर्णमु लगु, अण्डषण्डान् = ब्रह्माण्डसमूहमुलनु, फलति, किल=उद्भविम्पँजेयु चुन्नदि गदा !
विशेषमुलु तत् तादृक्षं फलति हि फलम्- ए नेललो ने वित्तनमुलु नाटुदुमो ! या मनमु (13) 98 श्री वरदराज स्तवमु नेललो आ वि त्तनमुल कनुगुणमगु सस्यमे आविर्भविञ्चुनु. ‘हि’ इदि लोक प्रसिद्धमु, यवलनु चल्लिनचो यवधान्यमे मॊलचुनु गानि वरिधान्यमु मॊलवदु गदा! ‘यवाः किलोप्ता न भवन्ति शालयः’ लोक प्रसिद्धमगु नी न्यायमु लो कातीतुँडवगु नीयन्दुनु गनँबडुचुन्नदि. इन्दुलकु उ त्तरार्थ मुदाहरणमु. ता॥ तामरलँबोलु कन्नुलु गल यो वरद राज स्वामि ! ! ए नेलयं दॆटुवण्टि वित्तनमुलु नाटुदुरो ! नेलयं दटुवण्टि पण्टये पण्डुनु. या 4 यवलँ जलिन वरि पण्डदु. अनु लोक सिद्धमगु न्यायमुनु नी यन्दु सैतमु चूचुचुन्नामु. ऎट्लन- ब्रह्माण्डमुल कुनिकियैन बॊडमिन नाभीपद्म मखण्ड ब्रह्माण्ड नी युदरम नँ षण्डमुल नुद्भविम्पँ जेयुचुन्नदि गदा ! शा॥ ए नेलन् मऱि नाटँगाँ बडुनॊ ! या ता दृष्टातिबीजाळि ता ना नेलन् फलमट्टिदौ निदिय नी यन्दुं गनङ्गा नगुन् श्रीनाथा! बहुळाण्ड भासि तम कु स्क्रीन् नाभिसम्भूतमौ आनाळीक मखण्डलीलँ गनुँ गा दा! यण्डषण्डम्बुलन्. 52 श्री वरदराज स्तवमु 99 श्लो॥ आज्ञे यज्ञेश्वर ! किल जने क्वा व्यदर्शं विमर्शं विश्वाधीशः क तम इति त न्निर्णयं वर्ण यमः । व्यापक्रोशी नृषु समुदिता या नुपाश्रित्य लेपि ब्रह्माद्या स्ते वरद! जनिता स्तुन्दकन्दार विन्दे ॥ हेय प्रति : हे यज्ञेश्वर ! या 53 सर्वक र्माराध्युँडवगु, वरद! = ओ वरदराजस्वामी!, अज्ञे = तॆलिविलेनि, क्वापि= ओ ऒकानॊक, जने= जनुनियँदु (तनयन्दु) विश्वाधीशः= सर्वेश्वरुँडु, कतमः= ऎवँडु?, इति अनु, विमर्शम्= = चर्चनु, अदर्शम्=चूचितिनि, तत्, निर्णयम् = विमर्शिम्पँ बडिन या तत्त्वमुयॊक्क निश्चयमुनु, वर्णयामः= वर्णिञ्चुचुन्नामु, (उदाहरिञ्चु चुन्नामु) यान् = ए ब्रह्मादुलनु, उपाश्रित्य =आधारमु चेसिकॊनि, नृषु= मानवुलयन्दु, व्यावक्रोश्री परस्पर वाद कोलाहलमु, समुदिता = पुट्टिनदो, ते अपि= आ ब्रह्मरुद्रादुलु कूड, आरविञ्चे नीयॊक्क, तुन्द, कन्द, मूलमुगाँ गल पद्ममुनन्दु, जनिताः= पुट्टिरि. विशेषमुलु :— यज्ञेश्वर— ‘ये यजन्ति पितॄन् देवान् ब्राह्मणान् सहु ताश नान् सर्वभू तान्त रात्मानं विष्णु मेव यजन्ति ते’ अनि चॆप्पँबडिनट्लु सर्व कर्मलचेत नाराधिम्पँ दगिनवाँडा ! अनि भावमु. अज्ञे, क्वाऒपि जने— अनभिज्ञुँड नगु नेनु सर्वेश्वरुँ डॆवँडा ? अनि विमर्शिञ्चिति ननि भावमु, व्यावशी नृषु समुदिता- ते
उदर मे ? 100 श्री वरदराज स्तवमु वादुलयॊक्क परस्पर वाद कोलाहलमुनु व्यावक्रोशि यन्दुरु. कॊन्दऱु वादुलु वेदवाक्यमुलु कापाततः तोँचु नर्थमुनु पुरस्करिञ्चुकॊनि हिरण्यगर्भ स्समवर्त ताग्रे भूतस्य जातः पति रेक आसीत्’ ब्रह्मये विश्वाधीशुँ डनिरि, मऱिकॊन्दऱु वादुलु ‘यदा तम स्तन्नदि वा न रात्रि र्न सन् न चास च्चिन एव केवलः’ अनु वाक्यमु लोनि ‘शिवपदमु चेत शिवुँडे सर्वेश्वरुँ डनिरि. मऱिकॊन्दऱु ‘इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते’ अनु वाक्यमुन निन्द्रपद मुण्डुट चेत देवेन्द्रुँडे जगदीश्वरुँ डनिरि. अदि निर्दुष्टार्थमु कादु. आपाततः तोँचु नर्थमु मात्रमे अट्लेनि तत्त्वमेदि? तत्त्वमेदि? तन्निर्णयं नर्णयामः ते2पि ?
- ब्रह्माद्या स्ते वरद! जनिता स्तुन्दकन्दारविन्दे परत्व संशयास्पदुँडैन हिरण्यगर्भुँडु, नी नाभिकमलमुन नुद्भविञ्चॆनु, शिवुँडो! ‘ब्रह्मणः पुत्राय ज्येष्ठाय विरूपाऔय’ अनु छान्दोग्योक्त प्रकारमु आ ब्रह्मकु ज्येष्ठपुत्रुँडु. इक निन्द्रुँडो! ब्रह्मपुत्रुँ डगु कश्यपुनिकिँ गुमारुँडु. ई सम्बन्धमे अज्ञुलमगु माकुँ गूड श्रीमन्ना रायणुँडे सर्वेश्वरुँडु परतत्त्वमु अनि चाटि चॆप्पुचुन्नदि. ता॥ यज्ञेश्वरुँडवगु ओ वरदराजस्वामि! अज्ञुँड नगु नाकु सर्वेश्वरुँ डॆवँडा ? यनु विमर्शनमु गलिगि नदि. अप्पु डिट्लु निर्णयिञ्चुकॊण्टिनि. ऎवरिनि गॊप्पवारुगा श्री वरदराज स्तवमु 101 (स र्वेश्वरुलनि) भ्रमिञ्चि वादुलु परस्पर वाद कोलाहल मुलँ जेयुचुन्नारो ! रो! आ ब्रह्मादुलु नी नाभिकमलमु नन्दु जनिञ्चिनवारे कनुक दीनिनि बट्टि वारि जन्ममुनकु हेतुवैन देवरवारे सर्वेश्वर शब्दवाच्यु लनि तेलु चुन्नदि. शा॥ ईयजुण्डु करीश ! यज्ञ फलदा ! यॆव्वाँडु स र्वेश्वरुं डा! यञ्चुन् सलिपॆन् विमर्शनमु सा रांशम्बु नालिम्पुमा एयेवेल्पुल वादिमत्तकरु लॆं तेँ बॆद्दगाँ बल्किरो यायज्ञ प्रभवादुलुन् द्वदुदरो द्यन्नाभि पद्मोद्भवुल्. 53 श्लो॥ मुष्णन् कृष्ण प्रियनिजजनै क्षय्य हैयङ्ग वीनं दाम्ना भूम्ना वरद! हि य यत्वं यशोदाक राभ्याम् । बद्दो बन्धक्ष पणकरिणीं ताङ्किलाद्याऒ पि मातुः प्रति : 4 प्रेम्ला गात्राभरण मुद राबन्ध नाख्यं बिभर्षि ॥ ! 54 प्रिय, निज, जनैः = प्रियुलैन स्वकीय भ क्त जनुल चेत जय्य ! = जयिम्प शक्यमैनवाँडा ! (भक्त परतन्त्रा) कृष्ण ! = कृष्णरूपा ! वरद ! = ओ वरद राज ! स्वामि! त्वम् = नीवु, हैयङ्ग वी;म् निन्नँटि वॆन्ननु काचिन नेतिनि, मुप्लैन् = दॊङ्गिलिञ्चुचु, यशोदा कराभ्याम् = यशोद चेतुल चेत यया = ए, दाम्ना=102 श्री वरदराज स्तवमु
त्राटितो, भूम्ना= ऎक्कुवगा (बिगिञ्चि) बद्दः = बन्धिम्पँ बडिन वाँडवु, अभूः = अयितिवो, बन्ध, क्षपण, करिणीम् = (ईकथनु मननमु चेयुवारियॊक्क) संसार बन्धमुनु नशिम्पँ जेयुनट्टि, ताम्= आ त्राटिनि, अद्य, अपि=नेँटिकिँ गूड, (वरद राजरूपमुन सैतमु) मातुः = तल्लियॊक्क, प्रेम्ला= प्रेम चेत, उदर बन्धनाख्यम्=उदर बन्धन मनु पेरुगल, गात्र, आभरणम् शरीरमुनकु सॊम्मुनुगा, बिभर्षि = धरिञ्चुचुन्नावु. विशेषमुलु मुष्णन् कृष्णः — अनु पाठान्तरमु गलदु. अप्पुडु हे वरद ! = ओ वरद राजा !, त्वम् – नीवु, कृष्णः (सन्) कृष्णुँडवगुचु अनि यन्वयिञ्चु कॊनवलॆनु. जय्य हैयङ्ग वीनम् – अनि जय्यशब्दमुनु हैयङ्ग …. वीनमुनकु विशेषणमु चेसिकॊनवच्चुनु. अप्पुडु जयिञ्चु कॊन (सम्पादिञ्चुकॊन शक्यमगु हैयङ्गवीनमुनु, प्रियनिज जनैः (सह) प्रियुलगु मित्रुलतोँ गूड ननि यर्थमु, हैयङ्ग वीनम् = निन्न ँटि वॆन्ननु काचिन नेयि, गुमगुमायिञ्चुचु रुचिगा नुण्डुनु. “तत्तु हैयङ्गवीनं यत् ह्योगो दोहोद्भवं घृतम् (अमरमु) दाम्ना भूम्ना बद्दः - त्राडु चे गट्टिगाँ गट्टँबडिन चे वाँडु. इङ्क नॆक्कडिकि वॆळ्ळॆदवो वॆळ्लु अनि सवालु चेसि पॊट्टकु टोटिकिँ गट्टँबडॆ ननि भावमु. श्री वरदराज स्तवमु ‘दाम्ना चै वोदरे बद्ध्वा प्रत्यबध्ना दुलूखले 103 यदि शक्नोषि गच्छ त्व मतिचञ्चल चेष्टित ! (संस्कृतभागवतमु) षि, बन्धक्ष पणकरिणीम् - आदाममु निन्नु बन्धिञ्चिननु नीयी वृत्तमुनु ध्यानिञ्चुवारि भवबन्धमुल नूड्चु सनि तात्पर्यमु. अद्या६पि ऎप्पुडो कृष्णावतारमुन जरिगिन पि- चर्यनु वरदराजस्वामि दशलोँ गूड मातृप्रीति चेत नादाममु ‘नुदर बन्ध’ मनॆडु नाभरणमुगा धरिञ्चु चुन्नावनि भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! भ क्त परतन्त्रा ! नीवु भ क्त कृष्णुँड वैनतऱि ब्रियमित्रुलतोँ गूड नप्पुडु काचिन नेतिनि दॊङ्गिलिञ्चुचुँ डल्लि यगु यशोदचे नेत्राटितो गट्टिगा बन्धिम्पँबडितिवो ! संसारबन्धमु नूड्चँगल या त्राटिने मातृप्रीति चेत नी वरद राजदशयन्दुनु उदरबन्ध मनु नाभरणमुनुगा धरिञ्चुचुन्नावु. म॥ वरदा ! कृष्णुँड वौतऱिन् ब्रियसुहृ द्वर्गम्बुतो गोपिका हरिणी नेत्रलयिण्ड्ललोँ गलुगु मेल् हैयङ्ग वीनम्बु दोँ च रुषन् बद्धुनिँजेसॆ देवँ दलि पा शच्चेदि यापाश मि त्तऱिँ दा ल्ते ? तलिप्रेममै नुदर बं दा ज धं बन्न सॊम्मुं बलॆन् , 54 104 श्री वरदराज स्तवमु श्लो॥ सौन्दर्याख्या सरि दुरनि विस्तीर्य मध्यापकुद्धा स्थानाल्नत्वा द्विषमुगतिजा वर्तगर्ताभनाभिः । वि प्राप्य प्राप्तप्रथम जघनं विस्तृता हस्तिनाथ ! प्रातो भेदं भजति भवतः पाददेशापदेशात् ॥ 55 प्रति :-— हे ह स्तिनाथ ! = ओ करिगिरीशा !, उरसि = वक्षः स्थलमुनन्दु, विस्तीर्य = विशालमै, मध्य, अवरुद्धा= नडुमु चेत नाँपँबडिनदै, स्थान, अल्पत्वात् = स्थानमु (चोटु) कॊञ्चॆमु गनुक, विषम, गति, ज, आव रग र. आभ, नाभिः = समानमुगानि नड वलनँ बुट्टिन गुण्टवण्टि सुडि यॊक्क कान्तिवण्टि कान्ति गल नाभि (बॊड्डु) गलदियै, प्राप्तप्रथम = पॊन्दँबडिन वैशाल्यमुगल, जघनम् = कटिपु भागमुनु, प्राप्य = पॊन्दि, विस्तृता = विरिवि यैनदियै, सौन्दर्याख्या = सौन्दर्य मनु सरित् = नदि, भवतः= देवर वारियॊक्क, पाद देश, अप देशात् = पादप्रदेशमु लनॆडु नॆपमुवलन,
पेरुगल, प्रोतः. भेदम् = प्रवाह भेदमुनु, भजति = पॊन्दुचुन्नदि, (रॆण्डु = पाय लगुचुन्नदि), विशेषमुलु :- सौन्द र्याख्या सरित् - सौन्दर्यमुनु सौन्दर्याख्या _ नदिगा वर्णिञ्चुटचे नदि प्रवहिञ्चुनट्लु सौन्दर्यमु देहमुनं दन्तट व्याप्तमै युन्नदनि भावमु. उरसि विस्तीर्य- अनुटचे अन्दमन्तयु भगवन्तुनि वक्षःस्थलमु नन्दे यट्टिपडु चुन्नदनि याशयमु. लक्ष्मीकिँ गौस्तुभ श्री श्री वरदराज स्तवमु 105 मणिकि नुन्किपट्टगुटयु निन्दुल कुपष्टम्भकमु. मध्या 2 वरुद्धा- अनुट चेत नडुमुयॊक्क सौन्दर्यमु प्रकटित मगुचुन्नदि. सिंहमध्यमुवलॆ स्वामिवारि नडुमु मनोहर मनि भावमु. विषम….. -नाभिः नदीजलमुल विषमगतिचेत आवर्तमु (सुडि) एर्पडुनु. अट्ले सौन्दर्य नदि सन्ननिनडुमुकड स्थलमु चालकपोवुट चे नेर्पडिन विषमगतिवलन सुडिवलॆ नाभि येर्पडि नट्लुन्नदनि नाभिवर्तु लत्वमु निम्नत्वमु वर्णिम्पँबडि नट्लय्यॆनु. ता॥ ओ करिगिरिप्रभुवगु वरदराजस्वामी! नी वक्षःस्थलमुन सौन्दर्यनदि विस्तृतिँ गाञ्चि नडुमुकडँ जोटुचालक वॆनुककु मरलि विषमगतिचे नेर्पडिन याव र्तमन नाभिकाल विशालमगु जघनम्बुन विरिवियै नी सौन्दर्य शैवालिनि पादमु लनु नॆपमुचेत रॆण्डुपायलुगा ब्रवहिञ्चिनदि. शा॥ नी वक्षःस्थलि विस्तृतिन् बरँगुचु, नी मध्य भागम्बुनन् दावुं जालक वॆन्क कुन् मऱलि व्य त्यस्ताम्बुवै दान नौ नाव र्तम्बन नाभिग्राल जघनं बन्दुन् विजृम्भिञ्चि नी लावण्यापग यॊप्पॆँ बादमिष चे लक्ष्मीश ! यिर्पाय लै, यि 55 (14) 106 श्री वरदराज स्तवमु श्लो!! रम्भा स्तम्भाः करिवरकराः कारभा स्पारभाजो वेषाऒऒ श्लेषा आपि मरतक स्तम्भमुख्या स्तुलाख्याः । साम्यं सम्य ग्वरद! न दधुः सर्व मुर्वो स्वदूर्वो र्न ह्यैश्वर्यं दधति न तथा यौवनारम्भजृम्भाः॥
56 प्रति :— हे वरद! ओ वरदराजस्वामि ! सार भाजः=श्रेष्ठमुलगु, रम्भा, स्तम्भाः= अरँटिकम्बमुलु, करि, वर, कराः = गज श्रेष्ठमुल तॊण्डमुलु, कारभाः= करभसम्बन्धि प्र देशमुलु (मनिकट्टु मॊदलु चिटिकॆन वेलि मॊदलुदाँकँ गल चेति वॆलुपलि चोटु) मरकत, स्तम्भ, मुख्याः=मरकत स्तम्भमुलु मॊदलुगाँ गलवि, वेष, आ श्लेषाःअपि = आकारसं श्लेषमु गलवियैननु, तुला, आख्याःअपि = उपमानमुलनु पेरु गलवि यैननु, उर्वोः = गॊप्पवियगु, त्वदूर्वोः = नी तॊडलयॊक्क, सर्वम् = समस्तमगु, साम्यम् =पोलिकनु, सम्यक् = बागुगा, न, दधुः=धरिञ्चलेदु, हि= ऎन्दुकनँगा, (ते= अवि) तथा= अट्लु, ऐश्वर्यम् =श क्तिविशेषमुनु, न, दधति=धरिम्पवु, तथा = अटु, यौवन, आरम्भ, जृम्भाः = यौवन प्रादुर्भावमुनन्दलि विकासमुलनु, न, दधति=धरिम्पवु, ♡ विशेषमुलु :- कारभाः- शरभसम्बन्धिनः (करभ प्रदेशमुलु) ‘मणिबन्धा दाक निष्ठं करस्य शरभो मत तुलाख्याः-(तुलेनि आख्या (अमरमु) येषां ते) उपमानमु लनॆडु पेरु (प्रसिद्धि) गलवि. रम्भा स्तम्भादुल कट्टिप्रसिद्धि युण्डुट श्री वरदराज स्तवमु 107 रम्भोरु, करभोर्वित्यादुलवलन नॆल्लरकु विदिमे. ‘साम्यं सम्य ग्वरद! न दधुः सर्व मुर्वो स्वदूर्वोः’ – अट्टि प्रसिद्धिगल रम्भा स्तम्भादुलु गूड सर्वात्मना अनिर्वच नीयमुलगु नी तॊडलनु बोललेवु. चर्ममुनँ गर्कशत्वमु गल करिवरकरमुलकु एकान्त शैत्यमु गल रम्भा स्तम्भमु लकु जडमुलगु मारकत स्तम्भमुलु कट्टि योग्यत यॆट्लु पट्टुनु? पट्टिननु न ह्यैश्वर्यं दधति न तथा- न वानुनि तॊडलकुँ गल शक्तिविशेषादुलु वानिकि (रम्भा स्तम्भादुलकु ऎट्लु लभ्यमगुनु? ‘पिष्ट दुष्ट मधु कैट भकी’ भगवानुँडु दुष्टुलगु मधुकैट भकीटमुलनु तॊडलचेतने कदा पिसिकि वेसॆनु. आश क्ति रम्भा स्तम्भादुलकु वेयिजन्ममुलु तपस्सु चेसिननु रावनि भावमु. ಬ भग ता॥ ओ वरदराजस्वामि! श्रेष्ठमुलगु कदळी काण्ड मुलु, ना गेन्द्रह स्तमुलु, करभमुलु, मरकत स्तम्भमुलु, उपमानकोटिलोँ बेरॆन्निक ँगन्न पैननु, तत्तुल्या कार मुनु बॊन्दियुन्ननु, श्रेष्ठतिश्रेष्ठमुलगु नी तॊडलतो सर्वात्मना साम्यमुनु बॊन्दलेवु. ऎन्दुकनँगा नी तॊड लकुँ गल यैश्वर्यमु (शक्ति) यौवनविलासादुलु रम्भा स्तम्भादुल कॆट्लु वच्चुनु. मः सरिपोलं गलवे त्वदूरुवुलतो सारो पमानम्बु लौ करभाकारमुलु९, मनोजकदळी काण्डम्बु, लाशान्त भा 108 श्री वरदराज स्तवमु स्वर ना गेन्द्र करम्बुलुक्, मरकत स्तम्भम्बु, लित्यादु, वरदा ! नीविभवम्बु यावनकळा वै दर्धि यॆट्लब्बडिक्. वैद emma श्लो॥ या ते शात्रे वरव ! जनिता कान्तिम य्यापगा 2 भूत् तस्याः स्रोतोयुगळ मिह य द्याति पादप्रवादम् । तज्जातोर्ध्वभ्रमियुग मि वोद्भानुनी जानुनी ते स्या दु र्वा ककुदयुगळं याव वैश्वर्यनाम्नोः ॥ 56 ! 57 ते प्रति :— हे वरद ! ओ वरदराजस्वामी ! ते नीयॊक्क, गात्रे= शरीरमुनन्दु, कान्तिमयी – कान्ति स्वरूपिणि यगु, या = ए, आपगा, नदि, जनिता= पुट्टिनदो, तस्याः = आनदियॊक्क, यत् = ए, प्रोतो युगळम् = = प्रवाहमुलजण्ट, इह=ई शरीरमुनन्दु, पादप्रवाहम् = पादमुल नॆपमुनु, याति = पॊन्दु चुन्नदो, उद्भा सुनी= पै किँ ब्रसरिञ्चुचुन्न (कान्ति) किरणमुलु गल, ते = नीयॊक्क, जानुनी=मोँकाळ्लु, तत्, जात, ऊर्ध्व, भ्रमि, युगम्, इव= आप्रवाहमुल जण्टयन्दुँ बुट्टिन पै किँ ब्रसरिञ्चु सुडुल (बुडकल) जण्टवलॆ, (भौतः = प्रका अदिकानिचो, यौवन, ऐश्वर्य, शिञ्चुचुन्नवि),
ឌ नाम्नोः = यौवन सौन्दर्य मनॆडु पेरुगल उष्णोः = 8= वृषभमुल यॊक्क, ककुद, युगळम् = मूँपुरमुलजण्ट, स्यात् = अगुनु. श्री वरदराज स्तवमु 109 विशेषमुलु :- इन्दु मॊदटि रॆण्डु पादमुल यन्दुनु 55 ‘सौन्दर्याख्या’ अनु श्लोकमुलोनि पूर्वार्थमनु वदिम्पँबडिनदि. ककुदयुगळम्- वृषाङ्गे ककुदो स्त्री याम्- अनु नमरो क्तिवलन ‘शकुद’ शब्दमुनकु ऎद्दुल मॆडपै नुण्डु मांसपुमुद्द यर्थमु. प्रोतोयुगळम्— अनुचोट स्रोतो द्वितयम्- अनि पाठान्तरमु गलदु. अर्थमु समानमु. नाल्गव पादमुन युगळशब्दमुन्नदि गनुक मॊदटि पादमुन द्वितीय मुण्डु टये समञ्जसमुगा नुण्डुनु, पुनरु कि युण्डदु, ता॥ ओ वरदराजस्वामी! देवरवारि दिव्यविग्रहमुन जनिञ्चिन कान्तिरूपिणी यगु नदियॊक्क, पादप्रवादमुनु बॊन्दिन प्रवाहयुगळमुनुण्डि यूर्ध्वमुनकुँ ब्रसरिञ्चु नावर्त युग मुवलॆ कान्तुल ग्रुम्मरिञ्चुचु श्रीवारि मोँकाळ्लु प्रकाशिञ्चु चुन्नवि. लेदा यौवन सौन्दर्य वृषभमुल मूँपुरमुलवलॆ नॊप्पुचुन्नवि. उ॥ एनदि कान्तिरूप प्रिव हिञ्चॆनु नीमॆयि ह स्तिवल्ल बा ! देनि प्रवाहयुग्म मयि देवर पादयुगम्बु ग्रालॆनो ! दान जनञ्चि पै कॆगयु तत्सलिलभ्रमु लॊकॊ ! यौवना 110 श्री वरदराज स्तवमु सान महोक्ष रम्यककु दम्बुलॊ ! नाँ दगॆ नीदुजानुवुल् . 57 श्लो॥ प्रेम्जी 22 फ्रकुं करिगिरि शिल्को धोमुखी भावभाजो रम्फ्रिद्वं द्वाह्वयकमल योर्दण्ड काण्डायमा ने ! आद्रिस्पळ्ळोव वसुखत उत्कम्बके रोमहर्षात् द्रष्टु र्दृष्टि र्वरद! कि मलं लङ्घितुं जङ्घिके ते !! 58 क्रिन्दिमुखमु प्रति : हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, प्रेन्लू = प्रीतिचेति, करिगिरिशिरः = करिगिरिशृङ्गमुनु, आघ्रातुम् मूर्कॊनुटकु, अधोमुखी भावभाजोः गलिगियुण्डुटनु बॊन्दिन, अम्फ्रि, द्वन्द्व, आह्वय, कमलयोः= पादयुग्म मनु पेरु गल कमलमुल यॊक्क दण्ड, काण्डायमाने = दण्डमुलँबोलु काडलवलॆ नुन्न वियु, अद्रिस्पर्श, उद्भव, सुखतः = कॊण्डनु दाँकुटवलनँ बॊडमिनसुखमुवलन, (जातात् = पुट्टिन) रोमहर्षात् = गगुर्पाटुवलन, उत्, कण्टके= उदयिञ्चिन मुळ्ळुगल, ते=नीयॊक्क, जङ्घिके= पिक्कलनु, द्रष्टुः चूचुवानि यॊक्क (अन्दलि यन्दमु ननुभविञ्चु वानियॊक्क) दृष्टिः = चूपु, लङ्घितुम् =(जङ्घलनु) अतिक्रमिञ्चुटकु, अलं, किम् = समरमगुना? कादनि भावमु.
विशेषमुलु :- प्रेमा…— भोग्यतातिशयप्रयुक्त मगु प्रीतिचेत - उत्कण्टके कमलनाळमुल यन्दुनु मुन्दुण्डुनु गान निट्लु वर्णिम्पँ बडिनदि. श्री वरदराज स्तवमु 111 कि मलं लङ्घितुम् कालमन्तयु जङ्घासौन्दर्यमु ने चूचुचुन्दु रनि भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! करिगिरि शिखरमुनु ब्रेमचेत मूर्कॊनुटकुँ ग्रिन्दिमोमुगा नुन्न पादयुगमु पेरिक मलमुलजण्टकुँ गाडलवलॆ नॊप्पि नॊप्पि पर्वतस्पर्शचेँ गलिगिनयानन्दमुनँ बुलकितमुलो यन्नट्लुन्न नी जङ्घल सौन्दर्यमु ननुभविञ्चु वारि चूपु वानिनि दाँटि याव लकुँ बोसमर्थमगुना ? (कादु) म॥ करिशैलाग्रमुँ ब्रेम मूरुकॊनँ ज क्कं क्रिन्दुमो मैन मी चरण द्वन्दमु पेरि पद्ममुल सं स क्तम्बु लौ काडल सिरिचे मिञ्चि गिरि९ स्पृशिम्प नगुतु ष्टिं बुल्क लेपारु नी वरजङ्घल् कनुवारिदृष्टि मऱलिं प९ रादु ह स्तीश्वरा ! श्लो॥॥ भक्तानां य व्वपुषि दहरं पण्डितं पुण्डरीकं य च्चाऒम्लानं वरद ! सतताध्यासना दासनाब्जम् । आम्नायानां यदपि च शिरोय श्च मूर्धा शठारेः हस्त्यद्रे र्वाकि मतिसुखदं तेषु पादाब्जयो स्ते H 58 59 प्रति हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि ! भक्ता नाम् = भ क्तुलयॊक्क, वपुषि = शरीरमुनन्दु, पण्डितम् ज्ञानविशासमु गलदियु, दहरम् = दहर मनु पेरु112 श्री वरदराज स्तवमु गलदियु, (अगु) यत् = ए, पुण्डरीकम् = पद्ममुगलदो, सतत, अध्यासनात्, अपि = सदाअधिष्ठिञ्चियुण्डुटवलन सैतमु, अम्लानम् = वाडनि, आसनाब्दं, च, यत् = पद्मासन मेदिगलदो, आम्नायानाम् = वेदमुल यॊक्क, शिरः, अपिच = शिरस्सुकूड (उपनिषत्तु यत् = एदि कलदो, शठारेः = शतकोपमुनि यॊक्क, मूर्धा, च = शिरस्सुनु, यः = एदिकलदो, तेषु= वानियन्दु (आ ऐदिण्टि यन्दु) ते=नीयॊक्क, पादाब्जयोः पादपद्ममुलकु, अतिसुखदम् = ऎक्कुवसुखमु निच्चुनदि, किंवा? = एदि? विशेषमुलु :- ग ज्ञान पण्डितम्- ज ज्ञानविकासवत् विकासमु गलदि ‘पडि=गतौ’ अनुधातुवुनुण्डि येर्पडिन शब्दमु - ये गत्यर्थाः ते ज्ञानार्थकाः- अनु नियममु चेत ज्ञानार्थक मायॆनु. दहरम्- दहं विपाप्मं पर वेळ भूतं य त्पुण्डरीकं पुरमध्यसंस्थम् तत्रापि दहं गगनं विशोक स्तस्मिक् य दन्त सदुपासितव्यम् ई श्रुतिलोँ बेर्कॊनँबडिन सकल कल्याण गुणाकरदहराका शाख्य परमपुरुषनित्य निवासस्थानमु, आम्नायानां य दपिच शिरः- वेदान्तमु ‘सर्वे वेदा यत्पद मामनन्ति’ कि मतिसुखदं तेषु ? - ह हस्त्य देः मूर्धा— अनि समाधानमु इच्चटने कोरिनट्लु सकल दे समाश्रयण सौकर्यमु सकल फलप्रदत्वमु सम्भविञ्चु चुन्नदि. ताळि श्री श्री वरदराज स्तवमु 113 ता! ओ वरदराजस्वामि! तमकुँ बादपीठमुलुगाँ ओ ब्रसिद्धिकॆक्किन यी यैदिण्टिलो देवरवारि पादमुल कत्यन्त सुखप्रदमैन देदि? (1) ज्ञानभासुरमै भक्तुल शरीर मुन नुन्न दहराख्य मगु पुण्डरीकमा? (2) सर्वदा अधिष्ठिञ्चि युन्ननु वाडिनिडियु विमलाद्यष्ट शक्त्यधिष्ठितमै यष्टदळ शोभियै विकासोन्मुखमै यॊप्पु नासनाब्जमा? (3) वेदशिर स्सगु नुपनिषत्तुला ? (4) शठारिमुनिमूर्धमा? (5) करिगिरि शिखरमा? अनुग्रहिम्पुँडु. शा॥ देवा ! भक्तुल दह्रनाममु चिदु द्दी प्तम्बु हृत्पद्ममो ! भावत्कानिशवास मय्यु श्रमकुं बाल्डानि तत्पीठ रा जीवम्बो ! श्रुति शेखरम्बॊ ! शिरमो ! (श्रीमच्छताराति की ग्रावाग्रम्बॊ ! त्वदम्फ्री पद्ममुलकु गल्पिञ्चु मेल् सौख्यमु ? श्लो॥ पद्या स्वद्याङ्गुळिषु वरद! प्रान्ततः कान्तिसिन्धो र्वीचीवी थीविभव मुभयीष्वम्भसो लम्भितानु । 11 विन्द न्निन्दुः प्रतिफलनजां सम्पदं किं पदं ते छायाच्छद्मा नखविततितां लम्भित शुृम्भित स्सजा ॥ प्रति :_ वरद !=ओ वरदराजस्वामि ! कान्तिसिन्धोः शान्ति यनॆडु समुद्रमु यॊक्क, अम्भसः प्रान्ततः = प्रान्त प्रदेशमुनन्दु, वीची वी विभवम् 59 60 नीटियॊक्क, तरङ्ग (5) 114 श्री वरदराज स्तवमु पङ्क्ति सम्पदनु, लम्भितानु=पॊन्दिञ्चँबडिन, पद्यासु पादमुलकु सम्बन्धिञ्चिन, उभयीषु
रॆण्डुविधमुलगु, अङ्गुळीषु = व्रेळ्ळयन्दु, प्रति फलनजाम् = प्रतिबिम्बमुवलनँ बॊडमिन, सम्पदम्=शोभनु, अद्य= इप्पुडु, विन्द = पॊन्दुचु, छायाच्छद्मा = प्रतिबिम्बव्याजमुगल, इन्दु, चन्द्रुँडु, नख, वितति ताम् = कालिगोळ्ळवरुस यगुटनुः लम्भितः स९ = पॊन्दिपँ बडिनवाँ डगुचु, ते= नीयॊक्क, पदम् = पादमुनु, शुञ्छितःकिम् प्रकाशिम्पँजेसॆना ?
P विशेषमुलु :- पद्यासु पदयोः सम्बन्धिन्यः पद्याः, तासुपदमुलकु सम्बन्धिञ्चिन यनि यर्थमु. अङ्गुळीषु- अनु दानिकि विशेषणमु, ‘शरीरावयवात् यत्’_ अनु सूत्रमुचेत शरीरावयव मगु पदशब्दमुनकु ‘यत् प्रत्ययमु राँगा नीरूपमु सिद्धिञ्चिनदि. पदन्ते….. शुम्भितः किम् – दिव्यविग्रहलावण्यार्णवतरङ्ग माला सुन्दरम्बुलगु पादाङ्गुळुलन्दुँ ब्रतिफलिञ्चि नखविततिरूप मूनि चन्द्रुँडु नी पादपद्मयुगळमु शोभिल्लँ जेयु चुन्नाँ डनि भावमु, ឌ ता॥ ॥ ओ वरदराजस्वामी ! नी लावण्यार्णवमुयॊक्क जलपर्यन्त भागमुलन्दु नललपङ्क्तुलवलॆ नॊप्पु नीपादा गुळुलन्दुँ ब्रतिबिम्बमिष चे नलरुचुँ जन्द्रुँडु पादन खम्बुलुगा रूपॊन्दि नीपादमुलँ रूपॊन्दि नीपादमुलँ ब्रकाशिम्पँ जेयु चुन्नाँडा ? श्री वरदराज स्तवमु या म॥ द्युतिवाराशि जलाञ्चलस्थलिनि या दोनाथकन्यान्वयं वृतकान्ता ! शुभ चिकावळि सिरि९ वॆण्टाडु पादाङ्गुळी तति छायामिष चेतँ गन्पडि सुधा धामुण्डु प्रोद्यन्न खा कृतिँ जॆन्नारि वॆलुङ्गँ जेसॆनॆ त्वदं फ्रिक् ह स्ति शै लप्रभू ! अवतारिक : चुन्नारु. 115 60 पूर्वोक्त विषयमु ने विवरिञ्चु श्लो॥ शम्भो रम्भोरुहमुख ! सखास९ सहाङ्क श्शशाङ्कः कुर्वā सेवां वरद! ऒक लोवृत्तहीन स्सुवक्रः । त्वत्पादाज्ञे प्रियमख! नख च्छद्म ना ऒ ऒश्रित्य नित्यं सद्वृत्तो ऒभूत् स तु दशगुणः पुष्कलो निष्कळङ्कः ॥ प्रति :- अम्भोरुह, मुख पद्ममुवण्टि मुखमु गलवाँडा! प्रियमख!= इष्टमुलगु यज्ञमुलु गलवाँडा! = हे परद ! = ओ वरद राजस्वामि!, शशाङ्कः = हे =ओ (कुन्देलु गुर्तुगाँगलवाँडु) चन्द्रुँडु, शम्भोः = शिवुनकु, सखा, स९=मित्रुँडगुचु, सेवाम् = सेवनु, कुर्वज्= चेयुचु, सहाङ्कः = कळङ्कमुतोँ गूडिनवाँडुनु, रॆण्डवयरमुन… पापमुतोँ गूडिन वाँडुनु) विकलः = पोयिनकळलु गल वाँडुनु, क्षयिष्णुवु अनि भावमु, (रॆण्डव - विद्याहीनुँ Ф 116 श्री वरदराज स्तवमु डुनु) वृत्तहीनः=वर्तुलत्वमु (गुण्ड्रतनमु) लेनिवाँडुनु, (रॆण्डव- आचाररहितुँडुनु) सुवक्रः मिक्किलि वंशर आकारमु गलवाँडुनु, (रॆण्डव- कुटिलचित्तुँडुनु) अभूत् = आयॆनु. सः आचन्द्रुँडे, नख, छद्मना गोळ्ळ नॆपमुतो, त्वत्, पादाबे = तामरलँ बोलु नी रॆण्डु पादमुलनु, आश्रित्य, तु=आश्रयिञ्चियो, निष्कळङ्कः= कळङ्करहितुँडु (पापरहितुँडु) नित्यम् = प्रतिनित्यमु, पुष्कलः = परिपूर्णुँडुनु, सत् वृत्तः= मञ्चिव र्तुलत्वमु गल वाँडुनु, (मञ्चियाचारमु गलवाँडुनु) दशगुणः = पदि रॆट्लधिक मैन वाँडुनु, अभूत् =आयॆनु, नूनम्= निजमु. विशेषमुलु :– कुर्वक् सेवाम्— शिरोभूषणमुगा शिवुनि सेविञ्चुचु, सहाङ्कः- विकलोवृत्तहीनस्सुवक्रः- ईपदमुलु रॆण्डु रॆण्डु अरमुलु गलिगियुण्डुट चेत G 3. P श्लेषालङ्कारमु. ‘नानार्थ संश्रयः श्लेषः’- अनि लक्षणमु. अट्ले ‘सद्वृत्तः’ इत्यादुलन्दुनु श्लेषालं कारमनि तॆलियनगुनु. दशगुणः- शिवुनितलपै एककळारूपमुन नुन्न चन्द्रुँडु श्री वरद राजस्वामि पादाब्जमुलनु आश्र यिञ्चि पादाङ्गुळी सखमुलन्दुँ ब्रतिफलिञ्चि पदिमूर्तुलनु धरिञ्चुट चेत दशगुणाधिकुँडुगा नुण्डॆ ननि भावमु, दीनि चेत देवतान्तर सेव यपकर्षकरियु, भवदीय सेव युत्कर्ष करियुननि भावमु. श्री वरदराज स्तवमु 117 ता॥ पद्ममुनुबोलु मुखमुगलिगि जन्नमुलयॆडँ ब्रीतितो नॊप्पु नोवरदराजस्वामि! चन्द्रुँडु शिवुनकु सखुँडै शिरोभूषणमुगा नाशिवुनिँ गॊल्चुचु देवतान्तर सेव चेयुट चेत सकळङ्कुँडु, विगतकळुँडु, वृत्तहीनुँडु वक्रुँडु नायॆनु, आचन्द्रुँडे युत्तमदैवत मगु नीपादाब्जमुलु नखमिषचे नाश्रयिञ्चि अकळङ्कुँडु नित्य पुष्कलुँडु (पूर्णकलुँडु) सद्वृत्तुँडु, दशगुणुँडु नै प्रकाशिञ्चु चुन्नाँडु- दीनितो मन्दाक्रान्तादशकमु मुगिसिनदि. मणि म॥ विक चाऔस्य! विधुण्डु शम्भुसखुँ डा वेल्पुक् गडुं गॊल्चुचुको सकळङ्कुण्डु सुवक्त्रुँडु विकलुँडु क् सन्त्यक्त वृत्तुण्डुगा नकटा! माजॆँ द्वदम्फ्रीँ गॊल्चुचु नख व्याजम्बुनं बॊळ्चॆँ बो अकळङ्कुण्डु नवक्रुँडु दशगुणुं डाड्युण्डु सद्वृत्तुँडै . श्लो॥ त्वत्पादाबे प्रजाता सुरसरि विभवत् प्राक्” चतुढा ततस्ता स्वेकां धत्ते ध्रुव स्सा त्रिभुवन मपुनाल् त्रीक्षा पथ भावयन्ती! त त्रैका खं प्रजन्ती शिवयति तु शिवङ्गा पुन सृप्तथा2 भूत् ता स्वेका गां पुनाना चरव ! सगरजस्वर्ण मार्गं चकार ॥ 62 स्वामी! प्रति :- :— हेवरद ! = ओ वरदराजस्वामि !, प्राक् = पूर्वमु (त्रिविक्रमावतारमुन) त्वत् पादाबे=नीपाद 118 श्री वरदराज स्तवमु पद्ममुनन्दु,प्रजाता = पुट्टिन, सुरसरित् गङ्ग, चतुर्धा नालुगु विधमुलुगा, अभवत् = आयॆनु, ततः = तरुवात, तासु = वानिलो, ए काम् = ऒक दानिनि, ध्रुवः = ध्रुवुँडु,
- ध त्ते, स्म=धरिञ्चॆनु, सा= ध्रुवुनिचे धरिम्पँबडिन यागङ्ग, = मूँडु, पथः मार्गमुलनु, भावयन्ती = पॊन्दिम्पँ जेयुचु, त्रिभुवनम् = मूँडु लोकमुलनु, अपु नात् = पवित्रमु चेसॆनु, तत्र वानिलो, एका ऒकटि, आकाशमुनुगूर्चि, प्रजन्ती वॆळुचु, मङ्गळकरुनि जेयु चुन्नदि (पवित्रुनि जेयुचुन्नदि) सा, = शिवुनिचे धरिम्पँबडिन तिरिगि, सप्तधा एडुविधमुलुगा,
- (त्रिपथग) खम् शिवम् ईश्वरुनि, शिवयति =
- यागङ्ग, पुनः
- 3
- अभूत् =आयॆनु, तानु वानिलो, एका= ऒकटि, गाम् = भूलोकमुनु, पुनाना = पवित्र मॊनर्चुचु, सगरज, स्वर्ग, सर्गम्=सगरपुत्रुलकु स्वर्गसृष्टिनि, चकार = चेसॆनु,
- शिवम्’
- वि शेषमुलु :- भावयन्ती प्रापयन्ती, पॊन्दिम्पँ जेयुचु, त्रिभुवनम् स्व गौन्तरिक्ष पाताळमुलनु, ‘त त्रैका खं प्रजन्ती शिवयति तु शिवम् ’ ‘भेदं चालक नन्दाख्यं यस्य शर्वो पिदक्षिणं दधार शिरसा भक्त्या वर्षाणा मधिकं शतम्’ ‘य च्चौचनिस्सृतसरित्प्रवरोद केन तीर्धेन मूर्ध्नि विधृतेन शिव श्शिवो2 भूत् ’ इत्यादुलु पै विषयमुनँ ब्रमाणमुलु. एका गां पुनाना वरद! सगरज स्वर्गसर्गं चकार - कपिलमुनिकोपाग्नि दग्धुलगु सगर
- पै
- श्री वरदराज स्तवमु
- 119
- पुत्रुलकु स्वर्गमु लभिञ्चुटकु भगीरथुँडु गङ्गनु गॊनि वच्चिनकथ निट ननुसन्धिञ्चु कॊनवलॆनु. ‘जह्नोः कन्यां सगरतनय स्वर्गसोपान पङ्क्तिम्’ (काळिदासमहाकवि) ई श्लोकमुतो नानावृत्त दशकमु प्रारम्भ मैनदि. इदि स्रग्धरावृत्तमु.
- तागि ओ त्रि
- ता ओ वरदराजस्वामी ! पूर्वमु त्रिविक्रमावतार मुन देवरवारि पादपद्ममुन नुद्भविञ्चिन गङ्ग नाल्गु पायलैनदि, अन्दॊक दानिनि उत्तानपादचक्रवर्ति कुमारुँ डैन ध्रुवुँडु धरिञ्चॆनु. अदि मूँडुमार्गमुलँ ब्रव हिञ्चि मूडु लोकमुलनु बवित्र मॊनर्चॆनु. वानिलोँ द्रिपथग यनुनदि याकाशमुनँ ब्रवहिञ्चुचु शिवुनि
- बरिशुद्धु नॊनर्चिनदि. यदि मऱल नेडुपायलै नदि. (ह्रादिनि, पद्मिनि, नळिनि, सुचक्षुवु, सीत, सिन्धुवु, भागीरथि) अन्दुलो नॊकटि यगु भागीरथी भूलोकमुनु बवित्रमु चेयुचु सगरपुत्रुलकु स्वर्गभिक्षनु बॆट्टिनदि.
- म मुनु नीपादप योजमन्दु जनन
- म्मुं गाञ्चॆ मिन्नेऱु, त
- दुनि नल् पायल- जॆन्दॆ नॊण्डु ध्रुवुँ डं
- दुं दाल्प मुत्तोवलक्
- जनि लोकत्रयि शुद्धमुक्” सलि पै न बीशुँ बूतात्मुँ
- सॆनु दज्जात मॊकण्डु सागरुल कि
- च्चॆक् स्वर्ग सौख्यम्बुल९
- 123
- 62
- 120
- श्री वरदराज स्तनमु
- अवतारिक :- इट्लु मन्त्ररत्न पूर्वखण्डस्थ नारायण शब्दमुन कर्थमुगा विग्रहवैशिष्ट्यमुनु विस्तरिञ्चि नुडिवि विभवावतारमुलनु स्तुतिम्पँ दलँचि यिदिवऱकुँ ब्रतिपा दिञ्चिनवियु
- मुन्दु प्रतिपादिम्पँ बडँबोवुनवियु नगु
- सकलाव तारमुलकुँ ब्रयोजन माश्रितानुग्रहमे यनि
- सायिञ्चु चुन्नारु.
- प्रति :
- श्लो॥ परिजनपरिबर्हा भूषणा न्यायुधानि
- प्रवरगुणगणा श्च ज्ञानशक्त्यादय स्ते ! परमपद म थाण्डा न्यात्मदेह स्तथा22 त्मा वरद! सकल मेतत् संश्रितार्थं चकर्थ 1
- !
- 63
- हे वरद ! = ओ
- ओ वरदराजस्वामि ! परिजन, परिबर्राः = शेष, शेषाशनादि परिजनुलु, छत्रचामरादि परिच्छदमुलु, भूषणानि किरीटकुण्डला द्याभरणमुलु, आयुधानि= शार्ण चक्रादि दि
- शार्ण चक्रादि दिव्यायुधमुलु, ते= आ, ज्ञान,
शक्ति, आदयः = ज्ञानमु शक्ति मॊदलुगाँ गल, प्रवरगुण
- गणाः च = श्रेष्ठमुलगु गुणसमूहमुलुनु, परम पदम् = वै कुण्ठलोकमु, अथ = अटुपै नि, अण्डानि = ब्रह्मां = डमुलु, आत्म देहः तन यसाधारण मगु देहमु, तथा=अट्ले, आत्मा=आत्मस्वरूपमु, एतत् = ई, सकलम् सम स्तमु, संश्रितार्थम् = आश्रितुलकॊऱकु, चकर्ण = चेसितिवि. P विशेषमुलु : अण्डानि चतुर्दश भुवनमुलतो आवरणस _स्तकमुतोनु कूडिन ब्रह्माण्डमुलु. आत्म देहः श्री वरदराज स्तवमु
121 स्वासाधारण दिव्यविग्रहः तनके तप्प नितरुलकु लेनि य प्राकृतदिव्यशरीरमु, तथा- आत्मा- सत्यं सत्यं ज्ञान मनन्तं ब्रह्म- आनन्दो एष सरि ब्रह्म- सर्वभूतान्त रात्मा अपहतपाप्मा - दिव्यो देव एको नारायणः- इत्याद्युक्तलक्षण स्वरूपमैन आत्मयनि ई श्लोकमु मालिनीवृत्तमु. भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! शेष, शेषाशनाडि परिजनुलु, छत्रचामरादि परिच्छदमुलु, किरीटकुण्डलादि भूषणमुलु, सुदर्शन पाञ्चजन्यादि दिव्यायुधमुलु, ज्ञानशक्त्यादि कल्याणगुण गणमुलु, परमपदमु, ब्रह्माण्डमुलु, दिव्य देहमु, सत्यज्ञानादि लक्षणलक्षित मगु मगु आत्म सम स्तमु संश्रितुल यनुभवमु कॊऱके युपयु क मॊनर्चितिवि गदा ! एमि नी याश्रित वात्सल्यमु स्वामि! च।॥ परिजनमुल् परिच्छदमु भव्यविभूषणकोटि यायुधो त्करमुलु ज्ञानश क्ति मुख क म्रगुणम्बुलु पद्मजाण्डमुल् परमपदम्बु रूपगुण भासुर दिव्यशरीर मात्मयुन् वरद! श्रितार्थमे कद ! भ वद्विभवं बॊनरिञ्चि तन्तयुन्. 63 (16)122 अवतारिक : जनादि श्री वरदराज स्तवमु इट्लु सामान्यमुगा भगवन्तुनि परि परिग्रहमन्तयु समाश्रितुल युपयोगार्थ मनिये चॆप्पि विभवावतारमुनन्दलि विशिष्टतनु ऎनिमिदि शोकमुलतोँ जॆप्पुचुन्नारु. 3 श्लो॥ आना पं ह्या प्तव्यं न तव किल किञ्चि द्विरद! शे जगज्जन्मस्रेय प्रलयविध यो धीविलसितम् । तथाऒपिदीयस्सुरनरकुले स्वाश्रित उनान् स्वाश्रितजनान् समा श्लेष्टुं पेष्टुं तदसुखकृतां चावतरणि ॥ 64 प्रति : हे वरद ! =ओ वरदराजस्वामी!, तव = नीकु, अना प्तम् = पॊन्दँबडनिदियु, पॊन्दँबडनिदियु, आ पव्यम् पॊन्दँबड वलसिनदियु किञ्चित् = ऒकटियु, न हि, किल = लेदु गदा ! जगत्, जन्म, य, प्रळय, विधयः=लोकमुलयॊक्क सृष्टि स्थिति संहार कार्यमुलु, ते=नीयॊक्क, धी, विलसि तम्- Ф = बुद्धिविलासमु, तथा2पि= ऐनप्पटिकि, आश्रितजनान् = भक्त जनुलनु, समा श्लेष्टुम् = कौँगिलिञ्चुकॊनुटकु, तत्, असुख, कृताम्=वारिकि (संश्रितुलकु दुःखमुनु गलिगिञ्चु वारिनि, पेष्टुम् च=हिंसिञ्चुटकुनु, जोदीयः, सुर, नर, कुलेषु मिक्किलि क्षुद्रमुलगु देवमानव समूहमु लन्दु, अवतरसि= अवतरिञ्चुचुन्नावु. विशेषमुलु :- धीविलसितम्—– ‘बहु स्यां प्रजाये येति’ अनु सङ्कल्पमात्रमुनने सृष्ट्यादुलु जरुगु ननि भावमु. अथापि- अवाप्तसमस्त कामुँड वैनप्पटिकी- श्री वरदराज स्तवमु 123 समा श्लेषुम् = आलिङ्गन मॊनर्चुकॊनुटकु, स्वदर्शन, स्पर्शन, सपर्यानुलु लभिम्पकपोवुटवलन शरीर धारणमुन के यश क्तुलुगानुन्न भक्तुलकु दर्शनादु लॊसङ्गुट कॊऱ कनि भावमु. पेष्टुं तदसुखकृतां चावतरसि - साधु रक्षणमु दुष्कृद्विनाशमु ई रॆण्डे यवतारप्रयोज नमु लनि रहस्यमु. ‘परित्राणाय साधूनाम्’ अनु श्लोकमुन ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ य’ अनि धर्मसंस्थापनमु गूडँ ब्रयोजनमुगाँ जॆप्पँबडॆनु. गानि यदि साधु रक्षणमुलो ने यन्तक्भूत मगुचुन्नदि. इङ्कनु विमर्शिञ्चि चॆप्पिनचो साधुरक्षणमे यवतारमुनकु मुख्यप्रयोज नमु. दुष्टशिक्षणमु धर्मसंस्थापनमु आनुषङ्गिक फलमुलु. कनुकने श्लोकमुन ‘परित्राणाय साधूनाम्’ अनु मुख्य फलमे मॊदट निर्देशिम्पँबडिनदि. विभवावतारमु भ क्तुल भ कत्यन्तोपयुक्त मनि सारांशमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! सङ्कल्पमात्रमु चेत ने सृष्टि स्थिति संहारमुल नॊनर्पँगल देवरवारिकिँ बॊन्दँबडनिदि गानि, पॊन्दँबडवलसिनदि गानि येदियु लेदु. अवा प्त समस्तकामुँड वैननु नी वतियुद्रम्बुलगु सुरनरकुलमुल नवतरिञ्चुट याश्रितुल नालिङ्गनादुल सन्तोष पॆट्टुटकुनु, आश्रितुलकु दुःखमुनु मात्रमे यगुचुन्नदि. गलिगिञ्चुवारिनि दण्डिञ्चुटकुनु 124 श्री वरदराज स्तवमु शा॥ देवा ! नीकु नना प्त माप्यमु रवं तेन् लेदु, नी यिच्छ ने आविर्भूतमु लौनु सृष्ट्यिवन सं हारम्बु लट्लैनँ द्व त्सेवास क्तुलँ ब्रोवँ दद्रिपुल म र्दिम्पङ्ग जन्मिन्तु वौ नी विच्चोट लघिष्ठ देवमनुजा नीकम्बुनन् श्रीपती ! 64 कॊनु अवतारिक :– जोदीयस्सुरनरकुले ष्ववतरसि - अनु दानिचेँ जॆप्पँबडिन सौशील्यमुने यनुसन्धिञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ विवेकधीय मेकतो ह्यभिनिवेशलेशो हरे ! न्महत्त्वभिनि वेशनं किमुत तन्महिम्न स्तव । आहो! निसवृणे जग त्यवततर पौर्थादिकं निजं जन मुदञ्चयन् वरद! तं समाश्लेषकः ॥ 65 हरिं प्रति :— हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि ! एकतः = = ऒक वस्तुवुनन्दु, अभिनि वेळ लेशः = अनुराग लेशमु सैतमु। वि वेकधियम् = यः क्तायुक्त ज्ञानमुनु, हरेत् चुनु, हि=सत्यमु, महात् = अधिकमगु, अभिनिवेशनम्, तु=अनुरागमन्ननो!, किमुत = एमि चॆप्पवलॆनु, तत् = कनुक, तव=नीयॊक्क. महिम्नः = महिमकु, विसदृशे= अनु रूपमुकानि, जगति = लोकमुनन्दु, पारादिकम्= P श्री वरदराज स्तवमु 125 जनमुनु, निजम्= अर्जुनुँडु मॊदलुगाँगल, जनम् = सॊन्तजनमुनुगा, उदञ्चयन् = सम्भाविञ्चुचु, तम = आ जनमुनु, समा श्लेषकः= कौँगिलिञ्चुकॊनुवाँडवै, अवत तर्ल = अवतरिञ्चितिवि, अहॆू ! = आश्चर्यमु. ዋ विशेषमुलु :- एकतः = सार्वविभक्तिक ‘तसिल्’ प्रत्य यमु- इच्चट सप्तम्यर्थमुन वच्चिनदि. अभिनि वेशः – इद मवश्यं मया लब्धं भूया दिति अभिलाष प्रयुक्त प्रवृत्येक देशः– अनँगा इदि तप्पक ना चेँ बॊन्दँबडुँ गाक यनु नभिलाषतोँ ब्रवर्तिञ्चुट लेदा- प्रेमान्धत्वमु — विवेकधियम् इदि कूडुनु इदि कूडदु अनि गमनिञ्चुबुद्धिनि. तव महिम्नः विसदृशे जगति– ‘त द्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षु राततं तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांस स्समिन्ध ते विष्णो र्य त्परमं पदम्’ ते ह नाकं महिमास स्सचन्ते यत्र पूर्वे साध्या स्सन्ति देवाः- ण नगु श्लो॥ वैकुण्ठेतु पले लोके श्रिया सार्धं जगत्पतिः । आ स्ते विष्णु रचिन्त्यात्मा भक्ता र्भागवतै स्सह । इत्यादुलन्दुँ जॆप्पँबडिन नित्यमुक्तुल चेत नित्य सेवनीय श्री वैकुण्ठ मुदृष्टितो नॆन्त यो निकृष्ट मगु नी लोकमु स्वामिकि अननुरूप मनि निश्चितार्थमु, पार्थादि कम्- आदिपदग्राह्युलु- अक्रूरुँडु, मालाकरुँडु, विदुरुँडु मुन्नगुवारु, अहॆू ! विभवावतारमुलु 126 श्री वरदराज स्तवमु सौशील्यमु नॆट्लु सूचिञ्चुचुन्न वनि याश्चर्यमु. (इदि पृथिवीनृत्तमु). तागि ओ वरदराजस्वामि ! ऒक वस्तुवुनन्दुँगल यनु राग लेशमु गूड युक्तायुक्त विवेकमुनु हरिञ्चुनु, अट्टि विषयमुलो अधिकाशानुरागमु विषयमु वेते चॆप्पवलॆना ? कनुक नी महिमकु अनुकूपमु गानि यी लोकमुन नर्जुनादुलनु आप्तबन्धुवुलनुगा भाविञ्चुचु वारिनि गौँगिलिञ्चुकॊन नवतरिञ्चितिवि. एमि नी सौशील्यमु ? आश्चर्य माश्चर्यमु. शा॥ स्वल्पम्बेयगु राग बन्ध मिदि स लन् वच्चु निक्कार्यमो! सल्फन् रा दनुज्ञानमुन् जॆऱचुनान् स्वत्पेतरं बैनचोँ दॆल्पङ्गा वलॆने? जनिञ्चि यिटँ गौं तेयादुलन् भोगि राट् तल्पा ! बन्धुलँ गाँ दलञ्चि यिडवे! त्वद्भाहुसं श्लेषमुल् . 65 अवतारिक :— पै निँ बेर्कॊनँबडिन सौशील्य मनाश्रितुल यॆडँ गूडँ दुल्यमे अनि नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ संश्लेषे भजतां त्वरापरवशः कालेन संशोध्य नानीय स्वपदे स्वसङ्ग मकृतं सोडुं विलम्बं बत ! ! अक्षाम्यन् क्षमिणां वरो वरद! सन्नत्रावती भवेः कि न्नानु त्व मसंश्रि तेषु वितरन् वेषं वृणीषे तु तान् ॥ 66 श्री वरदराज स्तवमु 127 !, क्षमि प्रति हे पकद ! = ओ वरदराजस्वामि णाम्=ओर्पुगलवारिलो, वरः = श्रेष्ठुँडवगु, त्वम् = नीवु, भजताम्=भ क्तुलयॊक्क, संश्लेषे = कलिसिकॊनु विषय मुन, त्वरा, परवशः मिक्किलि तॊन्दरगलवाँडपै, तान्=आ भ क्तुलनु, कालेन= कालक्रममुन, संशोध्य= दिद्दि (भक्तिज्ञान वैराग्यमुलु गलिगिञ्चि) गलिगिञ्चि) स्वपदे=तन स्थानमगु वॆ कुण्ठमुनन्दु, आनीय = चेर्चुकॊनि स्व, सङ्गम, कृतम्=तन कलयिककु जरिगिन, विलम्बम् = जागुनु, सोभुम् = सहिञ्चुटकु, अम्यन् सन् = ओर्वनिवाँड वगुचु, अत्र = ई करिगिरियन्दु, अवतीर्णः अवतरिञ्चिन वाँडवु, भ वेः = अगुदुवुगाक, किन्तु कानि, असंश्रितेषु = आश्रितुलु कानि वारि विषयमुन, वेषम्= दिव्यविग्रहमुनु, वितरन् = अनुभविम्पँदगिन दानिनिगाँ जेयुचु, वृणीषे - वरिञ्चुचुन्नावु, इदम् इदि, किं नाम सौशील्यमुनकु मेर युन्नदा ? अनि भावमु.
एमिटि ? ई वि शेषमुलु : क्षमिणांवरः असह्यपराधसहः = सहिम्परानि यपराधमुलु सैतमु सहिञ्चुवाँडु, कालेन संशोध्यतान् – भगरन्तुँडे सद्गुणमुलनु गलिगिञ्चि तन
- भ क्तुलनु बागु चेसिकॊनुनु ‘एष एव साधु कर्म कार यति तं य मेभ्यो लो केभ्योन्नि नीषति’ (भगवन्तुँ डॆवनि नूर्ध्वलोकमुलकुँ गॊनिपोवँ दलँचु चुन्नाँडो वानि चेत सत्कर्ममुनु जेयिञ्चुनु) ‘तेषा मेवानुकम्पार्ल
128
श्री वरदराज स्तवमु
3
मह सुज्ञानजं तमः नाशया म्यात्म भावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता इट्लु चॆप्पिन प्रकारमु कर्मज्ञानमुल चेत शुद्दुल नॊनर्चि यनि भावमु. तद्वारा भक्तियुँ दनन्तट न दे सिद्धिञ्चुनु. ‘जन्मान्तरसहस्रेषु तपो ज्ञानसमाधिभिः नराणां श्रीणपापानां कृष्टे भक्तिः प्रजायते’ आनीयस्वप दे ‘वैकुण्ठेतु परे लोके’ अनि चॆप्पँबडिन तन कसाधारण मगु वैकुण्ठमुनकु रप्पिञ्चुकॊनि अत्र- ई लीलाविभूतिलो लेदा- ई करिगिरिशिखरमुन - अवती क्षोभ वेः- भक्त जन संश्लेष त्वरान्वितुँडवगु नीकु स्वयमुगा नवतरिञ्चुट युचितमे यनि भावमु, भ वेः - विसर्ग लेनि पाठमु कॊन्निटिलोँ गलदु. अप्पुडु अत्र भवे=ई संसारमुन (लीलाविभूतिलो) किं नामत्वम् – ई पादमुन तात्पर्यमु, असंश्रितुलनु गूड दिव्यविग्रहमुनु दर्शिम्पँ जेसि याकर्षिञ्चुचुन्ना विदि यत्यन्ताश्चर्यकरमु. आश्रि तुलु कानि शिशुपालादुलयॆड देवरवारु सौशील्यमुनकु मेर लेदु. (इदि शार्दूल विक्रीडित वृत्तमु), ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! ओर्पु गलवारिकिँ दलमानिक मगु नीवु भ क्तुलँ गलसिकॊनु विषयमुनँ दॊन्दर गलवाँडवै कालक्रममुगा भक्तिज्ञान वैराग्यमुल
चेत वारिनि शोधिञ्चि स्वपदमुनकु रप्पिञ्चुकॊनुटलोनि विळम्ब मुनु सहिम्पक नीवी लीलाविभूतिलो ई करिगिरि क्षेत्रमुन नवतरिञ्चुट नी भ क्त वात्सल्यमुनु जाटुचुन्नदि. अनाश्रितु लनु गूड दिव्यविग्रह दर्शनमु चेत स्वीकरिञ्चुट नी निरवधिक मगु सौशील्यमुनकु मॆऱुँगु पॆट्टुचुन्नदि. ई सौशील्यमुन
केमि पेरु ?
चूपिन
श्री वरदराज स्तवमु
मः क्षमिमूर्धन्य ! करीश ! भक्त जन सं
गम्बन्दु नुत्कण्ठतोँ
ग्रममार्गम्बुन वारिकिन् सुगुणमुल्
गल्गिञ्चि नी दिव्यधा
ममु रप्पिञ्चुकॊनन् विळम्ब मनि यि म्मै वच्चि ते? यिन्दु भो
ग्यमु नीरूप मभ क्तुलन् सयित मा
कर्षिञ्चुटल् चित्रमा,
129
66
अवतारिक :- भगवन्तुँ डवतारमुल नॆत्तनि यॆडल श्रुतिप्रतिपादितमु लगु उपासनादुलु निर्विषयम्बु लगु
ननि नुडुवु चुन्नारु.
श्लो॥ वरद! यदि न भु व्यवातविष्यः
श्रुतिविहितास्त्वदुपासनार्चनाद्याः करण पथविदूर गे सति त्व
य्यविषयतानिकृताः कि लाभविष्यज् .
प्रति :— हे वरद!
67 ओवरद राजस्वामी!, भुवि= भूलोकमुनन्दु, न, अवातरिव्यः यदि= अवतरिञ्चनियॆडल, त्वयि=(परव्यूहाकारुँड वगु) नीवु, करणपथ, विदूर गे, सति= इन्द्रियमार्गमुनकु मिक्किलि दूरमन्दुन्न वाँडवु काँगा, श्रुतिविहिताः= वेदमुनन्दु विधिम्पँबडिन, त्वत्, (17) 130 श्री वरदराज स्तनमु उपासना, अर्चन, आद्याः नीयुपासन, अर्चनमु, मॊदलुगाँगलवि, अविषयता, निकृताः–निर्विषयमु लगुट चेँ दिरस्कृतमुलु, अभविष्य किल–अय्यॆडिविग दा! (नीवु अवतरिञ्चुटवलन नट्लु कालेदनि ईलज् ल कार मुनकु भावमु.) वि शेषमुलु :– श्रुति………आद्याः- ‘आत्मा रेद्रष्टव्य श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः - इत्यादि वेदविहि तमुलगु उपासनादुलु, आद्यपदमु चेतँ ब्रदक्षिण नमस्या रादुलु ग्राह्यमुलु करणपथविदूर गे- अतिदूरमुन नुण्डुटचेत ‘परव्यूहाकारमु इन्द्रियगोचरमु कादनि भावमु. इदि पुष्पिताग्रावृत्तमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! नीवु भूलोकमुन नवतरिञ्चनि ओ यॆडलँ बरव्यूहा कारुँड वगु नीवु कडुदुव्वुन वैकुण्ठ लोकमुलो नुन्नन्दुन निन्द्रिय गोचरुँडवु कावु कान वेदविहितमुलगु नुपासनार्चनादुलु निर्विषयमुलै लै यसत्यमुलु कावलसिवच्चुनु. नी ववतरिञ्चुट चेत वेद विधुलु सारकमु लगुचुन्नवि. गी॥ ईवु भूतलि नवतार मॆत्तवेनि वरद ! यॆट्टुलु करणगोचरुँड नगुदु? कानिचो वेदविहितम्बुलौ नुपास गा नार्चनादुलु निर्विषयमुलु गावॆ. 67 अवतारिक :– श्री वरदराज स्तवमु 131 स्वविषयकापराधमुल स्वविषयकाप राधमुल नैननु सहिं तुवु कानि स्वाश्रितुलयॆड नपराधमुलु सहिम्पवु अन्दु चेतने वारि नुद्दरिम्प अवतरिन्तु वनि नुडुवु चुन्नारु. प्रति : श्लो॥ य दपराध सहस्र मजस्रजं त्वयि शरण्य ! हिरण्य उपावहत् । वरद ! तेन चिरिं त मविक्रियो विकृति मरक निर्भजना दगाः ॥ 68 शरण्य ! - शरणु चॊच्चँदगिन, हेवरद! - ओ वरदराजस्वामी!, हिरण्यकः = हिरण्यकशिपुँडु, त्वयि = नीविषयमुन, अजस्रजम् = सार्वकालिक मगु, यत् = ए, अप राधसहस्रम्=अपराधमुलु वेयिण्टिनि, (वेलकॊलँदि नेरमुलनु) उपावहत् = चेसॆनो, तेन दानि चेत, चिरम् = चालकालमु, अविक्रियः = विकारमु लेनि, त्वम् = अर्भक, निर्भजनात् = पिल्लवाँडगु प्रह्लादुनि तिरस्कारमु वलन, विकृतिम् = विकारमुनु (चित्त कालुष्यमुनु) अगाः = पॊन्दितिवि. नीवु, विशेषमुलु :- अर्भक निर्भजनात् - ऐदेण्ड्ल पसिवाँ डगु प्रह्लादुनि स्वभ क्तुनि दिग्गजमुलचेँ द्रॊक्किञ्चि कॊण्डल नुण्डि त्रोयिञ्चि कष्ट पॆट्टुट मुन्नगुवानिवलन ननि भावमु. विकृतिं अगाः= मनोविकारमुनु बॊन्दितिवि. भ क्तुलु तनकुँ ब्राणमुवण्टिवारु ‘ममप्राणा हिपाण्डवाः’ अन्तेकादु.. प्राणे ‘भ्यो६पि गरीयांसः’ प्राणमुलकण्टॆ नॆक्कुववारु132 श्री वरदराज स्तवमु कनुक वारिकिँ जेयु नपराधमुलु भगवन्तुँडु सहिम्पँडु, भगवन्तुनि भ क्तवात्सल्य मन न्यादृशमनि दीनिचेँ दॆलियु चुन्नदि. ता! शरण्युँड वगु नोवरदराजस्वामी! हिरण्य कशिपुँडु देवर वारि विषयमुन सर्वदा लॆक्क लेनि यप राधमुलँ जेसिननुँ दामु आग्रहिम्प लेदु - तम भ क्तुँ डगु बालुँडैन प्रह्लादुनि विषयमुन नपराध मॊनर्चि नन्तने सहिम्प रै तिगि, मीकु भ क्तुलयं दॆन्त वात्सल्यमु! गी दन्तिगिरिपुण्य ! श्री वरदा ! शरण्य ! नीयॆड हिरण्यकुँ डॊनर्चॆ वेयितप्पु, लवि सहिञ्चिति वर्भकुनण्ट नोर्व, वीश ! नीभ क्तवात्सल्य मॆन्न वशमॆ? अवतारिक :- इप्पुडु श्रीरामुनि निर्हेतुक जायमान कृपननुभविञ्चु चुन्नारु. श्लो॥ त्वा मामनन्ति कवयः करुणामृताभे !
प्रति |
---|
ज्ञानक्रिया भजनलभ्य मलभ्य मस्यैः । एतेषु केन वरदोत्तरकोसल स्थाः |
पूर्वं सदूर्व मभजन्त हि जन्तव स्वाम् ॥ |
68 |
69 |
करुणा, अमृत, अब्दे ! =दयकुँ बालसमु |
द्रमुवण्टि, वरद !=ओ वरदराजस्वामी! कवयः = पण्डि तुलु, त्वाम् |
निन्नु, ज्ञान, क्रिया, भजन, लभ्यम् ज्ञान, कर्म, भक्ति योगमुलचेत नन्दुकॊनँ दगिन वानिनि |
श्री वरदराज स्तवमु |
133 |
गानु, अन्यैः = इतरोपायमुल चेत, अलभ्यम् = अन्दु कॊन रानिवानिनिगानु, आमनन्ति = तलँचुचुन्नारु, पूर्वम् =मुनुपु (रामावतारमुलो) उत्तरकोसलस्थाः = उत्तर कोसल देशमुनन्दुन्न जन्तवः = प्राणुलु (जीवात्मलु), ए तेषु = वीनिलो, केन= देनिचेत, सदूर्वम् = गऱिक गड्डितोँ गूड, त्वाम्=निन्नु, अभजन्त, हि= पॊन्दिरि ? |
वि शेषमुलु :- करुणामृताब्दे— ई सम्बोधनमु साभिप्रायकमु- ई श्लोकमुलोनि प्रश्नकु समाधान मी पदमुन निमिडियुन्नदि. ई ई सम्बुदि उ त्तरकोसल प्राणुलु तृणमुलु मुक्तिँ बॊन्दुट निर्हेतुक जायमान भगवत्कृत चेत ननि चॆप्पुचुन्नदि. कवयः_ अप्रत्यक्षत त्वार्थसाक्षात्कारक्षमुलगु पराशर पाराशर्यादि महा महुलु, ज्ञान, क्रिया भजन, लभ्यम्- ज्ञानयोग, कर्म योग, भक्ति योग प्राप्युनिगा इन्दुकुँ ब्रमाणमुलु. “कर्म णैव हिसंसिद्धि मास्थिता जनकादयः “वण्ण श्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् विष्णु राराध्यते, पन्था नान्य स्ततोषकारकः ॥ भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोक महेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्ति मृच्छति ॥ तेषां सतीतयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । सदूर्वम् – योगं तं येन मा मुपयान्ति ते चचामि बुद्धियोगं दूर्वादुलकु सैतमु अन्तस्सञ्ज्ञ युण्डुनु गान जन्तुशब्द मुपयोगिम्पँ बडिनदि. अननुष्ठित ज्ञान 134 श्री वरदराज स्तवमु योगादुलु गल तृणादि जीवुलकुँ गूड भगवत्पाप्ति निर्हेतुक कृपवलन ननि निश्चितार्थमु. ई श्लोकमु वसन्त तिलकवृत्तमु. ता॥ ओवरदराजस्वामी! करुणावारिधी! अप्रत्यक्ष विषय मुलनु गूडँ ब्रत्यक्षमुगाँ जूचु क्रान्तदर्सुलगु प राश रादुलु निन्नु ज्ञानकर्म भक्ति योगलभ्युनिगाँ जॆप्पिरि. नी वितकोपाय साध्युँडवु गावु. उत्तर कोसल देश वासुलगु तृणादि जीवरासुलु सैतमु निन्नुँ बॊन्दिन विगदा ! यवि पै मूँडु योगमुललो देनिचेतँ बॊन्दिनवि? उ॥ वाकॊनुदुर् कवीन्द्रु लभ वा वा ! यिल ज्ञानमु कर्मभ क्तुलुन्, नीकडँ जेर्चुदारु लनि निक्कमु पल्कुम वीन देनितो नो करुणाम्बुधी! वरद! यु त्तर कोसल जीव राशि नी लोकमुँ जेरॆ नातृणमु लुन् दम वॆण्टने मोक्ष मन्दँगन्. 69 अव तारिक :— अन्दऱु सङ्गीकरिञ्चिन कृष्णावतार सौल भ्यमु ननुसन्धिञ्चुकॊनुचुन्नारु. श्लो॥ भजत्सु वात्सल्यवशात् समुत्सुकः प्रकाम म त्रावतरे र्वरप्रद 1 भवे शृ तेषां सुलभोध कि व्विदं य दङ्ग ! दाम्ना नियतः पुर्कारुदः ॥ 70 श्री वरदराज स्तवमु 135 प्रति अङ्ग! वरप्रद! = ओ वरदराजस्वामी !, त्वम्=नीवु, भजत्सु= भक्तुल विषयमुन, वात्सल्यवशात स्नेह विशेष बलमुवलन, प्रकामम् मिक्किलि, समुत्सुकः सन् 11 कलसिकॊनवलयु ननु उत्साहमु अगुदुवु गलवाँड ऎगुचु, अत्र = ई जगत्तुनन्दु, अवत रेशि अवतारमु चेयुदुवुगाक, तेषाम् = आभ क्तुलकु, सुलभः = सुलभुँडवु, (चेतिलोनि वाँडवु) भ वेशि च गाक अथ = अयिनचो (अयिते), पुरा (कृष्णावतारमुन) दाम्ना = त्राटिचेत, नियतः=कट्टँ बडिनवाँडवै, अरुदः, इति, यत् = एड्चिति वनुट येदि कलिदो, इदम् = इदि, किन्नु = एमिटि ? पूर्वमु वि शेषमुलु :— वात्सल्यवि शेषात् वात्सल्यमनँगा-
- दोषे.पि गुणत्वबुद्धिः = दोषमन्दु सैतमु गुणम नॆडु बुद्धियनि - पनि कॊन्दुऱु. दोषादर्शित्वमु दोषमुलपै दृष्टि नुञ्चक पोवुट यनि कॊन्दऱुनु वक्काणिन्तुरु. भवेश्च तेषां सुलभः- वात्सल्य मुन्नन्दुकु फलमु सौलभ्यमु गनुक भ क्तुलकु सुलभुँडवैतिवि कनुकने दाम्ना नियतः पुरा— तल्लियगु यशोद चेँ द्राटँ गट्टँबडितिवि. सौलभ्य गुणमुनु ब्रदर्शिञ्चुट कट्लु वश्युँड वैतिविगानि लेकुन्न निन्नु बन्धिम्पँ गलवारॆवरु ? अरुदः - किन्विदम्- रोदनमु कूड सौलभ्यगुण पराकाष्ठया ? अङ्ग- इदि सम्बोध नार्धकमगु अव्ययमु. ई श्लोकमु वंशस्थवृत्तमु, ? 136 शयमुचे वारिनिँ श्री वरदराज स्तवमु ता॥ ओ वरदराजस्वामी! भक्तुलपैँ गल वात्सल्याति गलिसिकॊनु नुत्साहमुतो नी लीला विभूतिलो अवतरिञ्चि भक्तसुलभुँड वैतिवि. कानि तलि त्राटँ गट्टँगा नेड्चितिवि. इदि येमिटि? इदियु नीसौलभ्य गुणमुनकुँ बराकाष्ठया? (अवुनु. कर्तु मक र्तु मन्यथा कर्तुं समर्थः — ‘परास्यश क्तिर्विविधैन श्रूयते’ अन्नट्लु एमिचेयुट कैननु शक्तिगल श्रीकृष्णुँडु तल्लि तन्नुँ गट्टि वेयुचुण्डँगाँ दप्पुकॊनुटकुँ गानि प्रतिक्रियचेयु टकुँ गानि पूनुकॊनक येड्चुट यामॆकु मिक्किलि सुलभुँ डगुट ने चाटुनुगदा !) ! च॥ करिगिरिनाथ ! भ क्त जन काण्डमु पै ँ गल वत्सलत्व मी धरणिकिँ दॆच्चॆ युष्मदव तारमु ल तऱि नन्दुपाटुगाँ बरँगुट नीदु भ क्षसुल भत्वमु वॆल्लडि यय्यॆ नन्नियु सरे निनु दामबद्धुनिँग सल्प यशोद य टेल येड्चितो ? 70 अवतारिक :— ‘नृसिंहराम कृष्टेषु षाड्गुण्यं परिपूरितम्’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु सर्वावतार श्रेष्ठमु लगु पै अवतारमुल मूटियन्दुँ ग्रममुगा वात्सल्य, कृपा, सौलभ्यातिशयमुलँ ब्रतिपादिञ्चि तिरिगि सिंहावलोक वरद राज स्तवमु 137 रणमु न्यायमुन नृसिंहावतारमुनन्दुँ बरत्वाविष्करण सैत माश्चर्यावह मनि वर्णिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ नरसिंहतनु रगौणी समसमयसमुद्भव श्च भक्तगिरः । स्तम्भेपि सम्भव स्ते पिशुनयति परेशतां वरद ! 71 प्रति : हे वरद! = ओवरदराजस्वामि! ते नीयॊक्क, अगौणी = अप्राकृतमैन, नरसिंहतनुः = नरुनि यॊक्क सिंहमुयॊक्क मिश्रममगु शरीरमु. भ क्तगिरः= भ क्तुँडगु प्रह्लादुनि माटयॊक्क, सम, समय, समु द्भवःच = सम कालमुनन्दे पुट्टुटयु, स्तम्भे = स्तम्भमु नन्दु, सम्भवः अपि= पुट्टुटयु, परेश ताम् रत्वमुनु, पिशुनयति = सूचिञ्चुचुन्नदि. गौणी’न परात्प विशेषमुलु :- नरसिंहतनुर गौणी -‘न तस्य प्राकृता मूर्तिः’ अनि चॆप्पुट वलन शुद्धसत्वमय मगु नरसिंह मूर्तियनि भावमु. स्तम्भे2पि सम्भवः - सिषेक पूर्व कोदर वासमु लेक ये यधिकरणमगु स्तम्भमुनँ बुट्टुट- पिशुनयति प रेशताम्… ‘त विश्वराणां परमं महे श्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्’ ‘पतिं विश्व स्यात्मेश्वरम्’ इत्यादुलँ जॆप्पँबडिन सर्वेश्वरत्वमुनु ब्रकाशिम्पँ जेयुचुन्नदनि भावमु. सर्वेश्वरुँडे काक कर्मवश्युँडे यगुचो (1) अप्राकृक विग्रहपरिग्रहमु (18) 138 श्री वरदराज स्तवमु (2) भ क्तप्रतिज्ञासमकालप्रादुर्भावमु (3) स्तम्भ समुद्भ वमु. सम्भविम्पवनि सारांशमु. सौलभ्यमुलेनि प रेशत्वमु भ क्त भोग्यमुकादु गनुक ‘परः ईशः यस्यसः’ अनु बहुव्रीहि चेतँ बरतन्त्रुँ डनि यर्थमुँ जॆप्पिकॊनि प्रह्लाद परतन्त्रुँडगुटचे स्वामियन्दु सौलभ्यमुनु सम्पा दिन्तुरु. ई श्लोकमार्यावृत्तमु. ता॥ ओ ओ वरदराजस्वामि ! शुद्धसत्वमय मगु नरसिंहमिळित दिव्य देहमु, भ क्तुँडगु प्रह्लादुँडु ‘ स्तम्भे दृश्यते’ अन्न वॆण्टने स्तम्भमुन नाविर्भविञ्चुट नीव रात्प रत्वमुनु सूचिञ्चु चुन्नवि. गी॥ शुद्धसत्वमयमु नरशोभिसिंह विग्रहमु भ क्तुनुडि वॆण्ट वॆलयुटयुनु स्तम्भसम्भवमुनु गरिशैलनाथ ! चॆप्पकय चॆप्पु नीप देशितनु वरद! 71 अवतारिक :— ई रीतिगा श्रियःपतियु समस्त कल्याण गुण संशोभियु, आश्रयण सौकर्यावह दिव्य विग्रह विशिष्टुँडुनु, पत्नी परिजनादि परिवारितुँडुनु स्वकीयकृप चेतने साधुपरित्राणमुनकुँ गृतावतारुँडु नगु श्री वरदराजस्वामिनि श्रीमन्नारायणशब्द मुख्यवाच्युनिगा विस्तरिञ्चि चॆप्पि तदीयचरणमुल शरणुचॊच्चँ दलँचिन वाँडै ‘अनुजो रावण स्याहं तेन चास तेन बास्म्यवमानितः श्री वरदराज स्तवमु 139 त्यक्त्वा पुत्तां श्च दारांश्च राघवं शरणं गतः’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु प्रपत्ति चेयँबोवु तानु दोषपूर्णुँड ननि 18 शोकमुलतोँ दॆलुपुकॊनु चुन्नारु. श्लो॥ तापत्रयी मयडवा नलदह्यमानं मुह्यन्ति मन्त मवयन्त मनन्त! नैव । सातुं प्रयातु मुपयातु मनीश मीश ! ह स्तीश ! दृष्ट्यमृतवृष्टिभि राभ जेथाः ॥ 72 प्रति :— ईश ! = स्वामि! अन्त = !, अपरिच्छिन्न स्वरूपा!, हे हस्तीश करिगिरिप्रभू !, तापत्रयी, मय, दवानल, दह्यमानम् = तापत्रयस्वरूपमगु काऱुचिच्चु चेतँ गाल्पँबडु चुन्नट्टियु, (कनुकने मुह्यं तम् = मूर्छनु जॆन्दुचुन्नट्टियु, अन्तिम् = अवधिनि, नैव, अवयन्तम् = ऎऱुँगनट्टियु, स्थातुम्= निलुचुटकु, प्रयातुम्= प्रयाणमगुटकु, उपयातुम् = समीपिञ्चु टकुनु (मऱलुटकुनु) अनीशम् = असमर्थुँडनगु (माम्= नन्नु) दृष्टि, अमृत, वृष्टिभिः=कटा मृति वर्ष मुलचेत, आभ जेथाः = पूर्तिगाँ दडिपिवेयुमु. विशेषमुलु :- अनन्त ! = अ षा अपरिच्छिन्नमगु स्वरू पमु, रूपमु, गुणादिकमु कलवाँडा!, तापत्रयी…… दह्यमानम्’- तापत्रयी = आध्यात्मि, काधिदैविकाधि भौतिक तापमुलत्रयमु.
- आध्यात्मिक तापमु — आधुलु व्याधुलु - 140 श्री वरदराज स्तवमु
- आधिदै विक तापमु— शीतवातोष्ण शीतवातोष्ण वर्षाम्बु वर्षाम्बु वैद्यु ताग्नुलवलनँ गलुगु तापमु. चोरग 3 आधिभौतिकमु– पशुपक्षि मनुष्यादुलवलननु पिशा राक्षसुलवलननु सर्पादुलवलननु गलुगु तापमु. ई तापमुलु दावाग्निवलॆँ दगुलँ बॆट्टु चुन्न वनि भावमु. दृष्ट्यमृतवृष्टिभिः — श्री वरदराजस्वामिवगु नीवु नील मेघमुवण्टिवाँडवु कानँ गरुणाकटाक्षमृत वर्ष मुलचेँ दावतपुँडनगु ना तापमन्तयुँ दीऱुनट्लु तडिपि वेयु मनि याशयमु. ‘एवं संसृतिचक्रस्थे ब्राम्यमाणे स्वकर्मभिः जीवे दुःखाकु ले विष्णोः कृपाका प्युपजायते’ ले अन्नट्लु स्वामि ! नी निर्हेतुक कृप चेत नन्नुँ गटाक्षिम्पु मनि श्री कूरेशुल वेँडुकोलु, ता॥ स्वामी! अनन्ता! ओ करिगिरिनाथुँडवगु वरद राजस्वामी ! तापत्रय मनु दावाग्नि चेत दहिम्पँ बडुचु मूर्छँ जॆन्दुचु दीनि कन्तमॆपुडो कानक निलुचु टकुँगानि, सागुटकुँगानि, मऱलुटकुँगानि, यसमर्थुँडनै युन्न नन्नुँ दापमुलन्नियुँ दीऱिपोव कटामृत वर्षमुतो मुञ्चिवेयुमु. च॥ त्रिविधमुलैन तापमुलु नी करुणा देहमु दग्ध मॊनर्चु चुण्डॆँ बो! वरदराज स्तवमु 141 दवदहनम्बुलट वर 3 दा ! पॊडचू पॆडु मूर्छ, कानरा दवधियु, निल्व साग नुप यान मॊनर्प नश क्तुनिन् सनुन् नवजलदाभ ! तड्पु करु णारस वाहि सुदृष्टि वृष्टुलस् . 72 अवतारिक : - स्थातुं प्रयातु मुपयातु मनीशम्_ अनि चॆप्पँबडिन दानिने विवरिञ्चुचुन्नारु. ॥ 73 श्लो॥ नानाविकुद्ध विदिशासु दिशारु चाहो वन्ध्यैर्मनोरधशतैर्युग प द्विकृष्टः ! त्वत्पादयो रनुदितस्पृह एष सोहं न स्वस्ति ह स्तिगिरिनाध ! निशामयामि ॥ प्रति : :—— हे ह स्तिगिरिनाथ ! = ओ करिगिरिप्रभू!, वन्ध्यैः= व्यर्थमुलैन, मनोरथ शतैः=वन्दलकॊलँदि (अवधि लेनि) कोरिकलचेत, नाना, विरुद्ध, विदिशासु = अनेकमुलगु विरुद्धमु लैन मार्गमुलन्दुनु, दिशासु = वेदविहित मार्गमुलन्दु, युगपत् = ऒ केमाऱु, विकृष्टः = दूरमुगा लागँबडिन वाँडनै, त्वत्, पादयोः = नी पादमुलन्दु, अनुदित, स्पृहः = पुट्टनिकोरिक गल, एमः, सः, अहम्=ईया नेनु (दासुँडनु) स्वस्ति= श्रेयस्सुनु, न, निशामयामि= कनुँगॊन लेकुन्नानु, अहॆू = औरा ! वि शेषमुलु :- मनोरथश तैः- अवधि लेनि कोरिकल चेत वन्ध्यैः- निष्फलमुलैन ‘उत्पद्यं ते विलीयन्ते142 श्री वरदराज स्तवमु दरिद्राणां मनोरथाः’ विदिशासु = विपरीत, दिशासु विपरीत मार्गमुलन्दु. इच्चट दिशाशब्दमु लक्षण चेत मार्गमनु नर्थमुनु जॆप्पुचुन्नदि. दीनि चेतँ ब्रतिकूल्य पूर्ति चॆप्पँ बडॆनु, आनुकूल्यमु लेशमैननु लेदनि चॆप्पुचुन्नारु. त्वत्पादयो रनुदितस्पृहः- अनुदानिचे अद्वेषाभि मुख्यमुलु गूड लेवनि भावमु. इट्टि नाकु नी दृष्ट्या मृत वृष्टिये गतियनि हृद्दताभिप्रायमु. ता॥ ओ करिगिरीशा! अन्तुलेनि, निष्फलमगु मनोरथमुलचे नानाविरुद्ध मार्गमुलन्दुनु विहितमार्गमुलन्दु नॊके सारि यिटुनटु दूरमु लागँबडि यिन्दनुक नी पादमुल रुचि यॆऱुँगनि यीतँडु श्रेयस्सु नॆट्लु पॊन्दवलॆनो ! यॆऱुँगकुन्नाँडु नी निर्हेतुक कृपये यितनिकि गति. नी उ॥ ह स्तिगिरीश ! निष्फलमु लैन मनोरथमुल् कलञ्चङ्गा, न स्तिमितुण्डनै पथमु न नं दपथम्बुन सञ्चरिञ्चुचुन् निस्तुलमैन नी पदमु ने तलपोयनु; गल्गु ना कॆटुल् स्वस्ति रमेश ! नीदुकृप स्री जङ्ककु मञ्च भयम्बु नीनिचो. 73 अवतारिक : नी पादारविन्दमुलन्दु स्पृहलेनि नाकु ‘ह स्त्री ! दृष्यमृत वृष्टिभि राभ जेदाः’ अनि पलुकुटयु नपकाफि & यनि चॆप्पुचुन्नारु. श्री वरदराज स्तवमु ते श्लो॥॥ है निर्भयोऒस्म्य विनयो2स्मि यत स्वदङ्घ्रा लिप्सा मलब्धवति चेतसि दुर्विनी ! दुष्कर्मवर्म परिकर्मित एष सोह मग्रे वरप्रद ! तव प्रपामि किञ्चित् 143 74 प्रति :- हे वरप्रद! ओ वरदराजस्वामि दुष्कर्म, वर्म, परिकर्मितः = दुष्कर्म कवचालङ्कृतुँड नगु, एषः= ई, सः = आ, अहम्= नेनु, यतः = ए कारणमुवलन, दुर्विनीते = अशिक्षितमगु, चेतसि=मनस्सु, त्वत् , अङ्घ्रा = नी पादमुनन्दु, लिप्साम् वाञ्छनु, अलब्धवति सति = पॊन्दनिदि काँगा, तव अन्तर्यामि गु नीयॊक्क, अग्रे=ऎदुट, किञ्चित्=कॊञ्चॆमु, प्रपामि= (युक्तायुक्त विचारणमु लेकुण्ड) वाँगुचुन्नानो, ततः=अन्दुवलन, निर्भयः=भयमु लेनिवाँडनु, अस्मि= अगुचुन्नानु, अविनयः अडँकुव लेनिवाँडनु, अस्मि= अगुचुन्नानु, है= विचारमगुचुन्नदि.
एष विशेषमुलु :- दुष्कर्मवर्म परिकर्मितः - दुष्क ताच्छादित स्वरूपमु गलवाँड ननि भावमु. स्को हम् वर्तमानकालमुननु भूतकालमुननु पाप कारि नगु नेनु. दुर्विनी ते - आचार्यशिक्ष लेक स्वेच्छगानुन्न- है— इदि भेदमुनु दॆलुपु नॊक यव्ययमु, ते- ना मनस्सु ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! अशिक्षितमगु नी पादमुन स्पृहलेनिदि काँगा दुष्कर्ममनु कवचमु चे 144 नलङ्कृतुँडनै श्री वरदराज स्तवमु वर्तमान कालमुन भूतकालमुननु नाचरिञ्चिन नेनु इप्पुडु कावलसिनन्नि दुष्कृत्यमुल नाचरिञ्चिन नी यॆदुट नेदो वागुचुन्नानु ऎन्त निर्भयुँडनु ! ऎन्त यविनीतुँडनु! अय्यो ! उ॥ ए गुरुशिक्ष लेमि- जॆडि यी हृदयम्बु भवत्पदाम्बुरु ड्योगमु लेक दुष्कृतुल कॊग्गि शिरम्बु सदा यॊनर्चुचुन् ब्रोँगुलु चेयुचुण्टि नघ मुल् वरदा ! यविनीति नित्तऱिन् वाँगुचुनुण्टि नीकड न वाकु चवाकुलु निर्भयुण्डवै. अवतारिक : ‘लिप्सा मलब्धवति चेतसि’ अन्न दानि निट विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ सव्याधि राधि रवितुष्टि रनिष्टुभोगः स्वाभीष्टभञ्जन मनिष्टकलो निकर्षः । कृन्तन्ति सन्तत मिमानि मनो मदीयं ह स्तीश ! न त्वदभिलाषनिधि प्रहाण्मि 11 75 प्रति : सव्याधिः = व्याधितो ँगूडिन, आधिः = मनोव्यध, अवितुष्टिः = भोगमुलयन्दु तृप्ति लेकुण्डुटयु, अनिष्ट योगः इष्टमुलुकानिवि प्राप्तिञ्चुटयु, स्वाभीष्ट, भञ्जनम् इषप्राप्तिकि विघातमु गलुगुट, अमर करः= श्री वरदराज स्तवमु 145 असहनमुनु गलिगिञ्चु, निकर्षः = न्यूनत, इमानि= इवि, सन्ततम्= ऎल्लप्पुडु, मदीयम्=ना सम्बन्धमगु, मनः= मनस्सुनु, कृन्तन्ति = छेदिञ्चुचुन्नवि, हस्तीश ! = ओ करिगिरि नाथा! त्वत् , अभिलाष, निधि, प्रहाणिः = नी विषयिकमगु अभिलाष मनॆडु निधियॊक्क विनाशमु, न, (कृन्तति)= छेदिम्पदु. ኢ विशेषमुलु :- सव्याधिः- व्याधियन शरीर पीड_ दानितोँ गूडिन आधिः मनोव्यध ‘पुं स्याधि र्मानसी व्यधा’ (अमरमु) अवितुष्टिः- चिरकाल मनुभविम्पं बडिननु भोगमुलमीँदँ दनिवि तीऱकुण्डुट अनिष्ट योगः - अभिमत विषयकवि श्लेष रूपानिष्ट प्राप्ति. निकर्षः- धनादुल चेत वीरु नाकण्टॆ नधिकुलुगा नुन्ना रे यनु नसूयनु गलिगिञ्चु तक्कुवतनमु. त्व, दभिलाष, निधि, प्रहणिः- भगवद्विषयमुन नभिलाषये यक्षय फलप्रदमु गान अभिलाष निधिगाँ बेर्कॊनँबडिनदि. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! आधिव्याधुलु, भोगमुलं ओ ! दसन्तृप्ति, अनिष्ट प्राप्ति, अभीष्टसिद्धिकि विघातमु, धनादुल चेत वीरु नन्नु मिञ्चि रे यनु नसूयनु गलिगिञ्चु न्यूनत यनु निय्यवि ना मनस्सुनु छेदिञ्चुचुन्नवि. नी विषयकमगु अभिलाष निधि पोयॆनो यनु विचार मॆन्तमात्रमुनु लेदु. (19) 146 श्री वरदराज स्तवमु उ॥ आधियु, व्याधि, भोगमुल यन्दु सतुष्टि, यनर्थयोग पुन् बाध, स्ववाञ्छितम्बुनकु भङ्गमु गल्गुट, साटिवारिलो श्री धनकी र्तुलन् गोऱँतँ जॆन्दुट, कोसिनयट्लु कोयदो माधव! निन्नुँ गोरुटनु मासिक पुङ्गनि पोक ना मदिन्. अवतारिक : – आनुकूल्यमु लेक पोँगाँ 75 ब्राति कूल्यमु गूड मॆण्डुगा नुन्नदि. अनि नुडुवुचुन्नारु. श्लो॥ विद्वेष, मान, मद, राग, विलोभ, मोहा द्याजानभूमि रह मत्र भवे निमज्जन् । निर्द्वन्द्वनित्य निरवद्य महागुणं त्वां != ह स्तीश ! कः श्रयितु मीक्षितु मीप्सितुं वा । 76 प्रति : हे ह स्तीशि !=ओ करिगिरिनाथा!, निर्द्वन्द्व ! = साटि लेनिवाँडा ! (द्वन्द्वशब्दमु समानवाचि) ‘निर्द्वन्द्व’ इदि गुणवि शेषणमुगा नैननु चॆप्पुकॊनवच्चुनु. अप्पुडु_ निर्द्वन्द्व, साटिलेनि विद्वेष.. विद्वेष . . ….भूमिः- विद्वेष = वैरमु. मान आभिजात्यादि प्रयुक्तमगु उन्नति, मद = मदमु, राग = विषयाभिलाष मु, विलोभ
लोभित्वमु, मोह=अज्ञानमु, आदि मॊदलुगाँ गल वानिकि, आजानभूमिः= पुट्टिल्लॆ अत्र इक्कड, भवे= = = 1 श्री वरदराज स्तवमु 147 संसारमुन, निमज्जन् = मुनिँगिपोवुचुन्न, अहम्= नेनु, निर्द्वन्द्व, नित्य, निरवद्य, महागुणम्=साटि लेनिवियु, सदा दोषरहितमु लैनवियुनगु महागुणमुलु गल, त्वाम्=निन्नु, श्रयितुम्, वा= आश्रयिञ्चुटकुँगानि, ईक्षितुं वा= चूचुटकुँगानि, ईप्सितुं वा पॊन्दँ दलचुटकुँगानि, कः= ऎवँडनु, (ऎन्तवाँडनु- योग्यत – लेनिवाँड ननि भावमु). वि शेषमुलु :- वि द्वेष . . .. . .भूमिम्— वि द्वेषमु = = निर्व्याजनैरमु, मासमु = आभिजात्यप्रयु कौन्नत्यमु, मासश्चित्त समुन्नतिः- अमरमु. मदमु = विषयलाभ सम्भूतमगु चि त्तविकारमु, रागमु विषयप्राप्त्यभि लाषमु. लोभ=लभिञ्चिनधनमुनु बात्रुल कॊसँगुटकुँ बतिबन्धकमगु धनकाङ्क्ष मोहमु = कृत्याकृत्यमुल विषयमुन मञ्चिज्ञानमु लेमि. कः श्रयितु मीक्षितु मीप्सितुं वा- वि द्वेषादिदोषमुलकु निलयमैन हेयप्रत्यनी कनित्यकल्याण गुणाकरुँडवगु निन्नुँ जेरुटकुँ बॊन्दुटकु दर्शिञ्चुटकुँगानि यधिकारिनि काननि याशयमु, नेनु ता॥ ओ करिगिरिनाथा! वैरमु, मानमु, मदमु, रागमु, लोभमु, मोहमु मुन्नगु दुर्गुणमुलकुँ बुट्टिनिल्लै यी संसारमुन मुनिँगिपोवुचुन्न नेनु साटि लेनिवियु निरवद्यमु लैनवियु नगु पॆक्कु कल्याणगुण 148 श्री वरदराज स्तवमु मुल नॊप्पु निन्नुँ जेरुटकुँगानि, चूचुटकुँगानि, पॊन्दल दलँचुटकुँगानि, यधिकारिनि गानु, शा॥ वैरम्बुन् मदमान रागमुलु लो भस्फूर्ति मोहम्बु नाँ गा रूपॊन्दिन दुर्गुणाळुलकु ने शान्तस्थलं बौचु सं साराम्भोनिधिँ ग्रुङ्गु नेनु गुणभा स्वद्रत्न रत्नाकरा कारुन् निन्नुँ गरीश ! चेरँगँ गनं गाँ बॊन्दँगा अवतारिक : अधिकारमु चुन्नारु. नॆव्वँडन् 76 लेकुण्डुट ने विवरिञ्चु श्लो॥ पुत्रादयः कध ममी मयि संस्थिते स्यु प्रति मयि 8 त्यप्रतिक्रिय निरर्थक चिन्तनेन । दूये न तु स्वय महं भविता च कीदृ गि त्यक्ति ह स्तिगिरिनाथ! विमर्शलेशः ॥ 77 हे ह स्तिगिरिनाथ ! ओ करिगिरिप्रभुवा !’ नेनु, संस्थिते सति = मरणिम्पँगा, अवि = ई, पुत्त्रिदयः=कुमारुलु मॊदलुगाँ गलवारु, शथम् ऎट्लु, स्युः = उन्दुरु ? (जीविन्तुरु) इति= अनि, अप्रतिक्रिय, प्रतिक्रिय लेनि, व्यर्थपुटालोचनमु चेत, दूये= परितपिञ्चु चुन्नानु, तु= कानि, अहम् = नेनु, निररक, चिन्त नेन = . श्री वरदराज स्तवमु 149 ऎटुवण्टिवाँडनु’ स्वयम् स्वयमुगा, कीदृक् भवितास्मि= काँगलनो, इति= अनु, विमर्श लेशः = विचार लेशमु कूड न, अस्ति= लेदु. विशेषमुलु :— मयि संस्थिते (सति) इदि सति सप्तमि. नेनु (कूरनाथुँडु) मरणिम्पँगा संस्थितशब्दमु मृत वाचकमु. ‘परासु, प्राप्तपञ्चत्व, प रेत, प्रेत, संस्थिताः मृतप्रमातौ त्रिष्वेते’ अमरमु, पुत्रादयः कथ ममी— नामरणानन्तरमु पुत्रादुले मगुदुरो ! यनु विचारमु चेतँ बरितपुँ डनगु नाकुँ इँक नेनु स्वर्गमुँ जेरुदुना ! नरमुन केँगुदुना ! मोक्षमन्दुदुना ! अनु विचार लेश मेनि लेदु. इट्टिनाकु भगवल्ला भाभिलाषकु अधिकार मॆक्कडिदि ? यनि भावमु. ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! नेनु मरणिञ्चिनचो नीपुत्रादु लेमगुदुरो ! यॆट्लु जीविन्तुरो ! यनु नॆन्नँटिकिनि देलनि निरर्गः शुष्क विचारमुतोँ बरितपिन्तुनु गानि यीमीँद नाकु स्वर्गमा ? नरकमा? मोक्षमा? यनु विचारमु लेशमुनु लेदु. मॆक्कडिदि ? इट्टि नाकु निन्न भिलषिञ्चुट कधिकार उ॥ ने मरणिञ्चुमीँद जन नीजनकुल् तनयादु लक्कटा ए मयिपोदुरो ? यनुचु नॆन्नँडुँ डेलनि व्यर्थ चिन्ततो 150 श्री वरदराज स्तवमु बामुलँ गान्तुँ, गाञ्च ननु भाव्य मिँकन् निरयम्बॊ ! स्वर्गमो ! यामुर वै रिधाम मॊ! य टञ्चुँ गरीश ! विमर्श लेशमु अवतारिक :- विषयमुलन्दु 77 दोषसमूहमुनु स्पष्टमुगा नवगतमु चेसिकॊन्न वारिकि वैराग्यमेल कलुगदु? अनि शङ्किञ्चुकॊनि समाधानमुँ जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ शम्पाचलं बहुळ दुःख मन हेतु रल्पीय इ त्यपि विमृष्टिषु दृष्टिदोषम् । दुर्वासनादढीमतः सुख मिन्द्रियोत्थं हातुं न मे मति रलं वरदाधि राज ! ॥ 78 प्रति : — हे वरदाधिराज ! = ओ वरदराजस्वामि !, मे= नायॊक्क, मतिः = बुद्धि, दुर्वासना, द्रढीमतः = विपरीत वासना दार्थ्यमुवलन, शम्पाचलं, इति= मॆऱुवुँदीँ गॆ व लॆँ जञ्चल मनियु बहुळ दुःखं, इति = ऎक्कुव दुःखमु गलदि यनियु, अनर्ल हेतुः, इति= अनरमुलकु Ф P मुलकु मूल मनियु, अल्पीयः इति, अपि= अति स्वल्पमनियु, विमृष्टिषु =विमर्शलयन्दु, दृष्टिदोषम् = कनुँगॊनँबडिन दोष मुलु गल, इन्द्रियोत्थम् इन्द्रियमुलवलनँ गलिगिन, सुखम्=सुखमुनु, हातुम् = विडिचिपॆट्टुटकु, न, अलम्= समरमु कादु. विशेषमुलु : परिशीलनमुवलनँ गलिगिन दु सर्वासनाद्रढिमतः_ अनादिकाल विपरीत वासना बलमुवलन ननि श्री वरदराज स्तवमु भावमु. शम्पाचलम् 151 शम्पाचलम्— मॆऱपुँदीँ गॆवलॆ क्षणिक मनि याशयमु. ‘सङ्गतानि मृगा क्षीणां तटिद्विलसिता न्यपि क्षणद्वयं न तिष्ठन्ति घनारब्धा न्यपि स्वयम् ॥’ (घना रब्धमुलै ननुँ वस्त्राभरणादि प्रदानमुवलनँ गूर्चुकॊनँ बडिननु - मेघमुलनुण्डि वॆलुवडिननु) मृगा क्षुल चॆलु मुलु, मॆऱुपुल तळतळलु, रॆण्डु क्षणमुलैन नुण्डवु) अनि पूर्वुलसूक्ति. अनर्ध हेतुः - अभिजात्यादुलकु हानि, सज्जनावमानमु मुन्नगु चॆडुगुलकु मूलमनि तॆलिय वलॆनु. अन्यकान्तासक्त मनस्कुनि चेत” नॊककवि यिट्लु पल्किञ्चुचुन्नाँडु. म॥ ‘धनमा ! पोवुनु, मानमा ! चॆडुनु, निं दा ! नॆत्तिपै कॆक्कु, लो ननुमानिन्तुरु तल्लिदण्ड्रुलु, कुलं बा! वन्नॆकुन्दक्कु, नू तनमान्द्यम्मु घटिल्लु बन्दुगुलु पं तं बॊप्प निन्दिन्तु, रो मनमा! व द्दिँक नादुमाट विनुमा ! मर्यादँ गापाडुमा !’ सुख मिन्द्रियोत्थम्= विष येन्द्रिय जन्यमगु सुखमु (तुच्चमनि यभिप्रायमु) इन्नि दोषमुलकु मूलमनि तॆलिसियु विषयभोगाभिलाषनु वीडकुण्डुट दुर्वासना दार्थ्यमुनु ध्रुवपऱुचु चुन्नदि.152 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! इन्द्रिय जन्यमगु वैषयिक सुखमु मॆऱुपुँ दीँगॆवलॆ क्षणिकमनियु, दुःखनीलय मनियु, अनर्थ हेतु वनियु, नत्यल्पमनियु, ऎन्नो दोषमुलु दीनँगलवनि विमर्शलवलनँ दॆलिसियु नाबुद्धि दुर्वासना बलमु चेत वीड लेक युन्नदि. च नॆल वगु दुःखसन्ततिकि, नित्यनिवास मनर्थकोटिकि E, जलदमुलोनि मॆऱ्पुव लॆँ जञ्चल, मल्प मटञ्चु दोषमुल् तॆलिसियु वारणाचलप ती! विड नाडदु दुष्ट वासना बलमुन नादुबुद्धि निर पत्रप यिन्द्रियजन्य सौख्यमुक्. अव तारिकि : — विषयसुखाभिलाष मात्र प्रवृत्तुँडने कानु- मजेमनँगा- करणत्रयमुचेतनु परिचितपूर्वमु लगु विविधाप राधमुल नॊनर्चु चुन्नाननि चॆप्पुकॊनु चुन्नारु. 79 बुद्ध्वा च नो च विहिता करणै र्निषिद्ध संसेवनै स्त्वदपचारशतै रसह्यैः भक्ताXसा मपि शतैर्भवताप्यगण्यै र्ह स्तीश ! वार्तनुमनोजनि तैर्हतो जन्मि । हे ह स्तीश ! ओ करिगिरिनाथा!, च= तॆलिसियु, नोबुद्ध्वाच= तॆलियकयु, वाक्, तनु, प्रति : बुद्धा, श्री वरदराज स्तवमु 153 मनः, जनितैः= वाक्कु वलननु, शरीरमुवलननु, मनस्सु वलननु, बुट्टिनट्टियु, भवता, अपि= (सर्वज्ञुँड वगु) नीचेतँ गूड, अगण्यैः= लॆक्क पॆट्ट शक्यमुगानट्टियु, विहित, अकर णै 8 = वेदविहितमुलगु वानिनि चेयक पोवुटलचेतनु, निषिद्ध संसेवनैः निषिद्धकर्मलनु चक्कँगाँ जेयुटल चेतनु, त्वत्, अपचारश तैः = नी विषयमुनँ जेयँबडु वन्दलकॊलँदि अपचारमुल चेतनु (तप्पिदमुलु) आसह्यैः = सहिम्प रानि, भक्त, आगसाम्
भ क्तुल विषयमुनँ जेयँबडु अपराधमुलयॊक्क, शतैः अपि — वन्दलचेतनु, स्वरूपनाशमुनु जॆन्दिनवाँडनु, अस्मि= अग हतः चुन्नानु. ती विशेषमुलु :- विहिताकरणैः = ‘श्रुतिस्मृती म मैवाज्ञे अन्नट्लु तम याज्ञारूपमुलगु वेदविहितमुलैन ‘सत्यंवद, धर्मञ्चर, अहरह स्सन्ध्या मुपासीत इत्यादि विधुलनु मानुट चेत, भगवदाज्ञोल्ललघन मॊनर्चि नट्लगु ननि भावमु. निषिद्धसंसेवनैः’ ‘न कलञ्जं भयेत्, न सुरां पिबेत्,- नानृतं वदेत्, न परदाराज् गच्छेत्’ - इत्यादि वेदनिषिद्धमुलु नाचरिञ्चुटल चेत– महापाप मुदयिञ्चुननि याशयमु. त्व दपचारश तैः- कंसशिशुपालादुलव लॆ भगवद्वैभवादुल नोर्व लेमि मुन्नु गाँगल भगवदपचार शतमुल चेत- ‘भक्तागसा मपि शतैः’ प्रह्लादुनियॆड हिरण्यकशिपुँडु, जानकियॆडल (20) 154 श्री वरदराज स्तवमु रावणुँडु, चेसिन यपचारमुलवण्टि असह्यमुलु ननि (सहिम्परानिवि) अगु भागवतापचारमुलचेत याशयमु. हतोस्मि- ऒस्मि- ना स्वरूपन त्तयु नष्टप्राय मैनदि यनि भावमु. ता॥ ओ वरदराजस्वामी! तॆलिसियो! तॆलिकयो! ओ मनोवाक्कायमुलचेँ जेयँबडु विहित कर्मलनु मानु टल चेतनु, निषिद्धकर्मल नाचरिञ्चुटलचेत नीयॆडलँ जेयु नपचार शतम्बुल चेतनु, सर्वज्ञुँड वगु नीकुनु लॆक्किम्प रानिवियु, सहिम्प रानिवियु नगु भागवतापचार शतमुल चेतनु नेनु स्वरूपनाशनमुँ जॆन्दितिनि. इङ्क नाकु गति येमि? च॥ करिगिरिनाथ ! वाङ्मनस कायमु लूँतगँ गॊं चॆऱिङ्गियो? यॆऱुँगकॊ! मानितिक् विधुल नॆन्नॊ ! निषिद्धमु लाचरिञ्चिति९, सरवि नॊनर्चिनाँड नप चार शतम्बुल नीयॆड भव च्चरण समाश्रिताळियॆड सैपँग रानिवि हा! विनष्टुँड. 79 अवतारिक :– इट्लु तम दोषसमुदायमु ननुसं धिञ्चुकॊनि यट्टि नाकुनु भगवानुँडु निर्हेतुक कृपचेतने ‘दासभूताः स्वत स्सर्वे ह्यात्मानः परमात्मनः नान्यथा श्री वरदराज स्तवमु 155 लक्षणं तेषां बन्धे मोक्षे तधैव च’ अनि चॆप्पँबडिन स्वरूप रूपसत्तारूपदास्य रसज्ञानमु नॊसङ्गॆ ननि चॆप्पुकॊनु चुन्नारु. श्लो॥ त्वद्दास्य मस्य हि मम स्वरसप्रसक्तं त च्चोरय न्नय महं किल चस्थलं प्राक् त्वं मामकीन इति मा मभिमन्यसे स्म ई, ह स्तीश ! संशमय न स्त मिमं विवादम् ॥ प्रति :— हे ह स्तीश ! = ओ करिगिरिनाथा!, अस्य मम = नाकु, (पूर्वोक्त दोष राशि विशिष्टुँड नगु नाकु) त्वत् , दास्यम् = देवर वारि दास्यमु, स्वरस प्रसक्तम्= स्वारसिक मैनदि (स्वतस्सिद्ध मैनदि) हि=सत्यमु. अयम्= ई, अहम्= नेनु, प्राक् = पूर्वमु, तत् = आदास्यमुनु, चोरयक्= अपहरिञ्चुचु, चस्थलं किल = तॊट्रुपडितिनि (जाऱिपोयितिनि) (ननु – ओयी) त्वम् = नीवु, मामकीनः इति = नावाँडवु (सौदासुँडवु) अनि, अभिमन्यसे स्म अभिमानिञ्चितिवि, सः = मन यॊक्क, तम् = आ, इमम् ई, विवादम् = तगादानु, संशमय = मऱल मॊलकॆत्तकुण्ड शमिम्पँ जेयुनु. आ
वि शेषमुलु : तत् - चोरयन् आ भगवद्दास्य मुनु अपहरिञ्चुचु - जीवस्वरूप निरूपकमगु भगव दास्यमु नपहरिञ्चुट यात्मापहार मनँबडु चौर्यमु. इदि धनकनकाद्यपहरणमु कण्टॆनु गॊप्पदि. बरिहारमु लेदु. या दीनिकि 156 श्री वरदराज स्तवमु ‘योजन्यथा सन्त मात्मान मन्यथाप्रतिपद्यते ! किं तेन न कृतं पापं चोरे णात्माहारिणा ॥ ’ (महाभारतमु) ) चस्थलं प्राक्– पूर्वमु भगवद्दासुँडँगा ननुकॊनि स्वरूपज्ञानमुन पज्ञानमुनुण्डि यिप्पुडु जातिपोयितिनि. संशमय न स्त मिमु विवादम्– मनकुन्न ‘त्वम्मे हं मे’- अनु नी विवादमुनु मऱल मॊलकॆत्तकुण्ड निर्मूलिम्पुमु. ‘त्वम्मेहं ता॥ ओ वरद राजस्वामी! पूर्वो क्तदोष राशि विशिष्टुँड नगु नाकु देवरवारि दास्यमु स्वतस्सिद्धमैनदि. ई नेनु पूर्व मादास्यमुनु चोरुनिवलॆ हरिञ्चि (कादनि) जाऱु कॊण्टिनि देवरवारु ‘नीवु नावाँड वनि मऱल नभिमानमुँ जूपितिरि. स्वामि ! मऱल मन यी विवादमु तलयॆत्त कुण्ड निर्मूल मॊनर्पँ ब्रार्धन मॊनर्तुनु. सिकम्बु नाकुँ गरि उ॥ स्वार सिकम्बु शैलविहार विनोद ! त्वत्पदां भोरुहदास्य, मामणिनि मुन्नु हरिञ्चि तॊलङ्गिपोयितिक्, जोरुनटुल्, ननु९ गरुणँ जूचि मदीयुँड वीवटञ्चु स्वी कार मॊनर्चि तीतग वि कज् मन किद्दऱकु शमिञ्चुत९. श्री वरदराज स्तवमु चे 157 अवतारिक :- दास्यरसमुनु ज्ञप्ति चेसिन तरुवात नाकु वेलॊक प्रयोजनमु लेदनि स्वामितो मनवि चेसिकॊनु चुन्नारु. श्लो॥ भोगा इमे विधिशिवादिपदं चकिञ्च २ स्वात्मानुभूति रिति या किल मुक्ति रुक्ता! सर्वं त माषजलजोष महं जुषेय हस्त्यद्रिनाथ ! तव दाप्य महारसज्ञः SI प्रति :— हे हस्त्यद्रिनाथ ! = ओकरिगिरि महाप्रभू !, तव = नी यॊक्क, दास्य, महारसज्ञ ः 8 दास्यमुलोनि महारुचि नॆऱिङ्गिन, अहम्= नेनु, (ये) इमेभोगाः परिदृश्यमानमु लगु शब्दादि विषयानुभवमु लेविगलवो, यत् ए, विधि, शिव, आदि, पदञ्च = ब्रह्मरुद्रादुलपदवि कलदो, किञ्च मऱियु, स्वात्म, अनु भूतिः इति स्वात्मानुभव मनॆडु, या = ए, मुक्तिः = मोक्षमु, (कै वल्यमोक्षमु) उक्ता, किल = चॆप्पँबडॆनो, तत्, सर सर्वम् = दानि नन्तयु, ऊषजलजोषम् ऊषर क्षेत्रमुलोनि नीटितो समानमुनुगा, (निस्सारमुनुगा) जुषेय = सेविन्तुनुगाक. विशेषमुलु :- दास्यमहारसज्ञ - दास्यमहारसमुनु जविचूचिन वाँडनु, भोगा इमे – ऐहिकामुष्मिक भोग मुलु. विधिशिवादिपदम्_ आदिपदमु चेत निन्द्रादुलु ग्रहिम्पँबडुदुरु, ब्रह्मरुदेन्द्र पदवुलनि तात्पर्यमु, 158 श्री वरदराज स्तवमु ऊषजलजोषम्- ऊषर जलतुल्यम्- चवुटि नेललोनि नीटिनि बो लॆ. उप्पनिदानिनिगा निस्सार मैन दानिनिगाननि भावमु. नी दास्यमहारसमुमुन्दु ऐहिकामुष्मिक भोगमुलुगानि, ब्रह्मरुद्रादिपदवुलुगानि, कैवल्यमु क्ति गानि, यत्यल्प चप्पनिवनि सारमु, वसन्ततिलक वृत्तदशकमु मुलु. मुगिसिनदि. ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! देवर वारि दास्यमहा रसमुनु चविचूचिन नेनु ऐहिकामुष्मिक भोगमुलनु ब्रह्मरुद्रेन्द्रादि पदवुलनु कैवल्यमुक्तिनि चवुटि नेल लोनि नीटिनिवलॆ ननुभविन्तुनु. (निस्सारमुलनुगाँ जूतुनु) च॥ धनकनकादि वस्तुसमु दायमु नन्दनभूमि नप्सरों गनलनु गूडु, टब्जभव कन्तुविरोधि सु रेन्द्रपट्टमुल् कॊञ्चॆपुमु कि ँ गरीश ! यूष रा गॊनुटलु, स्वात्मभोग मनु वनिजल मट्ल यॆन्तुनु भ वत्पददास्य महारसज्ञत. 81 महारसज्ञुलगु श्री अवतारिक :— इट्लु भगवद्दास्य महार वत्साङ्कमिश्रुलु भगवत्र्पाप्तिकै मन्त्ररत्नोक्त प्रका रमुगा श्लोकद्वयमुचे शरणु चॊच्चुचुन्नारु. श्री वरदराज स्तवमु श्लो, विषय विषधरप्रजव्याकुले जननमरण नक्रचक्रास्पदे । । आगति रशरणो भवाबे लुठज् वरद! शरण मि त्यहं त्वां वृणे !! 159 82 प्रति : वरद ! = ओ वरदराजस्वामि ! विषय, विष धर, प्रज, व्याकुले = शब्दादि विषयमुल नॆडु सर्पमुलु गुम्पुलतोँ ग्रिक्किऱिसिनट्टियु, जनन, मरण, नक्र, चक्र, आस्प दे पुट्टुक चावु ल नॆडु मॊसळ्ळगुम्पुलकु नॆलवै नट्टियु, भवाब्धा=संसार सागरमुन, लुठ ज् पॊर्लुचु, (तिरुगुचु) अशरणः= उपायां तरळून्युँडनु, अगतिः= गत्यन्तर शून्युँडनु (अगु) अहम् नेनु, त्वाम् निन्नु, शरणम्, इति चुन्नानु. ॥ रक्षकुँड वनि, वृणे=वरिञ्चु वि शेषमुलु :- विषयविषधर… - विषयमुलन्दुनु विषधरमु लन्दुनु ( ( पामुलन्दुनु ) रॆण्डिटियन्दुनु विषमु कलदु - पामुललोनि विषमु सेविञ्चिन ने प्राणमुलँ
- दीयुनु, विषयमुललोनि विषमु स्मरिञ्चिन वानिकिँ गूडँ ब्रमादमु गलिगिञ्चुनु. ऒक बाटसारि दूरमुन नुन्न भार्यनु स्मरिञ्चुकॊनि बाधपडि पाणिनि मुनिनि दूऱिनि यी श्लोकमु नारयुँडु, ‘नपुंसक मिति ज्ञात्वा प्रियायै प्रेषितं मनः त त्तु त त्रैव रमते हताः पौणिनिना वयम् ॥२ 160 वरदराज स्तवमु (मनश्शब्दमु नपुंसकलिङ्ग मनि तॆलिय वलॆनु ) भवाब्धा- संसार मगाध मपरिच्छिन्नमु गान समुद्रमुगाँ जॆप्पँ बडिनदि. अन्तेकादु. समुद्रमुन - सर्पमुलु नक्रमुलु गलवु संसारमुन- विषयभोगमुलु जननमरणमुलु गलवु, त्वाम्– आश्रयणमुनकुँ सौकर्या पादक मुलगु श्रियः पतित्वमु, सौशील्यमु, सौलभ्यमु, वात्सल्यमु, मुन्नगु गुणमुलतोनु, आश्रितुल कार्यमुलनु नॆऱवेर्चु टकुँ गावलसिन कान्ति, ज्ञान, शक्ति, स्वामित्वादुलतोनु गूडिन देवरवारि ननि तात्पर्यमु. शरण मिति वृणे - शरण मनि प्रेमतो स्वीकरिञ्चुचुन्नानु. शरणं (भव) इति वृणे= रक्षकुँडवु कम्मनि अनुरक्ति तोँ गोरुचुन्नानु. तागि ओ ! ता ओ वरदराजस्वामि! विषयमु ल नेडु सर्प समूहमुलतो निण्डिनदियु, जननमरणमु लनॆडु मॊसळ्ळ गुम्पुलकु नॆलवैनदियु, नगु संसारसमुद्र मुलोँ बरिभ्रमिञ्चुचुनुपायान्तर शून्युँडनु गत्यं तर शून्युँडनगु नेनु निन्नु शरणमुनुगा वरिञ्चु चुन्नामु. गी॥ विषय विषधरगण समन्वितमु जनन मरण नक्राकुलम्मु संसरणवार्धि दॊरलुचुन् वेजे गतियुनु शरणु लेनि नेनु शरणम्बुँ गोरिति निन्नु वरद! 82 श्री वरदराज स्तवमु 161 अवतारिक पूर्वश्लोकमुन श्रियःपतित्वादि सकल कल्याणगुण विशिष्टुन के सिद्धिपायताध्यवसायमुनु ब्रतिपादिञ्चि यिप्पुडु निर्हेतुक कृपामात्र विशिष्टुन के सिद्धोपायत्वमुनु निश्चयिञ्चुचुन्नारु. प्रति श्लो॥ अकृतनुकृतकः सुदुष्कृत्तरः शुभ गुण लवलेश देशातिगः। अशुभगुण परस्सहस्रावृतो 11 £3 वरद मुरुदयं गतिं त्वां वृणे ॥ अकृतसुकृतकः चेयँबडनि पुण्यमु कल वाँडनु, सुदुष्कृत्तरः = बागुगाँ बापमु लॊनर्चिन वारिलो मिक्किलि गॊप्पवाँडनु, (कनुकने) शुभगुण, लव लेश, देश, अतिगः = मङ्गळ गुणमुलगु सात्विकत्वमु, आ स्तिकत्वमु मुन्नगु गुणमुल यॊक्क लव लेशमु (स्वल्प भागमु) कल देशमु नतिक्रमिञ्चिनवाँडनु, अशुभगुण, परस्सहस्र, आवृतः= वेलसङ्ख्यनु मिञ्चिन यमङ्गळकरमु लगु गुणमुलतो नावरिम्पँबडिनवाँडनु, अगु, (अहम्= नेनु) उरुदयम् = गॊप्प दयगलवाँडवु गनुकने, वरदम्=वरदुँडवनु सार्थक नाममु गल, त्वाम्= निन्नु, · गतिम् = शरणमुनुगा, वृणे = वरिञ्चुचुन्नानु. विशेषमुलु :– अकृत सुकृतकः- अल्पं सुकृतं सुकृतकम् अल्पार्थमुन ‘क’ प्रत्ययमु. अकृतं,
(21)162 श्री वरदराज स्तवमु सुकृतकं येनसः - अनु विग्रहमुचेत कॊञ्चॆमु पुण्य मैननु जेयनिवाँ डनॆडि यर्थमु वच्चुनु. शुभगुण लव लेश देशातिगः - सात्विकत, आ स्तिक्यमु मुन्नगु गुण मुलु स्वल्पमुगा नुन्न देशमुन निवसिञ्चिननु कॊन्नि मञ्चिगुणमुलु कलुगुनु. अट्टि देशमुनकुँ गूड दूर मुन नुण्टिननि विचारमु. शुभ गुणयुत देशवासुलकुँ गलुगु फलमु लेवनँगा- ‘य त्राष्टाक्षरसंसिद्धि महा भागो महीयते । न तत्र सञ्चरिष्यन्ति व्याधि दुर्भिक्ष त स्कराः’ उरुदयम्_ निरवधिक, कृपानिधिवि गनुक ने- वरदम् सकलजनुलकु सकलवर प्रदुँडपै करिगिरिशिखरमुन वेञ्चेसियुन्न गतिं त्वां वृणे - अनिष्टमुलनु निवर्तिम्पँ जेयुचु इष्टमुलनु जेकूर्चु नुपायमुनुगा निन्नु निश्चयिञ्चुकॊण्टिनि. ‘पधार्द मपि काकुत्थ्सः काकुत्थ्सः कृपया पर्यपालयत्’ प्रबलत राप राध मॊनर्चिन काकासुर रक्षा विषयमुनँ गेवल कृपये हेतु वय्यॆनु. अट्ले कामक्रोधाद्य शुभगुणसहस्र युतुँडनगु ना यन्दुनु गृपँजूपुँडनि कवि याशयमु, अन्दु चेत ने उरुदयम् अनु विशेषणमु श्री वरदराजस्वामिवारिकि वेसिरि. विषयविषधर श्लो-82, अकृत सुकृतकः श्लो-83 ई श्लोकद्वयमुन ‘अनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यन्य वर्जनम् । रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्ववरणं तथा आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः’ अनि चॆप्पँबडिन श्री वरदराज स्तवमु 163 याऱिण्टिलोनु गोप्तृत्ववरणमे शरणागति यनि चॆप्पँ बडिनट्लय्यॆनु. कॊन्दऱु आत्मनि क्षेपमे शरणागति यन्दुरु. कानि यदि प्रवादमात्रमे. एलयन ? भगव द्भाष्यकारुल सन्निधानमुन सकल रहस्यतत्वार्थमुल नवगत मॊनर्चुकॊन्न श्री श्रीवत्साङ्क मिश्रुलु स्तवमुलो द्विरुक्तमुगा गोप्तृत्वपरणमुने मुख्य शरणागतिगाँ गो बेर्कॊनिरिगदा! ता॥ सुकृतमु नॊक्किन्तयुँ जेयक, दुष्कृतमुल नॊनर्चु वारि कग्रगण्युडनै सात्विकता स्तिक्यादि शुभ गुणमुलु कॊलँदिगाँ गल देशमन्दैननु निवसिम्पक काम क्रोधादि दुर्गुणमुल कनेकसहस्रमुल काटपटैन नेनु महापराधि यगु काकासुरुनि सैतमु काचिन करुणानिधि यगु श्री वरदराजस्वामिनि अनिष्टमुलु निवारिञ्चि, यिष्ट मुलँ गूर्प नुपायमुनु गा वरिञ्चु चुन्नानु. शा॥ कॊञ्चॆम्बेनियुँ बुण्यमुन् सलुप, न ग्र्युण्डन् महापाप कृ त्पं चास्यम्बुल यन्दु, मेल्गॊनमु ल्पम्बुन्न देशान नेन् गाञ्चन् वासमु वैरिषट्कमुन का गारम्म नौ नेन्, गृपो नौ दञ्चन्मूर्तिनि निन्नु श्री वरदु दि क्कञ्चुन् वरिन्तुन् ब्रभू ! 83 164 श्री वरदराज स्तवमु दानि चे अवतारिक :– वरद मुरुदयम्_ अनु दयाळु वे फलप्रदुँडनि चॆप्पँबडिनदि. ‘भवाब्धा लुठन्’ अनु दानिचेतँ दानु दयनीयुँडननियुँ ब्रतिपादिम्पं बडिनदि. दयावरणमु सैतमु बुद्धिपूर्वकमु गादु गनुक नितँडु केवलमु दयँ जूपँ दगिनवाँडे अनि चॆप्पिन चोँ दन कार्यमु सुकर मगुननि यी श्लोकमुनँ यी जॆप्पुचुन्नारु. श्लो॥ शरणवरणवा गियं योदिता न भवति बत ! सापि धीपूर्विका इति यदि दयनीयता म य्यहो ! वरद ! तव भवेत् ततः प्राणिमि ॥ 84 प्रति-— हे वरद! = ओ वरदराजस्वामी!, इयम्=ई, शरणवरणवाक् = शरणमुनु वरिञ्चुवाक्कु, या= एदि, उदिता = पलुक ँबडिनदो, सा, अपि= अदियु, धी पूर्विका= बुद्धिपूर्वकमैनदि, न, भवति = कादु, बत ! = अय्यो!, ! इति = अनि, तव = देवर वारिकि, दयनीयता= दयनीयुँडनु बुद्धि, भवेत्,
मयि=ना विषयमुन, अगुनेनि, ततः = तरुवात, प्राणिमि यदि= जीविञ्चुचुन्नानु, अ हॆू ! =आहा ! नी दय आश्चर्यकरमैनदि. विशेषमुलु :- शरणवरणवा गियं- न भवति बत ! बत! साऒपि धी पूर्विका– बुद्धिपूर्वकमुगाँ जेयँबडिन शरणागति यदिये युपायमगुनु गान भगवन्नि र्हेतुक श्री वरदराज स्तवमु 165 कृपकुँ दानुपात्रमु कानेमो! यनि यन्दु कॊऱकु शरणवरणवाक्कु हृदयपूर्वकमु कादनुचुन्नारु. इक नी दासुनकु गति देवरवारि निर्हेतुक कृपये यनि भावमु. इति— बुद्धिपूर्वकमु गानि शरणवरणवाक्कु ना विषयमुन विफलमैनदि कनुक ततः तरुवात (लेदा- अन्दुवलन) प्राणिमि = जीविम्पँगलनु, भविष्यदर्थमुन वच्चिन वर्तमान कालमु. ता॥ ओ वरद राजस्वामी ! नानोट वॆलुवडिन शरणागति वाक्कु बुद्धिपूर्वकमु गादु. कनुक निदि यितनि कुपायमु काँजालदनि नन्नु दयनीयुनिगा भाविञ्चितिवेनि नी निर्हेतुक कृप नाकु रक्षकमगुनु गान नेनु जीविम्पँगलनु. गी॥ वरदराजप्रभू ! निन्नु शरणटन्न वाक्कु हृदयोक्ति कादुपो! पापमनुचुँ दलँचि नी कृपकुं बात्रतनु घटिन्तु वेनि जीविन्तुँ गरिगिरिपानुलोल ! 84 अवतारिक : - ‘कृते पापेनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते । प्रायश्चित्तं तु त स्येकं हरिसंस्मरणं तस्येकं परम्’ अनि चॆप्पिन प्रकारमु पश्चात्तापमु कूड भगवद्दय कुन्मेषकमु गान नट्टि पश्चात्तापमु सैतमु नाकु लेनन्दुन दयनीयुँडँगा ननि विचारपडुचुन्नारु. 166 श्लो॥ श्री वरदराज स्तवमु ॥ निरवधिषु कृतेषु चाग सस्वहो ! मति रनुशयनी यदि स्यात्ततः । वरद ! हि दयसे न सङ्क्षेम हे निरनुशयधियो हता है वयम् ॥ 85
प्रति : हे वरद! =ओ वरदराजस्वामि ! कृतेषु= चेयँबडिन, निरवधिषु = ऎल्ललुलेनि (असङ्ख्यातमुलगु) आगस्सु, च = अपराधमुल विषयमुन, अनुशयिनी = पश्चात्तापमुगल, मतिः = बुद्धि, स्यात् यदि= अगु नेनि, ततः = अन्दुवलन, दयसे=दयदलँचु चुन्नावु, हि= सत्यमु, न सं शेम हे=सं देहिम्पमु, निरनुशयधियः = अनुतापमु लेनि बुद्धिगल, वयम् मेमु, हताः= चॆडिपोतिमि, है!=अय्यो!
विशेषमुलु :— आगस्सु- अकार्यकरणादि अपराध मुल विषयमुन, न संशेमहे- दुष्कृतमु लॊनर्पँ बडिननु पश्चात्तापमुनु जॆन्दिनचो अनुतपुलु ‘पापे कृते यदि भवन्ति भयानुताप लज्जाः पुनः करण मस्य कथं घपेत’ अन्नट्लु मऱल नट्टि यपराध मॊनर्परु. इदि भगवत्कृप कुन्मेषक मगु ननुटलो माकु संशयमु लेदनि भावमु. कानि निरनुशयधियः– आयनु लो तापमे मा बुद्धिलो लेदु. अन्दुचेत हताः- पाप हतुल मगुचुन्नामु. ताळि ता ओ वरदराजस्वामी! द्यप राधमुल निरवधिक मुगाँ कृत्याकरणा कृत्यकरणा जेसिननु बश्चात्तप्तु श्री वरदराज स्तवमु 167 ई विषयमुन डैनचो वानिनि नीवु दयदलँ चॆदवु. सन्देहमु लेदु. मा बुद्धि यनुत प्तमु कालेदु कनुक मेमु पापहतुल मगुचुन्नामु. गी॥ ऎन्नि तप्पुलु नेसिन नॆदँ दपिञ्चु नेनि दयँ दलँ चॆदवुपो ! वानि नीवु संशयमु लेदु मति ननुशयमु लेमि हतुलमैतिमि श्री करिक्षी तिध रेश ! 85 अवतारिक :- ऎड तॆगकुण्ड नपराधमुल नॊनर्चियु ननुताप मेमात्रमु लेनि ना नोट वॆलुवडिन शरणागत वाणिनि साकु चेसिकॊनि नन्नु दयदलँचु मनि नुडुवु चुन्नारु. प्रति याद्य श्लो॥ शरणवरणवा गियं या ऒद्य मे परच ! तदधिकं न किञ्चि न्मम । सुलभ मभिमतार्थदं साधनं त दय मवसलो दयाया स्तव H ! £6
हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि! अद्य = इप्पुडु, मे=नाकु, या = ए, इयम् ई, शरणवरण वाक् = शरणागतिवाक्कु, (अभूत् = उण्डॆनो) तदधिकम् दानिकण्टॆ नुत्कृष्टमगु, सुलभम् = सुकरमगु, अभिमत, अर्थदम्=इष्टमगु नी दास्यमुनु ब्रसादिञ्चु, किञ्चित् = ऒकानॊक, साधनम् = साधनमु, मम=नाकु, न= लेदु, 168 श्री वरदराज स्तवमु तत् =कनुक, अयम् इदि, तव= नीयॊक्क, दयायाः= दयकु, अवसरः = समयमु. विशेषमुलु :- त दय मवसरो दयाया स्तव- इदिये नी दयकु समयमु. ना शरणवरण वाणी प्रादुर्भवकालमे देवरवारि दया प्रादुर्भाव समयमु. उपायान्तर प्रसक्ति यॆन्तमात्रमुनु लेनि ना शरणागति वाणिनि व्याज मॊनर्चुकॊनि नी निर्हेतुक कृपनु जूपुमु. अनि याशयमु, ता॥ ओ वरद राजस्वामी ! ना नोट वच्चिन शरणागति नोटवच्चिन वाक्कु कण्टॆ नधिकमुनु सुलभमुनु वाञ्छितार्थप्रदमु नगु मऱियॊकसाधन मेदियु ना यॊद्द लेदु. कनुक नी दय कीदिये समयमु, गी॥ शरणवरणो कि कण्टॆ नो वरद! यधिक तरमु सुलभमु वाञ्छितार्थप्रदम्बु लेदु साधन मन्यम्बु नादु चॆन्त (इदियॆ समयम्बु नीदु निर्हेतुकृपकु.) (पाठान्तरमु) अवसरं बिदॆ तावकाव्याजदयकु, अवतारिक 86 इट्लु पलुसारुलु दयके युपायत्व मुनु जॆप्पि तरुवात मन्त्ररत्नमुयॊक्क युत्तरखण्डमु नकु अर्थमैन कैङ्कर्यमुनु ब्रार्थिम्पँ दलँचि मॊदट श्री वरद राज स्तवमु 169 कैङ्कर्य प्रतिसम्बन्धि यगु भगवत्पादार विन्दमुनन्दु रुचिनि बुट्टिञ्चुटयु नी यधीनमे यनु चुन्नारु. श्लो॥ विषयविषयिणी स्पृहा भूयसी तव तु चरणयो र्न साडॆल्सा जॆपि मे! वरद ! ननु भर स्तवैप त्वयं य दुत तव पदस्पृहाजन्म मे ॥ ओ 87 प्रति :— हे वरद! ओ वरदराजस्वामि ! मे= नाकु, विषयनिषयिणी = शब्दादि विषयमुलनु गुऱिञ्चिन, स्पृहा= कोरिक, भूयसी मिक्किलि गॊप्पदि, तव = नी यॊक्क, चरणयोः, तु=पादमुलं दन्ननो, सा=8 कोरिक, अल्पा, अपि=स्वल्पमुकूड, न= लेदु, उत= लेनिचो (मजेमि यनँगा), तवनीयॊक्क; पद, स्पृहा, जन्म=नी पादमुलन्दुँ गोरिकनु बुट्टिञ्चुट, यत् = एदि कलदो, अयम् =इदि, तव, एव = नीयॊक्क ये, भरः, ननु ? = भारमु गदा ! विशेषमुलु :- भूयसी मिक्किलि गॊप्पदि. अपरि च्छिन्न मैनदि. विषयमु लसङ्ख्यातमुलु गनुकँ दद्विषयक वाञ्छलु कूड नसङ्ख्यातमु लनि भावमु, ‘तव तु चरणयो र्न लापि मे उदीर्ण संसारदवाळु शुक्षणिं क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम् । प्रयच्छति त्वच्चरणा रुणाम्बुज द्वयानुरागा मृतसिन्धु शीकरः ॥ (22) 170 श्री वरदराज स्तवमु अनि स्तोत्ररत्नमुनँ जॆप्पिन प्रकारमु भगवत्पादमु लन्दलि यल्पमगु स्पृह सैत मनिष्टनिवृत्ति पूर्वक मुगा निष्टमुल नॊसङ्गुटकु शक्ति कलदि कावुन ‘अल्पा..पि’ अनि मूलमुनँ जॆप्पँबडिनदि. भर स्तवैव - नी पादमु लन्दु रुचि गलिगिञ्चुटयु नी भार मे. निर्हेतुक परम कारुणिकुँडवगु नीवे रुचिनि गूडँ गलिगिन्तुवु अनि भावमु. ओ ता॥ ओ वरदराजस्वामी ! नाकु विषयमुल मीँद नभिरुचि यॆन्तयो कलदु. नी पादमुलयन्दु मात्र मदि नलुसन्तयु लेदु. कावुन देवरवारि पादमुलं दभिरुचिनि बुट्टिञ्चु भारमु कूड देवर वारि दे. गी॥ विषयमुलु नाकु नभिरुचि विस्तृतम्बु लेददि रवन्तयुनु नीदु पादमुलनु। 87 ह स्तिभूधर शृङ्गविहार! वरद राज ! दानिनिँ गूर्चु भारमुनु नीदॆ, अवतारिक :– इट्लु निरन्तरमु विषयान्तर प्रणय प्रवणुँडनगु नाकु भवद्दास्यरसमुन मुनिँगिपोवुचुन्न सज्जनुलनोट माँगिन शरणागति वाणीपरिणति अतिदयाळुँड वुनु विशेषमुलु गमनिम्पकये यशेषजन शरण्युँडवु नगु नीयॊक्क यनुग्रह सुमुखतनु ब्रकाशिम्पँ जेयु चुन्न दनि मनवि चेसिकॊनुचुन्नारु. प्रति :: श्री वरदराज स्तवमु श्लो!! इय मिह मति रस्मदुज्जीवनी वरद ! तव खलं प्रसादादृते । शरण मिति वच्कोपि मे नोदियाल् त्व मनि मयि ततः प्रसादोन्मुखः ॥ हे वरद! = ओ 171 88 वरदराजस्वामि!, मे= नाकु, तव=नीयॊक्क, प्रसादात्, ऋ प्रसादात्, ऋते= अनुग्रहमु लेकुण्ड; शरणम्, इति, वचः, अपि शरणु अनु वाक्कु अपि=शरणु सैतमु; न, उदियात्, खलु = उदयिञ्चदु गदा, ततः अन्दुवलन, त्वम् = नीवु, मयि = त्वम्= नायन्दु, प्रसाद, उन्मुखः = अनुग्रहमुनकु सुमुखुँडवु, असि= अगुचुन्नावु, इयम्=ई, मतिः = बुद्धि, इह=इप्पुडु, अस्मत्, पान्जीननी= मम्मुल नुज्जीविम्पँ जेयुचुन्नदि. विशेषमुलु :– मे विषयान्तरमुलन्दुँ गोरिकलु मे– सॆतमु. मॆण्डुगाँ गल नाकु अनि भावमु, ‘शरण मिति वच्कोपि - वरद! शरण मि त्यहं त्वां वृणे अनु वाक्कु सै अस्मदुज्जीवनी मम्मुल नुज्जीविम्पँ जेयु चुन्नदि. नीवु मा नोट शरणागतिवाक्कुनु रप्पिञ्चुट चेत नीकु मा यन्दु अनुग्रहमु कलदनि तॆलियुचुन्नदि. कनुक नीवे माकु नी पादमुलन्दु रुचिनि गलिगिञ्चुदु नी वनियु नी भारमन्तयु नीवे वहिन्तुवनियु विश्वासमु मम्मुल जीविम्पँ जेयु चुन्नदि. ता! ओ वरदराजस्वामि! विषय लम्पटुँडनगु नाकु मी यनुग्रहमु लेनिदे शरणागतिवाक्कु गूड नोट172 श्री वरदराज स्तवमु वॆडलदु. कनुक नीवु ना यॆडलँ ब्रसादोन्मुखुँड वगु चुन्नावु. अनॆडु ई बुद्धि यिप्पुडु मम्मुल नुज्जीविम्पँ जेयुचुन्नदि. गी॥ लेक नीदय शरणन्न वाकु नादु नोट वॆडलदु करिगिरिकूटवास ! माकु सुमुखुँड वी वन्नमतियॆ यिपुडु देवतारत्नमा ! समुज्जीवकम्बु. अवतारिक :- 88 विषयान्तरमुलन्दु वाञ्छ युन्ननु सैतमु मी पादपद्मलाभमुन कविरुद्धमुगा प्रसादिम्पुमनि नुडुवु चुन्नारु. प्रति :- दानिनि श्लो॥ वरद ! य दिह वस्तु वाञ्छा म्यहं 3 तव चरणल भाविरोध स्ततः ! यदि न भवति त च्च देहि प्रभो! झटिति वितर पाद मेवान्यथा ॥ हेवरद! प्रभो! 11 89 !, ओवरद राजस्वामी एव स्तुवुनु, अहम् = नेनु, इह=ईलोकमुन, यत् वाञ्छमि = कोरुचुन्नानो, ततः = दानिवलन, तव = नीयॊक्क, चरण, लभा, विरोधः = पादमुयॊक्क लाभमु नकु विरोधमु (आटङ्कमु) न, भवति, यदि. लेनियॆडल, तत् = आ, वस्तु, च = वस्तुवुनुकूड, देहि इम्मु, अन्यथा=अट्लु कानिचो (नीपादलाभमुनकुँ ब्रतिबन्धकमैन यॆडल) झटिति वितर = इम्मु. श्री वरदराज स्तवमु 173 त्वरगा, पादं, एव तमपादमु ने विशेषमुलु :- ‘त च्च देहि प्रभो!’ नी पादपद्म लाभमे नाकु मुख्यमु. दानिकिँ ब्रतिबन्धकमु का देनि वाञ्छितवस्तुवुनु सैतमु कटाक्षिम्पुमु. अनि चकारमु नकु भावमु. झटिति वितर पाद मे वान्यथा- नावाञ्छ नीपादलाभमुनकुँ ब्रतिबन्धक मेनि नीपादमुने त्वरगा निम्मु. झटिति पदमु ‘तॊन्दरगाँ ‘तॊन्दरगाँ बादारविन्दमु ननुग्रहिम्पनिचो विरुद्धवस्तु वाञ्छयु स्वरूप हासिनि गलिगिञ्चु’ ननु भावमुनु व्यक्तपऱुचु चुन्नदि. ई श्लोकमु ‘रॆण्डव पादमुनकु ‘तवच रणला भाविरो ध स्ततः’ अनु पाठान्तरमु गलदु. ई पाठमुन अरमुपॊसगक पोगा वृत्तभङ्गमु गूडँ गलुगुनु. इदि गौरीवृत्तदशकमु लोनिदि, ‘नयुग रयुगयु क्च गौरी मता’ अनुलक्षण मुनु बट्टि रॆण्डुनगणमुलु रॆण्डुरगणमु लुण्डवलॆनु. पाठान्तरमुन रॆण्डवगणमु नगणमु कावलसियुण्डगा Ф 11 सगणमगुचुन्नदि. ‘लभा’ अनु रूपमु डुलभष् प्राप्ता’ अनु धातुवुमीँद पित्वप्रयुक्त मगु अब् प्रत्ययमु टाप्पुराँगा सिद्धिञ्चु चुन्नदि. पाठान्तर मनादरणीयमु, तच्च देहि - अनुचोट ‘तत्प्र देहि’ अनियुँ बाठान्तरमु कलदु. कनुक - 174 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ वरदराजमहाप्रभू ! नी चरण लाभमुनकुँ ब्रति बन्धकमु का देनि नावाञ्छित वस्तुवुनु गूड दयचेयुमु. अदि प्रतिबन्धक मेनि नीपादपद्ममुने त्वरगाँ गटा रक्षिम्पुमु. उ॥ ह सि गिरीश ! तावकप दाम्बुजलाभ विरोधि गानिचो, निस्तुलदिव्यरूप ! यिट ने मदिँ गोरॆडुदानि निम्म, या वस्तुवु त्वत्पदाज्ञसम वाप्तिकि भञ्जक मञ्चु नॆञ्चुचोँ गस्तिनि बॆट्ट कुण्डँ बद कञ्जमु ने दयचेयुमा वडिक्. 89 अवतारिक :- दुर्वासनावञ्चन चेत वञ्चितुँड नगु नाकु भगवत्पदलाभमुनकु विरुद्धमगु वस्तुवुनु गूड ननुग्रहिञ्चि तन्मूलमुनँ गलुगु नपचारमुलनुगूड क्षमिम्पुमनि यी श्लोकमुनँ जॆप्पुचुन्नारु. ♡ । श्लो॥ तदपि किमपि हन्त दुर्वासना शतविवशतया य दभ्यर्थये! त दतुलदय ! सार्व! सर्वप्रद ! प्रविशर वन्द ! क्षमाम्भोनिधे! ॥ प्रति :- अतुलदय ! 89 साटिलेनि दयगलवाँडा !, क्षमा, अम्भोनिधे!= ओर्चुनकु समुद्रमु वण्टिवाँडा!, सार्व != सर्वजनहितुँडा!, सर्वप्रद ! = सकल फलप्रदुँडा!, 8) वरदराज स्तवमु 175 वरद ! = ओ वरद राजस्वामी!, तदपि= ऐननु, (नीशरणागतिकि विरुद्धमैननु) हन्त अय्यो!, दुर्वासना, शत, विवशतया = वन्दलकॊलँदि दुर्वासनलकु (दुष्टमुलगु संस्कारमुलकु) परवशुँड नगुट चेत, कि मपि = अति क्षुद्रमैसनु, यत् = देनिनि, अभ्यर्थये कोरुचुन्नानो, तत् = दानिनि, प्रवितर = तॆगुवतो = = निम्मु. अनु वि शेषमुलु : इन्दु श्री वरदराजस्वामि वारिकि वेसिन सम्बुद्धु लन्नियु नाभिप्रायमुगाँ ब्रयुक्तमु लगुट चेत ‘अलङ्कारः परिकर साभिप्राये विशेषणे’ लक्षणमु प्रकारमु परिकरालङ्कारमु दुर्वासनाळत विवशतया.. असङ्ख्यातमुलगु दुर्वासनल चेत वञ्चितुँड नगुटचेत ननि भावमु. प्रवितर दयाळुँड वगुट चेत वगुटचे दानँ नडिगिनवन्नियु निच्चिननु हितपरुँड ब्रस क मुलगु दोषमुलनु गूड क्षमिम्पवलयु ननि सम्बोधनल यभिप्रायमु, ता॥ निरुपम दयगलिगि, क्षमासमुद्रुँडवै, सर्वजन हितुँडवै, सकल फलप्रदुँडवै यॊप्पु श्री वरदराज स्वामि नी शरणागतिकि विरुद्धमैननु नेनु दु दुर्वासना शतमुलकुँ बरवशुँडनै ये देनि क्षुद्रमगु वस्तुवुनु गोरिननु कटाक्षिम्पुमु क्षमाम्बुधिवि गनुक दानिवलनँ गलुगु नपचारमुल क्षमिम्पुमु, 176 श्री वरदराज स्तवमु चग अतुलदया! क्षमागुण म हार्णव ! सर्वजनीन ! लोक नां छित घटनाचणा ! वरद! चॆड्डदिये यगुतन् कुवासना शतमुल नीड्वँगाँ बडुचु स्वामि! यॆदेन् निनुँ गोरुकॊन्न चो! ! वितरण मीऱँगा नॊसँग वे! यपचारमुलन् क्षमिञ्चुचुन्. 90 अवतारिक :- इदि यनुग्रहिम्पु मिदि वलदनि चॆप्पु टयु देवरवारि यन्दु भरन्यास मॊनर्चिन युक्तमु गादनु चुन्नारु. श्लो॥ प्रिय मितर दथा ऒपि वा य द्यथा वितरसि वरदप्रभो ! त्वंहि मे। तडनुभवन मेप युक्तं तु मे त्वयि निहितभरोस्मि सोहं यतः ॥ नाकु 91 प्रति : हे वरदप्रभो ! ओ वरदराजस्वामि !, अथाऒपि=ऐननु, त्वम् =(स्वतन्त्रुँडवगु) नीवु, प्रियं वा= वा = इष्टमगु दानिनि गानि, इतरत्, वा=अनिष्टमगु दानिनि गानि, यत् = देनिनि, यथा = ए प्रकारमुगा, यथा= मे=ना कॊऱकु, वितरसि, हि= इच्चॆदवो, मे, तु= परतन्त्रुँडनैन ना कन्ननो, तत् अनुभवनम्, एव तत्, दानि ननुभविञ्चुटये, युक्तम् = उचितमु, यतः =
श्री वरदराज स्तवमु 177 ऎन्दुकनँगा, सः, अहम्=आ नेनु, त्वयि=नीयन्दु, निहित, भरः=उञ्चँबडिन भारमु गलवाँडनु, अस्मि= अगुचुन्नानु. विशेषमुलु :- इतरत्- वा= प्रियात् इतरत्- प्रियमनँगा इष्टमु = तत्कालमुन सुखमुनु गलिगिञ्चु नदि. दानिकण्टॆ नितर मनँगा अनिष्टमु = कीडु. लेदा- हितमु – उ त्तरकालमुन सुखमुनु गलिगिञ्चुनदि. त्वयि निहितभरो2स्मि— ‘वरद मुरुदयं गतिं त्वां वृणे अनि भरन्यास मॊनर्चितिनि. अन्दुवलनँ ब्रियमुनु गानि हितमुनु गानि नी वनुग्रहिञ्चिन दानि ननुभविञ्चुटे भावमु. दीनितो गौरीवृत्तदशकमु ना विधि यनि मुगिसिनदि. • ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! स्वतन्त्रुँडवगु नीवु प्रिय ओ मुनुगानि, हितमुनुगानि, लेदा इष्ट मुनुगानि, यनिष्ट मुनुगानि, देनि नॆट्लनु ग्रहिन्तुवो दानि न ट्लनुभ विञ्चुटये ना कुचितमु. एलयन नेनु नीयन्दु ‘वरद मुरुदयं गतिं त्वां वृणे’ अनि भरन्यास मॊनर्चितिनि गदा ! च वरद! महात्म! दन्तिगिरि ! ! वल्ल भ ! नीवु निरङ्कुशुण्ड वौ ! दॊरुवु, प्रियम्बॊ ! यप्रियमॊ! तोँचिनयट्टुलु देनि नॆट्लुगाँ (23) 178 श्री वरद राज वरद राज स्तवमु O दऱि गमनिञ्चि यिच्चॆदवॊ ! ! दानि नटुल् गुडुवङ्गँ जॆल दे? शरणनि नादु भारमुनु सर्वमु नीपयि मोपितिन् गदा ! 91 अवतारिक : ई रीतिगा मन्त्ररत्नोत्तर खण्डस्थ नमश्शब्दार्थभूतनुगु भगवत्र्पाप्तिकि विरोधियगु स्वप्रवृत्ति निवृत्तिनि स्वरूपमुनु ब्रतिपाशिञ्चि ‘श्रीमन्ना रायणाय’ अनुचोटँ जतुर्थी :विभक्तिकि अर्थमगु कैङ्कर्यमुनु बार्दिञ्चुचु स्तोत्रमुनु बरिसमाप्ति यॊनर्चु चुन्नारु. असि P श्लो॥ यथाजनि यावा नसि योजसि यद्गुणं करीश ! यादृग्विभवो यदिँगित ; -1 तथाविधं त्वाह मभक्त दुर्ग्रहं प्रपत्ति वाचैव निरीक्षितुं वृणे ॥ 92 प्रति :- करीश !..=. ओ करिगिरिनाथा ! त्वम् = नीवु, यः एवँडवगुदुवो, यद्गुणः असि = ऎट्टिगुणमुलु कलवाँड .“वगुचुन्नावो, यथा2सि= ऎट्टिविधमुलु . गल वाँडबो, यावान् असि= ऎट्टि परिमाणमु; गलवाँडवो, यादृश्, विभवः असि= ऎटुवण्टि मैश्वर्यमु गलवाँडवो, यत्, इङ्गितः असि=ऎटुवण्टि व्यापारमु गलवाँडवो, तथाविधम् = अटुवण्टियु, अभक्त, दुर्ग्रहम् = भक्ति लेनि वारिचे ग्रहिम्प ’ शक्यमु गानट्टियु, त्वा निन्नु, अहम् = नेनु, प्रपत्तिवाचा, एव = शरणागति वाक्कु
श्री वरदराज स्तवमु 179 तोने, निरीक्षितुम्= साक्षात्करिम्पँ जेसिकॊनुटकु, वृणे= कोरुचुन्नानु. मनन्तं वि शेषमुलु :— योसि- ‘सत्यं ज्ञान न मनन्तं ब्रह्म, ह्री श्च ते लक्ष्मी श्च पत्न्यौ- इत्यादि श्रुतुलचेँ ब्रतिपादिम्पँबडिन सत्यत्वज्ञान त्वानन्तत्वानन्द त्वामलत्व श्रियःपति त्वादियत्स्वरूप निरूपक गुण निरूपितुँडवो !, यद्दु-:सि— ‘पर्कास्य शक्ति द्विविधैन श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च’ इत्यादुल वर्णिम्पँबडिन ज्ञान शक्त्यादि यद्गुण विशिष्टुँडवो! यथा2सि - ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति इत्यादु ललो जॆप्पँबडिनट्लु जगज्जन्मादि कारणत्वादि रूप यत्प्रकारकुँडवो ! यावानसि—- “अणो रणीयान् महतो महीयान् अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः’- इत्यादुललोँ जॆप्पँबडिन यॆट्टि परिमाणमु गलवाँडवो यावृग्विभवो सि- ‘पतिं विश्व स्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिव मच्युतम् – त मीश्वराणां परमं म हेश्वरं, तं देवतानां परमं च दैवतम् ’ इत्यादुलँ बेर्कॊनँबडिन यॆटि मैश्वर्यमु गलवाँडवो! यदिङ्गितो सि— इङ्ग चलने अनु धातुवुनुण्डि ‘इङ्गित’ शब्द मेर्पडिनदि. इङ्गित मनँगा व्यापारमु - अन्तः प्रविष्ट श्शास्ता जनानां सर्वात्मा’ ‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिवी मन्तरो यमयति’ इत्यादुलँ जॆप्पँबडिन 180 श्री वरदराज स्तवमु यॆट्टि चेतना चेतन नियमनादि व्यापारमुलु गलवाँडवो! चेतनाचेतन तथाविधम्- पै विधमुगाँ जॆप्पँबडिन (1) स्वरूप (2) गुण (3) प्रकार (4) परिमाण (5) विभव (6) चेष्टित विशिष्टुँडवुनु, अभ क्त दुर्ग्रहम्- भक्ति लेनिवारिचे ग्रहिम्प शक्यमु गानिवाँडवुनु, ‘भक्त्यात्वनन्यया शक्यः अह मेवं विध्कोर्जुन!’ अन्नट्लु भक्ति योगैक त्कारुँडवुनु अगु त्वा = निन्नु (त्वाम् - अनुदानि रॆण्डवरूपमु) प्रपत्तिवा चैव शरणागतिवाक्कु चेतने एवकारमु सहकार्यन्तर व्यावृत्तिकै वेयँबडिनदि. ‘वरद मुरुदयं गतिं त्वां वृणे’ अनि केवल दया विशिष्टुने सादुपायमुगाँ जॆप्पुटवलन शक्ति गलवारिकि देवरवारि साक्षात्कार मुन्ननु नीवे युपायमुगाँ जॆप्पुकॊन्न नाकु स्वरूप गुणादि परिपूर्णुँडवगु निन्नुँ गृपामात्रमुवलन ने साक्षात्करिम्पँ जेयुमनि निष्कृ ष्टार्थमु, ता॥ करिगिरिनाथुँडवैन यो वरदराजस्वामी! नी वॆट्टि स्वरूपमु, ऎट्टि गुणमुलु, ऎट्टि विधमु, ऎट्टि परिमाणमु, ऎट्टि नियमनादि व्यापारमुलु, ऎट्टि वैभवमुलु गल वाँडवो, भक्ति लेनिवारि कन्दनियट्टि निन्नु ने नॊक्क प्रपत्ति वाक्कु चेतने साक्षात्कार मॊनर्पँ गोरु चुन्नानु, B श्री वरदराज स्तवमु उ॥ ऎट्टिस्वरूपमो ! गुणमु लॆट्टिवॊ ! यॆट्टि प्रमाणमो ! विधं बॆट्टिगॊ ! यॆट्टि व्यापृतुलॊ ! यॆट्टि महाविभवम्बॊ ! युन्न दु न्नट्टुग नि न्न भ क्तुलकु नन्दनिवानिँ ब्रपत्तिवाणिने गट्टिगँ जूडँगोरुदुनु गन्नुल पण्डुवुगाँ गरीश्वरा ! 181 92 अवतारिक :— ‘निरीक्षितुं वृणे ’ अनि चॆप्पुटवलन साक्षात्कारमुने साक्षात्फल मरुकॊन्दु रेमो यनि शङ्किञ्चुकॊनि साक्षात्कारानन्तर भावि यगु दास्यमे मु क्ति फलमनि नुडुवु चुन्नारु. शोः आये! डयालो! वरद! क्षमानिभे ! विशेषतो विश्वजनीन ! विश्वद ! ! हितज्ञ! सर्वज्ञ! समग्रशक्तिक ! प्रसह्य मां प्रापय दास्य मेव ते ॥ H 93 प्रति :- दयाळो ! दयास्वभावमु गलट्टियु, ! = हित मेदो तॆलिसि क्षमानिधे ! = ओर्पुनकु गनिवण्टियु, विशेषतः = मिक्किलि, विश्वजनीन ! = अन्दऱकु हिताभिलाषि यैनट्टियु, विश्वद !- समस्तमु निच्चुनट्टियु, हितज्ञ ! नट्टियु, सर्वज्ञ ! =सर्वमु नॆऱिँगिनट्टियु, समग्रश क्ति क ! = परिपूर्णशक्ति गलिगिनट्टियु, अये वरद ! = ओ वरदराज ओ182 (श्री वरदराज स्तवमु स्वामि! माम् = नन्नु, प्रसह्य = इतरमुलनु मा) पिञ्चि, ते=नीयॊक्क, दास्यम्, एव = सेवने, प्रापय=
पॊन्दिम्पुमु. वि शेषमुलु :- अये— इदि सम्बोधनार्थकमगु अव्य यमु. दयाळो !- उपायान्तर रहितमगु केवल दयये युपायमनि सूचिञ्चुट की शब्दमु प्रप्रथममुनँ ब्रयोगिम्पँबडिनदि. क्षमानिधे!- ई पदमु वरदराज स्वामि सर्वापराध सहिष्णु वनि चाटुनु. स्वामि ऎवनि यन्दु दय गलिगियुण्डुनो वानि य शेषदोष राशिनि क्षमाविषय मॊनर्चुननि भावमु. विश्वद ! - सकल फलप्रदुँडा ! प्रसह्य फलान्तरमुलँ बॊन्दवलॆ ननु तलम्पुनु निग्रहिञ्चि प्रोँगॊट्टि ते- श्रीमन्ना रायणुँड वगु नी यॊक्क ई श्लोकमुन- दयाळो, क्षमानिधे, अनु पदद्वयमुचेत मन्त्ररत्नमुलोनि श्रीम च्छब्दमु विवरिम्पँ बडिनदि. ऎट्लन? दयाशब्दमु श्री देविनि जॆप्पुनु. ‘देव्या ‘कारुण्यरूपया’- क्षमाशब्दमु भूदेविनि जॆप्पुनु. ‘साक्षात् क्षमाम्’ अनि अभियुक्तो क्ति. सर्वज्ञ, समग्र शक्ति केत्यादि सम्बुद्धि पदमुलचे नारायण शब्दार्थमु, ‘दास्यं प्रापय” अनु दानि चेत ‘चतुर्ध्यर्थमु, ‘प्रसह्य’ अनुल्यबन्ता व्ययमु चेत ‘नम’ श्शब्दार्धमु विवरिम्पँबडि नन्दुवलन मन्त्ररत्नोर वाक्यमु चक्कगा विशदीकरिम्पँ बडिन दनि साम्प्रदायिकुल मार्गमु, 3 Ф श्री वरदराज स्तवमु 183 ता॥ दयाळू! श्रीमानिधी ! विशेषमुगा समस्त जनमुल हितमुनु गोरु देवा ! समस्त फलप्रदा ! ! ! ओ हितज्ञा ! सर्वज्ञा ! समग्रशक्तियुक्ता ! ओ वरदराजस्वामि ! ना मनस्सु नन्यमुल मीँदिकिँ बोनीक निग्रहिञ्चि नाकु नी दास्यमु ननुग्रहिम्पुमु. गी ओ दयाळू ! क्षमानिधी! ओ समग्र कि ! श क्तियुत ! विश्वजनहित ! सर्वफलद वरद! सर सर्वज्ञ ! हितकर ! वाञ्छ लुडिपि नन्नु नी पद दास्यम्बुनकु मरल्पु. अवतारिक :— केवल दयये युपायमनि 93 पलु सारुलु चॆप्पिन विषयमुने उक्तलक्षण दास्यरूप फल प्रार्थना दशयन्दुँ गूड विशेषिञ्चि प्रकाशिम्पँ जेयु चुन्नारु. Ф ៖ 3022 स्वकै आणॆ- स्वै श्चरितैः स्ववेद नात्
- भजन्ति ये त्वां त्वयि भक्ति तो ऒथवा ! करीश ! तेषा मपि तावकी दया तथातकृत् सेव तु मे बलं मतम् । 94 प्रति : हेशरीश! = ओ करिगिरिनाथा!, ये ए चेतनुलु, स्वकै 8=स्वीयमुलगु, गुणैशि = प्रपत्तिकि अङ्ग भूतमुलगु गुणमुलचेतनु, स्वैः =स्वकीयमुलगु, चरितैः=प्रवर्तनल चेतनु (सत्कर्मल चेतनु - कर्मयोगमुचेत सनि भावमु) स्ववेदनात् = स्वकीयमगु ज्ञानमु चेतनु (ज्ञानयो नयोगमु 184 (श्री) वरदराज स्तवमु चेतनु) अधवा = मऱियु, त्वयि = देवर वारियन्दु, भक्ति तः = भ क्ति वलननु, (भक्ति योगमुचेतनु) त्वाम् = निन्नु, भजन्ति = सेविञ्चुचुन्नारो, तेषां, अपि= वारिकिँ गूड, तावकी = नीसम्बन्धमगु, दया= कृप, तथात्वकृत् = अटुवण्टि नित्यकैङ्कर्यकारिणि, (भवति = अगुचुन्नदि, सैव, तु=आ दयये, मे=नाकु, बलम् = बलमुगा, मतम्= तलँचँबडिनदि. विशेषमुलु : स्व स्वक्षॆ रुणॆ :– ‘मद्भक्तजनवात्सल्यं पूजायां चानु मोद नम् मत्कथाश्रवणे भक्ति ः स्वर नेत्राङ्ग विक्रिया । स्वय मध्यर्धनं चैव मदर्थे डम्बवर्जनम् ममानुस्मरणं नित्यं यच्चमां नोपजीवति ॥२ अनि चॆप्पँबडिन वानिलोनि अनुस्मरण शब्दमुन कर्थमु लगु प्रपत्यङ्गभूतमुलगु गुणमुल चेतनु, लेदा- ‘आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्’ इत्या द्यात्मनि क्षेपान्त गुणमुल चेतनु, ‘स्वै श्चरितैः’- अनि मुन्दु कर्मयोगादुलु चॆप्पँबडँबोवुटवलन ‘स्वकै र्गुणः’ अनु चोटँ ब्रपत्तिपरमुगाँ जॆप्पुटये युचितमु, स्वेश्चरितैः कर्मयोगमु चेत स्व वेदनात्
- योगमुवलन- त्वयि भक्तितः - भक्तियोगमुवलन -
- भजन्ति ये त्वाम्– ऎवरु प्रपत्ति कर्मयोगज्ञान योग ज्ञान श्री वरदराज स्तवमु 185 भक्ति योगरूपमुलगु साधनल चेत नी कैङ्कर्यमुनु जेयुदुरो, ‘तेषा मपि तावकी दया तथात्वकृत् -’ नित्य कैङ्कर्यरूप महाफलमुनकु सदृशमुख्य हेतुवु नी दयये यनि निश्चितार्थमु. 2व तु मे बलं मतम् – ‘प्रपत्तिवाचैव निरीक्षितुं वृणे’ अनु अनुसन्धानमु गल नाकुनु अदिये बलमु, ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! ऎवरु प्रपत्यङ्गमुलगु स्वीय गुणमुल चेतनु, कर्मज्ञानभक्ति योगमुल चेतनु, निन्नु भजिञ्चॆदरो, अट्टि चेतनुलकुनु नीदयये अट्टि नित्य कैङ्कर्यमुनकु नुपाय मगुचुन्नदि अदिये नाकुनु बलमु. च॥ स्वगुणमुलक् स्वकीय विल सच्चरितम्मुल ज्ञानयु क्ति नगणित भक्ति योगमुन चे ह सिगिरीश ! भजिन्तु रेरु निक् सुगुणुल कट्टि यात्मपरि शुद्धुल कच्चट नित्यदास्यडं बगु भवदीय सत्कृपयॆ यय्यदॆ नाकु बलम्बु श्रीपती ! अवतारिक : पै विषयमुने विवरिञ्चुचुन्नारु. श्लो॥ यदि त्वभक्तोप्यगुणो ऒपि निष्क्रियो निरुद्यमो निष्कृतदुष्कृतो न च । लभेय पादौ वरद! स्फुटा स्ततः क्षमादयाद्या स्तव मङ्गळा गुणाः ॥ (24) 95 186 प्रति 29 वरदराज स्तवमु हे वरद !—ओ वरदराजस्वामि ! अभक्तः अपि=भ क्ति योगमु लेनिवाँडनैननु, अगुणः अपि = दानि कङ्गमगु ज्ञानयोगमु लेनिवाँडनैननु, निष्क्रियः अपि=कर्मयोगमु _ लेनिवाँडनैननु, गमु लेनिवाँडनैननु, निरुद्यमः अपि= आनुकूल्यसङ्कल्पमु प्रातिकूल्यवर्णनमु मॊदलगु प्रयत्न मुलु लेनिवाँडनैननु, न, निष्कृतदुष्कृतः अपि, च प्रायश्चित्तमु चेसिकॊनँबडिन पापमुलु कलवाँडनु काक पोयिननु, अहम् = नेनु, तव= नीयॊक्क, पादौ= पादमुलनु, लभेय, यदि = पॊन्दुदु नेनि, ततः = अन्दु
वलन, क्षमा, दया, आद्याः = ओर्पु, कृप, मॊदलुगाँ गल, तव नीयॊक्क, मङ्गळाः = मङ्गळकरमुलगु, गुणाः=गुणमुलु, स्फुटाः = स्पष्टमुलैनवि, (भवेयुः = अगुनु.) विशेषमुलु :– मङ्गळाः – अमङ्गळ वस्तुवुलकुँ गूड मङ्गळमुनु गलिगिञ्चुनवि यनि भावमु. स्फुटाः- प्रकटाः भवेयुः बालुरकुँ गूड स्पष्टमुलैन वगुनु. भक्त्यादिर हितुँडनगु नाकु भवदीय पादपरिचर्य ननुग्र दयादियुक्तुँडवगु नीकु सिद्धपायत्वमु हिन्तु वेनि सिद्धिञ्चुननि भावमु. ता॥ ता ओ वरदराजस्वामी ! नेनु भक्ति योगिनि, ज्ञान योगिनि, कर्मयोगिनि, गाकुन्ननु, आनुकूल्य सङ्कल्पमु प्रातिकूल्य वर्जनमु मुन्नगुनवि लेनिवाँडनैननु पाप श्री वरदराज स्तवमु 187 मुलँ ब्रायश्चित्तादुल चेतँ बोँगॊट्टुकॊननिवाँड नैननु नाकु नी पादमुलु लभिञ्चिनयॆडल क्षमादयादुलगु नी कल्याणगुणमुलु जगत्प्रसिद्धमु लगुनु. शा॥ लेकुन्नन् बदभ क्ति, तद्गुणमुलुन् लेकुन्न सत्कर्ममुल् लेकुन्नन्, मऱि प्रातिकूल्यमतियुन्, लेकुन्न, पापादुलन् लेकुण्डन् बॊनरिञ्चु तत्प्रतिकृतुल् लेकुन्न, नी पादमुल् नाकुं गूर्चिन नी दयादिगुण र त्नम्बुल् प्रभू ! वॆल्ल डौन् , 95 अवतारिक इट्लु केवलमु दयादिसहितुँडगु भगवानुँडे युपायमनि प्रतिपादिञ्चि स्वाभिलषित कैङ्कर्यमुनकु विळम्ब हेतुवु लेदु कनुक वेगमुगा दानि ननुग्रहिम्प वेँडुकॊनुचुन्नारु. श्लो॥ विलोक नै र्विभ्रमणै रपि भ्रुवोः स्मितामृतै रिङ्गितमङ्गलै रपि । प्रचोदित स्ते वरद! प्रहृष्टधीः कदा विधास्ये वरिवस्यनं तव ॥ प्रति : हे वरद! 99 ओ वरदराजस्वामि! , तेदी नीयॊक्क, विलोक नैः = चूपुल चेतनु, भ्रुवोः= कनुबॊमल ‘नैः यॊक्क, विभ्रमणैः अपि = विलासमुल चेतनु, स्मित, 188 अमृतैः श्री वरदराज स्तवमु अमृतमुवण्टि चिऱुनव्वुल चेतनु, इङ्गित, मङ्गळै ः अपि = मङ्गळकरमुलगु हस्तचेष्टि तादुल चेतनु, प्रचोदितः = प्रेरितुँडनै, प्रहृष्टधीः = सन्तोषिञ्चिन बुद्धि गलवाँड नगुचु, अहम् – नेनु, तव = नीयॊक्क वरिवस्य नम्= शुश्रूषनु (दास्यमुनु) कदा= ऎप्पुडु, विधास्ये =
चेयँगलनु ? विशेषमुलु :— स्मितामृतैः- अमृतमुवलॆ रस्यमु लगु मन्दहासमुलचे विलोक नादु ले यत्यन्तो भोग्यमुलुगा नुण्डुट चेत वानिचेतँ ब्रेरण मतिप्रीतिनि गलिगिञ्चुनु. प्रीतितोँ जेयँबडु कैङ्कर्यमे प्रार्थनीय मनि भावमु. ता॥ ओ वरद! राजस्वामि! देवरवारि क्रेगण्टि चूपुल चेतनु, भूविलासमुल चेतनु, अमृतमुवलॆ रस्यमुलगु मन्दहासमुल चेतनु, हस्तादि चेष्टल चेतनु, ब्रेरितुँडनै सन्तोषमुतो नीनित्य दास्यमु नॆन्नँडु चेयँगलनो गदा ! उ॥ चूपुल भ्रूविलासमुल .. सॊम्पुलँ गॆञ्जिगुराकु मोविकि९ दापुनँ जिन्दुलाडॆडु सु धास्मितरोचुल निङ्गितम्मुलक् ब्रापित दास भावरुचि ‘… T.. भाग्युँडनै भवदीयसन्निधि नीपद सेवँ जेयाटदि नीरजनाभ ! यदॆन्नि नाळ्ळको ! 96 अवतारिक : श्री वरदराज स्तवमु दास्य मॊनर्चु मनि 189 ना कॊनति यॊसँगुँ डनि वाक्कुतो सैतमु प्रेरणमुनु ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु. प्रति 11 श्लो॥ विविश्य विश्वेन्द्रिय तर्षकर्षिणी र्मनस्थले नित्यनिखात निश्चलाः सुधासखी र्घ स्त्रीपते ! सुशीतलाः 1 गिरः श्रवस्याः श्रुणुयाम तावकीः ॥ 97 हे ह स्तिप ते ! = ओ करिगिरिनाथा!, विविश्य (लोनिकि) चॊच्चि, विश्व, इन्द्रिय, तर्ष, कर्षिणीः = समस्तेन्द्रि यमुलकु अभिलाषनु लिखिञ्चु (उत्पादिञ्चु) नट्टियु, मनःस्थले = हृदयमध्यमुनन्दु, नित्य, निखात, निश्चलाः =नित्यमु नाटँबडिनवि कनुकने चलनमु लेनट्टियु, सुधासभीः = अमृतमुनकुँ जॆलिकत्तॆ लैनट्टियु, सुशीतलाः = मिक्किलि चल्लनि नैनट्टियु, श्रवस्याः = चॆवुलकु हितमु लै नट्टियु, तावकीः=नीसम्बन्धमुलगु, गिरः = वाक्कुलनु, श्रुणुयाम= विन्दुमुगाक.
मिक्किलि वि शेषमुलु :– वि श्वेन्द्रियतर्ष कर्षिणीः— भोग्यमुलगुटचे स र्वेन्द्रियमुलनु जॊच्चि यभिलाषनु (इङ्कनु विनवलयुननु कोरिकनु) पुट्टिञ्चुनवि. रूपादुलनु ग्रहिञ्चु चकुरादुलकु सैतमु चॆवुल मैनचो बागुं डुनु गदा यनिपिञ्चुनवि यनि भावमु. लेदा- मुकि दशयन्दु नॊक्कॊक्क यिन्द्रियमुनकुँ गूड सर्व 150 (श्री) वरदराज स्तवमु विषयग्रहण नैपुण्यमु सम्भविञ्चुनु गान सर्वेन्द्रि यमुलकुँ गूड श्रवणाकाङ्क्षनु बुट्टिञ्चुनवि यनि तात्पर्यमु, लेदा— समस्त्रेन्द्रियमुलदप्पिनि दीर्चुनवि यनियु नर्थमुँ जॆप्पिकॊन वच्चुनु. गिरः श्रवस्याः श्रुणुयाम तावकीः— अत्यन्तरस्यमु लगु देवरवारि कुशलप्रश्न, कैङ्कर्यनि देशरूपमु लगु वचनमुलनु ऎन्नँडु वीनुल विन्दुगा विन्दु ननु नुत्कण्ठ यिन्दु गोचरिञ्चुचुन्नदि. अवतारदशलो सैतमु अन्तरङ्ग परिजनुलगु सुमन्त्रा क्रूरुलचे ‘आशया यदि वा रामः पुनश्शब्दापये दिति’ ‘मा मक्रू रेति वक्ष्यति’ अनु रघुनन्दन यदुनन्दनुल वाक्यश्रवणमु गूड निच्चट दृष्टान्तकोटिकिँ जेरुनु. ओ वरदराजस्वामि ! अतिभोग्यमु लगुटचे लोनँ ब्रवेशिञ्चि समस्तेन्द्रियमुलकु नभिलाष नुत्पादिम्पँ जेयुनट्टियु हृदयमुन गट्टिगा नाटुकॊनु नट्टियु, अमृतमुनु बोलुनट्टियु, सुशीतलमु लैनट्टियु, वीनुल विन्दुगा नुण्डु देवरवारि दास्या देशमु ननुग्रहिञ्चु वाक्कुल विन्दुमु गाक. उ॥ मानुगँ जॊच्चि यिन्द्रिय स माजमुनं दभिलाषँ बॆञ्चि बल् मानसमन्दु नाटुकॊनि माधुरिलो नमृतम्बु मिञ्चि यॆं श्री वरदराज स्तवमु 191 तेनियु शीतलम्बु लयि यीवरिवस्यनु जेयु मन्न मा वीनुलविन्दु नीनुडुलु विन्दुनु गाक करीश! वेग मे. 97 अवतारिक :- ‘अहं सर्वं करिष्यामि जाग्रतः स्वपत श्च ते. अन्नट्लु सदा सर्वकाल सर्वावस्थोचित सर्वविध कैङ्कर्याधिकासक्ति गल नी परिचारकुँडनु गावलयु ननि यभिलषिञ्चु चुन्नारु. योगिनीषु श्लो॥ आ शेष देशाखिल कालयोगिनी व्वहं त्ववस्था स्वखिला स्वनन्यधीः । अशेषदास्यैकरति स्तवाचरण् करीश ! व क्तेय सदा त्ववन्तिके ॥ 98 प्रति :- हे करीश ! = ओ वरदराजस्वामि! अशेष, दास्य, एक, रतिः= समस्तकैङ्कर्यमुले मुख्यभोगमुगाँ गलवाँडनु कनुक ने, अनन्यधीः = इतरमुलन्दु भोग्यता बुद्धि लेनि, अहन्तु ने नन्ननो, अशेष देश, अभिलकाल, समस्त देशमुलन्दु समस्त कालमुलन्दुनु अखिलासु = सम स्तमुलगु अवस्तानु जागरण स्वप्नाद्यवस्थलयन्दु, तव= नीयॊक्क, कैङ्कर्यम् = सेवनु) आचरन् = चेयुचु, सदा= ऎल्लप्पुडु, त्वत्, अन्ति के=नी सन्निधानमुन, वर्तेय = उन्दुनु गाक. सम्बन्धमुगल, अखिलासु =192 (श्री) वरदराज स्तवमु
- विशेषमुलु : तवाचरन् मूँडव पादमु चिवर गल दीनिकि ‘तदाचरन्’ अनि पाठान्तरमु गलदु. अप्पुडु तत् = आ कै ङ्कर्यमुनु, आचरन् = चेयुचु अनि यर्थमु.
- आ = यथास्थित पाठमुन आचरन् अनुदानिकि कर्मपदाध्याहारमु चेयवलॆनु. पाठान्तरमुन आ श्रम लेदु.
- सर्व देश
- ता॥ ओ करिगिरिनाथा ! सर्वविध कैङ्कर्यमुले मुख्य भोगमुलुगाँ गलवाँडनै यनः्यबुद्धिनै सर्वशालस र्वावस्थल यन्दु
- यन्दु नी कैङ्कर्यमुने नॆल्लप्पुडु नी सन्निधिलोने युन्दुनु गाक.
- म॥ सकलम्बुल् भवदीयदिव्य वरिव
- स्यल् भोग्यमुल् गाँग, निं
- चुकयुन्
- दीनि बोव नीक विषय
- बुद्धिनि
- स्तोमम्बुपै लोकना
- यक ! सर्वत्र सम स्तकालमुल स
- र्वावस्थलन्दुन् भव
- न्निकटम्बन्दुँ गरीश ! दास्यरतिनै
- ने नुन्दुँगा कॆप्पुडुन् .
- चेयुचु
- 98
- स्वात्मास्येवं
- अवतारिक ‘य श्च रामं नपश्ये त्तु यं च रामो न पश्यति । निन्दित स्सवसे ल्लोके स्वात्मा प्येवं विगर्हते’ इट्लु चॆप्पँबडिन द्वयमुनन्दुनु स्वामिवारि यङ्गीकार सूचकमगु यवलोकनमुने मॊदटँ ब्रार्थिञ्चु चुन्नारु.
- वरदराज स्तवमु
- श्लो॥ इमं जनं हन्त! कदाभिषेव्यते
- त्वदक्षिनद्यो र्वरद ! श्रमापहा । अकृत्रिम प्रेमरस प्रवाहजा विसृत्वरी वीक्षण वीचि सन्ततिः ॥
- 193
- 99
- प्रति : हे वरद! = ओ वरदराजस्वामी! त्वत्, अक्षि, सद्योः = तम कन्नुल नेडु नदुलकु सम्बन्धिञ्चिनट्टियु, अकृत्रिम, प्रेम, रस, प्रवाह, जा= स्वाभाविक प्रीति य नॆडु रसप्रवाहमुवलनँ बुट्टिनदियु कनुकने श्रम,
- य
- अपहा
- संसार तापत्रयमुनु बोँगॊट्टुनदियु,
- विसृत्वरी = अन्तटँ ब्रसरिञ्चुनदियु अगु, वीक्षण, वीचि,
- सन्ततिः = कटाक्ष तरङ्ग परम्पर, इमम् = ई जनम्=
- जनुनि (नन्नु) कदा= ऎप्पुडु, अभिषेक्यते = अभिषेकमु चेयँगलदो ! हन्त ! = अय्यो! आकाल
- रालेदु काँबोलु)
- मिङ्कनु
- वि शेषमुलु : श्रमापहा- संसार कान्तार सञ्चार मुनँ बॊडमिन यलसटनु बोँगॊट्टुनदि.
- गॊट्टुनदि. विसृत्वरी- नलुवैपुलँ ब्रवहिञ्चुनदि. इमं जनम्- तापत्रय सन्तप्तुँड नगु नन्नु. कदा ऒभिष्येते कटापॆ मृत रस सेकमु चे नन्नुँ गैङ्कर्यसाम्राज्याधि पत्यमुन नभिषि कुँ जेयु मनि भावमु. (25) 194 श्री वरदराज स्तवमु ता॥ ओ वरदराजस्वामि ! नी कन्नुल नॆडु नदुलकु सम्बन्धिञ्चिनदियु, सहजप्रेम यडु रसप्रवाहमुन जनिञ्चिनदियु, श्रमलनु दीर्चुनदियु, नलुवैपुल स्यन्दिञ्चु नदियु, नगु कटाक्ष तरङ्ग परम्पर संसार तापत्रय तप्तुँड नगु न न्नॆप्पुँडु नी दास्यसाम्राज्याधि पत्यमुन नभि षेकिञ्चुनो ! अय्यो ! आ समयमु रालेदा ? म॥ सहजप्रेमरस प्रवाहभवमै संसार तापत्रया पहमै यप्रहत प्रसाररय या त्वन्नेत्रनद्युत्थ दृ गृहुळोर्मिच्छट दास्यपीठमुन को कर्यद्रि चूडामणी ! द्रुहिण स्तुत्य पदाब्ज ! वीनि नभिषि क्तुं जेयुण्टि कॆन्नँडो ! श्लो॥ सदातन त्वे ऒपि तदातनत्वव न्न वीभवत्रेम रसप्रवाहया । निषेवितं त्वां सततोत्कया श्रिया करीश ! पश्येम परश्शतं समाः ॥ प्रति : हे करीश! 99 100 करिगिरिनाथुँडवगु ओ वरदराज स्वामी!, सदातनत्वे अपि=नित्यपरिचय मुन्नप्पटिकिनि, तदातनत्ववत् = क्रॊ त्तदानिवलॆ, (ऎन्नँडु परिचयमु लेनि श्री वरदराज स्तवमु 195 दानिवलॆ) न वी भवत्, प्रेम, रसप्रवाहया= क्रॊत्तदि गनुक ने, सतत, अगुचुन्न प्रेमरसप्रवाहमु गलदि उत्कया=ऎल्लप्पुडु उत्कण्ठ उत्कण्ठ (उत्साहमु) गल, श्रिया= लक्ष्मी देवि चेत, निषेवितम्= सेविम्पँबडिन, त्वाम्= देविचेत, = निन्नु, परश्शतम्= वन्दलकुँ बैँबडिन, (वन्दलकॊलँदि) समाः=संवत्सरमु लॆल्ल, पश्येम = चूतुमु गाक, वि शेषमुलु :- तदातनत्ववत्- अपूर्वमुवलॆ – सततोत्क सू- नित्यानुभव मन्ननु उत्सुकचित्त यगु निषेवितम् नित्यमु ननुभविम्पँबडिन (वरदराज विशेषणमु) पश्येम लक्ष्मीनि षेवितुँडगु - नारायण मूर्तिनि निरन्तरम्. परिचर्य चेयुट कॊऱकु साक्षात्का रमु चेसिकॊन्दु मनि भावमु. ता॥ ओ परच राजस्वामी ! नित्यपरिचितु रालैननु परि चयमु लेनिदानिवलॆ नपूर्वयै, ऎप्पटिकप्पुडु नूतन मट्लु कनिपिञ्चु प्रेमप्रवाहमु गलदियै, सततोत्सुक यैन लक्ष्मी देवि भजिम्प नॊप्पु निन्नु नू जेण्ड्लुनु गनुगॊन्दुमु गाक. उ॥ ऎप्पुडुँ जूडँगाँ बडुन दे ययिनप्पटिकिन् स्वदी प्ति चे 196 श्री वरदराज स्तवमु नप्पुडे चूडँगाँ बडिन यट्टु ल पूर्वगँ दोँचि नूत्नतन् जिप्पिलँ ब्रेमपूर मल श्री सततोत्सुकतन् भजिम्पँगा नॊप्पु करीश ! चूतुमु द योदधि ! निन्नुँ बरश्शताब्दमुल् . 100 अवतारिक :— इट्लु मन्त्ररत्न विवरण मन्त्ररत्नविवरण भूतमुनु प्रभूत वैभवो पेतमु नगु वरदराज स्तवमुनु बूर्ति चेयँ दलँचिनवारै श्री वैकुण्ठ स्तवोपक्रममन्दु ‘यो नित्य मच्युतपदाम्बुज युग्म पक्मव्यामोहतः’ अनु श्लोकमुनन्दु ‘रामानुजस्य चरण् चरणा शरणं शरणं प्रपद्ये’ इत्यादिकमु चे भाष्यकार चरण नळिनयुगळ प्रपत्तिये चे स्वोत्तारकमुगा स्वीकरिञ्चि युण्डुटवलनना प्रपत्तिने शङ्का पूर्वक्षमुगा सर्वज्ञुँडैननु भगवानुनकु रॆण्डु श्लोकमु लतो स्मरिम्पँ जेयु चुन्नारु. श्लो॥ समाहितै स्साधु सनन्द नादिभिः सुदुर्लभं भक्तजनै रदुर्लभम् । अचिन्त्य मत्यद्भुत मप्रतर्कणं वरप्रद ! त्वत्पद माप्नुयां कथम् ॥ 101 श्री वरदराज स्तवमु 197 प्रति हे वरद! ओ वरदराजस्वामि!, साधु= चक्कगा, समाहितैः समाधिनिष्ठुलगु, सनन्दनादिभिः = सनन्दनुँडु मॊदलगु वारिचेत, सुदुर्लभम्=बहुप्रय 8= त्न लभ्यमुनु, भक्तजनैः भ क्तजनुलचेत, अदुर्लभम्= अतिसुलभयत्नमु चेँ बॊन्दँदगिनदियु, अचिन्त्यम् चिन्तिम्प नलवि कानिदियु, अप्रतर्कणम् ऊहलकन्द निदियु, (कनुकने) अत्यद्भुतम् मिक्किलि आश्चर्यकर मगु त्वत्पदम् वैकुण्ठमनॆडु नीस्थानमुनु, कथम्
ऎट्लु, आप्नु याम् = पॊन्दुदुनु !
विशेषमुलु :- :- सनन्दनादिभिः- आदिपदमु चे सनकसन त्सुजात प्रभृतुलु ग्रहिम्पँबडुदुरु. भक्तजनै रदुर्ल भम् महनीयविषयकमगु प्रीतिनि भक्ति यन्दुरु. (पूज्ये व्वनुरागो भक्तिः) ‘‘अच्युतपदाम्बुजयुग्म रुक्मव्यामोहत स्तदितराणि तृणाय मेने’ अन्नट्लु भगवच्चरणबद्धप्रणयु लगु भाष्यकारादुलकु अति सुलभ मुनु, अचिन्त्यम्- इदि यिट्टिदनि चिन्तिम्प शक्यमुकानिदि. अप्रतर्कणम् इटुवण्टिदि गनुक- इट्लुण्डुनु अनि यूहिम्प शक्यमुकानिदि, ‘सहस्रशीर्षः पुरुषः सहस्राक्ष स्सहस्रपात्’ भगवन्तुँडु सहस्रशिरमुलु गलवाँडुगनुक द्विसहस्र नेत्रमुलु द्विसहस्रपादमुलु कलिगियुण्डव लॆनु. अनुतर्कमु लिच्चटँ जॆल्लवनि भावमु. त्वत्पद (26) 198 श्री वरदराज स्तवमु माप्नुयां कधम् ?- त्वत्पद्मप्राप्तिकि साधनभूतमुलगु वानिलो नॊकदानिनि गूड ननुष्ठिम्पनि नाकुँ द्वत्पदप्राप्ति यॆटु कलुगुननि भावमु. दीनितो वंश सदशकमु मुगिसिनदि. वंशस्थदशकमु ता।॥ ओ वरदराजस्वामि! चक्कगा समाधिनिष्ठुलगु ओ सनन्दनादुलकु सैत मत्यन्तदुर्लभमुनु भक्तजनुल कतिसुलभमुनु अचिन्त्यमु नतर्क्यमु नद्भुतमुनैन परमपदमु नॆटु पॊन्दुदुनु ? नी 16 उ॥ ध्यानसमाधिनिष्ठु लगु तत्सन कादुलकु सुदुर्लभं बौनॆदि, येदि भ क्तुलकु ह स्ततलामलकायमानमो ! देनि नचिन्त्य मूहसम तीतमु नद्भुत मञ्चु नन्दुरो ! दानिनि द्वत्पदम्बु वर दा! यित ने नॆटु पॊन्दुवाँडनो ! अवतारिक :— इप्पुडु शङ्कापरिहारमुनकु अनुष्ठि तांशमुनु मनस्सुनकुँ दॆच्चुचु ( ज्ञप्ति चेयञ्चु ) ( ‘पितामहं नाथमुनिं विलोक्य प्रसीद मद्वृत्त मचिन्त यामुना चार्युल वारु यित्वा ’ अनि सॆलविच्चिनट्लु श्री वरदराजु वरदराज स्तवमु रामानुजाम्फ्रीशरणो2स्मि, स्तोत्रमुनु मुगिञ्चु चुन्नारु.
त तवेक्षणियोजस्मि, श्लो॥ रामानुजाङ्घि शरणो2स्मि कुलप्रदीप स्वासी त्सयमुनमुने स्सच नाथवंश्यः । वंश्यः पराङ्कुशमुने स्सचस्कोपि देव्या दासस्तवेति वर दास्मि त वेक्षणीयः ॥ । 199 अनि 102 प्रति : - हे वरद ! = ओ वरदराजस्वामि!, रामानु जाङ्घ्रशरणः=श्रीरामानुजू चार्युलवारि पादमुले रक्षक मुलुगाँ गलवाँडनु, अस्मि = अगुचुन्नानु, सतु आरामानुजयति यन्ननो, यामुनमु नेः = मुनियगु यामुनाचार्युनियॊक्क, कुलप्रदीपः = वंश प्रकाशकुँडु, आसीत् = आयॆनु. सः, च= आयामुनमुनियु, नाथवंश्यः = नाथमुनियॊक्क वंशमुलोनिवाँडु, सः, च = अनाथ पराङ्कुशमु नेकि पराङ्कुशमुनियॊक्क, विद्यावंशमुनँ बुट्टिनवाँडु, सः, अपी = आ पराङ्कुशमुनियु, तव = नीयॊक्क, देव्याः = देवियगु लक्ष्मी देविकि, दासः = दासुँडु, 90 = अनि तव = नीकु, कटाक्षिम्पँ दगिनवाँडनु, अस्मि मुनियु, वंश्यः ईक्षणीयः
अगु चुन्नानु. 200 विशेषमुलु :- श्री वरदराज स्तवमु रामानुजाम्फ्रिशरणो2स्मि’ नतु रामाम्फ्रिचरण्को_स्मि— नेनु श्रीरामानुजाङ्घ्रशरणुँडनु गानि रामाङ्घिशरणुँडनु काननि यर्थमु भाव मेमनँगा.. ‘सिद्धि र्भवति वा नेति संशयोच्युत सेविनाम्। न संश यो2.त्र तद्भक्त परिचर्यार तात्मनाम् ’ भगवन्तुनि सेविञ्चुवारिकि सिद्धि कलुगवच्चुनु. कलुगक पोवच्चुनु. भगवद्भक्तुल परिचर्ययं दास क्तमगु मनस्सु गलवारिकि सिद्धिकलुगु विषयमुन संशयमेलेदु. सिद्धि कलिगियेतीरुनु. अन्नट्लु भगवद्भक्तुलगु श्रीरामानुजुल पादमुले शरण मुगाँ गल नाकु सिद्धि तप्पदनि याशयमु. ई श्लोकमुन स्वाचार्यसम्प्रदायशुद्धि विवरिम्पँ बडिनदि. स्कोपि देव्या दास स्तव- श्री पराङ्कुशमुनियु सर्वजनजननियु ‘देव्या कारुण्यरूपया’ अन्नट्लु देवरवारि करुणाव तार मगु गृहिणियुनैन श्री देविकि दासुँडु. ई परम्परकु जेसिन मेलु भार्यामुखोल्लास हेतु वगु ननि गूढाभिप्रायमु, ‘यस्या वीक्ष्य मुखं तदिङ्गित पराधीनो विध त्ते जलम्.. श्री स्तवमु. इति—— ई हेतुवुवलन तव, ईक्षणीयः अस्मि- नीकुँ गटाक्षिम्पँ दगिनवाँड नगु चुन्नानु. श्री वरदराज स्तवमु श्रीवत्साङ्कमिश्रुल विद्यावंशपरम्पर भगवपतुनि करुणावतारमगु श्री देवि 1 पराङ्कुश मुनि 201 नाथमुनि I यामुनाचार्युलु श्रीमद्रामानुजुलु रामानुजाम्फ्रीशरणुँडगु श्रीवत्साङ्क मित्रुँडु ‘न संशयो६ स्ति तद्भ क्त परिचर्यार तात्मनाम्’ अन्नट्लु नाकु सिद्धि तप्पदु गनुक नी निर्हेतुक कृपनु ना पै ँ ब्रसरिम्पँ जेयुमनि वेँडुचु श्रीवत्साङ्क मिश्रुलु ग्रन्थमुनु बूर्ति चेसिरि. रामानुजाम्फ्रिशरणोZस्मि अनुचोट रामानु जार्यचरणोऒस्मि— अनि पाठान्तरमु गलदु. इच्चट चरणशब्दमु वेदशाखावाचकमु. ‘चरणे ब्रह्मचारिणि 6-3-86 अष्टाध्यायी सूत्रमुन - चरणः शाखा- अनि कौमुदि— वेदप्रसिद्धि दि – वेद प्रसिद्धि रेवात्र मूलम्-अनि बालमनोरम, कनुक _श्रीरामानुजार्युलशाख गलवाँडनु. अनि यर्थमु.202 श्री वरदराज स्तवमु तरुवातँगूड वारि विद्यावंशमे चॆप्पँबडियुण्डुट चे नी पाठान्तरपाठमे यु क्तमनि तोँचु चुन्नदि. चरणशब्दमु . वेदशाखाधेृत्यपरमुगा व्याकरणप्रसि द्धमु. ‘गोत्रं च चरणै स्सह’ अनुचोट सिद्धान्त कौमुदि नारयुँडु. ता ॥ ओ वरदराजस्वामि! नेनु रामानुजा चार्य चरणशरणागतुँडनु. वारि विद्यावंशमुनकुँ जेरिनवाँडनु. श्रीमद्रामानुचार्युलु यामुनमुनिवंश प्रदीपकुलु, यामुनाचार्युलवारु नाथमुनिवंशस्थुलु. श्रीनाथमुनुलु पराङ्कुशुल सम्बन्धुलु पराङ्कुशुलु करुणावतार मगु देवरवारि यर्धाङ्गियैन श्री देविकि दासुलु गान देवर वारिकि नेनु कटाक्षिम्पँ दगिनवाँडनु. शा॥ श्री रामानुज देशि केन्द्रपदरा जीवावलम्बुण्ड नेक्, धीरुं डायति यामुनास्वयमणी दीपम्बु, श्रीयामुना पारप्रज्ञुँडु नाथवंश्युँ, डतँडो पाराङ्कुशुं, डातँडु नीरामामणि काश्रितुं डनि दय स्वीषिम्पु हस्तीश्वरा! ण श्री वरदराज स्तवमु क॥ पूर्ण पज्ञुण्ड समु त्तीर्ण व्याकरणवारिधिनि भक्ति रसो दीर्घ मगुदीनिँ दॆनुँगुनँ ण बूर्णमुँ गाविञ्चिनाँड बुधवरुलारा ! उ॥ वैष्णव सम्प्रदायि कवि वर्णित मी कृति विष्णुभ क्तिव मी र्धिष्णुवु दानि शेषुलु सु धीमणु लासति यीय दीनिपैँ दृष्णनु दीर्चुकॊण्टि निटु, तॆल्गॊनरिञ्चुचु, नेनु माध्वुँड वैष्णवुलार ! नादु पॊर पाटुलु गल्गिन चो क्षमिम्पुँडी ! म॥ तनकु मुक्ति करस मञ्चु भगव द्रामानुजाचार्युँ डॆ व्वनि सम्बन्धमु मॆच्चि शाटि नॆगुरन् वैचॆन् नभस्सीम, का घनकू रेशुलवाक्कु तोडँ जिरसं गं बब्बॆ धन्युण्ड नै तिनि नीवे कृतिभर्त वेटँ गृति नॆं ते रामचन्द्रप्रभू ! क॥ इदि दास शेषकृपचे नॊदविन भाग्यम्बु नाकु नुपकारिकिनी सदयुनकु नेमि गाविं चॆदँ ब्रत्युपकृतिनि ब्रणतिँ जेसॆद भक्तिन्. 203 204-15 श्री वरदराज स्तवमु ग द्यमु इदि यान्ध्र कादम्बरी शतलक्षणीत्यादि बहुग्रन्थ रचना धुरीण पाणिनीय पाथोनिधि विहरण पारीण, काश्यपसगोत्र श्री का वेरीजग न्नाथाचार्यपुत्त, निजां तेवासि हृत्प द्मरवि श्रीदासकुटी कोदण्डराम संस्थानकवि, कवि शेखर, महोपाध्याय विद्यालङ्कार साहित्य रत्ने र त्ने त्यादि बहुबिरु दाभि राम पळ्लॆवं शाब्दि सोम बुधजनविधेय पूर्णप्रज्ञ नामधेय प्रणीत भा वादर्शनाम कान्ध्र विवरणो पेत श्री श्री वत्साङ्क विरचित पञ्च स्तवी ग्रन्थ रत्नमुनन्दु सुन्दर बाहु वरद राज स्तवात्मकमगु द्वितीय सम्पुटमु समाप्तमु. श्री श्री श्री सूर्या फ्रैन्, तॆनालि, श्री हयग्रीवायनमः क्षे म मु म पूज्युलगु श्रीदान शेन स्वामिवारि पादपद्ममुल सन्निधिकि नमस्कारोभयकुशलोपरि तामु पम्पिन तिरुक्कोवलूरु महास्वामि श्रीमान् आदिवराहाचार्युलवारि युत्तर मुनु सादरमुगा बहुश्रद्धतोँ बलुसार्लु पठिञ्चितिनि, कानि वारि याशेषेपमुलु नाकु नच्चलेदु. भावादर्श टिप्पणिलो नेनु व्रासिनदे प्रमाणबद्दमै युचितमुगा नुन्नदि. कावुन वारि युत्तरमुलोनि आक्षेपमुल कन्निटि किनि नेनु समाधानमुनु व्रासि तमकुँ बम्पुकॊनुचुन्नानु. दीनिनि तमरुगूडँ जित्तगिञ्चि तम यिष्टानुसार मॊनर्पुँडु तमयाशीर्वादमु वलन नन्दऱमु क्षेममुगा नुन्नामु, नमस्कारमुलु. भवदीयुँडु पळ्ळॆपूर्ण प्रज्ञाचार्युलु. उत्तरमुनकु - समाधानमु सुन्दर बाहु स्तवमु श्लो - 8 पेजि 18 सहृदयु ली श्लोकमुनु निष्पक्षपातबुद्धितोँ दिलकिम्पँ ब्रार्थन. ई श्लोकमुनकु ना भावादर्शटिप्पणमुलोनि यन्वयक्रममु तन किष्टपडलेदनि श्रीमाज् तिरुक्कोवलूरु महास्वामि आदिवराहाचार्युलवारु श्री दास शेषस्वामिवारि कॊक यु त्तरमु व्रासियुन्नारु. वारि किष्टमुगानि विषयमु लिवि यनि तॆलिपिरि.
- सङ्गमाभिलाषि यगु मग येनुगुनकु चिक्कक परु गॆत्तु नट्टि याडयेनुगुनकु भगवन्तुँडु निलुवुमनि याज्ञ : यिच्चुट वाटिकि सङ्गममु जरुगुट यनुचितमु. 2. पवित्रमगु क्षेत्रमाहात्म्यमुनु वर्णिञ्चुट कसङ्गत मनि तोचिनदि.
- कूर नाथुनिवण्टि वानप्रस्थुँडु अट्लु वर्णिम्पँडनि स्पष्टमु इवि श्री याचार्युलवारि या क्षेपमुलु, 1व दानिकि. समाधानमु- सन्देहमु कलिगिनप्पुडु व्याख्यानमुनु जूचुट प्राज्ञ लक्षणमु ‘व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्ति र्न हि सन्देहा दलक्षणम्’ अनि शास्त्र मर्याद. आचार्युल वारु व्याख्यानमु तटस्थिम्पकपोवुटचे नाकुँ दोचिनयन्वयमुनु व्रायुचुन्नाननि युत्तरमुलोँ दॆलिपिरि. तनकुँ तनकुँ दोँचिनट्लु व्रायुट यन्तनमञ्जसमु कादनुकॊन्दुनु. ने नेव्याख्यानमु ननुसरिञ्चितिनो प्रश्निं चिन सन्तसिञ्चॆडु वाँडनु. अट्लुनु जेय लेदु. ना तॆलुँगु टीकलो ने वॆच्चटनु वाडनि ‘सङ्गम’ पदमु नॊकदानिनिँ दाने प्रयोगिञ्चुचु ‘एनुगुलकु लोतगु नीटि यन्दे सङ्गममु सुप्रसिद्धमु’ इत्यादु लेवियो व्रासिरि. दानितो नाकवसरमु लेदु. नेनु पञ्चस्तविकि संस्कृत व्याख्यात लगु श्री श्रीनिवासाचार्य विद्वन्मणुल व्याख्या नमु ननुसरिञ्चितिनि. ‘वशाकरिणोः प्रणयकलहे करिण्या द्रुतगमने प्रस्तुतेसति करिणा (णीं) न गच्छेति सुन्दरदोद्दि व्याज्ञायां कृतायाङ्करिणी कातरा सती मन्दं गच्छति ततः करी तदनुसारी भव तीति भावः’ विस्तरमु व्याख्यलोनि जूचुनदि. दीनि भावमु ने निट्लु विवरिञ्चितिनि. आ वनाद्रियन्दु गजमिथुनमुनकुँ ब्रणयकलहमु कलिगि याडेनुँगु कोपमुतोँ बरु गॆत्तिपोवुचुण्ड मग येनुँगु वॆण्टनण्ट लेनितऱि श्री सुन्दर बाहु देवुँडु मग येनुँगुनु पनिक रिञ्चि याडेनुँगुनु बाऱिपोवलदनि शासिञ्चुनु. अप्पुडदि भयपडि मॆल्लगाँ बोवुनु. अदि गमनिञ्चि मग येनुँगु दानि ननुसरिञ्चि स्वमनोरथमुनु तीर्चुकॊनुनु. इट्लु गजदम्पतुलकुँ ब्रणयकलहाशान्ति कलुगुनु.’ इन्दु नेनु सङ्गमपद मॆच्चटनु ब्रयोगिम्प लेदु. ‘स्वमनोरथमुनु दीर्चुकॊनुनु’ अनुदानिकि श्री आचार्युल वारट्लभिप्राय v1 पडि रेमो ! आमनोरथ मेमनिनँ ब्रणयकलहशान्ति यनि यनुपदमे युन्नदि गदा! ई प्रणयकलहमु लोतु नीटिलो सङ्गमिञ्चुटवलनने शान्तिम्प वलॆना? मार्गान्त रमुलु लेवा ? चूडुँडु श्लो॥॥ केळिं कुरुष्व परिभुङ्क्ष्य सरोमहाणि गाहस्व शैलतट निररिणी पयांसि । भावानुं ककरिणी करलालिताङ्ग ! मातङ्गि’ मुञ्च मृगराज रणाभिलाषम् ॥ अनुर क्त भाव यगु करिणि करलालनमु गाविञ्चिनचोँ ब्रणयकोपमु पटापञ्चलै पोदा ? करलालनादुल चेतने स्वमनोरथमुनु दीर्चुकॊने नन्न ननुचित मेमुन्नदि? भगवानुँडु करिणिनि निलुवु मनि शासिञ्चुटयु नुचितमु कादनि श्री आचार्युलवारु सॆलविच्चिरि. वनाद्रिकिँ ब्रभुवै सर्वचराचर वर्गमुनु शासिञ्चु नाश्रितवत्सलुँडगु सुन्दर बाहुस्वामि भ र्ततो जगडमाडि पाऱिपोवुचुन्न करिणिनि आगुमु भर्त ननुसरिम्पुमु, अनुट प्रभुधर्ममु कादा ? ‘धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे, अन्न परमात्म यिट्टि व्यतिक्रममुनु सहिञ्चुना? करिवरदुँडु करिनि गनिकरिम्पँडा ? भर्त ननुसरिञ्चुट भार्यकुँ बरम धर्ममै युण्डँ दद्भिन्नमुगाँ ब्रवर्तिञ्चुकरिणिनि सुन्दर बाहुस्वामि यट्लु शासिञ्चुट प्रतीपगामिनुलगु कामिनुल कॆल्ल नॊक हॆच्चऱिकयै उत्तमधर्ममु नुपदेशिञ्चुचु नॆन्तयु समुचितमुगा नुन्नदि. दूरदृष्टि गलकवु लिपे V11 धर्मबोध मॊनरिन्तुरु. तनतो वनवासमुनकु सिद्दपडिन सीतनु मन्दलिम्पु मनि रामुँडु तम्मुनिँ गोर भासकवि लक्ष्मणुमुखमुन नेमनिपिञ्चु चुन्नाँडो ! यरयुँडु. श्लो॥ अनुसरति शशाङ्कं राहुदोषे ऒपि तारा, पतति च वनवृक्षे याति भूमिं लताच । त्यजति स च क रेणुः पङ्क लग्नं गजेन्द्रं नचक प्रजलु चरतु धर्मं भर्तृनाथा हि नार्यः ॥ (प्रतिमानाटके ग्रहणकालमुन सैतमु तार चन्द्रु ननुसरिञ्चुनु, वन तरुवु पडिपोँगा दानि नाश्रयिञ्चिन तीँगॆयुँ बडिपोवुनु. बुरदलोँ गूरुकॊनि पोयिननु गरीन्द्रुनिँ गरेणुवु विडनाडलेदु. अट्ले यी सुशीलयु पनिकि वॆळ्लि स्वीयधर्ममु ननुवर्तिञ्चुँ गाक नारीमणुलकु दिक्कु नाथुँडेग दा ई धर्मबोध मॆन्त मनोहरमुगा नुन्नदि? समयमु दॊरकि नपुडॆल्ल सत्कवुलु नीति नुपदेशिम्पकि मानरु. असलु काव्यमु नीतिबोध के गदा ‘कान्ता सम्मितत योप देशयुजे’ अनि आलङ्कारिकुल सूक्ति. इट्टि यवकाशमुने पुच्चुकॊनि कविकुलगुरुवु श्री काळिदासु श्लो॥ शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तटि न्निलीयते । प्रमदाः पतिवर्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनै रपि ॥ (कुमारसम्भवे) सतुलु पतिमार्ग मनुसरिम्पवलॆ ननुट यचेतनमुलकु सैत मनगतमन्न निँकँ जेतनुलमाट चॆप्पवलॆना ! viii यनि सूचिञ्चुचु मतॊक्कडुगु मुन्दु वेयुट गमनिम्पँ दगिन विषयमु कनुकने दूरदृष्टि गलिगि कविताहृदयमु नॆऱिङ्गिन कू रेशुलु सुन्दर बाहु दिव्याज्ञ चेतँ ग रेणुवु नापिञ्चि पडँतुलकु भर्तल ननुवर्तिञ्चुट परमधर्म मनु नीतिनि बोधिञ्चुट समुचितमनिये नेनु विश विश्वसिञ्चुचुन्नानु, ‘चतुर्णां पुरुषार्थानां दाता देव श्चतुर्भुजः’ अन्नट्लु वनाद्रियन्दु नाश्रितुलकुँ जतुर्विध पुरुषार्थमुल नॊसँगुटकुँ जतुर्भुजमुलतो वॆलसिन श्री सुन्दर बाहु मूर्ति प्रणयकुपित यगु भार्यवलनँ दृतीय पुरुषार्थार्थि य.गु नी याश्रितुनकु नद्दानि ननुग्रहिञ्चॆनन्न दनौचित्य मावन्तयुँ गान रादु. वनगिरियन्दु वसिञ्चु प्राणिवर्गमन्तयु सनकादिसदृशमु कादु गदा ! निं 2 ‘पवित्रमगु क्षेत्रमाहात्म्यमुन निट्टि वर्णन मसङ्ग तमु’ अनु रॆण्डवदानिकि समाधानमु. करिगिरि पवित्र क्षेत्रमे कदा! तन्माहात्म्य मॊक्किन्त तिलकिम्पुँडु. सर्व विद्याधिष्ठान देवत यगु सरस्वति तनभर्त परमेषि तन सपत्नियगु सावित्रिनि ब्रक्क निडुकॊनि यज्ञ मॊनर्चु चुन्नाँडनि विनि कुपितयै सह्याद्रिनाश्रयिञ्चि यज्ञस्थलमुनु मुञ्चिवेय वेगवतीनदियै प्रवहिम्प भगवानुँडगु नारायणुँ डा नदिकि सेतुवुवलॆ नड्डुपडि भक्तुँडगु परमेष्ठि यज्ञमुनु गाचुट चदिवियुन्नामु. दीनिचेँ गरिगिरि महिम तग्गुना ? असङ्गतमु मात्र मेमि कलदु? ix असङ्गतमुल सङ्गत मॊनर्चु दैववण्ट वॆलयुट चेतने कदा यदि यॊक्क क्षेत्रमुगा गणन कॆक्कुट- इट्टिवि पै पॆच्चु महत्तापादकमुले यगुनु. कनुकने वेदान्त देशिकुलु ई पवित्रविषयमुनु तन हंससं देशमुन ‘पत्यौ रोषात् सलिलववुषो यत्र वाग्देवतायाः सेतु र्जज्ञे सकलजगता मेक सेतु स्स देवः’ अनि उद्घाटिञ्चि युन्नारु. इट्टि वॆन्नि यो क्षेत्रमाहात्म्यमुल नुण्डि चूपवच्चुनु. ផ 3 कूरनाथुनिवण्टि वानप्रस्थुँ डटु वर्णिम्पँडनि स्पष्टमु. अनॆडु मूँडवदानिकि समाधानमु. श्री कूर नाथुँडु वानप्रस्थुँ डनुटकु मा कॆट्टि विप्रतिप त्तियु लेदु. अन्तेकादु. महाभ क्तुँडु महाविर क्तुँडुनु. गुरुवुलु पोरिननु श्री वरदराजस्वामुलनु गन्नुल वेँडनि महा विरागुलु. कानि वारि वर्णनलकु वारि वृत्तमुनकु सम्बन्ध मे मात्रमु लेदनि ना यभिप्रायमु, पॆद्दलयभिप्रायमु गूड नदिये चूडुँडु. 6नहि कविना परदारा एन्टव्या नापिचोपदेष्ट व्याः कर्तव्यतया2 न्येषां नच लेदुपायोऒ भिभातव्यः । किन्तु तदीयं वृत्तं काव्याङ्गतया स केवलं वक्ति आराधयितुं विदुषः तेन न दोषः कवे रत्र (रुद्रटप्रणीते - काव्यालङ्कारे) अनि रुद्रटुँडु चॆप्पिन विषयमु सत्यमु. मुम्माटिकि सत्यमु, कानिचो_X ‘अभिमतबहू भावाः कान्ताभिरम्भण सम्भ्रमे सुन्दर - 54 भार्यनु गौँगिलिञ्चुकॊनुटकु नाल्गु बाहुवु लेमि चालुनु. इङ्कनु पॆक्कु बाहुवुलुण्डिन बागुण्डुननि स्वामिना रभिलाषपडि रँट. इदि वानप्रस्थुनिनोट वच्चु माटयेना ? ♡ श्लो॥ आश्लेष वरद! भुजास्तवेन्दिराया गोपीना मभिमत रासबन्ध ने वा । बन्धे वा मुद मधिकां यशोदयाहो ! सम्प्राप्ता स्तव नवनीतमोषदोषात् ॥ वरद
उ॥ इन्दिर कौगिलिन्त बिगियिञ्चिन यप्पुडॊ ! गोपसुन्दरी बिट्टुगँ बृन्दमु रासगोष्ठि निनु बिट्टु गँ बट्टिनयस्डा, तोटिकिन् नन्दुनिपत्नि दॊङ्गवनि नाँडटु बद्धु नॊनर्चिनप्पुडो ! अ अन्दॆ भवद्भुजम्बुलु प्रहर्षमु श्री करिशैलभूषणा ! इदि परमविर क्तुनि पलु केना ? ‘स्वां प्रेयसीं रमयिते पनशैल नाथः” 43 300 - 71 ‘सिरि नात्माङ्गनँ जॊक्कँजेयु हरिया श्रीसुन्दरुं डॆप्पुडुन् ‘वर दाघ्रात मभीष्टगोपी काभिः’ श्लो॥ ‘पद्मायाः प्रणयरसात् समासजन्ता वरद 39 वरद - 41 इट्टिवि परमभ क्तुनि भाषितमुला ? कावुन वै राग्यादुलकु वर्णनलकु सम्बन्धमु लेदनि नेनु मॊदटने मनवि चेसिकॊण्टिनि, ‘तेन न दोषः कवे रात्र’ अन्न रुद्रटुनि सू क्रिये यथार्गमु, कानिचो xi श्लो॥ आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य परस्त्रीयः निपीड्य च कुचै स्सुप्ताः कामिन्यः कामुका निव सुन्दर–सर्ग 10 - श्लो-40 इत्यादि श्लोकमुल व्रासिन कवितास्वयंवर पतियगु आदिकवि कामुकुँडु कावलसिन देना ? कं॥ ई हेमन्तमु. राककु श्रीहरि यॊक्किन्त वडँकि चिन्तिम्पङ्गा नोहो! वॆऱुवकु मनि ता मा हरिकिनि (श्रीकुचम्बु लभयं बिच्चॆक् कं॥ कॊडुकुलु लेरनि यॊक सति भागवतमु 10 स्कं - 808 कडु वगवँगँ दन्नु मगनिँगाँ गैकॊनि नं गॊडुकुलु गलिगॆद रनि पैं बडिनाँ डदि रव्व शिशुवुपनुले तल्ली ! भागवतमु 10 स्कं 319 बण्डबूतुलकवि पै पद्यमुल व्रासिन भ क्त पोतन कावलसिन देना ? अट्लनुटकु नॆवरुनु साहसिम्पँ जालरु. दीनिचे मूँडव याक्षेपमुनु समाहितमु, कान श्री श्रीनिवास विद्वन्मणि व्याख्यानुसारि यगु मदीय भावादर्श टिप्पणीप्रदर्शित मगु नन्वय क्रममे प्रमाण बद्धमु समञ्जसमुनै युन्नदनि मनवि. मऱियु श्री याचार्युलवारु तम युत्तरमुलो निट्लु व्रासिरि. स्तोत्रमुलो आरवश्लोकमु मॊदलु पॆट्टि 13 व श्लोकमुवऱकु पर्वतमुनु वर्णिञ्चुटलो वैष्णव निष्ठनु, तल्लक्षणमुलनु ई xii ब्रधानमुग वर्णिञ्चियुन्नारु. काबट्टि यी श्लोकमुनकुँ गूड नट्टि यन्वयमुने साधिम्पवलॆनु. ई नियममु नॆवरु पॆट्टिरि ? 12व श्लोकमुवऱके येल येल काकूडदु. श्लोकमुनकु सरळमुगानगु सन्वयमुनु जॆप्पुट समञ्जसमु गानि लेनि यरमुनु बलवन्तमुगा साधिम्पँबूनुट ‘समु चितमु काकपोँगा ‘बल्मिकोलु गाविञ्चिन विरसम्बगु नटञ्चुँ जॆप्पिरि विबुधुल्’ अन्नट्लु विरसमे यगुनु. श्री आ श्री आचार्युल वारु सॆलविच्चिन यर्थमुलो आज्ञाशब्दमुनकुँ दम यिष्टमु वच्चिनट्लु ब्रह्मचर्य कामविज यूदि रूपमगु आज्ञ यॊक्क, अनि यर्थमु चॆप्पुटयु, प्रणयकलहशब्दमु रूढिच्युत मगुटयु, सुन्दर बाहुस्वामिवारि याज्ञ अभावमुचे विर क्तमगु करियन्दु विफलमगुटयु मुन्नगु विषयमुलु ना मनस्सुकु नच्च लेदु. नेनु यर्थमुनं दे सुन्दर बाहुस्वामि दिव्याज्ञ निराघाटमुगा सागिनदि. देवरवारि याज्ञ चेँ ब्रणयकलहमु चल्लारि द्रुतगति यगु करिणि मन्दगमनयै पति तन्नुँ गलसिकॊन नवकाशमिच्चि सतुलु पतुल ननुसरिम्पवलयुननु नुत्तम धर्ममु नुपदेशिञ्चुचु विष्णुनाज्ञकु विधेयमै वैष्णव निष्ठनु जटिनदि. श्री आचार्युलवारि परिचयमु नाकु लेदु. बञ्चस्तवी व्याख्यानमु लेवेनि उन्न चोँ यॆडल नन्दलि विशेषमुलनु अनुबन्ध ब्रकटिञ्चि कृतज्ञतनु दॆलुपुकॊन्दुनु. 11_11_1961 व्रासिन वारियॊद्द ँ ब्रसादिञ्चिन पञ्च स्तबिलोँ इट्लु, बुधजन विधेयुँडु पळ्लॆपूर्ण प्रज्ञाचार्युलु. पञ्चस्तवि द्वितीय सम्पुटमु तप्पॊप्पुल पट्टिक प्रार्थनादिकमु पुट 19 पङ्क्ति तप्पु द्ग्रन्थुन् ऒप्पु!’ द्ग्रन्थुन् तधाम. सुन्दर बाहु” स्तवमु 22 तदाम 11 6 वनिगिरि वनगिरि 15 तळ्लु खण्ड तरुवण्ड 13 "” यत यात्र.. 16 21 25 14 स्वमतत् प्रकाशने स्वमतम् प्रकाशने 33 11 एव एष 34 6 19 3S 11 34 35 38 .39 ब्रह्मणमु स्वामित्वमु काशइति ते रॆण्डव तडव ई अङ्कॆलुगल पेजीलनु ब्राह्मणमु र्यामि- त्वमु काश- तेइति 42 43 46 47 अनि सरिचेसिकॊनवलॆनु. 43 (35) 7 विदादुलकुनु विन्दादुलकुनु 57 वॆक्क लॆक्क 59 3 याचरमु 61 6 स्वन्तै 62 8 जनैः 63 22 67 2 श्रुतुष्ष सुण्डर यादरमु स्वचरितै ज ដខៈ श्रुति सन्द पुट 79 20 तप्पु स्वात् 2 इप्पु 81 14 विल सर्वि 83 11 86 14 102 15 105 3 12 " 123 2 130 15 छ 142 14 मात्र 149 2 151 16 चुन्नट्टिमु दीपिञ्चु बॊङ्गि प्रश्योतत् मूण्डिण्टि पोकुं प्रिया ऒक्क विक्रमद्वये स्यात् विलसद्वि बॊन्दि प्रश्च्योतत् मूँडिण्टि पोकुँ प्रियोऒक्क द्वये च मात्रमु चुन्नट्टियु दीपिन्त्रु 152 5 पथे पदे 154 6 इत्न्यादुलँ 161 18 166 19 171 12 सरेश्वरत्व पुराजभूत् इत्यादुलँ सर्वेश्वरत्व नीटुगल पुराभूः 176 19 विम्भिदाने विभिन्दाने 199 9 ववान् भवान् 212 8 भूषणमुल् भाषणमुल् 15 39 भस्म भ 214 18 किञ्चम् किञ्चिल् 222 25 कटि धव वरदराज स्तवमु ज तप्पॊप्पुल पट्टिक ऒप्पु पुट पं क्लि तप्पु 2 3 निर्विष्नु निर्विघ्न 13 अभ्यदत्त अभ्यध त्त 15 12 निरुणमा निर्गुणमा 15 18 निवारिञ्चुनुन्नदि निवारिञ्चुचुन्नदि 24 11 यॆक्लॆङ्गितिरि यॆटैऱिङ्गितिरि 38 6 सजातीयुँडु सजातीयुँडु 57 15 कर्णका कर्णिका
कर्णि कर्ण 60 2 भाहुल बाहुलक् 63 19 शिष इट 64 5 स्वामिवारि स्वामिवारि 77 2 85 18 86 2 · 86 3 93 2 सङ्क्लिष विटवम्बुल् मुद्दै महात्म्यं सङ्क्लिष्ट रबिभश्च मुष्णा विटपम्बुल् माहात्म्यं 95 9 आकिरणमु 108 13 पादप्रवाहम् 114 5 इन्दु आकिणमु पादप्रवादम् इन्दुः 4 पुट पं कि 4 ) तप्पु ऒप्पु 117 21 मार्गं सर्गं 124 3 सृष्ट्यिवन स्पष्ट्यवन 125 16 फले परे 126 13 स्वत्वेतरं स्वल्फेतरं 127 18 भगरन्तुँडे भगवन्तुँडे 149 10 नरमुन नरकमुन 159 22 पौणिनि ना पाणिनिना 178 10 यद्गुणं यद्गुणः 179 18 यॆटि यॆट्टि 181 13 क्षमानिभे क्षमानि धे r 182 21 मन्त्ररत्नोर मन्त्ररत्नोत्तर 194 14 जेयुण्टि जेयुटिं 201 7 मित्रुँडु मिश्रुँडु ↓