श्रीवैकुण्ठगद्यम्

॥ श्रीः ॥

॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥

श्रीभगवद्रामानुज-विरचित- गद्यत्रये, तृतीयं ॥ श्रीवैकुण्ठगद्यम् ॥

यामुनार्यसुधाम्भोधिमवगाह्य यथामति ।
आदाय भक्तियोगाख्यं रत्नं सन्दर्शयाम्यहम् ॥ (१)

स्वाधीनत्रिविधचेतनाचेतनस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदं, क्लेशकर्माद्यशेषदोषासंस्पृष्टम्, १

स्वाभाविकानवधिकातिशय ज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजःप्रभृत्यसंख्येयकल्याणगुणगणौघमहार्णवम्, २

श्रीयामुनाचार्यरूपी सुधासागर में अवगाहन कर मैं अपनी बुद्धि के अनुसार भक्तियोग अर्थात् भगवदनुसन्धान रूप रत्न लाकर दिखा रहा हूँ ॥ १॥

जो बद्ध, मुक्त और नित्य तीन प्रकार के चेतन तथा अचेतन के स्वरूप, स्थित एवं प्रवृत्ति को अपने अधीन रखते हैं, क्लेश, कर्म आदि सम्पूर्ण दोष जिनका स्पर्श नहीं कर पाते । १

जो स्वाभाविक, असीम, अतिशय, ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेज आदि असंख्य कल्याणगुण समूहरूपी जलप्रवाह के महासागर हैं । २ ( २६ )

परमपुरुषं, भगवन्तं, नारायणं, स्वामित्वेन सुहृत्त्वेन गुरुत्वेन च परिगृह्य, ३

ऐकान्तिकात्यन्तिक - तत्पादाम्बुजद्वयपरिचर्यैकमनोरथः तत्प्राप्तये च तत्पादाम्बुजद्वयप्रपत्तेरन्यन्न मे कल्पकोटिसहस्रेणापि साधनमस्तीति मन्वानः, तस्यैव भगवतो नारायणस्य, अखिलसत्त्वदयैकसागरस्य, अनालोचितगुणागुणाखण्डजनानुकूलामर्यादशीलवतः, स्वाभाविकानवधिकातिशयगुणवत्तया देवतिर्यङ्मनुष्याद्यखिलजनहृदयानन्दनस्य, आश्रितवात्सल्यैकजलधेः, भक्तजनसंश्लेषैकभोगस्य, नित्यज्ञानक्रियैश्वर्यादिभोगसामग्रीसमृद्ध

ऐसे परमपुरुष भगवान् नारायण को स्वामी, सुहृत् एवं गुरु के रूप में ग्रहण कर । ३

( साधक ) उनके दोनों चरणकमलों की ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक भाव से सम्पन्न परिचर्या ( सेवा ) की अभिलाषा करे और उस सेवा को प्राप्त करने के लिये उन चरणकमलों की शरणागति के सिवा मेरे लिये सहस्र कोटि कल्पों तक भी दूसरा कोई साधन नहीं है, ऐसा विश्वास करे । जो समस्त जीवों के प्रति उमड़नेवाली दया के एकमात्र सागर हैं, जो गुण अवगुण का विचार किये बिना ही सब लोगों के अनुकूल हैं एवं असीम शील से सम्पन्न हैं, स्वाभाविक असीम अतिशय गुणों से युक्त होने के कारण देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि समस्त जीवों के हृदय को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, आश्रितजनों के प्रति वत्सलता के एकमात्र समुद्र हैं, भक्तजनों से संयोग ही ( २७ )

स्य, महाविभूतेः, श्रीमतश्चरणारविन्दयुगलम् अनन्यात्मसञ्जीवनेन तद्गतसर्वभावेन शरणमनुव्रजेत् । (२)

ततश्च प्रत्यहम् आत्मोज्जीवनाय एवमनुस्मरेत् । (३)

चतुर्दशभुवनात्मकमण्डं दशगुणितोत्तरं चावरणसप्तकं समस्तं कार्यकारणजातमतीत्य, १

वर्तमाने परमव्योमशब्दाभिधेये ब्रह्मादीनां वाङ्मनसागोचरे श्रीमति वैकुण्ठे दिव्यलोके सनकविधिशिवादिभिरप्यचिन्त्यस्व

जिनका भोग है, ज्ञान, क्रिया ऐश्वर्य आदि भोग सामग्री से जो नित्य सम्पन्न हैं, जो महावैभवशाली हैं उन श्रियःपति भगवान् के दोनों चरणकमलों को अनन्यभाव से अपना जीवनाधार मानकर तथा सम्पूर्ण भाव लगाकर उनकी शरण ग्रहण करे ॥२॥

इसके पश्चात् अपने आत्मोज्जीवन के निमित्त प्रतिदिन इस प्रकार स्मरण करे ॥३॥

इस ब्रह्माण्ड में चौदह भुवन हैं। इसके उत्तरोत्तर दशगुणित सात आवरण हैं । यह समस्त कार्य-कारण रूप जगत है । इससे परे है वैकुण्ठधाम । १

परम व्योम इसी का एक नाम है । यह ब्रह्मा आदि की मन-वाणी के लिये अगोचर है । लक्ष्मी के वैभव से सम्पन्न यह वैकुण्ठ दिव्य लोक है । यह वैकुण्ठधाम ऐसे असंख्य दिव्य ( २८ )

भावैश्वर्यैर्नित्यसिद्धैरनन्तैर्भगवदानुकूल्यैकभोगैः दिव्यपुरुषैर्महात्मभिरापूरिते तेषामपीयत्परिमाणम् इयदैश्वर्यम् ईदृशस्वभावम् इति परिच्छेत्तुमयोग्ये, २

दिव्यावरणशतसहस्रावृते दिव्यकल्पकतरूपशोभिते दिव्योद्यानशतसहस्रकोटिभिरावृते अतिप्रमाणे दिव्यायतने, ३

कस्मिंश्चिद्विचित्रदिव्यरत्नमये दिव्यास्थानमण्डपे दिव्यरत्नस्तम्भशतसहस्रकोटिभिरुपशोभिते दिव्यनानारत्नकृतस्थलविचित्रिते दिव्यालङ्कारालङ्कृते, ४

महात्मा पुरुषों से परिपूर्ण है जिनका स्वभाव एवं ऐश्वर्य सनक, ब्रह्मा, शिव आदि के लिये भी अचिन्त्य है । उन दिव्य पुरुषों का भोग एकमात्र भगवान् की अनुकूलता ही है। उनका परिणाम इतना है, ऐश्वर्य इतना है, स्वभाव ऐसा है इत्यादि बातों का निर्धारण करना भी अशक्य है । २

यह दिव्यधाम एक लाख दिव्य आवरणों से आवृत है । दिव्य कल्पवृक्षों से सुशोभित है। शतसहस्रकोटि दिव्य उद्यानों से घिरा हुआ है। अति विस्तृत है । दिव्य आयतन युक्त है । ३

वहाँ एक दिव्य आस्थानमण्डप ( सभा भवन ) है जो विचित्र एवं रत्नमय है । वह शतसहस्रकोटि दिव्य रत्नमय स्तम्भों से सुशोभित है। वहाँ की भूमि नानाप्रकार के दिव्य रत्नों से जटित है। वह सभाभवन दिव्य अलंकारों से अलंकृत है । ४ ( २६ )

परितः पतितैः पतमानैः पादपस्थैश्च नानागन्धवर्णैर्दिव्यपुष्पैश्शोभमानैर्दिव्यपुष्पोपवनैरुपशोभिते, ५

सङ्कीर्णपारिजातादिकल्पद्रुमोपशोभितैरसङ्कीर्णैश्च कैश्चिदन्तःस्थपुष्परत्नादिनिर्मितदिव्यलीलामण्डप- शतसहस्रोपशोभितैस्सर्वदा अनुभूयमानैरपि अपूर्ववदाश्चर्यमावहद्भिः क्रीडाशैलशतसहस्रैरलङ्कृतैः, ६

कैश्चिन्नारायणदिव्यलीलाऽसाधारणैः कैश्चित्पद्मवनालयादिव्यलीलाऽसाधारणैस्साधारणैश्च कैश्चिच्छुकशारिकामयूर

अनेकानेक दिव्य उपवनों से सुशोभित है। उन उपवनों में भाँति भाँति की सुगन्ध से युक्त रंगविरंगे दिव्य पुष्प सुशोभित हैं जिनमें से कुछ नीचे गिर गये हैं, कुछ वृक्षों से नीचे गिरते रहते हैं, तथा कुछ उन वृक्षों की डालियों पर ही लगे हैं । ५

ये उपवन कहीं घने तथा कहीं विरल पारिजात आदि कल्पवृक्षों में सुशोभित हैं । ये उद्यान पुष्प, रत्न आदि से निर्मित लाखों दिव्य लीलामण्डपों से सुशोभित हैं। सर्वदा अनुभव किये जाने पर भी नित्य नवीन जैसे आश्चर्यजनक मालूम पड़ते हैं । ये उद्यान लाखों क्रीडापर्वतों से अलंकृत हैं ।६

इनमें से कुछ नारायण की दिव्य लीला के असाधारण स्थल हैं, कुछ लक्ष्मी की दिव्य लीला के असाधारण स्थल हैं तथा कुछ साधारण स्थल हैं । शुक, सारिका, मयूर और कोकिल ( ३० )

कोकिलादिभिः कोमलकूजितैराकुलैर्दिव्योद्यानशतसहस्रैरावृते, ७

मणिमुक्ताप्रवालकृत - सोपानैर्दिव्यामलामृतरसोदकैर्दिव्याण्डजवरैरतिरमणीयदर्शनैरतिमनोहर- मधुरस्वरैराकुलैः अन्तःस्थमुक्तामय - दिव्यक्रीडास्थानोपशोभितैर्दिव्यसौगन्धिकवापीशतसहस्रैर्दिव्यराजहंसावलीविराजतैरावृते, ८

निरस्तातिशयानन्दैकरसतया चानन्त्याच्च प्रविष्टानुन्मादयद्भिः क्रीडोद्देशैर्विराजिते तत्र तत्र कृतदिव्यपुष्पपर्यङ्कोपशोभिते

आदि दिव्य पक्षियों के कोमल कलरवों से व्याप्त शतसहस्रकोटि दिव्य उद्यान आस्थानमण्डप को घेरे हुए हैं । ७

लाखों दिव्य सुगन्धियुक्त बावलियाँ आस्थानमण्डप को घेरे हुए हैं। इन बावलियों में उतरने के लिये मणि, मुक्ता और मूंगों की सीढ़ियाँ हैं। इनमें दिव्य निर्मल अमृत रस भरा है । दिव्यपक्षी, जो देखने में अत्यन्त सुन्दर लगते हैं, जिनके मधुर स्वर अति मनोहर लगते हैं, इन बावलियों में विद्यमान रहते हैं । उनके भीतर मुक्तामय दिव्य क्रीड़ास्थान बने हुए हैं। दिव्य राजहंसों की पंक्तियाँ भी यहाँ रहती हैं। ८

आस्थानमण्डप में कितने ही क्रीडास्थल हैं जो सर्वाधिक आनन्दैकरसस्वभाव एवं अनन्त होने के कारण प्रवेश करनेवालों को आनन्दोन्माद से उन्मत्त कर देते हैं । आस्थानमण्डप के विभिन्न भागों में दिव्य पुष्पों के पर्यंक शोभायमान हैं। नाना प्रकार के पुष्पों का रसपान कर उन्मत्त भ्रमरों की ( ३१ )

नानापुष्पासवास्वादमत्तभृङ्गावलीभिरुद्गीयमानदिव्यगान्धर्वेणापूरिते चन्दनागरुकर्पूरदिव्यपुष्पावगाहिमन्दानिलासेव्यमाने, ६

मध्ये पुष्पसञ्चयविचित्रिते महति दिव्ययोगपर्यङ्के अनन्तभोगिनि, १०

श्रीमद्वैकुण्ठैश्वर्यादिदिव्यलोकम् आत्मकान्त्या विश्वमाप्याययन्त्या शेषशेषाशनादिसर्वपरिजनं भगवतस्तत्तदवस्थोचितपरिचर्यायामाज्ञापयन्त्या शीलरूपगुणविलासादिभिरात्मानुरूपया श्रियासहासीनम्, ११

पंक्तियाँ दिव्य संगीत की ध्वनि से मण्डप को पूर्ण करती हैं । चन्दन, अगर कर्पूर और दिव्य पुष्पों की सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु सेवन करने के लिये प्राप्त रहती है । १

इस आस्थानमण्डप के मध्य में अनन्त शेष विराजमान हैं । उनके अंक में महान् दिव्य योगपर्यङ्क है जो पुष्पराशि के संचय से विचित्ररूप से सुशोभित है । १०

उस पर भगवान् श्री देवी के साथ विराजमान हैं । श्री देवी का शील, रूप, गुण, विलास आदि भगवान् के अनुरूप है । वे श्री देवी श्रीमद्वैकुण्ठ, ऐश्वर्य आदि से युक्त दिव्यलोक को तथा विश्व को अपनी कांति से आप्लावित करती हैं और शेष, विष्वक्सेन, आदि समस्त परिजनों को भगवान् की सर्वावस्थाओं के अनुरूप सेवा की आज्ञा प्रदान करती रहती हैं । ११ ( ३२ )

प्रत्यग्रोन्मीलितसरसिजसदृशनयनयुगलं स्वच्छनीलजीमूतसङ्काशं अत्युज्ज्वलपीतवाससं, स्वया प्रभया अतिनिर्मलया अतिशीतलया ( अतिकोमलया ) स्वच्छया माणिक्याभया कृत्स्नं जगद्भासयन्तम् । १२

अचिन्त्यदिव्याद्भुत - नित्ययौवन - स्वभावलावण्यमयामृतसागरम् अतिसौकुमार्यादीषत्प्रस्विन्नवदालक्ष्यमाणललाटफलकदिव्यालकावलीविराजितम्, १३

प्रबुद्धमुग्धाम्बुजचारुलोचनं, सविभ्रमभ्रूलतमुज्ज्वलाधरम् । शुचिस्मितं, कोमलगण्डमुन्नसं… … … … ॥

उदग्रपीनांसविलम्बिकुण्डलालकावलीबन्धुरकम्बुकन्धरम् ।

भगवान् के दोनों नेत्र तुरन्त खिले हुए कमलों के समान हैं । उनका दिव्यमंगल विग्रह निर्मल श्याम मेघ के समान है । वे अत्यन्त उज्ज्वल पीताम्बर धारण किये हैं । वे अत्यन्त निर्मल, अत्यन्त शीतल, [ अत्यन्त कोमल ] स्वच्छ माणिक्य की सी आभा से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं । १२

वे अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य-यौवन, स्वभाव एवं लावण्यमय अमृत के समुद्र हैं । अत्यन्त सुकुमारता के कारण उनका ललाट कुछ पसीने की बूंदों से युक्त दिखायी देता है वहाँ तक फैली हुई उनकी दिव्य अलकावली शोभायमान है । १३

भगवान् के नेत्र विकसित कोमल कमल के समान सुन्दर हैं, उनकी भ्रूलता विभ्रम विलास से युक्त है, उनके ( ३३ )

प्रियावतंसोत्पलकर्णभूषणश्लथालकाबन्धविमर्दशंसिभिः ॥ चतुर्भिराजानुविलम्बिभिर्भुजैर्विराजितम् १४

अतिकोमलदिव्यरेखालङ्कृताताम्रकरतलं, दिव्याङ्गुलीयकविराजितम्, अतिकोमलदिव्यनखावलीविराजितातिरक्ताङ्गुलोभिरलङ्कृतं, तत्क्षणोन्मीलितपुण्डरीकसदृशचरणयुगलम्, अतिमनोहरकिरीटमकुटचूडावतंसमकर - कुण्डलग्रैवेयकहारकेयूरकटक-श्रीवत्सकौस्तुभमुक्तादामोदरबन्धन - पीताम्बरकाञ्चीगुण

अधर उज्ज्वल हैं, उनकी मुस्कान पवित्र है, उनके कपोल कोमल हैं, उनकी नासिका ऊँची है………..।

ऊँचे और मांसल कंधों पर लटकी हुए लटों और कुण्डलों के कारण भगवान् की शंख सरीखी ग्रीवा सुन्दर लगती है ।

श्रीदेवी के अवतंस, उत्पल, कुण्डल, शिथिल अलकावली तथा नीवी का विमर्दन करने वाली घुटनों तक लम्बी चार भुजायें शोभा दे रही हैं । १४

उनकी हथेलियाँ अत्यन्त कोमल दिव्य रेखाओं से अलंकृत और लाल रंग की हैं । अंगुलियों में दिव्य मुद्रिकाएँ शोभा देती हैं । दिव्य नखोंवाली अत्यन्त कोमल सुशोभित लाल अंगुलियाँ उनके कर कमलों को अलंकृत करती हैं। उनके दोनों चरण तुरन्त खिले हुए कमलों के समान हैं। वे अत्यन्त मनोहर किरीट, मकुट, चूड़ामणि, मकराकृत कुण्डल, कण्ठहार, केयूर, कटक, श्रीवत्स, कौस्तुभ, मुक्तादाम, कटिबन्ध, पीताम्बर, ( ३४ )

नूपुरादिभिरत्यन्तसुखस्पर्शैर्दिव्यगन्धैर्भूषणैर्भूषितं, श्रीमत्या वैजयन्त्या वनमालया विराजितं, शङ्खचक्रगदासिशार्ङ्गादिदिव्यायुधैस्सेव्यमानम्, १५

स्वसङ्कल्पमात्रावक्लृप्तजगज्जन्मस्थितिध्वंसादिके श्रीमति विष्वक्सेने न्यस्तसमस्तात्मैश्वर्यम्, १६

वैनतेयादिभिस्स्वभावतोनिरस्तसमस्त सांसारिकस्वभावैर्भगवत्परिचर्याकरणयोग्यैर्भगवत्परिचर्यैकभोगैर्नित्य-सिद्धैरनन्तैर्यथायोगं सेव्यमानम्, १७

काञ्चीसूत्र, और नूपुर आदि अत्यन्त सुखद स्पर्श वाले दिव्य गन्ध युक्त आभूषणों से विभूषित हैं। श्रीमती वनमाला शोभा दे रही है। शङ्ख, चक्र, गदा, असि और शार्ङ्ग धनुष आदि दिव्य आयुध उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं । १५

अपने संकल्पमात्र से सम्पन्न होने वाले संसार की सृष्टि, पालन और संहार आदि के लिये भगवान् ने अपना ऐश्वर्य श्रीमान् विष्वक्सेन को समर्पित कर रक्खा है । १६

जिनमें स्वभाव से ही समस्त सांसारिक भावों का अभाव है, जो भगवान् को सेवा करने के योग्य हैं तथा भगवान् की सेवा ही जिनका एकमात्र भोग है ऐसे गरुड आदि नित्य सिद्ध अनन्त पार्षद यथावसर भगवान् की सेवा में संलग्न रहते हैं । १७ (३५)

आत्मभोगेना [न] नुसंहितपरादिकालं दिव्यामलकोमलाबलोकनेन विश्वमाह्लादयन्तम्, १८

ईषदुन्मीलितमुखाम्बुजोदरविनिर्गतेन दिव्याननारविन्दशोभाजनकेन दिव्यगाम्भीर्यौदार्यसौन्दर्यमाधुर्याद्यनवधिकगुणगणविभूषितेन अतिमनोहरदिव्यभावगर्भेण दिव्यलीलालापामृतेन अखिलजनहृदयान्तराण्यापूरयन्तं भगवन्तं नारायणं ध्यानयोगेन दृष्ट्वा, १९

[ततो] भगवतो नित्यस्वाम्यम्, आत्मनो नित्यदास्यं च यथावस्थितमनुसन्धाय, २०

जिनके आत्मभोग को काल की सीमाऐं सीमित नहीं कर पातीं । ऐसे भगवान् अपनी दिव्य निर्मल एवं कोमल दृष्टि से विश्व को आह्लादित करते हैं । १८

उनके किश्चित् खुले हुए मुखारविन्द के भीतर से निकले हुए दिव्य अमृतमय वचन दिव्य मुखकमल की शोभा बढ़ाते हैं, वे दिव्य गम्भीरता, उदारता, मधुरता आदि पूर्ण गुणसमुदाय से विभूषित हैं, अत्यन्त मनोहर भाव से युक्त हैं सब लोगों का हृदय आनन्द से परिपूर्ण करते हैं। ऐसे भगवान् नारायण का ध्यानयोग के द्वारा दर्शन कर । १९

भगवान् के नित्य स्वामित्व तथा अपनी नित्य दासता का ठीक ठीक अनुसन्धान कर इस प्रकार अभिलाषा करे – २० ( ३६ )

कदाऽहं भगवन्तं, नारायणं मम कुलनाथं मम कुलदैवतं मम कुलधनं मम भोग्यं मम मातरं मम पितरं मम सर्वं साक्षात्करवाणि चक्षुषा; २१

कदाऽहं भगवत्पादाम्बुजद्वयं शिरसा धारयिष्यामि; २२ कदाऽहं भगवत्पादाम्बुजद्वयपरिचर्याशया निरस्तसमस्तेतरभोगाशः अपगतसमस्तसांसारिकस्वभावः तत्पादाम्बुजद्वयं प्रवेक्ष्यामि; २३

कदाऽहं भगवत्पादाम्बुजद्वयपरिचर्याकरणयोग्यः तदेकभोगस्तत्पादौ परिचरिष्यामि; २४

मैं कब भगवान् नारायण का जो मेरे कुल के नाथ हैं, मेरे कुल के देवता हैं, मेरे कुलधन हैं, मेरे माता हैं, मेरे पिता हैं, मेरे सर्वस्व हैं, अपने नेत्रों से साक्षात् करूँगा । २१

मैं कब भगवान् के दोनों चरणकमलों को शिर पर धारण करूँगा । २२

मैं कब भगवान् के दोनों चरणकमलों की परिचर्या की आशा से समस्त इतर पदार्थों के भोग की आशा त्याग सकूँगा, सम्पूर्ण सांसारिक भावों से निवृत्त हो सकूँगा, तथा भगवान् के दोनों चरण कमलों में प्रवेश पा सकूँगा । २३

कब में भगवान् के दोनों चरणकमलों की परिचर्या के योग्य बनकर तथा उनको ही अपना भोग्य मानकर उनकी परिचर्या में लगूंगा । २४ ( ३७ )

कदा मां भगवान् स्वकीयया अतिशीतलया दृशा अवलोक्य स्निग्धगम्भीरमधुरया गिरा परिचर्यायामाज्ञापयिष्यति ! २५

इति भगवत्परिचर्यायाम् आशां वर्धयित्वा, तयैवाशया तत्प्रसादोपबृं हितया भगवन्तमुपेत्य, दूरादेव भगवन्तं, शेषभोगे श्रिया सहासीनं, वैनतेयादिभिः सेव्यमानम्, २६

“समस्तपरिवाराय श्रीमते नारायणाय नमः” २७

इति प्रणम्य, उत्थायोत्थाय, पुनः पुनः प्रणम्य, अत्यन्तसाध्वसविनयावनतो भूत्वा, भगवत्पार्षदगणनायकैद्वरिपालैः

कब भगवान् अपनी अतिशीतल दृष्टि से मुझे देखकर स्निग्ध गम्भीर, मधुर वाणी से परिचर्या के लिये मुझे आज्ञा देंगे । २५

इस प्रकार भगवान् की परिचर्या में आशासंवर्धन करते हुए, उसी आशा से भगवान् की प्रसन्नता के फलस्वरूप भगवान् को प्राप्त कर दूर से ही भगवान् को शेषपर्यंक पर लक्ष्मी के साथ विराजमान और गरुड़ आदि पार्षदों के द्वारा सेवित समस्त परिवार समेत श्रीदेवी समेत नारायण के लिये नमस्कार है, २६-२७

इस प्रकार प्रणाम करे उठ उठकर बारम्बार प्रणाम करे, अत्यन्त भय एवं विनय से झुककर भगवान् के पार्षदगण नायकों एवं द्वारपालों द्वारा कृपापूर्वक एवं स्नेहगर्भित दृष्टि से देखा ( ३८ )

कृपया स्नेहगर्भया दृशाऽवलोकितः, सम्यगभिवन्दितैस्तैरेवानुमतः भगवन्तमुपेत्य, श्रीमता मूलमन्त्रेण, २८

“भगवन् ! माम् ऐकान्तिकात्यन्तिकपरिचर्याकरणाय परिगृह्णीष्व” इति याचमानः प्रणम्य, आत्मानं भगवते निवेदयेत् । (४)

ततो भगवता स्वयमेवात्मसञ्जीवनेनामर्यादशीलवताऽतिप्रेमान्वितेनावलोकनेनावलोक्य सर्वदेशसर्वकालसर्वावस्थोचितात्यन्तशेषभावाय स्वीकृतोऽनुज्ञातश्च अत्यन्तसाध्वसविनयावनतः किङ्कुर्वाणः कृताञ्जलिपुटो भगवन्तमुपासीत । (५)

जाकर उनको ठीक ठीक प्रणाम करे तथा उनकी अनुमति प्राप्त कर भगवान् के समीप पहुँचे। फिर श्रीमूल मन्त्र के द्वारा–२८

“भगवन् ! मुझे ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक परिचर्या के निमित्त ग्रहण करें,” इस प्रकार याचना करते हुए प्रणाम करे और अपने आपको भगवान् के प्रति निवेदन करे ॥४॥

इसके पश्चात् भगवान् स्वयं ही आत्मा को जीवनदान देने वाले असीम शील एवं अत्यन्त प्रेममयी दृष्टि से देखकर सार्वदेशिक सार्वकालिक एवं सभी अवस्थाओं के अनुरूप अत्यन्त शेषभाव के निमित्त स्वीकार करते हैं। भगवान् की अनुज्ञा को प्राप्तकर अत्यन्त भय और विनय से अवनत होकर तथा अब क्या करना है यह सोचते हुए हाथ जोड़े हुए भगवान् की उपासना करे ॥५॥ ( ३१ )

ततश्चानुभूयमानभावविशेषः निरतिशयप्रीत्या अन्यत् किञ्चित्कर्तुं द्रष्टुं स्मर्तुमशक्तः पुनरपि शेषभावमेव याचमानः भगवन्तमेव अविच्छिन्नस्त्रोतोरूपेणावलोकनेनावलोकयन्नासीत । (६)

ततो भगवता स्वयमेवात्मसञ्जीवनेनावलोक्य सस्मितमाहूय समस्तक्लेशापहं निरतिशयसुखावहम् आत्मीयं श्रीमत्पादारविन्दयुगलं शिरसि कृतं ध्यात्वा अमृतसागरान्तर्निमग्नसर्वावयवः सुखमासीत । (७)

इति श्रीभगवद्रामानुजविरचिते गद्यत्रये, तृतीयं श्रीवैकुण्ठगद्यं सम्पूर्णम् ।

इसके पश्चात् विशेषभाव के साथ भगवान् का अनुसन्धान करते हुए निरतिशय प्रेम के कारण अन्य कुछ भी करने देखने या स्मरण करने में असमर्थता का अनुभव करे और शेषभाव को ही याचना करते हुए अविच्छिन्न प्रवाहरूपिणी दृष्टि के द्वारा भगवान् का ही दर्शन करता रहे ॥६॥

इसके पश्चात् भगवान् स्वयं ही आत्मा को जीवनदान करने वाली दृष्टि से देखकर मन्द मुस्कराहट के साथ बुलाकर समस्त क्लेशों को दूर करने वाले और निरतिशय सुख की प्राप्ति कराने वाले अपने युगलचरणारविन्दों को मेरे मस्तक पर रख रहे हैं ऐसा ध्यान कर आनन्दामृतमहासागर में सम्पूर्ण रूप से निमग्न होकर सुख का अनुभव करे ॥७॥ ( ४० )

लक्ष्मीपतेर्यतिपतेश्च दयैकधाम्नोः
योऽसौ पुरा समजनिष्ट जगद्धितार्थम् ।
प्राच्यं प्रकाशयतु वः परमं रहस्यं
संवाद एष शरणागतिमन्त्रसारः ॥

-श्रीवेदान्तदेशिक

दया के धाम श्रीलक्ष्मीपति और यतिपति श्रीरामानुजाचार्य का जगत के कल्याणार्थ हुआ यह संवाद जो शरणागति का सार है प्राचीन परम रहस्य को प्रकाशित करे ।

शारीरकेऽपि भाष्ये या गोपिता शरणागतिः ।
अत्र गद्यत्रये व्यक्तां तां विद्यां प्रणतोऽस्म्यहम् ॥

श्रीभाष्यकार ने श्रीभाष्य में जिस शरणागति को गुप्त रक्खा वही गद्यत्रय में प्रकट रूप से विद्यमान है । उस शरणागति विद्या को में प्रणाम करता हूँ । ( ४१ )