शरणागतिगद्यम्

॥ श्रीः ॥

॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥

श्रीभगवद्रामानुज-विरचित- गद्यत्रये, प्रथमं

॥ शरणागतिगद्यम् ॥

यो नित्यमच्युतपदाम्बुजयुग्मरुक्म-
व्यामोहतस्तदितराणि तृणाय मेने ।
अस्मद्गुरोर्भगवतोऽस्य दयैकसिन्धो
रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥

वन्दे वेदान्तकर्पूरचामीकरकरण्डकम् ।
रामानुजार्यमार्याणां चूडामणिमहर्निशम् ॥

जो नित्य भगवान् के युगल चरणारविन्दरूपी सुवर्ण के
मोह के कारण उनसे भिन्न समस्त पदार्थों को तिनके के समान
समझते थे उन एकमात्र दया के सागर अपने गुरुदेव भगवान्
श्री रामानुजाचार्य के चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ ॥१॥

जो वेदान्तरूपी कर्पूर की रक्षा के लिये सुवर्ण की पेटी के समान हैं, उन आचार्यचूडामणि श्री रामानुजाचार्य को मैं अहर्निश प्रणाम करता हूँ ॥२॥ ( २ )

भगवन्नारायणाभिमतानुरूपस्वरूपरूपगुणविभवैश्वर्यशीलाद्यनवधिकातिशयासङ्ख्येयकल्याणगुणगणां, पद्मवनालयां, भगवतीं, श्रियं, देवीं, नित्यानपायिनीं, निरवद्यां देवदेवदिव्यमहिषीम्, अखिलजगन्मातरम्,अस्मन्मातरम् अशरण्यशरण्याम् अनन्यशरणः शरणमहं प्रपद्ये । (१)

पारमार्थिकभगवच्चरणारविन्दयुगलैकान्तिकात्यन्तिकपरभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिकृत-परिपूर्णानवरतनित्यविशदतमानन्यप्रयोजनानवधिकातिशयप्रियभगवदनुभवजनितानवधिकातिशय

जो भगवान् नारायण के अभिमत और अनुरूप स्वरूप, रूप, गुण, वैभव, ऐश्वर्य एवं शील आदि असीम, अतिशय एवं असंख्य कल्याणगुणों के समुदाय से युक्त हैं, जिनका कमलवन में निवास है, जो निरन्तर भगवान् के साथ रहती हैं, जो समस्त दोषों से रहित हैं, जो देवदेव नारायण की दिव्य महिषी हैं, जो सम्पूर्ण जगत की माता हैं, हमारी माता हैं, सर्व- लोकशरण्य भगवान् जिनके शरण्य नहीं हो सके ऐसे अशरण को शरण देने वाली उन भगवती श्री देवी की मैं अनन्यशरण शरण ग्रहरण करता हूँ ॥१॥

भगवान् के युगल चरणारविन्द परमार्थ हैं, उनकी ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक अर्थात् नित्ययुक्त, पर भक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति के द्वारा परिपूर्ण, अनवरत (अविच्छिन्न) नित्य, विशदतम, अन्य प्रयोजन से रहित, असीम अतिशय प्रीति रूपी भगवदनुभव होता है । इसके फलस्वरूप असीम ( ३ )

प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतैकरतिरूप - नित्यकैङ्कर्यप्राप्त्यपेक्षया पारमार्थिकी भगवच्चरणारविन्दशरणागतिर्यथावस्थिता अविरताऽस्तु मे । (२)

अस्तु ते । (३)

तयैव सर्वं सम्पत्स्यते । (४)

अखिलहेयप्रत्यनीक कल्याणैकतान स्वेतरसमस्तवस्तुविलक्षण अनन्तज्ञानानन्दैकस्वरूप ! १

स्वाभिमतानुरूपैकरूपाचिन्त्य - दिव्याद्भुत - नित्यनिरवद्य

एवं अतिशय प्रीति के द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न प्रीतिरूप नित्यकैंकर्य की प्राप्ति होती है । यह नित्यकैंकर्य मुझे अपेक्षित है इसलिये भगवान् के चरणारविन्द की शरणागति, जो पारमार्थिक है निरन्तर यथार्थ रूप में मुझे प्राप्त हो ॥२॥

तथास्तु । भगवान् की शरणागति तुम्हें प्राप्त हो ॥३॥ उस शरणागति से ही सब कुछ प्राप्त हो जावेगा ॥४॥

आप समस्त हेय गुणों से रहित हैं। आप समस्त कल्याण गुणों के आकर हैं। अपने से भिन्न समस्त पदार्थों से आप विलक्षण हैं, अनन्त ज्ञान एवं आनन्द के एक स्वरूप हैं । १

आपका दिव्यरूप आपके अभिमत एवं अनुरूप है, एक रूप, अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य, दोषरहित, निरतिशय, ( ४ )

निरतिशयौज्ज्वल्यसौन्दर्यसौगन्ध्यसौकुमार्यलावण्ययौवनाद्यनन्तगुणनिधिदिव्यरूप ! २

स्वाभाविकानवधिकातिशय - ज्ञान - बलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजस्सौशील्यवात्सल्य-मार्दवार्जवसौहार्द-साम्यकारुण्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यचातुर्य-स्थैर्यधैर्यशौर्यपराक्रमसत्यकामसत्यसङ्कल्पकृतित्वकृतज्ञताद्यसङ्ख्येयकल्याणगुणगणौघमहार्णव ! ३

स्वोचितविविधविचित्रानन्ताश्चर्य-नित्यनिरवद्यनिरतिशयसुगन्धनिरतिशयसुखस्पर्शनिरतिशयौज्ज्वल्यकिरीटमकुटचूडावतंसमकरकुण्डलग्रैवेयकहारकेयूरकटकश्रीवत्सकौस्तुभमुक्तादामो

औज्ज्वल्य, सौन्दर्य, सौगन्ध्य, सौकुमार्य, लावण्य, यौवन, आदि अनन्त गुणों से युक्त है । २

आप स्वाभाविक असीम अतिशय ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेज, सौशील्य, वात्सल्य, मार्दव, (मृदुता) आर्जव, (ऋजुता) सौहार्द, साम्य, कारुण्य, माधुर्य, गाम्भीर्य, औदार्य, चातुर्य, स्थैर्य, धैर्य, शौर्य पराक्रम, सत्यकाम, सत्यसंकल्प, कृतित्व (उपकारिता) कृतज्ञता आदि असंख्य कल्याण गुणसमूह के महासागर हैं । ३

आप अपने योग्य, विविध, विचित्र, अनन्त, आश्चर्यमय, नित्य, निर्मल, निरतिशय सुगंध, निरतिशय सुखस्पर्श, निरतिशय औज्ज्वल्य से युक्त किरीट, मुकुट, चूड़ामणि, मकराकृत कुण्डल, कण्ठहार, केयूर ( भुजबन्ध ) कटक ( कंगन) श्रीवत्सचिन्ह, ( ५ )

दरबन्धनपीताम्बरकाञ्चीगुणनूपुराद्यपरिमितदिव्यभूषण ! ४

स्वानुरूपाचिन्त्यशक्ति - शङ्खचक्रगदासिशार्ङ्गाद्यसङ्ख्येयनित्यनिरवद्यनिरतिशयकल्याणदिव्यायुध ! ५

स्वाभिमत - नित्यनिरवद्यानुरूप - स्वरूप - रूपगुणविभवैश्वर्यशीलाद्यनवधिकातिशयासङ्ख्येयकल्याणगुणगणश्रीवल्लभ ! एवम्भूतभूमिनीलानायक ! ६-७

स्वच्छन्दानुवर्ति- स्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदाशेषशेषतैकरतिरूपनित्यनिरवद्यनिरतिशयज्ञानक्रियैश्वर्याद्यनन्तगुणगणशेष

कौस्तुभमणि, मुक्ताहार, उदरबन्धन, पीताम्बर, काञ्चीगुण (कर्धनी) नूपुर आदि अपरिमित दिव्य भूषणों से विभूषित हैं । ४

आप अपने अनुरूप, अचिन्त्य शक्तिसम्पन्न, शंख, चक्र, गदा, खड्ग, शार्ङ्ग धनुष आदि असंख्य, नित्य, निर्मल निरतिशय कल्याणमय दिव्य आयुधों से सम्पन्न हैं । ५

आप अपने अभिमत नित्य निरवद्य अनुरूप स्वरूप, रूप, गुण, विभव, ऐश्वर्य, शील आदि असीम, अतिशय असंख्य कल्याण गुण गणों से अलंकृत श्री लक्ष्मी के प्रियतम हैं । ऐसे ही विशेषणों से विभूषित भूदेवी और नीला देवी के नायक हैं । ६-७

जो आपके संकल्प के अनुगामी हैं अनुरूप स्वरूप, स्थिति प्रवृत्ति के भेद से सम्पन्न हैं पूर्ण शेषता विषयक प्रीति से युक्त, तथा नित्य, निरवद्य, निरतिशय, ज्ञान, क्रिया, ऐश्वर्य आदि गुण( ६ )

शेषाशनगरुडप्रमुखनानाविधानन्तपरिजनपरिचारिकापरिचरितचरणयुगल ! ८

परमयोगिवाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावस्वाभिमतविविधविचित्रानन्तभोग्यभोगोपकरणभोगस्थानसमृद्धानन्ताश्चर्यानन्तमहाविभवानन्तपरिमाणनित्यनिरवद्यनिरतिशयवैकुण्ठनाथ ! ९

स्वसङ्कल्पानुविधायिस्वरूप-स्थितिप्रवृत्तिस्वशेषतैकस्वभावप्रकृति-पुरुषकालात्मकविविधविचित्रानन्तभोग्यभोक्तृवर्गभोगोपकरणभोगस्थानरूपनिखिलजगदुदयविभवलयलील ! १०

गणों से सम्पन्न हैं ऐसे शेष, विष्वक्सेन, गरुड आदि अनेक प्रकार के अनन्त परिजन एवं परिचारिकायें आपके चरणकमलों की परिचर्या करती हैं । ८

जिसका स्वरूप एवं स्वभाव परमयोगियों के वाणी और मन से परे है, जो आपके अभिमत विविध विचित्र अनन्त भोग्य, भोगोपकरण एवं भोगस्थानों से सम्पन्न है, जो अनन्त आश्चर्यमय, अनन्त महा वैभव से सम्पन्न, अनन्त विस्तारयुक्त नित्य निरवद्य एवं निरतिशय है ऐसे वैकुण्ठ के आप स्वामी हैं । ९

जिसका स्वरूप, स्थिति एवं प्रवृत्ति आपके संकल्पानुसार है, आपकी शेषता जिसका स्वभाव है, ऐसे प्रकृति, पुरुष और काल रूप विविध विचित्र अनन्त भोग्य, भोक्तृ वर्ग, भोगोपकरण, एवं भोगस्थानरूप सम्पूर्ण जगत की सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय आपकी लीला है । १० ( ७ )

सत्यकाम ! सत्यसङ्कल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम ! महाविभूते ! श्रीमन् ! नारायण ! श्रीवैकुण्ठनाथ ! ११-१८

अपारकारुण्य - सौशील्य - वात्सल्यौदार्यैश्वर्य - सौन्दर्यमहोदधे ! १६

अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्य ! प्रणतार्त्तिहर! आश्रितवात्सल्यैकजलधे ! २०-२२

अनवरतविदितनिखिलभूतजातयाथात्म्य ! अशेषचराचरभूत निखिलनियमननिरत ! अशेषचिदचिद्वस्तुशेषिभूत !

आप सत्यकाम, सत्यसंकल्प, परब्रह्मस्वरूप, पुरुषोत्तम महावैभवसम्पन्न श्रीमान्, नारायण और श्रीवैकुण्ठधाम के नाथ हैं । ११-१८

आप अपार करुणा, सुशीलता, वत्सलता, उदारता, ऐश्वर्य एवं सुन्दरता के महासमुद्र हैं । १६

गुणविशेष का विचार किये बिना आप सम्पूर्ण जगत को शरण देने के लिये प्रस्तुत हैं, शरणागत के समस्त दुःखों को दूर करने वाले हैं, शरणागतवत्सलता के एकमात्र समुद्र हैं । २०-२२

आपको सम्पूर्णभूतों के यथार्थ स्वरूप का निरन्तर ज्ञान रहता है। सम्पूर्ण चेतनाचेतन जगत की समस्त क्रियाओं के नियमन करने में आप संलग्न रहते हैं। आप समस्त चेतनाचेतन पदार्थों के शेषी हैं तथा सम्पूर्ण जगत के आधार हैं । ( ८ )

निखिलजगदाधार ! अखिलजगत्स्वामिन् ! अस्मत्स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसङ्कल्प ! सकलेतरविलक्षण ! अर्थिकल्पक ! आपत्सख ! श्रीमन् ! नारायण ! अशरण्यशरण्य !! २३-३६

अनन्यशरणः त्वत्पादारविन्दयुगलं शरणमहं प्रपद्ये । ( ५ )

अत्र द्वयम् । (६)

पितरं मातरं दारान् पुत्रान्बन्धून्सखीन्गुरुन् । रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्राणि च गृहाणि च ॥ सर्वधर्मांश्च संत्यज्य सर्वकामांश्च साक्षरान् । लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽब्रजं विभो ॥ (७)

आप सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप मेरे स्वामी हैं । सत्यकाम और सत्य संकल्प हैं । अपने अतिरिक्त समस्त पदार्थों से आप विलक्षण हैं। आप याचकों के लिये कल्पवृक्ष हैं, आपत्ति में सहायक हैं । लक्ष्मी के स्वामी हैं, आप नारायण हैं। जिनके लिये कहीं भी शरण नहीं है उनको भी शरण देने वाले हैं। २३-३६

मैं अनन्य शरण आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ । ॥५॥

यह द्वय मन्त्र की व्याख्या है ॥६॥

विभो ! पिता, माता, पत्नी, पुत्र, बन्धु, सखा, गुरु, रत्न, धन-धान्य, क्षेत्र, गृह, सारे धर्म अर्थात् समस्त साधन और साध्य, तथा आत्मानुभव पर्यन्त समस्त कामनाओं को त्याग ( ९ )

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च गुरुस्त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ ( ८ )

पिताऽसि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥

कर मैं आपके चरणों की, जो समस्त लोकों के अधिष्ठाता हैं शरण लेता हूँ ॥७॥

देवदेव ! आप ही माता हैं, आप ही पिता हैं, आप ही बन्धु हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही विद्या हैं, आप ही धन हैं, आप ही मेरे सर्वस्व हैं ॥८॥

अप्रतिम प्रभावशाली ! आप इस चराचर लोक के पिता हैं, परम पूजनीय गुरु हैं । त्रिलोकी में आप के समान कोई नहीं है; आप से बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है ॥९॥

इसलिये स्तुति करने के योग्य आप सर्वेश्वर को प्रणाम करके शरीर को चरणों में डालकर (सांग शरणागति द्वारा ) मैं प्रसन्न करता हूँ । देव ! जिस प्रकार पिता पुत्र का और मित्र मित्र का अपराध सहन कर लेते हैं, उसी प्रकार मेरे प्रेम के विषय आप अपने प्रेम के विषयभूत मेरे अपराध क्षमा करें ॥१०॥ ( १० )

मनोवाक्कायैरनादिकाल-प्रवृत्तानन्ताकृत्यकरण-कृत्याकरण भगवदपचार-भागवतापचारासह्यापचाररूप - नानाविधानन्तापचारान् आरब्धकार्यान् अनारब्धकार्यान् कृतान् क्रियमाणान् करिष्यमाणांश्च सर्वानशेषतः क्षमस्व । (११)

अनादिकालप्रवृत्तं विपरीतज्ञानम् आत्मविषयं कृत्स्नजगद्विषयं च विपरीतवृत्तं चाशेषविषयमद्यापि वर्तमानं वर्तिष्यमाणं च सर्वं क्षमस्व । (१२)

मदीयानादिकर्मप्रवाहप्रवृत्तां भगवत्स्वरूपतिरोधानकरीं

मन, वाणी और शरीर द्वारा अनादिकाल से मेरे किये हुये असंख्य न करने योग्य काम करने, करने योग्य काम न करने, भगवदपचार, भागवतापचार, असह्यापचार रूप अनेक प्रकार के अगणित अपचारों को जिन्होंने अपना फलभोग दान प्रारम्भ कर दिया है अथवा नहीं किया है, जो किये जा चुके हैं, किये जा रहे हैं अथवा किये जाने वाले हैं आप विशेष रूप से क्षमा करें ॥११॥

आत्मा तथा सम्पूर्ण जगत के विषय में जो विपरीत ज्ञान मुझमें अनादिकाल से चला आरहा है, स्वविषयक विपरीत वृत्त, परविषयक विपरीत वृत्त, जो आज भी वर्तमान है तथा आगे भी होने वाला है उस सब को आप क्षमा करें ॥१२॥

मेरे अनादि कर्मप्रवाह के कारण जिसकी प्रवृति हुई है, जो भगवान् के स्वरूप को छिपाने वाली है, विपरीत ज्ञान की ( ११ )

विपरीतज्ञानजननीं स्वविषयायाश्च भोग्यबुद्धेर्जननीं देहेन्द्रियत्वेन भोग्यत्वेन सूक्ष्मरूपेण चावस्थितां दैवीं गुणमयीं मायां, दासभूतम् ‘शरणागतोऽस्मि, तवास्मि दासः’ इति वक्तारं मां तारय । (१३)

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ उदारास्सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।

जननी है, अपने विषय में भोग्यबुद्धि उत्पन्न करने वाली है, देह, इन्द्रिय, शब्द आदि गुण तथा सूक्ष्म इन चार रूपों में स्थित है ऐसी माया से मुझ दास का उद्धार करो; क्योंकि मैं आपके शरणागत हूँ और आपका दास हूँ इस प्रकार कह चुका हूँ ॥१३॥

आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में आत्मा को शेषभूत और भगवान् को ही परमप्राप्य मानने वाला ज्ञानी, जो नित्ययुक्त होता है और जिनकी भक्ति भगवत्प्राप्ति के लिये होती है श्रेष्ठ होता है ।

ये चारों प्रकार के भक्त उदार हैं किन्तु ज्ञानी तो मेरा अन्तरात्मा ही है । वह मुझको ही परमप्राप्य मानकर सदा मुझ में ही स्थित रहता है ।

बहुत से पुण्यमय जन्मों के पश्चात् ऐसा ज्ञानी भक्त मेरी शरण ग्रहण करता है । भगवान् वासुदेव ही मेरे प्राप्य, प्रापक (१२.)

आस्थितस्स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवस्सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
इति श्लोकत्रयोदितज्ञानिनं मां कुरुष्व । (१४)

पुरुषस्स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्यः … … … … …
… … … … मद्भक्तिं लभते पराम् ॥

इति स्थानत्रयोदितपरभक्तियुक्तं मां कुरुष्व । (१५)

परभक्तिपरज्ञानपरमभक्त्येकस्वभावं मां कुरुष्व । (१६)

आदि सब कुछ हैं ऐसा ज्ञानी महात्मा संसार में अत्यन्त दुर्लभ है ।

उपर्युक्त तीन श्लोकों में जैसे ज्ञानी भक्त का वर्णन किया गया है वैसा ही ज्ञानी भक्त मुझे बनाइये ॥१४॥

अर्जुन ! वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है । अनन्य भक्ति के द्वारा ही मैं तत्त्वतः जाना, देखा और प्रवेश किया जा सकता हूँ ।

मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है ।

उपर्युक्त तीनों स्थानों पर जिस परभक्ति का निर्देश किया गया है उससे मुझे सम्पन्न बनाइये ॥१५॥

परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति ही जिसका स्वभाव हो ऐसा मुझे बनाइये ॥१६॥ ( १३ )

परभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिकृतपरिपूर्णानवरत - नित्यविशदतमानन्यप्रयोजनानवधिकातिशयप्रियभगवदनुभवोऽहं तथाविधभगवदनुभवजनितानवधिकातिशयप्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतैकरतिरूपनित्यकिङ्करो भवानि । (१७)

एवंभूतमत्कैङ्कर्य - प्राप्त्युपायतयाऽवक्लृप्तसमस्तवस्तुविहीनोऽपि, अनन्ततद्विरोधिपापाक्रान्तोऽपि, अनन्तमदपचारयुक्तोऽपि, अनन्तमदीयापचारयुक्तोऽपि, अनन्तासह्यापचारयुक्तोऽपि, १

एतत्कार्यकारणभूतानादिविपरीताहङ्कारविमूढात्मस्वभावोऽपि, एतदुभयकार्यकारणभूतानादिविपरीतवासनासंबद्धोऽपि,

मुझे परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति के द्वारा परिपूर्ण, अनवरत, नित्य विशदतम, अन्य प्रयोजन से रहित, असीम अतिशय प्रीति रूपी भगवदनुभव हो । ऐसे भगवदनुभव के फलस्वरूप असीम एवं अतिशय प्रीति के द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न प्रीतियुक्त नित्य किंकर होऊँ ॥१७॥

यद्यपि इस प्रकार मेरे कैंकर्य की प्राप्ति के लिये जो उपाय बताये गये हैं उन समस्त साधनों से तुम रहित हो, उनके विरोधी अनन्त पापों से आक्रान्त भी हो, असंख्य मेरे अपचारों से युक्त हो, असंख्य भागवतापचारों से सम्पन्न हो, असंख्य असह्य अपचारों से युक्त हो । १

इन अपचारों का कारण है अनादि विपरीत अहंकार जिसने तुम्हारे स्वभाव को भी मूढ बना दिया। इन अपचारों (( १४ )

एतदनुगुण - प्रकृतिविशेषसंबद्धोऽपि, एतन्मूलाध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकसुखदुःख - तद्धेतुतदितरोपेक्षणीयविषयानुभवज्ञानसङ्कोचरूपमच्चरणारविन्द-युगलैकान्तिकात्यन्तिकपरभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिविघ्नप्रतिहतोऽपि, येन केनापि प्रकारेण द्वयवक्ता त्वं, २

केवलं मदीययैव दयया निःशेषविनष्टसहेतुकमच्चरणारविन्दयुगलैकान्तिकात्यन्तिकपरभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिविघ्नः, ३

एवं अहंकार का कारण है अनादि विपरीत वासना जिससे भी तुम सम्बद्ध हो । इन पाप, अहंकार और वासना के अनुरूप प्रकृति से भी तुम सम्बद्ध हो। इस प्रकृतिसम्बन्ध के कारण आध्यात्मिक आधिभौतिक एवं आधिदैविक सुख और दुःख होते हैं । इस सुख और दुःख के अनुभव से, इन सुख दुःख के हेतुभूत पदार्थों के अनुभव से तथा ऐसे पदार्थों के अनुभव से जिनसे सुख या दुःख तो नहीं होता किन्तु जो उपेक्षणीय विषय अवश्य हैं ज्ञान का संकोच होता है । यह ज्ञान का संकोच मेरे युगल चरणारविन्दों की ऐकान्तिक आत्यन्तिक परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति का विघ्न है जिसने तुम पर आघात किया है । किन्तु जैसे तैसे तुमने द्वयमन्त्र का उच्चारण कर लिया है । २

अतः केवल मेरी दया से मेरे चरणारविन्दयुगल की ऐकान्तिक, आत्यन्तिक, परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति के विघ्न पूर्णतया अपने कारणों के साथ नष्ट होंगे । ३ ( १५ )

मत्प्रसादलब्ध-मच्चरणारविन्द-युगलैकान्तिकात्यन्तिकपरभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिः, ४

मत्प्रसादादेव साक्षात्कृतयथावस्थितमत्स्वरूपरूपगुणविभूतिलीलोपकरणविस्तारः, ५

अपरोक्षसिद्धमन्नियाम्यतामद्दास्यैकस्वभावात्मस्वरूपः, मदेकानुभवः, मद्दास्यैकप्रियः, परिपूर्णानवरतनित्यविशदतमानन्यप्रयोजनानवधिकातिशयप्रियमदनुभवस्त्व, ६

तथाविधमदनुभवजनितानवधिकातिशय-प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतैकरतिरूपनित्यकिङ्करो भव । ( १८ )

मेरी प्रसन्नता के फलस्वरूप तुमको मेरे युगलचरणारविन्द की ऐकान्तिक आत्यन्तिक परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति प्राप्त होगी । ४

मेरी प्रसन्नता से ही मेरे स्वरूप, रूप, गुण, विभूति एवं लीलोपकरण के विस्तार का पूर्णतया साक्षात्कार करोगे । ५

प्रत्यक्षसिद्ध मेरी नियाम्यता तथा मेरी दास्यता ही तुम्हारा स्वरूप है। ऐसा मेरा अनुभव तुमको होगा। मेरे प्रति एक दास्यभाव से तुमको प्रीति होगी। परिपूर्ण अविच्छिन्न, नित्य विशदतम, अन्य प्रयोजन से रहित असीम अतिशय प्रीति रूप मेरा अनुभव होगा । ६

इस प्रकार के अनुभव के फलस्वरूप असीम एवं अतिशय प्रीति के द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न प्रीतियुक्त नित्य किंकर बनोगे ॥१८॥ ( १६ )

एवम्भूतोऽसि । (१६)

आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविक-दुःखविघ्नगन्धरहितस्त्वं द्वयमर्थानुसन्धानेन सह सदैवं वक्ता यावच्छरीरपातमत्रैव श्रीरङ्गे सुखमास्स्व । (२०)

शरीरपातसमये तु केवलं मदीययैव दयया अतिप्रबुद्धः, मामेवावलोकयन्नप्रच्युतपूर्वसंस्कारमनोरथः, जीर्णमिव वस्त्रं सुखेनेमां प्रकृतिं स्थूलसूक्ष्मरूपां विसृज्य, तदानीमेव मत्प्रसादलब्धमच्चरणारविन्दयुगलैकान्तिकात्यन्तिक -परभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिकृत -परिपूर्णानवरत -नित्यविशदतमानन्यप्रयोजना

तुम ऐसे हो ॥१६॥

आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुःखों से होने वाले विघ्नों की गन्ध भी तुम्हें न लगेगी । द्वयमन्त्र के अनुसन्धान के साथ सदा उच्चारण करते हुए जोवनपर्यन्त तुम यहीं श्री रंगधाम में ही सुखपूर्वक निवास करो ॥२०॥

शरीरपात ( मृत्यु ) के समय केवल मेरी ही दया से अत्यन्त बोधसम्पन्न होकर मेरा दर्शन करते हुए, भगवान् हो मेरे परम प्राप्य हैं इस शास्त्रजन्य अनुभव-संस्कार से प्राप्त मनोरथ के साथ जीर्णवस्त्र के समान सुखपूर्वक स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति को छोड़कर तत्काल मेरी प्रसन्नता के फलस्वरूप मेरे युगलचरणारविन्दों की ऐकान्तिक, आत्यन्तिक, परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति के द्वारा परिपूर्ण अविच्छिन्न, नित्य, विशदतम, अन्यप्रयोजन से रहित, असीम, अतिशय, प्रीतिरूप ( १७ )

नवधिकातिशय - प्रियमदनुभवस्त्वं तथाविधमदनुभवजनिता- नवधिकातिशय - प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतैकरतिरूप- नित्यकिङ्करो भविष्यसि ॥२१॥

मा ते भूदत्र संशयः ॥२२॥

अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन ।
… … … … रामो द्विर्नाभिभाषते ।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वापापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

मेरा अनुभव प्राप्तकर उसके फलस्वरूप असीम, अतिशय प्रीति के द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न प्रीति से युक्त नित्य किंकर होगे ॥२१॥

इसमें तुमको किसी प्रकार संशय नहीं होना चाहिये ॥२२॥ मैंने पहिले कभी असत्य नहीं कहा और न आगे कभी कहूंगा । राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता ।

जो शरणागत एक बार भी ‘मैं आपका हूँ’, यह कहकर मुझ से रक्षा-याचना करता है उसे मैं सम्पूर्ण भूतों से निर्भय कर देता हूँ । यह मेरा व्रत है ।

समस्त धर्मों ( कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग ) को छोड़कर तुम एकमात्र मेरी शरण में आजाओ । मैं तुमको समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा । शोक न करो । ( १८ )

इति मयैव ह्युक्तम् ॥२३॥

अतस्त्वं तव तत्त्वतो मज्ज्ञानदर्शनप्राप्तिषु निस्संशयस्सुख- मास्स्व ॥२४॥

अन्त्यकाले स्मृतिर्या तु तव कैंङ्कर्यकारिता ।
तामेनां भगवन्नद्य क्रियमाणां कुरुष्व मे ॥२५॥

इति श्रीभगवद्रामानुजविरचिते गद्यत्रये, प्रथमं शरणागतिगद्यं सम्पूर्णम् ।

ये मेरे द्वारा कहा जा चुका है ॥२३॥

इसलिये तुम यथार्थ रूप से मेरे ज्ञान, दर्शन और प्राप्ति के विषय में संशय रहित होकर सुख से रहो ॥ २४॥

भगवन् ! आपके कैंकर्य के फलस्वरूप जो स्मृति अन्तकाल में होती है उसे आज ही मुझे प्रदान करें ॥२५॥