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॥अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते एकादशस्कंधप्रारम्भः॥

श्रीगणेशाय नमः॥ दोहा – जय गणेश वारणवदन, विघ्नहरण सुखमूल। अनुपम भाल विशाल मुख, सोहत हाथ त्रिशूल॥१॥ जय जगजननी शारदा, सुखदानी गुणखान॥ शीघ्र पूर्ण हो भागवत, दीजै यह वरदान॥२॥ जय शिवकाशीनाथ पद, करन अनाथ सनाथ॥ बारबार वर माँगिहौं, तिन पर धरकर माथ!॥३॥ सो० – जय हरि कृपानिधान, अधम उधारन सुखसदन। भाषत वेद पुरान, अस दयालु नहिं दूसरो॥१॥ प्रभुपद पोतहिं पाय, अगम अथाह भवाम्बुनिधि।मोसम पतित निकाय, तरन चहत गोपद सरिस॥२॥ दोहा - गुरुपद रज शिरधर कहौं, एकादशस्कन्ध॥ हरि उद्धव सम्वाद वर, ज्ञान विराग प्रबन्ध॥३॥कहीं प्रथम अध्यायमें, बहु अद्भुत इतिहास॥जैसे ऋषिकेशापसे, यदुकुल भयो विनाश॥४॥ पहले दशमस्कन्धमें भक्तोंका उद्धार और भूमिका भार उतारनेको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रगट हुए, उनकी लीला कही। अब एकादशस्कन्धमें भक्तोंको आत्मतत्त्वका उपदेश, और पूजामार्ग, भक्तिमार्ग, इनके फल निर्णय करके कहेंगे और सब भक्त पुरुषोंको अपने स्थानपर प्राप्त करेंगे. इसप्रकार इस एकादशस्कन्धमें मुक्तिलीला कहते हैं, तहाँ प्रथम कुरुक्षेत्रमें जैसे वसुदेवजीने नारदजीसे कर्मयोग पूँछा, तब नारदजीने कर्मयोग सब कहा

श्रीबादरायणिरुवाच॥ कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः॥ भुवोऽवतारयद्भारं जविष्टं जनयन्कलिस्॥१॥

उससे जब चित्त शुद्ध हुआ तब वसुदेवजीको ज्ञान उत्पन्न हुआ, अर्थात् राम, कृष्ण, यह दोनों साक्षात् ईश्वर हैं और जब यह ज्ञान नहीं रहेगा तो फिर ब्रह्मज्ञान नारदजी से पूछेंगे, तब नारदजी पॉच अध्यायोंमें वर्णन करेंगे सो पहले अध्यायमें वैराग्य उत्पन्न कराने के लिये यदुकुलको ब्रह्मशापके वहानेसे विषयसुखको अनित्य कहते हैं, इसके उपरान्त चार अध्यायोंमें राजा जनक और नवयोगीश्वरोंका संवाद कहेंगे, उसमें परमतत्त्व निरूपण करेंगे, फिर छठे अध्यायमें श्रीकृष्ण और उद्धवका संगम कहेंगे, इसके पीछे तेईस अध्यायमें उद्धवको श्रीकृष्ण परमतत्त्व निरूपण करेंगे फिर दो अध्यायोंमें यादवोंका संहार कहैंगे, इसीप्रकार इकतीस अध्यायोंमें “एकादशस्कन्ध” वर्णन करेंगे इसलिये पहले पूर्वस्कन्धकी कथा स्मरण करके श्रीशुकदेवजी प्रारंभ करते हैं॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! जिसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने और बलदेवजीने मिलकर यादवो सहित शीघ्र कलह उत्पन्न कर संपूर्ण पृथ्वीका भार उतारा, सो हम तुम्हारे आगे वर्णन करते हैं

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॥१॥

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शंका- श्रीकृष्णचन्द्रने त्रिलोकीके स्वामी होकर अनेकप्रकारके पुत्र, पौत्र, परपौत्र उत्पन्न करके फिर उनका विनाश क्यों किया? जो कोई कहै कि, कृष्णचन्द्रने विचार किया कि, इन यदुवशियोंको छोडकर परमधामको जायॅगे तो यह सब पृथ्वीके मनुष्योंको दुःख देंगे, जो ऐसा कहें, वे सम्पूर्ण मूर्ख हैं, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र महाराज तो घट घटकी जाननेवाले ये कुछ मनुष्य नहीं थे, जानते थे कि, हम वैकुण्ठधामको

कि, जो पाण्डुके पुत्र शत्रुओंसे बहुत कोपित कियेगये, जुआँ खेलनेसे जिनका राज्य जाता रहा, अवज्ञासे द्रौपदीके केश खेंचेगये, लाक्षाभवनमें पाण्डवोंको बन्द करके आग लगादी गई, जहाँतक होसका वहाँतक कष्टपर कष्ट दिये उन्हींके लिये दोनों पक्षोंमें मिले राजाओंको मार पृथ्वीका भार उतारा, परन्तु तोभी विचारनेलगे॥२॥ कि, यद्यपि पृथ्वीका भाररूप जो राजाओंकी सेना थी सो अपनी भुजाओंसे पालित यादवोंसे नाश भी

ये कोपिताः सुबहु पांडुसुताः सपत्नैर्दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान्॥ कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्हत्वा नृपान्नि रहरत्क्षितिभारमीशः॥२॥ भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य गुप्तैः स्वबाहुभिरचिंतयदप्रमेयः॥ मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं यद्यादवं कुलमहो ह्यविषयमास्ते॥३॥ नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथंचिन्मत्संश्रयस्य विभवोन्नह नस्य नित्यम्॥ अंतः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणुस्तंबस्य वह्निमिव शांतिमुपैमि धाम॥४॥

करवाई, परन्तु तोभी भार न गया, क्योंकि यदुकुल अभी अनन्त शेष है जिसका कि, पृथ्वीपर बडा भारी भार है॥३॥ जिसके मैं आश्रय हुँ उसका पराजय तो और किसी दूसरेसे हो नहीं सक्ता, और यह संपूर्ण यादव वैभवसे उद्धत होगये हैं और विना इनका संहार किये किसी प्रकार पृथ्वीका

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जायँगे, सर्वान्तर्यामी ईश्वरथे, विचारा कि, यह हमारे अशसे जो जन्मे यादव हैं सो पृथ्वीको अत्यन्त दुःख देवेंगे, ऐसा जानते थे तो उन सबको उत्पन्न क्यों किया? क्योंकि आपही उत्पन्न करके आपही नाश करना यह बडा अयोग्य कर्म है क्योंकि शास्त्रमें ऐसा लिखा है कि, विषके खायेसे प्राणी मरजाते हैं, विष ऐसी बुरी वस्तु है, परन्तु जो अपने हाथसे विषका वृक्ष मी लगाते हैं, अपने हाथसे वह लोग उसको भी नहीं काटते और चेतनस्वरूपको उत्पन्न करके आपसे आपही उसको विनाश करना यह बडा खोटा कर्ममें है, फिर श्रीकृष्णने ऐसा खोटा कर्म क्यों किया?

उत्तर - श्रीकृष्णने ऐसा विचार किया कि, जिस दिन हम इस लोकसे परलोकको जायँगे उसीदिन कलियुग महाघोर इस मर्त्यलोकका राजा होगा और यह सब यादव हमारे अंशसे जो उत्पन्न हुएहैं और - ले गमें जो यह सव एसेही रहेंगे तो अनेक दुःख पायेंगे, इसलिये इन सबका प्रबन्ध ऐसा कर कि, प्रथमही अपने लोकमें भेजकर पीछे हम जायेंगे क्योंकि यादवोंके नाश होनेसे दुःख तो होगा परन्तु होगा, कैसा? कि जैसे कोई औषधि खानेके समय कडुवा मुख हो जाता है, परन्तु पीछेसे सुख होता है, फोडेको चीरनेके समय जीव दुःख मानता है, परन्तु पीछे सुख पाता है, इस बातको पृथ्वीके मारके कारणसे अपने अंश करके जो यादव उत्पन्न किये उन सबको नाश करके अपने अंशको संग लेकर चलेगये, कुछ निर्दयपनसे यादवोंका विनाश नहीं किया॥

भार उतर नहींसक्ता इसलिये इनमें परस्पर कलह उत्पन्न करो, जैसे बांसोंमें अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार सुलगाय शान्तिको प्राप्त हो पीछे अपने परमधामको जाऊँगा॥४॥ हे राजन्! इसप्रकार बुद्धिसे निश्चयकर सत्यसंकल्प भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्रह्मशापके मिससे अपने कुलका संहार किया॥५॥ जिनके समान लोकमे कहीं लावण्यता नहीं और जिनके संबंधसेही लोकोको शोभा मिलती है, इसप्रकार अपनी देहसे पुरुषोंके चित्त हग्कर जिससे चित्त आंग्को स्मरण न करें और जो चरणारविन्द देखते हैं; उनकी योग और क्रिया चरणोंके देखनेसे हरली, फिर भक्तोकी सब इन्द्रियें वृत्तिमें और अपने संसारी जीवोंका अज्ञानरूपी अँधेरा दूरकर, उनके लिये पृथ्वीमें अतिविमल कीर्त्ति विस्तारकर श्रीकृष्णचन्द्र व

एवं व्यवसितो राजन्सत्य संकल्प ईश्वरः॥ शापव्याजेन विप्राणां संजह्नेस्वकुलं विभुः॥५॥ स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्॥ गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः॥६॥ आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यंजसा नु कौ॥ तमोऽनया तरिष्यंतीत्यगात्स्वंपदमीश्वरः॥७॥ राजोवाच॥ ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसे विनाम्॥ विप्रशापः कथमभूद्वृष्णीनां कृष्णचेतसाम्॥८॥ यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम॥ कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्वंवदस्व मे॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ बिभ्रद्वपुः सकलसुंदरसन्निवेशं कर्माऽऽचरन्भुवि सुमंगलमाप्तकामः॥ आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः॥१०॥

बलरामजी अपने धामको चलेगये॥६॥७॥ राजा परीक्षित पूँछने लगे कि, हे ब्रह्मन्! यादव तो ब्राह्मणोंके भक्त, अतिदानी और नित्य प्रति वृद्धों की सेवा करते थे, इतनेपर भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें जिनके मन लगरहे थे उन्हें किसलिये ब्राह्मणलोगोंने शाप दिया?॥८॥ हे भगवन्! इस शापका क्या कारण है? क्यों हुआ? और यह सब लोग एक चित्त थे; उनमें भेद क्यों उत्पन्न हुआ? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! यह सब मुझसे कहो॥९॥ तब श्रीशुकदेवजी कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! प्रथम भक्तोंको सुख देनेके लिये संपूर्ण शोभायमान स्वरूप धारणकर भूमिपर अत्यंत मंगल कर्म किये और यद्यपि आप पूर्णकाम हैं, परन्तु तो भी फिर द्वारकापुरीमें घर बनाय अनेक क्रीड़ाकर सब भक्तोंको सुख दिया, इसका तात्पर्य

दोहा - दुसरे में वसुदेव अरु, नारद प्रश्न सुस्वाद। योगेश्वर अरु जनक सों, भयो धर्म सम्वाद॥१॥ दूसरे अध्याय में भक्ति से पूँछे वसुदेवजीको नारद जनक और नव योगियोंके संवाद से शुद्ध धर्म कहैंगे श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! गोविन्दकी भुजासे पालित द्वारकापुरीमें श्रीकृष्णचन्द्रकी उपासना में प्रेम करनेवाले नारदजी निरंतर वास करते थे॥१॥ क्योंकि ऐसा कहा भी है, जिन श्रीकृष्णचन्द्रकी उपासनामें मुक्त पुरुषोंको भी उत्कंठा होती है, उनको कौन नहीं भजता, सर्वत्र मृत्युसे त्रासित कौन इन्द्रियवन्त भगवान्केचरणारविन्दका भजन नहीं करता, जिन चरण कमलों की देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मादिक सेवा करते हैं॥२॥ एक दिन देवर्षि नारदजी वसुदेवजीके घर आये, तब वसुदेवजीने अत्यन्त भक्तिपूर्वक उत्तम आसनपर बैठाल पूजा और नमस्कार करके पूछा॥३॥ कि, हे भगवन्! जैसे हरिकी प्राप्तिका मार्गरूप महत् पुरुष है, उनका आगमन

श्रीशुक उवाच॥ गोविंदभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह॥ अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः॥१॥ को नु राजन्निंद्रियवान्मुकुंदचरणांबुजम्॥ न भजेत्सर्वतो मृत्युरुपास्यममरोत्तमैः॥२॥ तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम्॥ अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत्॥३॥ वसुदेव उवाच॥ भगवन्भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम्॥ कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम्॥४॥ भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च॥ सुखायैव हि साधूनां त्वादृशा मच्युतात्मनाम्॥५॥ भजंति ये यथा देवान्देवा अपि तथैव तान्॥ छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः॥६॥

दीनोंका कल्याण करनेके लिये है और जैसे पिताका आना पुत्रादिकोंके सुखके लिये है उसीप्रकार तुम्हारा अगमन सब देहधारियोंके कल्याणार्थ है॥४॥ महात्मा लोगोंको देवताओंकी उपमा भी अनुचित है, क्योंकि देवताओंका चरित्र बहुत दृष्टि आदिसे दुःख और सुख दोनों करता है, परन्तु साधुओंका चरित्र तो सदा सुखही करता है, इसकारण तुम सरीखे अच्युत रूप पुरुषो का आगमन सुखहीके लिये है॥५॥ यद्यपि दे वतालोग सुख देते हैं, परन्तु तो भी जिसने जितना भजन किया हो उसे उस भजनके अनुसारही सुख देते हैं, क्योंकि जैसे मनुष्य जितनाकार्य करे, उतनाही उसकी परछाहीं कार्य करै, ऐसेही मनुष्य जैसा और जितना काम करे, उसे देवतालोग कर्मानुसारही फल देते हैं।सरीखे साधु पुरुष तो दीनोंके देखतेही

हे नारद! यद्यपि हम तुम्हारे आनेसेही कृतार्थ होगये, परन्तु तो भी आपसे जिन धर्मोंसे भगवान् प्रसन्न हों, सो वैष्णवधर्म पूछते हैं, जिस धर्मको श्रद्धासहित श्रवण करनेसे मनुष्य संसारसे छूट जाता है॥७॥ यदि तुम कहो कि, भगवान् की प्रसन्नताके पात्र तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं सो इसका उत्तर यह है कि, मुक्तिदाता अनंतभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रथम मैंने पुत्रकामना से आराधन कियाथा, देवमायासे मोहित हो मोक्षप्राप्तिके लिये आराधन नहीं किया, यह बात सूतिकागृह (सरोवर) में ही श्रीकृष्णचन्द्रने मुझसे कही थी सो मुझे याद है॥८॥ हे नारद! इसलिये अनेक दुःखसंयुक्त सब ओरसे भयदेनेवाले संसारसे जिसमें हम विनाही श्रमके छूट जाये, वैसाही तुम शिक्षा दो॥९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!

ब्रह्मंस्तथापि पृच्छामो धर्मान्भागवतांस्तव॥ याञ्छ्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते विश्वतो भयात्॥७॥ अहं किल पुरानंतं प्रजाऽर्थोभुवि मुक्तिदम्॥ अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया॥८॥ यथा विचित्रव्यसनाद्भवद्भिर्विश्वतो भयात्॥ मुच्येम ह्यंजसैवाद्धातथा नः शाधि सुव्रत॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता॥प्रीतस्तमाह देवर्षिहरेः संस्मारितो गुणैः॥१०॥ नारद उवाच॥ सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्त्वतर्षभ॥ यत्पृच्छसे भागवतान्धर्मांस्त्वं विश्वभावनान्॥११॥ श्रुतो नु पठितो ध्यात आदृतो वाऽनुमोदितः॥ सद्यः पुनाति सद्धर्मो देवविश्वद्रुहोऽपिहि॥१२॥ त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम॥१३॥

इसप्रकार जब अत्यन्त बुद्धिमान् वसुदेवजीने पूछा, तब भगवान्के गुणोंको स्मरण करानेसे प्रसन्न हो, देवर्षि नारदजी वसुदेवजीसे कहनेलगे॥१०॥ कि, हे यादवोंमें श्रेष्ठवसुदेवजी तुमने यह भला निश्चय उत्तम प्रश्न किया, क्योंकि, तुमने सबके चित्तको शुद्ध करनेवाला वैष्णवधर्म पूछा॥११॥ यह धर्म सुननेसे, स्मरण करनेसे, श्रद्धापूर्वक आदरसे ध्यान करनेसे, सम्मति देनेसे समस्त विश्वके पातकी जनोंको शीघ्र पवित्र करदेताहै, क्योंकि यह भगवत् सम्बन्धी धर्म है

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॥१२॥ हे वसुदेव! तुमने परमकल्याणरूप जिनके श्रवण और कीर्त्तन अत्यन्त पावन पवित्र

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शंका - ऐसा उत्तम कौनसा धर्म है, जो शीघ्रही दुष्टोंको पवित्र करता है? कैसे दुष्टोंको जो दुष्ट तीन लोककी और देवताओंकी बुराई करते हैं, उनको पवित्र करना महाकठिन है, क्योंकि शास्त्रोंमें ऐसा लिखा है कि, जो प्राणी किसी दूसरे प्राणीकी एक भी बुराई करेगा तो वह बुराई करनेवाला पुरुष कभी पवित्र नहीं होगा वह तो चण्डालके सदृश बना रहेगा और जो तीनलोककी तथा तीनलोकके देवताओंकी निन्दा करेगा यह कैसे पवित्र हो सक्ताहै?

हैं ऐसे भगवान् नारायणको मुझे स्मरण कराकर मेरा आपने बड़ाही उपकार किया॥१३॥ अब मैंयहाँ तुमसे एक प्राचीन कथा कहता हूं, जिसमें उदारचित्त राजा जनक और ऋषभदेवके पुत्र नव योगीश्वरोंका संवाद है॥१४॥ स्वायंभुवमनुका प्रियव्रतनाम एक पुत्र हुआ उसके अग्नीध्र इनके नाभि और नाभिके ऋषभदेवजी हुए॥१५॥ यह वासुदेवके अंशरूप ऋषभदेवजी मोक्षसंबंधी धर्म कहनेकी कामनासे प्रगट हुएथे, इनके सौ १०० पुत्र हुए सो सब, वेदके जाननेवालेथे॥१६॥ इनमें नारायण और भरतजी अत्यन्त श्रेष्ठ हुए अधिक

अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥ आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः॥१४॥ प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः॥ तस्याग्नीध्रस्ततोनाभिर्ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः॥१५॥ तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया॥ अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद्वेदपारगम्॥१६॥ तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः॥ विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भारतमद्भूतम्॥१७॥ स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम्॥ उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः॥१८॥ तेषां नव नवद्वीपपतयोऽस्य समंततः॥ कर्मतंत्रप्रणेतारं एकाशीतिर्द्विजातयः॥१९॥ नवाभवन्महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः॥ श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः॥२०॥

कहनेकी अवश्यकता नहीं यह अजनाभखंडही जिनके नामसे भरतखण्ड प्रसिद्ध होगया॥१७॥ सो राजा भरत पृथ्वीको भली प्रकार भोगकर, अन्तमें पृथ्वीको छोड, तपस्या करनेको चलेगये और भगवान् हारकी उपासना करते करते तीन जन्ममें हरिकी पदवीको प्राप्त हुए॥१८॥ शेष निन्नानवे पुत्रोंमें नौ पुत्र इस भरतखण्डके मध्य नवों द्वीपोंके पति हुए और इक्यासी पुत्र कर्ममार्गके प्रवर्त्तक ब्राह्मण हुए॥१९॥ और जो नौ पुत्र यहाँ भागवतमुनि थे, वह परमार्थके उपदेश करनेवाले आत्मज्ञानके अभ्यासमें तत्पर दिगंबर

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**उत्तर—**जो धर्म तीनलोक अथवा सब देवताओंकी निन्दा करनेवाले प्राणीको पवित्र करता है, वह धर्म यह है कि. मनमें दया करके भगवान्काभजन करना, यह ऐसा सुन्दर धर्म है कि, सब पपोंका नाश करता हैं, जैसे रूईके ढेरको एक सरसों प्रमाण अग्नि भस्म कर देती है, ऐसाही भगवान्के नामका जप है, थोडाभीकरेगा तो अनेक जन्मके पापोंका नाश करदेगा ऐसा लिखा है।

वेषआत्मविद्यामें निपुण हुए॥२०॥ उनके नाम यथा - कवि^(१), हरि^(२), अंररिक्ष, प्रबुद्ध^(४), पिप्पलायन^(५), आविहोंत्र^(६), द्रूमिल^(७), चमस^(८) और करभोजन॥२१॥ यह सब इस विश्वको भगवद्रूपसे देखनेलेगे, स्थूल सूक्ष्मको आत्मासे भिन्न देखनेलगे, अधिक क्या कहै, वह सब आत्मरूपहीको देखते संपूर्ण पृथ्वीमें फिरनेलगे॥२२॥ अप्रतिहत गतिसे आसक्ति रहित यह योगीश्वर देवता, सिद्ध,साध्य, गंधर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर, नाग, मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओके लोकोंमें अपनी इच्छासे विचर रहेथे॥२३॥ विचरते २ यह सब अपनी इच्छासे एक दिन

कविर्हरिरंतरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः॥ आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥२१॥ एते वै भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम्॥ आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यंतो व्यचरन्महीम्॥२२॥ अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्यगंधर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान्॥ मुक्ताश्चरंति मुनिचारणभूतनाथविद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम्॥२३॥ त एकदा निमेः सत्रमुपजग्मुर्यदृच्छया॥ वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मनः॥२४॥ तान्दृष्ट्वा सूर्यसंकाशान्महाभागवतान्नृप॥ यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे॥२५॥ विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरा यणान्॥ प्रीतः संपूजयचक्र आसनस्थान्यथार्हतः॥२६॥ तान्रोचमानान्स्वरूचा ब्रह्मपुत्रोपमान्नव॥ पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः॥२७॥ विदेह उवाच॥ मन्ये भगवतः साक्षात्पार्षदान्वो मधुद्विषः॥ विष्णोर्भूतानि लोका नां पावनाय चरंति हि॥२८॥

ऋषियोंसे उदारचित्त अजनाभ राजा जनकके यज्ञमें आये॥२४॥ सूर्यके समान तेजस्वी परमभागवत इन ऋषियोंको देख यजमान, अग्नि, ब्राह्मण,होगये॥२५॥ इसके उपरान्त गजा जनक उनको नारायणपरायण जान अतिप्रसन्न हो आसन दे यथायोग्यपूजा करने लगे॥२६॥ अपनी कांतिसेशोभासंयुक्त मनकादिकोंके समान उन नव योगीश्वरोंको देख, प्रसन्न हो, विनयकर, नम्र होकर पूॅछने लगे॥२७॥ पथमउनकी स्तुतिकरी कि, तुम साक्षात् मधुदैत्यके द्वेपी भगवान्के पार्षद हो, जिससे विष्णुभक्त लोगोके पवित्र करनेको सब

ठौर विचरते हो॥२८॥ मैंने दुर्लभ वस्तु पाई है, इसलिये मेरा बड़ा भाग्य है, क्योंकि ऐसा कहा है कि, देहधारियोंको मनुष्यदेह दुर्लभ है, सो भी क्षणभंगुर है, उसमें भी भगवान्के प्रिय भक्तोंका दर्शन तो अत्यन्तही दुर्लभ है॥२९॥ हे निष्पाप! इसलिये मैं आपसे पूँछताहूं कि, संसारमें सबसे उत्तम कल्याणका साधन क्या है क्योंकि इस संसारमें अर्द्धक्षणका सत्संग भी मनुष्योंको बड़ी निधि है॥३०॥ इसकारण यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझो तो हमसे वैष्णवधर्म कहो, जिन धर्मोंसे प्रसन्न होकर भगवान् भक्तोंको अपना आत्मातक भी दे देते हैं॥३१॥ नारदजी बोले कि, हे वसुदेव! इसप्रकार जब राजा जनकने पूछा, तब उन महंत ऋत्विजोंने सभासदों सहित राजा जनककी स्तुति करके प्रीतिपूर्वक कहा॥३२॥

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः॥ तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुंठप्रियदर्शनम्॥२९॥ अत आत्यंतिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः॥ संसारेऽस्मिन्क्षणार्धोऽपि सत्संगः शेवधिर्नृणाम्॥३०॥ धर्मान्भागवतान्ब्रुत यदि नः श्रुतये क्षमम्॥ यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यजः॥३१॥ नारद उवाच॥ एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः॥ प्रतिपूज्याब्रुवन्प्रीत्या ससदस्यर्त्विज नृपम्॥३२॥ कविरुवाच॥ मन्येऽकुतश्चिद्भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्॥ उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद्विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः॥३३॥ ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये॥ अंजः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान्हि तान्॥३४॥

जनकजीने नौ प्रश्न किये, प्रथम वैष्णवधर्म, दूसरा परमेश्वरकी भक्ति, तीसरे माया, चौथे मायाके तरनेका उपाय, पाँचवाॅ ब्रह्म, छठा कर्म, सातवाॅअवतार चरित्र, आठवाँ भक्तिप्राप्ति, नवाॅ युग, इन एक एक प्रश्नका उत्तर नवों मुनीश्वरोंने दिया, प्रथम अतिकल्याणरूप धर्म कवि योगेश्वर बोले कि, हरिके चरणारविन्दकी उपासनाही सब प्रकारके भय दूर करती है, जिसके करने से देहादि भिन्न पदार्थोंके गर्वसे सदा उद्वेगको प्राप्त होकर यह पुरुष संसारके भय से छूट जाता है॥३३॥ अब वैष्णवधर्मके लक्षण कहते हैं, प्रथम मनु आदि ऋषियोंके मुखसे सब वर्ण आश्रम धर्म कहते हैं कि अतिरहस्यसे अपने मुखसे भगवान्ने अज्ञानियोंको सुखपूर्वक आत्मज्ञान पानेके जो उपाय कहे हैं, वह सब वैष्णवधर्म हैं॥३४॥

उन धर्मोंका आश्रयकर मनुष्य कभी विघ्नोंसे पीड़ित नहीं होता. हे राजन्! नेत्र बन्द करके दौडे तो भी नहीं गिरता और यदि वर्ण आश्रम धर्म न बन पड़े तो भी प्रत्यवायी नहीं होता और न फलसें भ्रष्ट होता है॥३५॥ जिस विधिसे बताये शास्त्रोक्त किये कर्मही नारायणके अर्पण करै, यह नियम नहीं हैं, किन्तु शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, अहंकार और अध्याससे मानेहुए ब्राह्मणत्वादिसे भी जो कुछ कर्म करनेमें आवै, वह सब परमेश्वरके अर्पण करनेसे शारीरक क्रिया सब नारायण सम्बन्धी धर्मरूप होजाती हैं॥३६॥ परमेश्वरसे विमुख पुरुषको ईश्वरकी मायासे भगवत् स्वरूपका ज्ञान नहीं होता, बरन् उससे अहंदेह, मैं देहहूं, अभिमान होता है तब दूसरेके अभिनिवेशसे भय होता है, जिस कारण कि, उनकी मायासे भय होता है, इससे गुरुको देवता और इष्ट माननेवाले बुद्धिमान् निश्चय करके भक्तिसहित ईश्वरको ही भजें,

यानास्थाय नरो राजन्न प्रमाद्येत कर्हिचित्॥ धावन्निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥३५॥ कायेन वाचा मन सेंद्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वानुश्रितस्वभावात्॥ करोति यद्यत्सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥३६॥ भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः॥ तन्माययाऽतो बुध आभजेत्तं भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥३७॥ अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयोर्ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौयथा॥ तत्कर्मसंकल्पविकल्पकं मनो बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात्॥३८॥ शृण्वन्सुभद्राणि रथांगपाणेर्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके॥ गीतानि नामानि तदर्थकानि गायन्विलज्जो विचरेदसंगः॥३९॥

तहाॅ पूर्वपक्षमें कहते हैं कि, चित्त तो विषयोंसे चंचल है, फिर निश्चल भक्ति कैसे हो? और भक्ति न हो तो भय कैसे जाय? इसके उत्तरमें कहतें हैं कि, विषय कुछ वस्तु नहीं है, केवल मनका विलास मात्र है, इसलिये मनको निग्रह करके जो भजन करैतो अभय होय, यद्यपि यह प्रपंचसब ब्रह्मरूपही है, दूसरा कोई नहीं है॥३७॥ परंतु तोभी अविद्यासे द्वैत भासता है, जैसे ध्यान करनेवाले पुरुषको मनसे स्वप्न और मनोरथ दीखते हैं, इसकारण संकल्प विकल्पके कर्त्ता मनको बुद्धिमान् पुरुष रोके, तव निश्चल भक्तिसे भजन करे, तो अभय होवै॥३८॥ जो जगदीशके शुभ कर्म जन्म हैं और जो जन्म कर्मसे हुये नाम लोकोंमें प्रसिद्ध हैं, उनको लज्जा छोड निस्पृही होकर गाता फिरें॥३९॥

इस प्रकार भजन करनेसे प्रेमलक्षणा भक्तियोगको प्राप्त होनेसे उसकी संसारसे न्यारीही गति होजाती है, ऐसा जिसका आचरण है और भगवान् वासुदेवके नामकीर्तनसे अनुराग वढने और चित्त अतिकोमल होनेसे वह भक्त भगवान्को जीत लेते हैं, तब उनकी यह दशा होजाती है कि, कभी भगवान्को अपने वशमें जानकर हँसते हैं और कभी इतना समय व्यर्थ गया, यह जानकर रोते हैं, कभी अति उत्कण्ठासे पुकारते हैं, कभी आनंदमें मग्न हो उच्च स्वरसे गाते हैं, अरु कभी नाचते हैं, इस प्रकार अलौकिक उन्मत्तोंकेसी चेष्टा केरते हैं, जैसे मतवाले अज्ञानी पुरुष करते हैं॥४०॥ आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ज्योति, सब प्राणी मात्र, दिशा, वृक्ष, नदी सबको हरिहीका शरीर जाने, अनन्य चित्तहोकर प्रणाम करै, यह वैष्णवोके लक्षण हैं॥४१॥ यदि कोई कहे कि, यह धर्म तो योगेश्वरोकोभी दुर्लभ है, अनेक जन्मोंमें भी प्राप्त नहीं हो

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः॥ हमत्यथो रोदिति रौति गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकवाह्यः॥४०॥ खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सर्वाणि दिशो द्रुमादीन्॥ सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः॥४१॥ भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः॥ प्रपद्यमानस्य यथाऽश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्॥४२॥ इत्यच्युतांघ्रिंभजतोऽनुवृत्त्या भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः॥ भवंति वै भागवतस्य राजंस्ततः पर शांतिमुपैति साक्षात्॥४३॥ राजोवाच॥ अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम्॥ यथा चरति यद्भूते यैर्लिंगैर्भगवत्प्रियः॥४४॥

सक्ता, सो एक नाममात्रका कीर्त्तन करनेसे एकही जन्ममें कैसे होसक्ता है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, प्रेमलक्षणा भक्ति और प्रेमाश्रय भगवत स्वरूपकी स्फूर्ति और गृहादिकोमें वैराग्य, यह तीनों हरि भजनकर्त्ता पुरुषको एकहीसमय होते हैं, जिस प्रकार भोजन करनेसे सुख, पुष्टि, पेट भरना, भूंखकी निवृत्ति यह तीनों एकही कालमें ग्रास विषे होती हैं॥४२॥ फिर भगवान्के प्रसादसे कृतार्थ होता है सो कहते हैं, इस प्रकार जब पुरुष हरिचरणारविन्दका नित्य भजन करे, तो उसे प्रेमलक्षणा भक्ति तथा वैराग्य और साक्षात् भगवत् स्वरूप ज्ञान तीनों होते हैं, तब पुरुष परमशान्तिको प्राप्त होता है॥४३॥ यह सुनकर राजा जनकने पूछा कि, हे मुनिश्रेष्ठ! वैष्णव मनुष्योंके बीच में कैसे होते हैं, किस

धर्मकेविषे स्थित, कैसा स्वभाव, कैसा आचरण, कैसा बोलना, और कैसे चिह्न हैं? जिससे भगवान्का प्रिय होता है, सो कृपापूर्वक संपूर्ण मेरे आगे वर्णन करो॥४४॥ इसका उत्तर हरिनामा योगीश्वर तीन श्लोकोंसे देते हैं कि, जो अपनेको सब प्राणीमात्रमें ब्रह्मस्वरूपसे स्थित देखे और ब्रह्मरूप अपनेमें सर्व प्राणीमात्रको देखै, सो उत्तम भागवत है॥४५॥ ईश्वरमें प्रेम करै, भगवान् के भक्तोंसे मित्रता करें, मूखोंपर कृपाकरैऔर शत्रुओंकी उपेक्षा करे, वह मध्यम वैष्णव है॥४६॥ भेदबुद्धिसे केवल प्रतिमाहीमें श्रद्धा रखता है और जीवोंमें तथा भक्तोंमें जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह प्राकृत भक्त है॥४७॥ अब आठ श्लोकों उत्तम वैष्णवोंके लक्षण कहते हैं, जो इन्द्रियोंसे विषयोंको भोग करते हैं, परन्तु न किसीसे द्वेष

हरिरुवाच॥ सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः॥ भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥४५॥ ईश्वरे तदधीनेषु वालिशेषु द्विषत्सु च॥ प्रेसमैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥४६॥ अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते॥ न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः॥४७॥ गृहीत्वापींद्रियैरर्थान्यो न द्वेष्टि न हृष्यति॥ विष्णोर्मायामिदं पश्यन्स वै भागवतोत्तमः॥४८॥ देहेंद्रियप्राणमनोधियां यो जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः॥ संसारधर्मेरविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः॥४९॥ न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि संभवः॥ वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतो तमः॥५०॥ न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः॥ सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥५१॥

है, न प्रीति है, सब वस्तुमात्रको ईश्वरकी मायासे जानते हैं, सो भक्तों में उत्तम हैं॥४८॥ देहके संसारी धर्म, जन्म, मरण, इन्द्रियोंको कष्ट, प्राणो को भूख, मनको भय, बुद्धिको तृष्णा, इन संसारके धर्मोसे जो मोह न पावैं और निरंतर भगवान् हरिका स्मरण करैंसो वैष्णव भक्तोंमें मुख्य हैं॥४९॥ जिसके मनमें काम, कर्म और वासना न उत्पन्न हो, चित्त केवल भगवान् वासुदेवके स्वरूपमेंही वसता रहे, सो वैष्णवोंगे उत्तम है, इन तीन श्लोकोंमें भक्तोंके आचरणको उत्तम कहा॥५०॥ जिसके इस देहमें कुल, तप, वर्ण, आश्रम और जातिका अभिमान नहीं है, सो भगवान्काअतिप्यारा भक्त

है॥५१॥ जिसके चित्त और आत्मामें अपनी पराई बुद्धि नहीं और सब प्राणीमात्रमें समान दृष्टि होकर शान्त हो सो वैष्णवों में उत्तम है॥५२॥ त्रिलोकीके राज्यके लिये भगवान् वासुदेवमेंही जिनका चित्त है और जो देवताओंसे दुर्लभ भगवान्के चरणकमलके भजन विना अर्द्धक्षण लव मात्र भी नहीं व्यतीत करते, सो वैष्णवोंमें श्रेष्ठहैं, क्योंकि इनको ऐसा दृढ़ ज्ञान है कि, भगवान् वासुदेवके चरणोंसे अधिक और कुछ सार नहीं॥५३॥ यदि विषयके संगसे और कामसे संतापित हुए भक्तोंके मन चंचल होयँ तो क्या? इसपर कहते हैं कि, हरिसेवामें सुख माननेवालेका तो मन नही चलायमान हो, परन्तु अनंतपराक्रम भगवान् वासुदेवके चरणकी शाखारूप अंगुलियोंके नखरूप मणिकी चन्द्रिकासे सब कामादि ताप दूर

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा॥सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोऽत्तमः॥५२ त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुंठस्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्॥ न चलति भगवत्पदारविंदाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः॥५३॥ भगवत उरुविक्रमांघ्रिशाखानखमणिचंद्रिकया निरस्ततापे॥ हृदि कथमुपसीदतां पुनः स प्रभवति चंद्र इवोदितेऽर्क तापः॥५४॥ विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः॥ प्रणयरशनया धृतांघ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधानउक्तः॥५५॥ इति श्रीमद्भाग० म० एका० नारदवसुदेवसंवादांतर्गतनिमिजायंतेयसंवादे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ राजोवाच॥ परस्य विष्णोरीशस्य मायिनामपि मोहिनीम्॥ मायां वेदितुमिच्छामि भगवंतो ब्रुवंतु नः॥१॥

होनेसे भक्तके हृदयमें ताप उत्पन्न नहीं होता, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे सूर्यका ताप दूर होजाता है और भी मुख्यलक्षण कहते हैं॥५४॥ केवल नाम मात्रके लेतेही सम्पूर्ण पापोंके समूहका नाश करनेवाले साक्षात् भगवान् वासुदेवको हृदयमेंसे न त्यागैवही वैष्णवोंमें उत्तम है, क्योंकि इसने प्रेमडोरीसे हरिके चरणकमल हृदयमें बाँध रक्खे हैं॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा - माया मायासे तरन, ब्रह्म कर्म यह चार॥ इनको उत्तर देत अब, योगेश्वर सुविचार॥१॥ माया और मायासे तरनेका उपाय तथा ब्रह्मकर्म इन चार प्रश्नका उत्तर ऋषभदेवके पुत्र मुनि तीसरे अध्यायमें कहेंगे, राजा जनकजी बोलेकि, हे भगवन्! परमात्मा ईश्वर विष्णुकी मायाको मैं जानना

चाहताहूं सो कृपापूर्वक तुम मुझसे कहो, जो माया बड़े जाननेवालोंकोभी मोहित करलेती है॥१॥ यदि तुम कहो कि, उक्त (जिसको प्रथम कह आयेहैं) लक्षणवाला भक्त होकर कृतार्थ होय तो बहुत परिश्रम करके क्या करैंगे? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, मरणधर्ममें संसारके तापसे अत्यन्त ताप होताहै, उस तापकी औषध हरिकथारूप अमृतको तुम्हारे वचनोंद्वारा पीने से मेरी तृप्ति नहीं हुई॥२॥ यह सुनकर अंतरिक्ष नामा योगेश्वर बोले कि, हे राजन्! आदिपुरुष भगवान् सब प्राणिमात्र के कारण अपने अंशभूत जीवोंको मोक्षके अर्थ पंचमहाभूतोंकी शक्तिसे, बुद्धि, इन्द्रिय, मन, प्राण और शरीर उत्पन्नकरतेहैं. सो शक्ति मायाकारूप है॥३॥ इसप्रकार पंचमहाभूतोंसे सृष्टिरच सम्पूर्ण प्राणियोंके मध्यमें भगवान् अंतर्यामी रूपसे प्रविष्ट

नानुतृप्यजुषन्युष्मद्वचो हरिकथामृतम्॥ संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यस्तत्तापभेषजम्॥२॥ अंतरिक्ष उवाच॥ एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज॥ ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये॥३॥ एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पंचधातुभिः॥ एकधा दशधात्मानं विभजञ्जुषते गुणान्॥४॥ गुणैर्गुणान्स भुजान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः॥ मन्यमान इदं सृष्टमात्मानमिह सज्जते॥५॥ कर्माणि कर्मभिः कुर्वन्सनिमित्तानि देहभृत्॥ तत्तत्क फलं गृह्णन्भ्रमतीह सुखेतरम्॥६॥ इत्थं कर्मगतीर्गच्छन्वह्वभद्रवहाः पुमान्॥ आभूतसंप्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः॥७॥ धातूपप्लव आसन्नेव्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम्॥ अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति॥८॥ शतवर्षा ह्यनावृष्टिर्भ विष्यत्युल्वणा भुवि॥ तत्कालोपचितोष्णार्को लोकांस्त्रीन्प्रतपिष्यति॥९॥

होकर एकप्रकार मन और दश इन्द्रियरूपसे जीवोंको भिन्न भिन्न विषयभोग कराते हैं॥४॥ तब जीवात्मा अंतर्यामी से प्रकाशित इन्द्रियोंसे विषयभोग करते मायारचित शरीरको आत्मा मान उसी शरीरमें आसक्त होतेहैं॥५॥ यह जीव कर्मेन्द्रियोंसे वासनासहित कर्म करते हैं और इन्हीं कर्मोंसे सुख दुःखरूप फलको भोग करते संसारमें भ्रमण करते हैं, परन्तु मोक्ष नहीं होते, यह परमेश्वरकी माया है॥६॥ इस भाँति अनेक क्लेशयुक्त कर्ममार्गमें चलते जीवात्मा पराये वश होकर महाप्रलयतक जन्म मरणको प्राप्त होतेहैं॥७॥ अब प्रलय कहते हैं कि, पंचमहाभूतोंके नाशका काल जब निकट आता है, तब आदि अंत रहित कालमें लीन करनेको इस स्थूल सूक्ष्म प्रपंचको खैचलेतेहैं॥८॥ अब नाशका कारण कहते हैं, पहले

पृथ्वीमें सौ १०० वर्षतक अतिदारुण अनावृष्टि होगी, पीछे उस कालमें बड़ी उष्णतासे सूर्य तीनों लोकोंमें तपैगा॥९॥ और पाताल तलसे आरंभ होकर जलाताहुआ ऊंचेको शिखाकिये अग्नि, वायुसे प्रेराहुआ चारों दिशाओंमें बढैगा॥१०॥ इसके उपरान्त सांवर्त्तकनाम प्रलयकालके मेघगण सौ १०० वर्षतक हाथीकी सूड़के समान धारोंसे वर्षेंगे, तब उस जलमें यह ब्रह्माण्ड लीन होजायगा॥११॥ हे राजन्! जैसे अग्नि काष्ठन हो तो शुद्ध अग्निमें मिलजाती है, इसीप्रकार ब्रह्माण्डरूप शरीरवाला विराट्पुरुष ब्राह्माण्डरूप अपने शरीको छोड़ कर सूक्ष्म परब्रह्ममें प्रवेश करजाताहै॥१२॥ पृथ्वीका गुण गंध है, उसको प्रलयाकारकी पवन हरलेती है, तब पृथ्वी गुणरहित होकर जलमें लीन

पातालतलमारभ्य संकर्षणमुखानलः॥ दहन्नूर्द्धशिखो विष्वग्वर्धते वायुनेरितः॥१०॥ सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः॥ धाराभिर्हस्तिहस्ताभिर्लीयते सलिले विराट्॥११॥ ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप॥ अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिंधन इवानलः॥१२॥ वायुना हृतगंधा भूः सलिलत्वाय कल्पते॥ सलिलं तद्धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते॥१३॥ हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते॥हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते॥१४॥ कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते॥ इंद्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप॥ प्रविशति ह्यहंकारं स्वगुणैरहमात्मनि॥१५॥ एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यंतकारिणी॥ त्रिवर्णा वर्णितास्माभिर्भूयः किं श्रोतुमिच्छसि॥१६॥

होजाती है, पीछे जलके गुण रसको वही पवन सोख लेता है, तब जल तेजमें लीन होजाता है॥१३॥ प्रलयकालके अंधकारसे रूपरहित हो तेज वायुमें लीन होजाता है, पीछे आकाशसे स्पर्शगुण हरजानेसे वायु आकाशमें लीन होजाताहै, इसके उपरान्त आकाशके गुण शब्दको कालरूप ईश्वर हरलेते हैं, तब आकाश तामसाहंकारमें लीन होजाता है॥१४॥ फिर इन्द्रियें और बुद्धि राजसाहंकारमें लीन होती हैं, मन इन्द्रियोंके देवताओं सहित सात्त्विक अहंकारमें लीन होता है; हे राजन्! इसीप्रकार तामस, राजस और सात्विक यह तीनों गुणोंका कार्य इन्द्रियादिक सहित अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होता है और वह महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन होता है॥१५॥ सात्त्विक, राजस, तामस, तीनों गुणयुक्त उत्पत्ति पालन और॥

प्रलय करनेवाली यह भगवान्की माया है, सो मैंने तुमसे इसका रूप वर्णन किया, अब और क्या सुननेकी इच्छा है?॥१६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्!इस प्रकार अतिदयायुक्त मुनिको देख इस संसारकी मायासे तरनेका उपाय राजा जनक पूॅछनेलगे, कि यह ईश्वरकी माया अजितेंद्रियोंको अति दुस्तर है, इसलिये देहाभिमानी भी जिसप्रकार इसे सुखपूर्वक तरसके सो हे महाऋषि!वोही उपाय तुम मुझे बताओ॥१७॥ तब प्रबुद्ध नाम चौथे योगीश्वर बोले कि, हे राजन्! भगवान् स्त्री पुरुष मिलकर अपने सुखको और दुःख दूर करनेके कर्मोंका आरंभ करते हैं, और फिर उन कर्मोंके फलमें दुःखही देखते हैं॥१८॥ कर्मके साधनसे धनादिक मिलकर भी सुख नहीं देते; इसपर कहते हैं कि, नित्य दुःखदायी उसपर भी दुर्लभ, अपनी मृत्युकारक धन, गृह, पुत्र, बंधु और पशुओंके पायेसे क्या सिद्धि है? यह तो सब मिथ्या है॥१९॥

राजोवाच॥ अथैतामैश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः॥ तरंत्यजः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम्॥१७॥ प्रबुद्ध उवाच॥ कर्मण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च॥ पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम्॥१८ नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना॥ गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः॥१९॥ एवं लोकं परं विद्यान्नश्वरं कर्मनिर्मितम्॥ सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मंडलवर्तिनाम्॥२०॥ तस्माद्वरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्॥ शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्॥२१॥ तत्र भागवतान्धर्माञ्छिक्षेद्गुर्वात्मदैवतः॥ अमाययाऽनुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्मप्रदो हरिः॥२२॥

इसीप्रकार कर्मोंसे उत्पन्न हुए परलोकको भी मिथ्या जाने, जिसमें अपने समान से ईर्षा, अधिककी निन्दा स्वर्गसे गिरनेका भय, इतने दुःख स्वर्गके विषे भी हैं, जैसे थोडी भूमिके राजाओंको समान देखकर ईर्षा अधिककी निन्दा और चक्रवर्ती राजासे भय इत्यादि दुःख होते हैं॥२०॥ इसलिये अपना उत्तम कल्याण चाहे तो भक्तिपूर्वक गुरुकी सेवा करे, गुरुके लक्षण कहते हैं, मुख्य तो वेदका अर्थ अतिश्रेष्ठ जानता हो, जिससे कि, सब संदेह दूर करसके और परब्रह्म भगवान् के स्वरूपको जाने, जो आप ब्रह्मको न जाने तो औरको कैसे ज्ञान देगा? अतिशांतरूप हो, क्योंकि ब्रह्मज्ञान उसेही होगा जो पुरुष शांत होगा॥२१॥ भक्तोंको आत्माके देनेवाले परमात्मा भगवान् हरि जिन वैष्णवधर्मसे संतुष्ट होते हैं, उन धर्मोंको गुरुको आत्मा और इष्ट जानकर भक्तजनको गुरुकी निष्कपट सेवा करनी सीखै॥२२॥

पहले तो संपूर्ण वस्तुओंमें मनको चलायमान न करें, इसके उपरान्त सत्संग करै, फिर सब प्राणियोंमें और दीनोंपर मन वचनसे दयायुक्त चित्तमें सबसे मित्रता करैऔर उत्तमोंमें नम्रता सीखै॥२३॥ बाह्य शौच सीखै, (मृत्तिकासे हाथ पाँव आदि धोवै) अन्तर शौच सीखै(मनमें दंभ अहंकार न रखे) धर्मका आचरण, क्षमा यथायोग अध्ययन, ब्रह्मचर्य सीखै, वृथा वार्त्ता न करैकुटिल न रहै, द्रोहन करै, सुख दुःखमें समान बुद्धि रखै॥२४॥ सब प्राणिमात्रमें समान चैतन्य आनन्दरूपसे ब्रह्मको विचारै, नियंता समझकर ईश्वरको विचारै, एकान्तमें वास करै, गृहादिकोंमें अभिमान न करै; निर्जन मार्गमें पड़ेहुए वस्त्र अथवा वल्कलको पहरै, अधिक क्या कहैं, जो वस्तु प्राप्त हो उसीमें संतोष रक्खै और की इच्छा न करै॥२५॥ जो शास्त्र केवल भगवान्ही बताते हैं, वह भागवत शास्त्र है, इसे सुननेकी श्रद्धा रक्खैऔरकी निन्दा भी न करें और मन, वचन, कर्म इन

सर्वतो मनसोऽसंगमादौ संगं च साधुषु॥ दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्॥२३॥ शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्॥ ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वंद्वसंज्ञयोः॥२४॥ सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्॥ विविक्तचीरवसनं संतोषो येन केनचित्॥२५॥ श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिंदामन्यत्र चापि हि॥ मनोवाक्कर्मदंडं च सत्यं शमदमावपि॥२६॥ श्रवणं कीर्त्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः॥ जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम्॥२७॥ इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम्॥ दारान्मुतान्गृहान्प्राणान्यत्परस्मै निवेदनम्॥२८॥ एवं कृष्णात्मनार्थेषु मनुष्येषु च सौहृदम्॥ परिचर्यांचोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु॥२९॥

तीनोंको दण्ड दे, मनको तो प्राणायाम करके रोकै, वाणीका दण्ड यह है कि, मिथ्या वचनन कहै, कर्मका दण्ड चेष्टा न करै, सत्य वचन सीखै अंतःकरण और सब इन्द्रियोंको निग्रह करै॥२६॥ अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् हरिके जन्म कर्म गुणका श्रवण कीर्त्तन तथा ध्यान करे और भी जो कर्म करै सो सब भगवान् वासुदेवमें अर्पण करै॥२७॥ यज्ञ, दान, तप, सदाचार और आपको जो प्रियवस्तु होय सो सब गंध पुष्पादिक और स्त्री, पुत्र, गृह, प्राण यह सब परमपुरुष भगवान् वासुदेवको निवेदन करैऔर यह सब धर्म गुरुके पास से सीखै॥२८॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आत्मा माननेवाले मनुष्योंसे मित्रता और स्थावर, जंगम प्राणियोंमें सेवा विशेष करके मनुष्योंकी और उनमें

भी महात्मा तथा साधुओंकी सेवा करै॥२९॥ इन साधुओंका सत्संग करके भगवान् वासुदेव के पवित्र यशको परस्पर कहना सीखै, फिर ईर्षा छोड़ आपसमें प्रीति, सबसे संतोष, परस्पर सुख समस्त दुःखोंकी निवृत्ति सीखै॥३०॥ सपूर्ण पापसमूहके नाश करनेवाले भगवान् हरिको आप निरंतर स्मरण करैतथा औरोंको स्मरण करावैतब स्मरण, कीर्तनरूप भक्तिके करनेसे प्रेमलक्षणा भक्तिसे रोमांच युक्त शरीर होजाता है

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॥३१॥ इस प्रकार भगवान् वासुदेवका चिंतयन करनेवाले कभी रोवैहैं, कभी हँसे हैं, कभी आनन्दको प्राप्त होते हैं, कभी बालकोंके समान वचन

परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः॥ मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिर्निवृत्तिर्मिथ आत्मनः॥३०॥ स्मरतः स्मारयंतश्च मिथोऽघौहरं हरिम्॥ भक्त्या संजातया भक्त्या विभ्रत्युत्पुलकां तनुम्॥३१॥ क्वचिदुदंत्यच्युतचिंतया क्वचिद्धसंति नंदंति वदंत्यलौकिकाः॥ गायंति नृत्यंत्यनुशीलयंत्यजं भवंति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः॥३२॥ इति भागवतान्धर्माञ्छिक्षन्भक्त्या तदुत्थया॥ नारायणपरो मायामंजस्तरति दुस्तराम्॥३३॥ राजोवाच॥ नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः॥ निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः॥३४॥

कहते हैं, कभी नाचते हैं, कभी गाते हैं, कभी भगवान्के स्वरूपकी लीला करते हैं, कभी परमसुखमें मग्न होते हैं, और कभी चुप चाप रहते॥३२॥ इस प्रकार यह वैष्णवधर्म सीखकर प्राप्त हुई भक्तिसे नारायणपरायण होकर सुखपूर्वक दुस्तर मायासे तरैं॥३३॥ यह सुनकर राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्!तुमने कहा कि, नारायणपरायण होकर मायाको तरैंसो नारायणके तो तीन नाम सुने हैं, एक तो नारायण, दूसरा ब्रह्म, तीसरा परमात्मा सो इन तीन नामोंसे निर्विशेष वस्तु कहिये अथवा इनमें कुछ भेद है? सो विशेष करके मुझसे कहो, क्योंकि

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**शंका-**भक्ति करके उत्पन्न जो भक्ति है, उस भक्तिसे भगवान्के भक्तोंका रोम रोम खडा होजाताहै, ऐसी रोमांच हुई देहको धारण करके भक्तजन भगवान्का भजन करते हैं, ऐसी उत्तमभक्ति कौनसी है?

उत्तर- भगवान्में बड़ी भक्ति जैसा अम्बरीप आदिकभक्त भक्ति करतेथे ऐसी भक्ति करके भगवान्के चरणकमलमें प्रीति उपन्न होय, उसी प्रीति करनेका नाम भक्तिसे उत्पन्न हुई भक्तिहै, ऐसी भक्ति करके भगवान्का भजन करैगा तब प्राणी मोक्षको प्राप्त होजायगा।

तुम ब्रह्मको भली प्रकार जानते हो॥३४॥ तब पांचव पिप्पलायन ऋषि उत्तर देते हैं कि, हे राजा जनक! जो इस विश्वके उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय के कारण हैं और आप कारण रहित हैं, सो नारायण हैं वही परमतत्त्व हैं, जो स्वरूप स्वप्न, जाग्रत् और सुपुप्तिमें एकरस है, सो ब्रह्म है, वही परमतत्त्व है, समाधिमें जिसको मुनीश्वर देखते हैं, उसीको ब्रह्म कहते हैं वही परमतत्त्व है और जिससे देह, इंद्रिय, मन, प्राण, यह सब चैतन्यही कार्यको समर्थ होते हैं सो परमात्मा है वही भगवान्का स्वरूप है इस प्रकार तीनों नामके भेदसे एकही तत्त्व, जानना चाहिये॥३५॥ यदि तुम कहो कि, इससे ब्रह्मको विषय तत्त्वता प्राप्त हुई तो इसका निषेध करते कि, इस ब्रह्मको वाणी, नेत्र, बुद्धि, प्राण और सब इंद्रियें स्पर्श नहीं सरसक्ते जैसे छोटी चिनगारी महाभूत अग्निको नहीं प्रकाश करसकती और न जला सक्तीहै, ऐसेही मन आदिजड़ इंद्रियें सृष्टिके प्रकाशक ब्रह्मको क्योंकर ऐसा सकेगी? तहाँ पूर्वपक्ष करते हैं कि, अहो वेद तो ब्रह्मको बताते हैं, तो कहते हैं वेद भी प्रगट नहीं कारण यह है कि, वेद स्वयंही कहता है कि, वाणी

पिप्पलायन उवाच॥ स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद्वहिश्च॥ देहेंद्रियासुहृदयानि चरंति येन संजीवितानि तदवेहि परं नरेंद्र॥३५॥ नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा प्राणेंद्रियाणि च यथाऽनलमर्चिषः स्वाः॥ शब्दोपि बोधकनिषेधतयाऽऽत्ममूलमर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः॥३६॥ सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ सूत्रं महानहमिति प्रवदंति जीवम्॥ ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत्॥३७॥

मन आदिसे जो पदार्थ जाने जाते हैं, जो इनके बोध न करनेवाले हैं, वह ब्रह्मको नहीं प्राप्त होसक्ते, इससे यह न समझलेना कि, वेद ब्रह्मको नहीं कहते किन्तु वेद कहते हैं, कि, स्थूल भी ब्रह्म नहीं है, अणु भी ब्रह्म नहीं जो वाणी से कहा जाय सो भी ब्रह्म नहीं इत्यादि इस निषेधकी जो अवधि है, वही ब्रह्म है, विना अवधिके निषेध नहीं होसक्ता॥३६॥ फिर कहते हैं कि, जो सबका प्रमाण जहॉ वेदकी भी गम्य नहीं तो ब्रह्मही न होगा, इसका उत्तर देते हैं, कि, ब्रह्म नहीं यह नहीं कहा जाता, जो कुछ स्थूल सूक्ष्म देखाजाता है, सो सब ब्रह्मही भासताहै इसलिये सब विश्वके कारण भगवान् वासुदेवही है (यहाँ पूछते हैं कि) एक ब्रह्म बहुविध विश्वका कारण क्यों है (सो कहते हैं कि) ब्रह्मकी शक्ति अनंत सामर्थ्यसे अनंतरूप है, पहले एक रूप होकर पीछे सत्त, रज, तम मायाके रूप हुये पीछे क्रियाशक्तिसे प्राणरूप हुये, फिर ज्ञानशक्तिसे महत्तत्त्व हुये,

फिर अहंकाररूप हुये, जिसमें जीव बँधा है. इसके उपरान्त इन्द्रियरूप हुये, फिर इन्द्रियोंके देवतारूप हुये, फिर कर्मोंके फल सुख दुःख रूप हुये, इसभाँति सबरूप ब्रह्मही हैं और सर्वरूप आपसे प्रकाशमान ब्रह्मकी स्थापना विषे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं॥३७॥ तहाँ पूर्वपक्ष करते हैं, संपूर्ण रूप आपही हैं, तो यह सब विश्व तो मरताहै, फिर उत्पन्न होताहै, इससे ज्ञात होताहै कि, ब्रह्मका भी जन्म मरण होता है, इसके उत्तरमें कहते हैं कि, यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है न बढैहै, न क्षीण होता है, इसकारण आगमापाई बालयुवादिक देहोंकी अवस्थाका साक्षी है और साक्षीको यह अवस्था नहीं लगती, केवल ज्ञानरूप है,यदि यहाँ कोई कहे कि, ज्ञान तो एकक्षणमें उत्पन्न होताहै, एकही क्षण रहताहै और एकही क्षणमें नाशको प्राप्त हो जाता है (सो कहते) यह ज्ञान सदा रहताहै, जो कोई कहै कि, नील ज्ञान उत्पन्न हुआ, पीत ज्ञान गया, ऐसे ज्ञानका भी उत्पत्ति और नाश सुना है इसके उत्तरमें कहते हैं कि नील पीत इन्द्रियोंकी वृत्ति उत्पन्न होती हैं और वृत्तियोंकाही नाश होता है, ज्ञान तो एक

नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ न क्षीयते सवनविद्व्यभिचारिणां हि॥ सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं प्राणो यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत्॥३८॥ अंडेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु प्राणो हि जीवमुपधावति तत्रतत्र॥ सन्नेयदिंद्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः॥३९॥

रूप है, यह प्राण के दृष्टान्त कहे गये॥३८॥ इन्द्रियादि केवल हरिहीको दिख ती हैं, जैसे पशु, पक्षी, स्वेदज, वृक्षादिकोंमें सर्वत्र जहाँ जहाँ जीव जाताहै, उसी उसी स्थान में इनके संग प्राण भी जाते हैं, परन्तु प्राण निर्विकार हैं, जैसे आत्मा भी निर्विकार रहताहै, (यहाँ शंका है कि) मनुष्यादिक देहोमें आत्मा सब विकारसा क्यों दीखता है? तो कहते हैं कि;जाग्रत्में इन्द्रियगणके दोषसे, स्वप्नमें अहंकारसे, सब विकारसा दीखता है, सुषुप्तिमें तो इन्द्रियगण और अहंकार के लयसे निर्विकार आत्मा है, इससे विकारके हेतु लिंगशरीरकी उपाधिका अभाव है (यहाँ शंका है) सब नष्ट होने से आत्मा रहता है यह कैसे जानें? सो इसका उत्तर यह है, कि जब जागताहै, तब जो सुषुप्तिमें आत्माको सुख अनुभव हुआ है उसका स्मरण होता है, आज मैं बहुत सुखसे सोया, यह ज्ञान अनुभवके स्मरण विना नहीं होता, इसलिये सुषुप्तिमें आत्माका

अनुभव निर्विकार होता है, पर विषयका सम्बन्ध नहीं, इसलिये वह अनुभव प्रगट नहीं होताहै॥३९॥ फिर पूछते हैं कि, इसका सुस्वप्नमें निर्विकार अनुभव होय तो संसार फिर क्यों होताहै? यदि कहो कि, इसकी अविद्या नहीं गई, उसकी वासनासे संसार होताहै, तो अविद्या कैसे जाय? सो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जब गृह पुत्र धनादिकोंकी वासना छोड़कर केवल भगवान् वासुदेवकी इच्छा करें, ऐसा करने से भक्ति बढ़ती है, उस भक्तिसे चित्तके गुणकर्मसे उत्पन्न हुए सब पाप दूर होजाते हैं, तब चित्त शुद्ध होकर प्रगट आत्मतत्त्वको प्राप्त करता है, जैसे निर्मल दृष्टिके होनेसे सूर्यमण्डलका प्रकाश दीखता है॥४०॥ राजा जनक बोले कि, भक्ति तो कर्मयोगके अधीन है, इसलिये प्रथम मुखसे कर्मयोग कहो? जिस कर्मके करने से शुद्ध होकर फिर कर्मका वेग दूर करके पुरुष निष्कर्म श्रेष्ठ ज्ञान पाता है जिससे सब कर्म निवृत्ति

यर्ह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या चेतोमलानि विधमेद्गुणकर्मजानि॥ तस्मिन्विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं साक्षाद्यथाऽमलदृशोः सवितृप्रकाशः॥४०॥ राजोवाच॥ कर्मयोगं वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः॥ विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विंदते परम्॥४१॥ एवं प्रश्नमृषीन्पूर्वमपृच्छं पितुरंतिके॥ नाब्रुवन्ब्रह्मणः पुत्रास्तत्र कारणमुच्यताम्॥४२॥ आविर्होत्र उवाच॥ कर्माकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिकः॥ वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुह्यंति सूरयः॥४३॥ परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम्॥कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा॥४४॥

होय सो कर्मयोग कहो॥४१॥ हे महाराज! यही प्रश्न मैंने पिताके आगे जब सनकादिक आये थे, तब किया था, उन्होंने भी मुझे कुछ उत्तर ने दिया इसका क्या कारण है, सो मुझसे कहो॥४२॥ तब आविर्होत्र बोले कि हे राजन्!वेदमें जिसके करनेकी आज्ञा है, वह कर्म है, जिसका निषेध है, वह अकर्म है और जिसके करने की आज्ञा है, वह न करे तो विकर्म कहा जाता है, यह तीनों भेद वेदहीको गम्य हैं, इसका निर्णय मनुष्योंको अशक्य है, इससे वेद साक्षात् ईश्वररूप है, पुरुषके वचनमें वक्ताका अर्थ जानना अतिकठिन है, यहाँ पण्डित भी मोहको प्राप्त होते हैं, तब तुम बालक थे, इसलिये तुमसे न कहा॥४३॥ वेदका तात्पर्य क्यों नहीं जानाजाता सो कहते हैं, यह वेद सबपरोक्षवाद है, अर्थ तो और भाँति होता हो उसके छिपानेको और भांति कहें, इसे परोक्षवाद कहते हैं, उसीप्रकार वेदमें कर्म छुटानेका कर्म कहाहै मूर्ख उसी कर्मको

जानता है, यहाँ पूछँते हैं कि, कर्मका तो स्वर्गादिक फल सुना जाता है, फिर कर्मको त्यागकर फल कैसे जाने? इसका उत्तर कहते हैं कि, यह जो कर्म कारण कहेहैं, सो मूर्खोंकी शिक्षाके लिये है, नहीं तो धर्ममें किसीकी भी प्रवृत्ति नहीं होती, जैसे बालकोंको औषधी खिलानी चाहिये, तब लड्डू दिखाइये, और दीजिये उस लड्डूके लोभसे वह बालक औषधी पीलेगा, तब औषधीका यह फल नहीं, जो लड्डू खायऔषधीका तो यही फल है कि, आरोग्य कर देगी, उसीप्रकार जीव सब विषयी हैं, लोभीहैं उनको स्वर्गादिकका लोभ दिखाय कर्ममें प्रवृत्ति करते हैं, पीछे इससे भी निवृत्तिका फल उत्तम है, इस ज्ञानसे उन कमोंको छुड़ाते हैं, यह वेदका तात्पर्य है॥४४॥ जो कर्म त्यागनाही मुख्य है, तो पहलेही कर्म त्याग कीजिये तो कहते हैं कि, आप अज्ञ हो, अजितेन्द्रिय हो, जो वेदोक्त कर्म न करैतो कर्मके विना करै अधर्मसे मरकर फिर मृत्युहीको प्राप्त होता है और

नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेंद्रियः॥ विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः॥४५॥ वेदोक्तमेव कुर्वाणोनिःसंगोऽर्पितमीश्वरे॥ नैष्कर्म्यांलभते सिद्धिं रोचनार्थाफलश्रुतिः॥४६॥ य आशु हृदयग्रंथिं निर्जिहीर्षुः परमात्मनः॥ विधिनोपचरेद्देवं तंत्रोक्तेन च केशवम्॥४७॥ लब्धानुग्रह आचार्यात्तेन संदर्शितागमः॥महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयात्मनः॥४८॥

सदा कालकेही मुख में रहता है॥४५॥ इसलिये वेदोक्ती कर्म करै, निषिद्ध कर्म न करै, फिर कर्मके फलकी इच्छा न रक्खै, जो कुछ कर्म करैसो सब ईश्वर भगवान् वासुदेवमेंहीसमर्पण करैतब पुरुष मोक्षरूप सिद्धिको प्राप्तहो (तहाँ पूर्वपक्ष कहते हैं) कि, अहो, वेद विषे जो फल सुने जाते हैं, जैसे औषध पिलानेके लिये बालकोंको लड्डू देता है, उसी प्रकार कर्म करनेसे फल अवश्य होगा, तो कहते हैं कि, यह मत कहो, कर्मोंमें प्रीति उपजानेका फल सुनाना है, जैसे औषध देनेके समय बालकोंको मीठी चीज दिखाते हैं, अब वैदिककर्म कहकर आगमकी विधि कहते हैं॥४६॥ जो कोई निर्विकार जीवकी अहंकारकी गांठि छुड़ाना चाहैसो आगम और वेदोक्तके प्रकारसे सबकी पूजा करै॥४७॥ सो पूजाकी विधि कहते हैं कि, जब इस पुरुषपर ईश्वर अनुग्रह करै, तो सद्गुरु मिलते हैं, फिर उन गुरुओंसे पूजाकी विधि जाने तब आपको जैसी मूर्त्ति रुचे, उसी

प्रकार मूर्त्ति बनाकर भगवान् वासुदेवकी पूजा करें॥४८॥ सो विधि कहते हैं कि, पहले तो स्नानादिक करके पवित्र हो और फिर उस मूर्त्तिके सन्मुख बैठ प्राणायाम और भूतशुद्धि कर देहको शुद्ध करै, इसके उपरान्त उत्तम न्यासोंको कर अपनी रक्षाकरके भगवान हरिकी पूजा करै॥४९॥ पुष्पादिक द्रव्यको जंतुआदि शोधन कर, भूमिको संमार्जन और मनको सावधानकर, मूर्त्तिको स्नानादिक कराय आसनको प्रोक्षणकर प्रतिमादिक विषे अथवा हृदयमें यथा प्राप्त उपचारोंसे पूजा करै॥५०॥ पाद्य, अर्घ्य इत्यादि सब विधिपूर्वक देनेके उपरान्त पहले अपने हृदयमें पूजित भगवान् वासुदेवको संनिधापन मुद्रासे दृढ़ धर सावधान होकर ध्यान करै, इसके पीछे हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र, अस्त्र, मंत्र और

शुचिः संमुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः॥ पिंडं विशोध्य संन्यासकृतरक्षोऽर्चयेद्धरिम्॥४९॥ अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकैः॥ द्रव्यक्षित्यात्मलिंगानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य चासनम्॥५०॥ पाद्यादीनुपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः॥ हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमंत्रेण चार्चयेत्॥५१॥ सांगोपांगां सपार्षदां तांतां मूर्तिं स्वमंत्रतः॥ पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः॥५२॥ गंधमाल्याक्षतस्रग्भिर्धूपदीपोपहारकैः॥ सांगं संपूज्य विधिवत्स्तवैः स्तुवा नमेद्धरिम्॥५३॥ आत्मानं तन्मय ध्यायन्मूर्तिं संपूजयेद्धरेः॥ शेषामाधाय शिरसि स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम्॥५४॥

मूलमंत्रसे पूजा करै॥५१॥ इसके उपरान्त अंग हृदयादिक, उपांग, सुदर्शन आदि पार्षद परिवार, देवता सहित उस मूर्त्तिको, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, भूषण, उपचार कर॥५२॥ गंध, पुष्प, अक्षत, माला, धूप, दीप, नैवेद्यसे पूजा करै; फिर स्तोत्रोंसे स्तुतिकर नमस्कार करैऔर अक्षत सहित उस मूर्त्तिको तिलक करके पूजे और समय न पूजै क्योंकि अक्षतसे भगवान् हरिकी और केतकीसे महादेवजीकी पूजा निषिद्धहै॥५३॥ और फिर मूर्तिरूप भगवान् सुदेवका ध्यान करके पूजा करे, इसके उपरान्त उस निर्माल्यको मस्तकपर चढ़ा, देवताका स्वरूप हृदयमें धारण कर पूजीहुई मूर्तिको विसर्जन करके अपने स्थानमें रक्खै॥५४॥

इसप्रकार अग्नि, सूर्य, जल आदिमें स्थित अतिथिमें, हृदयमें, आत्मारूप ईश्वर भगवान् वासुदेवकी जो पुरुष पूजा करेगा सो थोडेही कालमें संसारी बंधनोंसे छूटकर मुक्त हो जायगा, यह आगमकी विधि वर्णन की॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा - इस चौथे अध्यायमें, द्रुमिल नाम योगीश॥ लीला हरि अवतारकी, कहत धरनधर शीश॥१॥ राजा जनक बोले कि, हे भगवन्! आपने प्रथम कहा कि, भगवान् हरिकी मूर्त्तिको जैसा मन मानैवैसी बनाकर पूजा और स्तुति करै, सो हमको

एवमभ्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः॥ यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते च सः॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे तृतीयोऽध्यायः॥३॥ राजोवाच॥ यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छंदजन्मभिः ॥चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवंतु नः॥१॥ द्रुमिल उवाच॥ यो वा अनंतस्य गुणाननंताननुक्रमिष्यन्स तु बालबुद्धिः॥ रजांसि भूमेर्गणयेत्कथंचित्कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः॥२॥

न तो मूर्त्तिका ज्ञान है, न गुण कर्मका ज्ञान है, जो स्तुति करें इसलिये तुम उनके अवतार और कर्म कहो कि, भगवान् वासुदेवने जो जो जन्म लिये हैं और जो जो कर्म किये हैं और अब करते हैं और जो आगेको करेंगे सो सब वर्णन कीजिये

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॥१॥ राजा जनकने जब इसप्रकार पूँछा तब द्रुमिल योगीश्वर बोले कि, जो पुरुष अनंतरूप भगवान् वासुदेवके चरित्रको गिनना चाहें, वह अज्ञानी है, क्योंकि पृथ्वीके परमाणुओंको तो बहुत कालतक परिश्रम करके कोई बुद्धिमान् गिन भी सकता है, परंतु अनंतशक्तिका आश्रय भगवान् वासुदेवके गुणोंको कोई नहीं गिनसक्ता॥२॥

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शंका- राजा जनक बडे ब्रह्मके जाननेवालेथे, ऐसे ब्रह्मज्ञानी होकर ब्रह्मकी कथाको त्यागकर मुनिराजसे सगुण अवतारकी कथा क्यों बूझी? क्योंकि ब्रह्मज्ञानी महात्मा पुरुष सगुणमें प्रीति नहीं करते।

उत्तर - तीन लोकमें जो चर अचर जीव हैं, उन सबका बीज विना जन्म नहीं होसक्ता, किसीका भीजन्म आजतक बीज विना नहीं, तैसेही ब्रह्मज्ञानका वीज सगुण ब्रह्मका कीर्तन है, सगुणके कीर्तनसे ब्रह्मज्ञानहोता है, इसलिये राजा जनकने ब्रह्मज्ञानी होकर सगुण भगवान् अवतारकी कथा बूझी।

परन्तु तोभी संक्षेपसे उनके कितने एक गुण वर्णन करताहूं कि, जब स्वयं भगवान् वासुदेव पंचमहाभूत उत्पन्न कर ब्रह्माण्डरूप नगर बनाय उसमें लीला पूर्वक प्रविष्टहुए, इसलिये इनका आदि देव नारायण पुरुष नाम हुआ॥३॥ यह तीन लोककी स्थापना जिस पुरुषको देता है और जिसकी इन्द्रियोंसे सब देहधारियोंकी इन्द्रियें होती हैं, जिसके स्वरूपसे भूत सत्त्वगुणसे ज्ञान होता है, प्राणसे देहशक्ति और इन्द्रियशक्ति तथा चेष्टा इत्यादि यह सब होती हैं, इससे ज्ञात होता है कि, विश्वका कर्त्ता भी कोई है॥४॥,प्रथम इस विश्वके उत्पन्न करनेको रजोगुण से ब्रह्मा हुए, सतोगुणसे यज्ञके फलदाता और धर्मके रक्षा करनेवाले विष्णु हुए, तमोगुणसे संहार करनेको रुद्र हुए. इसप्रकार प्रजाओंके बीच जिससे निरंतर जन्म,

भूतैर्यदा पंचभिरात्मसृष्टैः पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन्॥ स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानमवाप नारायण आदिदेवः॥३॥ यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो यस्येंद्रियैस्तनुभृतामुभयेंद्रियाणि॥ ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्भव आदिकर्ता॥४॥ आदावभृच्छतधृती रजसाऽस्य सर्गे विष्णुः स्थितौक्रतुपतिर्द्विजधर्म सेतुः॥ रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य इत्युद्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु॥५॥ धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यांनारायणो नरऋषिप्रवरः प्रशांतः॥ नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेवितांघ्रिः॥६॥ इंद्रो विशंक्य मम धाम जिघृक्षतीति कामं न्ययुंक्त सगणं स बदर्युपाख्यम्॥ गत्वाप्सरोगणवसंतसुमंदवातैः स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः॥७॥

पालन और नाश होता है, वही आदि पुरुष हैं॥५॥ वही आदिदेव दक्षकी बेटी मूर्ति नाम धर्मकी स्त्रीके विषे ऋषियोंमें श्रेष्ठ अतिशान्तस्वरूप नरनारायण अवतार हुआ और जिससे कर्म नष्ट न हो, ऐसा निष्कर्म ज्ञान बनाया और आपने भी उसीके अनुसार कर्म किया, सोही श्रेष्ठ ऋषियोंसे सेवित जिनके चरण सो भगवान् नरनारायणरूपसे बद्रिकाश्रममें आजतक विराजमान हैं॥६॥ हे महाराज! इससमय एक भगवान् वासुदेवके अवतारोंका बतानेवाला परमशक्ति दिखानेवाला इतिहास कहते हैं, सो आप मन लगाकर श्रवण करें. एकसमय नर नारायणको

परमशान्त तप करते देख देवराज इन्द्रने मनमें विचार किया कि, यह मेरा स्थान तप करके लेना चाहते हैं, यह विचार तपस्यामें विघ्न करनेके लिये परिवार सहित कामको भेजा और भगवान् वासुदेवकी महिमाको नहीं जाननेके कारण कामदेव उनके स्थानमें अप्सराओंके गण वसंत और मंद वायुसहित जाकर स्त्रियोके कटाक्षरूप बाणोंसे उनको मारने लगा॥७॥ तब गर्वरहित नरनारायण इन्द्रका कियाहुआ अपराध जान शापके भयसे कॉपतेहुए कामादिक देवताओंसे हँसकर बोले कि, हे कामदेव! हे देवांगनाओ! भय मत करो, हमरा आतिथ्य ग्रहण करके हमारे आश्रमको सुवास करो, क्योंकि जिस स्थानपर अतिथिका आदर सन्मान नहीं होता वह स्थान शून्य कहलाता है॥८॥ दे राजन्! अभयके देनेवाले श्रीभगवान् हरिके इसप्रकार कहने पर लज्जासहित और नम्र शिर हो, कामादिक देवता दयासंयुक्त श्रीनरनारायणसे बोले कि, हे प्रभो!तुम्हारा

विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान्॥ मा भैष्ट भो मदनमारुतदेववध्वो गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम्॥८॥ इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः॥ नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं स्वारामधीरनिकरानतपादपद्मे॥९॥ त्वां सेवतां सुरकृता बहवोंऽतराया स्वौको विलंघ्यपरमं व्रजतां पदं ते॥ नान्यस्य बर्हिषि बलीन्ददतः स्वभागान्धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि॥१०॥ क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्व्यशैश्न्यानस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्॥ क्रोधस्य यांति विफलस्य वशं पदे गोर्मज्जंति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजंति॥११॥

इसप्रकार कहना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं, क्योंकि तुम मायासे परे हो, निर्विकार हो, आत्माराम और धीर मुनियोंके समूह तुम्हारे चरण कमलको नमस्कार करते हैं॥९॥ हमारे अपराधका आचरण भी कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि हमारा स्वभावही ऐसा है, तुम्हारी सेवा करनेवाले पुरुष देवताओंके स्थानको उल्लंघनकर आपका जो परमधाम वैकुण्ठ है उसमें जाते हैं, उनको इन्द्रादिक देवता बहुत विघ्न करते हैं तुम्हारी सेवा नहीं करनेवाले दूसरे पुरुष कि, जो यज्ञमें देवताओंको उनके भागरूप कर देते हैं, उनको विघ्न नहीं करते, परन्तु जिसके तुम रक्षक हो, वह तुम्हारा भक्त निश्चय विघ्नोंके माथेपर चरण धरकर तुम्हें प्राप्त होजाता है॥१०॥ अभक्तोंको काम क्रोधादिक सब वशमें करलेते हैं, उनमें जो जो हमारे वश होते हैं,

सो भोग भी करते हैं और जो क्रोधके वश हैं, वह तो अतिमूर्ख क्षुधा, तृष्णा, शर्दी, गर्मी, वर्षा, पवन, जीभका रस और शिश्नका रस ये रूप हैं, उनको लाँघकर जो पुरुष निष्फल क्रोधके वशीभूत होजाते हैं, वह अपार समुद्रको पार उतरकर गायोंके खुरोंके गढोंमें डूब जाते हैं, यह लोग शाप आदि देकर अतिकठिन तपस्याको वृथा छोड़ देते हैं न तो मोक्षके अर्थ न भोगके अर्थ है॥११॥ इसप्रकार भगवान् वासुदेवने कामादिककी स्तुति सुन अपने योगबलसे उत्पन्न अद्भुत रूपवाली सेवा करती अभूषणों सहित स्त्रियें कामादिकको दिखाई॥१२॥ वह देवताओंके सेवक मूर्त्तिमान लक्ष्मीके समान उन स्त्रियोंको देख, उनकी गंधसे मोहित हो, उनके रूप गुण उदारतासे इनकी शोभा दर्प सब जाता रहा॥१३॥तब देवोंके देव प्रभु भगवान् वासुदेव हास्यकर नम्रहुए कामादिक देवताओंसे बोले कि, इन स्त्रियोंमेंसे किसीको तुम वरो, यह सुनकर देवताओंने कहा कि, हम तुच्छ हैं, कहाँ

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्भुतदर्शनाः॥ दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः॥१२॥ ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः॥ गंधेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः॥१३॥ तानाह देवदेवेशः प्रणतान्प्रहसन्निव॥ आसामेकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां

स्वर्गभूषणाम्॥१४॥ ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुखंदिनः॥ उर्वशीमप्सरः श्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः॥१५॥ इन्द्रमानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम्॥ ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रा स विस्मितः॥१६॥ हंसस्वरूप्यवददच्युत अत्मयोगं दत्तः कुमार ऋषभो भगवान्पिता नः॥ विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतीर्णस्तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये॥१७॥

ऐसी स्त्रियें, और कहाँ इम, तब नारायण बोले कि, तुम्हारे समान जो हो उसे ग्रहण करो, तब कमादिक देवताओंने फिर कहा कि, हे महाराज! इनमें हमारे समान एक भी नहीं है तब भगवान्ने कहा कि, एक तो तुम लो तुम्हारे स्वर्गका भूषण होगी॥१४॥ तब कामादिक देवता भगवान् नर नारायणकी आज्ञा मान अप्सराओंमें श्रेष्ठ उर्व्वशीको ले, प्रभुको नमस्कारकर स्वर्गको चलेगये॥१५॥ स्वर्गमें जाय देवराज इन्द्रको प्रणामकर सभामें सब देवताओंके सुनते नर नारायणका बल कहा, तब इन्द्र अतिआश्चर्यमान अत्यन्त भयको प्राप्त हुआ॥१६॥ इन्हीं प्रभुने हंसावतार लेकर संपूर्ण आत्मयोग कहा, फिर एक दत्तात्रेय, एक सनकादिक, एक भगवान् ऋषभ

विष्णुरूपही अपने अंशसे जगत्का कल्याण करनेको प्रगट हुए थे और इन्हीं विष्णुने एक समय हयग्रीव अवतार ले, मधुदैत्यको मार वेदोंका उद्धार किया था॥१७॥ एक समय प्रलयके समुद्रमें मत्स्यरूप धारण कर मनु, पृथ्वी और औषधियोंकी रक्षा की थी, वाराह अवतार ले हिरण्याक्षको मार जलसे पृथ्वीका उद्धार किया, कूर्मावतार ले अमृत मथनेको अपनी पीठपर मंदराचल पर्वत धारण किया, इसके उपरान्त दुःखित होकर शरण आयेहुए गजेन्द्रको ग्राहसे छुडाया॥१८॥ एक समय वालखिल्य ऋषि कश्यपजीके लिये काष्ठ लेने गयेथे, सो वहाँ गायके खुरके गढेमें पानी भररहाथा उसमें डूबने लगे, तब इन्होंने बहुत स्तुति करी, वहाँसे आत्मविद्यामें तत्पर ऋषियोंको छुड़ाया और वृत्रा

गुप्तोऽऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये क्रोडे हतो दितिज उद्धरतांभसः क्ष्माम्॥ कौमें धृतोऽद्रिरमृतोन्मथने स्वपृष्ठे ग्राहात्प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम्॥१८॥ संस्तुन्वतोऽब्धिपतिताच्छ्रमणानृषींश्च शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम्॥ देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा जघ्नेऽसुरेंद्रमभयाय सतां नृसिंहे॥१९॥ देवासुरे युधि च दैत्यपतीन्सुरार्थे हत्वांतरेषु भुवनान्यदधात्कलाभिः॥ भूत्वाऽथ वामन इमामहरद्वलेः क्ष्मां याच्ञाच्छलेन समदाददितेः सुतेभ्यः॥२०॥ निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वो रामस्तु हैहयकुलाऽप्ययभार्गवाग्निः॥ सोऽब्धिं बबंध दशवक्त्रमहन्सलंकं सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः॥२१॥

सुरके मारनेसे जो ब्रह्महत्या हुई थी, उससे देवराज इन्द्रको छुड़ाया, अनाथ देवताओंकी स्त्रियें असुरोंके घरमें रुक रहीथीं, उन सबको अनेक अवतार लेकर छुड़ाया, फिर नृसिंहरूप धारणकर भक्तोंको अभयदान देनेके लिये हिरण्यकश्यपका वध किया॥१९॥ मन्वन्तरोंमें देवता और दैत्योंके संग्राममें देवताओंके लिये अपनी कलासे दैत्यपतियोंका संहार किया, संपूर्ण लोकोंकी रक्षा करी और वामनरूप धरकर राजा बलिसे भीखके मिष इस पृथ्वीको लेकर देवताओंको देदी॥२०॥ परशुरामका अवतार ले इक्कीसबार पृथ्वीको क्षत्रियरहित किया और हैहय कुलके नाशको भृगुवंशमें अभिरूप प्रगटहुएउन्होंनेही फिर रामावतार लेकर समुद्र बाँधा और लंकापुरीमें स्थित परिवार समेत राक्षसराज रावणका

वध किया, जिनकी कीर्त्ति संसारके पाप नाश करती है, सोई रघुनाथजी अब विद्यमान हैं॥२१॥ भूमिका भार उतारनेके लिये अजन्मा आप यादव कुलमें जन्म ले, जो देवताओंसे भी न करे जायँ ऐसे कर्म करेंगे. पीछे जो यज्ञादिक करनेके अयोग्य दैत्योंको बौद्धरूप धर मोहित करेंगे, इसके उपरान्त कलियुगके अंतमें कल्किअवतार लेकर शुद्र जातिके राजाओंको मारेंगे॥२२॥ हे महाराज! महाभुज! इसप्रकार जगत्पति भगवान् वासुदेवके जन्म और कर्म अनंत हैं, मैंने तो संक्षेपसे वर्णन किये॥२३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा – पंचम हरिकी भक्तिविन, नरकी गति है कौन। सो सब वर्णन करतहौं, पूजन सेवन जौन॥१॥ राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्! जिनकी कामना नहीं छूटीं वह पुरुष बहुधा भगवान् वासुदेवका भजन नहीं करते उनकी क्या गति होगी? सो

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि॥ वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हाञ्छूद्रान्कलौक्षितिभुजो न्यहनिष्यदंते॥२२॥ एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः॥ भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज॥२३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ राजोवाच॥ भगवंतं हरिं प्रायो न भजंत्यात्मवित्तमाः॥ तेषामशांतकामानां का निष्ठाऽविजितात्मनाम्॥१॥ चमस उवाच॥ मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह॥ चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक्॥२॥ य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम्॥ न भजंत्यवजानंति स्थानाद्भ्रष्टाः पतंत्यधः॥३॥ दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे चाच्युतकीर्तनाः॥ स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकंप्या भवादृशाम्॥४॥

कृपापूर्वक आप हमसे वर्णन कीजिये॥१॥ तब आठवें चमस ऋषिने उत्तर दिया कि, हे राजन्! पहले परमपुरुषके मुखद्वारा सतोगुणसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए, भुजाओंसे संत रजसे क्षत्रिय हुए, ऊरू द्वारा रजोगुण तमोगुणसे वैश्य हुए, चरणद्वारा केवल तमोगुणसे शूद्रं हुए और आश्रम सहित भिन्न २ वर्ण उत्पन्न हुए॥२॥अपना जन्मदाता पुरुष ईश्वरका इन वार्णोंके मध्य जो भजन नहीं करता और जान बूझकर निरादर करता है, वह पुरुष वर्ण आश्रमसे भ्रष्ट होकर अधोगतिको प्राप्त होता है॥३॥ कोई एक पुरुष इसप्रकारके हैं, जिनको हरिकथा सुनना बहुत कठिन है, किसी किसीको हरिका कीर्तन बहुत कठिन है, इसप्रकार कितने एक द्विजलोग और स्त्रियें तथा शूद्रादिक कि, जो

भगवान् वासुदेवको न जाननेसे नहीं भजते उनके ऊपर आप सरीखेही कृपा करते हैं॥४॥ यद्यपि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यह यज्ञोपवीतरूप दूसरे जन्म से और वेदाध्ययनसे हरिभजन के उत्तम अधिकारी हैं परन्तु तो भी वेदके फल स्तुतिके वचनोंमें मोहित होकर जानने पर भी भगवान् वासुदेवका भजन नहीं करते और कर्मोंमें आसक्त होरहे हैं उन अर्द्धदग्ध लोगोंको सुधारनेका उपाय कोई न होनेसे आपसरीखे पुरुषों को उनकी उपेक्षा करनी चाहिये॥५॥ कर्म करनेमें अकुशल मूर्ख अपनेको पण्डित माननेवाले, अनम्र, ऐसी मनोहर बातें कहते हैं कि, जिनमें मोह उत्पन्न हो, वह यह है कि यज्ञादिकोंका फल अक्षय होगा, न स्वर्गमें शीत है, न उष्ण है, न मलिनता है, न पराजय है और वचनसे उत्कंठित होकर कहते हैं कि, हम अप्सराओंसे विहार करेंगे, यह कहतेहुए कर्म में बँधे रहते हैं॥६॥ उनको उस फलके भ्रमसे कर्महीमें आदर होता है!

विप्रो राजन्यवैश्यौ च हरेः प्राप्ताः पदांतिकम्॥ श्रौतेन जन्मनाऽथापि मुह्यत्याम्नायवादिनः॥५॥ कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पंडितमानिनः॥ वदंति चाटुकान्मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः॥६॥ रजसा घोरसंकल्पाः कामुका अहिमन्यवः॥ दांभिका मानिनः पापा विहसंत्यच्युतप्रियान्॥७॥ वदंति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो गृहेषु मैथुन्यसुखेषु चाशिषः॥ यजंत्यसृष्टान्नविधानदक्षिणं वृत्त्यै परं घ्नंति पशूनतद्विदः॥८॥ श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा॥ जातस्मयेनांधधियः सहेश्वरान्सतोऽवमन्यंति हरिप्रियान्खलाः॥९॥

उससे काम, क्रोध, मदादिक वृद्धिको प्राप्त होते हैं और यह भी कहा है कि, रजोगुणसे राग द्वेष उत्पन्न होता है, उससे अभिचारके कर्मोंपर मन होता है, तब वह घोरसंकल्पी, महातृष्णावाले सर्पके समान क्रोधी महाअभिमानी दुष्ट स्वभावसे अधजले लोग नारायणके भक्तोंपर हँसते हैं॥७॥ सदा स्त्रियोंकीही सेवा करते हैं कि वृद्धोंकी सेवा नहीं करते केवल मैथुनमें ही सुख माननेवाले अतिथिकी पूजारहित घरोंमें रहकर मनके मनोरथवाले लोग कहा करते हैं कि, आज मैंने यह पाया यह मनोरथ फिर प्राप्त करूंगा और जो कदाचित् किसी देवताकी पूजा करें तो अपने स्वार्थके लिये पशुकी हिंसा करते हैं, न कुछ विधि न दक्षिणा, न अन्नदान करें ऐसे मूर्ख हैं जो हिंसादोषको नहीं जानते॥८॥ धन, ऐश्वर्य, कुल, विद्या, दान, रूप, बल और कर्मोंसे उनको गर्व उत्पन्न होता है, इससे मंदबुद्धि दुष्ट ईश्वर सहित साधु परमेश्वरके भक्तोंका निरादर करते हैं॥९॥

यह दुष्ट पुरुष वेदके अर्थको नहीं जानते, वेद कहते हैं कि, यद्यपि सब देहधारियोंमें यह आत्मा सदा आकाशकी भाँति व्यापरहा है और अपने प्रिय ईश्वरको फिर वेद प्रगट बताते हैं, परन्तु तोभी यह मूर्ख नहीं सुनते, अपने मनोरथोंकीही बातोंमें वाद विवाद करते हैं॥१०॥ तहाँ पूर्वपक्ष कहते हैं कि, स्त्री संभोग तो कहा है कि, रजस्वला होनेपर मैथुन करैदेवताका बचा हुआ भोजन करै, फिर तुम क्यों निन्दा करते हो? इसके उत्तरमें कहते हैं कि लोकमें स्त्रीप्रसंग मांस भक्षण और मदिराका सेवन नित्य है और विषयासक्तोंको अनुराग स्वभावहीसे प्राप्त है,

सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम्॥ वेदोपगीतं च न शृण्वतेऽबुधा मनोरथानां प्रवदंति वार्तया॥१०॥ लोक व्यवायाऽऽमिषमद्यसेवा नित्यास्तु जंतोर्न हि तत्र चोदना॥ व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा॥११॥ धनं च धर्मैकफलं यतो वै ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशांतिः॥ गृहेषु युंजंति कलेवरस्य मृत्युं न पश्यंति दुरंतवीर्यम्॥१२॥

फिर कुछ विधि नहीं बस एक यही चाहिये और जहाँ विधि कही है तहाँ ऋतुकालके दिन स्त्रीसंग करै, यज्ञहीमें मांस मद्य ग्रहण करैऔर २ दिन न करैइस नियमसे करै, परन्तु दिनका निषेध किया है, इसे विषयी मूर्खलोग नहीं समझते, जो कामी अरुचिसे अथवा द्वेषसे स्त्री प्रसंगादिक करें उनका यह नियमहै और जिनके यह कामना नहीं, उनका नियम नहीं। वेदका अभिप्राय तो सब दिन छुडानेकाही है, उसे मूर्ख नहीं समझते

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॥११॥ धर्म करनाही धर्मका फल है क्योंकि धर्मानुष्ठान करनेसे परोक्ष ज्ञान (नहीं दीखनेवाला ज्ञान) और तत्काल शांतिदायक

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दृष्टान्त - वास्तवमें उसका तात्पर्य यहहैं जैसे किसीका लडका खेलमें अत्यन्त मतवाला हो और बेश्याके घर दिन रात पढा रहताहो और पढनेमें उसकी रुचि न हो, तो उसके पिताको कहना चाहिये कि, तू प्रातःकाल उठकर तो वेश्याके घर जायाकर, फिर एक घटाभर खेलकर और जो तू प्रातःकाल वेश्यके घर नहीं गया और एक घंटाभर न खेला तो मैं तुमको बहुत मारुगा, क्योंकि इन दोनों कामोंके दो घंटेमें निश्चित होकर फिर अपना चित्त कहीं इधर उधर मत मटकाना और जो फिर मटकावेगा तो पिटैगा, यह वाक्य निवृत्तिका निरूपण करता है इसी प्रकार वेद भी निवृत्तिका निरूपणकरता हैं प्रवृत्तिका निरूपण नहीं कराता जो मनुष्य समीप आनेपर भी ऋतुस्नात भार्यासे प्रसंग न करे, तो गर्भहत्याका जो महापाप होता है, वही पाप उस मनुष्यको लगता है अनेक श्रुतियोंके वचन तो यह है कि, मनमें कामना होनेपर भी स्त्रीके विषे अरुचि अथवा द्वैषादिक होनेसे उसके साथ प्रसंग न करै, ऐसे जानना?

अपरोक्ष ज्ञान दोनों प्राप्त होजाते हैं, ऐसे सुखदायक धनको यह पुरुष देहादिकके लिये घरोंमें वृथा खो देते हैं, हॉ! न तो इसका विचार करतेहैं और न शिरपर घूमती हुई मृत्युकोही देखते हैं॥१२॥ और वेदका तात्पर्य नहीं जानते कि, ऋतुके दिनभी स्त्रीप्रसंग गर्भाधानहीको कहा है कुछ यथेष्ट कामभोगको नहीं कहा और सुरापान भी नहीं कहाहै, आघ्राणकहाहै, पशुकी हिंसा देवताके लिये करें अपने लोभसे न करे, ऐसे शुद्ध धर्मको विषयकी आसक्तिसे न करें इस बातको यह मूर्ख नहीं जानते॥१३॥ जो इस धर्मको नहीं जानते सो आसाधु हैं, अनम्र हैं वैसेही अपनेको साधुकरके मानलेते हैं, विश्वाससे पशुओंका वध करते हैं और कहते हैं कि, इसके करनेसे मनोरथ सिद्ध होगा

यद्घ्राणभक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा॥ एवं व्यवायः प्रजया न रत्या इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम्॥१३॥ ये त्वनेवंविदोऽसंतः स्तब्धाः सदभिमानिनः॥ पशून्दृह्यंति विस्रब्धाः प्रेत्य खादंति ते च तान्॥१४॥ द्विषंतः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम्॥ मृतके सानुबंधेऽस्मिन्बद्धस्नेहाः पतंत्यधः॥१५॥ ये कैवल्यमसंप्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम्॥ त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयंति ते॥१६॥ एत आत्महनोऽशांता अज्ञाने ज्ञानमानिनः॥ सीदंत्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः॥१७॥

परन्तु ऐसा कहा गया है कि, इस जन्ममें उसका माँस यह खातेहैं, अगले जन्ममें वह इनका माँस भक्षण करैगा इसलिये इसका नाम मांस1 है॥१४॥ मृतक समान अपने और पुत्रादिकोमें स्नेहसे बद्ध हो पराये भी देहोंमें विद्यमान अपने आत्मा ईश्वर हरिसे जो पुरुष द्वेष करते हैं, वह मरनेके पीछे नरकमें प्रड़ते हैं॥१५॥ जो अज्ञ हैं वह ज्ञानीपुरुषोंकी कृपासे संसारसागरको तरजाते हैं और जो मध्यवर्ती हैं, सो नरकमें गिरते हैं, अधिक क्या कहैं, जो जो तत्त्वज्ञानको प्राप्त नहीं हुए, मूढ़ताहीको प्राप्त हुए और अपने स्वार्थकेही लिये धर्म, अर्थ, कामादिक करे वह, पुरुष वारम्वार जन्म मरणको प्राप्त होते हैं॥१६॥ जो पुरुष आत्मघाती व अशांत हैं, अज्ञानहीको ज्ञान मानते हैं और जो कृतकृत्य नहीं हुए, सो कलासे

नष्ट मनोरथ हो दुःखही पातेहैं॥१७॥ और जो पुरुष भगवान् वासुदेवसे विमुख हैं, वह अतिश्रमसे गृह, पुत्र, मित्र, धन संपूर्णवस्तुको प्राप्त होकर इच्छा न रहनेपरभी नीच योनि अंधतममें पड़ते हैं

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॥१८॥ राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्! आपने जो सब त्यागकर केवल भगवान्

हित्वाऽऽत्मायासरचिता गृहापत्यसुहृच्छ्रियः॥ तमो विशंत्यनिच्छंतो वासुदेवपराङ्मुखाः॥१८॥ राजोवाच॥ कस्मिन्काले स भगवान्किंवर्णः कीदृशो नृभिः॥ नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम्॥१९॥ करभाजन उवाच॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः॥ नानावर्णाभिधाकाशे नानैव विधिनेजते॥२०॥

नारायणकी भक्ति करनेको कहा सो यह भगवान् किस समयमें? कैसे वर्णके? कैसी आकृतिके? कौनसे नामसे? और किस विधिसे लोकोंमें पूजे जातेहैं सो मुझे भली भाँति समझाकर आप कहिये॥१९॥ तब करभाजन ऋषीश्वर नौवें प्रश्नका उत्तर देते हैं कि, हे राजन्! सतयुग, त्रेता, द्वापर,

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शंका- राजा जनकने मुनियोंसे भगवान् का भजन और सेवन आदि सब कर्म युग युगके अलग अलग वूझे कि, सतयुगमें किस प्रकारका भजन सेवन होता है और त्रेतामें और द्वापरमें और कलियुगमें किस किस प्रकारका भजन और सेवन होना चाहिये और मुनि भी चारों युगोंमें भिन्न भिन्न पूजन भजन आदि करते हैं, यह बडा अनुचित कर्म है, किसलिये कि शस्त्रोंमें भगवान् सर्वव्यापी निरजन लिखा है भिन्न भिन्न कर्म तो जीवोंके लिये होता है, ईश्वरके नहीं होता यह बडी शका है।

**उत्तर-**भगवान् तो भक्तवत्सल और दीनदयालु हैं, और त्रिलोकीमें जो चराचर प्राणी हैं, उन सब प्राणियोंमें भगवान् किसीयुगमें मी भिन्नभाव नहीं रखते, सबको एक समान मानते हैं, ऐसे कृपासिंधु हैं, परन्तु मनुष्योंमें अनेक प्रकारके जीव हैं, जिसने मनुष्यके देह हैं, उतनेही जीव हैं, इसलिये सब जीवोंमें भगवान्की भक्ति अलग अलग होती है, सब युगोंमें कोई किसी प्रकारकी भक्ति करता है, कोई किसी प्रकारकी भक्ति करता है और भगवान् के नाम और चरित्रोंका भी अन्त नहीं, जिस नामपर जिसप्राणीको भक्ति हुई उसी नामको जपने लगा, युगयुगमें भगवान् उस अपने नाम जपनेवाले प्राणीकी रक्षा कैसे करतेहैं?जैसे गाय अपने वत्सकी रक्षा करती है और राजा जनकभी भगवान् के भक्तकी लीला करके उन्मत्त हो रहे थे, भगवान्की भक्तिको वृद्धि होनेके लिये युग युगमे भिन्न भिन्न भगवान्के नाम और सेवन बूझने लगे, कुछ भिन्न भाव मानकर नहीं बूझा।

और कलियुग इन चार युगोंमें नाना वर्ण, नाम, आकारयुक्त भगवान् केशव अनेक विधिसे पूजेजाते हैं॥२०॥ सत्ययुगमें शुक्लवर्ण, चतुर्भुज, जटा धारण करे, वल्कल वस्त्र पहरे, काले मृगका चर्म यज्ञोपवीत रुद्राक्ष दण्ड कमण्डलु घरे, ब्रह्मचारीके रूपसे दर्शन देते हैं॥२१॥ उस युगमें मनुष्य सब शांत, निर्वैर, सुहृदय, समदृष्टि, शम, दम और ध्यानसे देवताको पूजते हैं॥२२॥ उस कालमें इन नामोंसे भगवान् हरि गाये जाते हैं, हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा॥२३॥ त्रेतामें आरक्त, चार भुजा, तीन मेखला धारण करे, सुवर्णके समान केशवाले, वेदत्रयीमय मूर्त्ति और स्रुक् स्रुवा आदि चिह्नोंको धारण करते हैं॥२४॥ जो अति धर्मात्मा

कृते शुक्लश्चतुर्बाहुर्जटिलो वल्कलांबरः॥ कृष्णाजिनोपवीताक्षान्बिभ्रद्दंडकमंडलू॥२१॥ मनुष्यास्तु तदा शांता निर्वैराः सुहृदः समाः॥ यजंति तपसा देवं शमेनं च दमेन च॥२२॥ हंसः सुपर्णो वैकुंठो धर्मों योगेश्वरो मनुः॥ ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते॥२३॥ त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः॥ हिरण्यकेशस्वय्यात्मा स्रुक्स्रुवाद्युपलक्षणः॥२४॥ तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम्॥ यजंति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः॥२५॥ विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः॥वृषाकपिर्जयंतश्च उरुगाय इतीर्यते॥२६॥ द्वापरे भगवाञ्छ्यामः पीतवासा निजायुधः॥श्रीवत्सादिभिरंकैश्च लक्षणैरुपलक्षितः॥२७॥ तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम्॥यजंतिवेदतंत्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप॥२८॥ नमस्ते वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः॥२९॥

वेदके ज्ञाता मनुष्य हैं, व सर्ववेदरूप भगवान् वासुदेवका, तीनों वेदोंके कर्मसे, त्रेतामें पूजन करते हैं॥२५॥ और विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयंत, उरुगाय, यह नाम गाये जाते हैं॥२६ ॥द्वापरमें भगवान् वासुदेव श्याम मूर्ति, पीताम्बर धरे, श्रीवत्सादि चिह्न और कौस्तुभादिक लक्षण धारण करते हैं॥२७॥ हे राजन्! जो मनुष्य ईश्वरके जानने की इच्छा रखते हैं, वह मनुष्य उससमय महाराजोंके लक्षण संयुक्त उन महापुरुषकी वेदमंत्र और आगमके मंत्रोंसे पूजा करते हैं॥२८॥ वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धरूप भगवान् तुमको

नमस्कार करते हैं॥२९॥ नारायण ऋषि, पुरुष, महात्मा, विश्वेश्वर, विश्वरूप, सर्वभूतोंके आत्माको नमस्कार है॥३०॥ हे राजन्!इस प्रकार द्वापरमें भगवान् वासुदेवकी स्तुति करते हैं, अब नाना आगम मार्गोंसे कलियुगमें भी जैसे पूजे जाते हैं, सो सुनो॥३१॥कलियुगमें कृष्णवर्ण है, कांतिसे अति निर्मल है और जैसे नीलमणि होती है, इसी प्रकार अंग हृदयादि उपांग कौस्तुभ तथा सुदर्शनादिक अस्त्र पार्षद सुनदनादिकनामका कथन और स्तुति आदिक प्रधान पूजासे अतिबुद्धिमान मनुष्य भगवान् हरिकी पूजा करते हैं॥३२॥ इसके उपरान्त स्तुति करते हैं कि, हे प्राणियोंके रक्षक!हे महापुरुष! तुम्हारे चरणारविन्दको नमस्कार है, जो चरणारविन्द सदा ध्यान करनेके

नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने॥ विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः॥३०॥ इति द्वापर उर्वीश स्तुवंति जगदीश्वरम्॥ नानातंत्रविधानेन कलावपि यथा शृणु॥३१॥ कृष्णवर्णं त्विषा कृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदम्॥ यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजंति हि सुमेधसः॥३२॥ ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिंचिनुतं शरण्यम्॥ भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं वंदे महापुरुष ते चरणारविंदम्॥३३॥ त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम्॥ मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्वंदे महापुरुष ते चरणारविंदम्॥३४॥ एवं युगानुरूपाभ्यां भगवान्युगवर्तिभिः॥ मनुजैरिज्यते राजञ्छ्रेयसामीश्वरो हरिः॥३५॥

योग्य है, इन्द्रिय कुटुम्बके संगसे अनिष्टको दूर करते हैं, मनके अभिलाष पूर्ण करते हैं, गंगादिक तीर्थके स्नानभूत हैं, शिव ब्रह्मादिकसे स्तुति किये हुए हैं, और जो दीन होकर शरण जाता है, उसके रक्षक हैं सेवककी पीडाको दूर करते हैं, और संसार सागर से तरने को नौकारूप हैं॥३३॥ हे धर्मात्मन्! हे श्रीरामचन्द्रजी! आप जो देवताओंसे भी न त्यागी जाय, देवता जिसकी अभिलाषामेंही रहते हैं, ऐसी राज्यलक्ष्मी पिताकी आज्ञासे छोडकर धर्मकी रक्षा करनेके लिये वनको चलेगये, और प्रिय सीताके प्रेम तथा वचनसे मायामृगके पीछे दौडे उन भक्तप्रिय आपके चरणारविन्दोंको हम प्रणाम करते हैं॥३४॥ हे राजा जनक! इसप्रकार चारोंही युगमें नाम रूप भेदसे उस उस युगके

मनुष्यों से कल्याणके देनेवाले हरि भगवान् पूजे जाते हैं॥३५॥ अब चारों युगोंमें कलियुग श्रेष्ठ है, क्योंकि जो श्रेष्ठ हैं गुणज्ञ सारग्राही हैं, वह कलियुगकी स्तुति करते हैं, और युगोंमें ध्यान, यज्ञ, पूजा आदिसे जो फल होता है, सो सब स्वार्थ कलियुगमें भगवान्के भजन कीर्तनमात्रसेही प्राप्त हो जाते हैं॥३६॥ यह प्राणी और देहके अभिमानसे संसारमें भ्रमण करते हैं, उनको इससे परम और लाभ नहीं॥३७॥ हे राजन्! सतयुगादि की प्रजा कलियुगमें जन्म पावें, ऐसी इच्छा करती हैं, इसकारण निश्चय ज्ञात होता है कि, कलियुगमें सब जीव नारायणपरायण होंगे॥३८॥ हे महाराज! कहीं कहीं महाराष्ट्रदेशमें भी भक्त होंगे और द्रविडदेशमें भी बहुत होंगे, जहाँ ताम्रपर्णी नदी, कृतमाला और पयस्विनी है॥३९॥ कावेरी,

कलिं सभाजयंत्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः॥ यत्र संकीर्तनेनैव सर्वः स्वार्थोऽभिलभ्यते॥३६॥ न ह्यतः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह॥ यतो विंदेत परमां शांतिं नश्यति संसृतिः॥३७॥ कृतादिषु प्रजा राजन्कलाविच्छंति संभवम्॥ कलौ खलु भविष्यंति नारायणपरायणाः॥३८॥ क्वचित्क्वचिन्महारज द्रविडेषु च भूरिशः॥ ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी॥३९॥ कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी॥ये पिबंति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर॥ प्रायो भक्ता भविष्यन्ति वासुदेवेऽमलाशयाः॥४०॥ देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किंकरो नायमृणी च राजन्॥सर्वात्मना यः शरण शरण्यं गतो मुकुंदं परिहृत्य कर्तम्॥४१॥ स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः॥ विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्धुनोति सर्वंहृदि सन्निविष्टः॥४२॥

प्रतीची आदि परमपवित्र नदियें हैं, इनका जल जो पान करते हैं, हे मनुजेश्वर! वह मनुष्य निर्मलचित्त होकर श्रीभगवान् वासुदेवमें बहुधा भक्त हैं॥४०॥ जो मनुष्य सर्वथा भेद छोड़कर केवल शरणदाता मुकुन्द भगवान्के शरण जाते हैं, उनपर देवता, ऋषि, भूत, कुटुम्बी मनुष्य और पितरोंका ऋण नहीं रहता, हे राजन्! इनके लिये पंच यज्ञादिकोंके करनेकी भी प्रबलविधि नहीं, जो सर्वत्र एक हरिकोही देखते हैं॥४१॥ यहां यह सन्देह राजा जनकने किया कि, हे महाराज! जो कि सब कर्म छोड़कर केवल भजन करैतो कर्म छोड़नेका पाप लगेगा? इसका समाधान यह है कि, जो सब देवादिकोंको छोड़कर एक हरिकेही चरणारविंदोंका भजन करते हैं, उनको विकर्म सर्वथा नहीं होते, जो कदाचित् प्रमादसे हों

तो उसके हृदयमें भगवान् हरि बैठ जाते हैं, यह यमादिकोंके भी नियंता हैं और उसके सब कर्म नाश करते हैं, इससे भगवान् को भक्तही प्यारे हैं॥४२॥ इन नौ योगीश्वरोंका संवाद कहकर श्रीनारदजी बोले कि, हे वसुदेव! इसप्रकार भगवद्धर्म सुन संतुष्ट होकर राजा जनकने अपने गुरुओं सहित जयंतीपुत्र योगीश्वरोंकी पूजा की॥४३॥ इसके उपरान्त वह योगीश्वर संपूर्ण मुनि सिद्ध लोगोंके देखते देखते अंतर्धान होगये और राजा जनकभी उन्हीं धर्मोके करनेसे परमगतिको प्राप्त हुए॥४४॥ नारदजी बोले कि, हे महाभाग वसुदेव! तुमभी यह वैष्णवधर्म करो, इन धर्मोंमें श्रद्धा करनेसे निःसंग परममंगलको प्राप्त होगे॥४५॥ यह तो मैंने शास्त्रादिकोंकी रीतिसे सब तुमसे कहा है, परन्तु हे वसुदेवजी!

नारद उवाच॥ धर्मान्भागवतान्नित्यं श्रुत्वाथ मिथिलेश्वरः॥ जायंतेयान्मुनीन्प्रीतः सोपाध्यायो ह्यपूजयत्॥४३॥ ततोंतर्दधिरे सिद्धाः सर्वलोकस्य पश्यतः॥ राजा धर्मानुपातिष्ठन्नवाप परमां गतिम्॥४४॥ त्वमप्येतान्महा भाग धर्मान्भागवताच्छतान्॥ आस्थितः श्रद्धया युक्तो निःसंगो यास्यसे परम्॥४५॥ युवयोः खलु दंपत्योर्यशसा पूरितं जगत्॥ पुत्रतामगमद्यद्वां भगवानीश्वरो हरिः॥४६॥ दर्शनालिंगनालापैः शयनासनभोजनैः॥ आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं प्रकुर्वतोः॥४७॥ वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौंड्रशाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः॥ ध्यायंत आकृतधियः शयनासनादौ तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम्॥४८॥

तुम तो विनाही शास्त्रके क्रम कृतार्थ हो तुम दोनों स्त्री पुरुष परम भागवत हो, तुम्हारे यशसे सब जगत् पूर्ण होरहा है क्योंकि तुम्हारे यहाँ स्वयं भगवान् ईश्वरने आनकर अवतार लिया है॥४६॥ तुमको और लोगोंके समान भ्रान्ति, सर्व कर्म समर्पण आदि वैष्णवधर्मोसे चित्त शुद्ध करनानहीं पड़ेगा, क्योंकि दर्शन, आलिंगन, आलाप, शयन, आसन, भोजनसे श्रीकृष्ण में पुत्रस्नेह करनेसे तुम्हारा भगवान् ईश्वर, आत्मा पवित्र गहोगया है॥४७॥ शिशुपाल पौण्ड्रक तथा शाल्व आदि राजा शय्या आसन आदिमें जिसका वैरसे भी ध्यानकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी गति चिन्तवन आदिसे तदाकार हुई बुद्धिसे सारूप्य मुक्तिको प्राप्त होगये तो जो पुरुष स्नेहसे इनमें चित्त रखते हैं, वह सारूप्य गतिको प्राप्त हों तो इसमें आश्चर्यही क्या है॥४८॥

अहो जो पुत्रस्नेह मुक्तिका कारण हैं, तो सबही मुक्त होने चाहिये? तो कहते हैं कि, हे वसुदेवजी! तुम इनपर पुत्रबुद्धि मत रक्खो यह तो सर्वात्मा ईश्वर हैं, मायासे मनुष्याकार दिखाई देते हैं अलौकिक ऐश्वर्य इनका गुप्त है यह श्रीकृष्णचन्द्र अविनाशी परमपुरुष हैं॥४९॥ यह पृथ्वीका भाररूप राजाओं के मारनेको और साधु पुरुषोंकी रक्षा करनेको तथा मोक्ष देनेको अवतार लेकर लोकोंमें यश विस्तार करते हैं॥५०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस राजा परीक्षित्! यह सुन महाभाग वसुदेव देवकीने अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्तहो अपने आपका मोह स्नेह छोड़ दिया॥५१॥ यह इतिहास अति पुण्यजनक है, जो पुरुष नेमसे इसे मनमें धरते हैं, सो इसी देहमें मोह दूरकर ब्रह्मभावको प्राप्त होते हैं॥५२॥ इति श्रीमद्भा० महा० एका ०

मापत्यबुद्धिमकृथाः कृष्णे सर्वात्मनीश्वरे॥ मायामनुष्यभावेन गूढैश्वर्यपरेऽव्यये॥४९॥ भूभारासुरराजन्यहंतवे गुप्तये सताम्॥ अवतीर्णस्य निर्वृत्त्यै यशो लोके वितन्यते॥५०॥ श्रीशुक उवाच॥ एतच्छ्रुत्वा महाभागो वसुदेवोऽतिविस्मितः॥ देवकी च महाभागा जहतुर्मोहमात्मनः॥५१॥ इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद्यः समाहितः॥ स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते॥५२॥ इति श्रीमद्भा० म० ए० पंचमोऽध्यायः॥५॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ ब्रह्मात्मजैर्देवैः प्रजेशैरावृतोऽभ्यगात्॥ भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृतः॥१॥ इंद्रो मरुद्भिर्भगवानादित्या वसवोऽश्विनौ॥ ऋभवोंगिरसो रुद्रा विश्वे साध्याश्च देवताः॥२॥ गंधर्वाप्सरसो नागाः सिद्धचारणगुह्यकाः॥ ऋषयः पितरश्चैव सविद्याधरकिन्नराः॥३॥

भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे पंचमोऽध्यायः॥५॥ दोहा – छठवेंमें ब्रह्मादिकन, विनयकरी करजोरि॥ मोहिं संग लीजै प्रभू, उद्धव कही निहोरि॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! इसप्रकार वसुदेवजीसे नारदजी कहकर चलेगये, इसके उपरान्त द्वारकामें ब्रह्मा, सनकादिक और संपूर्ण देवता मिलकर आये, सृष्टि भूतोंके ईश्वर महादेव भूतगणोंसे मिलकर आये॥१॥ देवताओंसे मिलकर देवराज इन्द्र आये, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिरा, एकादश रुद्र, विश्वदेव, साध्य॥२॥ गंधर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर, किन्नर यह सब श्रीकृष्णचन्द्रका

दर्शन करनेको द्वारकामें आये॥३॥ जिस देहसे भगवान् नेमनुष्यलोकमें परमसुन्दर मूर्त्तिसे सब लोगोंका पाप दूर करनेवाले यज्ञका विस्तार किया उसी मूर्तिके देखनेको आये॥४॥ अत्यन्त स्वरूपवान् धनी पुरुषोंसे अति समृद्ध द्वारकामें आय अतृप्तरूप देवताओंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥५॥ इसके उपरान्त नंदनवनके फूलोंसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा और विचित्र पद तथा अर्थयुक्त वाणियोंसे जगदीश्वरकी स्तुति करनेलगे॥६॥ देवता बोले कि, हे नाथ! जो जीव कर्मरूप बड़े पाशसे छूटनेको बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय, मन, वचनसे भावयुक्त हो जिनका हृदयमें सदा चितवन करते हैं, परन्तु तो भी दर्शन नहीं पाते और हम तुम्हारा प्रगट दर्शन कर रहे हैं, हमारा अहोभाग्य है, इसलिये हम तुम्हारे

द्वारकामुपसंजग्मुः सर्वे कृष्णदिदृक्षवः॥ वपुषा येन भगवान्नरलोकमनोरमः॥ यशो वितेने लोकेषु सर्वलोकमलापहम्॥४॥ तस्यां विभ्राजमानायां समृद्धायां महर्द्धिभिः॥ व्यचक्षतावितृप्ताक्षाः कृष्णमद्भूतदर्शनम्॥५॥ स्वर्गोद्यानोपगैर्माल्यैश्छादयंतो यद्वत्तमम्॥ गीर्भिश्चित्रपदार्थाभिस्तुष्टुवुर्जगदीश्वरम्॥६॥ देवा ऊचुः॥ नताः स्म ते नाथ पदारविंदं बुद्धींद्रियप्राणमनोवचोभिः॥ यच्चिंत्यतेंतर्हृदि भावयुक्तैर्मुमुक्षुभिः कर्ममयोरुपाशात्॥७॥ त्वं मायया त्रिगुणयात्मनि दुर्विभाव्यं व्यक्तं सृजस्यवसि लुंपसि तद्वणस्थः॥ नैतैर्भवानजित कर्मभिरज्यते वै यत्स्वे सुखेऽव्यवहितेऽभिरतोऽनवद्यः॥८॥ शुद्धिर्नृणां न तु तथेड्य दुराशयानां विद्याश्रुताध्ययनदानतपः क्रियाभिः॥ सत्त्वात्मनामृषभ ते यशसि प्रवृद्धसच्छ्रद्धया श्रवणसंभृतया यथा स्यात्॥९॥

चरणारविन्दको वारम्वार नमस्कार करते हैं॥७॥ तहॉ हरि यह एक तर्क करते हैं कि, मोक्षके लिये मेरे चरणारविन्दका चिंतवन क्यों करते हो? क्योंकि मैं तो अनेक दुष्ट कर्म करताहूं, मेरा तो कर्म छूटताही नहीं तो तुम्हारे कर्म क्या छुड़ाऊंगा? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, हे अजित! तुम ऐसी बात मत कहो, क्योंकि जो औरोंपर मनसे भी न जाने जायॅऐसे महत्वादि प्रपंचको त्रिगुण अपनी मायासे आपही में उत्पन्न करते हो, पालते हो, संहार करते हो, परन्तु तो भी इन कर्मों में लिप्त नहीं होते, तुममायाके गुणोंमें नियंतास्वरूपसे स्थित हो रागादि रहित हो और नित्य अपने आनंदस्वरूपविषे मग्न रहते हो॥८॥ तो मुझको कर्म करनेका क्या प्रयोजन हैं, मैं तो आत्म

योग्य! हे परम श्रेष्ठ देव! विषयी पुरुषोंके चित्त विद्या, श्रवण, अध्ययन, दान, तप और कर्म करनेसे वैसे शुद्ध नहीं होते जैसे साधु पुरुषोंके चित्त तुम्हारे यश श्रवण करनेसे शुद्ध होजाते हैं॥९॥ अब प्रार्थना करते हैं कि, तुम्हारे चरणकमल हमारी अशुभ वासना जलानेके लिये अग्निरूप हैं, जिन चरणोंका संपूर्ण मुनि अत्यन्त प्रेमपूर्वक कोमल हृदय हो, मोक्षके कारण ध्यान करते हैं और भक्तजन सारूप्य मुक्तिकी इच्छासे वासुदेव, संकर्षण व प्रद्युम्न, अनिरुद्ध इन चतुर्व्यूहसे तीन कालमें पूजा करते हैं और उनके बीच में भी जो ज्ञानी है, वे इन्हींसे स्वर्गको उल्लंघन करके वैकुण्ठ जानेके लिये पूजते हैं॥१०॥ हे ईश! सदा तुमको यज्ञ करनेवाले कर्ममार्गमें हाथ जोड़ यज्ञकी अग्निमें तीनों वेदकी विधिसे हविको लेकर चिंतवन करते हैं और योगिराज अध्यात्मयोगसे तुम्हारी माया अणिमादिक ऐश्वर्य जाननेका चिंत्तवन करते हैं और परम

स्यान्नस्तवांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः क्षेमाय यो मुनिभिरार्द्रहृदो ह्यमानः॥ यः सात्त्वतैः समविभूतय आत्मवद्भिर्व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरतिक्रमाय॥१०॥ यश्चिंत्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ त्रय्या निरुक्तविधिनेशहविर्गृहीत्वा॥ अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायां जिज्ञासुभिः परमभागवतैः परीष्टः॥११॥ पर्युष्टया तव विभो वनमालयेयं संस्पर्धिनी भगवती प्रतिपत्निवच्छ्रीः॥ यः सुप्रणीतममुयाऽर्हणमाददन्नो भूयात्सदांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः॥१२॥ केतुस्त्रिविक्रमयुतस्त्रिपतत्पाताको यस्ते भयाभयकरोऽसुरदेवचम्वोः॥ स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्पादः पुनातु भगवन्भजतामघं नः॥१३॥

भक्त सर्वत्र पूजते हैं॥११॥ हे विभो! तुम्हारे सब अंगोंमें व्याप्त जो वनमाला सो उससे भगवती लक्ष्मीजी सौतकी समान ईर्षा रखती हैं और यह वनमाला भक्तोंने अर्पण करी है, इसी कारणसे तुम इसको धारण करते हो, उसी मालासे पूजाको ग्रहण करते हो, तुम्हारे चरण हमारी विषयवासनाके जलानेको अग्नि हैं॥१२॥ हे व्यापक! जब तुम त्रिविक्रमरूप हुए, तब आपने बलिराजाको बाँधा, तब तुम्हारा एक चरण सत्यलोकमें रहा सो वह चरण जैसे विजयपताका हो इसी प्रकार दिखाई देताथा और उसी चरणसे गंगाजीके तीन प्रवाह छूटे, सो पताका हुई चरण ध्वजदण्ड हुवा सो सुर, असुर सबकी सेनाको भय अभयका देनेवाला हुआ देवता और साधुओंको अभयका दाता स्वर्ग दिया असुर दुष्टोंको

भयदायक अधोगति दी वह आपका चरण हम कि, जो भजन कर रहे हैं, उनके पापको दूर करो और हमारी रक्षा करो॥१३॥ यदि कहो कि, युद्धमें देवता, दैत्य परस्पर जीतते हैं, हारते हैं मेरा वहां क्या निमित्त हैं? तो कहते हैं कि ब्रह्मासे आदि लेकर देहधारी सब जगत् परस्पर युद्धसे जब पीड़ित होते हैं, तब तुम्हारे वशमें आते हैं इसीलिये कालरूप तुम हो और कालके, अधीन सब हैं, इससे जय पराजय सब आपहीके अधीन है, जैसे नाथके अधीन बैल है, इसीप्रकार सब तुम्हारे अधीन हैं तुम प्रकृति पुरुषसे भी परे हो पुरुषोत्तम हो तुम्हारे चरण हमको सुखकारी हों॥१४॥ हे प्रभो!तुम इस जगत्के उत्पत्ति, पालन और प्रलयके कारण हो और प्रकृति पुरुष महत्तत्त्वके भी नियंता हो, यह काल संवत्सर है सो चक्ररूप है, इसके ग्रीष्म, वर्षा, शरद् तीन नाम हैं, सबका नाश करनेको प्रवृत्त है, इसका वेग अत्यन्त गंभीर है, सो काल तुम्हाराही रूप है इसलिये

नस्योतगाव इव यस्य वशे भवंति ब्रह्मादयस्तनुभृतो मिथुरर्द्यमानाः॥ कालस्य ते प्रकृतिपुरुषयोः परस्य शं नस्तनोतु चरणः पुरुषोत्तमस्य॥१४॥ अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमानामव्यक्तजीवमहतामपि कालमाहुः॥ सोऽयं त्रिणाभिरखिलापचये प्रवृत्तः कालो गभीररय उत्तमपुरुषस्त्वम्॥१५॥ त्वत्तः पुमान्समधिगम्य यया स्ववीर्यं धत्ते महांतमिव गर्भममोघवीर्यः॥ सोऽयं तयाऽनुगत आत्मन अंडकोशं हैमं ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम्॥१६॥ तत्तस्युषश्च जगतश्च भवानधीशो यन्माययोत्यगुणविक्रिययोपनीतान्॥ अर्थाञ्जुषन्नपि हृषीकपते न लिप्तो येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति स्म॥१७॥

तुम उत्तम पुरुष दो॥१५॥ अबसृष्टिका प्रकार कहते हैं, प्रथम तुमसे सफल वीर्य एक पुरुष उत्पन्न होता है, सो पुरुष तुमसे शक्तिको प्राप्त हो मायासे मिलकर विश्वका गर्भरूप महत्तत्त्व उपन्न करता है और वही महत्तत्त्व मायासे मिल आत्मासे यह स्वर्णमय अण्डकोश बाहरके सात आवरण संयुक्त सृजता है॥१६॥ इसलिये सब तुमसेही प्रगट हुआ है और इसीकारण इस स्थावर, जंगम, विश्वाधीश तुम हो, हे संपूर्ण स्त्रियोंके पति! मायासे उत्पन्न हुई इन्द्रियें वृत्ति करके विषय भोग करते भी तुम निर्लेप रहते हो, यद्यपि योगीश्वर योगसे विषयको छोड़ देते हैं, परन्तु तो भी डरते हैं कि, कदाचित् हमको विषयवासना उत्पन्न न हो; क्योंकि तुम प्रपंचसे मिलरहेहो और विषय सम्बन्ध नहीं, यह मर्

विशेष धर्म है॥१७॥ क्योंकि जो सोलह हजार (१६०००) स्त्रियें अपने मंदहास्य सहित चिंतवनके कटाक्षसे दिखाये अभिप्रायसे मनको हरनेवाली भ्रूमण्डलसे प्रेरे संभोग मंत्रोंके विषे निपुण, कामके बाण और कामकी कलासे भी वशमें न करसकीं तो तुम विषयोंसे निर्लिप्तही हो॥१८॥ इस लिये तुम्हारी अमृतरूपी कथा, जलभरी कीर्तिरूपी नदी और तुम्हारे चरणोदकरूपी गंगा, यह दोनों त्रिलोकीका पाप दूर करने को समर्थ हैं, श्रवणेन्द्रियसे वेद में गाये तुम्हारे यशके सुननेसे सब पाप नष्ट होजाते हैं, गंगामें स्नान करनेसे सब पाप छूट जाते हैं, इसप्रकार जो पुरुष धर्म जानते हैं, सो इन दोनों तीर्थोंका सेवन करते हैं॥१९॥ शुकदेवजी कहते हैं कि इसप्रकार ब्रह्मा, महादेव सहित देवताओंसे मिल, स्तुति और नमस्कार

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारिभ्रूमंडलप्रहितसौरतमंत्रशौंडैः॥ पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनंगबाणैर्यस्येंद्रियं विमथितुं करणर्न विभ्व्यः॥१८॥ विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः पादावनेजसरितः शमलानि हंतुम्॥ आनुश्रवं श्रुतिभिरंघ्रिजमंगसंगैस्तीर्थद्वयं शुचिषदस्त उपस्पृशंति॥१९॥ बादरायणिरुवाच॥ इत्यभिष्टूय विबुधैः सेशः शतधृतिर्हरिम्। अभ्यभाषत गोविंदं प्रणम्यांबरमाश्रितः॥२०॥ ब्रह्मोवाच॥ भूमेर्भारावताराय पुरा विज्ञापितः प्रभो॥त्वमस्माभिरशेषात्मंस्तत्तथैवोपपादितम्॥२१॥ धर्मश्च स्थापितः सत्सु सत्यसंधेषु वै त्वया॥ कीर्तिश्च दिक्षु विक्षिप्ता सर्वलोकमलापहा॥२२॥ अवतीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद्रूपमनुत्तमम्॥ कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः॥२३॥ यानि ते चरितानीश मनुष्याः साधवः कलौ॥ शृण्वंतः कीर्तयंतश्च तरिष्यंत्यंजसा तमः॥२४॥

कर, आकाशहीमें खड़े भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीसे बोले॥२०॥ ब्रह्माजी ने कहा कि, हे प्रभो! हे सर्वान्तर्यामी! हमने भूमिका भार उतारनेके लिये प्रथम आपसे विनती की थी सो भार तुमने उसी प्रकार दूर किया॥२१॥ संतोंमें धर्म स्थापन किया. साधुओंमें सत्य रक्खा और सबोंका पाप दूरकर दशदिशाओंमें कीर्त्तिका विस्तार किया॥२२॥ यदुवंशमें अवतार ले उत्तमरूप घर जगत् काहित करनेके लिये अति उदार चरित्र और कर्म किये॥२३॥ हे ईश! जिन कर्मोंको कलियुगमें साधुजन श्रवण कीर्त्तन करके सुखपूर्वक संसार सागरसे तरेंगे॥२४॥

हे विभो! हे पुरुषोत्तम! यदुवंशमें अवतार लिये तुमको एकसौ पच्चीस (१२५) वर्ष बीत गये॥२५॥ हे सर्वाश्रय! अब तुमको कोई देव कार्य भी करना शेष नहीं है और यह तुम्हारा कुल भी ब्रह्मशापसे नष्ट होरहा है॥२६॥ इसलिये यदि अब आपकी इच्छा हो तो अपने वैकुण्ठ धामको चलो,हे वैकुण्ठनाथ! हम तुम्हारे किंकर हैं, लोक सहित लोकपालोंकी रक्षा करो॥२७॥ श्रीकृष्णभगवान् बोले कि, हे देव

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम॥ शरच्छतं व्यतीयाय पंचविंशाधिकं प्रभो॥२५॥ नाधुना तेऽखिलाधार देवकार्यावशेषितम्॥ कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम्॥२६॥ ततः स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे॥ सलोकाल्ँलोकपालान्नः पाहि वैकुंठ किंकरान्॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ अवधारितमेतन्मे यदात्थ विबुधेश्वर॥ कृतं वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोवतारितः॥२८॥ यदिदं यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम्॥ लोकं जिघृक्षद्रुद्धंमे वेलयेव महार्णवः॥२९॥

ताओंके ईश्वर! तुमने जो कहा सो मैंने मनमें धारण किया, तुम्हारा सब काम पूर्ण करदिया और भूमिका भार उतारा॥२८॥ परन्तु अभी यह यादवकुल बल, शूरता और श्रीसे अतिउद्धत है, लोकको ग्रसा चाहता है, उसे भी महासमुद्रको जैसे वेला (तट) रोक रक्खे, उसीप्रकार

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शंका- भगवान्नेअनेक अवतार धारण करके पृथ्वीपर अनेक प्रकारके चरित्र किये, परन्तु पृथ्वीसे भगवान्‌को वैकुण्ठधामके जानेके लिये किसी अवतारमें ब्रह्माने प्रार्थना नहीं की कि, महाराज! आप अब परमधामको चलो! और इन्द्रको तथा ब्राह्मणोंको ब्रह्माने अपने सग लेकर बैकुण्ठको संग चलनेके लिये श्रीकृष्णकी याचना क्यों किया कि, अव आप वैकुण्ठको चलो॥

** उत्तर -** ससारको सुख देनेके लिये भगवान् नेअनेक अवतार धारण किये, ऐसेही पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीकृष्णरूप धरकर मर्त्यलोकमें आये,जब श्रीकृष्ण मर्त्यलोकमें आये तब तारकनाम राक्षस बैकुण्ठपुरीको भगवान्से हीन देखकर भगवान्‌की पुरीको दुःख देनेका विचार करनेलगा, आज दुःखदेंकल दु.खदें, ऐसा विचार करते करते एकेसौ चौबीस १२४ वर्ष, दश १० महीने बीत गये, परन्तु जिस दिन निश्चय करके दुःख देनेको चला, तव कुछ थोडा थोडा उत्पात वैकुण्ठमें हुवा, तब सुदर्शनचक्र तारकके मारनेके लिये उसके पीछे दौड़ा उस समय सुदर्शनके डरके मारे तारक भाग निकला, तो उसी वक्त ब्रह्माने विचार किया कि, आज दुष्ट राक्षसने वैकुण्ठमें उपद्रव कियाहै, न जानिये क्या हो? ऐसा विचारकर ब्रह्माने श्रीकृष्णसे वैकुण्ठजानेके लिये प्रार्थना की।

मैंने रोक रक्खा है॥२९॥ जो मैं ऐसे गर्वसे उद्धत यादवोंके विशाल कुलका संहार किये विना अपने लोकको चला जाऊंगा तो यह लोक मर्यादा रहित यदुकुलसे नष्ट होजायगा॥३०॥ सो विप्रशापसे इस कुलके नाशका अब आरंभ किया है, हे ब्रह्मा! इनको संहार करके में वैकुण्ठ जा ऊंगा, हे निष्पाप! तुम्हारे घर आऊंगा॥३१॥ लोकोंके नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी इस प्रकार वाणी सुनकर स्वयंभू देव ब्रह्मा श्रीकृष्णको नमस्कार कर देवताओंसे मिल अपने धामको चलेगये॥३२॥ इसके उपरान्त द्वारकापुरीमें बड़े बड़े उत्पात होनेलगे उन्हें देखकर बडे वृद्ध

यद्यसंहृत्य दृप्तानां यद्वनां विपुलं कुलम्॥ गंतास्म्यनेन लोकोऽयमुद्वेलेन विनंक्ष्यति॥३०॥ इदानीं नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापजः॥ यास्यामि भवनं ब्रह्मन्नेतदंते तवानघ॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तो लोकनाथेन स्वयंभूः प्रणिपत्य तम्॥ सह देवगणैर्देवः स्वधाम समपद्यत॥३२॥ अथ तस्यां महोत्पातान्द्वारवत्या समुत्थितान्॥विलोक्य भगवानाह यदुवृद्धान्समागतान्॥३३॥ श्रीभगवानुवाच॥ एते वै सुमहोत्पाता ह्युत्तिष्ठंतीह सर्वतः॥ शापश्च नः कुलस्यासीद्ब्राह्मणेभ्यो दुरत्ययः॥३४॥ न वस्तवव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यकाः॥ प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम्॥३५॥ यत्र स्नात्वा दक्षशापाद् गृहीतो यक्ष्मणोडुराट्॥ विमुक्तः किल्विषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम्॥३६॥ वयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितृृन्सुरान्॥ भोजयित्वोशिजो विप्रान्नानागुणवतान्धसा॥३७॥

यादव इकट्ठे हुए, उन यादवोंको एकत्र देखकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले॥३३॥ कि, सब ओरसे यहाँ बडे बडे उत्पात उठते हैं और अपने कुलको ब्राह्मणों का शाप भी हुआ है॥३४॥ इसलिये हे यादवो! जो जीनेकी इच्छा है तो हमको यहाँ रहना नहीं चाहिये, अतिपुण्य प्रभासतीर्थको आजही चलो, विलम्ब मत करो॥३५॥ जिस तीर्थमें स्नान करके दक्षके शापसे क्षयरोगसे ग्रसा चन्द्रमा पापसे छूटा और तत्काल फिर कलाओंकी वृद्धिको प्राप्त हुआ॥३६॥ हम भी वहाँ स्नान और पितरोंका तर्पण कर अनेक गुणसंयुक्त अन्नसे उत्तम ब्राह्मणों को भोजन करवाय॥३७॥

श्रद्धासहित महान् सत्पात्रों विषे बीज बोय उन दानोंसे पापोंको तरेंगे, जैसे नावमें बैठकर समुद्रको तरते हैं॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!इसप्रकार जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आज्ञा दी तब सब यादव भगवान्की आज्ञा मान चलनेका उद्यम करनेलगे, तीर्थ जानेकी इच्छासे रथ जुतवाने लगे॥३९॥ हे राजन्! उससमय यादवोंके प्रभासतीर्थ जानेका उद्यम देख और श्रीकृष्णके वचन सुन और घोर उत्पातोंको देख नित्य श्रीकृष्णके निकट रहनेवाले उद्धवजी॥४०॥ एकांतमें निकट जाय जगत्के ईश्वरोंके ईश्वरको माथेसे नमस्कारकर हाथ जोड कहने लगे॥४१॥ कि, हे देवदेवेश! योगेश! हे पुण्यश्रवणकीर्त्तन! तुम्हारी ऐसी इच्छा जानी जाती है, कि इस कुलका संहारकर निश्चयसे भूलोकको

तेषु दानातिपात्रेषु श्रद्धयोप्त्वामहांति वै॥ वृजिनानि तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम्॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवताऽऽदिष्टा यादवाः कुलनंदन॥ गंतुं कृतधियस्तीर्थे स्यंदनान्समयूयुजन्॥३९॥ तन्निरीक्ष्योद्धवो राजञ्छ्रुत्वा भगवतोदितम्॥ दृष्ट्वाऽरिष्टानि घोराणि नित्यं कृष्णमनुव्रतः॥४०॥ विविक्त उपसंगम्य जगतामीश्वरेश्वरम्॥ प्रणम्य शिरसा पादौ प्रांजलिस्तमभाषत॥४१॥ उद्धव उवाच॥ देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन॥ संहृत्यैतत्कुलं नूनं लोकं संत्यक्ष्यते भवान्॥ विप्रशापं समर्थोपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः॥४२॥ नाहं तवांघ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव॥ त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि॥४३॥ तव विक्रीडिनं कृष्ण नृणां परममंगलम्॥ कर्णपीयूषमास्वाद्य त्यजत्यन्यस्पृहां जनः॥४४॥ शय्यासनाटनस्थानस्नानक्रीडाशनादिषु॥ कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेमहि॥४५॥

छोडना चाहतेहो यद्यपि तुम ईश्वर संपूर्ण कार्य करने को समर्थ हो, परन्तु तोभी विप्रशापको निवारण नहीं किया॥४२॥ हे केशव! हे नाथ! मैं तुम्हारे चरणकमल छोड़नेको असमर्थ हूं अर्थात् आधे क्षणकोभी नहीं छोड़ सक्ता, इसलिये मुझे भी अपने धामको ले चलो॥४३॥ हे कृष्ण!तुम्हारी लीला मनुष्यों को परममंगलदायक है, श्रवणेन्द्रियको अमृतरूप है उसका आस्वाद ले मनुष्य औरकी इच्छाको छोडते हैं, हम तुम्हारे दिन रात्रिके सेवक हैं॥४४॥ शयन, आसन, गमन, स्नान, कीडा, भोजन आदि और भी क्रियाओंमें सदा संग रहेहैं, सो हम भक्तप्रिय आत्मारूप

तुमको कैसे छोड़ सक्ते हैं?॥१५॥ तुम्हारे समीप तुम्हारे प्रसादकी माला सुगंध चंदन और प्रसाद वस्त्रसे चर्चित होकर वाह्य शुद्ध होते हैं, पीछे तुम्हारे उच्छिष्ट महाप्रसाद भोजनसे अंतर शुद्ध करके तुम्हारी मायाको जीतते हैं॥४६॥ हे महायोगिन्!जो केवल वायु भक्षण करके रहते, वह दिगंबर हैं, शमयुक्त हैं, जितेन्द्रिय हैं, संन्यासी हैं, निर्मल चित्त हैं, आत्मविद्यामें जिसने श्रम किया है, वह ऋषि अनेक क्लेशसे तुम्हारे वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं॥४७॥ हे महायोगीश्वर! हम तो तुम्हारे भक्तोंके संग तुम्हारी वार्ता करते सकल कर्मोमें भ्रमते भी तुम्हारी दुस्तर मायाको तरेंगे॥४८॥ मनुष्यलोकको आश्चर्यदायक तुम्हारे कर्म वचन गति हास्य चिंतवन हास्यकी वार्त्ता और जो कुछ मनुष्यलोकमें लीला करी है, उसका स्मरण

त्वयोपभुक्तस्रग्गंधवासोलंकारचर्चिताः॥ उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेमहि॥४६॥ वाताशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्द्धमंथिनः॥ ब्रह्माख्यं धाम ते यांति शांताः संन्यासिनोऽमलाः॥४७॥ वयं त्विह महायोगिन्भ्रमंतः कर्म वर्त्मसु॥ त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः॥४८॥ स्मरंतः कीर्तयतस्ते कृतानि गदितानि च॥ गत्युत्स्मिते क्षणक्ष्वेलीर्यन्न लोके विडंबनम्॥४९॥ श्रीशुक उवाच॥एवं विज्ञापितो राजन्भगवान्देवकीसुतः॥एकांतिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत॥५०॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० स्कं० षष्ठोऽध्यायः॥६॥ श्रीभगवानुवाच॥ यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे॥ ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकांक्षिणः॥१॥

कीर्तन, करैंगे इससेही तरजायँगे, मैं यह आपके भयसे प्रार्थना नहीं करता हूं, परन्तु आपका संग नहीं छोड़ा जाता॥४९॥ इतनी कथा कह शुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार उद्धवजीकी विनती सुन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सदा निकटवर्त्ति परमप्रिय भक्त उद्धवजीसे बोले॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां ब्रह्मादिस्तुतिर्नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा - हरिविवेककी सिद्धिको, वरणो जस इतिहास।सो सप्तम अध्यायमें, वर्णत सहित हुलास॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजी से बोले कि, हे महाभाग उद्भव! तुमने जो मुझसे कहा सो सब मुझे करना है, क्योंकि ब्रह्मा, महादेव और लोकपाल यह सब स्वर्ग जानेके लिये मेरी प्रार्थना करगये हैं॥१॥

मैंने यहाँ वह सब देवकार्य सिद्ध किया, जिसके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे बलदेव सहित मैंने अवतार लिया था॥२॥ हमारा कुल शेष रहा है, सो भी विप्रशापसे जल रहा है, इससे निश्चयही परस्परकी लड़ाइयोंसे नष्ट होजायगा और आजसे सातवें दिन इस द्वारकापुरीको समुद्र डुवावेगा॥३॥ जिस दिन मैंइस लोकको छोडूंगा उसदिन यह मंगल नष्ट होजायगा. हे उद्भव! इसके उपरान्त फिर कलियुग भी प्रवृत्त होकर सब धर्मको दूर करेगा और थोड़ेही कालमें इसलोकका निरादर करेगा॥४॥ मेरे त्याग किये महीतल विषे तुम मत वास करना, क्योंकि हे

मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः॥ यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः॥२॥ कुलं वै शापनिर्दग्ध नंक्ष्यत्यन्यो न्यविग्रहात्॥ समुद्रः सप्तमेऽह्न्येतां पुरीं च प्लावयिष्यति॥३॥ तर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमंगलः॥ भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृतः॥४॥ न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले॥ जनोऽधर्मरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे॥५॥ त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबंधुषु॥ मय्यावेश्य मनः सम्यक्समदृग्विचरस्वगाम्॥६॥ यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः॥ नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्॥७॥ पुंसो युक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक्॥ कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा॥८॥

उद्धव! कलियुग में मनुष्योंकी प्रीति अधर्ममें होगी॥५॥ हे उद्धव! तुम तो स्वजन, बन्धु और कुटुम्बका स्नेह छोड़ मेरे स्वरूपमें चित्त रख समदृष्टि होकर पृथ्वीमें विचरण करो॥६॥ इस संसारमें दृष्टि मत रखना, क्योंकि वचन, नेत्र, श्रवणादिक करके जो ग्रहण किया है, सो सब झुठी मायाका रचा यह मन भी मिथ्या है, ऐसा जानो॥७॥ विक्षिप्त चित्तवाले पुरुषको वेदार्थ अनेक प्रकार से दीखते हैं, सो भ्रमते हैं, गुण दोष

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* शंका- श्रीकृष्णचन्द्रने उद्धवसे कहा कि, हम पृथ्वीको त्याग कर परमधामको जायँगे, तवपृथ्वी पर वास मत करना, तब श्रीकृष्णके वैकुण्ठ जानेके पीछे बदरिकाश्रममें उद्भवने वास क्यों किया?

** उत्तर–**वृन्दानन, अयोध्या, प्रयाग, नैमिषारण्य, द्वारका, काशी, बदरिकाश्रम इन सब क्षेत्रोंकी सात द्वीपोंकी पृथ्वीपर गिनती नहीं है ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है, यह सब मोक्षभूमि हैं, सात द्वीपको सदृश भूमि नहीं इसलिये बदरिकाश्रममें उद्धवजीने वास किया।

संयुक्त हो कर्म, अकर्म, विकर्म, भेद गुणदोषबुद्धिबालेको है, समदृष्टि आत्मज्ञानवंतको यह भेद नहीं॥८॥ इसलिये इन्द्रियोंके समूहको और चित्तको वश करके इस विशाल जगत्को अपने आपमें देखो, आपको परमेश्वरमें ब्रह्मरूपसे देखो॥९॥ यदि कहो कि, विघ्न बहुत हैं, कैसे देखें? इसका उत्तर यह है कि, वेदके अभिप्रायका निश्चय और उसके अर्थका अनुभव मिलाय आत्माके ज्ञानसेही संतुष्ट और दीनता आदि भी आत्मरूप जानोगे तब कोई विघ्न नहीं करेगा और जबतक आत्मज्ञानकी प्राप्ति न हो तबतक वर्णके अनुसार कर्म करै, अनुभव प्राप्त होनेपर विघ्नोंसे कुछ नहीं होता॥१०॥ इससे यह न समझ लेना कि, “ज्ञानी मनुष्य यथेष्ट आचरण करै” क्योंकि जैसे बालक संकल्प विकल्पसे

तस्माद्युक्तेंद्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत्॥ आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे॥९॥ ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम्॥ आत्मानुभवतुष्टात्मा नांतरायैर्विहन्यसे॥१०॥ दोषबुद्ध्योभयातीतो निषेधान्न निवर्तते॥ गुणबुद्ध्याच विहितं न करोति यथार्भकः॥११॥ सर्वभूतसुहृच्छांतो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः॥ पश्यन्मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप॥ उद्धवः प्रणिपत्याह तत्त्वजिज्ञासुरच्युतम्॥१३॥ उद्धव उवाच॥ योगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसंभव॥ निःश्रेयसाय में प्रोक्तस्त्यागः संन्यासलक्षणः॥१४॥

रहित होनेपर भी कोई कर्म करता है, कोई नही करता, इसीप्रकार गुणदोषबुद्धिसे रहित हुआ यह पहले कर्मोंके संस्कारसे विवर्त्त होता है, किन्तु न दोषबुद्धिसे बहुधा विहित कर्मका कर्त्ता है, न गुणबुद्धिसे॥११॥ सब प्राणियोंका मित्र हो ज्ञान विज्ञानका निश्चयवाला हो, सब विश्वको मेराही रूप समझकर देखे, वह पुरुष फिर कभी इस संसारमें न आवै॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत राजा परीक्षित्! इस प्रकार जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने समझाया, तब परमभागवत उद्धवजी प्रणामकर तत्त्वज्ञानकी इच्छा कियेहुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगे॥१३॥ उद्धवजी बोले कि, हे योगके फलदाता! हे योगके आधार! हे योगरूप! हे योगके कारण! मेरे मोक्षके अर्थ यह संन्यास रूपका त्याग मुझसे कहा

सो आपने सहज दया से कहा, क्योंकि मैं तो ऐसा अधिकारी नहीं था॥१४॥ हे सर्वव्यापक! हे सर्वात्मा! मेरी बुद्धि तो ऐसी है कि, जिन पुरुषोंका मन विषयोंमें लगा हुआ है, उनसे ऐसा त्याग बनना अशक्य है और जो उसमें भी तुम्हारे भक्त नहीं उनको तो बहुतही कठिन है॥१५॥ और जो मुझसे तुम त्याग कहते हो सो महाराज! मैं अहंता ममतामे मूढमति हूँ तुम्हारी मायासे उत्पन्न हुए पुत्र कलत्र देह आदिमें मग्न हूँ इसलिये हे भगवन्! जैसे यह सब तुम्हारी आज्ञा विना परिश्रम करसकूं, उसी प्रकार तुम मुझे शिक्षा दो॥१६॥ तुम समानरूप हो, स्वप्रकाश हो, आत्मा हो, इसलिये हे ईश! मुझे और ऐसा वक्ता देवताओंमें भी कोई नहीं देखपड़ता है, क्योंकि यह ब्रह्मादिक देहधारी तो तुम्हारी मायासे मोहितबुद्धि

त्यागोऽयं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः॥ सुतरां त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः॥१५॥ सोहं ममाहमिति मूढमतिर्विगादस्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबंधे॥तत्त्वंजसा निगदितं भवता यथाहं संसाधयामि भगवन्ननु शाधि भृत्यम्॥१६॥ सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे॥ सर्वे विमोहित धियस्तव माययेमे ब्रह्मादयस्तनुभृतो बहिरर्थभावाः॥१७॥तस्माद्भवंतमनवद्यमनंतपारं सर्वज्ञमीश्वरमकुंठविकुंठधिष्ण्यम्॥ निर्विष्णधीरहमुह वृजिनाभितप्तो नारायणं नरसखं शरण प्रपद्ये॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥प्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणाः॥ समुद्धरंति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात्॥१९॥ आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः॥ यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविंदते॥२०॥

हैं और बाहर के विषयोंमें इनकी अर्थबुद्धि है॥१७॥ कोई एक दुष्टबुद्धि हैं और कोई एक ऐसे हैं जो सेवा करनेपर भी फल देनेके समय नष्ट होजाते हैं, कोई अज्ञानी हैं कोई रक्षाकरने में असमर्थ हैं, कोई स्थानभ्रष्ट हैं, इललिये संसारके दुःखसे अतीत नहीं, मैं अति विरक्तचित्त हूं इसकारण तुम्हारी शरण आया हूं, क्योंकि तुम तो निंदारहित हो, तुम्हारा कालसे अंत और देशसे पार नहीं, सर्वज्ञ हो, ईश्वर हो, तुम्हारा नाशरहित वैकुण्ठ स्थान है, तुम सब जीवोंके आश्रय हो जीवके सखा हो॥१८॥ श्रीभगवान् बोले कि, जो लोग तत्त्वको अतिश्रेष्ठ जानते हैं, वह मनुष्य बहुधा गुरुविनाही अपने आत्माको संसारसे उद्धार करते हैं, गुरुके उपदेशकी अपेक्षा नहीं करते॥१९॥ अपना गुरु आपही हैं, क्योंकि विशेषकर

पुरुष जो यह प्रत्यक्षसे अथवा अनुमान से विचारै तो आपही से सुख पावैऔर सहजसेही अपने स्वरूपकी प्राप्ति हो, पशुओंको अपने हित ज्ञानका कौन गुरु है, आपहीसे अपने हितमें प्रवृत्त होते हैं, इसलिये अपना आपही गुरु, तहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान दिखलाते हैं कि, जब जीव पुरुषजन्म प्राप्त करता है, तब यह ज्ञानमार्गमें निपुण होजाता हैं॥२०॥ मनुष्यके शरीरमें आत्मा अधिक प्रत्यक्ष है, यह सांख्य योगमें चतुर बुद्धिवाले धीर पुरुषोंकानिश्चय है॥२१॥ वहशक्तियुक्त मुझे प्रत्यक्ष देखते हैं, मेरे उत्पन्न किये बहुतरूप और बहुत शरीर हैं, कोई एकचरण हैं, कोई अर्द्धचरण हैं, कोई नीचे चरण हैं, कोई चार चरण हैं, कोई बहुत चरण हैं, कोई चरण रहित हैं, परन्तु इन सबोंमें जो पुरुषरूप देह है, सो मुझे अतिप्रिय

पुरुषत्वे च मां धीराः सांख्ययोगविशारदाः॥ आविस्तरां प्रपश्यंति सर्वशक्त्युपबृंहितम्॥२१॥ एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस्तथाऽपदः॥ बह्व्यः संति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया॥२२॥ अत्र मां मार्गयंत्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम्॥गृह्यमाणैर्गुणैर्लिंगैरग्राह्यमनुमानतः॥२३॥ अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥अवधूतस्य संवादं यदो रमिततेजसः॥२४॥ अवधूतं द्विजं कंचिच्चरंतमकुतोभयम्॥कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित्॥२५॥ यदुरुवाच॥ कुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तुः सुविशारदा॥ यामासाद्य भवाल्ँलोकं विद्यांश्चरति बालवत्॥२६॥ प्रायो धर्मार्थं कामेषु विवित्सायां च मानवाः॥ हेतुनैव समीहंते आयुषो यशसः श्रियः॥२७

है॥२२॥ इस पुरुषदेहमें जो सावधान है, सो अहंकारादिकोंसे रहित मुझे प्रगट ढूँढलेते हैं, बुद्धि आदि यत्नोंको एक स्वप्रकाश आत्माविना प्रकाश नहीं होसक्ताऐसा अनुमान करके मुझे ढूंढ़लेते हैं॥२३॥ इस विषयमें एक बड़े तेजस्वी राजा यदु और अवधूतका संवाद रूप प्राचीन इतिहास कहते हैं॥२४॥ अवधूत वेष किये महापण्डित और सदा तरुण अवस्थावाले गुरु दत्तात्रेयजी कि जो निर्भय रीतिसे संसार में घूम रहे थे उन्हैंदेखकर धर्मके ज्ञाता राजा यदुने इस प्रकार पूँछा॥२५॥ कि, हे ब्रह्मन्! अकर्त्ता तुमको ऐसी निपुणमति कहॉसे प्राप्त हुई है, जिसको पाकर अवधूत पण्डित तुम बालकके समान इसलोकमें विचरतेहो॥२६॥ बहुधा मनुष्य धर्म, अर्थ, कामना

विषे और आत्मा के विचार विषे आयुर्दाय कीर्ति और श्रीकी कामनासे प्रवृत्त होते हैं॥२७॥परन्तु तुम तो कुछ नहीं चाहते हो न कोई कर्म कर तेहो और जड उन्मत्त पिशाचके समान हो और सब कार्य करनेको समर्थ और पूर्ण ज्ञानवान् हो, अतिप्रवीण हो सुन्दर हो आपकी उत्तम मधुर वाणी है॥२८॥मनुष्य काम, लोभरूप दावानलसे जलता है, उसमें तुम उस तापसे संतप्त नहीं हो, जैसे अग्निसे छूटकर गंगामें खडा हाथी उस तापसे तप्त नहीं होता है॥२९॥ हे ब्रह्मन्! तुम विषयभोग रहित हो, कलत्र आदिसे शून्य हो, आनंदरूप हो इसलिये हम आपसे पूँछते कि, तुम्हारे आनंदका कारण क्या है? सो हमसे कहो॥३०॥श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्भव!इसप्रकार जब अतिब्रह्मण्य सुबुद्धि राजा यदुने

त्वं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः॥ न कर्ता नेहसे किंचिज्जडोन्मत्तपिशाचवत्॥२८॥ जनेषु दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना॥ न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गंगांभःस्थ इव द्विपः॥२९॥ त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानंदकारणम्॥ ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः॥३०॥श्रीभगवानुवाच॥ यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा॥ पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं नृपम्॥३१॥ ब्राह्मण उवाच॥ संति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्ध्यपाश्रिताः॥यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह ताञ्छृणु॥३२॥ पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चंद्रमा रविः॥ कपोतोऽजगरः सिंधुः पतंगो मधुकृद्गजः॥३३॥ मधुहा हरिणो मीनः पिंगला कुररोऽर्भकः॥ कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्॥३४॥ एते मे गुरवो राजंश्चतुर्विंशतिराश्रिताः॥शिक्षावृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः॥३५॥

विनयपूर्वक पूजाकर पूॅछा, तब महाभाग अवधूतजी राजा यदुसे बोले॥३१॥ कि हे राजन्! अपनी बुद्धि करके मेरे बहुत गुरु हैं, जिनसे मैं बुद्धि पाकर मुक्त हुआ हूँ और इसलोकमें फिरताहूं, उनको सुनो॥३२॥ पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्रि, चन्द्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, मधुकृत, गज॥३३॥ मधुहा, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, कड़डी (बाणका बनानेवाला ) साप, मकरी और भृगी॥३४॥ हे राजा यदु!मैंने यह चौबीस गुरु सेवन किये हैं, इनके आचरणसे मैंने अपनी शिक्षा ग्रहण करली है॥३५॥

हे ययातिपुत्र!हे पुरुषसिंह! मैंने जहां जातेहुए जो शिक्षाग्रहण की है, सो उसीप्रकार कहताहूं, तुमश्रवण करो॥३६॥ प्रथम भूमिसे क्षमा सीखी है सो कहते हैं कि, पृथ्वीको सब प्राणी खूँदतेहैं, परन्तु तो भी वह अपने नियमसे चलायमान नहीं होती इसीप्रकार दैवके वशीभूत प्राणी धीर पुरुषको कष्टं दे तो भी उनके दैवाधीनपनको जाननेवाले उस पुरुषको अपने नियमसे चलायमान होना उचित नहीं, यह पृथ्वीसे सीखा है॥३७॥ पृथ्वी दोप्रकारकी है, एक तो पर्वतरूप, एक वृक्षरूप, यहाँसे जो सीखा है, सो कहतेहैं कि, पर्वतकी जो वस्तु है, वृक्ष, तृण, झरना, फूल, फल, यह सदा पराये अर्थ है और पर्वतका तो केवल जन्म भी पराये ही अर्थ है, अपना स्वार्थ कुछ नहीं, इसीप्रकार अपनी वस्तु और देह सब परोपकारार्थ लगा दीजिये, यह पर्वतरूप भूमिसे सीखा है और वृक्ष भी पराये अधीन हैं, यदि उनको कोई काटे उखाडे तो वह सहलेते हैं और क्षमाको नहीं तजते, इसीप्रकार साधुपुरुष

यतो यदनुशिक्षमि यथा वा नाहुषात्मज॥ तत्तथा पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते॥३६॥ भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः॥ तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम्॥३७॥ शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकांतसंभवः॥ साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम्॥३८॥ प्राणवत्त्यैव संस्तुष्येन्मुनिर्नेवेंद्रियप्रियैः॥ ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः॥३९॥ विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः॥ गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत्॥४०॥ पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः॥ गुणैर्न युज्यते योगी गंधैर्वायुरिवात्मदृक्॥४१॥

भी जो अपने संग भलाई बुराई करैतो उसे सहन करलें (१)॥३८॥ वायु भी दो प्रकारकी है, एक तो प्राणरूप है दूसरी बाहर फिरती है, सो प्राण जसे आहार मात्रसे संतुष्ट रहते हैं और इन्द्रियोंके भोग नहीं चाहते इसीप्रकार मुनीश्वरभी रहैंआहार जो न मिलैतो मन वचन विक्षिप्त होकर ज्ञान सिद्धि न हो इसलिये एक आहारमात्रसेही संतोष मानलें, इससे अधिककी चाहना न करैयह विद्या प्राणवायुसे सीखी है॥३९॥ जैसे पवन सब जगह चलताहै, पर कहीं आसक्त नहीं होता, इसीप्रकार योगिराज भी शीत उष्ण आदि नानाधर्मवाले विषयभोग करते भी आसक्त नहीं होते, सबमें गुणदोषरहित मन होय, यह विद्या बाहिरकी वायुसे सीखी है॥४०॥ और भी एक बात पवनसे सीखी है सो कहते हैं कि,

यद्यपि वायु सुगंधसे मिलीसी चलती है और ऐसाही जाना जाता है, परन्तु तोभी वायु गंधसे मिला नहीं है, गंध कुछ वायुका गुण नहीं है पृथ्वीका गुण है, उसीप्रकार आत्मा पृथ्वीका विकार देहमें प्रविष्ट है देहके धर्मका आश्रय है, पर मिला नहीं है, देहोंसे अलग है, इसप्रकार समझैऔर स्थानमें आत्माहीको देखैयह विद्या भी पवनसेही सीखी इस लिये वायु गुरु हुआ (२)॥४१॥ अब आकाशसे जो विद्या सीखी है, सो कहते हैं, जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक और बड़ा है परन्तु घटमें छोटा दिखाई देता है, सो घटसे आकाशका कुछ सम्बन्ध नहीं क्योंकि वह निर्विकार है, तैसेही आत्मा इस देहमें है और यह देहसे मिला है, इसकारण इतनाही है और ठौर नहीं ऐसे न समझे, क्योंकि जो आत्मा देहमें है, सोई सर्वत्र है जैसे आकाश सब ठौर है, वैसेही स्थावर जंगमविषे ब्रह्मव्यापक है, यह एक विद्या आकाशसे सीखी है॥४२॥ द्वितीय वायु कहतेहैं जैसे पवनके

अंतर्हितश्च स्थिरजंगमेषु ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन॥ व्याध्याऽव्यवच्छेदमसंगमात्मनो मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत्॥४२॥ तेजोऽवन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः॥ न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसृष्टैर्गुणैः पुमान्॥४३॥ स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्न्नृणाम्॥ मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः॥४४॥ तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः॥ सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत्॥४५॥ क्वचिच्छन्नः कचित्स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम्॥ भुंक्ते सर्वत्र दातॄणां दहन्प्रागुत्तराशुभम्॥४६॥

प्रेरेसे तेज, जल, पृथ्वीमय मेघादिक आकाशमें व्याप्त होतेहैं, पर मेघादिकोंसे आकाशका स्पर्श नहीं होता, वह निर्लेप है, वैसेही यह पुरुष कालसे सृजे पंचभूत रूप इस देहसे संयुक्त है, उनका निजके साथ स्पर्श नहीं है, यह धर्मभी आकाशसेही सीखा (३)॥४३॥ जैसे स्वभावहीसे जल अति निर्मल है ऐसेही मुनि भी निर्मल हो सबके ऊपर स्नेह करै मीठा बोलै जल भी मधुर है जैसे जल तीर्थ स्थान है और मनुष्योंको पापसे छुड़ाता है इसीप्रकार मुनीश्वरभी दर्शन स्पर्श कीर्त्तनसे सबको पवित्र करैं, यह गुण जलसे सीखे हैं (४)॥४४॥ अब अग्निसे सीखा सो कहते हैं, जैसे अग्नि अतितेजस्वी है, तेजसे दीप्त है, अति दुःसह है और उसका उदरही पात्र है क्योंकि जो होम करतेहैं, वह अग्निके उदारमेंही डालते हैं, इससे वही पात्र है, जो संपूर्ण वस्तुको भक्षण करतीहै और तोभी पवित्र करनेवाली है, ऐसेही मुनीश्वरभी हों॥४५॥ जैसे अग्नि कहीं गुप्त है, कहीं

प्रगट है, जो अपने कल्याणकी चाहना करते हैं, उनको सेव्य है, दाताकी इच्छासे सर्वत्र हविष्य लेती है, उनके भूत, भविष्य, वर्त्तमान पाप सब दूर करतीहै, इसी प्रकार मुनि रहै॥४६॥ और भी अग्निसे सीखा है, जैसे अग्नि एकरूप है, बहुत ईंधनसे बहुत भाँति बड़ी दिखाई देती है और जब ईंधन थोडा रहताहै तो छोटी दीख पडती है, ऐसेही जीवात्मा एकरूप है, न छोटा है, न बडा है, अपनी अविद्यासे उपजाये ऊंच नीच भेदसंयुक्त देहमें प्रविष्ट हुआ ऊँच नीच रूप से दिखाई देता है (५)॥४७॥ चन्द्रमासे जो सीखा है, सो कहते हैं, जन्मसे आदिलेकर मरणपर्यन्त धर्म देहकेही हैं आत्मके नहीं, इसमें दृष्टान्त कहते हैं, जैसे चन्द्रमाका मण्डल सदा पूर्ण एकरूप है, नित्य वृद्धि और क्षय जो देखा जाता है सो कलाओंका है, जितना सूर्यमण्डलसे नित्य अलग पडैहै, उतनाही दीखता है और ज्यों ज्यों मण्डलके नीचें दबता है, त्यों त्यों घटता है. इसीप्रकार आत्मा एकरूप है, अप्र

स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः॥ प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोऽग्निरिवैधसि॥४७॥ विसर्गाद्याः श्मशानांताभावा देहस्य नात्मनः॥ कलानामिव चंद्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना॥४८॥ कालेन ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ॥ नित्यावपि न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम्॥४९॥ गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुंचति॥ न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः॥५०॥ बुध्यते स्वेन भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः॥ लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत्॥५१॥

गट गति कालसे जन्ममरणादिक भाव देहके होते हैं, आत्माके नहीं, यह ज्ञान चन्द्रमासे पाया है, इससे चन्द्रमा गुरु है (६)॥४८॥ अग्नि गुरुकी फिर प्रशंसा करते हैं, जैसा अग्निका स्वरूप है कि, नाश नहीं होता, अग्निकी ज्वालाओंका नाश होता है, परन्तु दीखता नहीं, वैसेही काल नदीके वेगसे जन्ममरण इस देहकोही है, आत्माको नहीं, क्योंकि आत्मा तो नित्य अर्थात् अमर है॥४९॥ अब सूर्यसे जो सीखाहै सो कहते हैं, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे जल सोखताहै और फिर वर्षाके समय वही जल छोड देता है, परन्तु उसमें आसक्त नही है. इसीप्रकार योगीजन इन्द्रिय अपेक्षित पदार्थोंका ग्रहण करैऔर कोई, याचना करै तौ तत्काल देदें, ममता न रक्खैं॥५०॥ जिसप्रकार सूर्य आकाशमें अपने स्वरूपमें रहता है और एकही है, परन्तु जलादिकमें प्रतिबिम्ब पडनेसे अनेकरूप दीखता है, इसी प्रकार आत्मा स्वरूपसे भिन्न नहीं है, देहादिकोंमें व्याप्त

होनेसे स्थूल बुद्धिबालोंको अनेकरूपका प्रतीत होता है (७)॥५१॥ अब कपोतसे जो सीखा है, सो कहते हैं, कहीं किसीसे अधिक स्नेह न करै, किसीसे आसक्त न हो, जो संग करे तो संतापको प्राप्त होता है और दीनमति होती है, जैसे कपोतको हुआ॥५२॥ सो कपोतकी कथा कहते हैं, एक कपोत वनमें किसी वृक्षपर अपना घर बनाय कपोतिनी अपनी स्त्रीसे मिलकर कितने वर्षतक दोनोंने वास किया॥५३॥ वह दोनों स्त्री पुरुष कपोत कपोतिनी परमस्नेहसे बँधेहुए दृष्टि दृष्टिसे बँधी, हृदय हृदयसे बँधा, अंग अंगसे बँधा, बुद्धि बुद्धिसे बँधी॥५४॥ शयन, आसन, गमन, स्थान, वार्त्ता, क्रीडा, भोजन, सब काम एकही स्थानपर बैठकर करैं, अलग २ होकर कभी न करैंइसप्रकार एक पंगतमें

नातिस्नेहः प्रसंगो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित्॥ कुर्वन्विदेत संतापं कपोत इव दीनधीः॥५२॥ कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ॥ कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित्समाः॥५३॥ कपोतौ स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ॥ दृष्टिं दृष्ट्यांगमंगेन बुद्धिं बुद्ध्या बबंधतुः॥५४॥ शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम्॥ मिथुनीभूय विस्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु॥५५॥ यंयं वाञ्छति सा राजंस्तर्पयंत्यनुकपिता॥ तंतं समनयत्कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेंद्रियः॥५६॥ कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते॥ अंडानि सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती॥५७॥ तेषु काले व्यजायंत रचितावयवा हरेः॥ शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलांगतनूरुहाः॥५८॥ प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दंपती पुत्रवत्सलौ॥ शृण्वंतौ कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः॥५९॥

निःशंक हुए फिरा करैं॥५५॥ इसके उपरान्त वह कपोतिनीने अपने हाव भाव, लावण्य मधुर भाषण से प्रसन्नकर कपोतसे दीन होकर जो जो वस्तु माँगी, सो सो वह कपोत कष्टसे भी ले आवै, इसभाँति अजितेन्द्रिय उसके अधीन रहा करै॥५६॥ एक समय प्रथमही गर्भवती हुई, सो पतिव्रता कपोतिनीने अपने समीपके आये पतिके समीपही अपने घरमें अंडे दिये॥५७॥ कुछ समय बीतनेपर उन अण्डोंमेंसे अचिन्तनीय हरिकी शक्तियोसे हाथ पाँव आदि युक्त बच्चे उत्पन्न हुए और उनके कोमल अंगोंमें रूएँहुए॥५८॥ इसके उपरान्त यह दोनों कपोत कपोतिनी प्रसन्न हुये और अपने बच्चोंका यत्नसहित पालन करने लगे; पुत्रोंमें स्नेह बहुत हुआ और दिन दिन अपने बच्चोंका मधुर वचन सुननेसे

उनको बड़ा संतोष प्राप्त हुआ॥५९॥ उनके पंखोंसे जब आपको स्पर्श हो तब बहुत सुख पावें प्रसन्न होजायँ, अपने पुत्रोंके मुखकी सुन्दर चेष्टा, उनके वचन और अपने निकट आनेसे परमसुख प्राप्त करनेलगे॥६०॥ उस स्नेहसे बद्धहृदय हो हरिकी मायासे परस्पर मोहित हुए अतिदीनबुद्धि यह स्त्री पुरुष बच्चोंको पालनेलगे॥६१॥ एक दिन यह दोनों कुटुम्बी कपोत वनके चारों ओर बलकोंके अन्नके लिये बड़ी देरतक अभिलाषासे फिरे॥६२॥ अपनी इच्छासे वनमें फिरते किसी एक क्रूर वधिकने अपने घोंसलेके निकट चुगते बालकोंको देख जाल रोपकर पकड़लिया॥६३॥ इसके उपरान्त यह कपोत कपोतिनी सदा हर्ष संयुक्त, प्रजाका चुग्गा चारा लेनेको गये और लेके अपने घरमें आये॥६४॥ तब वह कपोतिनी

तासां पतत्त्रैःसुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः॥ प्रत्युद्गमैरदीनानां पितरौ मुदमापतुः॥६०॥ स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया॥ विमोहितौ दीनधियौशिशुन्पुपुषतुः प्रजाः॥६१॥ एकदा जग्मतुस्तासामन्नार्थौतौकुटुंबिनौ॥ परितः कानने तस्मिन्नर्थनौ चेरतुश्चिरम्॥६२॥ दृष्ट्वा ताल्ँलुब्धकः कश्चिद्यदृच्छातो वनेचरः॥ जगृहे जालमावृत्य चरतः स्वालयांतिके॥६३॥ कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ॥ गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः॥६४॥ कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकाञ्जालसंवृतान्॥ तानभ्यधावत्क्रोशंती क्रोशतो भृशदुःखिता॥६५॥ साऽसकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताऽजमायया॥ स्वयं चावध्यत शिचा बद्धान्पश्यंत्यपस्मृतिः॥६६॥ कपोतश्चात्मजान्बद्धानात्मनोऽप्यधिकान्प्रियान्॥ भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः॥६७॥ अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः॥ अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः॥६८॥

अपने बालकोंको जालमें अतिदुःखित पुकारते देखकर आप भी पुकारती हुई दौड़ी॥६५॥ वह कपोतिनी बहुत स्नेहसे बँधी दुःखित चित्त जालमें बँधे बालकोंको देख वहाँ हरिकी मायासे ज्ञानरहित हो आप भी जालमें बँधगई॥६६॥ इसके उपरान्त वह कपोत भी आपसे अधिक प्यारे बालकोंको और अपने समान स्त्रीको भी बँधा देख अति दुःखित हो विलाप करनेलगा॥६७॥ अहो! देखो मैं अल्प पुण्य हूं, मूर्ख हूं, इन भोगोंमें अब भी तृप्त नहीं हुआ, देखो मैंने कुछ पुण्य नहीं किया, इसीलिये धर्म, अर्थ, काम, साधक मेरा घर नष्ट होगया॥६८॥

यह स्त्री मेरे अनुकूल और पतिव्रता थी सो आज मुझे सुने घरमें छोड़कर साधु पुत्रों समेत स्वर्गकोजाती है॥६९॥ मेरी स्त्री, पुत्र सब मरे सो मैं दीन हुआ विधुर अर्थात् रँडुआ हुआ, अतिदुःखित हुआ सो अब किसलिये जीनेकी इच्छा करूं, मेरा जीवन दुःखरूप है॥७०॥ इस प्रकार वह कपोत विलाप करता उन बालकोंको और अपनी प्रियाको मृत्युसे ग्रसे जालमें, चेष्टा करते देख दीन हो आप भी उस पुरुष के देखते जालमें जा पड़ा॥७१॥ इसके उपरान्त उस गृहस्थ कपोतको और कपोतिनी तथा उसके बालकोंको ले कार्य सिद्ध होनेपर वह दुष्ट वधिक अपने घरको चला गया॥७२॥ अवधूत बोले कि, हे यदु! जिस प्रकार कुटुम्बी कपोत अशान्तचित्त हुआ इसीप्रकार यह पुरुष सुखदुःखहीमें रति मान दीन होकर कुटुंबका भरण पोषण

अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता॥ शून्ये गृहे मां संत्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः॥६९॥ सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः॥ जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः॥७०॥ तांस्तथैवावृतान्वीक्ष्य मृत्युग्रस्तान्विचेष्टतः॥ स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत्॥७१॥ तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम्॥ कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम्॥७२॥ एवं कुटुंब्यशांतात्मा द्वंद्वारामः पतत्त्रिवत्॥ पुष्णन्कुटुंबं कृपणः सानुबंधोऽवसीदति॥७३॥ यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्॥ गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः॥७४॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० सप्तमोऽध्यायः॥७॥ ब्राह्मण उवाच॥ सुखमैंद्रियकं राजन्स्वर्गे नरक एव च॥ देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद्बुधः॥१॥

करते कुटुम्बसहित दुःखही प्राप्त करते हैं, सुख कभी नही पाते किंतु कपोतकी भाँति बँध जाते हैं॥७३॥ जो पुरुष मुक्तिका खुला द्वाररूप इस मनुष्यलोकको पाकर कपोतके समान गृहोंमें आसक्त होता है, वह उत्तम गति पाकर भी अधोगतिमें पड़ता है, घरकी आसक्ति पशु पक्षियोंकोभी अनर्थ देती है, वह मनुष्योंको भी दे तो इसमें कहनाही क्या है? यह विद्या मैंने कपोतसे सीखी इसलिये कपोत गुरु हुआ (८)॥७४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायामवधूतोपाख्याने सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा—इस अष्टम अध्यायमें, दत्तात्रेय सुजान॥ नवमें अजगरकी कथा, सो सब कहीं बखान॥१॥ ब्राह्मण बोले हे राजन्! प्रारब्धके, कर्मोंका भोग अवश्य करनेसेही छूटता है, इसलिये कर्मोंके उद्यमसे

वृथा आयु न खोवै, तहाँ अजगरकी सीख अवधूतजी कहते हैं कि, हे राजन्! जिन पुरुषोंको देहाभिमान है, उन्हैंइन्द्रियोंका सुख नरकमें भी होता है, जैसे दुःख विना इच्छाके होता है, ऐसेही सुख भी होता है इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि, सुखकी चाहना न करै॥१॥ उद्यम विना अनायाससे जो कुछ प्राप्त हो अथवा विरस हो, थोड़ाहो या बहुतहो, उसे प्रसन्नतापूर्वक करले, सबसे उदासीन रहे, शरीरके निर्वाहमात्रही ग्रहण करैइस प्रकार अजगर रहता है॥२॥ जिसदिन कुछ न प्राप्त हो उस दिन विना भोजन करेही सो रहे, तो अवश्य अजगरके समान ईश्वर देगा, उद्यम न करैइस प्रकार धैर्य से रहै॥३॥ यद्यपि इन्द्रिय समर्थ हों, मन पुष्ट हो, शरीर पुष्ट हो, परन्तु तो भी कुछ कर्म न करे, जागताही पडा रहै, किसी वस्तुकी अपेक्षा होय तो भी यत्न न करै, इस भाँति निरपेक्ष होकर रहे (९)॥४॥ अब जो समुद्रसे सीखा है सो कहते हैं, जैसे समुद्रजल

ग्रासं सुमृष्टं विरसं महांतं स्तोकमेव वा॥ यदृच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोऽक्रियः॥२॥ शयीताहानि भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः॥ यदि नोपनमे सो महाहिरिव दिष्टभुक्॥३॥ ओजःसहोबलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम्॥ शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेंद्रियवानपि॥४॥ मुनिः प्रसन्नगंभीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः॥ अनंतपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः॥५॥ समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः॥ नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिरिव सागरः॥६॥ दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्भावैरजितेंद्रियः॥ प्रलोभितः पतत्यंधे तमस्यग्नौ पतंगवत्॥७॥

निश्चल है, ऐसेही अंतःकरणमें प्रसन्न रहे, समुद्र महागंभीर है, उसका पार और अंत नहीं जिसको कोई लाँघ न सकै, कोई पकड न सकै,क्षोभ न कर सकै यह सब गुण समुद्रसे सीखे हैं, यही महात्माओंको उचित है॥५॥ जैसे समुद्र चौमासेमें नदियोंके जलसे चढता नहीं, ग्रीष्ममें सूखता और घटता नहीं, इसीप्रकार योगिराजोको चाहिये कि, जो कुछ मिलैउसीमें सतोष करै यदि न मिलैतो खेद न करै, केवल एक नारायणके विषेही तत्पर होकर विषयोंसे दूर रहै(१०)॥६॥ इन्द्रियोंके पांच विषय हैं, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, रस इनमें आसक्त होनेसे यह जीव नष्ट होजाता है, जैसे पतंग, भ्रमर, गज, हरिण, मीन इत्यादिक नाशको प्राप्त होते हैं, इसलिये इन पांच विषयोंमें आसक्त न हो यह बात इन पाँचोंके पाससे सीखी है, इनमें पहले पतंगसे जो सीखी है सो कहते हैं, जैसे पतंग अग्निका रूप देख भ्रमके वश होकर उसमें जा पडता है॥७॥

इसीप्रकार यह स्त्री देवमाया है, सुवर्ण, आवरण और वस्त्रादि मायाविलास देख उसके हावभावसे मोहित होकर अजितेन्द्रिय लोभी पुरुष भोगकी इच्छासे अंधकूपमें जा पडते हैं, इनकी दृष्टि नष्ट होगई है इसलिये अंध कूपको नहीं जानते, रूपको देखतेही उत्तमसे नष्ट होजाते हैं, यह विद्या पतंगसे सीखी (११)॥८॥ अब भ्रमरसे जो सीखी है सो कहते हैं, भ्रमर दो प्रकारका होता है, एक शहतकी मक्खी, दूसरा भौंरा जो मुनि हो तो थोडा ग्रासमात्र माँगले जितनेसे देह रहे परन्तु एकही घरसे न माँगे जिससे गृहस्थको पीडा हो जैसे भ्रमर सुगंधिके लोभसे एक कमल ही में वसै तो उसमें बँध जाय, ऐसे ही यह एक ठौर माँगनेसे बँधेजाते हैं॥९॥ चतुर मनुष्यको चाहिये कि, सब शास्त्रोंसे सारवस्तु ग्रहण करले शास्त्र छोटे हों अथवा बडे हों, सार सबका लै ले जैसे भ्रमर पुष्पोंमेंसे मकरंदका सार लेलेता है यह बात भ्रमरसे सीखी है॥१०॥ भ्रम

योषिद्धिरण्याभरणांवरादिद्रव्येषु मायारचितेषु मूढैः॥ प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्या पतंगवन्नश्यति नष्टदृष्टिः॥८॥ स्तोकस्तोकं ग्रसेद्ग्रासं देहो वर्त्तेत यावता॥ गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्वत्तिं माधुकरीं मुनिः॥९॥ अणुभ्यश्च महद्भ्यश्चशास्त्रेभ्यः कुशलो नरः॥ सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पेभ्य इव षट्पदः॥१०॥ सायंतन श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षितम्॥ पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न संग्रही॥११॥ सायंतनं श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षुकः॥ मक्षिका इव संगृह्णन्सह तेन विनश्यति॥१२॥ पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद्वारवीमपि॥ स्पृशन्करीव बध्येत करिण्या अगसंगतः॥१३॥

रका दूसरा नाम मधुकर है सो मधुकर मधुमक्खियोंहीमें रहता है उन मधुमक्खियोंसे जो सीखा है सो कहते हैं मुनि भिक्षाको ले आवै परन्तु साँझको अथवा दूसरे दिनको संग्रह न रक्खै पाणिपात्रमें लेकर उदरपात्र पूर्ण करै मधुमक्खीकी नाईं संग्रह न करै देखो मधुकी मक्खी सब वृक्षोंके पुष्पोंका रस संग्रह करके एक मुहाल बनाती है, वह शहद अनेक रोगोंको दूर करता है ऐसेही मुनि लोगोंको चाहिये कि शास्त्रोंमेंसे ऐसा उत्तम सार निकालें जो मनुष्योंके मायारूप रोगोंको हरै॥११॥ और जो मोहमें फँसकर संग्रह करैतो नष्ट होय, जैसे मधुमक्खी मधु सहित नष्ट होजाती हैं (१२)॥१२॥ अब हाथीकी सीख कहते हैं, भिक्षुक काष्ठकी स्त्री पूतरीको पाँवसे भी न छुवैऔर यदि छुवैतो बँधजाय

जैसे हाथी हथिनीके अंग संगसे बँध जाते हैं, यह विद्या मैंने हाथीसे भी सीखी॥१३॥ जो बुद्धिमान् होय तो कभी स्त्रीके निकट न जाय, जाय तो अवलम्बन करके पिटै, क्योंकि स्त्री आत्माकी मृत्यु है, जैसे और बलवान् हाथियोंसे हाथी मारा जाता है (१३)॥१४॥ जो कोई मधुमक्खियोंके पास जाय, उन्हें छुड़ाय मधु हरकर ले आवै सो मधुहा कहावै, जो मनुष्य लोभी हैं और अनेक दुःखोंसे धनसंचय करते हैं, न दान करते हैं न आप भोग करते हैं, तो उस धनका भोग और ही कोई करैगा, जैसे मक्खी ठौर ठौरसे मधु लाकर संग्रह करती हैं, परन्तु भोग और ही कोई करता है, यह धनके उपाय जानने॥१५॥ अतिदुःखसे संचय करेहुए धनसे ग्रहण करे मनोरथोंकी चाहना करनेवाले गृहस्थोंके पहले संन्यासी भोजन करता है, जैसे मधुहा मक्खियोंसे प्रथम भोजन करता है, संन्यासी और ब्रह्मचारी रांधे अन्नके स्वामी हैं; इनको पहले दिये विना जो पुरुष

नाधिगच्छेत्स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः॥ बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा॥१४॥ न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर्यद्दुःखसंचितम्॥ भुंक्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु॥१५॥ सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिषः॥ मधुहेवाग्रतो भुंक्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम्॥१६॥ ग्राम्यगीतं न शृणुयाद्यतिर्वनचरः क्वचित्॥ शिक्षेत हरिणाद्बद्धान्मृगयोर्गीतमोहितात्॥१७॥ नृत्यवादित्रगीतानि जुषन्ग्राम्याणि योषिताम्॥ आसां क्रीडनको राजनृष्यशृंगो मृगीसुतः॥१८॥ जिह्वयाऽतिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः॥ मृत्युमृच्छत्यसद्बद्धिर्मीनस्तु बडिशैर्यथा॥१९॥

भोजन कर लेता है, वह चांद्रायण व्रत करनेसे शुद्ध होता है (१४)॥१६॥संन्यासी वनमें फिरते हैं, गाँवके गीत प्राकृत कभी नहीं सुनते यदि सुनें तो बंधन में पड़ैंजैसे मृगगण वधिकके गीत सुनकर मरजाते हैं, यह विद्या हरिण से सीखी॥१७॥ गाँवके गीत, नृत्य, वादित्र सुन और उनके वशमें हो बंधनमें पड़ते हैं, जैसे मृगीके पुत्र ऋष्यशृंगऋषि वेश्याओंके विषयसम्बन्धी नाच वाद्य और गाना सुननेसेही, उन वेश्याओंके खिलौने कैसे बनकर वशमें होगये (१५)॥१८॥ मीनसे जो विद्या सीखी सो कहते हैं, यह मूर्ख मनुष्य अतिबलवंत जिह्वाके वश हो मृत्युको प्राप्त होते हैं, जैसे वंशीके लोहमें माँस लगाते हैं, उसके स्वाद से मछली वंशीको पकड़तीहै, तो मृत्युको प्राप्त होती है॥१९॥

पण्डितजन आहारको त्यागकर शीघ्र इन्द्रियोंको जीत लेते हैं परन्तु एक रसनेन्द्रियको नहीं जीत सकते हैं, क्योंकि आहार त्यागनेसे जिह्वाका लोभ बढता है॥२०॥ जिस पुरुषने और इन्द्रिय जीत ली हैं; परन्तु तबतक जितेन्द्रिय नहीं होता है, जबतक जिह्वा न जीते, क्योंकि जो जीभ जीते तो जानो कि, सब जीते. यहाँ अभिप्राय यह है कि, जो आहार छोड़िये तो केवल और इन्द्रियोंकी जय होय रसनेन्द्रिय बढ़े और भोजन करैतो रसकी आसक्तिसे सब इन्द्रियोंको लोभ होय इसलिये रसकी आसक्ति छोड़कर ओषधीके समान अन्न ले (१६)॥२१॥ अब पिंगलाका उपाख्यान कहते हैं, अवधृतजी बोले कि, हे महाराज! पिंगला नामक एक वेश्या पहले विदेहनगरमें थी उससे भी मैंने कुछ सीखा है॥२२॥ हे राजन्! एक दिन उस कामचारिणी वेश्याने द्वारेपर नगारे धरकर यह संकेत किया कि, जो पुरुष इस नगाड़ेपर जितने डंके मारे वह रात्रिमें मेरे पास आनकर उतने

इंद्रियाणि जयंत्याशु निराहारा मनीषिणः॥ वर्जयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते॥२०॥ तावज्जितेंद्रियो न स्याद्वि जितान्येंद्रियः पुमान्॥ न जयेद्रसनं यावज्जितं सर्वंजिते रसे॥२१॥ पिंगला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा॥ तस्या मे शिक्षितं किंचिन्निबोध नृपनंदन॥२२॥ सा स्वैरिण्येकदा कांतं संकेत उपनेष्यती॥ अभूत्काले बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम्॥२३॥ मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ॥ ताञ्छुल्कदान्वित्तवतः कांतान्मेनेऽर्थकामुका॥२४॥ आगतेष्वपयातेषु सा संकेतोपजीविनी॥ अप्यन्यो वित्तवान्कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः॥२५॥ एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलंबती॥ निर्गच्छंती प्रविशती निशीथं समपद्यत॥२६॥

हजार रुपये देगा, इस प्रकार समस्या बनाई, इतनेहीमें मैंने जाकर उस नगाड़ेपरदश बीस डंडे लगा दिये और सामने जो दूकान खुली पड़ी थी उसमें जा बैठा, तब उस वेश्याने समझा कि, आज कोई बड़ा धनी पुरुष आया, इस आशापर वह कंतको रतिस्थानमें लेजानेकी इच्छासे अत्युत्तम रूप धारण किये सायंकालके समय द्वार पर आनकर स्थित हुई॥२३॥ उस वेश्याने मार्गमें आतेहुए धनवान् मोलके दाता पुरुषोंको देख अपने मनमें जाना कि, यह भोगके योग्य हैं, क्योंकि उसके तो अधिक अर्थकी ही कामना थी॥२४॥ उनको आये और गये देखकर और कोई धनवान् मुझे बड़ा दाता प्राप्त होगा, इस आशासे वह संकेतकी जीवनहारी वेश्या द्वारपर बेठी रही॥२५॥ इसप्रकार दुराशासे जागतेहुए द्वारपर आवै कभी भीतर जाय

इस भाँति अर्द्धरात्रि होगई॥२६॥ उसका धनकी आशासे चित्त दीन होगया मुख सुखने लगा और चिंतासे परमवैराग्य उत्पन्न होगया उस वैराग्यसे जो कहा सो सुनो

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॥२७॥ उसका धनकी आशासे चित्त दीन हुआ, मुख सुखने लगा, निर्वेद चित्तसे उससमय कामकंदलाने जो गाया सो मैं

तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः॥ निर्वेदः परमो जज्ञे चिंताहेतुः सुखावहः॥२७॥ तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं शृणु यथा मम॥ निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः॥ न ह्यंगाऽजातनिर्वेदो देहबंधं जिहासति॥२८॥ पिंगलोवाच॥ अहो मे मोहविततिं पश्यताऽविजितात्मनः॥ या कांतादसतः कामं कामये येन वालिशा॥२९॥

कहताहूं तुम सुनो वह मनमें विचार करैहै कि, वैराग्य पुरुषके दुराशापाश काटनेको खड्गहै हेराजन्! जिसको वैराग्य नहीं उस पुरुषके देहके बंधननहीं छूटते हैं॥२८॥ पिंगला बोली अहो देखो! मेरे लोभका विस्तार कि, मैंने अपना मन न जीता मैंविवकरहित हूं, जो ऐसे दुष्टोंका प्रियकर अपना

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**शंका—**ज्ञानकी प्राप्तिके लिये मुनियोंने अनेक जन्म तप किया और तपस्याही करते करते अनन्तयुग बीत गये, परन्तु ज्ञानकी प्राप्ति मुनियोंको नहीं हुई, ज्ञान ऐसा महा कठिन है और पिंगला वेश्याने कभी भी सुन्दर कर्म नहीं किये कि, जिन कर्मो करके ईश्वर प्रसन्न हो ऐसी पतित महाअपवित्र पिंगला गणिका एक क्षणमात्रमें ज्ञानको कैसे प्राप्त होगई? यह बडे आश्चर्यकी बात है।

** उत्तर—**जिस काम करनेके लिये ब्रह्माने जिस प्राणीको बनाया है, वह प्राणी उसी कामको करेगा तो उसको किसी प्रकारका दोष नहीं लगनेका, देखो! हरिश्चन्द्रने चाण्डालकी नौकरी की और मरघटमें मुर्दोंको उससमय फूकने देता था, जब अपना दडलेलेता था, परन्तु भगवान् उसपेअत्यन्त प्रसन्न हुए और ऐसेहीसदना कसाईपर भगवान् प्रसन्न हुए सो अपने कारबारमें किसी प्रकारका दोष नहीं परन्तु अपने कुलका धर्म करके कुछ देर भगवान्‌का प्रीति सहित ध्यान करैगा तो निस्सन्देह भगवान् उससे प्रसन्न होंगे, ऐसेही ब्रह्माने जिस कर्म करनेके लिये पिंगलाको बनाया था, वही कर्म पिंगला करती थी, क्योंकि जनकपुरीमें सब प्राणी अपने अपने कुलके धर्मको करके पीछे भगवान्‌में प्रीति करते थे, ईश्वरको नहीं भूलते थे स्त्री पुरुष सब भगवानका नाम जपते थे और पिंगलाभीपुरुषोंके संग रति करके पीछेसे स्नान करके दूसरे वस्त्र पहनकर भगवान्का ध्यान करती थी, और ईश्वरकी प्रार्थना करके अपनी देहसे जो पाप होते थे, उनको बारम्बार क्षमा कराती थी उस दिन भगवान्‌कीकृपा होगई जो उसने पापकर्मसे ग्लानि मानी और ज्ञानमें लय होगई, एक क्षणमें पिंगलाको ज्ञान हुआ तो कुछ आश्चर्यकी बात नहीं।

अभिलाषा पूर्ण किया चाहती हूं॥२९॥ अपना अतिप्रिय निकटही सदा रहता है, अति सुखकारी रतिका दाता धनदाता नित्य प्रियको छोड दुःखित हुई, चिंता शोक मोहके देनेवाले तुच्छ मनुष्योंका मैंने सेवन किया, न तो उनसे मेरा काम पूर्ण होता है, न सुखही होताहै, मैं मूढ हूं॥३०॥ अहो! मैंने यह आत्मा वृथा सताया, जिससे अतिनिन्दा संयुक्त शोकसे ग्रसे धन और रतिकी इच्छा से मेरी देह बिकी॥३१॥ हाथ पावोंके हाड थूनी पँसलियोंके हाड बाँस और पीठके हाड जहाँ वरेंडा है, ऐसा शरीर रूपधर त्वचा रोम नखसे ढका है, जिसके नौ द्वार स्रवते हैं, सो विष्ठा

संतं समीपे रमणं रतिप्रदं वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय॥ अकामदं दुःखभयादिशोकमोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा॥३०॥ अहो मयात्मा परितापितो वृथा सांकेत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यवार्तया॥ स्त्रैणान्नराद्याऽर्थतृषोऽनुशोच्यात्क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती॥३१॥ यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंश्यस्थूणं त्वचा रोमनखैः पिनद्धम्॥ क्षरन्नवद्वारमगारमेतद्विण्मूत्रपूर्णं मदुपैति कान्या॥३२॥ विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः॥ याऽन्यमिच्छंत्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात्॥३३॥ सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम्॥ तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा॥३४॥ कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नराः॥ आद्यंतवंतो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः॥३५॥ नूनं मे भगवान्प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा॥ निर्वेदोऽयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः॥३६॥

मूत्रसे पूर्ण नरकरूप कांतको मेरे विना कौन स्त्री सेवैगी?॥३२॥ इस विदेहराजाके नगरमें एक मैंही अति मूढ हूं, क्योंकि जो मैं असाध्वी साक्षात् अच्युत परमात्माको छोड तुच्छ कामभोगकी इच्छा करती हूं,॥३३॥ यह ईश्वरही सब देहधारियोका आत्मा और सुहृद है, परमप्रियनाथ है, क्याकि अपने देहको देकर दूसरेको मोल लेलेता है, इसलिये अब उसीसे लक्ष्मीके समान रमण करूंगी॥३४॥ विषय और कामके दाता मनुष्य और देवता यह सब उत्पत्ति मरण संयुक्त हैं, कालसे ग्रसे हैं, वह स्त्रीकी कामना क्या करैंगे॥३५॥ अब अपने भाग्यकी सराहना

करती है मुझे जान पड़ता है कि, निश्चय मुझपर भगवान विष्णु किसी कर्मसे प्रसन्न हुये हैं, जिससे दुष्ट आशासंयुक्त मुझे सुखदायक ऐसा वैराग्य उत्पन्न हुआ॥३६॥ कदाचित् कहो कि, धनकी प्राप्ति न हुई उसका खेद हुआ, विष्णु क्या प्रसन्न हुये! तो कहते हैं कि, मंदभागिनीको ऐसे क्लेश वैराग्यके कारण नहीं होते, क्योकि इसीप्रकार और भी पहले दिन होगयेथे जब धनकी प्राप्ति न हुईथी, न कोई पुरुष आयाथा, आज मुझे क्लेशसे वह वैराग्य हुआ है, जिस वैराग्यसे यह पुरुष गृहादिक बंधन छोड़कर शान्तिको प्राप्त होता है॥३७॥ ईश्वरने मेरा यह बड़ा उपकार किया है, इस उपकारको मैंने माथेपर चढ़ा लिया और नीच लोगोंके योग्य दुष्ट आशाओंको त्याग मैंउन्हीं जगदीशकी शरण लेतीहूं॥३८॥ अब मैं

मैवं स्युर्मंदभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः॥ येनानुबंधं निर्हृत्य पुरुषः शममृच्छति॥३७॥ तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसंगताः॥ त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम्॥३८॥ संतुष्टा श्रद्दधत्येतद्यथालाभेन जीवती॥ विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै॥३९॥ संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम्॥ ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः॥४०॥ आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात्॥ अप्रमत्त इदं पश्येद्ग्रस्तं कालाहिना जगत्॥४१॥ ब्राह्मण उवाच॥ एवं व्यवसितमतिर्दुराशां कांततर्षजाम्॥ छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा॥४२॥

संतुष्ट हो परमेश्वरमें श्रद्धा करती यथालाभसे जीविका करती, निश्चयसे आत्माकोही रमणकर आनंदसे विहार करूंगी॥३९॥ जो पुरुष संसारके कुएँमें पड़ा है, विषयोंसे अंधदृष्टि है, कालस्वरूप से ग्रस रहा है, ऐसे आत्माकी रक्षा करनेको इस आत्मस्वरूप भगवान् विना और कौन समर्थ है॥४०॥ जब सबसे यह आत्मा विरक्त हुआ तब अपनी आपही रक्षा करनेको सावधान हुआ, इस जगत्को जो कि, कालस्वरूप से ग्रसित है, अप्रमत्त होकर देखे॥४१॥ अवधूत बोले कि, हे महाराज! इसभाँति निश्चय मतिसे धन और विषयभोगकी आशा छोड़, शान्तिको प्राप्त हो

वह वेश्या शय्यापर सोगई॥४२॥ इसमें मैंने फलितार्थ इतना लिया है कि, आशा परमदुःखरूप है, आशाको छोड़ बैठनाही परमसुख है, जैसे पिंगला कांतकी आशा छोड़ सुखसे सोई, साधुओंको संग्रह करना उचित नहीं है, इससे दुःख होता है (१७)

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॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धवसंवादे पिंगलोपगीतेऽष्टमोऽध्यायः॥८॥ दोहा—इस नवमें अध्यायमें कुररीसों उपदेश॥ जो पायो सो कहतहौ, सुनहु कृपालु नरेश॥१॥ अवधूतजी बोले कि, हे यदु! अब कुरर पक्षीसे जो मैंने सीखा है, सो कहते हैं, मनुष्योंको जो जो वस्तु प्रिय हैं सो सो मुझे दुःखदायी हैं, यह जानकर जो पुरुष संग्रहको छोड़े वह अनंत सुखको प्राप्त होगा॥१॥ यहाँ एक दृष्टान्त कहते हैं

आशा हि प्ररमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्॥ यथा संछिद्य कांताशां सुखं सुष्वाप पिंगला॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महा० एकाद० अष्टमोऽध्यायः॥८॥ ब्राह्मण उवाच॥ परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्॥ अनंतं सुखमाप्नोति तद्विद्वान्यस्त्वकिंचनः॥१॥ सामिषं कुररं जघ्नुर्बलिनो ये निरामिषाः॥ तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत॥२॥ न मे मानावमानौ स्तो न चिंता गेहपुत्रिणाम्॥ आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवत्॥३॥

एक कुरर पक्षीने माँस पाया, तब उससे बलवंत माँसरहित और पक्षी आये, सो उसको मारनेलगे, तब इसने वह माँस डाल दिया, तब यह उसे छोड़ माँसको चिपट गये यह छूटकर अत्यन्त सुखी हुआ, मुनिजनोंको चाहिये कि, संसारके व्यवहारोंको माँसकी नाईं परित्याग करदें (१८)॥२॥ अब बालककी सीख कहते हैं कि, हे राजन्! न तो मुझे मान अपमानका सुख दुःख है, न घरकी चिंता है, न पुत्रोंकी चिन्ता है, एक

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दृष्टान्त—एक बाबाजीने महाकष्टसे पचीस अशरफी संग्रह करीं, जब तब निकाल चुटियामें धरा करते थे, एक दिन किसीने देखलीं, सो बाबाजीसे आनकर बोला महाराज! आपका आज मेरे यहाँ निमत्रण है, बाबाजी बोले अच्छा, तब वह घर लिवा लेगया और इतना हलुवा पूरी खिलाया कि, बाबाजीसे उठा न गया, तब उसने खाट विछादी और अपनी स्त्रीसे कहा कि, इनके चरण खूब दाबना और मैं जाता, यह तो सेवा करने लगी और वह पुरुष थोडी देरमें व्याकुलतासे घरमें आय आलेमे ढूंढने लगा, स्त्रीने कहा कि, क्या ढूंढते हो? तब उसने कहा कि, यहाँ पचीस अशरफी रक्खी थीं सो कहां गई? अब बाबाजी सकुचाये, वह स्त्रीको मारनेलगा कि, तैंने बाबाजीको देदीहोगी बाबाजी बोले हमारे कपडे देखलो, दो चार आदमी इकट्ठे होगये, तब इसने बाबाजीकी चुटिया देखी उसमेंसे अशरफी निकली बाबाजी वडे लज्जित हुये, धनका धन गँवाया, चोरके चोर हुये, जब बाबाजी चले तो इसने हाथ जोडकर कहा कि, महाराज! फिर भी दर्शन देना, तब बाबाजी बोले कि, पचीश और करलूंगा तब आऊँगा।

आत्माहीके संग क्रीड़ा करता यहाँ फिरता हूं जैसे बालक चिन्तासे छूटकर आनन्दमें मग्न होते हैं॥३॥ हे राजन्! दो मनुष्यही चिन्तारहित हो परमानन्दमें मग्न होते हैं एक तो उद्यमसे रहित अज्ञ बालक दूसरा गुणरहित ईश्वरको प्राप्त होनेवाला

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(१९)॥४॥ कुमारीसे जो विद्या सीखी है, सो कहते हैं, कहीं एक कन्या थी उसके भाई बन्धु पिता कहीं गयेथे इसके पीछे कन्याको बिदा करानेके लिये घर पाहुने आये, तब उनका आतिथ्यभाव उसने आपही किया॥५॥ हे राजन्! कन्या उनके भोजन करानेके लिये एकान्तमें बैठकर धान कूटनेलगी, तब

द्वावेव चिंतयामुक्तौ परमानंद आप्लुतौ॥ यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः॥४॥ क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान्गृहमागतान्॥ स्वयं तानर्हयामास क्वापि यातेषु बंधुषु॥५॥ तेषामभ्यवहारार्थं शालीन्रहसि पार्थिव॥ अवघ्नंत्याः प्रकोष्ठस्थाश्चक्रुः शंखाः स्वनं महत्॥६॥ सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः॥ बभंजैकैकशः शंखान्द्वौद्वौपाण्योरशेषयत्॥७॥ उभयोरप्यभूद्धोषो ह्यवघ्नंत्याः स्म शंखयोः॥ तत्राप्येकं निरभिददेकस्मान्नाभवद्धनिः॥८॥ अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिंदम्॥ लोकाननुचरन्नेताल्ँलोकतत्त्वविवित्सया॥९॥ वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्वयोरपि॥ एक एव चरेत्तस्मात्कुमार्या इव कंकणः॥१०॥

उसकी चूडियोंका बडा शब्द होनेलगा॥६॥ वह कन्या आप धान कूटना निंदित दरिद्रका कर्म जान क्रमसे एक एक चूड़ी उतारने लगी केवल हाथमें दो दो चूड़ी रक्खीं॥७॥ परन्तु धान कूटनेमें दो दो चूडियों का भी शब्द होनेलगा जब उसने उनमेंसे भी एक एक उतारदी तब एक एक मेंसे शब्द न हुआ॥८॥ हे शत्रुनाशक! लोकोंको तत्त्व जाननेकी इच्छासे सर्वत्र फिरते मैंने एकदिन कुमारी इसप्रकार धान कूटती देखी तब यह उपदेश उससे सीखा॥९॥ बहुतोंका जहाँ वास होय वहाँ अवश्य कलह होता है, जो दो होयँ तो आपसमें बातैंतो भी करैंइसलिये अकेला ही

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**शंका—**उद्धवजीसे श्रीकृष्णने कहा था कि बालकोंके मनमें चिन्ता नहीं रहतीं इसमें हमको यह शंका है कि, जो बालकोंको चिन्ता न होती तो जन्महीसे क्यों रोते हैं, जिससमय माताके उदरसे पृथ्वीपर गिरते हैं उसी कालसे राति दिन रोते हैं, जो प्राणी चिन्तासे रहित है उनको रोनेसे क्या प्रयोजन? और बालकका तो जबतक बालपन रहता है, तबतक रोते हैं।

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**उत्तर—**ज्ञानकी वार्त्तामें सज्जन लोग बालकको बालक नहीं कहते पंडित लोग बालक उसको कहते हैं कि, जो प्राणी संसारकी तथा अपने कुलकी लाजको तथा मयको त्यागदे इसप्रकार पण्डितोंके वचनके प्रमाणसे कृष्णचन्द्र भी उसी बालकको कहते हैं कि, चिन्ता नहीं रहती, जन्मलिये बालकको नहीं कहते।

विचरण करै, जैसे कुमारीका कंकण (२०)॥१०॥ अब बाण बनानेवालेसे जो सीखा है सो कहते हैं, मनको ईश्वरमें स्थिरकर प्राणोंको वशकर आसन जीतै, वैराग्यके अभ्याससे मन स्थिरकर सावधान रहै॥११॥ गुण और तिनके कार्य रहित यह मन परमानन्दरूप भगवान् विषे जब स्थान पावै, तब शनैःशनैः कर्मवासना छोडै जब इसको सतोगुण बढै, तब रजोगुण, तमोगुणको दूर करके ब्रह्ममें लीन होय. तब ब्रह्मविना और कुछ दृष्टिमें नहीं आता॥१२॥ इस प्रकार जब आत्मासे चित्त मिलजाय, तब बाहर भीतरका भेद नहीं रहता, सब एकरूपसे दीखते हैं, जैसे बाण बनानेवालेका चित्त बाण बनानेमें ऐसा लगाथा कि, निकट होकर सेनासमेत राजा चलागया परन्तु उसने न जाना, ऐसेही साधुओंको चाहिये

मन एकत्र संयुंज्याज्जितश्वासो जितासनः॥ वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतंद्रितः॥११॥ यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेतच्छनैःशनैर्मुंचति कर्मरेणून्॥ सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च विधूय निर्वाणमुपैत्यनिंधनम्॥१२॥ तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो न वेद किंचिद्बहिरंतरं वा॥ यथेषुकारो नृपतिं व्रजंतमिषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे॥१३॥ एकचार्यनिकेतः स्यादप्रमत्तो गुहाशयः॥ अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरेकोऽल्पभाषणः॥१४॥ गृहारंभोहि दुःखाय विफलश्च ध्रुवात्मनः॥ सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते॥१५॥ एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया॥ संहृत्य कालकलया कल्पांत इदमीश्वरः॥१६॥

कि, ईश्वरमें ऐसा मन लगावें जो और कुछ सुधि न रहे (२१)॥१३॥ अब सर्पसे जो सीखा है सो कहते हैं जैसा सर्प सब लोकोंसे डरताहुआ इकलाही रहता है, एकही ठौर घर बनाकर नहीं रहता सदा सावधान रहता है, एकान्तहीमें रहता है, दूसरेकी सहायता न चाहे अपनी गति दूसरे से छिपाये रक्खैहै, और विष निर्विष जानने में नहीं आता ऐसा रहता है, थोड़ा बोलता है, इसीप्रकार मुनियोंको रहना चाहिये॥१४॥ यह देह अनित्य है इसके लिये घर न कीजे घर दुःखका रूप है और फल कुछ नहीं है, जैसे साँप परायेघरमें प्रविष्ट होकर सुखसे बैठे वैसे, परन्तु आप घर न करै॥१५॥ एक नारायण देव ईश्वर आप इस विश्वको अपनी माया से सृजते हैं, फिर प्रलयमें कालशक्तिसे संहार करके आपही रखते हैं॥१६॥

तब एक अद्वितीय आत्मा आधार सबोंका आश्रयहो आपही एक रहता है, वे अपने इस समतारूप कालसे सतोगुण आदि शक्ति मायामें लीन करता है वही आदिपुरुष माया और पुरुषके ईश्वर हैं॥१७॥ ब्रह्मादिक और मुक्त पुरुषोंके पाने योग्य हैं, मोक्षके रूप केवल अनुभव आनंदके पात्र निरुपाधि अनन्त हैं॥१८॥ हे शत्रुनाशक! जब सृष्टि उत्पन्न करते हैं, तब केवल अपने प्रभावसे त्रिगुण अपनी मायाको क्षोभ उपजाय उस मायासे पहले सूत्ररूप महत्तत्त्व उपजाते हैं॥१९॥ उससे त्रिगुणरूप विश्व अहंकार द्वारा होता है, जिस महत्तत्त्वमें यह विश्व बँधा है, जिस प्राणसूत्रसे पुरुष संसारको प्राप्त होते हैं (२२)॥२०॥ अब मकरीकी शिक्षाका दृष्टान्त कहते हैं, जैसे मकरी अपने हृदयसे उगलकर

एक एवाद्वितीयोऽभूदात्माधारोऽखिलाश्रयः॥ कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु॥ सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः॥१७॥ परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः॥ केवलानुभवानंदसंदोहो निरुपाधिकः॥१८॥ केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम्॥ संक्षोभयन्सृजत्यादौ तथा सूत्रमरिंदम॥१९॥ तामाहुस्त्रिगुणव्यक्तिं सृजंतीं विश्वतोमुखम्॥ यस्मिन्प्रोतमिदं विश्वं येन संसरते पुमान्॥२०॥ यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णांसंतत्य वक्रतः॥ तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः॥२१॥ यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया॥ स्नेहाद्वेषाद्भयाद्वापि याति तत्तत्सरूपताम्॥२२॥ कीटः पेशस्कृतं ध्यायन्कुड्यांतेन प्रवेशितः॥ याति तत्सात्मतां राजन्पूर्वरूपमसंत्यजन्॥२३॥ एवं गुरुभ्य एतेभ्य ऐषा मे शिक्षिता मतिः॥स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं शृणु मे वदतः प्रभो॥२४॥

तागा मुखसे निकाल फैलाय उससे क्रीड़ाकर फिर निगलजाती है, इसीप्रकार ईश्वर स्वयं इस जगत्कोबनाय फिर संहार करतेहैं॥२१॥ यह जीव स्नेहसे द्वेषसे अथवा भयसे बुद्धि कर जहाँ जहाँ एकाग्र मन धारण करता है और उसी उसी रूपको प्राप्त होता है, इसलिये जो ईश्वरका ध्यान करैतो ईश्वररूप होवे इसमें क्या आश्चर्य है (२३)॥२२॥ हे राजन्! जैसे भृंगीने भींतमें रक्खा कीट भृंगीका ध्यान करते २ उसी देहसे उस रूपको प्राप्त करता है (२४)॥२३॥ इसप्रकार इतने गुरुओंसे मैंने यह मति सीखी परन्तु हे राजन्! एक बुद्धि अपनी

देहसे सीखी है, सो मैं कहता हूं तुम सुनो॥२४॥ देह मेरा गुरु है, क्योंकि इस देहसे मुझे वैराग्य और विवेक उत्पन्न हुआ है, यह देह पीड़ा सहित सदा जन्म मरणको धारण करता है, इस देहसे यथार्थ तत्त्वोंका विचार करनेसे मुझे वैराग्य हुआ है, तो भी मैं इसपर प्रीति नहीं करता, क्योंकि यह कुत्ते और स्यारका भक्ष्य है यह निश्चय कर सर्व संग रहित हो विचरता हूं॥२५॥ जिस देहको प्रसन्न करनेकी इच्छासे स्त्री, पुत्र, धन, पशु, दास, गृह, बंधुके समूहोंका पोषण करते हैं और बहुत कष्टसे धन संचय करते हैं; इतनेपर भी अंतमें यह देह आपही नाश होजाता है, फिर देहके जानेपर भी दुःख नहीं जाता, दूसरे देहका कर्मबीज उपजाये जाताहै, उस कर्मसे फिर दुःखरूप देह इसप्रकार उत्पन्न होजाता है, जिस

देह गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुर्बिभ्रत्स्म सत्त्वनिधनं सततात्युदर्कम्॥ तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसंगः॥२५॥ जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षिषया वितन्वन्॥ स्वांते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः सदेहः सृष्ट्वाऽस्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा॥२६॥ जिह्वैकतोमुमपकर्षति कर्हि तर्षा शिश्नोन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्॥ घ्राणोन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनंति॥२७॥ सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्॥ तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥ लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं वहुसंभवांते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः॥ तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यवान्निःश्रेयसायविषयः खलु सर्वतः स्यात्॥२९॥

प्रकार रूख अपना बीज छोड़ता है, उससे फिर रूख उत्पन्न होजाताहै॥२६॥ और इस देहको एक ओरसे जिह्वा रसके लिये खैंचतीहै, शिश्न स्त्रीसंगके लिये खैंचता है, त्वगिन्द्रिय एक ओरसे स्पर्शके लिये खैंचै है, श्रवण शब्दके लिये खैंचते हैं और प्राण गंधके लिये खैंचते हैं चंचलदृष्टि रूपके लिये खैंचती है, कहीं कहीं कर्मशक्ति अपने विषयके लिये खैंचती हैं, जैसे बहुत सौत गृहस्थको लूटती हैं, इसीप्रकार यह सब इन्द्रियें देहको लूटती है॥२७॥ हे देव!अपनी शक्ति मायासे वृक्ष, सर्प, पशु, पक्षी, डांस, मछरी अनेक प्रकारके शरीरोंको उपजाकर ब्रह्मा संतुष्टहृदय न हुए परंतु ब्रह्मज्ञानकी बुद्धि रखनेवाले मनुष्योंकी देह रचकर आनन्दको प्राप्त हुए॥२८॥ उससे यह अतिदुर्लभ मनुष्यदेह अनेक जन्मों पीछे पाया है

पुरुषार्थका दाता है, पर अनित्य है, यह जानकर शीघ्र मोक्षके लिये जबलों मृत्यु न हो शीघ्र यत्न करैक्योंकि विषय तो इसको सब योनिमें होंगे॥२९॥ इसप्रकार जब मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ और ज्ञानका प्रकाश हुआ, तब आत्मनिष्ठ हुआ, इसलिये संग और अहंकार छोड़कर मैं पृथ्वीपर फिरता हूं॥३०॥ यदि कहो कि, तुमने बहुत गुरु क्यों किये? गुरु तो एक करना चाहिये तो कहते हैं कि एक गुरुसे अति निश्चल ज्ञान विस्तारको प्राप्त नहीं होता है, इसलिये अद्वितीय ब्रह्मको ऋषि निश्चल बहुत भाँतिसे कहते हैं, कोई कहते हैं वह प्रपंचरहित है, कोई कहते हैं सप्रपंच है, जिससे भ्रम उत्पन्न होता है, सो भ्रम इन गुरुओंसे निवृत्त होजाता है, परमगुरु, मुख्य ज्ञानका देनेवाला एकही है, परन्तु ज्ञानके लिये पीछे

एवं संजातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि॥ विचरामि महीमेतां मुक्तसंगोऽनहंकृतिः॥३०॥ न ह्यकस्माद्गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम्॥ ब्रह्मैतदद्वितीयं हि गीयते बहुधर्षिभिः॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामंत्र्य गभीरधीः॥ वंदितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम्॥३२॥ अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः॥ सर्वसंगविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदुद्धव संवादे नवमोऽध्यायः॥९॥

अपनी बुद्धिसे उपदेशके अनुकूल दृष्टान्त लेनेसे वह ज्ञान दृढ़ होजाता है॥३१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! इतना वृत्तान्त कह यदुकी आज्ञाले और गंभीर बुद्धिवाले राजासे प्रणामको प्राप्त हो उसको स्वीकार कर प्रसन्न हो अवधूत अपनी इच्छासे जैसे आये थे वैसेही चलेगये॥३२॥ यह अवधूत दत्तात्रेय हैं, इनकेही वचन सुन हमारे बडोंके भी बडे राजा यदु सब संग छोड़ समचित्त होगये, यह सब श्रीभगवाम्ने उद्धवजीसे कहा और कपोत, मत्स्य, मृग, कुमारी, हाथी, सर्प, पतंग, कुरर, यह आठ तो त्यागके लिये गुरु किये, भ्रमर, मधुहा, पिंगला यह तीनों त्याज्य और ग्राह्य अर्थके लिये गुरु किये॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां अवधूतोपाख्याने नवमोऽध्यायः॥९॥

दोहा—दशवें तनु सम्बन्धसे, है सिगरो संसार॥ तत्त्वज्ञानसे होत है, साधन और विचार॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि हे उद्धव! मेरे कहे स्वधर्मोमें सावधान होकर मेरा आश्रय करैऔर वर्ण आश्रम कुलका आचरण निष्काम होकर करै॥१॥ जब अंतःकरण शुद्ध होजाय तब पुरुषको उचित हैकि, विषयोंमें लगेहुए प्राणी जो विषयोंको निश्चल मानकर उद्योग करते हैं, उनके कार्योंके फल विपरीत होते हैं, उनकोविचारता रहै इससे निष्कामता प्राप्त होती है॥२॥ जो विषय इन्द्रियोंसे जाने जाते हैं, वह सदा नहीं रहते इसीसे वह अनेक प्रकारके प्रतीत होते हैं और जो अनेक प्रकारके हैं, वह अध्रुव हैं, जिसप्रकार मनसे उत्पन्न हुए स्वप्न और मनोरथ अनेक होनेसे चल हैं, ऐसा अनुमान करनेसे निष्कामता प्राप्त होती है॥३॥ निष्काम कर्म करैसकामका त्याग करैमुझमें तत्पर हों, आत्माके विचार में रहै, कर्मकी विधिमें

श्रीभगवानुवाच॥ मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः॥ वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्॥१॥ अन्वीक्षत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्॥ गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारंभविपर्ययम्॥२॥ सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः॥ नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः॥३॥ निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं भत्परस्त्यजेत्॥ जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम्॥४॥ यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परः क्वचित्॥ मदभिज्ञं गुरुं शांतमुपासीत मदात्मकम्॥५॥ अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः॥असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्॥६॥ जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु॥ उदासीनः समं पश्यन्त्सवष्वर्थमिवात्मनः॥७॥

आदर करै॥४॥ जो मेरे विषे तत्पर होकर आदरपूर्वक सयमों को सेवैऔर जब सामर्थ्य होय तो शौचादिक नियमका सेवन करैइससे भी विशेष धर्म यह है कि, सहनशील हो, मेरे स्वरूपको जानता हो शांतहो सो मेराही रूप है ऐसे गुरुकी सेवा करै॥५॥ अभिमान न रक्खे आलस्य न करै असहनता न करै, स्त्रीपुत्रादिकमें ममता न करै, गुरुओं सुहृदता रक्खै, कर्ममें व्यग्रचित्त न करै, परमार्थ जाननेकी इच्छा करै, किसीकी निन्दा न करै, व्यर्थ बातें न करै॥६॥ स्त्री, सम्पत्ति, घर, खेत, स्वजन, धन इत्यादि सबसे उदासीन रहै, क्योंकि सबमें एकही आत्मा है इससे अपनीही भाँति सबोंमें सुखादिक समान देखै॥७॥

यह आत्मा स्थूल सूक्ष्म देहसे भिन्न है, सबका द्रष्टा है, व्यापक है, स्वयं ज्ञानवान् है, आकाशवत् है, जैसे अग्नि दाह्य काष्ठके मध्यही रहता है, परन्तु काष्ठसे भिन्न है, प्रकाशक है और काष्टको दाहकर्ता है॥८॥ जैसे काष्टमें प्रविष्ट अग्नि काष्टके संगसे उत्पत्ति, नाश, अल्पता, महत्त्व, नानात्व गुणको धारण करती है और जैसे यह आत्मा भी इस देहके संगसे देहके गुणोंको धारण करता है, पर देहसे आत्मा भिन्न और अमर है॥९॥ यदि कोई कहै कि जो देहसे आत्मा भिन्न है, तो देहके गुण क्यों धारण करता है? तो उत्तरमें इसके कहते हैं कि, ईश्वरके अधीन मायाके गुणसे पुरुषकाय सूक्ष्म स्थूल शरीर उपजायाहुआ है, जिस देहमें अहं यह अभिमान करनेसे संसारमें गिरता है, जिस देहको मेरा यह संसार काटनेको आत्मविद्या उपाय है॥१०॥ इसलिये आपहीमें स्थित देहके भिन्न आत्मा ज्ञानकी इच्छासे आत्मामें चित्त मिलाय क्रमसे स्थूल सूक्ष्म

विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक्॥ यथाग्निर्दारुणो दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः॥८॥ निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गणान्॥ अंतःप्रविष्ट आधत्ते एव देहगुणान्परः॥९॥ योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरषस्य हि॥ संसारस्तन्निबंधोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः॥१०॥ तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवलं परम्॥ संगम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम्॥११॥ आचार्योऽरणिराद्यः स्यादंतेवास्युत्तरारणिः॥ तत्संधानं प्रवचनं विद्यासंधिः सुखावहः॥१२॥ वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धिर्धुनोति मायां गुणसंप्रसूताम्॥ गुणांश्च संदह्ययदात्ममेतत्स्वयं च शाम्यत्यसमिद्यथाग्निः॥१३॥

देहादिकोंमें आत्मबुद्धिको छोडे॥११॥ यह ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है? सो कहते हैं, आचार्य रूप नीचेकी अरणी शिष्यरूप ऊपरकी अरणी तथा उपदेशरूप मंथनका काष्ठ इनसे ब्रह्मविद्यारूप परमसुखदायक अग्नि उत्पन्न होती है॥१२॥ जिस समय बुद्धिमान् गुरुसे चतुर बुद्धिवाला शिष्य यह विद्या पाता है, तब यह विद्या गुणोंका कार्यरूप संसारकी ओर जिनसे निर्मित होकर यह जगत् जीवके संसारका निमित्तरूप होता है, उन गुणोंको भस्मकर काष्ठरहित अग्निके समान आप भी शांत होजाता है, इसीप्रकार कार्य, कारण और विद्याकी एकता होनेसे जीव परमानन्दरूप होता है॥१३॥

श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्भव! आत्मा स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप नित्य और एक है इसमें कर्त्ता भोक्ता धर्म देवकी उपाधिसे प्राप्त होते हैं, आत्मा के अतिरिक्त और पदार्थ मायारचित हैं, इससे विरक्त हो पुरुष मुक्तिको प्राप्त होता है, परन्तु मीमांसक कहते हैं कि, मैं हूँ ऐसा प्रतीत करनेवाला आत्मा प्रत्येक शरीरमें भिन्न है वही कर्म कर्त्ता और सुख दुःखका भोक्ता है इसका स्वरूपभूत कोई दूसरा निर्विकार परमात्मा नहीं है, भोगके स्थान रूप लोक, भोगका काल भोगरूप कर्मोंका बतानेवाला वेद भोगके साधन और भोग भोगनेवाला आत्मा यह अनित्य होवें तो वैराग्य होना संभव है परन्तु वह सब नित्य हैं, इससे वैराग्य होना संभव नहीं, भोग्य पदार्थ बीचमें नष्ट होजाते हैं अथवा मायामय होवें, तोभी वैराग्य होना संभव है॥१४॥ माला, चन्दन, आदि भोगोंकी स्थिति प्रवाहरूपसे नित्य है और यथार्थ है, इससे वैराग्य होना असंभव है, क्योंकि जिस दशामें यह संसार देखा जाता है, उस दशामें पहले भी था इसकारण जगत्काकर्त्ता कोई ईश्वर नहीं आत्मा स्वयं नित्य ज्ञानमय नहीं है,

अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः॥ नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम्॥१४॥ मन्यसे सर्व भावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा॥ तत्तदाकृतिभेदेन जायते विद्यते च धीः॥१५॥ एवमप्यंग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः॥ कालावयवतः संति भावा जन्मादयोऽसकृत्॥१६॥ अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातंत्र्यं च लक्ष्यते॥ भोक्तुश्च दुःखसुखयोः कोन्वर्थो विवशे भजेत्॥१७॥

उसमें अनेक ज्ञानका विपर्यास होता है, एक क्षणमें घटका ज्ञान नष्ट होकर पटका ज्ञान होता है, इस प्रकार अनेक ज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं, पूर्व ज्ञानसे पृथक होजाता है, इससे आत्मा नित्य ज्ञानमय नहीं सो कहते हैं कि, ज्ञानका विपर्यास होनेसे क्या आत्मा अनित्य होजाता है? नहीं आशय यह है कि ज्ञानरूप विकार आत्मामें कुछ बाधा नहीं करसक्ता, मुक्तिमें आत्मा इंद्रियरहित है, इससे उसमें ज्ञानका परिणाम न होनेके कारण जड़ता होजायगी इसमें मुक्तिकी प्राप्ति होना पुरुषार्थ रूप नहीं प्रवृत्ति मार्गही इससे श्रेयस्कर है निवृत्ति नहीं॥१५॥ हे उद्भव! सत्य प्रवृत्ति मार्ग ऐसाही है, परन्तु आगे अनर्थका हेतु है, इन देहियोंको देहके संयोगसे संवत्सररूप कालसे जन्ममरणादि भाव वारम्वार होते हैं॥१६॥ तुम्हारे मतहीमें कर्मोंके कर्त्ताओंको और सुखदुःखके भोक्ताओंको पराधीनता देखी जाती है, इसलिये ऐसे परवशका जो भजन करता है,

वह क्या सिद्ध है? और जीव स्वतंत्र हो तो उसे दुष्टकर्म वा दुःखकी प्राप्ति संभव नहीं हो सकती॥१७॥ इस प्रकार इसलोकमें तो सुख कहीं नहीं और लोकोमें भी सुख नहीं सो कहते हैं, ईर्षा, निंदा, नाशहोनेसे स्वर्गादिकमें भी कर्मोंकी विधिके जाननेवाले विद्वान् अभिमानीको किंचित् सुख प्राप्त नहीं होता, उसीप्रकार मूर्खोको दुःख देखनेमें नहीं आता, जो कहते हैं कि, हम कर्ममें निपुण हैं, इससे सुखी हैं, यह उनका वृथा अहंकार है, इससे श्रेष्ठ कर्म करनेसे सुख मिलता है, यह नियम भी न रहा॥१८॥ और जो कदाचित् सुखदुःखकी प्राप्ति और विघात अर्थात् नाशको जानते हैं परन्तु इस उपायको वह भी नहीं जानते, जिससे साक्षात् मृत्यु न हो॥१९॥ क्योंकि जब मृत्यु अपने निकट है, तो अर्थ अथवा कामके प्राप्त होनेसे कौन सुखी होसक्ता है? जैसे अपराधीको मारने को लेजाते हैं, उससमय उस पुरुषको अर्थ कामादि सुख नहीं देते॥२०॥

न देहिनां सुखं किंचिद्विद्यते विदुषामपि॥ तथा च दुःखं मूढानां वृथाहंकरणं परम्॥१८॥ यदि प्राप्तिं विघातं च जानंति सुखदुःखयोः॥ तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा॥१९॥ कोन्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरंतिके॥ आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः॥२०॥ श्रुतं च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः॥ बह्वंतरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम्॥२१॥ अंतरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः॥ तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु॥२२॥ इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः॥ भुंजीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान्॥२३॥ स्वपुण्योपचिते शुभ्रेविमान उपगीयते॥ गंधर्वैर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक्॥२४॥

इस प्रकार जैसे यहाँ सुख नहीं ऐसेही परलोकमें भी नहीं है, स्वर्गादिकमें भी पराये सुखकी असहनता और ईर्षादिक रहती हैं, इससे यहाँके समान वहाँ भी दोष है, जैसे कृषीके सफल होनेमें अनेक विघ्न होते हैं ऐसेही यजनसे मिलनेवाले स्वर्गमें भी भूल चूकके अनेक विघ्न होते हैं॥२१॥ इतने पर विघ्नको निवारणकर जो धर्म अच्छी भांति करै, उन धर्मोंसे प्राप्त होनेवाले स्थानोंमें जैसे यह प्राणी जाते हैं, सो सुनो॥२२॥ इसलोकमें देवताओंको यज्ञसे संतुष्टकर यज्ञके कर्त्ता स्वर्गमें जाते हैं और देवताओंके समान अपने उपार्जन किये हुए दिव्यभोग करते हैं॥२३॥ और वहाँअपने पुण्यसे प्राप्तहुए उत्तम विमानमें बैठ सुन्दर वेष धरे, अप्सराओंके विषे विहार करते फिरते हैं, गंधर्व उनकी बडाई करते हैं॥२४॥

किंकिणि अर्थात् घुँघुँरुओंके समूहसे शोभित और मनकी रुचिके अनुसार चलनेवाले विमानमें बैठ सुखको प्राप्त हो देवताओंके बागोंमें देवस्त्रियोंके संग विहार करते फिरते हैं, परन्तु आत्मपातको नहीं जानते हैं

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॥२५॥ स्वर्गमें वहाँतक सुख करते हैं, जहाँतक पुण्य पूर्ण हो जब पुण्य क्षीण होजाता है, तब कालसे अनचाहत नीचे डालदिये जाते हैं॥२६॥ यह फल जो सकाम कर्म करता है, उसको है, तहाँ भी जो निषिद्ध प्रकार न करैजब हो, और जो असत् संग करैतो अधर्मी हो, जितेन्द्रिय न हो, स्त्री लंपट हो, कामहीमें चित्त हो, प्राणियोंको दुःख देताहो

स्त्रीभिः कामगयानेन किंकिणीजालमालिना॥ क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः॥२५॥ तावत्प्रमोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते॥ क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कालचालितः॥२६॥ यद्यधर्मरतः संगादसतां वाऽजितेंद्रियः॥ कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भृतविहिंसकः॥२७॥ पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्॥ नरकानवशो जंतुर्गत्वा यात्युल्वणं तमः॥२८॥ कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः॥ देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः॥२९॥ लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्॥ ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः॥३०॥

लोभीहो, कृपण हो॥२७॥ और जो अविधिसे पशुओंको मारकर भूत प्रेतगणको पूजते हैं, ऐसे जीव परवश हो नरकमें पडे स्थावरके भावको प्राप्त होतेहैं॥२८॥ उन कर्मोंमें दुःखही फल है, ऐसे कर्मोंको देहसे करते मरे पीछे फिर उन कर्मोंसे दुःख भोगकर वैसाही देह धरते हैं,इसलिये जो मरेगा उसको क्या सुख है॥२९॥ यद्यपि लोकपाल कल्पपर्यन्त जीते हैं, परन्तु तो भी उनको मुझ कालरूपसे भय रहता है

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शंका—श्रीकृष्ण भगवान्ने उद्धवसे कहा था कि, ईर्षा, निन्दा आदि लेकर जो खोटे कर्म है, उन खोटे कर्मोंसे वेदोंके वचन नष्ट होगये, इसमें यह शंका होती है कि, ईर्षाआदि जो बुरे कर्म सो सत्ययुग त्रेता, द्वापरमें भी थे?

** उत्तर**—शास्त्रमें लिखा है कि, भगवान्‌की देहमें धर्म और अधर्म दोनों रहते हैं, सत्ययुगमें अथवा और युगोंमें थोडा बुराकर्म भगवान्कीदेहमें रहता है और किसी युगमें अधिक रहता है, क्योंकि युगकी मर्यादा पालन करनेके लिये दूसरी बात मत जानना, इसलिये कृष्णचन्द्रने उद्धवजीसे कहाथा।

और कल्पपर्यंत जीनेवाले लोकपालोंको भी वह भय रहता है, और मेरे भयसे यह सब देवता अपना अपना काम करते हैं, ब्रह्माकी आयु दोही परार्द्ध है, परन्तु उसे भी मौतका डर है॥३०॥ कर्म कुछ ईश्वर नहीं, ईश्वर नियंता फलका दाता मैं हूं परन्तु मुझसे और उन कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं कर्मका सम्बन्ध इस देहसे है, सो प्रकार बताते हैं. प्रथम इन्द्रिय कर्मोंसे सृजी हैं, गुण—सतोगुण, राजोगुण, तमोगुण, यह इन्द्रियों को सृजते हैं, आत्मा कुछ नहीं करता है, पर यह जीव तो इन्द्रियोंके संगसे अहंकर्त्ताअभिमान धारण करता है, इसलिये कर्मोंके फल भोगता है॥३१॥ यदि कहो कि, यह आत्मा अनेक क्यों दिखाई देते हैं, आत्मा तो एकही सुना है, तो कहते हैं कि, इन गुणोंके धर्मसे जबतक अहंभाव है तबतक अनेक प्रतीत होते हैं और जब यह मायाके गुण छूट जायँगे, तब आत्मा एकही दिखाई देगा और जहांतक उसे आत्मा अनेक

गुणाः सृजंति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्॥ जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुंक्ते कर्मफलान्यसौ॥३१॥ यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः॥ नानात्वमात्मनो यावत्पारतंत्र्यं तदैव हि॥३२॥ यावदस्याऽस्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्॥ य एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यंति शुचार्पिताः॥३३॥ काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धम एव च॥ इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति॥३४॥ उद्धव उवाच॥ गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः॥ गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो॥३५॥

लगते हैं, तभी लों पराधीन भी हैं॥३२॥ जबलों इसे पराधीनता है, तबलों ईश्वरका भय है, इसप्रकार प्रवृत्ति मार्गमें दोष है, इसका जो सेवन करते हैं, सो मोहमें पड़े शोकही युक्त हैं॥३३॥ काल, आत्मा, शास्त्र, लोक, स्वभाव, धर्म, यह नाम गुण तो सम्बन्ध से कहे, परन्तु गुणसम्बन्ध छूटनेपर यह मेरेही स्वरूप हैं सब मैं ही हूं, मायाके सम्बन्धसे अनेक रूप दीखते हैं, इससे निवृत्तिमार्गही उत्तम मुक्तिका कारण है॥३४॥ उद्धवजी बोले कि, हे भगवन्! यद्यपि यह आत्मा गुणोंसे मिला हुआ है, परन्तु तोभी गुणका कार्य सुख दुःख कर्मसे बद्ध नहीं है, इसलिये आकाशकी भाँति सर्वत्र व्यापक है और निर्लेप है, आवरणरहित तुम्हारे मतमें आत्मा एकही है, तो वह कैसे बंधनमें आताहै? कि, जिससे उसे मुक्तिकी अपेक्षा होतीहै

सो कहिये॥३५॥ और बँधनके पीछे किस प्रकारसे रहे, जब मुक्ति होजाय तब किस प्रकार रहै! सो कहो किस भाँति रहैकैसे आहारविहार करै, किस लक्षणसे जाना जाय? क्या भोजन करै? क्या छोड़ै? कहां सोवै? कैसे बैठे? कहां जाय? यह दोनों किन लक्षणोंसे दूसरोंके जाननेमें आवैसो कहो,॥३६॥ हे अच्युत! हे विदाम्बर! इसके उपरान्त मेरे मनमें एक और संदेह है कि, एकही आत्मा शरीरादिकोंके अनादि संबधके कारण अनादिकालसे बद्ध है, इस प्रकार निश्चय करना पड़ता है और इसभाँति निश्चयकर फिर उसको मोक्ष होजाता है इसप्रकार निश्चय करैतो मुक्ति उत्पन्न हुई मुक्ति होनेके कारण मुक्ति में अनित्यता आजाती है, इसलिये वह आत्मा निरंतर मुक्तही है ऐसा भी मानता पड़ता है तब एकके समयमेंही बद्धत्व और मुक्तत्व यह दोनो एक संग होने कैसे संभव होसकते हैं इस प्रश्नका उत्तर कृपापूर्वक दीजिये॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एका

कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः॥ किं भुंजीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा॥३६॥ एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर॥ नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रमः॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः॥१०॥ श्रीभगवानुवाच॥ बद्धोमुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः॥ गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बँधनम्॥१॥ शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया॥ स्वप्नो यथात्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी॥२॥ विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्॥ मोक्षबंधकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते॥॥३॥ एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते॥ बंधोऽस्याविद्ययाऽनादिविद्यया च तथेतरः॥४॥

दशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः॥१०॥ दोहा–इस ग्यारह अध्यामें, बद्ध मुक्तका ज्ञान। साधु संत अरु भक्तिके, लक्षण कहौं बखान॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धवजी! आत्मा बद्धमुक्त है यह कथन मेरे गुणसंबंध से है सत्य नहीं गुणका मूल माया है, मैं तो मायाका नियंताहूं इसलिये मुझे न बन्ध है न मोक्ष है॥१॥ हे उद्धव! मुझे मोह सुख दुःख देहको प्राप्त यह सब संसारके धर्म मायासे होते हैं, जैसे स्वप्नसे बुद्धिका विवर्त्त इसीप्रकार संसार है सत्य नहीं है॥२॥ हे उद्भव! एक विद्या दूसरी अविद्या यह दोनो मेरीमायासे रची हैं मेरी देहरूप शक्ति है अनादि देहधारियोंको मोक्ष और बंधन करती हैं॥३॥ हे महाबुद्धिमान् उद्भव! यह सब मेराही

एक अंश जीव है उसे अविद्यासे अनादि बंध है विद्या से मोक्ष है मुझे तो न बंधन है न मोक्ष है॥४॥ अब इसका भेद बताते हैं परस्पर आत्मा और परमात्मा विरुद्ध धर्म होकर एकही देहमें स्थित हैं, इनमें एक तो जीव ईश्वरका भेद, दूसरे जीवसे जीवका भेद यह दो भेद हैं एक शरीरमें स्थित जीव ईश्वरमें ईश्वर का धर्म आनंद और जीवका धर्म दुःख है एक नियंता ईश्वर एक जीव है देहाभिमान घरे बद्ध हैं इन दोनोंका भेद दृष्टान्तसे कहते हैं॥५॥ दोनों पक्षी हैं चैतन्यरूपसे समान हैं दोनों मित्र हैं, अपनी इच्छासे एक देहरूप वृक्षके ऊपर आन बैठे हैं, इनमें एक तो इस देहके फलको भोग करता है, दूसरा साक्षी हुआ देखता है,भोग नहीं करता, तो भी ज्ञानशक्तिसे अतिबलिष्ठ है, इस भाँति एकही रूपके दोनों विरुद्ध कर्म करते हैं॥६॥ जो परमात्मा ईश्वर साक्षी ज्ञाता है वह अपने स्वरूपको और जीवके स्वरूपको भी जानता है और जो जीवात्मा है

अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते॥ विरुद्धधर्मिणोस्ता स्थितयोरेकधार्मिणि॥५॥ सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे॥ एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नमन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान्॥६॥आत्मानमन्यं च स वेद विद्वानपिप्पलादो न तु पिप्पलादः॥ योऽविद्यया युक्स तु नित्यबद्धो विद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः॥७॥ देहस्थोपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थितः॥ अदेहस्थोपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग्यथा॥८॥इंद्रियैरिद्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च॥ गृह्यमाणेष्वहं कुर्यान्न विद्वान्यस्त्वविक्रियः॥९॥

सो न आपको जानते हैं न ईश्वरको जानते हैं वह अज्ञ हैं, इसलिये जो अविद्या से मिलाहैं, सो नित्य बद्ध है, जो विद्यासे संयुक्त है, सो नित्यमुक्त॥७॥ ज्ञानकी विलक्षणता कहकर स्थितिकी विलक्षणता कहते हैं वही पण्डित हैं जो अपने स्वरूप और परमात्माको जानते हैं, सो यद्यपि देहहीमें हैं परन्तु देहसे न्यारे हैं देहके धर्म उसे व्याप्त नहीं जैसे स्वप्नसे उठेको स्वप्नको देहके धर्म नहीं लगते जो अज्ञानी हैं सो यद्यपि वस्तुसे और देहसे अलगड़ी हैं परन्तु देहके अभिमान से देहमें स्थित हैं सुख दुःखको भोग करते हैं, जैसे स्वप्न के देहमें स्थित स्वप्रके सुख दुःख भोगते हैं॥८॥ और भी विलक्षणता कहते हैं यद्यपि इन्द्रिय अपने विषयोंको ग्रहण करती हैं परन्तु तोभी रागद्वेषादि रहित मुक्तपुरुषमें इन विषयोंको भोगता हूं ऐसे नहीं मानते हैं इसका कारण यही है कि विषयोंको जो इन्द्रिय स्वीकार करती हैं वह गुणोंके कार्यको गुणही ग्रहण करते हैं ज्ञानी

उससे आपको निर्लेप मानते हैं॥९॥ यह देह पूर्वकर्मके अधीन है, उस देहमें स्थित इन्द्रिय अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं तहाँ में कर्त्ताहूं, इस अभिमानसे यह आत्मा बँधजाता है, यह अज्ञ है, शयन, आसन, गमन, स्नान, दर्शन, स्पर्शन, आघ्राण, भोजन, श्रवण यह सब इन्द्रियोंके धर्म हैं, मेरे धर्म नहीं वृथा अभिमान करनेसे बँध जाते है॥१०॥ इसप्रकार वैराग्य और विवेक जिसे हो सो वह बद्ध नहीं होसक्ता, क्योंकि वह तो इन्द्रियोंको विषयभोग कराता है, कुछ आप नहीं करता, इसीलिये बंधनमें नहीं पडता॥११॥ यहाँदृष्टान्त देते हैं कि जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त है, पर सबसे निर्लेपहै जैसे सूर्य जलादिकोंमें प्रतिबिम्बित है परन्तु तोभी कम्परूप जलके धर्मसे भिन्न है, जैसे वायु सर्वत्र फिरती है पर तोभी

दैवाधीने शरीरेऽस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा॥ वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते॥१०॥ एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने॥ दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु॥११॥ न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान्॥प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः॥१२॥ वैशारद्येक्षयाऽसंगशितया छिन्नसंशयः॥ प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते॥१३॥ यस्य स्युर्वीतसंकल्पाः प्राणेंद्रियमनोधियाम्॥ वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोपि हि तद्गुणैः॥१४॥ यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किंचिद्यदृच्छया॥ अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः॥१५॥ न स्तुवीत न निंदेत कुर्वतः साध्वसाधु वा॥ वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः॥१६॥

निर्लेप है, इसीप्रकार आत्मा इस देहमें स्थित है और इन्द्रियोंके स्वभावसे उन उन विषयोंको ग्रहण करता है परन्तु तोभी उनसे भिन्न है॥१२॥ वैराग्यद्वारा तीक्ष्ण निर्मल ज्ञानसे सब संशय काट अनेक विधिके इस प्रपंचसे निवृत्त होवैंजैसे स्वप्नसे जाग स्वप्नके धर्मोसे निवृत्त होजाते हैं॥१३॥ जिसके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी वृत्ति संकल्प विकल्प रहित होगई हैं सो देहमें स्थित है तोभी देहके धर्मोंसे मुक्त है॥१४॥ जिसका देह स्वेच्छास दुर्जनसे पीडितहो वा किसीसे पूजितहो तो जिसको इसमें सुख दुःख न हो और कुछ विकार उत्पन्न न हो वही ज्ञानवान्है॥१५॥ बर्जन करै अथवा बुरा, अच्छा कहै वा खोटा, परन्तु आप कीसीकी निन्दा स्तुति न करै लौकिक व्यवहारसे अलग रहै, और

समान दृष्टि होकर रहै, वही मुनि और मुक्त है॥१६॥ कर्मादिकोंमें उदासीन रहै, न कुछ करै न कुछ विचारै, भला बुरा मनमें न धरै, एक आत्माहीसे रमता रहै, इस वृत्तिसे जडकीसी नांई मुनि लोग फिरा करते हैं॥१७॥मुक्त पुरुषके जो लक्षण हैं, वही मुमुक्षुके साधन हैं जो पुरुष वेदार्थमें निपुणहोवह प्रथम कहे साधनोंसे वेदमें निष्ठा रखकर ईश्वरका ध्यानादिक करैंतो उनका शास्त्र पढा हुआ जैसे बहुत

न कुर्यान्न वदेत्किंचिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा॥ आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः॥१७॥ शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि॥ श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः॥१८॥

दिनोंकी प्रसूता गौसे फिर दूध मिलना संभव न हो तो उसके दूधकी आशावाले पुरुषके श्रमका फल केवल श्रमही होता है, इसीप्रकार क्रिया न करनेसे शास्त्राभ्यास व्यर्थ हैं

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॥१८॥

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**शंका–**शास्त्रमें और वेदोंमें ऐसा लिखा है कि, गाय चाहै, व्याती हो चाहैन व्यतीहो चाहैव्यानेपरभी दूध न देतीहो, चाहै, लात मारती हो परन्तु गायको तो चारा, मोदक, जल,अन्न और अनेक प्रकारकी वस्तु खिलाकर उसकी सेवा करे और दश, मच्छर, मक्खी आदि अनेक कष्टोंसे उसकी रक्षा करना, दूध देय चाहैदूध न देय, गाय सदा कामधेनु और धर्मकी मूल है, इसका तो सेवनही करना उचित है, तो फिर उद्धवसे श्रीकृष्णने क्यों कहा कि, जो गाय दूध देना वदकर दे अथवा वाँझ हो, जो मनुष्य ऐसी गायका पालन पोषण करैगा वह दुःखसे वडा जो महादुःख है, उसको भोगेगा श्रीकृष्णके मुखका ऐसा वचन सुनके हमको अत्यन्त शंका होती है।

उत्तर–‘गां दुग्धदोहा यो ज्ञात्वा तामरक्षति कुर्वति। स नरो दुःखदुःख वै भुनक्तीति विनिश्चितम्" इस श्लोकमें भगवान् नेनीति वर्णन की है सो सुनिये हम कहते हैं श्रीकृष्णभगवान् ने कहा था कि,जो प्राणी गाय को ऐसा जानकर कि, यह गाय अब दूध नहीं देती अथवा वाँझ है, व्यायगी नहीं, ऐसा समझकर उस गायकी रक्षा करना छोडदेगा अथवा उसको खाने पीनेको नहीं देगा भूखी प्यासी रक्खेगा, तब इस लोकमें तो गायका मूल्य डूब जायगा क्योंकि पालन करता तो फिर व्याती अथवा वाँझ होती तो भी गोवर करती और अन्त समय रौरवनरकका वास होगा, इसी प्रकार जो स्त्री दुष्टा होजाय तो उसका भी पालन करना अवश्य चाहिये क्योंकि जो उसने खोटा कर्म किया तो संसारमें उस प्राणीकी निन्दा होगी और परलोकमें नरक भोगना पडेगा और जो उसका पालन करेगा तो धीरे धीरे चाहैं, ज्ञान उपदेश होनेसे सुधर भी जाय और सन्तान भी उत्पन्न होजाय फिर न जानिये कि, सन्तानमें कैसा महापुरुष निकलै ऐसेही पराधीन देह समझकर हानि मानकर देहका पालन करना नहीं छोडे, क्योंकि उसका पालन न करनेसे उसका नाश होजायगा और जो शरीरका पालन करेगा तो कभी न कभी सुख होहीगा, ऐसेही धनको मानलेषे कि इस धनमेंसे मैंपुण्य नहीं करताहू यह धन किस काम आयैगा, ऐसा जानकर धनकी रक्षा करनी छोडदेगा तो चोर चोरी करके लेजायँगे, और जो धनकी रक्षा करता रहेगा तो कभी न कभी तो पुण्यही होगा ऐसेही वचनसे भगवान्का नाम नहीं लिया, ऐसे खोटे वचन को जानकर सत्संग छोड दिया तो भ्रष्ट होजायगा और जो बिगडे वचनसे सत्संग करैगा और अच्छा प्रबन्ध करैगा तो कभी भगवान्‌का नाम वचनसे निकलैहीगा ऐसा नीतियुक्त अर्थ भक्त उद्धवके सामने भगवान्ने किया है यह नहीं किया कि, गायका दूध देना बन्दकरदे तो उसकी पालना नहीं करना।

हे उद्धव! जिसके दूध दुही गौ, दुष्टा स्त्री, पराधीन देह और दुष्ट प्रजा, पात्र विषे न दिया धन, मेरा नामरहित वचन इतनी बातोंवाले सदा दुःखीही रहते हैं और आगे भी दुःख पावेंगे॥१९॥ मेरा जिस वाणीमें नाम न हो वह बात न कहै, इस विश्वकी मर्यादा, जन्म, पालन, नाशरूप, पावन मेरे कर्म और लीला अवतारोंके विषे जगत्का प्रिय श्रीरामकृष्णादिक जन्म जिस वाणीमें नाम न हो, उस वाणीको बुद्धिमान् पुरुष धारण न करै॥२०॥ इसप्रकार निश्वय कर आत्माविषे नानाप्रकारका भ्रम दूर कर विचारसे निर्मल मन मुझ अंतर्यामी विषे स्थिर होकर निवृत्त हो॥२१॥ जो मुझमें मन निश्चलकरनेको समर्थ न होय तो सब कर्म मुझमें अर्पण करै निरपेक्षहो कर्म करै॥२२॥ ज्ञानमार्ग कठिन है, भक्तिमार्गहीसे कृतार्थ होगा, यह कहते हैं कि

गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यां देहं पराधीनमसत्प्रजां च॥ वित्तं त्वतीर्थीकृतमंग वाचं हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी॥१९॥ यस्यां न मे पावनमंग कर्म स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य॥ लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्वंध्यां गिरं तां बिभृयान्न धीरः॥२०॥ एवं जिज्ञासयाऽपोह्य नानात्वभ्रममात्मनि॥ उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे॥२१॥यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्॥ मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर॥२२॥ श्रद्धालुमें कथाः शृण्वन्सुभद्रा लोकपावनीः॥ गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहुः॥२३॥ मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपाश्रयः॥लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने॥२४॥ सत्संगलब्धया भक्त्या मयि मां समुपासिता॥ स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विंदते पदम्॥२५॥ उद्धव उवाच॥ साधुस्तवोत्तमश्लोकमतः कीदृग्विधः प्रभो॥ भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिरादृता॥२६॥

प्रथम तो श्रद्धासंयुक्त हो, पीछे अतिसुन्दर लोकोंके पवित्र करनेको समर्थ मेरी कथा श्रवण करै, मेरे जन्मकर्म गावै, स्मरण करै, वारम्वार वैसाही लीला करे॥२३॥ धर्म, अर्थ, काम मेरे लिये करै, विषयभोगार्थ न करैमेराही आश्रय करैं, हे उद्धव! तब सनातन स्वरूप मेरे विषे निश्चलं भक्तिको प्राप्त हो॥२४॥ इसप्रकार सत्संगकर प्राप्त हुई भक्तिसे मेरा सेवन करैतो मेरे स्थानको निश्चय प्राप्त होगा, यह मेरे पानेका मार्ग साधन करि दिखाया है॥२५॥ तब उद्धवजी साधुके और भक्तिके लक्षण पूँछने लगे कि, हे उत्तमश्लोक! हे प्रभो! साधुपुरुष कैसे होते हैं,

उनके चिह्न क्या होते हैं और उनकी कीहुई भक्ति कैसी होती है? जिस भक्तिको आप मानते हैं और साधु आदर करते हैं॥२६॥ हे पुरुषके नियंता हे जगत्पते।मैं आपको प्रणाम करता हूँ, अनुरक्त हूँ, आपकी शरण आया हूँ, इसलिये यह सब मुझसे कहिये॥२७॥ हे भगवन्! तुम साक्षात परंब्रह्म प्रगट हुये हो, प्रकृतिसे भी परेहो, पुरुषहो अकाशकी भाँति निर्लेप हो भक्तोंकी इच्छा से रूप धारण करतेहो॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! जो पराया दुःख न देखसकैऔर किसीसे द्रोह न करैं,क्षमावंतहो, सत्यही बोले, निंदा आदि दोष रहितहो, समदृष्टि हो, सुखदुःखमें समान हो, यथाशक्ति सबका उपकार करै, सब प्राणियोंका अपराध सहै॥२९॥ काम करके बुद्धि चंचल न होय, बाहरकी इन्द्रिय जीती होंय

एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो॥ प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम्॥२७॥ त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः॥ अवतीर्णोसि भगवन्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ कृपालुरकृतद्रोहस्ति तिक्षुः सर्वदेहिनाम्॥ सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥२९॥ कामैरहतधीर्दीतो मृदुः शुचिरकिंचनः॥ अनीहो मितभुक् शांतः स्थिरो प्रच्छरणो मुनिः॥३०॥ अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः॥ अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः॥३१॥ आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान्॥ धर्मान्सत्यज्ययः सर्वान्मां भजेत स सत्तमः॥३२॥

कोमल शुद्ध चित्त होय, परिग्रही न होय, व्यर्थ कार्य न करै, भोजन थोडा करैशांत होय, स्वधर्ममें स्थित हो, मेराही एक आश्रय करै, मेराही स्मरण करे॥३०॥ सावधान रहै, निर्विकार रहै, धैर्यवन्त होवै, क्षुधा, प्यास, शोक, मोह, जरा, मृत्यु, यह सब जीते होय, अभिमानी न हो दूसरेको मान देनेवाला हो, औरके प्रबोधको समर्थ हो, सबका मित्र हो, सबका भला चाहे, दयावन्त हो, पूर्ण ज्ञानवान् हो॥३१॥ ऐसेही पुरुष साधु कहा तेहैं, मेरे स्वरूपभूत वेदके धर्म करनेसे अंतःकारण शुद्ध होता है, नहीं करनेमें दोष है, यह जाननेपर भी यह धर्म स्वामीके ध्यानमें विक्षेप करने वाले हैं और जो यह धर्म मैंन करूं तो भक्तिसे ही सिद्ध होजायँगे, इस प्रकार भक्तिकी दृढ़ताके लिये दृढ़ निश्चय कर अपने धर्मक

अधिकार रुद्ध हो जानेसे उन धर्मोंको छोडकर जो प्राणी मेरा भजन करै वह भी महात्मा है॥३२॥ तब जैसे मेरे चरित्र हैं; उसी प्रकार मुझे जान अथवा विना जाने भी जैसे होय तैसे जो कोई अनन्य भावसे मेरा भजन करते हैं, सो मेरे परमभक्त हैं॥३३॥ साधुओंके लक्षण कहकर अब भक्तिके लक्षण कहते हैं कि, मेरे चिह्न प्रतिमा आदि ले अनेक भांतिके और मेरे भक्त जनोंका दर्शन, स्पर्शन, पूजा, सेवा, स्तुति, प्रणाम, गुण, कर्म, कीत्तन॥३४॥ हे उद्धव! मेरी कथा श्रवण करने में श्रद्धा, मेरा ध्यान करैं, जो कुछ मिले सो सब मुझे समर्पण करै दास्यभावसे अपनी आत्मा निवेदन करै॥३५॥ मेरे जन्म, कर्म, गावै, जन्माष्टमी आदि पर्वमें फूल नैवेद्य आदिसे

ज्ञात्वाऽज्ञात्वाऽथ ये वै मां यावान्यश्चास्मि यादृशः॥ भजंत्यनन्यभावेन ते मे भक्तातमा मताः॥३३॥ मल्लिंगमद्भक्त जनदर्शनस्पर्शनाचनम्॥ परिचर्या स्तुतिः प्रह्वगुणकर्मानुकीर्तनम्॥३४॥ मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव॥ सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम्॥३५॥ मज्जन्मकर्मकथनं मम पर्वानुमोदनम्॥गीततांडववादित्रगोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः॥३६॥ यात्रा बलिर्विधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु॥ वैदिकी तांत्रिकी दीक्षा मदीयब्रतधारणम्॥३७॥ ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः॥ उद्यानोपवनाक्रीडपुरमंदिरकर्मणि॥३८॥संमार्जनोपलेपाभ्यां सेकमंडलवर्तनैः॥ गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया॥३९॥ अमानित्वमदंभित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम्॥ अपि दीपावलोकं मे नोपयुंज्यान्निवेदितम्॥४०॥

मेरी पूजा करै, गीत, नृत्य, वादित्र, गोष्ठीसे मेरे मंदिरमें उत्सव करै॥३६॥ मेरेलिये यात्रा करै, पुष्पादिकोंसे पूजा करै, भेट समपर्ण करै वर्ष प्रति वर्ष उत्सव करै, वैदिक, तांत्रिक दीक्षा लेकारेमें व्रत करै॥३७॥ और प्रतिमामें श्रद्धा रक्खै आपसे अथवा औरसे मिलकर मेरे लिये फूलोंका बाग, मंदिर, क्रीडास्थल, नगर, गाँवके करने में उद्यम करै॥३८॥ मेरे मंदिर में बुहारी देना, लीपना, छिड़काव करना, चौक पूरना और रंगवल्ली आदि चित्रांग करना, इस प्रकार मेहैंगृहकी शोभा करै, दासकी भाँति निष्कपट मेरी उपासना करै॥३९॥ आप अभिमान तथा दंभ

न करैजो करै सो कहै नहीं। मेरे निवेदित दीपादि वस्तुसे अपने घरका काम न करै॥४०॥ जो जो वस्तु इस लोकमें आपको अतिप्रिय हो, निषिद्ध न हो सो मुझे अर्पण करैतो वह वस्तु अनंत फलको करेगी॥४१॥ अब यह ग्यारह ठौर पूजाके कहते हैं कि, हे उद्धव! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, भूमि, आत्मा इत्यादि सब प्राणीमात्र मेरी पूजाके स्थल हैं॥४२॥ अब जिसकी पूजा जिस प्रकार करनी चाहिये सो कहते हैं वेदोक्त विद्यासे सूर्यकी पूजा करै, अग्रिमें घृत होमकर मेरी पूजा करै, ब्राह्मणमें आतिथ्य अभ्यागतसे पूजै, गायमें अच्छे सुन्दर तृणादिकसे सेवा करै॥४३॥वैष्णवोंमें अपने बंधुके समान आदरसे मेरी पूजा करै, हृदय आकाशमें ध्यान धरके पूजा

यद्यदिष्टतम लोके यच्चातिप्रियमात्मनः॥ तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानंत्याय कल्पते॥४१॥ सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्॥ भूरात्मा सर्वभूतानि भद्रपूजापदानि मे॥४२॥ सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम्॥ अतिथ्येन तु विप्राग्र्ये गोष्वंग यवासादिना॥४३॥ वैष्णवे बंधुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया॥ वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरस्कृतैः॥४४॥ स्थंडिले मंत्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि॥ क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम्॥४५॥ धिष्ण्येष्वेष्विति मद्रूपं शंखचक्रगदांबुजैः॥ युक्तं चतुर्भुजं शांतं ध्यायन्नर्चेत्समाहितः॥४६॥इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः॥ लभते मयि सद्भक्ति मत्स्मृतिः साधुसेवया॥४७॥ प्रायेण भक्तियोगेन सत्संगेन विनोद्धव॥ नोपायो विद्यत सध्र्यङ् प्रायणं हि सतामहम्॥४८॥

करै, वायुमें प्राण बुद्धिसे पूजा करै, जलमें तर्पण आदि द्रव्यसे पूजा करै॥४४॥ भूमिमें गोप्य मंत्र न्यासकर मेरी पूजा करै, अपने आपमें आत्माकी पूजा भोग करके जो भोग करैसो सब आत्माको समर्पण करदे, सब प्राणीमात्रमें समान दृष्टि रखकर मेरी पूजा करै, में अंतर्यामी हूं॥४५॥ एकाग्र मन हो इन स्थलोंमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धरे चतुर्भुज शांतरूपका ध्यान कर मेरी पूजा करै॥४६॥ जो मनुष्य ऐसा करते हैं वे पुरुष निश्चयमन होकर यज्ञ, वापी, कूप, तडाग, बागसे मेरी पूजा कर साधुओं की सेवासे मेरा स्मरण करते हैं, मुझमें परमभक्ति प्राप्त करते हैं॥४७॥ इस प्रकार ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग कहकर विशेषसे श्रेष्ठ भक्तिमार्गको कहते हैं कि, हे उद्धव! पहले सत्संग करै कि, जिससे भक्ति उत्पन्न हो संसार

सागरसे तरनेका इससे उत्तम उपाय और कोई दूसरा नहीं है, क्योंकि साधुओंका एक मैंही आश्रयहूं इसलिये अतिश्रेष्ट उत्तम वैष्णवोंका सत्संग अतिश्रेष्ठ है॥४८॥ हे उद्धव! तुम सर्व प्रकारसे मेरे उत्तम सुहृद् सखा हो इसलिये तुमसे कहा है कि, यह जो भक्तियोग गुप्त है सो तुमको सुनानेके लिये कहताहूं॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा–बारहमें सत्संगकी, महिमा कहीं बखान। कर्म करन अरु त्यागको बरणों आत्मज्ञान॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! योग और तत्त्वोंका विवेक और अहिंसा आदि धर्म विद्याका अध्ययन, तप, त्याग, अग्निहोत्रादिक, वापी, कूप, तड़ाग, दक्षिणा॥१॥ व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ, नेम, संयम

अथैतत्परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनंदन॥ सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते म० एकाद० भगवदुद्धवसंवादे एकादशोऽध्यायः॥११॥ श्रीभगवानुवाच॥ न रोधयति मां योगो न सांख्यं धम एव च॥न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त्तं न दक्षिणा॥१॥ व्रतानि यज्ञश्छंदांसि तीर्थानि नियमा यमाः॥ यथावरुंधे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्॥२॥ सत्संगेन हि दतेया यातुधाना मृगाः खगाः॥ गंधर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारण गुह्यकाः॥३॥ विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोंत्यजाः॥ रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन्युगेऽनघ॥४॥बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः॥ वृषपर्वा बलिर्वाणो मयश्चाथ विभीषणः॥५॥ सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः॥ व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथा परे॥६॥

यह सब मुझे ऐसे वश नहीं कर सकते, जैसे श्रेष्ठ विष्णुभक्तिका सत्संग मुझे वश करता है, क्योंकि सत्संग सब कुसंगोंका छुड़ानेवाला है॥२॥ दैत्य, राक्षस, पक्षी, मृग, गंधर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक॥३॥ विद्याधर, मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री यह सब नीच जाति राजस तामस स्वभावयुक्त भी उन उन युगोंमें॥४॥ मेरे पदको प्राप्त हुये और भी बहुत हैं वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मय, विभीषण॥५॥ सुग्रीव, हनुमान्, जांबवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, व्याध, कुब्जा, गोपी, व्रजमें यज्ञपत्नी ऐसे और भी अनेक

मुझे प्राप्त हुये हैं॥६॥ यह दोनों वेदार्थ नहीं पढ़े थे महत्पुरुषोंकी उपासना नहीं करी थी, व्रत, दान, तप, कुछ नहीं करते थे, एक मेरे संग सेही मुझे प्राप्त हुये॥७॥ गोपी, गाय, यमलार्जुन, मृग और मूढबुद्धि कालीसे आदि ले नाग, सिद्ध अनायास मुझे प्राप्त होगये

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॥८॥ सांख्य, योग, दान, व्रत, तप, यज्ञ, व्याख्यान, अध्ययन इतने यत्नसे भी जिन्होंने मुझे न पाया, उसे एक भाव मात्रसेही प्राप्त हुये॥९॥ अब

ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः॥ अव्रतातप्ततपसः सत्संगान्मामुपागताः॥७॥ केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः॥ येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरंजसा॥८॥ यं न योगेन सांख्येन दानव्रततपोध्वरैः॥व्याख्यास्वाध्यायसंन्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि॥९॥ रामेण सार्धं मथुरां प्रणीते श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः॥विगाढभावेन न मे वियोगतीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय॥१०॥ तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृंदावनगोचरेण॥ क्षणार्धवत्ताः पुनरंग तासां हीना मया कल्पसमा बभूवुः॥११॥

मुख्य उत्तमभाव गोपियोंका कहते हैं इसकारण पहले गोपियोके भावकी स्तुति करते हैं हे उद्धव! जब अक्रूर आनकर बलदेव सहित हमको मथुरा लेगये, तब दृढप्रीति से मुझमें आसक्त चित्तवाली वियोगसे दुःसह चित्त गोपिगोंने सुखके लिये मेरे अतिरिक्त और किसीकी ओरको न देखा॥१०॥ हे उद्धव!

वृन्दावनमें फिरते उनको अतिप्रिय मेरे संग जो जो रात्रिय एक क्षणके समान बीतीं हैं सो सो रात्रि मुझ विना उन

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**शंका–**श्रीकृष्णभगवान्नेउद्धवसे कहा कि, हे उद्धव! पर्वत, पक्षी, मृग, यह सव सत्संगसे हमारे लोकको गये सो इस बातका हमको बडा सन्देह है कि, सत्संग तो बडे बडे महात्माओंको भी बडा दुर्लभ है सो इन तुच्छ जीवोंको क्योंकर हुआ?

**उत्तर–**महात्मा पुरुष तो पर्वतोंपर वसते हैं इसलिये उनको पर्वतोंका सत्संग हुआ और महात्माओंके सन्मुख नित्य राति दिन पक्षी और मृग वसतेथे, महात्माओंका नित्य दर्शन करते थे कुछ सत्संगकी बात कानोंसे सुनली कुछ भगवान् केपूजन आदिककी सामाग्री नेत्रोंसे देखली इसप्रकार योगियोंसे दुर्लभ जो सत्संग सो पर्वतोंको, पशुओंको तथा मृगोंको प्राप्त हुवा ऐसा कृष्णने कहा था।

गोपियोंको कल्प समान वीतीं॥११॥ मुझमें गोपियों की बुद्धि अधिक आसक्त होगईथी, इसलिये उन्हें पति, पुत्रादि तथा देव और परलोककाभी कुछ ध्यान न रहाथा, जैसे समाधिमें मुनियोंको नाम स्वरूपका ध्यान नहीं रहता,अथवा जैसे नदी समुद्र में मिलजाती हैं, उसी प्रकार गोपियें मेरे स्वरूपमें लीन होगई॥१२॥ इस प्रकार केवल मेरी इच्छा वाली सहस्रों स्त्रियें यद्यपि मेरे स्वरूपको नहीं जानतीथीपरन्तु तो भी जारबुद्धिसे जाने हुए मुझ परब्रह्मके सत्संगकी महिमासे मुक्त होगई॥१३॥ हे उद्धव! मेरे भजनका ऐसा प्रभाव है कि, गोपियें जारबुद्धिसे भजन करनेपर भी मुझे प्राप्त हुई, इसलिये तुम श्रुति स्मृतिके विधिनिषेध छोड़, प्रवृत्ति निवृत्ति धर्म छोड़ सुना सुनाया छोड़॥१४॥ सव देहधारियोंका आत्मा जो में हूं, इस कारण सबोमें मेरा भाव रख केवल एक मेरी शरणको प्राप्त होकर तुम निभय होगे॥१५॥ यह सुनकर उद्धवजी बोले कि, हे योगे

ता नाविदन्मय्यनुषंगबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्॥ यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे॥१२॥ मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽबलाः॥ ब्रह्म मां परमं प्राप्नुःसंगाच्छतसहस्रशः॥१३॥तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्॥ प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च॥१४॥ मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्॥ याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः॥१५॥ उद्धव उवाच॥ संशयः शृण्वतो वाचं तव योगेश्वरेश्वर॥ न निवर्त्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मनः॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ स एष जीवो विवरप्रसूतिः प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः॥ मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः॥१७॥

श्वरोंके ईश्वर।तुम्हारी बात सुनकर आत्मा विषयक मेरा संदेह निवृत्त नहीं होता क्योंकि प्रथम तो आपने कहा कि, मेरा भजन करो,अब कहते हो कि, सर्व धर्म छोड़कर हमारी शरण आओ इन दोनोंमें क्या करना उचित है? त्याग करना चाहिये, अथवा भजन करना चाहिये यह मुझे बड़ा भ्रम है, सो निवारण करो॥१६॥ तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! पहले तो यह जीव ईश्वर है, ब्रह्म है, परन्तु अविद्याके संगसे अपना धर्म भूल गया है, अविद्याके धर्मही को अपना धर्म समझ अहंकर्त्ता अभिमानसे बँधताहै, जब अविद्याके धर्म दूर होजायँ तव शुद्ध चित्त हो उसके लिये निष्काम कर्म करना कहाहै, जब चित्त शुद्ध हुआ, तब कमका त्याग कहा जब विवेक उसको उत्पन्न होगया, तब विवेकसे

सर्वत्र वह मेरा रूप जानता है, अब कर्म और ज्ञानका अधिकार हुआ, इसकारण सब कर्म त्यागकर मेरी शरण आवै, यह उपदेश दिया, अब ईश्वरसे वाणी इन्द्रिय द्वारा जीवके संसारका कारण भूत प्रपंचकी उत्पत्ति कहते हैं सो ईश्वर आधारादि चक्रोंमें प्रगट होते हैं उस प्रगटताको भी कहते हैं, सो ईश्वर नादवन्त परनाम प्राण सहित आधार चक्रोंमें प्रविष्ट होकर मनोमय सूक्ष्मरूप देखें और मध्यमा नाम मणिपूरक और विशुद्धचक्रविषे आनकर मुखमें हूं, स्वरादिक मात्रा, उदात्तादिक स्वर, अकारादिक अक्षर रूप वैखरी नाम अतिस्थूल नानाविध रूप होते हैं॥१७॥ जैसे आकाशमें गर्मीरूप अग्निरूप अप्रगट है, बलपूर्वक काष्टके मथनेसे वायुकी सहायता से पहले सूक्ष्मरूपसे निकलती है, पीछे हविष्यसे वृद्धिको प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार यह प्राणी मेरे प्रगट होनेके स्थान हैं॥१८॥ हाथोंका धर्म क्रिया, चरणका धर्म तीर्थगमन करना और गुह्येन्द्रियका

यथाऽनलः खेनिलबंधुरूष्मा बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः॥ अणु प्रजातो हविषा समिध्यते तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी॥१८॥ एवं गदिः कर्मगतिर्विसर्गे घ्राणो रसो दृक्स्पर्शः श्रुतिश्च॥ संकल्पविज्ञानमथाभिमानः सूत्रं रजः सत्त्वतमोविकारः॥१९॥ अयं हि जीवस्त्रिदृदब्जयोनिरव्यक्त एको वयसा स आद्यः॥ विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव भाति बीजानि योनिं प्रतिपद्य यद्वत्॥२०॥ यस्मिन्निदं प्रोतभशेषमोतं पटो यथा तंतुवितानसंस्थः॥ य एष संसारतरुः पुराणः कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते॥२१॥

धर्म मलादि विसर्जन करना आघ्राण, रस, दर्शन, श्रवण यह सब ज्ञानेन्द्रियोंके धर्म, संकल्प मनका धर्म, विज्ञान और बुद्धि चित्तका धर्म, अभिमान अहंकारका धर्म, सूत्र मायाका धर्म, सत, रज, तम, इन तीन गुणोंका विकार अधिदैव अध्यात्म अधिभूत यह सब मेरे प्रगट होनेके स्थान हैं॥१९॥ यह आत्मा ब्रह्म है, एकही है, अप्रगट है, कालसे अलगकारे वाणीरूप इन्द्रियोंकी शक्तियोंको अनेक भाँतिसे प्रकाशै है, जिससे आदि है, तीन गुणोंका आश्रय है सृष्टि कमलका कारणभूत है, जैसे बीज खेतको पाकर अनेक भाँति प्रकाशमान होता है इसीप्रकार यह आदि कारण ईश्वर भी कालकी गति से मायाको अंगीकारकर प्रपंचरूप होजाते हैं॥२०॥ इसमें दृष्टान्त कहते हैं, तंतुके विस्तार में स्थितिमान् पट जैसे

तंतुओंमें ओतप्रोत है और तंतुओंसे पृथक नहीं है, इसीप्रकार यह सब जगत् ब्रह्ममें विद्यमान है उससे भिन्न नहीं है, ऐसेही समष्टि व्यष्टिरूप अविद्यासे आत्मा में अध्यास कियाहुआ प्रपंचरूप वृक्षही जीवके कर्त्ता, भोक्ता आदि संसारका कारण है, इससे जब यथार्थरीतिसे आत्माकी सत्यता और प्रपंचकी अनित्यता जाननेमें आवैउस समय कामादि सबका त्याग करना कहा है यह अनादि कालसे प्रवृत्तिवाला प्रपंचरूप वृक्ष अपने भोगादि रूप पुष्पफलोंको उत्पन्न करता है॥२१॥ इसके पाप पुण्य दो बीज हैं, अनेकभाँतिकी वासना इसकी जड है तीनो गुण (रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण ) इसकी पीडि है,पाँच रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द यह रस हैं, पाँच महाभूत इसके स्कंध है, एकादश इंद्रिय शाखा हैं, दो पक्षी जीव और परमात्माका घर है, वात, पित्त, कफ, यह तीनों वल्कल हैं, फल दो दुःख सुख हैं, सूर्यमण्डल तक यह वृक्षहै इससे

द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः पंचस्कंधः पंचरसप्रसूतिः॥ दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो द्विफलोऽर्कंप्रविष्टः॥२२॥ अदंति चैकं फलमस्य गृध्रा ग्रामेचरा एक मरण्यवासाः॥ हंसाय एकं बहुरूपमिज्यैर्मायामयं वेद स वेद वेदम्॥२३॥ एवं गुरूपासनयैव भक्त्या विद्याकुठारेण शितेन धीरः॥ विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः संपद्य चात्मानमथत्यजास्त्रम्॥२४॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ श्रीभगवानुवाच॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः॥ सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि॥१॥

आगे संसार नहीं॥२२॥ अब इसके फलके भोक्ताको कहते हैं इसके एकफल दुःखरूपका गृहस्थ ग्रामचारी कामीके समान गीदड भोग करते हैं, दूसरे फलका सुख अरण्यवासी परमहंस सन्यासी भोग करते हैं इसके यह एकही परमात्मा मायामय अनंतरूप है इतना तत्त्वार्थ गुरुद्वारा जिस पुरुष ने जान लिया है, उसने सब देह जान लिया॥२३॥इसप्रकार धीर सावधान होकर तुमभी गुरुकी सेवा कीजियो और एकान्त भक्तिसे तीक्ष्ण ज्ञानरूप कुठारसे त्रिगुणमय इस लिंगशरीरको काटि परमात्मासे मिले, पीछेसे सब साधन छोड़देना॥२४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा–इस तेरह अध्याय में, हंसरूप इतिहास॥ बढे अधिक जब सतोगुण, प्रगटे बुद्धि विलास॥१३॥ श्रीभागवान् बोले कि, हे उद्धव! सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण यह तीनों गुण प्रकृतिकें है आत्मा के नहीं

इसकारण सत्तोगुणकी वृद्धिसे रजोगुण तमोगुणकी वृद्धिका नाशकर सत्त्व दयादिरूप सत्त्वगुणका उपशमरूप सत्त्वगुणसे नाश करना॥१॥ रजोगुण, तमोगुणके सन्मुख सत्तोगुण कैसे बढै और जो सत्तोगुण बढ़े तो मेरी भक्ति लक्षण धर्महो उसीसे रज, तम भी दूर हो॥२॥ सत्त्वकी वृद्धि इसलिये होती है इसकारण भक्ति अतिश्रेष्ठ है रज, तमके दूर होनेपर रज, तम, मूलवाला अधर्म निश्चयसे शीघ्र दूर होता है॥३॥ शास्त्र, जल, प्रजा, देश, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्र, संस्कार, यह सब गुणके हेतु हैं॥४॥ यह भी दश सात्त्विक, राजस, तामस हैं इनके मध्य जिसकी, बडाई करते हैं सो सात्त्विक है; जिसकी निन्दा करते हैं, सो तामस है, और न जिसकी स्तुति करते हैं न निन्दा करते हैं सो राजस है॥५॥ सत्तो गुण बढ़ानेके लिये पुरुषको सात्त्विकवृत्ति शास्त्रका सेवन करना चाहिये प्रवृत्ति मार्गके पाखण्डियोंके शास्त्र न देखे, जल तीर्थहीका सेवन करै,

सत्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्भक्तिलक्षणः॥ सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते॥२॥ धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तमः॥ आशु नश्यति तन्मूलोह्यधर्म उभये हते॥३०॥ आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च॥ ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः॥४॥ तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्यद्वृद्धाः प्रचक्षते॥ निंदंति तामसं यत्तद्राजसं तदुपेक्षितम्॥५॥ सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान्सत्त्वविवृद्धये॥ ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम्॥६॥ वेणुसंघर्षजो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनम्॥ एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति तत्क्रियः॥७॥

परन्तु सुगंधित जलका सेवन न करै, संग निवृत्ति मार्गवालोंकाही करै, दुराचारियोंका न करै, देश एकान्तही सेवैचोर, ठग और जुआ खेलनेवा लोंका संग न करै, ध्यानका सेवन काल ब्रह्म मुहूर्त्त आदिमें करै, आधीरातके समय प्रदोष कालका सेवन न करै, कर्म नित्यही करैकाम्य और अभिचारादि कर्म न करै, वैदिक तांत्रिक दीक्षारूप जन्मलेना क्षुद्र देवताओंकी दीक्षा न ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकोही गुरु करै, अस्त्रोंका और शत्रुओंका ध्यान न करै, जब प्रणव आदि उत्तम मंत्रको जपै उससमय काम्य मंत्र और क्षुद्र मंत्रको न जपै, जो संसारसे आत्माका शोधक होय सो करै, देह गृहको न करै,इसप्रकार सब सात्त्विक सेवै, तो सतोगुणकी वृद्धि हो और राजस, तामस छूटै, तब भक्तिरूपी तप धर्म होवै, उससे मेरे स्वरूपका ज्ञान हो॥६॥ जैसे बाँसोंके वनकी अग्नि आपसमें घिस और प्रज्वलित हो सब अरण्यको जलाय ईंधन घट जानेपर आपही शान्त

होजाती है उसी प्रकार गुणके क्षोभसे उत्पन्न हुवा देह आपही शान्त होजाता है॥७॥ उद्धवजी बोले कि, हे कृष्ण! बहुधा सब मनुष्य कहते हैं कि विषय दुःख रूप है उससे दुःख पाते है तो फिर क्यों इसीको यह पुरुष कूकर, गर्दभ, बकरेके समान निर्लज्ज हो उसीमें प्रवृत्त होते हैं॥८॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! जब यह विवेकसे रहित होते हैं, तब इसके हृदय में अहंभाव बुद्धि सत्यसी होती है, तब सात्त्विक भी मन दुःखरूप राजस धर्मसे व्याप्त होते हैं॥९॥ यह पुरुष जब रजोगुणसे व्याप्त होता है तब मनमें संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हैं और संकल्पसे विषयका जो ध्यान करता है, इससे इस दुष्ट बुद्धि पुरुषको काम उत्पन्न होता है॥१०॥ इसके उपरांत उनके वश हो रजोगुणके वेगसे मोहित हुवा यह अजितेन्द्रिय

उद्धव उवाच॥ विदंति मर्त्याः प्रायेण विषयान्पदमापदाम्॥ तथापि भुंजते कृष्ण तत्कथं श्वखराजवत्॥८॥श्रीभगवानुवाच॥ अहमित्यन्यथा बुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि॥ उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः॥९॥रजोयुक्तस्य मनसः संकल्पः सविकल्पकः॥ ततः कामो गुणध्यानाद्दुःसहः स्याद्धि दुर्मतेः॥१०॥ करोति कामवशगः कर्माण्यविजितेंद्रियः॥ दुःखोदर्काणि संपश्यन्रजोवेगविमोहितः॥११॥ रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान्विक्षिप्तधीः पुनः॥ अतंद्रितो मनो युंजन्दोषदृष्टिर्न सज्जते॥१२॥ अप्रमत्तोऽनुयुंजीत मनो मय्यर्पयञ्छनैः॥अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः॥१३॥ एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः॥ सर्वतो मन आकृष्य मय्याद्धाऽऽवेश्यते यथा॥१४॥ उद्धव उवाच॥ यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव॥योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम्॥१५॥

दुःखही फलवाले कर्मोंको करता है॥११॥ इसमें भी जो विवेकी होय सो यद्यपि रजोगुण तमोगुणसे विक्षिप्त मन है सावधान है, परन्तु तो भी मनको खैंच खैंचकर रक्खै, तब वह दोष जानकर विषयमें आसक्त न होगा॥१२॥ जो विवेकी स्नेहसे मुझमें मन लगाता है और आलस्य छोड़ श्वास रोक आसन दृढकर मुझमें मन स्थिर करता है॥१३॥ सो हे उद्धव! मेरे शिष्य सनकादिकोंने इतनाही योग बताया है कि, यह जीव सब ओरसे मन खैंच प्रत्यक्ष मुझमें रक्खे॥१४॥ उद्धवजी बोले कि, हे केशव! सनकादिकोंके रूपसे जिससमय तुमने यह योग कहाथा सो तुम्हारा रूप और वह समय

जाननेकी इच्छा है सो कहिये॥१५॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! एक समय ब्रह्माके मानसीपुत्र सनकादिक योगकी सूक्ष्म गति ब्रह्मदेवसे पूँछनेलगे॥१६॥ सनकादिक बोले कि, हे प्रभो ब्रह्माजी! चित्त अपने स्वभावसेही रागादिकोंके हेतु विषय धर्ममें प्रविष्ट होता है और अनुभूत विषयवासनारूपसे चित्तमें प्रवेश करते हैं; अब विषयोंका त्याग करनेकी इच्छा वाला मुमुक्षु पुरुष परस्पर इनदोनों को किसप्रकार भिन्न भिन्न करै?॥१७॥ इसप्रकार पुत्रोंके पूँछनेपर ब्रह्माजीने जो कुछ कहाथा, वही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीसे कहते हैं कि, इस भाँति जब सनकादिकोंने कहा, तब स्वयंभू ब्रह्मा बड़ेदेव विश्वके पालक विचारने लगे परन्तु प्रश्नका पार न पाया, इससे कर्मसे विक्षिप्त बुद्धि हुई॥१८॥

श्रीभगवानुवाच॥ पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः सनकादयः॥ पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकांतिकीं गतिम्॥१६॥सनकादय ऊचुः॥ गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो॥ कथमन्योन्यसंत्यागो मुमुक्षोरतितिर्षिर्षोः॥१७॥श्रीभगवानुवाच॥ एवं पृष्टो महादेवः स्वयंभूर्भूतभवानः॥ ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधीः॥१८॥ स मामचिंतयद्देवः प्रश्नपारतितीर्षया॥ तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा॥१९॥ दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवंदनम्॥ ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को भवानिति॥२०॥ इत्यहं मुनिभिः पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा॥यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे॥२१॥ वस्तुनो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः॥ कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रयः॥२२॥

तब प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ब्रह्माने मेरा चिंतवन किया, तब मैं हंसरूप हो ब्रह्माके निकट आया॥१९॥ तब मुझे देखतेही सब प्रणामकर ब्रह्माके आगेसे मेरे निकट आये तुम कौन हो? इसप्रकार पूँछने लगे॥२०॥ हे उद्धव! तत्त्वके जाननेकी इच्छासे मुनीने जब इसप्रकार मुझसे पूँछा तब मैंने जो उनसे कहा वह तुम सुनो॥२१॥ यह सुनकर हंसरूप भगवान् सनकादिकोंसे बोले कि, तुम आत्माको आगेकर प्रश्न करते हो वा आत्माके उपाधिस्वरूप भूतसमूहको लेकर प्रश्न करते हो? जो आत्माका अधिकार प्रश्न करते हो तो परमार्थसे आत्मामें अभेद होनेके कारण तुम कौन हो? यह प्रश्न करना कि, जो अनेकोंमें एकका निश्चय करनेके लिये है संभव नहीं होसकता और मैं तुम्हें क्या विषय लेकर उत्तर दूं,

आत्मा कोई जाति वा गुणादिरूप हो तो उत्तर दिया जाय कि, मेरी यह जाति और मुझमें यहगुण है, परन्तु आत्मामें कोई बात नहीं इससे तुम्हारा प्रश्न ठीक नहीं वनसकता॥२२॥ और जो पंचभूत संधानका प्रश्न है वह अनर्थरूप है देवमनुष्यादि देह सब पंचभूतात्मक हैं वस्तुसे सब समान हैं अपने कारणसे न्यारे नहीं, वे सव कारणरूप एकही है ब्रह्मरूपही यह नाम रूप अलग अलग धर लिये हैं, सो अज्ञान है इस कारण इसका मैं क्या उत्तर दूं॥२३॥ मन, वचन, दृष्टि और इन्द्रियोंसे जो ग्रहण किये जाते हैं, सो में हूं मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है. यह तत्त्वका विचार करके जानलो॥२४॥ इसप्रकार उनके प्रश्नका खण्डन करनेके बहाने आत्माका स्वरूप कहा, अब ब्रह्माकोभी जो अशक्य उत्तर है, सो देते हैं कि, यह विषय और चित्त दोनों गुँथे हैं, ब्रह्मरूप जीवका देह है, सो उपाधि है कुछ सत्य नहीं है जो पुरुष अपने आपको ब्रह्मरूपसे

पंचात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः॥ को भवानिति वः प्रश्नो वाचारंभो ह्यनर्थकः॥२३॥ मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपींद्रियैः॥ अहमेव न सत्तोऽन्यदिति बुद्ध्यध्वमंजसा॥२४॥ गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः॥जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः॥२५॥ गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णंगुणसेवया॥ गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्रूप उभयं त्यजेत्॥२६॥ जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तयः॥ तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः॥२७॥ यर्हि संसृतिबंधोऽयमात्मनो गुणवृत्तिदः॥ मयि तुर्येस्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गणचेतसाम्॥२८॥

विषयोंको मिथ्या करके जानते हैं और वैराग्यसे भगवान् काभजन करते हैं वह पुरुष उपाधि छोडकर मुक्त होजाते हैं॥२५॥ क्योंकि विषयों कीही सेवा करनेसे और उनकी वासनासे विषयोंमें चित्त प्रविष्ट होता है, इसलिये विषय और चित्त यह दोनों जब मेरा रूप जानैं, तब छूटैं॥२६॥ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थोंसे रहित जीव शुद्ध आत्मरूप कैसे हो? सो कहते हैं कि, यह अवस्था तीन गुणसे होती है सो बुद्धिहीकी वृत्ति अवस्था है, जीव इन अवस्थाओंसे भिन्न है, ऐसा निश्चय किया गया है, इसलिये जीव इन सबका साक्षी है॥२७॥ जो यह साक्षी हुआ तो भिन्न क्यों है! और “में सोया” “में जागा” ऐसे क्यों कहता है? क्योंकि, जब अहंकारके धर्म संसारका बन्धन है, तब में जागता हूं सोता हूं,

यह बुद्धि है, जब अहंकार देहसे छूटैऔर आत्माके मध्यमें दृष्टि हो तब यह अवस्था भी सब जाती रहैऔर विषय तथा चित्तका परस्पर त्याग होय॥२८॥ यह बन्धन देहके अभिमानसे है, इसीसे आत्माको भी अनर्थ लगता है, इसप्रकार निश्चयकर वैराग्यसे आत्मामें चित्त लगाय संसारकी सब चिन्ताको त्यागन करै॥२९॥ जबतक इसकी भेद बुद्धि युक्तियोंसे निवृत्त नहीं हैं, तबतक यह अज्ञानी पुरुष कर्मादिकोंमें जागता अर्थात् जानकर भी स्वप्नमें अपनेको जाग्रत् मानते हुये मनुष्यके समान स्वप्नकोही देखते हैं, क्योंकि उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है॥३०॥ यह सब देह और देहका किया सबसे भेद, वर्ण, आश्रम, स्वर्ग, आदि फल कर्म आत्माके धर्म नहीं हैं, यह देहके धर्म हैं, अविद्यासे उत्पन्न होते हैं, इसकारण मिथ्या हैं,

अहंकारकृतं बंधमात्मनोऽर्थविपर्ययम्॥ विद्वान्निर्विद्य संसारचिंतां तुर्येस्थितस्त्यजेत्॥२९॥ यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्त्तेत युक्तिभिः॥ जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा॥३०॥ असत्त्वादात्मनोऽन्येषां भावानां तत्कृताभिदा॥ गतयोहेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो यथा॥३१॥ यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्भुंक्ते समस्तकरणैर्हृदि तत्सदृक्षान्॥ स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः स्मृत्यन्वयात्रिगुणवृत्तिदृगिंद्रियेशः॥३२॥ एवं विमृश्य गुणतो मनसख्यवस्था मन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्थाः॥ संच्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तितीक्ष्णज्ञानासिना भजत माऽखिलसंशयाधिम्॥३३॥

उत्तम नहीं, जैसे स्वप्न देखनेवालेके सब मनोरथ मिथ्या हैं॥३१॥ यह जीव जागतेमें जो विषय भोग करता है, सो वह भोग एक क्षणभरका है, कुछ नित्य नहीं, जैसे बाल्यावस्था और तरुणापन आये और गये जाग्रत्केसमान भोग करते हैं और सुषुप्तिमें यह सब धर्म लीन होजाते हैं केवल एक आत्मा ही रहता है, मैंने पहले तो स्वप्न देखा फिर सुख से सोया, कुछ ज्ञान न रहा, इस अनुभव के स्मरणसे तीनों अवस्था बुद्धिकी हैं, इनका साक्षी एक आत्माही रहता है और सब लीन होजाते हैं, इसकारण आत्मा सब इन्द्रियोंका ईश्वर है॥३२॥ इसप्रकार यह तीनों अवस्था मनके वशमें हैं आत्माके वशमें नहीं, सो मेरी शक्ति अविद्यासे आपको मान लेती है, ऐसा निश्चय कर सब संदेहका स्थान अहंकार है, तिसको विवेकसे

अनुमान से प्रमाण वचनसे उपजा जो ज्ञानरूपी खड्ग उससे काटकर हृदयमें स्थित मेरा भजन करै॥३३॥ अनुमान किसप्रकारका है, सो कहते हैं कि, यह जो जगत् दीखता है, सो सब मनका विलास है, भ्रम और मिथ्या विलास है, यह द्वैत भी भ्रान्तिरूप है क्योंकि यह अति चंचल है और जो चंचल हो, वह अलातचक्रके समान भ्रान्तिरूप है, ब्रह्ममें द्वैतकी अनेक भ्रान्ति होती हैं, इसलिये भ्रान्तिका अधिष्ठान रूप एकब्रह्मही अनेक प्रकारसा दीखता है और जो यथार्थ विचार से देखते हैं, तो यह त्रिगुणात्मक मायाका भ्रम स्वप्नके समान है॥३४॥ इससे है उद्धव! ऐसे प्रपंचसे दृष्टि फेर तृष्णा छोड़, आत्मसुखके विचारमें तत्पर हो इन्द्रियोंके सब धर्म छोड़ दे यदि कहो कि, देहवंतसे देहकी चेष्टा कैसे छूट

ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम्॥ विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्पः॥३४॥ दृष्टि ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्णस्तूष्णीं भवेन्निजसुखानुभवो निरीहः॥ संदृश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्ध्या त्यक्तं भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिपातात्॥३५॥ देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम्॥ दैवादपेतसुत दैववशाद्रुपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदांधः॥३६॥ देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्स्वारंभकं प्रति समीक्षत एवं सासुः॥ तं सप्रपंचमधिरूढसमाधियोगः स्वाप्नं पुनर्नभजते प्रतिबुद्धवस्तुः॥३७॥

सकती है और न छूटनेसे द्वैतही होजायगा तो कहते हैं कि, कहीं ऐसे भी देहकी चेष्टा देखी जाती है, परन्तु वह चेष्टा अलंकाररहित है, सत्य नहीं जिससे प्रपंचमें उनकी मिथ्याबुद्धि है, जो मिथ्या जानकर छोड़ दिया जाता है, वह फिर मोह उत्पन्न नहीं करता, यह निश्चय है। देहतक कर्मोंका संस्कारहै॥३५॥ जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष इस विनाशीदेहको दैवगतिसे वा आसन उठा, आसनमें स्थित उठकर खडाहुआ, बाहरको गया अथवा दैवगतिसे फिर आयाहुआ नहीं देखते जैसे मदिरापानसे मत्त हुआ पुरुष पहने वस्त्रको नहीं जानता, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ब्रह्मको प्राप्त हो चुके हैं॥३६॥ यहाँ तर्क करते हैं कि, देहको न जाने तो देह क्यों नहीं गिरे तो कहते हैं कि, देह भी दैवके आधीन है और जबतक

इसका प्रारब्ध कर्म है तबतक प्राण इंद्रियोंसहित देह रहता है, इसलिये जो समाधियोगमें आरूढ़ है, परमार्थ वस्तु और आत्मस्वरूपको जानते हैं, वह पुरुष प्रपंचसहित स्वप्नसमान इस देहको नहीं भजते॥३७॥ हे ब्राह्मणो! सांख्य और योगमार्गका जो रहस्य था, वह मैंने आपसे वर्णन किया, तुम्हैंधर्म और ज्ञानका उपदेश देनेके लिये मैं यज्ञरूप विष्णु आया हूं, ऐसा जानो॥३८॥ हे द्विजश्रेष्ठ! योगसांख्य, सत्यऋत, अर्थात् शास्त्रोक्त धर्म, तेज, प्रभाव, श्री, कीर्ति और इन्द्रियपन इन सब धर्मोका मैं ही परमार्थ स्थान हूँ यह सब मुझमें रहते हैं॥३९॥ सब गुण मेरेहीमें आश्रय हैं मैं निरपेक्ष हूं, सुहृद्परमप्रिय हूं, सबका आत्मा और सब मुझे समान हैं संग किसीका नहीं, ऐसे गुण

मयैतदुक्तं वो विप्रा गुह्यं यत्सांख्ययोगयोः॥ जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया॥३८॥ अहं योगस्य सांख्यस्य सत्यस्यर्तस्य तेजसः॥ परायणं द्विजश्रेष्ठाः श्रियः कीर्तेर्दमस्य च॥३९॥ मां जयंति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम्॥ सुहृदं प्रियमात्मानं साम्याऽसंगादयो गुणाः॥४०॥ इति मे छिन्नसंदेहा मुनयः सनकादयः॥सभाजयित्वा परया भक्त्याऽगुणत संस्तवैः॥४१॥ तैरहं पूजितः सम्यक्संस्तुतः परमर्षिभिः॥ प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे चित्तगुणविश्लेषवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ उद्धव उवाच॥ वदंति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः॥ तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता॥१॥

मुझीमें हैं॥४०॥ इसप्रकार मेरे वचन सुन सन्देह निवृत्ति कर सनकादिक मुनियोंने अतिभक्ति से मेरी पूजा और स्तुति की॥४१॥ जब उन ऋषियोंने भलीभाँति स्तुति और पूजा की तब ब्रह्मा के देखते २ मैं भी अपने धामको चला आया॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे भाषाटीकायां त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ दोहा–इस चौदह अध्यायमें सबका यही विचार॥ सब साधनमें मुख्यहै भक्ति मुक्ति दातार॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण! जो पुरुष ब्रह्मका विचार करते हैं, वह तो ब्रह्माका साधन बहुत बताते हैं, इन सबोंमें जो एक मुख्य साधन है सो कहो॥१॥

हे ईश्वर! तुम निरपेक्ष भक्तिही एक मुख्य साधन कहते हो कि, सब संग छोड भक्तियोगसे मुझमें चित्त रक्खै॥श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! भक्तिही सबसे श्रेष्ठ साधन हैं और जो अनेक साधन हैं, वह अपनी इच्छानुसार संसारके लोगोंने मूर्खपनसे मुख्य मान रक्खे हैं, वह सब तुच्छ फलके देनेवाले हैं और मुख्य तो यह मेरी वेदरूप वाणी है जो प्रलयकालमें नष्ट हो गईथी, यह वह वाणी है कि, जिससे प्राणीका मन मुझमें लगजाय यह पहले मैंने ब्रह्माजीसे कहा था॥३॥ ब्रह्माने अपने बड़े पुत्र मनुसे वह वाणी कही मनुने महर्षि भृगु, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, इन सात ब्रह्माके पुत्रों से वह वाणी कही॥४॥ उनसे उनके पुत्र दैत्य, देवता, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर॥५॥ चारण, किंदेव, (मनुष्य जातिमें देव

भवतोदाहृतः स्वामिन्भक्तियोगोऽनपेक्षितः॥ निरस्य सर्वतः संगं येन त्वय्याविशेन्मनः॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता॥ मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मोयस्यां मदात्मकः॥३॥ तेन प्रोक्ता च पुत्राय मन वे पूर्वजाय सा॥ ततो भृग्वादयोऽगृह्णन्सप्त ब्रह्ममहर्षयः॥४॥ तेभ्यः पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः॥मनुष्याः सिद्धगंधर्वाः सविद्याधरचारणाः॥५॥ किंदेवाः किन्नरा नागा रक्षःकिंपुरुषादयः॥ वह्वयस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः॥६॥ याभिर्भूतानि भिद्यंते भूतानां मतयस्तथा॥ यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवंति हि॥७॥ एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्भिद्यंते मतयो नृणाम्॥ पारंपर्येण केषांचित्पाखंडमतयोऽपरे॥८॥ मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ॥ श्रेयो वदंत्यनेकांतं यथाकर्म यथारुचि॥९॥

तुल्य) किन्नर, नाग, राक्षस, किंपुरुषादिक इन सबोंने वह वाणी ग्रहण की, जिनकी वासना रजोगुण, तमोगुण अदिसे अनेक प्रकारकी हैं॥६॥ जिन वासनाओंसे देवतुल्य मनुष्यादिक प्राणियोंके शरीर भिन्न भिन्न होते हैं और उनकी बुद्धियोंमें भी भेद पडता है, इन सबोंने अपनी वासनाके अनुसार भिन्न भिन्न वेदका व्याख्यान किया है॥७॥ इस प्रकार प्रकृतिकी विचित्रता से मनुष्योंकी बुद्धि विचित्र होगई और शास्त्रोंमें भी भेद पड़गये किसी प्राणीके उपदेशकी परंपरासे वेदविरुद्ध पाखण्डबुद्धि हुई॥८॥ हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ! मेरी मायासे मोहितबुद्धि पुरुष अनेक प्रकारसे इच्छानुसार कल्याणके।

साधन कहते हैं॥९॥ कोई धर्महीको मुख्य कहता है, कोई यशको, कोई कामको, कोई सत्यको, कोई शम दमको कोई ऐश्वर्यको और कोई स्वार्थहीको मुख्य कहते हैं, कोई दान करो, भोग करो यही कहते हैं कोई यज्ञ, तप, दान, व्रत, नेम, संयम, यह सब साधना कहते हैं॥१०॥ इन प्राणियोंको अपने कर्मानुसार लोक कर्म फलसे मिलते हैं, वह सब परिणाममें दुःखसे पूर्ण किंचित् आनन्दयुक्त शोकसे व्याप्त आदि अंतवाले हैं॥११॥ हे सौम्य! मुझमें जिन्होंने आत्मसमर्पण किया है, और जो सबसे निरपेक्ष हैं, उनको मेरे परमानन्दस्वरूपकी प्राप्ति से सुख मिल रहा है, वह सुख विषयोंमें लगे पुरुषोंको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि जो भक्तोको सुख है वह विषयी पुरुषोंको कहाँ?॥१२॥ जो अकिंचन

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम्॥ अन्ये वदंति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम्॥१०॥ केचिद्यज्ञतपोदानं व्रतानि नियमान्यमान्॥ आद्यंतवंत एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः॥ दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानंदाः शुचार्पिताः॥११॥ मय्यर्पितात्मनः सौम्य निरपेक्षस्य सर्वतः॥ मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत्कुतः स्याद्विषयात्मनाम्॥१२॥ अकिंचनस्य दांतस्य शांतस्य समचेतसः॥ मया संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः॥१३॥ न पारमेष्ठयं न महेंद्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्॥ न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥१४॥ न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्नशंकरः॥ न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥१५॥ निरपेक्षं मुनिं शांतं निर्वैरं समदर्शनम्॥ अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंध्रिरेणुभिः॥१६॥ निष्किंचना मय्यनुरक्तचेतसः शांता महांतोऽखिलजीववत्सलाः॥ कामैरनालब्धधियो जुषंति यत्तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम॥१७॥

दांत समचित्त वैसेही संतुष्ट मन हैं, उनको सब दिशायेंभी सुखरूप हैं॥१३॥ जिन्होंने मुझमें आत्मा समर्पण कर दिया है, उनको मेरे अतिरिक्त और किसी वस्तुकी चाहना नहीं है एक मैंहीं उन्हैंप्रिय हूं, अधिक क्या कहैंब्रह्मलोक, इन्द्रका संपूर्ण राज्य, भूमिका राज्य, पातालका राज्य, अणिमा महिमादिक योग सिद्धि मोक्षतककी भी उनको चाहना नहीं है॥१४॥ इसलिये भक्तोंके समान मुझे कोई प्यारा नहीं, हे उद्धव! अब मैं तेरे आगे अधिक क्या कहूं मेरा आत्मा भी मुझे प्रिय नहीं,हैउद्धव! जैसे तुम मुझे प्यारे हो, वैसे मेरा पुत्र, ब्रह्मा, महादेव, संकर्षण और लक्ष्मीजी भी मुझे प्यारी नहीं हैं, यह अतिसंतोषसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा॥१५॥१६॥ उत्तम भक्तोंकी तो कथाही क्या है, जो समान्य भी मेरे

भक्त हैं वह भी कृतार्थ हैं और जो मेरे भक्त विषयोंसे पीडित अजितेन्द्रिय हैं, उनको भी दृढ़भक्ति होनेके कारण विषय पराभव नहीं कर सक्ते॥१७॥१८॥ हे उद्धव! जिसप्रकार प्रचण्ड अग्नि काष्ठको भस्म कर देती है, इसीप्रकार मेरी दृढ़भक्ति सब पापोंका नाश करदेती है॥१९॥ इससे भक्तिविना और कोई उपाय नहीं है, हे उद्धव! योग, सांख्य, धर्म, पाठ, तप, त्याग, यह कोई मुझे ऐसे वश नहीं कर सकते हैं जैसी एक दृढ़ भक्ति मुझे वश कर लेती हैं॥२०॥ भक्तोंको प्रिय आत्मा रूपमें श्रद्धासे उत्पन्न हुई भक्तिसेही महात्माओंके वश होजाता हूं, यदि मेरी भक्ति, चाण्डाल

बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेंद्रियः॥ प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते॥१८॥ यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्॥ तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः॥१९॥ न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव॥ न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥२०॥ भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्॥ भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि संभवात्॥२१॥ धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता॥मद्भक्त्याऽपेतमात्मानं न सम्यक्प्रपुनाति हि॥२२॥ कथं विना रोमहर्षंद्रवता चेतसा विना॥ विनानंदाश्रुकलया शुध्येद्भक्त्या विनाऽऽशयः॥२३॥ वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति कचिच्च॥ विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥२४॥

भी करैतो उसके जाति दोष पवित्र होजाते हैं

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॥२१॥ इसपर एक दृष्टान्त है सत्य और दयासंयुक्त धर्म और तपसे संयुक्त विद्या भी उस पुरुषको पवित्र नहीं कर सक्ती, जिसके चित्तमें मेरी भक्ति नहीं॥२२॥ जिसके रोमांच न हो, द्रवीभूत चित्त न हो, आनंदके आंशू न चलें, उसकी भक्ति कैसे जान जाय? और भक्ति विना हृदय कैसे शुद्ध हो?॥२३॥ अब भक्तिका लक्षण कहते हैं, जिसकी वाणी गद्गद हो चित्त द्रवीभूत कोमल हो नेत्रोंसे

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**दृष्टान्त–**एक तिलोक सुनार बढे साधुसेवी थे जो कुछ वस्तु प्राप्त होती, सब साधुओमें व्यय करदेते थे, एक समय राजाके यहाँसे कुछ आभूषण बनानेको आये, सो इनके यहाँ बहुत साधू आगये, इन्होंने उस राजाके द्रव्यकी भोजनसामग्री मँगाकर साधुओंको खिलादी और आप टालबाल करते रहे, जब राजाके यहाँ व्याहका दिन आया तो यह जंगलको भाग गये, भगवान्नेभक्तकी रक्षा करी और तिलोकका रूप बना गहना लेकर राजाके घर गये वहाँसे अच्छे आभूषण बनानेके कारण पुरस्कार पाया और गहना लिया भगवान् वह पुरस्कारका द्रव्य तिलोकके घर दे जंगलमें जाकर उससे कहने लगे कि, घरको जा, राजाने बहुत द्रव्य दिया है, तिलोक सुनतेही घर आय अत्यन्त प्रसन्न हुए सो ईश्वरके भक्त कभी नष्ट नहीं होते।

बारंबार आंशु बहैंकभी हँसे, कभी लज्जा छोड़ उच्चस्वरसे गावे, नाचे इस प्रकार जो मेरी भक्तिसे युक्त हो, वही लोकोंको पवित्र करता है॥२४॥ जैसे सुवर्ण अग्निमें तपानेसे श्यामता छोड़ निर्मल हो अपने रूपको प्राप्त होता है, वैसेदी यह आत्मा मेरे भक्तियोगसे कर्म वासना त्यागकर मेरेही स्वरूपको प्राप्त होता है॥२५॥ ज्ञान विना अविद्या नहीं जाती, अविद्याके गये विना तुम नहीं मिलते, इसप्रकार कहते हैं कि, यह पुरुष जैसे जैसे मेरी पुण्य कथा श्रावण कीर्त्तन करते हैं वैसेही वैसे शुद्ध चित्त होतेहैं, नेत्र जैसे जैसे अंजनसे सूक्ष्म होते हैं, वैसेही वैसे सूक्ष्म पदार्थ देखने में आते हैं ॥२६॥ यद्यपि विषयके ध्यानमें मन विषयमें रहता है, परन्तु तो भी मेरा ध्यान करनेसे शुद्ध चित्त होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होजाता है, क्योंकि

यथाऽग्निना हेममलं जहातिध्मातं पुनः स्वं भजते स्वरूपम्॥ आत्मा च कर्मानुशयं विधूय मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम्॥२५॥ यथायथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानैः॥ तथातथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवांजनसंप्रयुक्तम्॥२६॥ विषयान्ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते॥ मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥२७॥ तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथान्॥ हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम्॥२८॥स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्॥ क्षेमे विविक्त आसीनश्चिंतयेन्मामतंद्रितः॥२९॥ न तथाऽस्य भवेत्क्लेशो बंधश्चान्य प्रसंगतः॥ योषित्संगाद्यथा पुंसो यथा तत्संगिसंगतः॥३०॥ उद्धव उवाच॥ यथा त्वामरविंदाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्॥ ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं मे वक्तुमर्हसि॥३१॥

मेरी भक्ति विना ज्ञान नहीं होता और मेरे स्वरूपकी प्राप्ति होनी वही ज्ञान है॥२७॥ हे उद्धव! इसलिये स्वप्न मनोरथके समान मिध्यावस्तुका ध्यान छोड़ मेरी भावनासे चित्त शुद्ध कर मेरे स्वरूपमें रक्खै॥२८॥ स्त्रियोंका संग और स्त्रियों के संगियोंका संग दूरसे छोड़ आत्माको जान, धीर हो, एकान्तमें बैठ परमकल्याणरूप मेरा चिंतवन करै॥२९॥ क्योंकि जैसा स्त्रियोंके संगसे और स्त्रियोंके संगियोंके संगसे इसे क्लेश बंध होता है, ऐसा औरके संगसे नहीं होता है॥३०॥उद्धवजी बोले कि, हे कमलनयन! जो मोक्ष चाहे, वह तुम्हारा ध्यान किसप्रकार करैकिस

स्वरूपका करै? यह मुझसे कहो क्योंकि मैं तो आपके दासभावके पुरुषार्थको प्राप्त होचुकाहूं

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॥३१॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे उद्धव! समान आसनपर बैठ अपनी देह समरख जैसे सुखहो वैसेही बैठ, अपने दोनों हाथ गोदपर रक्खै नासिकाके अग्रपर दृष्टि रक्खै॥३२॥ इसप्रकार बैठ प्राणके मार्ग पूरक, कुंभक, रेचक, करके शुद्ध हो, जितेन्द्रिय हो शनैःशनैः प्राणायामका अभ्यास कर रेचक, पूरक, कुंभक, क्रमसे अभ्यास करै॥३३॥ प्राणायाम दो प्रकारका है, एक तो प्रणवसहित प्राणसे प्रगट करके ॐकारमें घंटेके शब्दके समान उदात्त नाद स्थित करै॥३४॥

श्रीभगवानुवाच॥ सम आसन आसीनः समकायो यथामुखम्॥ हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः॥३२॥प्राणस्य शोधयेन्मार्गंपूरकुंभकरेचकैः॥ विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेंद्रियः॥३३॥ हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घंटानादं बिसोर्णवत्॥ प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम्॥३४॥ एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत्॥दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग्जितानिलः॥३५॥ हृत्पुंडरीकमंतःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम्॥ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम्॥३६॥

इस प्रकार प्रणव संयुक्त प्राणके अभ्याससे प्रगट करैऔर प्रणवमें घटाना, बढाना, साधनका, स्थित अभ्यास करै, दश प्राणायाम तीनों काल करै, इस प्रकार अभ्यास करने से एक महीनेमें प्रणवायु वशमें होजाता है॥३५॥ इस देहके भीतर हृदयकमल अधोमुख है, उसकी दंडी ऊपर रहती है, जैसे केलेकी फली होती हैं, ऐसेही कमलकी कली होती है, उसका ध्यान ऐसा करैकि, वह नीचे नालवाला और ऊपर मुखवाला खिलाहुआ

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**शंका–**श्रीकृष्णसे उद्धवने बुझा कि, मुक्तिकीइच्छा करनेवाले योगीजन भगवान् काध्यान कैसे करते हैं? तब श्रीकृष्णने उद्धवकी बातको त्यागकर सगुणरूपका वर्णन किया इसका क्या कारण?

**उत्तर–**श्रीकृष्णचन्द्रने विचार किया कि, ब्रह्मका ध्यान मुक्तिकी इच्छा करनेवाले योगीराज करते हैं, सो ध्यान सुननेसे और कहनेसे प्राप्त नहीं होता वह ध्यान तो बहुत दिनोंतक सत्संग करनेसे प्राप्त होता और उद्धवका हृदय ज्ञानमें कच्चा है और हमारी इच्छा परमधामके जानेकी है, जो कुछ अधिक दिन हमको मर्त्यलोकमें रहना होता तो भी उद्धव ब्रह्मज्ञान जाननेमें पक्का होजाता, ऐसा विचार करके सगुणका ध्यान वर्णन किया कि, धीरे धीरे सगुणका ध्यान करते करते ब्रह्मके ध्यानको उद्धव प्राप्त होजाँयगे, इसलिये ब्रह्मके ध्यानको त्यागकर सगुणका ध्यान श्रीकृष्णचन्द्रने वर्णन किया।

आठ पखुरीसे युक्त हैं कार्णिकासहित मनमें चिंतवन करे॥३६॥ उस कमलकी कर्णिकामें सूर्य, चन्द्र और अग्नि हैं, उस अग्निमें मेरे इस रूपका क्रमसे ध्यान करे उसमें प्रथम अग्निके बीचमें वक्ष्यमाण ध्यानके मंगलरूप विषय मेरे स्वरूपका ध्यान करना चाहिये॥३७॥ सम अति शान्त सुन्दर मुख दीर्घ सुन्दर चार भुजा धारण करे अतिसुन्दर ग्रीवा, उत्तम गोल कपोल, अति उज्ज्वल मंद मुसकान युक्त॥३८॥ समान कानोंमें प्रकाशमान मकराकृत कुण्डल धारण किये पीताम्बर पहरे मेघकी भाँति श्याम सुन्दर श्रीवत्स संयुक्त लक्ष्मीको वक्षस्थलमें घरे॥३९॥ शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमालासे भूषित नूपुरोंसे शोभित चरण कमल कौस्तुभ मणिकी कांतिसे संयुक्त॥४०॥ प्रभावसे दीप्त मुकुट, कंकण,

कर्णिकायां न्यसेत्सूयसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम्॥ वह्निमध्ये स्मरेपं ममैतद्ध्यानमंगलम्॥३७॥ समं प्रशांतं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्॥ सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम्॥३८॥ समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुंडलम्॥ हेमांबरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम्॥३९॥ शंखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्॥ नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभ प्रभया युतम्॥४०॥ द्युमत्किरीटकटककटिसूत्रांगदाऽऽयुतम्॥ सर्वांगसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम्॥४१॥ सुकुमारम भिध्यायेत्सर्वांगेषु मनो दधत्॥ इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः॥ बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः॥४२॥ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्॥ नान्यानि चिंतयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्॥४३॥ तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्॥ तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिंतयेत्॥४४॥

कटिमेखला, बाजुबंद धरे सर्वांगसुन्दर और मनोहर प्रसन्नताके कारण अतिसुन्दर शोभित मुख और नेत्र अति सुकुमार रूपका ध्यान करै, सब अंगोंमें मन दे॥४१॥ प्रथम इन्द्रियोंको विषयोंसे खैंच मनमें मिलावै, मनको बुद्धि सारथीसे विषयोंसे निकाल मेरे स्वरूपमें मिलावे॥४१॥४२॥ यह चित्त सर्वत्र व्याप्त है, अंग अंगमें फिरता है, उसको उन अंगोंसे निकाल मेरे मुखकी भावनामें रक्खै, मंदहास्य संयुक्त मेरे मुखका बहुत कालतक चिंतवन करै और कुछ मनमें न धरै॥४३॥ जब मुखमें मन स्थिर होजाय, तब मुखसे भी खैंचकर सबके मूलभूत साक्षात् मेरे

स्वरूपमें रक्खै, उसे वहाँसे छुडाय साक्षात् शुद्ध ब्रह्मरूप मेरे संपूर्ण स्वरूपमें संलग्न होय, तब और कोई चिंतवन न करै॥४४॥ इसप्रकार समाधिमें दृढ़ मति हो, अपने आत्मामें आत्मरूप मुझे ही देखै, जैसे ज्योतिमें ज्योति मिलजाती हैं, उसी प्रकार सर्वात्मरूपमें अपने आत्माको मिला देखे॥४५॥ इसप्रकार सुदृढ़ तीक्ष्ण ध्यानसे योगीजन मुझमें मन संयुक्त करें, तब वह द्रव्य ज्ञान क्रियारूप भ्रम शीघ्रही निवृत्त होनेसे शान्तिको प्राप्त होता है॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा— प्रथम धारणा अनुसरण, करत विष्णुपद प्रेम॥ विघ्नरूप सिद्धी सकल, समझ यही दृढ़ नेम॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव ! जो जितेन्द्रिय हो और श्वास जीते चित्त मुझमें रखता हो, योगी हो, स्थिर चित्त हो, उसे यह सिद्धियें प्राप्त होती हैं॥१॥ तब उद्धवजी बोले कि हे श्रीकृष्ण! कैसी धारणासे यह

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि॥ विचष्टे मयि सर्वात्मञ्ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम्॥४५॥ ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युंजतो योगिनो मनः॥ संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते म० एकादशस्कंधे भक्तिध्यानयोर्वर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीभगवानुवाच॥ जितेंद्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः॥ मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठति सिद्धयः॥१॥ उद्धव उवाच॥ कया धारणया कास्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत॥ कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान्॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥ सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगैः॥ तासामष्टो मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः॥३॥ अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिंद्रियैः॥ प्राकाश्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता॥४॥

सिद्धि प्राप्त होती है और सिद्धि कितनी हैं ? इनका रूप क्या है ? सो सब मुझसे कहो क्योंकि, तुम योगियोंको भी सिद्धियोंके देनेवाले हो॥२॥ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! धारणा और योगके पारंगतों ने अठारह (१८) सिद्धि कही हैं, उनमें आठ मेरे आश्रय रहती हैं, वह मुझे ही प्राप्त होती हैं, अथवा जो मेरे सारूप्यको प्राप्त हैं उन्हें होती हैं, परन्तु कुछेक न्यून हो और दश सिद्धि गुणोंका कार्य हैं, सतोगुणका उत्कर्ष बढ़ाती हैं॥३॥ उनको कहते हैं, अणिमा, महिमा, लघिमा, यह तीनों देहकी सिद्धि हैं प्राप्ति सिद्धि इंद्रियकी हैं इंद्रियोंसे मिल इंद्रियोंके देवताओंका संग होना, परलोक और इस लोकके विषयोंके भोग देखनेकी सामर्थ्य, तथा भूमिके गुप्त पदार्थका ज्ञान होना प्रकाश्य सिद्धि हैं ईश्वरमें मायाकी

और दूसरोंमें मायाके अंशोंकी प्रेरणा करनेकी सामर्थ्यको ईशिता सिद्धि कहते हैं॥४॥ गुणमें असंग हो, विषय भोग करे और संग दोष न लगे; उसे वशिता सिद्धि कहते हैं और जिसकी कामना करें वही प्राप्त हो उसे प्राकाम्य सिद्धि कहते हैं, हे उद्धव ! यह आठ सिद्धियें मेरे आश्रय रहती हैं॥५॥ क्षुधा पिपासादिक शरीरमें न व्यापै, उसको अनूर्मिमत्व सिद्धि कहते हैं (१) दूरकी सब बातें सुननेमें भले प्रकार आवैं, इसका नाम दूरश्रवण सिद्धि है (२) दूरके सब पदार्थ और सर्वत्र स्थान घर बैठे दीखैं, उसका नाम दूर दर्शन सिद्धि है (३) जहाँ मन जाय वहाँ देह सहित पहुँचना इसका नाम मनोजव सिद्धिहै (४) जैसा रूप बनाना चाहे उसीप्रकारका रूप होजाय. इसका नाम कामरूप सिद्धि है (५) दूसरेके शरीरमें प्रवेश करना इसका नाम परकाय प्रवेशन सिद्धि है (६)॥६॥ अपनी इच्छानुसार मरना, इसका नाम स्वच्छन्द मृत्यु सिद्धि है (७)

गुणेष्वसंगो वशिता यत्कामस्तदवस्यति॥ एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः॥५॥ अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्॥ मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम्॥६॥ स्वच्छंदमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्॥ यथासंकल्पसं सिद्धिराज्ञाऽप्रतिहताऽऽगतिः॥७॥ त्रिकालज्ञत्वमद्वंद्वं परचित्ताद्यभिज्ञता॥ अग्न्यर्कांबुविषादीनां प्रतिष्टंभोऽपराजयः॥८॥

देवता अप्पराओंके साथ क्रीडा करतेहैं उनको देखनेकी सामर्थ्य इसका नाम देवानांसह क्रीडानुदर्शन सिद्धि है (८) जो मनमें इच्छा हो, वही वस्तु तत्काल प्राप्तहो, इसका नाम यथासंकल्पसे सिद्धिहै (९) किसी स्थलमें आशाका भंग न हो इसका नाम अप्रतिहताज्ञा सिद्धि है (१०) यह दशसिद्धि सत्त्वगुणकी वृद्धिसे मिलती हैं॥७॥ पांच सिद्धि तुच्छ हैं सो कहते हैं, तीन कालका ज्ञान होना, इसका नाम त्रिकालज्ञ सिद्धि है (१) शीत उष्ण कुछ न लगना, इसका नाम अद्वन्द्व सिद्धिहै (२) पराये मनकी बात जानलेना इसका नाम प्रचिताद्यभिज्ञता सिद्धिहै (३) अग्नि, सूर्य, जल, विष आदिसे देहको किसी प्रकारकी हानि न हो, इसका नाम प्रतिष्टंभ सिद्धिहै (४) और कहीं पराजय न हो, इसका नाम अपराजय सिद्धि (५) यह पॉच क्षुद्रसिद्धि हैं ॥८॥2

हे उद्भव ! यह सब योगधारणाकी सिद्धि मात्र कहीं अब ज्ञान धारणासे सिद्धि जो प्राप्त होती हैं, वह में आपके सामने वर्णन करता हूँ सो सुनो॥८॥९॥ सूक्ष्म मेरे रूपमें सूक्ष्म भूत अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, सूक्ष्म तन्मात्राके आकारसे इस भूत सूक्ष्म उपाधिमान मेरे स्वरूपमें धारण करनेसे सूक्ष्मरूपका उपासक पुरुष आणिमा सिद्धिको प्राप्त होता है॥१०॥ ज्ञानशक्ति महत्तत्त्वरूपमें महत्तत्त्वरूप मनमें धारणकरे तो महिमा सिद्धिको प्राप्तहो और भिन्न २ आकाशादिक भूतोंहीके रूपमें मन लगावै तो भूतोंकी महिमा सिद्धिको प्राप्तहो॥११॥ पंचभूतोंके परमाणु

एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः॥ यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे॥९॥ भृतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः॥ अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम॥१०॥ महत्यात्मन्मयि परे यथासंस्थं मनो दधत्॥ महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक्पृथक्॥११॥ परमाणुमये चित्तं भृतानां मयि रंजयन्॥ कालसूक्ष्मार्थता योगी लघिमानमवाप्नुयात्॥१२॥ धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्॥ सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः॥१३॥ महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्॥ प्राकाश्यं पारमेष्ठ्यं मे विंदतेऽव्यक्तजन्मनः॥१४॥

अतिसूक्ष्म हैं, सो मेरा रूप है, उसमें चित्त अनुरक्त करै, तब योगी परमाणु कालके रूपको प्राप्त होता है; इसीका नाम लघिमा सिद्धि है॥१२॥ सात्त्विक अहंकार तत्त्वरूप मुझमें एकाग्रमन धरे तो सब इन्द्रियोंका अधिष्ठाता होवे, मुझमेंही मन लगानेके प्रभावसे यह प्राप्तिसिद्धि प्राप्त होती है॥१३॥ प्रकृतिसे क्रियाशक्ति रूप महत्त्व होयहै; सो रूपहै, उसमें मन लगावे, तो सबसे उत्तम प्राकाम्य सिद्धिको प्राप्त हो॥१४॥

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**उत्तर—**योगशास्त्रके जाननेवाले मुनिजन दो प्रकारके योगी होते हैं, एक तो गृहस्य योगी जो घरमें बैठे २ योग करते हैं, जैसे राजा जनक दूसरे विरक्त योगी जो घर त्यागकर योग करते हैं, जैसे भूतनाथ शिव। आठ सिद्धि मी आदिसे चली भाती हैं, श्रीकृष्णने गृहस्य योगियोंके लिये इन सिद्धियों को कहाया अग्नि, सूर्य, विष, जलका तेज रोकनेके लिये नहीं कहा जो कोई कहे कि, ऐसा भेद नहीं कहा कि, गृहस्थ, योगियोंके लिये यह सिद्धि तो ठीक हैं, भगवान्‌को बैकुण्ठके जानेकी इच्छार्थी इसलिये आतुरतासे योगियोंका नेम नहीं किया॥

त्रिगुण मायाके नियंता अंतर्यामी कालरूपी व्यापक मेरे स्वरूपमें मन लगावै तौ सब जीव और चर अचर शरीरका नियंता होवे, सो ईशिता सिद्धिको प्राप्त होता है॥१५॥ विराट् हिरण्यगर्भ और कारणसे चौथे तुरीय ब्रह्म भगवान् नारायणमें जो मन लगावै तो वह योगी मेरे धर्मको प्राप्त हो, तब वशिता सिद्धिको पावै॥१६॥ निर्गुण ब्रह्ममें निर्मलमन रखै तो परमानन्दको प्राप्तहो, जहाँ सब कामना समाप्त होती हैं॥१७॥ अब गुणहेतु सिद्धि कहते हैं— कि, श्वेतद्वीपके पति शुद्ध धर्ममय मेरे रूपमें मन लगावे तो मनुष्य शुद्धताको प्राप्त हो और उसे क्षुधा पिपासा आदि यह छः ऊर्मी—लहरी नहीं व्यापतीं॥१८॥ आकाश रूप प्राण है, सो मेरा स्वरूप है, उसमें मन लगाकर शब्दका चिंतवन करे तब वह आका

विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे॥ स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रक्षेत्रज्ञचोदनाम्॥१५॥ नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छन्दशब्दिते॥ मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात्॥१६॥ निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः॥ परमानंदमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते॥१७॥ श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि॥ धारयञ्छ्वे तत याति षडूर्मिरहितो नरः॥१८॥ मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्॥ तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणो त्यसौ॥१९॥ चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि॥ मां तत्र मनसा ध्यायन्विश्वं पश्यति सूक्ष्मदृक्॥२०॥ मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनु वायुना॥ मद्धारणाऽनुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः॥२१॥ यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति॥ तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः॥२२॥ परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्॥ पिंडं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडंघ्रिवत्॥२३॥

शमें भूतोंकी वाणी प्रगट दूरहीसे सुनता है॥१९॥ यह नेत्र सूर्यमें मिलावै मनसे मेरा ध्यान करें तब सूक्ष्म दृष्टि हो विश्वको दूरहीसे देखे॥२०॥ मन वायुके संग देहको मुझमें संयुक्त करके जो मेरी धारणा करे तो इस धारणाके प्रतापसे जहाँ मन करे वहॉही देह चली जाय॥२१॥ जब मन मेरे विषे मनकी धारणा से घरे तब मेरे प्रभावसे जैसा रूप करना चाहे वैसाही रूप करे क्योंकि उन्हें मेरे योगबलका आश्रय है॥२२॥ जो सिद्धि पराई कायामें प्रवेश करना चाहै, सो आत्माका चितवन करै, तब अपनी देह छोड प्राणरूप हो बादरकी वायुमें प्रविष्ट हो

वायुके संग परकायामें प्रविष्ट होते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पसे दूसरे पुष्पमें अनायास चले जाते हैं॥२३॥ अब स्वच्छंद मृत्युकी क्रियाकहते हैं, योगधारणा करते समय प्रथम ऍडीसे गुदाका द्वार दाबकर रोकै, पीछे प्राणको त्हृदयमें ले आवै फिर हृदयमें वक्षःस्थलमें मिलावैइसके पीछे कण्ठमें ले आवै, माथेमें लावै तब ब्रह्मरंध्रद्वारा इस देहको छोडै और जिस स्थानमें जाना चाहै वहां जाय॥२४॥ और जो देवताओंके क्रीडा स्थलमें विहार करना चाहे तो मेरी सतोगुणरूपी मूर्त्तिका ध्यान करे तब सतोगुणके अंशसे वहांहीं विमान समेत देवांगना आनकर उपस्थित हो जाती हैं॥२५॥ पुरुष मुझमें विश्वासकर बुद्धिसे मनोरथ करै, तब सत्यसंकल्परूप मेरे रूपमें मन संयुक्त करै तब वैसेही मनोरथको प्राप्तहो यथासंकल्प नाम सिद्धिको पाता हैं॥२६॥ मैं सबोंका ईश्वर और नियंताहूं, स्वतंत्र हूं मेरे भावको प्राप्त हुआ पुरुष कहीं प्रतिहत नहीं होता जैसे मेरी

पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकंठमूर्धसु॥ आरोप्य ब्रह्मरंध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् ॥२४॥ विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्॥ विमानेनोपतिष्ठंति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः॥२५॥ यथा संकल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्॥ मयि सत्ये मनो युंजंस्तथा तत्समुपाश्नुते॥२६॥ यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्॥ कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम॥२७॥ मद्भक्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः॥ तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्म मृत्यूपबृंहिता॥२८॥ अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः॥ मद्योगश्रांतचित्तस्य यादसामुदकं यथा॥२९॥ मद्वि भूतीरभिध्यायञ्छ्रीवत्सादिविभूषिताः॥ ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः॥३०॥

आज्ञा सब मानते हैं, वैसेही उसकी आज्ञाभी सब मानते हैं, कोई उल्लंघन नहीं करसकता, यह पुरुष सब गुण हेतु अप्रतिहताज्ञानाम सिद्धिको प्राप्त होता है॥२७॥ अब तुच्छ सिद्धि कहते हैं, मेरी भक्तिसे शुद्ध सत्त्वरूपमय होकर, योगी और त्रिकालके ज्ञाता ईश्वर इसप्रकार मेरी धारणा करै, तब जन्म, मृत्यु सहित तीनों कालका ज्ञान होय और इसीसे दूसरेके चित्तकी सब बात जानी जाती है॥२८॥ मेरे योगसे जिसका चित्त युक्त हो उसकी देह भोगमय होय सो अग्निसे और अनेक उपाधिसे उपहत नहीं होते हैं, जैसे जलजंतुको जलबाधा नहीं करता, ऐसेही इसको कोई बाधा नहीं कर सकता है॥२९॥ श्रीवत्स, अस्त्र, ध्वज, छत्र, चमरयुक्त मेरी विभूति अवतारका ध्यान करे, तो कभी इसकी पराजय न होय॥३०॥

इसप्रकार मेरी उपासना करै. तब मेरी योगधारणा करनेसे पहले कही हुई सब सिद्धि उसके आगे हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं॥३१॥ अनेक भाँतिकी धारणामें कष्ट बहुत हैं, इसकारण एकही धारण ऐसी करै कि, जिससे सब सिद्धि प्राप्तहों, सो कहते हैं, जितेन्द्रिय होय दांत जित होय, श्वासजित् होय मनजित होय, तुरीय ब्रह्म नारायणस्वरूप जो मैंहूं मेरी धारणा धरनेवाले पुरुषको कौन सिद्धि दुर्लभ है ?॥३२॥ जो मेरे साक्षात् स्वरूपकी धारणा करते हैं, उनको मेरी प्रीति होनेके कारण यह सिद्धि विघ्नकरती हैं, इसलिये इन सिद्धियोंसे व्यर्थ काल न खोवै, अर्थात् इन सिद्धि योंकी चाहना न करै॥३३॥ एक सिद्धि जन्महीसे होती हैं जैसे देवताओंका सिद्धिसहितही जन्म होताहैं, सहितही सिद्धिहैं, एक मंत्रसे, औषधीसे, तपसे जितनी सिद्धि होती हैं, यह सब योगसे पाते हैं परन्तु इनसे सलोक्यादिक मुक्तिको नहीं प्राप्त होते हैं॥३४॥ इसलिये हे उद्भव! सब सिद्धियोंका

उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः॥ सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्टंत्यशेषतः॥३१॥ जितेंद्रियस्य दांतस्य जितश्वासात्मनो मुनेः॥ मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा॥३२॥ अंतरायान्वदंत्येता युंजतो योगमुत्तमम्॥ मया संपद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः॥३३॥ जन्मौषधितपोमंत्रैर्यावतीरिह सिद्धयः॥ योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत्॥३४॥ सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः॥ अहं योगस्य सांख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम्॥३५॥ अहमात्मांतरो बह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्॥ यथा भूतानि भूतेषु बहिरंतः स्वयं तथा॥२६॥ इति श्रीम० म० एकादशस्कंधेऽष्टादशसिद्धिवर्णनं नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ उद्धव उवाच॥ त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यंतमपावृतम्॥ सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः॥१॥

एक मैंही प्रभु हूँ क्योंकि उनकी उत्पत्ति और पालन में हींकरताहुँसिद्धियोंहीका प्रभु मैं नहीं हूं किन्तु में मोक्ष, सांख्य, ज्ञान, धर्म और ब्रह्मके जाननेवालोंका पालक हूँ इसलिये सिद्धियोंकी अपेक्षा नहीं रखकर मुझको प्राप्त होना यही योगका प्रधान फल है॥३५॥ मैं सब जीवोंका आत्मा हूं क्योंकि मैं सबका अंतर्यामी हॅू सर्वत्र व्यापक हूँ जैसे भूतोंमें महाभूत सर्वत्र व्याप्त है और आवरणरहित है॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा—इस सोलह अध्यामें, ज्ञान प्रभाव विचार॥ वह विभूति वर्णन करौं, देत सदा फल चार॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे कृष्ण!तुम साक्षात् परब्रह्म निरावरण तथा स्वतंत्र हो जिनमें सब भूतमात्रकी

उत्पत्ति, प्रलय, रक्षा और जीवन होताहै ऐसे तुम सबके कारण हो; आदि अंतसे रहित हो॥१॥ हे भगवन्! जो वेदके तत्त्वको जानते हैं सो सर्वत्र ऊँचे नीचे पदार्थोंमें कारणरूप तुमको जान तुम्हारी उपासना करते हैं॥२॥ जो आत्मतत्त्वको नहीं जानते हैं, उनके जाननेमें तुम नहीं आते और जिन जिन भावनाविषे ऋषीश्वर भक्ति करके तुम्हारी उपासना करके सिद्धिको प्राप्त होतेहैं, सो मुझसे उन पदार्थोंके नाम कहो॥३॥ सब प्राणियोंके मध्यमें गुप्त तुम अंतर्यामी हो, प्राणियोंका कार्य कारण समर्थके दाता तुम्हैंसब भूत तुम्हारी मायासे मोहित होकर नहीं देखते हैं॥४॥

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः॥ उपासते त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणाः॥२॥ येषुयेषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः॥ उपासीनाः प्रपद्यंते संसिद्धिं तद्वदस्व मे॥३॥ गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन॥ न त्वां पश्यंति भूतानि पश्यंतं मोहितानि ते॥४॥ याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां विभूतयो दिक्षु महाविभूतेः॥ ता मह्य माख्याह्यनुभावितास्ते नमामि ते तीर्थपदांघ्रिपद्मम्॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदांवर॥ युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै॥६॥

जिनमें गुप्त रहतेहो, उन विभूतियोंको पूछते हैं, हे महाविभूतियों के पति! जो तुम्हारी विभूति भूमिसे स्वर्ग, पाताल, दिशाओंमें निश्चय करी हैं और जो विभूति तुम्हारे प्रताप संयुक्त हैं, सो मुझसे कहो, तुम्हारे तीर्थरूप चरणारविन्दोंको मैं नमस्कार करताहूं॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसीप्रकार उद्भवका प्रश्न सुन अति संतुष्ट हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे प्रश्नके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ। इसीभाँति शत्रुओंसे

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*** शंका—**भक्तोंके प्यारे भगवान्‌की पूजन करै, भजन करैध्यान करैऔर भगवान्की सेवा है।सो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, सबको लिखा है कि, ऐसा नहीं लिखा है कि, ब्राह्मण अकेला भगवान्का। पूजन करै, हे ब्राह्मणोंमें उत्तम कुलभूषण! तो फिर श्रीकृष्णसे क्यों उद्धवजीने कही कि, हे भगवन्! जिस विधिसे ब्राह्मण अपने आपको पूजन करते हैं सो विधि कहो हमको यह बडी मारी शंका है क्योंकि वेदकी विधि पूजनमे तो एक विधि है, और शूद्रकी अलग है और भक्तिमार्गमें सबकी एक विधि है सो उद्धव परमभक्त थे भक्तिमार्गकी पूजाका वृत्तान्त बुझा था॥

**उत्तर—**उद्भवने ब्राह्मणके शापसे यदुवंशियोंकी क्षय देखका ब्राह्मणोंने भगवान्‌को माना क्योंकि श्रीकृष्णके देखते ब्राह्मणोंके शापसे यादवका नाश होगया, श्रीकृष्णने कुछ सहाय नहीं की इस वास्ते उद्धवजीने जाना कि ब्राह्मणोंके ऊपर भगवान्का कुछ भी वश नहीं चलता।

युद्ध करनेकी इच्छावाले अर्जुनने युद्ध के समय कुरुक्षेत्रमें प्रश्न कियाथा॥६॥ यदि कोई कहै कि, युद्धके समयमें इन प्रश्नका क्या प्रसंगथा, तो इसका उत्तर यह है कि, राज्यके लिये अपने जातिवालोका वध करना अनुचित अतिनिन्दित और अधर्मरूप जानकर कि, मैंइन्हें मारूंगा, यह मरेंगे इससे करुणा व्याप्त बुद्धि होनेसे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन युद्ध करनेसे निवृत्त हो स्थित हुआ॥७॥ तब मैंने युक्तिसे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुनको समझाया कि, कौन मारताहै ? और कौन मृत्युको प्राप्त होता है? उस उपदेशके प्रसंग में उसने भी इसीप्रकार मुझसे पूँछाथा जैसे अभी तुमने पूँछा और उससे जो मैंने वर्णन किया है, वही मैं तुमसे कहता हूं॥८॥ सो तुम सुनो हे उद्भव! इन सब प्राणीमात्रका आत्मा मैं हूं, सुहृद ईश्वर नियंता मैं हूं और सब

ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्॥ ततो निवृत्तो हंताऽहं हतोऽयमिति लौकिकः॥७॥ स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः॥ अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि॥८॥ अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः॥ अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः॥९॥ अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्॥ गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः॥१०॥ गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्॥ सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः॥११॥ हिरण्यगर्भो वेदानां मंत्राणां प्रणवस्त्रिवृत्॥ अक्षराणामकारोऽस्मि पदानि च्छंदसामहम्॥१२॥ इंद्रोऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्। आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः॥१३॥ ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः॥ देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु॥१४॥

प्राणिमात्रमें भी मैं हूं, सबकी उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयकर्त्ता भी मैंही हूं॥९॥ गतिवालोंकी जो गति चलती फिरती है, उनका भी योग, मन और कर्म मैंहीं हूं, जो सबको वशमें करते हैं, उनमें मेरा रूप हैं, अनंत गुण हैं, तिनमें समता गुण मेरा रूप हैं, गुण संयुक्त पुरुषका स्वाभाविक गुण मैं हूं॥१०॥ गुणवाले पदार्थोंमें क्रियाशक्ति प्रधान जो महत्तत्त्व हैं, वह मैंही हूं, सूक्ष्मोंमें प्रथम जीव मैं हूं दुर्जयोंमें मन में हूं॥११॥ देवोंका अध्यापकमैं हूं, मंत्रोंमें प्रणव में हूं, अक्षरोंमें अकार मैं हूं, छंदोंमें गायत्री मैं हूं॥१२॥ सब देवताओंमें इन्द्र में हूं, आदित्योंमें विष्णु मैं हूं रुद्रों में नीललोहित मैं हूं॥१३॥ ब्रह्मर्षियोंमें भृगु में हूं देवर्षियोंमें नारद मैं हूं, राजऋषियोंमें मनु मैं हूं गायोंमें कामधेनु में हूं॥१४॥

सिद्धेश्वरोंमें कपिलदेव मैं हूं पक्षियोंमें गरुड मैं हूं प्रजापतियोंमें दक्षप्रजापति हूं, पितरोंमें अर्यमा मैंहूं॥१५॥ हे उद्धव! दैत्योंमें दैत्योंका राजा प्रह्लाद मैंहूँ, नक्षत्र ओषधियों का पति प्रभु चंद्रमा हूँ यक्ष राक्षसोंका प्रभु कुबेर मैं हूं॥१६॥ गजेन्द्रों में ऐरावत मैं हूँ, जलजंतुओंमें प्रभु वरुण मेंहूं, प्रतापवानों में और दीप्तवंतों में सूर्य हूं, मनुष्यों में नराधिप मेँहूं॥१७॥ घोड़ोंमें उच्चैःश्रवा मैंहूं, धातुओंमें सुवर्ण मेंहूं दण्डकत्ताओंमें यम मैं हूं, सर्पों में वासुकी मैं हूं॥१८॥ नागेन्द्रोंमें अनंत शेषनाग मेंहूं, सींग तथा दाढवालोंमें सिंह मैंहूं, आश्रमोंमें संन्यास मेंहूं के निष्पाप! वर्णोंमें ब्राह्मण मैंहूं॥१९॥ तीर्थ

सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्रिणाम्॥ प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा॥५१॥ मां विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्लाद मसुरेश्वरम्॥ सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम्॥१६॥ ऐरावतं गजेंद्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्॥ तपतां द्युमतां सूर्यंमनुष्याणां च भूपतिम्॥१७॥ उच्चैःश्रवास्तुरंगाणां धातूनामस्मि कांचनम्॥ यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः॥१८॥ नागेंद्राणामनंतोऽहं मृगेंद्रः शृंगिदंष्ट्रिणाम्॥ आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ॥१९॥ तीर्थानां स्रोतसां गंगा समुद्रः सरसामहम्॥ आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम्॥२०॥ धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः॥ वनस्पतीनामश्वत्थ औषधीनामहं यवः॥२१॥ पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः॥ स्कंदोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः॥२२॥ यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्॥ वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः॥२३॥ योगानामात्मसंरोधो मंत्रोऽस्मि विजिगीषताम्॥ आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम्॥२४॥

और प्रवाहोंमें गंगारूप मैंहूँ. स्थिर जलोंमें समुद्र मैहूं, आयुधोंमें धनुपमैंहूं, धनुषधारियोंमें त्रिपुरका घाती महारुद्र मैंहूँ निवासस्थानमें सुमेरु मैं हूं, दुर्गमस्थलोमें हिमालय मैं हूँ वनस्पतियोंमें अश्वत्थ मैहूं, औषधियोंमें यव मेरा रूपहैं॥२०॥२१॥ पुरोहितोंमें वसिष्ठ मैंहूं वेदार्थज्ञाताओंमें बृहस्पति मैं हूं, सेनापतियोंमें स्वामिकार्त्तिक मेंहूं उत्तम मार्ग प्रवृत्तियोंमें ब्रह्मा हूं॥२२॥ यज्ञमें ब्रह्मयज्ञमेँहूँ, व्रतमें हिंसारहित व्रत मैंहूं, शोधकोंमें वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी, रूप शोधक में हूं, यह सदा पवित्रकारीहै॥२३॥ योगीजनोंमें समाधि में हूँ, विजयकी इच्छावालका जो विचारहै वह मैं हूं

विवेकियोंमें आत्मा, अनात्माके विवेककारी विद्या मेरा रूपहै, पांच प्रकारके जो व्याख्यादि वादी हैं, वह यह हैं, अख्याति, अन्यथाख्याति, शून्यथाख्याति असत् ख्याति और अनीर्वचनीय ख्याति इनमें अनेक प्रकार वाद विवाद करनेवालोंका यह इसप्रकारके हैं, वह उस प्रकारके हैं, इस रीतिके जो अनेक विकल्प हैं, वह मैंहूं॥२४॥ स्त्रियोंमें शतरूपा मैंहूं, पुरुषोंमें स्वायंभुवमनु मेंहूं, मुनियोंमें नारायण मुनि मैंहूं ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार मैं हूं॥२५॥ धर्मोमें अभयदान मेराही रूप है, निर्भय स्थानों में आत्मनिष्ठा हूं अति रहस्यो में प्रियवचन और मौन मेंहूं, मिथुन अर्थात् स्त्री पुरुषों में ब्रह्मा मैं हूँ, जिनके दो अर्द्धभागोंसे स्त्री और पुरुष प्रगट हुए हैं॥२६॥ जो पुरुष धर्ममें सावधान हैं, उनका संवत्सररूपी काल मैंहूं, ऋतुओंमें वसंत मैंहूं, महीनोंमें मार्ग

स्त्रीणां तु शतरूपाऽहं पुंसां स्वायंभुवो मनुः॥ नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम्॥२५॥ धर्माणामस्मि संन्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः॥ गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम्॥२६॥ संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ॥ मा सानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाऽभिजित्॥२७॥ अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः॥ द्वैपायनोऽस्मि व्यासा नां कवीनां काव्य आत्मवान्॥२८॥ वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्॥ किंपुरुषाणां हनुमान्विद्याभ्राणां सुदर्शनः॥२९॥ रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्॥ कुशोस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविष्ष्वहम्॥३०॥ व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः॥ तितिक्षाऽस्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥३१॥ ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्त्वताम्॥ सात्त्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परः॥३२॥

शिर मैंहूं, और सम्पूर्ण नक्षत्रोमें अभिजित मैंहूं॥२७॥ युगोमें सतयुग मैंहूं, धीरोंमें असित देवल मैंहूं, वेदके विभाग कर्त्ताओंमें द्वैपायन व्यास मैंहूं, कवियोंमें शुक्राचार्य मैंहूं॥२८॥ प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रलयगति अगति विद्या अविद्याका जाननेवाला वासुदेव मेंहूं हे उद्भव! वैष्णवोंमें तुम मेरे रूप हो, किंपुरुषोंमें हनुमान मैं हूं, विद्याधरोंमें सुदर्शन मैं हूं॥२९॥ रत्नोंमें पद्मराग मैं हूं, अति सुन्दर वस्तुओंमें पद्मकोश मैंहूँ, दर्भजातियोंमें कुश मेंहूं, घृतोंमें गौका घृत मैंहूं॥३०॥ उद्यमी पुरुषोमें लक्ष्मी मेरा रूपहै, धूत्तोंमें छल करके जो ग्रहण करना हैं, वह मेरा रूप हैं, क्षमावान् पुरुषोंमें क्षमा मैंहूं, सत्यवादियोंमें सत्य मैं हूं॥३१॥ बलवानोंमें इन्द्रियबल और उछाहबल मैं हूं; भक्तोमें भक्तिरूप कर्म मैंहूं, नौमूर्त्तिभक्तोंकी पूजाको प्रगट हैं

उन वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वाराह, नृसिंह, ब्रह्मामें आदि मूर्ति वासुदेव मैं हूं॥३२॥ गंधर्वोंमें विश्वावसु मैं हूं, अप्सराओंमें पूर्व चित्ति मैं हूं, पर्वतोंमें स्थैर्य हिमालय मैंहूँ॥३३॥ जलोमें उत्तम माधुर्यरस मेराही रूपहै, तेजस्वियोंमें अग्नि मैंहूँ, सूर्य चन्द्र और तारोंमें कांति मैं हूँ, आकाशमें परानाम शब्द मैं हूँ॥३४॥ ब्राह्मणके भक्तोंमें बलिराजा मैं हूँ, वीरो में अर्जुन में हूँ, हे उद्धव! निश्चय करके संपूर्ण भूतमात्र की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय मैं हूं॥३५॥ चरण, वाणी, गुदा, हस्त, लिंग इन पांच कर्मेन्द्रियोंका गमन, वचन, मलत्याग, आनंद लेना यह कर्म मैं हूं, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, श्रवण, नासिका ज्ञानेन्द्रियोंके स्पर्श, चितवन, आस्वाद, सुनना, आत्राण कर्म में हूं, उन उनके अर्थ ग्रहण करने की शक्ति भी मैं हूं॥३६॥ विशेष कहकर अब सामान्यसे सबं विभूति कहतेहैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, यह पांच सूक्ष्म मात्रा हैं, अहंकार महत्तत्त्व आदि यह सात प्रकृतिके विकार हैं पंच महाभूत और

विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गंधवाप्सरसामहम्॥ भृधराणामहं स्थैर्यंगंधमात्रमहं भुवः॥३३॥ अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः॥ प्रभा सूर्येंदुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः॥३४॥ ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः॥ भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसंक्रमः॥३५॥ गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानंदस्पर्शलक्षणम्॥ आस्वाद श्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियें द्रियम्॥३६॥ पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्॥ विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम्॥३७॥ अहमेतत्प्रसंख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः॥ मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना॥ सर्वात्मनाऽपि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्॥३८॥ संख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया॥ न तथा मे विभृतीनां सृजतोंडानि कोटिशः॥३९॥

एकादश इन्द्रिय यह सोलह तत्त्व हुए एक पुरुष और प्रकृति, दो यह हुए, इसप्रकार सब पचीस (२५) तत्त्व हुए, रजोगुण, सत्त्वगुण, तमोगुण यह तीन गुण, इनसे आगे परब्रह्म सो सब मैंही हूं, इनकी संख्या, इनका लक्षण सहित ज्ञान और उसका फल तत्त्वका निश्चय सब मैंही हूं॥३७॥ मैंही सबका ईश्वर हॅू सब जीवरूप हूं, मैंही गुणीरूप हूं, मैंही क्षेत्ररूप और क्षेत्रज्ञरूप हूं, इसलिये मुझविना जीव, ईश्वर, गुण, गुणी, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ इत्यादिक भाव कहीं नहीं॥३८॥ अहो ! तुम ऐसे संक्षेपसे क्या कहते हो अच्छी भाँति विस्तार सहित समझाकर कहो, तो इसका उत्तर यह देते हैं कि, पृथ्वीके परमाणुकी संख्या कितनेही कालमें मैं करताहूं और करके कहनेको भी समर्थ हूं परन्तु मेरी जो विभूतियें हैं उनकी

संख्या नहीं करीजाती, मैं अनेक कोटि ब्राह्मण्डोंको सृजता हूं, जब ब्रह्माडोंकी ही संख्या नहीं तब उनमें स्थित मेरी विभूतियोंकी संख्या कौन करसक्ता हैं ?॥३९॥ परन्तु तौभी संक्षेपसे विशेष कर विभूति कहताहूं कि, जहाँ जहाँ तेज, श्री, कीर्त्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, दान, मान और नेत्रोंका आनंद, भाग्य, वीर्य, क्षमा, विज्ञान इत्यादि ये धर्म हैं, सो ये सब मेराही अंश हैं॥४०॥ ये विभूतियें संक्षेपसे मैंने इसलिये कहीं कि, ये मनका विकार हैं, परमार्थरूप नहीं जैसे आकाशके फूल, आदि वाणीमात्रसे कहीं हैं उनके तुल्य हैं॥४०॥ पुरुषको उचित है कि, सतोगुणयुक्त बुद्धिसे वाणीको रोकै मनका नेम करे, प्राणोंको रोके, इन्द्रियोंको निरोध करके बुद्धिको रोकै तब फिर संसारके मार्ग में न पडे॥४२॥ यदि जो पुरुष इंद्रियोंका और बुद्धिका संयम नहीं करें तो दोष उपजै, सो कहते हैं, जो बुद्धिसे भली भाँति वाणी और मनका संयम नहीं करें तो उसके व्रत और ज्ञान सब

तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः॥ वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्रयत्र स मेंशकः॥४०॥ एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः संक्षेपेण विभूतयः॥ मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते॥४१॥ वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छें द्रियाणि च॥ आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने॥४२॥ यो वै वाङ्मनसी सम्यगसंयच्छन्धिया यतिः॥ तस्य व्रतं तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटांबुवत्॥४३॥ तस्मान्मनोवचःप्राणान्नियच्छेन्मत्परायणः॥ मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० एकाद०विभूतिव० षोडशोऽध्यायः॥१६॥ ॥छ॥ उद्धव उवाच॥ यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः॥ वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि॥१॥

क्षीण होजाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेका जल क्षण क्षणमें क्षीण होताहैं॥४३॥ इसलिये वचन, मन, प्राणको जीत मुझमें तत्पर हो, बुद्धि मेरे विषे युक्त करै, क्योंकि ऐसा करनेसे पुरुष कृत्यकृत्य होजाता हैं॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा—इस सत्रह अध्यायमें, साधन भक्ति उपाय॥ हंसरूप धर जो कही, सो वरणी यदुराय॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे कमलदललोचन ! तुमने पहले कहदिया हैं कि, धर्मरूप कर्म भक्तिका और मोक्षका साधन हैं, परन्तु इसप्रकार कर्म करनेवालोंको अवश्य भक्ति मिलजाती हैं, ऐसा नियम देखनेमें नहीं आता, इसकारण वर्ण व आश्रमके आचारवालोंका तथा उस आचारके अधिकारसे रहित संपूर्ण

पुरुषोंका स्वधर्म वर्णन करो कि, वह धर्म जिस भाँति करनेसे पुरुषोंमें तुम्हारी भक्ति उत्पन्न हो जाय सो श्रवण करनेकी इच्छा है तुम्हें अवश्य वर्णन करना चाहिये॥१॥२॥ हे प्रभो! हे महाभुज! हे श्रीमाधव! पहले आपने हंसरूप धारणकर जो धर्म ब्रह्मजीसे कहा था वह परमसुखरूप निश्चय करके कहो॥३॥ हे शत्रुनाशक! बहुधा पहले सिखाया भी धर्म बहुत कालसे अब मनुष्यलोक में न होगा॥४॥ इस धर्मका वक्ता, कर्त्ता, रक्षक, तुम्हारे अतिरिक्त और दूसरा भूमिपर नहीं है, हे अच्युत। हे प्रभो! ब्रह्माजीकी सभामें भी तुम्हारे विना और नहीं जहाँ मृत्तिवंत वेदादिक हैं॥५॥ हे मधुसूदन! सब धर्म के कार्यकर्त्ता, सब धर्मके वक्ता, रक्षक जब तुम इस पृथ्वीको छोड़ोगे, तब नष्टहुए धर्मोंको कौन कहेंगा?

यथाऽनुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत्॥ स्वधर्मेणारविंदाक्ष तत्समाख्यातुमर्हसि॥२॥ पुरा किल महाबाहो धर्मंपरमकं प्रभो॥ यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणेऽभ्यात्थ माधव॥३॥ स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन॥ प्राय भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः॥४॥ वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि॥ सभाया मपि वैरिंच्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः॥५॥ कर्त्राऽवित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन। त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति॥६॥ तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः॥ यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो॥७॥ (श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान्हरिः॥ प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान्)॥॥ श्रीभगवानुवाच॥ धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम्॥ वर्णाश्रमाचावतां तमुद्धव निबोध मे॥८॥ आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः॥ कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदुः॥९॥

॥६॥ सो सब धर्मके ज्ञाता तुम हो इससे हे प्रभो! तुम्हारी भक्ति जिस प्रकार करै, सो सब धर्म जैसे जिसका कर्त्तव्य है, वैसेही मुझसे कहो॥७॥ श्रीशुकदेवजी मुनि बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!इसप्रकार भक्त उद्धवजीके पूछनेसे भगवान् हरि अतिसंतुष्ट हो मनुष्योंका मरणधर्म दूर करनेवाला सनातन धर्म कहने लगे, श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! यह तुम्हारा प्रश्न धर्मरूप है और वर्णाश्रमोंके आचारवंत पुरुषोंको भक्ति आनंदकारी हैं, उसको मैं कहता हूं तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥८॥ पहले सतयुगमें मनुष्योंका वर्ण हंसरूप था, तब सब प्रजा जन्महीसे कृत्यकृत्य

थी, इसीसे कृतयुग नाम हुआ, और कर्म भी कुछ कर्त्तव्य था, सो कहते हैं,॥९॥ उससमय प्रणव ओंकारही वेद था, चारों पाँवोंसे वृषभरूप धारण करे धर्मरूप मैं था, यह यज्ञादिक कर्म नहीं हैं, एक तपस्या सेही इन्द्रियों को स्थिरकर एकाग्रचित्तदो हंसरूप शुद्ध मेरा ध्यान करते थे॥१०॥ हे महा भाग! जब त्रेतायुग हुआ तब विराट् मेरे प्राणसे और हृदयसे वेदत्रयीविद्या प्रगट हुई, उससे होता, अध्वर्यु, उद्गाता, सहित त्रिरूप यज्ञ प्रगट हुआ, सो यज्ञ मेरा रूप है॥११॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह चारों वर्ण विराट् स्वरूपके मुख, बाहु, जंघा और चरणोंसे प्रगट हुए, और भी जो जिसका स्वधर्म था सो प्रगट हुआ॥१२॥ गृहस्थका तो आश्रम जंघासे प्रगट हुआ, ब्रह्मचर्य्यका धर्म हृदयसे हुआ, वानप्रस्थ वक्षस्थलसे हुआ, संन्यास

वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक्॥ उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः॥१०॥ त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी॥ विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥११॥ विप्रक्षत्त्रियविट्छूद्रा मुखबाहूरुपादजाः॥ वैराजात्पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥१२॥ गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यंहृदो मम॥ वक्षःस्थानाद्वने वासोन्यासः शीर्षणि संस्थितः॥१३॥ वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः॥ आसन्प्रकृतयो नणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः॥१४॥ शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम्॥ मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः॥१५॥ तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः ॥ स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्त्रप्रकृतयस्त्विमाः॥१६॥ आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम्॥ अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः॥१७॥ शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया॥ तत्र लब्धेन संतोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमाः॥१८॥

मस्तकसे प्रगट हुआ॥१३॥ और सब वर्ण आश्रमके स्वभाव भिन्न हुए, जिसने नीचयोनिमें जन्म धारण किया, उसका स्वभाव नीच हुआ, जिसने उत्तम योनिमें जन्म लिया, उसका स्वभाव उत्तम हुआ॥१४॥ शम, दम, तप, शौच, संतोष, क्षमा, शुद्ध भाव, मेरी भक्ति, दया, सत्य, यह सब ब्राह्मणका स्वभाव है॥१५॥ तेज, बल, धैर्य, शौर्य, क्षमा, उदारता, उद्यम, स्थैर्य, ब्रह्मण्यता, ऐश्वर्य यह क्षत्रियोंका स्वभाव है॥१६॥ आस्तिकता, दान, निर्दम्भ ब्राह्मणकी सेवा, द्रव्य संग्रह में अतृप्ति यह वैश्यका स्वभाव है॥१७॥ गायोंकी ब्राह्मणोंकी और देवताओंकी

निष्कपट सेवा करै जिससे जो पावै उसीमें संतोष रक्खै, यह शूद्रका स्वभाव है॥१८॥ अशौच, मिथ्या वाणी, चोरी, नास्तिकता, वृथा कलह, काम, क्रोध, तृष्णा, यह सब नीच जातिके स्वभाव हैं॥१९॥ हिंसा न करै, सत्य बोले, चोरी न करें, काम, क्रोध, लोभ, न हो, क्योंकि सबसे बडा जातिका धर्म है॥ २०॥ अब चार आश्रमोंमें पहले ब्रह्मचारीका धर्म कहते हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके गर्भसे लेकर सब संस्कार हों अर्थात् जन्म धारण करने के उपरान्त दूसरा जन्म गायत्री उपदेश होनेके पीछे गुरुके घर जायरहै इन्द्रियों का दम करैं, जब गुरू बुलावे तब हुए वेद पढे॥२१॥ मेखला, मृगचर्म, दंड, रुद्राक्ष माला, यज्ञोपवीत, कमण्डलु, जटा इत्यादि सब धारण कियेर है तेलसे स्नान न करैं, दाँत

अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः॥ कामः क्रोधश्च तर्पश्च स्वभावोंतेवसायिनाम्॥१९॥ अहिंसा सत्य मस्तेयमकामक्रोधलोभता॥ भूतप्रियहितेहा च धर्मोयं सार्ववर्णिकः॥२०॥ द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयनं द्विजः॥ वसन्गुरुकुले दांतो ब्रह्माधीयीत चाऽऽहुतः॥२१॥ मेखलाजिनदंडाक्षब्रह्मसूत्रकमंडलून्॥ जटिलोऽधौत दद्वासोऽरक्तपीठः कुशान्दधत्॥२२॥ स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः॥ न च्छिंद्यामन्नखरामाणि कक्षोप स्थगतान्यपि॥२३॥ रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्॥ अवकीर्णेऽवगाह्याऽप्सु यतासुस्त्रिपदीं जपेत्॥२४॥ अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराञ्छुचिः॥ समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग्जपन्॥२५॥ आचार्यं मां विजानी यान्नावमन्येत कर्हिचित्॥ न मर्त्यबुद्ध्याऽसूयेत सर्वदेवमयो गुरुः॥२६॥

धावन न करे; वस्त्र क्षारसे न धोवै आसनको न रंगै दर्भ धारण करै॥२२॥ स्नान, भोजन, होम, जप, मूत्र, पुरीष जब करै तो मौन रहे, नख, रोम और क्षौरकर्म न करावे, और कॉखके उपस्थके केश दूर न करावै॥२३॥ वीर्यस्खलन न करै, आप ब्रह्मचर्यको धारण करे रहे और जो प्रमादसे स्वप्नमें वीर्य स्खलितहुआ होय तो जलमें स्नान करके प्राणायाम करके गायत्रीका जप करैं॥२४॥ अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, देवताओंकी पवित्र और एकाग्रचित्तसे उपासना करै और यतवाक् होकर जप करै॥२५॥ गुरुओंका मनुष्यबुद्धिसे

सेवन न करे, किन्तु मेरा स्वरूप जानकर सेवन करै, कभी अवज्ञा न करै, क्योंकि संपूर्ण देवता गुरुओंमें वास करते हैं॥२६॥ साँझ सबेरे भिक्षा आवै, सो गुरुके आगे घरै, और भी जो कुछ प्राप्त हो, सो सब गुरुके समर्पण करे और जब, गुरुजीकी आज्ञा होय तो संयमसे भोजन करै॥२७॥ जो गुरु कहींको जाये, तो उनके संग जाय, जब गुरु सोवैं तो उनके चरण दाबै, जब बैठें, तब सावधान हो हाथ जोड़ बहुत दूर न बैठे, आचार्यका आदर सन्मान करें, अच्छी भाँति सदा उपासना करैं॥२८॥ इसप्रकार विषय भोग रहित होकर गुरुकुलमें वास करें और जबतक विद्या पूर्ण हो तबतक अखण्डित व्रत धारण करे रहे ॥२९॥ यह तो ब्रह्मचारीके आश्रमका सामान्य धर्म कहा, अब जो ब्रह्मलोकके जाने की इच्छा करे, सो मेरी

सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत्॥ यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः॥२७॥ शुश्रूषमाण आचाय सदोपासीत नीचवत्॥ यानशय्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृतांजलिः॥२८॥ एवं वृत्तो गुरुकुले वसेद्भोगविवर्जितः॥ विद्या समाप्यते यावद्बिभ्रद्ग्रतमखंडितम्॥२९॥ यद्यसौ छंदसां लोकमारोक्ष्यन्ब्रह्मविष्टपम्॥ गुरवेविन्यसेद्देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्व्रतः॥३०॥ अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम्॥ अपृथग्धीरुपासीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः॥३१॥ स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम्॥ प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोऽग्रतस्त्यजेत्॥३२॥ शौचमाचमनं स्नानं संध्योपासनमार्जवम्॥ तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्याऽभक्ष्याऽसंभाष्यवर्जनम्॥३३॥

निष्ठासे ब्रह्मचर्य्य व्रत करै सो कहते हैं कि, जो यह ब्रह्मचारी, जहॉ मूर्त्ति धारण करे वेद रहते हैं, ऐसे ब्रह्मलोकमें जाना चाहे तो गुरुओंहीके पास रहे, वेदाध्ययन करै, निष्काम ब्रह्मचर्य व्रत करै, अधिक क्या कहें ? अपना देहतक भी गुरु के समर्पण कर दे॥३०॥ पूजाके स्थल कहते हैं, अग्नि, गुरु, आत्मा सब प्राणीमात्रमें मेरी बुद्धि रक्खे मुझसे भिन्न न जाने, इसप्रकार ब्रह्मतेजयुक्त निष्पाप मेरी उपासना करै॥३१॥ स्त्रियोंका दर्शन, उनसे भाषण, परिहास न करें और जो कहीं कोई स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर बैठे होयँ तो उनको न देखे, आप गृहमें न रहे॥३२॥ यह धर्म सब आश्रमोंका कारण है, शौच मट्टीसे हाथ पाँव धोवे, आचमन करै, स्नान, संध्या, शुद्धभाव तीर्थ सेवन, तप, भिक्षा करै, परन्तु स्पर्श किसीका न

करें, जो असंभाष्य हैं, उन नीचोंका त्याग करे॥३३॥ हे कुलनंदन! सब प्राणीमात्रमें मेरा भाव रक्खै, मन वचन इन्द्रियोंको संयुक्त करै, यह नेम सब आश्रमोका है॥३४॥ इस प्रकार जो व्रत रक्खे सो अग्निके समान तेजस्वी होवै, सब कर्म जला, निर्मल हो, मेरी भक्तिको प्राप्त होवै॥३५॥ यह निष्काम ब्रह्मचारीके लिये मोक्षका प्रकार कहा जो सकाम होय सो वेदार्थ विचार, ब्रह्मचर्य छोड़ गृहस्थके आश्रममें आना चाहें, तो गुरुको दक्षिणा दे, आज्ञा ले तब अभ्यंगादिक करके मेखला, दंड, मौंजी छोड़े (इस कर्मका नाम समावर्त्तन कहते हैं)॥३६॥ तहाँ दोनों पक्ष कहते हैं कि, जो विवाहकी इच्छा होय तो गृहस्थ होजाय, निष्काम होय तो वानप्रस्थ आश्रम ले अथवा संन्यास ले, आश्रमसे आश्रम में जाय, आश्रम विना न रहे, ब्राह्मणमें श्रेष्ठ उस आश्रममें मेरी भक्ति करताहुआ विचरै और पिछले आश्रमसे पूर्वमें न आवै, अर्थात् संन्यासी गृहस्थी

सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन॥ मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयमः॥३४॥ एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन्॥ मद्भक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः॥३५॥ अथानंतरमावेक्ष्यन्यथा जिज्ञासितागमः॥ गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः॥३६॥ गृहं वनं वोपविशेत्प्रव्रजेद्वा द्विजोत्तमः॥ आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत्॥३७॥ गृहार्थी सदृशीं भार्यामुद्वहेदजुगुप्सिताम्॥ यवीयसीं तु वयसा यां सवर्णामनुक्रमात्॥३८॥ इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥ प्रतिग्रहोऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम्॥३९॥ प्रतिग्रहं मन्यमानस्त पस्तेजोयशोनुदम्॥ अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक्तयोः॥४०॥

न हो॥३७॥ जो गृहस्थ होना चाहे सो समावर्तन कर्मसे विवाह करै, गृहस्थी होकर लक्षणवंत अपने कुल समान कुलकी कन्या विवाह, प्रथम तो अपने वर्णकी व्याहै पीछे और भी करना चाहे तो अनुक्रमसे और व्याहै॥३८॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यह तीन धर्म समान हैं यज्ञ, अध्ययन, दान, यह तीनों वर्णोंको समान हैं, परन्तु प्रतिग्रह, अध्यापन, यज्ञ कराना यह तीनों कर्म त्राह्मणहीको करने उचित हैं॥३९॥ प्रतिग्रह लेनेमें जप, यज्ञमें कृपणता आदि दोष जब देखे तो स्वामीसे छोड़े खेत में पड़े कणसे आजीविका करै अथवा और किसी वस्तुसे आजीविका करे यज्ञ करे करावे अथवा पढ़ावै यह दो वृत्ति करें, जो इनमें भी दीनता दोष देखे तो उंछवृत्तिही करै॥४०॥

ब्राह्मणका यह देह निश्चयही तपस्या के कष्ट सहनेको उत्पन्न किया है, क्षुद्र कामको न करे, तो परलोकमें अनंत सुख ब्राह्मणको प्राप्त होता है॥४१॥ जो हाटमें अथवा क्षेत्रों में अन्न पड़ा रहै उसको बीन उसीसे निर्वाह करै और उसीसे संतोष रक्खै उत्तम निष्काम धर्म करे, मुझमें चित्त रक्खै घरमें तो रहै परन्तु बहुत आसक्त न हो, इसप्रकार शान्तिको प्राप्त हो॥४२॥ दरिद्रीके लिये इसप्रकार निर्वाह करने को कहाहै, जो सद्रव्य है, उसका

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते॥ कृच्छाय तपसे चेह प्रेत्यानंतसुखाय च॥४१॥ शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचे ता धर्मं महांतं विरजं जुषाणः॥ मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्नातिप्रसक्तः समुपैति शांतिम्॥४२॥ समुद्धरंति ये विप्रं सीदंतं मत्परायणम्॥ तानुद्धरिष्ये न चिरादापद्भ्यो नौरिवार्णवात्॥४३॥ सर्वाः समुद्धरेद्राजा पितेव व्यसनात्प्रजाः॥ आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान्॥४४॥

प्रकार कहते हैं जो ब्राह्मण दरिद्री होय और मेरी भक्ति करनेमें तत्पर होय उसको जो आपदासे उद्धार करते हैं, सो हे उद्धव! उन मनुष्योंको मैं थोडेही कालमें उद्धार करूंगा, जैसे समुद्रमें डूबते हुओंको नाव पार लगाती है, वैसेही जो मनुष्य अथवा ब्राह्मणका निर्वाह करते हैं, मैं संसाररूपी समुद्र से उन मनुष्योंको निश्चय पार करूंगा॥४३॥ राजा होय तो उसका आवश्यक धर्म यही है कि, जैसे पिता पुत्रको कष्टसे छुडाता है,

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शंका- श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा कि, हमारा भजन करनेवाले ब्राह्मणको दुःखद्रारिद्र आदि लेके अनेक संकटसे जो कोई छुडाता है, तो उस छुडानेवाले मनुष्यको हम बहुत शीघ्र दुःख दारिद्रसे छुडा देते हैं, इस बात में यह शका होती है कि, अपने भजन करनेवाले ब्राह्मणको आप दुख दारिद्रसे क्यों नहीं छुडाते, दूसरेको लोम क्यों दिखाते हैं, जैसे बनिये आडती लोगोंसे काम करते हैं ऐसा वचन श्रीकृष्णचन्द्रने वय कहा?

** उत्तर–**बडे बडे पाप ब्राह्मणलोग करते हैं, तो उन बड़े पाप से दुख दारिद्र ब्राह्मणोंको होता है और क्षत्रिय, वैश्य शूद्रको थोडेही पापोंसे दुःख होता है, इस बातका भगवान्‌ने विचार किया कि, हम शीघ्र ब्राह्मणोंको अपना भजन करनेवाला जानकर दुख दारिद्रसे छुड़ा सकेंगे तो ब्राह्मण और अभिमान करके पाप करेंगे और जान लेंगे कि, भजनके प्रतापसे दुःखनाश जल्दी होजाता है फिर ससारका सुख क्यों नहीं भोगे हमारा पाप क्या करेगा ? ऐसा विचार कर ब्राह्मणका मान नाश करनेके लिये जब तक ब्राह्मण पापसे नहीं छूटता, तबतक उस ब्राह्मणके दुख दारिद्रको दूसरे मनुष्यसे दूर कराते हैं कि, ब्राह्मणों को विदित होजाय कि, हम भगवान्का ऐसा बडा भजन करते हैं तो भी हमको पापी जानकर हमारे दुख दारिद्रका नाश नहीं किया, जो हमारा पाप हमारे पास न होता तो शीघ्रही मजनके प्रभा वसे हमारे दुःखका नाश करदेते, अब पाप कभी नहीं करेंगे ऐसा विचारके त्राह्मण पापबुद्धिको त्यागदेते इसलिये दूसरेसे ब्राह्मणका दुःख दारिद्रनाश करनेके लिये श्रीकृष्णने कहा ।

तथा जैसे कीचडमें पडे हाथीको हाथी निकालता है, उसी प्रकार संपूर्ण प्रजाको दुःखसे उद्धार करैं, इसीप्रकार धैर्यवान् राजाको विपत्तियोंसे अपनी आप रक्षा करनी उचित है॥४४॥ इसप्रकार राजालोग इस लोकमें सब पाप दूर कर सूर्यके समान प्रकाशित विमान में बैठ इन्द्रके संग आनन्द करते हैं॥४५॥ यदि ब्राह्मण दरिद्रसे दुःख पाता हो, तो उसको उचित है, कि वाणिज्य वृत्तिकर आपदासे छूटै, परन्तु मदिरा (शराब) और रसादिक न बेचे और इसमें भी जो निर्वाह न हो तो क्षत्रियवृत्ति करै, परन्तु नीच सेवाकी वृत्ति कभी न करै, यह ब्राह्मणका धर्म कहा॥४६॥ अब क्षत्रियका धर्म कहते हैं, जो आपदा आनकर पड़े तो वैश्यवृत्तिसे जीविका करै, या मृगया करके जीवन धारण करै, वा ब्राह्मणका रूपधर अध्यापनसे जीविका करै परन्तु नीचकी सेवा न करे॥४७॥ वैश्यको यदि आपदा पडै तो शुद्रकी वृत्तिको करै, उसमें भी आपदा हो तो चतुर

एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा॥ विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिंद्रेण सह मोदते॥४५॥ सीदन्विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरे वापदं तरेत्॥ स्वङ्गेन वाऽऽपदाक्रांतो न श्ववृत्त्या कथंचन॥४६॥ वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मृगययाऽऽपदि॥ चरेद्वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथंचन॥४७॥ शूद्रवृत्तिं भजेद्वैश्यश्शूद्रः कारुकटक्रियाम्॥ कृच्छ्रान्मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा॥४८॥ वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यैर्यथोदयम्॥ देवर्षिपितृभूतानि मद्रूपाण्यन्वहं यजेत्॥४८॥४९॥ यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा॥ धनेनाऽपीडयन्भृत्यान्न्यायेनैवाहरेत्क्रतून्॥५०॥ कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत्कुटुंब्यपि॥ विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥५१॥

ताकी क्रियासे जीविका करै, जब अपनी आपदा निवृत्त होजाय तो नीचवृत्ति छोड़दे॥४८॥ इसप्रकार सबोंकी वृत्ति कही, अब गृहस्थका आवश्यक पंचयज्ञ कत्तर्व्य कर्म कहते हैं कि, ब्रह्मयज्ञ करके तो ऋषियोंको संतुष्ट करे, श्राद्धमें स्वधासे पितृयज्ञ करै, होममें स्वाहा करके देवताओंका यज्ञ करै, बलिदानसे भूत यज्ञ करे, अन्न जलसे मनुष्योंको तृप्त करै, यथाशक्ति करै सबमें मेरी बुद्धि रक्खै यह कर्म सब अवश्य कर्तव्य हैं॥४९॥ शक्तिके अनुसार कर्त्तव्य कर्म कहते हैं, विनाही उद्यम अथवा उद्यमसे पाया हो और शुद्धहो, तो उस धनसे जिसमें कुटुम्बको पीड़ा न हो, वैसेही न्यायसे यज्ञोको करै॥५०॥ कुटुम्बमें आसक्त न हो, परन्तु मेरे भजनमें सावधान रहै, इस संसार प्रपंचको मिथ्या जानै स्वर्गको भी मिथ्या

मानै, आत्माहीको केवल सत्य जानै॥५१॥ पुत्र, स्त्री, कुटुम्बी, बन्धु इत्यादिकोंका संग यात्रा करनेवालोंके संगके समान है, जैसे निद्रामें स्वप्न देखते हैं और जागतेही नष्ट होजाते हैं, ऐसेही देहके नष्ट होनेपर यह सब चले जाते हैं॥५२॥ इस प्रकार घरमें विचार करता अतिथिकी भाँति रहै, यह मेरा घर है, ऐसा अहंकार न रक्खै, क्योकि अहंता और ममता छोडने सेही पुरुष नहीं बँधता॥५३॥ गृहस्थके जो धर्म कहे हैं, उनसे ‘मेरी पूजा करे मुझमें भक्ति करै और गृहस्थाश्रममें रहनेके उपरान्त वानप्रस्थ होकर जो संतान हो तो संन्यास ले॥५४॥ जो पुरुष केवल घरमें ही आसक्त हैं, पुत्र वित्तमें प्रीतिकर स्त्रीकं वशमें रहते हैं, वह महादीन हैं, मूर्ख हैं और अहंता ममतासे बँधे हैं॥५५॥ मेरी माता और मेरा पिता

पुत्रदाराप्तबंधूनां संगमः पांथसंगमः॥ अनुदेहं वियंत्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा॥५२॥ इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्व तिथिवद्वसन्॥ न ग्रहैरनुबध्येत निर्ममो निरहंकृतः॥५३॥ कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान्॥ तिष्ठेद्वनं वोप विशेत्प्रजावान्वा परिव्रजेत्॥५४॥ यस्त्वासक्तमतिर्गेहे पुत्रवित्तेषणातुरः॥ स्त्रैणः कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते॥५४॥५५॥ अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजात्मजाः॥ अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवंति दुःखिताः॥५६॥ एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम्॥ अतृप्तस्ताननुध्यायन्मृतोंधं विशते तमः॥५७॥ इति श्रीमद्भा० महा० एकाद० ब्रह्मचर्यादि० सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा॥ वन एव वसेच्छांतस्तृतीयं भागमायुषः॥१॥

वृद्ध है, स्त्री छोटी है, बालक छोटे हैं, यह मेरे विना कैसे जीवन धारण करेंगे? हम विना यह दीन अनाथ दुःखी होजायँगे, इस प्रकार जो सोचते हैं॥५६॥ और गृहकी आशा करके विक्षिप्तमन हो मंति (बुद्धि) मूढ़ होने से स्त्री पुत्र दिकोंका ध्यान करते हैं सो पुरुष कभी तृप्त न होकर मरनेके उपरान्त अत्यन्त तामसी योनिमें पडतेहैं॥५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा—अष्टादश अध्याय में, वानप्रस्थ संन्यास॥ कहूँ दोउनके धर्ममें, करहु यही अभ्यास॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, जब आयुका तीसरा भाग आवै, अर्थात् सौ वर्षकी आयुके हिसाबसे पिछत्तर (७५) वर्ष पूरे हों तो पुत्रोंको घर सौंपकर वनमें बसै और यदि स्त्री अपने संग आवै तो वनमें

रक्खै, नहीं तो वह पुत्रके पास रहे आप वनमें शांत होकर रहे॥१॥ कंद, मूल, फलोंसे आत्माको तृप्त करे वल्कल वस्त्र पहरे तृण, पत्ते और मृगचर्म धारण करै यह सब वनकी वस्तु अतिपवित्र हैं॥२॥ केश, रोम, नख, दाढी, मूंछ दूर न करावे और इनको धोवै भी नहीं, जलमें तीन काल स्नान करे भूमिमें शयन करै॥३॥ ग्रीष्मऋतुमें पंचानि तपै, वर्षा में जलवृष्टि सहे जाड़े में कंठतक जल में मग्न रहे इस प्रकार तप करै॥ ॥४॥ अग्नि से पका हुआ पदार्थ खाय या समयके पक्व फलादि खाय, ओखली व पत्थरसे कुटी होय वह वस्तु खाय, दॉतसे कुटी वस्तुको भी खाय॥५॥ अपनी सब आजीविकाकी वस्तु आपही ले आवे और देशकालका बल देखे दूसरेका लायाहुवा अन्नादिक पदार्थ न ले॥६॥ वनकी

कंदमूलफलैर्वन्यैर्मेध्यैर्वृत्तिं प्रकल्पयेत्॥ वसीत वल्कलं वासस्तृणपर्णाजिनानि च॥२॥ केशरोमनखश्मश्रुमलानि बिभृयाद्दतः॥ न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थंडिलेशयः॥३॥ ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन्वर्षास्वासारषाड्जले॥ आकंठमग्नः शिशिर एवंवृत्तस्तपश्चरेत्॥४॥ अग्निपक्वं समाश्नीयात्कालपक्वमथापि वा॥ उलूखलाश्मकुट्टो वा दंतो लूखल एव वा॥५॥ स्वयं संचिनुयात्सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम्॥ देशकालवलाभिज्ञो नाददीताऽन्यदाऽऽहृतम्॥६॥ वन्यैश्चरुपुरोडाशैर्निर्वपेत्कालचोदितान्॥ न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी॥७॥ अग्निहोत्रं च दर्शश्च पूर्णमासश्च पूर्ववत्॥ चातुर्मास्यानि च मुनेरास्नातानि च नैगमैः॥८॥ एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसंततः॥ मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकादुपैति माम्॥९॥ यस्त्वेतत्कृच्छ्रतश्चीर्णंतपो निःश्रेयसं महत्॥ कामायाल्पीयसे युंज्याद्बालिशः कोऽपरस्ततः॥१०॥

वस्तुके चरू पुरोडाशनमें देवताओका यज्ञ करै, वनमें आश्रम बनाकर रहे, परन्तु वेदोक्त पशुसे मेरा यजन न करै॥७॥ पूर्ववत् नाम गृहस्थाश्रम सरीखे अग्निहोत्र दर्श पूर्णम सेष्टि चातुर्माभ्य यज्ञ इतन ही वेदने गृहस्थाश्रमोंको अनुष्ठान कहा है॥८॥ इसप्रकार जीवन तक तपस्या करनेसे जिसका मॉस सूख जाने संपूर्ण देश में नसें दिखाई देने लगे, वह वानप्रस्थ जो कि मैं तपोमय हूं सो मेरा आराधन करनेसे प्रथम ऋषिलोकसे मह लोक जाय, इसके उपरान्त क्रमसे मुझे भी प्राप्त होगा॥९॥ इतने कष्टसे प्राप्त हुई मोक्ष फलदायक तपस्या तुच्छ काममें न लगावै, जो लगावै।

तो उससे मूर्ख कौन है ?॥१०॥ इसप्रकार संपूर्ण धर्म निष्काम करें, तो निश्चय मोक्ष होजाय और जो आयुके तीसरे भागमें वैराग्य थोडासा उत्पन्न हो तो संन्यास ले, यदि शरीरकी सामर्थ्य पहलेही घट जाय तो विरक्त होकर रहै, संन्यास ले और जो विरक्त भी न होसकै उसे क्या करना चाहिये ? तो कहते हैं कि, जब यह धर्मके नेम करनेमें असमर्थ हो वृद्धावस्था हो तो अग्रिहोत्रकी अग्नि आपमें रखकर चित्त मुझमें स्थिरकर अग्निमें प्रविष्ट हो शरीरको छोड़दे॥११॥ और जो विरक्त होय, सो कर्मोंका फल तथा देवताओंके लोकको नरकके समान जानैं, ऐसा करनेसे यह सब

यदाऽसौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः॥ आत्मन्यग्नीन्समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं समाविशेत्॥११॥ यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु॥ विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः॥१२॥ इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे॥ अग्नीन्स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत्॥१३॥ विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः॥ विघ्नान्कुर्वंत्ययं ह्यस्मानाक्रम्य समियात्परम्॥१४॥ बिभृयाच्चेन्मुनिर्वासः कौपीनाच्छादनं परम्॥ त्यक्तं न दंडपात्रा भ्यामन्यत्किंचिदनापदि॥१५॥

अग्निहोत्रादिक कर्म छोड़ अच्छी भाँति संन्यास लेय॥१२॥ संन्यास के आरंभके उपदेशके अनुसार मेरा पूजन करे, ऋत्विजोंको सर्वस्व दे, अग्निहोत्रको अपने प्राणोंमें प्रविष्ट कर, आप निरपेक्ष हो संन्यास लेय॥१३॥ जब ब्राह्मण संन्यास लेता है, तब देवता, स्त्री पुत्ररूप होकर उसको इसकारण विघ्न करते हैं कि, यह हमारी अवज्ञा करके आगे चलना चाहता है, परन्तु तोभी यह पुरुष उन विघ्नोंको लाँघ संन्यास ग्रहण करै, उनके विघ्न न माने *॥१४॥ यदि संन्यासी वस्त्र पहरना चाहे तो जितनेसे कौपीन ढकै उतना वस्त्र पहरे और कुछ धारण न करें,

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शंका - जो ब्राह्मण वैराग्यमें मन लगाकर संन्यास लेनेकी इच्छा करते हैं उनके विघ्नको स्त्री आदि परिवार कैसे करेंगे! क्योंकि मन कच्चा हो तब तो जो चाहे सो विन्न करदेवे और जो मन पक्का होकर वैराग्यमें लग गया तो किसीका किया विघ्न नहीं होसक्ता।

** उत्तर -** माई, स्त्री, पुत्र, कुटुम्बसे उत्पन्न हुई जो फाँसी है उसको सब चर अचर जीवजन्तु काटा चाहैं तो किसीकी काटी नहीं कटसक्तौ, जो कोई महात्मा काटनेकी इच्छा करेंगे तो बडी कठिनता से वह फांसी फटसक्तीहै क्योंकि स्त्री पुत्र मोहमें पशु पक्षी मी बँघगये हैं फिर मनुष्य बँधगया तो क्या आश्चर्यकी बात है? इसलिये श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा कि, ब्राह्मणका मन वैराग्यमें लगा है तो भी स्त्री पुत्र आदि परिवार सन्यासमें विघ्न करतेहैं।

एक दंड धारण करें; एक जल पात्र अर्थात् कमंडलु अपने पास रखखे और कुछ नहीं रक्खे॥१५॥ पृथ्वी में देखकर पांव धरै, वस्त्रसे छना जल पान करें, वचन सत्य बोले और आचरण मनमें विचार जब शुद्ध मन न होय तब करै॥१६॥ हे उद्धव ! वचनका दंड मौन रहना, देहका दंड सकाम कर्म नहीं करना, चित्तका दंड प्राणायाम में स्थिर करें, जिसके यह दंड नहीं वह बाँसके दंडका संन्यासी कहलाता है॥१७॥ ब्राह्मणों में ही प्रतिग्रह, यजन, अध्ययन, शिलोंच्छवृत्ति यह चार प्रकारके आचार रखते हैं, उनके घर भिक्षा करे और जो निन्दित हो उसके घर भिक्षा न करे यहाँ मुझे यह अलभ्य लाभ होगा इस उद्वेगसे रहित सात घर भिक्षा करें, जो कुछ प्राप्त हो उसीमें संतोष करै॥१८॥ भिक्षाले जहाँ जलाशय

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्॥ सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥१६॥ मौनाऽनीहानिलायामा दंडा वाग्देहचेतसाम्॥ न ह्येते यस्य संत्यंग वेणुभिर्न भवेद्यतिः॥१७॥ भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान्वर्जयंश्चरेत्॥ सप्ता गारानसंक्लृप्तांस्तुष्येल्लब्धेन तावता॥१८॥ बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः॥ विभज्य पावितं शेषं भुंजी ताऽशेषमाहृतम्॥१९॥ एकश्चरेन्महीमेतां निःसंगः संयतेंद्रियः॥ आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान्समदर्शनः॥२०॥ विविक्तक्षेमशरणो मद्भावविमलाशयः॥ आत्मानं चिंतयेदेकमभेदेन मया मुनिः॥२१॥ अन्वीक्षेतात्मनो बंधं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया॥ बंध इंद्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः॥२२॥ तस्मान्नियम्य षड्वर्गे मद्भावेन चरन्मुनिः॥ विरक्तः क्षुल्लकामेभ्यो लब्ध्वात्मनि सुखं महत्॥२३॥

होय वहाँ जाय पाँव धोवे आचमन करे मौन होकर मार्जन करै, मार्ग के दोष की शुद्धि करे, पीछे विभाग कर विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, भूतोंको समर्पण करे थोडा २ अलग अलग करके रक्खै, बाकी सब भोजन करै॥१९॥ अब एक दूसरी क्रिया और भी है कि, संपूर्ण पृथ्वी में फिरे, परन्तु संग किसीका न करे, जितेन्द्रिय रहे, आत्माही में संतुष्ट धीर और समदृष्टि हो॥२०॥ एकांत निर्भयस्थल में रहै, मेरी भावनासे चित्त निर्मल रक्खे, आत्मामें और मुझमें भेद नहीं देखे, अभेदसे एक आत्मा विचारे ऐसा विचारशील हो॥२१॥ ज्ञाननिष्ठा से अपने बंध मोक्षका विचार करै। इन्द्रियोंके विक्षेपको बंध कहते हैं और इन्द्रियोंके संयमको मोक्ष कहतेहैं॥२२॥ इसलिये इन्द्रियोंको निग्रह करके मुझमें चित्त

रक्खै, तुच्छ कामनाओंसे विरक्त रहै, तब मुनि अतिउत्तम आत्मसुखको प्राप्त हो सर्वत्र स्वेच्छापूर्वक विचरै॥२३॥ नगर, ग्राम, व्रजमें भिक्षाको जाय, जहाँ कहीं बहुतसे मनुष्योंका संग आया हो, या यात्रियोंका संग हो तहॉ भिक्षाको जाय, जो पुण्य देश, नदी, पर्वत, वन, आश्रम हैं, वहॉ पृथ्वी में फिरे॥२४॥ वानप्रस्थके आश्रममें जाय नित्य भिक्षा करै, उसका अन्न शुद्ध है, उससे सत्त्व शुद्ध होताहै, तब शीघ्रही सिद्धि मिलती है और मोह संपूर्ण घटजाता है॥२५॥ गृहस्थके घर उत्तम सामग्री मिष्टान्न पावै, वहाँ भिक्षा छोड़ उछवृत्तिके अन्नकी भिक्षाको मन कैसे चले? तो कहते हैं कि, इन मिष्टान्नादिकोंको वस्तु करके न देखे इससे नाशको प्राप्त होता है, इस लोक तथा परलोक में मन आसक्त न करे मिष्टान्नादिकके लिये उपाय न करै॥२६॥ जो यह जगत् और शरीर, मन, वचन प्राणसे युक्त हैं, अहंता, ममताके धर्म यह आत्मामें सब

पुरग्रामव्रजान्सार्थान्भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत्॥ पुण्यदेशसरिच्छैलपनाश्रमवतीं महीम्॥२४॥ वानप्रस्थाश्रमपदेष्वभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत्॥ संसिध्यत्याश्वसंमोहः शुद्धसत्त्वः शिलांधसा॥२५॥ नैतद्वस्तुतया पश्येद्दृश्यमानं विनश्यति॥ असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्र चिकीर्षितात्॥२६॥ यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राणसंहतम्॥ सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थस्त्यक्त्वा न तत्स्मरेत्॥२७॥ ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वाऽनपेक्षकः॥ सलिंगानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदवि धिगोचरः॥२८॥ बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत्॥ वदेदुन्मत्तवद्विद्वान्गोचर्यां नैगमश्चरेत्॥२९॥ वेदवा दरतो न स्यान्न पाखंडी न हैतुकः॥ शुष्कवादविवादेन कंचित्पक्षं समाश्रयेत्॥३०॥

मायामात्र हैं, यथार्थ नहीं, ऐसी युक्तियोंसे आत्मनिष्ठहो फिर देहादिक का स्मरण न करै, क्योंकि स्मरणसे वैराग्यमें प्रतिबंध होता है॥२७॥ अब परमहंसधर्म कहते हैं; एक वैराग्यसे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पूर्ण ज्ञानी अथवा मुक्तिभी न चाहनेवाले मेरी दृढभक्ति, करनेवाले भक्त दंडादि ककी आवश्यकतावाले आश्रमधर्मोकी आसक्ति त्यागकर जितना अपनेसे हो सके उतना आश्रमसम्बन्धी धर्म करै, परन्तु अत्यन्त उसमें लिप्त न हो॥२८॥ विवेकी होनेपर भी बालकके समान फिरते हैं, मान अपमानसे शून्य रहते हैं, अति चतुर हैं परन्तु तोभी जड़की भॉति रहते हैं, अनु संधान नहीं रखते हैं, सो बुद्धिमाद हैं परन्तु उन्मत्तके समान वेदके धर्मों में निष्ठ हैं, परन्तु कुछ आचारका नेम नहीं है॥२९॥ कर्मही करना मुख्य

एस वेदके वादमें आसक्त न हो, पाखण्डी न हो, केवल तर्कही सब जगह न करै और जहाँ प्रयोजन विना वाद होता हो वहाँ किसीका पक्ष न॥६५॥ करै॥३०॥ किसी मनुष्यसे उद्वेग न करें न मनुष्योंसे आप उद्विग्न हो, अपमान किसीका न करे, आप अपमान सहै, इस देहके लिये पशुके ॐ समान किसीसे वैर नहीं करै॥३१॥ क्योंकि सबमें आत्मा एकही हैं वैर किससे करे ? ऐसे समझकर निवृत्तिहोवै, जैसे जलके पात्र अनेक होते हैं और उनमें अनेक चन्द्रमा प्रतिबिम्ब दीखते हैं परन्तु चन्द्रमा एकही है इसीप्रकार आत्मा भी एकही है, और अनंतसे भासै है॥३२॥ और जो समय समय में भोजन न मिले तो खेद न करे, पावै तो हर्ष न करे, धैर्य रक्खे क्योंकि प्राप्ति अप्राप्ति दोनों दैवाधीन हैं॥३३॥ आहार तो अवश्य

नोद्विजेत जनाद्धीरो जनं नोद्वेजयेन्न तु॥ अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन॥ देहमुद्दिश्य पशुवद्वैरं कुर्यान्न केनचित्॥३१॥ एक एव परो ह्यात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः॥ यथेंदुरुदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च॥३२॥ अल ब्ध्वा न विषीदेत काले कालेऽशनं क्वचित॥ लब्ध्वा न हृष्येद्धृतिमानुभयं दैवतंत्रितम्॥३३॥ आहारार्थं समीहेत युक्तं तत्प्राणधारणम्॥ तत्त्वं विमृश्यते तेन तद्विज्ञाय विमुच्यते॥३४॥ यदृच्छयोपपन्नान्नमद्याच्छ्रेष्ठमुतापरम्॥ तथा वासस्तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन्मुनिः॥३५॥ शौचमाचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत्॥ अन्यांश्च नियमाञ्ज्ञानी यथाऽहं लीलयेश्वरः॥३६॥ न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता॥ आदेहांतात्क्वचित्ख्यातिस्ततः संपद्यते मया॥३७॥

चाहिये कि, जिससे जीवन हो, प्राण धारणका तो प्रयोजन यह है कि, जो तत्त्वको विचारै तो मुक्त हो॥३४॥ ईश्वरेच्छासे जो कुछ मिलै सो भक्षण करै, भला हो वा बुरा हो इसीप्रकार मुनि भी वस्त्र, शय्या जैसी पावै, उसेही ग्रहण करैं॥३५॥ जैसे मुझे कुछ चाहना नहीं और जैसे में लीलापूर्वक धर्म करता हूं, उसीप्रकार ज्ञानीपुरुष भी आसक्ति छोड़ शौच, आचमन, स्नान और भी नेम करें, विधिके वश होकर न करें, ज्ञान दृष्टि रखकर क॥३६॥ ज्ञानीको भेदकी प्रतीति नहीं होती और जो होती है, वह पहलेही मेरे ज्ञानसे नष्ट होजाती है यद्यपि देह गिरनेतक कभी कभी आहारादिकमें भेद प्रतीति देखीजाती है, परन्तु तो भी वह अयथार्थ रूप जानीहुई है, देहके गिरनेपर मुक्ति होजाती है॥३७॥

अब केवल वैराग्ययुक्त हो ज्ञानकी इच्छा रखनेवालेका कर्त्तव्य कहते हैं कि, जो यह गृह पुत्र आदि सबको दुःखरूप जान वैराग्य युक्त हो और ज्ञानकी इच्छा करतेहो मेरे धर्म भी कुछ जानता हो, सो उत्तम गुरुका सेवन करै॥३८॥ जबतक ब्रह्मज्ञान मिलै तबतक श्रद्धा और भक्ति रखकर ईर्षा छोड़ गुरुको मेराही स्वरूप जान अत्यन्त आदरसत्कारसे उसकी सेवा करैं॥३९॥ अब अधिकार विना जो संन्यास लेता है, उसकी निन्दा करते हैं जो इंद्रियोंका निग्रह न कियाहो, बुद्धि अति आसक्त हो, ज्ञान वैराग्यसे रहित हो, ऐसा जो संन्यास लेता है सो वह संन्यास जीविका अर्थ है, इसीकारण निंदित है॥४०॥ वह अधर्मी संन्यासी है जिन्होंने देवताओंकी वंचना करी है जो गृहस्थ धर्म में देवता अतिथि पूजन करता था सो छोड़ दिया संन्यास धर्म भी नहीं करते इससे सबकी अवज्ञादी करते हैं, उनकी वासना दग्ध

दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान्॥ अजिज्ञासितमद्धमों गुरुं मुनिमुपाव्रजेत्॥३८॥ तावत्परिचरेद्भक्तः श्रद्धावाननसूयकः॥ यावद्ब्रह्म विजानीयान्मामेव गुरुमादृतः॥३९॥ यस्त्वसंयतषड्वर्गः प्रचंडेंद्रियसारथिः॥ ज्ञान वैराग्यरहितस्त्रिदंडमुपजीवति॥४०॥ सुरानात्मानमात्मस्थं निहृते मां च धर्महा॥ अविपक्वकषायोऽस्मादमुष्माच्च विहीयते॥४१॥ भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः॥ गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम्॥४२॥ ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भृतसौहृदम्॥ गृहस्थस्याप्यृतो गंतुः सर्वेषां मदुपासनम्॥४३॥ इति मां यः स्वधर्मेण भजन्नित्यमनन्यभाक्॥ सर्वभूतेषु मद्भावो मद्भक्तिं विंदतेऽचिरात्॥४४॥

नहीं और आत्मरूप हृदयमें स्थित मेरी भी वंचना करतेहैं इसीलिये इस लोक और परलोकसे नष्ट होजाते हैं॥४१॥ संन्यासीका मुख्य धर्म शम और अहिंसा है, वानप्रस्थका मुख्य धर्म तपस्या और विचार है, गृहस्थका मुख्य धर्म प्राणीमात्रकी दया, रक्षा और देवताओंका यज्ञ है और ब्रह्मचारीका धर्म यही है कि, गुरुओंकी सेवा करै॥४२॥ यहाँ गृहस्थका और भी धर्म कहते हैं ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष, प्राणी मात्रसे सुहृदताई और ऋतुके दिन स्त्रीसंग करे यह गृहस्थके धर्म हैं, मेरी सेवा करनी तो सबकाही धर्म है॥४३॥ हे उद्भव! इसप्रकार के स्वधर्मसे मेरा नित्य भजन करें और स्त्री पुत्रादिकों में प्रीति न रक्खै सब प्राणीमात्र में मेरी भावना रक्खै उस पुरुषको शीघ्र ही मेरी भक्ति मिल

जाती है॥४४॥ हे उद्धव!ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति से सब लोकके महेश्वरको जो सबकी उत्पत्ति पालन और प्रलयका कारण ब्रह्मरूप मुझको प्राप्त होजाता है॥४९॥ इसप्रकार स्वधर्म से शुद्धचित्त होनेसे मेरा स्वरूप जाननेमें आता है, विज्ञान और वैराग्य युक्त होकर शीघ्र मुझे प्राप्त होगा॥४६॥ अब सबका निर्धार तात्पर्य कहते हैं कि, वर्णाश्रमवालों का यह आचाररूप धर्मका फल, पितृलोककी प्राप्ति कराने वाला है, यही धर्ममेंही भक्तिसे मुझे समर्पण करै तो परमफल मोक्षानन्दको प्राप्त हो॥४७॥ हे साधो! यह सब धर्म मैंने तुमसे कहा, जो तुमने मुझसे पूँछाथा जो भक्त स्वधर्म संयुक्त होकर इसे करै तो वह मेरे परब्रह्मरूपको प्राप्त होता है॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादश

भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम्॥ सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः॥४५॥ इति स्वधर्मनिर्णिक्तसत्त्वो निर्ज्ञातमद्गतिः॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नो न चिरात्समुपैति माम्॥४६॥ वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचारलक्षणः॥ स एव मद्भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः॥४७॥ एतत्तेऽभिहितं साधो भवान्पृच्छति यच्च माम्॥ यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम्॥४८॥ इति श्रीमद्भा० महापु० एकदशस्कन्धे वनस्थयत्यादिधर्मनिरूपणं नामाऽष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ यो विद्याश्रुतसंपन्न आत्मवान्नानुमानिकः॥ मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि संन्यसेत्॥१॥ ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थोहेतुश्च संमतः॥ स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः॥२॥ ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्टं विदुर्मम॥ ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम्॥३॥

स्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धसंवादे अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा—उन्निसवें अध्यायमें, पूर्वधर्म निर्वाह॥ सो सब वर्णन करतहूं, सुनो सहित उत्साह॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, जिसको विद्या करके श्रवण करके आत्मतत्त्वका अनुभव तक ज्ञान प्राप्त होगया है, सो प्रपंचकी निवृत्तिका साधन मुझमें मायामात्र जाने, और ज्ञान के साधन सब छोड़ै, उसको विद्वान् संन्यास कहते हैं॥१॥ ज्ञानीपुरुषका आत्मरूप मैंहीं प्रिय हूं, उसको और स्वार्थका हेतु कुछ नहीं है, पर स्वार्थका हेतु मुझेही चाहते हैं, इससे स्वर्ग और मोक्ष तथा और भी अर्थ मुझ विना उन्हें प्रिय नहीं, इसकारण उसका न कुछ कर्त्तव्य है और प्राप्त करना है॥२॥ यहाँ ज्ञानका अनुभव प्रमाण बताते हैं, ज्ञान विज्ञानसे जो सिद्धिको प्राप्त

हुए हैं, वह मेरे श्रेष्ठ स्थानोंको जानते हैं इसकारण मुझे ज्ञानी अतिप्रिय हैं, वह ज्ञानहीसे मुझे हृदयमें धारण करे रहते हैं॥३॥ तप, तीर्थ, जप, दान और पवित्र साधन उस सिद्धिको नहीं करते जो सिद्धि ज्ञान के लेशसे होती है॥४॥ हे उद्भव ! इसलिये तुम ज्ञानके रूपको जान, ज्ञान विज्ञान युक्त होकर भक्तिसे मेरा भजन करो॥५॥ जो कि, मैं सब यज्ञोंका स्वामी और आत्मा हूं, उसका अपने आपमें ही ज्ञान वा विज्ञान रूप यज्ञसे यजन करके मुनिगण मेरेरूप सिद्धिको पाचुके हैं॥६॥ इस लिये तुम भी इसी ज्ञानसे धर्ममें प्रवृत्त हो. हे उद्धव ! जो देह और

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च॥ नाऽलं कुर्वंति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता॥४॥ तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नो भज मां भक्तिभावितः॥५॥ ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वात्मानमात्मनि॥ सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन्॥६॥ त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो मायांतराऽऽपतति नाद्यपवर्गयोर्यत्॥ जन्मादयोऽस्य यदमी तव यस्य किं स्युराद्यंतयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये॥७॥ उद्धव उवाच॥ ज्ञानं विशुद्ध विपुलं यथैतद्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्॥ आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम्॥८॥

इन्द्रियोंका विकार है, यह सब मायाके हैं कुछ परमार्थ वस्तु नहीं हैं, यह विकार देहसे पहले भी आत्माके नहीं हैं, पीछे भी नहीं, मध्यमें हैं, सो भ्रम जानिये, आत्मा शुद्ध है, जन्मादिक भी जो देखे जाते हैं, यह देहही के हैं, कुछ आत्मा के नहीं हैं, देहको जन्म मरण नहीं देह भी मायारूपी है देहके आदि अंत जो ब्रह्म हैं, सो मध्यमें रहते हैं, जब देहही नहीं तब सब ब्रह्म होते हैं तो फिर देहके जन्ममरण कहाँसे हो सकते हैं। जब यथार्थसे देहके भी जन्ममरणादिक नहीं, सब ब्रह्मरूप है तो ब्रह्म न जन्मे है न मरे है, निर्विकार ब्रह्मही है, इसमें क्या कहना?॥७॥ उद्धवजी बोले कि,

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**शंका—**तप, तीर्थ, जप, दान आदिक जो अनेक अनेक सुन्दर क्रिया हैं, उन सबको त्यागकर अकेले ज्ञानकोही श्रीकृष्णने बडा क्यों कहा?

** उत्तर—**जितने ससारमें उत्तम क्रिया कर्म हैं तप तीर्थ आदि, यह सब बहुत जन्ममें फल देते है, क्योंकि जप शीघ्र फल नहीं देता, तीर्थ में स्नान करने मात्र से स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा और जिससमय शरीरमें शान उत्पन्न हो जायगा तो उसीसमय अनेक जन्मोंका दुख दूर होकर शीघ्र सुख प्राप्त होगा और लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण ने अपना और उद्धवका समागम थोडे दिनोंका समझा इसलिये उद्धव अपने परममित्रको सुख होनेके निमित्त ज्ञानकी उपासना बताई, क्योंकि श्रीकृष्ण के वियोगका दुःख जप, तप, तीर्थ करनेसे दूर नहीं हो सक्ता और उस दुःखको ज्ञान बहुत शीघ्र दूर करसक्ता है, इसलिये जप तपको त्यागकर श्रीकृष्णने ज्ञानको श्रेष्ठ कहा॥

हेविश्वेश्वर! हे विश्वमूर्त्ते! जिसप्रकार मुझे निश्चय हो, वैसेही वैराग्ययुक्त और विज्ञानयुक्त पुरातन विशुद्ध ज्ञान तुम कहो और जिसको ब्रह्मादिक खोजते हैं, ऐसे भक्तियोगको कहो॥८॥ हे ईश्वर! इस घोर संसारमार्गमें तीन तापसे तपाहुआ मुझे तुम्हारे चरणद्वंद्वरूप छत्रके अतिरिक्त और शरण नहीं दीखती. यह छत्र केवल छायाही नहीं करताहै, बरन् सब ओरसे अमृत बरसाताहै॥९॥ हे महानुभाव! यह पुरुष इस संसारके कुएँमें गिरा हुआहै और वहाँ कालरूपी सर्प इसे काटगया है, तुच्छ सुखोंमें बहुत तृष्णाहै; ऐसे इस जनको कृपापूर्वक उद्धार करो और मोक्षको कहो, ऐसे अपने वचनरूपी अमृतसे सींचो॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! जब इसप्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्भव!

तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे संतप्यमानस्य भवाध्वनीश॥ पश्यामि नान्यच्छरणं तवांघ्रिद्वंद्वातपत्रादमृताभिवर्षात्॥८॥९॥ दष्टं जनं संपतितं विलेऽस्मिन्कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम्॥ समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्वचोभिरासिञ्च महानुभाव॥१०॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्॥ अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम्॥११॥ निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः॥ श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत॥१२॥ तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्॥ ज्ञानवैराग्यविज्ञान श्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्॥१३॥ नवैकादश पञ्च त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै॥ ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्॥१४॥

इसी भाँति पहले राजा युधिष्ठिरने हमारे सबके सामने धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मपितामहसे पूँछाथा॥११॥ भारतयुद्ध निवृत्त होनेके उपरान्त बंधुवधसे व्याकुल हो राजा युधिष्ठिरने पहले बहुत धर्म श्रवण करके फिर मोक्षधर्म सुननेके वास्ते पूँछा॥१२॥ वहाँ भीष्मने जो धर्म युधिष्ठिरसे वर्णन किया, वह हमने भी सुना, सोई हम तुमसे कहते हैं. जो ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य, श्रद्धा भक्तिसे संयुक्त है॥१३॥ यहाँ प्रथम तो ज्ञान कहते हैं, प्रकृति और महत्तत्त्व, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह नौ तत्त्व हुए और एकादश इन्द्रियें, पंचमहाभूत, तीन गुण, यह सब मिलकर अठ्ठाईस ( २८ ) तत्त्व हुए, सो यह सब प्राणियों में व्याप्त हैं, ज्ञानसे देखे और इन तत्त्वोंमें भी एक परमात्माको जिस ज्ञान से॥६७॥

व्याप्त देखे सो निश्चय मेरा ज्ञान है॥१४॥ जैसे ज्ञानके समय सब पदार्थ देखनेमें आते हैं, वैसे यह पदार्थ देखनेमें नहीं आते, केवल एक परब्रह्म देखनेमें आता है, वही ज्ञान विज्ञान कहा जाता है और उत्पत्ति, प्रलय, स्थिति होनेसे पदार्थ त्रिगुणात्मक नाशवान है ऐसा देखे॥१५॥ यदि कोई कहै कि, सब ब्रह्मरूपही हैं तो जन्मादिक क्यों होता है? उत्पत्ति तथा दूसरे रूपकी प्राप्तिके मध्यमें सबका आश्रय कारण होनेसे जो कार्य और कार्यांतरमें रहता है, जो उत्पत्तिमें व्याप्त होता है और इनके प्रलयमें जो अवशेष रहता है, सो ब्रह्म है, इसेही देखे॥१६॥ अब विज्ञान कहकर वैराग्य कहते हैं. वेद, प्रत्यक्ष, परंपराकी प्रसिद्धि और अनुमानसे यह प्रपंच मिथ्या है, अद्वैतही सत्य है, जैसे यह दृश्य ब्रह्मसे भिन्न नहीं है, क्योंकि ब्रह्मसे उत्पन्न है, जो जिससे उत्पन्न है, वह उससे भिन्न नहीं, जैसे मिट्टीके बने घट मृत्तिकासे भिन्न नहीं, इसप्रकार

एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्॥ स्थित्युत्पत्त्यप्ययान्पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥१५॥ आदावंते च मध्ये चसृज्यात्सृज्यं यदन्वियात्॥ पुनस्तत्प्रतिसंक्रामे यच्छिष्येत तदेव सत्॥१६॥ श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्॥ प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते॥१७॥ कर्मणां परिणामित्वादाविरिंचादमंगलम्॥ विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥१८॥ भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ॥ पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम्॥१९॥ श्रद्धाऽमृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्॥ परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम॥२०॥ आदरः परिचर्यायां सर्वांगैरभिवंदनम्॥ मद्भक्तपूजाऽभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः॥२१॥

भ्रमरूप द्वैत जानकर विकल्पसे विरक्त होना चाहिये॥१७॥ कदाचित् स्वर्गादिकमें सुखभोग हैं, वहाँकी इच्छा हो तो विरक्त होना किस प्रकार संभव है? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि, ब्रह्मलोकतक स्वर्गादिकका भी सुख इस लोकके समान जो पण्डित हैं सो दुःखरूप मिथ्याही देखते हैं, क्योंकि यह विनाशी कर्मों के फल हैं॥३८॥ अब वैराग्य कहकर भक्ति कहते हैं, हे निष्पाप उद्धव! मैंने भक्तियोग पहले भी तुमसे कदाथा और अब फिर अपनी भक्तिके परमकारणसे प्रीतियुक्त तुमसे कहता हूं॥१९॥ हे उद्भव! प्रथम अमृतरूप मेरी कथा में श्रद्धा हो कथाके सुननेमें आदर हो, सुनने के उपरान्त निरंतर मेरा कीर्त्तन करै॥२०॥ मेरी पूजामें तत्पर हो, सर्वांगसे नमस्कार करै, आदरपूर्वक मेरे

भक्तकी अधिक पूजा करै, सब प्राणीमात्रमें मेरी बुद्धि रक्खै॥२१॥ लौकिक कार्योंको मेरेलिये करै, वचनसे मेरे गुणानुवादको कहे, मन मेरे रूपमेंही अर्पण करै, सब कामनाओंका त्याग करै॥२२॥ मेरे लिये अर्थका त्याग करै, भोग और सुखका त्याग करै, विषय भोग न करै, यज्ञ, दान, होम, जप, तप, सब मेरे लिये करै॥२३॥ हे उद्धव! इसप्रकार धर्मसहित जो मनुष्य मुझमें आत्मा निवेदन करते हैं, उन मनुष्योंको प्रेम लक्षणा भक्ति उत्पन्न होती है, फिर उनको कुछ करना नहीं रहता॥२४॥ क्योंकि जब शांत सतोगुणसे बढ़ा चित्त मुझमें लगादिया, तब और सब ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आपहीसे प्रगट होजाते हैं॥२५॥ और यही चित्त जब गृह कुटुम्बादिमें आसक्त होता है, तब इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंमें

मदर्थेष्वंगचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्॥ मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविर्जनम्॥२२॥ मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च॥ इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थे यद्व्रतं तपः॥२३॥ एवं धर्मं मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्॥ मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्याऽवशिष्यते॥२४॥ यदात्मन्यर्पितं चित्तं शांतं सत्त्वोपबृंहितम्॥ धर्मज्ञानं सवैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते॥२५॥ यदर्पितं तद्विकल्प इन्द्रियैः परिधावति॥ रजस्वलं चासनिष्टं चित्तं विद्धि विपर्ययम्॥२५॥२६॥ धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्॥ गुणेष्वसंगो वैराग्यमैश्वर्यंचाणिमादयः॥२७॥ उद्धव उवाच॥ यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वाऽरिकर्शन॥ कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो॥२८॥ किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते॥ कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा॥२९॥ पुंसः किंस्विद्बलं श्रीमन्भगो लाभश्च केशव॥ का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च॥३०॥

भ्रमण करता है, जिससे अधर्म, अज्ञान अनुरक्तता और कुभाग्यता प्राप्त होती है॥२६॥ धर्म सोई है जो मेरी भक्ति करै, ज्ञान वही है, जिससे आत्माका रूप दीखै, इन्द्रियोंके धर्मोंमें आसक्त न होना वैराग्य और अणिमादिकका होना ऐश्वर्य हैं॥२७॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो। है शत्रु नाशक। हे कृष्ण !संयम नियम के प्रकारके है? शम दम किनको कहते हैं ? क्षमा, धैर्य क्या है ?॥२८॥ दान, तप, शैर्य, सत्य, ऋत, त्याग, धन, इष्ट, यज्ञ, दक्षिणा इत्यादि क्या हैं?॥२९॥ हे श्रीमन्! पुरुषका बहुत भाग्य क्या है ? परमविद्या क्या है ? लज्जा, श्री, दुःख, सुख क्या हैं?॥३०॥

पण्डित कौन है? मूर्ख कौन है? मार्ग उन्मार्ग कौन है! स्वर्ग नरक कौन है? बंधु गृह कौन है? ॥३१॥ धनी दारीद्री कौन है? कृपण ईश्वर कौन है? हे साधुओंके पति! यह प्रश्न और इससे विरुद्धगुणवाले कौन हैं सो मुझसे समझाकर कहो॥३२॥ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे उद्धव !जीवमात्रकी हिंसा न करैं, सत्य बोले, मनसे भी पराई वस्तुको न चुरावै, आसक्ति कहीं न रक्खै, लज्जा, असंचय, धर्ममें विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थैर्य, क्षमा, यह बारह संयम हैं॥३३॥ शौच दो भाँतिके हैं अंतःकरणकी शुद्धि और बाह्यशुद्धि, शौच, तप, जप, होम, श्रद्धा, अतिथि और मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार, संतोष, आचार्यसेवा यह बारह नियम हैं॥३४॥ जो यह संयम, नियम

कः पंडितः कश्च मूर्खः कः पंथा उत्पथश्च कः॥ कः स्वर्गो नरकः कः स्वित्को बंधुस्त किं गृहम्॥३१॥ क आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः॥ एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते॥३२॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहिंसा सत्यमस्तेयम संगो ह्नीरसंचयः॥ आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाऽभयम्॥३३॥ शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम्॥ तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम्॥३४॥ एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः॥ पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहंति हि॥३५॥ शमो मन्निष्टता बुद्धेर्दम इंद्रियसंयमः॥ तितिक्षा दुःखसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः॥३६॥ दंडन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्॥ स्वभाव विजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम्॥३७॥ ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता॥ कर्मस्वसंगमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते॥३८॥

नित्य करैतो जो कुछ चाहे सो सब पूर्ण हो॥३५॥ अब शम, दम, कहतेहैं कि, मुझमें बुद्धि स्थिर होय सो शम है, केवल शान्तिही शम नहीं कहाती, इन्द्रियों का संयम दम हैं, चोर दुष्टका मारना दम नहीं, दुःखका सहना क्षमा है, बहुत भार सहना क्षमा नहीं, जिह्वा और उप स्थवेग सह सो धैर्य, उद्वेग मनमें न उत्पन्नहो, इतनाही धैर्य नहीं॥३६॥ प्राणीमात्र से द्रोह त्यागनेको दान कहते हैं, धनका त्याग दान नहीं, कामका त्याग तप कहाता है, कृच्छ्रचान्द्रायण तप नहीं, स्वभावको जिसने जीत लिया सोही शूर, पराक्रम शौर्य नहीं, ब्रह्मका दर्शन सत्य है॥३७॥ पण्डितोंने सत्य और प्रियवाणीको ऋत कहाहै, कर्मोंकी अनासक्तिको शौच और त्यागको संन्यास कहा है॥३८॥

मनुष्योंका श्रेष्ठ धन धर्म है, पशु पुत्रादिक धन नहीं, परमेश्वरही यज्ञ है, मेरी बुद्धिसे यज्ञ करें, कर्मबुद्धिसे न करैं, मेरे ज्ञानका उपदेशही उस यज्ञकी दक्षिणा है, सुवर्णादि धन दक्षिणा नहीं, प्राणायामसे मनको वशमें करै, वही परमबल है॥३९॥ मेरा ऐश्वर्य सौभाग्यहै, कुछ लौकिक संपत्ति सौभाग्य नहीं. मेरी भक्ति पावै, सोई परमलाभ है, कुछ धनका लाभ नहीं. आत्मामें भेदबुद्धि दूर हो सो विद्या है केवल ज्ञानमात्र विद्या नहीं. कुत्सित कर्मका त्यागही लज्जा है, सो केवल लाज लज्जा नहीं॥४०॥ गुण अच्छे हों वहीं शोभा है कुछ आभूषण शोभा नहीं. दुःख, सुखका स्मरण करै, वही सुख है, भोग सुख नहीं, बंध मोक्षको जानै सो पण्डित है, केवल शास्त्र पढै पण्डित नहीं, भोग सुखकी इच्छा दुःख हैं,

धर्म इष्टं धनं नणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः॥ दक्षिणा ज्ञानसंदेशः प्राणायामः परं बलम्॥३९॥ भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः॥ विद्यात्मनि भिदा बाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु॥४०॥ श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्या सुख दुःखसुखात्ययः॥ दुःखं कामसुखापेक्षा पंडितो बंधमोक्षवित्॥४१॥ मुर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पंथा मन्निगमः स्मृतः॥ उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः॥४२॥ नरकस्तम उन्नाहो बंधुर्गुरुरहं सखे॥ गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते॥४३॥ दरिद्रो यस्त्वसंतुष्टः कृपणो योऽजितेंद्रियः॥ गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसंगो विपर्ययः॥४४॥

अग्नि दाहादिक दुःख नहीं॥४१॥ देहादिकमें जिसके अहंकार हैं सो मूर्ख है, जिस मार्गमें मुझे पावे वही उत्तम मार्ग है; काँटोंसे रहित सन्मार्ग नहीं, जहाँ मन चंचलहो, ससारमें फिर प्रवृत्त होय सो ऐसे मार्गको कुत्सित मार्ग कहते हैं, चोरादिकोंसे व्याप्त उत्पथ मार्ग नहीं, सत्त्वगुण अधिकहो, राजस, तामस, गुण न हो, सोई स्वर्ग हैं, कुछ इन्द्रलोक स्वर्ग नहीं॥४२॥ तमोगुण अधिक होय सोई नरक है और नरक नहीं, और बंधु सब बंधु नहीं परमबंधु गुरु है, सो गुरु में हूं, मनुष्यका शरीर गृह है और गृह नहीं, जो गुणसे सम्पन्न है, वही धनी है और धनी नहीं॥४३॥ जो सदा असंतोष रक्खै, सो दरिद्री है, धनहीन दरिद्री नहीं, जो इन्द्रियोंको न जीतसकै सोई कृपण है, दीन कृपण नहीं, विषयोंमें

आसक्त न होकर जो स्वाधीन है, सो ईश्वर है, राजा स्वाधीन नहीं, जो गुणमें आसक्त है, वही परवश है॥४४॥ श्रीभगवान् बोले कि हे उद्भव! यह तुम्हारे सब प्रश्न तुमको अच्छी प्रकार समझाये, अब बहुत क्या वर्णन करैं. गुण दोषका लक्षण इतनाही है, जो सबोंके गुण दोष विचारता रहे, वही दोष है और न गुण देखे न दोष देखे वही गुण है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ दोहा- कहूं बीस अध्यायमें, गुण अरु दोषके अर्थ॥ भक्ति ज्ञान औ कर्म यह, तीनों योग समर्थ॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण! विधिनिषेध वेद कहते हैं सो वेद तुम्हारी आज्ञा है, तुम सबोंके ईश्वर हो आपकी आज्ञासे वेद कमोंके पुण्य

एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः॥ किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः॥ गुणदोषदृशिर्देषो गुणस्तृभयवर्जितः॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधेऽज्ञानत्यागो नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ उद्धव उवाच॥ विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते॥ अवेक्षतेऽरविंदाक्ष गुणदोषं च कर्मणाम्॥१॥ वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम्॥ द्रव्यदेशवयःकालान्स्वर्गं नरकमेव च॥२॥ गुणदोषभिदा दृष्टिमंतरेण वचस्तव॥ निःश्रेयसं कथंनणां निषेधविधिलक्षणम्॥३॥ पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर॥ श्रेयस्त्वनुपलब्धेर्थे साध्यसाधनयोरपि॥४॥ गुणदोषभिदादृष्टिर्निगमात्तेन हि स्वतः॥ निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया॥ ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित्॥६॥

पापोंको देखते हैं॥१॥ उन धर्मोंके अधिकारी उत्तम, मध्यम, हीन तीन प्रकारके हैं सो वह वर्णाश्रम अलग हैं जिनका गुण दोष सब वेद देखते हैं॥२॥ अब आप कहते हो कि, गुण दोष छोड़कर धर्ममें प्रवृत्त हो सो गुण दोष भेददृष्टि विना विधिनिषेध तुम्हारा वचन मनुष्योंको कैसे फलदायक हो सकता हैं ?॥३॥ हे ईश्वर ! पितृदेवता तथा मनुष्योंको तुम्हारा वेदही मोक्ष और स्वर्गादिकोंमें श्रेष्ठ प्रमाण है और साध्य साधन विषे प्रमाण हैं॥४॥ और गुण दोषके भेदका ज्ञान तुम्हारे वेदही हैं, आपसे नहीं मानी है, गुण दोषोंपर दृष्टि न रक्खै, यह अब तुम्हीं कहते हो, इसलिये भ्रम होता है॥५॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्भव ! मनुष्योंके कल्याणार्थ वेदमें भेदसे तीन योग मैंने कहे हैं

ज्ञान, कर्म, भक्ति इनसे परे और उपाय कहीं नहीं॥६॥ इनके अधिकारी अलग अलग हैं, एकही नहीं सो कहते हैं इनमें जो कर्मोंसे विरक्त हैं फल कुछ नहीं चाहते उसे ज्ञानयोग कहा है॥७॥ यदृच्छासे मेरी कथामें जिसको श्रद्धा हुईहो अतिविरक्त भी न हो अतिआसक्त भी न हो उसे भक्तियोग सिद्धिका देनेवाला है॥८॥ प्रथम कर्मयोगको कहते हैं कर्म जहॉतक करै वहॉतक वैरग्य उत्पन्न न हो और मेरी कथा श्रवणादिकमें श्रद्धा न उपजै॥९॥ हे उद्धव! अपने स्वधर्ममें स्थित हो फलकी इच्छा छोड निष्काम यज्ञ करै तब उसे न नरक हो न स्वर्ग हो जो और आचरण न करै॥१०॥ इस लोकमें स्वधर्ममें स्थित हो निषेधका त्याग करै ऐसा करनेसे जब मन शुद्धहो, तब विशुद्ध ज्ञानको प्राप्त करे या यदृच्छासे मेरी

निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु॥ तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्॥७॥ यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्॥ न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः॥८॥ तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता॥ मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते॥९॥ स्वधर्मस्थो यजन्यज्ञैरनाशीः काम उद्धव॥ न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्॥१०॥ अस्मिल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः॥ ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया॥११॥ स्वर्गिणोप्येनमिच्छंति लोकं निरयिणस्तथा॥ साधकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम्॥१२॥ ननरः स्वर्गतिं कांक्षेन्नारकीं वा विचक्षणः॥ नेमं लोकं च कांक्षेत देहाऽऽवेशात्प्रमाद्यति॥१३॥ एतद्विद्वान्पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः॥ अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम्॥१४॥

भक्ति पावै॥११॥ ज्ञानभक्तिको यह मनुष्यदेह कर्त्ता है इससे मनुष्यदेह उत्तम है सो कहते हैं जो स्वर्गमें हैं और नरकमें हैं वह मनुष्यदेहकी बाधा कर तेहैं जिस देहकी ज्ञानभक्ति करनेसे मोक्ष होती है, स्वर्ग और नरकमें भी शरीर है सो मोक्षसाधक नहीं॥१२॥ चतुर मनुष्य होय सो स्वर्गकी गति न चाहे जैसे मनुष्य नरककी गति नहीं चाहते हैं और यह लोक भी नहीं चाहते, क्योकि देहके आवेश से प्रमाद होता है॥१३॥ अर्थसिद्धिके दाता भी मनुष्यदेहको जानकर मृत्युसे पहले सावधान मनुष्य मोक्षका यत्न करै॥१४॥

जैसे पक्षीने एक रूखपर घर किया, उस वृक्षको कोई निर्दयी पुरुष आनकर काटै, उसे काटता जान अनासक्त होकर घर छोड़ दे तो जिये॥१५॥ जैसे अहोरात्रसे काल आयुर्बलको काटे है, यह जान भयसे कॉपते इस देहकी आसक्ति छोड़ शांत चित्त होकर रहै॥१६॥ ऐसी देहको जानकर भी जो सावधान नहीं होता उसकी निंदा करते हैं यह मनुष्यदेह अत्यन्त दुर्लभ है, अनेक जन्मके पुण्यसे पाई है, साधन करनेको समर्थ है, संसारसमुद्रसे तरनेको नाव है गुरु नावके चलानेवाले हैं, मैंने अनुकूल पवनसे प्रेरित करी है, ऐसे साधनको पाय जो यह प्राणी संसारसमुद्रसे न तरै तो वह आत्मघाती है॥१७॥ यह कर्मयोग तो जो विरक्त न हो उनको कहा, अब जो विरक्त होंय उनको ज्ञान उपजै, पहले जो कुछ

छिद्यमानं यमैरेतैः कृतनीडं वनस्पतिम्॥ खगः स्वकेतमुत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलंपटः॥१५॥ अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्धाऽऽयुर्भयवेपथुः॥ मुक्तसंगः परं बुद्ध्या निरीह उपशाम्यति॥१६॥ नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्ण धारम्॥ मयाऽनुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा॥१७॥ यदारंभेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेन्द्रियः॥ अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः॥१८॥ धार्यमाणं मनो यर्हिभ्राम्यदाश्वनवस्थितम्॥ अतंद्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत्॥१९॥ मनोगतिंन विसृजेज्जितप्राणो जितेंद्रियः॥ सत्त्वसंपन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत्॥२०॥ एष वै परमो योगो मनसः संग्रहः स्मृतः॥ हृदयज्ञत्वमन्विच्छन्दम्यस्येवार्वतो मुहुः॥२१॥

कर्त्तव्य है सो प्रकार कहते हैं कि, जब कर्मोंमें उद्वेग हो वैराग्य उपजे तब इन्द्रियोंका निग्रह करैं स्थिरता से आत्माके अभ्याससे मनका निग्रह करै, तब यह योगी होय॥१८॥ मनका निग्रह करै परन्तु तो भी जब चंचल होय तब सावधान हो कुछ मनकी कांक्षा पूर्ण करके फिर मनको वश करै॥१९॥ मनकी धारणा नहीं छोडे प्राणवायु जीतै, इन्द्रियें जीते और सतोगुणी बुद्धिमें अपने मनको वशमें करैं॥२०॥ यह मनको निग्रह निश्चय उत्तम योग है जैसे सवार दमन करने योग्य घोड़ेकी गतिको अपनी इच्छानुसार चाहताहुआ पहले उसे इच्छानुसार जाने

देता है, फिर लगामको थामकर चलाता है ऐसेही शनैः शनैः मनको वशमें करैं॥२१॥ सब तत्त्वोंके विवेकसे और प्रकृतिसे उत्पत्तिका क्रम विचारैं, वह पृथ्वी आदि क्रमसे अनुलोम प्रतिलोमसे लीन होते हैं, ऐसा ध्यान करता रहै, वह ध्यान उस समय तक करैं जबतक चित्त प्रसन्न न हो॥२२॥ जब चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हो, तब गुरुके बताये धर्मका विचार करैं, भ्रमसे यह चित्त देहका अभिमान छोड़ देता है॥२३॥ संयम, नेम आदि योग धारण, आत्मविचार और मेरी प्रतिमाकी सेवा इन उपायोंसे योग्य परमात्माका मनसे स्मरण करै, क्योंकि मेरे स्मरणका इससे अधिक और उपाय नहीं है॥२४॥ जो प्रमादसे योगी कुछ निंवित कर्म करैं, उस योगीको योगाभ्यासहीसे अपने पाप दूर करने

सांख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः॥ भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत्प्रसीदति॥२२॥ निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः॥ मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिंतितस्यानुचिंतया॥२३॥ यमादिभिर्योगपथैरान्वीक्षिक्या च विद्यया॥ ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः॥२४॥ यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम्॥ योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन॥२५॥ स्वेस्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्त्तितः॥ कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियमः कृतः॥ गुणदोषविधानेन संगानां त्याजनेच्छया॥२६॥ जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु॥ वेद दुःखात्मकान्कामान्परित्यागेऽप्यनीश्वरः॥२७॥ ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः॥ जुषमाणश्च तान्कामान्दुःखोदर्कांश्च गर्हयन्॥२८॥

चाहिये, क्योंकि इसका और प्रायश्चित नहीं है॥२५॥ अपने अधिकारमें रहनाही गुण है, प्रवृत्तिमार्ग स्वभावहीसे अशुद्ध है तथापि जो सहस (एकाएकी) न छोड़ाजाय तो प्रवृत्ति संगके छुडानेकी इच्छासे गुण दोष कह इन कर्मोंके संकोचद्वारा निवृत्ति चाहिये, क्योंकि योगीको स्वाभाविक वृत्ति न होनेसे प्रायश्चित्तकी आवश्यकता नहीं॥२६॥ मेरी कथामें श्रद्धा कर्मोंम वैराग्य होनेपर और काम्य कमको दुःखरूप जाननेपरभी उनका परित्याग न दोसकै॥२७॥ तो प्रीतिपूर्वक श्रद्धायुक्त हो दृढनिश्चयसे मेरा भजन करै विषय भोग करें तो आसक्त न हो, उनकी निंदा करता

रहै, अब भजनका प्रकार कहते हैं॥२८॥ पहले मैंने भक्तियोग तुमसे कहा है इसरीतिसे जब निरन्तर मुनि मेरा भजन करै तो उसके हृदयमें मेरा वास होनेसे उसकी सब कामना नष्ट हो जायँगी॥२९॥ सबके आत्मा रूपसे जब मुझे देखे तब इसके हृदयकी गाँठि छूट जाती है और सब संदेह मिटकर संपूर्ण कर्म क्षीण होजाते हैं॥३०॥ इसलिये मेरी भक्ति संयुक्त मुझमें चित्तयुक्त करनेवाले योगीको न तो ज्ञान और न वैराग्य कल्याणका साधन है, किन्तु भक्तियोगही कल्याणका साधक है॥३१॥ जो फल कर्म, तप, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म और तीर्थ यात्रादिकके साधनसे

प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो माऽसकृन्मुनेः॥ कामा हृदय्या नश्यंति सर्वे मयि हृदि स्थिते॥२९॥ भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यंते सर्वसंशयाः॥ क्षीयंते चाऽस्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि॥३०॥ तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः॥ न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह॥३१॥ यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्॥ योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि॥३२॥ सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेंजसा॥ स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथंचिद्यदि वांछति॥३३॥ न किंचित्साधवो धीरा भक्ता ह्येकांतिनो मम॥ वांछंत्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्॥३४॥ नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्निःश्रेयसमनल्पकम्॥ तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत्॥३५॥

होता है॥३२॥ वही फल केवल मेरी भक्ति करनेसे प्राप्त होजाता है, मेरे भक्त सुखसे मेरा वैकुण्ठधाम पाते हैं, परन्तु मेरे भक्त कुछ चाहना नहीं करते हैं *॥३३॥ हे उद्धव ! जो पुरुष बुद्धिमान् हैं उनकी मुझमें अत्यन्त प्रीति है, वह परमसाधु हैं, यद्यपि मैं उनको अनेक विभव देता हूँ परन्तु, तो भी वह कुछ चाहना नहीं करते॥३४॥ मेरी निरपेक्ष भक्तिही परमकल्याणरूप है उसमेंभी मेरी निष्काम भक्ति

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** शंका—**पहिले तो श्रीकृष्णने ज्ञानकी प्रशसा की, फिर कुछ कालोपरान्त ज्ञान, वैराग्य, तप, जप, तीर्थ आदि लेकर और जो सुन्दर सुन्दर कर्म हैं उनको मी त्यागकर मक्तिकी प्रशसा की कि सबसे भक्तिही बडी है, यह बडे सन्देह की बात है, किसको श्रेष्ठ माने और किसको मध्यम माने मगवान् श्रीकृष्ण तो कमी कुछ कहते हैं कमी कुछ कहतेहैं, ऐसे वचन सुनकर हमको बडा भ्रम होता है।

** उत्तर—**श्रीकृष्णचन्द्रने विचारा कि थोडही दिनोंमें कलियुग आवेगा, जप, तप, तीर्थादिक सब सुन्दर सुन्दर कर्मोंका नाश करदेंगे, परन्तु मक्तिका नाश नहीं होसक्ता, इसलिये भगवान्ने भक्तिकी प्रशसा की कि, कलियुगमें भक्ति के सिवाय मनुष्योंसे और कोई दूसरा काम नहीं होगा ।

निष्कामभक्तकोही प्राप्त होती है॥३५॥ जो मेरे विषे एकान्त भक्त रागद्वेषादि रहित समचित्त हैं और बुद्धिसे परे ईश्वरको प्राप्त हैं उनको विधिनिषेधके मुणदोषसे उत्पन्न हुए पुण्य पाप नहीं लगते॥३६॥ इसप्रकार मेरे कहे मार्गोंमें जो पुरुष चलते हैं, वे परमकल्याणरूप मेरे धामको कि, जिसको परब्रह्म कहते हैं, प्राप्त होते हैं॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे विंशतितमोऽध्यायः॥२०॥ दोहा—इक्किसवें अध्यायमें कर्म भक्ति औ ज्ञान॥ सबके गुण अरु दोष मैं, वरणौं सहित विधान॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचंद्रजी बोले कि, हे उद्भव! जो पुरुष मेरे बताये मार्ग, भक्ति, ज्ञान, निष्काम कर्मको छोड़कर इन चंचल

नमय्येकांतभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः॥ साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्॥३६॥ एवमेतान्मयादिष्टाननु तिष्ठंति मे पथः॥ क्षेमं विंदंति मत्स्थानं यद्ब्रह्म परमं विदुः॥३७॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० योगत्रयभक्त्यादिनि० विंशतितमोऽध्यायः॥२०॥ श्रीभगवानुवाच॥ य एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्॥ क्षुद्रान्कामांश्चलैः प्राणैर्जुषंतः संसरंति ते॥१॥ स्वेस्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः॥ विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः॥२॥ शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु॥ द्रव्यस्य विचिकित्साऽर्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ॥३॥ धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चाऽनघ॥ दर्शितोऽयं मयाऽऽचारो धर्ममुद्वहतां धुरम्॥४॥

प्राणोंसे तुच्छ कामनाओंका सेवन करतेहैं, वह संसारको फिर प्राप्त नहीं होते हैं॥१॥ जिसप्रकार अग्निका किसीको ताप होना और किसीको न होना संभव नहीं, इसीप्रकार उन्हीं कर्मोंसे किसीके गुण और किसीके दोप होना संभव नहीं, यह संदेह करनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि निज निज अधिकारमें निष्ठा रखनेको गुण और निष्ठा न रखनेको दोष कहते हैं, गुण दोपके विचारका यही निश्चय है॥२॥ यह शुद्ध है लीजिये यह अशुद्ध है न लीजिये ऐसे संदेहसे स्वाभाविक प्रवृत्तिको निवृत्त करनेके लिये समान वस्तुओंमें भी वेदमें शुद्धि और अशुद्धिका विधान किया है और इसके लिये उनमें गुण दोष माने हैं इसीसे पुण्य और पाप मानते हैं॥३॥ हे निष्पाप! धर्मका भार धारण करनेवाले पुरुषोंको मैंने ही

मनु आदिरूप से यह आचार दिखाया है, यह शुद्धि और अशुद्धि धर्मव्यवहार तथा निर्वाहके लिये गुण और दोषरूप से प्रतिपादन कियेहैं धर्मके लिये शुद्धिसे धर्म अशुद्धिसे अधर्म, व्यवहारमें अशौचादिसे अशुद्ध भी राजव्यवहारमें न्याय करनेको शुद्ध और दूसरे कार्योंमें अशुद्ध हैं, आपदामें निर्वाहमात्र पदार्थ लेनेसे शुद्धि और अधिक लेनेसे अशुद्धि होती है॥४॥ यद्यपि यह सब वस्तु समान हैं, क्योंकि पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, ब्रह्म आदि जड़तक सबकी देहके कारण पंचमहाभूत हैं और आत्मा भी सब एकही हैं॥५॥ परन्तु तो भी हे उद्धव! समान भी देहविषे वेदने नाम, रूप, वर्ण, आश्रम संपूर्ण इन जीवोंके स्वार्थ सिद्धिके लिये पृथक् पृथक् किये हैं॥६॥ केवल देहमेंही विभाग नहीं, किन्तु देशकाल आदि

भूम्यंब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्च धातवः॥ आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः॥५॥ वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि॥ धातुषूद्धव कल्प्यंत एतेषां स्वार्थसिद्धये॥६॥ देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम॥ गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम्॥७॥ अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्॥ कृष्णसारोप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्॥८॥ कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यतः स्वत एव वा॥ यतो निवर्त्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः॥९॥

संपूर्ण वस्तुओंमें कर्मके संकोचके लिये गुण दोषका विधान किया है, अब शुद्धि अशुद्धिका विषय कहते हैं॥७॥ जिस देशमें काला मृग न हो, वह देश अशुद्ध है और सत्पात्र रहित देश, मार्जन रहित देश, ऊषरदेश, यह अशुद्ध हैं और जहॉ ब्राह्मणोंमें भक्ति न हो वह तो अत्यन्त ही अशुद्ध है, अंग वंग, कलिंगादिक भी देश अशुद्ध हैं, जहाँ काली मृगी और सत्पात्र हो सो अशुद्ध भी देश शुभ है, देशकी शुद्धि अशुद्धि कहकर अब काल समयकी शुद्धि कहते हैं॥८॥ जो काल द्रव्यकी संपत्तिसे कर्मके योग्य है और जो स्वतःही प्रातः पूर्वाह्न, मध्याह्न काल कर्मके योग्य है, सो काल उस

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**शंका—**श्रीकृष्णने कहाथा कि, जिस देशमें काला मृग नहीं होता वह देश भ्रष्ट है यह बढे आश्चर्यकी बात है कि, जिस देशमें गंगा यमुना आदि नदी प्रयाग पुष्कर आदि तीर्थ वदरीनारायण आदि आश्रम हैं, वह मी देश काले मृग विना भ्रष्ट हैं - 2 तो इस बातसे यह सिद्ध दुवा कि, काला हरिणही सर्वोपरि मुख्य ठहरा यह गंगा और प्रयागादितीर्थ किसीको शुद्ध नहीं करसक्ते।

**उत्तर—**श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा सो सब सत्य है, परन्तु विना व्याकरण पढनेसे अर्थ करनेकी शक्ति नहीं होसक्ती वह पुरुष अर्थका अनर्थ कर देते हैं, क्योंकि भागवतमें अकृष्णसारका अर्थ है व्यासजीने-

कर्मको शुद्ध है, जो सूतकादिक काल कर्मके योग्य नहीं है, यद्यपि काल सब एक है, परन्तु तो भी यह भेद किया गया है कि, कर्मके अयोग्य काल अशुद्ध है॥९॥ अव द्रव्यकी शुद्धि कहते हैं, द्रव्यकी शुद्धिअशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, बड़ेपन और छोटेपनसे मानी जाती है, द्रव्यको शुद्धि जल करता है सूत्रादिक अशुद्ध करते हैं कि, ब्राह्मणका वचन प्रमाण हे वह कहें यह वस्तु शुद्ध है तो वह शुद्धही है, अशुद्ध कहें तो अशुद्धही है, पुरुष सूघं ले तो अशुद्ध हो जाय, प्रोक्षणादिक संस्कारसे शुद्ध होय, कालसे जलकी शुद्धता.दश दिन हो जानेसे नये जलकी शुद्धि, चातुर्मास्य में तीन दिनसे, शुद्धता बड़ेपन से, चाण्डालादिकके स्पर्शसे तालाबका जल बहुत भरा हो तो चाहे कोई भरो वह जल शुद्ध है, छोटेपन से घटादिका जल चाण्डालादिके स्पर्शसे अशुद्ध होजाता है॥१०॥ अव शक्ति अशक्तिसे शुद्धाशुद्धि कहते हैं, सूर्यग्रहणमें जिसको शक्ति हो, उसे सुतक लगे; स्नान

द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च॥ संस्कारेणाथ कालेन महत्त्वाल्पतयाऽथ वा॥१०॥ शक्त्याऽशक्त्याऽथवा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने॥ अघं कुर्वंति हि यथा देशावस्थानुसारतः॥११॥ धान्यदार्वस्थितंतूनांरसतै जसचर्मणाम्॥ कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः॥१२॥

दानसे शुद्धि होती है और जो अशक्त हैं उन्हें नहीं, बुद्धिसे पुत्रजन्मादि आशौचकी दशदिन के भीतर जानेसे अशुद्धि उपरान्त शुद्धि समृद्धि होनेके कारण जीर्ण वस्त्र मलिन वस्त्र श्रीमंतको अशुद्ध हैं, दरिद्रीको शुद्ध हैं, सुतकका अन्न समर्थको तो अशुद्ध है, असमर्थको शुद्ध है, यह द्रव्य वचन आदि द्रव्यकी अशुद्धिसे आत्माको पातक लगाते हैं, सो देश काल अवस्थाके अनुसारही लगाते हैं, निर्भय देशमें यही पापदायक चौरादिके उपद्रव युक्त देशमें नहीं, युवावस्थामें यही पापदायक और वृद्धावस्था तथा बालकपनमें शुद्ध है॥११॥ इसप्रकार द्रव्यकी शुद्धि द्रव्योंसे कही, वचन शुद्धि एक ही भॉति है, द्रव्यकी शुद्धि बहुत प्रकार हे सो कहते हैं अन्न, काष्ठ, हाथीदॉत, सूत्र, रस, तैल, घृतआदि सुवर्ण और मार्गकी कीच,

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-ऐसा कहा कि, जिस देशमें काला मृग नहीं होगा वह देह भ्रष्ट होगा जो कोई ऐसे मनुष्य हैं कि ससारको कुछभी नहीं मानते इससे कुछ भी सार नहीं है ऐसा जानकरके बडी निश्चयसे श्रीकृष्णको सार जान ते हैं कि, सब झूठा है श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारनिदका आश्रय सत्य है, ऐसे जाननेनाले पुरुष जिस देशमें नहीं है यह देश भ्रष्ट है सो श्रीकृष्णने ऐसा कहाया कुछ ऐसा नहीं कहा था कि, जिस देशमें काला मृग नहीं है वह देश भ्रष्ट है॥

कलश, ईंट यह सब काल वायु अग्नि जलसे यथायोग्य शुद्ध हैं अर्थात् धान्यकी शुद्धि वायुसे, यज्ञ पात्र तथा काष्ठकी जलसे, हाथी दॉत आदिकी कालसे, तैल घृत सुवर्णादिकी अग्निसे, तंतुओंकी जलसे, चामकी काल और रंगसे, पार्थिव विकार ईंट आदिकी कालसे शुद्धि होती है, कहीं तो यह सब मिलकर शुद्धि करते हैं और कभी अकेले करते हैं तो भी जो काक और चाण्डालादिक नीच जातिका स्पर्शहुआ हो तो उसके देश अवस्था देखकर विचार करै तब शुद्ध हो॥१२॥ और भी शुद्धि कहते हैं, पीढ़ा पात्र वस्त्र आदिमें जो अपवित्र वस्तु लेपकी लगजाय तो काष्ठ छिलायेसे शुद्ध हो, द्रव्यकी शुद्धि राख और खटाईसे धोवै तब शुद्ध हो, वस्त्र खारसे गंध और लेप छूटनेतक धोवै तब शुद्ध हो, जब दुर्गंध न रहे स्वच्छ होजाय तब शुद्ध है॥१३॥ अव कर्त्ताकी शुद्धि कहते हैं—स्नान, ध्यान, तप, अवस्था, बाल्य, कौमार, वीर्यसंस्कार, गायत्री उपदेश कर्म,

अमेध्यलिप्तं यद्येन गंधं लेपं व्यपोहति॥ भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते॥१३॥ स्नानदानतपोऽवस्था वीर्यसंस्कारकर्मभिः॥ मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्द्विजः॥१४॥ मंत्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्॥ धर्मः संपद्यते षड़भिरधर्मस्तु विपर्ययः॥१५॥ क्वचिद्गुणोपि दोषः स्याद्दोषोपि विधिना गुणः॥ गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते॥१६॥

संध्या दीक्षादिक कर्म से ब्राह्मण जब शुद्ध होय तब कर्म करै और आत्माकी शुद्धि मेरे स्मरण से होती है और प्रकारसे नहीं, ब्राह्मणादिक्के देहकी शुद्धि इन संस्कारों से होती है और प्रकार नहीं, देहकी शुद्धि इन संस्कारोंसे होती है, सो भी व्यवहार के लियेही है; उसके निमित्त विहित कर्म करै॥१४॥ अब मंत्रकी शुद्धि कहते हैं, श्रेष्ठ गुरुके मुखसे सुने, इसके उपरान्त उस मंत्रका अच्छीप्रकार ज्ञान हो तो मंत्रकी शुद्धि हो, जो कुछ कर्म भले अथवा बुरे करै सो सब मुझे समर्पण करे, यह कर्म शुद्धि हैं, देश काल द्रव्य कर्त्ता मंत्र कर्म इन छःपदार्थोंके शुद्ध होनेसे धर्मकी शुद्धि होती है, यही अशुद्ध हो तो अधर्म होता है॥१५॥ यह गुण दोषका विभाग यथार्थ नहीं है, कहीं आपदामें प्रतिग्रह लेनेसे दोष गुण होजाता है, धन होनेसे निषेध होनेका कारण कहीं दोष है और कहीं दोष भी विधिसे गुण होजाता है, जैसे कुटुम्बका त्यागना दोष है, परन्तु

विरक्तको कुटुम्ब त्यागना दोष नहीं, गुण दोषके कहनेवाले शास्त्र गुण दोषके बाधक हैं॥१६॥ दोष भी कहीं दोष नहीं होता, यहाँ एक दृष्टान्त कहते हैं, जो सुरापानसे पतित नहीं हैं, उन पतितोंको सुरापानसे दोष नहीं होता, क्योकि वह जातिकर्ममें पहलेही पतित हैं उनको सुरापान अधिक पातक क्या करेगा? और जो धर्मशील हैं, उन्हें उसका संगही पातक है, संन्यासी को संगही बंधनमें डाल देता है, सोई गृहस्थका गुण क्योंकि गृहस्थको संग करना होता है, जैसा कि वेद में कहा है “ऋतुके दिन स्त्री संग न करैं, परन्तु जो पहलेही पृथ्वीपर सोया है, वह नीचे नहीं गिरता"॥१७॥ इसप्रकार गुण दोष का विचार प्रवृत्तिमार्गमें है निवृत्ति होनेके उपरान्त कुछ नहीं, सो कहते हैं, वेदका यही तात्पर्य नहीं है कि, जो सदा प्रवृत्तिर्मेही रहे, वेद प्रवृत्ति छुटाकर निवृत्ति बताते हैं, इस कारण जिस जिस विषयसे निवृत्त हुआ, उससे मुक्त होजाता है, यह

समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्॥ औत्पत्तिको गुणः संगो न शयानः पतत्यधः॥१७॥ यतोयतो निवर्त्तेत विमुच्येत ततस्ततः॥ एष धर्मोनृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः॥१८॥ विषयेषु गुणाध्यासात्पुंसः संगस्ततो भवेत्॥ संगात्तत्र भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम्॥१९॥ कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्त्तते॥ तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम्॥२०॥ तया विरहितः साधो जंतुः शून्याय कल्पते॥ ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्छितस्य मृतस्य च॥२१॥ विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्॥ वृक्षजीविकया जीवन्व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन्॥२२॥

धर्म मनुष्यों को अत्यन्त शुभकारी है और शोक, मोह तथा भयको दूर करनेवाला है॥१८॥ प्रवृत्तिमार्ग अनर्थरूप है सो कहते हैं कि, जब मनुष्योंको विषयमें इन्द्रियोंका अध्यास होजाताहै, तब आसक्ति उत्पन्न होती है आसक्तिसे काम और कामहीसे कलह उत्पन्न होता है॥१९॥ कलहसे अतिअसह्य क्रोध होता है, क्रोधसे तम और अज्ञान होता है, अज्ञानसे पुरुषकी चेतना जो सब देह में व्यापरही है, सो शीघ्रही नष्ट हो जाती है॥२०॥ हे साधो! जब वह चेतनासे रहित हुआ, तब यह जीव आसाधुके तुल्य हो मूच्छित होता है, मूर्च्छा होतेही मृतक समान होने से इसके पुरुषार्थकी हानि होती है॥२१॥ जो मृतक समान है उसका स्वरूप कहते हैं, जो विषयोंमें आसक्त होनेके कारण आत्माको तथा और को भी नहीं जानते, सो वृक्षोंकी जीविका की नाई वृथा जीते हैं, धौंकनीके समान श्वास लेते भी मृतक समान हैं॥२२॥

यह जो प्रवृत्तिमार्गकी आज्ञा है, सो वेदने यहाँ कर्मोंके फल रुचि दिखाने के लिये वर्णन किये हैं, जैसे रोगीको औषधी रुचि उपजाकर पिलाते हैं, तात्पर्य आरोग्यतासे है. सदा औषधी सेवनसे नहीं. इसी प्रकार जब तक ज्ञान न हो तब तक कर्म करनेकी वेद आज्ञा करता है, सब काल कर्म करने से तात्पर्य नहीं॥२३॥ मनुष्य स्वभावहीसे पशु आदिमें और इन्द्रिय, बल वीर्यमें, पुत्रादिको में आसक्तचित्त होजाता है सो सब अपने आपको अनर्थका हेतु है॥२४॥ इससे स्वार्थ अर्थात् मरमसुखको जो पुरुष नहीं जानते, वह अनेक पापरूप मार्गोंकी उन उन योनियोंमें भ्रमण करते हैं, इसके पीछे जड़रूप वृक्ष आदि योनियोंमें प्रविष्ट होते हैं, उनको फिर वेद भी धर्मोंमें नहीं प्रवृत्त करे, जिससे अनिष्ट हो उसीमें वेद वृप्रत्त करै तो हितकारी हो॥२५॥ कर्ममार्गी कैसे फल बताते हैं, सो कहते हैं, इसप्रकार वेदका अभिप्राय जाने विना कुबुद्धिही लोग वेदमें

फलश्रुतिरियं नृृणां न श्रेयो रोचनं परम्॥ श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम्॥२३॥ उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च॥ आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु॥२४॥ न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि॥ कथं युंज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः॥२५॥ एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः॥ फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि॥२६॥ कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः॥ अग्निमुग्धा धूमतांताः स्वं लोकं न विदंति ते॥२७॥ न ते मामंग जानंति हृदिस्थं य इदं यतः॥ उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः॥२८॥ ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः॥ हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना॥२९॥

कहे हुये सुन्दर फलश्रुतिको सत्य समझतेहैं वह भ्रम है परन्तु जो वेदके तात्पयको जानते हैं, वह व्यास आदि ऋषि ऐसा नहीं कहते॥२६॥ कामीकृपण, लोभी, पुष्परूपी स्वर्गादि सुखरूप अवान्तर फल जो मुख्य माननेवाले अग्निहोत्रादिसे मुग्ध धूम्रयुक्त चित्तवाले अपने सुखदायक लोकको नहीं जानते॥२७॥ हे उद्धव! जिससे यह जगत् प्रगट है और जो जगतरूप है, ऐसे मुझ परमात्माको वे हृदयमें स्थित नहीं जानते, कर्मरूप शस्त्रोंसे पशु हिंसाकर बकवत प्राण पुष्ट करते हैं जैसे कुहरेसे कुछ नहीं दीखता, वैसेही अज्ञानसे उनके नेत्र व्याप्त हैं, क्योंकि जो समीपमें स्थित मुझे नहीं जानते॥ ॥२८॥ इसी कारणसे मेरे वाक्यरूप वेदके गूढ़ तात्पर्यको विषयी नहीं जानते, मेरा मत यह

है कि, यदि मांस भक्षणके लिये हिंसाकी विधिमें वेदकी प्रीति होती तो वेद यज्ञमें ही मांस भक्षणकी विधि नहीं करता, किन्तु सदाके लिये आज्ञा देता मनुष्यों की मांसमें अधिक प्रवृत्ति देख उनको इससे छुड़ानेके लिये कि, एक संग तो छूट नहीं सकता, इस कारण छुडानेका उपाय प्रतिपादन करता है कि, पशुको यज्ञमेंही मारना और स्थलमें नहीं उसमें भी अमुक पशु मारना, इससे वेदका अभिप्राय पशुहिंसा से निवृत्तिही करनेका है॥२९॥ हिंसा में जिनके व्यवहार हैं, अपने विषय भोगोंके लिये पशुओंकी हिंसा करके देवता, पितृ, भूतपतियोंका जो पुरुष पूजन करते हैं वह अतिदुष्ट हैं॥३०॥ स्वप्नके समान कानोंको सुख दायक परलोकको और इस लोककी कामनाओंका मनमें संकल्प करके अपने धनको कामकोंमें व्यय करते हैं और दोनों लोकसे भ्रष्ट होजाते हैं, जैसे बनियॉ दुस्तर समुद्रके उल्लंघन करनेमें बहुत धन प्राप्तिकी इच्छाकर

हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया॥ यजंते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः॥३०॥ स्वप्नोपमममुं लोकमसंतं श्रवणप्रियम्॥ आशिषो हृदि संकल्प्य त्यजत्यर्थान्यथा वणिक्॥३१॥ रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः॥ उपासत इन्द्रमुख्यान्देवादीन्न तथैव माम्॥३२॥ इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि॥ तस्यांत इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः॥३३॥ एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्॥ मानिनां चातिस्तब्धानां मद्वार्तापि न रोचते॥३४॥ वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे॥ परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम्॥३५॥

अपने संचित किये धनको छोड़ दोनोंओरसे भ्रष्ट होजाता है॥३१॥ और जो रजोगुण, सतोगुण, तमोगुणसे युक्त होकर जैसे इन्द्रादिक देवताओंकी सेवा करते हैं, वैसे मेरी सेवा नहीं करते॥३२॥ मनमें अनेक मनोरथ करते हैं कि, “यहॉ यज्ञसे देवताओंको सन्तुष्टकर स्वर्गमें जाकर विहार करेंगे और फिर यह भोग भोगकर अंतमें यहाँ आय बड़े बड़े गृह तथा बड़े कुलमें स्थित होंगे”॥३३॥ इस प्रकार फूली बातोंसे चंचल चित्त मनुष्य मान अहंकार भरे गृहमें रमे रहते हैं, उनको मेरी वार्ता अच्छी मालूम नहीं होती॥३४॥ इसकारण वेदका तात्पर्य ब्रह्म विषेहै, निवृत्तिही को बतातेहैं, यद्यपि कर्मयोग, ज्ञानमार्ग, उपासनामार्ग, भिन्न भिन्न कहे हैं परन्तु तोभी तात्पर्य ब्रह्ममेंही है मंत्र और मत्रोंके द्रष्टा ऋषि परोक्ष रीतिसेही पदार्थका प्रतिपादन करते हैं, इससे ब्रह्म आत्मामें गृढ़ होनेके कारण प्रकाशित नहीं परोक्षरीतिसे कहने का कारण यह है कि, मुझे

परोक्ष प्रियहै जिनके अंतःकरण शुद्ध हैं वही उसको जान सकते हैं, दूसरे नहीं जान सकते दूसरों के जाननेमें हित तो दूर रहे; किन्तु कर्मभ्रष्ट होनेकी आपत्ति आनपड़ती है॥३५॥ तो कहते हैं कि, जैमिनि आदिऋषि वेदके ज्ञाता थे इन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर यह है कि, वेदका तत्त्व मुझ विना कोई नहीं जानता है क्योंकि शब्दब्रह्म अति दुर्ज्ञेय है वही सूक्ष्म और स्थूल भेदसे दो प्रकारका है सूक्ष्मका तो स्वरूप जानना भी अतिकठिन है. क्योंकि प्रथम तो वह परा नामक प्राणमय है, दूसरा पश्यंती नाम मनोमय है, तीसरा मध्यमानाम इन्द्रियमय है, देहमें यह तीनों स्वरूप सूक्ष्मरूपसे रहते हैं, इसलिये इनका जानना कठिन है चौथा वैखरीस्वरूप है जिससे मनुष्य बोलते हैं, समष्टि प्राणमय वेदब्रह्मका देशकालसे परिच्छेद न होनेके कारण उसके पारका अंत नहीं है जिसप्रकार यह वेद ब्रह्मशब्दसे जानना कठिन है, उसी प्रकार अर्थसे भी महागंभीर समुद्रके

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेंद्रियमनोमयम्॥ अनंतपारं गंभीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्॥३६॥ मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणाऽनं तशक्तिना॥ भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते॥३७॥ यथोर्णनाभिर्हृदयाद्वर्णामुद्वमते मुखात्॥ आकाशाद्घोषवान्प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा॥३८॥ छंदोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः॥ ओंकाराद्व्यंजितस्पर्शस्वरोष्मांतःस्थभूषिताम्॥३९॥ विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः॥ अनंतपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम्॥४०॥

समान अवगाह करनेको दुःसाध्य है॥३६॥ अनन्तशक्ति व्यापकरूप अन्तर्यामी ब्रह्मसे यह नादवन्त वाणीरूप कमलनालमें तंतुके समान सब प्राणीमात्रमें प्रतीत होता है, इस स्वरूपका विद्वान् पुरुष विचार करते हैं॥३७॥ जैसे मकरी हृदयसे निकाल मुखद्वारसे जालको प्रगट करती है उसी प्रकार प्राणोपाधि हिरण्यगर्भ प्रभु भगवान् वेदमूर्त्ति अमृतमय नादवंत स्पर्शादिकों का कर्त्ता और मन करके हृदयाकाशसे वैखरी नाम वाणीको उपजाकर जाते हैं, जो बृहती वा वैखरी नामक वाणी उपजाते हैं फिर आपही संहार करते हैं वह कैसी वाणी है? कि जिसके अनेक मार्ग हैं॥३८॥ हृदय में प्राप्त अतिसूक्ष्म प्रणवसे प्रगटहुए जो स्पर्श, स्वर, ऊष्मा, अंतस्थसे शोभित॥३९॥ अनेक लौकिक भाषाओंसे फैली उत्तरोत्तर चार चार अक्षर जिनमें बढ़ें ऐसे गायत्री आदिसे छंदोंसे युक्त पारावार रहित है, वह प्राण उसे आपही प्रगट

करके उपसंहार करते हैं॥४०॥ उनमें कितनेही छन्दोंको दिखाते हैं—गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुपू, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती, अत्यष्टि, अतिजगती और अतिविराट् इत्यादि छन्द हैं, चार चार अक्षर बढानेसे बनते हैं जैसे चौबीस २४ अक्षरोंका गायत्री छन्द होता है, अट्ठाईश २८ अक्षरका उष्णिक छन्द होता है, बत्तीस ३२ अक्षरका अनुष्टुप्छन्द होता है, इस प्रकार चार चार अक्षरोंको अधिक करके छन्दोंका लक्षण जानलेना॥४१॥ यह वेदवाणी कर्मकाण्डों में विधिवाक्योंसे क्या प्रतिपादन करती है और मंत्रवाक्योंसे देवता काण्डमें किसका प्रकाश करती है ज्ञान काण्डमें यही वेदवाणी किसका अनुवाद करके विकल्प बताती है इसप्रकार वेदवाणीके तात्पर्यको मेरे अतिरिक्त जाननेकी किसीको सामर्थ्य नहीं॥४२॥ वेदवाणी देवतारूप मेराही प्रतिपादन करती है और (उस्से आकाश उत्पन्न हुआ) इत्यादि वाक्योंसे विकल्प कथनकर पीछे

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पंक्तिरेव च॥ त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छंदो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट्॥४१॥ किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्॥ इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन॥४२॥ मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यतेत्वहम्॥ एतावान्सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्॥ मायामात्रमनूद्यांते प्रतिषिध्य प्रसीदति॥४३॥ इति श्रीभा० म० एका० गुणदोषव० एकविंशोध्यायः॥२१॥ उद्धव उवाच॥ कति तत्त्वानि विश्वेश संख्यातान्यृषिभिः प्रभो॥ नवैकादश पंच त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम॥१॥

निराकरण कहते हैं सोभी मेराही स्वरूप है सब वेदका तात्पर्य यही है कि परमेश्वर परमार्थरूप है, भेद मायामात्र है, इसप्रकारजो ओंकारमें अर्थ है वही सब काण्डोंमें है, जैसे अंकुरका रस शाखा प्रशाखा फल पुष्पादि सब आजाता है॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादश स्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ दोहा - बाइसवें अध्याय में, प्रकृतीपुरुषविचार, तत्त्वोंकी संख्या सकल, अरु अविरोध प्रकार॥१॥ उद्धवजी बोले कि हे भगवन्! हे विश्वेश्वर! हे प्रभो! कितने एक महात्मा तत्त्वोंकी संख्यामें विवाद करते हैं, उन्होंने अपने शास्त्रोंमें तत्त्वोंकी संख्या पृथक् २ की है, आप सब मिलकर तत्त्वोंकी संख्या अट्ठाईस २८ कहते हैं यह आपकेही श्रीमुखसे सुना है॥१॥

कोई छब्बीस २६ कहता है, कोई पचीस कहता है, कोई सात ७कहता है कोई नौ ९ कहता है, कोई छः ६ कहता है, कोई चार ४ कहता है, कोई ग्यारह ११ कहता है, कोई सत्रह १७ कहता है, कोई सोलह १६ कहता है कोई तेरह १३ कहता है ऋषीश्वर जिस प्रयोजनके अर्थ इतनी संख्या भिन्न भिन्न कहते हैं, सो हे चिरंजीव ! यह मुझे समझाकर कहो॥२॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित! जब इसप्रकार पूँछा तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! ब्राह्मण जो कहते हैं, सो युक्त है, यह तत्त्व सर्वत्र हैं मेरी मायाको अंगीकार करके कहते हैं, जिस मायामें किसी प्रकारका कहना अशक्य नहीं है॥४॥ तुम जैसे कहते हो, यह ऐसे नहीं जो मैं कहता हूं सो सत्य है, इसप्रकार उन तत्त्वोंके मूल कार

केचित्षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिम्॥ सप्तैके नव षट् केचिच्चत्वार्येकादशापरे॥२॥ केचित्सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश॥ एतावत्त्वं हि संख्यानामृषयो यद्विवक्षया॥ गायंति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि॥३॥ श्रीभगवानुवाच॥ युक्तं च संति सर्वत्र भाषते ब्राह्मणा यथा॥ मायां मदीयामुद्गुह्य वदतां किं नु दुर्घटम्॥४॥ नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा॥ एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः॥५॥ यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम्॥ प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनुं शाम्यति॥६॥ परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षम। पौर्वापर्यप्रसंख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम्॥७॥ एकस्मिन्नपि दृश्यंते प्रविष्टानीतराणि च॥ पूर्वस्मिन्वाऽपरस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः॥८॥ पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसंख्यानमभीप्सताम्॥ यथा विविक्तं यद्वक्रं गृह्णीमो युक्तिसंभवात्॥९॥

णमें जो ब्राह्मणोंका विवाद है वह यथार्थरूपसे देखाजाय तो अपने अपने स्वभावके अनुसार परिणाम होनेवाले मायाके सत्त्वादि गुणही विवादका कारण है॥५॥ जिन शक्तियोंके क्षोभसे विवाद कर्त्ताओंका भेद आश्रय हुआ है, जब शम प्राप्त होनेसे भेद दूर हो तो भेद जानकर पीछे विवाद शान्त होजाता है॥६॥ हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ! तत्त्वोंके परस्पर अनुप्रवेशसे कार्य कारणरूप तत्त्वोंकी संख्यां वक्ताकी इच्छानुसार होसकती है॥७॥ अब अनुप्रवेशको कहते हैं, एकही तत्त्वमें सब तत्त्व कारणमें अथवा कार्यमें प्रविष्ट दीखते हैं, जैसे मृत्तिकामें घट और घटमें मृत्तिका अन्योन्य प्रविष्ट हैं॥८॥ इन तत्त्वोंका कार्यकारणभाव और न्यून आदिक संख्याको वादियोंके मध्य जैसे कहनेकी इच्छासे जैसे कि

जिह्वा जिसप्रकार प्रवृत्त होती है, वह वैसीही सिद्धि करसकती है, हम इस सबको संभव जानते हैं॥९॥ जीव ईश्वर जो चैतन्यरूप है, उसके भेद अभेद माननेके कारणको कहताहूं कि, जो जीव अनादि कालसे अविद्यासे संयुक्त है, इसलिये उसे अपने स्वरूपका ज्ञान स्वयं नहीं दोसक्ता, उसे ज्ञान दाता सर्वज्ञ ईश्वर पृथक है, ऐसा जानकर जीव ईश्वर में भेद माननेवालोंके मत में चौबीस तत्त्व और पचीसवाँ जीव तथा छब्बीसवाँ तत्त्व है॥१०॥ स्वयं संख्या विषे भेदकल्पना व्यर्थ है, क्योंकि जीव ईश्वर दोनों चैतन्य होनेसे उनमें कुछ भेद नहीं और ऐसा माननेवाले पचीस तत्त्व कहते हैं ज्ञान प्रकृतिका गुण है, इसीसे प्रकृतिमें गिना है, यह एक पक्ष है॥११॥ अहो! ज्ञान तो जीवका धर्म है, प्रकृतिका गुण कैसे है? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि, तीनों गुणोंकी समान अवस्था प्रकृति है, गुण प्रकृतिहीके हैं, आत्माके नहीं. सत्व, रज, तम, गुण उत्पत्ति,

अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्॥ स्वतो न संभवेदन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत्॥१०॥ पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि॥ तदन्यकल्पनाऽपार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः॥११॥ प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः॥ सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यंतहेतवः॥१२॥ सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्मतमोऽज्ञानमिहोच्यते॥ गुणव्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च॥१३॥ पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहंकारो नभोऽनिलः॥ ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव॥१४॥ श्रोत्रं त्वद्गर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः। वाक्पाण्युपस्थपाय्वंघ्रिः कर्माण्यंगोभयं मनः॥१५॥ शब्दः स्पर्शो रसो गंधो रूपं चेत्यथजातयः॥ गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः॥१६॥

पालन और प्रलयके कारण हैं॥१२॥ सत्त्वमय ज्ञान प्रकृतिका गुण है, कर्म रजोगुणका गुण है, अज्ञान तमोगुणका गुण है और स्वभाव यह महत्तत्त्वका स्वरूप है; काल ईश्वरका स्वरूप है; इसलिये काल स्वभाव भिन्न तत्त्व नहीं हैं, मैंने जो अठ्ठाईस तत्त्व कहे हैं, उनमें पूर्वोक्त पचीस और तीनगुण यह सब मिलाकर अठ्ठाईस होते हैं॥१३॥ पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वीमें यह मैंने नौ तत्त्व कहे हैं॥१४॥ कर्ण, त्वचा, नेत्र, नासिका, जिह्वा; यह पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं. वाणी, हाथ, पाँव, उपस्थ, गुदा, यह पॉच कर्मेन्द्रिय हैं, हे उद्भव! ज्ञान और कर्म, रूप, मन यह ग्यारह॥१६॥ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पॉच जानेन्द्रियके

विषय हैं, गति, वचन, मलत्याग, ग्रहण, आनंद, यह पाँच कर्मेन्द्रियों के फल हैं, यह सब इन्द्रियोंके फल हैं, भिन्न नहीं. इससे अट्टा इसके भीतर हैं, तत्त्व नहीं है॥१६॥ इस विश्वकी आदिमें कार्य कारणरूपिणी प्रकृति सत्त्वादि गुणसे इस विश्वकी उत्पत्ति अंत, आदि अवस्था रखते हैं, निर्विकार पुरुष केवल साक्षी हुआ देखता है, इसकारण विकारयुक्त प्रकृति से पुरुष भिन्न है॥१७॥ प्रकृति से उत्पन्न हुए महत्त त्वादिक धातु विकारको पाकर पुरुषके चितवनसे बल पाय महत्तत्त्वादिक परस्पर मिल प्रकृतिके आश्रय से ब्रह्माण्डरूप कार्यको उत्पन्न करते हैं इससे संघातको प्राप्त होकर उनके उत्पन्न किये देहादिक पदार्थ उन्हीं के अन्तर्भूत होजाते हैं, इससे देहादिक पृथक तत्त्व नहीं हैं॥१८॥ किसीके मतमें आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, यह पॉच पदार्थ और द्रष्टा जीव आकाशादि पदार्थोंका और जीवका आधार आत्मा; यह सात तत्त्व हैं,

सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी॥ सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते॥१७॥ व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया॥ लब्धवीर्याः सृजंत्यंडं संहताः प्रकृतेर्बलात्॥१८॥ सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पंच खादयः॥ ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेंद्रियासवः॥१९॥ षडित्यत्रापि भूतानि पंच षष्ठः परः पुमान्॥ तैर्युक्त आत्मसंभृतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत्॥२०॥ चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः॥ जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु॥२०॥२१॥ संख्याने सप्तदशके भूतमान्रेंद्रियाणि च॥ पंचपंचैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः॥२२॥ तद्वत्षोडशसंख्याने आत्मैव मन उच्यते॥ भूतेंद्रियाणि पंचैव मन आत्मा त्रयोदश॥२३॥

इस मतमें प्रकृति महत्तत्त्व और अहंकार इस कारण तत्त्वोंका आकाशादिमें अन्तर्भाव माना है, इन्हीं सातों देह इन्द्रियादिकी उत्पत्ति मानी है॥ ॥१९॥ जिनके मतमें छः तत्त्व हैं, वह पाँच तो पंचमहाभूत और छठे परमात्माको मानते हैं, इस मतमें परमात्मा अपने से उत्पन्न हुए भूतों से जगत्को रचकर उसमें प्रविष्ट है इससे सब पदार्थोंका परमात्मामें अंतर्भाव है॥२०॥ जिनके मत में चार तत्त्व हैं उनमें आत्मा और आत्मासे प्रादुर्भूत हुए तेज, जल, पृथ्वी, यही चारतत्त्व हैं इससे सब जगत् उत्पन्न हुआ है सब कार्यका उसमें अन्तर्भाव है॥२१॥ सत्रह तत्त्वके मत में पंचमहाभूत पांच शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पांच ज्ञानेन्द्रिय एक मन सत्रहवाँ आत्मा॥२२॥ सोलह तत्त्वके मतमें आत्माही मन कहा है और

तेरहके मतमें पंचमहाभूत और पांच ज्ञानेन्द्रिय एक मन, जीवात्मा और परमात्मा यह तेरहहैं॥२३॥ ग्यारहके मतमें पंचमहाभूत और पांच ज्ञानेन्द्रिय, एक आत्मा, नौके पक्षमें पांच महाभूत प्रकृति महत्तत्त्व अहंकार और पुरुषसे यह कहते हैं॥२४॥ इसप्रकार ऋषियोंने तत्त्वों की पृथक् पृथक्संख्या कही है यह सब प्रकृतिसे पुरुषके भिन्न जाननेको हैं, यह सब यथार्थ है क्योंकि विद्वानोंका कहां न्यायसिद्ध है विद्वान् क्या नहीं कह सकते? ॥२५॥ उद्धवजी बोले कि हे कृष्ण! प्रकृति और पुरुष जिनमें एक जड़ और एक चैतन्य है यद्यपि यह स्वभावसेही भिन्नहै परन्तु तो भी परस्परंका त्याग करते उनकी प्रीति नहीं होती, इससे भेद नहीं देखा जाता॥२६॥ हे पंकजलोचन! आत्मा देहमें भासता है,

एकादशत्वमात्मासौ महाभूतेंद्रियाणि च॥ अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ॥२४॥ इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वा नामृषिभिः कृतम्॥ सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम्॥२५॥ उद्धव उवाच॥ प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ॥ अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः॥२६॥ प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथात्मनि॥ एवं मे पुंडरीकाक्ष महांतं संशयं हृदि॥ छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः॥२७॥ त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोष स्तेऽत्र शक्तितः॥ त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ॥ एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः॥२९॥ ममांग माया गुणमय्यनेकधा विकल्पबुद्धिश्च गुणैर्विधत्ते॥ वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेकमथाधिदैवमधिभूतमन्यत्॥३०॥

देह आत्माको ग्रहण कर प्रतीत होता है “मैं हूँ” इस प्रकार दोनोंका अभेद प्रकाशनेसे देहका आत्मासे भेद नहीं देखा जाता है हे सर्वज्ञ मेरे इस संदेहको युक्तिके वचनों से दूर करो॥२७॥ तुम्हारी कृपासेही संसारी जीवोंको ज्ञान प्राप्त होताहै, तुम्हारी मायासेही अज्ञान होता है, आपके अतिरिक्त आपकी मायाकी गति कोई नहीं जानता॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, देह और आत्मामें बहुत विलक्षणता है, गुणोंके क्षोभसे होनेवाला यह देह तो विकारी है, आत्मा विकाररहित है॥२९॥ हे उद्धव! मेरी गुणमयी मायाने अनेक भाँतिभेद और भेदके ज्ञान रचे हैं, यद्यपि इस

देहमें अनेक भेद हैं परन्तु तो भी तीन प्रकारके कहे हैं, एक अध्यात्मरूप, एक अधिदैवरूप, एक अधिभूत रूप ॥३०॥ दृष्टि अध्यात्म है और अधिभूत नेत्रगोलकमें प्रविष्ट सूर्यका अंश अधिदैव है, नेत्रोंसे रूप जानिये, सो नेत्रोंकी प्रवृत्ति प्रेरणावाले देवता विना नहीं होती, इससे अधिष्ठात्री देवतासे नेत्रोंकी प्रवृत्ति इससे रूपज्ञान होता है, इसप्रकार तीनों परस्पर सिद्ध होते हैं, जो आकाशविषे सूर्य है तो आपसेही सिद्ध है इसलिये आत्मा अध्यात्मादिकों का कारण है इससे भिन्न है अपने आपसे सिद्ध प्रकाश करके परस्पर प्रकाश करनेवालोंका भी प्रकाशक है. जैसे नेत्रमें तीन प्रकार हैं ऐसे ही त्वचा अध्यात्म, स्पर्श अधिभूत, वायु अधिदैव, श्रवण अध्यात्म, शब्द अधिभूत, दिशा अधिदैव, जिह्वा अध्यात्म, रस अधिभूत, वरुण अधिदैव, श्रवण अध्यात्म, गंध अधिभूत, अश्विनीकुमार अधिदैव, चित्त अध्यात्म, जिसके चित्तसे जानने ऐसा अधिभूत, वासुदेव अधिदैव,

दृग्रूपमार्कं वपुरत्र रंध्रे परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे॥ आत्मा यदेषामपरो य आद्यः स्वयाऽनुभूत्याऽखिलसिद्ध सिद्धिः॥ एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षुर्जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम्॥३१॥ योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः प्रधानमूलान्महतः प्रसुतः॥ अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतुर्वैकारिकस्तामस ऐंद्रियश्च॥३२॥ आत्मापरिज्ञानमयो विवादो ह्यस्तीति नास्तीति भिदाऽर्थनिष्ठः॥ व्यर्थोपि नैवोपरमेत पुंसां मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात्॥३३॥ उद्धव उवाच॥ त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो॥ उच्चावचान्यथा देहान्गृह्णंति विसृजंति च॥३४॥

मन अध्यात्म, जिसको मन कीजै सो अधिभूत, चन्द्रमा अधिदैव, बुद्धि अध्यात्म, जो जानिये ऐसेही अधिभूत, ब्रह्मा अधिदैव, अहंकार अध्यात्म अहं कारसे जो कीजिये सो अधिभूत, रुद्र अधिदैव॥३१॥ अहंकार तीन प्रकारका है- सात्विक, राजस, तामस, गुणके क्षोभकर्त्ता कालसे और प्रकृतिसे मूल महत्तत्त्वसे उत्पन्न हुए विकार हैं, यही अधिदेव अध्यात्म अधिभूतरूपी मोहसे देहादिके विकल्पका कारण है, जब देहादि अहंकार मिटजाय तब आत्माकी प्रतीत होसकती है॥३२॥ आत्माका न जानना इसका रूप है, यह है यह नहीं ऐसा विवाद मेटके अधर्ममें निष्ठा और यह विवाद व्यर्थ ही है परन्तु तोभी स्वरूपभूत मुझसे विमुख जिनकी बुद्धि है उनको निवृत्ति नहीं होती है परन्तु विवाद से किये कर्मों से ऊंच नीच देहमें जन्म, मरणको प्राप्त होते हैं॥३३॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो! तुमसे जिनकी बुद्धि विमुख है वह अपने करे कर्मोंसे

आपही नीच देहोंको ग्रहण करते हैं, व्यापक आत्माको देहसे और देहमें जाना अकर्त्ताका कर्म और नित्यका जन्म, मरण कैसे संभव होसकता है?॥३४॥ हे गोविन्द! अजितेन्द्रियोंसे जो जाननेयोग्य है वह मुझसे कहो, क्योंकि लोकमें बहुधा इसके जाननेवाले नहीं हैं और हैं भी तो वह मायासे मोहित हैं॥३५॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! कर्ममय मनुष्योंका मन पाँच इन्द्रियोंके सहित इस लोकसे और लोकमें जाता है और मनसे भिन्न आत्मा अहंता ममता से मनके पीछे जाता है लिंगदेह से यह सब बन सकता है॥३६॥ कमोंके अधीन मन इस

तन्ममाख्याहि गोविंद दुर्विभाव्यमनात्मभिः॥ न ह्येतत्प्रायशो लोके विद्वांसः संति वंचिताः॥३५॥ श्रीभगवानु वाच॥ मनः कर्ममयं नणामिंद्रियैः पंचभिर्युतम्॥ लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते॥३६॥ ध्यायन्मनोऽनु विषयान्दृष्टान्वाऽनुश्रुतानथ॥ उद्यत्सीदत्कर्मतंत्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति॥३७॥ विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत्स्मरेत्पुनः॥ जंतोर्वेंकस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यंतविस्मृतिः॥३८॥ जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद॥ विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथाः॥३९॥

लोक और परलोकके विषे ध्यान करता उन विषयोंमें प्रगट होता है और पहले विषयोंमें लीन होजाता है, इसके उपरान्त उसको पहले पिछलेका स्मरण जाता रहता है॥३७॥ कर्मोंके द्वारा दूसरे देहमें अत्यन्त अभिनिवेश होनेपर वह देवतादिकका देह हो तो हर्षसे अधम हो, तो शोकके भयसे जीवको प्रथम देहका विस्मरण होना, और उस देहका अहंकार नष्ट होना, यही आत्माका मरण है, कुछ देहके समान उसका मरण नहीं होता ॥३८॥ हे दानी! मनका दूसरे देहके साथ सम्बन्ध होनेपर उसमें अत्यन्त अहंकार प्रादुर्भूत होता है मनके अध्याससे आत्मा में देहका

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**शंका—**श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा कि, पृथ्वी में विद्वान् नहीं हैं एक विद्वान् तो वे हैं जो व्याकरण आदि शास्त्रको पढते हैं ऐसे विद्वान् तो पृथ्वी पर बहुत हैं परन्तु उद्धव जिनको विद्वान् कहे यह विद्वान्कोन है

**उत्तर—**शास्त्र पढनेवालेको विद्वान् योगीश्वर लोग नहीं कहते, विद्वान् उसका नाम है कि जो पुरुष मोक्ष विद्याको जानता हो मोक्ष विद्या केसी है कि, जिस मोक्षविद्याकी प्राप्तिके लिये चड बढ चतुर योगीजन अनेक उपाय कर करके हारगये, परन्तु मोक्षविद्या प्राप्त नहीं हुई और जो किसी योगी पुरुषको हो भी गई तो वडि कठिनतासे, ऐसी विद्या जाननेवाले विद्वान् पृथ्वीपर नही हैं इसलिये उद्धवजींने कहा। शास्त्र पढनेवाले विद्वानोंके लिये नहीं कहा।

ममत्व होताहै, यही आत्माका जन्म है॥३९॥ जैसे एक स्वप्न देखनेके उपरान्त दूसरा स्वप्न होता है तथा एक मनोरथके उपरान्त दूसरा होता है, तब पहला मनोरथ और स्वप्न विस्मृत होजाता है, इसीप्रकार अत्मा मनके आभ्याससे अपने आपको नवीन उत्पन्न मानता है, इस भौतिकी दशा होने से मनके अभ्यासके कारण एक देहका अभिमान नष्ट होनेपर दूसरे देहका तीव्र अभिमान होने से यह अपने पूर्व जन्मको नहीं जानता॥४०॥ इन्द्रियों का आश्रय जो मन और देहके अभिनिवेशसे उत्पत्ति द्वारा आत्मामें उत्तम, मध्यम, नीचता, मिथ्या होनेपर भी प्रकाशित होते हैं, उन्हींके द्वारा आत्मा बाह्य विषयोंको और अंतर में सुखादिकों को देखता है, जैसे जीव स्वप्नमें झूठे बहुत देहों का कत्ती देखता बहुत रूप भासे है अथवा जैसे दुष्ट पुत्रका पिता पुत्रके प्रेमसे पुत्र के शत्रु मित्रोंको अपना शत्रु मित्र मान लेता है, इसीप्रकार आत्मा मनके अभिनिवेश से देहको अपना

स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ॥ तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति॥४०॥ इंद्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि॥ बहिरंतर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद्यथा॥४१॥ नित्यदा ह्यंग भूतानि भवंति न भवंति च॥ कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते॥४२॥ यथाऽर्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः॥ तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः॥४३॥

जानता है॥४१॥ जिसकी तीव्र गति जाननेमें नहीं आती, ऐसे कालके लिये यह शरीर क्षण क्षण में उत्पन्न होते और मरते हैं परन्तु कालकी सूक्ष्म ताके कारण अज्ञानी इस जन्म मरणको नहीं जानते॥४२॥ नित्य जन्म मरण होता है, यद्यपि इसका प्रमाण कहीं देखने में नहीं आता है परन्तु तो भी अनुमान से जन्म बताते हैं, जैसे ज्योति पहले कोमल होती है, फिर कुछेक अधिक होती है, इसके उपरान्त अतिक्षीण होजाती है, जैसे वृक्षका फल पहले कच्चा हुआ, फिर कुछेक पीला पड़ा, इसके उपरान्त पकगया जिसप्रकार क्रमसे भिन्न अवस्था कालसे होती है, पर जानी नहीं जाती, ऐसे ही इसी अनुमानसे शरीर को भी कालसे नित्य वय अवस्थादिक होती हैं, परन्तु जानी नहीं जाती हैं, प्रथम अवस्थाका त्याग दूसरेका ग्रहण यही जन्म मरण नित्य होता है यही जगत् अवस्थाका भेदवाला है, इसीसे क्षण क्षण में उत्पत्ति और नाशको प्राप्त होता है, अवस्थाके भेदवालोंकी

यही दशा है॥४३ यहां तर्क करते हैं कि, नित्य अवस्थाभेदसे जन्म मरण होनेवालेको ऐसा ज्ञान क्यों होता है! कि यही देह है, सो यहां दृष्टान्त दिखाकर कहते हैं कि जातियोंके सादृश्य से यह वही दोष है, ऐसा ज्ञान होता है जिसप्रकार जल क्षण क्षण में बदलता है परन्तु नया जल आने परभी उन्हें वही जल है, यह भ्रांति होती है, इसीप्रकार शरीर क्षणक्षण में परिवर्तित होता है, परन्तु यह वही शरीर है ऐसी वाणी अज्ञानी पुरुष भ्रांतिसे कहा करते हैं॥४४॥ अहो! बड़ा आश्चर्य है जिसको देहाभिमान है, उसको कर्म जन्म मरण सब है औरोंको नहीं, सो कैसे संभव होसकता है। तो उत्तर में कहते हैं कि, वस्तुसे देहाध्यासवत्का भी जन्म मरण नहीं, अध्यासवत् पुरुष अपने कर्मबीजसे न उत्पन्न होता न जन्म लेता है भ्रांतिसे अजन्मा होनेपरभी जन्मतासा और अमर होनेपर भी मरतासा प्रतीत होता है॥४५॥ अब देहकी अवस्थाको कहतेहैं, देहका प्रथम तो उदर में प्रवेश और फिर गर्भवास होत

सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्॥ सोयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम्॥४४॥ मा स्वस्य कर्म बीजेन जायते सोऽप्यये पुमान्॥ म्रियते वाऽमरो भ्रांत्या यथाऽग्निर्दारुसंयुतः॥४५॥ निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौ मारयौवनम्॥ वयो मध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव॥४६॥ एता मनोरथमयीर्ह्यन्यस्योच्चावचास्तनूः॥ गुणसंगा दुपादत्ते क्वचित्कश्चिज्जहाति च॥४७॥ आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयो भवाप्ययौ॥ न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो इयलक्षणः॥४८॥ तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्याञ्जन्मसंयमौ॥ तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक्॥४९॥

है पीछे जन्म फिर बाल्य कौमार यौवन मध्यम वय, (पैंतालीस वर्षसे पीछे साठ वर्षतक) उपरान्त जरा, पीछे मृत्यु, यह तो देहकी नव अवस्था हैं॥४६॥ यह मनोरथमयी अवस्था ऊँच नीच देहको है. सत, रज, तम, गुणके संगसे आपको मान लेते हैं, इनमें कोई एक ईश्वरके अनुग्रह से भक्त इन अवस्थाओंको बहुत विवेक ज्ञानसे छोड़ देते हैं॥४७॥ यदि कहो कि, देहके जन्म मरणमें तो वह मूर्छित रहता है, इसे इतना ज्ञान कैसे दोसकै ? तो सुनो, पिता मरता है, उसकी क्रिया करते हैं, तब देहका नाश देखते हैं, पुत्र जन्म होता है, तब जात कर्म करते हैं. तहाँ देहका जन्म देखते हैं, उस अनुमान से अपने देहका जन्म मरण जानते हैं, परन्तु जन्म मरण खाली देहको है, द्रष्टाको जन्म मरण नहीं होत॥४८॥ जैसे धानादिके बीजसे जन्मका और पकानेसे मरणका जाननेवाला जो द्रष्टा है, वह वृक्ष और फलसे भिन्न है. इसीप्रकार देहके जन्म मरण जाननेवाला द्रष्टा

देहसे पृथक् हैं॥४९॥ इस भाँति शरीरादिसे आत्माका यथार्थ विचार करना चाहिये. यदि यह विचार न किया जाय तो विषयमोहमें गिरनेके कारण यह मूढ़ प्राणी संसार में गिरता है॥५०॥ गुणके भेदसे त्रिविध संसार कहते हैं, तहाँ एक एकके दो दो भेद हैं सो कहते हैं कि, सतो गुणके संगसे ऋषि देवता होते हैं, रजोगुणसे असुर और मनुष्य होते हैं, तमोगुणसे भूत, पशु, पक्षी, इत्यादि सब उत्पन्न होते हैं सो वह अपने कर्मों से भ्रमण करते हैं उनहीं उन योनियों में पड़े हैं॥५१॥ अहो! आत्मा तो कर्त्ता नहीं तो कमसे क्यों भ्रमण करता है ? इसपर कहते हैं कि, जैसे नाचते और गाते पुरुषोंको देखकर यह पुरुष उनमें स्थित गाने और तालको अपने मनमें अनुवर्त्तन करता है इसप्रकार बुद्धि और गुणोंके अवलोकन से गुणोंकी सामर्थ्य से अकर्त्ता पुरुष उन्हें अपने आपमें मान लेता है॥५२॥ जैसे जलके हिलनेसे तीरके वृक्ष हिलतेसे दीखते

प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान्॥ तत्त्वेन स्पर्शसंमूढः संसारं प्रतिपद्यते॥५०॥ सत्त्वसंगादृषीन्देवान्रज साऽसुरमानुषान्॥ तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः॥५१॥ नृत्यतो गायतः पश्यन्यथैवानुकरोति तान्॥ एवं बुद्धिगुणान्पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते॥५२॥ यथांभसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव॥ चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः॥५३॥ यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा॥ स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः॥५३॥५४॥ अर्थे ह्यविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्त्तते॥ ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥५५॥

हैं जैसे दृष्टि के भ्रम से पृथ्वी भी भ्रमतीसी दिखाई देती है, तो यह धर्म वृक्षमें भूमिमें नहीं यह अपने व्यवधान से दीखते हैं इसी प्रकार दृश्यका धर्म द्रष्टा में स्फुरण होता है और आनन्दादि आत्माके लक्षण होनेपर भी विषयोंके गुणसे प्रतीत होते हैं॥५३॥ यदि कोई कहे कि आत्मा भोग करता है सो भी मिथ्या है, जैसे मनोरथकी बुद्धि मिथ्या है और स्वप्न में देखी बुद्धि सब मिथ्या है, इसीप्रकार आत्मामें प्रतीत होता हुआ विषयोंका अनुभवरूप संसार भी असत्य है॥५४॥ तो निवृत्तिके उपायका प्रयोजन क्या है ? इसपर कहते हैं कि, यद्यपि स्वप्न असत्य है परन्तु तो भी उन विषयोंका ध्यान करनेवाले पुरुषके उन अवस्थामें स्वप्नके दुःख नहीं जाते, इसीप्रकार संसारके मिथ्या होनेपर भी विषयोंका ध्यान करनेवाले पुरुषके जन्म मरण नहीं जाते॥५५॥

है उद्धव! इसीलिये तुम इन दुष्ट इन्द्रियोंसे विषय भोग मत करो आत्माके ज्ञान विना यह संसारका भ्रम हुआ है, ऐसा जानो॥५६॥ कोई निन्दा करो, कोई अपमान करो, कोई उपहास करो, कोई वंचना करो, कोई ताड़ना करो, कोई रोक रक्खो, वृत्ति छीनलो॥५७॥ कोई मूत्र डालो, जूठन डालो, ब्रह्मनिष्ठा बिगाड़े परन्तु अपना कल्याण चाहनेवाला पुरुष इतने कष्ट सहै और आत्मासे आत्माका उद्धार करे, क्रोधित होकर अपने धर्मको न खोवै॥५८॥ उद्धवजी बोले कि, हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! जैसे तुम्हारा वचन हम अच्छीरीतिसे समझ सकेँ उसीप्रकार सम झाकर कहो कि, नीच अधम पुरुष इसप्रकार पांडित्य करे तो उसका सहन करना महाकठिन है॥५९॥ हे विश्वके आत्मरूप! जो तुम्हारे

तस्मादुद्धव मा भुंक्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः॥ आत्माऽग्रहणनिर्भातं पश्य वै कल्पितं भ्रमम्॥५६॥ क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा॥ ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः॥५७॥ निष्ठितो मूत्रितो वाऽज्ञैर्बहुधैवं प्रकंपितः॥ श्रेयस्कामः कृच्छ्गत आत्मनात्मानमुद्धरेत्॥५८॥ उद्धव उवाच॥ यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर॥ सुदुःसहमिमं मन्ये आत्मन्यसदतिक्रमम्॥५९॥ विदुषामपि विश्वात्मन्प्रकृतिर्हि बलीयसी॥ ऋते त्वद्धर्मनिरताञ्छांतांस्ते चरणालयान्॥६०॥ इति श्रीमद्भा० म० एका तत्त्वसंख्याऽविरोधादिव० द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ बादरायणिरुवाच॥ स एवमाशंसित उद्धवेन भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः॥ सभाजयन्भृत्यवचो मुकुन्दस्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः॥१॥ श्रीभगवानुवाच॥ बार्हस्पत्य स वै नात्र साधुर्वें दुर्जनेरितैः॥ दुरुक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः॥२॥

चरणके आश्रय हैं तुम्हारे धर्म में तत्पर और शांत हैं उनको छोड़कर अति पंडितको भी ऐसे अपराधोंका सहन होना अतिकठिन है ऐसा मैं मानता हूं, क्योंकि स्वभाव बड़ा बली होता है॥६०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ दोहा - तेइसवें अध्याय में, सहन भीख अपमान बुद्धीसे मनको करें, निग्रह मुनि विद्वान॥१॥ व्यासपुत्र श्रीशुक देवजी बोले कि, हे नृपोत्तम राजा परीक्षित ! इसप्रकार भक्तोंमें मुख्य यादवोंमें श्रेष्ठ उद्धवजीके पूछने पर मुकुंद भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उत्तर देने लगे जिन भगवान् के चरित्र श्रवण करनेमें अत्यन्त सुखकारी हैं॥१॥ श्रीभगवान बोले कि, हे बृहस्पतिके शिष्य उद्धव! इस लोकमें

वह साधु नहीं है जो दुष्ट वचनसे खेदयुक्त मनको समाधान न करसकै॥२॥ मर्मस्थानमें लगे बाणोंसे विद्ध पुरुष ऐसा ताप नहीं पाते जैसे मर्ममें लगे दुष्ट वचनसे व्यथा पाते हैं॥३॥ तथापि मेरे कहे उपाय करे तो उपाय कहता हूँ; हे उद्धव! इस विषय में एक अतिपवित्र इतिहास है सो मैं आपसे वर्णन करता हूं तुम भले प्रकार सावधान होकर सुनो॥४॥ कोई एक भिक्षुक था सो दुर्जनसे पीडित दो धैर्य धारणकर अपने प्रारब्ध कर्मोंका भोग मानकर यह कहने लगा परन्तु वह भिक्षुक पहिले बड़ा धनवान् और सज्ञान था अत्यन्त दुःखसे जो धन प्राप्त किया था उसके विनाश होजानेसे वह अत्यन्त पीड़ित और संतप्त होगया फिर चित्तमें धैर्य बढाने और वैराग्य आनेसे संन्यास धारणकर भिक्षावृत्तिसे

न तथा तप्यते विद्धः पुमान्बाणैः सुमर्मगैः॥ यथा तुदंति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः॥३॥ कथयंति महत्पुण्यमिति हासमिहोद्धव॥ तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः॥४॥ केनचिद्भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः॥ स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम्॥५॥ अवंतिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया॥ वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः॥६॥ ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः॥ शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः॥७॥ दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यंते पुत्रबांधवाः॥ दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन्प्रियम्॥८॥

अपना निर्वाह करनेलगा परन्तु नगर निवासी उसको पिछले वैरभावसे अनेक प्रकारके दुःख देनेलगे, तब उस भिक्षुकने एक कथा कंदी सो उसके चरित्र हम आपके आगे कहते हैं अवन्तिका ( उज्जैन ) देशमें एक ब्राह्मण लक्ष्मीसे अतिसंपन्न खेती और वाणिज्य करे कामी लोभी महाक्रोधी महाकदर्य था *3॥६॥ बांधव और अतिथिको वचनसे भी न पूजै धर्म काम करके हीन शून्य देहरूप घरमें भोगों से कभी आत्माकी पूजा नहीं की॥७॥ ऐसे दुःशील कदर्यके पुत्र, बांधव, स्त्री, बेटी, सेवक इत्यादि सब दुःख पावैं कोई उसे भला न कहै॥८॥

फिर वह इसप्रकार दोनों लोकोंसे भ्रष्ट हुआ कि, धर्म, अर्थ, कामसे हीन केवल भूतकी द्रव्यकी रक्षा करता रहै, ऐसे पुरुषपर नित्य कर्तव्य पांच महायज्ञोंके अंशके भागी देवता अत्यन्त क्रोधित हुए देवताओंके तिरस्कार करनेसे पुण्यका विस्तार सब क्षीण होगया, तब अनेक परिश्रमसे युक्त खेती आदि परिश्रमसे कमाया द्रव्य भी नष्ट होगया॥९॥१०॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे उद्भव! कुछेक द्रव्य उसके घरका बांधव लेगये, कितनाही द्रव्य चोर लेगये, कितना एक द्रव्य गृहदाहसे जाता रहा कितनाही जहाँ गाड़ दिया था वहाँसे गया, कुछ द्रव्य अधर्मी

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः॥ धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पंच भागिनः॥९॥ तदवध्यानविस्रस्तपुण्यस्कं धस्य भूरिद॥ अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः॥१०॥ ज्ञातयो जगृहुःकिंचित्किंचिद्दस्यव उद्धव॥ दैवतः कालतः किंचिद्ब्रह्मबंधोर्नृपार्थिवात्॥११॥ स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः॥ उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिंतामाप दुरत्ययाम्॥१२॥ तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः॥ खिद्यतो वाष्पकंठस्य निर्वेदः सुमहानभूत्॥१३॥ स चाहेदमहो कष्टं वृथात्मा मेऽनुतापितः॥ न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः॥१४॥

ब्राह्मण और मनुष्य लेगये, कितनाही द्रव्य राजद्वारमें गया॥११॥ सो फिर इसप्रकार द्रव्य नष्ट होनेसे धर्म, अर्थ, कामसे रहित हुआ, स्वजन कुटुम्बी इसका अनादर करने लगे, तब यह अपार चिंताको प्राप्त हुआ॥१२॥ द्रव्य जानेसे वह ब्राह्मण अतिचिन्ता करके उस धनका बहुत ध्यान करता संतप्त हुआ और गद्गद कंठ होकर उसको बहुत वैराग्य उत्पन्न हुआ॥१३॥ तब यह कहनेलगा कि, अहो! यह देखो बडाही कष्ट है,

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**शंका—**महादुष्ट, खोटी बुद्धि, अत्यन्त कृपण, मगवान्‌में प्रीति नहीं, ऐसा दुष्ट ब्राह्मण, मुनियों करके बडे दुःखसे प्राप्त होने योग्य जो ज्ञान, उस ज्ञानको क्यों प्राप्त हुवा? यह भ्रम है।

**उत्तर—**धनका नाश होगया तो ब्राह्मण दुखी होकर वनमें भ्रमता भ्रमता सन्ध्या होगई तो क्या देखता है कि एक गाय गारमें सदी हुई पडी है और दलदलसे किसी प्रकार निकल नहीं सक्ती, उस गायको देखकर ब्राह्मणको बढी दया आई और यह विचार किया कि, किसी प्रकार यह गाय इस दलदलसे बाहर निकले, उसने हाय हाय शब्द करके बडे परिश्रमसे उस सदीहुई गायको दलदल से बाहर खेच खाँचकर निकाल लिया, गाय प्रसन्न हो ब्राह्मणको आशीर्वाद देती हुई धीरे धीरे चली गई, गायकी कृपासे बहुत शीघ्र ब्राह्मणको ज्ञान प्राप्त होगया, वह ज्ञान जो ज्ञान मुनि लोगों को महाकठिनता से प्राप्त होताहै, गृहस्थीमें जो खोटे कर्म ब्राह्मणने किये थे उन कर्मोंसे धनका नाश हुवा, अनेक विघ्न हुए परन्तु ज्ञानको पाकर आनन्द होगया, इस उपाय से दुष्ट ब्राह्मणको ज्ञान प्राप्त हुआ था।

इतना बडा भारी मेरा द्रव्यका परिश्रम वृथाही गया जो यह आत्मा संतप्त किया न तो धर्मके अर्थ और न कामार्थ हुआ, सब वृथाही गया॥१४॥ बहुधा जो कदर्य हैं उनको द्रव्यका सुख कभी नहीं होता, जीवित इस लोकमें आपको सन्ताप होता है और मरनेपर नरक मिलता है॥१५॥ जो यशस्वी हैं उनका यश अतिनिर्मल है और गुणियोंको गुण है, सो बड़ाईके योग्य है, परन्तु जो थोड़ा भी लोभ होय तो सब गुण यशको दूर करे जैसे उत्तम रूपको थोड़ा भी कोढ़ दूर कर देता है॥१६॥ इसलिये द्रव्य सब दुःखरूप है, प्रथम तो साधनमें कष्ट है, इसके उपरान्त सिद्ध होनेपर वह द्रव्य बढ़ाना चाहे, उसमें भी कष्ट है फिर उसकी रक्षा करनी चाहिये भोगमें व्यय होता है, नाश होता है, इसप्रकार आदिसे अन्ततक, श्रम, भय,

प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन॥ इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च॥१५॥ यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः॥ लोभः स्वल्पोऽपि तान्हंति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम्॥१६॥ अर्थस्य साधने सिद्ध उत्कर्षे रक्षणे व्यये॥ नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिंता भ्रमो नृणाम्॥१७॥ स्तेयं हिंसाऽनृतं दंभः कामः क्रोधः स्मयो मदः॥ भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥१८॥ एते पंचदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्॥ तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥१९॥ भिद्यंते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा॥ एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः॥२०॥ अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः॥ त्यजंत्याशुस्पृधो घ्नंति सहसोत्सृज्य सौहृदम्॥२१॥

चिन्ता, भ्रम, मनुष्योंको रहते हैं, इस कारण कभी अर्थ सुखकारी नहीं है॥१७॥ और भी दोष कहते हैं चोरी हिंसा दंभ, झूठ काम, क्रोध धनके साधनमें हैं गर्व, अहंकार, भेद, वैर, अविश्वास, अश्रद्धा, यह छः अनर्थ पाये पीछे होते हैं और तीन व्यसन, स्त्री, मद्य, जुआ, इसी धनसे होते हैं॥ ॥१८॥ इसप्रकार पन्द्रह अनर्थ अर्थसे (द्रव्यसे) होते हैं, सुनो उद्धवजी! इसका नाम तो अर्थ है पर अनर्थरूप है इसलिये जो पुरुष अपना भला चाहे तो वह दूरहीसे अर्थका त्याग करै॥१९॥ दोष यह कि माता, पिता, भ्राता, स्त्री, संबंधी जो स्नेहके कारण एक चित्त होकर मिले रहते हैं वह भी धन के लिये पृथक होजाते हैं और काकिणी अर्थात बीस कौड़ी के ऊपर तत्काल वैरी होजाते हैं॥२०॥ यह प्राणी थोड़ेही द्रव्यके लिये

क्षेमको प्राप्त हो महाक्रोध कर श्रद्धासे एक साथ सुहृदता और स्नेह छोडकर परस्पर मारनेलगते हैं॥२१॥ इस लोकमें जो अनर्थ उठे हैं और जो परलोकमें भी अनर्थ होंगे सो कहते हैं देवताओंके प्रार्थनीय मनुष्य जन्मको पाकर उसमें भी उत्तम ब्राह्मण जन्मको पाय उस जन्मका अनादर कर अपना स्वार्थ खोदेते हैं, वह अधमगतिको प्राप्त होंगे॥२२॥ इसलिये स्वर्ग और मोक्षका द्वार यह देह पाय, इस अनर्थके घर द्रव्यमें कौन मरणधर्मा पुरुष आसक्त हो १॥२३॥ देवता, ऋषि, पितर, भूत, जाति बंधु और जो अंशके भागी हैं इनको और अपनी आत्माको जो न दे सो अधमगतिमें जाय इससे वे भूतकी नाईं द्रव्यके रक्षक हैं॥२४॥ अब अपनी अवस्था कहता हूँ, मैं व्यर्थ अर्थकी क्रियासे सदा असावधान

लब्ध्वा जन्माऽमरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद्द्विजाग्र्यताम्॥ तदनादृत्य ये स्वार्थंघ्नंति यांत्यशुभां गतिम्॥२२॥ स्वर्गापवर्गयो र्द्वारंप्राप्य लोकमिमं पुमान्॥ द्रविणे कोनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि॥२३॥ देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन्बंधूंश्च भागिनः॥ असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः॥२४॥ व्यर्थयाऽर्थेहया चित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्॥ कुशला येन सिध्यंति जरठः किं नु साधये॥२५॥ कस्मात्संक्लिश्यते विद्वान्व्यर्थयाऽर्थेयाऽसकृत्॥ कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः॥२६॥ किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत॥ मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः॥२७॥ नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः॥ येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः॥२८॥

रहा, मेरा द्रव्य व्यर्थही गया और वय क्रम अवस्था भी व्यर्थ गई, जो विवेकी हैं; वह अर्थसे मोक्षके अधिकारी होते हैं, और मेरा बलभी व्यर्थ गया अब मैं वृद्ध होगया हाय! मैं कुछ भी न कर सका॥ २५॥ यह अर्थकी चेष्टा व्यर्थ होनेपर भी जानबूझकर इसकी तृष्णासे ज्ञानी पुरुष भी क्यों क्लेश पाते हैं! इससे विदित होता है कि, किसीकी मायासे यह प्राणी अत्यन्त मोहित हो रहे हैं॥२६॥ यद्यपि धनसे संसारी भोगोंको भोगते हैं, परन्तु जब कि, इस प्राणीके निकट प्रतिदिन मृत्यु चली आती है, तब इसे धनसे, धनके देनेवालेसे, सुखसे, सुखके देने वालोंसे तथा बारबार जन्मदाता कर्मोंसे क्या सिद्ध है ?॥२७॥ मेरे ऊपर निश्चय ही सर्वदेवरूप भगवान् संतुष्ट हुए जो भगवान् से में इस दशाको

प्राप्त हुआ, मुझे वैराग्य उपजा, वैराग्य संसारसमुद्र से तरनेको नौका है॥२८॥ अब मेरा जितना समय शेष रहा है, उस कालसे तपस्या करके मैं अपने अंगोंको क्षीण करूंगा, आत्माहीसे संतोष मान समस्त धर्मों में सावधान होकर रहूंगा॥२९॥ मुझपर त्रिलोकीके ईश्वर तथा देवता अनुग्रह करते हैं, कदाचित कहो कि, देवताओंके अनुग्रह करनेसे वृद्धहुआ, सो समय थोडा रह गया; अब क्या कर सकूंगा? तो कहते हैं कि खट्वांग राजा ने एक मुहूर्त्त में ब्रह्मलोकको साध लिया था॥३०॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्भव! जब अवंती नगरीका ब्राह्मण इसप्रकार मनमें निश्चय कर हृद यकी गाँठ अहंता ममताकी खोल शान्त मन हो संन्यासी होगया॥३१॥ इन्द्रिय, वायु, मनको निश्चय करके पृथ्वीपर फिरने लगा, इसके उप

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येंगमात्मनः॥ अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि॥२९॥ तत्र मामनुमो देरन्देवास्त्रिभुवनेश्वराः॥ मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खटांगः समसाधयत्॥३०॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावंत्यो द्विजसत्तमः॥ उन्मुच्य हृदयग्रंथीञ्छांतो भिक्षुरभून्मुनिः॥३१॥ स चचार महीमेतां संयतात्मेंद्रियानिलः॥ भिक्षार्थं नगरग्रामानसंगोऽलक्षितोऽविशत्॥३२॥ तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः॥ दृष्ट्वा पर्यभवन्भद्र बह्वीभिः परिभृतिभिः॥३३॥ केचित्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमंडलुम्॥ पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कंथां चीराणि केचन॥३४॥ प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः॥ अन्नं च भैक्ष्यसंपन्नं भुंजानस्य सरित्तटे॥३५॥ मूत्रयंति च पापिष्ठाः ष्ठीवंत्यस्य च मूर्धनि॥ यतवाचं वाचयंति ताडयंति न वक्ति चेत्॥३६॥

रान्त भिक्षाके लिये एक नगरमें आया॥३२॥ वहाँ भी कहीं आसक्त नहीं और न किसीको अपनी श्रेष्ठता दिखावै, विचरता रहै कल्याणरूप वह ब्राह्मण अतिवृद्ध भिक्षुक अवधूत वेष से रहे, इसको देखकर दुष्टजन अनेक प्रकारके तिरस्कारसे दुःख देनेलगे॥३३॥ अब सात लोकोंमें इसका उत्तर कहते हैं, किसीने तो उसका त्रिदंड लेलिया और कोई पात्र, आसन, पीढ़ा, माला, कन्था, वस्त्र, लेलेकर चलेगये॥३४॥ हे महापुरुष ! पहले इसप्रकार दिखाकर मुनिको देखकर फिर लेलिया और जन भिक्षा माँग अन्नले नदीके तीर भोजन करै॥३५॥ तब पापी इसके माथेपर मूत्र

करदें, फिर वह जो मौन रहें तो बुलावै, यदि न बोले तो मारैं, कोई इसप्रकार डरावें कि यह चोरहै, ऐसे वचन कहैं॥३६॥ कितने एक यह कहने लगे कि इसे बाँध, ऐसे कहकर उसको रस्सियोंसे बाँधतेथे, कितने एक कहने लगे कि मारोमारो क्योंकि यह धर्मका ढोंग बनानेवाला और लोगों को उगनेवाला है, यह पाखण्डी है, धूर्त्त है, अब द्रव्य तो सब गया स्वजन संबंधियोंने सबने छोड़ दिया अब यह वृत्ति ग्रहण की॥३७॥३८॥ अहो! देखो यह बड़ा ढीठ और अतिबली है, क्योंकि पर्वतके समान धैर्यवान मौनसे बकध्यानी होकर अपना स्वार्थ साधरहा है, इसका दृढ़ निश्चय है॥३९॥ इसप्रकार एक तो हँसें, कोई उसके ऊपर अधोवायु छोड़े, कोई बाँधे, कोई रोक रक्खै जैसा बालकोंका खिलौना॥४०॥ इस भाँति

तर्जयंत्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः॥ बध्नंति रज्ज्वा तं केचिद्वध्यतांवध्यतामिति॥३७॥ क्षिपंत्येकेऽवजा नंत एष धर्मध्वजः शठः॥ क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झितः॥३८॥ अहो एष महासारो धृतिमान्गिरिराडिव। मौनेन साधयत्यर्थंबकवद्दृढनिश्चयः॥३९॥ इत्येके विहसंत्येनमेके दुर्वातयंति च॥ तं बबंधुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम्॥४०॥ एवं स भौतिकं दुःखं दैहिकं दैविकं च यत्॥ भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तंप्राप्तमबुध्यत॥४१॥ परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः। पातयद्भिः स्वधर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम्॥४२॥ द्विज उवाच॥ नायं जनो मे सुखदुःखहेतुर्न देवताऽत्मा ग्रहकर्मकालाः॥ मनः परं कारणमामनंति संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत्॥४२॥४३॥ मनो गुणान्वै सृजते बलीयस्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि॥ शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवंति॥४४॥

बहुत दुःख दुर्जनोंने दिया, देहका सुख ज्वरादिकोंने हरलिया, दैवके दुःख शीत, उष्ण, “यह सब अपना प्रारब्ध भोग है” दुःख पाकर उस ब्राह्मणने ऐसे समझलिया॥४१॥ यद्यपि यह ब्राह्मण नराधम दुर्जनोंसे तिरस्कृत हुआ, परन्तु तोभी सात्विक धैर्यसे अपने धर्ममें रहकर इस कथाको गाने लगा॥४२॥ ब्राह्मण बोला कि यह जन, देवता, आत्मा गृह और काल कोई भी मेरे सुख दुःखका कारण नहीं है, मनही केवल कारण है, जो यह संसार चक्रको फिराता है॥४३॥ सोई कारण कहते हैं, बलवान मनही गुणकी वृत्ति सृजता है फिर उन गुणोंसेदी सात्त्विक, राजस, तामस भिन्न

भिन्न कर्म होते हैं और इन्हीं कर्मोंसे सात्विक, राजस, तामस देवता मनुष्य पक्षियोंकी जाति होती है॥४४॥ अब कहते हैं कि, मनहीका संसार होता है आत्माका संसार कैसे होसता है, तो कहते हैं कि, अविद्या और मनके अभ्यास से आत्माका संसार है, आपसे संसार नहीं इससे वासनासहित मन है उसके संग नियन्ता होकर रहते हैं, तथापि आत्माके संग नहीं, कर्म भी नहीं क्योंकि वह ज्ञानरूप है, जीवका सखा है और यह जो जीव है, सो मनके धर्मो को ग्रहणकर अहंकार और गुणके संगसे विषयों का सेवन करने से बँधा है॥४५॥ मनका निग्रह किये विना सब व्यर्थ है सो कहते हैं, दान, स्वधर्म, नेम, आचार, विद्याध्ययन, कर्म, उत्तम व्रत आदि यह सब एक मनके निग्रह करने के उपाय हैं इससे निश्चय करके परमयोग

अनीह आत्मा मनसा समीहता हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे॥ मनः स्वलिंगं परिगृह्य कामाञ्जुषन्निबद्धो गुणसंगतोऽसौ॥४५॥ दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च श्रुतानि कर्माणि च सद्व्रतानि॥ सर्वे मनोनिग्रहलक्षणांताः परो हि योगो मनसः समाधिः॥४६॥ समाहितं यस्य मनः प्रशांतं दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्॥ असंयतं यस्य मनो विनश्यद्दा नादिभिश्चेदपरं किमेभिः॥४७॥ मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा मनश्च नान्यस्य वशं समेति॥ भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्युंज्याद्वशे तं स हि देवदेवः॥४८॥ तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेगमरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्॥ कुर्वंत्य सद्विग्रहमत्र मर्त्यैर्मित्राण्युदासीनरिपुन्विमूढाः॥४९॥

मनका निग्रहही है॥४६॥ जिसका मन स्थिर और शांत है उसे दान आदि करनेसे क्या प्रयोजन है ? मन तो समाधिमें स्थिर हुआ है, और जिसका मन विक्षिप्त है, तथा आलस्ययुक्त है सो उसे दानादिकोंसे और जपसे क्या होगा?॥४७॥ यदि कहो कि, दान आदि धर्मसे और इंद्रियोंका तो जय होगा, वहाँ उनको जय तो नहीं होता ऐसा कहते हैं और जो देवता, इन्द्रिय यह सब मनके वश हैं कुछ मन उनके वशमें नहीं है, यह मन आपही देव है, महाबलिष्ठ है योगीजनोंको भी महाभयंकर है, इसको जो पुरुष अपने वशमें करलेते हैं, वह देवको भी देख लेते हैं॥४८॥ अब मनरूप शत्रु दुर्जयहै इसका वेग नहीं सहा जाता है, सबको पीड़ा करता है, सबको जीते विना और मनुष्योंसे युद्ध करता है, इसमें

और भी अनुकूल प्रतिकूल मित्र उदासीन शत्रु करलेते हैं वे मूर्ख हैं॥४९॥ और इसीसे संसार में भ्रमण करते हैं, यह देही एक मनकी वासना से इस देहको ग्रहण करके यह मेरी देह है, इस ममता से अहंकार से अंधबुद्धि मनुष्य “यह मैं, यह तू” इस भ्रम से अंतपारसे रहित संसार में भ्रमण करते॥५०॥ इससे सुख दुःखका कारण मन है और कोई नहीं है यह कहते हैं कि, सुख दुःखका कारण मन है तो आत्माका कारण क्या है ?।दोनों देह मट्टी के विकार हैं उनको सुख दुःखही कारणता है आत्माका कुछ नहीं लगता है जीव तो देदके अभिमानसे मानलेता है आत्माके मूर्ति नहीं, क्रिया नहीं किसको मारै? किसको सुख दे, परमात्मा दोनों जगह एक है, उसको कुछ नहीं लगता तो कहते हैं कि, जैसे अपनी जीभ अपनी दाँतों से आप काटे तो क्रोध किसपर करें, इसप्रकार देह से देहका सुखदुःख मानले तो आत्मा क्या करै?॥५१॥ जो सुख दुःखके हेतु देवता

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा ममाहमित्यंधधियो मनुष्याः॥ एषोहमन्योऽयमिति भ्रमेण दुरंतपारे तमसि भ्रमंति॥ ४९॥५०॥ जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत्॥ जिह्वां क्वचित्संदशति स्वदद्भिस्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्॥५१॥ दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्॥ यदंगमंगेन निहन्यते क्वचित्क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे॥५२॥ आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः॥ न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्यात्क्रुध्येत कस्मै न सुखं न दुःखम्॥५३॥ ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै॥ ग्रहैर्ग्रहस्येव वदंति पीडां क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः॥५४॥

तो यह आत्माको क्या? दुःखका कारण तो देवताओंको है और देवता विकारी हैं जैसे अंग से अंगको मारिये तो पुरुष अपनी देहमें किसपर क्रोध करे जैसे एकके मुखमें हाथ डाले वह काट खाय, तो मुखका देवता अग्नि है, हाथका देवता इन्द्र है उनका किया दुःख है, अविकारी अहंकार रहित आत्माको कुछ नहीं लगता॥५२॥ जो आत्माहीको सुख दुःखका कारण मानी तो औरसे क्या है? जिसके ऊपर कोप करें, इस पक्ष में भी औरसे दुःख हुआ, यह कहना संभव नहीं हो सक्ता, क्योंकि वह अपनाही स्वभाव है, आत्मा तो सर्वत्र एकही है आत्मासे और दूसरा नहीं कदाचित कहो कि, जो कुछ यह दीखता है सो मिथ्या है जब अपना आत्मा और दूसरेका आत्मा एकही है तो कोप किसपर करें इससे निमित्त नहीं दुःख भी नहीं॥५३॥ जो कहो कि, ग्रह सुख दुःखका निमित्त है तो भी आत्माको क्या ? ग्रह तो लगेहैं जिसका जन्म है, जन्म तो देहका है

आत्माका नहीं, क्योंकि आत्मा तो अजन्मा है, जिस लग्नमें देह जन्म लेताहै उस लग्नमें जैसे ग्रह हों, उसीके अनुसार सुख दुःखका निमित्त है, जिसको देहाभिमान है उसको ग्रह हैं इससे ग्रह तो अंतरिक्षमें हैं ग्रह परस्पर दृष्टि पड़नेसे ग्रहको पीड़ा देते हैं, ऐसा ज्योतिषी कहते हैं, परन्तु आत्माको क्या? आत्मा ग्रह और देहसे भिन्न है, इसलिये पुरुष क्रोध किसपर करैं १॥५४॥ जो कर्मही सुख दुःखका हेतु है, तो भी आत्माको क्या? आत्मा तो कर्मसे भिन्न है, सो कर्म हो तो दुःख होय और कर्मही नहीं तो दुःखका हेतु कहाँसे हो ? सो कहते हैं, कर्म तब होय, जब एक देहहीको जड़रूपता और अजड़रूपता हो, जड़रूपसे तो विकारी हो, अजड़रूपसे हितकारीपन, यह दोनों धर्म आने चाहिये उनमें विकारता जडतावालोंको हो और हितका अनुसंधान जड़तारहितोंको हो और जो कहें कि, देह कर्म करता है; तो देह जड़ होनेसे उसमें अपने हितका अनुसंधान नहीं और आत्मा को भी कम करना नहीं बनसकता क्योंकि वह शुद्ध ज्ञानस्वरूप है; जब सुख दुःखका कारणरूप कर्म सिद्ध

कर्माऽस्तु हेतुः सुखदुःखयोर्वै किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे॥ देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः क्रुध्येत कस्मै न हि कर्ममूलम्॥५५॥ कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ॥ नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्क्रुद्ध्येत कस्मै न परस्य द्वंद्वम्॥५६॥ न केनचित्क्वापि कथंचनास्य द्वंद्वोपरागः परतः परस्य॥ यथाऽहमः संसृतिरूपिणः स्यादेवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः॥५७॥

नहीं तो फिर पुरुष किसपर क्रोध करै?॥५५॥ जो काल सुख दुःखका हेतु है तो भी आत्माको क्या? क्योंकि आत्मा भी कालरूपही है, काल भी ब्रह्मका अंश आत्मा ब्रह्मही है, अपने अंशको आपसे भय उत्पन्न नहीं होता जिसप्रकार अग्निकी ज्वालाका ताप अग्निको नहीं व्यापता और हिमकण तुषारका शीत हिमको नहीं व्यापता, ऐसेही कालके किये सुख दुःखसे आत्माको सुख दुःख नहीं होता आत्मा असंग है इसकारण उसमें सुख दुःखका द्वंद्व नहीं व्यापता, दुःख सुखका कारण अज्ञान है, आत्मा नहीं॥५६॥ इन छः दुःख सुखके कारण विना जो कोई और हेतु कहै, सो ईश्वरकी महिमा जानकर संभव नहीं यह कहते हैं, जो प्रकृति से भी परे हैं, उसे किसी भाँति भी सुख दुःखका संबंध नहीं, जैसे अहंकार संसाररूपी है, उसीसे सुख दुःख होता है, जो इसप्रकार समझता है वह किसीसे नहीं डरता, उसको डरही

नहीं, इस भाँति मैं परमात्मा में चित्त रखकर समुद्र तरूंगा॥५७॥ पूर्व महर्षियोंकी यह जो परमात्माकी निष्टा है उस निष्ठा को धारणकर साक्षात् मोक्षके देनेवाले भगवान् वासुदेव के चरणारविन्दों की सेवा करके पारसे रहित संसारसमुद्र के पार जाऊंगा॥५८॥ श्रीभगवान् वोले कि, उद्भव ! इसप्रकार द्रव्य नष्ट होनेसे द्रव्यका लेश दूरकर संन्यास लेकर वह ब्राह्मण पृथ्वीपर फिरता रहा, यद्यपि दुष्टोंने उसका बहुत अपमान किया, परन्तु तोभी उसका चित्त अपने स्वधर्मसे चलायमान न हुआ, तब यह गाथा गाई॥५९॥ कि, पुरुपको सुख दुःखका दाता मनके भ्रम विना और दूसरा कोई नहीं है, मित्र उदासीन शत्रु यह जो संसार है, सो अज्ञानसे होता है, तत्त्वविचारसे कुछ नहीं॥६०॥ हे उद्भव! इसलिये

एतां समास्थाय परात्मनिष्ठामध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः॥ अहं तरिष्यामि दुरंतपारं तमो मुकुन्दांघ्रिनिषेवयैव॥५७॥५८॥ श्रीभगवानुवाच॥ निर्विद्य नष्टद्रविणो गतक्लमः प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्॥ निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मादकंपितोऽमुं मुनिराह गाथाम्॥५९॥ सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः॥ मित्रोदासीनरिपवः संसारस्त मसः कृतः॥६०॥ तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया॥ मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसंग्रहः॥६१॥ य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः॥ धारयेञ्छावयेच्छृण्वन्द्वंद्वैर्नैवाभिभूयते॥६२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकाद०भगवदुद्धवसंवादे भिक्षुगीता नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ श्रीभगवानुवाच॥ अथ ते संप्रवक्ष्यामि सांख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम्॥ यद्विज्ञाय पुमान्सद्यो जह्याद्वैकल्पिकं भ्रमम्॥१॥

तुम सब भावसे मुझमें बुद्धि रखकर मनको निग्रह करो इतनाही योगका तात्पर्य है॥६१॥ जो कोई यह भिक्षुककी गाई ब्रह्मनिष्ठाको सावधान होकर धारण करेंगे, सुनैंगे अथवा सुनावेंगे, वह सुख दुःख आदि द्वंद्व धर्मोंसे पराभव नहीं पावेंगे॥६२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे त्रयोविंशतितमोऽध्यायः॥२३॥ दोहा—चौबिसवें अध्यायकी, कथा कर्म आधीन॥ आत्मासे सब होता है, आत्मा हीमें लीन॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! अब मैं तुमसे कपिलदेव आदि पहले आचार्योंका निश्चय कियाहुआ सांख्य वर्णन करूंगा कि, जिस सांख्यके जाननेसे पुरुष शीघ्र भेदबुद्धिसे उत्पन्नहुई सुख दुःखादिकी भ्रान्तिको त्यागदेता है॥१॥

महाप्रलयमें द्रष्टा और दृश्य भेदरहित एक ब्रह्ममें लीन होगया, इसके उपरान्त प्रथम सतयुगमें जब सब प्राणी विवेकसे निपुणथे तब भी कुछ भेद न होनेसे सब ईश्वररूपही जानाजाता था भेद नहीं था॥२॥ पीछे जब बहुत सृष्टिकी इच्छा हुई, तब वह अक्षर ब्रह्म भेदरहित केवल आनन्दमय एकरूप अपने रूपके द्रष्टा और दृश्य भेदरहित दोरूप करदिये, एक मायाका फल रूप वाणी मनको गम्य प्रपंच रूप करदिये, एक सत्य रूप दो हुए॥३॥ ब्रह्मसे हुए, उनके मध्य एक कार्यकारणरूपिणी प्रकृति हुई, दूसरे भावसे ज्ञानरूप पुरुष हुआ जो प्रकृतिपुरुष कहाते हैं॥४॥ पुरुषरूप मेरे देखनेसे क्षोभित हुई, प्रकृति द्वारा सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण प्रगट हुए॥५॥ प्रथम इन तीनों गुणोंसे सूत्र क्रिया शक्तिरूप हुआ

आसीज्ज्ञानमयो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्॥ यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे॥२॥ तन्मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम्॥ वाङ्मनोऽगोचरं सत्यं द्विधा समभवद्बृहत्॥३॥ तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सोभयात्मिका॥ ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते॥४॥ तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन्गुणाः॥ मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च॥५॥ तेभ्यः समभवत्सूत्रं महान्सूत्रेण संयुतः॥ ततो विकुर्वतो जातोऽहंकारी यो विमोहनः॥६॥ वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत्॥ तन्मात्रेंद्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः॥७॥ अर्थस्तन्मात्रिकाज्जज्ञे तामसादिंद्रियाणि च॥ तैजसाद्देवता आसन्नेकादश च वैकृतात्॥८॥ मया संचोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः॥ अंडमुत्पादयामासुर्ममायतनमुत्तमम्॥९॥

पीछे वह सूत्र ज्ञानशक्ति रूप तत्त्व प्रगट हुआ, एकही तत्त्वज्ञान क्रियाभदसे दोनों रूपहुए, उस महत्तत्त्वसे अहंकार हुआ, जो सबको मोह उत्पन्न करता है और जीवको भ्रमण करारहा है॥६॥ सो अहंकार तीन प्रकारका है, सात्त्विक अहंकार, राजस अहंकार, तामस अहंकार यही अहंकार शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इन्द्रिय, मन तथा देवताओंका कारण है, जीव और देहकी ग्रंथिरूप यही है॥७॥ अब इस त्रिविध अहंकार से त्रिविध प्रपंचकी उत्पत्ति हुई है, सो दिखाते हैं इनमें तामस अहंकारसे पहले भूत प्रगट हुए राजसअहंकारसे दश इन्द्रियें और सात्त्विक अहंकारसे ग्यारह देवता उत्पन्न हुईं॥८॥ इसके पीछे यह सब उत्पत्ति एकत्र होके कार्य कारणके विभागसे मेरे रहनेका, उत्तम स्थान करके

एक अण्ड उत्पन्न करते भये॥९॥ पीछे उत्पन्न किये अण्डमें विराट पुरुषके अन्तर्यामी मेरा उत्तम घर है, जलमें अण्ड हुआ उस अण्डमें श्रीनारायणरूप लीलाशरीरसे में स्थित हुआ, वहॉ मेरी नाभिसे कमल उत्पन्न हुवा सब पद्म जगद्रूप तत्त्वात्मक लोकोंका कारणभूत है कमलोंमेंसे ब्रह्म उत्पन्न हुऐ*॥१०॥ उन ब्रह्माजीने विश्वरूप तपस्या करके गुणसे युक्त मेरे अनुग्रह से लोकपाल समेत तीन लोक भूमि अंतरीक्ष, स्वार्गादिको सृजा, उन लोकोंमेंही चौदह लोक समझलेना, सो भूमि कहने से पाताल लोक नीचेके आये, भुवः कहने से अंतरिक्ष कहा और स्वर्ग कहने से महलों कसे लेकर सत्यलोक सब कहे॥११॥ लोक सृष्टिका प्रयोजन कहते हैं, देवताओंका स्थान स्वर्ग हुआ, भूत प्राणियोंका स्थान अंतरिक्ष

तस्मिन्नहं समभवमंडे सलिलसंस्थितौ॥ मम नाभ्यामभूत्पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः॥१०॥ सोऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात्॥ लोकान्सपालान्विश्वात्मा भूर्भुवस्वारीति त्रिधा॥११॥ देवानामोक आसीत्स्वर्भूतानां च भुवः पदम्॥ मर्त्यादीनां च भूर्लोकः सिद्धानां त्रितयात्परम्॥ अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत्प्रभुः॥१२॥ त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनाम्॥ योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः॥१३॥

हुआ. मनुष्योंका लोक भूमि हुई, जो सिद्ध हैं, और योगसाधना करते हैं, उनका स्थान महलोंकसे आदि लोक जानलेना महात्मा ब्रह्माजीने नाग तथा असुरोंका निवास स्थान पृथ्वीके नीचे अर्थात् पाताल बनाया है॥१२॥ त्रिगुणात्मक कर्म करनेसे जो गतियें होती हैं; वह सब त्रिलो कीके मध्य में हैं, इसप्रकार लोक भिन्न भिन्न रचे हैं। महलोंक, जनलोक, तप लोक और सत्यलोक में योग संन्यास ज्ञानसे निर्मल गति होती है वैकुण्ठकी गति मेरी भक्ति विना नहीं होती सो भक्तियोग करनेसे होती है तहाँ वैकुण्ठकी गति विना और सब स्थान चंचल हैं

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***शंका—**श्रीकृष्णने चारम्वार “मम” ऐसा वचन क्यों कहा। क्योंकि, परमेश्वर होकर अभिमान युक्त वचन कहना यह बडे आश्चर्यकी बात है ? ऐसी बात तो मूर्ख कहते हैं।

**उत्तर—**पहिलेही उद्धषने श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रार्थना की, थी हे महाराज! मेरे सामने आप किसी दूसरे देवताकी और अपने दूसरे अवतारकी कथा मत कहना और कहना मी तो अपनी एक कथा कहना क्योंकि आपके नामके रसके सुखमें में मग्न होगया हू दूसरेका चरित्र मुझको अच्छा नहीं जान पडता, ऐसी उद्धवको प्रार्थनाको मानकर श्रीकृष्णचन्द्रने मम शब्द कहा था कुछ अभिमान से नहीं कहा।

स्थिर नहीं, एक स्थिर तो मेरी गति है इससे और ठौर वैराग्य रखना उचित है, में कालरूप परमेश्वर हूं, यह सब जगत् मैंनेही कर्मयुक्त किया है, सो मायाके गुण प्रवाह में सब विश्व डूबता, उछलता है इस लोकसे और लोकमें जाकर फिर गिरता है, इसलिये इसमें चित्त न लगावै॥१३॥१४॥ इसको ब्रह्मरूप कहते हैं जो पदार्थ सूक्ष्म है जो बडा है, जो स्थूल है, दुर्बल है सो प्रकृति और पुरुष इन दोनोंसे युक्त है॥१५॥ जिस कार्यका जो आदि कारण है और जो पीछे भी रहनेका स्थान है सोई इसके मध्य में है, तो वह इसीका रूप है बीच व्यवहारमें और प्रकार भासै है, जो सुवर्णके भूषणहैं और मट्टी के घडे सरैये हैं, नाम अलग हैं, वस्तुसे सुवर्ण और मिट्टी है इसप्रकार सब समझकर नाम भेदसे जो व्यवहार है, सोई विकार है, सो मिथ्या है इत नाही समझना चाहिये॥१६॥ यहाँ तर्क करते हैं कि, जो तुम इसप्रकार कार्यको एक रूप कहकर सत्य रूप कहते हो, तो अपने अपने कार्यमें मह

महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः॥ मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत्॥ गुणप्रवाह एतस्मिन्नुन्मज्जति निमज्जति॥१४॥ अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो योयो भावः प्रसिद्ध्यति॥ सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च॥१५॥ यस्तु यस्यादिरंतश्च स वै मध्यं च तस्य सन्॥ विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवाः॥१६॥ यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेऽपरम्॥ आदिरंतो यदा यस्य तत्सत्यमभिधीयते॥१७॥ प्रकृतिर्ह्यस्योपादानमाधारः पुरुषः परः॥ सतोऽभिव्यंजकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम्॥१८॥ सर्गः प्रवर्तते तावत्पौर्वापर्येण नित्यशः॥ महान्गुणविसर्गाऽर्थः स्थित्यंतो यावदीक्षणम्॥१९॥

तत्त्व आदि लेके सब तत्त्व आदितत्त्व मध्य में संयुक्त हैं, तो महत्तत्त्वोंको सत्यता होसक्ती है, तो कहते हैं कि, वे कारणरूप ब्रह्मभाव रूपको अंगी कार करके कार्यको सृजते हैं जैसे मृत्तिका के पिण्ड निमित्त कारण घटको सृजते हैं, आदि, अंतमें उसके मृत्तिकाही है जो जिसका आदि अन्त है, सो सत्य है, इससे सबके आदिसे मृत्तिका को लेकरही सृजते हैं, अंत ब्रह्मही है॥१७॥ प्रकृति इस जगत्का उपादान कारण है उत्पत्ति स्थान है पुरुष अधार अधिष्ठाता है और काल गुणोंके क्षोभसे उसको प्रगट करनेवाला है सो यह तीनों ब्रह्मरूप मैंहीं हूं, मुझसे यह भिन्न नहीं है, प्रकृति मेरी शक्ति है पुरुष और काल मेरी अवस्था है मेरा रूप होनेसे मेंही अद्वितीय स्वरूप हॅू॥१८॥ अब इस सृष्टिकी अवधि कहते हैं, जीवोंके भोग देनेके

लिये प्रगट हुई यह मेरी सृष्टि जबलों इसका अंत आवै तबतक पिता पुत्ररूपसे निरंतर चलतीहैं और जबतक परमात्माका ईक्षण हो तबतक रहती हैं इसके उपरान्त प्रलय हो जाती हैं सो कहते हैं॥१९॥ यह ब्रह्माण्ड विराट् रूप जिसमें लोकोंकी कल्पना हैं, जब इसके निकट मेरा स्वरूप भूतकाल पहुँचने लगता हैं, तब मुझसे पीड्यमानहो, सब लोक नाशको प्राप्त होते हैं जैसे उत्पन्न हुएहैं, उसी क्रमसे तत्त्व भिन्न भिन्न होकर अपने कारणसे मिलकर नष्ट होजाते हैं॥२०॥ यह शरीर अन्नसे हुआ हैं इसकारण शतवर्ष अनावृष्टिके होनेसे क्षीणहो उस अन्नमें लीन होता हैं अन्न बीजमें लीन होताहैं, बीज भूमिमें लीन होता हैं, जब बोनेसे न उपजै भूमि गंधमें महाप्रलयकी अग्निसे दग्ध हो गंधमात्र रहता हैं॥२१॥ गंध जलमें लीन होता

विराण्मयाऽऽसाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः॥ पंचत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह॥२०॥ अन्ने प्रलीयते मर्त्यमन्नं धानासु लीयते॥ धाना भूमौ प्रलीयंते भूमिर्गंधे प्रलीयते॥२१॥ अप्सु प्रलीयते गंध आपश्च स्वगुणे रसे॥ लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते॥२२॥ रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चांबरे॥ अंबरं शब्दतन्मात्रे इंद्रियाणि स्वयोनिषु॥२३॥ योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे॥ शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभुः॥२४॥ स लीयते महान्स्वेषु गुणेषु गुणवत्तमः॥ तेऽव्यक्ते संप्रलीयंते तत्काले लीयतेऽव्यये॥२५॥ कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे॥ आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः॥२६॥

हैं, जल अपने गुणमें लीन होताहैं, रस ज्योतिमें लीन होता हैं, ज्योति रूपमें लीन होतीहैं॥२२॥ रूप वायुमें लीन होता हैं वायुस्पर्शमें लीन होता हैं, स्पर्श आकाशमें लीन होता हैं और आकाश शब्दमें लीन होजाताहैं, इन्द्रियें उत्पत्त्यनुसार उस उस देवतामें लीन होती हैं॥२३॥ देवता और मनसा त्त्विकाहंकारमें और शब्द अहंकारमें लीन होजाता हैं त्रिविध अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होजाताहैं॥२४॥ महत्त्वत्व अपने अपने उत्पत्तिके गुणानुसार उस उस गुणमें, त्रिविध गुण प्रकृतिमें और प्रकृति अव्यक्तमें एकत्र होके रहती हैं॥२५॥ काल ज्ञानरूप महापुरुषमें लीन होता हैं, पुरुष

आत्मारूप जन्मरहित मुझमें लीन होताहैं, तब आत्मा एक शुद्ध विकल्प संकल्प रहित अपनेही आनंदमें स्थित होकर रहताहैं, इस भाँति सब सृष्टिका प्रकार कहा, अब इसका प्रयोजन कहते हैं॥२६॥ जब इसप्रकार ज्ञानसे देखै, तब उसके मनका कल्पना कियाहुआ भ्रम क्यों हो? और हुआ भी भ्रम हृदयमें क्यों रहे? जैसे आकाशमें सूर्योदयके भय से अंधकार नहीं रहता हैं॥२७॥ श्रीभगवान् ने कहा कि, हे उद्भव! यह सांख्य ज्ञानकी विधि मैंने तुमसे वर्णन करी, इसके जानतेही हृदयकी गाँठ छूटजाती हैं और इसीलिये उत्पत्ति तथा प्रलयके प्रकार तुमको समझाकर कहे, क्योंकि मुझे सब ज्ञान पूर्ण हैं॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ दोहा— पच्चिसमें कुछ निर्गुणता, अरु कुछ सत्य विवेक मनमें प्रगटतहैं सदा, सतरज वृत्ति अनेक॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! जबतक प्रकृति

एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रमः॥ मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोंदये तमः॥२७॥ एष सांख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रंथिभेदनः॥ प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया॥२८॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कंधे सांख्यनि रूपणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ श्रीभगवानुवाच॥ गुणानामसमिश्राणां पुमान्येन यथा भवेत्॥ तन्मे पुरुष वर्येदमुपधारय शंसतः॥१॥ शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः॥ तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः॥२॥ काम ईहा मदस्तृष्णा स्तंभ आशीर्भिंदा सुखम्॥ मदोत्साहो यशः प्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः॥३॥

पुरुषका ज्ञान न हो, तबतक तीनों गुणोंके स्वभाव न जीते हों, तबतक सुख दुःख आदि द्वंद्व धर्म नहीं जाने जाते, इससे जैसे गुणके स्वभाव जाने जाते हैं उस उपाय करनेको प्रथम गुणके स्वभाव कहते हैं, हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ उद्भ व! तीनों गुण भिन्न भिन्न होतेहैं, जब जिस गुणसे जैसा पुरुष होता हैं, सो आप मन लगाकर सुनियेमैं कहताहूं॥१॥ जिसका सतोगुणी स्वभाव होय, उसके यह धर्म होतेहैं।शम, दम, क्षमा, विवेक, तप, सत्य, दया, पहला और पिछला स्मरण, संतोष, त्याग, वैराग्य, आस्तिक्य बुद्धि, अनुचितकर्ममें लज्जा, दान, आत्मासे रति, यह सतोगुणकी वृत्ति कही॥२॥ अब रजोगुणकी वृत्ति कहते हैं, कामना, चेष्टा, दर्प, तृष्णा, गर्व, देवताओंसे सुखकी आकांक्षा, विषयभोग, बुद्ध्यादिकोंका उत्साह,

जगमें प्रीति, हास्य, वीर्य बलका उद्यम इत्यादि यह सब रजोगुणकी वृत्ति कही॥३॥ अब तमोगुणकी वृत्ति कहते हैं, क्रोध, लोभ, मिथ्या, हिंसा, याच्ञा, दंभ, अनुद्यम, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दुःख, हीनता, निद्रा, आशा, भय यह तमोगुणकी वृत्ति भिन्न भिन्न कही अब जो एक मिली हैं, वह वृत्ति सुनो॥४॥५॥ हे उद्धव! “अहं मम” यह जो बुद्धि हैं, इसमें मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इन्द्रिय और प्राण यह सात्विक, राजस, तामस हैं, इनसे जो कार्य हैं, उसे सन्निपात जनित कार्य कहना चाहिये, क्योंकि तीनों गुणोंके मिले कार्य हैं, मैं शान्त हूं, मैं कामीहूँ, मैं क्रोधीहूं, मुझे शांति हैं, काम हैं, क्रोध हैं इसप्रकार व्यवहार तीनों गुणोंका सन्निपात कहाता हैं॥६॥ जब यह पुरुष धर्म, अर्थ, काम में स्थित हो, तब जान लीजिये कि, तीनों गुणोंकी एकता हैं, धर्म सात्त्विक, अर्थ राजस, काम तामस, धर्ममें

क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञादंभः क्लमः कलिः॥ शोकमोहौ विषादार्ती निद्राऽऽशा भीरनुद्यमः॥४॥ सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः॥ वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु॥५॥ सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः॥ व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेंद्रियासुभिः॥६॥ धर्मे चार्थे च कामे च यदाऽसौ परिनिष्ठितः॥ गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः॥७॥ प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान्यहिं गृहाश्रमे॥ स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समि तिर्हि सा॥८॥ पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः॥ कामादिभीः रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम्॥९॥ यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः॥ तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमेव च॥१०॥

श्रद्धा हो, अर्थ से प्रीति हो, काममें धनहो॥७॥ प्रवृत्ति सकाम धर्ममें निष्ठा रक्खै, गृहस्थाश्रम धर्ममें निष्ठा रक्खै यह भी गुणोंके सन्निपातसे होता हैं, क्योंकि सकाम धर्म रजोगुणमय हैं, घरमें आसक्ति तमोगुणमय हैं, नित्य नैमित्तिक धर्ममें निष्ठा हैं, सो सत्त्वगुणमय हैं॥८॥ इसप्रकार भिन्न भिन्न और मिले गुणोंकी अवस्था कहकर जिस गुणसे जैसा पुरुष होता हैं, सो कहते हैं कि, पुरुषके जो शम, दम, क्षमा, दया यह धर्म होते हैं, सो सात्विक जानना, काम अनुरागसे राजस समझलेना क्रोधादिसे तामस जानना॥९॥ और जो भक्तिपूर्वक निरपेक्ष हो स्वकर्मसे मेरा भजन करै, सो पुरुष हो अथवा स्त्री हो, उसका सतोगुणरूपी स्वभाव जानना॥१०॥

जो स्वकर्मसे मेरा भजन करतेहैं और मुझसे कुछ चाहना करते हैं सो रजोगुण स्वभाव जानना और जो किसीके मारनेको मेरा भजन करैउसे तमोगुणी स्वभाववाला जानना॥११॥ अब कहते हैं कि, इन गुणोंके वश तो तुम भी देख पडते हो? और जो नहीं हो तो तुम सेव्य क्यों हुये? और जीव सेवक क्यों हुआ? सो कहो इसका उत्तर देते हैं कि, यह तीनों गुण जीवको हैं, कुछ मुझे नहीं हैं, यह सब चित्तके विकारसे होते हैं, जिसमें प्राणी आसक्त होकर बँध जाता है, मैं तो आसक्त नहीं हूँ, नियंताहूं और द्रष्टा होरहा हॅँइससे बन्धनमें नहीं, इसलिये अपना भजन करनेके लिये बारंबार कहताहूं॥१२॥ जब एक गुणकी अधिकता होती हैं, उसका कार्य दिखाते हैं

यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः॥ तं रजःप्रकृतिं विद्यार्द्धिसामाशास्य तामसम्॥११॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे॥ चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते॥१२॥ यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्॥ तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान्॥१३॥ यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः संगं भिदा बलम्॥ तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया॥१४॥ यदा जयेद्रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्॥ युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया॥१५॥ यदा चित्तं प्रसीदेत इंद्रियाणां च निर्वृतिः॥ देहेऽभयं मनोऽसंगं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम्॥१६॥

कि, जब प्रकाशरूप निर्मल शान्त सतोगुण बढ़कर रजोगुणको जीतै, तब पुरुष धर्म ज्ञानसे परमसुख युक्त होता हैं जब रजोगुण सतोगुण तमोगुणको जीतै, तब पुरुष धर्म ज्ञानसे परमसुखयुक्त हो॥१३॥ जब रजोगुण सत्वगुण और तमोगुणको जीते, तब रजोगुणसे संग हो उस संगसे भेदबुद्धि सर्वत्र हो, उससे प्रवृत्ति मार्गका स्वभाव हो कर्म, यश, श्री और दुःखसे युक्त होता हैं॥१४॥ जब तमोगुण सतोगुण और रजोगुणको जीतै, तब अज्ञानसे मोहको प्राप्तहो शोक, मोह, निद्रा, हिंसा, आशासे युक्तहो, विवेक तज अनुद्यम रूप जडता होकर रहता हैं और लय होजाता हैं॥१५॥ जब चित्त निर्मल होकर इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्तिहो, देहमें अभयहो, मनकी आसक्ति कहीं न हो, वह सतोगुण मेरी

प्राप्तिका स्थान जानना चहिये॥१६॥ जब क्रियासे विकारको प्राप्तहो बुद्धिका विक्षेपहो ज्ञानेन्द्रियोंको शान्ति न हो कर्मेंद्रियोंको निश्चलता न हो, मन भ्रमै तब जानलो कि, रजोगुण बहुत बढगया है॥१७॥ जब चित्त अन्तर्धान होकर लीन होजाय, ज्ञानसे पदार्थ ग्रहणको असमर्थ हो।मनमें भी संकल्प विकल्प उपजते रहें, नष्ट होकर शून्यसा रहैं, अज्ञान ग्लानि दुःखहो तब जानिये कि, तमोगुण बढ़ाहैं॥३८॥ हे उद्धव! यदि संतोगुण बढे तो देवताओंका बल बढता हैं, रजोगुण बढै तो असुरोंका बल बढ़ता हैं और तमोगुण बँढै तो सब राक्षसोंका बल बढ़जाता हैं॥१९॥ सतोगुणसे जाग्रत्, रजोगुणसे स्वन और तमोगुणसे सुषुप्तिकी अवस्था होती हैं, इन तीनों अवस्थामें व्याप्त एक चतुर्थ अवस्थारूप आत्मतत्त्व

विकुर्वन्क्रियया चाऽऽधीरनिर्वृत्तिश्च चेतसाम्॥ गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रांतं रज एतैर्न्निशामय॥१७॥ सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्॥ मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय॥१८॥ एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमे धते॥ असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम्॥१९॥ सत्त्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत्॥ प्रस्वापं तमसा जंतोस्तुरीयं त्रिषु संततम्॥२०॥ उपर्युपरि गच्छंति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः॥ तमसाऽधोऽध आ मुख्याद्रजसांऽतरचारिणः॥२१॥ सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यांति नरलोकं रजोलयाः॥ तमोलयास्तु निरयं यांति मामेव निर्गुणाः॥२२॥ मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्॥ राजसं फलसंकल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्॥२३॥

हैं सो वह, तुरीय निर्गुण अवस्था हैं॥२०॥ गुणके उत्कर्षसे कर्म फलको दिखाते हैं, सतोगुण के उत्कर्ष से ब्राह्मण वेदोक्त कर्म कर्त्ता ऊपर ब्रह्मलोकतक जाते हैं, तमोगुणसे नीचे के लोकोंमें जाते हैं और रजोगुणसे मनुष्यदेहको प्राप्त होते हैं॥२१॥ अब जिस गुणकी अधिकतामें मरनेसे जो गति होती हैं, सो कहते हैं, सतोगुणमें मरे तो स्वर्ग में जाय रजोगुण में मरे तो मनुष्यलोकमें जाय, तमोगुण में मरे तो नरकमें जाता हैं और निर्गुण हो तो मुझे ही प्राप्त होते हैं॥२२॥ जो स्वकर्म करे और उनका फल न चाहे अथवा मुझे अर्पण करें, वह सात्त्विक कर्म हैं जिस कर्ममें फलकी

याचना हैं वह राजस हैं, जिसमें हिंसा आधिक हैं, सो तामस कर्म हैं॥२३॥ अब सब गुण निर्गुण भेदसे ज्ञान और भक्ति भी चार प्रकारकीहैं, सो कहते है।. केवल आत्मनिष्ठ ज्ञान सात्विक हैं जो ज्ञान देह इन्द्रियोंके सम्बन्धसे लीन होता हैं सो राजस और जो बालक गूंगेका ज्ञान हैं, यह तामस हैं, केवल शुद्ध पुरुषोत्तम निष्ठ ज्ञान हो सो निर्गुण कहलाता हैं॥२४॥ वनमें वास हैं, सो सात्त्विक हैं, ग्रामका वास राजस हैं, जऍके घरमें वास तामस हैं और भगवत् मंदिरमें निर्गुण वास हैं॥२५॥ आसक्ति विना कर्मका कर्त्ता सात्विक कहलाता हैं आसक्तिसे अंधा होकर कर्म करना राजस हैं, स्मरणसे रहित कर्त्तातामस हैं और केवल एक मेरी शरणको प्राप्तहो, अहंकार छोड़कर कर्म करैसो निर्गुण हैं॥२६॥ आत्माकी श्रद्धा

कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्॥ प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्टं निर्गुणं स्मृतम्॥२४॥ वने तु सात्त्विको वासो ग्रामे राजस उच्यते॥ तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम्॥२५॥ सात्त्विकः कारकोऽसंगी रागांधी राजसः स्मृतः॥ तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः॥२६॥ सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी॥ तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा॥२७॥ पथ्यं पूतमनायस्तमहार्यंसात्त्विकं स्मृतम्॥ राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठंतामसं चार्तिदाऽशुचि॥२८॥ सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्॥ तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम्॥२९॥ द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः॥ श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा वैगुण्यः सर्व एव हि॥३०॥

सात्त्विकी, कर्मकी श्रद्धा राजसी, अधर्ममें श्रद्धा तामसी और मेरी सेवामें श्रद्धा निर्गुण हैं॥२७॥ जो आहार भक्ष्य भोज्य वस्तुहो, पवित्रहो, विना श्रम प्राप्त हुईहो सो सात्त्विक कहलाती हैं और इन्द्रियोंका परमप्रिय मधुर, कटु, अम्ल, लवण, यह सब राजस हैं, जिससे पीड़ा हो अशुद्ध हो उसे तामस कहते हैं और जो वस्तु मुझे निवेदन की हो वह निर्गुण कहलाती हैं॥२८॥ आत्माके अनुभवसे हुआ सुख सतोगुण रूपी हैं, विषय अनुभवसे हुआ सुख राजस हैं, मोह दीनतासे सुख हो सो तमोगुणी हैं और केवल मेरे आश्रयका सुख निर्गुण हैं॥२९॥ यह जितने पदार्थ कह आये हैं, द्रव्य, पवित्र वस्तु, देश, वन, ग्राम, फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, श्रद्धा, अवस्था, आकृति, मरण यह सब त्रिगुणमय हैं॥३०॥

हे पुरुषश्रेष्ठ! यह सब प्रपंचरूप भाव गुणमय जानना, पुरुष और प्रकृतिसे अधिष्ठित हैं, जितना देखा हैं सुना हैं बुद्धिसे ध्यानमें रहता हैं सो सब गुणमय हैं॥३१॥ यह गुण कर्मसे बँधे पुरुषको संसारकी गति हैं हेसौम्य!जो जीव चित्तसे उपजे गुण जीतै सो भक्तियोग करके नेष्ठासे मेरे भावको प्राप्त होते हैं॥३२॥ इसलिये विवेकी पुरुष जीतनेहीका उपाय करते हैं, सो कहते हैं ज्ञान विज्ञानकी देनेवाली मनुष्यदेह या गुण संगको दूरकर निपुण मेरा भजन करै॥३३॥ ज्ञानवान् सावधान जितेंद्रिय पुरुष सब संग छोडकर निस्संग हो मेरा भजन करै सतो गुणकी सेवासे रजो गुण तमो गुणको जीते इसके उपरान्त निरपेक्ष और शान्त बुद्धि हो मुझमें चित्तरखकर सतोगुणको भी जीते॥३४॥ तब इसप्रकार मुझे प्राप्त

सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाऽव्यक्तधिष्ठिताः॥ दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ॥३१॥ एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबंधनाः॥ येन मे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः॥ भक्तियोगेन मन्निष्टो मद्भावाय प्रपद्यते॥३२॥ तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञान संभवम्॥ गुणसंगं विनिर्धूय मां भजंतु विचक्षणाः॥३३॥ निःसंगो मां भजेद्विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः॥ रजस्तमश्चाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया मुनिः॥ सत्त्वं चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शांतधीः॥३३॥३४॥ संपद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीव विहाय माम्॥ जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाश्यसंभवैः॥ मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नांतरश्चरेत्॥३५॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कन्धे वृत्तिभेदनि० पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥

हो सो कहते हैं कि जब यह जीव गुणोंसे छूटै तब अपने वासना देहको छोड मुझे प्राप्त हो और जब मुझे प्राप्तहुआ फिर उसे संसारका आवागमन नहीं रहता, लिंगशरीरसे और चित्तसे उत्पन्न हुए गुणसे मुक्त हुये अथवा में कि जो परब्रह्महूं उसीमें पूर्ण हुआ जीव विषयभोग नहीं करता और विषय भोगोंका स्मरणभी नहीं करता *॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्भवसंवादे पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥

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**शंका—**जीव क्या वस्तु हैं जो जीव छूट जाता हैं।

**उत्तर—**जीव ब्रह्मका रूप हैं. अजीव देह हैं जबतक देहके सुखकी इच्छा करता हैं तबतक दुःख भोगता हैं और देहसे बँधा भी रहता हैं और देहके सुखकी इच्छाको जब त्याग देता हैं।तबदेहको भीत्यागके ब्रह्मसुखको प्राप्त होजाता हैं यह अर्थ “जीवोऽजीवो विहाय माम्” इस श्लोकमें हैं॥

दोहा—छब्बिसमाहिं कुसंगते, होत योगमें भंग॥ योग भोग पूरण करे, सन्तनको सत्संग॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! जिससे मेरा स्वरूप जानाजाय, ऐसा मनुष्य देहको पाकर मेरे धर्ममें स्थित हो सो अपने आत्मामें स्थित आनंदरूप परमात्माको प्राप्त होताहैं॥१॥ ज्ञाननिष्ठाके प्रभावके कारण गुणमय लिंगशरीरसे मुक्त हुआ पुरुष गुणकी जो मायामात्र और वास्तविक रीति प्रतीत हो रही हैं उनमें निवास करनेपर भी इस मिथ्या गुणोंके संगको प्राप्त नहीं होता॥२॥ यद्यपि उसे सर्वत्र वस्तुकी इच्छा नहीं हैं, परन्तु तो भी दुष्ट संग न करै, जो केवल उपस्थ इन्द्रिय और उदरको तृप्त करनेवाले हैं, ऐसे दुष्टोंका कभी संग न करे, क्योंकि जो एक भी दुष्टजनका संग होय तो भी महाघोर अंधतम नरकमें पड़ता हैं, जिसप्रकार एक अंधेके पीछे दूसरा अंधा गिरता हैं और बहुतों का संग बाधा करता हैं, इसमें तो कहना ही

श्रीभगवानुवाच॥ मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः॥ आनंदं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम्॥१॥ गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया॥ गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववरतुतः॥ वर्तमानोऽपि न पुमान्युज्यते वस्तुभिर्गुणैः॥२॥ संगं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित्॥ तस्यानुगस्तमस्यंधे पतत्यंधानुगोंधवत्॥३॥ ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छ्रवाः॥ उर्वशीविरहान्मुह्यन्निर्विण्णः शोकसंयमे॥४॥ त्यक्त्वात्मानं व्रजंतीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः॥ विलपन्नन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः॥५॥ कामानतृप्तोऽनुजुषन्क्षुल्लकान्वर्षयामिनीः॥ न वेद यांतीर्नायांतीरुर्वश्याऽऽकृष्टचेतनः॥६॥

क्या हैं?॥३॥ इलाका पुत्र बड़ा यशस्वी राजा पुरूरवा जब प्रथम उर्व्वशीके विरहसे मोहित हुआ था, तब अत्यन्त दुःखसे कातर हो कुरुक्षेत्र में पहुँचा और वहाँ उव्वशीको देख प्रार्थना की तब उर्वसीने उपासना बताई, उसके द्वारा राजा गंधर्वलोकमें प्राप्त हुआ, जब वहाँ उसका शोक निवृत्तहुआ तब उसने यह गाथा गाई॥४॥ पुरूरवा राजाको छोडकर जब उर्व्वशी चलीगई, तब उन्मत्तकी नाई नग्न उसके पीछे विलाप करता जाय कि, हे घोरे!तिष्ठ तिष्ठ, इस प्रकार विह्वल हो उठकर उसके पीछे चला॥५॥ पुरूरवा राजा अपनी पहली अवस्था कहता हैं कि, तुच्छ कामनाओंका सेवन करने में मैं अभी तृप्त न हुआ क्योंकि अनेक वर्षोंकी रात्रियें आनकर बीतगईं, परन्तु मैंने नहीं जाना, चित्त उव्वशीसे हर रहाथा जब

ज्ञान हुआ, तब जैसे वचन कहे सोकहते हैं॥६॥ पहले आठ श्लोकोंमें राजाका पश्चात्ताप कहते हैं, अहो! देखो मेरे मोहका विस्तार कि, मैंने इतना विषय किया परन्तु तोभी कामसे मलीन चित्तमें उर्व्वशीने मेरे कंठका आलिंगन किया सो इसीमें मेरी इतनी आयु व्यर्थ गई, मैंने कुछ नहीं जानी॥७॥ अब अत्यन्त खेदित होकर कहता हैं कि, देखो! इस उर्वशीसे मैं वंचित हुआ, सूर्य उदय हुआ वा अस्त हुआ यह भी मैंने न जाना, बहुत वर्षोंके इतने दिन बीत गये, परन्तु मैंने कुछ न जाने॥८॥ हे उद्भव ! वह फिर कहने लगा अहो मेरे मनको देखो कि, मेरा आत्मा इन स्त्रियोंने खेलनेको हरिण किया मैं राजाओंका राजा हूं सो मैं इसप्रकार पराधीन हुआ॥९॥ राज्यादि सहित चक्रवर्ती मुझे देखो

ऐल उवाच॥ अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः॥ देव्या गृहीत कंठस्य नायुःखंडा इमे स्मृताः॥७॥ नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाऽभ्युदितोऽमुया॥ मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत॥८॥ अहो मे आत्मसंमोहो येनात्मा योषितां कृतः॥ क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः॥९॥ सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम्॥ यांतीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवदन्॥१०॥ कुतस्तस्यानुभावः स्यात्तेज ईशत्वमेव वा॥ योऽन्वगच्छन्स्त्रियं यांतीं खरवत्पादताडितः॥११॥ किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा॥ किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम्॥११॥१२॥ स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पंडितमानिनम्॥ योहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः॥१३॥

जो तृणके समान मुझे छोड उठकर चली गई, उस स्त्रीके पीछे नग्न उन्मत्तकी भाँति मैं भी उठ चला॥१०॥ ऐसे मुझे प्रताप, तेज, ऐश्वर्य, कहाँसे हों? कि, जो मैं चलीजाती हुई स्त्रीके पीछे लगादी चला आया जैसे गधैयाके समान वह तो लातोंसे मारती जाती हैं॥९२॥ और गधा उसके पीछे जैसे चलाजाता है, ऐसेही मैं चलागया॥११॥ जिसका मन स्त्रियोंसे हरगया हैं, उसको विद्या, तप, दान, अध्ययन, एकान्तवास मौन इन साधनोंसे क्या होता हैं॥१२॥ इससे मैंने अपना स्वार्थ न जाना और आपको पण्डित मानलिया,

इसलिये मैं अतिमूर्ख हूं मुझे धिक्कार हैं कि, जो मैं ऐश्वर्यको प्राप्त होकर भी स्त्रीसे बैल गधेकी भाँति आधीन हुआ॥१३॥ यद्यपि अनेक वर्षोंके समूहसे मैंने उर्वशीका अधरमधु पिया, परन्तु तोभी यह काम तृप्त नहीं होता हैं जैसे अहुतियोंसे अग्नि तृप्त नहीं होती॥१४॥ इसप्रकार आठ श्लोकोंमें वैराग्य कहा अब दश श्लोकोंमें विवेक कहते हैं कि, जिनके चित्त वेश्याओंने हरलिये हैं, उन्हें छुड़ाने को आत्माराम ईश्वर अधोक्षज भगवान् के विना और कौन समर्थ हैं। इसलिये एक परमेश्वरकाही भजन करना उचित हैं क्योंकि बहुतेरोंने यज्ञोंसे देवता प्रसन्न किये, परन्तु अंतसमय में दुःखही पाया॥१५॥ ईश्वरके प्रसादविना मोह निवृत्त नहीं होता, इसलिये उन्हींका भजन करना चाहिये देखो उर्व्वशीने मुझे उत्तम वाक्योंसे समझयाथा परन्तु तोभी मेरे मनका मोह न गया, मैं अजितेन्द्रिय महामूढ़ हूं॥१६॥ उव्वशीका अपराध नहीं, यह मेराही अपराध

सेवतो वर्षपूगान्मे उर्वश्या अधरासवम्॥ न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा॥१४॥ पुंश्चल्याऽपहृतं चित्तं कोन्वन्यो मोचितुं प्रभुः॥ आत्मारामेश्वरमृते भगवंतमधोक्षजम्॥१५॥ बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः॥ मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः॥१६॥ किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः॥ रज्जुस्वरूपाविदुषोयोऽहं यदजितेन्द्रियः॥१७॥ क्वायं मलीमसः कायो दौर्गंध्याद्यात्मकोऽशुचिः॥ क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः॥१८॥ पित्रोः किं स्वं तु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः॥ किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते॥१९॥ तस्मिन्कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते॥ अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियाः॥२०॥

है, क्योंकि मैं अपने अजितेन्द्रियपनसेही दुःखी हुआ हूं, उसने मेरा क्या अपराध किया हैं? रस्सीको न जान जैसे रस्सीमें सर्पका भ्रम करे तो विद्य मान रस्सीका क्या अपराध हैं॥१७॥ यदि कहो कि, इसने अपने रूप गुणसे मोह उत्पन्न किया, यह दोष इसीका हैं, यह दोनों दोष मनमें रचे हैं, अज्ञानसे हैं सो कहते हैं, यह अतिमलीन दुर्गंधादिसे भरी देह कहॉ और पुष्पकी सुगंध के तुल्य आत्माके गुण कहाँ, सब ठौर ममत्व अविद्याका किया हैं, वस्तुतः विचारसे सब मिथ्या हैं॥ १८॥ यह देह माताकी हैं, अथवा स्त्रीकी हैं, वा स्वामीकी हैं, वा अग्निकी हैं, या कूकर गिद्धोंकी हैं वा आत्माकी हैं, वा मित्रकी हैं? किसकी कहनी चाहिये, इतना तो इसका निश्चय होताही नहीं और न होगा॥१९॥ जैसे अपवित्र तुच्छ देहमें आसक्त

होते हैं, सो कहते हैं कि, देखो तो कैसा सुन्दर मुख हैं, कैसी सुन्दर नासिका हैं, कैसा सुन्दर हँसना, यों भूलेहैं और यह तो तब कृमि विष्टा भस्म रूप हैं॥२०॥ त्वचा, मांस, रुधिर, आँतें, मेद, मज्जा, हड्डी संघातरूप देहमें जो आसक्त हैं, उनमें और विष्ठा मूत्र पीमें जो रमते हैं, उनमें क्या अंतर हैं कुछ नहीं. में जैसे कृमि, ऐसे वह मनुष्य हैं॥२१॥ यद्यपि इसप्रकार स्त्री कदर्यमयी जाने हैं परन्तु तो भी उनके गुरु स्त्री लंपटोंके निकट जो विवेकी हो तो न जाय, विषय असत् इन्द्रियोके संगसे मन सर्वथा विकारको प्राप्तहो, संग नहो तो न हो इससे दूर रहे॥२२॥ जो वस्तु देखी सुनी नहीं हैं, उसमें मनकी इच्छा नहीं होती, इसकारण जो पुरुष इन्द्रियोंको रोकता हैं, उस पुरुपका मन निश्चल होकर शान्त

त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ॥ विण्मूत्रपृये रमतां कृमीणां कियदंतरम्॥२१॥ अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषुस्त्रैणेषु चार्थवित्॥ विषयेंद्रियसंयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा॥२२॥ अदृष्टादश्रुताद्भावान्न भाव उपजायते॥ असं प्रयुञ्जतः प्राणाञ्छाम्यति स्तिमितं मनः॥२३॥ तस्मात्संगो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः॥ विदुषां चाप्य विश्रब्धः षङ्वर्गः किमु मादृशाम्॥२४॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवं प्रगायन्नरदेवदेवः स उर्वशी लोकमथो विहाय॥ आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै उपारमज्ज्ञानविधूतमोहः॥२५॥ ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्॥ सन्त एतस्य छिंदंति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः॥२६॥ सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रणताः समदर्शनाः॥ निर्ममा निरहंकारा निर्द्वंद्वा निष्परिग्रहाः॥२७॥

होजाता हैं॥२३॥ इससे इन्द्रियोका, स्त्रियोंका और स्त्रीलंपटोंका संग न करे, जो ज्ञानवंत हैं, उनको भी इन इन्द्रियों का विश्वास करना योग्य नहीं हैं, मुझ सरीखोंकी तो वातही क्या हैं ?॥२४॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! इस प्रकार गाताहुआ वहरा राजाधिराज पुरूरवा उर्वशी लोकको छोड़ अपने आपमें आत्मारूपको जान ज्ञानसे मोह निवृत्ति कर निवृत्त होगया॥२५॥ इसलिये दुःखदायी संगको छोड़ बुद्धिमान होकर साधुओं का संग करे, वह अपने वचन से इसके मनकी गाँठि काट देते हैं॥२६॥ साधु पुरुष कुछ चाहना नहीं करते हैं, क्योकि वह तो निरपेक्ष हैं, और उनके चित्त मुझमें लग रहे हैं, वह समदृष्टि और ममतारहित हैं, अहंकाररहित शान्त हैं, सुख दुःख परिग्रहहीन हैं

इसकारण उनका संगही इन मनुष्योंको तारदेता हैं॥२७॥ हे महाभाग! वह बडे भाग्यवंत हैं जो निरंतर मेरी कथाओंको श्रवण करते हैं, वह कथा मनुष्यके मनके संपूर्ण पाप दूर करतीं हैं॥२८॥ जो कोई मेरी कथा सुनेंगे, गावेंगे स्तुति करेंगे, अथवा आदर करेंगे, वह मुझमें तात्परहो श्रद्धासहित मेरी भक्तिको प्राप्त होगे॥२९॥ अनंत गुण पूर्ण आनन्द और अनुभवरूप मुझमें जिस साधुने भक्ति प्राप्त की, फिर उसे और क्या बाकी रहा॥३०॥ जैसे भगवान् अग्निकी सेवासे अंधकार शीत जाता रहताहैं, इसी प्रकार साधु पुरुषोंकी सेवा करनेसे संसारका

तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः॥ संभवंति हिता नृृणां जुषतां प्रपुनंत्यघम्॥२८॥ ता ये शृण्वंति गायंति ह्यनुमोदंति चादृताः॥ मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विंदंति ते मयि॥२९॥ भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते॥ मय्यनंतगुणे ब्रह्मण्यानंदानुभवात्मनि॥३०॥ यथोपश्रयमाणस्य भगवंतं विभावसुम्॥ शीतं भयं तमोऽप्येति साधून्संसेवतस्तथा॥३१॥ निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम्॥ संतो ब्रह्मविदः शांता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम्॥३२॥ अन्नं हि प्राणिनां प्राणा आर्तानां शरणं त्वहम्॥ धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य संतोऽर्वाग्विभ्यतोऽरणम्॥३२॥३३॥ संतो दिशंति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः॥ देवता बांधवाः संतः संत आत्माहमेव च॥३४॥

भय जाता रहता हैं॥३१॥ प्राणी घोर संसाररूपी समुद्रमें डूबते उछलतेहैं उनको ब्रह्मके ज्ञाता साधु शान्तही परमगति हैं जैसे जमें डूबते पुरुषको दृढ़ नाव परमगति होती हैं॥३२॥ प्राणियोंका जैसे अन्न प्राणहैं, ऐसेही आर्त्त पुरुषोंकी शरणमैं हूं मनुष्योंको परलोकका धर्मही धन हैं। ऐसेही संसारसे डरे पुरुषको शरण देनेवाले साधु हैं॥३३॥ सूर्य तो भली भाँति उदय होनेपर भी बाहिरी एक चक्षु इन्द्रियकोही देता हैं और साधुपुरुष तो सगुण तथा निर्गुण ज्ञानरूप आंतरीय अनेक चक्षुओं को देते हैं, इस कारण देवता और बन्धुरूप साधु पुरुषही हैं और आत्मा हैं तथा तद्रूप

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* **शंका—**सब वेद और शास्त्रों में लिखा हैं कि, भगवान् तीन लोक और १४ भवनके प्राणियोंके स्वामी हैंतो फिर श्रीकृष्ण ने अपने मुखसे क्यों कहा कि, दुःखी प्राणीकी शरण हम हैंं, यह बडी शका हैं?

**उत्तर—**तुम्हारी सबकी बात सत्य हैं, परन्तु अभिमानी कामी दुष्ट यह सब परगेश्वरको नहीं जानते और दीन रात दिन परमेश्वरको जानते हैंं, इसलिये दीन लोग परमेश्वरको प्यारे हैं, अभिमानी द्रोही हैं—इसलिये श्रीकृष्णने कहाथा कि, मैं दीनलोगोंका स्वामी हूँ।

भी साधुओंमेंही हैं॥३४॥ प्रथम इसका पिता शुद्ध मनसे स्त्रीरूप होकर पार्वतीके वनमें गयाथा, इसलिये उसके पुत्र पुरूरवाका नाम वैतसेन कहा सो उस उर्व्वशीलोकसे इसप्रकार निस्पृह होकर, संग छोड़ आत्मारामहो, इस पृथ्वीमें विचरण करने लगा॥३५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ दोहा— सत्ताइस अध्यायमें स्वस्थचित्तकी मूल॥ सब फलदायक कहत हौं, पूजा हरिअनुकूल॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे यादवोंमें श्रेष्ठ! अपना आराधनरूप क्रियायोग मुझसे कहो और तुम्हारे भक्त जैसे तुम्हारी पूजा

वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिःस्पृहः॥ मुक्तसंगो महीमेतामात्मारामश्चचार ह॥३५॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कन्धे ऐलगीतं नाम षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ उद्धव उवाच॥ क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रमो॥ यस्मात्त्वां ये यथार्चंति सात्त्वताः सात्त्वतर्षभ॥१॥ एतद्वदंति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम्॥ नारदो भगवान्व्यास आचार्योंगिरसः सुतः॥२॥ निस्सृतं ते मुखांभोजाद्यदाह भगवानजः॥ पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै चभगवान्भवः॥३॥ एतद्वै सर्ववर्णानामाश्रमाणां च संमतम्॥ श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद॥४॥

करते हैं, सो सब कहो॥१॥ तुम्हारा यह पूजन मनुष्योंको परमं श्रेयदायकहैं, नारद भगवान्, व्यास और अंगिराके पुत्र बृहस्पति यह सब मुनीश्वर बारंबार कहते हैं॥२॥ जो वाणी तुम्हारे मुखकमलसे निकली वही भगवान् अजन्मा ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगुआदि सबसे कही जो महादेवजीने पार्वती जीसे कहा था सोई तुमने हमसे कहा हैं॥३॥ हे मानके दाता। यह सब वर्ण आश्रमों का सम्मत है और स्त्री शूद्रों को परमकल्याणकारी हैं॥४॥

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* शंका— छहीं शास्त्रोंका चारों वर्णोंका चारों आश्रमोंका मत यह हैं कि, स्नान, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नीरांजन और अनेक सामग्री करके ईश्वरका पूजन करना योग्य हैं परन्तु तीन आश्रम जैसे ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ यह तो तीनों भगवान्‌का पूजन करना मानते हैं, परन्तु इन तीनोंसे बढे जो सन्यासी लोग हैं, वह भगवान्का पूजन करना क्यों मानेंगे ? उन्होंने तो सब कर्म त्याग दिये हैं तो फिर उद्धवजीने क्यों कहा कि भगवान्‌का पूजन करना चारों आश्रमों का मत हैं।

** उत्तर—** मुनिजन पहिले तो बढी २ विधियोंसे वैकुण्ठनाथका पूजन करते पीछे सन्यास देते हैं, सन्यास लिये पर फिर उनका मत यह नहीं हैं कि अब भी पहलेकी नाई सामग्री सप्रहकरके भगवान्का पूजन करना, परन्तु जो कोई सज्जन भगवानकी पूजा करनेकी विधि उनसे बूझता हैं तो वह उसको बता देते हैं, इसलिये उद्धवने कहा कि, संन्यासी देहसे पूजन नहीं करते परन्तु मनमें तो जानते हैं कि, पूजनको भूले नहीं जो मूल जाते तो दूसरेको कैसे बताते ?इसलिये चारों आश्रमोंका मत पूजन करनेको उद्धवने कहा॥

हे कमलदललोचन! हे विश्वेश्वरोंके ईश्वर! इस कर्मबंधनका छुडानेवाला पूजाविधान मुझसे कहो क्योंकि मैं तुम्हारा भक्त हूं और तुम्हींमें अनुरक्तहूं॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! जब इसप्रकार उद्धवजीने प्रार्थना करी तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! यह कर्मकाण्ड अनंत है इसका पार नहीं इसलिये जैसे है वैसेही क्रमसे संक्षेपसे कहता हूं॥६॥ वैदिक, तांत्रिक, मिश्रित, तप यह तीन प्रकारका मेरा पूजन है, इन तीनोंमें जिसकी जो इच्छा हो, उस विधिसे भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करै॥७॥ जब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तीनों वर्ण अपनी विधिसे भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करना चाहैं, उसका प्रकार सुनो, प्रथम गर्भसे अष्टमके एकादशके द्वादशके वर्षमें अपने वेद में कहा गायत्री उपदेश

एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबंधविमोचनम्॥ भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ न ह्यंतोऽनंतपारस्य कर्मकांडस्य चोद्धव॥ संक्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥६॥ वैदिकस्तांत्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः॥ त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत्॥७॥ यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः॥ यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे॥८॥ अर्चायां स्थंडिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाऽप्सु हृदि द्विजे॥ द्रव्येण भक्ति युक्तोऽर्चेत्स्वगुरुं माममायया॥९॥ पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धोतदंतोंगशुद्धये॥ उभयैरपि च स्नानं मंत्रैर्मृद्ग्रहणा दिभिः॥१०॥ संध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाऽऽचोदितानि मे ॥ पूजां तैः कल्पयेत्सम्यक्संकल्पः कर्मपावनीम्॥ ॥११॥ शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकनी॥ मनोमयी मणिमयी प्रतिमाऽष्टविधा स्मृता॥१२॥

पाकर पुरुषको जिसप्रकार भक्तिपूर्वक मेरा भजन करना चाहिये, सो तुम मुझसे श्रवणकरो॥८॥ प्रतिमामें पूजा, योग्य भूमिमें, अन्नमें, हृदयमें, सूर्यमें, जलमें, ब्राह्मणमें, द्रव्य करके भक्तिसे निष्कपट होकर अपने गुरुजीकी पूजा करै॥९॥ आप प्रथम तो दंतधावन करैऔर फिर मट्टीले अंगशुद्धिके लिये स्नान करै, इसके उपरान्त वैदिक तांत्रिक मत्रोंसे स्नान करै॥१०॥ इसके उपरान्त वेदविहित संध्योपासनादि कर्म सब करे, इसके पीछे उन कर्मों करके कर्मकी दूर करनेवाली मेरी पूजा करै, मनका संकल्प मुझमें रक्खै॥११॥ अब प्रतिमाके भेद कहते हैं, शिलाकी,

काष्ठकी, धातुकी, मट्टीकी, चंदनकी, चित्रकी, रेतकी, मानसी, मणिजटितहो यह आठ प्रकारकी प्रतिमा कही हैं॥१२॥ हे प्यारे उद्धव! भगवान् की मानसी पूजा करना हो तो हृदयमें मनोमयी मूर्तिकी पूजा करनी। प्रतिमा दो प्रकारकी हैं, एक तो चर, दूसरी अचर तहाँ स्थिर मूर्तिकी पूजामें आवाहन विसर्जन नहीं हैं॥१३॥ शालिग्राममें आवाहन विसर्जन न करै और स्थान में करें स्थिर प्रतिमामें भी आवाहन विसर्जन हैं, कहीं नहीं भी हैं, मिट्टी और चंदनकी प्रतिमामें तथा चित्रकीमें मार्जन मात्र करै, स्नान नहीं करावै॥१४॥ अब सकाम निष्काम भेदसे विशेष कहते हैं, संकामका प्रसिद्ध द्रव्य पूजा में कहते हैं उनसे मेरी प्रतिमामें पूजा करै, जो भक्त निष्कामहो सो जो

चलाचलेति द्विविधा प्रविष्टा जीवमंदिरम्॥ उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने॥१३॥ अस्थिरायां विकल्पः स्यात्स्थंडिले तु भवेद्द्वयम्॥ स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम्॥१४॥ द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमा दिष्वमायिनः॥ भक्तस्य च यथालब्धैर्हृदि भावेन चैव हि॥१५॥ स्नानालंकरणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव॥ स्थंडिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः॥१६॥ सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः॥ श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि॥१७॥ भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥ गंधो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः॥१८॥ शुचिः संभृतसंभारः प्राद्गर्भैः कल्पितासनः॥ आसीनः प्रागुदग्वार्चेदचयामथ संमुखः॥१९॥

सामग्री यथालाभ पावै सो सब मुझे समर्पण करै, न पावै तो वह ‘हृदयमें भावना करके पूजा करै तो वह पूजा में उसके भावसेही स्वीकार कर लेता हूं॥१५॥ स्नान अलंकार यह सब प्रतिमामेंही मुझे प्रिय हैं।हे उद्भव ! स्थंडिलमें मंत्रहीसे अपने स्थानमें उन उन देवताओंका स्थापन है; अग्निमें घृतसयुक्त हविसे होम करै॥१६॥ सूर्यमें अर्घ्य उपस्थान करैं, जलमें तर्पणादि करें, भक्तोंका दिया श्रद्धासे जलमात्र भी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं॥१७॥ सुगंध, फूल, धूप, दीप, अन्नादिक समर्पण करे तो उसकी तो बातही क्या हैं? मेरा भक्त न हो, बहुत समर्पण करे तो मैं उससे संतुष्ट नहीं होता॥१८॥ अब पूजाका प्रकार कहते हैं कि, प्रथम तो आप स्नानादिक शौचसे शुद्ध हो, इसके उपरान्त पूजाकी

सब सामग्री शुद्ध करके रक्खै फिर पूर्वमुख वा उत्तरको मुख करके बैठे, पूर्वमुखको अग्र करके, दुर्भोंसे आसन बनाय प्रतिमाके सन्मुख स्थिर होकर पूजा करै॥१९॥ प्रथम तो न्यास करै, फिर मूलमंत्रोंसे न्यासकृत मेरी प्रतिमाको हाथसे स्पर्श करै, रातके निर्माल्य फूल पत्र जो कुछ होय तो दूर करे, अपने आगे जल भरा कलश रक्खे और प्रोक्षणी पात्र रक्खै उसे चंदन, तुलसीपत्र तथा पुष्पसे शोधन करै॥२०॥ इसके उपरान्त प्रोक्षणीके जलसे पूजाका स्थान शुद्ध करै उसीसे द्रव्यका और अपने आपका प्रोक्षण करै, फिर पाद्यके लिये उस कलशके जलसे तीन पात्र भरकर रक्खै उनको भी इन वस्तुओंसे शोधन करै, पाद्यके पात्रमें श्यामा, दूब, कमल और विष्णुक्रान्ता आदि पदार्थ डालना, गंध, पुष्प, अक्षत, यव, कुश, तिल, सरसों यह अध्यके आठ द्रव्य चाहिये।जावित्री, लौंग, कंकोल यह आचमनको चाहिये॥२१॥ पाद्य, अर्घ्य और आचमनके तीन पात्रोंका हृदय, मस्तक, शिखा, मन्त्रोंसे तथा गायत्रीसे अभिमंत्रण करै॥२२॥ इसके उपरान्त देहको कोष्टगत वायुसे शोधन करै

कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिना मृजेत्॥ कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत्॥२०॥ तदद्भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च॥ प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत्॥२१॥ पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि देशिकः॥ हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमंत्रयेत्॥२२॥ पिंडे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम॥ अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादांते सिद्धभाविताम्॥२३॥ तयात्मभूतया पिंडे व्याप्ते संपूज्य तन्मयः॥ आवाह्यार्चादिषु स्थाप्यन्यस्तागं मां प्रपूजयेत्॥२४॥ पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान्प्रकल्पयेत्॥ धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम॥२५॥

मूलाधारमें स्थित अग्निमें जलावै फिर ललाटमें स्थित चन्द्रमण्डल है तहाँ अमृतप्रवाह करके अमृतमय करै, वहाँ हृदयकमलमें स्थित जीव कला श्रीनारायणजी की मूर्ति हैं, उसका ध्यान करके प्रणव अक्षरके अकार उकार मकार कि, जिसका सिद्ध ध्यान करते हैं, ध्यान करै॥२३॥ दीपकके प्रकाशसे घरके समान अपने स्वरूपकी भावनासे जब देह व्याप्तहो, तो प्रथम उस देहही में पूजा करके आप तन्मय होय, इसके उपरान्त आवाहन करके प्रतिमा में स्थापन करें, फिर न्यास करनेके पीछे मेरी पूजा करै॥२४॥ फिर आवाहन से प्रतिमामें पाद्य, आचमन, अर्घ्यादि सब

उपचार करै, धर्मादिक नव शक्ति हैं, उनसे मुझे आसन दे॥२५॥ अष्टदल कमल बनावे, केशरसे उज्ज्वल सुन्दर कर्णिकामें वेद आगममें कथित मुक्ति पाने और फलकी सिद्धिके लिये वैदिक तांत्रिक मार्गोंसे मेरी पूजा करै, वह आसन सुखशय्याहैं, उसके चार कोनेहैं, चारपावहैं, वहां धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, आग्नेय, नर्ऋत्य, वायव्य, ईशान, इन चारों कोनोंमें रक्खै॥२६॥ इसके उपरान्त सुदर्शनचक्र, पांचजन्य शंख, गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूशल, कौस्तुभ, माला, श्रीवत्सादि आयुधोंकी पूजा करनी चाहिये, तहाँ सुदर्शन आदि आठ आयुधोंका आठ दिशाओंमें और कौस्तुभ आदि तीनकी वक्षस्थलमें पूजा करै॥२७॥ नंद, सुनंद, गरुड़, चण्ड, प्रचण्ड, महाबल, कुमुद, कुमुदेक्षण यह आठ पार्षद हैं, इनकी आठों

पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम्॥ उभाभ्यां वेदतंत्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये॥२६॥ सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान्॥ मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत्॥२७॥ नंदं सुनंदं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च॥ महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम्॥२८॥ दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून्सुरान्॥ स्वेस्वे स्थाने त्वभिमुखान्पूजयेत्प्रोक्षणादिभिः॥२९॥ चन्दनोशीरकर्पूरकुंकुमागुरुवासितैः॥ सलिलैः स्नापयेन्मंत्रैर्नित्यदा विभवे सति॥३०॥ स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया॥ पौरुषेणापि सुक्तेन सामभी राजनादिभिः॥३१॥ वस्त्रोपवीता भरणपत्रस्रग्गंधलेपनैः॥ अलंकुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम्॥३२॥

दिशाओंमें पूजा करै॥२८॥ दुर्गा, विनायक, व्यास, विष्वक्सेनको कोनोंमें रक्खे, गुरुको वामभागमें रक्खै, देवता, इन्द्र आदि लोकपालोंको पूर्वसे लेकर अपनी अपनी दिशाओंमें ईश्वरके सम्मुख रखखै, और अर्घ्य, पाद्य, देकर पूजा करै॥२९॥ चंदन, उशीर, कर्पूर, कंकुम, अगर, इन सुंगधियों करके रक्ख, मंत्रोंके जलसे स्नान करावै, जो वैभव हो तो यह सामग्रियें करै, न हो तो जो होय उससेही करै॥३०॥ सुवर्णधर्मानुवाक और महापुरुष विद्या, तथा सहस्रशीर्षा और सामवेदोक्त राजनादि सूक्तोंसे मेरी पूजा करै॥३१॥ स्नान करनेके उपरान्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, मकराकृत कुण्डल, माला, सुगन्ध लेपन आदि करके शृंगार करै, इस प्रकार प्रेमपूर्वक मेरे भक्तको मेरी पूजा करनी चाहिये॥३२॥

पाद्य, आचमन, गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, यह सब श्रद्धा सहित मेरे भक्तको मुझे देने चाहिये॥३३॥ यदि वैभव हो तो नैवेद्यसे अनेकप्रकारकी सामग्री बनावे, गुड़, मिश्री, खीर आदिक, घृत, पूरी, पूआ, लड्डू, गेहूंकी खीर, दहीको डालके करै॥३४॥ पर्वमें, उत्सवमें अथवा नित्य फुलेलसे अभ्यंग, उबटन, दर्पण, दंतधावन, स्नान, अन्नादि पाकसामग्री, गीत, नृत्य यह सब करने चाहिये, यदि सदा न होसके तो पर्वमें वा उत्सवमें तो अवश्यही करै॥३५॥ इसप्रकार प्रतिमामें पूजा कही हैं, अब अग्निमें पूजा कहते हैं, विधिपूर्वक कुंड बनावे, मेखला, गर्त्त और वेदीकर उसमें अनि रक्खै, प्रथम हाथमें जब एकत्र करले, तब कुण्डमें रक्खै॥३६॥ इसके उपरान्त कुशा बिछाकर चारों दिशा छिड़के

पाद्यमाचमनीयं च गंधं सुमनसोऽक्षतान्॥ धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः॥३३॥ गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान्॥ संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत्॥३४॥ अभ्यंगोन्मर्दनादर्शदंतधावाभिषेचनम्॥ अन्नाद्यं गीतनृत्यानि पर्वणि स्युरुतान्वहम्॥३५॥ विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः॥ अग्निमाधाय परितः समूहेत्पाणिनोदितम्॥३६॥ परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्वाधाय यथाविधि॥ प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत माम्॥३७॥ तप्तजांबूनदप्रख्यं शंखचक्रगदांबुजैः॥ लसच्चतुर्भुजं शांतं पद्मकिंजल्कवाससम्॥३८॥ स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवरांगदम्॥ श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥३९॥ घ्याथन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाऽभिघृतानि च ॥ प्रास्याऽऽज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः॥४०॥

अन्वाधान नाम कर्म समाधिसे होम करें, फिर जल छिड़ककर मेरा ध्यान करना चाहिये॥३७॥ इसप्रकार मेरे रूपका ध्यान करना चाहिये, सो कहते हैं कि जैसा तप्त सुवर्ण लाल होता हैं, उसी प्रकारका रूप पीताम्बर पहरे, शान्तरूप, शंख, चक्र, गदा, पेद्मसे चारों भुजा शोभायमान॥३८॥ प्रकाशित मुकुट, कंकण, मेखला, बाजूबंद, श्रीवत्सका वक्षस्थल में चिह्न, शोभायुक्त वनमाला धारण किये हुए॥३९॥ इसप्रकारके रूपका ध्यान करनेके उपरान्त, घृत, मिठाई, समिध इत्यादि से होम करै, फिर आज्यभाग और अघोर नामक होम करें और घृतमें बूडी हविष्य ले॥ ४०॥

फिर मूलमंत्रके द्वारा सहस्रशीर्षाकी ऋचाओंसे धर्मादिक देवताओंके लिये यथायोग्य स्विष्टकृत् सहित होम करै॥४१॥ पार्षदोंको बलि दे, नारायणरूप ब्रह्मका स्मरण कर, देवताओंके समीप बैठ, मूलमंत्र जपै फिर नैवेद्य करके भोजनकी सामग्रियोंका ध्यान करै॥४२॥ इसके उपरान्त आचमन दे, और वह बचा हुआ उच्छिष्ट भाग विष्वक्सेनके आगे रख उनकी आज्ञासे आप ग्रहण करै, इसके पीछे मुखवासार्थ सुगंध तांबूल समर्पण करै॥४३॥ इसके उपरान्त मेरे चरित्रोंका गान करै, नृत्य, करे, मेरे कर्मोंका अभिनय दिखावै, मेरी कथा सुझे सुनावे और आप भी सुनै; एक मुहूर्त भर निश्चल चित्त होकर रहे॥४४॥ वेद पुराण तथा प्राकृत भाषाके स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करै “हे भगवन्! प्रसन्न होउ" इस

जुहुयान्मूलमंत्रेण षोडशर्चोऽवदानतः॥ धर्मादिभ्यो यथान्यायं मंत्रैः स्विष्टकृतं बुधः॥४१॥ अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत्॥ मूलमंत्रं जपेद्ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम्॥४२॥ दत्त्वाचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत्॥ मुखवासं सुरभिमत्तांबूलाद्यमथार्हयेत्॥४३॥ उपगायन्गृणन्नृत्यन्कर्माण्यभिनयन्मम॥ मत्कथाः श्रावयञ्छृण्वन्मुहूर्तं क्षणिको भवेत्॥४४॥ स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि॥ स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वंदेत दंडवत्॥४४॥४५॥ शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम्॥ प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात्॥४६॥ इति शेषं मया दत्तं शिरस्याधाय सादरम्॥ उद्वासयेच्चेद्वास्यं ज्योतिर्ज्येतिषि तत्पुनः॥४७॥ अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत्॥ सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः॥४८॥

प्रकार कहकर दण्डवत् प्रणाम करै॥४५॥ प्रणाम इसप्रकार करै कि मेरे चरणोंपर शिर रक्खै दोनों हाथ बॉधकर पीठपर रक्खै “अपराधीकी समान तुम्हारी शरण हूं” हे प्रभो ! मुझे शरणमें रखलो, क्योंकि मृत्युरूप जहाँ ग्राह है, ऐसे संसारसमुद्रसे भयभीतहूं॥४६॥ इसप्रकार पूजाकरके शेष प्रसाद पुष्प, तुलसीदल मुझे दे, ऐसा ध्यान करै उसको लेकर माथेपर घरे आदरपूर्वक विसर्जन कर ज्योति ज्योतिसे जाकर मिलावे॥४७॥ इतने स्थल तथा प्रतिमादिकोंमें कौन मुख्य हैं, इसपर कहते हैं कि, जिसकी जहाँ श्रद्धा हो वहाँ पूजा करै, क्योंकि सर्वभूतोंमें सर्वरूप मैंहीं स्थितहूं और सब भूत मुझमें निवास करते हैं॥४८॥

इसप्रकार क्रियायोगके मार्ग तथा वैदिक तांत्रिकके प्रकारसे पूजा करनेवाले पुरुष मुझसे इस लोक और परलोककी वांछित सिद्धिको प्राप्त होते हैं॥४९॥ मेरी प्रतिमाकी स्थापना करके दृढ़ मंदिर बनावैपीछे फूलोंका उत्तम बाग बनावै, जहॉ मेरी यात्राका उत्सव होता हैं॥५०॥ नित्य अथवा बड़े पर्वोंमें पूजा सदा चली जाय, उसके लिये क्षेत्र वा पुर ग्राम लगादें, तब मेरे समान ऐश्वर्यको प्राप्तहो॥५१॥ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करे तो सब पृथ्वीका राजा होय, मंदिर बनानेवाला त्रिलोकीका राज्य पावै, पूजा आदि यह सब कृत्य करे तो ब्रह्मलोकको प्राप्तहो और तीनों प्रकार करनेसे मनुष्य मेरी सायुज्यमुक्तिको प्राप्त होता हैं॥५२॥ इसप्रकार पूजाका फल मुक्ति तक कहा, अब जो निष्काम हैं उनकी भक्तिका फल कहते हैं, निरपेक्ष भक्तियोग करके मुझेही पावे सो भक्ति कैसे हो? तो कहते हैं, भक्ति तब हो जब इस भाँति मेरी पूजा करै॥५३॥

एवं क्रियायोगपथैः पुमान्वैदिकतांत्रिकैः॥ अर्चन्नुभयतः सिद्धिं मत्तो विंदत्यभीप्सिताम्॥४९॥ मदर्चां संप्रतिष्ठाप्य मंदिरं कारयेद्दृढम्॥ पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाऽऽश्रितान्॥५०॥ पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्व स्वथान्वहम्॥ क्षेत्रापणपुरग्रामान्दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात्॥५१॥ प्रतिष्ठया सार्वभौमं दानेन भुवनत्रयम्॥ पूजा दिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्समतामियात्॥५२॥ मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विंदति॥ भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम्॥५३॥ यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः॥ वृत्तिं स जायते विडभुग् वर्षाणामयुतायुतम्॥५३॥५४॥ कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च॥ कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम्॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे प्रतिमापूजानि० सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥

यह दाताका फल कहा, अब जो देकर फिर छीन लेता हैं, उसका निंदित कर्म कहते हैं कि, जो अपनी दी तथा पराई दी ब्राह्मण देवताकी वृत्तिका हरण करलेता हैं, सो अयुत वर्षतक विष्ठा भोजन करता हैं॥५४॥ जो फल कर्त्ताको होता हैं, वही सहाय करनेवालेको भी होता हैं, प्रेरक अनुमोदनकर्त्ता इन सबको परलोक में फल होता हैं, कारण यह हैं कि, यह सब कर्मके विभागी हैं जिसने जितना अधिक किया, उसे उतनाही अधिक फल मिलता हैं यदि सहाय आदि बहुत कर्म किया होय तो बहुत फल मिलता हैं॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादश स्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धवसंवादे पुरुषार्चनविधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥

दोहा— अट्ठाइस अध्यायमें, ज्ञान योग विस्तार॥ अब वरणों संक्षेप सों, सज्जन लेहु विचार॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्भव! जो मेरी भक्तिमें अथवा पूजामें रहे सो यह ज्ञान निष्ठा करें पराये स्वभाव कर्मोंकी स्तुति और निन्दा न करै संपूर्ण विश्वको प्रकृति पुरुष करके जाने मुक्तिसे भिन्न नजाने॥१॥ जो पराये स्वभाव और कर्मकी निन्दा करता हैं, अथवा सराहना करता हैं, सो मिथ्या भूत प्रपंच दृष्टि होकर शीघ्र ज्ञानसे भ्रष्ट हो जाता हैं॥२॥ जब इन्द्रियगण निद्रासे व्याप्त होतीं हैं, तत्र मनसे यह जीव स्वप्न देखता है, मायारूप स्वप्नहै पीछे

श्रीभगवानुवाच॥ परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्॥ विश्वमेकात्मकं पश्यन्प्रकृत्या पुरुषेण च॥१॥ परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निंदति॥ स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्याभिनिवेशतः॥२॥ तैजसे निद्रयापन्ने पिंडस्थो नष्टचेतनः॥ मायां पाप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक्पुमान्॥३॥ किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत्॥ वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च॥४॥ छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसंतोऽप्यर्थकारिणः॥ एवं देहादयो भावा यच्छंत्यामृत्युतो भयम्॥५॥

मन भी लीन होजाता हैं तब चेतना नष्ट होजाती हैं, तब मनुष्य मृतक समान सुषुप्ति दशाको प्राप्त होता हैं,इसलिये जिसकी बुद्धि इस विश्वको नाना प्रकारसे जानती हैं सो विक्षेप लयको प्राप्त होती हैं वह स्वममें जो होता हैं, सोई भ्रमरूप यह हैं॥३॥ और जो वस्तुही नहीं केवल भ्रम हैं, उसमें यह भला हुआ यह बुरा हुआ इतना भला इतना बुरा इसका क्या कहना? इसका घरा हुआ नाम सब मिथ्या हैं, मनसे ध्यान करते हैं और नेत्रोंसे जो देखते हैं, सो सब मिथ्या हैं तहाँ भला बुरा कहे तो सब अपनाही अज्ञान भ्रम हैं॥४॥ जैसे प्रतिबिम्बकी झांई

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**शंका—**श्रीकृष्णने कहा कि, कोई सुन्दर कर्म करे तो उसकी बढाई नहीं करना और जो कोई बुरा कर्म करे तो उसकी निंदामी नहीं करना, क्योंकि जैसा स्वभाव जिस जीवका होता हैं, वह वै साही कर्म करता हैं तो सुन्दर वचन श्रीकृष्णचन्द्रने किसके लिये कहा। गृहस्थ किसीकी निन्दा स्तुति न करे कि, विरक्त किसीकी निन्दा स्तुति न करे, यह बात बताओ?

**उत्तर—**यह वचन भगवान् ने विरक्तोंके लिये कहा हैं और विरक्तोंमें जो कोई सन्यासी हो तो उसके लिये भी कहा हैं और सन्यासियों में जो कोई परमहस होजाते हैं उनके लिये तो निश्चयही कहा हैं यह अर्थ हैं कि, सन साधु महात्माओंको किसीकी निन्दा स्तुति नहीं करना चाहिये वह श्रीकृष्ण के वचन गृहस्थ लोगोंके लिये नहीं हैं।

सीपीमें रूपेकी बुद्धि मिथ्याहै, कार्यको करते हुए उसीप्रकार यह देहादिक भाव मरनेतक भय देतेहैं॥५॥ वेदमें जो सृष्टि कही है सो आपही ब्रह्म विश्वरूप होकर प्रगट होते हैं आपही उत्पत्ति हो आपही सृजते हैं और आपदी रक्षा करें आपही ईश्वर संहार करते हैं, और जिसका संहार करते हैं वह आत्माही है॥६॥ आत्मा जो सबसे पृथक् निरूपण किया है उससे कोई पदार्थ पृथक् नहीं है यह अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत रूप जो प्रतीत होता है यह सब मायारचित होनेसे निर्मूल है, यह अध्यात्मादि तीन प्रकारका गुणयुक्त संसार आत्मामें माया के द्वारा भासता॥७॥ जो पुरुष यह मेरी कही हुई ज्ञान विज्ञानकी चेष्टाको जानते हैं, वह किसीकी निंदा स्तुति नहीं करते, सूर्यकी भाँति, समान होकर लोकों में विचरण करते हैं॥८॥ वह कैसे हो? सो प्रकार कहते हैं, जो वस्तु आदिअन्तयुक्त है, सो मिथ्या है यह जानकर प्रत्यक्ष उपजे और नष्ट

आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः॥ त्रायते चाति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः॥६॥ तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्य स्मादन्यो भावो निरूपितः॥ निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि॥ इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम्॥२॥७॥ एतद्विद्वान्मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम्॥ न निंदति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत्॥८॥ प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा॥ आद्यंतवदसज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह॥९॥ उद्धव उवाच॥ नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्ट दृश्ययोः॥ अनात्मसदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते॥१०॥ आत्माऽव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः॥ अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः॥११॥

हुए जगत्को अनुमान वेद और अपने अनुभवसे ऐसे जाने कि, जो यह दीखता है, सो सब मिथ्या है, यह ज्ञान जब दृढ़ होजाय, तब निःसंग होकर, विचरण करै॥९॥ उद्धवजी बोले कि, हे भगवन्! आत्मा स्वयंप्रकाश है, ज्ञानरूप हैं, देह तो जड़ है तो यह संसार किसको लगता है? हे प्रभो! यह संसार आत्माका है अथवा देहका है इन्हीका आत्मा द्रष्टा है वही देखता है देह तो जड़ है आत्मा जड नहीं, परन्तु देखनेवाला है॥२०॥ आत्मा अव्यय है, सगुण है, शुद्ध है, स्वयंज्योति है, आवरणरहित है और देह तो जड है; परंतु इसका संयोग काष्ठ और अग्निसे है, अग्नि और काष्ठ भिन्न नहीं है; इसीप्रकार आत्मा में एकता है, इन दोनों में संसार किसीको भी संभव नहीं और जो संभव है तोभी अग्नि प्रकाशक है

काष्ट प्रकाशक है॥११॥ यद्यपि सत्य है, परन्तु तो भी संसारका अविवेक कारण है, तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जहाँतक देह इन्द्रिय और प्राणसे आत्माका सम्बंध है, तहाँतक मिथ्या भी संसार भासता है, यद्यपि आत्माका और इन्द्रियोंका संबंध नहीं परन्तु तोभी अविवेकसे मानलेते हैं॥१२॥ उद्धवजी बोले कि, देह तो असत्य है इसको संसार क्यों भासता है? तो इसके उत्तरमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं कि, यद्यपि विषयभोगकी वस्तु पास नहीं परन्तु तो भी संसार नहीं जाता, क्योंकि इसका ध्यान विषयोंमें रहता है, इससे संसार होता है और स्वप्नमें अनर्थको देखता है॥१३॥ अब तर्क करते हैं कि, ध्यानसे जो विषयकी स्फूर्ति है, सो तो जीवन्मुक्तिसे भी निवारण नहीं होती है, तो मोक्ष किसीकी होही नहीं?

श्रीभगवानुवाच॥ यावद्देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः संनिकर्षणम्॥ संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः॥१२॥ अर्थंह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते॥ ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥१३॥ यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्॥ स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥१४॥ शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः॥ अहंकारस्य दृश्यंते जन्म मृत्युश्च नात्मनः॥१५॥ देहेन्द्रियप्राणमनोभिमानो जीवोंतरात्मा गुणकर्ममूर्तिः॥ सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः संसार आधावति कालतंत्रः॥१६॥ अमूलमेतद्बहुरूपरूपितं मनोवचःप्राणशरीरकर्म॥ ज्ञानासिनोपासन याशितेन च्छित्त्वा मुनिर्गांविचरत्यतृष्णः॥१७॥

इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जैसे शोचनेवालेको स्वप्न भी अनर्थ देता है सोई जो जागता रहै; तो जागनेवालेको वह अनर्थ नहीं होते जीवन्मुक्त पुरुषोंको विषयकी स्फूर्ति अनर्थ नहीं कर सकती॥१४॥ शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, काम, जन्म और मृत्यु यह सब अहंकारसे हैं, आत्माको कुछ यह नहीं लगती है॥१५॥ देह, इन्द्रिय, प्राण और मनका अभिमान कर यह आत्माही उनके मध्यमें स्थित जीव है, इसीसे गुणकर्ममय मूर्ति है और इन्हीं गुणकर्मसे पुरुष बँधरहा है, इसीकारण ईश्वरके आधीन होकर सब संसारमें दौड़ते फिरते हैं सूत्र और महत्त्व आदि नानारूपसे अनेक प्रकारका कहा है,॥१६॥ इसप्रकारके अहंकारसे जब यह जीव बॅधरहाहै तब ज्ञानसे मुक्ति होती है सो कहते हैं

कि, वचन मन प्राणीमें अहंकार निर्मूल है, अज्ञानमें बहुतरूप प्रकाशते हैं, इसलिये गुरुकी सेवा कर तीक्ष्ण ज्ञानरूप खङ्गहाथमें ले, इस अहंकार बंधनको काट संग छोड, पृथ्वीमें फिरें, इसके कारणका यह उपाय है॥१७॥ अब वही ज्ञान कहते हैं, जो विवेक ज्ञान उस ज्ञानका साधन करनेवाला वेद है, सो वेदके कहे धर्म करै, तब विवेक उत्पन्न हो तब स्वधर्म अपना अनुभव उपदेश तर्क इतने साधनसे ज्ञान उत्पन्न हो उस ज्ञानका फल कहते हैं, कि, योग तप हैं और कारण है और जगत् के आदि अंत मध्य में वही है॥१८॥ नानाभेदके व्यवहार भी एक ब्रह्म मध्यमेही होते हैं सो कहते हैं, जैसे सुर्वणके अनेक आभूषण बनते हैं और उनकी उत्पत्ति प्रथम भी और पीछेभी सुवर्णही है, अनेक भाँति होने के

ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम्॥ आद्यंतयोरस्य यदेव केवलं कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये॥१८॥ यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य॥ तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं नानाऽपदेशैरहमस्य तद्वत्॥१९॥ विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमंग गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ॥ समन्वयेन व्यतिरेकतश्च येनैव तुर्येण तदेव सत्यम्॥२०॥ न यत्पुरस्तादुत यन्न पश्चान्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्॥ भृतं प्रसिद्धं च परेण यद्यत्तदेव तत्स्यादिति मे मनीषा॥२१॥

उपरान्तभी सुवर्णही रहता है, क्योंकि सुवर्णसे और कोई वस्तु तो नहीं, इसीप्रकार यह विश्व अनेकरूपसे दीखता है सो भी मैंही हूं ऐसा जानना चाहिये॥१९॥ इसप्रकार विश्वका रूप कहकर इस देह इंद्रियोंमें जिससे प्रकाश होता है, उसका तद्रूप कहते हैं, इस मनकी तीन अवस्था कारण हैं, सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण यह गुण हैं जो सब कार्य कारण कर्त्ता रूप हैं अध्यात्म कारण कार्य अधिभूत कर्त्ता अधिदैव इसप्रकार त्रिगुण रूप जगत् है, इसप्रकार भी जिससे होता है और जिसके अनुभवसे प्रकाश है, सो चतुर्थ स्थान ब्रह्म है, इंद्रियादिकके ज्ञान विना जो समाधि आदि विषे हैं, सोई सत्य है॥२०॥ इसप्रकार ज्योतियोंमें भी और भाँति न हो, सो सत्य है, यह कहा अब जो और प्रकार होता है सो

असत्य हैं; इसप्रकार कहते हैं कि जो वस्तु प्रथम नहीं और पीछे भी न होगी, मध्यमें भी नहीं केवल नाममात्रही कहनेको है जिससे प्रगट हुई और प्रकाशी सो वही हैं ऐसी मेरी बुद्धि हैं॥२१॥ प्रपंचका ब्रह्मसे अभेद कहते हैं कि, यद्यपि प्रथम मैंही हूं, यह रजोगुणसे उत्पत्ति हुआ विकारका समूह ब्रह्मका कार्य हैं, परन्तु तोभी ब्रह्मके प्रकाशसे भासता हैं ब्रह्म आप स्वयं ज्योति हैं, इससे इन्द्रिय, विषय, आत्मा, देवता, पंचभूत, यह सब तत्त्व ब्रह्मरूप होकर भासते हैं, यह विचित्रता ब्रह्महीका कार्य हैं॥२२॥ इस प्रकार ब्रह्म विवेकके हेतुसे और देहादिकमें, आत्मबुद्धिका त्यागकर गुरुद्वारा अपना संदेह काट, सब कामनाओंसे निवृत्तहो आत्माके आनंदसे संतुष्ट होकर रहे॥२३॥ जो छोडनी चाहिये उनका स्वरूप कहते हैं, यह देह आत्मा नहीं, यह पृथ्वीका विकार है, इंद्रियोंके अधिष्ठाता देवता, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह सब आत्मा

अविद्यमानोऽप्यवभासते यो वैकारिको राजससर्ग एषः॥ ब्रह्म स्वयं ज्योतिरतो विभाति ब्रह्मेंद्रियार्थात्मविकारचित्रम्॥२२॥ एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः परापवादेन विशारदेन॥ छित्त्वात्मसंदेहमुपारमेत स्वानंदतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः॥२३॥ नात्मा वपुः पार्थिवमिद्रियाणि देवा ह्यसुर्वायुजलं हुताशः॥ मनोऽन्नमात्रं धिषणां च सत्त्वमहंकृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम्॥२४॥ समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभिर्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः॥ विक्षिप्यमाणैरुत किन्नु दूषणं धनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम्॥२५॥ यथा नभो वाय्वनलांबुभृगुणैर्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते॥ तथाऽक्षरं सत्त्वरजस्तमो मलैरहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम्॥२६॥

नहीं है, क्योंकि अन्नमात्र आश्रयसे रहता हैं, इससे विकारयुक्त हैं और वायु, जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, यह पंचभूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध प्रकृति यह भी सब आत्मा नहीं, क्योंकि जड हैं॥२४॥ इसप्रकारके विवेक ज्ञानवंत, ज्ञानी मुक्तपुरुषको इन्द्रियोंका किया गुण दोष नहीं होता सो कहते हैं कि, जो विदेकी ज्ञानवंत हैं जीवन्मुक्त दशाको प्राप्त हैं उन्होंने गुणरूप इन इंद्रियों का निग्रह किया हो अथवा न किय हो तो भी उसे न तो गुण है, न दोष है जैसे मेत्रके आकाशमै आनेसे सूर्यको कुछ दोष नहीं लगता हैं और मेघ जाने के उपरान्त कुछ गुण भी नहीं लगता हैं॥२५॥ जो निःसंग हैं और ब्रह्मरूप होरहे हैं, उनको किसीसे गुण दोष नहीं लगता जैसे आकाश भूमिमें आते जाते ऋतुके गुण

शीत उष्णादिक और वायु, अग्नि, जलसे, बंध नहीं होते, इसप्रकार अक्षय ब्रह्म सत्त्व, रज, तम यह गुण अहंकारके हैं, संसारका हेतु कारणसे नहीं मिलता, उनसे भिन्न भिन्न हैं॥२६॥ तथापि तबतक मायाके गुणोंका संगम करै, जहाँतक मेरी दृढभक्ति योग करके यह मनकी विषयोंमें आसक्ति न जाय॥२७॥ जैसे रोगको भले उपचारोंसे दूर न कियाहो तो वारंवार वह रोग उत्पन्न होकर दुःख देता है, इसीप्रकार रागादिक और कर्म जिसके दग्ध नहीं हुए तो और सब विषयोंमें आसक्त मनभी योगी पुरुषको फिर बध करता है॥२८॥ और जो योगसे भ्रष्ट होगयाहो तो फिर उसका क्या उपाय? तो कहते हैं कि, योगीको देवताओंके प्रेरे जो बंधुरूप भ्रष्ट करते हैं योग के भ्रष्ट होनेसे फिर पूर्व अभ्यास बलकरके

तथापि संगः परिवर्जनीयो गुणेषु मायारचितेषु तावत्॥ मद्भक्तियोगेन दृढेन यावद्रजो निरस्येत मनःकषायः॥२७॥ यथाऽऽमयोऽसाधु चिकित्सितो नृणां पुनःपुनः संतुदति प्ररोहन्॥ एवं मनोऽपक्वकषायकर्म कुयोगिनं विध्यति सर्व संगम्॥२८॥ कुयोगिनो ये विहतांतरायैर्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः॥ ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो युंजंति योगं न तु कर्मतंत्रम्॥२९॥ करोति कर्म क्रियते च जन्तुः केनाप्यसौ चोदित आनिपातात्॥ न तत्र विद्वान्प्रकृतौ स्थितोऽपि निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या॥३०॥ तिष्ठंतमासीनमुत व्रजंतं शयानमुक्षंतमदंतमन्नम्॥ स्वभावमन्यत्किमपीहमान मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद॥३१॥ यदि स्म पश्यत्यसदिंद्रियार्थं नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्॥ न मन्यते वस्तुतया मनीषी स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्॥३२॥

योग करै, परन्तु कर्ममार्गके धर्म न करैकेवल धर्महीकी साधना करै॥२९॥ जो किसीसे प्रेरितहो तो मरनेतक कर्मोंसे सुख दुःख जाता हैं, विकारको पावै, जो विवेकी होय सो देहमें स्थित भी आत्मसुखके अनुभव करके तृष्णासे निवृत्त हुए विकारको प्राप्त नहीं होगा॥३०॥ जिसकी मति बुद्धि आत्मामें स्थित हैं, सो खडेहोते, चलते, सोते, मूत्र करते, अन्न भोजन करते और भी स्वभाव से दर्शन आदिक करते देहको नहीं जानते हैं॥३१॥ जो इन्द्रियवंत हैं सो विना देखे क्यों रहें ? सो कहते हैं कि, जो विवेक युक्त हैं, सो यद्यपि इन इन्द्रियो के विषयोंको देखते हैं,

परन्तु तोभी अनुमानसे विरुद्ध जान आत्मासे और वस्तुसे मानते हैं, वह स्वप्रकी भाँति सब मिथ्या जानतेहैं, जैसे जागनेपर स्वप्नके विषय सब आपही अंतर्द्धान होजातेहैं॥३२॥ हे उद्भव! आत्मामें मुक्तावस्थादिमें भी विकार नहीं होता, क्योंकि वृद्धावस्थामें गुण और कर्मोंसे विचित्र अज्ञानके कार्यरूप करो, देहेन्द्रियादि अध्याससे अपने स्वरूपमें मिले हुए मानेगयेहैं, वही देहेन्द्रियादि मुक्तावस्थामें ज्ञानसे निवृत्त होजाते हैं, यह आत्मा किसीसे त्याग और ग्रहण नहीं कियाजाता, यदि मुक्तिको क्रियाका फल माने तो आत्मामें विकार होता है इससे मायिक पदार्थोंकी निवृत्तिका होनाही मोक्ष हैं।बंध मोक्ष अत्माका स्पर्श नहीं करते, इसकारण आत्मा निर्विकार हैं॥३३॥

पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रमज्ञानमात्मन्यविविक्तमंग॥ निवर्तते तत्पुनरीक्षयैव न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा॥३३॥ यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां तमो निहन्यान्न तु सद्विधत्ते॥ एवं समीक्षा निपुणा सती मे हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धः॥३४॥ एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो महानुभूतिः सकलानुभूतिः॥ एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे येनेषिता वागसवश्चरंति॥३५॥ एतावानात्मसंमोहो यद्विकल्पस्तु केवले॥ आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलंबो न यस्य हि॥३६॥

परन्तु प्रथमसेही विद्यमान घटादिक पदार्थोंमें कुछ विकार नहीं करता, इसी प्रकार मेरी अध्यात्मविद्या मनुष्योंके मनके अंधकारको दूर करती है।परन्तु आत्मामें कुछ विकार नहीं होता, आत्मा तो जिस स्थितिमें स्थित हैं, उसीमें रहता हैं॥३४॥ यह स्वयंप्रकाश जन्मरहित ज्ञान विज्ञानसे भी जाना नहीं जाता, महान् प्रतापयुक्त किसी विकारसे न बढ़े न घंटे, सदा एक रूप रहे और सबका प्रकाशक एक हैं, वह दूसरे से रहित हैं, जिसमें वचनकी गति नहीं, श्रुति भी कहती हैं कि, जब आगे गम्य नहीं, वहाँसे मन समेत वाणी फिर आती हैं जिसके मेरे वाणी और प्राण कार्य करते हैं॥३५॥ केवल भेदरहित आत्मा हैं, उसमें भेद देखना इतनाही भ्रम मनका हैं, अपने आत्माके विना इस भेदका

आश्रय हैही नहीं॥३६॥ और जो भेद मानतेहैं उनका मन दूषित है क्योंकि रूप और नामसे जो वस्तु कही जाती है, सो पंचभूत रूप है, देह इन्द्रिय दूसरा पदार्थ यह मत पण्डित लोगोंका वाद है, तत्त्व जाननेवालोंके लेखे वस्तु विचार कर देखो तो सब मिथ्या है॥३७॥ जो कच्चा योगी योग साधै है, उसे उसकी देहसे उठे रागादिक उपद्रव करके योगभ्रष्ट करदेतेहैं उनको मैंने यह आगे लिखी विधि कही हैं॥३८॥ सो कहते हैं कि, योगकी धारणा से चन्द्रमा तथा सूर्यके तापको जीतै आसन से प्राणवायु और धारण वायुसे वात रोग जीतै।तप, ग्रह, औषधीसे पापग्रहकृत सर्व अशुभ उपसर्गोको दूर करै॥३९॥ चित्तका दोष मेरा ध्यान करके दूर करै, मेरे नाम कीर्त्तन आदिसे कामक्रोधादिकों को दूर करै और कितनेही योगीश्वरोंकी सेवा

यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पंचवर्णमबाधितम्॥ व्यर्थेनाऽप्यर्थवादोऽयं द्वयं पंडितमानिनाम्॥३७॥ योगिनोऽपक्वयोगस्य युंजतः काय उत्थितैः॥ उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः॥३८॥ योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः॥ तपो मंत्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान्विनिर्दहेत्॥३९॥ कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसंकीर्तनादिभिः॥ योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदाञ्छनैः॥४०॥ केचिद्देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम्॥ विधाय विविधोपायैरथ युंजंति सिद्धये॥४१॥ न हि तत्कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः॥ अंतवत्त्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः॥४२॥ योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत्कल्पतामियात्॥ तच्छद्दध्यान्न मतिमान्योगमुत्सृज्य मत्परः॥४३॥

करके सब दंभ अहंकारादिक अशुभोंको शनैः शनैः दूर करै॥४०॥ कितनेही योगीश्वर इस देहको समर्थ तरुणतामें अनेक उपायोंसे स्थिर करके परकायाप्रवेशकी सिद्धि के लिये योग करते हैं, ज्ञानकी निष्ठा नहीं करते॥४१॥ और जो कुशल ज्ञाता हैं, सो उनका आदर नहीं करते, क्योंकि देह अनित्य हैं, इसकारण निश्चय मनसे योग करके इसके रखनेका श्रम निरर्थक हैं, जैसे वट वृक्षके फल मिथ्या हैं॥४२॥ यद्यपि योगसिद्धिका नित्य सेवन करते करते प्राणायामादिके प्रभावसे शरीर में होही जाय, परन्तु तो भी बुद्धिमान् मेरे भक्त पुरुषको समाधि त्यागन कर इस

शरीरकी सिद्धिपर विश्वास करना योग्य नहीं है॥४३॥ इसलिये योगीजनोंको चाहिये कि, मेरे आश्रयसे यह योग करै तब विघ्न न हो निस्पृह होकर आत्माका अनुभव प्राप्त हो, जब मेरे आश्रय से सब विघ्न निवृत्त हों तो वह योगी आनन्दसे परिपूर्ण होता है॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादश स्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे अष्टाविंशोध्यायः ॥२८॥ दोहा-उनतिसवें अध्याय में, भक्तियोग विस्तार॥ प्रथम निरूपण करचुके, अब संक्षेप विचार॥२९॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण! यह तुमने योगकी क्रिया कही सो जिस पुरुषका मन वशमें नहीं उसको तो अति कठिन लगती और जिनका चित्त वशमें नहीं वे अज्ञानी हैं, इसलिये इसको जैसे शीघ्र सिद्ध हो सुगम हो सो उपाय मुझसे कहो॥१॥ हे

योगचर्यार्मिमां योगी विचरन्मद्व्यपाश्रयः॥ नांतरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० ज्ञानयोगनि० नामाष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥ उद्धव उवाच॥ मुदुष्करामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः॥ यथांजसा पुमान्सिद्ध्येत्तन्मे ब्रूह्यंजसाऽच्युत॥१॥ प्रायशः पुंडरीकाक्ष युंजंतो योगिनो मनः॥ विषीदंत्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिताः॥२॥ अथात आनंददुधं पदांबुजं हंसाः श्रयेरन्नरविंदलोचन॥ सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभिस्त्वन्माययाऽनु मी विहता न मानिनः॥३॥ किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबंधो दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम्॥ योऽरोचयत्सह मृगैः स्वयमीश्वराणां श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः॥४॥

कमलनेत्र! बहुधा जो योग करते हैं वह मनका निग्रह करनेमें अत्यन्त क्लेशको प्राप्त होते हैं, परन्तु तोभी मननिग्रह नहीं होता तब थकित हो विषाद त होते हैं॥२॥ योग में अतिक्लेश हैं, जो परमहंस हैं वह सार असारको जानते हैं, हे कमलदललोचन! जो तुम्हारे चरणारविन्दोंका आश्रय करते हैं तो यह चरणारविन्द उनके आनंदकोही पूर्ण करते हैं, हे कमलदललोचन! आप भक्तोंको सुखरूप हो और जो तुम्हारी मायासे मोहित योगीश्वर गकर्म करके अभिमानको धारण करते हैं, वह सिद्ध नहीं॥३॥ हे श्रीकृष्ण! हे सबके बंधु! जो अनन्य शरण तुम्हारे दास हैं, उनके तुम्हीं। श हो यह क्या आश्चर्य है, जैसे नंद यशोदा के घर खेलते फिरे, रामरूप धारण कर बंदरोंसे मित्रताई करी, ब्रह्मा आदि देवताओंके शोभासंयुक्त

मुकुटोंके अग्रने तुम्हारे चरणारविन्दका सिंहासन पीड़ित किया है ऐसे तुम हो॥४॥ जो तुम भक्तोंकी सेवा जानतेहो, सबके आत्मा हो इसीकारण अतिप्रिय हो, ईश्वर हो, जो पुरुष केवल तुम्हारेही आश्रय रहतेहैं, उनको सब अर्थ देतेहो, प्रह्लाद आदि भक्तोंमें किया उपकार जान कौन आपको छोड़सकता है तो किस फलके लिये मेरा सेवन करें, तो कहते नहीं और देवता अथवा धर्म ज्ञानादि साधन तो ऐश्वर्यके अर्थ है, फिर मोक्षके लिये कौन भजै? सो कहते हैं कि, साधन विना मोक्षका फल कैंसे होता है ? तो तुम्हारे चरणारविन्दकी रेणुका जो सेवन करते हैं, उनको क्या फल नहीं होता ? जो चहते हैं सो फल होता है॥५॥ अब कहते हैं कि, और भजनकी बात तो दूर रहै, तुम्हारे किये उपकारको तुम्हारे विषे आत्मा निवेदन

तं त्वाऽखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां सर्वार्थदं स्वकृतविद्विसृजेत को नु॥ को वा भजेत्किमपि विस्मृतयेऽनुभृत्यै किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः॥५॥ नैवोपयंत्यपचितिं कवयस्तवेश ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरंतः॥ योंतर्बहि स्तनुभृतामशुभं विधुन्वन्नाचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः॥ गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो जगाद सप्रेममनोहरस्मितः॥७॥ श्रीभगवानुवाच॥ हंत ते कथयिष्यामि मम धर्मान्सुमंगलान्॥ याञ्छ्रद्धयाचरन्मर्त्योमृत्युं जयति दुर्जयम्॥८॥

करै तभी प्रत्युपकार हो और प्रकारसे नहीं होता सो कहतेहैं, आनंदबद्ध ब्रह्मके ज्ञाता तुम्हारे उपकारको स्मरण करके ब्रह्माकी आयुसे भी तुम्हारे उपकारसे उऋण नहीं होसकते उपकारको कहते हैं कि, जो तुम बाहर गुरूप हो और मध्यमें अंतर्यामी रूपसे प्राणियोंकी वासना दूर करतेहो, अपना आनन्द रूप प्रगट करतेहो, हम इसका प्रत्युपकार क्या करें?॥६॥ श्रीशुकदेवजी. बोले कि, हे महाराज परीक्षित्। जब अनुरक्तचित्त उद्धवने इसप्रकार पूँछा, तब ईश्वरके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कहने लगे कि, जो भगवान् सत्त्व, रज, तम इन शक्तियोंसे ब्रह्मादि तीन मूर्ति धारण करते हैं और जगत् जिनका खिलौना है॥७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव। मैं सुमंगल अपने धर्म तुझसे कहूंगा, जिन धर्मोंको श्रद्धासहित करने से यह मनुष्य दुर्जय मृत्युको जीतलेताहै॥८॥

मेरा स्मरण करते करते शनैः शनैः सब कर्म करै, वह सब कर्म मेरे लिये करैमुझमें ही मन तथा बुद्धि अर्पण करैतथा धर्मोंहीमें आत्माकी और मनकी प्रीति रक्खै॥९॥ जहाँ मेरे भक्त साधु पुरुष निवास करते हों उन्हीं पुण्य दर्शनोंमें जाकर वास करै, देव, असुर, मनुष्योंमें जो मेरे भक्त हैं उनके कर्मोंका आश्रय करै॥१०॥ उन भक्तोंसे मिलकर उत्सव करै, अथवा अलग आपही सबकी यात्रा उत्सव करै, नृत्य गीत सब करावैमहाराजके छत्र चामरादि उपचारसे सब करावै॥११॥ निर्मल चित्त पुरुष सब भूतमात्रमें अपनपेमें भी बाहर भीतर मुझेही देखै, मैं आकाशकी नाईं असंग होनेके कारण सबमें स्थित होकरभी आवरण रहित और बाहर भीतर सदा पूर्ण हू॥१२॥ जो इस प्रकार ज्ञानमें स्थितहो सब प्राणीमात्रको

कुर्यात्सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्॥ मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥९॥ देशान्पुण्यान्संश्रयेत मद्भक्तैः साधुभिः श्रितान्॥ देवासुरमनुष्येषु मद्भक्ताचरितानि च॥१०॥ पृथक्सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान्॥ कारयेद्गीतनृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः॥११॥ मामेव सर्वभृतेषु बहिरंतरपावृतम्॥ ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः॥१२॥ इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते॥ सभाजयन्मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः॥॥१३॥ ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्यऽर्के स्फुलिंगके॥ अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक्पंडितो मतः॥१४॥ नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्॥ स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियंति हि॥१५॥ विसृज्य स्मयमानान्स्वान्दृशं व्रीडां च दैहिकीम्॥ प्रणमेद्दण्डवद्धमावाश्वचांडालगोखरम्॥१६॥ यावत्सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते॥ तावदेव मुपासीत वाङ्मनःकायवृत्तिभिः॥१७॥

मेराही भाव जानकर पूजै, वही पण्डित है॥१३॥ ब्राह्मण, नीच जाति, चोर, ब्रह्मण्य, सूर्य, अग्निके कणिका यह क्रूरहों अथवा न हों इनमें जो समदृष्टि हो वही पण्डित है॥१४॥ मनुष्योंमें मेरे भावकी भावना रक्खै तो वेगही पुरुषके ईर्षा, निंदा, तिरस्कार, अहंकार यह सब निश्चयही नष्ट होजांय॥१५॥ इसलिये अन्तर्यामी ईश्वरकी दृष्टिसे सबको प्रणाम करै, हँसीकरते अपने मित्रोंको छोड़ और अपनी ऊंच नीच दृष्टि लज्जा छोड़ भूमिको दण्डवत् करैकूकर, चाण्डाल, बैल, खर ऐसे नीचोंको भी मेरी बुद्धिसे प्रणाम करै॥१६॥ जबतक सब भूतमात्रमें मेरा भाव

न उत्पन्न हो तब तक पुरुषको चाहिये कि, वाणी मन और देहकी प्रवृत्तिसे मेरी उपासना करें॥१७॥ इस प्रकार उपासना करके उसे सब विश्व ब्रह्मरूपही भासता है, आत्मविद्यासे सर्वत्र ब्रह्मही देखते संदेह सब दूर होजाते हैं और आप सबसे विरक्त होजाता है॥१८॥ यह सब पक्षोंसे निश्चय किया हुआ मेरा उत्तमपक्ष है जो देह प्राण मनसे सब प्राणीमात्रमें मेरा भाव हो॥१९॥ हे उद्धवजी! यदि निष्काम मेरे धर्म करते करते कुछ भूल चूक होजाय तो भी हानि नहीं क्योंकि यह उत्तम धर्म निर्गुणपनकेलिये मैंने निश्चय कियाहै॥२०॥ हे साधुश्रेष्ठ। जो जो व्यर्थ भी लौकिक परिश्रम करते हैं, सो भी जो मुझे समर्पण करै फल वॉछा विना मेरे लिये करै जैसे भय शोकादिकसे दौड़ना, रोना क्लेश व्यर्थ हैं सो भी मुझे समर्पण

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया॥ परिपश्यन्नुपरमेत्सर्वतो मुक्तसंशयः॥१८॥ अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम॥ मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः॥१९॥ न ह्यंगोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि॥ मया व्यवसितः सम्यङ् निर्गुणत्वादनाशिषः॥२०॥ योयो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत्॥ तदायासो निरर्थः स्याद्भयादेरिव सत्तम॥२१॥ एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्॥ यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति माऽमृतम्॥२२॥ एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य संग्रहः॥ समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः॥२३॥ अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत्॥ एतद्विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः॥२४॥ सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत्॥ सनातनं ब्रह्म गुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति॥२५॥

कर देनेसे धर्म होजाते हैं॥२१॥ वही बड़े बुद्धिमानोंकी बुद्धि और चतुरोंकी चतुरता है जो असत्यरूप इस मनुष्यदेहसे सत्यरूप मुझे इस जन्ममें प्राप्त होवै॥२२॥ हे उद्धव! यह ब्रह्मवादका संपूर्ण संग्रह मैंने तुझसे संक्षेप और विस्तारसहित वर्णन किया, जो कि देवताओंको भी दुर्लभथा॥२३॥ वारम्वार मैंने तुझसे प्रगट करके युक्तियोंसे यह ज्ञान कहा है, क्योंकि यह ब्रह्मवाद रीतिका ज्ञान जानकर पुरुष संदेहसे रहित और मुक्त होजाता है॥२४॥ जो इसका स्मरण रक्खै, कहै, सुनै, पढे तो भी इसका फल होता है सो कहते हैं, हे उद्भव! मैंने यह तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दियाहै इसे जो कोई चित्तमें धारण करैगा वह नित्य वेदमें भी गोप्य परब्रह्मको प्राप्त होजायगा॥२५॥

जो पुरुष मेरे भक्तोंसे विस्तार सहित यह ज्ञान कहता है उसे मैं अपनी आत्मातक देदेता हूं, क्योंकि वह भक्तोंका दाता है॥२६॥ जो कोई परममित्र साधकको इस ज्ञानरूपी दीपकसे मेरा दर्शन करावैसो दिन प्रति दिन शुद्ध होता है॥२७॥ जो मनुष्य इसको श्रद्धा सहित नित्य सावधान होकर श्रवण करते हैं, सो मुझमें परमभक्तिको प्राप्त होकर कर्मोंसे बद्ध नहीं होते॥२८॥ हे उद्धव! हे मित्र! तैंने यह ज्ञान अच्छी प्रकार मनमें धर लिया है इसलिये क्या तेरे मनका मोह शोक गया?॥२९॥ बुद्धिमान्को चाहिये कि यह ज्ञान दंभी नास्तिक, धूर्त्त इत्यादि और जिसके सुननेकी इच्छा न हो उसे कभी न सुनावै॥३०॥ हे उद्धव ! जो इन दोषोंसे रहित हो, ब्रह्मण्य हो, अतिप्रिय साधु हो, शुद्धहो उससे

य एतन्मम भक्तेषु संप्रदद्यात्सुपुष्कलम्॥ तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना॥२६॥ य एतत्समधीयीत पवित्रं परमं शुचि॥ स पुयेताहरहर्मांज्ञानदीपेन दर्शयन्॥२७॥ य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः शृणुयान्नरः॥ मयि भक्तिं परां कुर्वन्कर्मभिर्न स बध्यते॥२८॥ अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम्॥ अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः॥२९॥ नैतत्त्वया दांभिकाय नास्तिकाय शठाय च॥ अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम्॥३०॥ एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च॥ साधवे शुचये ब्रूयाद्भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम्॥३१॥ नैतद्विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते॥३२॥ ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दंडधारणे॥ यावानर्थों नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः॥३३॥

यह ज्ञान कहना चाहिये। जो भक्ति होय तो स्त्री शूद्रसे भी कहै॥३१॥ जाननेवालेको इसके जाननेके उपरान्त फिर कुछ जाननेकी आवश्यकता नहीं, जैसे सुस्वाद अमृत पीनेके पीछे और पीनेके योग्य नहीं रहता॥३२॥ भक्तोंको और साधना कुछ नहीं चाहिये, क्योंकि भक्तोंका तो केवल सब मैंही हूं, ज्ञानसे मोक्ष होती है, विहित कर्म करनेसे धर्म होता है योग करै, अणिमादि सिद्धि हो, सहजके कर्म करनेसे काम होय, खेती करे, अर्थ होय दण्ड नीति करे, ऐश्वर्य होय और इन साधनाओंसे चारों पुरुषार्थ सिद्धि होते हैं, हे उद्भव ! इस पुरुषार्थरूप तुमको मैंहूं इसलिये

तुमको और कुछ नहीं करना चाहिये, केवल एक मेरी शरण रहो॥३३॥ जब यह मनुष्य सब कर्मोंको छोडकर मुझे आत्मा निवेदन कर, तब मेरे श्रेष्ठकरनेकेयोग्य होता है, उसीसे फिर मोक्षको प्राप्त होता है और निश्चयही मेरे समान ऐश्वर्यके योग्य होजाता है॥३४॥ जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने सफल योगमार्गका स्वरूप दिखाया, तब उत्तमयश श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन, हाथ जोड प्रीतिपूर्वक गद्गद कंठ हो नेत्रोंसे अश्रुपात करते, गला रुकजानेके कारण उद्धवजी कुछ भी न बोलसके॥३५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत राजा परीक्षित् !

मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मा निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे॥ तदा मृतत्वं प्रतिपद्यमानो मयात्मभूयाय च कल्पते वै॥३४॥ श्रीशुक उवाच॥ स एवमादर्शितयोगमार्गस्तदोत्तमश्लोकवचो निशम्य॥ बद्धांजलिः प्रीत्युपरुद्धकंठो न किंचिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः॥३५॥ विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं धैर्येण राजन्बहु मन्यमानः॥ कृतांजलिः प्राह यदुप्रवीरं शीर्ष्णास्पृशंस्तच्चरणारविंदम्॥३६॥ उद्धव उवाच॥ विद्रावितो मोहमहांधकारो य आश्रितो मे तव सन्निधानात्॥ विभावसोः किं नु समीपगस्य शीतं तमो भीः प्रभवत्यजाद्य॥३७॥

अति स्नेहसे विह्वल चित्तको “धैर्यकर” थामकर, अपनेको कृतार्थ मानने लगे। इसके उपरान्त हाथ जोड माथेसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दका स्पर्शकर उद्धवजी बोले॥३६॥ कि हे ब्रह्मादिकोंके उत्पन्नकर्त्ता। मैंने जो मोहरूपी अंधकारका आश्रय कियाथा सो तुम्हारे समीपसे जातारहा, जैसे सूर्यके समीप अंधकार, शीत, भय, कहाॅहोसकते हैं ? *॥३७॥
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* शंका - श्रीकृष्णसे उद्धवने कहा कि, महाराज ! मेरा मोह अब मेरे शरीरको छोडकर भागगया, मोहसे अब मैंछूटगया, तो फिर यमुनाके तटपर विदुरजीने उद्धवसे श्रीकृष्णका वृत्तान्त बूझातो क्यों मोहग्रसित होगये ? श्रीकृष्णका वृत्तान्त भी पूरा नहीं कहसके, हालमी कुछ देर पीछे कहा जो कोई कहैंकि, ज्ञान पानेके पीछे फिर मोहने घेरलिया होगा तो सत्य है जो बहुत दिन होगये होंगे होते तो आश्चर्य नहीं था परन्तु ज्ञान पाकर कृष्णके पाससे दो अथवा तीनही दिन बीतेथे जब विदुरजीका और उद्धवका समागम हुआथा, यह शंका है।

** उत्तर -** निस्सन्देह उद्धवजीका मोह नाश होगयाथापरन्तु मनुष्यके स्वभाव करके क्षणक्षणमें मोहके वश होकर श्रीकृष्णका स्मरणकर फिर मोहको त्याग दिया और श्रीकृष्णका मोह भी इसलिये किया कि, श्रीकृष्णही भक्ति और मुक्तिके देनेवाले हैं, इसलिये यमुनाके निकट उद्धवको मोह प्राप्त हुआ कुछ अज्ञानपनसे मोह उत्पन्न नहीं हुआ।

तुमने अति दयाकरके मुझे सेवकको विज्ञानदीपक दिया, इसकारण कौन तुम्हारे उपकारका ज्ञाता है, अब तुम्हारे चरणारविन्द मूलको छोडकर और में किसकी शरण जाऊं ?॥३८॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो ! जो सृष्टिकी वृद्धिके लिये तुमने अपनी मायासे मेरा स्नेहरूप पाश दाशार्ह, वृष्णि, अंधक, सात्वतनमें बढ़ाया था, सो आत्मज्ञान शस्त्रसे मैनेही काटकर दूर करदिया॥३९॥ हे महायोगिन् ! तुमको प्रणाम है, मैं शरणहूं, इतनी शिक्षा दो कि, मेरी तुम्हारे चरणारविन्दोंमें दृढ़ प्रीति हो॥४०॥ यह बात उद्धवजीकी अंगीकार करके लोकसंग्रहके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आज्ञा दी कि, हे उद्धव ! मेरी यह आज्ञा है कि, तुम बदरिकाश्रमको जाओ, क्योंकि वहाँ मेरे चरणतीर्थ गंगाजलसे स्नान आचमन करके

प्रत्यर्पितो मे भवताऽनुकंपिना भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः॥ हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं कोऽन्यत्समीयाच्छरणं त्वदीयम्॥३८॥ वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो दाशार्हवृष्ण्यंधकसात्त्वतेषु॥ प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया स्वमायया ह्यात्मसुबोध हेतिना॥३९॥ नमोऽस्तु ते महायोगिन्प्रपन्नमनुशाधि माम्॥ यया त्वच्चरणांभोजे रतिः स्यादनपायिनी॥४०॥ श्रीभगवानुवाच॥ गच्छोद्धव मयादिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम्॥ तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः॥४१॥ ईक्षया लकनंदाया विधूताशेषकल्मषः॥ वसानो वल्कलान्यंग वन्यभुक्सुखनिःस्पृहः॥४२॥ तितिक्षुर्द्वंद्वमात्राणां सुशीलः संयतेंद्रियः॥ शांतः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः॥४३॥ मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन्॥ मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव॥ अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः॥ शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधीर्न्यषिंचदद्वंद्वपरोऽप्यपक्रमे॥४५॥

शुद्ध होगे॥४१॥ हे उद्धव। अलकनंदाके दर्शनसे सफल हो पाप दूरकर वल्कल वस्त्र पहर वनके फल खाय सुखमें निष्ठ होओ॥४२॥ वहाँ सब इन्द्रियोके निग्रहसे शीत, उष्ण, सह सुशील शान्त हो, ज्ञान विज्ञानसे संयुक्त समाधिमें बुद्धि स्थिर करो॥४३॥ और मुझसे तुमने जो जो सीखा है, तथा अच्छी भाॅति विचारा है उसकी भावना करते आवेशयुक्त वचन चित्तसे मेरे धर्ममें तत्पर हो, इन तीन गुणोंकी गतिका अतिक्रम करके आगे मुझे प्राप्त होंगे॥४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कहनेसे उद्धवजी प्रदक्षिणा

कर माथा भगवान्के चरणोंमें रख अश्रुपातके जलसे भगवान् के चरणको अभिषेक करने लगे, यद्यपि सुखदुःख रहित हुए हैं, परन्तु तोभी चलनेके कारण स्नेहसे कोमल बुद्धि होगये॥४५॥ अत्यन्त दुस्त्यज स्नेहके वियोगसे अतिअधीरहो अपने प्रभु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके छोडनेको समर्थ न हुए और इसके उपरान्त अतिकष्ट पाय फिर अपने स्वामीकी पादुका माथेपर धर प्रणाम करके चले, इसप्रकार बारंबार प्रणाम करके चले॥४६॥ इसके उपरान्त अपने अंतः करणमें श्रीकृष्णको धारणकर परम भागवत उद्धव बदरिकाश्रमको चले गये और जगद्बंधु भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रसे इस भाॅति उपदेश पाय, उसी भाॅति तपस्याको साध हरिकी गतिको प्राप्त हुए॥ ४७॥ जिनके चरणकमलोंका योगीश्वर सेवन करते

सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः॥ कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके विभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः॥४६॥ ततस्तमंतर्हृदि संनिवेश्य गतो महाभागवतो विशालाम्॥ यथोपदिष्टां जगदेकबंधुना तपः समास्थाय हरेरगाद्गतिम्॥४७॥ य एतदानंदसमुद्रसंभृतं ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम्॥ कृष्णेन योगेश्वरसेवितांघ्रिणा सच्छ्रद्धयाऽऽसेव्य जगद्विमुच्यते॥४८॥ भवभयमपहंतुं ज्ञानविज्ञानसारं निगमकृदुपजह्रेभृङ्गवद्वेदसारम्॥ अमृतमुदधि तश्चापाययद्भृत्यवर्गान्पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भक्तियोगसंग्रहो नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥

हैं। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने यह ज्ञानरूप अमृत आनंद समुद्र परम भागवत उद्धवजीसे कहा, जो पुरुष श्रद्धापूर्वक इसका सेवन करते हैं, सो संसारसे मुक्त होजातेहैं॥४८॥ जिन वेदकर्त्ता भगवान्नेसंसारका भय दूर करनेके लिये एक ज्ञानरूप वेदसार अमृतका भ्रमरकी भाँति उद्धार किया, एक अमृत तो समुद्रमेंसे निकाला था सो तो देवताओंको पिलाया अब दूसरा यह वाणीरूप अमृत अपने सेवक तथा भक्तोंको पिलाया ऐसे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मैं प्रणाम करताहूं॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायामेकोनत्रिंशोध्यायः॥२९॥

दोहा—तीसमाहिं वैकुण्ठकी, सुरति करी करतार॥ मुशलयुद्धमिस सबनको, क्षणमें कियो सँहार॥१॥ राजापरिक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! परम भागवत उद्धवजीके वन चलेजानेपर विश्वके रक्षक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने क्या किया ?॥१॥ अपने कुलको ब्रह्मशापसे व्याप्त देख सबके नेत्रोंके परमप्रिय शरीरको यादवोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रने कैसे छोड़दिया?॥२॥ जिस रूपमें लगे हुए नेत्रोंको स्त्रियें खैंचनेको समर्थ न हुईं, जो स्वरूप कर्णद्वारा हृदयमें प्रविष्ट हुआ और साधु पुरुषोंके मनमें तो लिखासा रहता है, जिस रूपकी शोभा वर्णन करनेसे पण्डितोंकी वाणीसे प्रीति उत्पन्न होती है अर्जुनके रथपर स्थित जिस स्वरूपको देखकर भारतमें मरे युद्ध विषे जो योद्धाहै, वह सारूप्य मुक्तिको प्राप्त हुए॥३॥ यह सुनकर श्रीशुकदेवजी

॥ राजोवाच॥ ततो महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्॥ द्वारवत्यां किमकरोद्भगवान्भूतभावनः॥१॥ ब्रह्मशापोपसं सृष्टे स्वकुले यादवर्षभः॥ प्रेयसीं सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत्॥२॥ प्रत्याक्रष्टुं नयनमवला यत्र लग्नं न शेकुः कर्णाविष्टं न सरति ततो यत्सतामात्मलग्नम्॥ यच्छ्रीर्वाचां जनयति रतिं किं न मानं कवीनां दृष्ट्वा जिष्णोर्युधि रथगतं यच्च तत्साम्यमीयुः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ दिवि भुव्यंतरिक्षे च महोत्पातान्समुत्थितान्॥ दृष्ट्वासीनान्सुधर्मायां कृष्णः प्राह यदूनिदम्॥४॥ श्रीभगवानुवाच॥ एते घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः॥ मुहूर्तमपि न स्थेयमत्र नो यदुपुंगवाः॥५॥ स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च शंखोद्धारं व्रजंत्वितः॥ वयं प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक्सरस्वती॥६॥ तत्राभिषिच्य शुचय उपोष्य सुसमाहिताः॥ देवताः पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः॥७॥

बोले कि, हे राजन् ! श्रीकृष्णचन्द्र स्वर्गमें सूर्यके मण्डल आदि भूमिमेंकंपादि, अंतरिक्षकी दिशामें दाहादिक उठे बड़े बड़े उत्पातोंको देख सुधर्मा सभामें बैठे यादवोंसे यह कहने लगे॥४॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे यादवोंमें श्रेष्ठ ! यह घोर मृत्युको बतानेवाले उत्पात उठ रहे हैं, इसलिये अब हमको दो घड़ी भी द्वारकामें वास करना योग्य नहीं है॥५॥ इसकारण सब स्त्री, बालक और वृद्ध शंखोद्धारको जाओ और हम प्रभासक्षेत्रको जायॅगे, जहाॅपश्चिमवाहिनी सरस्वती है॥६॥ वहाँ स्नानसे पवित्र हो, उपवासकर भलीभाॅति सावधानतासे स्नान कराय चंदन और पूजाकी सामग्रियोंसे देवताओंका पूजन करेंगे॥७॥

बड़े भाग्यवान् ब्राह्मणोंको गौ, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र और हाथी घोड़े रथोंसे पूजेंगे॥८॥ निश्चय करके यह विधि अरिष्टकी नाशकहै और उत्तम मंगलकी आश्रय है प्राणियोंमें देवता, ब्राह्मण, गौकी पूजा कल्याणका हेतुहै॥९॥ यादवोंमें सब वृद्ध इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन “ऐसेही हैं” इस भाँति स्तुतिकर, नावों द्वारा समुद्र उतर सब प्रभास क्षेत्रको चलेगये॥१०॥ यादवोंके देव भगवान्के उपदेशको सब यादव मंगलोंसहित परमभक्तिसे प्रभासक्षेत्रमें करनेलगे॥११॥ इसके उपरान्त प्रभासक्षेत्रमें दैवसे हतबुद्धि यादवोंने सुरस मदिराका महापान किया, जिस मदिराके रससे बुद्धि भ्रष्ट होजाती है॥१२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मायासे मोहित मद्यपानसे अतिगर्व

ब्राह्मणांस्तु महाभागान्कृतस्वस्त्ययना वयम्॥ गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः॥८॥ विधिरेष ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम्॥ देवद्विजगवां पूजा भूतेषु परमो भवः॥९॥ इति सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः॥ तथेति नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः॥१०॥ तस्मिन्भगवतादिष्टं यदुदेवेन यादवाः॥ चक्रुः परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम्॥११॥ ततस्तस्मिन्महापानं पपुर्मैरेयकं मधु॥ दिष्टविभ्रंशितधियो यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः॥१२॥ महापानाभिमत्तानां वीराणां दृप्तचेतसाम्॥ कृष्णमायाविमूढानां संघर्षः सुमहानभूत्॥१३॥ युयुधुः क्रोधसंरब्धा वेलाया माततायिनः॥ धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः॥१४॥ पतत्पताकै रथकुञ्जरादिभिः खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि॥ मिथः समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा न्यहन्छरैर्दद्भिरिव द्विपा वने॥१५॥ प्रद्युम्नसांबौयुधि रूढमत्सरावक्रूरभोजा वनिरुद्धसात्यकी॥ सुभद्रसंग्रामजितौ सुदारुणौ गदौ सुमित्रासुरथौ समीयतुः॥१६॥

युक्तचित्त यादवोंका अतिबड़ा कोलाहल हुआ॥१३॥ इसके उपरान्त अत्यन्त क्रोधितहो वधको उद्यत यादव समुद्रके तटपर धनुष, खड्ग, गदा, तोमर और रिष्टियोंसे युद्ध करने लगे॥१४॥ दुर्मद यादव चलायमान ध्वजावाले रथ, हाथी, खच्चर, ऊंट, बैल और भैंसोंसे परस्पर मिलकर बाणोंसे मारनेलगे जैसे वनमें हाथी दाँतोंसे परस्पर हाथियोंको मारते हैं॥१५॥ असहनताको प्राप्तहो प्रद्युम्न और साम्ब, अक्रूर तथा भोज, अनिरुद्ध और सात्यकी, सुभद्र और संग्रामजित् अतिदारुण होकर गद श्रीकृष्णका भाई, एक श्रीकृष्णका पुत्र सुमित्र और सुरथ यह अति

क्रूर स्वभाववाले मत्सरसे व्याप्त होकर परस्पर घोर युद्ध करनेलगे॥१६॥ इसीप्रकार और भी निशठ, उल्मुक, सहस्रजित्, शतजित्, भानु आदि यादव जो भगवान्की इच्छासे मोहित होगयेथे, वह वारुणीके पानसे मत्त और अन्धप्राय हो परस्पर युद्ध करकरके लड़ने लगे॥१७॥ दाशार्ह, वृष्णि, अंधक, भोज, सात्त्वत्, मधुके वंशके और अर्बुद मथुरा शूरसेन देशके विसर्जन, कुकुर, कुंति देशके स्नेहको तोड़ परस्पर मारने लगे॥१८॥ पुत्र पितासे और भाई भानजेसे, धेवतोंसे काकाओंसे, मित्रोंसे, सुहृदोंसे युद्ध करनेलगे, मूर्ख जाति जातियोंहीको

अन्ये च ये वै निशठोल्मुकादयः सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः॥ अन्योऽन्यमासाच्चमदांधकारिता जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम्॥१७॥ दाशार्हवृष्ण्यंधकभोजसात्त्वता मध्वर्बुदा माथुरशूरसेनाः॥ विसर्जनाः कुकुराः कुंतयश्च मिथ स्ततस्तेऽथ विसृज्य सौहृदम्॥१८॥ पुत्रा अयुध्यन्पितृभिर्भ्रातृभिश्च स्वस्त्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः॥ मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भिर्ज्ञातींस्त्वहञ्ज्ञातय एव मूढाः॥१९॥ शरेषु क्षीयमाणेषु भज्यमानेषु धन्वसु॥ शस्त्रेषु क्षीयमाणेषु मुष्टिभिर्जघ्नुरेरकाः॥२०॥ ता वज्रकल्पा ह्यभवन्परिघा मुष्टिना भृताः॥ जघ्नुर्द्विषस्ते कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते॥२१॥ प्रत्यनीकं मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः॥ हंतुं कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः॥२२॥ अथ तावपि संक्रुद्धावुद्यम्य कुरुनंदन॥ एरकामुष्टिपरिधौ चरंतौ जघ्नतुर्युधि॥२३॥ ब्रह्मशापोपसृष्टानां कृष्णमायावृतात्मनाम्॥ स्पर्द्धा क्रोधक्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम्॥२४॥

मारने लगे॥१९॥ बाणोंसे हीन होनेके उपरान्त धनुषके टूटनेसे, शस्त्रोंके छिन जानेसे पटेरोंको ग्रहण करनेलगे॥२०॥ वह पटेरे यादवोंके हाथमें लेतेही वज्रके समान दुधार खाँड़े होगये, उससे यादव वैरियोंको मारने लगे॥२१॥ और जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हैंवर्जा, तब हे परीक्षित्। वह श्रीकृष्ण और बलदेवजीको वैरी मान मारनेकी बुद्धिसे यादव मोहितही शस्त्र ले सन्मुख आये॥२२॥ हे कुरुनंद ! इसके उपरान्त दोनों भाई अत्यन्त कुपित हो खड्गरूप पटेरोंको हाथमें लेकर युद्धमें विचरते मारने लगे॥२३॥ ब्रह्मशापसे व्याप्त श्रीकृष्णकी मायासे

मोहित आत्मा यादवोंको स्पर्द्धासे उत्पन्न हुए क्रोधने क्षय कर दिया, जैसे बॉसकी अग्नि वनका क्षय कर डालती है॥२४॥ इसप्रकार अपना सब कुल नाश होजानेके पीछे एक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रही केवल अवशेष रहगये तब श्रीकृष्णने जाना कि अब भूमिका भार उतरगया॥२५॥ महात्मा बलदेवजीने समुद्रके तटपर परमपुरुषके ध्यानरूप योगसे आपको आपमें युक्तकर मनुष्यलोक छोड़ दिया॥२६॥ इसके उपरान्त श्रीदेवकीजीके पुत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, बलरामजीका चलना देख पीपलका आश्रय ले मौन होकर भूमितलमें बैठगये॥२७॥ शोभायमान चतुर्भुजरूप धारण किये अपनी कांतिसे दिशाओंका अन्धकार दूर करते निर्मल अग्निसे दिखाई देने लगे॥२८॥ अब

एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः॥ अवतारितो भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः॥२५॥ रामः समुद्रवेलायां योगमास्थाय पौरुषम्॥ तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि॥२६॥ रामनिर्याणमालोक्य भगवान्देवकीसुतः॥ निषसाद धरोपस्थे तूष्णीमासाद्य पिप्पलम्॥२७॥ बिभ्रच्चर्तुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया॥ दिशो वितिमिराः कुर्वन्विधूम इव पावकः॥२८॥ श्रीवत्सांकं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्॥ कौशेयांबरयुग्मेन परिवीतं सुमंगलम्॥२९॥ सुंदरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुंतलमंडितम्॥ पुंडरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥३०॥ कटिसूत्रब्रह्मसूत्रकिरीटकटकांगदैः॥ हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम्॥३१॥ बनमालापरीतांगं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः॥ कृत्वोरौदक्षिणे पादमासीनं पंकजारुणम्॥३२॥ मुसलावशेषायः खंडकृतेषुर्लुब्धको जरा॥ मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशंकया॥३३॥

चतुर्भुज रूपका वर्णन करते हैं, श्रीवत्सका चिह्न, मेघके समान श्याम सुवर्णके समान कांतिवाले, पीताम्बर पहरे, परममंगल॥२९॥ सुन्दर हास्ययुक्त मुखकमल, नील केशसे शोभित, कमलसे सुन्दर नेत्र, देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल॥३०॥ कटिसूत्र, जनेऊ, मुकुट, कंकण, विराजमान हार, नूपुर, मुद्रिका, कौस्तुभसे शोभित॥३१॥ वनमालासे व्याप्त अंग मूर्तिवत् अपने आयुधोंसे युक्त, लाल कमलकीसी शोभावाला वामचरण दाहिनी जॉघपर धरकर बैठे॥३२॥ मूशलके अवशेष लोहेके खण्डसे जिसने बाण बनायाथा उस

जरा नाम वधिकने मृगके आकारवाले उस चरणको मृगकी शंकासे बींध डाला “यह व्याधा कुछ बहुत समयका नहीं था, यह उसीसमय स्वर्गसे भगवान् की इच्छानुसार अंगद व्याधके रूपमें आया और मोहित हो बाण मार पिताके ऋणसे मुक्त हुआ” *॥३३॥ फिर भगवान्के समीप आया चतुर्भुज श्रीभगवान्कोदेखकर अत्यन्त भयभीत हुआ इसके उपरान्त वह अपराधी वधिक माथेसे दैत्योंके शत्रु श्रीकृष्णचन्द्रके

चतुर्भुजं तं पुरषं दृष्ट्वा स कृतकिल्विषः॥ भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः॥३४॥ अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन॥ क्षंतुमर्हसि पापस्य उत्तमश्लोकमेऽनघ॥३५॥ यस्यानुस्मरणं नणामज्ञानध्वांतनाशनम्॥ वदंति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो॥३६॥ तन्माशु जहि वैकुंठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्॥ यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रम्॥३७॥

चरणोंमें गिरपड़ा॥३४॥ हे मधुसूदन। पाप बुद्धि मैंने यह अपराध अज्ञानसे किया है, हे उत्तमयश! मुझ निष्पाप पापीको क्षमा करो॥३५॥ हे प्रभो! जिसका स्मरण मनुष्योंके अज्ञान तमका नाश करता है, उन्हीं तुम विष्णुका मैं अपराधी हूं॥३६॥ हे वैकुण्ठनाथ! इसलिये

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* शंका - वधिकको मनुष्यके और मृगके पहँचाननेमें भेद क्यों हुआ? जिस भ्रमसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके चरणारविंदको मृग समझकर महाराजके चरणमें बाण क्यों मारा? निशाना लगानेवाले मनुष्य कभी नहीं चूकते छोटी वस्तु होती है तो भी देख दृष्टि से खेलते हैं और त्रिलोकीनाथकी देह तो बडीथी वह वधिक कैसा मूर्ख होगया? मृग और मनुष्य उसको नहीं जान पढे ? बढे सन्देहकी बात है।

उत्तर - अगद बालिका पुत्र श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंकी सेवा करके स्वर्गको जाने लगा तो रघुनाथजीने अगदसे कहा कि, जो वरदान तुझको चाहिये सो भाग, तब अगदने कहा कि, हे रघुनन्दन ! हे दीनबन्धु ! मेरे पिताको आपने बिना अपराध मारडाला सो उसका बदला आपसे लियाचाहता हू तब रघुनाथजी बोले कि, हम कुछ युग बीते द्वापरमें कृष्णावतार धारण करेंगे तब तुम्हारे पिताका ऋण तुमको चुकावेंगे और तुम्हारे हाथके बाणसे हम प्राण तजकर परमधामको जायँगे, जिससमयको श्रीरघुनाथजी कहगयेथे वही समय देखकर वीर अंगदने स्वर्गलोकसे उसी वनमें आनकर वधिकका रूप धारणकर लक्ष्मीपति भगवान्केचरणमें बाण मारा इसलिये व्याधेको मनुष्यकी और मृगकी पहँचान नहीं हुई, क्योंकि बहुत दिनका व्याध नहीं था वह तो नया वधिक था केवल पिताका बदला लेनको आयाथा।

मुझ मृगलोभी पापीको शीघ्र मारो, जिससे फिर कभी साधुओंका ऐसा अपराध न करूं॥३७॥ जब तुम्हारी स्वाधीन मायाकी रचनाको ब्रह्मा और ब्रह्माके पुत्र रुद्रादिक तथा वेदके द्रष्टा भी नहीं जानते उन्हैंब्राह्मणोंके शापका लगना मायासे अंधे हुए पुरुषोसे किसप्रकार कहा जासकता है? इससे यह बात चाहे कुछ भी हो, परन्तु आप मुझे मारडालिये॥३८॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे जरा! तू भय मत करै, उठकर खडा हो, तैंने तो यह मेरी इच्छानुसारही कार्य किया है, इसलिये तू मेरी आज्ञासे पुण्यवानोंके स्थान स्वर्गकोजा॥३९॥ इच्छा करके शरीरधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा पाय, वह वधिक श्रीकृष्णकी तीन परिक्रमा दे नमस्कारकर विमानमें बैठ स्वर्गको चलागया॥४०॥ इसके उपरान्त दारुक

यस्याऽऽत्मयोगरचितं न विदुर्विरिंचो रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये॥ त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदंजः किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः॥३८॥ श्रीभगवानुवाच॥ मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतोहि मे॥ याहि त्वं मद नुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम्॥३९॥ इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा॥ त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ॥४०॥ दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्॥ वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ॥४१॥ तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्॥ स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः॥४२॥ अपश्यतस्त्वच्चरणांबुजं प्रभो दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा॥ दिशो न जाने न लभे च शांतिं यथा निशा यामुडपे प्रणष्टे॥४३॥ इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः॥ खमुत्पपात राजेंद्र साश्वध्वज उदीक्षतः॥४४॥

मार्गमें भगवान्कोविनापाये तुलसी चन्दनकी गंध मिली वायुको सूँघता श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख आया॥४१॥ उस पीपलके वृक्षके नीचे तीक्ष्ण कांतियुक्त आयुधोंसे व्याप्त अपने पति श्रीकृष्णचन्द्रको बैठा देख स्नेहसे मग्न आत्मा, नेत्रोंमें जलभर दारुक रथसे उतर उनके चरणोंमें गिरा॥४२॥ हे प्रभो! तुम्हारे चरणारविन्द विना देखे मेरा सब ज्ञान नाशको प्राप्त होगया और मोहमें प्रविष्ट हुआ में दिशाओंको भी नहीं जानताहूं, तथा शान्ति भी मुझे नहीं है। जैसे रात्रिमें चंद्रमाके गये पीछे दिशा नहीं जानी जाती हैं॥४३॥ हे राजन्! जब इसप्रकार दारुक सारथीने कहा तब सारथीके देखतेही गरुडचिह्नयुक्त रथ घोड़े ध्वजा सहित आकाशको उडगया॥४४॥

इसके उपरान्त विष्णुके दिव्य आयुध चलेगये। इससे विस्मित सारथीसे भगवान् जनार्दन कहने लगे॥४५॥ कि, हे सूत! तू द्वारकाको जा, बांधवोंसे परस्पर जातिका मरण, योगमार्गसे बलदेवजीका प्रस्थान और मेरी दशा जो कुछ तैंने देखी है सो कहना॥४६॥ तुम बांधवोंसहित द्वारकामें मत रहना, क्योंकि मुझसे छोड़ीहुई द्वारकाको अब समुद्र बोरेगा॥४७॥ इसलिये अपनी सब सामग्री तुम हमारे मातापिताको लेक रके अर्जुनसे रक्षित हो इन्द्रप्रस्थ जाओ, इसप्रकार बांधवोंसे कहो॥४८॥ तुम ज्ञाननिष्ठ निस्पृहहो मेरे धर्मसे और यह मेरी मायाकी रचन

तमन्वगच्छन्दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च॥ तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः॥४५॥ गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः॥ संकर्षणस्य निर्याणं बंधुभ्यो याहि मद्दशाम्॥४६॥ द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिः स्वस्व बंधुभिः॥ मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति॥४७॥ स्वंस्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः॥ अर्जुनेनाविताः सर्व इंद्रप्रस्थं गमिष्यथ॥४८॥ त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः॥ मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज॥४९॥ इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनःपुनः॥ तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम्॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे यदुकुलसंक्षयो नाम त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ तत्रागमद्ब्रह्मा भवान्या च समं भवः॥ महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः॥१॥

जान शान्तिको प्राप्त होओ॥४९॥ जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा तब दारुक श्रीकृष्णचन्द्रकी वारम्वार परिक्रमा दे माथा नवाय कुलके नाश होनेसे मलीन चित्त हो द्वारकापुरीको चलागया॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां यादव निर्याणं नाम त्रिंशोध्यायः॥३०॥ दोहा-इकतिसमें नरलोकते, कृष्ण गये निजधाम॥ गये देव निज निज भवन, तज द्वारका ललाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। दारुकसारथीके जाने उपरान्तवहाँ ब्रह्मा, पार्वतीसहित महादेव, इन्द्रादिक देवता, सनकादिक मुनि,

मरीचि आदि प्रजापति॥१॥ पितर, गंधर्व, विद्याधर, महानाग, चारण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, अप्सरा, पक्षी॥२॥ भगवान्काप्रस्थान देखनेकी इच्छासे, परमउत्कंठित श्रीकृष्णके जन्म कर्म गाते और कहते वहाँ आये॥३॥ हे राजन्! फूलोंकी वर्षा करते, परमभक्तिसे युक्त, विमानोंकी पंक्तिसे आकाशको संकुल करनेलगे॥४॥ इसके उपरान्त प्रभु सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, ब्रह्मा इन्द्रादिक अपनी विभूतिको देख अपने आपको अपने आपमें संयुक्त कर, अपने लोक लेजानेके लिये आये हुए बहुतसे देवताओंको देख, समाधि लगाकर अपने नेत्रकमल मूँदलिये॥५॥ जैसे स्वेच्छा मृत्युवाले योगी अपने शरीरको योगधारणासे जलाय लोकोंमें प्रवेश करतेहैं। परन्तु श्रीकृष्णने वैसे नहीं किया। किन्तु उसी शरीरसे अपने

पितरः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः॥ चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसोः द्विजाः॥२॥ द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः॥ गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च॥३॥ ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः॥ कुर्वंतः संकुलं राजन्भक्त्या परमया युताः॥४॥ भगवान्पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः॥ संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत्॥५॥ लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम्॥ योगधारणयाऽऽग्नेय्याऽदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम्॥६॥ दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात्॥ सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः॥७॥ देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि॥ अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः॥८॥ सौदामन्या यथाकाशे यांत्या हित्वाऽभ्रमंडलम्॥ गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैस्तथा कृष्णस्य दैवतैः॥९॥

परमधामरूप वैकुण्ठको चलेगये, कारण यह था कि, यदि इस शरीरको योगधारणसे जला देते तो उसमेंका संपूर्ण जगत् भी भस्म होजाता और उस शरीरका ध्यान व धारणा करनेवाले उपासक लोगों को पीछे उस देहका साक्षात्कार और फलकी प्राप्ति नहीं होती॥६॥ जिससमय भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र स्वधाम पधारे, उस समय देवलोक में नगाडे बाजनेलगे आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी और श्रीकृष्णचन्द्रके पीछे भूमिसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्त्ति, लक्ष्मी यह सब चले गये॥७॥ परन्तु ब्रह्मादिक देवताओंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको स्वधाममें प्रवेश करते न देखा, इस कारण यह अति आश्चर्यकोप्राप्त हुए, क्योंकि श्रीकृष्णकी गति किसीने न जानी॥८॥ जैसे मेघमण्डलीको छोडकर आकाशमें जाती बिजलीकी गति

मनुष्योंसे नहीं देखी जाती, उसीप्रकार देवताओंमेंसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी गति नहीं देखी गई, उनकी गति उनके पार्षदही जानतेहैं॥९॥ सो ब्रह्मा रुद्रादिक देवता श्रीकृष्णचन्द्रकी योगगति देखकर अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्त हुए और उस गतिकी स्तुति करते अपने अपने लोकोंको चलेगये॥१०॥ हे राजा परीक्षित्। यादवोंमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका जन्म धारण करना मायासे अनुकरण मात्र जानना, जैसे नट निर्विकार है परन्तु नानारूपोंसे अनुकरण करता है, इसप्रकार आपही इस जगत्को उत्पन्न कर, और अंतर्यामीभावसे उसमें आवेशकर अंतकालमें संहार करते हैं, परन्तु आप अपनी महिमासे निर्विकार हैं॥११॥तुम और मूर्त्ति मत जानो इसी अवतारमें श्रीकृष्णचन्द्रका प्रताप बहुत बड़ा देखा है, जिन्होंने परलोकसे सांदीपनका पुत्र प्राप्त किया और उसे उसी शरीरसे शरणागतरक्षक श्रीकृष्ण ले आये.

ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः॥ विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वस्वं लोकं ययुस्तदा॥१०॥ राजन्परस्य तनुभृज्ज ननाप्ययेहा माया विडंबनमवेहि यथा नटस्य॥ सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते संहृत्य चात्ममहिमोपरतः स आस्ते॥११॥ मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम्॥ जिग्येंतकांतकमपीशमसावनीशः किं स्वावने स्वरनयन्मृगयुं संदेहम्॥१२॥ तथाऽप्यशेषस्थितिसंभवाप्ययेष्वनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक्॥ नैच्छत्प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन्॥१३॥

ब्रह्मास्त्रसे दग्ध तुम्हारी रक्षा करी, फिर कालोंके महाकाल रुद्र भगवान् महादेवजीको बाणसुरके संग्राममें जीतलिया और जरानाम वधिकको देहसहित स्वर्गको भेजदिया, तो वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र क्या अपनी रक्षा करनेमें असमर्थ थे?॥१२॥ अहो! जो श्रीकृष्णचन्द्र समर्थ थे तो कुछ काल अभी यहाॅही क्यों न रहे ? तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, संपूर्ण जगत्के सृष्टि प्रतिपालन और संहारमें आपही कारण हैं औरकी आकांक्षा वह नहीं रखतेहैं अनेक शक्तियोंको धारण करते हैं, यद्यपि ऐसे हैं परन्तु तो भी यादवोंका संहार होजानेसे अपने देहको इसलोकमें रखने की इच्छा न की, आपही निजधाम में अपने देहको प्राप्त किया, यहाँ हेतु कहतेहैं, भगवान्नेविचारा कि, अब इस देहका यहाँ क्या

कामहै? स्वधर्मी आत्मनिष्ठोंकी जो रीतिथी सो दिखाई और भाँति वह आत्मनिष्ठ दिव्य गतिके अनादरसे, योगबलसे देहकी सिद्धि कर कहीं यहाँ ही क्रीड़ा करनेको मन करै, इसकारण भगवान् आप भी चले गये॥१३॥ जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर, सावधान मनसे, अत्यन्त भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णचन्द्रकी परमगतिको कहैगा, सो परम उत्तमगतिको प्राप्त होगा॥१४॥ अब वसुदेवादिककी गति कहते हैं, इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे बिछुडाहुवा दारुक नाम सारथी द्वारकामें आय, वसुदेव व उग्रसेनके चरणोंमें पड़, अपने अश्रुजलसे उनके चरणोंको सींचने

य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम्॥ प्रयतः कीर्त्तयेद्भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम्॥१४॥ दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः॥ पतित्वा चरणावस्रैर्न्यषिंचत्कृष्णविच्युतः॥१५॥ कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप॥ तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविमृर्च्छिताः॥१६॥ तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः॥ व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम्॥१७॥ देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ॥ कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम्॥१८॥ प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद्विरहातुराः॥ उपगुह्य पतींस्तात चितामारुरुहुः स्त्रियः॥१९॥

लगा॥१५॥ हे राजा परीक्षित्! इसके पीछे उस सारथीने सब यादवोंके नाश होनेका वृत्तान्त कहा वह सुनकर वसुदेवादिकोंके हृदयमें अत्यन्त उद्वेग हुआ और शोकसे मूर्च्छितहो॥१६॥ सुख काटते श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल उतावले वहीं आये, जहॉ बांधव प्राणरहित शयन कररहेथे॥१७॥ देवकी रोहिणी और वसुदेव, श्रीकृष्ण और बलदेव अपने पुत्रोंके विना देखे शोकसे आतुर हो बेसुध होगये॥१८॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके वियोगसे अत्यन्त आतुरहो, वहाॅही प्राण छोड़दिये और अपने अपने पतियोंसे मिलकर स्त्रियें चितामें प्रवेश करगईं॥१९॥

बलदेवजीकी स्त्री बलदेवजीके देहको आलिंगनकर चितामें प्रवेशकरगईं और वसुदेवकी स्त्री वसुदेवसे, श्रीकृष्णकी पुत्रवधू प्रद्युम्न आदि अपने अपने पतियोंसे मिलकर रुक्मिणी आदि श्रीकृष्णकी स्त्री श्रीकृष्णमय हो अग्निमें प्रवेश करगईं॥२०॥ अर्जुनने अपने परमप्रिय सखा श्रीकृष्णचन्द्रके विरहसे आतुर होनेपर भी सच्ची मुक्ति देनेवाले भगवान्के वचनोंको स्मरण करके उसने अपने आत्माको सांत्वना दी॥२१॥ जिनकी संपत्ति नाशको प्राप्त हुई और आपभी नाशको प्राप्त हुए, उन बांधवोंका अर्जुनने पिंडदान, तर्पण आदि कार्य विधिपूर्वक क्रमसे किया॥२२॥ हे महाराज परीक्षित्! इसके उपरान्त श्रीयुत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके मंदिरको छोड़कर श्रीकृष्णसे त्यागी संपूर्ण द्वारकाको समुद्रने क्षणभरमें डुबा

रामपत्न्यश्च तद्देहमुपगुह्याग्निमाविशन्॥ वसुदेवपत्न्यस्तद्गात्र प्रद्युम्नादीन्हरेः स्नुषाः॥ कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्यास्तदात्मिकाः॥२०॥ अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः॥ आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः॥२१॥ बंधूनां नष्टगोत्राणामर्जुनः सांपरायिकम्॥ हतानां कारयामास यथावदनुपूर्वशः॥२२॥ द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत्क्षणात्॥ वर्जयित्वा महाराज श्रीमद्भगवदालयम्॥२३॥ नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान्मधुसूदनः॥ स्मृत्याऽशेषाशुभहरं सर्वमंगलमंगलम्॥२४॥ स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान्धनञ्जयः॥ इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राऽभ्यषेचयत्॥२५॥ श्रुत्वा सुहृद्वधं राजन्नर्जुनात्ते पितामहाः॥ त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम्॥२६॥ य एतद्देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च॥ कीर्त्तयेच्छ्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥२७॥

दिया॥२३॥ मंदिर बचानेका कारण यह है कि, भगवान् मधुसूदन वहाॅनित्य विराजाते हैं और वह मंदिर कैसा है कि, जिसका स्मरणमात्र करनेसेही संपूर्ण अमंगल नाशको प्राप्त होजाते हैं॥२४॥ मरनेसे बचेहुए स्त्री, बालक वृद्धको अर्जुनने लेकर इन्द्रप्रस्थ में प्रवेश कराय वहाँ वज्रनाभको अभिषेक किया॥२५॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परमभागवत परिक्षित्! तुम्हारे पितामह पांडव अर्जुनके मुखसे सुहृदोंका वध सुनकर तुमको वंशधारी समझ महाप्रस्थानको चलेगये॥२६॥ जो मनुष्य श्रद्धासहित देवदेव भगवान् विष्णुके जन्म और

कर्मोंको सुनैंगे अथवा कहैंगे, वह संपूर्ण पापोंसे छूट जायेंगे॥२७॥ इसप्रकार इस ग्रन्थमें और दूसरे ग्रन्थोंमें वर्णन कियेहुए परममंगल भगवान्वासुदेवके सुन्दर अवतारोंके चरित्र जो मनुष्य कहैंगे सो परमहंसोंके शरणदायक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें परमभक्तिको प्राप्त होंगे *॥२८॥

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतारवीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि॥ अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन्मनुष्यो भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदन्तर्द्धानं नामैकत्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३१॥ समाप्तोऽयं श्रीमद्भागवतस्यैकादशः स्कन्धः॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे अष्टादशसाहख्यां संहितायां भाषाटीकायां श्रीकृष्णपरिवारनिर्यापणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥

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* भजन - जनप्रतिपाल दयाल दयानिधि क्यों चितवत नहिं ओर हमारी। कीजै कृपा जन जान हमपर हे व्रजेश गोपाल मुरारी। जबसे सतशिक्षा हम त्यागी। बुधिबल और सुख सम्पति भागी। पीछे विपति अविद्या लागी। निशिदिन देत रहत दुखभारी॥१॥ कुमतिकलह घटघटमें छाई। शुभगुण सुमति समूल नशाई। करत परस्पर द्वेष बुराई। हानिलाभ नहिं तनक विचारी॥२॥ हम सब तुम्हरी ओर निहारैं। त्राहि त्राहि दिन रात पुकारे। तुम बिन जाको जाय जुहारै। एसो को भक्तन हितकारी॥३॥ वेग जननकी ओर निहरो। कलह कुमतिकी मूल उखारो। दारिद दुर्गुण दुर्ग विदारो। दुष्टदलन दीनन दुखहारी॥४॥ नाथ विनय मम स्वीकृत कीजै। विद्यादान दयाकर दीजै। चरण शरणमें हमको लीजै। लागरही दृढ आश तुहारी।

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इदं पुस्तकं क्षेमराज-श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां (खेतवाडी ७ वीं गली खम्बाटालैन) स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर" (स्टीम्) मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.

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द्वादशस्कंधः

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श्रीगणेशाय नमः॥ दोहा — आदि ब्रह्म अद्वैत अज, अविनाशी अविकार। श्रीमुकुन्द गोविन्दपद भज मन वारम्वार॥१॥ कवित्त — काहूको सहारोहै भवानी राज रानीको, काहूको सहारो है गिरिजाके प्यारेको। काहूको सहारो है काल विकरालीको, काहूको सहारो भूतनाथ बैलवारेको॥ काहूको सहारो है भैरों हनुमानजीको, काहूको सहारो है पूरण नाथद्वारेको। जानै गिरधारो औ उबारो व्रज शालिग्राम, मोहिं तो सहारो वा नन्दके दुलारेको॥१॥ काहूकी उमा रमा शारदामें बड़ी प्रीति, काहूको भवानी और लक्ष्मीमें मन है। काहूको गणेश औ महेश माहिं लागो चित्त, काहूको इष्ट देव पानी अरु पवन है॥ काहूको ध्यान हानुमान और भैरवको, काहूको पूज्य शम्भु पुत्र गजानन है। काहूके शालिग्राम रामनाम अमर मूल, मेरे तो केवल एक राधाही धन है॥२॥ सोरठा — जय व्रजचन्द मुकुन्द, आनँदनिधि ऋधि सिधि भवन॥ जय वृन्दावन चन्द, नन्दसुवन

श्रीकृष्णाय नमः॥ राजोवाच॥ स्वधामानुगते कृष्णे यदुवंशविभूषणे॥ कस्य वंशोऽभवत्पृथ्व्यामेतदाचक्ष्व मे मुने॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ योंत्यः पुरंजयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप॥ तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम्॥ प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः॥२॥ विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः॥ नंदिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे॥३॥ अष्टत्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यंति पृथिवीं नृपाः॥ शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः॥ क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः॥४॥

त्रिभुवनपती॥१॥ दोहा—अहे प्रथम अध्यायमें, भावी मागध वंश। धरा भोग कार है सविधि, सो वर्णब विनशंस॥१॥ राजा परीक्षित्ने बूझा कि हे मुने! यदुकुलके भूषणरूप श्रीकृष्णचन्द आनन्दकन्द जब अपने परमधामको चलेगये, तब पृथ्वीपर आगेको किसका वंश चला? यह मुझको समझाकर कहो॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्। बृहद्रथके कुलके अन्तमें पुरंजय नाम राजा होगा, जिसका वर्णन प्रथम नवमस्कन्धमें आपको सुनाचुकाहूं, उसका मंत्री शुनक पुरंजयको मारकर प्रद्योतनाम अपने पुत्रको राजसिंहासन पर बिठावेगा, उसके पालक नाम पुत्र होगा॥२॥ उसके विशाखयूप नाम पुत्र होगा, उसके राजक नाम एक पुत्र होगा, राजकके नन्दिवर्द्धन नाम पुत्र होगा, यह पॉच राजा प्रद्योतन नामसे प्रसिद्ध होंगे॥३॥ और एकसौ अड़तीस (१३८) वर्षतक पृथ्वीकी रक्षा करेंगे, उनके पीछे शिशुनाग नाम राजा होगा, उसके काकवर्ण

नाम राजा होगा, काकवणके क्षेमधर्मा नाम पुत्र होगा, उसके क्षेत्रज्ञ नाम पुत्र होगा॥४॥ क्षेत्रज्ञके विधिसार नाम पुत्र उत्पन्न होगा, उसके अजातशत्रु नाम पुत्र होगा, उसके दभकनाम पुत्रहोगा, उसके अजय नाम पुत्र होगा॥५॥ अजयके नन्दिवर्द्धन नाम पुत्र होगा, उसके महानन्द नाम पुत्र होगा, हे कुरुवंशभूषण ! यह शिशुनागादिवंशी दश राजा तीनसौ साठ (३६०) वर्षतक कलियुगमें राज्यभोग करेंगे॥६॥ हे महाराज! महानन्दका पुत्र शूद्रीके गर्भसे बड़ा तेजस्वी और पराक्रमी॥७॥ महापद्म सेनाका पति, नन्दनाम क्षत्रियवंशका विध्वंस करनेवाला होगा, इस नन्दराजासे लेकर आगेको शुद्रके तुल्य अधर्मी राजा होंगे॥८॥ सो यह नन्द पृथ्वीपर एक महाछत्रवारी राजा होगा और कोई संसारमें उसकी

विधिसारः सुतस्तस्याजातशत्रुर्भविष्यति॥ दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः॥५॥ नंदिवर्धन आजेयो महानंदिः सुतस्ततः॥ शिशुनागो दशैवते पष्ट्युत्तरशतत्रयम्॥६॥ समा भोक्ष्यंति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः॥ महानंदिसुतो राजञ्छूद्रीगर्भोद्भवो वली॥७॥ महापद्मपतिः कश्चिन्नंदः क्षत्रविनाशकृत्॥ ततो नृपा भविष्यंति शूद्रप्रायास्त्वधार्मिकाः॥८॥ एकच्छत्रां स पृथिवीमनुल्लंघितशासनः॥ शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः॥९॥ तस्य चाष्टौ भविष्यंति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः॥ य इमां भोक्ष्यंति महीं राजानः स्म शतं समाः॥१०॥ नव नंदान्द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति॥ तेषामभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यंति वै कलौ॥११॥ स एव चंद्रगुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति॥ तत्पुत्रो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः॥१२॥ सुयशा भविता तस्य संगतः सुयशः सुताः॥ शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति॥१३॥

आज्ञाको उल्लंघन न करैगा, मानो क्षत्त्रियोंका मानभंग करनेमें दूसरा परशुराम होगा॥९॥ उस नन्दराजाके सुमाल्यादिक आठ पुत्र होंगे, वह सब राजा होकर सौ (१००) वर्षतक पृथ्वीकी रक्षा करेंगे॥१०॥ अपने अनुगत उन नवो नन्दराजाओंको कोई एक चाणक्य नाम ब्राह्मण मारेगा, तिनके मरणोपरान्त कलियुगमें मौर्य नाम राजा पृथ्वीका राज्य करैगा॥११॥ फिर वही नवनंदका मारनेवाला चाणक्य नाम ब्राह्मण चन्द्रगुप्त मौर्यको राज्यसिंहासनपर बैठावेगा, उस चन्द्रगुप्तके वारिसार नाम पुत्र होगा, उसके अशोकवर्धन नाम पुत्र होगा॥१२॥ अशोकवर्धनके सुयशा

नाम पुत्र होगा, उसके संगतनाम पुत्र उत्पन्न होगा, संगतके शालिशुकनाम पुत्र होगा, उसके सोमशर्मानाम पुत्र होगा॥१३॥ सोमशर्माके शतधन्वा पुत्र होगा, उसके दूसरा बृहद्रथ पुत्र होगा, यह दश मौर्यवंशी राजा कलियुगमें एकसौ तेत्तीस (१३३) वर्षतक पृथ्वीपर आनन्द भोगेंगे, हे कौरवकुलमार्त्तण्ड! इन सब मौयोंमें पहले एकादश रथा नाम मौर्य होगा, यह जाननेयोग्य बात है॥१४॥ फिर मौर्यवंशका राजा बृहद्रथका सेनापति पुष्पमित्र अपने स्वामीको मारकर राज्य करैगा पौष्पमित्रका पुत्र अग्निमित्र राजा होगा उसका सुज्येष्ठ नाम पुत्र होगा, सुज्येष्ठक पुत्र वसुमित्र होगा, वसुमित्रका भद्रक नाम पुत्र होगा, भद्रकका पुत्र पुलिन्द होगा, पुलिन्दका पुत्र घोष होगा, घोषका पुत्र वज्रमित्र होगा वज्रमित्रका

शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्धहद्रथः॥ मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम्॥ समा भोक्ष्यंति पृथिवीं कलौ। कुरुकुलोद्वह्॥१४॥ अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठोऽथ भविष्यति॥ वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिंदो भविता सुतः॥१५॥ ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति॥ ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिरिति श्रुतः॥१६॥ शुंगा दशैते भोक्ष्यंति भूमिं वर्षशताधिकम्॥ ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्नृप॥१७॥ शुंगं हत्वा देवभूतिं कण्वोऽमात्यस्तु कामिनम्॥ स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः॥१८॥ तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः॥ काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च॥ शतानि त्रीणि भोक्ष्यंति वर्षाणां च कलौ युगे॥१९॥ हत्वा कण्वं सुशर्माणं तद्भृत्योवृषलो बली॥ गां भोक्ष्यत्यंध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः॥२०॥

पुत्र भागवत होगा; भागवतका पुत्र देवभूति होगा॥१५॥१६॥ यह दश शुंगराजा कहे जायँगे और दशों राजा एकसौबारह ११२ वर्षतक पृथ्वीका राज्य करैंगे, हे कुरुकुलभूषण ! इन सबमें शुंगा नाम राजा पहिले होगा, हे नरेन्द्र ! फिर यह भूमि अल्पगुणवाले कण्व नाम राजाओंके अधीन रहेगी॥१७॥ देवभूति नाम शुँगाका मंत्री बडा बुद्धिवान् वसुदेवनामा होगा सो परस्त्रीगामी देवभूति शुंगको मारकर आपही राज्य करैगा, उसके भूमित्र पुत्र होगा॥१८॥ भूमित्रके नारायण नाम पुत्र होंगा। नारायणके सुशर्मा नाम पुत्र होगा यह कण्ववंशी चार राजा कलि युगमें तीनसौपैंतालीस ३४५ वर्षतक पृथ्वीका राज्य करैंगे॥१९॥ सुशर्माका कोई चाकर महानीच शूद्र जाति अस

त्तम बली नाम कण्ववंशी सुशर्माको मारकर कुछ वर्षतक आप पृथ्वीका राज्य करेगा॥२०॥ फिर उसके पीछे उस बली नाम राजाका भ्राता कृष्ण नाम पृथ्वीका पति होगा, उसके श्रीशान्तकर्ण नाम पुत्र होगा, श्रीशान्तकर्णके पौर्णमास नाम पुत्र होगा॥२१॥ उसके लम्बोदर नाम पुत्र होगा, लम्बोदरका पुत्र चिविलक होगा, चिविलकके मेघस्वाति नाम पुत्र होगा, उसके अटमान नाम पुत्र होगा॥२२॥ अटमानके अनिष्टकर्मा नाम पुत्र होगा, उसके हालेय नाम पुत्र होगा, हालेयके तलक नाम पुत्र होगा, तलकके पुरीषभीरु नाम पुत्र होगा उसका सुनन्दन नाम पुत्र होगा॥२३॥ सुनन्दनके चकोर नाम तनय होगा, चकोरके नवभाशिवस्वाति नाम पुत्र होगा, हे रिपुदमन! उसके गोमती नाम पुत्र होगा, गोमतीके पुरीमान् नाम

कृष्णनामाऽथ तद्भ्राता भविता पृथिवीपतिः॥ श्रीशांतकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः॥२१॥ लंबोदरस्तु तत्पुत्र स्तस्माच्चिविकलो नृपः॥ मेघस्वातिश्च विकलादटमानस्तु तस्य च॥२२॥ अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः॥ पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः॥२३॥ चकोरो नवमो यत्र शिवस्वातिररिंदम॥ तस्यापि गोमती पुत्रः पुरीमान्भविता ततः॥२४॥ मेदःशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः॥ विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्रविज्ञः सलोमधिः॥२५॥ एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च॥ षट्पञ्चाशच्चपृथिवीं भोक्ष्यंति कुरुनन्दन॥२६॥ सप्ता भीरा आवभृत्या दशगर्दभिनो नृपाः॥ कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यंति च लोलुपाः॥२७॥ ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः॥ भूयो दश गुरुण्डाश्च मौना एकादशैव तु॥२८॥

पुत्र होगा॥२४॥ उसके मेदशिरा नाम पुत्र होगा मेदशिराके शिवस्कन्द नाम पुत्र होगा, ताके यज्ञश्रीनाम पुत्र होगा, यज्ञ श्रीके विजय नाम पुत्र होगा, उसके चन्द्रविज्ञ नाम पुत्र होगा, और उसके सलोमधिनाम पुत्र होगा॥२५॥ हे कुरुनन्दन। यह तीस राजा चारसौ छप्पन ४५६ वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करैंगे॥२६॥ इनके उपरान्त आवभृत्य नामनगरीमें सात आभीर जातिके राजा होंगे, उनके पीछे फिर दश गर्दभ नाम राजा होंगे, उनके उपरान्त कंकजातिके सोलह राजा महालोभी होंगे॥२७॥ उनके पीछे आठ यवन राजा होंगे, उनके पीछे चौदह तरुष्क (तुरक, तुरकिस्तानके वासी ) राजा होंगे, फिर दश गुरुण्ड ( अंगेरज, इंगलिस्तान निवासी ) राजा होंगे, उनके पीछे ग्यारह मौन राजा होंगे॥२८॥

यह ग्यारह मौन राजाके विना सब राजा एक सहस्र निन्यानवे (१०९९) वर्षतक पृथ्वी पर राज्य करेंगे॥२९॥ हे राजन्! ग्यारह मौन राजा तीनसो ३०० वर्षतक पृथ्वीका भोग करैंगे, उनके मरनेके पीछे किलकिला नगरमें भूतनन्दनाम राजा होगा, उसके पीछे वंगिर नाम राजा होगा॥३०॥ फिर उसके पीछे उसका भाई शिशुनंदि और शिशुनन्दिके पीछे यशोनंदि यशोनन्दिके पीछे प्रवीरक, यह सब राजा एकसौ छः (१०६) वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करेंगे॥३१॥ उस शिशुनंदिके तेरह पुत्र होंगे और वह सब बाह्रीकही कहलावेंगे और आनन्द पूर्वक पृथ्वीका राज्य करैंगे, फिर और एक दूसरा पुष्पमित्र नाम राजा होगा, उसके दुर्मित्र नाम पुत्र होगा॥३२॥ फिर सात तो

एते भोक्ष्यंति पृथिवीं दशवर्षशतानि च॥ नवाधिकां च नवतिं मौना एकादश क्षितिम्॥२९॥ भोक्ष्यंत्यब्दशतान्यंग त्रीणि तैः संस्थिते ततः॥ किलिकिलायां नृपतयो भूतनंदोऽथ वंगिरिः॥३०॥ शिशुनंदिश्च तद्भ्रातायशोनंदिः प्रवीरकः॥ इत्येते वै वर्षशतं भविष्यंत्यधिकानि षट्॥३१॥ तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बा

काः॥ पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च॥३२॥ एककाला इमे भूपाः सप्तांध्राःसप्त कौशलाः॥ विदूरपतयो भाव्या नैषधास्तत एव हि॥३३॥ मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः॥ करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिंदयदुमद्रकान्॥३४॥ प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः॥ वीर्यवान्क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि॥ अनुगंगामाप्रयागं गुप्तां मोक्ष्यंति मेदिनीम्॥३५॥ सौराष्टावंत्याभीराश्च शूद्रा अर्बुदमालवाः॥ व्रात्या द्विजा भविष्यंति शुद्रप्राया जनाधिपाः॥३६॥

अंध, सात कौशल और एक वैदूर्य नगरका नरेश नैषध यह सब खण्ड मण्डलेश्वर राजा एकही समयमें होंगे॥३३॥ फिर मगध देशमें विश्वस्फूर्जित पुरंजय नाग राजा होगा, सो बडा पराक्रमी विदुर्मति होगा और ब्राह्मण आदि चारों वर्णों को धर्मसे भ्रष्ट करके पुलिन्द, यदु और मद्रक म्लेच्छकी तुल्य करदेगा॥३४॥ और जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, न हों ऐसी नीच प्रजाको स्थापन करेगा, यह वीर्यवान्पुरंजय क्षत्रियोंका विध्वंस करके पद्मावती नाम पुरीमें बसकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागतक राज्य करैगा॥३५॥ सौराष्ट्रदेश, उज्जैन, अभीर, शुद्र, अर्बुद, मालवादेशनिवासी द्विज अर्थात् तीनों वर्ण यज्ञोपवीत क्रिया न करके संस्कार हीन होजायँगे और राजा भी शूद्रके समान

काम करने लगैंगे॥३६॥ सिन्धुनदीसे लेकर चन्द्रभागानदीके किनारेतक और कौंतीपुरी काश्मीर आदि सब देशोंमें शूद्र क्रियाहीन म्लेच्छप्राय वेदमर्यादारहित, तेजहीन राजा होंगे॥३७॥ हे राजन्! यह सब एकही कालमें म्लेच्छप्राय अधर्मी, असत्यपरायण, अल्पदाता, महाक्रोधी॥३८॥ स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मणको मारनेवाले, परनारी, पराये द्रव्यके, हरनेवाले उत्पन्न होंगे और मारैंगे, अल्पपराक्रम, अल्प आयुर्बलवाले होंगे॥३९॥ गर्भाधानआदिक संस्कारोंसे रहित, सन्ध्या तर्पणादि क्रियाओंसे हीन, रजोगुण, तमोगुणसे आवृत म्लेच्छ राजाओंका रूप धारण किये प्रजाको अनेक अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले होंगे॥४०॥ इन पालनेवाले राजाओंके सब देश उन राजाओंके भाव और

सिंधोस्तटं चंद्रभागां कौंतीं काश्मीरमंडलम्॥ भोक्ष्यंति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः॥३७॥ तुल्यकाला इमे राजन्म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः॥ एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः॥३८॥ स्त्रीवालगोद्विजघ्नाश्च परदार धनादृताः॥ उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः॥३९॥ असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृताः॥ प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः॥४०॥ तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः॥ अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यंति पीडिताः॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वाद० कलौ भाविनृपान्वय० प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया॥ कालेन बलिना राजन्नंक्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतीः॥१॥ वित्तमेव कलौ नृणां जन्माचारगुणोदयः॥ धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥२॥

आचरणको और अपवाद करनेवाले लोगोंको परस्पर क्लेशोंसे और राजाओंके लिये किये हुए दुष्ट कर्मोंसे दुःखी होकर क्षयको प्राप्त होंगे॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां राजवंशवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥दोहा — दुसरे जब कलिकालको, बढै दोष अत्यन्त॥ तब हरि कल्की रूपधर, मारहिं दुष्ट असन्त॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इसके उपरान्त फिर महाबलवान् कालके प्रभावसे दिनपर दिन धर्म, सत्य, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल, स्मरण आदि घटता चलाजायगा॥१॥ कलियुगके विषे जिस पुरुषके पास धन होगा, वही बलवान्, गुणनिधान, आचारवान् और बुद्धिवान् कहलावेगा और जो महाबलवान् होगा, वही धर्माध्यक्ष और न्यायशाली हो

सबको जीतैगा॥२॥ रीति प्रीति केवल एक स्त्री और पुत्रहीमें रहेगी और सहृद, मित्र, कुल, गोत्रादिकमें कपट व्यवहार रह जायगा स्त्री पुरुष होने में कुछ श्रेष्ठ कुल, आचार विचार न होगा केवल रति करनेमें कुशल देखलेंगे और ब्राह्मणपनमें केवल जनेऊ मात्रही रहजायगा॥३॥ आश्रम चिह्नमात्रही करके पहिचाने जायॅगे, परस्पर स्नेह कहीं नहीं रहेगा, धनहीन न्यायमें नित्य प्रति हारतेही रहा करैंगे, क्योंकि न्यायाध्यक्ष जबतक धनपात्रोसे द्रव्य पाते रहैंगे तबतक धनहीनको हरातेहीरहा करैंगे, और अधिक बोलनेवालेहीको लोग पण्डित कहैंगे॥४॥ निर्धनोंका नाम लोग असाधु रक्खैंगे। दम्भवान् और कपटीहीको लोग साधु कहैंगे, विवाह स्वीकार मात्रहांसमझा जायगा, और स्नानही सब शृंगार मात्र होगा॥५॥

दांपत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके॥ स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि॥३॥ लिंगमेवाश्रमख्याताव न्योऽन्यापत्तिकारणम्॥ अवृत्त्यां न्यायदौर्बल्यं पांडित्ये चापलं वचः॥४॥ अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु॥ स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्॥५॥ दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्ये केशधारणम्॥ उदरंभरिता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥६॥ दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोर्थं धर्मसेवनम्॥ एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिराकीर्णे क्षितिमंडले॥७॥ ब्रह्मविट्क्षत्त्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः॥ प्रजा हि लुब्धै राजन्यैर्निर्घृणैर्दस्युधर्मभिः॥८॥ आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यंति गिरिकाननम्॥ शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजनाः॥९॥

जो ताल वा सरोवर दूर होगा, वही तीर्थ माना जायगा, माता पिता और गुरुको कोई तीर्थ नहीं मानेंगे, सब शिरपर बाल रखना यही सुन्दरता कहावेगी, जैसे तैसे पेट भरलेना परम चतुरता और पराक्रम गिना जायगा, और ढीठ पुरुषही सत्यवादी कहलावेंगे॥६॥ कुटुम्बका उदरपूर्ण करनाही स्थानपन और चतुराईका मूल समझा जायगा धर्मका सेवन केवल इसीलिये किया जायगा जिससे संसारमें यश हो, इसप्रकार जब सर्वत्र भूमण्डल प्रजाओंसे व्याप्त होजायगा॥७॥ तत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इनमें जो बली होगा वही भूपाल कहा जायगा लोभी, निर्दयी, लुटेरोसे और राजाओसे॥८॥ अपना स्त्री, धन छीन लेनेके भयसे सब प्रजा भागकर पर्वतोंमें, वनोंमें जा छिपैगी और वहाँ शाक, कन्दमूल,

फल, मधु, मांस, पुष्प, बीज, इनसे अपना उदर पूर्ण करैगी॥९॥ अकाल और राजाओंके दण्डसे कष्टपाकर अनावृष्टि, शीत, वायु, धूप, वर्षा और हिमसे परस्पर अत्यन्त पीड़ित हो क्लेशपाकर सम्पूर्ण नष्ट होजायगा॥१०॥ भूख, प्यास, रोग, संताप और चिन्तासे प्रजा अत्यन्त पीड़ितहो जायगी और मनुष्योंकी पूर्ण अवस्था कलियुग में बीश २० अथवा तीस ३० वर्षकी हुआ करैगी॥११॥ जब कलियुगका महादोष बढेगा तब प्राणी तनु क्षीण और महामलीन होजायँगे॥१२॥ धर्मके बदलेमें पाखण्डही पाखण्ड रहजायगा, राजा लुटेरे होंगे, वृथा हिंसा और बातबातमें झूठ बोलकर नाना प्रकारकी वृत्तियोंको करैंगे और सदा बुरे कामों में निष्ठा रहैगी॥१३॥ सब वर्णाश्रम शूद्रके सदृश होजायेंगे और गायें

अनावृष्ट्या विनंक्ष्यंति दुर्भिक्षकरपीडिताः॥ शीतवातातपप्रावृड्ढिमैरन्योऽन्यतः प्रजाः॥१०॥ क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव संतापेन च चिंतया॥ त्रिंशद्विंशतिवर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम्॥११॥ क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः॥ वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम्॥१२॥ पाषंडप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु॥ चौर्यानृतवृथाहिंसानानावृत्तिषु वै नृषु॥१३॥ शूद्रप्रायेषु वर्णेषु छागप्रायासु धेनुषु॥ गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बंधुषु॥१४॥ अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु॥ विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु॥१५॥ इत्थं कलौ गतप्राये जने तु खरधर्मणि॥ धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति॥१६॥ चराचरगुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः॥ धर्मत्राणाय साधूनां जन्मकर्मापनुत्तये॥१७॥

बकरीके समान छोटी छोटी होंगी, चारों आश्रम गृहस्थप्राय होजायँगे और स्त्रीके भैयोंसे लोग प्यार करेंगे और घरको सम्बन्ध मात्र मानैंगे॥१४॥ अन्न और औषधिये सब क्षीण होजायँगी, केवल वृक्षोंमें प्रायः शमी के वृक्षही रहजायँगे, वर्षाकालमें बिजली अधिक चमकेगी वर्षा बहुत थोड़ी हुआ करैगी, गृहस्थियोंके घर धर्मकर्मसे शून्य होजायँगे॥१५॥ इसप्रकार कलियुगमें सब मनुष्य अधर्मी हो गधेके समान होजायँगे और महाभयंकर कलियुगके अंतका समय आवेगा, तब धर्मकी रक्षा करनेके लिये आदि पुरुष भगवान् शुद्ध सतोगुणमूर्ति धारण करके निष्कलंक रूपसे प्रगट होंगे॥१६॥ चराचरके गुरु सबके आत्मा ईश्वर विष्णुका अवतार महात्मा पुरुषोंके धर्मकी रक्षा और उनके कर्मोंके

प्रचारके लिये होगा॥१७॥ शंभग्राममें रहनेवाले विष्णुयशा ब्राह्मणके घरमें (चैत्रशुक्ला द्वादशीको) विष्णु भगवान् कल्किअवतार धारण करेंगे शीघ्रगामी देवदत्त नाम घोड़ेपर चढ़कर खड्ग हाथमें ले दुष्टोके दमनकर्त्ता अणिमादिक अष्टसिद्धियोंसे संयुक्त॥१८॥१९॥ जगदीश्वर भगवान् अनुपम कान्तिवाले महातेजस्वी कल्किरूपसे राजाओंकेसा वेष धारण किये उस घोडेपर चढ़ करोडों चोरोंका विध्वंस करैंगे॥२०॥ जब सब चोरोंका संहार होजायगा, तब देश, देशान्तरके मनुष्योंके अतिपुण्यरूप सुगन्धयुक्त पवनके लगनेसे उन मनुष्योंके मन उज्ज्वल होजायँगे॥

शंभलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः॥ भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥१८॥ अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः॥ असिनाऽसाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥१९॥ विचरन्नाशुना क्षोण्यां हये नाप्रतिभद्युतिः॥ नृपलिंगच्छदो दस्यून्कोटिशो निहनिष्यति॥२०॥ अथ तेषां भविष्यंति मनांसि विशदानि वै॥ वासुदेवांगरागातिपुण्यगंधानिलस्पृशाम्॥ पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु॥२१॥ तेषां प्रजाविसर्गश्च। स्थविष्ठः संभविष्यति॥ वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौहृदि स्थिते॥२२॥ यदाऽवतीर्णो भगवान्कल्किर्धर्मपतिर्हरिः॥ कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी॥२३॥ यदा चंद्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती॥ एकाराशौ समेष्यंति तदा भवति तत्कृतम्॥२४॥ येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यंति च पार्थिवाः॥ ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः॥२५॥ आरभ्य भवतो जन्म यावन्नंदाऽभिषेचनम्॥ एतद्वर्षसहस्रं तु शतं पंचदशोत्तरम्॥२६॥

॥२१॥ और उन नगरनिवासियोंके हृदयमें शुद्ध चैन्य सत्त्वमूर्त्ति भगवान् वासुदेव स्थित होंगे, तब उन प्रजानके पुत्रादिक उत्तम और पुष्ट होंगे॥२२॥ जब धर्मके पालनेवाले कल्किभगवान् प्रगट होंगे तब सतयुग वर्त्तनेलगेगा और प्रजाकी सन्तान सत्विकी होगी॥२३॥ जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति यह सब पुष्यनक्षत्रके योग करके एक राशिमें आवैंगे तब सतयुग होगा॥२४॥ जो चन्द्रवंशी और सूर्यवंशी राजा होचुकेहैं और जो ससमय विद्यमान हैं और जो आगेको होंगे, उन सबके नाम संक्षेपसे भिन्न भिन्न मैंने आपको सुनाये॥२५॥ तुम्हारे जन्मसे लेकर नन्दके

राज्यतक पन्द्रहसौ दश (१५१०) वर्ष बीतगये॥२६॥ आकाशमें सप्त ऋषियोंके मध्य जो दो तारे पुलह और ऋतु, उदयकालके पहिले दीखते हैं, उन दोनोके मध्य में रात्रिके समय उन दोनोंके समान एक नक्षत्र देखनेमें आता है॥२७॥ वह अरुंधतीके नक्षत्रसहित सप्तऋषि मनुष्योंके सौ (१००) वर्षतक प्रत्येक नक्षत्रपर रहा करते हैं, अर्थात् जैसे चन्द्रमा एक नक्षत्रपर एक दिवस रहता है, इसीप्रकार सप्त ऋषि मनुष्योंके सौ १०० वर्षके अनुमान एक नक्षत्रपर रहते हैं, सो यह सप्तऋषि तुम्हारे जन्मके समय मघा नक्षत्रपर थे और इससमय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं॥२८॥ कलियुगके आनेका समय ठीक ठीक इस प्रकार निश्चय कियाहै कि, जब महातेजस्वी शुद्ध सत्यमूर्ति श्रीकृष्ण

सप्तर्षीणां तु यौपूर्वौदृश्येते उदितौ दिवि॥ तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि॥२७॥ तेनैव ऋषयो युक्ता स्तिष्ठंत्यब्दशतानि च॥ ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः॥२८॥ विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः॥ तदाऽविशत्कलिर्लोकं पापे यद्रमते जनः॥२९॥ यावत्स पादपद्माभ्यां स्पृशन्नास्ते रमापतिः॥ तावत्कलिर्वै पृथिवीं पराक्रांतुं न चाशकत्॥३०॥ यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरंति हि॥ तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्दशतात्मकः॥३१॥ यदा मघाभ्यो यास्यंति पूर्वाषाढां महर्षयः॥ तदा नंदात्प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति॥३२॥ यस्मिन्कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि॥ प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥३३॥

भगवान् अपने परमधामको सिधारे, उसीसमय कलियुगने इसलोकमें अपना प्रवेश किया, जिस कलियुगके आतेही मनुष्योंके मनकी पापमें रुचिहुई॥२९॥ हे राजन्! जबतक रमापति भगवान् अपने चरणारविन्दोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते और इसपर विराजमान रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना कुछ कर्तव्य न करसका॥३०॥ जबसे मघा नक्षत्रमें सप्तऋपि वर्ते हैं, तबहींसे कलियुग प्रवृत्त होकर देवताओं के बारह सौ १२०० वर्षतक कलियुग रहता है॥३१॥ जब सप्तऋषि मघानक्षत्र मे निकले पूर्वाषाढा नक्षत्रपर जायँगे, तब नन्दका राज्य वर्त्तेगा और उसी नन्दके राज्यसे कलियुगका अत्यन्त प्रताप बढैगा॥३२॥ जिसदिनसे जिस मुहूर्त्तसे जिस क्षणसे श्रीकृष्ण भगवान् अपने परम

धामको सिधारे उसी दिन और उसीसमय कलियुगने इस लोकमें अपना प्रवेश किया, ऐसे भूतकालके जाननेवाले ऋषि लोग कहतेहैं॥३३॥ जब देवताओंके एक सहस्र १००० वर्ष व्यतीत होजायॅगे जो कलियुगका प्रमाण है, फिर पीछे सतयुगका प्रवेश होगा और सतयुगके आनेका यही लक्षण दिखाई देगा कि, मनुष्योंके मनमें आपसे आप आत्माका प्रकाश होजायगा॥३४॥ हे राजन्! जिसप्रकार पृथ्वीपर मनुका वंश हुआ और आपसे कहा, उसीप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रोंका वंश युग युगमें जाननेको योग्य है॥३५॥ जो आजतक नाममात्रसेही जानेजाते हैं, उन जाननेवालोंकी केवल कथामात्रही कहनेको रहगई है; ऐसे महात्मा पुरुषोंकी कीर्त्तिही संसारमें आजतक चली जाती है, वह लोग पृथ्वी

दिव्याब्दानां सहस्रांते चतुर्थे तु पुनः कृतम्॥ भविष्यति यदा नृृणां मन आत्मप्रकाशकम्॥३४॥ इत्येष मानवो वंशो यथा संख्यायते भुवि॥ तथा विट्छूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगेयुगे॥३५॥ एतेषां नामलिंगानां पुरुषाणां महात्मनाम्॥ कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरेव स्थिता भुवि॥३६॥ देवापिः शंतनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः॥ कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ॥३७॥ ताविहैत्य कलेरंते वासुदेवानुशिक्षितौ॥ वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत्प्रथयिष्यतः॥३८॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्॥ अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्त्तते॥३९॥ राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथाऽपरे॥ भूमौ ममत्वं कृत्वांते हित्वेमां निधनं गताः॥४०॥

पर न रहे इसलिये प्राणियोंको चाहिये कि, राज्य और पुत्रादिककी मोह ममताको त्यागकर अपने धर्म कर्ममें तत्पर रहें॥३६॥ चन्द्रवंशी शन्तनुका भ्राता, देवापी और इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुआ सूर्यवंशी राजा मरु यह दोनों राजा अत्यन्त योगबलके प्रतापसे कलापग्राममें वास करते हैं॥३७॥ यह दोनों राजा कलियुगके अन्तमें भगवान्की शिक्षा पाकर पहिलेके समान सब वर्णाश्रमके धर्मोंका विस्तार करैंगे॥३८॥ सत युग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, यह चारों युग इस क्रमसे पृथ्वीपर मनुष्योंके विषे वर्त्तते रहते हैं॥३९॥ हे राजन्! यह जो राजा मैंने आपके आगे वर्णन किये, और इनके सिवाय और भी जो हुए, सो सब इस भूमिमें ममता करके और भूमिको यहीं छोड़कर आप रीते हाथों नाशको प्राप्त हुए॥४०॥

जिस देहका नाम राजाथा उस देहको अन्त समय कृमि, विष्ठा, राख, यह नाम होते हैं, ऐसे शरीरसे जो कोई शरीरधारी दूसरेसे द्रोह करते हैं, उनका कौनसा स्वार्थ सिद्ध होताहै? नरकमें वास करने के सिवाय कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता॥४१॥ किसप्रकार इस महाअखण्ड भूमिके हमारे पुरुषाओंने पालीथी और अब किसप्रकार हमारे पुत्र पौत्रके पास और हमारे वंशजोंके पास स्थिर रहैंगी?॥४२॥ वह मूर्खलोग पंचभूतमय इस देहको अपना मानकर भूमिसे ममता करके अन्तसमय दोनोंको छोड़कर आप अकेले चलेगये॥४३॥ हे राजन् ! जो जो भूपति हुए वे सब अपने पराक्रमसे भूमिका भोग करते रहे, इस महाविकराल कालने उन सबकी कथामात्रही कहनेको रक्खी॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे

कृमिविड्भस्मसंज्ञाऽन्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च॥ भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थंकिं वेद निरयो यतः॥४१॥ कथं सेयमखंडा भूः पूर्वैर्मेपुरुषैर्धृता॥ मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य च॥४२॥ तेजोऽवन्नमयं कायं गृहीत्वात्मतयाऽबुधाः॥ महीं ममतया चोभौ हित्वांतेऽदर्शनं गताः॥४३॥ येये भूपतयो राजन्भुंजंति भुवमोजसा॥ कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वा० कल्क्यवतारादि० द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान्नृपान्हसति भूरियम्॥ अहो मां विजिगीषंति मृत्योः क्रीडनका नृपाः॥१॥ काम एष नरेन्द्राणां मोहः स्याद्विदुषामपि॥ येन फेनोपमे पिंडे येऽतिविश्रंभिता नृपाः॥२॥ पूर्वंनिर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमंत्रिणः॥ ततः सचिवपौराप्तकरींद्रानस्य कंटकान्॥३॥

भाषाटीकायां कल्क्यवतारवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा — तिसरेमें वसुधा वचन, राज्यदोष गुणग्राम॥ कुल कलंक कलिकालके, मेटन हरिका नाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! यह पृथ्वी अपने जीतनेका परिश्रम करते हुए राजाओंको देखकर अपने मनही मनमें ठट्ठे मार मारकर हँसती है कि, अहो ! यह सब मृत्युके खिलौने राजा मुझको जीतना चाहते हैं, यह नहीं जानते कि, हमसे अनन्त राजा मरमरकर खपगये॥१॥ जिस कामनाने बुद्धुदेके समान इस देहके विपे जिन राजाओंको विश्वास उपजाया, उन राजाओंकीभी कामना निष्फल है॥२॥ मुख्य तो राजाओंका यह विचार है कि, पहले तो पाॅचो इंद्रिय और छटे मनको जीतकर, पीछे मंत्री, प्रधान, सचिव, पुरवासी और कुटुम्बादिक

अपने वशमें करके शत्रुओंकी जडको उखाडे, महाव्रत और कटककी ओरसे बेखटकहो राज्य करैंगे॥३॥ और इस रीतिसे समुद्रतककी भूमिको जीतैंगे। इसप्रकार आशावेष्टित हृदयवाले सब अपने २ निकट रात दिन डंका बजानेवाले कालका कुछ ध्यान नहीं करते॥४॥ अनेक राजा तो समुद्रके पारतक मुझको अपने पुरुषार्थसे जीतकर अत्यन्त तृष्णासे समुद्रके देशोंमें (द्वीपोंमें)भी प्रवेश करते हैं, इन्द्रिय और मनके जीतनेपर राज्य साधनेकी इच्छा करनी मूर्खता है और आत्मजयका फल तो एक मुक्तिही है॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! वसुधा कहती है कि, देखो! जो मुझको छोड़कर मनु और मनुकी सन्तान मेरे ऊपर जैसे आये वैसेही हाथ पसारे चलेगये, ऐसी मुझ

एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम्॥ इत्याशाबद्धहृदया न पश्यंत्यंतिकेंतकम्॥४॥ समुद्रावरणां जित्वा मां विशंत्यब्धिमोजसा॥ कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम्॥५॥ यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च कुरूद्वह॥ गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यंत्यबुद्धयः॥६॥ मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातॄणां चापि विग्रहः॥ जायते ह्यसतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम्॥७॥ ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः॥ स्पर्धमाना मिथो घ्नंति म्रियंते मत्कृते नृपाः॥८॥ पृथुः पुरूरवा गाधिर्नहुषो भरतोऽर्जुनः॥ मांधाता सगरो रामः खट्वांगो धुंधुहा रघुः॥९॥ तृणविंद्धूर्ययातिश्च शर्यातिः शंतनुर्गयः॥ भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः॥१०॥ हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः॥ नमुचिः शंबरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः॥११॥

अचलाको यह कुबुद्धी राजा युद्धमें जीतना चाहते हैं॥६॥ देखो! राज्यकी ममतामें बँधेहुए असत् राजा मेरेलिये पिता, पुत्र, भ्राता यह सब परस्पर भी केश करते हैं॥७॥ हे मूढ़! यह वसुधा मेरी है, इसमें तेरी किंचिन्मात्र भी नहीं है, यह कहते कहते और परस्पर स्पर्द्धा करते २ मेरे लिये अनेक राजा युद्धही करते करते मरगये॥८॥ पृथु, पुरुवा, गाधि, नहुष, भरत, अर्जुन, मांधाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु॥९॥ तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलायाश्व, ककुत्स्थ, नैषध, नृग॥१०॥ हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, रावण, नमुचि, शम्बर, नरकासुर,

हिरण्याक्ष, तारक॥११॥ ऐसे ऐसे अनेक दैत्य और राजा जो कि, बड़े बड़े बलवान् और सर्वगुण निधान, योद्धाओंके पराजय करनेवाले, जिन्होंने कहीं भी हार नहीं मानी, सबही अजीत होगये॥१२॥ सो सब मरणधर्मा मेरे विषे अत्यन्त ममता करके वर्त्ततेथे सो सब विनाही मनोरथ पूर्ण किये कालके गालमें चले गये॥१३॥ और सबकी एक कथाही मात्र रहगई। हे समर्थ ! इसप्रकार पृथ्वीने हॅसकर कहा कि, हे विभो ! लोकोंमें यश विस्तार करके आप तो परलोकको चलेगये। ऐसे बडे बडे राजाओंकी कथा मैंने तुमसे कही, सो केवल विषयोंकी असारता और विज्ञान और वैराग्यका निरूपणकरनेके लिये सो इसमें केवल वाणीका विलास है, कुछ परमार्थ नहीं॥१४॥ जिस अमंगलके दूर करनेवाले उत्तमश्लोक भगवान् के गुणोंको कवीश्वर लोग सदा

अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः॥ सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः॥१२॥ ममतां मय्यवर्त्तंत कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः॥ कथावशेषाः कालेन हाकृतार्थाः कृता विभो॥१३॥ कथा इमास्ते कथिता महीयसां विताय लोकेषु यशः परेयुषाम्॥ विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो वचोविभूतीर्नतु पारमार्थ्यम्॥१४॥ यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः संगीयतेऽभीक्ष्णममंगलघ्नः॥ तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः॥१५॥ राजोवाच॥ केनोपायेन भगवन्कलैर्दोषान्कलौ जनाः॥ विधमिष्यंत्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने॥१६॥ युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः॥ कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ कृते प्रवर्त्तते धर्मश्चतुष्पात्तैर्जनैर्धृतः॥ सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप॥१८॥ संतुष्टाः करुणा मैत्राः शांता दांतास्तितिक्षवः॥ आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः॥१९॥

गाते हैं, जो कोई श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकी निर्मल भक्तिको चाहैसो निरन्तर उन गुणोंको सुनै॥१५॥ राजा परीक्षित बोले कि, हे भगवन्! हे महामुने! कलियुगके बड़े बड़े दोषोंको कलियुगके मनुष्य कौनसे उपायसे दूरकरसक्ते हैं? सो तुम हमसे कहो॥१६॥ पहले तो युगोंके धर्मका और प्रलयकल्प का प्रमाण कहो? फिर महात्मा कालरूप विष्णुभगवान्‌ की गति कहो?॥१७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नरेंद्र! सतयुगमें मनुष्योंका धर्म चार चरण करके वर्त्तेहै, एक तो सत्य, दूसरी दया, तीसरा तप, चौथा दान यह धर्मके चार चरणहैं॥१८॥ सतयुगके मनुष्य सन्तोषी करुणावान् सब प्रेम प्रीति

रखनेवाले, शांतचित्त, जितेन्द्रिय, सहनशील, आत्माराम, समदृष्टि और परमार्थमें निरालस्य युक्त और परिश्रमी होतेहैं॥१९॥ त्रेतायुगके विषे झूठ, हिंसा, तृष्णा, विग्रह इन चार अधर्मके चरणोंसे सत्य, दया, तप, दान, यह धर्मके चरण हैं, इनमेंसे धीरे धीरे चौथा भाग क्षीण होता जाता है॥२०॥ हे राजन्! क्रिया तपमें निपुण न तो अतिहिंसक और न अत्यन्त लम्पट, धर्म, अर्थ, काममें निष्ठा वेदत्रयी, धर्मपरायण ब्राह्मण वर्ण जिनमें मुख्य त्रेतायुगकी प्रजा होती है॥२१॥ द्वापरयुगमें अधैर्य, हिंसा, झूंठ बोलना और द्रोह इन धर्मके चार चरणोंसे दया, तप, सत्य, दान यह धर्म पाँय आधे २ घटगये॥२२॥ इससे द्वापरयुगमें यशस्वी, बडे शीलवान्, वेदाध्ययनमें निपुण, अतिऐश्वर्यवाले कुटुंबी, प्रसन्नमुख, ब्राह्मण और क्षत्त्रिय चारों

त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः॥ अधर्मपादैरनृतहिंसाऽसंतोषविग्रहैः॥२०॥ तदा क्रियातपोनिष्ठा नाति हिंस्रान लंपटाः॥ त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप॥२१॥ तपःसत्यदयादानेष्वर्धं ह्रसति द्वापरे॥ हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणैः॥२२॥ यशस्विनो महाशीलाः स्वाध्यायाध्ययने रताः॥ आढ्याः कुटुंबिनो हृष्टाः वर्णाः क्षत्त्रद्विजोत्तराः॥२३॥ कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः॥ एधमानैः क्षीयमाणो ह्यंते सोपि विनंक्ष्यति॥२४॥ तस्मिल्लुॅब्धादुराचारा निदयाः शुष्कवैरिणः॥ दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तराः प्रजाः॥२५॥ सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यंते पुरुषे गुणाः॥ कालसंचोदितास्ते वै परिवर्त्तंत आत्मनि॥२६॥ प्रभवंति यदा सत्त्वे मनोबुद्धींद्रियाणि च॥ तदा कृतयुगं विद्याज्ज्ञाने तपसि यदुचिः॥२७॥ यदा कार्मसु काम्येषु भक्तिर्भवति देहिनाम्॥ तदा त्रेता रजोवृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन्॥२८॥

वर्णोंमें मुख्य मानेजायॅगे॥२३॥ कलियुगमें जब अधर्मकी वृद्धि होगी तब धर्मका एक चरण रहजायगा सोभी शनैः शनैः करके अंतमें नष्ट होजा यगा॥२४॥ कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी, निर्दयी, झूठी लडाई करनेवाले, दुर्भागी, अत्यन्त तृष्णावाले, शूद्र और दास जिनमें मुख्य माने जायॅगे॥२५॥ सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण यह तीनों गुण ईश्वरके आधीन हैं, काल करके प्रेरित हैं प्राणियों में सदा फिरते दिखाई देते हैं॥२६॥ जब मन, बुद्धि और इंद्रिय सतोगुणमें स्थित होयॅ तब सतयुग समझना चाहिये कि, जिस सतयुगके प्रभावसे ज्ञानमें रुचि होती है॥२७॥ हे बुद्धिमान्

नृप! जब प्राणियोंकी रुचि सकाम कर्मोंमें होय तब रजोगुणयुक्त त्रेतायुग जानिये॥२८॥ जब लोभ, तृष्णा, अभिमान, दम्भ, मत्सरता और काम्य कर्ममें प्रवृत्ति होय तब रजोगुण उत्पन्न करनेवाला मुख्य द्वापर युग समझना चाहिये॥२९॥ जब मनुष्योंके मनमें कपट, झूंठ, आलस्य, निद्रा हिंसा, दुःख, शोक, मोह, भय, दीनता होय, तब तमोगुणका प्रगट करनेवाला मुख्य कलियुग जानिये॥३०॥ सो प्राणी कलियुगके हेतुको पाकर मन्दबुद्धि भाग्यहीन बहुत भोजन करनेवाले कामी और निर्धन होंगे और स्त्री असाध्वी और व्यभिचारिणी होंगी॥३१॥ देश देशान्तरोमें चोरोंका बडा भय होगा वेद पाखण्डसे अत्यन्त दूषित होंगे। राजा प्रजाके लूटनेवाले होंगे, ब्राह्मण स्त्रीलम्पट उदरपरायण होंगे॥३२॥ ब्रह्म

यदा लोभस्त्वसंतोषो मानो दंभोऽथ मत्सरः॥ कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद्रजस्तमः॥२९॥ यदा मायानृतं तंद्रा निद्रा हिंसा विषादनम्॥ शोको मोहो भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥३०॥ यस्मात्क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः॥ कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥३१॥ दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषंडदूषिताः॥ राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥३२॥ अव्रता बटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुंबिनः॥ तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनो ह्यर्थलोलुपाः॥३३॥ ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः॥ शश्वत्कटुकभाषिण्यश्चौर्यमायोरुसाहसाः॥३४॥ पणयिष्यंति वै क्षुद्राः किरीटाः कूटकारिणः॥ अनापद्यपि मंस्यंते वार्तां साधु जुगुप्सिताम्॥३५॥ पतिं त्यक्ष्यंति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम्॥ भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥ ३६॥

चारी व्रत आचार भ्रष्ट होंगे, गृहस्थ भिखारी होंगे, तपस्वी ग्रामवासी होंगे संन्यासी द्रव्यके लोभी होंगे॥३३॥ कलियुगकी नारी अत्यन्त ठिंगनी और बहुत भोजन करनेवाली काली काली, बहुत सन्तान उपजानेवाली, महानिर्लज्ज, सदा कटुक वचन बोलनेवाली चोर, ढीठ, कपटकी भरी हुई अनेक प्रकारकी मायादिखानेवाली होंगी॥३४॥ तुच्छ किरातादि कपटी, दुराचारी, म्लेच्छव्यापारी होंगे, आपदा विनाही सब लोक निन्दित जीविकाको श्रेष्ठ समझेंगे जिस वृत्तिको सत्पुरुष स्वप्नमें भी धिक्कार करतेथे॥३५॥ धनहीन उत्तम पतिको भी स्त्री त्यागदेगी, और अपने

स्वामियोंकी नौकरी छोडकर भृत्य औरोंकी नौकरी करैंगे और नौकर रोगी होजायँगे तो स्वामी लोभके मारे नौकरीसे छुटा देंगे, विनादूधकी गायोंको लोग म्लेच्छोंके हाथ बेंचडालेंगे॥३६॥ पिता, भ्राता, सुहृद और जातिवालोंको छोडकर स्त्रीके सम्बन्धियोंसे प्यार करेंगे और स्त्रीकी बहिन

पितृभ्रातृसुहृज्ज्ञातीन्हित्वा सौरतसौहृदाः॥ ननांदृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥३७॥

(साली) स्त्रीका भ्राता (शाला) और उसकी स्त्री (सलेहज) के साथ गुप्त मतिकी बातैंकरैंगे, दीन स्त्री और लम्पट नर कलिमें होंगे; *॥३७॥

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* लावनी - धनिकलियुग महाराज आपने लीला अजब दिखाई है। उलटा चलन चला दुनियामें सबकी मति बौराई है॥ नीति पंथ उठगया कचहरी पापन आन लगाई है। धर्म गया पाताल सबके मनमें बेधरमी छाई है॥ गुप्त हुए सच्चे वकील झुठोंकी बात सवाई है। सच्चोंकी परतीति नहीं झूठोंने सनद बनाई है॥ न्याय छोड अन्याय करैं राजोंने नीति गँवाई है। हकदारोंका इकमेट बेहक पर कलम उठाई है। जो जाली फरेबवाले उनकीही बनिआई है। उलटा चलन चला दुनियामे सबकी मति बौराई है॥१॥ गूजर जाट बने संन्यासी पोथी बगल दबाई है। मूँड मुँडाकर इक घेलेमें कफनी लाल रँगाई है॥पन्थचले लाखों पाखण्डी अद्भुत कथा बनाई है॥ मुँह काला कर लिया किसीने शिरपर जटा रखाई है॥ हुए नीच कुरसी नसीन ऊँचोंको नही तिपाई है। जुगुनू पहुँचे आसमान पर जाकर दुम चमकाई है॥ फाके करते सत मिलें भड्डुओं को दूध भलाई है। उलटा चलन चला दुनियां में सबकी मति बौराई है॥२॥ सास बहूसे लडै बहू भी आँख फेर झुँझलाई है। लेकर मूसल हाथ कोस्ती दाँत पीस उठधाई है॥ खालेको छोड़ स्त्री कुलकी लाज गँवाई है। निजपतिकी सेवा तजकर परपतिसे प्रीति लगाई है। पुरुष हुए ऐसे व्यभिचारी विषय वासना छाई है। वेश्याओंके फन्देमे पड घरकी तजी लुगाई है। मात पिताकी करैंबुराई नारि परमसुखदाई है॥ उलटा चलन चला दुनियामें सबकी मतिबौराई है॥३॥ व्याह बुढापेमें जो करते उनपर गजन खुदाई है। साठ बरसके आप करी कन्याके सग सगाई है। कुछ दिन पीछे आप मरगये करके राँड बिठाई है। लगी करने व्यभिचार स्त्री घर घर लोग हँसाई है। पण्डित पाधा करैंदलाली मंत्री जिनका नाई है। शर्म रही नहि वेशमौंको बेटी बेचकर खाई है। बहन भानजी त्यागन करके साली न्योति जिमाई है। उलटा चलन चला दुनियाँका सबकी मति बौराई है॥४॥ गंगाजल गोरसको छोडकर गाढी भाँग छनाई है। भक्ष्य अभक्ष्य लगे खाने मदिराकी होति छकाई है॥ श्वशुर बहूको कुदृष्टि देखैअपनी नियत डुलाई है। ठट्टा अरु मसखरी करै सासुसे ज्वान जमाई है। कहै भतीजा चचासे अपने तू मूरख सौदाई है। हमैं चैन करनेसे मतलब किसकी चाची ताई है॥ बहिन बहिनसे लडै और लड़ता भाईसे भाई है। उलटा चलन चला दुनियांमें सबकी मतिबौराई है॥५॥ जामा अंगा दिया त्याग अरु पगडी फाड बहाई है। पहन कोट पतलून शीशपर टापी गोल जमाई है। तोड तख्त अरु सिंहासनको लाके वञ्च बिछाई है। खीर खाँडको त्यागन करके रोष्टीडबल पकाई है॥ तोडके ठाकुरद्वारा मसजित सबकी करी सफाई है। गिरजाघरमें जाकरके ईसाकी करी बडाई है। बात करें सभ अंगरेजी में निज भाषा बिसराई है। उलटा चलन चला दुनियाँका सबकी मति बौराई है॥६॥ मित्र शत्रुसम हुए प्रीति की डाली तोड जलाई है। विद्याहीन होगये विप्र गायत्री तलक भुलाई है। क्षत्रिय बैठे नारी बनकर ले तरवार छिपाई है॥ बन आई ना कुछ बनियासे

शूद्र तपस्वियोंका वेष धारण करके जीविका करैंगे और प्रतिग्रह लेंगे और अधर्मी लोग ऊँचे आसनोंपर बैठकर अपने धर्मका उपदेश करेंगे॥३८॥ हे राजन्! जब पृथ्वी अन्नहीन होजायगी तब प्राणी अनावृष्टिके भय से अत्यन्त पीडित और सदा दुर्भिक्ष और राजाओंके करसे केशवान् और अत्यन्त व्याकुल होजायँगे॥३९॥ और वसन, भूषण, खान, पान, स्नान, शयन, मैथुन आदिसुखोंसे हीन पिशाचसे दिखाई देंगे, सब प्रजा

शूद्राः प्रतिग्रहीष्यंति तपोवेषोपजीविनः॥ धर्मं वक्ष्यत्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥३८॥ नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरपीडिताः॥ निरन्ने भूतले राजन्ननावृष्टिभयातुराः॥३९॥ वासोन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः॥ हीनाः पिशाचसंदर्शा भविष्यंति कलौ प्रजाः॥४०॥ कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः॥ त्यक्ष्यंति च प्रियान्प्राणान्हनिष्यंति स्वकानपि॥४१॥ न रक्षिष्यंति मनुजाः स्थविरौपितरावपि॥ पुत्रान्सर्वार्थकुशलान्क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः॥४२॥ कलौ न राजञ्जगतां परं गुरुं त्रैलोक्यनाथानतपादपंकजम्॥ प्रायेण मर्त्या भगवंतमच्युतं यक्ष्यंति पाषंडविभिन्नचेतसः॥४३॥

कलियुगमें इस प्रकार होजायगी॥४०॥ कलियुगमें बीसकौड़ियोंके लिये मित्रता छोडकर परस्पर लड़ैंगे और उसीको धन समझकर मरने मारनेको उपस्थित होंगे॥४१॥ और अपने माता पिताका पालन नहीं करैंगे, सब अर्थोंसे निपुण पुत्रकी भी रक्षा न करैंगे, केवल स्त्रीसंग और उदर पूर्ण करके, सब प्रजा क्षुद्र होजायगी॥४२॥ हे महाराज ! सब सृष्टिके परमगुरु और त्रिभुवनके पति जिनके चरणकमलको ब्रह्मादिक देवता नित्य

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माया मुफ्त लुटाई है॥ शूद्र हुए धनवान ब्राह्मणोंने कीन्ही स्योकाई है। गयाबाल और मथुराके चौवोंकी बात बन आई है। चारों युगोंसे कलिने अपनी नई रीति दिखलाई है। उलटा चलन चला दुनियाँमें सबकी मति बौराई है॥७॥ अपूज पुजने लगे कहैंसब शिरपर देवी आई है। घर घरमें गुल गुले शेख सद्दोंकी चढी कढाई है॥ परब्रह्मको छोड भूत प्रेतोंकी दई दुहाई है। मूँड हिलाती कहीं मलनियां कहै कुसुम्भी माईहै। बालभोग ठाकुरको नही सय्यदके लिये मिठाई है। सन्तको कम्मल नहीं पतुरियाको कुरती सिलवाई है॥ गुरु हरै चेलोंका धन चेला करता चतुराई है। उलटा चलन चला दुनियांमें सबकी मति बौराई है॥८॥ विधवा लग गईं पान चबाने दें सुर्मा मुसकाई है। नित करती शृंगार देखकर अहिवाती शरमाई है॥ बैठे ज्वारी और अगामी हुआ जगत अन्यायी है। सब लक्षण विपरीत और घरघरमें होत लडाई है॥ गायजायँ लाखों मारी करता नहि कोइ सुनाई है। इसीसे पडता काल सृष्टिमें संपति सकल बिलाई है। हो दयालु हे नाथ आज कलियुगकी महिमा गाई है। उलटा चलन चला दुनियाँमें सबकी मति बौराई है॥९॥

प्रति नमस्कार करते हैं; ऐसे जगदीश्वर भगवान् अच्युतको कलियुगमें मनुष्य पाखण्डोंसे दूषित हो बहुधा पूजन न करैंगे, कभी रामनवमी, नृसिंह चौदश, जन्माष्टमीको भगवान्की पूजा करलिया करैंगे॥४३॥ वा जब मरण समय आतुर होकर अथवा ऊँचेसे गिरकर वा मार्गमें रपटनेके समय विवश होकर कहेंगे कि, हे भगवन्! परन्तु नाम लेतेही वह मनुष्य कर्मबन्धसे छूटकर परम गतिको प्राप्त होंगे, परन्तु तो भी उन भगवान्काकलियुगमें लोग पूजन नहीं करैंगे॥४४॥ हे राजन्! अब कलिकालके सम्पूर्ण दोषोके दूर करनेका उपाय आपके सामने वर्णन करता हूं, आप अवधान होकर सुनिये, द्रव्य देश शरीरसे उत्पन्न हुए कलियुगके सब दोषोंको पुरुषोत्तम भगवान् मनुष्यके चित्तमें स्थित होकर

हरलेते हैं॥४५॥ जो प्राणी परमेश्वरका श्रवण, कीर्तन, ध्यान और सत्कार करते हैं, भगवान् उन पुरुषोके हृदयमें स्थित होकर

यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः पतन्स्खलन्वा विवशो गृणन्पुमान्॥ विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं प्राप्नोति यक्ष्यंति न तं कलौ जनाः॥४४॥ पुंसां कलिकृतान्दोषान्द्रव्यदेशात्मसंभवान्॥ सर्वान्हरति चित्तस्थो भगवान्पुरुषोत्तमः॥४५॥ श्रुतः संकीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोपि वा॥ नृणां धुनोति भगवान्हृत्स्थो जन्मायुताशुभम्॥४६॥ यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हंति धातुजम्॥ एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशुभम्॥४७॥ विद्यातपः प्राणनिरोधमैत्रीतीर्थाभिषेकव्रतदानजप्यैः॥ नात्यंतशुद्धिं लभतेन्तरात्मा यथा हृदिस्थे भगवत्यनंते॥४८॥ तस्मात्सर्वात्मना राजन्हृदिस्थं कुरु केशवम्॥ म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम्॥४९॥

दशसहस्र जन्मके पापोंको दूर करदेतेहैं॥४६॥ जैसे सुवर्ण अग्निसे तप्त होकर और सब धातुओंके मिलेहुए मलिनपनको दूर करदेता है, ऐसेही विष्णु भगवान् हृदयमें स्थित होकर सब अशुभवासनाओंको कलियुगमें दूर करैंगे॥४७॥ विद्या अर्थात् आनदेवकी उपासना, तप, प्राणायाम, मित्रता, तीर्थस्नान, व्रत, दान, जप आदिकके करनेसे जैसा मन शुद्ध होता है वैसाही अत्यन्त भगवन् जब हृदयमें वास करैं तब शुद्ध होता है॥४८॥ इस लिये हे राजन्! आपका मरणसमय निकट आगया है अब तुम सब प्रकारसे सावधान हो वासुदेव भगवान्काहृदयमें ध्यान धरो, तब तुम परमग

तिको प्राप्त होओगे॥४९॥ हे राजन्! मनुष्यको चाहिये कि, जिसकी मृत्यु निकट आजाय, वह सर्वाश्रय सर्वात्मा, सर्वेश्वर भगवान्का ध्यान करनेसे आदिपुरुष अविनाशी परमत्माके विषे लय होजाताहै॥५०॥ हे राजन्! यह महाघोर कलियुग अनेक दोषोंकी खानि है परन्तु इसमेंभी एक गुण बड़ा भारी है कि, इस युगमें केवल परमेश्वरके कीर्त्तन करनेहीसे मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनोंसे छूटकर कृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके परमधामको चलाजाताहै॥५१॥ सतयुगमें विष्णु भगवान्के ध्यान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, त्रेतामें यज्ञोंके करनेसे जो फल होता है, द्वापरमें परिचर्या करनेसे जो फल होता है वह सब फल कलियुग में केवल हरिके कीर्तनही करनेसे प्राप्त होजातेहैं,॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कंधे भाषाटीकायां कलियुगदोषगुणवर्णनो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा — नैमित्तिक प्राकृतिक अरु, आत्यन्तिक औ नित्य। चौथे चार प्रकारके,

म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान्परमेश्वरः॥ आत्मभावं नयत्यंग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः॥५०॥ कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः॥ कीर्त्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥५१॥ कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः॥ द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्त्तनात्॥५२॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादश० कलिदोषादिव० तृतीयोऽध्यायः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कालस्ते परमाण्वादिर्द्विपरार्द्धावधिर्नृप॥ कथितो युगमानं च शृणु कल्पलयावपि॥१॥ चतुर्युग सहस्रं च ब्रह्मणो दिनमुच्यते॥ स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशांपते॥२॥ तदंते प्रलयस्तावान्ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता॥ त्रयो लोका इमे तत्र कल्पंते प्रलयाय हि॥३॥

प्रलय कहॅू हरिवित्य॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। जो कि, आपने दो प्रश्न किये थे कि, कलियुगका दोष किसउपायसे निवारण हो सक्ता है? और कलियुगमें कौनसा धर्म मुख्य है जो पालना चाहिये इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर तो मैंने आपसे वर्णन किया, अब प्रलय कालका निरूपण करताहूं, परमाणुसे लेकर द्विपरार्द्धतक काल और युगोंके प्रमाण मैं तुमसे पहिले कहचुकाहूं, अब कल्प और प्रलय (सृष्टिका अन्त) का प्रमाण सुनो॥ हे प्रजापालक! युगोंकी सहस्र चौकड़ीका ब्रह्माका एक दिन होता है उसीको कल्प कहते हैं जिसमें चौदह मनु राज्य करते हैं॥२॥ फिर अन्तमें चार सहस्र युगवाली ब्रह्माकी रात्रि होती है, उस रातमें इस त्रिलोकीकी प्रलय होजाती है॥३॥

इस प्रलयको विद्वान् लोग नैमित्तिक प्रलय कहतेहैं, इस प्रलयमें विश्वास्रष्टा श्रीनारायण ब्रह्मा सहित त्रिलोकीको अपने उदरमें धारण करके अनन्त भगवान् शेषशय्यापर शयन करते हैं॥४॥ अब प्राकृतिक प्रलयका वृत्तान्त सुनिये, परमेष्ठी ब्रह्माजीके द्विपरार्द्धका जब अन्त होता है तब महत्तत्त्व अहंकार और पॉच तन्मात्रा इन सातों प्रकृतियोंकी प्रलय होती है॥५॥ हे राजन् ! इसलिये इसप्रलयको पण्डितलोग प्राकृतिक प्रलय कहते हैं, जिस प्रलयमें नाशका कारण प्राप्त होनेसे सातों प्रकृतियाॅ और उनके कार्यरूप सब ब्रह्माण्ड भी लय होजाते हैं॥६॥ हे राजन् ! जब प्रलय होगा उससमय सौ १०० वर्षतक मेघ नहीं वर्षेगा, तब सब पृथ्वी अन्नरहित होजागी, उस समय सब प्रज

एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक्॥ शेतेऽनंतासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभूः॥४॥ द्विपरार्द्धे त्वति क्रांते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः॥ तदा प्रकृतयः सप्त कल्पंते प्रलयाय वै॥५॥ एष प्राकृतिको राजन्प्रलयो यत्र लीयते॥ अंडकोशस्तु संघातो विघात उपसादिते॥६॥ पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति॥ तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्ष्यमाणाः क्षुधार्दिताः॥ क्षयं यास्यंति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः॥७॥ सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्त्तको रविः॥ रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति॥८॥ ततः संवर्त्तको वह्निः संकर्षणमुखोत्थितः॥ दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान्भूविवरानथ॥९॥ उपर्यधः समंताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः॥ दह्यमानं विभात्यंडं दग्धगोमयपिंडवत्॥१०॥ ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम्॥ परः संवर्तको वाति धूम्रं खं रजसा वृतम्॥११॥

क्षुधासे पीड़ितहोएक एकका भक्षण करनेलगेगी, इसप्रकार कालाधीन हो सहज सहजमें सब नाशको प्रप्त होजायगी॥७॥ फिर प्रलय कालका मार्त्तण्ड अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रके और सब शरीरोंके रसोंको खैंचलेगा किंचिन्मात्र भी नहीं छोड़ेगा॥८॥ फिर संकर्षण भगवान्के मुखमें जो स्थित प्रलयका अग्नि वायुके वेगसे भड़ककर इस शून्य मण्डलकको सातों पाताल सहित जलादेगा॥९॥ फिर ऊपरनीचे सब ओर सूर्यकी मित्राग्निसे जलकर ऐसा शोभित होगा जैसे जलताहुवा उपला (सूखाहुवा गोबर) शोभित होताहै॥१०॥ फिर इसके पीछे प्रल

यकालकी महाप्रचण्ड पवन सौ १०० वर्षतक चलेगी, उससमय आकाश धूरीसे आवृत होकर धूम्रवर्ण होजायगा॥११॥ हे अंग ! फिर पीछे विचित्र वर्णवाले अनेक प्रकारके मेघोंके समूह गम्भीर गर्जन शब्द करते सौ १०० वर्षतक बरसेंगे, फिर पीछे यह ब्रह्माण्डटूट फूटकर सब विश्व जलमय होजायगा॥१२॥ उस समय भूमिका गन्ध गुण जलग्रस्त हुआ सो पृथ्वी गन्धहीन होकर प्रलयको प्राप्त होगी॥१३॥ जलके रसको तेजने ग्रस लिया, सो जल निरस होकर प्रलयको प्राप्त होगा, तेजका रूपगुण वायुने ग्रसलिया सो तेज रूप हीन हो पवनमें लीन होगा॥१४॥ पवनका स्पर्श गुण आकाशने लिया, सो वायु आकाशमें लीन होगा॥१५॥ हेराजन् ! फिर आकाशका शब्द गुण उसका तामस अहंकारने ग्रसलिया, सो आकाश गुणहीन होकर अहंकारमें लीन होगा राजस अहंकारने वृत्तियोंसहित इन्द्रियोंको ग्रसलिया सात्विक अहंकारने इन्द्रियोंकेदेवताओंकोग्रस

ततो मेघकुलान्यंग चित्रवर्णान्यनेकशः॥ शतं वर्षाणि वर्षंति नदंति रभसस्वनैः॥१२॥ तदा भूमेर्गंधगुणं ग्रसंत्याप उदप्लवे॥ ग्रस्तगंधा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते॥१३॥ अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेऽथ नीरसः॥ ग्रसते तेजसोरूपं वायुस्तद्रहितं तदा॥१४॥ लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम्॥ स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम्॥१५॥ शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनु लीयते॥ तैजसश्चेन्द्रियाण्यंग देवान्वैकारिको गुणैः॥१६॥ महान्ग्रसत्यहंकारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम्॥ ग्रसतेऽव्याकृतं राजन्गुणान्कालेन चोदितम्॥१७॥ न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः॥ अनाद्यनंतमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम्॥१८॥ न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं तमो रजो वा महदादयोऽमी॥ न प्राणबुद्धींद्रियदेवता वा न सन्निवेशः खलु लोककल्पः॥१९॥

लिया तब देवता सात्त्विक अहंकारमें लीन होजायँगे॥१६॥ हे राजन्! तीनों प्रकारके अहंकारको महत्तत्त्वने ग्रसलिया, तब अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होजायगा और महत्तत्त्वको सत्त्वादि गुणोने ग्रसलिया, तब सत्त्वादिक गुणोंको कालकी प्रेरित माया ग्रसलेगी॥१७॥ इस मायाका काल के वेगसे राति दिन घट बढ़ नहीं होता और यह माया आदि अन्त करके अव्यक्त नित्य है, एकरस है, न स्पष्ट देखनमें आती है सर्वत्र जगत्की कारणरूप है॥१८॥ जहां वाणी मन सत्त्व रज तम तीनों गुण महत्तत्त्वादिक नहीं हैं और प्राण, बुद्धि इन्द्रियोके देवता विश्वकी रचना भी

नहीं है॥१९॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, आकाश, पवन, अग्नि, जल, भूमि और सूर्य भी वहाँ नहीं हैं सुषुप्ति शून्यकी समान है उसको कविलोग अतर्क्य मूलपद कहते हैं॥२०॥ प्राकृतिक प्रलय यह आपसे कही, जिस प्रलयके पुरुष प्रकृतिकी शक्ति सब कालसे प्रेरित होकर लीन होजाती है यह माया ईश्वरकी शक्ति है, इससे सबके कारणरूप एक परब्रह्म परमेश्वरही हैं,॥२१॥ हे राजन् ! अब आपसे आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं बुद्धि इन्द्रिय विषयरूप इन सबका आश्रय ज्ञानही भासैहै जिससे अन्वय व्यतिरेक करके जो आदि अन्तवान् हैं, सो सब वस्तु हैं विचार करके देखो तो यही मोक्ष, आत्यन्तिक प्रलय है, क्योंकि यह मोक्ष आत्मज्ञान से सब प्रपंचका लयरूप है यहाँपर प्रलय अर्थात् मृत्तिका के ज्ञानसे जैसे घट वारुणी आदिका प्रतिरोध होता है इसीप्रकार ब्रह्मज्ञानसे और दूसरे सबका प्रतिरोध समझना, जो आत्माकी सदृश प्रपंच यथार्थ होय तो उसका प्रतिरोध होना

न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः॥ संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यं तन्मूलभूतं पदमामनंति॥२०॥ लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा॥ शक्तयः संप्रलीयंते विवशाः कालविद्रुताः॥२१॥ बुद्धींद्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम्॥ दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामाद्यंतवदवस्तु यत्॥२२॥ दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत्॥ एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात्॥२३॥ बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते॥ मायामात्रमिदं राजन्नानात्वं प्रत्यगात्मनि॥२४॥ यथा जलधरा व्योम्नि भवंति न भवन्ति च॥ ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात्॥२५॥

ठीक नहीं इससे ज्ञात होता है कि, प्रपंच, परब्रह्मसे किसी प्रकार भिन्न नहीं है यह ब्रह्मसे भिन्न सत्ताको नहीं रखते, इस लिये यह बुद्धि आदि प्रपंच भी दृश्यपनके हेतु और आदि अन्तवान् होनेके कारण और अपने कारणभूत परब्रह्मसे भिन्न नहीं है इसलिये वास्तविक भी नहीं हैं॥२२॥ जैसे दीपक, नेत्र, रूप यह सब ज्योतिसे भिन्न नही हैं ऐसेही बुद्धि, इंद्रिय तन्मात्रा ब्रह्मसे भिन्न नहीं है॥२३॥ हे राजन्! जब यह बुद्धि परमात्मासे विलग नहीं है, तब उसकी अवस्थारूप जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति यह तीनों परमात्मासे किसप्रकार विलग होसकती हैं क्योंकि यह तीनों अवस्था बुद्धिहीकी है सब विद्वान्लोग यही कहते हैं कि, तीनों अवस्थाओंके मानके लिये जगत् तैजस और प्राज्ञपन जो आत्मामें मानाजाता है वह केवल मायामात्रही है॥२४॥ जैसे किसी समय मेघ आकाशमें नहीं होते और कभी होतेहैं, ऐसेही ब्रह्ममें यह जगत् कभी दीखता है कभी नहीं

दीखता॥२५॥ हे राजन्! सब अवयवी जगत्मेंकारणभूत जो एक अवयव है वही मुख्य है, क्योंकि अवयवी विना भी अयवयकी प्रतीति होती है, इसी प्रकार जगत् विना ब्रह्म भी प्रतीत होताहै इसलिये जगत् काकारण रूप ब्रह्मही है देखो! तंतु विना वस्त्रका ज्ञान नहीं होता, परन्तु वस्त्र तंतुओंसे भिन्न नहीं है, क्योंकि वस्त्र तन्तुरूपही है, इसप्रकार ब्रह्मविना जगत्कीप्रतीति नहीं होती, इसलिये जगत् ब्रह्मसे भिन्न नहींहै॥२६॥ कार्यकारण मिलके जो कुछ होय सो सब भ्रमसे है, इसलिये आश्रयसे आदि लेकर अन्ततक जो कुछ है सो सब अवस्तु है॥२७॥ यद्यपि विकारमय यह सब जगत् प्रकाशवान् भी है परन्तु ब्रह्म विना उसका किंचिन्मात्र भी प्रकाश नहीं होसक्ता और जो ब्रह्म विना प्रकाश होय तो उस आत्मासे ब्रह्मरूपही होगा, किसी प्रकार भिन्न होही नहीं सक्ता॥२८॥ सत्य वस्तुमें अनेक रीति नहीं होसक्तीं और जिसमें अनेक रीति हैं उसमें सत्यता नहीं होसक्ती,

सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह॥ विनार्थे न प्रतीयेरन्पटस्येवांग तंतवः॥२६॥ यत्सामान्यविशेषाभ्यामुप लभ्येत स भ्रमः॥ अन्योन्यापाश्रयात्सर्वमाद्यंतवदवस्तु यत्॥२७॥ विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमंतरा॥ न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत्॥२८॥ न हि सत्यस्य नानात्वमविद्वान्यदि मन्यते॥ नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्ज्योतिषोर्वातयोरिव॥२९॥ यथा हिरण्यं बहुधा समीयते नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु॥ एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः॥३०॥

यद्यपि आत्मामें और जीव ब्रह्ममें भेद दृष्टि आताहै, परन्तु यह जीव और ब्रह्मका भेद घटाकाश और महाकाशकी समान है, घटाकाश परिच्छिन्न है और महाकाश ‘अपरिच्छिन्न होनेपर भी जैसे दोनों के मध्यमें भेद नहीं है इसीप्रकार जीव परिच्छिन्न और जीव अपरिच्छिन्न होनेपर भी जीव ब्रह्ममें कुछ भेद नहीं जैसे जलके बीचमें सूर्य कम्पायमान विकार सहित और आकाशमें निर्विकार सूर्य होनेपर कुछ भेद नहीं, इसी प्रकार ब्रह्मकी सृष्टि आदि और जीवकी सृष्टि आदि क्रियामें अलग अलग होनेपर कुछ भेद नहीं जान पड़ता, यह सब उपाधिही मात्र भेदहै जीव ब्रह्ममें भेद मानना मुखका कामहै॥२९॥ जैसे सुवर्ण मनुष्योंके व्यवहारादिकोंमें मुकुट कुण्डलादि रूपोंसे अनेक प्रकारका दृष्टि आता है इसीप्रकार अहंकाररूप उपाधिवाले मनुष्य ऐसेही भगवान् अधोक्षजकी लौकिक वैदिक वाणियोंसे अनेक अनेक प्रकारकी महिमा वर्णन करतेहैं॥३०॥

जैसे बादल सूर्यसेही प्रगट हुए और सूर्यदीसे प्रकाशित हुए सूर्यके अंशरूप नेत्रोंकी आवरण करता है, ऐसेही ब्रह्मसे प्रगटहुवा और ब्रह्महीसे प्रकाशित अहंकार ब्रह्मके अंश जीवको उस ब्रह्मके दर्शनका आवरण करता है॥३१॥ सूर्यसे उत्पन्न हुवा बादल जब विदीर्ण होजाता है, तब चक्षु सूयको देखैहै ऐसेही अहंकाररूप उपाधि जब तत्त्व विचार करके विनष्ट होय, तब यह जीव अपने ब्रह्मस्वरूपको पहँचानता है॥३२॥ हे राजन्! इसप्रकार अविवेक रूप खड्गसे मायामय अहंकाररूप आत्माके बन्धनको काटकर जब शुद्ध ब्रह्मका अनुभव करके स्थित होय तब उसको कविलोग आत्यन्तिक प्रलय (मोक्ष) कहते हैं॥३३॥ हे शत्रुओंके ताप देनेवाले। सूक्ष्मवेत्ता विद्वान् लोग कहते हैं कि, ब्रह्मा

यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो हार्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः॥ एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मवस्तुनः॥३१॥ घनो यदाऽर्कप्रभवो विदीर्यते चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा॥ यदा ह्यहंकार उपाधिरात्मनो जिज्ञासयानश्यति तर्ह्यनुस्मरेत्॥३२॥ यदैवमेतेन विवेकहेतिना मायामयाहंकरणात्मबंधनम्॥ छित्त्वाऽच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते तमाहुरात्यंतिकमंगसंप्लवम्॥३३॥ नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परंतप॥ उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञाः संप्रचक्षते॥३४॥ कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा॥ परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः॥३५॥ अनाद्यंतवताऽनेन कालेनेश्वरमूर्तिना। अवस्था नैव दृश्यंते वियति ज्योतिषामिव॥३६॥ नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः॥ आत्यंतिकश्च कथितः कालस्य गतिरिदृशी॥३७॥

दिक सब प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रलय क्षण क्षणमें होती रहती है॥३४॥ नदीका प्रवाह और दीपककी ज्वाला आदि परिणामी पदार्थोंकी जैसी क्षण क्षणमें लोट पोट होनेसे जो अवस्थायें हैं, वैसीही अवस्थायें कालरूप नदीके वेगसे नित्य आयुर्बल हरे जानेसे देहादिकनकी अवस्था नित्य जन्म मरणके कारणको प्राप्त होती हैं॥३५॥ आदि अन्तसे हीन ईश्वरकी मूर्त्तिकालसे प्राणियोंकी सूक्ष्म अवस्था नहीं जानी जाती जैसे आकाशमें नक्षत्रादिकी क्षण क्षणकी चालैंदिखाई नहीं देतींइसीप्रकार कालसे झपटी हुईं शरीरादिकोंकी क्षण क्षणकी अवस्थायेंभी दिखाई नहीं देतीं॥३६॥ नित्य, नैमित्तिक प्राकृतिक और आत्यन्तिक यह चार प्रकारकी प्रलय आपसे कही और कालकी गति भी आपसे कही॥३७॥

हे कौरवकुलभूषण। जगतके कर्त्ता और सब प्राणियोंके जीवन आधार श्रीमन्नारायणकी लीला और कथा आपसे संक्षेपमात्र कही और सम्पूर्ण चरित्र कहनेकी तो ब्रह्माको सामर्थ्य नही॥३८॥ जो प्राणी अनेक भॉतिके दुःखरूपी दावाग्निसे कष्ट पाकर इस महादुस्तर संसाररूपी समुद्र के पार

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुर्नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः॥ लीलाकथास्ते कथिताः समासतः कार्त्स्न्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः॥३८॥ संसारसिंधुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोर्नाऽन्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य॥ लीला कथारसनिषेवणमंतरेण पुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य॥३९॥ पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोऽव्ययः॥ नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः॥४०॥

उतरना चाहैंउनको भगवान् पुरुषोत्तमकी लीला और चरित्रोंकी कथारूपी रसपानके सिवाय इस संसारसागरसे पार होनेसे दूसरा उपाय नहीं विश्वासरूप नौकापर चढ़कर संसाररूपी समुद्रसे तर सक्ता है*॥३९॥ अव्ययरूप श्रीनारायण ऋषिनेयह पुराणसंहिता पहिले नारद मुनिसे

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* दृष्टान्त - एक गूजरी कहीं पण्डितजी की कथा सुननेकौ गई, पण्डितजी उस समय यह कथा कहरहे थे कि, परमेश्वरके नाम लेनेसे प्राणी संसाररूपी समुद्रके पार होजाता है, गूजरी इस बातको सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई, क्योंकि उसे प्रतिदिन यमुनाजीके उत्तरनेमें नाववालेको पैसा देना पडता था, वह विचारनेलगी कि, जब श्रीकृष्णके नामसे समुद्रको तर जायँ हैं, तो क्या यमुनाजी नहीं तरी जायँगी? बस वह उसी समय श्रीकृष्णका नामले यमुनामें घुसपढी और क्षणमात्रमें पार उतर गई, इसी प्रकार प्रतिदिन यमुना उतर जाने लगी, तब एकदिन गूजरीनें अपने मनमें विचार किया कि, पंडित जीने मेरे संग बढा उपकार किया जो विनाही नौका यमुनापार हो जाती हूँ, उनको निमंत्रण देना चाहिये, सो उसने पंडितजीको निमंत्रण दिया और भोजन करानेके लिये पण्डितजीको अपने साथ लेकर घरको चली पंडितजी उसको यमुनाजीमें घुसती देख आप भी उसके पीछे पीछे हो लिये और समझा कि, घाट बहुत गहरा न होगा, जब कण्ठतक पानी आगया और पाँवोंके नीचका रेता निकलने लगा, परन्तु उस गूजरीके घुटनेतक न भीजे, तब तो पंडितजीने घबराकर पुकारा कि, अरी! तू किधरको ले आई में तो उबा? मुझे किसी प्रकार बचा! गूजरी बोली क्या तुमने श्रीकृष्णका नाम नहीं लिया? श्रीकृष्णका नाम लेलो क्या तुम उसदिनकी कथाके वृत्तान्तको भूलगये, आपने कहाथा एक श्रीकृष्णके नामसे प्राणी महादुस्तर समुद्रके पार होजाता है, पंडितजी बोले क्या यह नदी भी श्रीकृष्णका नाम लेनेसे तरी जाती है? गूजरीने कहा कि, क्या आप इतना भी नहीं जानते कि, जब समुद्रही के पार होगये तो क्षुद्र नदी कहाँ रही? गुजरीने पंडितजीका हाथ पकड़कर कहा कि, श्रीकृष्णका नाम लो और संग संग चले चलो, देखो! विश्वासवालीं गूजरी इसप्रकार पंडितजीको पार उतार अपने घर लेगई और अत्यन्त प्रेम प्रीति से पंडितजीको भोजन कराया, इसीसे कहते हैं कि, विश्वास करके भक्ति करे तो संसाररूप सागरके पार होय।

कहीथी और नारदमुनिने श्रीवेदव्यासजीसे कही॥४०॥ हे महाराज! उनआत्मज्ञानी भगवान् वेदव्यासदेवजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह सब वेदों के समान श्रीमद्भागवतसंहिता मुझको पढ़ाई॥४१॥ हे कुरुकुलभूषण! नैमिषारण्यमें बड़े यज्ञके करनेवाले शौनकादि ऋषि जब पूँछेंगे तब सूतजी उन ऋषियोंको यह श्रीद्भागवत पुराण कहैंगे॥४२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादस्कंधे भाषाटीकायां प्रलयवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा— पञ्चममें संक्षेप सों, परब्रह्म उपदेश॥ सर्प डसन भय नृपतिको, काटो शुकदेवेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इस भागवतमें निरन्तर विश्व आत्महीका वर्णन है जिन भगवान्के रजोगुण से ब्रह्मा और तमोगुणसे रुद्र हुए ऐसे ब्रह्मा रुद्रादि सब सृष्टि के कर्त्ता भगवान् कागुणानुवाद

स वै मह्यं महाराज भगवान्बादरायणः॥ इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसंमिताम्॥४१॥ एतां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये॥ दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ संपृष्टः शौनकादिभिः॥४२॥ इति श्रीमद्भा०म० द्वादशस्कन्धे प्रलयनि० चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान्हरिः॥ यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः॥१॥ त्वं तु राजन्मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि॥ न जातः प्रागभृतोऽद्य देहवत्त्वं न नंक्ष्यसि॥२॥ न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान्॥ बीजांकुरवद्देहादेर्व्यतिरिक्तो यथाऽनलः॥३॥ स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पंचत्वाद्यात्मनः स्वयम्॥ यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः॥४॥ घटे भिन्ने यथाऽऽकाश आकाशः स्याद्यथा पुरा॥ एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म संपद्यते पुनः॥५॥

जो हितचित्तसे सुनता है उसको किसी प्रकारका भय नहीं॥१॥ हे राजन्! हम मरैंगे इस पशुबुद्धिको छोड़ दो, इस देहसे न तो तुम पहिले उत्पन्न हुए और न नष्ट होओगे यह आत्मा तो अजर अमर अनादि है, यह तो न कभी मरता है न जीता है॥२॥ यह शरीर बीज और अंकुरवत् देहादिकोंसे नाई पुत्र पौत्रादिरूप होकर जन्मता मरता रहताहै, कभी बीजसे अकुंर होताहै, कभी अंकुरसे बीज होताहै, ऐसे तुम बीज अंकुरवत् देहादिकोंसे भिन्न हो, जैसे अग्नि काष्ठसे भिन्न है॥३॥ जैसे कोई प्राणी स्वप्नमें अपना शिर कंटाहुवा देखै, ऐसे ही जाग्रत् अवस्थामें देहके मरणको आप देखता है, उससे मैं मरूंगा, यह केवल भ्रन्ति है क्योंकि अत्मा तो अजन्मा है॥४॥ आत्माका जन्म मरणादिक जगत्कीभ्रान्ति देहरूप उपाधिके

साथ है, इसलिये उपाधिकी निवृत्ति होनेसे इस जीवकी मुक्ति होजाती है, जैसे घट फूटजानेसे घटाकाशमें जामिलता है, जैसा प्रथम महाकाश रूप था वैसाही फिर हो जाता है जब जीवको आत्मज्ञान होजाता है तो फिर वह ब्रह्मका ब्रह्म होजाताहै॥५॥ आत्माके देह, गुण और कर्मोंको मनही उत्पन्न करता है और मनको माया उत्पन्न करती है और इसी करके जीवका जन्म मरण होता है और विचार करके देखो तो आत्मा निर्लेप है॥६॥ जबतक तेल सरवा बत्ती और अग्निका संयोग बनारहता है तबहीतक दीपक कहलाता है, ऐसेही जबतक कर्म मन चैतन्य संसारादिक और इस देहको संयोग है, तबही तक संसार है और जब इन समुदायोंकी निवृत्ति होजाती है, तब यह संसार भी नहीं रहता यह देहही सत्त्वगुण

मनः सृजति वै देहान्गुणान्कर्माणि चात्मनः॥ तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः॥६॥ स्नेहाधिष्ठानवत्यग्निसंयोगो यावदीयते॥ ततो दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भवः॥ रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति॥७॥ न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्योव्यक्ताव्यक्तयोः परः॥ आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनंतोपमस्ततः॥८॥ एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृश प्रभो॥ बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचितया॥९॥ चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः॥ मृत्यवो नोपधक्ष्यंति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम्॥१०॥ अहं ब्रह्म परं ब्रह्म ब्रह्माहं परमं पदम्॥ एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले॥११॥ दशंतं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः॥ न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः॥१२॥

रजोगुण, तमोगुणसे जन्मता मरता है आत्मा जन्मैं न मरै, इससे स्थूल सूक्ष्म दोनों देहोंसे मरैहै और स्वयंप्रकाश देहादिकोंका आश्रय है नित्य है। निर्विकार है, अनन्त है, अनादि है निरुपम है, वह कभी नष्ट नहीं होता॥७॥८॥ हे प्रभो। अनुमानयुक्त बुद्धिसे भगवान् वासुदेवका चिन्तवनकरते शरीरमें स्थित शुद्ध आत्माको मनसे विचारकरो॥९॥ इसप्रकारका विचार करोंगे तो ब्राह्मणके वाक्योंसे प्रेषित कियाहुवा तक्षक सर्प तुमको नहीं जलासकेगा, क्योंकि परब्रह्मको मृत्यु भी नहीं जला सक्ती॥१०॥ जो मैं हूँ सो परमधाम रूप ब्रह्म है और जो परमधाम रूप ब्रह्म है, वह मैं हूँ, यह विचार करके निरुपाधि ब्रह्ममें तुम अपने आपको रक्खोगे तो॥११॥ विषयुक्त मुखसे अपने चरणमें काटतेहुए तक्षक नागको किसीप्रकार

न देखोगे, न इस देहको देखोगे और न आत्मासे भिन्न विश्वको देखोगे॥१२॥ हे तात! हे नृपेन्द्र! विश्वके आत्मा भगवान्का चरित्र जो कुछ तुमने पूँछा वह सब मैंने आपसे कहा। अब आप क्या सुनना चाहते हो सो कहो? ॥१३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कंधे भाषाटीकायां ब्रह्मो पदेशो नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ दोहा-इस छठवें अध्यायमें, भये परीक्षित् मुक्त॥ सुनते अहि होमे सकल, इन्द्रासन संयुक्त॥१॥ सूतजी बोले कि हे शौनकऋषि! सबकी बुद्धिको जाननेवाले निवृत्तिपरायण व्यासके पुत्र शुकदेवजीके गूढ़ वचन सुनकर, विष्णुरात परीक्षित शिर झुकाय, चरणारविन्दोंकी वन्दना कर हाथ जोड़कर बोले॥१॥ हे मुने करुणानिधान! आपने परम अनुग्रह करके मुझको कृतार्थकिया, जिससे आदि अन्तसे

एतत्ते कथितं तात यथात्मा पृष्टवान्नृप॥ हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥१३॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वा० तत्त्वोपदेशेन मृत्युभीतिनिवारणं नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ सूत उवाच॥ एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन॥ तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना बद्धांजलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः॥१॥ राजोवाच॥ सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना॥ श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः॥२॥ नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्॥ अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः॥३॥ पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्॥ यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते॥४॥ भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न विभेम्यहम्॥ प्रविष्टो ब्रह्मनिर्वाणमभयं दर्शितं त्वया॥५॥

हीन साक्षात् भगवान् परब्रह्मका चरित्र मुझको सुनाया, जिसको सुनकर मैं सिद्ध हुआ॥२॥ आपसे मुक्तरूप सज्जन, इस संसाराग्निके तापोंसे तपेहुए अधम लोगोंका अच्युत भगवान्मेंमन लगानेवाले और उनपर अनुग्रह करना मैं इसबातको कुछ अद्भुत नहीं समझता॥३॥ यह पुराणसंहिता आपके मुखारविन्दसे मैंने सुनी, इस श्रीमद्भागवत संहितामें उत्तम यशवाले भगवान्कानिरन्तर वर्णन है॥४॥ हे भगवन्! तक्षकादिक मृत्युओंसे अब मुझे किसी प्रकारका भय नहीं रहा क्योंकि आपने जो परमानन्द ब्रह्मरूप मुझे दिखादिया मैं उसीमें लय

होगया॥५॥ हे ब्रह्मन्! जो मुझको आज्ञा हो तो वाणीको रोककर निष्काम चित्तको भगवान् अधोक्षजमें रखकर प्राणोंका त्यागकर दूं?॥६॥ ज्ञान विज्ञानकी निष्ठासे मेरा सब अज्ञान निवृत्त होगया, जबसे आपने मंगलरूप भगवान्का परमपद मुझको दिखाया॥७॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक! राजा परीक्षित्ने इसप्रकार प्रार्थनाकर श्रीशुकदेवजीका पूजन किया तब भगवान् बादरायणि परीक्षित्की पूजा स्वीकार कर बिदा मॉग, मुनियोंसहित वहाँसे पधारे॥८॥ पीछे राजऋषि परीक्षित् बुद्धिसे मनको रोक, परब्रह्ममें मन लगा, श्रीकृष्णचन्द्रके ध्यानमें मग्न

अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाचं यच्छाम्यधोक्षजे॥ मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून्॥६॥ अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया॥ भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम्॥७॥ सूत उवाच॥ इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः॥ जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः॥८॥ परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना॥ समाधाय परं दध्यावस्पंदासुर्यथा तरुः॥९॥ प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गंगाकूल उदङ्मुखः॥ ब्रह्मभूतो महायोगी निःसंगश्छिन्नसंशयः॥१०॥ तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना॥ हंतुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम्॥११॥ तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम्॥ द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम्॥१२॥

हो, इन्द्रियोंको निश्चलकर, सूखे वृक्षकी नाईं अचल होगया॥९॥ गंगाके किनारेपर पूर्व अग्र कुशासनपर बैठ, उत्तर दिशाकी ओरको मुख करके संशयछिन्न निस्संग महायोगी परब्रह्ममें तदाकर होगया॥१०॥ हे ब्राह्मणो। क्रोधी ब्राह्मणके पुत्रका भेजाहुवा तक्षक राजाके काटनेकी इच्छा करके चला, तब मार्गमें कश्यपजीको देखा॥११॥ कि, ^(१)कश्यपजी राजा परीक्षित्के पासको जातेहैं और यह विषके उतारनेमें चतुर हैं

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१ जिसमय तक्षक ब्राह्मणका वेष धारण करके राजा परीक्षितको काटनेके लिये चला तो मार्गमें उसको कश्यपजी मिले, तक्षकने कश्यपजीसे बूझा कि, आज आप कहाँको चलदिये ? कश्यपजी बोले कि, राजा परीक्षित्को आज सर्प काटैगा, हम उसको अच्छा करनेके लिये जातेहैं तब तक्षकने कहा कि, तक्षकके काटेको आरोग्य करनेकी किसीकी सामर्थ्य नहीं आप तो क्या वस्तु है? कश्यपजी बोले कि यदि वह होता तो हम उसको अपना कर्त्तव्य दिखाते तक्षक बोला कि, मैंही तक्षकहूं, और इस वृक्षको काटता हू अब तुम इसको अच्छा करो ज्योंही वृक्षको डसा त्योंही वह जलकर भस्महोगया, वरन् उस वृक्षपर सूखी-

तब तक्षक* ने उस विषके दूर करनेवाले कश्यपजीको धनसे तृप्तकर जानेसे रोंक लिया, तब इच्छारूपी तक्षकने ब्राह्मणका रूप धरके अपने आपको छिपाकर राजा परीक्षित्को जाकर काटा॥१२॥ ब्रह्मस्वरूप राजऋषि परीक्षित्की देह विषाग्निसे सबके देखते उसी समय जलकर क्षार

ब्रह्मभृतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना॥ बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम्॥१३॥
हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः॥ विस्मिता ह्यभवन्सर्वे देवासुरनरादयः॥१४॥

होगई॥१३॥ उस समय पृथ्वी, आकाश, सब दिशाओंमें बडा हाहाकार शब्द होनेलगा, सब नगरमें कुलाहल मचगया। देवता, असुर,

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— लकडी तोडनेके लिये एक लकडहारा चढा था वहभीउस वृक्षके संग जलकर भस्म होगया, तब कश्यपजीने सजीवनी मंत्र पढकर दो घडीमें लकडहारेसहित उस वृक्षको यथावत् करदिया, तब तक्षक आश्चर्यमय होकर कहने लगा कि, आप कुछ ज्योतिष विद्या भी जानते हैं? कश्यपजी बोले हाँ। तब तक्षकने कहा कि, विचारो तो राजाकी अवस्था कितनी और रही है, कश्यपजी बोले कि, हमारे विचारमें ऐसा आता है राजाकी आयुर्बल दो घडी शेष है, तब तक्षकने कहा कि, मंत्र अकालमृत्युवालेको जीवित करसक्ता है परन्तु जिसकी मृत्युही निकट आगई होय उसको कोई नहीं बचासक्ता फिर वृथो उपाय करनेसे मान हानि होती है और जो आपको धनकी इच्छा है तो इसी वृक्षके नीचे बहुत गडा है, जितना चाहिये उतना लेजाओ, कश्यपजीको और किसी बातसे प्रयोजन नहीं था अपनी इच्छानुसार धन लेकर अपने आश्रमको लौटगये, तब तक्षक राजाके पास जाकर एक पुष्पमें कीडेका रूप धारणकर घुस बैठा और तक्षकके पुत्रने ब्राह्मणका रूप धरकर वह फूल राजाको दिया राजा फूलको देखकर कहनेलगे कि, संध्या होगई और तक्षक अभीतक नहीं आया कहीं ब्राह्मणका वचन झूठा न होजाये इस कारण इस कीडेहीसे मस्तकमें कटवाले, ज्यों राजाने कीडेसे कटवाया त्योंहि तक्षकने अपना रूपधर राजाको डसा कि, वह तुरत भस्म होगया और तक्षक उसी समय उडगया, उस लकडहारेने जब सब वृत्तान्त कहा तब जन्मेजयने तक्षकका अपराध विचार सर्पसत्र यज्ञ किया।

* शंका — द्वादशके पाँचवें अध्यायमें शुकदेवजीने कहा कि, हे राजन् ! ब्राह्मणके शापकी आज्ञाको जिस सर्पने पाया वह सर्प तुमको नहीं डसेगा, भागवतके श्लोकमें “त्वां” शब्द लिखा है सो शुकदेवजीने " त्वा " किसको कहा था परीक्षित्की देहको कहा था कि, जीवको कहाथा ? जो जीवको त्वां कहा तोभी अयोग्य है, क्योंकि जीव किसीके जलानेसे जलनहीं सक्ता, जो कदापि ऐसा देखकर कि,संसारमें शरीरहीकी प्रशंसा है जीवको कोई नहीं जानता, शरीरहीको त्वां कहाथा तो फिर सर्पके काटनेसे शरीर क्यों भस्म होगया। मुनिने तो कहाथा कि भस्म नहीं होगा ! यह शंका होती है ?

** उत्तर—** जो प्रश्न तुम लोगोंने किया सो सत्य है, संसारमें शरीरकी प्रशंसा देखकर कि देहके सिवाय जीवको कोई भी नहीं जनता इसलिये शुकदेवजीने देहको त्वां कहाथा, अब देह भस्म होनेका कारण सुनो शुकदेवजी का वचन सत्य था कि, राजाका देह सर्पके काटनेसे भस्म नहीं होता परन्तु परीक्षित्ने मरनेके समयमें भगवान्काविचार शुकदेवजीसे भागवत् सुनी सात दिनसे पहिले जो मरते हैं, उन प्राणियोंको

मनुष्यादिक सब आश्चर्यमय होगये॥१४॥ आकाशमें देवताओंके दुन्दुभी बजनेलगे, गन्धर्व गानेलगे, अप्सरा नृत्य करने लगीं और पुष्पोंकी वर्षा होनेलगीं और महात्मा पुरुष वारम्वार धन्यवाद देनेलगे॥१५॥ राजा जन्मेजय अपने पिता परीक्षित्को तक्षकसे डसा सुन कर महाक्रोधित हुआ और ब्राह्मणोंको बुला सर्पसत्र यज्ञमें सर्पोंका होम करानेलगा॥१६॥ उस यज्ञकी महाप्रचण्ड अग्रिमें बड़े बड़े सर्पोंको जलता हुआ देखकर तक्षक डरका मारा अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रकी शरण गया॥१७॥ परीक्षित्केपुत्र राजा जन्मेजयने जब तक्षकको

देवदुंदुभयो नेदुर्गंधर्वाप्सरसो जगुः॥ ववर्षुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः॥१५॥ जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्॥ तथा जुहाव संक्रुद्धो नागान्सत्रे सहद्विजैः॥१६॥ सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान्महोरगान्॥ दृष्ट्वेंद्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ॥१७॥ अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्॥ उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः॥१८॥ तं गोपायति राजेंद्र शक्रः शरणमागतम्॥ तेन संस्तंभितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ॥१९॥ पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः॥ सहेंद्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते॥२०॥

यज्ञमें न देखा तो ब्राह्मणोसे बूझा कि सर्पोंमें अधम तक्षक यहाॅआनकर क्यों नहीं भस्म हुआ ? ॥१८॥ तब ब्राह्मण बोले कि, हे नरेन्द्र ! अपनी शरण गये तक्षककी इन्द्र रक्षा करता है और इन्द्रनेही उसको अपने समीप बैठाल रक्खा है, इसीलिये वह अग्निमें आनकर नहीं पड़ा॥१९॥ ब्राह्मणोंका यह वचन सुनकर उदार बुद्धिवाला राजा जन्मेजय ब्राह्मणोंसे बोला कि, हे ब्राह्मणो!इन्द्र सहित उस तक्षकको अग्निमें क्यों नहीं डाल देते, क्या इतनी सामर्थ्य आपको नहीं है॥२०॥

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-नरक होता है भागवतके प्रभावसे अब इसको नरक नहीं होना चाहिये, जो ऐसा करैंगे तो सर्पकी मर्यादा नाश होजायगी, इसलिये भागवतकी, सर्पकी, शुकदेवजीकी इन तीनोंकी मर्यादा रखनेके लिये भगवान् नपरीक्षित्कोतीन कर्म करके तीनोंकी मर्यादा रक्खी, सर्पके काटनेसे मृत्यु होती है तो उस प्राणिको नरकमें जाना पडताहै सो श्रीमद्भागवत सुननेके प्रतापसे राजा परीक्षित्‌को भगवान्‌ने नरक वाससे छुटाया और शुकदेवजी का राजा शिष्य था इसलिये वैकुण्ठमें राजाकौभेजा सर्पकी मर्यादा रखनेके लिये राजाका देह भस्म किया, इसलिये राजाकी देह भस्म होगई कुछ शुकदेवजीका वाक्य झूठा नहीं था, जो सर्पकी मर्यादा भगवान्। न रखते तो कभी राजाकी देह भस्म न होती।

जन्मेजयका यह वचन सुनकर सब ब्राह्मण इन्द्रसहित उस तक्षकको आहुतिमंत्र पढ़कर आवाहन करने लगे “हे तक्षक! मरुद्गणाधीश इन्द्रके संग तू शीघ्र यज्ञाग्निमें आनकर पड़” इसप्रकार आहुतिमंत्रोंसे इन्द्र सहित तक्षकको बुलाया॥२१॥ ब्राह्मणोंके कठोर वचनोंसे और मंत्रोंके आकर्षणसे तक्षक सहित इन्द्र अपने स्थानसे चलायमान हो विमान और तक्षक सहित अपने मनमें घबरागया॥२२॥ इन्द्रको विमान और तक्षक सहित आकाशसे गिरता हुआ देखकर, अंगिराके पुत्र बृहस्पतिजीने जन्मेजयसे कहा॥२३॥ हे नरेन्द्र! यह सर्पराज आपके हाथसे वधकरनेयोग्य नहीं है, क्योंकि इसने अमृतपान किया है, इसलिये यह अमर अजर है॥२४॥ हे राजन् ! तक्षकके डसनेसे पिताका मरण सुनकर आपको इतना क्रोध तक्षकपर

तच्छ्रुत्वा जुहुवुर्विप्राः सहेंद्रं तक्षकं मखे॥ तक्षकाशु पतस्वेह सहेंद्रेण मरुत्त्वता॥२१॥ इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिंद्रः प्रचालितः॥ बभूव संभ्रांतमतिः सविमानः सतक्षकः॥२२॥ तं पततं विमानेन सहतक्षकमंबरात्॥ विलोक्यांगिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः॥२३॥ नैष त्वया मनुष्येंद्र वधमर्हति सर्पराट्॥ अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः॥२४॥ जीवितं मरणं जंतोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा॥ राजंस्ततोऽन्यो नान्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः॥२५॥ सर्पचोराग्निविद्युद्भ्यः क्षुत्तृड्व्याध्यादिभिर्नृप॥ पंचत्वमृच्छते जंतुर्भुंक्त आरब्धकर्म तत्॥२६॥ तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम्॥ सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते॥२७॥ इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन्वचः॥ सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम्॥२८॥

करना नहीं चाहिये, क्योंकि जीवोंका जीवन मरण और परलोक अपने कर्मोहीसे होता है, इसे सुख दुःखका दाता और कोई दूसरा नहीं जान पड़ता॥२५॥ हे नरेश ! सर्प, चोर, अग्नि, बिजली, क्षुधा, तृषा, रोगादिकोंसे प्राणी मृत्युको प्राप्त होताहै, सो वह अपने प्रारब्ध और कर्मोंहीके भोगसे भोगताहै कुछ सर्पादिक स्वतंत्र नहीं हैं, उनको भी प्रारब्ध और कर्मही प्रेरणा करता है॥२६॥ हे राजन्! यह प्राणी अपने अदृष्टहीका भोग करैहै, इसलिये इस अभिचार हिंसक यज्ञको समाप्तकरो देखो ! इस यज्ञमें अनेक निरपराधी सर्प भस्म होगये, परन्तु उसमें आपकाभी कुछ दोष नहीं, क्योंकि प्राणी सदा अपने प्रारब्ध और कर्मोंका भोग भोगते रहते हैं॥२७॥ जब बृहस्पतिजीने इसप्रकारसे वचन कहे तब

राजाने उसीसमय बृहस्पतिजीके वचनोंको सन्मान दे, अभिचार यज्ञसे निवृत्त हो, देवगुरु बृहस्पतिजीका पूजन किया॥२८॥ देखिये! ब्राह्मणके क्रोधसे परीक्षित्का मरण हुवा और परीक्षित्के पुत्र जन्मेजयने कोप करके करोडों सर्पोंको जलाडाला, सो यह क्रोधरूप मोह ऐसे ऐसे महात्मा पुरुषोंको भी हुवा, इसमें कोई आश्चर्य माननेकी बात नहीं है, क्योंकि विष्णुभगवान्की अलक्षित माया किसीप्रकार किसीसे निवारण न होसकी देखो ! उनहीं विष्णु भगवान्की मायासे विष्णु भगवान्हीके अंशरूप जीव दूसरे जीवोंपर अपनी देहमें तीनों गुणोंकी वृत्ति क्रोधादिकोंसे मोहित हो संसारमें भ्रमते हैं॥२९॥ यह माया तत्त्ववादी ब्रह्मविचार करनेवालोंके सिवाय और सब स्थानोंमें यह माया निर्भय वास करती है और ब्रह्मवादी लोग जब तत्त्वविचार करते हैं तो वह लोग भलीभाॅति जानते हैं कि, यह माया बड़ी कपटकारिणी है और लोकोंकी वंचना

सैषा विष्णोर्महामायाऽबाध्ययाऽलक्षणा यया॥ मुह्यंत्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः॥२९॥ न यत्र दंभीत्यभया विराजिता मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः॥ न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो मनश्च संकल्पविकल्पवृत्तिमत्॥३०॥ न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्॥ तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं निषिध्य चोर्मीन्विरमेत्स्वयं मुनिः॥३१॥ परं पदं वैष्णवमामनंति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः॥ विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः॥३२॥

करनेवाली है, जिन महात्मापुरुषोंने ऐसा समझ रक्खा है उनके सन्मुख निर्भय होकर माया अपना प्रकाश नहीं करसक्ती, क्योंकि उनसे भय मानती है और मोह ममतादिक कार्योंको नहीं करती, अपने दिन पूरे करती है और जहाँ तत्त्वविचार है माया कारणके अनेक वाद विवाद नहीं है और संकल्प विकल्प वृत्तियोंके युक्त मन भी जहाँ नहीं है॥३०॥ सृष्टिके करनेवाले सब कारण और कर्मसे सिद्ध हुए फल, इन तीनों सहित अहंकारयुक्त जीव जिस विष्णुमें विघ्न डालनेवाला विघ्नभी जहाँ नहीं रहता, अहंकारादि ऊर्मियोंके त्यागनेवाले मुनिलोग उसी विष्णुपदमें रमण करते हैं॥३१॥ और स्थान, सौहृद, दुष्टता और अनात्मपदार्थोंको त्याग नेति नेति कह अहंभावकी निवृत्तिकर सिवाय

परमात्माके और किसीसे स्नेह न रखनेवाले विवेकी पुरुष परमतत्त्व रूपहीको विष्णुका परमपद कहतेहैं, उसीका ध्यानादिक सावधानतासे विज्ञानीलोग हृदयमें धारण करते हैं॥३२॥ विष्णुके परमपदको वही आत्मतत्त्ववेत्ता जानते हैं जिनके देह गेहमें अहंता, ममता, दुर्जनताका मिथ्या अभिमान नहीं है॥३३॥ मनुष्यको उचित तो यह है कि, अज्ञानियोंके दुर्वाक्योंको सहन करें किसीकी अवज्ञा न करैऔर इस देहके कारण किसीसे शत्रुता न करें॥३४॥ अकुण्ठित बुद्धिवाले भगवान् व्यासदेवजीको मैं वारम्वार नमस्कार करता हूं कि, जिनके चरणकमलके ध्यानसे मैंने यह “श्रीमद्भागवत—संहिता” पढ़ी है॥३५॥ शौनकऋषि बोले, हे सौम्य। व्यासदेवजीके शिष्य! वेदोंके अचार्य पैलादि महात्मा ऋषियोंने वेदोंका

त एतदधिगच्छंति विष्णोर्यत्परमं पदम्॥ अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम्॥३३॥ अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन॥ न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥३४॥ नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुंठमेधसे॥ यत्पादांबुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम्॥३५॥ शौनक उवाच॥ पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः॥ वेदाश्च कतिधा व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः॥३६॥ सूत उवाच॥ समाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मणः परमेष्ठिनः॥ हृदाकाशादभृन्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते॥३७॥ यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मनः॥ द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यांत्यपुनर्भवम्॥३८॥ ततोऽभूत्रिवृदोंकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्॥ यत्तल्लिंगं भगवतो ब्राह्मणः परमात्मनः॥३९॥ शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्॥ येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः॥४०॥

कितनी रीति से विभाग किया सो यह वृन्तांत हम बूझते हैं और पुराणोंकी संहिताओंके विभाग किसप्रकारसे किये गये हैं सो जानने की हमारी अभिलाषा है॥३६॥ श्रीसूतजी बोले कि, ब्रह्मन् । एकाग्रमन परमेष्ठी ब्रह्माके हृदय आकाशसे प्रथम एक नाद शब्द उत्पन्न हुवा जो कि, कानोंपर हाथ रखने से सुनाई आता है॥३७॥ हे ब्रह्मन् ! जिस नादकी उपासना करके योगी पुरुष अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, इन तीनों मनके मलोंको दूर करके मुक्तिको प्राप्त होतेहैं॥३८॥ उस नादशब्दसे स्वयंप्रकाश हुवा जिसकी उत्पत्ति स्पष्टरीतिसे किसीप्रकार जाननेमें न आवै, ऐसा अव्यक्त तीन अक्षर युक्त ॐकार हुवा जो कि, भगवान् परमात्मा परब्रह्मका जतानेवाला है॥३९॥ इन्द्रिय मनविनाही जो भगवान् है सब शून्य होजानेपर भी आप ज्ञाता होनेसे

कानोंके बन्द करनेपर भी इस अव्यक्त ओंकारको सुनते हैं जीव इन्द्रियोंके अधीन है, इसलिये कान बन्द किये जानेपर भी कुछ नहीं सुनता, हृदयरूप आकाशमें आत्मासे उत्पन्नहुए ओंकारसे वैखरी विस्तृत वाणी प्रगट होतीहै॥४०॥ अपने आश्रयरूप सर्वव्यापक साक्षात् परमात्मा परब्रह्मका बतानेवाला सब मंत्रोंका रहस्य, वेदोंका बीज, सनातन ओंकार है॥४१॥ हे भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ ! उस ओंकारसे अकार, उकार, मकार यह तीन वर्ण हुए तीन वर्णसे सत्त्व, रज और तम तीन गुण ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद यह तीन वेद, भूर्लोक भुवर्लोक और स्वर्लोक यह तीनों लोक, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति यह तीनों अवस्था हुईं॥४२॥ भगवान् ब्रह्माजीने इन्ही वर्णोंसे अक्षरोंके समूह रचे सोलह॥१६॥ तो स्वर पचीस २५ स्पर्श चार ४ अन्तस्थ, चार ४ ऊष्मा, यह सब ह्रस्व दीर्घ जिह्वामूलीय करके युक्त हैं॥४३॥ भगवान् ब्रह्माजीने उन्हीं अक्षरोंसे चारों मुखोंसे

स्वधाम्नो ब्रह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः॥ स सर्वमंत्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम्॥४१॥ तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह। धार्यंते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः॥४२॥ ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः॥ अंतः स्थोष्मस्वरस्पर्शह्रस्वदीर्घादिलक्षणम्॥४३॥ तेनासौ चतुरो वेदाश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः॥ सव्याहृतिकान्सोंकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया॥४४॥ पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्ब्रह्मकोविदान्॥ ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन्॥४५॥ ते परंपरया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः॥ चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः॥४६॥ क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान्दुर्मेधान्वीक्ष्य कालतः॥ वेदान्ब्रह्मर्षयो व्यस्यन्हृदिस्थाच्युतचोदिताः॥४७॥

ओंकारसहित चारों वेदोंको रचा चातुर्होत्र कर्मोंके लिये अथर्वण, यजुर्वेदी उद्गाथा, सामवेदी होता, ऋग्वेदी ब्रह्मा, आहुतिदेनेवाले रचे॥४४॥ फिर भगवान् ब्रह्माजीने वेदोंके उच्चारणादिकोंमें चतुर ब्रह्मर्षि अपने पुत्रोंको वह वेद पढाये और धर्मोंके उपदेष्टा होकर अपने पुत्रादिकोंके पढाने लगे॥४५॥ उन सब वेदोंके हृदयमें धारण करनेवाले व्रतधारी शिष्योंकी परंपरा चारों युगोंमें चली आई है, द्वापरके अन्तमें महाऋषियोंने वेदोंके विभाग किये॥४६॥ इसका कारण यह है कि भगवान्नेजाना कि, कलियुगमें सब ब्रह्मऋषि कालसे क्षीण, अल्प आयु, वीर्यहीन, अशक्ति और मन्दमति होंगे, यह विचारकर अच्युत भगवान्नेउनके हृदयमें विराजमान होकर प्रेरणा की तब उन ऋषियोंने वेदका विभाग किया॥४७॥

हे ब्रह्मन्! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें लोकोंके पालन करनेवाले भगवान् धर्मकी रक्षाके लिये ब्रह्मा, शिवादिक लोकपालोंकी स्तुति करनेसे॥४८॥ विभु भगवान्ने अपने अंशकलाओंसे पराशरमुनिके वीर्य करके सत्यवतीके गर्भमें वेदव्यासरूपसे अवतीर्ण होकर वेदके चार विभाग किये॥४९॥ जैसे रत्नपारखी अनेक मणियोंकी राशियोंसे पद्मरागादि मणियोंको छाॅटछाँटकर अलग कर लेता है, ऐसेही मंत्रोंके समुदाय एक वेदमेंसे ऋग, यजुर, साम और अथर्वण नामके मंत्रोंको उद्धारके उन मंत्रोंसे चार संहिता श्रीवेदव्यासजीने रची॥५०॥ हे शौनक! फिर पीछे महामति व्यासजीने

अस्मिन्नप्यंतरे ब्रह्मन्भगवाल्ँलोकभावनः॥ ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये॥४८॥ पराशरात्सत्यवत्यामंशां शकलया विभुः॥ अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम्॥४९॥ ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीनुद्धृत्य वर्गशः॥चतस्रः संहिताश्चक्रेमंत्रैर्मणिगणा इव॥५०॥ तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः॥ एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः॥५१॥ पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यामुवाच ह॥ वैशंपायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम्॥५२॥ साम्नां जैमिनये प्राह तथा छंदोगसंहिताम्॥ अथर्वांगिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमंतवे॥५३॥ पैलः स्वां संहितामूच इंद्रप्रमितये मुनिः॥ बाष्कलाय च सोप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम्॥५४॥ चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव॥ पराशरायाग्निमित्रे इंद्रप्रमितिरात्मवान्॥५५॥

अपने चार शिष्योंको बुलाकर एक एक संहिता देदी॥५१॥ पैलनाम शिष्यको बहुत ऋचा होनेसे बह्वृचनाम ऋग्वेदकी संहिता दी, निगदानाम यजुर्वेदकी संहिता वैशंपायनको दी॥५२॥ छन्दोगनाम सामवेदकी संहिता जैमिनीको पढाई और अंगिरसनाम अथर्वण वेदकी संहिता अपने शिष्य सुमंतुको पढाई॥५३॥ पैलमुनिने अपनी पढीहुई संहिता इन्द्रप्रमित और बाष्कलनाम अपने दोनों शिष्योंको दी॥५४॥ हे ब्रह्मन्! बाष्कलने अपनी संहिताके चार विभाग करके बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र, इन चारों अपने शिष्योंको पढ़ाई महात्मा

इन्द्रप्रमितने अपनी संहिता कवि मंडूक ऋषिको पढ़ाई मंडूकने देवमित्रको पढ़ाई देवमित्रने सौभर्यादि ऋषियोंको पढाई॥५५॥५६॥ मंडूकेके पुत्र शाकल्यने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य, शिशिरनाम अपने पाँचो शिष्योंको दी॥५७॥ शाकल्यके छठे जातूकर्ण्य नाम शिष्यने अपनी संहिताके तीन भाग किये और वैदिक पदार्थोंका व्याख्यानरूप निरुक्त नाम ग्रन्थ रचकर, बलाक, पैज, वैताल और विरज नाम अपने चार शिष्योंको पढाया॥५८॥ बाष्कलि, बाष्कलके पुत्रने सब संहिताओंकी शाओंमेंसे बालखिल्यानाम संहिता बनाकर वह संहिता बालायनि, भज्य और कासारनाम अपने तीनों शिष्योंको दीं॥५९॥ यह सब ब्रह्मऋषि ऋग्वेदकी बह्वृचानाम संहिताके

अध्यापयत्संहितां स्वां मांडूकेयमृषिं कविम्॥ तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान्॥५६॥ शाकल्य स्तत्सुतस्तां तु पंचधा व्यस्य संहिताम्॥ वात्स्यमुद्गलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात्॥५७॥ जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्॥ बलाकपैजवैतालविरजेभ्यो ददौ मुनिः॥५८॥ बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम्॥ चक्रे बालायनिर्भज्य काशारश्चैव तां दधुः॥५९॥ बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः॥ श्रुत्वैनं छंदसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥६०॥ वैशंपायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्॥ यच्चेरुर्ब्रंह्महत्यांहःक्षपणं स्वगुरोर्व्रतम्॥६१॥ याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत्॥ चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सृदुश्चरम्॥६२॥ इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया॥ विप्रावमंत्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति॥६३॥

धारण करनेवाले हुए जो पुरुष इस वेदके विस्तारको सुनेगा वह सब पापोंसे निवृत्त होजायगा॥६०॥ वैशंपायनके शिष्यने यजुर्वेदसंहिता पढ़ी, इसलिये उन्होंने यज्ञमें अध्वर्युकी पदवी पाई, जब उनके गुरु वैशंपायनको ब्रह्महत्याका पाप लगा तब उस पापके निवारणके लिये अपने गुरुके बदले उन्होंने अपने आप प्रायश्चित्त किया उस दिनसे उनका नाम चरकाध्वर्यु हुआ॥६१॥ याज्ञवल्क्यने ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त करानेके समय वैशंपायन अपने गुरुसे कहा कि, हे स्वाचिन्! अल्प दृढतावाले जो और पापके शिष्य हैं, जो आपके पापका प्रायश्चित्त करैंतो क्योंकर होगा? यह महाकठिन प्रायश्चित्त में इकलाही करूंगा॥६२॥ याज्ञवल्क्यका यह वचन सुनकर वैशंपायन अत्यन्त कुपित होकर बोले कि, तू मेरे सामनेसे

चलाजा, तू दूसरे ब्राह्मणकी अवज्ञा करनेवाला शिष्य है, इसलिये मुझसे तुझसे कुछ प्रयोजन नहीं तैंने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, उसको इसी समय त्यागदे॥६३॥ गुरुके मुखसे इस प्रकारके कठोर वचन सुनकर देवरातके पुत्र याज्ञवल्क्यने अभिमानमें आनकर यजुर्वेदके मंत्रोंको उगल वहाँसे चलदिया उस समय मुनिगणोंने यजुर्वेदके अमूल्य मंत्रोंको पड़ा देखा॥६४॥ जिन मंत्रोंमें उन मुनियोंकी परम इच्छाथी, उन मंत्रोंको उन मुनियोने तीतर पक्षीका रूप धारण करके याज्ञवल्क्यके वमन कियेहुए यजुर्वेद मंत्रोंको ग्रहण कर लिया, उसी दिनसे उस यजुर्वेदकी तैत्तिरीय नाम शाखा हुई॥६५॥ हेब्रह्मन्! याज्ञवल्क्यजीने गुरुसे भी अधिक वेदविद्या प्राप्त करनेके लिये श्रीसूर्यनारायणकी उपासना करनी आरम्भ की॥६६॥

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम्॥ ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान्यजुर्गणान्॥६४॥ यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः॥ तैत्तिरीया इति यजुःशाखा आसन्सुपेशलाः॥६५॥ याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मञ्छन्दांस्यधि गवेषयन्॥ गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम्॥६६॥ याज्ञवल्क्य उवाच॥ ॐनमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तंबपर्यंतानामंतर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवो पाधिनाऽव्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति॥६७॥ यदु ह वा व विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवमहरहरराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिनबीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम्॥६८॥

याज्ञवल्क्य बोले कि, हे सूर्यनारायण भगवान्! आदित्यस्वरूप आपको वारम्वार नमस्कार है, आप ब्रह्मासे लेकर तृण पर्यन्त जरायुज आदि चार प्रकारके जीवोंके समुदाय रूपसहित इस विश्वके हृदयमें निरुपाधि अन्तर्यामीरूप हो और बाहर लव निमेष क्षणके अनेक अवयववाले वर्षोंके समुदायवाले कालरूपसे आकाशकी सदृश उपाधिसे आच्छादित नहीं होते और प्रत्येक वर्षमें पानीके सोखने और वर्षानेसे एकही आप इस जगत्कीदिन रात यात्रा करते रहतेहो ऐसे जो आप त्रिलोकीनाथ हो आपको वारम्वार प्रणाम करताहूं॥६७॥ हे त्रिभुवनपते! हे त्रयतापके नशानेवाले! हे नित्य त्रिकाल वेदविधिसे पूजन करनेवाले! भक्त जनोंके अखिल पापोंके फल दूषण और बीज अज्ञानके जलानेवाले!

हे सर्व देवताओंमें श्रेष्ठ! हे सविता भगवन्! आपका जो यह मण्डल त्रिलोकी में प्रकाश करता है, ऐसे जो आप निशिवासर जगत्के तपानेवाले हैं सो मैं एकाग्रचित्तसे आपका ध्यान करताहूं॥६८॥ हे भास्कर! आपके रहनेके स्थान स्थावर जंगम अनंत समुदायके जडरूप मन इन्द्रिय प्राणोंके समूहोंको आपही अन्तर्यामी आत्मारूप होकर प्रेरणा करतेहो ऐसे तेजरूपको मैं वारम्वार नमस्कार करताहूं॥६९॥ हे विश्वतमनाशक! हे कृपानिधे! महाभयानक मुखवाले अन्धकाररूपं अजगरसे ग्रसेहुये मृतकके समान संज्ञारहितं अचेतन लोकोंको देखकर परमकरुणानिधान आप दयादृष्टिसे उनको उठाकर नित्य समयसमयपर कल्याणरूप स्वधर्मनिष्ठामें प्रवृत्त करते हो और भूपतिकी तुल्य असाधु लोगोंको

य इह वा व स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनइंद्रियासुगणाननात्मनः स्वयमात्मांतर्यामी प्रचोदयति॥६९॥ य एवेमं लोकमतिकरालवदनांधकारसंज्ञाजगरग्रहगिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकंपया परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्त्तयत्यवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति॥७०॥ परित आशापालैस्तत्रतत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः॥७१॥ अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिर्वंदितमहमयातयामयजुष्काम उपसरामीति॥७२॥ सूत उवाच॥ एवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो हरिः॥ यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः॥७३॥

भय देतेहुये सब और घूमते रहते हो, ऐसे जो आप दयालु हो सो आपको वारम्वारं प्रणाम करताहूं॥७०॥ हे सूर्य! जहाँ तहाँ दिक्पाल देवता कमलकोशयुक्त अंजलियोंसे आपको अर्घ्य देदेकर आराधना करते हैं, ऐसे जो सर्वान्तर्यामी आप हो आपकोमैंनमस्कार करताहूं॥७१॥ हे भगवन्! आप ऐसे दीनदयालु हो, त्रिलोकीके अधीश्वरोंसे पूजित आपके चरणारविन्दकी उत्तम यजुर्वेदकी कामनाके लिये मैं शरण आयाहूं॥७२॥ सूतजी बोले कि, हे शौनकादि ऋषियों! याज्ञवल्क्यने जब इस प्रकार सूर्यनारायणकी प्रार्थना की, तब उस प्रार्थनाको सुन, सूर्यनारायणने प्रसन्न होकर अश्वका रूप धारण किया और इच्छानुसार सहित यजुर्वेदके मंत्र दिये॥७३॥

तब याज्ञवल्क्य मुनिने उस यजुर्वेदकी पन्द्रह १५ शाखा करी, सूर्यनारायणने अपनी केशावलीसे जो मंत्र निकाले इसलिये यह शाखा वाजसनेयी नामसे प्रसिद्ध हुईं, उन शाखाओंको कण्व और मध्यंदिनादि ऋषियोने ग्रहण किया॥७४॥ सामवेदके वेत्ता जैमिनिने सुमन्तु नाम अपने पुत्रको और सुन्वान् नाम अपने नातीको एक एक संहिता पढ़ादी॥७५॥ फिर जैमिनिजीका दूसरा शिष्य सुकर्मा नाम द्विज बड़ा चतुरथा उसने सामवेदवृक्षकी सहस्र संहिता बनाकर अलग अलग शाखा रचीं॥७६॥ हिरण्यनाभ, कौशल्य, पौष्यंजि और वेदपाठी आवंत्य यह तीन शिष्य सुकर्माके हुये, उन्होंने सहस्रों संहिताओको ग्रहण किया॥७७॥ हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और आवंत्यके महाचतुर पांचसौ ५०० शिष्य साम

यजुर्भिरकरोच्छाखा दशपंच शतैर्विभुः॥ जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यंदिनादयः॥७४॥ जैमिनेः सामगस्यासीत्सुमंतुस्तनयो मुनिः॥ सुन्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम्॥७५॥ सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्॥ सहस्रं संहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विजः॥७६॥ हिरण्यनाभः कौशल्यः पौष्यंजिश्च सुकर्मणः शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवंत्यों ब्रह्मवित्तमः॥७७॥ उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन्पंच शतानि च॥ पौष्यंज्यावंत्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान्प्रचक्षते॥७८॥ लौगाक्षिर्मांगलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च॥ पौष्यंजिशिष्या जागृहुःसंहितास्ते शतंशतम्॥७९॥ कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशतिसंहिताः॥ शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवंत्य अत्मवान्॥८०॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादशस्कंधे वेदशाखाविभागनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ सूत उवाच॥ अथर्ववित्सुमंतुश्च शिष्यमध्यापयत्स्वकम्॥ संहिता सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान्॥१॥

वेदके गानेवाले उदीच्या नाम (उत्तर दिशानिवासी) हुए, उनमें कोई कोई पूर्वदिशाके वासी कहलाये॥७८॥ पौष्यंजिके शिष्य लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद, कुक्षी यह पांच शिष्य और थे, उन्होंने सौ सौ संहिताओंको ग्रहण किया॥७९॥ हिरण्यनाभका कृत्तनाम दूसरा और शिष्य था, उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिता पढ़ाई और जो संहितायें अवशेष रहगईंथीवह ज्ञांनवान् आवंत्यने अपने शिष्योंको पढ़ादीं॥८०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा — सप्तममाहिं अथर्वको, कहों सहित विस्तार॥ फेर पुराणोंके कहौं, लक्षण सकल विचार॥१॥ सूतजी बोले कि, अथर्ववेदपाठी सुमन्तुने अपनी संहिता अपने कबन्ध नाप्रशिष्यको पढ़ाई

कबन्धने अपनी संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्श नामको पढ़ाई॥१॥ हे ब्राह्मणो! वेददर्शने अपनी संहिताके चार भाग किये और शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि नाम अपने चार शिष्योंको पढ़ाई, और पथ्यने अपनी संहिताके तीन भाग करके कुमुद, शुनक और जाजलि नाम तीन शिष्योंको पढ़ाई॥२॥ शुनकके बभ्रु और सैन्धवायन नाम दो शिष्योंको अपनी संहिताके दो विभाग करके पढ़ाया सैन्धवायन आदिके सावर्णि आदि शिष्य हुए॥३॥ नक्षत्रकल्प, शान्तिकल्प, कश्यप और आंगिरस आदि शिष्य हुए हे मुनिराज! यह तो मैंने आपसे अथर्ववेदके आचार्य्य कहे अब मैं आपके सामने पुराणोंके आचार्योंका वर्णन करता हूँ। सो आप सावधान होकर सुनिये॥४॥ त्रय्यारुणि,

शौल्कायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः॥ वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो शृणु॥ कुमुदः शुनको ब्रह्मञ्जाजलिश्चाप्यथर्ववित्॥२॥ बभ्रुः शिष्योऽथांगिरसः सैंधवायन एव च॥ अधीयेतां संहिते द्वे सावर्ण्याद्यास्तथाऽपरे॥३॥ नक्षत्रकल्पः शांतिश्च कश्यपांगिरसादयः॥ एते आथर्वणाचार्याः शृणु पौराणिकान्मुने॥४॥ त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः॥ वैशंपायनहारीतौ षड्वैपौरणिका इमे॥५॥ अधीयंत व्यासशिष्यात्संहितां मत्पितुर्मुखात्॥ एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥६॥ कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योकृतव्रणः॥ अधीमहि व्यासशिष्याच्चतस्रो मूलसंहिताः॥७॥ पुराणलक्षणं ब्रह्मन्ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम्॥ शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः॥८॥

कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशंपायन और हारीत यह छः पुराणोंके आचार्य हुए॥५॥ वेदव्यासजीने पहिले पुराणोंकी छः संहिता रचकर मेरे पिता रोमहर्षणको पढ़ाईथी, फिर रोमहर्षणके मुखसे इन छहों जनोंने छहों संहिताओं को पढ़ा, मैं इन छहों महात्मा जनोंका शिष्य हुवा और सबसे एक एक संहिता पढी॥६॥ इनमें जो पुराणोंकी चार संहितायें मूल थीं उनको कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीका शिष्य अकृतव्रण और चौथा मैंइन चारों जनोंने व्यासजीके शिष्य मेरे पितासे चारों मूलसंहिताओंको पढ़ा॥७॥ हे शौनक! ब्रह्मऋषियोंने जो पुराणोंके लक्षण वर्णन किये हैं, वेद शास्त्रके

अनुसार उसे हम कहते हैं आप सावधानहो ध्यान लगाकर सुनिये॥८॥ सर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, राजाओंके वंश, उन वंशवाले राजाओंके चरित्र, निरोध, मुक्ति, हेतु और अपाश्रय॥९॥ जिसमें यह दश लक्षण होंय विद्वान् लोग उसको महापुराण कहते हैं और कोई कोई आचार्य लोग पॉच लक्षण (सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित्र) वाले ग्रन्थको भी पुराण कहते हैं, यह केवल छोटे बडेकी व्यवस्था है॥१०॥ इस मायाके गुण क्षोभसे महत्तत्त्व, तीन प्रकारका अहंकार, पंचमहाभूत और इन्द्रियगणकी उत्पत्तिको सर्ग कहते हैं॥११॥ ईश्वरके अनुग्रह से महत्तत्त्व आदिसे प्रगट होता हुवा और बीजमेंसे बीजकी सदृश प्रवाहरूपसे चलतेहुए स्थावर जंगमरूप प्रपंचको विसर्ग कहतेहैं॥१२॥ जंगम

सर्वोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षांतराणि च॥ वंशो वंश्यानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥९॥ दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः॥ केचित्पंचविधं ब्रह्मन्महदल्पव्यवस्थया॥१०॥ अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः॥ भूतसूक्ष्मेंद्रियार्थानां संभवः सर्ग उच्यते॥११॥ पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः॥ विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्बीजं चराचरम्॥१२॥ वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च॥ कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा॥१३॥ रक्षाऽच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगेयुगे॥ तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यंते यैस्त्रयीद्विषः॥१४॥ मन्वंतरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वरः॥ ऋषयोंशावतारश्च हरेः षड्विधमुच्यते॥१५॥ राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः॥ वंश्यानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्चये॥१६॥

प्राणियोंके स्थावर आदार है और जंगमोंकी मांसमें भी साधारण प्रीति है, उनमें मनुष्योंके निमित्त रागसे अथवा शास्त्रवचनोंसे जो आजीविकाका विधान है, वह वृत्ति कहाती है॥१३॥ पशु, पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवताओंमें भगवान् अवतीर्ण होकर युगयुगमें जो लीला करके विश्वकी रक्षा करते हैं, वही विश्वकी रक्षा कहलाती है और वही अनेक प्रकारके अवतार धारण करके वेदके द्रोही दुष्ट और पाखण्डियोंको मार पृथ्वीकी रक्षा करते हैं वही रक्षा कहलाती है॥१४॥ मनु, देवता, मनुके पुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और हरिके अंशावतार, यह छः मिलकर मन्वन्तर कहलाता है॥१५॥ ब्रह्मासे उत्पन्न हुए शुद्ध राजाओंकी भूत, भविष्य, वर्त्तमान कालकी सन्तानको वंश कहते हैं, उन राजाओंके वंशको और

उन वंशोंमें हुए चरित्रोंको वंशानुचरित्र कहते हैं॥१६॥ नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत, आत्यन्तिकं, चार प्रकारकी प्रलयको कविजन संस्था (निरोध) कहते हैं॥१७॥ अविद्या के कारण कर्म कर्त्ताजीव जिसे मुख्यवेत्ता अनुशयी और उपाधिवेत्ता अव्याकृत कहते हैं, उसकी वासना इस जगत्की सृष्टि होने में निमित्त है, वह मुक्ति हेतु (ऊति) कहलाती है॥१८॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिमें जीवरूपसे वर्तनेवाले ईश्वर मायामें विश्व, तैजस और प्राज्ञमें प्रविष्ट हैं और समाधिमें उनसे पृथक् हैं, इसलिये वह अपाश्रय कहलाते हैं॥१९॥ जैसे घटादिक पदार्थमें मृत्तिकादि प्रविष्टहै उनके नाम रूपमें सत्तामात्रही हैं, ऐसेही जन्मसें लेकर मरणतक उन सब अवस्थामें ब्रह्मयुक्तभी है और अलग भी है॥२०॥ जब सत्त्व, रज,

नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यंतिको लयः॥ संस्थेति कविभिः प्रोक्ता चतुर्धाऽस्य स्वभावतः॥१७॥ हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेरविद्याकर्मकारकः॥ यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे॥१८॥ व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्संप्रसुषुप्तिषु॥ मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः॥१९॥ पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु॥बीजादिपंचतां तासु ह्यवस्था सुयुतायुतम्॥२०॥ विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम्॥ योगेन वा तदात्मानं वेदेहा या निवर्त्तते॥२१॥ एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः॥ मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महांति च॥२२॥ ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं चं शैवं लैंगं सगारुडम्॥ नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कांदसंज्ञितम्॥२३॥ भविष्यं ब्रह्मवैवर्त्तं मार्केडेयं सवामनम्॥ वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्मांडाख्यमिति त्रिषट्॥२४॥

तमतीनों गुणोंकी वृत्तियोंको त्यागकर पुरुषका चित्त शान्त होय, अथवा योगाभ्यास करके शान्त होय तब यह पुरुष अपने शुद्धरूपको जानकर संसारचेष्टाओंसे छूट जाता है॥२१॥ इन छोटे बड़े लक्षणोंसे पुराण पहुँचाने जातेहैं, अठारह १८ महापुराण हैं और अठारह १८ लघु पुराण हैं, इसप्रकार बड़े बड़े प्राचीन कविवर कहते हैं॥२२॥ ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुड़पुरण, नारदीयपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराणं॥२३॥ भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयेपुराण, वामनपुराण, वाराहपुराण, मत्स्यपुराण

कूर्म्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, यह अठारह पुराण कहे *॥२४॥ हे ब्रह्मन् ! वेदव्यासजीने और उनके शिष्योंने और उनके शिष्योंके शिष्योंने जो वेदकी शाखाओंका विस्तार किया है, वह वृत्तान्त मैंने आपको सुनाया क्योंकि वह ब्रह्मतेज और भक्तिका बढ़ानेवाला है॥२५॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां पुराणलक्षणवर्णनो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा — मोह मार्कण्डेयको, तपचर्य्या अरु काम॥

ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः॥ शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धेऽथर्ववेदपुराणलक्षणादिनि० सप्तमोऽध्यायः॥७॥ शौनक उवाच॥ सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर॥ तमस्यपारे भ्रमतां नृणां त्वं पारदर्शनः॥१॥ आहुश्चिरायुषमृषिं मृकंडतनयं जनाः॥ यः कल्पांते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत्॥२॥

इस अष्टमअध्यायमें, हरिस्तुति सुखधाम॥१॥ शौनकादि मुनि बोले कि, हे साधो! हे श्रीसूतजी महाराज — वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! इस अपार संसारमें भ्रमनेवाले मनुष्योंको पार लगानेवाले तुम चिरंजीवित रहो॥१॥ मृकण्डके पुत्र मार्कण्डेयजीको लोग चिरंजीवी कहतेहैं।

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* शंका - राजा जन्मेजयकी यज्ञमें बृहस्पतिजीने राजा जन्मेजयसे कहा कि, हे राजन्! तक्षकने अमृत पीलिया है अब आपके मारनेसे वह नहीं मरेगा क्योकि अमृतको जो प्राणी पीलेता है वह किसीके मारनेसे नहीं मरता, इस वातमें यह सन्देह है कि, अमृतका स्वामी इन्द्र, जिसने रातदिन अमृत पिया, वरन् अमृत पीते पीते अनेक युग बीत गये ऐसे इन्द्रको ब्राह्मणोंने तप और मन्त्रोंके प्रभावसे राजा जन्मेजयके यज्ञवाले कुण्डमें भस्म करनेके लिये स्वर्गसे गिराकर भस्म करनेकी सामर्थ्य तो ब्राह्मणोमें थी और जिस तक्षकने राईभर अमृत पीलिया क्या वह ब्राह्मणोंके मंत्र और तपके प्रभावसे भस्म नहीं होसक्ता?

उत्तर - जो प्राणी बहुत दुःखी होकर भगवान्‌का नाम एकवार भी लेताहै उसको असंख्यनामके जपनेका फल प्राप्त होता है ऐसा शास्त्रों में लिखा है। ऐसा तक्षकने जाना कि, में बडे बडे देवताओंके पास गया किसीने भी मेरी सहायता नहीं की ऐसा विचार कर इन्द्रलोकमें गया, महाःदुखी हो रहाथा। नेत्रोंसे आँसू चले जाते थे, तब अत्यन्त आतुर होकर हे भगवन् ! हे नारायण ! इसप्रकार बडे आदर सत्कारसे वारम्वार भगवान्कानाम जपा, तब वही भगवान्कानाम अमृत होगया उसी भगवन्नाम अमृतको तक्षकने पान किया, इसलिये गुप्त करके बृहस्पतिजीने कहाथा कि, तक्षकने अमृत पीलिया है तुम्हारे मारनेसे नहीं मरेगा, कुछ इन्द्रवाले अमृतको नहीं कहा था॥

क्योंकि जिस प्रलयमें सब जगत् ग्रस्त हुवा तो उस कल्पांतमें मार्कण्डेयजी किसप्रकार बचरहे?॥२॥ जो भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ इसी कल्पमें हमारे वंशमें उत्पन्न हुए, उस दिनसे लेकर आजतक प्राणियोंका प्राकृतिक अथवा नैमित्तिक कोई भी प्रलय नहीं हुवा, फिर उनका प्रलयमें अवशेष रहना क्योंकर संभव हो सक्ताहै ?॥३॥ कोई कोई महात्माजन ऐसा भी कहते हैं कि, मार्कण्डेय ऋषि इकलेही प्रलके समुद्रमें घूम रहेथे और वहाॅउन्होंने वटवृक्षके पत्रके दुप्पेमें एक अद्भुत बालकको सोता हुवा देखा “सो प्रलयकालमें वटका वृक्ष कैसे रहगया “॥४॥ हे सूत !

स वा अस्मत्कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन्भार्गवर्षभः॥ न वाऽधुनापि भूतानां संप्लवः कोऽपि जायते॥३॥ एक एवार्णवे भ्राम्यन्ददर्श पुरुषं किल॥ वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्भुतम्॥४॥ एष नः संशयो भूयान्सूतकौतूहलं यतः॥ तं नश्छिन्द्धिमहायोगिन्पुराणेष्वपि संमतः॥५॥ सूत उवाच॥ प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः॥ नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा॥६॥ प्राप्तद्विजातिसंस्कारो मार्कंडेयः पितुः क्रमात्॥ छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः॥७॥

हे महायोगिन्! हमको बड़ा सन्देह है और उसका उत्तर सुननेकी अभिलाषा है, सो आप सब पुराणों के ज्ञाता और परमज्ञानी हो, आप हमारे इस संशयको निवारण करो॥५॥ सूतजी बोले कि, हे महापुरुषो! आपका यह प्रश्न सम्पूर्ण लोकोंके पापोंका दूर करनेवाला है क्योकि इस प्रश्नमें श्रीनारायणकी कथा कलियुग के दोषोंकी मिटानेवाली है *॥६॥ क्रम करके पितासे द्विजन्म संस्कार पाय मार्कण्डेयने

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* शंका - श्रीमद्भागवतके द्वादशस्कन्धके अष्टम अध्यायमें लिखा है कि, सूतके मुखसे ब्राह्मणोंने विद्या पढी, तो इसमें यह शंका है कि, क्या उस समय ब्राह्मणोंको विद्या पढानेके लिये ब्राह्मण वश नहीं था क्या सब ब्राह्मण नष्ट होगयेथे? जो ब्राह्मणोंने सूतके मुखसे विद्या पढ़ीं यह बडा आश्चर्य है?

** उत्तर -** सूतने व्यासदेवजीकी सेवा बहुतवर्षतक की, तत्र व्यासजीने सूतको अपना पुत्र मानकर शास्त्र और पुराण पढाये और यज्ञोपवीत कर्म भी सूतका किया क्योंकि व्यासजी साक्षात् भगवान्का अवतार थे, संस्कारकरके सूतको वरदान दिया कि, हे पुत्र सूत! तुम्हारे मुखसे भगवान्की कथाको जो ब्राह्मण अभिमान त्यागकर सुनैंगे अथवा पढैंगे तब उन सुननेवाले पढनेवाले ब्राह्मणोंको सहस्रगुणा कथाका फल होगा और सहस्र गुणाही विद्या पढनेका फल होगा। इसलिये सव ब्राह्मण और सनकादिकोंने अभिमानको तजकर सूतसे कथा सुनी और विद्या पढी ब्राह्मणोंका वश नष्ट नहीं हुवा था, पुण्यके लोभसे सब ब्राह्मणोंने पढा सुना॥

विद्याध्ययनयुक्त धर्मपूर्वक वेदोंको पढ़ा॥७॥ नैष्ठिक बालब्रह्मचारी, शान्त, वल्कलवस्त्र धारण किये, जटा, दण्ड, कमण्डलु, उपवीत (जनेऊ) पहिरे॥८॥ कष्णमृगचर्म, कमलाक्षकी माला, नित्य नैमित्तिक सिद्धिके लिये कुशाओंको धारण किये, अग्नि, सूर्य, गुरु, ब्राह्मण और आत्मामें दोनों सन्ध्या करके भगवत् आराधना करनेलगे॥९॥ साँझ सबेरे भिक्षा लाकर गुरुके सन्मुख रख देते और जब गुरु आज्ञा देते तब मौन साध एकबार भोजन करलेते और जो गुरु कभी आज्ञा न देते तो उसदिन निराहारही रहजाते॥१०॥ इसप्रकार मार्कण्डेयजीने विद्याध्ययन परायण होकर दश करोड़ (१००००००००) वर्षतक हृषीकेशका आराधन करके तप किया और अतिदुर्जय मृत्युको जीत लिया॥३१॥ तब तो ब्रह्मा, महादेव, भृगु, दक्ष

बृहद्व्रतधरः शांतो जटिलो वल्कलांबरः॥ बिभ्रत्कमण्डलुं दंडमुपवीतं समेखलम्॥८॥ कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये॥ अग्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन्सन्ध्ययोर्हरिम्॥९॥ सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यमाहृत्य वाग्यतः॥ बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः॥१०॥ एवं तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम्॥ आराधयन्हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम्॥११॥ ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे॥ नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिताः॥१२॥ इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपःस्वाध्यायसंयमैः॥ दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशांतरात्मना॥१३॥ तस्यैवं युंजतश्चित्तं महायोगेन योगिनः॥ व्यतीयाय महान्कालो मन्वंतरषडात्मकः॥१४॥ एतत्पुरंदरोज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन्किलान्तरे॥ तपोविशंकितो ब्रह्मन्नारेभे तद्विघातनम्॥१५॥ गंधर्वाप्सरसः कामं वसंतमलयानिलौ॥ मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तदा॥१६॥ ते वै तदाश्रमं जग्मुर्हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे॥ पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो॥१७॥

और भी ब्रह्मा के अनेक पुत्र, मनुष्य, देवता, पितर, भूत और सम्पूर्ण देहधारियोंको बड़ा आश्चर्य हुवा॥१२॥ इसप्रकार नैष्ठिकब्रह्मचारी व्रत धारणकर मार्कण्डेययोगी तप अध्ययन संयमों करके क्लेशरहित मनसे अधोक्षज भगवान्का ध्यान करनेलगे॥१३॥ इसप्रकार भगवान्में मन लगाये उस महायोगी मार्कण्डेयको छः मन्वन्तर बीतगये॥१४॥ हे ब्रह्मन् ! तब सातवें मन्वन्तरमें मार्कण्डेयके तपको देखकर इन्द्र शंकायुक्त हुवा और उनके तपमें विघ्न डालना चाहा॥१५॥ तब इन्द्रने उनका तपभंग करनेके लिये गन्धर्व, अप्सरा, मनोभव, वसन्तऋतु, मलयपवन, रजोगुणके मित्र लोभ व मदको मार्कण्डेयमुनिके पास भेजा॥१६॥ हे विभो ! वह सब मिलकर हिमालयकी उत्तर ओर उन मुनिके आश्रममें गये, जहाँ पुष्प

भद्रानदी और चित्रानाम शिला है॥१७॥ वह परमपवित्र मार्कंडेयजीका आश्रम जहाँ सुन्दर सुन्दर वृक्ष और लतायें शोभायमान थीं अनेकप्रकारके पक्षियोंके शब्दसे व्याप्त हो रहा था, जहाँ परमविद्वान् ब्राह्मणोंके कुल निवास करते थे और सरोवरोंमें जहाँ तहाँ निर्मल जल झकोल रहेथे॥१८॥ मतवाले भ्रमर गुंजार रहे थे, मदोन्मत्त कोकिला कुहू कुहूपुकार रहीथीं, मदमाते मोर जहाॅतहाँ नटोंकी नाच नाचरहेथे और मत्त पक्षियोंके समुदाय अपनी अपनी वाणी बोलरहेथे॥१९॥ शीतल जलके झरनोंके कनकाओंको लेकर वनपवन पुष्पोंको स्पर्श करती परम सुगन्धवाली कामदेवको बढानेवाली कामदेवको देखकर सबके चित्तको प्रफुल्लित करनेलगी॥२०॥ चन्द्रमाके उदय होनेसे सन्ध्या समयके सुन्दर नवीन पल्लव और

तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलतांचितम्॥ पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम्॥१८॥ मत्तभ्रमरसंगीतं मत्तकोकिलकूजितम्॥ मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम्॥१९॥ वायुः प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान्॥ सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तंभयन्स्मरम्॥२०॥ उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रःप्रवालस्तबकालिभिः॥ गोपद्रुमलताजालस्तत्रासीत्कुसुमाकरः॥२१॥ अन्वीयमानो गन्धर्वैर्गीतवादित्रयूथकैः॥ अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः॥२२॥ हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिंकराः॥ मीलिताक्षं दुराधर्षंमूर्तिमंतमिवानलम्॥२३॥ ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः॥ मृदंगवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम्॥२४॥ संदधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा॥ मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकंपयन्॥२५॥

फूलोंके गुच्छोंके समूह अनेक शाखा और वृक्ष लताओंसे युक्त वसन्तऋतु वहॉ आनकर प्रगट हुई॥२१॥ गीत और वादित्रवाले गन्धर्व और अप्सराओंके समूहोंसे युक्त कामदेव हाथमें धनुषबाण लिये दिखाई दिया॥२२॥ अग्निहोत्रसे निश्चिंत हो उस आश्रममें ध्यानसे नेत्र मूॅदकर ऐसे बैठे थे जैसे मूर्त्तिमान अग्निके समान अनन्ततेजस्वी मार्कण्डेयजीको आसनपर विराजमान देखा॥२३॥ उस समय मार्कण्डेयजीके सामने अप्सरायें नाचनेलगीं, गन्धर्व गानेलगे, मृदंग, वीणा, ढोलकादि अनेक प्रकारके सुंदर सुन्दर बाजे बजानेलगे॥२४॥ ऐसा सुन्दर समय पाकर कामदेवने शोषण, दीपन, संमोहन, संतापन, उन्मादन नाम यह पाँच मुखवाले बाण अपने धनुषपर धारण किये और वसन्त लोभादिसे सब इन्द्रके अनुचर

मार्कण्डेयजीके मनको कम्पायमान करनेलगे॥२५॥ गेंदको उछालती अनेक प्रकारकी क्रीड़ा करती पुंजिकस्थली नाम अप्सरा स्तनोंके भारसे जिसकी लंक लचक रहीथी कि, जिसके केशपाशसे शिथिल होनेके कारण पुष्प गिररहे थे॥२६॥ गेंदको उछालती तिरछी चितवनसे चारोंओर को देखती भालती जब वह चंचलचित्तवाली चली तब कटिमेखला टूटजानेसे उसका वस्त्र भी छूटगया, पीछे समीरने उस वीरबालाका सूक्ष्म वस्त्र हरण करलिया॥२७॥ उससमय पंचशरने मार्कण्डेयजीको अपने वशमें जानकर अपना महातीक्ष्ण शर चलाया, परन्तु उस अवसरमें कामदेवके सब शर उद्यम व्यर्थ होगये, जैसे भाग्यहीनके सब उद्यम निष्फल होजाते हैं॥२८॥ हे मुने! इसप्रकार मुनिके तिरस्कार करनेवाले

क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कंदुकैः स्तनगौरवात्॥ भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः॥२६॥ इतस्ततो भ्रमद्दृष्टेश्चलंत्याअनुकन्दुकम्॥ वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम्॥२७॥ विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः॥ सर्वं तत्राभवन्मोघमनीशस्य यथोद्यमः॥२८॥ त इत्थमपकुर्वंतो मुनेस्तत्तेजसा मुने॥ दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः॥२९॥ इतींद्रानुचरैर्ब्रह्मन्धर्षितोऽपि महामुनिः॥ यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि॥३०॥ दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान्स्वराट्॥ श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेर्विस्मयं समगात्परम्॥३१॥ तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः॥ अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरिः॥३२॥ तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ चतुर्भुजौरौरववल्कलांबरौ॥ पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्कमण्डलुं दण्डमृजं च वैणवम्॥३३॥

मन्मथादिक मार्कण्डेयके तेजसे भस्म होनेलगे, तब तो भयभीत होकर वह अभागे भागनेलगे, जैसे बालक सर्पको जगाकर भागता है॥२९॥ हे ब्रह्मन्! इसप्रकार पुरन्दरके अनुचारोके कियेहुए कर्त्तव्यको वृथा देखकर मार्कण्डेयजीके मनमें किसी प्रकारका अहंकार और विकार नहीं उपजा, सो इस बातका महात्मा पुरुषोमें कुछ आश्चर्य नहीं॥३०॥ गणोंसमेत कामदेवको निस्तेज देखकर और ब्रह्मर्षिका प्रभाव सुनकर इन्द्र अपने मनमें अत्यन्त विस्मित हुवा॥३१॥ इसप्रकार तप, अध्ययन और संयमोसे मनको वशमें रखनेवाले भगवान्में जिनका चित्त लगरहा ऐसे मार्कण्डेयजी पर अनुग्रह करनेके लिये नर नारायण भगवान् वहॉ आनकर प्रगट हुए॥३२॥ शुक्ल, श्याम, नवीन कमलसे

सुंदर नेत्र, चतुर्भुज मृगचर्मवल्कलके वस्त्र, हाथमें कमण्डलु, जनेऊ सूधेबाँसके दण्डको धारण किये॥३३॥ कमलकी माला, जीव जन्तु न मरजायँ उनको हटानेके लिये वस्त्रकी झाडू वेदको धरे। गौरवर्ण तेजधारी, बिजलीके समान प्रकाशवान्, सक्षात् मूर्त्तिमान, तपरूप शरीर, परम श्रेष्ठ, देवताओंके पूज्य दोनों ऋषीश्वर आये॥३४॥ भगवतरूप नर नरायण ऋषीश्वरोंको देखकर, मार्कण्डेयजीने बहुत आदरपूर्वक उठकर दण्डके समान गिरकर दोनोंको दण्डवत् साष्टांग किया॥३५॥ नर नारायणके दर्शनके आनंदसे बुद्धि, इंद्रिय, मनसे शांत हो और अंगमें प्रफुल्लित होनेसे और नेत्रोंमें जलभर आनेसे मार्कण्डेयजी भगवान्की ओर देखनेको समर्थ न हुए॥३६॥ फिर सॅभलकर खड़े हो, हाथ जोड नम्रता

पद्माक्षमालामुत जंतुमार्जनं वेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ॥ तपत्तडिद्वर्णपिशंगरोचिषा प्रांशूदधानौ विबुधर्षभार्चितौ॥३४॥ ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी। दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैर्ननामांगेन दंडवत्॥३५॥ स तत्संदर्शनानंद निर्वृतात्मेन्द्रियाशयः॥ हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम्॥३६॥ उत्थाय प्रांजलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव॥ नमोनम इतीशानौबभाषेगद्गदाक्षरः॥३७॥ तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च॥ अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैरपूजयत्॥३८॥ सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी॥ पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्टाविदमब्रवीत्॥३९॥ मार्कंडेय उवाच॥ किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः संस्पंदते तमनु वाङ्मनइन्द्रियाणि॥ स्पंदंति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च स्वस्याप्यथापि भजता मसि भावबन्धुः॥४०॥

और उत्कण्ठासे अलिंगन कर गद्गद वाणीसे केवल नमो नमो शब्द नरनारायणकी ओरको देखकर कहा॥३७॥ फिर उन दोनोंको आसनपर बैठार, चरण पखार, अर्घ्यदे, चन्दन, धूप, मालासे पूजन किया॥३८॥ सुखपूर्वक आसनपर बैठे प्रसन्नमुख, ऐसे दीनदयालु नर नारायणके चरणारविन्दोंमें मार्कण्डेयजीने फिर दण्डवत् करके यह वचन कहा॥३९॥ मार्कण्डेयजी बोले कि, हे प्रभो! मैं आपकी क्या स्तुति करूं? जिस आपकी प्रेरणासे ब्रह्मा, शिवके, सब प्राणीमात्रके और मेरे भी प्राण चेष्टा करतेहैं, उन प्राणोंके पीछे मन, वाणी, इन्द्रियें चेष्टा करतीहैं, तोभी आप अपने भजन करने वालोंपर अधिक दया करते हो, क्योंकि आप दयाके सागर हैं; पिता आदिक तो इस शरीरकेही बन्धु हैं परन्तु आप सदैव इस आत्माके बन्धु हो॥४०॥

हे भगवन्! सदासे जैसे इस विश्वकी रक्षाके लिये आप अनेक प्रकारके स्वरूप धारण करते हो इसीप्रकार यह दो स्वरूप भी त्रिलोकीके मंगल करनेके निमित्त, सांसारिक तापोंके दूर करनेके अर्थ और मृत्युको जीतनेके लिये आपने धारण किये हैं, जैसे आप सृष्टिकी रक्षा करनेमें प्रसिद्धहैं, ऐसेही विश्वके संहार करनेमें भी आप विख्यातहैं जैसे मकरी जालेको रचकर पीछे आपही निगल जातीहै॥४१॥ स्थावर जंगमके रक्षा करनेवाले ईश्वर, आपके चरणारविंदोंका मैंभजन करता हूं जिन चरणारविंदके आश्रयसे मनुष्योंको कालकर्म गुणोंके मान्य तपादिकोंको कोई स्पर्श भी नहीं करसक्ते और बड़े बड़े वेदपाठी महात्मालोग जिन चरणारविंदोंकी प्राप्तिके लिये नित्य ध्यान करतेहैं यजन करतेहैं और दिन रात स्तुति करते हैं॥४२॥ हे ईश अपवर्गमूर्त्ति। जिन प्राणियोंको चोरोंसे भय है उन प्राणियोके लिये आपके चरणकमलकी प्राप्तिसे अधिक मंगल और निर्भय

मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्याः क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै॥ नाना विभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः॥४१॥ तस्यावितुः स्थिरचरे जितुरंघ्रिमूलं यत्स्थं न कर्मगुणकालरजः स्पृशंति॥ यद्वै स्तुवंति निनमंति यजंत्यभीक्ष्णं ध्यायंति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै॥४२॥ नान्यं तवांघ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः क्षेमं जनस्य परितो भिय ईश विद्मः॥ ब्रह्मा विभेत्यलमतो द्विपरार्ध्यधिष्ण्यः कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम्॥४३॥ तद्वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य॥ देहाद्यपार्थमसदंत्यमभिज्ञमात्रं विंदेत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम्॥४४॥ सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबंधो मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य॥ लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशांत्यै नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम्॥४५॥

स्थान हम और कोई दूसरा नहीं समझते, दो परार्द्धकी आयुर्बलवाला ब्रह्मा भी आपकी भ्रुकुटीबंकरूप कालसे अतिशय भयभीत रहता है, उसके सृजेहुए प्राणी भयभीत हों तो इसमें, क्या आश्चर्य है ?॥४३॥ आत्माके आवरण करनेवाले तुच्छ, नश्वर निष्फल भी हैं, परन्तु सत्यसे दृष्टि आते हैं, ऐसे देहादिकोके भजनको छोड़कर सत्य ज्ञान स्वरूप सब जीवोंके नियंता सबसे परे आपके उन चरणारविन्दोंको मैं भजता हूं, जो आपके चरणकमलके भजनेवाले हैं, उनको आपसेही सब अभिलाषा पूर्ण होती हैं॥४४॥ हे ईश ! सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण, यह तीनों गुण आपकी मायाहीसे उत्पन्न हुए हैं और पालन, उत्पत्ति, संहारका कारण विष्णु आदि सब आपहीकी लीलामूर्ति हैं,

परन्तु उनमें जो सत्त्वगुणकी मूर्ति है वह मनुष्यों के मनको शान्त करनेवाली है और रजो तमो गुणवाली मूर्त्तिमनको शान्त नहीं करती बरन्दुःख, मोह और भय उपजानेवाली है॥४५॥ हे भगवन्! ब्रह्मादिक देवता और भक्तलोग शुद्ध सत्त्व मूर्त्तिकाही भजन करते हैं और सत्त्व गुणकोही ईश्वर मानते हैं, रजोगुण तमोगुणमें प्रवृत्त नहीं होते और ज्ञानीलोग इसीलिये आपकी इस नरनारायण नाम सत्त्वमूर्त्तिका भजन करते हैं कि, जिस सत्त्वगुणके प्रभावसे पुरुष निर्भय और सुखी होकर तुम्हारे लोककी प्राप्ति होती है॥४६॥ विश्वका गुरु, विश्वरूप सर्वोत्तम पुरुष देव शुद्धस्वरूप, वाणीके नियंता, वेदके प्रवर्त्तक भगवान् नरनारायण ऋषि आपको मैंवारम्वार नमस्कार करता हूं॥४७॥ कपटरूप इन्द्रियोंके मार्गसे

तस्मात्तवेह भगेवन्नथ तावकानां शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजंति॥ यत्सात्त्वताः पुरुषरूपमुशंति सत्त्वं लोको यतोऽभयसुतात्मसुखं न चाऽन्यत्॥४६॥ तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने विश्वाय विश्वगुरवे परदेवतायै॥ नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय॥४७॥ यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीःसंतं स्वखेष्वमुषु हृद्यपि दृक्पथेषु॥ तन्माययाऽऽवृतमतिः स उ एव साक्षादाद्यश्च तेऽखिलगुरोरुपसाद्य वेदम्॥४८॥ यद्दर्शनं निगम आत्मरहः प्रकाशं मुह्यंति यत्र कवयोऽजपरा यतंतः॥ तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं वंदे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम्॥४९॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादश० मार्कण्डेयोपाख्याने नरनारायणस्तुतिर्नामाऽष्टमोऽध्यायः॥८॥

विक्षिप्त बुद्धिवाले और आपकी मायासे आवृत मतिवाले प्राणी, अपने हृदय आकाशमें, प्राणोंमें नेत्रोंमें, निरंतर विराजमान हों तोभी आपको नहीं जानते हे भगवन्! आदि पुरुष अखिलके गुरु ब्रह्माको भी जब आपने अपने प्रकाशे वेद दिये, तब ब्रह्माको भी आपके साक्षात् रूपका ज्ञानहुआ॥४८॥ रहस्यतत्त्वका प्रकाश करनेवाला आपके दर्शनका ज्ञान एक वेदहीके जाननेसे होताहै, इसीसे सांख्ययोगादिकोंकी रीति से यत्नके करनेवाले ब्रह्मादिक कवि सब आपके दर्शनको पाते हैं, निर्गुण, सगुणादिक सबके वचनके अनुकूलस्वभाव और देहादिकके अभिनिवेशसे गूढ़ तत्त्वज्ञानवाले महापुरुष आपकोमैं वारम्वार नमस्कार करताहूं॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां मार्कण्डेयतपोवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥

दोहा — नववेंमें भगवानकी, माया परम अनूप॥ बूड़तप्रलय समुद्रमें, देखेउ मुनि हरिरूप॥१॥ सूतजी बोले कि, बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीके इस प्रकार स्तुति करनेसे नरके मित्र भगवान् नारायण अत्यन्त प्रसन्न होकर मार्कण्डेय मुनिसे कहने लगे॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्रह्मऋषियोंमें श्रेष्ठ! मनकी एकाग्रतासे और तप अध्ययन संयमोंसे और अनपायिनी हमारी भक्तिसे तुम सिद्ध हुएदो॥२॥ हे मुने! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य कर्मसे हम बहुत संतुष्ट हुए, वरदान देनेवालोंके ईश्वर हम तुमको वरदान देनेके लिये आये हैं, तुम मनवांछित वर मांगो, जो तुम्हारी इच्छा हो !॥३॥ मार्कण्डेयजी बोले कि, हे देव ! हे ईश ! हे भक्तभयभंजन ! हे

सूत उवाच॥ संस्तुतो भगवानित्थं मार्कंडेयेन धीमता॥ नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम्॥१॥ श्रीभगवानुवाच॥ भोभो ब्रह्मर्षिवर्योऽसि सिद्ध आत्मसमाधिना॥ मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः॥२॥ वयं ते परितुष्टाः स्म तद्बृहद्व्रतचर्यया॥ वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम्॥३॥ ऋषिरुवाच॥ जितं ते देव देवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत॥ वरेणैतावताऽलं नो यद्भवान्समदृश्यत॥४॥ गृहीत्वाऽजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम्॥ मनसा योगपक्वेन स भवान्मेऽक्षिगोचरः॥५॥ अथाप्यंबुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे॥ द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद्भिदाम्॥६॥

अच्युत! आप जो वारम्वार वर देनेके लिये मुझसे कहते हो यह आप अपनी उत्कृष्टता (बड़ाई) प्रगट करतेहो। परन्तु मुझको किसी प्रकारके वरदानकी अभिलाषा नहीं, आपने जो मुझको दर्शन दिया यही महावरदान है, इससे अधिक और क्या वरदान होगा?॥४॥ योगकरके परिपक्वहुए मनसे, आपके स्वभावयुक्त चरणारविन्दके दर्शन पाकर प्राकृत पुरुष भी ब्रह्मादिक देवताओंके सदृश होकर कृतार्थहोतेहैं, सो आप साक्षात् मेरे नेत्रोंके आगे विरजमान हो, क्या इससे भी बढकर कोई और वरदान दोगे?॥५॥ हे कमलदललोचन! हे पुण्यशिखामणी! जो आपकी वरदेनेहीकी इच्छा है तो यह वर दीजिये कि, जिस आपकी मायासे लोकोंसहित लोकपाल मोहित होजाते हैं, उस अपनी मायाको

मुझे दिखाओ॥६॥ सूतजी बोले कि, हे ऋषियो! इसप्रकार मार्कण्डेयसे स्तुति और वरदानका माँगना सुन भगवान् ईश्वर उन मुनिसे पूजित हो, मुसकाकर वही वर दे बद्रिकाश्रमको चलेगये*॥७॥ तब मार्कण्डेयजी उस मायाके वरदानका चिन्तवन करनेलगे और अपने आश्रममें बैठकर अग्नि, सूर्य, जल, चन्द्रमा, पृथ्वी, पवन, आकाश और मनमें भगवान्‌का ध्यान करनेलगे॥८॥ भावनारूपी द्रव्यसे नित्यप्रति भगवान्का पूजन किया करैं, कभी एक भक्तिके आवेशसे पूजाको भी भूलजाते॥९॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक! हे भृगुवंशियोमें श्रेष्ठ! हे मुने!

सूत उवाच॥ इतीडितोऽर्चितः काममृषिणा भगवान्मुने॥ तथेति स स्मयन्प्रागाद्बदर्याश्रममीश्वरः॥७॥ तमेव चितयन्नर्थमृषिः स्वाश्रम एव सः॥ वसन्नग्न्यर्कसोमांबुभूवायुवियदात्मसु॥८॥ ध्यायन्सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत्॥क्वचित्पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसंप्लुतः॥९॥ तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पमद्रातटे मुने॥ उपासीनस्य संध्यायां ब्रह्मन्वायुरभून्महान्॥१०॥ तं चण्डशब्दं समुदीरयंतं बलाहका अन्वभवन्करालाः॥ अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद्भिः स्वनंत उच्चैरभिवर्षधाराः॥११॥ ततो व्यदृश्यंत चतुःसमुद्राः समंततः क्ष्मातलमाग्रसंतः॥ समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक महाभयावर्त्तगभीरघोषाः॥१२॥

हे ब्रह्मन्! एक दिन सन्ध्यासमय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेयजी बैठे थे, वहाँ बड़ी भयंकर पवन चलने लगी॥१०॥ महावेगसे प्रचण्ड शब्द होनेलगा, उस पवनके पीछे महाविकराल कालरूप प्रलयकीसी काली काली घटा चारो ओरसे उमड़ने लगीं, बड़े गम्भीर शब्दसे बिजली कड़कड़ाने लगीं, वज्रपात होने लगा, गजशुण्डके समान मोटी जलधारा वर्षने लगी॥५१॥ पवनके वेगसे पानीमें तरंगें उठने लगीं, पृथ्वी

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* शंका - दुष्टलोगोंका लक्षण यह है कि, बात करते करते मुसका देते हैं और जो कोई मनुष्य उन दुष्टोंके स्थानपर जाय तो उनको आतादेखकर हँसते हैं और चलते समय भीवह दुष्ट मनुष्य उनके ठट्ठे उडाते हैं, वह दुष्ट उनके घर जाँय तो भी हँसी करै, चलते समयभी हसी करते हैं, यह दुष्ट लोगोंकी पहिचानके लक्षण हैं, मार्कण्डेय मुनिके आश्रमसे नारायण जब अपने आश्रमको चले तब मुसकातेहुये क्यों चले? बडे मुनीश्वर होकर ऐसा बुरा कर्म क्यों किया?

उत्तर - नारायणमुनिने विचार किया कि, मार्कण्डेयजी मायाका प्रभाव देखना चाहते हैं इनके मनमें ऐसा अभिमान है कि, मैंने मायाको तप करके जीत लिया है, ऐसा माया करके इनको मोह उपजा ऊगा, जो यह युगानयुग भूलेंगे नहीं, ऐसा विचारके अपने मनमें नारायणमुनि मुसकाये, कुछ दुष्टकर्मसे नहीं मुसकाये।

डूबने लगी, उग्र ग्राह जहाँ तहाँ दिखाई देने लगे, महाभयानक भ्रमर जलमें पड़नेलगे, चारों ओर समुद्रकेसा अरअराहट होनेलगा॥१२॥ आकाशके अतिक्रम करनेवाल जलसे और महातीक्ष्ण पवनसे और अत्यंत दमकती हुई दामिनीसे चार प्रकारके जगत्को बाहर भीतरसे व्याकुल देख और पृथ्वीको पानीमें डूबीहुई निहारकर मुनि अपने मनमें घबराने लगे और विस्मय होकर त्रासको प्राप्त हुए॥१३॥ मार्कण्डेयजीके देखते देखते तरंगैंउठनेसे भयानक पवनसं चलायमान वर्षतेहुए मेघोंसे पूर्ण हो समुद्र सब ओरसे द्वीप, खण्ड, पर्वतोंसहित पृथ्वीको डुबाने लगा॥१४॥ भूमि, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, नक्षत्र, दिशाओं सहित त्रिलोकी जलमय, होगई, उस समय केवल एक मार्कण्डेयजी अवशेष रहे, सो वह

अंतर्बहिश्चाद्भिरतिद्युभिः खरैः शतह्रदाभीरूपतापितं जगत्॥ चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनिर्जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत्॥१३॥ तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः॥ आपूर्यमाणो वरषद्भिरंबुदैः क्ष्मामप्यधाद्द्वीपवर्षाद्रिभिः समम्॥१४॥ सक्ष्मांतरिक्षं सदिवं सभागणं त्रैलोक्यमासीत्सहदिग्भिराप्लुतम्॥ स एक एवोर्वरितो महामुनिर्बभ्राम विक्षिप्य जटाजडांधवत्॥१५॥ क्षुत्तृट्परीतैर्मकरैस्तिमिंगिलैरुपद्रुतो वीचिनभस्वता हतः॥ तमस्यपारे पतितो भ्रमन्दिशो न वेद खं गां च परिश्रमेषितः॥१६॥ क्वचिद्गतो महावर्त्ते तरंगैस्ताडितः क्वचित्॥ यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योऽन्यघातिभिः॥१७॥क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद्दुःखं सुखं भयम्॥ क्वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः॥१८॥

हकलेही अपनी बड़ी बड़ी जटाओंको फैलाये, जड़ अन्धकी सदृश जलमें भ्रमने लगे॥१५॥ भूख और प्याससे पीडित, मकर और तिमिंगिलोंसे भयभीत, महाप्रचण्ड पवनके झकोरोसे और जलकी तीव्र तरंगोके प्रहारसे व्याकुल, अपार अन्धकारमें दिशाओंमें भ्रमण करते हुए, आकाश और पृथ्वीको नहीं जानते भये॥१६॥ कभी महागम्भीर भॅवरोंमें उछलते डूबतेथे, कभी तरंगोंमें आनकर इधर उधर चलेजातेथे, कभी भूखे जल जन्तु उनको खानेके लिये परस्पर लड़ रहेथे॥१७॥ कभी शोक, कभी मोह, कभी दुखः, कभी सुख, कभी मरण, कभी जीवन, कभी रोगादिकोंसे ग्रसितहो अनेक प्रकारके क्लेश पातेथे॥१८॥

नारायणकी मायासे आवृत चित्तवाले मार्कण्डेयजीको उस जलमें भ्रमते भ्रमते अयुतायुत सहस्रों सैकडों अर्थात् एक शंख १००००००००००००००० वर्ष बीत गये॥१९॥ तब उस महाप्रलयके समुद्रमें भ्रमते भ्रमते एक टापू दिखाई दिया, उस टापूमें फल फूलोंसे अत्यन्त शोभायमान एक वटका वृक्ष दृष्टि आया॥२०॥ उस वृक्षके पूर्व उत्तर ( ईशान ) की कोणकी शाखाके पत्रके जोड़ेमें सोता अपनी कान्तिसे अन्धकारको दूर करनेवाला एक बालक देखा॥२१॥ महामरकत मणिके सदृश श्यामवर्ण, अत्यन्त शोभायमान मुखारविन्द, शंखके तुल्य तीन रेखाओंसे युक्त ग्रीवा, परमविशाल वक्षस्थल, सुन्दर नासिका और सुन्दर भौहें हैं॥२२॥ श्वाससे काँपतीहुई अलकोंकी मनोहर छवि,

अयुतायुतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च॥ व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन्विष्णुमायावृतात्मनः॥१९॥ स कदाचिद्भ्रमंस्तस्मिन्पृथिव्याः ककुदि द्विजः॥ न्यग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लवशोभितम्॥२०॥ प्रागुत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम्॥ शयानं पर्णपुटके ग्रसंतं प्रभया तमः॥२१॥ महामरकतश्यामं श्रीमद्वदनपंकजम्॥ कंबुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुंदरभ्रुवम्॥२२॥ श्वासैजदलकाभातं कंबुश्रीकर्णदाडिमम्॥ विद्रुभाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम्॥२३॥ पद्मगर्भारुणापांगं हृद्यहासावलोकनम्॥ श्वासैजद्वलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम्॥२४॥ चार्वंगुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणांबुजम्॥ मुखे निधाय विप्रेंद्रो धयंतं वीक्ष्य विस्मितः॥२५॥ तद्दर्शनाद्वीतपरिश्रमो मुदा प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनांबुजः॥ प्रहृष्टरोमाद्भुतभावशंकितः प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम्॥२६॥

भीतरकी ओरको शंखकी तुल्य आटी खाये हुए शोभित, कानोंमें दाडिमके फूलोंकी कली घरीं, विद्रुमसे अरुण अधरोंकी कान्ति सुधा सरस मन्दमुसकान॥२३॥ कमलकोशकेसे अरुण नेत्रोंके कोये, सुन्दर हास्ययुक्त चितवन, श्वास लेनेमें चलायमान, त्रिवलीसे शोभित, गम्भीर नाभि अत्यन्त शोभा देग्ही, पीपलके पत्रके समान सुन्दर उदर॥२४॥ अपने दोनों हाथोंकी उँगलियोंसे दाहिन चरणके अँगूठेको थाँमेंहुए मुखसे पीरहाथा, उस बालकको देखकर मार्कण्डेयजी अत्यन्त विस्मित हुए॥२५॥ उसके दर्शनके आनन्दसे सब श्रम दूर होगया, हृदयकमल! खिलगया, शरीर पुलकायमान होनेलगा इस अद्भुत प्रभावको देख मुनि अति सशंकित होकर बूझनेके लिये उस बालकके समीप गये॥२६॥

उस समय वह भृगुवंशी मार्कण्डेय मुनि उस बालकके मुखके समीप बूझनेको झुके, इतनेमें बालकने श्वास जो लिया उसके श्वासके संगही मच्छरकी नाईं बालकके मुखके मार्ग होकर उसके उदरमें पहुँच गये, वहाँभी यह विश्व प्रलयसे पहिलेकी नाईं देखा उसको देखकर अत्यन्त विस्मित हो मोहित होगये॥२७॥ और वैसाही आकाश, भूमि, स्वर्ग, वृक्ष, पृथ्वी, नक्षत्र, पर्वत, समुद्र, द्वीप, खण्ड, दिशा, देवता, असुर, वन, देश, नदी, पुर, खान, किसानोंके ग्राम, गायोंके खरक, वर्ण, आश्रम और इन सबकी जीविकाको देखा॥२८॥ पंच महाभूतोंके रचे प्राणी, युग, अनेक पदार्थ और कल्पोंकी कल्पनाकरानेवाला काल और भी जो जो व्यवहारोंके कारण वह सब उस बालककी सत्तासे सत्यसे प्रतीत होते मार्कण्डेयजी ने देखे॥२९॥ घूमते

तावच्छिशोर्वै श्वसितेन भार्गवः सोंतःशरीरं मशको यथाऽविशत्॥ तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो यथा पुराऽमुह्यदतीव विस्मितः॥२७॥ खं रोदसी भगणानद्रिसागरान्द्वीपान्सवर्षान्ककुभः सुरासुरान्॥ वनानि देशान्त्सरितः पुराकरान्खेटान्व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः॥२८॥ महांति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ कालं च नानायुगकल्पकल्पनम्॥ यत्किंचिदन्यद्व्यवहारकारणं ददर्श विश्वं स दिवावभासितम्॥२९॥ हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं निजाश्रमं तत्र ऋषीनपश्यत॥ विश्व विपश्यञ्श्वसिताच्छिशोर्वै बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ॥३०॥ तस्मिन्पृथिव्याः ककुदिप्ररूढं वटं च तत्पर्णपुटे शयानम्॥ तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन निरीक्षितोऽपांगनिरीक्षणेन॥३१॥ अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि॥ अभ्ययादतिसंक्लिष्टः परिष्वक्तुमधोक्षजम्॥३२॥

घूमते हिमालयमें पहुँचगये, वहाँ पुष्पभद्रा नाम नदी और अपना आश्रम और उसमें रहनेवाले ऋषि और मुनियोंकोभी देखा तब " मार्कण्डेयजीने अपना स्थान जानकर रहनेका विचार किया, परन्तु मनमें यही सन्देह कि, यह क्या मायाहै” मार्कण्डेयजी यह विचार करही रहेथे इतनेमें बालकने ऊर्ध्व श्वास जो लिया तो फिर मुखसे बाहर निकलकर उसी प्रलयरूप समुद्रके जलमें आन पड़े॥३०॥ फिर वहाँ वही पृथ्वीका टापू और वही वटका वृक्ष और वही बालक उस वटके पत्तेपर सोताहुवा देखा और उस बालकनेभी प्रेमरूप सुधासरस मन्द मुसकानसहित बाँकीचितवनसे मुनिकी ओरको देखा॥३१॥ तब तो मनको मोहित करनेवाले बालकको दोनों नेत्रोंसे देखकर लज्जितहो अत्यन्त क्लेश मान मार्कण्डेयजी उन अधोक्षज भगवान्के

आलिंगन करनेके लिये उनके सन्मुख धाये॥३२॥ इतनेमें वह बालरूप साक्षात् योगके ईश्वर सर्वान्तर्यामी भगवान् मार्कण्डेयजीके देखते २ अंतर्धान हो गये जैसे हरिविमुखोंकी क्रिया लोप होजाती है॥३३॥ हे ब्रह्मन्! तब तो उस वटवृक्ष और प्रलयके जलसे लोकोंके डूबनेका चिह्न भी न रहा क्षणमात्रमेंही सब अन्तर्हित होगये और मार्कण्डेयजी पहिलेकी नाई अपने आश्रममें बैठगये॥३४॥ इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकार्या मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा — कह दशम अध्याय में, शिवागमन मुनिधाम॥ अति प्रसन्न हो वरदिये, शिव अरु शिवकी वाम॥१॥ सूतजी बोले कि, मार्कण्डेयजी नारायणसे निर्मित योगमायाके वैभवका ऐसा अद्भुत चरित्र देखकर भगवान् की शरणमें आये॥१॥ मार्कण्डेयजी बोले हे ईश्वर! शरणागतोंके अभयदान देनेवाले, आपके चरणारविन्दकी मैं शरण आया हूँ देखो! ज्ञानसी प्रकाशमान आपकी मायासे

तावत्स भगवान्साक्षाद्योगाधीशो गुहाशयः॥ अंतर्दध ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता॥३३॥ तमन्वथ वटो ब्रह्मन्सलिलं लोकसंप्लवः॥ तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत्स्थितः॥३४॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वादश० वटपत्रे शिशुदर्शनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ सूत उवाच॥ स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम्॥ वैभवं योगमायायास्तमेव शरणययौ॥१॥ मार्कंडेय उवाच॥ प्रपन्नोऽस्म्यंघ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे॥ यन्माययाऽपि विबुधा मुह्यंति ज्ञानकाशया॥२॥ सूत उवाच॥ तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन्॥ रुद्राण्या भगवानुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः॥३॥ अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत॥ पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेंद्रियाशयम्॥४॥ निभृतोदझषव्रातं वातापाये यथार्णवम्॥ कुर्वस्य तपसः साक्षात्संसिद्धिं सिद्धिदो भवान्॥५॥

बड़े बड़े पंडित ज्ञानीभी मोहित होजाते हैं, क्योंकि अपने तप और पुरुषार्थ के घमण्डमें आपका भजन नहीं करते वह मेरी समाने मायारूप समुद्रमें उछलते डूबते रहतेहैं॥२॥ सूतजी बोले कि, एक दिन बेलपर चढे भवानीको संगलिये भगवान् महादेवजी आकाशमें गणोंमे वेष्टित पर्यटन करते फिरते थे कि, पुष्पभद्रानदीके निकट एकाग्रचित्तवाले मार्कण्डेय मुनिको बैठा देखा॥३॥ शैलनन्दिनी भवानी मार्कण्डेयजीको देखकर शिवजीसे बोली कि, हे भगवन् ! जैसे पवन न चली होय उससमय समुद्रका जल और जलजन्तु आदि निश्चलं रहतेहैं, ऐसेही इसके अंग, इन्द्रिये और मन निश्चल होगये हैं, ऐसे इस विप्रको देखो और इसके तपका फल इसको दो, क्योंकि तुम सब सिद्धियाके दाता हो॥४॥५॥

श्रीमहादेवजी बोले कि, हे पार्वती ! अव्यय अविनाशी आदिपुरुष भगवान्में प्रेमलक्षणा भक्ति होनेसे यह ब्रह्मऋषि मोक्षपर्यन्त कामनाको भी नहीं चाहता॥६॥ तो भी हे भवानी ! इस साधु पुरुषसें कुछ सुख संवाद करैंगे, क्योंकि मनुष्योंमें साधुपुरुषोंका समागम होना परमलाभदायक है॥७॥ सूतजी बोले कि, हे ब्रह्मन् ! सर्व मुनि और साधुओंकी गति जाननेवाले, सर्वविद्याओंके और सम्पूर्ण जीवोंके ईश्वर भगवान् शिवजी पार्वतीसे यह बात कहकर मार्कण्डेयजीके सन्निकट गये॥८॥ अन्तःकरणकी वृत्तियोंके रोकनेके कारण मार्कण्डेयजीको अपने आत्मा और विश्वकी ओर कुछ ध्यान नहीं था, इसलिये साक्षात् ईश्वर और विश्वात्मा विश्वनाथ महादेव और पार्वतीके शुभागमनकोभी

श्रीभगवानुवाच॥ नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत॥ भक्तिं परां भगवति लब्धवान्पुरुषेऽव्यये॥६॥ अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना॥ अयं हि परमों लाभो नृणां साधुसमागमः॥७॥ सूत उवाच॥ इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान्सात्त्वतां पतिः॥ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्॥८॥ तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः॥ न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च॥९॥ भगवांस्तदभिज्ञाय गिरीशो योगमायया॥ अविशत्तद्गुहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः॥१०॥ आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिंगजटाधरम्॥ त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यंतमिव भास्करम्॥११॥ व्याघ्रचर्मांबरं शूलधनुरिष्वसिचर्मभिः॥ अक्षमालाडमरुककपालपरशुं सह॥ बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः॥१२॥ किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः॥ नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम्॥१३॥

उन्होंने नहीं जाना॥९॥ मार्कण्डेय ऋषिको समाधिनिष्ठ जानकर पवन जैसे छिद्रमें घुस जाता है, ऐसेही कैलासपति भगवान् महादेवजीने योग माया करके मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश किया॥१०॥ तीन नेत्र, दश भुजा, ऊँचा शरीर, विजुली सदृश पीत जटाओंको धारण किये, प्रातःकालके सूर्यके समान शोभायमान तेजस्वी॥११॥ व्याघ्रचर्मके वस्त्र पहिने, त्रिशूल, धनुष, बाण, खड्ग, ढाल, डमरू, रुद्राक्ष, कपालमाला और परशु हाथमें लिये, शिवजीको अकस्मात् ही हृदयमें प्रकाशमान देख अत्यन्त विस्मित होकर बोले॥१२॥ क्या आश्चर्य है? यह कौन हैं! कहाँसे आये? इस विचारही विचारमें मुनिकी समाधि निवृत्त होगई, तब नेत्र खोलकर देखा तो पार्वती और गणोंसहित शिवजी सन्मुख खड़े हैं॥१३॥

त्रिभुवनका प्रधानगुरु शिवजीको समझकर मार्कण्डेयजीने मस्तक नवाकर नमस्कार किया, भले आये महाराज, यह कह आसन दे, चरणामृतले, अर्घ्य, चन्दन, माला, धूप, दीपादिसे गण और गिरिजासहित शिवजीका पूजन किया॥१४॥ और फिर कहा कि, हे विभो! हे ईश! हे नाथ! आप तो अपने प्रभावहीसे पूर्णकाम और विश्वके आनन्ददाता हो मैं अपका क्या पूजन करूं?॥१६॥ आप निर्गुण शान्त, सत्त्वके अधिष्ठाता सबके परमसुखदाता और रजोगुण तमोगुणके धारण करनेवाले होकर भी अघोर हो, सो मैं आपको वारम्वार नमस्कार करूं हूं॥१६॥ सूतजी बोले कि, इस प्रकार जब मुनिने स्तुति की, तब संतुष्ट हृदयवाले, महात्मा पुरुषोंके शरणरूप आदिदेव

रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः॥ तस्मै सपर्यांव्यदधात्सगणाय सहोमया॥ स्वागतासनपाद्यार्घगंधस्रग्धूपदीपकैः॥१४॥ आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो॥ करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत्॥१५॥ नमः शिवाय शांताय सत्त्वाय प्रमृडाय च॥ रजोजुषेऽप्यघोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे॥१६॥ सूत उवाच॥ एवं स्तुतः स भगवानादिदेवः सतां गतिः॥ परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः॥ अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद्विंदतेऽमृतम्॥१८॥ ब्राह्मणाः साधवः शांता निःसंगा भूतवत्सलाः॥ एकांतभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः॥१९॥ सलोका लोकपालास्तान्वंदंत्यर्चंत्युपासते॥ अहं च भगवान्ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः॥२०॥ न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते॥ नात्मनश्च जनस्यापि तद्युष्मान्वयमीमहि॥२१॥

विश्वनाथ प्रसन्न होकर हास्यपूर्वक मुनिसे कहनेलगे॥१७॥ श्रीमहादेवजी बोले कि, हे मुने! तुम हमसे मनवांछित वर माँगो? क्योंकि हम तीनों वरदेनेवालोंके ईश्वर हैं, हमारा दर्शन तीनों देवताओंको अमोघ है, जो जिस कार्यके लिये भजता है उसका कार्य सफल होता है और मरणधर्माओंको मोक्षदायक है॥१८॥ जो ब्राह्मण, साधु, सन्त, शान्तचित्त, रागरहित सब प्राणियोंपर दया रखनेवाले हमारे पूर्ण भक्त, वैरभावरहित, समदर्शी हैं॥१९॥ उनका लोकोंसहित लोकपाल और देवता वन्दन करते हैं, पूजते हैं और दिनरात सेवन करते हैं बस इतनाही न समझना। जो सबके अधिष्ठाता विष्णु, ब्रह्मा और हम उनका सेवन करते हैं॥२०॥ आपकी समान ब्राह्मण हममें, विष्णुमें, ब्रह्मामें अपने आत्मा और लोकोंमें किंचि

न्मात्र भी भेददृष्टि नहींरखते, इसीलिये हम आपका निरन्तर भजन करते हैं*॥२१॥ जलमें क्या तीर्थ नहीं हैं? क्या मूर्तियोंमें देवता नहीं हैं? निश्चय हैं परन्तु वह तत्काल फल नहीं देते, बहुतकाल करके पवित्र करते हैं और हे महाराज ! आपसरीखे महात्मा तो दर्शनही से पवित्र करते हैं॥२२॥ चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम, वेदत्रयी, यम, हमारे रूपको जो ब्राह्मण धारण करते हैं, उनको हम भी नमस्कार करते हैं॥२३॥ जब कि, आपके श्रवण अथवा दर्शनसे महापातकी और चाण्डाल भी शुद्ध और पवित्र होजाते हैं, तब आपके संभाषण से शुद्ध हो तो उसमें कहना ही क्या है?

न ह्यम्मयानि तिर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः॥ ते पुनंत्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः॥२२॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येस्मद्रूपं त्रयीमयम्॥ बिभ्रत्यात्मसमाधानतपःस्वाध्यायसंयमैः॥२३॥ श्रवणाद्दर्शनाद्वापि महापातकिनोपि वः॥ शुध्येरन्नंत्यजाश्चापि किमु संभाषणादिभिः॥२४॥ सूत उवाच॥ इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम्॥ वचोऽमृतायनमृषिर्नातृप्यत्कर्णयोः पिबन्॥२५॥ स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामितः कर्शितो भृशम्॥ शिववागमृतध्व स्तक्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत्॥२६॥ ऋषिरुवाच॥ अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम्॥ यन्नमंतीशितव्यानि स्तुवंति जगदीश्वराः॥२७॥

॥२४॥ सूतजी बोले कि, इसप्रकार चन्द्रभाल शिवजीके गूढ धर्ममय अमृतरूप वचनोंको श्रवणद्वारा पान करके मार्कण्डेयजी तृप्त न हुए॥२५॥ नारायणकी मायासे बहुत दिनतक भ्रमण करते और क्लेशपाते मार्कण्डेयजीने शिवजीकी सुधारूप मधुरवाणीसे सम्पूर्ण क्लेशोंके समुदायसे निवृत्त होकर भवानीपतिसे यह वचन कहा॥२६॥ मार्कण्डेयजी बोले अहो ! यह विष्णु भगवान्केचरित्र प्राणियोंके जाननेमें आने बहुत कठिन हैं,

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* शंका - मार्कण्डेय मुनिने ब्रह्मा, विष्णु और महादेवसे बूझा नहीं कि, तुम तीनों देवताओंमें कौन बढा कौन छोटा है! कि तुम तीनों एकसे हो, फिर बिना बूझे शिवजीने क्यों कहा कि, हे मार्कण्डेय ! ब्रह्मामेंविष्णुमें और मुझमें कुछ भेद नहीं हम तीनों देव एक ही है, यह हमको सन्देह है?
उत्तर – मार्कण्डेयजीके मनमें यह सन्देह था कि, तीनों देवोंमें कौन बडा है और कौन छोटा है। परन्तु लज्जाके मारे बूझ नहीं सके थे, तब महादेवजी मार्कण्डेयके हृदयकी शान्ति होनेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी एक स्वरूपकी कथा कहने लगे।

क्योंकि आप त्रिलोकीके ईश्वर होकर अपनी शरणागत रहनेवाली प्रजागणकी स्तुति करके उनको नमस्कार करते हो॥२७॥ मुझको तो ऐसा जान पड़ताहै कि, ईश्वर भी धर्मके उपदेष्टा होकर धर्मके ग्रहण करानेके लिये प्राणियोंके आचरणोंकी स्तुति और अनुमोदन करते हैं और आप भी उनहीं आचरणोंकों करते हैं॥२८॥ आप अपनी मायामय वृत्तियोंसे और लोकोंको नमस्कारादि किया करते हैं, इससे आपकी महिमामें किसी प्रकारका दोष नहीं लगता, क्योंकि जैसे नट नाटकके विषे दूसरा रूप धारण करनेके अपने पुत्रं, पौत्र और दास दासियोंको दण्डवत् प्रणाम करताहै, और दीन वचन कहताहै, उस दीनता और दण्डवत् करनेसे उसकी महत्तामें किसी प्रकारका लांछन नहीं लगता ऐसे ही आपको भी किसी प्रकारका दोष नहीं लगता॥२९॥ जो ईश्वर आपही अपने मनसे गुणोंके द्वारा इस सृष्टिको रचकर उसमें आप प्रवेश होकर कर्त्ताके

धर्मंग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम्॥ आचरंत्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवंति च॥२८॥ नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः॥ न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिनः कुहकं यथा॥२९॥ सृष्ट्वेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः॥ गुणैः कुर्वद्भिराभाति कर्तृवत्स्वप्नदृग्यथा॥३०॥ तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने॥ केवलायाऽद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये॥३१॥ कं वृणे नु परं भूमन्वरं त्वद्वरदर्शनात्॥ यद्दर्शनात्पूर्णकामः सत्यकामः पुमान्भवेत्॥३२॥ वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात्कामाभिवर्षणात्॥ भगवत्यच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि॥३३॥ सूत उवाच॥ इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा । तमाह भगवाञ्शर्वः शर्बया चाभिनंदितः॥३४॥

समान जान पड़ताहै, जैसे स्वप्नमें कोई पुरुष नया नगर बनाकर उसमें आप प्रवेश होकर कर्त्ताहीके सदृश प्रतीत होताहै॥३०॥ ऐसे त्रिगुणोंके नियन्ता शुद्धरूप अद्वितीय सबके गुरु ब्रह्ममूर्त्ति आपको मैं नमस्कार करताहूं॥३१॥ हे सर्वोत्तम! हे भगवन्! आपका दर्शन मुझको होगया, अब इससे अधिक और क्या वर है? जो मैं आपसे माँगूजिस मनुष्यपर आपकी कृपादृष्टि होती है, उस पुरुषके सब काम सत्य और पूर्ण होजाते हैं॥३२॥ तोभी जो आप पूर्णकाम और भक्तोंकी कामनाओंको वर्षानेवाले हो तो मैं आपसे इतना वरदान मांगूहूं, सो वह वरदान यह हैं कि, अच्युत भगवान्मेंऔर उनके भक्तोंमें और उसीप्रकार आपके चरणकमलमें मेरी निश्चल भक्ति रहै॥३३॥ सूतजी बोले

कि, जब इस प्रकार शिवजीकी स्तुति और पूजा मार्कण्डेयजीने की तब भगवान् महादेव और गिरिराजकुमारी अतिप्रसन्न हो मुनिसे कहनेलगे॥३४॥ हे महर्षि ! आपके सब मनोरथ पूर्ण होंगे क्योंकि आप तो पहिलेहीसे अधोक्षज भगवान्के भक्तहो, आपका यश और पुण्य कल्प कल्पान्तर अखंड हो और सदा आप अजर अगर रहैं॥३५॥ हे ब्रह्मन्! तुम त्रिकालज्ञ होहु और विज्ञान सहित पूर्ण वैराग्य होय, ब्रह्मतेजमें पूर्ण और पुराणाचार्य भी होहुगे॥३६॥ सूतजी बोले कि, इसप्रकार मुनिको वर देकर मुनिके पिछले चरित्र जो कुछ भगवान्की मायाके वैभव देखेथे सो सब वृत्तान्त त्रिलोचन महादेवजी भवानीसे कहते हुए चले गये॥३७॥ परमयोगकी महिमाको पाकर विष्णु भगवान्की एकान्त भक्तिसे

कामस्तेऽयं महर्षेऽस्तु भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे॥ आकल्पांताद्यशः पुण्यमजरामरता तथा॥३५॥ ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन्विज्ञानं च विरक्तिमत्॥ ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात्पुराणाचार्यताऽस्तु ते॥३६॥ सूत उवाच॥ एवं वरान्स मुनये दत्त्वाऽगात्त्र्यक्ष ईश्वरः॥॥ देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना॥३७॥ सोप्यवाप्तमहायागमहिमा भार्गवोत्तमः॥ विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकांततां गतः॥३८॥ अनुवर्णितमेतत्ते मार्कंडेयस्य धीमतः॥ अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्भुतम्॥३९॥ एतत्केचिदविद्वांसो मायासंसृतिमात्मनः॥ अनाद्यावर्तितं नृृणां कादाचित्कं प्रचक्षते॥४०॥

भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ मार्कण्डे़यजी अबतक पृथ्वीपर विचरते हैं॥३८॥ बुद्धिमान मार्कण्डेयजीने भगवान् वासुदेवकी अद्भुत माया वैभव आदि जो देखी सो मार्कण्डेयजीका पवित्र चरित्र आपके सन्मुख वर्णन किया॥३९॥ सृष्टिके जो उत्पत्ति प्रलय आदिक होते रहते हैं, वह सब आदि पुरुष भगवान्कीही माया है कोई कोई मूर्ख लोग इस बातको नहीं जानते मार्कण्डेयजीने जो यह मायाका वैभव देखा सो केवल भगवदिच्छासे देखनेमें आया, कुछ प्राकृतिक वा नैमित्तिकमेंका यह कोई प्रलय नहीं था और अज्ञानीलोग अबतक उसे अनादि कालके समान सातवारका हुवा नैमित्तिक प्रलयही समझ रहेहैं इसीसे मार्कण्डेयजीकी सात कल्पकी अवस्था संसारमें विख्यात है, परन्तु यह सम्पूर्ण भ्रान्तिहै और जो मायाके वेत्ता है

वह उसकालको निमेषमात्र कहते हैं, अर्थात् मायाका कौतुक देखाथा वह सब एक क्षणमात्रका था॥४०॥ हे भृगुवंशियोंमें उत्तम! भगवान्के प्रभाव युक्त मार्कंडेयका यह चरित्र जो कोई प्रेम प्रीति एकाग्र चित्त हो सुने सुनावेगा उन दोनोंको कर्मवासनायुक्त संसारकी माया न व्यापैगी॥४१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां शिववरदान नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥ इस ग्यारह अध्यायमें, महापुरुषका ध्यान॥ भिन्न भिन्न प्रतिमासमें, व्यूह सूर्य भगवान्॥१॥ शौनकादिक बोले कि, हे भागवतोंमें श्रेष्ठ महामुनि सूतजी! आप सर्व तंत्र शास्त्रोंके तत्त्ववेत्ता हो इसलिये हे बहुज्ञाता! महात्माओंमें मुकुटमणि हम आपसे यह प्रश्न करतेहैं॥१॥ हे ब्रह्मन् ! सर्वतंत्रोंके उपासक

य एवमेतद्भृगुवर्य वर्णितं रथांगपाणेरनुभावभावितम्॥ संश्रावयेत्संशृणुयादुताप्युभौ तयोर्न कर्माशयसं सृतिर्भवेत्॥४१॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वा० मार्कंडे० शिवदत्तवरदानं० दशमोऽध्यायः॥१०॥ शौनक उवाच॥ अथे ममर्थं पृच्छामो भवंतं बहुवित्तमम्॥ समस्ततंत्रराद्धांते भवान्भागवततत्त्ववित्॥१॥ तांत्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः॥ अंगोपांगायुधाकल्पं कल्पयंति यथैव यैः॥२॥ तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्॥ येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम्॥३॥ सूत उवाच॥ नमस्कृत्वा गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वेष्णवीरपि॥ याः प्रोक्ता वेदतंत्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः॥४॥

केवल हरि भगवान्की परिचर्या विषे अंग अर्थात् पादादिक, उपांग, गरुड़ादिक, आकल्प चक्रादिक, अलंकार कौस्तुभादिक, आभूषणोंकी रचना जिस जिस भाॅति कल्पना करते॥२॥ उस क्रियायोगके जाननेकी हमारी इच्छा है, जिसकी निपुणतासे मरणधर्मा पुरुष अमरत्वको प्राप्त होजॉय, हे सूतजी! आप उस विद्याके जाननेवाले हैं, सो अनुग्रह करके हमको बतलाइये? आपका कल्याण होगा॥३॥ सूतजी बोले कि, गुरुओंको नमस्कार करके विष्णुभगवान्कीविभूतियोंका वर्णन करूंगा, जिन विभूतियोंका वर्णन ब्रह्मादिक देवताओंनेभी

वेद और तंत्रोंमें वर्णन कियाहै*॥४॥ मायारूप महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रा इन नौ तत्त्वोंसे ग्यारह इन्द्रिय पंचमहाभूतरूप यह विराट्शरीर ब्रह्माण्ड उत्पन्नहुवा कि, जिस चैतन्यसे अधिष्ठित ब्रह्माण्डमें पृथ्वीआदि सब लोक देखनेमें आतेहैं, इन्ही पृथ्वी आदि लोकोंसे भगवान्केअंगोंकी पूजा करनेमें आती है॥५॥ इस ब्रह्माण्डको भगवान्में कल्पित होनेके कारण भगवान् का देहरूप मानकर उसमें पृथ्वीको चरण रूप, स्वर्गको मस्तकरूप, अन्तरिक्षको नाभिरूप, सूर्यकोनेत्ररूप, पवनको नासिकारूप, दिशाओंको कानरूप॥६॥ प्रजापतिको शिश्नेन्द्रियरूप, मृत्युको गुदेन्द्रियरूप लोकपालोंको भुजारूप, चन्द्रमाको मनरूप, यमको भ्रुकुटीरूप॥७॥ लज्जाको ऊपरके ओष्ठरूप, लोभको नीचेके ओष्ठरूप,

मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्॥ निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम्॥५॥ एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः॥ नाभिः सूर्योक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः॥६॥ प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः॥ तद्बाहवो लोकपाला मनश्चंद्रो भ्रुवौ यमः॥७॥ लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दंता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः॥ रोमाणि भूरुहाभूम्नोमेघाः पुरुषमूर्द्धजाः॥८॥ यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः॥ तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया॥९॥ कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः॥ तत्प्रभाव्यापिनी साक्षाच्छ्रीवत्समुरसा विभुः॥१०॥

चॉदनीको दॉतरूप, भ्रान्तिको हास्यरूप, वृक्षोंको रोमरूप और मेघोंको केशरूप कल्पना करते हैं॥८॥ ऐसे ब्रह्माण्डरूपका धूप, दीप, चन्दनादिसे पूजन और ध्यान एकबारमें नहीं बनसक्ता; इसलिये पाषाण, धातु आदिकी प्रतिमामें उस विराट् देहकी और अवयवोंकी कल्पना कर उसका पूजन और ध्यान ठीक ठीक करनेमें आता है, इस ब्राह्मण्डरूप पुरुषका जो प्रमाण है जैसी स्थिति है, वह प्रमाण और वह स्थिति भगवान्कीछोटी मूर्त्तिमें भी जानी जाती है, इसलिये मूर्त्तिमें भगवान्का पूजन करते हैं॥९॥ मूर्त्तिमें जो प्रभुने कौस्तुभमणि धारण की है, यही शुद्ध चैतन्य धारण

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* शंका - बडे आश्चर्यकी बातहै कि, सूतजी कहते हैं कि, अब अपने गुरूको दण्डवत् करके विष्णुकी विभूति ऐश्वर्य मैं वर्णन करता हू यह मुझको संशय है कि, पहिले स्कन्धसे बारहवें स्कन्धके ग्यारह अध्यायतक विष्णुकी विभूतिका वर्णन नहीं हुवा ? फिर किसकी विभूतिका वर्णन पहिले हुवा ? यह सन्देह मेरे मनको स्थिर नहीं होने देता?

उत्तर - पहिले ऐसा वर्णन हुवा है तीन लोक चौदह भुवन चराचर यह सब ईश्वरका स्वरूपहै, इसलिये विष्णुरूप जो सम्पूर्ण संसार है उनकी विभूतिका वर्णन हुआ है और अब अकेले भगवान्‌की महिमा और चरित्रोंका वर्णन होगा, इसलिये सूतने कहाथा कि, अब हम भगवान्‌की विभूतिका वर्णन करतेहैं।

किया है, ऐसा मान रक्खा है और प्रतिमाके वक्षस्थल में श्रीका चिह्न है, उनकी प्रभासे व्याप्त जीव है॥१०॥ उनकी मायाही अनेक गुणमयी वनमाला है, और वेदही साक्षात् पीताम्बर है और अकार, उकार मकाररूप त्रिमात्रावाला ओंकारही यज्ञोपवीत है॥११॥ सांख्ययोग और योग यह दोनों मकराकृत कुण्डल हैं, सब लोकोंसे नमस्कृत और अभयदायक ब्रह्मलोक मुकुटमणि है॥१२॥ वसुधाके आधाररूप शेष भगवान् हैं, वह अनंत नामसे प्रसिद्ध हैं, वही नारायणके विराजनेका कमलासन है और कोई कोई विद्वान् लोग ऐसा भी कहतेहैं, अनेक रंगकी जो परमेश्वरकी माया है, वह मायाही अनंत आसन है, कोई कहते हैं, धर्मज्ञानादिसहित सतोगुण कमलासन है॥१३॥ इन्द्रियोंकी निपुणता, मनका उत्साह,

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्॥ वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम्॥११॥ बिभर्ति सांख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले॥ मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयंकरम्॥१२॥ अव्याकृतमनंताख्यमासनं यदधिष्ठितः॥ धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते॥१३॥ ओजः सहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्॥ अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम्॥१४॥ नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्॥ कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम्॥१५॥ इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यंदनम्॥ तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम्॥१६॥ मंडलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः॥ परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः॥१७॥ भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्॥ धर्मंयशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत्॥१८॥

शरीरके बल सहित प्राणही विराट्स्वरूपकी गदा है, जलका तत्त्वही शंख है तेजका तत्त्वही सुदर्शनचक्र है॥१४॥ आकाशही नीलवर्ण बिजली युक्त झमझमाताहुवा खड्ग है आकाशरूप तत्त्व जो अन्धकार है वही ढाल है कालही शांर्गधनुष है और कर्मही बाणोंसे भराहुवा तूणीर (तरकस) है॥१५॥ इन्द्रियेंही भालवाले बाण हैं, मनही रथ है, तन्मात्राही इस रथकी चाल है, अभयवरदानकी देनेवाली क्रियाही विराट्पुरुषकी मुद्रा है॥१६॥ सूर्य, अग्नि, चन्द्रमण्डलपर पुरुष भगवान्की पूजा करनेका स्थान है गुरुकी दी हुई जो मंत्रदीक्षा है, वही पूजन करनेवालोंका संस्कार है, भगवान्की परिचर्याही आत्माके पापोंको नाश करनेवाली है॥१७॥ छःप्रकार भगवत् शब्दका अर्थ लीलाकमल है. धर्म, यश, दोनों

चामर और वीजना हैं॥१८॥ हे द्विजो! छत्र धारण करनेका निर्भय धाम वैकुण्ठ है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदही यज्ञपुरुष भगवान्का वाहन गरुड़ है॥१९॥ साक्षात् भगवती लक्ष्मी जो भगवान्के पार्श्वमें विराजमान हैं, वह हरिकी अनपायिनी शक्ति हैं, पार्षदोंमें अधीश्वर जो मुख्य विष्वक्सेन है वही तंत्रशास्त्रकी मूर्ति है, अणिमादिक अष्टसिद्धियां जो हैं, वह नंदादिक भगवान् वैकुण्ठविहारीके द्वारपाल हैं॥२०॥ हे ब्रह्मन् ! वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध यही श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी चार मूर्ति परमपवित्र हैं॥२१॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय, चार अवस्थाओंसे और इनके कारण विषय, मन, अज्ञान और ज्ञानसे भगवान् जाने जाते हैं, यही भावना ईश्वरसम्बन्धी है॥२२॥ अंग, उपांग, चरणादिक

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाऽकुतोभयम्॥ त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम्॥१९॥ अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः॥ विष्वक्सेनस्तंत्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः॥२०॥ नन्दादयोऽष्टौ द्वास्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः॥ वासुदेवः संकर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्॥ अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोभिधीयते॥२१॥ स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः॥ अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते॥२२॥ अंगोपांगायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्॥ बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः॥२३॥ द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक् स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्॥ सृजति हरति पातीत्याख्ययाऽनावृताक्षो विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलक्ष्यः॥२४॥ श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिधुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य॥ गोविंद गोपवनिताव्रजभृत्यगीत तीर्थश्रवः श्रवणमंगल पाहि भृत्यान्॥२५॥

चार भुजावाली मनोहर मूर्त्ति, गरुड़ादिक, आयुध, आकल्प, अलंकार इन चारोंसे संयुक्त, चतुर्मूर्त्ति भगवान् हरि ईश्वर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय इन चारो अवस्थाओंको धारण करते हैं, जो पुरुष इन चारों मूर्तियोंका ध्यान धरते हैं, उनको भगवान् वासुदेव चार फल देतेहैं॥२३॥ हे द्विजोत्तम! भगवान् वेद के कारण स्वयंद्रष्टा स्वमहिमासे परिपूर्ण, अपनी मायाहीसे सब जगत् उत्पन्न करते हैं, सँभारते हैं और नष्ट करते हैं, क्योंकि ईश्वर सबके अंतर्यामी हैं॥२४॥ जिन मनोहर मूर्तियोंकी उपासना कही अब उनकी सूतजी स्तुति करते हैं। हे श्रीकृष्णचन्द्र ! हे अर्जुनके प्रिय सखा ! हे यदुकुल

भूषण ! वसुधाके द्रोही राजाओंके वंशके विध्वंस करनेवाले हे अग्निरूप ! एकरस पराक्रमी हे गोविंद ! हे श्रवणमंगल ! हे गोपवनिताओंके समुदाय और नारद भृत्यादिकोंसे पवित्र यश गायेहुये! तीर्थोंके समान पवित्र कीर्तिवाले ! हे हरि ! हे विश्वभगवान् ! हे वैकुण्ठविहारी ! हमारी इस कालरूप संसारसे रक्षा करो॥२५॥ जो पुरुष प्रातःकाल उठकर एकाग्रचित्त हो महापुरुष भगवान् केइन लक्षणोंको चित्तमें रखकर ध्यान करैगा वह पुरुष सर्व घटवासी वासुदेवभगवान् को अपने हृदयमें विराजमान देखेगा॥२६॥ शौनकादिक बोले कि, हे सूतजी! मूर्त्तियोंके विषयमें जो व्यूह आपने कहा उनको सुनकर हमको सूर्यके व्यूह सुननेकी अभिलाषा हुई, और राजा परीक्षित से श्री शुकदेवजीने (पंचमस्कन्ध में) वर्णन किया था कि " गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, दैत्य, ऋषि और देवता, इन सात सातका सूर्यसम्बन्धी गण मास मासप्रति कहा है” इन गणोंके नाम

य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्॥ तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम्॥२६॥ शौनक उवाच॥ शुको यदाह भगवान्विष्णुराताय शृण्वते॥ सौरो गणो मासिमासि नाना वसति सप्तकः॥२७॥ तेषां नामानि कर्माणि संयुक्तानामधीश्वरैः॥ ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः॥२८॥ सूत उवाच॥ अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्॥ निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्त्तते॥२९॥ एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मा दिकृद्धरिः॥ सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः॥३०॥ कालो देशः क्रिया कर्ता कारणं कार्यमागमः॥ द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः॥३१॥

और इनके स्वामी सूर्योंके नाम और कर्म हमको सुनाओ। क्योंकि सूर्यनारायणभी नारायणहीका स्वरूप है, इसलिये उनका व्यूह श्रवण करनेकी हमारी श्रद्धा है॥२७॥२८॥ सूतजी बोले कि, सर्वत्र जीवमात्रकी आत्मा विष्णु भगवान्कीमाया है, उस अनादि मायासे रचत सब लोकोंकी सीमामें प्रवृत्त करानेवाले यह सूर्यनारायण लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं॥२९॥ सब लोकोंके आत्मा और आदि कर्त्ता जो विष्णु भगवान् हैं वही प्रगटरूपसे सूर्यनारायण हैं, और यह भगवान्ही सब वेदोंकी क्रियाओंका कारण हैं इसीसे ऋषि लोग उन उन क्रियाओंसे नाना प्रकारका कहते हैं॥३०॥ हे शौनक! भगवान्ही सब कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये मायाके संग, काल, देश, क्रिया, कर्त्ता, अनुष्ठान, यजमान, साधन,

यज्ञादिक, मंत्र, हविष्य यह नौ प्रकार हरिकी मायासे इसप्रकार कविलोग कहते हैं॥३१॥ कालरूप सूर्य भगवान् चैत्रादिक, बारहों मास लोकोंके कर्मोंके विषे प्रवृत्त करनेको अपने गणोंको साथ लिये अलग अलग द्वादशरूप धारण किये घूमते रहते हैं॥३२॥ चैत्रके महीनेमें कृतस्थली नाम अप्सरा, हेतिनाम राक्षस, वासुकी नाग, तुम्बुरु गन्धर्व, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य नाम ऋषि, इनके साथ धातानाम सूर्य विचरण करता है॥३३॥ वैशाखमें पुञ्जिकस्थली नाम अप्सरा, प्रहेति नाम राक्षस, कच्छनीर नाम नाग, नारद नाम गन्धर्व, अथौजा यक्ष, पुलह ऋषि, इनके साथ अर्यमा नाम सूर्य विचरण करता है॥३४॥ ज्येष्ठ मासमें मेनका नाम अप्सरा, पौरुषेय नाम राक्षस, तक्षक नाम नाग, हाहा नाम गन्धर्व

मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपधृक्॥ लोकतंत्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः॥३२॥ धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने॥ पुलस्त्यस्तुंबुरुरिति मधुमासं नयंत्यमी॥३३॥ अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुंजिकस्थली॥ नारदः कच्छनीरश्च नयंत्येते स्म माधवम्॥३४॥ मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः॥ रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयंत्यमी॥३५॥ वसिष्ठो वरुणो रंभा सहजन्यस्तथा हुहूः॥ शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयंत्यमी॥३६॥ इंद्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथांगिराः॥ प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयंत्यमी॥३७॥ विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः॥ अनुम्लोचा शंखपालो नभस्याख्यं नयंत्यमी॥३८॥ पूषा धनंजयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा॥ घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी॥३९॥

रथस्वन यक्ष, अत्रि ऋषि, इनके साथ मित्र नाम सूर्य प्रकाश करता है॥३५॥ आषाढ़ मासमें रम्भा नाम अप्सरा, मित्रस्वन नाम राक्षस, शुक्र नाम नाग, हूहू नाम गन्धर्व, सहजन्य यक्ष, वसिष्ठऋषि इनके साथ वरुण नाम सूर्य प्रकाश करता है॥३६॥ श्रावण मासमें प्रम्लोचा नाम अप्सरा वर्य नाम राक्षस, एलापत्र नाम नाग, विश्वावसु नाम गन्धर्व, श्रोता यक्ष, अंगिरा नाम ऋषि, इनके साथ इन्द्रनाम सूर्य प्रकाश करता है॥३७॥ भाद्रपद महीनेमें अनुम्लोचा नाम अप्सरा, व्याघ्र नाम राक्षस, शंखमाल नाम नाग, उग्रसेन नाम गन्धर्व, आसारण यक्ष, भृगु नाम ऋषि, इनके साथ विवस्वान् नाम सूर्य विचरण करताहै॥३८॥ आश्विनमासमें घृताची नाम अप्सरा, वात नाम राक्षस, धनंजय नाम नाग, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष

गौतम नाम ऋषि, इनके साथ पूषा नाम सूर्य विचरण करताहै॥३९॥ कार्त्तिकके महीनेमें सेनजित् नाम अप्सरा, वर्चा नाम राक्षस, ऐरावत नाम नाग, विश्व नाम गन्धर्व, ऋतु यक्ष, भरद्वाज नाम ऋषि इनके साथ पर्जन्य नाम सूर्य भ्रमण करताहै॥४०॥ अगहनके महीनेमें उर्वशी नाम अप्सरा विद्युत्शत्रु नाम राक्षस, महाशंख नाम नाग, ऋतुसेन नाम गन्धर्व, तार्क्ष यक्ष, कश्यप ऋषि, इनके साथ अंशुनाम सूर्य प्रकाश करताहै॥४१॥ पौषके महीनेमें पूर्वचित्ती नाम अप्सरा, स्फूर्जरा नाम राक्षस, कर्कोटक नाम नाग, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्णयक्ष, आयु ऋषि, इनके साथ भग नाम सूर्य विचरण करताहै॥४२॥ माघमासमें तिलोत्तमा नाम अप्सरा, ब्रह्मपेत नाम राक्षस, कंबल नाम नाग, धृतराष्ट्र नाम गन्धर्व, शतजित् यक्ष, जमदग्नि

ऋतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा॥ विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयंत्यमी॥४०॥ अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी॥ विद्युच्छत्रुर्महाशंखः सहोमासं नयंत्यमी॥४१॥ भगः स्फूर्जोरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पंचमः॥ कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयंत्यमी॥४२॥ त्वष्टा ऋचीकतनयः कंबलश्च तिलोत्तमा॥ ब्रह्मापेतोथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषंभराः॥४३॥ विष्णुरश्वतरो रंभा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्॥ विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयंत्यमी॥४४॥ एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः॥ स्मरतां संध्ययोर्नृृणां हरंत्यंहो दिनेदिने॥४५॥ द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै॥ चरन्समंतात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम्॥४६॥ सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिंगैर्ऋषयः संस्तुवंत्यमुम्॥ गंधर्वास्तं प्रगायंति नृत्यंत्यप्सरसोऽग्रतः॥४७॥ उन्नह्यंति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः॥ चोदयंति रथं पृष्ठे नैर्ऋता बलशालिनः॥४८॥

ऋषि, इनके साथ त्वष्टा नाम सूर्य विचरण करताहै॥४३॥ फाल्गुनमें रम्भा नाम अप्सरा मखापेत नाम राक्षस, अश्वतर नाम नाग, सूर्यवर्चा गधर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि, इनके साथ विष्णुनाम सूर्य विचारण करता है॥४४॥ यह सब सूर्यरूप विष्णु भगवान्की विभूतियोंका जो पुरुष दोनों संध्याकालमें स्मरण करते हैं, उनके सम्पूर्ण पाप विनष्ट होजाते हैं॥४५॥ यह सूर्यनारायण इन छहोंगण सहित बारहमहीनेमें सब ओर घूमते हैं और लोकोंको इसलोकमें और परलोकमें उत्तम बुद्धि देतेहैं॥४६॥ अप्सरायें सुन्दर शृंगार कर करके सूर्यनारायणके सन्मुख नृत्य करती हैं, बलवान्राक्षस रथको पीछेसे ढकेलते हैं, यक्ष रथको जोडते हैं, नाग रथको बाँधते हैं, गन्धर्व सूर्य के आगे यशगान करतेहैं और ऋषीश्वर, मुनीश्वर,

ऋग, यजु; सामवेदके मंत्रोंसे श्रीसूर्यनारायणकी स्तुति करते हैं॥४७॥४८॥ साठसहस्र (६००००) निर्मल वालखिल्य ब्रह्मऋषि अंगुष्ठप्रमाणमात्र स्वरूप सब मिलके स्तोत्रोंसे विभुके सन्मुख होकर पिछले पावोंसे चलते श्रीनारायणकी स्तुति करते हैं॥४९॥ आदि अंत रहित अजन्म भगवान् हरि ईश्वर इसप्रकार कल्प कल्पमें आपका सूर्यरूप विभाग करके सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करते हैं॥५०॥ इति श्रीमद्भागवतें महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायामादित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा — इस द्वादश अध्यायमें, श्रीभागवत पुराण॥ वरणौंसब

वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः॥ पुरतोभिमुखं यांति स्तुवंति स्तुतिभिर्विभुम्॥४९॥ एवं ह्यनादिनिधनो भगवान्हरिरीश्वरः॥ कल्पेकल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कधे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ सूत उवाच॥ नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान्वक्ष्ये सनातनान्॥१॥ एतद्वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्भुतम्॥ भवद्भिर्यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम्॥२॥

संक्षेपसों, जो शुक किय निर्माण॥१॥ सूतजी बोले कि, श्रेष्ठधर्मको नमस्कार करके और सृष्टिकर्त्ता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करके अब सब ब्राह्मणोंके चरणोंमें शिरधर इस श्रीमद्भागवत पुराणमें जो जो सनातनधर्म और सब कथाओंकी अनुक्रमणिका है वह मैं आपसे कहताहूं*॥१॥ हे ब्राह्मणो! सम्पूर्ण प्राणियोंके सुनने योग्य यह विष्णुभगवान् का अद्भुत चरित्र इसमें जो जो प्रश्न आपने किये उन उनके उत्तर मैंने

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* शंका - सूतजीने मुनियोंसे कहा कि, अब हम सनातनधर्म कहते हैं, आप सावधान होकर सुनो, इसमें हमको यह शंका है कि, पहिले जो धर्म वर्णन हुवा सो सनातनधर्म नहीं है, क्या ये शीघ्रताके बनाये हैं?

उत्तर - भागवतमें जो धर्म वर्णन कियेहैं, सो सब सनातन धर्म हैं शीघ्रतासे बनाये हुए कोई भी नहीं हैं परन्तु एक कारण हैं सो वह भी कहते हैं, मुनियोंने प्रथम इस धर्मको बहुत सक्षेपके साथ वर्णन कियाथा। वारम्वार वर्णन हुवा परन्तु जब हुषा तब सक्षेपसेही हुवा और धर्मका विस्तार बहुत श्लोकोंमें कविलोग वर्णन करतेहैं, इस अध्यायमें बारहस्कन्धोंकी कथाको व्यासजीनेथोडेहीमें वर्णन की हैं, जैसे पहिले मुनिजनोंने थोडे थोडे लोकोंमें सम्पूर्ण धर्म वर्णन किये थे, इसलिये सूतजीने कहाथा कि, अब मैंसनातनधर्म वर्णन करताहू, क्योंकि सनातनधर्म-

आपको दिये॥२॥ इस पुराणमें सब पापोंके विध्वंस करनेवाले भक्तवत्सल हृषीकेश भगवान् हरि नारायणकी साक्षात् महिमा वर्णन की है॥३॥ अब यहाँसे आगे पहले कही हुई “बारहों स्कन्ध” की कथाको सूतजी शौनकादिकोंको फिर स्मरण करातेहैं, जिसमें जगत्की उत्पत्ति, पालन, संहार, ऐसे परमगुह्य परब्रह्मके यशका गान, और उस परब्रह्मका प्रकाशक विज्ञान और ज्ञानके साधन, इस महापुराणमें कहेहैं॥४॥ भक्तियोग और भक्तियोगसे प्रगट होनेवाला वैराग्य भी कहा, नारदजीका आख्यान और परीक्षितका उपाख्यान॥५॥ ब्राह्मणके शापसे राज ऋषि परीक्षित्का अनशन व्रत धारण करना, उन राजर्षि सहित ब्रह्मर्षि श्रीशुकदेवजी महाराजका सम्वाद यह सब प्रथमस्कन्धमें वर्णन किया

अत्र संकीर्तितः साक्षात्सर्वपापहरो हरिः॥ नारायणो हृषीकेशो भगवान्त्सात्त्वतां पतिः॥३॥ अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम्॥ ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम्॥४॥ भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम्॥ पारीक्षितमुपाख्यानं नारदाख्यानमेव च॥५॥ प्रायोपवेशो राजर्षेर्विप्रशापात्परीक्षितः॥ शुकस्यैव च ब्रह्मर्षेः संवादश्च परीक्षितः॥६॥ योगधारणयोत्क्रांतिः संवादो नारदाजयोः॥ अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः॥७॥ विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः॥ पुराणसंहिताप्रश्नोमहापुरुषसंस्थितिः॥८॥ ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये॥ ततो ब्रह्मांडसंभूतिवैराजः पुरुषो यतः॥९॥ कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्भवः॥ भुव उद्धरणेंभोधौहिरण्याक्षवधो यथा॥१०॥

॥६॥ योगधारणासे प्राणका छोड़ना, ब्रह्मा नारदका सम्वाद और अवतारोंका वर्णन, विराट् पुरुषकी उत्पत्ति, यह सब द्वितीयस्कन्धमें वर्णन किया॥७॥ विदुर और उद्धवका सम्वाद, फिर विदुर और मैत्रेयका सम्भाषण, पुराणसंहिता के विषयमें प्रश्न, विराट् पुरुषकी रचना॥८॥ पहिले मायाके गुणोंसे महत्तत्त्वादिक सातप्रकारकी सृष्टि रची गई, उससे फिर इस ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति, जो कि वैराज पुरुषके रहनेका स्थान है॥९॥ स्थूल सूक्ष्म कालकी गति, नाभिसे कमलकी उत्पत्ति, समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार, हिरण्याक्ष

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तो दोही हैं, जो मुनि लोग थोडे श्लोक करके वर्णन किये थे, बहुत विस्तार तो पीछेसे कविलोगोंने किया है, सूतने ऐसे विचारके नहीं कहाथा कि, अबतक सनातन धर्म वर्णन नहीं हुआ, सनातन धर्म अब वर्णन करताहू॥

का वध॥१०॥ वृक्ष, पशु, पक्षी, मनुष्य, इन तीनोंकी सृष्टि, रुद्रकी सृष्टि, ब्रह्माके आधे अंगसे पुरुष और आधे अंगसे नारी (स्त्री) हुई, उनमें पुरुष तो स्वायंभुव मनु और स्त्री शतरूपा हुई, कर्दम प्रजापतिसे धर्मपत्नियोंकी सन्तान कही॥११॥१२॥ जिन प्रजापति कर्दमजीसे महात्मा भगवान् कपिलदेवजीका अवतार, और उन बुद्धिमान् कपिलदेवजीसे देवहूतीका सम्भाषण, यह तीसरे स्कन्धकी कथा है॥१३॥ मरीच्यादिक ब्राह्मणोकी सन्तानकी उत्पत्ति, दक्षके यज्ञका विध्वंस, ध्रुवजीका चरित्र, पृथु और प्राचीनबर्हि राजाके चरित्रका वर्णन, यह चौथे स्कन्धकी कथा हैं॥१४॥ हे द्विजोत्तम! नारद प्रियव्रतका सम्वाद, फिर राजा प्रियव्रतका चरित्र, नाभिराजाका आख्यान, ऋषभदेवजीका चरित्र,

ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गोरुद्रसर्गस्तथैव च॥ अर्धनारीनरस्याथ यतः स्वायंभुवो मनुः॥११॥ शतरूपा च या स्त्रीणामाद्या प्रकृतिरुत्तमा॥ संतानो धर्मपत्नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः॥१२॥ अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः॥ देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता॥१३॥ नवब्रह्मसमुत्पत्तिर्दक्षयज्ञविनाशनम्॥ ध्रुवस्य चरितं पश्चात्पृथोः प्राचीनबर्हिषः॥१४॥ नारदस्य च संवादस्ततः प्रैयव्रतं द्विजाः॥ नाभेस्ततोऽनुचरितमृषभस्य भरतस्य च॥१५॥ ततो द्वीपसमुद्राद्रिवर्षनद्युपवर्णनम्॥ ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः॥१६॥ दक्षजन्म प्रचेतोभ्यस्तत्पुत्रीणां च संततिः॥ यतो देवासुरनरास्तिर्यङ्नगखगादयः॥१७॥ त्वाष्ट्रस्य जन्म निधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः॥ दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्लादस्यमहात्मनः॥१८॥ मन्वंतरानुचरितं गजेंद्रस्य विमोक्षणम्॥ मन्वंतरावतारश्च विष्णोर्हयशिरादयः॥१९॥ कौर्मं मात्स्यं नारसिंहं वामनं च जगत्पतेः॥ क्षीरोदमथनं तद्वदमृतार्थे दिवौकसाम्॥२०॥

राजा भरतका इतिहास॥१५॥ द्वीप, समुद्र, पर्वत, खण्ड और नदियोंका वर्णन, ज्योतिश्चक्रका स्थापन, पातालकी रचना, नरकोंका वर्णन, यह पञ्चमस्कन्धकी कथा हैं॥१६॥ प्रचेताओंसे दक्षका जन्म फिर उस दक्षकी पुत्रियोंका वृत्तान्त, जिस सन्तानसे देवता, असुर, नर, पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी आदिकी उत्पत्ति॥१७॥ हे ब्राह्मणो ! वृत्रासुरका जन्म और दितिके दोनों पुत्रोकी उत्पत्ति, हिरण्यकशिपुका और महात्मा प्रह्लादका चरित्र, यह षष्ठ और सप्तम स्कन्धकी कथा हैं॥१८॥ मन्वन्तरोंका वर्णन, गजेंद्रका छुटाना, मन्वन्तरोंमें विष्णुभगवान् के हयग्रीवादिक अवतारोका वर्णन॥१९॥ उन विष्णुभगवान्के अवतार कूर्म, मत्स्य, नृसिंह, वामनका उपाख्यान, देवताओंका समुद्रका मथना॥२०॥

देवता, और असुरोंका महाभयंकर संग्राम, यह अष्टमस्कन्धकी कथा हैं, राजाओंके वंशोंका वर्णन, राजा इक्ष्वाकुका जन्म और उनके वंशका वर्णन और महात्मा सुद्युम्नका इतिहास॥२१॥ इला और ताराका आख्यान, शशादादि, नृगादि सूर्यवंशी राजाओंका वर्णन॥२२॥ सुकन्याका चरित्र, शर्यातिका चरित्र, बुद्धिमान् कुकुत्स्थका उपाख्यान, खट्गांग, मान्धाता, सौभरि सगरका चरित्र॥२३॥ कोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रकी कथा, सब पापोंका नाशक निमिके शरीरका त्यागन, जनकवंशियोंकी उत्पत्ति॥२४॥ भृगुवंशी परशुरामजीका पृथ्वीको निःक्षत्रिय करना, चन्द्रवंशी ऐलादि ययाति राजा नहुषका वृत्तान्त॥२५॥ दुष्यन्तका पुत्र राजा भरत, शन्तनु और शन्तनुके पुत्रका चरित्र और राजा ययातिके ज्येष्ठ पुत्र

देवासुरं महायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम्॥ इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः॥ २१॥ इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च॥ सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः॥२२॥ सौकन्यं चाथ शार्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः॥ खद्वांगस्य च मांधातुः सौभारेः सगरस्य च॥२३॥ रामस्य कोसलेंद्रस्य चरितं किल्बिषापहम्॥ निमेरंगपरित्यागो जनकानां च संभवः॥२४॥ रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षत्त्रकरणं भुवः॥ ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नाहुषस्य च॥२५॥ दौष्यंतेर्भरतस्यापि शंतनोस्तत्सुतस्य च॥ ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोनुकीर्तितः॥२६॥ यत्रावतीर्णो भगवान्कृष्णाख्यो जगदीश्वरः॥ वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले॥२७॥ तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः॥ पूतनाऽसुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः॥२८॥ तृणावर्तस्य निष्पेषस्तथैव बकवत्सयोः॥ धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलंबस्य च संक्षयः॥२९॥ गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः॥ दमनं कालियस्याहेर्महाहेर्नंदमोक्षणम्॥३०॥

राजा यदुके वंशका वर्णन, ये नवमस्कन्धकी कथा हैं॥२६॥ जिस यदुके वंशमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द जगदीश्वरने अवतार लेकर भूमिका भार उतारा था, वह वृत्तान्त इस भाँति है कि, वसुदेवके घर अवतीर्ण होकर गोकुल गये और वहाँ वृद्धि पाई॥२७॥ असुरोंके शत्रु श्रीकृष्णजीके अपार चरित्र हमने कहे, बाल अवस्थामें पूतनाके प्राणसहित स्तनोंका पान, लात मारकर शकटका तोडना, तृणावर्त्त और वत्सासुरका मारना, अघासुरका वध, ब्रह्माका वत्स और बालकोंका हरना, धेनुक प्रलम्बासुरका वध॥२८॥२९॥ सब ओर फैलीहुई दावानलसे गोप गायोंको बचाना,

कालिय सर्पका दमन और महा अजगर सर्पसे नन्दजीको छुटाना॥३०॥ व्रजकन्याओंका व्रत करना और उस व्रतसे अच्युत भगवान्काप्रसन्न होना, द्विजपत्नियोंपर संतुष्ट होकर ब्राह्मणोंको पश्चात्ताप करना॥३१॥ गोवर्द्धन पर्वतका करपर धरना, सुरभिसहित इन्द्रका किया श्रीकृष्णका अभिषेक और रात्रिके समय व्रजबालाओं सहित श्रीकृष्णकी रासक्रीड़ा॥३२॥ दुर्बुद्धि शंखचूड़का वध और केशी, अरिष्टका संहार, अक्रूका व्रजमें आना, फिर रामकृष्णका मथुराको प्रस्थान॥३३॥ उस समय व्रजयुवतियोंका विलाप, उसके पीछे मथुराका देखना, और मुष्टिक, चाणूर, कंसादिक

व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः॥ प्रसादो यज्ञपत्नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम्॥३१॥ गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ॥ यज्ञाभिषेकः कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च सत्रिषु॥३२॥ शंखचूडस्य दुर्बुद्धेर्वधोऽरिष्टस्य केशिनः॥ अक्रूरागमनं पश्चात्प्रस्थानं रामकृष्णयोः॥३३॥ व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः॥ गजमुष्टिकचाणूरकंसादीनां च यो वधः॥३४॥ मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सांदीपनेर्गुरोः॥ मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम्॥३५॥ कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः॥ जरासंधसमानीतसैन्यस्य बहुशो वधः॥ घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम्॥३६॥ आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात्॥ रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः॥३७॥ हरस्य जृंभणं युद्धे बाणस्य भुजकृंतनम्॥ प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत्॥३८॥

दैत्योंका वध॥३४॥ सान्दीपन गुरुके मरेहुए पुत्रको फेरकर लादेना, मथुरामें वसकर उद्धव बलदेव सहित मिलकर यादवोंसे स्नेह करना हे ! विप्रो जरासन्धकी लाई हुई सेनाका वारम्वार वध करना और मुचुकुन्द द्वारा कालयवनका मारना और समुद्रके टापूपें द्वारकापुरीका बसाना॥३५॥३६॥ इन्द्रलोकसे पारिजात और सुधर्मासभाका ले आना और युद्धमें शत्रुओंको जीतकर रुक्मिणिको हरलाना॥३७॥ युद्धमें जृंभास्त्र करके शिवको जँभाई लेना, बाणासुरकी भुजाओंका काटना, नरकासुरका मारना, सोलह सहस्र एकसोआठ कन्याओं का उद्धार॥३८॥

शिशुपालका वध, मिथ्यावासुदेवका मारना, शाल्वका संहार, दुर्मति दन्तवक्रका हनन, द्विविदका हनन, पीठासुरका प्राणहरण, मुरका मारण, पंचजनको मारकर कृतार्थ करना॥ काशीका जलाना, दैत्योंका प्रभाव प्रगट करना, पाण्डवोंको निमित्त मात्र बनाकर पृथ्वीका भार उतारना, यह दशमस्कन्धकी कथा हैं॥३९॥४०॥ ब्राह्मणके शापका बहाना रखकर अपने कुलका संहार करना, वासुदेव और उद्भवका उत्तम सम्वाद॥४१॥ जिस संवादमें आत्मतत्त्वका निर्णय और धर्मका निर्णय, फिर अपनी मायाके प्रभावसे मनुष्यलोकका छोड़ना, यह एकादशस्कन्धकी कथा हैं॥४२॥ युगोंके लक्षण, उन युगोंमें जीविकाका वर्णन, कलियुगमें मनुष्योंका उपद्रव और चार प्रकारकी प्रलय, मायासे और ब्रह्मासे उत्पन्न होनेवाली तीन प्रकारकी

चैद्यपौंड्रकशाल्वानां दंतवक्रस्य दुर्मतेः॥ शंबरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः॥३९॥ माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम्॥ भारावतरणं भूमेर्निमित्तीकृत्य पांडवान्॥४०॥ विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च॥ उद्धवस्य च संवादो वासुदेवस्य चाद्भुतः॥४१॥ यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः॥ ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः॥४२॥ युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नृृणामुपप्लवः॥ चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा॥४३॥ देहत्यागश्च राजर्षेर्विष्णुरातस्य धीमतः॥ शाखाप्रणयनमृषेर्मार्कंडेयस्य सत्कथा॥४४॥ महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः॥ इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोहमिहास्मि वः॥ लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः॥ ४५॥ पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन्॥ हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात्॥४६॥ संकीर्त्यमानो भगवाननंतः श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम्॥ प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवाऽतिवातः॥४७॥

उत्पत्ति॥४३॥ बुद्धिमान् राजर्षि विष्णुरातकी देहका त्यागना, व्यासजीसे वेदकी शाखाओंका विस्तार, मार्कण्डेय ऋषिकी सुन्दर कथा॥४४॥ हे द्विजोत्तम! जगत्के आत्मा सूर्यनारायणका मास मासका वर्णन, तुमने जो कुछ हमसे बूझा सो सब कहा, इस भागवत पुराणमें भगवान्की लीला अवतार सम्बन्धी कर्मोंका यश गायाहै॥४५॥ गिरते, पड़ते, उठते, बैठते, विपत्तिके समय, छींकके, विवशतासे ऊंचे स्वरसे ‘हरये नमः’ जो पुरुष इस प्रकार कहताहै, वह सब पापोंसे मुक्त होजाता है॥४६॥ जो पुरुष भगवान्का कीर्त्तन करता है, अथवा उनके गुणोंको गाता है, तो अनन्त भगवान् उनके चित्तमें प्रवेश

करके सब पापोंको दूर करदेतेहैं, जैसे सूर्यनारायण अन्धकारको, पवन मेघों को दूर करताहै॥४७॥ जिस वाणीसे भगवान् अधोक्षजकी सत्कथा नहीं गाई जाती उस वाणीको मिथ्या और विषयवाली समझनी चाहिये, जिसमें भगवान्के नामका गुणानुवादहो, वही वाणी सत्य मंगलरूप और पवित्र करनेवाली है॥४८॥ वही वाणी रमणीक और रुचिर नित्य नये २ मनको महाउत्सवरूप मनुष्योंके शोकसमुद्रकी सुखानेवाली है, जिस वाणी से उत्तमश्लोक भगवान् कायश गाया जाता है॥४९॥ जिस वाणीमें चित्र विचित्र पदभी हों और उत्तम रचना भी हों, परन्तु जगत्के पवित्र करनेवाले हरिका यश कुछ नहीं, तो उस वाणीमें काककी तुल्य विषयी रमण करतेहैं, हंसके समान साधुजन उस वाणीसे संतुष्ट नहीं होते, साधुजन उसी

मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा न कथ्यते यद्भगवानधोऽक्षजः॥ तदेव सत्यं तदु हैव मंगलं तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम्॥४८॥ तदेव रम्यं रुचिरं नवंनवं तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम्॥ तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां यदुत्तमश्लोकोऽनुगीयते॥४९॥ न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित्॥ तद्ध्वांक्षतीर्थं न तु हंससेवितं यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः॥५०॥ स वाग्विसर्गो जनताऽघसंप्लवो यस्मिन्प्रतिश्लोकबद्धवत्यपि॥ नामान्यनंतस्य यशोंकितानि यच्छृण्वंति गायंति गृणंति साधवः॥५१॥ नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरंजनम्॥ कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम्॥५२॥ यशः श्रियामेव परिश्रमः परो वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु॥ अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयोर्गुणानुवादश्रवणादिभिर्हरेः॥५३॥

पवित्र वाणीमें रमणकरते हैं, जिस वाणीमें अच्युत भगवान्कावर्णन है॥५०॥ जिस वाणीमें श्लोक श्लोक विषे उत्तम पदरचना नहीं, केवल हरियश और हरिनामहीका वर्णन है वह वाणी प्राणियोंके पापोंके समूहोंको नाश करनेवाली है, उस वाणीको निर्मल चित्तवाले सब सुनते हैं, गाते हैं और कहतेहैं॥५१॥ ब्रह्मका प्रकाश करनेवाला निर्मल ज्ञान भी जो अच्युत भगवान्के भावसे रहित है वह किसी प्रकार शोभित नहीं होता, उत्तम कर्म भी ईश्वरके अर्थ विना अमंगल रूप है सो किसी प्रकार शोभित नहीं होसक्ता॥५२॥ वर्णाश्रमके आचार, तप, वेदाध्ययन आदिमें बडे परिश्रमसे केवल यश और ऐश्वर्य प्राप्त होताहै, परन्तु हरिके गुणका कथन और श्रवणादि करनेसे श्रीधर भगवान्के चरणकमलका नित्यप्रति

स्मरण होता है॥५३॥ श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दका स्मरण सदा अमंगलका हरनेवाला, मंगलका विस्तार करनेवाला और अंतःकरणको शुद्ध करताहै, परमात्मामें स्नेह बढाता है और ज्ञान विज्ञान सहित वैराग्यको उपजाताहै॥५४॥ हे द्विजोत्तम ! आप बडे भाग्यवान् हो, जो अखिल लोकोंके आत्मा भगवान् सर्वोत्तम, सर्वान्तर्यामी सर्वहितकारी नारायण देवको निरन्तर हृदयमें धारण करके सदा अखण्ड भावसे भजते रहतेहो॥५५॥ जब कि, राजा परीक्षित्अन्न पानी त्यागकर गंगाके किनारे जा बैठे, उससमय बडे २ ऋषीश्वर मुनीश्वर श्रीमद्भागवत सुननेको उस सभामें

अविस्मृतिः कृष्णपदारविंदयोः क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च॥ सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम्॥५४॥ यूयं द्विजाग्र्या बत भूरिभागा यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम्॥ नारायणं देवमदेवमीशमजस्रभावा भजताऽऽविवेश्य॥५५॥ अहं च संस्मारित आत्मतत्त्वं श्रुतं पुरा में परमर्षिवक्त्रात्॥ प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः सदस्यृषीणां महतां च शृण्वताम्॥५६॥ एतद्वःकथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः॥ माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम्॥५७॥ य एवं श्रावयेन्नित्यं यामं क्षणमनन्यधीः॥ श्रद्धावान्योऽनुशृणुयात्पुनात्यात्मानमेव सः॥५८॥

विद्यमान थे, वहॉ श्रीशुकदेवजीके मुखसे पहिले मैंने जो कुछ सुनाथा वह आत्मतत्त्वका ज्ञान मुझको आपने स्मरण कराया, यह आपने बडी कृपादृष्टि की॥५६॥ हे विप्रो ! जिनके सब कर्म और चरित्र वर्णन करनेके योग्य हैं उन वासुदेव भगवान् काकीर्त्तन और माहात्म्य सब अशुभोंका विनाश करनेवाला है सो मैंने आप लोगोंके सन्मुख वर्णन किया*॥५७॥ जो कोई पुरुष अनन्यबुद्धि होकर नित्य

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* दृष्टान्त - परन्तु ऐसी कथा नहीं सुननी चाहिये, जसी कथा एक पण्डितजीने कही और बुढिया स्त्रीने चुनी एक पण्डित किसी ठाकुरद्वारेमें कथा कहते थे और एक बुढियाभी कथा सुननेको जाया करती थी और वहाँ बैठकर बहुत रोती, पण्डितजीने समझा कि, यह बुढिया बढी प्रेमिन है, कुछ अधिक दक्षिणा चढावेगी, जब कथा सम्पूर्ण होनेका दिन आया तो बुढिया नहीं आई पण्डितजीने कथामें कुछ विलम्बभी किया बुढिया तोभी न आई अब कथा पूरी हो चुकी, पण्डीतजीने जाना कि बुढियाको कुछ होगया नहीं तो बुढिया अवश्य आती, दूसरे दिन पण्डितजीने कहा कि, बुढियाके घरको चलैं कुछ दक्षिणा प्राप्त हो जायगी, यह विचार उसके द्वारेपर पहुँचे और जाकर पुकारा, बुढिया चरखा कातरहीथी बोली पण्डितजी ! आओ बैठ जाओ कैसे कृपा करी ? पण्डितजी बोले बुढिया कैसे हो रही है ? कल कथाभी समाप्त होगई और तू न आई तू तो बडी प्रेमिनथी फिर न आनेका क्या कारण ? तू तो घटोंतक कथामें बैठी रोये करेथी ? बुढिया वोली क्या कथाको सुनकर थोडेही रोतीथी, पण्डितजी बोले कि, फिर क्यों रोतीथी ? बुढिया बोली कि जैसा तुम्हारी पोथी बांधनेका वस्त्र है ऐसाही मेरी लल्ली मोहिनीके लालाका पाजामाथा सो उसको देखतेही मोहिनीके लाला मुझको याद आ जाते थे इसलिये रोतीथी, पण्डितजी सुनतेही सुन्न होगये और उठकर सीधे अपने घरको चले गये।

एकपहर, वा एकक्षण इस माहात्म्यको सुनै अथवा जो कोई श्रद्धापूर्वक इसको सुनावै, वह प्राणी अपने आपको पवित्र करताहै॥५८॥ जो कोई पुरुष एकादशी वा द्वादशीके दिन इस महापुराण भागवतको सुने उसकी आयुर्बल अधिक होतीहै और जो कोई निर्जलव्रत धारण करके एकाग्र चित्त हो इसका पाठ करें वह सब पापोंसे छूटकर निष्पाप होजाता है॥५९॥ पुष्कर, मथुरा, द्वारकामें वास करके एकाग्रचित्त हो जो इस संहिताको पढैगा वह सब भयादिकोंसे छूट जायगा॥६०॥ जो कोई इस महापुराण संहिताको सुनता है, कीर्त्तन करता है, उसको देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनुष्य और राजालोग, यह सब मनोवाँछित मनोरथको देतेहैं॥६१॥ द्विजवर्णोंको, ऋग्वेद, यजुर्वेद,

द्वादश्यामेकादश्यां वा शृण्वन्नायुष्यवान्भवेत्॥ पठत्यनश्नन्प्रयतस्ततो भवत्यपातकी॥५९॥ पुष्करे मथुरायां च द्वारवत्यां यतात्मवान्॥ उपोष्य संहितामेतां पटित्वा मुच्यते भयात्॥६०॥ देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः॥ यच्छंति कामान्गृणतः शृण्वतो यत्र कीर्तनात्॥६१॥ ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोधीत्यानुविंदते॥ मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम्॥६२॥ पुराणसंहितामेतामधीत्य प्रयतो द्विजाः॥ प्रोक्तं भगवतो यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत्॥६३॥ विप्रोऽधीत्याप्नुत्प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम्॥ वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात्॥६४॥ कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम्॥ इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसंगैः॥६५॥

सामवेदके पढ़नेसे जो शहतकी नदी, घृतकी नदी, दूधकी नदीके पानरूपी फल प्राप्त होता है, सो सब फल इस महापुराण संहिताके पढ़नेसे होताहै॥६२॥ हे द्विजोत्तम ! जो पुरुष पवित्र होकर इस महापुराण संहिताको पढ़ते हैं, वह भगवान् वासुदेवके परमपदको प्राप्त होते हैं॥६३॥ इस महापुराणसंहिताको ब्राह्मण पढ़कर उत्तम बुद्धिको प्राप्त होते हैं, क्षत्रिय पढ़े तो उदय अस्ततक सर्वत्र भूमण्डलका राजा हो, वैश्य पढैतो निधिपति हो और शुद्र पढैतो सब पापोंसे छूटजाय॥६४॥ कलिकालके मलके समूहोंका विध्वंस करनेवाले अखिलैश्वर्य वासुदेव भगवान् इसप्रकार और दूसरे शास्त्रोंमें वारम्वार नहीं गायेगये और इस पुराणमें तो कथाओंके प्रसंग

प्रसंगमें पद पदके विषे अशेष मूर्ति भगवान् हीके चरित्र गायेगये हैं, इसीसे इस पुराणका नाम महापुराण है॥६५॥ जगत्की उत्पत्ति, पालन, संहार करनेवाली जिनकी शक्ति है और ब्रह्मा इन्द्र शिवादिक देवताओंको जिनकी स्तुति दुर्लभ है, ऐसे अजन्मा अनंत आत्मतत्त्व अच्युत भगवान्को नमस्कारहै॥६६॥ वृद्धिको प्राप्ति हुई प्रकृति आदि शक्तियोंसे जिसने अपने स्वरूप स्थावर जंगम उत्पन्न किये हैं ऐसे सब में व्यापक देवता ओमें श्रेष्ठ, अनादि ज्ञानमात्र स्वरूप भगवान्कोमें वारम्वार प्रणाम करता हूं॥६७॥अपने आत्मसुखसेही सम्पूर्ण चित्त होनेसे अन्य पदार्थोंमें भाव न रखनेवाले कि, जिन्होंने अपना मन नारायणकी सुन्दर लीलाओंमें आकर्षित होजानेसे नारायणके तत्त्वका प्रकाशक यह पुराण संसारके उपकारके

तमहमजमनंतमात्मतत्त्वं जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम्॥द्युपतिभिरजशक्रशंकराद्यैर्दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि॥६६॥ उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मन्युपरचितस्थिरजंगमालयाय॥ भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने सुरऋषभाय नमः सनातनाय॥६७॥ स्वमुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तन्यभावोऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम्॥ व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि॥६८॥ इति श्रीमद्भा०म० द्वादश० द्वादशस्कन्धार्थसंग्रहो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ सूत उवाच॥ यं ब्रह्मा वरुणेंद्ररुद्रमरुतः स्तुन्वंति दिव्यैः स्तवैर्वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायंति यं सामगाः॥ ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यंति यं योगिनो यस्यांतं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥१॥

लिये अनुग्रह करके प्रगट किया है, उन सब जगत्केपाप दूर करनेवाले व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी महाराजको प्रणाम करता हूं॥६८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां द्वादशस्कंधार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा - इस तेरह अध्यायमें, पूरण होत पुराण। संख्या सकल पुराणकी, वरणौ सहित प्रणाम॥१॥ सूतजी बोले कि, ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र और मरुतदेवता दिव्य स्तोत्रोंसे जिन भगवान्कीस्तुति करते हैं और सांगोपांग पदक्रम उपनिषद् सहित वेदोंसे सामवेदके गानेवाले जिनका गान किया करतेहैं और ध्यानमें स्थित होकर मन लगाय योगी जन जिनको देखा करते हैं, देवता, असुरगण जिनका आदि अन्त नहीं जानसक्ते ऐसे परमदेवको वारम्वार मेरा नमस्कार है॥१॥

पीठपर भ्रमते श्रेष्ठ मन्दराचलकी शिलाओंके अग्रसे गात्र खुजानेके समान निद्राका अनुभव करते कच्छपरूप भगवान्के श्वासोंकी पवन तुम सबोंकी रक्षा करो, जिस पवन संस्कार के लेश अनुवर्तनके वशसे समुद्रके क्षोभके मिसकरके निरंतर आना जाना बन्द नहीं होता, नित्य घटता बढता रहताहै। आजतक विश्राम नहीं लेता, वह तुम्हारी रक्षा करो*॥२॥ पुराणोंकी संख्याका निरूपण और श्रीभागवत्का आश्रय प्रयोजन, दान और दानका माहात्म्य और पाठादिकोंका माहात्म्य अब सावधान होकर हमसे सुनिये॥३॥ ब्रह्मपुराणके श्लोकोंकी संख्या दशसहस्र १०००० है,पद्मपुराणके श्लोकोंकसंख्या पचपनसहस्र ५५००० है, विष्णुपुराणके श्लोकोंकी संख्या तेईस सहस्र २३००० है, शिवपुराणके श्लोकोंकी संख्या चौबीस

पृष्ठे भ्राम्यदमंदमंदरगिरिग्रावाग्रकंडूयनान्निद्रालोः कमठाकृतेर्भगवतः श्वासानिलाः पातु वः॥ यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद्वेलानिभेनांभसां यातायातमतंद्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति॥२॥ पुराणसंख्यासंभूतिमस्य वाच्यप्रयोजने॥ दानं दानस्य माहात्म्यं पाठादेश्निबोधत॥३॥ ब्राह्मं दशसहस्राणि पाद्मं पंचोनषष्टि च॥ श्रीवैष्णवं त्रयोविंशच्चतुर्विशति शैवकम्॥४॥ दशाष्टौ श्रीभागवतं नारदं पंचविंशति॥ मार्कंडं नव वाह्नंतु दशपंचचतुःशतम्॥५॥ चतुर्दश भविष्यं स्यात्तथा पंचशतानि च॥ दशाष्टौ ब्रह्मवैवर्तं लिंगमेकादशैव तु॥६॥

सहस्र २४००० है॥४॥ श्रीमद्भागवत्के श्लोकोंकी संख्या अठारह सहस्र १८००० है, नारदपुराणके श्लोकोंकी संख्या पचीस सहस्र २५००० है, मार्कण्डेय पुराणकेश्लोकोंकी संख्या नव सहस्र ९००० है, अग्निपुराणके श्लोकोंकी संख्या पन्द्रह सहस्र चरसौ १५४०० है॥५॥ भविष्यपुराणके श्लोकोंकी संख्या चौदह सहस्र पॉचसौ १४५०० है, ब्रह्मवैवर्तपुराणकेश्लोकोंकी संख्या अठारहसहस्र १८००० है, लिंगपुराणके श्लोकोंकी संख्या ग्यारहसहस्र ११०००है ६

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* शंका - श्रीमद्भागवतकी समाप्तिमें सूतजीने अपने गुरुको और सब देवताओंको, ब्रह्मा, विष्णु भगवान्के सब अवतारोंको, इन सबको त्यागकर कच्छप भगवान्‌को नमस्कार क्यों किया ?
उत्तर - कच्छप भगवान्‌की कृपासे समुद्रको मथकर देवतालोगोंने अमृत पाया अमृत पाकर देवताओंका मनोरथ सिद्ध हुवा तैसे सूतजी कूर्मका स्मरण करके समुद्ररूप भागवतके पार उतरगये, इसलिये सूतजीने अपने नेत्रोंसे प्रेमके आँशूबहाय सबको त्यागकर कूर्ममगवान्को नमस्कार किया और भगवान्के अवतारोंमें कुछ भेद नहीं समझा।

वराहपुराणके श्लोकोंकी संख्या चौबीससहस्र २४००० है, स्कन्दपुराणके श्लोकोंकी संख्या इक्यासी सहस्र एकसौ ८११०० है, वामनपुराणके श्लोकोंकी संख्या दशसहस्र १०००० है॥७॥ कूर्मपुराणके श्लोकोंकी संख्या सत्रहसहस्र १७०००है, मत्स्यपुराणके श्लोकोंकी संख्याचौदहसहस्र १४००० है, गरुड़पुराणके श्लोकोंकी संख्या उन्नीससहस्र १९००० है, ब्रह्माण्डपुराणके श्लोकोंकी संख्या बारहसहस्र १२००० है॥८॥ इसप्रकारअठारहपुराणके श्लोकोंकी संख्याका प्रमाण - समाहार चारलाख ४००००० श्लोकका है, यह प्रमाण कवीश्वरोंने कहाहै, जिसमें भागवत अठारह सहस्र १८००० है॥९॥ अपनी नाभिकमलमें विराजेहुए संसारमें भयभीत ब्रह्माजीको यह भगवत पुराण भगवान्नेसुनायाथा॥१०॥ इस श्रीमद्भागवत महापुराणके आदि मध्य और

चतुर्विंशति वाराहमेकाशीतिसहस्रकम्॥ स्कांदं शतं तथा चैकं वामनं दश कीर्तितम्॥७॥ कौर्मंसप्तदशाख्यातं मात्स्यं तत्तु चतुर्दश॥ एकोनविंशत्सौपर्णं ब्रह्मांडं द्वादशैव तु॥८॥ एवं पुराणसंदोहश्चतुर्लक्ष उदाहृतः॥ तत्राष्टादशसाहस्रं श्रीभागवतमिष्यते॥९॥ इदं भगवता पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपंकजे॥ स्थिताय भवभीताय कारुण्यात्संप्रकाशितम्॥१०॥ आदिमध्यावसानेषु वैराग्याख्यानसंयुतम्॥ हरिलीलाकथाव्रतामृतानंदितसत्सुरम्॥११॥ सर्ववेदांतसारं यद्ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणम्॥ वस्त्वद्वितीयं तन्निष्टं कैवल्यैकप्रयोजनम्॥१२॥ प्रौष्ठपद्यां पौर्णमास्यां हेमसिंहसमन्वितम्॥ ददाति यो भागवतं स याति परमां गतिम्॥१३॥ राजंते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे॥ यावद्भागवतं नैव श्रूयतेऽमृतसागरः॥१४॥

अन्तमें संपूर्ण वैराग्यकेही उपाख्यान कहेहैं इसपुराणने हरिकी लीला और कथाओंके समूह अमृतसे साधुओंको और देवताओंको आनन्द कर रक्खाहै, ऐसा आनंददायक और अघ ओघ घायक यह श्रीमद्भागवत पुराणही है॥११॥ सम्पूर्ण वेदान्तका सारभूत, ईश्वर जीवकी एकताको दर्शानेवाला जो यह अद्वितीय पदार्थ (परब्रह्म) है सो इस महापुराणका विषय है और मुख्य प्रयोजन इस महापुराणका केवल कैवल्य अर्थात् मोक्ष है॥१२॥ भादोंसुदी पूर्णमासीके दिन सोनेके सिंहासन सहित जो मनुष्य इस महापुराण श्रीमद्भागवतका दान करे वह परमोत्तम गतिको पाताहै॥१३॥ उसी समयतक और दूसरे पुराण महात्मा पुरुषोंकी मण्डलीमें शोभा पातेहैं, जिस समयतक अमृतके समुद्ररूप यह श्रीमद्भागवत महापुराण सुननेमें नहीं आता॥१४॥

सब उपनिषद् और वेदान्तका सार श्रीमद्भागवतको माना है इसलिये इस पुराणके अमृतरससे जो प्राणी तृप्त होरहेहैं उनकी प्रीति कभी और ठौर नहीं होती॥१५॥ जैसे नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ मानी हैं देवताओंमें अच्युत भगवान् सर्व सुखदानी हैं वैष्णवोंमें महादेव परमज्ञानी हैं ऐसे पुराणोंमें श्रीमद्भागवत बखानी है॥१६॥ हे ब्राह्मणो! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें परमोत्तम काशी है ऐसेही सब पुराणोंमें अत्युत्तम " श्रीमद्भागवित” पुराण है॥१७॥ परमहंसोंका परमप्रिय निर्मल और श्रेष्ठ ज्ञान जिसमें गायाहै और निर्दोष परब्रह्मका निरूपण करके दरशायाहै, भक्ति, ज्ञान, वैराग्यको एकत्र करके भगवत्तत्त्वको जिसमें झलकायाहै ऐसे श्रीमद्भागवत पुराणको जो कोई भक्तजन भक्तिसे सुने, वा पढैऔर हित

सर्ववेदांतसारं हि श्रीभागवतमिष्यते॥ तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित्॥१५॥ निम्नगानां यथा गंगा देवानामयुतो यथा॥ वैष्णवानां यथा शंभुः पुराणानामिदं तथा॥१६॥ क्षेत्राणां चैव सर्वेषां यथा काशी ह्यनुत्तमा॥ तथा पुराणव्रातानां श्रीमद्भागवतं द्विजाः॥१७॥ श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन्पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते॥ तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं तच्छृण्वन्विपठन्विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः॥१८॥ कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रूपिणा॥ योगींद्राय तदात्मनाऽथ भगवद्राताय कारुण्यतस्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि॥१९॥

चित्तसे विचारे, वह इस संसारसागरसे पार उतरकर परमधामको जाताहै॥१८॥ प्रथम विष्णु भगवान्ने इस अतुल श्रीमद्भागवतरूप ज्ञानदीपकको करुणा करके ब्रह्माजीके सन्मुख प्रकाशित किया, ब्रह्माजीने ब्रह्मरूप धारण करके नारदजीके आगे प्रकाशित किया, फिर नारदरूपहोकर व्यासजीके निकट प्रकाशित किया, फिर वेदव्यासरूपसे परमयोगेश्वर श्रीशुकदेवजीके समीप प्रकाशित किया; अन्तमें श्रीशुकदेव रूप धरकर करुणानिधान भगवान्नेकरुणा करके विष्णुरात राजा परीक्षित्के सामने प्रकाशित किया। उन शुद्ध सत्त्व निर्मल, सदा आनन्दमय निरुपाधि

सर्वोत्तम, मोक्षरूप परब्रह्म वासुदेव भगवान्काहम ध्यान करतेहैं॥१९॥ सर्वसाक्षी वासुदेव भगवान्नेजो अनुग्रह करके यह श्रीमद्भागवतपुराण संसारसे मुक्ति पानेवाले ब्रह्माजीके आगे वर्णन किया उन विष्णुभगवान्कोवारम्वार नमस्कार करताहूं॥२०॥ जिन्होंने संसाररूप सर्पसे डसे हुए विष्णुरात राजा परीक्षित्को छुटाया, उन ब्रह्मरूप योगिराज श्रीशुकदेवजीको मैं वारम्वार नमस्कार करताहूं॥२१॥ हे योगेश! हे प्रभो! जिसप्रकार जन्म जन्मान्तरमें आपके चरणकमल कोमल अमलकी भक्ति होय ऐसा कोई उपाय करो, क्योंकि हमारे ऊपर

नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय साक्षिणे॥ य इदं कृपया कस्मै व्याचचक्षे मुमुक्षवे॥२०॥ योगींद्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे॥ संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत्॥२१॥ भवेभवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते॥ तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यतः प्रभो॥२२॥ नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम्॥ प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम्॥२३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यांपारमहंस्यां संहितायां वैयासिक्यां द्वादशस्कंधे पुराणसंख्यादानमाहात्म्यादिवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ हरिः ॐ॥

समाप्तोऽयं श्रीमद्भागवतस्य द्वादशस्कन्धः॥१२॥

दया करने और कष्ट हरनेवाले आपही नाथ हो॥२२॥ जिन श्रीकृष्णभगवान्के नामका संकीर्त्तन सब पापोंका नाशक है और जिनको नमस्कार करनेसे सम्पूर्ण विघ्नोंकी शान्ति होजाती है, उन सर्वोत्तम सर्वान्तर्यामी भगवान्को हम वारम्वार नमस्कार करतेहैं॥२३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे अष्टादशसाहस्र्यांसंहितायां शालिग्रामकृतभाषाटीकायां द्वादशकन्धे पुराणसंख्यादानमाहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

दोहा – व्यासपुत्र शुकदेवको, विनवत वारम्वार। जिनकी कृपाकटाक्षसे, मिटत अनेक विकार॥१॥
संपूरण भई भागवत, गुरुप्रसादसे आज। पढ़े सुनेते जासुके, सिद्ध होत सब काज॥२॥
हरिलीलामृत जानिकै, जहॅतहँ किय विस्तार। तामें दोष न दीजिये, सज्जन सकल उदार॥३॥
यदपि मूल भर रचनको, निजमन किया विचार। वर्णत वर्णत बढ़गयो, कृष्णचरित्र अपार॥४॥
होत न चितमें तृप्तता, निशिदिन यही विचार।बढे कृष्ण लीला अधिक, मुद मंगल दातार॥ ५॥
शशिशशिधरमुख रस धरणि, सम्वत विक्रम व्याप्तज्येष्ठ शुक्लद्वितिको भयो, भागवत ग्रन्थसमाप्त॥६॥
श्रीकृष्णदासात्मज, खेमराजनिधिराज। छाय रह्यो जिनको सुयश, देश देशमें आज॥७॥
वैश्यवंशमें जन्म ले, रविसम कियो प्रकाश। वास बंबईमें करत, पूजत जन मन आश॥८॥
जिन जिन ग्रन्थनको कमी, नाम सुनो नहिं कान। मुद्रित करिकरिग्रन्थ सो, निशिदिन करत प्रदान॥९॥
पुत्र पौत्र परपौत्र हों, बढ़ैअधिक परिवार। मॉगत शालिग्राम यह, हरिसों वर हर वार॥१०॥
मैं अजान जानत नहीं, गद्यपद्यकी सार। पण्डितजन निजजान मोहिं, लीजो सकल सुधार॥११॥

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इदं पुस्तकं क्षेमराज - श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां ( खेतवाडी ७ वीं गली खम्बाटालैन ) स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर”
(स्टीम्) मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.

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  1. “अत्र मनु - मासभक्षयितामुत्र यस्य मांमिहाद्म्यहम्॥ एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।” ↩︎

  2. “शंका-अग्मि, सूर्य, विष, जल, इत्यादि और बडे २पदार्थोंका तेज रोकनेके लिये श्रीकृष्णने सिद्धियें वर्णनकी हैं, ऐसी सिद्धियोंसे योगीजन अग्नि, सूर्य, विष, जल, इन सबके सम्पूर्ण तेजको रोक लेतेहैं. इसमें यह शंका है कि, भगवान् वासुदेवमें जिन योगीश्वरोंका मन लगा है उनको इन सब पदार्थोंके रोकनेसे क्या प्रयोजन?” ↩︎

  3. “कदर्यका लक्षण स्मृतिमें कहा है आत्माका धर्म कार्य न करना पुत्र स्त्री देवता अतिथि और सेवकों को दुःख दे सो कदर्य है॥” ↩︎