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॥अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते दशमस्कन्धप्रारम्भः॥
सवैया—जाकी कृपा शुक ज्ञानी भये, अतिदानी औ ध्यानी भये त्रिपुरारी॥ जाकी कृपा विधि वेद रचे, भये व्यास पुराणनके अधिकारी॥ जाकी कृपाते त्रिलोकधनी, सुकहावत श्रीव्रजचन्द विहारी॥ मेरेहूँ काज करैगी सोई, श्रीकृष्णप्रिया वृषभानु दुलारी॥१॥ कबित्त— काहूको भरोसोहै गणेश शेष शारदको, काहूको भरोसोहै कालिका मशानीको॥ काहूको भरोसो उमा रमा सिया लक्ष्मीको, काहूको भरोसो महादेव ब्रह्मज्ञानीको॥ काहूको भरोसो गंग यमुना हनुमानजीको, काहूको भरोसो सिंहवाहिनी भवानीको॥ तनसे औ मनसे कहै बार बार शालिग्राम, मोको तो भरोसो एक राधा महरानीको॥१॥ दोहा— हे मुकुन्द गोविंद हरि, नन्दनन्दन घनश्याम।चरणशरण मोहिं राखिये, कृपासिन्धु सुखधाम॥१॥ पूरण दशमस्कंधमें
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ राजोवाच॥ कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः॥ राज्ञां चोभयवंश्यानां चरितं परमाद्भुतम्॥१॥ यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम॥ तत्रांशनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः॥२॥
कियो कृष्ण यश गान॥सोनब्बे अध्याय करि, कीन्ह्यों सकल बखान॥२॥ तहां प्रथम अध्यायमें, कंस आपनो काल।सुनि-देवकि संभूत तब इने तासु षट बाल॥१॥ श्रीशुकदेवजीसे राजा परीक्षित बोले कि, हे दीनदयालु! आपने प्रथम नवमस्कन्धमें चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जो जो नामी राजा हुये उन दोनों वंशोंके सब राजाओंका अति विचित्र चरित्र विस्तारसहित वर्णन []1 किया*
॥१॥ हे मुनिवर! धर्मशील महाराज यदुका वंशभी विस्तारपूर्वक आपने अच्छी रीतिसे कहा परन्तु अब दयाकरके वह कथा कहो, जो, महाराज यदुके वंशमें बलरामजीके साथ परिपूर्ण रूपसे अवतार धारण करके संसारके सुख देनेको जो जो अद्भुत लीला भगवान् वासुदेवने की, उनको विस्तार सहित हमारे सामने वर्णन कीजिये॥२॥
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शका— सूर्यवंशसे चद्रवंश हुवा है और राजा परीक्षित्के प्रश्नवाले लोकसे प्रथम सोमवंशका नाम हैं, सो पीछे सूर्यवश क्यों वर्णन किया। सूर्यवश तो प्रथम वर्णन करना चाहिये? ’ यह वडे सदेहकी बात हैं, प्रथमवालेको पीछे वर्णन करना और पीछे वालेको प्रथम यह क्या कारणहै यहा कोई छन्दमी नहीं जो आगे पीछे छन्दभ्रष्ट होजानेके कारण लिखदिया.
उत्तर— राजा परीक्षित्ने चद्रवंशमें श्रीकृष्णका जन्म सुनकर और अपनेभी कुलका सन्मान करनेके लिये श्लोकमें प्रथम चद्रमाका कीर्त्तन किया॥
सब प्राणियोंके प्रतिपालक भगवान् भूतभावनने यदुकुलमें जन्म लेकर जो जो आश्चर्ययुक्त चरित्र किये वह भी सब यथावत् हमारे आगे कथन करो॥३॥ इस संसारमें तीन प्रकारके पुरुष हैं—एक तो ज्ञानी, दूसरे मुमुक्षु, तीसरे विषयी, इन तीनों प्रकारके मनुष्योंको उत्तमश्लोक भगवान्के चरित्र परमप्रिय हैं, सो दिन रात उनको गाते रहते हैं और ज्ञानी लोगोंको परमेश्वरके चरित्र सुननेसे संसारकी सब वासना छूटनेका उत्तम उपाय दिखाई देता है और जिन मुमुक्षु जनोंको मोक्षकी इच्छा है ऐसे नारद, उद्धवादिकोंको संसाररूपी रोगोंके दूर करनेको सजीवन मूल औषधिहै और विषयमें जिनका मन है ऐसे मनुष्योंके मनको और कानोंको परमानन्दका देनेवाला यही विषय है, सिवाय आत्मघातीके और पशुघातीके ऐसा कौनसा मनुष्य है जो परमेश्वरके गुणानुवादको सुनकर आनन्दित न होगा?॥४॥ चाहे कुछ हो परन्तु हमको तो वृन्दावनविहारी भक्तिहितकारीका गुण
अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान्भूतभावनः॥कृतवान्यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात्॥३॥ निवृत्ततर्षैरुपगीयमा नाद्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोभिरामात्॥ क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान्विरज्येत विना पशुध्नात्॥४॥ पितामहा मे समरेऽमरंजयैर्देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिंगिलैः॥ दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं कृत्वाऽतरन्वत्सपदं स्म यत्प्लवाः॥५॥ द्रौण्यस्त्रविप्लष्टमिदं मदंगं संतानवीजं कुरुपांडवानाम्॥ जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रोमातुश्च मे यः शरणं गतायाः॥६॥
दिन रात गाना और उनके उत्तम उत्तम चरित्रोंकी कथा नित्य प्रति सुननी, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र तो हमारे कुलपूज्यही थे, संग्राममें देवताओंकोभी पराजय करनेवाले पितामह भीष्म और दुर्योधन आदि महारथी रूप जिसमें वडवानल सौबल और दुःशासन रूप महागम्भीर नीर, भारी भारी वीर और योद्धाओंकी जहाँ तहाँ घूम रही थी वही उसमें तरंगें, शल्य, द्रोण, कर्ण आदिक महारथी रूप ग्राह थे, मर्यादारूप राजाओंकी कतार थी उस कौरवरूपी अत्यन्त गम्भीर समुद्रने जो द्रौपदीका चीर हरा वही उस समुद्रका विस्तार था, ऐसे दुस्तर महासागरको मेरे पितामह युधिष्टिर आदिकोंने भक्तिरूप नौकाका आश्रय लेके बछड़ेके खुरकी सदृश समझकर बेखटक पार उतर गये॥५॥ इतनाही मत समझना कि, भगवान्ने कृष्ण अवतार केवल पाण्डवोंकीही सहायताके लिये धारण किया था, मेरे भी प्राणोंकी रक्षा श्रीकृष्णजीनेही की थी, कौरव और
पाण्डवोंकी सन्तानका बीजरूप जो मेरा देह अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके तेजसे दग्ध होनेको था, उसी समय मेरी माता उत्तराने महादुःखी हो श्रीकृष्णकी शरण ली, उत्तराको दुःखी जानकर भगवान्ने चक्र ग्रहण कर मेरी माताकी कुक्षिमें प्रवेश करके मेरे तनुकी रक्षा करी॥६॥ हे विद्वन्! सब जगत्के प्रकाश करनेवाले प्राणियोंमें परमपुरुष कालरूप, संसारको मोक्ष देनेवाले और उसीरूपसे दुरात्मा लोगोंको मृत्युके देनेवाले, जिन्होंने भक्तोंके ऊपर दया करके नरशरीर धारण किया, उन श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला हमारे आगे कहो, हमको उनके पराक्रमोंके सुननेकी बड़ी लालसा है॥७॥ संकर्षण बलदेवको आपने पहिले तो देवकीका पुत्र कहा था अब दूसरी बार रोहिणीका पुत्र कहा, यह बडे आश्चर्यकी बात है कि दो माताओंसे एक पुत्र कैसे उत्पन्न हुवा॥८॥ भक्तभावन भगवान् अपने माता पिता वसुदेव देवकीका घर छोड़कर व्रजमें नन्द यशोदाके घर
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजामंतर्बहिः पूरुषकालरूपैः॥ प्रयच्छतो मृत्युमुताऽमृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन्॥॥७॥ रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया॥ देवक्यागर्भसंबंधः कुतो देहांतरं विना॥८॥ कस्मान्मुकुन्दो भगवान्पितुर्गेहाद्व्रजं गतः॥ क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान्सात्वतां पतिः॥९॥ व्रजे वसन्किमकरोन्मधुपुर्यां च केशवः॥ भ्रातरं चावधीत् कंस मातुरद्धाऽतदर्हणम्॥१०॥ देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः॥ यदुपुर्यां सहावात्सीत्पत्न्यः कत्यभवन्प्रभोः॥११॥ एतदन्यच्च सर्वंमे मुने कृष्णविचेष्टितम्॥ वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम्॥१२॥
क्यों गये? और भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी जातिवालोंको संग लेकर कहाँ निवास किया?॥९॥ गोपसखाओंके संग नन्द कुमार भगवान्ने व्रजमें नन्द यशोदाके घर रहकर कौन कौनसे उदार चरित्र किये? और मथुरामें जाकर अपने मामा कंसको अपने हाथसे कैसे मारा? मामाको मारना किसी प्रकार योग्य नहीं फिर उसका वध क्यों किया?॥१०॥ हे प्रभो! मनुष्यदेह धारण करके भगवान् वासुदेवने यादवोंके साथ मथुरापुरीमें कितने दिनतक वास किया? और श्रीकृष्ण महाराजके कितनी स्त्री थीं॥११॥ हे सर्वज्ञ! जो जो प्रथम मैंने आपसे बूझा उसके सिवाय और जो कुछ चरित्र मेरे बूझनेसे शेष रहगये हैं वह सब मेरे सामने वर्णन करना चाहिये क्योंकि मेरा चित्त श्रीकृष्णके गुणानुवाद
सुननेको अधिक चाहताहै और इस विषयमें मेरी बड़ी श्रद्धा है॥१२॥ हे मुनिवर! यद्यपि यह क्षुधा पिपासा जगत्में परम दुःसहहै, तोभी मैंने उसको त्याग दिया, परन्तु आपके मुखारविन्दसे जो भगवान्की अमृतरूपी कथाका अमृत टपकताहै उसको पीता हूं. उसीके पीनेसे मुझको भूख प्यासकी कुछ बाधा नहीं॥१३॥ सूतजी बोले कि, हे भृगुनन्दन शौनकजी! इसप्रकार भागवतोंमें मुख्य श्रीशुकदेवजी महाराजने यह उत्तम प्रश्न सुनके राजा परीक्षित्की प्रशंसा करके कलियुगके पापोंका नाश करनेवाला श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र कहना आरम्भ किया॥ १४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजऋषियोंमें श्रेष्ठ राजा परीक्षित्!आपकी बुद्धिने अच्छा निश्चय कियाहै कि, जिस बुद्धिसे आपकी कृष्णकथामें अत्यन्त उत्कृष्ट प्रीति हुई है॥१५॥
नैषातिदुस्सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते॥ पिवंतं त्वन्मुखांभोजच्युतं हरिकथाऽमृतम्॥१३॥ सूत उवाच॥ एवं निशम्य भृगुनंदन साधुवादं वैयासकिः स भगवानथ विष्णुरातम्॥ प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं व्याहर्तुमार भत भागवतप्रधानः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ सम्यग्व्यवसिता बुद्धिस्तव राजर्षिसत्तम॥ वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः॥१५॥ वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि॥ वक्तारं पृच्छकं श्रोतृृंस्तत्पादुसलिलं यथा॥१६॥ भूमिर्दृप्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतैः॥ आक्रांता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥१७॥ गौर्भूत्वाऽश्रुमुखी खिन्ना क्रंदती करुणं विभोः॥ उपस्थितांतिके तस्मै व्यसनं स्वमवोचत॥१८॥ ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह॥ जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधेः॥ १९॥
भगवान् वासुदेवकी कथा तीन जनोंको पवित्र करै है, श्रोताको, वक्ताको और प्रश्न कर्ताको, जैसे श्रीगंगाजीका जल तीन जनोंको पावन करे है, पुरोहितको, यजमानको और ग्रहण करनेवालेको॥१६॥ हे राजन्! अभिमानी राजा जिनका सदा दैत्योंकेसा स्वभाव उनकी अधिक सेनाओंके भारसे पृथ्वी अत्यन्त दुःखी होकर गायका रूपधर ब्रह्माजीके निकट गई॥१७॥ हे राजन्! शरीर जिसका क्षीण मन मलीन जिसको देखकर सबके मनमें दया उपजे, इस प्रकार रंभाती डकराती आँखोंसे आंसू बहाती हुई ब्रह्माजीके समीप जाकर खड़ी हुई और अपना सब दुःख उनसे कहा॥१८॥ ब्रह्माजी पृथ्वीका दुःख सुनकर सब देवताओंको और शिवजीको अपने संग लेकर क्षीरसागरके समीप गये, वहाँ विष्णुभगवान् शेषशय्यापर
शयन कररहे थे॥१९॥ वहाँ जाय समाधि लगाय, जगदीश्वर भगवान् सम्पूर्ण अर्थियोंके मनोरथ पूर्ण करनेवाले देवोंके देव विष्णु भगवान्की पुरुष सूक्तके इन षोडश मंत्रोंसे “सहस्रशीर्षा पुरुषः” स्तुति करने लगे॥२०॥ समाधिहीमें ब्रह्माजीको आकाशवाणीहुई, उस वाणीको सुनकर ब्रह्माजी देवता ओंसे बोले कि, हे देवताओ!मुझको श्रीनारायणकी आज्ञा हुई है उसको तुम सब लोग सुनो और सुनकर विलम्ब मत करो शीघ्र वैसे ही करो॥२१॥ हमारी प्रार्थनासे पहिलेही भगवान्ने इस पृथ्वीका दुःख दूर करनेका विचार करलिया है, अब जबतक सब देवपति भगवान् अपनी काल शक्तिसे वसुंधराका भार उतारनेके लिये धरणीपर मनुज अवतार धारण न करें, तबतक तुम सब अपने अपने अंशोंसे यदुकुलमें जाकर जन्म लो॥२२॥
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम्॥ पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः॥२०॥ गिरं समाधौ गगने समीरितां निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह॥ गां पौरुषीं मे शृणुतामराः पुनर्विधीयतामाशु तथैव माचिरम्॥२१॥ पुरैव पुंसाऽवधृतो धराज्वरो भवद्भिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्॥ स यावदुर्व्या भरमीश्वरेश्वरः स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद्भुवि॥२२॥ वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान्पुरुषः परः॥ जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवंतु सुरस्त्रियः॥२३॥ वासुदेवकलाऽनंतः सहस्रवदनः स्वराट्॥ अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया॥२४॥ विष्णोर्माया भगवती यया संमोहितं जगत्॥ आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिश्यामरगणान्प्रजापतिपतिर्विभुः॥ आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ॥२६॥
वसुदेव देवकीके भवनमें साक्षात् आदिपुरुष भगवान् आनकर प्रगट होंगे उनके संग विहार करनेके लिये और हितके हेतु देवपत्नीभी व्रजमें जन्म धारण करें॥२३॥और सहस्र मुखवाले स्वयंप्रकाश विष्णु भगवान्की अनंत कलासे शेषनागजी महाराज श्रीकृष्णचन्द्रके संग लीला करनेके लिये बलभद्र नामसे प्रथमही वसुदेवजीके घर जन्म धारण करेंगे॥२४॥फिर देवकीके गर्भको खैचनेके लिये और यशोदाको मोह करनेके लिये परमेश्वरकी माया सब संसारके मनको मोहनेवाली, वह भी भगवान्की आज्ञाको मानकर अपने अशोंसहित यशोदाके भवनमें उत्पन्न होगी॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, इस प्रकार प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजीने देवताओंको आज्ञा दी और पृथ्वीको समझाय बुझाय आप अपने ब्रह्मलोकको चले गये॥२६॥
यदुपति शूरसेन पहले मथुरापुरीमें बसता हुआ माथुर शूरसेन आदि देशोंको भोगता गया॥२७॥ यह मथुरापुरी सदासे यदुवंशियोंकी राजधानी थी और इसी मथुरा पुरीमेंश्रीकृष्ण भगवान् सदा विराजमान रहतेथे॥२८॥ कंसकी अनीतिसे उग्रसेन अत्यन्त दुःखी रहतेथेऔर उग्रसेनका भ्राता जो देवक था उसकी कन्या देवकी जब विवाहने योग्य हुई, तब उसने उग्रसेन और कंससे बूझा इस लड़कीका विवाह किसके साथ करें? कंस बोला आजकल यदुवंशियोंमें शूरसेन बड़ा तेजस्वी और प्रतापी राजा है उनके पुत्र वसुदेवके साथ इसका विवाह कर दो तो अच्छा है, देवकने उसी समय एक ब्राह्मणको बुलाय शुभ लग्न ठहराय राजा शूरसेनके घर टीका भेजदिया, शूरसेन बड़ी धूमधामसे बरात सजाय सब देशके नरेश संग ले सब यदुवंशी मिल मथुरा पुरीमें वसुदेवजीको विवाहनेके लिये गये, जब बरात मथुरासमीप आई तब उग्रसेन देवक और कंस अपनी सेना संग
शूरसेनो यदुपतिर्मथुरामावसन् पुरीम्॥ माथुरान्शूरसेनांश्च विषयाञ्बुभुजे पुरा॥२७॥ राजधानी ततः साऽभृत्स र्वयादवभूभुजाम॥मथुरा भगवान्यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः॥२८॥ तस्यां तु कर्हिचिच्छौरिर्वसुदेवः कृतोद्वहः॥ देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत्॥२९॥ उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया॥ रश्मीन्हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः॥३०॥ चतुश्शतं पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम्॥ अश्वानामयुतं सार्धं स्थानां च त्रिषट्शतम्॥३१॥
ले आगे बढे और आदरसत्कारसे अगौनी कर बरातको नगरमें लाये और सुन्दर जनवासा दिया, फिर सब जनोंको अच्छे अच्छे भोजन जिमाय मंडपमें बैठाय वेदविधिसे देवकने वसुदेवको कन्यादान दिया और बरातको विदाकियाः शूरसेनका पुत्र वसुदेव अपनी विवाहिता स्त्री देवकीके साथ अपने घर जानेको रथपर बैठे॥२९॥और उग्रसेनका पुत्र कंस अपनी भगिनी देवकीको प्रसन्न करनेके लिये घोड़ोंकी राश, पकड़कर रथ हांकनेको बैठा, उसके संग सैकडों रथ रत्नजटित स्वर्णके औरभी थे॥३०॥ अपनी कन्यापर अत्यन्त प्रीति करनेवाले देवकने देवकीको बिदाके समय स्वर्णकी माला और रत्नजटित अम्बारीवाले ४०० हाथी, पन्द्रहसहस्र १५००० घोड़े, अठारहसौ १८०० रथ॥३१॥
और शृंगारसहित सुंदर सुकुमार दोसौ दासी वर कन्याकी सेवाके लिये दीं॥३२॥ दूलह दुलहनकी यात्राके समय मंगलके लिये, शंख भेरी मृदंग दुंदुभि आदि सब बाजे बरातके बजने लगे और शूरसेन देवक आदि सब बरातके पहुँचानेको संगचले॥३३॥ जब मथुरासे थोडी दूर बाहर बरात निकली और देवकीके रथके घोड़ोंकी बागडोर पकड़े जो कंस हॉक रहाथा उस समय कंसको आकाशवाणी हुई अरे मूर्ख! जिसको हर्ष सहित तू पहुॅचाने जाता है इसी देवकीके आठवें गर्भमें तेरा मारनेवाला उत्पन्न होगा॥३४॥ इसप्रकार वाणीको सुन वह अधम पापी भोजवंशियोंके कुलको कलंक लगानेवाला कंस बहनको मारनेके लिये उपस्थित हुवा और खड्ग हाथमें ले केश पकड़ देवकीको रथसे नीचे खैेंच ली और क्रोधसे दाँत चबाय चबाय होठोंको काट काट कहने लगा कि, जिस वृक्षको जड़सेही उखाड़ डाले तो फिर उसमें फल फूल क्यों लगेगा? इसलिये इसीको
दासीनां मुकुमारीणां द्वे शते समलङ्कृते॥ दुहित्रे देवकः प्रादाद्याने दुहितृवत्सलः॥३२॥ शंखतूर्यमृदंगाश्च नेदुंर्दुदु भयः समम्॥ प्रयाणप्रक्रमे तावद्वरवध्वोः सुमंगलम्॥३३॥ पथि प्रग्रहिणं कंसमाभाष्याहाऽशरीरवाक्॥ अस्या स्त्वामष्टमो गर्भो हंतायां वहसेऽबुध॥३४॥ इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः॥ भगिनीं हंतुमारब्धः खड्गपाणिः कचेऽग्रहीत्॥३५॥ तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम्॥ वसुदेवो महाभाग उवाच परिसांत्वयन्॥॥३६॥ वसुदेव उवाच॥ श्लाघनीयगुणः शूरैर्भवान्भोजयशस्करः॥ स कथं भगिनीं हन्यात्स्त्रियमुद्वाहपर्वणि॥३७॥ मृत्यु- र्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते॥ अद्य वाऽब्दशतांते वा मृत्युर्वैप्राणिनां ध्रुवः॥३८॥
न मारूं जो पुत्र होनेकी संशय ही न रहे, फिर निर्भय होकर अपना निष्कंटक राज्य करूं॥ ३५॥ यह गति देख, उस निन्दनीय कर्म करनेवाले महामूर्ख निर्लज्ज कंसको बड़े ऐश्वर्यवान् वसुदेवजी स्तुति और युक्तियों और करुणा भरे मधुर वचनोंसे शान्त करके बोले कि, हे कंस ! तुम बड़े शूरवीर और योद्धाओंमें प्रशंसनीय गुणज्ञ और भोजवंशका सुयश फैलानेवाले हो देखो ! इस समय, एक तो विवाहका उत्साह, दूसरे यह सीधी साध्वी जाति स्त्री अबला, तीसरे तुम्हारी प्यारी बहन, फिर इस बिचारी दीन अबलाको मारना कौन धर्म है बली कभी अबलापर हाथ नही डालते क्योंकि स्त्रियोंके मारने का शास्त्रमें महापाप लिखा है॥३६॥३७॥ जो मृत्युके भयसे इस बिचारी दीनको मारो हो तो मृत्यु तो किसी
प्रकार मिटतीही नहीं क्योंकि मृत्यु तो जन्मधारी मनुष्योंके संगही लग रहीहै, जिस दिन मनुष्यका जन्म होता है, उसी दिन मृत्यु भी संग जन्मतीहै और जो अधिक जीवनके लिये इसको मारते हो तो मृत्यु आज अथवा सौ (१००) वर्षके अनंतर देह धारीका मरण निःसन्देह होगा॥३८॥ और मनुष्यको उस समय पाप करना भी उचित है, जो यह शरीर छोडकर दूसरा शरीर धारण करना न पड़ै, सो यह कदापि होना नहीं क्योंकि मरण समय भी यह प्राणी अपने वशमें नहीं होता, वहॉभी कर्मोके अनुसार प्रथम दूसरे शरीरको प्राप्त कर लेता है तब पीछे इस शरीरको त्यागे है॥३९॥ जैसे चलनेके समय मनुष्य अपना अगला पाँव सँभालकर रखलेता है तब पिछले पाँवको उठाता है जैसे जोंक चलते समय पहिले अगले तृणको पकड़ लेती है तब पिछले तृणको छोड़ती है ऐसे ही यह देह जिसमें अनेक प्रकारके संस्कार लग रहे हैं जीवात्मा दूसरे शरीरको प्रथम ग्रहण
देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः॥ देहांतरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः॥३९॥ व्रजंस्तिष्ठन्पदैकेन यथैवैकेन गच्छति॥ यथा तृणजलौकैवं देही कर्मगतिं गतः॥४०॥ स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं मनोरथेनाभिनिविष्टचेतनः॥ दृष्टश्रुताभ्यां मनसाऽनुचिंतयन्प्रपद्यते तत्किमपि ह्यपस्मृतिः॥४१॥ यतोयतो धावति दैवचोदितं मनो विकारात्मकमाप पंचसु॥ गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौप्रपद्यमानः सह तेन जायते॥४२॥
करलेता है पीछे पिछली देहको छोड़ता है॥४०॥ स्वप्नमें मनुष्य जैसे देखेहुए और सुनेहुए देह जिसमें अनेक प्रकारके संस्कार लग रहे हैं और मन उनके वशमें है वह मन उसीमें बस देहका चिन्तवन करता रहताहै और वह मनुष्य स्वप्नमेंभी वैसाही देखता है और उसी देहको अपनी समझकर कहता है, मैं हूं ‘यह मेरा देह दुःखी है, ऐसे अपने आपको राजा और इन्द्रादिककी समान मानकर अभिमान करता है और जाग्रत देहकी सम्पूर्ण स्मृति भूलजाता है, फिर उसी संस्कारवाले मनसे मनोरथ देहको भूलकर जाग्रतमेंभी उसी प्रकारके देहको देखता है और थोड़ी देरमें कहने लगता है ‘मैं हूं यह शरीर मेरा है’ ऐसा मानता है और स्वप्नके देवकी स्मृति कुछभी नहीं रहती. इसी प्रकार कर्मोंके अधीन होकर पूर्वदेहको छोडदेताहै और वैसाही और देह प्राप्त कर लेता है॥४१॥ फलके देनेवाले कर्मोंसे प्रेरित विकारोंसे भराहुवा जो मन है, सो मायारचित महापंच
भूतोंके बने हुए मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादिक जो शरीरहैं, जिस जिसकी ओरको दौडताहै और अभिमानको बांधताहै, उस उस शरीरमें जीवको संग लेकर जन्म लेताहै, यह मनही सब बातका कर्ता हर्ता ठहरा तो मनहीको जन्म लेना चाहिये. परंतु अकर्ता आत्मा क्यों जन्मताहै? आत्मा उस मनको यह करके मानताहै कि, ‘मैं हूँ’ इसकारण आत्मा उस मनके साथ जन्म लेताहै॥४२॥ जैसे सूर्य चन्द्रमादिकोंकी ज्योति जलके भरे घटादिक पात्रोंमें प्रतिबिम्बरूप होकर पवनके वेगसे कंपायमान प्रतीत होते हैं, ऐसेही पुरुष अपनी अविद्यारचित देहमें रागके कारण प्रविष्ट आत्मा अभिमान करके मोहको प्राप्त होताहै, आत्मामें देहादिककी भ्रान्ति होनेसे जैसे सूक्ष्म और स्थूल देहादिकके धर्म आत्मामें दिखाई देतेहैं, वैसे ही देहादिकमें आत्माकी भ्रांति होनेसे प्रेमपात्रत्व आदि आत्माके धर्म देहादिकमें प्रतीत होतेहैं, इसलिये इन्द्र और गर्दभादिके तनुमें प्रीति समान होनेसे मृत्युसे बचनेका
ज्योतिर्यथैवोदकपार्थिवेष्वदः समीरवेगानुगतं विभाव्यते॥ एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति॥४३॥ तस्मान्न कस्यचिद्द्रोहमाचरेत्स तथाविधः॥ आत्मनः क्षेममन्विच्छन्द्रोग्धुर्वैपरतो भयम्॥४४॥ एषा तवानुजा बाला कृपणा पुत्तिकोपमा॥ हंतुं नार्हसि कल्याणी- मिमां त्वं दीनवत्सलः॥४५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं स सामभिर्भेदैर्बोध्यमानोपि दारुणः॥ न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादाननुव्रतः॥४६॥ निर्बंधं तस्य तं ज्ञात्वा विचित्यानकटुंदुभिः॥ प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुमिदं तत्रान्वपद्यत॥४७॥
प्रयत्न करना वृथा है॥४३॥ इसलिये अपने आत्माका कल्याण करनेवाले प्राणीको चाहिये किसीसे शत्रुभाव न रक्खै, क्योंकि शत्रुता करनेवाले पुरुषको दूसरे शत्रु और यमसे भी भय होता है॥४४॥ इसलिये हे राजन् !यह तुम्हारी छोटी बहिन है और अभी बालक है, दीन है, अबला है, देखो काठकी पुतलीकी नाई तुम्हारे आगे खड़ी है और तुमको परमेश्वरने दीन हितकारी और स्वजनभयहारी बनाया है, यह मंगलरूपिणी आपके मारने योग्य नहीं, क्योंकि दीनको और पराधीनको मारनेका बडा दोष है॥४५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुवंशी राजा परीक्षित् ! ऐसे प्रियवचन कहकर वसुदेवजीने साम और भेदसे समझाया, तो भी एक तो आपही दुष्ट, दूसरे राक्षसोंका साथी, तीसरे आकाशवाणीका भय, उस महाक्रूर कंसने वसुदेवजीकी बात एक भी न मानी॥४६॥ वसुदेवजीने समझा कि, यह हठीला अपनी हठको कभी नहीं छोडेगा, ऐसा
विचारकर और देवकीकी मृत्यु निकट आई जानकर, समय बितानेके लिये अपने मनमें यह विचारने लगा॥४७॥ चतुर लोगोंको उचित है कि, जहांतक अपना बल, विद्या, बुद्धि पहुँचे वहाँतक मृत्युको दूर करनेका उपाय करैं, जब इतने प्रयत्नोंसे भी मृत्युसे न बचैतो फिर पुरुषका कुछ दोष नहीं है॥४८॥ इसलिये पहिले तो इस मृत्युरूप कंसको देवकीके जो पुत्र होंगे उनके देनेका वचन बन्धकर किसी प्रकार पहिले तो इस दीन देवकीके प्राण बचाऊ, कदाचित् कोई कहैकि, पुत्र देके देवकीके प्राण बचाये यह तो बड़ी अनीति है? नहीं, समयका टालदेना बड़े चतुरोंका काम है, जब देवकीके पुत्र होगा उस समय देखा जायगा, अब तो किसी प्रकार यह जीती बचै, न जानिये बालकके जन्मनेसे पहिले यह दुष्ट
मृत्युर्बुद्धिमताऽपोह्यो यावद् बुद्धिबलोदयम्॥ यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः॥४८॥ प्रादाय मृत्यवे पुत्रान्मोचये कृपणामिमाम्॥ सुता मे यदि जायेरन्मृत्युर्वा न म्रियेत चेत्॥४९॥ विपययो वा किं न स्याद्गतिर्धा तुर्दुरत्यया॥ उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत्॥५०॥ अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयोरदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति॥ एवं हि जंतोरपि दुर्विभाव्यः शरीरसंयोगवियोग हेतुः॥५१॥ एवं विमृश्य तं पापं यावदात्मनिदर्शनम्॥ पूजयामास वै शौरिर्बहुमानपुरस्सरम्॥५२॥
कंसही मरजाय तो फिर कुछ किसी बातका खटकाही न रहै, कदाचित् इसके पुत्रही न होय और जो पुत्र होय ही और कंस दया करके उसको न मारे, तो अवश्यही मेरा पुत्र कंसको मारैगा और जो यह उलटी बात न होय और कोई कहैकि, तुम्हारा पुत्र बालक इस तरुण कंसको कैसे मारसक्ता है? तो आप ही वसुदेवजी अपने वचनका समाधान करते हैं कि, विधाताकी गति किसीके जाननेमें नहीं आती, जो प्राणी मरनेके योग्य हैं वह नहीं मरते और जो मरनेके योग्य नहीं हैं वह मरजाते हैं॥४९॥५०॥ देखो जब वनमें आग लगती है तो जो वृक्ष जलनहार नहीं हैं वह समीपके बच जाते हैं और जो जलनहार दूरके होते हैं वह जल जाते हैं जैसे गाँवमें अग्निके पासके घर जलनेसे रहजाते हैं और दूरके जल जाते हैं
* श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् !जहाँतक अपनी बुद्धि पहुँची वहाँतक वसुदेवजीने विचार करके बड़े प्यारसे कंसका आदर सत्कार किया॥५१॥५२॥ कंसको विश्वास दिखानेके लिये वसुदेवजी लोकरीतिकी सदृश प्रफुल्लित मुख कमलसे, महाक्रूर निर्लज्ज कंसके सामने मुसकुराकर बोले, परन्तु मन तो अत्यन्त ही दुःखी था॥५३॥ वसुदेवजी बोले कि, हे सौम्य! जो भय आपके चित्तमें आकाशवाणीने
प्रसार्य वदनांभोजं नृशंसं निरपत्रपम्॥ मनसा दूयमानेन विहसन्निदमब्रवीत्॥५३॥ वसुदेव उवाच॥ न ह्यस्यास्ते भयं सौम्य यद्धि साऽऽहाऽ- शरीरवाक्॥ पुत्रान्समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम्॥५४॥ श्रीशुक उवाच॥ स्वसुर्वधान्निववृते कंसस्तद्वाक्यसारवित्॥ वसुदेवोपि तं प्रीतः प्रशंस्य प्राविशद्गृहम्॥५५॥
उत्पन्न किया है वह भय तुम किंचिन्मात्रभी मत मानो, क्योंकि देवकीसे आपको कुछ भय है ही नहीं, परन्तु इसके पुत्रोंसे कुछ भय है सो वह भय मैं आपका दूर करे देताहूं, जो पुत्र इसके होगा उसको मैं उसी समय आपको समर्पण कर दूंगा॥५४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! वसुदेवजीके वचनको सत्य मानकर कंसने अपनी बहिनको मारनेसे छोड दिया और वसुदेवजीभी प्रसन्न हो कंसकी बडाई करके बरात
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* इस बातपर एक मनोहर दृष्टान्त है॥एक सेठजी मन्दिरमें बैठे हनुमानजीकी पूजा कररहे थे, उसी समय नगरमें आग लगी और सैकडों घरोंको फूकती फांकती सेठजीके घरके निकट पहुँच गई, तब तो सब लोगोंने सेठजीसे जाकर कहा कि, आग आपके घरके समीप आगई शीघ्र पूजा छोढ छाडके चलो कुर्येसे पानीके दश बीश घडे मरकर रखलो जब घरपर आग आगई तो पानी कहां! सेठजी बोले कि, जिसकी हम पूजा करते हैं क्या आग वह नहीं बुझा सक्ता? और वह हमारे घरको नहीं बचा सक्ता! हमको कुछ प्रयोजन नहीं, जिसका घर होगा वह आप बुझालेगा, जब उसका नाम पवनपुत्र है तो क्या अपने पिताको नहीं समझा सक्ता! जिसके लिये हम वरसोंसे तन मन लगा रहे हैं क्या यह एक घडीको भी हमारा काम नहीं करसक्ता मुझको पूर्ण विश्वास है कि, वह मेरा कार्य सिद्ध करैगा—
कवित्त— लकाको जरायो और सीताको बचाय दियो, आँच नाहि आई विभीषणके मकानको। लगतेही शक्ति जव लखन गिरे पृथ्वी पर, औषधिको भेजो राम हनुमत् बलवानको॥ मिली ना सजीवन जबपर्वत उठाय लाये, लखनको जिवायो शिरनायो भगवानको॥ दुष्टनके भक्षक और रक्षक हरि भक्तनके, मोको तो भरोसो उन वीर हनुमानको॥ १॥
उसी समय पुरवाई पवनसे पछा दिया पवन होगई और सेठजीका घर छोडकर पवन पीछेको लौटी और सेठजीका घर छोडकर और सैकडों घर फुकदिये, देखो किस किसकी आशा थी और कौन कौनसे घर जल गये, ऐसेही प्राणियोंके जन्म मरणका कारण भीविचारमें नहीं आता॥
समेत देवकीको लेकर अपने घर आये॥५५॥ सब प्राणियोंके आत्मा वासुदेव भगवान्की पूजनेवाली देवकीने समय पाकर आठ पुत्र और एक कन्या एक एक वर्षके उपरान्त उत्पन्न किये॥१६॥प्रथम कीर्तिमान् पुत्र हुआ, उसको वसुदेवजी बड़े कष्टसे कंसके पास लेगये, क्योंकि मिथ्या बोलनेसे वसुदेवजी बहुत डरते थे॥५७॥ अपने वचनोंका निर्वाह करनेवाले पुरुष ऐसी कौनसी वस्तु है जिसका सहन नहीं करसक्ते, देखो वसुदेवजीने अपने पुत्रको अपने हाथसे मृत्युके मुखमें देदिया एक परमेश्वरके सिवाय कोई पदार्थ सत्य नहीं है, ऐसे समझनेवाले मनुष्योंको किसी बातकी अभिलाषा नहीं रहती, इसलिये वसुदेवजीने पुत्रके लाड प्यारको पहिलेसे पहिलेही त्याग दिया क्योंकि विद्वान् पुरुषोंको सिवाय सत्यके और किस वस्तुकी अपेक्षा है और वसुदेवजीने यह भी नहीं समझा था कि, मैं पुत्रको आप ले जाऊंगा तो कंस दयाकरके न मारेगा, यह बात
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता॥ पुत्रान्प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम्॥५६॥ कीर्तिमंतं प्रथमजं कंसायानकदुंदुभिः॥ अर्पयामास कृच्छ्रेण सोऽनृतादतिविह्वलः॥५७॥ किं दुस्सहं नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम्॥ किमकार्यंकदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्॥५८॥ दृष्ट्वा समत्वं तच्छौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम्॥ कंसस्तुष्टमना राजन्प्रहसन्निदमब्रवीत्॥५९॥ प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम्॥ अष्टमाद्युवयोर्गर्भान्मृत्युम विहितः किल॥६०॥ तथेति सुतमादाय ययावानकदुंदुभिः॥ नाभ्यनंदत तद्वाक्यमसतोऽविजितात्मनः॥६१॥
वसुदेवजीके मनमें सैकड़ों कोसतकभी नहीं थी, क्योंकि दुष्टजन कौनसी बात नहीं कर सक्ता? कंससे दुष्टके मनमें दया कब आसक्ती है. कोई कहेै पहिली पहिलका तुरतका जन्मा पुत्र देवकीने कैसे दे दिया? देवकीने समझा कि, जिसका काल नहीं उसको मारनेवाला कोई नहीं और जो मारभी डाले तो ऐसे पुत्र बहुत होंगे. मेरे सच्चे पुत्रतो श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द वैकुण्ठविहारी भक्तहितकारी हैं, यह समझकर कंसको देदिया॥५८॥ हे राजन्! वसुदेवजीकी समता और सत्यता देखकर अत्यन्त प्रसन्नतासे कंस बोला कि,॥५९॥ इस बालकको अपने घर फेरकर ले जाओ, क्योंकि इससे मुझको कुछ भय नहीं है तुम्हारे आठवें पुत्रसे मेरी मृत्यु निश्चय रची है॥६०॥ ऐसाही होगा वसुदेवजी यह कह पुत्रको लेकर
अपने घरको चलदिये, परन्तु कंसके वचनका कुछ विश्वास नहीं किया, क्योंकि कंस क्षणिकबुद्धि है उसका मन उसके वशमें नहीं है, अब फेरदिया है थोड़ी देरमें फिर मँगाले, जब यह बात नारदजीने सुनी कि, वसुदेवजीका पुत्र कंस ने फेरदिया, उसी समय कंससे आनकर कहा॥६१॥ व्रजमें नन्दजीसे आदि लेकर जो गोप ग्वाल हैं और वसुदेवजीसे आदि लेकर वृष्णि यादव और देवकीसे आदि लेकर यादवोंकी स्त्री॥६२॥ यह जो तुम्हारे समीपवर्ती हैं सो हे कंस!यह सम्पूर्ण वसुदेवजी और नन्दजीके वंशमें, जाति, बन्धु, सुहृद, यह सब देवताही आनकर प्रगट हुये हैं॥६३॥ पृथ्वीपर जो दैत्यलोगोंका भार बढ़ा है, उसके उद्धारके लिये भगवान्ने अवतार लेनेके लिये यह उपाय रचा है, सो तू जान ले, फिर आठ लकीरें पृथ्वीपर खैंचकर दिखाई इधरसे गिनी तो आठ आई और उधरसे गिनी तो आठ आईं और बीचमैसे गिनी तो आठ आई तव नारदजी बोले कि, आठवाँ
नंदाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः॥ वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः॥६२॥ सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत॥ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रताः॥६३॥ एतत्कंसाय भगवाञ्शशंसाभ्येत्य नारदः॥ भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम्॥६४॥ ऋषेर्विनिर्गमे कंसो यद्वन्मत्वा सुरानिति॥ देवक्या गर्भसंभृतं विष्णुं च स्ववधं प्रति॥६५॥ देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे॥ जातं जातमहन्पुत्रं तयोरजनशंकया॥६६॥ मातरं पितरं भ्रातन्सर्वांश्च सुहृदस्तथा॥ घ्नंति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः प्रायशो भुवि॥६७॥ आत्मानमिह संजातं जानन्प्राग्विष्णुना हतम्॥ महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत॥६८॥
गर्भ इनमें कौनसा समझना चाहिये॥६४॥ इसप्रकार समझा बुझाकर नारदजी तो चले गये, तव कंसने यादवोंको देवता समझकर और देवकीके आठवें गर्भमें विष्णु भगवान् अवतार धारण करके, मुझको मारेंगे यह निश्चय समझके॥६५॥ देवकी और वसुदेवको बन्दीवरमें बंदकर पांवोंमें बेड़ी और हाथोंमें हथकडी डालदीं और जो जो इनके पुत्र हुये विष्णु भगवान्की शंका मानमँगवा मँगवाकर मारता रहा॥६६॥ संसारमें अपने प्राणोंकी रक्षा करनेवाले अभिमानी घातकी और लोभी राजा, माता, पिता, भ्राता और मित्रोंको भी मारडालते हैं॥६७॥ और कंस यह भी जानता था कि, मैं पहिले जन्ममें कालनेमिनाम एक बडा राक्षस था और विष्णुने मुझको अपने हाथसे मारा था, सो अब में इस जन्ममें कंस हुवा हूं, यही
समझकर उसने यादवोंसे वैर किया॥६८॥ यदुवंशी, भोजवंशी, अन्धक वंशियोंके राजा उग्रसेन अपने पिताको कारागारमें डालकर महाबली कंस आपही शूरसेन देशका राज्य करने लगा॥६९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां कंसजन्मचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा— इस द्वितीय अध्यायमें, कंसहतनहितदेव। गर्भान्तर्गतदेवकी, विनवत विष्णु अभेव॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! प्रलम्बासुर, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशि, धेनुकासुर॥१॥ असुरोंके राजा बाणासुर और भौमासुरको संग लेकर मगध देशके राजा जरासंध आदि अपने सम्बन्धियोंकी सहायतासे महाबली कंस यादवोंको अत्यन्त दुःख देने लगा॥२॥ यादवलोग कंसके भयसे दुःखित
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजांधकाधिपम् स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान्महाबलः॥६९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे श्रीकृष्णावतारहेत्वादिनिरूपणं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ प्रलंबबकचाणूरतृणावर्त महाशनैः॥ मुष्टिकारिष्टद्विविदपृतनाकेशिधेनुकैः॥१॥ अन्यैश्चासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युतः॥ यद्वनां कदनं चक्रे बली मागधसंश्रयः॥२॥ ते पीडिता निविविशुः कुरुपांचालकैकयान्॥ शाल्वान्विदर्भान्निषधान्विदेहान्को सुलानपि॥३॥ एके तमनुसंधाना ज्ञातयः पर्युपासत॥ हतेषु षट्सु वालेषु देवक्या औग्रसेनिना॥४॥ सप्तमो वैष्णवं धाम यमनंतं प्रचक्षते॥ गर्भो बभृव देवक्या हर्षशोकविवर्धनः॥५॥ भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्॥ यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत्॥६॥
होकर कुरुदेश, पांचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह, कोसलादि देशोंमें जा जाकर वास करनेलगे॥३॥ और बहुतसे अक्रूरादिक यादव कंसके आज्ञाकारी बन दिन रात उसकी सेवा करने लगे, जब कंसने देवकीके छः बालक मार डाले॥४॥ तब विष्णु भगवान्की कला शेषजी जिनका नाम कहतेहैं सो देवकीके गर्भमें स्थितहुये, यह गर्भ देवकीको हर्ष और शोकका बढानेवाला हुआ क्योंकि आनन्दरूप भगवान्का अवतार होगा इस बातका तो दर्ष और पहिलेके बालकोंकी समान इस बालककोभी कंस मार डालेगा इस बातका शोक दिन रात रहताथा॥५॥ तब विश्वभावन भगवान्ने जाना
कि, मेरे प्रिय यादवोंको कंस बहुत दुःख देताहै उस समय अपने नेत्रोंसे योगमायाको प्रगट करके उसको आज्ञा की॥६॥ कि, हे भद्रे! हे देवि! हे कल्याणरूपिणि! जो ग्वाल और गौवोसे शोभित ब्रजभूमि है, तू वहाँ जाकर वसुदेवकी स्त्री रोहिणी नन्दरायजीके घर गोकुलमें है और दूसरी वसुदेवजीकी स्त्रियें कंसके भयसे गुप्त स्थानमें वास करती हैं॥७॥ और देवकीके उदरमें मेरी कलारूप शेषनागजीने प्रवेश किया है, उनको वहॉसे निकालकर रोहिणीके उदरमें पहुंचादे कि, इस बातको कोई दूसरा न जाने और सब लोक तेरा यश बखानेंगे॥८॥हे मंगलरूपिणि!जब तू गर्भको खैंचेगी तो पीछे मैं परिपूर्णरूपसे देवकीके पुत्रभावको प्राप्त हूंगा और तू नंदरायजीकी भार्या यशोदाके उदरमें उत्पन्न हो॥९॥ हे कल्याणि!
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलंकृतम्॥ रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नंदगोकुले॥ अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसंति हि॥७॥ देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम्॥ तत्संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय॥८॥ अथा हमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे॥ प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नंदपत्न्यां भविष्यसि॥९॥ अर्चिष्यंति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्॥ धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम्॥१०॥ नामधेयानि कुर्वंति स्थानानि च नरा भुवि॥ दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च॥११॥ कुमुदा चंडिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च॥ माया नारायणीशानी शारदे त्यंबिकेति च॥१२॥ गर्भसंकर्षणात्तं वै प्राहुः संकर्षणं भुवि॥ रामेति लोकरमणाद्बलं बलवदुच्छ्रयात्॥१३॥ श्रीशुक उवाच॥ संदिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः॥ प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाऽकरोत्॥१४॥
तू पुत्रादिकोंकी कामना करनेवाले मनुष्योंकी सब मनोकामना पूर्ण करनेवाली है और सब संसारके मनुष्य धूप, दीप, फल, फूलादि सामग्री और बलिदान, भेंटकर कलियुगमें तेरा पूजन करेंगे और तू उनके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करेगी॥१०॥ पृथ्वीपर मनुष्य तेरे स्थान, भवन और सुन्दर सुन्दर मन्दिर बनावेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी॥११॥ कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका यह नाम धरेंगे॥ १२॥ गर्भके खेंचनेसे संसारके लोग उस बालकका नाम ‘संकर्षण’ कहेंगे और जगत्को रमानेसे उसको राम’ कहेंगे और महाबलशाली होने से उनको ‘बलभद्र’ कहेंगे॥१३॥इस प्रकार भगवान्की आज्ञा पातेही उनकी परिक्रमा दे, वचनोंको स्वीकार
करके पृथ्वीपर आनकर वही कार्य किया और मोहनीरूप वन मथुरामें वसुदेवके घर आई “और जो गर्भ छिपाकर लाई थी वह रोहिणीके उदरमें प्रवेश किया” और सब गोकुलवासियोंने यही जाना कि, पहिलाही आधान है, योग मायाका भेद किसीको प्रगट न हुवा, जब पूरे दिन हुए तो श्रावण सुदी चौदस बुधवारको वलदेवजीने गोकुलमें जन्म लिया और योगमायाने वसुदेव देवकीको स्वप्नदिया कि, मैंने तुम्हारे पुत्रको गर्भसे लेजाकर रोहिणीको देदियाहै अब तुम किसी बातकी चिन्ता मत करना, यह बात सुनतेही अचानक वसुदेव, देवकी चौंककर सोतेसे जाग उठे और देवकी अपने पतिसे कहने लगी कि, यह काम तो भगवान्ने बहुत अच्छा करदिया, परन्तु कंसको इसी समय जाकर जतादेना चाहिये, न जानिये कि, पीछे वह
गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्रया॥ अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः॥१५॥
भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः॥ आविवेशांशभावेन मन आनकदुंदुभेः॥१६॥
दुष्ट क्या उपद्रव मचावै, यह सोच समझकर रखवालोंको बुला सब वृत्तान्त कह दिया; उन्होंने ज्योंका त्यों कंसको जा सुनाया कि, हे महाराज! आज देवकीका गर्भ पतित होगया, बालक पूरा नहीं हुवा यह बात सुनतेही कंस अकुलाकर बोला कि, जो कुछ हुवा सो हुवा परन्तु अब आगेको तुम आठवें गर्भको अच्छी चौकसी रखना, क्योंकि मुझको आठही गर्भका वडा खटकाहे॥१४॥ और वह योगमाया देवकीके उदरसे बालकको ले रोहिणीके उदरमें रख आई, तब सब पुरवासी मनुष्य पुकार पुकार कर कहनेलगे कि, अबकी बार कंसने अपनी वहिन देवकीको ऐसा धमकाया कि, उसका गर्भ अधूराही गिरगया; वालक पूरा नहीं होने पाया*
॥१५॥ अपने भक्तोंको अभयदान देनेवाले विश्वात्मा भक्तभावन भगवान्
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*शंका— रोहिणी और वसुदेवजीकी रीति प्रीति कुछ बहुत दिनोंसे नही थी और वलभद्र रोहिणीके गर्भसे जन्मे, तब लोकमें निन्दा और दुर्नामता वसुदेव और रोहिणीकी क्यों नहीं दुई? और जो कोई कहै कि, योगमायाने सब काम किया, यह बात बहुत ठीक है, परन्तु संसारमें तो भगवान्के चरित्रको कोई नहीं जानता और योगमायाकी बातको तो करोतौ मनुष्योंमें एक दो जानते हैं, फिर संसारके लोगोंका सन्देह कैसे दूर हो?
उत्तर— एक समय पुष्करजीके स्नान करनेके लिये सवसंसारके मनुष्य गये, तन कंसभी सब यदुवंशियोंको संग लेकर पुष्करजीको गया कंसके संग वसुदेवजीभी पुष्करको गये और नन्दादिक गोपोंकी रक्षा सहित रोहिणीभी गई थी वहाँ सबकी रीति प्रीति सबसे हुई, परन्तु वसुदेव और रोहिणीकी भेंट फसके भयसे नहीं हुई. परन्तु संसारके सब लोगोंने जान लिया कि, पुष्करमें मसुदेवजीसे रोहिणीकी भेंट होगई इसलिये बलदेवजीके जन्मनेपर कोईभी वसुदेव और रोहिणीकी निंदा नहीं करसका॥
अपने परिपूर्ण रूपसे वसुदेव देवकीके मनमें आनकर प्रगट हुए॥१६॥जब वसुदेवजीके मनमें भगवान् आनकर उपस्थितहुए, तब सूर्यके तेजकी समान वसुदेवजीमें तेज होगया, उस समय कोई मनुष्य तेजके प्रकाशके मारे वसुदेवजीके सन्मुख न आवै, ऐसे तेजवान वसुदेवजी होगये॥१७॥ फिर विश्वके कर्ता सर्वात्मा मूर्तिमान् भगवान् जो कि देवकीमें पहिलेहीसे विराजमान थे, उनको वसुदेवजीने अपने मनसे देवकीके मनमें विराजमान किया, तब देवकीने भगवान्को भले प्रकार अपने मनसे अपने शरीरमें धारण करलिया जैसे पूर्वदिशा सर्व सुखदायक चन्द्रमाको परमप्रेमसे अपने हृदयमें धारण करती है॥१८॥ जैसे घटके भीतर छिपेहुए दीपकका प्रकाश नहीं होता और ज्ञानवंचक पुरुषोंमें छिपी हुई विद्या दूसरे लोगोंको आनन्द नहीं देसक्ती ऐसे भगवान् अपनी कांतिसंयुक्त देवकीके उदरमें निरन्तर आनन्द देतेथे परंतु वैसेही देवकी शोभाको
स बिभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः॥दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां संबभूव ह॥१७॥ ततो जगन्मंगलमच्युतांशं समाहितं शूरसुतेन देवी॥ दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्टा यथाऽनंदकरं मनस्तः॥१८॥ सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभृता नितरां न रेजे॥ भोजेंद्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्ध्वासरस्वती ज्ञानखले यथा सती॥१९॥ तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाऽजितांतरां विरोचयंतीं भवनं शुचिस्मिताम्॥ आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां ध्रुवं श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी॥॥२०॥ किमद्य तस्मिन्करणीयमाशु मे यदर्थतंत्रो न विहंति विक्रमम्॥ स्त्रियाः स्वसुर्गुरुमत्या वधोऽयं यशः श्रियं हंत्यनुकालमायुः॥२१॥
प्राप्त न होती थी॥१९॥ अजित भगवान्के देवकीके उदरमें रहनेसे कुछ २ कांति झलकी, उस कांतिने बन्दीगृहको प्रकाशवान करदिया और सुन्दर रूपवाली देवकी मन्द मन्द मुसकुराकर वसुदेवजीसे कुछ कह रहीथी उसी समय वहाँकंस आपहुँचा और गर्भका प्रकाश देखकर कंस अपने मनमें कहने लगा कि, मेरे प्राणोंका हरनेवाला हरिरूप सिंह निश्चय इसी उदर रूप यमगुफामें आनकर बैठा है.क्योंकि पहिले इस देवकीका इतना तेज नहीं था॥२०॥ फिर तो कंस अपने मनमें अनेक प्रकारके विचार करने लगा कि, अब मैं शीघ्र इसके लिये क्या उपाय करूं? यह तो देवताओंका कार्य करनेको आही पहुँचा, अब सब प्रकारसे मुझको निश्चय होता है कि, यह अवश्य मुझको मारेगा, अब जो इस समय देवकीको
मैं मारता हुँतो संसारमें बडा अपयश होगा, क्योंकि एक तो स्त्रीकी जाति, दूसरे मेरी बहिन और उसपरभी फिर गर्भीणी, जो मैंने इसको मार डाला तो सब संसारमें मेरी अपकीर्ति होगी, दूसरे लक्ष्मी और आयुका नाश होजायगा. महात्माओंके मुखसे मैंने ऐसा सुना है॥२१॥ जो मनुष्य संसारमें दुष्टता करता है, वह जीतेही जी मृतककी समान है और उनके सन्मुखही लोग बुरा कहते हैं और बारम्बार धिक्कार देते हैं, निश्चय वह मनुष्य घोर नरकमें जाता है॥२२॥ भगवान् वासुदेवसे वैर वाँधकर पापरूप कंस आप मरनेको समर्थ था तोभी इस घोरतम भावसे आपही निवृत्त हो भगवान्के जन्मकी बाट देखता रहा॥२३॥ जब बैठते, उठते सोते, जागते, भोजन करते और पृथ्वीपर विचरते, इन्द्रियोंके ईश्वर भगवान्हीकी चिन्तामें रहताथा और सब जगत्को भगवत् रूपही देखता था॥२४॥ इतनेमें ब्रह्मा, महादेव, नारदादिक
स एष जीवन्खलु संपरेतो वर्तेत योऽत्यंतनृशंसितेन॥ देहे मृते तं मनुजाः शपंति गंता तमोधं तनुमानिनो ध्रुवम्॥२२॥ इति घोरतमाद्भावात्संनिवृत्तःस्वयं प्रभुः॥ आस्ते प्रतीक्षंस्तज्जन्म हरेर्वैरानुबंधकृत्॥२३॥ आसीनः संविशंस्तिष्ठन्भुंजा नः पर्यटन्महीम्॥ चिंतयानो हृषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत्॥२४॥ ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः॥ देवैः सानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन्॥२५॥ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्त्यस्य योनिं निहितं च सत्ये॥ सत्यस्य सत्य मृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः॥२६॥ एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा॥ सप्तत्व गष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥
मुनि और ऋषियोंसमेत देवता और गन्धर्व लोग वहाँ आनकर गर्भहीमें सर्व कामनाओंके पूर्ण करनेवाले भगवान् वासुदेवकी मधुर वाणीसे स्तुति करने लगे॥२५॥ आप सत्यसंकल्प और सत्य परायण हो, भूत भविष्य, वर्तमान तीनों कालमें पृथ्वी, जल, तेज, पवन, आकाश इन पञ्चभूतोंके कारणरूप हो और पञ्चभूतोंके विनाश होनेके समय आपही अवशिष्ट रहते हो, समदृष्टि और मनोहर वाणी प्रवर्तक और ज्ञानियोके प्रेरणा करनेवाले सत्यरूप आपही हो, सो हे नाथ !हम सब आपकी शरण आयेहैं,॥२६॥ यह देह ब्रह्माण्डरूप आदि वृक्ष आपकी मायासे उत्पन्न होकर आपहीके आश्रय रहता है और इसकी रक्षाके लिये आप अनेकरूप धारण करतेहैं, उस वृक्षका आधार एक मायाहै। उसमें दो फलहैं, सुख और दुःख। उसकी तीन जड़है, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। उसमें चार रसहै— धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।उसमें पांच
अंकुर हैं, जिनसे ज्ञान होता है, नेत्र, जिह्वा, नाक, कान, त्वक्। उसके छै स्वभाव हैं, राग, द्वेष, क्षुधा, पिपासा, लोभ, मोह। उसमें सात प्रकारकी छाल हैं, लोहित, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि, मज्जा, रेत। उसकी आठ शाखा है;पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, उसमें नौ खखोडल अर्थात् छिद्रहैं. नेत्र, मुख, कान, नाक उपस्थ और गुदा। उसमें दश पत्ते हैं, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय। उसपर दो पक्षी रहते हैं. जीव और ईश्वर यह देहरूप वृक्ष है, कभी उपजै हैं, कभी कटैहै, ऐसेही यह देह कभी जन्मे है, कभी मंरै है॥२७॥ इस संसारके उत्पत्ति, पालन, संहार, करनेवाले आपही हो यह जगत् आपसे भिन्न नहीं है, आपकी मायाके वशीभूत हो जिनके चित्त भूल रहे हैं, वह लोग जगत् को आपसे भिन्न देखते हैं और आपको नानाप्रकारका जानते हैं और जो ज्ञानी पुरुष हैं वह आपको एकही रूप
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं संनिधानं त्वमनुग्रहश्च॥ त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यंति नाना न विपश्चितो ये॥॥२८॥ बिभर्षि रूपाण्यबोध आत्मा क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य॥ सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि सतामभद्राणि मुहुः खलानाम्॥२९॥ त्वय्यंबुजाक्षाखिलसत्त्वधामनि समाधिनाऽऽवेशितचेतसैके॥ त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वंति गोवत्सपदं भवाब्धिम्॥३०॥ स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः॥ भवत्पदांभोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान्॥ ३१॥
मानतेहैं॥२८॥ हे प्रभो! एक रूप जो आप हो, सो ब्रह्मा बनकर जगत्को उत्पन्न करतेहो, विष्णु बनकर रक्षा करते हो और शिव बनकर संहार करते हो, सत्त्वगुणसे संयुक्त सत्पुरुषोंको सुख देते हो और अधार्मियोंको दण्ड देनेवाले जो रूपहैं उनके लिये उनको धारण करते हो॥२९॥ हे कमलदललोचन! समस्त जीवोंके जीवन आधार आपही हो, इसीसे आपके विषे ज्ञानी पुरुष समाधिद्वारा चित्तको लगाकर महत्पुरुषोंकी सिद्ध करी हुई आपके चरणकमलरूप नौकाके आश्रयसे इस संसाररूप महासागरको अवगाहन करके बछड़ेके खुरकी समान समझकर पार उतर जाते हैं॥३०॥ हे स्वयप्रकाश! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं इस महाभयंकर दुस्तर संसारसमुद्रको पार उतरनेके लिये, भजन भावना और सम्प्रदाय यह जो आपके चरणकमलरूपी नौका है, उसको और दूसरे महात्माओंके पार उतरनेको छोडगये और आपभी पार उतरगये, हे प्रभो! आप अपने भक्तोंके
ऊपर दया करनेवाले हो॥३१॥ हे कमलनयन!जो ज्ञानी पुरुष अपने आपको जीवनमुक्त मानते हैं वह आपके चरणारविन्दके विषेभावना नहीं रखते. उसीसे अशुद्ध बुद्धि बने रहते हैं और बड़े बड़े कष्ट सहकर उच्च पदको प्राप्त होते हैं, सो वह उच्चपद किसको समझते हैं? उत्तम कुलमें जन्म होना और परिश्रम करके शास्त्रोंका पढ़ना, इनहीको उच्चपद जानतेहैं, आपके चरणारविन्दकी भक्तिका निरादर करतेहैं! और फिर पीछे विघ्नोंसे पराभव होकर नीच योनियोंमें जन्म2 लेते हैं॥३२॥हे माधव!जो पुरुष आपहीके चरणोंमें प्रीति रखते हैं, और आपके दास कहलाते हैं, इन लोगोंको उन उच्चपद कहने वालोंकी नाई किसी प्रकारका विघ्ननहीं होता. वरन् हे प्रभु! आपके भक्त निर्भय होकर बड़े२भारी भयंकर विघ्नोके माथेपर पाँव धरकर
येऽन्येऽरविंदाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः॥ आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतंत्यधोऽनादृतयुष्मदं घ्रयः॥३२॥ तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्भ्रश्यंति मार्गात्त्वयि वद्धसौहृदाः॥ त्वयाभिगुप्ता विचरंति निर्भया विनयाकानीकपमूर्धसु प्रभो॥३३॥ सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ शरीरिणां श्रेय उपायनं वपुः॥ वेदक्रियायो गतपस्समाधिभिस्तवार्हणं येन जनः समीहते॥३४॥ सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद्विज्ञानमज्ञानभिदाऽपमार्जनम्॥ गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः॥ ३५॥
सदा संसारमें घूमते रहते हैं॥३३॥हे प्रभु! आप विश्वकी रक्षा करनेके समय सब प्राणियोंके पालनके लिये और शुभकमोंके फल देनेके लिये शुद्ध सत्त्वगुणस्वरूप धारण करते हो. जिस स्वरूपसे ब्रह्मचारी वेदपाठसे, गृहस्थी कर्म योगसे, वानप्रस्थ तपस्यासे, संन्यासी समाधिसे, सबअपनी अपनी प्रीतिसे आपका पूजन करते हैं. हे प्रभु! जो आप संसारमें अवतार न लेते तो आपका पूजन बननाभी कठिन था. क्योकि आपके सुन्दर स्वरूपकी मूर्तिमें भक्तोंका मन लगा रहता है॥३४॥हे विधाता!आपका सत्त्वगुण मूर्तिमान् सुन्दर स्वरूप प्रगट न होता तो अज्ञानका नाशक विज्ञान जो आपका प्रेरणा किया हुवा बुद्ध्यादिक गुणोंको प्रकाशे है और आपही सब प्रकारसे उन गुणोंके साक्षी हैं और ऐसेही इन्द्रियोंके प्रकाश
आपके स्वरूपका अनुमान होता है, परन्तु आपका स्वरूप नेत्रोंके द्वारा प्रत्यक्ष देखनेमें नहीं आता॥३५॥ हे प्रकाशमान! इस विश्वके परिपूर्ण साक्षी आपही हो और आपके नाम, गुण, कर्म, जन्म, वर्णन करनेमें नहीं आते, मन वाणीके निरूपणसे आपके स्वरूपका वर्णन नहीं होता. है प्रभु!तो भी जो आपके भक्तजन हैं सो ध्यान और उपासनामें आपके मनोहर स्वरूपका साक्षात् दर्शन करते हैं॥३६॥हे मंगलरूप! आपके जो मंगलरूप नाम हैं उनको कानोंसे सुनते हैं जिह्वासे उच्चारण करते हैं और दूसरे मनुष्योंको सुन्दर सुन्दर आपकी कथा सुनाते हैं, स्मरण करते हैं और पूजनादिक क्रियाओंमें और आपके चरणारविन्दोंमें जिन मनुष्योंका मन लग रहा है फिर संसारमें उनका जन्म मरण नहीं होता॥३७॥ हे ईश! आपको अवतार लेनेसे और आपके चरणारविन्द पृथ्वीपर रखनेसे भूमिका भार सब एक बारही दूर हो जायगा, यह बड़े आनन्दकी बातहै कि,
न नामरूपे गुणजन्मकर्मभिर्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः॥ मनोवचोभ्यामनुमेयवत्मनो देव क्रियायां प्रतियंत्यथापि हि॥३६॥ शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिंतयन्नामानि रूपाणि च मंगलानि ते॥ क्रियासु यस्त्वच्चरणारविंदयोराविष्ट चेता न भवाय कल्पते॥३७॥ दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः॥ दिष्ट्यांकितां त्वत्पदकैस्सुशोभनैर्द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकंपिताम्॥३८॥ न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे॥ भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयाऽऽत्मनि॥३९॥ मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहं सराजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः॥ त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाऽधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तम वंदनं ते॥४०॥
आपके छोटे छोटे चरणारविन्द पृथ्वीपर जब पड़ेंगे और उनका हम दर्शन करेंगे तो आप अपने वैकुण्ठधामको जानकर पृथ्वी और स्वर्गपर कृपा दृष्टि करोगे और उसको हम अपने नेत्रोंसे देखेंगे उस समय महामंगल होगा॥३८॥ हे भगवन्! आप जो जन्मरहित हों; सो आपके जन्म लेनेका कारण सिवाय क्रीड़ा और विनोदके दूसरा और कोई हमारी समझमें नहीं आता. हे नित्यमुक्तिद ! प्राणियोंका भी जन्म मरण और पालन केवल आपके स्वरूपको न जाननेसे होताहै, यह अविद्याही जन्म मरणका मुख्य कारण है॥३९॥ हे भक्तवत्सल!मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, रामचन्द्र, परशुराम वामनादिरूप धरकर आपने जिस प्रकार त्रिलोकीकी और हम लोगोंकी पहिले रक्षा की थी; उसी प्रकार अब
सब पृथ्वीका भार उतारो. हे वैकुण्ठविहारी! हमारा आपको बारम्बार नमस्कार है॥४०॥ अब सब देव देवकीसे कहते हैं, कि, हे माता! हमारा कल्याण करनेके लिये साक्षात् परमपुरुष भगवान् अपने परिपूर्ण रूपसे तुम्हारी कोखमें आये हैं, यह बड़ा आनन्द हुआ, अब कंसभी इनहीके हाथसे मारा जायगा, हमको निश्चय है, तुम किसी प्रकार मत डरो तुम्हारा पुत्र सब यादववंशकी रक्षा करनेवाला होगा3॥४१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जिनका स्वरूप कहनेमें नहीं आवे ऐसे जो परमपुरुष भगवान् हैं, उनकी इस प्रकार यथावत् स्तुति करके ब्रह्माजी और महादेवजीको आगे करके सब देवता स्वर्गको चले गये॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां गर्भस्तुतिवर्णनं नाम
दिष्ट्यांब ते कुक्षिगतः परः पुमानंशेन साक्षाद्भगवान्भवाय नः॥ मा भूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षोर्गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिष्टुयपुरुषं यद्रूपमनिदं यथा॥ ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुर्दिवम्॥॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे ब्रह्मादिकृतगर्भगतविष्णुस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः॥ यवाजनजन्मक्षं शांतर्क्षग्रहतारकम्॥१॥ दिशः प्रसे दुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्॥ मही मंगलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा॥२॥
द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा— इस तृतीय अध्यायमें, प्रगट भये व्रजचन्द। हरिको ले वसुदेवजी, गे गोकुल गृहनन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके प्रगट होनेका समय आया, वह समय सर्वगुणसम्पन्न परमशोभायमान होगया और सुधा कर रोहिणी नक्षत्रपर आगया, शान्तयुक्त शुभ ग्रह तारागण होगये॥१॥ दशों दिशा प्रसन्न होगईं आकाश निर्मल होगया समस्त तारागण उज्ज्वल उदित हुए, पृथ्वी परममंगलरूपिणी होगई. पुर, नगर, ग्राम, व्रज, आकर, वनवाटिका, अत्यन्त रमणीक शोभायमान दृष्टि आनेलगे॥२॥
नद नदियोंका जल स्वच्छ और शीतल होगया, तालोंमें कमल कमलिनी खिलने लगे, भ्रमर उन सुन्दर सुन्दर सुगन्धित पुष्पोंकी सुगन्धि सुंघ सूंघकर उन्मत्त हो गुंजारने लगे, वृक्षोंकी शाखाओंपर पक्षी मनभावनी सुहावनी बोलियें बोलने लगे॥३॥ सुखदायक शीतल, मंद, सुगन्ध सनी पवन बहने लगी, ब्राह्मणोंके होमकी अनि शान्त प्रज्वलित होगई॥४॥ सिवाय कंसादिक राक्षसोंके सब महात्माओंके मन प्रसन्न होगये, स्वर्गमें भगवान्के अवतारसूचक दुन्दुभी बजने लगी॥५॥ किन्नर, गंधर्व, भगवान्का यश गान करने लगे, सिद्ध, चारण, स्तुति करने लगे, विद्याधरोंकी स्त्रियें और अप्सरा नृत्य करने लगी॥६॥ मुनि और देवता व्रजपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगेसमुद्र आनन्दमें भरकर लहरें लेने
नद्यः प्रसन्नसलिला हृदा जलरुहश्रियः॥ द्विजालिकुलसन्नादस्तबका वनराजयः॥३॥ ववौ वायुः मुखस्पर्शः पुण्य गंधवहः शुचिः॥ अग्नयश्च द्विजातीनां शांतास्तत्र समिंधत॥४॥ मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम॥ जायमानेऽजने तस्मिन्नेदुंर्दुदुभयो दिवि॥५॥ जगुः किन्नरगंधर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः॥ विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं तदा॥६॥ मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः॥ मंदंमंदं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥७॥ निशीथे तम उद्भुते जायमाने जनार्दने॥ देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः॥ आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशींदुरिव पुष्कलः॥८॥ तमद्भुतं बालकमंबुजेक्षणं चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम्॥ श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीतांबरं सांद्रपयो दसौभगम्॥९॥ महावैदूर्यकिरीटकुंडलत्विषा परिष्वक्तसहस्रकुंतलम्॥ उद्दामकांच्यंगदकंकणादिभिर्विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत॥१०॥
लगा मेघ मन्दमन्द शब्दसे गर्जने लगे, चपला क्षण क्षण मात्रमें चमकने लगी॥७॥ इस प्रकार भादों वदी अष्टमी वुधवार रोहिणी नक्षत्रमें आधी रातके समय देवरूपिणी देवकीके कोखमें सर्वान्तर्यामी भक्तभावन भगवान् साक्षात् अपनेरूपसे प्रगट हुए जैसे आधीरातके समय पूर्वदिशामें पूर्णमासीका चन्द्रमा उदय होता है॥८॥ कमलसदृश नेत्रोंवाले, चार भुजा धारण किये; शंख, चक्र, गदा, आयुध उठाये; श्रीवत्सचिह्न धारण किये; गलसे शोभावाली कौस्तुभ मणि धारण किये; पीताम्बरधारण किये, सघन श्याम मेघके सदृश॥९॥ महँगे मूल्यकी वैदुर्यमणिसे जटित मुकुट
कुंडलोंकी कांतिकरके देदीप्यमान केश धारण किये, सुन्दर कांची बाजूबन्द कंकण आदिकों करके शोभायमान, ऐसे अद्भुत बालक श्रीकृष्णको वसुदेवजी देखते भये॥१०॥ विष्णु भगवान्को अपना पुत्र जान आश्चर्यसे वसुदेवजीके नेत्र प्रफुल्लित होगये और मनमें धैर्यधर, उसी समय दशसहस्र गो दानकी मानसिक संकल्प ब्राह्मणोंको देनेके लिये किया॥११॥ हे भारत! हे अभिमन्युकुमार!उस बालककी कांतिसे प्रसुतिकारागार ऐसा प्रकाशमान हो रहा था कि किंचिन्मात्र भी अन्धकार नहीं रहा तो वसुदेवजीने पुत्रको परब्रह्म परमात्मा समझकर उनके प्रभावको देख शुद्ध बुद्धिसे हाथ जोड शिर झुका, निर्भय होकर उनकी स्तुति करने लगे॥१२॥ हे भगवन्! आपको मैंने भलीभाँति जाना, आप मायासे परे साक्षात् परमपुरुष हो केवल अनुभव और आनन्दही आपका स्वरूप है और सम्पूर्ण जनोंकी बुद्धिके द्रष्टा हो॥१३॥ मैं भलीभाँति जानताहूं कि आप वही हैं
स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिं सुतं विलोक्यानकदुंदुभिस्तदा॥ कृष्णावतारोत्सवसंभ्रमोऽस्पृशन्मुदा द्विजभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम्॥११॥ अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं परं नतांगः कृतधीः कृतांजलिः॥ स्वरोचिषा भारत सूति कागृहं विरोचयंतं गतभीः प्रभाववित्॥१२॥ वसुदेव उवाच॥ विदितोऽसि भवान्साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः॥ केवलानुभवानंदस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्॥१३॥ स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्॥ तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे॥१४॥ यथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह॥ नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयंति हि॥१५॥ सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यंतेऽनुगता इव॥ प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह संभवः॥१६॥
जो पहिले अपनी मायासे सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण रूप यह विश्व रचा है, आप उसमें प्रविष्ट नहीं होते और सद्रूपसे प्रदेशसदृश देखनेमें आते हो॥१४॥ जैसे महत्तत्त्व, अंहकार, पंचतन्मात्रा अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, यह सातों पदार्थ, पंच ज्ञानेन्द्रिय, और पंचकर्मेन्द्रिय ग्यारहवाँ मन पंचमहाभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, इन सोलह विकारोंके संग मिलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको रचतेहैं और पृथक् पृथक् ब्रह्माण्डको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते॥१५॥ और उत्पन्न होनेके उपरान्त ब्रह्माण्डमें प्रविष्टहोकर जैसे जाननेमें आतेहैं यथार्थ रीतिसे और प्रथम कारण रूपसे प्रविष्टही थे इसकारण उत्पन्न हुए कार्यमें उनका पीछेसे प्रवेश होना सम्भव नहीं होसक्ता तैसेही आपका प्रवेश पीछेसे सम्भव नहीं॥१६॥
ऐसेही आपके रूप बुद्ध्यादिक इन्द्रियोंसे जाननेमें नहीं आते, विषयोंमें अपार हो परन्तु विषयोंके साथ आप ग्रहण करनेमें नहीं आते जैसे एक दूधमें शब्द, स्पर्श, यह पांचोंवस्तु हैं परन्तु नेत्रोंसे रूपही देखनेमें आता है रसका ज्ञान नेत्रोंसे किसीप्रकार नहीं होसक्ता, ऐसे विषयोंके ग्रहणमें आपका ग्रहण नहीं हो सक्ता, अपरिच्छिन्न पक्षीका घोसलेमें प्रवेश होता है, आप अपरिच्छिन्न हैं इसलिये आपके स्वरूपमें बाहिर भीतरका भेद नहींहै, गर्भमें आप कब रह सक्ते हो, आवरण करके रहित हो, सर्वस्वरूप हो, सर्वात्मा हो, सर्वव्यापक हो और परमार्थ वस्तुरूप हो॥१७॥ आत्माके जो दृश्य गुण देहादिक हैं उनको आत्माके विना जो पुरुष सत्य मानते हैं वह निरे अज्ञानी हैं, विचारके देखो तो कथनमात्र विना देहादिक सब झूंठही
एवं भवान्बुद्ध्यनुमेयलक्षणैर्ग्राह्यैर्गुणैस्सन्नपि तद्गुणाऽग्रहः॥ अनावृतत्वाद्बहिरंतरं न ते सर्वस्य सर्वात्मन आत्मव स्तुनः॥१७॥ य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः॥ विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान्॥१८॥ त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभो वदंत्यनीहादगुणादविक्रियात्॥ त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः॥१९॥ स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः॥ सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये॥२०॥ त्वमस्य विश्वस्य विभो रिरक्षिषुर्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाऽखिलेश्वर॥ राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपैर्निर्व्युह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥२१॥
हैं, इसलिये झूँठे देहादिकोंको जो पुरुष सत्य मानते हैं वह अज्ञानी हैं॥१८॥हे विभो!निरीह, निर्गुण, निर्विकार, आपही हो, आपहीसे इस विश्वकी उत्पत्ति, पालने, संहार होताहै, आपही ईश्वर और ब्रह्मस्वरूप हो, इसीलिये आपमें कुछ विरोध नहीं है, आपका आश्रय लेकर तीनों गुणही विश्वको रचते हैं इसीलिये आपका नाम कर्त्ता है॥१९॥ आप अपनी मायासे सृष्टिके पालनके लिये सत्त्वगुणी शुक्लुवर्ण विष्णुरूप धारण करते हो और जगत्की उत्पत्तिके समय रजोगुणी रक्तवर्ण ब्रह्मरूप धारण करते हो और विश्वके संहारके समय तमोगुणी कृष्णवर्ण रुद्ररूप धारण करते हो॥२०॥ हे सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण! हे ब्रह्मादिकोंके ईश्वर आप इस विश्वका पालन करनेके लिये मेरे घरमें उत्पन्न हुए हो और
क्षत्री जिनका नाम, ऐसे करोडों असुरोंके समूह जहां तहां चलायमान हो रहे हैं उनका विध्वंस करोगे॥२१॥ हे देवेश!उस दुष्ट कंसने तुम्हारे जन्मका वृत्तान्त हमारे घरमें सुनके आपके बहुत भ्राता मारडाले हैं अभी जो कोई मनुष्य उस दुष्टसे कहदेगा कि आपका अवतार हुआ तो वह सुनतेही शस्त्र हाथमें लेकर यहाँ चला आवेगा॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब इस प्रकार वसुदेवजी स्तुति करचुके तब पीछे देवकी पुत्रमें महापुरुष भगवान्के सब लक्षण जानकर और मधुर मुसकानदेख, कंसके भयसे धीरे धीरे पुत्रकी स्तुति करनेलगी॥२३॥ अनादि व्यापक ज्योतिस्वरूप निर्गुण निर्विकार सत्तामात्र दिव्यगुणराशि निर्विशेष और चेष्टारहित जो तुम हो सो वह स्वरूप किसी के जाननेमें नही
अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत्सुरेश्वर॥ स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं श्रुत्वाऽधुनैवाभिसरत्युदायुधः॥२२॥ श्रीशुक उवाच॥ अथैनमात्मजं वीक्ष्यमहापुरुषलक्षणम्॥ देवकी तमुपाधावत्कंसाद्भीता शुचिस्मिता॥२३॥ देवक्युवाच॥ रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्मज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्॥ सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः॥२४॥ नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु॥ व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकः शिष्यतेऽशेषसंज्ञः॥२५॥ योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबंधो चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम्॥ निमेषादिर्वत्सरांतो महीयांस्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये॥२६॥ मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्सर्वाँल्लोकान्निर्भयं नाध्यगच्छत्॥ त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाऽऽद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति॥२७॥
आता, वेद आपके स्वरूपका वर्णन करते हैं, सो तुम ज्ञानके प्रकाश करनेवाले साक्षात् विष्णु भगवान् हो॥२४॥ जिस समय ब्रह्माजीकी सौ (१००) वर्षकी अवस्था होती हैं उस समय प्रलयकालमें सब लोक नष्ट हो जाते हैं. पंचमहाभूत अपनी अपनी तन्मात्राओंमें मिल जाते हैं और तन्मात्रा प्रधानमें लय हो जाती है, प्रधानके जाननेवाले उस समय केवल एक आपही अजन्मा अवशिष्ट रहजाते हो॥२५॥हे मायाप्रेरक! यह जो काल है इसको आपकी माया वर्णन करैहै, इसी कालसे विश्व होता है, पलसे आदि लेके जिसकी वर्षतक गणना है यह परार्द्ध रूपसे बडा है ऐसे आप निर्भयरूप हो, सो मैं आपकी शरणागत हूं॥२६॥ हे आदिपुरुष! सब मनुष्य मृत्युरूपी सर्पके भयसे सब लोंकोंमें भागे भागे
फिरते हैं और उनको बैठनेके लिये निर्भय स्थान कहीं नहीं मिलता, जब किसी पूर्व पुण्यके प्रभावसे आपके चरणारविन्दका आश्रय मिल जाता है तब उस निर्भय स्थानको प्राप्तकरके निर्भय होकर सोरहता है, फिर मृत्युभी उसके निकट नहीं आती, दूरसे दूर भागती है॥२७॥ महा भयानकस्वरूपवाला उग्रसेनका पुत्र जो कंस है, उससे हम अत्यन्त भयभीत हैं, सो उस दुष्टसे आप हमारी रक्षा करो, भक्तोके भय दूर करनेवाले और जाननेवाले ध्यान करनेके योग्य आप भगवान् स्वरूप हो अब आप इस श्यामसुन्दर स्वरूपको चर्मचक्षुवालोंको मत दिखाओ॥२८॥ हे मधुसूदन!आपका जन्म जो मेरे यहां हुवा है यहमत जानो, क्योंकि अधीरचित्तवाली स्त्री जाति जो मैं हूं सो आपके कारण उस कंसके भयसे अत्यन्त भयभीत हूं॥२९॥ हे विश्वात्मन्!शंख, चक्र, गदा, पद्मसे शोभायमान जो यह आपका चतुर्भुज और
स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्नस्त्राहि त्रस्तान्भृत्यवित्रासहाऽसि॥ रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः॥२८॥ जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन॥ समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः॥२९॥ उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्॥ शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्॥३०॥ विश्वं यदेतत्स्वतनौ निशांते यथा वकाशं पुरुषः परो भवान्॥ बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभूदहो नृलोकस्य विडंबनं हि तत्॥३१॥ श्रीभगवानुवाच त्वमेव पूर्वसर्गेऽभृःपृश्निः स्वायंभुवे सति॥ तदाऽयं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः॥३२॥ युवां वै ब्रह्मणादिष्टौ प्रजासर्गे यदा ततः॥सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः॥३३॥ वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु॥ सहमानौ श्वा सरोधविनिर्धूतमनोमलौ॥३४॥
अद्भुत स्वरूप है इसको छिपा लो॥३०॥ यह जो जगत् प्रत्यक्ष कालमें दृष्टि आता है प्रलयकालके समय विना परिश्रमही सब सृष्टिको अपने उदरमें धारण कर लेते हो, सो आप मेरे गर्भमें प्राप्त हुए हो, यह बड़े हास्यकी बात है॥३१॥ यह बात सुन श्रीकृष्णचन्द्र मुसकुराकर बोले कि, अहो मातः! तुमको अपने पूर्वजन्मकी सुधि नही है सो सुनो स्वायंभुव मन्वंतरमें पहिले तुम पृश्नि नाम थीं और वसुदेवजी उस समय पापरहित सुतपा प्रजापति थे॥ ३२॥ तब तुम दोनोंको ब्रह्माजीने सृष्टि रचनेकी आज्ञा दी, तब आपने इन्द्रियोंको रोककर बड़ा भारी तप किया॥३३॥ वर्षा, वायु, धूप, गर्मी, शीत इन सब कालोंके गुणोंका ग्रहण किया और श्वास रोककर मनके मैलको दूर कर दिया॥३४॥
सुखे पत्र और पवनका भोजन करके वर्षोंतक रहे और मुझसे वरदान प्राप्त करनेके मनोरथसे, आप शान्तचित्त हो मेरी आराधना करने लगे॥३५॥ हे मातः!तुम दोनों जनोंने मुझसे चित्त लगाकर बड़ा भारी तप किया, तप करते करते देवताओंके बारह सहस्र वर्ष बीतगये॥॥३६॥ हे निष्पाप!जब तुमने तप करनेके समय श्रद्धा भक्तिसे हृदयमें मेरा ध्यान किया, उसी समय इस देहसे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुवा॥३७॥ तुम दोनोंके मनकी अभिलाषा पूरी करनेके लिये मैं उसी समय इसी शरीरसे आपके सन्मुख आनकर प्रगट हुवा और आपसे कहा कि, ‘वर मांगो’ ‘वर मांगो’ ‘वर मांगो’ तब आपने यह वर मांगा हे भगवन्! जो आपके मन में वर देनेकी इच्छा है और हमपर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजै कि,
शीर्णपर्णानिलाहारावुपशांतेन चेतसा॥ मत्तः कामानभीप्संतौमदाराधनमीहतुः॥३५॥ एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम्॥ दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनोः॥३६॥ तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषाऽनघे॥ तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः॥ ३७॥ प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया। व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः॥३८॥ अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दंपती॥ न वव्रार्थेऽपवर्गं मे मोहितौ देवमायया॥३९॥ गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम्॥ ग्राम्यान्भोगानभुंजाथां युवां प्राप्तमनोरथौ॥४०॥ अटृष्ट्वाऽन्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्॥ अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः॥४१॥ तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्॥ उपेंद्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः॥४२॥
तुम्हारे समान हमारे पुत्र होय॥३८॥ संसारके विषयसुख आपने नहीं भोगे और कोई सन्तानभी नहीं, सो आपने मेरी मायासे मोहित होकर मुक्ति नहीं मांगी॥३९॥ उस समय मैंने तुमको मनवांछित वर दिया कि, तुम्हारे मेरीही समान पुत्र होगा. यह वर देकर मैं अन्तर्धान होगया और तुम अपना मनोरथ करके विषयोंका सुखभोग भोगने लगे॥४०॥ जब मैंने शील उदारता इन गुणोंयुक्त अपनी सदृश दूसरा कोई पुरुष कहीं नहीं देखा, तब पृश्निगर्भ नामसे विख्यात होकर मैंही आपका पुत्र हुआ॥४१॥ फिर पीछे दूसरे जन्ममें आप कश्यप और अदिति हुए, वहांभी मैंने उपेंद्र नामसे आपहीके घर आनकर फिर जन्म लिया. हे जननि! उस अवतारमें मेरा शरीर बहुत छोटा था, इसलिये मेरा नाम वामन विख्यात हुवा॥४२॥
फिर अब तीसरीबार उसीरूपसे आपके घरमें जन्म लिया हैं, हे मातः! मेरा वचन सत्य मानो देखो तुमने एक बार वर मांगा मैंने तुम्हारे घर तीनबार जन्म लिया॥४३॥ पहिले जन्मका स्मरण करानेके लिये मैंने तुमको यह रूप दिखाया हैं जो और प्रकार मनुष्यके बालकका रूप धर कर प्रगट होता तो तुम क्या जानते ? और तुमको कैसे विदित होता कि, परमेश्वरने हमारे घर आनकर अवतार लिया॥४४॥ अब आपकी इच्छा है चाहे पुत्र भावसे मेरा सन्मान करो, चाहे ईश्वर जानकर मेरा ध्यान करो, मुझसे स्नेह करोगे तो परमभक्तिको प्राप्त होगे॥४५॥ और जो तुमको कंसका यह भय है कि, मेरे इस पुत्रकोभी वह दुष्ट मार डालेगा, तो तुम मुझको गोकुलमें नन्दरायजीके घर पहुँचा दो और यशोदाके
तृतीयेऽस्मिन्भवेऽहं वै तेनैव वपुषाऽथ वाम्॥ जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति॥४३॥ एतद्वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्मस्मरणाय मे॥ नान्यथा मद्भवं ज्ञानं मर्त्यलिंगेन जायते॥४४॥ युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्॥ चिंतयंतौ कृतस्नेहौयास्येथे मद्गतिं पराम्॥४५॥ यदि कंसाद्बिभेषि त्वं तर्हि मां गोकुलं नय॥ मन्मायामानयाशु त्वं यशोदागर्भसंभवाम्॥४६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया॥ पित्रोः संपश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः॥४७॥ ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदितः सुतं समादाय स सूतिकागृहात्॥ यदा बहिर्गंतुमियेष तर्ह्यजा या योगमायाऽजनि नंदजायया॥४८॥ तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु द्वास्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ॥ द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया बृहत्कपाटायसकीलशृंखलैः॥४९॥
गर्भमें प्रगट हुई मेरी योगमाया है उसको इसी समय अपने घरको लेआओ॥४६॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! यह सब बातें समझाकर भगवान् चुप होगये और अपनी मायासे माता पिताके देखते देखते साधारण बालक होगये॥४७॥ भगवत्की प्रेरणा से वसुदेवजीने प्रसूतिका घरमेंसे पुत्रको लेकर बाहिर निकलनेकी इच्छा की उसी समय गोकुलमें नन्दरायजीकी स्त्री यशोदाके उदरसे योगामायाने जन्म लिया॥४८॥ उस समय योगमायाने सब पुरवासी और द्वारपालोंका ज्ञान हरलिया, उसी समय सब निद्राके वशीभूत होगये पावोंकी बेड़ी गिरपड़ी, जब श्रीकृष्णको लेकर वसुदेवजी चले तब द्वारोंके बड़े बड़े जो किवाँड़ थे
उनमें जो लोहेकी भारी भारी संकलें पड़ी थीं और ताले लगरहे थे, बह सब आपसे आप खुलगये जैसे सूर्य नारायणके उदय होनेसे सर्वत्र अन्धकार दूर हो जाता है॥और मन्द मन्द शब्दसे मेघ गर्ज गर्ज कर बरसने लगे आधीरात सायँ सायँकररही थी अँधेरी झुक रहीथी मार्ग देखनेमें नहीं आता था, कभी कभी बीच बीचमें बिजली चमक जातीथी उसके आश्रयसे धीरे धीरे चले जाते थे, परन्तु वर्षा इनके ऊपर नहीं होती थी क्योंकि, पीछे पीछे शेषजी महाराज फणरूप छत्रछायासे जलका निवारण करते थे॥४९॥५०॥ उस समय मेघोंके वर्षनेसे यमुना ऐसी चढरही
ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते स्वयं व्यवर्तंत यथा तमो रवेः॥ ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः शेषोऽन्वगाद्वारि निवार यन्फणैः॥५०॥ मघोनि वर्षत्यसकृद्यमानुजा गंभीरतोयौघजवोर्मिफेनिला॥ भयानकावर्तशताकुला नदी मार्गं ददौ सिंधुरिव श्रियः पतेः॥५१॥ नंदव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्गोपान्प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया॥ सुतं यशोदाशयने निधाय तत्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात॥५२॥
थी कि, कोसोंतक जल ही जल दिखाई देता था पवनके वेगसे जलमें ऊंची ऊंची तरंगें उठती थीं और जलके घरघराहटका शब्द दूर तक सुनाई आताथा उस गम्भीर नीरमें महा भयानक सैकडों भँवर पडते थे परंतु जैसे लंकाकी चढाईके समय श्रीरामचन्द्र महाराजको समुद्रने मार्ग दियाथा उसी प्रकार यमुनाने वसुदेवजीको मार्ग दिया*
॥५१॥ जैसे तैसे कर वसुदेवजी गोकुलमें पहुँचे और नन्दजीके द्वारपर जाकर देखा तो किवाँड
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शंका— श्रीशुकदेवजीमुनिने राजा परीक्षित्से कहा कि, श्रीकृष्णको लेकर वसुदेवजी जब गोकुलको चले तब भगवान्को समुद्रने वडे सुखसे मार्ग दिया था उसी, प्रकार यमुनाने वसुदेवजीको बडे सुखसे मार्ग दिया, हम बूझने है भला किस स्थानपर भगवान्को समुद्रने सुखसे मार्ग दिया यह वडीं शंका हैं जो कोई कहें कि, लंकाकों जानेके समय रामचन्द्रको ….. तो यह बात व्यर्थ है क्योंकि रामचन्द्रने बहुत दुःख सहकर समुद्रके शोषनेके लिये अग्निवाण धनुषपर चढाया, तो त्रास मानकर आन मिला, तो भी रामचन्द्र पुल बाँधकर समुद्रके पार गये सुखसे की समुद्रने नहीं जाने दिया॥
उत्तर— इस स्थानपर भगवान्को सुखसे मार्ग देना यह है कि, राजा बलिको दर्शन देनेके लिये वामनजी नित्यप्रति सुतल लोकको जाते हैं तब पातालके जानेका एकही मार्ग है दूसरा और कोई मार्ग नहीं है….. भगवान् बामनजीको समुद्र सुखकर मार्गदेता है इसवास्ते भगवान् व्यासजीने सुखसे समुद्रको पय देनेके लिये कहा॥
खुले पड़े हैं भीतर घुसकर देखा तो सब नींदमें मतवाले पड़े हैं और यशोदा मायाके मोहसे ऐसी बेसुध पड़ीथी कि, उसको कन्याके उत्पन्न होने काभी ध्यान नहीं था उसको सोती देखकर वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाकी शय्यापर सुला दिया और उसकी कन्याको उठाकर अपनी राह ली॥५२॥ और उसी बन्दीगृहमें आनकर कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और आपने उसी प्रकार पांवोंमें बेडी और हाथोमें हथकड़ी पहन ली और उसी भांति बैठगये॥५३॥ वसुदेवजीको देख देवकी बूझने लगी कि, स्वामी!कुशलपूर्वक गोकुलमें पहुँचे पुत्र तो आनन्दमेंहै? वसुदेवजीने कहा सब नारायणकी कृपा है, उसी समय यहां गोकुलमें नन्दरायके घर यशोदाजीके मनसे जब माया हटी तो जाना कि, मेरे कुछ बालक हुवा, परन्तु कुछ परिश्रम और कष्ट न पडा, क्योंकि योगमायाने पहिलेही स्मृति भुलाकर नींदके वश करदियाथा और यहभी कुछ ज्ञान नहीं रहा
देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम्॥ प्रतिमुच्य पदोर्लोहमास्ते पूर्ववदावृतः॥५३॥ यशोदा नंदपत्नी च जातं परमबुध्यत॥ न तल्लिंगं परिश्रांता निद्रयाऽपगतस्मृतिः॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे श्रीकृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ वहिरंतःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः॥ ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः॥१॥ ते तु तूर्णमुपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत्॥ आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते॥२॥ स तल्पात्तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः॥ सूतीगृहमगात्तूर्णं प्रस्खलन्मुक्तमूर्धजः॥३॥
कि, मेरे पुत्रहुवा या कन्या॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णजन्मनिरूपणं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥दोहा— चौथे चण्डीवचन सुन, अतिसभीत भयो कंस। मंत्रिन सहित विचारकर, कियो बालविध्वंस॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन् ! बाहिर भीतरके द्वार उसीप्रकार बन्द होगये, कन्या रो उठी बालकका रोना सुन सब रखवाले सावधान हो तोप छोडने लगे; हाथी चिंघाडने लगे, सिंह दहाडनें लगे भादोंकी अँधेरी झुकरहीथी, मेघ वरस रहा था सब चौकीदार और द्वारपाल पुकारते हुए उसी समय कंसके पास दौड़ेगये और जातेही देवकीके बालक होनेका समाचार सुनाया, जो कंस उद्विग्न मनसे इसी आठवें गर्भका मार्ग जोहरहा था॥१॥२॥ सुनतेही कंस घबराकर यह कहता उठ खडा हुवा क्या मेरा कालरूप बालक उत्पन्न होगया? खुलेबाल; गिरता पडता, ठोकरें खाता, कांपता हुवा खड्ग हाथमें ले प्रसूतिका
भवनकी ओरको दौडताहुवा बहनके पास गया॥३॥ देवकी कंसको देख दीन होकर करुणा वचन बोली कि, जिसके सुननेसे सबके मनमें अत्यन्त दया उत्पन्न हो, हे भ्राता!हे कल्याणरूप!यह पुत्र नहीं है, यह देवीरूप कन्याहै, इसको मत मार, क्योंकि यह तेरी भानजी है और जो कदाचित् यह जीती रहेगी तो मैं तेरेही पुत्रके संग इसका विवाह कर दूंगी॥४॥ हे भ्राता!अग्निके समान तेजवाले मेरे सात पुत्र जो तैंने मारे हैं, वह ताप मेरे हृदयसे अभी नहीं गया. परन्तु उसमें तेराभी क्या दोष है देवने तेरी बुद्धिभी वैसेहकरदी. अब यह कन्या तो मेरा हृदय ठण्डा करनेको मुझे छोड़दे॥५॥ हे सामर्थ्यवान्! तैने बहुत पुत्र मेरे मारे, अबदयाकर में तेरी छोटी बहन हूं, महादीन हूं, मन्दभागिनी हूँ, यह मेरीअन्तकी पेटपोछनी कन्या है इसको तू मुझे अपनी करके देदे जो मेरा थोडा बहुत धैर्य बँधारहे॥६॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्!देवकी इस प्रकार कंससे
तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती॥ स्नुपेयं तव कल्याण स्त्रियं मा हंतुमर्हसि॥४॥ वहवो हिंसिता भ्रातः शिशवः पावकोपमाः॥ त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम्॥५॥ नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो॥ दातुमर्हसि मंदाया अंगेमां चरमां प्रजाम्॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ उपगुह्यात्मजामेवं रुदंत्या दीनदीनवत्॥ याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्तादाचिच्छिदे खलः॥७॥ तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसुः सुताम्॥ अपोथयच्छिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलित सौहृदः॥८॥ सा तद्धस्तात्समुत्पत्य सद्यो देव्यंवरं गता॥ अदृश्यताऽनुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा॥९॥ दिव्यस्रगंबरालेपरत्नाभरणभूषिता॥ धनुश्शलेषुचर्मासिशंख चक्रगदाधरा॥१०॥
विनतीकर, कन्याको छातीसे लगाकर अति दीनकी नांई रुदन करने लगी. देवकी दीन तो नहीं थी, क्योंकि मनमें अत्यन्त प्रसन्न थी कि, मेरा पुत्र तो और स्थान पर पहुँचही गया और यह कन्या योगमायाहै यह इस दुष्टसे किसी प्रकार मरही नहीं सक्ती, तोभी देवकीके हाथसे उस दुष्टने कन्याको छीन ही लिया, देवकीने नम्र होकर बहुतेरी प्रार्थना की परन्तु उस दुष्टने न माना और कहा कि, इस कन्याकोमैं कभी जीतान छोडूंगा, जो इस कन्या के साथ विवाह करेगा वह मुझको मारेगा॥७॥ यह कह अपने स्वार्थके सिद्ध करनेके लिये तुरन्तकी उत्पन्न हुई अपनी भगिनीकी कन्याका चरण पकड घुमाकर शिलापर ज्योहीं पटकनेको हुवा॥८॥ उसी समय वह कन्या कंसके हाथसे छूट उसके माथेपर पांवधर उछलकर आकाशको चली गई और वहां प्रत्यक्ष देवीका दिव्यस्वरूप देखनेमें आया॥९॥ अतिविशाल लाल लाल नेत्र, ललाटपर चन्दनका तिलक, कण्ठमें
पुष्पोंकी माला, सुन्दर शोभायमान वस्त्र, रत्नजटित आभूषण, आठ भुजा जिनमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, कृपाण, गदा, पद्म, शंख, चक्र आयुध लिये॥१०॥ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर, और नाग यह बारम्बार बलिदान देतेथे और प्रर्थना करते थे॥११॥ अरे अधम कंस! मेरे मारनेसे तेरे हाथ क्या आया? तेरे पूर्व जन्मका वैरी जो कि, तेरा मारनेवालाहै वह पहिलेही और कहीं दूसरे स्थानमें जन्म लेचुका, अरे मूर्ख! बालकोंको मारकर और मुझको पटककर वृथा तैंने अपने शिरपर पापका भार धरा, तेरा मारनेवाला सर्पकी समान है और तू दादुरकी सदृशहै, दादुरको इतनी सामर्थ्य कहाँ है जो सर्पको निगलनेकी इच्छा करैंअब तू सावधान रहना अब वह बहुत शीघ्र तुमको मारकर भूमिका भार उतारैगा॥१२॥ इसप्रकार भगवान् की देवी योगमाया कंससे कहकर बहुत स्थानोंमें दुर्गा, भद्रकाली, भगवती, भवानी, महामाया नामसे संसारमें विख्यात हुई॥१३॥इसप्रकार योग
सिद्धचारणगंधर्वैरप्सरःकिन्नरोरगैः॥ उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत्॥११॥॥ किं मया हतया मंद जातः खलु तवांतकृत्॥ यत्र क्व वाऽपूर्वशत्रुर्मा हिंसीः कृपणान्वृथा॥१२॥ इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि॥ बहु नामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह॥१३॥ तयाभिहितमाकर्ण्य कंसः परमविस्मितः॥ देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत्॥१४॥ अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना॥ पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः॥१५॥ स त्वहं त्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहृत्खलः॥ काँल्लोकान्वै गमिष्यामि ब्रह्मदेव मृतः श्वसन्॥१६॥ दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम्॥ यद्विस्रंभादहं पापः स्वसुर्निहतवाञ्शिशून्॥१७॥
मायाका वचन सुनकर कंस अत्यन्त विस्मित हुवा और वसुदेव देवकीको कारागारसे उसीसमय छोडदिया और बेडी हथकडी उनके हाथ पांवोंसे निकलवादींऔर विनय करके बहन बहनोईसे बोला कि॥१४॥ अहो भगिनी!अहो भाम! मैं आपका बडा अपराधी हूं मुझ पापी अधर्मीने तुम्हारे संग बडा अनर्थ किया और अपने शरीरके सुखके लिये तुम्हारे छः बालक मारे जैसे कोई राक्षस अपने पुत्रोंको अपने हाथसे मारे है और मेरा मनो रथभी पूरा नहीं हुवा॥१५॥ देखो! मैं कैसा निर्दयी और हत्यारा हूँ, अपने जातिवाले हितकारी और सम्बन्धियोंका संग मैंने छोड दिया, हाय! मैं महापापी नीचबुद्धि न जानिये कौन से नरकमें जाऊंगा, ब्रह्मघातीकी नांई में जीताही मृतककी समान हूं यह कलंक मेरा कैसे छूटेगा औरमैं किस जन्ममें उद्धरूंगा॥१६॥कोई कहैकि, मनुष्यही झूठ बोलतेहैं, परन्तु देवताभी झुँठ बोलते हैं जिन्होंने कहाथा कि, देवकीके आठवें गर्भमें पुत्रं होगा
सो कन्या उत्पन्न हुई; हाय!मैंने झूँठी आकाशवाणीके कहनेसे अपनी वहनके बालक मारे मेरी क्या गति होगी?॥१७॥ हे महाभागियो! तुम अपने पुत्रोंके मारनेका शोक मत करो, यह प्राणी अपने किये हुए कर्मोंका भोग भोगते हैं और दैवाधीन हैं सर्वदा एकत्र नहीं रहसक्ते. तुम समझना कि, हमारे पुत्रोंकी आयु इतनीही थी॥१८॥ जैसे पृथ्वीके विकार घटपट इत्यादिक पदार्थ उत्पन्न होतेहैं, और फूटजाते हैं, इनके होनेमें पृथ्वीका विकार नहीं आता, ऐसेही यह देह जन्मता और मरताहै कुछ इसके संग आत्मा नहीं मरता जीता॥१९॥ मूर्ख लोग ऐसे नहीं जानते वह देहकोही आत्मा मानते हैं और देहको आत्मा माननेसे “मैं हूं “तू है” यह अनेक प्रकारके बुद्धि भेद उत्पन्न होते हैं, इस भेदसे पुत्रादिकके देहसे योगवियोग होताहै
मा शोचतं महाभागावात्मजान्स्वकृतंभुजः॥ जंतवो न सदैकत्र दैवाधीनाः सहासते॥१८॥ भुवि भौमानि भूतानि यथा यांत्यपयांति च॥ नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः॥१९॥ यथाऽनेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः॥ देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते॥२०॥ तस्माद्भद्रेस्वतनयान्मया व्यापादितानपि॥ माऽनुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विंदतेऽवशः॥ २१॥ यावद्धतोऽस्मि हंतास्मीत्यात्मानं मन्यते स्वदृक्॥ तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्य बाधकतामियात्॥२२॥ क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः॥ इत्युक्त्वाऽश्रुमुखः पादौ श्यालस्स्वस्रोरथा ग्रहीत्॥२३॥ मोचयामास निगडाद्विस्रब्धः कन्यकागिरा॥ देवकीं वसुदेवं च दर्शयन्नात्मसौहृदम्॥२४॥
इसीसे उनके अज्ञानकी निवृत्ति नहीं होती॥२०॥ हे मंगलरूपिणी!मैंने तेरे पुत्रोंको मारा है तो भी तू उनका शोक संताप मत कर, क्योंकि सब प्राणियोको परतंत्रतासे अपने अपने किये हुए कर्मोंका भोग भोगना पडताहै॥२१॥ जव तक प्राणी अपने स्वरूपको नहीं जाने और यह कहै कि, मैं मारता हूं और मैं मरता हूं, तब तक वह देहाभिमानी अज्ञान पुरुष मरता है और मारता है॥२२॥ हे दीनदयालु! हे सत्यवक्ताओ! अब आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये, क्योंकि साधुजन दीनोंपर सदा दयाही करते हैं, यह कह आँखोंमें आँसू भरकर कंस वसुदेव देवकीके चरणोंमें गिरपड़ा॥२३॥और योग मायाने जो यह वचन कहा था कि, तेरा मारनेवाला कहीं उत्पन्न होगया इस वाणीपर विश्वास लाकर वसुदेव और देवकीके
पाँवोंकी बेड़ी कटवादी और सुहृदता और मित्रता अपनी जतानेलगा॥२४॥ हे देवकी! अब मेरा अपराध क्षमाकर, देवकी अपने भ्राता कंसका अत्यन्त व्याकुल देखकर बोली कि, हे भय्या! मैंने तेरा सब अपराध क्षमा किया तू मत डरै, यह कह उसकी आखोंसे आंसू पोंछने लगी और वसुदेवजीभी उससे शत्रुता तजकर मुसकराकर बोले॥२५॥ हे महाभाग कंस!जैसे तुम कहते हो वैसेही है, देहधारियोंको अज्ञानसे अहंकार होता है, इसी अहंकारने मेरा तुम्हारा परस्पर भेद करदिया॥२६॥ शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह, मद जिनको लगरहे हैं वह मनुष्य इनचारोंसे आपही मरते हैं, उनको कौन मारता है, वह उन्मत्त पुरुष यह नहीं जानते कि, परमेश्वरही पदार्थोंसे पदार्थोंका परस्पर नाश करताहै और उस परमात्माको नहीं देखते और अज्ञानी पुरुष मैं मरताहूं, मैं मारताहूं, ऐसे मानते हैं॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!इस प्रकार प्रसन्न हो शुद्ध
भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षांत्वा रोषं च देवकी॥ व्यसृजद्वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह॥२५॥ एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम्॥ अज्ञानप्रभवाऽहंधीः स्वपरेतिभिदा यतः॥२६॥ शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विताः॥ मिथो घ्नंतं न पश्यंति भावैर्भावं पृथग्दृशः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः॥ देवकीवसुदेवाभ्यामनुज्ञातोऽविशद्गृहम्॥२८॥ रात्र्यां तस्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः॥ तेभ्य आचष्ट तत्सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया॥२९॥ आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः॥ देवान्प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः॥३०॥ एवं चेत्तर्हि भोजेंद्र पुरग्रामव्रजादिषु॥ अनिर्दशान्निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून्॥३१॥
अंतःकरणवाले वसुदेव देवकीसे आज्ञा लेकर कंस अपने राजभवनको गया॥२८॥ और जैसे तैसे करके रात काटी प्रातःकाल होतेही कंसने अपने सब मंत्रियोको बुलाया और जो कुछ योगमायाने कहा था कि, तेरा मारनेवाला उत्पन्न होगया है, यह सब वृत्तान्त मंत्रियोंके सामने ज्योंकात्यों कह सुनाया॥२९॥ कंसके वचन सुनकर देवताओंके शत्रु अविवेकी, देवताओंपर क्रुद्ध होनेवाले जो अघासुर, तृणावर्त आदिक मंत्री थे वह कंससे बोले कि॥३०॥ हे यादवेन्द्र! जो ऐसा भी है तो क्या चिन्ता है? आप कुछ सन्देह न कीजै केवल इतना काम करो कि-पुर, ग्राम, खिरक इत्यादि जितने स्थान हैं, उनमें दश पांच दिनके भीतर जो बालक उत्पन्न हुएहैं उनको मारनेकी हमको आज्ञा देदीजै हम आजही सब
बालकोंको बीन बीन कर मारआयेंगे उनमें जो आपका शत्रु होगा वहभी मारा जायगा॥३१॥ और जो देवता संग्रामके नामसे थरथर काँपते हैं वह आपके सामने क्या पराक्रम करेंगे? आपके धनुषकी टंकारही सुनकर निरन्तर व्याकुल रहते हैं॥३२॥जिस समय आप धनुषपर बाण चढा कर चारों ओरको प्रहार करते हो उस समय देवता अपने अपने प्राणोंको लेकर रणस्थलसे भाग जाते हैं और भाग जानाही उनका अच्छा है॥३३॥ उनमें कोई कोई तो शस्त्र त्याग, दीन बन, हाथ जोडकर खड़ा होजाताहै और कोई निकच्छ होकर शरणमें आ कहता है कि, हम हारगये २ हमको मत मारो॥३४॥ आपके सामने रथ जिनके टूटगये, शस्त्र हाथोंमेंसे छूटगये, भयभीत हो भाग गये, युद्धसे विमुख धनुष जिनके हाथोंसे गिरगये और जो संग्राम छोड़कर बैठरहे उनको तो आप मारते ही नहीं हो॥३५॥जहाँ कोई शूरवीर और युद्ध करनेवाले योद्धा नहीं होते उस निर्भय स्थानमें
किमुद्यमैः करिष्यंति देवाः समरभीरवः॥ नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव॥३२॥ अस्यतस्ते शरव्रातैर्हन्यमानाः समंततः॥ जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः॥३३॥ केचित्प्रांजलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः॥ मुक्तकच्छशिखाः केचिद्केचिद्भीताः स्म वादिनः॥३४॥ न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान्विरथान्भयसंवृतान्॥ हंस्य न्यासक्तविमुखान्भग्नचापानयुध्यतः॥३५॥ किं क्षेमशरैर्विबुधैरसंयुगविकत्थनैः॥ रहोजुषा किं हरिणा शंभुना वा वनौकसा॥३६॥ किमिद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता॥ तथापि देवाः सापत्न्यान्नोपेक्ष्या इति मन्महे॥ ततस्तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्माननुव्रतान्॥३७॥
बैठकर झूठां बकवाद करनेवाले देवताओंसे और जो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर षड़ा दिन रात लक्ष्मीसे भोगविलास करता रहता है उसीके ध्यानमें नित्य मतवाला हो आलस्यके मारे कोई काम नहीं करता उससे युद्ध कब होसक्ताहै जो आपके डरसे क्षीर समुद्रमें छिपाहुआ पड़ा हैं उस लक्ष्मीकी आशा करनेवाले विष्णुसे, इलावृतखण्डका रहनेवाला ज जातेही पुरुष स्त्री होजाय, दिन रात पार्वतीके संग क्रीड़ा करनी और उसीके मोहजालमें मग्न रहनेवाला विषके पीनेसे जिसका चित्त नित्य उद्विग्न रहे ऐसे बावले बहुरंगे शिवसे,॥३६॥ तुच्छ पराक्रमी, किंचिन्मात्र विपत्ति पड़नेसे देवताओंको साथ ले भगवान्के पास जाकर पुकार मचावै. आपने सुनाही होगा कि, हिरण्याक्ष हिरण्यकशिपुऔर रावणादिक अनेक असुरोंने उसकी कैसी २ दुर्दशा की और बताओ आजतक किसको जीता, सदा घर बैठाहीवज्र घुमाता
रहताहै और ऐसे असमर्थ इन्द्रसे, रहा ब्रह्मा वह दिन रात पूजा पाठमें लगा रहता है उसको अपनेही कामोंसे पलभरको सावकाश नहीं? फिर बताओ कि, इन लोगोंसे हमको क्या भय है और कौन इनमें हमसे युद्ध कर सक्ता है परन्तु तोभी वैरीही हैं न जानिये कलको क्या उपद्रव कर उठावैं, क्योंकि शत्रुको और सर्पको छोटा न समझे, इसलिये इन लोगोंका छोडना अच्छा नहीं, इस समय तो इनकी जड उखाडने को हम उपस्थित हैं, हम लोगोंको आज्ञा दीजिये॥३७॥जैसे विना उपाय किये शरीरका रोग जड पकड जाता है फिर पीछे उपाय करनेसे कुछ नहीं हो सक्ता, जैसे योगी जन पहिले इंद्रियोंसे विषयभोग करके फिर पीछे उनको रोकना चाहैंतो फिर वह नहीं रुकसक्तीं, ऐसेही शत्रुको छोटा समझकर जो छोड देते फिर पीछे प्रबल होकर वह शत्रु जीतनेमें नहीं आता और जो कदाचित् जीत भी लिया तो बडी विपत्ति उठानी पडती है और बहुत दाँत
यथाऽऽमयोंगे समुपेक्षितो नृभिर्न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम्॥ यथेंद्रियग्राम उपेक्षितस्तथा रिपुर्महान्बद्धबलो न चाल्यते॥३८॥ मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्मः सनातनः॥ तस्य च ब्रह्मगोविप्रास्तपोयज्ञाः सदक्षिणाः॥३९॥ तस्मात्सर्वात्मना राजन्ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिनः॥ तपस्विनो यज्ञशीलान्गाश्च हन्मो हविर्दुघाः॥४०॥ विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः॥ श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः॥४१॥ स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुर द्विड् गुहाशयः॥ तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः॥अयं वै तद्वधोपायो यदृषीणां विहिंसनम्॥४२॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं दुर्मंत्रिभिः कंसः सह संमंत्र्य दुर्मतिः॥ ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशवृतोऽसुरः॥४३॥
खट्टे होते हैं॥३८॥ सब देवताओंकी जड विष्णु है और विष्णुकी जड सनातन धर्म है और सनातनधर्मकी मूल गौ, ब्राह्मण, तप, यज्ञ और दक्षिणा है॥३९॥ हे राजन् कंस! इसलिये वेदपाठी, तपस्वी, याज्ञिक, ब्राह्मण, यज्ञके उपयोगी और दूध देनेवाली गायोंको हम अवश्य मारेंगे॥४०॥ गौ, ब्राह्मण, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, क्षमा और यज्ञ यह सब विष्णु भगवान्के अंग हैं॥४१॥ वह विष्णु सब देवताओंमें मुख्य, दैत्योंका द्रोही और सबके हृदयमें वास करनेवाला और ब्रह्मा, महादेव, सब देवता और ऋषियोंका मूलभी वही है, इसलिये ऋषीश्वरों मुनीश्वरोंका मारना, यही विष्णुके मारनेका ठीक उपाय है॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!
दुष्टबुद्धि कंस कालके फन्दमें फँसे हुयेने इस प्रकार दुष्ट मंत्रियोंके साथ, सम्मतिकरके ब्राह्मणोंको मारकर अपना कल्याण चाहा॥४३॥ महा4पुरुषोंका कष्ट जिनको प्रिय, इच्छापूर्वक रूप धारण करनेवाले असुरोंको सब देश विदेशोंमें साधु संतोंके मारनेके लिये आज्ञा देकर भेज दिया और आप अपने राज्यमंदिरको चलागया॥४४॥ राजस, तामस स्वभाववाले दुर्बुद्धि, आज्ञानसे जिनका अन्तःकरण आच्छादित होरहा, मृत्यु जिनके शिरपर खेल रही, ऐसे ऐसे दैत्य साधुओंके विद्रोही होकर उनसे वैर करनेलगे॥४५॥ सत्पुरुषोंसे द्वेष रखनेवाले पुरुषकी आयु, धन, यश,
संदिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान्॥ कामरूपधरान्दिक्षु दानवान्गृहमाविशत्॥४४॥ ते वै रजःप्रकृतयस्त मसा मूढचेतसः॥ सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः॥४५॥ आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च॥ हंति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पृ० कंसाज्ञप्तकृतवालादिहिंसनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताद्वादो महामनाः॥ आहूय विप्रान्दैवज्ञान्स्नातः शुचिरलंकृतः॥१॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै॥ कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा॥२॥
धर्म, परलोकसुख, महात्माओंका आशीर्वाद और मंगल इन सबका नाश होजाता है॥४६॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे भाषाटीकायां कंसस्यानीतिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥ दोहा— पंचममें उत्सव अधिक भयो नन्दके भौन। मथुराको वसुदेवने कियो मिलन हित गौन॥१॥ हे राजन्! पुत्रका जन्म होनेसे आनन्द सहित उदारचित्त नन्दरायजीने उसी समय स्नान कर पवित्र हो पीताम्बर पहन, शृंगार कर, आसनपर जा
विराजे ज्योतिषी ब्राह्मणोंको बुलाय मोतियोसे चौक पुराय उसपे सुवर्णका कलश स्थापन कर, गणेश, गौरी, वरुण इत्यादि देवता, पितृ, लोकपाल दिक्पाल इन सबका संस्थापन करके स्वस्तिवाचन कराय और पूजन कर पुत्रका जातिकर्म संस्कार कराय॥१॥२॥ उसीसमय भूषित करी दोलाख गौवें और तिलोंके सातपर्वत बनाय ऊपरसे सुनहरी रंगका वस्त्र उढ़ाय उनके भीतर मणि, माणिक, मोती, हीरे और अनेक अनेक प्रकारके रत्न भर भरके ब्राह्मणोको दान कर दिये॥३॥कालसे तो पृथ्वी पदार्थ शुद्ध होता है, स्नान करनेसे शरीरशुद्धि होती है; धानेसे वस्त्रादिक शुद्ध होता है, संस्कारसे गर्भादिक शुद्ध होता है, तप करनेसे इंद्रियोंकी शुद्धि होती है, यज्ञ करनेसे ब्राह्मणोंकी शुद्धि होती है, दान करनेसे धनकी शुद्धि होती है, सन्तोषसे मनकी शुद्धि होती है और आत्मविद्यासे आत्माकी शुद्धि होती है. यह विचार नन्दरायजीने अनेक
धेनूनां नियुतं प्रादाद्विप्रेभ्यः समलंकृते॥ तिलाद्रीन्सप्त रत्नौघशातकौंभांबरावृतान्॥३॥ कालेन स्नान शौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया॥ शुध्यंति दानैः संतुष्ट्या द्रव्याण्यात्माऽऽत्मविद्यया॥४॥ सौमंगल्यगिरो विप्राः सूतमागधबंदिनः॥ गायकाश्च जगुर्नेदुर्भेर्यो दुंदुभयो मुहुः॥५॥ व्रजः संसृष्टसंसिक्तद्वाराजिरगृहांतरः॥ चित्रध्वज पताकास्रक्चैलपल्लवतोरणैः॥६॥
प्रकारके दान दिये॥४॥ ब्राह्मण स्वस्तिवाचन पढ़ने लगे, पुराणवक्ता पुराण बाँचने लगे, गायक वंशावली बखानने लगे, भाट बन्दीजन यश वर्णन करने लगे, गायक गुण गाने लगे और भेरी नगाडे जहां तहां बजने लगे॥५॥ व्रजमें द्वार द्वार आंगन आंगन घर घर सब झाड बुहार रहे हैं और बजारोंमें गलियोंमें घाटोंमें बाटोमें, रजबाहोंमें, चौराहोंमें बुहारी लगाकर गुलाबके जलसे, केवडेके जलसे, केतकीके जलसे सेवतीके जलसे, खसके जलसे, चन्दनके जलसे, छिरकने लगे. सब गोकुल और महावन नन्दगाँव सुगन्धसे सुगन्धित कर दिया। सबने अपनें अपनें भवनोंकी शोभा निराले ही निराले ढंगकी बनादी सुन्दर स्फटिक मणिके द्वार सुवर्णके किवाँड, वैडूर्यकी देहरी, मूंगोंकी चौखट, जिनमें पुष्प बिखररहे, आमके पत्ते और फूलोंकी बन्दनवारैंजहां तहां लटकरहीं, सुवर्णके कलश कलशियें द्वार द्वार पर विज्जुच्छटासी चमक रहीं, ध्वजास्तंभ
गड़रहे हैं, जिनमें चित्र विचित्र रंग ध्वजापताका फहराय रही हैं मोतियोंकी माला जहां तहां लटक रहीं हैं; मानो भवन भवनमें पुत्रजन्मोत्सव हो रहा है॥६॥ जबहीं ग्वालिये गाय बछडोंको लेलेकर वनको चले, उसी समय एक गोप वृक्षपर चढकर पिछौरिया घुमाकर बोला, अरे भैया! आज कोई व्रजवासी वनको मत जाना हमारे नन्दरायजीके पुत्रका जन्म हुवा है, यह बात सुनके सब ग्वाल बाल आनन्दमें मग्न होगये और सब अपनी अपनी गायोंका शृंगार बनाने लगे, पहिले तो छोटी छोटी गाय, बछड़े, बछियाओंको हलदी तेल लगाकर उबटन किया. फिर गेरू, मेंहदी, लाख, हरतालसे रँगा और बीच बीचमें हलदी और रोलीके थापे लगाये, जंगाल और सिंगरफसे उनके सींगरंगे और मोरछल जिनमें लटक रहे ऐसी शोभायमान झूलें उढायदीं, मोरछलकी कलगी न्यारी ही पहिराय दीं, गलेमें घण्टोंकी मालाका शब्द निराला ही सुनाई आता था और कोई कोई गोप अपने अपने घरोंसे सुनहरी आभूषणोंके डिब्बे और उत्तम उत्तम वस्त्रोंकी गठरी उठालाये, मोहनमाला, चन्दनहार, इमेल, पचलडी, चम्पाकली, धुकधुकी, बछडे बछियाओंके गलेमें डाल दिये, पाँवोंमें पावटे, घुंघरू, कडे झाँझन, पहराय दीं और ऊपरसे शाल
गावो वृषा वत्सतरा हरिद्रातैलरूषिताः॥ विचित्रधातुबर्हस्रग्वस्त्रकांचनमालिनः॥७॥
महार्हवस्त्राभरणाः कंचुकोष्णीषभृषिताः॥ गोपाः समाययूराजन्नानोपायनपाणयः॥८॥
दुसाले जरीकी ओढनी उढायदीं, इसप्रकार सबने अपनी अपनी गायोंका शृंगार किया॥७॥ सब गोप ग्वाल सुन्दर सुन्दर सुही, बैंजनी ऐंठदार पागैंबांध बांध और दोचार पेंच गलेमें डाल सुन्दर सुन्दर जामें पहरलिये, किसी किसीने काछ बांध लिये किसीकी लटकवां धोती, रेशमी दुपट्टे ओढ लिये और भाँति भाँतिके आभूषण सज सुन्दर शृंगार बनाये यमुनाकी रज मस्तकपर चढ़ाये, कन्धोंपर तलवारें धरे, कानोंमें फूलोंके तुरें उरसे हुए, शिरमें मोरके पंखोंकी कलंगी धरे, भारी भारी लट्ठ लिये, पानसे मुख लाल करे थालोंमें भेंट लिये गायोंको आगे आगे नचाते कुदाते गाते बजाते हँसते हँसाते, नन्दरायजीको बधाई देनेके लिये चले उस समय नन्दजीके द्वारपर बडी भारी भीर हुई उस छविको देख छविभी लज्जाकी मारी एक कोनेमें छिपी हुई, उस आनन्दको देख रही थी. इस उत्सवको देखनेके लिये स्वर्गसे ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण, कुबेरादिक अनेक देवता अपनी अपनी स्त्रियोंको संगलिये मनुष्यरूप धारण किये गोपग्वालोंमें आनमिले और सब नन्दके द्वारपर पुकार पुकार बार बार यह कहते थे कि, आज नन्दघर बधाई है. उस समय नन्दजी ऐसे मग्न थे कि, अंगमें फूले नहीं समाते थे, और सबके हाथ पकड पकड अत्यन्त
आदर सत्कारसे कुशलक्षेम बूझ बूझ मखमलके बिछौनोंपर बिठाते जाते थे और बारबार सबको पान मिठाई दे देकर यह कहते थे कि, सब आपहीका प्रताप है दूसरे दिन यह शुभ संवाद समीप समीपके सब ग्रामोंमें भी पहुँच गया कि, नन्दजीके पुत्रका जन्महुआ. यह शुभ समाचार सुन सब ब्रजवासी परमानन्द हो होकर इन इन ग्रामोंसे हथौरा, रीठा, कारब, रावल, लौहवन, महावन, राधाकुण्ड, बरसाना, गोपालपुर, विसौली, जसौली, विजौली, रसौली, मांठ, आंट, आढस, सुनर, वसई, छटीकरा, नरी, सेमरी, परासौली, कोठवन, मधुवन, बढैन, करहैला, नन्दीश्वर, नन्दगांव, बनेई, ऊंचागांव, चिकसौली, सुमहरा, कामवन, वृन्दावन, दीघम, होली, इत्यादि और अनेक गांवोंसे भेंटे ले ले कर चले तो वृद्ध वृद्ध जो गोप थे उन्होंने भी अपना अपना शृंगार किया और युवा बालकोंका तो कहनाही क्या है, सुवर्णके थालोंमें हीरे, मणि, रत्न, पन्ना, पुखराज, हंसली, खंडुवे, कण्ठी, माला, कुरते टोपी, रोली, चन्दन, पान, मिठाई, मेवा, श्रीफल, घर घर कर सब व्रजवासी ड़फ, ढोल, झांझ, मृदंग, चंग, मुहचंग, उपंग, बजाते और गीत गाते धूम धाम मचाते नन्दरायजीके द्वारपर आये और उनको दण्डवत प्रणाम कर करके भेंटें उनके आगे धरीं उस समय नन्द
गोप्यश्चाकर्ण्य मुदिता यशोदायाः सुतोद्भवम्॥ आत्मानं भूषयांचक्रुर्वस्त्राऽऽकल्पांजनादिभिः॥९॥
नवकुंकुमकिंजल्कमुखपंकजभूतयः॥ बलिभिस्त्वरितं जग्मुः पृथुश्रोण्यश्चलत्कुचाः॥१०॥
राय उनको देख देख प्रसन्न हो हो बड़े बड़े गोपोंसे मिल मिल सबको आदर सन्मानसे आसन दे देकर बैठालते थे, सब गोप बोले कि, नन्दरायजी हम आपके भाग्यकी बडाई नहीं कर सक्ते आज आपका पूर्व पुण्य उदय हुआ, तुम बडे धन्य भागी हो, तुमने हमारे मनके मनोरथ सिद्ध किये और आज हमारे मनकेसा समाज सजा है, नन्दरायजी बोले कि, भैया! यह सब तुमही लोगोंके पुण्यका प्रभाव है, नहीं तो बुढापेमें मेरा ऐसा भाग्य कहांथा जो यह परमानन्द प्राप्त हुआ। कोई केवडा छिडक रहा है, कोई गुलाब छिड़क रहा है, कोई पुष्पोंकी माला पहिरावै है, कोई केशर और चन्दन लगावै है, मानो त्रिलोकीका आनन्द नन्दकेही घर छाय रहा है॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब व्रजबालाओंने सुना कि, हमारी व्रजेश्वरीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब सब गोपियोंने सुन्दर सुन्दर शृंगार बनाय, मेहँदी, महावर, रचाय नवीन नवीन केशर कस्तूरी मिलाय, मस्तकपर तिलक लगाये, फिर पीछे रेशमी वस्त्र आभूषण पहन, नेत्रोंमें अंजन आज नखशिखसे अलंकृत हुईं॥९॥ केशर मुखारविन्दपर मली हुई हैं, कटि लचकरही है नितम्ब जिनकेपुष्ट हैं, कुच चलायमान हैं भेंटें लेले कर नन्दरायजीके
मन्दिरको चलनेकी सब सुन्दरी अभिलाषा कर रहीं थी॥१०॥ उज्ज्वल मणियोंके जडाऊ कुण्डल कानोंमें शोभायमान हैं, अति सुन्दर मुक्ता ओके हार कुचोंके बीचमें लटक रहे हैं, मानो दोपर्वतोंके बीचमें गंगाकी धार बह रही है. हाथोंमें कंकण, चित्र विचित्र वस्त्र धारण किये, कमलसेभी कोमल जिनके चरण उनमें अनवट, बिछुवे, नुपुर पगपान, पहिनरहीं, जब एक संग सब मिलकर पग उठावें उस समय पायल और नूपुरोंकी झनकार इस प्रकार हो मानो आनन्दमय घन गर्जैहै, उस शब्दसे दशों दिशाओंका अमंगल दूर होता चला जाता है और क्षीणकटिकी लचकसे जो शरीर कम्पायमान होताथा तो जुड़ेसे मालती और मदनबाणके फूलोंके हार खसिखसिकर उनके चरणोंमें गिरते थे सो वह हार आपसे आप नहीं गिरते थे केश उन चरणोंकी अद्भुत शोभा देख देखकर रीझते थे और बार बार प्रसन्न हो होकर पुष्पोंके हार उनपर चढाते थे और दूसरा प्रयोजन यह भी था कि, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ थे यही हमको श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन करानेके लिये चलते हैं, ऐसी ऐसी गोपियोंके झुण्डके झुण्ड नन्दजीके घरको चले
गोप्यः सुमृष्टमणिकुंडलनिष्ककंट्यश्चित्रांबराः पथि शिखाच्युतमाल्यवर्षाः॥ नंदालयं सर्वलया व्रजतीर्विरेजुर्व्यालोल कुंडलपयोधरहारशोभाः॥११॥ ता आशिषः प्रयुंजानाश्चिरं पाहीति बालके॥ हरिद्राचूर्णतैलाद्भिः सिंचत्यो जनमुज्जगुः॥१२॥ अवाद्यंत विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे॥ कृष्णे विश्वेश्वरेऽनंते नंदस्य व्रजमागते॥१३॥
जाते हैं, उस समयकी शोभाको कौन कवि वर्णन करसक्ता है॥११॥ तब सब गोपिका नन्दरायजीके आँगनमें आनकर श्रीकृष्ण चन्द्रको आशीर्वाद देने लगीं. हे कृष्ण! तुम चिरंजीव रहो, चिरंजीव रहो और हमारी बहुत दिनोंतक रक्षा करो. इस प्रकार बालकको आशिष देकर हलदीके चूर्णमें तैल और पानी मिलाय परस्पर छिड़कती छिड़काती गीत गाती आँगनमें केशर और चन्दनके रंगकी झारी और पिचकारी लिये धूम धाम मचारहीं थी॥१२॥ विश्वेश्वर विश्वभावन भगवान्के व्रजमें आतेही मनुष्योंके मनमें परमोत्सव बढा और मन्दिर मन्दिरमें भाँति भाँतिके बाजे बजने लगे, सब गोपिका श्यामसुन्दरका मुखारविन्द देख देख आनन्द हो हो न्यौछावर कर नन्दरानीसे कह रहीं थी कि, हे यशोदा!तेरे पुत्रके तो चक्रवर्तीकेसे लक्षण हैं, चक्रादिक चिह्नोंके छिपानेके लिये अपने हाथोकी मुट्ठी बांधली है तैने पूर्व जन्ममें भगवान्की बड़ी सेवा करी है जो ऐसा मनोहर पुत्र पाया है. यशोदा सबके पाओं पड़ पड़ कर कहती थी कि, इसमें मेंक्या है यह सब
तुम्हाराही पुण्य हैं, सब गोपी आशिष देतीहैं कि, सदा सुहागन रहु और तेरा पुत्र युग युग जिये॥१३॥ व्रजवासियोंने उस दिन अत्यन्त प्रसन्न हो होकर घी, दूध, दही, माखन, जल, हलदी, मिला मिलाकर दधिकांदोंका प्रबन्ध किया, प्रथम नन्दरायको बुलाकर उनके ऊपर छिड़का फिर परस्पर ऐसा खेल मचा कि, जहाँ देखो तहाँदधि माखनहीकी रेल पेल होरही थी, इस आनन्दको देवता विमानोंपर बैठे देख देखकर कहरहे थे कि, गोकुलवासियोंका धन्य भाग्य है, जिन परमपुरुष परमात्माका दर्शन शिव सनकादिकके ध्यानमें महा कठिनतासे आता है वह नन्दके घर जन्म लेकर व्रजवासियोंको आनन्द दिखारहे हैं और देवांगना पछिताय पछिताय कहरहीं थीं कि, हाय आज हम नन्दरायके घरकी दासीभी न हुई जो इस उत्सवके सुखको समीपसे देखकर अपने मनको प्रसन्नकरतीं, इसप्रकार दधिकांदोंके उत्सवमें सब व्रजवासी विह्वल होरहे थे॥१४॥ अतिउदारचित्त नन्दरायजीने सूत, मागध, बन्दीजन और जो जो गुणीजन गानेबजानेवालेथे सबको वस्त्र, आभूषण, गाय द्रव्य दानदिया और नन्दरा
गोपाः परस्परं हृष्टा दधिक्षीरघृतांबुभिः॥ आसिंचंतो विलिंपतो नवनीतैश्च चिक्षिपुः॥१४॥
नंदो महामनास्तेभ्यो वासोऽलंकारगोधनम्॥ सूतमागधवंदिभ्यो येऽन्ये विद्योपजीविनः॥१५॥
तैस्तैः कामैरदीनात्मा यथोचितमपूजयत्॥ विष्णोराराधनार्थाय स्वपुत्रस्योदयाय च॥१६॥
यसे सब वृद्धवृद्ध जनोंने कहा हे मित्र नन्द आज तो नाचनेका दिन है हमारे संग नाचलो, सो सबने नन्दजीका हाथ पकडकर इनको उठाया और सब व्रजवासी मग्न हो होकर नन्दकेसंग नाचने लगे और गोपियें बाजे बजाय बजाय गीत गाने लगी उस समयकी शोभाको देखकर सरस्वती हकी चकीसी हो चित्रकी समान होगई, फिर और कवियोंका क्या सामर्थ्य है जो उस मनभावनी सुहावनी शोभाका वर्णन करसकैं॥१॥१५॥ नन्दरायजी उदारचित्त पुत्रके कल्याणके लिये विष्णु भगवान्की आराधना करते थे और बारंबार यह वरदान मांगतेथे कि हे नाथ! मुझपर प्रसन्नहोओ और यह मेरा बालक चिरंजीव रहै, इसीलिये नन्दजीके समीप जो जो गुणीजन आन आन कर जिस जिस वस्तुकी कामना करते थे, उनको वही वस्तु देदेकर उनकी अभिलाषा पूर्ण करते थे और यथायोग्य उनका पूजनभी करते थे॥१६॥
नन्दरायजीके घर सब ब्रजकी बहू और बेटी आई परन्तु रोहिणीजी नहीं आई क्योंकि इनके पति मथुरामें थे. लिखा है कि, जिस स्त्रीका पति परदेशमें हो उसको शृंगार करना नहीं चाहिये और पराये घर न जाय; इसलिये नन्दजीके घर न गईं तब नन्दजीने रोहिणीसे जाकर कहा कि तुमही तो बड़भागिनी ठहरी सोई हमारे घर न आई हमारे घर बधाई होरही है तुमको अवश्य चलना पडेगा, वह घर तो आपहीका है तुम हमको ऊपरी मत समझो, वह तो सोवरमें बैठी है, केवल एक सुनन्दा है उसको ऊपरहीके काम बहुत हैं, आई गई गोपियोंका आदर सत्कार कौन करे, रोहिणी बोलीं कि, इतने तुम चलो तुम्हारे भतीजेको दूधपिलाकर मैंभी आऊं हूँ, तब नन्दराय बोले कि, मेरें संगही तुमको चलना पड़ेगा क्योंकि वहां काम का कारीधारी सिवाय आपके कोई दृष्टि नहीं आता नन्दजीकी आज्ञानुसार सुन्दर सुन्दर वस्त्र, आभूषण, मुक्कामाला, कण्ठाभरण, पहन बलदेव जीको गोदमें ले प्रसन्न होती हुई नन्दजीके संग चली और दासीके हाथमें पान फूल मेवा मिठाईकी थाली देदी और यशोदाके समीप आय कृष्णका
रोहिणी च महाभागा नंदगोपाभिनंदिता॥ व्यचरद्दिव्यवासस्रक्कंठाभरणभूषिता॥१७॥
तत आरभ्य नंदस्य व्रजः सर्वसमृद्धिमान्॥ हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभून्नृप॥१८॥
गोपान्गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः॥ नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह॥१९॥
मुख देख नौछावर कर नायनको दी और आंगनमें जो जो गोपी कुरता टोपी लिये बैठी थीं उनके हाथसे लेकर मन्दिरमें धरने लगीं और यथायोग्य उनका आदर सन्मान करने लगीं और सब गोपी यह आशिष देती थीं कि, सदा नन्दालयमें ऐसाही उत्सव बना रहै॥१७॥ जिस दिनसे व्रजमें कृष्णजन्म हुआ उस दिनसे सम्पूर्ण सम्पत्तियोंसे नंदजी परिपूर्ण होगये, नंदरायजी नित खजानेको लुटाते थे परन्तु फिर भाण्डागारको जैसेका तैसाही भरा पाते थे, क्योंकि वैकुण्ठनाथकी भार्या लक्ष्मी सो व्रजमें आय मालिनीका वेष बनाय द्वारद्वार बन्दनवार बांधती फिरती थी तहां और सम्पत्तियोंकी क्या गिनती है?॥१८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलदीपक! एक दिन नंदरायजीने गोकुलकी रक्षा करनेके लिये बहुतसे गोपोंको सब प्रकारसे नियुक्त किया और आप कुछ ग्वालोंको संग ले और दूध, दही, माखन, मटकियोंमें भरभर कर गाडियोंमें लाद
और वार्षिक कर लेकर मथुराको कंसकी भटके लिये लेगये॥१९॥ अपने परमहितकारी नन्दरायजीका आगमन सुनकर वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए कि, आज हमारे मित्र नन्दजी कंसकी बरसौडी देनेके लिये आये हैं, जब नंदजी कंसको कर दे चुके और किसी स्थानपर आनकर विश्राम किया, उस समय वसुदेवजी कुछ भोजनादिक लेकर नन्दजीसे मिलनेको गये॥२०॥ जैसे मृतक देहमें प्राण आनेसे देह उठ खड़ा होताहै ऐसेही वसुदेवजीको आये देख नन्दजी अकुलाकर शीघ्र खड़ेहोगये और अपने प्यारे सुहृदका हाथ पकडकर प्रेममें विह्वलहो हृदयसे लगाकर मिलनेलगे॥२१॥
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्॥ ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम्॥२०॥ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राण मिवागतम्॥ प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः॥२१॥ पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वाऽनामयमादृतः॥ प्रसक्तधीः स्वात्मजयोरिदमाह विशांपते॥२२॥ दिष्ट्या भ्रातः प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते॥ प्रजाशाया निवृत्तस्य प्रजा यत्समपद्यत॥२३॥ दिष्ट्या संसारचक्रेऽस्मिन्वर्तमानः पुनर्भवः॥ उपलब्धो भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम्॥२४॥
हे राजन्! नन्दजीका वसुदेवजी पूजनकर सुखपूर्वक आसनपर बैठाय कुशल क्षेम वूझने लगे और अपने परम पियारे पुत्रोंमें जिनका मन अत्यन्त लगरहा था सो वसुदेवजी आदर सत्कार कर वोले॥२२॥अहो भ्राता नन्दजी तुम्हारे सन्तान नहीं होती थी और आपने पुत्र होनेकी आशाभी छोड़ दी थी क्योंकि बहुत वृद्धावस्था होगई थी, सो परमेश्वरकी कृपासे अव आपके पुत्र हुआ, यह सुनकर हम बहुत प्रसन्न हुए*
॥२३॥ इस संसारमें रहकर पुनर्जन्मकी नाई आपका मिलना हुआ यह बड़े आनन्दका दिन है, सब मिलते हैं परन्तु संसारमें मित्रका मिलना बहुत दुर्लभ है॥२४॥
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शंका— वसुदेवजी ऐसे महात्मा होकर फिर उन्होंने अपने परममित्र नन्दजीके संग कपट क्यों किया? जो सत्य बोलते कि, हमारे दो पुत्र आपके पास हैं आप रक्षा करो, क्योंकि विपत्तिमें सिवाय मित्रके और कोई दूसरा सहाय नहीं करसक्ता, ऐसा कहनेपर क्या श्रीकृष्णकी रक्षा नन्दजी न करते. कपटका क्या काम था?
उत्तर— त्रिलोकीमें जो प्राणीहैं सो मायासे उन्मत्त हो रहे हैं, उसी प्रकार वसुदेवजीभी उन्मत्त होगये, जो कोई यह कहै कि विना कारण माया किसीको नहीं मोह करती, यह सब सत्य है, परन्तु वसुदेवजीको मोह होनेका क्या कारण था? पहिले किसी समय नन्द और यशोदाको भगवान्ने यह वरदान दिया था कि हम जन्म तो दूसरेके यहां लेंगे परन्तु बाललीला तुम्हारे यहा करेंगे, इसलिये भगवान्ने…. मायासे मोहित करके कपट कराया, जो वसुदेव सत्य बोलते तो नन्दजी कृष्णकी पालना करते तो सही परन्तु कुछ मेददृष्टि रहती कि, दूसरेके पुत्र है इसलिये नन्दसे वसुदेवजीने कपट किया भावसे कपट नहीं किया॥
अहो प्यारे! नदीके प्रवाहसे काष्ठ और तृणादिक बहते हैं कभी स्थिर होते हैं परन्तु एक स्थानपर संगम नहीं होता. ऐसेही जो अपने प्यारे सुहृद् हैं उनका एक स्थानपर रहना नहीं होता॥२५॥ हे नन्दजी! बहुत जल, तृण और गुल्मलतायुक्त पशुओंका हितकारी जो अत्यन्त रमणीक महावन है तहां अपने सम्बंधियों सहित आप निवास करते हो वह महावन निरोग तो है? इस वचनसे यह ध्वनि निकली कि, हमारे पुत्र जो आपके निवास स्थानपर वास करते हैं वह तो अच्छे हैं? जहाँ जल, तृण अधिक होगा तो वहां गायोंकी अच्छी उदरपूर्ति होगी और दूधभी अधिक होगा और निरोग होगा तो उस दूधको हमारे पुत्र पियेंगे तो वह भी निरोग रहेंगे॥२६॥ वसुदेवजी बोले कि, हे मित्र! मेरा पुत्र अपनी जननीके संग आपके व्रजमें रहताहै और आपहीको अपना पिता समझताहै और आपही उस बालकके प्रतिपालकहैं, सो वह अपनी मातासहित प्रसन्न है?
नैकत्र प्रियसंवासः सुहृदां चित्रकर्मणाम्॥ ओघेन व्यूह्यमानानां प्लवानां स्रोतसो यथा॥२५॥ कच्चित्पशव्यं निरुजं भूर्यंबुतृणवीरुधम्॥ बृहद्वनं तदधुना यत्रास्ते त्वं सुहृद्धृतः॥२६॥ भ्रातर्मम सुतः कच्चिन्मात्रा सह भवद्व्रजे॥ तातं भवतं मन्वानो भवद्भ्यामुपलालितः॥२७॥ पुंसस्त्रिवर्गोविहितः सुहृदो ह्यनुभावितः॥ न तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थाय कल्पते॥२८॥ नंद उवाच॥ अहो ते देवकीपुत्राः कंसेन बहवो हताः॥ एकाऽवशिष्टाऽवरजा कन्या सापि दिवं गता॥२९॥ नूनं दृष्टनिष्ठोऽयमदृष्टपरमो जनः॥ अदृष्टमात्मनस्तत्त्वं यो वेद न स मुह्यति॥३०॥
जो पुरुष अपने प्रियतम प्यारोंको संग लेकर धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पदार्थोंको करतेहैं और जो अपने प्यारे स्नेहियोंको छोड़कर अकेले धर्म करते हैं, वा द्रव्यका भोग भोगतेहैं, अथवा काम विषयका भोग करते हैं तो यह त्रिवर्ग उनको सुखदायक नहीं होते॥२७॥२८॥ वसुदेवजीके मधुर वचन सुनकर नन्दजी बोले कि अहो मित्र! सब ब्रजमें परमेश्वरकी कृपा है और आपके पुत्र बलरामजी भी अच्छे हैं उनके उत्पन्न होनेके पीछे मेरेभी एक पुत्र उत्पन्न हुआ है वहभी आपकी कृपासे अच्छा है, परन्तु आपकी ओरका हमको बडा दुःख बना रहता है॥२९॥ हे मित्र! प्रारब्धही सर्वोपरि है, जिस समय पुत्रादिकोंका देनेवाला भाग्य हीन होजाता है उस समय वह पुत्रादिक भी नहीं होतेहैं, सब विछुड जातेहैं, और जब प्रारब्ध
अच्छा होताहै तो फिर सब आन मिलते हैं. हे भ्राता!प्रारब्धही सुखका देनेवाला है और प्रारब्धही दुःखका देनेवाला है जो पुरुष इस प्रकार जानते हैं वह कभी मोहको प्राप्त नहीं होते. इस वचनसे यह सूचित किया कि, अहो वसुदेव!अपने मनमें पुत्रोंका सोच संकोच मत करो किसी समय आ पके पुत्रोंका भी संयोग होजायगा, हमसे वियोग हो जायगा॥३०॥ वसुदेवजी बोले कि, हे नन्दरायजी! विधाताने जो हमारे भाग्यमें लिखा है उसको कोई नहीं मेटसक्ता और इस संसारमें आनकर ऐसा कौनहै जो कष्ट नहीं भोगता? और आपकी समान अपना मित्र हम किसीको नहीं देखते. देखो हमने कंसके भयसे अपनी गर्भवती स्त्रीको आपके यहां निःसन्देह भेज दिया और जब उसके पुत्र हुआ तो आपने अपने पुत्रकी समान उसका लालन पालन किया, यह परमोपकार आपका मैं कैसे भूल सक्ता हूं? जन्म जन्मांतरभी आपकी सेवा करूं तोभी उऋण नहीं हो सक्ता. जब सुना कि, आपके यहां पुत्रका जन्म हुवा तो मैंने परमसुख माना. हे मित्र! मैं अपने पुत्रोंमें और आपके पुत्रोंमें कुछ भेद नहीं समझता
वसुदेव उवाच॥ करो वै वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः॥ नेह स्थेयं बहुतिथं संत्युत्पाताश्च गोकुले॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति नंदादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययुः॥ अनोभिरनडुद्युक्तैस्तमनुज्ञाप्य गोकुलम्॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू० नंदवसुदेवसंगमो नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदः पथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिंतयन्॥ हरिं जगाम शरणमुत्पातागमशंकितः॥१॥
परन्तु इन दिनों कंसने बडा उपद्रव मचा रखाहै छोटे छोटे बालकोंको मारनेकी आज्ञा देक्खी है और आज एक पूतनानाम राक्षसीको गोकुल मेंभी भेजा है, अब तुम वार्षिककर कंसको देचुके और हमसे भी मिल चुके, अब यहाँ रहना तुम्हारा बहुत दिनतक अच्छा नहीं, न जानिये गोकुलमें पूतनाने क्या उत्पात मचाया होगा?॥३१॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्!इस प्रकार वसुदेवजीके वचन सुन नन्दरायने सब गोपोंको आज्ञा दी कि, शीघ्र गाडी जोतो! यह कह वसुदेवजीसे आज्ञा लेकर नन्दजी मथुरा पुरीसे गोकुलको चल दिये॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे भाषाटीकायां कृष्णजन्मोत्सववर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥ दोहा— छठयेमें नँदरायजी, शोच करत मन जाहिं। मरी परी इक राक्षसी, देखी मारगमाहिं॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! नन्दरायजी मार्गमें यह विचार करते हुए जारहे
थे कि वसुदेवका वचन तो मिथ्या होही नहीं सक्ता उत्पातके भयसे भगवान्का स्मरण करने लगे कि, हे जनप्रतिपालक! जो यह दो बालक आपने दियेहैं तो इनकी रक्षाभी आपहीको करनी पड़ैगी॥१॥ महाघोर रूपवाली बालघातिनी पूतना नाम राक्षसी कंसकी पठाई हुई, जितने व्रजमें पुर ग्रामादिक थे सबमें बालकोंको मारती फिरती थी॥२॥ यह बात सुन राजा परीक्षितके मनमें शंका हुई तो श्रीशुकदेवजीसे बूझा कि, वह पूतना नन्दजीके मन्दिरमें गई वा नहीं गई? और गई तो क्या किया? श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!चिन्ता मत करो जहाँ परमेश्वरका यश और यज्ञादिक कर्म नहीं होते वहीं राक्षसी जा सक्ती है और अपना पुरुषार्थ करती है, और जिन स्थानोंमें भगवान्का स्मरण कीर्तन होता रहता है वहाँ राक्षसलोग क्या कर सक्ते हैं? और नन्दजीके भवनमें तो साक्षात् अनन्त भगवान् विराजमान हैं फिर वहाँ पूतना बिचारी क्या कर सक्ती है? आपही मारी जायगी॥३॥हे राजन्! अनेक राक्षस गांव गांवमें बालकोंको मारनेके लिये फिरते थे परन्तु तोभी किसके मनमें धैर्य नहीं था और
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी॥शिशूश्चचार निघ्नंती पुरग्रामव्रजादिषु॥२॥ न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु॥ कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि॥३॥ सा खेचर्येकदोपेत्य पृतना नंदगोकुलम्॥ योषित्वा मा ययाऽत्मानं प्राविशत्कामचारिणी॥४॥ तां केशबंधव्यतिषक्तमल्लिकां बृहन्नितंबस्तनकृच्छमध्यमाम्॥ सुवाससं कं पितकर्णभूषणत्विषोल्लसत्कुंतलभूषिताननाम्॥५॥
…ठोंपहर इसी सोचमें व्याकुल रहता था कि, उसी अवसरमें पूतना नाम राक्षसीको बुलाकर अपना सब वृत्तान्त कहा कि और किसीसे तो हमारा ++र्यपूरा न हुवा परन्तु मुझको विश्वास है कि, तुझसे हमारा काम सिद्ध होगा और बालकोंका तो मुझको थोडाही खटका है परन्तु गोकुलमें नन्दके जो पुत्र हुवा है उसका मुझको बडा भय है सो तू गोकुलमें जा और उसको किसी प्रकारसे मारके आ, मैं तुझको पूरा पारितोषिक दूंगा. यह बात सुन। तेही पूतना कंसकी आज्ञा शिरपर धारणकर गोकुलको चलदी और मार्गमें यह विचार करती जाती थी की किसप्रकार नन्दकुमारको मारना चाहिये? फिर सोचा कि और किसीप्रकारसे यह कर्म नहीं होगा, गोपीका वेष बनाकर बधाई देनेके मिष नन्दके घर जाऊं और छलबल कर उस बालकको मार आऊँ ऐसा विचार, बन ठन गोकुलमें पहुँची॥४॥ उसकी चोटीमें मालतीके फूल गुँथे हुये थे, बडे २ नितम्ब और छोटे छोटे स्तनोंके भारसे कटि जिसकी
नीचेको झुकी जातीथी, सुन्दर सुन्दर वस्त्र धारण कररही थी, कानोंमें कर्णफूल, कुण्डलोंकी छबि शशिको लज्जित कररहीथी और केशोंसे जिसका मुख शोभायमान होरहा था॥५॥ मन्द मन्द मुसकान और बाँकी चितवन व्रजवासियोंके मनको मोहित करनेवाली, बेखटक राजभवनमें चली गई और द्वार पालोंपर ऐसी मोहिनी डाली कि, किसीने उसको नहीं रोका ओ’ उसके हाथमें एक कमलका फूलथा उसको देखकर सब गोपियोंने कहा कि, यह लक्ष्मी अपने पति नारायणके दर्शनके लिये आई हैं और यशोदा रोहिणीनेभी यही जाना॥६॥ बालकोंको ग्रहरूप जो पूतनाहै सो छोटे २ बालकोंको खोजती हुई नन्दजीके मंदिरमें आई जहां दुष्टोंके मारनेवाले भगवान्, भस्ममें दबी हुई अग्निके समान बालकरूपमें अपने तेजको छिपाये शय्यापर पड़े सोरहे थे उनको देखा॥७॥ स्थावर जंगम प्राणियोंके अन्तर्यामी श्रीकृष्णचन्द्रने उस बालघातिनी पूतनाको देखकर आंखें मीचली और हँसकर चुप होरहे, उस दुष्टा
वल्गुस्मितापांगविसर्गवीक्षितैर्मनो हरतीं वनितां व्रजौकसाम्॥ अमंसतांभोजकरेण रूपिणीं गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम्॥६॥ बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्यदृच्छया नंदग्रहेऽसदंतकम्॥ बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि॥७॥विबुध्य तां वालकमारिकाग्रहं चराचरात्मा स निमीलितेक्षणः॥ अनंतमारोपयदंकमंतकं यथो रगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः॥८॥ तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां वीक्ष्यांतरा कोशपरिच्छदासिवत्॥ वरस्त्रियं तत्प्रभया च घर्षिते निरीक्षमाणे जननी ह्यतिष्ठताम्॥९॥ तस्मिंस्तनं दुर्जरवीर्यमुल्वणं घोरांकमादाय शिशोर्ददावथ॥ गाढं कराभ्यां भगवान्प्रपीड्य तत्प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत्॥१०॥
ने आतेही कालरूप भगवान्को गोदीमें उठा लिया, जैसे कोई अज्ञानी पुरुष रस्सी समझकर सोते हुये साँपको उठा लेता है॥८॥ जैसे मखमलके म्यानकी तलवार ऊपरसे मनोहर और भीतरसे महातीव्रतीक्ष्णधारावाली होती है, ऐसी पूतनाको देख चकित होकर रोहिणी और यशोदा देखती रही मुखसे कुछ न कहा, तब एक गोपी बोली कि, तू कौन है? तब उस कपटिन पूतनाने कहा कि, मैं देवांगना हूं तुम्हारे यहां बधाई देने आई हूं इस मनोहर बालकको देखकर जी खिलानेको चाहा इसलिये गोदमें लेलिया; परमेश्वर करैयह बालक करोड़ वर्ष जीता रहै॥१॥ऐसी रीति प्रीति भरी बात चीतकर उस कपटरूप पूतनाने चुमकारके कृष्णको गोदमें ले लिया और भयानक विष लगा हुआ अपना स्तन उनके मुख कमलमें दे दिया,
तब तो कुपित होकर कृष्णचन्द्रने दोनों हाथोंसे स्तन उसका पकड़के प्राण सहित स्तनको औषधि समझकर पीगये॥१०॥ तब पूतना बोली, अरे लाल छोडदे छोडदे मेरे प्राण चले बस रहनेदे मेरा अपराध क्षमाकर मेरे शरीरमें अत्यन्त पीडा होतीहै, जब नेत्र फटने लगे तो पुकारी अरी यशोदा! अरी यशोदा! अपने लालसे मुझको छुटा, मैं मरी, यह तेरा बालक मनुष्य नहीं है, यह तेरी कोखमें कोई महाबलवान् देवता उत्पन्न हुवा है यह कहतीही कहती हाथ पांव पीटकर मरगई॥११॥ महा गम्भीर पूतनाके शब्दसे पर्वतों सहित पृथ्वी कम्पायमान होगई, ग्रहतारागणसहित सब आकाशमण्डल चलायमान होगया, रसातल और दिशाओंमें घोर शब्द पूरित होगया, इन्द्रवज्रपातहोनेकी शंकासे मनुष्य पछाड़ खाखाकर पृथ्वीपर
सा मुंचमुंचालमिति प्रभाषिणी निष्पीड्यमानाऽखिलजीवमर्मणि॥ विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुंहः प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद हं॥११॥ तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल संग्रहा॥ रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः पेतुः क्षितौ वज्रनिपातशंकया॥१२॥ निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसुर्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि॥ प्रसार्य गोष्ठे निज रूपमास्थिता वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप॥१३॥ पतमानोऽपि तद्देहस्त्रिगव्यृत्यंतरद्रुमान्॥ चूर्ण यामास राजेंद्र महदा सीत्तदद्भुतम्॥१४॥ ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकंदरनासिकम्॥ गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम्॥१५॥
गिरगये*॥१२॥ स्तनोंकी व्यथासे प्राण जिसके निकलगये और मरती समय कपटरूप जिसने अपना त्याग दिया, राक्षसीरूप प्रगट कर लिया जैसे मरनेके समय वृत्रासुर कपट तजकर भूतलपर गिरा था, इसीप्रकार पूतनाभी हाथ पांव पसारके पृथ्वीपर गिरी॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! जिस समय पूतना मरकर पृथ्वीपर गिरी उस समय छह कोशके बीचमें जो वृक्ष थे उनका चूर्ण होगया॥१४॥ उस महाभयानक रूपवाली पूतनाके मुखमें हलकी समान दादैेंऔर पहाड़की कन्दराकी समान जिसकी नाक, पर्वतके शृंगकी सदृश जिसके स्तन और महाभयंकर
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* शंका— कसंकी भेजी हुई पूतनाने मरते समय ऐसा गम्भीर शब्द किया कि, तीन लोक कम्पायमान होगये, बढा आश्चर्य मालूम पडता है, हम लोगोंने तो कभी नहीं सुना, राक्षसीके शब्दसे तीनों लोक काप उठे?
उत्तर— जब पूतनाने मरतेसमय शब्द किया उस समय गुप्त होकर तीन लोकमें स्थित जो प्रजा थी सो सब श्रीकृष्णके दर्शनके लिये व्रजमें आये थे सो सब प्रजागण पूतनाके शब्दको सुनके शीघ्र काँपने लगे इसलिये तीन लोकका नाम व्यासजीने कहा था, क्योंकि लोक प्रजाका भी नाम है लोकमें और प्रजामें कुछ भेद शास्त्रमें देखनेमें नहीं आता.
लोहित रंगके जिसके बिखरे हुए केश थे॥१५॥ अन्धकूपकी नाईं गम्भीर गम्भीर जिसके नेत्र, जैसे पुल बँधा होय तैसे हाथ पांव जंघा जिसके, सूखे सरोवरके समान जिसका उदर है॥१६॥ ऐसा महाभयानक पूतनाका देह देखकर गोप गोपी अत्यन्त भयभीत हुए. क्योंकि उसके गम्भीर शब्दसे पहिलेही उनके हृदय, कान, मस्तक, फटगये थे॥१७॥ उस पूतनाकी छातीपर निःशंक श्रीकृष्णचन्द्र क्रीडा कर रहे थे, सब गोपी जो हड़बड़ाई हुई व्याकुल फिरती थीं झटपट उस राक्षसीके ऊपरसे उठाकर हृदयसे लगालिया॥१८॥ सबगोपी और यशोदा रोहिणी व्रजनन्दनके गायकी पूँछसे झाडा देकर फूंक मारने लगीं और अनेक विधियोंसे रक्षाकर उतारे उतारे॥१९॥ फिर श्रीकृष्णचन्द्र मनमोहन प्यारेको गोमूत्रसे स्नान कराय
अंधकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम्॥ बद्धसेतुभुजोर्वंघ्रिशून्यतोयह्रदोदरम्॥१६॥ संतत्रसुः स्म तद्वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम्॥ पूर्वं तु तन्निस्स्वनितभिन्नहृत्कर्णमस्तकाः॥१७॥ बालं च तस्या उरसि क्रीडतमकुतोभयम्॥ गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसंभ्रमाः॥१८॥ यशोदारोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः॥ रक्षां विदधिरे सम्य ग्गोपुच्छभ्रमणादिभिः॥१९॥ गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गेरजसाऽर्भकम्॥रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशांगेषु नामभिः॥२०॥ गोप्यः संस्पृष्टसलिला अंगेषु करयोः पृथक्॥ न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत॥२१॥ अव्या दजोंघ्रिमणिमांस्तव जान्वथोरू यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः॥ हृत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तुकंठं विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम्॥ २२॥
गोरजमें लुटाय गोबर लगाय द्वादश अंगोंमें केशवादिक द्वादश नामोंसे रक्षा करने लगीं॥२०॥ सब गोपियोंका मन जो व्याकुल होरहाथा इसलिये पहिले कुछ श्रेष्ठ उपाय न करसकीं. फिर सावधान हो स्वस्थ चित्त कर सब गोपी स्नानकर आचमन ले अपने अंगोंमें तथा करोंमें पृथक् पृथक् अंगन्यास और करन्यास करके फिर नन्दनन्दनके शरीरमें बीजन्यास किया॥२१॥ हे यशोदानन्दन! अजन्मा भगवान् तुम्हारे चरणोंकी रक्षा करैं, अणिमान् भगवान् तुम्हारे उरुओंकी रक्षा करैं, यज्ञ भगवान् तुम्हारी जंघाओंकी रक्षा करैं, अच्युत भगवान् तुम्हारी कटिकी रक्षाकरैं, हयग्रीव भगवान् तुम्हारे उदरकी रक्षा करैं, केशव भगवान् तुम्हारे हृदयकी रक्षाकरैं, विष्णु भगवान् तुम्हारी भुजाओंकी रक्षा करैं, उरुक्रम भगवान् तुम्हारे सुखारविन्दकी
रक्षा करैं, ईश्वर भगवान् तुम्हारे माथेकी रक्षा करैं॥२२॥ चक्रधारी भगवान् तुम्हारे अग्रभागकी रक्षा करैं, गदाधर भगवान् तुम्हारे पश्चाद्भागकी रक्षा करैं, धनुषधारी मधुनामदैत्यके हन्ता भगवान् और खड्गधारी अजन्मा भगवान् यह दोनों तुम्हारे दाहिने और बायें पार्श्वकी रक्षा करैं, शंखधारी उरु गाय भगवान् चारों कोनोंकी रक्षा करैं, उपेन्द्र भगवान् तुम्हारे ऊपरकी रक्षा करैं, तार्क्ष्य भगवान्· नीचे पृथ्वीमें रक्षा करैं, हलधर भगवान् सब ओरसे तुम्हारी रक्षा करैं॥२३॥ हृषीकेश भगवान् तुम्हारी इन्द्रियोकी रक्षा करैं, नारायण भगवान् तुम्हारे प्राणोकी रक्षा करैं, श्वेतद्वीपाधिपति भगवान् तुम्हारे चित्तकी रक्षा करैं, योगेश्वर भगवान् तुम्हारे मनकी रक्षा करैं॥२४॥ पृश्निगर्भ भगवान् तुम्हारी बुद्धिकी रक्षा करैं, पर भगवान तुम्हारे आत्माकी रक्षा करैं, विहारके समय गोविन्द भगवान् तुम्हारी रक्षा करैं, शयनके समय माधव भगवान् तुम्हारी रक्षा करैं॥२५॥ वैकुण्ठनाथ भगवान्
चक्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाऽजनश्च॥ कोणेषु शंख उरुगाय उपर्युपेंद्रस्तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः समंतात्॥२३॥ इंद्रियाणि हृषीकेशः प्राणान्नारायणोऽवतु॥ श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु॥॥२४॥ पृश्निगर्भश्च ते बुद्धिमात्मानं भगवान्परः क्रीडतं पातु गोविंदः शयानं पातु माधवः॥२५॥ व्रजंतमव्याद्वै कुंठ आसीनं त्वां श्रियःपतिः॥ भुंजानं यज्ञभुक्पातु सर्वग्रहभयंकरः॥२६॥ डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्मांडा येऽर्भक ग्रहाः॥ भूतप्रेतपिशाचाश्च यक्षरक्षोविनायकाः॥२७॥ कोटरारेवतीज्येष्ठा पूतनामातृकादयः॥ उन्मादा ये ह्यपस्मारा देहप्राणेंद्रियद्रुहः॥२८॥ स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धबालग्रहाश्च ये सर्वे नश्यंतु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरवः॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ इति प्रणयवद्धाभिर्गोपीभिः कृतरक्षणम्॥ पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम्॥३०॥
चलने फिरनेके समय तुम्हारी रक्षा करैं, लक्ष्मीपति भगवान् बैठनेके समय तुम्हारी रक्षा करैंऔर सर्व ग्रहोंके भयसे दूर करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान् भोजनके समय तुम्हारी रक्षा करैं॥२६॥ डाकिनी, शाकिनी, यातुधान, कूष्माण्ड, बालग्रह भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, विनायकगण॥॥२७॥ कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृकादिक जो राक्षसी हैं सो और उन्माद, अपस्मारादिक जो जो रोगके करनेवाले देह, प्राण, इन्द्रियोंके द्रोही हैं॥२८॥ और जो जो स्वप्नमें देखनेके उत्पात हैं वृद्ध ग्रह, बाल ग्रह, योगिनी, वेताल, जो समस्त विष्णु भगवान्के नाम लेनेसे डरतेहैं सो सब नष्ट होजाँय॥२९॥ इस प्रकार हाथ जोड गोपियोने विष्णुभगवान्की प्रार्थनासे रक्षा करके श्रीयशोदानन्दनको यशोदाको सौंपदिया
तब यशोदाजीने मनमोहनप्यारेको दूध पियाय घरमें छिपायके शय्यापर सुवायदिया॥३०॥ उसी अवसरमें नन्दादिक व्रजवासीभी मथुरासे आगये, तब मार्गमें मरीहुई पूतानाको पडी देखकर बड़ा आश्चर्य माना॥३१॥ नन्दजी कहनेलगे कि, वसुदेवजी तो निश्वय कोई ऋषि वा योगेश्वर जान पड़ते हैं, क्योंकि जो कुछ उन्होंने हमसे कहा था वही हुवा. हमसे कहा था कि, तुम शीघ्र मथुरासे गोकुलको जाओ वहां कोई नया उत्पात होनेवाला है, सो आतेही नेत्रोंसे देखलिया॥३२॥ पीछे सब गोकुलवासियोंने पूतनाके देहको कुल्हाडोंसे काट काटकर घरोंसे दूर लेजाकर चितामें घर उसको फूँकदिया॥३३॥ जिस समय पूतनाका शरीर जलने लगा तो उसकी चितामेंसे अगरकीसी सुगंधिका धुवॉ निकलने लगा
तावन्नंदादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः॥ विलोक्य पूतनादेहं बभ्रुवुरतिविस्मिताः॥३१॥ नूनं वतर्षिः संजातो योगे शो वा समास सः॥ स एव दृष्टो छत्पातो यदाहानकदुन्दुभिः॥३२॥ कलेवरं परशुभिश्छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः॥ दूरे क्षिप्त्वाऽवयवशो न्यदहन्काष्ठवेष्टितम्॥३३॥ दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः॥ उत्थितः कृष्णनिर्मुक्तसपद्या हतपाप्मनः॥ ३४ पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना॥जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप सद्गतिम्॥३५॥ किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने॥ यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा॥३६॥ पायां भक्तहृ दिस्थाभ्यां वंद्याभ्यां लोकवंदितैः॥ अंगं यस्याः समाक्रम्य भगवानपिवत्स्तनम्॥३७॥ यातुधान्यपि सा स्वर्ग मवाप जननीगतिम्॥ कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावो नु मातरः॥३८॥
श्रीकृष्णचन्द्रने उसके स्तन जो पान किये थे इससे सब पाप उसके दूर होगये॥३४॥ जगत्के बालकोंकी मारनेवाली और रुधिरकी प्यासी पूतनाने भगवान्को स्तन पिलाकर मारने की इच्छा की परन्तु भगवान्ने तोभी उसको मोक्ष दिया॥३५॥ फिर श्रद्धा और भक्तिकरके श्रीकृष्णचन्द्र भगवानको माता अत्यन्त प्रिय पदार्थोंकी देनेवाली मुक्तिको पावै तो क्या आश्चर्यकी बात है?॥३६॥ अपने जनोंके हृदयमें वास करनेवाले और लोकवन्दित देवताओंके भी पूजनीय ऐसे जो देवताधिपति ब्रह्मा जिनको प्रणाम करें ऐसे चरणारविन्दोंसे पूतनाका अंग दाबकर श्रीकृष्णचन्द्रने स्तन पान किया॥३७॥ माताकी गति स्वर्ग है उस गतिको पूतना राक्षसीने प्राप्त किया और जिन गायों, गोपियोंका दूध
श्रीकृष्णचंद्रने पिया है जो वह सुन्दर गतिको प्राप्त होयँ तो क्या आश्चर्य है?॥३८॥ मोक्षको आदिलेकर समस्त पदार्थोंके देनेवाले देवकीके पुत्र भगवान्ने पुत्रके स्नेहसे गाय और गोपियोंका दूध परिपूर्ण होकर पिया॥३९॥ हे राजन! श्रीकृष्णचन्द्रमें पुत्रभाव माननेवाली उन माता और गोपियोंको अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला संसार न होगा॥४०॥ ब्रजवासी लोग पूतनाकी चिताके धुयेंकी सुगंधि सूँघकर परस्पर कहने लगे कियह आज क्या है? और यह सुगन्धि कहांसे आती है? यह कहतेहुए नन्दादिक गोकुलमें आये॥४१॥ तब ग्वालबालोंके मुखसे पूतनाका आना और उसका मरना और कुशलपूर्वक बालकका बचना सुनकर नन्दादिक व्रजवासी बड़ा आश्चर्य माननेलगे॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्।उदाखुद्धि नन्दजी मथुरासे आनकर पुत्रको गोदमें लेकर परमानन्दको प्राप्त हुए और बारंबार उसके शिरको सूंघ सूंघ मनही मनमें पर्सन्न
पयांसि यासामपिबत्पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम्॥भगवान्देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः॥३९॥ तासामविरतं कृष्णे कुर्वंतीनां सुतेक्षणम्॥ न पुनः कल्पते राजन्संसारोऽज्ञानसंभवः॥४०॥ कटधूमस्य सौरभ्यमवघ्राय व्रजौकसः॥ किमिदं कुत एवेति वदंतो व्रजमाययुः॥४१॥ ते तत्र वर्णितं गोपैः पृतनागमनादिकम्॥ श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन्सुविस्मिताः॥४२॥ नंदः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः॥ मूर्ध्न्यपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह॥४३॥ य एतत्पृतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम्॥ शृणुयाच्छ्रद्धया मत्यों गोविंदे लभते रतिम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० पूतनामोक्षो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
होते थे और चूम चूमकर प्यार करते थे॥४३॥ श्रीशुकदेवजीसे राजा परीक्षित्ने बूझा कि हे भगवन्! यह पूर्वजन्ममें पूतना कौन थी? जिसको श्रीकृष्णचन्द्र महाराजने ऐसी उत्तम गति दी? श्रीशुकदेवजी बोले कि, प्रथम जन्ममें यह राजा बलिकी कन्या थी और रत्नमाला इसका नाम था, जिस समय वामनजीके स्वरूपको इसने देखा तो मनहीमनमें यह कामना करी कि, जो ऐसा सुन्दर सुत मैं पाऊं तो हृदयपर रखकर स्तनपान कराऊं. श्रीभगवान् वासुदेव सर्व घटघटके वासी उसके हृदयकी गति जानकर उससे कहा कि, कृष्णावतारमें तेरी मनोकामना पूर्ण करूंगा. दैत्यकुलमें जो इसका जन्म था इसलिये तामसी देहके कारण राक्षसकेही घरमें जन्म लिया और पूतना नाम हुवा॥४४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० भाषाटीकायां षष्ठोऽध्यायः॥६॥
दोहा-इस सप्तम अध्यायमें, शकटासुरहि गिराय। माताको मुखमें दिये, तीनों लोक दिखाय॥१॥ राजा परीक्षित बोले कि, हे प्रभो! छः प्रकारके ऐश्वर्यसे परिपूर्ण सब प्राणियोंके दुःखोंके दूर करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्ने जिन जिन अवतारोंको धारण करके जो जो लीला करी है वह सब मेरे कानोंको और मेरे मनको प्रिय लगती हैं॥१॥ जो मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्र के चरित्रोंकी कथा दिन रात सुनतेहैं उनके मनकी ग्लानि जाती रहती है और अनेक प्रकारकी तृष्णाभी दूर हो जाती हैं, शीघ्रही सम्पूर्ण अन्तःकरणकी शुद्धि हो जाती है, भगवानमें भक्ति और प्रेम बढताहै और हरिभक्तोंसे मित्रता होतीहै इसलिये अनुग्रह करके श्रीकृष्णके मनोहर चरित्र मुझको सुनाओ॥२॥ और अनन्त मनुष्य देह धारणकर मनुष्योंकीसी लीला
राजोवाच॥ येनयेनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः॥ करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो॥१॥ यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा सत्त्वं च शुध्यत्यचिरेण पुंसः भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं तदेव हारं वद मन्यसे चेत्॥२॥ अथा न्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्॥ मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुंधतः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कदाचिदौत्था निककौतुकाप्लवेजन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्॥ वादित्रगीतद्विजमंत्रवाचकैश्चकार सूनोरभिषेचनं सती॥४॥ नंदस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः॥ अन्नाद्यवासस्त्रगभीष्टधेनुभिः संजातनिद्राक्षमशीशयच्छनैः॥५॥ औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी समागतान्पूजयती ब्रजौकसः॥ नैवाशृणोद्वै रुदितं सुतस्य सा रुदन्स्त नार्थी चरणावुदक्षिपत्॥६॥
करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रका मनोहर अद्भुत बालचरित्र हमारे सामने वर्णन करो॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब बहुत दिन व्यतीत हुए तो श्रीकृष्णकी वर्षगाँठके उत्सवका दिन आया और उसी दिन जन्मनक्षत्रका योगभी आगया तो उस दिन महामंगल हुवा और सब गोपिकाभी बधाई लेलेकर आई. नन्दरानी यशोदाजीने बाजे बजवाये, गीतगवाये, ब्राह्मणोंको बुलाकर स्वस्तिवाचन पढवाये और श्रीकृष्णचन्द्रको अभिषेक स्नान कराने लगीं॥४॥ जब स्नान करवाया तो बालमुकुन्दके नेत्रोंमें निद्रा आगई, तब सहजसे श्रीकृष्णको गाड़ेके नीचे पालनेमें ब्रजरानीने थपकोरके सुलादिया॥५॥ भगवान्की बधाई लेनेसे जिनके मनमें अत्यन्त हर्ष बढ़रहा था, वह यशोदारानी उदारचित्त घर आईहुई गोपियोंका आदर
सन्मान कररही थी और ऐसी मग्न होरही थी कि, अपने पुत्रके रोनेका शब्दभी नहीं सुनसकीं, कृष्णको भूख लगी तो दूध पीनेकी इच्छा हुई, तब रोते २ पॉव ऊपरको उठा लिये॥६॥गाड़ेके नीचे पालनेमें सोतेहुए श्रीकृष्णके अति छोटे २ कोमल कमलसे जो चरणारविन्द लाल लाल मूंगोंके रंगथे, उन चरणोंकी ठोकरसे गाडा गिरपडा और अनेक प्रकारसे रसोंसे भरे तांबे, पीतलके बासन गिरपड़े, पहिये न्यारे न्यारे उखडकर गिरगये, धुरी निकलगई, जुआ टूटगया॥७॥ यशोदा आदि लेकर जो जो व्रजकी स्त्रियें थीं और जो जो भेंटें लेकर वसुदेवके घर उत्सवमें आईं थीं, और नन्दजीसे आदि लेकर जो जो व्रजवासी थे, सो सब उस आश्चर्यको देखके व्याकुल होगये कि, आपसे आप गाडा किस प्रकार टूट पडा॥८॥ कोई कुछ कोई कुछ परस्पर विवाद करके कहने लगे और मनही मनमें व्याकुल थे परन्तु किसीको कुछ निश्चय नहीं हुआ तब नन्द यशोदासे समीपके खेलनेवा
अधश्शयानस्य शिशोरनोऽल्पकप्रवालमृद्वंघ्रिहतं व्यवर्तत॥ विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्न कूबरम्॥७॥ दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय औत्थानिके कर्मणि याः समागताः॥ नंदादयश्राद्भुतदर्शनाकुलाः कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात्॥८॥ (इति ब्रुवंतोऽतिविवादमोहिता जनाः समंतात्परिव्ररारार्तवत्)॥ ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्च बालकाः॥ रुदताऽनेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः॥९॥ न ते श्रद्दधिरे गोपा बाल भाषितमित्युत॥ अप्रमेयं वलं तस्य बालकस्य न ते विदुः॥१०॥ रुदंतं सुतमादाय यशोदा ग्रहशंकिता॥ कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत्॥११॥
ले बालकोंने कहा कि, तुम किसी बातका सन्देह क्यों करते हो, हमने अपनी आँखोंसे देखा कि, रोते रोते श्रीकृष्णने पॉवकी ठोकर मारी इससे यह शकट उलटकर गिर पड़ा, इसमें किंचिन्मात्रभी सन्देह नहीं॥९॥बालक समझकर श्रीकृष्णके अनन्त बलको किसीने नहीं जाना, इसलिये उन बालकोंकी बातका किसीने विश्वास नहीं माना और कहने लगे कि, कहां श्रीकृष्णके कोमल कमलसे चरण और कहां यह महा कठोर शकट, छोटेसे बालककी ठोकरसे कैसे टूट सक्ता है? भाई हमको तो किसी प्रकार विश्वास नहीं आता॥१०॥ यशोदाने रोते हुये अपने पुत्रको उठाकर हृदयसे लगा लिया और कहने लगी आज कोई बडा खोटा ग्रह हमारे ऊपर आगया था परन्तु तुम
पंचोंके प्रतापसे मेरा बालक बचा. उसीसमय ब्राह्मणोंको बुलाय बहुतसा दान पुण्य कर स्वस्तिवाचन पढवाकर व्रजभूषण प्यारेको दूध पिलाया और बारबार यही विचार करती रही कि, कहीं डर न गया हो॥ ११॥ परन्तु श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावको न जाना और ब्राह्मणोंके कहनेसे आठों दिशाओंमें बलिदान करके और सम्पूर्ण वस्तु धरके गाड़ा रख दिया और ब्राह्मणोंने नवग्रहादिकोंका पूजन होम करायः दधि, अक्षत, फल, फूल, कुश, चन्दन मॅगाय जलसे गाडेका पूजन किया, देखो! प्रेमी व्रजवासियोंका धान्य खाखाकर व्रजके ब्राह्मणभी प्रेमी हो गये जो गाड़ेका पूजन किया॥१२॥ निन्दा, झूठ, पाखण्ड, ईर्षा, हिंसा, अभिमान नहीं है जिन पुरुषोंके उन सत्यवादी ब्राह्मणोंका अशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता॥१३॥ यह बात मनमें विचारकर न्दरायजी श्रीकृष्णको गोदमें लेकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेदके मंत्रोंसे शुद्ध और पवित्र
पूर्ववत्स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम्॥ विप्रा हुत्वाऽर्चयांचक्रुर्दध्यक्षतकुशांबुभिः॥१२॥ येऽस्यानृतदंभेर्ष्या हिंसामानविवर्जिताः॥ न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः॥१३॥ इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः॥ जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः॥१४॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नंदगोपः समाहितः॥ हुत्वा चाग्निं द्विजा तिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम्॥१५॥ गावः सर्वगुणोपेता वासस्त्रयुक्ममालिनीः॥ आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्व जत॥१६॥ विप्रा मंत्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाशिषः॥ ता निष्फला भविष्यति न कदाचिदपि स्फुटम्॥१७॥ एकदाऽऽरोहमारूढं लालयंती सुतं सती। गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत्॥१८॥
औषधियोंके पानीसे पुत्रका अभिषेककरातेभये॥१४॥ फिर स्वस्तिवाचन और अग्निमें होम करातेभये नन्दरायजी और सब गोप गोपियोंने सावधान होकर श्रेष्ठ गुणकारी अन्नका दान ब्राह्मणोंको दिया॥१५॥ सर्वगुणवाली गायोंको सुन्दर सुन्दर वस्त्रोंकी झूलैंउढाय, स्वर्ण, चांदी और पुष्पोंकी माला आभूषण पहिराय, कञ्चनसे सींग मढाय पुत्रके कल्याणके लिये दीं और ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद लिया॥१६॥ वेद मंत्रोंके जाननेवाले योग्य ब्राह्मणोंने जो जो आशीर्वाद दिये सो उसी प्रकार होंगे. क्योंकि ब्रह्मवाक्य किसी समय निष्फल नहीं होते, यह बात शास्त्र और पुराणोंसे प्रकट है॥१७॥ एक दिन नन्दरानी श्रीकृष्णको लाड लडा लडाकर प्यार कर रही थी, उसी समय श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वतके समान अपने
शरीरका भार बढ़ाया कि, वह भारी भार यशोदाजीसे सम्हारा न गया, बोझ बढानेका कारण यह है कि, श्रीकृष्णने जाना कि, जो मैं माताकी गोदमें रहा तो यह जो मेरे सन्मुख तृणावर्त्त उपस्थित है सो यह मेरी मातासहित मुझको उठाकर ले जायगा, इसलिये मुझको कष्ट होय तो होय परंतु मेरे कारण मेरी माताको कष्ट न होय॥१८॥ यशोदाने श्रीकृष्णमें भारी भार समझकर बड़ा आश्चर्य माना और बोझसे अति पीडित होकर त्रिलोकीनाथको पृथ्वीपर बैठालकर परमेश्वरका ध्यान करने लगी और मनही मनमें विचार करने लगी कि, आज मेरे कन्हैयामें इस प्रकार बोझ क्यों होगया? इसी शोच विचारमें घरके कार्यमें लगगई॥१९॥ कंसका अनुचर जो तृणावर्त्त महाबलशाली था, कंसने
भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता॥ महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु॥१९॥ दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः॥ चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम॥२०॥ गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः॥ ईरयन्सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिशः॥२१॥ मुहूर्तमभवद्गोष्ठं रजसातमसा दृतम्॥ सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन्न्यस्तवती यतः॥२२॥ नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः॥ तृणावर्तनिस्सृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः॥२३॥ इति खरपवनचक्रपांसुवर्षे सुतपदवीमबलाऽविलक्ष्य माता॥ अतिकरुणमनुस्मरंत्यशोचद्धुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः॥२४॥
कृष्णके मारनेके लिये उसको भेजा, वह पवनके बबूलेका रूप धरकर आया और पृथ्वीपर खेलते हुए कृष्णको उड़ाकर लेगया॥२०॥ सब गोकुल धूरिसे आच्छादित होगया और ऐसी धूरि उडी कि सबकी आँखें मिचगईं और अन्धकार हो गया, उसके घोरशन्दसे दिशा विदिशाओंमें सन्नाटा होने लगा॥२१॥ दो घडी तक गोकुलमें अन्धकार छायरहा, यशोदा ब्रजभूषणके उठानेको आँगनमें दौडी आई, देखा तो वहाँ कृष्णका पता भी नहीं॥२२॥ तृणावर्तने कंकरी, ठीकरियोंकी बडी भारी वर्षा करी जिससे सब गोकुलवासी मोहको प्राप्त होकर अपनेही आपको न देखसके फिर दूसरेका देखना तो महाकठिन था॥२३॥ इस प्रकार महाकठिन धूरिकी वर्षा होनेसे और आँधीके चलनेसे यशोदाने ढूँढते ढूँढते
कही भी ब्रजभूषण घ्यारेको नहीं पाया, तब अत्यन्त व्याकुल हो मरेहुए बछड़े वाली गायकी नाई निर्बल होकर पृथ्वीपर गिरपड़ी और करुणा भरे वचन कह कहकर शोच करने लगी॥२४॥ उस समय यशोदाका रुदन सुनकर पशुपक्षियोंका भी हृदय विदीर्ण होताथा, अत्यन्त पीड़ित और महाव्याकुल हुई नेत्रों में आंसू भरे गोपिये श्रीकृष्ण के विना देखे रोरोकर प्राण त्यागने को प्रस्तुत थीं॥२५॥ इतनेमें धूलिवर्षा, ऑधी तो थमगई और बबूलेका रूप धरनेवाले तृणावर्त्त दैत्यका वेग, सब धरणीके धारण करनेवाले विश्वनाथ भगवान् के उठा लेजानेसे आकाशको न उडाया तो शान्त होगया,इसी कारण उस दैत्य से अधिक भारी भार लेकर ऊपरको न उडागया
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॥२६॥ जब तृणावर्त्तको
रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः॥ रुरुदुरनुपलभ्य नंदसूनं पवन उपारतपांसुवर्षवेगे॥२५॥ तृणावर्तः शांतरयो वात्यारूपधरो हरन्॥ कृष्णं नभो गतो गंतुं नाशकोवरिभारभूत्॥२६॥ तमश्मानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया॥ गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशकोदडतार्भकम्॥२७॥ गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलो चनः॥ अव्यक्तरावो न्यपतत्सहबालो व्यसुर्व्रजे॥२८॥ तमंत रिक्षात्पतितं शिलायां विशीर्णसर्वावयवं करालम्॥ पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धं स्त्रियों रुदंत्यो ददृशुः समेताः॥२९॥
बहुत बोझ ज्ञात होने लगा तब यह जाना कि, मैं किसी बड़े पत्थरको उठालायाहूं, क्या कोई वज्र मेरे हाथमें है ! यह कह श्रीकृष्ण से छूटने की इच्छा करने लगा, परंतु श्रीकृष्णने उसका कण्ठ ऐसा गहिकर पकड़ा था कि, वह किसी प्रकार न छूट सकै॥२७॥ कण्ठके घुटनेसे उसकी चेष्टा हत होगई, नेत्र निकल पडे, मुख से शब्द न निकल सका, प्राणहीन होकर वह तृणावर्त दैत्य श्रीकृष्णसमेत गोकुलमें गिरा॥२८॥ जैसे महादेवके बाणका मारा त्रिपुरासुर पृथ्वीपर गिरा था, ऐसेही आकाशसे वह विकराल दैत्य शिलाके ऊपर गिरा, जिसके सब अंग टूटकर चूर होगये, यह महा
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**शंका—**श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द मुनिमनरञ्जन भक्तमयभजन भगवान्का नाम है, फिर कृष्णचन्द्रने अपनी माताको और व्रजवासियोंको दुखी करके और अपनी माताको रुत्रायके अपनी देहमें भारकोबढायातो जब तृणावर्त्त हरिको हरिके ले चला तव भगवानने अपनी देहमें भार क्यो नहीं बढाया, जो राक्षसके उठानेसे न उठते तो सबको कष्ट क्यों होता?
**उत्तर—**ब्रह्मानेपहिले तृणावर्त्तको वरदान दिया था, तेरे किये दु.खकरके यशोदाकी आँखोंसे आंसू गिरेंगे तब तेरी मृत्यु होगी इसलिये श्रीकृष्णने अपनी देहमें भार नहीं बढाया॥
भयानकरूप उस तृणावर्तका रोती हुई ब्रजबालाओंने देखा॥२९॥ उस तृणावर्तकी छातीके ऊपर निर्भय खेलता हुवा श्रीकृष्ण को भी देखा, सो तुरंत गोपियोंने दौडकर श्रीकृष्णको उठा, यशोदाकी गोदमें दे दिया और बड़ा आश्चर्य मानकर सब गोपी यह कहने लगीं कि, बालकको उठाकर यह राक्षस आकाशमें लेगयाथा, सो यह बालक मृत्युके मुखमेंसे फिर निकलकर आया है॥३०॥ नंदादिक गोप और गोपिका श्रीकृष्णको पाकर परमानंदको प्राप्त हुए और परस्पर कहने लगे कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि, देखो इस राक्षसने इस बालकके मारनेमें कुछभी कसर नहीं रक्खी, परंतु भगवान्नें इसको बचाया और यह दुष्ट अपने पापसे आपही मरगया और यह बालक साधुकी समान है, इसलिये इस दुष्टके हाथसे छूट आया, साधु पुरुष अपनी समताके भयसे छूटजाते हैं॥३१॥ देखो हमने ऐसा कौनसा भारी तप किया है? क्या भगवान् वासुदेवका पूजन
आदाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः कृष्णं च तस्योरसि लंबमांनम्॥ तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं विहायसा मृत्युमुखा त्प्रमुक्तम्॥ गोप्यश्च गोपाः किल नंदमुख्या लब्धाशिषः प्रापुरतीव मोदम्॥३०॥ अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसा बालो निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात्पुनः॥ हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते॥३१॥ किं नस्त पश्चीर्णमधोक्षजार्चनं पूर्तेष्टदत्तमुत भृतसौहृदम्॥ यत्संपरेतः पुनरेव वालको दिष्ट्या स्वबंधून्प्रणयन्नुपस्थितः॥३२॥ दृष्ट्वानुंतानि बहुशो नंदगोपो बृहद्धने॥ वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः॥३३॥ एकदार्भकमादाय स्वांक मारोप्य भामिनी॥ प्रस्तुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता॥३४॥
कियाहै? क्या कुआँ, बावडी, ताल, खुदवाये हैं? क्या पंचयज्ञ कियेहैं? क्या कोई बड़ाभारी दान किया है! अथवा भूखे नंगे प्राणियोंपर दया करी है? जिन पुण्योके प्रभावसे मृत्युको प्राप्त हुवा हमारा बालक अपने माता पिता बन्धुओंके सुख देनेके लिये लौटकर आगया॥३२॥ नंदजीने गोकुलमें बहुतसे उत्पातोंको देखकर अपने मनमें बड़ा आश्चर्य माना, हमसे मथुरामें वसुदेवजीने पहिलेही कह दिया था कि, गोकुलमें बड़ाभारी उत्पात होगा, सो आज हमको वसुदेवजीके वचनका पूरा विश्वास हुवा॥३३॥ एक समय यशोदाजी मनमोहन प्यारेको अपनी गोदमें बैठालकरमोहमें अतिनिमग्न होकर जिन स्तनोंसे दूध टपकता था सो स्तन पिलाने लगी, देखो यशोदाके कैसे उत्तम भाग्य हैं॥३४॥
कुछ एक स्तन पिया पीछे यशोदाजी अपनी मन्दमुसकान सहित श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दके ऊपर अंगुली धरकर दूध पिलाने लगीं, इतनेहीमें हे राजन! श्रीकृष्णने जम्भाई ली उस समय उनके मुखमें यह सब संसार देखा॥३५॥ आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, तारागण, दिशा, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदी, वन, स्थावर, जंगम, जीव इन सबको देखा॥३६॥ हे राजन्! सब विश्वको तत्काल यशोदा श्रीकृष्णके मुखमें
पीतप्रायस्य जननी सा तस्य रुचिरस्मितम्॥ मुखं लालायती राजज्जृंभतो ददृशे इदम्॥३५॥ खं रोदसी ज्योति रनीकमाशाः सूर्येदुवह्निश्वसनांबुधींश्च॥ द्वीपान्नगांस्तद्दुहितर्वनानि भूतानि यानि स्थिरजंगमानि॥३६॥ सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन्संजातवेपथुः॥ संमील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता॥३७॥ इति श्रीभागवते महापु दशमस्कंधे पू० शकटतृणावर्तभंजनविश्वप्रदर्शनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ गर्गः पुरोहितो राजन्य दूनां सुमहातपाः॥ व्रजं जगाम नंदस्य वसुदेवप्रचोदितः॥१॥
देखकर डरके मारे कम्पायमान होकर अपने मृगकेसे नेत्र बन्द करलिये और बड़ा आश्चर्य माना कि, इस बालकके मुखमें मैने क्या जाल जंजाल देखा*॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा—अष्टममें श्रीगर्गमुनि नन्दराय गृह आय। नामकरण उत्सव कियो, मुखमें विश्व दिखाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! बड़े तपस्वी और यादवोंके पुरोहित
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*राजा परीक्षित् बोले कि हे प्रभो! पूर्वजन्ममें यह तृणावर्त्त कौन था, जो इसने राक्षसका शरीर पाया, यह सब कथा मुझको समझाकर कहो। श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्! यह तृणावर्त्त पाण्डुदे शका राजा था और विश्वविजय इसका नाम था दुर्वासा ऋषिके शापसे यह राक्षस होगया, परीक्षित्ने बूझा कि, क्या ऐसा खोटा कर्म उसने किया जो यह शाप दुर्वासाने दिया 2 श्रीशुकदेवजी बोले कि पाण्डुदेशका नरेश विश्वविजय था और एक सहस्र इसकी स्त्री थीं, एक दिन उन सब स्त्रियों समेत वनविहारके हेतु वनको गया वहा ऊचे ऊचे वृक्ष आकाशसे बातें कररहे, सुन्दर सुन्दर फल फूल खिलरहे, मोर कीर फोकिला, बोलरहे, एक ओरको गन्धमादन पर्वत निरालाही शोभा देरहा, उसके नीचे पुष्पमद्रानदी न्यारीही लहरे लेती चली जाती थी ऐसा शोभायमान निर्जन वन देखकर उसी नदीमें स्त्री और आप नंगा होकर जलक्रीडा करनेलगा, मद पीपी कर स्त्री और राजा ऐसा मतवाला होगया कि, सम्पूर्ण लज्जा त्याग निर्लज्ज बन जलविहार करनेलगा, उसी समय एकलाख शिष्योंको साथ लिये दुर्वासा ऋषि मी उसी आश्रममें आगये, देखा तो सब स्त्रियोंके सग राजा नगा केलि कर रहा है, मुनिने कोपकरके शाप दे दिया कि रे दुष्ट! मेरे वचनके प्रतापसे तू असुर होजा, और भारतखडमें एक लाख वर्षतक भ्रमता फिर, जब ब्रजमें श्रीकृष्णचन्द्र अवतार लेंगे तू उनके हाथसे मृत्यु पावेगा तब तेरी मोक्ष होगी, राजा यह शाप सुन बहुत उदास हुवा और अग्निकुण्ड बनाय सब स्त्रियों सहित अपना शरीर भस्म कर दिया।
श्रीगर्गाचार्य वसुदेवजीके भेजेहुए मथुरा पुरीसे गोकुलमें नन्दरायजीके घर आये॥१॥गर्गाचार्यको देखकर नन्दजी बहुत प्रसन्न हुये और उठकर दण्डवत् प्रणाम किया और भगवान्की समान जानकर पूजन किया॥२॥ गर्गाचार्यजीको सुंदर आसनपर बैठालकर षट्स भोजन कराया और मधुर वाणी से नन्दरायजी बोले कि, अहो ब्रह्मन्! आप तो परिपूर्ण हो आपका पूजन हम किस प्रकार करसक्तेहैं॥३॥ हे भगवन।दीन गृहस्थ लोगोंके कल्याण करनेके लिये आपसरीखे महात्मा अपने आश्रमसे गृहस्थोंके घर जातेहैं और उनसे अपना कुछ प्रयोजन नहीं रखते॥४॥ और जो देखने और सुननेमें नहीं आता उस ज्ञानका प्रगट करनेवाला और सूर्य चन्द्र नक्षत्रादिकोंका प्रतिपादन करनेवाला ज्योतिषशास्त्र साक्षात
तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृतांजलिः॥ आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरस्सरम्॥२॥ सुपविष्टं कृतातिथ्यं गि रा सुन्नृतया मुनिम् ॥ नंदयित्वाऽब्रवीद्ब्रह्मन्पूर्णस्य करवाम किम्॥३॥ महद्विचलनं नृृणां ग्रहिणां दीनचेतसाम्॥ निःश्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्कचित्॥४॥ ज्योतिषामयनं साक्षाद्यत्तज्ज्ञानमतींद्रियम्॥ प्रणीतं भवता येन पुमान्वेद परावरम्॥५॥ त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान्कर्तुमर्हसि॥ बालयोरनयोर्नृणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः॥६॥ गर्ग उवाच॥ यदूनामहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वदा॥ सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम्॥७॥
आपने कथन कियाहै, जिसके पढ़नेसे पुरुष भूत, भविष्य, वर्तमान कालका वृत्तान्त जान सक्ताहै॥५॥ उस ज्योतिष शास्त्रके कर्त्ता और वेदवा दियोंमेंभी आप परिपूर्ण हो, इसलिये तुम हमारे दोनों पुत्रोंका नामकरण और संस्कार करो.तब गर्गाचार्यजीने कहा कि, जो तुम्हारे गुरु आचार्य होयँ उनसे नामकरण क्यों नहीं करालेते. तब नन्दजी बोले कि, हेमहाराज! आपके सन्मुख और कौन है! क्योंकि ब्राह्मण जन्मसेही सबके गुरु हैं॥६॥ फिर गर्गाचार्यने कहा कि मैं यादवोंका पुरोहित हूं और सब जगत्में विख्यात हूं, जो मैं तुम्हारे पुत्रोंका नामकरण और संस्कार करूंगा तो वह दुष्टात्मा कंस इन बालकोंको देवकीके पुत्र समझेगा
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॥७॥
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शंका—
गर्गाचार्यने नन्दजीके सग कपट क्यों किया? हम श्रीकृष्णका नाम नहीं धरेंगे यह क्यों कहा? इसलिये तो गये जान बूझकर क्यों झूठ बोले?
और आपकी और वसुदेवजीकी परम मित्रता है यह बात भी कंस भले प्रकार जानता है और दूसरे कंसको यहभी सन्देह है कि, देवकीके गर्भमें कन्या न होनी चाहिये, कहीं अपने पुत्रको पहुॅचा न दिया हो यह समझे. क्योंकि कंस दिन रात सैकडों विचार किया करता है॥८॥ और अब तो उसने देवकीके गर्भसे कन्या उत्पन्न हुई समझही रक्खीहै और जो दूसरी यह बात सुनेगा कि, गर्गाचार्यने नन्दजीके घर जाकर बालकोका नाम रक्खा है, इससे निश्चय यह जानेगा कि यह वसुदेवजीके पुत्र हैं और कंस तो विनाही जाने इन बालकोंके मारनेका उपाय
कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः॥ देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति॥८॥ इति संचितयञ्छ्उत्वा देवक्या दारिकावचः॥ अपि हंताऽऽगताशंकस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत्॥९॥ नंद उवाच॥ अलक्षितोऽस्मिन्नहसि मामकैरपि गोव्रजे॥ कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम्॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं सम्प्रार्थितो विप्रः स्वचिकीर्षितमेव तत्॥ चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः॥११॥ गर्ग उवाच॥ अयं हि रोहिणीपुत्रो रमय न्सुहृदो गुणैः॥ आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद्वलं विदुः॥ यद्वनामपृथग्भावात्संकर्षणमुशंत्युत॥१२॥
कर रहाहै और जो सत्य समझकर इन बालकोको मरवादिया तो बडा अनर्थ होगा॥९॥ नन्दजी बोले कि, हे गर्गाचार्यजी! वह उपाय करो जो हमारे साथी व्रजवासीभी नहीं जानै. इसप्रकार एकान्त स्थान जहाँ गायोंका खिरक था वहां बैठकर स्वस्तिवाचन पढकर दोनों बालकोंका संस्कार किया. जोकि—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंको करना योग्य है॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इस प्रकार नन्दरायजीने जब प्रार्थना करी तो एकान्तमें गर्गाचार्यजीने छिपकर नामकरण किया. क्योंकि नामकरण करनेकी इच्छासे तो गगाचार्यजी आयेही थे॥११॥गर्गमुनि बोले कि, यह
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उत्तर—गर्ग मुनिने अपने मनमें निचारा कि, जो हम नदमे सत्य वोलेंगे और प्रत्यक्ष कृष्णका नाम धरेंगे तो वडे उत्साहसे बाजे बजायके अनेक हर्ष से आनन्द करेंगे तब कसादिक दैत्य जान जायँगे कि यह बालक किसी यदुवशीका है तो वडामारी उत्पात होगा, इसलिये झूॅठ बोले कि, विना कपट किये नन्दजी गुप्त नाम न धराते बढा उत्साह करते और शास्त्रमें ऐसा भी लिखा है पराये उपकारके लिये झूँट बोलनेका कुछ दोप नहीं होता॥
रोहिणीका पुत्र अपने गुणोंसे सुहृदोंको रमण करावेगा, इसलिये इसका नाम राम रखना चाहिये और बल अधिकहोग इसलिये इसका नाम बलदेव रखना चाहिये और बिछुरे यादवोंको मिलावेगा इसलिये इसका नाम संकर्षण होगा॥१२॥ और यह जो तुम्हारा दूसरा पुत्र है सो यह युग युगमें अवतार धारण करता है और इसके तीन रंग हुए श्वेत, लाल, पीला, सो सत्ययुग में शुक्लवर्ण हुवा, त्रेतामें लाल वर्ण हुंवा और द्वापरमें पीतवर्ण हुवा. अब इन्द्रनीलमणिकी सदृश श्यामसुन्दररूप धारणकिया है, इसलिये ‘कृष्ण’ नाम रखना चाहिये॥१३॥ किसी समय यह तुम्हारा महाभाग पुत्र वसुदेवजीके घर जन्मा था, इसलिये ज्ञानीपुरुष इसका नाम वासुदेव भी कहेंगे। तुम्हारे पुत्रके गुणकर्मोंके अनुसार अनेक नाम हैं और रूपभी अनेक हैं, उनको में नहीं जानता और कोई दूसरा पुरुषभी नहीं जानता, क्योंकि यह बालक परब्रह्म परमेश्वरका अवतार है, इसलिये इसका भेद ब्रह्मा,
आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः॥ शुको रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥१३॥ प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः॥ वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः संप्रचक्षते॥१४॥ बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते॥ गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥१५॥ एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः॥ अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमंजस्तरिष्यथ॥१६॥ पुराऽनेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिताः॥ अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः॥१७॥ य एतस्मिन्महाभागाः प्रीतिं कुवैति मानवाः॥ नारयोऽभिभवत्येतान्विष्णुपक्षानिवासुराः॥१८॥ तस्मान्नंदात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः॥ श्रिया कीर्त्याऽनुभावेन गोपायस्व समाहितः॥१९॥
शिव, सनकादिकभी नहीं जानसक्ते॥१४॥ गाय, गोप, गोपी और तुमको आनन्द देनेवाला यह तुम्हारा पुत्र होगा और नन्दरायजी तुम्हारे ऊपर बडे बडे कष्ट आनकर प्राप्तहोंगे, उन कष्टोंको इनकी कृपासे सहजमें तर जाओगे॥१५॥१६॥ हे व्रजराज! पहिले जब कोई राजा नहीं था, तब इस बालकने पृथ्वीपर सब दुष्ट चोरोंको पीडितकर महात्माओंकी रक्षा करी और चोरोंको पराजय किया॥१७॥ और जो महात्मा पुरुष इस तुम्हारे पुत्रसे स्नेह रखते हैं उनका शत्रुलोग तिरस्कार नहीं कर सक्ते. जिसप्रकार विष्णु के सहायक रहनेसे देवताओंका दैत्यलोग कुछ नहीं करसक्ते॥१८॥ नन्दरायजी! यह तुम्हारा पुत्र गुण, कीर्ति, लक्ष्मी और प्रतापमें विष्णु भगवान्की समान जानपडताहै, सावधान होकर तुम इसकी रक्षा करना॥१९॥
शुकदेवजी बोले कि, हे व्रजनाथ! इसीराधाके साथ आपके पुत्रका विवाह होगा और यही राधा तुम्हारे कुलकी बाधा हरनेवाली होगी, यह कह सबको आशीर्वाद दे गर्गाचार्य बिदा होकर चलदिये, पीछे नन्दजीने परमानन्द हो अपने मनोरथको सब प्रकारसे परिपूर्ण समझा॥२०॥ जब कुछ और थोडे दिन व्यतीत हुए तब बलदेवजी और श्रीकृष्ण दोनों भैया हाथ टेकर कर घुटनो चलने लगे। जिस समय कृष्ण और बलभद्र दोनों भाई व्रजकी कीचमें विचरते थे उससमय उनके पावोंकी पैंजनी और कटिकी किं किणीकी झनकारका सुन्दर शब्द सुनकर यशोदा और रोहिणी मनहीं मनमें आनन्द होती थीं और जो पथिक मार्गमें जाते उनहीके पीछे घुटनों२ थोड़ी दूर चले जाते, जब वह पुरुष इनकी ओरको देखते तब डरकर अपनी माताके पासको भागते॥२१॥२२॥ तब माता यशोदा और रोहिणी अपने पुत्रको उठाय हृदयसे लगाय उनके अंगोंको देखें हैं, कहीं तो व्रजकी कीचमें लिपट रहेहैं और कहीं
श्रीशुक उवाच॥ इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते॥ नंदः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम्॥२०॥ कालेन व्रजताऽल्पेन गोकुले रामकेशवौ॥ जानुभ्यां सहपाणिभ्यां रिंगमाणौ विजहतुः॥२१॥ तावंघ्रियुग्ममनुकृष्य सरीसृपंतौ घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु॥ तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरंति मात्रोः॥२२॥ तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवंत्यौ पंकांगरागरुचिरावुपगह्य दोर्भ्याम्॥ दत्त्वा स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य मु ग्धस्मिताल्पदशनं ययतुः प्रमोदम्॥२३॥ यर्ह्यंगनादर्शनीयकुमारलीलावंतर्व्रजे तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः॥ वत्सैरितस्त त उभावनुकृष्यमाणौप्रेक्षंत्य उज्झितगृहा जहषुर्हसंत्यः॥२४॥ शृंग्यग्निदंष्ट्यसिजलद्विजकंटकेभ्यः क्रीडापरावति चलौ स्वसुतौ निषेद्धुम्॥ गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम्॥२५॥
प्रमादकी केशर अंगमें लगी हुई है, जिनके स्तन दूधसे खसि आये हैं उनको खिलाय खिलाय दूध पिलाय पिलाय उनकी ओरको देख २ प्रेममें मग्न होरही हैं और उनके मुखकी भोली भोली मुसक्यान और छोटी २ दॅतुरियोंकी छबि निहार निहार बारंबार प्रसन्न होती थीं॥२३॥ जिस समय व्रजमें गोपियोंके देखनेके योग्य श्रीकृष्ण और बलराम बाललीलाओंको करने लगे और दौड दौडकर बछरोंकी पूॅछ पकड पकडकर खँचें, जब बछडे भागते तो यह उनके पीछे पीछे खिंचे चले जाते थे, इस प्रकारकी लीला वह गोपी देख देख घरोंके कामको छोड छोड हॅस हँसकर हर्षको प्राप्त होती थीं॥२४॥ माता यशोदा और रोहिणी, अति चंचल खेलमें लगेहुये श्रीकृष्ण बलदेवको देखकर गाय बैल डाढवाले जीव, बन्दर,
अग्नि, जल, सांप पक्षी कांटोंसे रोक रोक बचाती फिराकरती थीं और घरके काम धन्धे सब छोडदियेथे, जब रोहिणी और यशोदा फिरती फिरती हार जातीं तब श्रीकृष्ण बलभद्र माताओंके मनकी गति जानकर ऑगनमें खेलने लगते॥२५॥ हे राजन्!व्रजमें रामकृष्ण दोनों भाई थोड़ेही दिनों पीछे घुटनोंहीके बल नहीं वरन्चरणोंसे अनायासपूर्वक चलने लगे॥ कभी घरमें जाते कभी बाहर आते कभी भुजा उठा उठा कर बालकोंको बुलाते कभी धौरी, धूमरी, गौरी, काली नाम लेलेकर गायोंको गुहराते कभी माखन मिश्री मातासे माँग मॉगके खाते, कभी मुकुरमें जो अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देता तो उससे कहते ले भैया तू भी माखन खाले, जब वह प्रतिविम्ब न लेता तो दोनो हाथोसे आधा आधा कर एक भाग उसको देते, जब माखन पृथ्वीपर गिर जाता तो कहते कि, भैया अब क्यों नहीं लेते वह बातभी बताओ इन अद्भुत चरित्रोंको यशोदा मैया छिप छिपकर देखती और अपने मनही मनमें प्रसन्न होती और झट पट आनकर गोदमे उठाय मुख चूम लेती, उस परमानन्दके सुखको कौन वर्णन करसक्ता
कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले॥ अघृष्टजानुभिः पद्भिर्विचक्रमतुरंजसा॥२६॥ ततस्तु भगवान् कृष्णो वयस्यैर्ब्रजवालकैः॥ सहरामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन्मुदम्॥२७॥ कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचाप लम्॥ शृण्वन्त्याः किल तन्मातुरिति होचुः समागताः॥२८॥ वत्सान्मुचन्क्वचिदसमये क्रोशसंजातहासः स्तेयं स्वाहत्त्यथ दधिपयः कल्पितैः स्तेययोगैः॥ मर्कान्मोक्ष्यन्विभजति स चेन्नात्ति भांडं भिनत्ति द्रव्यालाभे स गृहकु पितो यात्युपक्रोश्य तोकान्॥२९॥
है॥२६॥ एक दिन मदनमोहन व्रजवासियांक बालकोंके संग अपनी सिंहपौर पर खेल रहे थे, सबकी एक अवस्था भोली भोली सूरत, कृष्णकी प्रीतिमें मतवाले अनेक अनेक प्रकारकी लीला कर रहेथे, कभी गाते, कभी हँसते, कभी किलकारी मारते, कभी अपनी माताको पुकारते, धन्य यशो दाके भाग्यको, मदनमोहनकी उस मनोहर छविको देख २ ब्रजवासी लोग स्त्री पुरुष मनहीं मनमें कहतेथे कि, कोटि कामदेवभी इस शोभाकी समता को नहीं पासक्ते, देखो बलराम और घनश्याम अपनी समान अवस्थावाले व्रजवासियोंके बालकोंको संग लेकर नई नई क्रीडा कर हमलोगोंको कैसा कैसा आनन्द देते हैं॥२७॥ गोपी श्रीकृष्णचन्द्रकी बाललीलाकी चपलता देखकर सब जुड मिलकर आई और श्रीकृष्णकी माता यशो दाको सुनासुनाकर यह कहनेलगीं॥२८॥ अहो यशोदा। तुम अपने पुत्रको वर्जलेना हमारे घरोमें आनकर द्वन्द्व मचावैहै, हम तो गायोंको
दुहने नहीं पातीं वह पहिलेसे पहिले बछडों को खोलदेते हैं, बछडे दूध पीजाते हैं, दुहनेवाले ग्वालियें शिरमार मारकर चले जाते हैं, यशोदा बोली, अरी तुम्हारे घर जब यह जाय तो इसको डाट दिया करो, यशोदाजीका वचन सुनकर गोपिका कहने लगीं कि, जब हम इसको डाटें हैं तब यह हॅस देता है, इसकी हॅसी देखकर हमकोभी हॅसी आजाती है और यह चोरी उपाय करके दूध दही और जो कुछ मीठे मीठे पदार्थ हमारे घरोंमें रक्खे होते हैं उनको स्वादसे चुरा चुराकर खा जाता है और जो कुछ बचरहता है उसको बन्दरोंको खिला देता है जो बन्दरभी नहीं खाते तो जान बूझकर दूध दही घीके चिकने बासनों को फोड डालता है और जो कदाचित माखन दूध इसके हाथ नहीं लगता तो क्रोध करके गालियें देता है और यह कहता है कि, इनके घरोंमें आग लग जाओ फिर पालनेमें सोते हुए हमारे बालकोंको रुआकर भाग जाताहे॥२९॥ और ऊंचे २ छींकोंपर धरती हैं कि, जो इसके हाथ न आवै, तब पीढा, पट्टा, ऊखली इत्यादि धरकर चोरीका उपाय करता है और किसी किसी छीके के बासनमें छेदकरदेता है और नीचे सब
हस्ताऽग्राह्ये रचयति विधिं पीठकोलूखलाद्यैश्छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः शिक्यभांडेषु तद्वित्॥ ध्वांतागारे धृतमणिगणं स्वांगमर्थप्रदीपं काले गोप्यो यर्हिगृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ताः॥३०॥ एवं धाष्टर्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथास्ते॥ इत्थं स्त्रीभिः सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभिर्व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत्॥३१॥
बालक मुख लगाकर सब गोरस पी जाते हैं और जो मीठा दही होता है तब तो खाजाते हैं और जो खट्टा होताहै तो गिरा देते हैं और जो मेवा मिष्टान्न होताहै उसको बालकोंके कन्धेपर चढ़कर खा लेताहै और जो हम अन्धेरेमें घरमें दही माखन कहीं छिपाकरभी धरें हैं, तो इसके आभूषणोंमें जो रत्न, मणि, माणिक, हीरे जड़ेंहैं, उनका प्रकाश हो जाताहै, दूसरे इसका जो चन्द्रमासा मुख है उसकी उजियालीका चांदना होजाताहै तब हमारा धरा ढका सब निकाल लावै है, तबतक हम घरमें बैठी रहे हैं उस समय आवे है तो हमको देखकर भाग जाता है और जब हम अपने घरके काम धन्धेमें लग जाती हैं उस समय घरमें आन घुसताहै॥३०॥ और जब कभी हम आनकर इसको देख पाती हैं और कहती हैं कि, अरे चोर। तो यह लौटकर कहता है कि, तुमहीं चोर हो मैं तो घरका स्वामीहू, ऐसे हॅसीकी बातों में बातको टाल देताहै, हमारे लिपे पुते घरोंको बिगाड़ देताहै, सब दिन सखाओंको संग लिये
चोरीकी चिंतामें फिरता रहाता है, यह कन्हैया तुम्हारा बड़ा ढीठहै और पेटमें इसके सैकडों छल भरेहैं, परन्तु मुँहका मीठाहै, जो तुमको विश्वास न आवैतो हम पकडके दिखादें कभी किसीके कपड़े फाडताहै कभी किसीको मारताहै, सब व्रजमें धूम धाम मचारक्खी है
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अब देखो! तुम्हारे आगे कैसा भोला भाला बना खडाहै मानो कुछ जानताही नहीं। इसप्रकार जब गोपियोंने डराया तो उससमय भयसंयुक्त नेत्र उनमें श्रीमुखकी शोभा देखनेके लिये श्रीयशोदाजीसे आनके गोपियोंने उलाहना दिया तब श्रीयशोदाजी हँसके मनमोहन प्यारेको गोदीमें उठालिया और पुत्रसे कुछ कहा नहीं॥३१॥ एक समय बलभद्रादिक गोपियोंके बालकोंमें क्रीड़ा कररहे थे, वहां श्रीकृष्णचन्द्र मट्टी खाने लगे, तब सब बालकोंने कहा आज कृष्णको कृष्णकी मातासे पिटवावेंगे और जाकर यह कहेंगे कि, आज श्यामसुन्दरने मट्टी खाई है, तब यह विचार कर सब बालक और श्रीदामा यशोदाजीके पास
एकदा क्रीडमाणास्ते रामाद्या गोपदारकाः॥ कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्यवेदयन्॥३२॥ सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैहिणी॥ यशोदा भयसंभ्रांतप्रेक्षणाक्षमभाषत॥३३॥ कस्मान्मृदमदांतात्मन्भवान्भक्षितवान्रहः॥ वदंति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम्॥३४॥ नाहं भक्षितवानंब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः॥ यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम्॥३५॥
गये और जाकर कहा कि, आज श्रीकृष्णने मट्टी खाई है॥३२॥ तब परमहितकी करनेवाली श्रीकृष्णकी माता यशोदाने क्रोधितहो श्रीकृष्णका हाथ पकड़कर धमकाया और भययुक्त चंचल नेत्र मोहन प्यारेसे यह कहा॥३३॥ हे चपलगात चंचल! तैंने अकेलेमें जाकर मही क्यों खाई अरे अन्याई! जो यह बात गॉवके लोग सुनेंगे तो घर घर यह जवाब होगा कि, नंदरानी ऐसी जोडा (कंजूस) हुई है कि, अपने बालकको पेटभर रोटीभी नहीं देती, इसलिये वह मट्टी खाखाकर दिन पूरे करेहै. यह बात सुनकर श्यामसुन्दर डरते काँपते बोले कि. हे माता! यह झूॅठबात तुझसे किसने कही? कदाचित् कोई बालक तेरे पास आकर मुझको झूंठा कलंक लगा दे तो उसमें मेरा क्या अपराध है? तब यशोदाने कहा कि, तेरे मित्र श्रीदामाने मुझसे कही है और तेरे ज्येष्ठ भ्राता बलदाऊने कही है॥३४॥ हे मैया!मैंने मट्टी नहीं खाई और श्रीदामाकी ओरको खडी दृष्टिसे देखकर बोले क्योंरे श्रीदामा! मैंने तेरे सामने मट्टी कब खाई थी? श्रीदामा बोला मैंने तेरी मातासे कुछ नहीं कहा, तब यशोदाने छडी लेकर कहा सच्चबता?
श्रीकृष्ण बोले कि, मैय्या! जो तुझको विश्वास नहीं हो तो मेरा मुख देखले॥३५॥ यह बात सुनकर यशोदा बोली मुझको तेरी झूठी बातोंका किसी प्रकार विश्वास नहीं आता, जो तू सच्चा है तो अपना मुख फैलाकर दिखलादे? यशोदाकी यह बात सुन, अनेक दुःखोंके दूरकनेवाले अखण्ड ऐश्वर्यवान् भगवान् क्रीड़ा करनेके लिये मनुजतनुधारी बालकरूप श्रीकृष्णचद्रने अपना मुखारविन्द फैलाकर यशोदाको दिखला दिया॥३६॥ तब यशोदाजीने श्रीकृष्ण के मुखमें स्थावर जंगम, विश्व, अन्तरिक्ष, दिशा, पर्वत, द्वीप, समुद्र, भूगोल प्रवाह, वायु, अग्निं, चन्द्रमा, तारागण॥३७॥ ज्योतिषचक्र, जल, तेज, आकाश, इन्द्रियोंके देवता, इन्द्रिय, मन, शब्दादिक और इनके विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, यह पांचों— सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण॥३८॥ जीव, काल, स्वभाव, कर्म, अन्तःकरण और उसके होनेवाले चराचर और सम्पूर्ण प्राणियोंके भेद सहित चित्र
यद्येवं तर्हि व्यादेहीत्युक्तः स भगवान्हरिः॥ व्यादत्ताऽव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः॥३६॥ सा तत्र ददृशे विश्वं जगत्स्थास्नु चखं दिशः॥ साद्रिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नींदुतारकम्॥३७॥ ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान्विय देव च॥ वैकारिकाणीद्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः॥३८॥ एतद्विचित्रं सहजीवकालस्वभावकर्माशयलिंगभेदम्॥ सुनोस्तनौवीक्ष्य विदारितास्ये व्रजं सहात्मानमवाप शंकाम्॥३९॥ किं स्वप्न एतदुत देवमाया किं वा मदीयो बत बुद्धिमोहः॥ अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य यः कश्चनोत्पत्तिक आत्मयोगः॥४०॥
विचित्र संसारको श्रीकृष्णचंद्रके मुखमें देखा और उसमेंही व्रजभूमि और अपने देहको देख यशोदाके मनमें भ्रम उत्पन्न हुवा॥३९॥ और अपने मनहीं मन में कहने लगी कि, मैं जो देखरही हूं क्या यह स्वप्न है? नहीं नहीं, यह स्वप्न नहीं है, क्योंकि स्वप्न तो सोतेमें दिखाई देता है, तो क्या फिर परमेश्वरकी माया है? नहीं नहीं, यह माया भी नहीं है, क्योंकि माया होती तो और लोग भी देखते, क्या जैसे मुकुरमें मुख दीखता है ऐसे दिखाईदिया? क्या यह मेरी बुद्धिकाही भ्रमजाल है? नहीं नहीं, ऐसा भी नहीं हो सक्ता, क्योंकि ऐसा होता तो दर्पण में जैसे दर्पण दृष्टि नहीं आता तैसे इस पुत्रके मुखमें यह पुत्र भी दीखना अनुचित है और बाहर तथा भीतर एकरूपसे जगत्की प्रतीति किसी प्रकार न होनी चाहिये,
अथवा मेरे पुत्र श्रीकृष्णका यह स्वाभाविक ऐश्वर्य है?॥४०॥ जो ध्यान करके देखाजाय तो यह अंतिम पक्षही बलवान् जान पड़ता है, क्योंकि यह संसार जो किंचित्, मन वाणी और वचनसे अनायासपूर्वक भले प्रकार विचारमें नहीं आसक्ता, वह किसके आश्रय है और किस रीतिसे प्रतीत हो सक्ता है? उस अचिन्तनीय स्वरूपको मैं बारंबार नमस्कार करती हूं॥४१॥ इन व्रजराजके सम्पूर्ण धनकी अधिष्ठाता मैं हूं यह व्रजनाथ नन्दजी मेरे स्वामी हैं यह श्रीकृष्ण मेरा पुत्र है और यह सब गोप गोपिका तथा गाय बछड़े मेरे हैं, मायासे जिनकी ऐसी कुबुद्धि होरही है, सो अब हे भगवन्! तुम्हारी शरण हूं॥४२॥ इस प्रकार यशोदाजीको कृष्णमें ईश्वरकी बुद्धि होगई तब
अथो यथावन्न वितर्कगोचरं चेतोमनःकर्मवचोभिरंजसा॥ यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम्॥४१॥ अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती॥ गोप्यश्च गोपाः सह गोधनाश्च मे यन्मा ययेत्थं कुमतिः स मे गतिः॥४२॥ इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः॥ वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्ने हमयीं विभुः॥४३॥ सद्यो नष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्याऽऽरोहमात्मजम्॥ प्रवृद्धस्नेहकुलिलहृदयाऽऽसीद्यथा पुरा॥४४॥ त्रय्या चोपनिषद्भिश्च सांख्ययोगैश्च सात्वतैः॥ उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं साऽमन्यतात्मजम्॥४५॥ राजोवाच॥ नंदः किमकरोद्ब्रह्मश्रेय एवं महोदयम्॥ यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः॥४६॥
श्रीकृष्णने विचार किया कि, माता तो परमगतिको पहुॅची अब मेरा लालन पालन कौन करेगा. तब पुत्रने स्नेहरूपा अपनी वैष्णवी माया यशोदापर फैलादी॥४३॥ उस समय यशोदाजीके मनसे श्रीकृष्णचन्द्रकी ईश्वरबुद्धि अलग करदी और पुत्रभाव मानिके श्रीकृष्णको गोदमें बैठाल प्रेममें मग्न होकर पहिलेकी समान वात्सल्यभाव करनेलगी॥४४॥ ऋग्, यजु, साम, यह तीनों वेद, सांख्य योग समस्त निरन्तर जिन वासुदेव भगवान्की महिमाको रातदिन गाते हैं उन श्रीकृष्णको यशोदा पुत्रभावसे मानती है॥४५॥ यह बात सुन राजा परीक्षित्ने श्रीशुकदे-
वजीसे वृझा कि, हे ब्रह्मन्! नन्दरायजीने ऐसा क्या पुण्य किया था जिसके प्रभावसे उनका ऐसा भाग्य उदय हुवा? और यशोदाजीने ऐसा कौनसा श्रेष्ठ पुण्य किया था जिससे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दनें उनका स्तन पान किया॥४६॥ और सब लोकोंके पापका दूर करनेवाला श्रीकृष्णचन्द्रका बालचरित्र आजतक जिसे कवीश्वरलोग वर्णन करतेहैं सो उस बाललीलाका सुख देवकी और वसुदेवजीको प्राप्त नहीं हुवा और नन्दयशो दाको प्राप्त हुवा इसका क्या कारण?॥४७॥ यह गुढ वचन राजापरीक्षित्का सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! आठ वसुओंमें श्रेष्ठ द्रोण नाम वसुने अपनी धरा नाम स्त्रीको साथ लेकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शीशपर धारणकंर परमेश्वरका तप किया, तब परमेश्वरने प्रसन्न होकर चतुरा
पितरौ नान्वर्विदेतां कृष्णोदारार्भकेहितम्॥ गायंत्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम्॥४७॥ श्रीशुक उवाच॥ द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्यया॥ करिष्यमाण आदेशान्ब्रह्मणस्तमुवाच ह॥४८॥ जातयोर्नौमहादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ॥ भक्तिः स्यात्परमा लोके ययांजो दुर्गतिं तरेत्॥४९॥ अस्त्वित्युक्तः स भगवान्व्रजे द्रोणो महायशाः॥ जज्ञे नंद इति ख्यातो यशोदा सा धराऽभवत्॥५०॥ ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने॥ दंपत्यो र्नितरामासीद्गोपगोपीषु भारत॥५१॥
ननसे कहा कि, मेरे भक्त जो वर मांगें सो देना. ब्रह्मानें इन दोनोंके सन्मुख आनकर कहा कि, वर मॉगो, तब वह स्त्री पुरुप बोले कि, हे प्रभो! जो हमपर प्रसन्न हो तो यह वर दो॥४८॥हमारे जन्म मृत्युलोकमें होयॅ परन्तु विश्वेश्वर देवोंके देव हरि भगवान्में हमारी भक्ति बनी रहै;जिससे अनायास इस संसारसागरसे पार उतर जॉय॥४९॥ ब्रह्माजीने वर दिया कि, जाओ पृथ्वीहीमें तुम्हारा जन्म होगा और तुमको भगवान की भक्तिभी होगी, तब तो बड़े यशस्वी और तेजस्वी द्रोण वसु व्रजमें जन्म धारण कर नन्दनामसे प्रसिद्ध हुए और वह धरा यशोदा नामसे विख्यात हुई॥५०॥ हे भारत! जितने गोप गोपी थे सबमें भगवान्की भक्ति थी, परन्तु नन्द यशोदामें अधिकही भक्ति थी, जिनके घर पुत्र होकर वास
योगिराज उनका ध्यान करनेवाले भी उनकी गति को नहीं पहुँचसक्तेऔर तप करके तपस्वियोंका मन जिनकी गतिको नहीं जान सक्ता, फिर यशोदा उनको कैसे पकड सक्ती थीं॥९॥ मनमोहनके पीछे यशोदाजीकी गति नितम्बके भारसे शिथिल होगई दौडनेसे शीशके केशोंके बन्धन खुलगये और चोटीमें जो मालतीके फूल गुँथे रहे थे वह पुष्प आगे आगे गिरते जाते थे और यशोदा उनपर पॉव धरती चली जाती थी, क्योंकि पुष्पोंकीं सुगंधसे चित्त व्याकुल नहीं होता, इस प्रकार यशोदाने महाकठिनतासे श्यामसुन्दरको पकडा॥१०॥ अपराधी तो थे ही पकडतेही विह्वल होगये, रोरोकर काजल लगेहुये नेत्रोंको मलने लगे और हाहाकार कर यशोदासे कहने लगे कि, मया मुझे छोडदे, मैं नहीं जानता दही मही किसनें गिराया तोभी कृष्णका हाथ पकड छडी उठाकर यशोदाने धमकाया और कहा कि, सिवाय तेरे और दधिमाखनका चोर मेरे घर कौन
अन्वंचमाना जननी बृहच्चलच्छ्रोणीभराक्रांतगतिस्सुमध्यमा। जवेनविस्रंसितकेशबंधनच्युतप्रसूनाऽनुगतिः परामृ शत्॥१०॥ कृतागसं तं प्ररुदंतमक्षिणी कर्षंतमंजन्मषिणी स्वपाणिना। उदीक्षमाणं भयविह्वलक्षणं हस्ते गृहीत्वा भिषयंत्यवागुरत्॥११॥ त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला॥इयेष किलतं बद्धुं दाम्नाऽतद्वीर्यकोविदा॥१२॥ न चांतर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्॥ पूर्वापरं वहिश्यांतर्जगतो यो जगच्च यः॥१३॥ तं मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिंगमधोक्षजम्॥ गोपिकोलूखले दाम्ना बबंध प्राकृतं यथा॥१४॥ तद्दामबध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः॥ द्यंगुलोनमभूत्तेन संदधेऽन्यच्च गोपिका॥१५॥
आगया॥११॥ पुत्र पर हित करनेवाली और भगवत्की गति न जाननेवाली यशोदाने मनमोहन प्यारेको व्याकुल समझकर छडी हाथमेंसे डालदी और पुत्रके पराक्रमको न समझकर रस्सीसे बॉधनेको प्रस्तुत हुई॥१२॥जिस आदि पुरुष अविनाशीके बाहर, भीतर, आगे पीछे कुछभी नहीं है और जो पूर्ण अवतार है, जगत्के अन्तर, बाहर, तथा आगे पीछे रहता और जो जगत्रूप
है॥१३॥ इंद्रियोकी जिनमें गति नहीं ऐसे अव्यक्त भगवान्को पुत्र मानकर यशोदाजी रस्सी लेकर उलूखलसे बॉधने लगी, जैसे कोई साधारण बालकको बाँधताहै॥१४॥ अपराधी समझकर जब यशोदा अपने मनमोहन प्यारेको बाँधने लगी, उस समय वह रस्सी दो अंगुल ओछी रहगई, तब यशोदाने उसमें दूसरी रस्सी
और जोडी॥१५॥ जो उसमें और रस्सी जोडी थी वह भी दो अंगुल ओछी रहगई, तब तीसरी और जोडी तो वह भी दो अंगुल ओछी होगई इस प्रकार जितनी रस्सी जोड़ी परन्तु पूरा न पडसका॥१६॥ तब तो यशोदाने सब घर भरकी रस्सी इकट्ठी करके जोडी और श्यामसुन्दर न बँधे, तब तो सब गोपी आश्चर्यमान हँसने लगीं और मुसकराकर यशोदा भी विस्मित होनेलगी॥१७॥ सब शरीर पसीनेमें डूबनया माला कण्ठसे टूटपडी, शिखासे शीशफूल खिसकगया तब यशोदाको श्रमित देखकर करुणामय श्रीकृष्णचन्द्र आपही कृपाकरके बन्धनमें बॅधगये
यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि संदधे॥ तदपि व्द्यंगुलं न्यूनं यद्यदादत्त बंधनम्॥१६॥ एवं स्वगेहदामानि यशोदा संदधत्यपि॥ गोपीनामुत्स्मयंतीनां स्मयंती विस्मिताऽभवत्॥१७॥ स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः॥ दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयासीत्स्वबंधने॥१८॥ एवं संदर्शिता ह्यंग हरिणा भक्तवश्यता॥ स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे॥१९॥ नेमं विरिंचो न भवो न श्रीरप्यंगसंश्रया॥ प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदात्॥२०॥
॥१८॥ हे राजन्!ऐसे कष्ट हरनेवाले भगवान् ब्रह्मासहित सर्व विश्व जिनके अधीन है, उन श्रीकृष्णचन्द्रने अपने भक्तोंको भक्त वश होना दिखाया कि, जो मेरे भक्त मुझको बाॅधना चाहैतो बॅधभी जाताहूं, मैं इस प्रकार भक्तोंके वशमें हूं॥5१९॥ हे राजन् भक्तिके देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्से पुत्रके सम्बन्धसे जो प्रसाद गोपियोंने पाया सो प्रसाद ब्रह्माको न मिला और शिवजी जो भगवान्की आत्मा हैं उनकोभी प्राप्त न हुवा और लक्ष्मी सदा हृदयमें विराजमान और भार्या है, तोभी उनको यह प्रसाद हाथ न आया, जो प्रसाद
यशोदाने ले रक्खा है॥२०॥ यशोदानन्दन श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् जैसे भक्तोंको सहजमें प्राप्त होते हैं, ऐसे देहाभिमानी तपस्वी आदिकोंको और।देहाभिमानरहित आत्मज्ञा नियोंको सहज नहीं मिल सक्ते॥२१॥ इनको बाँध यशोदा तो घरके काम धन्धेमें लगगई इतनेमें सर्वसामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्, कुबेरके पुत्र जो प्रथम जन्ममें गुह्यक थे और अब आनकर यमलार्जुन वृक्ष हुए, उनका समय जान भगवान्ने उनकी ओरको देखा॥२२॥ प्रथम यह दोनों अत्यन्त शोभायमान नलकूबर, मणिग्रीव, नामसे विख्यात थे, कुबेरके पुत्र प्रथम जन्मके मदसे नारदके शापसे वृक्षयोनिको प्राप्तहुए॥२३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां गोपीप्रसादो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा—
नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिकासुतः॥ ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह॥२१॥ कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः॥ अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ॥२२॥ पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात्॥ नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियान्वितौ॥२३॥ इति श्रीभागव०म०दशम०पू० दामबन्धने कृष्णप्रसादो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ राजोवाच॥ कथ्यतां भगवन्नेतत्तयोः शापस्य कारणम्॥ यत्तद्विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षे स्तम्ः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धन्दात्मजौ॥ कैलासोपवने रम्ये मंदाकिन्यां मदो त्कटौ॥२॥ वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ॥ स्त्रीजनैरनुगायद्भिश्चेरतुः पुष्पिते वने॥३॥ अंतः प्रविश्य गंगायामंभोजवनराजिनि॥ चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभिः॥४॥
यमला अर्जुन वृक्ष दोउ दीन्हे कृष्ण गिराय। प्रगटे देव शरीर धर, परे चरणमें जाय॥१॥ इतनी कथा सुन राजा परीक्षित् बोले कि, हे भगवन्! नलकूबर, मणिग्रीवके शापकी कथा वर्णन कीजिये कि. उन दोनोंने ऐसा क्या निन्दित कर्म किया था कि, जिससे नारदजीके मनमें क्रोध उत्पन्न हुवा और उन दोनोंको ऐसा कठिन शाप दिया? ॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, शिवजीके अनुचर यह दोनों अत्यन्त अभि मानी मद पीनेसे मतवाले कुबेरके पुत्र, मन्दाकिनीके तटपर कैलासकी पुष्पवाटिकामें घूम रहेथे,॥२॥ वारुणी मदिराको पान करनेसे उनके नेत्र मदसे चलायमान होरहे थे और उपवनमें विचर रहे थे, उनके पीछे पीछे परमसुन्दरी स्त्रियें भी फिर रहीं थी॥३॥ और कमलोंके समूहोंसे
सुशोभित श्रीगंगाजीके मध्यमें जाकर स्त्रियोंको संग लेकर विहार करने लगे जैसे इथिनियोंके संग हाथी विहार कर रहे थे*
॥४॥ हे कुरुकुल भूषण! अनायासपूर्वक देवर्षि भगवान्नारदजी भी वहाँ आगये और उनको अत्यन्त क्रीडा करतादेखकर मतवाला समझा॥५॥ नंगी स्त्रियोंने नारदजीको देखकर लज्जा मानी और शापके भयसे कॉपने लगीं उसी समय शीघ्रतासे अपने अपने वस्त्रोंके समीपको झपटीं परन्तु नलकूबर, मणि ग्रीवने वस्त्र नहीं पहिरे, नंगे ही खडेरहे॥६॥ तब नारदजी कुबेरके पुत्रोंको मतवाला देखकर मद उनका दूर करनेके लिये और श्रीकृष्णचन्द्र आन
यदृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव॥अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौसमबुध्यत॥५॥ तं दृष्ट्वा ब्रीडिता देव्यो विव स्त्राः शापशंकिताः॥ वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ॥६॥ तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदांधौ सुरात्मजौ॥ त योरनुग्रहार्थाय शापं दास्यान्निदं जगौ॥७॥ नारद उवाच॥ न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः॥ श्रीम दादाभिजात्यादिर्यत्र स्त्री द्यूतमासवः॥८॥ हन्यंते पशवो यत्र निर्दयैर जितात्मभिः॥ मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम्॥९॥ देवसंज्ञितमप्यंते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम्॥ भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥१०॥
न्दकन्दके दर्शनके निमित्त शाप देतेहुए गान करने लगे॥७॥ तब नारदजीने कहा कि, प्रिय विषयोंके भोग करनेवाले पुरुषकी बुद्धिको धन मदके विना हास्य हर्षणादिके कुलीनता पण्डिताई आदिसे हुवा मद अथवा रजोगुण नाश नहीं करसक्ता, परन्तु धनका मदही बुद्धिभ्रष्ट करदेताहै, क्योंकि लक्ष्मीका मद जिसको होताहै तो वह स्त्रीप्रसंग करता है अथवा जुआखेलता है और वारुणीका पान करता है॥८॥ इस क्षणभंगुर शरीरको लक्ष्मीके मदसे अजर और अमर माननेवाले अजितेन्द्रिय मनुष्य निर्दयी होकर पशुओंको मारते हैं॥९॥ राजाके देहकीभी मरनेके पीछे
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***शंका—**किसी नदी में भी कमलोंका वन होता हैं। हमने शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं सुना और न आजतक किसी नदीमें हमने अपनी आंखसे कमलका यन देखा? फिर दोनों यक्षोंने नदीके जलमें प्रवेश करके कमलके वनमें स्त्रियोंके सग विहार कैसे किया?
उत्तर—“अंमोजवनराजिनि” इस श्लोक में अभोजननराजिनिका अर्थ व्यासजीने कमलका वन नहीं किया. इसका अर्थ व्यासजीने ऐसा किया है कि, अभोज जो कमल हैं उसके वनको राजि कहिये प्रकाश करनेवाला जो सूर्य है तिसको साक्षी करके नदी में स्त्रियोंके सग यक्षलोग क्रीडा कर रहे थे सॉझ या दिनमें क्रीडाकरी यह अर्थ व्यासजीने किया है कमलवनका नहीं किया॥
तीन गति होती हैं गाड़नेसेअथवा पृथ्वीपर डालनेसे कृमि होजाते हैं, जो पशु आदिक खाजाते हैं तो विष्ठा होजाताहै और अग्निमें जलनेसे भस्म होजाती है इस कारण इस तुच्छ शरीरके लिये प्राणियोंसे विरोध करना अच्छा नहीं है क्योंकि जीवोंके द्रोहसे तो नरकही प्राप्त होताहै॥१०॥ फिर यह देह किसका कहना चाहिये? क्योंकि जो अन्न देकर इसका पालन पोषण करता है वह पुरुष कहता है कि, यह मेरा है उसका कहनाभी सत्य है माता पिता कहते हैं कि, हमारा है, हमारे वीर्य से और हमारे उदरसे उत्पन्न हुआ है उनका कहना भी सत्य है, नाना कहता है कि, यह मेरा दौहित्र है मेरी कन्याके पेटसे उत्पन्न हुआ है इसका दिया पानी और इसका किया श्राद्ध मुझको प्राप्त हो सक्ता है मेरा पुत्र न होनेके पीछे मेरे धनका अधिकारी यही है, इस रीतिसे नानाका कहनाभी सत्य है, मोल लेनेवाला कहता है कि, मेरा है, उसका कहना भी किसी प्रकार असत्य नहीं है, कोई बलवान् पुरुष अपना दास वा चाकर बनाकर रक्खै और यह कहै कि, मेरा है तो उसका कहना भी वृथा नहीं,
देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव वा॥ मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा॥११॥ एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम्॥ को विद्वानात्मसात्कृत्वा हंति जंतूनृतेऽसतः॥१२॥ असतः श्रीमदांधस्य दारिद्र्यंपरमांजनम्॥ आत्मौपम्येन भृतानि दरिद्रः परमीक्षते॥१३॥ यथा कंटकविद्धांगो जंतोर्नेच्छति तां व्यथाम्॥ जीवसाम्यं गतो लिंगैर्न तथाऽविद्धकंटकः॥१४॥
अग्निकहै है कि, यह मेरा है क्योंकि मेरेही तेजसे यह सब काम करता है, उसका कहना भी सत्य है, पृथ्वी आदिक कहते हैं कि, हमाराहै अन्त समय हमारे सिवाय और कहीं जाही नहीं सक्ता, उनके कहने में भी कुछ संशय नहीं और श्वानादिक कहते हैं हमारा है एक दिन हम इसको खायँगे, उनका कहना भी झूॅठ नहीं॥११॥ इस प्रकार यह तुच्छ शरीर मायाहीसे उत्पन्न होता है और मायाही में लय हो जाता है और पाँच सात विवादी उसमें विवाद कर्रेकि, यह हमारा है, ऐसे झगडेके देहको पाकर केवल अज्ञानियोंके सिवाय ऐसा कौन ज्ञानी पुरुष है जो जीवोंकी हिंसा करै!॥१२॥ जो अज्ञानी पुरुष धनके मदसे अन्धे होजाते हैं उनके लिये दरिद्रही श्रेष्ठ अंजन है दरिद्री पुरुष सब प्राणियोंको दुःख सुखमें अपनी समान देखता है, क्योकि अपने मनमें निर्धन विचार लेता है कि, मुझको दुःखने इस प्रकार बाधा करी थी, ऐसेही ओरोंकोभी बाधा करता होगा, जैसे मुझको सुख होता है ऐसे औरोंकोभी सुख होता है॥१३॥ जिस पुरुषके पाँवमें कॉटा लगेहै वह पुरुष दूसरेके
पॉवमें भी कॉटा लगना नहीं चाहता, वह अपने मनमें विचार करताहै कि, जैसे मुझको कॉटा लगनेसे पीडा हुईहै ऐसेही सबको होती होगी और जिसके कॉटा लगा नहीं वह कॉटेकी पीडाको कैसे जान सक्ताहै कि, कॉटा लगनेसे इतना कष्ट होताहै॥१४॥इस बातपर एक दृष्टान्तहै*
दरिद्री
दारिद्रो निरहंस्तंभो मुक्तः सर्वमदैरिह॥ कृच्छ्रं यदृच्छयाऽप्नोति तद्धितस्य परं तपः॥१५॥
पुरुपका अहंकार, मद और सम्पूर्ण प्रकारका अभिमान नष्ट होजाता है और जो कष्ट आनकर प्राप्त होता है तो वह कष्टही उसको तपस्याकी समान होजाता है; तपमें व्रत हो जाता है, क्योंकि दरिद्री अन्नके विना भूखा प्यासा रहता है, जब दरिद्रीको अन्न न मिले तो निःसन्देह वह भूखा प्यासा
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** *** एक राजा था उसका पुत्र गुरुके पास विद्या पढता था, जब राजाकी अवस्था अधिक हुई तो राजाने विचार किया कि, अब इस मोह ममताको त्यागकर तप करना चाहिये और मंत्रियोंको बुलाकर सब राज्यका प्रबन्ध करदिया और राज्यसिंहासनका अधिकार पुत्रको देना चाहा गह चर्चा उन गुरुके कानमें भी पढी जो उनके पुत्रको पढाते थे गुरुने अपने गनमें विचार किया कि, मैंने राजकुमारको सब विद्या पढार्दी, परन्तु अभीतक इसको दुख सुखका ज्ञान नहीं द्वा, दुख किसे कहते हैं और सुख किसे कहते हैं, ऐसी निया इसको अभी नहीं सिखाई अभी तो यह मेरे घशर्गेहै गे सब कुछ करसक्ताहूं और जब यह अपने वशमें होगया तो मैंकुछ नहीं करसक्ता और जो यह ऐसाही रहा तो न जानिये किस किसको दुःख दे, यह शोच समश उसको अपने पास बुलाकर पाँच सात साँटी ऐसी शक्तिसे मारी कि, शरीरकी सब खाल उडगई और रुधिर बहने लगा, इतने पर भी एक कोठरीगें बन्द करलिया जो तत्काल उपायभी न हो सके और जब वह रोगा तो रोनेतक भी न दिया दोपहरतक बन्द रहा तब उसको खोल दिया और चार लढकोंके साथ राजकुमारको राज्यभवनमें राजाके पास भेजदिया, राजकुमारने अपने पितासे सब वृत्तान्त कहा कि, विना अपराध गुरुने मुझको मारा और अपना सब शरीर दिखाया, राजाने देखा तो साठी जहाँ की तहाँ उल रही है, रक्त बहरहाहै, राजकुमारकी यह दशा देखकर उसके पिताको वढा क्रोध आया और कोतवालको आज्ञा दी कि, उस ब्राह्मणको अभी पकडकरशूली देदो कि, उस निर्दयीने विना अपराध राजकुमारको मारा है, राजाकी आज्ञानुसार कोतवालने पकडकर भिफोंको सौंप दिया कि, इसको शूली देदो, अधिक जिस समय उस ब्राह्मणको शूली देनेको लेचले, तब उस ब्राह्मणने कहा कि, मैं कुछ बात राजा से कहना चाहताहु अधिक बोले चल, ब्राह्मणने राजासे कहा कि, मुझको शूलीकी आज्ञा किसलिये हुई? आपने मुझको राजकुमारके पढानेके लिये नियत किया था या शूली देनेके लिये?राजाने कहा कि, क्या हमने बिना अपराध मारनेके लिये कह दिया था, ब्राह्मण बोला कि, मैंनहीं मारा, राजाने राजकुमारका सब शरीर दिखाया और कहा यह क्या है?ब्राह्मणने कहा कि यह भी एक प्रकारकी विद्या है, राजा वोला कि, यह कैसी निया है? ब्राह्मण बोला कि मैंने सुना कि, प्रात काल राजकुमार राज्यसिंहासनपर बैठेंगे और अभीतक यह नहीं जानते दुःख कैसा होता है और जो मैने इनको दुःख न दिखाया तो यह हजारों मनुष्योंको दुख देंगे, अब इन्होंने दुःखका भेद जान लिया तो अब किसीको विना अपराध दुःख न देंगे अब इनको भले प्रकार दुखका रूप दरशा दिया, राजा त्राह्मणकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुया, और दशा और अनेक प्रकारके आभूषण उसको पारितोपिकमें दे हाथ जोडकर कहा कि, मेरा अपराध क्षमा करना में आपकी गुप्त विद्याको नहीं समझा था, ब्राह्मण राजाको और कुँनरको आशीर्वाद देकर चलागया देवो! पहिले ब्राह्मण कैसे चतुर होतेथे॥
रहेगा तो वही व्रत होजायगा॥१५॥ अन्नकी आकांक्षा करनेवाले दरिद्रीके घर नित्य कडाके होतेहैं. इससे उसका शरीर सूख जाता है, इन्द्रियें शिथिल होजाती हैं, फिर उससे हिंसाभी नहीं होती, जो आपही मरताहै वह दूसरेको कैसे मारसक्ता है? ॥१६॥ दरिद्री मनुष्य सबको समान देखताहै और दरिद्रीको साधु महात्मा पुरुषभी मिलजातेहैं, जिस समय दरिद्री क्षुधित होकर अन्न अन्न पुकारता है, तब साधु महात्मा उससे कहते हैं कि, अरे! कृष्ण कृष्ण पुकार जो सब संसारका पालन पोषण करनहाराहै. इसप्रकार वह साधु महात्मां लोग उसके अन्नकी तृष्णाको दूर करदेतेहैं, तब शीघ्र उसका संताप छूटजाता है॥१७॥ समचित्त और परमेश्वरके चरणानुरागी साधु महात्मा पुरुषोंको दरिद्रीही प्यारा होता है, उनको लक्ष्मीके मदसे
नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकांक्षिणः॥ इंद्रियाण्यनुशुष्यंति हिंसापि विनिवर्तते॥१६॥ दरिद्रस्यैव युज्यंते साधवः समदर्शिनः॥ सद्भिः क्षिणोति तं वर्ष तत आराद्विशुध्यति॥१७॥ साधूनां समचित्तानां मुकुंदचरणैषिणाम्॥ उपेक्ष्यैः किं धनस्तंभैरसद्भिरसदाश्रयैः॥१८॥ तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदांधयोः॥ तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनोः॥१९॥ यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ॥ न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ॥२०॥ अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः॥ स्मृतिः स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात्॥२१॥ वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते॥वृत्ते स्वलोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः॥२२॥
उन्मत्त दुष्ट लोगोंसे प्रयोजनही क्या? ॥३८॥ इसलिये मैं इन दोनोंको जोकि वारुणीके मदसे मतवाले, लक्ष्मीके मदसे अन्धे, स्त्रियोंके लम्पट और अजितेन्द्रिय हैं, इनसे अज्ञान हुए मदको मैं दूर करूंगा, क्योंकि इस समय यह अन्धे, होरहेहैं॥१९॥ देखो! यह कुबेरके पुत्र होकर अज्ञानमें डूवरहे हैं, यह नहीं जानते कि हम नंगे हैं, इनको कुछ भी अपने तनुकी सुधि नहीं अत्यन्त मतवाले होरहे हैं॥२०॥ इसलिये यह दोनों स्थावर होनेके योग्य हैं जो फिर आगेको इन्हें ऐसा मद न होय और वृक्षयोनिमें भी मेरी कृपासे इनको सुधि बनीरहै॥२१॥ और भगवान् वासुदेवका दर्शन पाकर पीछे फिर स्वर्गमें जाकर देवता होयँ, परन्तु पहिले देवताओंके सौ (१००.) वर्ष वृक्षयोनि भोगनी पडेगी, तदनन्तर
इनको भक्ति प्राप्तहोगी॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! देवर्षि नारदजी इसप्रकार कहकर नारायणके आश्रमको चलेगये, अव नलकूबर, मणिग्रीव, दोनोंं यमलार्जुन वृक्ष हुए॥२३॥ अपने भक्तोंमें मुख्य श्रीनारदजीके वचन सत्यकरनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्र महाराज यमलार्जुनवृक्षोंके निकट हौले हौले चलेगये॥२४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मनमें विचार किया कि, श्रीनारदजी मेरे प्रिय भक्त हैं और यह कुबेरके दोनों पुत्र हैं सो नारद महात्माने इनके विषयमें जो कुछ कहाहै सो सब सत्य करूंगा॥२५॥ इसप्रकार विचार करके यमलार्जुन वृक्षोंके बीचमें होकर निकले और वृक्षोके बीचमें आनकर उलूखल को तिरछा करदिया॥२६॥ रस्सीसे उदरमें बँधे हुए उलूखलको
श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्त्वा स देवर्षिर्गतो नारायणाश्रमम्॥ नलकूबरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनौ॥२३॥ ऋषेर्भा गवतमुख्यस्य सत्यं कतु वचो हरिः॥ जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ॥२४॥ देवर्षिमें प्रियतमो यदिमौधनदात्मजौ॥ तत्तथा साधयिष्यामि यद्गीतं तन्महात्मना॥२५॥ इत्यंतरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ॥ आत्म निवशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम्॥२६॥ बालेन निष्कर्षयताऽन्वगुलूखलं तद्दामोदरेण तरसोत्कलितांघ्रिबंधौ॥ निष्पेततुः परमविक्रमिताऽतिवेपस्कंधप्रवालविटपौ कृतचंडशब्दौ॥ २७॥ तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरंतो सिद्धा वुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः॥ कृष्णं प्रणम्य शिरसाऽखिललोकनाथं बद्धांजली विरजसाविदमूचतुः स्म॥२८॥ कृष्णकृष्ण महायोगिस्त्वमाद्यः पुरुषः परः॥ व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः॥२९॥
बालकरूप श्रीकृष्ण दामोदरने झटका मारकर खींचा, उस समय दोनोंवृक्ष जडसे उखड़कर पृथ्वीपर गिरपडे, श्रीकृष्णके पराक्रमसे गुद्धे, शाखा, डाली और पत्ते, सब कॉपने लगे बड़ा भारी शब्द हुवा॥२७॥ जैसे संघर्षणके होनेसे अनि निकले, ऐसेही अतिशोभायमान दशों दिशा ओंको प्रकाशमान करते दो पुरुष निकले, तब भगवान् त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्णचन्द्रको शिर झुकाकर प्रणाम किया और मदको त्यागा हाथ जोड़ इस प्रकार प्रार्थना करनेलगे॥२८॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगिन्! तुम बालक नहीं हो, परम कारणरूप हो और स्थूलसूक्ष्मरूप जो आपहो
उस रूपको ब्रह्मवेत्ता जानते हैं॥२९॥ सब प्राणियोंके देह, प्राण, इन्द्रिय, अहंकारके आपही एक ईश्वर हो और सम्पूर्णमें व्यापक भगवान् कालरूप आपही हो॥३०॥आपही महानुरूप हो रजोगुण, तमोगुण सत्त्वगुण और सूक्ष्म मायारूप सब तुमही हो, देहोंके विकारके जाननेवाले साक्षीपुरुष आपही हो॥३१॥ आप प्रकृतिके गुण, बुद्धि, अहंकार इन्द्रियादिकसे ग्रहणकरनेमें नहीं आते हो उत्पत्तिसे पहिलेही स्वयंप्रकाश जो आप हो तिनको कारण गुण आच्छादित जीव कैसे जानसक्ताहै॥३२॥ वासुदेव, सर्वके कर्त्ता और स्वयंप्रकाशित किये हुए गुणोंसे जिनकी महिमा टकरही है ऐसे जो आप ज्ञानस्वरूप हैं सो हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं॥३३॥ हे भगवन्! आप सबके शरीरोंमें
त्वमेकः सर्वभूतानां देहोऽस्वात्मेंद्रियेश्वरः॥ त्वमेव कालो भगवान्विष्णुरव्यय ईश्वरः॥३०॥ त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजस्सत्त्वतमोमयी॥ त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित्॥३१॥ गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतै र्गुणैः॥ कोन्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः॥३२॥ तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे॥ आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः॥३३॥ यस्यावतारा ज्ञायंते शरीरेष्वशरीरिणः॥ तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसंगतैः॥३४॥स भवान्सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च॥ अवतीर्णेशभागेन सांप्रतं पतिराशिषाम्॥३५॥ नमः परम कल्याण नमः परममंगल॥ वासुदेवाय शांताय यद्वनां पतये नमः॥३६॥ अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिंकरौ॥ दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात्॥३७॥
रहकरभी शरीरके सम्बन्धसे रहित हो और यद्यपि आपका शरीरभी नहीं है परंतु जब अवतार धारण करते हो तब और प्राणियोंसे न होनेवाले जिनकी तुल्य वा अधिक कोई नहीं करसक्ता, ऐसे ऐसे चरित्रोंसे आपके अवतार जाने जाते हैं॥३४॥ सब लोकोंके ऐश्वर्य और मोक्षके लिये निरन्तर परिपूर्ण रूप होकर अपने अंशोंसहित प्रगट हुए हो॥३५॥हे परमकल्याणरूप! हे मंगलरूप! आपको नमस्कार हैं, आपके शान्त रूपको नमस्कार हैं. हेवासुदेव! यदुकुलके रक्षा करनेवाले आपको बारंबार नमस्कार है॥३६॥हे परिपूर्ण भगवन्! हम आपके दासोंके दास हैं, हमने भगवान् नारदजी महाराजकी कृपा से आपका दर्शन पायाहै और आपको परिपूर्ण रीतिसे जाना अब हमको आप आज्ञा दीजिये॥३७॥
हमारी वाणी आपके गुणानुवादोंको निरन्तर गाया करैकान आपकी कथाओंको सदा सुनते रहें, हाथ आपकी सेवा और पूजनमें लगेरहैं हमारा मन सदा आपके चरणारविन्दोंमें लगारहै, हमारा मस्तक आपके निवासरूप जगत्को प्रणाम करतारहे, और हमारी दृष्टि तुम्हारी साधु मूर्तियोंका नित्यप्रति दर्शन किया करे, हे दीनबन्धु ! हम बारंबार आपसे यह वर मांगते हैं॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब इसप्रकार नलकूबर, मणिग्रीवने गोकुलनाथ भगवान्की स्तुतिकरी, तब रस्सीसे उलूखल जिनके उदरमें बॅधरहा ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्द मुसकराकर बोले॥३९॥ श्रीभगवान् बोले कि हे यक्षो! करुणामय श्रीनारदजीने लक्ष्मीके मदसे तुमको अन्धा देखकर शाप दिया और तुमको लक्ष्मीसे भ्रष्ट करके तुम्हारे ऊपर अनुग्रह किया, इस सब इतिहासको मैं पहिलेहीसे जानता था॥४०॥ समानचित्त, ब्रह्मज्ञानी, सनातन धर्ममें तत्पर,
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः॥ स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम्॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सकीर्तितस्ताभ्यां भगवान्गोकुलेश्वरः॥ दाम्ना चोलू खले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ॥३९॥ श्रीभगवानुवाच॥ ज्ञातं मम पुरैवैतदृषिणा करुणात्मना॥ यच्छ्रीमदांधयो वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः॥४०॥ साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्॥ दर्शनान्नो भवेद्वंधः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा॥४१॥ तद्रच्छतं मत्परमौ नलकूबरसादनम्॥ संजातो मयि भावो वामीप्सितः परमोऽभवः॥४२॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः॥ बद्धोलूखलमामंत्रय जग्मतुर्दिशमुत्तराम्॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे यमलार्जुनयोः नारदशापमोचनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
उनमें भी मुझमें निरन्तर मन लगानेवाले महात्मा पुरुषोंके दर्शनसे ऐसे पुरुषोंका बन्धन कटजाता है जैसे सूर्यके दर्शनसे नेत्रोंका अन्धकार दूर होजाता है॥४१॥ हे नलकूबर।हे मणिग्रीव! तुम मेरे भक्त होकर अपने स्थानको जाओ, तुम्हारी मेरेविषे सर्वदा भावना रहेगी और तुम्हारा जन्म मरण रूप संसार मुझमें प्रेम करनेसे छूट गया॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्।इस प्रकार भगवान्के वचन सुनकर नलकूबर, मणिग्रीव बारंबार परिक्रमा करके प्रणाम करने लगे और उलूखलसे बँधेहुए श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा लेकर उत्तर दिशाको चले गये॥४३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वाधेभाषाटीकायां यमलाऽर्जुनयोः नारदशापमोचनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
दोहा— ग्यारहमें बछरन सहित, वृन्दावन हरि आय। वत्सासुर अरु बकासुर, हने कहूं सो गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले, हे कुरुकुलभूषण! वृक्षोंके गिरानेका शब्द सुन यशोदा अत्यन्त व्याकुल होकर दौड़ी और जिस उलूखलसे कृष्णको बाँधा था वहां न तो कृष्णको पाया और न उलूखलको देखा, तब तो एकाएकी घबराकर हा कृष्ण! हा कृष्ण! हा मोहनप्यारे! कह कहकर चिल्ला चिल्ला रोने लगीं, यशोदाकी चिल्लाहट सुनकर नन्दा दिक समस्त गोप कहने लगे कि, यह कोई वज्र गिरा वा कोई और नया उत्पात हुवा।इस भयसे भयभीत हो सब गोप वहॉ आये जहां वृक्ष गिरे थे॥१॥देखा तो पृथ्वीपर यमलार्जुन वृक्ष उखड़ा हुवा पड़ाहै, गिरनेका कारण विद्यमान है, परन्तु गोपोंके मनमें भ्रम हुवा कि, आंधीभी नहीं आई वज्रभी नहीं टूटा, फिर यह वृक्ष आपसेआप कैसे उखड़पडे॥२॥ रस्सीसे बॅधे बालक श्रीकृष्णको उलूखल खैंचते देखा तो भी ब्रजवासियोंने न
श्रीशुक उवाच॥ गोपा नंदादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो खम्॥ तत्राजग्मुः कुरुश्रेष्ठ निर्घातभयशंकिताः॥१॥ भूम्यां निपतितौ तत्र दुद्दृशुर्यमलार्जुनौ॥ बभ्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम्॥२॥ उल्लूखलं विकर्षंतं दाम्ना वद्धंच बालकम्॥ कस्येदं कुत आश्चर्यमुत्पात इति कातराः॥३॥ वाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतमुलूखलम्॥ विकर्षता मध्य गेन पुरुषावप्यचक्ष्महि॥४॥ न ते तदुक्तं जगृहुर्न घटेतेति तस्य तत्॥ बालुस्योत्पाटनं तर्वोः केचित्संदिग्धचे तसः॥५॥ उल्लूखलं विकर्षतं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम्॥ विलोक्य नंदः प्रहसद्वदनो विमुमोच ह॥६॥
जाना और परस्पर कहने लगे कि, यह किस राक्षसका काम है कहांसे यह आश्चर्यरूप उत्पात हुवा, ऐसे कह व्रजवासी डरने लगे॥३॥ वहां जो छोटे छोटे बालक खेल रहे थे उन्होंने कहा कि, यह श्रीकृष्ण उलूखलको खैंचे वृक्षोंके बीचमें आगया, तब यह उलूखल तिरछा होकर इन दोनों वृक्षोंके बीचमें अड़गया, तब इसने झटका मारकर खींचा, इससे यह दोनों वृक्ष गिरपड़े इनमेंसे दिव्यरूप दो पुरुष निकले उनको भी हमने देखा॥४॥ बालकोंकी बातका किसी किसी ब्रजवासीने तो विश्वास न माना और परस्पर कहने लगे कि, तनकसे बालकने इतने इतने बड़े वृक्षोंको कैसे उखाड़ डाला? और कोई कोई व्रजवासी कहने लगे कि, इस बालकने जन्मसेही ऐसे औटपाय कियेहैं, जब बहुतही छोटा सा था तो पूतनाको मारा, तृणावर्त्तको मारा और गाड़ा पटकदिया, फिर यह, दो वृक्ष उखाड़ डाले तो क्या अचम्भा है॥५॥ उलूखलको उदरमें बॅधा देखकर
नन्दरायजी बोले कि, तुझको उलूखलसे किसने बाँधा है। तब श्यामसुन्दरने कहा कि, मेरी प्यारी मैयाने, कृष्णके तुतलाते मधुरवचन सुन नन्दरायने उलूखलसे खोल हृदयसे लगालिया और हँसके बोले कि, चल बेटा तेरी मैयाको मारेंगे, श्रीकृष्ण बोले पिताजी! मेरी मातासे कुछ मत कहना, क्योंकि उसका कुछ दोष नहीं सब अपराध मेराही है॥६॥ तब गोपियें बोलीं कि, हे मनमोहन प्यारे! हम तो ताली बजावैं और तुम नाचो हम तुमको बहु तसा माखन खिलावेंगी, यह सुन श्रीकृष्ण भगवान् कभी वालककी नाईं नाचतेथे और कभी भोले बनकर गातेथे, जैसे काठकी पुतली बाजीगरके हाथमें
गोपीभिः स्तोभितोऽनृत्यद्भगवान्बालवत्क्कचित्॥ उद्गायति क्वचिन्मुग्धस्तद्वशो दारुयंत्रवत्॥७॥ बिभर्ति कचिदाज्ञप्तः पीठकोन्मानपादुकम्॥ बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन्॥८॥ दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम्॥ व्रजस्योवाह वै हर्षं भगवान्बालचेष्टितैः॥९॥ गृह्णीहि भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः॥ फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रदः॥१०॥
होतीहै और जिधरको फेरताहै, उधरको फिरतीहै ऐसेही गोपियोके प्रेमके वशमें परब्रह्म परमेश्वर होरहेहैं॥७॥ कभी यशोदाजी कहें हैं कि, हे बेटा! पीढ़ा लेआव, कभी कहती बाबाकी खड़ाऊं ले आव, तब तुरन्तही पीढ़ा ले आवैं और तुरन्तही खड़ाऊं ले आवैं और जब कोई वस्तु नहीं उठती तवं माता माता पुकारतेहैं, इसप्रकार व्रजवासियोंको लीलाकरके आनंद देतेहैं॥८॥ संसारमें पण्डित लोगोंके दिखानेको कि, “में इसप्रकार भक्त लोगोंके वशमें हूं” जस नचातेहैं वैसे नाचता हूं, इसप्रकार बाललीला करके व्रजवासियोंको प्रसन्न करतेहैं और व्रजवासी आनन्दित होतेहैं॥९॥ (एकसमय फल लो! ऐस
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** * शंका—**अपने पुत्र श्रीकृष्णको बहुत रोता देखकर और कमरमें बहुत कसके रस्सीमें वॅधा देखकर और वृक्षोंको टूटा हुआ देखकर, कभी श्रीकृष्णके ऊपर न गिरगया हो परन्तु श्रीकृष्णकी देहमें कहीं चोट नहीं लगीं, परमेश्वरने शरीरकी रक्षा की, ऐसे अपने पुत्रको देखकर नन्दजी क्यों हॅसे? बालकको दुखी देखकर तो ऊपरी लोगभी शोच करने लगते हैं और श्रीकृष्ण नन्दजीके पुत्र ठहरे फिर नन्दजीने शोच किस लिये नहीं किया?
** उत्तर—**नन्दजी गर्गाचार्यके वचनोंको स्मरण करके हँसे क्योंकि गर्गाचार्य नन्दजीसे पहिलेही कह गये ये श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् नारायणका सरूपहैंश्रीकृष्णके जन्मसे नन्दजीने अपने भाग्यको लक्ष्मीके प्राणपति जगत्के स्वामी ऐसे श्रीकृष्णको बारबार नमस्कार करके और अपने आपको धन्य जानकर मनमें परमानन्द होकर नन्दजी हँसेथे कि, देखो? आज मेरे भाग्यकी वढाई शिव, सनकादिक भी नहीं कर सक्ते॥
मालिनीका शब्द सुनकर, सम्पूर्ण फलोंके देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान् धान्य लेकर फल लेनेको चले॥१०॥ मालिनीने उनके धान्य डाल देनेके उपरान्त मनमोहन प्यारेकी परमप्यारी छवि देख उनके दोनों हाथ फलोंसे भर दिये. तब व्रजरत्नने उसकी डलिया रत्नोंसे भरदी॥११॥ यमलार्जुन वृक्षोंको उखाडके श्रीकृष्ण यमुनाके तीरपर बालकोंके संग बलभद्रसहित खेल रहे थे, इनको रोहिणीजीने पुकारा दोनों भाई खेलमें ऐसे मग्न हो रहे थे कि, रोहि णीके बुलानेसे भी न आये, तब पुत्रसे प्रेम करनेवाली यशोदाजींको रोहिणीने बुलानेकेलिये भेजा॥१२॥ १३॥१४॥बालकोंके संग कृष्ण बलदेवके खेलते खेलते जब बहुत दिन चढ़ गया, तब यशोदा के पुत्र के स्नेहसे स्तनोंमेंसे दूध टपकने लगा तब यशोदाजी श्रीमनमोहन प्यारेको बुलाने लगीं
फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम्॥ फलैरपूरयद्रत्नैः फलभांडमपूरि च॥११॥ सारत्तीरगतं कृष्णं भग्ना र्जुनमथाह्वयत्॥ (रामं च रोहिणी देवी क्रीडतं बालकैर्भृशम्)॥जन्मर्क्षमद्य भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः॥१२॥ पश्यपश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान्स्वलंकृतान्॥ त्वं च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलंकृतः॥१३॥ नोपेयातां यदाहू ता क्रीडासंगेन पुत्रकौ॥ यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम्॥१४॥ इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं मत्वा सुतं स्ने हनिबद्धधीर्नृप॥ हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतं नीत्वा स्ववाटं कृतवत्यथोदयम् ॥१५॥ क्रीडतं सा सुतं बालैरतिवेलं सहाग्रजम्॥ यशोदाऽजोहवीत्कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी॥१६॥ कृष्णकृष्णारविंदाक्ष तात एहि स्तनं पिब।अलं वि हारैः क्षुत्क्षांतः क्रीडाश्रांतोऽसि पुत्रकः॥१७॥ हे रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनंदन॥ प्रातरेव कृताहारस्तद्भवान्भो त्कुमर्हति॥१८॥ प्रतीक्षते त्वां दाशार्होभोक्ष्यमाणो ब्रजाधिपः॥ एह्यावयोः प्रियं धेहि स्वगृहान्यात बालकाः॥१९॥
॥१५॥ १६॥ हे कृष्ण! हे कमलदललोचन! हे प्यारे पुत्र!स्तनपान करले, तू खेलते खेलते थकगया होगा. हे तात। तुझको भूख बहुत लगी होगी अब खेलको रहनेदे, संध्याको फिर खेलना॥१७॥ हे राम! हे मोहन! हे नंदलाल! हे कुलभूषण! शीघ्र छोटे भाईको अपने साथ लेकर घरको आवो प्रातःकालही कलेऊ कर लिया है अब आनकर भोजन करले॥१८॥अरे खेलके मतवाले! ब्रजनाथ तुझ विना भोजन करनेको बैठे हैं, तेरे आनें की बाट देखरहे हैं, तुझको वृढे बाबाकी दया नहीं आती, तू आनकर हमको प्रसन्न कर, इस बातको सुनकर कृष्ण आये तब बालक बोले कि,
जैसे तैसे करके तो खेल जमा है अब श्रीकृष्ण जाते हैं, इसको कभी नहीं खिलानेके, यह बात सुनकर श्रीकृष्ण फिर खेलने लगे, तब यशोदा बोली कि, अरे बालको! तुम्हारे घरबारहै कि नहीं, क्यों नहीं अपने घरोंको जाते॥१९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, जब व्रजमें बडेबडे उत्पात होने लगे तब नन्दादिक वृद्ध वृद्ध व्रजवासियोंने विचार किया कि, महावनमें तो नित नये उत्पात होते हैं. अब गोकुलके हितका कोई।विचार करना चाहिये॥२०॥ जोकि ज्ञान और अवस्था करके अधिक देश कालके तत्त्वको जाननेवाले और बलभद्र व कृष्णचन्द्रके अतिहित करनेवाले उपनन्द नाम गोप तहाँ बोले॥२१॥ गोकुलके हितकी इच्छा करके उपनन्द कहने लगे कि, हम यहाॅसे उठके और स्थानपर वास करेंगे, यहां बालकोंके विघ्न करनेवाले बहुतसे उत्पात होतेहैं॥२२॥ बालकोकी घातिक पूतना राक्षसीके हाथसे जैसे
श्रीशुक उवाच॥ गोपवृद्धा महोत्पाताननुभूय बृहद्वने॥ नंदादयः समागम्य व्रजकार्यममंत्रयन्॥२०॥ तत्रोपनंदनामाह गोपो ज्ञानवयोधिकः॥ देशकालार्थतत्त्वज्ञः प्रियकृद्रामकृष्णयोः॥२१॥ उत्थातव्यमितोऽस्माभिर्गोकुलस्य हितैषिभिः॥ आयांत्यत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः॥२२॥ मुक्तः कथंचिद्राक्षस्या बालघ्न्या वालको ह्यसौ॥ हरेरनुग्रहान्नूनमनश्चोपरि नापतत्॥२३॥ चक्रवातेन नीतोऽयं दैत्येन विपदं वियत्॥ शिलायां पतितस्तत्र परित्रातः सुरेश्वरैः॥२४॥ यन्न म्रियेत द्रुमयोरतरं प्राप्य बालकः॥ असावन्यतमो वापि तदप्यच्युतरक्षणम्॥२५॥ यावदौत्पातिकोऽरिष्टो व्रजं नाभिभवेदितः॥ तावद्वालानुपादाय यास्यामोऽन्यत्र सानुगाः॥२६॥ वनं वृंदावनं नाम पशव्यं नवकाननम्॥ गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम्॥२७॥
तैसे कर यह बालक बचा और एक समय शकट इसके ऊपर गिरा उस विपत्तिसेभी भगवान्की कृपासे बचा॥२३॥ एक समय तृणावर्त बबूलेका रूप धरके इस बालकको आकाशमें उडाकर लेगया और वहाँसे उसने शिलाके ऊपर पटक दिया, वहाँभी देवताओंने इसकी रक्षा करी॥२४॥ यह बालक उलूखलमें बॅधाहुआ दोनों वृक्षोंके बीचमें फॅसगया और मरनेसे बचा, वहाँ उस समय और बालक भी कोई नही था, वहॉ भी इस बालककी परमात्माने रक्षा करी॥२५॥अब परमेश्वर और कोई दूसरा उत्पात व्रजमें न खडा करदे, इससे पहिलेही बालकोको यहांसे लेकर और दूसरी ठौर कहीं चल बसैं॥२६॥ पशुओंका हितकारी और नये बाग बगीचे और पुष्पवाटिकावाला श्रीवृन्दावन
नाम वन है और वहीं अतीव उत्तम गोप गोपी, गायोंके रहने योग्य स्थान हैं और महापवित्र जहाँ गोवर्धन पर्वत है, यमुनाजीका किनारा है वहॉ तृण, जल, लता और उत्तम उत्तम सब प्रकारके वृक्ष हैं॥२७॥ उस वृन्दावनका वास सदैव अच्छा है, आपकी इच्छा हो तो गाडोंको जोतो और गायोंको आगे हाँकलो, अब विलम्ब करनेका समय नहीं है इस प्रकार उपनन्द गोपने नन्दजीसे कहा॥२८॥ उपनन्द गोपके वचन सुनकर सब वृद्धजनोंने कहा धन्य है आपकी बुद्धिको आपने बहुत अच्छा कहा. हे व्रजराज! उपनन्दका कहना बहुत ठीकहै, हमारी भी सम्मति यहीहै वृंदावनमें वास कीजिये नन्दजीने कहा हमारीभी यही इच्छा थी परन्तु आपके कहनेसे और पक्की बात होगई. नन्दजीकी बात सुन
तत्तत्राद्यैव यास्यामः शकटान्युंक्त माचिरम्॥ गोधनान्यग्रतो यांतु भवतां यदि रोचते॥२८॥ तच्छुत्वै कधियो गोपाः साधुसाध्विति वादिनः॥ व्रजान्स्वान्स्वान्समायुज्य ययू रूढपरिच्छदाः॥२९॥ वृद्धान्बालान्स्त्रियो राजन्सर्वोपकरणानि च॥ अनस्स्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्तशरासनाः॥३०॥ गोधनानि पुरस्कृत्य शृंगा ण्यापूर्य सर्वतः॥ तूर्यघोषेण महता ययुः सहपुरोहिताः॥३१॥ गोप्यो रूढरथा नूलकुचकुंकुमकांतयः॥ कृष्णलीला जगुः प्रीता निष्ककंट्यः सुवाससः॥३२॥ तथा यशोदारोहिण्यावेकं शकटमास्थिते॥ रेजतुः कृष्णरामाभ्यां
तत्कथाश्रवणोत्सुके॥३३॥
सबने अपनी अपनी गाडियोंको जोत घरकी सब सामग्री लादकर चलदिये॥२९॥ हे राजा परीक्षित्। प्रथम सब समानको गाडियोंमें भरकर ऊपर वृद्ध, बालक, स्त्रियोंको बैठालकर, धनुष बाण हाथोंमें लेलेकर॥३०॥ सब व्रजवासी सावधान हो गायोंको आगे कर, चारोओर बड़े बड़े रणसिंग बजाते और तुरहीका शब्द करते पुरोहितको संग लेकर सब गोकुलवासी वृन्दावनको चलदिये॥३१॥ गाडियोमें बैठी गोपी नवीन केशर कुचाओमें लगाये कठला, धुकधुकी कण्ठमें पहिरे, रथ और गाडियोंमें बैठीं कृष्णकी लीला गाती जाती थीं॥३२॥ उसी प्रकार रोहिणी और यशोदा भी एक गाडीमें श्रीकृष्ण और बलदेवजीको साथ लिये बैठी थीं और
उनकी लीला और चारित्रोंको सुन सुनकर आनन्दको प्राप्त होती थीं॥३३॥ सर्वानन्दको देनेवाले वृन्दावनमें आनकर गाडियोंको बराबर खडा करके अर्द्धचन्द्रमाकी समान गायोंके रहनेके लिये एक खिरक बनाया॥३४॥ हे राजन्।वृन्दावन, गोवर्द्धन और यमुनाजीका अत्यन्त रमणीक तट देखकर श्रीकृष्ण और बलराम बहुत प्रसन्न हुए॥३५॥ इसप्रकार बाललीला और तोतली मधुरवाणीसे व्रजवासियोंको आनन्द देने लगे और जब दोनों भाई बछरे चरावने योग्य हुए तब वत्सपालक कहलाये॥३६॥ व्रजभूमिके निकटही गोपालोंके बालकोंको संग लेके श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई बछरोंको चराने लगे और भाॅति भाँतिकी क्रीडा नित्य प्रति करने लगे॥३७॥ कभी बाँसुरी बजाते थे और कभी आमलोंको गोफनमें धरधरकर चलाते थे कभी पावोंमें घूॅघुरू बॉधकर ऐसा नाच नचातेथे कि, अप्सराओंको लजाते थे. कभी परस्पर युद्ध करते
वृंदावनं संप्रविश्य सर्वकालसुखावहम्॥ तत्र चक्रुर्व्रजाऽऽवासं शकटैरर्धचंद्रवत्॥३४॥ वृन्दावनं गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च॥ वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप॥३५॥ एवं व्रजौकसां प्रीति यच्छंतौ बालचेष्टितैः॥ कलवाक्यैः स्वकालेन वत्सपालौ बभूवतुः॥३६॥ अविदूरे ब्रजभुवः सहगोपालदारकैः॥ चारयामासतुर्वत्सान्नानाक्रीडा परिच्छदौ॥३७॥ क्वचिद्वादयतो वेणुं क्षेपणैः क्षिपतः क्वचित्॥ क्वचित्पादैः किंकिणीभिः क्वचित्कृत्रिमगोवृषैः॥३८॥ वृषायमाणो नर्दंतौ युयुधाते परस्परम्॥ अनुकृत्य रुतैर्जतूंश्चेरतुः प्राकृतौ यथा॥३९॥ कदाचिद्यमुनातीरे वत्सां श्वारयतोः स्वकैः॥ वयस्यैः कृष्णबलयोर्जिघांसुदैत्य आगमत्॥४०॥
थे, कभी कम्बल उढाय कृष्ण बलदेव दोनों भैया ग्वालोंको बैल बनाते थे और उनके संग आप भी बैल बनकर गम्भीर शब्द करते थे॥३८॥ कभी पक्षियोंकी बोली बोल बोलकर कहतेहैं कि, हम हंस हैं कोई कहते हम मोर हैं, जैसे प्राकृत बालक खेल खेलतेहैं वैसेही दोनों भाई वनमें जाकर गोपोंके संग नये नये खेल खेलते थे॥३९॥ एक समय यमुनाजीके तीरपर श्रीकृष्ण और बलराम बछरे चरानेको गये और वहॉ कंसने सुना कि, नन्दादिक गोप गोकुल छोडकर वृन्दावनमें जा बसे हैं, तब कंसने अपने साथी वत्सासुरको बुलाकर विनयपूर्वक अपने दुःखका सब वृत्तान्त कहाकि, भाई! नन्दके पुत्रने मुझको बडा दुःख देरख्काहै, कोई ऐसा उपाय करो जो वह बालक माराजाय. कंसकी यह बात सुन बत्सासुर वछरेका रूप बनाकर वृन्दावनमें
गया॥४०॥ और जो बछरे कृष्ण और बलराम चराते थे उन्हीं बछरोंमें मिलकर यह भी चरने लगा और भयानकरूप देख सब बछरे डरकर जहाॅतहाँको भागगये. तब श्यामसुन्दरने उस राक्षसको पॅहचानकर आखकी सैनसे बलदेवजीको जताया कि, देखो भाई! यह दुष्ट राक्षस कंसका भेजाहुवा बछरेका रूप धरकर मेरे मारनेके लिये यहां आया है, तुम भी इसका ध्यान रखना॥४१॥ वत्सासुर भी घूमता घामता अपनी घात लगाताहुवा धीरे धीरे वृन्दावनविहारीके समीप आ पहुॅचा, तब श्रीकृष्णचन्द्रने उसका पिछला पैर पकड़कर एक कैथाके पड़ेकी जडमें घुमाकर ऐसा मारा कि, उसका प्राण निकलकर परमधामको सिधारा, बड़े भारी शरीरवाला वत्सासुर दैत्य कैथाके वृक्षसहित पृथ्वीपर गिरा॥४२॥ उसको गिरा देखकर सब बालक अत्यन्त विस्मित हो धन्य धन्य कहने लगे और अत्यन्त प्रसन्न हो देवताओंने आकाशसे फूल बरसाये॥४३॥ समस्त
तं वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः॥ दर्शयन्बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत्॥४१॥ गृहीत्वाऽपरपादाभ्यां सहलां गूलमच्युतः॥ भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद्गतजीवितम्॥ स कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह॥४२॥ तं वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति॥ देवाश्च परिसंतुष्टाः बभूवुः पुष्पवर्षिणः॥४३॥ तौ वत्सपालकौभूत्वा सर्वलोकैकपालकौ॥ सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयंतौ विचेरतुः॥४४॥ स्वस्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यंत एकदा॥गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम्॥४५॥
बाल कोंकी रक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेव दोनों भ्राता बछरोंके वत्सपाल होकर प्रातः कालका कलेवा लेकर वनमें जाय बछरोंको चराते और अनेक अनेक प्रकारकी लीला विहार करते थे॥४४॥ जब कंसने वत्सासुरके मारे जानेका वृत्तान्त सुना तो बडा शोच किया? और उसके भाई बकासुरसे जाकर कहा कि, तू अपने भाईका बदला ले और उस दुष्ट कृष्णको मारकर मेरी छाती ठण्डी कर. यह बात सुनकर बकासुर बग लेका रूप धारण कर वृन्दावनमें आया और कालिन्दीके किनारे पर्वताकार हो, मुंह फैलाकर इस घातमें जा वैठा कि, श्याम सुन्दर यहाॅआवै तोनिगल जाऊॅउस दिन सब बालक अपने अपने बछरोके समूहोंको यमुनाजीके निकट जल पिलानेके लिये गये, वहाँ जाय बछरोंको जल
पिलाया और आप भी पिया॥४५॥ और वहाॅउन बालकोंने वज्रसे टूटे गिरे पर्वतके शिखरके तुल्य बड़े मुखवाला एक पक्षी देखा और उसको देखकर अत्यन्त भयभीत हुए॥४६॥ यह महाबली तीक्ष्णचोंचवाला बगलेका रूप धारणकिये बकासुरनाम दैत्य था. वह बकासुर बलवान् आन कर श्रीकृष्णको शीघ्रही निगल गया और कहा कि, मैंने आज अपने बत्सासुरका बदला ले लिया॥४७॥ जब श्रीकृष्णको बकासुर लीलगया तब बलदेवादिक सब बालक विना प्राणोंके इन्द्रियकी समान अचेत होगये और रोरोकर कहने लगे कि, हाय! हम सब यशोदाको जाकर क्या उत्तर देंगे? जिसने अपना प्यारा पुत्र हमको सौपदिया था, सब दौडे हुए बलदेवजीके पास आये और वृत्तान्त सुनाया कि, हमने बहुतेरा वर्जापरन्तु श्यामसुन्दरने हमारा कहना एक न माना, अब हम क्या करैंऔर क्या न करें? बलदेवजी बोले कि, तुम घबराओ मत, उस दैत्यको मार
ते तत्र ददृशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम्॥ तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं गिरेः शृंगमिव च्युतम्॥४६॥ स वै वको नाम महान सुरो वकरूपधृक्॥ आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतंडोऽग्रसद्वली॥४७॥ कृष्णं महाबकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः॥ बभूवुरिंद्रियाणीव विना प्राणं विचेतसः॥४८॥ तं तालुमूलं प्रदहंतमग्निवद्गोपालसूनुं पितरं जगद्वरोः॥ चच्छर्द सद्योऽतिरुषाऽक्षतं बकस्तुंडेन हंतुं पुनरभ्यपद्यत॥४९॥ तमापततं स निगृह्य तुंडयोर्दोर्भ्यांबकं कंससखं सतां पतिः॥ पश्यत्सु बालेषु ददार लीलया मुदावहो वीरणवद्दिवौकसाम्॥५०॥ तदा बकारिं सुरलोकवासिनः समा किरन्नंदनमल्लिकादिभिः॥ समीडिरे चानकशंखसंस्तवैस्तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे॥५१॥
कर मनमोहन प्यारे अभी आते हैं, उसी समय गायनके पालनकरनहारे, नन्दके दुलारे, ग्वाल बालोंके प्यारे, यशोदाके नेत्रोंके तारे, जगत्के गुरु, ब्रह्माके पिता, श्रीकृष्णचन्द्रने अग्निके अंगारकी समान उसके तालूको जलाना आरम्भ किया, उस बकासुरने कृष्णको तुरन्तही उगलदिया और उनके शरीरमें कुछ भी कष्ट न हुवा, तब तो अत्यन्त क्रोध करके फिर बकासुर व्रजविहारीके ऊपरको धाया॥४८॥ ४९॥ सज्जनोंके सहायक, देवताओंके आनन्ददायक, श्रीकृष्ण यदुनायक, कंसके सखा बकासुरको फिर आता देख दोनों हाथसे उसकी चोंच पकडके सब बालकोंके देखते देखतेही तृणकी समान चीरकर बगेल दिया॥५०॥ उस समय सुरपुरनिवासी देवताओंने बकासुरके मारनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके
ऊपर नन्दनवनके मालतीके पुष्पोंकी वर्षा करके दुंदुभि और शंख बजाय बजाय उनकी स्तुति करने लगे. इस कौतुकको देख देखकर ग्वाल बाल आश्चर्य मानते थे॥५१॥ जैसे इंद्रिये प्राण आनेसे आनन्दित होती हैं तैसे बलभद्रादिक सब बालक बकासुरके मुखसे निकलेहुए श्यामसुन्दर प्यारेको देखकर आनन्दितहुए और छातीसे लगाकर सब बालक उनसे मिले और सब बछरोंको इकट्ठा करके बारंबार प्रशंसा करने लगे॥५२॥ यह सुनतेही गोप और गोपी बहुत संशय करने लगे और गोप गोपी बडे आदर सत्कारसे श्रीकृष्णको देखनेलगे जैसे कोई मृतक होकर घर आजाताहै और सब कुटुम्बियोंका चित्त उनको देखते २ तृप्त नहीं होता॥५३॥ सब गोप कहने लगे कि, इस बालकके ऊपर बडी बडी विपत्तियें पडी, परन्तु जो मारनेको आया वह आपही मारागया, क्योंकि पहिले उन्होंने औरोंको भय दिखाया॥५४॥ महाभयंकर रूप घर घरकर अनेक असुर और राक्षस कृष्णके
मुक्तं वकास्यादुपलभ्य बालका रामादयः प्राणमिवेंद्रियो गणः॥ स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृताः प्रणीय वत्सान्त्रज मेत्य तज्जगुः॥५२॥ श्रुत्वा तद्विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियादृताः॥ प्रेत्यागतमिवौत्सुक्यादैक्षंत तृषितेक्षणाः॥५३॥ अहो बताऽस्य बालस्य बहवो मृत्यवोऽभवन्॥ अप्यासीद्विप्रियं तेषां कृतं पूर्वं यतो भयम्॥५४॥ अथाप्यभिभवं त्येनं नैवैते घोरदर्शनाः॥ जिघांसयैनमासाद्य नश्यंत्यग्नौपतंगवत्॥५५॥ अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्याः संति कर्हिचित्॥ गर्गों यदाह भगवानन्वभावि तथैव तत्॥५६॥ इति नंदादयो गोपाः कृष्णरामकथा मुदा॥ कुर्वंतो रममाणाश्च नाविंदन्भववेदनाम्॥५७॥ एवं विहारैः कौमारे कौमारं जहतुर्व्रजे॥ निलायनैः सेतुबंधैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः॥५८॥ इति श्रीभागव०महापुराणे दशमस्कंधे पू० वत्सवकवधो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
मारनेको आये, परन्तु परमेश्वरकी दयासे इनका कुछ कर न सके, आपही मरनेके लिये इसके पास आये जैसे अग्निमें आकर पतंग जल जाते हैं तैसे आपही आनकर मरजातेहैं॥५५॥ अहो! वेदवादियोंकी वाणी कभी मिथ्या नहीं होती जो जो बातें गर्गाचार्य कहगये थे, वह सब बातें अब सत्य होती जाती हैं॥५६॥ इस प्रकार कृष्ण बलरामकी रसभरी बातें कह कहकर आनन्दित होते थे और सुख पातेथे, जिन्होंने भवसागरकी वेदनाको कुछ न समझा इस प्रकार आँखमिचौनी, पुल बांधने, बन्दरोंकी समान कूदना, यह कौमार अवस्थाके खेल कर करके श्रीकृष्ण बलराम कौमार अवस्था व्यतीत करते थे॥५७॥५८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां वत्सबकवधो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥
दोहा— द्वादशमें घरि सर्प वपु, निगले ग्वाल रु बाल। तासुं अघासुरको हनो, कृपासिंधु गोपाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! श्रीकृष्णने एक दिन वनमें भोजन करनेके विचारसे प्रातःकाल उठकर सुन्दर शृंगी बजाकर अपने प्यारे ग्वालबालोंको जगाया और कलेवा बाॅध बछरोंको आगेकर श्रीकृष्णचन्द्र घरसे निकले॥१॥ उन श्रीकृष्णके संग स्नेही ग्वालोके सहस्रों बालक उत्तम उत्तम छींके, बेत शृंगी और बॉसुरी लेलेकर सहस्रसे भी अधिक संख्यावाले अपने अपने बछरोंके समूहोंको आगे करके आनन्द सहित घरसे चले॥२॥ असंख्यात श्रीकृष्णके बछरोंमें मिलाकर चराते।चराते बाललीला करकरके यह बालक जहाॅतहाॅविहार करते थे॥३॥ मणियोंसे जडाऊ सुवर्णके गहने पहने हुए थे, तोभी वनमें जाकर फलोंके कोंप
श्रीशुक उवाच॥ क्कचिद्वनाशाय मनो दधद्रजात्प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान्॥ प्रबोधयञ्गरवेण चारुणा विनि गतो वत्सपुरस्सरो हरिः॥१॥ तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः॥ स्वान्स्वान्सहस्त्रोपरिसं ख्ययान्वितान्वत्सान्पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा॥२॥ कृष्णवत्सैरसंख्यातैयूथीकृत्य स्ववत्सकान्॥ चारयंतोर्भलीला भिर्विजहुस्तत्रतत्र ह॥३॥ फलप्रवालस्तबकसुमनःपिच्छधातुभिः॥ काचगुंजामणिस्वर्णभूषिता अप्यभूषयन्॥४॥ मुष्णन्तोऽन्योन्यशिक्यादीञ्ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः॥ तत्रत्याश्च पुनर्द्वराडसंतश्च पुनर्ददुः॥५॥ यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम्॥ अहंपूर्वमहंपूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरे॥६॥ केचिद्वेणून्वादयंतो ध्मांतः शृंगाणि केचन॥ केचिद्धृंगैः प्रगायंतः कूजंतः कोकिलैः परे॥७॥
लोंके, चौटलियोंके, गुच्छोंके, फूलोंके, मोरपुच्छके और खडियामट्टी. गेरूके तिलक लगा लगाकर अपना अपना शृंगार कररहे थे॥४॥ परस्पर छींका बेत आदिचुराते, जब जान लेते तो दूसरे बालकके पासको फेंक देते थे, वह बालक फिर औरके पासको फेंक देते थे तब वह छींकेवाले बालक रोने लगते, तब श्रीकृष्णचन्द्र हॅसकर उनके छींके बेत दिला देते थे॥५॥ सुन्दर वनकी शोभा देखनेके लिये जब श्रीकृष्ण दूर चले जाते तब बालक परस्पर होड बदबदकर दौड़ते थे और कहते थे कि, पहिले मैं छुऊं, वह कहते थे कि, पहिले मैं छुऊं, इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको छूते थे और आनन्दित हो होकर खेलते थे॥६॥ कोई बालक बॉसुरी बजाते थे, कोई शृंगीका शब्द सुनाते थे, कोई २ बालक भौरोंके संग गाते थे.
और कोई कोई कोकिलाकी वाणीमें वाणी मिलाते थे॥७॥ और कोई आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके संग दौडते। कोई बालक हंसोंके संग धीरे धीरे चलते कोई बालक बगलोंकी पॉतिके पास चुपके चुपके जा बैठते और कोई वालक मोरोंके संग नाचते थे॥८॥ कोई बालक बन्दरोंकी पूँछ पकड पकड कर खींचते थे, कोई पूंछ पकडेही पकड़े उनके संग कूदकर वृक्षोंपर चढ जाते थे और कोई बालक अपने कान दबा कर आंखै फैलाकर बन्दरोंके सन्मुख खडे हो घुडकी बताते थे कोई वृक्षोंपर चढ चढ नीचेको कूदते थे॥९॥ कोई कोई मेंढकोंके संग फुदकते थे, जब वह पानीमें डुबकी मारें तब आप भी उसके संग डुबकी (गोता) मारते हैं कोई बालक अपनी परछाईं पानीमें देखकर उसकी हँसी करते थे कोई बालक कुएँ बावड़ीमें अपनी प्रतिध्वनिको सुन उनको गाली देते थे॥१०॥ ब्रह्मज्ञानियोंको ब्रह्मस्वरूप करके जाननेमें
विच्छायाभिः प्रधावंतो गच्छंतः साधुः हंसकैः॥ वकैरुपविशंतश्च नृत्यंतश्च कलापिभिः॥८॥ विकर्षतः कीशवालानारोहंतश्च तैद्रुमान्॥ विकुर्वंतश्च तैः साकं प्लवंतश्च पलाशिषु॥९॥ साकं भेकैर्विलंघंतः सरित्प्रस्रवमंप्लु ताः॥ विहसंतः प्रतिच्छायाः शपंतश्च प्रतिस्वनान्॥१०॥ इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या दास्यं गतानां परदैवतेन॥ मा याश्रितानां नरदारकेण साकं विजह्रुःकृतपुण्यपुंजाः॥११॥ यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो धृतात्मभिर्योगिभिरप्य गम्यः ॥ स एव यदृग्विषयः स्वयं स्थितः किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्॥१२॥
आते हैं दासभावके करनेवाले भक्त जिनको परम दैवतरूप स्वामी जानते हैं और मायासे मोहित हुए पुरुष उनको मनुष्यका बालक मानते हैं जिनकी जैसी भावना है उनको वैसेही दिखाई देते. धन्य भाग्य है ग्वाल बालोंका देखो ब्रह्मज्ञानियोंको केवल भगवान्का अनुभवही होताहै, भक्तोंके केवल भजनही सर्वानन्द है, परन्तु ग्वालबालोंकी ओरको देखिये कि, उन्होंने कैसे कैसे उग्र तप किये हैं कि दिनरात भगवान् वासुदेव जिनके संग आहार विहार करते हैं, देखो यह सखाभावका प्रभाव है॥११॥ योगिजनोंको भी अनेक जन्म महाकष्ट सहकर तप करनेसे जिनके चर णारविन्दकी धूरी मिलनी अत्यन्त दुर्लभ है, सो श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द स्वच्छन्दविहारी वासुदेव भगवान् जिनके सन्मुख प्रत्यक्ष विराजमान रहैं
उन व्रजवासियोंके भाग्यकी कहॉतक बडाई करें॥१२॥इन ग्वालबालोंकी सुखपूर्वक लीलाको न सहन करके वह अघासुरनाम दैत्य उस वनमें आया कि, अमृत पान करनेवाले देवताभी अपने जीनेकी इच्छासे नित्य प्रति जिसके मरनेकी राह देखते थे॥१३॥ कंसका भेजाहुवा, पूतना और बकासुरका छोटा भ्राता, वह अघासुर कृष्णादिक छोटे छोटे बालकोंको देखकर मनमें विचार करने लगा कि, इसी कृष्णने मेरे भाई और बहिनको मारा है, उन दोनोके बदले आज ग्वालबाल बछडें और बलदेव समेत इस कृष्णको मारूंगा॥१४॥ और अपने भैया बहनको भी इन बालकोंके संगही तिलांजलि दूंगा, तब सब व्रजवासी मृतक समान होजायेंगे; प्राण गये पीछे देहोंकी क्या चिन्ता है? क्योकि प्राणधारी पुरुषोंके तो पुत्रही
अथाघनामाऽभ्यपतन्महासुरस्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः॥ नित्यं यदंतर्निजजीवितेप्सुभिः पीतामृतैरप्यमरैः प्रती क्ष्यते॥१३॥ दृष्ट्वाऽर्भकान्कृष्णमुखानघासुरः कंसानुशिष्टः स बकीवकानुजः॥ अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयोर्द्वयोर्म मैनं सवलं हनिष्ये॥१४॥ एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापःकृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः॥ प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिंता प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते॥१५॥ इति व्यवस्थाजगरं वृहद्वपुः स योजनायाममहाद्रिपीवरम्॥ धृत्वाद्भुतं व्यात्तगु हाननं तदा पथिव्यत ग्रसनाशया खुलः॥१६॥ धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो दर्याननांतो गिरिशृंगदंष्ट्रः॥ ध्वांतांतरास्यो वितताध्वजिह्नः परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः॥१७॥
जीवन प्राण हैं॥१५॥ ऐसा विचारकर चार कोश लम्बा पर्वतकी समान मोटा अजगर सॉपका अद्भुत रूप धारणकर गुफाकी सहेश मुख पसार बछरे और बालकोंके निगलने के लिये मार्गमें बैठगया॥१६॥ नीचेका होठ तो पृथ्वीपर और ऊपरका होठ बादलतक फैला रक्खा था पर्वतकी गुफाके समान जिसका मुख पहाडके शिखरकी सदृश जिसकी दाढैं, गूढ कन्दराकी तुल्य मुखमें अन्धकार, बडे लम्बे चौडे मार्गकी नाई, जिसकी जीभ, कठोर पवनके समान जिसका श्वास और अग्रिकी तुल्य जिसकी दृष्टि थी*
॥१७॥
***शंका—**अधासुर राक्षसके दोनों होठोंकी लम्बाई सुनकर हमारे सबके मनको वडा सन्देह है और हमारा हृदय कपिता है. क्योंकि ऐसी होठोंकी लम्बाई रावणकी तारककी और अनेक राक्षसोंकी मी न थी बह महिमा हमने आज तक कहीं नहीं सुनी, होठ थे वा कोट ये?
सब बालक उस अजगरको देखकर वृन्दावनकी शोभा समझकर खेलते खेलते फैले हुए उस अजगरके मुखकी लीलासेही उत्प्रेक्षा करने लगे॥१८॥ और परस्पर कहते थे कि, अहो मित्रो! यह तो कहो कि, यह जो हमारे सन्मुख दिखाई देता है कोई पक्षी है वा मुनुष्य है? हमारे निगलनेके लिये सर्पकी समान मुख पसार रहा है कि नहीं॥१९॥ सत्य है सूर्यके किरणोंसे लाल लाल बादल ऐसे दृष्टि आते हैं मानो सर्पका ऊपरवाला होठ है और सूर्यकी परछाईंसे सब पृथ्वी ऐसी लाल लाल दिखाई देती है मानो सर्पके नीचेकी ठोड़ी है॥२०॥ इधर उधर पर्वतकी
दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम्॥ व्यात्ताजगरतुण्डेन युत्प्रेक्षते स्म लीलया॥१८॥ अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम्॥ अस्मत्संग्रसनव्यात्तन्यालतुंडायते न वा॥१९॥ सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद्धनम्॥ अधराहनुवद्रोधस्तत्प्रतिच्छाययाऽरुणम्॥२०॥ प्रतिस्पर्धेते सृक्तिभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे॥ तुङ्गशृङ्गाऽऽलयोप्ये तास्तद्दंष्टाभिश्च पश्यत॥२१॥ आस्तृताऽऽयाममार्गोयं रसनां प्रति गर्जति॥ एषामंतर्गतं ध्वांतमेतदप्यंतराननम्॥२२॥ दावोष्णखरवातोऽयं श्वासकद्भाति पश्यत॥ तद्दग्धसत्त्वदुर्गंधोऽप्यंतरामिषगंधवत्॥२३॥
कंदरासी महागम्भीर अँधियारी ऐसी जान पडती है मानो सर्पके मुखका अन्तर्हे ऊंचे ऊंचे पर्वतके शिखरसे हमको ऐसे दिखाई देते हैं मानो साक्षात् सर्प अजगरकी डाढैंहैं, तुम ध्यान करके देखो॥२१॥ यह लम्बा चौडा मार्ग हमको ऐसा दृष्टि आता है मानो सॉपकी जिल्हा है और इन शिखरोंके भीतर हमको ऐसा अन्धकार दीखता है मानो सर्पके मुखके भीतरका भाग है॥२२॥दावानलसे उष्ण उष्ण महातीक्ष्ण पवन ऐसा
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**उत्तर—**अघासुरका पूर्वजन्मका पुण्य था, सो श्रीकृष्णका दर्शन करके बडे मुखसे अपने सन्मुख वर्द्धित होकर स्वर्गको चलागया, परन्तु अपने तेजसे ऊपरके होठको सगही लेतागया और इस जन्ममें जो पाप किया था वह श्रीकृष्णको देखकर डरकर भागा और पातालमें जानेकी इच्छाकी भूमिको भेद अघासुरका पाप रसातलको चला गया, परन्तु अघासुर नीचेके होठको खींचकर अपने सग लेतागया, पहिले अघासुरने श्रीकृष्ण महाराजके शरीरको स्पर्श किया तब उसके पुण्य पाप दोनों नष्ट होगये, तब अघासुर कृष्णकी देहमें मिलगया, पाप पुण्य नाश होनेका कारण यह है जबतक प्राणीके पुण्य रहेंगे तबतक वह स्वर्ग प्राणी भोगेगा और पाप रहेगा तो नरक भोगेगा, जब दोनों नष्ट होजायगे तब ईश्वरमें मिलेगा इसलिये आकाश और भूमिमें अघासुरके होठोंकी वृद्धि हुई॥
लगता है मानो महाविषवाले सर्पका श्वास है और यह विचारकर देखो कि, अग्निमें जैसे जीव जलते हैं ऐसी दुर्गन्धि आती है यह सर्पके डसे हुए मानों मांसकी दुर्गन्धि है? ॥२३॥इस सर्पके मुखमें जो हम घुस भी गये तो क्या यह हमको निगल जायगा? और जो यह हमको निगल भी गया तो श्रीकृष्ण इसको बकासुरकी नाई क्षणभरमें मार सक्ते हैं वा नहीं? इस प्रकार परस्पर कहते सुनते बकासुरके विध्वंस करनेहारे श्रीकृष्णका सुन्दर मुखारविन्द देख हॅसते हॅसाते ताली बजाते सब ग्वालबाल आगेको चले, “ताली बजानेका कारण यह था कि, जो सर्प होगा तो सरक जायगा और जो वृन्दावनकी यह अद्भुत शोभा होगी तो खेलेंगे”॥२४॥ श्रीवृन्दावनविहारी भक्तहितकारीने विचारा कि, वास्तवमें तो यह सर्पही है और सर्पका देह धारण किये हुए कोई दैत्य है और हमारे साथी बालकोंने इसे वृन्दावनकी शोभा समझकर फिर सर्पके भी सब लक्षण वर्णन किये यह अजान हैं
अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टानयं तथा चेद्वकवद्विनंक्ष्यति॥ क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं वीक्ष्योद्धसंतः करता डनैर्ययुः॥२४॥ इत्थं मिथोऽतथ्यमतज्ज्ञभाषितं श्रुत्वा विचिं
त्येत्य मृषा मृषायते॥ रक्षो विदित्वाऽखिलभूतहृ त्स्थितः स्वानां निरोद्धं भगवान्मनो दधे॥२५॥ तावत्प्रविष्टास्त्वसुरोदरांतरं परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः॥ प्रती क्षमाणेन वकारिवेशनं हतस्वकांतस्मरणेन रक्षसा॥२६॥ तान्वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो ह्यनन्यनाथान्स्वक रादवच्युतान्॥ दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः॥२७॥ कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं न वा अमीषां च सतां विहिंसनम्॥ द्वयं कथं स्यादिति संविचिंत्य तज्ज्ञात्वाऽविशत्तुंडमशेषदृग्घरिः॥२८॥
और परस्पर भूलसे बातें कर रहे हैं, ऐसा समझ सब प्राणियोंके हृदयमें वास करनेवाले भगवान्ने उन भोले बालकोंके वचन सुनकर जबतक उनके निषेध करनेको चाहा कि, इसमें मत घुसो कि,॥२५॥ इतनेमें वह सब बालक बछरों समेत उस अघासुर दैत्यके मुखमें घुसगये परन्तु अघासुरने अपने मरेहुए भाई बहनकी सुधि करके उन बालकोंको निगला नहीं, क्योंकि मनमें विचार किया कि, बकासुरका मारनेवाला मेरा वैरी कृष्ण तो अभी आयाही नहीं॥२६॥ सबके अभयदाता श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् अनाथकी समान दीन बालकोंको अपने हाथसे छूटे हुए जान और अघासुरके उदरमें घासकी सदृश देखकर दयासे पीडित हुये और आश्चर्यसे कहने लगे कि, कैसी अद्भुत गति है॥२७॥ अब इस समय
दैवकी क्या उपाय करना चाहिये कि, यह दुष्ट तो माराजाय और मेरे जीवन प्राण परम प्रिय ग्वाल बाल बच जायँ, यह दोनों बातें एक बारमें कैसे होयॅ ? यह विचारकरके सब संसारके द्रष्टा भगवान्ने अघासुरके मुखमें प्रवेश किया॥२८॥ उस समय वादलोंकी ओटमें खडे होकर देवता हाहाकार करने लगे और नैर्ऋतवंशी अघासुरके भाई बन्धु तथा कंसादिक राक्षसोंको परमानन्द हुवा॥२९॥ अविनाशी श्रीकृष्ण भगवान् देवताओंका हाहाकार शब्द सुनकर ग्वाल बाल वछरों समेत अपनेको चूर्ण करनेकी इच्छा करनेवाले उस अघासुरके कण्ठमें बढे॥३०॥ तब उस बड़े शरीरवाले राक्षसका घट विरगया आँखें वाहरको निकल आईं इधर उधर छटपटाने लगा, देहमें श्वास
तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशुः॥ जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघवांधवाः॥२९॥ तच्छ्रुत्वा भगवा न्कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम्॥ चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले॥३०॥ ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो ह्यद्गीर्णदृष्टेर्भ्रमतस्त्वितस्ततः॥ पूर्णो तरंगे पवनो निरुद्धो मूर्धन्विनिष्पाटय विनिर्गतो वहिः॥३१॥ तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु प्राणेषु वत्सान्सुहृदः परेतान्॥ दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुनर्वक्रान्मुकुंदो भगवान्विनिर्ययौ॥३२॥ पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं महज्ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद्दिशो दश॥ प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं विवेश तस्मिन्मिषतां दिवौकसाम्॥३३॥ ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं पुष्पैः सुरा अप्सरसश्च नर्तनैः॥ गीतैः सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकैः स्तवैश्च विप्रा जयनिस्स्वनैर्गणाः॥३४॥
रुकगया, बाहर निकलनेको मार्ग नहीं मिला, पवन उसके ब्रह्मरन्धको छेदन करके बाहर निकलगया॥ ३१॥ अघासुरके श्वासके संगही प्राण बाहर सटक गये, तब सब बालक और बछरोंको मरा देखकर अपनी सजीवन दृष्टिसे अमृतकी वृष्टिकरके जिलादिया और उनको साथ लेकर फिर श्रीमुकुन्द भगवान् अघासुरके मुखसे बाहर निकले॥३२॥ उस दुष्ट अघासुरके देहमेंसे बड़ी अद्भुत ज्योति निकलके अपने तेजसे दशों दिशाओको प्रकाशित करके आकाशमें स्थित हो श्रीकृष्णचन्द्रके बाहर निकलनेका पन्थ जोहती रही, जब श्रीकृष्ण उसके मुखसे बाहर निकले तब सब देवताओंके देखतेही देखते श्रीकृष्णके शरीरमें प्रविष्ट होगयी॥३३॥ उस समय देवताओने प्रसन्नहोकर आकाशसे फूल
वर्षाकर श्रीकृष्णकी पूजा करी, अप्सराओंने नृत्य किया, गन्धर्व गानेलगे, बाजेवाले बाजे बजाने लगे, ब्राह्मण जय जय शब्द करके स्तुति करने लगे॥३४॥ वह अद्भुत स्तोत्र और गीत, वाद्य, जय आदिक अनेक उत्सव मंगल शब्दोंको सुनकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे शीघ्रही चले आये और श्रीकृष्णकी महिमा देखकर आश्चर्यमय हुये॥३५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित! उस अजगरका सूखा हुवा अद्भुत खखोडल।वृन्दावनमें बहुत दिनतक व्रजवासियोंके बालकोंके खेलनेके लिये एक गुफा होगई, मुखके मार्गको घुसें और नेत्रोंके मार्गसे निकल आवें, नेत्रोंके मार्गको घुसे तो मुखके मार्गको निकल आवें, इस प्रकार दिनरात विहार करते रहेैं॥३६॥ श्रीकृष्ण भगवान्ने बालकोंको और अपने आपको मृत्युसे छुडाना और अघासुरकी मोक्षका करना यह सब पांच वर्षकी अवस्थाका कर्म आश्चर्य मानके सब बालक व्रजमें श्रीकृष्णकी पौगंड अवस्था
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिकाजयादिनैकोत्सवमंगलस्वनान्॥ श्रुत्वा स्वधाम्नोंत्यज आगतोऽचिराद्दृष्ट्वा
महीशस्य जगाम विस्मयम्॥३५॥ राजन्नाजगरं चर्म शुष्कं वृंदावनेऽद्भुतम्॥ व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाऽऽक्रीडगह्वरम्॥ ॥३६॥ एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम्॥ मृत्योः पौगंडके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे॥३७॥ नैतद्विचित्रं मनुजार्भमायिनः परावराणां परमस्य वेधसः॥ अघोपि यत्स्पर्शनधौतपातकः पापात्मसात्म्यं त्वस तां सुदुर्लभम्॥३८॥ सकृद्यदंगप्रतिमांतराहिता मनोमयीं भागवतीं ददौ गतिम्॥ स एव नित्यात्मसुखानुभूत्य भिव्युदस्तमायोंतर्गतो हि किं पुनः॥३९॥
अर्थात् पांचवर्षके व्यतीत होने उपरान्त छठे वर्षके मध्यमें कहते भये॥३७॥ मायासे मनुष्य बालकं रूप धारण कियेहुए सम्पूर्ण स्थावर जंगमके आदिकारण परमात्मा श्रीकृष्णभगवान्के स्पर्शसे महापापी अघासुर पवित्र होगया, जो बात असत्पुरुषोंको महादुर्लभहै ऐसे भगवद्रूपमें वह लय होगया, यह बात कुछ आश्चर्यकी नहीं है॥३८॥क्योंकि जिसकी मनोहर मूर्ति प्रह्लादादिक भक्तोंने एक बारहीं बलात्कारसे मनमें धारणकी और उसीके प्रभावसे उन लोगोंने मोक्ष पाई तो सदैव अपने आत्मानन्दके अनुभवसे और माया करके रहित श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्के शरीरमें अघासुरका प्रवेश होनेसे उसकी मुक्ति हुई तो इसमें क्या आश्चर्य है॥३९॥
शौनकादिक ऋषीश्वरोंसे सूतजी बोले कि, हे त्राह्मणो। इस प्रकार अपनी माताके गर्भ में यदुकुलके देव श्रीकृष्णचन्द्रसे रक्षित हुए राजा परीक्षित् अपनी रक्षाकरनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके विचित्र पवित्र चरित्र सुनकर व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीसे फिर उसी प्रसंग सम्बन्धी प्रश्न किया, क्योकि उन चरित्रोंके सुननेसे राजा परीक्षित्का मन परीक्षित्के वशमें होगया॥४०॥ राजा परीक्षित् वोले कि, हे ब्रह्मन्! श्रीकृष्ण महाराजने कुमार अवस्थामें जो लीला करी वह बालकोंने पौगंड अवस्थामें गाई, यह एक वर्षका अन्तर बीचमें कैसे पडगया?॥४१॥ हे बड़े योगिराज। हे गुरो! यह बात मुझको समझाकर कहो, मेरे मनमें वडा आश्चर्य है? क्योंकि यह निश्चय भगवान्कीही माया है और कुछ नहीं है॥४२॥ हे गुरो
सूत उवाच॥ ॥इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्॥ पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः॥४०॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्कालांतरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत्॥ यत्कौमारे हरिकृतं जगुः पौगंडकेऽर्भकाः॥४१॥ तद् ब्रूहि मे महायोगिन्परं कौतूहलं गुरो॥ नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा॥४२॥ वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रवंधवः॥ यत्पिवामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम्॥४३॥ सूत उवाच॥ इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणिस्तत्स्मारितानंतहृताखिलेंद्रियः॥ कृच्छ्रात्पुनर्लव्धवहिर्द्दशिः शनैः प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तमम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महा० दशम० पू० अघासुरवधो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम॥ यन्नतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः॥१॥
हम क्षत्रियवंशी संसारमें अतिशय धन्य हैं, जिससे कि, तुमसे वारंबार कृष्णकथारूप अमृतपान करते हैं॥४३॥ श्रीसूतजी बोले कि, हे हरि भक्तो।इस प्रकार राजाने प्रश्न करके अपनी श्रद्धा दिखाई, दूसरे हरिका स्मरण करतेही प्रथम तो श्रीशुकदेवजीकी समस्त इन्द्रियें नारायणमें लय होगईं तब व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीने बडे कष्टसे फिर नेत्र खोलकर भक्तोंमें श्रेष्ठ राजा परीक्षित्से कहा॥४४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भापाटीकायाम् अघासुरवधोनाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा— तेरहमें अज मोहवश, हरे ग्वाल अरु बाल। उसी रूपके कृष्णने, रचे बहुरि ततकाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। हे बड़भागी। हे भक्तिभूषण! तुमने अत्युत्तम प्रश्न किया, क्योंकि
ईश्वरकी कथाको श्रद्धासहित बारंबार सुनो हो इससे तुम परमश्रेष्ठ हो॥१॥ सारवस्तुके ग्रहण करनेवाले सज्जनोंका यही स्वभावहै, क्योंकि जिन पुरुषोंकी वाणी, कान और मन, यह सब भगवान् की कथामें लगे रहते हैं, उस वाणीसे कृष्णचन्द्रके गुणवर्णन करते हैं, कानोंसे नित्य नयी कथा सुनते रहते हैं, मनसे श्यामसुन्दरके स्वरूपका ध्यान करते रहते हैं। इस प्रकार भगवान्की वार्त्तामें क्षण क्षण प्रति ध्यान लगाये रहते हैं और वह कथायें ऐसी प्रिय लगती हैं, मानो कभी नहीं सुनी हैं, जैसे विषयी पुरुषोंको स्त्रियोंकी बातें प्यारी लगती हैं॥२॥ हे राजापरीक्षित्! यह कथा परमगूढ है तो भी मैं आपसे कहता हूँ, क्योंकि कैसीही गुप्त वार्त्ता हो गुरुको चाहिये कि, अपने प्यारे शिष्यके सामने सब कहै, सो आप सावधान होकर सुनिये॥३॥ अघासुरके मुखमेंसे मृतक बालक और बछरोंको जिवायकर यमुनाके किनारे अत्यन्त रमणीक रेतीमें उनको लायकर श्रीकृष्ण
सतामयं सारभृतां निसर्गोयदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि॥ प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्स्त्रिया विटानामिव साधुवा र्ता॥२॥ शृणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्यं वदामि ते॥ ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत॥३॥ तथाऽघवदना न्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान्॥ सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत्॥४॥ अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः स्वके लिसंपन्मृदुलाच्छवालुकम्॥ स्फुटत्सरोगंधहृतालिपत्रिकध्वनिप्रतिध्वानलसमाकुलम्॥५॥ अत्र भोक्तव्यमस्मा भिर्दिवाऽऽरूढं क्षुधार्दितैः॥ वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरंतु शनकैस्तृणम्॥६॥ तथेति पाययित्वांभो वत्सानारुध्य शाद्वले॥ मुक्ता शिक्यानि बुभुजः समं भगवता मुदा॥७॥
भगवान् यह कहने लगे॥४॥ हे परमप्यारे मित्रों! यह अत्यन्त रमणीक रेती है और विहार करनेके लिये परमश्रेष्ठ और शोभायमान स्थान है, देखो कैसे सुन्दर और स्वच्छ बालूके कोमलकोमल बिछौने बिछरहेहैं, रंग रंगके कमल फूल रहे हैं, उनपर सुगन्धके लोभसे भौंरे गुंजार रहे हैं और जल पक्षियोंके शब्दोंकी प्रतिध्वनिसे चारों ओरके वृक्ष शब्दायमान होरहे हैं॥५॥यहाॅबैठकर कलेवा करलो, दिन भी बहुत चढ गया है और भूख भी अधिक लग रही है, बछरोंको भी जल पिलाकर यहीं चरनेके लिये छोड दो, सहज सहजमें घास चरते रहैंगे॥६॥ सब बालकोंने; श्रीकृष्णके वचनोंको मान बछरोंको पानी पिला हरी हरी घासमें चरनेको छोड दिया और सब अपने अपने छींकोंको खोल खोल छाक परोस परोस
श्रीकृष्णके सग भोजन करने को बैठे॥७॥ व्रजवासियोंके बालक श्रीकृष्णचन्द्रके चारों ओर अनेक पंक्तियोंकी मण्डली बनाकर एकसाथ बैठ यदुनाथके सन्मुख मुख करनेसे जिनकी दृष्टि प्रफुल्लित हो रही थी, जैसे कमलकी कलीके चारों ओर पखुरियोंकी छवि दिखाई देती है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र तो कलीकी समान थे और ग्वाल बाल पखुरीकी समान, इसप्रकार यमुनाकी रेतीमें शोभायमान जान पडते थे॥८॥ किसी बालकने फूलोंकी पत्तल बनाई, किसीने पखुरियोंकी पत्तल बनाई किसीने पत्तोंकी पत्तल बनाई किसीने अंकुरोंकी पत्तल बनाई और किसीने फलोंकी पत्तल बनाई और किसीने वृक्षोंकी छाल छीलकर पत्तलें बनाई और उनपर भॉति भाँतिके भोजन परोसे, किसी किसीने छींकेहीमें भोजन करनेकी ठहरादी कोई शिलाद्दीपर अपना भोजन परोसकर खानेको बैठ गया॥९॥ सब बालक अपने अपने भोजन पृथक पृथक प्रकारके
कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमंडलैरभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः॥ सहोपविष्टा विपिने विरेजुइछदा यथांभोरुहक र्णिकायाः॥८॥ केचित्पुष्पैर्दलैः केचित्पल्लवैरंकुरैः फलैः॥ शिग्भिस्त्वग्भिर्हषद्भिश्च बुभुजः कृतभाजनाः॥९॥ सर्वे मिथो दर्शयंतः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक्॥ हसंतो हासयंतश्चाभ्यवजहुः सहेश्वराः॥१०॥ विभ्रद्वेणुं जठरपटयोः शृंगवेत्रे च कक्षे वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यंगुलीषु॥ तिष्ठन्मध्ये स्वपरिसुहृहो हासयन्नर्मभिः स्वैः स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्वालकेलिः॥११॥
आप खाते अरु औरोंको स्वाद दिखाते और चखाते परस्पर हॅसते हॅसाते ठट्टे उडाते श्रीकृष्णके साथ भोजन कर रहे थे॥१०॥ फेंटमें बाँसुरी उरझ रहे थे शृंगीबेतकी छड़ियोंको काॅखमें दाब रहेथे, दही भातसे लिपटावाहुवा ग्रास बाॅयें हाथमें ले रहेथे और बेर, आमले, नींबु, आम जामुनादि फल अङ्गुलि
लियोंमें धर लिये थे, यज्ञभोक्ता भगवान् चारोंओर अपनी मित्रमण्डलींमें बैठे उनसे हॅसीकी बातें कह कह कर उनको हॅसाते जाते थे और धीरे २ भोजन खाते जाते थे इस बालचरित्रको स्वर्गमें देवता देख देखकर आश्चर्यमय हो मनही मन कहते थे कि, देखो यज्ञ भोक्ता भगवान् किस॥५२॥ प्रकार आनन्दित हो होकर व्रजवासियों के बालकोंकी जूंठन छीन छीन कर खारहे हैं, पूर्वजन्म में इन्होंने पूर्ण पुण्य किये हैं॥११॥
हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्!इस प्रकार श्रीकृष्णमें मन लगाये ग्वालबाल भोजन कररहे थे और बछरे हरी हरी घासके लोभसे बहुत दूर वनके भीतर चले गये॥१२॥ जब बछरे दूर चले गये तब सब बालक अपने मनमें घबराये, उस समय उनकी घबराहट दूर करनेके लिये भगवान् भयहारी उनसे बोले कि, हे मित्रो! तुम भोजन करते रहो उठो मत क्योंकि ऐसी सुन्दर मण्डली फिर न बँधेगी, मैं अभी बछरोंलिये आता हूं॥१३॥इस प्रकार सबका धैर्य बॅधाय दही भातका ग्रास हाथमें लिये श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतकी गुफाओंमें, वनमें, कुंजोंमें, गह्वर स्थानोमें अपने बछ
भारतैवं वत्सपेषु भुंजानेष्वच्युतात्मसु॥ वत्सास्त्वंतर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः॥१२॥ तान्दृष्ट्वा भयसंत्रस्तानूचे कृष्णोऽस्य भीभयम्॥ मित्राण्याशान्मा विरमतेहाऽऽनेष्ये वत्सकानहम्॥१३॥ इत्युक्त्वाद्रिदरीकुंजगह्वरेष्वात्मवत्स कान्॥ विचिन्वन्भगवान्कृष्णः सपाणिकवलो ययौ॥१४॥ अंभोजन्मजनिस्तदंतरगतो मायार्भकस्येशितुर्द्रषु मंजु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान्॥ नीत्वान्यत्र कुरूद्वहांतरदधात्खेऽवस्थितो यः पुरा दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम्॥१५॥ ततो वत्सानदृष्ट्वत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान्॥
उभावपि वने कृष्णो विचिकाय समंततः॥१६॥
रोको ढूॅढते ढूॅढ़ते दूर चले गये॥१४॥हे कुरुकुलभूषण! उसी अवसरमें कमलोद्भव ब्रह्माजी जो कि, प्रथम मायासे बालकरूप श्रीकृष्णका किया अघासुरका मोक्ष होना देखकर, अत्यन्त विस्मयको प्राप्त हो आकाशमें खड़े खड़े देखरहे थे अब वह फिर श्रीकृष्णकी यह दूसरी माया देखनेके लिये यहांसे तो बालकोंको और वनमेंसे बछरोंको चुराकर दूसरे स्थानमें लेजाय अन्तर्धान होगये*
॥१५॥ जब वनमें बछरोंको न देखा तब
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**शंका—**भगवान्के अनेक अवतार हुए परन्तु किसी अवतारमें ब्रह्माको मोह उत्पन्न नहीं हुया यह बात शास्त्र और पुराणोंके वक्ता और आचार्यलोगोंसे मुनरक्खी है, परन्तु कृष्णावतारमें ब्रह्माको मोह क्यों उत्पन्न हुवा?
**उत्तर—**ब्रह्माने नारदजीको मायामें प्रसित हुवा देखकर उनकी हॅसी करी, तब नारदने ब्रह्माको शाप दिया कि, हे पिताजी! आपको भी माया प्रसित करेगी, किसीदिन श्रीकृष्णको मोजन करते देखकर उनकी मायामें ग्रसित होओगे, हे पिताजी! श्रीनारायणकी माया सर्वोपरि बलवती है, इस नारदके शापसे कृष्णावतारमें ब्रह्माको मोह उत्पन्न हुवा॥
लौटकर फिर यमुनातीरपर आये तो यहाँ वालकोंको भी न पाया, उस समय वालकोंको और बछरोंको वनमें चारों ओर ढूँढ़ते फिरे॥१६॥ जब वनमें कहीं बछरोंको और बालकोंको न पाया तब विश्वभावन भगवान् सव विश्वकी गतिके जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने मनमें जान लिया कि यह सब ब्रह्माका कौतुक है॥१७॥ यह समझ जगदीश्वर भगवान्ने विचार किया कि जो मैं चुप होकर बैठ रहा तो बालकोंकी माता रोवेंगी और जी ब्रह्माके पाससे छीनकर ले आऊंगा तो ब्रह्मा अपने मनमें लज्जित होगा और उसके मनका मोह दूर न होगा, बालकोंकी माताओंको आनन्द देनेके लिये और ब्रह्माको मोह बढ़ानेके लिये विश्वके सृजनहार श्रीकृष्णचन्द्र भगवानने अपने ही अनेक रूप बनाये, बछरे भी आपही बने और ग्वालवालभी आपही बने॥१८॥ जैसा जिसके बछरोंका और बालकोंका छोटा अथवा वड़ा शरीर और जैसे जिनके हाथ पॉव थे, किसीके छै अंगुली थीं,
क्वाप्यदृष्ट्वांतविपिने वत्सान्पालांश्च विश्ववित्॥ सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसाऽवजगाम ह॥१७॥ ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च॥ उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः॥१८॥ यावत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्करां ध्यादिकं यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्यावद्विभ्रषांवरम्॥ यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं सर्व विष्णुमयं गिरोंगवदजः सर्वस्वरूपो बभौ॥१९॥ स्वयमात्मात्मगो वत्सान्प्रतिवार्यात्मवत्सपैः॥ क्रीडन्नात्मविहा रैश्च सर्वात्मा प्राविशद्वजम्॥२०॥ तत्तद्वत्सान्पृथङ नीत्वा तत्तद्गोष्ठे निवेश्य सः॥ तत्तदात्माऽभवद्राजंस्तत्तत्सद्म प्रविष्टवान्॥२१॥ तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम्॥ स्नेहस्नुतस्तन्यपयस्सु धाऽऽसवं मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन्॥२२॥
जैसी जैसी उनके पास छड़ी, शृंगी, बॉसुरी, छींके थे, जैसे जिसके आभूषण वस्त्र, कुसुम्भी, हरी, पीली, गुलाबी, पगड़ी, थी, जैसा जिसका स्वभाव था वैसाही स्वभाव, रूप, गुण, नाम, अवस्था, आहार, व्योहार और लक्षण सर्वात्मा भगवान् आप वने॥१९॥ सर्वात्मा श्रीकृष्णचन्द्र भगवान आपही बछरे बने, आपही उनको घेर घेर कर अपने खेलोंसे खेलने लगे, उसीप्रकारका विहार करते हुए आपही व्रजमें पधारे॥२०॥ हे राजन्! जिन जिन व्रजवासियोंके बछरे थे समूहमेंसे अलग अलग होकर उन उनके खिरकोंमें घुसगये और जिन जिन व्रजवासियोंके बालक थे वह अपने अपने घरोंको चले गये॥२१॥ उन बालकोंकी माता बाँसुरियोंका शब्द सुनकर शीघ्रतासे उठ उठकर अपने अपने घरोंसे
बाहर निकलकर बालकोंके हाथ पकड़ पकड़ कर हृदयसे लगाने लगीं स्नेहसे स्तनोंमें दूध भर आया, वही अमृतकी तुल्य स्वादका दूध परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्रको अपने २ पुत्र मानकर पिलाने लगीं॥२२॥ फिर पीछे उबटन करके मज्जन स्नान कराया चन्दन केशर लगाय गहने पहराने लगीं; फिर मस्तकपर तिलक लगाय भोजन कराया। इस प्रकार सब गोपी श्रीकृष्णचन्द्रको लाड़ लड़ातीथीं और वृन्दावनविहारी अपने सुन्दर सुन्दर चरित्र दिखाकर उनको आनन्द देते थे, उस समय खेलका नियम साधकर सन्ध्याकाल व्रजमें आते थे॥२३॥इस प्रकार गोपियोंका मोह कहकर अब गौओंका मोह करते हैं, गायें दौड दौडकर रम्भाय रम्भाय व्रजमें आती हैं और अपने अपने बछरोंको बुलाती हैं जब बछरे आते हैं तब अपने अपने बछरोंको प्रेमसे अपनमें संचित हुये दूधको उन्हैंपिलावैंहैं बारंबार हित मानकर उनको चाटती जाती हैं॥२४॥ इस कृष्ण चन्द्रमें
ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपनालंकाररक्षातिलकाशनादिभिः॥ संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्सायं गतो यामयमेन माधवः॥२३॥ गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं हुंकारघोषैः परिहूतसंगतान्॥ स्वकान्स्वकान्वत्सतरानपाययन्मुहु लिहत्यः स्त्रवदौधसं पयः॥२४॥ गोगोपीनां मातृतास्मिन्सर्वा स्नेहर्धिकां विना॥ पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना॥२५॥ व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याऽऽब्दमन्वहम्॥ शनैर्निस्सीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत्॥२६॥ इत्थमात्मात्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः॥ पालयन्वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः॥२७॥ एकदा चारयन्व त्सान्स रामो वनमाविशत्॥ पंचषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः॥२८॥
सब गोप गोपियोंकी मैत्री भाव पहिले केसी नाई होगया, परन्तु पहिले इतना हित नहीं था अब पहिलेसे अधिक स्नेह बढ़गया गोपियोंमें भी श्रीकृष्णकी बालभावना पहिलेकी समान रीति प्रीति होगई परन्तु मैं इसका पुत्र हूॅऔर यह मेरी माता है यह मोह नहीं रहा॥२५॥ व्रजवासि योंकी अपने बालकोंमें स्नेहरूपी लता एक वर्षतक धीरे धीरे ऐसी बढी जिसकी वृद्धिका पारावार नहीं जैसे पहिले देवकीनन्दनमें बढी थी॥२६॥इस प्रकार सबके आत्मा श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् बछरे और बालकोंके बहानेसे आपरूप बछरोंके आपरूप ग्वालोंको बनाय बछरे चराकर वनमें व्रजमें एक वर्षतक क्रीड़ा करते रहे॥२७॥ जब कि, एक वर्ष पूरा होनेमें पांच सात दिन शेष रहगये तब एक दिन भगवान् बलभद्र भैयाको
संग लेकर वनमें बछरे चरानेको गये थे वहॉ बलभद्रजीको ऐसा कुछ देखनेमें आया॥२८॥ बहुत दूर जो गायें गोवर्धन पर्वतके ऊपर चर रही थीं उन्होंने व्रजके निकट अपने बछरोंको चरता देखा॥२९॥ बछरोंको देखतेही प्रेमके वश हो, अपने तन मनकी सब सुधि भूल गईं और उनके थनोंसे दूध टपकने लगा, गोपोंके निवारण करने और विषम मार्गका कुछ भी ध्यान नहीं किया और ऐसी भागीं मानो दोहीं पाओंसे चल रही हैं, मुख और पूॅछ ऊपरको उठाये बड़े वेगसे हुंकार शब्द करती बछरोंके समीप पहुॅची॥३०॥ यद्यपि इन गायोंके और छोटे छोटे दूसरे बछरे भी थे तौभी वह गायें गोवर्द्धनपर्वतसे नीचे आय इन बछरोंसे मिल, उन बछरोंको दूध पिलाने लगीं और ऐसे उनके शरीरको चाटने लगीं मानो
ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम्॥गोवर्धनाद्रिशिरसि चरंत्यो ददृशुस्तृणम्॥२९॥ दृष्ट्वाऽथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा स गोव्रजोऽत्यात्मपदुर्गमार्गः॥ द्विपात्ककुद्रग्रीव उदास्य पुच्छोऽगाडंकृतैरास्नुपयाजवेन॥३०॥ समेत्य गावोऽधो वत्सान्वत्सवत्योऽप्यपाययन्॥ गिलंत्य इव चांगागि लिहंत्यः स्वौधसं पयः॥३१॥ गोपास्तद्रोधनायासमौध्यलज्जो रुमन्युना॥ दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान्॥३२॥ तदीक्षणप्रेमरसाप्लुताशया जातानुरागा गतमन्यवोऽ
र्भकान्॥ उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते॥३३॥ ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृताः॥ कृच्छाच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदश्रवः॥३४॥
निगल जायॅगी॥३१॥ अब गोपोंका मोह कहते हैं, जब गोपोंने गायोंको घेरा तब गायें नहीं घिरीं तब लज्जित हो अपने मनहीं मनमें कहने लगे कि, हम बानेत गोप कहलाते हैं, परन्तु आज हमसे गायेंभी नहीं रुकीं, तब अपने मनमें बडा क्रोध करने लगे और उन कठिन कठिन मार्गोंमें बड़ी कठिनतासे नीचे आये, वहां बलदेवजीके संग बछरोंको लिये अपने पुत्रोंको देखा॥३२॥ उनको देखतेही वह गोप अत्यन्तही प्रेमरसमें मग्न होगये, इससे सब क्रोध शान्त हुवा और प्रेम बढा. तब तो बालकोंको हाथ उठा उठाकर हृदयसे लगालिया और उनके माथेको सूंघकर व्रजवासी बडे आनन्दित हुये॥३३॥ फिर पीछे वृद्ध वृद्ध गोप बालकोंको हृदयसे लगाकर बडे प्रसन्न हुये और महाकठिनतासे सहज सहजमें बालकोंको छोडके
बहार निकले बालकोंकी सुधिसे उनके नेत्रोंमें जल भरआया॥३४॥ यद्यपि उन बालकों ने दूध पीना छोड़ दिया था और बड़े भी होगये थे, तोभी उन बालकोंमें व्रजवासियोंके प्रेमकी ऐसी वृद्धि देख और उसके कारणको न समझकर बलरामजी अपने मनमें विचार करने लगे॥३५॥ कि, सर्वात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर जैसा प्रेम प्रथम था वैसाही अपूर्व प्रेम अब बालकोंपर भी बढता जाता है और यही नही मेरे हृदयमें भी वत्स और बालकोंपर क्षण क्षणमें अधिक प्रेमकी वृद्धि होती चली जाती है; यह बडी अद्भुत बात है न जानिये यह क्या कारण है?॥३६॥यह क्या है? देवताओंकी मायाहै, वा मनुष्योंकी मायाहै, अथवा राक्षसी माया है,? मैं नहीं जानसक्ता यह कहाॅसे आई और कैसी अलौकिक माया है? क्योंकि इसने मुझको भी मोहित करलिया, इससे मुझको यह जान पडता है कि, जो यह माया मेरे स्वामी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी हो तो आश्चर्य
व्रजस्य रामः प्रेमर्द्धेर्वीक्ष्यौत्कंठ्यमनुक्षणम्॥ मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिंतयत्॥३५॥ किमेतदद्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि॥ व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्व प्रेम वर्धते॥३६॥ केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युताऽऽमुरी॥ प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी॥३७॥ इति संचिंत्य दाशार्हो वत्सान्सवयसानपि॥ सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः॥३८॥ नैते सुरेशा ऋषयो न चैते त्वमेव भासीश भिदाऽऽश्रयेऽपि॥ सर्वं पृथक्त्व निग मात्कथं वदेत्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत्॥३९॥
नहीं? क्योंकि और दूसरेकी माया मेरे मनको मोहित नहीं करसक्ती॥३७॥ इसप्रकार शोच विचारकर दाशार्हवंशोद्भव बलदेवजीने अपनी ज्ञानदृष्टिसे देखा तो सब बछरे और बालक सर्वात्मा श्रीकृष्णरूपमें दिखाई दिये॥३८॥ कि सब देवता ग्वाल बाल बने हैं और ऋषि मुनियोंने बछरोंका रूप धारण किया है, यह मैं जानता हूॅ, परन्तु यह बालक अब तो देवता नहीं है और यह बछरे ऋषिभी नहीं हैं, अब तो मुझको सबमें श्री कृष्ण दृष्टि आते हैं, जब यह भ्रम हुवा तो श्रीकृष्णसे वृझा कि, हे प्रभु! इस भेदको प्रकाशो यह क्या भेद है? सो तुम सम्पूर्ण भेद भिन्न भिन्न संक्षेपसेसमझाकर कहो? जो मेरे मनका सन्देह दूर हो? जब इसप्रकार बलदेवजीने श्रीकृष्णसे कहा तब श्रीकृष्णने सब वृत्तान्त समझाकर कहा कि, हे भैया! तुमको आज सुधि हुई है, जब ब्रह्माको मोह हुवा और बछरे और बालकोंको चुराकर लेगया तब मैने, बालक और बछरोंक
वैसाही रूप धारण किया और उनके कुटुम्बियोंको क्लेश न होने दिया. इस प्रकार श्रीकृष्णके कहनेसे बलदेवजीने सब भेद जाना॥३९॥ देखो यहां तो एकवर्ष बीत गया, परन्तु ब्रह्माका एक पल ही बीता था तब ब्रह्माने फिर आनकर देखा तो पहिले केसी नाई बछरे और बालकोंको संगलिये श्रीवृन्दावनविहारी नये नये ढंगके खेल खेल रहेहैं॥४०॥ यह अद्भुत कौतुक देख ब्रह्माजी अपने मनमें विचार करने लगे कि, गोकुलमें जितने बछरे और बालक हैं वह सब मेरी मायारूपी शयनमें पडे सोरहे हैं और अभीतक उठे नहीं॥४१॥ फिर यह मेरी मायासे अलग जो ग्वालबाल और बछरे चररहे हैं और अनेक प्रकारके विहार कर रहे हैं, सो यह यहां कैसे आगये! जितने मैं हरकर लेगयाहूं उतनेही उसीस्थानपर यहॉ वर्षदिनसे भगवान्के संग विहार कररहेहैं॥४२॥ आपही मोहित हो ब्रह्माजी बहुत देरतक विचार करते रहे कि, इनमें कौनसे बालक और बछरे सत्यहैं और कौनसे
तावदेत्यात्मभूरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा॥ पुरोवदब्दंक्रीडंतं ददृशे सकलं हरिम्॥४०॥ यावंतो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि॥ मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः॥४१॥ इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्मायामोहितेतरे॥ तावंत एव तत्राब्दं क्रीडंतो विष्णुना समम्॥४२॥ एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मनि॥ सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथंचन॥४३॥ एवं संमोहयन्विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम्॥ स्वयैव माययाऽजोऽपि स्वयमेव विमोहितः॥४४॥ ताभ्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि॥ महतीतरमायैश्यं निहंत्यात्मनि युंजतः॥४५॥
असत्य हैं? मै जो हरकर लेगया वे सत्य हैं वा यह जो व्रजविहारीके संग विहार कर रहेहैं ये सत्य हैं, दोनों एकसे दिखाई देतेहैं, क्या करूं मैं किसी प्रकार इस भेदको नहींजानसक्ता॥४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजन्! कभी वनमें कभी ब्रह्मलोकमें एक वर्षतक चकईके समान ब्रह्मा दिन रात घूमते फि। देखो! इस प्रकार ब्रह्माजी विश्वके मोह करनेवाले और आप मोहरहित विष्णुभगवान्को अपनी मायासे मोहित करना चाहते थे परन्तु आपही मोहित होगये॥४४॥ जैसे अँधेरी रातमें कुहर अन्धकारसे अपना पृथक् आवरण नहीं करसक्ता. क्योंकि उसी अन्धकारमें आप भी लय होजाता है. जैसे दिनमें खद्योत (पटबीजना) अपना प्रकाश पृथक नहीं कर सक्ता, ऐसेही ऐश्वर्यवान् पुरुषोंपर कोई साधारण पुरुष अपनी माया करना चाहे तो उस अधमकी माया उत्तमपुरुषका कुछभी नहीं करसक्ती, बरन चलाने
वालेहीकी सामर्थ्यका विनाश करतीहै॥४५॥ देखो! ब्रह्माके देखतेही देखते क्षणमात्रमें और एक अद्भुत आश्चर्य हुआ. सब बछरे और बालक मेघवत श्यामवर्ण, पीताम्बर पहिरे॥४६॥ चतुर्भुजरूप धारे, हाथमें शंख, चक्र, गदा, पद्म, लिये मस्तकपर किरीट, मुकुट, धारण किये, कानोंमें कुण्डल विराजमान, कण्ठमें मोतियोंके हार और वनमाला पहिरे॥४७॥ श्रीवत्सकी कान्तिसे शोभायमान भुजाओंमें भुजबन्द पहिरे रत्नजटित शंखके समान तीन रेखावाले कंकण करमें धारण किये नूपुर, कटक कमरमें तगड़ी और मुन्दरियोंके धारण करनेसे शोभा यमान॥४८॥ बडे पुण्यवान् सज्जनोंसे समर्पण की हुई तुलसीकी नवीन और कोमल मालाओंसे शिरसे पॉवोंतक परिपूर्ण॥४९॥
तावत्सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात्॥ व्यदृश्यंत घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः॥४६॥ चतुर्भुजाः शंखचक्रगदाराजीवपाणयः॥ किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः॥४७॥ श्रीवत्सांगददोरत्नकंबुकंकणपाणयः॥ नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्रांगुलीयकैः॥४८॥ आंघ्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभिः॥ कोम लैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः॥४९॥ चंद्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापांगवीक्षितैः॥ स्वकार्थानामिव रजस्सत्त्वाभ्यां स्त्रष्टपालकाः॥५०॥ आत्मादिस्तंबपर्यन्तैमूर्तिमद्भिश्चराचरैः॥ नृत्यगीताद्यनेकाहैः पृथक्पृथगुपासिताः॥५१॥ अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभिः॥ चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिः॥५२॥ कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभिः॥ स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद्भिरुपासिताः॥५३॥
चन्द्रिकाकी सदृश स्वच्छ मन्दहास्यसे मानो अपने दासोंको सत्त्वगुणसे पालन करते और अरुणाईयुक्त कटाक्षभरी चितवनसे अपने भक्तोंके मनोरथोंको मानो रजोगुणसे उत्पन्न करते विदित होतेथे॥५०॥ ब्रह्मासे आदि लेके तृणपर्यन्त स्थावर जंगम समस्त प्राणी मूर्तिमान् होकर एक एक बछरेके सन्मुख नाच और गान आदिक अनेक अनेक प्रकारसे उनकी पूजा और शिष्टाचार करते थे॥५१॥ और अणिमादिक अष्ट सिद्धि, मायासे लेकर महदादिक विभूति चौबीस तत्त्व, चारों ओर देदीप्यमान थे॥५२॥ काल, स्वभाव, संस्कार, काम, कर्म, सत्त्वगुण, रजोगुण
तमोगुण यह रूप धारण कर प्रत्येककी सेवा करते थे. इन सबकी स्वतंत्रता श्रीकृष्णचन्द्रकी महिमाके आगे नष्ट होगई थी॥५३॥ सत्यज्ञानरूप आनन्दमात्र एकरस जो ब्रह्ममूर्तिवाले तथा जिनकी चक्षु आत्मज्ञान हैं ऐसे महात्मा पुरुषभी जिनकी महिमाके माहात्म्यको नहीं जान सक्ते, ऐसा रूप ब्रह्माजीने सबका देखा॥५४॥इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ समस्त बछरे और बालकोंको परब्रह्ममय देखा जिसपर ब्रह्मकी कान्तिसे सम्पूर्ण स्थावर, जंगम और यह विश्व प्रकाशमान होरहा है॥५५॥ उसके पीछे फिर बड़े आश्चर्य से ब्रह्माजीकी सब इंद्रियें शिथिल होगई और उनके तेजसे ब्रह्माजी चुप होगये जैसे ग्रामकी रक्षा करनेवाली पुतलीके आगे चार मुखकी सुवर्णकी प्रतिमा खड़ी होय इस प्रकार खडा हुआ॥५६॥ इस प्रकार सरस्वतीके स्वामी तर्कना रहित, स्वप्रकाश सुखनिधान प्रकृतिसे परे और ब्रह्मसे पृथक वस्तुके मिथ्या जिनका
सत्यज्ञानानंतानंदमात्रैकरसमूर्तयः॥अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्दृशाम्॥५४॥ एवं सकृद्ददर्शाजः परब्रह्मा त्मनोऽखिलान्॥ यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम्॥५५॥ ततोऽतिकुतुकोद्वृत्तस्तिभितैकादशद्रियः॥ तद्धाम्नाऽमृदजस्तूष्णीं प्रर्देव्यंतीव पुत्तिका॥५६॥ इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके परत्राजातोऽतन्निरसन मुखब्रह्मकमितौ॥ अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति च्छादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम्॥५७॥ ततोऽर्वाक् प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः॥ कृच्छादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टदं सहात्मना॥५८॥ सपद्येवा भितः पश्यन्दिशोऽपश्यत्पुरः स्थितम्॥ वृन्दावनं जनाजीव्यद्रुमाकीर्णं समाप्रियम्॥५९॥ यत्र नसर्गदुर्वैराः सहासन्नृमृगादयः॥ मित्राणीवाऽजितावासद्रुतरुट्तर्षकादिकम्॥६०॥
ज्ञान प्रतिपादन करनेवाले उपनिषदोंसे होसक्ता है उस अलौकिक रूपको देखकर और उस महिमाको विचार कर यह क्या है ऐसे शोचतेहुए ब्रह्मा जो मोहित होगये और उनकी अवलोकन करनेकी शक्ति भी जाती रही. तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्रह्माजीकी यह दशा देखकर मायाका आवरण उनके हृदयसे दूर कर दिया॥५७॥ तब तो ब्रह्माजीकी सब इंद्रिये चैतन्य होगईं जैसे मृतक पुरुष जी उठे है ऐसे बड़े कष्टसे नेत्रोंको खोलकर अपनी आत्मासहित ब्रह्माजीने जगत्को देखा॥५८॥ जब ब्रह्माजीने चारों ओरको दृष्टि उठाकर देखा तो सन्मुखही चारों ओर प्रियपदार्थोंसे परिपूर्ण और मनुष्योकी जीविकाके लिये वृक्षोंसे भरापुरा वृन्दावन है॥५९॥ जिस वृन्दावनमें स्वाभाविक वैर करनेवाले सिंह
मृग और मनुष्य परस्पर परममित्रके समान रहते हैं, श्रीवृन्दावनविहारीके संग रहनेसे सब प्राणियोंका क्रोध और तृष्णा दूर होगई है॥६०॥ उस वृन्दावनमे गोपालवंशके बालकपनका आचरण करनेवाले अनन्त अगाध ज्ञानस्वरूप वृछरे और ग्वालवालोंको पहिलेकी समान ढूॅढते फिरते थे और हाथमें दहीभातका ग्रास लिये अद्वितीय परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र मुरलीमनोहरका दर्शन ब्रह्माको हुआ॥६१॥ इसप्रकार वृन्दावन विहारी भक्तहितकारी श्रीकृष्णचन्द्रको देख उसी समय ब्रह्माजी अपने वाहन इंससे नीचे उतर कञ्चनके दण्डकी तुल्य अपनी देहसे साष्टांगकर च रों मुकुटोंका अग्रभाग चरणारविन्दोंसे लगाय दण्डवत् कर आनन्दरूप आंसुओंके जलसे श्रीकृष्णका अभिषेक किया॥६२॥ प्रथम जो भगवान्की अद्भुत महिमा देखी थी उसको वारंवार स्मरण कर करके श्रीगोविन्द भगवान्के चरणारविन्दोमेंसे उठे और फिर गिरपड़े इस प्रकार
तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं ब्रह्माद्वयं परमनंतमगाध्वोधम्॥ वत्सान्सखीनिव पुरः परितो विचिन्वदेकं सपाणिकवलं परमेष्ट्यचष्ट॥६१॥ दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य पृथ्यां वपुः कनकदंडमिवातिपात्य॥ स्पृष्ट्वाचतुर्मुकुटकोटिभिरंघ्रियुग्मं नत्वा मुदश्रुजलैरकृताभिषेकम्॥६२॥ उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन्॥ आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वास्मृत्वा पुनःपुनः॥६३॥ शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने मुकुंदमुद्वीक्ष्य विनम्रकंधरः॥ कृतांजलिः प्रश्रयवान्समाहितः सवेपथुर्गद्गदयैलतेलया॥६४॥ इति श्रीभाग० म० दशम० पू० ब्रह्ममोहनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ ब्रह्मोवाच॥ नौमीड्य तेऽभ्रवषुपे तडिदंवराय गुंजावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय॥ वन्यस्रजे कवलवेत्रविपाणवेणुलक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय॥१॥
वडी देरतक ब्रह्मा पाओमें पडेरहे॥६३॥ फिर पीछे कुछ कालोपरान्त सहज सहजमें उठ आंसू पोंछ भगवान्की ओर निहार लज्जाके मारे नीची नार कर हाथ जोड शरीर कम्पायमान मुखसे कुछ कुछ अक्षर निकले इसप्रकार गद्रद वाणीसे ब्रह्माजी स्तुति करनेलगे कि, हे नाथ! ॥६४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भापाटीकायां ब्रह्ममोहवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ दोहा—चौदहमें हरिके चरित, अद्भुत अलख लखाय। हरि अस्तुति अज ज्यों करी कहौंकथा सो गाय॥१॥ त्रह्माजी बोले कि, हे स्तुति करने योग्य! श्यामघटाकी समान
तुम्हारीशरीर, बिजलीसम पीताम्बर धारण किये, गुंजाओंके कर्णभूषण, मयूरपुच्छके मुकुटसे शोभायमान मस्तक, कण्ठमें वनमाल पहिरे, दहीभातका
हे अच्युत! हे अखंडरूप! मैंने रजोगुणसे उत्पन्न होनेके कारण आपके स्वरूपको नहीं जाना आपसे भिन्नहीं भगवान्को जाना मै अजन्मा जगत्का कर्ता हूं इस अभिमानसे अंधा होरहाहूं आप मेरे स्वामी हो मुझे अपना दास जानकर कृपा करिये. क्योंकि मैं आपकी कृपाके योग्य हूं॥१०॥ यदि आप मुझको ब्रह्मांडका नाम कहो तो हे भगवन्! माया, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, पवन, अग्नि, जल और पृथ्वीसे बने ब्रह्मांडमें सात विला दिकी देह वाला मैं कहां और आपके रोमकूपरूप झरोखोंमें ऐसे अनंत ब्रह्मांडरूप परमाणु घूमते फिरते रहते हैं, ऐसी आपकी अद्भुत महिमा कहां? मुझमें और आपमें बड़ा अंतर है, इसलिये मुझको अत्यन्त तुच्छ जानकर मुझपर अनुग्रह कीजिये और यह भी समझना चाहिये कि, यह ब्रह्मा यद्यपि और लोकका अधिष्ठाता है तो भी हमारा अनुचरही है॥११॥ हे अधोक्षज (इन्द्रियोंसे जाननेमें न आवे) जो अनजान बालक अपनी
अतः क्षमस्वाच्युत में रजोभुवो ह्यजानतस्त्वत्पृथगीशमानिनः॥ अजावलेपांधतमोंधचक्षुष एषोऽनुकंप्यो मयि नाथवानिति॥१०॥ काहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भूसंवेष्टितांडघटसप्तवितस्तिकायः॥ क्वेदृग्विधाऽविगणितांडपराणुचर्या वाताध्व रोमविवरस्य च ते महित्वम्॥११॥ उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे॥ किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूपितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनंतः॥१२॥ जगत्रयांतोदधिसंप्लवोदे नारायणस्योदरनाभिनालात्॥ विनिर्गतोऽजस्त्विति वाङ् न वै मृषा किं त्वीश्वरत्वन्न विनिर्गतोऽस्मि॥१३॥
माताकी गोदमें बैठकर पॉव उछाले अथवा लात मारे तो क्या माता उसको अपराधी माने? “कोई कहैकि ब्रह्माने श्रीकृष्णको माता कैसे कहा ब्रह्माने श्रीकृष्णको माता इस प्रकार कहा” कि स्थूल सूक्ष्म कार्य कारणरूप सम्पूर्ण विश्व आपके उदरमें विद्यमान है जो शब्दसे कहनेमें नहीं आता जब सब विश्व आपके उदरमें ठहरा, तो विश्वमें रहनेसे मैंभी आपके उदरमें हुवा, इसलिये मुझे अपना पुत्र समझकर मेरा अपराध क्षमा करो॥१२॥ हे नारायण! प्रलयकालमें जब भूर्लोक, भुवर्लोक स्वर्लोक इन तीनों लोकोंका नाश हो जाता है तब चारों ओरसे समुद्रका जल उमड़े है, उस जलके भीतर नारायणकी नाभिसे एक कमल उपजै है, उस कमलनालसे ब्रह्मा उत्पन्न होता है, क्या यह बात झंठ है? क्या यह देववाणी नहीं है? क्या मैं आपसे उत्पन्न नहीं हूं? क्या तो कह दो यह बात झूंठ है और जो कहो कि झूंठ नहीं है तो मैं आपका पुत्रही हूॅतो मेरा अपराध सब
प्रकारसे क्षमा करना चाहिये॥१३॥क्या तुम नारायण नहीं हो? नहीं। तुमही नारायण हो और तुमहीं सम्पूर्णं देहधारियोंके आत्मा हो हे अधीश! सबके प्रेरणा करनेवाले समस्त लोकोंको साक्षात् देखोहो. नार जो जीवसमूह और जल जो आपका अयन (वास, आश्रय) है, इस लिये नारायण नाम आपका प्रसिद्ध है सो आपकी मूर्ति है और जो विचार करके देखिये तो यह भी सत्य नहींहै क्योंकि मुझको सब मायारूपही जान पडते हो॥१४॥ हे जगदीश्वर! जगत्का आश्रयभूत आपका रूप जलके भीतर सत्य है तो जिस समय मैंने कमलनालके भीतर वैठकर सौ (१००) वर्षतक आपको ढूॅढ़ा तब आप क्यों नही दिखाई दिये? और हृदयमें भी क्यों नहीं प्रगट हुए फिर तप करनेसे तुरंतही क्यों आपका रूप दिखाई दिया? इसलिये यह सब आपकी मायाही है, तुम्हारी मूर्तिमें किसी देश कालका परिच्छेद नहीं बनसक्ता॥१५॥हे मायाके करनहारे
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिनामात्माऽस्यधीशोऽखिललोकसाक्षी॥ नारायणोङ्गं नरभूजलायनात्तच्चापि सत्यं न तवैव माया॥१४॥ तच्चेज्जलस्थं तव सज्जगद्वपुः किं मे न दृष्टं भगवंस्तदैव॥ किं वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव किन्नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि॥१५॥ अत्रैव मायाधमनाऽवतारे ह्यस्य प्रपंचस्य बहिः स्फुटस्य॥ कृत्स्नस्य चांतर्जठरे जनन्या मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते॥१६॥ यस्य कुक्षाविदं सर्वे सात्मं भाति यथा तथा॥ तत्त्वय्यपीह तत्सर्वं किमिदं मायया विना॥१७॥ अद्यैव त्वदृतेस्य किं मम न ते मायात्वमादर्शितमेकोऽसि प्रथमं ततो व्रजसुहृद्दत्साः समस्ता अपि॥ तावंतोऽसि चतुर्भुजास्तदखिलैः साकं मयोपासितास्तावंत्येव जगंत्यभूस्तदमितं ब्रह्माद्वयं शिष्यते॥१८॥
बाहर भीतर समस्त विश्वके प्रकाश करनेवाले यदि यह जलादि प्रपञ्च तुमसे पृथक होय तो इससे तुम्हारा परिच्छेद होना सम्भवहै परंतु यह मायासे उत्पन्न है यह बात आपने इस अवतारमें यशोदा मैयाको अपने उदरमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको दिखाकर प्रत्यक्ष कर दिया, इससे यह प्रपञ्च मायाहीका कियाहुवाहै॥१६॥ जिस प्रकार आपके उदरके भीतर आप समेत यह विश्व प्रकाशमानहै और तुम्हारे साथ इसका प्रकाश होना मायाके विनाही बनसक्ता है जो बाहरके जगत्का तुममें प्रतिबिम्ब पडे तो यह बाहरकी वस्तु उलटी दीखनी चाहिये और यदि आपको दर्पणस्थानमें माना जाय तो आपका दर्शन उसमें नहीं होना चाहिये, इस कारण यह सब मायाही है॥१७॥केवल आपके विना यह सब संसार मायारूप है,
क्या यह मायाही दिखाई है? क्योंकि, प्रथम आप अकेले थे, पीछे सम्पूर्ण व्रजके बछरे और ग्वालरूप हो गये, फिर कुछ कालोपरान्त सबके सब चतुर्भुजरूप होगये, फिर एक एक रूपके आगे मैं (ब्रह्मा) शिव, इन्द्र सहस्रों दृष्टि आये और एक एकने एक एक रूपकी स्तुति करी फिर आप ब्रह्मरूप होगये, फिर पीछे प्रणाम करनेमें भी नहीं आये, इस प्रकार अद्वितीय ब्रह्मरूप अवशेष रहगये॥१८॥सर्वव्यापक आपके स्वरूपको मायामें स्थित हुये जो प्राणी नहीं जानते हैं उन पुरुषोंके ऊपर मायाको फैलाकर स्वतंत्रतासे आप प्रकाशो हो जगत्के उत्पन्न करनेके समय ब्रह्माका रूप धारण करते हो, पालनके समय विष्णुरूप धारण करलेते हो और संहारके समय तीन नेत्रवाले रुद्ररूप वन जाते हो॥१९॥ हे ईश! हे प्रभु!हे जन्मरहित विधाता! देवता, ऋषीश्वर, मनुष्य, पशु, पक्षी, और जलके जीवोंमें आप साधु लोगोंपर कृपा करनेके लिये और दुष्टोंके
अजानतां त्वत्पदवीमनात्मन्यात्मात्मना भासि वितत्य मायाम्॥ सृष्टाविवाहं जगतो विधान इव त्वमेषोंत इव त्रिनेत्रः॥१९॥ सुरेष्टषिष्वीश तथैव नृष्वपि तिर्यक्षु यादस्स्वपि तेऽजनस्य॥ जन्माऽसतां दुर्मदनिग्रहाय प्रभो विधातः सदनुग्रहा य च॥२०॥ कोवेत्ति भ्रमन्भगवन्परात्मन्योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम्॥ क्व वा कथं वा कति वा कदेति विस्तार यन्क्रीडसि योगमायाम्॥२१॥ तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम्॥ त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनंते माया त उद्यदपि यत्सदिवावभाति॥२२॥ एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः सत्यः स्वयं ज्योतिरनंत आद्यः॥ नित्योऽक्षरोऽजस्त्रसुखो निरंजनः पूर्णोऽद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृतः॥२३॥
अभिमान हरनेके लिये जन्म लेते हो॥२०॥ हेव्यापक! हे भगवन्! हेपरमात्मन्!हेयोगेश्वर! आप जो अपनी योगमायाको विस्तार करके जिस समय विहार करते हो उन लीलाओंको त्रिलोकीमें कौन जाननेवाला है? कि कहाॅहैं, कैसी हैं, कौन हैं और कितनी हैं॥२१॥ इस लिये यह है मिथ्या स्वरूप स्वप्नकी समान प्रकाशमान दुःखरूप सब संसार केवल आपके नित्यसुख चैतन्यमय अनन्तस्वरूपमें मायासे उत्पन्न होनेके कारण नित्यसुख और चैतन्यस्वरूपके समान भासै है परन्तु वास्तविकतासे असत्स्वरूप, स्वप्नतुल्य प्रतिभास रहित, कष्टसेभी अधिक कष्टरूप मानो कष्टमयही है॥२२॥केवल सत्यस्वरूप तो एक आपही हो, क्योंकि आत्मा हो जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, जहाँतक मन जाता है
वह सब माया है, आत्मा दृश्य नहीं. इसलिये सत्य है आपमें कोई विकार नहीं इसलिये सत्यस्वरूप हो आप सबके कारण स्वरूप हो, सबके व्यापक होनेसे पुरुष कहलाते हो तुम सदा पूर्ण हो, नित्य सुखस्वरूप हो अक्षर हो अमृतहो, इसलिये आपका कभी विनाश नहीं होता, तुम अनंत और अद्वैत हो इसलिये आपके देश कालका परिच्छेद नहीं, आप स्वयंप्रकाश उपाधिरहित असंग हो, इसलिये ज्ञानके साधनसे आपकी प्राप्ति नहीं होती, आप निरञ्जन हो, इसलिये आपके स्वरूपमें किसी प्रकारका संस्कार भी नहीं है, आप नित्यमुक्तरूप हो अमृत हो॥२३॥ इसलिये आप सदा आत्मारूप हो और समस्त जीवोंके आत्मा हो, जिन पुरुषोने सूर्यरूप गुरुसे उपनिषद्के ज्ञानरूप नेत्र प्राप्त किये हैं वह महात्मा आत्माहीसे आपका दर्शन करके संसारसागरके पार हो जाते हैं॥२४॥ जबतक प्राणी आपके आत्मस्वरूपको आत्मरूप नहीं जानते तबतक उनको अज्ञानसे यह
एवंविधं त्वां सकलात्मनामपि स्वात्मानमात्मात्मतया विचक्षते॥ गुर्वर्कलब्धोपनिषत्सु चक्षुषा ये ते तरंतीव भवान्नृतां बुधिम्॥२४॥ अत्मानमेवात्मतयाऽविजानतां तेनैव जातं निखिलं प्रपंचितम्॥ ज्ञानेन भूयोऽपि च तत्प्रलीयते रज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा॥२५॥ अज्ञानसंज्ञौ भवबंधमोक्षौ द्वौ नाम नान्यौ स्तऋतज्ञभावात्॥ अजस्रचित्या त्मनि केवले परे विचार्यमाणे तरणाविवाहनी॥२६॥ त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च॥ आत्मा पुनर्वहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताऽज्ञता॥२७॥
सम्पूर्ण प्रपञ्च प्रगट भासता रहता है और वही प्रपञ्च आत्मरूपको जाननेसे लय होजाताहै, जबतक अज्ञान है तबतक रज्जु सर्परूप भासै है; जब ज्ञान होजाता है तबरज्जु रज्जुही जाननेमें आती हैं, अज्ञानसे रज्जुमें सर्प जानना अध्यासहै और ज्ञानसे रज्जुही जानना अपवादहै॥२५॥ संसारमें बन्धन और मोक्ष केवल अज्ञानसे है सत्य ज्ञानरूप आत्मासे भिन्न नहीं है निरन्तर चैतन्यरूप आत्मा परमेश्वर आपही हो ऐसा विचार करनेसे आत्मामें अज्ञान वा बन्धन कुछ भी नहीं है. जैसे सूर्यके सन्मुख रात दिन नही है, सदा प्रकाशही रहताहै॥२६॥आत्मस्वरूप परब्रह्म आपको देह मानकर और देहादिकको आत्म मानकर यही खोयेहुए आत्मरूपी पदार्थको बाहर खोजना देखो!यह मूर्खोकी कैसी मूर्खता है, क्योंकि घरकी
खोई वस्तु कोई वनमें खोजने नहीं जाता॥२७॥ विना जाने झूँठ भी सत्यहीकी समान विदित होता है इस बातपर एक दृष्टान्त है॥*
हे अनन्त!ज्ञानीपुरुष तो इस देहमेंही आपको खोजते हैं, “यह भी आत्मा नहीं यह भी आत्मा नहीं” ऐसे जड़ पदार्थोंका त्याग करते हैं, क्योंकि
अंतर्भवेऽनंत भवंतमेव ह्यतत्त्यजतो मृगयंति संतः॥ असंतमप्यंत्यहिमंतरेण संतं गुणं तं किमु यंति संतः॥ २८॥
अपने निकट यद्यपि सर्प नहीं भी है परन्तु उसका निषेध किये विना सत्य रज्जु जाननेका ज्ञान नहीं होता सर्पके निषेध होनेके उपरान्त रज्जु
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* दृष्टांत—
किसी राजाके यहाँ एक कुपटन (बे पढा ) पुरोहित था परन्तु बोलचालमें मद्दापूर्त और पाखण्डी था, उसने राजाको “शुक्लाबरधर विष्णु शशिवर्णं चतुर्भुजम्। प्रसन्नवदन व्यायेत्सर्वनिघ्नो पशान्तये” इस श्लोकके अर्थ दहीबडेके वतला रक्खे थे कि, दही सफेद उसमें लिपटा होये है बही शुरु वस्त्र बै और वेष्टीति विष्नु विशेष लिपटा होनेसे विष्णुहै, गोल गोल चन्द्रमाके समान मुख हे और चतुर्भुजम् अर्थात् चतुर पुरुषोंके भोजन योग्य है ध्यान करतेही प्रसन्न मुख होजाता है और भोजन करनेसे सव वित्र शात हो जाते है. राजा इस श्लोकके यह अर्थ सत्य समझकर और उसको महात्मा जानकर उसका बडा आदर सम्मान करता था, जो विद्वान् और, राजा उसीसे उस श्लोकका अर्थ वुझे, सव पडित लोग विष्णु भगवान्हीका अर्थ करै, राजा कहै यह अर्थ इस श्लोकका नहीं इसी प्रकार अनेक पडितोकां तिरस्कार होता था, तब एक पडित और आये उन्होंने रुपयेका अर्थ किया, देखो! यह रुपया श्वतवर्णहै और चार चौअन्नी जो हैं यही उसकी चार भुजा है देखतेही मुख प्रसन्न होजाताहे और सव विघ्नोंका शात करनेवालाहै, इस अर्थको सुनकर गजाने कहा और पंडितोंसे तुम अच्छे हो दशांश पारितोपिककेयोग्य हो, परन्तु सत्य अर्थ इसका आपभी नही जानते, उस महात्मा पडितने विचारा कि, यह राजा किसी मूर्खका बहँकाया हुवाहै और यह राजा भी मुर्खहे, यह महात्मा पडित राजाके पुरोहितके घर जाने लगे और उनसे बडी मित्रता करली और मिसरानीकोभी एक बडी चिकनपटकी तीयल बनादी और आमूपण भी अनेक अनेक प्रकारके बनादिये और अन्यन्त प्रेमसे उनकी सेवा करने लगे ओर दिन रात माताही माता कहते मुख सुखै।एक दिन उस ब्रह्मणीने कहा कि, इतने दिनोंसे तु हमारे यहा रहताहै तैने कुछ अपना अभिप्राय नही कहा कि, तेरा क्या मनोरहेृै? ब्राह्मण बोला कि हे माता! मेरा तो नाम न लेना परुन्तु (शुक्लाग्वर) इस श्लोकका अर्थ अपने पतिसे बुझदो तो बहुत अच्छा है, वह बोली आजही लो, जैसे पुरोहितजी घर आये उसी समय वुझा कि, हे स्वामिन (शुगम्बर)इस श्लोकका क्या अर्थ है? परन्तु पुरोहितजीने बहुतेरी तीन पाचकी नारी विवश नर सफल गुसाई। नाचर्हि नट मर्कठ की नाई” मिसराणीने एक न मानी निदान बतानाही पडा, मिसराणीने अगले दिन उन महात्माजीको बतादिया, महात्माजी अच्छे बस्त्र पहन काँखमें पोथो टवा, राजाकी समामें गये और बडी वुमघामके साघ राजाको उस श्लोकका बही दहीवडेबाला अर्थ सुनाया, राजा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कहा तुम बडे विद्मान् हो, हमारे पास रहा करो और बहुत कुछ वन भी उनको दिया, पुरोहितजी इस बातको सुनकर शून्य होगये और अपने मनमे कहनेलगे कि, परमेश्वरने आज हमारी आजोंविका यहाँसे बन्द करदी और महात्माजीने कहा यह राजा मूर्ख और मर्खके समीप रहना किसी प्रकार अच्छा नहीं, यातो इसको पढाना चाहिये और जो यह न पढै तो यहाँसे सिधारना अच्छा है, पण्डितजीने राजासे कहा आप कुछ पढा करैं तो अच्छा है, राजाने स्वीकार किया और पण्डितजीने राजाको पढाना आरम्भ किया, व्याकरणके पढनेसे राजाको पद पदान्तका बोध होगया उस श्लोकको विचारनेलगा तो कही भी दही बडेका अर्थ न पाया, तब राजा चकित हो पण्डितजी—
जाननेमें आती है॥२८॥ हे देव! जब ज्ञानसेही मुक्ति हो जाती है तो मुक्तिकी क्यों बड़ाई की. ब्रह्मा कहैं हैं यद्यपि ज्ञान प्राप्त होना बहुत सुगम है तो आपके चरणारविन्दोंके प्रसादके कणिकाके कणिकाका अनुग्रह जिसपर होगया वही तुम्हरी महिमाके स्वरूपको जानता है और जिसपर
अथापि ते देव पदांबुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि॥ जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन्॥२९॥ तदस्तु मे नाथ स भूरि भागो भवेऽत्र वाऽन्यत्र तु वा तिरश्चाम्॥ येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्॥३०॥
तुम्हारे चरणाविन्दोंकी कृपाही नहीं है चाहे वह कितनाही विचार किया करे और वर्षोंतक ढूॅढ़ा करे तोभी आपकी महिमाको नहीं जान सक्ता शुद्धभक्तिसेही आपकी महिमा जानीजाती है॥२९॥ इस बातपर एक दृष्टान्त है*
हे नाथ! इस ब्रह्माके जन्ममें, अथवा और कोई जन्म होय.
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—और पुरोहितजीको बुला भेजा और आतेही राजाने उससे क्रोधकरके कहा कि, पुरोहितजी? तुमने मुझे बढा धोखादिया, बताओ इसमें दहीबडेका अर्थ कहा है? पुरोहितजीके तो छक्के छूट गये, पडितजीने कहा मैंनेही क्या सवही पण्डितोने शुद्ध अर्थ किया था, जब आपने क्यों न माना? तब राजा बोला उस समय मे अज्ञानी था, पडित बोले विना पढे यह ज्ञान कभी नहीं होता अब ज्ञान होनेसे आप समझे, ऐसेही यह प्राणी मायाके नशमें हो उलटाही समझे है॥
** * दृष्टात—**एक राजाने अपने मत्रीसे कहा कोई ऐसी औषधी भी है कि, जिसके खानेसे परमेश्वरका दर्शन होजाय?मत्रीने कहा हमारे दादा परदेशसे साढेतीनलाख रुपैये देकर एक ऐसीही पुडिया लायें है। सो घर घरी है, राजा बोला मुझको लादो मे खाऊगा मंत्री अपने घर जाकर चूल्हेकी राखकी पुडिया बांधलाये और राजासे कहा इलायची, वशलोचन इसमें मिलाकर शहतमें चाटो, परन्तु इसका पथ्य अवश्य करना और जो पश्य न करोगे तो औषधि क्या गण करेगी, विना पथ्य साढेतीनलाख रुपैयेकी औषधि वृथा जायगी विचार देखो जो रोगी पथ्यको करे तो रोगको जीत लेहै और कुपथ्य करे तो रोग औप धिको जीत लेहै इससे पश्यकी पुडिया खाओ तो मनमें झूँठ मतलाना और झूँठ मनमें लाओगेतो परमेश्वरका दर्शन न होगा, यह कह मंत्री तो अपने घरको चले गये और प्रात काल होनेही सजाने बुडिया खाई सो औषधि मनमें झूँठ जानपडी सो औषधि वर चित्तको सावधान कर दोघडी पीछे फिर वह औषधि खाई, सो झूँठ फिर आँखों आगे आगया औषधि फिर रखदी, ऐसेही शोच विश्वारमें तौन पहर बीतगये, कहा अब कल खाँयगे, सन्ध्याको मत्री आया उसने बूझा औषधी खाई कि नहीं खाई? राजा वोला झूँठ तो मनसे हटताही नहीं खांय कैसे?मंत्री बोला कि, यही उपाय भगवान्के मिलनेका है जो मनसेसब दुर्वासना निकलगई और मन शुद्ध होगया तब भगवान्का दर्शन होगया और तनक भी अन्तर रहगया तो भगवान् नहीं मिलते॥
उसमें अथवा पशुपक्षियोंमें जन्म होय तो मैं अपना बड़ा भाग्य मानूंगा जब तुम्हारे ब्रजवासियोंमेंसे किसीके चरणारविन्दकी सेवा करूंगा॥३०॥ देवताके जन्मसे अथवा और किसीके जन्मसे जिसमें आपकी भक्ति होय वही जन्म श्रेष्ठ है, इस प्रकार उत्कण्ठापूर्वक सात श्लोकसे स्तुति करते हैं अहो आश्चर्य! व्रजकी गाय गोपी धन्यहैं. हे प्रभु! जिन गोपियोंके स्तनोंका दूधरूप अमृत बछरे बन आपने आनन्दसे पेट भरकर पिया, आपकी तृप्तिके लिये अबतक यज्ञ भी पूर्ण नहीं हुये क्या यज्ञोंमें भी आपका पेट नहीं भरता है? भगवान्के सखाओंकी महिमा किसीके कहनेमें और जान नेमें नहीं आती॥३१॥ ब्रह्माजी बोले कि, नन्दरायजीके व्रजवासियोंका आश्चर्य रूप अहो भाग्य है परमानन्द पूर्णब्रह्म सनातन जिन व्रजवासियोंका सर्वदा मित्र होरहा है॥३२॥है इन व्रजवासियोंके भाग्यकी महिमा कहनेको किसकी सामर्थ्य है, इन्द्रियोंके अधिष्ठाता यज्ञदेवता महादेव बुद्धिके
अहोऽतिधन्या व्रजगोरमण्यः स्तन्यामृत पीतमतीव ते मुदा॥ यासां विभो वत्सतरात्मजात्मना यत्तृप्तयेऽद्यापि न चालमध्वराः॥३१॥ अहो भाग्यमहो भाग्यं नंदगोपव्रजौकसाम्॥ यन्मित्रं परमानंदं पूर्ण ब्रह्म सनातनम्॥३२॥ एषां तु भाग्यमहिमाऽच्युत तावदास्तामेकादशैव हि वयं बत भूरिभागाः॥ एतद्धृषीकचषकैरसकृत्पिबामः शर्वादयों घ्युदजमध्वमृतासवं ते॥३३॥ तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद्गोकुलेऽपि
कतमांघ्रिरजोभिषेकम्॥ यज्जीवितं तु निखिलं भगवान्मुकुंदस्त्वद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव॥३४॥
अधिष्ठाता मैं (ब्रह्मा) ऐसे ग्यारह देवता महादेवसे आदि लेकर हम सब बड़ भागी हैं, कोई व्रजवासी इंद्रियरूप दोनोंसे आपके चरणारविन्दका मकरन्द अमृतकी तुल्य मधुर २ पीते हैं, जिस समय व्रजवासी तुम्हारा दर्शन नेत्रोंसे करते हैं, उस समय नेत्रोंका अधिष्ठाता सूर्य कृतार्थ होजाता है और कानोंसे तुम्हारी बात सुनते हैं, तब कानोंके देवता दिशा कृतार्थ होजाती हैंनाकसे तुम्हारा प्रसाद तुलसीपत्र सूंघेंहैं, तब नासिकाके देवता अश्विनीकुमार कृतार्थ होजाते हैं, जब हाथोंसे तुम्हारी सेवा करतेहैं तब हाथोंके देवता कृतार्थ होजातेहैं, इसी प्रकार सब इन्द्रियोंके सेवनसे सब देवता कृतार्थ होजाते हैं, सम्पूर्ण पदार्थोंके सेवा करनेवाले व्रजवासियोंके भाग्यकी महिमा कैसे कही जाय॥३३॥ इस लोकमें कदाचित मेरा जन्म होय तो वृन्दावनमें होय उसपरभी गोकुलमें, यह मैं नहीं कहता मनुष्यही योनिमें हो जो चाहे जिस योनिमें हो, परन्तु गोकुलमें हो, तो मैं
पूर्ण भाग्यशाली होऊं और मेरे धन्य भाग्य होयॅ तब श्रीकृष्ण बोले कि, हे ब्रह्माजी! सत्यलोकको छोड़कर यहाॅजन्म लेनेसे तुमको क्या लाभ होगा तब बह्मा बोले, जिस जन्ममें व्रजवासियोंके चरणारविन्दकी रज मेरे मस्तकपर पडेगी वही मुझको परम लाभ होगा, तब श्रीकृष्ण बोले कि, व्रजवासी लोग कासे धन्य हैं। तब ब्रह्मा बोले कि, इन ब्रजवासियोंका पूर्ण जीवन व्रज है, क्योंकि जहां श्रीमुकुन्दपरायण हैं जिनके चरणारविन्दकी रजको नित्यप्रति वेद खोजते रहते हैं उस वृन्दावनकी रजका मिलना अहोभाग्य है॥३४॥ इन व्रजवासियोंकी कृतार्थताका क्या वर्णन करूं? जिनकी भक्तिसे तुम भी ऋणीसे होरहे हो? तब श्रीकृष्णचन्द्र कहैं हैं कि, मैं किस वस्तुके देनेमें असमर्थ हूं? जो ऋणी रहूं तहॉ ब्रह्माजी बोले कि, हे देव! जगत्में प्रकाशमान समस्त फलरूप तुम हो इसलिये और फल व्रजवासियोंको क्या दोगे! यह जब विचार करताहूं तब मेरा मन मोहित हो जाताहै, तब श्रीकृष्ण बोले, में अपने आपका ऋणी होजाऊंगा. तब ब्रह्माजी बोले कि, नहीं माताका स्वरूप धर कर पापिनी पूतना आई थी उसको आपनें
एषां घोषनिवासिनामुत भवान्किं देवरातेति नश्येतो विश्वफलात्फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन्मुह्यति॥ सद्वेषादिव पृतनापि सकुला त्वामेव देवाऽऽपिता यद्धोमार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते॥३५॥ तावद्रागादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्॥ तावन्मोहोंघ्रिनिगडो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥३६॥
सर्वस्व अपनपा दिया, तब श्रीकृष्ण बोले व्रजवासियोंको परिवार सहित सर्वस्व और अपनपा दूंगा, तब ब्रह्माजी बोले कि, पूतनाका कुटुम्ब अघासुर बकासुरको आपने सर्वस्व और अपनपा दिया तब कृष्ण बोले कि, मेरे पास तो यही पदार्थ देनेको है तब ब्रह्माजी बोले कि, जिन व्रजवा सियोंने धाम, धन, सुहृद्, प्रिय, देह, पुत्र, प्राण और अन्तःकरण आपमें अर्पणकर रक्खा है फिर क्या ऐसे व्रजवासियोंको और वैरियोंको क्या बराबरही रक्खोगे! आप परमेश्वर हैं तो क्याहै? परन्तु आपके यहां न्याय नहीं कहां बापुरी पूतना? और कहां परमहितकारी व्रजवास्त्री! आपको अपनेही मनमें न्याय करना चाहिये॥३५॥हे कृष्ण। जबतक रागादिक चोर इस शरीरमें उपस्थित हैं तबतक घराकारागार (बन्दीखाना) रूप है मोह भी तबहीतक पाओंकी बेडी है जबतक प्राणी तुम्हारे चरणारविन्दकी शरण नहीं आता, आपकी शरण लिये पीछे रागादिक जो चोर हैं
वह भी चोरसे साइ होजाते हैं और जो घर हैं वह भी सुन्दर मन्दिर होजाते हैं और सम्पूर्ण मोह दूर हो जाता है॥३६॥ हे प्रभो!तुम संसाररहित हो तो भी संसारमें शरणागत भक्तोंको आनन्द देनेके लिये संसारमें बारम्वार अवतार धारण करो हो॥३७॥ हे नाथ।हे प्रभो! जो पुरुष आपको॥६२॥ जानते हैं वह जानते होंगे, परन्तु में बहुत क्या कहूं। मनसे, वचनसे देहसे, आपका वैभव मेरे जाननेमें किसी प्रकारसे नहीं आसक्ता?॥३८॥ हे कृष्ण!अब मुझपैअनुग्रह करके मुझको सत्यलोकके जानेकी आज्ञा दीजै, आप सब जानते हो, अर्थात अपनी अपार महिमा मेरा ज्ञान, बल, पराक्रम, सबके देखनेवाले हो, आपही इस जगत्के अधिष्ठाता हो, मैंने ऐसा ब्रह्मापना छोड़ा यह जगत् आपहीकी भेंट हे॥३९॥ हे कृष्ण!यदुकुलकमलपर स्नेह करनेवाले (दिवाकर की सदृश) इसमें सूर्यकी उपामादी है. हे पृथ्वीके देवता! ब्राह्मण, पशु, समुद्र, इनके वृद्धि करनेवाले
प्रपंचं निष्प्रपंचोऽपि विडंव्यसि भूतले॥ प्रपन्नजननाऽऽनंदसंदोहं प्रथितुं प्रभो॥३७॥ जानंत एवजानंतु किं बहुत्या न मे प्रभो॥ मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः॥३८॥ अनुजानीहि मां कृष्ण सर्वं त्वं वेत्सि सर्वट्टक्॥ त्वमेव जगतां नाथो जगदेतत्तवार्पितम्॥३९॥ श्रीकृष्ण दृष्णिकुलपुष्करजोपदायिन्क्ष्मानिर्जर द्विजपशुदधिवृद्धिकारिन्॥ उद्धर्म शार्वरहरक्षितिराक्षसधुगाकल्पमार्कमर्हन्भगवन्नमस्ते॥४०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिपूय भूमानं त्रिः परिक्रम्य पादयोः॥ नत्वाऽभीष्टं जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत॥४१॥ ततोनुज्ञाप्य भगवान्स्वभुवं प्रागवस्थितान्॥ वत्सान्पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम्॥४२॥
(सुधाकरकी समान) इसमें चन्द्रमाकी उपमा दी. हे पाखण्डरूप अन्धकारके विनाश करनेवाले, इसमें सूर्य और चन्द्रमा दोनोंकी उपमा आई पृथ्वीपर कंसादिक राक्षसोके मारनेवाले, इसमें फिर सूर्यकी उपमा आई, हे सूर्य। हे अईन! सबके पूज्य भगवान्! अर्थात् छःप्रकारके ऐश्वर्यमे परिपूर्ण तुमको मेरा दण्डवत् है और नमस्कार हैं॥४०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजा परीक्षित्। इस प्रकार सर्वव्यापक श्रीकृष्ण चन्द्रकी स्तुति कर, कल्पपर्यन्त तीन प्रदक्षिणादे, चरणारविन्दोंको नमस्कार कर जगत्के विधाता बह्मा अपने ब्रह्मलोकको चलेगये
*
॥४१॥ तब पीछे श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञानुसार बछरे और बालकोंको ले आये, प्रथमकी समान ग्वालमण्डलीको उसी यमुनाकी रेतीमें ले आये जहाॅपहिले
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*** शंका—**जब श्रीकृष्णकी स्तुति करके ब्रह्माजी अपने लोकको गये परन्तु श्रीकृष्ण भगवान्
ब्रह्ममासे क्यों नहीं बोले? नव स्थानोंपर देनाओंसे भगवान बोलते है और आदर सत्कार करते हैं, फिर यहां मगवान्ने का निरादर क्यों किया?
बैठे भोजन कररहेथे और इस भेदको किसीने न जाना यह बात सुनकर राजा परीक्षित्ने श्रीशुकदेवजीसे बूझा कि, इतने दिनतक बालक कैसे यमुनाके किनारेपर बैठे रहे और भोजनपान कुछ न किया?॥४२॥ हे राजन्! जब अपने प्राणनाथ श्रीकृष्णचन्द्र विना एक वर्ष बीत गया, तौ भी भगवान्की मायासे मोहित हुए उन बालकोंको वह समय आधे पलकी समान जान पडा॥४३॥ भगवान्की मायासे मोहितचित्तवाला पुरुष इस संसारमें क्या क्या नहीं भूलसक्ता? सो सम्पूर्ण जगत भगवत्की मायासे मोहित होकर बारंबार अपने आत्माको भूल रहाहै॥४४॥ सब ग्वालबालोंने
एकस्मिन्नपि यातेऽब्दे प्राणेशं चांतरात्मनः॥ कृष्णमायाहता राजन्क्षणार्धं मेनिरेऽर्भकाः॥४३॥ किंकिं न विस्मरंतीह मायामोहितचेतसः॥ यन्मोहितं जगत्सर्वमभीक्ष्णं विस्मृतात्मकम्॥४४॥ ऊचुश्च सुहृदः कृष्णं स्वागतं तेऽतिरंहसा॥ नैकोऽप्यभोजि कवल एहीतः साधु भुज्यताम्॥४५॥ ततो हसन्हृषीकेशोऽभ्यवहृत्य सहार्भकैः॥ दर्शयं श्चर्माऽऽजगरं न्यवर्तत वनाद्वजम्॥४६॥ बर्हप्रसुननवधातुविचित्रितांगः प्रोद्दामवेणुदलगरवोत्सवादयः॥ वत्सान्ट जन्ननुगगीतपवित्रकीर्तिगोपीदृगुत्सवदृशिः प्रविवेश गोष्ठम्॥४७॥ अद्यानेन महाव्यालो यशोदानंद सूनुना॥ हतोऽविता वयं चास्मादिति बाला व्रजे जगुः॥४८॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्परोद्धेवकृष्णे इयान्प्रेमा कथं भवेत्॥ यो भूत पूर्वस्तोकेषु स्वोद्भवेष्वपि कथ्यताम्॥४९॥
श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा कि, भय्या! तुम तो बहुत शीघ्र आये, हमने तो तुम बिना एक ग्रास भी अभी नहीं खायाथा, अब आओ पहिले शीघ्रतासे भोजन कर लो॥४५॥ सब इन्द्रियोंके प्रेरणा करनेवाले श्रीकृष्णभगवान् बालकोंकी बात सुनकर हॅसे और बालकोंकेसंग भोजन करके मार्गमें जो सुखा हुआ अघासुरका देह पडा था उसको दिखाते वनसे लौटकर व्रजमें आये॥ ४६ ॥४७॥ वनसे आनकर सब बालक अपने माता पिताओंसे कहने लगे कि, आज यशोदानंदने वनमें एक बडा भारी सर्प मारा और उससे हमारी रक्षा करी॥४८॥ राजा परीक्षित बोले कि, हे ब्रह्मन्! ब्रजवासियोंका इतना प्रेम
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**उत्तर—**अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना मूर्खोंका काम है कि मैं ऐसा सज्जन हू, इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णब्रह्म, सर्व विश्वके नाथ ब्रह्मासे कीहुई स्तुतिको सुनकर लज्जायमानद्वये ब्रह्मासे कुछ भी नहीं वोले और विचार किया कि, हमने वृथा ब्रह्माके किये हुये स्वरित्रको नहीं माना क्योंकि जब ब्रह्मा वत्स बालकोंको हरिकर लेगया था तो हमको ब्रह्माजीकी स्तुति करके लेआना चाहिये था, ऐसे दयालु मगवान् लज्जासे नहीं बोले॥
श्रीकृष्णमें कैसे हुआ? जो कि पराया पुत्र था, अपने पुत्रोंमें इतना प्रेम पहिले नहीं था यह बात मुझे समझाकर कहो॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! श्रीकृष्णका नाम सर्वात्माहै, इसलिये श्रीकृष्ण सब प्राणियोंके साक्षात् आत्मा ठहरे, फिर सब प्राणियोंको अपना आत्माही परमप्रिय
श्रीशुक उवाच॥ सर्वेषामपि भूतानां नृप स्वात्मैकवल्लभः॥ इतरेऽपत्यवित्ताद्यास्तद्वल्लभतयैव हि॥५०॥
है,इसलिये श्रीकृष्णमें सन्तानसे बढकर अधिक प्रेम था, स्त्री, पुत्र, धन आदिक और जो पदार्थ हैं सो सब आत्माहीके सुखके लियेहैं*
॥५०॥
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* दृष्टान्त—किसी नगरमें एक ब्राह्मण था, उसके सन्तान नहीं होती थी, प्रथम तो उसने यत्रमत्रादिकके बहुतसे उपाय किये परन्तु कुछ न हुआ, फिर वैद्यलोगोंकी भी बहुतसी औषधिये की और ज्योतिषियोंने भी अनेक प्रकार के दान पुण्य कराये, परन्तु किसी प्रयत्नसे भी उसने पुत्रका मुख नहीं देखा. एक दिन वह वनमें पूजाके लिये फल फूल लेनेको गया, वहा उसको उदास देखकर एक महात्मा पुरुष उससे बूझने लगे कि, हे ब्राह्मण! तू क्यों इतना उदास है? ब्राह्मण बोला कि, हे स्वामिन्! मेरे सन्तान नहीं इस बातका मुझको वडा क्लेशहे. महात्माने कहा तू सन्तानगोपालका पाठकर तेरे पुत्र होगा. ब्राह्मणने वैसाही किया और भगवत्की कृपासे उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ. जब वह वडा होगया तो साबु सन्तोंके धोरे बहुत बैठता और इकलौता बेटा समझकर उसके माता पिता भी उसपर लाढ प्यार करते थे और वह मी।अपने माता पितासे अत्यन्त प्रेम रखता था, एक दिन कोई साधु गीताका पाठ कर रहे थे उसमें यह श्लोक आया:—
श्लोक—अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगवासूंश्च ज्ञानुशोचन्ति पण्डिताः॥
** श्लोकार्थ—**माता पिता सुहृद बन्धु कोई किसीका नहीं, यह सब केशवी माया है, इन लोगोंके लिये कभी शोच करना नहीं चाहिये. तुम बुद्धिहीनोंकी नाई उनके लिये शोक करते हो और कभी बुद्धिमानोंकी नाई बात करते हो परन्तु ज्ञानी लोग मरने जीनेका कुछशोक नहीं करते, वह लडका बोला. महाराज! मेरे माता पिता तो मेरे ऊपर प्राण खोनेको उपस्थित हैं और मुझको अपने प्राणोंसे भी अधिक चाहतेहैं साधु बोले, यह वात सब झूँठ है, लढकेने कहा मेरी बात झूँठ हो सक्ती है। साधु बोले कि, अच्छा आज तू घर जाकर बीमार वनकर पड रह फिर तू सबकी परीक्षा कर लेना और तुझको झूँठ सत्य सब प्रत्यक्ष दिखादेंगे. उस द्विजपुत्रने पैसाही किया, तव तो वैद्योंके उपाय और अनेकप्रकारके यत्र मत्र बडे बडे दान पुण्य होनेलगे, तब तो ब्राह्मणके बेटेने कहा कि, अब उन महात्मा पुरुषको बुलाना चाहिये जो कहते थे कि, न कोई माता है, न पिता है तब उसने उन महात्माको बुलाया और जैसे रुपयों को कैंकरीकर दिया था वह सब दिखाया कि देखो मेरे माता पिता कितना रुपैया खर्च कर रहेहैं. साधु बोले कि, यह लडका मरजायगा तबउसके माता पिता बोले कि, किसी प्रकार यह अच्छा भी होगा! साधु बोले कि, एक उपाय है तीनवार इसके ऊपर दूध उतारा जाय जो उसको पियेगा वह तो मरजायगा परन्तु यह अच्छा हो जायगा। तुम आपसमें सम्मत करलीकि, उस दूधको कौन पियेगा, अब तो सबको दिनमें तारे दीखने लगे और एककी ओरको एक देखने लगा परन्तु किसीने इस बातको अगीकार न किया कि दूध में पिऊगा और सबने अपने अपने प्राणोंकी रक्षा करनी चाही तब बाबाजीने कहा कि, बच्चा! देख कोई नहीं पीता तो इस दूधको हम पियेंगे ससारमें कोई किसीका नहीं सब अपने अपने प्राणोंके रक्षक हैं॥
इसलिये हे राजा परीक्षित्!देहधारियोंको जितना अपने आत्मामें प्यारहै उतना ममताके स्थान अपने पुत्र, धन, घर आदि लेकर जो वस्तुहैं उनमें नहीं है॥५१॥ हे क्षत्रिवंशोत्तम राजा परीक्षित्। जो पुरुष देहको आत्मा कहतेहैं उनको भी देह अत्यन्त प्रिय है और जो देहके अनुवर्ती स्त्री पुत्र धन आदि हैं वह देहकी समान प्यारे नहीं लगते॥५२॥ और देहको भी इस प्रकार मान ले कि, यह मेरा देह है, अर्थात् यह देह जब ममताका स्थान होजाता है तब यह देह आत्माकी समान प्यारा नहीं रहता. क्योंकि जिस समय यह देह जीर्ण होजाता है अर्थात् अब यह देह किसी प्रकार
तद्राजेंद्र यथा स्नेहः स्वस्वकात्मनि देहिनाम्॥ न तथा ममतालंबिपुत्रवित्तगृहादिषु॥५१॥ देहात्मवादिनां पुंसामपि राजन्यसत्तम॥ यथा देहः प्रियतमस्तथा न ह्यनु ये च तम्॥५२॥ देहोऽपि ममताभाक् चेत्तर्ह्यसौ नात्मव त्प्रियः॥ यज्जीर्यत्यपि देहेऽस्मिञ्जीविताशा बलीयसी॥५३॥ तस्मात्प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्॥ तदर्थमेव सकलं जगच्चैतच्चराचरम्॥५४॥ कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्॥ जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया॥५५॥ वस्तुतो जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु चरिष्णु च॥ भगवद्रूपमखिलं नान्य द्वस्त्विह किंचन॥५६॥
स्थिर न रहैगा तौ भी जीनेकी आशा बलवान् रहती है कि, किसी उपायसे दोचार दिन और बच रहूॅ॥५३॥ इस बातसे यह निश्चय होताहै कि, सब देहधारियोंको अपना आत्माही अधिक प्यारा है, उस आत्माहीके लिये, सब स्थावर जंगम आदि संसारपर जो प्रीति होती है सो सब आत्माहीका कारण है॥५४॥ हे राजन्! सब प्राणियोंके आत्मा जगत्के कल्याण करनेके लिये मनुष्य देह धारण कर अपनी मायासे प्रकाश करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दही हैं, इस कारण उनपर प्रेम होना सम्भव है॥५५॥ यही न समझना कि, श्रीकृष्णचन्द्र केवल
देहधारियोंहीके आत्मा हैं, नहीं वह सब जड पदार्थोंके भी आत्मा हैं वास्तवमें इस सब विश्वके आदिकारण श्रीकृष्णचन्द्रहीहैं, इस प्रकार मानने वाले पुरुषोंको सब स्थावर जंगममें भगवान्काही रूप भासै है कोई वस्तु इस संसारमें भगवानसे भिन्न नहीं है॥५६॥ समस्त पदार्थोंको परमार्थरूपसे।विचारकर देखिये तो कोई भी वस्तु अपने अपने कारणोंसे पृथक नहीं है और जो जो कारण हैं वह भगवान्से पृथक् नहीं, इससे सिद्ध हुआ कि, कारणोंके भी मुख्य कारण श्रीकृष्णभगवान् है फिर कौनसी वस्तु श्रीकृष्णसे पृथक् रही तुमही बताओ !॥५७॥ पवित्र वंश निर्मल कीर्तिवाले श्रीकृष्ण भगवान्के चरण कमल रूप नौका जो परमप्रेमी सज्जनोंका आश्रय है जो पुरुष उन चरणारविन्दरूपी नौकाका आश्रय
सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः॥ तस्यापि भगवान्कृष्णः किमतद्वस्तु रूप्यताम्॥५७॥ समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः॥ भवांबुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यद्विपदां न तेषाम्॥५८॥ एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ यत्कौमारे हरिकृतं पौगंडे परिकीर्तितम्॥५९॥ एतत्सुहृद्भिरितं मुरारे रघार्दनं शाइलजेमनं च॥ व्यक्तेतरद्रूपमजोर्वभिष्टवं शृण्वन्गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्॥६०॥
करते हैं, उनको संसाररूपी समुद्र बछरेके खुरके जलकी समान है और परम धामका उनको वास मिलता है कभी कोई विपत्ति नहीं होती॥५८॥ जो जो लीला भगवान् ब्रजविहारीने पांच वर्षकी अवस्थामेंकी; सो बालकोंने पौगण्ड अवस्थामें अपने अपने घर आन कही, उसका कारण जो तुमने हमसे वृझा सो सम्पूर्ण हमने तुम्हारे सामने वर्णन किया॥५९॥ मुर नाम दैत्यके शत्रु श्रीकृष्णचन्द्रने मित्रोंके संग यह चरित्र किया अघासुरको मारा यमुनाकी रेतीमें ग्वालबालोंके साथ भोजन किया जड़ प्रपञ्चसे भिन्न शुद्ध सत्त्वगुणीरूप ब्रह्माको दिखाया बछरे और ग्वालबालोंका
तद्वत्रूप धारण किया ब्रह्माने प्रेममय हो बड़ी स्तुति की, इस अद्भुत चरित्रको जो कोई मनुष्य कहेगा अथवा सुनेगा उस पुरुषके सब पुरुषार्थ सफल होंगे और
श्रीकृष्णचन्द्रमें पूर्ण भक्ति होगी॥ ६० इसप्रकार आँखमिचौनीके खेलमें ठौर ठौर छिपना, नदियोंके पुल बाँधने, बन्दरकी समान वृक्षोंपर चढना और कूदना और अनेक अनेक प्रकारके बाल्यावस्थाके और कौमार अवस्थाके श्रीकृष्ण और बलदेवजीने विहारकरके कौमार अवस्था पूर्ण करी॥६१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुदशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा—पन्द्रहमें धेनुक हनो, लीनी गाय बचाय। मित्रनको आनँद दियो, धन धन श्रीयदुराय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब कौमार अवस्था व्यतीत हुई और पौगण्ड अवस्थाका आरम्भ हुआ तब व्रजमें गाय चरानेके योग्य कृष्ण बलदेव दोनों भाई हुए तब ग्वाल बालों को साथ ले श्रीब्रजनाथने वृन्दावनको अपने कोमल चरण कमलसे अत्यन्त पवित्र किया॥१॥ मधुवंशके प्रकट होनेवाले श्रीश्यामसुन्दर बाँके विहारी कृष्णचन्द्र अपने यश गानेवाले ग्वाल
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे॥ निलायनैः सेतुबंधैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः॥६१॥ इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ ततश्च पौगंडवयःश्रितौ व्रजे बभ्रुवतुस्तौ पशुपालसंमतौ॥ गाश्चारयंतौ सखिभिः समं पदैवृंदावनं पुण्यमतीव चक्रतुः॥१॥ तन्माधवो वेणुमुदीरयन्तो गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः॥ पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम्॥२॥ तन्मंजुघोषालिमृग द्विजाकुलं महन्मनः प्रख्यपयस्सरस्वता॥ वातेन जुष्टं शतपत्रगंधिना निरीक्ष्य रंतु भगवान्मनो दधे॥३॥ स तत्रतत्रारुणपल्लवश्रिया फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः॥ स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदा स्मयन्निवाहाग्रजमादिपुरुषः॥४॥
बालोंको संग लेकर बलदेव भ्राता सहित बाँसुरी बजाते, बछरोंको कुदाते गायोंको आगे आगे कर, क्रीड़ा करनेके मनोरथसे पशु हितकारी अनेक प्रकारकी फुलवारी जहां फूल रहीं उस वृन्दावनमें विहार करनेके लिये गये सो वृन्दावन कैसा है॥२॥ मधुर मधुर वाणीवाले भौरे, मृग, अनेक प्रकारके पक्षी जहाँ वास करैं, महत्पुरुषोंके मनकी सदृश निर्मल जलसे सुंदर सरोवर भरे हुए, जिनका स्पर्श करके कमल कमलिनी नित्य प्रफुल्लित रहतेहैं उनकी सुगन्धयुक्त पवन दिनरात चलती रहती है, ऐसे मनोहर वृन्दावनको देखकर श्रीकृष्ण भगवान्ने विहार करनेकी इच्छाकी॥३॥ जहाँ तहाँ अरुण वर्णके पल्लव निकल रहेहैं उनकी अद्भुत शोभा हो रही है फल फूलोके भारसे झुकके जिनकी शाखाओंके अग्रभाग चरणोंमें लग रहेथे ऐसे ऐसे सुन्दर
वृक्षोंको देखकर परमानन्दितही मुसकायके आदिपुरुष श्रीकृष्णचन्द्रने अपने बडे भ्राता बलदेवजीसे कहा॥४॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे देवताओंमें श्रेष्ठ बलदेवजी! देखो यह बडा आश्चर्य है! यह वृन्दावनके वृक्षदेवताओंके पूजने योग्य अपने पापोंके नाश करनेकेलिये मौन साध आपके चरणारविन्दोंको फल फूल भेंटले लेकर अपनी शाखाओंसे झुक झुक कर प्रमाण करतेहैं किसलिये कि, जिस अज्ञानसे हमारा वृक्षजन्म हुवा है वह अज्ञान दूर होजाय इसलिये झुकेहैं॥५॥ हे आदिपुरुष! सब लोकोंका पवित्र करने वाला आपका यशहै उसको निरन्तर यह भौंरे गान कर करके आपका भजन करते हैं. ऐसा जान पडता है कि, यह भौंरे आपके मुख्य भक्त मुनिजन हैं? हे पापरहित! आप अपने दैवतरूपको छिपाये मनुजवेष बनाये
श्रीभगवानुवाच॥ अहो अमी देववरामरार्चितं पादांबुजं ते सुमनःफलार्हणम्॥ नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहृत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥५॥ एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं गायंत आदिपुरुषानुपदं भजंते॥ प्रायो अमीमुनिगणा भवदीयमुख्या गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम्॥६॥ नृत्यंत्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन॥ सूक्तैश्चकोकिलगणा गृहमागताय धन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः॥७॥ धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः॥ नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकैर्गाप्योंतरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः॥८॥
इन ग्वालबालोंमें क्रीडा कर रहेहो तो यह मुनि भी भौरेके रूपसे गुप्त होकर आपकी सेवा और भजन करते हैं. हे सर्वात्मन्! इन्होंने यहां भी आपका पीछा नहीं छोडा॥६॥ हे स्तुतिकरनेयोग्य! देखो? यह मोर आपके समीप कैसा सुन्दर नृत्य कररहे हैं और यह हरिणी गोपियोंकी नाईं चितवनसे। भोली भोली सूरत बनाये आपके ऊपर कैसा प्यार कररही हैं और देखो यह कोकिलाओंके समूह कैसी कैसी मधुरवाणीसे शुश्रूषा कररहे हैं यह वनवासी भी धन्य हैं क्योंकि अच्छे पुरुषोंका यही स्वभाव है जोकोई अतिथि अपने घर आवै तो जो कुछ अपने पास फल फूल होय सो उनकी भेंट करै॥७॥ आज यह भूमि, तृण, लता आपके चरणारविन्दोंको स्पर्श करके आनन्दपावैहै, धन्य हैनदी, पर्वत, पक्षी वनके
पशु भी धन्य हैं जो आप दयापूर्वक चितवन करैंहैं जिस वक्षस्थलकी लक्ष्मी इच्छा करती हैं उसका स्पर्श गोपियोंको होता है, इसलिये यह भी धन्य हैं॥८॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलमुकुटमणि! ऐसी अद्भुतवृन्दावनकी शोभा देख प्रसन्नमन श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतके समीप यमुना नदीके तीरपर गायनकों चराते ग्वालबालोंके संग विहार करते थे॥९॥ मदोन्मत्त भौंरे जिस समय गुंजार करते थे, तब वनमाल पहिरे बलदेवजीके साथ श्रीकृष्ण आप भी उनके स्वरमें स्वर मिलाकर गाते थे॥१०॥ कभी राजहंसोंकी मधुरवाणी सुन उनके संग वैसी ही मधुरवाणी बोलते थे, कभी अपने साथी मित्रोंको हँसानेके लिये मोरोंको नाचता देखकर उनके सन्मुख आप भी जामा फैलायके नाचते थे॥११॥
श्रीशुक उवाच॥ एवं वृंदावनं श्रीमत्प्रीतः प्रीतमनाः पशून्॥ रेमे संचारयन्नद्रेः सरिद्रोधस्सु सानुगः॥९॥ क्वचिद्गायति गायत्सु मदांधालिष्वनुव्रतैः॥ उपगीयमानचरितः स्रग्वी संकर्षणान्वितः॥१०॥ क्वचिच्च कलहंसानामनुकूजति कूजितम्॥ अभिनृत्यति नृत्यंतं बर्हिणं हासयन्कचित्॥११॥ मेघगंभीरया वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्॥ क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया॥१२॥ चकोरक्रौंचचक्राह्वभारद्वाजांश्च बर्हिणः॥ अनुरौति स्म सत्त्वानां भीतवव्याघ्रसिंहयोः॥१३॥ क्वचित्क्रीडापरिश्रांतं गोपोत्संगोपबर्हणम्॥ स्वयं विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः॥१४॥ नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः॥ गृहीतहस्तौ गोपालान्हसंतौ प्रशशंसतुः॥१५॥
कभी जो कोई गाय चरती २ दूर निकलजाय तो मेघकी समान गम्भीर शब्दसे प्रसन्न हो उनके नाम लेलेकर बुलाते थे॥१२॥ कभी चकयी, चकोर, क्रौञ्च, चकवा, भारद्वाज चातक, कीर, कपोत, सारिका, मोर उनके शब्द सुन आप भी उसी प्रकारका शब्द उच्चारण करते थे कभी व्याघ्र, सिंहको देख डरकर और पशु भागते, वैसेही गायोंको देख भयभीत हो आप भी भागतेथे॥१३॥ किसी समय खेलते खेलते बलदेवजीको परिश्रम होजाता तब किसी मित्रकी गोदी में शिरधर उसकी जंघाका तकिया बनाकर सो जाते, तब श्रीकृष्णचन्द्र आप उनके चरण दबाय पंखा करके उनकी थकावट दूर करते थे*
॥१४॥ किसी समय कृष्ण बलदेव परस्पर अद्भुत रीतिसे नृत्य करते, गाते,
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शंका—श्रीकृष्णने विष्णु भगवान् होकर अपने अंश शेषजीको अपनेसे बडा क्यों किया? उलटा श्रीकृष्णका बलदेवजीको सेवन करना पडा
कूदते, लडते, भिडते और फिर ग्वालबालोंकी भुजा पकड हँसकर कृष्ण बलदेव दोनों भाई कहते देखो कैसा नाच नाचा कैसा गाना गाया, इस प्रकार अपनी अपनी बड़ाई करतेथे॥१५॥ किसी समय मल्लयुद्ध करते करते जब हार जाते तव श्रीकृष्ण वृक्षकी जड के सहारेसे, पत्तोंकी शय्या पर गोपोंकी गोदीका तकिया बनाकर सो जाते थे॥१६॥ हे राजन्! कोई ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दाबते, कोई पापरहित ग्वालबाल पत्तोंके और पुष्पोंके पंखे बनाकर श्यामसुन्दरके बयार करते थे॥१७॥ कोई ग्वाल स्नेहभरी बुद्धिसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रकी नींद किसी प्रकार न
क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धश्रमकर्शितः॥ वृक्षमूलाश्रयः शेते गोपोत्संगोपवर्हणः॥१६॥ पादसंवाहनं चक्रुः कचित्तस्य महात्मनः॥ अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन्॥१७॥ अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः॥ गायंति स्म महाराज स्नेहल्किन्नधियः शनैः॥१८॥ एवं निगूढात्मगतिः स्वमायया गोपात्मजत्वं चरितैर्विडंवयन्॥ रेमे रमालालितपादपल्लवो ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः॥१९॥श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा॥ सुबल स्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन्॥२०॥ रामराम महावाहो कृष्ण दुष्टनिवर्हण॥ इतोऽविदूरे सुमहदनंतालालिसंकुलम्॥२१॥
उचट जाय इससे ऐसे ऐसे मनोहर मलारोके पद सहज सहजमें गातेथे॥१८॥ इसप्रकार अपनी मायासे अपना ईश्वररूप छिपाये नई २ लीला करके गोपोंके बालकोंको अनुकरण करते; लक्ष्मी जिनके चरणोंमें लोटें वह श्रीकृष्ण सुखधाम ग्रामके रहने वाले व्रजवासियोंके संग उनकी इच्छानुसार खेल खेलते थे. वीच बीचमें कभी ईश्वरपनकीभी लीला दिखला देते थे॥१९॥ बलराम और श्याम सुंदर के मित्र श्रीदामा नाम गोप, सुबल, स्तोक, कृष्णादिक गोप प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे॥२०॥ हे राम! हे राम! हे दीर्घवाहो! दुष्टोंके दलन करने हारे! हे श्रीकृष्ण! यहां से थोड़ीसी दूर पर तालके
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उत्तर—त्रेतामें लक्ष्मणजीने श्रीरामचन्द्रजीकी बहुत सेवा की थी और बिना रामचन्द्रकी आज्ञा लक्ष्मणजीने कोई कार्य नहीं किया, तत्र रघुनाथजीने प्रसन्न होकर लक्ष्मणको वरदान दिया कि, हे भैया लक्ष्मण! द्वापरमें हम तुमको अपना वडा भाई बनाकर हम तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम्हारा नाम बलदेव होगा और हमारा नाम विपिन विहारी होगा, इसलिये शेषजी विष्णुसे वडे हुए॥
वृक्षोंका एक बडा गम्भीर वन है॥२१॥ उस तालवनमें बहुतसे तालनके फल वृक्षोंके नीचे टूटे पडे हैं और भी टूट टूटकर बहुत से गिरते हैंपरन्तु धेनुकासुर दैत्य वहां रहता है उसने वह फल वहां रोक रक्खे हैं, न वह आप खाताहै और न किसी दूसरेको खाने देता है॥२२॥ हे राम हे कृष्ण वह दैत्य बडा पराक्रमी और बलशाली है सदा गधेका रूप धारण किये रहता है और उसके समीप उसीके समान बडे बडे योद्धा उसीकी जाति के बहुतसे असुर उसके संग रहते हैं और उनके बीचमें वह मंडली बनाये बैठा रहता है॥२३॥ हे दुष्टदमन! वह दुष्ट जहां कहीं मनुष्यको देखता है उसको खाजाता है, इस डरसे कोई मनुष्य उस वन में नहीं जाता और पशु पक्षियोंने भी उसके भय के मारे वह वन छोडदिया है॥२४॥
फलानि तत्र भूरीणि पतितानि पतंति च॥ संति किं त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना॥२२॥ सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्॥ आत्मतुल्य वलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः॥२३॥ तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्॥ न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसंधैर्विवर्जितम्॥२४॥ विद्यतेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च॥ एष वै सुरभिर्गंधो विषूचीनोऽवगृह्यते॥२५॥ प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गंधलोभितचेतसाम्॥ वांछास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते॥॥२६॥ एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया॥ प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्टतो तालवनं प्रभु॥२७॥ बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्संपरिकंपयन्॥ फलानि पातयामास मतंगज इवौजसा॥२८॥ फलानां पततां शब्दं निशम्यासुर रासभः॥ अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकंपयन्॥२९॥
आजतक किसीने नहीं खाये ऐसे सुगन्धित और मधुर फल वहां हैं, न मानो तो चारों ओर उनकी सुगंध फैल रही है सूंघके देखलो॥२५॥ हे कृष्णचन्द्र! उनकी सुगंधसे हमारे मन लुभायगये हैं तुम वह फल लाकर हमको दो उन फलोंके खानेकी हमारी बडी इच्छा है, जो आपकी भी इच्छा हो तो उस वनको चलैं॥२६॥ इस प्रकार मित्रोंके वचन सुन उनको प्रसन्न करनेके लिये सब मित्रोंको अपने संग के दोनों भाई हँसकर ताल वनको चलदिये॥२७॥ वहां जाकर बलदेवजीने ताल बजाकर हाथसे तालके वृक्षोंको हिलाया तो फलोंके ढेर के ढेर पृथ्वीपर हो गये, जैसे मतवाला हाथी वृक्षोंको हिलाकर फलों के ढेरके ढेर नीचे डाल देता है॥२८॥ पृथ्वीपर फलोंके गिरनेका शब्द सुनकर
वह गर्दभरूप धेनुकासुर पर्वतोंसमेत पृथ्वीको कम्पायमान करता दौडकर बलरामजीके सन्मुख आया॥२९॥ उस महाबलवान् धेनुकासुरने शीघ्रतासे आनकर दोनों पिछले पावोंसे बलदेवजीके हृदयमें एक दुलत्ती मारी और गम्भीर शब्दसे रैंकने लगा॥३०॥ हे राजन्! क्रोधमें भरकर धेनुकासुरने फिर आनकर मुख फेर बलदेवजीके पिछले पावोंकी एक दुलत्ती और मारी॥३१॥ तब तो बलदेवजीने उसकी दोनों टाँगे एक हाथसे पकड कर ऐसे घुमाया जैसे लडके गोफना घुमाते हैं जब उसके प्राण निकल गये तो फिर फिराकर एक तालके वृक्षके ऊपर फेंक दिया॥३२॥ हे राजन्! जब धेनुकासुरको वृक्षपर फेंका तो उसके फेंकनेसे वह अत्यन्त भारी तालका वृक्ष टूटकर पृथ्वीपर गिरगया, उसके गिरनेसे
समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली॥ निहत्योरसि काशब्दं मुंचन्पर्यसरत्खलः॥३०॥ पुनरासाद्य संरब्ध उपकोष्टा पराक्स्थितः॥ चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा॥३१॥ स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना॥ चिक्षेप तृणराजाग्रेभ्रामणत्यक्तजीवितम्॥३२॥ तेनाऽऽहतो महातालो वेषमानो महाशिराः॥ पार्श्वस्थं कंपयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम्॥३३॥ वलस्य लीलयोत्सृष्टखरदेहहताहताः॥ तालाश्चकंपिरे सर्वे महावातेरिता इव॥३४॥ नैतच्चित्रं भगवति ह्यनंते जगदीश्वरे॥ ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तंतुष्वंग यथा पटः॥३५॥ ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये॥ क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबांधवाः॥३६॥ तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृप लीलया॥ गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु॥३७॥
चारों ओरके वृक्ष टूट टूट कर पृथ्वीपर गिर गये, एककी चपेटसे एक, इस प्रकार अनेक वृक्षोंका चूरा होगया॥३३॥ बलदेवजीने लीला करके जो धेनुकासुरको वृक्षपर फेंका तो उस गर्दभ देहकी चपेटसे सर्वत्र ताल वनके वृक्ष काँपने लगे, जैसे महावेगकी आँधीसे सब पृथ्वी तलके वृक्ष कम्पायमान हो जाते हैं॥३४॥ बलदेवजीके इस पराक्रम करनेमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि वह अनन्त और जगदीश्वर हैं और यह विश्व उनमें ओतप्रोत होता रहता हैं जैसे वस्त्रके ताने बानेमें ओतप्रोत होता रहता है॥३५॥ जब धेनुकासुर मरगया, तब उसके भाई बन्धु जातिवाले सब गधे क्रोधित होकर श्रीकृष्ण बलदेवके ऊपरको झपटे॥३६॥ हे राजन्! श्रीकृष्ण बलदेव दोनों भाइयोंके सामने जो जो गधे आये,
उनकी टाँगें पकड़ पकड़ घुमाय घुमाय वृक्षोंके ऊपर फेंक दिये॥३७॥ उस कालमें लाल लाल तालके फलोंके समूहसे, श्वेत श्वेत मरेहुए गधोंकी लोथोंसे, हरी हरी तालके वृक्षोंकी शाखाओंसे और काली काली उन वृक्षोंकी जडोंसे, पृथ्वी ऐसी शोभायमान जान पड़ती थी, जैसे लाल, श्वेत, हरी, काली घटाओंसे आकाश शोभायमान दिखाई देता है॥३८॥ ऐसे २ अद्भुत चरित्र कृष्ण बलदेव के देख देख देवतालोग प्रसन्न हो होकर आकाशसे फूलोंकी वर्षा करतेथे और अनेक प्रकारके बाजे बजाय बजाय स्तोत्र पढ़तेथे॥३९॥ जब धेनुकासुर मारागया तो फिर मनुष्य निःसन्देह होकर उन तालवृक्षोंके फलोंको खाने लगे और गायेंभी निर्भय होकर घास चरने लगीं॥४०॥ और अनुचर गोप जिनकी स्तुति करते कमलपत्रसे जिनके विशाल नेत्रोंको देखते और परमपवित्र जिनकी कथा और चरित्रोंको सुनते, सब ग्वाल बाल श्रीकृष्ण बलदेव सहित व्रजमें
फूलप्रकरसंकीर्णा दैत्यदेहैर्गतासुभिः॥ रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम्॥३८॥ तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादयः॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः॥३९॥ अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः॥ तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने॥४०॥ कृष्णः कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः साग्रजो व्रजमाव्रजत्॥४१॥ तं गोरजश्छुरितकुंतलबद्धबर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्॥ वेणुं क्वणंतमनुगैरनुगीतकीर्तिं गोप्यो दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन्समेताः॥४२॥ पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृंगैस्तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि॥ तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्टं सव्रीडहासविनयं यदपांगमोक्षम्॥४३॥ तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयोः पुत्रवत्सले॥ यथाकामं यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः॥४४॥
आये॥४१॥ गायोंके खुरोंकी जो धूरि उड़ती थी उसके पड़नेसे जिनके केश धूसर वर्ण हो रहे हैं, मोरपुच्छोंके मुकुट शीशपर धारण कर रहेहैं, वनके पुष्पोंके तुरें कानोंमें लटक रहे हैं, तिरछी चितवनसे मनोहर मुसकानसे, इधर उधरको देखते, बाँसुरी बजाते, ग्वालबाल जिनका यश गाते, उन श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दके देखनेके लिये सब गोपी जुड़ मिलकर आईं॥४२॥ ब्रजबालाओंने नेत्ररूपी भौंरोंकी श्रीकृष्ण चन्द्रके मुखकमलके रससे दिन दिनकी तृष्णा और श्यामसुंदरके विरहकी तापको शान्त करके लाज भरी मुसकानसे और कटाक्ष भरी चित वनसे जो आदर सम्मान किया उसको स्वीकार करके व्रजमें आये॥४३॥ पुत्रोंमें जिनका परमस्नेह वह यशोदा और रोहिणी अपने
पुत्रोंकी इच्छानुसार सब पदार्थ उपस्थित रखती थीं॥४४॥ व्रजविहारीने व्रजमें आनकर उवटन स्नान किया तो मार्गका सब श्रम दूर होगया उस समय दोनों भाइयोंने सुन्दर सुन्दर पीताम्बर पहिर सुगन्धित पुष्पोंकी माला कण्ठमें धारण कर चन्दन चोवा लगाकर॥४५॥ जो निश्चित हुए तो बड़े प्रेम प्रीतिसे माता माखन, मिश्री, मिष्टान्न और षड्रसभोजन परोसकर लाई, उसको बड़ी प्रीतिसे भोग लगाया और आनन्दपूर्वक सुन्दर शय्यापर जाकर शयन करने लगे॥१६॥ हे राजन्! इस प्रकार वृन्दावनविहारी भक्तनहितकारी श्रीकृष्णभगवान् नित्य प्रति वृन्दावनमें विहार किया करते थे. एक दिन विना बलरामको संग लिये अकेलेही ग्वालबालोंको साथ ले यमुनाके तीरपर धेनु चराने
गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः॥ नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यखग्गंधमंडितौ॥४५॥ जनन्युपहृतं प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ॥ संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे॥४६॥ एवं स भगवान्कृष्णो वृंदावनचरः क्वचित्॥ राममृते राजन्कालिंदीं सखिभिर्वृतः॥४७॥ अथ गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः॥ दुष्टं जलं पपुस्तस्या स्तृषार्ता विषदूषितम्॥४८॥ विषांभरतदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतसः॥ निषेतुर्व्यसवः सर्वे सलिलांते कुरूद्वह॥४९॥ वीक्ष्य तान्वै तथाभृतान्कृणो योगेश्वरेश्वरः॥ ईक्षयाऽमृतवर्षिण्या स्वनाथान्समजीवयत्॥५०॥ ते संप्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलांतिकात्॥ आसन्मुविस्मिताः सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम्॥५१॥
गये॥४७॥ मार्गमें ग्रीष्मकी धूपसे अत्यन्त व्याकुल होकर गाय और ग्वालबाल बहुत तृषित हुए, तब सब प्यासके मारे कालीदहमें जाय विषसे दूषित यमुनाजीका जल पिया॥४८॥ हे राजन्! उस जहरीले जलके पीनेसे ऐसे अचेत हुये कि, तन मनकी कुछ सुधि बुद्धि न रही, मृतककी समान निष्प्राण हो, मुरझाकर यमुनाके किनारे पर गिरगये॥४९॥ योगेश्वरांके ईश्वर श्रीकृष्ण भगवान् अपने मित्र ग्वालबाल और गायोंको मूर्च्छित देख, अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टिसे देखकर सबको जिला दिया॥५०॥ जब सब गायें और ग्वालबाल जी उठे और श्रीकृष्णको अपने सन्मुख खड़ा देखा और बडे आश्चर्यसे परस्पर देखने लगे॥५१॥
और श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी पूर्णानुकंपासे फिर जीवित हुये जान परमानन्द मानने लगे॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां धेनुकासुरवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा—इस सोरह अध्यायमें, कालीदहमें जाय॥ नाथ कालीनागको, पीछे करी सहाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! कालिन्दीको कालियसके विषसे बिगरी देखकर प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रने यमुनाके जलको शुद्ध करनेके लिये उस कालिय सर्पको वहाँसे निकाल दिया॥१॥ राजा परीक्षितने बूझा कि हे ब्रह्मन्! भगवान्ने महागम्भीर जलके भीतर कैसे कालिय नागको दण्ड दिया और वह किसकारण कालिन्दीके महागम्भीर जलमें वास करता था सो कृपाकर विस्तार सहित वर्णन
अन्वमंसत तद्राजन्गोविंदानुग्रहेक्षितम्॥ पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते म० दशमस्कंधे पू० धेनुकासुरवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ श्रीशुक उवाच॥ विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः॥ तस्या विशुद्धिमन्विच्छन्सर्पं तमुदवासयत्॥१॥ राजोवाच॥ कथमंतर्जलेऽगाधे न्यगृह्णाद्भगवानहिम्॥ स वै बहुयुगावासं यथाऽऽसीद्विप्र कथ्यताम्॥२॥ ब्रह्मन्भगवतस्तस्य भूम्नः स्वच्छंदवर्तिनः॥ गोपालोदारचरितं कस्तृप्येतामृतं जुषन्॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कालिंद्यां कालियस्यासीद्धदः कश्चिद्विषाग्निना॥ श्रप्यमाणपया यस्मिन्पतंत्युपरिगाः खगाः॥४॥ विप्रुष्मता विषोदोर्मिमारुतेनाभिमर्शिताः॥ म्रियंते तीरगा यस्य प्राणिनः स्थिरजंगमाः॥५॥
कीजिये!॥२॥ हे ब्रह्मन्! श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द स्वच्छन्दविहारी जो अपने भक्तोंको दिखाने के लिये अनेक अनेक प्रकारके चरित्रकरते हैं सो उन भक्तभावन भगवान् गोपालनादिक परमोदार प्राणाधार चरित्रामृतके श्रवणद्वारा पान करनेसे कौन पुरुष तृप्त हो सक्ता है?॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, कालिन्दी (यमुना) में कालीनागका एक कुण्ड था, जिसमें विषकी अग्निसे नित्य जल औटता रहता था और आकाशके उड़नेवाले पक्षी उस गरलकी तापसे जलकर उस जलमें गिर पड़ते थे॥४॥ और उस विषैले जलकी लहरोंके जलकणोंसे मिली पवन जो चलतीथी उसके लगनेसे किनारेके वृक्ष और घास सूख जाती थी और जो जीव उस कुण्डके तटपर भूलसे चले जाते तो उसीसमय उस जलकी
झलसे जलकर तड़फ तड़फ मरजाते थे॥५॥ श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मनमें कहा कि, इस कुण्डमें ऐसे विषशाली सर्पका रहना अत्यन्त दुःखदायक है, क्योंकि जो कोई पशु पक्षी वा पुरुष इस जलको पीताहै वह एक क्षणभरभी नहीं जीता, उसीसमय अकुलाकर मर जाताहै और दूसरे यमुनाके जलको दोष लगाता है, इसलिये ऐसा दुष्टका यहाँसे निकालनाही अच्छाहै, क्योंकि जो यह यहां रहा तो लाखों जीवोंकी हत्या करेगा, जिसके विषकी लपटसे चार कोशतक जल भडकता रहता है, ऐसा कोई सामर्थ्यवान् नहीं जो उस कुण्डके पास जासके जब इस प्रकार श्रीकृष्ण विचार विषके अभिमानी कालिय नाग को देखकर और उसके विषसे बिगडीहुई यमुनाको देखकर, दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये जिन्होंने अवतार लिया है, वे श्रीकृष्ण महाराज काँछ बाँध पीताम्बरसे कमर कस, उस महाऊँचे कदम्बके रूखसे ताल ठोंककर कालियकुण्डमें कूदपडे॥६॥
तं चंडवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन दुष्टां नदीं च खलसंयमनावतारः॥ कृष्णः कदंबमधिरुह्य ततोऽतितुंगमास्फोट्यगाढरशनो न्यपतद्विषोदे॥६॥ सर्पह्रदः पुरुषसारनिपातवेगसंक्षोभितोरगविषोच्छ्वसितांबुराशिः॥ पर्यक्प्लुतो विषकषायविभीषणोर्मिर्धावधन्नुश्शतमनंतबलस्य किं तत्॥७॥ तस्य ह्रदे विहरतो भुजदंडघूर्णवार्घोषमंग वरवारणविक्रमस्य॥ आश्रुत्य तत्स्वसदनाभिभवं निरीक्ष्य चक्षुश्चवाः समसरत्तदमृष्यमाणः॥८॥ तं प्रेक्षणीयसुकुमारघनावदातं श्रीवत्सपीतवसनं स्मितसुंदरास्यम्॥ क्रीडंतमप्रतिभयं कमलोदरांघ्रिं संदश्य मर्मसु रुषा भुजया चच्छाद॥९॥
पुरुषोत्तम भगवान् जिस समय जलमें कूदे उस समय उनके भारके झटकेसे और सर्पके गरलकी गर्मीसे कालियदहका जल बहुत ऊपरको उछला और विषकी लपटोंके प्रभावसे अत्यन्त खारी और महाभयानक तरलतरंगें जलमें उठने लगीं और चारों ओरसे यमुनाका जल सौ सौ धनुषतक फैलगया, भगवान्का अनन्त बल है, इस कार्य में कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥७॥ हे राजन्! महाबलवान् हाथीके समान जिनका पुरुषार्थ जिस समय कालियदहमें जाकर गिरे, उस समय बलशाली भगवान्के भुजदण्डसे ताडित जल शब्दको सुनकर और श्रीकृष्णसे अपने घरका विनाश समझकर कालीनाग अपने मनमें कहने लगा कि, ऐसा कौन बलवान हैं जो मेरे घरमें आनकर धूम मचा रहाहै, जब उससे न सहारागया तब झट झपट श्रीकृष्णके सन्मुख धाया॥८॥ दर्शन करनेके योग्य, सुन्दरस्वरूप, सुकुमार अवस्था, मेघवर्ण, हृदयमें भृगुलताका चिह्न
विराजमान, पीतवसन धारण किये, मन्दहास्य सहित जिनका मुखारविन्द, निर्मल खिलेहुये कमलसे जिनके पदपंकज, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान्को निश्शंक उस विषैले जलमें विहार करता देख, अत्यन्त क्रोधित हो बक्षस्थलमें डसनेको दौडा परन्तु उस मोहनीमूर्तिको निहारकर मोहित होगया॥९॥ श्रीकृष्णके देहमें सर्प लिपटाहुआ देखकर सब प्यारे मित्र ग्वालबालक सब दुःखित हुये तथा श्रीकृष्णचन्द्रमें देह मित्र, धन, स्त्री समस्त कामना जिनमें अर्पण करदी और दुःख शोक भयसे सुधि बुद्धि बिसार वे गोप पृथ्वीमें पछार खायके गिरतेभये॥१०॥ गाय, बैल, वत्स, छोटी छोटी बछिये, महा दुःखी होकर रम्भाने लगीं और टकटकी बाँधकर मनमोहन प्यारेकी ओर देखने लगीं और डरके मारे ऐसे सुस्त
तन्नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्टमालोक्य तत्प्रियसखाः पशुपा भृशार्ताः॥कृष्णेऽर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा दुःखानुशो कभयमूढधियो निपेतुः॥१०॥ गावो वृषा वत्सतर्यः क्रंदमानाः सुदुःखिताः॥ कृष्णे न्यस्तेक्षणा भीता रुदंत्य इव तस्थिरे॥११॥अथ व्रजे महोत्पातास्त्रिविधा ह्यतिदारुणाः॥ उत्पेतुर्भुवि दिव्यात्मन्यासन्नभयशंसिनः ॥१२॥ तानालक्ष्य भयोडद्विग्ना गोपा नंदपुरोगमाः॥ विना रामेण गाः कृष्णं ज्ञात्वा चारतितुं गतम्॥१३॥ तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं मत्वा प्राप्तमतद्विदः॥ तत्प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुराः॥१४॥ आबालवृद्धवनिताः सर्वैग पशुवृत्तयः॥ निर्जग्मुर्गोकुलाद्दीनाः कृष्णदर्शनलालसाः॥१५॥
होरहे थे मानों रोरहे हैं॥११॥ अनन्तर व्रजमें बडे २ तीन प्रकारके उत्पात हुये जैसे धरती कॅपनेलगी, आकाशसे तारे छूटने लगे पुरुषोंकी बाईं भुजा और बाईं आँख फडकने लगे ऐसे शीघ्र भय जतानेवाले उत्पात होनेलगे॥१२॥ नन्दप्रभृति उन उत्पातोंको देखकर अत्यन्त भयभीत हुये कि, आज विना बलदेवको संग लिये कृष्ण अकेले गायें चरानेको गयेहैं ॥१३॥ उन खोटे उत्पातोंसे श्रीकृष्णका निधन मानकर और उनके प्रभावको कुछ न जानकर श्रीकृष्ण में जिनका तन, मन, धन लग रहा था, वह इन कठिन उत्पातोंके भयसे अत्यन्त पीडित हो ऐसे कहने लगे॥१९॥ उस समय नन्द यशोदादिक सव व्रजवासी बाल, वृद्ध, स्त्री, अत्यन्त व्याकुल हो रोते पीटते पशुकी नाई राम कृष्णके खोजनेको गोकुलसे
बाहर निकले, क्योंकि पूर्ण प्रेमसे जिनके मन श्रीकृष्णमें लग रहेथे॥१५॥ मधुवंशमें उत्पन्न हुये भगवान् वलदेवजी व्रजवासिनको व्याकुल देखके कुछ हॅसे और अपने छोटे भैया श्रीकृष्णचन्द्रके अद्भुत प्रभावको जानतेथे। इनके हॅसनेसे सबके प्राणवचे, क्योकि, जिसके बड़े भैया हँसरहेहैं तब समझगये कि कुछ कुशल है॥१६॥ वह सव व्रजवासी कृष्णप्यारेको ढूंढते ढूँढते मार्गमें कृष्णचन्द्रके चरणचिह्न देखे, उन चरण चिह्नोंको देखकर सब पुकार कर कहने लगे कि, देखो भाई और ग्वाल बालोंकेभी चरणचिह्न पृथ्वीपर लग रहेहैं और गाय बछडे भी उनके संगहें, विदित होताहै कि यमुनाके ओरको गये हैं, यह कह सब ब्रजवासियोंने कुछ कुछ धैर्य धारण किया॥१७॥हेराजन् ! वह लोग गायोंके मार्ग में और
तांस्तथाकातरान्वीक्ष्य भगवान्माधवो बलेः॥ प्रहस्य किंचिन्नोवाच प्रभावज्ञोऽनुजस्य सः॥१६॥ तेन्वेषमाणा दयितं कृष्णं सूचितया पदैः॥ भगवल्लक्षणैर्जग्मुः पदव्या यमुनातटम्॥१७॥ ते तत्रतत्राब्जयवांकुशाशनिध्वजोपपन्नानि पदानि विश्पतेः॥ मार्गे गवामन्यपदांतरांतरे निरीक्षमाणा ययुरंगसत्वराः॥१८॥अंतर्ह्रदे भुजगभोगपरीतमारात्कृष्णं निरीहमुपलभ्य जलाशयांते॥ गोपांश्च मूढधिषाणान्परितः पशुश्च संक्रंदतः परमकश्मलमापुरार्ताः॥१९॥ गोप्योऽनुरक्तमनसो भगवत्यनंते तत्सौहृदस्मितविलोकगिरः स्मरंत्यः॥ ग्रस्तेऽहिना प्रियतमे भृशदुःखतप्ताः शून्यं प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम्॥२०॥
ग्वालोंके पदोंके बीचमें श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् जगदीश्वरके चरणोंके चिह्न कमल, यव, अंकुश, वज्र, ध्वजाकी रेखा देखते देखते बहुत शीघ्र चले॥१८॥ सब स्त्री, पुरुष कालीदहके किनारे पहुँचे जाकर देखा तो दहके भीतर कालीनाग श्यामसुंदरके शरीर में लिपट रहा है और उनकी चेष्टा विहीन हो रही है, किनारे पर जडबुद्धिहुए ग्वाल बाल पछाड खाये पडे हैं, चारों ओर गाय बछड़े रम्भाते फिरें हैं, उन सबकी यह दशा देखकर सब महादुःखी हुए॥१९॥ जिन गोपियोंका मन अनन्त भगवान्में लय हो रहाहै वह गोपी मनमोहनमें मन लगानेवाली श्रीकृष्णचन्द्रका प्यार, मन्दमुसकान तिरछी चितवन, मधुर वचनोंकी सुधि करके अतिशय प्यारे श्यामसुंदरको सर्पसे सितहुआ देखकर अत्यन्त व्याकुल होगई और तीनोलोक सूने
दिखाई देने लगे॥२०॥ पुत्र श्रीकृष्णको दहमें देख यशोदा माता जल में गिरने चली, तब गोपियां उन्हें पकड़ अति दुःखित होके आंखोंमें आँसू बहातीं यशोदाकी समान दुःख करतीं, व्रजमें करी हुई भगवान्की प्यारी लीला उनका वर्णन करतीं भगवानके मुखकी ओर दृष्टि देकर गोपियां मृतकके समान होगईं॥२१॥ श्रीकृष्णचन्द्र में प्राण लगाये कालिंदीके दहमें पुत्रशोकसे नन्द आदि व्रजवासियोंको दहमें गिरता देख श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले भगवान् बलदेवजी रोकते भये॥२२॥ इस प्रकार गोकुलवासियोकी अनन्य गति देख और उनको कोई छुडानेवाला नहीं यह समझके तथा स्त्री बालकों सहित गोकुलवासी मेरे लिये बहुत दुःखित हैं यह विचारके मनुष्यकी तुल्य लीला करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र
ताः कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टां तुल्यव्यथाः समनुगृह्य शुचः स्रवंत्यः॥ तास्ताः प्रियव्रजकथाः कथयंत्य आसन्कृष्णाननेऽर्पितदृशो मृतकप्रतीकाः॥२१॥ कृष्णप्राणान्निर्विशंतो नंदादीन्वीक्ष्य तं हृदम्॥ प्रत्यषेधत्स भगवान्नामः कृष्णानुभाववित्॥२२॥ इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य सस्त्रीकुमारमतिदुःखितमात्महेतोः॥ आज्ञाय मर्त्यपदवी मनुवर्तमानः स्थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरंगबंधात्॥२३॥ तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्मभोगस्त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफ णान्भुजंगः॥तस्थौ श्वसञ्श्वसनरंध्रविषांवरीषस्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाणः॥२४॥ तं जिह्वया द्विशिखया परिले लिहानं द्वे सृक्किणी ह्यतिकरालविषाग्निदृष्टिम्॥ क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेंद्रो बभ्राम सोऽप्यवसरं प्रसमीक्षमाणः॥२५॥
दो घडीतक उस सर्पके कुंडलीमें रहके फिर उसके बाहर निकलते भये॥२३॥ श्रीकृष्णने अपना इतना देह बढाया कि, उसके अंगके सब बन्द बन्द ढीले होगये, नस नस दुखनेलगीं हड्डियोंके जोड़ जोड़ टूटने लगे, तब तो वह नाग कृष्णचन्द्रको छोड़ महाक्रोधकर फणोंको उठा उठाकर लम्बे लम्बे श्वास लेने लगा और नथनोंमेंसे विषकी झलें निकलनेलगीं, ऑखोंके पलक खुलेके खुले रहगये और मुखसे विषानलकी ज्वालाभडकनेलगीं, लकडी की नाई कृष्णकी ओरको देख रहा था॥२४॥दो दो फॉकवाली जिह्वाओंसे अधरोंको क्षण क्षणमें चाट चाटकर क्रोध करता था; उस विकराल विषानलभरी चितवनवाले कालीनागके चारों ओर फिर फिर कर व्रजविहारी विहार करते फिरते थे जैसे गरुड सर्पके चारों ओर फिरता है और वह
काली भी अपना अवसर देखता हुआ भगवान्केचारों ओर घूमता फिरता था, श्रीकृष्ण अपना दॉव विचारते थे, काली अपना दाँव विचारता था, श्रीकृष्णकी इच्छातो यह कि, मेरा दॉवलगै तो कालीके फणोंपर चढ़करनृत्यकरूँ और कालीके मनमें यह विचार कि, किसीप्रकार एक बारतो वनमाली को फिर लिपट जाऊँ दोनों अपना २ दाँव तक रहेथे॥२५॥ जब फिरते फिरते कालीका पराक्रम घट गया तब कालीके ऊपरको उठेहुये फणोंको नीचे नवाय श्रीकृष्णने झट झपट कर उसका फण पकड चरणतले दाब उसकी नाकमें नाथ डालदी और उसके शीशपर जा चढे और नाचनेलगे॥२३॥ जिस समय नटनागर नटवरवेष धरकर कालीके फणोंपर नाचने को खडे हुए, उसको देखनेके लिये गन्धर्व, सिद्ध सुरगण चारण, देवांगना यह सब अत्यन्त प्रसन्न होकर मृदंग ढोलक नगाड़े आदि अनेक प्रकारके बाजे बजाते गीत गाते, पुष्प वर्षाते, भेंटें ले लेकर आये और भगवान्कीस्तुति करने
एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांसमानम्य तत्पृथुशिरस्स्वधिरूढ आद्यः॥ तन्मूर्धरत्ननिकरस्पर्शातिताम्रपादांबुजोऽखिलकलादिगुरुर्ननर्त॥२६॥ तं नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीयगंधर्वसिद्धसुरचारणदेववध्वः॥ प्रीत्या मृदंगपणवानकवाद्यगीतपुष्पोपहारनुतिभिः सहसोपसेदुः॥२७॥ यद्यच्छिरो न नमतेंग शतैकशीर्ष्णस्तत्तन्ममर्द खलदंडधरोंघ्रिपातैः॥ क्षीणायुषो भ्रमत उल्वणमास्यतोऽसृग्नस्तो वमन्परमकश्मलमाप नागः॥२८॥ तस्याक्षिभिर्गरलमुहमतः शिरस्सु यद्यत्समुन्नमति निश्श्वसतोरुषोच्चैः॥ नृत्यन्पदाऽनुनमयन्दमयांबभूव पुष्पैः प्रपूजित इवेह पुमान्पुराणः॥२९॥
लगे॥२७॥ हे राजन्।जिस कालीके एक सौ एक मस्तक थे, उसने जो मस्तक ऊपरको उठाया उसको दुष्टदमन श्रीकृष्णचन्द्रने उसीसमय पॉवकी ठोकरसे नीचेको दबादिया और जब वह क्षीण अवस्थावाला इधर उधर घूमने लगा तब मुखसे नासिकासे रुधिरकी धारा निकलने लगीं, शरीरके बन्द ढीले होगये, इस प्रकार कालीको दुष्टदमन भगवान् ने मर्दन किया॥२८॥ तोभी उस काली नागने महाक्रोध करके लम्बे लम्बे श्वास लिये और मुखसे विष उगला और फिर शिर ऊपरको उठाये परन्तु भगवान् शत्रुदमननें नृत्य कर करके चरणोंकी ठोकरोंसे उसके मस्तकोंको नीचेको झुकादिया, उस समय गन्धर्व और देवताओंने अत्यन्त प्रसन्न होकर, शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले नारायणकी समान जानकर
यशोदानन्दन भगवान्की पुष्पोंसे पूजा करी. उससमय व्रजवासियोंको आदिपुरुषकासा दर्शन हुवा॥२९॥ हे राजन्! नटनागर भगवान्ने जोचित्र विचित्र ताण्डव नृत्य किया उससे कालीके फणरूपी छत्र टूट गये और सब शरीरकी नस नस ढीली हो गई, मुखसे रुधिर बहनेलगा, तब श्रीकृष्णको स्थावर जंगमका गुरु पुराणपुरुष नारायण समझकर मनसे उनकी शरण ली॥३०॥ समस्त ब्रह्माण्ड जिनके उदरमें विराजमान है ऐसे विश्वभावन भगवान् मुरलीधरने त्रिलोकीका भार अपने देहमें धारणकर कालीके मस्तकपर मुरली बजाय बजाय उछल उछलकर ताण्डवनृत्य किया, उस समय मुरलीमनोहरका कौतुक देखनेके लिये देवता, गन्धर्व, किन्नर, अप्सरादिक अपने अपने विमानोंपर बैठकर आये और अनेक प्रकारके बाजे बजाबजाकर श्रीवैकुण्ठविहारीके उत्तम उत्तम चरित्र गाने लगे, अप्सरायें भाँति भॉतिके नृत्य करने लगीं, देवता आकाशसे पुष्प वर्षाने लगे, उस समय देवता गन्धर्व, जो ताल स्वर सहित गाते थे, उसीमें मुरली मनोहर अपनी मुरलीकी तान मिलाते थे और जब कालीके शिरोंपर ठुमक ठुमक पग
तच्चित्रतांडवविरुग्णफणातपत्रो रक्तं मुखैरुरुवमन्नृप भग्नगात्रः॥ स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं नारायणं तमरणं मनसा जगाम॥३०॥ कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं पाणिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम्॥ दृष्ट्वाऽहिमाद्यमुपसे दुरमुष्य पत्न्य आर्ताः श्र्लथद्वसनभूषणकेशबंधाः॥३१॥ तास्तं सुविग्नमनसोऽथ पुरस्कृतार्भाः कार्यं निधाय भुवि भूतपतिं प्रणेमुः॥ साध्व्यः कृतांजलिपुटाः शमलस्य भर्तुर्मोक्षिप्सवः शरणदं शरणं प्रपन्नाः॥३२॥
धरते थे और नृपुरोंका शब्द सब बाजो में मिल रहा था उन नूपुरों की झनकारकी ध्वनि सुनकर पवन पानी भी बहनेसे बन्द होगये, उससमयका आनन्द वर्णन करनेमें ब्रह्मादिक देवताभी चकित होते हैं, फिर और किसी दूसरेकी क्या सामर्थ्य है जो उस आनन्दका वर्णन करसकै, जब त्रिभुवनपतिने त्रिभुवनका भार कालीके शिरपर रक्खा तब उसके सब अंग शिथिल होगये, मुखोंसे रक्तकी फुहारें निकलने लगीं देह थककर जब मृतक समान होगया और सब अभिमान जाता रहा, उस समय अपने जीवनकी आशा छोड फणोंको पृथ्वीपर पटकने लगा. मस्तक २ पर चरणारविन्दोंके चिह्न होगये, उससमय कालीकी दुर्दशा देख कर वस्त्र आभूषण जिनके अस्तव्यस्त होगये, केश खुलगये, ऐसी कालीकी पत्नियें पतिके शीशोंको छत्रकी समान टूटते देखकर हृदयमें कराघात करती नारायणकी शरण आई॥३१॥ अत्यन्त व्याकुल जिनके मन अपने अपने छोटे छोटे बच्चोंको
आगे करके नागकी पतिव्रता स्त्रियें अत्यन्त पीडित हो प्रथम पृथ्वीपर पडकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और अपने पतिके पापछुटानेके लिये श्रीकृष्ण भगवान्के चरण शरणमें आईं॥३२॥ नागपत्नियें बोलीं, कि हे नाथ! इस अपराधीको आपने दण्डदिया सो अच्छा किया. क्योंकि आपका अवतार दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये है शत्रु और मित्रको आप एकसा समझते हो, इसीलिये आपका नाम समदर्शी है, दुष्टको विचारकर दण्ड देते हो और मित्र समझकर उनपर अनुग्रह करते हो, दुष्टोंको दण्ड देते हो यह आपकी कुछ विषमता नहीं है॥३३॥ इस सर्पको आपने दण्ड दिया सो इसके ऊपर बडा अनुग्रह किया क्योंकि आपके दण्ड देनेसे सब पाप दूर हो जाते हैं, जिस अपराध से इसकी सर्प
नागपत्न्य ऊचुः॥ न्याय्यो हि दंडः कृतकिल्विषेऽस्मिंस्तवावतारः खलनिग्रहाय॥ रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेर्धत्से दमं फलमेवानुशंसन्॥३३॥ अनुग्रहोऽयं भवता कृतो हि नो दंडोऽसतां ते खलु कल्मषापहः॥ यद्वंदशूकत्वममु ष्य देहिनः क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव संमतः॥३४॥ तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वे निरस्तमानेन च मानदेन॥ धर्मोऽथवा सर्वजनानुकंपया यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः॥३५॥ कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे तवांघ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः॥ यद्वांछया श्रीर्ललनाऽचरत्तपो विहाय कामान्सुचिरं धृतव्रता॥३६॥ न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं न पारमेष्ठधं न रसा धिपत्यम्॥ न योगसिद्धीरपुनर्भव वा बांछंति यत्पादरजः प्रपन्नाः॥३७॥
योनि हुई वह अपराध दूर होगया, इसलिये आपका क्रोध भी कृपारूपी है॥३४॥ इस हमारे पतिने पूर्व जन्ममें ऐसा क्या तप किया है। जिससे सब प्राण दानदेनेवाले आप इसपर संतुष्ट हुए हो, इस मानरहित हमारे पतिने अपना मान तजकर औरोंका मान किया और सब लोगों पर दयाही करता रहा, नहीं तो ऐसे क्रूर बुद्धि सर्पपर आप क्यों अनुग्रह करते?॥३५॥हे प्रकाशवान्! यह सर्प आपके चरणारविन्दकी रजके स्पर्श करनेका अधिकारी हुवा, सो कौनसी तपस्याका ऐसा श्रेष्ठ फल है? यह हम नहीं जानतीं, जिन चरणारविन्दके स्पर्शके लिये लक्ष्मीजीसी उत्तम स्त्रीने सब कामनाओंको तजकर व्रतको धारण करके बहुतबरसों तक तप किया॥३६॥ जिन पुरुषोंने आपके चरणरविन्दकी रजकी शरण
ली है, वह पुरुष न तो स्वर्गकी न चक्रवर्ती राज्यकी, न शिवलोककी न इन्द्रलोककी, न ब्रह्म लोककी न पातालकी, न योगकी, न सिद्धियोंकी और न मोक्षकी चाहना करते हैं॥३७॥ हे नाथ ! लक्ष्मीसे आदि लेकर बड़े बड़े ऋषि मुनियोंको आपके चरणारविन्दकी रज महादुर्लभ है, उस रजको, क्रोधके वश तमोगुणसे उत्पन्न विषवाले सर्पोंका राजा काली विना उपायही प्राप्त होगया क्योंकि अपने कमोंके वशसे संसारचक्रमें भ्रमते तुम्हारे चरणारविन्दके रजकी शरण चाहनेवाले शरीरधारियोंको मनमानी सम्पत्ति मिलती है॥३८॥ छः प्रकारके ऐश्वर्ययुक्त सर्व देहोंमें अन्त र्यामी रूप करके रहित उनमें विराजमान रहते हो, तोभी उनमें छिप नहीं जाते हो. पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, इन पंचभूतोंके आश्रयरूप, सबके आदि कारण, आप कारणसे रहित, ऐसे परमकारण परमात्माको हम वारंबार नमस्कार करती हैं॥३९॥ आप ज्ञान विज्ञान कहिये चैतन्य
तदेष नाथाऽऽप दुरापमन्यैस्तमोजनिः क्रोधवशोऽप्यहीशः॥ संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो यदिच्छतः स्याद्विभवः समक्षः॥३८॥ नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने॥ भूतावासाय भृताय पराय परमात्मने॥३९॥ ज्ञानविज्ञान निधये ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥ अगुणायाविकाराय नमस्तेऽप्राकृताय च॥४०॥ कालाय कालनाभाय कालावयवसा क्षिणे। विश्वाय तदुपष्ट तत्कर्त्रे विश्वहेतवे॥४१॥ भूतमात्रेंद्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने॥ त्रिगुणेनाभिमानेन गूढखात्मानुभूतये॥४२॥ नमोऽनंताय सुक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते॥ नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये॥४३॥
शक्ति करिके परिपूर्ण हो, व्यापक हो अनन्त शक्तिमान, निर्गुण निर्विकार मायाके प्रवर्त्तक हम वारंबार आपको नमस्कार करती हैं॥४०॥ आप कालरूप हो, कालशक्तिके आश्रय हो, कालके अंगोंके देखनेवाले हो, विश्वरूप हो, विश्वके देखनेवाले हो और विश्वके कर्त्ता हो और विश्वके कारण हो, तुमको बारंबार नमस्कार है॥४१॥ पृथ्वी, जल, वायु, शब्द, आकाश, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और दश इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि चित्त इनके रूपहो, त्रिगुण अहंकारसे अपने अंशरूप जीवोंके स्वरूपका आच्छादन करनेवाले आपको बारंबार नमस्कार है॥४२॥ आप अहंकारसे आच्छा दित नहीं, इससे अनन्त हो, दृष्टिगोचर नहीं इससे सूक्ष्म हो, उपाधियोंका विकार नहीं इससे निर्विकार हो, कोई कहता है सर्वत्र हो, कोई
कहता है सर्वज्ञ नहीं हो, कोई कहताहै हो, कोई कहताहै अचिन्तनीयं हो, कोई कहताहै बद्ध हो, कोई कहताहै मुक्तहो कोई कहताहै एक हो कोई कहताहै अनेक हो इत्यादिक जो अनेक प्रकारके झगडेहैं तिनमें मायासे जो जैसे कहेंहैं उस समय वैसेही होजाते हो, नाम नामी यह जो शक्तिका भेद इससे अनेकरूप करके प्रतीक्षा करने योग्य जो तुम हो ऐसे आपको बारंबार हमारा नमस्कार है॥४३॥ आप नेत्रोंसे आदि लेकर सब इन्द्रियोंके प्रकाश करनेवाले हो, स्वतः सिद्ध ज्ञान के विषयी हो, वेदके कारण हो, वेद आपके श्वासोंसे हुए हैं प्रवृत्तिके प्रतिपादक वेदरूप आपको हम नम स्कार करतीहैं॥४४॥ शुद्ध अंतःकरणके प्रकाश करनेवाले भक्तोंके रक्षक रामकृष्णरूप वसुदेवतनय, प्रद्युम्न, संकर्षण, अनिरुद्ध रूप आपको
नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये॥ प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमोनमः॥४४॥ नमः कृष्णाय रामाय वसु देवसुताय च॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः॥४५॥ नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च॥ गुणवृत्त्यु पलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे॥४६॥
हमारा नमस्कार है॥४५॥ सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणके प्रकाशक, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकारके प्रकाश करनेवाले अर्थात् इनके अधिष्ठाता हो, इसी से चाररूप हो, तीनगुणोंसे उपासनाको चित्र विचित्र फल देनेके लिये अपने आत्माको ढककर अनेक रूपसे भासो हो. मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से चैतन्य निश्चयको आदि लेकर वृत्तिसे जानने में आओ हो मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के साक्षी व अगोचर आपको नमस्कार करती हैं॥*॥४६॥
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** *दृष्टान्त—**एक बनाढ्य ब्राह्मण कृष्णके वडेभक्त थे, परन्तु मोले माले भी बहुत थे, लोगोंने धोखा दे दिलाकर और कुछ धन लेकर उनका एक चाण्डालकी कन्या के साथ विवाह कर दिया, एक दिन वह कन्या खिडकीमें बैठी थीं अकस्मात् उसके देशके चाण्डाल वहाँ आ निकले, वह देखकर बोले कि, अरी नत्थनकी बेटी ! तू यहां कैसे आगई² लोगोंने बूझा कि तुम इसको क्या जानों²वह बोले कि, हमारे गविकी जाई जन्मी, हमारे सामने छोटीसे वडी हुई, नत्थन भगीकी बेटी है, तब तो वह ब्राह्मण बहुत घबराये, पण्डितको बुलाकर बूझा कि‚ हमको क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये²ब्राह्मणोंने कहा कि, सूखे हुए पीपलके वृक्षके खखोडलमें जलो तो पाप छूटे, ब्राह्मण पीपलका खखोढल मँगाय उसमें माला लेकर बैठगये और लोगोंने उसमें भाग लगादी, जब सब पीपलकी लकडी जलकर भस्म होगई ब्राह्मण बैठे माला फेरते रहे तब सब लोग उन ब्राह्मण देवताको दडवत् प्रणाम कर बोले कि, रठो अब प्रायश्चित हो चुका, त्राह्मण बोले कि, अव वह स्त्री क्या करै । लोग बोले कि, उसकी बिरादरी को देदो, ब्राह्मणने चाण्डालोंसे कहा कि, स्त्री को तुम ले जाओ, चाण्डाल बोले कि, जब यह ब्राह्मणके वरमें रही तो अब हमारे किसकाम की है²लोगोंने कहा तुमही रहने दो, ब्राह्मण बोले तुम मुझसे फिर प्रायश्चित कराओगे, लोग बोले नहीं–
आप आपकी महिमा विचारनेमें नहीं आती परन्तु सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति प्रकाश करनेके कारण जाननेमें आते हो, इन्द्रियोंके प्रेरक आत्मामें रमण करनेवाले सत्स्वभाव आपको हम बारंबार नमस्कार करती हैं॥४७॥ स्थूल सूक्ष्म सबकी गतिके जाननेवाले हो सम्पूर्ण विश्वके साक्षीहो, विश्व आपके स्वरूपमें नहीं और विश्वके स्वरूपमें आप नहीं आप विश्वके निषेधकी अवधिहो जैसे सर्पके प्रकाशका आश्रय रस्सी आप विश्वप्रकाशनेके आश्रय हो, अरोप और निषेधके साक्षी आप हो; विश्वका आरोप और निषेधके ज्ञान अज्ञानके कारण हो, जहाँतक ज्ञान है वहाँतक विश्व माननेमें आवैहै अर्थात् विद्यासे और विद्यासे अपवाद और अध्यासके हेतु आपको प्रणाम है॥४८॥ हे प्रभो! आप
अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये॥ हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने॥४७॥ परावरगतिज्ञाय सर्वा ध्यक्षाय ते नमः॥ अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्टेऽस्य च हेतवे॥४८॥ त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान्प्रभो गुणैरनीहोऽकृत कालशक्तिधृक्॥ तत्तत्स्वभावान्प्रतिबोधयन्सतः समीक्षयाऽमोघविहार ईहसे॥४९॥ तस्यैव तेऽमृस्तनवस्त्रिलो क्या शांता अशांता उत मूढयोनयः॥ शांताः प्रियास्ते ह्यधुनाऽवितुं सतां स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः॥५०॥
चेष्टा से रहित हो। कालशक्तिको धारण करके सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे इस विश्वको उत्पन्न, पालन, संहार करोहो हे अमोघविहार अर्थात् सफलविहार क्रीड़ावाले अपनी इच्छासे उन उन संस्काररूप से रहे स्वभावोंको प्रतिबोधन करतेहुए क्रीडा करते हो॥४९॥ त्रिलोकीमें शांतस्वभाव, अशान्तस्वभाव, घोरस्वभाव, मूढस्वभाव, इस प्रकार सत्त्वगुण रजोगुण तमोगुणकी प्रधानतासे तीन स्वभावके प्राणी आपके खेलने के लिये खिलौना हैं । साधुओंकी रक्षा करनेके लिये कटिबद्ध होकर अवतार धारण करते हो, इसलिये आपको शांत स्वभावही
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—अलग एक कोठरीमें रखदेना दो रोटी दूरसे दे दिया करना देवयोगले चाण्डालिनीका देह छूट गया, तब वह ब्राह्मण चाण्डालोंसे बोले कि इसको उठाओ, चाढाल बोले इसे उठानेसे हमको विरादरीमें रोटीदेनी पडेगीं, हम इसको नहीं उठानेके तुमही उठाओ, ब्राह्मण बोला मुझे प्रायश्चित्त करना पडेगा, ऐसेही शोच विचार करते दो घडी दिन रह गया, तब ब्राह्मणही उसको उठाने चले, उसका वस्त्र उघाड कर देखा तो उसके समीप फूल बहुतसे पडे हैं और पार्षदोंके पदों के चिह्न लगरहे हैं, वद्दा न कोई चाण्डालिनी न कोई मृतक है बस वह नि सदेह परमधामको चली गई, सत्सङ्गतिकी ऐसी उत्तम महिमा है॥
प्राणी प्रिय हैं, क्योंकि सज्जनोंके धर्म पालनकी इच्छासे प्रवृत्ति करते आपने अभी उनकी रक्षा के लिये अवतार लिया है॥५०॥ हे भगवन्! अब हम अबलाओं पर कृपाकीजिये नहीं तो यह काली सर्प प्राण छोड़े देता है, सत्पुरुषोंके शोचनीय हम दीन अबलाओंपर अनुग्रह करके पतिरूप प्राणदान दीजिये॥५१॥ स्वामीका यही धर्म है कि एकबार जो अपनी प्रजासे अपराध होजाय उस अपराधको क्षमा करदें, हे शान्तस्वरूप।
अनुगृह्णीष्व भगवन्प्राणांस्त्यजति पन्नगः॥ स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम्॥५१॥ अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः॥ क्षंतुमर्हसि शांतात्मन्मूढस्य त्वामजानतः॥५२॥ विधेहि ते किंकरीणामनुष्ठेयं तवाज्ञया॥ यच्छ्रद्धयाऽनुतिष्ठन्वै मुच्यते सर्वतो भयात्॥५३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं स नागपत्नीभिर्भगवान्सम भिष्टुतः॥ मृच्छितं भग्नशिरसं विससर्जोत्रिकुट्टनैः॥५४॥
अनजान इस अज्ञान कालीके अपराध अब क्षमा करो*॥५२॥ हम आपकी दासी हैं कुछ आज्ञा करनी हो सो आज्ञा कीजिये, हम आपकी आज्ञाको श्रद्धापूर्वक करेंगी हे नाथ!जो आपकी आज्ञाको हितचित्तसे करतेहैं उनके सम्पूर्ण भय छूट जाते हैं॥५३॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी
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** *** दृष्टान्त—जैसे एक राजाने किया, कैसे ²आधी रातके समय वेष बदलकर नगरकी शेरको निकला कि देखे कोतवाल और चौकीदार रात पहरा देते हैं वा नहीं देते चौकीदार ने बूझा कौन! राजाने कुछ उत्तर न दिया, तब चौकीदारने पकड लिया और उनकी पगडी उतारकर उसीसे उनके हाथ बाँध लिये और बहुत मारा, परन्तु राजा तोमी न बोले, चौकीदारने और मारा और कहा कि, अरे दुष्ट! तूही रोज चोरी करके लेजाता था आज बहुत दिनोंमें पकछा है, राजा तोभी न बोले कि चौकीदार ने हवालात में पफडकर बैठाल दिया, जब दिन निकला और लोग इधर उधर से आने जाने लगे देखें तो राजा हवालात में बैठे हैं, तव तो लोगोंने बडा आश्चर्य माना कि यह क्या बात हैं! चौकीदारने सव वृत्तान्त सुनाया और राजाके चरणों में गिर गया कि मेरा अपराध क्षमा कीजे और राजाके हाथ पान खोल दिये परन्तु मनमें ढरता रहा, न जाने राजा मुझको क्या दढ दें राजा चुप चाप उठकर मदिरमें चले गये और स्नान पूजाकर राज्य दर्वारमें आये और चोबदारसे कहा कि जो चौकीदार रातको गोपालगजमें पहरादेता था उसको इसी समय हमारे पास लाओ, चौकीदार ढरता कापता राजाके सन्मुख आया राजाने प्रसन्न होकर सौ(१००) अशरफी पारितोपिकमें उसे दी और एक गाव उसकी सन्तानके वास्ते दिया. मन्त्रीने हाय जोडकर बूझा कि इसकी क्या वीरता लिखी जायगी राजाने अपना देह उघाडकर दिखाया और रातका सव वृत्तान्त सुनाया, मन्त्रीने कहा कि इसको तो शूली देनी चाहिये थी राजा बोला आपनहीं समझे यह अपने काममें बहुत सावधान है क्योंकि जो मुझसेही न चूका फिर यह औरसे कभी न चूकेगा अपने काममें सावधान रहनेवालेको सदा परमानन्द प्राप्त होता है।
बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जब इसप्रकार नागपत्नियोंने श्रीकृष्णचन्द्र महाराज की स्तुतिकी, तब भगवान्ने मूर्छित पड़ेहुए उस भग्नमस्तक काली नागको चरणकी ठोकरसे प्रहार कर छोड़ दिया॥५४॥ सहज सहजमें वह दीन काली सचेत होकर लम्बे लम्बे श्वास लेने लगा, और हाथ जोड़कर भगवानसे निवेदन करनेलगा॥५५॥ हे नाथ! जबसे हम उत्पन्न हुए हैं तबसेही हम दुष्टहें तामसी हमारा स्वभाव है, बड़ा भारी हमारा क्रोध है, लोगोंका खोटा आग्रहरूप स्वभाव नहीं छूटता॥५६॥ हे सम्पूर्ण जगत्के रचनेवाले ! सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे अनेक प्रकारका विश्व आपने रचा है और जिसके स्वभाव, शक्ति, बल, योनि, बीज संस्कार और आवृत्तियें, यह सबकी पृथक् पृथक् प्रकारकीहै, यह विश्व आपहीका रचाहुआ है॥५७॥दे
प्रतिलब्धेन्द्रियप्राणः कालियः शनकैर्हरिम्॥ कृच्छ्रात्समुच्छ्वसन्दीनः कृष्णं प्राह कृतांजलिः॥५५॥ कालिय उवाच॥ वयं खलाः सहोत्पत्त्या तामसा दीर्घमन्यवः॥ स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यदसग्रहः॥५६॥ त्वया सृष्ट मिदं विश्वं धातर्गुणविसर्जनम्॥ नानास्वभाववीर्यौजो योनिबीजाशयाकृति॥५७॥ वयं च तत्र भगवन्सर्पाजात्युरुमन्यवः॥ कथं त्यजामस्त्वन्मायां दुस्त्यजां मोहिताः स्वयम्॥५८॥ भवान्हि कारणं तत्र सर्वज्ञो जगदीश्वरः॥ अनुग्रहं निग्रहं वा मन्यसे तद्विधेहि नः॥५९॥ श्रीशुक उवाच॥ ॥ इत्याकर्ण्य वचः प्राह भगवान्कार्यमानुषः॥ नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम्॥६०॥
भगवन्! इस विश्व में हमैं सर्प बनाये. जन्मसेही हमारे हृदयमें अधिक क्रोध बढ़ा और हम आपहीकी मायासे मोहित होरहेहैं सो आपसे मोहित हुए हम आपकी मायाको कैसे छोड़ सक्तेहैं॥५८॥ सम्पूर्ण भेदोंको जानने वाले जगत्के ईश्वर आपही हो, सो आपही मायाके छुटानेके कारणहो, जो काम आपने हमको सौंपा, उसपै हम ऐसे दुष्ट रहे सो आपसे भी न चूके यह मानकर चाहे हमारे ऊपर कृपा करो, चाहे दण्ड दो आप परमेश्वर हो, सब काम करने योग्य हो हे राजन्। जब दीनदयालु दीनानाथने व्यालको अत्यन्त बेहाल देखा. तब उसका श्रम दूर कर चतुर्भुज रूप दर्शन दिया॥५९॥और भगवान्ने कहा कि, मैंने तेरे मस्तकसे अपने चरणसरोज छुवादिये अब तुझको किसीप्रकारका शोक सन्ताप न होगा परन्तु
अब तू इस कुण्डका वास छोडकर रमणकद्वीपको चलाजा॥६०॥ और अपनी जातिके सर्प और बाल बच्चे स्त्रियोंको भी साथ लेजा, क्योंकि अब मैं यहाँ जलक्रीडा किया करूंगा और गाय बछड़े और ग्वालबाल यहाँका जल पिया करेंगे आजसे इसका नाम कालीकुण्ड हुआ, जो पुरुष प्रातःकाल उठकर अथवा संध्यासमय इस चरित्रका पाठ करेगा उसको सर्पका भय न होगा॥६१॥ यह कालीदह स्थान मेरे विहार करनेका है जो पुरुष इसमें स्नानकर इस जलसे पितृदेवता का तर्पण करेगा वा व्रत और मेरा पूजन करेगा उसको अश्वमेध यज्ञका पुण्य होगा और अन्तसमय परमधामको जायगा, फिर इस असार संसारमें जन्म न लेगा॥६२॥ जिस गरुडके भयसे रमणद्वीपको छोडके तू इस
स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यतां नदी॥ य एतत्संस्मरेन्मर्त्यस्तुभ्यं मदनुशासनम्॥६१॥ कीर्तयन्नुभयोः सन्ध्योर्न युष्मद्भयमाप्नुयात्॥ योऽस्मिन्स्नात्वा मदाक्रीडे देवादींस्तर्पयेज्जलैः॥६२॥ उपोष्य मां स्मरन्नर्चेत्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ द्वीपं रमणकं हित्वा हृदमेतमुपाश्रितः॥ यद्भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पादलांछितम्॥६३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्तो भगवता कृष्णेनाद्भुतकर्मणा॥ तं पूजयामास मुदा नागपत्न्यश्च सादरम्॥६४॥ दिव्यांबरस्रङ्मणिभिः परायैरपि भूषणैः॥ दिव्यगंधानुलेपैश्च महत्योत्पलमालया॥६५॥ पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरुडध्वजम्॥ ततः प्रीतोभ्यनुज्ञातः परिक्रम्याभिवाद्य तम्॥६६॥
दहमें आयके वास कियाहै गरुड तुझको अब न खायगा, क्योंकि तेरे मस्तकपर मेरा चरणचिह्न है॥६३॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि अद्भुत लीलावाले भगवान् श्रीकृष्णचंद्रने जब यह बात कही, तब नाग और नागकी स्त्रियें अत्यन्त आनन्द सहित श्रीकृष्ण भगवानकी पूजा करनेलगीं॥६४॥ दिव्यवस्त्र, माला मणि, अमूल्य आभूषण और दिव्य सुंगध, केशर, कस्तूरी, चन्दन, आदिका लेपन और बड़ी बड़ी कमलकी मालाओंसे॥६५॥ गरुडध्वज भगवान् की पूजा करी और कालीसर्पने भगवान्की आज्ञामान उसी समय परिक्रमा दे दण्डवत् प्रणाम कर
अपने कुटुम्ब समेत अपने उरगद्वीपको चलागया॥६६॥ वृन्दावनविहारी, विहारकरनेके लिये मनुजरूपधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे यमुनाजीका जल अमृतके समान निर्मल होगया लेशमात्र भी विष न रहा॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां कालियमर्दनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा - सत्रह काली नागको, भेजो रमणकद्वीप। वधु बचाये अग्निते, सो तुम सुनहु महीप॥१॥ इतनी कथा सुन राजा परीक्षित्ने पूँछा कि, हे भगवन्। ऐसे परमोत्तम रमणकद्वीपको छोडकर, कालीनाग यमुनामें क्यों आया ? और क्या कारण जो अकेले कालीहीने गरुडका अपराध किया, इसका सब वृत्तान्त विस्तारसहित वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाबाहु!
सकलत्रसुहृत्पुत्रो द्वीपमब्धेर्जगाम ह॥ तदैव साऽमृतजला यमुना निर्विषाऽभवत्॥ अनुग्रहाद्भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू०कालियदमनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ राजोवाच॥ नागालयं रमणकं कस्मात्तत्याज कालियः॥ कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमंजसम्॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ उपहार्यैः सर्पजनैर्मासिमासीह यो बलिः॥ वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्निरूपितः॥२॥ स्वस्वं भागं प्रयच्छंति नागाः पर्वणिपर्वणि॥ गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने॥३॥ विषवीर्यमदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः॥ कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम्॥४॥ तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन्भगवान्भगवत्प्रियः॥ विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत्॥५॥
राजा परीक्षित्।गरुड़ नित्यप्रति रमणकद्वीपर्मेसर्पोको भक्षण करनेको आता था तब संपूर्ण सर्पोंने आपसर्मेविचार कर मासमासको अपना दुःख निवृत्त करनेके लिये वृक्षकी जडमें एकांत गरुडकी भेंट रखनेका निश्चय करदिया॥२॥ सब सर्प अपनी अपनी बारीसे पीपलके वृक्षपर गरुडजीकी भेंट रखदिया करतेथे कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत होगये॥३॥ अपने विषके और पराक्रमके घमण्डमें अभिमानी कद्रूका पुत्र काली, गरुडको कुछ वस्तु न समझकर सपन्न गरुडके भागको एक दिन आपही खागया॥४॥ हे राजन्! भगवान्के प्यारे भाग्यवान् गरुडजीने जब यह बात सुनी कि, हमारे भागका भोजन कालीनाग खागया, उसी समय क्रोधित होकर कालीके मारनेके लिये
अत्यन्त वेगसे काली के पीछे झपटे॥५॥ विषही जिसके शस्त्र वह कालीनाग ऊपरको फण उठा दौडकर गरुड़जीके सन्मुख आया, दन्तआयुध भयानक जीभ, पलक जिनमें लगें नहीं ऐसे भयंकर नेत्रोंवाला काली दाँतोंसे गरुडको काटने लगा ॥६॥ तब तो वासुदेव भगवानके वाहन तार्क्ष्य गरुडजीने बड़े क्रोधसे अपने अंगसे छुटाया और सुवर्णकेसे प्रकाशवाले अपने पंखोंसे और चोंचसे कद्रूके पुत्र काली को मार कर गिरा दिया॥७॥ गरुडजी जिसस मय पंख प्रहार करते थे तब पंखोंमेंसे वेदोंके स्वरोंकी ध्वनि निकलतीथी, उनके प्रहारसे और स्वरोंकी गुंजारसे सर्प व्याकुल होते चले जातेथे और काली भी अत्यन्त व्याकुल होगया तो मनमें विचार करने लगा कि, अब गरुडसे मैं किसी प्रकार न जीतूंगा, हारकर यह शोचा कि, अब वहाँ चलना चाहिये जहाँ सौभार ऋषिने गरुड़को शाप देरक्खा है कि, ‘यहाँ गरुड़ न आसके’ दूसरे जलमें गरुडका पराक्रम भी न चल सकै, इस प्रकार अ
तमापततं तरसा विषायुधः प्रत्यभ्ययादुच्छ्रितनैकमस्तकः॥ दद्भिः सुपर्णं व्यदशद्ददायुधः करालजिह्वोच्छसितोग्रलोचनः॥६॥ तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्प्रचंडवेगो मधुसूदनासनः॥ पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा जघान कद्रुमुतमुग्रविक्रमः॥७॥ सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः॥ ह्रदं विवेश कालिंद्यास्तदगम्यं दुरासदम्॥८॥ तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम्॥ निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोहरत्॥९॥ मीनान्सुदुःखितान्दृष्ट्वा दीनान्मीनपतौ हते। कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन्॥१०॥ अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान्स खादति॥ सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद्रवीम्यहम्॥११॥ तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः॥ अवात्सीद्गरुडाद्भीतः कृष्णेन च विवासितः॥१२॥
पना बचाव समझकर वृन्दावनके निकट यमुनाके कुण्डमें जाकर निवास किया॥८॥ क्योंकि उस दहमें एक समय गरुड़जी मछलियाँ खानेकी इच्छा से आये, तब सौभरिऋषिनें गरुड़को रोका कि, भाई यह हमारे तपस्या करनेका स्थानहै यहाँ मछली मत मारो, परन्तु क्षुधार्थी गरुड़नें ऋषीश्वरका वचन न माना॥९॥ जब मछलियोंका पति एक बडा मत्स्य गरुड़जीने मारा तब मछलियोंको दीन और व्याकुल देखकर उनके बचाने के लिये सौभरि ऋषिने महाक्रोधित होकर यह शाप गरुड़को दिया॥१०॥ कि, ‘इस दहमें गरुड आनकर जो मछलियोंको खायगा तो उसीसयय गरुड़का देहान्त हो जायगा’ यह बात मैं सत्य कहूँहूँ इस प्रकार प्राणीमात्रकी रक्षाकरनेवाले सौभरिऋषिने गरुड़को यह शाप दिया॥११॥ यह बात काली
भली भाँति जानता था और किसीको यह सुधि नहीं थी कि, गरुडको सौभरिऋषिका शाप है, इस भय से उस कुण्डमें काली वास करता था, सो श्रीकृष्णचन्द्र ने उस कुण्डसे निकाल कर उसके प्राचीन स्थान रमणकद्वीपको भेज दिया*****॥१२॥ जब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दन कण्ठमें सुन्दरमाला पहरे, केशर चन्दन चर्चित वस्त्र धारण किये, मणि रत्नोंसे दीप्त सुवर्णके गहने पहने दहमेंसे निकले॥१३॥ तब व्रज विहारीको देखकर सब व्रजवासी खड़े होगये जैसे मृतक शरीरमें प्राण आनेसे सब इन्द्रियें चैतन्य होजाती हैं उसप्रकार आनन्दसे पूर्णचित्त हो दौड़कर सब ब्रजवासी हृदयसे लगा लगा कर मिले और विरहानलकी जो ताप हृदयमें भड़क रही थी वह सब शान्त होगई॥१४॥
कृष्णं हृदाद्विनिष्क्रांतं दिव्यखग्गंधवाससम्॥ महामणिगणाकीर्णेजांबूनदपरिष्कृतम्॥१३॥ उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः॥ प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याऽभिरभिरे॥१४॥ यशोदा रोहिणी नंदो गोप्यो गो पाश्च कौरव॥ कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसँल्लब्धमनोरथाः॥१५॥ रामश्चाच्युतमालिंग्य जहासास्यानुभाववित्॥ नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम्॥१६॥ नंदं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः॥ ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः॥१७॥
हे कुरुवंशावतंस राजा परीक्षित्!यशोदाजी, रोहिणीजी, नन्दजी तथा गोप गोपियोंको श्रीकृष्णचन्द्रको आये हुये देखिके ऐसा अनन्द हुआ कि मानो गये हुए प्राण फिर चले आये॥१५॥ श्रीकृष्णके प्रभावको जाननैवाले बलरामजी घनश्यामकों छातीसे लगाकर हॅसकर मिले और गाय, बछरे, बैलों को देखकर बहुत प्रसन्न हुये और जो वृक्ष सूख गयेथे वह सब हरे होगये तब सब ब्रजवासी बोले कि, भाई बलराम! तुम भी अपने वचनके पूरेही निकले जो तुमने कहा था वैसा ही हुवा अब घर चलनेकी क्या इच्छा है ?॥१६॥ उसी समय गुरु, पुरोहित, ब्राह्मण, अपनी २ पत्नियों
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** *** शंका—क्या उस कुण्डको कालीही नाग जानताया और कोई दूसरा सर्प उस कुण्डको क्यों नहीं जानता थाइसका क्या कारण²
**उत्तर—**कालीनाग नारदजीका चलाथा, इसलिये नारदजीने कालीको कुण्ड बताया था कि, तुझको कभी विपत्तिकाल पढे तो तू यमुनाके कुडमें चले जाना, उस कुण्डमें गरुडका वल नहीं चल सकेगा, इसलिये केवल कालीकोही उस कुण्डका वृत्तान्त विदित था।
सहित नन्दरायजीसे आनकर कहने लगे कि परमेश्वरने बड़ा अनुग्रह किया जो कालीनागका डसाहुवा तुम्हारा पुत्र बचगया, यह बडे मंगलका समय है॥१७॥ इनके कल्याणके लिये ब्राह्मणोंको मणि रत्न आभूषण सहित गोदान दीजिये उससमयकी बधाईमें नन्दरायजीनें प्रसन्न होकर हे राजन! गायें और सुवर्णका दान ब्रह्मणोंको दिया॥१८॥ धर्मशीला यशोदा भी बड़ी भाग्यवती है जिसका पुत्र कालके गालमें जाकर लौट आया वह अपने पुत्रको पाय हृदयसे लगाय गोदमें बैठाय बारंबार नेत्रोंसे आंशू बहाने लगी॥१९॥ हे राजन् परीक्षित् !भूख प्यास करके पीडित व्रजवासी भये पुत्रको पायके गौवों समेत संपूर्ण दिनरात यमुनाजीके किनारे वास करते भये॥२०॥ गरमीकी ऋतु थी आधी रातका समय था ठण्ढी ठण्डी पवन जो लगी तो सब ब्रजवासी पडके सोगये, तब सूखेवनको उस दावानल दैत्यने अग्निरूप बनकर जलाना आरम्भ कर दिया॥२१॥सब
देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे॥ नंदः प्रीतमना राजन्गाः सुवर्णेतदाऽदिशत्॥१८॥ यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती॥ परिष्वज्यांकमारोप्य मुमोचाश्रुकला मुहुः॥१९॥ तां रात्रि तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमक र्शिताः॥ ऊषुर्व्रजौकसो गावः कालिंद्या उपकूलतः॥२०॥ तदा शुचिवनोद्भूतो दावाग्निः सर्वतो ब्रजम्॥ सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे॥२१॥ तत उत्थाय संभ्रांता दह्यमाना व्रजौकसः॥ कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमी श्वरम्॥२२॥ कृष्णकृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम॥ एष घोरतमो वहिस्तावकान्ग्रसते हि नः॥२३॥ सुदुस्तरान्नः स्वान्पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो॥ न शक्नुमस्त्वच्चरणं संत्यत्त्कुमकुतोभयम्॥२४॥
पृथ्वी और आकाश लाल लाल दीखने लगा, पशु पक्षी व्याकुल होकर भागने लगे जब महा कुलाहलपडा तो सब व्रजवासी घबराकर जाग उठे और पुकार पुकार कर श्रीकृष्णचन्द्रके शरण आगये और कहने लगे॥२२॥ हेकृष्ण! हे कृष्ण!हे महाभाग! हे राम हे अत्यन्त पराक्रमी! आप शीघ्र हमारी सहाय कीजै यह महाभयानक कृशानु हमको भस्म करे डालता है है संकटमोचन !शीघ्र हमारी सहाय कीजै जब जब हमलोगों पर ! भारी भीर पडती है तब तब तुमहीं सहाय किया करते हो. तृणावर्त, शकटासुर, बकासुर, अघासुरको मार हमारी रक्षा करी वैसेही अब भी हमारी रक्षा करो, हम सब आपहीके हैं॥२३॥ हे प्रभो! इस महाघोर कालरूप अग्निसे हम लोगोंको बचाओ. हे मित्र ! हम इस भयंकर अग्रिमें
जलनेसे भी नहीं डरते केवल आपके चरणारविन्दके वियोगसे डरतेहैं, सो आपके निर्भय पदको हम नहीं त्याग सक्ते॥२४॥ इस प्रकार विश्वके ईश्वर और अनंतशक्तियोंके धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र अपने व्रजवासियोंको व्याकुल देख उस भयानक अग्रिको पान करते भये॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां दावानलमोचनं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा–अष्टादशमें ग्रीष्मसे, लक्षित सुखद वसंत।हरिकी पाय सहाय कछु, हत्यो प्रलम्ब अनंत॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले, कि हे नरेन्द्र।फिर श्रीवृन्दावनविहारी मनमें प्रसन्न होकर अपनी जातिके सब व्रजवासियोंको साथ लिये, अग्रिका पान किये, पीछेपीछे व्रजवासी जिनके चरित्र गाते चले आतेथे, ऐसे श्यामसुन्दर गायोंके समूहोंसे शोभित व्रजकी ओरको पधारे॥१॥ गायोंके चराने के बहानेसे अनेक प्रकारकी माया करके दोनों भाई व्रज में विहार करतेथे
इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः॥ तमग्निमपिबत्तीव्रमनंतोऽनन्तशक्तिधृक्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महा०दशमस्कंधे पू० कालियनिर्यापणदावाग्निपानं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः॥ अनुगीयमानोन्यविशद्व्रजं गोकुलमंडितम्॥१॥ व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया॥ ग्रीष्मी नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम्॥२॥ स च वृन्दावनगुणैर्वसंत इव लक्षितः॥ यत्रास्ते भगवान्साक्षा द्रामेण सह केशवः॥३॥ यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम्॥ शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममंडलमंडितम्॥४॥
उसी अवसर में ग्रीष्मऋतु आई वह समय देहधारियोंके लिये सुखदायक नही था॥२॥परन्तु वह ग्रीष्मऋतु भी वृन्दावनके गुणोंसे वसंत ऋतुकी समान जान पड़ती थी क्योंकि जहॉ साक्षात् श्रीवृन्दावनविहारी कृष्णचन्द्र भगवान् बलरामजीके साथ विराजते थे फिर भी वहाँ वसन्त न रहे ? बड़े आश्वर्यकी बात है? वहाँ तो सदा वसन्त रहना चाहिये, वृक्षोंपर बारहोंमास फल फूल खिलते रहें, त्रिविध बयारी झकोलती रहें आमोंकी डालियोंपर कोकिला कूकती रहें भॉतिभाँति के पक्षी मनभावनी सुहावनी बोलियें बोलते रहैं, मोर शोर कर कर चारोंओर झिंगारते रहैऔर अनेक अनेक प्रकारकी शोभा नित्यप्रति बनीरहै तो क्या आश्चर्य है? क्योंकि जहाँ त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी विहार करैंवहाँ भी यह शोभा न हो तो फिर कहाँ हो?॥३॥जहाँ जलके झरनोंका ऐसा गम्भीर शब्द हो रहाथा उस शब्दके सामने झींगरोंका शब्द सुनाई नहीं
देताथा और सदा झरनोकी छींटोंसे हरे हरे वृक्षोंके समूहों से वृन्दावन अत्यन्त शोभायमान हो रहा था॥४॥ वहाँ हरी हरी घास ऐसी शोभा यमान जान पडती थी मानों हरी मखमलका बिछौना बिछ रहाहै, उस वृन्दावनमें कहार, कंज और उत्पल यह जो भाँतिभाँति के कमल हैं उनकी सुगन्धयुक्त नदी, सरोवर, झरनोंसे स्पर्श करके जो ठण्ढीठण्ढीपवन आती थी इससे वृन्दावनवासियोंको ग्रीष्मकी अग्नि और मार्त्तण्डकी प्रचण्ड ताप नहीं सतातीथी॥५॥ जहाँ अनेक नदियें हैं जिनके तट पर पहुँचतेही जलकी तरंगोंसे टापुओंकी और किनारोंकी भूमिमें सजलताई आती है, उस पृथ्वीकी सजलताई और हरियालीको विपकी समान भयंकर सूर्यकी किरणें नहीं सुखा सक्तीं॥६॥ अनेक प्रकारके फूल जहाँ तहाँ फूल रहे
सरित्सरःप्रस्रवणोर्मिवायुना कहारकंजोत्पलरेणुहारिणा॥ न विद्यते यत्र वनौकसां दवो निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले॥५॥ अगाधतोयहृदिनीतटोर्मिभिर्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समंततः॥ न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्वणा भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते॥६॥ वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्॥ गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम्॥७॥ क्रीडिष्यमाणस्तत्कृष्णो भगवान्बलसंयुतः॥ वेणुं विरणयन्गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत्॥८॥ प्रवालबर्हस्तवक स्रग्धातुकृतभूषणाः॥ रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः॥९॥ कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिद्वादयन्॥ वेणुपाणितलैः शृंगैः प्रशशंसुरथापरे॥१०॥ गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणः॥ ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप॥११॥
हैं, नाना प्रकार के जीव जन्तु, पक्षी मीठी मीठी बोलियें बोल रहेहैं॥७॥ उस अनुपम वन में श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् बलदेवजीको और ग्यालबालोंको साथ लेकर बाँसुरी बजाते विहार करनेके लिये गाय बछड़ों सहित वृन्दावन को चले॥८॥ वलराम श्रीकृष्णादिक ग्वालबाल, पत्र, मोरपुच्छ, गुच्छक, माला, धातु अर्थात गेरू खडिया, मनशिल, हरतालसे शृंगार करके कभी नाचतेथे, कभी गातेथे और कभी परस्पर युद्ध मचातेथे॥९॥ श्रीकृष्णचन्द्र जब युद्ध करतेथे और नृत्य करतेथे, उस समय कितने बाँसुरी करताल और शृंगी बजातेथे और कितने नई नई राग रागिनी गातेथे, कितने उनके नाचकी बडाई करतेथे॥१०॥ हे राजन! देवता लोग गुप्त हो गोपोंका रूप धारणकरकर श्रीकृष्ण और
बलरामकी बारम्बार इसप्रकार प्रशंसा करते थे जैसे नट नटकी बड़ाई करते हैं॥११॥ सब शिरपर बाल धारणकिये श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई कभी चाईंमाईं खेलते, कभी कूदते, कभी धक्का मुक्की करते, कभी खम्भ ठोंकते कभी खैचातानी करते और कभी मल्लयुद्ध करते, इस प्रकार एकसे एक अद्भुत लीला करतेथे॥१२॥ हे राजन्!कभी और दूसरे ग्वालबाल नाचतेथे तो कृष्ण बलदेव दोनों भाई आप गातेथे और वाँसुरी बजाते थे और फिर उनकी प्रशंसा करते थे कि, तुमने भला नृत्य किया॥१३॥ कभी बेलके फल हाथमें लेकर दो दो चार चार एक साथही उछालते कभी कुंभीवृक्षके फलोंको फेंकते थे. कभी ऑवलेके फल मुरलीनमें रख रखके बगेलते थे, कभी छोटे छोटे फल हाथ में लेकर बूझतेथे जो बतलादेते तो फल लेलेते और जो नही बतला सत्त्केथे तो वह फल हार जाते थे॥पहिले तो बलगमने श्यामसुंदर के नेत्र वन्द किये, सब सखा भागकर चारों
भ्रामणैर्लंघनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः॥ चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ कचित्॥१२॥ कचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादको स्वयम्॥ शशंसतुर्महाराज साधुसाध्वितिवादिनौ॥१३॥ कचिद्विल्यैः क्वचित्कुंभैः क्वचामलकमुष्टिभिः॥ अस्पृश्यनेत्रबंधाद्यैः कचिन्मृगखगेहया॥१४॥ क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः॥ कदाचित्स्पंदोलिकया कर्हि चिन्नृपचेष्टया॥१५॥ एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने॥ नद्यद्रिद्रोणिकुंजेषु काननेषु सरस्सु च॥१६॥
ओर छिपगये. तव बलदेवजीने कृष्णको छोडदिया और उनकी आँखें खोलदी. जिसको कृष्ण पकडकर लाते थे बलदेवजी उनहीकी आँखें मीचते थे. कभी कुरंग के संग दौडते. कभी विहंगके ढंग पर चलते॥१४॥ कभी सरिताओंकेसोतोंमें मेंढककी नाईं कूदते और जो कोई कूदनेके समय पानी में रपटकर गिर पडता तो सब सखा मिलके उसका हास्य करते थे. कभी वृक्षोंकी शाखाओंको पकड़ पकड़कर झुलते थे और सुंदर सुंदर पुष्पोंके आभूषण बना बनाकर पहनते थे, कोई कोई सखा कहते भाई। हमारी तो यह इच्छा है कि, बलरामको तो राजा बनावें और घनश्यामको मंत्री बनावें और हम सब प्रजागण बनें और श्रीदामादिक ग्वालवालोंको सिपाही बनावें और जो ग्वालिनी इस मार्गको दधि लेकर निकले उनसे दान लें॥१५॥ इसप्रकार राम कृष्ण दोनों भाई जगतमें जो जो खेल विख्यात हैं उन उन खेलोंको खेलकर प्रसन्न होते थे.
कभी यमुनाजी न्हाते, कभी गोवर्द्धनकी कन्दराओंमें घुसजाते कभी कुओंमें विचरते फिरते, कभी काननमें आनन ढक ढक कर विचरते, कभी सरो वरोंमें जलविहार करते और कभी कमल कुमोदिनीके फूल तोड़ तोड़ कानों में धरते थे॥१६॥ इसप्रकार दोनों भाई ग्वाल बालोंके संग वृन्दावनमें गायें चराते थे. तहाॅ कृष्ण बलदेवके हरनेके लिये कंसने प्रलम्बासुरको भेजा उसने इनको सखाओंके साथ खेलताहुवा देख अपना रूप भी गोपहीका बनाकर उन ग्वालोंमें आन मिला॥१७॥ सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जानलिया कि, यह असुर आया और
पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः॥ गोपरूपी प्रलंबोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया॥१७॥ तं विद्वानपि दाशाहों भगवान्सर्वदर्शनः॥ अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिंतयन्॥१८॥ तत्रोपाहूय गोपालाकृष्णः प्राह विहारवित्॥ हे गोपा विहरिष्यामो इंद्रीभूय यथायथम्॥१९॥ तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ॥ कृष्णसं घट्टिनः केचिदासन्रामस्य चापरे॥२०॥ आचेरुर्विविधाः क्रीडा बाह्यवाहकलक्षणाः॥ यत्रारोहंति जेतारो वहति च पराजिताः॥२१॥
अपने मनमें उसके मारनेका विचारभी किया परन्तु तोभी उसको मित्र बनाकर उसकी प्रशंसा की और कहा कि, मित्र!आप भले खेलके समय आगये॥१८॥ आप तो सब खेल जानतेही हो? फिर सब सखाओंको बुलाकर कहा कि, हे मित्रो! हम बराबरकी दो टोली बनाकर खेल खेलेंगे॥१९॥ बलराम और घनश्यामको दोनों टोलियोंका मुखिया बनाया और सबको यह वचन पुकारकर सुनादिया कि, जो जीते सो हारेकी पीठ पर चढ़े और हाराहुवा उसको अपनी पीठपर चढ़ाकर वटभाण्डीरतक उसीसमय पहुॅचादे॥२०॥ इस प्रकार चढने चढ़ानेवाले
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** * शंका—**रावणादिक अनेक राक्षसोंको भगवान्ने मारा, परन्तु किसी राक्षसके मारनेमें ऐसी चित्ता नहीं की जैसे छोटेसे प्रलम्बासुरके मारनेमे चिन्ता की. सो क्या कारण जो उसके मारनेमें इतनी चिन्ता की
**उत्तर ***प्रलम्बासुरकी मृत्यु ब्रह्माने शेपजी के हाथ से लिखी थी कि, तू शेपके हायसे मरेगा और किसी दूसरे के हायसे नहीं मरेगा, इस बातको भगवान् भले प्रकार जानतेथे और यह भी जानतेथे कि, शेपके मन में बडी दयाहै और उनके हृदयमें नम्रता है कभी दया करके शेपजी उसको न मारे और इस दुष्टका मारना अवश्य है क्योंकि जो यह बचगया तो ग्वालबालों को बहुत दुःख देगा इसलिये अधिक चिन्ता की ॥
कई खेलोंका प्रारम्भ किया और परस्पर दोनोंने स्वीकार कर लिया॥२१॥ इस प्रकार चढ़ते चढ़ाते गायोंको चराते श्रीकृष्ण अपने थोकको लेकर वटभाण्डीरकमें पहुँचे॥२२ हे राजन्! जब बलरामजी की ओर श्रीदामा और वृषभादिक जीतगये तब श्रीकृष्णचन्द्रकी ओरके उनको अपनी पीठपर चढ़ाकर लेगये॥२३॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जब हारे तब श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया भद्रसेनने वृषभको चढ़ाया और प्रलम्बासुरने रोहिणीनन्दन बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ालिया॥२४॥ जब कि, उस प्रलम्बासुरने भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रको बलवान समझा तो बलदेवहीको लेकर वटभाण्डीरक वनकी ओरको अत्यन्त शीघ्रता सहित झपटा चलागया॥२५॥ जब उस असुरसे पर्वतके
वहंतो वाह्यमानाश्च चारयंतश्च गोधनम्॥ भांडीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः॥२२॥ रामसंघट्टिनो यहि श्रीदामवृषभादयः॥ क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूचुः कृष्णादयो नृप॥२३॥ उवाह कृष्णो भगवाञ्छ्रीदामानं पराजितः॥ वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलंबो रोहिणीसुतम्॥२४॥ अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुंगवः॥ वहन्द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम्॥२५॥ तमुद्वहन्धरणिधरेंद्रगौरवं महासुरो विगतरयो निजं वपुः॥ स आस्थितः पुरटपरिच्छदा बभौ तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवांबुदः॥२६॥ निरीक्ष्य तद्वपुरलमंबरे चरत्प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्॥ ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डलत्विषाऽद्भुतं हलधर ईषदत्रसत्॥२७॥
समान बलदेवजीका भारी भार न उठसका और पराक्रम उसका शिथिल होगया तब इसने अपना असुरदेह धारण करलिया, उस समय वह दैत्य सुवर्णके गहने पहने ऐसा शोभायमान दिखाई देता था जैसे चन्द्रमासहित बादलमें बिजली दमक जाती है और बलदेवजी उस दैत्यके काले शरीरपर कैसे दिखाई देते थे जैसे कालीघटामें चन्द्रमा, बलदेवजी के कानोके कुंडल कभी कभी दामिनीके समान दसक जाते थे, गलेका दुपट्टा जो झटका खाकर नीचेको लटक गया था वह ऐसा जान पडता था मानो इन्द्रका धनुष तन रहा है, गरमीके मारे उसकी देहसे प्रस्वेद जो टपकता था वह ऐसा ज्ञात होता था मानो आकाशसे बुन्दधारा पड़रही है॥२६॥ आकाशतक प्रकाशमान ऊंचा महाविकराल जिसका शरीर लाल लाल
नेत्र मानो तत्कालही ज्वालाको उगलेंगे महाभयंकर दाढैं मानो बाढें धरीहुई बरछी बाल ताँबेके सदृश लाल लाल भयकारी दोनों भुजदण्ड मानो ब्रह्माण्डके तोडनेवाले हैं कानोंमें कनककुण्डल मस्तकपर मुकुटकी अद्भुत शोभा और उस असुरकी मनोहर कान्ति देखकर हल, मूशलके धारण करनेवाले बलदेवजी अपने मनमें कहने लगे कि, यह कैसा गोप? मेरा जी डरता है॥२७॥ पहिले तो कुछ भय माना परन्तु पीछे सुधि आगई कि, यह तो असुर है, फिर तो भय त्याग बलदेवजीने जाना कि, हमारे गोपोंको छुटाकर बलात्कार हमको लिये जाता है; तब तो अविनाशीने महाक्रोध करके उसके शीशमें एक मुष्टिक मारा जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको मारता है॥२८॥ मुष्टिकके लगतेही उसका शिर फूटकी नाई फूट गया, दाँत टूट गये,
अथाऽऽगतस्मृतिरभयो रिपुं बलो विहायसाऽर्थमिव हरंतमात्मनः॥ रुषाऽहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा॥२८॥ स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको मुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतोऽसुरः॥ महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः॥२९॥ दृष्ट्वा प्रलंबं निहतं बलेन बलशालिना॥ गोपाः सुविस्मिता आसन्साधुसाध्विति वादिनः॥३०॥ आशिषोऽभिगृणंतस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्॥ प्रेत्यागतमिवालिंग्य प्रेम विह्वलचेतसः॥३१॥
मुखसे रक्तका वमन होने लगा, मानो रुधिरकी धारा बहरही है जिह्वा और नयन निकलकर बाहर आपड़े हाथ पॉव पसार दिये और बड़ा घोर शब्द कर मुख फैलाय पृथ्वीपर गिरा, जैसे इन्द्रके वज्रके मारे पहाड पृथ्वीपर गिरते हैं॥२९॥ महाबलवान् बलदेवजी के हाथसे प्रलम्बासुरको मराहुवा देखकर विस्मित हो ग्वालबाल कहनेलगे कि, भाई ! तुम दोनों बड़े वीरहो हमसे तुम्हारी बडाई नहीं हो सक्तो जहां जहां हमपर विपत्ति पडती है वहीं वहीं आप सहाय करते हैं जैसे जो भाई तुम इससमय न होते तो यह एकनएक लडके को पकडकर अवश्य लेजाता॥३०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजीबोले कि, उस समय सब ग्वालबाल और नंदलाल मिलकर बलदेवजीको आशीर्वाद देने लगे कि, चिरंजीव रहो, चिरंजीव रहो, फिर प्रशंसा योग्य बलदेवजीकी
प्रशंसा करने लगे और जैसे कोई मरकर लौट आता है ऐसे बलदेवजीसे मिलकर प्रेममें भग्न होगये॥३१॥ पापी प्रलम्बासुरके मरनेसे देवताओंको बड़ा आनन्द हुवा बलदेवजी के ऊपर फूलोंकी वर्षा की और धन्यवाद देने लगे॥३२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां प्रलम्बासुरवधो नाम अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा — उन्नीसवें अध्याय में, मुञ्ज विपिनमें जाय। गोप गाय सब अग्निसे, क्षणमें लिये बचाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जब सब ग्वालबाल खेलमें लगगये तब उनकी गायें बछरे अपनी इच्छासे चरते २ हरी हरी घास के लालच में
पापे प्रलंबे निहते देवाः परमनिर्वृताः॥ अभ्यवर्षन्बलं माल्यैः शशंसुः साधुसाध्विति॥३२॥ इति श्रीमद्भाग० म०द० पू० प्रलंबासुरवधो नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ श्रीशुक उवाच॥ क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्भावो दूरचारिणीः॥ स्वैरं चरंत्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम्॥१॥ अजा गावो महिष्यश्च निर्विशंत्यो वनाद्वनम्॥ इषीकाटवीं विविशुः क्रंदंत्यो दावतर्षिताः॥२॥ तेऽपश्यंतः पशून्गोपाः कृष्णरामादयस्तदा॥ जातानुतापा न विदुर्विचिन्वंतो गवां गतिम्॥ ॥३॥ तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैर्गोष्पदैरंकितैर्गवाम्॥ मार्गमन्वगमन्सर्वे नष्टाऽऽजीव्या विचेतसः॥४॥
आनकर सघन वनमें चले गये॥१॥ वह अजा अर्थात् ओसर गायें भैंसे उस वनसे चरती चरती आगे धेनुकवन में चलीगईं उसके आगे महाघोर मुंज है तहाँ चलीगईं क्योकि वनमें चारों ओर दवॅ जो लगरही थी उसकी गर्मीसे प्यासकी मारी घबरा रहीं थीं॥२॥ जब बलराम कृष्णादिक ग्वालबालोंने पशुओंको नहीं देखा तो मनमें अत्यन्त दुःखी हुये और जहाँ तहाँ खोजने लगे परन्तु पता कहीं नहीं लगा॥३॥ फिर परस्पर विचार सब ग्वालबाल गायोंके खुरोके चिह्नोंको और जो गायोंके दांतों से कटा हुवा घास था, उसको देखते देखते जहाँ जहाँ होकर गायें
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** शंका—**ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको बकरीका पालन तथा भैंसका पालन अयोग्य है और शास्त्रमें भी इनका पालन अनुचित है, फिर श्रीकृष्णने बकरी और भैसें क्यों पाली?
** उत्तर—**पण्डित लोग बकरीका नाम अजा कहते है परन्तु अजा गायकी बछियाको मी कहते हैं और ओसरभी कहते हैं और मुनियोंने अजाका ऐसा अर्थ किया है कि, बालक जिसमें न हों उसका नाम अजा है और महिषी नाम वृद्ध गायका है और जो युवा गाय हो उसका नाम गाय है, श्रीकृष्ण भगवान् सब बछिया और वृद्ध युवा गायका पालन किया करतेथे बकरी भैंसोका पालन करना तो गडरियों का काम है श्रीकृष्णचन्द्रने बकरी मैंसें नहीं पालीं॥
गईं थीं वहाँ पहुँचे॥४॥ मुंजवनमें घुसगये वहां जाकर मार्ग भूलगये, सीधा मार्ग अग्निसे रुकगयाथा, तब दुःखित हुई कुछ थोड़ीसी गायोंके समूहोंको देखा, भूखे और प्यासे ढूँढ़नेके खेदसे और भी घबरारहे, वे हारे थके अपनी गायोंको घेरकर पीछे को लौटे॥५॥ जो गायें इधर उधर रहगईं और दूर दूर चरती थीं, उनको मेघकी समान गम्भीर वाणीसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उनका नाम लेलेकर बुलाई॥६॥ तब सब गायें अपने अपने नाम सुनकर, हर्षित होकर रम्भाईं, इससे यह सूचित किया कि, हम तुम्हारी मनोहर वाणीको, सुनती तो हैं परंतु मार्गमें आग जो लगी है इसलिये तुम्हारे समीप आ नहीं सक्तीं मार्ग बड़ा विकट है॥७॥ वहाँ बडी धूमधामसे धूमध्वजावाला अग्नि चारोंओर वनवासी जीवोंका जलानेवाला लगरहा था और पवनके वेगसे प्रचण्ड होरहा था और महाप्रबल लपटोंसे चराचरको भस्म करता चला जाता था और धुयेंके
मुंजाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रंदमानं स्वगोधनम्॥ संप्राप्य तृषिताः श्रान्तास्ततस्ते संन्यवर्तयन्॥५॥ ता आहूता भगवता मेघगंभीरया गिरा॥ स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः॥६॥ ततः समंताद्वनधूमकेतुर्यदृच्छयाऽभूत्क्षय कृद्वनौकसाम्॥ समीरितः सारथिनोल्वणोल्मुकैर्विलेलिहानः स्थिरजंगमान्महान्॥७॥ तमापततं परितो दवाग्निं गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः॥ ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः॥८॥ कृष्णकृष्ण महावीर्य हे रामामितविक्रम॥ दावाग्निना दह्यमानान्प्रपन्नांस्त्रातुमर्हथः॥९॥ नूनं त्वद्वान्धवाः कृष्ण न चार्हंत्यवसा दितुम॥ वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्परायणाः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ वचो निशम्य कृपणं बंधूनां भगवान्हरिः॥ निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥११॥
धुन्धकारसे सर्वत्र वनमें महाघोर अन्धकार छागया. जीव, जन्तु, पशु, पक्षी धुयेंसे अन्धे हो २ जहाँके तहाँ जल जलकर रहजाते थे कोई किसीको वूझै नहीं था. तब सब ग्वाल मृत्युके भयसे दुःखित हो बलदेवजीसहित श्रीकृष्णकी शरणमें जाकर विनय करने लगे॥८॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाबलवान! हे राम! हे अनंतपराक्रमवाले! यह वनकी अग्निहमको भस्म करे डालती है, अब शरणागतोंकी रक्षा करनी चाहिये॥९॥ हे कृष्ण! हे सर्वधर्मज्ञ! हम तुम्हारे मित्र हैं हमको ऐसा कठिन कष्ट दिखाना नहीं चाहिये, क्योंकि हम इतने कष्ट सहने योग्य नहीं हैं. आपही हमारे अधिष्ठाता हो और आपहीका हमको आश्रय है॥ १०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! सब दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मित्रोंके
दीनवचन सुनकर कहने लगे कि, हे मित्रो भयभीत मतहो, अपनी अपनी आँखें मीचलो॥११॥ उसीसमय श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार सबने अपने २ नेत्र मूँद लिये तब योगेश्वर भगवान्ने उस महाभयंकर अग्निको पानकर अपने प्यारे मित्रोंको महाकष्टसे बचाया॥१२॥ जब उन्होंने नेत्र खोलेतो फिर भाण्डीरवनमें आगये और अपने आपको और गायोंको अग्निसे छुटा देखकर बहुत विस्मित हुए कि, यह क्षणमात्रमेंही, क्या अचम्भा होगया॥१३॥ योगमायाका प्रभाव प्रगट दिखानेवाले अग्निसे बचानेसे श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावको देखकर सब गोप कहने लगे कि, श्रीकृष्ण हमारे समान मनुष्य नहीं हैं यह देवता जान पडते हैं॥१४॥ जब जाना कि, सन्ध्यासमय हुई तब बलरामजी सहित श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्द मन्द
तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्वणम्॥ पीत्वा मुखेन तान्कृच्छ्राद्योगाधीशो व्यमोचयत्॥१२॥ ततश्च तेऽक्षी ण्युन्मील्य पुनर्भांडीरमापिताः॥ निशम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्च मोचिताः॥१३॥ कृष्णस्य योगवीर्यं तद्यो गमायाऽनुभावितम्॥ दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्॥१४॥ गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः॥ वेणुं विरणयन्गोष्ठमगाद्गोपैरभिष्टुतः॥१५॥ गोपीनां परमानंद आसीद्गोविंददर्शने॥ क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाऽभवत्॥१६॥ इति श्रीमद्भाग०महापुराणे दशम०पूर्वार्धे श्रीकृष्णकृतदावाग्निपानं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥ ॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ तयोस्तदद्भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः॥ गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलंबवधमेव च॥१॥
मन्द चालसे गायोंको लिये बाँसुरी बजाते गोपोंसे स्तुति कराते व्रजमें आये॥१५॥ जब ग्रामके समीप आगये तब मुरलीधरने मुरली बजाई; मुरलीकी ध्वनि सुनतेही सब ब्रजनारी अपने अपने घरोंका काम तजकर मार्गमें आन खड़ी हुई और गोपीवल्लभका दर्शन करतेही गोपियोंको परमानन्द प्राप्त हुवा और हृदयमें ठण्ढक होगई. क्योंकि विना श्यामसुन्दरके देखे एक एक क्षण सौ सौ युगकी समान व्यतीत होताथा॥१६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशम० पू० भाषाटीकायां दावाग्निपानं नाम एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ दोहा-कहौंबीस अध्यायमें, पावस शरदानन्द। जो जो कुछ लीलाकरी, राम गोप नँदनन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! श्रीकृष्णचन्द्र बलरामने अग्निसे जो सब ग्वालबालोंको बचाया और प्रलम्बासुरको मारा, यह
अद्भुतकर्म गोपोंने स्त्रियोंसे कहा॥१॥ और बडे बडे वृद्ध गोप, गोपी, यह बात सुनकर आश्चर्य करने लगे और श्रीकृष्णको मुख्य देवता समझा॥२॥ जब ग्रीष्मऋतुने संसारके जीवोंको अधिक सताया. तब संसारी जीवोंको दुःखी देख पावस प्रचण्ड अपने बलके घमंडमें भरा, मार्त्तण्डके प्रकाशको दबाता, चारोंओर धूमधाम मचाता मेघोंका धौंसा वजाता, बादलका दल संग लिये, युद्धका सामान किये चढि आया तथा आकाशमें गड़गड़ाहट शब्द होने लगा॥३॥ दामिनी दमकने लगी, बादल गर्जनेलगे. घनमें श्यामघटा छागई, सूर्य चन्द्रमा तारागणोंका प्रकाश आच्छादित होगया; उस समय आकाश ऐसा शोभायमान जानपडता था जैसे सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे जीव आच्छादित होरहाहै यह त्यागनेके योग्य दृष्टान्त है, प्राणीको ऐसा नहीं चाहिये कि, जो गुणोंसे आवृत होजाय॥४॥ जैसे आठ महीने तक पृथ्वीका जलरूप द्रव्य सूर्यनारायण अपनी
गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः॥ मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौव्रजं गतौ॥२॥ ततः प्रावर्तत प्रावृट्सर्व सत्त्वसमुद्भवा॥ विद्योतमान- परिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला॥३॥ सांद्रनीलांबुदैर्व्योंम सविद्युत्स्तनयित्नुभिः॥ अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ॥४॥ अष्टौ मासान्निपीतं यद्भूम्याश्चोदमयं वसु॥ स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते॥५॥ तडित्त्वंतो महामेघाश्चंडश्वसनवेपिताः॥ प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव॥६॥ तपःकृशा देवमीढा आसीद्वर्षीयसी मही॥ यथैव काम्यतपसस्तनुः संप्राप्य तत्फलम्॥७॥
किरणोसे सोखै है और वर्षाऋतु आनेपर वरसावै है ऐसेही राजाको भी चाहिये कि, सुकालमें प्रजासे कर लेंवैंऔर अकालमें उनको अन्न धन देकर पालन करैंयह ग्रहण करने योग्य दृष्टांत है, राजाको ऐसाही करना योग्य है॥५॥ जैसे प्रबल पवनकी झकोरसे बडे बडे मेघ बिजली जिनमें चमके विश्वको तप्त देख पुष्ट करनेवाले जीवन ( जल )वरसानेलगे जैसे दयावान् पुरुष दुःखी जनोंको देखकर उनको सुखी करनेके लिये दया करके अपने प्राणतक देते हैं, तैसेही बडे मेघ अपने बिजली रूप नेत्रोंसे संतप्त विश्वको देखकर पवनसे चलायमान हो जल बरसाते हैं, यह ग्रहण करने योग्य दृष्टान्त है महात्मा पुरुषो को ऐसाही करना चाहिये॥६॥ पृथ्वी ग्रीष्मऋतुकी धूपसे अत्यन्त तप्त होकर जो सूख गई थी, इन्द्रने जल वर्षाकर जब उसको सींचातो फिर वर्षाऋतुमें फूली और वृक्षोंपर भाँति भाँतिके फूल खिले और फल लगे ऐसेही सकामपुरुष धनकी अथवा
पुत्रकी इच्छा करके तप करता है, तब पहिले तो उसका देह दुर्बल होजाता है फिर तपका फल मिलनेसे उसका शरीर जैसेका तैसा होजाताहै, यह त्यागने योग्य दृष्टान्त है. पुरुषको उचित है कि, सकाम तप न करै॥७॥ वर्षाऋतुमें सन्ध्या समय स्वद्योत ( पटबीजने ) प्रकाश करते हैं तारागण प्रकाश नहीं करते जैसे कलियुगमें पापके प्रभावसे पाखण्डमार्ग चमकते रहतेहैं और वेदमार्ग अस्त होजाते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्तहै, चतुर पुरुषोंको ऐसा नहीं चाहिये जो पाखण्ड मार्गमें प्रवृत्त हों॥८॥ वर्षाऋतुमें मेघका गर्जना सुनकर मेढ़क बोलने लगते हैं; जैसे विद्यार्थी गुरुके सम्मुख मुख बन्द किये चुप बैठे रहते हैं. जब गुरु नित्य नैमित्तिक कर्मसे निश्चिंत होकर बोलतेहैं, तब आपभी शिष्य अपना पाठ लेकर बैठतेहैं. यह ग्राह्य दृष्टान्त है कि, विद्यार्थियोंको यही चाहिये कि, गुरु जब अपने कार्यसे निश्चिन्त होजायँऔर वह कहैंतब आप अपना पाठ पढ़ें॥९॥ क्षुद्रनदी जिनका
निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भांति न ग्रहाः॥ यथा पापेन पाखंडा न हि वेदाः कलौ युगे॥८॥ श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मंडूका व्यसृजन्गिरः॥ तूष्णीं शयानाः प्राग्यद्वद्ब्राह्मणा नियमात्यये॥९॥ आसन्नुत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः॥ पुंसो यथाऽस्वतंत्रस्य देहद्रविणसंपदः॥१०॥ हरिता हरिभिः शष्पैरिंद्रगोपैश्च लोहिता॥ उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत्॥११॥
जल थोडेही दिनोंमें सुखजाताहै वर्षाऋतुमें जब अधिक जल वर्षताहै तब अपनी मर्यादाको छोड छोडकर चारों ओरको उफनने लगती हैं, जैसे अजितेन्द्रिय पुरुषका मन धन और ऐश्वर्य पाकर छोटे मार्गोंकी ओरको चलता है और सब ठौरको पाँव फैलाता है, यह त्याज्य दृष्टान्तहै ऐसा नहीं चाहिये जो मार्गमें अपने मनको चलावै॥१०॥ वर्षाऋतुमें हरी हरी घास उत्पन्न होनेसे, लाल लाल बीरबहूटियोंके फिरनेसे, उच्छिलीन्ध्र (छत्रिका, जो चौमासेमें छत्रके आकार पृथ्वीमें उत्पन्न होती है, बालक उनको साँपकी छत्री कहा करते हैं ) उनके फूलनेसे और सुन्दर सुन्दर वृक्षोंसे पृथ्वी ऐसी शोभायमान जान पड़तीथी जैसे राजाकी सेना चित्र विचित्र रंगसे सजी हुई छत्र छायावाली दिखाई देती है। यह ग्राह्य दृष्टान्त है, राजाओंको ऐसाही चाहिये; जो हरे लाल मखमलके नये नये बिछौने बिछावैंऔर श्वेत श्वेत डेरे तम्बू तान दें॥११॥
वर्षाऋतुमें हरे हरे धानोंके खेतोंको देख देख कर किसानोंका चित्त आनन्दित होता था और लाभ हानि दैवाधीन है, इस बातको असत्य समझकर जिन लोगोंने अन्न संग्रह किया था, उनको क्लेश हुआ, यह त्याज्य दृष्टान्त है, ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये जिसमें सबका बुरा चिन्तवन करना पडै॥१२॥ वर्षाऋतुमें जैसे जलाशयके रहनेवाले मनुष्य नये जलके सेवनकरनेंसे सुन्दर स्वरूपवान् होजाते हैं, जैसे हरि भगवान्का सेवनकरनेसे हरिजन सुन्दर स्वरूपको पाते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त है, मनुष्यको ऐसाही चाहिये॥१३॥ वर्षाऋतुमें समुद्रमें नदी आनकर मिली और पवनके चलनेसे तरंगें उठने लगीं उस समय समुद्रका जल चलायमान होगया, जैसे चित्त विषय वासनामें और काममें चलायमान हो जाता है.यह त्याज्य दृष्टान्त है योगियोंको ऐसा नहीं चाहिये जो विषयवासनामें चलायमान होजायँ॥१४॥ वर्षाऋतुमें मेघोंकी वुन्दधार
क्षेत्राणि सस्यसंपद्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः॥ धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम्॥१२॥ जलस्थलौकसः सर्वे नववा रिनिषेवया॥ अबिभ्रद्रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया॥१३ सरिद्भिः संगतः सिंधुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान्॥ अपक्वयोगिन श्चित्तं कामाक्तं गुणयुग्यथा॥१४॥ गिरयो वर्षधाराभि- र्हन्यमाना न विव्यथुः॥ अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाऽधोक्षजचे तसः॥१५॥ मार्गां बभूवुः संदिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः॥ नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव॥१६॥
पडनेसे पर्वत किञ्चिन्मात्र भी दुःख नहीं मानते बरन् धुल धुल कर उनकी शिलायें स्वच्छ और उज्ज्वल होजाती हैं, जैसे जिन मनुष्योंके मन भगवान्में लग रहे हैं उनके ऊपर कैसाही कष्ट पडै अर्थात् पुत्र मरजाय, धन लुटजाय, तनु दुर्बल होजाय, परन्तु वह कष्टको कुछ नहीं मानते, बरन यह कहते हैं कि, विपक्षियोंसे पीछा छुटा, यह ग्राह्य दृष्टान्त है कि, मनुष्यको चाहिये कि, विपत्तिमें व्याकुल न होय॥१५॥ वर्षाऋतुमें तृण और घासके बढ जानेसे मार्गढकगये और संदिग्ध ( सन्देह युक्त ) होगये यह न जान पडता था कि, किस ग्रामका कौनसा मार्ग है, जैसे, ब्राह्मण एकबार वेद पढ़के पुस्तक बांधकर रखदेते हैं और उसका अभ्यास छोड देते हैं, फिर बहुत दिन उपरान्त पुस्तकको खोलकर देखते हैं तो उनको अनेक प्रकारके सन्देह उत्पन्न होते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्तहै कि, ब्राह्मणोंको ऐसा नहीं चाहिये जो पढ़नेका अभ्यास छोडदें, नहीं
प्रातःकाल उठकर अपना नित्यकर्म करें॥१६॥ लोगोंके परमहितकारी मेघ हैं उनमें चलायमान चपला क्षणमात्रको स्थिर नहीं रहती, कभी किसी बादलमें जा चमकैहै, कभी किसी बादलमें जा चमकैहै जैसे ज्ञानी पुरुषोंमें व्यभिचारिणी स्त्री स्थिर होकर नहीं बैठती, कभी किसीके घर कभी किसीके घर एक पुरुषके वर नहीं ठहरती, यह ग्राह्य दृष्टान्त है कि, कभी भूलकर भी व्यभिचारिणी स्त्रीका विश्वास न करै*॥१७॥ वर्षाऋतुमें गर्जन शब्दके गडगडाहटवाले बादल आकाशमें प्रत्यञ्चा ( रोदा ) विना इन्द्रका धनुष शोभायमान दिखाई देता है, जैसे गुणोंके गम्भीर शब्दवाले प्रपञ्चमें आत्मा निर्गुण है, तोभी अत्यन्त शोभायमान जानपडैहै, यह ग्राह्य दृष्टान्त है कि, पुरुषको चाहिये कि,
लोकबंधुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः॥ स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव॥१७॥ धनुर्वियति माहेंद्र निर्गुणं च गुणिन्यभात्॥ व्यक्ते गुणव्यतिकरेऽगुणवान्पुरुषो यथा॥१८॥ न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः॥ अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा॥१९॥ मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनंदञ्शिखंडिनः॥ गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाऽच्युतजनाऽऽगमे॥२०॥
ऐसे सुन्दर निर्गुण पुरुषका ध्यानकरै॥१८॥वर्षाऋतुमें अपनी चांदनीसे प्रकाशमान जो मेघ हैं, उनसे आवृत होकर चन्द्रमा शोभायमान नहीं दीखाता, मलीनसा दिखाई देता है, जैसे आत्मासे प्रकाशमान अभिमानसे आच्छादित पुरुष अपने मनमें कहता है कि, मैंहीं ज्ञानी हूं, मैहीं दानी हूं, मैंहीं शूरवीर हूं, मैंहीं रणधीर हूं मैंहीं पण्डित हूं मैंही सर्वज्ञ हूं, वही उसमें मलिनता है, यह त्याज्य दृष्टान्त है, पुरुषको चाहिये कि, अहंकार न करै॥१९॥ वर्षाऋतुमें ग्रीष्मके तपेहुये जो घोर मेघोंका शुभागमन देख, उनकी प्रशंसामें मनोहर शब्द करतेहैं. जैसे घरमें संतप्त हुये वैराग्यवान पुरुष महात्मा पुरुषोंके आनेसे हर्षित हो मनोहर वाणीसे उनका आदर सत्कार करतेहैं. यह नहीं कि, हमही भूखे मरेहैं, इनके
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** शंका —**ससारमें जो गुणी जन हैं, सो सब अपनी स्त्रियोंके संग दुख सुख गृहस्थीमें भोगते हैं परन्तु ऐसा किसी गुणीको नहीं सुना कि, उसकी स्त्रीने उसको त्याग दिया हो? फिर शुकदेवजीने क्यों कहा कि, गुणी प्राणीमें स्त्री बहुत समयतक नहीं ठहरती, जैसे आकाशमें बिजुली अधिक कालतक नहीं ठहरती यह शंका है?
** उत्तर—”**स्थैर्य न चक्रु कामिन्य"इस श्लोकमें शास्त्रके जाननेवाले मुनियोंने कामिनीका स्त्री अर्थ नहीं किया, संसारके सुखकी तृष्णा है कि जो अधिक प्रीति है सोई कामिनी है सो तृष्णाकी बहुत प्रीतिरूप कामिनी गुणी पुरुषोंमें बहुत कालतक नहीं ठहरती, बहुत कालतक मूखोंमें ठहरतीहै ऐसा अर्थ श्रीशुकदेवजीने कियाहै॥
लिये कहाँसे लावैं॥२०॥ वर्षाऋतुमें गरमीसे तपेहुये देवतालोग वृक्षरूप धारण किये अपनी मूलसे जल पीपीकर प्रफुल्लित हो, हरे हरे लाल लाल नवीन पल्लवोंसे समृद्धिमान् होरहे हैं जैसे तपस्या करनेसे मनुष्योंका देह प्रथम तो दुर्बल होजाता है फिर सुन्दर सुन्दर सुख भोग करनेसे और पुष्टकारक भोजन मिलनेसे उनका शरीर लाल होजाता है, यह त्याज्य दृष्टान्त है. मनुष्योंको चाहिये कि, खाने पीनेके लिये तप न करैं॥२१॥ वर्षाऋतु में कांटे और कीचमें संयुक्त किनारेवाले सरोवरोंमें चकवी चकवे और सारस वासकरते थे, जैसे अनेक प्रकारके कर्म करनेकी पीड़ासे घरोमें विषयी पुरुषवास करते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्त है, मनुष्यको ऐसा नहीं चाहिये कि, जो सदा घरहीमें शिर दिये पड़ारहै, नहीं कुछ कुछ भगवान् वासुदेवका भी भजन करै, जिसमें लोक और परलोक दोनों सुधरें॥२२॥ वर्षाऋतुमें जैसे इन्द्रके जल बरसानेसे नदियोंके जलका प्रवाह पुलोंको तोड़ता फोड़ता चलाजाता है और खेतोंकी मर्यादा भी टूटगई, जैसे पाखण्डियोंके शब्द सुनके कलियुगमें वेदमार्ग टूट
पीत्वाऽपः पादपाः पद्भिरासन्नानात्ममृर्तयः॥ प्राक्क्षामास्तपसा श्रांता यथा कामानुसेवया॥२१॥ सरस्वशांतरो धस्सु न्यूषुरंगापि सारसाः॥ गृहेष्वशांतकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः॥२२॥ जलौघैर्निरभिद्यंत सेतवो वर्षतीश्वरे॥ पाखंडिनामसद्वादैर्वेदमार्गाः कलौ यथा॥२३॥ व्यमुचन्वायुनिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः॥ यथाऽऽशिषो विश्पतयः कालेकाले द्विजेरिताः॥२४॥ एवं वनं तद्वर्षिष्टं पक्कखर्जूरजम्बुमत्॥ गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद्धरिः॥२५॥
जातेहैं और धर्म कर्म दूर हो जाते हैं यह त्याज्य दृष्टान्त है मनुष्य पाखण्डियोंके शब्द सुनकर वेदमार्गको न त्यागदे॥२३॥ वर्षाऋतुमें मेघ गण पवनकी प्रेरणासे प्राणियोंपर अमृतकी तुल्य जल वर्ष रहे थे, जैसे समय समय पर राजा पुरोहितकी प्रेरणासे दान पुण्य करते रहते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त है, पुरोहित गुरुजनोंको ऐसाही चाहिये कि, जो प्रेरणाकरके यजमान और शिष्योंसे दान करावे और दीनपुरुषोंको दिलावें॥२४॥ इस प्रकार जहाँ चारों ओर आम, जामुन, खजूर जिस वृन्दावनमें पकरहे थे और उनकी शाखायें पृथ्वीकी ओर ऐसी झुकरही थीं जैसे परोपकारी पुरुष धन पाकर नीचेको झुकते हैं और फूल जो टपक टपक कर सुधासम वसुधापर गिरते थे, ऐसा जान पडता था मानो दानी द्रव्यका दान कर रहे हैं और खजूरके वृक्ष ऊँचे ऊँचे ऐसे विदित होते थे जैसे रणभूमिमें शूर खड़े हैं, ऐसे शोभायमान वनकी शोभा देखकर श्रीकृष्ण बलरामसमेत
ग्वाल बालोंको संग ले उस वनमें गायें चरानेके लिये गये॥२५॥ बड़े बड़े अयनोंके भारी भारी भारसे हौले हौले चलनेवाली गायें जब श्रीकृष्णचन्द्रने नाम लेलेकर प्रीतिसे बुलाई, तब स्तनोंसे जिसके दूध टपकरहा वह सब गायें दौड़ दौड़कर वृन्दावनविहारीके सन्मुख आनकर खड़ी होगईं॥२६॥ वनवासियोंको श्रीकृष्णने देखा, मधु और मकरन्द टपकनेवाली वृक्षोंकी लताओंसे रस टपकता था, गोवर्द्धन पर्वतसे जलकी धारायें बहतीं थीं, कहीं कहीं झरनोंसे पानी जो गिरता था उस पानी के शब्दसे ऐसा ज्ञात होता था मानों वृक्ष परस्पर बातें कररहैं हैं, निकटही गुफायें थीं उनको देख देख ग्वालबाल और नंदलाल प्रसन्न होते थे॥२७॥ कहीं कहीं ऐसी वृक्षोंकी खखोडल और पर्वतकी कन्दरा थीं कि, जिनमें पानीकी बूँदभी नहीं जाती थी, जब भारी वर्षा होती थी तो उनहीमें घुसकर बैठ जाते थे और वनके फल फूलखा खाकर प्रसन्न होतेथे॥२८॥ इतनेमें यशोदाने
धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा॥ ययुर्भगवताऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्तुतस्तनीः॥२६॥ वनौकसः प्रमुदिता वनराजी र्मधुच्युतः॥ जलधारा गिरेर्नादानासन्ना ददृशे गुहाः॥२७॥ क्वचिद्वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति॥ निर्विश्य भगवान्रेमे कन्दमूलफलाशनः॥२८॥ दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलांतिके॥ संभोजनीयैर्बुभुजे गोपैः संकर्षणान्वितः॥२९॥ शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान्॥ तृप्तान्वृषान्वत्सतरान्गाश्च स्वोधोभरश्रमाः॥३०॥
दुपहरका समय देख अपने मनमें समझा कि, मोहन प्यारेको भूख लगी होगी, यह विचार कई एक ग्वालिनियोंके हाथ दही, भात, माखन, मिश्री और अनेक प्रकारके व्यञ्जन थालोमें धर धरकर श्रीकृष्ण बलरामके पास भेज दिये, सो श्रीकृष्ण सखाओ समेत यमुनाके निकट ऐसे रमणीक घाट पर गये जहाँ शिलाके ऊपरही भात धरकर भोजन करनेयोग्य गोपोंको और बलदेवजीको संग लेकर भोजन करनेलगे और उसके स्वादकी सरा हना कर करके कभी सखाओंको देते थे और कभी उनके हाथमेंसे लेलेते थे॥२९॥ उस समय बैल बछरे पेट भरजानेसे हरी हरी घासपर बैठे आँखें मीचे जुगाल कर रहे थे और गायें भी दूधके भारसे थक कर बैठी जुगाल कर रही थीं. राम कृष्ण उन गायोंको देख देखकर प्रसन्न होते थे और भोजन करते जाते थे और बारंबार परस्पर कहते थे कि, पावसकी समान संसारमें सुख देनेवाली और दूसरी ऋतु नहीं है॥३०॥
सब प्राणियोंकी आनन्दकारी और प्रेम प्रीतिकी बढ़ानेहारी पावसमें वृन्दावनकी शोभा और अपनी शक्तिसे युक्त वर्षा ऋतुको देखकर वृन्दावनविहारी वृन्दावनकी प्रशंसा करने लगे कि, देखो! वृन्दावनमें वर्षाऋतु कैसी अनुपम शोभा दे रही है॥३१॥ इस प्रकार व्रजमें श्यामसुन्दर और बलरामके वास करते करते बादलोंसे रहित निर्मल जल बहानेवाली और मन्द मन्द त्रिविध पवन चलानेंवाली परम सुखदाई शरदृतु आई॥३२॥ शरदृतुमें कमल उत्पन्न होनेसे जल निर्मल और शीतल होगया, जैसे योगीजनोंके चित्त भ्रष्ट होकर फिर योगका अभ्यास करनेसे शुद्ध होजाते हैं यह ग्राह्य दृष्टान्त कि, योगियोंको यही चाहिये कि, चित्तको शुद्ध करके योगाभ्यास करें ॥३३॥ वर्षाऋतुमें आकाशमें मेघ रात दिन गर्जते रहते हैं, शरदृतुमें सब उनका गर्जना बंद होगया, वर्षाऋतुमें बहुतसे मनुष्य मिलकर एक स्थानमें रहते हैं, शरदृतुमें सब अलग अलग होगये, वर्षाऋतुमें ठौर ठौर कीच होती है, शरदृतुमें सब भूमि सुहावनी होगई, वर्षाऋतुमें जल गदला और मैला होजाता है. शरदृतुमें जल स्वच्छ और शीतल होगया
प्रावृट्च्छ्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदा वहाम्॥ भगवान्पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम्॥३१॥ एवं निवसतो स्तस्मिन्रामकेशवयोर्व्रजे॥ शरत्सम- भवद्व्यभ्रा स्वच्छांब्वपरुषानिला॥३२॥ शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृति ययुः॥ भ्रष्टानामिव चेतांसि पुजर्योगनिषेवया॥३३॥ व्याम्नोऽब्दं भूतशाबल्यं भुवः पंकमपां मलम्॥ शरज्जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाऽशुभम्॥३४॥
जैसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चारों आश्रमोंके भगवानकी भक्ति होनेसे सब क्लेश दूर होजाते हैं. ब्रह्मचारियोंके लिये शिष्य तबहीं तक जल भरा करते हैं, जबलों भक्ति प्राप्त नहीं होती भक्ति होनेके पीछे जल भरनेका परिश्रम नहीं रहता. जब शिष्यको भक्ति प्राप्त हो जाती है, तब उससे गुरुभी सेवा नहीं कराते. इसप्रकार बादलका गर्जना शरदृतुमें बन्द होगया. गृहस्थके हृदयमें जबतक भक्ति उदय नहीं होती है तबलों अपनी सन्तानादिकमें मोहममता रखता है. भक्ति होनेके पीछे एकान्त वास करनेकी इच्छा करता है और सबका संग छोड़ देता है. ऐसेही प्राणियोंका एक स्थानपर वास है, सो छूट गया. वानप्रस्थको जबतक भक्ति प्रकट नहीं होती तबलों उसका मन मलिन रहता है. भक्ति होनेके पीछे जैसेउसकी मलिनता दूर होजाती हैं ऐसे पृथ्वीकी कीच सूख गई और सुहावनी होगई. संन्यासीका कामवासनारूप मल श्रीकृष्ण
वासुदेवमें भक्ति होनेसे दूर होजाता है, ऐसेही शरदमें जलका मल दूर हो गया॥३४॥ शरदृतुमें मेघ अपना सर्वस्व त्याग श्वेत श्वेत रुईकेसे पहल दिखाई देते हैं. जैसे धन, दारा, पुत्र और विषय वासनाके दूर होनेसे शान्त स्वभाव मुनीश्वरलोग शोभायमान जान पडते हैं. यह ग्राह्य दृष्टांत है, मुनिलोगों को यही चाहिये कि सब वासनाओंको दूर करें॥३५॥ पर्वत अपना कल्याणरूप निर्मलजल कहीं कहीं को तो झरनोंसे बहाते हैं और कहीं कहींको नहीं भी बहाते, जैसे ज्ञानीपुरुष समय समय पर अपना ज्ञानरूप अमृत सुपात्रको देखकर देते हैं और कुपात्रको नहीं देते. यह ग्राह्य दृष्टांत है कि, विवेकी पुरुषको यही चाहिये कि, सुपात्र कुपात्रको देखकर उपदेशकरें॥३६॥ शरदृतुमें सरोवरोंमें थोड़े जलके रहनेवाले जीव जन्तु नित्यः नित्य घटते जलको नहीं जान सके, जैसे अज्ञानी कुटुम्बी पुरुष घरोंमें रहकर अपनी नित्य
सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः सुभ्रवर्चसः॥ यथा त्यक्तैषणाः शांता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः॥३५॥ गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम्॥ यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा॥३६॥ नैवाविदन्क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः॥ यथायुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः॥३७॥ गाधवारिचरा- स्तापमविदञ्शरदर्कजम्॥ यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेंद्रियः॥३८॥ शनैश्शनैर्जहुः पंकं स्थलान्यामं च वीरुधः॥ यथाहंममतां धीराः॥ शरीरादिष्वनात्मसु॥३९॥ निश्चलांबुरभूत्तूष्णीं समुद्रः शरदागमे॥ आत्मन्युपरते सम्यङ् मुनिर्व्युपरतागमः॥४०॥
क्षीण होतीहुई आयुर्बलको नही जानते. यह त्याज्य दृष्टान्त है कि, कुटुम्बीलोगोंको चाहिये कि, अचेतन हो कुछ परमेश्वरकी ओरका भी चिन्तवन करैं॥३७॥ शरदृतुमें थोड़े जलके रहनेवाले जलचर सूर्यके तेजसे जल गरम होनेसे दुःखी होगये, जैसे कुटुम्बी पुरुष इन्द्रियोंको वशमें न करनेसे दरिद्रता और कृपणतामें रहकर कष्ट भोगते हैं. यह त्याज्य दृष्टांत है जो घरमें क्लेश होय तो उस घरको त्याग दे॥३८॥ शरदृतुमें सहज सहजमें सब स्थानोंकी कीच सूख गई, लताओंका सब कच्चापन जाता रहा, जैसे मिथ्या देह गेहमें सज्जनपुरुष सहज सहजमें मायाकृत अहंता ममताको त्याग देते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त है, ज्ञानी पुरुषको यही चाहिये कि अभिमानका त्याग कर दें॥३९॥ शरदृतुके आनेसे समुद्रका जल निर्मल होगया, जैसे आत्मज्ञान होनेसे महात्मा मुनियोंका पढना लिखना सब छूट जाता है. यह ग्राह्य
दृष्टान्त है, आत्माके जाननेके पीछे लिखने पढनेका क्या प्रयोजन ?॥४०॥ शरदृतुमें खेतवाले किसान लोंगोंने जहाँ तहाँ भारी भारी मेंडे बाँध बाँधकर पानी रोक लिया है जैसे योगिराज इंद्रियरूप द्वारसे जाते हुये ज्ञानको रोकलेतेहैं, इंद्रियोंको रोककर फिर मनको रोकते हैं. यह ग्राह्य दृष्टान्त है, योगियोंको यही चाहिये कि, ज्ञानको हृदयसे निकलने नही दें इन्द्रियोंको रोककर रक्खै॥४१॥ शरदृतुमें सूर्यकी किरणोंके तापको रात्रिके समय चन्द्रमाने उदय होकर दूर कर दिया, जैसे ज्ञान होनेके पीछे देहके अभिमानरूप तापको शान्तरूप चन्द्रमा उदय होकर हरलेता है, ऐसेही व्रजवासियोंका ताप श्रीकृष्णचन्द्र मुकुन्दने दूर कर दिया॥४२॥ शरदृतुमें मेघ दूर होगये आकाश निर्मल होगया, तारागणोंके प्रकाशसे आकाश शोभा पाने लगा, जैसे वेदके अर्थको दिखानेवाले सत्त्वगुणी चित्त शोभायमान जान
केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन्कर्षका दृढसेतुभिः॥ यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः॥४१॥ शरदर्कांशुजांस्तापान्भूतानामुडुपोऽहरत्॥ देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम्॥४२॥ खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम्॥ सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम्॥४३॥ अखंडमंडलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी॥ यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि॥४४॥ आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसुनवनमारुतम्॥ जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः॥४५॥ गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाऽभवन्॥ अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव॥४६॥
पडते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त है वही चित्त सुन्दर और शोभायमान है जिसमें वेदके अर्थका ज्ञान है॥४३॥ शरदृतुमें समस्त मण्डलसे चन्द्रमा आकाशमें तारागणसहित शोभा देताहै, जैसे पृथ्वीमें यदुपति श्रीकृष्णचन्द्र यादवोंसमेत शोभायमान जान पडेहै यह ग्राह्य दृष्टान्त है. मनुष्यको चाहिये कि, जैसे चन्द्रमा आकाशमण्डलको प्रकाशित करताहै ऐसेही शान्तरूप चन्द्रमासे हृदयको प्रकाशित करै॥४४॥ शरदृतुमें पुष्पवाटिकाओंके पुष्पोंका स्पर्श करके जो पवन चलता है उसके स्पर्श करनेसे सब प्राणियोंके तनुका ताप दूर होजाता है, जैसे गोपिकाओंका ताप श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके स्पर्शसे दूर होजाताहै, यह ग्राह्य दृष्टान्त है. मनुष्यको यही चाहिये कि भगवान्का स्पर्श करके सांसारिक तापोंको त्याग दें॥४५॥ शरदृतुमें गायें, हरिणी पक्षिणी और स्त्रिये पुष्पवती हुई, उनके पति उनके पीछे पीछे कामातुरहो
फिर रहे थे जैसे ईश्वरकी प्रसन्नताके लिये पुरुष योग, यज्ञ, जप, तप करतेहैं, उनके पीछे फल आपसे आप लगे फिरते हैं॥४६॥ शरदृतुमें कुमुदिनीके सिवाय और सब प्रकारके कमल सरोवरोमें फूलते हैं जैसे चोरोंके सिवाय सब प्रजागण राजाके उदय होनेसे प्रफुल्लित रहते हैं यह ग्राह्य दृष्टान्त है. ऐसा कौनसा मनुष्य है जो अपने स्वामीको देखकर प्रसन्न न हो॥४७॥ शरदृतुमें ग्राम और नगरोंमें नवीन अन्नके भोजनका वैदिक उत्सवसे और इंद्रियोंके पुष्टिका कारक विवाहादिक लौकिक उत्सवसे और अन्न पकनेसे और श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजीके क्रीड़ा करनेसे पृथ्वी अत्यन्त शोभायमान दृष्टि आती थी ॥४८॥ वर्षाऋतुके थँभनेसे वणिक्, मुनीश्वर, राजा, ब्रह्मचारी यह शरदृतुमें अपने अपने कार्यमें लगगये. बनिये अपने अपने व्यवहारके लिये देश देशांतरोंको जाने लगे. साधु संन्यासी तीर्थयात्राओंके जानेका प्रबन्ध करने लगे. राजा लोग
उदहृष्यन्वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्विना॥ राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून्विना नृप॥४७॥ पुरग्रामे त्वाग्र यणैरैंद्रियैश्च महोत्सवैः॥ बभौ भूः पक्कसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः॥४८॥ वणिङ्मुनिनृपस्नाता निर्गम्याऽर्थान्प्रपेदिरे॥ वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिंडान्काल आगते॥४९॥ इति श्रीभा० म० दश० पृ० प्रावृट्शरद्वर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं शरत्स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना॥ न्यविशद्वायुना वातं सगोगोपाल कोऽच्युतः॥१॥ कुसुमितवनराजिशुष्मिभृंगद्विजकुलघुष्टसरस्सरिन्महीध्रम्॥ मधुपतिरवगाह्य चारयन्गाः सहपशु पालबलश्चु- कूज वेणुम्॥२॥
अपनी चतुरंगिनी सेना ले शत्रुओंके विजय करनेको चलदिये. ब्रह्मचारी विद्या पढ़नेके लिये पाठशालाओंको चलने लगे. जैसे मंत्र और योगादिसे सिद्ध महात्मा, आयुके बन्धनसे रुकरहे हों, वह समय आनेपर दिव्यदेह पाते हैं॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्ध भाषाटीकायां प्रावृट्शरदृतुवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ दोहा—इक्किसमें वृन्दाविपिन, गयेश्याम सुखधाम। वेणु गीत गोपीनको, वर्णत शालिग्राम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज। शरदृतुमें निर्मल कमलोंकी सुगन्धयुक्त पवनवाले वृन्दावनमें गाय बछड़े और ग्वालबालोंको संग ले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द वृन्दावनमें गये॥१॥ फूली हुई वनकी पंक्तियोंके सौरभसे मतवाले भौंरे और पक्षियोंके समूहके शब्दसे, सरोवर नदी
पर्वत, गूँजरहे थे, ऐसे सुन्दर मनोहर वृन्दावनमें बलराम और ग्वालबालोंसहित जाकर मुरली बजाने लगे और गायें बछरे चरनेको छोड़ दिये प्रमदात्मक कामका प्रकाश करनेवाला वंशीका शब्द सुनके कई एक व्रजवाला श्रीकृष्णके पीछे अपनी सखियोंके सामने उनकी प्रशंसा करने लगीं॥२॥३॥ हे महाराज! जिस समय कुछ कहनेका प्रारम्भ किया, उसीसमय मन मोहिनी मनमोहनकी छविका स्मरण होगया, उस छविका स्मरण होतेही कामदेवने उनके मन व्याकुल करदिये, इसलिये उनसे श्यामसुन्दरकी कान्तिका कुछ वर्णन नहीं होसका॥४॥ मोरपुच्छोंका मुकुट शीशपर धरके काछनी काछके कानोंमें कनेरके पुष्प धारण करके, सुवर्णकी सदृश पीतपट ओढ़कर कण्ठमें वैयजन्ती और वनमालाधारणकर नटवररूप बनाकर बाँसुरीके छिद्रोंको अपने अधरामृतसे पूर्ण करते गोपोंके समूह जिनकी कीर्ति वर्णन करैं, वह श्रीवृन्दावनविहारी अपने
तद्व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम्॥ काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन्॥३॥ तद्वर्णयितुमा रब्धाः स्मरंत्यः कृष्णचेष्टितम्॥ नाशकन्स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप॥४॥ वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णि कारं बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयंतीं च मालाम्॥ रंध्रान्वेणोर- धरसुधया पूरयन्गोपवृन्दैर्वृंदारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः॥५॥ इति वेणुरवं राजन्सर्वभूतमनोहरम्॥ श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयंतोऽ- भिरेभिरे॥६॥
चरणारविन्दोंके चिह्नसे रमणीक वृन्दावनमें गये, नटवर वेष बनानेका आशय यह है कि, तुमको नृत्य दिखानेके लिये मैंने यह वेप बनायाहै और कनेरपुष्प कानमें धरनेका कारण यह है कि, जब गोपियोंकी बात कानमें सुनाई न आवै तो कानोंमें अत्यन्त सन्ताप होगा तब कानोंको शीतल करनेके लिये पुष्प धारण किये हैं और पीताम्बर धारण करनेका कारण यह है कि, राधा प्यारीका शरीर ऐसाही पीतवर्ण है इसको देखकर प्रीतमप्यारीके शरीकी सुधि आती रहेगी दूसरे प्यारीकेसा पीतरंग मेरे हृदयसे लगा रहेगा और वैजयन्ती और वनमाला हृदयपर पडी रहनेका अभिप्राय यह है कि प्यारीके वियोगकी जो विरहानल है उसे शान्त करती रहें गोपियोंके चरणचिह्नयुक्त मनोहर वृन्दावन जानकर वृन्दावनमें प्रवेश किया ऐसा सुन्दर मनमोहनका मनमोहन रूप देख धैर्य घर जैसे तैसे कर एकसे एक कहने लगीं॥५॥ हे राजन् !इसप्रकार सब जीवोंके
मनकी मोहनेवाली मनमोहनकी बासुरीकी टेर सुनकर व्रजबाला परस्पर उसकी प्रशंसा करने लगीं, प्रशंसा करती ही करती परमानन्द रूपके सागरमें मग्न हो मुरलीमनोहरका मनसे आलिंगन करती थीं॥६॥ गोपी कहने लगों हे सखियो! उनहीं नेत्रवान् पुरुषोंके नेत्र संसारमें धन्य हैं और हम दूसरेको धन्यवाद नहीं देसक्तीं, जिन्होंने सखाओंसमेत गायोंको चराते मुरलीबजाते, प्रेम भरे कटाक्ष चलाते श्रीकृष्ण बलदेवका मुखारविन्द देखा है वही धन्य हैं॥७॥ दूसरी सखी बोली कि, आमकी पल्लव मोरपुच्छ फूलोंके गुच्छे उत्पल कमलोंकी मालाओंसे देदीप्यमान नीलाम्बर पीताम्बरोंसे चित्र विचित्र वेषधारण किये, श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई ग्वाल मण्डलीमें गाते हुए ऐसे शोभायमान जान पडते थे जैसे रंगभूमिमें दो नट नाटक कर रहे हैं॥८॥ तीसरी गोपी बोली कि, हे सखियो ! इस वाँसुरीने ऐसा कौनसा तप किया है कि, जिसके पुण्यके प्रभावसे हमारे पीने योग्य
गोप्य ऊचुः॥ अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः पचननुविवेशयतोर्वयस्यैः॥ वक्रं व्रजेशसुतयोरनुवेणुजुष्टं यैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्ष- मोक्षम्॥७॥ चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्जमालाऽनुपृक्तपरिधानविचित्रवेषौ॥ मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां रंगे यथा नटवरौ क्व च गाय- मानौ॥८॥ गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर्दामोदरा धरसुधामपि गोपिकानाम्॥ भुंक्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचु- स्तरवो यथाऽऽर्याः॥९॥ वृंदावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं यद्देवकीसुतपदांबुजलब्धलक्ष्मि ॥ गोविंदवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रि सान्वपरता- न्यसमस्तसत्त्वम्॥१०॥
अधरामृतके रसको यह आपही अपनी इच्छापूर्वक पीरही है जिन सरोवरोंके जलसे इस बाँसुरीके बाँसोंको सींचा है उन सरोवरोंमें कमल नहीं फूलते मानो आनन्दसे रोमांच होआये हैं और जिन वृक्षोंके वंशमें इस बाँसुरीके बाँस उत्पन्न हुए हैं उन वृक्षोंमें मद नहीं टपकता मानो आनन्दके आँसू बहाते हैं क्यों? वह अपने आपको धन्यवाद देते हैं कि, धन्य हमारे भाग्य जो हमारे वंशके बाँसोंमें ऐसी बासुरी उत्पन्न हुई कि, जो आठों पहर श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके मुखारविन्दसे लगी रहती है, जैसे श्रेष्ठ मनुष्य अपने कुलमें सुपुत्रको भगवानका भक्त देखकर आनन्दमान नेत्रोंसे आँसू बहाते हैं॥९॥ चौथी सखी बोली कि, हे आली ! यह वृन्दावन सुरपुरसे भी अधिक पृथ्वीका यश विस्तार कर रहा है, धन्य है यह पृथ्वी जिस
पर ऐसा परमानन्ददायक वृन्दावन परमधाम है, जिसमें देवकीनन्दन श्रीकृष्णचंद्रके चरणारविन्द धरनेसे जिसको और भी अधिक शोभा प्राप्त हुई और इस वृन्दावनमें जिस समय मुरलीमनोहरकी मुरलीका शब्द होता है, उसको मन्द गर्जनेवाली श्याम घटा जानके और प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं, उनका अनुपम नाच देखकर सब जीव जन्तु निश्चल होकर बैठ जाते हैं, ऐसा परमानन्द किसी और दूसरे लोकमें भीसुना है ? कहीं नहीं यह पूर्णानन्द वृन्दावनमें ही है॥१०॥ पांचवीं सखी बोली कि, हे सजनी! यह पशु जाति मूर्ख हरिणी भी धन्य हैं कि, जो मुरलीका शब्द सुन अपने पतिको संग लिये विचित्र वेषकिये, वृन्दावनविहारीका स्नेहकी चितवनसे सन्मान करैहैं और हमारे पति तो ऐसे निर्दयी हो गये कि, हमको उनका दर्शन भी नहीं करने देते॥११॥ छठी सखी बोली कि, हे प्यारी! यह तो अद्भुत बात सुनो! स्त्रियोंको आनन्दका
धन्याः स्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता या नंदनंदनमुपात्तविचित्रवेषम्॥ आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः॥११॥ कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपवेषं श्रुत्वा च तत्कणितवेणुविचित्रगीतम्॥ देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः॥१२॥ गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीतपीयूषमुत्त भितकर्णपुटैः पिवंत्यः॥ शावाः स्नुतस्तनप्यःकवलाः स्म तस्थुर्गोविन्दमात्मनि दृशाऽनुकलाः स्पृशंत्यः॥१३॥ प्रायो बतांब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम्॥ आरुह्य ये द्रुमभुजान्रुचिरप्रवाला शृण्वंत्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः॥१४॥
देनेवाला श्यामसुन्दरका मनोहर रूप देखकर और उनकी बजाई बाँसुरीकी मनोहर ध्वनि सुनकर विमानोंमें बैठ गमन करती हुई देवताओंकी स्त्रिये यद्यपि अपने पतियोंकी गोदीमें बैठी हैं, तो भी कामदेवके बाणोंके लगनेसे ऐसी व्याकुल होगईं कि, उनके शिरके बालोंसे पुष्प गिरे जाते हैं, और नीवी खुली जाती हैं, जब देवांगनाही मनमोहनके स्वरूपको देखकर मोहित होगईं तो फिर हम मोहित होगई तो क्या आश्चर्य की बात है॥१२॥ श्रीकृष्णप्यारेके मुखसे निकलते हुए बासुरीके गीतरूप अमृतको गायें बछड़े कानरूप पात्रोंसे ऊपरको उठा उठाकर पीते हैं और श्रीकृष्णचन्द्रको दृष्टिसे आलिंगन करते, प्रेमके आँसू बहाते चित्रकी समान लिखेसे खडे हैं बछड़ोंके मुखमें दूधके थन और गायोंके मुखमें घासके तृण मुखके मुखमेंही रह जाते हैं॥१३॥ हे माता !इस वनमें जो पक्षी हैं सो सब मुनीश्वर हैं, जो मनोहर पत्रवाले वृक्षकी शाखाओंपर बैठकर
नेत्रोंको मूँद, मौन साध, श्रीकृष्णचन्द्र मनमोहन प्यारेका दर्शन करें हैं और बाँसुरीके मनोहर गीतोंको सुनें हैं, क्योंकि मुनिलोग भी भगवान्के दर्शनके लिये काम कर्मको त्याग वेदकी शाखाओंके आश्रित हो, उनके विशालरूप कर्मोंका गुण ग्रहण कर सुखीहो मौन साध भगवान्के गुणानुवाद सुना करते हैं, इससे उसकी समतावाले यह पक्षी भी मुनिजनहीं जान पडते हैं॥१४॥ चैतन्य जीवोंकी दशा जो कुछ थी सो तो थी ही, परन्तु मुकुन्द भगवान्की बाँसुरीकीटेर सुनकर नदियोंमें भी भ्रमर पड़ते हैं. उनसे यह सूचित होता है कि, यह भ्रमर नहीं पडते, हमारे हृदयमें
नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतमावर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः॥ आलिंगनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेर्गृह्णंति पादयुगलं कमलोपहाराः॥१५॥ दृष्ट्वाऽऽतपे व्रजपशून्सह रामगोपैः संचारयंतमनुवेणुमुदीरयंतम्॥ प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः सख्युर्व्यधात्स्ववपुषांबुद आतपत्रम्॥१६॥
कामदेवके गढे पडते हैं, मानो जल स्तम्भित हो आलिंगन करके आच्छादन करता है. ऐसेही लहर रूप हाथोंसे कमलके पुष्प भेटें लेलेके मुरारी श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दको समर्पण करें हैं *॥१५॥ बलदेवजीको और ग्वालबालोंको संग लेकर धूपमें व्रजकी गायोंको चराते, मुरली बजाते अपने प्यारे मित्र घनश्यामको देख श्यामघन उनपर छत्र छाया कर नन्ही नन्ही बूँदोंकी वर्षा करने लगे, क्योंकि सच्चा मित्र
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**दृष्टात—**चार भंगेडी नशेमें चूर होकर आपसमे कहने कि, राजाके आदमी कितेने होंगे? एक रणधीर सिंह बोला फलाने परगनेमें राजाके आदमी एक लाख है, दूसरा ब्रजपालसिंह वोला फलाने परगनेमें पन्द्रह लाख आदमी हैं, तीसरा सरदारसिंह बोला कि, फलाने परगनेमें राजाके पच्चीस लाख आदमी हैं चौथा बलवन्तसिंह बोला फलाने परगनेमें पचास लाख आदमी हैं और नौलाख यहां हैं, सब एक करोड १००००००० हुये अब इसका खर्च विचारो कि, सालभरमें कुछ खजानेमें बचता यानहीं एक बोला पचास लाख तो फौजका खर्च है, दूसरा बोला पचीसलाख महलमें उठें हैं तीसरा बोला दश राजाने लाख इमारतमें उठे है, चौथा बोला पन्द्रहलाख वस्त्र आभूषणमें उठें हैं, इस हिसाब से खजाने में कुछ नहीं पडता?यह बात राजाके दूत सुन रहेथे, राजकाजकी बाते सुन राजाको परचा लिख दिया, मन्त्रीको बुलाकर खर्चका हिसाव बूझा तो सब उन्हींके कहनेके अनुसार ठीक निकला राजाने उन चारों भगेडियोंको बुलाकर बूझा कि हमारे घरकी बात तुमने कैसे जानी? हमको ऐसा मालूम पडता है कि तुम हमारे खजाचीसे मिले हुए हो ! भगेडी बोले कि न हम चोर और न हम आपके भडारीसे मिले हुए हम तो भंगके नशेमें अपनी बातें कर रहेथे सो आपही विधि मिलगई होगी देखो चार कौडीकी भंगके? नशेमें राजाके घरका बन्दोवस्त वाँध दिया। और गोपी तो अमोल श्रीकृष्णका प्रेमामृत पी रही थी जो कृष्णरूपका प्रबंध वाँध दिया तो क्या बडी बात है।
श्यामसुंदरका मेघही है,देखो कृष्णकाभी श्याम रंग और मेघोंका भी श्याम रंग, कृष्णके भी पीत वस्त्र और मेघोंके पीत विजली, कृष्णके मुक्तामाल और मेघोंके बगपाँति, कृष्णकी मुरली गर्जै और मेघ आपही गर्जै, कृष्ण अमृतकी वर्षा करैं और मेघ जलकी वर्षा करैं, कृष्ण वनमें घूमै और मेघ आकाशमें घूमैं कृष्णपर भौंहोंके धनुष हैं मेघोंपर इन्द्रका धनुष है, कृष्णके मेघके सब लक्षण एकसे मिलते हैं॥१६॥ और सखी बोली आली !हमसे तो यह वनकी भीलनी भी धन्य हैं, क्योंकि प्रियाके स्तनोंमें जो कि, चर्चित केशर, कस्तूरी जब रतिके समय कृष्णचन्द्रके चरणोंमें लगी और वह चरण अरुणाई लिये जब वनमें विहार करते समय घासमें लगे हैं, उनको देख कामातुर भीलनी उस केशर और कस्तूरीको घासपरसे लेलेकर अपने मुख और स्तनोंपर लगा लगाकर कामाग्निकी तापको शान्त करती हैं, हे सखी ! हमारे भाग्यमें तो
पूर्णाः पुलिंद्य उरुगायपदाब्जरागश्रीकुंकुमेन दयितास्तनमंडितेन॥ तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन लिम्पन्त्य आनन कुचेषु जहुस्तदाधिम्॥१७॥ हंतायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्पर्शप्रमोदः॥ मानं तनोति सहगो गणयोस्तयोर्यत्पानीयसुयवसकन्दरकंदमूलैः॥१८॥ गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदारवेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः॥ अस्पंदनं गतिमतां पुलकस्तरूणां निर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम्॥१९॥
इतनाभी नहीं जो किसी प्रकार अपनी कामानिको शान्त करलें॥१७॥ एक गोपी और बोली कि, हे अबलाओ! हे सहेलियो! यह गोवर्द्धन पर्वत भगवान्के भक्तोंमें कोई परमभक्त जान पडताहैं? क्योंकि इसके ऊपर बलराम और घनश्यामके चरणारविन्द लगनेसे तृणादिक जो उप जते हैं वह तृणादिक नहीं होते, मेरी समझमें ऐसा आता है कि, उसके रोम खडे हो रहे हैं और अपने आनंदमें मग्न है, कृष्ण बलरामको अपने ऊपर आता देख, उनको शीतल जल हरी घास, कंद, मूल, फल भेंट करके उनका आदर सत्कार करता है॥१८॥ एक और बोली हे सखियो ! ग्वालबालोंको संग लेकर कृष्णचन्द्र बलराम जब वृन्दावनमें गायें चरातेहैं और सब त्रिलोकीके मोहनवालीको मधुर ध्वनिसे बजाते हैं
तब उस मनोहर बाँसुरीका शब्द सुनके सब जंगम स्थावरकी नाईं स्थिर होजाते हैं अर्थात् जहाँके तहाँ खड़ेकेखडे रहजाते हैं और अपने आनन्दमें मग्न हैं और वृक्षोंकी जंगमोंकेसी गति है, अर्थात् उनके रोमांच होजाते हैं. हे सखी! यह अद्भुत आश्चर्य है न आजतक कहीं आखोंसे देखा और न कानोंसे सुना, परंतु इतने परभी बलराम और नन्दलाल अपना ग्वालपन दर्शा रहे हैं कैसे? गायदोहनके समय गायोंके बाँधनेकी रस्सी शिरसे बाँध रहे हैं और पांशी कन्धेपर धर रहे हैं उस समयकी कुंजविहारीलालकी शोभा वर्णन करनेकी किसको सामर्थ्य है॥१९॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण! इसप्रकार वृन्दावनमें विहार करनेवाले वृन्दावनविहारीके चरित्रोंको गोपी परस्पर वर्णन करती करती कृष्णमय होगई॥२०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां वेणुगीतवर्णनं नाम एकविंशो
एवंविधा भगवतो या वृंदावनचारिणः॥ वर्णयंत्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः॥२०॥ इति श्रीभाग० महा० दशमस्कंधे पू० श्रीकृष्णवेणु- गीतवर्णनं नामैकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ हेमंते प्रथमे मासि नंद व्रजकुमारिकाः॥ चेरुर्हविष्यं भुंजानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्॥१॥ आप्लुत्यांभसि कालिंद्या जलांते चोदितेऽरुणे॥ कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानर्चुर्नृप सैकतीम्॥२॥ गंधैर्माल्यैः सुरभिभिर्बलिभिर्धूपदीपकैः॥ उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तंडुलैः॥३॥ कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि॥ नंदगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः॥४॥
ऽध्यायः॥२१॥ दोहा—बाइसवें अध्यायमें, वरणौ चीरचरित्र। गोपिनकों वरदान है, कीन्हो यज्ञ पवित्र॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजन्! हेमंतऋतुमें पहिला जो अगहन है उसमें सोलहसहस्र गोपकुमारी कन्याओंने मूंगभातका भोजन करके कात्यायनीदेवीका व्रत करना आरंभ किया॥१॥ और व्रत करके सर्योदयके समय यमुनाजलमें स्नानकर तटपर बैठ, बालूकी कल्याणीदेवीकी प्रतिमा बनाकर॥२॥ चन्दन, सुगंध, फूल, फल, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत और छोटी बड़ी सामग्रियोंसे देवीकी पूजा किया करती थीं॥३॥ हे कात्यायनी देवी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे अधीश्वरी! हे देवी! नन्दरायगोपके सुतको हमारा पति बना, हम बारंबार तुमको नमस्कार करती हैं॥४॥
वह सब गोपकुमारिका इस मंत्रका जप करके पूजा किया करतीं इसी प्रकार उनको पूजन करते करते एक महीना व्यतीत होगया श्रीमनमोहनमें उनका मन दिनरात लगा रहता था॥५॥ और नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर यही वर माँगती थीं कि, हमको नन्दकुमार श्यामसुन्दर वर मिलैं. इसप्रकार एक एकका नाम ले पुकार पुकारकर परस्पर हाथ पकड़ पकड़कर॥६॥ उच्चस्वरसे अपने प्राणप्यारे यशोदानन्दनका नाम लेतीं और गुणानुवाद गातीं यमुनाजीपर स्नान करनेको जाया करतीं॥७॥ एक दिन पहिले केसीनाई यमुनाके किनारेपर अपने अपने वस्त्र उतारकर सबने धर दिये और श्रीकृष्णचन्द्र के गुणगान कर करके यमुना जलमें विहार करने लगीं, तब योगेश्वरोके ईश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उनके
इति मंत्र जपंत्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः॥ एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः॥५॥ भद्रकालीं समानर्चुर्भू यान्नंदसुतः पतिः॥ उषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्यावद्धबाहवः॥६॥ कृष्णमुच्चैर्जगुर्यांत्यः कालिंद्यां स्नातुमन्वहम्॥ नद्यां कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत्॥७॥ वासांसि कृष्णं गायंत्यो विजह्नःसलिले मुदा॥ भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः॥८॥ वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये॥ तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः॥९॥ हसद्भिः प्रहसन्बालैः परिहासमुवाच है॥ अत्रागत्याबलाः कामं स्वंस्वं वासः प्रगृह्यताम्॥१०॥ सत्यं ब्रवाणिनो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः॥ न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः॥११॥ एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवोत सुमध्यमाः॥ तस्य तत्क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः॥१२॥
मनका मनोरथ जानकर॥८॥ अपनी मण्डलीके सखाओंको संग लेकर उनकी मनोकामना सिद्ध करानेके लिये यमुनाके किनारे पर पहुँचे और उन कन्याओंके वस्त्र लेकर झटपट कदम्बपर चढ़गये॥९॥ और बालकों समेत आप टठ्ठेमारमारकर हँसने लगे और अनेक प्रकारकी मस खरीकी बातें करने लगे कि, हे अबलाओ! हमारे समीप आओ और अपने वस्त्र लेजाओ॥१०॥ इस समय मैं ठठोलीसे नहीं कहता. सत्य कहताहूं तुम व्रत करनेसे बहुत दुर्बल होगई हो इस बातको मेरे सखा सब प्रकारसे जानते हैं॥११॥ मुझे कुछ दुर्भाव और आग्रह नहीं है, तुम
एक एक मेरे सन्मुख आती जाओ और अपने अपने वस्त्र लेतीजाओ, चाहे सब मिलकर एकबार लेजाओ और जबतक तुम ऐसा न करोगी मुझे अपने बाबानन्दकी सौगन्दहै तुम्हारे वस्त्र कभी न दूंगा॥१२॥ मनमोहनप्यारेकी मीठी मीठी बातें सुनकर परस्पर देख लज्जित हो, गोपियोंने जान लिया कि, ये परिहास करते हैं यह शोच विचार कण्ठतक शीतल जलमें जाड़ेकी मारी खड़ी काँपतीं रहीं थीं जब बहुत देर होगई तब गोपिका बोलीं॥१३॥ हे कृष्णचन्द्र! अन्यायकी वार्ता न करो तुम नंदजीके प्यारे पुत्र हो यह हम जानती हैं हे प्यारे! शीतसे दुःखित हम सब कांपरही हैं इस
व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योऽन्यं जातहासा न निर्ययुः॥ एवं ब्रुवति गोविंदे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः॥ आकंठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन्॥१३॥ मानयं भोः कृथास्त्वां तु नंपगोपसुतं प्रियम्॥ जानीमोंग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः॥१४॥ श्यामसुंदर ते दास्यः करवाम तवोदितम्॥ देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद्राज्ञे ब्रुवामहे॥१५॥ श्रीभगवानुवाच॥ भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ॥ अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छंतु शुचिस्मिताः॥१६॥ ततो जलाशयात्सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः॥ पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोतेरुः शीतकर्शिताः॥१७॥
लिये हमारे वस्त्र देओ॥१४॥ हे श्यामसुन्दर प्यारे! हम तुम्हारी दासी हैं, जो तुम कहोगे सोई करैंगी, परन्तु हमारी लाजके ग्राहक मत बनो जब लाजही जाती रही तो फिर शेष क्या रहा? हम आपके सामने निर्लज्ज होना नहीं चाहतीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, हे धर्मज्ञ! वस्त्र हमारे देदो नहीं तो हम राजा कंससे जाकर कहैंगी॥१५॥ गोपियोंकी रोषभरी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले कि, जो तुम मेरी दासी हो और मेरा कहना तुमको अंगीकार है तो हे मन्दमुसकानवालियो!तुम यहाँ आनकर अपने वस्त्र लेजाओ॥१६॥ जब कुछ उपाय न चलसका तब हारकर शरदीकी
मारी काँपती हुईं संकोच करती सम्पूर्ण गोपिका दोनों हाथोंसे अपने कुच और योनिको ढक जलसे बाहरको आईं, तब श्यामसुंदर बोले कि, दोनों हाथ जोडकर सूर्यनारायणको प्रणाम करो॥१७॥ उनके शुद्धभावको देख श्रीकृष्णमहाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनको शुद्धकन्या कुमारी देखकर उनके वस्त्र कन्धोंपर धरे मन्दमन्द मुसकाय प्रीति पूर्वक बोले॥१८॥ कि, हे शशिवदनियो! तुमने जो व्रत करके नंगी हो यमुनाजलमें स्नान किया यह वरुणदेवताका अपराध हुवा, उस पापके दूर करनेके लिये हाथ जोड़ माथेसे लगाय पृथ्वीमें प्रणाम करके अपने अपने वस्त्र पहन लो॥१९॥ ब्रजबालाओंने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बातें सुन वस्त्र त्यागके नग्न स्नान करना व्रतखण्डकरनेवाला मानके उसके
भगवानाह ता वीक्ष्य शुद्धभावप्रसादितः॥ स्कन्धे निधाय वांसासि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम्॥१८॥ यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता व्यगाहतै- तत्तदुदेवहेलनम्॥ बद्धांजलि मूर्ध्न्यपनुत्तयेंहसः कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम्॥१९॥ इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला मत्वा विवस्त्राऽऽप्लवनं व्रतच्युतिम्॥ तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां साक्षात्कृतं नेमुरव द्यमृग्यतः॥२०॥ तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान्देवकीसुतः॥ वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत्करुणस्तेन तोषितः॥२१॥ दृढं प्रलब्धा त्रपया च हापिताः प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः॥ वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं ता नाभ्यसूयन् प्रिय संगनिर्वृताः॥२२॥ परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसंगमसज्जिताः॥ गृहीतचित्ता नोचेलुस्तस्मिँल्लज्जायितेक्षणाः॥२३॥
पूर्ण करनेके लिये व्रतके और सब कर्मोंके फलदायक श्रीकृष्णभगवान्को नमस्कार किया क्योंकि वह सब पापोंके दूर करनेवाले हैं॥२०॥ देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने अधीनता करनेवाली गोपियोंको देखकर उनके वस्त्र देदिये॥२१॥ उनके संग बहुत छल किया, लाज उनकी छुटाई हँसी उनकी करी, खिलौनेंकी नाईं उन्हें खिलाया वस्त्र उनके चुरालिये, तौ भी उन गोपियोंने कृष्णको दोष नहीं दिया, क्योंकि उनको अपना प्राणनाथ समझकर उनके संग परमानंद मान रही थीं,॥२२॥ अपने अपने वस्त्र पहिरप्यारेके संग ऐसी वशीभूत होगईं और उनके चित्त हरगये, श्रीकृष्णकी ओर खड़ी खड़ी देखतीही देखती ऐसी विह्वल होगईं कि, वहांसे चलने तककी सामर्थ्य न रही॥२३॥
श्रीकृष्णचन्द्र सर्वान्तर्यामी भगवान् दामोदरने उन अबलाओंके व्रतका संकल्प जानलिया कि, इन गोपिकाओंने मेरे चरणस्पर्शकी चाहनासे यह व्रत कियाहै॥२४॥ तब श्रीकृष्णभगवान् बोले कि, हे सुशीलाओ! जिसलिये तुमने मेरा व्रत किया है उस मनोरथको लाजकी मारी तुम नहीं कहतीं, परन्तु तौ भी मैंने तुम्हारे मनोरथको जान लिया और मैंने तुम्हारे मनोरथका अनुमोदन किया, इसलिये तुम्हारा मनोरथ सत्य होगा॥२५॥ हे मनोरंजिनी। तुम अपने अपने घर जाओ, मुझ में मन लगानेवालोंकी कामना विषय भोगके लिये नही होती, जैसे भुनाहुआ अन्न दूसरी बार उपजनेके योग्य नहीं रहता॥२६॥ हे पूर्णव्रत करनेवालियो ! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा.हे पतिव्रताओ !जिस प्रयोजनके लिये तुमने यह व्रत किया और कात्यायनीदेवीकी आराधना की सो मैने जाना; अब जब शरदृतुकी रात्रि आवैंगी तब तुम सब मेरे संग विहार
तासां विज्ञाय भगवान्स्वपादस्पर्शकाम्यया॥ धृतव्रतानां संकल्पमाह दामोदरोऽबलाः॥२४॥ संकल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम्॥ मयाऽनुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति॥२५॥ न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते॥ भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते॥२६॥ याताऽबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथ क्षपाः॥ यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः॥ ध्यायंत्यस्तत्पदांभोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्व्रजम्॥२८॥ अथ गोपैः परिवृतो भगवान्देवकीसुतः॥ वृन्दावनाद्गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः॥२९॥ निदाघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः॥ आतपत्रायितान्वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः॥३०॥ हे स्तोक कृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जुन॥ विशालर्षभ तेजस्विन्देवप्रस्थ वरूथप॥३१॥
कीजियो, अब तुम इस समय अपने २ घरको जाओ॥२७॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, जिन गोपियोंकी मनोकामना पूर्ण होगई वह गोपी भगवान्की आज्ञा मान और उनके चरणकमलका ध्यान करती हुई अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने अपने घरोंको चली और उसी दिनसे आठोपहर यही मानती थीं कि, वनमालीके संग परमसुख देनेवाली शरदृतु कब आवेगी॥२८॥ तब देवकीनन्दन श्रीकृष्णभी ग्वालबालोंको सँग ले गायें चराते बलदेवजी सहित वृन्दावनसे भी और आगे बढगये॥२९॥ बडी तीक्ष्ण ग्रीष्मकी धूपमें अपनी छायासे छाया करनेवाले सघनवृक्षोंको देखकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मित्रोंसे कहा कि॥३०॥ हे स्तोक कृष्ण! हे अंशो! हे श्रीमन्! हे अर्जुन!
हे विशाल! हे ऋषभ! हे तेजस्विन्! हे देवप्रस्थ! हे वरूथप! ॥ ३१॥ इन बडभागी वृक्षोंको देखो तो यह कैसे भाग्यशाली हैं और सदा परोपकारके लिये एकान्तमें वास करते हैं, पवन, वर्षा, शीत, घाम आप सहते हैं और हमको इनसे बचाते हैं॥३२॥ अहो इन वृक्षोंका जन्म धन्य है, जिनसे हम सब लोग सुख पातेहैं और इनसे प्राणियोंकी जीविकाहैं जैसे किसी मनुष्यके पाससे याचक विमुख नहीं जाता ऐसेही इन वृक्षोंके समीप आनकर प्राणी विमुख नहीं जाता॥३३॥ इस संसारमें यह पत्र, फल, फूल, छाया, जड़, वल्कल, लकड़ी, सुगन्ध, गोंद, भस्म, कोयला कोंपल, आदिसे सब प्राणियोंकी मनोकामना पूर्ण करते हैं॥३४॥ इस संसारमें उन्हीं देहधारियोंका जन्म सफल है, जोकि प्राण, धन, बुद्धि
पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकांतजीवितान्॥ वातवर्षातपहिमान्सहंतो वारयंति नः॥३२॥ अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्॥ सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यांति नार्थिनः॥३३॥ पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः॥ गंधनिर्यासभस्मास्थितोक्मैः कामान् वितन्वते॥३४॥ एतावज्जन्म- साफल्यं देहिनामिह देहिषु॥ प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा॥३५॥ इति प्रवालस्तबकफलपुष्पदलोत्करैः॥ तरूणां नम्रशाखानां मध्येन यमुनां गतः॥३६॥ तत्र गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः॥ ततो नृप स्वयं गोपा कामं स्वादु पपुर्जलम्॥३७॥ तस्या उपवने कामं चारयंतः पशून्नृप॥ कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रुवन्॥३८॥ इति श्रीमद्भगवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीकृष्णकृतगोपीवस्त्रापहरणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
और वाणीसे परायेका भलाही करते रहते हैं॥३५॥ इसप्रकार हरे हरे पात, गुच्छ, फल, फूल, कोंपलोंके समूहोंसे जिनकी शाखा झुँकरही है उन वृक्षोंके बीचमें होकर श्रीकृष्णचन्द्र यमुनाकी ओरको गये॥३६॥ हे राजन्! उस यमुनाके तीर ग्वालबालोंने निर्मल जल मंगलरूप गायोंको पिलाया और आप भी पिया॥३७॥ हे महाराज! उस यमुना महारानीके किनारे पर गायोंको चराते हुए ग्वालबालोंको जब क्षुधा लगी तब घनश्याम बलरामजीके पास आनकर यह बात कहने लगे॥३८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां चीरहरणलीलावर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
दोहा—तेइसवें अध्यायमें, माँगो हरि यज्ञ अन्न। विप्रोंनने दीनों नहीं, दियो नारि ते धन्न॥ हे राम! हे राम! हे महापराक्रमी! हे कृष्ण! हे दुष्टोंके संहारकरनेवाले! यह भूख हमको बहुत सताती है आप इसके शान्त करनेका कोई उपाय करो॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! गोपोंने जब श्रीकृष्णसे इस प्रकारकी प्रार्थना की तब देवकीनन्दन भगवान्ने अपनी भक्तिवती ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंके ऊपर प्रसन्न होकर यह कहा॥२॥ हे सखाओ! वेदके पढ़नेवाले मथुरावासी ब्राह्मण स्वर्गकी इच्छा करनेके लिये आंगिरसनाम यज्ञ कररहे हैं, देवताओंका पूजन जहाँ होरहाहै वहाँ जाओ॥३॥ हे गोपो! वहाँ उस यज्ञमें जाकर भात माँग लाओ और जो तुमको भात माँगते लज्जा
गोपा ऊचुः॥ रामराम महावीर्य कृष्ण दुष्टनिवर्हण॥ एषा वै बाधते क्षुन्नस्तच्छान्ति कर्तुमर्हथः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति विज्ञापितो गोपैर्भगवान् देवकीसुतः॥ भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन्निदमब्रवीत्॥२॥ प्रयात देव यजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः॥ सत्रमांगिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया॥३॥ तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद्विस र्जिताः॥ कीर्तयंतो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम्॥४॥ इत्यादिष्टा भगवता गत्वाऽयाचंत ते तथा॥ कृतांजलि पुटा विप्रान् दंडवत् पतिता भुवि॥५॥ हे भूमिदेवाः शृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः॥ प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान्नो रामचोदितान्॥६॥ गाश्चारयंतावविदूर ओदनं रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ॥ तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः॥७॥
लगती हो तो तुम मेरा और मेरे भाई बलरामका नाम लेना कि, उनके भेजे हुए हम तुम्हारे पास भोजन माँगने आये हैं॥४॥ इसप्रकार श्रीकृष्ण भगवान्की आज्ञा मानकर वह गोपलोग वैसेही भोजन माँगनेलगे और ब्राह्मणोंको हाथ जोड़ पृथ्वीमें पडकर दण्डवत्कर कहा॥५॥ है भूमिदेव! हमारी बात सुनो? श्रीकृष्णमहाराजकी कृपासे सदा आपके यहाँ ऐसाही मंगल होता रहै, हम श्रीकृष्णके आज्ञाकारी हैं और जातिके गोप (अहीर) हैं श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार बलदेवजीके भेजेहुए हम आपके पास आये हैं सो आप उनको जानतेही होंगे॥६॥ श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई गायें चरानेको आपके निकटही आये हैं और इस समय उनको भोजनकी इच्छाहै और अधिक
भूखेहैं; इसलिये आपसे भातकी चाहनाहैहे ब्राह्मणो! हे धर्मके जानने वालोंमें उत्तम! तुम्हारे यहां भातहै, यदि आपकी श्रद्धा हो तो माँगनेवाले कृष्ण बलरामको भोजन देदीजे॥७॥ हे श्रेष्टब्राह्मणो! तुम चुप क्यों होरहे? जो तुम कहो कि, हम यज्ञके करनेवाले दीक्षित हैं। उनको हमारा भोजन करना नही चाहिये तो वहाँ यह विचारहै कि, दीक्षाके आरम्भसे लेकर पशुके हिंसने पहिले सौत्रामण्य यज्ञसे और ठौर दीक्षावालेके अन्न खानेसे कुछ दोष नहीं लगता. सो पशुका हिंसन तुम्हारे यहाँ हो चुका है, सौत्रामण्य यज्ञ आपके हैही नहीं, सो आपके अन्न भोजनमें हमको किसी प्रकार दोष नही हे॥८॥ इस प्रकार गोपोंने उनको शास्त्रानुसार समझाया भी, परन्तु तौ भी वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी वातको सुनी अनसुनी करगये क्योकि वह ब्राह्मण क्षुद्रफल वाले स्वर्गके जानेकी इच्छा कर रहे थे, वह क्लेशकारी कर्ममें अपनी
दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः॥ अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति॥८॥ इति ते भग वद्याच्ञां शृण्वतोऽपि न शुश्रुवुः॥ क्षुद्राशा भूरिकर्माणो वालिशा वृद्धमानिनः॥९॥ देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्र तंत्र र्त्विजोऽग्नयः॥ देवता यजमानश्च ऋतुधर्मश्च यन्मयः॥१०॥ तं ब्रह्म परमं साक्षाद्भगवंतमधोक्षजम्॥ मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे॥११॥ न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परंतपः॥ गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्ण रामयोः॥१२॥ तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः॥ व्याजहार पुनर्गोपान् दशयन लौकिकीं गतिम्॥१३॥
मूर्खतासे लग रहेथे और अपने आपको बड़ा ज्ञानी और महात्मा जानतेथे॥९॥ देश काल अलग अलग, चरु पुरोडाशादिक सामग्री मंत्र, तंत्र, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, धर्मफल, यह सब कृष्णमय है॥१०॥ सो इंद्रियोंसे परे साक्षात् परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको उन कुत्सित बुद्धिवाले मूर्ख देहाभिमानी देहकोही आत्मा माननेवाले ब्राह्मणोने अज्ञानवश हो उनको कुछ भी नहीं पहिचाना मनुष्यही जानके अवज्ञा करी॥११॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे परंतप! उन ब्राह्मणोने चुप साथ ली, न तो अपने मुखसे हां की और न ना की, तब गोपनिराश होकर लौट आये और श्रीकृष्ण, बलरामके पास आनकर कहा कि भले ब्राह्मणोके पास भेजा, उन्होने कुछ भी नहीं दिया, देखो हमारा अपमान भी हुआ और भोजन भी नही मिला, अब क्या उपाय करैं? भूखके मारे तो प्राण निकले जाते हैं॥१२॥ जगदीश्वर श्रीकृष्णभगवान् इस बातको सुनकर हँसे और फिर गोपोसे कहा कि, कार्यवालेको निराश होना नहीं चाहिये और माँगनेवालेको
मान कहाँ? क्योंकि उसका मान तो सदैवही भंग रहता है। लौकिकरीति दिखलानेके लिये फिर श्रीकृष्णचन्द्रने गोपीसे कहा कि॥१३॥ अव तुम फिर जाओ और उन ब्राह्मणोंकी स्त्रियोसे कहो कि, कृष्ण बलदेव दोनों भाई गायें चराते चराते यहाँ आगये हैं और भूखे हैं वह तुमको ‘मुँह माँगा भोजन देकर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करैंगी, क्योंकि वह शरीरसे तो घरमें वास करैहैं, परन्तु उनका मन मुझमेंही लग रहा है, इसीसे मुझमें उनका बड़ा प्यार है॥१४॥ श्रीकृष्णकी बात सुनकर ग्वाल फिर गये, देखा तो पत्नीशालामें सब ब्राह्मणी शृंगार किये बैठी थीं उनके पास जाकर गोपोंने नमस्कार कर अधीनतासे यह वचन कहा॥१५॥ हे ब्राह्मणकी भार्याओ! तुमको नमस्कार है, तुम हमारी एक बात सुनो, श्रीकृष्णचन्द्र आपके समीपही आगये हैं, उन्होंने हमको तुम्हारे पास भेजाहै॥१६॥ ग्वाल बाल और बलदेवजीको संगलेके गायें चराते चराते
मां ज्ञापयत पत्नीभ्यः ससंकर्षणमागतम्॥ दास्यंति काममन्त्रं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया॥१४॥ गत्वाऽथ पत्नी शालायां दृष्ट्वाऽऽसीनाः स्वलंकृताः॥ नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन्॥१५॥ नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि नः॥ इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम्॥१६॥ गाश्चारयन स गोपालैः स रामो दूरमागतः॥ बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम्॥१७॥ श्रुत्वाऽच्युतमुपायांतं नित्यं तद्दर्श- नोत्सुकाः॥ तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसंभ्रमाः॥१८॥ चतुर्विधं बहुगुणमन्नमादाय भाजनैः॥ अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः॥१९॥
इतनी दूर चले आये हैं, इस समय भूखे हैं और उनके मित्र हम भी भूखे हैं, सो कुछ भोजन चाहते हैं तुम कृपा करके हमको दो॥१७॥ नित्य श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी चाहनावाली और कृष्णचन्द्रकी कथामें तन, मन, धन, लगानेवाली, वह ब्राह्मणोंकी स्त्रिये व्रजभूषणका आना सुनकर अत्यन्त हर्षमानहुईं, क्योंकि उनका मन तो पहिलेही श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दमें लग रहा था॥१८॥ बड़े बड़े थालोंमें सुन्दर सुगन्ध युक्त चारप्रकारका भोजन भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य ( चने, चवैना, रोटी, पूरी यह भक्ष्य) ( दाल, भात, इत्यादि भोज्य ) ( कढी, क्षीर, इत्यादि लेह्य ) ( ऊख, आम, नींबू, इत्यादि चोष्य ) सब ब्राह्मणोंकी स्त्रियें अपने मनमोहनप्यारेके लिये भोजन लेलेकर ऐसे धाई जैसे नदियें
समुद्रमें को जाती हैं॥१९॥ उनके पति, भाई, बन्धु, पुत्रोंने बहुतेरा रोका परंतु वह न रुकीं. क्योंकि उनके मन तो श्रीकृष्णचन्द्रके चरणार विन्दमें बरसोंसे लग रहे थे तव उन ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंने॥२०॥ उसी अशोक वृक्षके नवपल्लवोंसे शोभायमान यमुनाके निकट उपवनमें ग्वाल बालोंको संग लिये भाई बलराम समेत मनमोहनप्यारेको फिरते देखा॥२१॥ श्यामस्वरूप, पीतवसन धारन किये, वनमाला पहिरे, मोर पुच्छका मुकुट शीशपर धरे, खरिया, गेरूके छाप लगाये, धातु मूँगा पहिरे, नटवर वेषबनाये, सखाके कण्ठमें भुजा डाले, दूसरे हाथमें कमलके फूलको घुमाते, कानोमें कमलके फूल लटकाये, कपोलोंपर अलके छिटकाये, मन्दमन्द मुसकाते श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥२२॥ हे राजन्! जैसे जैसे गुण कृष्ण प्यारेके अपने कानोंसे सुनके देखनेकी अत्यन्त अभिलाषाथी वैसेही प्रत्यक्षजाकर अपने नेत्रोंसे देखे
निषिध्यमानाः पतिभिर्भ्रातृभिर्बंधुभिः सुतैः॥ भगवत्युत्तमश्लोके दीर्घश्रुतधृताशयाः॥२०॥ यमुनोपवनेऽशोकन वपल्लवमंडिते॥ विचरंतं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः॥२१॥ श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यवर्हधातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे॥ विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्प- लालककपोलमुखाब्जहासम्॥२२॥ प्रायः श्रुतप्रियतमो दयकर्णपूरैर्यस्मिन्निमग्नमनसस्तमथाक्षिरंध्रेः॥ अंतः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं प्राज्ञं यथाभिमतयोर्विजहुर्नरेंद्र॥२३॥ तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया ॥ विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः॥२४॥ स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम्॥ यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः॥२५॥
और अपने आपको परमबडभागी समझकर उस व्रजराजके अनूप स्वरूपको नेत्रोंके द्वारा हृदयमें लेजाकर बहुत देरतक आलिंगन किया और मनमोहनप्यारेको वहीं रहनेको स्थान दे सर्वत्र तापको त्याग दिया, जैसे अहंकार वृत्तियाँ सुषुप्ति अवस्थाकी साक्षी हैं उनको आलिंगन करके और उन्हीं में लीन होकर सब तापको त्याग देती हैं॥२३॥ पुत्रादिक गृहादिककी सब आश छोड़कर मेरा दर्शन करनेके लियेआई हैं उन ब्रह्मपत्नियोंको देखकर सबकी बुद्धिकी परीक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचंद्र मुसकराके बोले॥२२॥ कि, हे बडभगिनीयो! तुमने बहुत अच्छा किया जो यहाँ आई आओ आओ हमारे समीप बैठो। इस समय हम तुम्हारी क्या शुश्रुषा करैं? हमारे लिये क्या आज्ञा है? हमारा
दर्शन करनेके लिये आई हो सो तुमको योग्य है, तुम हमको भूखा समझकर इस महानिर्जन वनमें भोजन लेकर आई, इससे अधिक और कुछ दया है? इसके बदलेमें हम तुम्हैंक्या दें? जो इस समय हमारा घर भी धोरे होता तो कुछ पान फूल तुम्हारे आगे धरते सो वृन्दावनभी हमारा यहाँसे बहुत दूर है, हमसे आपकी कुछ भी सेवा न बन पडी, इस बातका बड़ा पछतावाहै और हमारा मुख नही जो आपके प्रेमकी और परिश्रमकी प्रशंसा करसकैं, इस समय हम सब प्रकारसे लाचार हैं॥२५॥ अपने स्वार्थके देखनेवाले ज्ञानी पुरुष आत्मारूप प्रिय जो मैं हूँ, सो मुझमें फलकी बुद्धि अनिच्छा करके निरन्तर यथार्थ साक्षात् भक्ति करते हैं॥२६॥ परन्तु आत्मा सबसे अधिक प्रिय है. विचार लोप्राण, बुद्धि, मन, तनु, धन, स्त्री, पुत्र, आदिक सब वस्तु जिस आत्मा के सम्बन्धसे प्रिय लगते हैं फिर भला उस आत्मासे बढ़कर और कौनसी वस्तु प्रिय है॥२७॥
नन्क्द्ध्वामयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शनाः॥ अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा॥२६॥ प्राणबुद्धिमनस्स्वात्मदारापत्यधनादयः॥ यत्संपर्कात्प्रिया आसंस्ततः कोन्वपरः प्रियः॥२७॥ तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः॥ स्वसत्रं पारयिष्यंति युष्माभिर्गृहमेधिनः॥२८॥ पत्न्य ऊचुः॥ मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम्॥ प्राप्ता वयं तुलसिदामपदावसृष्टं केशैर्निवोढुमतिलंघ्य समस्तबंधून्॥२९॥
इसलिये हे सुशीलाओ! अब तुम अपनी यज्ञशालामें जाओ तुम कृतार्थ होगईं पति तुम्हारे गृहस्थ हैं, जबतक तुम न जाओगी तबतक यज्ञ पूर्ण न होगा, क्योंकि, विना स्त्रीके यज्ञ पूरा नहीं होता इसलिये वह लोग यज्ञको तुम्हारे साथही पूरा करेंगे॥२८॥ विप्रपत्नियोंने कहा कि, हे नाथ! आपको अपने कोमल मुखारविन्दसे ऐसे कठोर वचन नहीं कहने चाहिये, क्योंकि आपहीने गीतामें कहा है, ( न मे भक्तः प्रणश्यति ) अर्थात् मेरे भक्तोंका नाश नहीं होता ( न स पुनरावर्तते ) अर्थात् मुझमें प्राप्त होकर फिर लौट नहीं आता, यह आपहीकी आज्ञा है, फिर अपनी प्रतिज्ञाको सत्य क्यों नहीं करते? इधर उधर क्या देख रहे हो ? तुमने अपने चरणसे जो तुलसीकी माला ठुकरादी है उसको बड़े आदर सत्कारसे शिरपर चढ़ानेके लिये अर्थात् आपके चरणारविन्दकी सेवा करनेके लिये आपकी शरण आई हैं, अब सब बन्धुजनोंको त्यागकर आपके चरण शरण हैं॥२९॥
हे दीनदयालु ! हम यही चाहती हैं कि, आपहीके चरणारविन्दमें हमारे देह पडे रहें, स्वर्गादिकका सुखभोग हम नहीं चाहतीं, हमको तो अपना दासभावही अच्छा है॥३०॥ द्विजपत्नियोंकी प्रेम प्रीति भरी मधुर वाणी सुनकर मनहरण प्यारे स्नेहयुक्त मनोहर वचन बोले कि, तुम निःसन्देह अपने घर जाओ, तुम्हारे पति, पिता, तात, माता, भ्राता, पुत्र, तुम्हारी कुछ निंदा न करेंगे और संसारमें भी कोई मनुष्य तुमको दोष न लगा वेगा, देवताओंको साक्षात् दिखलाकर कहा कि, सब देवता और मनुष्यों को मेरा कहना स्वीकार है॥३१॥ इस संसारमें शरीरके स्पर्श होनेसे प्रीति नहीं रहती और अनुराग भी नहीं बढ़ता, इसलिये, तुम घरमें रहकर मुझमें मन लगाओ तो बहुत शीघ्र मुझको पाओगी॥३२॥ ( मेरा स्मरण, दर्शन, ध्यान, कीर्त्तन करने से जैसा भाव मुझमें होता है वैसा समीप रहनेसे नहीं होता, इसलिये तुमको उचित है कि, शीघ्र अपने
गृह्णंति नो न पतयः पितरौ सुता वा न भ्रातृबंधुसुहृदः कुत एव चान्ये॥ तस्माद्भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो नान्या भवेद्गतिमरिंदम तद्विधेहि॥३०॥ श्रीभगवानुवाच॥ पतयो नाभ्यसूयेरन्पितृभ्रातृसुतादयः॥ लोकाश्च वो मयो पेता देवा अप्यनुमन्वते॥३१॥ न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यंगसंगो नृणामिह॥ तन्मनो मयि युंजाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥३२॥ ( स्मरणाद्दर्शनाद्ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्॥ न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्॥ ) श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्ता मुनिपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः॥ ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन्॥३३॥ तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवंतं यथाश्रुतम्॥ हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबंधनम्॥३४॥ भगवानपि गोविंदस्तेनैवान्नेन गोपकान्॥ चतुर्विधेनाऽऽशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः॥३५॥
मखभवनको जाओ )॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, इसप्रकार जब श्रीकृष्णने द्विजपत्नियोंको समझाया तब वह द्विजांगना यज्ञशालामें पहुँची और उन ब्राह्मणोंने कुछ अपराध उनको न लगाया, निर्दोष समझकर अपनी स्त्रियोंके साथ आनन्दपूर्वक यज्ञ समाप्त किया॥३३॥ जिस समय सब स्त्रिये श्रीकृष्णके पासको भोजन लेकर चलीं उस समय एक स्त्रीके पतिने अपनी स्त्रीको जानेसे रोक लियाथा, उसने जैसा श्रीकृष्णका रूप, रंग, स्वभाव कानोंसे सुन रक्खाथा उसी रूपका ध्यानकर हृदयमें आलिंगन करके कर्मोंके अधीन जो देह था उसको त्यागकर चैतन्यस्वरूप भगवद्रूपमें लय होगई॥३४॥ और जो जो पक्वान्न मिठाई द्विजपत्नियोंने लाइ थीं उन चारप्रकारके व्यंजनोंको यमुनाके निकट
कुंजोंकी छायामें बैठ, अतिप्रसन्न हो श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी अपने हाथसे भोजन करातेथे और सब सखा उन भोजनोंकी प्रशंसा कर करके प्रेमसे भोग लगारहे थे. जब सब सखा भोजन कर चुके तो पीछे अपने आप भी भोजन करके ब्राह्मणियोंकी बड़ी सराहना की॥३५॥ इस प्रकार मनुष्यरूप धारण कर लीला करके लोगोंकी सदृश गोप गोपियोंको आनंददेके आपभी उनके साथ रमण करते भये॥३६॥ इसके उपरान्त वह ब्राह्मण अपने भोजन न देनेके अपराधको स्मरण करके दुःख पाते भये क्योंकि श्रीकृष्ण और बलदेवको सामान्य मनुष्य समझके अन्न नहीं दिया॥३७॥ उन अपनी पत्नियोंकी श्रीकृष्ण भगवान् मेंअलौकिक प्रीति देखकर और अपने आपको भक्तिहीन समझकर
एवं लीलानरवपुर्नृलोकमनुशीलयन्॥ रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः॥३६॥ अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः॥ यद्विश्वेश्वरयो- र्याच्ञामहन्म नृविडंबयोः॥३७॥ दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्ण भक्तिमलौकिकीम्॥ आत्मानं च तया हीनमनुतप्ता व्यगर्हन्॥३८॥ धिग जन्म नस्त्रिवृद्विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम्॥ धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे॥३९॥ नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी॥ यद्वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः॥४०॥ अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद्गुरौ॥ दुरंतभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान्गृहाभिधान्॥४१॥
अत्यन्त दुःखी हो बारम्बार अपने आपको धिक्कार दे देकर अपनी निन्दा करते थे॥३८॥ शुद्ध माता पितासे, सावित्री यज्ञोपवीतहुएसे, यज्ञकी दीक्षा लियेसे यह तीन प्रकारका हमारा जन्म है इसको हमारी विद्याको हमारे कर्मको और हमारी चतुराईको बारम्बार धिक्कार हमारे व्रत करनेको धिक्कार है हमारे अनेक शास्त्रके पढ़नेको धिक्कार हमारे कुलको और क्रिया दक्षताको भी धिक्कार है, क्योंकि जिससे जगदीश्वर भगवान्से विमुख हुए इसलिये हमको धिक्कार है और इस हमारी अधम बुद्धिको धिक्कार है॥३९॥ निश्चय है कि, भगवान् वासुदेवकी माया योगियोंको मोह उपजानेवाली है, इस मायासे मनुष्योंमें गुरु ब्राह्मण जो हम हैं सो स्वार्थमें मोहित
होरहेहैं हाय अहो बड़े आश्चर्यकी बात है देखो। जगद्गुरु श्रीकृष्णचन्द्रमें स्त्रियोंकी कैसी अलौकिक भक्ति है देखो। जिस भक्तिने गृहरूप मृत्युकी, फाँसियोंको काट दिया॥४०॥४१॥ तो विचारतो करो यह स्त्रीकी जाति, कैसी अशुद्ध है न तो इनके उपवीतसंस्कार है न गुरुके समीप वास हैन तप हैं न जप है न आत्माका विचार है न पवित्रता है न सुकर्म है॥४२॥ तो भी योगीश्वरोंके ईश्वर परपुरुष श्रीकृष्णभगवानमें जैसी इन अबलाओंकी अचल भक्ति है ऐसी हम स्नान सन्ध्या-जप तप करनेवालोंकी भी नहीं तो धिक्कार है हमारे इस संस्कार और यज्ञव्यवहारको॥४३॥ हम लोग कुछ भी अपने अर्थको नहीं पहिचानते घरके व्यवहारमें भूल रहे हैं और ऐसे अचेतहैं कि आगे पीछेकी कुछ भी सुधि नहीं, महात्माओंके आनन्द देनेवाले श्रीकृष्ण
नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि॥ न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥४२॥ अथापि उत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे॥ भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्करादिमतामपि॥४३॥ ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया॥ अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः॥४४॥ अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्याशिषां पतेः॥ ईशितव्यैः किमस्माभिरीशस्यैतद्विडंबनम्॥४६॥ हित्वाऽन्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशयाऽ- सकृत्॥ आत्म दोषापवर्गेण यद्याच्ञा जनमोहिनी॥४६॥ देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रविजोऽग्नयः॥ देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥४७॥ स एष भगवान्साक्षाद्विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः॥ जातो यदुष्वित्यशृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे॥४८॥
भगवान्ने गोपोंके वचनोंसे हमैंसचेत किया हाय! तो भी हम मूर्ख न चेते इसमें किसीका कुछ दोष नहीं यह सब हमारे कर्मोका फल है॥४४॥ पूर्ण जिनका मनोरथ मोक्षादिक सब मनोरथोंके अधीश्वर श्रीकृष्णभगवान् उनको हमसे मायाके वशीभूत पामर जीवोंसे क्या प्रयोजन था? केवल भातका मांगना तो ईश्वरका कौतुक था॥४५॥ देखो! त्रिभुवनेश्वरी लक्ष्मी ब्रह्मादिक देवता और सब संसारको छोड़कर चरणारविन्दके स्पर्शकी चाहना करके अपना चंचलपना और दोष दूर करनेके लिये जिनका दिन रात भजन करती हैं उन श्रीकृष्णका माँगना केवल हम लोगोंको मोहका उत्पन्न करनेवाला है॥४६॥ देश काल अलग अलग चरुपुरोडाशादिक द्रव्य, मंत्र, तंत्र, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, धर्म, यह
सब श्रीकृष्णका रूप है। सो साक्षात् श्रीकृष्णभगवान् विष्णु योगेश्वरोंके ईश्वरने यदुकुलमें आनकर जन्म लियाहै, यह बात हमने पण्डितलोगोंके मुखसे सुनी थी, परन्तु तो भी हम जान बूझकर मूर्ख अज्ञानी हो गये॥४७॥४८॥ कोई कोई ब्राह्मण कहनेलगे कि, अहो हम बड़े धन्यहैं क्योंकि हमारी ऐसी भक्तिमती स्त्री हुईं कि, जिनकी भक्तिके प्रभावसे कृष्ण भगवानमें हमारी भी दृढ़ भक्ति हुई॥४९॥ अकुण्ठ बुद्धि जो आप श्रीकृष्ण भगवान हैं, सो आपके लिये बारम्बार नमस्कार है, जिसकी मायासे मोहितबुद्धि हो हम कर्म मार्गमें भटकते फिरते हैं॥५०॥ संसारकी मायासे जो हमारा चित्त मोहित हो रहाहै और आपकी महिमाको हम नहीं जानते, ऐसे जो हम अज्ञनी लोगहैं सो हे दीनदयालु! हमारा अपराध क्षमा
अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः॥ भक्त्या यासां मतिर्जाता ह्यस्माकं निश्चला हरौ॥४९॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु॥५०॥ स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्म नाम्॥ अविज्ञातानुभावानां क्षंतुमर्हत्यतिक्रमम्॥५१॥ इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः॥ दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्भीता न चाऽचलन्॥५२॥ इति श्रीमद्भाग० म० द० पू० यज्ञपत्न्युद्धरण- दीक्षितानुतापनं नाम त्रयोविंशोध्यायः॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः॥ अपश्यन्निवसन्गोपानिंद्रयागकृतोद्यमान्॥१॥ तदभिज्ञोऽपि भगवान्सर्वात्मा सर्वदर्शनः॥ प्रश्रयावनतोऽपृच्छद्वृद्धान्नन्दपुरोगमान्॥२॥
कीजै॥५१॥ श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्के अपराधी जो ब्राह्मण हैं, उनको अपने अपराधको स्मरण करके कृष्ण बलदेवके दर्शनकी इच्छा हुई परन्तु कंसके भयके मारे नही जासके ॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां यज्ञपत्न्युद्धरणं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ दोहा-चौविसवें अध्यायमें, इन्द्र यज्ञको त्याग। गोवर्द्धन पूजन कियो, सबन सहित अनुराग॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले हे राजन्! श्रीकृष्ण भगवान् अपने बड़े भाई बलदेवजी सहित सुखसे रहते थे कि, इन्द्रके यज्ञकी तय्यारी होती देखते भये॥१॥ सब प्राणियोंके आत्मा भगवान् सर्वव्यापक सब बातोकेजाननेवाले, जानते भी थे कि इन्द्रके यज्ञका प्रबंध होरहा है तो भी नंदरानीसे बूझने
लगे किं. माताजी आज क्या है? जो घर घर पकवान मिठाई बन रही है और तुम भी बडी धूमधाममें हो ? मुझे समझाकर कहो कि, यह क्या भेद है ? जो मेरे मनका संशय मिटै? यशोदा बोली कि, पुत्र! इस समय मुझको सावकाश नहीं यह सब वृत्तान्त तुम अपने पितासे जाकर बूझो वह तुम्हारा सब सन्देह दूर करदेंगें. यह सुन नन्दजीके पास जाकर श्रीकृष्ण बोले॥२॥ कि, पिता आज क्या है? जो सब ब्रजमें कड़ाही खड़क रही है और अनेक अनेक प्रकारके व्यञ्जन बन रहे हैं, सब ठौर ठौर! कोलाहल मचरहा है और ग्वालबाल चारों ओर भागे भागे फिरते हैं, क्या उत्सव है? किस देवताके नामको यज्ञ है? क्या इसका फल है? कौनसे देवताकी पूजन है? क्या क्या उसमें गुण हैं ? कौन इसका अधिकारी है ? किस किस वस्तुसे यज्ञ होता है॥३॥ हे पिता! मुझे इस बातके सुननेकी बड़ी अभिलाषा है. सज्जनपुरुष सब प्राणियोंमें और स्थानोंमें आत्माको
कथ्यतां मे पितः कोऽयं संभ्रमो व उपागतः॥ किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥३॥ एतद्ब्रूहि महान्कामो मह्यंशुश्रूषवे पितः॥ न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह॥४॥ अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्त विद्विषाम्। उदासीनोऽरिवद्वर्ज्य आत्मवत्सुहृदुच्यते॥५॥ ज्ञात्वाऽ- ज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति॥ विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्॥६॥ तत्र तावत्क्रियायोगो भवतां किं विचारितः॥ अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छत साधु भण्यताम्॥७॥
देखते हैं उनसे कोई कर्म छिपा नही है और छिपानेके योग्य भी नहीं है॥४॥ साधु पुरुष अपना बिराना कुछ नहीं समझते उनकी समदृष्टि है, मित्र उदासीन। वा वैरी भी उनका कोई नहीं होता, उदासीन तो शत्रुकी सदृश वर्जित है, सुहृद् आत्माकी समान मानना चाहिये, इससे उसको अवश्य सम्मतिमें साथ करले॥५॥ यह प्राणी जानकर भी कर्म करता है और बिना जाने भी कर्म करता है परंतु जानकर जो करता है उसका फल तत्काल मिलता है और जो बिना जाने कर्म करता है उसका कार्य किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता॥६॥ आपने जो यह यज्ञका अनुष्ठान कर रक्खा है सो शास्त्रकी रीतिसे किया है, अथवा लोकरीतिसे किया है और यह रीति आपके यहाँ परम्परासे चली आई है वो आज
किसीने नई बताई है, यह आपसे मेरा निवेदन है कि, आप कृपाकर मुझसे कहो॥७॥ श्रीकृष्णके गम्भीर वचन सुनकर नन्दगायजी बोले कि वेटा! क्या यह वृत्तान्त तुमने आजतक नहीं सुना? मेघरूप भगवान् इन्द्र है और मेघही उनकी प्यारी मूर्त्ति हे यही प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाला हे और संतोष देनेवाले जलकी वर्षा करता है॥८॥ मेघोका राजा भगवान् इन्द्र है उसको हम भी और संसारके दूसरे पुरुषभी उसी मेघ पतिके बरसाये जलसे उत्पन्न हुवा जो अन्नहै उसीसे यह यजन करते हैं, उसके करनेसे देवता, पितृ, प्रसन्न होते हैं. अनेक प्रकारकी ऋद्धि सिद्धि उत्पन्न होती हैं वन-उपवन फूलते हैं, तृण, घास उत्पन्न होताहै, उससे सब पशु, पक्षी, जीव, जन्तु आनन्द पातेहै और उस यजन करनेके उपरान्त जो
तंद उवाच॥ पर्जन्यो भगवानिंद्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः॥ तेऽभिवर्षतिः भृतानां प्रीणनं जीवनं पयः॥८॥ तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम्॥ द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥१॥ तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहे तवे॥ पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः॥१०॥ य एव विसृजेद्धर्म पारंपर्यागतं नरः॥ कामाल्लोसाद्भयाद्वेषा त्सवै नाप्नोति शोभनम्॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ वचो निशम्य नन्दस्य तथाऽन्येषां व्रजौकसाम्॥ इन्द्राय मन्युं जनयन्पितरं प्राह केशवः॥१२॥ श्रीभगवानुवाच॥ कर्मणा जायते जंतुः कर्मणैव विलीयते॥ मुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥१३॥
शेषान्नरहजाता है उसीकी प्राप्तिके लिये अपनी जीविका करके धर्म करते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्षका सेवन करते है॥१॥१०॥ है पुत्र! यह इन्द्रयज्ञकी रीति हमारे यहाँ परम्परासे चली आई है, कुछ आज ही किसी पण्डिनने नई नहीं बताई जो धर्म परम्परासे बला आयाहै और जोमनुष्य काम, लोभ, भय, द्रोहसे उसको छोड़ देते हैं उन पुरुषोंका कभी कल्यान नहीं होता॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हेपरीक्षित ! नंदगाय और वृद्ध वृद्ध व्रजवासियोंके एसे वचन सुनकर इन्द्रके ऊपर अत्यन्त क्रोधकरके उसका मान वडानेके लिये श्रीकृष्णभगवानने अपने पिता नन्दादिकसे कहा॥३२॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे पिताजी ! कर्महीसे प्राणी जन्म लेताई और कर्महीसे देहका त्याग करताहै, दुःख, सुख,भय कल्यान्,
कुशल यह सब कर्महीके अधीन हैं॥१३॥ कोई कोई मतवाले ऐसा कहते हैं कि, ईश्वर प्राणियोंके किये हुए कर्मोंके फलका देनेवाला है इससे तो यह सिद्ध हुवा कि, ईश्वर कमोंके वशीभूत है जैसा कर्म जिसने किया वैसाही फल मिला ईश्वर अपनी ओरसे कुछ नहीं करसक्ता, इस बातसे यह निश्चय हुवा कि, फलकी सिद्धि देनेवाला कर्मही प्रधान रहा, इसलिये कर्मही जब मुख्य पर ठहरा तो फिर ईश्वर क्या वस्तु है? उसे तो ऐसा समझो कि, जैसे बकरीके कण्ठके स्तन॥१४॥ जब कर्मही प्रधान ठहरा, तो इन्द्रसे क्या प्रयोजन? जबसबप्राणी अपने अपने कर्मोंके अनुसार भोग भोगते हैं, पूर्वजन्मके संस्कारजन्य जो कर्म हैं उनको इन्द्रभी किसी प्रकार नहीं घटा बढ़ा सक्ता॥१५॥ प्राणी स्वभावहीके वशीभूत हैं और स्वभावहीको वर्तै हैं देवता, असुर, मनुष्य यह सब स्वभावहीके वशमें हैं और कर्मकी प्रवृत्ति भी स्वभावके अधीन है तो फिर उस प्रवृत्तिमें ईश्वरकी
अस्तिचेदीश्वरः कश्चित्फलरूप्यन्यकर्मणाम्॥ कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः॥१४॥ किमिंद्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्॥ अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥१५॥ स्वभावतंत्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते॥ स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥१६॥ देहानुच्चावञ्जंतुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा॥ शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः॥१७॥ तस्मात्संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत्॥ अंजसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्॥१८॥ आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति॥ न तस्माद्विंदते क्षेमं जारं नार्यसती यथा॥१९॥
कुछ आवश्यकता नहीं॥१६॥ यह जीव कर्महीसे छोटे बड़े देहको पाता है और त्यागता है. कर्मही शत्रु है, कर्मही मित्र है, कर्मही गुरु है, कर्मही ईश्वर है॥१७॥ इस लिये स्वभावमें स्थित होकर अपने कर्मोंका अनुष्ठान करे. यही मुख्य है. यद्यपि देवताके नामसे यज्ञ, व्रत, पूजन, हवन, किया बस उस करनेहीका नाम कर्म है. यद्यपि तुमको यह सन्देह हो कि, बिना देवताके हमारा कार्य सिद्ध नहीं होसक्ता, देवताही हमारा कार्य करता है, तो भी देवता कर्मकेही अधीन ठहरा, देखो? तुम किसी देवताका नाम लेकर अग्निपर दूधका पात्र रखदो, वह दूध औटजायगा और देवताका नाम नहीं भी लो तो भी औटजायगा, परंतु बिना अग्निपर धरे किसी प्रकार नहीं औटसक्ता, तो मुख्य कर्मही ठहरा, क्योंकि बिना कर्म कुछ नहीं होसक्ता अनायास पूर्वक कर्मकी पूजाकरे और जिससे जिस पुरुषका निर्वाह हो वही उसका देवता है॥१८॥ जो पुरुष एक पदार्थका सेवन
करके दूसरे पदार्थका सेवन करते हैं, वह पुरुष कभी कल्याणको नहीं पाते. जैसे व्यभिचारिणी स्त्री परपुरुषका सेवन करके कल्याणको नहीं पाती॥१९॥ हे पिता! चारो वर्णको चाहिये कि, अपने अपने धर्मपर आरूढ़ रहें. ब्राह्मणको चाहिये वेद पढ़े और उसीसे अपनी आजीविका करै. क्षत्रियको चाहिये कि, पृथ्वीकी रक्षा करै. वैश्य व्यापारादिकसे अपना उदर पूर्ण करै और शुद्रको चाहिये कि. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यकी सेवा करके अपना प्रतिपालन् करै॥२०॥ खेती, वाणिज्य, गोरक्षा और व्याजलेना यह चार प्रकारकी वैश्यकी जीविका है. इन चारोंमें हमारे तो सदा गायोसेही जीविका है॥२१॥ हे पिता! ऐसा कभी मत समझना कि हमारी गायोंकी वृद्धि और आजीवका इन्द्रहीके अधीन है, क्योंकि सत्त्व गुण, रजोगुण, तमोगुण इन्हीं तीन गुणोसे विश्वका पालन उत्पत्ति नाश होता है. इस रजोगुणसे स्त्री पुरुषसे मिलके त्रिविध जगत् उत्पन्न होता
वर्त्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः॥ वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया॥२०॥ कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तुर्यमुच्यते॥ वार्त्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्॥२१॥ सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यंतहेतवः॥ रजसोत्पद्यते विश्वमन्योन्यं विविधं जगत्॥२२॥ रजसा चोदिता मेघा वर्षंत्यंबूनि सर्वतः॥ प्रजास्तैरेव सिद्ध्यंति महेंद्रः किं करिष्यति॥२३॥ न नः पुरो जनपदा न ग्रामा न गृहा वयम्॥ नित्यं वनौक- सस्तात वनशैलनिवासिनः॥२४॥ तस्माद्गवां ब्राह्मणानामद्रेश्चारभ्यतां मखः॥ य इंद्रयागसंभारास्तैरयं साध्यतां मखः॥२५॥ पच्यंतां विविधाः पाकाः सूपांताः पायसादयः॥ संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम्॥२६॥
है॥२२॥ रजोगुणकी प्रेरणासे मेघ सर्वत्र स्थानोंपर जल वर्षाते हैं, उसी जलसे प्रजाका जीवन होता है, इन्द्र इसमें क्या करसक्ता है॥२३॥ हमारे तो पुर, देश, नगर, ग्राम, घर कुछ भी नहीं है, हे तात !केवल वनही हमारा घर है और सदा वन और पर्वतोंमें हमारा वास है॥२४॥ इसलिये गौ, ब्राह्मणकी सेवा करनी उचित है और पर्वतोंका पूजन करना चाहिये जिससे हमारी गायोंका और हमारा पालन पोषण हो, सो हमारे समीप सव पर्वतोंमें श्रेष्ठ गोवर्द्धनपर्वत है उसीके यज्ञका प्रारम्भ करो, जो इन्द्रके यज्ञके लिये सामग्री इकट्ठी करी है उसी सामग्रीसे गोवर्द्धनके यज्ञका प्रारम्भ करो॥२५॥ खीरसे आदि लेके दालतक अनेक अनेक प्रकारके व्यञ्जन बनाओ, गेहूंकी पूरी, कचौरी, उडद,
मूंगकी दाल, कढ़ी, पकौरी, रायता, चुनौरी, शाक, वासमतीके चावलोंका भात, दूध, दही, रबड़ी, मलाई और सब गायोंका दूध इकट्ठा करो॥२६॥ वेदके-पढ़नेवाले ब्राह्मणोंको बुलाकर हवनकी सामग्री मँगाकर, अग्निमें होम कराओ और उन ब्राह्मणोंको भाँति भाँतिके अन्न, गोदान, दक्षिणा और अलंकार पहिराओ॥२७॥ और जो दीन भिखारी, कुत्ते चांडालसे आदि लेकर पतिततक हैं, सबको यथायोग्य भोजन कराओ गायोंको घास दो, गोवर्द्धनपर्वतको बलिदान दो॥२८॥ अच्छे अच्छे वस्त्र आभूषण पहिर चन्द्रनका तिलक लगाय, नये नये वस्त्र धारण करके, शृंगार बनाओ गौ, ब्राह्मण, अग्नि, पर्वतकी प्रदक्षिणा करो॥२९॥ हे पिता ! मेरा तो यह मत है, आगे आपकी इच्छा हो सो कीजै यह गौ, ब्राह्मण और गोवर्द्धनपर्वतका यज्ञ मुझको तो अत्यन्त प्रिय है॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इन्द्रका गर्व दूर करनेके
हूयंतामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः॥ अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः॥२७॥ अन्येभ्यश्चाऽऽश्वचां डालपतितेभ्यो यथार्हतः॥ यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः॥२८॥ स्वलंकृता भुक्तवंतः स्वनुलिप्ताः सुवा ससः॥ प्रदक्षिणं च कुरुत गोविप्राऽनलपर्वतान्॥२९॥ एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते॥ अयं गोब्राह्मणा द्रीणां मह्यं च दयितो मखः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ कालात्मना भगवता शक्रदर्पजिघांसया। प्रोक्तं निशम्य नंदाद्याः साध्वगृह्णंत तद्वचः॥३१॥ तथा च व्यदधुः सर्वं यथाह मधुसूदनः॥ वचियित्वा स्वस्त्ययनं तद्द्रव्येण गिरिद्विजान्॥३२॥ उपहृत्य बलीन्सर्वानादृता यवसं गवाम्॥ गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम्॥३३॥
लिये कालरूप भगवान्का बचन सुनकर नन्दादिक गोपोने और सब व्रजवासियोंने परस्पर कहा कि, हे पुत्र ! मैं तेरा वचन, किसीप्रकार नहीं फेरसक्ता और न कोई और फैर सकै जो बात तुझको अच्छी लगे हम सब उसीमें प्रसन्न हैं. इस बातको सुनकर बड़े बड़े जो वृद्ध गोप थे, वह कहने लगे कि, कृष्ण सत्य कहता है, हमारा इन्द्रसे क्या प्रयोजन है ? हमको तो नदी, पहाड़, वन सदा बने रहें॥३१॥ जिसप्रकार मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा उसी प्रकार सब व्रजवासी स्वस्तिवाचन वचायके संपूर्ण इन्द्रकेयज्ञकी सामग्री करते भये॥३२॥ पर्वत और द्विजोंको आदरयुक्त यथाविधि सन्मान करके सब ब्रजवासी गौवोंको आगे करके गोवर्द्धन पर्वतराजकी परिक्रमा करते भये॥३३॥
फिर धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, अक्षत, पान, सुपारी गिरिराजके आगे धर आरतीकर मिष्टान्नके ढेरके ढेर चढ़ाने लगे, इतनी मिठाई चढी कि, सम्पूर्ण पर्वत ढकगया और दूध, दही, घृत इतना चढाया कि, नदियें बहने लगीं और जहाँ तहाँ अनेक रंगके थानके थान तान दिये, उससमय गिरिराज ऐसे शोभायमान जान पडते थे मानो भगवान् विराट श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलनेको आये हैं, उस अद्भुत शोभाको देखकर व्रजवासी प्रसन्न हो होकर॥३४॥ ब्राह्मणोंका आशीश लेते भये वहाँ व्रजवासियोंके प्रतीति करानेके लिये श्रीकृष्णने नया कौतुक एक और किया, अपना दूसरा रूप और प्रगट किया कि, मैंही हूं गोवर्द्धन पर्वत, अतिशय बृहत् शरीर बड़ी लम्बी लम्बी भुजायें बडा चौडा लम्बा मुख, अखण्ड प्रकाश, महास्थूल जंघाऔर जानू और शैलकेशिखरकी समान शीर, रत्नजटित मुकुट धरे, आभूषण पहिरे, कण्ठमैं वनमाला पीताम्बर धारण किये
अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलंकृताः॥ गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायंत्यः सद्द्विजाशिषः॥३४॥ कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रमणं गतः॥ शैलोऽस्मीति ब्रुवन्भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः॥३५॥ तस्मै नमो ब्रजजनैः स चक्रे आत्मनाऽऽत्मने॥ अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात्॥३६॥ एषोऽवजानतो मर्त्यान्कामरूपी वनौकसः। हंति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम्॥३७॥
गिरिराजकी कन्दरामेंसे निकलकर बोले॥३५॥ फिर तो सब गोप गोपी भोजनके थाल और परातें उठा उठा गिरिराजको पकड़ाते जाते थे, और वह प्रसन्न हो हो खाते थे और प्रत्येक भोजनकी प्रशंसा भी करतेथे, निदान जो कुछ पकवान मिठाई नन्दादिक व्रजवासी लेगये थे, उस सबको निर्वार प्रसादमात्र छोड दी, तब तो श्रीकृष्णचन्द्र सबसे पुकारकर कहने लगे कि, हे पिता! हे भ्रातृगण! देखो गिरिराजने आज कैसी प्रत्यक्ष रूपसें दर्शन दिया। और तुम्हारे ऊपर अनुग्रह किया, देखा आपने गिरिराजका कौतुक कभी इन्द्रनेभी इस प्रकार प्रगट होकर दर्शन दिया था ? और अपने हाथसे इसप्रकार भोजन किया था? सबने उस गिरिराजको नमस्कार करना॥३६॥ यह गोवर्द्धननाथ अपने पूजनेवालोंपर सदा दयादृष्टि रखते हैं और जो कोई वनवासी इनका तिरस्कार करनेवाले हैं उनको सिंह सर्पादिक रूपसे कालकौर करलेते हैं, इसलिये
अपने और गायोंके मंगलार्थ इनको बारम्बार नमस्कार और दण्डवत करो॥३७॥ इसप्रकार सम्पूर्ण गोप वासुदेव भगवान्की आज्ञासे भलेप्रकार यज्ञ करके श्रीकृष्णचन्द्रको सङ्ग लेके गोवर्धनसे व्रजको आवत भये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां इन्द्रमखभंगो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ दोहा-पच्चिसमें व्रजपर चढो, इन्द्र खाय कर खार। हरि व्रजकी रक्षा करी, करपर गिरिवर धार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इन्द्रने अपनी पूजाका लोप देखकर श्रीकृष्ण भगवानही
इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रणोदिताः॥ यथा विधाय ते गोपाः सहकृष्णा व्रजं ययुः॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० इन्द्रमखभंगो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ श्रीशुक उवाच॥ इन्द्रस्तदात्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप॥ गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्य- श्चुकोप सः॥१॥ गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चांतकारिणाम्॥ इंद्रः प्राचोदयत्क्रुद्धोवाक्यं चाहेमान्युत॥२॥ अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्॥ कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्॥३॥
जिनके नाथ हैं उन नंदादिक व्रजवासियोंको अपना शत्रु समझ अत्यंत कोप किया कि क्या कारण मेरी पूजा छोडकर गोवर्द्धनकी पूजा की *॥ उसी समय प्रलय करनेवालोंमें मुख्य सांवर्तक नाम गणको बुलाकर आज्ञादी ( मैंहीं इन्द्र हूं ) ऐसे अभिमानी इन्द्रने महाक्रोध करके अत्यन्त कठोर वचन कहा॥२॥ अहो बड़े आश्चर्यकी बात है, वनके रहनेवाले, गँवार गायोंको चरानेवाले जातिके ग्वालियोंको लक्ष्मीका कैसा मद हुआहै जिन्होंने मनुष्य कृष्णका आश्रय लेकर ( मैं सुराधीश इन्द्र हुँ ) मेरा अपराध किया और कुछ आगा पीछा न विचारा, सत्यहै मूर्ख कहीं
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**शंका—**इन्द्रकीविनयसे भगवान्ने पृथ्वीमें अवतार लिया था सो इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णकी निन्दा क्यों की?
** उत्तर—**भगवान्की प्रिया जो देवी थी उसका अनादर इन्द्र अपने अभिमान और अज्ञानसे नित्य किया करता था, उस अपने इन्द्रके किये अनादरको देवीने स्मरण करके और अपना पक्षपाती श्रीकृष्णको समझकर प्रथम इन्द्रका उपद्रव देवीने नहीं किया, उससमय तो सहन करलिया फिर पीछे श्रीकृष्णका पक्षपात कर देवीने इन्द्रको मोहित कर लिया, मोहको प्राप्त होकर इन्द्र उन्मत्त हो भगवान्को भूल गया और व्रजके ऊपर प्रलयके करनेवाले मेघोंको भेजकर मूसलधार जल वर्षाया यह कारण था॥
ज्ञान सिखानेसे ज्ञानी हो सक्ता है ?॥३॥ जो अदृढ़ नौकाकी सदृश यह कर्ममय यज्ञ है, इससे आत्माका कल्याण जिससे होता है, उस आत्मविद्याको छोड़कर हठकी करनीपर बैठ इस संसारसमुद्रके पार होना सहजमें ही चाहता हैं॥४॥ वह वाचाल, मूर्ख, अज्ञानी किसीकी बातको नहीं मानता और अपने आपको बड़ा पण्डित और ज्ञानी जानता है, और ऊंच नीचको कुछ नहीं पहिचानता. ऐसे छोटी अवस्थावाले मूर्ख मनुष्य श्रीकृष्णका आश्रय ले उन गँवार ग्वालिनियोंने सब संसारमें मेरी अवज्ञा की॥५॥ लक्ष्मीके मदके मतवाले गोप कृष्णके सिखाने बुझानेसे हमैं इन गँवारोंने कुछ न समझा और हमारा तिरस्कार करके यज्ञभाग पर्वतको दिया, उस नाचनेवाले कृष्णका भरोसा करके अपने प्राणोंकी कुशल चाहते हैं तो तुम उनके सबके गर्वका और गायोंका नाश करो॥६॥ और ठौर वर्षनेका कुछ काम नहीं केवल चौरासीकोस व्रजपरही ऐसी वर्षा करो कि गोवर्द्धन पहाड़का खोजमात्र भी न रहैअरु गाय बछडोंका तो ऐसा विनाश करना कि, उनका कोई नाम लेवा और पानी
यथाऽदृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नाम नौनिभैः॥ विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षंति भवार्णवम्॥४॥ वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पंडितमानिनम्॥ कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्॥५॥ येषां श्रियाऽवलिप्तानां कृष्णेनाध्मायि तात्मनाम्॥ धुनुत श्रीमदस्तंभं पशुन्नयत संक्षयम्॥६॥ अहं चैरावतं नागमरुह्यानुव्रजे व्रजम्॥ मरुद्गणैर्महावीर्येर्नंदगोष्टजिघांसया॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबंधनाः॥ नन्दगोकुलमासारैः पीडया मासुरोजसा॥८॥ विद्योतमाना विद्युद्भिः स्तनंतः स्तनयित्नुभिः॥ तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः॥९॥
देवा भी न रहे, लाख वद हाय हाय करैं परन्तु तुम कुछ दया चित्तमें मत लाना, क्योंकि जैसा उन्होंने किया है उस अपनी करनीका फल तो भोगें, तुम किसी प्रकारका संदेह मत करना मैंभी तुम्हारे पीछे पीछे ऐरावत हाथीपर चढ़ देवताओंकी सेना समेत और सब प्रलय करनेवाले मेघोंको और उञ्चास (४९) मरुद्गण पवनोंको भी साथ लाऊँगा व्रजतो क्या ? वहांकी भूमितक बहादूंगा फिर देखूं जगतमें किसकी सामर्थ्य है जो व्रजवासियोंकी रक्षा करैं॥७॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि हे राजन् ! मेघोंने इसप्रकार इन्द्रकी आज्ञा पाय मुक्तबंधन हो नंदरायके गोकुलपर बलते बड़ी वर्षा करने लगे॥८॥ चारों ओरसे घटा घिर आईं, बिजली चमकने लगीं, बादलोंके गर्जनेका गम्भीर शब्द होनेलगा; तीव्र मरुद्गणोंने मेघोंको चलायमानकर ओलोंकी झडी लगादी और मूसलधारवर्षा होने लगी॥९॥
वर्षाकी धारा हाथीके शुण्डकी समान मोटी बादलोंमेंसे अखण्ड गिरती थी, जिससे समस्त ब्रजमण्डल जलमें डूबगया और चारोंओरसे बादलोंके समूहके समूह उमडते चले आते थे, ऊँचे नीचे गाढ़ गढौले और पृथ्वी कहीं नहीं दिखाई देती थी॥१०॥ बड़े वेगकी वर्षासे और महाप्रचण्ड पवनसे पशु सब थर थर काँपने लगे और गोपी गोप जाड़ेके मारे अत्यन्त दुःखी हो, हाय हाय। करती थर थर काँपती श्रीगोविन्द कृष्णकी शरणमें जाती भई॥११॥ मूसलधार जो जल वर्षा तो उससे पीड़ित होकर गायें अपना शिर नीचे किये बछड़ोंको नीचे लिये, थर थर काँपती थीऔर गोपियें गिरती पड़ती भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके निकट जाकर बोलीं॥१२॥ हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महाभाग !हे सामर्थ्यवान् ! हे भक्त हितकारी ! हैं गोकुलनाथ! इस महाक्रोधी इन्द्रसे इस अपने गोकुलकी और हमारी रक्षा करो॥१३॥ जब बड़ी बड़ी शिलायें ओलोंकी आकाशसे गिरनेलगीं उनसे बेसुधि
स्थूणास्थूला वर्षधारा मंचत्स्वभ्रेष्वभीक्ष्णशः॥ जलौघैः प्लाव्यमाना भृर्नादृश्यत नतोन्नतम्॥१०॥ अत्यासारातिवा तेन पशवो जातवेपनाः॥ गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविंदं शरणं ययुः॥११॥ शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्यासारपीडि ताः॥ वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः॥१२॥ कृष्णकृष्ण महाभाग त्वन्नार्थं गोकुलं प्रभो॥ त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद्भक्तवत्सल॥१३॥ शिलावर्षनिपातेन हन्यमानमचेतनम्॥ निरीक्ष्य भगवान्मेने कुपितेंद्रकृतं हरिः॥१४॥ अपर्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्॥ स्वयागे, निहतेऽस्माभिरिंद्रो नाशाय वर्षति॥१५॥ तत्र प्रतिविधिं सम्य गात्मयोगेन साधये॥ लोकेशमानिनां मौढ्याद्धरिष्ये श्रीमदं तमः॥१६॥ न हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीश विस्मयः॥ मत्तोऽसतां मानभंगः प्रशमायोपकल्पते॥१७॥
और व्याकुल गोकुलवासियोंको देखा, तब सबके दुःख दूर करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवानने जाना कि, यह सब कौतुक उसी महाक्रोधी इन्द्रकां हैं॥१४॥ विना वर्षाऋतुके जो यह महाभयानक शिलाओंकी वर्षा हो रहीहै और महाप्रलयकेसा प्रचण्ड पवन चल रहाहै, केवल इसका यही कारण है कि, मैंने जो इसके यज्ञको भंग कर दिया और इसकी पूजा व्रजसे उठा दी, इसीसे इन्द्र हमारे विनाशके लिये मूसलधार पानी वर्षा रहा है ॥१५॥ इसकारण अबमैं अपनी सामर्थ्यसे इस महाघोर वर्षाका उपाय करूंगा और उन अज्ञानी लोकपाल और अभिमानी इन्द्रादिक देवताओंको जो लक्ष्मीका मदहोगया है उस मदको हरूंगा॥१६॥ मेरी भक्ति अथवा सत्त्वगुण जिन देवताओंके हृदयमें व्यापरहा और मैंहीं उनका
ईश्वरहूं इसलिये उन देवताओंको अपने पराक्रम और बलका गर्व किसी प्रकार होना नहीं चाहिये, क्योंकि अभिमानमें भक्ति और प्रेम कहाँ ? इसलिये जबतक उन अभिमानियोंका मानखण्डन न होगा तबतक वह मेरा मान न करेंगे और मेरा मान किये विना उनका कल्याण कहाँ ?॥१७॥ इससे वह उपाय करूँ जो वह मेरी शरण आवे क्योंकि मेरा नाम गोकुलनाथ है जब मैंहीं गोकुलकानाथ होकर गोकुलकी रक्षा न करूंगा तो और कौन रक्षा करने आवेगा ? क्योंकि सब गोकुलवासी मुझहीको अपना प्राण आधार समझते हैं मुझहीको अपना तन, मन, धन जानते हैं. यह सब मेरेही दर्शनकी अभिलाषा करते रहते हैं मेरे समान और किसी दूसरेको नहीं मानते॥१८॥ यह कह नटवर रूपधर लीलामात्र एक हाथसे गोवर्द्धन पर्वतको उखाड बायें करकी कन अंगुली पर घर, ऊपरको उठा व्रजमण्डल पर छत्रीकी समान तान दिया, जैसे कोई बालक
यस्मान्मच्छरणं गोष्ठ मन्नाथं मत्परिग्रहम्॥ गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥१८॥ इत्युक्त्तैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्॥ दधार लीलया कृष्णश्छत्राकमिव बालकः॥१९॥ अथाह भगवान् गोपान् हेंऽब तात व्रजौकसः॥ यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः॥२०॥ न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्तादिनिपातने॥ वा तवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः॥२१॥ तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसाः॥ यथावकाशं सधनाः स व्रजाः सोपजीविनः॥२२॥
छत्राककोउखाड़कर ऊपरको उठालेताहै ( यह वह छत्राक है जिसको बालकसाँपकी छत्रीकहते हैं )॥१९॥ जब भगवान्ने पर्वतको उठा लिया. तब पीछे गोपोंसे कहा कि, हे, भैया! हे पिता! हे व्रजवासियो! अपनी २ गाय बछड़े बाल बच्चों समेत सुखसे इस पर्वतके नीचे आजाओ॥२९॥ हे व्रजवासियो! अपने मनमें यह मत समझना कि, कृष्णके हाथसे गिरि गिरजायगा, यह सब बाबा नन्दका प्रभाव है, इसमें मेरा कुछ पराक्रम नहीं है, यहाँ पवन पानीका कुछ खटका नहीं अपने मनमें पूर्ण विश्वास करके गिरिकी छायामें चले आओ, मैंने तुम लोगोंकी रक्षाकरनेके लिये गोवर्द्धनको हाथपुर उठा लिया है, जबलों बहुत वर्षा होय तबलों इसके नीचे सुखसे वास करो॥२१॥ जिन लोगोंको श्रीकृष्णके बलवीर्यका पूरा भरोसा था उन्होंने गाय बछड़े गाड़ी पुरोहितादिक, जिसको पाया उसको नन्द उपनन्द अपने संग ले आनन्दपूर्वक पर्वतके
नीचे गढ़ेलेमें घुसगये, उससमय सब श्रीकृष्णके मुखकी ओरको निहार रहे थे, न किसीको भूख थी न प्यास थी॥२२॥ उस दिनसे व्रजवासी भूख प्यास तज चकोरकी नाई श्रीकृष्णचन्द्रके चन्द्रमुखकोही देखतेरहे और श्यामसुन्दर भी सातदिन तक पर्वतको धारण किये एकही ठौर जहाँ तहाँ खड़े रहे, एक तिलभरभी चरणको नहीं सरकाया॥२३॥ और मेघ उसीप्रकार मूशलधार जल बरसातारहा ओले पडते रहे चपला चमकती रही परन्तु व्रजका कुछ नाश नहीं हुआ, यह बात सुन इन्द्र चकित होगया और कृष्णके योगबलका प्रभाव देख अपने मनमें बडा आश्चर्य मानने लगा और अपनी प्रतिज्ञाकी अवज्ञा देख अत्यन्त व्याकुल हुवा और सब अज्ञान अभिमान धूलमें मिलगया, मेघोंको गर्जने
क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः॥ वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत्पदात्॥२३॥ कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येंद्रोऽतिविस्मितः॥ निस्तंभो भ्रष्टसंकल्पः स्वान्मेघान्स न्यवारयत्॥२४॥ खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षंच दारुणम्॥ निशाम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत्॥२५॥ निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः स्त्रीधनार्भकाः॥ उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥२६॥ ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वंस्वमादाय गोधनम्॥ शकटोढो पकरणस्त्रीबालस्थविराः शनैः॥२७॥ भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत् प्रभुः॥ पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया॥१८॥
लगा कि अब तुम्हारा बल यहां नहीं चलैगा॥२४॥ जब आकाशमें बादल छिन्न भिन्न होगये सूर्यनारायण उदय हुए भयानक वर्षा और पवन चलनेसे बन्द होगई, तब गोवर्द्धनधारी श्रीकृष्णमुरारीने गोपोंसे कहा कि॥२५॥ हे गोपो! स्त्री, बालक, गाय, बछडोंको लेकर तुम इस पर्वतके नीचेसे बाहर निकलो डरो मत. अब पवन वर्षा थमगई, नदियोंका जल भी उतरगया॥२६॥ तब बाँकेविहारीकी मधुरवाणी सुन सब गोप अपने अपने बाल बच्चे और गायोंके समूहोंको लेलेकर और गाड़ियोंमें सब वस्तु घर धरकर स्त्री, बालक, वृद्ध सब सहज सहजमें निकले॥२७॥ सर्व समर्थवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सब व्रजवासियोंके सन्मुख पर्वतको जहाँका तहां रखदिया॥२८॥
प्रेममें प्रफुल्लित हो सब व्रजवासी परस्पर आनकर यथायोग्य मिलने लगे और स्नेहभरी गोपियें आनन्दपूर्वक दही, अक्षत, जलसे पूजनकर मांगलिक आशिषें देने लगीं॥२९॥ यशोदा, रोहिणी, नन्दराय और बलियोंमें बलवान् श्रीबलदेवजी महाराज श्रीकृष्णचन्द्रको हृदयसे लगाकर, स्नेहमें मग्न होकर बारम्बार आशीर्वाद देतेथे॥३०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! अन्तरिक्षमें देवताओंके समूह, साध्यगण, सिद्ध, गंधर्व, चारण सन्तुष्ट हो हो, स्तुति पढ़ पढ़ फूलोंकी वर्षा करने लगे॥३१॥ हे राजन! स्वर्गमें देवता शंख और दुन्दुभि बजाने लगे, तुम्बुरु आदि गन्धर्वपति श्रीमुकुन्दभगवान्के गुणानुवाद गानेलगे॥३२॥ नंद उपनन्द बलराम सहित मनमोहनप्यारे मित्रोको
तं प्रेमवेगान्निभृता व्रजोकसौयथा समीयुः परिरंभणादिभिः॥ गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन्मुदा दध्यक्षताद्भिर्युयुजुः सदा शिषः॥२९॥ यशोदा रोहिणी नंदो रामश्च बलिनां वरः॥ कृष्णमालिंग्य युयुजराशिषः स्नेहकातराः॥३०॥ दिवि देवगणाः साध्याः सिद्धगंधर्वचारणाः ॥ तुष्टुवुमुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव॥३१॥ शंखदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रणो दिताः॥ जगुर्गंधर्वपतयस्तुंबुरुप्रमुखा नृप॥३२॥ ततोऽनुरक्तः पशुपैः परिश्रितो राजस्व गोष्ठं सवोऽव्रजद्धरिः॥ तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका गायंत्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० गोवर्द्धनोद्धरणं नाम पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते॥ अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः॥१॥ बालकस्य यदतानि कर्माण्यत्यद्भुतानि वै॥ कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्॥२॥
संगले व्रजमें आये और गोपी परमानंद देनेवाली वनमाली श्रीकृष्णकी मनोहर मनोहर लीला गाती चली आती थी, इसप्रकार आनंद सहित सब अपने अपने घर आये॥३३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वाद्धे भाषाटीकायां गोवर्द्धनोद्धरणं नाम पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥ दोहा-छब्बिसमें हरिके चरित, विस्मय युक्त निहार। नन्द गर्गके वचन कह, वरणें यश विस्तार॥ ॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! गोपोंने गोवर्द्धन उठाना और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अनेक कर्म और प्रभाव देख बड़ा आश्चर्य मान नन्दरायजीके पास आनकर कहने लगे॥१॥ किइस बालकके बड़े अद्भुत चरित्र हैं, इन्हैंदेखकर हमको संदेह होता है कि, अपने स्वरूपके और इस ग्रामके रहनेवाले पुरुषोंमें इनका जम््म
होना कैसे संभव है?॥२॥ क्योंकि जो सातवर्षके बालकने एक हाथसे लीलापूर्वक जिसप्रकार हाथी कमलको उठा लेता है, उसीप्रकार पर्वतको उठालिया॥३॥ और नेत्र मूंदे हुए अति छोटी अवस्थामें इस वालकने बडे वेगवाली पूतनाके स्तनोंको प्राण सहित पान किया था, जैसे काल यौवन अथवा आयुर्बलको पीताहै॥४॥ देखो! तीन महीनेके होके गाडियोंके नीचे पालनेमें सोतेहुए रोते रोते जो इस बालकने ऊपरको पाँव उछाले, तो चरणकी ठोकर लगकर गाड़ी उलटकर कैसी गिरी थी?॥५॥ और देखो! जब एकही वर्षका कृष्ण आँगनमें बैठा खेल रहा था, तब आकाशमें दैत्य तृणावर्त्त इसे हरकर लेगया, उस दैत्यका गला घोटकर इसने कैसा मारा?॥ ६ और देखो! कभी
यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया॥ कथं विभ्रद्गिरिवरं पुष्करं गजराडिव॥३॥ तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः॥ पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः॥४॥ हिन्वतोऽधःशयानस्य मास्यस्य चरणावुदक्॥ अनोऽपतद्विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहृतम्॥५॥ एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा॥ दैत्येन यरतृणावर्तमहन्कंठग्रहा तुरम्॥६॥ क्वचिद्धैयंगवस्तैन्ये मात्रा वद्ध उलूखले॥ गच्छन्नर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत्॥७॥ वने संचार यन्वत्सान्सरामो बालकैर्वृतः॥ हंतुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत्॥८॥ वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशंतं जिघां सया॥ हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया॥९॥ हत्वा रासभदतेय तद्वंधूंश्च बलान्वितः॥ चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्कफलान्वितम्॥१०॥ प्रलंबंघातयित्वोग्रं वलेन वलशालिनां॥ अमोचयद्व्रजपशून्गोपांश्चाऽरण्यवह्नितः॥११॥
जब कृष्णने माखन चुराया था, तब यशोदाजीने इसे ऊखलसे बाँध दिया इसके उपरान्त इसने वृक्षोंके बीच में आय, हाथोंसे उनको कैसा उखाड़ डाला ?॥७॥ और देखो। जब वनमें बलदेवजी सहित बछडे चराते थे उस समय बकासुर इनकोमारनेको आया, उसको दोनों हाथोंसे चोंच पकड कैसे चीरडाला?॥८॥ देखो बछड़ोंमें बछडेका रूप धरकर मारनेकी इच्छासे आये हुए वत्सासुरको मार उसकी देहको लीलापूर्वक कैथके वृक्ष पर कैसा पटका था? और लीलासेही वह वृक्षपरसे फल भी गिरगये॥९॥ इसके उपरान्त बलदेवजी सहित धेनुकासुरको मार और उसके संगियोंको भी मार फल जिनमें पक रहे, उन तालोंको निर्भय कर दिया॥१०॥ फिर महाबलवान् बलदेवजीसे अत्यन्त
भयानक प्रलम्बासुर दैत्यको मरवाय और व्रजमें जो अग्नि लगी थी, उससे पशु तथा गोपोंको छुड़ादिया॥११॥ फिर देखो! इसी कृष्णने अति भयानक विषवाले कालीनागको दंड दें, उसके मदको दूरकर बलात्कार दहमें से निकाल यमुनाको निर्विष करदिया॥१२॥ नंद! हम सब व्रजवासियोंका इनमें बड़ा अनुराग है. अर्थात् इतना प्यार होगया है कि, छुटायेसे छूटना अत्यन्त कठिन है और इन श्रीकृष्णका भी हनमें स्वाभाविक प्यार है अर्थात् यह श्रीकृष्ण सबकी आत्मा हैं, यह शंका होती है॥१३॥ क्योंकि सातवर्षका बालक इतना बडाभारी पर्वत उठावे ? इसलिये हे व्रजनाथ! तुम्हारे पुत्रमें हमको शंका उत्पन्न होती है कि, कदाचित् परमेश्वर न हों? इसकारण हम इसका विचार करेंगे कि, तुम्हारे
आशीविषतमाहींद्रं दमित्वा विमदं हृदात्॥ प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रऽसौ निर्विषोदकाम्॥१२॥ दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन्सर्वेषां नो व्रजौकसाम्॥ नंद ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम्॥१३॥ क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम्॥ ततो नो जायते शंका व्रजनाथ तवात्मजे ॥१४॥ नंद उवाच॥ श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शंका च वोऽर्भके॥ एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गोमे यदुवाच ह॥१५॥ वर्णास्त्रयः किलास्यासन्गृह्णतोऽनुयुगं तनूः॥ शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥१६॥ प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः॥ वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः संप्रचक्षते॥१७॥ बहूनि संति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते॥ गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥१८॥
कैसा पुत्र हुआ है॥१४॥ इसप्रकार गोपोंकी बातें सुनकर नंदजी बोले कि, संदेह करनेकी कुछ बात नहीं है, मैं इस बालककी जन्मपत्री लाताहूँ, जो कि, गर्गाचार्यने बनाई है, यह कहकर जन्मपत्री ले आये और बोले कि हे गोपो! मेरी बात सुनो, जिससे इस बालकमैसे तुम्हारी शंका मिट जायगी, गर्गाचार्यने इस बालकका नाम धरकर मुझे जो जो गुण बताये हैं, सो श्रवण करो॥१५॥ इस बालकके तीन वर्ण हैं और युगयुगमें देह धारण करता है, प्रथम इसका श्वेतवर्णथा, फिर रक्त और श्यामवर्णहुआ और अब इसने कृष्णरूप धारण किया है॥१६॥ इस तुम्हारे पुत्रने पहले कभी वसुदेवके यहाँ जन्म लिया है, इसलिये जाननेवाले इसको श्रीमान् वासुदेव कहते हैं॥१७॥ तुम्हारे पुत्रके नाम और रूप बहुत हैं,
इसलिये जैसे जैसे इसमें गुण होंगे वैसे वैसे कर्म करेगा और उन्हींके अनुसार नाम होंगे॥१८॥ यह तुम्हारा कल्याण करेंगे और गोप तथा गायोंको आनंद देंगे, अधिक क्या कहैं? इस कृष्णकी सहायतासे तुम संपूर्ण कष्टोंसे सहजमेंही छूट जाओगे *॥१९॥ हे व्रजराज! पहले तुम्हारे पुत्र श्रीकृष्णने राजारहित पृथ्वीमें चोरोंसे पीडित साधुओंकी रक्षा की थी, तब साधुओंने वृद्धिको प्राप्त हो चोरोंको जीत लिया था॥२०॥
एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनंदनः॥ अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमंजस्तरिस्यथ॥१९॥ पुराऽनेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः॥ अराजके रक्ष्य- माणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः॥२०॥ य एतस्मिन्महाभागाः प्रीतिं कुर्वंति मानवाः॥ नारयोऽभिभवंत्येतान्विष्णुपक्षानिवासुराः॥२१॥ तस्मान्नंदात्म- जोऽयं ते नारायणसमो गुणैः॥ श्रिया कीर्त्या नुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः॥२२॥ इत्यद्ध्वामां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते॥ मन्ये नारायण- स्यांशं कृष्णम् क्लिष्टकारिणम्॥२३॥
जो बडभागी पुरुष इन श्रीकृष्णमें प्रीति करते हैं, उनको वैरी नहीं सन्ताप देते! जिस प्रकार विष्णु भगवान्से रक्षित देवताओंको असुर नहीं सता सक्ते॥२१॥ इस कारण हे नंद। तुम्हारा यह पुत्र गुण, शोभा, कीर्ति, प्रभाव इत्यादिमें नारायण के समान है इसके कर्मोंमें आश्चर्य मत मानना॥२२॥ इसप्रकार साक्षात् गर्गाचार्य मुझसे कहकर अपने घरको चले गये, उसी दिनसे बडे बडे कार्य करनेवालोंमें श्रीकृष्णको मैं नारायणका
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**शंका—**नन्दजीसे गर्गमुनिने कहा कि, श्रीकृष्णके कर्मको हम जानते हैं ससारमें और कोई भी नहीं जानता, यह बडे सन्देहकी बातहै इससे यह ज्ञात होता है कि, गर्गमुनि तो परमज्ञानी थे इनके सिवाय और जो ऋषि मुनि थे यह सब ब्राह्मण नहीं थे, गर्गमुनिकी बातोंसे ऐसा जान पडता है।
**उत्तर—**सब ऋषि मुनियोंका निरादर करके गर्गमुनि ऐसी बात कभी नहीं कहसक्ते गर्गमुनिने ( अह ) पदका यह अर्थ किया कि, हमारी जाति जितनी है ससारमें मुनि, ऋषि, गृहस्थ, किशान, सब श्रीकृष्ण भगवान्के कर्मको जानते हैं यह अर्थ अहपद का किया, कुछ अपने अकेलेके लिये नहीं कहा॥
अंश मानताहूँ॥२३॥ इसप्रकार ब्रजवासियोंने गर्गाचार्यका वचन नंदरायजीसे सुन प्रसन्न हो नंदजी की पूजा करी और श्रीकृष्णचंद्रमेंसे उनकी शंका दूर होगई॥२४॥ यज्ञके नाशसे क्रोधित हो इन्द्रने सात दिन रात जब ब्रजपर मूशलधार वर्षा की उस समय ब्रज पत्थर पवनसे पीडित, ग्वाल बाल पशु और स्त्रियोंको अपनी शरण आये देख जिन भगवान् श्रीकृष्णचंद्रको दया आगई और मुसकाकर जिसप्रकार बालक सर्पकी
इति नंदवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः॥ दृष्टंश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः॥ मुदिता नंदमानर्चुः कृष्णं च गत विस्मयाः॥२४॥ देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा वज्राश्मवर्षानिलैः सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं दृष्ट्वानुकंप्युत्स्मयन्॥ उत्पाट्यैककरेण शैलमवलो लीलोच्छिलींध्रं यथा विभ्रगोष्ठमपान्महेंद्रमदभित्प्रीयान्न इंद्रो गवाम्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे गर्गगीतनिरूपणं नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥२६॥
छत्रीको उखाड डालता है, उसीप्रकार एक हाथसे गोवर्द्धन पर्वतको उखाड़ धारणकर ‘व्रजकी रक्षा की’ वही इन्द्रके मदको दूर करनेवाले गौवोंके इन्द्र भगवान् वासुदेव हमारे ऊपर प्रसन्न हों*****॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां गर्गगीतनिरूपणं नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥२६॥
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*शंका— सौ १०० यज्ञ करनेवाले राजा इन्द्रका तिरस्कार करके सुरभी जो गायें हैं उन्होंने अपना इन्द्र श्रीकृष्णको क्यों किया, इन्द्र तो तीनलोकमें एकही है हमने आजतक दूसरा इन्द्र सुना नहीं फिर उन्होंने दूसरा इन्द्र क्यों किया?
** उत्तर—** इन्दने गायोंका नाश करनेके लिये गोकुलमें बडी वर्षा की गायोंको मारना विचारा, इसलिये इन्द्रके दशयें अशके पुण्यका विनाश होगया, इन्द्रके दशवें अंशके पुण्यका नाश होनेसे सुरभियोंने अपना इन्द्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको बनाया क्योंकि गायोंने विचारा कि, इन्द्र ऐसा चाण्डाल है कि, जिसने अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये अधर्म नहीं देखा और गोहत्यासे भी नहीं डरा, तो और दूसरे कामसे क्या डरेगा अबकी बार तो श्रीकृष्णचन्द्रने वचालिया यह दुष्ट ऐसा कर्म फिर कभी करेगा तो हमारी बछिया वछरे सब विध्वस हो जायँगे और वंशका नाश होजायगा, इसलिये कृष्णभगवान्को अपना इन्द्र बनाया॥
दोहा-सत्ताइस अध्यायमें, लखि श्रीकृष्ण प्रभाव। गायइन्द्र अभिषेक पुनि, वरणों सहज स्वभाव॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्णचंद्रने गोवर्द्धन पर्वत उठाकर जो ब्रजकी रक्षाकी थी, सो देवराज इंद्रने जाकर सब बात कमलयोनि ब्रह्माजीको सुनाई, तब ब्रह्माजी बोले कि, इंद्र! तैंने बडा अपराध किया, पहले मैं भी उनके गोप, ग्वाल, बछडे इत्यादि हरकर अपनी बूढी दाढीपर धूल डाल चुकाहूं, इसके उपरान्त स्वर्गलोकसे सुरभी गौ और इन्द्रलोकसे इन्द्र आये॥१॥ और अपराध करनेके कारण अत्यंत लज्जित हो इन्द्रने एकान्तमें आय सूर्यके समान तेजवाले किरीटको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंसे लगाया॥२॥ अमिततेजस्वी श्रीकृष्णचन्द्रका प्रभाव जिस प्रकार कानोंसे श्रवण किया था, उसी प्रकार नेत्रोंसे देखा और उस समय “त्रिलोकीका ईश्वर मैं हूं” यह मद भी जातारहा, तब देवराज इन्द्र हाथ जोडकर बोले॥३॥ इन्द्रने
श्रीशुक उवाच॥ गोवर्धने धृते शैले असाराद्रक्षिते व्रजे॥ गोलोकादाव्रजत्कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥ विविक्त उपसंगम्य व्रीडितः कृतहेलनः॥ पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा॥२॥ दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्या मिततेजसः॥ नष्टत्रिलोकेशमद इंद्र आह कृतांजलिः॥३॥ इंद्र उवाच॥ विशुद्धसत्त्वं तव धाम शांतं तपोमयं ध्वस्त रजस्तमस्कम्॥ मायामयोऽयं गुणसंप्रवाहो न विद्यते तेऽग्रहणानुबन्धः॥४॥ कुतो न तद्धेतव ईश तत्कृता लोभा दयो येऽबुधलिंगभावाः॥ तथाऽपि दंडं भगवान्बिभर्ति धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय॥५॥ पिता गुरुस्त्वं जगता मधीशो दुरत्ययः काल उपात्तदंडः॥ हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे मानं विधुन्वञ्जगदीशमानिनाम्॥६॥
कहा कि, तुम्हारा स्वरूप शुद्ध सत्त्वगुणी है, अर्थात् एक रूप है, शांत सर्वज्ञ है, रजोगुण तमोगुणसे रहित है और मायाका जो कार्य्य अज्ञानसे जीवोंको लगरहा है, सो संसार है, यह तुम्हारे स्वरूप में नहीं है॥४॥ हे ईश! देहसंबंध तुमको नहीं है तो उस देह बंधसे करेहुए और अन्य देहके कारण जो काम लोभादिक हैं सो कहाँसे होंगे बहुधा ऐसे काम लोभादिक तो अज्ञानी पुरुषोंको होते हैं, तुम्हारे काम लोभादिक तो नहीं हैं, परन्तु तोभी धर्म की रक्षा और दुष्टोंका मद दूर करनेके लिये तुम दंड देते हो॥५॥ तुम जगत् के पिता, गुरु और ईश्वर हो, नाश रहित, दंडके ग्रहण करनेवाले कालरूप हो, जीवोंका हित करनेके लिये और अपनेको ईश्वर माननेवालोंका मान दूर करनेके लिये अपनी इच्छापूर्वक रूप धरकर
लीला करते हो, तुम्हारी लीलामेंही हमारे मान दूर हो जाते हैं, लोकोंकी वाहवाहमें जीवोंका सत्यानाश हो जाताहै॥६॥ जो मुझ सरीखे अज्ञानी भी आपको जगत्का ईश्वर मानते हैं, वे भयके समय भी निर्भय आपका दर्शन कर शीघ्र ही ईश्वरत्वका मद त्याग करदेते हैं और गर्वको छोड़कर सत्पुरुषोंकी और तुम्हारी भक्तिको करते हैं, तुम्हारी सहजकी चेष्टा जो है, सोई दुष्टोंको दण्डरूप है॥७॥ हे समर्थ! ऐश्वर्यके मदमें डूबेहुए तुम्हारे प्रभावको न जान तुम्हारा अपराध करनेवाले मूढचित्त मेरे ऊपर क्षमाकरो, हे ईश्वर! फिर मेरी ऐसी बुद्धि न हो; यही मैं प्रार्थना करता हूं॥८॥ हे अधोक्षज! इससंसार में तुम्हारा अवतार और बडा भार जिनसे हो ऐसे सैन्यपालन करनेवाले मुख्य सेनापति
ये मद्विधाऽज्ञा जगदीशमानिनस्त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम्॥ हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजंत्यपस्मया ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम्॥७॥ स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम्॥ क्षंतुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती॥८॥ तवावतारोऽयमधोक्षजेह स्वयंभराणामुरुभारजन्मनाम्॥ चमूपतीनामभवाय देव भवाय युष्मच्चरणानुवर्तिनाम्॥९॥ नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने॥ वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः॥१०॥ स्वच्छंदोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये॥ सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः॥११॥ मयेदं भगवन् गोष्ठनाशायाऽऽसारवायुमिः॥ चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना॥१२॥ त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तंभो हतोद्यमः॥ ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः॥१३॥
योंको मारनेके कारण और तुम्हारे चरणोंका सेवन करनेवाले भक्तोंका कल्याण करनेके लिये है॥९॥ ऐसे जो तुम भगवान महात्मापुरुष हो, सो तुम्हारे लिये नमस्कार है, शुद्ध अंतःकरणके प्रकाशक भक्तोंके रक्षक, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारे अर्थ नमस्कार है॥१०॥ अपने भक्तोंके ऊपर कृपा करने के लिये देह धरनेवाले और शुद्ध ज्ञानमूर्ति सर्वरूप सबके कारण सब प्राणियोंके अत्मा तुमको नमस्कार है॥११॥ हे भगवन्! जब मेरा यज्ञ नाशको प्राप्त हुवा तब बडा क्रोध कर मुझ अज्ञानी अभिमानीने ब्रजका नाश करनेके लिये वर्षा और पवन चलाकर करनेके अयोग्य कार्य किये॥१२॥ यह आपने मेरे ऊपर अत्यन्त अनुग्रह किया जो मेरा गर्व दूर कर दिया, उद्यम भी वृथा गया,
तुम सबके ईश्वर आत्मा हो, इसलिये मैं तुम्हारी शरण प्राप्त हुवा हूं॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, इस प्रकार जब देवराज इन्द्रने स्तुति करी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर मेघके समान गंभीरवाणीसे इन्द्रसे बोले॥१४॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे इन्द्र! मैंने तेरे ऊपर अनुग्रह करनेही के लिये यज्ञका विध्वंस किया है, क्योंकि तुम देवताओंका राज्य पाकर अचेत हो गये थे, सो अपना स्मरण करानेके लिये यह मैंने किया॥१५॥ क्योंकि ऐश्वर्यमद और धनमदसे अंधे हुये पुरुष दण्ड हाथमें लिये मुझे नहीं देखते और जिसके ऊपर मैं कृपा करनेकी इच्छा करताहूं, उस पुरुषकी प्रथम संपत्ति हरलेताहूं॥१६॥ हे इन्द्र! अब तुम जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, अहंकार त्यागकर मेरी आंज्ञाका पालन करना और साव
श्रीशु उवाच॥ एवं संकीर्तितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्॥ मेघगंभीरया वाचा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥१४॥ श्रीभगवानुवाच॥ मया तेऽकारि मघवन् मखभंगोऽनुगृह्णता॥ मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येंद्रश्रिया भृशम्॥१५॥ मामैश्वर्यश्रीमदांधो दंडपाणिं न पश्यति॥ तं भ्रंशयामि संपद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥१६॥ गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम्॥ स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तंभवर्जितैः॥१७॥ अथाह सुरभिः कृष्णम भिवाद्य मनस्विनी॥ स्वसंतानैरुपामंत्र्य गोपरूपिणमीश्वरम्॥१८॥ सुरभिरुवाच॥ कृष्णकृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसंभव॥ भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत॥१९॥ त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इंद्रो जगत्पते॥ भवाय भव गोविप्रदेवानां ये च साधवः॥२०॥ इंद्रं नस्त्वाऽभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम्॥ अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये॥२१॥
धान होकर, अपने अधिकार पर रहना॥१७॥ इसके उपरान्त जब इन्द्र स्तुति कर चुका तब उदारचित्त सुरभी गौने अपनी संतान सहित आकर गोपरूपी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार और संबोधन देकर कहा कि,॥१८॥ हे कृष्ण! हे महायोगिन्! हे विश्वात्मन्! हे विश्वको उत्पन्न करनेवाले! हे अच्युत! हे अखण्डरूप! इन्द्रने तो हमें माराही था परन्तु हे लोकोंके नाथ! आपने बचाया॥१९॥ हे जगत्पति! तुम हमारे श्रेष्ठ देवता हो और तुम्हीं गौ ब्राह्मणके देवताहो और जो साधु हैं उनके कल्याणार्थ हमारे इन्द्र होओ॥२०॥ ब्रह्माजीकी हमें आज्ञा हुई है, इसकारण
इन्द्रपदवी देनेके लिये हम तुम्हारा अभिषेक करेंगी। हे विश्वके आत्मा! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये तुमने अवतार लिया है॥२१॥ श्रीशुक देवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! इसप्रकार कहकर श्रीकृष्णचन्द्रका यह कामधेनु अपने दुग्धसे अभिषेक करनेलगी और ऐरावत हाथीकी सूंडसे लाये आकाशगंगा के जलसे अभिषेक किया॥२२॥ और इन्द्रने भी देवमाताओंकी प्रेरणासे देवर्षियोंके सहित भगवान्का अभिषेक किया और गोविन्द नाम धरा॥२३॥ और दाशाईवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका उस समय तंबुरु, नारदादि, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारण आनकर लोकोंके पापोंको दूर करनेके लिये भगवान्का यश गाने लगे और अति आनंदित होकर देवांगनायें नृत्य करने लगीं॥२४॥
श्रीशुक उवाच॥ एवं कृष्णमुपामंत्र्य सुरभिः पयसाऽऽत्मनः॥ जलैराकाशगंगाया ऐरावतकरोद्धृतैः॥२२॥ इंद्रः सुर र्षिभिः साकं नोदितो देवमातृभिः॥ अभ्यषिंचत दाशार्हं गोविंद इति चाभ्यधात्॥२३॥ तत्रागतास्तुंबुरुनारदादयो गंधर्वविद्याधरसिद्धचारणाः॥ जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः सुरांगनाः संननृतुर्मुदान्विताः॥२४॥ तं तुष्टुवुर्देवनिकाय केतवो व्यवाकिरंश्चाद्भुतपुष्पवृष्टिभिः॥ लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो गावस्तदा गामनयन्पयोद्रुताम्॥२५॥ नाना रसौघाः सरितो वृक्षा आसन्मधुस्रवाः॥ अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन्॥२६॥ कृष्णेभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनंदन॥ निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः॥२७॥
इसके उपरान्त देवताओंमें मुख्य देवता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति और अद्भुत फूलोंकी वर्षा करनेलगे, उस समय तीनोंलोक परम आनंदको प्राप्त होगये। फिर गौ दूधसे पृथ्वीको भिजोने लगीं॥२५॥ जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका गोविंदाभिषेक किया, उस समय नदियें अनेक प्रकारके रसोंकी बहनेवाली होगईं और वृक्षोंमेंसे मदकी धारा चूने लगी, बिना जोते खेत भी आपही पकने लगे और पर्वतोंने अपनी गुफाओंमेंसे मणियोंको बाहर निकालकर धर दिया॥२६॥ हे कुरुकुलके आनंददाता परीक्षित्! जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रका गोविन्दाभिषेक हुआ, उस समय
क्रूरस्वभाववाले सिंहादिक जीवोंका भी वैरभाव दूर होगया॥२७॥ इसप्रकार गोकुलके रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको गोविंदाभिषेक कर वह इन्द्रदेवताओंको संग ले स्वर्गको चलागया॥२८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धं भाषाटीकायां गोविंदाभिषेको नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ दोहा- अट्ठाइसमें नन्दको, लाये कृष्ण छुटाय॥ गोपोंको वैकुण्ठ सव, हितकारी दियो दिखाय॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजन्। नन्दजीने एकादशीका निराहार व्रत करके भगवान्का पूजन किया, दूसरे दिन द्वादशी दो घड़ी थी उस समय पारण करनेके लिये अरुणोदयसे पहले
इति गोगोकुलपतिं गोविंदमभिषिच्य सः॥ अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महा पुराणे दशमस्कंधे पृ० इंद्रस्तुतिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम्॥ स्नातुं नंदस्तु कालिंद्या द्वादश्यां जलमाविशत्॥१॥ तं गृहीत्वाऽन्यद् भृत्यो वरुणस्यासुरोंतिकम्॥ अविज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि॥२॥ चुक्रुशुस्तमपश्यंतः कृष्ण रामेति गोपकाः॥ भगवांस्तदुपश्रुत्य पितरं वरुणाहृतम्॥३॥ तदंतिकं गतो राजन्स्वानामभयदो विभुः॥ प्राप्तं वीक्ष्य हृषीकेशं लोकपालः सपर्यया॥ महत्या पूजयित्वाऽथ तद्दर्शनमहोत्सवः॥४॥
रात्रिमें धर्मसत्रके बलसे स्नान करनेके कारण यमुनाको गये, तब नंदरायजीने आसुरीवेलाको न जानकर यमुनाजीमें प्रवेश किया*****॥१॥ इसलिये वरुणका एक दैत्य सेवक उन्हें पकड़ वरुणके पास लेगया॥२॥ नंदरायजीको न देख जो गोप संग गयेथे वह हे कृष्ण! हे राम! इस प्रकार पुकारनेलगे, उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, पिताको वरुण लेगया यह बात सुन अपने भक्तोंको अभयके देनेवाले वरुणके पास गये॥३॥ श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करने से बडा आनंद पाय लोकोंके पालन करनेवाले वरुणजीने इन्द्रियोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आये देख, बड़ी
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*शंका— भागवतमें लिखा है कि, नन्दजी एकादशीका व्रत करके जब चार घडी पिछलीरात रही तब भगवान्की पूजा करके यमुनामें स्नान करने गये, इसमें यह शका होती है कि, बिना स्नान किये भगवान्का पूजन कैसे किया क्यौंकि जो प्राणी विना स्नान किये भगवान्का पूजन करताहै तो महादोष होताहै?
उत्तर— महात्मा पुरुष भगवान्का पूजन ऐसे नहीं करते, मानसिक पूजन करते हैं, मानसिक पूजनमें भगवान् प्रसन्न भी होते हैं, इसलिये नन्दजी मानसिक पूजन भगवान्का करके पीछेसे स्नानको गये॥
पूजाकी सामग्रियोंसे पूजा करके कहा॥४॥ वरुणजी बोले कि, आज तुम्हारे दर्शन करनेसे मेरा जन्म सफल हुआ और आजही मेरे मनोरथ भी सफल हुये, हे भगवन्! तुम्हारे चरणारविन्दोंका जो भजन करते हैं, वह संसारके पार हो मोक्षको प्राप्त होजाते हैं॥५॥ परिपूर्णरूप, संपूर्ण जीवोंके साक्षी जिनके समान किसीका ऐश्वर्य नहीं, ऐसे भगवान्को नमस्कारहै और जिनके स्वरूपमें लोकोंकी रचना करनेवाली माया नहीं सुनी जाती॥६॥ धर्मकी महिमा और कार्यको नहीं जाननेवाला मूढ मेरा अनुचर तुम्हारे पिताको ले आया, सो अपराध क्षमा करो॥७॥ हे श्रीकृष्ण! मेरे ऊपर तुम अनुग्रह करनेके योग्य हो, गोविंद! हे पितृवत्सल! अपने पिताको तुम ले जाओ॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ
वरुण उवाच॥ अद्य मे निभृतो देह अद्यार्थोऽधिगतः प्रभो॥ त्वत्पादभाजो भगवन्नवापुः पारमध्वनः॥५॥ नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने॥ न यत्र श्रयते माया लोकसृष्टिविकल्पना॥६॥ अजानता मामकेन-मूढेनाकार्यवेदिना॥ आनीतोऽयं तव पिता तद्भवान्क्षन्तुमर्हति॥७॥ ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुमर्हस्यशेषदृक्॥ गोविंद नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल॥८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रसादितः कृष्णो भगवानीश्वरेश्वरः॥ आदायागात्स्वपितरं बन्धूनां चावन्मुदम्॥९॥ नंदस्त्वतींद्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम्॥ कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत्॥१०॥ ते त्वौत्सुक्यधियो राजन्मत्वा गोपास्तमीश्वरम्॥ अपि नः स्वगतिं सुक्ष्मामुपाधास्यदधीश्वरः॥११॥ इति स्वानां स भगवान्विज्ञायाखिलदृक् स्वयम्॥ संकल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिंतयत्॥१२॥
परीक्षित्! इसप्रकार ब्रह्मादिकोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जब वरुणजीने प्रसन्न किया, तब अपने पिता और बंधु बांधवोंको आनंद देते वहॉसे चले॥९॥ जो प्रथम कभी देखनमें न आया, ऐसा वरुणका ऐश्वर्य और श्रीकृष्णचन्द्रमें उनकी प्रीति देख नन्दरायजी अति आश्चर्य मान अपनी जातिके गोपोंसे कहने लगे कि, प्रथम मुझे ले जाकर एक कोनेमें बैठाय दिया, इसके उपरान्त यह कृष्ण गया, तब इसे देख वरुणने नमस्कार करके पूजा की॥१०॥ हे राजन्! उत्कण्ठायुक्त बुद्धिसे ब्रजवासी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ईश्वर मान विचार कर कहने लगे कि, श्रीकृष्णचंद्र क्या हमको वैकुण्ठधाम प्राप्त करेंगे? ब्रह्मादिकोंके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र अपने ब्रह्मस्वरूपका दर्शन करावेंगे॥११॥ इसप्रकार सबके देखनेवाले भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्र अपने व्रजवासियोंका मनोरथ जान उसे पूर्ण करनेके लिये कृपाकरके यह विचार करनेलगे॥१२॥ कि, इस संसारमें प्राणी देहमें अहंकार काम, कर्म इत्यादिसे देवता, पशु, पक्षी आदि जो जो योनि हैं, उनमें भटकता फिरता है और अपना स्वरूप नहीं जानता॥१३॥ इस प्रकार करुणा निधान भगवान्ने विचारकर गोपादि सब ब्रजवासियोंको ब्रह्मरूप दिखाया और इसके उपरान्त मायासे परे जो वैकुण्ठधाम है उसका दर्शन कराया॥१४॥ अब ब्रह्म स्वरूपका वर्णन करते हैं, सत्य अर्थात् बाधारहित ज्ञानस्वरूप है, अनंत अर्थात् गननेमें न आवे, ज्योति अर्थात् स्वयं प्रकाश है, गुणोंके निषेधमें सावधान मुनीश्वर उस रूपको देखते हैं॥१५॥ वह संपूर्ण व्रजवासी ब्रह्मस्वरूप देहमें प्राप्त होते ही मग्न होगये, फिर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कृपा कर वहाँसे निकाल वैकुण्ठलोक दिखाया, जहाँ प्रथम महात्मा अक्रूरजी गये थे, यहाँ शंका है कि, ब्रह्ममें डूबे को वैकुण्ठलोकका
जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः॥ उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन्॥१३॥ इति संचिंत्य भगवान्महाकारुणिको हरिः। दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम्॥१४॥ सत्यं ज्ञानमनंतं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्॥ यद्धि पश्यंति मुनयो गुणापाये समाहिताः॥१५॥ ते तु ब्रह्महृदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्धृताः॥ ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राऽक्रूरोऽध्यगात्पुरा॥१६॥ नंदादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानंदनिर्वृताः॥ कृष्णं च तत्र च्छंदोभिः स्तूयमानं सुविस्ताः॥१७॥ इति श्री मद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दानयनवैकुण्ठप्रदशनं नामाष्टाविंशतितमोऽध्यायः॥२८॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः॥ वीक्ष्य रंतु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥१॥
दर्शन नहीं बनता तो इसके उत्तर में कहतेहैं कि, जिन श्री कृष्णचन्द्रकी कृपा से पहले अक्रूरजीने दर्शन किया था, उन्हीं श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे इन लोगोंने दर्शन किया, क्योंकि अचिन्त्य ऐश्वर्यमान भगवान् श्रीकृष्णचंद्र में कुछ यह बात अनुचित नहीं है॥१६॥ हे नृप! वहॉ वेदोंसे होती हुई श्रीकृष्णचन्द्रभगवान्की स्तुति देख और नंदादि सब ब्रजवासियोंने वैकुण्ठ धामका दर्शन कर परमानंदसे सुखी हो वडा आनन्द प्राप्त किया॥१७॥ इति श्रीमद्भागवते महारापुणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां नन्दानयनवैकुण्ठप्रदर्शनं नामाष्टविंशोध्यायः॥२८॥ दोहा-उनतिसमें हरिने कियो, रास विलास बनाय। अन्तर्धान भये तुरत, सबन वहीं छिटकाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्। गोपकन्याओंसे जिन
रात्रियोंकी प्रतिज्ञा की थी जब वही शरदृतु आनकर उपस्थित हुई कि जहाँ तहाँ चमेली खिलरहीं थीं उन रात्रियोंको देख योगमायाका आश्रय ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रमण करनेका मनोरथ करने लगे॥१॥ और उसी समय सुखदायक किरणोंसे पूर्वदिशाके मुखको अरुण करते भगवान् चन्द्रमा उदय हुये, जैसे परदेशसे बहुत दिनोंमें पुरुष आकर अपनी प्यारीके मुखको केशर लगाकर लाल करता है॥२॥ परिपूर्ण मंडल और लक्ष्मीके मुखके समान कांति नवीन केशरकी तुल्य अरुण चन्द्रमाको देख और राकाकी कोमल किरणोंसे रंगे वृन्दावनको देख भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्त्रियोके मनहरण करनेवाले कलरवसे गीत गानेलगे, इस कलरवमेंसेही बीजमंत्र ‘क्लीं’ निकलता है॥३॥ प्रेमात्मक कामको बढ़ानेवाले गीतको श्रवणकर श्रीकृष्णचन्द्रने जिनके मन हर लिये हैं वह स्त्रिये जहाँ पति श्रीकृष्णचन्द्र थे वहॉ आईं और अरी किशोरी वहां चलैगी, इस प्रकार परस्पर
तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिंपन्नरुणेन शंतमैः॥ स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन् प्रियः प्रियाया इव दीर्घ दर्शनः॥२॥ दृष्ट्वा कुमुद्वंतमखंडमंडलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम्॥ वनं च तत्कोमलगोभिरंजितं जगौ कलं वाम दृशां मनोहरम्॥३॥ निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः॥ आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्य माः स यत्र कांतो जवलोलकुंडलाः॥४॥ दुहंत्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः॥ पयोऽधिश्रित्य संयाव मनुद्वास्यापरा ययुः॥५॥ परिवेषयंत्यस्तद्धित्वा पाययंत्यः शिशून्पयः॥ शुश्रूषंत्यः पतीन् काश्चिदश्नंत्योऽपास्य भो जनम्॥६॥ लिंपंत्यः प्रमृजंत्योऽन्या अंजंत्यः काश्च लोचने॥ व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णांतिकं ययुः॥७॥
कह अत्यन्त शीघ्रतासे चलीं, चलती समय उनके कानोंके कुण्डल हिलते जाते थे॥४॥ कितनीहीं गोपियें उत्कण्ठाके मारे दूहतीहुई गायोंको छोड़कर चली आई और दूसरी चूल्हे पर चढेहुए दूधको वैसाही छोडकर चलीं, बहुत गोपियें गेहूंका पकाहुआ पदार्थ चूल्हेपरही छोडकर चलदीं॥५॥ कितनीही एक पत्तल परोसती थीं सो वंशीकी ध्वनि सुनतेही छोडकर चलीं आईं और कितनी एक गोपी अपने देवर जेठके बालकोंको दूध पिलातीथी, उनको छोड आई, कोई कोई गोपी अपने पतिकी सेवा करनेसेही चलीं और कोई कोई भोजन करनेसेही चली आई॥६॥ कोई २ गोपी घरोंको लीपतीं, कोई नेत्रोंमें अंजन लगाती, कोई पॉवोंके गहने हाथोंमें पहर और हाथोंके पावोंमें पहर, लहॅगा ओढ़, ओढ़नी पहर, भगवान्
मुरली मनोहरके पास आई॥७॥ “यद्यपि गोपियोंके शृंगार उलटे पुलटे थे, परन्तु तोभी योगमायाने सुधार दिये थे” * यद्यपिपति, पिता, माता, भ्राता और जातियोंने मनेभी किया परन्तु तो भी भगवान् केशवमूर्तिने जिनके मन हरलिये थे, उन गोपियोंने किसीका कहना नहीं माना॥८॥ किसी गोपीको उनके पुरुषोंने घरमें बन्द करदिया, जब निकलनेका मार्ग न मिला तब उनने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीकी इच्छाकर ऑंखें मूँद उनका ध्यान किया॥९॥ सहन न किया जाय, ऐसे प्यारेके विरहरूप तापसे पाप जिनके दूर होगये और ध्यानमें प्राप्त हुए भगवान्
ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिर्भ्रातृबन्धुभिः॥ गोविंदापहृतात्मानो न न्यवर्तंत मोहिताः॥८॥ अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः॥ कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः॥९॥ दुस्सहप्रेष्टविरहतीव्रतापधुता शुभाः॥ ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः॥१०॥ तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्याऽपि संगताः॥ जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥११॥ राजोवाच॥ कृष्णं विदुः परं कांतं न तु ब्रह्मतया मुने॥ गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम्॥१२॥
श्रीकृष्णचन्द्रको आलिंगन करके, सुखके पुण्यसे बंधन उनके दूर होगये, ऐसे अत्यन्त विरहके दुःख और श्रीकृष्णकी अत्यन्त प्राप्तिके भोगसे एक संगही सब प्रारब्धकर्म क्षीण होजानेसे मुक्त हुईं॥१०॥ जारबुद्धिसे परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रको पाय बंधन जिनके कटगये, ऐसी गोपियोंने गुणोंके बने देहको तत्कालही त्याग दिया और दिव्य देह धारण कर सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलीं॥११॥ यह सुनकर राजा परीक्षित् बोले कि, हे महाराज! वह गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको केवल जार मानतीथीं, ब्रह्मपनसे उनको किंचित् भी भाव नहीं था, फिर
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** * दृष्टान्त—** जैसे आठ छल शैर करनेको निकले बागमें जाकर कहा कि, भांग बनावो, सो मीठीही छानी और मिठाईके लालचसे तीन २ लोटे गडगप्प करगये अर्थात् पीगये, एक मित्र उनमें चतुर था, तो इसने मनमें विचार किया कि, अभ्यास तो है नहीं और तीन तीन लोटे चढागये हैं, जब यह बेसुधि होजायँगे तो इन्हें कौन सँभालेगा? उसने एक चुल्लूभरही पी थी, अब चढा जो नशा तो किसीकी तो पाग गिरगई किसीका पटका खुलगया, किसीकी धोती खुलगई और जिस्को नशा नहीं था उसने सबको सँभाल लिया इसी प्रकार योगमायाने सबको सुधार दिया॥
गुणमय बुद्धिवाली उन गोपियोंके गुणोंका प्रवाह संसार से कैसे छूटगया?॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! ‘यह बात मैंने आपसे प्रथमही वर्णन की थी कि, जब शिशुपाल, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे शत्रुभाव रखता हुआ भी मुक्तिको प्राप्त हुआ, तब प्रीति करनेवाली गोपियोंके तरनेमें क्या आश्चर्य है?॥१३॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! अव्यय, अत्रमेय, निर्गुण और गुणोंके नियन्ता श्रीकृष्णचन्द्रका जो प्रगट होना है, सो पुरुषोंका कल्याण करने के लिये है, इस कारण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जीवके समान कहना संभव नहीं॥१४॥ काम, क्रोध, भय, स्नेह, एकभाव
श्रीशुक उवाच॥ उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः॥ द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः॥१३॥ नृणां निश्श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप॥ अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः॥१४॥ कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च॥ नित्यं हरौ विदधतो यांति तन्मयतां हि ते॥१५॥ न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे॥ योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद्विमुच्यते॥१६॥ ता दृष्ट्वांतिकमायाता भगवान्व्रजयोषितः॥ अवदद्वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन्॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः॥ व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम्॥१८॥
सौहृद जो पुरुष नित्य भगवान् वासुदेवमें करते हैं, वह पुरुष तन्मय होजाते हैं॥१५॥ हे राजन्! अजन्मा योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रमें तुम आश्चर्य मत करो, क्योंकि उनमें प्रेम करनेसे स्थावरभी संसारसे छूट जाते हैं॥१६॥ *बोलनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने व्रजकी स्त्रियोंको अपने पास आया देख वाणियोंके विलाससे मोहित करके कहा॥१७॥ श्रीभगवान बोले कि, हे बड़भागिनियो! भली आई आओ मैं तुम्हारा क्या आदर करूं? व्रजमें तो कुशल है और यहां कैसे आईं इसका कारण कहो॥१८॥
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** *दृष्टांत—** प्रेमसे मावसहित श्रीनारायणकी कथा सुन ले, कहीं श्रीमद्भागवतकी कथा बैठी थी, किसीने कहा लालाजी सुननेको चलो लालाजीने उत्तर दिया कि, जब दशमस्कन्ध प्रारम्भ होगा तत्र चलेंगे, फिर जब दशम होने लगा तो लालाने कहा कि, पचाध्यायीमें चलेंगे जहाँ श्रीकृष्णने, लाखों गोपी बुलाकर उनके संग विहार किया, हम भी वैसाही करेंगे, जैसे वीर पुरुष कडखे सुनकर आगे बढते हैं, उसीप्रकार विषयी विषयसे और जगह जो मात्र बिगडे तो ठिकाना लग भी जाय और जो साक्षात् कृष्णकांता त्रैलोक्य जननीमें भाव बिगडा तो उसका सत्यानाशही हो जाता है॥
क्योंकि यह भयानक रात्रि है, सिंह, व्याघ्रादि घोर प्राणी यहाँ फिरते हैं, इसकारण तुम अपने घरको जाओ, हे सुमध्यमे। स्त्री जाति होकर यहाँ मति रहो॥१९॥ देखो तुम्हारे माता, पिता, पुत्र, भ्राता, पति तुमको विना देखे ढूँढ़ते होगे इसलिये वन्धुओंको घबराहट मत करो॥२०॥ क्योंकि फुलवार जिसमें फूल रही चन्द्रमाकी किरणोंसे रँगाहुआ यमुनासे लग मंद पवनसे हिलनेवाले वृक्षोंके पातसे शोभायमान वन तुमने भली भाँति देख लिया॥२१॥ इस कारण तुम व्रजमें जाओ, अव विलम्ब मत करो, तुम पतिव्रता हो पतियोंकी सेवा करो, क्योंकि वहॉ बछड़े रम्भाते होंगे, बालक रोते होंगे, जाओ। बालकोंको दूध पिलावो और गायोंको दुहो॥२२॥ अथवा मेरे स्नेहसे वशीभूत अंतःकरणसे तुम आईं, सो तुमको
रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता॥ प्रतियात ब्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः॥१९॥ मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः॥ विचिन्वंति ह्यपश्यंतो मा कृध्वं बंधुसाध्वसम्॥२०॥ दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररंजितम्॥ यमुनाऽनिललीलैजत्तरुपल्लवशोभितम्॥२१॥ तद्यात मा चिरं गोष्टं शुश्रूषध्वं पतीन्सतीः॥ क्रंदंति वत्सा बालाश्च तान्पाययत दुह्यत॥२२॥ अथवा मदभिस्नेहाद् भवंत्यो यंत्रिताशयाः॥ आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयंते मयि जंतवः॥२३॥ भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया॥ तद्वंधूनां च कल्याण्यः प्रजानां चानुपोषणम्॥२४॥ दुश्शीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा॥ पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी॥२५॥ अस्वर्ग्यमय शस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्॥ जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियः॥२६॥
योग्यही है, क्योंकि सब जीव मुझमें प्यार करते हैं॥२३॥ हे मंगलरूपिणियो! निष्कपट होकर पतियोंकी सेवा करो, देवरोंकी सेवा करो, और पुत्रोंका पोषण करो, यही स्त्रियोंका परम धर्म है॥२४॥ यदि कदाचित् अपना पति खोटे स्वभावयुक्त हो, दुर्भाग्य हो अथवा वृद्ध हो, मूर्ख हो, रोगी हो, दरिद्री हो तोभी स्वर्गकी जिनको चाहना है, ऐसी स्त्रियोंको त्यागने योग्य नहीं है और जो पतित हो तो त्यागने योग्य है॥२५॥ कलियुगकी स्त्रियोंको उपपति के सेवन करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता बरन यश जाता है, इसलिये उपपतिका सेवन तुच्छ है, दुःखका देनेवालाहै और
सर्वत्र निंदाके योग्य है॥२६॥ जिसप्रकार भाव मुझमें श्रवण दर्शन ध्यान कीर्त्तनसे रहता है, वैसा पास रहनेसे नहीं होता इसलिये अपने घरको जाओ *****श्रीकृष्णचन्द्रने इसकारण गोपियोंसे जाओ जाओ कहा कि, जो मैं इनसे कहूंगा तुम मेरे साथ विहार करो तो यह गालियें देंगी और निकट भी न आवेंगी इससे प्रथमही इनके मानखंडन करूंतो फिर यह आपही मेरा पल्ला पकडेंगी
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॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! इसप्रकार गोपिये गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्रका वचन श्रवण कर अत्यन्त दुःखित हुई और मनोरथके सिद्ध न होनेसे बड़ी चिन्ता करनेलगीं॥२८॥ चिन्ताके
श्रवणाद्दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्॥ न तथा संनिकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्॥२७॥ श्रीशुक उवाच इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविंदभाषितम्॥ विषण्णा भग्नसंकल्पाश्चिंतामापुर्ढुरत्ययाम्॥२८॥ कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्विंवाधराणि चरणेन भुवं लिखंत्यः॥ अस्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुंकुमानि तस्थुर्मृजंत्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम्॥२९॥ प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः॥ नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किंचित्संरंभगद्गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः॥३०॥
श्वाससे कुंदुरूके फलके समान उनके अरुण होठ सूख गये और अपने अपने मुखोंको नीचाकर चरणके अँगूठेसे धरतीपै लिखने लगीं और रुदनके कारण नेत्रोसे कज्जलसहित जो ऑसू निकलरहे थे उनसे कुचोंकी केशर धुलगई, तब अति दुःखके बोझसे गोपी चुपचाप होकर खड़ी होगई॥२९॥ जिनके लिये गोपियोंने सब घरबार छोड़दिये, उन अपने परमप्रीतम श्रीकृष्णचन्द्रके कठोर वचन सुन प्रेमभरी गोपियें रोने के कारण
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*दृष्टान्त— देखो स्त्रियोंको पतिव्रताधर्म पालन करना चाहिये, पतित्रताओंकी बडी महिमा है। एक स्त्रीका गोदीमें उसका पति शिर धरे सो रहाथा, उसका बालक खेलते खेलते अग्निमें जा पडा स्त्रीने यह देख पतिकी निद्रा भंग न हो, यह विचार अपना घुटुआ न उठाया और अग्नि पतित्रताके शापके भयसे शीतल होगई
** श्लोक—** सुतं पतन्त प्रसमीक्ष्य पावके न बोधयामास पतिं पतिव्रता॥ अभूत्तदानीं व्रतंभगशकया हुताशनश्चदनपकशीतल॥१॥ इस कारण हे सखियो! अपने पतियोंके पास जाओ॥
** + दृष्टान्त—** श्रीकृष्णने वंशी बजाते तो वजाढी और जब लाखों गोपियोंने आनकर घेरलिया, तब बुद्धि विहारी होगई, जैसे किसीके वालक घरमें रुईका फोहा जलाते हैं और फिर प्रसन्न होते हैं, सो वाजारमें किसी साहूकारकी दूकानमें लाख रुपयेकी रुईका ढेर लगा देख उन्होंने मनमें विचार किया कि, इसमें वडा तमाशा होगा सो ढेरमें आग लगा दी जब वह ढेर थोडा २ जला तबतक तो ताली बजाते रहे और जिस समय आग भङककर ऊचीं ऊंचीं लपटें निकलीं तब घबरागये, इसीप्रकार श्रीकृष्णकी दशा हुई, जब एकाध गोपीको कहीं देखपाते, तव तो प्रसन्न होते अब लाखों गोपियोंको देख घबराकर घर जानेको कहा॥
आंसुओसे पूर्ण नेत्रोंको पोंछ कुछेक क्रोधित हो गद्गद कंठसे बोलीं॥३०॥ कि, हे समर्थ! “जाओ जाओ” ऐसे कठोर वचन मत कहो, क्योंकि हम सब विषयोंको त्यागकर केवल तुम्हारेही चरणोंका सेवन करती हैं. हे दुराग्रही! हमको मत त्यागो, जैसे आदिपुरुष भगवान् की शरण सर्व त्याग नकर मुमुक्षुलोग जाते हैं मुमुक्षु पुरुषोंको वह भजतेहैं. उसीप्रकार तुम्हारे लिये सर्वस्व त्यागकर हम आई हैं. इसलिये हमारा सेवन करो, त्यागो मत॥३१॥ हे कृष्ण धर्मवेत्ता! तुमने कहा, पति पुत्र सुतोंकी सेवा करो, यह स्त्रियोंका परमधर्म है जो कहा, सो हमारी धर्म सुननेकी इच्छा नहीं है क्योंकि हमें चाहना नहीं है, तुम धर्मके उपदेश करनेवाले नहीं हो किन्तु देहधारियोंके प्यारे हो आपने कहा पति आदिकोंकी सेवा करना धर्म है, सो आत्मासहित पति आदिक प्रिय लगते हैं स्त्रीको पति प्यारा लगता है. आत्मासे लगता है सो आत्मा जब निकल जाता है, पीछे इस देहको
गोप्य ऊचुः॥ मैवं विभोर्हति भवान्गदितुं नृशंसं संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्॥ भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्॥३१॥ यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्व योक्तम्॥ अस्त्येवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्टो भवांस्तनभृतां किल बंधुरात्मा॥३२॥ कुर्वंति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम्॥ तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिंद्या आशां भृतां त्वयि चिरा दरविंदनेत्र॥३३॥ चित्तं सुखेन भवताऽपहृतं गृहेषु यन्निविंशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये॥ पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा॥३४॥
बांधकर लेजाते हैं और जला देते हैं, सो सबके आत्मा तुम हो, तुम्हारे सेवन करनेसे हमें सब धर्म स्वयं प्राप्त होजायँगे, क्योंकि सब उपदेशवाक्य ईश्वरकी सेवा करनाही परमधर्म बताते हैं, इसकारण तुम सब जीवोंके आत्मा होनेसे परमबंधु ईश्वर हो तुमसे जो जीव बहिर्मुख हैं सो दग्ध होनेके योग्य हैं॥३२॥ अपने आत्मा नित्य प्यारे तुम हो तिनमें विवेकीपुरुष प्रीति करते हैं, दुःखके देनेवाले पति पुत्रादिकोंसे क्या प्रयो जन है? इसकारण तुम हमपर प्रसन्न हो. हे ईश्वर कमलदललोचन! बहुत दिनोंसे तुममें आशारूपी लता लगाई है, उसे “जाओ जाओ” ऐसे कुठाररूप वचनसे कैसे काटते हो? देखो! विषके वृक्षको भी आप बढ़ाकर विवेकी नहीं काटते हैं॥३३॥ तुमने कहा, जाओ सो हम कैसे
जायँ? क्योंकि जो चित्त सुखपूर्वक घरमें लग रहा था, सो तुमने हर लिया और जिन हाथोंसे घरका काम करती थीं, सो तुमने हर लिये, तब श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, हे गोपियो! अब तुम जाओ, परसोंके दिन तुम सबके चित्त विचार कर देंगे, तो गोपियोंने कहा कि, तुम्हारे चरण छोड़कर हमारे पॉव एक पग भी नहीं चलसक्ते व्रजमें कैसे जाये? और जाकर हम क्या करैं?॥३४॥ हे सखे! आपके हास्य, दर्शन और मधुरगीतसे उत्पन्नहुई हमारी कामाग्निको तुम अपने अधरामृतरूप पिचकारीसे शान्तकरो, नहीं तो हम एक तो कामकी अग्नि और दूसरी विरहकी अग्नि इन दोनोंसे दग्ध
सिंचांग नस्त्वदधरामृतपूरकेण हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम्॥ नो चेद्वयं विरहजाग्न्युपयुक्तदेहा ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते॥३५॥ यर्ह्यंबुजाक्ष तव पादतलं रमाया दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य॥ अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग स्थातुं त्ययाभिरमिता वत पारयामः॥३६॥ श्रीर्यत्पदांबुजरजश्चकमे तुलस्या लब्ध्वाऽपि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्॥ यस्याः स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयासस्तद्वद्वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः॥३७॥
शरीर हो योगीजनोंकी नाईं तुम्हारे ध्यानसेही तुम्हारे चरणोंके निकट पहुँच जायँगी *॥३५॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, तुम अपने पतियोंके! हे पासजाओ, वही तुम्हारी कामाग्नि बुझावैंगे, इसके उत्तरमें गोपी कहती हैं कि, हे कमलदललोचन! वनवासी जिन्हें प्रिय हैं, ऐसे तुम हो और लक्ष्मीजीको किसीसमयही जिनकी सेवा प्राप्त होतीहै, ऐसे तुम्हारे चरणोंके तलुए हमने जबसे स्पर्श किये, उसी दिनसे उनका सुख अनुभव किया और उसीं दिनसे औरके सन्मुख भी खडी नही होसक्तीं॥३६॥ यद्यपि लक्ष्मीजी सदा वक्षस्थलमें रहती हैं परन्तु तो भी जिसका भक्तलोग सेवन
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*शंका— जैसे कामदेव से पीडित होकर मनुष्योंकी स्त्री ओष्ठ चुम्बन करनेके लिये मनुष्योंकी विनती करती हैं और गोपी तो मोक्षका रूप थीं परन्तु कामकी शांति करनेकी पूर्ण ब्रह्म सरीखे जो श्रीकृष्ण हैं उनसे ओष्ठ चुम्बन करनेके लिये याचना क्यों की?
**उत्तर—**गोपियोंने विचार किया कि, हम कुछ पढी नहीं और श्रीकृष्णकी जैसे विद्वान लोग स्तोत्रोंसे स्तुति करते हैं, यैसी स्तुति हम भी किया चाहती हैं, परन्तु विना विद्या हम कैसे स्तोत्रोंसे स्तुति करें? परन्तु हमने ऐसा भी सुना है कि, श्रीकृष्णके ओष्ठोंमें सरस्वतीका वास है जो हमारे सबके ओष्ठोंसे श्रीकृष्णके ओष्ठ छुइ जायँ तो हम सब विद्यावान होजायँगी, तब अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भगवानकी स्तुति हम भी विद्वानोंकी सदृश किया करेंगी, कामदेवकी पीडासे कृष्ण के ओष्ठोंका चुम्बन करना नहीं चाहती थीं॥
करते हैं, ऐसी तुम्हारे चरणकी रेणुको तुलसीने सौत सहित चाहना की, जिस लक्ष्मीजीकी चितवनके लिये और देवता तप करके परिश्रम करते हैं उन्हीं लक्ष्मीकी समान हम भी तुम्हारे चरणकी रजको प्राप्त हुई हैं, अर्थात् शरण ली है॥३७॥ हे दुःखके काटनेवाले। तुम्हारे भजनेमें आशा लगाये हम घर छोडकर तुम्हारे चरणोंके पास आई हैं तुम हमारे ऊपर प्रसन्न होओ, तुम्हारी सुन्दर मुसकान चितवनसे बढे कामदेवसे तपित देह हमको अपनी दासी करके स्थान दीजिये॥३८॥ अलकावली जिसपर छूट रहीं और कुण्डलोंकी कान्तिसे युक्त कपोल अमृतभरे ओष्ठमें हास्य सहित चितवनवाले तुम्हारे मुखको देख और भक्तोंके अभयदान देनेवाले तुम्हारे दोनों भुजदण्डोंको देखकर लक्ष्मीको एकही प्रीतिके उपजानेवाले तुम्हारे
तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेंघ्रिमूलं प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः॥ त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्॥३८॥ वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम्॥ दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः॥३९॥ का स्त्र्यंग ते कलपदायतवेणुगीतसंमोहिताऽऽर्य चरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्॥ त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यविभ्रन्॥४०॥ व्यक्तं भवान्व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो देवो यथादिपुरुषः सुरलोकगोप्ता॥ तन्नो निधेहि करपंकजमार्तबन्धो तप्तस्तनेषु च शिरस्सु च किंकरीणाम्॥४१॥
वक्षस्थलको देख हम तुम्हारी दासी होती हैं, हे कृष्ण! मनोहर पदवाले बड़े बाँसुरीके गीतसे मोहित होकर त्रिलोकीमें ऐसी कौन स्त्री है जो अपने धर्मसे चलायमान न हो, त्रिलोकीमें सुन्दर इस तुम्हारे रूपको देख गौ, पक्षी, मृग यह भी रोमांचित होजाते हैं, फिर हम इस मनमोहनरूपसे मोहित होगई तो इसमें आश्चर्यही क्या है? तुम्हारा प्रकाशक शब्द सुनकर भी अपना धर्म त्यागना उचित है और तुम्हारे रूपके अनुभवसे त्याग करनेमें क्या आश्चर्य है?॥३९॥४०॥ और आपने निश्चय व्रजके भय पीड़ा दूर करनेके लिये अवतार लिया है जैसे आदिपुरुष श्रीनारायण स्वर्गकी रक्षा करते हैं, इस कारण हे दीनबंधु! हम तुम्हारी दासी हैं, हमारे कामदेवसे तप्त स्तन और शिरोंपर अपने हस्तकमलको धरो॥४१॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित्! इसप्रकार योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंका विलाप सुन हँसकर दयाको प्राप्त हो, आत्मा राम भी हैं, तो भी गोपियोंके संग रमण करनेलगे॥४२॥ प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रकी चितवनसे प्रफुल्लितमुखवाली इकठ्ठी हुई गोपियोंके सहित उदार जिनकी चेष्टा और उदार जिनकी हॅसनि दॉतोंमें कुंदकलीकी समान कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे शोभायमान लगनेलगे जैसे तारागण सहित चन्द्रमा शोभायमान लगता है॥४३॥ गोपियें जिनका गान करें और स्त्रियोंके सैकडों यूथका पालन करै, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं गान करते
श्रीशुक उवाच॥ इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः॥ प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत्॥४२॥ ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः॥ उदारहासद्विजकुन्ददीधितिर्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः॥४३॥ उपगीयमान उद्गायन्वनिताशतयूथपः॥ मालां बिभ्रद्वैजयंतीं व्यचरन्मंडयन्वनम्॥४४॥ नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुक॥ रेमे तत्तरलानंदकुमुदामोदवायुना॥४५॥ बाहुप्रसारपरिरंभकरालकोरुनी वीस्तनाऽऽलभननर्मनखाग्रपातैः॥ क्ष्वेल्याऽवलोकहसितैर्ब्रजसुंदरीणामुत्तंभयन्रतिपतिं रमयांचकार॥४६॥ एवं भगवतः कृष्णाल्लब्धमाना महात्मनः॥ आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि॥४७॥
वैजयन्ती माला पहरे, वनको शोभायमान करते विहार करनेलगे॥४४॥ शीतल वालूके बिछौनेवाले यमुनाजीके पुलिनमें गोपियों सहित आकर रमण करनेलगे, वहाँ यमुनाजीकी लहरका आनन्द और कमलोंकी सुगंधसनी वायुसे अत्यन्त प्रसन्न हुए॥४५॥ भुजाओंका पसारना, आलिंगन करना कर, अलक, ऊरू, नीवी, स्तन इनका स्पर्श करना, परिहासके वचन कहना, नखोंके चिह्न, क्रीडा, चितवन और हँसियोंसे व्रजसुन्दरियों को भगवान् काम उद्दीपन कराय रमण करनेलगे॥४६॥ इसप्रकार महात्मा श्रीकृष्णचंद्रसे मान जिन्होंने प्राप्त किया ऐसी गोपियें मानवती होकर
पृथ्वीकी स्त्रियों में अपनेको अधिक मानने लगीं॥४७॥ ब्रह्मा और महादेवको वश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनगोपियोंको सौभाग्यके मदके अधीन देख, उनका गर्व दूर और कृपा करनेके लिये उस रासमंडलमेंही अंतर्धान होगये, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रने विचारा कि, अभी तो कुछ रासका प्रारंभही हुआ है सेरमें पौन भी नहीं और इन्हें मान हुआ, जो ऐसे लाखों गोपियोंके पांव पडता फिरूँ तो वर्षों लगजाय. फिर रास कैसे होगा? इसकारण उनका मानभंग करनेको अंतर्धान होगये, अथवा जो प्यारी थी, उसका मानघटने लगा कि, देखो हमकोभी कृष्ण सवकी बराबरही देखते हैं और साधारणको मान बढ़ा कि प्यारी गोपी हमारे अधीन है, सो दोनोंका मान समान करनेको भगवान् श्रीकृष्णचंद्र अंतर्धान होगये॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायां कृष्णान्तर्धानं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः॥ प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवांतरधीयत॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां कृष्णांतर्धानं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ अंतर्हिते भगवति सहसैव ब्रजांगनाः॥ अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम्॥१॥ गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितैर्मनोरमा लापविहारविभ्रमैः॥ आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः॥२॥ गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः॥ असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः॥३॥
दोहा— तीस माहिं सब ग्वालिनी, भई हाल बेहाल। वन वन फिरत विरह दही, कहाँ गये नँदलाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित! जिससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रासमंडलमेंसे अंतर्धान होगये, उससमय तत्कालही व्रजकी स्त्रियें तथा गोपियें उनके देखे विना ऐसी अत्यन्त व्याकुल होगईं कि,॥१॥ जिसप्रकार हाथीके देखे विना हाथिनियें व्याकुल हो जाती हैं, श्रीकृष्णचन्द्रकी चलनि, स्नेहभरी मुसकान, विलासपूर्वक चितवन, मधुर बोलनेकी क्रीडाओंमें मन जिनके पकड़े गये; ऐसी गोपियें तन्मय होगईं, उनकी लीलाका अनुकरण करने लगीं॥२॥ श्रीकृष्णचन्द्रका गमन, हास्यभरी चितवन और मधुर वाणियोंके विहारकर प्यारेमें आरूढ़ हो श्रीकृष्णचन्द्रका रूप बनकर कहने लगीं कि, “मैं
कृष्ण हू, मैं कृष्ण हूं” इसप्रकार चेष्टा करने लगीं॥३॥ इसके उपरान्त सम्पूर्ण गोपियें मिल श्रीकृष्णचन्द्रका ऊंचे स्वरसे गान करती मतवालेकी समान वन वनमें ढूंढ़ने लगीं सब प्राणियोंमें आकाशकी तुल्य व्यापक जो श्रीकृष्णचन्द्र हैं, उनको वृक्षोंसे पूछने लगीं॥४॥ हे पीपरके वृक्ष! हे वटके वृक्ष! नंदका पुत्र श्रीकृष्ण प्रेमभरी चितवन और हँसी करके हमारा चित्त चुराकर ले गया है, यदि आपने देखाहो तो हमको अत्यन्त दुःखी जान कृपापूर्वक बता दो, कोई बोली, अरी! यह क्या बतावेंगे, यह तो अश्वत्थ है, इनकी जो जड़ थोड़ीसी ऊपर रही है, सो यह ऐसी चिन्ता किया करते हैं कि कहीं ऐसी पवन न आजाय जो हमें उखाड़कर फेंक दे, कोई बोली अरी! यह पीपल नारायणका रूप है, नारायण भक्तोंके कार्यमें मग्न
गायंत्य उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम्॥ पप्रच्छुराकाशवदंतरं वहिर्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन्॥४॥ हृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः॥ नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः॥५॥ कच्चित्कुरवकाशोकनागपुन्नागचम्पकाः॥ रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः॥६॥ कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविंदच रणप्रिये॥ सह त्वाऽलिकुलैर्बिभद् दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः॥७॥
रहते हैं, सो हमें क्या बतावेंगे? न्यग्रोध शिवका रूप है सो यह योगमें मग्न रहते हैं, हमको क्या बतावेंगे*****॥५॥ हे कुरबक! हे अशोक! हे नाग! हे पुन्नाग! हे केशर! हे चम्पे! हे मालती! गर्व हरनेवाली जिसकी मुसकान ऐसा बलरामका छोटा भाई (कृष्ण) कहीं तुमने देखा? फिर रामानुजियोंसे कहा कि, कहीं बडे भाईका प्रसाद भॉगके चुल्लूमें तो न पीगये? जो हमारी यह रक्षा करते फिरते, कोई बोली अशोकसे क्या पूँछती हो यह तो आप अशोच है, सो पराये शोचको क्या जाने॥६॥ कोई वनमें कहती हैं कि, हे तुलसी! कल्याणरूपिणी! गोविंदके चरणोंकी अत्यन्त
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*शंका— वृक्षोंसे गोपियोंने श्रीकृष्णचन्द्रजीको बूझा और वृक्ष जानते थे कि, इसी मार्ग होकर श्रीकृष्णचन्द्र गये हैं, फिर वृक्षोंने गोपियोंसे क्यों नहीं कहा कि, हमने श्रीकृष्णको देखा अथवा नहीं देखा चुप क्यों होगये?
** उत्तर—** जैसे कृष्णके प्रेममें गोपी उन्मत्त हो रही थी, ऐसे ही कृष्णके ध्यानमें वृक्ष भी मतवाले हो रहे थे, वृक्षोंको तो अपनी देहका अथवा और किसी दूसरी वस्तुका ध्यान भी नहीं था और कुछ स्मरण भी नहीं था, भगवान्में मन लगा रहे थे, इसलिये उत्तर नहीं दिया, दूसरे वृक्षोंमें बोलनेकी शक्तिभी नहीं होती॥
प्यारी और भौंरे जिसमें गुंजार करैं, सो तुम्हारी मालाको पहरे, तुमने अपने अत्यन्त प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रको कहीं देखा होय तो बता दो॥७॥ हे मालती! मल्लिके हे यूथिके! हे जाति! क्या आपने कहीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखा? क्या हाथके छूनेसे तुम्हारी प्रीति उत्पन्न करते, इसी मार्गसे गये हों॥८॥ हे आम! हे चिरौजी! हे कटहर! हे विजयसार! हे कचनार! हे जामुन! हे वेल! हे मौलसिरी! हे सफरी! हे आम्र! और हे लोटन कदम्ब! तुम परोपकारी यमुनातीरवासी हो इसकारण हमें बता दो कि, तुमने कहीं श्रीकृष्णचन्द्रको जाते देखा?॥९॥ जब किसीने उत्तर न दिया तो एक गोपी बोली कि, पृथ्वीसे बूझो कि, हे पृथ्वी। ऐसा तैंने क्या तप किया, जो केशवभगवानका चरणस्पर्श हुवा, जिससे तुझे आनंद सहित रोमांच हुवे हैं, जिसके कारण तू सुन्दर लगती है, यह आनन्द प्यारेका चरण लगनेके कारण हुआ है,
मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जाति यूथिके॥ प्रीतिं वो जनयन्यातः करस्पर्शेन माधवः॥८॥ चूतप्रियालपनसाऽसनकोविदारजम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदंबनीचाः॥ येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः॥९॥ किं ते कृतं क्षिति तपो वत केशवांघ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकितांगरुहैर्विभासि॥ अप्यंघ्रिसंभव उरुक्रमविक्रमाद्वा आहो वराहवपुषः परिरंभणेन॥१०॥ अप्येणपत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रैस्तन्वन्दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः॥ कांतांगसंगकुचकुंकुमरंजितायाः कुन्दस्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः॥११॥ बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो रामानुज स्तुलसिकालिकुलैर्मदांधैः॥ अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं किंवाऽभिनन्दति चरन्प्रणयावलोकैः॥१२॥
अथवा वामनजीने तुझे तीन पैग नापी है, अथवा उससे पहले वाराहजी तुझे दाढ़पर रखकर ले आये हैं, तबका आनन्द है, परन्तु वह आनंद तो पुराने पड़गये, अभी प्यारेका चरणारविन्द तैंने स्पर्श किया है और तैंने उन्हें निश्चय देखा हैं सो हमें बता दे॥१०॥ हे सखी, हरिणकी स्त्री! अच्युत श्रीकृष्णचन्द्र प्यारीको संग लिये अपने अंगोसे तुम्हारी दृष्टिको आनंद देते यहाँ आये हैं? क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रकी प्यारी जो अंगके संग है, इसीकारण कुचोंकी केशरसे रंगीहुई कुन्दकी मालाकी सुगंध यहाँ आतीहै. “हे मृगनयनी! हमारी बातका ऐसा अनादर? कि, इस ओरसे दृष्टिभी फेर ली, फिर बोली कि, तुम्हारा कुछ अपराध नहीं, जब विधाता वाम होता है तो सब ठौर अपमानही अपमान होता है”॥११॥ आगे बढ़कर वृक्षोंसे कहने लगी कि हे वृक्षो। प्यारीके कंधेपर भुजाको धारण किये और दूसरे हाथमें कमल लिये यहां फिरते
तुलसी संबंधी मदोन्मत्त भौरे जिनके पीछे जाया करते हैं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्नेहभरी चितवनसे क्या तुम्हारी दण्डवत् यहाँ आनकर करली है॥१२॥ कोई बोली कि, हे वीर। यह लतायें श्रीकृष्णचन्द्रसे अवश्य मिली होंगी, क्योंकि यह अपने पति वृक्षकी शाखारूप बॉहोंका आश्रय कर रही हैं इससे ज्ञात होता है कि, अवश्य हमारे प्यारे श्रीकृष्णचंद्रके नख इनमें लगेहैं, इसी कारण रोमांच हो आये हैं, हेवृक्षो! वृक्षोंके समागम में ऐसे रोमांच नहीं होते॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार मतवालेकी भाँति पूछतीं श्रीकृष्णमें तन्मय और उनके ढूँढनेसे विह्वल होकर गोपियां भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाओंका अनुकरण करने लगीं॥१४॥ *इसके उपरान्त कोई गोपी पूतना बनी
पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः॥ नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो॥१३॥ इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः॥ लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥१४॥ कस्याश्चित्पूतनायंत्याः कृष्णायंत्य पिवत्स्तनम्॥ तोकायित्वा रुदत्यन्या पदाऽहन् शकटायतीम्॥१५॥ दैत्यायित्वाजहारान्यामेकां कृष्णार्भ भावनाम्॥ रिंगयामास काऽप्यंघ्री कर्षंती घोषनिस्स्वनैः॥१६॥ कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायंत्यश्च काश्चन॥ वत्सायंती हंति चान्या तत्रैका तु बकायतीम्॥१७॥
कोई गोपी कृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी और कोई गोपी बालक बन रोती हुई शकटासुर बनी वह जो कोई गोपीहै उसको पावकी ठोकर मारनेलगी॥१५॥ एक गोपी तृणावर्त्त दैत्य बनकर कृष्णके बालक रूपको धरे जो और गोपी है उसे दूसरी दैत्यरूप बन हरकर लेगई। और एक गोपी घुंघरू बॉध पॉवोंको घसीटती घुटुओं चलने लगी॥१६॥ दो गोपियाँ कृष्ण बलदेव बनीं और कोई गोपी गोप बनी और कोई
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*दृष्टात— एक बडा गयैया था, सो वह अपनी खुशीसे गाता और किसीके कहनेसे नहीं गाता था एक भले आदमीका मन उसका गाना सुननेको चाहा, तो उसने क्या चतुराई करी कि, उसीकी तानमें गाऊं क्योंकि मुझसे ठीक बनेगी नहीं, इस कारण वह अपनी तान सुधारनेको आपही गावैगा, सो गाने लगा तो तान वैसी न आई, तब गायैये ने अपने मनमे कहा कि, यह मेरी तान गा रहा है. परन्तु बिगडी जाती है, तब आप भी गाने लगा और उससे कहा कि ऐसे गावो, इसी प्रकार गोपियोंने विचारा कि, हम श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला करें सो हमसे ठीक बनेगी तो हैही नही, इसकारण उसके बतानेको श्रीकृष्ण स्वयंही आजायँगे॥
वत्सासुर बन उसको मारनेलगीं, एक गोपी बकासुर बनी, उसे और गोपीने मारदिया॥१७॥ जैसे भगवान् श्रीकृष्णचंद्र दूर चरतीहुई गायोंको बुलातेथे, उसी प्रकार एक गोपी गायोंको बुलाय श्रीकृष्णका अनुकरण करनेलगी. बाँसुरीको बजाकर क्रीडा करती थीं और गोपियें धन्यवाद देती थीं॥१८॥ एक गोपी गोपीके कंधेपर हाथ धरकर कहनेलगी कि, मेरी मनोहर नृत्यलीलाको तुम देखो, इसप्रकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें जाकर उनका मन लगगया॥१९॥ कोई गोपी पवन वर्षासे भय मतकरो “मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा” इसप्रकार कह एक हाथसे यत्नकर जैसे गोवर्द्धन पर्वत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उठाया था, उसी प्रकार अपनी ओढनीको ऊंचा उठालिया॥२०॥ हे नृप! एक गोपी और गोपीके ऊपर चढ पॉव शिर ऊपर घर एक गोपीसे कहने लगी कि, हे दुष्टसर्प! तू यहाँसे निकलजा, क्योंकि मैं दुष्टोंका दण्ड देनेवाला उत्पन्न हुआहूं॥२१॥ उससमे एकगोपी
आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुकुर्वतीम्॥ वेणुं क्कणंतीं क्रीडन्तीमन्याः शंसंति साध्विति॥१८॥ कस्यांचित्स्वभुजं न्यस्य चलंत्याहारा ननु॥ कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः॥१९॥ मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्राणं विहि मया॥ इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतंत्युन्निदधेंबरम्॥२०॥ आरुह्यैका पदाऽऽक्रम्य शिरस्याहाऽपरां नृप॥ दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दंडधृक्॥२१॥ तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्वणम्॥ चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममंजसा॥२२॥ बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले॥ भीता सुदृक पिधायास्यं भेजे भीति विडंबनम्॥२३॥ एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून्॥ व्यचक्षत बनोद्देशे पदानि परमात्मनः॥२४॥ पदानि व्यक्तमेतानि नंदसुनोर्महात्मनः॥ लक्ष्यंते हि ध्वजांभोजवज्रांकुशयवादिभिः॥२५॥
बोली कि, हे गोपियो! इस वनमें अत्यन्त भयानक अग्नि लगी है, इसे देखो और शीघ्र नेत्र बन्द करलो मैं इस अग्रिको बुझाऊंगी, तथा अनायास देखे बिना कल्याण कहूंगी॥२२॥ कोई एक दुर्बल अंगकी गोपी मालासे ऊखलमें बाँध दी, तब वह डरकर सुन्दर नेत्रवाले मुखको ढक डरनेका अनुकरण करनेलगी, जब लीला करते करते रासलीला करनेलगीं, तब ज्योंही श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तर्द्धान होनेकी लीला आई, तभी श्रीकृष्णचन्द्रका स्मरणकर व्याकुलहृदय हो ढूंढने लगीं॥२३॥ इसप्रकार वृन्दावनकी लता और वृक्षोंसे पूछती पूछती आगे वनमें जाकर परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंका खोज देखा॥२४॥ ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, आदि इन चिह्नोंसे महात्मा नंदजीके बेटेका यह चरण निश्वयहै, इसप्रकार खोज लगता है॥२५॥
इसप्रकार अबला गोपी चरणोंके खोजसे श्रीकृष्णचन्द्रके जानेका मार्ग ढूँढने लगीं, आगे जाय श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंके खोजमें प्यारीके चरणोंका खोज देख दुःखी हो यह कहने लगीं॥२६॥ कि, श्रीकृष्णचन्द्रके संग यह कौन गई है, यह किसके चरण हैं जिसने श्रीकृष्णके कन्धेपर अपना हाथ धराहै जसप्रकार हाथी हाथिनियोके ऊपर सून्ड धर लेताहै॥२७॥ निश्चय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका इसने आराधन किया है जिस कारण हम सबको त्याग प्रसन्न हो श्रीगोविंद इसे एकान्तमें लेगये॥२८॥ हे सखियो! यह गोविन्दकी चरणरेणुको ब्रह्मा, महादेव, लक्ष्मी, संपूर्ण अपने पाप दूर करने के लिये माथेपर चढ़ाते हैं, यह रज बड़ी धन्य है, जो इसे शिरपर धारण करोगी तो भगवान् मिलजायेंगे॥२९॥ उस प्यारीके पॉवके
तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छंत्योऽग्रतोऽबलाः॥ वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन्॥२६॥ कस्याः पदानि चैतानि याताया नंदसूनुना॥ अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा॥२७॥ अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः॥ यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥२८॥ धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दांघ्य्रब्जरेणवः॥ यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये॥२९॥ तस्या अमृनिनः क्षोभं कुर्वंत्युच्चैः पदानि यत्॥ यैकाऽपहृत्य गोपीनां रहो भुंक्तेऽच्युताधरम्॥३०॥ न लक्ष्यंते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणांकुरैः॥ खिद्यत्सुजातांघ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः॥३१॥ (इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो बधूम्॥ गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः॥ अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना॥) अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः॥ प्रपदाक्रमणे एते पश्यताऽसकले पदे॥३२॥
खोज हमको अत्यन्त व्याकुल करते हैं देखो! हम सबको त्याग अकेली एकान्तमें ले जाय श्रीकृष्णचन्द्रका अधरामृत भोग करती है॥३०॥ आगे बढकर बोली कि, यहाँ तो उसके चरण नहीं दिखाई देते, परन्तु इसका कारण यह विदित होताहै कि, जब तृणके अंकुरोंसे उसका कोमल चरण तल पीडित होगये हैं, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी प्रियतमाको कंधेपर चढाया॥३१॥ (हे वीर! जिससमय श्रीकृष्णने प्यारीको उठाया, तो उन कामके रसिया श्रीकृष्णचन्द्रके चरण पृथ्वीमें धसगये. देखो! यह फूलोंके लिये अवश्य सखीको उठायाहै) हे सखी! यह देखो! प्यारेने प्यारीके कारण फूल तोडे हैं, इस स्थानमें चरणोंको उचकाकर खडे होनेसे थोडा चिह्न दिखाई देताहै॥३२॥
कामासक्त श्रीकृष्णचन्द्रने कामिनीके इस स्थानमें केश गुह कर सुधारे हैं, फिर प्यारीको बैठाय केश गुहे, जो प्यारा है सो इस स्थानमें निश्चय बैठा होगा॥३३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र आत्मरत आत्माराम स्त्रियोंके विलासोंसे अखण्डित हैं. परन्तु तोभी उन्होंने कामी मनुष्योंकी दीनता और स्त्रियोंका दुष्टपन दिखलानेके लिये उनके साथ रमण किया॥३४॥ इसप्रकार वह सब गोपियें अचेत हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ढूंढनेका विचार करने लगीं, अब श्रीकृष्णचन्द्र और स्त्रियोंको वनमें त्याग जिस स्त्रीको संग लेगयेथे॥३५॥ वह गोपी सब स्त्रियोंमें अपने आपको श्रेष्ठ मानने लगी कि, देखो चाहना करनेवाली गोपियोंको छोड़ श्रीकृष्णचन्द्र मेरा सेवन करतेहैं॥३६॥ इसके उपरान्त वह गोपी गर्वित होकर केशव श्रीकृष्णचन्द्रसे कहनेलगी कि, मुझपे चला नहीं जाता, जहाँ तुम्हारा मनहो वहाँ लेचलो, तब
केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम्॥ तानि चूडयता कांतामुपविष्टमिह ध्रुवम्॥३३॥ रेमे तया चात्मरत आत्मारामोप्यखंडितः॥ कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम्॥३४॥ इत्येवं दर्शयंत्य स्ताश्चैरुर्गोप्यो विचेतसः॥ यां गोपीमनयत् कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने॥३५॥ सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्व योषिताम्॥ हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः॥३६॥ ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्॥ न पार येऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः॥३७॥ एवमुक्तः प्रियामाह स्कंधमारुह्यतामिति॥ ततश्चांतर्दधे कृष्णः सा वधूरन्व तप्यत॥३८॥ हा नाथ रमण प्रेष्ठ कासि क्कासि महाभुज॥ दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम्॥३९॥ श्रीशुक उवाच॥ अन्विच्छंत्यो भगवतो मार्गं गोप्यो विदूरतः॥ ददृशुः प्रियविश्लेषमोहितां दुःखितां सखीम्॥४०॥
श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, प्यारी! दश पैग और चलो किशोरीजी बोलीं, हांजी जैसे तुम चार पहर गायोंके पीछे फिरते हो उसी प्रकार सबको जानते हो, हम तो कभी महलके बाहर भी नहीं निकलीं. सो कैसे चलें॥३७॥ इसप्रकार जब प्यारीने कहा तब श्रीकृष्णचन्द्रने अपने कंधेपर चढ़नेको कहा। यह सुनकर ज्योंही राधिका चढ़ने लगी त्योंही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अन्तर्धान होगये, तब तो वह अत्यन्त घबराई॥३८॥ और कहनेलगी कि, हा नाथ! हे रमणकरानेवाले! हे महाभुज! तुम कहाँ हो? कहाँ हो? हे सखे! तुम्हारी ऐसी कृपण मैं दासीं हूं, इसकारण समीप आनकर मुछे अपना दर्शन दो॥३९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! उन सब इकट्ठी गोपियोंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दूरसे मार्ग ढूँढ़ते ढूँढ़ते
प्यारेके वियोगमें मोहित और अति दुःखित इस स्त्रीको देखा॥४०॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे प्रथम मान मिला फिर गर्व होनेसे अपमान मिला, यह बात उस स्त्रीके मुखसे श्रवण कर सब गोपियाँ बडे आश्चर्यको प्राप्त हुईं॥४१॥ और निशानाथ चन्द्रमाकी चाँदनीका प्रकाश जहाँतक था, वहाँतक तो गोपियोंने वनमें ढूँढा, आगे वृक्षोंकी छायाका अँधेरा देखकर लौट आई॥४२॥ वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये कृष्ण संबंधी बातें और उन्हींकी लीला करतीं तन्मय हो उन्हींके गुण गानकर रहींथीं कि, कृष्णवियोगमें उन्हें अपने घरकी भी सुधि न रही॥४३॥ इसके उपरान्त सब लौट यमुनाजी के पुलिनमें आय भगवान् में जिनकी भावना लग रही, उनके आनेका पैंडा देख सम्पूर्ण गोपियाँ मिलकर
तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात्॥ अपमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः॥४१॥ ततोऽविशन्वनं चंद्रज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते॥ तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः॥४२॥ तन्मनस्कास्तदालापास्तद्विचेष्टा स्तदात्मिकाः॥ तद्गुणानेव गायंत्यो नात्मागाराणि सस्मरुः॥४३॥ पुनः पुलिनमागत्य कालिंद्याः कृष्णभावनाः॥ समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकांक्षिताः॥४४॥ इति श्रीमद्भाग० महापु० दशम० पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ गोप्य ऊचुः॥ जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि॥ दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥१॥ शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा॥ सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥२॥
श्रीकृष्णचन्द्रके गुण गानेलगीं॥४४॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायां भगवदन्वेषणं नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ दोहा- इकतिस माहिं निराश हो, बहुरि यमुन तट आय। करत प्रार्थना प्रेम सों, प्रगट होहु यदुराय॥१॥ इसके उपरान्त सम्पूर्ण गोपी कहने लगीं कि, हे प्रीतम! तुम्हारे जन्म लेनेसे यह व्रज अत्यन्त शोभायमान लगता है और आपके प्रगट होनेके कारण यहां लक्ष्मीजी सदा वास करती हैं, इसप्रकार सब व्रजमें आनन्द होरहा है. है प्यारे! तुम्हारेही लिये प्राण धारण किये तुम्हारी दासियाँ तुम्हें ढूँढ़ती फिरतीहै॥१॥ हे सुरतनाथ! शरदृतुके सरोवरोंमें भलीप्रकार उपजे श्रेष्ठ कमलके भीतरकी शोभाको चुरानेवाली तुह्मारी दृष्टिहै, उससे विना मोलकी जो हम दासी हैं।
सो उनको तुम क्यों मारते हो, यदि तुम कहो कि, हम क्या मारते हैं? तो क्या शस्त्रहीसे मारते हैं, दृष्टिसे नहीं मारते? क्या इसीसे तुमने दृष्टिसे हमारे प्राण हर लिये हैं, उनके देनेके कारण शीघ्र हमें दर्शन दो॥२॥ हे लाल! आपने वारम्वार मृत्युसे रक्षा करी अब क्यों कामदेवको भेजकर दृष्टिसे मारते हो? क्योंकि विषके जलसे मृत्यु थी, उससे रक्षा करी, फिर अघासुरसे बचाया, इन्द्रने महाघोर वर्षा और पवन चलाया उससे रक्षाकी, बिजलीकी आग तथा वृषासुरसे बचाया, मयके पुत्र व्योमासुरसे और समस्त भयसे बचाया, फिर अब किसलिये हमको छोडते हो॥३॥ तुम यशोदाके पुत्र नहीं हो, क्योकि यशोदाके पुत्र होते तो ‘मापर पूत पितापर घोडा। बहुत नहीं तो थोडा थोडा’ कुछ तो अपनी जातिका पक्ष आता, सब देहधारियोंकी बुद्धिके साक्षी हो, ब्रह्माने विश्वकी रक्षाकी जब प्रार्थना करी तब हे कृष्ण! तुम यादवोंके कुलमें प्रगट हुए
विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्॥ वृषमयात्मजाद्विश्वतो भयादृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥३॥ न खलु गोपिकानंदनो भवानखिलदेहिनामंतरात्मदृक्॥ विखनसाऽर्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्त्वतां कुले॥४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्॥ करसरोरुहं कांत कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित॥ भज सखे भवत्किंकरी स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्॥ फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कुंधि हृच्छयम्॥७॥
और जब ब्रह्माजीने आपको रक्षा करनेके लिये कहा तब आपने यह कह दिया होगा कि, सबकी तो रक्षा करनी और गोपियोंको जला जलाकर मारना सो ब्रह्मा तो ब्राह्मण है इसकारण वह ऐसा अधर्म क्यों बतावेगा?॥४॥ हे यादवश्रेष्ठ कान्त! संसार के भय से तुम्हारे चरणसेवन करने वाले जो पुरुष हैं, उनको अभयदाता कामनाओंके देनेवाला और लक्ष्मीका हाथ पकड़नेवाला जो तुह्मारा हस्तकमल है, सो हमारे माथेपर धरो॥५॥ हे सखे! हे वीर! हे व्रजवासियोंके दुःख हरनेवाले। अपने जनोंका गर्व दूर करनेवाली तुम्हारी मुसकानकी हम दासी हैं, उनका सेवन करो, क्योंकि पहली स्त्रियां हम हैं, उनको अपना मुखकमल दिखाओ॥६॥ प्रणत अर्थात् नम्र देहधारियोके पापोंको दूर करनेवाले
गायोंके पीछे पीछे चलनेवाले शोभाके स्थान, कालियके फणपर नृत्य करनेवाले आपके चरणकमल हैं, उनको कृपापूर्वक हमारे कुचोंपर घरकर कामकी व्यथा दूर करो*॥७॥ हे कमलदललोचन! हे वीर! सुन्दरवाक्यवाली गम्भीर वाणीसे मोहित हुईं हम दासियोंको अधरामृत पिलाकर जीवदान दो॥८॥ आपके विरहमें हमारे प्राण जाचुके हैं परन्तु तुम्हारे कथामृतको पान करतेहुए सुकृती जनोंने हमें बचालिया, क्योंकि संसारमें तप्त पुरुषको जिलानेवाले ब्रह्मादिक जिसकी स्तुति करैं, ऐसे पापोंको दूर करनेवाले मंगलरूप शान्त तुम्हारी कथारूप
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण॥ विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥८॥ तव कथाऽमृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्॥ श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणंति ते भूरिदा जनाः॥९॥ प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंगलम्॥ रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयंति हि॥१०॥ चलसि यद् व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुंदरं नाथ ते पदम्॥ शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कांत गच्छति॥११॥
अमृतको जो पुरुष पृथ्वीमें कहते हैं वह बड़े दाता हैं, जब तुम्हारी कथा कहनेवाले धन्य हैं, तो जो तुम्हारा दर्शन करते हैं, उनका तो कहनाही क्या है? इससे अब दया करके दर्शन दो॥९॥ हे सौम्य! हे कपटी! तेरा मुसकानसहित मुख, प्रेमभरी चितवन और ध्यानमें मंगलरूप तुम्हारा विहार, हृदयको स्पर्श करनेवाली एकान्तकी बातें हमारे मनको क्षोभ करती हैं॥१०॥ हे नाथ! जिससमय गौ चरानेको
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* शंका— स्त्रियोंके स्तनोंको पुरुष हाथसे स्पर्श करता है तो स्त्रीको सुख होता है, कुछ पुरुषके चरणस्पर्शसे सुख नहीं होता। तव गोपियोंने कृष्णके चरण अपने स्तनपर स्पर्श होनेकी क्यों याचना की महाराज, आप अपने चरण हमारे सबके स्तनोंपर अर्पण करो, जो कोई कहे गोपी प्रेममें आतुर थीं उनको पदका और हायका स्मरण न रहा। इसलिये चरणकी याचना की थी, तो फिर कृष्णके दूसरे अंगकी याचना क्यों नहीं की? अकेले चरणोंहीकी सव देहमें याचना क्यों की
उत्तर— गोपियोंने सुना था और देखा मी था कि, श्रीकृष्णके चरणोंके स्पर्शसे कालियनागका जहर नष्ट होगया, कालियनाग निर्विष होगया इससे जो हमारे सबके स्तनोंपर श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श हो जाय तो हम सबके कामदेवका नाश हो जाय. क्योंकि कालियके गरलसे काम बढा नहीं है. कामदेवका नाश होनेसे सव संसारकी बाधासे छूट जायेंगी इसलिये गोपियोंने श्रीकृष्ण के चरणोंको अपने स्तनोंसे स्पर्श करने की याचना की थी, क्योंकि गोपी तो वेदोंकी ऋचा है॥
आप व्रजसे जाते हो, तब तुम्हारे कमलके तुल्य सुन्दर चरण काँकरी, तृण, अंकुर लगकर कष्ट पातेहैं, इसलिये हे कान्त! हमारा मन चंचल होताहै, सो इसप्रकार प्रेम रखनेवाली दासियोंपरभी आप दया नहीं करते?॥११॥ संध्यासमय नील केशसे ढके गोरजसे धूसरित कमलके समान मुखको धारणकर बेर बेर दिखाके, हे वीर! हमारे मनमें कामदेवको उत्पन्न करते हो, परन्तु संग नहीं देते यही तुम्हारा निश्चय कपट है॥१२॥ नम्र देह धारियोंको कामनाओंके देनेवाले, जिनका ब्रह्माजीने पूजन किया, पृथ्वीको शोभायमान करनेवाले आपत्तिमें ध्यानसेही पीडा दूर करनेवाले, सेवामें सुखरूप, ऐसे अपने चरणकमलोंको, हे कामकी पीडाको दूर करनेवाले! हमारे कुचोंपर धरो॥१३॥ हे वीर! कामको बढ़ानेवाला, शोकको दूर
दिनपरिक्षये नीलकुंतलैर्वनरुहाननं विभ्रदावृतम्॥ घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥१२॥ प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमंडनं ध्येयमापदि॥ चरणपंकजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाऽऽधिहन्॥१३॥ सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुंबितम्॥ इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥१४॥ अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्॥ कुटिलकुंतलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्॥१५॥
करनेवाला, स्वरभरी बजतीहुई बाँसुरी भलेप्रकार चुम्बित, मनुष्योंके चक्रवर्ती आदि सुखका भुलानेवाला सुखदायक तुम्हारा अधरामृत है सो हमारे रोग शान्त करनेको दीजिये. हे कृष्ण! यह औषधि मिलनेसे हम भली होजावेंगी और यदि जो तुम दवाका मोल माँगो तो दमड़ीकी बॉसकी वंशी, जिसे दिन रात मुखपर घरे रहते हो, वह तुम्हें क्या मोल देती है? और जो तुम कहो कि, तुम कुपथ्य करो हो कुपथ्यको दवा न देनी चाहिये तुम अभी गैय्या मैय्या, भाई और पत्यादिकोंकी वासनाका कुपथ्य करती हो सो प्यारे! तुम्हारी औषधी यह सब दूर कर देगी, तुम ही हमें पिलाओ तो सही॥१४॥ जब तुम दिनके समय वनमें जाते हो तब तुम्हारे देखे, विना आधा क्षण युगकी समान व्यतीत होता है
यह तो बिना देखेका दुःख कहा और जब घूमघूमारे केशोंसे युक्त तुम्हारे मुखकमलका दर्शन करती हैं, उससमय पलकोंका बनानेवाला ब्रह्मा हमें मूर्ख विदित होता है, क्योंकि पलकोंसे दर्शनमें बाधा होती है, यह दर्शनमें दुःख है और छःवर्षकी हमारी ननॅद जब अपनी मासे जाकर कहती है कि, देखरी मा! भाबी उस नंदके पुत्रको देखने गई है, तब सास त्रास दिखाती है, दूसरे ब्रह्मा वैरी पडा है, अपनी आठ आँखें बनाई, हमारी दोही और उसपरभी पलक लगादिये हैं॥ ॥ पति, पुत्र और वंशके बंधु बांधवोंको त्याग, तुम्हारे गीतसे मोहित होकर हम तुम्हारे पास आईं थीं और गानेकी गतोंको और हमारे आगमनको जाननेवाले, हे अच्युत! हम तुम्हारे निकट आई हैं, सो हे कपटी। रात्रिमें
पतिसुतान्वयभ्रातृबांधवानतिविलंध्य तेत्यच्युतान॥ गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥१६॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्॥ बृहदुरश्श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥१७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते वृजिनतंत्र्यलं विश्वमंगलम्॥ त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥१८॥
आई स्त्रियोंको तुम बिना ऐसा कौन है जो त्यागेगा?॥१६॥ कामदेवका प्रगट करनेवाला एकान्तका संकेत देख और हँसी सहित मुख तथा प्रेमकी चितवन देख और लक्ष्मीके रहनेका स्थान तुम्हारा वक्षस्थल देखकर हमको बड़ी चाहना हुई है एवं हमारा मन भी मोहित होगया है॥१७॥ अंग अर्थात् हे श्रीकृष्ण! तुम्हारा प्रगट होना व्रजवासी और वनवासियोंके दुःखका दूर करनेवालाहै तथा अतिशय करके विश्वका मंगल रूप है, इसकारण तुम्हारे दर्शन विना व्याकुल अपने भक्तजनोंके मनकी पीड़ा दूर करनेवाली गुप्त औषधि दों कृपणता, मतकरो यह हम
जानती हैं कि, इस औषधिको तुमही जानते हो॥१८॥ कठोर स्तनोंपर तुम्हारे चरणकमलोंको हम भयसे, धीरे धीरे धारणकरती हैं, क्योंकि, कहीं कोमल चरणोंमें गढ़े न पड़जांय और तुम उन चरणोंको वनमें उठा उठाकर फिरते हो, क्या चरणोंमें कॉटे कंकड़ी लगकर खेद नहीं होता? जब यह विचार करती हैं, तो तुम्हें अपना जीवनधन माननेवाली हमारी बुद्धि मोहित होजातीहै, परन्तु अब पुकारकर इतना तो कह दो कि, अरी गोपियो! तुम कहाँ हो में तो पुलिनमें लताओंके नीचे सुखपूर्वक बैठा हूँ॥१९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायामेकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ दोहा— बत्तिस विरह वियोगते, द्रवीभूत भयो हीय। प्रगट भये तुरंतहि हरी
यत् ते सुजातचरणांबुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु॥ तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥१९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे गोपिकागीतं नामैक त्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति गोप्यः प्रगायंत्यः प्रलपंत्यश्च चित्रधा॥ रुरुदुः सुस्वरं राजन्कृष्णदर्शनलालसाः॥१॥ तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखांबुजः॥ पीतांबरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥२॥ तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोबलाः॥ उत्तस्थुर्युगपत्सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥३॥ काचित् करांबुजं शौरेर्जगृहेंजलिना मुदा॥ काचिद् दधार तद्वाहुमंसे चंदनभूषितम्॥४॥
अति प्रसन्न भइँ तीय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ राजा परीक्षित्! इसप्रकार गान और चित्रविचित्र विलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी इच्छासे वह गोपियें बड़े स्वरसे रोदन करने लगीं॥१॥ उसी समय मुसकानयुक्त मुखकमल, पीताम्बर धारण किये वनमाला पहरे साक्षात् कामदेवका मन मोहित करनेवाले दाशाईवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंके बीचमें प्रगट होगये॥२॥ तब प्रीतिपूर्वक प्रसन्न और प्रफुल्लित संपूर्ण अबलायें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आया देखकर इसप्रकार उठकर खड़ी होगईं कि, जैसे देहमें प्राण आने से हाथ पाँव एक संग उठते हैं॥३॥ और किसी गोपीने तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका बड़े आनन्दपूर्वक हस्तकमल पकड लिया
और कोई चन्द्रनसे शोभायमान श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंको कंधेपरही धरने लगीं*॥४॥ और किसी कृश अंगवाली गोपीने श्रीकृष्णचन्द्रके मुखमेंसे तांबूलका बीडा अपने हाथमें लेलिया और कामसे कम्पायमान कोई गोपी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमल अपने स्तनोंपर
काचिदंजलिनाऽगृह्णात्तन्वी तांबूलचर्वितम्॥ एका तदंघ्रिकमलं संतप्ता स्तनयोरधात्॥५॥ एका भृकुटिमाबध्य प्रेमसंरंभविह्वला॥ घ्नंतीवैक्षत्कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा॥६॥ अपराऽनिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणां तन्मुखांबुजम्॥ आपीतमपि नातृप्यत्संतस्तच्चरणं यथा॥७॥
धरनेलगी॥५॥ एक गोपी अपनी भौंहें चढ़ाय कोपके आवेशसे विकल हो अपने ओष्ठोंको दॉतोंसे दाब कटाक्षरूपी बाणोंसे मारतीसी देखनेलगी॥६॥ हे राजन्! और गोपियें निमेषरहित दृष्टिसे श्रीकृष्णचन्द्रका मुखकमल भले प्रकार देखती भी हैं, परन्तु तौ भी बेर बेर देखकर
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*“काचित् करावुज’’ यहा शुकदेवजीने “काचित्” कहा, नाम नहीं लिया, इसका कारण यह है कि, नाम श्रीशुकदेवजीका परम इष्ट है, दो अक्षर मत्ररूप हैं, सो जपमत्रका प्रकाश करना भला नहीं, अथवा भगवान् महादेवजीने शुकदेवजीसे तत्त्वज्ञान कहा, परन्तु नामके दो अक्षर प्रकाश नहीं किये, रा रा कहा करते हैं, दूसरा अक्षर नहीं कहते, कदाचित् कोई चुराकर लेजाय? एकवार तो तत्त्वज्ञान खोया जिसकी कथा वर्णन करते हैं। एकसमय नारदजीने कैलासपर आनकर विचारा कि, यहाँ कुछ आग लगानी चाहिये, सो पार्वतीजीसे कहा तुम्हें महादेवजी कुछ प्यार भी करते हैं? पार्वती वोली कि, कुछ अंतर नहीं रखते तब नारदजी बोले तो तुम यह पूछियो कि, आपके गलेमें मुण्डोंकी माला क्या वस्तु है यह कह नारदजी चलेगये. जब वर्ष दिन पीछे महादेवजी समाधिसे जागे तो पार्वतीजी बोलीं कि, महाराज यह मुण्डोंकी माला क्या वस्तु है? बताओ, यह सुनकर शिवजी बोले कि, जब तुम्हारा शरीर छूट जाता है, तव धारण कर लेताहूँ पार्वती बोलीं- मेरे तो सैकडों जन्म हुए, और तुमने ऐसी क्या अमरौती खाई है, जो तुम अमर हो! शिवजीने अपने मनमें कहा कि, किसीने भली आग लगाई, फिर वोले मुझे तत्त्वज्ञान है, पार्वतीने कहा, वह तत्त्वज्ञान मुझे बताओ। अव शिवजीने स्नेह हटाय एक चुटकी बजाई, कि उसस्थानके सव पक्षी उडगये, फिर एक चुटकी बजाई बच्चोंके पख जमिआये, फिर बजाई, सव बच्चे उडादिये, उसी समय शुकीके गर्भमें शुकदेवजी आये थे, सो एक चुटकीसे बाहर आये दूसरीसे अंडा फूटा और तीसरीसे पर निकले, सो एक वृक्षकी डालीपर जा बैठे, तब महादेवजी पार्वती से तत्त्वज्ञान कहने लगे, पार्वती हुकार देती सोगई, यह तोता हूहू करनेलगा, और महादेवजी ब्रह्मानन्द में मग्न नेत्र मीचे सपूर्ण कथा कहगये, जब नेत्र खोलकर देखा तो पार्वती सोगई और हूहू तोतेने करी, यह जान झट उसके मारनेको त्रिशूल चलाया, और पीछे दौडे, तोता भागा सो व्यासजीकी स्त्री कोठेपर खडीथी उसने जो जमाई ली, सो शुकदेवजी उसके उदरमें प्रवेश करगये, शिवजीने व्यासजीसे कहा कि, तुम्हारी स्त्रीमें हमारा चोर है, उसे निकालो, व्यासजी बोले कि, आपके पास है क्या? जो इसने चुराया है शिवजी बोले कि, तत्त्वज्ञान, जिससे अमर होते हैं, वह इसने चुराया है व्यासजी वोले कि, इसीसे आप भोलानाथ कहलाते हो. भला विचारो तो सही कि, जिसने तत्त्वज्ञान सुना, वह त्रिशूलसे कैसे मरेगा! महादेवजी हँसकर कैलासको चलेगये, और उसीदिनसे रा रा कहते हैं, पूरा नाम नहीं लेते, शुकदेवजी सपूर्णही गुप्त रखते हैं, इसी कारण राधिकाका कहीं नाम नहीं लिया॥
तृप्त नहीं हुईं, जिसप्रकार साधुपुरुष श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेसे तृप्त नहीं होते॥७॥ और कोई गोपी नेत्रोंके छिद्रद्वारा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको हृदयमें लेजाय नेत्रमूँद उन्हें आलिंगनकर रोमांचित शरीर हो योगिजनोंके समान महान् आनन्दमें मग्न होगई॥८॥ और केशवमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करके आनन्दसे सुखी हो संपूर्ण गोपियोंने विरहके तापको त्यागदिया, जैसे ईश्वरको पाकर मुमुक्षुजन ताप छोड देतेहैं, अथवा सुषुप्ति अवस्थाकी साक्षीको पाकर जाग्रतरूप अवस्थावान् जीव जैसे तापको छोडदेते हैं॥९॥ हे परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उन दुःखरहित गोपियोंके मध्य में इसप्रकार शोभायमान लगनेलगे जैसे परमात्मा सब शक्तियोंसे और उपासक
तं काचिन्नेत्ररंध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च॥ पुलकांग्युपगुह्यास्ते योगीवानंदसंप्लुता॥८॥ सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृताः॥ जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः॥९॥ ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः॥ व्यरोचता धिकं तात पुरुषश्शक्तिभिर्यथा॥१०॥ ताः समादाय कालिंद्या निर्विश्य पुलिनं विभुः॥ विकसत्कुंदमंदारसुरभ्यनिल षट्पदम्॥११॥ शरच्चंद्रांशुसंदोहध्वस्तदोषातमः शिवम्॥ कृष्णाया हस्ततरलाऽऽचितकोमलवालुकम्॥१२॥ तद्दर्श नाह्लादविधूतहृद्रुजो मनोरथांतं श्रुतयो यथा ययुः॥ स्वैरुत्तरीयैः कुचकुंकुमांकितैरचीक्लृपन्नासनमात्मबंधवे॥१३॥
पुरुष ज्ञान बल वीर्यादि जो शक्ति हैं, उनसे शोभायमान लगताहै॥१०॥ इसके उपरान्त उन गोपियोंको संग ले फूलेहुए कुंद और मंदारकी सुगंधयुक्त पवन के कारण जहां भौंरे गुंजार कर रहेथे, ऐसे यमुनाके पुलिनमें सबको लेगये॥११॥ कैसे पुलिन हैं कि, शरदृतुके चन्द्रमाकी किरणोके समूहसे रात्रिका अंधकार जिनमेंसे दूर होगयाहै और यमुनाजीका भी उसीके समान तरंगोंसे कोमल बालूके बिछौने जिसमें बिछ रहे हैं॥१२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होनेके कारण आनंदपूर्वक हृदय के रोग दूरकर गोपियाँ अपने मनोरथोंके अंतको प्राप्त हुई अर्थात् उनके मनोरथ पूर्ण हुए, जैसे ज्ञानकाण्डमें श्रुति परमेश्वरको देख आनंदसे परिपूर्ण हो कामके सम्पूर्ण बंधनोंका त्याग करतीहैं और
कुचोंकी केशरयुक्त अपनी ओढनियोको उतार उतारकर गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रके बैठनेकी तकियां बनाने लगीं*॥१३॥ योगेश्वरोंके भीतर जिनका कल्पित आसन है, वह ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तीनलोककी शोभाका एकही स्थान क्या तीनों लोककी शोभा जिसमें आरही उसी प्रकार रूप धारण कर उस आसनपर बैठ गोपियोंसे पूजित हो, उनकी सभामें शोभायमान लगने लगे॥१४॥ कामदेवके बढ़ानेवाले भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रकी हासलीलापूर्वक चितवनसे चलायमान भ्रुकुटीसे सत्कार कर गोदमें धरेहुए श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंको हाथोंसे दाबतीं और स्तुति करतीं कुछेक
तत्रोपविष्टो भगवान्स ईश्वरो योगेश्वरांर्तहृदिकल्पितासनः॥ चकास गोपीपरिषद्गतोऽर्चितस्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्॥१४॥ सभाजयित्वा तमनंगदीपनं सहासलीलेक्षणविभ्रमद्भुवा॥ संस्पर्शनेनांककृतांघ्रिहस्तयोः संस्तुत्य ईषत्कु पिता बभाषिरे॥१५॥ गोप्य ऊचुः॥ भजतोऽनुभजंत्येक एक एतद्विपर्ययम्॥ नोभयांश्च भजंत्यन्य एतन्नो ब्रूहि साधु भोः॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ मिथो भजंति ये सख्यः स्वार्थैकांतोद्यमा हि ते॥ न तत्र सौहृद धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा॥१७॥ भजंत्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा॥ धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः॥१८॥
क्रोधसे गोपियां बोलीं॥१५॥ सब गोपी बोलीं कि, महाराज! एक पुरुष तो भजतेहुएको भजता है, वह कौन है? और एक ऐसे हैं कि, जो नहीं भजता उसको भजते हैं, वह कौन है? एक भजतोंको और न भजतोको दोनोंको नहीं भजते हैं, वह कौन है? सो हे कृष्ण! यह हमारे आगे भली प्रकार समझा कर कहो॥१६॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे सखियो। जो पुरुष परस्पर भजतेहैं अर्थात् जितना वह उनको चाहैं, उतनाही वह उनको चाहैं, वह पुरुष तो अपस्वार्थी हैं, उस भजनमें स्नेह, सुख धर्म कुछ भी नहीं है वह तो केवल अपनाही भजन है॥१७॥ और जो नहीं भजतोंको
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*शंका— जिन गोपियोंके मित्र श्रीकृष्ण सो सब गोपी अपने पहिरेहुये वस्त्रोंका आसन श्रीकृष्ण के बैठनेको क्यों देती थीं? क्या गोपी दरिद्रिनी थीं? नया वस्त्र मॅगाकर भगवान्के बैठनेको आसन क्यों नहीं दिया ?
उत्तर— जो प्राणी अपने काममें उन्मत्त होजाता है, उसको कुछ नहीं जानपडता कि, यह काम अच्छा है यह काम बुरा है, इसीप्रकारसे कृष्णके चरणोंमें गोपी उन्मत्त होरहीं थीं, उनको ज्ञात न हुवा कि वस्त्र हमारा पहिरा हुवा है वा विना पहिरा है इस लिये गोपीं भगवान्को अपने पहिरे वस्त्रका बैठनेको आसन देने लगीं॥
भजतेहैं, वह पुरुष दो प्रकारके हैं, एक तो करुणावान दूसरे स्नेही जैसे माता पिताको पुत्र नहीं चाहताहै, परन्तु वह उसके ऊपर कृपा करतेहैं और इस भजनमें निर्दोष धर्म है, हे सुमध्यमाओ! दयालु होकर भजनमें सत्य धर्म है और स्नेहसे भजनमें सत्य प्रेमहै॥१८॥ “पर भजन विश्वाससेही करना योग्यहै” इसमें एक दृष्टान्त * कहतेहैं कि, विश्वासमेंही भगवान्हें और कहीं नहीं और जो पुरुष भजतोंहीको नहीं भजते तो अभजतोंको कहांसे भजेंगे, वे चार ही प्रकारके हैं, एक तो आत्मामेंही रमण कररहेहैं और एक पूर्णमनोरथ हैं जिनको किसी बातकी चाहना नहीं है और एक अकृतज्ञ हैं, जो उपकारको नहीं
भजतोऽपि न वै केचिद्भजंत्यभजतः कुतः॥ आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः॥१९॥ नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जंतून्भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये॥ यथाऽधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिंतयाऽन्यन्निभृतो न वेद॥२०॥ एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽवलाः॥ मया परोक्षं भजतां तिरोहितं माऽसूयितुं माऽर्हथ तत्प्रियं प्रियाः॥२१॥
समझते और एक गुरुद्रोही हैं, अर्थात् जो उपकार करें उसीसे द्रोह करते हैं॥१९॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे सखियो! मैं इनमेंसे कोई नहीं, केवल दयालु और स्नेही हूं, जो कोई प्राणी मेरा भजन करता है, उसको अपनी ओर ध्यान लगानेके लिये मैं नहीं भजता हूँ जैसे दरिद्री पुरुषको धन मिले और वह धन जाता रहै, तब वह उसी चिन्ताका मारा भूख प्यास नहीं जानता॥२०॥ हे बालाओ! मेरे लियेही लोकमर्यादा वेदमर्यादा पति पुत्रा
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*दृष्टान्त— एक मनुष्य किसी कार्यवश भगवान् का पूजन करता था, परन्तु मनमें यही विचारता था कि, यह पत्थर की मूर्ति हमारा कार्य कैसे साधन कर सकेगी? इसप्रकार चलविश्वास होनेसे उसका कार्य नहीं हुआ, तब किसीने उससे कहा कि, तू भगवती दुर्गादेवीका पूजन कर तुरन्त काम सिद्ध होगा, वह मनुष्य ऊपरके आलेमें श्री ठाकुरजीकी मूर्तिरख नीचे दुर्गादेवीका पूजन करनेलगा, एकदिन धूप देतेसमय मन में विचारा कि, सीधी ऊपरहीको जाती है सो नारायणको पहुँचती है इस कारण दुर्गादेवीको पीछे मिलनेसे वह प्रसन्न नहीं होती, इसका यत्न करू, यह विचार रुई ढूँढ भगवन्मूर्तिको नाकमें भरने लगा जिससे कि, सुगन्ध न जाय, भगवान् तत्कालही मूर्तिमें प्रसन्नहोकर और हँसकर वोलेकि, माई रुई मत ठूसे वर मांग क्या चाहिये, यह बोला कि, महाराज! मुझे क्या खबर थी कि, आप रुई ठूसनेसे प्रसन्न होते हैं, यह विधि किसी पद्धतीमें भी नहीं लिखी, भगवान् बोले पहिले तुझे विश्वास नहीं था, मूर्तिको पाषाण अर्थात् पत्थर जानता था, आज वह बात जाती रही आज ईश्वरही जाना, नहीं तो पत्थर में सूघनेकी शक्ति कहा, आज तेरा विश्वास ईश्वररूपका था॥
दिक तुमने त्यागदिये, सो तुम्हारी चितवृत्ति लगानेके लिये तुमको देखने के लिये नही आया, तुम्हारे पासही छिपरहा था, कुछ दूर नहीं गया था. हे प्रियाओ! यह कृष्ण बुराहै, ऐसे मुझमें दोष मत लगाओ॥२१॥ तुम निर्दूषित तुम्हारे संग उपकारका बदला मुझपर यदि देवताओंकी समान अवस्था हो, तो भी नहीं होसक्ता, क्योंकि जो छोड़ी न जाये ऐसी घररूप बेडियोंको काटकर तुमने मेरी सेवा की, इसलिये तुम्हीं कहदो कि, कृष्ण हमारा ऋणीया नहीहै. तो मेरा छुटकाराहै, मुझपै तुम्हारे उपकारका बदला नहीं होसक्ता॥२२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां रासक्रीडायां द्वात्रिंशोध्यायः॥३२॥ दोहा-नारिमण्डली के विषे, ठाढ़े श्रीयदुराय। करत विहार प्रियान सँग, तेंतिसवें अध्याय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार उन श्रीकृष्णचन्द्रके हस्त चरण आदि अंग स्पर्शकर मनोरथ पाय गोपियोंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका
न पारयेहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः॥ या माऽभजन्दुर्जयगेहश्रृंखलाः संवृश्च्यतद् वः प्रतियातु साधुना॥२२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशº पूर्वार्द्धे हरिकृतविरहितगोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः॥ जहुर्विरहजं तापं तदंगोपचिताशिषः॥१॥ तत्रारभत गोविंदो रासक्रीडामनुव्रतैः॥ स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धवाहुभिः॥२॥ रासोत्सवः संप्रवृत्तौ गोपी मण्डलमण्डितः॥ योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः॥ प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः॥३॥ यं मन्येरन्नमस्तावद् विमानशतसंकुलम्॥ दिवौकसां सदाराणामौत्सुक्यापहृतात्मनाम्॥४॥
अति कोमल वचन श्रवण कर विरहके तापको छोड़ दिया॥१॥ और इसके उपरान्त गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र भी वहाँ अपनी आज्ञा करनेवाली प्रसन्नमन, परस्परमें हाथ पकडे खडीहुई स्त्रियोंमें रत्न गोपियोंको संग ले रासक्रीडाका आरंभ करनेलगे॥२॥ फिर गोपियोंके समूह से शोभायमान रासका उत्सव योगके ईश्वर श्रीकृष्णचंद्र रचने लगे और मण्डलाकार खडीहुई दो दो गोपियोंके बीचमें अपने अनेक रूप धारणकर कण्ठमें गलबाहीं डाल गान करते श्रीकृष्ण आपभी खडे हुए॥३॥ हे राजन्! जिन श्रीकृष्णचन्द्रको, सब गोपियें प्यारा मेरे पास है, कोई बोलीं मेरे पास है, इसप्रकार अपने अपने पास जानने लगीं और रासदेखनेकी इच्छासे देवतालोगभी अपनी अपनी स्त्रियोंको लेकर आये, उनके विमानोंसे
आकाश छा रहा था॥४॥ देवताओंकेआने उपरान्त नगाडे बजनेलगे, फूलोंकी वर्षा होनेलगी और मुख्य मुख्य गन्धर्व अपनी अपनी स्त्रियोंको संग ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका निर्मल यश गाने लगे॥५॥ और प्यारे श्रीकृष्णचंद्रके संग जो स्त्रियें थीं, उनके कंकण नूपुर तथा किंकिणियोंका रासमण्डलमें बडा झनकार शब्द होनेलगा॥६॥ जैसे दो दो मणियोंके बीचमें एक एक नीलमणि सुन्दर लगती है, उसीप्रकार उस रासमंडलमें दो दो गोपियोंके बीचमें एक एक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अत्यन्त शोभायमान लगने लगे॥७॥ पाँवका धरना, भुजाओंका हलना, मुसकानसहित भ्रुकुटियोंका चढना, कमरका लचकना, कुचों और वस्त्रोंका हिलना, कपोलोंपर कुण्डलोंकी हलन, उनसे जिनके मुखपर पसीना आगया, चोटियोंके नारोंकी गाँठि जिनकी खुलगईं, ऐसी भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकी वधू गोपियें श्रीकृष्णचन्द्रके गुणानुवाद गान करतीं, जैसे मेघमण्डलमें बिजली
ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्पवृष्टयः॥ जगुर्गंधर्वपतयः सस्त्रीकास्तद्यशोऽमलम्॥५॥ वलयानां नूपुराणां किंकीणीनां च योषिताम्॥ सप्रियाणामभूच्छब्दस्तुमुलो रासमण्डले॥६॥ तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान्देवकीसुतः॥ मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा॥७॥ पादन्यासैर्भुजविधुतिभिःसस्मितैर्भ्रूविलासैर्भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलै र्गंडलोलैः॥ स्विद्यन्मुख्यः कबररशनाग्रन्थयः कृष्णवध्वो गायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्रे विरेजुः॥८॥ उच्चैजगुर्नृत्यमाना रक्तकंठ्यो रतिप्रियाः॥ कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्गीतेनेदमावृतम्॥९॥ काचित्समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः॥ उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधुसाध्विति॥ तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात्॥१०॥
शोभायमान लगती है, उसी प्रकार शोभायमान लगने लगीं॥८॥ अनेक प्रकारके रंगोंसे कण्ठ जिनके रॅगरहे, रतिही जिनको प्यारी और श्रीकृष्णचन्द्रका स्पर्श जिनको हो उससे बडा आनन्द जिनको, वह गोपियें नृत्य करते ऊँचे स्वरसे गाने लगीं, जिनका गीत इस विश्वमें छारहा है॥९॥ और कोई गोपी मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रके संग उच्चस्वरोंके अलापोंकी गतिको उठाने लगीं, कैसे स्वरोकी जाति ली कि, श्रीकृष्णचन्द्रने जो स्वर उठाया, उनमें मिलतीथी. तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न हो धन्य है, धन्य है, इस प्रकार बडाई करने लगे इसलिये जिन स्वरोकी जाति ली थी उनको ध्रुवतालमें बाँधकर गातीहुई गोपियें प्रशंसा करने लगीं तब गोपियोंको श्रीकृष्णचंद्रने बहुत मान दिया॥१०॥
कोई गोपी रासमें श्रमित हो गदा धारण करनेवाले पासमें खडे हुए श्रीकृष्णचन्द्रके कंधेको हाथसे पकडने लगी, चूरी तथा फूलोंके हार जिनके शिथिल होगये. यहाँ गदा वंशीकोही जानना. क्योंकि गोपियोंके हृदयको चूर करती है॥११॥ इसके उपरांत एक गोपीने रोमांच जिसके होआये कमलोंकी समान सुगंधवाली चन्दनसे चर्चित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाको अपने कंधेपर धरकर चुम्बन किया॥१२॥ और फिर नृत्यसे चलायमान कपोलोंको श्रीकृष्णके कपोलोंपर लगाती हुई गोपीको श्रीकृष्णचन्द्रने बीरीका जूँठन दिया॥१३॥ और किसी गोपीने नूपुर करधनी जिसके बजें
काचिद्रासपरिश्रांता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः। जग्राह बाहना स्कन्धं श्लथवलयमल्लिका॥११॥ तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम्॥ चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्व ह॥१२॥ कस्याश्चिन्नाट्यविक्षिप्तकुण्डलत्विषमंडितम्॥ गण्डे गण्ड सन्दधत्या अदात्ताम्बूलचर्वितम्॥१३॥ नृत्यन्ती गायती काऽपि कूजन्नूपुरमेखला॥ पार्श्वस्थाऽच्युत हस्ताब्जं श्रांताऽधात्स्वनयोः शिवम्॥१४॥ गोप्यो लब्ध्वाऽच्युतं कांतं श्रिय एकांतवल्लभम्॥ गृहीतकंठ्यस्तद्दोर्भ्यां गायन्त्यस्तं विजह्निरे॥१५॥ कर्णोत्पलालकविटंककपोलधर्मवऋश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यैः॥ गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेशस्रस्तस्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ट्याम्॥१६॥
नृत्य व गान करतेहुए श्रम पाय पास खड़े हुए मंगलरूप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका हस्तकमल अपने स्तनोंपर धारण किया*॥१४॥ लक्ष्मीके अत्यन्त प्यारे अच्युत श्रीकृष्णको सुंदर पति पाय उनकी भुजाओंसे कंठमें गलबाहीं डाल गोपियें श्रीकृष्णचन्द्रको गाती विहार करने लगीं॥१५॥ उस रासमण्डलमें स्त्रियों सहित गंधर्व और किन्नरादिक जो बाजे बजारहे थे, तथा गवैये बनकर गा रहेथे, वह सब रासरसमें मोहित होकर नृत्य करने
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*शंका— गोपीने श्रीकृष्णका हाथ अपने हाथसे पकडकर अपने स्तनोंपर क्यों रक्खा? जैसे मनुष्यकी स्त्री कर्म करती हैं, ऐसा कर्म क्यों किया?
**उत्तर—**गोपीने विचार किया कि, इनहीं श्रीकृष्णभगवान् ने अपने हस्तकमलोंको प्रह्लादके और ध्रुवके मस्तकपर रक्खा था तब प्रह्लाद और ध्रुव संसारके दु खसे छूटकर भगवानके भजनमें मग्न होगये, इसलिये में भी खपने कुचोंपर भगवान्का हाथ धरके इन दोनोंको भक्तजन बनाऊंगी क्योंकि कामदेव जब कुपित होकर पुष्पधनुष सधान कर मेरे ऊपरको चढता है, तो स्तनोंमें अधिक बाधा होती है, अब जो यह भक्त होजायँ तो संसारके सब दु खोंसे निवृत्त होजाऊगी और कामदेव भी मुझको नहीं सतावेगा उसकी बाधासे भी छूट जाऊगी, पुरुषकी ममता शिरपर बहुत होती है और स्त्रीकी ममता स्तनोंपर अधिक रहती है ऐसा विचार करके गोपीने कृष्णका हाथ अपने कुचपर रक्खा॥
लगे, उससमय कंकण और नूपुर बाजेका कार्य और भौंरे गवैयोंका काम कररहे थे, रास मण्डलमें व्रजवनिता कृष्णके संग नृत्य करतीहुई अत्यन्त शोभा पारही थीं, उनके कानोंके कमल अलकोंसे युक्त कपोल और पसीनेके बूँदोंकी शोभा मुखपर छा रहीथी और नृत्य समयमें जो फूलोंकी माला गिरती थीं; उनसे ऐसी शोभा होरही थी कि, मानों तालोंकी गतिसे प्रसन्न होकर केश शिर हिलाय चरणोंपर फूलोंकी वर्षा कररहेहैं॥१६॥ इसप्रकार लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आलिंगन, हाथोंका स्पर्श, स्नेह भरी चितवन और बड़े विलास हास्यसे, जैसे बालक अपनी परछाहींसे खेलताहै, उसी प्रकार व्रजसुंदरिओंके संग रमण करनेलगे॥१७॥ हे कुरुकुलको आनन्द देनेवाले राजा परीक्षित्! उससमय श्रीकृष्णके अंगमें जो आनन्द उससे जिनकी इन्द्रियें विवश होरहीं और जिन व्रजकी स्त्रियोंके माला गहने खिसक रहेथे, वह अपने केश, शरीर, कुच और वस्त्रोंके सम्हारनेको
एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः॥ रेमे रमेशो व्रजसुंदरीभिर्यथाऽर्भकः स्वप्रतिबिबविभ्रमः॥१७॥ तदंगसंगप्रमुदाकुलेंद्रियाः केशान्दुकूलं कुचपट्टिकां वा॥ ॥ नांजः प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो विस्रस्तमालाभरणाः कुरूद्वह॥१८॥ कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः॥ कामार्दिताः शशांकश्च सगणो विस्मितोऽभवत्॥१९॥ कृत्वा तावंतमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः॥ रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया॥२०॥ तासामतिविहारेण श्रांतानां वदनानि सः॥ प्रामृजत्करुणः प्रेम्णा शंतमेनांग पाणिना॥२१॥ गोप्यः स्फुरत्पुरटकुंडलकुंतलत्विङ्गण्ड श्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन॥ मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः॥२२॥
भी समर्थ न हुईं॥१८॥ हे नृपश्रेष्ठ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी रासक्रीडा देख आकाशमें देवांगनायें भी कामसे पीडित होकर मोहित होगईं और तारागण सहित निशानाथ चन्द्रमा भी आश्चर्य मानकर चलना भूल गया, तब और ग्रह भी जहाँके तहाँ हर गये, उससे राति जो बढ़ गई उससे सुखपूर्वक विहार करने लगे॥१९॥ जितनी गोपोंकी स्त्रियें थीं; उतनेही अपने रूपधर आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उन गोपि योंके संग लीला करने लगे॥२०॥ फिर अत्यंत विहारसे जिनको श्रम प्राप्त हुआ ऐसी गोपियोंके मुखका पसीना देख करुणाको प्राप्त हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे उनका मुख पोंछने लगे॥२१॥ वे मानवती गोपियें भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके हस्तकमल नख स्पर्शसे
महासुख पाय प्रकाशमान सुवर्णके कुण्डलसे कान्तिमान कपोल तथा रसभरी चितवन और मुसकान युक्त श्रेष्ठ गुणभरे श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करके सुन्दर चरित्र गाने लगीं॥२२॥ मर्यादाको उल्लंघन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जब रास विलास करते करते थकगये, तब उन गोपियोंको संगले श्रम दूर करनेके लिये जलमें घुसे, कुचोंकी केशर जिसमें लगी अंग अंगसे रगड़ी मालाकी सुगंधसे गंधर्वोके समान भौंरे गातेहुए उनके पीछे चले जाते थे, जैसे हथिनियोंको संग लेकर हाथी जलविहार करनेको जाते हैं॥२३॥ हे अंग! इधर उधरसे जलमें स्त्रियोंको छींटी देते हैं, जिस समय जलविहार करते समय व्यंग वचन बोल और प्रेमपूर्वक कृष्णको देखकर हँसती हैं और भगवान् को जलसे भिजोती हैं विमानोंपर बैठे देवता स्तुति और पुष्पोंकी वर्षा करते हैं, हाथीके समान जिनकी लीला, ऐसे आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तहाँ जलमें
ताभिर्युतः श्रममपोहितुमंगसंगघृष्टस्रजः स कुचकुंकुमरंजितायाः॥ गंधर्वपाऽलिभिरनुद्रुत आविशद् वाः श्रांतो गजी भिरिभराडिव भिन्नसेतुः॥२३॥ सोंभस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरितस्ततोंग॥ वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेंद्रलीलः॥२४॥ ततश्च कृष्णोपवने जलस्थलप्रसूनगंधानिलजुष्ट दिक्कटे॥ चचार भृंगप्रमदागणावृतो यथा मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः॥२५॥ एवं शशांकांशुविराजिता निशः स सत्यकामोऽनुरताबलागणः॥ सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः॥२६॥ राजोवाच संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च॥ अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः॥२७॥
अथवा गोपियोंके मंडलमें क्रीडा करनेलगे॥२४॥ जलक्रीडा करनेके उपरान्त जल स्थलके पुष्पोंकी सुगंधभरी पवन जिसके सब दिशाओंमें व्याप्त होरही है, ऐसे जो यमुनाजीके बागमें भौंरे रूप गोपियोंके संग श्रीकृष्णचन्द्र विहार करनेलगे, जैसे मदस्रावी हाथी हथिनियोंके संग विहार करताहै॥२५॥ इस प्रकार सत्यसंकल्प भगवान् चन्द्रमाकी किरणोंसे शोभायमान उस शरदकी रात्रियोंमें साहित्य काव्योंमें जो करनेकी विधि लिखी है, उसीप्रकार वह स्नेहभरी गोपियोंके संग वीर्यको धारणकर करनेलगे, और जितनी गोपी उतनेहीं श्याम उतनी हीं कुंजोंमें फूलोकी शय्या पर लेटे हँसते हँसाते कोमल बातें करते थे॥२६॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे श्रीशुकदेवजी। धर्मके स्थापन
और अधर्मका नाश करनेके लिये जगत् के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने परिपूर्ण रूपसे अवतार लियाहै॥२७॥ फिर धर्मकी मर्यादाके रक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रने पराई स्त्रीका स्पर्श करना, यह अधर्म क्यों किया?॥२८॥ पूर्णकाम यादवोंके पति श्रीकृष्णने यह निंदित कर्म कैसे किया? इसका क्या अभिप्राय है? हे सुन्दर व्रतवाले शुकदेवजी! यह हमारा संदेह शमन करो॥२९॥ यह वचन सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! सामर्थ्यवानोंको धर्मका उलांघना और साहस भी देखाहै, जैसे अग्निमें भली बुरी वस्तु डालदो, उसको भस्म कर दे और उसे
स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताऽभिरक्षिता॥ प्रतीपमाचरद्ब्रह्मन्परदाराभिमर्शनम्॥२८॥ आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम्॥ किमभिप्राय एतं नः संशयं छिंधि सुव्रत॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ धर्मव्यतिक्रमोदृष्ट ईश्वराणां च साहसम्॥ तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा॥३०॥ नैतत्समाचरेज्जातु मनसाऽपि ह्यनीश्वरः॥ विनश्यत्याचरन्मौढ्याद् यथाऽरुद्रोऽव्धिजं विषम्॥३१॥ ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्॥ तेषां यत्स्ववचो युक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्॥३२॥
दोष नहीं लगता, उसी प्रकार सामर्थ्यवान तेजस्वी पुरुषोंको भी दोष नहीं लगता, कहा भी है, “समरथको नहिं दोप गुसाईं”॥३०॥ बड़ोंकी रीति न करे उसमें पीछे पछताना पडताहै * सामर्थ्यवान पुरुषोंके करे कर्मको मनसे भी न करें और जो कदाचित् अज्ञानसे करे तो माराजाय, जैसे रुद्र (शिव) के विना और कोई समुद्रके विषको पान नहीं कर सकता॥३१॥ ईश्वरके वचनोंकोही सत्यमाने और उनके आचरणोंको भी सत्यमानै, जैसा उन्होंने कहाहै, उसीके अनुसार बुद्धिमान पुरुष करें। राम-कृष्ण दोनों अवतार हुए हैं श्रीरामचन्द्रजीने जैसा कहा वैसाही किया,
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*** दृष्टान्त—**एक राजा रानीने सम्मति करीकि हमारे यहाँ भी अनेक युद्ध हुए हैं इसकारण ऐसा महाभारत बनाना चाहिये, यह विचार पडितों को बुलायकर कहा कि, एक हमारे नामका भी महाभारत बनाओ परन्तु वह व्यासजीके महाभारतसे किसीप्रकार न्यून न हो चाहे बढती हो, नहीं तो तुम्हें देश से निकालदूंगा ब्राह्मण आपसमें सम्मति कर राजाके पास आनकर कहने लगे कि महाराज! महाभारत बनानेकी सामग्री सब प्रस्तुतहै सब बातें अधिकही करेंगे पर एक बात आप बताइये राजाने कहा क्या?ब्राह्मण बोले महाभारतमें द्रौपदीके पाच पति थे, आपकी रानीके उससे अधिक कितने लिखैंसो बताइये और उनके नाम वर्णन कीजिये, सुनतेही राजाकी बुद्धि लोप होगई और घबराकर वोला महाराज क्षमा करो, मुझे महाभारत लिखानेकी सामर्थ्य नहीं, इसलिये बर्डोके चरित्र पे शका नहीं करनी चाहिये॥
इस लियेउनका कहना करना दोनों करै और श्रीकृष्णचन्द्रने जो गीतामें कहा है, उसे करे और जो उन्होंने लीला करीहें उनको नकरै किन्तु ध्यान करै॥३२॥ हे प्रभो! इस संसार में जिनको अहंकार नहीं है, ऐसे सामर्थ्यवान पुरुष जो अच्छा कर्म करें उससे उनको पुण्य और निकृष्ट कर्म करनेसे पाप नहीं होताहै, क्योंकि पुण्य पापतो देहमें अहंकारके वशसे लगेहैं, इसकारण अहंकार रहित पुरुषको कुछ दोष नहीं है॥३३॥ जब और महात्माओंको भी पाप पुण्य नहीं लगता तब समस्तप्राणी, पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता, जीव, इनके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको पाप पुण्य नहीं लगताहै, इसमें कहनाही क्याहै?॥३४॥ जिनके चरणारविन्दका पराग अर्थात् मकरंदका सेवन करनेसे तृप्तहोकर भक्तजन और योगप्रभावसे संपूर्ण कर्मबंधन दूरकर मुनीश्वर ज्ञानी बंधनोंसे रहित हो अपनी इच्छापूर्वक विचरतेहैं, तो इच्छासे शरीर धारण करनेवाले
कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते॥ विपर्ययेण वाऽनर्थो निरहंकारिणां प्रभो॥३३॥ किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्मर्त्यदिवौकसाम्॥ ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः॥३४॥ यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता योगप्रभाव विधुताखिलकर्मबन्धाः॥ स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमानास्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः॥३५॥ गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्॥ योंतश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्॥३६॥ अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः॥ भजते तादृशीः क्रीडा याः स्मृत्वा तत्परो भवेत्॥३७॥ नासूयन्खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया॥ मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्व्रजौकसः॥३८॥ ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः॥ अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान्भगवत्प्रियाः॥३९॥
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको बंधन कहाँसे हो?॥३५॥ गोपी और उनके पतियोंके व संपूर्ण देहधारियोंके साक्षीरूप होकर जो देहके भीतर रहते हैं, उन श्रीकृष्णचन्द्रने क्रीडा करनेके लिये देह धारण किया है, इसकारण उनमें कुछ दोष नहीं होसक्ता, क्योंकि सर्वत्र वही रमण करते हैं, और बाहर भीतर व्याप्त हैं॥३६॥ संपूर्ण प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये मनुष्य देह धारण करके ऐसी मनुष्य लीला करीहैं कि, जिन लीलाओंको श्रवण करनेसे मनुष्य कृष्णपरायण होजाताहै॥३७॥ उन श्रीकृष्णचन्द्रकी मायासे मोहित व्रजवासियोंने श्रीकृष्णचन्द्रको कुछ दोष नहीं लगाया और अपनी अपनी स्त्रियोंको अपने अपने पास जाना॥३८॥ इसके उपरान्त ब्रह्म मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी रात रहे, श्रीकृष्णचन्द्रकी
आज्ञानुसार घर आनेको जिनकी इच्छा नहीं ऐसी प्यारी गोपियें अपने अपने घर आई॥३९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका परम कौतुक जो व्रजवधू गोपियोंके संग रासलीलाहै इसे जो पुरुष श्रद्धा सहित श्रवण और कथन करतेहैं* वह पुरुष भगवान् में परमभक्ति प्राप्तकर थोडेही दिनोंमें धीर होकर शीघ्रही हृदयके कामरूप रोगोंका त्यागकर देतेहैं॥४०॥ इति श्रीभाº महा० दश० पू०भाषाटीकायां रासकीडावर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥ दोहा— चौतिसमें नँदरायको, निगल गयो इक नाग। शंखासुरको वध कियो, कृष्ण सकल भय त्याग॥१॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्!
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद्यः॥ भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रय स्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः॥ अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तें विकावनम्॥१॥ तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्॥ आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च नृपतेंविकाम्॥२॥ गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृताः॥ ब्राह्मणेभ्यो ददुः सर्वे देवो नः प्रीयतामिति॥३॥ ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य धृतव्रताः॥ रजनीं तां महाभागा नन्दसुनंदकादयः॥४॥ कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः॥ यदृच्छयाऽऽगतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत्॥५॥
एकसमय अत्यन्त उत्साहसे सव व्रजवासी देवीकी यात्रा करनेके लिये वैलोको जोत गाडियोंपर बैठकर देवीके बनमें गये॥१॥ हे राजन्! वहाँ पहुँच सरस्वती नदीमें स्नान कर फिर महादेवजीका भली भाँति पूजनकर अम्बिका देवीका पूजनकिया॥२॥ संपूर्ण व्रजवासी, महादेव हमारे ऊपर प्रसन्नहों, इसलिये मधुयुक्त मधुर अन्न और गौ, ब्राह्मणोंको दान किया॥३॥ और बडे भाग्यवान् नन्दादिक और सब व्रजवासियोंने उसदिन रात्रिको जलका आचमन कर तथा तीर्थ व्रत करके सरस्वती के किनारेही वास किया॥४॥ हे नृप! उस वनमें कोई अत्यन्त भूखा सर्प रहताथा, उसने
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* दृष्टान्त— एक बुढिया वडी कहा सुनीसे कथा सुनने गई पीछेसे कटोरा जाता रहा दूसरे दिन कथामें न आई, लुगाइयोंने कहा, बुढिया तू कथा सुननेको न आई बोली कि, मैना! खर्च बहुत पढता है पहले दिनगई तो कटोरा गया अवकी सुनगी तो थाली लोटे परात सव खो वैठुंगी इसकारण मेरी तो कथाको दूरसेही दंडयत् है।
अकस्मात् आनकर नन्दरायजीको ग्रसा*॥५॥ सर्पसे ग्रसित होकर नन्दजी पुकारने लगे कि, हे कृष्ण! हे कृष्ण! यह अत्यन्त भयानक सर्प मुझको निगले जाता है, हे पुत्र! मैं तेरी शरण हॅू, तू मुझे छुड़ा॥६॥ इसप्रकार नन्दजीकी पुकार सुन घबराहटसे ब्रजवासी शीघ्रही उठे, देखाकि, नंदजीको सर्प निगले जाताहै तो सुलगती लकड़ियोंसे उसको मारने लगे॥७॥ यद्यपि ब्रजवासियोंने सुलगती लकड़ियोंसे उसे मारा परन्तु तोभी उस सर्पने नंदजीको न छोड़ा, तब भक्तोंकी रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उस सर्पको अपने चरणकी ठोकर मारी॥८॥ भगवान श्रीकृष्ण
स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्णकृष्ण महानयम्॥ सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय॥६॥ तस्य चाक्रंदितं श्रुत्वा गोपालाः सहसोत्थिताः॥ ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ताः सर्पं विव्यधुरुल्मुकैः॥७॥ अलातैर्हन्यमानोऽपि नामुंचत्तमुरं गमः॥ तमस्पृशत्पदाऽभ्येत्य भगवान्सात्वतां पतिः॥८॥ स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः॥ भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम्॥९॥ तमपृच्छद्धृषीकेशः प्रणतं समुपस्थितम्॥ दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम्॥१०॥ को भवान् परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः॥ कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः॥११॥ सर्प उवाच॥ अहं विद्याधरः कश्चित सुदर्शन इति श्रुतः॥ श्रिया स्वरूपसंपत्त्या विमानेनाचरन्दिशः॥१२॥
चन्द्रके चरणकी ठोकर लगतेही उसके सब पाप दूर होगये और उस सर्पने सर्पदेहको त्यागकर विद्याधर जिसका पूजन करें, ऐसे स्वरूपको धारण किया॥९॥ इसके उपरान्त प्रकाशमान रूप धारण किये सुवर्णकी मालापहिरे उस खड़ेहुए पुरुषसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूछने लगे कि॥१०॥ परम शोभायमान अद्भुतदर्शन तुम कौन हो? और विवश होकर यह सर्पकी योनि तुमको कैसी मिली॥११॥ यह सुनकर वह सर्प बोला कि, महाराज!
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*शंका— सब सर्प प्राणियोंको काटते हैं परन्तु अपनी भूखकी शान्तिके लिये नहीं काटते केवल प्राणियोंको डसना (काटना) सर्पोंका स्वभाव है, भागवत् में लिखा है कि, भूखे सर्प्पने नन्दजीको दश लिया ऐसा क्यों लिखा?
** उत्तर—** जिस सर्प्पका भागवतमें इतिहास है, वह सर्प पूर्वजन्मका देवता था. जब मुनीश्वर ने उसको शाप दिया था तब इससे कह दिया था कि, जिससमय श्रीकृष्णका चरण तेरी देहसे छू जायगा तब तेरी मोक्ष होगी, उस सर्प्पको वही आशारूपी क्षुधा थी, उसीसे दुःखी होकर सर्प्पने नन्दजीको काटा॥
में सुदर्शन नाम करके विख्यात कोई गंधर्व था, संपत्ति और शरीरकी सुन्दरतासे गर्वित हो विमानमें बैठकर दिशाओंमें विचरता था॥१२॥ तब एक समय मैंने रूपके मदसे मत्त होकर कुरूप अंगिरसादि ऋषियोंकी हँसी करी, तब उन्होंने मुझे शाप दिया, जिससे मेरी सर्पयोनि होगई॥१३॥ करुणावान् ऋषीश्वरोंने कृपा करनेहीके लिये मुझे शाप दिया था, जिसकारण त्रिलोकीके गुरु आपके चरणारविन्द स्पर्श करनेसे सब पाप छूटगये, और यदि वे शाप न देते तो तुम्हारे चरण मेरे कैसे लगते?॥१४॥ संसारसे डरकर शरण आये पुरुषका भय दूर करनेवाले आप हैं, सो मुझसे क्या पूछते हो। हे पापनाशक! तुम्हारे चरण स्पर्शसे मेरे सब पाप दूर होगये॥१५॥ हे महायोगिन्! हे महापुरुष! हे महासाधुओंके पति! हे प्रकाशमान! हे सबलोंके ईश्वर! हे इश्वरके ईश्वर! तुम्हारी मैं शरण आया हूँ, सो मुझे आज्ञादो॥१६॥ हे अच्युत! तुम्हारा दर्शनकरके मैं शीघ्रही ब्राह्मणोंके
ऋषीन्विरूपानंगिरसः प्राहसं रूपदर्पितः॥ तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना॥१३॥ शापो मेऽनुग्रहायैव कृतस्तैः करुणात्मभिः॥ यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभः॥१४॥ तं त्वाऽहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्॥ आपूच्छे शापनिर्मुक्तः पादस्पर्शादमीवहन्॥१५॥ प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते॥ अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर॥१६॥ ब्रह्मदंडाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्॥ यन्नाम गृह्णन्नखिलान् श्रोतॄनात्मानमेव च॥१७॥ सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते॥ इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवंद्य च॥ सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नंदश्च मोचितः॥१८॥ निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं व्रजौकसो विस्मितचेतस स्वतः॥ समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्ब्रजं नृपाऽऽययुस्तत्कथयन्त आदृताः॥१९॥ कदाचिदथ गोविंदो रामश्चाद्भुत विक्रमः॥ विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम्॥२०॥
शापसे छूट गया, क्योंकि जिनका नामही उच्चारण करके वक्ता और श्रोता अपनेको पवित्र करते हैं॥१७॥ फिर तुम्हारे चरणोंसे मैं पवित्र दुवा तो इसमें आश्चर्यही क्या है? इस प्रकार दाशार्हवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा ले, परिक्रमा दे, प्रणाम कर वह सुदर्शन स्वर्ग को चलागया और नंदजी कष्टसे छूटगये॥१८॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वैभव देख आश्चर्यको प्राप्त हो व्रजवासी तीर्थमें नेमको पूर्ण कर बड़े आनन्दपूर्वक श्रीकृष्णचंद्रका चरित्र कहतेहुए व्रजमें आये॥१९॥ किसी समय एक यात्राके उपरान्त गोविंद
और अद्भुत पराक्रमवाले बलराम दोनों भाई वनके बीच रात्रिमें व्रजस्त्रियोंके मध्यमें विहार करते थे॥२०॥ स्नेहसे बद्ध होनेके कारण ललित स्त्रियें भगवान् श्रीकृष्णके चरित्र गारहींथीं और दोनों भाई सुन्दर आभूषण धारण किये, केशर चंदन लगाये, वनमाला और निर्मल वस्त्र पहरे॥२१॥ रात्रिके प्रारम्भ होनेसे तारागण और चन्द्रमाका उदय होरहा था, चमेलीकी सुगन्धसे मत्त होकर भौंरे गुंजार कर रहे थे, फूली कुमोदिनीसे लगकर पवन चल रहाथा॥२२॥ उसकी सराहना करते सब प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्ददायक संगही स्वरके मंडलोंकी मूर्च्छना करते गाने लगे॥२३॥ हे राजा परीक्षित्! श्रीकृष्ण बलदेवका गाना सुनकर मूर्च्छाको प्राप्त हो गोपियोंके वस्त्र ढीले पड़गये और
उपगीयमानौ ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः॥ स्वलंकृतानुलिप्तांगौ स्रग्विणो विरजोंबरौ॥२१॥ निशामुखं मानयंतावुदि तोडुपतारकम्॥ मल्लिकागंधमत्तालिजुष्टं कुमुदवायुना॥२२॥ जगतुः सर्वभूतानां मनश्श्रवणमंगलम्॥ तौ कल्पयं तौ युगपत् स्वरमंडलमूर्छितम्॥२३॥ गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य मूर्च्छिता नाविदन् नृप॥ स्रंसद्दुकूलमात्मानं स्रस्तके शस्रजं ततः॥२४॥ एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः संप्रमत्तवत्॥ शंखचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात्॥२५॥ तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्॥ क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशंकितः॥२६॥ क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्॥ यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम्॥२७॥ मा भैष्टेत्यभयाऽऽरावौ शालहस्तौ तरस्विनौ॥ आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम्॥२८॥
चोटियोंकी गॉठे खुलगई कि, जिनसे फूलोंकी माला गिर गईं अधिक क्या कहैं, उन्हें अपने २ आपेकी भी सुधि न रही॥२४॥ हे नृपोत्तम! इस प्रकार कृष्ण बलदेव दोनों भाई मतवालेके समान क्रीड़ा और गान कररहे थे कि, इतनेमेंही शंखचूड़ नाम कुबेरका टहलुआ आया॥२५॥ हे राजा परीक्षित्! कृष्ण बलदेवके देखते निर्भय हो शंखचूड़ जब उन गोपियोंके समूहको जिसके स्वामी कृष्ण बलदेव हैं, लेकर उत्तरकी ओर चला, उस समय वह गोपियें पुकारने लगीं॥२६॥ जैसे सिंहकी पकड़ी गौ पुकारती है, उसी प्रकार हे कृष्ण बलदेव! इस प्रकार पुकार करती गोपियोंको देख कृष्ण बलदेव दोनों भाई शंखचूडके पीछे दौड़े॥२७॥ मतडरो ऐसे भयके दूर करनेवाले वचन कह शालका वृक्ष हाथमें
लिये शीघ्रतासे कृष्ण बलदेव दौड़ गुह्यकगणमें अधम शंखचूड़के पीछे गये॥२८॥ काल मृत्युके समान पीछे दौड़े चले आते श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवको देख, स्त्रियोंको छोड़ मूढ शंखचूड़ अपने प्राण बचानेके लिये भागा॥२९॥ जहां जहां शंखचूड़ भागकर गया वहाँ वहाँ गोविंद श्रीकृष्णचन्द्र उसके शिरकी मणि लेनेके लिये उसके पीछे दौडे और बलदेवजी स्त्रियोंकी रक्षाके लिये वहीं रहे॥३०॥ हे राजा परीक्षित्! थोडी दूर पर जाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने दुष्टमनवाले शंखचूडके मुष्टिक मार शिर सहित उसके माथेकी मणि लेली॥३१॥ भगवान् श्रीकृष्ण
स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्॥ विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया॥२९॥ तमन्वधावद् गोविंदो यत्रयत्र स धावति॥ जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं तस्थौ रक्षन् स्त्रियो बलः॥३०॥ अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः॥ जहार मुष्टिनैवांग सह चूडामणिं विभुः॥३१॥ शंखचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्॥ अग्रजाया ददत् प्रीत्या पश्यंतीनां च योषिताम्॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे शंखचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशोध्यायः॥३४॥ श्रीशुक उवाच॥ गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः॥ कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान्॥१॥
चन्द्रने इसप्रकार शंखचूड दैत्यको मार प्रकाशमान् मणि लेकर संपूर्ण स्त्रियोंके देखते प्रसन्नतापूर्वक अपने बड़े भाई बलदेवजीको देदी॥३२॥ ति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां शंखचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३४॥ दोहा— पैंतिसमें हरि वन गये, पीछे गोकुल नारि। वेणु गीतही गायकर, दियो कष्ट सब टारि॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वनमें गये तब श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये गोपियें विरहमें उनकी लीलाको गाय गाय अत्यन्त कष्टसे दिन व्यतीत करनेलगीं*॥१॥
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*शंका— श्रीशुकदेवजीने परीक्षितसे कहा था कि, हे राजन्! श्रीकृष्ण जिस दिन गौयें चराने जाते थे, तब विना कृष्णको देखे अलग होकर गोपी बहुत दुखसे दिन काटती थीं, इस वचनसे जानपढता है कि सब गोपी गोकुलमें रात्रिके समय श्रीकृष्णके पास सभा बनाकर रहती होंगी? प्रातःकाल होतेही व्रज विहारी फिर गाय चराने चले जाते होंगे, तb फिर सb गोपी उसीप्रकार व्याकुल हो जाती होंगी।
गोपियें परस्पर बोलीं कि, हे सखियो! बाईं भुजापर बायें कपोलको धर भ्रुकुटियोंको चढ़ाय मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रजी अधरके ऊपर बॉसुरीको धर और अपनी कोमल अँगुलियोंसे उसके छिद्रोंको दाब जिससमय बजाते हैं॥२॥ उससमय आकाशमें गमन करनेवाली देवताओंकी स्त्रियें अपने पतियों सहित बॉसुरीको सुन प्रथम आश्चर्यमान लाज सहित कामके बाणोंसे परवशहो मन हरजानेके कारण नारोंकी भी जिनको सुधि न रही इस प्रकार मोहको प्राप्त होगई॥३॥ हे अबलाओ! यह आश्चर्य सुनो हारकी समान निर्मल जिनकी हँसनि, बाँसुरी बजाते समय नीचा मुख करके जो हँसते हैं, तो उनकी हारोंमें प्रकाशित हॅसनि होती है, अथवा हारकी तुल्य छातीमें शोभायमान जिसकी हॅसनि है और छातीमें बिजु
गोप्य ऊचुः॥ वामबाहुकृतवामकपोलो वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम्॥ कोमलांगुलिभिराश्रितमार्गं गोप्य ईरयति यत्र मुकुदः॥२॥ व्योमयानवनिताः सह सिद्धैर्विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः॥ काममार्गणसमर्पितचित्ताः कश्मलं ययुरपस्मृतनी व्यः॥३॥ हंत चित्रमबलाः शृणुतेदं हारहास उरसि स्थिरविद्युत॥ नंदसूनुरयमार्तजनानां नर्मदो यर्हि कूजितवेणुः॥४॥ वृंदशो व्रजवृषा मृगगावो वेणुवाद्यहृतचेतस आरात्॥ दंतदष्टकवला धृतकर्णा निद्रिता लिखितचित्रमिवासन॥५॥ बर्हिणस्तबकधातुपलाशैर्बद्धमल्लपरिबर्हविडंबः॥ कर्हिचित्सबल आलि सगोपैर्गाः समाह्वयति यत्र मुकुन्दः॥६॥ तर्हि भग्नगतयः सरितो वै तत्पदांबुजरजोऽनिलनीतम्॥ स्पृहयतीर्वयमिवाऽबहुपुण्याः प्रेमवेपितभुजाः स्तिमितापः॥७॥
लीकी तुल्य प्रकाशमान स्थिर लक्ष्मी जिसके हृदयमें वास करती है पीड़ितजनोंको सुख देनेवाला यह नंदका पुत्र जिस समय बाँसुरी बजाताहै॥४॥ तब दूरसे बाँसुरीका शब्द सुन हरगये हैं मन जिनके ऐसे गौ, बैल और हिरणोंके समूहके समूह दॉतोंसे कौर काटकर उसे दाबे हुए कानोंको ऊंचाकर सोतेसे चित्र लिखेके समान खड़े होगये. बड़ा आश्चर्य है कि, पशु, पक्षियोंकी यह दशा है॥५॥ हे सखी! मोरपुच्छ, खडिया गेरू, मनसिल, पात, इनसे मल्लके समान स्वरूपसे कभी बलदेव भाई सहित और गोपियों सहित मुकुन्द जिससमय बाँसुरी बजाकर गौओंको
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** उत्तर–** व्याकरणके पढनेवाले जो विद्वानूपुरुष हैं वह (निन्युर्दुःखेन वासरान्) इस श्लोकमें वासरका अर्थ दिनका नहीं करते, वास, सब वस्तुके प्रमाणका नाम है उसी वासको जो ग्रहण करै, उसका नाम वासर है, व्याकरणके पढने वाले विद्वानोंने वासरका अर्थ निमिषका किया है, इसी निमषको गोपी बडे दुःखसे बिताती थी आँखोंके पडने उघडनेका नाम निमिष है॥
बुलाते हैं; उससम्म बाँसुरीका शब्द सुनकर नदियोंका प्रवाह बहनेसे रुकजाता है और पवनसे उडकर गई उनके चरणोंकी रजको हमारी तुल्य आकांक्षा करती हैं और हमारी तुल्य उनके भी उत्कृष्ट पुण्य नहीं हैं, इसलिये वह नदियोंको नहीं मिलती, प्रेमसे जिनकी लहर कॉपती हैं, जल जिनके निश्चल होजाते हैं॥६॥७॥ गोप, ग्वाल और देवता जिनके निर्मल यशको गाते हैं, नारायणकी तुल्य सदा स्थिर लक्ष्मीवाले वनके विचरनेवाले कृष्ण जिससमय गोवर्द्धन पर्वतके शिखरपरसे चरतीहुईं गौओंको बाँसुरी बजाकर बुलाते हैं, उस समय फूल, फल, जिनमें लगे उनके बोझसे शाखा जिनकी झुकरहीं, प्रेमसे हर्षित चित्त, वनके लता, वृक्ष, अपनेमें विष्णुको प्रगट करते मकरंदकी धारा बहाते हैं॥८॥९॥ सुन्दरोंमें अतिसुन्दर अथवा सुन्दर देखने योग्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र श्याम ललाटमें केशरका तिलक लगाये वनमाला पहरे जिसकी दिव्य गंध और
अनुचरैः समनुवर्णितवीर्य आदिपुरुष इवाचलभृतिः॥ वनचरो गिरितटेषु चरंतीर्वेणुनाऽऽह्वयति गाः स यदा हि॥८॥ वन लतास्तरव आत्मनि विष्णुं व्यंजयंत्य इव पुष्पफलाढ्याः॥ प्रणतभारविटपा मधुधाराः प्रेमहृष्टतनवः ससृजुः स्म॥९॥ दर्शनीयतिलको वनमालादिव्यगंधतुलसीमधुमत्तैः॥ अलिकुलैरलघु गीतमभीष्टमाद्रियन्यर्हि संधितवेणुः॥१०॥ स रसि सारसहंसविहंगाश्चारुगीतहृतचेतस एत्य॥ हरिमुपासत ते यतचित्ताः हंत मीलितदृशो धृतमौनाः॥११॥ स हबलः स्रगवतंसविलासः सानुषु क्षितिभृतो व्रजदेव्यः॥ हर्षयन्यर्हि वेणुरवेण जातहर्ष उपरंभति विश्वम्॥१२॥ मह दतिक्रमणशंकितचेता मंदमंदमनुगर्जति मेघः॥ सुहृदमभ्यवर्षत्सुमनोभिश्छायया च विदधत्प्रतपत्रम्॥१३॥
तुलसीके मकरंदसे मत्त हो, भौंरे उनके उच्च और अनुकूल गानको मान देते हैं, ऐसे भगवान् जब अधरके ऊपर बॉसुरीको धरके बजाते हैं उस समय सरोवरों में सारस, हंस और पक्षी गानसे मोहितचित्त हो उस स्थानमें ऑंखें मूँदे मौन धारण करे चित्त रोके कृष्णके निकट बैठे रहते हैं॥१०॥११॥ हे गोपियो! मालाओंसे कानोंमें कुण्डलसे शोभायमान, आनन्दको प्राप्त बलदेव भाई सहित कृष्ण जब सब विश्वको आनन्द दे बाँसुरीके शब्दसे पूर्ण करते हैं, उससमय इस महान् कृष्णका अपराध न हो, इस प्रकार मेघ मनमें शंका मान मुरलीके शब्दके पीछे मंद मंद गर्जते हैं, और अपने मित्र श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूलोंकी वर्षाकरते हैं, छत्रसे छाया करते हैं, सो वह मेघ इसका सच्चा मित्र है
क्योंकि यह भी साँवरा और वह भी सॉवरा॥१२॥१३॥ हे यशोदा! अनेक प्रकारके गोपोंके खेलोंमें निपुण तुम्हारा पुत्र अधरके ऊपर बासुरी धरकर अपने आपही सीखगये, क्योंकि षड्ज, निषाद, ऋषभ, गांधारादि स्वरोके आलापनेके भेद वह स्वयंही उठालेता है॥१४॥ उस समय इन्द्र, शिव, ब्रह्मा यह जिनमें मुख्य हैं, ऐसे बुद्धिमान देवता मंद मध्यतारसे बाँसुरीको सुनकर मोहित होगये और नीचेको मुखकरके कौन स्वरको गाते हैं। यह भी निश्चय नहीं करसके॥१५॥ ध्वजा, वज्र, अंकुश, कमल इनके चित्र विचित्र चिह्नवाले अपने चरणकमलसे व्रजभूमिको गायोंके खुर पडनेसे जो खेद है उसको शांत किया और मतवाले हाथीके समान चलनेवाले श्रीकृष्ण बाँसुरीको बजाकर जिस समय चलते हैं उस
विविधगोपरसेषु विदग्धो वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षाः॥ तव सुतस्सति यदाऽधरबिंबे दत्तवेणुरनयत्स्वरजातीः॥१४॥ सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः॥ कवय आनतकंधरचित्ताः कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः॥१५॥ निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्रनीरजांकुशविचित्रललामैः॥ व्रजभुवश्शमयन्खुरतोदं वर्ष्मधुयगतिरीडितवेणुः॥१६॥ व्रजति तेन वयं सविलासवीक्षणार्पितमनोभववेगाः॥ कुजगतिं गमिता न विदामः कश्मलेन कवरं वसनं वा॥१७॥ मणि धरः क्कचिदागणयन्गा मालया दयितगंधतुलस्याः॥ प्रणयिनोऽनुचरस्य कदांसे प्रक्षिपन्भुजमगायत तत्र॥१८॥ क्कणितवेणुरववंचितचित्ताः कृष्णमन्वसत कृष्णगृहिण्यः॥ गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्यो गोपिका इव विमुक्तगृहाशाः॥१९॥ कुंददामकृतकौतुकवेषो गोपगोधनवृतो यमुनायाम्॥ नंदसूनुरनघे तव वत्सो नर्मदः प्रणयिनां विजहार॥२०॥ मंदवायुरनुवात्यनुकूलं मानयन्मलयजस्पर्शेन॥ वंदिनस्तमुपदेवगणा ये वाद्यगीतबलिभिः परिवव्रुः॥२१॥
समय विलासपूर्वक चिन्तवनसे कामदेवके वेगमें भरी हमें वृक्षोंकी तुल्य जड होकर चोटी और वस्त्रोंकीभी सुधि नहीं रहती है॥१६॥१७॥ प्यारी सुगंधिवाली तुलसीकी मालाको पहरे मणियोंकी सुमिरणी हाथमें लेकर गायोंको गिनतेहुए प्यारे मित्रके कंधेपर हाथ रखकर जिस समय गाते हैं, उस समय बजतीहुई बॉसुरीका शब्द सुन चित्त हरजानेसे हरिणोंकी स्त्रियें हरिणी गुणोंके समुद्र श्रीकृष्णचन्द्रके पास आनकर गोपियोंकी समान घरकी आशाओंको त्याग सेवन करनेलगीं॥१८॥१९॥ हे यशोदे! गोपियोंको आनन्द देनेके लिये कुंदकी मालाओंसे आनंदपूर्वक शृंगार
किये स्नेहियोंको आनंद देनेवाला यह तेरा पुत्र नंदकुमार गोप गौओंको संग लिये जिस समय यमुनामें विहार करता है, उससमय चंदनकेसी सुगंधिवाला शीतलस्पर्शं पवन श्रीकृष्णका सन्मान करता है। अनुकूल मन्द मन्द चलता है और गंधर्वादि तथा बंदिजनोंकी नाईं बाजे बजाता गाता फूलोंकी वर्षाकरके सेवा करता है॥२०॥२१॥ देखो व्रजमें गायोंका हित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब इन्द्रने वर्षा कीथी तब गोवर्द्धन उठाकर रक्षा करी और बडे बडे ब्रह्मादिक आनकर उनके चरणोंमें प्रणाम करते हैं और संध्यासमय जब गायोंको इकट्ठाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बॉसुरी बजाते और मित्रोंसे अपनी कीर्ति श्रवण करते श्रमभरी शोभासे आनन्द देते गायोंकी रज मालामें लग रही चन्द्रमाके समान प्रकाशमान देवकीके गर्भसे उत्पन्नहुए श्रीकृष्णचन्द्र जो हैं सो हमारा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये आते हैं॥२२॥२३॥ कुछेक मंदमंद नेत्र जिनके
वत्सलो व्रजगवां यदगध्रो वंद्यमानचरणः पथि वृद्धैः॥ कृत्स्नगोधनमुपोह्य दिनांते गीतवेणुरनुगेडितकीर्तिः॥२२॥ उत्सवं श्रमरुचाऽपि दृशीनामुन्नयन्खुररजश्छुरितस्रक॥ दित्स्यैति सुहृदाशिष एष देवकीजठरभूरुडुराजः॥२३॥ मदविघूर्णितलोचन ईषन्मानदः स्वसुहृदां वनमाली॥ बदरपांडुवदनो मृदुगंडं मंडयन्कनककुंडललक्ष्म्या॥२४॥ यदुपतिर्द्विरदराजविहारो यामिनीपतिरिवैष दिनांते॥ मुदितवक्र उपयाति दुरंतं मोचयन्व्रजगवां दिनतापम्॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं व्रजस्त्रियो राजन्कृष्णलीला नु गायतीः॥ रेमिरेऽहस्सु तच्चित्तास्तन्मनस्का महोदयाः॥२६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंध पूर्वार्द्धे वृंदावनक्रीडायां गोपिकागीतं नाम पंचत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
घूम रहे अपने स्नेहियोंको मान देनेवाले वनमाला पहरे पके बेरके समान श्याममुख और कुण्डलोंकी कान्तिसे कोमल कपोलोंको शोभायमान करते मतवाले हाथी के समान जिनका विहार प्रसन्न मुख इसप्रकार यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने संध्यासमय जिसप्रकार चन्द्रमा उदय होता है, उसीप्रकार उदय होकर व्रजकी गायरूप हमारा बहुत दिनोंका ताप दूर कर दिया॥२४॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमेंही जिनका जीवन और वृद्धिको प्राप्त हुआ उत्सव ऐसी ब्रजवालायें श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला गा गाकर दिन व्यतीत करने लगीं॥२६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां गोपिकागीतं नाम पंचत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
दोहा–कंस सुनो छत्तीसमें, मरो अरिष्ट विसूर। रामकृष्णके लेनको, भेजो जन अक्रूर॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित! इस प्रकार देवता गंधर्वादिक जिनका गान और नृत्य करें, बाजे बजाकर फूलोंकी वर्षा करें ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर परम उत्सव हुआ, इसके उपरान्त उसीसमय व्रजमें बैलका रूप बनाकर अत्यन्त विशाल देह और खुरोंसे पृथ्वीको विदीर्ण और कम्पायमान करताहुआ, अरिष्टासुर आया॥१॥ अत्यन्त रंभाता, खुरोंसे धरती खोदता, पूंछ उठाता, खेतोंकी मेंडोको तोडता॥२॥बीच बीचमें
श्रीशुक उवाच॥अथ तर्ह्यगतो गोष्ठमरिष्टो वृषभासुरः॥मर्हीमहाककुत्कायः कंपयन्खुरविक्षताम्॥१॥रंभमा णः खरतरं पदा च विलिखन्महीम्॥उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन्॥२॥ किंचित्किंचिच्छकृन्मुंचन्मूत्रयं स्तब्धलोचनः॥यस्य निर्ह्रादितेनांग निपुरेण गवां नृणाम्॥३॥पतंत्यकालतो गर्भाः स्रवंति स्म भयेन वै॥ निर्विशंति घना यस्य ककुद्यचलशंकया॥४॥ तं तीक्ष्णशृङ्गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः॥पशवो दुदुवुर्भीता राज न्संत्यज्य गोकुलम्॥५॥ कृष्ण कृष्णति ते सर्वे गोविदं शरणं ययुः॥भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम्॥६॥
गोबर और मूत्र करता अत्यन्त भयानक ऑखवाला इसप्रकार अरिष्टासुरके रंभानेका शब्द सुनकर गाय और स्त्रियोंके बिना समयही गर्भ गिरगये,जिसके टांटके ऊपर पर्वत जानकर मेघ आन बैठते हैं<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1735669409Screenshot2024-12-31235044.png”/>॥३॥४॥ हे परीक्षित्। इसप्रकार अत्यन्त पैने सींगवाले अरिष्टासुरको देखकर सब गोप और गोपी अत्यन्त भयभीत होगये, पशु खिरकोंको छोडकर डरके मारे भागगये, हेकृष्ण!हेकृष्ण!! इसप्रकार पुकारनेलगे और संपूर्ण
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*** शंका—**वृषभासुरके शब्दसे गायोंका और स्त्रियोंका गर्भ गिरजाता था, ऐसा भागवतमें लिखाहै, तब वह दुष्ट वृषभासुर तो नित्य शब्द करता रहता होगा तब गायोंकी और स्त्रियोंकी सृष्टिका नाश क्यों नहीं हुआ? गायोंका और मनुष्योंका वश नष्ट होना चाहिये था, सो क्यों न हुआ? ऐसी बात न तो हमने आजतक आंखसे देखी न कानोंसे सुनी॥
**उत्तर—**वृषभासुरके प्रभावको जानकर भगवाननेसुवीर्य और सुरपालक दोनों देवताओंको आज्ञा दी कि, जब दुष्ट शब्द करनेलगे तब तुम दोनों उसका कण्ठ रोक लो, ऐसी मगवान्कीआज्ञा पाकर वे वृषभासुरके पास रहने लगे जब वृषभासुर गर्जन शब्द करता, तब वह दोनों देवता उसके कण्ठको रोकलेते थे, इसी प्रकार सब अवस्था व्यतीत होगई, वृषभासुरको शब्द नहीं करने दिया, जिस दिन मरनेका समय आया उसदिन महागम्भीर शब्द करके भगवानके हाथसे मारागया, इसलिये नित्य शब्द करने नहीं पाया॥
ब्रजवासी गोविंद श्रीकृष्णचन्द्रकी शरणमें आये इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, डरके मारे गोकुलवासियोंको भागता देखकर “भय मतकरो” इसप्रकार कहा अरिष्टासुरको निकट बुलाकर कहा॥५॥६॥ हे मूर्ख! हे असाधो! ग्वाल गायोंके डरानेसे तुझे क्या मिलेगा ? मेरे सन्मुख आ, क्योंकि तुझ सरीखे मतवाले दुष्टोंका बल और मद दूर करनेको मैंनेअवतार लियाहै॥७॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कह, खम्भ ठोंक और अरिष्टासुरको क्रोध उत्पन्न कराय, मित्रके कंधेपर सर्पाकार भुजा पसारकर खडे होगये॥८॥ इसप्रकार क्रोधको प्राप्तहुआ अरिष्टासुर पूँछ उठाय खुरोंसे धरती खोदताहुआ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके सन्मुख आया॥९॥सींगोंका अग्रभाग आगे किये पलक विसारे, लाल लाल
मा भैष्टेति गिराऽऽश्वास्य वृषासुरमुपाह्णयत्॥ गोपालैः पशुभिर्मंद त्रासितैः किमसत्तम॥७॥ वलदर्पहाऽहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम्॥ इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन्॥८॥ सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्या वस्थितो हरिः॥ सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खरेणावनिमुल्लिखन्॥ उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत्॥९॥ अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृरलोचनोऽच्युतम्॥ कटाक्षिप्याऽद्रवत्तूर्णमिंद्रमुक्तोऽशनिर्यथा॥१०॥ गृहीत्वा शृंग योस्तं च अष्टादश पदानि सः॥ प्रत्यपोवाह भगवान्गजः प्रतिगजं यथा॥११॥ सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय स त्वरः॥ आपतत्स्विन्नसर्वांगो निश्श्वसन्क्रोधमूर्च्छितः॥१२॥ तमापतंतं स निगृह्य शृंगयोः पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले॥ निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमंबरं कृत्वा विषाणेन जघान सोऽपतत्॥१३॥ असृग् वमन्मूत्रशकृत्समु त्सृजन्क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः॥ जगाम कृच्छ्रं निर्ऋतेरथ क्षयं पुष्पैः किरंतो हरिमीडिरे सुराः॥१४॥
आँखें किये, अरिष्टासुर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर देवराज इन्द्रके छोडे वज्रसेभी शीघ्र उनके सन्मुख आनकर उपस्थित हुआ॥१०॥ और आतेही उसके सींग पकड़ जैसे हाथीको हाथी धक्का देताहै, उसीप्रकार उलटे पाॅव करके उसे धकियानेलगे॥११॥ जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अरिष्टासुरको ढकेल दिया,तव फिर वह उठकर पसीनेमें चुचियाता अत्यन्त क्रोधित हो बडे बडे श्वास लेताहुआ दौडकार आया॥१२॥ आतेही भगवान्श्रीकृष्णचंद्र ने उसके शींग पकडकर पृथ्वी में दे मारा और पॉवसे छाती दाब कर जैसे गीले कपडेको निचोड़तेहैं, उसीप्रकार उमेठदे, शींग उखाड़ उसका प्राण संहार किया॥१३॥ उस समय उसके नेत्र चलायमान होगये, रुधिरकी वमन और गोबर करता पाँवों को पटकता अरिष्टासुर मरगया;
तब देवतालोगोंने फूल वर्षाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति की॥१४॥ इस प्रकार अरिष्टासुरको मार, मित्रोंसे सन्मानित हो, गोपियोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र व्रजमें आये॥१५॥अद्भुत कर्मकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब अरिष्टासुरको मार दिया, तब देवताओंके समान देवर्षि नारदजीने सब वृत्तान्त कंससे जाकर कहा॥१६॥कि, हे राजन्! यशोदाके कन्या हुई और देवकीके कृष्ण हुआथा, बलदेव रोहिणीके पुत्र हैं तुम्हारे भयके मारे वसुदेवजी अपने मित्र नंदजीके घर रातों रात पहुँचा आयेथे और प्रत्यक्ष देखलो कि, जितने दैत्य आपने भेजे वह सब कृष्ण बलदेवने मारडाले; यह वचन नारदजीका श्रवणकर क्रोधके मारे कंस विकलेन्द्रिय होगया॥१७॥१८॥ तब वसुदेवजी के मारनेके लिये
एवं ककुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः स्वजातिभिः॥ विवेश गोष्टं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः॥१५॥ अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णे नाद्भुतकर्मणा॥कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः॥१६॥ यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च॥ रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता॥१७॥ न्यस्तौ स्वमित्र नंदे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः॥ निशम्य तद् भोजपतिः कोपात्प्रचलितेंद्रियः॥१८॥ निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया॥ निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः॥१९॥ ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैर्बबंध सह भार्यया॥ प्रतियाते तु देवर्षो कंस आभाष्य केशिनम्॥२०॥ प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ॥ ततो मुष्टिकचाणूरशलतोशलकादिकान्॥२१॥ अत्मात्यान्हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट्॥ भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ॥२२॥
कंसने अत्यन्त पैनी तलवार ग्रहण की, परंतु नारदजीने निवारण करदिया, इसके उपरान्त कृष्ण बलदेवसे अपनी मृत्यु जान॥१९॥ देवकी सहित वसुदेवके पैरोंमें बेड़ी डालदी, नारदजीके चले जानेपर फिर कंसने केशी नाम राक्षसको बुलाकर॥२०॥ कहा कि, तुमही रामकृष्णको मार आओ और फिर मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि जो मल्ल थे, उन्हें बुलाया॥२१॥ इसके उपरांत मंत्रियों और हाथियोंके महावतोंको बुलाकर भोजवंशियोंका राजा कंस बोला कि, हे वीर! हे चाणूर! हे मुष्टिक! मेरी बात सुनो॥२२॥
नंदजीके गोकुलमें वसुदेवके पुत्र जो कृष्ण, बलराम रहते हैं उन्हींके हाथसे निश्चय नारदजीने मेरी मृत्यु बताई है॥२३॥ इसलिये वह जिस समय आवैं उसी समय पॉवोंसे दाब मल्ललीलाकरके मारडालना और मल्लोंकी जो रंगभूमि है, उसमें अनेक प्रकारके मञ्चान बनाओ॥२४॥ क्योंकि पुरवासी और देशवासी संपूर्ण उनपर बैठकर मल्लोंकी कुस्ती देखेंगे, इसके उपरान्त मंगल रूप कुवलयापीड हाथीको रंगभूमिके द्वारपर खडा करदो॥२५॥ बस ज्योंही कृष्ण बलदेव आवैं त्योंहीं उन्हें हाथीसे मरवाडालना और चतुर्दशीके दिन विधिपूर्वक धनुषयज्ञकी तैयारी करो और संपूर्ण कामनाओंके देनेवाले महादेवजीका पूजन करनेके लिये पवित्र पवित्र पशु लाओ॥२६॥ हे राजन् ! अपने अर्थके तत्त्वको जाननेवाले राजा
नंदव्रजे किलासाते सुतावानकदुंदुभेः॥रामकृष्णौ ततो माह्यंमृत्युः किल निदार्शेतः॥२३॥भवद्भ्यामिह संप्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया॥मंचाः क्रियतां विविधा मल्लरंगपरिश्रिताः॥॥२४॥पौरा जानपदाः सर्वे पश्यंतु स्वैरसंयुगम्॥ महामात्र त्वया भद्र रंगद्वार्युपनीयताम्॥२५॥ द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ॥आरभ्यतां धनुर्यागश्च तुर्दश्यां यथाविधि॥विशसंतु पशून्मेध्यान्भृतराजाय मीढुषे॥२६॥ इत्याज्ञाप्यार्थतंत्रज्ञ आहूय यदुपुंगवम्॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह॥२७॥ भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः॥नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु॥२८॥अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम्॥यथेंद्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः॥२९॥ गच्छ नंदव्रजं तत्र सुतावानकदुंदुभेः॥आसाते ताविहानेन रथेनानय माचिरम्॥३०॥ निसृष्टः किल में मृत्युर्देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः॥तावानय समं गोपैर्नदाद्यैः साभ्युपायनैः॥३१॥
कंसने अपने सेवकोंको इसप्रकार आज्ञादी, इसके उपरान्त यादवश्रेष्ठ अक्रुरको बुला हाथ पकड़कर कहा॥२७॥ हे दानपति अक्कूर! तुम एक हमारी मित्रताका कार्य करो, क्योंकि इससमय भोज और वृष्णि वंशियों में तुम्हारे अतिरिक्त मेरा अतिशय हितकारी कोई नहीं है॥२८॥ हे साधो! हे सौम्य! जैसे इन्द्रने विष्णु भगवानका आश्रय लेकर अपने मनोरथको प्राप्त किया था, उसीप्रकार अब मैं तुम्हारा आश्रय लेकर अपने मनोरथको प्राप्त हूंगा इसलिये मैंने तुम्हारा आश्रय लियाहै॥२९॥ अब तुम ब्रजमें जाकर वसुदेवात्मज कृष्ण और बलदेवको शीघ्रही रथमें बैठाल कर ले आओ॥३०॥ क्योंकि विष्णुका आश्रय लेकर देवता लोगोंने मेरे मारनेके कारण कृष्ण बलदेवको उत्पन्न किया है, इसलिये तुम नन्दादिक संपूर्ण व्रजवासियों
सहित कृष्ण बलदेवको यहां ले आओ और मेरी ओरसे कहना कि, चलकर राजा कंसको भेंट दो॥३१॥बस जहॉ कृष्ण बलदेव आये कि, तहाॅहीं कालके समान कुवलयापीड हाथी उन्हैंमारडालेगा और यदि हाथो से भी छूट जायॅगे तो बिजलीके समान मेरे मल्ल मारडालेंगे॥३२॥ फिर जहां कृष्ण बलदेव मारे गये, तब उसी समय उनके शोकसे व्याकुल वसुदेवादि बंधु बांधुवोंको भी मार डालूंगा और इसके उपरांत वृष्णि, भोज, दाशार्हवंशमें उत्पन्न हुए यादवोंको भी मारूंगा॥३३॥यद्यपं उग्रसेन मेरे वृद्ध पिताहैं, परन्तु तोभी उनकी राज्य की चाहना विद्यमान है, इसलिये उनको और उनके भ्राता देवकको भी मारूंगा, अधिक कहने से क्या, जितने मेरे वैरी हैं, सबकोही मारूंगा॥३४॥हे अक्रूर! इसके
घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना॥ यदि मुक्तौ ततो मल्लैर्घातये वैद्युतोपमैः॥३२॥ तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान्॥ तद्वंधून्निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान्॥३३॥ उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्य कामुकम्॥ तद्भातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम्॥३४॥ ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकंटका॥ जरासंधो मम गुरुर्द्विविदो दयितः सखा॥३५॥ शंबरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः॥ तैरहं सुरपक्षीयान्हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान्॥३६॥ एतज्ज्ञात्वाऽऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ॥ धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम्॥३७॥ अक्रूर उवाच॥ राजन् मनीषितं सम्यक् तव स्वावद्यमार्जनम्॥ सिद्ध्यसिद्धयोः समं कुर्याद्दैवं हि फलसाधनम्॥३८॥
उपरांत यह पृथ्वी कंटकरहित होजायगी, फिर जरासन्ध है, सो मेरा श्वशुर है और द्विविद मेरा प्यारा मित्र है॥३५॥ शंबरासुर, नरकासुर, बाणासुर इत्यादिकोंने मुझमें स्नेह बढ़ाही रक्खाहै बस इनको संग लेकर जितने देवताओंकी ओरके राजा हैं, सबको मारकर आनन्दपूर्वक पृथ्वीका राज्य करूंगा॥३६॥ यह बात अपने मनमें गुप्त रखकर कृष्ण बलदेवको शीघ्रही लिवालाओ और मेरी ओरसे कहना कि तुम्हारे मामाने धनुषयज्ञ किया है, उसको चलकर देखआओ, इसमें तुम्हें यादवोंकी पुरी मथुराकी शोभा भी देखनेको मिलजायगी॥३७॥ यह सुनकर अक्रूरजी बोले कि, हे राजन्! तुमने भला विचारा, तुम्हारी मृत्युका दूर करनेवाला यही उपाय है, परन्तु होने और न होनेमें मनुष्य समता करे,
क्योंकि जो प्रारब्धहै सोही फलका दाता है॥३८॥ यह पुरुष बड़े बड़े मनोरथ करता है, परंतु जब दैव हत कर देता है तो दुःखी होताहै; जो मनोरथ पूर्ण होजाय तब तो मनमें हर्ष माने और न हो तो शोक करै, इसमेंसे क्या ध्वनि निकली कि, तुम कहते हो कि, कृष्ण बलदेवको मरवाऊंगा. क्या जाने वेही तुम्हें मार डालें पर तो भी तुम्हारी आज्ञा करूंगा॥३९॥ इसप्रकार राजा कंस अक्रूरजीको आज्ञा दें, मंत्रियोंको बिदाकर अपने महलमेंचलागया और अक्कूरजी भी अपने घरको चलेगये <MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1735670286Screenshot2024-12-31235044.png”/>॥४०॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां अक्रूरसंप्रेषणं
मनोरथान्करोत्युच्चैर्जनोदैवहतानपि॥ युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते॥३९॥ एवमादिश्य चाक्रूरं मंत्रिणश्च विसृज्य सः॥ प्रविवेश गृहं कंसस्तथाऽक्रूरः स्वमालयम्॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेअक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ श्रीशुक उवाच॥ केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं महाहयो निज रयन्मनोजवः॥ सटावधूताऽभ्रविमानसंकुलं कुर्वन्नभो ह्नेषितभीषिताखिलः॥१॥ (विशालनेत्रो विकटास्यकोटरो वृहद्गोल नीलमहाघनोपमः॥दुराशयः कंसहितं चिकीर्षुर्व्रजं स नंदस्य जगाम कंपयन्)॥
नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ दोहा– सैंतिस केशी मरणको, नारद कियो बखान॥व्योमासुर मारो यथा, सो सब सुनो सुजान॥३७॥श्रीशुकदेवजीबोले, कि, हे कुरुकुलभूषण राजा परीक्षित्! मनसे भी अधिक वेगवान् कंसका भेजा केशी दैत्य बड़े घोड़ेका रूपधर टापुओंसे पृथ्वीको खोदता फुरहरी लेता अपने कंधोंसे इधर उधर विमानोंको चलायमान करता और हींसनेसे संपूर्ण विश्वको डराता हुआ आया॥१॥
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*दृष्टान्त– यदि कोई कहे कि, अक्रूरजी कंसके पास रहनेसे महात्मा कैसे रहे उसपर यह दृष्टांत है कि, महात्मा कुसगतसे भी महात्मापन नहीं त्यागने। एक बाबाजी आधीरातको कहीं जा रहे थे, मार्गमें चोर मिले चोर बोले कौन, बाबाजी बोले जो तुम सो हम, चोर बोले कहाँ जाते हो? बाबाजीने कहा जहांको तुम जाते हो, चोरोंने जाना यह चोर है, सग लेलिया बाबाजीने भी जाना कि, यह चोर हैं चोरोंने किसीके घरमें सेंध दिया और चोरी करनेलगे, बाबाजी भी घुसे एक वरतन जो उघाडा तो इमरती रक्खी थीं, बाबाजी सारे दिनके भूखे थे झट ठाकुरजीका बटुभा निकाल ठाकुरजीके सामने भोग रख शख बजाया, शख वजतेही घरके लोग जाग गये और चोरोंके संग बाबाजी भी पकडे गये, बावाजी तो वृत्तान्त सुनाकर छूटगये चोरोंको दण्ढ हुआ सो साधु पुरुषोंको कुसगतिका फल नहीं व्यापता, इसीप्रकार अक्रूरजीको कुसगत अर्थात् कमकी सगतका फल न व्यापा चोरोंकी नाई मरवाया॥
कठोर हींसनेसे गौओंके समूहको बिडराता, पुच्छ हिलाता, बादरोंको चलायमान करता, युद्ध करनेकी इच्छासे, श्रीकृष्णचन्द्रको ढूॅढ़ताहुआ आया, तब केशी दैत्यको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आगे निकल कर अपने पास बुलाया, तब वह दैत्य इनको देख सिंहकी समान गर्जने लगा॥२॥ केशी दैत्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर मुखसे मानो आकाशको पी जायगा, इस प्रकार मुख फाडता और दौडता हुवा सन्मुख आया जो किसीके जीतनेमें न आवै अत्यन्त वेगवान् ऐसा केशीदैत्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको पिछले पाँवोंकी दुलत्ती मारने लगा॥३॥ जिनमें इंद्रियों की पहुॅच नहीं ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उस दैत्यकी दुलत्ती बचाय अत्यन्त क्रोधित हो, अपने हाथोंसे उसके दोनो हाथ पकड चारों ओर घुमाकर
तं त्रासयंतं भगवान्स्वगोकुलं तद्ड्रेषितैर्बालविघूर्णितांबुदम्॥ आत्मानमाजौ मृगयंतमग्रणीरुपाह्वयत्स व्यनदन्मृर्गे द्रवत्॥२॥ स तं निशम्याभिमुखो मुखेन खं पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः॥ जघान पद्भ्यामरविन्दलोचनं दुरासदश्च डजवो दुरत्ययः॥३॥ तद्वंचयित्वा तमधोक्षजो रुषा प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः॥ सावज्ञमुत्सृज्य धनुश्शतां तरे यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः॥४॥स लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम्॥ सोऽप्यस्य वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्प्रवेशयामास यथोरगं विले॥५॥ दंता निपेतुर्भगवद्भुजस्पृशस्ते केशिनस्तप्तमयः स्पृशो यथा॥ बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः॥६॥
जैसे गरुड सर्पको फेंकदेता है उसी प्रकार अवज्ञा करके सौ १०० धनुषपर फेंककर आप खडे रहे॥४॥इसके उपरान्त जब चेत हुवा तब केशीदैत्य फिर उठकर मुख फाडता क्रोधयुक्त दौडकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख आया तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने हॅसकर उस दैत्यके मुखमें अपना बायाॅ हाथ जैसे सर्प बिलमें घुसता है उसीप्रकार डालदिया॥५॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ लगतेही केशीके दांत ऐसे गिरगये जैसे तपेहुए लोहके लगने से गिरजातेहैं और औषधी न करनेसे जैसे जलंधर रोग उदरमें बढ़ताहै उसीप्रकार केशी दैत्यके मुखमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी
भुजा बढने लगी <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735798520Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥६॥ बढती हुई श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजासे उसका श्वास रुकगया, अंगमें पसीना आगया, नेत्रोंके तारे निकल आये, इसप्रकार केशीदैत्य पाँओंको पटकता, लीद करता, प्राणरहित होकर पृथ्वीमें गिरपडा॥७॥प्राणमुक्त उस दैत्यके “पककर फटीहुई ककडीके समान” शरीरसे महाभुज श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी बॉह निकालली, यद्यपि इन्होंने शत्रुको अनायास मारा, परंतु तो भी भगवान्ने कुछ गर्व न किया, तब आश्वर्यमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूल वर्षाकर देवतालोग स्तुति करने लगे॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! इसके उपरान्त भक्तोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजीने, क्लेशरहित कर्मवाले श्रीकृष्णचंद्रके पास आनकर एकांतमें कहा कि॥९॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्!
“समेधमानेन स कृष्णबाहुना निरुडवायुश्चरणांश्च विक्षिपन्॥ प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः पपात लेंडं विसृजन्क्षितौ व्यसुः॥७॥तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः॥ अविस्मितोऽयत्नहतारिरुत्स्मयैः प्रसून वर्षैर्दविषद्भिरीडितः॥८॥देवर्षिरुपसंगम्य भागवतप्रवरो नृप॥ कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत॥९॥ कृष्ण-कृष्णाप्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर॥वासुदेवाखिलावास सात्त्वतां प्रवर प्रभो॥१०॥ त्वमात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्॥ गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः॥११॥ आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान्॥ तैरिदं सत्यसंकल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः॥१२॥
हे योगके ईश! हे जगत्के ईश्वर! हे वासुदेव! हे जगदीश्वर! हे विश्वके साक्षी! हे अखिलावास! हे सात्त्वतांप्रवर! हे प्रभो!॥१०॥ तुम जैसे काष्ठमें ज्योति रहती है, उसीप्रकार सब प्राणियोंमें व्यापक गूढ अर्थात् सबमें रहते हो, परंतु उनको दिखाई नहीं देते, क्योकि बुद्धि के परे हो साक्षी हो और आपका स्वरूप देखनमें नहीं आता, महापुरुष ईश्वर हो, इसकारण जीव आपके स्वरूपको नहीं जान सकते॥११॥ तुम स्वतंत्र हो. इसलिये तुम्हें साधनकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि तुम तो अपनी माया शक्तिसेही गुणोंको सृजते हो, व उन्हींसे सत्यसंकल्प ईश्वर आप
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शंका– शत्रुके मारनेके लिये शास्त्रमें और लोकमें अनेक उपाय लिखेहै, परंतु केशीको मारनेके लिये सव उपाय त्यागकर श्रीकृष्णने अपनी भुजा केशीके मुख में क्यों दे दी ।
उत्तर– केशीको ब्रह्माने यह वरदान दिया था कि, हमारे हाथकी बनाई सृष्टिसे तेरी मृत्यु न होगी, जब श्रीकृष्ण अपनी वाहु तेरे मुखमें प्रविष्ट करेंगे तब तेरी मृत्यु होगी, इसलिये केशीके मुखमें भगवान् श्रीकृष्णने अपनी भुजा प्रविष्ट करदी थी॥
इस जगत्को रचते हो, पालते हो और फिर संहार भी करदेते हो॥१२॥ सो तुमने राजारूप दैत्य और राक्षसोंका नाश करनेके लिये और धर्ममर्या दाकी रक्षा करने के लिये अवतार लिया है॥१३॥यह बहुतही उत्तम हुआ जो इस घोड़ेरूप दैत्यको लीलापूर्वकही आपने मारडाला, जिसके हींसनेका शब्द सुनतेही भयके मारे देवता क्षणमें स्वर्ग त्यागकर भाग जाते थे॥१४॥हे विभो! परसोंको तुम्हारे हाथोंसे चाणूर, मुष्टिक और मल्लोंको तथा कुवलयापीड हाथी व राजा कंसको मराहुआ देखूंगा॥१५॥कंसके मारने के उपरान्त शंखासुर, कालयवन, मुर दैत्य, नरकासुर उनका वध और स्वर्गसे देवराज इन्द्रको जीतकर जो कल्पवृक्ष लाओगे, उसे देखूंगा॥१६॥जिनका पुरुषार्थही मूल्य है ऐसी राजकन्याओंका
स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्॥अवतीर्णो विनाशाय सेतूनां रक्षणाय च॥१३॥दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो ली लयाऽयं हयाकृतिः॥ यस्य ह्नेषितसंत्रस्तास्त्यजंत्यनिमिषा दिवम्॥१४॥चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्ति नम्॥कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो॥१५॥ तस्यानु शंखयवनमुराणां नरकस्य च॥पारिजातापहरण मिंद्रस्य च पराजयम्॥१६॥उद्वाहं वीरकन्यानां वीरशुल्कादिलक्षणम्॥नृगस्य मोक्षणं शापाद्द्वारकायां जगत्प ते॥१७॥ स्यमंतकस्य च मणेरादानं सह भार्यया॥मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः॥१८॥पौंड्रकस्य वधं पश्चात्काशिपुर्याश्च दीपनम्॥दंतवक्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ॥१९॥यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामा वसन्भवान्॥कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि॥२०॥अथ ते कालरूपस्य शपयिष्णोरमुष्य वै॥ अक्षौ हिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः॥२१॥
विवाह और जगत्पति। द्वारकामें जाकर जो नृग राजाको पाप से छुड़ाओगे, सो देखूंगा॥१७॥जाम्बवतीके साथ स्यमंतकमणिका पीछे लाना और सांदीपन गुरुके महाकालपुर से मरेपुत्र सजीव लाकर दोगे, सो देखूंगा॥१८॥फिर मिथ्यावासुदेवका मारना, काशीपुरीको जलाना, दंत वक्रकामारना और राजा युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में शिशुपालका मारना देखूंगा॥१९॥और भी द्वारकामें वास करके तुम जो जो लीला करोगे, उन लीलाओंका कवि लोग पृथ्वीपर गान करेंगे॥२०॥ इसके उपरान्त कालरूप तुम इस पृथ्वीका बोझ उतारने के लिये अर्जुनके सारथी
होकर सेनाओंका संहार करोगे, सो सब हम देखेंगे॥२१॥ केवल ज्ञानमूर्ति अपनी पूर्णानन्द स्थितिसे पूर्णकाम सत्यसंकल्प और अपनी चैतन्यशक्ति अपने तेजसे नित्य मायासे निवृत्त और छः प्रकारके ऐश्वर्ययुक्त हम तुम्हारी शरण प्राप्त होतेहैं॥२२॥ ईश्वर स्वतंत्र अपनी मा यासे सब प्रकारके विशेषोंकी कल्पना करनेवाले, क्रीड़ाके लिये अभी मनुष्यदेह धारण करनेवाले, यदु, वृष्णि, सात्त्वतोंमें अग्रणी मैं आपको नम स्कार करता हूं॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! भक्तोंमें श्रेष्ठ मननशील भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन से प्रसन्न हो नारदजी इसप्रकार यादवपति श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार कर और आज्ञाले चलेगये॥२४॥ व्रजवासियोंको सुख देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र
विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया समाप्तसर्वार्थममोघवांछितम्॥ स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमायया गुणप्रवाहं भगवंतमीमहि ॥२२॥ त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्॥ क्रीडार्थमद्याऽऽत्तमनुष्यविग्रहं नतोऽस्मि धुर्यंयदुदृष्णिसात्त्वताम्॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः॥ प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः॥२४॥ भगवानपि गोविंदो हत्वा केशिनमाहवे॥ पशूनपालयत्पालैः प्रीतैर्ब्रजसुखावहः॥२५॥एकदा ते पशुपालाश्चारयंतोऽद्रिसानुषु॥ चक्रुर्निलायनक्रीडाश्चौरपालापदेशतः॥२६॥ तत्रासन्कतिचि चौराः पालाश्च कतिचिन्नृप॥मेषायिताश्च तत्रैके विजह्नुरकुतोभयाः॥२७॥ मयपुत्रो महामायो व्यामो गोपाल वेषधृक्॥ मेषायितानपौवाह प्रायश्चौरायितो बहून्॥२८॥ गिरिदर्यां विनिक्षिप्य नीतंनीतं महासुरः॥ शिलया पिदधे द्वारं चतुः पंचावशेषिताः॥२९॥
युद्ध में केशीको मारकर ग्वालबालोंसहित पशुओंका पालन करनेलगे॥२५॥ एक समय गायों के पालनकर्त्ता ग्वालबाल गोवर्द्धन पर्वतके शिखर पर गायोंको चराते चौर पालनका मिसकर छिपा छिपी खेल करने लगे॥२६॥ हे राजन्! उस खेलमें कितने ही बालक चोर बने और कितनेही रखवाले बने. कितनेदी भेड़ बने, इसप्रकार निर्भय होकर खेलने लगे॥२७॥ इतनेमें मयदैत्यका पुत्र अत्यन्त मायावी व्योमासुरनामक दैत्य ग्वालका रूप धारणकर, चोर बन जो बालक भेड़ बने थे, उनको चुराकर लेजानेलगा॥२८॥ वह बड़ा दैत्य उनको लेलेजाकर पहाड़की गुफामें डाल शिलासे गुफाका मुॅह बन्द करदेता जब केवल चार पाॅच ग्वाल शेष रहगये॥२९॥
तव साधु पुरुषको शरणदेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मनमें विचार किया कि, हमने तो खेल किया है, यह सच्चादी चोर आनपहुँचा, इसप्रकार उस दुष्टका छल जान गोपको लेजाते व्योमासुरको, जैसे सिंह बलपूर्वक व्याधको पकड़ लेता है, उसी प्रकार पकड़ लिया॥३०॥ उस बलवान् दैत्यने अपना शरीर पर्वतकी समान धारण किया और अपने छुटानेके लिये बहुतेरा यत्न किया परन्तु पकडनेसे आतुर होगया इसलिये कृतकार्य न हुआ॥३१॥ अच्युत भगवान् श्रीकृष्णने व्योमासुरकी दोनों भुजा पकड पृथ्वी में पटककर देवताओंके देखते देखते वास घोटकर मारडाला॥३२॥ इसके उपरान्त गुफाका ढकना तोड गोपोंको कष्टसे बाहर निकाल देवता और गोप जिनकी
तस्य तत्कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम्॥गोपान्नयंतं जग्राह वृकं हरिरिवोजसा॥३०॥ स निजं रूपमा स्थाय गिरींद्रसदृशं वलीइच्छन्विमोक्तमात्मानं नाशक्नोत्रहणातुरः॥३१॥तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पात यित्वा महीतले॥पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत्॥३२॥गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान्निस्सार्य कृच्छ्रतः॥ स्तूयमानः मृरेगेपिः प्रविवेश स्वगोकुलम्॥३३॥इति श्रीमद्भाग०महा० दशमस्कंधे पूवार्द्धे केशिव्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥ श्रीशुक उवाच॥ अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः॥ उपित्वा रथमास्थाय प्रययौ नंदगोकुलम्॥१॥ गच्छन्पथि महाभागो भगवत्यंबुजेक्षण॥भक्ति परामुपगत एवमेतदचिंतयन्॥२॥ किं मया चरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः॥ किं वाऽथाप्यर्हते दत्तं यदृक्ष्याम्यद्य केशवम्॥३॥
स्तुति करें ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोकुलमें आये॥३३॥इति श्रीमना० महापु० दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां केशिव्योमासुखधोनाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥ दोहा–अडतिसमें अक्रूर मन, जैसो कियो विचार। तेस्रोही अक्रूरको, कियो कृष्ण सत्कार॥३८॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! बडे बुद्धिमान अक्रुरजीभी उस रात मधुपुरीमें बासकर प्रात होतेही, रथमें चढ़कर नंदजीके गोकुलको चले॥१॥ महाभाग अक्रूरजी मार्गमें जाते कमलनेत्र भगवान श्रीकृष्णचन्द्रमें परमभक्तिको प्राप्त हो यह विचार करनेलगे॥२॥ कि, मैंने ऐसा कौन मंगल कर्म, अथवा तप, वा सत्पात्रोंको दान किया था, जिसके प्रभावसे ब्रह्मा, महादेवके ईश्वर, भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीका आज
दर्शन करूंगा॥३॥ मैं जानता हूँ कि, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होना अत्यन्त दुर्लभ है, जैसे विषयोंमें मन, शूद्रकुलमें जन्म, ऐसे पुरुषको वेदका उच्चारण दुर्लभ है <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735799361Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥४॥ अथवा ऐसे नहीं मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन होजॉय कारण कि, जिस प्रकार नदीमें बहते हुए तृणसे कदाचित् कोई तीरपर भी पहुँच जाय तैसेही कर्मवशसे कालसे लेजायेहुए जीवोंमेंसे भी कभी कोई तरजाय॥५॥ मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिवानेको चलाहूं, इसलिये अब मेरा मंगल हुआ, जन्म सफल हुआ, क्योंकि योगीजन जिनका ध्यान धरतेहैं, उन्हीं भगवान्
ममैतदुर्लभं मन्य उत्तमश्लोकदर्शनम्॥ विषयात्मनो यथा ब्रह्मकीर्तनं शुद्रजन्मनः॥४॥ मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम्॥ ह्रियमाणः कालनद्या क्वचित्तरति कश्चन॥५॥ ममाद्यामंगलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः॥ यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयांघ्रिपंकजम्॥६॥ कंसो बताद्याऽकृत मेत्यनुग्रहं द्रक्ष्येंघ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः॥ कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः पूर्वेऽतरन् यन्नखमंडलत्विषा॥७॥ यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्त्वतैः॥ गोचारणायानुचरैश्चरद्वने यद्गोपिकानां कुचकुंकुमांकितम्॥८॥
श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलों में आज नमस्कार करूंगा॥६॥ अहो! बडा आश्चर्य है, दुष्ट कंसने आज मेरे ऊपर बडा अनुग्रह किया, जिसके भेजने से मुझको अवतार घरेहुए हरि भगवान्का दर्शन होगा। जिनके नखमंडलकी कांतिसे अंबरीष आदि सब दुरत्यय भवसागरको तरगये॥७॥ जो चरणारविंद ब्रह्मा महादेवादि देवतालोगोंने प्रकाशमान् लक्ष्मी तथा मुनीश्वरोंने और भक्तोंने पूजेहैं और गाय चरानेके लिये जो चरणारविन्द
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** * शंका–** वेदका कीर्त्तन करना, श्रवण करना और पढना शूद्रके लिये वर्जित है, चाहे विरक्त होषे चाहे गृहस्थी होषै, तो फिर अक्रूर ने क्यों कहा कि, विषयमें रमित शूद्र उसको वेदका कीर्त्तन आदि महादुर्लभ है, इस वाक्यसे विदित होता है कि गृहस्थ शूद्रके लिये वेदका कीर्त्तन आदि दुर्लभ है तो भी विरक्त शूद्रको दुर्लभ नहीं है, पुण्य हैं यह भ्रम है॥
उत्तर– (शूद्रजन्मा) इस शब्दका शुद्र अर्थ कभी भी मत समझना शूद्रजन्मा इसका अर्थ यह है कि, शुद्ध सरीखा जिसका जन्महोय उसको शूद्रजन्मा जानना चाहिये, जन्म तो हुवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके कुलमें परन्तु भ्रष्ट लोगोंकी सदृश काम करे, सज्जनो! जान लेना इस अर्थको में गुप्त लिखूहूँ एक भ्रष्ट दूसरे विपयसे निन्दनीय लक्षणों करके सयुक्त जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, उसको वेदका कीर्त्तन आदि दुर्लभ है, ऐसा अक्रूरजीने कहा था, शूद्रको नहीं कहा था॥
ग्वालबालोंके संग वनमें फिरे हैं और जिन चरणारविन्दोंमें गोपियों के कुचोंकी केशर लगी है, उन्हीं चरणारविन्दोंका आज दर्शन करूंगा॥८॥ सुन्दर कपोल, नासिका और मुसकानयुक्त चितवन, लाल डोरे जिनमें आरहे घूॅघुरवारे अलकोंसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका आज निश्चय दर्शन करूंगा, क्योंकि हिरण भी मेरे दाहिनी ओर आये हैं॥९॥पृथ्वीका भार उतारनेकेलिये, अपनी इच्छासे अब मनुष्यरूप धारण करने वाले, शोभा के धाम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके शोभायमानरूपका जब दर्शन करूंगा, तब मेरे नेत्र सफल होंगे॥१०॥तीन लोकके कार्यरूप जगत् और कारणरूप महदादिक तत्त्वको यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चितवनसेही करते हैं परन्तु तो भी उनको अहंकार नहीं है, अपने तेजसे अज्ञानके भेद भ्रम से रहित हैं, अपने आधीन मायाकी ओर चितवन करके अपने रचे जीव वृन्दावनके वृक्षोंके नीचे और गोपियों के
द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं स्मितावलोकारुणकंजलोचनम्॥ मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं प्रदक्षिणं मे प्रचरंति वै मृगाः॥९॥ अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो भारावताराय भुवो निजेच्छया॥ लावण्यधाम्नो भवितोपलंभनं मह्यं न न स्यात्फलमंजसा दृशः॥१०॥ य ईक्षिताऽहं रहितोऽप्यसत्सतः स्वतेजसाऽपास्ततमोभिदा भ्रमः॥ स्वमाययाऽऽत्म न्रचितैस्तदीक्षया प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते॥११॥ यस्याखिलाऽमीवहभिः सुमंगलैर्वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्म भिः॥ प्राणंति शुंभंति पुनंति वै जगद्यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः॥१२॥ स चावतीर्णः किल सात्त्वतान्वये स्व सेतुपालामरवर्यशर्मकृत्॥ यशो वितन्वन्द्रज आस्त ईश्वरो गायंति देवा यदशेषमंगलम्॥१३॥
घरों में लीलापूर्वक वृद्धिसे दिखाई देतेहैं॥११॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्र के अहंकार नहीं है जो आत्माराम हैं उन्हें लीला करना कैसे संभव है ? तो कहते हैं कि, भक्तोंके ऊपर कृपा करनेके लिये लीला करते हैं सबके पापोंको दूर करनेवाले सुन्दर मंगलरूप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गुण, जन्म, कर्मसे मिली वाणी जगत् को जिलानेवाली है और शोभायमान करती है, पवित्र करती है और जिन वाणियोंमें श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला, गुण, जन्म, कर्म नहीं गाये गये हैं उनको जो कहते हैं और श्रवण करते हैं, सो अपवित्र हैं जैसे मृत्युको प्राप्त हुआ शरीर अपवित्र है॥१२॥ यादवोंके कुलमें जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अवतार लिया है, वह अपनी मर्यादाओं का पालन करनेवाले, लोकपालोंको सुखदेनेवाले लीला पूर्वक यश
विस्तार करते व्रजमें रहते हैं और सबको मंगलकारी, उनके यशको देवता लोग गाते हैं॥१३॥महत् पुरुषोंको सुन्दरगति देनेवाले गुरुॉ त्रिलोकीमें सुन्दर नेत्रवाले पुरुषोंको आनंददेनेवाले, लक्ष्मीके निवासस्थान, सुन्दररूप धारण किये श्रीकृष्णचन्द्रका आज मैं निश्चयही दर्शन करूंगा, क्योंकि आज प्रातःकालके समय मुझे श्रेष्ठ शकुन हुए हैं॥१४॥दर्शन करने उपरान्त उसीसमय रथमेंसे उतर इन प्रधानपुरुष कृष्ण बलरामके चरणकी जिनका योगीपुरुष भी स्वरूपकी प्राप्तिके लिये केवल बुद्धिसेही ध्यान करते हैं उनको मैं साक्षात् प्रणाम करूंगा और फिर इन सहित व्रजवासी सखाओको भी प्रणाम करूंगा॥१५॥चरणोंमें पड़ेहुए मस्तकपर समर्थवान् भगवान् अपना हाथ धरेंगे, जो हाथ कालरूप सर्पके वेगसे
तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं त्रैलोक्यकांतं दृशिमन्महोत्सवम्॥रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं द्रक्ष्ये ममाऽसनुषसः सुदर्शनाः॥१४॥ अथावरूढः सपदीशयो स्थात्प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये॥धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं नमस्य आभ्यां च सखीन्वनौकसः॥१५॥अप्यंघ्रिमूले पतितस्य मे विभुः शिरस्यधास्यन्निजहस्तपंकजम्॥दत्ताभयं काल भुजंगरंहसा प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां नृणाम्॥१६॥समर्हणं यत्र निधाय कौशिकस्तथा बलिश्चाप जगत्रयेंद्र ताम्॥यद्वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं स्पर्शेन सौगंधिकगंध्यपानुदत्॥१७॥न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः कंसस्य द्वतः प्रहितोऽपि विश्वदृक्॥योंतर्बहिश्चेतस एतदीहितं क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा॥१८॥
डरेहुए व शरण चाहनेवाले मनुष्योंको अभयका देनेवाला है॥१६॥जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करके इन्द्रने इन्द्रता पाई, और ऐसेही राजा बलिने संकल्प करके त्रिलोकीकी इन्द्रता प्राप्त करी और रासक्रीड़ामें व्रज की स्त्री गोपियोंके श्रम के पसीनेको श्रीकृष्णने जिस हाथसे पोंछा था और जिन हाथोंमें कमल के समान सुगंधि आतीहै, वही हाथ मेरे मस्तकपर धरेंगे॥१७॥यद्यपि मैं राजा कंसका भेजा हुआ दूत हूं, परन्तु तोभी श्रीकृष्णचन्द्र मुझपर यह शत्रुका दूत है, ऐसी बुद्धि नहीं करेंगे, क्योंकि वह अन्तर्यामी श्रीकृष्णचन्द्र मेरे चित्तकी बाहर भीतरकी चेष्टाको नित्य ज्ञानसे देखते हैं, मैं ऊपरसे तो कंसका भेजाहुआ जाताहूं, परन्तु भीतरसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकाही ध्यान लगारहा है इसबातको नित्य
ज्ञानसे भलीभाॅति श्रीकृष्णचन्द्र जानते <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735801032Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१८॥ चरणारविंदमें गिरा, हाथ जोडे मुझे मुसकाकर करुणाभरी दृष्टिसे जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचंद्र देखेंगे, उसी समय पाप और भय दूर होजानेसे आशंकाओंसे रहित हो में परमानन्दको प्राप्त हूंगा॥१९॥ जिनके अत्यन्त हितकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अतिरिक्त और कोई देवता नहीं, वह भगवान् जिस समय अपनी जाति और कुटुम्बी जान मुझे भुजा पसार छातीसे लगावैंगे उसी समय यह देह परमपवित्र होजायगा और कर्मरूप बन्धन भी इस देहके छूट जायँगे॥२०॥ जब मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे मिल। मस्तक झुका हाथ जोड खडा हूॅगा, तब हे काका अक्रूर। इसप्रकार बडे यशस्वी श्रीकृष्ण मुझसे कहैंगे, उस समय हमारा जन्म सफल होगा
अप्यंघ्रिमूलेऽवहितं कृतांजलिं मामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दृशा॥ सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो वोढा मुदं वीत विशंक ऊर्जिताम्॥१९॥सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं दोर्भ्यां बृहद्भयां परिरप्स्यतेऽथ माम्॥ आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे बंधश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः॥२०॥लब्ध्वांगसंगं प्रणतं कृतांजलिं मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः॥ तदा वयं जन्मभृतो महीयसा नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत्॥२१॥ न तस्य कश्चिद्दयितः सुहृत्तमो न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा॥ तथाऽपि भक्तान्भजते यथा तथा सुरद्रुमो यदुपाश्रितोऽर्थदः॥२२॥ किं चाऽग्रजो माऽवनतं यद्वत्तमः स्मयन्परिष्वज्य गृहीतमंजलौ॥ गृहं प्रवेश्याप्तसमस्तसत्कृतं संप्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबंधुषु॥२३॥
और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जिस पुरुपका आदर सन्मान नहीं करते, उस पुरुषको धिक्कार है॥२१॥ यद्यपि उनको न तो कोई प्रिय है, न सुहृद है, न कुप्यारा है और न उदासीन है परन्तु तोभी भगवान् भक्तको भजते हैं, जैसे कल्पवृक्षकी जो सेवा करै, वह उसको फल देताहै॥२२॥ जब मैं नमस्कारकर, हाथ जोडूंगा, तब मेरी भुजा पकड, हास्यपूर्वक छातीसे लगा, गृहमें लेजाय भलीभाॅति आदर सत्कारकर फिर बडे भ्राता
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*** दृष्टांत—**कृष्ण अन्तर्यामी हैं, इस कारण कपट प्रीति सबकी जानते हैं। एक बडे मारी ठगथे सो एकदिन बढी ऐंठमा पाग वाॅधकर चले?तो लोग वोले कहाँ चले? तो उत्तर दिया कि, सबको तो हमने ठगा परन्तु जो परमेश्वरको ठगकर लावैं,तो हमारा नाम ठगहै, ऐसा कह चले परन्तु थोडीही दूरजाय लौट आये, लोग बोले क्यों माई ! लौट कैसे आये? यह बोले कि, माई क्या कहें ठगते तो सही परन्तु वह तो अन्तर्यामी हैं हमारे मनका कपट जान जांयगे उनपर हमारा छापा नहीं लग सकता॥
बलरामजी अपने बन्धु यादवोंमें कंसके कर्त्तव्यको पूछेंगे॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसप्रकार श्वफल्कके पुत्र अक्रुर मार्गमें श्रीकृष्णकी चिन्ताकरते रथमें बैठेहुए गोकुलमें पहुँचे; कि इतनेहींमें भगवान् सूर्य अस्ताचलको प्राप्त हुए॥२४ समस्तलोकोंके पालन करनेवाले ब्रह्मादिक देवता अपने मुकुटोंके ऊपर जिनके चरणोंकी रेणुकाको धारण करतेहैं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंके चिह्न महात्मा अक्रुरजीने व्रजमें देखे, जो पृथ्वीके गहनेरूप थे और जिनमें कमल, यव, अंकुश आदि चिह्न प्रतीत होतेथे॥२५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरण चिह्नके दर्शनके आनंदसे संभ्रम और प्रेमसे रोमांच हो आये, नेत्रोंमें आंसू भरिआये, सो अक्रूरजी रथसे उतर अहो। यह मेरे प्रभुके चरणोंकी
श्रीशुक उवाच॥ इति संचिंतयन्कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि॥ रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्वास्तगिरिं नृप॥२४॥ पदानि तस्याखिललोकपालकिरीटजुष्टामलपादरेणोः॥ ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि विलक्षितान्यब्जयवांकुशाद्यैः॥२५॥ तद्दर्शनादविवृद्धसंभ्रमः प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः॥ रथादवस्कंद्य स तेष्वचेष्टत प्रभोरमून्यंघ्रिरजां स्यहो इति॥२६॥ देहभृतामियानर्थों हित्वा दंभं भियं शुचम्॥संदेशाद्यो हरेलिंगदर्शनश्रवणादिभिः॥२७॥ ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गर्तौ॥ पीतनीलांबरधरौ शरदंबुरुहेक्षणौ॥२८॥ किशोरी श्यामलश्वेतौ श्रीनि केतौ वृहद्भुजौ॥ सुमुखौ सुन्दरवरौ बालद्विरदविक्रमी॥२९॥ ध्वजवज्रांकुशांभोजैश्चिह्नितैरंघ्रिभिर्व्रजम्॥शोभयंतौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्षणौ॥३०॥
रज है, इसप्रकार कहते कहते चरणोंके चिह्नोंमें लोटने लगे॥२६॥ देहधारियोंका इतनाही पुरुषार्थ है, जो कंसका सन्देशा ले, दंभ, भय, शोच त्याग श्रीकृष्णचंद्रके चिह्न दर्शन व श्रवणादिकसे अक्रूरको प्रेम उत्पन्न हुआ ॥२७॥ इसके उपरांत ब्रजकी गोशालामें गाय दुहनका जातेहुएश्रीकृष्णचंद्र और बलरामजीको महात्मा अक्करजीने देखा, पीताम्बर और नीलाम्बर धारणकर रहेहैं और जिनके शरद्ऋतुके कमलसे नेत्र हैं॥२८॥ किशोर अवस्था, श्याम और गौर स्वरूप, लक्ष्मीके शोभाके स्थान, लम्बी भुजा, सुंदर मुख, स्वरूपवानोमें अत्यन्त शोभायमान, हाथीके बालकके समान पराक्रमवाले॥२९॥ ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुशके चिह्नवाले, चरणोंसे व्रजभूमिको शोभायमान करते महात्मा अनुकंपाजन्य जो
मंदमुसकान व चितवन॥३०॥उदार रुचिर जिनकी क्रीडा है, मोतियोंके हार और वनमाला पहरे, पवित्र चंदन और केशर लगाये, स्नान किये निर्मलवस्त्र पहरे॥३१॥ प्रकृति पुरुषरूप आदिकारण जगत् के पालन करनेवाले पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम केशवमूर्त्ति दो रूप धरके अवतार लिये हैं॥३२॥ हे राजन्! अपने तेजसे दिशाओंका अंधकार दूर करते हुए, जैसे सुवर्ण से नीलमणिका पर्वत अथवा रूपेका पर्वत जगमगाता है॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलरामजीके रूपको निहार॥३३॥ स्नेहमें विह्वल हो महात्मा अक्रूरजीने शीघ्र रथ से उतर रामकृष्णके चरणोंमें दण्डवत करी॥३४॥ हे महाराज परीक्षित! श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन के आनन्दसे आँखोमें आंसू आगये, उत्कण्ठासे अंगमें रोमांच होगये और प्रेम
उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौवनमालिनौ॥ पुण्यगंधानुलिप्तांगो स्नातौ विरजवाससौ॥३१॥ प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्वेतू जगत्पती॥ अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ॥३२॥ दिशो वितिमिरा राजन्कुर्वाणौ प्रभया स्वया॥ यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ॥३३॥रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविलः॥ पपात चरणोपांतेदंडवद्रामकृष्णयोः॥३४॥ भगवद्दर्शनाहादवाष्पपर्याकुलेक्षणः॥ पुलकाचितांग औत्कंठ्यात्स्वाख्याने नाशक नृप॥३५॥ भगवांस्तमभिप्रेत्य रथांगांकितपाणिना॥ परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः॥३६॥ संकर्षणश्च प्रणतमुपगुह्य महामनाः॥ गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत्सानुजो गृहम्॥३७॥ पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम्॥ प्रक्षाल्य विधिवत्पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत्॥३८॥ निवेद्य गां चातिथये संवाद्य श्रांतमादृतः॥ अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयौपाहरद्विभुः॥३९॥
के मारे अपना नाम बतानेको भी समर्थ न हुये॥३५॥ हित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अक्रूरका अभिप्राय जान, चक्रकी रेखावाले अपने हाथसे पकड प्रसन्न हो छातीसे लगाकर मिले। यहाॅ मिलनेका तात्पर्य यह है कि, श्रीकृष्णने कंसके मारनेकी सामर्थ्य जताई॥३६॥इसके उपरांत उदारमन बलरामजी दंडवत् करतेहुए अक्रूरजीको छाती से लगाय अपने हाथोंसे उनके दोनों हाथ पकड़ श्रीकृष्णसहित घरमें लिवाकर लेगये॥३७॥ और “भले आये” इसप्रकार कुशल पूँछ अक्रूरजी के लिये आसन बिछाय, विधिपूर्वक चरण पखार मधुपर्क (दधि, घृत, मधु,) दे पूजा करने लगे॥३८॥ विधिपूर्वक पूजाकर गौदान अक्रूरजीको दी, फिर मार्गमें परिश्रम पाये अक्रूरजीके चरणारविन्द आदरसहित
दाबके गुणभरी पवित्र अन्नकी सामग्री भोजनार्थ अति श्रद्धासे अक्रूरजीके आगे निवेदन करी॥३९॥ इसके उपरान्त जब अक्रूरजी भोजन करचुके तब परमधर्मके जाननेवाले बलदेवजी बीरी, चन्दन, केशर, अतर और फूलोंके हार इत्यादिकों से उन्हें प्रसन्न करनेलगे॥४०॥सन्मान करने के पीछे अक्रूरजीसे नंदरायजी कहने लगे कि, निर्दयी कंसके जीते हे अक्रूर। तुम्हारा जीवन किसप्रकार होता है कसाईके घर रहती भेडके समान तुम कैसे रहते हो?॥४१॥ प्राणोंका पोषण करनेवाले दुष्ट कंसने विलाप करती जब अपनी वहिनकेही पुत्र मारडाले उस दुष्टकी प्रजा तुम हो सो तुम्हारी क्या कुशल पूछें॥४२॥ इस प्रकार जब मधुर वचनसे पूंछ नंदरायजीने सत्कार किया तब महात्मा अक्रूरजीने मार्गके
तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित्॥ मुखवासैर्गंधमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात्पुनः॥४०॥ पप्रच्छ सत्कृतं नंदः कथं स्थ निरनुग्रहे॥ कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः॥४१॥ योऽवधीत्स्वस्वमुस्तोकान्क्रोशंत्या असुतृप् खलः॥ किंनु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे॥४२॥ इत्थं सूनृतया वाचा नंदेन सुसभाजितः॥ अक्ररः परि पृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम्॥४३॥ इति श्रीमद्भाग० महा० दशम० पृ० अक्रूरागमनं नामाऽष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ सुखोपविष्टः पर्यंके रामकृष्णोरुमानितः॥लेभे मनोरथान्सर्वान्पथि यान्स चकार ह॥१॥ किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने॥ तथाऽपि तत्परा राजन्न हि वाञ्छन्ति किंचन॥२॥सायंतनाशनं कृत्वा भगवान्देवकीसुतः॥ सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम्॥३॥
श्रमको त्यागदिया॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्ध भाषाटीकायां अक्रूरागमनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ दोहा- उनतालिसमें नन्दसुत, मथुरा कियो पयान। यमुना में अक्रूरने, लखो भवन भगवान्॥३९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! शय्याके ऊपर आनन्दपूर्वक विराजमान श्रीकृष्ण बलदेवसे बडा सत्कार पाय, अक्रूरजीने मार्गमें जो जो मनोरथ किये थे सो सो सब पूर्ण हुए॥१॥ क्योंकि छः प्रकार के ऐश्वर्ययुक्त परिपूर्ण शोभाके स्थान भगवान श्रीकृष्णही जब प्रसन्न होगये तब किस वस्तुकी प्राप्ति न हुई? हे राजा परीक्षित्! कृष्णपरा यणभक्त किसी वस्तुकी चाहना नहीं करते॥२॥ इसके उपरान्त देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र संध्यासमयका भोजन कर अपने यादवोंसे
जैसा कंसका वर्त्ताव है, सो अक्रूरजीसे पूछने लगे? और जो कुछ करनेका विचार है, उसको भी पूॅछा॥३॥श्रीभगवान् बोले कि, हे सौम्य! भला तुम्हारा आगमन कुशल क्षेमसे तो हुआ है? तुम्हारा कल्याण! जातिके बंधु बांधव तो सुखसे और आरोग्य हैं? किसी को कुछ दुःखतो नहीं है?॥४॥हे अक्रूरजी! मामा कंस तो हमारे कुलका रोग बढ़ा है, फिर अपने बंधु बांधव और प्रजाकी क्या कुशल पूछें ?॥५॥देखो हमारे निरपराध माता पिताको अत्यन्त कष्ट हुआ, हमारे लिये उनके पुत्र मारेगये और हमारेही लिये वह बन्दीहुये॥६॥हे साधु! बहुत दिनोंसे तुम्हारे दर्शनोंकी अभि
श्रीभगवानुवाच॥ तात सौम्यागतः कच्चित्स्वागतं भद्रमस्तु वः॥ अपि स्वज्ञातिबंधूनामनमीवमनामयम्॥४॥ किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये॥ कंसे मातुलनाम्न्यंग स्वानां नस्तत्प्रजासु च॥५॥ अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रो र्वृजिनमार्ययोः॥ यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बंधनं तयोः॥६॥ दिष्ट्याऽद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य कांक्षितम्॥ संजातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम्॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः॥ वैरानुबंधं यदुषु वसुदेववधोद्यमम्॥८॥ यत्संदेशो यदर्थ वा द्वतः संप्रेषितः स्वयम्॥ यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुंदुभेः॥॥९॥ श्रुत्वाऽक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा॥ प्रहस्य नंदं पितरं राज्ञाऽऽदिष्टं विजज्ञतुः॥१०॥
लापा लगरही थी सो आपने आनकर हमको दर्शन दिया, यह बड़ाही अनुग्रह किया, अब यह बताइये कि, आपका आना कैसे हुआ?॥७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके इसप्रकार पूॅछनेपर महात्मा अक्रूरजीने सब वृत्तान्त वर्णन कर दिया कि, कंस यादवोंसे शत्रुभाव रखता है और वसुदेवजी के मारने का भी उद्योग उसने कियाथा॥८॥ और जो संदेशा लायेथे, व जिसलिये स्वयं उनको दूत बनाकर भेजा था और देवर्षि नारदजीने जो कहा था कि, श्रीकृष्ण वसुदेव के पुत्र हैं। सो सब कह सुनाया <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735815756Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बड़े २ शत्रुओंको
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* शंका— व्रजमें नन्दादिकोंने अक्रूरसे बूझा कि, आप किस कामके लिये व्रजमें आये हो? तव अक्रूरने कृष्णचन्द्रसे कहा कि आपको और बलदेवजीको मारनेके लिये यज्ञ देखने के बहानेसे कसने बुलाया है, ऐसा कहा तब स्वामीका विश्वासघातकपनका पाप अक्रूरको लगेगा क्योंकि वह वात गुप्त करके कंसने अक्रूरका विश्वास मानके कही थी कि, अक्रूर किसीसे नहीं कहेगा और जो कंस सरीखे कपट करके कहें कि, महाराज आपका मामा हे और कंस राजा भी है, सो यज्ञका कौतुक देखनेको बुलाया है, तब भगवान् की ओर कपटका पाप मोगैंगे॥१४४
पराजय करनेवाले बलरामजीने महात्मा अक्रूरजीका वचन श्रवणकर कुछेक मुसकातेहुए नन्दजी से राजा कंसका संदेशा कहा॥१०॥यह सुनतेही उन्होंने गोपलोगोंको आज्ञा दी कि, दही दूध संग लेके हमारे साथ आनेके वास्ते गाड़ियें जोडो॥११॥ कल मथुराको चलकर राजा कंसको गोरस देंगे और बड़ा भारी उत्सव देखेंगे, देखो! यह सब देशवासी जाते हैं, इस प्रकार नंदजीने गोकुल में ढंढोरा पिटवा दिया॥१२॥ इसके उप
गोपान्समादिशत्सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः॥ उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च॥११॥ यास्यामः श्वो मधु पुरीं दास्यामो नृपते रसान्॥द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यांति जानपदाः किल॥ एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगो कुले॥१२॥ गोप्यस्तास्तदुपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्॥रामकृष्णौ पुरीं नेतुमक्रूरं व्रजमागतम्॥१३॥ काश्चि तत्कृतहृत्तापश्वासम्लानमुखश्रियः॥ स्रंसद्दुकूलवलयकेशग्रन्थ्यश्च काश्चन॥१४॥ अन्याश्च तदनुध्याननिवृत्ताशे षवृत्तयः॥ नाभ्यजानन्निमं लोकमात्मलोकं गता इव॥१५॥
रान्त संपूर्ण गोपियें जिस समय अपने जीवन श्रीकृष्ण बलरामको मथुराको लेजानेको व्रजमें अक्रूर आयेहैं, यह बात सुनकर अत्यन्त दुःखी हुई॥१३॥ बहुत गोपियोंकी तो यह दशा हुई कि, उसके सुननेसे जो हृदयमें ताप हुआ उससे गोपियोंके मुख कुम्हलागये और वस्त्र, चूरी, कंकण, केशोंकी ग्रंथि यह सब शिथिल होगई॥१४॥ और बहुत स्त्रियोकी यह दुर्दशा हुई कि, श्रीकृष्णचन्द्र के ध्यानसे सब इन्द्रियोंकी वृत्तियें जाती रहीं, व मुक्त
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**उत्तर—**जव श्रीकृष्णने अक्रूरसे वृझा कि, आपका आना व्रजमें कैसे हुआ? तब अक्रूर ने अपने मनमें बढा दुःख माना कैसा दुःख माना?जैसे एक लकढी दोनों ओरसे जलती हो उस लकडीको कोई पुरुष हायसे नहीं छुसक्ता, क्योंकि जो उस लकडीको पकडता है तो दोनों हाथ जलते हैं और हाथोंके बचानेका उपाय करता है तो लकडीहाथसे जाती है, ऐसेही अक्रुर होगये, कंसका पक्ष करते हैं तो भगवान्का द्रोही होना पडता है और भगवान्का पक्ष करते हैं तो कंसका द्रोही होना पडता है, तब प्राण त्यागनेका विचार किया फिर श्रीकृष्णभगवान् का ध्यान किया, उस ध्यानमें श्रीकृष्णचन्द्रने अक्रूरको आज्ञा दी कि, तुम क्यों इतना कष्ट सहते हो, कंसका कपट हो सो आप प्रगट मत करो, हमारी ओरसे कपटमें तुमको कुछ दोष नहीं होगा, फिर भगवान्ने कहा हमारी ओरसे कपटकी त्रास त्याग दो, क्योंकि हम सब संसारका कर्म जानते हैं, मनुष्योंकी नाई हम नहीं हैं, इसप्रकार भगवान्की आज्ञा पाकर अक्रुररने कंसके कपटरूप वचन कृष्णसे कहे भगवान् तो सब जानतेही हैं, फिर क्यों गुप्त रखकर दोषका भागी बनू, इसलिये कह दिया कि, तुम दोनों जनोंको यज्ञ देखनेके लिये कंसने बुलाया है॥
होनेपर जैसे देहका भान जाता रहता वैसेही देहका भान भूलगई॥१५॥ बहुतसी गोपियें स्नेहसे मुसकाय हृदयको आनन्ददायक चित्रविचित्र। बोलनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके वचनोंका स्मरण कर मोहित होगई॥१६॥ बहुतसी मुक्तिके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मनोहर चलन स्नेह भरी चितवन शोककी दूर करनेवाली बोलन इत्यादि चेष्टा और बड़े बड़े चरित्रोंको स्मरण करनेलगीं॥१७॥ यह अवश्यही जायँगे इस भय से विग्हमें कातर ऑसू बहाती भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये हजारों गोपियोंके झुण्डके झुण्ड मिलकर संपूर्ण परस्पर यह कहने लगीं॥१८॥ गोपियें कहने लगीं कि, हे विधाता! तुझे कुछ भी दया नहीं है, क्योकि जीवोंका परस्पर मिलाप व प्रेम बॅधाय उनके पूरे सुख न भोगनेपर
स्मरन्त्यश्चापराः शौरैरनुरागस्मितेरिताः॥ हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः॥१६॥ गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्ध हासावलोकनम्॥शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च॥१७॥ चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य लीला विरहकातराः॥ समेताः संघशः प्रोचुरश्रुषुख्योऽच्युताशयाः॥१८॥गोप्य ऊचुः॥ अहो विधातस्तव न क्वचिद्दया संयोज्य मैत्र्या प्रणये न देहिनः॥ तांश्चाकृतार्थान्वियुनंक्ष्यपार्थकं विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा॥१९॥ यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं मुकुन्दवक्रंसुकपोलमुन्नसम्॥ शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम्॥२०॥क्रूरस्त्वमक्रूरसमा ख्यया स्म नश्चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत्॥ येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः॥२१॥
भी वृथा वियोग करदेता है इसीसे तेरी क्रीड़ा बालकोंके समान है अर्थात् तू मूर्ख है॥१९॥ जो तू श्याम अलंकोंसे आच्छादित सुन्दर कपोल ऊंची नासिकावाला शोच मिटानेवाले मंदहास्यके लेशमात्र से भी शोभायमान श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका एकवार दर्शन कराय पीछे छिपा लेता है हमने तेरा क्या अपराध किया है ?॥२०॥ दान करके लेता है इसलिये तू बड़ा कठोर है (अक्रूर लिये जाता है मैं तो नहीं लिये जाता यदि विधाता यह कहै तो इसके उत्तरमें गोपियें कहती हैं कि,) अरे विधाता! निर्दयी अक्रूर नाम धरकर तूही आया है सो अपने दियेहुए कृष्णरूप नेत्र अज्ञानीकी समान हरके लिये जाता है जिस तेरी दी हुई आँखसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके एक एक अंगमें तेरी संपूर्ण सृष्टिकी सुन्दरता
हम देखती हैं॥२१॥अरे! रे!! क्षणभंग स्नेहवाले नंदके पुत्रकी मुसकानसे मोहित हुईं घरमें बंधु और पुत्र पतियोंको छोड़ हम साक्षात् उनकी दासी हुई परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है, वह हमारी ओरको दृष्टि उठाकर देखता भी नहीं। जान पड़ता है कि, उसे नित्य प्रति नये नये प्यारे लगते हैं॥२२॥मथुराकी स्त्रियोंको इस रातका सबेरा अच्छा होगा, क्योंकि उनके मनोरथ निश्चय सच्चे होंगे। देखो जो स्त्रियें मथुरा में पधारे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका मुर्ख कि, जो कटाक्षसे वृद्धिंगत और मुसकानरूप जिसमें रस ऐसे सुन्दर रसका पान करेंगी॥२३॥हे बालाओ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र यद्यपि माता पिता आदिके पराधीन हैं और धीर हैं परन्तु तो भी उन स्त्रियोंके मदके समान मीठे भाषणोंसे इनका चित्त
न नन्दसनुः क्षणभंगसौहृदः समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत॥विहाय गेहान्स्वजनान्सुतान्पतींस्तद्दास्यमद्धोपगता नव प्रियः॥२२॥सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः सत्या बभ्रुवुः पुरयोषितां ध्रुवम्॥याः सम्प्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः पास्य न्त्यपांगोत्कलितस्मितासवम्॥२३॥तासां मुकुन्दो मधुमंजुभाषितैर्गृहीतचित्तः परवान्मनस्यपि॥कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽवला ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन्॥२४॥अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते दाशार्हभोजांधकवृष्णिसा त्त्वताम्॥ महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं द्रक्ष्यंति ये चाध्वनि देवकीसुतम्॥२५॥मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भूदक्रूर इत्येतदतीव दारुणः॥ योसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः॥२६॥ अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः॥ गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते॥२७॥
हरण होजायगा, व उन स्त्रियोंके लजीले मंदहास्य व विलासोंसे भ्रम जायॅगे इसलिये जो अपने गॉवकी रहनेवाली हैं उनके निकट पीछे किस प्रकार आवेंगे॥२४॥ आज तो मथुरा में दाशाईवंशी, भोजवंशी, यादवोंकी आँखोंको निश्चय आनन्द होगा, क्योंकि लक्ष्मीके संग रमण करने वाले संपूर्ण गुणयुक्त देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जो पुरुष मार्गमें देखेंगे उनके नेत्रोंको निश्वयही बड़ा आनन्द होगा॥२५॥ ऐसे क्रूर कर्म करनेवाले निर्दयीका अक्रूरनाम किसने रक्खा है, जो यह निर्दयी बहुत दुःखित हमारे विना पूॅछे प्राणोंसे प्यारे भगवान श्रीकृष्णचन्द्रको हमारी ऑखोंसे दूर लियेजाता है॥२६॥ देखो! यह कठोबुद्धि कृष्ण रथमें जाबैठे तिसपर यह अभागे ग्वाल गाड़ीको
शीघ्रही हाँकनेकी चेष्टा करते हैं ऐसी अनीतिको होताहुआ देखकर कोई बडा बूढ़ा भी मने नहीं करता इससमय किसी गोपके विघ्न होजाता तो बुरा शकुन विचारकर श्रीकृष्ण नहीं जाते; हाय! हाय!! आज दैवही हमारे प्रतिकूल चेष्टा करता है॥२७॥ फिर गोपियें बोलीं कि, सखी! हम सब चलकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मनें करेंगी और उनके रथके आगे जाय, आडी पडकर कहेंगी कि, यदि आप जातेही हैं तो हमारी छातीपर रथका पहिया उतारकर चले जाओ और हमारे कुलके बड़े बूढे भी क्या करेंगे, क्योंकि जो आधेक्षणको भी नहीं छूट सक्ते, उन्हीं मुकुन्दका वियोगकर दैवने हमारे चित्तदीन कर दिये हैं॥२८॥ हे गोपियो! और देखो सखी! उन्हीं कृष्णकी स्नेहभरी मनोहर मुसकान मनोहर लीलापूर्वक चितवन आलिंगनसे रासकी सभामें अत्यन्त बड़ी रात्रियें एक क्षणके समान बीत गई थीं, अब विना श्रीकृष्णचन्द्र
निवारयामः समुपेत्य माधवं किं नोऽकरिष्यन्कुलवृद्धबान्धवाः॥ मुकुंदसंगान्निमिषार्धदुस्त्यजादैवेन विध्वंसितदी नचेतसाम्॥२८॥यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमंत्रलीलावलोकपरिरंभणरासगोष्ठयाम्॥ नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरंतम्॥२९॥ योऽह्नः क्षये व्रजमनंतसखः परीतो गोपैर्विशन्खुररजश्छु रितालकस्रक्॥ वेणुं क्वणन्स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः॥विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं गोविंद दामोदर माधवेति॥॥३१॥ स्त्रीणामेवं रुदंतीनामुदिते सवितर्यथ॥ अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम्॥३२॥
आनंदकंदके विरहरूपी दुःखके समुद्रको कैसे तरेंगी?॥२९॥ संध्यासमय बलदेवजी के संग ग्वालबालोंसे वेष्टित हो बाँसुरी बजाते जिनके बाल और माला गायोंके खुरोंकी धूरिसे परिपूर्ण रहते थे, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ब्रजमें आनेके समय कुछेक हँसते हुए कटाक्ष सहित दृष्टिसे हमारे चित्तको हरलेतेथे उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके विना अब हम किसप्रकार जीवन धारण करेंगी?॥३०॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! इस प्रकार अत्यन्त विरहमें व्याकुल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये, गोपियें लज्जा त्याग हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव! इसभाॅति पुकार पुकारकर रोनेलगीं॥३१॥ हे राजन्! इसप्रकार गोपियें विलाप कर रहीं थीं कि, इतनेहीमें श्रीसूर्यनारायण उदित होगये, इसके उपरान्त महात्मा
अक्रूरजीने संध्योपासनकर रथ हाँका तब गोपियें हाहाकारकर रोती हुईं कहने लगीं॥३२॥केशवमूर्तिके वियोग में यशोदा व गोपियें इसप्रकारव्याकुल हो हाहाकर करनेलगीं, इसके उपरान्त नंदादिक संपूर्ण व्रजवासी ग्वालबाल दूध, दही, माखनसे भरे कलशोंको ले गाडियों में बैठकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके संग चले॥३३॥ और श्रीकृष्णमें आसक्त मन गोपियें श्रीकृष्णके पीछे जाय कदाचित् श्रीकृष्ण लौट आवैं, इस प्रकार पैंड़ा देखनेलगीं॥३४॥यादवश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने चलनेके समय उन गोपियोंको व्याकुल देख “शीघ्रही आऊंगा” ऐसे प्रेम सहित वचन दूतसे कहलाकर शान्त किया॥३५॥ हे परीक्षित्! जहाँतक रथकी ध्वजा देखी, तहाँतक तो रथकी धूल उडती देखी और तब तक गोपियें
गोपास्तमन्वसज्जंत नंदाद्याः शकटैस्ततः॥आदायोपायनं भूरि कुंभान्गोरससंभृतान्॥३३॥गोप्यश्च दयितं कृष्ण मनुव्रज्यानुरंजिताः॥ प्रत्यादेशं भगवता कांक्षंत्यश्चावतस्थिरे॥३४॥ तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाने यद्वत्तमः॥ सांत्वयामास सप्रेमैरायास्य इति दौत्यकैः॥३५॥यावदालक्ष्यते केतुर्यावद्रेणू रथस्य च॥ अनुप्रस्थापितात्मानो ले ख्यानीवोपतस्थिरे॥३६॥ ता निराशा निववृतुगोविंदविनिवर्तने॥ विशोका अहनी निन्युर्गायंत्यः प्रियचेष्टितम्॥३७॥ भगवानपि संप्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप॥ रथेन वायुवेगेन कालिंदीमघनाशिनीम्॥३८॥ तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम्॥ वृक्षखंडमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत्॥३९॥ अक्रूरस्तावुपामंत्र्य निवेश्य च रथोपरि॥ कालिं द्या हृदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत्॥४०॥
भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये चित्रकी नाई लिखीसी खड़ीरहीं॥३६॥ परन्तु जब जाना कि, अब मुरलीमनोहर नहीं आवेंगे, तब वह गोपियें अत्यन्त व्याकुल हो लौटीं और शोक प्रकाशकर काल बिताने लगीं॥३७॥ पवनकी तुल्य वेगवाले रथमें बैठ बलदेव अक्रूर सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, संपूर्ण पापोंके नाश करनेवाली यमुनाके निकट पहुँचे॥३८॥ वहाँ पहुँच हाथ पाँव धो आचमन कर, निर्मल मीठा जल पी, फिर बगीचेमें आनकर बलरामसहित रथमें बैठगये॥३९॥ इसके उपरान्त महात्मा अकूर भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तथा बलरामजीको
रथ में बैठाल और उनसे आज्ञा मॉग कालिंदीमें विधिपूर्वक स्नान करनेलगे॥४०॥और जलमें गोता मारकर गायत्रीका जप करते २ महात्मा अक्रूरजीने कृष्ण बलदेवको देखा॥४१॥फिर अक्रूरजीको भ्रम हुआ कि, रामकृष्णको तो मैं रथमें बैठालकर आया था, सो यहाँ कैसे आये ? कदाचित् रथमेंसे उतर तो न आये हों, इसलिये निकलकर देखूं, इस प्रकार विचार करने लगे॥४२॥फिर अक्रूरजीने निकलकर देखा कि, पहलेके समान कृष्ण बलदेव रथमें विराजमान हैं, उससमय अक्रूरजी महाविस्मयको प्राप्त होकर कहने लगे कि, जलके भीतर जो मुझे दर्शन हुवा सो मिथ्या है, इस प्रकार बुद्धिसे निश्वयकर फिर गोता मारा, तो सिद्ध, चारण, गन्धर्व, देवता, नर्त्तक, स्तुति कर रहेहैं और भगवान् शेषजी विराजमान
निमज्ज्य तस्मिन्सलिले जपन्ब्रह्म सनातनम्॥तावेव ददृशेऽक्रुरो रामकृष्णौ समन्वितौ॥४१॥तौ रथस्थौ कथ मिह सुतावानकदुंदुभेः॥तर्हि स्वित्स्यंदने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः॥४२॥तत्रापि च यथापूर्वेमासीनौ पुनरेव सः॥न्यमज्जद्दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः॥४३॥भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत्स्तूयमानमहीश्वरम्॥सिद्धचारणगं धर्वैरसुरैर्नतकंधरैः॥४४॥ सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम्॥नीलांबरं बिसश्वेतं शृंगैः श्वेतमिव स्थितम्॥४५॥तस्योत्संगे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्। पुरुषं चतुर्भुजं शांतं पद्मपत्रारुणेक्षणम्॥४६॥प्रसन्नचारुवदनं चारुहास निरीक्षणम्॥सुभ्रून्नसं चारुकर्णं सुकपोलारुणाधरम्॥४७॥प्रलंबपीवरभुजं तुंगांसोरःस्थलश्रियम्॥कंचुकण्ठं निम्न नाभिं वलिमत्पल्लवोदरम्॥४८॥ बृहत्कटितटश्रोणिकरभोरुद्वयान्वितम्॥चारुजानुयुगं चारुजंघायुगलसंयुतम्॥४९॥
हैं ऐसा देखा॥४३॥४४॥जिनके सहस्रशिर मुकुटोंसहित सहस्रही फण, नीले वस्त्र धारण किये कमलनाली तुल्य श्वेतवर्ण कैलासके समान प्रकाशमान शेषजीको देखा॥४५॥शेषजीके ऊपर कुण्डलसे विराजमान श्याम और पीतवस्त्रोंको धारण किये चार भुजा शांतस्वरूप पुरुष कमल के पत्तोंके समान अरुण नेत्र॥४६॥सुन्दर प्रसन्न मुख सुन्दर हास्यभरी चितवन, सुन्दर भ्रुकुटी और शोभायमान नासिका, सुंदर कर्ण सुन्दर कपोल और अरुण ओष्ठ॥४७॥लम्बी मोटी भुजा, विशाल हृदय में लक्ष्मी विराजमान, गोल शंखसी ग्रीवा, तीन बलि जिसमें पडरहीं शोभायमान जिनकी नाभि पीपल के पत्ते के समान चिकना उदर॥४८॥पतली कमर और बृहत् श्रोणीसे शोभायमान दोनों जंघा॥४९॥
लम्बायमान दोनों गुल्फ, लाल नखोंके समूहकी कांतिसे वेष्टित, कोमल अंगुली, सुन्दर चरणकमल॥५०॥बहुत मोलके मणियोंसे जटित किरीट, कडे, बाजूबन्द और कमर कर्धनी, यज्ञोपवीत, मोतियोंके हार, चरणोंमें नूपुर तथा कानोंमें कुण्डल जो पहर रहे हैं, उनसे अत्यन्तही प्रकाशमान हैं॥५१॥कमल और शंख, चक्र, गदाको धारण किये भृगुलताका चिह्न जिनकी छाती में प्रकाशमान, कौस्तुभमणिकी जिनके धुक धुकी॥५२॥सुनंद नंद जिनमें मुखिया ऐसे पार्षद, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और ब्रह्मा-महादेवादि देवता मरीच्यादि जो ब्राह्मण, प्रह्लाद, नारद, वसु जिनमें मुख्य इसप्रकार उत्तम भक्त अलग अलग भावसे उनकी स्तुति कररहे हैं॥५३॥५४॥और श्री, पुष्टि, वाणी, कान्ति, कीर्ति,
तुङ्गगुल्फारुणनखव्रातदीधितिभिर्वृतम्॥नवांगुल्यंगुष्ठदलैर्विलसत्पादपंकजम्॥५०॥सुमहार्हमणिव्रातकिरीटकट कांगदैः॥ कटिसूत्रब्रह्मसूत्रहारनूपुरकुण्डलैः॥५१॥भ्राजमानं पद्मकरं शंखचक्रगदाधरम्॥श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौ स्तुभं वनमालिनम्॥६२॥ सुनंदनंदप्रमुखैः पार्षदैः सनकादिभिः॥सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैर्नवभिश्च द्विजोत्तमैः॥५३॥ प्रह्लादनारदवसुप्रमुखैर्भागवतोत्तमैः॥ स्तूयमानं पृथग्भावैर्वचोभिरमलात्मभिः॥५४॥ श्रिया पुष्ट्या गिरा कांत्या कीर्त्या तुष्टयेलयोर्जया॥विद्ययाऽविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम्॥५५॥विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः॥ हृष्यत्तनूरुहो भावपरिक्लिन्नात्मलोचनः॥५६॥गिरा गद्गदयाऽस्तौषीत्सत्त्वमालंव्य सात्त्वतः॥प्रणम्य मूर्ध्वावहितः कृतांजलिपुटः शनैः॥५७॥इति श्रीमद्भाग० म० द० पूर्वार्धेऽक्रूरप्रतियानं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥
तुष्टि, इला, ऊर्जा, विद्या, अविद्या, शक्ति, माया जिनका निरंतर सेवन करती हैं॥५५॥ऐसे परिपूर्ण रूप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हो, परमभक्तिको प्राप्त हो, देहमें रोमांच होगये और भक्तिके कारण नेत्रोंमें आँसू भर आये, ऐसे महात्मा अक्रूरजी मस्तक नवाय प्रमाण कर, सावधान हो, हाथ जोड, धीरेसे सत्त्वगुणका आश्रय ले गद्गदवाणीसे उनकी स्तुति करने लगे॥५६॥५७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां अक्रूरप्रतियानं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥
दोहा—चालिसमें अक्रूरने, लख हरि चरित अपार। सगुण निगुणकी भक्तिसे, बिनवत वारम्वार॥४०॥अक्रूरजी बोले कि, हे कृष्ण ! संपूर्ण कारणों के कारण नारायण आदिपुरुष अविनाशी जिनकी नाभिमें उत्पन्न हुए कमलसे ब्रह्मा हुए और उस ब्रह्मासे यह लोक उत्पन्न हुआ, तुमको मैं नमस्कार करताहूं॥१॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, पुरुष, मन, इन्द्रिय, समस्त इन्द्रियोंके लिये विषयसे संपूर्ण देवता यह जो जगत्के कारण है सो तुम्हारेही अंगसे हुये हैं॥२॥ ब्रह्मासे आदि लेकर जड जो सम्पूर्ण तत्त्व हैं, सो अपने स्वरूपको नहीं जानते और जीव हैं
अक्रूर उवाच॥ नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं नारायणं पुरुषमाद्यमव्ययम्॥ यन्नाभिजातादरविंदकोशाह्ब्रह्माऽऽवि रासीद्यतः एष लोकः॥१॥ भूस्तोयमग्निः पवनः खमादिर्महानजादिर्मन इन्द्रियाणि॥ सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे ये हेतवस्ते जगतोंगभूताः॥२॥ नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः॥ अजोऽनुवद्धः स गुणैरजाया गुणात्परं वेद न ते स्वरूपम्॥३॥ त्वां योगिनो यजंत्याद्धा महापुरुषमीश्वरम्॥ साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः॥४॥ त्रय्या च विद्यया केचित्त्वां वै वैतानिका द्विजाः॥ यजंते विततैर्यज्ञैर्नानारूपामराख्यया॥५॥ एकेत्वाऽखिलकर्माणि संन्यस्योपशमं गताः॥ ज्ञानीनो ज्ञानयज्ञेन यजंति ज्ञानविग्रहम्॥६॥
सो तत्त्वोंको जानते हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, मायाके गुणोंसे बॅधेहुए जीव गुणोंसे अलग तुम्हारे स्वरूपको नहीं जानते॥३॥ब्रह्माके उपासक महापुरुष ईश्वर तुम हो, तुम्हारी ही पूजा करते हैं और इन्द्रिय, पंचभूत, देवता, इनके साक्षी अन्तर्यामी तुम हो, इसीलिये तुम्हारी साधुलोग पूजा करते हैं,॥४॥ और कोई एक कर्मोंमें निष्ठावाले, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदसे यज्ञोंका विस्तार करके अनेक रूप देवताओंका नाम लेलेकर पूजा करते हैं॥५॥ और कोई कोई ज्ञानी पुरुष संपूर्ण कमोंको त्याग, समाधिमें आनकर ज्ञानरूप तुम्हारा पूजन करते हैं <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735830583Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥६॥
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*** शंका—**योगमें बडे चतुर, ऐसे योगीजन सव संसारके सुखको त्यागकर जिस ब्रह्ममें मिल जाते हैं सो श्रीकृष्णचन्द्र हैं, यह शका हमको वारम्बार होतीहै?
**उत्तर—**जिस ब्रह्मको मुमुक्षु लोग जाते हैं, उस ब्रह्मको योगीजन नहीं जासक्ते, वह ब्रह्म वडा कठिन है, परन्तु ससारमें अपने अपने इष्टको ब्रह्मके स्वरूपकी नाई बढाई करके सब प्राणी वर्णन करते हैं, इस लिये अक्रुरभी कृष्णको ब्रह्मस्वरूप करके वर्णन करते हैं॥
और दूसरे पुरुष विष्णुकी दीक्षा लेकर नारदपंचरात्रमें कही पूजाकी विधिसे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, इन भेदोंसे बहुत रूप और नारायण रूपसे एकरूप आपकीही पूजा करते हैं॥७॥और कोई कोई पुरुष शिवजीके कहे शैवमार्ग और पाशुपतमार्गसे शिवरूप तुमको हे भगवन्! अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं॥८॥हे सर्वदेवतारूप! हे समर्थ! जो पुरुष और देवताओंके भक्त हैं और देवताओं में उनके मन लग रहेहैं वह सबके ईश्वर तुम्हारीही पूजा करते हैं, क्योंकि आप सब देवताओंके रूप हैं॥९॥ हे प्रभो! जैसे पर्वतोंसे निकली मेघके जलसे परिपूर्ण हो नदियें चारों ओरसे बह बहकर समुद्र में जा मिलतीहैं उसीप्रकार सब देवताओंके मार्ग अन्तमें तुमहीमें आनकर मिलजाते हैं॥१०॥ सत, रज, तम यह
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाऽभिहितेन ते॥यजंति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम्॥७॥त्वामेवान्ये शिवो क्तेन मार्गेण शिवरूपिणम्॥बह्वाचार्यविभेदेन भगवन्तमुपासते॥८॥सर्व एव यजंति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम्॥येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो॥९॥यथाऽद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्याऽपूरिताः प्रभो॥विशंति सर्वतः सिंधुं तद्वत्त्वां गतयोंततः॥१०॥सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः॥तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः॥॥११॥तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये सर्वात्मने सर्वाधियां च साक्षिणे॥गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः प्रवर्तते देवनृ तिर्यगात्मसु॥१२॥अग्निर्मुखं तेऽवनिरंघ्रिरीक्षणं सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः॥द्यौः कं सुरेंद्रास्तव बाहवो ऽर्णवाः कुक्षिर्मरुत्प्राणबलं प्रकल्पितम्॥१३॥रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः॥निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापतिर्मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते॥१४॥
तुम्हारी प्रकृतिके गुण हैं, इन गुणोंमें ब्रह्म आदि स्थावर तक सब जीव पोयेहुए हैं, वे गुण प्रकृतिमें और प्रकृति तुममें॥११॥संसारमें अलिप्तबुद्धि जिसके आत्मा सब प्राणियोंकी बुद्धिके साक्षी तुम हो, सो मैं आपको नमस्कार करता हूं आविद्यासे हुआ गुणका प्रभाववाला संसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी इनकी देहमेंही प्रवृत्त होता है, इसलिये इनमें और आपमें बड़ा अन्तर है॥१२॥अग्निमें तुम्हारा मुख है, पृथ्वी तुम्हारा चरण है, सूर्य नेत्र, आकाश नाभि, दिशा कान, स्वर्ग मस्तक, देवता भुजा और समुद्र कोंख है, पवन प्राणरूप तथा बलरूप कल्पना किया है॥१३॥वृक्ष औषधि देहमें रोम, मेघ तुम्हारे केश, पर्वत तुम्हारे दाड और नख हैं, रात्रि दिन पलकोंका खोलना तथा बंद करना है, प्रजापति तुम्हारा मेढ्र है
और वर्षाको तुम्हारा वीर्य कहते हैं॥१४॥ तुम अविनाशी पुरुषमेंही लोकपालोंसहित लोक स्थित हैं और वह बहुत जीवोंसे व्याप्त हैं, छोटे कीडे चलते हैं, गूलरमें भुनगे उडते हैं उसीप्रकार मनकी वृत्तिसे जाननेमें आओ जो तुम हो तिनमें अनंत ब्रह्माण्ड फिरतेहैं॥१५॥ इस संसारमें लीला करनेके लिये आप जो जो रूप धारण करतेहो उनसे शोक दूरकर लोग आनन्दसे तुम्हारे यशको गातेहैं॥१६॥ सत्यव्रतको माया दिखाने के लिये मत्स्यरूप धरकर प्रलयके समुद्र में विचरनेवाले तुम्हारे अर्थ नमस्कार है, मधुकैटभ दैत्यको मारनेके लिये हयग्रीवरूप धरनेवाले आपको नमस्कार है॥१७॥ मंदराचल पर्वतके धारण करनेवाले बड़े कच्छपरूप तुम्हारे अर्थ नमस्कार है। पृथ्वी लानेके
त्वय्यव्ययात्मन्पुरुषे प्रकल्पिता लोकाः सपाला बहुजीवसंकुलाः॥ यथा जले संजिहते जलौकसोऽप्युदुंबरे वा मशका मनोमये॥१५॥ यानियानीह रूपाणि क्रीडनार्थं विभर्षि हि॥ तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायंति ते यशः॥१६॥ नमः कारणमत्स्याय प्रलयाव्धिचराय च॥ हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे॥१७॥अकूपाराय बृहते नमो मंदरधारिणे॥ क्षित्युद्धारविहाराय नमः सुकरमूर्तये॥१८॥नमस्तेऽद्भुतसिंहाय साधुलोकभया पह॥ वामनाय नमस्तुभ्यं क्रांतत्रिभुवनाय च॥१९॥ नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे॥ नमस्ते रघुवर्याय रावणांतकराय च॥२०॥ नमस्ते वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च॥ प्रद्युम्नायाऽनिरुद्धाय सात्त्वतां पतये नमः॥२१॥ नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने॥ म्लेच्छप्रायक्षत्र्रहंत्रे नमस्ते कल्किरूपिणे॥२२॥
लिये वाराहरूप आपको नमस्कार है॥१८॥ साधुपुरुपोका भय दूर करनेवाले अद्भुत नृसिंहरूप धरनेवाले आपको नमस्कार है। वामनरूप होकर तीनों लोक नापनेवाले तुम्हैनमस्कार है॥१९॥ गर्वीले क्षत्रियरूप वनको काटनेवाले भृगुवंशियोके पति परशुराम तुमको नमस्कार है। रावणके मारनेवाले रघुवंशियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्ररूप आपको नमस्कार है॥२०॥ वासुदेवरूप तुमको नमस्कार है, संकर्षणरूप तुमको नमस्कार है, प्रद्युम्न और अनिरुद्धरूप तुमको नमस्कार है, भक्तोंके पति तुमको नमस्कार है॥२१॥ दैत्य दानवोके मोहित करनेवाले शुद्धबुद्धरूप तुमको नमस्कार है। म्लेच्छ क्षत्रियोको मारनेवाले कल्कीरूप तुमको नमस्कार है॥२२॥
हे भगवन्! यह जीव तुम्हारी मायासे मोहित हो अहंता ममतारूप दुराग्रहसे कर्ममार्गों में भ्रमण करता है॥२३॥ हे विभो! मैंभी स्वप्नके समान आत्मा, पुत्र, घर, स्त्री, धन, भाई, बन्धु इत्यादिमें मूर्खता से सत्यबुद्धि कर भ्रमण करताहूं॥२४॥अनित्य आत्मा दुःखरूप है उनको नित्य आत्मा सुखरूप जानताहूं और सुखदुःखमें क्रीडा करनेवाला अज्ञानसे भरा में अपने प्रिय तुमको नहीं जानता॥२५॥जैसे अज्ञानी पुरुष सिवारसों ढके जलको छोड़ सूर्यकी किरणोंसे बालू चमकते जलके लिये जातेहैं॥ उसी प्रकार मायासे ढके तुमको त्याग देहादिकोंमें मेरा मन लगरहाहै॥२६॥कृपणबुद्धि अर्थात् विषयोंमें बुद्धि लगनेसे काम्य कर्मसे क्षुभितहुए मनको रोकनेमें असमर्थ नहीं हूं परन्तु बलवान्
भगवञ्जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया॥अहं ममेत्यसद्ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु॥२३॥अहं चात्मा त्मजागारदारार्थस्वजनादिषु॥ भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो॥२४॥अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम्॥ द्वंद्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वाऽऽत्मनः प्रियम्॥२५ यथाऽबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्भवैः॥अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्वाऽहं पराङ्मुखः॥२६॥नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः॥रोद्धुंप्रमाथिभिश्चाक्षैर्ह्रियमाणमितस्ततः॥२७॥ सोऽहं तवांघ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं यच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये॥ पुंसो भवेद्यर्हि संसरणापवर्गस्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्॥२८॥ नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्यक्षहेतवे॥ पुरुषे शप्रधानाय ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥२९॥
इन्द्रियें मनको इधर उधर चलायमान कर देतीहैं॥२७॥ हे परमेश्वर! हे पद्मनाभ! विषयीपुरुषोंको दुर्लभ मैं आपके चरणारविन्दोंकीशरण आया हूं और तुम्हारी शरण आना, यह भी आपकेही अनुग्रहसे हुआ है ऐसे मानता हूं, क्योंकि जब पुरुषका संसार छूटनहार होताहै, तब हे कमलनाभ! साधुओंकी सेवा करतेहैं उस सेवासे तुममें आनकर बुद्धि लगती है परन्तु तुम्हारी कृपा विना साधुओंकी सेवा भी नहीं बनती और तुममें बुद्धि भी नहीं लगसक्ती है॥२८॥ विज्ञानमूर्ति समस्त ज्ञानके कारण पुरुष, काल, माया इनरूप ब्रह्म तुम हो, इसलिये हे
अनन्तशक्ति! मैं आपको नमस्कार करता हूं॥२९॥हे समर्थ! हे इन्द्रियोंके प्रेरनेवाले! चित्तके अधिष्ठाता सब प्राणियों के आश्रय! तुमको मैं नमस्कार करता हूं तुम्हारी शरणमें प्राप्त हुए मेरी रक्षा करो॥३०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां अक्रूरस्तुति र्नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥४०॥दोहा—इकतालिस अध्यायमें, मथुरा कियो प्रवेश। रजकवधो माली दियो, शुभ वरदान व्रजेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्तुति करते हुए अक्रूरजीको जलके भीतर अपना स्वरूप दिखलाकर फिर जैसे नट अपने स्वांगको दिखलाकर समेट लेताहै, उसी प्रकार समेट लिया॥१॥अक्रूरजी भी श्रीकृष्णचन्द्रको जलमेंसे अन्तर्धान हुआ देख
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभृतक्षयाय च॥हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो॥३०॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥४०॥श्रीशुक उवाच॥स्तुवत्तस्तस्य भगवान्द र्शयित्वा जले वपुः॥भूयः समाहरत्कृष्णो नटो नाट्यमिवात्मनः॥१॥सोपि चांतर्हितं वीक्ष्य जलादुन्मज्ज्य सत्वरः॥कृत्वा चावश्यकं सर्वं विस्मितो रथमागमत्॥२॥तमपृच्छद्धृषीकेशः किं ते दृष्टमिवाद्भुतम्॥भूमौ वियति तोये वा तथा त्वां लक्ष्यामहे॥३॥अक्रूर उवाच॥अद्भुतानीह यावंति भूमौ वियति वा जले॥ त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेऽदृष्टं विपश्यतः॥४॥ यत्राद्भुतानि सर्वाणि भूमौ वियति वा जले॥ तं त्वाऽनुपश्यतो ब्रह्मन्किं मे दृष्टमिवाद्भुतम्॥५॥
अत्यन्त शीघ्रतासहित जलमेंसे निकल सम्पूर्ण सन्ध्योपासन कर आश्चर्य मान रथके निकट आये॥२॥ इनको देखकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे अक्रूर! पृथ्वीमें, जलमें, आकाशमें तुमने ऐसी आश्चर्य वस्तु क्या देखी है, क्योंकि तुम आश्चर्यरूप चकितसे दिखाई देते हो॥३॥तब अक्रूरजी बोले कि, इस संसारमें, पृथ्वीमें, जलमें, जितने आश्चर्य हैं वह सब आश्चर्य विश्वरूप आपमें विद्यमान हैं, सो तुम्हारा मैंने दर्शन किया॥४॥ जो तुममें सब आश्चर्य भरे हैं जब तुम्हारा दर्शन मैंने कर लिया फिर हे परमेश्वर! पृथ्वी, आकाश और इस संसारमें क्या आश्चर्य देखना शेष रहगया?॥५॥
ऐसे कह गांदिनीके पुत्र महात्मा अक्रूरजीने रथ हांका और तीसरेही पहारतक मथुरापुरीमें राम कृष्णको पहुँचादिया॥६॥हे राजन! मागोंमें ग्रामोंके मनुष्य जहाँ तहाँ इकट्ठे हो कृष्णबलदेवका दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनके रूपमेंसे अपनी दृष्टिके हटानेको भी समर्थ न हुए॥७॥ हे महाराज! इसी बीचमें नन्दादिक समस्त व्रजवासी आगे आनकर मथुरा के बागमें कृष्ण बलदेवके आनेका पैड़ा देखनेलगे॥८॥इसके उपरान्त जगत्के ईश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने उन व्रजवासियोके पास आय, नम्र हो कुछेक मुसकान सहित अक्रूरसे कहा कि॥९॥हे अक्रूर! तुम आगे रथको लेजाय पुरीमें प्रवेश करो और अपने घर जाओ, हम यहां कुछ देर विश्राम लेकर मथुरापुरी को देखेंगे॥१०॥तब अक्रूरजी बोले
इत्युक्ता चोदयामास स्यंदनं गांदिनीसुतः॥मथुरामनयद्रामं कृष्णं चैव दिनात्यये॥६॥मार्गे ग्रामजना राजंस्तत्र तत्रोपसंगताः॥वसुदेवसुतौ वीक्ष्य प्रीता दृष्टिं न चाऽऽददुः॥७॥तावद्रजौकसस्तत्र नन्दगोपादयोऽग्रतः॥पुरो पवनमासाद्य प्रतीक्षंतोऽवतस्थिरे॥८॥तान्समेत्याह भगवानक्रूरं जगदीश्वरः॥गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रश्रितं प्रह सन्निव॥९॥ भवान्प्रविशतामग्रे सहयानः पुरीं गृहम्॥वयं त्विहावमुच्याथ ततो द्रक्ष्यामहे पुरीम्॥१०॥अक्रूर उवाच॥नाहं भवद्भ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो॥ त्यक्तुं नार्हसि मां नाथ भक्तं ते भक्तवत्सल॥११॥ आगच्छ याम गेहान्नः सनाथान्कुर्वधोक्षज॥सहाग्रजः सगोपालैः सुहृद्भिश्च सुहृत्तम॥१२॥पुनीहि पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम्॥यच्छौचेनानुतृप्यंति पितरः साग्नयः सुराः॥१३॥ अवनिज्यांघ्रियुगलमासीच्छ्लोक्यो बलिर्महान्॥ ऐश्वर्यमतुलं लेभे गतिं चैकांतिनां तु या॥१४॥
कि, हे प्रभो! तुम बिन अकेला में मथुरा पुरीमें नहीं जाऊंगा, हे नाथ! हे भक्तोंपर हित करनेवाले! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, इसलिये मुझे मत त्यागो॥११॥ तुम आओ हम तुम घर चलें, हे अधोक्षज! हे सुहृदोत्तम! आज अपने बड़े भाई बलदेवजी और ग्वालबालों सहित मेरे घर चलकर मुझे सनाथ करो॥१२॥ अपने चरणोंकी रजसे मुझ गृहस्थके घरको पवित्र करो और तुम्हारे चरणोंकी धोवनसेही मेरे पितृ, अग्नि, देवता, तृप्त होजायॅगे॥१३॥ देखो! तुम्हारे युगल चरण धोनेसे राजा बलिका कैसा पवित्र यश हुआ कि, जिससे अत्यन्त दुर्लभ ऐश्वर्यको प्राप्तहुआ
और अनन्य भक्तोंको जो गति मिलतीहै, वही गति उसने पाई॥१४॥हे भगवान्! तुम्हारे चरणारविन्दका धोवन जल गंगारूप होकर त्रिलोकीको पवित्र करता है उसी जलको शिवजीने अपने मस्तकपर धारण किया है और उसी जलके स्पर्शसे साठहजार सगरके पुत्र स्वर्गको चले गये॥१५॥ हे देवदेव! हे जगन्नाथ! तुम्हारी कथा श्रवण और गुणकथनसे भक्त पवित्र हो जाते हैं, ऐसे तुम पवित्र गुणयुक्त हो, सो हे नारायण। आपको नमस्कार है॥१६॥ तब श्रीभगवान् बोले कि यादवोंसे द्रोह करनेवाले कंसको मार सुहृदोंका प्रिय करूंगा, इसके उपरान्त बडे भाई बलदेवजीको संग ले मैं तुम्हारे घर आऊंगा॥१७॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन श्रवण कर अकूरजी विमन हो पुरीमें जाय कंससे “राम कृष्णको ले
आपस्तैघ्र्यवनेजन्यस्त्रील्लोँकाच्छुचयोऽपुनन्॥ शिरसाऽधत्त याः शर्वः स्वर्याताः सगरात्मजाः॥१५॥ देवदेव जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन॥यद्वत्तमोत्तमश्लोक नारायण नमोऽस्तु ते॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ आयास्ये भवतो गेहमहमार्यस मन्वितः॥ यदुचक्रद्रुहं हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम्॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्तो भगवता सोऽक्रूरो विमना इव॥ पुरीं प्रविष्टः कंसाय कर्माऽऽवेद्य गृहं ययौ॥१८॥ अथापराह्णेभगवान्कृष्णः संकर्षणाऽन्वितः॥ मथुरां प्राविशद्गोपै र्दिदृक्षुः परिवारितः॥१९॥ ददर्श तां स्फाटिकतुंगगोपुरद्वारां वृहद्धेमकपाटतोरणाम्॥ ताम्राऽऽरकोष्ठां परिखादुरासदामु द्यानरम्योपवनोपशोभिताम्॥२०॥ सौवर्णशृंगाटकहर्म्यनिष्कुटैः श्रेणीसभाभिर्भवनैरुपस्कृताम्॥ वैदूर्यवज्राऽमलनी लविदुमैर्मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु वेदिषु॥२१॥
आया” ऐसे कह अपने घरको चले गये॥१८॥ इसके उपरान्त तीसरे पहरके समय बडे भाई बलराम सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोप ग्वालोंको संग ले मथुरापुरी देखनेके लिये चले॥१९॥ उस पुरीकी कैसी शोभा है कि, स्फटिक मणियोंके ऊॅचे शहरपनाहके और घरोंके द्वार बन रहेहैं, उनमें बडे बडे सोनेके किंवाड चढ़ रहे हैं और ठौर ठौर बन्दनवारेैंटॅग रही हैं, अन्न भरनेके लिये ताॅबे तथा पीतलके कोठे बने हैं चारों ओर चौडी खाई बन रही हैं, उद्यान और उपवन आदिसे यह पुरी अत्यन्त शोभायमान हो रही है॥२०॥ सुवर्णके चारों ओर मार्ग, साहूकारोंके महल और बडे २ कारीगर मनुष्योंके मकानोंसे यह पुरी शोभायमान हो रहीहै, वैदूर्यमणि, हीरे, निर्मल नीलमणि, मूंगे, मोती इनके काम जिनमें हो रहे
ऐसे शोभायमान छज्जे हैं॥२१॥जाली झरोखोंमें बैठेहुए मोर जहाँ तहाँ शोर कर रहे हैं राजमार्ग व गलियोंमें छिडकाव हो रहा है, उनमें पुष्पोंकी माला अंकुर धानकी खीलें और चावल यह मंगल द्रव्य फैल रहा है॥२२॥चंदन दहीसे छिडके फूल जिनपर धरे, ऊपर दीपकोंकी पंक्ति घरी आमकी डाल जिन पर घरी ध्वजा जिनपर फहरा रही दरियाईके कपडे जिनकी नारिसे बॅधे गहिर सहित केले व सुपारीके वृक्ष जिनके निकट लग रहे जलके भरे कलश दरवाजोंपर रक्खे हैं, जिनसे वह पुरी बहुतही शोभायमान होरही है॥२३॥ बराबरके मित्रोंको संग ले मथुरा पुरीके बीच बाजारमें हो जिस समय वसुदेवनन्दन कृष्ण बलदेव निकले, उस समय इनको देखनेके लिये पुरीकी बहुत स्त्रियें दौड आई और
जुष्टेषु जालामुखरंध्रकुट्टिमेष्वाविष्टपारावतबर्हिनादिताम्॥संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां प्रकीर्णमाल्यांकुरलाजतंडुलाम् ॥२२॥आपूर्णकुम्भैर्दधिचंदनोक्षितैः प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः॥सवृंदरंभाकमुकैः सकेतुभिः स्वलंकृतद्वारगृहां सपट्टिकैः॥२३॥तां संप्रविष्टौ वसुदेवनंदनौ वृतौ वयस्यैर्नरदेववर्त्मना॥द्रष्टुं समीयुस्त्वरिताः परस्त्रियो हर्म्याणि चैवारुरुहुर्नृपोत्सुकाः॥२४॥काश्चिद्विपर्यग्धृतवस्त्रभूषणा विस्मृत्य चैकं युगलेष्वथापराः॥कृतैकपत्रश्रवणैकनूपुरा नांक्त्वा द्वितीयं त्वपराश्च लोचनम्॥२५॥अश्नंत्य एकास्तदपास्य भोजनमभ्यज्यमाना अकृतोपमज्जनाः॥स्वपंत्य उत्थाय निशम्य निस्स्वनं प्रपाययंत्योऽर्भमपोह्य मातरः॥२६॥मनांसि तासामरविंदलोचनः प्रगल्भलीलाहसिताव लोकनैः॥जहार मत्तद्विरदेंद्रविक्रमो दृशां ददच्छीरमणात्मनोत्सवम्॥२७॥
बहुतसारी स्त्रियें देखनेकी इच्छासे महलोंपर चढ गईं॥२४॥कोई कोई स्त्री उतावलके मारे ओढ़नियोंको पहर, लहँगेको ओढ, हाथोंके गहनेपांवोंमें पहर कर चली आई, कोई एक स्त्री एक हाथ और एक पांवमेंही गहना पहरकर चली आई और कोई स्त्री एक कानमें कर्णफूल व एक पॉवमें पायजेब पहरकर चली आई, कोई स्त्री एकही आँखमें काजल लगाकर चली आई॥२५॥ कोई कोई स्त्री भोजन करतेहीसे चली आई और कोई स्त्री अंगनमें तेल मलरही थी, वह विनाही स्नान किये चली आई, कोई सोतेसेही चली आई कोई स्त्री अपने बालकोंको दूध पिलारही थी, सो सुना कि, कृष्ण बलदेव आये हैं, सो बालकोंको रोताही छोड़कर चली आई॥२६॥मतवाले हाथीके समान
पराक्रमवाले कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वकही हँसनी चितवनीसे उन स्त्रियोंका मन चुरालिया और लक्ष्मीको रमण कराने वाले अपने रूपसे उन स्त्रियोंकी आखोंको आनन्द देनेलगे॥२७॥वारंवार बातें सुनकर उन कृष्णमें लगे हैं चित्त जिनके और उनकी चितवन मुसकानरूपी अमृतका जो सींचना है उससे सत्कार पानेसे रोमांच हो आये, ऐसी स्त्रियें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देख, नेत्र द्वारा हृदयमें लेजाय आनंद रूप श्रीकृष्णको आलिंगनकर हे काम लोभादिकोंके दंड देनेवाले राजा परीक्षित्! श्रीकृष्णके विना मिलेही कामकी पीडाको त्यागदिया॥२८॥इसके उपरान्त प्रफुल्लित नेत्रवाली स्त्रियें महलोंके शिखरपर चढीं कृष्ण बलदेवके ऊपर फूलोंकी वर्षा करके कहनेलगीं॥२९॥इसप्रकार परस्पर
दृष्ट्वा सुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तं तत्प्रेक्षणोत्स्मितसुधोक्षणलब्धमानाः॥ आनंदमूर्तिमुपगुह्य दृशात्मलब्धं हृष्यत्त्वचो जहुरनंतमरिंदमाधिम्॥२८॥प्रासादशिखरारूढाः प्रीत्युत्फुल्लमुखांबुजाः॥ अभ्यवर्षन्सौमनस्यैः प्रमदा बलकेशवौ॥२९॥ दध्यक्षतैः सोदपात्रैः स्रग्गंधैरभ्युपायनैः॥ तावानर्चुः प्रमुदितास्तत्रतत्र द्विजातयः॥३०॥ ऊचुः पौरा अहो गोप्यस्तपः किमचरन्महत्॥ या ह्येतावनुपश्यंति नरलोकमहोत्सवौ॥३१॥ रजकं कंचिदायांतं रंगकारं गदाग्रजः॥ दृष्ट्वाऽयाचत वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च॥३२॥ देह्यावयोः समुचितान्यंग वासांसि चाहतोः॥ भविष्यति परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशयः॥३३॥ स याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः॥ साक्षेपं रुषितः प्राह भृत्यो राज्ञः सुदुर्मदः॥३४॥
कहने लगीं, फिर दही, अक्षत, जलके भरे पात्र और माला चंदन भेंट लेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रसन्न होकर कृष्ण बलदेवका पूजन करने लगे॥३०॥ और संपूर्ण मथुरावासी अत्यन्त आश्चर्यमान यह कहने लगे कि, गोपियोंने ऐसा क्या उत्कृष्ट तप किया है, जो गोपी मनुष्य लोकको बड़े उत्सवरूप श्रीकृष्ण बलदेवका दर्शन करती हैं॥३१॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने वस्त्रोंका धोनेवाला और रँगनेवाला मार्गमें आताहुआ एक धोबी देखा और अतिनम्रता सहित उससे अति उत्तम धुले हुए वस्त्र माॅगे॥३२॥ और कहा कि, हे धोबी! हमको हमारे योग्य वस्त्र दे, कारण कि, हम इन वस्त्रोंके योग्य हैं और हमें वस्त्र देनेसे तेरा कल्याण होगा इसमें संदेह नहीं है॥३३॥ हे राजन! जब इस प्रकार सब ओरसे
परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने धोबीसे वस्त्र माँगे तब अत्यन्त क्रोधित हो, कंसका सेवक अति घमण्डी डांटकर बोला कि॥३४॥ नित्य पर्वत और वनके फिरनेवाले ऐसे ही कपड़े पहरते हो, हे उद्धत! तुम राजाके वस्त्रोंपर क्यों मन ललचाते हो॥३५॥ हे मूर्खो! यदि अपना जीना चाहो तो तुम शीघ्रही यहाॅसे निकल जाओ, फिर मत माॅगना क्योंकि राजा कंसके बहुत सेवक फिरते हैं और जो धूम मचाता है, उसे वह मारते हैं, लूटते हैं, बांधते हैं॥३६॥ हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने महाक्रोधित हो इसप्रकार बकवाद करतेहुए उस धोबीका शिर अपने हाथकी थापसे काट
ईदृशान्येव वासांसि नित्यं गिरिवनेचराः॥ परिधत्त किमुद्वृत्ता राजद्रव्याण्यभीप्सथ॥३५॥ याताशु बालिशा मैवं प्रार्थ्यं यदि जिजीविषा॥बध्नंति घ्नंति लुंपंति दृप्तं राजकुलानि वै॥३६॥ एवं विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः॥ रजकस्य कराग्रेण शिरः कायादपातयत्॥३७॥तस्यानुजीविनः सर्वे वासः कोशान्विसृज्य वै॥ दुदुवुः सर्वतो मार्गं वासांसि जगृहेऽच्युतः॥३८॥ वसित्वात्मप्रिये वस्त्रे कृष्णः संकर्षणस्तथा॥शेषाण्यादत्त गोपेभ्यो विस्सृज्य भुवि कानिचित्॥३९॥ ततस्तु वायकः प्रीतस्तयोर्वेषमकल्पयत्॥ विचित्रवर्णैश्चैलेयैराकल्पैरनुरूपतः॥४०॥
ड़ाला॥३७॥ जब मुख्य धोबी मारागया, तब उसके टहलुए धोबी वस्त्रोंको पटक पटक चारों ओरको भागगये, उस समय श्रीकृष्ण और बलरामजीने मनमानते वस्त्रोंको पहिर बाकी जो रहे सो गोप ग्वालोंको देदिये और जो रहे सो वहीं छोड दिये<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735896077Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥३८॥३९॥ हे महाराज ! इसके उपरान्त जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और ग्वालबाल सब वस्त्र पहरकर चले, उसी समय प्रसन्नमन एक दर्जी आया उसने आतेही रामकृष्णके लाल, हरे, पीले, जो वस्त्र थे उनके माला, चंपकली बाजूबंद और अनेक प्रकारके आभूषण बनाकर शोभायमान पोशाक बनाई॥४०॥
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*** शंका—**तीन लोकके पति भगवान् दूसरे दुष्टजीवोंका उच्छिष्ट अर्थात् पहिरा कपडा आप क्यों पहिरतेहुए, यह बढी शका है॥
**उत्तर—**धर्मशास्त्रमें यह लिखा है कि, मामाका पहिरा वस्त्र, तथा कुमारी लढकीका पहिरा वस्त्र, तथा ब्रह्मचारीका पहिरा वस्त्र, इनके पहिरेहुए वस्त्रोको कोई पहिर लो उनका कीसीको दोष नहीं और कटिभागसे नीचेका पहिरा वस्त्र मामा, कन्या, ब्रह्मचारीका भी धारण न करना और दूसरे पुरुपकी तो क्या बात है! श्रीकृष्णने अपने मामाका वस्त्र जानकर उच्छिष्ट वस्त्र धारण किया॥
इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी दोनों भाई अनेक प्रकारसे दर्जीके बनाये वस्त्रोंके आभूषणोंसे ऐसे शोभायमान लगनेलगे, जैसे पर्वमें सॉवरे गोरे शृंगार किये हाथीके छौना शोभायमान लगते हैं॥४१॥फिर उस दर्जीके ऊपर प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी सारूप्य मुक्ति दी और इसलोकमेंसम्पत्ति, बल, ऐश्वर्य, स्मरण तथा हाथ, पाँव, नाक, कान, आँख अच्छे बने रहें, इनकी चतुराई दी॥४२॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलराम सुदामा मालीके घर गये, इनको देखतेही उसने पृथ्वीमें शिर लगाय प्रणाम किया॥४३॥ और आसन दिया पाद्यार्ध्य इत्यादि पूजाकी सामाग्रियोंसे दोनों भाइयोंका पूजन किया, फिर पीछे पानकी बीड़ी और चन्दन इत्यादि अर्पण
नानालक्षणवेषाभ्यां कृष्णरामौ विरेजतुः॥स्वलंकृतौ बालगजौ पर्वणीव सितेतरौ॥४१॥ तस्य प्रसन्नो भगवान्प्रादात्सा रूप्यमात्मनः॥श्रियं च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतींद्रियम्॥४२॥ततः सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जग्मतुः॥ तौ दृश्ट्वा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि॥४३॥तयोरासनमानीय पाद्यं चाथार्हणादिभिः॥पूजां सानुगयोश्चक्रे स्रक्तांबूलानुलेपनैः॥४४॥ प्राह नः सार्थकं जन्म पावितं च कुलं प्रभो॥पितृदेवर्षयो मह्यं तुष्टा ह्यागमनेन वाम॥४५॥भवंतौ किल विश्वस्य जगतः कारणं परम्॥अवतीर्णाविंहांशेन क्षेमाय च भवाय च॥४६॥न हि वां विषमा दृष्टिः सुहृदोर्जगदात्मनोः॥समयोः सर्वभृतेषु भजंतं भजतोरपि॥४७॥तावाज्ञापयतं भृत्यं किमहं करवाणिवाम्॥पुंसोऽत्यनुग्रहो ह्येष भवद्भिर्यन्नियुज्यते॥४८॥इत्यभिप्रेत्य राजेंद्र सुदामा प्रीतमानसः॥शस्तैस्सुगंधैः कुसुमै र्मालां विरचितां ददौ॥४९॥
किया॥४४॥ फिर माली बोला कि, हे प्रभो! आज तुम्हारे आनेसे हमारा जन्म सफल तथा कुल पवित्र हुआ और हमारे पितृ देवता ऋषिभी संतुष्ट होगये॥४५॥ तुम निश्चय इस संसारके परमकारण हो और जगत्के कल्याण और वृद्धिके लियेही आपने अपने अंशसे अवतार लिया है॥४६॥ जगत्के हितकारी आत्मा तुम्हीं हो, तुम्हारी विषमदृष्टि नहीं है, सब प्राणियोंमें समवर्ती हो और जो तुम्हारा भजन करता है उसको तुम भी भजते हो॥४७॥ अब तुम दासको आज्ञा करो मैं तुम्हारी क्या पूजा करूं? क्योंकि पुरुषों को जो तुम्हारा दर्शन होता है यही बड़ा अनुग्रह है॥४८॥ हे राजन्! इस प्रकार प्रसन्नमन सुदामा मालीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको शोभायमान सुगंधित फूलोंकी माला समर्पण करी॥४९॥
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उस मालाको पहर मित्रोंसहित प्रसन्न हो सुदामा मालीको वरदान दिया॥५०॥और सुदामा मालीने भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे यही वर माँगा कि, सबके आत्मा श्रीकृष्णचन्द्रमें भक्ति रहैऔर तुम्हारे भक्तोंमें स्नेह और जीवमात्रमें दया रहै॥५१॥ इसप्रकार उस मालीको मनवांछित वरदान दे और उसके वंशमें सदा रहनेवाली सम्पत्ति दे, तथा बल, आयु, यश, शोभा दे, बलदेवजीको संग ले भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उसके घरमेंसे निकले॥५२॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां मथुरापुरप्रवेशो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ दोहा—कुब्जाको सीधी कियो, कियो शरासन भंग! देखो परमोत्सव तहाँ, बयालीस भूरंग॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले हे कि, कुरुकुलभूषण परीक्षित
ताभिः स्वलंकृतौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ॥ प्रणताय प्रपन्नाय ददतुर्वरदो वरान्॥५०॥ सोऽपि वत्रेऽचलां भक्तिं तस्मिन्नेवाखिलात्मनि॥तद्भक्तेषु च सौहार्दं भृतेषु च दयांपराम्॥५१॥ इति तस्मै वरान्दत्त्वा श्रियं चान्वयवर्धिनीम्॥ बलमायुर्यशः कांति निर्जगाम सहाग्रजः॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० पुरप्रवेशो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ व्रजन्राजपथेन माधवः स्त्रियं गृहीतांगविलेपभाजनाम्॥ विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां पप्रच्छ यांतीं प्रहसन्नतिप्रदः॥१॥ का त्वं वरोर्वेतदुहानुलेपनं कस्यांगने वा कथयस्व साधु नः॥ देह्यावयोरंगविलेपमुत्तमं श्रेयस्ततस्तेन चिराद्भविष्यति॥२॥ सैरंध्र्यु वाच॥ दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससंमता त्रिवक्रनामा द्यनुलेपकर्मणि॥ मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति॥३॥ रूपपेशलमाधुर्यहसितालापवीक्षितैः॥ धर्षितात्मा ददौ सांद्रमुभयोरनुलेपनम्॥४॥
इसके उपरान्त सुख देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने राजमार्ग बाजारमें आयकर ग्रहण किये चन्दनका पात्र, शोभायमान मुखबाली सामने आती हुई तरुण कुबरी स्त्रीको देख हँसकर पूंछा॥१॥ कि, हे सुन्दर जंघावाली! तू कौन है? और यह चन्दन किसका है हमारे सन्मुख भली प्रकार समझाकर कहो, क्योंकि जो यह उत्तम चन्दन हमको दो तो तुम्हारा अभी कल्याण होगा॥२॥ यह सुनकर कुबरी बोली कि, हे सुन्दर! मेरा नाम कुबरी है और कंसकी दासी हूं और नित्यप्रति चंदन घिसना यही मेरा काम है, क्योंकि मेरा घिसा चंदन राजा कंसको अच्छा लगता है, परन्तु अब तुम्हारे बिना इस चन्दनके लगाने का कोई पात्र नहीं है॥३॥ इसप्रकार सुन्दर रूप सुकुमार और रसिकता, हँसनि, बोलनि तथा
चितवनसे मोहित हो कुबरीने श्रीकृष्ण बलदेवके चन्दन लगाया॥४॥केशर मिलाहुआ चन्दन साँवरे अंगमें जिससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लगाया और कस्तूरी मिलाहुआ चन्दन गोरे अंगमें जिससमय बलदेवजीने लगाया, उससमय दोनों भाई अत्यन्तही शोभायमान लगनेलगे॥५॥इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त प्रसन्न हो अपने दर्शनका फल दिखानेके लिये सुन्दरमुखी तीन स्थानसे टेढी कुबरीको सूधी करनेका विचार किया॥६॥और फिर कुबरीके पाँवोंको अपने चरणोंसे दाब दो अँगुली जिसमें ऊंची करी, ऐसे हाथको ठोडीके नीचे लगाय, श्रीकृष्णने कुब्जाके देहको सुधा करदिया॥७॥ उससमय सूधे बराबर है अंग जिसके, बड़े नितम्व और स्तनवाली, ऐसी कुब्जा भगवान्
ततस्तावंगरागेण स्ववर्णेतरशोभिना॥संप्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरंजितौ॥५॥ प्रसन्नो भगवान्कुब्जां त्रिवक्रां रुचि राननाम्॥ ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन्दशने फलम्॥६॥पद्यामाक्रम्य प्रपदे द्व्यंगुल्युत्तानपाणिना॥ प्रगृह्य चिबुके ऽध्यात्ममुद्नीनमदच्युतः॥७॥ सा तदर्जुसमानांगी बृहच्छ्रोणिपयोधरा॥ मुकुंदस्पर्शनात्सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा॥८॥ ततो रूपगुणौदार्यसंपन्ना प्राह केशवम्॥ उत्तरीयांतमाकृष्य स्मयंती जातहृच्छया॥९॥ एहि वीर गृहं या मो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे॥ त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ॥१०॥ एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः॥ मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसंस्तामुवाच ह॥११॥ एष्यामि ते गृहं सुभ्रूः पुंसामाधिविकर्शनम्॥ साधिता र्थोऽग्रहाणां नः पाथानां त्वं परायणम्॥१२॥
श्रीकृष्णचन्द्र के हाथका स्पर्श होनेसे एक सुन्दर स्त्री होगयी॥८॥ इसके उपरान्त आपही रूप, गुण, उदारता यह सब कुब्जामें आगये, तब कामदेव से पीडित हो, वह कुब्जा दुपट्टेका छोर पकड़ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहनेलगी॥९॥ कि, हे वीर! हे पुरुषश्रेष्ठ! तुम मेरे संग चलकर मेरा भवन पवित्र करो, क्योंकि अब मैं तुम्हें छोड़ नहीं सक्ती और तुमने मेरा मन चलायमान किया है इसलिये मेरे ऊपर प्रसन्न होओ॥१०॥ हे महाराज परीक्षित! इसप्रकार जब कुब्जाने कहा, तब उसीसमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजी और अपने मित्रोंका मुख देख कुछेक मुसकातेहुए कुब्जा से बोले॥११॥ कि, हे सुन्दरभ्रुकुटियोंवाली! तुम्हारी भ्रुकुटी हमारे मनको खैंचती है, तुम हमारा दुपट्टा क्यों खैंचतीहो, मैं कंसको
मार, अपने सुहृदोंका कार्य सिद्धकर मनका दुःख दूर करनेवाले तुम्हारे घर आऊंगा॥ क्योंकि मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूं, किसीसे जान पहिचान नहीं और हमारा यहाॅघर भी नहीं, हमैं तो केवल तुम्हाराही आश्रय है, जब तुम्हारे ही यहाॅन आवैंगे तो और जायॅगे कहाॅ?॥१२॥ इस प्रकार मीठे मीठे वचन कह और कुब्जाको वहीं छोड़ आगे चले. तब बनियोंने पान, माला, चन्दन इत्यादि भेंटले वलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दी॥॥१३॥ हे महाराज! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेके कारण उत्पन्न हुए कामदेवके क्षोभसे स्त्रियोंने अपनेकोभी नहीं जाना, वस्त्र खुलगये,
विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन्मार्गे वणिक्पथैः॥नानोपायनतांबूलस्रग्गंधैः साग्रजोऽर्चितः॥१३॥तद्दर्शनस्म रक्षोभादात्मानं नाविदन्स्त्रयः॥विस्रस्तवासःकवरवलयालेख्यमूर्तयः॥१४॥ततः पौरान्पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः॥तस्मिन्प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रमिवाद्भुतम्॥१५॥पुरुषैर्वहुभिर्गुप्तमर्चितं परमर्द्धिमत्॥वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे॥१६॥करेण वामेन सलीलमुद्धतं सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्॥नृणां विकृष्य प्रवभंज मध्यतो यथेक्षुदंडं मदकर्युरुक्रमः॥१७॥
चोटी खुलगई, चूडी खिसलआई और जैसे कोई चित्र खैंचकर खड़ाकर देता है, उसीप्रकार खड़ी रहगई <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735916330Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१४॥इसके उपरान्त अच्युत भगवान् कृष्णचन्द्र मथुरावासियोंसे पूॅछते पूॅछते धनुषशालामें गये और वहाॅजाकर इन्द्रके धनुष की समान घराहुवा धनुष देखा॥१५॥हे महाराज! यद्यपि बड़े बड़े बलवान् पुरुप उसकी रक्षा कर रहे थे पूजा हो रही थी, अत्यन्त जिसकी शोभा थी, परन्तु तो भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लोगोंके मने करनेपर भी उसे उठाया॥१६॥ और लीला पूर्वकही एक हाथसे उठाय पलभरमें मनुष्योंके देखते देखते बीचमेंसे खेंच जैसे मतवाला
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*** शंका—**वडे आश्चर्यकी बात हैं कि, मथुराकी स्त्रियाँ कृष्णको देखकर कामदेवसे विह्वल होगई और ऐसी विद्दल होगई कि, तन मनकी और अपने शरीरकी कुछ भी सुधि बुधि न रही, परन्तु परपुरुषको देखकर विह्वल होजाना यह गृहस्यस्त्रियोंका धर्म नहीं, यह धर्म तो व्यभिचारिणी स्त्रियोंका है।
**उत्तर—**व्रजमें कृष्ण ने गोवर्द्धनको उठाया उस सरीखे और बहुत काम किये उन सव कामोंको सुनकर स्मरण करके त्रास मानकर विद्दल हुई कामदेव करके बिह्वल नहीं हुई, मथुराकी स्त्रियाँ ऐसी नहीं जो पर पुरुपको देखकर कामदेवसे विह्वल हो जातीं॥
हाथी गन्नेको तोड़डालता है उसीप्रकार तोड डाला॥१७॥हे राजन्! जिस समय धनुष टूटा उस समय महागम्भीर शब्द हुआ उस शब्दसे पृथ्वी, आकाश स्वर्ग और सब दिशायें व्याप्त होगईं और उस शब्दको सुनकर कंसका हृदयभी अत्यन्त भयभीत हुआ॥१८॥इसके पीछे उस धनुषके रक्षकोंने अत्यन्त क्रोधित हो अपने २ अनुचरोंसहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको “पकड़लो पकड़लो” इसप्रकार कहते चारों ओर से घेर लिया॥१९॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी इन असुरोंको अपने मारनेके लिये देख क्रोधित हो धनुषका एक २ टुकडा हाथमें ले इन पुरुषों को मारने लगे॥२०॥ फिर कंसकी भेजी हुई संपूर्ण सेना मार धनुषशालासे बाहर निकल मथुरापुरीकी सम्पदा देख
धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः॥ पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत्॥१८॥ तद्रक्षिणः सानुचराः कुपिता आततायिनः॥ग्रहीतुकामा आवव्रुर्गृह्यतां बध्यतामिति॥१९॥ अथ तान्दुरभिप्रायान्विलोक्य बलकेशवौ॥ क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः॥२०॥बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः॥ निष्क्रम्य चेरतुर्हष्टौ निरीक्ष्य पुरसंपदः॥२१॥ तयोस्तदद्भुतं वीर्य निशम्य पुरवासिनः॥ तेजःप्रागल्भ्यरूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ॥२२॥ तयोर्विचरतोः स्वैरमादित्योऽस्तमुपेयिवान्॥ कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः॥२३॥गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन्॥ संपश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं हित्वेतरान्नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः॥२४॥ अवनिक्तांघ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम्॥ ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम्॥२५॥
हर्षित होकर घूमने लगे॥२१॥ मथुरावासी नरनारियोने भगवान् कृष्ण बलदेवका अद्भुत कर्म, धृष्टता और पराक्रम देख अपने मनमें जाना कि, यह कोई उत्तम देवता हैं॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! इसप्रकार कृष्ण बलदेव विचररहे थे कि, इतनेहीमें भगवान् सूर्य अस्त होगये और सन्ध्या होगई तब भगवान श्रीकृष्ण बलदेव गोपों सहित मथुरापुरीसे बाहर निकले और जहाॅगाडियें छूटीथीं वहाँ पहुँचे॥२३॥ भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीको व्रज से चलती समय गोपियोंने विरहमें व्याकुल होकर जो जो बातें कहींथीं, वह सबही श्रीकृष्णचन्द्रके अंगकी शोभा देख मथुरा वासियोने सत्य जानी, क्योकि लक्ष्मीजी भी अपने भजनेवाले ब्रह्मादिकों को छोड़ इसी रूपकी चाहना करतींहैं॥२४॥ इसके उपरान्त चरण धो
राम कृष्ण दूधभातका भोजन कर कंसका विचार जान उस रात्रिको सुखपूर्वक वहीं रहे॥२५॥ कंस धनुषका टूटना, रक्षकोंका मरना और अपनी सेनाका वध सुनकर कि, यह कृष्णका केवल खेल है, कुछ पराक्रम नहींहै॥२६॥ऐसा विचारकर मारे भय के उसे नींद नहीं आई महाभयभीत हुआ तब वह दुष्टबुद्धि कंस मृत्युके जतानेवाले जागतेमें सोतेमें बहुतसे खोटे स्वप्न देखने लगा॥२७॥ दर्पण और जलमें मुख देखनेपर भी उसको अपना शिर नहीं दीखे, चन्द्रमा सूर्य दो दो रूप नहींहैं परन्तु उसे दो दो दिखाई दिये॥२८॥ अपनी परछाहीमें छिद्र दीखे, अँगुली देकर कानमें देखा तो घूं घूं शब्द भी सुनाई नहीं आया, वृक्ष सोनेके दिखाई देने लगे और कीच व रेतमें अपने पॉवके चिह्नभी न देखे॥२९॥ इसके उपरान्त यह स्वप्न देखा कि, भूत
कंसस्तु धनुषो भंगं रक्षिणां स्वबलस्य च॥वधं निशम्य गोविंदरामविक्रीडितं परम्॥२६॥दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः॥ बहून्याचष्टोमयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च॥२७॥अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि॥ असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा॥२८॥ छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः॥स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदशनम्॥२९॥स्वप्ने प्रेतपरिष्वंगः खरयानं विषादनम्॥ यायान्नलदमाल्येकस्तैलाभ्यक्तो दिगंबरः॥ ॥३०॥अन्यानि चेत्थंभूतानि स्वप्नजागरितानि च॥पश्यन्मरणसंत्रस्तो निद्रां लेभे न चिंतया॥३१॥व्युष्टा यां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्भ्यः समुत्थिते॥कारयामास वै कसो मल्लक्रीडामहोत्सवम्॥३२॥तानर्चुः पुरुषा रंगं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥मंचाचालंकृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः॥३३॥तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः॥ यथोपजोषं विविशु राजानश्च कृतासनाः॥३४॥
प्रेत छातीसे लगालगाकर मिलतेहैं और गधेपर चढ़ा, गुडहरके फूलों की माला पहरे अकेला, तेलमें भीजा जहर खाता, नग्न वेष किये दक्षिण दिशाको चला जा रहा हॅू॥३०॥इस प्रकार स्वप्नमें और जागतेमें खोटे खोटे शकुन देख मृत्युसे डरे कंसको रातभर चिंताके मारे नींदन आई॥३१॥हे कुरुवंशो त्पन्न राजा परीक्षित! इसभॉति ज्यों त्यों कर वह रात्रि व्यतीत हुई, प्रातःकाल हुआ जलमेंसे सूर्य निकला, उससमय राजा कंसने मल्लोंकी कुश्तीलडवाने के लिये बडा उत्सव कराया॥३२॥ पुरुष रंगभूमिकी पूजा करनेलगे, उसीसमय भेरी बजनेलगीं, माला, पताका और वस्त्रोंकी बन्दनवारोसे मंचान स जायेगये॥३३॥ और उन मंचानोंके ऊपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जिनमें मुख्य मुख्य पुरवासी तथा देशवासी थे, सुखपूर्वक आनकर बैठगये॥३४॥
इसके उपरान्त राजा कंस भी अपने प्रधानमंत्रीको संग ले, अखण्डमण्डलवाले राजोंके बीचमें एक राजमंचान था, उसके ऊपर आन बैठा, परन्तु भयके मारे हृदय कॉप रहा था॥३५॥ नगारोंके बजतेही झटपट मल्ल खम्भ ठोंक जॉघिये पदर, सिंदूरकी बिंदी लगा, धूरी मल, छोटीछोटी चुटियें, बड़े गर्व भरे, अपने अपने उस्तादोंको संग लेकर रङ्गभूमिमें आये॥३६॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल- यह अखाड़ेमें आये और मनोहर बाजोंका शब्द सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए॥३७॥ इसके उपरान्त कंसके बुलाये नंद आदिक संपूर्ण गोप भी राजा कंसको भेंट दे, एक मंचानपर आनकर बैठगये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां मल्लरंगोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिशोऽध्यायः॥४२॥ दोहा—मार
कंसस्तु संवृतोऽमात्यै राजमंच उपाविशत॥ मंडलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता॥३५॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु मल्ल तालोत्तरेषु च॥ मल्लाः स्वलंकृता दृप्ताः सोपाध्यायाः समागताः॥३६॥ चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशल एव च॥ त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः॥३७॥नंदगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः॥ निवेदितोपायनास्ते एक स्मिन्मंच आविशन्॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू० कुब्जोन्नमनादिवर्णनं नाम द्विचत्वारिं शोऽध्यायः॥४२॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परंतप॥ मल्लदुदुंभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः॥१॥ रंगद्वारं समासाद्य तस्मिन्नागमवस्थितम्॥ अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोंबष्ठप्रचोदितम्॥२॥ बद्धा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान्॥ उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया॥३॥
कुवलयापीड गज, रंगभूमि हरि जाय॥ वचन कहे चाणूरसों, तेंतालिस अध्याय॥४३॥ श्रीशुदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! श्रीकृष्ण भगवान्ने विचार किया कि, यद्यपि हमने धोबीको मार धनुष तोड़, अपना ऐश्वर्य जताया, परन्तु तोभी हमारे माता पिताको नहीं छोडता और हमको मारना चाहता है, इसलिये इस मामाके मारनेमें हमें कुछ दोष नहीं है, इसप्रकार दोषके दूर करनेका विचार कर कृष्ण बलदेव दोनों भाई जहाॅमल्ल खम्भ ठोक रहेथे नगाड़े बजरहेथे, उनका शब्द सुन देखने को गये॥१॥ फिर श्रीकृष्णने रङ्गभूमिके द्वारपर जाकर देखा कि, कुवलयापीड हाथी खडा है और महावत उसे आगेको पेल रहा है॥२॥ यह देखतेही शूरवंशोत्पन्न भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्र फेंट बाँध, मुखपर छुटीहुई कुटिल अलकोंको सॅभाल गलेकी लम्बी माला को जनेऊकी समान कंधेपर डाल मेघकी तुल्य गर्जकर, अत्यन्त गंभीरवाणीसे बोले॥३॥ कि, हे महावत! हे महावत!! हाथी को हटाकर हमको शीघ्र मार्ग दे, और जो नहीं हटावेगा तो अभी हाथी सहित तुझको मार यमलोकको भेजदूंगा॥४॥हे महाराज! यह सुनतेही कालमृत्युके समान क्रोधित हो महावतने हाथीको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर हूल दिया॥५॥हाथीने अत्यन्त शीघ्रतासे आनेही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपनी सूंडमें पकड़ लिया, परन्तु श्रीकृष्णचन्द्र भी उसकी सूंड़मेंसे खिसल और उसके मस्तकमें मुष्टिक मार पिछले पॉवोंमें छिप गये॥६॥और फिर जिससमय श्रीकृष्णको देख, क्रोधित हो सूंघा सॉघीकी दृष्टिवाले हाथीने इनकेपकड़ने को सूंडचलाई, उससमय सूंड़ पकड़ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसके पिछले पॉवोंमेंसे निकलगये॥७॥ अत्यन्त
अंबष्ठांवष्ट मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम्॥ नो चेत् सकुंजरं त्वाद्य नयामि यमसादनम्॥४॥एवं निर्भर्त्सितोंबष्ठः कुपितः कोपितं गजम्॥चोदयामास कृष्णाय कालांतकयमोपमम्॥५॥करींद्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाऽग्रहीत्॥कराद विगलितः सोऽमुं निहत्यांघ्रिष्वलीयत॥६॥संक्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम्॥परामृशत्पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः॥७॥पुच्छे प्रगृह्याऽतिबलं धनुषः पंचविंशतिम्॥ विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया॥ ॥८॥स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः॥बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः॥९॥तताऽभिमुखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम्॥प्रद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदेपदे॥१०॥स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसो त्थितः॥ तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दंताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम्॥११॥
बलवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने हाथीकी पूॅछपकड़ जैसे गरुड़ सर्पको घसीटताहै, उसीप्रकार पच्चीस धनुषतक लीलापूर्वकही घसीटा॥८॥ पूँछ पकड़े श्रीकृष्णचन्द्रको पकड़ने के लिये जब दाहिनी ओर हाथी आता, तब श्रीकृष्ण उसे बाँईंओर लेजाते और बाँईओर आता तो दाहिनी और लेजाते, अधिक क्या कहैं, जैसे गायोंके बछड़ोंके संग वालक फिरतेहैं, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हाथीके पीछे फिर रहेथे ॥९॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सन्मुख आय थप्पड मार, दौड़कर उस हाथीको पटक दिया॥१०॥ जब उसे गिरा दिया, श्रीकृष्णचन्द्र भी लीलापूर्वक पृथ्वीपर गिरके अत्यन्त शीघ्रतासे खडे होगये, तब श्रीकृष्णचन्द्रको गिरा जान वह हाथी दाँतोंसे
पृथ्वीको खोदने लगा॥११॥ हे नृपश्रेष्ठ! जब हाथीका बल घटगया तब हाथीको महा क्रोध उत्पन्न हुआ, और महावतने जिससमय उसके अंकुश मारा, तब वह हाथी श्रीकृष्णचन्द्रपर झपटा॥१२॥मधुदैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सन्मुख आते हाथीकी सूंड पकड़ पृथ्वीमें पटक दिया॥१३॥ और सिंहके समान गर्जतेहुए हाथीको पॉवोंके नीचे दाब लीलापूर्वक उसके दॉत उखाड भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन दॉतोंसे महावतको मारा॥१४॥ जब हाथी मरगया, तब श्रीकृष्ण बलदेव उसे वहीं छोड़ हाथमें हाथीके दॉत ले कंधेपर धारणकर वहाॅसे आगे चले,
स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेंद्रोऽत्यमर्षितः॥ चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवदुषा॥१२॥ तमापतंतमासाद्य भगवा न्मधुसूदनः॥ निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले॥१३॥ पतितस्य पदाक्रम्य मृगेंद्र इव लीलया॥ दंतमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः॥१४॥ मृतकं द्विपमुत्सृज्य दंतपाणिः समाविशत्॥ अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्मंदबिंदुभि रंकितः॥ विरूढस्वेदकणिकावदनांबुरुहो बभौ॥१५॥ वृतौ गोपैः कतिपयैर्बलदेवजनार्दनौ॥ रंग विविशुतु राजन्ग जदंतवरायुधौ॥१६॥ मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः॥ मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परं योगिनां वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंग गतः साग्रजः॥१७॥
उससमय रुधिर और मदकी बूंदें उनके लग रहीं थी <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735981615Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१५॥ और कुछेक पसीनाभी उनके मुखकमलपर आ रहा था। इसप्रकार शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपग्वालोंको संग लिये हाथीदाॅतके शोभायमान शस्त्र धारण किये कृष्ण बलदेव दोनो भाई हे राजन्। रंगभूमिमें पहुँचे॥१६॥ उससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मल्लोंको मल्लोंकी समान दृष्टि आये, मनुष्योंको अत्यन्त सुन्दर जानपड़े और स्त्रियोंने साक्षात् काम देवस्वरूप समझा, गोपोंको स्वजन जानपडे दुष्टराजाओंको कालके समान दिखाई दिये, वसुदेव देवकीने पुत्र के समान देखा, भोजपति कंसने
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*** शंका—**जो कोई दरिद्री मी राजाकी सभामें जाता है, तब अपने विचानुसार वस्त्राभूषण पहिर जाता है और शास्त्रमें तथा लोकमें इसको भी बहुत निन्दित कर्म कहते हैं कि, रक्त देहमें लगाकर राजाकी सभा में जाना, सो श्रीकृष्ण जगत्के ईश्वर होकर अपने देहमें रक्तके बिन्दु लगाकर कंसकी सभामें क्यों आये?॥
**उत्तर—**सत्य है जिसके शरीरमें रक्त लगारहता है, उस पुरुपको लोकमें, शास्त्रमें और वेदमें भ्रष्ट कहते हैं परन्तु श्रीकृष्ण कंसका नाश करनेके लिये विचारकर उन्मत्त प्रमत्तकी नाई मथुराको चलेगये और शूरवीरोंको शरीरमें रक्त लगाकर सभामें जाना कुछ दोष नहीं है, इसलिये जगदीश्वर शरीरमें रक्त लगाकर सभमें गये॥
तो यही देखा कि, साक्षात् मेरी मृत्यु चली आती है अज्ञानियोंको भयंकर रूप दृष्टि पड़े और ज्ञानियोंको परमतत्त्व रूप दृष्टि आये, यादवों को परम देवतारूप जानपडे, अधिक क्या कहें जैसी जिसकी भावना थी उसे उसीप्रकार दिखाई दिये॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वलरामजीको संग लेकर रंगभूमिमें पहुँचे॥१७॥हे राजा परीक्षित्! कुवलयापीड हाथीको मरा देख जो किसीके जीतनेमें न आवैं, ऐसे कृष्ण बलदेवको देख अत्यन्त धैर्यवान् राजा कंस भी डर गया॥१८॥ बडी भुजा विचित्र वेष आभूषण माला इत्यादि वस्त्रोंको धारण किये भगवान् कृष्ण बलदेव रंगभूमिमें जाकर ऐसे शोभायमान लगनेलगे, जैसे उत्तमरूप धारण करनेवाला नट शोभायमान लगता है। इसप्रकार अपनी कान्ति से देखनेवाले
हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ॥ कंसो मनख्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप॥१८॥ तौ रेजतू रंगगतौ महाभुजौ विचित्रवेषाभरणस्रगंबरौ॥ यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ मनः क्षिपतौ प्रभया निरीक्षताम्॥१९॥ निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना मंचस्थिता नागरराष्ट्रका नृप॥ प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्॥ ॥२०॥ पिवंत इव चक्षुर्भ्यां लिहंत इव जिह्वया॥ जिघ्रंत इव नासाभ्यां श्लिष्यंत इव वाहुभिः॥२१॥ ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम्॥ तद्रूपगुणमाधुर्यप्रागल्भ्यस्मारिता इव॥२२॥ एतौ भगवतः साक्षाद्धरेर्नारायणस्य हि॥ अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि॥२३॥
पुरुषोंके मनको चुरातेथे॥१९॥ हे राजन्! मंचानोंके ऊपर बैठे पुरवासी देशवासी जन पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण बलदेवको देख आनंदके वेगसे प्रफुल्लित मुख होगये और अपने नेत्रोंसे उनके मुखकी शोभा देखकर तृप्त न हुए॥२०॥ इस प्रकार नेत्र चलानेलगे कि, मानों रूपको पीजायॅगे, जीभ ऐसी चलाते थे मानों चाट जायॅगे, नासिका ऐसी चलावें मानों सुंघलेंगे, भुजा ऐसी चलावें, मानों लिपटजॉयगे। जैसा श्रीकृष्णचन्द्रका रूप कानोंसे सुनाथा उसीप्रकार आँखोंसे देखकर उनके रूप गुण माधुर्य्य ढिठाईसे बुद्धि जिनकी होगई ऐसे पुरुष जैसा सुना वैसाही आपसमें कहने लगे॥२१॥ ॥२२॥ कि, यह जो कृष्ण बलदेव हैं सो साक्षात् भगवान् हरि नारायण हैं और अपने अंशसहित इस संसारमें वसुदेव के घर अवतार लिया है॥२३॥
देखो यह जो साँवरा बालक है, इसने देवकीसे जन्म लिया था. अब तक छिपा रहा, क्योंकि पिताने गोकुलमें पहुँचादिया था, इसलिये नन्दजीके घर वृद्धिको प्राप्त हुआ है॥२४॥इसी कृष्ण ने पूतना मारी और बगलेका स्वरूप धरेहुए बकासुर दैत्यको मारा, यमलार्जुन वृक्ष उखाड़े और केशी अघासुर इत्यादिक बहुतसे दानव मारे॥२५॥ देखो जब वनमें अग्नि लगी थी, तब इसी कृष्णने गौ, ग्वाल बचाये थे, काली सर्पको दंड दिया और इन्द्रका मद दूर किया॥२६॥यही सात दिनतक गोवर्द्धन पर्वतको हाथमें लिये रहा, वर्षा, पवन, वज्रपात से गोकुलकी रक्षा करी॥२७॥गोपियें इस कृष्णका नित्य प्रसन्न हॅसन चितवन युक्त श्रमरहित मुख देखकर अनेक तापोंको दूर करतीं थीं॥२८॥
एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम्॥कालमेतं वसन्गूढो ववृधे नंदवेश्मनि॥२४॥पूतनाऽनेन नीतांतं चक्रवातश्च दानवः॥अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः॥२५॥ गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः॥ कालियो दमितः सर्प इंद्रश्च विमदः कृतः॥२६॥ सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना॥वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम्॥२७॥गोप्योऽस्य नित्यमुदितहसितप्रेक्षणं मुखम्॥ पश्यंत्यो विविधांस्तापांस्तरति स्माऽऽश्रमं मुदा॥२८॥वदंत्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः॥ श्रियं यशो महत्त्वं च लप्स्यते परिरक्षितः॥२९॥ अयं चास्याग्रजः श्रीमान्रामः कमललोचनः॥ प्रलंबो निहतो येन वत्सको ये बकादयः॥३०॥ जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च॥ कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत्॥३१॥
अधिक क्या कहैं, इस कृष्णसे यह यदुवंश बहुत विख्यात हो, सम्पत्ति, यश बडाई पावेगा और इसी कृष्णसे रक्षा होगी इस प्रकार वे मनुष्य परस्पर बात चीत करनेलगे॥२९॥ कमलके समान नेत्र स्वरूपवान् इस कृष्णके बडे भाई बलरामजीने प्रलम्बासुर धेनुकासुर मारे, क्योंजी! मारे तो कृष्णने बलदेवका नाम क्यों लेते हो? देखी सुनी बातोंमें भी भेद होजाताहै॥३०॥ हे महाराज! सब मनुष्य इस प्रकार कहही रहे थे और नगाडे बजही रहे थे कि, इतनेमें चाणूर नामक बलवान् श्रीकृष्ण बलदेवको संबोधन देकर बोला॥३१॥
कि हे नंदके पुत्र! हे राम! तुममें बल अधिक है और कुश्ती लडनी भी भलीप्रकार जानते हो, यही सुनकर राजा कंसने तुम्हें बुलाया है॥३२॥ क्योंकि प्रजा मन कर्म वचनसे राजाका प्रिय करै तो कल्याण प्राप्त होताहै और जो विपरीत करतेहैं उनका कल्याण नहीं होता॥३३॥ और यह बात भी प्रगट है कि, प्रतिदिन बछडोंके चरानेवाले गोप प्रसन्न होकर व्रजमें कुश्तीका खेल करके गाय चरातेहैं॥३४॥ इसकारण हम तुम कुश्ती लडकर राजा कंसका प्रिय करें तो राजा कंस प्रसन्न होंगे और फिर सब प्राणी हमारे ऊपर प्रसन्न होंगे॥३५॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चाणूरका वचन सुनकर और कुश्ती लड़ना अपने योग्य जान बडाई करके उस समयके उचित वाक्य कहने लगे॥३६॥कि, जिस
हे नंदसुनो हे राम भवंतौ वीरसंमतौ॥नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा॥३२॥प्रियं राज्ञः प्रकुर्वंत्यश्श्रेयो विंदति वै प्रजाः॥ मनसा कर्मणा वाचा विपरीतमतोऽन्यथा॥३३॥नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम्॥ वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडंतश्चारयंति गाः॥३४॥ तस्माद्राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवामहे॥भूतानि नः प्रसीदंति सर्व भृतमयो नृपः॥३५॥तन्निशम्याब्रवीत्कृष्णो देशकालोचितं वचः॥नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनंद्य च॥ ॥३६॥ प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः॥ करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः॥३७॥ बाला वयं तुल्य बलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम्॥भवेन्नियुद्धं माऽधर्मः स्पृशेन्मल्लसभासदः॥३८॥चाणूर उवाच॥न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः॥लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत्॥३९॥
कंसकी तुम प्रजा हो उसी कंसकी हम वनमें रहनेवाली प्रजा हैं इसलिये राजा कंसका नित्य प्रिय करैंइसीमें हमारा कल्याण है॥३७॥ परन्तु देखो हम बालक हैं इसलिये हम अपने समानके बालकोंसे कुश्ती लडेंगे जैसा उचित हो उसी रीतिसे कुश्ती लड़ो, क्योंकि मल्लोंकी सभामें अधर्म न हो॥३८॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुनकर चाणूर बोला कि, तुम बालक नहीं हो और बलियोंमें बलवान् बलदेव भी बालक नहीं है, किशोर नहीं हो क्योंकि, हजार हाथियोंका बल रखनेवाला कुवलयापीड़ हाथी तुमने लीलापूर्वकही मारडाला॥३९॥
इसलिये हमारे संग तुम कुस्ती लड़ो, यह अनीति नहीं है, हे वृष्णिवंशमें जन्मे कृष्ण! मेरी तुम्हारी और बलराम मुष्टिककी कुस्ती हो॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां कुवलयापीडबधोनाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥ दोहा— कंसादिकको वध कियो, मॉइन ज्ञान बताय। दर्श कियो पितु मातुको, चौंवालिस अध्याय॥४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस राजा परीक्षित! इसप्रकार निश्चय संकल्प कर नीलाम्बर पीतांबरके कच्छे बॉध खंभे ठोंककर खड़े होगये. इसके उपरान्त मधु दैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण तो चाणूरके सन्मुख हुये और रोहिणीनन्दन बलरामजी मुष्टिकसे जुटे॥१॥ हाथोंसे हाथ, पॉवोंसे पॉव मिलाय परस्पर जीतनेकी इच्छासे एक एकको
तस्माद्भवद्य्भांबलिभिर्योद्धव्यं नाऽनयोऽत्र वै॥ मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं चर्चितसंकल्पो भगवान्मधुसूदनः॥ आससादाथ चाणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः॥१॥ हस्ताभ्यां हस्तयोर्वद्धा पद्य्भामेव च पादयोः॥ विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया॥२॥ अरत्नी द्वे अरत्निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी॥ शिरः शीर्ष्णोरसो रस्तावन्योन्यमभिजघ्नतुः॥३॥ परिभ्रामणविक्षेपपरिरंभावपातनैः॥ उत्सर्पणापसर्पणैश्चान्योन्यं प्रत्यरुंधताम्॥४॥ उत्थापनैरुन्नयनैश्चालनैः स्थापनैरपि॥ परस्परं जिगीषंतावपचक्रतुरात्मनः॥५॥ तद्बलाबलवद्युद्धं समेताः सर्वयोषितः॥ ऊचुः परस्परं राजन्सानुकंपा वरूथशः॥६॥
बलात्कार खँचनेलगे॥२॥ अ6रत्निमें अरत्नि मिलाय घुटुओंसे घुटुएँ मिलाय, शिरसे शिर, छातीसे छाती मिलाकर कृष्ण और चाणूर दोनों परस्पर कुस्ती लड़नेलगे॥३॥ चारों ओर घुमाना, धक्का देना, परिरम्भण अर्थात् हाथसे विडारना, अवपातन अर्थात् नीचे पटक देना, उत्सर्पण अर्थात् छोडकर पीछेसे आगे तक जाना, अपसर्पण अर्थात् पीछे जाकर खड़ा होना इस प्रकार दांव पेंच कर करके लडनेलगे॥४॥ उत्थापन अर्थात् पॉव और घुटुऍ मिलाकर गिरते हैं, उनका उखाडदेना चालन अर्थात बँधे दाॅवको दूर करना, स्थापन अर्थात हाथ पाँव पकड़कर मिलादेना इस प्रकार परस्पर देहको पीडा देने लगे॥५॥इसप्रकार इनका युद्ध देखकर वहांकी बैठी हुई स्त्रियें परस्पर कहने लगीं कि, देखो!
यह कृष्ण तो निर्बल है और चाणूर सबल है, यह विचार वह स्त्रियें अत्यन्त दयाको प्राप्त हुईं॥६॥ इन राजसभामें बैठनेवालोंकोभी महाअधर्मं होगा क्योंकि राजाके देखनेको कहीं निर्बल सबलकी कुस्ती कराई जाती है॥७॥ भला विचारो तो सही कि, कहां तो वज्रसे कठोर अंगवाले पर्वतके समान ऊँचे ऊँचे सब मल्ल और कहॉ अतिसुकुमार कोमल अंग जिनकी यौवन अवस्था भी अभी प्राप्त नहीं हुई ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र॥८॥ इस सभा में इस समय निश्चय धर्मनाश होरहा है इसकारण इस सभामें बैठना उचित नहीं, क्योंकि जहाँ धर्मका नाश हो वहां कभी न बैठे
महानयं बताऽधर्म एषां राजसभासदाम्॥ ये बलाबलवद्युद्धं राज्ञोऽन्विच्छंति पश्यतः॥७॥ क्व वज्रसारसर्वांगी मल्लौशैलेंद्रसन्निभौ॥क्वचातिसुकुमारांगौ किशोरौ नाप्तयौवनौ॥८॥ धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत्॥ यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेन्न स्थेयं तत्र कर्हिचित्॥९॥ न सभां प्रविशेत्प्राज्ञः सभ्यदोषाननुस्मरन्॥ अब्रुवन्विब्रुत्रज्ञो नरः किल्बिषम इनुते॥१०॥ वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनांबुजम्॥ वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवांबुभिः॥११॥
॥९॥विवेकी पुरुषको ऐसी सभामें जाना योग्य नहीं है क्योंकि दोषोंको स्मरणकर बातको जानकर जो चुप बैठा रहे तो दोष लगे और किसीकी झुंठी सच्ची कहै तो दोप लगे, अथवा हम किसीकी भली जाने न बुरी ऐसे कहै तो दोषका भागी हो इसकारण सभामें जाना योग्य नहीं है॥१०॥ “सत्य बोलनेवालेको दुःख नहीं होता सत्ययुक्त पुरुषको कोई विघ्न दोष नहीं सता सक्ते”<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736018650Screenshot2024-12-31235044.png"/> शत्रुके चारों ओर
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*** दृष्टान्त—**एक राजाने एक बाजार बनवाया और कहा कि जो वस्तु यहाँ बेचनेको लावेगा और सन्ध्यतक न बिकेगी, उसे मैं स्वयम ले लूंगा इसप्रकार वह बाजार विख्यात हो गया, एक दिन एक लुहार लोहेकी शनैश्वरकी मूर्ति बनाकर लाया, एक लाख रुपया उसका मोल मागा और कहा कि, जिसके यहा यह मूर्ति रहेगी उसके यहाँ द्रव्यादि कुछ न रहेगा, अब उस अनिष्टकारक मूर्तिको किसीने न लिया, सन्ध्यास समय राजाने देखा कि बडी मीढ होरही है, कारण पूछतेही राजाने विचारकर उस मूर्तिको ले लिया और लाखरुपये उसे देदिये, जब राजाने घर में मूर्ति रक्खी तो पहले लक्ष्मी राजासे बोली महाराज! मैं जातीहू राजा बोला क्यों? लक्ष्मीजी बोलीं जहाँ शनेश्वर देव रहें वहाँ हमारा क्या काम? राजाने कहा जाओ इसीप्रकार नीति, साम, दाम, दण्ड, भेद, सब रूप धरकर आये और राजाने जाने दिया पीडेसे जब सत्यदेव आये और राजासे कहकर जानेलगे तत्र राजाने हाथ पकढ कर कहा कि, आपके रखने को तो हम शनैश्वर देवको लाये हैं, तुम कैसे जाते हो? सत्यदेव से कुछ उत्तर न वन पडा, और रहगये सत्यके रहनेसे नीति लक्ष्मी आदि सब लौट आये और सत्यके प्रभावसे शनैश्वर राजाका कुछ न कर सके॥
दौड धूप करते श्रीकृष्णके मुखकी शोभा देखो, कुश्तीमें जोर करनेसे इनके मुखपर पसीनेकी बुन्दैंआय रहीहैं, जैसे कमलकोशके ऊपर ओसकी वून्दें पडतीहैं॥११॥ अरुण नेत्र बलदेवजीके मुखकी शोभा देखो मुष्टिकके ऊपर क्रोध आय रहाहै, तो भी मुसकानसहित हैं, इसलिये सुन्दर लगते हैं॥१२॥ भूमिमें व्रजभूमि परमपवित्र है, क्योंकि जिसके वनके चित्रविचित्र फूलोंको धारण किये पुराणपुरुष भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजी सहित मनुष्यरूपमें छिपकर गौओंको चराती समय बांसुरी बजाते खेलते फिरतेहैं, जिनके चरणोंका महादेव और लक्ष्मीजी भी पूजन करती हैं॥१३॥ बडा आश्चर्य है कि, गोपियोंने ऐसा क्या तप किया है जिसकारण इनसे श्रेष्ठ कोई नहीं और जिनकी समान कोई नहीं; इनसे अधिक
किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम्॥ मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरंभशोभितम्॥१२॥ पुण्या बत व्रजभुवो य दयं नृलिंगगूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः॥ गाः पालयन्सहबलः कणयंश्च वेणुं विक्रीडयांचति गिरिवरमार्चितांत्रिः॥१३॥ गोप्यस्तपः किमचरन्यदमुष्य रूपं लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्॥ दृग्भिः पिबंत्यनुसवाभिनवं दुरा पमेकांतधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य॥१४॥ या दोहनेऽवहनने मथनोपलेपप्रेंखेंखनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ॥ गायंति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकंठयो धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः॥१५॥ प्रातर्व्रजाद्व्रजत आविशतश्च सायं गोभिस्समं कणयतोस्य निशम्य वेणुम्॥ निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः पश्यंति सस्मितमुखं सदयावलोकम्॥१६॥
कोई नहीं देखा, जो आभूषण वस्त्र विनाही सुंदर लगताहै, यश लक्ष्मी ऐश्वर्य इनको एकान्त स्थान, अर्थात् सर्वदा जिनमें वास करैऐसे प्यारेके स्वरूपको दृष्टि से देखतेहैं॥१४॥ हे सखियो! व्रजबालायें धन्य हैं, जो गोपी गाय दुहानेके समय, धान्य छरती समय, दूध विलोती समय, बालकोंको झुलाती समय, और चुपाती समय, घरोंका कामकाज करती समय, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्त होकर उनके गुण गाती है, उससमय उनका मन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमेंही लगजाता है, और प्रेमानन्दसे उनके नेत्रोंमें आंसू आजातेहैं॥१५॥ प्रातःकाल जब व्रज से गौ चरानेको जातेहैं और संध्यासमय जब गायोंको ले बांसुरी बजातेहुए आतेहैं, उससमय वह महाभाग गोपियें बांसुरीका शब्द सुन शीघ्र
अपने घरसे निकल, मार्गमें आय सुंदर मुसकान दयापूर्वक चितवनयुक्त श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका दर्शन करती हैं॥१६॥ हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इधर तो स्त्रियें परस्पर इस प्रकार बातें कर रही थीं, और उधर योगके ईश्वर सबका दुःख हरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शत्रुओंके मार नेका विचार करनेलगे॥१७॥ भयसहित स्त्रियोंकी बातें सुनकर, पुत्रोंमें स्नेहके शोकसे व्याकुल, और पुत्रोंके बलको नहीं जाननेवाले माता पिता वसुदेव देवकी अत्यन्त दुःखित हुए<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736068925Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१८॥ अनेकप्रकार कुश्तीके दॉव पेंचोंसे जैसे श्रीकृष्ण और चाणूर लडतेथे उसीप्रकार महात्मा बलदेव और मुष्टिक लडनेलगे॥१९॥ वज्रपात के समान कठोर भगवान् के अंगके प्रहारसे, चाणूरका अंग चुरकुट होगया, जिससे वह बहुत दुःखित
एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः॥ शत्रुं हंतुं मनश्चक्रे भगवान्भरतर्षभ॥१७॥ सभायाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचातुरौ॥पितरावन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम्॥१८॥ तैस्तैर्नियुद्धविधिभिर्विविधैरच्युतेतरौ॥ युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ॥१९॥भगवद्गात्रनिष्पातैर्वज्रनिष्पेषनिष्ठुरैः॥ चाणूरो भज्यमानांगो सुहुर्ग्लानिमवाप ह॥२०॥ स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्यकरावुभौ॥ भगवंतं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यऽबाधत॥२१॥ नाचलत्तत्प्रहा रेण मालाहत इव द्विपः॥ बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन्हरिः॥२२॥
हुआ॥२०॥ इसके उपरान्त शिकरेके वेगके समान चाणूरने दोनों हाथकी मुष्टि बॉध, क्रोधमें भर ऊपरको उछल भगवान् वासुदेवकी छातीमें एक घूसा मारा॥२१॥ हे महाराज जिसप्रकार हाथी फूलोंकी मालाके लगनेसे नहीं चलायमान होता, वैसेही श्रीकृष्णचन्द्र उसके मुष्टिकसे चलायमान न हुए, इसके उपरान्त अत्यन्त क्रोधित हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने चाणूरके दोनों हाथ पकड, बहुत घुमाय बडे वेगसे पृथ्वीमें पटक दिया, गिरतेही उसके प्राण निकलगये और गहने, केश, माला इत्यादि सब विखरगये गिरते समय ऐसा शब्द
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*** शंका—**जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रगटहुये उसी समय वसुदेव देवकीको ज्ञान दिया और वसुदेव देवकी श्रीकृष्णके समुद्र सरीखे चरित्र और कर्मोको जानते थे और सुन भी रखा था, फिर वसुदेव देवकी जानबूझकर क्यों अज्ञानी होगये?
**उत्तर—**श्रीकृष्णके माता पिता अज्ञानी नहीं हुए, पुत्रके मोहमें व्याकुल होगये, पुत्रकी मोहरूप अग्निसे भस्म होगये, इसलिये अज्ञानियोंकी नाई होगये, क्योंकि संसारमें पुत्रका मोह वडा भारी है पुत्रके मोहमें बुद्धि ठिकाने नहीं रहती॥
हुआ कि, मानो इन्द्रध्वज गिरा॥२२॥२३॥ इसीप्रकार मुष्टिक कि, जिसने पहले बलदेवजीके मुष्टिप्रहार किया था, उसे बलदेवजीने थाप मारकर गिरा दिया॥२४॥ मुष्टिक कंपित हो, मुखसे रुधिर वमन करता, पीड़ित हो प्राण निकल जानेसे जैसे पवनका मारा वृक्ष उखडकर गिरपडता है उसीप्रकार गिरगया॥२५॥ हे राजा परीक्षित्! इसके उपरान्त दौडतेहुए कूट मल्लको मारनेवालोंमें श्रेष्ठ बलदेवजीने लीलापूर्वक तिरस्कार कर बांई मुष्टिसे मारडाला॥२६॥ शल, तोशलने अपने मनमें विचार किया कि, दण्डवत् के बहाने चरण पकडकर पटक देंगे परन्तु भगवान् तो सबके बाहर भीतर की जाननेवाले हैं, यह जिससमय दण्डवत् करनेको आये उससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने
भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीणजीवितम्॥ वित्रस्ताऽऽकल्पकेशस्रगिंद्रध्वज इवापतत्॥२३॥ तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्यभिहतेन वै॥बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम्॥२४॥ प्रवेपितः स रुधिरमुद्वमन्मुखतोऽर्दितः॥ व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवांघ्रिपः॥२५॥ ततः कूटमनुप्राप्तो रामः प्रहरतां वरः॥ अवधील्लीलया राजन्सावज्ञं वाममु ष्टिना॥२६॥ तर्ह्येव हि शलः कृष्णपदापहतशीर्षकः॥ द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः॥२७॥ चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते॥ शेषाः प्रदुदुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः॥२८॥गोपान्वयस्यानाकृष्य तैः संसृज्य विजह्नतुः॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गंतौ धुतनूपुरौ॥२९॥ जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः॥ ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधुसाध्विति॥३०॥ हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट्॥ न्यवारयत्स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह॥३१॥
एक लात ऐसी मारी जिसके लगनेसे शिर फटगया, इसप्रकार शल तोशल दोनों दो खण्ड विदीर्ण होकर पृथ्वीपर गिरगये॥२७॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल इत्यादि मुख्य मल्ल जब मारेगये, तब वहॉ और जो मल्ल उपस्थित थे, वह अपना प्राण बचानेके लिये भागगये॥२८॥ बराबरके गोपोंको अखाडेमें खेंच श्रीकृष्णबलदेव उनके संग विहार करनेलगे। उससमय बाजे बज रहेथे और श्रीकृष्णचन्द्रके नूपुर नृत्य करनेसे परम सुहावन बज रहेथे॥२९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीके चरित्र देख कंसके विना सब मथुरावासी प्रसन्न होगये, मुख्य मुख्य ब्राह्मण तथा सज्जनपुरुष “साधु साधु” ऐसे कह कह स्तुति करनेलगे॥३०॥ जब बड़े बड़े मल्ल मरगये कितनेई भागगये तब भोजवं
शियोंके राजा कंसने नगारे थमादिये और क्रोधित होकर कहने लगा॥३१॥कि, कुटिलकर्मा वसुदेवके पुत्रोंको पुरसे बाहर निकाल दो और गोपोंका धन छीनलो, कुटिलबुद्धि नन्दको बाॅध लो॥३२॥खोटीबुद्धिवाले वसुदेवको जल्दी मारो और इसके उपरान्त शत्रुसे मिलनेवाले पिता उग्रसेनको भी अनुचरोंसहित बॉधलो॥३३॥ इसप्रकार जब राजा कंस बकने लगा तब अत्यन्त क्रोधित हो अव्यय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र धीरेसे उछल ऊंचे मंचानपर चढ़ गये॥३४॥ तब धीरजवान अत्यन्त अभिमानी राजा कंसने अपनी मृत्युको आता हुआ देख आसनसे उठकर ढाल तलवार ग्रहण की॥३५॥ तलवार हाथमें ले आकाशमें जैसे शिकरा पक्षी फिरता है, उसीप्रकार दाईं बाईं ओर जल्दी जल्दी फिरनेवाले कंसको असह्य और
निस्सारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात्॥धनं हरत गोपानां नं बध्नीत दुर्मतिम्॥३२॥वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः॥उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः॥३३॥एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः॥लघिम्नोत्पत्य तरसा मंचमुत्तुंगमारुहत्॥३४॥तमाविशंतमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात्॥मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी॥३५॥तं खडपाणिं विचरंतमाशु श्येनं यथा दक्षिणसव्यमंबरे॥समग्रहीहुर्विषहोग्रतेजा यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य॥३६॥प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीटं निपात्य रंगोपरि तुंगमंचात्॥तस्योपरिष्टात्स्वय मब्जनाभः पपात विश्वाश्रय आत्मतंत्रः॥३७॥(कंसोपि कृष्णेन जगत्र्यैकनिवासभूतेन निपात्य सोधः॥तेना त्मतन्त्रेण निपीडितोसुं तत्याज राजन्निमिषान्तरेण॥) तं संपरेतं विचकर्ष भूमौ हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः॥हाहेति शब्दः सुमहांस्तदाऽभूदुदीरितः सर्वजनैर्नरेंद्र॥३८॥
उग्रतेजवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, तार्क्ष्यका पुत्र गरुड़ जैसे सर्पको पकडलेता है उसीप्रकार पकड लिया॥३६॥फिर उसकी फेंट तथा केश पकड ऊंचे मंचानपरसे रंगभूमिमें पटक दिया और इसके ऊपर सर्व जगत्के आश्रय और स्वतंत्र कमलनाभ भगवान् स्वयं कूदपडे, केश पकडनेका कारण यह है कि, कंसने देवकी के केश पकडेथे इसलिये उसका बदला लिया॥३७॥इसके उपरान्त सिंह जैसे हाथीको खैंचताहै उसीप्रकार सब जगत्के देखते मृतकहुए कंसको पृथ्वी में घसीटनेलगे. हे नरेन्द्र! उस समय समस्त प्रजामें बड़ा भारी हाहाकार शब्द हुआ॥३८॥
कंस प्रतिदिन चलायमान चित्तसे जल पीतें, बात कहते, चलते, सोते और श्वास लेते चक्र आयुधवाले भगवान्काही शत्रुभावसे ध्यान करता था। इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूपको प्राप्त हुआ॥३९॥ इसके उपरान्त उस कंसके कंक, न्यग्रोधसे आदि लेकर छोटे आठ भाई अत्यन्त क्रोधित हो कंसका बदला लेनेके लिये दौडकर आये॥४०॥ उसी समय रोहिणीके सुप्त बलरामजीने क्रोधित हुए हाथों में शस्त्र लेकर आयेहुए कंसके भाइयोको सिंह जैसे पशुओको मारता है, उसी प्रकार परिघ उठाकर मारडाला॥४१॥ उस समय आकाशमें नगारे बजनेलगे और भगवान्की विभूति जो ब्रह्मा महादेवादिक देवता हैं, सो प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूलोकी वर्षा करनेलगे, स्त्रियें नृत्य
स नित्यदोनिद्विग्नधिया तमीश्वरं पिवन्वदन्वा विचरन्स्वपञ्श्वसन्॥ ददर्श चक्रायुधमग्रतो यतो तदेव रूपं दुर वापमाप॥३९॥ तस्याऽनुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः॥ अभ्यधावन्नभिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः॥४०॥ तथाऽतिरभसांस्तांस्तु संयत्तान्रोहिणीसुतः॥ अहन्परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः॥४१॥ नेदुर्दंदुभयो व्योम्नि ब्रह्मे शाद्या विभूतयः॥ पुष्पैः किरंतस्तं प्रीत्या शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः॥४२॥ तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः॥ तत्राभीयुर्विनिघ्नत्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः॥४३॥ शयानान्वीरशय्यायां पतीनालिंग्य शोचतीः॥ विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजंत्यो मुहुः शुचः॥४४॥ हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथ वत्सल॥ त्वया हतेन निहता वयं ते सगृह प्रजाः॥४५॥ त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ॥ न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमंगला॥४६॥
करनेलगीं॥४२॥ हे महाराज! इसके उपरान्त पतिके मरणसे अत्यन्त दुःखित हो नेत्रोमें ऑसू भर कंसकी स्त्रिये शिर पीटती जहाँ उसकी लोथ पडी थी, वहाॅआईं॥४३॥ वीरशय्यामें पड़े पतिको आलिंगनकर शोकातुर स्त्रिये वारंवार नेत्रोंसे ऑसु बहाय बहाय पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं॥४४॥ हा नाथ! हे प्राणपति! हे धर्मके जाननेवाले! हे करुणानाथ! हा दीनवत्सल! तुम आप मरकर घरबार सहित और बालकों सहित हमको क्यो मारगये?॥४५॥ हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ! जैसे तुम विना हम विधवा होकर शोभायमान नही लगतीं उसी प्रकार तुम्हारे
बिना मथुरापुरी भी शोभा नही पाती क्योंकि संपूर्ण मंगल उत्सव इसमेंसेदूर होगये॥६॥ निरपराध प्राणियोंसे तुमने बड़ा द्रोह किया, इसीसे तुम्हारी यह दशा हुई जो मरे पंडेहो, प्राणियोंसे पैर करके कौन पुरुष सुख पाता है॥४७॥ क्योंकि इन संसारमें समस्त प्राणियोंके उत्पत्ति, पालन और नाशकर्त्ता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रद्दी हैं, इसलिये जो इनकी अवज्ञा करता है, वहकभी सुख नहीं पाता॥४८॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! लोकोके पालन करनेवाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने राजा कंसकी स्त्रियोको समाधान कंसकी दाहादिक क्रिया कराई॥४९॥ इसके उपरान्त माता, पिता देवकी वसुदेवको कंसके बंदीखानेसे छुडाया और राम कृष्ण दोनों भाइयोंने माता पिताके चरणोंमें
अनागसां त्वं भूतानां कृतवान्द्रोहमुल्वणम्॥ तेनेमां भी दशां नीतो श्रुतध्रुकको लभेत शम्॥२७॥ सर्वेषामि भूतानामेष हि प्रभवाप्ययः॥ गोप्ता च तदवध्यायी न कचित्सुखमेधते॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ राजयोषित आश्वास्य भगवॉल्लोकभावनः॥ यमाहुलौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत्॥४९॥ मातरं पित चैव मोचयिला ऽथ बंधनात्॥ कृष्णरामो वबंदाते शिरसाऽऽस्पृश्य पादयोः॥५०॥ देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरों॥ कृतसंवंदनौ पुत्रौ सस्वजाते न शंकिता॥५१॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे कंसवधो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ पितरावुपलब्धार्थी विदित्वा पुरुषोत्तमः॥ मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम्॥१॥उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्त्वतर्षभः॥ प्रश्रयावनतः प्रीणन्नंच तावेति सादरम्॥२॥
शिर लगाकर प्रणाम किया॥५०॥ माता, पिता, देवकी वसुदेव प्रणाम करते पुत्रोंको जगतके ईश्वर जान, भयभीत होकर उनसे नहीं मिले॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभापाठीकायां कंसवधो नाम चतुत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ दोहा- पितुनंदादिक शान्तकर, उग्रसेन दियो राज। बहुरि गये गुरुके भवन, पैतालिस सुखमाज॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित! पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने माता पिताको ज्ञान प्राप्तहुआ जान विभाग कि, यह ज्ञान अभी ठीक नहीं इसलिये सब लोगोंको मोहित करनेवाली अपनी माया फैलाई॥१॥ यादवश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजीको संग लेकर माता, पिताके पास आये और विनयपूर्वक नम्र हो,
हे मातु! हे पिता! इस प्रकार आदरपूर्वक प्रसन्न होकर कहने लगे॥२॥ हे पिता! सर्वदा तुम्हें चाहनाही बनीरही और हम पुत्रोंसे बाल्य अवस्था पौगण्ड अवस्था तथा किशोर अवस्थाका सुख कभी तुमको न हुआ॥३॥ दैवके मारे हम तुम्हारे निकट वासभी न कर सके, पिताके घर बालक रहते हैं और उनका लालन पालन होताहै, आनन्द पातेहैं हमको कुछभी प्राप्त न हुआ॥४॥ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सर्व पदार्थ जिससे हों ऐसा यह देह जिस माताने उत्पन्न किया उनकी यह मरणधर्मा मनुष्य सौवर्षतक सेवा करै परन्तु तोभी उनसे उऋण नहीं होसक्ता॥५॥ जो पुत्र समर्थ होकर
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कंठितयोरपि॥ बाल्यपौगंडकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्कचित्॥३॥ न लब्धो दैवहतयो र्वासो नौ भवदंतिके॥ यां बालाः पितृगेहस्था विंदंते लालिता मुदम्॥४॥ सर्वार्थसंभवो देहो जनितः पोषितो यतः॥ न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा॥५॥यस्तयोरात्मजः कल्पमात्मना च धनेन च॥ वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयंति हि॥६॥ मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्॥ गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽविभ्रच्छ्वस न्मृतः॥७॥ तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः॥ मोघमेते व्यतिक्रांता दिवसा वामनर्चतोः॥८॥
देहसे अथवा धनसे माता पिताको जीविका नहीं देते, उसे परलोकमें यमके दूत उसका सांस उसेही काट काटकर भक्षण करते हैं॥६॥माता पिता, वृद्ध, सुशीला स्त्री, पुत्र बालक गुरु, ब्राह्मण अथवा और जो कोई शरण आवै इनका जो मनुष्य भरण पोषण न करें, तो वह मृतकके समान है <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736185901Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥७॥ असमर्थ और कंसके भयके मारे नित्य चंचल मन होनेके कारण तुम्हारी सेवा विना किये हमारे इतने दिन व्यर्थ बीतगये॥८॥
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*** शंका—**श्रीकृष्णने कहा कि, वृद्ध पिताका सेवन करना चाहिये, परंतु शास्त्रमें ऐसा नियम कहा नहीं है कि, वृद्ध पिताकी सेवा करना और युवा पिताकी सेवा न करना, श्रीकृष्णके वचनसे ऐसा जान पडता है कि, समर्थ भी होवे तौभीयुवा पिताकी सेवा न करना, समर्थ होवे वा असमर्थ होवे तब वृद्ध पिताका सेवन करना ऐसा भगवान्के वचनसे विदित होताहै फिर भगवान्ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर—“मातर पितर वृद्धम्” इस श्लोकमें वृद्धका अर्थ बूढेपनका नहीं है वृद्ध बुढेका नाम है वृद्धका अथ श्रीकृष्णने ऐसा किया है कि, सर्वधर्मसे पिता वृद्ध कहिये श्रेष्ठ, अथवा पण्डित और धर्मशास्त्र भी सव धर्मोसे पिताको बढा कहते हैं, पितासे माता बडी है, ऐसा धर्मशास्त्रका मत जानकर श्रीकृष्णचन्द्र ने वृद्ध पिताका पूजन करनेके लिये कहाथा यह नहीं कहा था कि, बूढे पिताका सेवन करना और युवा पिताका सेवन न करना॥
हे पिता! हे मातु! पराये अधीन होनेके कारण हमसे तुम्हारी सेवा न बनी और दुष्टहृदय कंससे अत्यन्त दुःखित रहे, इसलिये अब हमपर तुम क्षमा करने के योग्य हो सो क्षमा कीजिये॥९॥ इसप्रकार मायासे मनुष्यरूपधारी विश्वके आत्मा हरिके वचनसे मोहित होकर देवकी, वसुदेव पुत्रोंको गोदमें बैठाय परमानन्दको प्राप्तहुए॥१०॥ हे राजा परीक्षित्! स्नेहके पाशसे बँधे मोहित देवकी वसुदेव ऑसुओकी धारोंसे कृष्ण बलदेवको भिजोते कुछभी न बोले॥११॥ देवकीके पुत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार माता पिताको सावधान कर नाना उग्रसेनको यादवोंका राजा बनाया॥१२॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे महाराज! हम तुम्हारी प्रजा हैं सो हमैंतुम आज्ञा करनेके
तत्क्षंतुमर्हथस्तात मातर्नौपरतंत्रयोः॥अकुर्वतोर्वांशुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्॥९॥श्रीशुक उवाच॥इति माया मनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा॥मोहितावंकमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम्॥१०॥सिंचंतावश्रुधराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ॥ न किंचिद्वचतराजन्बाष्पकंठौ विमोहितौ॥११॥ एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः॥मातामहं तूग्रसेनं यद्वनामकरोन्नृपम्॥१२॥आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि॥ययातिशापाद्यदुभिर्नाऽऽसितव्यं नृपासने॥१३॥मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः॥बलिं हरंत्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः॥१४॥ सर्वान्स्वज्ञातिसंबंधान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्॥यदुवृष्ण्यंधकमधुदाशार्हकुकुरादिक॥१५॥सभाजितान्स माश्वास्य विदेशावासकर्शितान्॥न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः संतर्प्य विश्वकृत्॥१६॥
योग्य हो और यदुवंशियोंको ययातिका शाप है, इसकारण यादवोंका सिंहासनपर बैठना और राज्य करना योग्य नहीं है॥१३॥मैं सेवकके समान तुम्हारे निकट सदा उपस्थित रहूंगा, बड़े बड़े देवादिक तुमको भेंट देंगे और राजा देंगे इसमें तो कहनाही क्या है?॥१४॥ और कंसके डरके मारे जो अपनी जातिके यदु, वृष्णि, अंधक, मधु, दाशार्ह, कुकुरादिक भागगये थे॥१५॥ उनको बुलाकर और विदेशमें वसनेके कारण जो यादव कृश हो रहे थे, उनका सत्कारकर बहुतसा धन दे तृप्तकर सब विश्वके कर्त्ता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने
अपने अपने घरोंमें बसाया॥१६॥ कृष्ण बलदेवकी भुजासे रक्षित हो, पूर्ण मनोरथ पाय पापको दूर कर, वह यादव घरोंमें रमण करनेलगे॥१७॥और नित्य आनंदसे पूर्ण शोभायुक्त दयासहित मंदहास्यपूर्वक चितवन युक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके मुखकमलका दर्शन करके परमानंद होते थे॥१८॥भगवान् मुकुन्दके मुखकमलके अमृतको पीकर उस समय वृद्ध भी तरुणावस्थाको प्राप्त हो अत्यन्त बलवान् होगये॥१९॥हे राजन्! इसके उपरान्त भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी नन्दरायजीके पास आय मिल यह वचन बोले॥२०॥हे पिता! तुम स्नेहिंयोने हमारा पोषण किया बहुत लाड लडाया, अधिक क्या कहैं, माता पिता को अपने पुत्रोंमें अधिक प्रीति होती है, सो तुमने उससेभी अधिक
कृष्णसंकर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः॥गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः॥१७॥वीक्षंतोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनांबुजम्॥नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम्॥१८॥तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः॥ पिबंतोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखांबुजसुधां मुहुः॥१९॥अथ नंद समासाद्य भगवान्देवकीसुतः॥संकर्षणश्च राजेंद्र परिष्व ज्येदमूचतुः॥२०॥पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्॥पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि॥२१॥स पिता सा च जननी यो पुष्णीतां स्वपुत्रवत्॥शिशुन्बंधुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे॥२२॥यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्॥ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्॥२३॥एवं सांत्वय्य भगवा न्नंदं सव्रजमच्युतः॥वासोऽलंकारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम्॥२४॥इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नंदः प्रणयविह्वलः॥पूर यन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ॥२५॥
प्रीति करी॥२१॥ वही पिता है, वही माता है, जो पराये पुत्रको अपने पुत्र के समान पोषण करैऔर पोषण करनेमें जिनकी सामर्थ्य न हुई ऐसे हमारे माता पिताने हमको बालकपनसेही छोड दिया॥२२॥ हे पिता! अब तुम व्रजको जाओ हमभी बन्धु बांधवोंका प्रिय करके स्नेहसे दुःखी जातिवाले और तुम्हारे देखने को पीछेसे आवेंगे॥२३॥ इस प्रकार अच्युत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने व्रजवासियों सहित नंदरायजीको समझाकर और अनेक भाँतिके वस्त्र, आभूषण तथा सोने चांदी के बर्त्तन देकर बडे आदरपूर्वक उनका पूजन किया॥२४॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णका वचन
सुन, नंदरायजी कृष्ण बलदेवको छातीसे लगा, प्रेमसे व्याकुल हो नेत्रोंमें आँसू भर, संपूर्ण व्रजवासियोंको संग ले व्रजको चले॥२५॥इसके उपरान्त राजन्! शूरसेनके पुत्र वसुदेवजीने ब्राह्मण पुरोहितको बुलाय पुत्रोंका यथायोग्य द्विजन्म संस्कार कराया॥२६॥इसके उपरान्त शृंगार करी दुई रेशमी झूल व सुवर्णकी माला पहिरे अनेक गायें बछड़ों सहित ब्राह्मणोंको दान कीं॥२७॥अत्यन्त बुद्धिमान वसुदेवजीने रामकृष्णके जन्मन क्षत्रके समय जिन गायोंका मनमें संकल्प किया था और कंसने अधर्मसे हरली थीं, उतनीही गौ स्मरण करके ब्राह्मणोको दान करीं॥२८॥इसके उपरान्त सुव्रती कृष्ण बलदेव द्विजन्मा संस्कार पाय यदुकुलके पुरोहित गर्गाचार्य से गायत्रीका उपदेश ले ब्रह्मचर्य व्रतमें रहनेलगे॥२९॥यद्यपि
अथ शरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्॥पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्दिजसंस्कृतिम्॥२६॥तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलंकृताः॥स्वलंकृतेभ्यः संपूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः॥२७॥या कृष्णरामजन्मर्क्षे मनो दत्ता महामतिः॥ ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः॥२८॥ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ॥गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ॥२९॥प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ॥नान्यसिद्धामलज्ञान गूहमानी नरेहितैः॥३०॥अथो गुरुकुले वासमिच्छंतावुपजग्मतुः॥काश्यं सांदीपनिं नाम ह्यवंतिपुरवासिनम्॥॥३१॥यथोपसाद्य तौ दांतो गुरौ वृत्तिमनिंदिताम्॥ ग्राहयंतावुपेतौ स्म भत्त्या देवमिवादृतौ॥३२॥तयोर्द्विजव रस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः॥प्रोवाच वेदानखिलान्सांगोपनिषदो गुरुः॥३३॥सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्यायपथां स्तथा॥तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम्॥३४॥
संपूर्ण विद्या जाननेवाले सर्वज्ञ अर्थात् सब बातके जाननेवाले कृष्ण बलदेव सब जगत्के ईश्वर थे परन्तु तौभी स्वतः सिद्धि निर्मल ज्ञानको मनुष्योंके समान चेष्टा करनेके कारण गुप्त रखेते थे॥३०॥ इसके उपरान्त कृष्ण बलदेव गुरुकुलमें वास करने की इच्छासे कश्यपगोत्री उज्जैनपुरीके वासी सांदीपनि गुरुके पास गये. जो काश्यनामसे भी प्रसिद्ध थे॥३१॥ जितेन्द्रिय कृष्ण बलदेव भले प्रकार गुरुके पास आय, बडे आदरसत्कारसे भक्तिपूर्वक जैसे नारायणकी सेवा करते हैं, उसी प्रकार गुरुकी सेवा करनेलगे॥३२॥ शुद्ध भक्तिपूर्वक सेवासे संतुष्ट हुए द्विजन्माओंमें श्रेष्ठ गुरुजीने श्रीकृष्णबलदेवको शिक्षादिक छः अंग और उपनिषदों सहित समस्त वेद पढ़ाये॥३३॥इसके उपरांत मंत्र और देवताके ज्ञानसहित शस्त्र चलाना,
धनुर्वेद और धर्मशास्त्र, राजनीति, मीमांसादिक, तर्कविद्या तथा शत्रुसे मिलापकरना, युद्धकरना, उसके ऊपर चढ़जाना, निकट जाकर रहना, अपनी ओर तोडलेना, मेल करना, यह छःप्रकारकी राजनीति पढ़ाई॥३४॥सब मनुष्योंमें तथा उत्तमोंमें उत्तम सब विद्याओंके चलानेवाले सावधान कृष्ण वलदेवने हे राजन्! गुरुके विना बतायेही संपूर्ण विद्या सीख लीं॥३५॥चौंसठ रात्रियोंमें गाना, बजाना, नृत्य करना, आदि चौंसठ कला सीखीं, जब विद्या पढ़ चुके तब हे राजन्! कृष्ण बलदेव दोनों भाई गुरुजीसे गुरुदक्षिणाकी आज्ञा करो इस प्रकार कहनेलगे॥३६॥तब सांदीपनिने कृष्ण बलदेवकी अद्भुत महिमा देख कि, मनुष्योंमें ऐसी चमत्कारी कहां? स्त्रीसे परामर्शकर प्रभासक्षेत्रके समुद्रमें डूबकर जो पुत्र मरगया था सो स्त्रीके कहनेसे उसेही
सर्वे नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ॥सकृन्निगदमात्रेण तौ संजगृहतुर्नृप॥३५॥अहोरात्रैश्चतुष्षष्ट्या संयतौ तावतीः कलाः॥गुरुदक्षिणयाऽऽचार्य छंदयामासतुर्नृप॥३६॥द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्॥संमंत्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं बालं प्रभासे वरयांबभूव ह॥३७॥तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं प्रभासमासाद्य दुर न्तविक्रमौ॥वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं सिंधुर्विदित्वाऽर्हणमाहरत्तयोः॥३८॥तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्॥ योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा॥३९॥ समुद्र उवाच॥ नैवाहार्षमहं देव दैत्यः पंचजनो महान्॥अंतर्जलचरः कृष्ण शंखरूपधरोऽसुरः॥४०॥ आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः॥जलमाविश्य तं हत्वा नापश्य दुदुरेऽर्भकम्॥४१॥तदंगप्रभवं शंखमादाय रथमागमत्॥ततः संयमिनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम्॥४२॥
मांगा॥३७॥ तथास्तु, इस प्रकार कह अत्यन्त पराक्रमी, बड़े रथी, कृष्ण बलदेव रथमें बैठ प्रभासक्षेत्रमें पहुॅच समुद्र के किनारे जाय एक क्षण बैठगये, तब समुद्र कृष्ण बलदेवको आया जान उनकी पूजा लेकर आया॥३८॥ तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उस समुद्रसे कहने लगे कि, जो हमारे गुरुके बालक तैंने यहां बडी लहरोंसे डुबा लिये हैं वे गुरुके पुत्र लादे॥३९॥ तब समुद्र बोला कि देव! मैंने तो तुम्हारे गुरुके पुत्र नहीं डुबाये, बरन मेरे भीतर रहनेवाला शंखरूप धारणकिये एक बड़ा दैत्य है, वह हर लेगया है और निश्चय उसके पास है, यह सुनतेही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त शीघ्रतासे जलमें घुस पंचजन दैत्यको मारडाला परन्तु उसके पेटमें बालक नहीं देखा॥४०॥४१॥ इसके उपरांत
उस दैत्यके अंगमेंसे शंख ले, श्रीकृष्णचन्द्र रथपर आये और वहाँसे यमराजकी अति प्यारी संयमनीपुरीमें आये॥४२॥और वहाँ जाकर वलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने शंख बजाया, तब प्रजाका दण्ड देनेवाला धर्मराज शंखका शब्द सुन॥४३॥कृष्ण बलदेवकी भक्तिपूर्वक पूजा करनेलगा और सब प्राणियोंके हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीसे हाथ जोडकर बोला कि, हे विष्णु भगवान् लीलापूर्वक आपने मनुष्य का रूप धारण किया है; सो तुम्हारी क्या सेवा करूं ?॥४४॥तव श्रीभगवान बोले कि, हे महाराज! यहाँ जो आप गुरुपुत्रले आयेहैं सो लादीजिये, तब यमराजने कहा कि, वह अपने कर्मोंसे बॅधे पडे हैं कैसे लाऊं? तव श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि उन्हैंमेरी आज्ञा हुई है कुछ मेरी आज्ञासे
गत्वा जनार्दनः शंखं प्रदध्मौ सहलायुधः॥ शंखनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः॥४३॥ तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्॥उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्॥ लीलामनुष्ययोर्विष्ण्वोर्युवयोः करवाम किम्॥४४॥ श्रीभगवानुवाच॥ गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबंधनम्॥ आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः॥४५॥ तथेति तेनोपनीतं गुरुपुत्रं यद्वत्तमौ॥ दत्त्वा स्वगुरखे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः॥४६॥ सम्यक् संपादितो वत्स भवद्धयां गुरुनिष्क्रयः॥ कोनु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते॥४७॥ गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी॥ छंदांस्ययातयामानि भंवत्विह परत्र च॥४८॥ गुरूणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा॥ आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै॥४९॥
कर्म बलवान नहीं है॥४५॥ तब “जो आज्ञा” ऐसा कहकर यमराजने गुरुपुत्र लादिया, इसके पीछे यादवोंमें उत्तम श्रीकृष्ण वलदेव उसको ले अपने गुरुको देकर बोले कि, और वर मांगो॥४६॥ तव गुरु कहने लगे कि, हे पुत्र! तुमने गुरुसेवा भलीभांति करी और तुमसरीखोंका जब मैं गुरु हुआ तब मेरे कौन बातकी चाहना शेष रही?॥४७॥ हे वीर! अब तुम अपने घरको जाओ इस लोक और परलोकमें तुम्हारी पवित्र कीर्त्ति होवे, तुम्हारे वेद नवीन पढेहुए स्मरण बने रहें॥४८॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इस प्रकार गुरुसे आज्ञा पाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेव
दोनों भाई पवन के समान शीघ्रगामी मेघकी तुल्य गर्जनेवाले रथमें बैठ अपने घरको आये॥४९॥बहुत दिनोंसे नहीं देखनेके कारण रामकृष्णका दर्शन कर प्रजा बडे आनन्दको प्राप्त हुइ जैसे गयाहुआ धन मिलनेसे आनन्द होताहै॥५०॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां गुरुकुलवासो नाम पंचचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥दोहा—छियालीस अध्यायमें; उद्धव व्रजहि पठाय। शोक यशोदा नन्दको, मेटो ज्ञान सिखाय॥४६॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! यादवोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णके प्रिय मंत्री सखा अर्थात् बृहस्पतिके शिष्य बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जो उद्धवजी थे॥१॥ उन्हें शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने एकान्तमें बुला हाथ पकडकर कहा॥२॥ हे उद्भव!
समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ। अपश्यंत्यो बह्वहानि नष्टलव्धधना इव॥५०॥ इति श्रीमद्भाग०म०द०पू० नन्दादिसान्त्वनोग्रसेनाभिषेकगुरुकुलवासकरणं नाम पंचचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥श्रीशुक उवाच॥वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णस्य दयितः सखा॥शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः॥१॥तमाह भगवान्प्रेष्टं भक्तमेकांतिनं क्वचित्॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः॥२॥ गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौप्रीतिमावह॥ गोपीनां मद्वयोगाधिं मत्संदेशैर्विमोचय॥३॥ ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः॥ ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्॥४॥ मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः॥ स्मरंत्योंग विमुह्यंति विरहौत्कंठ्यविह्वलाः॥५॥
हे साधु! तुम व्रजको जाओ हमारे माता पिताको प्रसन्न करो और गोपियोंको जो मेरे बिछुडनेमें कष्ट हुआ है सो मेरा संदेशा लेजाकर दूर करो॥३॥ मुझमें जिनके मन और प्राण लग रहे हैं मेरेलिये पति पुत्रादि त्याग दिये हैं मैंही प्यारा जिनके आत्मा हूं जो मुझमें मन लगाकर रहती हैं मेरेलिये जिन्होंने इस लोक तथा परलोकके जितने सुखके उपाय हैं सब त्याग दिये हैं. उनको मैं सुख देताहूं॥४॥ हे उद्भव! उनका प्यारा मैं जबसे दूर आयाहूं तब से वह गोकुलकी स्त्रियें मेरी सुधि करके विरहसे मेरी चाहके कारण विवश हो मोहित होजातीहैं <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736232181Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥५॥
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*** शका—**व्रजसे और गोकुलसे मथुरापुरीका चारकोशका अन्तर है और मथुरासे व्रजभी चारही कोश है, परन्तु व्रजको श्रीकृष्ण कभी नहीं गये और गोपीभी मथुराको कभी नहीं गई गोपियें दही छाँछ, माखन बेचनेको भी मथुरापुरीको कभी नहीं गई, छाँछ बेचनेको आतीं तो मी मोहन प्यारेकी मुलाकात होजाती, हे स्वामिन्! परस्पर मित्रसे मिलनेके लिये स्त्री, वा पुरुष हजारों कोश चले जाते हैं और कृष्ण-
क्योंकि जब मैंने उनसे कह दियाथा कि मैं शीघ्रही आऊंगा इस कारणसे किसी प्रकार वे गोपियें प्राण धारण किये रहीं सो भी महाकष्टसे यदि उनका आत्मा उनके शरीरमें रहता तो दग्ध होजाता वह तो मुझमें लीन है इसीलिये वह प्राण धारण कररहीं हैं॥६॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा तब उद्धवजी बड़े आदरपूर्वक स्वामीके संदेशको ले रथमें बैठ नंदरायनीके गोकुलको चले॥७॥ और सूर्यके छिपतेही शोभायमान नंदरायजीके गोकुल में पहुॅचे तब संध्यासमय आतीहुई गायोंके खुरोंकी रेणुसे उद्धवजीका रथ ढक गया॥८॥
धारयंत्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान्कथंचन॥ प्रत्यागमनसंदेशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त उद्धवो राजन्संदेशं भर्तुरादृतः॥ आदाय रथमारुह्य प्रययौ नंदगोकुलम्॥७॥ प्राप्तो नंदव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ॥ छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः॥८॥ वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः॥ धावंती भिश्च वास्त्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्॥९॥ इतस्ततो विलंवद्भिर्गोवत्सैर्मंडितं सितैः॥ गोदोहशब्दाभिरवैर्वेणूनां निस्स्वनेन च॥१०॥ गायंतीभिश्च कर्माणि शुभानि वलकृष्णयोः॥स्वलंकृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम्॥११॥
पुष्पवती गायोंके लिये चारों ओरसे मतवाले बैलोंके युद्धका शब्द वहाँ होरहाथा और ऐनोंके भारसे व्याईहुई गायें दौड दौडकर अपने बछडों के पास आतीथीं॥९॥जहाँ तहाॅसफेद गायें गायोंके बछड़े कूदते फॉदते फिरतेहैं गायोंके दुहनेका शब्द जहाॅतहाँ होरहाहै कोई कहता था “लाओ” कोई कहता था “देओ” ऐसा कोलाहल जहाॅतहाॅमचरहाथा और बॉसुरी बजनेका भी शोर होरहाथा॥१०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और
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—और गोपियोंकी ऐसी परम मित्रता थी फिर चार कोशके अन्तर मिले भटे क्यों नहीं इसका क्या कारण? इधर तो कृष्णके मनमें मोहकी ज्वाला मस्करही थी और उधर गोपियोंके हृदयमें मोहकी जाला जलरही थी, फिर क्या कारण जो कोई न तो मधुरासे गया, न कोई गोकुलसे आया? यह बढा सन्देह है।
**उत्तर—**श्रीकृष्ण लोकनिन्दासे डरे व्रजमें जो लीला हमने करी तब हम बालक ये अव हमारी युवा अवस्था हुई जो गोपी ब्रजसे हमारे पास आयेंगी अथवा व्रजको हम जायॅगे तो पहिलेके समान चरित्र मथुरामें तथा व्रजमें करने पडेंगे और वह चरित्र हम यहाँ करें तो संसारमें हमारी निन्दा होगी, इस बातका दर करके मायासे गोपियोंको मोहित कर दिया जब गोपी मोहको प्राप्त होगईं तो मनही मनमें विना कृष्ण यारेके मनमें परिताप तो किया परन्तु मथुराकी ओरको पाँव न रक्खा और भगवान् लोकलाजसे गोकुलको नहीं गये॥
बलदेवजी के मंगलरूप कमोंको बनी ठनी गोपियें गातीहुई अत्यन्त शोभायमान लगतींथीं॥११॥ अग्नि, सूर्य, अभ्यागत, गौ, ब्राह्मण, पितर, देवता इनके पूजन की सामग्री जहाॅतहाॅ घरी थी, धूप होरहीथी दीपक बलरहे थे, फूल घरेथे, गोपोंके घरोंमें पूजा होनेसे यह ब्रज मनोहर होरहा था॥॥१२॥ सब ओरसे फुलवारी फूल रहींथीं, पक्षी बोलरहे थे भौंरेगुंज रहेथे राजहंस और कारंडवपक्षी जहां बैठेथे, ऐसे कमलोंके समूहसे वह ब्रज शोभायमान होरहा था॥१३॥ श्रीकृष्णचन्द्रके प्रियमित्र उद्धवजीको आया जान नन्दरायजी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मिले और श्रीकृष्ण चन्द्रके पाससे आये हैं, यह जानकर ईश्वर बुद्धिसे पूजन किया॥१४॥ इसके उपरान्त अत्यन्त श्रेष्ठ सामग्रियोंका भोजन कराय, शय्यापर सुख
अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितैः॥ धूपदीपैश्च माल्यैश्चगोपावासैर्मनोरमम्॥१२॥ सर्वतः पुष्पितवनं द्विजा लिकुलनादितम्॥हंसकारंडवाकीर्णैः पद्मखंडैश्च मंडितम्॥१३॥ तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्॥ नंदः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियाऽऽर्चयत्॥१४॥भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्॥ गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसं वाहनादिभिः॥१५॥ क्वचिदंग महाभाग सखा नः शूरनंदनः॥ आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्वृतः॥१६॥ दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना॥ साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा॥१७॥अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्॥ गोपान्व्रजं चात्मनाथं गावो वृंदावनं गिरिम्॥१८॥ अप्यायास्यति गोविंदः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्॥ तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम्॥१९॥
पूर्वक पौढ़ाय, चरण दाब, मार्गका खेद मिटाय, उद्धवजीसे नन्दरायजी बोले॥१५॥ हे बडभागी उद्धव! कहो शूरसेनके पुत्र हमारे सखा वासुदेवजी पुत्रोंसहित कुशल पूर्वक हैं? कंसके बंदीखानेसे छूटे हैं? भाई बन्धु हितकारियोंसहित प्रसन्न हैं?॥१६॥ और पापी कंस समस्त सेवकोंसहित मारा गया. यह बड़ाही मंगल हुवा क्योकि वह कंस धर्मस्वभाववाले यादवोंसे सदा वैर करताथा॥१७॥ हे उद्धवजी! और यह भी कहो कि, वह कृष्णचन्द्रभी कभी हमारी और अपनी माताकी सुधि करते हैं, तथा सुहृद सखा गोपोंकी सुधि करते हैं? और जिसके आपही रक्षक हैं ऐसे व्रजकी भी कभी सुधि करते हैं, और गौ, ब्राह्मण, गोवर्द्धन पर्वतकी भी कभी सुधि करते हैं?॥१८॥ गायोंका हित करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र जब कभी
अपने भाई बंधुके देखनेके लिये आवैंगे तब सुंदर नासिका सुंदर मुसकान चितवनयुक्त उनके मुखका दर्शन करेंगे॥१९॥ दावाग्निसे, पवनसे, इन्द्रकी वर्षासे, विषयुक्त सर्पसे, अघासुरसे और बडी बडी मृत्युओंसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने हमारी रक्षा करी॥२०॥ हे उद्धवजी!भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पराक्रम और लीलापूर्वक कटाक्षभरी चितवन, हॅसने और वोलनेकी सुधि करतेहैं, तब हमारासंपूर्ण क्रिया शिथिल होजातीहैं॥२१॥ मुकुन्दके चरणोंके चिह्न पर्वत, नदी, वनके स्थान और उनके खेलनेके स्थानोंको जब देखते हैं, तब हमारा मन कृष्णमय होजाता है॥२२॥ देवताओंका कार्य करने के लिये इस संसारमें कृष्ण अवतार लेकर आये हैं उन्हैंमें देवताओंमें उत्तम मानताहूॅऔर मैंने बडा गंभीर गर्गाचार्यका
दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः॥ दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना॥२०॥ स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापांगनिरीक्षितम्॥ हसितं भाषितं चांग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः॥२१॥ सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुंदपदभूषितान्॥ आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम्॥२२॥ मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ॥ सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा॥२३॥ कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं तथा॥ अवधिष्टां लीलयैव पशनिव मृगाधिपः॥२४॥ तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट॥ वभंजैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाङ्गिरिम्॥२५॥ प्रलंवो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्ती वकादयः॥ दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया॥२६॥ श्रीशुक उवाच॥ इति संस्मृत्य संस्मृत्य नंदः कृष्णानु
गा धी॥अत्युत्कंठोऽभवत्तष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः॥२७॥
वचनभी ऐसेही सुना है॥३॥ दशहजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस और मल्लोंको वैसेही कुवलयापीड हाथीको, सिंह जैसे पशुओंको मारता है उसीप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वकही मारडाला॥२४॥ फिर बडा भारी तीन तालके समान धनुष एक हाथसे उठाकर जैसे हाथी लठियाको तोडताहै उसीप्रकार तोडडाला और सात दिनतक गोवर्द्धन पर्वतको बायें हाथ की अँगुलीपर धारण किया॥२५॥प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, तृणावर्त्त, बकासुर आदि और भी जो सुर असुरोंके जीतनेवाले दैत्य थे, सो श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वकही मारडाले॥२६॥ श्रीशुक देवजी बोले कि, हे राजन्! कृष्णमें प्रेमबुद्धिवाले नन्दरायजी इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सुधि करके, आँखो में आँसू भर गद्गद कण्ठ प्रेमके
भावमें व्याकुल होकर चुप होगये॥२७॥यशोदाने जो ऐसे वर्णन कियेजाते श्रीकृष्णके सुन्दर चरित्र श्रवणकिये, तो स्नेहसें स्तनोंमें दूध उमडि आया और नेत्रोंसे आंसू बहने लगे॥२८॥इस प्रकार नन्दराय और यशोदाका भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें परम अनुराग देखकर उद्धवजी नन्दजीसे बोले॥२९॥उद्धवजी बोले कि, मानदेनेवाले नंदजी! इस संसारमें देहधारियोंके मध्यमें निश्चय तुम प्रशंसाके योग्य हो, क्योंकि जो सबके गुरु नारायण हैं, उनमें ऐसी बुद्धिलगाई हैं॥३०॥यह जो कृष्ण बलदेव हैं, सो विश्वके लिये उपादान कारण हैं इसीसे पुरुषप्रकृतिरूप हैं, सब प्राणियोंमें प्रवेश करके अनेक प्राणियोंके अनेक प्रकारके ज्ञानके साक्षी और अनादि हैं॥३१॥प्राण छूटती समय
यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च॥शृण्वंत्यश्रूण्यवस्त्राक्षीत्स्नेहस्तुतपयोधरा॥२८॥ तियोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः॥वीक्ष्यानुरागं परमं नंदमाहोद्धवो मुदा॥२९॥उद्धव उवाच॥युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनीसिंह मानद॥ नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी॥३०॥एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी रामो मुकुंदः पुरुषः प्रधानम्॥अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ॥३१॥ यस्मिञ्जनः प्राणवियोगकाले क्षणं समावेश्य मनो विशुद्धम॥ निर्हृत्य कामाशयमाशु याति परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः॥३२॥ तस्मिन्भवंतावखिलात्महेतौं नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ॥ भावं विधत्तां नितरां महात्मन्किं वाऽवशिष्टं युवयोः सुकृत्यम्॥३३॥ आगमिष्यत्य दीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः॥ प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्त्वतां पतिः॥३४॥ हत्वा कंसं रगमध्ये प्रतीपं सर्व सात्त्वताम्॥ यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत्॥३५॥
यह पुरुष क्षणभर शुद्ध मनको जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लगा शीघ्रही कर्मोंकी वासनाओंको छोड सूर्यके समान प्रकाशमान ब्रह्मरूप होकर परमगतिको प्राप्त करता है॥३२॥ जब सबके आत्मा कार्य और कारणसे मनुष्यरूप धरे परिपूर्ण नारायणमें अतिशय करके तुम भक्ति करतेहो तो फिर तुमको क्या करना शेष रहा॥३३॥ अच्युत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्रही व्रजको आवेंगे क्योंकि वह भक्तोंका पालन करनेवाले हैं, इसलिये तुम्हें और यशोदाको वह थोडेही दिनों में आनकर आनन्द देंगे॥३४॥ सब यादवोंके वैरी कंसको रंगभूमिमें मार तुम्हारे पास आनकर
श्रीकृष्णचन्द्रने जो वचन कहा था, उसे अवश्य सत्य करैंगे॥३५॥ हे बडभागियो! अब तुम कुछ खेद मत करो, कृष्णको अपने पासही देखोगे, क्योंकि जैसे लकडीमें ज्योति रहतीहै उसी प्रकार सब प्राणियोंके हृदय में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रहतेहैं॥३६॥ श्रीकृष्णचन्द्रको न कोई प्यारा है न कोई कुप्यारा है, न कोई उत्तम है, न कोई अधम है, न कोई समान है, न कोई विषम है और न उन्हें अभिमान है, वह तो समदृष्टिहैं॥३७॥ न उनके माता है, न पिता है, न स्त्री है, न पुत्रादिक हैं, न उनके देह है और उनका जन्म भी नहीं है॥३८॥ इन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कर्मभी नहीं हैं क्योंकि वह तो संसारमें देवादिक, मनुष्यादिक, नृसिंहादिकोंकी जो योनि हैं, उनमें खेलनेके लिये और साधुपुरुषोंकी रक्षा करनेके लिये
माखिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमंतिके॥ अंतर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि॥३६॥ न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वाऽस्त्यमानिनः॥नोत्तमो नाधमो वाऽपि समोनास्यासमोऽपि वा॥३७॥ न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः॥ नात्मीयो न परश्वापि न देहो जन्म एव च॥३८॥ न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु॥ क्रीडार्थं सोपि साधूनां परित्राणाय कल्पते॥३९॥ सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्॥क्रीडन्नतीतोऽत्र गुणैः सृजत्यवति हंत्यजः॥४०॥ यथा भ्रमरिकदृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते॥ चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः॥४१॥युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः॥ सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः॥४२॥ दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च॥ विनाऽच्युताद्वस्तुतरां न वाच्यं स एव सर्वं परमार्थभूतः॥४३॥
प्रगट होते हैं॥३९॥ निर्गुण भगवान् सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, इन तीन मायाके गुणोंको अंगीकार करतेहैं और निर्गुणसे अलग अजन्मा भगवान् क्रीडा करके विश्वको उत्पन्न, पालन तथा संहार करतेहैं॥४०॥ जैसे बालक चाँईं मांईं फिरताहै तब उसकी दृष्टि फिरती है और उससे पृथ्वी फिरतीसी दिखलाई देती है, इसी प्रकार चित्त जो कर्त्ता है, उसमें अहंकारसे आत्मा भी कर्तासा दिखाई देताहै॥४१॥ यह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारेही पुत्र नहीं हैं, बरन सबके पुत्र हैं, आत्मा हैं, पिता हैं, माता हैं और ईश्वरोंके ईश्वर हैं॥४२॥ जो कुछ दीखता है और जो कुछ
होचुका और जो होता है और जो होगा और जो स्थावर जंगम हैं, जो कुछ बड़ा छोटा है, सो सब श्रीकृष्णचन्द्रके विना अतिशय करके कहनेके योग्य नहीं है. परमार्थ रूप श्रीकृष्ण हैं सोई सर्वरूप हैं॥४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! इसी प्रकार वार्ता करते करते सब रात्रि बीत गई और गोपियें प्रातःकालको उठ, दीवे बाल, देहलियोंका पूजनकर, दही मथने लगीं॥४४॥ दीवोंसे प्रकाशमान मणियोंके जड़ाऊ गहनोंसे उस समय वह गोपियें अत्यन्त शोभायमान लगनेलगीं, नेतियोंके खैंचनेसे भुजाओंके चूरी कंकण हिल रहे हैं, नितम्ब हिलते जाते हैं, स्तनोंपर हार भी हिलता है, कुण्डलोंसे प्रकाशमान कपोल और अरुण केशरकी खौर मुखपर लगी है॥४५॥ कमलदललोचन भगवान्
एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता नंदस्य कृष्णानुचरस्य राजन्॥ गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्वास्तृन्समभ्यर्च्यदधीन्य मंथन्॥४४॥ ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू रज्जूर्विकर्षद्भुजकंकणस्त्रजः॥ चलन्नितंबस्तनहारकुंडलत्विषत्कपो लारुणकुंकुमाननाः॥४५॥उद्गायतीनामरविंदलोचनं ब्रजांगनानां दिवमस्पृशुद्धनिः॥ दध्नश्च निर्मंथनशब्द मिश्रितो निरस्यते येन दिशाममंगलम्॥४६॥ भगवत्युदिते सूर्ये नंदद्वारि व्रजौकसः॥ दृष्ट्वा रथं शातकौंभं कस्यायमिति चा
वन्॥४७॥ अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः॥ येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः॥४८॥
श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र जब व्रजबालाओंने गाया, तब वह गीत स्वर्गतक पहुॅचा और दहीके मथनेका शब्द भी उस गीतमें मिल रहा था, उन गोपियोंके गीतोंसे दिशाओंके सब अमंगल दूर होजातेहैं॥४६॥ भगवान् सूर्यके उदय होनेपर नंदरायजीके दरवाजेपर सुनहरी साजका रथ खड़ा देखकर “यह किसका रथ है” इसप्रकार कहते व्रजवासी नर नारी कहने लगे॥४७॥ कि, क्या कंसके कार्यका साधक अक्रूर आया है?जो कम लदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मथुरा लेगयाहै फिर अपने स्वामीको मरवाकर अब क्यों आया? अब क्या हमैंलेजाकर हमारे मांसके पिंड
बनाकर देगा! इस प्रकार गोपियें आपसमें बातें करही रहीथीं कि, इननेहीमें उद्धवजी संध्योपासनादि नित्यकर्म करके आये॥४८॥४९॥इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥ दोहा- उद्धव सैंतालीसमें, पायं कृष्ण आदेश। गोपिनको जाके दियो, तत्त्वज्ञान उपदेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित! लम्बी भुजा, नवीन कमलसे नेत्र, पीताम्बर पहरे कमलकी माला धारण किये, प्रकाशमान मुखारविन्द स्वच्छ कानोंमें कुण्डल पहरे कृष्णके अनुचर उद्धवजीको देख व्रजकी स्त्रियोंको परम आश्चर्य प्राप्त हुआ और परस्पर कहने लगीं॥१॥ कि, सुन्दर रूप यह कौन है, कहॉसे आया है? भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकेसा वेष हैं, वैसे ही गहने पहर रहा है, इसप्रकार
किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम्॥इति स्त्रीणां वदंतीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्ध नंदशोकापनयनंनाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥ श्रीशुक उवाच॥ तं वीक्ष्य कृष्णा नुचरं व्रजस्त्रियः प्रलंबबाहुं नवकंज लोचनम्॥पीतांबरं पुष्करमालिनं लसन्मुखारविंदं परिमृष्टकुंडलम्॥१॥शुचि स्मितः कोऽयमपीच्यदर्शनः कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः॥इति स्म सर्वाः परिवबुरुत्सुकास्तमुत्तमश्लोकपदांबुजाश्र, यम्॥२॥तं प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः॥रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने विज्ञाय संदेशहरं रमापतेः॥३॥ जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्॥भर्त्रेह प्रेषितः पित्रोर्भवान्प्रियचिकीर्षया॥४॥अन्य था गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे॥स्नेहांनुबंधो बंधूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः॥५॥
सब गोपियोंने श्रीकृष्णचंद्रके चरणारविन्दका भक्त जान उद्धवजीको चारों ओरसे घेरलिया॥२॥और अत्यन्त आधीनतासे नम्र हो, लाजभरी हॅसन, चितवन तथा मीठी वाणीसे सत्कारकर एकान्त आसनपर बैठें उद्धवजीको श्रीकृष्णचन्द्रके पाससे संदेशा लेकर आये जान, वह गोपियें पूछने लगीं॥३॥कि, हमें जान पड़ता है तुम श्रीकृष्णचन्द्रके सेवक हो और माता पिताके प्रसन्न करनेको तुम्हें श्रीकृष्णचन्द्रने भेजा हैं॥४॥क्योकि इस व्रजमें और कोई ऐसा नहीं है, जो उन्हें स्मरण आंवे और माता पिताका तो स्नेह बड़े वैराग्यवान् पुरुषपर भी नहीं छूट सक्त
इसी कारण औरोंसे यहाँ अपने कार्य के लिये मित्रता जनाई, जबतक काम पडा, तबतक मित्रता रक्खी, जैसे पुरुष स्त्रियोंसे प्यार करता है और भौरा फूलोसे प्यार रखता है, यह स्वार्थदीकी प्रीति है॥५॥६॥ यद्यपि उन श्रीकृष्णचन्द्रने हमसे प्रीति करी थी, परन्तु तौभी दरिद्रीपुरुषको जैसे वेश्या त्याग देती है, प्रजा असमर्थ राजाको त्यागदेती है और दक्षिणापाकर पुरोहित जैसे यजमानको त्याग देता है॥७॥पक्षी जैसे फलरहित वृक्षको छोड देते हैं, अभ्यागत भोजन करके जैसे गृहको त्याग देतेहैं, जारपुरुष भोग करके जैसे स्त्रीको त्यागदेताहै, उसीप्रकार भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र हमको त्यागकर चलेगये॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित! भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके दूत उद्धवजी जिस समय व्रजमें
अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडंबनम्॥ पुंभिः स्त्रीषु कृतां यद्वत्सुमनस्स्विव षट्पदैः॥६॥ निस्स्वं त्यजति गणिका अकल्प नृपति प्रजाः॥अधीतविद्या आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम्॥७॥ खगो वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम॥ दग्धं मृगास्तथाऽरण्यं जारी मुक्ता रतां स्त्रियम्॥८॥ इति गोप्यो हि गोविंद गतवाक्कायमानसाः॥ कृष्णद्वते व्रजं याते उद्धवे त्यक्तलौकिकाः॥९॥ गायंत्यः प्रियकर्माणि रुदत्यश्च गतह्रियः॥ तस्य संस्मृत्यसंस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः॥॥१०॥ काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायंति कृष्णसंगमम्॥ प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत्॥११॥ गोप्युवाच॥ मधुप कितवबंधो मा स्पृशांध्रिंसपत्न्याः कुचविलुलितमालाकुंकुमश्मश्रुभिर्नः॥ वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं यदुसदसि विडंव्यं यस्य द्रुतस्त्वमीदृक्॥१२॥
आये, उसीसमय गोपियोंकी वाणी, देह, मन, इत्यादि गोविंदमै जायलगे, अधिक क्या कहें, लौकिकव्यवहार खानपानादिक भी सब छूटगये॥९॥ अपने प्यारेके कर्मोंकोगानेलगी और भगवान् केशवमूर्ति बाल अवस्था तथा तरुण अवस्थाकै जो चरित्र थे, उनको याद कर, लाज त्याग, रोतीहुईं उद्धवजीसे पूछनेलगीं और कोई एक गोपी उद्धवजीका स्वरूप देख, श्रीकृष्णके संगका ध्यान कर भौरेको देख उसे प्यारेका भेजाहुआ दूत जान वक्ष्यमाण वचन कहनेलगीं, अर्थात् भौरेके बहाने उद्धवजीसे कहने लगीं॥१०॥११॥ गोपी बोली कि, हे मधुप! हे कपटी मित्र! हमारे चरणोंका स्पर्श मत करै, क्योंकि भौंरका देह तो काला और मुख पीला होता है और तेरे तो सोतके कुचसे मीठी पुष्पोंकी
मालाकी केशर डाढी मूछोंमें लगीहै, जो तू स्पर्श करेगा तो हमें स्नान करना पडेगा, यदि कहो कि, मुझे तो तुम्हारे प्रसन्न करनेको श्रीकृष्णचन्द्रने भेजाहै, सो तुम जाकर मथुराकीही स्त्रियोंको प्रसन्न करो, जैसे तू हमारे पास आया है, इसी प्रकार यादवोंकी स्त्रियोंके पास भी गयाहोगा, परन्तु यादवोंकी सभामें इस बातकी हँसी हुई होगी कि, कृष्णका दूत ऐसा निर्लज्ज है॥१२॥ जैसा तू है, वैसाही तेरा स्वामी है, जैसे तू फूलोंकी सुगंधिले उसी समय उनको छोड़देताहै, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने भी मोहित करनेवाला अपने अधरोंका अमृत एकबार पिलाय हमको त्यागन करदिया, परन्तु बड़े आश्चर्यकी बात है कि, लक्ष्मी उनके चरण कमलका कैसे सेवन करतीहै, अनुमान होता है कि, श्रीकृष्णके मीठे मीठे वचनोंसे उसका चित्त हरगया होगा, इसीलिये वह पड़ी रहती है॥१३॥ हे भ्रमर! तू हमारे प्रसन्न करनेको श्रीकृष्णचरित्र क्यों गाता है,
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्॥ परिचरति कथं तत्पादपद्मं तु पद्मा ह्यपि बत हृतचेता उत्तमश्लोकजल्पैः॥१३॥ किमिह बहु षडंघ्रे गायसि त्वं यदूनामधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्॥ विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसंग क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयंतीष्टमिष्टाः॥१४॥ दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तहुरापाः कपटरुचिरहासभ्रुविजृंभस्य यास्स्युः॥ चरणरज उपास्ते यस्य भृतिर्वयं का अपि च कृपणपक्षे ह्यु त्तमश्लोकशब्दः॥१५॥ विसृज शिरसि पादं वेदयहूं चाटुकारैरनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुंदात्॥ स्वकृत इव विसृष्टापत्यपत्यन्यलोकाः व्यसृजदकृतचेताः किं नु संधेयमस्मिन्॥१६॥
क्योकि हमनें तो घर इत्यादि भी त्याग दिया है, श्रीकृष्णकी सखी मथुराकी जो स्त्रियें हैं, उनके आगे उनका प्रसंग गा, जिनकी कामाग्नि वह शान्त करतेहैं, वह प्यारी सखियें तुझे रीझकर कुछ देंगी॥१४॥ हे कपटी कपटभरी रुचिर हॉसीवाले श्रीकृष्णचन्द्रकी भ्रुकुटीकी मरोर ऐसी है कि, स्वर्ग, पृथ्वी और पातालकी स्त्रिये भी उन्हें दुर्लभ नहीं हैं, लक्ष्मीजी जिनके चरणरजकी सेवा करती हैं, वहाँ हमारी क्या चलसक्ती है, परन्तु तौभी हमने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका उत्तमश्लोक नाम सुनाहै, सो जब हम गरीबनियोंकी सुधि लेंगे, तब वह नाम रहेगा, नहीं तो जाता रहेगा॥१५॥ अपने शिरको मेरे पाँवोंमेंसे उठाले, क्योंकि मैं तेरी संपूर्ण घातें जानतीहूं, तू मुकुंद श्रीकृष्णचन्द्रसे दूतकर्म सीखकर
चतुर होगया है, देखो हमने इस संसारमें श्रीकृष्णचन्द्रकेलिये पति, पुत्र, लोक, परलोक सब छोड़ दिया और वह हमें छोड़कर चलेगये, अब उससे हमें क्या मिलाप करना? इस प्रकार गोपियें कहनेलगीं॥१६॥फिर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पहले कर्मोंकी सुधि करके कहनेलगीं कि हम को श्रीकृष्णसे भय लगता है क्योंकि पहले अयोध्यामें राजा दशरथके पुत्र रामचन्द्र हुये, तो सुग्रीवकी ओर होकर वधिक समान वालिको मारा; व्याध तो मांस खानेके लिये मारे है परन्तु इन्होंने तो व्यर्थही मारा, बंदरका कोई मांस नहीं खाताहै, दूर्वादलश्यामके सुन्दर रूपपर रीझकर रावणकी बहन शूर्पणखा आई, तो लक्ष्मणको सिखा, स्त्रीके वश हो उसके नाक कान काटलिये फिर वामन अवतार लेकर काकके समान आचरण कर राजा बलिकी भेंट पूजा ले उसीको बॅाधदिया इस कारण हम इस कालेकी मित्रतासे अघायगईं, अब कभी भूलकर भी, कालोंसे मित्रना न करेंगी
मृगयुरिव कपींद्रं विव्यधे लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्॥बलिमपि बलिमत्त्वाऽवेष्टय द्धांक्षवद्यस्तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथाऽर्थः॥१७॥यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रट्सकृददनविधूतद्वंद्वधर्मा विनष्टाः॥ सपदि गृहकुटुंबं दीनमुत्सृज्य दीना बहव इह विहंगा भिक्षुचर्यां चरंति॥१८॥वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः॥ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्रस्मररुज उपमंत्रिन्भ ण्यतामन्यवार्ता॥१९॥
तब उद्धवजी बोले कि, मैं जिस समय से आयाहूं तुम उनकीही बातें कर रही हो, तो गोपी बोलीं कि, जैसे उनमें और गुण हैं उसी प्रकार यह अवगुण है यद्यपि उनको दुःखदायी जानती हैं, परन्तु तौ भी उनकी बातोंका छूटना तो हमसे महाकठिन है॥१७॥ जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लीलाचरित्ररूपी अमृतका कानोंमें एक कणका भी स्वाद लेलियाहै, वह राग, द्वेष, त्याग असत्यके तुल्य हो दुःखरूप पुत्र पौत्रादिकों को त्याग भोगोंको छोड़ पक्षीके समान घर घर भीख माँगते फिरते हैं॥१८॥जैसे अज्ञानी कृष्णसार हरिणकी स्त्री हारणी वधिकके गीतसे मोहित होकर घायल होजाती है उसी प्रकार हमने कपटी श्रीकृष्णका वचन सत्य मानकर यह देखा, जिनके नखोंके स्पर्शसे हमैभी कामदेवकी पीड़ा उत्पन्न हुई,
इसलिये हे दूत! उस कपटीकी बात, जानेदे और बात कहु॥१९॥ हे प्यारेके सखा! क्या तू फिर आया, तुझे प्यारे कृष्णने भेजा है, इस कारण हे दूर्त! तू पूजा करने के योग्य है और जो तुझे इच्छा हो सो वर माँग, क्या लक्ष्मीका संग, न छोड़नेवाले, श्रीकृष्णचन्द्र के पास हमें लेचलना चाहता है परन्तुः कैसे लेजायेगा, क्योंकि उनके वक्षस्थलमें तो लक्ष्मीजी, संगही रहती हैं इसलिये हमारा क्या प्रयोजन है॥२०॥ हे सौम्य! भला श्रीकृष्णचन्द्र तो अभी मधुरामें वास करते हैं, कभी उन्हें अपने माता पिता नन्द यशोदा आदिकका भी स्मरण आता है और कभी अपने बंधु बांधवोंकीभी याद करते हैं, कभी गोपोंका भी स्मरण करते हैं और कभी हमारी बात भी चलाते हैं, अगरके समान सुगंधवाली भुजा कभी हमारे शिरपर भी आनकर
प्रियसखा पुनरागाः प्रेयसाः प्रेषितः किं वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेंग॥ नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वंद्वपार्श्वे सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते॥२०॥ अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनाऽस्ते स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बंधूंश्च गोपान्॥ क्वचिदपि स कथा नः किंकरीणां गृणीते भुजमगुरुसुगंधं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथोद्धवों निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः॥ सांत्वयन्प्रियसंदेशैर्गोपीरिदमभाषत॥२२॥ उद्धव उवाच॥ अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः॥ वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः॥२३॥ दानव्रतत पोहोमजपस्वाध्यायसंयमैः॥ श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते॥२४॥ भगवत्युत्तमश्लोके भवतीभि रनुत्तमा॥ भक्तिः, प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा॥२५॥
धरेंगे॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! इस प्रकार उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी चाहना गोपियोंकी सुन भगवान् श्री कृष्णचन्द्र के संदेशको समझानेलगे॥२२॥ उद्धवजी बोले कि, हे गोपियो! तुमने भगवान वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाया है इस लिये तुम निश्चय कृतार्थ होगईं और संपूर्ण लोकों में तुम्हारा यश होगा॥२३॥ क्योंकि दान, व्रत, तप, होम, जप, यज्ञ, वेदपाठ, इन्द्रियों का रोकना और अनेक प्रकार के कल्याणके उपाय सब करने का फल यही है, जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें भक्ति हो॥२४॥बड़े मुनीश्वरोंको दुर्लभ भक्ति तुमने
उत्तमश्लोक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें करी, यह बड़ा मंगल है <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736323726Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥२५॥ पति, पुत्र, देह, भाई, बंधु और अपने घरोंको त्याग परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको तुमने अपना पति करा, यह बहुत बड़ा मंगल हुआ॥२६॥ हे बडभागियो! इन्द्रियोंकी जिनमें गम नहीं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें विरहसे एकान्तं भक्ति तुम्हें उत्पन्न हुई, यह तुमने मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया॥२७॥ हे मंगलरूपिणियो! तुमको सुख देनेवाले प्यारेका संदेशा कहता हूॅसो सुनो, श्रीकृष्णचन्द्रके रहस्यकार्यके करनेवाले संदेशको लेकर मैं आया हूँ॥२८॥उद्धवजी गोपियोंसे भगवान्ने श्रीमुख से जो
दिष्टया पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च॥ हित्वाऽवृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम्॥२६॥ सर्वा त्मभावोधिकृतो भवतीनामधोक्षजे॥विरहेण महाभागामहान्मेऽनुग्रहः कृतः॥२७॥ श्रूयतां प्रियसंदेशो भवतीनां सुखावहः॥ यमादायागतो भद्रा अहं भर्त्तुरहस्करः॥२८॥श्रीभगवानुवाच॥ भवतीनां वियोगो में न हि सर्वात्मना क्वचित्॥ यथा भूतानि भूतेषु ख वाय्वग्निर्जलं मही॥ तथाऽहं च मनः प्राणभूतेंद्रियगुणात्मना॥२९॥ आत्मन्ये वात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये॥ आत्ममायानुभावेन भूतेंद्रियगुणात्मना॥३०॥
वचन कहे थे, सो कहने लगे, श्रीभगवान्ने उपदेश किया है कि, सबका उपादान कारण मैं हूँ सो मुझसे तुम कभी दूर नहीं हों जैसे आकाश, पवन, जल, पृथ्वी, तेज ये पंचतत्त्वं समस्त प्राणियोंकी देह में रहते हैं॥२३॥ उसी प्रकार मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय और गुण इनका आश्रय हूं, अपनेमें अपनेसे अपनेको उत्पन्न करता हूं और अपनी मायके प्रभावसे पंचभूत इन्द्रियें तीनोंगुण इनरूप जो अपनपो है, इसीलिये सृष्टिको
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*** शंका—**गोपियोंने क्या, बडी मक्ति कृष्णमें की थी कि, जिस मक्तिकी प्रशंसा उद्धवजीने करी क्या ऐसी भक्ति योगोलोग नहीं करसक्ते यद्यपि कोई कहें कि, पति आदि सब परिवारसे कपट करके मग वान श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रीति गोपियोंने करी तो कुटुम्बसे कपट करना यह कौनसा उत्तम कर्म है, कपटको तो मुनि, लोग क्या सवही लोग बुरा कहते हैं॥
**उत्तर—**कपट करके जो ऊपरसे नवधा भक्ति मी करे सो मुक्ति नहीं वह तो धर्मके फाटनेके लिये कतरनी है मनुष्यके ऊपर तो भक्तिका लक्षण एकभीनहीं दीखपडे और मनमें सब भक्तिके लक्षण होय वह भक्ति मुक्तिकी देनेवाली है गोपियोंने ऊपरसे तो निन्दारूप कर्म किये और मनमें भक्तिका सब लक्षणं करती थीं, इसलिये उद्धवने कहा कि गोपियोंने जो मुक्ति भगवान्को की है सो भक्ति मुनिजनोंको दुर्लभ है
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उत्पन्न पालन और नाश करता हूं॥३०॥ यहाँ यह शंका है कि, आत्मा पंचभूत रूप होय तो उसे पंचभूतोंके संग दोष लगता है, इसका उतर देते हैं कि, आत्मा तो शुद्ध है, क्योंकि मायाके गुणोंमें जाता है सबसे अलग और ज्ञानरूप है, अहंकारके कारण जाननेमें नहीं आता, आत्माकी न्यारी अवस्था है, शुद्धता कैसे? तो कहते हैं सुषुप्ति, स्वप्न, जाग्रत् यह जो मनकी वृत्ति हैं, उनसे प्रतीत होता है॥३१॥जैसे जागताहुआ मनुष्य स्वप्नको झुंठाही जानताहै, उसी प्रकार पण्डितजन जिनको झूठा मानते हैं, ऐसे विषयोंका जिनसे चिंतवन कियाजाता है और चिंतवन करते इन्द्रियों पर असर होता है, उस मनको आलस्य त्यागकर रोकना चाहिये॥३२॥ जब जिस मनुष्यका मन रुक जाता है तब वह पुरुष कृतार्थ होताहै और यह कहते हैं कि, वेद पढ़नेका, अष्टांगयोग करनेका अनात्माके विचार करनेका त्याग, सब इन्द्रियोंका जीतना सत्य बोलना, इत्यादि कर्मोंसे विवेकी
आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः॥ सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते॥३१॥ येनेंद्रियार्थान्ध्यायेत मृषास्वप्नवदुत्थितः॥तन्निरुंध्यादिंद्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत॥३२॥ एतदंतः समाम्नायो योगः सांख्यं मनीषिणाम्॥ त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रांता इवापगाः॥३३॥ यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्॥ मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया॥३४॥ यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते॥ स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षगोचरे॥३५॥ मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्॥ अनुस्मरंत्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ॥३६॥ या मया क्रीडता रात्र्या वनेऽस्मिन्व्रज आस्थिताः॥ अलब्धरासाः कल्याण्यो माऽऽपुर्मद्वीर्यचिंतया॥३७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रिय तमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः॥ ता ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्संदेशाऽऽगतस्मृतीः॥३८॥
पुरुषोंसे मन रुकता है, यही फल है जैसे नदियोंका अंत समुद्रमें होता है॥३३॥३४॥ जैसे दूर रहे प्यारेमें स्त्रीका मन लगा रहताहै और जो सदा नेत्रोंके आगे रहे उसमें चित्त नहीं रहता॥३५॥ यदि संपूर्णवृत्ति त्याग मनको मुझ (कृष्ण) में लगाये नित्य मेरा ध्यान करती रहोगी तो शीघ्र मुझे प्राप्त होगी॥३६॥ हे मंगलरूपिणियो! जिस समय मैंने रात्रिके समय वृन्दावनमें रासक्रीड़ा करी थी, उस समय जिन गोपियोंको उनके स्वामियोंने रोकलिया था और इसी कारण वह रासक्रीड़ामें न आ सकीं तब वह मेरी लीलाओंका ध्यान करके मुझेही प्राप्तहुईं॥३७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! इसप्रकार अपने प्यारे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके उपदेशको सुनकर व्रजकी गोपियें प्रसन्न हो उनका स्मरण कर उद्धवजीसे बोलीं॥३८॥
सब गोपियें कहनेलगी कि, यादवोंका दुःख देनेवाला अपने भृत्योंसहित राजा कंस मारागया, यह बडा मंगल हुआ और पूर्ण मनोरथको प्राप्त अपना हित करनेवालोंसहित श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न हैं, यह भी बडा मंगल है॥३९॥ हे साधु उद्धव! रामका छोटा भाई कृष्ण हमसे जो प्रीति करता था, सो प्रीति क्या अब मथुराकी स्त्रियोंसे करता है? वह लाजभरी हॅसनि और उदार भरी चितवनिसे उनका सत्कार करते हैं?॥४०॥ रतिविशेषके जाननेवाले प्यारे कृष्ण मथुराकी स्त्रियों के वचनोंसे विलासोंसे सब सत्कार करेंगी, तब कैसे न बॅधेंगे॥४१॥ हे साधु उद्धव! भगवान् गोविंद प्रसंग पाय मथुराकी स्त्रियोंकी सभामें बैठ जब कभी बातें करतेहैं, तब ग्रामकी स्त्रियें हमारा भी कभी स्मरण करतेहैं?॥४२॥ हे उद्धवजी!
गोप्य ऊचुः॥ दिष्ट्याऽहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोऽघकृत्॥ दिष्ट्याऽऽप्तैर्लब्धसर्वार्थैः कुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना॥॥३९॥ कच्चिद्गदाग्रजः सौम्य करोति पुरयोषिताम्॥ प्रीतिं नः स्निग्धसव्रीडहासोदारेक्षणार्चितः॥४०॥ कथं रतिवि शेषज्ञः प्रियश्च वरयोषिताम्॥ नानुबध्येत तद्वाक्यर्विभ्रमैश्वानुपूजितः॥४१॥ अपि स्मरति नः साधो गोविंदः प्रस्तुते क्वचित्॥ गोष्ठीमध्ये पुरस्त्रीणां ग्राम्याः स्वैरकथांतरे॥४२॥ ताः किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभिवृंदावने कुमुद कुन्दशशांकरम्ये॥ रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्यामस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित्॥४३॥ अप्येष्यतीह दाशार्ह स्तप्ताः स्वकृतया शुचा॥ संजीवयन्नु नो गात्रैर्यथेद्रो वनमंबुदैः॥४४॥ कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हता हितः ॥ नरेंद्रकन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको कभी उन रात्रियोंका भी स्मरण आता है कि, जिनमें कुमोदिनी कुंद फूलरहेथे और चन्द्रमाकी चॉदनीसे रमणीय वृन्दावनमें पाँवोमें नूपुर बजते जाते थे और हमारे संग रमण करते थे और हमने उनकी स्तुति की अब वह कभी हमें याद करतेहैं या नहीं ?॥४३॥ जैसे ग्रीष्मऋतुसे दग्ध वनके सींचनेको इन्द्र आता है, उसीप्रकार उन कृष्णके दिये शोकसे जलीहुई हमको हाथके स्पर्शसे जीवन देते दाशार्हवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र कभी यहॉ आवेंगे, या नहीं?॥४४॥ अब श्रीकृष्णचन्द्र यहां क्यों आवेंगे, क्योंकि अब उन्हें राज्य मिलगया, शत्रु मारेगये राजा
ओंकी कन्या व्याहलीं सब मित्र उनके पास हैं, इसलिये वह वहॅाही प्रसन्न हैं यहॅाआनकर क्या करेंगे॥४५॥लक्ष्मीके पति पूर्णकाम श्रीकृष्णको रहनेवाली हमसे और राजाओंकी कन्याओंसे क्या प्रयोजन है॥४६॥आशाका त्यागही बडा सुखहै; यह पिंगलावेश्याने (एकादशस्कन्धमें) कहा है कि, निराशाके समान सुख नहीं है, यद्यपि यह जानती हैं, परन्तु तोभी हमारी आशा छूटनी अत्यन्त कठिन है॥४७॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी एकान्तकी बातें त्यागनेको कौन समर्थ है, यद्यपि उनके रखनेकी इच्छा नहीं, परन्तु तौभी लक्ष्मी अंगसे अलग नहीं होती है॥४८॥ हे उद्धव! बलदेवजीके संग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जिनमें विचरण करते थे, वह नदियें, पर्वत, वनके प्रदेश, गौ, बाँसुरीका शब्द॥४९॥
किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मनः॥श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेताऽर्थः कृतात्मनः॥४६॥परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिंगला॥तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाऽप्याशा दुरत्यया॥४७॥क उत्सहेत संत्यक्तमुत्तमश्लो कसंविदम्॥अनिच्छतोऽपि यस्य श्रीरंगान्न च्यवते क्वचित्॥४८॥सरिच्छैलवनोद्देशा गांवो वेणुरवा इमे॥संकर्ष णसहायेन कृष्णेनाऽऽचरिताः प्रभो॥४९॥पुनःपुनः स्मारयति नंदगोपसुतं व्रत॥श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तु नैव शक्नुमः॥५०॥गत्या ललितयोदारहासलीलावलोकनैः॥माध्व्या गिरा हृतधियः कथं तद्विस्मरामहे॥५१॥हे नाथ हे रमानाथ ब्रजनाथार्तिनाशन॥मग्नमुद्धर गोविंद गोकुलं वृजिनार्णवे॥५२॥
यह सब बेर बेर श्रीकृष्ण के चरित्रोंकी याद दिलाते हैं, लक्ष्मीके आस्पद उनके चरणचिह्न देख हमभी विस्मरण नहीं करसक्तीं॥५०॥मनोहर चलन, उदार हॅसनि, लीला पूर्वक चितवनि, मनोहर वचन इनसे जिन्होंने हमारी बुद्धि हरली, उन श्रीकृष्णचन्द्रको हम कैसे भूलसक्ती हैं॥५१॥इसके उपरान्त वे सब गोपियें मथुराकी ओरको हाथ उठाय. पुकारनेलगी कि, हे रमानाथ हे व्रजनाथ! हे दुःख हरनेवाले! हे गोविन्द! यह नाम तो गायोंका पालन करोगे तभी रहेगा, नहीं तो इस नामसे हाथ धोबैठो और आपको स्मरण होगा कि, इन्द्रने जब वर्षा करी थी, तो तुमने संकल्प किया था कि मैं अपने व्रजकी रक्षा करूंगा, सो अब तो तुम्हारेही विरहरूपी समुद्र में संपूर्ण गोकुल डूब जाता है, इसका
शीघ्र आनकर उद्धार करो॥५२॥श्रीशुकदेवजी बोले कि हे महाराज! श्रीकृष्णके संदेशसे विरह ताप मिटाय उन गोपियोंने श्रीकृष्णचन्द्रको परमेश्वर जान और परमेश्वरको अपना आत्मा निश्चय कर उद्धवजीकी पूजा करी॥५३॥गोपियोंका शोक दूर करनेके लिये कितनेही मास उद्धवजीने व्रजमें वास किया और श्रीकृष्णकी लीला कथाओंको गाय गाय व्रजवासियोंको परमानन्द दिया॥५४॥जितने दिनोंतक उद्धवजीने व्रजमें वास किया, वह दिन व्रजवासियोंको श्रीकृष्णकी लीलासे क्षणके समान बीतिगये॥५५॥नदी, पर्वत, वन, गुफा, पुष्पित वृक्ष इत्यादिकोंको देख हरिदास उद्धवजी व्रजवासियोंको श्रीकृष्णचन्द्रका स्मरण करानेलगे॥५६॥गोपियोंके चित्तको इस प्रकार श्रीकृष्णमें लीन होनेसे व्याकुल देख
श्रीशुक उवाच॥ततस्ताः कृष्णसंदेशैर्व्यपेतविरहज्वराः॥उद्धवं पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वात्मानमधोक्षजम्॥५३॥उवास कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुदञ्छुचः॥कृष्णलीलाकथां गायन्रमयामास गोकुलम्॥५४॥या वंत्यहानि नंदस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः॥व्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया॥५५॥सरिद्वनगिरिद्रो णीर्वीक्षन्कुसुमितान्दुमान्॥कृष्णं संस्मारयन्रेमे हरिदासो व्रजौकसाम्॥५६॥दृद्वैवमादि गोपीनां कृष्णाऽऽवे शात्मविक्लवम्॥उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ॥५७॥ एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो गोविंद एव निखिलात्मनि रूढभावाः॥वांछंति यद्भवभियो मुनयो वयं च किं ब्रह्म जन्मभिरनंतकथारसस्य॥५८॥क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः॥ नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षाच्छ्रेयस्तनोत्य गदराज इवोपयुक्तः॥५९॥
परम प्रसन्न हो गोपियोको दण्डवत् करके कहनेलगे॥५७॥ इन गोपोंकी स्त्रियोंका पृथ्वीपर जन्म सफल है क्योंकि सबके आत्मा गोविन्दमें इनका अत्यन्त प्रेम हुआ है जिस प्रेमको संसारसे भयभीत मुमुक्षु पुरुष और मुक्त और हम भक्त इच्छा करते हैं अनंत श्रीकृष्णचन्द्रकी कथामें जिसका अनुराग है उसे ब्रह्मजन्मसे क्या प्रयोजन है, अथवा एक तो शुद्ध माता पितासे, द्वितीय गायत्री उपदेशसे, तृतीय यज्ञदीक्षासे जो ब्राह्मणके तीन जन्म हैं, उनसे क्या प्रयोजन है॥५८॥ वृंदावनकी विचरनेवाली व्यभिचार दृष्टिसे दूषित गोपस्त्रियें कहाॅऔर परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रमें
आरूढ़भाववाले मन कहॉ क्योंकि निरंतर भगवान्को स्मरण कर अज्ञानी पुरुष भी कल्याण प्राप्त करता है, जैसे अमृतका सेवन करनेवाला पुरुष अमर होजाताहै॥५९॥ सर्वकाल अंगमें रहनेवाली लक्ष्मीपरभी यह प्रसन्नता न हुई और कमलके गन्धकीसी कान्तिवाली देवांगनाओंको भी जो प्रसाद नहीं मिला, सो रातके उत्सवमें श्रीकृष्णचन्द्रके भुजदण्डोंमें गलबाहीं डाल व्रजसुन्दरियोंको मिला॥६०॥ इन गोपियोंके चरणरजका सेवन करनेवाले वृंदावनमें गुल्म, लता औषधियोंमें कुछेक मेरा जन्म हो, जो गोपियें दुस्त्यज अपने भाई, बंधु बडोंके मार्गको त्याग वेदगम्य मुकुंद श्रीकृष्णचन्द्रके मार्गका सेवन करती हैं॥६१॥ जिन्होंने लक्ष्मीसे पूजित पूर्णकाम ब्रह्मादिक देवता और योगेश्वर अपने हृदयमें
नायं श्रियोंग उ नितांतरतेः प्रसादः स्वर्योषितां नलिनगंधरुचां कुतोऽन्याः॥रासोत्सवेऽस्य भुजदंडगृहीतकंठलब्धा शिषां य उदगाद्रजवल्लवीनाम्॥६०॥आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृंदावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्॥या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुंदपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥६१॥या वै श्रियाऽर्चितमजादिभिराप्तकामै र्योगेश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ट्याम्॥ कृष्णस्य तद्भगवतश्चरणारविंदं न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम्॥॥६२॥वंदे नंदव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः॥यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥६३॥श्रीशुक उवाच॥अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नंदमेव च॥ गोपानामंत्र्य दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम्॥६४॥तं निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः॥नंदादयोऽनुरागेण प्रावोचन्न श्रुलोचनाः॥६५॥
जिनका चिंतवन करते उन श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंको राससभामें स्तनोंके ऊपर घर आलिंगन करके इन गोपियोंने तापको दूर किया॥६२॥नंदके व्रजकी स्त्रियोंके चरणकी रजको मैं वारम्वार नमस्कार करता हूं, जिन गोपियोंकी गाई हरिकथा तीनों लोकोंको पवित्र करती है॥६३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसके उपरान्त उद्धवजी गोपियोंसे, यशोदासे और नंद आदिक सब ब्रजवासियोंसे आज्ञा मॉग गमनसमय अपने रथमें जा बैठे॥६४॥ उद्धवजीके विदा होनेके समय नंद आदिक सब व्रजवासी अनेक प्रकारकी भेंट हाथमें ले उद्धवजीके पास आय स्नेहसे नेत्रोंमें ऑसूभर कहने
कि, हमारे मनकी वृत्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दमें लगी है और हमारी वाणी उनका नाम लिया करती है और हमारा शरीर उन श्रीकृष्ण चन्द्रको प्रणाम करता है॥६६॥ अपने कर्मानुसार ईश्वरेच्छासे जिस किसी योनिमें हम जाये, तो जो कुछ हमने मंगलरूप कर्म करे हैं अथवा दान करेहैं उनका फल यही माँगती हैं कि, श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति बनी रहे॥६७॥ हे महाराज! इस प्रकार गोपियोंने श्रीकृष्णकी भक्तिसे उद्धव जीका सत्कार किया, तब उद्धवजी उनसे बिदा हो कृष्णपालित मथुरापुरीमें आये॥६८॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम कर व्रजवासि
मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्णपादांबुजाश्रयाः॥ वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रहृणादिषु॥६६॥ कर्मभिर्भ्राम्य माणानां यत्र कापीश्वरेच्छया॥मंगलाचरितैर्दानैर्मतिर्नः कृष्ण ईश्वरे॥६७॥ एवं सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नरा धिप॥ उद्धवः पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम्॥६८॥ कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रेकं व्रजौकसाम्॥ वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात्॥६९॥ इति श्रीमद्भा०महा०दश०पूर्वा० उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोध्यायः॥४७॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ विज्ञाय भगवान्सर्वात्मा सर्वदर्शनः॥ सैरंध्याः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन्गृहं ययौ॥१॥
योंकी भक्तिकी अधिकता वर्णन करी, इसके उपरान्त वसुदेव और बलदेवजीको प्रणाम करके राजा उग्रसेनको भेंट दी॥६९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायामुद्धवप्रतियानवर्णनं नाम सप्तचत्वारिशोऽध्यायः॥४७॥ दोहा—अड़तालिस अध्याय हरि, कुबरी रमण कराय <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736338303Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥ हस्तिनपुर अक्रूरको, दीन्हों कृष्ण पठाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसके उपरान्त सबके आत्मा और
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*** शंका—**कुबरी और कृष्णका रमण सुनि हमारे मनमें बडा भ्रम हुआ, क्या कारण जो जगत्के ईश्वर होकर कुब्जाके सग रमण किया?
**उत्तर—**सन्यासी होवै, ब्रह्मचारी होवै, वानप्रस्थ होवै, गृहस्थ होवैब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाहे स्त्री पतित होवै, चाहे नपुप्तक होवैचाहे सव कर्ममें भ्रष्ट होवै चाहे पुरुप होवैपरन्तु भगवान्की सेवा करे वही भगवान्को प्यारा है, सब कर्ममें नीच होवै तो कुछ भगवान् बुरा नहीं मानते और वडा उत्तम होवै और भगवान्की प्रीति न करे तो उसको भगवान् शत्रुसमान मानते हैं, भगवान् भक्तजनोंकी प्रेमरूप रस्सीमें बँधेहुए हैं जैसा भक्तजन भगवान्को नाच नाचते हैं, वैसा नाच भगवान् नाचते हैं, जैसे काष्ठकी पुतली नचानेवाले पुरुषके आधीन है, ऐसेही भगवान् भी भक्तोंके आधीन हैं और जैसे बैलकी नाकमें नाथ डालके मनुष्य जहाँको चाहे वहाँको लेजाताहै और वेदरूप कृष्ण, वेदकी ऋचारूप कुब्जा भगवान्की दासी, इसलिये जैसी कुब्जाने इच्छा करी बैसी भगवान्ने उसकी अभिलाषा पूर्ण करी॥ कहीं ऐसा भी
सबके देखनेवाले छः प्रकारके ऐश्वर्य युक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कामसे पीड़ित कुब्जाका प्रिय करनेके लिये उसके घर गये॥१॥ कैसा वह घर है कि जहाँ अनेक प्रकारकी बहुमूल्य वस्तु घरी हैं कामके उद्दीपन करनेवाले जिसमें चित्र लिखे हैं, मोतियोंकी झालरें लटक रही हैं, पताकायें फहरा रही हैं, चंदोवे तन रहे हैं, शय्या तथा शोभायमान आसन बिछ रहे हैं, सुगंधकी धूप लगरही हैं, दीपक प्रज्वलित हो रहे हैं, और माला, अतर, अरगजा आदिसे वह घर अत्यन्त शोभायमान हो रहा है॥२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपने घरमें आया देख कुव्जा अति
महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम्॥ मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनादिभिः॥ धूपैः सुरभिभिर्दीपैः सग्गंधैरपि मंडितम्॥२॥ गृहं तमायांतमवेक्ष्य साऽऽसनात्सद्यः समुत्थाय हि जातसंभ्रमा॥ यथोपसंगम्य सखीभिरच्युतं सभाजयामास सदासनादिभिः॥३॥ तथोद्धवः साधु तयाऽभिपूजितो न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम्॥ कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः॥४॥ सा मज्जनालेपदुकूलभूषणस्रग्गंधतांबूलसुधासवादिभिः॥ प्रसाधितात्मोपससार माधवं सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः॥५॥
शीघ्रतासे आसनपरसे उठ, घबराहटको प्राप्त हो सखियोंको सॅगलिये श्रीकृष्णचन्द्रके पास आय सुन्दर आसन बिछाय चरण धो सत्कार करने लगी॥३॥ उसी प्रकार भली भाॅति पूजित हो उद्धवजी आसन स्पर्शकर पृथ्वीमें बैठ गये और लौकिक लीलाओंके करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्रतासे सुन्दर बिछीहुई शय्यापर पहुॅचे॥४॥ इसके उपरान्त कुब्जा भी स्नान कर, चन्दन लगाय, वस्त्र पहर गहने, माला अतर, अरगजा,
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—लिखा है, कि पुष्पांगी नाम एक वेश्या थी परन्तु मनवान्की वडी मक्तिनी थी, उसने यह सुना कि, रामचन्द्र वनको गये पीछे पीछ यह भी चलदी, वनमें जाकर उसको भगवान्का दर्शन हुआ और देखकर मोहित होगई और यह चाहा कि, रामचन्द्र के साथ रमण करू एकसमय रामचन्द्रको अकेला पाकर उनकी कुटीमें जा बैठी, पीछेसे सीता भी वहा आगई और उस वेश्याको वहॉपर बैठी देखा तो बडा क्रोधकर सीताने शाप दिया कि, अगले जन्ममें तेरे सब अग भग होंगे, और तू कुबरी होगी, और राक्षसकी दासी होगी तब श्रीरामचन्द्रजीने वेश्यासे कहा कि, जब में कृष्णावतार लुगा तो तेरा मनोरथ पूर्ण करूगा, भव तू जा तव तो उस पुप्पागी वेश्याने शापके मयसे बडी स्तुति कीं, तब भगवान्ने वर दिया कि, जिस समय मेरा दर्शन तुझको होगा, उसी समय तेरा देह परमोत्तम होजायगा और एक दिन तेरे घरमें वास करूगा, उस समय तेरी सत्र मनोकामना पूरी होगी॥
ताम्बूल और अमृतके समान मादकवस्तुसे अपने को बनाय,ठनाय लाजभरी लीला पूर्वक मुसकान, कटाक्षभरी चितवनसे मोहितहुई श्रीकृष्णचन्द्रके पास आई॥५॥ नवीन समागमकी लज्जासे शंकासहित कुब्जाको बुलाकर कंकण से शोभायमान हाथको पकड शय्यापर बैठाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसके साथ रमण करनेलगे, अहो! कुब्जाका भाग्य जिसने चंदन लगानेके अतिरिक्त दूसरा कोई पुण्य नहीं किया था॥६॥ कामदेवसे पीड़ित कुच और छाती तथा नेत्रोंके तापको अनन्त श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंमें लगाय और उन चरणारविन्दको सूघि स्तनोंके मध्यमें प्राप्तहुए सुन्दर आनन्दमूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रको भुजाओंसे आलिंगनकर बहुत दिनोंसे बढे तापको त्याग दिया॥७॥ चन्दनके अर्पण करने से मोक्षके देनेवाले दुर्लभ
आहूय कांतां नवसंगमह्निया विशंकितां कंकणभूषिते करे॥प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया॥६॥सानं सानंगतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णोर्जिघ्रंत्यनंतचरणेन रुजो मृजंती॥ दोर्भ्यां स्तनांतरगतं परिरभ्य कांतमानंदमूर्तिमज हादतिदीर्घतापम्॥७॥सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम्॥ अंगरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत॥८॥ आहो ष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया॥ रमस्व नोत्सहे त्युक्तं संगं तेंबुरुहेक्षण॥९॥ तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः॥ सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितः॥१०॥ दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम्॥ यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात्कुमनीष्यसौ॥११॥ अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः॥ किंचिच्चिकीर्षयन्प्रागादक्रूरप्रिय काम्यया॥१२॥ स तान्नरवरश्रेष्ठानाराद्वीक्ष्य स्वबांधवान्॥ प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभिनंद्य च॥१३॥
श्रीकृष्णचन्द्रको पाय अभागिनी कुब्जाने यह मांगा॥८॥ अहो प्यारे! कुछ दिनों रहकर मेरे संग रमण करो हे कमलनेत्र! मैं तुम्हें त्याग नहीं सक्ती॥९॥ “एकबार तुम्हारे यहाॅनित्य आया करूंगा” इस प्रकार कुब्जाको कामवर दे उसका सन्मानकर, मान देनेवाले, ब्रह्मादिकोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीको संग लेकर अपने घर आये॥१०॥ संपूर्ण ईश्वरोंके ईश्वर, दुःखसे आराधन करनेमें आवें ऐसे विष्णु भगवान्को प्रसन्न करके जो पुरुष विषयोंका वर मांगे वह बड़ा कुबुद्धि है, क्योंकि विषय तुच्छ हैं॥११॥ बलदेव उद्धवजी संग लेकर समर्थ श्रीकृष्णचन्द्र कुछ कार्य करानेके लिये और अक्रूरका भला करनेके लिये उसके घर आये॥१२॥ अक्रूरजी मनुष्योंमें श्रेष्ठ अपने बंधु श्रीकृष्ण. बलदेवको
दूर से आते देख प्रसन्न हो मिलकर अत्यानंद को प्राप्तहुए॥१३॥तव कृष्ण वलदेव और उद्धवजीने उन्हें नमस्कार किया, इसके उपरांत अक्रूरजीने कृष्ण बलदेवको प्रणाम कर और आसन पर बैठाय उनकी पूजा करी॥१४॥हे राजन्! फिर कृष्ण वलदेवके चरणों को धोकर उस जलको अपने मस्तक पर चढ़ाया और दिव्य, चंदन, माला, वस्त्राभूषण इत्यादि भेंट दे नमस्कार किया और गोदमें चरणोंको धरके दावनेलगे, इसके उपरांत आधीनतापूर्वक नम्र हो अक्रूरजी कृष्ण वलदेवसे कहने लगे॥१५॥१६॥ कि, मंत्रियोंसहित पापी कंसको मार बड़े कष्टसे तुमने
ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः॥ पूजयामास विधिवत्कृतासनपरिग्रहान्॥१४॥ पादावनेजनीरापो धार यञ्छिरसा नृप॥ अर्हणेनांवरैर्दिव्यैर्गंधस्रग्भूषणोत्तमैः॥१५॥ अर्चित्वा शिरसाऽऽनम्य पादावंकगतौ मृजन्॥ प्रश्र यावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत॥१६॥ दिष्टया पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम्॥ भवद्भ्यामुद्धृतं कुचहुरंताच्च समेधितम्॥१७॥ युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयो॥ भवद्ध्यां न विना किंचित्परमस्ति न चापरम्॥॥१८॥ आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभिः॥ ईयते बहुधा ब्रह्मञ्छुतप्रत्यक्षगोचरम्॥१९॥ यथा हि भूतेषु चराचरेषु महादयो योनिषु भांति नाना॥ एवं भवान्केवल आत्मयोनिष्वात्मात्मतंत्रो बहुधा विभाति॥॥२०॥ सृजस्यथो लुंपसि पासि विश्वं रजस्तमस्सत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः॥ न वध्यसे तद्वणकर्मभिर्वा ज्ञानात्मनस्ते क्व च बंधहेतुः॥२१॥
इस अपने कुलका उद्धार किया और कुलकी वृद्धिका, यह बडाही मंगल हुआ॥१७॥ तुम प्रकृतिरूप हो जगत् के कारण हो, जगन्मय हो, तुमसे पृथक कुछ कार्य कारण नहीं है॥१८॥ तुम अपने विश्वमें अपनी शक्तियों सहित प्रवेश करके हे ब्रह्मन्! श्रवण करने में देखनेमें बहुत प्रकारके प्रतीत होतेहो॥१९॥ जैसे स्थावर, जंगम देहमें पृथ्वी आदि पंचभूत हैं, उनमें अनेक प्रकारसे प्रकाशते हो, उसी प्रकार अपने आधीन अकेले तुम आपही अपने कार्य पंचभूत और पंचभूतोंके बने देहमें बहुत रूपसे प्रकाशतेहो॥२०॥ रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण तुम्हारी
शक्ति हैं, उनकेही द्वारा विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करते हो, गुण और उत्पत्त्यादिक कर्मोंसे बँधे नहीं हो, ज्ञानरूप हो, तुम्हें बाँधनेवाली कोई अविद्या नहीं हैं॥२१॥ तुम्हारे तो बंधनकी शंका संभवही कहाॅ? पर विद्योपाधि जीवात्माके भी वस्तुतः जन्म तथा जन्ममूलक भेद नहीं है क्योंकि देहादि उपायका किसीप्रकार निरूपण होना संभवही नहीं, अविद्यारहित होनेसे न तो आपके बंधन है और न मोक्ष है, जो बंध हमें मोक्ष दिखाई देते हैं, वह केवल हमारे अज्ञानसेही हैं॥२२॥ जगत्का कल्याण करनेके लिये तुम्हारा कहा सनातन वेदमार्ग जिस समय असाधुओंके पाखण्डमार्गसे बाधित होता है, उस समय सगुणरूपको धारण करते हो॥२३॥ हे प्रभो! तुमने इस संसार में
देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्भवो न साक्षान्न भिदाऽऽत्मनः स्यात्॥ अतो न बंधस्तव नैव मोक्षः स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः॥२२॥त्वयोदितोऽयं जगतो हिताय यदायदा वेदपथः पुराणः॥ बाध्येत पाखण्डपथैरसद्भिस्तदा भवान्सत्त्वगुणं बिभर्ति॥२३॥ स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः॥ अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांशराज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन्॥२४॥ अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा यः सर्वदेवपितृभूतनृवेदमूर्तिः॥ यत्पादशौचसलिलं विजगत्पुनाति स त्वं जगद्वरुरधोक्षज याः प्रविष्टः॥२५॥ कः पंडितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात्॥ सर्वान्ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामानात्मानमप्युपच यापचयौ न यस्य॥२६॥
पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंश बलदेवसहित वसुदेवजीके घर जन्म लिया है, जिससे दैत्योंके अंशरूप राजाओंकी अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करोगे और यदुकुलके यशको बढ़ाओगे॥२४॥ हे ईश! आज हमारा घर निश्चय बड़भागी है, सब देवता, पितृ, मनुष्य प्राणी देवरूप तुम्हारे चरणारविन्दका धोवन जल गंगारूप होकर तीनों लोकोंको पवित्र करता है सो तुम जगत्के गुरु अधोक्षज भगवान् हमारे घरमें आये हो इसलिये हमारा घर बड़भागी है॥२५॥ हे प्रभो! आप भक्तवत्सल, सत्यवक्ता सबके हितकारी, कृतके जाननेवाले उनको त्यागकर कौन ऐसा बुद्धिमान् है जो औरकी शरण ले, भजन करनेवालेको तुम संपूर्ण कामना देतेहो और अपना आत्मातक भी
देते हो और तुम्हारे यह उत्तम है, यह नीच है, यह भेद नहीं है॥२६॥ हे जनार्दन! आपने मेरे घर आनकर दर्शन दिया यह बड़ा मंगल हुआ योगेश्वर और देवता भी तुम्हारे स्वरूपको नहीं जानते हैं पुत्र, स्त्री, धन, हितकारी और देहादिकोंमें मोहकी रस्सीरूप जो तुम्हारी माया है सो हमें लिपट रही है, इससे शीघ्रही काटो॥२७॥ भक्त अक्रुरने इस प्रकार जब पूजन और स्तुति करी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वाणीसे मोहित करतेहुये मुसकाकर बोले॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, आप हमारे गुरु हो, इस कारण नित्य स्तुति करनेयोग्य हो वन्धु हो, हम तुम्हारे लडके बाले हैं, हमरी रक्षा करो, पोषण करो और हमपर कृपा करो॥२९॥ हे पूज्योंमें श्रेष्ठ! तुम्हारे समान बड़भागी कल्याणकी इच्छा करनेवाले
दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः॥ छिंध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेहदेहादिमो हरशनां भवदीयमायाम्॥२७॥ इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान्हरिः॥ अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः संमोहय न्निव॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बंधुश्च नित्यदा॥ वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकंप्याः प्रजा हि वः॥२९॥ भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः॥ श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः॥॥३०॥ न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः॥ ते पुनंत्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥३१॥ स भवान्सुहृदां वै नः श्रेयाञ्छ्रेयचिकीर्षया॥ जिज्ञासार्थं पांडवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम्॥३२॥ पितर्युपरते वालाः सह मात्रा सुदुः खिताः॥ आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसंत इति शुश्रुम॥३३॥
मनुष्योंकी नित्य सेवा करने योग्य हो, देवता आपस्वार्थी हैं, साधु महात्मा आपस्वार्थी नहीं होते॥३०॥ कहीं जलमय तीर्थ नहीं हैं? और मृत्तिका शिला के देवता नहीं हैं? किंतु वह सब बहुत दिनतक सेवा करनेसे पवित्र करते हैं और साधुपुरुष तो दर्शनसेही पवित्र करतेहैं॥३१॥ हे अकूरजी! तुम हमारे सुहृदोंमें उत्तम हो इस कारण पाण्डवोंका कल्याण करनेके लिये हस्तिनापुरको जाओ॥३२॥ पिता पाण्डुके मरनेके पीछे माता कुन्तीसहित दुःखित पाण्डव बालकोंको धृतराष्ट्र अपने पुरमें लेआया है, वह उसके पास रहते हैं॥३३॥
लुब्धबुद्धि अम्बिकाका पुत्र राजा धृतराष्ट्र भाईके पुत्र पाण्डवोंमें समता नहीं रखता और दुष्ट दुर्योधनादिके वशमें होरहाहै और उसकी दृष्टि भी अन्धेरी होरही है॥३४॥ इसलिये तुम अब हस्तिनापुरको जाओ और बुरी भली उनकी सब खबर लाओ, जब हमैंवहाँका भेद विदित होजायगा, तो जिसमें पाण्डवोंको सुख होगा, वही उपाय करेंगे॥३५॥ इस प्रकार अक्रूरजीसे कह छःप्रकारके ऐश्वर्ययुक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेव और उद्धवजीको संग लेकर अपने घर आये॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायामक्रूरप्रेषणं नामाष्टचत्वारिंशोध्यायः॥४८॥ दोहा- उनञ्चास अक्रूरजी, हस्तिनपुर में जाय। विषमदृष्टि लखि भ्रातृ सुत, फिरे घरो नहिं पॉय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले
तेषु राजांबिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः॥ समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोंधदृक्॥३४॥ गच्छ जानीहि तद्वृत्तमधुना साध्वसाधु वा॥ विज्ञाय तद्विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत्॥३५॥ इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान्हरिरीश्वरः॥ संकर्षणोद्धवाभ्यांवै ततः स्वभवनं ययौ॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे कुब्जारमणादिनि रूपणं नामाष्टचत्वारिंशोध्यायः॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेंद्रयशोंकितम्॥ ददर्श तत्रां विकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम्॥१॥ सहपुत्रं च बाह्नीकं भारद्वाजं सगौतमम्॥ कर्णंसुयोधनं द्रौणिं पांडवान्सुहृदो ऽपरान्॥२॥ यथावदुपसंगम्य बंधुभिर्गंदिनीसुतः॥ संपृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम्॥३॥ उवास कति चिन्मासान्राज्ञो वृत्तविवित्सया॥ दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छंदानुवर्तिनः॥४॥
कि, हे राजन्! पुरुवंशी राजाओके यशसे शोभायमान हस्तिनापुर में जाकर अम्बिकाके पुत्र धृतराष्ट्रको अक्रूरजीने देखा और भीष्मपितामह विदुर, कुन्ती, तथा सोमदत्त, पुत्र सहित बाहीक, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाॅचों पाण्डव और भी जो सुहृद थे उन सबको देखा॥१॥२॥ गांदिनीके पुत्र अक्रूरजी बन्धु बांधवोंके संग यथायोग्य मिलकर, वे बन्धु सुहृदोंकी वार्त्ता अक्रूरजीसे पूँछनेलगे और अक्रूरजी भी उनसे कुशल क्षेम पूॅछनेलगे॥३॥ दुष्ट पुत्र और अल्पबुद्धि दुष्ट कर्णादिकोंके कहनेमें रहनेवाले धीरतारहित राजा धृतराष्ट्रका
वृत्तान्त जाननेके लिये कितने एक महीनेतक अक्रूरजीने वहाँ वास किया॥४॥ तेज अर्थात् प्रभाव ओजोबल, अर्थात् शस्त्र चलानेकी निपुणत वीर्य अर्थात् शूरता पाण्डवोंमें प्रजाका स्नेह वीरता आदि जो अच्छे गुण हैं उन्हें न सहकर धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी और जो कुछ आगे करनेकी इच्छा है उसे॥५॥ और धृतराष्ट्रके पुत्रोंने विष देना आदि जो कुछ अन्याय किया था, सो सम्पूर्ण वार्त्ता विदुरजीने अक्रूरजीसे कहदी॥६॥
तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्वणान्॥ प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्भिश्चिकीर्षितम्॥५॥ कृतं च धार्तराष्ट्रैर्य द्गरदानाद्यपेशलम्॥ आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च॥६॥ पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसृत्य तम्॥ उवाच जन्मनिलयं स्मरंत्यश्रुकलेक्षणा॥७॥ अपि स्मरंति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे॥ भगिन्यो भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च॥८॥ भ्रात्रेयो भगवान्कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः॥ पैतृष्वसेयान्स्मरति रामश्चांबुरुहेक्षणः॥९॥
कुन्ती भाई अक्रूरको आया सुन मिलकर और अपने जन्मस्थानका स्मरण कर नेत्रोंसे आँसू बहाती अक्रूरजी से बोली <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736344813Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥७॥ हे सौम्य!मेरे माता पिता कभी मेरा स्मरण करते हैं? और मेरे भाई, बहन, भतीजे स्त्री, सखी यह सब कभी मेरी सुधि करते हैं ?॥८॥शरणागतोंके पालक, भक्तोंके हितकारी भाईके पुत्र श्रीकृष्ण कभी अपनी फूफीके पुत्रोंकी भी सुधि करते हैं? कमलके समान नेत्रवाले बलरामजी भी
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*** शंका—**वडे आश्चर्यकी बात है, वसुदेवजी बन्दीगृहसे छूटगये और अनेक प्रकार के मंगल वसुदेवजीके घर हुए, तो भी कुन्तीको न बुलाया, लोकशास्त्रकी रीति है वहिन अथवा लढकीको माता, पिता भाई अपने घर घर्प दोवर्षमें बुलाते रहते हैं परन्तु अपने घर उत्सवमें अथवा उसके दुखमें तो अवश्यही बुलाते हैं, वा आप जाकर लेआते हैं क्योंकि पिताके घर आनेसे बेटीका चित्त सावधान होजाता है, फिर वसुदेवजीके घर उत्सव भी हुआ और पुत्रभी हुआ और बन्दीसे छूटे फिर वसुदेवजीने कुन्तीको अपने घर क्यों नहीं बुलाया इसका क्या कारण ?
**उत्तर—**कुन्ती सातद्वीपके राजा पाण्डुकी स्त्री थी और पति के नियोगसे महादुखी थी तो भी कुन्तीको वसुदेवजी अपने घर लेआनेको समर्थ न हुए, क्योंकि वसुदेवजी दीन और द्रव्यहीन थे और वह कुन्ती दुखीमी थी तो मी सात द्वीपके नरेशकी रानी थी दसलिये देवी को अपने घर न लाये क्योंकि हजारों तो दासी उसके संग आर्ती और सेनाका तो ठिकानाही क्या था, फिर कुन्तीको अपने घर रखनेकी
कभी हमारा स्मरण (याद) करते हैं?॥९॥ मैं तो जैसे व्याघ्रोंके बीच में हारणी घिर जाती है, उसी प्रकार वैरियोंके बीचमें गिरकर शोच करती हूं, सो क्या मुझे और पिताहीन मेरे बालकोंको श्रीकृष्ण तुम्हारे वचनोंसे क्या समझावैंगे?॥१०॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगिन्! हे विश्वके आत्मा! हे सबके अंतर्यामी! हे विश्वके पालनकर्त्ता! हे गोविन्द! बालकोंके सहित दुःखित होकर मैं तुम्हारी शरण आई हूं सो मेरी रक्षा करो॥११॥ मृत्युरूपी संसारसे भयभीत मनुष्योंके ईश्वर तुम हो और मोक्षको देनेवाले तुम्हारे चरणकमलके विना मुझे और कोई शरण देनेवाला नहीं दीखता॥१२॥ शुद्ध अर्थात धर्मात्मा ब्रह्म अपरिच्छिन्न अर्थात् ढकनेमें नही आवै, परमात्मा अर्थात् जीवके सखा, योगेश्वर
सपत्नमध्ये शोचंतीं वृकाणां हरिणीमिव॥ सांत्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च चालकान्॥१०॥ कृष्णकृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वभावन॥प्रपन्नां पाहि गोविंद शिशुभिश्वावसीदतीम्॥११॥ नान्यत्तव पदांभोजात्पश्यामि शरणं नृणाम्॥ बिभ्यतां मृत्युसंसारादीश्वरस्याऽऽपवर्गिकात्॥१२॥ नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने॥ योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता॥१३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम्॥ प्रारुददुःखिता राजन्भवतां प्रपितामही॥१४॥ समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः॥ संत्वयामासतुः कुंतीं तत्पुत्रोत्पत्ति हेतुभिः॥१५॥ यास्य राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम्॥ अवदत्सुहृदां मध्ये बंधुभिः सौहृदोदितम्॥१६॥
अर्थात् अणिमादिक शक्तियुक्त योग अर्थात् ज्ञानरूप ऐसे जो श्रीकृष्णचन्द्र तुम हो, सो तुम्हें नमस्कार है और तुम्हारीही मैंने शरण ली है॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ! परीक्षित्! इसप्रकार जगत् के ईश्वर अपने भतीजे श्रीकृष्णकी याद करके तुम्हारी, परदादी कुन्ती दुःखित होकर रोनेलगी॥१४॥ अक्रूर और बड़े यशवान् विदुर कुन्तीको समझाने लगे कि, तुम्हारे पुत्र धर्म, पवन, इन्द्र इत्यादिकोंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं, तुम इतना शोच क्यो करती हो, इसप्रकार समझाने लगे॥१५॥ चलते समय अपने पुत्रोंमें स्नेह और भतीजों में विषमता
करनेवाले राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर सुहृदोंके बीच में जो रामकृष्णने वचन कहे थे वह अक्रूरजी कहने लगे॥१६॥अक्रूरजी बोले कि, हे धृतराष्ट्र! कौरवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाले भाई पाण्डुके मारने के उपरान्त अब तुम राजसिंहासन पर बैठे हो॥१७॥अच्छा! बहुत उत्तम राज्य करो, धर्मसे पृथ्वीका पालन करो, क्योंकि अपनी प्रजाको सुखपूर्वक आनंद रक्खोगे, अपने बांधवोंमें समान दृष्टि रक्खोगे तो तुम्हारा कल्याण और जगतमें यश होगा॥१८॥ और जो विषमता रक्खोगे तो संसारमें निन्दा होगी और अंतमें नरकको जाओगे, इस कारण पांडवोंमें और अपने पुत्रोंमें समता रक्खो॥१९॥हे राजन् धृतराष्ट्र! इस संसारमें सदा किसीका सत्संग नहीं रहता है और अपना देहभी सदा नहीं रहता, विचार
अक्रूर उवाच॥ भोभो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन॥ भ्रातर्युपरते पांडावधुनाऽऽसनमास्थितः॥१७॥ धर्मेण पालयन्नुर्वीप्रजाः शीलेन रंजयन्॥ वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि॥१८॥ अन्यथा त्वाचरँल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः॥ तस्मात्समत्वेवर्तस्व पांडवेष्वात्मजेषु च॥१९॥ नेह चात्यंतसंवासः कर्हिचित्केनचित्सह॥ राजन्स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः॥२०॥ एकः प्रसूयते जंतुरेक एव प्रलीयते॥ एकोनुभुंक्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥२१॥ अधर्मोपचितं वित्तं हरंत्यन्येऽल्पमेधसः॥ संभोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः॥२६॥ पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्यातमपंडितम्॥ तेऽकृतार्थं प्रहिण्वंति प्राणा रायः सुतादयः॥२३॥ स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः॥असिद्धार्थो विशत्यंधं स्वधर्मविमुखस्तमः॥२४॥
करके देखो कि, स्त्री पुत्र यह सदा नहीं रहेंगे॥२०॥जीव अकेलाही जन्म लेता है और अकेलाही मृत्युको प्राप्त होता है अकेलाही पुण्यके फल सुखको भोगता है और अकेलाही पापका फल दुःख भोग करता है॥२१॥अज्ञानीपुरुषोंने जो पापकरके धनसंचय किया है, उसे स्त्री, पुरुष, भाई, बंधु होकर लेते हैं, जैसे जलकी रहनेवाली मछलियोंका जीवन जल है और जब उसको उसके पुत्र पीलेते हैं तब उसे कष्ट होता है॥२२॥पाप करनेवाला पुरुष नरकमें जाता है और जिन्हें अपना समझ अधर्मसे पोषण करता है, वह प्राण, धन और पुत्रादिक उस पोषण करनेवाले मूर्ख पुरुषको भोगका सुख प्राप्त न हुआ हो, तब उसे पहलेही त्याग देतेहैं॥२३॥जब स्त्री पुत्रादिक इसको त्याग
देते हैं, तब यह सच्चे स्वार्थको न जानकर और प्रयोजन नष्ट होनेसे निजधर्मसे विमुख हो, सबके पापको अपने शिरपर घर वही पूणे नरकमें गिरताहै॥२४॥ इस कारण हे समर्थ राजा धृतराष्ट्र! स्वप्न और बाजीगरकी माया तथा मनका विचार यह सब तुमको मिथ्याभूत दिखाई देता है, उसी प्रकार इस संसारको मिथ्याभूत समझ आपभी अपने मनको रोककर समता रक्खो और शान्त हो॥२५॥ तब राजा धृतराष्ट्र बोले कि, हे अक्रूर! यह जो तुमने कल्याणकारक श्रेष्ठवचन कहे उनको श्रवण करते करते मेरा मन तृप्त नहीं हुआ, जैसे मनुष्य अमृत पीनेसे तृप्त नहीं होता॥२६॥ परन्तु तो भी हे अक्रूर! मेरा चंचल पुरुषोंमें स्नेह है, इसलिये विषमहृदयमें तुम्हारी प्यारी बात नहीं ठहरती जैसे स्फटिकमणिके
तस्माल्लोकमिमं राजन्स्वप्नमायामनोरथम्॥ वीक्ष्याऽऽयम्यात्मनात्मानं समः शांतो भव प्रभो॥२५॥ धृतराष्ट्र उवाच॥ यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान्॥ तथाऽनया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम्॥२६॥ तथाऽपि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले॥ पुत्रानुरागविषमे विद्युत्सौदामनी यथा॥२७॥ ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनो त्यन्यथा पुमान्॥ भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥२८॥ यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं दृष्ट्वा गुणान्वि भजते तदनुप्रविष्टः॥ तस्मै नमो दुरवबोधविहारतंत्रसंसारचक्रगतये परमेश्वराय॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादवः॥ सुहृद्भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात्॥३०॥
सुदामा पर्वत पर बिजली चमककर स्थिर नहीं रहती॥२७॥ भगवान्की इच्छाको कौन पुरुष खंडन करसक्ता है, अर्थात् उसकी इच्छाके प्रतिकूल कुछ नहीं होता, सब उसकी इच्छानुसारही होता है जिस ईश्वरने पृथ्वीका भार उतारनेके कारण यदुकुलमें आनकर अवतार लिया॥२८॥ जो ईश्वर विचारने में न आवै, ऐसी अपनी मायासे इस विश्वको उत्पन्न कर और उसमें प्रवेश कर कर्म तथा कर्मोंके फलको अलगअलग कर जीवोंको देते हैं जाननेमें न आवे ऐसी लीलाओंसे रचेहुए संसारचक्रके घुमानेवाले उस परमेश्वरको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूं॥२९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इसप्रकार यदुवंशोत्पन्न अक्रूरजी धृतराष्ट्रका अभिप्राय जान सुहृदोंसे आज्ञा ले मथुरापुरीमें
आये॥३०॥हे परीक्षित्! बलदेव श्रीकृष्णने आप जिस कारण अक्रूरजीको पाण्डवोके पास भेजा था सो अक्रूरजीने सब धृतराष्ट्रजीको कही
शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम्॥ पांडवान्प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम्॥३१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहख्यां संहितायां दशमस्कंधे पूर्वार्धे पाण्डववृत्तनिरूपणं नामैकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥
॥<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736020503Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥ समाप्तोऽयं दशमस्कंधपूर्वार्धः॥<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736020528Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥
वार्ताका अभिप्राय जानकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीसे कह दिया॥३१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायाकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥ ॥छ॥ समाप्तोऽयं भाषाटीकासहितः दशमस्कन्धपूर्वाधः॥ छ॥ ॥छ ॥छ॥
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इदं पुस्तकं क्षेमराज- श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां (खेतवाडी ७ वीं गली खम्बाटालैन) स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणयन्त्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.
॥ इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते दशमस्कन्धपूर्वार्धः समाप्तः ॥ |
२
॥ अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकासहिते दशमस्कन्धोत्तरार्धप्रारम्भः ॥ |
श्रीः॥ दशमस्कंधोत्तरार्द्धम्॥ दोहा- उत्तरार्द्ध प्रारम्भमें, व्रजपति चरित ललाम। कह्यो पचाशाऽध्यायमें, जरासन्ध संग्राम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! अब पूर्वार्द्धके उपरान्त इकतालीस (४१) अध्यायमें जो कथा है, सो हम वर्णन करते हैं कि, जरासन्धके भयसेही मानो समुद्रमें किला बनाकर श्रीकृष्णचन्द्र अपने यादवोंको उसमें लेगये, व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! अस्ति और प्राप्ति यह दोनों कंसकी रानी अपने पति कंसके मरनेसे अत्यन्त दुःखी होकर अपने पिताके घर चलीगईं॥१॥ अपने स्वामीके मरनेसे शोकाकुल अस्ति, प्राप्ति दोनों बहनोंने अपने पिता मगधदेशके राजा जरासंध से जाकर सब वृत्तान्त कहा॥२॥ हे राजा परीक्षित्! यह बात सुनतेही जरासन्ध अतिक्रोध कर अपने जामाताका शोक न सह पृथ्वीको यादवरहित करनेका उपाय करनेलगा॥३॥ और तेईश अक्षौहिणी सेनाको साथ लेकर
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीशुक उवाच॥ अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ॥ मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान्॥१॥ पित्रे मगधराजाय जरासंधाय दुःखिते॥ वेदयांचक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम्॥२॥ स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप॥ अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम्॥३॥ अक्षौहिणीभिर्विशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः॥ यदुराजधानीं मथुरां न्यरुणत्सर्वतोदिशम्॥४॥ निरीक्ष्य तद्वलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्॥ स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम्॥५॥ चिंतयामास भगवान्हरिः कारणमानुषः॥ तद्देशकालानुगुणं स्वाव तारप्रयोजनम्॥६॥ हनिष्यामि वलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम्॥ मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम्॥७॥
जरासंधने यादवोंकी राजधानी मथुरापुरीको चारोंओरसे घेरलिया॥४॥ जिसप्रकार अपनी मर्यादा त्यागकर समुद्र उमडता चला आता है, उसी प्रकार जरासन्धकी सेनाको आतीहुई देखकर और सेनासे मथुरापुरीको ग्रसित जान, अपने सुहृद यादवोंको व्याकुल देख॥५॥दुःखोंके नाशक भूभार उतारनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र उस समय देशकालके योग्य अपने अवतारका कारण देखकर विचार करनेलगे॥६॥कि, पहिले इस समस्त सेनाका संहार करूं, या जरासन्धको वधकर इसकी सब सेना अपने अधीन करूं अथवा सैन्यसहित जरासंधका प्राण संहार करूं, ऐसे तीन प्रकारके मनमें संकल्प विकल्प कर प्रथमविचार सैन्यवथका निश्चय किया, क्योंकि पृथ्वीका भाररूप यह सेनाही है, इसलिये प्रथम इसकाही
मारना उचित है और इस समय यह सम्पूर्ण राजाओंकी सेनाओंको इकट्ठाकर लेआया है, फिर बारम्बार ऐसा अवसर नहीं मिलेगा॥७॥पहिले पैदल, अश्व, हस्ती और चतुरंगिणी अनेक अक्षौहिणी<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736406753Screenshot2024-12-31235044.png"/> सेनाकोही मारना योग्य है, जरासंधका मारना योग्य नहीं, क्योंकि इससे अभी बहुत कार्य सिद्ध होगा, यह सम्पूर्ण राक्षसों को समेट कर ले आवेगा, मैं कहाॅकहाॅढूंढता फिरूंगा॥८॥ भूमिका भार उतार साधुपुरुषोंकी रक्षा और दुष्टोंका विनाश करनेके लियेही मैंने अवतार लिया है॥९॥ जब पृथ्वीपर अधर्म बढ़ता है, तब तबही उस अधर्मके नष्ट करने और धर्मकी रक्षा करनेके लिये मैं अवतार लेताहूं॥१०॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र विचार करही रहे थे कि, उसी समय सूर्यके समान
अक्षौहिणीभिः संख्यातं भटाश्वरथकुंजरैः॥ मागधस्तु न हंतव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम्॥८॥ एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे॥संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां बधाय च॥९॥ अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया॥ विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित्॥१०॥एवं ध्यायति गोविंद आकाशात्सूर्यवर्चसौ॥ रथावुदस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ॥११॥ आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया॥ दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः संकर्षणमथाब्रवीत्॥१२॥ पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो॥ एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च॥१३॥ यानमा स्थाय जह्येतद्व्यसनात्स्वान्समुद्धर॥ एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत॥१४॥ त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु॥ एवं संमंत्र्य दशार्हौदंशितौ रथिनौ पुरात॥१५॥
ध्वजा कवचसे सुसज्जित, सारथी सहित दो रथ शीघ्रही आकाशसे उतरे॥११॥ तब अकस्मात् आये दिव्य शस्त्र देखकर हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी बलदेवजी से बोले कि॥१२॥ हे आर्य! हे श्रेष्ठ!तुम जिनकी रक्षा करते हो, आज उन्हीं यादवोंको आनकर दुःख उपस्थित हुआहै और इसीलिये यह रथ और वीरघाती शस्त्र आयेहैं॥१३॥ रथ में बैठ, सब सेनाका संहार कर अपने यादवोंका कष्ट दूर करो, हे ईश! साधुलोगोंके कल्याणार्थही संसारमें आपका जन्म हुआ है॥१४॥ तेईस अक्षौहिणी सेना आनकर उपस्थित हुईहै और इसीका पृथ्वीपर बोझ है, इसको दूर
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* अक्षौहिणीका प्रमाण। इक्कीससहस्र आठसौ सत्तर २१८७० रय, इक्कीसहस आठसौ सत्तर २१८७० गजपति, पैसठ महस्र छ सौदश ६५६१० अश्वपति, एक लाख नौसहस्र तीन सौ पचास १०९३५० पैदल, इसका नाम एक “अक्षौहिणी” है॥
करो, इस प्रकार दाशाईवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीने विचारकर, कवच पहर, सुन्दर शस्त्रोंको ले और कुछ थोड़ीसी सेनाके साथ, पुरके बाहर निकल दारुक सारथीको लिये शंखध्वनि करी॥१५॥१६॥ इसके उपरान्त जरासन्धकी सेनाके हृदय भयभीत हो कम्पायमान होने लगे, तब श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीको रणभूमिमें खड़ा देख, जरासन्ध कहनेलगा॥१७॥ हे अधम! मुझे तेरे साथ युद्ध करनेमें अत्यन्त लाज आती है, क्योंकि तू बालक है इसलिये तेरे संग युद्ध नहीं करूंगा हे मूर्ख! तू गुप्त रहनेवाला अत्यन्त छली है, इस कारण तेरे साथ युद्ध करना उचित नहीं॥१८॥ हे राम! जो तुझमें सामर्थ्य होय तो धीरज धरके युद्ध कर और मेरे बाणोंसे कटेहुए देहको त्याग स्वर्गको जा, या संग्रामके बीचमें मेरा
निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्यौ बलेनाल्पीयसाऽवृतौ॥ शंखं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः॥१६॥ ततोऽभूत्पर सैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः॥ तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम॥१७॥ न त्वया योद्धुमिच्छामि वालेनैकेन लज्जया॥ गुप्तेन हि त्वया मंद न योत्स्ये याहि बंधुहन्॥१८॥ तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्दह॥ हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि॥१९॥ श्रीभगवानुवाच॥ न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयंत्येव पौरुषम्॥ न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्॥ ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी सूर्यानलो वायुरिवाभ्ररेणुभिः॥२१॥ सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथावलक्षयंत्यो हरिरा मयोर्मृधे॥स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं समाश्रिताः संमुमुहुः शुचार्दिताः॥२२॥
प्राण ले॥१९॥ परीक्षित्! ऐसे जरासन्धके वचन सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे जरासन्ध! शूरवीर व्यर्थ बकवाद न कर अपने पुरुषार्थको दिखाते हैं और तुम्हारी मृत्यु निकट आई है, इसलिये मैं तुम्हारे वचनोंपर अधिक ध्यान नहीं देताहूं॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! जैसे पवन, बादल, धूरि, यह सूर्य और अग्रिको घेर लेतेहैं, इसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र व बलदेवजीके निकट जाकर जरासन्धने उनको अपनी वलवान् सेना प्यादे, रथ, ध्वजा, घोड़े और रथवानों सहित घेर लिया॥२१॥ जब गरुड और तालकी ध्वजाके चिह्नवाले रामकृष्णके
रथ युद्धमें नहीं दीखे, तब पुरीकी नारी अटारी, महल और द्वारोंपर खड़ी हुईंशोकसे व्याकुल हो मोह करने लगीं॥२२॥शत्रुकी सेनारूप बादलोंमेंसे वारम्बार बाणोंकी भयंकर वर्षासे अपनी सेनाको पीड़ित देखकर श्रीकृष्णचन्द्र देवता व असुरोंसे पूजित उत्तम शार्ङ्गधनुषमें टंकार करने लगे॥२३॥ तरकससे तीर निकालकर शीघ्र प्रत्यंचामें लगाय प्रत्यंचाको खैंचकर तीक्ष्णबाणोंके समूहोंसे रथ, घोडे, हाथी, पैदल मारकर जैसे, सुलगती लकडीके घुमानेसे चक्र बँधजाता है उसी प्रकार बाणोंके पीछे बाण मारनेलगे॥२४॥मस्तक कटनेसे हजारों हाथी, नारी कटनेसे घोडे पृथ्वीपर गिरने लगे, रथोंकी ध्वजा कटगईं और रथवान् गिरगये भुजा, नाडी कटनेसे पैदल गिरगये॥२५॥ युद्धमें पैदल, हाथी, कटकर गिरने
हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः शिलीमुखात्युल्वणवर्षपीडितम्॥स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गश रासनोत्तमम्॥२३॥गृह्णन्निषंगादथ संदधच्छरान्विकृष्य मुंचञ्छितबाणपूगान्॥निघ्नन्रथान्कुंजरवाजिपत्तीन्निरंतरं यद्वदलातचक्रम्॥२४॥निर्भिन्नकुंभाः करिणो निपेतुरनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकंधराः॥रथा हताश्वध्वज सृतनायकाः पदातयश्छिन्नभुजोरुकंधराः॥२५॥संछिद्यमान द्विपदेभवाजिनामंगप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः॥ भुजाऽहयः पुरुषशीर्षकच्छपा हतद्विपद्वीपहयग्रहाकुलाः॥२६॥करोरुमीना नरकेशशैवला धनुस्तरंगायुधगुल्मसंकुलाः॥ अच्छूरिकावर्तभयानका महामणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः॥२७॥प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे मनस्विनांहर्षकरी परस्परम्॥विनिघ्नताऽरीन्मुसलेन दुर्मदान्संकर्षणेनापरिमेयतेजसा॥२८॥
लगे, तब उनके शरीरसे लोहूकी नदियें बहने लगीं, जिनमें भुजाएँ सर्पकी मदृश दृष्टि आती थीं, मनुष्योंके शिर कच्छपसे जान पड़ते थे मृत्युको प्राप्तहुए हाथी टापूके समान दीखतेथे और रुधिरकी नदीमें घोडे ग्राहसेपड़ेथे॥२६॥ भुजा व उरू मछलीके समान मनुष्योके केश सिवारके समानथे और नदीमे जो तरंगैउठती हैं, वही रुधिरकी नदीमे धनुषतरंगके समान हैं। नदीमें झाड़ झंकाड़ होते हैं रुधिरकी नदियोमें शस्त्र हैं सोई झाड़ झंकाडके समान है, नदीमें भँवर पडते हैं, तिनसे अति भयंकर होकर रुधिरकी नदियोंमें ढालें मानो भयंकर भँवर पडते हैं, नदियोंमें कंकर पत्थर इत्यादि होते हैं रुधिरकी नदियोंमें मणि गहने कंकर पत्थरके तुल्य हैं॥२७॥ हे राजन् ! महातेजस्वी बलदेवजीने संग्रामके बीच
मतवाले शत्रुओंको मुसलायुधसे मार मारकर रुधिरकी नदियें बहाईं, जो कि कायर पुरुषोंको भयकी देनेवाली और वीर पुरुषोंको आनन्दकी देनेवाली हैं॥२८॥ हे परीक्षित दुर्मद वैरियोको मुसलसे मार सागरके समान दुस्तर और भयंकर उस जरासन्धपालित सेनाका महापराक्रमी श्रीकृष्ण बलदेवने मार मार कर नाश कर दिया, वसुदेवके पुत्र जगत् के ईश्वर कृष्ण बलदेवको सेनाका नाश करना एक साधारण बात है, कुछ पराक्रम नहीं है॥२९॥ अनंतगुण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपनी लीलासे ही तीनों लोकोंको उत्पन्न, पालन और संहार करते हैं, उन श्रीकृष्णचन्द्रको जरासन्धकी सेनाका मारना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं हैं, तो भी मनुष्योंके अनुकरण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके कर्म आश्चर्यमय तुमसे वर्णन करता हूं॥३०॥ सेनाके नष्ट होने और रथ टूट जानेसे जब प्राणमात्रही अवशेष रहे, तब बलवान् जरासन्धको जैसे सिंह सिंहको पकड़ता है,
बलं तदंगार्णवदुर्गभैरवं दुरंतपारं मगधेंद्रपालितम्॥ क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयोर्विक्रीडितं तज्जगदीशयोः परम्॥२९॥ स्थित्युद्भवांतं भुवनत्रयस्य यः समीहतेऽनंतगुणः स्वलीलया॥ न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते॥३०॥ जग्राह विरथं रामो जरासंधं महाबलम्॥ हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा॥३१॥ बध्यमान हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः॥ वारयामास गोविंदस्तेन कार्यचिकीर्षया॥३२॥ स मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसंमतः॥ तपसे कृतसंकल्पो वारितः पथि राजभिः॥३३॥ वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि॥ स्वकर्मबंधप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः॥३४ ॥
उसीप्रकार बलपूर्वक बलदेवजी पकड़कर॥३१॥ शत्रुओंके मारनेवाले जरासन्धको वरुणपाश और मनुष्यपाशसे जब (बलदेवजी) बांधनेलगे, तब श्रीकृष्णचन्द्रजीने उसको छुडादिया और कहा कि, अभी जरासन्धसे और कुछ काम लेना है॥३२॥ शूरवीरोंके माननीय जरासन्धको त्रिलोकी नाथ श्रीकृष्ण बलदेवने जिस समय छोड़ दिया, तब यह मनमें लज्जित होकर विचार करने लगा कि, वनमें जाकर तप करना उचित है, घर जाकर क्या करूंगा तब मार्गमें जातेहुए राजाओंने निवारण किया॥३३॥ धर्मके उपदेश करनेवाले पदयुक्त नीतिके तुष्टिकारक वचन कहकर जरासन्धको समझाने लगे कि, हे राजन् !कोई तुम्हारा बड़ाही दुष्कर्म आनकर प्राप्त हुआ जो तुच्छ यादवोंने तुम्हें परास्त किया अब तुम कुछ
लाज मत करो॥३४॥ जिस समय समस्त सेना नष्ट हो गई और श्रीकृष्णचन्द्रने छोड़ दिया, तब वह बृहद्रथका पुत्र जरासन्ध अत्यन्त उदास होकर मगध देशको चलागया॥३५॥ शत्रुकी सेनारूप सागरसे तरकर और अपनी अक्षत सेना संग लिये जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रने मथुरापुरीमें प्रवेश किया, तब देवताओंने आकाशसे फूल वर्षाये और प्रशंसापूर्वक उनकी स्तुति करी॥३६॥ तब श्रीकृष्णचन्द्र अपनी मथुरापुरीमें आकर खेदरहित प्रसन्नमन पुरवासियोंसे मिले. सूत, मागध, बन्दीजन, उनकी विजयके यश गान करनेलगे॥३७॥ हे राजन् ! जिस समय श्रीकृष्णचन्द्र मथुरापुरीमें आये तब शंख, नगारे, अनेक भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग यह सब बाजे बजनेलगे॥३८॥
हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा॥ उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ॥३५॥ मुकुंदोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः॥ विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रिदशैरनुमोदितः॥३६॥ माथुरैरुपसंगम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः॥ उपगीयमान विजयः सूतमागधबंदिभिः॥३७॥ शंखदुंदुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः॥ वीणावेणुमृदंगानि पुरं प्रविशति प्रभौ॥३८॥ सिक्तमार्गंहृष्टजनां पताकाभिरलंकृताम्॥ निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम्॥३९॥ निचीयमानो नारीभि र्माल्यदध्यक्षतांकुरैः॥ निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः॥४०॥ आयोधनगतं वित्तमनंतं वीरभूषणम्॥ यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः॥४१॥ एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः॥ युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः॥४२॥
मार्गमें छिरकाव हो रहा हैं, पताकायें लगाई गई हैं और वेदध्वनिसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रके शुभागमनसे घर घर बन्दनवारोंसे परिपूर्ण इसप्रकार मथुरापुरीकी शोभा हुई॥३९॥ श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर स्त्री, पुरुष, पुष्प, दधि, अक्षत और अंकुरोंकी वर्षा करनेलगे, स्त्रियें स्नेहसे प्रफुल्लित नेत्रोंसे श्रीकृष्णचन्द्रको देखनेलगीं॥४०॥ शूरवीर राजाओंकी शोभा करनेवाले, रणभूमिमें पड़े बहुत धन लाकर श्रीकृष्णचन्द्र यादवराज उग्रसेनको दिया॥४१॥ इसीप्रकार जरासन्ध उतनीही अक्षौहिणी साथ लेलेकर सत्रहबार चढि आया और श्रीकृष्णसे रक्षित यादवोंसे उसने युद्ध
किया॥४२॥ हे राजा परीक्षित् यादवगण श्रीकृष्णचन्द्रके तेजसे जरासन्धकी समस्त सेनाका संहार करनेलगे, सम्पूर्ण सेना जब कटगई शत्रुने छोड़ दिया, तब जरासन्ध फिर अपने देशको चलागया॥४३॥ अठारहवीं बार जिरासन्ध तो आनेवाला थाही, उसके बीच में ही देवर्षि नार दजीका भेजा वीर कालयवन आनकर दिखाई दिया॥४४॥ संसारमें जिसके समान कोई योद्धा नहीं, ऐसा कालयवन यादवोंको अपने समान
अक्षिण्वंस्तद्वलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा॥ हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽयादरिभिर्नृपः॥४३॥ अष्टादशमसंग्रामे आगामिनि तदंतरा॥ नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत॥४४॥ रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः॥नृलोके चाप्रतिद्वंद्वो वृष्णीञ्छुत्वात्मसंमितान्॥४५॥
जान, उसने तीन करोड़ महाम्लेच्छ अतिभयावने इकट्ठे किये ऐसे कि जिनके मोटे भुजा, बड़े गले, मैले दॉत, भूरे वेष, पूँघचीसे नयन लाल तिन्हें साथ ले डंका दे, मथुरापुरी पर चढ़ आया चारोंओरसे घेरलिया, क्योंकि देवर्षि नारदजीने इससे कहा था कि, यादवलोग तुम्हारेसमान हैं, इसलिये उनसे युद्ध करो॥४५॥
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***शंका—**तेईस अक्षौहिणी सेनाको जरासन्ध अपने सग लेकर श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेके लिये चढि आया, तब श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनाको मारडाला, बडे आश्चर्यकी बात है कि, इतनी सेना जरासन्ध कहाँसे लेभाया ? पृथ्वीपर सेना तो बहुत थी परन्तु दुष्ट सेना इतनी किधर थी जिसको जरासन्ध सत्रह १७ वार बटोर बटोर कर लेआया और तेईस तेईस अक्षौहिणी सेना सत्रहवार श्रीकृष्णने मारडाली, सब जोडकर तीनसहस आठसौ ग्यारह ३८११ अक्षौहिणी हुए, परन्तु बढे अचम्भेकी बात है, कि इतनी सेनामें कोई भी शूरवीर नहीं था ? जब श्रीकृष्णने मारा तो क्याजान पड़ा क्योंकि श्रीकृष्णके सामने शूरवीरोंकी क्या सामर्थ्य थी और मर्यादा पालन करनेवाले श्रीकृष्णका अवतार भी हुवा फिर वीरोंकी मर्यादा क्यों विनाश करी ?
**उत्तर—**जरानामक राक्षसीने जरासन्धको वरदान दिया था कि, तू जितनी सेना बनाया चाहेगा, उतनी सेना बनालेगा इसलिये जरासन्ध तेईस, तेईस, अक्षौहिणी सेना बनायके श्रीकृष्णसे युद्ध करने के लिये आया, मर्यादापुरुषोत्तम मर्यादाके पालन करनेवाले श्रीकृष्णने विचार लिया कि, इस सेना में शूरवीर नहीं है, इसलिये जरासन्धकी सनाका विनाश किया, मर्यादाका नाश नहीं किया ॥
उस समय श्रीकृष्णन्द्र बलदेवजी सहित इस दुरात्मा कालयवनको आयाहुआ देखकर विचार करने लगे कि, यादवोंको दोनों ओरसे कष्ट आनकर उपस्थित हुआहै, बड़ेही आश्चर्यकी बात हैं॥४६॥ क्योंकि अब तो यह महाबली कालयवन हमको घेर रहाहैं और फिर जरासन्ध आज या कल अथवा परसोंतक अवश्यही आवेगा॥४७॥ यदि इस समय हम इससे युद्ध करें और बीचमें जरासन्ध आगया तो अवश्यही हमारे बांधवोंका प्राण संहार करेगा और जो न मारेगा तो बांधकर अपने पुरमें लेही जायगा, क्योंकि वह बलवान् हैं॥४८॥ इसलिये जहॉ मनुष्य न प्रवेश करसके ऐसा एक किला बनाय, उसमें अपने जाति के यादवोंको रख फिर कालयवनका वध करूं॥४९॥ हे राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने इसप्रकार मनमें
तं दृष्ट्वाऽचिंतयत्कृष्णः संकर्षणसहायवान्॥अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं द्युभयतो महत्॥४६॥यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः॥मागधोऽप्यद्य वा श्वोवा परश्वो वाऽऽगमिष्यति॥४७॥आवयोर्युध्यतोरस्य यद्यागंता जरासुतः॥बंधून्वधिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली॥४८॥तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गंद्विपददुर्गमम्॥तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे॥४९॥इति संमंत्र्य भगवान्दुर्गंद्वादशयोजनम्॥अंतस्समुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भु तमचीकरत्॥५०॥दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट विज्ञानं शिल्पनैपुणम्॥रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम्॥५१॥सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम्॥हेमशृंगैर्दिविस्पृग्भिः स्फाटिकाट्टालगोपुरैः॥५२॥राजताऽऽरकटैः काष्ठै र्हेमकुम्भैरलंकृतैः॥रत्नकूटैर्गृहैर्हेमैर्महामरकतस्थलैः॥५३॥
विचारकर अड़तालीस कोश (बारह योजन) का समुद्रके बीचमें एक दुर्ग (किला) और उस किलेके बीचमें एक महाअद्भुत आश्चर्यमय नगर बनाया॥५०॥ इस नगरीमें सब विश्वकर्माकी कारीगरी दिखाई देती है, राजाओंके जाने योग्य बड़े बड़े बाजार गली और चौक बन रहेहैं॥५१॥ बीचबीचमें स्थान बनानेके लिये जगह छोड दीगई हैं, कल्पवृक्ष और लतावाले फूलोंके बगीचे, चित्र विचित्र फुलवारी, सुवर्णके शिखरसे आकाशको स्पर्श करनेवाले ऊँचे ऊँचे स्फटिकमणिके अटा बनरहेहैं और ऊँचे ऊँचे किलेके द्वार बनरहेहैं॥५२॥ घोड़ोके बाँधने और अन्न भरनेके लिये लोहे और पीतलके स्थान बनेहैं तिनके ऊपर सुवर्णके कलश विराजमान हैं, जिनसे इस नगरकी अत्यन्तही मनोहर शोभा होरहीहै, जिनके पद्मरागमणिके
शिखर और महामरकतमणिकी जिसमें पृथ्वी, इसप्रकार शोभायमान सुवर्णके गृह जहाँ तहाँ बनरहे हैं॥५३॥देवताओंके मन्दिर और चित्रविचित्र चित्रसारी बन रही हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह वर्ण जिसमें वास करते हैं यादव और देवराज उग्रसेनके महल तो अत्यन्तही शोभाय मान हैं॥५४॥देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिये सुधर्मा सभा और कल्पवृक्ष भेजे, जो मनुष्य इस सभामें वास करता हैं, उसको भूख, प्यास, शीत, गरमी, शोक और मोह इत्यादि कुछ नहीं सताते॥५५॥श्यामकर्ण श्वेतवर्ण मनके समान वेगवान् वरुणजीने घोड़े भेजे, पालन करनेवाले कुबेरजीने पद्म, महापद्म, मत्स्य, कूर्म, कुन्द, नील, मुकुन्द, शंख, खर्व यह आठ विभूति भेजीं॥५६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुश्रेष्ठ परीक्षित् !! भगवान् वासुदेवने इन देवतालोगोंको अपने अपने अधिकारकी सिद्धिके लिये जो कुछ सम्पदायें दी थीं, वह सब वस्तु
वास्तोष्पतीनां च गृहैर्बलभीभिश्च निर्मितम्॥चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णंयदुदेवग्रहोल्लसत्॥५४॥सुधर्मा पारिजातं च महेंद्रः प्राहिणोद्धरेः॥ यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते॥५५॥श्यामैककर्णान्वरुणो हयाञ्छुक्लान्मनो जवान्॥अष्टौ निधिपतिः कोशाँल्लोकपालो निजोदयान्॥५६॥यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये॥ सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप॥५७॥तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः॥प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमंत्रितः॥निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः॥५८॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे दुर्ग निवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥श्रीशुक उवाच॥ तं विलोक्य विनिष्क्रांतमुज्जिहानमिवोडुपम्॥दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम्॥१॥
जिससमय श्रीकृष्णचन्द्र पृथ्वीपर आये, उन्होंने लाकर अर्पण करदीं॥५७॥उस द्वारकापुरीमें योगके प्रभावसे सब यदुवंशियोंको पहुँचाकर श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजीसे कहनेलगे कि, हे वीर!तुम यहाँ मथुरापुरीमें रहकर शेष प्रजाकी रक्षा करो, इस प्रकार बलदेवजीसे आज्ञाकर कमल नयन भगवान् कमलोंकी माला धारणकिये शस्त्ररहित मथुरापुरी के दरवाजेसे बाहर निकले॥५८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे ३ भाषाटीकायां दुर्गनिवेशनं नाम पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥दोहा— कालयवन मुचुकुन्दकी, दृष्टि परत भो छार। जब हरिकी विनती करी, फिर इक्यावनबार॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण!जिससमय श्रीकृष्णचन्द्रजी रेशमी वस्त्र पहरे, पुरसे बाहर निकले, तो
उनकी ऐसी शोभा हुई कि, मानो निशानाथचन्द्रमा उदय हुए॥१॥ छातीमें भृगुलताका चिह्न, कण्ठमें कौस्तुभमणि धारणकिये, चतुर्भुज, नवीन कमलके समान अरुण नेत्र॥२॥ नित्य प्रसन्न, शोभायमान और सुन्दर मुसकान, मकराकृत कुण्डलसे देदीप्यमान सुखारविन्द॥३॥ इस प्रकार मनोहर मूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रकी देखकर कालयवन अपने मनमें विचार करनेलगा कि, ठीक यही श्रीकृष्ण हैं॥४॥ क्योंकि देवर्षि नारदजीने
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभाऽऽमुक्तकंधरम्॥पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकंजारुणेक्षणम्॥२॥नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुक पोलं शुचिस्मितम्॥मुखारविंदं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥३॥वासुदेवो ह्ययमिति पुमाञ्श्रीवत्सलांछनः॥चतुर्भुजोऽरविंदाक्षो वनमाल्यतिसुंदरः॥४॥ लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति॥निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः॥५॥इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवंतं पराङ्मुखम्॥अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम्॥६॥हस्त प्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदेपदे॥ नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकंदरम्॥७॥
जो जो लक्षण बताये थे, सो सब इसमें पायेजाते हैं, इसके अतिरिक्त और कोई वासुदेव नहीं है और यह अकेला शस्त्ररहित चला जाता है, इसलिये मैं भी शस्त्ररहित पैदलहोकर इसके संग युद्ध करूं॥५॥ हे महाराज ! इस प्रकार कालयवन मनमें निश्चयकरके पराङ्मुख होकर भागते हुए, योगीजनोंके भी हाथ न आवें, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रके पकडनेको पीछे दौडा *॥६॥ पग पगपर “अब पकडा” “अब पकड़ा”
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* शंका— यवनको देखकर श्रीकृष्ण भगवान् क्यों भाग गये, इसका क्या कारण !
**उत्तर—**एक समय यदुवशी अपनी समामें अपने कुलकी कन्याके वचनोंको स्मरणकर गर्गाचार्यको सनेलगे, गर्गाचार्य तो श्रीभगवान् के पूजनमें रात दिन रहतेथे और स्त्रीसे प्रीति कम रखतेथे इससे उनकी स्त्रीने अपने यादवोंसे कहा कि गर्गमुनि नपुसक हैं इससे यदुवंशी उक्त मुनिकी हँसी किया करते थे इसलिये गर्गने यादवोंका नाश करनेके लिये एक पुत्र उत्पन्न करके उसी पुत्रको वरदान दिया कि, हे पुत्र ! युद्धमें यदुवंशीतेरे कुलके सामने अथवा तेरे सामने जो खडे होंगे तो उसी समय भागजायँगे श्रीकृष्ण इस बातको जानकर भाग गये॥
ऐसे अपने आपको दिखाते दिखाते म्लेच्छराज कालयवनको श्रीकृष्णचन्द्र बड़ी दूर पर्वतकी गुफामें लेगये॥७॥ यादवोंके कुलमें तू जन्मा हैं, इसलिये तेरा भागना उचित नहीं है, इसप्रकार आक्षेप करताहुआ महावेगसे दौडनेलगा, परन्तु पापी होनेके कारण श्रीकृष्णको न पकड सका, क्योंकि विना पाप नष्टहुये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्राप्ति नहीं होती है॥८॥ हे परीक्षित्! जब म्लेच्छराज कालयवनने श्रीकृष्णचन्द्रपर दुर्वाक्यरूपी बाणोंका आक्षेप किया, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतकी गुफामें घुसगये, कालयवन भी दौडता हाँफता इनके पीछे पीछे उस गुफामें घुस गया, वहाँ एक पुरुष और सोरहा था, उसे देख कालयवन विचार करने लगा॥९॥ कि यह दुष्ट मुझे इतनी दूर लाकर यहाँ साधुकी
पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्॥ इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः॥८॥ एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकंदरम्॥ सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम्॥९॥ नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्॥ इति मत्वाऽच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत्॥१०॥ स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने॥ दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम्॥११॥ स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत॥ देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात्॥११॥१२॥ राजोवाच॥ को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किंवीर्य एव च॥ कस्माद्वहां गतः शिश्ये किं तेजो यवनार्दनः॥१३॥
नाई शयन कर रहाहै, इसप्रकार कालयवनने निश्चय कर, उस सोतेहुये पुरुषको कृष्ण जानकर एक लात मारी॥१०॥वह पुरुष बहुत दिनोंका सोया हुआ था, इसलिये धीरे धीरे नेत्र खोल, चारों ओरको देख, कालयवनको देखा॥११॥ हे भारतवंशी राजा परीक्षित्!उसी समय क्रोधी मुचुकुन्दके देखनेसे कालयवनके शरीरसे ऐसी अग्नि प्रगटहुई कि, जिससे उसका शरीर क्षणभरमें जलभुनकर भस्म होगया॥१२॥ यह सुनकर राजा परीक्षित् पूँछने लगे कि, हे ब्रहान् ! जिसने अपनी क्रोधाग्निसे कालयवनका प्राण संहार किया, उसका क्या नाम और वह कौन पुरुष है ? किसके वंशमें जन्म ग्रहण किया हैं, क्या उनका प्रभावहैं, किनके पुत्र हैं ? और किसलिये इस गुफामें सोते थे ! सो सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मुझे सुनाइये॥१३॥
तब श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजा परीक्षित् !इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न मान्धाताका पुत्र गुणवान् ब्राह्मणोंका भक्त मुचुकुन्दनाम राजा था॥१४॥एक समय असुरोंसे भयभीत होकर इन्द्रादिक देवताओंने अपनी रक्षा करनेके लिये राजा मुचुकुन्दसे प्रार्थना की तो इन्होंने बहुत दिनोंतक देवताओंकी रक्षा की॥१५॥ इसके उपरान्त स्वर्गके पालन करनेवाले स्वामिकार्तिकजीको आयाहुआ देखकर सब देवता इनसे कहने लगे कि, हे राजा मुचुकुन्द !हमारी रक्षा करनेमें जो कुछ कष्ट आपको हुवा है इससे निवृत्त होकर आराम करो॥१६॥ हे वीर !तुमने मनुष्य लोकके निष्कंटक राज्यको त्यागकर हमारी रक्षा की है, इससे तुम्हारे विषयके भोग छूटे॥१७॥ और तुम्हारे पुत्र रानी, जातिके बन्धु बांधव,
श्रीशुक उवाच॥ स इक्ष्वाकुकुले जातो मांधातृतनयो महान्॥ मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसंगरः॥१४॥स याचितः सुरगणैरिंद्राद्यैरात्मरक्षणे॥ असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम्॥१५॥ लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्॥ राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात्॥१६॥ नरलोके परित्यज्य राज्यं निहतकंटकम्॥ अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः॥१७॥ सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमंत्रिणः॥ प्रजाश्च तुल्यकालीया नाऽधुना संति कालिताः॥१८॥ कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः॥ प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पाशून्॥१९॥ वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः॥ एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः॥१९॥ २०॥ एवमुक्तः स वै देवानभिवंद्य महायशाः॥ निद्रामेव ततो वव्रे स राजा श्रमकर्शितः॥२१॥ यः कश्चिन्मम निद्राया भंगं कुर्यात्सुरोत्तमाः॥ स हि भस्मीभवेदाशु तथोक्तश्चसुरैस्तदा॥२२॥
प्रधान, दीवान, मंत्री, राज्यकी प्रजा; इनमेंसे अब कोई शेष नहीं है, सबका कालने संहार करदिया॥१८॥ काल बलवान् से बलवान् हैं, भगवानकी शक्ति हैं समर्थ अविनाशी हैं और जिस प्रकार पशुओंका पालन करनेवाला ग्वालिया पशुओंको चलाता है, उसीप्रकार आप क्रीड़ा करके सब प्रजाको इधर उधर चलाता है॥१९॥ सब देवता कहने लगे कि, हे राजा मुचुकुन्द ! तुम्हारा कल्याण हो, मोक्षके अतिरिक्त और जो इच्छा हो सो वर मांगो क्योंकि मोक्षके दाता तो केवल एक विष्णु भगवान् ही हैं॥२०॥ हे परीक्षित ! जब इस प्रकार देवता लोगोंने कहा, तब महायशस्वी राजा मुचुकुन्दने बहुत दिनोंतक देवताओंकी रक्षा करनेसे श्रमित होनेके कारण यह वर मांगा कि, मैं सोताही रहूं और जो कोई
मेरी निद्रा भंग करे, वह उसीसमय भस्म होजाय, यह वर मॉगा, देवताओंने कहा कि ऐसा ही होगा, तब राजा मुचुकुन्द देवताओंकी आज्ञा पाय पर्वतकी गुफामें जाकर सो रहा॥२१॥२२॥ इससे देवताओंने कह दिया था कि, जो तुम्हारी निद्रा भंग करेगा, वह तत्कालही जलके भस्म होजायगा॥२३॥ जब कालयवन जल के भस्म होगया, तब चतुर्भुजरूप होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने राजा मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया॥२४॥ मेघ के समान श्यामवर्ण पीतवस्त्रधारण किये हृदयमें प्रकाशमान भृगुलताका चिह्न और कौस्तुभमणि धारण करनेसे अत्यन्तही देदीप्यमान होरहे थे॥२५॥ चतुर्भुज, वैजयन्ती मालासे सुशोभित और दमकते हुये मकराकृत कुण्डलोंसे शोभायमान होरहे थे॥२६॥ देखने योग्य प्रेमभरी
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया॥ स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतनः॥ स त्वया दृष्टमात्रस्तु भस्मी भवतु तत्क्षणात्॥२३॥ यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्त्वतर्षभः॥ आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते॥२४॥ त मालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥ श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्॥२५॥ चतुर्भुजं रोचमानं वै जयंत्या च मालया॥ चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥२६॥ प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्॥ अपी च्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम्॥२७॥ पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः॥ शंकितः शनकै राजा दुर्धर्षमि व तेजसा॥२८॥ मुचुकुन्द उवाच॥ को भवानिह संप्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे॥ पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकंटके॥२८॥२९॥ किंस्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः॥सूर्यः सोमो महेंद्रो वा लोकपालोऽपरोपि वा॥३०॥
मुसकान सहित विलक्षण और नवीन अवस्था युक्त मतवाले सिंहके समान पराक्रमी॥२७॥ इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका तेज देखतेही भयभीत होकर राजा मुचुकुन्द धीरे धीरे पूछनेलगा॥२८॥ राजा मुचुकुन्द बोला कि, हे पुरुषश्रेष्ठ ! तुम कौन हो ? कमलके समान आपके कोमल चरण हैं और इस पर्वतकी गुफा में किसलिये आयेहो ? जो कॉटोंके वनमें विचरते फिरोहो॥२९॥ क्या आप तेजवान् भगवान् अग्नि हैं वा सूर्य हैं, अथवा चन्द्रमा हैं, या इन्द्र हैं ? किंवा समस्त लोकपालोंके कर्त्ता या देवता हैं ?॥३०॥
अथवा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन तीनों देवताओंमेंसे कोई हो ! मुझे जान पडता हैं कि, आप विष्णु भगवान् हैं, क्योंकि जैसे दीपक अपने प्रकाशसे अंधकारका नाश कर देता हैं, वैसेही आपने अपने तेजसे इस गुफाका अंधकार नाश करदिया॥३१॥ यह कहकर फिर मुचुकुंद बोले कि, हे नर पुंगव हमें आपका जन्म, कर्म व गोत्र सुननेकी अत्यन्त अभिलाषा हैं, सो प्रसन्नतापूर्वक हमें सुनाइये॥३२॥ हे पुरुषसिंह ! मैं तो इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुआहूं, मान्धाताका पुत्र और मुचुकुन्द मेरा नाम हैं॥३३॥ मैं बहुत दिनोंमें जागाहूं इसलिये मुझे खेद प्राप्त हुआ हैं और नींदके मारे मेरी इन्द्रियें चलायमान हो रहीं हैं, क्योंकि मैं इच्छानुसार इस वनमें सो रहाथा और अभी किसीने आकर जगादिया॥३४॥ और जिसने मुझे
मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्॥ यद्बाधसे गुहाध्वांतं प्रदीपः प्रभया यथा॥३१॥शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुंगव॥ स्वजन्मकर्मगोत्रंवा कथ्यतां यदि रोचते॥३२॥ वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबंधवः॥ मुचुकुंद इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो॥३३॥ चिरप्रजागरश्रांतो निद्रयापहतेंद्रियः॥शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना॥३४॥ सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना॥ अनंतरं भवाञ्श्रीमाँल्लक्षितोऽमित्रशातनः॥३५॥ तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टु न शक्नुमः॥ हतौजसो महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम्॥३६॥ एवं संभाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः॥ प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया॥३७॥ श्रीभगवानुवाच॥ जन्मकर्माभिधानानि संति मेंग सहस्रशः॥ न शक्यंतेऽनु संख्यातुमनंतत्वान्मयापि हि॥३८॥ क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः॥ गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित्॥३९॥
आनकर जगाया, वह पुरुष उसीसमय जलकर भस्म हो गया उसके पीछे आपके दर्शन हुए॥३५॥ हे भगवन ! तुम्हारा असह्यतेज बहुत काल तक हम नहीं देख सक्ते, क्योंकि आप देहधारियोंके माननीय हैं॥३६॥ इसप्रकार जब राजा मुचुकुन्दने प्रार्थना करी, तब संपूर्ण प्राणियोंके पालन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहनेलगे॥३७॥ कि, हे मुचुकुन्द ! मेरे जन्म, कर्म और नामका अंत नहीं इसलियेमैं भी उनकी गणना नहीं करसक्ता॥३८॥ अनेक जन्म धारण करके कदाचित् मनुष्य पृथ्वीके रजकणोंकी तो गणना करसक्ता हैं,
परन्तु मेरे गुण, कर्म, जन्म, नामकी गिनती नहीं करसक्ता॥३९॥ हे राजा मुचुकुन्द ! भूत, भविष्य, वर्त्तमान, मेरे जन्मोंकी गणना करते करते बडे बडे ऋषि, मुनि भी पार न पासके॥४०॥ तोभी हे अंग ! अभीके जो मेरे नाम कर्म हैं सो मैं कहताहूं, तुम श्रवण करो।पृथ्वीका भार उतारने और धर्मकी रक्षा करनेके लिये प्रथम कमलयोनि ब्रह्माजीने मेरी प्रार्थना की थी॥४१॥ इस कारण यदुवंशमें वसुदेवके गृह मैंने जन्म लिया, और इसीलिये मेरा नाम वासुदेव प्रसिद्ध हुआ॥४२॥ हे मुचुकुन्द ! साधुद्वेषी कालनेमि, कंस इत्यादिका मैंने वध किया और यह जो कालयवन
कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप॥ अनुक्रमंतौ नैवांतं गच्छंति परमर्षयः॥४०॥ तथाप्यद्यतनान्यंग शृणुष्व गदतो मम॥ विज्ञापितो विरिचेन पुराऽहं धर्मगुप्तये॥ भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च॥४१॥ अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुंदुभेः॥ वदंति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम्॥४२॥ कालनेमिर्हतः कंसः प्रलंवाद्याश्च सहिषः॥ अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा॥४३॥ सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः॥ प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाऽहं भक्तवत्सलः॥४४॥ वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते॥ मां प्रपन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम्॥४५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तस्तं प्राणम्याह मुचुकुंदो मुदान्वितः॥ ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन्॥४६॥ मुचुकुंद उवाच॥ विमोहितोऽयं जन ईश मायया त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्॥ सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः॥४७॥
हैं, सो तुम्हारी तीक्ष्णदृष्टिसे भस्म हो गया॥४३॥ हे राजन् ! पहले तुमने मेरी प्रार्थना की थी इसलिये मैं तुमपर अनुग्रह करनेके लिये इस गुफामें आयाहूं॥४४॥ हे मुचुकुन्द ! मैं तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूं वर माँगो, क्योंकि मेरी शरण आनेसे मनुष्यको फिर किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं रहती॥४५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! जब इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने कहा, तब प्रसन्न हो गर्गाचार्यके वचन स्मरणकर उन्हैंसाक्षात् परिपूर्ण भगवान् जान प्रणाम करके राजा मुचुकुन्द बोलनेलगा॥४६॥ मुचुकुन्दने कहा कि, हे ईश ! तुम्हारी मायासे यह
लोग मोहित होकर अनर्थ (जगत्) की ओर दृष्टि लगाय, सुखके लिये दुःखके दुःखमूल घरोंमें रहकर क्या स्त्री क्या पुरुष सभी ठगकर मोहित होजातेहैं॥४७॥ इस मृत्युलोकमें जन्म लेकर जो मनुष्य आपके चरणोंका ध्यान नहीं करता हैं सो पशु समझना ऐसा हैं तो भी शरीरका मैंने इतना अभिमान किया हैं कि, रथ, घोड़े, हाथी, पैदल, सेना और मुख्य मुख्य सेनाध्यक्षको साथ लेकर पृथ्वीपर विचारतारहा, परंतु कालरूप तुम्हारा स्मरण कभी न किया इसलिये मेरा इतना समय व्यर्थ गया और पशुकी नाईं गृहान्धकूपमें पडगया॥४८॥४९॥ कच्चे घटके समान इस देहको राजा मान अभिमानसे हम रथ, हाथी, घोडे, पदातिके संग पृथ्वीपर भ्रमण करते हुए आपका हमने बहुत अनादर किया ऐसे
लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं कथंचिदव्यंगमयत्नतोऽनघ॥ पादारविंद न भजत्यसन्मतिर्गृहांधकूपे पतितो यथा पशुः॥४८॥ ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः॥ मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभूष्वासज्जमानस्य दुरंतचिंतया॥४९॥ कलेवरेऽस्मिन्घटकुड्यसन्निभे निरूढमानो नरदेव इत्यहम्॥ वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपैर्गां पर्यटंस्त्वाऽगणयन्सुदुर्मदः॥५०॥ प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्॥ त्वमप्रमत्तः सहसाऽभिपद्यसे क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमंतकः॥५१॥ पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः॥ स एवकालेन दुरत्ययेन ते कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः॥५२॥ निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो वरासनस्थः समराजवंदितः॥ गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां क्रीडामृगः पुरुष ईश नीयते॥५३॥
मनुष्यको मुखसे जिसप्रकार गलाफू चाटता सर्प उंदर (मूँसा) को पकड लेता हैं, उसी प्रकार अप्रमत्त (सावधान) कालस्वरूप आप झटपट लेतेहैं॥५०॥५१॥ मनुष्यदेव अर्थात् राजा यह नाम धरकर जो सुवर्णके बने रथोंपर बैठकर चलते हैं, सो देह दुरत्ययकाल करके मेरे पीछे कुत्ते सियार यदि भक्षण करलें तो विष्ठा होजाय, पड़ा रहे तो कृमि पड़ जॉय और अग्निसे जला दिया सो भस्म होजाय, इस प्रकार तीन नामोंको धारण करते हैं॥५२॥ हे भगवन् ! जिस पुरुषने सम्पूर्ण दिशाओंको जीतलिया हैं, जिसको संग्राममें कोई शत्रु शेष नहीं रहा और जिसे सब बराबरके राजा प्रणाम करतेहैं, ऐसे उत्तम सिंहासनपर विराजमान चक्रवर्ती राजा भी मैथुन करनेके लिये घरोंमें क्रीड़ामृगके समान स्त्रियोंसे
नाच नचाये जाते हैं, जैसे बाजीगर बंदरको नचाता हैं॥५३॥प्रथम यह पुरुष सब विषयोंको त्यागके, तपमें बड़ी श्रद्धाकर पृथ्वीमें शयन करताहैं औरविषयभोगनेके लिये दान पुण्य करता हैं और फिर विचार करता हैं कि, इस जन्ममें तपकर चक्रवर्ती राजा हो, तपस्याके प्रभावसे फिर इन्द्र हो जाऊंगा, इसप्रकार तृष्णाके बढ़नेसे उस पुरुषको कभी सुख नहीं होता॥५४॥हे भगवन् ! इस संसारमें जन्म मरण प्राप्तहुए जीवको जिस समय तुम्हारे अनुग्रहसे संसारका अंत होताहैं; उस समय तुम्हारे भक्तोंका सत्संग हो तो सब संगको त्यागकर कार्य कारणके नियन्ता आपमें भक्ति करते हैं, वह संसारके बंधनोंसे छूट जाते हैं॥२५॥ हे ईश्वर ! यह आपने बड़ाही अनुग्रह किया, जो मैं अकस्मात् राज्यबंधनोंसे
करोति कर्माणि तपस्सु निष्टितो निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाऽऽददत्॥पुनश्च भूयेयमहं स्वराडिति प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते॥५४॥भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य तर्ह्यच्युत तत्समागमः॥ सत्संगमो यर्हि तदैव सद्गतौ परावरेशेत्वयि जायते मतिः॥५५॥मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो राज्यानुबंधापगमो यदृच्छया॥ यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्या वनं विविक्षद्भिरखंडभूमिपैः॥५६॥न कामयेऽन्यं तव पादसेवनादकिंचनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो॥आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृणीत आर्योवरमात्मबंधनम्॥५७॥ तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो रजस्तमस्सत्त्वगुणानुबंधनाः॥निरंजनं निर्गुणमद्वयं परं त्वां ज्ञप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम्॥५८॥चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापैरवितृषषड मित्रोऽलब्धशांतिः कथंचित्॥शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्नभयमृतमशोकं पाहि माऽपन्नमीश॥५९॥
छूटगया, यह मैं मानता हूं, राज्य छूटनेके लिये अकेला होकर वनमें जानेकी इच्छा करनेवाले चक्रवर्ती राजा भी प्रार्थना करते हैं कि हमारा किसी प्रकार राज्यबंधन छूटजाय, जिससे स्वाधीन होकर वनमें जा बैठें॥५६ ॥हे समर्थ ! निष्किंचन साधुसे पूजित, तुम्हारे चरणारविन्दोंका सेवन करने से मैं और किसी वरकी इच्छा नहीं करता, क्योंकि साक्षात् मोक्षला देनेवाला तुम्हारा आराधन करके ऐसा कौन विवेकी पुरुष हैं, जो आत्माका बंधनरूप वर मांगेगा ?॥५७॥ हे ईश !इसीलिये सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इनके बंधन और ऐश्वर्य, अथवा शत्रुका विनाश औरधर्मादिक मनोरथ त्याग ज्ञानधन, निरंजन, उपाधिरहित, निर्गुण, अद्वैत, ईश्वरमें आपकी शरण आयाहूं॥५८॥ हे अच्युत ! मैं इस संसारमें
बहुत दिनोंसे कर्म फलोंके कारण दुःखी हूं और कर्मोंकी वासनाओंसे पीड़ित हूं और तृष्णा सहित जो यह छः इन्द्रियरूप शत्रु मेरे पीछे पड़रहे हैं, इसलिये मुझे किसी प्रकारसे शांति नहीं हैं, अब मैं जैसे तैसे शोकरहित भयके दूर करनेवाले तुम्हारे चरणारविन्दकी शरण आगया हूं, सो मेरी रक्षा करो॥५९॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे राजन् ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी निर्मल और उदार हैं, क्योंकि मैंने वर देनेके लिये कहकर तुम्हें लोभ उत्पन्न किया, तो भी कामना करके तुम्हारी बुद्धि चलायमान न हुई॥६०॥मैंने वर देनेके लिये कहकर जो लोभ उत्पन्न किया, सो तुझे सचेत किया है, और हे राजन् ! यह तू निश्चय जान कि, मेरे भक्तोंको कदाचित् दुःख आनकर प्राप्त हो तो भी उनकी बुद्धि चलायमान नहीं होती हैं
श्रीभगवानुवाच॥सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता॥वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः॥६०॥प्रलोभितो वरैर्यस्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्॥न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित्॥६१॥युंजानानामभ क्तानां प्राणायामादिभिर्मनः॥अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरुत्थितम्॥६२॥विचरस्व महीं कामं मय्यावेशित मानसः॥अस्त्वेव नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी॥६३॥क्षात्त्रधर्मे स्थितो जंतून्न्यवधीर्मृगयादिभिः॥ समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः॥६४॥जन्मन्यनंतरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः॥भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम्॥६५॥इति श्रीमद्भा० महापु० दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५१॥
॥६१॥हे मुचुकुन्द ! जो मेरे भक्त नहीं हैं, वह प्राणायामादि साधनासे मनको वश करते हैं, तो भी उनका मन विषयोंके लोभमें जाताहुआ दीखता हैं, क्योंकि उनकी वासना क्षीण नहीं हुई॥६२॥ हे वीर! मुझमें मन लगाकर जहाँ आपकी इच्छा हो, तहाँ विचरण करो, और तुम्हारी भक्ति नित्यप्रति मुझमें होवे॥६३॥क्षत्रिय वंशमें रह शिकार खेलकर जो तैने जीवोंकी हिंसा की हैं, सो अब सावधान होकर मेरा आश्रय लेकर तप कर, जिससे तेरे सब पाप छूट जायँ॥६४॥हे राजा मुचुकुन्द ! दूसरे जन्ममें सब प्राणियोंके हित करनेवाले द्विजरूप तुममुझे प्राप्त होगे॥६५॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५१॥
दोहा— ब वनवें अध्यायमें, रक्मिणिको संदेश। द्विजवर लेगयोद्वारका, जहँ श्रीकृष्ण व्रजेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् इसप्रकार कृष्णमे अनुगृहीत होकर इक्ष्वाकुनन्दन मुचुकुन्द श्रीकृष्णकी परिक्रमा दे, नमस्कार कर गुफासे बाहर निकल आये॥१॥ राजा मुचुकुन्द मनुष्य, पशु लतादिक और छोटे छोटे वृक्षोंको देखकर “अब कलियुग आगया” इसप्रकार निश्चयकर उत्तर दिशाको चलेगये *॥२॥ वहाँसे फिर श्रद्धापूर्वक सब संग त्याग, संदेह रहित हो राजा मुचुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाय गंधमादनपर्वतपर चले गये॥३॥ हे नृपोत्तम !
॥श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सोऽनुगृहीतोंग कृष्णेनेक्ष्वाकुनंदनः॥ तं परिक्रम्य संनम्य निश्चक्राम गुहामुखात्॥१॥ स वीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्पशून्वीरुद्वनस्पतीन्॥ मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम्॥२॥ तप श्रद्धायुतो धीरो निस्संगो मुक्तसंशयः॥ समाधाय मनः कृष्णे प्राविशद्गंमादनम्॥३॥ बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्॥ सर्वद्वंद्वसहः शांतस्तपसाऽऽराधयद्धरिम्॥४॥ भगवान्पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्॥ हत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम्॥५॥
फिर नरनारायणके स्थान बद्रिकाश्रममें जाकर समस्त द्वन्द्व अर्थात सुख दुःख, भूख प्यास, शीत उष्णादि सहकर शान्त स्वरूप मुचुकुन्द तप करके भगवान् वासुदेवकी आराधना करनेलगा॥४॥ फिर इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्रने म्लेच्छोंसे घिरी मथुरापुरीमें आकर म्लेच्छोंकी सब सेनाका संहार किया और उनका सब धन लेकर द्वारकापुरीको भेज दिया॥५॥
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* **शंका—**श्रीकृष्णजी मयलोकमें विराजते थे, फिर उनके सामने पृथ्वीपर मनुष्य, पशु, वृक्ष, पर्वत आदि लेके जो सब वस्तु प्रथम बडी बडी थी, सो वस्तु छोटी छोटी क्यों होगई ? यह वढा आश्चर्य हैं ?क्योंकि कृष्ण भगवान् मृत्युलोकसे बैकुण्ठको चले जाते तब बडीबडी वस्तु छोटी छोटी हो जातीं, तो शंका न होती श्रीकृष्णके सामने विपरीत होनेका क्या कारण?
**उत्तर—**द्वापरयुगमें जैसी प्रजा ब्रह्माने बनाई थी, वैसीही प्रजा मर्त्यलोकमें उससमय थी, न तो तिलसमान कम और न तिलसमान अधिक, परन्तु राजा मुचुकुन्दने श्रीकृष्णके दर्शनकी प्रीतिसे प्रसन्नहोके पर्वतको भी छोटा समझा और पदार्थोकी तो क्या बात है इसका यह अर्थ है कि, कृष्णके दर्शनसे सब वस्तुको राजाने छोटा समझा, एक कृष्णके स्नेहहीको वढा समझा॥
श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा पातेही मनुष्य बैलोंके ऊपर धन लादकर जब ले चले; तब जरासन्ध तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर फिर चढिआया॥६॥ श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी शत्रुकी सेनाको देख मनुष्यावतार के कारण शीघ्रही उठकर भागे॥७॥ यद्यपि इन्हें किसीका डर नहीं था, तौ भी बहुत भयभीत होगये; इसलिये बहुत से धनको मार्ग में छोड़ कमल से कोमल चरणोंसे बहुत दूर तक कोशों भागे चलेगये॥८॥ मगध देशका राजा जरासन्ध कृष्ण बलदेवको भागता हुआ देख हँसकर आप भी उनके पीछे दौड़ने लगा॥९॥ बहुत दूरतक भागनेके कारण श्रमित होकर श्रीकृ
नीयमाने धने गोभिर्तृभिश्चाच्युतचोदितैः॥ आजगाम जरासंधस्त्रयोविंशत्यनीकपः॥६॥ विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ॥ मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम्॥७॥ विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्॥ पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम्॥८॥ पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली॥ अन्वधाव द्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित्॥९॥ प्रद्रुत्य दूरं संश्रांतौतुंगमारुहतां गिरिम्॥ प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति॥१०॥ गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पद नृप॥ ददाह गिरिमेधोभिः समंतादग्निमुत्सृजन्॥११॥ तत उत्पत्यतरसा दह्यमानतटादुभौ॥ दशैकयोजनोत्तुंगान्निपेततुरधो भुवि॥१२॥ अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ॥ स्वपुरं पुनरायातौ समुद्रपरिखां नृप॥१३॥
ष्णचन्द्र और बलरामजी प्रवर्षणनाम पर्वतपर चढगये, जिसपर देवराज इन्द्र नित्य जल वर्षाते रहते थे॥१०॥ हे राजा परीक्षित !जरासन्धनेकृष्ण बलरामको पर्वतपर चढ़ा जान उनको बहुत ढूँढा परन्तु कहीं पता न लगा, तब उस पर्वतके चारोंओर आग लगादी॥११॥ हे राजन ! जब पर्वत जलने लगा, तब श्रीकृष्णचन्द्र बलदेव दोनों भ्राता उस ४४ चवालीस कोश ऊँचे पर्वतके शिखरसे उछलकर पृथ्वीपर कूद पड़े॥१२॥ हे महाराज ! सेवकों सहित जरासन्धसे अलक्षित यादवोंमें श्रेष्ठ कृष्ण बलराम समुद्रकी खाईसे युक्त द्वारकापुरीमें आये॥१३॥
हे राजन् ! जब समस्त पर्वत जलकर भस्म हो गया, तब मगधदेशके राजा जरासन्धने विचारा कि, कृष्ण बलदेव भी इसके संगही भस्म होगये, इसलिये अपनी सब सेना साथ लेकर मगधदेशको चलागया॥१४॥ यद्यपि अब श्रीकृष्णचन्द्रके विवाहकी कथा कहनेके लिये प्रथम (नवमस्कन्ध ) में बलदेवजी के विवाहकी कथा वर्णनकर आये हैं, तो भी फिर एक श्लोक में वर्णन करते हैं, हे परीक्षित्! आनर्त्तदेश के राजा रैवतने, कमलयोनि ब्रह्माजीके कहनेसे अपनी पुत्री रेवतीका बलदेवजी से विवाह कर दिया, यह पहले कहचुके है॥१५॥ हे भारतवंशावतंस परीक्षित्! भगवान् वसुदेव भी स्वयंवरमें जाकर लक्ष्मीजीके अंशसे विदर्भदेशमें उत्पन्न हुई भीष्मककी कन्या रुक्मिणीको विवाह लाये॥१६॥ शाल्व
सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ॥वलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ॥१४॥ आनर्ताधिपतिः श्रीमान्रैवतो रेवतींसुताम्॥ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम्॥१५॥भगवानपि गोविंद उपयेमे कुरूद्वह॥वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे॥१६॥प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्॥पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव॥१७॥राजोवाच॥भगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्॥राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम्॥१८॥भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः॥यथा मागधशाल्वादीञ्जित्वा कन्यामुपाहरत्॥१८॥१९॥ ब्रह्मन्कृष्णकथाः पुण्यामाध्वीर्लोकमलापहाः॥को नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः॥२०॥
और शिशुपालादिक राजाओंकी सेनाको जीत, सब लोकोंके देखते हुये जैसे देवताओंको जीतकर गरुडजी अमृत ले आते हैं उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीजीको लेआये॥१७॥इतनी कथा सुनकर राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! अत्यन्त स्वरूपवान् राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणीको युद्ध मेंसे हरके राक्षसविधिसे श्रीकृष्णचन्द्रने व्याहा, यह वार्त्ता हमने आपकेही मुखसे सुनी है॥१८॥हे व्यासनंदन ! जरासन्ध शाल्व इत्यादि राजाओंको जीतकर जिस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीको लाये, वह चरित्र सुननेकी मेरी अत्यन्त अभिलाषा है, सो प्रसन्नता पूर्वक वर्णन कीजिये॥१९॥ हे ब्रह्मन् ! श्रीकृष्णचन्द्रकी कथा अत्यन्त पवित्र और मनोहर है और समस्त लोकों के पापों का नाश करनेवाली हैं,
नित्य नवीन सुननेके सारको जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो ऐसी कथायें सुनकर तृप्त हो !॥२०॥जब राजाने यह वचन कहे, तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! विदर्भदेशका पालन करनेवाला, महायशस्वी भीष्मक नाम राजा था, इसके पाँच पुत्र और परमस्वरूपवान एक कन्या उत्पन्न हुई॥२१॥इन पुत्रों में सबसे बड़ा रुक्मी, इससे छोटा रुक्मरथ, इससे छोटा रुक्मबाहु, इससे छोटा रुक्मकेश और रुक्मकेशसे छोटा रुक्ममाली, यह पांच पुत्र उत्पन्न हुये और पाँचोंकी बहन परमसुशीला पतिव्रता रुक्मिणी हुईं॥२२॥घरमें आये हुये देवर्षि नारदजीके मुख से श्रीकृष्णचन्द्रका गुणानुवाद सुनकर श्रीरुक्मिणीजीने अपने समान जान, विवाह करने के लिये मनमें प्रतिज्ञा की॥२३॥ और इधर सुन्दर बुद्धि, उदारता, रूप, पराक्रम, शोभायुक्त रुक्मिणीके गुण सुनकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने
श्रीशुक उवाच॥राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्॥तस्य पंचाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना॥२१॥रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनंतरः॥रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषां स्वसा सती॥२२॥सोपश्रुत्य मुकुंदस्य रूपवीर्यगुणश्रियः॥गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम्॥२३॥तां बुद्धिलक्षणौदार्यरूपशीलगुणाश्रयाम्॥ कृष्णश्च सदृशीं भार्यांसमुद्वोढुं मनो दधे॥२४॥ बंधूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप॥ततो निवाय कृष्णद्विड् रुक्मी चैद्यममन्यत॥२५॥तदवेत्यासितापांगी वैदर्भी दुर्मना भृशम्॥विचिंत्याऽऽप्तं द्विजं कंचित्कृष्णाय प्राहिणोद्रुतम्॥२६॥द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः॥अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं कांचनासने॥२७॥
समान स्त्रीके व्याहनेका अभिलाष किया॥२४॥हे राजन् ! माता, पिता, भ्राता, आदि सबकी यही इच्छा थी कि, रुक्मिणीका विवाह श्रीकृष्णचन्द्रसे करेंगे, परन्तु श्रीकृष्णचन्द्रका शत्रु रुक्म " हम अपनी बहनका विवाह कृष्णके साथ नहीं करेंगे इस प्रकार निषेधकर " रुक्मिणीके योग्यवर शिशुपाल है” यह मनमें निश्चय किया॥२५॥॥सुन्दर नील कटाक्षवाली विदर्भदेश के राजाकी पुत्री रुक्मिणीने सुना कि, श्रीकृष्ण के साथ मेरा भाई व्याहनेको निषेध करता है, यह जान बहुत उदास होकर उसी समय एक ब्राह्मणको बुलाय श्रीकृष्णचन्द्रके लिवालानेके लिये भेजा॥२६॥हे राजन् ! यह ब्राह्मण जिस समय द्वारकापुरीमें पहुंचा, उसी समय द्वारपालोंने इसे भीतर पहुॅचाया, वहाँ इसने
सुवर्णके सिंहासनपर विराजमान आदिपुरुष भगवान् वासुदेवके दर्शन किये॥२७॥ गौ ब्राह्मणोंका पालन करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र उसब्राह्मणको देखतेही सिंहासनपरसे उतरपड़े और ब्राह्मणको सिंहासनपर बिठाय, जिस प्रकार कोई अपने देवताकी पूजा करता हैं उसी प्रकार पूजा करनेलगे॥२८॥ हे नृपोत्तम परीक्षित ! जब ब्राह्मण भोजन करचुका और मार्गकी थकावट दूर होगई, तब सत्पुरुषोंकी गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसके निकट जा अपने हाथोंसे उसके चरण दाबते दाबते यह पूँछा॥२९॥ कि, हे द्विजश्रेष्ठ! वृद्धसंमत तुम्हारा धर्म बहुत कठिनतापूर्वक तो
दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्॥ उपवेश्यार्हयांचक्रे यथात्मानं दिवौकसः॥२८॥ तं भुक्तवंतं विश्रांतमुपगम्य सतां गतिः॥ पाणिनाऽभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत॥२९॥ कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसंमतः॥ वर्तते नातिकृच्छ्रेण संतुष्टमनसः सदा॥३०॥ संतुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्॥अहीयमानः स्वाद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक्॥३१॥ असंतुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः॥ अकिंचनोऽपि संतुष्टः शेते सर्वांगविज्वरः॥३२ ॥
नहीं चलता है ? सदा तुम्हारे मनमें संतोष तो वर्त्तमान है ?॥३०॥ जिस किसी प्रकारके ब्राह्मण संतोष होकर वर्त्ते अर्थात् जो वस्तु मिले उसीमें संतोष रक्खे, स्वधर्मसे च्युत न हो तो यही उसको समस्त फलके देनेवाले हैं॥३१॥ और जिसके मनमें संतोष नहीं हैं वह ब्राह्मणयद्यपि इन्द्र हो जाय तौ भी सब लोकोंमें घूमता फिरता है, तृष्णाकेमारे एक स्थानपर स्थिर नहीं रहता, हे ब्राह्मण ! प्रारब्धही तो मनुष्यको राजा रंक करताहैं***** और जिसके पास कुछ भी नहीं हैं और मनमें सन्तोष हैं, वह ब्राह्मण सब खेदको त्यागकर आनन्दपूर्वक सोता हैं॥३२॥
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* दृष्टान्त— एक घोडके व्यापारीके घोडेसे राजाके पुत्रका कोई रोग जाता रहा, राजाने व्यापारीसे कहा कि, इस घोडेकी कीमत लेलो, व्यापारीने कहा, महाराज ! यहघोडा कुमारके चढनेको मैने पैसेही दिया और मुझे द्रव्यकी इच्छा नहीं, जब उसने ऐसा कहा, तब राजाने उसका बहुत आदर सन्मानकर विदा किया और कहा कि, यहाँ आते जाते रहियो अब कुछ वर्ष उपरान्त व्यापारीका प्रारब्ध विगत धन सब चोरी होगया, घोड मरगये और जब कुछ उपाय न चला तो राजाके पास आया, राजाने यह समाचार सुन, उसे एक मकान में टिका दिया और कुछदिन पीछे उससे भेंट कर पूछा कि, तुमको क्या बनाना आता है व्यापारी बोला कि, मैं चाबुक बनाना जानताहू, राजाने उसी समय पाँच रुपये देकर कहा कि, इसके चाबुक बनाओ और बेचो, रहनेके लिये मकान तुम्हें देही दिया है, तो व्यापारी चाबुक बनाने लगा, कुछ दिन उपरान्त उनमें भी घाटा हुआ और पाँचों रुपये व्यय होगये, तो राजाने फिर पाँच रुपये देदिये और फिर घटगये, इसी प्रकार पाँच पाँच रुपये, सात वर्षतक राजाने दिये परन्तु जमा घटतीही-
जो द्विज आपही मिली वस्तुमै सन्तोष करता है, अपने धर्ममें निष्ठ है और समस्त जीवों की रक्षा करता है शान्तस्वभाव अकार रहित है उसको मैं भी वारम्वार नमस्कार करता हॅू॥३३॥हे द्विजश्रेष्ठ ! जिस राजा के देशमें तुम वास करते हो, वह राजा तो तुम पर प्रसन्न है ? क्योंकि जिस राजा के देशमें भली भाँति गौ ब्राह्मणका पालन होता है, वह राजा मुझे अत्यन्त प्यारा लगता है॥३४॥हे द्विजोत्तम ! समुद्रको उल्लंघन कर जिस
विप्रान्स्वलाभसंतुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्॥निरहंकारिणः शांतान्नमस्ये शिरसाऽसकृत्॥३३॥कच्चिद्वःकुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः॥सुखं वसंति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः॥३४॥यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया॥सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते॥३५॥एवं संपृष्टसंप्रश्नो ब्राह्मणः परिमेष्ठिना॥लीला गृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत्॥३६॥रुक्मिण्युवाच॥श्रुत्वा गुणान्भुवनसुंदर शृण्वतां ते निर्विश्य कर्णविव रैर्हरतोंगतापम्॥रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं त्वय्यच्युताऽविशति चित्तमपत्रपं मे॥३७॥
कार्य करनेकी इच्छासे आप यहाँपर आये हैं, जो कहने योग्य वार्त्ता होय तो हमारे सन्मुख कहो, जिससे उस कार्य करनेका उपाय कियाजाय॥३५॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् !श्रेष्ठ आसनपर विराजमान, लीलासेही जिन्होंने मनुष्य देह धारण किया है, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके पूछनेपर वह ब्राह्मण बोला कि॥३६॥ हे मधुसूदन ! रुक्मिणीने आपको एकान्तमें
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गई, जत्र आठवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तो एक रुपया बढा अर्थात् पाँच रुपयेके छ रुपये होगये तब यह देखकर राजाने दश रुपये दिये, फिर अधिक उन्नति हुई और द्रव्य बढनेही लगा। राजाने फिर घोडे लिवादिये उसमें वहुत द्रव्य उपार्जन किया, जब पहले के समान द्रव्य होगया, तब व्यापारीने विचारा कि, जितना कुछ राजाका द्रव्य हमने लिया है, सो देदेना चाहिये, यह अपने मनमें निश्चय कर राजासे मिलने गया उस दिन राजाने उसका बहुत सत्कार किया और कहा कि, मेरा भाभा राज्य व केले, तब व्यापारी कोष करके बोला कि जब मेरे पाम कुछ नहीं या तो पाँच रुपयेसे अधिक नहीं दिये, न मुझसे अच्छी प्रकार मिले और अब आधा राज्य देतेहो, तब राजा वोले कि उस समय तेरा प्रारब्ध विगड रहाया यदि में अपना सारा राज्य भी तुझको देदेता, परन्तु तौमो तेरे पास कुछ नहीं रहता, इसलिये थोडेही द्रव्यसे तेरा ग्रह टाल दिया, प्रारब्धके वली होनेसे और बलहीन होजाते हैं।
यह पत्री दीहै, तब श्रीकृष्णचन्द्रजीकी आज्ञा से उस प्रेम के चिह्नवाली पत्रीको खोलकर वह ब्राह्मण सुनाने लगा, रुक्मिणीने लिखा है कि, हे त्रिलोकी में सुन्दर हे अच्युत अर्थात् अखण्डरूप जबसे श्रवण करनेवाले पुरुषोंके कणोंके छिद्रों द्वारा, हृदयमें प्रवेश कर शोकसन्ताप दूर करनेवाले आपके गुण और दृष्टिवालोंकी दृष्टिके सकल मनोरथोंका लामरूप श्रीमान्का रूप सुना है, तभी से मेरा मन आपमें लग रहाहै॥३७॥ हे मुकुन्द !हे पुरुषशार्दूल! कौन बलवान् उदार गुणयुक्त धैर्यवान् कन्या तुम्हें जो कि, मनुष्य लोकके अतिप्रिय कुल, शील, रूप, विद्या, अवस्था, धन, घर इन सबमें तुम्हारी ही समान हो, तिन्हें विवाह के समय में पति स्वीकार न करे॥३८॥ हे समर्थ!
का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूपविद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्॥ धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या काले नृसिंह नरलोकमनोभिरामम्॥३८॥ तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरंग जायामात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि॥ मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमंबुजाक्ष॥३९॥ पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेव विप्रगुर्वर्चना दिभिरलं भगवान्परेशः॥ आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये॥४०॥ श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः॥ निर्मथ्य चैद्यमगधेंद्रबलं प्रसह्य मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम्॥४१॥
इसकारण मैंने अपना पति आपको वरण किया है और अपनी देह अर्पण करदी है, मुझे अपनी दासी अर्थात् भार्या बनाओ. हे कमलदललोचन ! मैं आपका भाग हॅू, उसे जैसे सिंहके भागको सियार ग्रहण नहीं करसक्ता, इसी प्रकार शिशुपाल आनकर मुझे स्पर्श न करे॥३९॥ बावली, कुआँ, तालाव, बाग, यज्ञ, दान, नियम, तीर्थ, देवता, ब्राह्मण, गुरु इनकी पूजा करनेसे भगवान् वासुदेव प्रसन्न होते हों तो श्रीकृष्णचन्द्र मेरा हाथ पकडके लेजॉय और शिशुपालादि कोई राजा न आने पावें॥४०॥ हे अजित ! कल्हही विवाहका दिन है, इसलिये तुम गुप्तवेषसे विदर्भदेशमें आओ, परन्तु अकेले मत आना, पीछे सेना भी साथमें लेते आना शिशुपाल और मगधदेशके राजा जरासन्धकी
सब सेनाको मथनकर उस पराक्रम के मोलमें मुझ अपनी दासीके संग आसुरविधिसे विवाह करलो॥४१॥कदाचित् कहो कि, तुम तो अंतःपुर के भीतर रहती हो, तुम्हारे बंधु बांधवोंके मारे विना कैसे विवाह करूं यह सन्देह मनमें कभी मत करो, क्योंकि हमारे कुल में विवादसे प्रथम दिन बड़ी कुल देवी अम्बिकाकी यात्रा होती है, सो यात्रा करने के लिये और देवीकी पूजा करनेको नववधू कन्या बाहर जाती हैं, वहॉसे मेरा लेजाना अतिसहज हैं, जैसे पार्वतीको महादेवजी लेगये॥४२॥जिनके चरणारविन्दोंकी रजसे स्नान करनेको बड़े बडे साधु महात्मा अपना महान् अज्ञान दूर करनेके लिये इच्छा करते हैं, हे कमलदललोचन । जो तुम मेरे ऊपर प्रसन्न न होगे, तो व्रत करके प्राण त्यागन कर दूँगी, यदि कहो कि, प्राण त्यागने से क्या होगा; तो उत्तर यह है कि, वारम्वार त्यागन करूंगी तो सौ जन्ममें तो प्रसन्न होगे ?॥४३॥ब्राह्मण बोला कि, हे द्वारकानाथ !
अंतःपुरांतरचरीमनिहत्य बंधूंस्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्॥पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा यस्यां बहिर्न ववधूर्गिरिजामुपेयात्॥४२॥यस्यांघ्रिपंकजरजस्स्नपनं महांतो वांछंत्युमापतिरिवात्मतमोऽपहृत्यै॥यर्ह्यांबुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं जह्यामसून्व्रतकृशाञ्शतजन्मभिः स्यात्॥४३॥ब्राह्मण उवाच॥इत्येते गुह्यसंदेशा यदुदेव मयाऽऽहृताः॥विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनंतरम्॥४४॥इति श्रीमद्भाग० महा० दश ०उत्तरा०कृष्णं प्रति रुक्मिणीसंदे शप्रेषणं नाम द्विपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५२॥श्रीशुक उवाच॥ वैदर्भ्या स तु संदेशं निशम्य यदुनंदनः॥प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत्॥१॥श्रीभगवानुवाच॥ तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि॥वेदाहं रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः॥२॥
यह जो मैं गुप्त संदेशा लेकर आया हूं यदि यह करने योग्य कार्य होय तो शीघ्रता करनी चाहिये, विलम्ब करना उचित नहीं॥४४॥ इति श्रीम द्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भापाटीकायां रुक्मिण्युद्वा हे द्विपचाशत्तमोऽध्यायः॥५२॥ दोहातिरपनमें निज प्रियाहित, हरि विदर्भ पग दीन॥छीन लीन वैरीनसों, अपनी प्रिया प्रवीन॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। यदुवंशियोंको आनन्दके देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र विदर्भदेश के राजाकी पुत्री रुक्मिणीका इस प्रकार संदेशा सुनकर ब्राह्मणका हाथ हाथमें पकड़कर कहने लगे॥१॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, जैसा रुक्मिणीका चित्त मुझमें लगा है, ऐसाही मेरा चित्त भी रुक्मिणी में लग रहा है और चिन्ताके मारे रातको नींद भी नहीं आती
मैं जानता हूं कि रुक्मने द्वेष करके मेरे विवादको मने कर दिया है॥२॥दुष्ट राजाओं को जीतकर दोष रहित अंगवाली अनन्यगति रुक्मिणीको जिस प्रकार काष्टके मथनेसे मनुष्य अग्नि निकाल लेतेहैं, वेसेही लेआऊंगा॥३॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् !मुर दैत्यके मारनेवाले भगवान् रुक्मिणीके विवादका नक्षत्र जान रथवान्से बोले कि, रथवान् !शीघ्रही रथ जोतकर लाओ॥४॥ शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प, बलाहक नामक घोडोंको रथमें जोत श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख ला सारथी हाथ जोडकर कहने लगा, रथ उपस्थित है॥५॥रथको देखतेही शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र प्रथम ब्राह्मणको चढाय पीछे आप चढ़ शीघ्रगामी, घोड़ोंके द्वारा आनर्त्तदेशसे चलकर एकही रातमें विदर्भदेश
तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे॥मत्परामनवद्यांगीमेधसोऽग्निशिखामिव॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः॥रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम्॥४॥ स चाश्वैः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पवला हकैः॥युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्रांजलिरग्रतः॥५॥आरुह्य स्यंदनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः॥आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः॥६॥राजा स कुंडिनपतिः पुत्रस्नेहवशं गतः॥ शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत्॥७॥पुरं संमृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम्॥ चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलंकृतम्॥८॥स्रग्गंधमाल्याभ रणैर्विरजोंवरभूषितैः॥ जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद्हैरगुरुधूपितैः॥९॥
पहुँचे॥६॥ अपने पुत्र रुक्मके स्नेहवश होकर और उसकी आज्ञानुसार चलनेवाला कुंडिनपुरका राजा भीष्मक शिशुपालको अपनी कन्या देनेके लिये पुरकी शोभा और पितृ, देवताओंके पूजनादिकर्म करानेलगा॥७॥ इसके उपरान्त राजा भीष्मकने अपने पुरको शोभायमान करनेके लिये राजमार्गमें झाडू बुहारी दिलवाकर छिड़काव कराया, चित्र विचित्र ध्वजा पताका और बन्दनवारोंसे अपने पुरको अत्यन्त शोभायमान किया॥८॥ माला, चन्दन, फूलोंके गहने और स्वच्छ वस्त्रोंसे शोभायमान स्त्री, पुरुष धाराप्रवाहकी भाँति इधर उधर फिर रहे थे और सब मन्दिर अगरकी सुगन्धसे सुगंधित थे॥९॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् ! पितृ देवताओंका पूजन करके और विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन जिमाय राजा भीष्मकने रुक्मिणीका यथावत् स्वस्तिवाचन कराया॥१०॥११॥ फिर कन्याको भलीप्रकार स्नान कराय;कौतुकसे उसके हाथमें विवाहका कंकण बाँध उत्तम नवीन वस्त्र पहराय अनेक अलंकारोंसे सुशोभित किया॥११॥तब द्विजोत्तम ब्राह्मण सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेदके मंत्रोंको पढकर श्रीरुक्मिणीजीकी रक्षा करनेलगे और अथर्ववेदके मंत्रोंको जाननेवाले पुरोहितने सूर्यादि नवग्रहोंकी शान्ति करनेके लिये होम किया॥१२॥हे राजन् ! विधि जाननेवाले राजाओंमें श्रेष्ठ राजा भीष्मकने ब्राह्मणोंको सुवर्णरूपी वस्त्र और तिल मिलाकर गुड़ वा दूधवाली बहुतसी गायोंका दान दिया॥१३॥
पितृृन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप॥भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मंगलम्॥१०॥सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमंगलाम्॥अहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥११॥चक्रुः सामर्ग्यजुर्मंत्रैर्बद्धा रक्षां द्विजो त्तमाः॥पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशांतये॥१२॥हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्॥प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः॥१३॥एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै॥कारयामास मंत्रज्ञैःसर्वमभ्युदयो चितम्॥१४॥मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यंदनैर्हेममालिभिः॥पत्त्यश्वसंकुलैः सैन्यैः परीतः कुंडिनं ययौ॥१५॥तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च॥निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने॥१६॥तत्र शाल्वो जरासंधोदंतवक्रोविदूरथः॥आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौंड्रकाद्याः सहस्रशः॥१७॥कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्॥यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः॥१८॥
जिस प्रकार राजा भीष्मकने अपनी कन्याका मंगल कराया उसी प्रकार चंदेलीके राजा दमघोषने अपने पुत्र शिशुपालके सब मंगलकर्म मंत्रोंके जाननेवाले ब्राह्मणोंसे कराये॥१४॥ मतवाले हाथियोंका समूह, रथ, पैदल, घोड़े इत्यादि चतुरंगिणी सेनाको साथ लेकर राजा दमघोष कुंडिनपुरमें पहुँचा॥१५॥ समाचार सुनतेही विदर्भदेशके राजा भीष्मकने अगौनीकर एक सजेहुये स्थानमें उन्हें जनवासा दिया॥१६॥ तहाँ शाल्व, जरासंध, दंतवक्र, विदूरथ और पौंड्रक आदि सहस्रों राजा शिशुपालकी ओरके आये॥१७॥ यह समस्त कृष्णबलदेवके शत्रु
सजकर शिशुपालको कन्या दिलानेके लिये आये थे, और मनमें प्रथमही निश्चय करलिया था कि, कदाचित् बलदेव व समस्त यदुवंशियोंको साथ ले कृष्ण आनंकर रुक्मिणीको हरेगा तो उसके संग युद्ध करैंगे इस प्रकार मनमें विचार अच्छे २ बलवान् सिपाही घोड़े हाथियोंको संगलेकर संपूर्ण राजा आये॥१८॥१९॥ भगवान् बलदेवजी भी शत्रु शिशुपालकी ओरके राजाओंका साहस सुनकर कहने लगे कि, “रुक्मिणीके लेनेके लिये भाई श्रीकृष्ण अकेला गया हैं इस कारण लड़ाई अवश्य होगी” यह मनमें निश्चयकर श्रीकृष्णके स्नेहसे हाथी, घोडे, रथ, प्यादे इत्यादि समस्त चतुरंगिणी सेनाको लेकर कुंडिनपुर पहुॅचे॥२०॥२१॥ श्रेष्ठ जंघाओंवाली भीष्मककी कन्या रुक्मिणी श्रीमोहनप्यारेका
योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः॥ आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः॥१९॥ श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीयनृपोद्यमम्॥ कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशंकितः॥२०॥ बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः॥त्वरितः कुंडिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः॥२१॥ भीष्मकन्या वरारोहा कांक्षंत्यागमनं हरेः॥ प्रत्यापत्तिमपश्यंती द्विज स्याचिंतयत्तदा॥२२॥ अहो त्रियामांतरित उद्वहो मेऽल्पराधसः॥ नागच्छत्यरविंदाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्॥२३॥ सोपि नवर्ततेऽद्यापि मत्संदेशहरो द्विजः॥ अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किंचिज्जुगुप्सितम्॥ मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः॥२४॥ दुर्भगाया न मे धाता नानुनुलो महेश्वरः॥ देवी वा विमुखा गौरी रुद्राणी गिरिजा सती॥२५॥
पैंड़ा देख देख “ब्राह्मण पत्रीलेकर गया है वह अभी लौटकर नहीं आया” इस प्रकार चिन्ता करनेलगी॥२२॥ मुझ मंदभागिनीके विवाहमें अब एकही रात्रि शेष रही है और कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अभीतक न आये॥२३॥और ब्राह्मण जो मेरा सन्देशा लेगया हैं, वह भी अभीतक लौट नहीं आया नहीं जान पडता हैं कि, इसका क्या कारण हैं ? ॥ फिर कहने लगी कि, निर्दोष श्रीकृष्णचन्द्रने मेरे पाणिग्रहणका उपाय तो निश्चय किया होगा परन्तु “कन्या अभीसे पत्री लिख लिखकर भेजती है” यह दोष विचारकर नहीं आये॥२४॥ मुझ अभागिनीको विधाता
ईश्वर और देवी पार्वती अनुकूल नहीं हैं॥२५॥ भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके न आनेसे दुःखी मन समयकी जाननेवाली रुक्मिणी ऑसुओंसे व्याकुल हुए नेत्रोंको बंदकरके बैठगई॥२६॥ हे परीक्षित्!इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके आनेका मार्ग जोहती जोहती रुक्मिणीके बायें अंग, ऊरू, भुजा और नेत्र यह अंग फड़कनेलगे, क्योंकि स्त्रियोंके बायें अंग फड़कनेसे शुभदायक और प्यारी बातके जतानेवाले हैं॥२७॥ इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि हे द्विजोत्तम! तुम आगे जाकर खबर करो, श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञासे ब्राह्मणने अंतःपुरमें व्याकुलतासे दौड़तीहुई राजकुमारी रुक्मिणीको देखा॥२८॥ पतिव्रता रुक्मिणी प्रसन्नवदन और स्वस्थरीतिसे ब्राह्मणको आता हुआ देखकर अपने मनमें “यह कार्य कर आया है” ऐसा निश्चय
एवं चिंतयती बाला गोविंदहृतमानसा॥ न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले॥२६॥ एवं वध्वः प्रतीक्षत्या गोविंदागमनं नृप॥ वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः॥२७॥ अथ कृष्णविनिदिष्टः स एव द्विजसत्तमः॥ अंतः पुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह॥२८॥ सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती॥ आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञ समपृच्छ च्छुचिस्मिता॥२९॥ तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनंदनम्॥ उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति॥३०॥ तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा॥ न पश्यंती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा॥३१॥ प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाह प्रेक्षणोत्सुकौ॥ अभ्यायात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः॥३२॥
कर और उसके लक्षणोसे पहँचान पूँछनेलगी॥२९॥ हे राजन् ! तब रुक्मिणीजीसे “श्रीकृष्णचन्द्र आये हैं” यह ब्राह्मणने कहा और श्रीकृष्णचन्द्रने जो कहा था कि “राजाओंको जीतकर रुक्मिणीको लेआऊंगा” यह भी सब वृत्तान्त उनको सुनाया॥३०॥ श्रीकृष्णचन्द्रको आयाहुआ जान हर्षित मनसे राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणी विचार करने लगी कि, इस समय ब्राह्मणको सर्वस्व दूं, तौ भी थोडा है जब ब्राह्मणके देनेयोग्य कोई वस्तु न देखी, तब केवल प्रणाम करके बहुतसा धन्यवाद दिया *॥३१॥ कन्याका विवाह देखनेके लिये श्रीकृष्ण बलदेवको आया सुन नगाड़े
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**शंका—**ब्राह्मणको देनेके योग्य कोई वस्तु त्रिलोकी में रुक्मिणीने नहीं देखी कि, यह वस्तु त्राह्मणको देनी चाहिये, इसीलिये हार मानकर केवल नमस्कारही किया, यह बढी शका है, क्योंकि वह ब्राह्मण मुनि तो थाही नहीं उसको तो जो वस्तु देती सो लेबेता फिर क्यों नहीं दीउस ब्राह्मणको तो धनादिक लेके जो वस्तु ससार में है, सब वस्तुके लेनेकी इच्छा थी, फिर रुक्मिणीने धनादिक वस्तु क्यों नहीं दी, को नमस्कार क्यों किया ?
बजाता हुआ और बहुतसी पूजाकी सामग्री लेकर राजा भीष्मक श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख गया॥३२॥मधुपर्क लाकर आगे घर सुन्दरवस्त्र और अनेक प्रकारकी भेंट देकर विधिपूर्वक राजा भीष्मक श्रीकृष्ण बलदेवका पूजन करनेलगा॥३३॥अत्यन्त बुद्धिमान् राजा भीष्मक श्रीकृष्ण बलदेवको उत्तम स्थानमें टिकाय सेना सेवको सहित यथायोग्य आतिथ्य करनेलगा॥३४॥इसप्रकार जो राजा इकट्ठे हुएथे उनमें जैसा जिसका पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सब राजाओंका सत्कार किया॥३५॥विदर्भनगरके पुरवासी श्रीकृष्णचन्द्रका आगमन सुनकर
मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः॥उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत्॥३३॥तयोर्निवेशनं श्रीमदुप कल्प्य महामतिः॥ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा॥३४॥एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः॥यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत्॥३५॥कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः॥आगत्य नेत्रांजलिभिः पपुस्तन्मुखपंकजम्॥३६॥ अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा॥ असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः॥३७॥किंचित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्॥अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः॥३८॥एवं प्रेमक लाबडा वदंति स्म पुरौकसः॥कन्या चांतःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्तांबिकालयम्॥३९॥
नेत्ररूप अंजलियोंसे श्रीकृष्णचन्द्रके मुखकमलको पान करने लगे॥३६॥और सब नरनारी विचार करनेलगे कि, दोषरहित रुक्मिणी श्रीकृष्णचन्द्रकेही योग्य हैं, एवं श्रीकृष्णचन्द्र भी रुक्मिणीके पति होनेयोग्य हैं इसप्रकार परस्पर कहनेलगे॥३७॥कि, जो कुछ हमने पुण्य किये हैं।उसके प्रभावसे प्रसन्न होकर ईश्वर हमारे ऊपर अनुग्रह करैंकि, जिससे श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीका पाणिग्रहण करैं॥३८॥ हे राजन् ! इस प्रकार
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**उत्तर—**लक्ष्मीका पिता जो समुद्र था उसको ब्राह्मणने पान करलिया (पीलिया) और लक्ष्मीका पति जो भगवान् उनको ब्राह्मणने लातसे मारा, और लक्ष्मीका छोटाभाई कमल, उसको ब्राह्मणोंने देवताओंके पूजनेके लिये तोडलिया, ब्राह्मणोंका ऐसा कुकर्म देखके लक्ष्मी ब्राह्मणोंसे रुष्ट होगई, ब्राह्मणोंको घनादिक वस्तु नहीं देती हैं इसलिये लक्ष्मीका रूप रुमिणीने ब्राह्मणको धन नहीं दिया, कोरा नमस्कार किया हैं॥
प्रेममें मग्न होकर जिससमय सब पुरवासी कहनेलगे, उसी समय बहुतसी सखियोंके साथ श्रीरुक्मिणीजी पुरसे बाहर अम्बिकादेवीका पूजन करनेके लिये चलीं॥३९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका भले प्रकार ध्यान करते करते श्रीरुक्मिणीजी अम्बिकादेवीका दर्शन करनेके लिये पैरोंही गई॥४०॥ हे परीक्षित ! श्रीरुक्मिणीजीके संग मौन धारण किये पुरोहितानी और सखी सहेली जिस समय चलीं, उसी समय कवच पहर पहर और अस्त्र हाथोंमें ले महाबलवान् राजाके सिपाही उसकी रक्षाके लिये संग होलिये और उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही, भेरी, रणसिंहादिक अनेक प्रकारके बाजे बजनेलगे॥४१॥ संगीत विद्यामें अतिनिपुण सहस्रों वेश्या संगमें नाचती हुई चली जाती थीं और माला चन्दन वस्त्र
पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्॥ सा चाऽनुध्यायती सम्यङ्मुकुंदचरणांबुजम्॥४०॥यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता॥ गुप्ता राजभटैः शरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः॥मृदंगशंखपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥४१॥ नानोपहार बलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः॥स्रग्गंधवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलंकृताः॥४२॥ गायन्तश्च स्तुवंतश्च गायका वाद्य वादकाः॥ परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवंदिनः॥४३॥ आसाद्य देवीसदनं धौतपादकरांबुजा॥ उपस्पृश्य शुचिः शांता प्रविवेशांबिकांतिकम्॥४४॥ तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः॥ भवानीं वंदयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम्॥४४॥४५॥ नमस्ये त्वांबिकेऽभीक्ष्णं स्वसंतानयुतां शिवाम्॥ भूयात्पतिर्मेभगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम्॥४६॥
आभूषणोंसे शृंगार करके और अनेक प्रकारकी सामग्री भेंट लेके ब्राह्मणोंकी स्त्रियें संग गई॥४२॥ गाने और बजानेवाले सूत, बन्दीजन श्रीरुक्मिणीजीको बीचमें करके, चले जारहे थे॥४३॥ हाथ पाँव धोय, आचमन कर, पवित्र हो, देवीके मन्दिरमें जाय रुक्मिणी अम्बिकादेवीके निकट गई॥४४॥ विधिपूर्वक वृद्ध ब्राह्मणोंकी स्त्रियें रुक्मिणीजीसे महादेवजीसहित भवानीकी पूजा करानेलगीं॥४५॥ जब पूजा कर चुकीं, तब रुक्मिणीजीने मनमें कहा कि, हे अंबिका पार्वती ! तुम्हारे सन्तानसमेत मंगलरूपिणी तुम्हैंबारम्बार प्रणाम करके यही वर माँगती हूं कि, श्रीकृष्णचन्द्र
मेरे पति हों, इस प्रकार मस्तक नवायकर रुक्मिणीजीने प्रार्थना की॥४६॥ हे राजन् ! इसके उपरान्त जल, चन्दन, अक्षत, धूप, वस्त्र, माला, फल, आभूषण और अनेक प्रकारकी भेंटसे अलग अलग दीपकोकी पक्तियोंसे देवकी पूजा करनेलगीं॥४७॥ इसके पीछे उसी प्रकार रुक्मिणी नमकीन पूऐ, पान, लावा, सुपारी गन्ने आदिसे सौभाग्यवती ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंका पूजन करनेलगीं॥४८॥फिर श्रीरुक्मिणीने अम्बिकादेवी और ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंको नमस्कार कर उनसे प्रसाद और आशीर्वाद लिया॥४९॥फिर मौन व्रतको त्याग, जडाऊ मुॅदरीसे शोभायमान श्रीरुक्मिणीजी अपनी दासीका हाथ पकड़ मंदिरसे बाहर निकलीं॥५०॥ईश्वरकी मायाकी तुल्य बड़े बड़े शूरवीर राजाओंको मोहित करनेवाली, सुन्दर कटिवाली,
अद्भिर्गंधाक्षतैर्धूपैर्वासस्स्त्रङ्माल्यभूषणैः॥नानोपहारवलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक्॥४७॥विप्रस्त्रियः पतिमती स्तथा तैः समपूजयत्॥लवणापूपतांबूलकंठसूत्रफलेक्षुभिः॥४८॥तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः॥ ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः॥४९॥मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामांविकागृहात्॥प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना॥५०॥तां देवमायामिव वीरमोहिनीं सुमध्यमां कुंडलमंडिताननाम्॥श्यामां नितंवार्पितरत्न मेखलां व्यंजत्स्तनीं कुंतलशंकितेक्षणाम्॥५१॥शुचिस्मितां बिंबफलाधरद्युतिशोणायमानद्विजकुंदकुङ्मलाम्॥पदाचलंतीं कलहंसगामिनीं शिंजत्कलानूपुरधामशोभिना॥५२॥विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः॥५३॥यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहासव्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः॥पेतुः क्षितौ गजरथाश्व गता विमूढा यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम्॥५४॥
कुण्डलोंसे शोभायमान मुखवाली रुक्मिणी रत्नजडित जड़ाऊ, करधनी नितम्बोंमें पहरे स्तनोंकी प्रगटता और केशोंकी शंकासे चलायमान नेत्रवाली॥५१॥सुन्दर मुसकान, कुन्दरूके फलकी तुल्य अव्रण और होठोंकी कान्तिसे कुन्दकी कलीके समान दंत पाँतिपर अरुणाई छाईहुई राजहंसके समान गतिसे और झनकारशब्द करते, नूपुरोंकी प्रभासे शोभित चरणोंसे गमन करती हुई, रुक्मिणीको देख, संगमें जो वडे बडे तेजस्वी शूरवीर योद्धा आये थे, वह सबके सब कामदेव से पीडित हो मोहित होगये॥५२॥५३॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित !
उन रुक्मिणीजीकी उदार हँसनि और लज्जापूर्वक चितवनसे समस्त राजाओके मन हरेगये और वह अस्त्रशस्त्रोंको छोड़कर रथ घोड़े इत्यादिसे मूढ़ होकर पृथ्वीमें गिरपड़े॥५४॥ हे राजन् ! इस प्रकार चलायमान कमलकोशके समान कोमल चरणोसे धीरे धीरे चली, उस समय श्रीकृष्णचन्द्रके आनेका मार्ग देखतीहुई रुक्मिणीजीने बायें हाथकेनखोंसे अल्कोको उठाय सब आयेहुये राजाओंको देख सन्मुख खड़ हुये वृन्दावनविहारी भक्तहितकारी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दको देखा॥५५॥ हे कुरुवंशावतंस परीक्षित !राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणी ज्योहीरथपर चढ़ने लगी, त्योही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे हरण कर अपने गरुड़चिह्नवाले रथमें चढ़ाय क्षत्रियोंकी सेनाका तिरस्कारकर उसे इस प्रकार निकालकर
सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा॥ उत्सार्य वामकरजैरलकानपांगैः प्राप्तान्ह्रियैक्षत नृपान्ददृशेऽच्युतं सा॥५५॥ तां राजकन्यां रथमारुरुक्षतीं जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्॥रथं समारोप्य सुपर्ण लक्षणं राजन्यचक्रं परिभूय माधवः॥ ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः शृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः॥५६॥ तं मानि नः स्वाभिभवं यशःक्षयं परे जरासंधवशा न सेहिरे॥ अहो धिगस्मान् यश आत्तधन्वनां गोपैर्हृतं केसरिणां मृगैरिव॥५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुरणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५३॥
लेगये कि, जैसे सियारोंके बीचमें अपने भागको लेकर सिंह बेधड़क होकर चला जाता हैं, फिर बलरामादि सब यदुवंशियोंसहित रुक्मिणीको लेके धीरे धीरे चलनेलगे॥५६॥ हे नृपोत्तम !महाअभिमानी जरासन्धादि राजा यशका नाश करनेवाला यह अपना अपमान न सहसके और बोले कि, अहो ! इमको धिक्कार हैं, जिसप्रकार केशरीके भागको कुत्ता चुराकर लेजाता हैं, वैसेही हम धनुषधारियोके यशका नाश कर यह गँवार ग्वालिया राजकुमारी रुक्मिणीको चुराकर लिये जाता हैं॥५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५३॥
दोहा— चौवनमें रिपुपक्षके, सब राजनको जीति। रुक्मिणिको लै द्वारका, करी व्याद्दकी रीति॥१॥ श्रीशुकदेजी बोले कि, हे राजा परीक्षित ! इस प्रकार सब राजा अत्यन्त क्रोधित होकर कवच पहर, अपने अपने वाहनोंपर चढ़कर श्रीकृष्णचन्द्रके पीछे दौड़े॥१॥ हे परीक्षित! जब यादवोंके सेनाध्यक्षने इनकी सेनाको आता हुआ देखा, तो वह लोग भी अपने धनुषकी टंकार करके उनके सन्मुख उपस्थित हुए॥२॥ युद्धविद्यामें अत्यन्त प्रवीण वह राजा लोग घोड़े, हाथी और रथोंपर बैठकर जिस प्रकार मेघ पर्वतोंपर जल वर्षाते हैं, उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे
श्रीशुक उवाच॥इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः॥स्वैःस्वैर्बलैः परिक्रांता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः॥१॥ताना पतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः॥तस्थुस्तत्संमुखा राजन्विफूर्ज्य स्वधनूंषि ते॥२॥अश्वपृष्ठे गजस्कंधे रथोपस्थे च कोविदाः॥मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा॥३॥पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा॥सव्रीडमै क्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना॥४॥प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने॥विनंक्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम्॥५॥तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसंकर्षणादयः॥अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान्॥६॥
॥३॥सुन्दर कटिभागवाली रुक्मिणी अपने स्वामी श्रीकृष्णचन्द्रकी सब सेनाको बाणोंसे ढकाहुआ देख, अतिभयभीत और विह्वलनेत्र हो लाज सहित श्रीकृष्णचन्द्रका मुख देखनेलगी*****॥४॥तब भगवान् वासुदेव रुक्मिणीको डराहुआ जान कहनेलगे कि, हे वामलोचने! हे सुनयनी ! तुम कुछ भय मतकरो, क्योकि हमारे ओरके यादव इनकी समस्त सेनाको क्षणभरमें विध्वंस करदेंगे। हे राजन् ! गढ़, संकर्षणादि शूरवीर उन राजाओंका पराक्रम न सहसके और उनके घोड़े, हाथी और रथोंको महातीक्ष्ण बाणोसे नाश करनेलगे॥५॥६॥
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* शंका — श्रीकृष्णकी स्त्री रुक्मिणी श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाली फिर रुक्मिणी युद्ध देखकर दुःखी क्यों हुई ? यह बडे अचम्भेकी वात हैं।
**उत्तर—**युद्धमें बढे बढे शूरमाओंका और वीरलोगोंका नाश हुवा, यह कलक अपने ऊपर विचार कर रुक्मिणी बहुत दुखी हुई कि, यह कलक मुझको जन्म जन्मको लगा और संसारके लोग कहेंगे कि, रुक्मिणीके विवाहमें बहुतसे शूरवीर मारगये॥
रथी, घुड़चढे और हाथियोंपर विराजमान योद्धाओंके पगड़ियों सहित सहस्रों शिर कटकट गिरने लगे॥७॥ तलवार गदा और धनुषसे हाथ कट कटकर गिरने और करभके समान जंघायें कट कटकर गिरनेलगीं, अनेक घोड़े, खच्चर, हाथी, गधे, मनुष्य इनके शिर कटकर पृथ्वीमें गिर गये॥८॥ हे भारत ! जीतनेकी इच्छा करनेवाले यादवोने जब इस प्रकार शत्रुसेनाका संहार किया तब अत्यन्त डरकर जरासन्धादि राजा रण छोड़कर भागगये॥९॥ जब स्त्रीके हरजानेसे व्याकुल तेजहीन, उत्साहरहित शिशुपालका मलीनमुख होगया, तब सब राजा उसके पास आनकर समझाने लगे॥१०॥ कि हे पुरुषसिंह ! तुम अपने मनकी उदासीको छोड़दो क्योंकि, देह धारण करनेवालोंको सुख और दुःख सर्वदा नहीं रहते हैं॥११॥
पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि॥सकुंडलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः॥७॥हस्ताः सासिगदेष्वा साः करभा ऊरवोंघ्रयः॥अश्वाश्वतरनागोष्टखरमर्त्यशिरांसि च॥८॥हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकांक्षिभिः॥ राजानो विमुखा जग्मुर्जरासंधपुरस्सराः॥९॥ शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्॥ नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदमब्रुवन्॥१०॥भो भो पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज॥ न प्रियाप्रिययों राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते॥११॥ यथा दारुमयी योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया॥ एवमीश्वरतंत्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः॥१२॥ शौरेःसप्तदशाहं वै संयुगा निपराजितः॥ त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्य एकमहं परम्॥१३॥तथाऽप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्॥ कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत्॥१४॥ अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः॥ पराजिताः फल्गुतंत्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः॥१५॥ रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि॥ तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः॥१६॥
जिस प्रकार काठकी पुतली नचानेवालेकी इच्छासे नाचती हैं ऐसेही ईश्वरके आधीन जीवको सुख दुःख होता हैं॥१२॥ जरासन्ध बोला कि, शिशुपाल ! देखो ! इसी कृष्णसे मैंने सत्रह बार तेईस तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध किया, परन्तु मेरी हारही हुई और कुछ शोच न हुआ, केवल एक बार जीता, उसका कुछ हर्षभी न हुआ, देवके वश कालने समस्त जगत् चलायमान किया हैं, ऐसा मेरा निश्चय हैं॥१३॥१४॥ राजन ! यद्यपि बड़े बड़े शूरवीर यूथनाथोंके पतियोंके भी हम पालन करनेवाले थे, तोभी थोडी सेनावाले कृष्णपालित यदुवंशियोंसे हारगय॥१५॥ जानपडता हैं कि, इस समय उनके दिन अच्छे हैं, इसी कारण उन्होंने हम ऐसे बलवान् शत्रुओंको जीत लिया, जब हमारे
दिन भले आवेंगे तो हम भी जीतेंगे॥१६॥ हे महाराज ! जब इसी प्रकार अनेक राजाओंने शिशुपालको समझाया तब अपने बचे बचाये नौकर चाकर और सेनाको लेकर शिशुपाल अपने देशको चला गया और मरनेसे बचे बचाये राजाभी अपने अपने स्थानोंको चलेगये॥१७॥ इधर एक अक्षौहिणी सेना लेकर श्रीकृष्णका शत्रु रुक्मी अपनी बहन के हरनेका अपराध न सहकर श्रीकृष्णके पीछे दौडा॥१८॥ और अत्यन्त क्रोधित हो कवच पहर, धनुष ग्रहण कर, सब राजाओंके सुनानेको महाबलवान् रुक्मीने यह प्रतिज्ञा की॥१९॥ कि, युद्धमें श्रीकृष्णके मारे विना और रुक्मिणीको लाये विना सत्य हैं कि, मैं कुंडिनपुर में न आऊंगा॥२०॥ इसप्रकार रुक्मी प्रतिज्ञा कर और रथमें चढ़ सारथी से बोला
एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्॥ हतशेषाः पुनस्तेपि ययुः स्वंस्वं पुरं नृप॥१७॥ रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः॥ पृष्ठतोऽन्वगमत् कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली॥१८॥ रुक्म्यमर्षि सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्॥ प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः॥१९॥ अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्॥ कुंडिनं न प्रौक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः॥२०॥ इत्युक्ता रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः॥ चोदयाश्वान्यतः कृष्णस्तस्य मे संयुगं भवेत्॥२१॥ अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सदुर्मतेः॥ नेष्ये वीर्यमिदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता॥२२॥ विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्॥ रथेनैकेन गोविंदं तिष्ठतिष्ठेत्यथाह्वयत्॥२३॥ धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः॥ आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन॥२४॥
कि, जहाँ कृष्ण हैं वहाँ शीघ्र ही घोडों को हांककहर ले चलो क्योंकि, मुझे उससे युद्ध करना हैं॥२१॥ मैं आज उसमन्दबुद्धि, ग्वालके पराक्रमका मद अपने तीक्ष्ण बाणोंसे चूर्ण करूंगा, जो मेरी बहन रुकिणीको बलात्कार हरके ले गया हैं॥२२॥ खोटी बुद्धिवाला रुक्मी, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके बलको न जान कटुवाक्य कहत हुआ अकेला रथ दौड़ाकर “खड़ा रहु खडा रहु” इस प्रकार भगवान् वासुदेवको पुकारने लगा॥२३॥ इसके उपरान्त अपनेको रुपने श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा कि, हे यादवकुलकलंक ! एक क्षणमात्र
खड़ा होकर मुझसे युद्धकर॥२४॥ अरे दुष्टबुद्धि ! जिसप्रकार होमकी सामग्रीको कौवा लेजाता है इसी प्रकार तू मेरी बहनको कहाँ चुराकर लिये जाता है ? अरे कपटयुद्ध करनेवाले छली ! तेरे घमंडको मैं अभी चूर्ण करता हूँ॥२५॥और तेरे भले दिन हैं तो मेरे बाणों से पीडित होकर युद्धक्षेत्र में मत सोवै और रुक्मिणीको छोड़कर जहाँ तेरे सींग समायँ वहाँ चलाजा, तब श्रीकृष्णचन्द्रने मनमें मुसकाय, उसके धनुषको काट छः बाणोंसे रुक्मीको छेदन किया॥२६॥ आठ बाणोंसे रथके घोड़ोंको, दो बाणोंसे रथवानको वींधडाला और तीन बाणोंसे ध्वजा काटडाली कि, इतनेही में रुक्मने और धनुष लेकर पॉच बाण श्रीकृष्णके शरीरमें मारे॥२७॥ तब भगवान् वासुदेवने उसका वह धनुषभी
कुत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वांक्षवद्धविः॥हरिष्येऽद्य मदं मंद मायिनः कूटयोधिनः॥२५॥यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुंच दारिकाम्॥स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड् भिर्विव्याध रुक्मिणम्॥२६॥अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः॥स चान्यद्धनुरादाय कृष्णं विव्याध पंचभिः॥२७॥तैस्ताडितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः॥पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः॥२८॥परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ॥ यद्यदायुधमा दत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः॥२९॥ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया॥कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतंग इव पावकम्॥३०॥ तस्य चापततः खङ्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः॥भित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हंतुमुद्यतः॥३१॥
भ्रतृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला॥ पतित्वा पदयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती॥३२॥
काट डाला, फिर रुक्म और धनुष ले आया, उसको भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने उसी समय काट दिया॥२८॥ रुक्मने जो जो परिघ, पट्टिश, त्रिशूल, ढाल, तलवार, बरछी, भाले हाथ में लिये वह सब भगवान् देवकीनन्द नने काट गिराये॥२९॥ हे महाराज ! इसके उपरान्त ह रथसे कूदकर और हाथ में तलवार लेकर मारने की इच्छासे, जिस प्रकार पतंग अनिके सन्मुख झपटता है, उसी प्रकार रुक्म श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर झपटा॥३०॥ झपटते हुए उस रुक्मकी ढाल तलवारको तिल तिलभर बाणोंसे काटकर पैनी धारकी तलवार लेकर श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मका प्राण संहार करने को उपस्थित हुए॥३१॥ भाईके मारने की इच्छा देख भय से व्याकुल होकर पतिव्रता रुक्मिणी नेत्रोंसे ऑसू भरके श्रीकृष्णचन्द्रके
चरणोंपर गिर यह करुणाभरे वचन कहने लगी॥३२॥ कि, हे योगेश्वर ! हे अप्रमेयात्मन् !हे देवदेव ! हे जगत्पालक श्रीकृष्णचन्द्र !हे महाभुज ! मेरे भाईको तुम मत मारो, क्योंकि यह तुम्हारे मारनेयोग्य नहीं हैं॥३३॥श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे पाण्डुनन्दन परीक्षित्! त्राससे कम्पायमान सब अंग, शुष्क मुख, गद्गद कण्ठ कि जिसकी व्याकुलतासे सुवर्णकी माला गिरी जातीं थीं, इस प्रकार रुक्मिणीको अपने चरणोंपर गिरीहुई देख करुणावश हो श्रीकृष्णचन्द्रके नेत्रोंमें जल भर आया॥३४॥उन्होंने उस दुष्ट कर्म करनेवाले रुक्मको वस्त्रसे बाँध और मूछों सहित शिर मूंड, अभद्र कर अपने रथके पीछे बाँधलिया कि, इस बीचमें ही यदुवंशियों सहित बलराम सुखधामने रुक्मकी सेनाको जिस प्रकार हाथी कमलिनियोंको मर्दन करता हैं, उसी प्रकार मर्दन किया॥३५॥इसके उपरान्त रुक्मकी समस्त सेनाका संहार कर बलदेवजीने श्रीकृष्ण
योगेश्वराप्रमेयात्मन्वेवदेव जगत्पते॥हंतुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज॥३३॥श्रीशुक उवाच॥तया परित्रासविकंपितांगया शुचाऽवशुष्यन्मुखरुद्धकंठया॥कातर्यविस्रंसितहेममालया गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत॥३४॥चैलेन बद्धा तमसाधुकारिणं सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्॥तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः॥३५॥कृष्णांतिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्॥तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा संकर्षणो विभुः॥विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत्॥३६॥असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्॥वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः॥३७॥मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिंतया॥सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान्॥३८॥
चन्द्रके पास आनकर रुक्मको देखा कि, उसका शिर मुड़गया हैं और मृतकके समान रथके पीछे बँधाहुआ देखकर सामर्थ्यवान् बलभद्रजीने उसे छोड़ दिया॥३६॥ और अत्यन्त झुंझलाकर कहा कि, हे कृष्ण ! आपने यह बड़ा निन्दित कर्म किया, जो सालेको पकड बॉधा, हमारी इसमें बहुत निन्दा होगी, क्योंकि शिर, मूंछ, दाढी मुड़वाकर विरूप करदेना यही अपने नातेदारका मारना है॥३७॥ फिर रुक्मिणी से बोले कि, हे सुशीले ! तुम्हारे भाईके कुरूप होने में हमारा कुछ दोष नहीं हैं, क्योंकि यह पुरुष अपने कर्मोंका फल भोगता हैं, सुख दुःखका देनेवाला और
कोई नहीं हैं॥३८॥ इसके उपरान्त बलदेवजी श्रीकृष्णचन्द्रको समझानेलगे कि, हे भाई! अपने नातेदारका मारना अपराध करनेपर भी उचित नहीं, उसको अपराधी जानकर छोडदे, क्योंकि वह तो अपने पहलेही दोषोंसे मररहा हैं, फिर उसके मारनेकी क्या आवश्यकता हैं ?॥३९॥ फिर रुक्मिणीसे बोले हे सुमुखि ! क्षत्रियोंका यही धर्म विधाताने बनाया हैं कि, जिस धर्मके कारण भाई भाईका प्राणसंहार कर देता हैं, फिर साले श्वशुरोंकी तो बातही क्या हैं, इसलिये हमारा क्या दोष हैं ?॥४०॥ तिसके पीछे श्रीकृष्णसे बोले कि, हे कृष्ण ! राज्य, पृथ्वी, धन, स्त्री, प्रतिष्ठा, तेज और वस्तुके हेतु श्रीमदान्ध अभिमानी राजा लड़ते हैं परन्तु हमको यह बात उचित नहीं॥४१॥ फिर रुक्मिणीसे बोले कि, सब प्राणियोंमें दुष्टहृदय, अर्थात् सब बातका बुरा विचारनेवाला जो शिशुपाल उसका बुरा और अपने भाईका भला चाहती हो, यह बात तुमको
बंधुर्वधार्हदोषोऽपि न बंधोर्वधमर्हति॥ त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः॥३९॥ क्षत्त्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः॥ भ्राताऽपि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः॥४०॥ राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः॥ मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदांधाः क्षिपंति हि॥४१॥ तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्॥यन्मन्यसे सदाऽभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत्॥४२॥ आत्ममोहो नृणामेष कल्पते देवमायया॥ सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम्॥४३॥ एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्॥ नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः॥४४॥ देह आद्यंतवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः॥ आत्मन्यविद्यया क्लृप्तः संसारयति देहिनम्॥४५॥
उचित नहीं, हे रुक्मिणी ! तुम्हारी विषम बुद्धि हैं, जैसी कि, अज्ञानी पुरुषोकी होती हैं इसलिये तुम्हारा भाई जो सब जीवोंका शत्रुरूप हैं, उसका तुम अज्ञानी पुरुषोंके समान भला चाहती हो, सो यह तुम्हारी बुद्धिकी भूल हैं, क्योकि उसका भला चाहनेसे और सम्बंधियोंका बुरा होगा॥४२॥ यह हमारा मित्र, यह शत्रु और यह समान हैं, इस प्रकार देहाभिमानी पुरुषोको मोह उत्पन्न हो जाता हैं॥४३॥ जैसे जलभरे घड़े में एकही सूर्य के अनेन प्रतिबिम्ब दीखते हैं, आकाश एकही हैं, परन्तु तो भी घट आदिमें बहुत से दीखते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण देहधारियोंमें एकदी शुद्ध आत्मा हैं, उसीको अज्ञानी पुरुष अनेक रूपसे मानते हैं॥४४॥ यह जो द्रव्य अर्थात् अधिभूत, प्राण, इन्द्रिय और अध्यात्मक गुण, अधिदैव
इतने स्वरूप आत्माके अविद्याने रचे हैं, वह देहधारियोंको संसारमें भटकाते हैं॥४५॥ हे पतिव्रता रुक्मिणी ! मिथ्या देहसे आत्माका संयोग नहीं हैं, और इस देहसे वियोग भी नहीं हैं, यदि कोई कहे कि, देह मिथ्या कैसे ?तो उसका उत्तर यह हैं कि, जैसे चक्षु इन्द्रिय और रूपका॥१९८॥प्रकाशक सूर्य हैं, उसी प्रकार देहका प्रकाश आत्मा से होता हैं॥४६॥जन्म मरणादि छः विकार देहके हैं, आत्माके कदाचित् नहीं, जैसे चन्द्रमा की कला घटती बढती हैं, चन्द्रमा कभी नहीं घटता बढ़ता, क्योंकि वह तो पूर्णरूप हैं और जैसे अमावास्या के दिन चन्द्रमाकी कला घटने से चन्द्रमाका नाश मानते हैं, उसी प्रकार देहके नाश तिरोभावसे आत्माका नाश कहने में आता हैं॥॥४७॥ जैसे स्वप्नावस्था में पुरुष अपने आपको विषयके भोगने के सुखको मिथ्याभोग करता हैं, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष संसारको प्राप्त होता हैं॥४८॥ हे सुहासिनी ! इसलिये तुम अज्ञानसे उत्पन्न हुये
नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्चासतः सति॥तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः॥४६॥जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्॥कलानामिव नैवेंदोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव॥४७॥ यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च॥अनुभुंक्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम्॥४८॥तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्॥तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते॥४९॥श्रीशुक उवाच॥एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता। वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे॥५०॥प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विङ्भिर्हतबलप्रभः॥स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः॥५१॥अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्॥कुंडिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा॥५२॥भगवान् भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भ्रमिपान्॥ पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह॥५३॥
आत्माको शोष और मोह देनेवाले शोकका तत्त्वज्ञानसे त्यागन करो और स्वस्थ होओ॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् बलदेवजीने जब समझाया, तब सुकुमारी श्रीरुक्मिणीजीने मनकी उदासी त्याग बुद्धिसे मनको सावधान किया॥५०॥ हे राजन् ! शत्रुसे छूटा, हतसैन्य, केवल प्राणही जिसके शेष रहेहैं, प्रभाव और मनोरथ हीन, मुण्डित शिर, दुष्टबुद्धि रुक्म विचार करनेलगाकि, मैं प्रतिज्ञा करके आया था कि, कृष्णको विना मारे और विना रुक्मिणीको लाये कुंडिनपुर नहीं आऊंगा, सो अब क्या करूं ? यह विचार वहाँही भोजकट पुर वसाकर रहनेलगा॥५१॥५२॥ हे कौरवोंके आनन्द देनेवाले परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार समस्त राजाओंको जीतकर राजा
भीष्मककी पुत्री रुक्मिणीको द्वारकापुरीमें लाकर विधिपूर्वक विवाह किया॥५३॥ हे महाराज परीक्षित्! उस समय द्वारकापुरीमें घर घर बडा उत्सव होने लगा, क्योंकि यदुवंशियोंके पति श्रीकृष्णचन्द्रमें उनकी अनन्यभक्ति थी॥५४॥ आनन्दमें मग्न, उज्ज्वल उज्ज्वल मणियोंके जडाऊ गहने पहरेहुये स्त्री पुरुष चित्र विचित्र वस्त्र धारणकिये कृष्ण रुक्मिणीके देनेके लिये सुन्दर सुन्दर वस्तु लानेलगे॥५५॥ ऊँची ऊँची ध्वजा और चित्र विचित्र माला, वस्त्र रत्नोंकी बन्दनमालाओंसे और द्वार द्वारपर धानकी खीलें, अंकुर, फूल और जलके भरे कलश और अगर व धूप दीप इत्यादिकोंसे द्वार कापुरी अत्यन्त शोभायमान होनेलगी॥५६॥ स्थान स्थानपर छिडकाव होरहा हैं, दरवाजोंपर केले सुपारियोंके घने वृक्ष लग रहेहैं और जो सुहृद्
तदा महोत्सवो नणां यदुपुर्यां गृहेगृहे॥ अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप॥५४॥नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्ट मणिकुण्डलाः॥ पारिबर्हमुपाजहुर्वरयोश्चित्रवाससोः॥५५॥ सा वृष्णिपुर्युत्तभितेंद्र केतुभिर्विचित्रमाल्यांवररत्नतोरणैः॥ बभौ प्रतिद्वार्युपक्ऌप्तमंगलैरापूर्णकुंभाऽगुरुधूपदीपकैः॥५६॥सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्॥ गजैर्द्वार्षु परामृष्टरंभापुगोपशोभिता॥५७॥कुरुसृंजयकैकेया विदर्भयदुकुंतयः॥ मिथो मुमुदिरे तस्मिन्संभ्रमात्परिधावताम्॥५८॥रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः॥ राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः॥५९॥ द्वारकायामभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्॥रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम्॥६०॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहोत्सवो नाम चतुष्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५४॥
राजा बुलायेगयेहैं, उनके मद झरते हाथियोंसे ऊंचे उठाये सुपारी और केलोंके वृक्षोंसे बड़ी शोभा होरही हैं॥५७॥अत्यन्त प्रसन्नता के मारे द्वारकावासी दौड़े दौड़े फिरते हैं और उनके बीच में कुरुदेश, संजय देश, केकयदेश और विदर्भदेशके राजा भी विवाहमें मिलकर आनन्द प्राप्त करने लगे॥५८॥ हे राजन्!इसी प्रकार जहाँ तहाँ रुक्मिणी हरके ले जानेके चरित्रको श्रवणकर राजा और राजाओंकी कन्या बडा आश्चर्य मानने लगीं॥५९॥ हे राजा परीक्षित्!द्वारकापुरीमें पुरवासियोंको लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रके लक्ष्मी सहित दर्शन कर बडा आनन्द प्राप्त हुआ॥६०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्ध भाषाटीकायां रुक्मिणीविवाहोत्सववर्णनं नाम चतुःपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५४॥
दोहा— पचपनमें प्रद्युम्नको, भयो जन्म उत्साह। शंबरासुर हरले गयो, ताहि मारि किय व्याह॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! वासु देवका अंश जो कामदेव सो प्रथम महादेवजीके क्रोधसे भस्म हो गया था, वही अब फिर देह पानेके लिये वासुदेवके यहाँ आया॥१॥और वही कामदेव श्रीकृष्णचन्द्रके वीर्यसे रुक्मिणीमें जन्मले प्रद्युम्ननामसे विख्यात हुआ, जो कि अपने पिता श्रीकृष्णचन्द्रसे किसी प्रकार न्यून नहीं था॥२॥हे राजन् ! एक शंबरनाम दैत्य उसे अपना वैरी जान दशदिनके भीतर कुमार प्रद्युम्नको हरण कर समुद्रमें डाल अपने घरको चलागया॥३॥
श्रीशुक उवाच॥कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग्रुद्रमन्युना॥देहोपपत्तये भृयस्तमेव प्रत्यपद्यत॥१॥स एव जातो वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्भवः॥प्रद्युम्न इति विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः॥२॥ तं शंबरः कामरूपी हृत्वा तोकमनिर्दशम्॥स विदित्वाऽऽत्मनः शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगाद्गृहम्॥३॥तं निर्जगार बलवान्मीनः सोऽप्यपरैः सह॥वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभिः॥४॥तं शंबराय कैवर्ता उपजह्रुरुपायनम्॥सुदा महानसं नीत्वाऽवद्यन्स्वधितिनाऽद्भुतम्॥५॥दृष्ट्वा तदुदरे बालं मायावत्यै न्यवेदयन्॥नारदोऽकथयत्सर्वं तस्याः शंकितचेतसः ॥ बालस्य तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम्॥६॥
एक बडा बलवान् मत्स्य इस बालकको निगल गया, उस मत्स्यको धीमरोंने बडा जाल डालकर और मछलियों सहित पकड़ा॥४॥उस बडे मत्स्यको लाकर धीमरोंने शंबरासुरको भेंट किया और शंबरासुरने रसोई बनानेवालोंको दिया उन्होंने रसोईमें लाकर छूरीसे इस अद्भुत मत्स्यका हृदय विदीर्ण किया॥५॥ तो उस मत्स्यके पेटमे बालकको निहार उन्होंने मायावतीको देदिया तब मायावतीको अत्यन्त शंका हुई तब देवर्षि
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* शंका— श्रीकृष्णचन्द्रकी बसाई हुई द्वारकापुरीमें कपट करके कोई प्राणी वहाँ नहींजासक्ता और कपटवेपधारी जो कोई द्वारका के भीतर चलामी जाय तो वह उसी समय भस्म होजाय हैं, क्योंकि क्षण क्षणमें द्वारकापुरीके चारों ओर सुदर्शनचक्र घूमता रहता है, वही द्वारकापुरीकी रात दिन रक्षा करता रहता हैं, ऐसी कठिन द्वारकापुरी में शबरनाम दैत्य कैसे चलागया। और भगवान्के पुत्रको कैपे हर 3 लेगया यह महा आश्चयकी बात हैं।
**उत्तर—**जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रने द्वारकापुरीको घसाया था उस समय यह आज्ञा दी थी कि हे सुदर्शनचक्र ! तुम रात दिन द्वारकापुरीके चारों ओर घूमते रहना और रक्षा करते रहना, परन्तु ब्राह्मण वश चाहे तो उसको पुरीमें जानेके लिये मत रोकना और ब्राह्मण कपट रूप धारण करके आवे तो उसको भी मत रोकना इसप्रकारकी श्रीकृष्णकी भाज्ञाको शम्बरासुर जानके ब्राह्म णका रूप बनाकर द्वारकापुरी में चला गया और श्रीकृष्णके पुत्रको चुराकर ले आया॥
नारदजीने आनकर उससे सबवृत्तान्त कहा कि, यह बालक तेरा स्वामी कामदेव हैं और श्रीकृष्णचन्द्रके वीर्यसे रुक्मिणीमें उत्पन्न हुआ हैं, इसप्रकार उत्पत्ति और शंबरासुर जैसे समुद्रमें डाल आया था वहाँ जिस प्रकार इसे मत्स्य निगलगया सो सब कह सुनाया॥६॥ “शिवजीने जब कामदेवको भस्म किया था, तब रतिके विलाप करनेपर उसे समझाकर कहा था कि, तू शंबरासुरके यहाँ जाकर वास कर वहॉ तेरा पति तुझे रसोई घरमें मिलेगा, तू उसे पाल लीजियो मछलीके उदरसे प्राप्त होगा, तबसे रति रूप छिपाये वहाँ रहती थी” वह जो कामदेवकी स्त्री थी, सो वड़ी पतिव्रता और उसका नाम रति था, अपने पति कामदेवका जो देह भस्म होगया था, सो उसके उत्पन्न होनेके लिये प्रतीक्षा कर रही थी॥७॥ वह मायावती कामदेवकी
सा च कामस्य वै पत्नी रतिर्नाम यशस्विनी॥ पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती॥७॥ निरूपिता शंबरेण सा सूपौदनसाधने॥ कामदेवं शिशुं बुद्धा चक्रे स्नेहं तदाऽर्भके॥८॥ नातिदीर्घेण कालेन स कार्ष्णी रूढयौवनः॥ जनयामास नारीणां वीक्षंतीनां च विभ्रमम्॥९॥ सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं प्रलंवबाहुं नरलोकसुंदरम्॥ सव्रीडहा सोत्तभितभ्रुवेक्षती प्रीत्योपतस्थे रतिरंग सौरतैः॥१०॥ तामाह भगवान्कार्ष्णिर्मातस्ते मतिरन्यथा॥ मातृभावमति क्रम्य वर्तसे कामिनी यथा॥११॥ रतिरुवाच॥ भवान्नारायणसुतः शंवरेणाहृतो गृहात्॥ अहं तेऽधिकृता पत्नी रतिः कामो भवान्प्रभो॥१२॥
स्त्रीको शंबरासुरने मूँग भात करनेके लिये अपने पास रक्खा था, सो वह उस बालकको कामदेव जान उससे अत्यन्त स्नेह करनेलगी॥८॥ हे राजा परीक्षित् ! थोड़ेही दिनोंमें यौवन अवस्थाको प्राप्त होकर श्रीकृष्णचन्द्रका पुत्र प्रद्युम्न देखनेवाली स्त्रियोंको मोद उत्पन्न करनेलगा॥९॥ कमल दलसे बड़े नेत्र, लम्बी भुजायें, मृत्युलोकमें सुन्दर ऐसे अपने पति प्रद्युम्नको लाजभरी मुसकान और उठी भ्रुकुटीसे देख प्रीति करके सुरतसम्बन्धी जो भाव हैं, उनसे वह रती सेवन करनेलगी॥१०॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र प्रद्युम्नजीने कहा कि हे माता! जान पड़ता हैं कि, तुम्हारी मति और प्रकारकी होगई हैं, इसीलिये मातृभावको त्यागकर स्त्रीके समान आचरण करती हो॥११॥ यह सुनकर रतिने कहा कि, तुम भगवान् वासुदे
वके पुत्र हो, शंबरासुर तुम्हें चुराकर ले आया हैं में तुम्हारी स्त्रीहूं रति मेरा नाम हैं, आप कामदेव हो॥१२॥ तुम जब दशदिनके भी नहीं थे, तब शंबरासुर समुद्रमें डाल आया था और वहाँ तुम्हें एक मत्स्य निगलगया, हे प्रभो ! यहाँ आप मत्स्यके पेटमेंसे आये हें॥१३॥तुम्हारा शत्रु शंबरासुर वडा मायावी हैं, सेकडों माया जानता हैं इसलिये असह्य और दुर्जय हैं उसको मोहनादि मायासेआप मारिये॥१४॥ क्योंकि तुम्हारे ढूँढनेके लिये स्नेहसेअति व्याकुल परम दीन तुम्हारी माता टिटिहरीके समान शोच कर रही हैं और बिना वछडेके गौकी समान आतुर हैं॥१५॥इस प्रकार मायावती स्त्रीने कह सब मायाओंको नाश करनेवाली महामाया महात्मा प्रद्युन्नजीको दी॥३६॥तबप्रद्युम्नजीने शंबरासुरके पास
एषत्वाऽनिर्दशं सिंधावाक्षिपच्छंवरोऽसुरः॥मत्स्योऽग्रसीत्तदुदरादिह प्राप्तो भवान्प्रभो॥१३॥तमिमं जहि दुर्धर्षंदुर्जयं शत्रुमात्मनः॥ मायाशतविदं त्वं च मायाभिर्मोहनादिभिः॥१४॥परिशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा॥पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवांतुरा॥१५॥प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने॥मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम्॥१६॥ स च शंबरमभ्येत्य संयुगाय समाह्वयत्॥अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन्संजनयन्कलिम्॥१७॥ सोऽधिक्षिप्तो दुर्वचोभिः पदा हत इवोरगः॥निश्चक्राम गदापाणिरमर्षात्ताम्रलोचनः॥१८॥गदामाविध्य तरसा प्रद्युम्न य महात्मने॥प्रक्षिप्य व्यनदन्नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम्॥१९॥तामापतंतीं भगवान्प्रद्युम्नो गदया गदाम्॥अपास्य शत्रवे क्रुद्धः ग्राहिणोत्स्वगदां नृप॥२०॥
आकर और उसका असह्य वचनोंसे तिरस्कार कर कलह उत्पन्न करके युद्ध करनेके लिये बुलाया॥३७॥हे राजन् ! खोटे वचनोंसे तिरस्कार पाय शंबरासुर जिस प्रकार ठोकर लगनेसे सर्प फुंकार मारता हैं, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधित हो लाल लाल नेत्र किये और गदा हाथमें लेकर निकला॥१८॥इसके उपरान्त शंबरासुरने गदाको फिराय महात्मा प्रद्युम्नजीके ऊपर डालकर वज्रपातके समान कठोर शब्द किया॥१९॥ हे परीक्षित् ! भगवान् प्रद्युम्नजीने अपने ऊपर आतीहुई उस गढ़ाको चूर्णकर और महाक्रोधित हो एक गदा शंबरासुरको मारी॥
तब शंबरासुर मयदैत्यकी बताई मायाका आश्रयले आकाशमें जाकर श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र प्रद्युम्नजीके ऊपर पत्थरोंकी वर्षा करनेलगा॥२१॥ उन पत्थरोंकी वर्षासे पीडित होकर कृष्ण कुमार प्रद्युम्नजीने सब मायाओकोनाश करनेवाली अपनी सत्त्वगुणी मायाको बुलाया॥२२॥ इसके उपरान्त शंबरासुरने गुह्यक, गंधर्व, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी सहस्रों माया छोड़ीं परन्तु कृष्णकुमार प्रद्युम्नजीने उसी समय सब मायाओको नाश कर दिया॥२३॥हे राजा परीक्षित् ! महात्मा प्रद्युम्नजीने महातीक्ष्ण पैनी धारकी तलबार लेकर कुण्डल, किरीट और दाढी मूछों सहित शंबरासुरका मस्तक काट लिया॥२४॥ तब आकाशसे देवतालोगोने फूल वर्षाये और स्तुति करी और फिर आकाशमें विचरनेवाली स्त्रियोंने
स च मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शिताम्॥मुमुचेऽस्त्रमयं वर्षंकार्ष्णौवैहायसोऽसुरः॥२१॥बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः॥सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम्॥ततो गौह्यकगांधर्वपैशाचौरगराक्षसीः॥ प्रायुंक्त शतशो दैत्यः कार्ष्णिर्व्यधमयत्स ताः॥२२॥निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुंडलम्॥शंबरस्य शिरः कायात्ताम्रश्मश्व्रंजसाऽहरत्॥२३॥आकीर्यमाणो दिविजैः स्तुवद्भिः कुसुमोत्करैः॥भार्ययांबरचारिण्या पुरीं नीतो विहायसा॥२५॥अंतःपुरवरं राजँल्ललनाशतसंकुलम्॥विवेश पत्न्या गगनाद्विद्युतेव बलाहकः॥२६॥तं दृष्ट्वा जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥प्रलंबबाहुं ताम्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम्॥२७॥स्वलंकृतमुखांभोजं नीलवक्रालकालिभिः॥कृष्णं मत्वा स्त्रियो ह्रीता निलिल्युस्तत्रतत्र ह॥२८॥अवधार्य शनैरीषद्वैलक्षण्येन योषितः॥उपजग्मुः प्रमुदिताः सस्त्रीरत्नं सुविस्मिताः॥२९॥
आकाशमार्गमें होकर महात्मा प्रद्युम्नजीको द्वारकापुरीमें पहुँचादिया॥२५॥ हे राजन् ! सहस्रों स्त्रियोंसे सुशोभित अंतःपुरमें आकाशसे उतरकरबिजली सहित जैसे मेघ आता हैं, उसी प्रकार आये॥२६॥वर्षााकी घटाओंके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीतवस्त्र धारण किये लम्बी भुजा अरुण नेत्र, सुन्दर मुसकान मनोहर मुख, नीली टेढ़ी अलकावली से शोभायमान मुखारविन्दवाले प्रद्युम्नजीको देखकर “श्रीकृष्ण आये” यह जान स्त्रियें लज्जित होकर जहाँ तहाँ छिपगईं॥२७॥२८॥और कुछ एक स्त्री कोई न्यूनाधिक बात देखकर “यह कृष्ण नहीं हैं” यह निश्चयकर
प्रसन्न हो आश्चर्य मान स्त्रियोंमें अष्ट रतिसहित कृष्णकुमार प्रद्युम्नजीके पास आईं॥२९॥ इसके उपरान्त स्नेहसे जिसके स्तनोंसे दूध चुवे, नीले कटाक्ष और मनोहर वचनवाली, राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी अपने नष्ट हुये पुत्रको स्मरणकरके कहनेलगी॥३०॥कि, मनुष्योंमें श्रेष्ठ कमलकी समान नेत्रवाला यह बालक किसका हैं ? और किस स्त्रीने इसे गर्भमें धारण किया है ? और इसे यह स्त्री कौनसी मिली है ?॥३१॥मेरा भी पुत्र नष्ट होगया हैं और सूतिकागृहमेंसे ही उसे कोई लेगया है, जो कदाचित जीवित होगा तो इसीके समान बड़ा और ऐसा ही उसका स्वरूप होगा॥३२॥परन्तु बड़ा आश्चर्य हैं कि (शार्ङ्ग) धनुषधारी श्रीकृष्णचन्द्रके समान रूप इसने पाया इसका स्वरूप और हाथ
अथ तत्रासितापांगी वैदर्भी वल्गुभाषिणी॥अस्मरत्स्वसुतं नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा॥३०॥को न्वयं नरवैडुर्यः कस्य वा कमलेक्षणः॥धृतः क्या वा जठरे केयं लब्धा त्वनेन वा॥३१॥मम चाप्यात्मजो नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात्॥एतत्तुल्यवयोरूपो यदि जीवति कुत्रचित्॥३२॥कथं त्वनेन संप्राप्तं सारूप्यं शार्ङ्गधन्वनः॥आकृत्याऽवय वैर्गत्या स्वरहासावलोकनैः॥३३॥स एववा भवेन्नूनं यो मे गर्भे धृतोऽर्भकः॥अमुष्मिन्प्रीतिरधिका वामः स्फुरति मे भुजः॥३४॥एवं मीमांसमानायां वैदर्भ्यां देवकीसुतः॥देवक्याऽऽनकदुंदुभ्यामुत्तमश्लोक आगमत्॥३५॥विज्ञातार्थोऽपि भगवान्तूष्णीमासीज्जनार्दनः॥नारदोऽकथयत्सर्वं शंबराहरणादिकम्॥३६॥
पाँवका चलाना, बोलना, हँसना चितवन इत्यादि भी सब श्रीकृष्णचन्द्रकेही समान हैं॥३३॥ जान पड़ता हैं कि, जो बालक मैंने गर्भमें धारण किया था, वह निश्चय यही हैं, क्योंकि प्रतिक्षण इसमें मेरी प्रीति बढ़तीही जाती हैं और मेरी बॉई भुजा भी फड़क रही हैं॥३४॥ हे राजा परीक्षित्!विदर्भदेशके राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी बैठी हुई इस प्रकार चिन्ता कर रही थी कि, इतनेहीमें उत्तम यशवाले, भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र वसुदेव देवकीको संग लेकर वहाँ आये॥३५॥ यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र यह स्वयं जानते थे कि, पत्नीसहित पुत्र आया हैं, परन्तु तो भी चुपचाप रहे, इतनेही में देवर्षि नारदजीने आनकर जिस प्रकार इनको शंबरासुर चुराकर लेगया और समुद्रमें डाल आया, वहाँ मछली निगलगई वह
सब वृत्तान्त सुनाया॥३६ कृष्णके अंतःपुरमें वास करनेवाली स्त्रियें बहुत कालके पीछे जैसे मृतकशरीरमें प्राण आते हैं उसी प्रकार प्रद्युनजीको आयाहुआ श्रवण कर बडा आश्चर्य मान उनकी बडाई करने लगीं॥३७॥ हे परीक्षित ! वसुदेव देवकी और कृष्ण बलदेव तथा रुक्मिणीजी और स्त्री पुरुष प्रद्युम्नजीसे मिलकर आनन्दमें मग्न होगये॥३८॥ उस समय सब द्वारकावासी प्रद्युम्नको आयाहुआ सुन “अहो ! बडा आश्चर्य है मृतककी तुल्य यह बालक आया है,” इस प्रकार कहनेलगे॥३९॥ अपने पिता श्रीकृष्णचन्द्रके समान स्वरूपवान, प्रद्युम्नजी हमारे पुत्र हैं यह विचार एकान्तमें अत्यन्त प्रेमसे प्रद्युम्नजीकी माता रुक्मिणी आदि श्रीकृष्णकी रानी भ्रान्त हो प्रद्युम्नजीकी सेवा करने लगीं सो यह कुछ आश्चर्यकी
तच्छ्रुत्वा महदाश्चर्यं कृष्णांतःपुरयोषितः॥अभ्यनंदन्बहूनब्दान्नष्टं मृतमिवागतम्॥३७॥देवकी वसुदेवश्च कृष्णरामौ तथा स्त्रियः॥दंपती तौ परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम्॥३८॥नष्टं प्रद्युम्नमायातमाकर्ण्य द्वारकौकसः॥ अहो मृत इवायातो बालो दिष्ट्येति हाब्रुवन्॥३९॥यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावास्तन्मातरो यदभजन्रहरूढ भावाः॥चित्रं न तत्खलु रमास्पदबिंबबिंबे कामे स्मरेऽक्षिविषये किमुतान्यनार्यः॥४०॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे समुद्रक्षिप्तप्रद्युम्नप्रत्यागमनं नाम पंचपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५५॥श्रीशुक उवाच॥ सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्विषः॥स्यमंतकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान्॥१॥
बात नही हैं, क्योंकि लक्ष्मीनिवास श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र कामदेवका स्मरण करतेही मन चलायमान होजाता हैं, फिर साक्षात् मूर्त्तिका दर्शन करतेहीयदि स्त्रियें सेवा करैं, तो इसमें आश्चर्य ही क्या हैं ?॥४०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां प्रद्युम्नोत्पत्तिनिरूपणं नाम् पंचपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५५॥ दोहा— छप्पनमें हरिको वृथा, मणिको लगो कलंक।सत्राजितको मणि दई, लई सुता सुमयंक॥१॥ इसके उपरान्त श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित ! अब सत्राजित्की कथा वर्णन करते हैं, आप सावधान होकर श्रवण कीजिये
कि, प्रथम अपराध करके सत्राजित्ने अपने पापकी निवृत्तिके लिये पीछे अपनी कन्याको स्यमंतकमणिके साथ श्रीकृष्णचन्द्रको देनेका उपाय किया था॥१॥ तब राजा परीक्षित् कहने लगे कि, हे योगीश्वर शुकदेवजी ! सत्राजित्ने श्रीकृष्णचन्द्रका क्या अपराध किया और स्यमंतक मणि उसने कहाँसे पाई ? और पीछे किसलिये अपनी कन्या श्रीकृष्णचन्द्रको दी, यह सब हमारे आगे विस्तारसहित वर्ण करो॥२॥ तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!सत्राजित् भगवान् सूर्यनारायणका परमभक्त और मित्र था, इसलिये प्रसन्न होकर सूर्यभगवान्ने सत्राजितको स्यमंतकमणि दी ॥३॥ हे महाराज !सत्राजित् उस मणिको कण्ठमें पहर सूर्यके समान प्रकाशमान हो द्वारकापुरीमें आया उस समय उसके तेजसे
राजोवाच॥सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन्कृष्णस्य किल्बिषम्॥ स्यमंतकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः॥२॥श्रीशुक उवाच॥आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा॥ प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्सूर्यस्तुष्टः स्यमंतकम्॥३॥ स तं बिभ्रन्मणिं कंठे भ्राजमानो यथा रविः॥ प्रविष्टो द्वारकां राजंस्तेजसा नोपलक्षितः॥४॥ तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः॥ दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशंकिताः॥५॥ नारायण नमस्तेऽस्तु शंखचक्रगदाधर॥ दामोदरारविंदाक्ष गोविंद यदुनंदन॥६॥ एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते॥मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः॥७॥ नन्वन्विच्छंति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः॥ ज्ञात्वाऽद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो॥८॥
यह भी ज्ञात नहीं होता था कि, यह सत्राजित् आरहा हैं॥४॥ तेजकी चकचौंवीके कारण दृष्टि चौंव जानेसे मनुष्य सत्राजित् को दूरसे आता हुआदेखकर उग्रसेनकी सभामें चौषड़ खेलते श्रीकृष्णचन्द्रसे “यह सूर्य भगवान् आरहे हैं” इस प्रकार कहने लगे॥५॥ हे नारायण ! हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले ! हे दामोदर ! हे कमलनेत्र ! हे गोविन्द ! हे यादवोंके आनन्ददायक ! आपको नमस्कार हैं॥६॥ हे जगत्पति ! तुम्हारे दर्शन करनेके लिये सूर्य भगवान् अपनी तीक्ष्ण किरणोंके समूहसे मनुष्योंके नेत्रोंको चुरातेहुए चले आते हैं॥७॥ हे प्रभो ! त्रिलोकीके देवताओंमें श्रेष्ठ देवताभी आपका मार्ग ढूंढते हैं और इसीलिये यादवोंमें छिपा जान आपके ढूंढनेको सूर्य भगवान् आरहे हैं॥८॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि हे नृपोत्तम परीक्षित् ! कमलदलनेत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अज्ञानी पुरुषोंकी यह बात सुन हँसकर कहनेलगे कि, यह सूर्यदेव नहीं हैं, मणि करके प्रकाशमान सत्राजित् आरहा हैं॥९॥इसके उपरान्त सत्राजित्ने अपने घरमें मांगलिक कर्म करवाय और देवमन्दिरमें ब्राह्मणोंसे पूजा कराय वहां उस मणिको स्थापित किया *॥१०॥हे भारत ! वह मणि नित्यप्रति चार मनका भार आठभार सुवर्ण उगलती थी, उस मणिमें एक यह भी प्रभाव था कि, जहाँ वह मणि हैं, उस देशमें कभी दुर्भिक्ष न पड़ै, अकालमृत्यु तथा अरिष्ट न हो, सर्प नहीं काटै,
श्रीशुक उवाच॥निशम्य बालवचनं प्रहस्यांबुजलोचनः॥प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन्॥९॥सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमंगलम्॥ प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत्॥१०॥दिनेदिने स्वर्णभारान ष्टौ स सृजति प्रभो॥दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः॥न संति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः॥१०॥११॥स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा॥नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभंगमतर्कयन्॥१२॥तमेक दा मणिं कंठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्॥प्रसेनो हयमारुह्य मृगयां व्यचरद्वने॥१३॥
मनुष्यके देहमें दुःख न हो अशुभ दृष्टि न आवै और मायावी पुरुष अर्थात् माया जाननेवाले भी उस देशमें वास नहीं करसक्ते हैं॥११॥ एक समय श्रीकृष्णचन्द्रने वह मणि राजा उग्रसेनके लिये सत्राजित्से मॉगी परन्तु सत्राजित्ने लोभके वश होकर वह मणि श्रीकृष्णचन्द्रको नहीं दी, और अपने मनमें “श्रीकृष्णचन्द्रको कैसे मना करूं” यह भी विचार न किया॥१२॥ इसके उपरान्त कुछ समय व्यतीत होनेपर सत्राजित्का भाई
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**शंका—**सत्राजित् यादव देवताके मंदिरमें ब्राह्मणोंसे मणिको क्यों स्थापन कराया ?देवमंदिरमें उस मणिको आपही आप क्यों स्थापन नहीं किया?
**उत्तर—**सूर्यने सत्राजितको मणिदेके पीछेसे सत्राजित्से कहा कि, इस मणिको रात दिन धारण मत करना जो तुम्हारी अग्निहोत्र कोठरी हैं उसमें इस मणिको रखदेना, सत्राजित सूर्यका ऐसा वचन सुनके अपने घरको आया और विचार किया कि, विना दूसरा स्नान किये देवमंदिरमें कैसे जाऊ ऐसा विचार करके जबतक स्नान करनेकी तैयारी की, तबतक ऋषिलोगोंसे मणिको रखायके आप स्नान करके तब अग्निहोत्रकी कोठरीमें होम करनेके लिये गया इसलिये देवमदिरमें ब्राह्मणों करके सत्राजित्ने मणिको स्थापन कराया
प्रसेन उस महाप्रकाशवाली मणिको कण्ठमें पहर घोडेपर चढकर वनमें शिकार खेलनेको गया॥१३॥ कि, इतनेदीमें एक सिंह घोडेसहित प्रसेनको मार मणि लेकर पर्वतकी कन्दरामें जानेलगा, उसी समय मणि लेनेकी इच्छासे जाम्बवान् ऋच्छने उसे मारडाला॥१४॥ और अपने बिलमें जाकर उस मणिको पुत्रका खिलौना किया, इधर सत्राजित् अपने भाई प्रसेनको शिकार खेलकर वनसे न आयाहुआ जान चिन्ता करने लगा॥१५॥ कि, मणि कण्ठमें धारण करके मेरा भाई वनमें शिकार खेलनेको गयाहैं और उस मणिपर कृष्णका दॉत हैं इसलिये जान पडताहै कि, भाईको श्रीकृष्णने
प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केसरी॥गिरिं विशञ्जांबवता निहतो मणिमिच्छता॥१४॥सोपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले॥ अपश्यन्भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत॥१५॥प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः॥भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णेकर्णेऽजपञ्जनाः॥१६॥भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि॥मार्ष्टुंप्रसेनपदवी मन्वपद्यत नागरैः॥१७॥हतं प्रसेनमश्वं च वीक्ष्य केसरिणा वने॥तं चाद्रिपृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः॥१८॥ऋक्षराजबिलं भीममंधेन तामसा वृतम्॥एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः॥१९॥
मारडाला, इस बातको सत्रजित्ने अपनी स्त्रीसे कहा उसके मुखसे सुनकर मनुष्य गुप्त रीतिसे बातें करनेलगे *॥१६॥तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र यह यशका नाश करनेवाला कलंक लगा सुन और बहुतसे द्वारकावासियों को संग ले प्रसेनके ढूँढनेको चले॥१७॥ हे राजन् ! वनमें सिंहसे मारे प्रसेन व घोडेको देख और आगे पर्वतके ऊपर ऋच्छसे मरे हुये सिंहको सब द्वारकावासी देखनेलगे॥१८॥बडी अँधेरी भयानक ऋच्छराज जाम्बवा
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* दृष्टान्त — सत्राजित्ने स्त्रीसे कहा कि घरकी बात किसी स्त्रीसे नहीं कहना (दृष्टान्त) एक वनियाँ था सो दिशाको गया, वहा उसने दोनों घोंटोंके बीचमें नीचे कौवेका पख पढा था देखकर यह बहम दुआ कि, यह हमारे पेटसे निकला हैं, सो घर माय अपनी घरवालीसे बोले कि, आज हमारे पेटसे कौनेका पत्र निकला, जाने क्या रोग हुआ, उसने टहलनियोंसे कही, टहलनियें भौर के घर जाकर बोलीं कि, फलाने साहजीके पेटमेंसे पाच कौवे निकले ! यह हमने अपनी आंखों से देखा, उस स्त्रीने ओर से कहा कि, साहजी के पेटमेंसे पचास कौवे रोज निकले करेहैं उसने भोरसे पाचासौ कहे कहाँतक कहें, जब वह लाला बाहर निकले, तो लोग कहने लगे कि, जब यह लाला दिशाको जाते हैं तो इनके पेटमेंसे दो हजार कौवे निकलते हैं स्त्रीसे बात कहने में यह दोष है कि, निकली होठों चढगई कोठों॥
न्के बिलपर सब प्रजाको बाहर खडा करके आप अकेलेही उसके भीतर गये॥१९॥तहाँ उस मणिसे बालकको खेलताहुआ देख मणि लेनेकी इच्छासे आप भी बालकके समीपही खडे होगये॥२०॥ प्रथम कभी न देखनेके कारण मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर डरपोककी नाईं धाई पुकारने लगी तब महाबलवान् जाम्बवान् धाईका पुकारना सुन क्रोधित हो सामने दौड़कर आया॥२१॥क्रोधी जाम्बवान् श्रीकृष्णके प्रभावको न जान और उनको साधारण पुरुष जान, अपने स्वामी श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेलगा॥२२॥परस्पर जीतनेकी इच्छासे, श्रीकृष्ण और जाम्बवान्का शस्त्र, पत्थर, वृक्ष और भुजाओंसे महाघोर संग्राम होनेलगा, जिसप्रकार मांसके लिये दो शिकारी पक्षी लडतेहैं॥२३॥ वज्रपातके समान कठोर दृष्टिसे खेदरहित
तत्र दृष्ट्वा मणिं श्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्॥हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकांतिके॥२०॥तमपूर्वनरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्॥तच्छ्रुत्वाऽभ्यद्रवत्क्रुडो जांबवान्बलिनां वरः॥२१॥स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः॥पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित्॥२२॥ द्वंद्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः॥आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव॥२३॥आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः॥वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम्॥२४॥ कृष्णमुष्टि विनिष्पातनिष्पिष्टांगोरुबंधनः॥ क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः॥२५॥जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्॥विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम्॥२६॥त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृज्यानामपि यच्च सत्॥ कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम्॥२७॥
अट्ठाईस दिनरात परस्पर युद्धहुआ॥२४॥ जब श्रीकृष्णके मुष्टिकके प्रहारसे उसके सब अंग शिथिल होगये, बल घटगया और पसीना आगया, तब जांबवान् महा आश्चर्य मानकर कहने लगा॥२५॥कि, समस्त प्राणियोंके प्राणमें जोबल हैं और सहोबल अर्थात्, इन्द्रिय, हृदय, देह इत्यादिकोंका बल आपही हो और विष्णुभगवान् पुराणपुरुष कृपालु सबके ईश्वर आपही हो॥२६॥ विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिकके तुम निश्चय निमित्तकारण हो और उत्पत्तिके योग्य पदार्थके उपादानकारण हो और समस्त प्रेरणाव, लोके ईश्वर तुम कालरूप हो, तथा आत्माजीवके उत्कृष्ट आत्मा हो॥२७॥
विष्णु पुराण हो, इसीलिये मेरे इष्टदेव रघुनाथ हो, जिन रघुनाथजीके कुछेक क्रोधसे भ्रूके कटाक्षपातसे मगर और बड़े बड़े ग्राह दुःखित होगये, तब समुद्रने मार्ग दिया और जिन श्रीरामचन्द्रजीने अपना यश प्रगट करनेके लिये पुल बाँधा, लंका जलाई, महातीक्ष्ण बाणोंसे राक्षसराज रावणके शिर काटकर पृथ्वीमें डाले, सो मुझे निश्चय विदित होता है, कि आप मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी हैं॥२८॥ हे परीक्षित् ! जब इसप्रकार जाम्बवानूको ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उससे कहने लगे॥२९॥ कमलनेत्र श्रीकृष्णचन्द्र सुखके देनेवाले अपना हाथ परमकृपाकर अपने भक्तजाम्बवान् के ऊपर घर प्रेमगर्भित वाणीसे कहनेलगे॥३०॥ हे ऋच्छराज जाम्बवान् ! हम मणि लेनेके लिये यहाँ तेरे
यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षैर्वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिंगिलोऽब्धिः॥सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लंका रक्ष श्शिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि॥२८॥ इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः॥ व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुतः॥२९॥अभिमृश्यारविंदाक्षः पाणिना शंकरेण तम्॥ कृपया परया भक्तं प्रेमगंभीरया गिरा॥३०॥ मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्॥मिथ्याऽभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनाऽमुना॥३१॥ इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जांबवतीं मुदा॥अर्हणार्थं समणिना कृष्णायौपजहार ह॥३२॥ अदृष्ट्वा निर्गमं शौरैः प्रविष्टस्य बिलं जनाः॥ प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः॥३३॥निशम्य देवकीदेवी रुक्मिण्यानकदुंदुभिः॥ सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन्बिलात्कृष्णम निर्गतम्॥३४॥सत्राजितं शपंतस्ते दुःखिता द्वारकौकसः॥ उपतस्थुर्महामायां दुर्गां कृष्णोपलब्धये॥३५॥
बिलमें आये हैं, क्योंकि हमें एक मिथ्या कलंक लगा हैं, उसे मणि लेजाकर दूर करेंगे॥३१॥ यह वचन सुनतेही जाम्बवान्ने बड़े आनन्दपूर्वक मणिसहित अपनी कन्या जाम्बवती सेवा करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दी॥३२॥ हे राजन् ! जिन द्वारकावासियोंको श्रीकृष्णचन्द्र बिलके बाहर खड़ा कर गयेथे, उन्हें श्रीकृष्णका मार्ग देखते जब बारह दिन होगये, तब उन्होंने जाना कि, श्रीकृष्ण अब नहीं निकलेंगे इसलिये सब दुःखित होकर द्वारकापुरीको चलेगये॥३३॥ बिलमेंसे श्रीकृष्णचन्द्र नहीं निकले, यह बात द्वारकावासियोंके मुखसे श्रवण कर देवकी, रुक्मिणी, वसुदेव और सुहृद्रजन तथा जातिके मनुष्य सबही अत्यन्त चिन्ता करनेलगे॥३४॥ और सब द्वारकावासी दुःखित
होकर सत्राजित्को दुर्वाक्य कहते श्रीकृष्णचन्द्रके मिलनेके लिये महामाया दुर्गादेवीकी पूजा करनेलगे॥३५॥ जब देवीकी पूजा करनेसे “श्रीकृष्णको देखोगे” इसप्रकार द्वारकावासियोंको देवीने आशीर्वाद दिया तब उसी समय सिद्धमनोरथ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारकावासियोंको आनन्द देते स्त्री सहित आये॥३६॥ हे राजन् ! जिसप्रकार कोई मृतक पुरुष फिर लौट आवै, उसी प्रकार मणि पहरे स्त्रीको लिये श्रीकृष्णचन्द्रको आया हुआ देख समस्त द्वारकावासी परमआनंदित हुए॥३७॥ इसके उपरान्त सभामें राजा उग्रसेनके पास सत्राजितको बुलाकर “जाम्बवान् ऋच्छसे मणि लाये हैं” यह कहकर वह मणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सत्राजित्को दे दी॥३८॥सत्राजित् मणि ले अत्यन्त लज्जित हो और मुख नीचाकर पछताताहुआ घरको चलागया॥३९॥ महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे विरोध हुआ जान व्याकुल हो, सत्राजित् अपने पूर्व अपराधको बारंबार
तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च॥प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन्हरिः॥३६॥ उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्॥ सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः॥३७॥सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ॥प्राप्तिं चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्यवेदयत्॥३८॥ स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वाऽवाङ्मुखस्ततः॥अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना॥३९॥ सोऽनुध्यायंस्तदेवाधं बलवद्विग्रहाकुलः॥ कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाऽच्युतः कथम्॥४०॥ किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा॥ अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम्॥४१॥ दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च॥ उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शांतिर्न चान्यथा॥४२॥
स्मरण करके यह पाप कैसे दूर हो ? और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कैसे प्रसन्न हों ? इस प्रकार चिन्ता करनेलगा॥४०॥अब मैं क्या कर्म करूं कि, जिससे कल्याण हो ! क्योंकि, मैंने विना विचारे श्रीकृष्णचन्द्रको दोष लगाया हैं, मैं अत्यन्त कृपण मंदबुद्धि और द्रव्यका लोभी हूं इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि, जिससे मनुष्य मुझे बुरा न कहें॥४१॥ हे भरतवंशावतंस ! इसप्रकार सत्राजित्ने विचार करके यह निश्चय किया कि, श्रीकृष्णचन्द्रको मैं अपनी कन्या दूंगा और पीछेसे दहेजमें मणि भी देदूंगा यही अच्छा उपाय हैं, इसके अतिरिक्त और उपायसे मेरा अपराध दूर न होगा, इस प्रकार बुद्धिसे स्थिर करके सत्राजित्ने मंगलरूप अपनी कन्या और मणिको स्वयंही उपाय करके
श्रीकृष्णचन्द्रके अर्पण करी॥४२॥४३॥ श्रीकृष्णचन्द्रने भी सुन्दर स्वभाव रूप उदारतादि गुणयुक्त सत्यभामाका पाणिग्रहण किया, जिसको पहले कृतवर्मादि कई यादव माँग चुके थे॥४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे महाराज परीक्षित् ! तब श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सत्राजितसे कहा कि, यह मणि हमको नहीं चाहिये क्योंकि तुम सूर्यके भक्त हो, इसलिये वह मणि तुम्हारेही पास रहेगी और इससे जो सुवर्ण होगा सो हमारे यहाँ भिजवादेना कारण कि, तुम्हारे कोई पुत्र नहीं हैं इस कारण तुम्हारा जो धन हैं सो हमाराही हैं, यह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका गूढ़ अभिप्राय था॥४५॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्ध भाषाटीकायां स्यमंतकमणिहरणं नाम षट्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥ दोहा— शतधन्वाके हतनको
एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्॥मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह॥४३॥तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि॥बहुभिर्याचितां शीलरूपौदार्यगुणान्विताम्॥४४॥भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप॥तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः॥४५॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे जाम्बवती विवाहो नाम षट्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥श्रीशुक उवाच॥विज्ञातार्थोऽपि गोविंदो दग्धानाकर्ण्य पांडवान्॥कुंतीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून्॥१॥भीष्मं कृपं सविदुरं गांधारीं द्रोणमेव च॥ तुल्यदुःखौ च संगम्य हा कष्टमिति होचतुः॥२॥लब्ध्वैतदंतरं राजञ्शतधन्वानमूचतुः॥अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते॥३॥
जो कुछ लगो कलंक। मणि मॅगाय अक्रूरसे, मेटो सतवन अंक॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ ! यद्यपि पांडवगण बिलमें होकर लाक्षाभवनसे बाहर निकल गये, यह बात आप भली प्रकार जानते थे, परन्तु तोभी पांडव और कुन्तीको जला हुआ सुन कुलोचित व्यवहार करनेके लिये बलरामजीको संग लेकर श्रीकृष्णचन्द्र कुरुदेशको गये॥१॥ भीष्म पितामह, विदुर सहित कृपाचार्य, गान्धारी द्रोणाचार्य इनसे श्रीकृष्णचन्द्र कहने लगे कि, हाय ! पांडव जलगये और बडाही कष्ट उपस्थित हुआ॥२॥ हे राजन कुछ दिनोंके पीछे अक्रूर और कृतवर्मा यह दोनों अवसर पाय शतधन्वासे कहनेलगे कि, इस समय सत्राजित्से मणि क्यो नहीं छीन लेता, क्योंकि जिस सत्राजितने अपनी कन्यारत्न हमको देनी स्वीकार
कर फिर कृष्णको व्यादही, वह सत्राजित् अपने भाई प्रसेनके पीछे क्यों न जाय अर्थात् मरे क्यों नहीं ?॥३॥४॥इसप्रकार अक्रूर और कृतवर्माके बहॅकानेसे बुद्धिहीन और क्षीणजीवन हो, पापी असाधु शतधन्वाने शयन करते हुए, सत्राजित्का शिर काट लिया॥५॥ कसाई जिस प्रकार पशुका वध करता हैं, ऐसेही सत्राजित्को जब शतधन्वा मारकर चलागया तब सत्राजित्की स्त्री अनाथके समान पुकार पुकार कर रोदन करने लगी॥६॥ इसके पीछे अपने पिता सत्राजित्को माराहुआ देख सत्यभामा “हाय पिता ! हाय पिता ! !” कहकर अत्यन्त विलाप करनेलगी॥७॥ फिर मृतक पिताकी देहको तेलकी कोठरीमें रखकर सत्यभामा हस्तिनापुरको चलीगई, यद्यपि शतधन्वासे सत्राजितको
योऽस्मभ्यं संप्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः॥कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात्॥४॥एवं भिन्नम तिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः॥शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः॥५॥स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रंदंती नामनाथवत्॥हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान्॥६॥सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचाऽर्पिता॥व्यलपत्ताततातेति हा हतास्मीति मुह्यती॥७॥तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्॥कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम्॥८॥ तदाकर्ण्येश्वरो राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्॥अहो नः परमं कष्टमित्यास्राक्षौ विलेपतुः॥९॥आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम्॥शतधन्वानमारेभे हंतुं हर्तुं मणिं ततः॥१०॥सोऽपि कृष्णोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया॥ साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत्॥११॥
मारा हैं यह बात अंतर्यामी श्रीकृष्णचन्द्रने प्रथमही जानली थी परन्तु तो भी सत्यभामा “मेरे पिताको शतधन्वाने मारा है” दुःखित होकर कहने गई॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी सत्राजित्का मरना सुन और अपने मनुष्यावतारका कारण जान “हमको महाकष्ट उपस्थित हुआ हैं” इसप्रकार कह और आँखोंमें आँसू भरकर विलाप करने लगे॥९॥ इसके उपरान्त सत्यभामा और अपने भाई बलदेवजीको साथ लेकर श्रीकृष्णचन्द्र हस्तिनापुरसे द्वारकापुरीमें आनकर शतधन्वाके मारने और उससे मणि लेनेका उपाय करनेलगे॥१०॥ यहॉ शतधन्वाने सुना कि, श्रीकृष्णचन्द्रने मेरे मारनेका उपाय किया तब वह
अत्यन्त भयभीत होकर प्राण बचानेके लिये कृतवर्मासे सहायके निमित्त कहा, तब कृतवर्माने उत्तर दिया॥११॥ कि, भाई ! भगवान् श्रीकृष्ण और बलदेवजीका अपराधमें कभी न करूंगा, क्योंकि उनका अपराध करके किसका कल्याण होगा॥१२॥ देखो इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे द्वेष करके कंस लक्ष्मीसे भ्रष्ट होकर अपने भाइयों सहित मारागया और मगधदेशके राजा जरासन्धने तेईस २ अक्षौहिणी सेना लेकर सत्रहवार युद्ध किया परन्तु युद्धमें हार अंतको विरथ होकर चलागया॥१३॥ जब कृतवर्मासे कोरा जवाब पाया तब यह निपट उदास हो, अक्रूरजीके पास जाकर कहने लगा तब अक्रूरजीने कहा कि, भाई ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पराक्रम जान लेनेपर कौन पुरुष उनसे विरोध
नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः॥कोनु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन्॥१२॥ कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया॥जरासंधः सप्तदश संयुगान्विरथो गतः॥१३॥प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमया चत॥सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम्॥१४॥य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हंति च॥चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताऽजया॥१५॥यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना॥दधार लीलया बाल उच्छिलींध्रमिवार्भकः॥१६॥नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे॥अनंतायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः॥१७॥प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्॥तस्मिन्न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ॥१८॥गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ॥अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम्॥१९॥
करेगा ?॥१४॥ जो ईश्वर लीलापूर्वक इस विश्वकी उत्पत्ति, पालन और नाश करता हैं, उसकी मायासे मोहित होकर उसकी चेष्टाको ब्रह्मादिक भी नहीं जानते॥१५॥ देखो ! सातवर्षकीही अवस्थामें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने गोवर्द्धन पर्वतको उखाडकर जिस प्रकार बालक छत्राकको उठाताहैं उसी प्रकार उठालिया॥१६॥ उन्हीं अद्भुतकर्मकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिये नमस्कार हैं और जो सबके आदिकारण, निर्विकार सबके आत्मा हैं, उन्हें हम केवल नमस्कार करते हैं॥१७॥ हे परीक्षित् ! इस प्रकार जब अक्रूरजीनेभी सुखा उत्तर दिया, तब शतधन्वा अति घबराय मणि अक्रूरके पास रख, चारसौ कोसचलनेवाले घोडेपर चढकर भागगया॥१८॥ हे राजन् ! जब इसप्रकार शतधन्वा भागा, तब रामकृष्ण गरुड़
ध्वजावाले रथमें बैठ शीघ्रगामी घोडोंसे श्वशुरके मारनेवाले शतधन्वाके पीछे दौडे॥१९॥जब शतयोजनसे अधिक घोडेसे न चलागया और मिथिलापुरीके बागमे गिरपडा, तब शतधन्वा उस घोडेको छोड भयभीत हो पाँव प्यादे भागनेलगा और श्रीकृष्ण भी अत्यन्त क्रोधित होकर पीछे दौडनेलगे॥२०॥इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्र शतधन्वाको पकड और अत्यन्त तीक्ष्णधारवाले चक्रसे उसका शिर काट वस्त्रोंमें मणि ढूँढनेलगे॥२१॥जब शतधन्वाके वस्त्रोंमें मणि न निकली, तब श्रीकृष्णचन्द्रने बलदेवजीसे आनकर कहा कि, देखो भाई ! शतधन्वाको वृथाही मारा उसपर मणि न निकली॥२२॥इसके पीछे बलदेवजी कहने लगे कि, शतधन्वा और किसीके पास मणि घर आया हैं, इस कारण उस पुरुषको ढूँढ़नेके लिये तुम द्वारका जाओ॥२३॥यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र सब बातको जानतेहैं परन्तु तोभी “मणिका मुझसे छिपाव किया हैं
मिथिलाया उपवने विसृज्य पतितं हयम्॥ पद्भ्यामधावन्संत्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा॥२०॥ पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना॥ चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम्॥२१॥अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाऽग्रजांतिकम्॥ वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते॥२२॥ तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना॥ कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज॥२३॥ अहं विदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम॥इत्युक्त्वा मिथिला राजन्विवेश यदुनंदनः॥२४॥ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मथिलः प्रीतमानसः॥ अर्हयामास विधिवदर्हणीयं समर्हणैः॥ उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः॥२५॥ मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना॥ ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः॥२६॥
यह मनमें निश्चयकर बलदेवजी क्रोधकरके कहने लगे, तात्पर्य यह हैं कि, द्रव्य ऐसा निषिद्ध पदार्थ हैं, जिसके लिये कृष्ण बलदेवका भी मन बिगड़गया, फिर मनुष्योंकी तो बातही क्या है ?” कि, मेरा परमप्यारा विदेहदेशका राजा बहुलाश्व हैं, उसके देखने को मेरा चित्त बहुत भटक रहा हैं, इसलिये मैं वहाँ जाऊंगा, इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रसे कह यादवोंके आनंददायक महात्मा बलदेवजीने मिथिलापुरी में प्रवेश किया॥२४॥प्रसन्न मन मिथिलापुरीका राजा बलदेवजीको आयाहुआ देख शीघ्र उठ, पूजन करनेके योग्य बलदेवजी की पूजन करनेकी सामग्रियोंसे पूजा करने लगा, तब सामर्थ्यवान् बलदेवजी कितने एक वर्षतक वहाँ रहे॥२५॥प्रीतियुक्त महात्मा जनकजीसे सत्कार पाय धृतराष्ट्रका पुत्र
दुर्योधन वहाँ आय महात्मा बलदेवजीसे गदा चलानेकी विद्या सीखनेलगा॥२६॥ इसके उपरान्त प्रियकार्य करनेवाले सामर्थ्यवान् भगवान् केशवमूर्तिने द्वारकापुरीमें आनकर शतधन्वाका नाश और मणिका न मिलना अपनी प्यारी भार्या सत्यभामासे कहा॥२७॥ इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने सुहृदोंको संग लेकर मृतक सत्राजितके परलोकसाधनकी क्रिया कराने लगे॥२८॥ सत्राजित्से मणि छीन लेनेकी शिक्षा देनेवाले अक्रूर और कृतवर्मा शतधन्वाका मरना सुन श्रीकृष्णचन्द्रसे अत्यन्त भयभीत होकर भागगये॥२९॥ हे राजा परीक्षित ! जब द्वारकापुरीसे अक्रूरजी चलेगये तब द्वारकावासीमनुष्योंके मनमें ताप और अरिष्ट बारम्बार होनेलगे॥३०॥ हे नृपोत्तम परीक्षित् !कितने
केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः॥ अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः॥२७॥ ततः स कारयामास क्रियां बंधोर्हतस्य वै॥ साकं सुहृद्भिर्भगवान्यायाः स्युः सांपरायिकाः॥२८ अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्॥ व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ॥२९॥ अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्॥ शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः॥३०॥ इत्यंगोपदिशंत्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्॥ मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम्॥३१॥ देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै॥ स्वसुतां गांदिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु॥३२॥ तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्रयत्र ह॥ देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः॥३३॥
एक ऋषि जिन्होंने प्रथम श्रीकृष्णचन्द्रकी महिमा वर्णन की हैं, वह श्रीकृष्णके माहात्म्यको भूलकर ऐसा कहते हैं, क्योंकि मुनियोंके निवास श्रीकृष्णचन्द्रके विद्यमान रहते अरिष्ट किस प्रकार होसक्ते हैं ?॥३१॥ इस प्रकार दूषित करके फिर और ऋषियोंका मत वर्णन करते हैं, कोईकोई ऋषि कहते हैं कि, एक समय जब इन्द्रने जल नहीं वर्षाया, तब काशीके राजाने अपनी कन्या गांदिनी पुरीमें आये हुए श्वफल्कको दी, तब काशीके सम्पूर्ण देशोंमें खूब वर्षा हुई॥३२॥ पिता श्वफल्कके समान प्रभावशाली अक्रूरजी जहाँ वास करते हैं,
उस देशमें खूब वर्षा होती है और महामारी इत्यादि किसी प्रकारका खेद प्राणियोंको नहीं होता हैं *॥३३॥ इस प्रकार वृद्ध पुरुषोंका वचन सुनकर, “केवल अक्रूरही यहाँसे गया हैं और मणिकोभी वही लेगया है” यह बात निश्चय करके अक्रूरको काशीसे बुलानेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रने कहा॥३४॥ उसके पीछे आपही अक्रूरकी पूजा कर हे काका अक्रूर!इस प्रकार सम्बोधन देकर प्यारी प्यारी बात कह सब
इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्॥इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः॥३४॥पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः॥विज्ञाताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह॥३५॥ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना॥स्यमंतक मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः॥३६॥सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः॥ दायं निनीयाऽपः पिंडान्विमुच्यर्णं च शेषितम्॥३७॥तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः॥किं तु मामग्रजः सम्यङ् न प्रत्येति मणिं प्रति॥३८॥
विश्वके जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्र अक्रूरके मनकी बात जान मुसकराकर कहने लगे॥३५॥कि, हे दाननके पति अक्रूर ! हम निश्चय जानते हैं कि, स्यमंतक मणि शतधन्वा तुम्हारे पास रखगया हैं और वह तुम्हारे पास हैं॥३६॥सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं हैं, इसलिये उसे पिंड जल दान और ऋण चुकाकर जो शेष धन रहेगा, उसे शास्त्रानुसार उसकी कन्याके पुत्र लेंगे॥३७॥ हे अक्रूर ! यद्यपि तुम हमसे कहो मत, परन्तु
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शंका— बढे बढे आश्चर्यकी बातें भागवतमें सुनी जाती है कि, जिस जिस गाँवमें अक्रूर वास करता है, उसी उसी गाँवमें इन्द्र जलकी वर्षा करता हैं फिर उस गाँवमें महामारीकी बीमारी नहीं होती, अक्रूर तो मथुरामें जन्में मथुरा छोडके दूसरे गाँवको नहीं गये, फिर मथुरा छोडके द्वारकामें वास किया दूसरे गाँवमें वास नहीं किया, फिर सातद्वीपमें तो अक्रर नहीं हैं, तब सात द्वीपमें इन्द्र जलको वर्षा क्यों करता हैं ?
उत्तर— अक्रूरकी माता गादिनीने ब्रह्माका तप करके ब्रह्मासे यह वरदान लिया कि, जिस स्थानपर तू (गान्दिनी) वा तेरा पति, अथवा तेरा पुत्र निवास करेगा और अपने मनमें जब वर्षनेकी इच्छा इसलिये करैगा उसी समय जिस स्थानपर चाहेगा वर्षा बहुत होगी और जब अपने मनमें अभिमान करके प्रजाकी बुराई विचारेगा, वर्षा होनेकी इच्छा नहीं करेगा उसी समय तुम्हारा प्राण छूट जायगा, बुद्धिमान् अक्रूर रात दिन प्रजाको सुख देनेके लिये अपने मनमें रात दिन वर्षा होनेकी इच्छा करते थे॥ तब
तो भी हम जानते हैं कि, मणि तुम्हारे अतिरिक्त और किसीपर नहीं रह सक्ती, क्योंकि आप सुन्दर व्रत धारण करनेवाले हैं, तब अक्रूरजीने कहा कि, अच्छा मेरेही पास सही।तुम्हैंक्या प्रयोजन हैं, यह सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, बड़े भाई बलदेवजी इस मणिके पीछे मेरा विश्वास नहीं करते हैं॥३८॥हे बड़भागी अक्रूर ! तुम मणि दिखाकर शीघ्रही मेरे भाईको शान्त करो और मेरे पास मणि नहीं हैं यह मत कहो, यदि कदाचित् मणि तुम्हारे पास न होती तो सुवर्णकी वेदी बनाकर काशीमें जाकर अखण्ड यज्ञ काहेसे करते ?॥३९॥जब इस प्रकार साम भेदन कर समझाया, तबअक्रूरजीने सूर्यके समान तेजवाली, वस्त्रसे ढकीहुई वह मणि निकालकर श्रीकृष्णचन्द्रको देदी॥४०॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्यमंतकमणि अक्रूरजीसे लेकर जातिके वन्धु बांधवोको दिखाय अपना मिथ्या कलंक दूरकर फिर वह मणि श्रीकृष्णचन्द्रने अक्रूरजीको समर्पण
दर्शयस्व महाभाग बंधूनां शांतिमावह॥अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तंते रुक्मवेदयः॥३९॥एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्॥आदाय वाससा छन्नं ददौ सूर्यसमप्रभम्॥४०॥स्यमंतकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः॥विसृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः॥४१॥यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमंगलं च॥आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शांतिम्॥४२॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे स्यमंतकोपाख्यानं नाम सप्तपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥श्रीशुक उवाच॥एकदा पांडवान्द्रष्टुं प्रतीतान्पुरुषोत्तमः॥इंद्रप्रस्थं गतः श्रीमान्युयुधानादिभिर्वृतः॥१॥
करदी॥४१॥परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीका कहाहुआ मनुष्योंके दुःखोंका हरनेवाला, सुन्दर मंगलरूप इस स्यमंतकमणिके प्रसंगको जो कोई पुरुष पढ़े वा श्रवण करे अथवा स्मरण करैवह कुत्सित पापोंके कलंकको दूर कर कल्याणको पान होना॥४२॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां स्यमंतकोपाख्याने सप्तपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥ दोहा—भद्रा, लक्ष्मणा, मित्रविन्दका लिन्दअट्ठावन अध्यायमें, वरीं सकल गोविन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! पाण्डव जलगये यह बात होने पर फिर द्रुपदराजाके यहाँ पीछे दिखाईदिये, इस प्रकार पाण्डवोंकी खबर पाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसात्यकी आदि यादवोंको संग
एक समय इन्द्रप्रस्थ गये॥१॥ सबके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको देखतेही, जिस प्रकार मृतकशरीरमें प्राण आनेसे इंद्रिय चैतन्य होजाती हैं, उसी प्रकार बलवान् पाण्डव उठ खड़ेहुये॥२॥ श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलकर पापरहित होनेके कारण वीर पाण्डव स्नेहभरी मुसकान सहित श्रीकृष्णचन्द्रका मुखारविन्द देखकर परमानन्दको प्राप्त हुये॥३॥प्रथम श्रीकृष्णचन्द्र बड़े युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें नमस्कार करके फिर अपने समान अर्जुनसे मिले इसके उपरान्त छोटे नकुल और सहदेवने श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार किया॥४॥ फिर इसके उपरान्त श्रेष्ठ आसनपर विराजमान श्रीकृष्णचन्द्रको नवविवाहिता, निन्दारहित, लज्जावती द्रौपदीने आनकर धीरे धीरे प्रणाम किया॥५॥६॥ उसी प्रकार सात्यकीको भी
दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुंदमखिलेश्वरम्॥उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणं मुख्यमिवागतम्॥२॥परिष्वज्याच्युतं वीरा अगसंगहतैनसः॥सानुरागस्मितं वक्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः॥३॥युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवंदनम्॥फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवंदितः॥४॥परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिंदिता॥ नवोढा व्रीडिता किंचिच्छनैरेत्याभ्यवंद॥४॥५॥तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवंदितः॥निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासिताः॥५॥६॥पृथां समागत्य कृताभिवादनस्तयातिहार्द्राद्रदृशाऽभिरंभितः॥आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां पितृष्वसारं परिपृष्टबांधवः॥७॥ तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकंठाश्रुलोचना॥स्मरंती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम्॥८॥तदैव कुशलं नोऽभृत्सनाथास्ते कृता वयम्॥ज्ञातीन्नः स्मरतां कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया॥९॥
पांडवोंने आकर पूजन कर आसनपर बैठाला फिर और मनुष्योका भी आदर सन्मान किया॥६॥फिर श्रीकृष्णचन्द्रने कुन्तीके पास आकर प्रणाम किया तो कुन्तीने भी स्नेहभरीचितवनसे आलिंगन किया, फिर श्रीकृष्णचन्द्रने पिता व बहनकी कुशल कुन्तीसे पूछी और इसके उपरान्त कुन्ती श्रीकृष्णचन्द्रसे भाइयोकी कुशल पूछने लगी॥७॥प्रेमकी व्याकुलतासे गद्गद कण्ठ हो नेत्रोंमें आँसू भर कौरवोंके दिये कष्टकी सुधि करके कुन्ती भक्तोंके क्लेशोंका नाश करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगी॥८॥कि, हे कृष्ण ! जाति बन्धु हमको स्मरण करके जिस समय तुमने मेरे
भाई अक्रूरको खवर लेने भेजा, उस समय हमारी सब कुशल होगई और तुमने हमको सनाथ कर दिया॥९॥यद्यपि सव विश्वके हितकारी आत्माम " यह अपना है, यह पराया हैं" इस भ्रम से रहित हो परन्तु तो भी जो कोई तुम्हारा सर्वदा स्मरण करता है, तुम उसके हृदय में स्थित होकर समस्त केशोंका नाश कर देतेहो॥१०॥राजा युधिष्टिर कहने लगे कि, हे ब्रह्मादिकोके ईश्वर !नहीं ज्ञात होता कि, मैंने क्या कल्याणकारी कार्य किया है, क्योंकि योगेश्वरों को जिनका दर्शन होना महाकठिन है, उनको हम सरीखे कुमतियोंको दर्शन हुआ॥११॥श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन् ! इस प्रकार राजा युधिष्ठिर के प्रार्थना करनेपर श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थ निवासियोंके नेत्रोंको आनन्द देते वर्षाकालतक वहीं विराजे॥
न तेऽस्तिं स्वपरभ्रांतिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः॥तथाऽपि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थितः॥१०॥युधिष्ठिर उवाच॥किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वरः॥योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम्॥११॥इति वै वार्षि कान्मासान्राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्॥ जनयन्नयनानंदमिंद्रप्रस्थौकसां विभुः॥१२॥ एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्॥गांडीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ॥१३॥साकं कृष्णेन संनद्धो विहर्तुं गहनं वनम्॥बहुव्याल मृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा॥१४॥ तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान्सूकरान्महिषान्रुरून्॥शरभान्गवयान्खङ्गान्हरिणाञ्शशशल्लकान्॥१५॥तान्निन्युः किंकरा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते॥ तृट्परीतः परिश्रांतो बीभत्सुर्यमुनामगात्॥१६॥तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ॥कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरंतीं चारुदर्शनाम्॥१७॥
॥१२॥एक समय महाबलवान शत्रुओंका मारनेवाला अर्जुन कपिध्वजावाले रथमें चढ़कर, गांडीव धनुष और वाणोंसे भरा तरकसले, कवच पहर बहुत सर्प और मृगवाले बड़े वनमें श्रीकृष्णचन्दके संग शिकार खेलनेको गया॥१३॥१४॥और उस वन में पहुँचकर व्यात्र, सूकर, भैंसा, रुरु अर्थात् हरिण, शरभ, रोझ, गैंडा मृग और खरहा, इनको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे छेदन करने लगा॥१५॥ हे राजन् ! पूर्णमासी पर्व जब आनकर प्राप्त हुये तब सेवक लोग पवित्र पशु राजा युधिष्ठिरके पास लाये और जब अर्जुनको प्यास लगी तो थका हुआ यमुनाजीपर आया॥१६॥महारथी अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र यमुनाके निर्मल जलका आचमन कर और जल पीकर जब खड़े हुये, तब
इन्होंने एक सुन्दर कन्या बैठी देखी॥१७॥ सुंदर जंघा, श्रेष्ठ दाँत, मनोहर मुख, ऐसी प्रमदा कन्याके पास श्रीकृष्णका भेजा अर्जुन आनंकर पूछने लगा॥१८॥ कि, हे सुश्रोणि ! तुम कौन हो ? और किसकी पुत्री हो, कहाँसे आई हो, और तुम्हारे मनमें क्या करने की इच्छा हैं ? सो सब वृत्तान्त कहो, मुझे निश्चय जान पड़ता हैं कि तुम्हारी पति करनेकी इच्छा हैं॥१९॥ इतना पूँछने पर कलिन्दीने कहा कि, मैं सूर्यदेवकी पुत्री हॅू कालिन्दी मेरा नाम हैं और वरके देनेवाले विष्णुभगवान् को पति करने की इच्छासे तप कर रही हूँ॥२०॥ हे वीर ! अत्यन्त स्वरूपवान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अतिरिक्त और किसीको मैं नहीं वरूंगी, वह अनाथके आश्रय मुकुन्द भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न हों॥२१॥ में कालिन्दी नामसे विख्यात हूँ और
तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्॥पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम्॥१८॥का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतोऽसि किं चिकीर्षसि॥मन्ये त्वां पतिमिच्छंतीं सर्वं कथय शोमने॥१९॥कालिंद्युवाच॥अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती॥ विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता॥२०॥नान्यं प्रतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्॥तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः॥२१॥कालिंदीति समाख्याता वसामि यमुनाजले॥निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम्॥२२॥तथाऽवदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्॥रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्म राजमुपागमत्॥२३॥यदैव कृष्णः संदिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम्॥कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा॥२४॥भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया॥अग्नये खांडवं दातुमर्जुनस्यास सारथिः॥२५॥
मेरे पिता सूर्यदेवने यमुनाजलमें स्थान बना दिया है, इसलिये जबतक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन न होगा, तबलों यहाँ वास करूंगी॥२२॥ यह सुन अर्जुन श्रीकृष्णचन्द्रके पास जायके कालिन्दीके सब वचन कहे, कालिन्दी मेरे लिये तप करती हैं, यह बात जान श्रीकृष्णचन्द्र कालिन्दीको रथमें बैठाय धर्मगज विश्वकर्मासे कहकर पाण्डवोंकेपास आये॥२३॥उस समय पाण्डवोंकी आज्ञासे श्रीकृष्णचन्द्रने देवताओंके कारीगर अद्भुत नगर बनवाये॥२४॥पाण्डवों का भला चाहनेके लिये इन्द्रप्रस्थमें वास करनेवाले
श्रीकृष्णभगवान् अग्निको खांडववन चरानेके लिये अर्जुनके सारथी हुए॥२५॥ हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् ! तब उस अग्निने प्रसन्न होकर अर्जुनको धनुष, श्वेत घोड़े, तीरोंसे भरा तरकस और जो अस्त्रवालोंसे भी न कटे, ऐसा एक कवच दिया॥२६॥ और वहाँ इन्होंने अग्निसे मयनाम दैत्यको बचाया, इसलिये उसने प्रसन्न होकर पाण्डवोंको एक सभा दी, जिस सभामें जलमें थल और स्थलमें जल इस प्रकार देखकर दुर्योधनकी दृष्टिमें भ्रम हुआ॥२७॥ राजा युधिष्ठिरसे आज्ञा पाय और सुहृदोंमें बड़ाई पाय श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकी यादवोंको संग लेकर फिर द्वारका
सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयाञ्श्वेतान्रथं नृप॥अर्जुनायाक्षयौ तृणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः॥२६॥मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्॥ यस्मिन्दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशि भ्रमः॥२७॥ स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमो दितः॥आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः॥२८॥अथोपयेमे कालिंदीं सुपुण्यर्वृक्ष ऊर्जिते॥ वितन्वन्प रमानंदं स्वानां परममंगलम्॥२९॥विंदानुविंदावावंत्यौ दुर्योधनवशानुगौ॥ स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम्॥३०॥राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविंदां पितृष्वसुः॥ प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्राज्ञां प्रपश्यताम्॥॥३१॥ नग्नजिन्नाम कौसल्य आसीद्राजातिधार्मिकः॥ तस्य सत्याऽभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप॥३२॥
पुरीमें आये॥२८॥ इसके उपरान्त सुन्दर पवित्र ऋतु नक्षत्रमें कालिन्दीका पाणिग्रहण किया और फिर अनेक प्रकार से परमरूप श्रीकृष्णचन्द्र अपने यादवोंको सुख देनेलगे॥२९॥ उज्जैनपुरीके रहनेवाले राजा विन्द और अनुविन्दकी बहनने श्रीकृष्णचन्द्रको स्वयंवरमें वरनेकी इच्छाकी परन्तु उन दोनों भाइयोंने मने किया, क्योंकि वह दुर्योधनके आधीन थे॥३०॥ हे राजन्! वासुदेवकी बहन राजाधिदेवीकी पुत्री मित्रविन्दाको श्रीकृष्णचन्द्र सब राजाओंके देखते बलपूर्वक हरण करके लेगये॥३१॥ हे राजा परीक्षित् !अयोध्या पुरीका पालन करनेवाला बडा धर्मात्मा
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* शंका— धर्मशास्त्रमें लिखा हैं कि फूफीकी लडकी बहिन होती हैं फिर श्रीकृष्णने फूफीकी लडकी के साथ विवाह क्यों किया ?
उत्तर— पूर्व जन्ममें वसुदेवजी तप करते थे, तत्र वसुदेवजीकी जो दासी थी सोसबवसुदेवजीकी सेवामें लग रही थी जब भगवान्ने वसुदेवको वरदान दिया कि, तुम्हारे पुत्र होगा, तब लक्ष्मीजी भी वसुदेवजीने दासियोंको वरदान दिया कि, हे दासियो ! तुम्हारी सबकी हम बहुतसी कन्या होवेगी, इस प्रकार भगवान् और लक्ष्मीके वचनसे प्रथमकी जो, वासुदेवजीकी दासीथीं सो सब इस जन्ममें वमुदेवजीकी
राजा नग्नजित् नामसे विख्यात था, उस राजाके प्रकाशमान सत्या नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई कि, जिसका उपनाम नाग्नजिती भी प्रसिद्ध था॥३२॥राजाने यह प्रतिज्ञा करी कि, जो वीरपुरुषकी गंध भी न सहसकें ऐसे दुष्ट, तीखे सींगोंवाले, अति दुर्धर्ष सात बैलोंको जीते वह मेरी पुत्रीसेविवाह करेगा, अनेक राजा मार खाकर फिर गये परन्तु कोई भी जीतनेको समर्थन हुआ॥३३॥ यहाँ यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सुना कि, जो बैलोंको जीते, उससे कन्या विवाह करे, यह बात सुनकर बड़ी भारी सेनाको संग लेकर अयोध्यापुरीमें आये॥३४॥हे नृपश्रेष्ठ ! राजा नग्नजितने देखा कि, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र आये हैं, इसलिये अत्यन्त प्रसन्न हो उठकर “भले आये महाराज” इस प्रकार प्रशंसा करके सुन्दर
न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्त गोवृषान्॥तीक्ष्णशृंगान्सुदुर्धर्षान्वीरगंधासहान्खलान्॥३३॥तां श्रुत्वा वृषजि ल्लभ्यां भगवान्सात्त्वतां पतिः॥जगाम कौसल्यपुरं सैन्येन महता वृतः॥३४॥स कोसलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासना दिभिः॥अर्हणेनापि गुरुणापूजयत्प्रतिनंदितः॥३५॥वरं विलोक्याभिमतं समागतं नरेंद्रकन्या चकमे रमापतिम्॥भूयादयं मे पतिराशिषोऽमलाः करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः॥३६॥ यत्पादपंकजरजः शिरसा बिभर्ति श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः॥लीलातनूः स्वकृतसेतुपरीप्सयेशः काले दधत्स भगवान्मम केन तुष्येत्॥३७॥
आसन बिछाय चरण धोकर पूजाकी सामग्रियोंसे उनका पूजन करनेलगा॥३५॥ राजा नग्नजित्की कन्या लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचंद्रको आया हुआ देख और अपने योग्य वर जान, इनकी इच्छा करके कहनेलगी कि, जो मैंने श्रद्धासहित व्रत किये हैं, तो कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मेरे पति हों और मेरा मनोरथ सत्य हो॥३६॥जिन भगवान् के चरणकमलकी रजको लक्ष्मी और कमलयोनि ब्रह्मा वा महादेव और लोकपाल संपूर्ण शिरपर धारण करते हैं और जो अपनी बॅधीहुई मर्यादा पालनेकी इच्छासे समयानुसार लीलापूर्वक नृसिंहादि अवतार धारण करते हैं, वह ____________________________________________________________________________________________
बहिनें हुईं, उन वसुदेवकी बहिनकी पुत्री लक्ष्मी हुई, अपने वचनके प्रमाणसे, लक्ष्मीरूप जो वसुदेवकी बहिनकी लडकी उनका भगवान् विना दूसरा पुरुष कैसे विवाह करेगा। इसलिये भगवान्ने जाना कि, हमारी बहिन हैं इनको हम विवाह लेवेंगे तो बडा पाप होगा ऐसा जानते थे तो मी विवाह किया।
भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न हों॥३७॥ इसके उपरान्त भलीभाँति विधिपूर्वक पूजा करके राजा नग्नजित् कहनेलगे कि, हे नारायण ! हे जगत्पते ! हे आनन्दसे पूर्ण ! आपकी मैंतुच्छ क्या पूजा करूं?॥३८॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित् आसनपर विराजमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मुसकाते हुए मेघके समान गंभीर वाणीसे राजा नग्नजितके प्रति कहा॥३९॥ हे राजन् नग्नजित् ! विद्वान पुरुष कहते हैं कि, मांगना अत्यन्त बुरा हैं, तोभी स्नेहके वश होकर मैं आपकी कन्या मागता हूं; कुछ मूल्यके देनेवाले हम नहीं हैं॥४०॥राजा नग्नजित्ने कहा कि, हे नाथ ! सब गुण जिनमें विद्यमान और लक्ष्मी सदा जिनके अंगमें वास करैऐसे सर्वगुणालंकृत तुमसे अधिक संसारमें कौन वर हैं, जिसको
अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते॥आत्मानंदेन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः॥३८॥श्रीशुक उवाच॥ तमाह भगवान्हृष्टः कृतासनपरिग्रहः॥मेघगंभीरया वाचा सस्मितं कुरुनंदन॥३९॥श्रीभगवानुवाच॥नरेंद्र याञ्चा कवि भिर्विगर्हिता राजन्यबंधोर्निजधर्मवर्तिनः॥तथापि याचे तव सौहृदेच्छया कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम्॥४०॥ राजोवाच॥ कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः॥गुणैकधाम्नो यस्यांगे श्रीर्वसत्यनपायिनी॥४१॥किं त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्त्वतर्षभ॥पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया॥४२॥सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः॥एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः॥४३॥यदीमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनंदन॥वरो भवानभि मदुहितुर्मे श्रियः पते॥४४॥ एवं समयमाकर्ण्य बद्धा परिकरं प्रभुः॥आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान्॥४५॥
मैं अपनी कन्या दूंगा ?॥४१॥हे यादवोंमें श्रेष्ठ ! पुरुषोंमें पराक्रमकी परीक्षा लेनेके कारण और कन्याके वरकी परीक्षाके लिये हमने प्रथम एक प्रतिज्ञा करी हैं॥४२॥ हे वीर कृष्ण ! इन शिक्षा रहित और पकड़नेमें न आवैं, ऐसे बैलोंको जो जीतै, वह कन्याको वरै, यह बात सुन बहुतसे राजपुत्र यहाँ आये परन्तु इनसे अपना शरीर जर्जरितही कराकर चलेगये॥४३॥ हे यदुनन्दन ! हे लक्ष्मीपति ! जो तुम इन बैलोंको जीतलो, तो निश्चय मेरी कन्याका विवाह करो॥४४॥ सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार राजा नग्नजित्का वचन
सुनकर फेंट बाँध अपने सात रूप धारणकर लीलापूर्वकही बैलोंको पकडनेलगे॥४५॥गर्व और शक्ति नाश करके उन बैलोंको शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र रस्सियोंसे बॉधकर, जैसे बालक काष्टके बैलको खैंचता हैं, ऐसेही खैंचने लगे॥४६॥इसके उपरान्त अत्यन्त आश्चर्यमान राजा नग्नजित् प्रसन्न होकर श्रीकृष्णचन्द्रको अपनी कन्या देनेका उद्योग करनेलगा और सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने समान कन्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया॥४७॥ राजा नग्नजित्की रानी अपनी कन्याके प्रियपति श्रीकृष्णचन्द्रको वर पाकर परमआनन्दित हुई और बड़ा उत्सव हुआ॥४८॥ शंख, भेरी, नगारे बजने लगे, गीतोंका शब्द सुनाई दिया, ब्राह्मणोंने अनेक आशीर्वाद दिये और सुन्दर वस्त्र मालाओंसे
बद्धा तान्दामभिः शौरिर्हतदर्पान्हतौजसः॥व्यवर्षल्लीलया बद्धान्वालो दारुमयान्यथा॥४६॥ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः॥तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान्विधिवत्सदृशीं प्रभुः॥४७॥राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्॥लेभिरे परमानदं जातश्च परमोत्सवः॥४८॥शखभेर्यानकाः नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः॥नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासस्त्रगलंकृताः॥४९॥दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः॥युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्री वसुवाससाम्॥५०॥नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान्रथान्॥रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान्॥॥५१॥दंपती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ॥स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोसलः॥५२॥श्रुत्वैतगुरु धुर्भूपा नयंतं पथि कन्यकाम्॥भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा॥५३॥
शोभायमान सब नर नारी प्रसन्न होगये॥४९॥सामर्थ्यवान् राजा नग्नजित्ने यौतुकमें दशहजार गौवें दीं और धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे शोभायमान तीनहजार दासियें दीं॥५०॥नौहजार हाथी और हाथियोंसे सौगुणे अर्थात् नौलाख रथ, रथोंसे सौगुणे अर्थात् नौ करोड घोड़े दिये और घोडोंसे सौगुण अर्थात् एक अर्ब मनुष्य दिये॥५१॥स्नेहसे व्याप्त हृदय कौशलदेशका राजा नग्नजित् अपनी कन्या सहित श्रीकृष्णको रथमें बैठाल और बहुतसी सेना संग लेकर पहुँचाने चला॥५२॥जिनका पुरुषार्थ प्रथम यादव और बैलोंसे भंग होगया
था वह राजा यह बात सुनकर न सहसके और कन्याको लेजातेहुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मार्गमें रोकलिया॥५३॥श्रीकृष्णके प्यार करनेवाले गांडीव धनुषधारी अर्जुनने बाण चलाकर समस्त राजाओंको क्षणभरमें सिंह जैसे वनके छोटे छोटे जीव व मृगोंको भगादेता हैं उसी प्रकार भगादिया॥५४॥इसप्रकार यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दहेज लेकर द्वारकापुरीमें आय सत्यारानीसे रमण करनेलगे॥५५॥वसुदेवकी बहन श्रुतिकीर्तिकी पुत्रीके कयदेशोत्पन्न भद्राको संतर्दनादि भाइयोंके देनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने व्याहा॥५६॥ सुन्दर लक्षणवाली मद्रदेशके राजाकी कन्या लक्ष्मणाको गरुड जैसे अमृत लाते हैं, उसी प्रकार अकेले श्रीकृष्णचन्द्र हरकर ले आये॥५७॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा
तानस्यतः शरव्रातान्बंधुप्रियकृदर्जुनः॥गांडीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव॥५४॥पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया॥रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः॥५५॥श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसुः॥कैकेयीं भ्रातृ भिर्दत्तां कृष्णः संतर्दनादिभिः॥५६॥सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्॥स्वयंवरे जहारैकः ससुपर्णः सुधामि व॥५७॥अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन्सहस्रशः॥भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः॥५८॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे अष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५८॥राजोवाच॥यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः स्त्रियः॥निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः॥१॥श्रीशुक उवाच॥इंद्रेण हृत च्छत्रेण हृतकुण्डलबंधुना॥हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्॥२॥
परीक्षित् ! श्रीकृष्णकी भौमासुरके बन्दीखानेसे छुडाईहुई सुन्दर स्वरूपवान् हजारों स्त्री और भी थीं॥५८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायामष्टमहिष्युद्वा हो नामाष्टपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५८॥ दोहा— उनसठवें अध्यायमें, भौमासुरको मार। इन्द्र पराभव कर हरी, कन्या वरीं हजार॥१॥ राजा परीक्षितने कहा कि, हे व्यासपुत्र शुकदेवजी ! श्रीकृष्णचन्द्रने जिस प्रकार भौमासुरको मारा और जैसे भौमासुरनेखियें रोकीं यह सम्पूर्ण कथा और शार्ङ्गधनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पराक्रम हमारे सन्मुख वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले किहे महाराज ! जब देवराज इन्द्रने श्रीकृष्णचन्द्रसे आनकर कहा कि, हे भगवन् ! मेरा छत्र अदितिके कुण्डल भौमासुर हरकर
लेगया और अमराद्रि सुमेरुके मणिपर्वत स्थानमें उसने अपना अधिकार कर लिया हैं और हमें अत्यन्तही दुःखित कर दिया हैं, देवराजकी यह बात सुनकर॥२॥श्रीकृष्णचन्द्र पक्षिराज गरुडपर सवार हो सत्यभामा रानीको संग ले प्राग्ज्योतिषनामक भौमासुरके नगरमें गये जहाँ पर्वत, शस्त्र, जल, अग्नि और पवन के किले थे, जिनमें कोई प्रवेश न करसके ऐसा भयानक गढ़ और मुरदैत्यकी हजारों दृढ़ फाँसियों करके चारों ओरसे व्याप्त था॥३॥श्रीकृष्णचन्द्रने गदासे गिरिदुर्ग तोडा, शस्त्रदुर्ग बाणोंसे, चक्रसे अग्निदुर्ग तोडा, इसके उपरान्त जलदुर्ग और पवनदुर्गको तोड, इसीप्रकार मुरदैत्यकी फॉसियोंको काटडाला॥४॥शंख बजनेके शब्दसे अनेक युद्धके यंत्र उलटे चलनेलगे और
सभार्योगरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ॥ गिरिदुर्गैश्शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम्॥सुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत्र आवृतम्॥३॥ गदया निर्बिभेदाद्रीञ्शस्त्रदुर्गाणि सायकैः॥चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना॥४॥शंखनादेन यंत्राणि हृदयानि मनस्विनाम्॥प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः॥५॥पांचजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगांताशनिभीषणम्॥मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पंचशिरा जलात्॥६॥त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो युगांतसूर्यानलरोचिरुल्वणः॥ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पंचभिर्मुखैरभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः॥७॥आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते निरस्य वक्रैर्व्यनयत्स पंचभिः॥स रोदसी सर्वदिशोंबरं महानापूरयन्नंडकटाहमावृणोत्॥८॥
शूरवीरोंके हृदय व मन थरथर कॉपनेलगे, तब गदाधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने बडी गदासे भौमासुरकी नगरीके कोटको तोडडाला॥५॥प्रलयकालीन वज्रके शब्दके समान भयंकर शब्दवाले पांचजन्य शंखका शब्द सुनकर पाँच मुखवाला मुरदैत्य जो जलके भीतर सो रहा था, सो उठा॥६॥अति खोटी दृष्टि प्रलयकालके सूर्य और अग्निके समान तेज, भयंकर रूपवाला मुरदैत्य त्रिशूल हाथमें ले पाँचों मुख फाड़कर, मानों त्रिलोकीको निगल जायगा इस प्रकार दौड़ता हुआ भगवान् श्रीकृष्णचद्रके सन्मुख आया जैसे गरुड़ सर्पोंके सन्मुख जाता हैं॥७॥ और बडे जोरसे त्रिशुलको फिराय गरुड़पर चला पाँचौं मुख फाडकर महाघोर शब्द किया, उस शब्दका नादअंतरिक्ष, पृथ्वी, सम्पूर्ण दिशओंमें
फैलकर ब्रह्माण्डमें व्याप्त होगया॥८॥उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने गरुडके ऊपर त्रिशूल आता देखकर अपने बाणोंसे तीन टुकड़े करदिये और मुर दैत्यके पाँचों मुखोंमें पाँच बाण मारे, तब मुरदैत्य अत्यन्त क्रोधित होकर श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर गंदा चलानेलगा॥९॥तब भगवान्ने संग्राममेंआती हुई उस गदाके हजारों टुकडे करडाले, उस समय भुजाओंको उठाय दौडकर सन्मुख आये हुये मुरदैत्यका शिर श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वक अपने चक्रसे काटलिया॥१०॥ जिस प्रकार इन्द्रके वज्रसे पर्वतका शिखर कटकर गिर पडता हैं, उसी प्रकार मस्तक कटनेपर प्राणमुक्त हो वह जलमें गिर गया, उसके जो अति बलवान सात पुत्र थे, वह पिताके दुःखसे अत्यन्त दुखी हो, महाक्रोधकर बदला लेनेके लिये आये॥११॥
तदा पतद्वै त्रिशिखं गरुत्मते हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा॥मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत॥९॥तामापतंतीं गदया गदां मृधे गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा॥ उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः शिरांसि चक्रेण जहार लीलया॥१०॥व्यसुः पपातांभसि कृत्तशीर्षो निकृत्तशृंगोऽद्रिरिवेंद्रतेजसा॥तस्यात्मजाः सप्त पितुर्व धातुराः प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः॥११॥ताम्रोंतरिक्षः श्रवणो विभावसुर्वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः॥पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे भौमप्रयुक्ता निरगन्धृतायुधाः॥१२॥प्रायुंजतासाद्य शरानसीन्गदाः शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्वणाः॥तच्छस्त्रकूटं भगवान्स्वमार्गणैरमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह॥१३॥तान्पीठमुख्याननयद्यमालयं निकृत्तशीर्षोरुभुजांघ्रिवर्मणः॥स्वानीकपानच्युतचकसायकैस्तथा निरस्तान्नरको धरासुतः॥१४॥
ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, पिभावसु, वसु, नभस्वान और सातवां अरुण यह सब पीठनाम सेनापतिको आगे कर भौमासुरकी प्रेरणासे शस्त्र लेलेकर रणभूमिमें आये॥१२॥अत्यन्त क्रोध करके भयानक मुरदैत्यके पुत्र आकर श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर बाण, तलवार, गदा, बर्छी, गुर्ज और त्रिशूल इत्यादि शस्त्र चलानेलगे, तब महापराक्रमी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने बाणोंसे उनके चलायेहुये शस्त्रोंको क्षणभरमें तिलके समान काट डाला॥१३॥पीठ आदि मुरदैत्यके पुत्रोके शिर, ऊरू, भुजा, पाँव, कवच इत्यादि काट और उनको मारकर श्रीकृष्णचन्द्रने यमलोक भेज
दिया, तब पृथ्वीका पुत्र नरकासुर श्रीकृष्णचन्द्रके चक्र और बाणोंसे अपने सब सेनापतियोंका नाश देखकर॥१४॥ महाक्रोधित हो समुद्रसे प्रगटहुए मद झरते हाथियोंकी सेना लेकर बाहर निकला सूर्यके ऊपर जिसप्रकार बिजली सहित मेघ आता हैं, उसी प्रकार गरुड़के ऊपर सत्यभामा सहित श्रीकृष्णचन्द्रको विराजमान देख भौमासुर बरछी चलानेलगा और सम्पूर्ण योद्धा भी प्रहार करनेलगे॥१५॥ गदके बड़े भाई श्रीकृष्णचन्द्रने चित्र विचित्र पंखवाले बाणोंसे भौमासुरकी सेनाको काट फिर क्षणमात्रमें तीखे बाणोंसे भुजा, ऊरू, गर्दन और अंग काट हाथी घोड़ोंको मार छिन्न भिन्न करदिया॥१६॥हे कौरवोंके आनन्द देनेवाले परीक्षित् ! जो जो शस्त्र योद्धाओंने चलाये, उन सबको भगवान् श्रीकृष्ण
निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्त्रवन्मदैर्गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमत्॥दृष्ट्वा सभार्यंगरुडोपरि स्थितं सूर्योपरिष्टात्सतडिद्धनं यथा॥कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं योधाश्च सर्वे युगपत्स्म विव्यधुः॥१५॥तद्भौमसैन्यं भगवान्गदाग्रजो विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः॥निकृत्तबाहूरुशिरोंघ्रिविग्रहं चकार तर्ह्येव हताश्वकुंजरम्॥१६॥यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह॥हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णैः शरैरैकैकशस्त्रिभिः॥१७॥उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान्॥गरुत्मता हन्यमानास्तुंडपक्षनखैर्गजाः॥१८॥पुरमेवाविशन्नार्त्ता नरको युध्ययुध्यत॥दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकम्॥१९॥तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः॥नाकंपत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः॥२०॥
चन्द्रने तीक्ष्ण तीन तीन बाणोंसे एक एक टूककर काटडाला॥१७॥श्रीकृष्णको अपने ऊपर चढायेहुये गरुड़जीने भी अपनी चोंच और पंखोंसे हाथियों को मार मारकर व्याकुल कर दिया॥१८॥और वह अत्यन्त पीड़ित होकर पुरमें प्रवेश करगये, तब नरकासुरने युद्ध करतेहुए गरुड़से पीडित अपनी सेनाको भागी हुई देखा॥१९॥भौमासुरने महापैनी धारवाली गरुड़जीको बरछी मारी, जिससे वज्र रुकगया था, परन्तु जैसे मालाके प्रहारको हाथी कुछ नहीं गिनता, उसी प्रकार गरुड़जी उसके प्रहारसे कुछ भी व्यथित नहीं हुये॥२०॥
तब भौमासुरने अपना उद्यम वृथा देख श्रीकृष्णके मारनेको त्रिशूल हाथ में लिया, परन्तु हे परीक्षित् ! उस शूलको छोडनेसे प्रथमही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने चक्रसे हाथीपर बैठेहुये भौमासुरका शिर काट डाला॥२१॥ हे राजन् ! जिस समय कुण्डलों सहित मनोहर किरीटसे शोभायमान भौमासुरका शिर कटकर पृथ्वीमें सुशोभित हुआ, उस समय दैत्योंने हाहाकार किया और ऋषि, देवता धन्य धन्य कहते भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूलोंकी वर्षाकर स्तुति करनेलगे॥२२॥ भौमासुरके मरने उपरान्त पृथ्वीने श्रीकृष्णचन्द्रके पास आकर तपायमान सुवर्णमें जडे रत्नोंसे प्रकाशमान कुण्डल वैजयन्ती माला और प्रचेताका छत्र तथा महामणि दिये॥२३॥ हे नृपोत्तम ! उस समय पृथ्वी विश्वके ईश्वर देवताओंमें
शूलं भौमोऽच्युतं हंतुमाददे वितथोद्यमः॥तद्विसर्गात्पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः॥अपाहरद्गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना॥२१॥सकुंडलं चारुकिरीटभूषणं बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत्॥हाहेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा माल्यैर्मुकुंदं विकिरंत ईडिरे॥२२॥ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुंडले प्रतप्तजांबूनदरत्नभास्वरे॥सर्वे जयंत्या वनमालयाऽऽर्पयत्प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम्॥२३॥अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम्॥प्रांजलिः प्रणता राजन्भक्तिप्रवणया धिया॥२४॥ भूमिरुवाच॥नमस्ते देवदेवेश शंखचक्रगदाधर॥ भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्नमोऽस्तु ते॥२५॥नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने॥नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये॥२६॥नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे॥पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः॥२७॥
श्रेष्ठ ब्रह्मादिकोंमें पूजित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख दोनों हाथ जोड नम्र हो, भक्ति और श्रद्धासहित स्तुति करनेलगी॥२४॥पृथ्वीने पुत्रके लिये तपस्या की थी, तब देवताओंने प्रसन्न होकर पुत्र होनेका वर दिया उसी वरके प्रभावसे भौमासुर उत्पन्न हुआ, पृथ्वीने कहा कि, हेदेव देव ! हे शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी ! हे परमात्मन ! भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये साकार रूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार हैं॥२५॥ जिनकी नाभिमें कमल, कमलकी माला धारण करनेवाले कमलनेत्र और कमलके समान चरण रखनेवाले आपको नमस्कार हैं॥२६॥ भगवान् वासुदेव सम्पूर्ण
प्राणी जिनमें वास करैं, विष्णु अर्थात् सबके हृदयमें व्यापक, समस्त कार्योंके आदिकारण पूर्णज्ञानस्वरूप आपको नमस्कार हैं॥२७॥ आप जन्मरहित हो, इस विश्वके उत्पत्तिकर्त्ता हो, ब्रह्म हो, इसीलिये अजन्मा हो, अनन्तशक्ति हो, इसीसे विश्वके उत्पत्ति कर्त्ता हो, यदि कोई कहैकि, पित्रादितो पुत्रादिकोंके उत्पत्तिकर्त्ता हैं और पित्रादिकोंके उत्पत्ति कर्त्ता उनके पूर्वपुरुषहैं और पूर्वपुरुषोंके उत्पत्तिकर्त्ता पंचभूतहें और पंचभूतोंका अपने कर्मद्वारा जीव हैं, मैं क्या करूं इसके उत्तर में पृथ्वी कहै कि, हे कार्यकारणरूप ! हे संपूर्ण प्राणियोंके आत्मा ! हेपरमात्मन् ! तुम सर्वरूप हो, इसलिये तुम्हारे अर्थ नमस्कार हैं॥२८॥ यहाँ यह शंका है कि, तीन गुणोंसे इस विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करते हैं और तीनों गुण मायाके अधीन हैं और मायाका क्षोभ करनेवाला पुरुष है काल निमित्त है और यह बात प्रसिद्ध है, फिर मैं क्या करता हूं इसके उत्तर में पृथ्वी कहती है कि, तुम आवरण
अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणऽनतशक्तये॥परावरात्मन्भूतात्मन्प्रमात्मन्नमोऽस्तु ते॥२८॥त्वं वै सिसृक्षू रज उत्कटं प्रभो तमोनिरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः॥स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते कालः प्रधानं पुरुषो भगवान्परः॥२९॥ अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो मात्राणि देवा मन इंद्रियाणि॥कर्ता महानित्यखिलं चराचरं त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः॥३०॥ तस्यात्मजोऽयं तव पादपंकजं भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः॥तत्पालयैनं कुरु हस्तपंकजं शिरस्यमुष्या खिलकल्मषापहम्॥३१॥
रहित हो, हे समर्थ ! जिस समय आप विश्वके रचनेकी इच्छा करते हो, तब रजोगुणको धारण करते हो और हें जगत्पति जगत्के पालन करनेको सतोगुण धारण करते हो तथा नाशकरनेके लिये तमोगुणको धारण करतेहो, कालरूपहो, पुरुषरूप और सबसे परे हो इसलिये सबके उत्पन्नकर्त्ता तुमही हो॥२९॥ हे ईश ! मुझे (पृथ्वी) जल, ज्योति, पवन, आकाश, शब्द, स्पर्श, रूप रस, गंध, देवता, मन, इन्द्रिया, अहंकार, तत्त्व और समस्त स्थावर जंगम आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमसे भासते हैं॥३०॥हे शरणागतोंके दुःखहर्त्ता। यह भौमासुरका पुत्र भगदत्त भयभीत होकर तुम्हारे चरणों में आनकर पड़ा हैं सो तुम इसका पालन करो और सब केशोंका शमन करनेवाला अपना हस्तकमल इसके मस्तकपर रक्खो॥३१॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि भक्तिपूर्वक नम्र हो मधुरवाणी से पृथ्वीने, जब इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे अभयदान दे, सर्व सम्पत्तियुक्त भौमासुरके स्थानपर गये॥३२॥वहाँ जाकर श्रीकृष्णचन्द्रने सोलह हजार एकसौ कन्या भौमासुरके मंदिरमें देखीं, जिन्हें भौमासुर अपने पराक्रमसे बलत्कार हरलाया था॥३३॥इसके उपरान्त महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आया हुआ देख सम्पूर्ण स्त्रिये मोहित हो
शुक उवाच॥इति भूम्याऽर्थितो वाग्भिर्भगवान्भक्तिनम्रया॥दत्त्वाऽभयं भौमगृहं प्राविशत्सकलर्द्धिमत्॥॥३२॥तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम्॥भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः॥३३॥तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवीरं विमोहिताः॥मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं देवोपसादितम्॥३४॥भूयात्पतिरयं मह्यंधाता तदनुमोदताम्॥ इति सर्वाः पृथक् कृष्ण भावेन हृदय दधुः॥३५॥ताः प्राहिणोद्द्वारवतीं सुमृष्टविरजांबराः॥नरयानैर्महाकोशान्रथाश्वान्द्रविणं महत्॥३६॥
कर दैवसे प्राप्त हुए मनोवांछित श्रीकृष्णचन्द्रको मनसे पति वरण करनेलगीं॥३४॥ हे विधाता ! इन्हैंऐसी अनुमति दो कि, यह हमारे पति हों इस प्रकार सबकन्याओंने भक्तिभावसहित अपना अपना मन श्रीकृष्णचन्द्रमें लगाया॥३५॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हें उज्ज्वल वले आया
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*** शंका—**भौमासुर तो बडा बुद्धिमान् था, फिर कुमारी कन्याओंको क्यों हर हर इकट्ठा किया है वह तो सब लडकियें थीं, उनका विवाह नहीं हुआ था, उनको राक्षसकर्म करनेके लिये, हरकर के आया
**उत्तर—**राजाओंका अभिमान भजन करनेके लिये सव राजाओं की कन्याओंको हरकर वह अपना विवाह करने के लिये लाया था और राजालोग उसका कुछ भी नहीं करसके, तब नारदमुनिने विचारा कि, यह सब कया तो भगवान्की स्त्री होंगी, ऐसा विचार के मौमासुरसे मने करदिया कि, हे भौमासुर विना हमारी आज्ञा लिये इन कन्याओंके सग अपना विवाह मत करना, ऐसे कहकर मौमासुरको विवाह करनेकी आज्ञा नहीं दी, इन लडकियोंके सग भौमासुर विवाह करताही करता श्रीकृष्णने उसको मारडाला, कन्याओं को अपने आप वर लिया, इसलिये मौमासुरने राजकन्याओं को हरण किया था॥
स्वच्छ वस्त्र पहराय पालकियोंमें बैठाय द्वारकापुरीको भेजदिया और साथही बड़े बड़े खजाने, रथ, घोडोंको भी भजे॥३६॥ इसके उपरान्त चार चार दॉतके श्वेतरंग, शीघ्रगामी, चौंसठ ऐरावतकुलके हाथी श्रीकृष्णचन्द्रने द्वारकापुरीमें भेजे॥३७॥ इसके पीछे जब भगवान वासुदेवने इन्द्रलोकमें जाकर अदितिको कुण्डल दिये, तब इन्द्राणीसहित देवराज इन्द्रने सत्यभामा सहित श्रीकृष्णचन्द्रकी विधि पूर्वक पूजा करी॥३८॥ सत्यभामाके कहने से श्रीकृष्णचन्द्र कल्पवृक्षको उखाड़, गरुडके ऊपर रख और इन्द्रसहित समस्त देवताओंको जीत द्वारकापुरीमें लेआये॥३९॥ और सत्यभामाके बगीचको शोभायमान करनेके लिये कल्पवृक्ष उसके बगीचेमें लगाया, उसकी सुगन्धके मदके लोभी भोरे स्वर्गसे पीछे पीछे
ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दंतांस्तरस्विनः॥ पांडरांश्च चतुष्षष्टिं प्रेषयामास केशवः॥३७॥गत्वा सुरेंद्रभवनं दत्त्वाऽदित्यै च कुंडले॥पूजितस्त्रिदशेंद्रेण सर्हेद्राण्या च स प्रियः॥३८॥चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारिजातं गरुत्मति॥आरोप्य सेंद्रान्विबुधान्निर्जित्योपानयत्पुरम्॥३९॥स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः॥अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात्तद्गंधासवलंपटाः॥४०॥यया च आनम्य किरीटकोटिभिः पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम्॥सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महानहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम्॥४१॥अथ मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु ताः स्त्रियः॥यथोपयेमे भगवांस्तावद्रूपधरोऽव्ययः॥४२॥गृहेषु तासामनपाय्यतर्क्यकृन्निरस्त साम्यातिशयेष्ववस्थितः॥ रेमे रमाभिर्निजका मसंप्लुतो यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन्॥४३॥
चलेआये॥४०॥हे राजन् ! प्रथम तो देवराज इन्द्रने कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने किरीटोंके अग्रभाग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें लगा नमस्कार करके उनकी प्रार्थना की और कार्य सिद्ध होनेपर भगवान् से विरोध किया, अहो ! देवताओंको बड़ा क्रोध आता हैं, धनिकताकोहीधिक्कार हैं॥४१॥इसके उपरान्त एक मुहूर्तमात्रमें सोलह हजार एकसौ आठ महलमें सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जितनी स्त्रियें थींउनकेही स्वरूप धारण कर सबका यथायोग्य पाणिग्रहण किया॥४२॥जिनके घर के समान और कोई घर नहीं हैं, इस प्रकार उन रानियोंके घरों में सदा पूर्णआनन्द स्वरूप रहते भी औरोंके समान गृहस्थधर्म करते अचिन्त्य कार्य करते अविनाशी भगवान् लक्ष्मीका अंशरूप स्त्रियोंके
साथ विहार करते थे॥४३॥ हे परीक्षित्!ब्रह्मादिक देवता जिनको मार्गके नहीं जानते, उन लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाय वह स्त्रियें उनका निरंतर बढीहुई प्रीति और स्नेहभरे हास्यपूर्वक अवलोकन करती थीं और आनन्दपूर्वक नवीन २ संगम भाषण और लज्जाका सेवन करती थीं॥४४॥ यद्यपि एक एक रानीके पास सौ सौ दासी हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं, परन्तु तो भी सामने जाकर लिवालाना, आसनको बिछाना, सुन्दर पूजा करनी चरण धोना, बीरा लगाना, चरण दाबने, पंखा करना, अतर लगाना, फूल चढ़ाना, केशोंका सँभालना, शय्या बिछाना, स्नान कराना और भेंट देना यह सेवा भली प्रकार आपही करती थीं॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनषष्टितमोध्यायः॥५९॥
इत्थं रमापतिमवाप्य पर्ति स्त्रियस्ता ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्॥भेजुर्मुदाऽविरतमेधितयाऽनुरागहासाव लोकनवसंगमजल्पलज्जाः॥४४॥ प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौचतांबूल विश्रमणवीजनगंधमाल्यैः॥केशप्रसारशयनस्न पनोपहार्यैर्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥४५॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नर कवधपारिजातहरणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः॥५९॥श्रीशुक उवाच॥कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्॥ पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः॥१॥यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः॥स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः॥२॥तस्मिन्नंतर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलंबिना॥विराजिते वितानेन दीपैर्मणिभयैरपि॥३॥मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते॥जालरंध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चद्रमसोऽमलैः॥४॥
दोहा — साठ हॅसीसे कुछ कही, हरि रुक्मिणिसों बात। रूठ गई तब रुक्मिणी, कृष्णमनावत जात॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित! किसी समय सुखपूर्वक एक शय्यापर बैठे हुए जगत्गुरु अपने पति श्रीकृष्णचंद्रकी रुक्मिणीसखियों सहित चमर करके सेवा करनेलगीं॥१॥ जो जन्म रहित भगवान् लीला पूर्वक इस विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करते हैं, वही भगवान् अपनी मर्यादांकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें आनकर प्रगट हुए॥२॥ वहाँ गहों के भीतर अत्यन्त देदीप्यमान मालायें लटक रही थीं, अत्यन्त शोभायमान छत बॅधी थीं, और मणिमय दीपक जगमगा रहे थे॥३॥ मधुमल्लिकाके पुष्पोंकी मालाओंपर भौरोंके झुण्डके झुण्ड गूजरहे थे और झरोखोंकी जालियोंमें होकर चंद्रमाकी निर्मल किरणें
झिलमिला रही थीं॥४॥कल्पवृक्षके वनकी सुगंधिलिये उद्यानसे सुगंधसनी वायु चलीआती थी, हे महाराज ! झरोंखे जालियोंमें अगर तगरके धूपका धुआँ निकल रहा था॥५॥ उस मंदिरके भीतर शय्या बिछी थी उसपर दूधके फेनके समान कोमल श्वेत बिछौना बिछ रहा था, उसके ऊपर सुखपूर्वक बैठेहुये जगत् के ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी रुक्मिणी सेवा करती थी॥६॥हीरेकी दंडीवाला चमर सखीके हाथमेंसे लेकर उससे पवन करती रुक्मिणी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंकी ओरको देख रही थी॥७॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके निकट मणियोंके जड़ाऊ नृपुरोंका शब्द करती अत्यन्त शोभायमान लगतीथीं, कैसी रुक्मिणी हैं, उँगलियोंमें मुँदरी पहरे, कलाइयोंमें चूड़ी व कंकण पहरे और हाथोंमें बीजना ले रही हैं
पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना॥धूपैरगुरुजै राजञ्जालरंध्रविनिर्गतैः॥५॥पयःफेननिभे शुभ्रपर्यंके कशिपूत्तमे॥उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम्॥६॥ वालव्यजनमादाय रत्नदंडं सखीकरात्॥तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम्॥७॥सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां रेजेंगुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता॥वस्त्रांतगूढकुचकुंकुमशोणहारभासा नितंबधृतया च परार्ध्यकांच्या॥८॥तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा॥प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककंठवक्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे॥९॥श्रीभगवानुवाच॥राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः॥महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः॥१०॥तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्॥दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान्॥११॥
सारीके छोरसे ढके जो स्तन तिनकी केशरसे रँगा हुआ अरुण जो मोतियोंका हार और कटिमें पहरे हुये जो अमूल्य मेखला उससे शोभायमान म्ही थीं॥८॥लीलापूर्वक देह धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रकेही योग्य जिसका रूप हैं और श्रीकृष्णके विना जिसका कोई आश्रय नहीं हैं, ऐसी रूपवती साक्षात् लक्ष्मीके समान रुक्मिणीजीको देखकर कि, जिसकी अलकै कुण्डल धुकधुकी युक्त कंठसेशोभायमान मुखारविन्दमें मंद मुसका श्री अमृत झलक रहा था, उसे देख प्रसन्न हो हँसकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले॥९॥कि, हे राजपुत्री ! लोकपालोके समान ऐश्वर्याले महानुभाव बातपर रुविभः रूप, उदारता और बलसे बढे हुए राजा तुम्हारी चाहना करते थे॥१०॥और कामदेवके मदसे व्याकुल शिशुपालादि राजा तुम्हारे
लेनेकेलिये आये, जिन्हैंतुम्हारे पिता दे भी चुके थे फिर तुमने किस कारण उन्हें छोड़कर हमें जो तुम्हारी बराबरके भी नहीं हैं, वरण किया ?॥११॥ हे सुन्दरभ्रुकुटियोवाली ! बहुधा गजाओंसे डरकर तो हमने समुद्रकी शरण ली हैं और बलवानोंके साथ विरोध होने से ही हमने राजगद्दी त्यागन कररक्खी हैं ॥१२॥ हे सुभ्रु ! जिनके आचरणकी खबर नहीं, और जो स्त्रियोंके कहे में न चलें, जिनका मार्ग जगत् से निराला हैं ऐसे पुरुषोंका जो स्त्रिये अनुसरण करती हैं, वह बहुधा क्लेश और कष्ट पाती हैं॥१३॥ और हम निष्किंचन हैं, जो निष्किचन हैं वह जन हमें अत्यन्त प्रिय हैं, इसलिये हे सुमध्यमे ! धनवान् पुरुष कहते हैं कि, हम दरिद्री हो जांयेंगे, इस भयसे बहुधा मेरा भजन नहीं करते॥१४॥ जिनके
राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रूः समुद्रं शरणं गतान्॥बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान्॥१२॥अस्पष्टवर्त्मनां पुंमामलोकपथमीयुषाम्॥आस्थिताः पदवीं सुभ्रूः प्रायः सीदंति योषितः॥१३॥ निष्किंचना वयं शश्वन्निष्किंचनजन प्रियाः॥ तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजंति सुमध्यमे॥१४॥ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः॥तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित्॥१५॥ वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयाऽदीर्घसमीक्षया॥ वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा॥१६॥अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्त्रियर्षभम्॥येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे॥१७॥
बराबर धन, बराबर जन्म, बराबर ऐश्वर्य, और बराबरकी रूप जाति हैं और सदा जिनका एकसा निर्वाह होता हैं, उन्हीका विवाह और मित्रता होती हैं, छोटे बड़ोंकी कदापि नहीं हो सकती॥१५॥ हे राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी ! तुमने कुछ विचार न किया और बराबरका संबंध होता हैं, यह बात जानेविना गुणहीन हमको भिक्षुकके सराहनेसे भूलकर वर लिया॥१६॥ हे सुन्दरी ! अब भी तुम अपनी बराबरीका क्षत्रिय देखकर उसका हाथ पकड़लो, उस क्षत्रियसे इस लोक और परलोकके मनोरथोंको प्राप्त होगी॥१७॥
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* शंका— श्रीकृष्णचन्द्रने रुक्मिणीसे कहा कि, तुम हमको छोडकर और कोई दूसरा पति करलो ऐसा मूर्खो और भज्ञानियोंकी नाई कुवांच्य भगवान् तो अपने मुखसे लक्ष्मीको कभी नहीं कह सक्ते, न कभी कहा, फिर इस अवतारमें क्यों कहा ? जो कोई कहै कि, रुक्मिणीका मानभग करनेके लिये यह वचन श्रीकृष्णने कहा तो भी कृष्णके सामने तो रुक्मिणीने कभी मानभी नहीं किया, फिर ऐसा खोटा वाक्य भगवान्ने रुक्मिणीते क्यों कहा।
तब रुक्मिणीने कहा कि, आप मुझे क्यों ले आये ? श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, हे वामोरु ! शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दंतवक्रादि समस्त राजा हमसे शत्रुता रखते हैं और तेरा भाई रुक्मीभी वैर करता हैं॥१८॥ हे मंगलरूपिणी ! पराक्रमके मदसे अंधे गर्ववन्त राजाओंका गर्व दूर करनेके लिये और दुष्टोंका तेज हरण करनेके लिये मैं तुम्हें हरलाया था॥१९॥ हम घर और देहमें उदासीन हैं, हमको स्त्री पुत्रोंकी चाइना नहीं हैं, क्योंकि आत्माके आनन्दसे सदा परिपूर्ण हैं और ज्योतिके समान साक्षीमात्र क्रियारहित वर्तते हैं॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!
चैद्यशाल्वजरासंधदंतवक्रादयो नृपाः॥ मम द्विषंति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः॥१८॥तेषां वीर्यमदांधानां दृप्तानां स्मयनुत्तये॥आनीतासि मया भद्रे तेजोऽपहरताऽसताम्॥१९॥उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः॥ आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः॥२०॥श्रीशुक उवाच॥ एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव॥मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत्॥२१॥इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्॥आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथुश्चिंतां दुरन्तां रुदती जगाम ह॥२२॥
रुक्मिणीका मन हरनेवाले और जो आपसे कभी अलग न होय, इसलिये आपको अपना प्राणवल्लभ जाननेवाली रुक्मिणीका गर्व दूर करनेके लिये इतना कहकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र चुप होगये॥२१॥ इसप्रकार त्रिलोकीके ईश्वरोंका पालन करनेवाले अपने प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रकाजो पहले कभी न सुना था, ऐसा कटुवाक्य सुनकर हृदयमें रुक्मिणीजी कांपने लगीं और भयभीत हो रुदन करके बड़ी चिन्ता करने लगीं॥२२॥
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उत्तर— श्रीकृष्णने समझा कि, कलियुगका राज्य थोडेही दिनोंमें आनेवाला हैं, यह जानकर संसारके कत्याणार्थ और कलियुगकी स्त्रियोंके मानभंग करनेके लिये रुक्मिणीसे ऐसा अनुचित वाक्य श्रीकृष्णने कहा कि, स्त्रीका अभिमान भजन करनेवाले मेरे इस वचनको कलियुगमें जो कोई स्त्री पुरुष सुनेंगे वह धीमी डरेंगी और वह पुरुष भी डरेगा और कहेंगे स्त्री पुरुषका प्रेम सबसे बडा हैं देखो तुच्छ बातपर रुक्मिणीको भगवान् ने त्यागनेके लिये हँसी की थी. तो मी रुक्मिणी प्राण त्यागनेके लिये उपस्थित दुई, ऐसा विचार करके स्त्री तो अपने पतिसे प्रेम करे और पुरुष स्त्रीसे प्रेम करे, इस कोई मी बडा धर्म नहीं हैं कलियुगके जीव ऐसा मानलेंगे. इसलिये कृष्णावतारमें लक्ष्मीको कुवाक्य श्रीकृष्णने कहा कुछ छलसे नहीं कहा॥
नखकी अरुण कांतिवाले सुकुमार चरणोंसे पृथ्वी लिखनेलगीं, आखोंमें अंजन लगनेके कारण श्याम आँसू बहने लगे, उनसे केशरयुक्त स्तनों को भिजाती, नीचेको मुख किये अत्यन्त दुःखित हो वाणी रुकने से रुक्मिणी व्याकुल होकर चुप होगईं॥२३॥अप्रियवचन सुनने के कारण अत्यन्त दुःख और त्याग करनेकी आशंकाके शोक से बुद्धिरहित होकर रुक्मिणी व्याकुल होगईं, तब उनके हाथ से पंखा गिरगया, कंकण शिथिल हो गिरने लगे और महाव्याकुलतासे मोहित हो पवनसे गिराई हुई कदलीके समान रुक्मिणी मूच्छित हो पृथ्वीपर गिरपड़ीं और उससमय उनके केश भी खुलगये॥२४॥हास्यकी गंभीरता न जाननेवाली अपनी प्यारी रुक्मिणीका प्रेमबंधन देख करुणाकर श्रीकृष्णचन्द्र द्रवीभूत होगये॥२५॥
पदा सुजातेन नखारुणश्रिया भुवं लिखंत्यश्रुभिरंजनासितैः॥आसिंचती कुंकुमरूषितौ स्तनौ तस्थावधो मुख्यतिदुःखरुद्धवाक्॥२३॥तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात॥ देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्रंभेव वायुविहता प्रविकीर्य केशान्॥२४॥तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबंधनम्॥हास्यप्रौढि मजानंत्याः करुणः सोन्वकंपत॥२५॥पर्यंकादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः॥केशान्समुह्य तद्वक्रं प्रामृजत्प द्मपाणिना॥२६॥ प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा॥अश्लिषद्बाहुना राजन्ननन्यविषयां सतीम्॥२७॥सांत्वयामास सांत्वज्ञः कृपयाऽकृपणां प्रभुः॥हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हांसतां गतिः॥२८॥श्रीभगवानुवाच॥मा मां वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्॥त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमंगने॥२९॥
और चार भुजा धारणकर शीघ्र पलॅगसे नीचे उतर दो हाथोंसे रुक्मिणीको उठाय एक हाथसे उसके केशोंको सँभालकर, कमलके समान मुखको कोमल कमलसी भुजासे पोछने लगे॥२६॥हे परीक्षित् ! आँसू भरे नेत्र और शोकसे ताडित स्तनोंको पोंछ अनन्य आश्रय पतित्रता रुक्मिणीको भुजाओंसे आलिंगन कर॥२७॥ हंसीसे चलायमान चित्त और कठोर हॅसीके अयोग्य दीन रुक्मिणीको साधु पुरुषोंकी गति सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र समझाने लगे॥२८॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे रुक्मिणी ! तुम मुझसे ईर्षा मकरो और यह बात मैं निश्चय जानताहूं कि, मेरे अतिरिक्त तुम और किसीको नहीं जानती हो, हे सुन्दरी ! तुम क्या कहोगी, यह जाननेके लिये मैंने इसी करी थी॥२९॥
स्नेहके कोपसे फडके हैं अधर जिसमें और चलायमान अरुण कटाक्षसे टेढ़ी भ्रुकुटिवाले मुखकी शोभा देखनेके लिये हँसी करीथी॥३०॥ हे भीरु प्रिये ! अपनी प्राणप्यारीके संग हॅसी करके समय व्यतीत करना गृहस्थियोंको घरमें यही लाभ हैं॥३१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् !इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने जब शांत करी, तब रुक्मिणीने “प्यारेने मुझसे हँसी करी हैं” यह बात जानकर त्यागनेके भयको छोड दिया॥३२॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्! लाजभरी मधुर मुस्कान और शोभायमान स्निग्ध, कटाक्षोंसे सुन्दर मुख देखती हुई रुक्मिणी भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रसे कहने लगी॥३३॥ प्रथम श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा था कि, तुम हमारे समान नहीं हो, फिर हमारा हाथ क्यों पकडा ? इसके उत्तरमें रुक्मिणी
मुखं च प्रेमसंरंभस्फुरिताधरमीक्षितुम्॥ कटाक्षेपारुणापांग सुंदरभ्रुकुटीतटम्॥३०॥अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्॥ यन्नर्मैर्नीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि॥३१॥श्रीशुक उवाच॥सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसांत्विता॥ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ॥३२॥बभाषे ऋषभं पुंसां वीक्षंती भगवन्मुखम्॥सव्रीडहासरुचिरस्निग्धापांगेन भारत॥३३॥ रुक्मिण्युवाच॥ नन्वेवमेतदरविंदविलोचनाऽऽह यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः॥क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्रधीशः क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा॥३४॥सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमांतः शेते समुद्र उपलंभनमात्र आत्मा॥नित्यं कदिंद्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोंधम्॥३५॥
बोली कि, हे कमलदललोचन ! तुम्हारे समान में नहीं हूं, छः प्रकार के ऐश्वर्ययुक्त आपकी बात सत्य हैं अपनी महिमासे आप आवृत तीनों ब्रह्मादिकों के ईश्वर, आप कहाँ ? और सकाम पुरुषोंने जिसके चरण पकडे ऐसी सत्त्वगुणी तमोगुणी रूपवाली, मैं माया कहा, मुझमें और आपमें बड़ा अन्तर हैं॥३४॥ और श्रीकृष्णचन्द्र ने यह जो कहा था कि, राजाओंके डर के मारे समुद्र में आनकर रहे हैं, उसके उत्तरमें रुक्मिणी कहती हैं कि, हे उरुक्रम ! यह सत्य हैं, सत्, रज और तम यह तीन गुणही राजा हैं उनके भयसेही मानो सागरके समान अगाध विषयोंसे अक्षोभित हृदय में चैतन्यघन तुम निश्चलतासे प्रकाश करतेहो, और बलवानोंसे हमने वैर किया हैं, यह बात जो आपने कही, सो भी सत्य हैं; क्योंकि विषयमें
जिनकी इन्द्रियें लगरही हैं ऐसे पुरुषोंने तुमसे विरोध किया हैं, सो उनमें तुम्हारी अप्रीति हैं और जो श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था कि, हमको राज्याधिकार नहीं हैं उसके उत्तरमें रुक्मिणी कहती हैं कि, महा अविवेकका स्थान राज्य हैं, इसलिये तुम्हारे सेवकलोग भी उसको छोड़ देते हैं, फिर आपने छोड़ दिया तो इसमें आश्चर्यही क्या हैं ?॥३५॥श्रीकृष्णचन्द्रने यह जो कहा था कि, हमारा मार्ग जाननेमेंनहीं आता और मैं स्त्रीके वशमें नहीं हूँ इसके उत्तर में रुक्मिणीने यह कहा कि, तुम्हारे चरणारविन्दमकरन्दका सेवन करनेवाले मुनि लोगोंका आचरणभी पशुतुल्य मनुष्योंकी समझमें नहीं आता, यदि तुम्हारा मार्ग जाननेमें न आवे तो इसमें क्या आश्चर्य हैं ? क्योंकि तुम्हारे अनुवर्ती भक्तोंकी और तुम्हारी चेष्टा अलग हैं फिर इसमें आश्चर्यही क्या हैं ?॥३६॥ और निष्किंचन पुरुषोंके हम प्रिय हैं और धनवान पुरुष यह समझकर हम दरिद्री होजायेंगे, इस डरके मारे
त्वत्पादपद्ममकरंदजुषां मुनीनां वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्॥यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य भूमंस्त वेहितमथो अनु ये भवंतम्॥३६॥निष्किंचनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किंचिद्यस्मै बलिं बलिभुजोपि हरंत्य जाद्याः॥न त्वा विदंत्यसुतृपोन्तकमाढ्यतांधाः प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम्॥३७॥त्वं वै समस्त पुरुषार्थमयः फलात्मा यद्वांछया सुमतयो विसृजंति कृत्स्नम्॥तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्नः॥३८॥
हमारा भजन नहीं करते, यह वार्त्ता जो श्रीकृष्णचन्द्रने कही थी, उसके उत्तर में रुक्मिणीने कहा कि, आपसे भिन्न कुछ नहीं, इस लिये तुम निष्किचन हो, दरिद्रतारूपी निष्किंचनता तुमसे नहीं बनती है, प्रजा लोगों से भेंट लेनेवाले ब्रह्मादिक देवता आपको भेंट देते हैं और जो तुमने कहा कि, हम निष्किचनोंके प्यारे हैं और वे मुझको प्रिय हैं, सो भी सत्य है क्योंकि जिनको किंचित भी देहाभिमान नहीं है,ऐसे ब्रह्मवेत्ता और ब्रह्मादिकों को आप प्यारे हैं, वे आपके प्रिय हैं और जो आपने कहा कि, धनवान् लोग हमारा भजन नहीं करते यह बात भी सत्य है, क्योकि धन पात्रता के अभिमानसे अंधे लोग कालस्वरूप आपको नहीं जानते, इसलिये वह इन्द्रियोंको तृप्त करते हैं आपका भजन नहीं करते॥३७॥जिन का बराबरका जन्म है, उनका विवाह और मित्रता होती है यह जो श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था, सो इसके उत्तर में रुक्मिणी कहने लगी कि, हे पूर्ण
स्वरूप ! तुम सम्पूर्ण पुरुषार्थ और परमानन्दरूप हो सुन्दर बुद्धिवाले मनुष्य तुम्हारी प्राप्ति के लिये सब वस्तु त्याग देते हैं, प्रभो ! उन पुरुषोंका और तुम्हारा सेव्यसेवकभाव है, सुख दुःखसे व्याकुल और परस्पर प्रीतिकी ग्रंथि बाँधेहुए पामर स्त्री पुरुषोंको योग्य नहीं॥३८॥और भिक्षुकोंने झूठी बडाई करी है, यह जो श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा था, उसके उत्तरमें रुक्मिणीने कहा कि, सबको अभयदान देकर संन्यासी और मुनिजन आपकी सराहना करते हैं और यह जो आपने कहा कि, तुमने विनाजाने हमें वरा, सो यह ऐसे नहीं है, क्योंकि आपको जिसके लिये सब वस्तु प्रियलगती हैं, उस जगत्के आत्मारूप और अपना स्वरूप देनेवाले आप हो, इसलिये आपको वरा और भूलकर वरा, यह भी आपका कथन ठीक नहीं औरोकी तो बातही क्या हैं ? ब्रह्मा और इन्द्रादिक देवताओंको भी कि, जिनका आपकी भृकुटिसे प्रेरित कालके वेगसे सुखका नाश होता हैं, यह
त्वं न्यस्तदंडमुनिभिर्गदितानुभाव आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि॥हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकाल वेगध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये॥३९॥जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्॥सिंहो यथा स्वबलिमीश पशुन्स्वभागं तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः॥४०॥यद्वांछया नृप शिखामणयोंग वैन्यजायंतनाहुषगयादय ऐकपत्यम्॥ राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमंबुजाक्ष सीदंति तेऽनु पदवीं त इहास्थिताः किम्॥४१॥
विचार उन्हें छोड़ मैंने आपको वरण किया, इस कारण जो आपने मुझपर अविचारताका दोष लगाया, सो ठीक नहीं॥३९॥ हे राजा परीक्षित ! अपने अज्ञानको दूर करके और पुरुषोंकी बड़ाईसे क्रोधित हो श्रीकृष्णचन्द्रसे रुक्मिणी कहनेलगी कि, हे गदाग्रज ! तुमने शार्ङ्ग धनुषके शब्दसे जरासन्धादि राजाओंको भगाकर जिसप्रकार सिंह पशुओंको भगाकर अपना बलि लाते हैं, उसीप्रकार आप अपना भागरूप मुझे ले आये इसलिये तिन राजाओंसे डरकर हम समुद्र में आनकर रहे हैं, यह भी आपका कहना नहीं बनता॥४०॥ आपने कहा कि, जो हमारे चरणोंमें पडते हैं वह दुःख पाते हैं, सो भी नहीं बनता, हे कमलदललोचन!तुम्हारे भजनकी इच्छासे राजाओंके मुकुटमणि राजा अंग, पृथु, भरत, ययाति
और गय आदि चक्रवर्ती राजा राज्यको त्यागन कर वनको चलेगये, तुम्हारा भजन करनेवाले राजाओं को कहाँ दुःख हुआ हैं ? किन्तु सुखही हुआ और वैकुण्ठ धामकी प्राप्ति हुई हैं॥४१॥और श्रीकृष्णचन्द्रने यह जो कहा था कि, समान क्षत्रियका अब भी हाथ पकड़ लो, इसके उत्तरमें रुक्मिणी कहती हैं कि, साधुओंसे वर्णित जनोंको मोक्षका देनेवाला और लक्ष्मी जिसका सेवन करे, ऐसे गुणोंकी खानि तुम्हारे चरणारविन्दको सुँघकर फिर त्यागसकै मरणधर्मिणी कौन विवेकिनी स्त्री हैं, जो सदा मृत्युसे डरनेवाले पुरुषकी सेवा करेगी ? इसीलिये मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा हैं॥४२॥ हे जगदीश्वर ! आत्मारूप भजन करनेवालोंको इस लोक और परलोकमें कामनाओंके पूर्ण करनेवाले अपने योग्य तुम्हाराही मैंने सेवन किया हैं, चाहे अनेक प्रकारकी योनियो में मेरा जन्म होय परन्तु उन जन्मोंमें भी मिथ्या संसारके भयका नाश करनेवाले और भक्तोंको अप
काऽन्यं श्रयेत तव पादसरोजगंधमाघ्राय सन्मुखरितं जनताऽपवर्गम्॥लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य मर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टिः॥४२॥तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशमात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्॥स्यान्मेतवांघ्रिररणं श्रुतिभिर्भ्रमंत्या यो वै भजंतमुपयात्यनृतापवर्गः॥४३॥तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वबिडालभृत्याः॥यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्युष्मत्कथा मृडविरिंचसभासु गीता॥४४॥त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमंतर्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्॥जीवच्छवं भजति कांतमतिर्विमूढा या ते पदाब्जमकरंदमजिघ्रती स्त्री॥४५॥
नानेवाले तुम्हारे चरणोंकी शरण मुझे प्राप्तदो, यही मेरी प्रार्थना हैं॥४३॥ हे शत्रुदमन ! हे अखण्डरूप ! आपने कहा कि, बड़े बड़े वैभववाले राजा आपकी इच्छा करतेथे सो उन्हें किसलिये छोड़ दिया, यह आपका कहना असंगत हैं, क्योंकि आपने जो राजा बताये हैं। वह कैसे हैं कि, जो स्त्रियोंके गृहों में गधेके समान केवल भार उठानेवाले, बैलके तुल्य सर्वदा क्लेश उठानेवाले, श्वानकी नाई अपमानपानेवाले, बिड़ालके समान कृपण और क्रूर और सेवककी भाँति पराधीन हैं, वह तो उस मंदभागिनी स्त्रीको पतिमिलने चाहिये कि जिसके कानमें शंकर और ब्रह्माजीकी सभाओं में गांईजाती आपकी कथा न आई हो, अर्थात् जिसने तुम्हारे गुण न सुने हो, वह तो कदाचित् भूल जाय, परन्तु मैंने तो प्रथमदी आपके गुणानुवाद सुन लियेथे॥४४॥ और जिस स्त्रीने तुम्हारे चरणारविंदकी सुगंधि नहीं
मूँघी है वह स्त्री जीवितही मृतक पुरुषको पति मानकर भजै जो, कि, बाहर तो चर्म, रोम, नख और केश इनसे ढका है और भीतर मांस, हाड, रुधिर, कीडे, विष्ठा, कफ और वात पित्तसे भरा हैं उसे अपना पति मानकर कौन सेवन करें ?॥४५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, हम घर और देहमें उदासीन हैं, रुक्मिणीने कहा कि, हे कमलदललोचन ! तुम अपने स्वरूपमें रमण करतेहो और मुझमें आसक्त नहीं हैं, दृष्टि जिनकी अर्थात् मेरी चाहना नहींहैं, तौभी तुम्हारे चरणारविन्दोंमें मेरा स्नेह हो, तब श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, स्नेह होनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा ? इसके उत्तर में रुक्मिणीजी ने कहा कि, तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अनुराग होनाही बडा लाभ हैं, और जिससमय इस विश्वको बढ़ानेके लिये गुणको ग्रहणकर मुझ मायाकी ओर देखोगे, वही बड़ा अनुग्रह हैं॥४६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित ! इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो
अस्त्वबुंजाक्ष मम ते चरणानुराग आत्मन्रतस्य मयि चानतिरक्तदृष्टेः॥ यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो मामीक्षसे तदु ह नः परमाऽनुकंपा॥४६॥नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन॥ अंवाया इव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित्॥४७॥व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवंनवम्॥बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः॥४८॥श्रीभगवानुवाच॥ साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्रि प्रलंभिता॥मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि॥४९॥यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि॥ संति ह्येकांतभक्तायास्तव कल्याणि नित्यदा॥५०॥
बातें कही, इन सबका यथायोग्य उत्तर देकर रुक्मिणी बोली कि, हे मधुसूदन ! “आपने कहा कि, अपने समान क्षत्रियका अब भी हाथ पकड़लो" यह मैं झूंठ नहीं मानती, जैसे काशीके राजाकी पुत्री अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका इन तीनों कन्याओंमेंसे अम्बा कन्याकी शाल्वराजासे जैसी प्रीति हुई, उसी प्रकार मेरी प्रीति आपमें हुई हैं॥४७॥ और हे अच्युत !विवाहिता व्यभिचारिणी स्त्रीके मन नवीन पुरुषोंमें जाते हैं, ऐसी बहुत कथा हैं, विवेकी पुरुष इस प्रकारकी खोटी स्त्रियों को अपने घरमें नहीं रखते हैं, यदि रक्खें भी तो इस लोक और परलोकसे भ्रष्ट होजायें॥४८॥श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे रुक्मिणी ! तुम्हारी बात सुननेके लिये मैंने ऐसी ऐसी बातें कही थीं और मेरे वचनका जो जो उत्तर तुमने दिया सो सब सत्य हैं॥४९॥ हे भामिनी ! हे मंगलरूपिणि ! जिस जिस वस्तुकी तुम चाहना करती हो, सो सो मुझमें एकान्त भक्ति होने से तुमको प्राप्तीही हैं हे
कल्याणी! मुक्तिपर्यन्त तुम्हारे सब मनोरथ प्राप्त होंगे॥५०॥ हे निष्कलंक रुक्मिणी ! तुम्हारा पतिपर प्रेम और पतिव्रतापन हमने भलीप्रकार जानलिया, क्योंकि हमने यद्यपि वचन कहकर तुमको चलायमानभी किया, परन्तु तोभी तुम्हारी बुद्धि मुझसे चलायमान न हुई॥५१॥विषयोंमें आत्मा और मन लगाये जो पुरुष तपस्या और ब्रह्मचर्य करके स्त्री पुरुष भोगार्थ सुखके लिये मेरा भजन करते हैं, वह मेरी मायासेमोहित होकर भूलरहेहैं॥५२॥ हे भामिनी ! मोक्षसहित सम्पूर्ण सम्पत्तियोंका दाता मुझे पाकर भी जो विषयोंकी चाहना करते हैं, और मेरी चाहना नहीं करते, वह पुरुष अभागी हैं, क्योंकि विषयोंका सुख तो कुत्ते और शुकरोंकी योनिमें भी मिलजाता हैं, विषयोंमें मन रहनेसे नरक
उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे॥ यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता॥५१॥ये मां भजंति दांपत्ये तपसा व्रतचर्यया॥कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया॥५२॥मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसंपदं वांछंति ये संपद एव तत्पतिम्॥ ते मंदभाग्या निरयेऽपि ये नृणां मात्रात्मकत्वान्निरयः सुसंगमः॥५३॥दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः॥सुदुष्कराऽसौ सुतरां दुराशिषो ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः॥५४॥न त्वादृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले॥प्राप्तान्नृपानविगणय्य रहोहरो मे प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य॥५५॥भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्॥दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते॥५६॥
होताहैं॥५३॥ हे घरकी महारानी ! संसारको छुडानेवाली चाहना रहित मनकी वृत्ति तेंने मुझमें लगाई, यह भली बात हैं, खोटे अभिप्राय और अपने प्राणोंका भरण पोषण कर औरको ठगनेवाली स्त्रीके मनकी वृत्ति मुझमें नहीं लगती हैं॥५४॥ हे प्राणेश्वरी ! सोलह हजार एकसौ आठ महलोंमें तुम्हारे समान प्यार करनेवाली मैं और स्त्री नहीं देखता, क्योंकि विवाहके समय आयेहुये राजाओंको त्यागकर मेरी ओर देख पाती लिखकर मेरे पास ब्राह्मणको भेजा॥५५॥युद्धमें तुम्हारे भाईको जीत उसका शिर मुँडकर विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाह में चौषड़ खेलते खेलते उसे मारडाला, यह भाईका दुःख हमारे त्यागनेके भयसे तुमने सहज करलिया और मुझसे कुछ न कहा, ऐसी
तुम्हारी बातोंने हमको वश करलिया हैं॥५६॥ हे प्राणवल्लभे! मेरे बुलानेके लिये सबसे छिपाकर दूतको मेरे पास भेजा और जब मुझे आनेमें विलम्ब हुआ तब इस विश्वको शून्य माँनकर “और राजा मेरे योग्य नहीं हैं” यह निश्चय कर शरीर त्यागनेकी इच्छा करने लगी, यह बात तुम्हारे अतिरिक्त और किससे होसक्तीहैं, हम तुम्हारी क्या प्रशंसा करें ?॥५७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित् ! इस प्रकार जगत् के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मनुष्यलोककी लीलाका अनुकरण कर हास्यकी बातें करकेरुक्मिणी आदि रानियोंके साथ रमण करते थे॥५८॥सामर्थ्यवान् सम्पूर्ण लोकोंके गुरु सबका दुःख हरनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र इसीप्रकार और रानियोंके महलोंमें भी रहकर
दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमंत्रः प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्॥मत्वा जिहास इदमंगमनन्ययोग्यं तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनंदयामः॥५७॥श्रीशुक उवाच॥एवं सौरतसंलापैर्भगवाञ्जगदीश्वरः॥स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडंबयन्॥५८॥तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव॥आस्थितो गृहमेधीयान्धर्माँल्लोकगुरुर्हरिः॥५९॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥श्रीशुक उवाच॥एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान्दशदशाबलाः॥अजीजनन्ननवमात्पितुः सर्वात्मसंपदा॥१॥गृहा दनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्॥प्रेष्ठं न्यमंसत स्वंस्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः॥२॥चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्रसप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्यैः॥ संमोहिता भगवतो न मनो विजेतुं स्वैर्विभ्रमैःसमशकन्वनिता विभूम्नः॥३॥
गृहस्थाश्रमसा धर्म सिखाते थे॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भाषाटीकायां रुक्मिणीसंवादोनाम षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥ दोहा— इकसठमें परिवार हरी, वरणौं सब सन्तान। विवाहमें अनिरुद्धके, हनो रुक्म बलवान्॥६१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् !भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी एक एक रानीने श्रीकृष्णचन्द्र केही समान रूप, गुणवाले दश दश पुत्र उत्पन्न किये॥१॥ घरसे कहीं बाहर न जायँ अपने पास ही रहैं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर राजाओंकी पुत्री “श्रीकृष्ण आत्माराम हैं"इस बातको न जान अपना अपना प्यारा मानने लगीं॥२॥ व्यापक श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्ने कमलकोशके समान सुकुमार मुख, बड़ी भुजा, वडे
नेत्र और प्रेमसहित मन्द मुसकान, रसभरी चितवन, मनोहर वाणी इत्यादिकोंसे मोहित होकर जो स्त्री अपने अपने अनेक विलासोंसे पूर्णब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्रका मन मोहित करनेको समर्थ नहीं हुई॥३॥ गूढ हास्ययुक्त कटाक्षसे जताये अभिप्रायसे मनके हरनेवाले भ्रुकुटीरूप मण्डलप्रेरित जो सुरत सम्बन्धी विचार उनमें प्रगल्भ जो मन्मथ (कामदेव) के बाण और दूसरे भी कामशास्त्रमें प्रसिद्ध जो उपाय, उनसे यह सोलह हजार एक सौ आठ स्त्रियें भी भगवान् वासुदेवका मन वश करनेको समर्थ न हुईं॥४॥ब्रह्मादिक देवता भी जिनके मार्गको नहीं जानते, ऐसेलक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको इसप्रकार पति पाकर यह स्त्रियें निरन्तर बडे आनन्दसे स्नेहभरी हँसनि, चितवन और हास्य चितवनपूर्वक नवीन संगम उन नवीन संगममें बोलना इत्यादि विलाससमूहोंका सेवन करतीथीं॥५॥यद्यपि एक एक रानीके सन्मुख सौ सौ दासी हाथ
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारिभ्रूमंडलप्रहितसौरतमंत्रशौंडैः॥पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनंगवाणैर्यस्येन्द्रियं विमथि तुं करणैर्न शेकुः॥४॥इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्॥भेजुर्मुदाऽविरतमेधि तयाऽनुरागहासावलोकनवसंगमलालसाद्यम्॥५॥प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौचतांबूलविश्रमणवीजनगंधमाल्यैः॥केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैर्दासीशता अपि विभोर्विदधु स्म दास्यम्॥६॥ तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः॥अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्गृणामि ते॥७॥चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्॥ सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः॥८॥ चारुचंद्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः॥प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः॥९॥
जोड़े खड़ी रहती थीं, परन्तु तोभी सम्मुख जाकर लिवालाना, आसन बिछाना, पूजन करना, चरण धोना, बीरा लगाना, चरण दाबना, पंखा करना, अंतर लगाना, पुष्प चढ़ाना, केश सुधारना, शय्या बिछाना, स्नान कराना और भेंट देना इत्यादि यह श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवा आपही करती थीं॥६॥हे राजन् ! दश दश पुत्रोंवाली श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियें थीं, उनमें आठ पटरानी प्रथम वर्णन कर आये हैं उनके प्रद्युम्नादि पुत्रोंके नाम तुमसे वर्णन करता हूं॥७॥यथा— प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण बलवान् चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त,भद्वचारु॥८॥ चारुचन्द्र, विचारुऔर चारु, यह दश पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रके रुक्मिणीसे उत्पन्न हुए॥९॥
भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, रतिभानु॥१०॥ श्रीभानु और प्रतिभानु, यह दश पुत्र सत्यभामाने उत्पन्न किये और साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्॥११॥ विजय, चित्रकेतुवसुमान्, द्रविड़ और क्रतु, यह साम्बसे आदि लेकर श्रीकृष्णचन्द्रके समान गुणवाले दश पुत्र जाम्बवतीके उत्पन्न हुए॥१२॥ और वीर,चन्द्र, अश्वसेन, चित्र, वेगनान, वृष, आम, शंकु, शोभायमान वसुऔर कुंति यह दश नाग्नजितीके पुत्र उत्पन्न हुए ॥१३॥ श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और इन सबसे छोटा सोमकयद दश पुत्र कालिन्दीके हुए॥१४॥ प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपरीजित इन दश पुत्रोंने
भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा॥चंद्रभानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः॥१०॥श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्य भामात्मजा दश॥ सांबः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित्॥११॥ विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविडः क्रतुः॥ जांबवत्याः सुता ह्येते सांबाद्याः पितृसंमताः॥१२॥वीरश्चंद्रोऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान्वृषः॥ आमः शंकुर्वसुः श्रीमान्कुंतिर्नाग्नजितेः सुताः॥१३॥श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः॥ शांतिर्दर्शः पूर्णमासः कालिंद्याः सोमकोऽवरः॥१४॥प्रघोषो गात्रवान्सिंहो वलः प्रवल ऊर्ध्वगः॥ माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः॥१५॥ वृको हर्षोऽनिलो गृध्रोवर्धनोन्नाद एव च॥ महाशः पावनो वह्निर्मित्रविदात्मजाः क्षुधिः॥१६॥ संग्रामजिद् बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्॥ जयः सुभद्रोभद्राया वाम आयुश्च सत्यकः॥१७॥दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनयाहरेः॥ प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः॥१८॥
लक्ष्मणासे जन्मग्रहण किया॥१५॥ वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्द्धन, उन्नाद, महाश, पवन, वह्नि और क्षुधि, यह दश पुत्र मित्रविन्दासे जन्मे॥१६॥ संग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यकयह दश पुत्र भद्रा नाम रानीसे उत्पन्न हुए,॥१७॥ हे नृपोत्तम परीक्षित् ! यह भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकी आठ रानियोंके पुत्रोंका वर्णन किया अब बलदेवजीकी रानी रेवतीके दीप्तिमान् ताम्रतप्तादि पुत्र उत्पन्न हुएभोजकटपुरवासी रुक्मकी पुत्री रुक्मवतीमें प्रद्युम्नजीसे महाबलवान् अनिरुद्धनाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥१८॥
हे परीक्षित् ! यह जो श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र और उनके पुत्र और नाती करोड़ों हुए और श्रीकृष्णचन्द्रसे उत्पन्नहुए पुत्रोंकी सोलह हजार माता हुई॥१९॥ राजा परीक्षित्ने कहा कि, हे भगवन् ! रुक्मीने अपने वैरीके पुत्रको अपनी कन्या कैसे व्याही ? वह तो युद्धमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे पराजित होकर उनके मारनेका उपाय देख रहा था, हे विद्वन् ! इन दोनों शत्रुओंके बीचमें विवाहका सम्बन्ध कैसे हुआ ? यह विस्तार सहित हमारे आगे वर्णन कीजिये॥२०॥ कदाचित् आप कहैं कि, हम इस बातको क्या जानें इसका उत्तर यह हैं कि, योगीश्वर तो भूत, भविष्य, वर्त्तमान, इंद्रियोंसे अगम्य दूर अथवा किसीके ओटमें हो उसे भी भलीप्रकार जानते हैं॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत
पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे॥ एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप॥ मातरः कृष्णजातानां सहस्राणि च षोडश॥१९॥राजोवाच॥ कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद्दुहितरं युधि॥ कृष्णेन परिभूतस्तं हंतुं रंध्रं प्रतीक्षते॥२०॥एतदाख्याहि मे विद्वन्द्विषोर्वैवाहिकं मिथः॥अनागतमतीतं च वर्तमानमतींद्रियम्॥विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक् पश्यंति योगिनः॥२१॥श्रीशुक उवाच॥वृतः स्वयंवरे साक्षादनंगोंगयुतस्तया॥राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि॥२२॥यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः॥व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम्॥२२॥रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली॥उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल॥२४॥दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्यददाद्धरेः॥रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया॥ जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबंधनः॥२५॥
परीक्षि ! रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीने साक्षात् मूर्त्तिमान् कामदेवका अवतार प्रद्युम्नको स्वयंवरमें वरलिया, तो वह युद्धमें इकट्ठे हुए राजाओंको एकही रथमें जीत उसे हरण करके लेगये॥२२॥ यद्यपि रुक्मी श्रीकृष्णचन्द्रके तिरस्कारका वैर स्मरण रखता था परन्तु तो भी बहन को प्रसन्न करनेके लिये भानजेको अपनी कन्या दी॥२३॥ हे महाराज परीक्षित् ! सुन्दरबुद्धि, विशालनेत्रवाली रुक्मिणीकी चारुमती पुत्रीका बलवान् कृतवर्माके पुत्रने पाणिग्रहण किया॥२४॥ यद्यपि रुक्मी वैर बांधरहा था परन्तु तोभी अपनी बहनको राजी करनेके लिये श्रीकृष्णके
नाती अपने दौहिते अनिरुद्धको अपनी पोती रोचना नामक कन्या दी, शत्रुके साथ सम्बन्ध करना अयोग्य हैं, इस बातको स्वयं रुक्मी जानता था परन्तु स्नेहके पाशसे बँधकर विवाह करदिया *॥२५॥हे राजा परीक्षित् ! उस अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें रुक्मिणी, श्रीकृष्ण, बलदेव और साम्ब प्रद्युम्नको आदि लेकर सब यादव भोजकटपुरको बरातमें गये॥२६॥ जब विवाह होचुका, तब कलिंगदेशके राजाको आदिले घमंडी राजा
तस्मिन्नभ्युदये राजन् रुक्मिणी रामकेशवौ॥पुरं भोजकटं जग्मुः सांबप्रद्युम्नकादयः॥२६॥तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिंगप्रमुखाः नृपाः॥दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय॥२७॥अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्॥इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षै रुक्म्यदीव्यत॥२८॥शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्॥तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिंगः प्राहसद्बलम्॥दंतान्संदर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः॥२९॥
रुक्मीसे कहनेलगे कि, हे रुक्मी ! बलदेवजीको जुएमें जीतली॥२७॥ हे राजा रुक्मी ! यह बलदेव पॉसेका खेल नहीं जानता, परन्तु इनको खेलनेका व्यसन बड़ा हैं, यह सुन्तेही रुक्मी बलदेवजीको बुलाय उनके संग जुआ खेलनेलगा॥२८॥बलरामजीने वहॉ प्रथम सौ, फिर हजार, इसके पीछे दशहजार रुपयेका दाँव लगाया, परन्तु वह दॉव रुक्मीही धाँधलबाजी करके जीतगया उस समय कलिंगदेशका राजा दॉत दिखाकर
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* शंका— भागवतमें लिखा हैं कि, राजा रुक्मी जानता था कि, फूफीकी लडकीके साथ विवाह करनेका तथा मामाकी लडकीके साथ विवाह करनेका महादोप हैं, इस धर्मको विना जाने जो विवाह करेगा तो पाप होगा और जो जानबूझके करेगा तो उसको महापाप होगा, फिर जानबूझकर अपने पुत्रकी लडकीको अनिरुद्ध के सग क्यों विवाहदी ? क्योंकि वह कन्या अनिरुद्ध के मामाकी थी और जो कोई कहे कि, रुक्मोने, श्रीकृष्णचन्द्रजीके स्नेह करके भी अधर्मरूप कन्यादान किया हैं तोभी यह बात ठीक हैं, परन्तु जिस स्नेहसे ससार में निन्दा होय और मृत्यु होनेके पीछे प्राणीको रौरवनरकमें जाना पडे, ऐसे स्नेहकी मुनिलोग प्रशंसा नहीं करते।
उत्तर— राजा रुक्मीने विचार किया कि, जो में अपने लडकेकी लडकी को श्रीकृष्णके पोतेको विवाह दूगा तो श्रीकृष्ण मेरे ऊपर बहुत प्रसन्न होवेंगे, ऐसा विचारके अपने ऊपर श्रीकृष्णका स्नेह समझकर अधर्मरूप विवाह किया और लोककी निन्दा और नरककी त्रास दोनोंको त्यागकर अपनी पोतीका विवाह श्रीकृष्णके पोतेके सग करदिया, राजा रुक्मीने विचार किया कि, जो मेरे ऊपर कृष्ण प्रसन्न रहेंगे तब लोकमें मेरी निन्दा कौन कर सक्ता हैं ? और नरकमें भी कृष्णके सामने मुझे कौन ढाल सक्ता हैं। ऐसा विचारके रुक्मीने अधर्मरूप विवाह किया था॥
बलदेवजीकी बहुत हँसी करके कहने लगा कि, रे ! जुँवाका खेल और पाशोंकी सार तुम गॅवार क्या जानोगे, क्योंकि, जुँवा खेलना और युद्ध करना तो राजाओं का काम है तुम गोपग्वाल तो गौवोंको पहचानते हो ऐसे सुन तब बलरामजी उस हँसीको सहन न करसके॥२९॥ इसके उपरान्त रुक्मीने एक लाख मोहरोंका दाव लगाया, उसे बलदेवजी जीते, परन्तु उस समय कपट करके “मैंने जीता” इस प्रकार रुक्मी कहने लगा॥३०॥जिस प्रकार अमावस व पूर्णमासीको समुद्र क्षोभयुक्त होता है, उसी प्रकार श्रीमान् बलदेवजी अत्यन्त क्रोधसे क्षुभित होगये और स्वभावही से जिनके अरुण नेत्र हैं ऐसे बलरामजीने अति क्रोधकर दश करोड़का दाँव लगादिया॥३१॥और वास्तवमें बलदेवजी वह दाँव जीत गये तब फिर रुक्मीने कपट करके कहा कि मैं जीता हूं, इस विषयमें यह जो सभासद उपस्थित हैं, इनसे बूझलो
ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद् ग्लहं तत्राजयद्बलः॥जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः॥३०॥मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि॥जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे॥३१॥तं चापि जितवान्रामोधर्मेण च्छलमा श्रितः॥रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति॥३२॥तदाऽब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः॥ धर्मता वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा॥३३॥तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः॥ संकर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः॥३४॥नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः॥अक्षैर्दीव्यंति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः॥३५॥रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः॥क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि॥३६॥कलिंगराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे॥ दंतानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः॥३७॥
इस प्रकार बलदेवजी और रुक्मीका विवाद हो रहा था कि, इतनेहीमें आकाशवाणी हुई कि बलदेवजी जीते हैं और रुक्मीका वचन मिथ्या है॥३२॥३३॥उस समय आकाशवाणीका निरादर करके दुष्ट राजाओंका सिखाया रुक्मी, महात्मा बलदेवजीकी हँसी करता कालसेप्रेरित होकर यह वचन कहने लगा कि,॥३४॥गौओंके चरानेवाले तुम पॉसे खेलना नहीं जानते, पॉसोंसे और बाणोंसे तो राजालोग खेलते हैं, आपसरीखे पॉसे खेलना क्या जाने ?॥३५॥हे परीक्षित् ! जब इस प्रकार रुक्मीने अनादर और राजाओ ने हँसी करी, तब महाबलवान् बलरामजीने अत्यन्त क्रोधित हो, परिघ उठाय मंगल सभामें रुक्मीका संहार किया और कहा॥३६॥ हे राजन्!जब बलरामजीने सब राजोंके देखते
रुक्मीको मारडाला उस समय कलिंगदेशका राजा अत्यन्त भयभीत होकर भागा, तब झुझलाकर बलरामजीने उसे दशही पगपर पकड लिया और जौनसे दॉत फाडकर वह हँसा था, वह दाँत तोड़दिये॥३७॥ और राजा भी बलदेवजीके परिघसे पीड़ित हो, डरकर भागगये, जिनके हाथ, जंघा और शिर टूट गये थे और रुधिरसे उनका शरीर भीज रहा था॥३८॥ हे परीक्षित् ! जब श्रीकृष्णका साला रुक्मी मारागया, उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने न तो अच्छा कहा, न वुरा कहा क्योंकि, जो अच्छा कहते, तो रुक्मिणी अप्रसन्न होती और वुरा कहते, तो बलदेवजी अत्यन्त बुरा मानते, इसलिये कुछ न कहा चुप चाप रहे॥३९॥ इसके उपरान्त दुलहिनके साथ अनिरुद्धजीको रथमें बिठाय बलरामादि सब यादव भग
अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिताः॥राजानो दुद्रुवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः॥३८॥ निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा॥ रुक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभंगभयाद्धरिः॥३९॥ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्॥रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः॥४०॥इति श्रीमद्भा० महापु० दशमस्कंधे उत्त० अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥राजोवाच॥बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तमः॥तत्र युद्धमभूद्धोरं हरिशंकरयोर्महत्॥ एतत्सर्वं महायोगिन्समाख्यातुं त्व मर्हसि॥१॥ श्रीशुक उवाच॥बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः॥येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी॥२॥
वान् श्रीकृष्णचन्द्रका आश्रय पाय सब मनोरथ सिद्धकर भोजकटपुरसे चल द्वारकापुरीमें आये॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे भाषाटीकायामनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥ दोहा— बासठवें अध्यायमें, बाणासुर बलवान्। बाँधिलियो अनिरुद्धको, सो सब कहौ बखान॥६२॥ राजा परीक्षित् पूँछनेलगे कि, हे योगिन ! बाणासुरकी पुत्री ऊषाने अनिरुद्धके साथ विवाह किया, इसमें श्रीकृष्णका और महादेवजीका बडा युद्ध हुआ उस कथाको कहिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् ! भगवान् विष्णुने जब वाम
नरूप धारण करके राजा बलिसे पृथ्वी माँगी तब सब पृथ्वी जिनने दान करदी॥२॥ऐसे महात्मा राजा बलिके सौ पुत्र उत्पन्न हुए उनमें ज्येष्ठपुत्र भगवान् महादेवजीका अत्यन्त भक्त सबका मान्य, ज्ञानवान् बुद्धिवान्, सत्यसंकल्प, दृढव्रत, बाणासुर नामसे प्रसिद्ध था॥३॥और शोणितनाम रमणीकपुरमें राज्य करता था उस बाणासुरके सन्मुख भगवान्, महादेवजीकी कृपासे संपूर्ण देवता सेवकोंकी भाँति खड़े रहते थे, एक समय तांडव नृत्यमें हजार भुजाओंसे बाजे बजाय भोलानाथको बाणासुरने प्रसन्न किया, तब सब प्राणियोंके ईश्वर भक्तवत्सल भगवान् महादेवजी बाणासुर को वर देने की इच्छा करने लगे, तब शिवजीसे “मेरे पुरकी तुम रक्षा करो” यह बाणासुरने वर माँगा॥४॥५॥पराक्रमके दुर्म
तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तिरतः सदा॥मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसंधो दृढव्रतः॥३॥शोणिताख्यपुरे रम्ये सराज्यमकरोत्पुरा॥तस्य शंभोः प्रसादेन किंकरा इव तेऽमराः॥सहस्रबाहुर्वाद्येन तांडवेऽतोषयन्मृडम्॥४॥भगवान्सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः॥वरेण छंदयामास स तं वव्रे पुराधिपम्॥५॥स एकदाह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः॥किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदांबुजम्॥६॥ नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम्॥पुंसामपूर्ण कामानां कामपूरामरांघ्रिपम्॥७॥ दोस्सहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत्॥त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम्॥८॥कंडूत्यानिभृतैर्दोर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम्॥आद्याऽयां चूर्णयन्नद्रीन्भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः॥९॥
दसे बाणासुर अपने पास रहनेवाले शिवजीके चरणारविन्दोंको सूर्यके तेजके समान किरीटसे स्पर्श करके एक समय कहने लगा॥६॥कि, हे सब लोकोंके गुरु महादेव ! जिनके मनोरथ पूर्ण नहीं हुए हैं, तुम उन पुरुषोके मनोरथ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्ष हो इसलिये आपको नमस्कार हैं॥७॥ और हे देव ! आपने जो कृपाकरके हजार भुजा मुझे दीं, सो उनका अवतक केवल बोझही हुआ हैं, इसलिये त्रिलोकीमें तुम्हारे विना और कोई मुझे बराबरका युद्ध करनेवाला नहीं मिलता॥८॥हे आदिपुरुष ! जब मेरी भुजाओंमें बहुत खुजली उठी, तब मैं युद्ध करनेके लिये पर्व तोंको तोडता फोडता दिग्गजोंके पास गया, परन्तु वह भी मेरे भयसे भीत दो दिशाओंको छोड़कर भागगये, इस कारण कृपा करकेआप
मुझसे युद्धकर मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये॥९॥ हे राजन् ! इस प्रकार बाणासुरका वचन सुन भगवान् महादेवजी अत्यन्त क्रोधित होकर कहनेलगे कि, मूढ ! जिस समय मेरी दीहुई ध्वजा तेरे महलपरसे टूटकर गिरपडेगी, उस समय तेरी बराबरीके बलवान्से तेरा युद्ध होगा, और तेरा गर्व भी उसी समय चूर्ण होजायगा॥१०॥ हे परीक्षित् ! जब भगवान् भूतनाथ महादेवजीने इस प्रकार कहा, तब कुबुद्धि बाणासुर शिर नवाय अपने घरको चलागया और अपने बल, बुद्धि पराक्रमके नाश करनेवाली महादेवजीकी आज्ञाका पैंडा देखने लगा॥११॥ हे राजन् ! इस बाणासुरके एक ऊषानामक कन्या थी उसका पहले कभी जिसको न देखा और न कभी सुना ऐसे सुन्दर अनिरुद्धके साथ स्वप्नमें
तच्छ्रुत्वा भगवान्क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा॥त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते॥१०॥ इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप॥प्रतीक्षन्गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः॥११॥तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम्॥ कन्याऽलभत कांतेन प्रागदृष्टश्रुतेन च॥१२॥सा तत्र तमपश्यंती क्वासि कांतेति वादिनी॥सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम्॥१३॥बाणस्य मंत्री कुंभांडश्चित्रलेखा च तत्सुता॥सख्यपृच्छत्सखीमूषां कौतूहलसमन्विता॥१४॥कं त्वं मृगयसे सुभ्रूः कीदृशस्ते मनोरथः॥हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये॥१५॥ऊषोवाच॥दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः॥पीतवासा बृहद्बाहुर्योषितां हृदयंगमः॥१६॥
समागम हुआ॥१२॥इसके उपरान्त जागनेपर वहाँ अनिरुद्धको न देख अत्यन्त लज्जित हो, हे कंत ! तुम कहाँ गये?इसप्रकार पुकारती पुकारती विह्वल होकर सखियों के बीच में गिरपड़ी॥१३॥तब बाणासुरके मंत्री कुंभाण्डकी पुत्री चित्ररेखा आश्चर्य मानकर अपनी प्रिय तेरा सखी ऊषा से पूछनेलगी॥१४॥कि, हे सुभ्र !हे प्यारी ऊषा ! तू किसे ढूँढ़ती हैं और तेरा क्या मनोरथ हैं ! हे राजकुमारि ! अभी विवाद भी नहीं हुआ हैं, फिर किस प्रकार पति पुकारती फिरती हैं ?॥१५॥इस प्रकार चित्ररेखाका वचन सुनकर ऊषा बोली कि, श्याम
स्वरूप, कमलके समान नेत्र पीताम्बर धारण किये, बडी भुजा और स्त्रियोंके मनको मोहित करनेवाला ऐसा पुरुष मैंने स्वप्नमें देखाहैं॥१६॥मैं उसी प्रीतमको ढूँढ़ रही हूँ, वह मुझे अधरामृत पिलाय मुझ अभिलाषिणीको दुःखके समुद्रमें पटककर कहीं चला गया॥१७॥यह वचन सुनकर चित्ररेखा बोली कि, हे ऊषा! तेरा दुःख में दूर करूंगी, जिस पुरुषने तेरा चित्त चुराया हैं, यदि वह त्रिलोकीमें कहीं होगा तो ढूँढ़कर ले आऊँगी, परन्तु उसे बता दे॥१८॥इसके उपरान्त चित्ररेखा देवता, गंधर्व, सिद्ध, चारण और पन्नग इनके चित्र लिखकर फिर दैत्य, विद्याधर, यक्ष, मनुष्य इन सबके चित्र लिखनेलगी॥१९॥मनुष्योंमें भी वृष्णि और वृष्णिमें भी शूरसेन, वसुदेव, राम, कृष्ण और
तमहं मृगये कांतं पाययित्वाऽधरं मधु॥क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे॥१७॥चित्रलेखोवाच॥व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते॥तमानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश॥१८॥इत्युक्त्वा देवगंधर्व सिद्धचारणपन्नगान्॥दैत्यविद्याधरान्यक्षान्मनुजांश्च यथाऽलिखत्॥१९॥ मनुजेषु च सा वृष्णीञ्शूरमानकदुंदुभिम्॥ व्यलिखद्रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता॥२०॥अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषाऽवाङ्मुखी ह्रिया॥सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते॥२१॥चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी॥ययौ विहायसा राजन्द्वारकां कृष्णपालिताम्॥२२॥तत्र सुप्तं सुपर्यंके प्राद्युम्निं योगमास्थिता॥गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्॥२३॥
प्रद्युम्नका चित्रलिखा उसको देखतेही “यह श्वशुर हैं” ऐसा समझकर लज्जित होगई॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पृथ्वीपति !ऊषा अनिरुद्धका चित्र देखकर अत्यन्त लाजसे नीचेको मुख किये “मेरा चित्तचोर यही हैं” ऐसे मुसकराकर सखीसे कहने लगी॥२१॥हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् ! योगकी ज्ञाता चित्ररेखा उसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पौत्र जान आकाशमार्गसे, होकर कृष्णपालित द्वारकापुरीमें पहुँची॥२२॥ वहाँ उस समय अनिरुद्रकुमार पलॅगपर शयन कर रहेथे उन्हें योगके बलसे उठाय शोणितपुरमें लेआई और सखीने ऊषाको दर्शन
कराया*****॥२३॥अत्यन्त स्वरूपवान् सुन्दर वर अनिरुद्धजीको देख प्रसन्नमुख उषा, पुरुषोंके देखने में न आवैइस प्रकर अपने घरमें अनिरुद्धके संग रमण करनेलगी॥२४॥और बडे मोलके वस्त्र, माला, सुगंधी, धूप, दीप आसन इत्यादि और पीनेकी सामग्री तथा भोजन, भक्ष्यवचनोंसे उनकी पूजा करनेलगी॥२५॥अत्यन्त बढ़ा हैं स्नेह जिसका ऐसी ऊपाने हरी हैं इंद्रियें जिनकी ऐसे अनिरुद्धजीको मोहित होकर
सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना॥दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुंभी रेमे प्राद्युम्निना समम्॥२४॥परार्ध्यवासस्स्नग्गंधधूपदीपासनादिभिः॥पानभोजनभक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषयार्चितः॥२५॥गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रवृद्धस्नेहयातया॥नाहर्गणान्स बुबुधे ऊषयाऽपहृतेंद्रियः॥२६॥तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम्॥हेतुभिर्लक्षयां चक्रुराप्रीतां दुरवच्छदैः॥२७॥
वास करते कितनेही दिन रात बीतगये, परन्तु उन्हैंकुछ सुधि न हुई॥२६॥ हे नृपोत्तम !यादवोंमें वीर अनिरुद्धजीके भोग करनेसे जिसका कन्यापनेका व्रत दूर होगया तब उस अत्यन्त प्रसन्नमन उषाको गुप्त न रहनेवाले लक्षणोंसे पहरेदारोंने पहिचानलिया और उसीसमय बाणासुरसे
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* शंका— श्रीकृष्णके तेजसे रचीहुई द्वारकापुरी, जिसके चारों ओर समुद्र, रात दिन सुदर्शनचक्र घूमता रहैं, ऐसी अद्भुत द्वारकापुरीमें जो कोई पुरुष कपटवेप धारण करके उस पुरीमें जानेकी इच्छा करना चाहे तो कभी नहीं जासक्ता, जो ब्रह्मदेवके बनाये जीव हैं उनको तो सामर्थ्यही नहीं जो कपट करके द्वारकाके भीतर जासकैं, फिर क्या कारण जो चित्ररेखा रक्षा करनेवाले प्राणियों की आज्ञा नहीं ले बिना बूझे कपट करके द्वारकामें जाकर सोतेहुए अनिरुद्धकुमारको पलंगसहित उठाय बडे सुखसे लेकर चलीगई, कोई दूसरा यादव नहीं वह स्वय श्रीकृष्ण के पोतेहीको हरकर लेगई किसी और दूसरे यादवको लेजाती तो थोडी ही शका होती कि, कोटके वाहर सोताहुआ रहगया होगा वह तो कोटके भीतर इक्कीस द्योढीवाले मदिरमेंसे अनिरुद्धको लेगई भर किसीको सुधि भी न हुई यह बडा अचमा है ?
उत्तर— बाणासुरकी मृत्युका उपाय भगवान्ने विचारकर और उसकी कन्याके सग अपने पोतेका विवाह विचारकर, सुदर्शनचक्रको भाज्ञा दी कि द्वारकापुरीको चित्ररेखा राक्षसी आयेगी, उसको तुम द्वारकाके भीतर जानेसे मत रोकना, एक बार द्वारकासे बाहरको जाय तो चली जाने देना और भीतरसे कोई वस्तु बाहरको लेजाय तो लेजाने देना वर्जना मत, ऐसी भगवान्की आज्ञाको मानकर सुदर्शनच कने चित्ररेखाको नहीं वर्जा, इसलिये चित्ररेखा अनिरुद्धको हरकर लेगई॥
आनकर कहा कि॥२७॥ हे राजन् जिस प्रकार कुलको कलंक लगे, ऐसी तुम्हारी कन्याकी कुचेष्टा हमको दीख पडती हैं॥२८॥ हे समर्थ ! बाणासुर ! ! हम लोग तो घरका अखण्ड पहरा देते हैं और राजकुमारी ऊषाकी रक्षा करते हैं, इसे कोई मनुष्य देख भी नहीं सक्ता इतनेपर भी कन्याको यह दूषण कहाँसे लगगया ? सो हम नहीं जानते॥२९॥इस प्रकार कन्याका दोष सुन अत्यन्त दुःखी हो, बाणासुरने शीघ्रही कन्याके घरमें जाकर यादवोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धको देखा॥३०॥ हे परीक्षित् ! कामदेवका पुत्र त्रिभुवनमें एक सुन्दर श्यामस्वरूप, पीताम्बर धारण किये, कमलके समान नेत्र, बड़ी भुजा कानोंमें दीप्तिमान् कुण्डल और केशोंकी कान्ति व मुसकानपूर्वक चितवनसे शोभायमान मुख॥३१॥और सब
भटा आवेदयांचक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम्॥विचेष्टितं लक्ष्यामः कन्यायाः कुलदूषणम्॥२८॥अनपायिभिरस्मा भिर्गुप्तायाश्च गृहे प्रभो॥कन्याया दूषणं पुंभिर्दुष्प्रेक्षाया न विद्महे॥२९॥ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः॥त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद्यदूद्वहम्॥३०॥कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं श्यामं पिशंगांबरमंबुजेक्षणम्॥ बृहद्भुजं कुंडलकुंतलत्विषा स्मितावलोकेन च मंडिताननम्॥३१॥दीव्यंतमक्षैः प्रिययाऽभिनृम्णया तदंगसंगस्तन कुंकुमस्त्रजम्॥ बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः॥३२॥स तं प्रविष्टं वृतमाततायि भिर्भटैरनेकैरवलोक्य माधवः॥उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो यथांऽतको दडधरो जिघांसया॥३३॥जिघृक्षया तान्परितः प्रसर्पतः शुनो यथा सूकरयूथपोऽहनत्॥ते हन्यमाना भवनाद्विनिर्गता निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः॥३४॥
मंगलरूप प्यारीके साथ पाँसोंसे खेलता, उस प्यारीके अंगसंगसे जिसमें स्तनोंकी केशर लगगई थी, ऐसी मनोहर जो वसन्त ऋतुकी मालतीहै, उसके पुष्पोंकी माला कण्ठमें धारण किये कामदेवके पुत्र अनिरुद्धजीको ऊषाके निकट बैठा देखकर बाणासुर अत्यन्त आश्चर्य करनेलगा॥३२॥शत्रुओंको संगलिये अनेक पैदलोंसहित बाणासुरको मन्दिर में आता देखकर मधुवंशोत्पन्न अनिरुद्धजी लोहेका परिघ उठाय मारनेके लिये दंड धारण करके कालके समान खड़े होगये॥३३॥पकड़नेके लिये चारोंओरसे चले आते, सूकरोंके यूथका पालन करनेवाले मुख्य सूकर जैसे
कुत्तोंको मारता हैं, उसी प्रकार मारनेलगे और मार पड़नेके कारण शिर, हाथ, पाँव टूटनेसे वह सिपाही घरमेंसे निकलकर भागगये॥३४॥ राजा बलिका पुत्र बली बाणासुरने क्रोध करके अपनी सेनाको मारतेहुए अनिरुद्धकुमारको नागफाँससे बॉधलिया, उस समय अनिरुद्धजीको बँधा देखकर अत्यन्त शोक और खेदसे व्याकुल हो नेत्रोंमें जल भरकर ऊषा रोनेलगी॥३५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामनिरुद्धबन्धनोनाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥ दोहा— तिरसठमें यादवन अरु, बाणासुरको युद्ध।सहसभुजातेहि काटि हरि, बरो बहुरि अनिरुद्ध॥६३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित् ! अनिरुद्धजीको देखे विना बंधु बांधवोंको शोच करते वर्षाऋतु चार
तं नागपाशैर्बलिनंदनो बली घ्नंतं स्वसैन्यं कुपितो बबंध ह॥ ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत्॥३५॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे अनिरुद्धबन्धो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥श्रीशुक उवाच॥अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बंधूनां च भारत॥चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम्॥१॥नारदात्तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च॥प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदेवताः॥२॥प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः सांबोऽथसारणः॥नंदोपनंदभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः॥३॥अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतोदिशम्॥रुरुधुर्बाणनगरं समंतात्सात्वतर्षभाः॥४॥भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम्॥प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ॥५॥
महीने व्यतीत होगये॥१॥ हे राजन् ! जिस समय सब यदुवंशी शोकसागरमें निमग्न पड़े थे, उसी समय देवर्षि नारदजीने आनकर अनिरुद्धके बॅधनेका सब समाचार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा, सुनतेही श्रीकृष्णचन्द्र बहुत से यादवोको साथ ले बाणासुर के शोणित पुरको गये॥२॥ प्रद्युम्न, युयुधान, गद, साम्ब, सारण, नंद, उपनन्द और भद्रादि राम कृष्ण के आज्ञाकारी मुख्य मुख्य यादवोको श्रीकृष्णचन्द्रने संगले बारह अक्षौहिणी सेनासे बाणासुरके नगरको चारो ओर से घेर लिया॥३॥४॥ हे परीक्षित् ! यादवोंसे अपने पुरके बाग, परकोटे, अटारी, द्वार आदि टूटे देख अत्यन्त क्रोधित हो, बारह अक्षौहिणी सेना लेकर बाणासुर पुरसे बाहर निकला॥५॥
इसके उपरान्त अपने भक्त बाणासुर पर विपत् पडी जान, अपने पुत्र स्कंद और बहुतसे भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी इत्यादि साथ ले नंदीश्वरपर चढ़कर कृष्ण बलदेवसे युद्ध करने के लिये भगवान् महादेवजी रणभूमिमें आनकर सुशोभित हुये॥६॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् ! अब वहॉ परस्पर बडा अद्भुत व भयानक जिसको देखतेही रोमाञ्च खड़े होजायँ, इस प्रकार युद्ध होनेलगा, श्रीकृष्णचन्द्र महादेवजीके सम्मुख, प्रद्युम्न स्वामिकार्तिकजीके सम्मुख॥७॥ कुंभांड और कूपर्णका युद्ध बलदेवजीसे होनेलगा, साम्बका बाणासुरके पुत्रके संग और बाणासुरका युद्ध सात्यकीके साथ होनेलगा॥८॥ देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मादिक और मुनि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष यह सब विमानों पर
बाणार्थे भगवान्रुद्रः ससुतैः प्रमथैर्वृतः॥आरुह्य नंदिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः॥६॥आसीत्सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम्॥कृष्णशंकरयो राजन्प्रद्युम्नगुहयोरपि॥७॥कुंभांडकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः॥सांबस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः॥८॥ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः॥गंधर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टु मागमन्॥९॥शंकरानुचराञ्शौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान्॥डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान्सविनायकान्॥१०॥प्रेतमातृपिशाचांश्च कूष्मांडान्ब्रह्मराक्षसान्॥द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः॥११॥पृथग्विधानि प्रायुंक्त पिनाक्यस्त्राणि शार्ङ्गिणे॥प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः॥१२॥ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम्॥आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च॥१३॥
चढ़कर युद्ध देखने की इच्छासे आये॥९॥उस समय भगवान् भूतेश्वरके अनुचर भूत, प्रेत, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक॥१०॥ प्रेत, मातृ, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्मराक्षस इन सबको शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र पेंनी धारके भालोंसे मार मारकर भगानेलगे॥११॥ पिनाक धनुषधारी महादेवजी श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर अलगही अस्त्र शस्त्र चलानेलगे, परन्तु आश्चर्यरहितश्रीकृष्णचन्द्रजीने उन सब अस्त्र शस्त्रोंको शान्त करदिया॥१२॥ श्रीभोलानाथने ब्रह्मास्त्र चलाया उसे श्रीकृष्णचन्द्रजीने ब्रह्मास्त्रसे शान्त कर दिया, इसके उपरान्त जब महादेवजीने वायुदेवताका अस्त्र
चलाया, तब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वतदेवताक अस्त्र छोड़ा उस समय पर्वतसे रुककर पवन थमगया, इसके पीछे महाकोधित हो शिवजीने अग्निदेवताक अस्त्र चलाकर आग लगा दी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय मेघास्त्र छोड़कर क्षणमात्रमें सब अग्निको शान्तकर दिया फिर भगवान् भूतनाथने अपना पाशुपत अस्त्र चलाया, उसको श्रीकृष्णचन्द्रने अपने नारायणास्त्रसे काटडाला॥१३॥ फिर भगवान् वासुदेवने जृम्भणास्त्र चलागया उससे शिवजी जॅभाई लेनेलगे, इस प्रकार उन्हैंमोहित करके बाणासुरकी सेनाको तलवार, गदा और बाणोसे,मारनेलगे॥१४॥ हे राजन् ! प्रधुम्नजीके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर स्वामिकार्त्तिकजीके अंगोंमें से रुधिर बहनेलगा, तब वह समर छोड मोरपर चढ़कर भाग गये॥१५॥ कुंभांड
मोहयित्वा तु गिरिशं जृंभणास्त्रेण जृंभितम्॥ बाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभिः॥१४॥स्कंदः प्रद्युम्नबाणौघैरर्द्यमानः समंततः॥असृग्विमुंचन्गात्रेभ्यः शिखिनाऽपाक्रमद्रणात्॥१५॥कुंभांडः कूपकर्णश्च पेततुर्मु सलार्दितौ॥ दुद्रुवुस्तदनीकानि हतनाथानि सर्वतः॥१६॥विशीर्यमाणं स्ववलं दृष्ट्वा बाणोऽत्यमुपर्णः॥कृष्णमभ्य द्रवत्संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम्॥१७॥धनूंष्याकृष्य युगपद्वाणः पंचशतानि वै॥एकैकस्मिञ्छरौ द्वौद्वौसंदधे रणदुर्मदः॥१८॥तानि चिच्छेद भगवान्धनूंषि युगपद्धरिः॥सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शंखमपूरयत्॥१९॥ तन्माता कोटरा नाम नग्ना मुक्तशिरोरुहा॥पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया॥२०॥
और कूपकर्ण मूसलके लगनेसे पृथ्वीपर गिरगये, तब स्वामीके मरजानेसे उनकी सम्पूर्ण सेना चारोंओरको भागगई॥१६॥हे महाराज ! इस प्रकार अपनी सेनाको जहाँ तहाॅ भागता देख बड़ी असहनतासे बाणासुर संग्राममें सात्यकी यादवको छोड़कर श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आया॥१७॥और रणमें बड़े गर्वसे बाणासुरने एक संग पॉचसौ धनुष खैंच एक एक धनुषमें दो दो बाण लगाये॥१८ ॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय बाणासुरके वह पांचसौ धनुष काट डाले फिर सारथी और घोडोंको मार रथको चूर्णकर शंखध्वनि करी॥१९॥उस समय कोटरानाम
बाणासुरकी माता अपने बालोंको खोल, नग्न हो, पुत्रके प्राण बचानेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आनकर खडी होगई*****॥२०॥हे राजन् ! नंगी स्त्रीको देखना शास्त्रकी आज्ञा नहीं हैं, इसीलिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मुख फेर कर खडे होगये, इस बीचमें जिसका रथ टूटगया, धनुष कट गया, ऐसा बाणासुर रणभूमि छोड पुरमें भागगया॥२१॥भूतगण जिस समय भागये, तब तीन शिर और तीन पॉवका ज्वर दशों दिशओंको जलाता शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख आया॥२२॥तब नारायणदेव श्रीकृष्णचन्द्रने शिवजीके ज्वरको आया देख अपना शीतज्वर
ततस्तिर्यङ्मुखो नग्नामनिरीक्षन्गदाग्रजः॥ बाणश्च तावद्विरथश्छिन्नधन्वाऽविशत्पुरम्॥२१॥विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रिशिरास्त्रिपात्॥अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश॥२२॥अथ नारायणो देवस्तं दृष्ट्वा व्यसृज ज्ज्वरम्॥माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ॥२३॥माहेश्वरः समाक्रंदन्वैष्णवेन बलार्दितः॥अलब्ध्वाऽभय मन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः । शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयतांजलिः॥२४॥ज्वर उवाच॥नमामि त्वाऽनंत शक्तिं परेशं सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम्॥विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं यत्तद्ब्रह्म ब्रह्मलिंगं प्रशांतम्॥२५॥
छोडा, इसके उपरान्त शिवजीका ज्वर और भगवान्का ज्वर दोनों परस्पर मिलकर युद्ध करनेलगे॥२३॥ जब विष्णुके, ज्वरने शिवजीके ज्वरको बलपूर्वक दवालिया, तब अत्यन्त पीडित होकर पुकारने लगा और अपनी रक्षाके लिये कोई निर्भय स्थान न पाय, हाथ जोड भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति करने लगा॥२४॥ ज्वर बोला कि, अनन्तशक्ति, ब्रह्मादिकोंके ईश्वर सबके आत्मा शुद्ध चैतन्यघन जगत्की उत्पत्ति
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*** शंका—**अपने पुत्रकी रक्षा करनेके लिये बाणासुरकी माता नगी होकर श्रीकृष्णके सामने क्यों खड़ी होगई, नग्न होकर खडी होनेसे क्या जान पडता हैं, जैसे किसी कामी के सामने स्त्री नम होकर खडी होजाय तो वह कामी स्त्रीको देखकर मोहित होजाय तो स्त्री जो कुछ आज्ञा करें, सो सो आज्ञा वह कामी पुरुष उसे पूर्ण किया करे वही काम बाणासुरकी माताने किया, यह शंका भारी हैं॥
**उत्तर—**ब्रह्माने कोटराको वरदान दिया था कि, हे कोटरे ! तीन लोकमें जो पुरुष हैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव और चौरासी लक्ष योनिके पुरुष मात्र तुमको नगी देखेंगे तब उसी समय भस्म होजायँगे केवल एक तेरा पतिही भस्म न होगा और सब जल्दी भस्म होंगे, कोटराने ऐसा जानकर श्रीकृष्णको भस्म करनेके लिये श्रीकृष्ण के सम्मुख खडी हुई।
स्थिति और संहारके कारण, वेदसे गम्ये, शान्तमूर्ति, ब्रह्म जो आप हैं, सो मैं आपको नमस्कार करताहूं॥२५॥ काल, दैव, कर्म, जीजी स्वभाव, द्रव्य, शरीर, प्राण, अहंकार, विकार और मन अर्थात् ग्यारह इंद्रियें और पंचमहाभूत, अर्थात् पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश इन तत्त्वोंका बना यह देह जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे फिर बीज होजाता है, इसीप्रकार कर्मोंसे देह, फिर देहसे कर्म, फिर कर्म देह ऐसे जलकेसा प्रवाह चला जाता है, बस यही तुम्हारी माया तुम उनके निषेधके अवधि हो इसलिय मैंआपकी शरण आया हूं॥२६॥ यदि कहो कि, मैं देवकीका पुत्र हूँ सो यह मुझसे कैसे बनसक्ताहै इसका उत्तर यह है कि, आप लीलापूर्वक मत्स्यादि अवतार धारण करके देवताओंका पालन और वर्णाश्रम के धर्मकी रक्षा करते हो और धर्म करनेवाले साधुलोगोंका पालन व हिंसासहित पापमार्गका नाश करते हो, इसकारण पृथ्वीका बोझा उतारनेके लिये
कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः॥ तत्संघातो बीजरोहैः प्रवाहस्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्य॥२६॥ नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नैर्देवान्साधूँल्लोकसेतून्बिभर्षि॥ हंस्युन्मार्गान्हिंसया वर्तमानाञ्जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः॥२७॥ तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन शांतोग्रेणात्युल्वणेन ज्वरेण॥ तावत्तापो देहिनां तेंऽघ्रिमूलं नो सेवेरन्यावदाशाऽनुबद्धाः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद्भयम्॥ यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद्भयम्॥२९॥ इत्युक्तोच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः॥ बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम्॥३०॥ ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः॥ मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप॥३१॥
तुम्हारा जन्म है॥२७॥ आपके उत्पन्न किये दुःसह भयंकर उग्र शीतज्वरसे मैं तपायमान हुआ हूं क्योंकि देहधारियोंको तबतकही ताप है जबतक आशा बाँधकर आपके चरणकमलोंका सेवन न करै॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जब इसप्रकार शिवज्वरने भगवान् वासुदेवकी स्तुति करी तब श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे तीन शिरके ज्वर! मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हुआ हूँ और मेरे ज्वरसे जो तुझे भय हुआ है वह डर निवृत्त हो परन्तु जो पुरुषगण इस संवादका स्मरण करैंउनको तू मत व्यापना॥२९॥ इसप्रकार जब कहा, तो शिवज्वर श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करके चलागया, इसके उपरान्त बाणासुर रथमें चढ़ श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेके लिये आया॥३०॥ हे महाराज! हजार भुजाओंमें
अनेक प्रकार के शस्त्रोंको धारण कर बाणासुर अत्यन्त क्रोधित हो, चक्रधारी श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर शस्त्रोंकी वर्षा करनेलगा॥३१॥ निरन्तर शस्त्रोंको चलाते बाणासुरकी भुजाओंको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने छूरीके समान पैंनी धारके चक्रसे जैसे माली वृक्षोंको काटता है, उसीप्रकार काटडालीं॥॥३२॥ हे परीक्षित! जब बाणासुरकी भुजा कटगईं, तो उस समय भक्त बाणासुरपर कृपा करनेवाले भगवान् भूतनाथ आकर चक्रधारी श्रीकृष्ण चन्द्रकी स्तुति करनेलगे॥३३॥ महादेवजीने कहा कि, हे परब्रह्म! आपके विनाजाने इस बाणासुरनेयुद्ध किया है, इसमें आश्चर्य नहीं, इस कारण वाणीमय वेद में तुम छिपे हुए परब्रह्म दो और ज्योति सूर्यादिकों के तुम प्रकाशक हो, इसलिये किसीके जाननेमें नही आते, यदि कहो कि,
तस्याऽस्यतोऽस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना॥ चिच्छेद भगवान्वाहुञ्छाखा इव वनस्पतेः॥३२॥ बाहुषु च्छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान्भवः॥ भक्तानुकंप्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत॥३३॥ श्रीरुद्र उवाच॥ त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये॥ यं पश्यंत्यमलात्मान आकाशमिव केवलम्॥३४॥ नाभिर्नभोग्निर्मुखमंवुं रेतो द्यौः शीर्षमाशाः श्रुतिरंघ्रिरुर्वी॥ चंद्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा अहं समुद्रो जठरं भुजेंद्रः॥ ३५॥ रोमाणि यस्यौषधयोंऽबुवाहा केशा विरिंचो धिषणा विसर्गः॥ प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः स वै भवान्पुरुषो लोककल्पः॥३६॥ तवावतारोऽयमकुंठधामन्धर्मस्य गुप्त्यै जगतो भवाय॥ वयं च सर्वे भवतानुभाविता विभावयामो भुवनानि सप्त॥३७॥
प्रतीत कैसे हो? इसके उत्तर में शिवजी कहते हैं कि, निर्मल मन बुद्धिवाले पुरुष आकाशके समान निर्लेप, निर्गुण तुम्हें देखतें हैं॥३४॥ निर्गुण ज्ञानकी बात तो एक और है परन्तु तुम्हारी लीलाका आश्रय ब्रह्माण्डभी जाननेमें नहीं आता जैसे गूलर फलके भीतरके जीव गूलरके फलको नहीं जानते उसीप्रकार इस अभिप्राय से ब्रह्माण्डरूप करके शिवजी स्तुति करते हैं कि, आकाश आपकी नाभि, अग्नि मुख, जल वीर्य, स्वर्ग मस्तक, दिशा कान, पृथ्वी चरण, चंद्रमा मन, सूर्य नेत्र मैं (शिव) अहंकार, समुद्र उदर, इन्द्र भुजा, औषधी रोम, मेघ केश, ब्रह्मा बुद्धि, प्रजापति लिंग और धर्म हृदय है, लोकोंकी कल्पना से विराट् पुरुष तुम हो॥३५॥३६॥ सो हे अखण्डरूप! यह तुम्हारा अवतार धर्म की रक्षा और जगत् का
कल्याण करनेके लिये हुआ है और हम सब लोकपाल आपहीसे रक्षित होकर सब लोकोंका पालन करते हैं॥३७॥ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीन अवस्था में पुरुष के आप कारण हो और शुद्ध हो इसलिये अद्वितीय पुरुष हो और सब विश्वके कारण हो. स्वयं कारण रहित हो परन्तु तो भी संपूर्ण विषय प्रकाश करने के लिये अपनी माया से जो देह धारण किया है, उसमें ऐसे ही प्रतीत होतेहो॥३८॥ जैसेसूर्य अपनी मेघरूपी छायासे ढका हुआ होनेपर भी बादलो को प्रकाशित करता है और बादलों के बाहर भी रूपको प्रकाशमान करता है उसी प्रकार हे भूमन्! स्वयंप्रकाश आप जीवकी दृष्टि में अपने कार्यरूप अहंकार से ढके हुए प्रतीत होने पर भी सत्त्व, रज, तम, गुण, रूप, उपाधि और उनके जीवोको भी प्रकाशित करते
त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीयस्तुर्यः स्वदृग्धेतुरहेतुरीशः॥ प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै॥३८॥ यथैव सूर्यः पिहितच्छायया स्वया छायां च रूपाणि च संचकास्ति॥ एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्वमात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन्॥३९॥ यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु॥ उन्मज्जंति निमज्जंति प्रसक्ता वृजिनार्णवे॥४०॥ देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेंद्रियः॥ यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवंचकः॥४१॥ यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम्॥ विपर्ययेंद्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन्॥४२॥ अहं ब्रह्माऽथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः॥ सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमीश्वरम्॥४३॥ तं त्वां जगत्स्थित्युदयांतहेतुं समं प्रशांतं सुहृदात्मदैवम्॥ अनन्यमेकं जगदात्मकेतुं भवापवर्गाय भजाम देवम्॥४४॥
हो॥३९॥ तुम्हारी माया से मोहित होकर स्त्री, पुत्र और घरादिमें लगे हुए लोग दुःखमय संसारसागरमें ऊंच नीच योनियों को पाते हैं॥४०॥ भगवानकी दीहुई मनुष्यदेहको पाकर जिसने अपनी इन्द्रियों को नहीं जीता और जिस पुरुषने तुम्हारे चरणोंका भलीभाँति पूजन न किया उस पुरुषको शोच करने योग्य और आत्माका ठगनेवाला समझना चाहिये॥४१॥ प्यारे पुत्रादिकोंके लिये जो पुरुष प्रिय आत्मा आपका त्याग करता है, वह पुरुष अमृत छोड़कर विष पीता है॥४२॥ मैं (शिव) ब्रह्मा और देवता निर्मल अंतःकरणवाले मुनिभी प्रिय ईश्वर और आत्मरूप आपका ही भजन करते हैं॥४३॥ जगत् केउत्पत्ति पालन और नाशके कारण सबमें समान, शान्तस्वरूप, हितकारी आत्मा, ईश्वर, अनन्य और दूसरा
जिनके समान नहीं, बड़ा नहीं, जगत् के आत्मा आश्रय देव तुम हो! सो तुम्हैंसंसार त्यागने के लिये हम भजते॥४४॥ हे प्रकाशमान! यह बाणासुर मेरा अत्यन्त प्रिय और इष्ट भक्त है इस कारण मैंने इसे अभयदान दिया है, जैसे आपने प्रह्लादपर दया की, उसीप्रकार इसपर भी दया करनी चाहिये॥४५॥ यह प्रार्थना सुनकर भगवान् वासुदेवने कहा कि, हे भगवन्! आपने जिसप्रकार कहा मैं वैसे ही आपको प्रसन्न करूंगाआपने जिस बातका विचार किया है, मैं उसमें भलीभाँति सम्मति देता हूं॥४६॥ विरोचन के पुत्र राजा बलिका बेटा यह बाणासुर है, इसलिये मारने योग्य नहीं, क्योंकि मैंने प्रह्लादको वर दिया है कि, जो तेरे वंशमें उत्पन्न होगा, मैं उसको नहीं मारूंगा॥४७॥ अभिमान दूर करने के लिये
अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती मयाऽभयं दत्तममुष्य देव॥ संपाद्यतां तद्भवतः प्रसादो यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः॥४५॥ श्रीभगवानुवाच॥ यदात्थ भगवंस्त्वं नः करवाम प्रियं तव॥ भवतो यद्व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्॥४६॥ अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः॥ प्रह्लादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः॥४७॥ दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया॥ सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः॥ ४८॥ चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यंत्यजरामराः॥ पार्षदमुख्यो भवतो न कुतश्चिद्भयोऽसुरः॥ ४९॥ इति लब्ध्वाऽभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसाऽसुरः॥प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत्॥ ५०॥ अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासःसमलंकृतम्॥ सपत्नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः॥५१॥
मैंने इसकी सहस्रभुजा काटी हैं और जो पृथ्वीपर भारी बोझ होरहाथा उसको भी मैंने उतारदिया॥४८॥ कटने से इसकी चार भुजा शेष रहगई हैं, सो अजर अमर होंगी और यह दैत्य बाणासुर भयरहित तुम्हारे पार्षदो में मुख्य पार्षद होगा॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज!इसप्रकार अभय पाकर बाणासुरनेश्रीकृष्णचन्द्रको बारंबार प्रणाम करके ऊषा सहित अनिरुद्धको रथ में बैठालकर बिदा करदिया॥५०॥ और बाणासुरकी दी हुई एक अक्षौहिणी सेना सगलिये सुन्दर वस्त्रालंकारोंसे शोभायमान स्त्री सहित प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धको आगेकर शिवजी से अनुमोदन पाय श्रीकृष्णचन्द्रने वहाँसे पयान किया॥ ५१॥
नगरके मनुष्य, सम्बन्धी और ब्राह्मणोंने बधाये, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र ने शंख, आनक, नगारे बजाते तोरण व ध्वजाओं से शोभायमान मार्ग में जहाँ छिडकाव हो गया है, ऐसी अपनी नगरी द्वारकापुरीमें प्रवेश किया॥५२॥हे राजन्!यह श्रीकृष्णचन्द्रकी जीत और श्रीकृष्णका शिवजीसे युद्ध जो पुरुष प्रातःकाल उठकर स्मरण करेंगे, उनकी कभी हार नहीं होगी॥५३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामूषाचरित्रवर्णनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥ दोहा—चौंसठमें श्रीकृष्णने, नृगको शाप छुटाय।ब्रह्म अंशकी लगनको, सब फल दियो दिखाय॥६४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित्! सांब, प्रद्युम्न, चारुभानु, गद इत्यादि यादवोंके पुत्र विहार करनेके लिये
स्वराजधानीं समलंकृतां ध्वजैः सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम्॥ विवेश शंखानकदुंदुभिस्वनैरभ्युद्यतः पौरसुहृद्द्विजातिभिः॥५२॥ य एवं कृष्णविजयं शंकरेण च संयुगम्॥ संस्मरेत्प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात्पराजयः॥५३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बाणनिग्रहो नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदोपवनं राजञ्जग्मुर्यदुकुमारकाः॥ विहर्तुं सांवप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः॥१॥ क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वंतः पिपासिताः॥ जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्वमद्भुतम्॥२॥ कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः॥ तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृपयान्विताः॥३॥ चर्मजैस्तांतवैः पाशैर्बद्धा पतितमर्भकाः॥ नाशक्नुवन्समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः॥४॥ तत्रागत्यारविंदाक्षो भगवान्विश्वभावनः॥ वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण सलीलया॥५॥
वनको गये॥१॥ उस वनमें बहुत देरतक क्रीड़ा करते रहे, जब प्यास से पीडित हो यादवों के पुत्रोंने जलको ढूँढा, तब विना जलके कुएँमें एक अद्भुत जीव पडा देखा॥२॥ पर्वत के समान करकेटा देख आश्चर्ययुक्त मनसे कृपायुक्त हो यादवों के बालक उसके निकालनेका यत्न करनेलगे॥३॥ हे राजन्! यह बालक उस करकेटेको चाम और सूतके रस्सों से बाँधने पर भी निकालने को नहीं समर्थ हुए तब उत्कंठायुक्त बालक श्रीकृष्णचन्द्र सेआनकर कहनेलगे॥४॥ तब विश्व उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने वहाँ आकर लीला पूर्वक ही बायें हाथ से उस करकेटेको निकाल लिया॥५॥
उत्तमश्लोक श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ लगतेही वह करकेटा रूप त्याग तप्त सुवर्णके समान सुन्दर वर्ण, अद्भुत आभूषण और वस्त्र मालाओं को, धारण किये, वह देवस्वरूपको प्राप्त होगया॥६॥ मुक्ति देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र यद्यपि उसके करकेटा होनेका कारण जानते भी थे परन्तु तो भी सबको दिखाने के लिये पूछने लगे कि, हे बडभागी! सुन्दर स्वरूपवान् आप कौन हो? मुझे तुम देवताओं में उत्तम देवता जान पडते हो॥७॥ हे मंगलरूप!इस योग्य तुम नहीं हो, किस अपराधसे तुम्हैंयह करकेटेकी योनि प्राप्तहुई, जो हमको कहनेयोग्य समझो तो
स उत्तमश्लोककराभिमृष्टो विहाय सद्यः कृकलासरूपम्॥ संतप्तचामीकरचारुवर्णः स्वर्ग्यद्भुतालंकरणांबरस्रक॥॥६॥ पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं जनेषु विख्यापयितुं मुकुंदः॥ कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम्॥७॥ दशामिमां वा कतमेन कर्मणा संप्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र॥ आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम्॥८॥ श्रीशुक उवाच॥ इति स्म राजा संस्पृष्टः कृष्णेनानंतमूर्तिना॥ माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा॥ ९॥ नृग उवाच॥ नृगो नाम नरेंद्रोऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो॥ दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम्॥१०॥ किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः॥ कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया॥ ११॥
हमारे सन्मुख अपना सब वृत्तांत वर्णन करो॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!जब अनन्तमूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार पूँछा, तब राजा नृग सूर्य के समान तेजवाला किरीटों से श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके कहनेलगा॥९॥ राजा नृगने कहा कि, हे समर्थ! मैं इक्ष्वाकु का पुत्र नृग नाम राजा हूं जब कभी दानी राजाओं की बात चली होगी, तो मेरा नाम भी आपके सुननेमें आया होगा॥१०॥ हे नाथ! सब प्राणियोकी बुद्धि के साक्षी और सर्वांतर्यामी आप हैं सो तुम क्या नहीं जानते? और कालसे तुम्हारे ज्ञानका नाश नहीं होता, तो भी आपने जो पूँछा है, सो आपकी आज्ञानुसार मैं वर्णन करता हूं॥११॥
हे भगवन्!जितनी पृथ्वीकी रेणुका और जितने आकाशमें तारे अथवा जितनी वर्षाकी बूँदें हैं उतनीही गायोका मैंने दान किया है
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॥१२॥ दूध देनेवाली तरुण अवस्था शील स्वभाव रूप गुण से भरी कपिला और नीतिपूर्वक संचय करी, सुवर्ण से सींग, रूपेसे खुर मढ़े बछडे साथ और
यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः॥ यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः॥१२॥ पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूपगुणोपपन्नाः कपिला हेमशृंगीः॥ न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा दुकूलमालाभरणा ददावहुम्॥१३॥ स्वलंकृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यःसीदत्कुटुंवेभ्य ऋतव्रतेभ्यः॥ तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यःप्रादां युवभ्यो द्विजपुंग वेभ्यः॥१४॥ गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः॥ वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रथानिष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम्॥१५॥
वस्त्र, माला, गहने पहराय, ऐसी गायें मैंने दान की थीं॥१३॥ भलेप्रकार शोभायमान गुण शीलयुक्त, दूध विना दुःखित कुटुम्बी पाखण्डरहित आचारवाले तपस्या करके प्रसिद्ध, वेदपाठी तरुण अवस्थावाले द्विजों में श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान करके दी थीं॥१४॥ गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, महल,
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शंका—जो वचन श्रीकृष्णसे राजा नृगने गोदान देनेवाले कहे थे, उन वचनोंको सुनकर हमारा सबका मन काँपता है, ऐसे मूर्खोके समान राजा नृगने वचन क्यों कहे? भला रेते के कण का क्या प्रमाण? एक मूठीभर रेता हाथमें ले तो दश वीस कोटि कण मूठीभर रेत में होंगे, फिर गंगा आदि नदियों में अथवा रेतेवाले देशों में रेतके सिवाय और दूसरी मृत्तिका नहीं, तहाँ कण की क्या गणना है, फिरतारा भी गणनासे हीन हैं, वर्षा की धारा पृथ्वीपर पडती हैं, उनकी गिनती नहीं है, ऐसा वचन वडा अयोग्य है॥
** उत्तर**—मेदिनीकोशमें सत्रह १७ श्लोक से लेकर बयालीस ४२ श्लोकतक भूमिका और द्वीप आदिका पर्वतोंका नाम लिखा है ‘सिकता’ सात द्वीपका नाम लिखा है और ‘तारका’ बडी बडी नदियोंका नाम लिखा है, ‘अदिव’मर्त्यलोकका नाम लिखा है, मर्त्यलोक और भरतखण्डका नाम भी अदिव हैं, ‘वर्ष धार’पर्वतका नाम लिखा है और राजा नृग भरतखण्डमें वसता था इसलिये भरतखण्डकी नदियोंके पर्वतोंके और सात द्वीपों के बहानेसे गोदान करनेकी गिनती श्रीकृष्ण से गुप्त करके बताई थी कि, सबको प्रगट होनेसे पुण्यका नाश होजाता है, पंचमस्कन्ध के उन्नीसवें अध्यायमें लिखा है कि मर्त्यलोक में भरत खण्डमें पर्वतोंमें श्रेष्ठ २७ पर्वत हैं और नदियों में श्रेष्ठ नदी ४५ हैं, और पंचमस्कध के प्रथम अध्याय में लिखा है कि, पृथ्वी में सात द्वीप हैं इसलिये गप्त करके श्रीकृष्णसे राजा नगने कहा था कि, महाराज! जितने भूमिके सिकता कहिये द्वीपहें उतनी गायें मैंने दी हैऔर भरतखण्डमें जितने तारका कहिये गंगा आदि बडीबडीनदी है उतनी गायें मैंने दी है और जिसने वर्षधारा कहिये पर्वत मर्त्यलोकके भरतखण्डमें हैं उतनी गायें मैने ब्राह्मणोंको दी हैसब गायोंकी संख्या कितनी हुई विद्वान् लोगो विचार लेना, अककी उलटी रीतिसे प्रथम सात ७ दूसरे ४५ तीसरे सत्ताईस सत्र जोडकर २७४५७ सत्ताईस सहस्र चारसौ सत्तावन गायें देनेको श्रीकृष्णसे राजा नृगने कहा था रेतकी कण, आकाशके तारे, जलवृष्टिके लिये नहीं कहा था॥
हाथी, घोडे इत्यादि दान करे और दासियों सहित कन्यादान करीं. तिल, रूपा, शय्या, वस्त्र, रत्न और आच्छादनके श्रेष्ठ वस्त्र और रथोंका दान किया यज्ञ किये, कुआँ, तालाव, सरोवर बनवाये॥१५॥ ऐसा मैं दानी था, परन्तु मुझे एक संकट आनकर प्राप्तहुआ सो सुनो, किसी एक अयाचक ब्राह्मण की गौ भागकर मेरी गायों में मिलगई, वह गाय विना जाने मैंने ब्राह्मणको दान करदी॥१६॥उस गौका स्वामी गौको लेजाता देखकर “यह गौ मेरी है"इस प्रकार कहने लगा, दूसरा ब्राह्मण बोला कि, भाई यह गौ मुझे राजा नृगने दान करके दी है॥७॥ हे दीनबन्धु! इस प्रकार आपसमेंविवाद कर अपने अपने प्रयोजनको सिद्ध करनेवाले वह दोनों ब्राह्मण मेरे निकट आये, तब जिस त्राह्मणको गाय दान करके दी थी; वह बोला कि हे राजन्! इस गायके आपही दाता हैं और जिसकी गाय थी वह बोला कि, यह क्यों दाता है, जो पराई गौ दान करता है? हे भगवन्!यह बात
कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने॥ संपृक्ताऽविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये॥१६॥ तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्वोवाच ममेति तम्॥ ममेति प्रतिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति॥१७॥ विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ॥ भवान्दाताऽपहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद्भ्रमः॥१८॥ अनुनीतावुभौ विप्रौधर्मकृच्छ्रगतेन वै॥ गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम्॥१९॥ भवंतावनुगृह्णीतां किंकरस्याविजानतः॥ समुद्धरतं मां कृच्छ्रात्पतंतं निरयेऽशुचौ॥२०॥ नाहं प्रतीच्छ वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्॥ नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ॥२१॥ एतस्मिन्नतंरे याम्यैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्॥ यमेन पृष्टस्तत्राऽहं देवदेव जगत्पते॥२२॥
सुनकर मुझे अत्यन्त भ्रम हुआ॥१८॥ इसके उपरान्त धर्मसे कष्टित मैंने उन दोनों ब्राह्मणों को बहुत विनती करके कहा कि, महाराज! इस गौके बदले में सुन्दर एक लाख गौ दूँगा, यह गौ देदीजिये॥१९॥ मैं तुम्हारा दास हूं, मैंने यह नहीं जाना कि यह गौ तुम्हारी है सो मेरे ऊपर अनुग्रह करके घोर नरकमें गिरतेहुए मेरी रक्षा करो॥२०॥ तबब्राह्मण बोला कि, हे राजा नृग!और तेरी लाख गौकी मुझे आवश्यकता नहीं है जो दान करके दी है, सोई लूंगा, यह कहकर वह ब्राह्मण और जिस ब्राह्मणको गौ दी थी वह उस गौको त्यागकर घरको चलागया॥२१॥ हे देवदेव! इसके उपरान्त जब मेरा देहान्त हुआ, तब यमदूत आनकर यमराजके पास मुझे लेगये वहाँ धर्मराजने मुझसे पूँछा कि॥२२॥
हे राजा नृग! मैं तुम्हारे दान और धर्मका लोकके प्रकाशकोंमें अन्त नहीं देखता परन्तु यत्किंचित् तुम्हारा पाप भी है और संपूर्ण शुभ सो प्रथम तुम पाप भोगोगे अथवा पुण्य॥२३॥ इस प्रकार जब धर्मराजने कहा तब प्रथम पाप भोगूंगा ऐसा मैंने कहा उसी समय धर्मराजने आज्ञा करी कि, इसको करकेटेकी योनि में गिरादो हे प्रभो! तब मैंने गिरते ही अपनेको करकेटेके रूपमें देखा॥२४॥ हे केशव! ब्राह्मणोंका भक्त और दाता तुम्हारे, दर्शनोंकी अभिलाषा अबतक मुझे लगरही थी क्योंकि आपकी कृपासे स्मृतिका नाश नहीं हुआ था॥२५॥ हे योगेश्वर! वेदरूप नेत्र करके निर्मल हृदय में जिनकी भावना करें और इन्द्रियोंकी जिनमें पहुँच नहीं ऐसे परमात्मा तुम अति दुःखोंसे अँधेरी बुद्धिवाले मुझे कैसे दिखाई दिये?
पूर्वं त्वमशुभं भुंक्षे उताहो नृपते शुभम्॥ नांतं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः॥२३॥ पूर्वं देवाशुभं भुंज इति प्राह पतेति सः॥ तावदद्राक्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो॥२४॥ ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव॥ स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सं दर्शनार्थिनः॥२५॥ स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा योगेश्वरैः श्रुतिदृशाऽमलहृद्विभाव्यः॥ साक्षादधोक्षज उरुव्यसनांधबुद्धेः स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य ममापवर्गः॥२६॥ देवदेव जगन्नाथ गोविंद पुरुषोत्तम॥ नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय॥२७॥ अनुजानीहि मां कृष्ण यांतं देवगतिं प्रभो॥ यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम्॥२८॥ नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥ कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः॥२९॥
क्योंकि इस संसारमें जिस मनुष्यका संसार छूटनहार होता है; उसको ही आपके दर्शन मिलते हैं॥२६॥ हे देवदेव! हे जगत् के नाथ! हे गोविन्द! हे पुरुषोत्तम! हे नारायण! हे इन्द्रियों के प्रेरनेवाले!पवित्रयशी!श्रीकृष्णचन्द्र! हे अखण्डरूप!हे अविनाशी!॥२७॥ हे कृष्ण! समर्थ! अब मैं स्वर्ग जाऊँ मुझे आज्ञा दो और जहाँ कहीं मैं रहूँ वहाँ मेरा चित्त तुम्हारे चरणों में लगा रहै॥२८॥ आप सब कार्यों के उत्पन्न करनेवाले विश्वके कर्त्ता और विकाररहित हो, अनन्त माया शक्तिमान् वासुदेव अर्थात् सब प्राणियोंके आश्रय कृष्ण अर्थात् सर्वदा आनन्दरूप, वेदोंके कहे जो यज्ञादिक कर्म और स्मृतियोंके कहे जो कुआँ, बावली, तालाव इत्यादि कर्मों के फलदाता आपको नमस्कार है॥२९॥
राजा नृग इस प्रकार कह श्रीकृष्णचन्द्रको परिक्रमा दे अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श कर, आज्ञा ले सब प्राणियोंके देखतेही विमानपर बैठ कर स्वर्गको चलागया॥३०॥ ब्राह्मणोके भक्त, धर्मात्मा देवकीके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र क्षत्रियोंकी शिक्षाके लिये अपने कुटुम्बी यादवोंसे कहने लगे॥३१॥ कि, देखो! अग्नि के समान तेजस्वी पुरुषोंको भी ब्रह्मअंश नही पचता और अपनेको ईश्वर माननेवाले राजाओंकी तो बातही क्या है?॥३२॥ मैं विषको हलाहल विष नहीं मानता क्योंकि उसके दूर करनेकी औषधी है परन्तु ब्रह्मअंश विषसे भी अधिक विषहै, और इस पृथ्वीमें ब्रह्मअंशके दूरकरनेका कोई उपाय नहीं है॥३३॥ विषतो केवल खानेवाले को ही मारता है और अग्नि भी जलसे शान्त होजाती है, व
इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना॥ अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम्॥३०॥ कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः॥ ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन्॥३१॥ दुर्जरं वत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि॥ तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञामीश्वरमानिनाम्॥३२॥ नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया॥ ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि॥३३॥ हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति॥ कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणि पावकः॥३४॥ ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं मुक्तं हंति त्रिपूरुषम्॥ प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान्॥३५॥ राजानो राज लक्ष्म्याऽन्धा नात्मपतिं विचक्षते॥ निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु वालिशाः॥३६॥
अग्निके जलानेमें जड़ बाकी रहजाती है, परन्तु ब्रह्मअंशरूप लकड़ी से उत्पन्न हुई अग्नि मूलसहित कुलको भस्म करडालती है॥३४॥ ब्राह्मणकी पूर्ण आज्ञा लिये विना उसका धन खायाजाय तो तीनपीढीको नरकमें गिराता है और हठसे वा राजा आदिकी सहायतासे भक्षण किया जाय तो दश प्रथम और दश पीछेकी पीढियोंको और एक अपनी, इस प्रकार इक्कीस पीढीको नरकमें डालता है॥३५॥ इसलिये ब्राह्मणका पूजनही करै, (इस कथापर एक दृष्टान्त भी लिखते हैं)
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जोकि लक्ष्मी केसे अंधे हुए राजा हैं, सो अपना नरकमें गिरना नहीं देखते
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दृष्टान्त—एक राजा परदेशी ब्राह्मण जो द्वारपर आता उसे लाख रुपया दिया करते थे, तो एक दरिद्र ब्राह्मणको स्त्रीने कह सुनकर अपने पतिको इस राजाके नगर में भेजा, यह चले, राजा शिकार खेलकर आरहे थे, मार्गमें ब्राह्मणसे भेंट हुई, राजाने कहा कि, महाराज!आप कहाँसेआये और कहाँ जाओगे? ब्राह्मणने कुछ उत्तर न दिया, तब राजाने प्रार्थनाकर चरण पकडकर पूछा कि, क्या काम है? कहो—
और जो पुरुष ब्रह्मअंशपर मन ललचाते हैं, सो नरकमें जाने की इच्छा करते हैं॥३६॥ कुटुम्बी उदार जीविका हरजानेसे सो ब्राह्मण रुदन करते हैं उनके नेत्रोंसे आँसुवोंकी बूँद गिरकर जितनी पृथ्वीकी रेणुका भीजती हैं, उतने वर्षतक ब्राह्मणका धन हरण करनेवाले निरंकुश राजा और उनके मंत्री, प्रधान टहलुए हैं, सो सब कुम्भीपाक नरकमें गिरते हैं॥३७॥३८॥ जो पुरुष अपनी दान की हुई अथवा औरकी दी हुई ब्राह्मणकी
गृह्णंति यावतः पांसून्क्रंदतामश्रुबिंदवः॥ विप्राणां हृतवृत्तीनां वदान्यानां कुटुंबिनाम्॥३७॥ राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरंकुशाः॥ कुंभीपाकेषु पच्यंते ब्रह्मदायापहारिणः॥३८॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः॥ षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥३९॥ न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृद्ध्वाल्पायुषो नराः॥ पराजिताश्च्युता राज्याद्भवंत्युद्वेजिनोऽहयः॥४०॥ विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्येत मामकाः॥ घ्नंतं बहु शपंतं वा नमस्कुरुत नित्यशः॥४१॥
जीविका हरै, वह पुरुष साठ सहस्र वर्षतक विष्टाका कीड़ा होता है॥३९॥ मेरे घरमें ब्राह्मणका धन न आवै, जिस धनके लोभसे राजा अल्प आयुष्यवाले पराजयको प्राप्त हुए और राज्यसे भ्रष्ट होकर मनुष्योको भय देनेवाले सर्प होजाते हैं॥४०॥ हे मित्र! जो ब्राह्मण अपराध करे, मारताही आवैऔर गालियें भी बहुत दे, ऐसे ब्राह्मणसे भी द्रोह करना उचित नहीं बरन्उसको नित्य प्रति नमस्कारही करनाचाहिये॥४१॥
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—तो, तब यह बोले हम पण्डिन हैं और काशीजीसे आये हैं, इस राजा के शिरपर पनही मार लाख रुपये लेजायँगे. राजाने कहा कि, ब्राह्मण बुरे, जो लाख रुपया लेजायँऔर पनही मारै, सो महलोंमें जाकर ड्योढीवानोंसे कहा कि, किसी ब्राह्मणको भीतर मत आनेदो अब उन पण्डितजीकी यहाँतक दशा हुई कि, थाली, कटोरा बेचकर खागये, परन्तु भीतर न घुस सके, तब फिर लौटकर अपने घर जाय सब समाचार सुनाये, यह राजा वैष्णव था और कृष्ण, बलदेवका पूजन करता था, एक दिन अकस्मात् बलदेवजी सिंहासन परसे गिरपडे, यह देख राजा अत्यन्त भयभीत हुआ? उसी समय ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा कि क्या उत्पात होगा? कोई कुछ कोई कुछ कहनेलगे परन्तु यथार्थ उत्तर कोई न दे सका, तन राजाने ढँढोरा पिटवाया कि, जो समाधान करेगा, उसे बडा द्रव्य मिलेगा, इसके उपरान्त फिर उस ब्राह्मण की स्त्रीने प्रार्थना करी, तबवही ब्राह्मण राजाके प्रश्नका उत्तर देनेको आये और बोले कि, राजा! तू कुछ मत डरै, कुछ उत्पात नहीं होगा, जगन्नाथजी गिरते तो उत्पात होनेकी सम्भावना थी और बलदेवजी तो नित्य वारुणी पिये उन्मत्त रहते हैं, इनके गिरनेका क्या आश्चर्य है। तबराजाने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मणको लाख रुपये देदिये और कहा कि, ब्राह्मणको आनेसे कोई मत रोकियो यह पनही मार करही द्रव्य लेते हैं यदि यह ब्राह्मण न होते तो मेरे प्रश्नका उत्तर कौन देता?॥
जैसे सावधान होकर समय समयपर ब्राह्मणोंको मैं नमस्कार करता हूं, उसी प्रकार तुम भी नमस्कार करो और जो कोई मेरी इस आज्ञाको उल्लंघन करेगा, वह पुरुष मुझसे दण्ड पावेगा॥४२॥ ब्राह्मणका धन हरनेवाला नरकमें गिराया जाता है, इस बातको कोई मिथ्या मत समझना, क्योंकि जैसे विनाजाने नृग राजाने ब्राह्मणकी गाय यद्यपि ब्राह्मणकोही दान कर दी थी, परन्तु तो भी नरक में गिरा इसी प्रकार और भी जो ब्रह्मअंश लेते हैं, उन्हैंनरकमें गिरना पड़ता है॥४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन! सब लोकोंको पवित्र करनेवाले मुकुन्द भगवान् इस प्रकार द्वारकावासी यदुवंशियोंको समझाकर अपने मन्दिरमें चलेगये॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां
यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः॥ तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दंडभाक्॥४२॥ ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः॥ अजानंतमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव॥४३॥ एवं विश्राव्य भगवान्मुकुंदो द्वारकौकसः॥ पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमंदिरम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्त०नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६४॥ श्रीशुक उवाच॥ बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान्रथमास्थितः॥ सुहृद्दिदृक्षुरुत्कंठः प्रययौ नंदगोकुलम्॥१॥ परिष्वक्तश्चिरोत्कंठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च॥ रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनंदितः॥२॥ चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः॥ इत्यारोप्यांकमालिंग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः॥३॥ गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवंदितः॥ यथावयो यथासख्यं यथासंबंधमात्मनः॥४॥
नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६४॥ दोहा—पैंसठमें बलरामने, वृन्दावनमें आय। रास रचो यमुना निकट, सबको ताप मिटाय॥६५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण! एक समय भगवान् बलदेवजी अपने सुहृदोंके देखनेके लिये रथमें चढ़कर गोकुलको गये॥१॥ और बहुत दिनोंके आशा लगाये गोप गोपियोंसे मिले, इसके उपरान्त बलदेवजीने पिता माताको प्रणाम किया, तब उन्होंने इनको आशीर्वाद दिया॥२॥ हे दाशार्हवंशोत्पन्न! जगदीश्वर! छोटे भाई कृष्ण सहित तुम हमारी बहुत कालतक रक्षा करो, इस प्रकार गोदमें बैठाल छातीसे लगा, नेत्रोंके आँसुओंसे बलदेवजीको भिजोनेलगे॥३॥ विधिपूर्वक वृद्ध गोपों को प्रणाम करके, छोटे गोपोंने इनको प्रणाम किया, इस प्रकार
बलदेवजी जैसी जिसकी अवस्था और जैसी जिससे मित्रता, जैसा जिससे सम्बन्ध था॥४॥ उसी प्रकार उनको प्राप्त होकर हास्य और हाथ पकड़ना इत्यादिकोंसे मिलकर जब बलरामजी विश्राम लेचुके, तब सुखपूर्वक बैठे और कुशल पूँछी॥५॥ उस समय सब गोप कि जिन्होंने कमल दल लोचन श्रीकृष्ण के लिये सब विषय त्याग दिये हैं, वे सब बलदेवजीके निकट आय चारों ओर बैठ गये और प्रेमसे गद्गद वचन हो अपने बंधु यादवोंकी कुशल पूँछने लगे॥६॥ कि, हे राम! हमारे सब बन्धु तो कुशल हैं? स्त्री और पुत्रसहित तुम हमारी भी कभी सुधि करते हो?॥७॥ यह बड़ी प्रसन्नताकी बात हुई जो महादुराचारी पापी कंस मारागया और यह भी बहुत अच्छा हुआ जो सुहृदलोग बन्दीखानेसेछूटगये, फिर
समुपेत्याथ गोपालान्हास्यहस्तग्रहादिभिः॥ विश्रांतं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः॥५॥ पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा॥ कृष्णे कमलपत्राक्षे संन्यस्ताखिलराधसः॥६॥ कच्चिन्नो बांधवा राम सर्वेकुशलमासते॥ कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः॥७॥ दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः॥ निहत्य निर्जित्य रिपून्दिष्ट्या दुर्गं समाश्रिताः॥८॥ गोप्यो हसंत्यः पप्रच्छू रामसंदर्शनादृताः॥ कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः॥९॥ कच्चित्स्मरति वा बंधून्पितरं मातरं च सः॥ अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति॥ अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः॥१०॥ मातरं पितरं भ्रातॄन्पतीन्पुत्रान्स्वमृृरपि॥ यदर्थेऽजहिमदाशार्ह दुस्त्यजान्स्वजनान्प्रभो॥११॥
वैरियोंका नाश कर समुद्रमें द्वारकापुरी बसाई, यह भी अत्यन्त मंगलकी बात है॥८॥ बलरामजीके दर्शनसे गोपियें प्रसन्न हो हँसकर पूँछने लगीं कि, जिनको नगरकी स्त्रियें अत्यन्त प्यारी हैं वह श्रीकृष्ण तो अच्छे हैं॥९॥ वह श्रीकृष्ण कभी अपने बन्धु बांधवोंकी भी सुधि करते हैं? क्या अपनी माताका दर्शन करनेको एकबार भी वह यहाँआवेंगे? और बड़ी भुजावाले श्रीकृष्णचन्द्र कभी हमारी भी सुधि करते हैं?॥१०॥ हे दाशाहर्वशोंत्पन्न समर्थ बलदेवजी! जिसके कारण हमने दुस्त्यज्य माता, पिता, भाई, पति, पुत्र, बहन और सुहृद यह सब त्याग दिये॥११॥
वा हम सबको त्याग वह शीघ्रही चलेगये और स्नेह तोड़दिया परन्तु उनके वैसे मनोहर कहनेपर कौन स्त्री भरोसा न करे?॥१२॥ हमैं अचम्भा होता है कि, कृतघ्न और जिसका मन स्थिर नहीं, ऐसे श्रीकृष्णके कहनेको बुद्धिमान् द्वारकाकी स्त्रियें किस प्रकार स्वीकार करती होंगी? परन्तुहम कल्पना करती हैं कि, चित्र विचित्र कथावाले श्रीकृष्णचन्द्रके शोभायमान हास्यपूर्वक भौं हैंचलानेसे बढा जो कामदेव उससे आतुर हो स्वीकार करती होंगी
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॥१३॥ और गोपियें बोलीं कि, उनकी बातसे हमें क्या काम? और बात क्यों नहीं कहती, क्योंकि हमारे विना
ता नः सद्यः परित्यज्य गतः संछिन्नसौहृदः॥ कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम्॥१२॥ कथं नु गृह्णंत्यनवस्थितात्मनो वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः॥ गृह्णंति वै चित्रकथस्य सुन्दरस्मितावलोकोच्छसितस्मरातुराः॥१३॥ किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः॥ यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः॥१४॥ इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारु वीक्षितम्॥ गतिं प्रेमपरिष्वंगं स्मरंत्यो रुरुदुः स्त्रियः॥१५॥ संकर्षणस्ताः कृष्णस्य संदेशैर्हृदयं गमैः॥ सांत्वयामास भगवान्नानाऽनुनयकोविदः॥१६॥
जैसे उनका समय व्यतीत होता है उसी प्रकार उनके विना हमारा काल भी व्यतीत होता है. उनका सुखसे बीतैहै, हमारा दुःखसे, अन्तर इतना ही है॥१४॥ इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी हँसनि बोलनि सुन्दर चितवन शोभायमान चलना और प्रेमपूर्वक आलिंगन इन बातोंका स्मरणकर सब गोपियें रोनेलगीं॥१५॥ अनेक प्रकारसे समझानेमें निपुण, भगवान् संकर्षण श्रीकृष्णचन्द्रके संदेशको कहकर समझाने लगे॥१६॥
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दृष्टान्त—एक लालाने बिल्ली पाली थी और उसको नित्यप्रति दूध मलाई खिलाते थे, एक दिन लाला कार्यवश गाँवको गये और बिल्लीको डोरीसे खंभेमें बाँधगये और उसका स्मरण न रहा और कई दिन लगगये बिल्लीका भूखके मारे प्राणान्त होनेलगा, इसके पीछे घरमें कहीं दल्लानके कोनेमें एक रुईका गाला धरा था, सो बिल्लीने जाना कि, यह घीका लोंदा है, सो उछल उछलकर बिल्ली उस रुईके गालेपर जाय परन्तु वह हाथ न आवै, “अब लिया अब लिया"इसी आशामें अठारह दिन व्यतीत होगये इधर लाला अठारह दिनके उपरान्त आनकर कहनेलगे कि, हरे राम बिल्लीकी तो इतिश्री होगई होगी ताला खोलकर देखे तो अभी जीवित है यह विचार ज्यों उसकी डौरी खोली कि, वह झपटकर रुईके गाचेपर गिरी परन्तु वह तो रुईही थी, इसलिये निराश हो झट बिल्लीके प्राण निकलगये इसलिये जीवित है आशा, मरे निराशा, यह बात सत्य है॥
इसके उपरान्त भगवान् बलदेवजीने उस व्रजमें गोपियोंको अनेक प्रकार आनन्द देते चैत्र और वैशाख दो महीने तक वास किया॥१७॥ पूर्ण चन्द्रमाकी कलासे शोभायमान कुमुदिनियोंकी सुगंधयुक्त पवन जहाँ आरही थी इसप्रकार शोभायमान यमुनाजीके बागमें स्त्रियोंको संग लेकर बलदेवजी रमण करनेलगे॥१८॥ उससमय वरुणजीकी भेजी वारुणी मदिरा वृक्षोंकी खोतरियोंमेंसे गिरकर सब वनको अपनी गंधसे सुगंधित करनेलगी॥१९॥ पवनसे प्राप्त मधुधाराकी सुगन्ध सूंघकर बलदेवजी वहाँ आय स्त्रियोंके साथ मदिरापान करनेलगे॥२०॥ स्त्री जिनके चरित्र गान कररहीं और हलायुध धारण करनेवाले मतवाले कमल से विह्वलनेत्र हो बलदेवजी अपने मनमें विचार करनेलगे॥२१॥ वनमाला
द्वौ मासौतत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च॥ रामः क्षपासु भगवान्गोपीनां रतिमावहन्॥१७॥ पूर्णचंद्रकलामृष्टे कौमुदीगंधवायुना॥ यमुनोपावने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः॥१८॥ वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात्॥ पतंती तद्वनं सर्वं स्वगंधेनाध्यवासयत्॥१९॥ तं गंधं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः॥ आघ्रायोपागतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ॥२०॥ उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुधः॥ वनेषु व्यचरत्क्षीबोमदविह्वललोचनः॥२१॥ स्रग्व्येककुंडलो मत्तो वैजयंत्या च मालया॥ बिभ्रत्स्मितमुखांभोजं स्वेदप्रालेयभूषितम्॥२२॥ स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः॥ निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः॥ अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह॥२३॥ पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाऽऽहुता॥ नेष्ये त्वां लांगलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्॥२४॥
और कानोंमें कुण्डल पहरे मतवाले, वैजयन्तीमाला धारण किये इससे अधिक शोभायमान और पसीनेके बिन्दुसे सुन्दर मंद मंद हास्ययुक्त, कमलरूप मुख धारण किये॥२२॥ जलक्रीड़ा करनेके लिये सामर्थ्यवान् बलदेवजी यमुनाजीको बुलानेलगे “यह मतवाले हैं"इसलिये बलदेवजी के वचनका अनादर करके यमुना नहीं आईं, तब भगवान् बलरामजीने अत्यन्त क्रोधित हो, हलके अग्रभागसे खैंचलिया॥२३॥ और बोले कि रे पापिनि! मैंने तुझे बुलाया और तू न आई इसलिये स्वच्छन्द फिरनेवाली तुझको मैं हलके अग्रभागसे
खण्डित करदूँगा
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॥२४॥ हे परीक्षित्! जब इस प्रकार बलदेवजीने कहा तब यमुना अत्यन्त भयभीत और चकित हो उनके चरणोंमें गिरकर कहनेलगी॥२५॥ हे राम! हे राम!! महाबाहो!!! मैं तुम्हारा पुरुषार्थ नहीं जानती, जिन आपके अंश शेषजीने संपूर्ण पृथ्वीको सहस्र फणोंमेंसे एक फणपर धारण कररक्खा है॥२६॥ हे भगवन्! मैं आपके श्रेष्ठ प्रभावको नहीं जानती परन्तु आपकी शरण आई हूँ सो आप क्या मुझे छोडनेको योग्य हो॥२७॥ हे कुरुवंशावतंस परीक्षित्! जब इस प्रकार प्रार्थना करी तब प्रसन्न होकर भगवान् बलदेवजीने यमुनाको छोडदिया और जिसप्रकार हाथी हथिनियोंके संग विहार करताहै उसी प्रकार यमुनामें गोपियों के साथ विहार करने लगे॥२८॥ इच्छापूर्वक विहार करके जब
एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनंदनम्॥ उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप॥२५॥ राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम्॥ यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते॥२६॥ परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम्॥ मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन्प्रपन्नां भक्तवत्सल॥२७॥ ततो व्यमुंचद्यमुनां याचितो भगवान्बलः॥ विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट्॥२८॥ कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासितांबरे॥ भूषणानि महार्हाणि ददौ कांतिः शुभां स्त्रजम्॥२९॥ वसित्वा वाससी नीले मालामामुच्य कांचनीम्॥ रेजे स्वलंकृतो लिप्तो माहेंद्र इव वारणः॥३०॥ अद्यापि दृश्यते राजन्यमुना कृष्टवर्त्मना॥ बलस्यानंतवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि॥३१॥
बलदेवजी जलमेंसे बाहर निकले तब लक्ष्मीजीने इनको दो नीलाम्बरी वस्त्र अमूल्य आभूषण और शोभायमान माला दी॥२९॥ बलरामजी भी नीलवस्त्र पहर और सुवर्णकी माला धारण कर, अच्छी प्रकार चन्दन लगाय इन्द्रके ऐरावत हाथीके समान शोभायमान होनेलगे॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्!महावीर्यवान् भगवान् बलरामजीने यमुनाजीको खैंचा, इस कारण वह स्थान अबतक अनन्त पराक्रम बलरामजीके पराक्रमको जताता हो वैसेही देखने में आता है॥३१॥
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शंका—शेषावतार बलदेवजीका मुनियोंने वर्णन किया है सो बलदेवजीने बडे कामीकी नाईं यमुनाको क्यों खैंचा? यमुनाकी मर्यादाका भीनाश किया यह बढी शंका है?
** उत्तर**—श्रीकृष्णने जब यमुनासे कालियनागको बाहर निकालदिया तब यमुना बहुत अभिमान करनेलगी, बिनाही वर्षाके अधिक मर्यादाको छोडकर चढनेलगी, मुनिजन मथुराको और वृन्दावनको आते जाते तो रात दिन भरी पाते, नौकाको चलने नहीं दे, इस प्रकार यमुनाको उन्मत्त जानकर जलक्रीडा के मिस करके बलदेवजीने यमुनाको दण्ड दिया॥
व्रजकी स्त्रियोंके संग विलास करके चलायमान चित्त बलदेवजीको व्रजमें रमण करते एक रात्रिके समान संपूर्ण रात्रियेंव्यतीत होगई॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां बलदेवकृतयमुनाऽकर्षणंनाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ दोहा—छासठ काशी जाय हरि, पौंड्रकनृपको मार। मित्र सुदक्षिण सहित सब, हनो तासु परिवार॥६६॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब बलरामजी नन्दराय के व्रजमें आये तब अज्ञानी करूषदेशके राजा पौंड्रकने “मैं वासुदेव हूँ"इस प्रकार मनमें विचारकर श्रीकृष्णचन्द्रके पास दूत
एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे॥ रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम्॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धेबलदेवविजये यमुनाकर्षणं नाम पंचषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप॥ वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत्॥१॥ त्वं वासुदेवो भगवानवतीर्णो जगत्पतिः॥ इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम्॥२॥ दूतं च प्राहिणोन्मंदः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने॥ द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः॥३॥ दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्॥ कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसंदेशमब्रवीत्॥४॥ वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः॥ भूतानामनुकंपार्थं त्वं तु मिथ्याऽभिधां त्यज॥५॥
भेजा॥१॥ आप जगत्पति भगवान् वासुदेव प्रगट हुए हो ऐसे मूर्ख मनुष्योंकी प्रशंसासे उत्साह दिलानेपर उसने अपने आपको वासुदेव समझ लिया॥२॥ अचिंत्य मार्गवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पास द्वारकापुरीमें अज्ञानी पौंड्रकने दूत भेजा, जैसे खेलमें बालक एक बालकको राजा बना देता है और वह अपनेको राजा मानता है, उसी प्रकार अपने आपको पौंड्रक वासुदेव मानने लगा॥३॥ कमलपत्रके समान नेत्रवाले श्रीकृष्णचन्द्रको सभामें बैठा देखकर दूत राजा पौंड्रकका संदेशा कहने लगा॥४॥ संपूर्ण प्राणियों के ऊपर कृपा करनेके लिये मैं एकही
वासुदेव उत्पन्न हुआ हूं दूसरा नहीं है। इस कारण तैंने जो अपना मिथ्या नाम वासुदेव धर रक्खा है उसे त्याग दे॥५॥ हे यादवमूढ! तैंने मेरे चिह्न गदा पद्मादि जो धारणकर रक्खे हैं उन्हें शीघ्रही त्यागकर मेरी शरणमें आ और जो इन्हैंत्याग न दे और मेरी शरण न आवैतो मुझसे युद्ध करनेके लिये तैयारी कर॥६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! इसप्रकार मंदबुद्धि पौंड्रकका संदेश सुन, उग्रसेनादि सबसभासद इस बातको असत्य जानकर हँसनेलगे॥७॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर दूतसे कहने लगे कि, हे मूर्ख! कृत्रिम सुदर्शनादि चिह्नोंसे तू अपनी ऐसी बडाई करता है, उन चिह्नोंको मैं तुझपरसे छुड़ादूंगा॥८॥ हे अज्ञानी! जिस समय तू अपने मुखको
यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्विभर्षि सात्वत॥ त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम्॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः॥ उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा॥७॥ उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु॥ उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे॥८॥ मुखं तदपिधायाज्ञ कंकगृध्रवटैर्वृतः॥ शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शूनाम्॥९॥ इति दूतस्तदाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्॥ कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह॥१०॥ पौंड्रकोपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः॥ अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम्॥॥११॥ तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप॥ अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौंड्रकं हरिः॥१२॥
ढककर और काक, गृध्र बगलोसे घिरकर तू मरके सोवैगा, उस समय तू कुत्तोंकी शरण लेगा, अर्थात् वह तुझको भक्षण करेंगे॥९॥ उस समय जो श्रीकृष्णचन्द्रने अनादर करके कहा, सो उसी प्रकार दूतने अपने स्वामी मिथ्या वासुदेवसे जाकर सब कहा और श्रीकृष्णचन्द्र भी रथमें चढ़कर काशीपुरीको गये क्योंकि, उस समय पौंड्रक भी अपने मित्र काशीनरेशके यहाँ आया था, इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र भी वहाँपहुँचे॥ १०॥ हे राजा परीक्षित्!उस समय महारथी पौंड्रक भी श्रीकृष्णचन्द्रके युद्धका उद्यम जान, दो अक्षौहिणी सेना संग लेकर शीघ्रहीकाशीपुरीसे बाहर निकला॥११॥ उस पौंड्रकका मित्र काशीनरेश मित्रकी सहायता करने के लिये पीछेसे आया, तब तीन अक्षौहिणी सेना संगलिये पौंड्रकको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने देखा॥१२
शंख, चक्र, तलवार, गदा, धनुष, भृगुलता आदि चिह्नयुक्त और कौस्तुभमणि धारणकिये वनमालासे देदीप्यमान॥१३॥ रेशमी पीली धोती, उपरना पहरे गरुडध्वज बड़े मोलका मुकुट और आभूषण पहरे मकराकृत कुण्डलोंसे प्रकाशमान हैं
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॥१४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरत वंशावतंस परीक्षित्! जैसे रंगभूमिमें वेष बनाकर नट आता है, उसी प्रकार अपने समान वेष बनाये, मिथ्यावासुदेवको देखकर श्रीकृष्णचन्द्र हँसने लगे, क्योंकि नकलीने ज्योंकी त्यों, नकल उतारी थी॥१५॥ इसके उपरान्त शत्रुलोग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर त्रिशूल, गदा, बेड़े, बर्च्छी,
शंखार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम्॥ बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम्॥१३॥ कौशेयवाससी पीतेवसानं गरुडध्वजम्॥ अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥१४॥ दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यवेषं कृत्रिममास्थितम्॥ यथा नटं रंगगतं विजहास भृशं हरिः॥१५॥ शूलैर्गदाभिः परिघैःशक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः॥ असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम्॥१६॥ कृष्णस्तु तत्पौंड्रककाशिराजयोर्बलं गजस्यंदनवाजिपत्तिमत्॥ गदासिचक्रेषुभिरार्दयन्भृशं यथा युगांते हुतभुक्पृथक्प्रजाः॥१७॥ आयोधनं तद्रथवाजिकुंजरद्विपत्खरोष्टैररिणाऽवखंडितैः॥ बभौ चितंमोदवहं मनस्विनामाक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम्॥१८॥
गुर्ज, नेजा, तलवार, पटा, बाण, आदि शस्त्र चलानेलगे॥१६॥ जैसे प्रलयाग्नि जरायुज, स्वेदज, अंडज, उद्भिज्जइन चार प्रकारके प्राणियोंको पीड़ा देती है, उसी प्रकार भगवान् वासुदेव, मिथ्या वासुदेव और काशी नरेश व उनके हाथी, घोड़े, प्यादे इत्यादि संपूर्ण चतुरंगिणी सेनाको गदा, तलवार, चक्र, बाणादिसे पीडा देनेलगे॥१७॥ हे महाराज! चक्रसे कटेहुए रथ, घोडे, हाथी और प्यादे जिसमें पड़े, वह भूमि उस समय
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शंका—योगियोंको बडे दुःखसे प्राप्त होनेयोग्य जो भगवान् वासुदेवका रूप उस रूपको पौंड्रक नाम राजा क्यों प्राप्त हुआ?
** उत्तर**—पूर्वजन्ममें पौंड्रकनाम राजा भगवान्काबडाभारी तप करता था. जब भगवान् प्रसन्न होकर वर देनेको आये तब उसने यह वरदान मागा कि, आपका स्वरूप बनानेकी बुद्धि मुझको दीजिये, तथा पृथ्वीमें जन्म धारण करके आपके हाथसे मेरी मृत्यु हो तब भगवान्ने यह वरदान दिया, इसलिये पौंड्रकने भगवान्का रूप बनाया था॥
भगवान् भूतनाथकी क्रीडाभूमिके समान भयंकर लगनेलगी, जिसको देखकर वीर पुरुषोंके हृदयमें अति आनन्द प्राप्त हुआ॥१८॥ सेना मारने उपरान्त शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र क्रोधित होकर पौंड्रकसे कहनेलगे कि रे! रे! पापिष्ठ, जो तैंने दूतसे कहलाया था, वह शस्त्र अब तुझपरही छोड़ता हूँ॥१९॥ अरे अज्ञानी! जो तैंने हमारा मिथ्यानाम वासुदेव रखलिया है यह तेरा नाम शीघ्रही छूट जायगा और यदि तेरे सम्मुख युद्ध न करूं तो तेरी शरण लूंगा॥२०॥ हे राजन्!इस प्रकार तिरस्कार कर अत्यन्त तीक्ष्णधारवाले बाणोंसे पौंड्रकका रथ तोड जिस प्रकार देवराज इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतका शिखर काटते हैं उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मिथ्यावासुदेव पौंड्रकका शिर काटडाला॥२१॥
अथाह पौंड्रकं शौरिर्भोभो पौंड्रक यद्भवान्॥ दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते॥१९॥ त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाऽज्ञ मृषा धृतम्॥ व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम्॥२०॥ इति क्षिप्त्वाशितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौंड्रकम्॥ शिरोऽवृश्चद्रथांगेन वज्रेणेंद्रो यथा गिरेः॥२१॥ तथा काशिपतेः कायाच्छिर उत्कृत्त्य पत्रिभिः॥ न्यपातयत्काशिपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः॥२२॥ एवं मत्सरिणं हत्वा पौंड्रकं ससखं हरिः॥ द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमानकथाऽमृतः॥२३॥ स नित्यं भगवद्ध्यानप्रध्वस्ताखिलबंधनः॥ बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत्॥२४॥ शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुंडलम्॥ किमिदं कस्य वा वक्रमिति संशयिरे जनाः॥२५॥ राज्ञः काशिपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबांधवाः॥ पौराश्च हा हता राजन्नाथनाथेति प्रारुदन्॥२६॥
इसके उपरान्त हे परीक्षित्!काशीनरेशका बाणोंसे शिर उखाड काशीपुरीमें ऐसे पटक दिया कि, जिस प्रकार कमलकोशको पवन पटक देता है॥२२॥ इसप्रकार मित्रसहित मिथ्यावासुदेवको मार सिद्धोंसे गाईहुई अपनी कीर्त्तिको श्रवण करतेहुए भगवान् वासुदेव द्वारकापुरीमें आये॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! सदा भगवान्का ध्यान करनेके कारण कटगये हैं सब बंधन जिसके, ऐसा वह मिथ्या वासुदेव पौंड्रक श्रीकृष्णचन्द्रका रूप धारण किये तद्रूप होगया॥२४॥ हे महाराज!काशीके राजद्वारपर कुण्डलोंसहित पड़े शिरको देखकर “यहक्या है? किसका शिर है?“इस प्रकार मनुष्य सन्देह करनेलगे॥२५॥ हे कुरुकुलकी शोभा! पीछे काशीपुरीके राजाका शिर जानकर
रानी, पुत्र, भाई और पुरवासी, हे नाथ! हे नाथ!हम मरे, इस प्रकार कह रोदन करने लगे. इसपर एक दृष्टान्त है
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॥२६॥ काशीनरेशका सुदक्षिण नाम पुत्र अपने पिताके मरनेसे अत्यन्त शोकाकुल हो पिताके मारनेवाले कृष्णको मारकर पिताका ऋण चुकाऊँगा॥२७॥ इस प्रकार बुद्धिसे निश्चय करके उपाध्यायोंसहित सुदक्षिण परमसमाधि लगाकर भगवान् महादेवजीका पूजन करनेलगा॥२८॥ विशेष करके
सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पितुः॥ निहत्य पितृहंतारं यास्याम्यपचितिं पितुः॥२७॥ इत्यात्मनाऽभिसंधाय सोपाध्यायो महेश्वरम्॥ सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना॥२८॥ प्रीतो विमुक्तो भगवांस्तस्मै वरमदाद्भवः॥ पितृहंतृवधोपायं स वव्रेवरमीप्सितम्॥२९॥ दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्॥ अभिचार विधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः॥३०॥ साधयिष्यति संकल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः॥ इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन्व्रती॥३१॥
मुक्त भगवान् भूतेश्वर प्रसन्न होकर सुदक्षिणसे “वर माँग"इस प्रकार कहने लगे, तब सुदक्षिणने “पिताके मारनेवालेके मारने का उपाय बताओ"यह वर माँगा॥२९॥ तब भगवान् भोलानाथ बोले कि, तू ब्राह्मणोंके संग ऋत्विक्के समान आज्ञाकारी दक्षिणाग्निका मारणकी विधिसे पूजन कर, वह अग्नि प्रमथोंके साथ तेरे सब मनोरथोंको पूर्ण करेगी॥३०॥ परन्तु यह प्रयोग ब्राह्मणकी भक्तिसे रहित पुरुषपर चला
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* दृष्टान्त—एक बनियेने देखा देखी अपनी डडी तोलनी छोड दी और चोरोंके साथ रह कमर बाँध चोरी करनेलगा, अपने मनमें विचार किया कि, भला रोजगार है, घडीभरमेंही हजारोंका माल मिलजाता है। सो कहीं किसी चोरोंके संग कुमल दे भीतर घुसे तो जाग होगई राजाके सिपाही दौडपडे, सो वह चोर तो सगके सब रफू चक्कर होगये, परन्तु इस बनियेसे न भागागया तब निकटही एक तालाबमें तलवार डाल वह बनियाँ जलमें घुसा अब सिपाहियोंको चोर तो मिले नहीं और प्यास लगी तो वह तालाबके निकट आये, सो वहाँ लालाको देखकर पकडा कि, तुम यहाँ कैसे आये? बनियाँ बोला कि, महाराज! मैंशोचके लियेयहाँ आया था सो चोरोंको देख डरकेमारे तालाबमें घुसगया फिर आपसे डरा कि कहीं चोर जानकर मुझे भीन पकडलें और चोरोंको मैने पहँचान लिया है, जिनके नाम भी आपको बतलाताहूं, परसा, सेहू, रामसहा, फकीरा, ऊधा, लल्ला, बाँके, शकर, सिपाहीलाल, ज्ञानी, बाबू, मुन्नासिंह, चोखे, गौरी, और मक्खन इत्यादि पचास आदमियोंके नाम लिखवाकर सबको पकडवादिया और भी अब बनियेपर गगाराम घूमें इसलिये अपना काम छोडकर पराया काम नहीं करना चाहिये देखो पराया काम करनेसे पौंड्रक मारागया॥
वेगा, तो तेरा संकल्प सिद्ध होगा, अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्रपर चलावेगा तो उलटा पड़ेगा, वह तो ब्राह्मणोंके सेवा करनेवाले और उनके अत्यन्त प्रिय हैं, इसप्रकार आज्ञा पाय, नेम ग्रहण कर सुदक्षिण श्रीकृष्णकी घात और उनके मारनेके लिये जैसे शिवजीने आज्ञा दी थी उसी प्रकार करने लगा॥३१॥ हे राजन! तब कुण्डमेंसे अत्यन्त भयानक मूर्त्तिमान् अग्नि निकला, जिसकी तप्तता ताम्रके समान शिखा और दाढी मूछैंथीं, नेत्र और मुखसे अंगारे उगलता था॥३२॥ जिसका मुख, दाढ़ और बड़ी तीक्ष्ण भ्रुकुटी दंडसे विकराल हैं, इसप्रकार अपनी जीभसे होठोंको चाटता नग्न और देदीप्यमान त्रिशूलको घुमाता॥३३॥ बड़े तालके समान लम्बे पाँवोंसे पृथ्वीको कम्पायमान और दशों दिशाओंको
ततोऽग्निरुत्थितः कुंडान्मूर्तिमानतिभीषणः॥ तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरंगारोद्गारिलोचनः॥३२॥ दंष्टोग्रभ्रुकुटीदंडकठोरास्यः स्वजिह्वया॥ आलिहन्सृक्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलन्॥३३॥ पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कंपयन्नवनीतलम्॥ सोऽभ्यधावद् वृतोभूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः॥३४॥ तमाभिचारदहनमायांतं द्वारकौकसः॥ विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे भृगा यथा॥३५॥ अक्षैः सभायां क्रीडतं भगवंतं भयातुराः॥ त्राहित्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम्॥३६॥ श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्॥ शरण्यः संप्रहस्याह मा भैष्टेत्यविताऽस्म्यहम्॥३७॥ सर्वस्यांतर्बहिः साक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः॥ विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत्॥३८॥
जलाता, भूत प्रेतोंको संग लिये वह अग्नि द्वारकापुरीमें पहुँचा॥३४॥ वनके जलनेसे मृग जैसा त्रास पातेहैं, ऐसी कृत्याग्निको देखकर उसी प्रकार सब द्वारकावासी लोग त्रास पानेलगे॥३५॥ और वह सब भयभीत हो सभामें पाँसोंसे खेलते श्रीकृष्णचन्द्रसे जाकर कहनेलगे कि, हे त्रिलोकीनाथ!अग्निसे सब पुरी भस्म हुई जाती है, इसकी रक्षा करो॥३६॥ मनुष्योंकी अधिक व्याकुलता सुन और अपने पुरवासियोंकी घबराहट देखकर, शरणागतोंके रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर “भय मत करो मैंरक्षा करूंगा"इस प्रकार कहनेलगे॥३७॥ सबके भीतर बाहरके देखनेवाले सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे श्रीमहादेवजीकी कृत्याग्नि जान उसका नाश करनेके लिये समीपही खडेहुये चक्रसे
आज्ञा करने लगे॥३८॥ करोड सूर्यके समान तेजस्वी प्रलयकालके, अग्रिकी तुल्य कान्तिमान् अपने तेजसे आकाश, दिशा, स्वर्ग और पृथ्वीको प्रकाशमान करता भगवान्काअस्त्र सुदर्शनचक्र उस अग्निको पीडा देनेलगा॥३९॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्!श्रीकृष्णचन्द्रके अस्त्रके तेजसे प्रतिहत और भग्नमुख होकर वह अग्नि पीछेको लौटगई और काशीमें आकर यज्ञ करानेवाले ऋत्विजोसहित सुदक्षिणको जलानेलगी, क्योंकि अपना किया अभिचार है, इसका यही स्वभाव है कि, जो शत्रुपर चलजाय तो चलजाय, नहीं तो जो चलावैउसको भस्म करै, सो सुदक्षिणको क्षणमात्रमें भस्म करदिया॥४०॥ उस अग्निके पीछे पीछे आय श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रने मंचान सहित सभा, हवेली, दूकान, पुरके दरवाजे और खजाने
तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्॥ स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी चक्रं मुकुंदास्त्रमथाग्निमार्दयत्॥३९॥ कृत्यानलः प्रतिहतः स रथांगपाणेरस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः॥ वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः॥४०॥ चक्रं च विष्णोस्तदनु प्रविष्टं वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्॥ सगोपुराट्टालककोष्ठसंकुलां सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालाम्॥४१॥ दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्॥ भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः॥४२॥ य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमश्लोकविक्रमम्॥ समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे पौंड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥
सहित अटारी, कोठे, घोडे, अन्न इनकी शालावाली काशी पुरीको क्षणमात्रमें भस्म करदिया॥४१॥ सरलकर्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका सुदर्शनचक्र संपूर्ण काशीको भस्म कर फिर निकट आनकर खड़ा होगया॥४२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत परीक्षित्!उत्तमश्लोक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह पराक्रम जो मनुष्य सावधान होकर श्रवण करतेहैं अथवा औरको श्रवण करातेहैवह संपूर्ण पापोंसे छूट जाते हैं॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां पौंड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥
दोहा—सरसठमें बलरामजी, रैवत गिरिपर जाय।नारिन सँग क्रीड़ा करत, हनो द्विविद कपिराय॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! अद्भुतकर्मा अनन्त अप्रमेय बलदेवजीने जो जो चरित्र किये उनके सुननेकी फिर मेरी अभिलाषा है, सो कृपाकरके मेरे सन्मुख वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!नरकासुरका मित्र सुग्रीवका मंत्री और मयंदका भ्राता बडा पराक्रमी कोई वानर द्विविद नामसे प्रसिद्ध था
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॥२॥ सो अपने मित्र नरकासुरका ऋण चुकानेके लिये इस बंदरने पुर, ग्राम, खानि, खिरक, छपरोंका और देशोंका नाश
राजोवाच॥ भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्भुतकर्मणः॥ अनंतस्याप्रमेयस्य यदन्यत्कृतवान्प्रभुः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ नरकस्य सखा कश्चिद्द्विविदो नाम वानरः॥ सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान्॥२॥ सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन्वानरो राष्ट्रविप्लवम्॥ पुरग्रामाकरान्घोषानदहद्वह्निमुत्सृजन्॥३॥ क्वचित्स शैलानुत्पाट्यतैर्देशान्समचूर्णयत्॥ आनर्तान्सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः॥४॥ क्वचित्समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्य तज्जलम्॥ देशान्नागायुतप्राणो वेलाकूलानमज्जयत्॥५॥ आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन्॥ अदूषयच्छकृन्मूत्रैरग्नीन्वैतानिकान्खलः॥६॥
करदिया॥३॥ कभी यह बन्दर पर्वतोंको उठाय, उनसे देशोंका चकनाचूर कर देता और विशेष करके आनर्त्तदेशोंको महाकष्ट देनेलगा, क्योंकि नरकासुरके मारनेवाले श्रीकृष्ण वहीं विराजते थे॥४॥ दशहजार हाथीके बलवाला द्विविद बन्दर समुद्रके बीचमें खडा होकर भुजाओंसे जलको उछालता समुद्रके तटपर जो देश थे, उनको डुबोने लगा॥५॥ वह दुष्ट वानर बड़े बड़े ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर वृक्षोंको
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शंका—
द्विविद नाम वानर श्रीकृष्णका बडाप्यारा था, तब सब वानर तो त्रेतामें स्वर्गको चलेगये द्विविदको श्रीराघवजी स्वर्गको क्यों नहीं लेगये?
** उत्तर**—
रामचन्द्र और रावणका युद्ध होता था, उस समय अर्द्धरात्रि थी द्विविद नाम वानरने रामचन्द्र से बूझा भी नहीं अपनी सेना लेके रावणके मंदिरमें घुसगया और बहुतसी रावणकी रानियोंको पकड कर नंगी कर दिया और मारा भी, कुछ देर पीछे श्रीमर्यादापुरुषोत्तम जो श्रीरघुनाथजी थे उनको यह खोटा कर्म द्विविदने किया ऐसा जानपडा, तब उसी समय श्रीरघुनाथजीने अपनी सेनासे उसको निकाल दिया द्विविदने पीछेसे अपने मोक्ष होनेके लिये श्रीरघुनाथजीकी विनय की, तबरामचन्द्रजीने कहा द्वापरमें तेरी मुक्ति होगी है दुष्ट! आजसे हम तेरा मुख नहीं देखेंगे परन्तु शेषजी तुझको द्वापरमें मारेंगे तब तेरी मोक्ष होगी इसलिये द्विविदको बलदेवजीने मारा और त्रेतामें स्वर्गको नहीं गया॥
तोड़, मल, मूत्र करके यज्ञकी अग्निको दूषित करनेलगा॥६॥ महाघमण्डी वह बन्दर स्त्री और पुरुषोंको पकड़ पकड़कर पर्वतोंकी गुफा वकंदराओंमें रखकर जैसे भ्रमरी कीडेको भूंद देती है उसी प्रकार भूंद देता था॥७॥ इस प्रकार वह बंदर देशोंमें उपद्रव करता और कुलकी स्त्रियोंको दोष लगाय, मनोहर गीत सुनकर रैवत नाम पर्वत पर चला गया॥८॥ वहाँ जाकर यादवोंके पालन करनेवाले, कमलकी माला धारण किये, सुन्दर अंग स्त्रियोंके बीचमें बैठे बलरामजीको देखा॥९॥ वारुणी मदिरा पीकर गान करते, मदसे विह्वल नेत्र मतवाले हाथियोंके समान शरीर से प्रकाशमान॥१०॥ दुष्ट शाखामृग बन्दर वृक्षोकी शाखाओंपर चढकर उनको हिलाताहुवा आपेको दिखाकर किचिर शब्द करने
पुरुषान्योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः॥ निःक्षिप्य चाप्यधाच्छलैः पेशकारीव कीटकम्॥७॥ एवं देशान्विप्रकुर्वन्दूषयंश्च कुलस्त्रियः॥ श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ॥८॥ तत्रापश्यद्यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम्॥ सुदर्शनीयसर्वांगं ललनायूथमध्यगम्॥९॥ गायंतं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम्॥ विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम्॥१०॥ दुष्टः शाखामृगः शाखामारूढः कंपयन्द्रुमान्॥ चक्रे किलकिलाशब्दमात्मानं संप्रदर्शयन्॥११॥ तस्य धार्ष्ट्यंकपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः॥ हास्यप्रिया विजहसुर्बलदेवपरिग्रहाः॥१२॥ ता हेलयामास कपिर्भ्रूक्षेपैः संमुखादिभिः॥ दर्शयन्स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षतः॥१३॥ तं ग्राव्णा प्राहरत्क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः॥ स वंचयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः॥१४॥ गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपन्हसन्॥ निर्भिद्य कलशं धृष्टो वासांस्यास्फालयद्बलम्॥१५॥
लगा॥११॥ उस बन्दरकी धृष्टता देख, स्वभावसे चंचल जो हास्यप्रिय श्रीबलदेवजीके संगकी स्त्रियें भी हँसनेलगीं॥१२॥ वह बन्दर भ्रुकुटी चढ़ाकर सामने ही घुडककर स्त्रियोंको अपनी गुदा दिखलाय बलदेवजीके देखतेही स्त्रियोंकी अवज्ञा करने लगा॥१३॥ प्रहार करनेवालोंमें श्रेष्ठ बलदेवजीने क्रोधित होकर उस बन्दरको पत्थर मारा परन्तु वह धूर्त बन्दर पत्थरको बचाय, मदिराके कलशको फोड॥१४॥ उसे लेकर हँसकर बलदेवजीको क्रोध उत्पन्न कराय अवज्ञा करने लगा, इसके पीछे वह धृष्ट बन्दर मदिराके कलशको फोड स्त्रियोंके वस्त्रोंको
खैंचकर फाडनेलगा॥१५॥बडा बलवान् मदसे उद्धत बन्दर बलदेवजीकीभी कदर्थना करके दुःख देनेलगा॥उस बन्दरकी अनम्रता देख और उसके किये देशोंमें उपद्रव देख अत्यन्त क्रोधित हो बलदेवजीने उस वैरीके मारनेके लिये अपने हाथमें हल, मूसल ग्रहण किया॥१६॥हे राजन्! उस बडे पराक्रमी बंदरने भी हाथसे शालवृक्षको उखाड और शीघ्रतासे निकट आय उस वृक्षकी चोट भगवान् बलरामजीके माथेमें मारी॥१७॥पर्वतके समान माथेपर पडतेहुए शालवृक्षको भगवान् बलरामजीने बलपूर्वक पकड लिया, और अपने मूसलको घुमाकर उस बन्दरको मारा॥१८॥मूसलसे बन्दरका शिर फूटगया, तब जलप्रवाहके समान रुधिरकी धारा बहने लगी, जिससे वह गेरू निकलतेपर्वतके
कदर्थीकृत्य बलवान्विप्रचक्रे मदोद्धतः॥तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान्॥क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया॥१६॥द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना॥ अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत्॥१७॥तं तु संकर्षणो मूर्ध्नि पतंतमचलो यथा॥प्रतिजग्राह भगवान्सुनंदेनाहनच्च तम्॥१८॥मुसलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया॥गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिंतयन्॥१९॥पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा॥तेनाहनत्सुसंक्रुद्धस्तं बलः शतधाऽच्छिनत्॥२०॥ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाऽच्छिनत्॥एवं युध्यन्भगवता भग्नेभग्ने पुनःपुनः॥२१॥आकृष्य सर्वतो वृक्षान्निर्वृक्षमकरोद्वनम्॥ततोऽमुंचच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः॥तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः॥२२॥
समान शोभायमान होनेलगा और उस प्रहारको कुछ न विचारकर उस बन्दरने॥१९॥अत्यन्त क्रोधसे फिर बलपूर्वक और वृक्षको उखाड उसके सब पत्तोंको छुडाकर बलदेवजीको मारा, बलदेवजीने उसी समय उस वृक्षके टुकडे टुकडे कर दिये इसके उपरान्त इस बंदरने और वृक्षको उखाड महावीर्यवान् बलदेवजीके ऊपर प्रहार किया, परन्तु बलदेवजीने उसके भी सौ खण्ड कर दिये इसप्रकार भगवान् बलदेवजीके साथ युद्ध करके बारम्बार जब वृक्ष कटगये तबयह चारोंओरसे वृक्षोको उखाडकर निर्वृक्ष वन करनेलगा॥२०॥२१॥इसके उपरान्त असहनतासे वह बन्दर महात्मा बलदेवजीके ऊपर पत्थरोंकी वर्षा करनेलगा, तब मूसलधारी बलदेवजीने लीलापूर्वकहीबन्दरके वर्षाये पत्थरोंको चूर्ण कर दिया॥२२॥
बन्दरोंके स्वामी इस बन्दरने तालवृक्षके समान बड़ी भुजाओंकी मुट्ठी बाँध, रोहिणीके पुत्र बलरामजीके पास जाकर उनकी छातीमें एक घूँसा मारा॥२३॥हे राजन्! यादवोंके इन्द्र बलरामजी भी हल मूसलको छोड और अत्यन्त क्रोधित होकर भुजाओंसे उसके कंठको मर्दन करनेलगे, उससमय वह बन्दर रुधिरको वमन करताहुआ पृथ्वीमें गिरकर मृत्युको प्राप्तहुआ॥२४॥हे कुरुशार्दूल! जिससमय वह बन्दर गिरा तब जैसे जलमें नाव काँपती है, उसीप्रकार टंक और वृक्षोसहित वह पर्वत काँपने लगा॥२५॥आकाशमार्गमें देवता, सिद्ध, मुनीश्वर फूलोंकी वर्षा कर जय शब्द और नमःशब्द और भले भले शब्द करने लगे॥२६॥इसप्रकार जगत्के नाश करनेवाले बन्दरको मार और जनोंसे स्तुतिको
स बाहू तालसंकाशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः॥आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत्॥२३॥यादवेंद्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललांगले॥जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद्रुधिरं वमन्॥२४॥चकंपे तेन पतता सटंकः सवनस्पतिः॥पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवांभसि॥२५॥जयशब्दो नमःशब्दः साधुसाध्विति चांबरे॥सुरसिद्धमुनींद्राणामासीत्कुसुमवर्षिणाम्॥२६॥एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम्॥संस्तूयमानो भगवाञ्जनैः स्वपुरमाविशत्॥२७॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोध्यायः॥६७॥ ॥श्रीशुक उवाच॥दुर्योधनसुतां राजँल्लक्ष्मणां समितिंजयः॥स्वयंवरस्थामहरत्सांबो जांबवतीसुतः॥१॥कौरवाः कुपिता ऊचुर्दुर्विनीतोऽयमर्भकः॥कदर्थीकृत्य नः कन्यामकामामहरद्बलात्॥२॥
प्राप्त होकर ऐसे भगवान् बलदेवजी अपनी पुरी द्वारकामें आये॥२७॥इति श्रीमद्भागवतेमहापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥दोहा–अरसठमाहीं साम्बको, कौरव कीन्हो बन्द॥हलधर गजपुर उलटकर, लाये सुतनिरद्वन्द॥६८॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! युद्धमें जीतनेवाला जाम्बवतीका पुत्र साम्ब दुर्योधनकी पुत्री लक्ष्मणाको जबस्वयंवरमेंसे हरलाया उससमय सम्पूर्ण कौरव क्रोधित होकर कहनेलगे कि, यह बालक बडा अनम्र है, क्योकि हमारा अनादर, करके इच्छा न
करती हमारी कन्याको बलात्कार हरण किया॥१॥२॥ इसलिये इस अनम्र बालकको पकडकर बाँधलो, यादव हमारा क्या करैंगे, क्योंकि वह तो हमारीही प्रसन्नतासे वृद्धिको प्राप्त हुएहैं और हमारी ही दीहुई पृथ्वीका भोग करते हैं॥३॥यदि इस बालकको बँधा सुनकर जो यहां यादव आवेंगे, तो जैसे प्राणायाम करनेपर इन्द्रियें शान्त होजाती हैं, उसीप्रकार गर्वभंजन होनेपर शान्तिको प्राप्त होवेंगे॥४॥ हे महाराज! इस प्रकार भीष्मजी की संमतिसे कर्ण, शल्य, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधन यह बाँधनेका उपाय करनेलगे॥५॥ महारथी साम्ब पीछे आते छः धृतराष्ट्रके अनुयायिओंको देखकर सुन्दर धनुष हाथमें ले सिंहके समान अकेलाही खड़ाहुआ॥६॥ इसके उपरान्त कर्णादि धनुषधारी वीर क्रोधमें भर
बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यंति वृष्णयः॥ येऽस्मत्प्रसादोपचितां दत्तां नो भुंजते महीम्॥३॥ निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यंतीह वृष्णयः॥ भग्नदर्पाः शमं यांति प्राणा इव सुसंयताः॥४॥ इति कर्णः शलो भूरिर्यज्ञकेतुः सुयोधनः॥सांबमारेभिरे बद्धं कुरुवृद्धानुमोदिताः॥५॥ दृष्ट्वानुधावतः सांबो धार्तराष्ट्रान्महारथः॥ प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः॥६॥ तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धास्तिष्ठतिष्ठेतिभाषिणः॥ आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन्॥७॥ सोऽपाविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनंदनः॥ नामृष्यत्तदचिंत्यार्भः सिंहः क्षुद्रमृगैरिव॥८॥ विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान्विव्याध सायकैः॥ कर्णादीन्षड्रथान्वीरस्तावद्भिर्युगपत्पृथक्॥९॥ चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकैकेन च सारथीन्॥रथिनश्च महेष्वासांस्तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन्॥१०॥
साम्बको पकडने के लिये “खड़ा रहु, खडा रहु”इसप्रकार कहतेहुए निकट आकर बाणोंकी वर्षा करनेलगे॥७॥ हे कुरुकुलभूष यदुवंशियोंकोआनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र साम्बको जब कौरवोंने बाण मारे तब वह, क्षुद्र पशुओंके पराक्रमको सिंह जैसे सहन नहीं करता है उसी प्रकार साम्ब उनका बल नहीं सहसके॥८॥ इसके पीछे वीर साम्बने मनोहर धनुष चढ़ाकर कर्णादिक छः वीरोको, छः बाणोसे एक संग बींधड़ाला॥९॥चार बाणोंसे रथके चारों घोड़ोंको और एक बाणसे रथवानको बींध डाला, तब बड़े बड़े धनुषधारी छः रथी
साम्बके पराक्रमकी प्रशंसा करनेलगे॥१०॥ उन कौरवोंमेंसे चार जने तो साम्बके चारों घोड़ोंको और एक जनेने रथवान्को मारा, एकने धनुषको तोड़दिया इस प्रकार मिलकर साम्बको विरथ करने लगे॥११॥ इसके उपरान्त हे परीक्षित्!कौरववीर युद्धमें बालक साम्बको विरथ कर उन्हें बाँध, जीतके अपनी कन्या ले अपने पुरमें चले गये॥१२॥ हे नृपोत्तम!देवर्षि नारदजीके मुखसे साम्बको बँधा सुन यादव अत्यन्त क्रोधित हो; राजा उग्रसेनकी आज्ञा पाकर कौरवोंसे लडनेका उद्यम करने लगे॥१३॥ कलियुगके पापोंका नाश करनेवाले बलदेवजी, कौरव और यादवोका विरोध न हो, यह विचार कवच पहर, हथियार बाँध, यादवोंको समझाय॥१४॥ सूर्यके समान प्रकाशमान रथमें बैठ, ब्राह्मण
तं तु ते विरथं चक्रुश्चत्वारश्चतुरो हयान्॥ एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम्॥११॥ तं बद्धा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि॥ कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन्॥१२॥ तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन्संजातमन्यवः॥ कुरून्प्रत्युद्यमं चक्रुरुग्रसेनप्रचोदिताः॥१३॥ सांत्वयित्वा तु तान्रामः सन्नद्वान्वृष्णिपुंगवान्॥नैच्छत्कु रूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः॥१४॥ जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा॥ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्चवृतश्चंद्र इवग्रहैः॥१५॥ गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः॥ उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्टं बुभुत्सया॥१६॥ सोऽभिवंद्यां बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च बाह्लिकम्॥ दुर्योधनं च विधिवद्राममागतमब्रवीत्॥१७॥तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम्॥ तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मंगलपाणयः॥१८॥
और कुलवृद्ध पुरुषोंको संग लेकर, जैसे ग्रहों सहित चन्द्रमा जाता है, उसी प्रकार हस्तिनापुरको चले गये॥१५॥ हे महाराज!महाबलवान् बलरामजीने हस्तिनापुरमें पहुँच और पुरके बाहर बगीचेमें ठहरकर कौरवोंका अभिप्राय जाननेके लिये धृतराष्ट्रके पास उद्धवजीको भेजा॥१६॥ उद्धवजीने अम्बिकाके पुत्र धृतराष्ट्रको प्रणाम कर भीष्मजी और बाह्लीकसहित द्रोणाचार्य व दुर्योधनको विधिपूर्वक प्रणाम करके “बलदेवजी आये हैं”यह कहा॥१७॥ अत्यन्त हितकारी बलरामजीको आयाहुआ सुन सब कौरव अतिप्रसन्न हो उद्धवजीका पूजनकर और भेंट हाथमें लेले भगवान् बलरामजीके सन्मुख गये॥१८॥
और संपूर्ण कौरवोंने यथायोग्य बलदेवजीसे मिलकर गौ और धन दिया और उन कौरवोंमें बलरामजीके प्रभावको जाननेवाले इन्हैंशिर नवाकर प्रणाम करनेलगे॥१९॥समस्त बंधुबांधवोंकी कुशल श्रवणकर, परस्पर कुशल क्षेम पूँछ, इसके पीछे जिसके सुननेसे व्याकुलता उत्पन्न हो, ऐसा वचन बलरामजी कहनेलगे॥२०॥ बलरामजीने कहा कि, सामर्थ्यवान् पृथ्वीके ईश्वर राजा उग्रसेनने जो तुम्हैंआज्ञा की है, उसे एकाग्रचित्तसे श्रवणकर शीघ्र उसका पालन करो॥२१॥ राजा उग्रसेनने यह कहा है कि, तुम बहुत जनोंने जो अधर्म कर उस धर्मात्मा बालकको बाँधलिया है, यह तुम्हारा अपराध, भाइयोंकी परस्पर एकता रहै, विरोध न हो, इसलिये हमने सहन करलिया अब तुम शीघ्र साम्बको लाकर
तं संगम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यदेवयन्॥ तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम्॥१९॥ बंधून्कुशलि नः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम्॥ परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः॥२०॥ उग्रसेनः क्षितीशेशो यद्वआज्ञापयत्प्रभुः॥ तदव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं मा विलंबितम्॥२१॥ यद्यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाऽधर्मेण धार्मिकम्॥ अबध्नीताथ तन्मृष्ये बंधूनामैक्यकाम्यया॥२२॥ वीर्यशौर्यबलोन्नद्धमात्मशक्तिसमं वचः॥ कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः॥२३॥ अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया॥ आरुरुक्षत्युपानद्वै शिरो मुकुटसेवितम्॥२४॥ एते यौनेन संबद्धाः सहशय्यासनाशनाः॥ वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद्दत्तनृपासनाः॥२५॥चामरव्यजने शंखमात पत्रं च पाण्डुरम्॥ किरीटमासनं शय्यां भुंजंत्यस्मदुपेक्षया॥२६॥
हमको अर्पण करो॥२२॥ इसप्रकार पराक्रम, शूरता, बलयुक्त और अपने सामर्थ्यके समान बलरामजीके वचन सुन अत्यन्त कुपित होकर कौरव कहनेलगे॥२३॥ कि अहो! बड़े आश्चर्यकी बात है, देखो! कालकी गति बडी दुरत्यय है जो मुकुटके सेवाकरने योग्य मस्तकपर जूती अपना अधिकार करना चाहती है॥२४॥ इनके यहँसे जबसे पृथाको व्याह कर लाये तबसेही यादवोंसे संबन्ध हुआ और हमनेही पलँगपर सुवा, संगबिठा, संग भोजन करा, राज्यसिंहासन दे यादवोंको अपने समान कर लिया है॥२५॥ चमर, पंखा, श्वेतछत्र, किरीट, आसन और
शय्या इत्यादि हमारी दीहुई वस्तु यादवलोग भोग करते हैं जैसे कोई॥२६॥ सर्पोको दूध पिलाता है और वह पिलानेवालेकोही काटता है, उसी प्रकार इन्होने हमारे साथ वर्त्ताव किया, ऐसे यादव राज्यकी वस्तु छत्र, चामरादिकसे परिपूर्ण हो और हमारीही प्रसन्नतासे वृद्धिको प्राप्त हुये, अब हमकोही आज्ञा करते हैं, बड़े कष्टकी बात है कि, इन्हैंलाज न आई, इसलिये यादव बड़े निर्लज्ज हैं॥२७॥ भीष्म, द्रोण और अर्जुन आदि कौरवोकी न दीहुई वस्तु क्या इन्द्र भी लेसक्ता है? कभी नहीं, जिस प्रकार सिंहकी वस्तु उसके दिये विना भेड़ नहीं ग्रहण कर सक्ती॥२८॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इस प्रकार जन्म बन्धु और लक्ष्मीसे मदोन्मत्त वह असभ्य कौरव बलरामजी से दुर्वचन कह
अलं यदूनां नरदेवलांछनैर्दातुः प्रतीपैः फणिनामिवामृतम्॥ येऽस्मात्प्रसादोपचिता हि यादवा आज्ञापयंत्यद्य गतत्रपाबत॥२७॥ कथमिंद्रोऽपि कुरुभिर्भीष्मद्रोणाजुनादिभिः॥ अदत्तमवरुंधीत सिंहग्रस्तमिवोरणः॥२८॥श्रीशुक उवाच॥जन्मबंधुश्रियोन्नद्धमदास्ते भरतर्षभ॥ आश्राव्य रामं दुर्वाच्यमसभ्याः पुरमाविशन्॥२९॥ दृष्ट्वा कुरूणांदौशील्यं श्रुत्वाऽवाच्यानि चाच्युतः॥ अवोचत्कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन्मुहुः॥३०॥ नूनं नानामदोन्नद्धाः शांतिं नेच्छंत्यसाधवः॥ तेषां हि प्रशमो दंडः पशूनां लगुडो यथा॥३१॥ अहो यद्वन्सुसंरब्धान्कृष्णं च कुपितं शनैः॥ सांत्वयित्वाऽहमेतेषां शममिच्छन्निहागतः॥३२॥
कर हस्तिनापुरको चलेगये॥२९॥ कौरवोंकी दुष्टता देख और न कहने योग्य वचन सुन अत्यन्त क्रोधित हो, देखनेमें न आवैंइस प्रकार बलदेवजी वारंवार हँसकर कहनेलगे॥३०॥ कि, अनेकप्रकारके मदसे मर्यादारहित असाधुकौरव निश्चयही शान्ति नहीं चाहते, पशु जैसे लाठीसेही शान्त होते हैं, उसी प्रकार दुष्टोंके शान्ति करनेका उपाय दण्डही है॥३१॥ अत्यन्त क्रोधी यादवोंको धीरे धीरे समझाकर और क्रोधमें भरे श्रीकृष्णको संमझाकर इन कौरवोंका मिलाप करानेके लिये मैं यहाँआयाहूँ॥३२॥
और यह मंदबुद्धि, कलहप्रिय, दुष्ट अभिमानी कौरवोंने मेरा अपमान करके और मुझे निन्दित वचन कहे॥३३॥ भोज, वृष्णि, अंधक कुलके ईश्वर, उग्रसेनकी आज्ञाको इन्द्रादि बडे बडे लोकपाल भी मानते हैं सो क्या वह कौरवोंको आज्ञा करनेको समर्थ नहीं हैं॥३४॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्रने देवराज इन्द्रकी सभाको पाँवों से खूँद और देवताओंका कल्पवृक्ष लाकर अपने महलके बगीचेमें लगाया, वह क्या समर्थ नहीं हैं?॥३५॥ संपूर्ण जगत्की ईश्वरी लक्ष्मी साक्षात् जिनके चरणारविन्दोंका सेवन करें वह लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्र क्या राजाओंकी वस्तुके योग्य नहीं हैं॥३६॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दोंकी रज, सब लोकोंका पालन करनेवाले ब्रह्मादिक अपने मुकुटयुक्त माथेपर धारण करते हैं और जो गंगा
त इमे मंदमतयः कलहाभिरताः खलाः॥ तं मामवज्ञाय मुहुर्दुर्भाषान्मानिनोऽब्रुवन्॥३३॥ नोग्रसेनः किल विभुर्भोजवृष्ण्यंधकेश्वरः॥ शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः॥
३४॥ सुधर्माऽऽक्रम्यते येन पारिजाताऽमरांघ्रिपः॥ आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः॥३५॥ यस्य पादयुगं साक्षाच्छ्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी॥ स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान्॥३६॥यस्यांघ्रिपंकजरजोऽखिललोकपालैर्मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम्॥ ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व॥३७॥ भुंजते कुरुभिर्दत्तं भूखंडं वृष्णयः किल॥ उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः॥३८॥ अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम्॥ असंबद्धागिरो रूक्षाः कः सहेतानुशासिता॥३९॥अद्य निष्कौरवीं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः॥ गृहीत्वा हलमुत्तस्थौदहन्निव जगत्त्रयम्॥४०॥
तीर्थोंको पवित्र करनेवाली हैं, जिनके अंशके अंश ब्रह्मा, महादेव, लक्ष्मी और हम संपूर्ण बहुत दिनोंतक चरणारविन्दकी रजको माथे पर धारण करते हैं उन श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख राजसिंहासन क्या पदार्थ है?॥३७॥ कौरवोंने पृथ्वीके खण्ड कर दिये हैं उसका यादव भोग करते हैं और हम पाँवकी जूती और कौरव शिर ठहरे॥३८॥ अहो!ऐश्वर्यसे मतवालोंके समान अभिमानी कौरवोंके कर्कश टेढ़े वचनोंको सुनकर दण्डका देनेवाला कौन पुरुष सह सकेगा?॥३९॥ इसलिये अब कौरवोंसे रहित पृथ्वी करूंगा; इसप्रकार भगवान्
बलदेवजी मनमें निश्चयकर हल हाथमें लेनो त्रिलोकीको भस्म करदेंगे, ऐसे अत्यन्त क्रोधित हो खडे होगये॥४०॥असहनतासे बलदेवजीने हलके अग्रभागसे हस्तिनापुरको उखाडकर नाश करनेके लिये गंगाजीकी ओर खैंचा
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॥४१॥नौकाके समान भ्रमण करते गंगाजीमें गिरते नगरको देख अत्यन्त भ्रमित हो, कौरव लक्ष्मणासहित साम्बको आगे कर, हाथ जोड कुटुम्बसहित जीवनकी इच्छा करके सामर्थ्यवान् भगवान्
लांगलाग्रेण नगरमुद्विदार्य गजाह्वयम्॥ विचकर्ष स गंगायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः॥४१॥ जलयानमिवाघूर्णं गंगायां नगरं पतत्॥आकृष्यमाणमालोक्य कौरवा जातसंभ्रमाः॥४२॥ तमेव शरणं जग्मुः सकुटुंबा जिजीषवः॥ सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य सांबं प्रांजलयः प्रभुम्॥४३॥ राम रामखिलाधार प्रभावं न विदाम ते॥ मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षंतुमर्हस्यतिक्रमम्॥४४॥ स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः॥ लोकान्क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदंति हि॥४५॥ त्वमेव मूर्ध्नीदमनंत लीलया भूमंडलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन्॥ अंते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः॥४६॥
बलरामजीकी शरण आये॥४२॥४३॥ और आनकर कहने लगे कि, हे राम! हे राम! हे सबके आश्रय!हम तुम्हारा प्रभाव नहीं जानते थे, इसलिये हमारे ऊपर तुम क्षमा करनेयोग्य हो॥४४॥ स्थिति, उत्पत्ति और नाश इनके तुम निराश्रय कारण हो, हे ईश! यह लोक तुम्हारी लीला करनेका खिलौना है॥४५॥ हे अनन्त! हे सहस्रमूर्द्धन! तुम इस भूमंडलको लीलापूर्वकही मस्तकपर धारण करते हो और
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**शंका–**हस्तिनापुरमें अनेक प्रकारके प्राणी तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, साधु, सन्यासी, गाय, पशु और अनेक जातिके पशु पक्षी बसते थे, ऐसे हस्तिनापुरको जलमें डुबोनेके लिये बलदेवजी उपस्थित हुए इस पापसे नहीं डरे कि, हस्तिनापुर को जलमें डुबोवेंगे तो असत्य जीवोंकी हत्या होगी यह विचार क्यों नहीं किया?अकेले कौरवोंको डुबोनेकी क्यों नहीं इच्छा की सब पुरवासियोंने क्या अपराध किया था अपराध तो कौरवोंने किया था?
** उत्तर–**कौरवोंने उग्रसेनकी और यदुवशियोंकी निन्दा करी, तब बलदेवजी अपने बडोंकी और सब कुलकी निन्दा सुनके बडेक्रोधित हुये उसी क्रोधसे व्याकुल होकर जीवोंकी हत्याको भूलगये॥
अंतसमय सब विश्वको उदरमें धरकर शेषशय्यापर शयन करते हो, इसलिये आप अद्वितीय ब्रह्म हो॥४६॥ हे भगवन्! सतोगुणी तुम्हारा क्रोध सबकी शिक्षा देनेके लिये है, कुछ द्वेष और मत्सरता नहीं है, हे राम! विश्वकी स्थिति और पालन करना कोपका तात्पर्य है॥४७॥ हे सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा! हे सम्पूर्ण शक्तिके धारण करनेवाले! आपको नमस्कार है, हे विश्वके धारण करनेवाले, हम आपकी शरण आये हैं॥४८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम! उद्वेगयुक्त शरण आये कौरवोंने कि, जिनका नगर कम्पित हो रहा था, जब इस प्रकारसे भगवान् बलदेवजीको प्रसन्न किया, तब बलरामजीने प्रसन्न होकर उनको, “भय मत करो”यह अभय दान दिया॥४९॥ इसके उपरान्त दुर्योधनने अपनी कन्याके
कोपस्तेखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात्॥ बिभ्रतो भगवन्सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः॥४७॥ नमस्ते सर्वभूतात्मन्सर्वशक्तिधराव्यय॥ विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रपन्नैः संविग्नैर्वेपमानायनैर्बलः॥ प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ॥४९॥ दुर्योधनः पारिबर्हंकुंजरान्षष्टिहायनान्॥ददौ च द्वादशशतान्ययुतानि तुरंगमान्॥५०॥ रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम्॥ दासीनां निष्ककंठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः॥५१॥ प्रतिगृह्य तु तत्सर्वंभगवान्सात्वतर्षभः॥ समुतः सस्नुषः प्रायात्सुहृद्भिरभिनंदितः॥५२॥ ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः समेत्य बधूननुरक्तचेतसः॥ शशंस सर्वं यदुपुंगवानां मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम्॥५३॥ अद्यापि च पुरं ह्येतत्सूचयद्रामविक्रमम्॥ समुन्नतं दक्षिणतो गंगायामनु दृश्यते॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धेहस्तिनपुरकर्षणविजयो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥
दहेजमें साठ साठ वर्षकी अवस्थाके बारह सहस्र हाथी और बारह हजार घोड़े दिये॥५०॥ हे राजन्! सुर्वणके साजसे शोभायमान, सूर्यके समान चमचमाहट ऐसे छः हजार रथ दिये और पुत्रीपर प्यार अधिक होनेके कारण दुर्योधनने धुकधुकी कंठमें पहरे हजार दासी दीं॥५१॥ यादवश्रेष्ठ बलदेवजीने सम्पूर्ण दहेज ग्रहणकर और बेटा बहूको संग ले, कौरवोंका अभिवादन ग्रहणकर वहाँसे प्रस्थान किया॥५२॥ हे नृप!सम्पूर्ण कौरवोसे बिदा हो हलधारी बलदेवजी अपने पुरमें आय, स्नेह भरे चित्तसे, सब बन्धु बांधवोंसे मिल उत्तम यादवोंकी सभामें बैठ कौरवोने जो जो बातें की थीं, सो सो सब कहने लगे॥५३॥ हे राजा परीक्षित्! इसकारण अबतक हस्तिनापुर, बलरामजीके
पराक्रमको सूचना कराता, दक्षिण दिशा की ओर से गंगाजीमें झुका दिखाई देता है॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे भाषाटीकायांसंकर्षणविजयो नामाष्टषष्टितमोध्यायः॥६८॥ दोहा–उनहत्तरवें देखकर, घर घर कृष्णविहार॥ अति विस्मित भये देवऋषि, पुनि सब मिटो विकार॥६९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन परीक्षित्!नरकासुरका वधकर अकेले भगवान्ने बहुत स्त्रियोंके साथ विवाह किया यह बात सुन देखनेकी इच्छासे देवर्षि नारद द्वारकापुरीमें आये
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॥१॥ नारदजी विचार करनेलगे कि, बडे आश्चर्यकी बात है, एक
श्रीशुक उवाच॥ नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम्॥ कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद्दिदृक्षुः स्म नारदः॥१॥ चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक्॥ गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत्॥२॥ इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत्॥ पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम्॥३॥ उत्फुल्लेंदीवरांभोजकह्लारकुमुदोत्पलैः॥छुरितेषु सरस्सूच्चैः कूजितां हंससारसैः॥४॥
देहसे एक संग, अलग घरों में सोलह सहस्र स्त्रियोंका श्रीकृष्णचन्द्रने एकही साथ पाणिग्रहण किया॥२॥ इसप्रकार उत्कंठासे नारदजी द्वारकापुरीमें आये, जिस द्वारकापुरीमें फूली फुलवारी और बागमे पक्षी तथा भौरोंके झुण्ड गुंजार रहे थे॥३॥ फूलेहुए इंदीवर, अंभोज, कह्लार, कुमुद और उत्पलोंसे सरोवर व्याप्त थे उनमें उच्चस्वरसे हंस सारस बोलते थे, उनका शोर होरहा था॥४॥
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**शंका–**मुनीश्वर नारदकी बुद्धि क्यों भ्रष्ट होगई?त्रिलोकीनाथको षोडश सहस्र १६००० स्त्रियोंके संग क्रीडा सुनके आश्चर्यमानना विना प्रयोजन दुःखी होना यह काम साधुलोगों का नहीं है, यह काम तो मूर्खोंका है, जो कोई कहे कि, नारदको माया ग्रसित कररही है, तो यह बात वृथा है, माया तो वारम्वार प्रसित नहीं करती है, बारबार पाप प्रसित करता है॥
**उत्तर–**जो कोई प्राणी भूलकर थोडासा भी पाप करलेता है, फिर वह पाप करनेसे नहीं डरता ऐसेही बहुतसे जीवोंको विना विचार किये नारदने शाप दिया इसीप्रकार बहुतसे जीवोंको नारदने शाप देकर दुःख दिया, उन पापोंसे भक्तवत्सल श्रीकृष्ण उन भगवान्में दुष्टबुद्धि करने लगे, पापसे सम्पूर्ण मूर्ख होगये॥
स्फटिकमणि और महामणियोंसे प्रकाशमान सुवर्ण व रत्नोंकी सामग्रीसे युक्त नौलाख महल बन रहेथे॥५॥अलग अलग राजमार्ग और गली, कूचे, बाजार, शाला, सभा और देवतालोगोंके मन्दिर बन रहेथे, उनसे वह पुरी अत्यन्त शोभायमान लगतीथी, मार्ग, आँगन, गली और देहलियोंमें छिडकाव होरहा था, छोटी २ पताका और बड़ी बड़ी ध्वजाओंके फहराने से यहाँ धूप नहीं आतीथी॥६॥ इस द्वारकापुरीमें सम्पूर्ण लोकपालोंसे पूजित श्रीकृष्णचन्द्रके अंतःपुरकी रचनामें विश्वकर्माने अपनी संपूर्ण चतुराई दिखाईथी॥७॥ इसप्रकार सोलह हजार महलोसे शोभायमान अंतःपुरसे श्रीकृष्णचन्द्रकी रानीके एक भवनमें देवर्षि नारदजी गये॥८॥ वहभवन कैसा है, जहँमूँगोंके खम्भ लगरहे थे और वैदूर्यमणियोके फलकोत्तम
प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः॥ महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥५॥ विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः॥ संसिक्तमार्गांगणवीथिदेहलिं पतत्पताकाध्वजवारितात्पम्॥६॥ तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः॥हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्टा कार्त्स्न्येन दर्शितम्॥७॥ तत्र शोडशभिः सद्मसहस्रैः समलंकृतम्॥विवेशैकतमं शौरेःपत्नीनां भवनं महत्॥८॥ विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैर्वैडूर्यफलकोत्तमैः॥ इंद्रनीलमयैः कुड्यैर्जगत्यां चाऽहतत्विषा॥९॥ वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलंबिभिः॥दांतैरासनपर्यंकैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥१०॥ दासीभिर्निष्ककंठीभिः सुवासोभिरलंकृतम्॥पुंभिः सकंचुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥११॥ रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्तध्वांतं विचित्रवलभीषु शिखंडिनोंऽग॥नृत्यंति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैर्निर्यांतमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥१२॥
अर्थात् खम्भधरनेकी चौकियें बन रही थीं, इन्द्रनीलमणियोंकी भीतैंऔर अत्यन्त शोभायमान नीलमणिकी भूमि बन रही थी॥९॥ मोतियोंकी झालर जिनमें लगीं, ऐसे विश्वकर्माके बनाये चँदोवेसे वह भवन अधिक शोभायमान था, मणियोंसे शोभायमान हाथीदाँतकी चौकी और पलँग बिछरहे थे, उनकी अलगही शोभा होरही थी॥१०॥ धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दरवस्त्र धारे दासियोंसे शोभाय मान जामा, पगडी, पटका और मणियोंके कण्डलोंको पहरे पुरुषोंसे शोभायमान था॥११॥ हे राजा परीक्षित्! रत्नोंके दीपकोंकी
पंक्ति लग रही थीं उनके प्रकाशसे उस भवनमें अन्धकार नहीं था और घरोंके भीतर अगरकी धूपका धुआँ जाली झरोखोंमें होकर निकल रहा था उसे देख बादल आये जान मोर शब्द करके भवनके चित्र विचित्र छज्जोंके ऊपर नृत्य कर रहे थे॥१२॥ उस महलमें रूप, गुण, अवस्था में अपने समान, गहनापहरे सहस्र दासियोंके संग सदा सुवर्णकी दंडीका चमर पंखा लिये रुक्मिणी यादवपति श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर चँवर कर रहीथी इस प्रकार नारदजीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥१३॥सब धर्मके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने नारदजीको देख, पलँगपर से शीघ्र उठ किरीटयुक्त शोभायमान शिरसे चरणों में नमस्कार कर हाथ जोड़ उन्हैंअपने आसनपर
तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेषदासीसहस्रयुतयाऽनुसवंगृहिण्या॥ विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्मदण्डेन सात्वत पतिं परिवीजयंत्या॥१३॥ तं संनिरीक्ष्य भगवान्सहसोत्थितः श्रीपर्यंकतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः॥आनम्यपादयुगलं शिरसा किरीटजुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥१४॥ तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना बिभ्रज्जगद्गुरुतरोपि सतां पतिर्हि॥ ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनामयुक्तं तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥१५॥संपूज्य देवऋषिवर्य मृषिः पुराणो नारायणो नरसखो विधिनोदितेन॥ वाण्याभिभाष्य मितयाऽमृतमिष्टया तं प्राह प्रभो भगवते करवामहे किम्॥१६॥ नारद उवाच॥नैवाद्भुतं तव विभोऽखिललोकनाथ मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्॥ निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥१७॥
बैठाला॥१४॥ जगत् के अतिशय गुरु साधुओं के रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र ने देवर्षि नारदजीके चरण धो, चरणामृत अपने मस्तकपर चढ़ाया, जिन श्रीकृष्णका चरणोदक गंगा सबको पवित्र करतीहैं उनमें ब्रह्मण्यदेव यह गुणयुक्त नाम ज्योंका त्यों बनता है॥१५॥ नरके सखा ऋषियोंमें श्रेष्ठ नारायण, नारदजीको शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पूजनकर अमृतकी तुल्य प्रमाणीभूत मधुर वाणी से कहने लगे कि, हे नारदजी! आपके आने से मंगल हुआ हे समर्थ भगवन्! हम तुम्हारा क्या पूजन करें? यह कहने लगे॥१६॥ नारदजी बोले कि, हे समर्थ! हे उरुगाय! आप सब जीवोंसे मित्रता रखते हो और दुष्टों को दण्ड देते हो, सब लोकोंके नाथ तुममें यह आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जगत्की स्थिति और रक्षासहित कल्याण करनेके लिये
स्फटिकमणि और महामणियोंसे प्रकाशमान सुवर्ण व रत्नोंकी सामग्रीसे युक्त नौलाख महल बन रहेथे॥५॥अलग अलग राजमार्ग और गली, कूचे, बाजार, शाला, सभा और देवतालोगोंके मन्दिर बन रहेथे, उनसे वह पुरी अत्यन्त शोभायमान लगतीथी, मार्ग, आँगन, गली और देहलियोंमें छिडकाव होरहा था, छोटी २ पताका और बड़ी बड़ी ध्वजाओंके फहराने से यहाँ धूप नहीं आतीथी॥६॥ इस द्वारकापुरीमें सम्पूर्ण लोकपालोंसे पूजित श्रीकृष्णचन्द्रके अंतःपुरकी रचनामें विश्वकर्माने अपनी संपूर्ण चतुराई दिखाईथी॥७॥ इसप्रकार सोलह हजार महलोसे शोभायमान अंतःपुरसे श्रीकृष्णचन्द्रकी रानीके एक भवनमें देवर्षि नारदजी गये॥८॥ वहभवन कैसा है, जहँमूँगोंके खम्भ लगरहे थे और वैदूर्यमणियोके फलकोत्तम
प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः॥ महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥५॥ विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः॥ संसिक्तमार्गांगणवीथिदेहलिं पतत्पताकाध्वजवारितात्पम्॥६॥ तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः॥ हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्टा कार्त्स्न्येन दर्शितम्॥७॥ तत्र शोडशभिः सद्मसहस्रैः समलंकृतम्॥ विवेशैकतमं शौरेःपत्नीनां भवनं महत्॥८॥ विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैर्वैडूर्यफलकोत्तमैः॥ इंद्रनीलमयैः कुड्यैर्जगत्यां चाऽहतत्विषा॥९॥ वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलंबिभिः॥दांतैरासनपर्यंकैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥१०॥ दासीभिर्निष्ककंठीभिः सुवासोभिरलंकृतम्॥ पुंभिः सकंचुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥११॥ रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्तध्वांतं विचित्रवलभीषु शिखंडिनोंऽग॥नृत्यंति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैर्निर्यांतमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥१२॥
अर्थात् खम्भधरनेकी चौकियें बन रही थीं, इन्द्रनीलमणियोंकी भीतैंऔर अत्यन्त शोभायमान नीलमणिकी भूमि बन रही थी॥९॥मोतियोंकी झालर जिनमें लगीं, ऐसे विश्वकर्माके बनाये चँदोवेसे वह भवन अधिक शोभायमान था, मणियोंसे शोभायमान हाथीदाँतकी चौकी और पलँग बिछरहे थे, उनकी अलगही शोभा होरही थी॥१०॥धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दरवस्त्र धारे दासियोंसे शोभाय मान जामा, पगडी, पटका और मणियोंके कण्डलोंको पहरे पुरुषोंसे शोभायमान था॥११॥ हे राजा परीक्षित्! रत्नोंके दीपकोंकी
पंक्ति लग रही थीं उनके प्रकाशसे उस भवनमें अन्धकार नहीं था और घरोंके भीतर अगरकी धूपका धुआँ जाली झरोखोंमें होकर निकल रहा था उसे देख बादल आये जान मोर शब्द करके भवनके चित्र विचित्र छज्जोके ऊपर नृत्य कर रहे थे॥१२॥ उस महलमें रूप, गुण, अवस्था में अपने समान, गहनापहरे सहस्र दासियोंके संग सदा सुवर्णकी दंडीका चमर पंखा लिये रुक्मिणी यादवपति श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर चँवर कर रहीथी इस प्रकार नारदजीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥१३॥सब धर्मके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने नारदजीको देख, पलँगपर से शीघ्र उठ किरीटयुक्त शोभायमान शिरसे चरणों में नमस्कार कर हाथ जोड़ उन्हैंअपने आसनपर
तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेषदासीसहस्रयुतयाऽनुसवंगृहिण्या॥ विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्मदण्डेन सात्वत पतिं परिवीजयंत्या॥१३॥ तं संनिरीक्ष्य भगवान्सहसोत्थितः श्रीपर्यंकतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः॥आनम्यपादयुगलं शिरसा किरीटजुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥१४॥ तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना बिभ्रज्जगद्गुरुतरोपि सतां पतिर्हि॥ ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनामयुक्तं तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥१५॥संपूज्य देवऋषिवर्य मृषिः पुराणो नारायणो नरसखो विधिनोदितेन॥ वाण्याभिभाष्य मितयाऽमृतमिष्टया तं प्राह प्रभो भगवते करवामहे किम्॥१६॥ नारद उवाच॥ नैवाद्भुतं तव विभोऽखिललोकनाथ मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्॥ निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥१७॥
बैठाला॥१४॥ जगत् के अतिशय गुरु साधुओं के रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र ने देवर्षि नारदजीके चरण धो, चरणामृत अपने मस्तकपर चढ़ाया, जिन श्रीकृष्णका चरणोदक गंगा सबको पवित्र करतीहैं उनमें ब्रह्मण्यदेव यह गुणयुक्त नाम ज्योंका त्यों बनता है॥१५॥ नरके सखा ऋषियोंमें श्रेष्ठ नारायण, नारदजीको शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पूजनकर अमृतकी तुल्य प्रमाणीभूत मधुर वाणी से कहने लगे कि, हे नारदजी! आपके आने से मंगल हुआ हे समर्थ भगवन्! हम तुम्हारा क्या पूजन करें? यह कहने लगे॥१६॥ नारदजी बोले कि, हे समर्थ! हे उरुगाय! आप सब जीवोंसे मित्रता रखते हो और दुष्टों को दण्ड देते हो, सब लोकोंके नाथ तुममें यह आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जगत्की स्थिति और रक्षासहित कल्याण करनेके लिये
अपनी इच्छानुसार अवतार लेते हो मैं भले प्रकार जानता हूँ कि, दुष्टोंको दण्ड और साधुओं का सत्कार करना, यही तुमको योग्य है॥१७॥ मनुष्योंको मोक्षके देनेवाले और बड़े ज्ञानी, ब्रह्मादिक देवता जिनका हृदयमें ध्यान धरते हैं, जो संसाररूपी कूपमें पडे जीवोंको निकालनेके आश्रयभूत तुम्हारे चरणारविन्दोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ, अब ऐसी कृपा करो कि, मुझे सदा तुम्हारा स्मरण बना रहैऔर तुम्हारे चरणारविन्दोंका ध्यान करताहुआ सुखसे विचरूं॥१८॥ हे राजा परीक्षित!इसप्रकार कह नारदजी योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमाया जाननेकेलिये श्रीकृष्णचन्द्रकी और रानीके महलमें गये॥१९॥ उस महलमें भी प्यारी सत्यभामाके संग और उद्धवजीके संग चौपड़ खेलते श्रीकृष्णचन्द्रको देवर्षि नारदजीने
दृष्टं तवांघ्रियुगलं जनताऽपवर्गंब्रह्मादिभिर्हृदि विचिंत्यमगाधबोधैः॥संसारकूपपतितोत्तरणावलंबंध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात्॥१८॥ ततोऽन्यदाविशद्गोहं कृष्णपत्न्याः स नारदः॥ योगेश्वरेश्वरस्यांग योगमायाविवित्सया॥१९॥ दीव्यंतमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च॥ पूजितः पराया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः॥२०॥ पृष्टश्वाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति॥ क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णैरस्मदादिभिः॥२१॥ अथापि ब्रूहि नोब्रह्मञ्जन्मैतच्छोभनं कुरु॥ स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद्गृहम्॥२२॥ तत्राप्याचष्ट गोविंदं लालयंतं सुतानञ्छिशून्॥ ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यमम्॥२३॥ जुह्वतं च वितानाग्नीन्यजंतं पंचभिर्मखैः॥ भोजयंतं द्विजान्क्वापि भुंजानमवशेषितम्॥२४॥
देखा इनको देखतेहीश्रीकृष्णचन्द्र परमभक्तिपूर्वक उठ आसन बिछाय, अर्घ्यदेकर पूजन करनेलगे॥२०॥ “तुम कब आये”इस प्रकार अज्ञानीके समान श्रीभगवान् नारदजी से पूँछने लगे, पूर्ण तुमको हम अपूर्ण क्या पूजन करें॥२१॥ हे ब्रह्मन्!हम पूर्ण नहीं हैं, परन्तु तो भी हमसे कुछ आज्ञाकर हमारा जन्म सार्थक करो, यह सुन नारदजी आश्चर्य मानकर वहाँसे और मन्दिर में गये॥२२॥ उस महलमें भी छोटे छोटे बालकोको खिलाते श्रीकृष्णचन्द्रजीको देखा, इसके उपरान्त और महलोंमें जाकर देखैंतो स्नानका उपाय कररहे हैं॥२३॥ किसी महलमें श्रीकृष्णचन्द्र अग्निहोत्र कररहे हैं, किसीमें पंचयज्ञ कररहे हैं और किसी महलमें ब्राह्मणोंको भोजन जिमाय उनका बचा प्रसाद आप भोजन
कररहे हैं, इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥२४॥ किसी महलमें संध्या और किसीमें मौन होकर गायत्री जप रहे हैं, एक महलमें ढ़ाल तलवार लेकर फिररहे हैं इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन हुआ॥२५॥ किसीमहल में घोडे, हाथी रथोंपर चढ़कर फिर रहे हैं और किसी महलमें शयन कर रहे बन्दीजन स्तुति कररहे हैं, इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका नारदजीने दर्शन किया॥२६॥ किसी महलमें उद्धवादिक मंत्रियोंके संग विहार करते देखा और किसी महलमें मुख्य मुख्य वारांगना स्त्रियोके संग जलमे विहार करते श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥२७॥ किसी महलमें शृंगार करके ब्राह्मणोंको गौ दान कररहे हैं और किसी महलमें इतिहास, पुराण, मंगलरूपी वाक्य श्रवण करते
क्वापि संध्यामुपासीनं जपंतं ब्रह्म वाग्यतम्॥ एकत्र चासिचर्मभ्यां चरंतमसिवर्त्मसु॥२५॥ अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरंतं गदाग्रजम्॥ क्वचिच्छयानं पर्यंके स्तूयमानं च बंदिभिः॥२६॥ मंत्रयंतं च कस्मिश्चिन्मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः॥जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याऽबलावृतम्॥२७॥ कुत्रचिद्दि्वजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलंकृताः॥इतिहास पुराणानि शृण्वंतं मंगलानि च॥२८॥ हसंतं हासकथया कदाचित्प्रियया गृहे॥ क्वापि धर्मं सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित्॥२९॥ ध्यायंतमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम्॥ शुश्रूषंतं गुरून्क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया॥३०॥ कुर्वंतं विग्रहं कैश्चित्संधि चान्यत्र केशवम्॥ कुत्रापि सह रामेण चिंतयंतं सतां शिवम्॥३१॥ पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम्॥ दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयंतं विभूतिभिः॥३२॥
श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन किये॥२८॥ किसी महलमें हँसीकी बात कहकर श्रीकृष्णचन्द्र प्यारीके संग हँसरहे हैं, किसी महलमें अपने धर्मकी सेवा करते हैं और किसी महलमें अर्थ और कामका संपादन कररहे हैं॥२९॥ किसी महल में मायासे अतीत परब्रह्मका एकासनपर बैठे ध्यान कर रहे हैं और किसी महल में काम, भोग, पूजन इत्यादिसे गुरुकी शुश्रूषा कर रहे हैं॥३०॥ किसी महलमें वियोग और किसीमें मिलापकी बातें कर रहे हैं और किसी महलमें बलदेवजीके संग साधुओंके सुखार्थ यत्न कररहे हैं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥३१॥ किसी महलमें पुत्रको, समयपर सदृश स्त्रियोको देखकर विवाद करते हैं और किसी महल में अपनी कन्याके समान वर देख द्रव्योंकरके विवाह
करतेहैं॥३२॥ किसी महलमें कन्या और जमाईका बिदा कर रहे हैं और किसी महलमें पुत्रोंको सुसराल भेजकर उनकी स्त्रियोंको बुलातेहैं, इस प्रकार योगेश्वरोके ईश्वर, श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्रोका बडा उत्सव देख लोग आश्चर्यको प्राप्त होगये॥३३॥ किसी महलमें बड़े यज्ञोंसे अपनी कुल देवताओंका पूजन कररहेहैं और किसी महल में, अमुक रास्तेमें कुआँ बनाओ, बाग लगाओ और नवीन मंदिर बनवावो, इस प्रकार धर्म करते श्रीकृष्णचन्द्रको देवर्षि नारदजीने देखा॥३४॥किसी महल से सिंधुदेशके घोडेपर चढ, यादवोंको संग ले शिकार खेलनेको जारहे हैं, वहँचित्र विचित्र मेध्य पशुओंको मारते श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥३५॥ किसी महलमें अपना रूप छिपाकर अंतःपुरके भीतर गृहादिमें प्रजाका अभिप्राय
प्रस्थापनोपानयनैरपत्यानां महोत्सवान्॥ वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिष्मिरे॥३३॥ यजंतं सकलान्दे वान्क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः॥ पूर्तयंतं क्वचिद्धर्मं कूपाराममठादिभिः॥३४॥ चरंतं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम्॥ घ्नंतं ततः पशून्मेध्यान्परीतं यदुपुंगवैः॥३५॥ अव्यक्तलिंगं प्रकृतिष्वंतःपुरगृहादिषु॥ क्वचिच्चरंत योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया॥३६॥ अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव॥ योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषोगतिम्॥३७॥विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम्॥ योगेश्वरात्मन्निर्भाता भवत्पादनिषेवया॥३८॥ अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसा प्लुतान्॥ पर्यटामितवोद्गायँल्लीलां भुवनपावनीम्॥३९॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मन्धर्मस्य वक्ताऽहं कर्ता तदनुमोदिता॥ तच्छिक्षयँल्लोकमिममास्थितः पुत्र मा खिदः॥४०॥
जाननेके लिये विचरते योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥३६॥इस प्रकार मनुष्यदेहको प्राप्तहुए श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमायाका वैभव देखसंपूर्ण लीला देखने के उपरान्त नारदजी हँसकर कहने लगे॥३७॥ कि, हे योगेश्वर!तुम्हारे चरणारविन्दोकी सेवा करके मेरे मनमें प्रकाशमान तुम्हारी योगमायाही केवल हम जानतेहैं और तुम्हारा सत्यस्वरूप नहीं जानते॥३८॥ हे देव! तुम्हारे यशसे व्याप्त लोकोमें सब लोकोंकी पवित्र करनेवाली तुम्हारी लीला में गाता फिरूं, यह आज्ञा तुम मुझे दो इस प्रकार नारदजीने कहा॥३९॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्रह्मन्! मैं धर्मका कहनेवाला हूं और दूसरेको धर्म करता देखकर प्रशंसा करता हूं, इस कारण सब लोकोके शिखाने के लिये मैं कर्म करताहूं इसलिये
हे अंग! तुम अपने मनमें खेद मत करो॥४०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!इस प्रकार गृहस्थ पुरुषोंके पवित्र करनेवाले, श्रेष्ट धर्मके कर्त्ता अकेले श्रीकृष्णचन्द्रको सब घरोंमें नारदजीने देखा॥४१॥ अनन्त पराक्रम श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमायाका बडा उदय वारंवार देखकर लीला पूर्वकही नारदजीको बड़ा आश्चर्य प्राप्त हुआ॥४२॥ इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम, मोक्षमें श्रद्धासहित मन लगाये श्रीकृष्णचंद्रसेभलीप्रकार पूजित होकर नारदजी प्रसन्नतापूर्वक श्रीकृष्णचन्द्रको मनमें स्मरण करते चले गये॥४३॥ हे राजन्! इसप्रकार मनुष्यों का मार्ग चलनेवाले, सब जीवों का कल्याण करनेके लिये अनेक मूर्ति धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र सोलह हजार श्रेष्ठ स्त्रियोंके बीच में लाजभरी
श्रीशुक उवाच॥ इत्याचरंतं सद्धर्मान्पावनान्गृहमेधिनाम्॥ तमेव सर्वगेहेषु संतमेकं ददर्श ह॥४१॥कृष्णस्यानंतवीर्यस्य योगमायामहोदयम्॥ मुहुर्दृट्वाऋषिरभृद्विस्मितो जातकौतुकः॥४२॥ इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना॥ सम्यक्सभाजितः प्रीतस्तमेवानुस्मरन्ययौ॥४३॥ एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो नारायणोऽखिल भवाय गृहीतशक्तिः॥ रेमेंऽग षोडशसहस्रवरांगनानां सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः॥४४॥यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार॥ यस्त्वंग गायति शृणोत्यनुमोदते वा भक्तिर्भवेद्भगवति ह्यपवर्गमार्गे॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उ० एकोनसप्ततितमोऽध्याः॥६९॥ श्रीशुक उवाच॥ अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान्कूजितोऽशपन्॥ गृहीतकंठ्यःपतिभिर्माधव्यो विरहातुराः॥१॥
स्नेहकी चितवन, हँसन इनसे सेवित होकर रमण करनेलगे॥४४॥ हे परीक्षित्! विश्वकी प्रलय और उत्पत्तिके कारण हरि भगवान्के दूसरोंको ॐ अगम्य साधारण कर्म, इस संसारमें जो पुरुष गावैं अथवा सुनें या बडाई करैं, उन पुरुषोंको मोक्षके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भक्ति प्राप्त होती है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥६९॥ दोहा–सत्तरमें गोविन्दको भारी परी विचार। इतने आयो दूत एक, उत नारद अविकार॥७०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!स्वामियोंके गलेमें भुजा डाले हृदयसे चिपटाये श्रीकृष्णकी स्त्रियें प्रातःकाल के समय अरुण शिखाओंका (मुर्गों का) शब्द सुन “श्रीकृष्णचन्द्र जाग उठेंगे”इसप्रकार जानकर
विरहसे आतुर हो उन मुर्गोंसे क्रोध कर कहने लगीं कि, अरे अभागे! तुम अभीसे बोलनेलगे श्रीकृष्णचन्द्र प्रातःकाल जानकर कहीं उठ न बैठें?॥१॥ इसके उपरान्त प्रातःसमय सब पक्षी नींदको त्याग बोलनेलगे और कल्पवृक्षकी पवन सूंघकर भौरे गुंजार करने लगे; उनके मनोहर शब्दकी ऐसी शोभा होती थी कि, मानो बंदीजन श्रीकृष्णको जगा रहे हैं॥२॥ अपने प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंके बीचमें प्राप्त हुई रुक्मिणीने आलिंगनका वियोग देख अति सुन्दर प्रातः कालके समयका सहन न किया॥३॥ प्रसन्न इंद्रिय मधुवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र ब्राह्ममुहूर्त्तअर्थात् सूर्योदयसे दो तीन घड़ी पहले उठ जलका आचमन कर मायासे परे अपने स्वरूपका ध्यान करने लगे॥४॥ कैसे स्वरूपका ध्यान
वयांस्यरूरुवन्कृष्णं बोधयंतीव वंदिनः॥ गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मंदारवनवायुभिः॥२॥ मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यदतिशोभनम्॥ परिरंभणविश्लेषात्प्रियवाह्वंतरं गता॥३॥ ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः॥ दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्॥४॥ एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम्॥ ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतम्॥५॥ अथाप्लुतोंऽभस्यमले यथाविधि क्रियाकलापं परिधायवाससी॥ चकार संध्योपगमादि सत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः॥६॥ उपस्थायार्कमुद्यतं तर्पयित्वात्मनः कलाः॥ देवानृषीन्पितृृन्वृद्धान्विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान्॥७॥ धेनूनां रुक्मशृंगीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम्॥ पयस्विनीनां गृष्टीनां सर्वत्सानां सुवाससाम्॥८॥
किया सो कहते हैं, एक अखण्ड स्वयंज्योतिस्वरूपका उपाधिरहित अविनाशी सर्वकाल अविद्यारहित ब्रह्म विश्वकी उत्पत्ति और नाशके कारण अपनी शक्तिसे देखनेमें आवैंमत्तामात्र आनन्दरूप॥५॥ हे राजन्!इसके उपरान्त निर्मल जल में स्नान कर धोती पहर श्रीकृष्णचन्द्र सन्ध्योपासनादिकर्म और अग्निहोत्र कर मौन हो गायत्रीका जप करने लगे, फिर सूर्यनारायणको अर्घ्य दे अपने अंशके जो देवता, ऋषि, पितृ थे उनका तर्पण करके ज्ञानवान् श्रीकृष्णचन्द्र ब्राह्मणोंका पूजन करनेलगे॥६॥७॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुवर्णसे सींग मढ़े अत्यन्त
सूधी मोतियोंकी माला पडीं दूध देनेवाली और एकही बारकी ब्याई शोभायमान बछडों सहित सुन्दर वस्त्र उढाय॥८॥रूपेसे खुरोंके अग्रभाग मढे ऐसी तेरह हजार चौरासी १३०८४ गौ एक एक महलमेंसे प्रतिदिन शोभायमान सत्पात्र ब्राह्मणोंको रेशमी वस्त्र मृगछाला और तिलसहित दान करते थे॥९॥ अपनी विभूति गौ ब्राह्मण देवता और वृद्धोंको नमस्कार करके मंगल वस्तु कपिलादि गौका स्पर्श करते थे॥१०॥ और नरलोकका भूषणरूप अपने शरीरको वस्त्र और चन्दन इत्यादिसे शोभायमान करते थे॥११॥ घी में मुख देख कांच देख गाय, वृषभ अथवा देवतालोगोंका दर्शनकर पीछे नगर व रनिवासी व सब प्रजागणकी अभिलाषासिद्धकर फिर मंत्री और प्रधानोंका मनोरथ पूर्ण व प्रसन्न कर उनका यथायोग्य
ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह॥ अलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वंबद्वंदिनेदिने॥९॥गोविप्रदेवतावृद्धगुरून्भूतानि सर्वशः॥ नमस्कृत्यात्मसंभूतीर्मंगलानि समस्पृशत्॥१०॥ आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम्॥ वासोभिर्भूषणैः स्वीयैर्दिव्यस्त्रगनुलेपनैः॥११॥ अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः॥कामांश्च सर्ववर्णानां पौरांतः पुरचारिणाम्॥ प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनंदत॥१२॥ स विभज्याग्रतो विप्रान्स्त्रक्तांबूलानुलेपनैः॥ सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुक्त ततः स्वयम्॥१३॥ तावत्सूत उपानीय स्यंदनं परमाद्भुतम्॥ सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः॥१४॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं सारथेस्तमथारुहत्॥सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः॥१५॥ ईक्षितोंऽतःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः॥ कृच्छ्राद्विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन्मनः॥१६॥
आदर सत्कार करते थे, फिर कुछ और कार्य को देखते थे॥१२॥ पहले विप्र फिर मित्र और कार्याधीश व स्त्रियें इनको पान, पुष्प और अरगजा दे, सबसे पीछे उन वस्तुओको आप अंगीकार करते थे॥१३॥ हे राजन्! इतनेहीमें सारथीने सुग्रीवादि घोड़े जोत परम अद्भुत रथ ला प्रणाम करके सन्मुख खडा करदिया॥१४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे रथवान्का हाथ पकड सात्यकी और उद्धवको संग ले जैसे सूर्य नारायण सुमेरुपर्वतके ऊपर चढ़ते हैं, उसी प्रकार रथ में चढ़ाये॥१५॥ लाजभरी प्रेमकी चितवनसे अंःतपुरकी स्त्रियोंके देखनेसे मुसकाते
श्रीकृष्णचन्द्र अत्यन्त कष्टसे, उनको छोड और उनके मन हरकर बाहर निकले॥१६॥ इस प्रकार सब घरोंसे अलग अलग निकल, पीछे सब एकरूप हो सब यादवोंको साथ ले भगवान् वासुदेव सुधर्मासभामें गये, हे राजन्! सुधर्मा सभामें बैठेहुये पुरुषों को क्षुधा, पिपासा, शीत, गर्मी, शोक और मोह इत्यादि बाधा नहीं व्यापती हैं
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॥१७॥ उस सभा में यादवोंसे वेष्टित व्यापक श्रीकृष्णचन्द्र सिंहासन पर बैठ अपनी कान्तिसे
सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः॥ प्राविशद्यन्निविष्टानां न संत्यंग षडूर्मयः॥१७॥ तत्रोपविष्टः परमासने विभुर्बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन्॥ वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यद्वत्तमो यथोडुराजो दिवि तारकागणैः॥॥१८॥तत्रोपमंत्रिणो राजन्नानाहास्यरसैर्विभुम्॥ उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्तांडवैः पृथक्॥१९॥
सब दिशाओंको प्रकाशमान करनेलगे जैसे तारागणोंके बीच में निशानाथ चन्द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार यादवोंके बीच में बैठेहुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभा होने लगी॥१८॥ हे राजा परीक्षित्! उस सभा में भाट अनेकप्रकारसे हँसीकी बातें कर श्रीकृष्णचंद्रका सेवन करते थे और नटोंमें मुख्य और नृत्य करनेवाली स्त्रियें अलगही अपने अपने गवैयोंको संग ले सन्मुख खडी हुई॥१९॥
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**शंका–**सुधर्म्मसभामें बैठनेवाले जीवोंके हृदयमें काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर यह छः वैरी उत्पन्न नहीं होते थे, फिर श्रीकृष्णचन्द्र के हृदयमें वही छहों वैरी क्यों उत्पन्न हुये, जिन वैरियों को ग्रहण करके श्रीकृष्णजीने बडे बडे दुष्टोंको मारा, यह वडी शंका है?
**उत्तर–**तीनलोकमें इसलोकका काम तथा परलोकका काम विना काम आदि छहों वैरियों को सेवन किये नहीं सिद्ध होगा इसलिये कामादिक छः शत्रुओंका सेवन अवश्य करना चाहिये, परन्तु विचारके सेवन करना, क्योंकि यह छःशत्रु सुन्दर काममें भी हैं, सो सुन्दर काममें छहों को ग्रहण करना, जैसे सुन्दर कामकी इच्छामें लोभइसीप्रकार से जानलेना चाहिये, और बुरे काममें त्यागना चाहिये, सुधर्मा समामें बुरे कामवाले छः शत्रु नहीं थे सुन्दर कामवाले कामादिक छःवैरी थे, इसलिये सुन्दर कर्मोंके छहों वैरियोंको श्रीकृष्णचन्द्रने ग्रहण किया और बुरे कामवालोंको त्याग दिया क्योंकि, यह कामादिक छःवेरी सुन्दरकर्ममें सुन्दर फल देते हैं बुरे कर्मसे बुरा फल देते हैं, इसलिये श्रीकृष्णने सुधर्मा सभामें बैठकर छहौंवैरियोंको ग्रहण करके दुष्टोंको जीता और मारा॥
इसके उपरान्त मृदंग, वीणा, मुरज, बांसुरी, झांझ, शंख इत्यादि बजाकर नृत्य करनेलगे और सूत, मागध, बंदीजन श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख स्तुति करने लगे॥२०॥ उस समय कोई चतुर ब्राह्मण वेदकी ऋचा पढ़कर व्याख्या देनेलगे और कोई कोई ब्राह्मण पवित्र वंशवाले राजाओंकी कथा कहने लगे॥२१॥ हे नृपश्रेष्ठ!उस समय एक अजान मनुष्य उस स्थानपर कहींसे आया, तब ड्योढीवानोंने श्रीकृष्णचन्द्रसे जाकर खबर दी, श्रीकृष्णने आज्ञा दी कि, जाओ उसे लिवालाओ, तब उस मनुष्यको सभा के भीतर पहुँचाया॥२२॥ ब्रह्मादिकोंके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख उस पुरुषने हाथ जोड नमस्कार करके जरासन्धके कैद किये हुये बीसहजार आठसौ राजाओंका दुःख कहा॥२३॥ जब जरासन्धने दिग्विजय किया था,
मृदंगवीणामुरजवेणुतालदरस्वनैः॥ ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधबंदिनः॥२०॥ तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचिदासीना ब्रह्मवादिनः॥ पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन्कथाः॥२१॥ तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोऽपूर्वदर्शनः॥ विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः॥२२॥ स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः॥ राज्ञामावेदयद्दुःखं जरासन्धनिरोधजम्॥२३॥ ये च दिग्विजये तस्य संनतिंन ययुर्नृपाः॥ प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरिव्रजे॥२४॥कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन्प्रपन्नभयभञ्जन॥ वयं त्वां शरणं यामो भवभीतः पृथग्धियः॥२५॥ लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे॥यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै॥२६॥ लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः॥कश्चित्त्वदीयमतियातिनिर्देशमीश किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः॥२७॥
तब उस समय जिन राजाओंने आकर भेंट नहीं दी थी, इसलिये उसने वीसहजार आठसौ राजाओंको पकड गिरिव्रजनाम किलेमें कैदकर दिया है॥२४॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्!हे शरणागतका भय काटनेवाले! इस संसार में भयभीत तुमसे प्रेम करनेवाले हम आपकी शरण आये हैं॥२५॥ क्योंकि यह लोग अतिशय पापकर्ममें लग रहे हैं, सो तुम्हारे बताये कल्याणरूप पूजन सेवनरूप कर्ममें भूल रहे हैं, इस संसारमें जीनेकी आशा काटनेवाले सामर्थ्यवान् कालरूप आपको नमस्कार है॥२६॥ हे भगवन्! जगत्के ईश्वर!तुमने इस संसारमें साधु
पुरुषोंकी रक्षा और दुष्टपुरुषोंको दण्ड देनेकेलिये अपने अंशसे अवतार धारण किया है और आपके विद्यमान रहते भी जरासन्ध सरीखा बलवान् तुम्हारी आज्ञाको नहीं मानता आपकी रक्षामें रहे जीव अपने कर्मजनित दुःखों को प्राप्त होते हैं यह किसलिये होते हैं?सो हम नहीं जानसक्ते॥२७॥हे ईश!यह राज्यके संबन्धका सुख विषयसाध्य है इसीसे परतंत्र है;इसीलिये यह स्वप्नसुखके समान है और यह शरीर भी सदैव भयसे युक्त मृतकके समान है, परन्तु तोभी हम इस शरीर से केवल भार्या सन्तानादिकी चिन्ता करते रहते हैं, निष्काम भक्त जिस स्वतः सुखको आपसे प्राप्त होते हैं; उसे त्याग अत्यन्त कृपण बने आपकी मायासे दुःख पाते हैं, क्योकि पहले निष्काम हो आपके चरणोंकी शरण न ली॥२८॥इसलिये दुःखी पुरुषोंका शोक हरनेवाले जिनके चरणकमल हैं, ऐसे आप हम बँधेहुओंको जरासन्धरूपी कर्मबन्धनसे छुड़ाओ दशहजार
स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीश शश्वद्भयेन मृतकेन धुरं वहामः॥ हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह॥२८॥ तन्नो भवान्प्रणतशोकहरांघ्रियुग्मो बद्धान्वियुंक्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात्॥ यो भूभुजोऽयुतमतंगजवीर्यमेको बिभ्रद्रुरोध भवने मृगराडिवाऽवीः॥२९॥ यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्रभग्नोमृधे खलु भवंतमनंतवीर्यम्॥ जित्वा नृलोकनिरतं सकृद्वढदर्पो युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि॥३०॥ दूत उवाच॥ इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकांक्षिणः॥ प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम्॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः॥ बिभ्रत्पिंगजटाभारं प्रादुरासीद्यथा रविः॥३२॥
हाथियोंका बल धारण करनेवाले इस जरासन्धने सिंह जिस प्रकार भेडोंको घेर लेता है, उसी प्रकार अपने दुर्गमें हम राजाओंको रोक रक्खाहै॥२९॥ हे चक्रधर!हे कृष्ण! आपसे अठारह बार जरासन्धने संग्राम किया और सत्रह बार आपने हरा दिया परन्तु अठारहवीं बार संग्राममें आप मनुष्यलीला कर रण छोड़गये आपको यह एक बार जीत महागर्वको प्राप्त हुआ है, इसलिये आपकी प्रजा हमको बहुत दुःख देता है अब जो आप उचित समझो सो करो॥३०॥दूत बोला कि, इस प्रकार जरासन्धके रोके आपके दर्शनकी अभिलाषाकिये राजालोग आपके चरणकमलकी शरण लियेहुए हैं इन दीनोंका बहुत शीघ्र उद्धार करना चाहिये॥३१॥ हे नृपोत्तम!इस प्रकार राजाओंका दूत कहही
रहाथा कि, इतनेहीमें श्रेष्ठ कान्तिवाले पीली जटायें धारण किये श्रीमन्नारदजी सूर्यके समान वहां आन प्रगट हुए॥३२॥सब लोकोंके महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र नारदजीको आया देख अपने सभासदोंसहित शिर नवायकर प्रणाम करनेलगे॥३३॥ आसनपर विराजमान नारदजीका विधिपूर्वक सत्कार करके श्रद्धासहित मधुर मधुर वचनोंसे भगवान् तृप्त करनेलगे॥३४॥ श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, नारदजी! त्रिलोकीमें कहीं भय तो नहीं है? तुम्हारे लोकोंमें भ्रमण करनेसे हमें बड़ा लाभ है, क्योंकि घर बैठेही सब समाचार मिल जाते हैं॥३५॥ ईश्वरके बनाये लोकोंमें ऐसी कोई बात नहीं है जिसको तुम न जानो इसलिये हम तुमसे पूँछते हैं कि, पाण्डवोंकी क्या करनेकी इच्छा है?॥३६॥ यह
तं दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः॥ ववंद उत्थितः शीर्ष्णाससभ्यः सानुगो मुदा॥३३॥ सभाजयित्वा विधिवत्कृतासनपरिग्रहम्॥ बभाषे सूनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन्मुनिम्॥३४॥ अपिस्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम्॥ ननु भूयान्भगवतो लोकान्पर्यटतो गुणः॥३५॥ न हि तेऽविदितं किंचिल्लोकेष्वीश्वरकर्तृषु॥अथ पृच्छामहे युष्मान्पांडवानां चिकीर्षितम्॥३६॥ नारद उवाच॥ दृष्ट्वा मया ते बहुशो दुरत्यया माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः॥ भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिर्वह्नेरिव च्छन्नरुचो न मेऽद्भुतम्॥३७॥ तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः॥ यद्विद्यमानात्मतयाऽवभासते तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने॥३८॥जीवस्य यः संसरतोऽविमोक्षणं न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः॥ लीलावतारैः स्वयशःप्रदीपकं प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये॥३९॥
सुनकर नारदजीने कहा कि, हे समर्थ! आप अपनी मायासे ब्रह्माको भी मोहित करते और अपनी अचिन्तनीय शक्तिसे प्राणियोंमें अन्तर्यामी रूपसे रहनेपरभी काष्ठमेंरहे अग्निके समान गुप्त प्रकाशवाले हो आपकी माया मैंने कई बार अवलोकन की है, इसलिये यह आपका चरित्र कुछ अद्भुत विदित नहीं होता॥३७॥ यह संसार जो कि, मिथ्या होनेपर भी आपकी मायासे विद्यमानसा प्रतीत होता है. इसके उत्पन्न, पालन और संहार करनेवाले आपके अभिप्रायको कौन पुरुष भली भाँतिसे जान सक्ता है? अर्थात् कोई भी नहीं जान सक्ता, ऐसे अचिन्त्यस्वरूप आपको मैं प्रणाम करता हूँ॥३८॥ जिन आपने बहुत प्रकार जन्म, मरण पाते और विविध अनर्थकारक शरीरसे मुक्त होने का उपाय न
जाननेवाले जीवोंको अज्ञानीरूपी अंधकारका मिटानेवाला अपना यशरूपी दीपक लीलासे अवतार धारणकर प्रगट किया है, ऐसे आपकी मैं शरण प्राप्त हुआ हूँ॥३९॥ परन्तु तो भी है ब्रह्मन्! मनुष्यके अनुकरण करनेवाले आपसे आपकी फूफीके पुत्र भक्त राजा युधिष्टिर जो कुछ करना चाहते हैं, सो मैं कहकर सुनता हूं॥४०॥ पाण्डुका पुत्र चक्रवर्ती राज्य करनेकी इच्छा करनेवाले राजा युधिष्ठिर यज्ञराट्राजसूययज्ञ करके तुम्हारा पूजन करना चाहते हैं, यह आप अनुमोदन करो॥४१॥ हे देव!उस यज्ञमें तुम्हारा दर्शन करनेके लिये इन्द्रादिक देवता आवेंगे और बड़े बड़े यशस्वी राजालोग तुम्हारे दर्शनकी इच्छा से आवेंगे॥४२॥ हे ईश्वर! ब्रह्मरूप तुम्हारी कथाओंके श्रवण करनेसे और
अथाप्याश्रावये ब्रह्मन्नरलोकविडंबनम्॥ राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम्॥४०॥ यक्ष्यति त्वां मखेंद्रेण राजसूयेन पांडवः॥ पारमेष्ठ्यकामो नृपतिस्तद्भवाननुमोदताम्॥४१॥ तस्मिन्देव क्रतुवरे भवंतं वै सुरादयः॥दिदृक्षवः समेष्यंति राजानश्च यशस्विनः॥४२॥ श्रवणात्कीर्तनाद्ध्यानात्पूयंतेऽन्तेवसायिनः॥ तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः॥४३॥ यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां भूमौ च ते भुवनमंगल दिग्वितानम्॥ मंदाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो गंगेति चेह चरणांबु पुनाति विश्वम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ तत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृह्णत्सु विजिगीषया॥ वाचः पेशैः स्मयन्भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः॥४५॥
तुम्हारा ध्यान करनेसे चाण्डाल भी पवित्र होजाते हैं और जो तुम्हारे दर्शन करनेहीसे पवित्र होजाय तो इसमें कहने की बातही क्या है?॥४३॥ हे त्रिलोकीके मंगलरूप!तुम्हारा निर्मल यश स्वर्ग, रसातल और संपूर्ण पृथ्वीपर फैलरहा है और दिशाओंको चँदोवेके समान शोभायमान कर रहा है, स्वर्गमें मंदाकिनीरूप, पातालमें भोगवतीरूप और इस संसार में आपका चरणोदक गंगारूप होकर सब विश्वको पवित्र कररहा है, इस लिये तुम्हारे चलतेही यज्ञमें बडा मंगल होगा॥४४॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे भारतवंशावतंस परीक्षित्!इस प्रकार देवर्षि नारदजीने जब कहा तब उस सभामें अपनी ओरके यादवोंने जरासन्धके जीतनेकी इच्छासे जब यज्ञमें जाने की अनुमति न दी, तब मनोहर वचनोंसे
कुछेक मुसकाते हुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीसे बोले॥४५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, हे उद्धव! तुम हमारे परममित्र औरपरमहितकारी हो और गुह्य बातो के अभिप्रायको भलीभाँति जानते हो, इसकारण इस विषय में हमको क्या करना चाहिये सो कहो, उसको हम श्रद्धापूर्वक करेंगे॥४६॥ सब बातके जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मानों कुछ नहीं जानते, इस प्रकार अनजानकी समान जब पूछा, तब उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा शिरपर धारणकर बोले॥४७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्धे भाषाटीकायां सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥ दोहा-इकहत्तर उद्धव चतुर, हरिकी सम्मति मान। इन्द्रप्रस्थ गवने तुरत, पाण्डव बुद्धिनिधान॥७१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित! इसप्रकार बड़ी बुद्धिवाले उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन और नारदजीकी सम्मति यज्ञमें जानेकी जान
श्रीभगवानुवाच॥ त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन्मंत्रार्थतत्त्ववित्॥ तथाऽत्र ब्रह्मनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत्॥४६॥ इत्युपामत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत्॥ निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत॥४७॥ इति श्रीमद्भा०महा० दशमस्कंधोत्तरार्धे भगवद्याने सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युदीरितमाकर्ण्य देवर्षेरुद्धवोऽब्रवीत्॥ सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः॥१॥ उद्धव उवाच॥ यदुक्तमृषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया॥ कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम्॥२॥ यष्टव्यं राजसूयेन दिक्चक्रजयिना विभो॥ अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम॥३॥ अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति॥ यशश्च तव गोविंद राज्ञो बद्धान्विमुंचतः॥४॥
और सभामें बैठनेवाले यादवोंकी सम्मति राजाओंकी रक्षा करनेकी देख और श्रीकृष्णचन्द्रकी इच्छा दोनों कार्य करनेकी देखकर कहने लगे॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रकाशमान श्रीकृष्ण!देवर्षि नारदजीने जो कहा कि, राजा युधिष्ठिर तुम्हारा पूजन करना चाहते हैं, सो उनकीभी सहायता करनी योग्य हैं और शरणागत राजाओंकी भी रक्षा करनी योग्य है॥२॥ हे समर्थ! संपूर्ण दिशाओंके राजाओंका जीतनेवाला राज सूययज्ञ करके पूजन होगा इसकारण जरासन्धको भी अवश्य जीतना पड़ेगा, इसमें दोनों कार्य सिद्ध होजायँगे, यज्ञ भी होजायगा और शरणा गत राजाओं की रक्षा भी होजायगी॥३॥ हे भगवन्! यज्ञ में आप चलेंगे, तो हमारे मनोरथ इसीसे सिद्ध होजायँगे और हे गोविंद!बँधे
राजाओंको जो छुड़ाओगे, इसमें आपका बडाही यश होगा॥४॥ बडी चाहनासे जरासन्धके मारनेकी इच्छा करनेवाले यादवोंको देखकर कहते हैं कि, जरासन्धके समान बलवान् भीमसेन के विना दशहजार हाथियोंका बल रखनेवाला जरासन्ध और राजाओंसे नहीं जीता जायगा, क्योंकि भीमसेनके हाथसेही विधाताने उसकी मृत्यु रची है॥५॥ द्वंद्वयुद्धमें राजसन्ध जीता जायगा और सेनाको संग लेकर जो पुरुष उसके जीतने की आशा करे सो यह आशा कदापि फलवती न होगी, वह जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त है, इसकारण भीमसेन ब्राह्मणका रूप धरकर जो उससे द्वंद्वयुद्ध माँगे तो आशा है कि, वह निषेध नहीं करेगा॥६॥ वृकनामा अग्नि जिसके उदरमें रहे सो भीमसेन ब्राह्मणका वेष धारणकर जरासन्धसे युद्धकी भिक्षा माँगे कि, तुम्हारे साथ में द्वंद्वयुद्ध करूँगा, तुम निकट रहो तो भीमसेन जरासन्धको अवश्य मारेगा, इसमें सन्देह
स वै दुर्विषहोराजा नागायुतसमो बले॥बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना॥५॥ द्वैरथे स तु जेतव्यो माशताक्षौहिणीयुतः॥ ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैर्न प्रत्याख्याति कर्हिचित्॥६॥ ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः॥ हनिष्यति न संदेहो द्वैरथे तव संनिधौ॥७॥ निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः॥ हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव॥८॥ गायंति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च॥ गोप्यश्च कुंजरपतेर्जनकात्मजायाः पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च॥९॥
नहीं॥७॥ प्राकृत रूपरहित तुमही तो उत्पन्न, पालन और संहार करते हो, ब्रह्मा और महादेव तो नाममात्र हैं, इसलिये तुमही पास रहकर जरासन्धका संहार करोगे, भीमसेनका तो केवल नामही होगा॥८॥ बन्दीहुए राजाओंकी रानियें तुम्हारे निर्मल यशको गाती हैं और जब उनके बालक रोते हैं, तब वह कहती हैं कि, हे पुत्र!
तुम किसलिये रोते हो, जो कोई अनाथ हो सो रोवै, तुम्हारे शिरपर तो द्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र विद्यमान हैं, तुम मत रोओ, जैसे गोपी शंखचूडका मारना और अपना छूटना गाती हैं, और गजराजका छूटना व ग्राहकी मृत्यु गाती हैं और जनकनन्दिनी जानकीका छूटना व रावणका मरना जैसे गावैहैं और माता पिताका छूटना, कंसका मरना शरणागत मुनि और हम भक्त गान करते हैं उसी प्रकार जरासन्धका मरना और अपने पतियोंका छूटना राजाओंकी स्त्रियें वारम्वार गाती हैं॥९॥
हे कृष्ण! जरासन्धके मरनेसे बडा कार्य सिद्ध होगा और फिर शिशुपालादिका मारना भी सहज होजायगा, राजाओंके पुण्यका फल उदय होगा, और यज्ञ हो, यह आपकी इच्छा है ही, राजा युधिष्ठिर के पास जानेसे सब काम बन जायगा॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!
सब ओरसे मंगलरूप बड़ी युक्ति सहित उद्धवजीका वचन सुन नारदजी बडाई करने लेगे, इसके उपरान्त मुख्य यादव और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी प्रशंसा करनेलगे॥३१॥ इसके पीछे देवकीनन्दन सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चलनेके लिये सेवक दारुक रथवान् और हाथियों के महावत व वसुदेव इत्यादि यादवोंमे आज्ञा करनेलगे॥१२॥ हे नृपश्रेष्ठ!
पुत्र, दासी, दास और सामग्रियों सहित प्रथम अपनी रानियोको भेज
जरासंध वधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते॥ प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः ऋतुः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥इत्युद्धव वचो राजन्सर्वतोभद्रमच्युतम्॥ देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन्॥११॥ अथादिशत्प्रयाणाय भगवान्देवकीसृतः॥ भृत्यान्दारुकजैत्रादीननुज्ञाप्य गुरून्विभुः॥१२॥निर्गमय्यावरोधान्स्वान्ससुतान्सपरिच्छदान॥ संकर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन्॥ सूतोपनीतं स्वरथमारुहद्गरुडध्वजम्॥१३॥ ततो रथद्विषभटसा दिनायकैः करालया परिवृत आत्मसेनया॥मृदंगभेर्यानकशंखगोमुखैः प्रघोषघोषत्ककुभो निराक्रमत्॥१४॥ नृवा जिकांचन शिबिकाभिरच्युतं सहात्मजाः पतिमनु सुत्रता ययुः॥ वरांबराभरणविलेपनस्रजः सुसंवृता नृभिरसिचर्मषाणिभिः॥१५॥नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनःकरेणुभिः परिजनवरयोषितः॥ स्वलंकृताः कटकुटिकंबलांबराद्युपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः॥१६॥
बलराम और राजा उग्रसेनसे आज्ञा ले, श्रीकृष्णचन्द्र सारथीके लाये गरुडध्वज रथमें चढे॥१३॥ इसके उपरान्त रथ, हाथी, प्यादे और महा तीव्र सवारोंकी सेना ले मृदंग, भेरी, नगारे, शंख और रणसिंहों के शब्दसे शब्दायमान दिशामेंसे भगवान् निकले॥१४॥ सुन्दर वस्त्र, गहने और चन्दन माला पहरे ढाल, तलवार हाथमें लिये, दोनो ओर सिपाहियोसे रक्षित रथ और पालकियोमें बैठ, पतिव्रता कृष्णकी रानियें अपने पुत्रोको साथ ले अपने पति श्रीकृष्णचन्द्र के पीछे चलीं॥१५॥ नौकरोकी स्त्रियें और वेश्या शृंगारकर चटाइयोंके बने घर तथा कम्बल और
बनातोंके डेरे, तम्बू इत्यादि सब वस्तुको मनुष्य, ऊंट, भैंसे, गधे, खच्चर, गैड़ेव हाथियोंपर लादकर चले॥१६॥ बड़े शब्दवाली सेना बड़ी बडी ध्वजाओंके वस्त्र, छत्र, चमर और सुन्दर हथियार, गहने, किरीट इत्यादिकों की चमकसे और सूर्यकी किरणोंसे, जैसे समुद्र क्षुभितहुए मत्स्यों और कलोलोंसे शोभायमान होताहै, उसीप्रकार शोभा देती थी॥१७॥इसके उपरान्त यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीसे सत्कार पाय पूजा ले, श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनसे सुखी इन्द्रियहो, नारदमुनि श्रीकृष्णको प्रणामकर, उनके निश्चयको सुन और श्याम स्वरूपको हृदय में धारणकर आकाशमार्गमें होकर चलेगये॥१८॥ इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दूत को प्रसन्न करनेके लिये बोले कि, हे दूत!
तुम सब राजाओंसे जाकर कहदो कि,
बलं बृहद्धजपटछत्रचामरैर्वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः॥ दिवांशुभिस्तुमुलरवंबभौ रवेर्यथार्णवः क्षुभित तिमिंगिलोर्मिभिः॥१७॥ अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः प्रणम्य तं हृदि विदधद्विहायसा॥ निशम्य तद्व्यव सितमाहृतार्हणो मुकुंदसंदर्शननिर्वृतेंद्रियः॥१८॥ राजदूतमुवाचेदं भगवान्प्रीणयन्गिरा॥ मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम्॥१९॥ इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावदवदन्नृपान्॥ तेऽपि संदर्शनं शौरैः प्रत्यैक्षन्यन्मुमुक्षवः॥२०॥ आनर्तसौवीरमरूंस्तीर्त्वा विनशनं हरिः॥ गिरीन्नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान्॥२१॥ततो दृषद्वीतीं तीर्त्वा मुकुंदोथ सरस्वतीम्॥ पंचालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत्॥२२॥ तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम्॥ अजातशत्रुर्निरगात्सोपाध्यायः सुहृद्वृतः॥२३॥
किसी प्रकारका भय मत करो, क्योंकि मैं शीघ्रही जरासन्धको मार तुम्हारा कल्याण करूंगा॥१९॥ जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा, तब-दूत वहाँसे चल राजाओंके पास आकर कहने लगा कि, किसी प्रकारका भय मत करो श्रीकृष्णचन्द्र आते हैं, तब वह छूटनेकी इच्छासे भगवान् के आनेका पैंडा देखने लगे॥२०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनर्त्त, सौवीर, मरुदेशको पीछेदे, कुरुक्षेत्र, पर्वत, नदियें, पुर, गाँव, व्रज और खानोंके देशोको लाँघकर दृषद्वती व सरस्वतीके पार उतर पांचाल तथा मत्स्यदेशको छोड़ इन्द्रप्रस्थ पहुंचे॥२१॥२२॥ मनुष्यों को जिनका दर्शन दुर्लभ है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रका आगमन सुन, प्रसन्न हो, अजातशत्रु राजायुधिष्ठिर उपाध्यायको संगले पुरके बाहर निकले॥२३॥
गाते बजाते और भारी वेदध्वनि के साथ राजा युधिष्ठिर जैसे आदरयुक्त इन्द्रिय प्राणं लेनेको आवैं, उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र के सन्मुख लिवानेको आये
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॥२४॥ श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकर आई हृदय पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरने बहुत दिनोंमें देखे अत्यन्त प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रको बारम्बार आलिंगन किया॥२५॥ लक्ष्मी के रहनेका निर्मल स्थान, श्रीकृष्णचन्द्रके अंगको भुजाओंसे आलिंगनकर, पापरहित, प्रसन्न वदन, नेत्रोंमें अश्रु युक्त सब लौकिक व्यवहार विसार राजा युधिष्ठिर अत्यन्त सुख पानेलगे॥२६॥ मामाके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रको आलिंगनकर; प्रसन्न भीमसेन
गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा॥अभ्ययात्स हृषीकेशं प्राणः प्राणमिवादृतः॥२४॥ दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पांडवः॥ चिरादृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनःपुनः॥२५॥ दोर्भ्यां परिष्वज्य रमाऽमलालयं मुकुंदगात्रंनृपतिर्हताशुभः॥ लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो हृष्यत्तनुर्विस्मृतलोकविभ्रमः॥२६॥ तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो भीमः स्मयन्प्रेमजवाकुलेंद्रियः॥ यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम्॥२७॥अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथाऽर्हतः॥२८॥ मानितो मानयामास कुरुमृंजयकेकयान्॥ सूतमागधगंधर्वान्वंदिनश्चोपमंत्रिणः॥२९॥
प्रेमके वेगसे आकुलइन्द्रिय होगया, इसके उपरान्त बडे २ नेत्रोंमें आंसूभरे नकुल सहदेव और किरीटधारी अर्जुन यह सब अत्यन्त हितकारी श्रीकृष्णचन्द्रको आनन्दपूर्वक आलिंगन करनेलगे॥२७॥ हे राजन्!अर्जुन बराबरका होनेके कारण श्रीकृष्णचन्द्रको छातीसे लगाकर मिला और नकुल सहदेवने नमस्कार किया, पीछे यथायोग्य ब्राह्मण और वृद्धोंको नमस्कार करके॥२८॥मानने योग्य कुरुदेश और संजयदेश के राजा और
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**शंका–**हस्तिनापुरमें श्रीकृष्णका और पांडवोंका मिलाप हुआ, तब उस समय शूद्र अन्त्यज चर्मकार आदि और सब नीच जाति तथा म्लेच्छ तमासा देखने के लिये तथा अनेक प्रकारके ससारिक काम करनेके लिये उस सेनामें रहते थे, इन सबको सुनाकर ब्राह्मणोंने ब्रह्म अर्थात् वेदोच्चारण क्यों किया?
** उत्तर–**वेदको श्रवण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके सिवाय दूसरेको नहीं करना चाहिये दूसरा कोई भी दोष नहीं, सो वेदका पाठ कोईभीनहीं उस समय सुनता था, क्योंकि जब श्रीकृष्णचन्द्र और पाण्डवौंका मिलाप हुआ तब ऐसा शब्द मनुष्योंका परस्पर होने लगा कि, उस कुलाहलमें तोपका शब्द तो किसीको सुनाई ही नहीं पडता था तब वेदपाठ कैसे लोगोंको सुनाई देता? किसीको भी कुछ सुनाई नहीं पडा, इसलिये ब्राह्मणोंने वेदपाठ किया॥
सूत, मागध, गंधर्व, भाट, बंदीजनोंका सत्कार करनेलगे॥२९॥ मृदंग, शंख, ढोल, वीणा, नगाड़े बाँसुरी इनको बजाकर ब्राह्मण स्तुति करनेलगे और नाचने गानेलगे॥३०॥इस प्रकार सुहृदोंको संग ले पुण्ययश युधिष्ठिरादिकोंके मुकुटमणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सबसे स्तुति और सत्कार पाय शोभायमान राजा युधिष्ठिरके पुरमें प्रवेश किया॥३१॥ हाथियोंके मद और सुगन्धयुक्त जलसे जिसमें छिड़काव होरहा ऐसे मार्ग और चित्र विचित्र ध्वजाओंसे सुवर्णके तोरण और जलके पूर्ण कलश तथा नवीन वस्त्र, गहने, माला, केशर, अतर, अरगजा लगाये, स्त्री और पुरुषों से शोभाय
मृदंगशंखपटहवीणापणवगोमुखैः॥ ब्राह्मणाश्चारविदाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः॥३०॥ एवं सुहृद्भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः॥ संस्तूयमानो भगवान्विवेशाऽलंकृतं पुरम्॥३१॥ संक्तिवर्त्म करिणां मदगंधतोयैश्चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुंभैः॥ मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्गंधैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम्॥३२॥ उद्दीप्तदीपवलिभिः प्रतिसद्म जालनिर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम्॥ मूर्धन्य हेमकलशै रजतोरुशृंगैर्जुष्टं ददर्श भवनैः कुरुराजधाम॥३३॥ प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्रमौत्सुक्यविश्लथितकेशदुकुलबंधाः॥ सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेंद्रमार्गे॥३४॥ तस्मिन्सुसंकुल इभाश्वरथद्विपद्भिः कृष्णं सभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः॥ नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मन सोपगुह्य सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन॥३५॥
मान कौरवोंके राजा युधिष्ठिरको देखा॥३२॥ कैसा महल है कि, जहाँ प्रकाशमान दीपकों की पंक्ति और महलके झरोखोंमेंसे निकली धूपकी सुंगधसे शोभायमान हो रहाहै और प्रकाशमान पताका तथा रूपेके शिखरोंके ऊपर सुवर्णके कलश संयुक्त कौरवराज युधिष्ठिरके महल देखे॥३३॥ मनुष्योंके नेत्रोंका सौंदर्यरूपी अमृत पीने के पात्र श्रीकृष्णचन्द्रको आया श्रवण कर उत्कंठा से जिनके केश और वस्त्रों के बंधन ढीले हो गये वह स्त्रियें घरोंके कार्योंको शीघ्रत्याग और शय्याओं को ऊपर पतियोंको त्याग देखने के लिये राजमार्ग बाजारमें आई
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॥३४॥ हाथी, घोडे, रथ और
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सबलोग उत्सव छोड छोड़कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनको दौडे, कहीं विवाहमेअधिक उत्सव तो हैही नहीं तथापि एक कन्याका विवाह था, द्वारेपर नौबतबजरहीथी, व भाई विरादरीके लोग बैठे थे और मंडपके नीचे घर कन्या बैठे थे, ब्राह्मण हवन कररहेथे, सो नोबतवालोंने सुना किश्रीकृष्ण वलदेव आयेहै, सुननेही नगरको छोड़कर भागे और जो भीतर नाई, बारी झगडा कर रहेथे,वह भीसुनतेही भागे, पाधा (पुरोहित) पोथी पटक कृष्णके दर्शनको दौडे, अधिक क्या कहैबरातीभी चले गये,अब दुलहनने लोचा कि, इस चामके दूलहका क्या करना है? जाकर उस दूलहके दर्शन करू, सो आंचल छुडाकर दुलहन भी पहुँचगयी, पीछे दुलह भी चलागया॥
पैंदलोंकी भीरसे युक्त राजमार्गमें रानी सहित श्रीकृष्णचन्द्रको देख कोठोंके ऊपर चढ़ी स्त्रियें फूल वर्षाय, मनसे आलिंगन कर मुसकानपूर्वक चित वनसे देखकर “भले आये” इस प्रकार कहने लगीं॥३५॥ जैसे चन्द्रमासहित तारागण, उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंके मार्गमें देख “इन रानियोंने क्या पुण्य कियाहै, जिनके नेत्रोंको पुरुषोंमें मुकुट समान श्रीकृष्णचन्द्र उदार हास्य लीलापूर्वक अवलोकनकी कलासे आनन्द देते हैं” इसप्रकार सब स्त्रियें कहनेलगीं॥३६॥ पापरहित पुरवासी पान, खुपारी, बतासे और नारियल इन सब मंगल वस्तुओंको हाथमें लेकर श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करनेलगे॥३७॥ प्रफुल्लित नेत्र खुशीके मारे घबराहटसे अंतःपुरके वासियोने प्रीतिपूर्वक सम्मुख आकर जब सत्कार किया
ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुंदपत्नीस्तारा यथोडुपसहाः किमकार्यऽमूभिः॥ यचक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहासलीलावलो ककलयोत्सवमातनोति॥३६॥ तत्र तत्रोपसंगम्य पौरा मंगलपाणयः॥ चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः॥३७॥ अंतःपुरजनैः प्रीत्या मुकुंदः फुल्ललोचनैः॥ ससंभ्रमेरभ्युपेतः प्राविशद्राजमंदिरम्॥३८॥ पृथा विलोक्य भ्रात्रेय कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम्॥ प्रीतात्मोत्थाय पर्यकात्सस्नुषा परिषष्वजे॥३९॥ गोविंदं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः॥ पूजायां नाविदत्कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः॥४०॥ पितृष्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम्॥ स्वयं च कृष्णया राजन्भगिन्या चाभिवंदितः॥४१॥ श्वश्र्वासंचोदिता कृष्णा कृष्णपत्नीश्च सर्वशः॥ आनर्च रुक्मिणीं सात्यां भद्रां जांबवतीं तथा॥४२॥
तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र राजाके मंदिरमें चलेगये॥३८॥ त्रिलोकीके ईश्वर अपने भतीजे श्रीकृष्णचन्द्रको देख प्रसन्नमन कुन्ती अपनी बहू द्रौपदीसहित पलंगपरसे उठकर श्रीकृष्णचन्द्रसे मिली॥३९॥ देवों के देव और ब्रह्मादिकोंके ईश्वर गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्रजीको घरमें ला आनन्दसे सुधि बिसार राजा युधिष्ठिर पूजा करने की विधि भी भूलगये॥४०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!द्रौपदी और बहन सुभद्राके प्रणाम करनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने पिता, वसुदेवकी बहन कुन्ती और बडे पुरुषोंकी स्त्रियोंको प्रणाम किया॥४१॥ सास कुन्तीकी आज्ञा पाय द्रौपदी
संपूर्ण श्रीकृष्णचन्द्रकी रानी रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती इत्यादिका पूजन करनेलगीं॥४२॥ कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा पतिव्रता और नाग्नजिती इनकी और जो संग आई हैं, उनकी वस्त्र, माला, अतर, अरगजा, चन्दन इत्यादिकोंसे पूजा करनेलगी॥४३॥ धर्मराजा युधिष्ठिर भी सेनासस्ति मंत्री तथा सेवक और रानियों सहित श्रीकृष्णचन्द्रको नित्यप्रति नये सुखमें रखनेलगे॥४४॥ अर्जुन सहित श्रीकृष्णचन्द्र खांड ववनसे अग्निको तृप्त करके मयनाम दैत्यको बचाया उसने राजा युधिष्ठिरको दिव्य सभा बनाकर अर्पण की॥४५॥ रथ में बैठ अर्जुन तथा और योद्धाओंको संगले विहार करते श्रीकृष्णचन्द्र राजा युधिष्टिरका प्रिय करनेके लिये कितनेही दिनतक इन्द्रप्रस्थमें रहे॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते
कालिंदीं मित्रविंदां च शैन्यां नाग्नजितीं सतीम्॥ अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्मंडनादिभिः॥४३॥ सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम्॥ ससैन्यं सानुगामात्यं सभार्यं च नवंनवम्॥४४॥ तर्पयित्वा खांडवेन वह्नि फाल्गुनसंयुतः॥ मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता॥४५॥ उवास कतिचिन्मासान्राज्ञः प्रियचिकीर्षया॥विहरन्रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धेएकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः॥ ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः॥१॥ आचार्यैः कुलवृद्वैश्च ज्ञातिसंबंधिबांधवैः॥ शृण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह॥२॥ युधिष्ठिर उवाच॥ ऋतुराजेन गोविंद राजसूयेन पावनीः॥ यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्संपादय नः प्रभो॥३॥
महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्ध भाषाटीकायामेकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥ दोहा–जरासन्धकी विजय लख, कृष्ण बहत्तर अंक। भीमसेनको सैनदे, करवाये द्वै फंक॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत परीक्षित्!एक समय मुनीश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, भाई, आश्चर्य और कुलमें वृद्ध तथा जातिके सम्बन्धी बांधव इन सहित सभामें बैठे हुए राजा युधिष्ठिर इन सबके सुनते हुए हे कृष्ण! हे भक्तवत्सल, इस प्रकार संबोधन देकर बोले॥१॥॥२॥ कि, हे समर्थ! यज्ञोंका राजा राजसूय यज्ञ करके मैं पवित्र कर्मवाले आपका पूजन करूंगा, इस कारण आप इस कार्यको सिद्ध करो॥३॥
अभद्रके नाश करनेवाली तुम्हारी चरणपादुकाका जो पुरुष सेवन, ध्यान और पवित्र होकर वाणीसे नाम लेतेहैं हे कमलनाभ!
वही पुरुष संसारसे छूट जाते हैं और जो चाहना करते हैं, वह मनोरथ भी उनके सिद्ध होजाते हैं और कैसाही चक्रवर्ती क्यों न हो, विना भक्ति के कुछ नहीं होता॥४॥ इसकारण हे देवदेव!
यह लोक इस संसारमें तुम्हारे चरणारविन्दकी सेवाके प्रभाव को देख, हे समर्थ! कितनेही कुरु व सृंजय वंशी लोगजोकि कर्मादिकको प्रधान मानकर आपकी भक्तिको उत्तम नहीं समझते, उनका अज्ञान दूर करनेको जो आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते उन दोनों की स्थिति दिखाओ॥५॥ सबके आत्मा, समदर्शी, आत्ममुख, अनुभवरूप ब्रह्म तुम हो, आपके अपना बिराना यह भेद बुद्धि कुछ
त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरंति ध्यायंत्यभद्रनशने शुचयो गृणंति॥ विन्दंति ते कमलनाभ भवापवर्गमाशासते यदि त आशिष ईश नान्ये॥४॥ तद्देवदेव भवतश्चरणारविंदसेवाऽनुभावमिह पश्यतु लोक एषः॥ ये त्वां भजंति न भजंत्युत वोभयेषां निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसंजयानाम्॥५॥ न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः॥ संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र॥६॥ श्रीभगवानुवाच॥ सम्यग्व्य वसितं राजन्भवता शत्रुकर्शिना॥ कल्याणी येन ते कीर्तिर्लोकाननुभविष्यति॥७॥ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदाम पिनः प्रभो॥ सर्वेषामपि भूतानामीप्सितः क्रतुराडयम्॥८॥ विजित्य नृपतीन्सर्वान्कृत्वा च जगतीं वशे॥ संभृत्य सर्वसंभारानाहरस्व महाक्रतुम्॥९॥
नहीं है, जैसे कल्पवृक्षका जो सेवन करे उसीको फल प्राप्त हो, उसी प्रकार जो तुम्हारा सेवन करे तुम उसी पर प्रसन्न होते हो, जो जैसी सेवा करै, उसे वैसा ही फल देते हो, इसमें कुछ सन्देह नहीं॥६॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे राजा युधिष्ठिर!
हे शत्रुनाशक! तुमने यह भला निश्चय किया है, क्योंकि इस यज्ञके करनेसे सब लोको में तुम्हारी मंगलरूप कीर्त्ति फैलेगी॥७॥ हे समर्थ राजा युधिष्ठिर!
यह संपूर्ण यज्ञोंका राजा राजसूययज्ञ तुमने करना विचारा है, सो ऋषीश्वर और पितृ तथा देवता और सुहृद तथा हम और समस्त प्राणियोको प्यारा है॥८॥ सम्पूर्ण राजाओंको जीत
और संपूर्ण पृथ्वीको वशमें कर और सब सामग्रियें इकट्ठी करके तुम इस यज्ञको करो॥९॥ हे राजा युधिष्टिर! यह तुम्हारे भाई लोकोंका पालन करनेवाले देवताओंके अंश से उत्पन्न हुए और दूसरेमेंभी जिनको अजितेन्द्रिय पुरुष कभी वशमें नहीं करसक्ते, तुम्हारे जितेन्द्रियपनसे तुम्हारे वशमें हूँ इसलिय शीघ्रही यज्ञ पूर्ण होगा॥१०॥ मेरे आश्रयवाले पुरुषोंको लोकमें तेज, वैभव, सेना से कोई देवता भी पराभव नहीं करसक्ते हैं तो राजा क्या करसक्ते हैं॥११॥श्रीशुकदेवजी मुनि बोले कि, हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन प्रसन्नतासे प्रफुल्लितवदन राजा युधिष्ठिरने भगवान् के तेजसे बढे हुए अपने भ्राताओंको दिशाओंके जीतनेको भेजा॥१२॥ संजय देशके राजाओंको संग करके दक्षिणदेशके
एते ते भ्रातरो राजँल्लोकपालांशसंभवाः॥ जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः॥१०॥ न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया॥ विभूतिभिर्वाऽभिभवेद्देवोऽपि किमु पार्थिवः॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखांबुजः॥ भ्रातॄन्दिग्विजयेऽयुंक्त विष्णुतेजोपवृंहितान्॥१२॥ सहदेवं दक्षिणस्यामादिशत्सह सृंजयैः॥ दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम्॥ प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः॥॥१३॥ ते विजित्य नृपान्वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा॥ अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते॥१४॥श्रुत्वाऽजितं जरासंधं नृपतेर्ध्यायतो हरिः॥ आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह॥१५॥ भीमसेनोर्जुनः कृष्णो ब्रह्म लिंगधरास्त्रयः॥ जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः॥१६॥
राजाओंको जीतनेके लिये सहदेवको, उसी प्रकार पश्चिम दिशाकी तरफ मत्स्य देशके राजोंसहित नकुलको, केकय राजोंके साथ उदीची तरफ अर्जुनको और पूर्वकी ओर मद्रदेशके राजोंसहित भीमको आज्ञा दी, हे परीक्षित! सहदेव, अर्जुन, नकुल और भीमसेनने संपूर्ण दिशाओंके राजाओंको बलपूर्वक जीत यज्ञ करनेकी इच्छावाले अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरको बहुत द्रव्य लाकर दिया॥१३॥१४॥ सब दिशाओंके राजा तो जीत गये परन्तु पूर्व दिशाका राजा जरासन्ध जीतनेमें नहीं आया, इस बातको श्रवण कर अतिचिन्ताको प्राप्तहुए राजा युधिष्ठिरसे जो उपाय उद्धवजीने श्रीकृष्णचन्द्रको बताया था, सो उपाय श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा॥१५॥ हे राजन! तब तो भीमसेन, अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र
तीनों ब्राह्मणका रूप धारण कर जहाँ बृहद्रथका पुत्र जरासन्ध गिरिव्रजनाम किलेमें रहता था वहाँ गये॥१६॥ ब्राह्मणका वेष धारण किये इन क्षत्रियोंने भिक्षुकोके आने के समय ब्रह्मभक्त गृहस्थ घरमें स्थित राजा जरासन्धसे भिक्षाकी प्रार्थना की॥१७॥ कि, राजा जरासन्ध! हम बहुत दूरसे अतिथि आये हैं, सो तुम जानो और जिस वस्तुकी हम चाहना करते हैं, वह वस्तु हमको दो, इसमें तुम्हारा कल्याण होगा
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॥१८॥सहनशील पुरुष क्या नहीं सह सकते हैं? और असाधु लोग कौनसा अकृत्य नहीं कर सक्ते? और दाता लोगोंको कौनसी वस्तु अदेय है? और समदर्शियोंका कौन शत्रु है? इसलिये नाम लेनेसे क्या प्रयोजन जो मांगैंसो दो॥१९॥ साधुओंसे गानेयोग्य नित्य यशको जो पुरुष
ते गत्वातिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम्॥ब्रह्मण्यं समयाचेरन्राजन्या ब्रह्मलिंगिनः॥१७॥ राजन्विद्ध्यतिथीन्प्राप्तानार्थिनो दूरमागतान्॥ तन्नः प्रयच्छ भद्र त यद्वयं कामयामहे॥१८॥ किं दुर्मर्षंतितिक्षूण कमकार्यमसाधुभिः॥ किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम्॥१९॥ योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम्॥ नाऽऽचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः॥२०॥ हरिश्चंद्रो रंतिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः॥ व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ स्वरैरा कृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्टैर्ज्याहतैरपि॥ राजन्यबंधूविज्ञाय दृष्टपूर्वानचितयत्॥२२॥ राजन्यबंधवो ह्येते ब्रह्मलिंगानि विभ्रति॥ ददामि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम्॥२३॥
अनित्य देहमे आप समर्थ होकर नहीं करै, वह पुरुष निन्दा और शोच करनेयोग्य है॥२०॥ राजा हरिश्चन्द्र तथा रंतिदेव और मुद्गल ऋषि, राजा शिबि, तथा बलि, वधिक और कपोत पक्षी और ऐसे बहुत महात्मा वा अनित्य देहसे ध्रुव यशको प्राप्त हुये॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जरासन्ध कर्कश बोलना और स्वरूप तथा धनुषकी प्रत्यंचाके गट्ठेके चिह्नवाले पहुँचोंको देखकर “यह क्षत्रियोमें नीच है” यह जानकर द्रौपदीके स्वयंवरमें मैंने पहले देखे हैं, यह विचार करने लगा॥२२॥ यद्यपि यह क्षत्रियोमें नीच हैं, परन्तु तो भी ब्राह्मणोंका वेष
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**शंका—**श्रीकृष्णने ब्राह्मणका रूप धारणकर जरास धसे कहा कि, हे राजन्! तुम्हारा कल्याण होगा, फिर उसी समयमें युद्ध करके कुछ दिन पीछे अमंगलरूप मरणको क्यों प्राप्त हुआ? जब भगवान्ने अपने मुखसे मंगल होना कहा फिर वह एक महीने भी जीता न रहा, यह कैसा मंगल?
** उत्तर—**शूरवीर योद्वा युद्धमें मरनेको अशुभ और अंमगल नहीं समझते, युद्धमें मरणहीको अपना बडा कल्याण मानते है, इसलिये श्रीकृष्णके वाक्यके प्रमाणसे युद्धमें मरणरूप कल्याण जरासन्धको प्राप्तहोगया।
धारण किया है, इसलिये अदेय अपनी आत्मा भी यदि यह मांगैंतो इनको भिक्षा दूंगा॥२३॥ विष्णु भगवान्ने ब्राह्मणका स्वरूप वामन अवतार धर दैत्यराज बलिको ऐश्वर्यभ्रष्ट किया, परन्तु उसकी निर्मल कीर्त्ति पृथ्वीपर अबतक श्रवणगोचर होती है॥२४॥ देवराज इन्द्रकी शोभा हरनेके लिये ब्राह्मणका रूप धरके आयेहुये विष्णु भगवान्को यद्यपि जानता भी था कि, मेरे छलनेके लिये आये हैं और शुक्राचार्यने मने भी किया, परन्तु तोभी दैत्योके राजा बलिने वामनजीको पृथ्वीका दान दिया॥२५॥ एक दिन तो अवश्य ही यह देह पतित होगा, फिर जीवितही क्षत्रियके देहसे ब्राह्मणवे लिये निर्मलयशको न करैंतो इस देहसे प्रयोजन ही क्या है?॥२६॥ इसप्रकार निश्चय करके उदारबुद्धि जरासन्ध श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनसे कहनेलगा कि, हे ब्राह्मणो! जो तुम्हारी इच्छा हो सो वर मांगो तब श्रीकृष्णचन्द्र फिर पक्की करते हैं, कि हे राजन्!
बलेर्नु श्रूयते कीर्तिर्वितता दिक्ष्वऽकल्मषा॥ ऐश्वर्याद्भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना॥२४॥ श्रियं जिहीर्षतेंद्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे॥ जानन्नपि महीं प्रादाद्वार्यमाणोपि दैत्यराट्॥२५॥ जीवताऽब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबंधुना॥ देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः॥२६॥ इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान्॥ हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोपि वः॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ युद्धं नो देहि राजेंद्र द्वंद्वशो यदि मन्यसे॥ युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकांक्षिणः॥२८॥ असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्राताऽर्जुनो ह्ययम्॥ अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम्॥२९॥ एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः॥ आह चामर्षितो मंदा युद्धं तर्हि ददामि वः॥३०॥
हम जो मांगेंगे सो दोगे? तब जरासन्ध बोला कि, बारंबार क्या कहते हो यदि आपको मेरे शिरकी भी आवश्यकता होगी, तो वह भी काटकर समर्पण करूंगा॥२७॥ तब तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे राजाओंके इन्द्र राजन् जरासंध! यदि तुम्हारे मनमें आवैतो द्वन्द्वयुद्ध हमकोदो और युद्धके लियेही हम क्षत्रिय तुम्हारे पास आये हैं, अन्नके लेनेवाले हम ब्राह्मण नहीं हैं॥२८॥ तब जरासन्धने पूछा तुम कौन हो? यह सुन श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, वृकनामा अग्नि जिसके उदरमें ऐसा यह भीमसेन है, इसका भाई यह अर्जुन है और इनके मामाका पुत्र तेरा पहला वैरीमैं श्रीकृष्ण हूं, सो मुझे तो तुम भलीभाँति जानतेहोंगे॥२९॥ इसप्रकार सुनकर मगधदेशका राजा जरासन्ध बहुत हँसा इसके उपरान्त क्रोधमें
भरकर हे मूर्ख! मैं तुमको युद्ध दूँगा, इसप्रकार कहने लगा॥३०॥ अरे डरपोक कृष्ण! व्याकुलचित्त तेरे संग मैं युद्ध नहीं करूंगा, क्योंकि मेरे डरसे तो तू प्रथम ही मथुरापुरीको त्याग समुद्रमें जाय वसा है॥३१॥ अर्जुन मुझसे युद्धमें न्यून है और न मेरे समान बलवान् है, इसलिये अर्जुन योद्धा नहीं है, हां भीमसेन कुछेक मेरे समान बलवान् है, इसके संग युद्ध करूंगा॥३२॥ इतनी बात कह जरासन्ध भीमसेनको बड़ी गदा दे और आप दूसरी गढ़ा लेकर पुरसे बाहर निकला॥३३॥ इसके उपरान्त हे परीक्षित! बडा मदवाला भीमसेन और जरासन्ध परस्पर मिलकर रणभूमिमें वज्रके समान गदाका प्रहार करनेलगे॥३४॥ रंगभूमिमें प्राप्तहुए नटोंके समान बांयें दांयें विचित्र मंडलमें फिरते इन दोनोंका युद्ध अत्यन्त
न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवचेतसा॥ मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः॥३१॥ अयं तु वयसाऽतुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः॥ अर्जुनो न भवेद्योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम॥३२॥ इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम्॥ द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद्बहिः॥३३॥ ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ॥ जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ॥३४॥ मंडलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च॥ चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रंगिणोः॥३५॥ ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः॥ गदयोः क्षिप्तयो राजन्दंतयोरिव दंतिनोः॥३६॥ ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने अन्योऽन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून्॥ चूर्णी बभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्वोः॥३७॥ इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्पर्शौरपिष्टाम्॥ शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासीन्निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः॥३८॥
शोभायमान लगनेलगा॥३५॥ हे महाराज परीक्षित्! दांतवाले हाथियोंका जैसा शब्द होता है उसीप्रकार इनदोनों वीरोंके गदा चलानेका वज्रजैसे पिसे ऐसेही शब्द होनेलगा॥३६॥ युद्ध करनेसे बढा है क्रोध जिनका ऐसे हाथियोंकी लडाईमें आकडी जैसे चूर्ण होजाती है, उसी प्रकार भुजाओंके वेग से आपस में बडा क्रोधकर लड़नेवाले हाथियोंके शरीरपर पछाड़कर जैसे आककी गुद्दिया टूट जातीहैं, उसीप्रकार बाँहोंके वेगसे चलायमान गदा, कंधा, कमर, पाँव, हाथ, जंघा इनसे लगकर चूर्ण होगईं॥३७॥ इस प्रकार जब दोनों वीरोंकी गदा टूटगईं, तब
क्रोधी मनुष्योंमें वीर भीमसेन और जरासन्ध लोहेके समान स्पर्शवाले घूसोंकी मार शरीरमें मारनेलगे, हाथियोंके समान आपसमें मारते जरासन्ध व भीमसेनके प्रहारसे उठा शब्द जैसे विना बादल वज्रपातका शब्द होताहै, उसीप्रकार कठोर होनेलगा॥३८॥ हे राजा परीक्षित! नहीं घटा है बल जिनका और बराबर है दाँव, पेंच, बल, प्रभाव जिनका इसी प्रकार घूंसोंकी मारसे भीमसेन और जरासंधका बराबर युद्ध होनेलगा॥३९॥ हे राजन् परीक्षित्! इस प्रकार दिनमें तो युद्ध करे और रातको मित्रके समान एक स्थानपर रहैंऐसे जरासन्ध और भीमसेन दोनों वीरोंको युद्ध करते सत्ताईस दिन बीत गये॥४०॥ हे राजा परीक्षित्! एक समय मामाके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रसे भीमसेनने कहा कि, हे माधव! युद्धमें जरासन्धको मैं नहीं जीत सक्ता॥४१॥ क्योंकि जरासन्धका दो भाग होकर जन्म हुआ है और उन खण्डोंको जरा नाम राक्षसीने जोड़ दिया है,
तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः॥ निर्विशेषमभूद्युद्धमक्षीणजवयोर्नृप॥३९॥ एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः॥ दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्वन्निशि तिष्ठतोः॥४०॥ एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन्वृकोदरः॥ न शक्तोऽहं जरासंधं निर्जेतुं युधि माधव॥४१॥ शत्रोर्जन्ममृती विद्वाञ्जीवितं च जराकृतम्॥ पार्थमाप्याययन्स्वेन तेजसाऽचिंतयद्धरिः॥४२॥ संचिंत्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः॥ दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया॥४३॥ तद्विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतांवरः॥ गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले॥४४॥ एकं पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः॥ गुदतः पाटयामास शाखामिव महागजः॥४५॥
इस कारण यह दो खण्ड होनेसेही मरेगा, इस बातको जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्रने भीमसेनको अपने तेजसे बढाया और जरासन्धके चीरनेका विचार किया॥४२॥ सफलज्ञान श्रीकृष्णचन्द्र वैरी जरासन्धके मारनेका चिंतवन कर तिनुका चीरकर भीमसेनको सैनसे जताया कि, जैसे मैंने तिनुका चीरा उसी प्रकार तू इसको चीरडाल॥४३॥ मारनेवालोंमें श्रेष्ठ, महाबलवान भीमसेनने श्रीकृष्णचन्द्रके संकेतको जान वैरी जरासन्धका पाँव पकड़कर पृथ्वीमें पटक दिया॥४४॥ हे महाराज! जैसे बड़ा हाथी वृक्षकी शाखाको पकड़कर चीरड़ालता है, उसी प्रकार अपने पाँव से उसके एक पाँवको दाब और दूसरे पाँवको भुजाओंसे पकड़ गुदाके बीचसे चीरडाला॥४५॥
एक एक पाँव, जंघा, अंडकोश, कमर, पीठ, स्तन, कन्धा, एक एक भ्रुकुटी और कान ऐसे दोखण्ड किये सब प्रजाने देखा॥४६॥ मगधदेशका राजा जरासन्ध जिस समय मारा गया, उस समय महा हाहाकार शब्द होनेलगा, इसके पीछे अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र भीमसेनको आलिंगन करके पूजा करनेलगे॥४७॥ अप्रमेयस्वरूप, समर्थ, सब प्राणियोके पालन करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धके पुत्र सहदेवको मगधदेशका राज्यतिलक दिया इसके उपरान्त जरासन्धने जो वीसहजार आठसौ राजाओंको बंदी करलिया था उन्हें भी बंदीखानेसे छुडादिया॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे भाषाटीकायां जरासन्धवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ दोहा—तेहत्तर हरि बंदिसे, सब
एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके॥ एकवाह्वक्षिभ्रूकर्णे सकले ददृशुः प्रजाः॥४६॥ हाहाकारोमहानासीन्निहते मगघेश्वरे॥ पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्युतौ॥४७॥ सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावनः॥ अभ्यषिंचदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः॥ मोचयामास राजन्यान्संरुद्धा मागधेन ये॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे जरासंधवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ श्रीशुक उवाच॥ अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलाया युधि निर्जितः॥ ते निर्गता गिरिद्रोण्या मलिना मलवाससः॥१॥ क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः॥ ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥२॥ श्रीवत्सांकं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम्॥ चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥३॥ पद्महस्तं गदाशंखरथांगैरुपलक्षितम्॥ किरीटहारकटककटिसूत्रांगदाचितम्॥४॥
नृपदिये छुटाय। भोग्य योग्य बहु वस्तु है, दिये घरन पहुँचाय॥७३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित्! मलिनरूप, क्षुधासे कृश सूखे मुख, ऐसे वीसहजार आठसौ राजा जो गिरिद्रोणी नाम दुर्गमें कैद थे उन्हें लीलापूर्वकही छुडादिया, तब उन सब राजाओंने बन्दीखानेसे बाहर निकलकर मेघके समान श्यामरूप, पीले वस्त्र धारण कियेहुए भगवान श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥१॥२॥ अब जैसे स्वरूपसे श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया, सो वर्णन करते हैं, तुम श्रवण करो! हृदयमें शोभायमान भृगुलताका चिह्न, चार भुजा और कमलके गर्भके समान अरुण नेत्र सुन्दर प्रसन्न मुख और प्रकाशमान मकराकृत कुण्डल धारण किये, कमल हाथमें लिये विराजमान, शंख, चक्र, गदा धारण करे और किरीट, हार, कड़ा,
करधनी व बाजूबन्द पहरे॥३॥४॥ प्रकाशमान सुंदर मणिग्रीवा तथा गलेसे पाँवतक वनमालासे शोभायमान इस प्रकार रूपको देखकर राजाओमें लूटसी पडगई और नेत्रोंको ऐसे चलानेलगे, मानो रूपको पीजायँगे॥५॥ जीभ ऐसी चलावैंमानो चाट जाँयगे, भुजा ऐसी चलावैंमानो स्वरूपको आलिंगन करलेंगे, इस प्रकार पाप दूर होनेसे वह राजा मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें प्रणाम करने लगे॥६॥ हे राजन! इन राजा लोगोंके भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होनेके कारण बन्दीखानेके सब क्लेश मिटगये, तब यह सब राजा हाथ जोड़ हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर वाणीसे स्तुति करनेलगे॥७॥ राजा लोग कहने लगे कि, हे देवदेव! हे शरणागतका कष्ट हरनेवाले!अवि
भ्राजद्वारमणिग्रीवं निवीतं वनमालया॥ पिबंत इव चक्षुर्भ्यांलिहंत इव जिह्वया॥५॥ जिघ्रंत इव नासाभ्यां रंभंत इव बाहुभिः॥ प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः॥६॥ कृष्णसंदर्शनाह्लादध्वस्तसंरोधनक्लमाः॥ प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्रांजलयो नृपाः॥७॥ राजान ऊचुः॥ नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय॥ प्रपन्नान्पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान्घोरसंसृतेः॥८॥ नूनं नाथान्वसूयामो मागधं मधुसूदन॥ अनुग्रहो यद्भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो॥९॥ राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विंदते नृपः॥ त्वन्मायामोहितोनित्या मन्यते संपदोऽचलाः॥१०॥ मृगतृष्णां यथा बाला मन्यंत उदकाशयम्॥ एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वरतु चक्षते॥११॥ वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो जिगीषयाऽस्या इतरेतरस्पृधः॥ घ्नंतः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो मृत्युं पुरस्त्वाऽविगणय्य दुर्मदाः॥१२॥
नाशी! हे कृष्ण! इस घोर संसारसे दुःखी हुए और तुम्हारी शरण आये हमारी रक्षा करो॥८॥ हे नाथ! हे मधुसूदन! हम लोग जरासन्धको दोष नही लगाते, क्योकि हे प्रभो! राजाओंका जो राज्य भ्रष्ट होवे, यह आपका अनुग्रह समझना चाहिये, राज्यसंबन्धी ऐश्वर्यसे मदमत्त राजा आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य पदार्थोंको स्थिर मानते हैं, और उसीसे कल्याणको प्राप्त नहीं होते॥९॥१०॥ जैसे अज्ञानी पुरुष सूर्य की किरणोंसे चमकते हुए वालूको जलका सरोवर मानते हैं, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष नाना सृष्टि असद्रूपी जो माया है, उसको सत्य मानते हैं॥११॥ हे समर्थ!न लक्ष्मी के मदसे अन्धे हो इस पृथ्वीके जीतने की इच्छा से परस्पर द्वेष करते और मृत्यु के समान शिरपर खड़े कालरूप आपको नहीं
गिनते थे और मदसे उन्मत्त हो, निर्दयीपनसे अपनी प्रजाको महाकष्ट देते थे॥१२॥ हे कृष्ण! गंभीर वेग और बड़े पराक्रमवाली तुम्हारी कालमूर्तिने हमको लक्ष्मीसे भ्रष्ट करदिया, परन्तु अब तुम्हारी कृपासे गर्वरहित होकर आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं
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॥१३॥ इसके उपरान्त नित्य आयु जिसकी क्षीण हो और एक न एक रोग जिसमें उत्पन्न हो, ऐसे देहसे मृगतृष्णारूप मिथ्या राज्यकी हम अच्छा नहीं करते, केवलराज्यकी इच्छा नहीं करते इतनाही नहीं, बरन् परलोकमें क्रियाके फलरूप कर्णप्रिय स्वर्गादिक भोग भी नहीं चाहते॥१४॥ और हे भगवन्!
त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा दुरंतवीर्येण विचालिताः श्रिया॥ कालेन तन्वा भवतोऽनुकंपया विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम॥१३॥ अथ न राज्यं मृगतृष्णिरूपितं देहेन शश्वत्पतता रुजां भुवा॥ उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम्॥१४॥ तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः॥ स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह॥१५॥ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥ प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमोनमः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ संस्तूयमानो भगवान्राजभिर्मुक्तं धनैः॥ तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा॥१७॥
इस संमारमें भूलें हम राजा लोग किसी योनिमें भी तुम्हारे चरणारविन्दोंको न भूलें ऐसा उपाय बताओ॥१५॥ भक्तोंके क्लेशको दूर करनेवाले, शुद्ध अंतःकरणके प्रकाशक हरि परमात्मा और अपने भक्तोंका क्लेश काटनेवाले गोविन्द आपको हम प्रणाम करते हैं॥१६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेभरतवंशावतंस परीक्षित्! जब जरासंधके बंदीखानेसे छूटे राजाओने इसप्रकार स्तुति करी तब शरणके योग्य करुणावान् भगवान् श्रीकृष्ण
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शंका—श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धका वध करके बीससहस्र २०००० राजाओंको कारागारसे छुटाया तव तो सब राजा भगवान्को हे कृष्ण! कहिकर क्यों पुकारे? जैसा कोई मनुष्य अपने बराबर वालेको पुकारते हैं इस प्रकार क्यों पुकारा? यह वडा अयोग्य वचन कहा। राजाओंको ऐसा वचन कहना नहीं चाहिये था, उनको इसप्रकार कहना चाहिये था कि, हे महाराज! हे त्रिलोकीनाथ! हेदीनपालक! हे दीनदयालु! हे करुणासागर! हे भक्तवत्सल! ऐसे वाक्योंसे और अनेक प्रकारका दुलार करके श्रीकृष्णको पुकारना चाहिये था?
उत्तर—राजालोग प्रथम तो अपने २ राज्यसिंहासनपर बैठे थे तब तो अभिमानसे सत्संग किया नहीं इस कारण मूर्ख तथा गँवार होगये, जब जरासन्ध पकडकर लाया और वेडीपहराकर बन्दीगृहमें डालदिया तब दुःखी होकर सुधि बुधि भूलगये, दोनों भाँतिसे उनको बोलनेकी चतुराई न आई, वह बिना सींगके पशु हैं इसीलिये उन राजाओंके मुखसे जो वचन निकले सोई अच्छे हैं क्योंकि दुःखी और अभिमानी जो न कहै सो थोडा इस बातपर एक दृष्टान्त है॥ एक ब्राह्मण को किसी प्रेमीने वडी शुश्रूषासे न्योता और अनेक प्रकारके भोजन उसको जिमाये तब उसका पेट बहुत भरगया तब वह बोला बडे सत्यानाशी के यहां मोजन किया, इससे मुखोंकि दुर्वाक्योंपर ध्यान न करै॥
चन्द्रने मनोहर वाणी से राजाओंसे कहा॥१७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे राजाओं! जैसे तुमने चाहना करी उसी प्रकार सबका ईश्वर और आत्मा जो मैं हूं, सो मुझमें तुम्हारी आजसे दृढ़ भक्ति हुई॥१८॥ हे राजालोगों! सत्यवादी तुमने मेरा भजन करना, यह भला सत्य संकल्प निश्चय कियाहै, क्योंकि मनुष्य धन और ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो इच्छानुसार विचरते देखे जाते हैं॥१९॥ कृतवीर्यका पुत्र चक्रवर्ती राजा सहस्रबाहु एकसमय जमदग्नि ऋषिकी गौ हरके ले आया तब उसका परशुरामजीने पुत्रोंसहित संहार किया और राजा नहुष मदोन्मत्त होकर इन्द्राणीके पास जानेके लिये ब्राह्मणोंको पालकीमें जोतकर चला, तब ब्राह्मणोंने उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट करके सर्प करदिया और राजा वेनने मदोन्मत्त होकर ब्राह्मणोंका तिरस्कार किया, तब ब्राह्मणोंने अत्यन्त क्रोधित होकर हुंकार शब्दसे उसका प्राणसंहार किया और राक्षसराज रावणने सीताकी आकांक्षा करी, तब महात्मा श्रीरा
श्रीभगवानुवाच॥ अद्यप्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे॥ सुदृढा जायते भक्तिर्वाढमाशंसितं तथा॥१८॥ दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवंत ऋतभाषिणः॥ श्रियैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम्॥१९॥ हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे॥ श्रीमदाद्भ्रंशिताः स्थानाद्देवदैत्यनरेश्वराः॥२०॥ भवंत एतद्विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमंतवत्॥ मां यजतोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ॥२१॥ संतन्वंतःप्रजातंतून्सुखं दुःखं भवाभवौ॥ प्राप्तंप्राप्तं च सेवंतो मच्चित्ता विचरिष्यथ॥२२॥ उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतव्रताः॥ मय्यावेश्य मनः सम्यङ्भामंते ब्रह्म यास्यथ॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिश्य नृपान्कृष्णो भगवान्भुवनेश्वरः॥ तेषां न्ययुंक्त पुरुषान्त्रियो मज्जनकर्मणि॥२४॥
मचन्द्रजीने उसका वध किया और दैत्यराज नरकासुरने जब अदितिके कुण्डल हरलिये तब उसे मैंनेही मारा और कितनेही देवता और राजा धनके मदसे स्थानभ्रष्ट होगये॥२०॥ और तुम समस्त उत्पन्न देहादिकसे नाश होउगे, यह जान सावधान हो यज्ञ करके मेरा पूजन और प्रजाकी रक्षा करो॥२१॥ और पुत्रादिकोंको उत्पन्न करो, जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख जो प्राप्त होय उसका सेवन करो और मुझमें चित्त लगाकर विचरो॥२२॥ आत्मामें रमण करते व्रतधारण किये देह और घरोंमें उदासीन होकर भलेप्रकार मुझमें मन लगाओगे तो अंतमें परब्रह्मरूप मुझे प्राप्त होगे॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत! त्रिलोकीके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इसप्रकार राजाओंको आज्ञा कर और उनको
उबटन स्नान और क्षौर इत्यादि कर्म करानेके लिये स्त्री पुरुषोंको भेजा॥२४॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्! राजाओंके स्नान करचुकने पर जरासन्धके पुत्र सहदेवसे राजाओंके योग्य वस्त्र आभूषण माला और चंदनादिसे उनकी पूजा करानेलगे॥२५॥ सुन्दर स्नान करे वस्त्र आभूषणोंसे शोभित और अनेक प्रकारके भोगोंसे युक्त राजाओंको श्रेष्ठ अन्न भोजन कराय राजाओंके योग्य ताम्बूलादिक देनेलगे॥२६॥ मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रसे पूजित और प्रकाशमान कुण्डलोंको पहरे बन्दीखानेके क्लेशसे छुटाये राजा वर्षाऋतुके पीछे आकाशमें तारागणोंके समान शोभायमान लगनेलगे॥२७॥ मणि और सुवर्णके गहनोंसे शोभायमान राजाओंको सुन्दर घोडे जुते रथोंमें चढ़ाय और
मनोहर
सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत॥नरदेवोचितैर्वस्त्रैर्भूषणैः स्रग्विलेपनैः॥२५॥ भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान्समलंकृतान्॥ भोगैश्च विविधैर्युक्तांस्तांबुलाद्यैर्नृपोचितैः॥२६॥ ते पूजिता मुकुंदेन राजानो मृष्टकुंडलाः॥ विरेजुमोंचिताः क्लेशात्प्रावृडंते यथा ग्रहाः॥२७॥ स्थान्सदश्वानारोप्य मणिकांचनभूषितान्॥ प्रीणय्य सूनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान्प्रत्ययापयत्॥२८॥ त एवं मोचिताः कृच्छ्रात्कृष्णेन सुमहात्मना॥ ययुस्तमेव ध्यायंतः कृतानि च जगत्पतेः॥२९॥ जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम्॥ यथाऽन्वशासद्भगवांस्तथा चक्रुरतंद्रिताः॥३०॥ जरासंधं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः॥ पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात्सहदेवेन पूजितः॥३१॥
वचनोंसे प्रसन्न कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हैंअपने देशोंको भेजदिया॥२८॥ हे महाराज! इसप्रकार जगत्पति महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके छुड़ाये हुए कष्टमुक्त राजालोग भगवान्का और उनके चरित्रोंका ध्यान करते अपने अपने नगरको चलेगये॥२९॥ वह समस्त राजा जैसे महापुरुष श्रीकृष्णचन्द्रने छुड़ाए थे और जैसे पूजा कराई थी, उसी प्रकार वह सब वृत्तान्त अपनी प्रजाके सन्मुख वर्णन किया और जिसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने शिक्षा दी थी, उसी प्रकार आलस्य छोडकर करने लगे॥३०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार भीमसेनके हाथसे जरासंधको मरवाय और सहदेवसे अपना पूजन कराय भीम और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थ आये॥३१॥
दुष्ट हृदय शत्रुओंको दुःख देनेवाले और अपने सुहृदोंको आनन्द देनेवाले श्रीकृष्ण, भीम, अर्जुन यह सब वैरी जरासन्धको मार इन्द्रप्रस्थमें आनकर शंखध्वनि करने लगे॥३२॥ हे परीक्षित्! शंखका शब्द सुन प्रसन्नमन इन्द्रप्रस्थनिवासी “जरासन्धकी मृत्यु हुई” यह जानगये और धर्मराज राजा युधिष्ठिरके मनोरथ पूर्ण होगये॥३३॥ इसके उपरान्त भीम अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्रने आय राजा युधिष्ठिरको प्रणाम कर आपने जो कुछ किया सो सब कहा॥३४॥ धर्मराज के पुत्र राजा युधिष्ठिर ब्रह्मा महादेवके वश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो कार्य किया उसे सुन, नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी धार बहाते, प्रेमसे विह्वल हो कुछ न बोले॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे
गत्वा
ते खांडवप्रस्थं शंखान्दध्मुर्जितारयः॥ हर्षयंतः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः॥३२॥ तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इंद्रप्रस्थनिवासिनः॥ मेनिरे मागधं शांतं राजा चाप्तमनोरथः॥३३॥ अभिवंद्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः॥ सर्वमाश्रावयांचकुरात्मना यदनुष्ठितम्॥३४॥ निशम्य धर्मराजस्तत्केशवेनानुकंपितम्॥ आनंदाश्रुकलांमुंचन्प्रेम्णा नोवाच किंचन॥३५॥ इति श्रीमद्भा०महा० दशमस्कंधोत्तरार्धे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं युधिष्ठिरो राजा जरासंधवधं विभोः॥ कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत्॥१॥ युधिष्ठिर उवाच॥ ये स्युत्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः॥ वहति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम्॥२॥ स भवानरविंदाक्षो दीनानामीशमानिनाम्॥ धत्तेऽनुशासनं भूमंस्तदत्यंतविडंबनम्॥३॥
भाषाटीकायां त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ दोहा—चौहत्तरमें राजसुय, कियो युधिष्ठिर यज्ञ। तबही हनो शिशुपाल नृप, श्रीकृष्ण सर्वज्ञ॥७४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! इस प्रकार राजा युधिष्ठिर जरासंघका वध और श्रीकृष्णका प्रभाव सुन अत्यन्त प्रसन्न होकर श्रीकृष्णचन्द्रसे बोले कि॥१॥ जो पुरुष त्रिलोकीके गुरु हैं सब लोकोंके बड़े ईश्वर हैं, वह भी दुर्लभ मानकर तुम्हारी आज्ञाको शिरपर धारण करते हैं॥२॥ हे व्यापक कमलनयन! आप हम दुःखी और सामर्थ्यपनका अभिमान रखनेवालोंकी आज्ञाको शिरपर धारण करते हो, यह
विडम्बनामात्र है, वास्तवमें आपको यह बात संभव नहीं हो सक्ती॥३॥ एक अद्वितीय अर्थात् कोई जिनकी बराबर नहीं और कोई जिनसे बड़ा नहीं ऐसे परमात्मा तुम हो, आपका तेज परोपकारके लिये कर्मोंसे न्यून भी नहीं होता, जैसे सूर्यका उदय अस्तमें तेज बढ़ताही है, घटता नहीं॥४॥ यदि कहो कि, मैं परमेश्वर हूं सो सबकी आज्ञा माननी, यह मंदकर्म करना योग्य नहीं है, सो कहते हैं, कि, हे मधुवंशोत्पन्न! श्रीकृष्णचन्द्र! हे अजित! जैसे अज्ञानी पुरुषोंके देहमें अहंकार और देहके संगमें समता रहती है, उसी प्रकार तुम्हारे भक्तोंके “तू और तेरा मैं और मेरा” यह बुद्धि नहीं होती है॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! राजा युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे यह वचन कहे
न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः॥ कर्मभिर्बर्धते तेजो ह्रसते च यथा खेः॥४॥ न वै तेऽजितभक्तानां ममाहमिति माधव॥ त्वं तवेति च नाना धीः पशूनामिव वैकृता॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रेयुक्तान्स ऋत्विजः॥ कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिनः॥६॥ द्वैपायनो भरद्वाजः सुमंतुर्गौतमोऽसितः॥ वसिष्ठयवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः॥७॥ विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः॥ पैलः पराशरो गर्गो वैशंपायन एव च॥८॥ अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः॥ वीतिहोत्रो मधुच्छंदा वीरसेनोऽकृतव्रणः॥९॥ उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः॥ धृतराष्ट्रः सहस्रुतो विदुरश्च महामतिः॥१०॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः॥ तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप॥११॥
और उनकी सम्मति ले, यज्ञ करनेके योग्य वसंतादिकालमें वेदके पढ़नेवाले योग्य ब्राह्मणोंको होता, उद्गाता, अध्वर्यु, इत्यादिकोंमें वरण किया॥६॥ द्वैपायन, भरद्वाज, सुमंतु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित,॥७॥ विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशंपायन॥८॥ अथर्व, काश्यप, धौम्य, परशुराम, भार्गव, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुछन्द, वीरसेन, अकृतव्रण॥९॥ इसी प्रकार बुलायेहुए द्रोणाचार्य, भीष्मजी तथा कृपाचार्यादि ऋषि आये तब पुत्रोंसहित धृतराष्ट्र और बडे बुद्धिमान् विदुरजी भी आनकर सुशोभित हुए॥१०॥ हे राजन्! और भी यज्ञ देखनेके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र व सब राजा और उनके प्रधान दीवान आये॥११॥
इसके उपरान्त ब्राह्मण लोग यज्ञ करनेकी भूमिमें सुवर्णका हल चलाय भूमि शोधनकर राजा युधिष्ठिरको यज्ञदीक्षा देनेलगे॥१२॥ जैसे पहले वरुणके यज्ञमें सुवर्णकी सामग्री और सुवर्णके पात्र थे उसी प्रकार इस यज्ञमें भी थे और ब्रह्मा, महादेव, तथा इन्द्रादिक देवताओंको संग लेकर लोकपाल भी आये॥१३॥ गणोंसहित सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर और बड़े बड़े सर्प, मुनीश्वर, यक्ष, राक्षस, खग, किन्नर, चारण इनके समूहके समूह आये॥१४॥ और आयेहुए राजाओंकी सब स्त्रियें, भी पांडुपुत्र राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें आईं॥१५॥ हे महाराज! इस बातको कोई आश्चर्य न करैक्योंकि हरिभक्तकी सब वार्त्तासिद्ध हो सकती है इसीलिये इन्होंने युधिष्ठिरके यज्ञमें विस्मय न किया, जैसे देवताओंने वरुणको
ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलांगलैः॥ कृष्ट्वा तत्र यथम्नायं दीक्षयांचक्रिरे नृपम्॥१२॥ हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा॥ इंद्रदियो लोकपाला विरिंचभवसंयुताः॥१३॥ सगणाः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः॥ मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः॥१४॥ राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः॥ राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पांडुसुतस्य वै॥१५॥ मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः॥ अयाजयन्महाराजं याजका देववर्चसः॥१६॥ राजसूयेन विधिवत्प्राचेतसमिवामराः॥ सौत्येऽहन्यवनीपालो याजकान्सदसस्पतीन्॥ अपूजयन्महाभागान्यथावत्सुसमाहितः॥१७॥ सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशंतः सभासदः॥ नाध्यगच्छन्न नैकांत्यात्सहदेवस्तदाब्रवीत्॥१८॥
यज्ञ कराया था उसी प्रकार देवताओंके समान कान्तिवाले ऋत्विज राजसूययज्ञ करके विधिपूर्वक महाराज युधिष्ठिरसे यजन करानेलगे॥१६॥ अतिशय करके सावधान पृथ्वीका पालन करनेवाले राजा युधिष्टिरने जिस दिन सोमवल्ली कूटीगई, उस दिन यज्ञकरानेवालोंका तथा बड़भागी जो सभामें मुख्य थे उनका पूजन किया॥१७॥ सभाके बैठनेवालोंमें प्रथम किसकी पूजा करनी चाहिये॥यह विचार करते करते एककी अपेक्षा एक बडा है, इसकारण जब किसीका निश्चय न हुआ तब युधिष्ठिर के भाई सहदेवने कहा
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॥१८॥
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शंका—पृथ्वीपर युधिष्ठिरनेही कुछ पहिले यज्ञ नहीं किया यज्ञ तो सतयुगसे अनेक राजा करते चले आये हैं फिर युधिष्ठिरकी यज्ञमें पहिले पूजन करनेके लिये देवताका विचार क्यों किया? कुछ ब्राह्मण भी प्रथम ही यज्ञ करनेके लिये नहीं आये थे, पहिले सतयुगमें ब्राह्मण सहस्रों यज्ञ कराचुके थे, फिर धर्मराजके यज्ञमें इतना विचार क्यों किया? जो नई बात हो उसका विचार करना चाहिये और सैंकडों वर्षसे जिस बातकी रीति चली आती हो, उस बातमें क्या सन्देह?
भक्तोंका पालनकरनेवाले अखण्डरूप समस्त देवता देशकाल धनादिकरूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्रही इस यज्ञमें पूजा करनेके योग्य हैं॥१९॥ यह सब विश्व कृष्णकाही रूप है और यज्ञादिक भी कृष्णरूपही हैं और अग्नि, आहुति, मंत्र, ज्ञान, उपासनादि भी सब कृष्णपरायण हैं॥२०॥ हे सभा बैठनेवालो! अजन्मा एक अद्वितीय यह कृष्ण हैं सो अपने स्वरूप विश्वको अपने आत्माहीसे दूसरेकी सहायता बिना उत्पन्न पालन और नाश कर तेहैं॥२१॥ सब जनोंके अनुग्रहसे इस संसारमें अनेक प्रकारके तप योगादिक कर्म करके धर्मादिकरूप कल्याणको करतेहैं और अनेक प्रकारके
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान्सात्वतां पतिः॥ एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः॥१९॥ यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः॥ अग्निराहुतयो मंत्राः सांख्यं योगश्च यत्परः॥२०॥ एक एवाद्वितीयोऽसावैतदात्म्यमिदं जगत्॥ आत्मनाऽऽत्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हंत्यजः॥२१॥ विविधानीह कर्माणि जनयन्यदवेक्षया॥ ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥२२॥ तस्मात्कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम्॥ एवं चेत्सर्वभूतानामात्मनश्चार्हणं भवेत्॥२३॥ सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने॥ देयं शांताय पूर्णाय दत्तस्यानंत्यमिच्छता॥२४॥ इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत्तूष्णीं कृष्णानुभाववित्॥ तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधुसाध्विति सत्तमाः॥२५॥
सब कर्मोंके फल भी सब कृष्णके आधीनही हैं॥२२॥ इसलिये सबसे बडे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकीही पहले पूजा करनी योग्य है और इनकी पूजा करनेसे सब प्राणियोंकी पूजा होजायगी॥२३॥ और जो कोई पूजाके योग्य होगा उसकी भी पूजा होजायगी, इसकारण जो पुरुष पूजाके अनन्तफलकी चाहना करैवह पुरुष सब प्राणियोंके आत्मा, भेदभावरहित और शान्त परिपूर्ण भगवान् वासुदेवकी पूजा करै॥२४॥ हे महाराज! इतनी बात कह श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावको जाननेवाला सहदेव चुप होगया और उस समय सब श्रेष्ठपुरुष सहदेवका वचन सुनकर “सत्य कहा सत्य
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उत्तर—सब ब्राह्मण भगवान्को भूल नहीं गये थे सब जानते थे कि, सव कर्मोंमें और यज्ञमें भगवान्का पूजन करनाचाहिये ऐसा सब जानते थे, परन्तु देवयोगसे शिशुपालने कालवश मुनियोंको और यज्ञकी सभामें बैठनेवाले प्राणियोंको मोहित करलिया काल करके सब मुनिजन मोहित होगये और सब मनुष्योंने बालक सरीखा काम किया क्योंकि जो यज्ञमें पहिले पूजन करनेयोग्य कौन है ऐसा विवाद न होता तौ शिशुपाल श्रीकृष्णकी निन्दा क्यों करता? और विना निन्दाकिये मगवान् उसको क्यों मारते? शिशुपालके काल करके मोहित जो मुनि और सब सभाके बैठनेवाले प्रथम पूजन करनेयोग्यका विचार करनेलगे॥
कहा” इसप्रकर कहकर बडाई करने लगे॥२५॥ स्नेहसे विह्वल और प्रसन्न हो राजा युधिष्ठिरने उन ब्राह्मणोंके कहे वचन सुन और सभामें बैठेहुए पुरुषोके हृदयका अभिप्राय जान इंद्रियोंको प्रेरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन किया॥२६॥ स्त्री, भाई, मंत्री और सब कुटुम्बके पुरुषोंसहित राजा युधिष्ठिरने श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंको धोय सब लोकोंके पवित्र करनेवाले चरणारविन्दका धोवन जल अपने मस्तकपर चढ़ाय॥२७॥ पीले रेशमी वस्त्र और बहुत मोलके आभूषणोंसे भी पूजा कर आँसू भरे नेत्रोंसे राजा युधिष्ठिर श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन करनेको समर्थ न हुआ॥२८॥ इस प्रकार जब राजा युधिष्ठिरने पूजा करी, तब श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर सब जन हाथ जोड नमोनमः और जय २
श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम्॥ समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः॥२६॥ तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः॥ सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुंबोऽवहन्मुदा॥२७॥ वासोभिः पीतकौशेयैर्भूषणैश्च महाधनैः॥ अर्हयित्वाऽश्रुपूर्णाक्षोनाशकत्समवेक्षितुम्॥२८॥ इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्रांजलयो जनाः॥ नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पदृष्टयः॥२९॥ इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठादुत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः॥ उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी सश्रावयन्भगवते परुषाण्यभीतः॥३०॥ ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुतिः॥ वृद्धानामपि यद्बुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते॥३१॥ यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषितम्॥ सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत्संमतोऽर्हणे॥३२॥
शब्दसे श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके फूलोंकी वर्षा वर्षानेलगे॥२९॥ हे महाराज परीक्षित्! जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा हुई, तब उससमय दमघोषका पुत्र शिशुपाल श्रीकृष्णचन्द्रके गुणोंका वर्णन सुन अत्यन्त क्रोधित हो, भुजा उठाय ईर्षाकर निर्भय हो श्रीकृष्णचन्द्रको कठोरवचन सुनाकर यह कहने लगा॥३०॥ नाशरहित श्लाघ्य सामर्थ्यवान् काल बडा प्रबल है, वास्तवमें यह वेदकी श्रुति सत्य है, क्योंकि कालसेही वृद्ध वृद्ध सभामें बैठानेवालोंकी बुद्धि इस बालक सहदेवके कहनेसे चलायमान होगई॥३१॥ हे पात्रके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ सभापतियो! भला यह कृष्ण पूजाके योग्य है? कदापि नहीं इसकारण इस बालकका वचन मानना उचित नहीं॥३२॥
क्योंकि तप करनेवाले विद्यावान्, व्रती, ज्ञानी, पापरहित, ब्रह्मनिष्ठ और लोकपालोंसे पूजित ब्रह्मर्षि॥३३॥ इस सभामें विराजते हैं, इन सबको त्याग गायोंका चरानेवाला और कुलको दोष लगानेवाला पूजाके योग्य कैसे हो सकताहै? और यज्ञमें देवताओंके योग्य बलि कौआ कैसे ग्रहण करनेके योग्य॥३४॥ न जिसका कोई वर्ण, न आश्रम और न कोई कुल है, संपूर्ण धर्मसे बहिष्कृत, जैसे मनमें आवैवैसेही करै गुणहीन, ऐसा कृष्ण कैसे पूजाके योग्य हो सक्ता है?॥३५॥ राजा ययातिने इसके कुलको शाप दिया और सत्पुरुषोंने जातिबहिष्कृत किया और सर्वदा वृथा मदिरापान करनेवाला इसका कुल है, फिर इस कुलमें आज कृष्ण कैसे पूजाके योग्य होताहै॥३६॥
तपोविद्याव्रतधराञ्ज्ञानविध्वस्तकल्मषान्॥ परमर्षीन्ब्रह्मनिष्ठाल्लोँकपालैश्च पूजितान्॥३३॥ सदसस्पतीनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः॥ यथा काकः पुरोडाशं सपर्यिांकथमर्हति॥३४॥ वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः॥ स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति॥३५॥ ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम्॥ वृथा पानरतं शश्वत्सपर्यांकथमर्हति॥३६॥ ब्रह्मर्षिसेवितान्देशान्हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम्॥ समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधते दस्यवः प्रजाः॥३७॥ एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमंगलः॥ नोवाच किंचिद्भगवान्यथा सिंहः शिवारुतम्॥३८॥ भगवन्निंदनं श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः॥ कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपंतश्चेदिपं रुषा॥३९॥ निंदा भगवतः शृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा॥ ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः॥४०॥
ब्रह्मर्षिसेवित देशोंको त्याग ब्रह्मतेजरहित समुद्रके किलेका आश्रय लेकर यादवोंमें चोरके समान बाधा देताहै॥३७॥ भूपाल! नष्टमंगल शिशुपाल और भी अनेक प्रकारके अमंगल वचन कहता रहा, परन्तु जैसे सिंह सियारोंके बोलनेपर ध्यान नहीं देता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कुछ न बोले॥३८॥ सभासद दुस्सह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी इसप्रकार निन्दा सुन, कर्ण मूँदि अत्यन्त क्रोधित हो शिशुपालको गाली देनेलगे॥३९॥ भगवान्की निन्दा सुन अथवा भगवत् परायण पुरुषोंकी निन्दा सुनकर जो पुरुष उस स्थानसे न उठ जायँ वह पुरुष अपने पुण्यसे भ्रष्ट होकर नरकमें गिरते हैं॥४०॥
इसके उपरान्त हे परीक्षित्! क्रोधसे पाण्डुके पुत्र और मत्स्यदेश व सृंजय देशके राजा अपने अपने शस्त्रोंको उठाकर शिशुपालके मारनेको उपस्थित हुए॥४१॥ हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित्! इसके पीछे घबराहटरहित शिशुपालने श्रीकृष्णचन्द्रके पक्षी राजाओंको मारनेके लिये ढ़ाल और अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाली तलवार ग्रहण की॥४२॥ यह मेरा पार्षद है और मेरे समान बलवान् है यह सबको मारैगा इससे मैं ही इसको मारूं, यह विचार उसी समय उठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी ओरके राजाओंको निवारण करके सम्मुख आते अपने वैरी शिशुपालका शिर क्षुरेके समान पैनीधारवाले चक्रसे काट लिया॥४३॥ उस समय बडा कोलाहल शब्द हुआ और शिशुपालके पिछलगू राजा जीनेकी इच्छा करके
ततः पांडुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः॥ उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः॥४१॥ ततश्चैद्यस्त्वसंभ्रांतो जगृहे खड्गचर्मणी॥ भर्त्सयन्कृष्णपक्षीयान्राज्ञः सदसि भारत॥४२॥ तावदुत्थाय भगवान्स्वान्निवार्य स्वयं रुषा॥ शिरः क्षुरांतचक्रेण जहारापततो रिपोः॥४३॥ शब्दः कोलाहलोऽप्यासीच्छिशुपाले हते महान्॥ तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीर्वितैषिणः॥४४॥ चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत्॥ पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्युता॥४५॥ जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया॥ ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम्॥४६॥ ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिणां विपुलामदात्॥ सर्वान्संपूज्य विधिवच्चक्रेऽवभृथमेकराट्॥४७॥
भागगये॥४४॥ उस समय शिशुपालके देहमेंसे निकलीहुई ज्योति सब प्राणियोंके देखते श्रीकृष्णचन्द्रमें मिलगई, जिस प्रकार आकाशसे गिरे तारे पृथ्वीमें मिलजाते हैं॥४५॥ पहले जन्ममें हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप हुये, दूसरे जन्ममें रावण, कुम्भकर्ण हुये, तीसरे जन्ममें शिशुपाल और दन्तवक्र हुये, इस प्रकार तीन जन्मके चले आये वैरसे तन्मय बुद्धिसे रूपका ध्यान करते करते, उसी रूपको प्राप्त हुये, अर्थात् पार्षद होगये, क्योंकि जैसी जो भावना करता है, वैसाही उसका जन्म होताहै॥४६॥ इसके उपरान्त चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिरने यज्ञके करानेवाले ब्राह्मणोंको और बड़े सभामें बैठनेवालोंको बडी दक्षिणा दी और विधिपूर्वक सबका पूजन करके यज्ञांत स्नान किया॥४७॥
योगेश्वरोंके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रने राजा युधिष्टिरका यज्ञ सिद्ध करके और सुहृदोंकी विनयसे कितनेही मास पर्यन्त वहाँ वास किया॥४८॥ इसके उपरान्त जाने देनेकी इच्छा न करनेवाले राजा युधिष्ठिरसे आज्ञा माँग सामर्थ्यवान् भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अपने स्त्री पुत्रोंको संग लेकर द्वारकापुरीमें आये॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! वैकुण्ठके वास करनेवाले जय, विजय पार्षदोंको सनकादिकका शाप लगा, इसकारण वारम्वार जन्म हुआ, प्रथम यह कथा तुम्हारे आगे विस्तार सहित वर्णन कर चुके हैं॥५०॥ राजसूययज्ञ कर चुकनेके पीछे स्नानकरराजा युधिष्ठिर ब्राह्मण और क्षत्रियोंके मध्यमे बैठे इन्द्रके समान सभामें शोभायमान लगने लगे॥५१॥ राजा युधिष्ठिरसे सत्कार पाय
साधयित्वा क्रतुं राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः॥ उवास कतिचिन्मासान्सुहृद्भिरभियाचितः॥४८॥ ततोऽनुज्ञाप्य राजानमनिच्छंतमपीश्वरः॥ ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः॥४९॥ वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम्॥ वैकुंठवासिनोर्जन्म विप्रशापात्पुनः पुनः॥५०॥ राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः॥ ब्रह्मक्षत्रसभा मध्ये शुशुभे सुरराडिव॥५१॥ राज्ञः सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः॥ कृष्णं क्रतुं च शंसंतः स्वधामानि ययुर्मुदा॥५२॥ दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम्॥ यो न सेहे श्रियं स्फीतां दृष्ट्वा पांडुसूतस्य ताम्॥५३॥ य इदं कीर्तयेद्विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम्॥ राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥५४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥
सब देवता और आकाशके विचरनेवाले मनुष्य, प्रमथगण श्रीकृष्णचन्द्र और सभा तथा यज्ञ इनकी प्रशंसा करते आनन्दपूर्वक अपने अपने लोकोंको चलेगये॥५२॥ परन्तु कौरवोंके कुलमें कलियुग रूप कुलका नाशक, धर्मद्वेषी दुर्योधन पांडुपुत्र महाराज युधिष्ठिरकी बडी शोभाको देख अपने मन में बहुत कुढ़ा॥१३॥ शिशुपालके वध आदिक जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कर्म वीस हजार आठसौ राजा कैदसे छुटाये औरराजा युधिष्ठिरका यज्ञ कराया, इस प्रसंगको जो पुरुष कहैंअथवा सुनैंगे, वह सब पापोंसे छूट जायँगे॥५४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥
दोहा—पिछहत्तर भ्रममें पडो, अवभृथको अस्नान। दुर्योधनको क्षमा बिन, भयो मान अपमान॥७५॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी! अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञकी बडी शोभा देखकर जो राजा आये थे, वह सब प्रसन्न हुये॥१॥ और संपूर्ण देवता ओंने भी आनन्द पाया, केवल दुर्योधनही आनन्दसे वंचित रहा, यह हमने आपकेही मुखसे सुना, सो दुर्योधनको आनन्द क्यों न हुआ इसका कारण कृपा करके मेरे सम्मुख वर्णन कीजिये॥२॥ तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! महात्मा तुम्हारे दादे राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें सब बन्धु बांधव प्रेमवश होकर सबही टहल करते थे॥३॥ किसने कौन काम किया सो कहतेहैं, भीमसेनको रसोईंका अधिष्ठाता,
राजोवाच॥ अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम्॥ सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन्नृदेवा ये समागताः॥१॥ दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः॥ इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम्॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः॥ बांधवाः परिचर्यायां तस्यासन्प्रेमबंधनाः॥३॥ भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः॥ सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने॥४॥ गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने॥ परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः॥५॥ युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः॥ बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च संतर्दनादयः॥६॥ निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा॥ प्रवर्तंते स्म राजेंद्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥७॥
दुर्योधनको खर्च करनेका स्वामी कोशाध्यक्ष किया, क्योंकि यह हमको शत्रु जानकर बहुत द्रव्य उठावेगा, तो इसमें हमारा यश होगा, सहदेवको आये गयेकी पूजा करनेका काम सौंपा और नकुलको अनेक प्रकारकी सामग्रियोंका सम्पादक बनाया॥४॥ साधुओंकी सेवा अर्जुन करताथा, और श्रीकृष्णचन्द्र यज्ञमें आनेवालोंके पाँव धोकर पोंछदेते थे, परोसा परोसीमें द्रौपदी लगरही थी उदारमन कर्ण दान देनेकी टहलमें लग रहाथा॥५॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! सात्यकी, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुरादिक, भूरिश्रवादि, बाह्लीक राजाके पुत्र और संतर्दन आदि उस बड़े यज्ञमें अनेक प्रकारके कामोंमें लगा दिये, उस समय वह सब महाराज युधिष्ठिरका प्रिय करनेके लिये सब प्रवृत्त होगये॥६॥ ऋत्विक और सभासद तथा
विवेकी सुहृज्जनोंने सुन्दर मनोहर वचन गहने और दक्षिणासे पूजित होकर शिशुपालको श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकी प्राप्ति होनेके उपरान्त स्वर्गनदी गंगामें यज्ञकी समाप्तिका स्नान किया॥७॥८॥ यज्ञकी समाप्तिके उत्सवमें मृदंग, शंख, ढोलक, खंजरी, नगारे, गोमुख, नरसिंहादिक चित्रविचित्र बाजे बजनेलगे॥९॥ नाचनेवालीं नाचनेलगीं और आनन्दपूर्वक गवैयोंके झुण्डके झुण्ड गानेलगे, तिनके वीणा वेणु और हथेलीका शब्द स्वर्गतक व्याप्त होरहा था॥१०॥ चित्र विचित्र छत्र, ध्वजा पताका जिनके ऊपर ढकी, ऐसे बड़े बड़े रथ, हाथी और घोड़ोंपर चढ सुवर्णकी माला पहरे सेनाको संग लेकर राजा निकले॥११॥ राजा युधिष्ठिरको आगे किये यदु सृञ्जय, कांबोज कुरु कैकय और कौशल देशके
ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सुसुहृत्तमेषु स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः॥ चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टेचक्रुस्ततस्त्ववभृथस्नपनं द्युनद्याम्॥८॥ मृदंगशंखपणवधुंधुर्यानकगोमुखाः॥ वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे॥९॥ नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टागायका यूथशो जगुः॥ वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत्॥१०॥ चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेंद्रस्यं दनार्वभिः॥ स्वलंकृतैर्भटैर्भूषा निर्ययू रुक्ममालिनः॥११॥ यदुसृंजयकांबोजकुरुकेकयकोसलाः॥ कंपयंतो भुवं सैन्यैर्जयमानपुरःसराः॥१२॥ सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा॥ देवर्षिपितृगंधर्वास्तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः॥॥१३॥ स्वलंकृता नरा नार्यो गंधस्रग्भूषणांबरैः॥ विलिंपंत्योऽभिषिंचंत्यो विजह्नुर्विविधै रसैः॥१४॥ तैलगोरसगंधोदहरिद्रासांद्रकुंकुमैः॥ पुंभिर्लिप्ताः प्रलिंपंत्यो विजह्नुर्वारयोषितः॥१५॥ गुप्ता नृभिर्निरंगमन्नुपलब्धुमेतद्देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः॥ ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः सव्रीडहासविकसद्वदना विरेजुः॥१६॥
राजा पृथ्वीको कम्पायमान करते सेना सहित चले॥१२॥ सभासद्, ऋत्विज तथा ब्राह्मण वेदकी ध्वनि करते चले और ऋषि, पितृ, गंधर्व, पुष्पोंकी वर्षा कर करके स्तुति करतेथे॥१३॥ चन्दन, माला, गहने और वस्त्रोंसे शृंगार करे स्त्री पुरुष अनेक प्रकारके दूध, दही आदि रसोंको लेपन और छिरकाव करतेथे॥१४॥ तेल और माखन सुगंधिके जल हरदी व केशर इत्यादिकोंको लेपन करते और छिड़कते परस्पर विहार करते थे॥१५॥ इस उत्सवको देखनेके लिये जैसे उत्तम विमानोंपर बैठकर देवांगना आईं हों उसीप्रकार वीर और रावतोंसे रक्षित हो रनवासकी
रानियें रथ और पालकियोंमें बैठकर निकलीं, वह रानियें मामाके पुत्रोंसे और सखियोंसे भिगोयीहुई लाजभरी मुसकान व प्रफुल्लित मुखसे शोभायमान होरहीथीं॥१६॥ भीजनेसे और शरीरमें चिपटनेसे उन स्त्रियोंके अंग, कुच, जंघाऔर मध्यभाग स्पष्ट दिखाई देतेथे उत्सुकतासे चोटी शिथिल होनेके कारण उससे फूल बिखर रहेथे देवर और सखीजन उन्हें डोलचियोंसे भिगोरहेथे उनकी लीला देखकर मलीनमन कामीजनोंके चित्त अत्यन्त क्षुभित होतेथे॥१७॥ सुवर्णकी माला पहरे और सुन्दर घोडे जुते रथमें बैठे राजा युधिष्ठिर जैसे क्रियाओं सहित यज्ञ सुन्दर
ता देवरानुत सखीन्सिषिचुर्दृतीभिः क्लिन्नांवरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः॥ औत्सुक्यमुक्तकवराच्च्यवमानमाल्याः क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः॥१७॥ स सम्राड् रथमारूढः सदश्वं रुक्ममालिनम्॥ व्यरोचत स्वपत्नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव॥१८॥ पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते तमृत्विजः॥ आचांतं स्नापयांचक्रुर्गगायां सह कृष्णया॥१९॥ देवदुंदुभयो नेदुर्नरदुंदुभिभिः समम्॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः॥२०॥ सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः॥ महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्विषात्॥२१॥ अथ राजाऽहते क्षौमे परिधाय स्वलंकृतः॥ ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणांवरैः॥२२॥
लगता है उसी प्रकार स्त्रियो सहित शोभायमान लगनेलगे
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॥१८॥ ऋत्त्विजोने वे पत्नी संयाज और आवभृथ्य नाम दो यज्ञांग करके गंगामें द्रौपदी सहित आचमन कर राजा युधिष्टिरको स्नान करवाया॥१९॥ देवता तथा मनुष्योंके नगारे वजनेलगे और देवता ऋषि पितृ मनुष्यादि फूलोकी वर्षा करने लगे॥२०॥ वर्णयुक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह चारो वर्ण और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, इन चार आश्रमोने भी गंगामें स्नान किया, क्योंकि इस गंगामें स्नान करनेसे महापापी पुरुष भी शीघ्र पापसे छूट जाते हैं॥२१॥ स्नान करने उपरान्त राजा
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शंका
—शास्त्रमें और लोकमें भी ऐसा सुना है कि, राजा युधिष्टिरने एक स्त्रीके सिवाय दूसरी स्त्रीके संग अपना विवाह नहीं किया, क्योंकि राजा युधिष्ठिरके एक स्त्री थी, फिर यज्ञमें बहुत स्त्रियों करके शोभायमान युधिष्ठिर क्यों हुए?
उत्तर—द्रौपदीने युधिष्टिरकी सेवा ऐसी की कि, जो सेवा करोडों स्त्रियोंके करनेसे नहीं हो सक्ती ऐसे, द्रौपदाकेपतिव्रतको युधिष्ठिरने देख कर मनमें जाना कि, हमारे करोडों स्त्री हैं, और व्यासजीने भी युधिष्ठिरके मनकी बात जानकर कहा कि, युधिष्ठिर मनकी बहुतसी स्त्रियों करके अपने यज्ञमें शोभित हुए॥
युधिष्टिर नवीन रेशमी धोती पहर भलेप्रकार शोभायमान होकर ऋत्विज सभासद और ब्राह्मणादिकोंकी वस्त्रोंसहित पूजन करनेलगे॥२२॥ नारायणके आश्रय राजा युधिष्ठिरने भाई बंधु, जातिके राजा मित्र सुहृद् और भी सब मनुष्योंका बारंबार पूजन किया॥२३॥ देवताओंके समान कान्तिवाले मणियोंके जडाऊ कुण्डल, माला, पगड़ी, जामा, पटुका और बड़े मोलके हार पहरे पुरुष और दोनों कुण्डल अलकोंके समूहसे शोभायमान मुखवाली स्त्रिये सुवर्णकी कौंधनी पहरे सब शोभायमान लगतीथीं॥२४॥ हे राजन्! स्नानकरे पीछे राजा युधिष्ठिरसे पूजित हो शील स्वभाववाले ऋत्विज सभासद वेदपाठी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और राजा॥२५॥ देवता, ऋषि, पितृ सब प्राणी अनुचरों सहित
बंधुज्ञातिनृपान्मित्रसुहृदोन्यांश्च सर्वशः॥ अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः॥२३॥ सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुंडलस्रगुष्णीषकंचुकढुकूलमहार्घ्यहाराः॥ नार्यश्च कुंडलयुगाऽलकवृंदजुष्टवक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः॥२४॥ अथर्त्विजो महाशीलाः सदस्याब्रह्मवादिनः॥ ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा राजानो ये समागताः॥२५॥ देवर्षि पितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः॥ पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप॥२६॥ हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम्॥ नैवातृप्यन्प्रशंसंतः पिबन्मर्त्योऽमृतं यथा॥२७॥ ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत्संबंधिबांधवान्॥ प्रेम्णा निवासयामास कृष्णं च त्यागकातरः॥२८॥ भगवानपि तत्रांग न्यवात्सीत्तत्प्रियंकरः॥ प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च सांवादींश्च कुशस्थलीम्॥२९॥ इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम्॥ सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद्गतज्वरः॥३०॥
लोकपाल राजा युधिष्ठिरसे पूजन कराय आज्ञा माँग अपने स्थानको चलेगये॥२६॥ हरि भगवान्के भक्तोंमें राजर्षि राजा युधिष्ठिरकेराजसूययज्ञको बड़ी शोभाकी प्रशंसा करते करते तृप्त नहीं हुए, जिसप्रकार मनुष्यका चित्त अमृत पीते पीते तृप्त नहीं होता॥२७॥ सुहृद, सम्बन्धी, बंधू और श्रीकृष्णचन्द्रके बिछुडनेसे कायरमनहो राजा युधिष्ठिरने प्रेमसे रक्खा॥२८॥ हे नृपोत्तम परीक्षित! उन राजा युधिष्ठिरका प्रिय करनेके लिये सांब आदि पुत्र और यादवोंमें शूर वीरोंको द्वारकामें भेज आप श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थमें रहने लगे॥२९॥ धर्मके पुत्र राजा युधिष्ठिरने
दुस्तर मनोरथरूपी बडा समुद्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सहायतासे तरकर सब खेद दूर किया॥३०॥ हे राजन्! एक समय भगवद्भक्त राजा युधिष्ठिरके रनवासकी लक्ष्मी व राजसूययज्ञकी महिमा देखकर दुर्योधन संताप करनेलगा॥३१॥ राजा युधिष्ठिरका अंतःपुर कि जहाँ मयदैत्यरचित नरपति, दैत्यपति और देवपतियोंकी नाना प्रकारकी विभूतियाँ प्रकाशमान होरही थीं और जहाँ उन विभूतियोंके साथ द्रौपदी अपने स्वामियोंकी सेवा करती थीं उसे देख दुर्योधनका मन अत्यन्त तापको प्राप्त हुआ॥३२॥ राजा युधिष्ठिरके अंतःपुरमें उससमय मधुपति श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंके समूह नितम्बोंके भारसे धीरे धीरे चलनेमें बजते नूपुरोंसे शोभित चरण, कुचोंकी केशरसे अरुणहार धारण किये,
एकदांतःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम्॥ अतप्यद्राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः॥३१॥ यस्मिन्नरेंद्रदितिजेंद्रसुरेंद्रलक्ष्मीर्नाना विभांति किल विश्वसृजोपक्लृप्ताः॥ ताभिः पतीन्द्रुपदराजसुतोपतस्थे यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत्॥३२॥ यस्मिंस्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदंघ्रिशोभम्॥ मध्ये सुचारुकुचकुंकुमशोणहारं श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुंतलाढ्यम्॥३३॥ सभायां मयक्लृप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट्॥ वृतोऽनुजैर्बंधुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा॥३४॥ आसीनः कांचने साक्षादासने मघवानिव॥ पारमेष्ठ्यश्रिया जुष्टः स्तूयमानश्च बंदिभिः॥३५॥ तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप॥ किरीटमाली न्यविशदसिहस्तः क्षिपत्रषा॥३६॥ स्थलेऽभ्यगृह्णाद्वस्त्रांतं जलं मत्वा स्थलेऽपतत्॥ जले च स्थलवद्भ्रांत्या मयमायाविमोहितः॥३७॥
चंचल कुण्डल और केशपाशसे युक्त सुन्दर मुख, रमणीय कटिसे युक्त श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियें वहाँ फिरतीथीं॥३३॥ मयदैत्यकी बनाई सभा उसमें किसी समय अपना आज्ञाकारी भाई, बंधुसहित और हित अहितके जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसहित धर्मपुत्र राजा चक्रवर्ती युधिष्ठिर॥३४॥ साक्षात् सिंहासनपर जैसे इन्द्र विराजमान होताहै, उसीप्रकार सुवर्णके सिंहासनपर विराजमान होकर राज्यकी शोभासे सेवित और बन्दीजनोंसे स्तुतिपाय शोभायमान होनेलगे॥३५॥ हे राजा परीक्षित! उसीसमय भाइयोंको संग ले किरीट धारण किये, माला पहरे और हाथमें तलवार लिये क्रोधकर द्वारपालोंको डाटताहुआ अभिमानी दुर्योधन सभामें आया॥३६॥ वहाँमयदैत्यकी बनाई सभामें सूखेमें जल दीखे
और जलमें सूखा दीखे, ऐसी मयरचित सभामें मयदैत्यकी मायासे मोहित होकर दुर्योधनने भ्रमसे सूखेमें जल जान अपना जामा उठाया और सूखा जानकर जलमें छोडदिया और जलमें गिरगया॥३७॥ हे राजा परीक्षित्! दुर्योधनको गिरा देखकर भीमसेन व सब स्त्रियें हँसने लगीं यह देख राजा युधिष्ठिरने यद्यपि मने भी करा, परन्तु तो भी श्रीकृष्णचन्द्रकी सैन देनेसे पहिले भीमसेन हँसा फिर पीछे सब राजा हँसनेलगे॥३८॥ इन राजाओं को हँसता देख दुर्योधन अत्यन्त लज्जित हो नीची नारकर क्रोधाग्निसे भभकताहुआ सभासे निकल चुप चाप हस्तिनापुरको चलागया उस समय साधुओंके बीच बड़ा हाहाकार शब्द हुआ और अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर उदास होगये, जिनकी दृष्टिसे सब जगत् भ्रमण करताहै, वह भगवान् तो चुप होकर बैठगये, क्योंकि उनकी इच्छा पृथ्वीका भार उतारनेकी थी कि, किसी न किसी प्रकार यह पृथ्वीका भार उतरै, सो
जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे॥ निवार्यमाणा अप्यंग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः॥३८॥ स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम्॥ हाहेति शब्दः सुमहानभूत्सतामजातशत्रुर्विमना इवाभवत्॥ बभूव तूष्णीं भगवान्भुवो भरं समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद्दृशा॥३९॥ एतत्तेऽभिहितं राजन्यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उ० दुर्योधनमानभंगो नाम पंचसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥ श्रीशुक उवाच॥ अथान्यदपि कृष्णस्य शृणु कर्माद्भुतं नृप॥ क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः॥१॥ शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्वाह आगतः॥ यदुभिर्निर्जितः संख्ये जरासंधादयस्तथा॥२॥
यह समागम सहजमें बनगया प्रथम यही भारतका बीज जमा॥३९॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जो आपने प्रश्न किया था कि, राजसूययज्ञमें दुर्योधन कैसे कुढ़ा सो उसका उत्तर मैंने सब आपके सन्मुख वर्णन करदिया॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां दुर्योधनमानभंगो नाम पंचसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥ दोहा—युद्ध छिहत्तरमें भयो, यादव शाल्व अपार। द्यूमत गदा प्रहारसे, गये प्रद्युमन हार॥७६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसके उपरान्त क्रीडासेही मनुष्य शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके और भी अद्भुत कर्म है, जिस प्रकार सौभविमानका पति शाल्वको मारा, सो श्रवण करो॥१॥ शिशुपालका मित्र शाल्व
रुक्मिणीके विवाहमें आयाथा, तब उसको संग्राममें यादवोंने जीतलिया और उसीप्रकार जरासन्धादि राजा भी जीते॥२॥ सब राजाओंकोसुनाकर राजा शाल्वने यह प्रतिज्ञा करी कि, सम्पूर्ण पृथ्वी यादवकुलरहित करूंगा, अब तुम सब मेरे पराक्रमको देखो॥३॥ हे परीक्षित्! इस प्रकार मूर्ख शाल्व प्रतिज्ञाकर केवल धूलकी एक मुठ्ठीफाँकताहुआ पशुपति शिवजीकी आराधना करनेलगा॥४॥ शीघ्र सन्तुष्ट होनेवाले शिवजी श्रीकृष्णके द्वेषी शाल्वको वर देना निष्फलजान शीघ्र प्रगट न हुए, परन्तु शरण आये शाल्वसे एक वर्षके पीछे यह कहने लगे कि, वर माँग॥५॥ उस समय देवता असुर, मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, इनसे न टूटै और जहाँकी इच्छा हो वहाँ पहुँचावै, यादवोंको भयका
शाल्वः प्रतिज्ञामकरोच्छृण्वतां सर्वभूभुजाम्॥ अयादवीं क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत॥३॥ इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम्॥ आराधयामास नृप पांसुमुष्टिं सकृद्ग्रसन्॥४॥ संवत्सरांते भगवानाशुतोष उमापतिः॥ वरेण च्छंदयामास शाल्वं शरणमागतम्॥५॥ देवासुरमनुष्याणां गंधर्वोरगरक्षसाम्॥ अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम्॥६॥ तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः॥ पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभमयस्मयम्॥७॥ स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्॥ ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्॥८॥ निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ॥ पुरीं बभंजोपवनान्युद्यानानि च सर्वशः॥९॥ सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः॥ विहारान्स विमानाग्र्यान्निपेतुः शस्त्रदृष्टयः॥१०॥ शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः॥ प्रचंडचक्रवातोऽभूद्रजसाऽऽच्छादिता दिशः॥११॥
देनेवाला ऐसा विमान दो, यह वर माँगा॥६॥ तब ऐसाही होगा, यह कहकर भगवान् महादेवजीने मयदानवको आज्ञा दी, उसने झट वैरियोंके पुरको जीतनेवाला सौभनाम लोहेका बना विमान शाल्वको दिया॥७॥ अन्धकारका घर, दुष्प्राप्य और इच्छानुसार चलनेवाला विमान पाय वह शाल्व कृष्णके वैरका स्मरण करके द्वारकापुरीकी ओरको चला॥८॥ हे राजन्! शाल्व बड़ी सेनासे द्वारकापुरीको घेरकर सम्पूर्ण फूलोंके बाग और उद्यानोंको तोड़नेलगा॥९॥ गोपुर, दरवाजे, महल, अटा उनकी भीतैं व विहारस्थान तोड़नेलगा और उस उत्तम विमानपरसे शस्त्रोंकी वर्षा होने लगी॥१०॥ और शिला, वृक्ष, बिजली, सर्प, ओले, वरसनेलगे और प्रचण्ड पवन चलनेके कारण सम्पूर्ण
दिशायें आच्छादित होगईं॥११॥ हे परीक्षित्! इसप्रकार सौभविमानसे पीडित श्रीकृष्णचन्द्रकी द्वारकापुरी जैसे त्रिपुरदैत्यसे पृथ्वी दुःखी हुई थी, उसीप्रकार दुःखी होगई, सुखका कहीं लेश भी न रहा॥१२॥ बडे यशी महारथी भगवान् प्रद्युम्न अपनी प्रजाको दुःखी देखकर “भय मत करो” इसप्रकार कहकर रथमें बैठकर सन्मुख आये॥१३॥ और सात्यकि, चारुदेष्ण, सांब और छोटे भाई सहित अक्रूर तथा हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक सारण॥१४॥ बडे धनुषधारी महारथी योद्धा कवच पहर, रथ, हाथी, घोडे और पैदल इत्यादिकोको संग लेकर निकले॥१५॥ इसके उपरान्त हे राजन्! असुरोंका जैसे देवताओंके संग युद्ध हुआ था उसीप्रकार रोमाञ्चकारक महाभयानक युद्ध शाल्वकी सेनाका यादवोंके संग
इत्यर्धमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम्॥ नाभ्यपद्यत शं राजंस्त्रिपुरेण यथा मही॥१२॥ प्रद्युम्नो भगवान्वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः॥ मा भैष्टेत्यभ्यधाद्वीरो रथारूढो महायशाः॥१३॥ सात्यकिश्चारुदेष्णश्च सांबोऽक्रूरः सहानुजः॥ हार्दिक्यो भानुविंदश्च गदश्च शुकसारणौ॥१४॥ अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः॥ निर्ययुंर्दशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः॥१५॥ ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह॥ यथाऽसुराणां विबुधैस्तुमुलं लोमहर्षणम्॥१६॥ ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रैरुक्मिणीसुतः॥ क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः॥१७॥ विव्याध पंचविंशत्या स्वर्णपुंखैरयोमुखैः॥ शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः॥१८॥ शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्य सैनिकान्॥ दशभिर्दशभिर्नेतवाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः॥१९॥ तदद्भुतं महत्कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः॥दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः॥२०॥
होने लगा॥१६॥ जैसे रात्रिके अन्धकारको भगवान् सूर्य दूर करदेते हैं, वैसेही रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नजीने सौभविमानके पति शाल्वकी मायाओंका क्षणभरमें नाश कर दिया॥१७॥ सोनेके पुंख लोहेकी भाली और छोटी छोटी गांठवाले पचीस बाणोंसे शाल्वके सेनापतिको शीघ्र वींधडाला॥१८॥ इसके उपरान्त भगवान् प्रद्युम्नजीने सौ बाण शाल्वके और एक एक बाण प्यादोंके तथा दश दश बाण सारथी और तीन तीन बाणोंसे घोडे हाथियोंको बींध डाला॥१९॥ महात्मा प्रद्युम्नजीका यह अद्भुत पराक्रम देखकर अपनी पराई सेनाके योद्धा सबही प्रद्युम्नजीकी
वडाई करने लगे
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॥२०॥ मयदैत्यका बनाया वह मायामय विमान कभी तो नानारूपसे और कभी एक रूपसे दिखाई देता, कभी बिलकुल दीखताही नहीं, इसलिये शत्रु जो यादव उनको उसका तर्क करना महाकठिन होगया॥२१॥ वह विमान कभी भूमिपर, कभी आकाशमार्गमें, कभी पर्वतोंके शिखरपर और कभी जलमें अलातचक्रके समान भ्रमण कर रहा था, इसकारण उसकी व्यवस्थाका ठिकाना लगना अत्यन्त कठिन होगया॥२२॥ विमान और सेना सहित जहाँ जहाँ शाल्व दिखाई देता था वहाँ वहाँ यादवोंमें मुख्य वीरगण बाणोंको छोड़ते थे॥२३॥ अग्निसूर्यके समान गरम स्पर्शवाले विषके तुल्य असह्य वैरियोंके चलाये बाणोंसे शाल्वकी सेना अत्यन्त पीडित होगई और शाल्वभी व्याकुल
बहुरूपैकरूपं तद्दृश्यते न च दृश्यते॥ मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत्॥२१॥ क्वचिद्भूमौ क्वचिद्व्योनिगिरि मूर्ध्नि जले क्वचित॥ अलातचक्रवद्धाम्यत्सौभं तद्दुरवस्थितम्॥२२॥ यत्रयत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः॥ शाल्वस्ततस्ततोऽभुंचञ्छरान्सात्वतयूथपाः॥२३॥ शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैराशीविषदुरासदैः॥ पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत्परेरितैः॥२४॥ शाल्वानीकपशस्त्रौघैर्दृष्णिवीरा भृशार्दिताः॥ न तत्यजूरणं स्वंस्वं लोकद्वयजिगीषवः॥२५॥ शाल्वामात्यो द्युमान्नाम प्रद्युम्नं प्राक्प्रपीडितः॥ आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद्बली॥२६॥ प्रद्युम्नं गदया शीर्णवक्षस्थलमरिंदमम्॥ अपोवाह रणात्सूतो धर्मविद्दारुकात्मजः॥२७॥
होगया॥२४॥ शाल्वकी सेनाके शस्त्रोके समूहसे अत्यन्त पीडित होकर भी लोक परलोकके जीतनेकी इच्छावाले यादव शूरवीरोंने अपनी अपनी युद्धभूमिको नहीं छोडा॥२५॥ प्रद्युम्नके पहले गदाप्रहारसे पीडित हुआ शाल्वका बली द्युमान् नाम मंत्री लोहेकी गदा छातीमें मारकर पुकारने लगा॥२६॥ वैरीको शांत करनेवाले प्रद्युम्नजीका वक्षस्थल गदाकेलगनेसे विदारित होगया, तब धर्मका जाननेवाला
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शंका–प्रद्युम्नने बार्णोसे शाल्वको और शाल्वकी सेनाको मूर्च्छित करदिया तब प्रद्युम्न के ऐसे पराक्रमको देखकर शाल्वकी सेना और प्रद्युम्नकी सेनाने क्यों आश्चर्य माना?प्रद्युम्नका क्या यह नवीन कर्तव्यथा ऐसा कर्तव्य तो प्रद्युम्नने अनेकवार किया था॥
उत्तर–शाल्वको ब्रह्माने किसीसमय वर दिया था कि तुमको और तेरी सेनाको संग्राममें श्रीकृष्णजी मूर्च्छित करैगे और त्रिलोकीमें कोई प्राणी तुझको और तेरी सेनाको दुःखित नहीं कर सकेगा जब प्रद्युम्नने शाल्वको और उसकी सेनाको मूर्च्छित करदिया तब ब्रह्मादिक सब देवता आश्चर्य मानने लगे, उससमय और प्राणियोंने आश्चर्य माना तो क्या बडी बात है?
दारुकका पुत्र सारथी प्रद्युम्नजी को लेकर रणभूमिसे बाहर निकल आया॥२७॥दोघड़ीमें चैतन्य हो श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र, प्रद्युम्नजी साथी बो कि; अहो रथवान्! तू रणमेंसे जो मुझे भगाकर ले आया; यह बुराकाम किया॥२८॥व्याकुल चित्तवाले तुझ रथवानने मुझे कलंक लगाय, क्योंकि मुझ विना यादवोंके कुलमें जन्म ले रणमेंसे भागा और किसीको नहीं सुना, परन्तु मेरा इसमें क्या दोष है, यह कलंक तो सारथीने लगाया॥२९॥पिता राम कृष्णसे मिलूंगा तो क्या कहूंगा वह पूछैंगे, तब युद्धमेंसे भागकर निकला हुआ मैं अपनी योग्यता के विषयमें किस प्रकार निवेदन करूंगा॥३०॥भाइयोंकी स्त्रियें, भाभी, हे वीर! युद्धमें शत्रुओंके सन्मुख नपुंसकहो कैसे आज भाग आये, हमसे तो कहो
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन काष्णिः सारथिमब्रवीत्॥ अहो असाध्विदं सूत यद्रणान्मेऽपसर्पणम्॥२८॥ न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः॥ विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्विषात्॥२९॥ किं नु वक्ष्येऽभिसंगम्य पितरौ रामकेशवौ॥ युद्धात्सम्यगपक्रांतः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम्॥३०॥ व्यक्तं मे कथयिष्यंति हसंत्यो भ्रातृजामयः॥ क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे॥३१॥ सारथिरुवाच॥ धर्मं विजानताऽऽयुष्मन्कृतमेतन्मया विभो॥ सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद्रथिनं सारथिं रथी॥३२॥ एतद्विदित्वा तु भवान्मयापोवाहितो रणात्॥ उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥ श्रीशुक उवाच॥ स उपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः॥ नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम्॥१॥
इस प्रकार हँसकर मुझसे कहैंगी॥३१॥ यह सुनकर रथवान बोला हे चिरंजीवित हे समर्थ! धर्मका ज्ञाता मैं तुम्हैंरणमेंसे निकाल लाया, क्योंकि धर्ममें ऐसाही कहा है कि, जब रथमें बैठनेवालेको कष्ट आनकर उपस्थित हो तो रथवान् रक्षा करैंऔर सारथीके ऊपर कष्ट आवै तो बैठनेवाला उसकी रक्षा करै॥३२॥ हे वीर! शत्रुने आपके गदा जो मारी तो आप अति पीडित होकर मूर्च्छित होगये, इसलिये धर्म जानकर मैं तुम्हैंरणमेंसे निकाल लाया॥३३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥ दोहा–सतहत्तर अध्यायमें, शाल्ववीरको मार।तोरो सौभ विमान पुनि, यदुपति परम उदार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन! इसके उपरान्त
प्रद्युम्नजीने हाथ पाँव धो कवच पहर और धनुष हाथमें लेकर कहा कि, हे रथवान्!
वीर द्युमानके पास मुझे लेचल॥१॥रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नजीने मुसकाकर अपनी सेनाके योद्धाओंको मारते हुये द्युमानको अत्यन्त तीक्ष्ण आठ बाण मारे॥२॥चार बाणोंसे चारों घोडोंको एक बाणसे रथवान्को मारा, दो बाणोंसे धनुष और ध्वजाको काटडाला और एक बाणसे महारथी प्रद्युम्नजीने द्युमानका शिर काटलिया॥३॥गद, सात्यकी और सांब आदि यादव विमानका पालन करनेवाले शाल्वकी सेनाको मारनेलगे और शिर कटनेसे संपूर्ण विमानके बैठनेवाले समुद्रमें गिरगये॥४॥ हे नृपोत्तप! इसप्रकार २७ सत्ताइस दिनतक यादव और शाल्वकी सेनाका महाभयानक युद्ध हुआ॥५॥
विधमंतं स्वसैन्यानि द्युमंतं रुक्मिणीसुतः॥ प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन्नाराचैरष्टभिः स्वयम्॥२॥ चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत्॥ द्वाभ्यां धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः॥३॥ गदसात्यकिसांबाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम्॥ पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकंधराः॥४॥ एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम्॥ युद्धं त्रिणवरात्रं तदभूत्तुमुलमुल्बणम्॥५॥ इंद्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना॥ राजसूयेऽथ निर्वृत्ते शिशुपाले च संस्थिते॥६॥ कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम्॥ निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन्द्वारवतीं ययौ॥७॥ आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसंगतः॥ राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम॥८॥ वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम्॥ सौभं च शाल्वराजं च दारुक प्राह केशवः॥९॥
श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजा परीक्षित्! धर्मके पुत्र राजा युधिष्ठिरके बुलाये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थमें गये थे, वहाँ जब राजसूययज्ञ हो चुका और शिशुपाल मर चुका॥६॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कौरवोंमें वृद्धोंसे और मुनियोंसे और पुत्रों सहित कुन्तीसे आज्ञा माँग मार्गमें कुत्सित शकुन देख द्वारकापुरीको प्रस्थान किया॥७॥ और मार्गमें खोटे शकुन देखकर विचार करनेलगे कि, बड़े भाई बलदेवजी सहित मैं यहाँयज्ञमें आयाहूं, इससे शिशुपालकी ओरके राजा निश्वय मेरी पुरीका नाश करते होंगे॥८॥ अपने यादवोंका कष्ट देख, बलदेवजीसे द्वारका
पुरीकी रक्षा करनेके लिये कहकर सौभविमानमें बैठे हुये शाल्वको देख केशव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रथवान्से कहने लगे कि॥९॥हे रथवान्!शीघ्र मेरे रथको शाल्वके समीप पहुँचादे, क्योंकि इस विमानका राजा शाल्व बडा मायावी है, इससे तू घबराना मत॥१०॥ इस प्रकार वचन सुन रथवान् रथपर बैठकर रथको हाँकनेलगा और अपनी पराई सेनाके लोगोंने रथकी ध्वजामें गरुडको आता देखा॥११॥ शाल्वकी बहुतसी सेना नाश होगई उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको युद्धमें आया देखकर शाल्वने उनके सारथीपर अत्यन्त भयंकर वेगवाली शक्ति फेंकी॥१२॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने दिशाओंको प्रकाश करती बडे तारेके समान आकाशमें चली आती बरछीको अपने बाणोंसे सौ खण्ड करदिये॥१३॥ और
रथं प्रापय में सूत शाल्वस्यांतिकमाशु वै॥ संभ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराड्यम्॥१०॥ इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः॥ विशंतं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम्॥११॥ शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः॥ प्राहरत्कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे॥१२॥ तामापतंतीं नभसि महोल्कामिव रंहसा॥ भासयंतीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाऽच्छिनत्॥१३॥ तं च षोडशभिर्विद्धा बाणैः सौभं च खे भ्रमत्॥ अविध्यच्छरसंदोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः॥१४॥ शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं सशार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः॥ बिभेद न्यपतद्धस्ताच्छार्ङ्गमासीत्तदद्भुतम्॥१५॥ हाहाकारोमहानासीद भूतानां तत्र पश्यताम्॥ विनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम्॥१६॥ यत्त्वया मूढ नः स ख्युर्भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम्॥ प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा॥१७॥
अत्यन्त कुपित हो सोलह बाणोंसे शाल्वको बींधडाला, फिर आकाशमार्गमें भ्रमण करनेवाले विमानको सूर्यकी किरणोंसे विंधे हुये आकाशके समान बाणोंके समूहोंसे वेध दिया॥१४॥शार्ङ्गधनुषधारी शौरि श्रीकृष्णचन्द्रकी धनुषसहित वाम भुजाको शाल्वने वींध दिया, तब श्रीकृष्णचन्द्र के हाथसे धनुष गिरगया, यह बडीही आश्चर्यकी बात हुई॥१५॥हाथमें से धनुष गिरा देख प्राणियों में बडा हाहाकार शब्द हुआ, और उसी अवसर में विमानका राजा शाल्व अत्यन्त ऊँचे स्वरसे गर्जना कर श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगा कि॥१६॥हे मूर्ख! जो तू हमारे भाई अथवा सखा शिशुपालकी
स्त्रीको हमारे देखतेही हरकर लेगया और सभाके बीच असावधान विराजमान तैंने हमारे सखाको मारा॥१७॥ अपनेको अजित माननेवाले तू जो आज मेरे सन्मुख खडा रहेगा तो निश्चय यमलोक पहुँचा दूँगा॥१८॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे अधम! तू वृथा बकवाद करताहै और निकटही जो तेरी मृत्यु उपस्थित है उसे नहीं देखता, शूरवीर बहुत बकते नहीं अपना पुरुषार्थ दिखातेहैं और जो बहुत बकतेहैं, सो वह कुछ पराक्रम नहीं करते॥१९॥ इसप्रकार कह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने बड़े वेगकी गदा क्रोध करके कण्ठके नीचे हाडमें मारी कि, जिसके लगनेसे शाल्व रुधिर वमन करता हुआ काँपने लगा॥२०॥ और तत्कालही शाल्व अंतर्धान होगया, फिर दो घड़ी पीछे एक पुरुष आय शिर
तं त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम्॥ नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ वृथा त्वं कत्थसे मंद न पश्यस्यंतिकेंतकम्॥ पौरुषं दर्शयंति स्म शूरा न बहुभाषिणः॥१९॥ इत्युक्त्वा भगवाञ्छाल्वं गदया भीमवेगया॥ तताड जत्रो संरब्धः स चकंषेवमन्नसृक्॥२०॥ गदायां संनिवृत्तायां शाल्वस्त्वंतरधीयत॥ ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाऽच्युतम्॥ देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन्॥२१॥ कृष्णकृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल॥ बध्वाऽपनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः॥२२॥ निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिंगतः॥ विमनस्को घृणी स्नेहाद्वभाषे प्राकृतो यथा॥२३॥ कथं राममसंभ्रांतं जित्वाऽजेयं सुरासुरैः॥ शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान्विधिः॥२४॥ इति ब्रुवाणे गोविंदे सौभराट् प्रत्युपस्थितः॥ वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः॥२५॥
झुकाय श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार कर, रोता हुआ “मुझे देवकीने भेजा है” यह वचन कहने लगा॥२१॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाबाहो! पिताका हित करनेवाले! जैसे कसाई पशुको बाँधकर लेजाताहै, उसीप्रकार शाल्व तुम्हारे पिताको बाँधकर लेगया॥२२॥ऐसा अप्रियवचन सुन मनुष्य स्वभावमें प्राप्त मन दयावान् श्रीकृष्णचन्द्र विमन होकर प्राकृत मनुष्यके समान कहने लगे॥२३॥कि, संभ्रमरहित देवता असुरोंके अजेय बलदेवजीको जीतकर तुच्छ शाल्व मेरे पिताको कैसे बाँधकर लेगया? विधाता बलवान् है, कदाचित् लेगया होगा॥२४॥श्रीकृष्णचन्द्र इतना कहते ही थे कि, इतनेमें मायाके वसुदेवको लेकर शाल्व आया और श्रीकृष्णचन्द्रसे बोला कि, हे नीच! यह तेरा उत्पन्न करनेवाला पिता है,
जिसके लिये तू जीवित है, सो अभी तेरे देखते इसे मारूंगा, यदि तुझमें कुछ सामर्थ्य होय तो इसकी रक्षा कर
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॥२५॥२६॥ मायावी शाल्वने इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको कटुवाक्य कह, तलवारसे वसुदेवजी का मस्तक काटडाला और उस मस्तकको ले आकाशमें स्थित सौभविमान में पहुँचा॥॥२७॥ स्वतः सिद्ध ज्ञानवाले श्रीकृष्णचन्द्र अपने जनोंके संग दो घड़ी तक मनुष्योंके स्वभावसे शोकमें डूबे रहे इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मय दैत्यकी प्रगट करी शाल्वकी चलाई आसुरी मायाको जान लिया॥२८॥ जब इसप्रकार चेते तो जैसे जागता हुआ पुरुष स्वप्नके पदार्थको
एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि॥ वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्चेत्पाहि बालिश॥२६॥ एवं निर्भर्त्स्यमायावी खड्गेनानकदुंदुभेः॥ उत्कृत्य शिर आदाय स्वस्थं सौभं समाविशत्॥२७॥ ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपाप्लुतः स्वबोध आस्ते स्वजनानुषंगतः॥ महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम्॥२८॥ न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः॥ स्वाप्नं यथा चांबरचारिणं रिपुं सौभस्थमालोक्य निहंतुमुद्यतः॥२९॥ एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः केचनान्विताः॥ यत्स्ववाचो विरुध्येत नूनं तन्नः स्मरंत्युत॥३०॥
न देखे उसी प्रकार रणभूमिमें श्रीकृष्णचन्द्रने न तो दूतको देखा और न पिताके देहको देखा, बरन् सौभ विमानमें विराजमान आकाशमें भ्रमणकरते हुए शत्रुको देखकर उसके मारनेका उपाय करनेलगे॥२९॥ श्रीशुकदेवजी कहनेलगे कि, हे महाभागवत परीक्षित! पूर्वापरका अनुसंधान नरखनेवाले कितने एक ऋषिलोग यह कहते हैं, पर वह अपनी वाणीमें, जो विरोध आता है, उसका ध्यान नहीं करते, उन्होंने पहले कहा कि,
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**शंका–**शाल्वनेमाया करके वसुदेवजीकी मूर्ति साक्षात् बनाली यह बडी शका है? क्या माया रात दिन सबकी बुद्धि भ्रमाती है, क्योंकि राक्षस मायाके द्वारा अनेक प्रकारकी वस्तु बनालेते हैं,परन्तु शास्त्रोंमें लिखा है कि, वसुदेव सरीखे तपधारी, और श्रीकृष्ण भगवान् भक्त हितकारी बैकुण्ठनायसे जिनके पुत्र, ऐसे धर्मात्माकी मूर्तिको मायासे क्षुद्र राक्षसने वनालिया यह महाभाश्वर्यकी बात है?
**उत्तर–**ब्रह्माने किसी समय शाल्वको वर दियाथा कि, ब्रह्मा, विष्णु, महादेवकी मूर्ति तुझसे बनगी नहीं, और त्रिलोकीमें जिसकी मूर्ति बनाना चाहेगा उसकी मूर्ति बना लेगा, और ब्रह्माने वरदानके देते समय शाल्वसे यह मी कहाथा कि, जब तू वसुदेवकी मूर्ति बनावेगा उसी समय तू मारा जायगा, उस ब्रह्माके वचनको कालवश होकर भूलगया और वसुदेवकी मूर्ति वनाई उसी समय वृन्दावनविहारी श्रीगोवर्धनधारीने शाल्वको मारडाला। देखो जब मृत्युके दिन आते हैं, तब परमेश्वर वैसाही बनावबना देता है, इसलिये शाल्वने वसुदेवकी मूर्ति बनाई थी मूर्ति क्या बनाईयी अपना काल बुलायाथा॥
“बलदेवजीकी आज्ञा ले और उन्हें हस्तिनापुरमें छोड आप इन्द्रप्रस्थ गये” इसके उपरान्त कहते हैं कि, “इन्द्रप्रस्थसे आ, शाल्वको युद्ध करता देख बलदेवजीको द्वारकाकी रक्षा करनेके लिये भेजा, यह उनके वचनमें ही भेद होता है, सो शुकदेवजी कहते हैं कि, हे राजन्! यह हमारा मत नहीं है, और ऋषियोंका है॥३०॥शोक, मोह, स्नेह, भय यह कहाँ? और अखण्ड विज्ञान ऐश्वर्य देवता जिनकी स्तुति करैंऐसे श्रीकृष्णचन्द्र कहाँ॥३१॥जिनके चरणारविन्दकी सेवासे पुष्ट हुई, आत्मविद्याके प्रभावसे सज्जन पुरुष अनादिकालकी देहात्मबुद्धिको त्याग अनन्त ईश्वरसम्बन्धी पद आत्माको पाते हैं, उन सर्वोत्तम शरणागतपालक श्रीकृष्णचन्द्रमें कदाचित् मोड़ नहीं हो सकता॥३२॥ यही यथार्थहैकि, बड़े पराक्रमी शूरवंशो
क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसंभवाः॥ क्व चाखंडितविज्ञानज्ञानैश्वर्यस्त्वखंडितः॥३१॥यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया हिन्वंत्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम्॥ लभंत आत्मीयमनंतमैश्वरं कुतो न मोहः परमस्य सद्गतेः॥३२॥ तं शस्त्रपूगैः प्रहरंतमोजसा शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः॥ विद्धाऽच्छिनद्वर्म धनुः शिरोमणि सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह॥३३॥ तत्कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं पपात तोये गदया सहस्रधा॥ विसृज्य तद्धतलमास्थितो गदामुद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद्द्रुतम्॥३४॥ आधावतः सगदं तस्य बाहुं भल्लेन छित्त्वाथ रथांगमद्भुतम्॥ वधाय शाल्वस्य लर्याकसन्निभं बिभ्रद्वभौ सार्क इवोदयाचलः॥३५॥ जहार तेनैव शिरः सकुंडलं किरीटयुक्तं पुरु मायिनो हरिः॥ वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरंदरो बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम्॥३६॥
त्पन्न श्रीकृष्णचन्द्रने बलपूर्वक शस्त्रोंके प्रहारसे शाल्वको वेध उसका कवच, धनुषऔर उसके शिरकी मणि काटकर उसके विमानको गदासे चूर्णकरदिया॥३३॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके हाथकी चलाई हुई गदासे हजारों खण्ड होकर वह विमान चूर्णीभूत हो पृथ्वीमें गिर गया, उस समय शाल्व विमान छोड़ गदा हाथमें ले श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपरको दौडा॥३४॥दौडते हुए शास्त्रका गदासहित हाथ भालेसे काटकर उसके मारनेके लिये प्रलय कालके सूर्य के समान सुदर्शनचक्रको ग्रहणकर उदयाचल पर्वतपर सूर्य के समान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शोभायमान लगनेलगे॥३५॥जैसे देवराज इन्द्रने वज्र से वृत्रासुरका माथा काटा था, उसी प्रकार अत्यन्त मायावी शाल्वका कुण्डलों सहित शिर भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने काट
लिया, उससमय मनुष्योंमें बडा हाहाकार शब्द हुआ॥३६॥इतनी कथा सुन श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! जिससमय गदासे विमान टूटा और अत्यन्त पापी दुराचारी शाल्व पृथ्वीमें गिरपड़ा, तब स्वर्गमें देवताओंके नगारे बजने लगे, इसके उपरान्त मित्र शिशुपाल और शाल्व, तथा पौण्ड्रक इनका ऋण चुकानेके लिये क्रोधित हो दंतवक्त्र आया॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सौभशाल्ववधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥७७॥दोहा-दन्तवक्त्रहरि मार पुनि, हनो विदूरथ वीर॥रोमहर्षण हलधर वधो, अठहत्तर रणधीर॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! परलोकमें प्राप्तहुए शिशुपाल और शाल्व तथा पौण्ड्रकके परोक्षमें मित्रताका जानने
तस्मिन्निपतिते पापे सौभे च गदया हते॥ नेदुर्दुंदुभयो राजन्दिवि देवगणेरिताः॥ सखीनामपचितिं कुर्वन्दंतवक्त्रोरुषाऽभ्यगात्॥३७॥ इति श्रीमद्भा०म० द० उ० सौभशाल्ववधोनाम सप्तसप्ततितमोध्यायः॥७७॥ श्रीशुक उवाच॥ शिशुपालस्य शाल्वस्य पौंड्रकस्यापि दुर्मतिः॥ परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम्॥१॥ एकः पदातिः संक्रुद्धो गदापाणिः प्रकंपयन्॥ पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत॥२॥ तं तथाऽऽयांतमालोक्य गदामादाय सत्त्वरः॥ अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिंधुं वेलेव प्रत्यधात्॥३॥ गदामुद्यम्य कारूषो मुकुंदं प्राह दुर्मदः॥ दिष्ट्यादिष्ट्याभवानद्य मम दृष्टिपथं गतः॥४॥ त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ् मां जिघांससि॥ अतस्त्वां गदया मंद हनिष्ये वज्र कल्पया॥५॥ तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः॥ बंधुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा॥६॥
वाला दुष्टबुद्धि दंतवक्त्र क्रोधकर अकेलाही पांव प्यादा महाबलवान् गदा हाथमें लिये पृथ्वीको कम्पायमान करता अत्यन्त शीघ्रता से आता हुआ दिखाई दिया॥१॥२॥इसप्रकार दंतवकको आता हुआ देख भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने गदा हाथमें ले रथसे उतर समुद्रके जैसे किनारे रोके हैं, उसी प्रकार दंतवक्त्रको रोक दिया॥३॥ दुर्मद करूषदेशका राजा दंतवक्त्रमुक्तिके देनेवाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगा कि, तू जो मेरे नेत्रोंके सन्मुख आया यह बड़ाही मंगल हुआ॥४॥हे कृष्ण! तू हमारे मामाका पुत्र और हमारे मित्रका मारनेवाला है और मुझे भी मारना चाहता है, इसलिये हे मूर्ख! वज्र के समान इस गदा से तेरा प्राण संहार करूंगा॥५॥हे अज्ञानी! देहमें रहे रोगको जिस प्रकार नाश करते हैं
उसी प्रकार बन्धुरूप वैरी जो तू है, उसे मारूंगा, तब मित्रवत्सल में मित्रोंके ऋणसे उऋण हूंगा॥६॥इसप्रकार कठोर वाक्य कहश्रीकृष्णचन्द्रके माथेमें गदा मारकर सिंहके समान दंतवक्त्र गर्जनेलगा, जैसे हाथीके अंकुश लगे ऐसेही वह गदालगी॥७॥संग्राममें गदा लगनेसे भी श्रीकृष्णचन्द्र न गिरे, इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने भी कौमोदकी बडी गदाको ले दंतवक्त्रकी छातिमें मारी॥८॥अत्यन्त वेगवान् गदा पड़नेके कारण हृदय विदीर्ण होनेसे दंतवक्त्र मुखसे रुधिरका वमन करता हुआ प्राणोंको छोडकेश, हाथ, पाँव, फैलाकर पृथ्वीमें गिरपड़ा॥९॥ हे परीक्षित! इसके उपरान्त दंतवक्त्रके शरीरसे अद्भुत सूक्ष्मज्योति निकलकर सब प्राणियोंके देखते शिशुपाल वधके समान श्रीकृष्णचन्द्र में प्रवेश करगई
एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम्॥ गदयाऽताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद् व्यनदच्च सः॥७॥ गदयाऽभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः॥ कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनांतरे॥८॥ गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रुधिरं मुखात्॥ प्रसार्य केशबाह्वंघ्रीन्धरण्यां न्यपतद्ऽव्यसुः॥९॥ ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्॥ पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप॥१०॥ विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः॥ आगच्छदसिचर्मभ्यामुच्छ्वसं स्तज्जिघांसया॥११॥ तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना॥ शिरो जहार राजेंद्र सकिरीटं सकुंडलम्॥१२॥ एवं सौभं च शाल्वं च दंतवक्त्रंसहानुजम्॥ हत्वा द्वावषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः॥१३॥ मुनिभिः सिद्धगंधर्वै विद्याधरमहोरगैः॥ अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः॥१४॥
॥१०॥ इसके उपरान्त भाई दंतवक्त्रके शोकसे व्याकुल विदूरथ ढाल, तलवार ले श्रीकृष्णचन्द्रको मारनेके लिये बडे बडे श्वास लेता हुआ आया॥११॥ हे परीक्षित्! विदूरथको इसप्रकार आता हुआ देख मुकुट और कुण्डलोंसहित उसका शिर क्षुरेके समान धारवाले चक्रसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने काट लिया॥१२॥ इसप्रकार सौभ विमान और शाल्व तथा भ्राताओंसहित दतवक्त्रोको जब भगवान् वासुदेव मारचुके, तब देवता और मनुष्य स्तुति करने लगे॥१३॥ मुनीश्वर, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर और बडे सर्प, अप्सरा, पित्रोंके गण, यक्ष, किन्नर, चारण॥१४॥
यह सब कोई श्रीकृष्णचन्द्रकी विजय गाय फूल बरसाय कर चले गये, इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्र सब यादवोंको संग ले शोभायमान द्वारकापुरीकोगये॥१५॥इसप्रकार योग और जगत्के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सदा जय कोही प्राप्त करते हैं, पशुओंके समान दृष्टिवाले अज्ञानी पुरुषोंकोजरासन्धसे हारे जीते प्रतीत होते हैं॥१६॥पीडित कौरवोंको एक तुल्य माननेवाले बलदेवजी उनके युद्धका उद्यम सुनकर तीर्थयात्राका बहानाकर द्वारकासे चलेगये, क्योंकि यहाँ रहनेसे जिसकी ओर न हूंगा वही बुरा मानेगा॥१७॥ प्रभासतीर्थ में स्नान कर देवता ऋषि, पितृ, मनुष्यों को तर्पणकर और ब्राह्मणोंको संग ले सरस्वती के प्रवाहके सन्मुख महात्मा बलदेवजी गये॥१८॥हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित! पृथूदक, बिंदुसरोवर, त्रित
उपगीयमान विजयः कुसुमैरभिवर्षितः॥ वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालंकृतां पुरीम्॥१५॥ एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवाञ्जगदीश्वरः॥ ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः॥१६॥ श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पांडवैः॥ तीर्थाभिषे कव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल॥१७॥ स्नात्वा प्रभासे संतर्प्य देवर्षिपितृमानवान्॥ सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मण संवृतः॥१८॥ पृथूदकं बिंदुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्॥ विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम्॥१९॥ यमुनामनुयान्येव गंगामनु च भारत॥जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते॥२०॥ तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः॥ अभिवंद्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चाऽर्चयन्॥२१॥ सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः॥ रोमहर्षणमासीनं महर्षेःऽशिष्यमैक्षत॥२२॥ अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणांजलिम्॥ अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः॥२३॥
कूप, सुदर्शन तीर्थ, विशालब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती, व यमुनाके तीर्थ गंगाके तीर्थ और जहाँ ऋषि यज्ञ करैंउस नैमिषारण्यमें बलदेवजी गये॥१९॥२०॥बडे यज्ञवाले मुनि बलदेवजीको आयाहुआ देख प्रशंसा करते हुए शीघ्र उठ प्रणाम् कर यथायोग्य उनका पूजन करने लगे॥२१॥ ब्राह्मणोसहित पूजापाय और आसनपर बैठ महात्मा बलदेवजीने वेदव्यासके शिष्य रोमहर्षणको बैठा देखा॥२२॥यह सूतजाति होकर उन सब ब्राह्मणोसे ऊँचे आसन पर विराजमान था, न तो इसने प्रत्युत्थान किया और न विनय की और न हाथ जोडकर स्तुति करी, तब इसको देखकर भगवान् बलरामजीको अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ॥२३॥
और अपने मनमें विचार करने लगे कि, यह प्रतिलोम जाति होकर इन ब्राह्मण और धर्मपालक हमसे भी ऊँचे आसन पर विराजमान है, इस अपराधसे यह दुर्बुद्धि मारडालनेके योग्य है॥२४॥क्योंकि भगवान् वेदव्यासजीका शिष्य होकर, इतिहास और पुराणोंसहित धर्मशास्त्र पढकर यह सूत ऐसा आचरण रखता है॥२५॥सत्य है जो नटके समान वेष धारण करनेवाले, अजितेन्द्रिय, अजितमन, विनयरहित वृथा पण्डिताभिमानी पुरुषहैं उनको शास्त्राभ्यास भी गुणकारक नहीं होता॥२६॥ इसलोकमें मैंने इसलिये अवतार लिया है कि, ऐसे धर्मध्वजी पुरुषोंका विनाश करना क्योंकि
कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः॥ धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः॥२४॥ ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च॥ सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः॥२५॥ अदांतस्याविनीतस्य वृथापंडितमानिनः॥ न गुणाय भवंति स्म नटस्येवाजितात्मनः॥२६॥ एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः॥ वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः॥२७॥ एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि॥ भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः॥२८॥ हाहेति वादिनः सबमुनयः खिन्नमानसाः॥ ऊचुः संकर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो॥२९॥ अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनंदन॥ आयुश्चात्माऽक्लमं तावद् यावत्सत्रं समाप्यते॥अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा॥३०॥
वह सबसे अधिक पापी होतेहैं॥२७॥ हे राजन्! यद्यपि महात्मा बलरामजीने दुष्टोंको मारना छोड़ दिया था, परन्तु तोभी होनी ऐसेही थी,इस कारण इतना कहकर उन्होंने हाथमें स्थित डाभके अग्रसे उसको मारडाला
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॥२८॥ तब उसके मरतेही सब मुनिलोग महा हाहाकर करनेलगे और खेदको प्राप्त होकर बलरामजीसे बोले कि, हे भगवन्! यह आपने बडा अधर्म किया॥२९॥ हे प्रभो! जबतक यज्ञ सम्पूर्ण हो, तबतक
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शका
–भावी प्राकृत जीवोंके लिये है उनहीसे भला बुरा कर्म करसक्ती है, कुछ भगवान्के ऊपर भावी नहीं चलसक्ती? फिर वलदेवजी तो भगवान् शेषजी थे सो भावीके वश कैसे होगये? जो सूतजी को मारडाला यह वडी शंका है?
उत्तर–ब्रह्मा, विष्णु, महेशके ऊपर भावी कुछ भी नहीं करसक्ती तो भीभावीकी मर्यादा पालन करनेवाले तीनों देव संसारमें भावीके वश होकर अनेक प्रकारका काम करते हैं, इसलिये अनन्त रूप बलदेवजीने मायाके वशीभूत हो सूतको मारढाला
॥
हमारे पास पुराणोंकी कथा कहनेके लिये हम लोगोने इस सूतको ब्रह्मासन दिया था और शरीर खेदित न हो, ऐसी आयु दी थी, परन्तु आपने विना जाने यह ब्रह्महत्याकासा कार्य किया॥३०॥हे लोकपावन बलरामजी! तुम योगेश्वर हो इस कारण आपको वेदमें कही ब्रह्महत्याका निषेध नहीं लगता परन्तु तो भी आप स्वयं इस ब्रह्महत्याके समान पापका प्रायश्चित्त करोगे, तभी संसारकी मर्यादा रहेगी॥३१॥यह सुनकर बलराजीने कहा जगतकी मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये मैं प्रायश्चित्त करूँगा, इस कारण मुख्य पक्षमें जो नियम होवैसो मुझे बताओ॥३२॥इस रोमहर्षणकी दीर्घ आयु, बल, इन्द्रिय और सामर्थ्य होनेमें जो तुम्हारी अभिलाषा हो सो वर्णन करो, क्योंकि जसी आप आज्ञा करैगे वैसाही में योगमा
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः॥ यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन॥ चरिष्यति भवान्लोकसंग्रहोऽनन्यचोदितः॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ करिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया॥ नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम्॥३२॥ दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिंद्रियमेव च॥ आसादितं यत्तद् ब्रूत साधये योगमायया॥३३॥ ऋषय ऊचुः॥ अस्त्रस्य तबवीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च॥ यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम्॥३४॥ श्रीभगवानुवाच॥ आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्॥ तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिंद्रियसत्त्ववान्॥३५॥ किं वः कामोमुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ॥ अजानतस्त्वपचितिं यथा मे चित्यतां बुधाः॥३६॥ ऋषय ऊचुः॥ इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः॥ स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणिपर्वणि॥३७॥
याके प्रभावसे करूंगा॥३३॥तब मुनि बोले कि, हे राम! जिस प्रकार तुम्हारे अस्त्रकी, पराक्रमकी और मृत्युकी सत्यता हो और तुमने जो वचन हमसे कहा है, वहभी सत्य होजाय उसीप्रकार करो॥३४॥बलरामजी बोले कि, “पिताही पुत्ररूप उत्पन्न होताहै” इस प्रकार वेदकी आज्ञा है, सो इसका पुत्र उग्रश्रवा तुम्हैंपुराण श्रवण करावेगा और आयुष्य इन्द्रियशक्ति व शरीरके बलसे परिपूर्ण होगा॥३५॥हे मुनिजनो! आपको दूसरी किस बात की अभिलाषा है? सो हमसे कहो? आप जो कहैंगे सो मैं करूंगा? हे बुधलोगो! मैं प्रायश्चित्त नहीं जानता, इस कारण उसकाभी विचार करो॥३६॥तब ऋषीश्वर बोले कि, हे राम! घोररूप इल्वलका पुत्र बल्वल नाम दानव अमावस्पूनोंको आनकर हमारे यज्ञको
भ्रष्ट करता है॥३७॥ सो हे दाशार्हवंशोत्पन्न बलदेवजी! पीब, रुधिर, मूत्र, विष्ठा, मदिरा और मांस इनकी वर्षा करनेवाले पापी बल्वलको मारो, यही हमारी सेवा है॥३८॥ इसके उपरान्त अत्यन्त सावधान होकर कामक्रोधादिकोको त्याग भरतखण्डकी परिक्रमाकर जब एक वर्षतक तीर्थोंमें स्नान करोगे तब शुद्ध होगे॥३९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां बलदेव चरित्रे बल्वलवधोपक्रमोनामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥ दोहा–उन्नासी अध्यायमें, बल्वलको वध राम! बहुरि तीर्थयात्रा करी, जहाँ जहाँ शुभधाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इसके उपरान्त जब अमावास्या की पूर्णमासीका पर्व आया तो धूरि वर्षासहित अत्यन्त भयानक प्रचण्ड पवन चलने
तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्॥ पूयशोणितविण्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम्॥३८॥ ततश्च भारतं वर्षं परीत्यसुसमाहितः॥ चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसे॥३९॥ इति श्रीमद्भा० दशमस्कंधे उत्तरार्धे वलदेवचरित्रे सूत० बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥ श्रीशुक उवाच॥ ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचंडः पांसुवर्षणः॥ भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगंधस्तु सर्वशः॥१॥ ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्॥अभवद्यज्ञ शालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक्॥२॥ तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नांजनचयोपमम्॥ तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्र भ्रुकुटीमुखम्॥३॥ सस्मार मुसलं रामः परसैन्यविदारणम्॥ हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः॥४॥ तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्॥ मुसलेनाहनत्क्रुद्धोमूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः॥५॥
लगा और चारों ओरसे राधकीसी दुर्गन्ध आई॥१॥ इसके पीछे बल्वलदैत्यकी करी विष्ठा और मूत्रकी वर्षा यज्ञ शालामें होनेलगी, फिर त्रिशूल हाथमें लिये वह बल्वल भी दीखपड़ा॥२॥ टूटेहुये अंजनके ढेरके समान बडे शरीरवाला तपे ताँबेकेसी शिखाओं दाढ़ी मूंछवाला दाढ और भ्रुकुटीसे डरावने मुखवाले उस दैत्यको देख॥३॥ शत्रुकी सेनाके विदीर्ण करनेवाले मूशलको स्मरणकर दैत्योंको मारनेवाले हलका स्मरण किया इसके उपरान्त पार्षदरूप हल मूशल आपही आनकर उपस्थित होगये॥४॥ आकाशमें विचरनेवाले बल्वलको हलके अग्रभागसे
खैंच और अत्यन्त क्रोधमें भरकर महात्मा बलदेवजीने ब्रह्मद्रोही बल्वलके माथेमें मुशल मारा॥५॥ उसके लगतेही माथेके फूटने से बल्वल रुधिरको वमन करता हुआ वज्रके मारे गेरुके पर्वत के समान पृथ्वी में गिर पडा॥६॥ तब मुनीश्वरोंने बलदेवजीकी स्तुतिकर सफल आशीर्वाद दे, जैसे बडभागी देवतालोगोंने वृत्रासुरके मारनेवाले देवराज इन्द्रका अभिषेक कियाथा, उसी प्रकार बलदेवजीका अभिषेक किया॥७॥ लक्ष्मीके निवास कोमल कमलोंकी वैजयन्ती माला और दिव्य नीलाम्बर धोती उपरना और अनेक प्रकारके आभूषण उन मुनियोंने महात्मा बलदेव
सोऽषतद्भुविनिर्भिन्नललाटोऽसृक् समुत्सृजन्॥ मुंचन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः॥६॥ संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः॥ अभ्यर्षिचन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा॥७॥ वैजयंता ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपंकजाम्॥ रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च॥८॥ अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः॥ स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयुरास्रवत्॥९॥ अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः॥ स्नात्वा संतर्प्य देवादीञ्जगाम पुलहाश्रमम्॥१०॥ गोमती गंडकी स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः॥ गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गंगासागरसंगमे॥११॥ उपस्पृश्य महेंद्राद्रौ रामं दृष्ट्वाऽभिवाद्य च॥ सप्तगोदावरीं वेणां पंपां भीमरथीं ततः॥१२॥
जीको दिये॥८॥इसके उपरान्त मुनियोंसे आज्ञा पाय बलदेवजी ब्राह्मणोंको संग ले कौशिकी नदीमें आय स्नानकर जिस सरोवरसे सरयू निकली है, वहां गये॥९॥ और सरयूप्रवाहके किनारे किनारे हो प्रयागमें आय स्नान व देवादिकोंका तर्पणकर पुलहऋषिके आश्रम हरिक्षेत्रको गये॥१०॥वहांसे गोमती और गण्डकी तथा विपाशा व शोणनदीमें स्नानकर बलदेवजी गयातीर्थमें गये और वहांसे पितरोंका पूजन कर गंगा और समुद्र के संगममें पहुँच
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॥११॥ इसके उपरान्त महेंद्राचल पर्वत में भृणुवंशावतंस परशुरामजीका दर्शन व प्रणामकर सप्तगोदावरी
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शंका–वलदेवजी सब तीर्थोंमें गये परन्तु काशीको और उज्जनको क्यों नहीं गये? और काशी और उज्जैनके जो आसपास तीर्थथेउनको गये फिर क्याकारण जो दोनों मोक्षदायक तीर्थोको छोडदिया?॥
उत्तर–शास्त्रोंमें ऐसा दिखाहे कि विना स्त्रीके जो मनुष्य अकेला इन तीर्थोंमें जाय और उनका दर्शन व तब उसको आधा फल मिलता है? (शंका) आधे फलमें क्या हानि थावहाँका तो किंचित्फल परमानन्दका देनेवाला है? (उत्तर) वहाँ जानेसे सब तीर्थोका आधाफल रहजाता इसलिये नहीं गये, क्योंकि यह अकेलेही गयेथे, स्त्री संग नहीं थी, वलदेवजीने विचारा कि स्त्रीको संग लेकर आवेंगे उससमय काशी और उज्जैनको दर्शन करैंगे, इसलिये काशी और उज्जैनको नहीं गये॥
तथा वेणा, तथा पंपामें जाकर भीमरथीमें गये॥१२॥ इसके उपरान्त स्वामिकार्त्तिकका दर्शनकर जहांपर भगवान् महादेवजी विराजते हैं, ऐसे श्रीशैलपर्वतको गये और द्रविडदेशोंमें परमपवित्र वेंकटपर्वतका दर्शनकर कामकोष्णीपुरीमें गये, फिर कावेरीमें स्नानकर बडे पवित्र और जहां नित्य हरि विराजते हैं, ऐसे श्रीरंगनाम विख्यात स्थानको गये॥१३॥१४॥ वहाँसे ऋषभाद्रि पर्वत हरिक्षेत्रमें आय, दक्षिण मथुरामें जाकर फिर बड़े पापोंके नाश करनेवाले सेतुबंध रामेश्वरको गये॥१५॥ वहाँ जाकर हलायुध धारण करनेवाले बलदेवजीने दशहजार गायोंका ब्राह्मणोंको दान किया पीछे कृतमाला नदी और ताम्रपर्णी नदियोमें होकर मलयाचल कुलाचल पर्वतोंमें गये॥१६॥ वहाँपहुँच विराजमान अगस्त्यमुनिकी नमस्कार
स्कंदं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्॥ द्रविडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः॥१३॥ कामकोष्णीं पुरीं कांची कावेरीं च सरिद्वराम्॥ श्रीरंगाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः॥१४॥ ऋषभाद्रि हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा॥ सामुद्रं सेतुमगमन्महापातकनाशनम्॥१५॥ तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः॥ कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम्॥१६॥ तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च॥ योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम्॥ दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः॥१७॥ ततः फाल्गुनमासाद्य पंचाप्सरसमुत्तमम्॥ विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वाऽस्पर्शद्गवायुतम्॥१८॥ ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्॥ गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः॥१९॥ आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः॥ तापीं पयोष्णीं निर्विध्यामुपस्पृश्याथ दंडकम्॥२०॥
पूर्वक स्तुतिकी, फिर अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और आज्ञा पाय बलदेवजीने दक्षिण देश में समुद्र के तटपर जाय कन्यानाम दुर्गादेवीका दर्शन किया॥१७॥ इसके पीछे फाल्गुन अनंतपुरमें जाय जहां विष्णु भगवान् सदा विराजते हैं ऐसे श्रेष्ठ पंचाप्सरस नाम सरमें स्नानकर दशहजार गायोंका संकल्प किया॥१८॥ वहाँसे चलकर भगवान् बलदेवजी केरल और त्रिगर्तदेश में हो धूर्जटी शिवसे नित्य सन्निहित गोकर्ण नाम शिवक्षेत्रमें गये॥१९॥ वहाँसे आर्याद्वीपवासिनी देवीका दर्शनकर शूर्पारक क्षेत्रमें आये, वहांसे तापी और पयोष्णी नदीमे हो दण्डकारण्यमें आये॥२०॥
जहां माहिष्मती पुरी है, वहां पहुँच रेवानदीपर गये फिर मनुतीर्थमें आचमनकर प्रभासक्षेत्रमें आये॥२१॥ तब कौरव और पाण्डवोंके संग्राममें सब क्षत्रियोंका नाश होगया यह ब्राह्मणोंका वचन सुन बलदेवजीने अपने मनमें जानलिया कि, पृथ्वीका भार उतरगया॥२२॥ यादवोंको आनन्द देनेवाले बलदेवजी संग्राममें गदाओंसे युद्ध करते भीमसेन और दुर्योधनको समझानेके लिये कुरुक्षेत्रको गये॥२३॥ राजा युधिष्ठिर नकुल, सहदेव और श्रीकृष्णचन्द्र व अर्जुन बलदेवजीको आया हुआ देख प्रणाम कर पूछनेलगे कि, हे बलदेवजी! आप कहां कहां हो आये? तो यह भयके मारे चुप होगये॥२४॥ इसके उपरान्त क्रोधमें भरे एकको एक जीतना चाहै, चित्र विचित्र मण्डलोंमें फिरते भीमसेन और
प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी॥ मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत्॥२१॥ श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपांडवसंयुगे॥सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः॥२२॥ स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे॥ वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनंदनः॥२३॥ युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि॥ अभिवाद्याभवंस्तूष्णीं किं विवक्षुरिहागतः॥२४॥ गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ॥ मंडलानि विचित्राणि चरंताविदमब्रवीत्॥२५॥ युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर॥ एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम्॥२६॥ तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः॥ न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः॥२७॥ न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौनृपार्थवत्॥अनुस्मरंतावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च॥२८॥ दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ॥ उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः॥२९॥
दुर्योधनको देख बलदेवजी कहने लगे॥२५॥ कि, हे राजा दुर्योधन! और भीमसेन! तुम दोनों शुरवीर हो और समान तुम्हारा बल है, भीमसेनमें कुछ बल अधिक है, दुर्योधनमें दाव पेंच अधिक हैं, यह मैंजानता हूं॥२६॥ इसलिये बराबर पराक्रमवाले तुम दोनोंके बीचमें एककी भी जीत हार न होगी, इस कारण इस निष्फल युद्धको शान्त करो॥२७॥ हे राजन्! परस्पर कुत्सित वचन और कुत्सित कर्मोंको स्मरण कर वैरमें भरे भीमसेन और दुर्योधनने बलरामजीके प्रयोजन भरे वाक्यको नहीं माना॥२८॥ भीमसेन और दुर्योधनका पिछला कर्म ऐसाही है, यह जानकर
बलदेवजी द्वारकापुरीमें आये और वहां उग्रसेनसे आदिले प्रसन्नमन यादवोंसे मिले॥२९॥ समस्तविरोधरहित यज्ञमूर्त्ति भगवान् बलदेवजी फिर नैमिषारण्यमें आये, तब उन्हैंआनन्दपूर्वक सब ऋषीश्वरोंने यज्ञोंसे यजन करवाया॥३०॥ तब सामर्थ्यवान् भगवान् बलदेवजीने उन ब्राह्मणोंको विशुद्ध ज्ञान दिया जिस ज्ञानसे आत्मामें विश्व और विश्वमें पुरुष आत्माको जानता है॥३१॥ यज्ञ करनेके पीछे स्नानकर सुन्दर वस्त्र आभूषणोंसे अलंकृत ज्ञाति बंधु सुहृदोंको संग ले अपनी चांदनीसे शोभित चन्द्रमाके समान बलदेवजी अपनी स्त्रियोंसहित अत्यन्त शोभाको प्राप्त हुए॥३२॥ बलवान् अनन्त अप्रमेय अर्थात् प्रमाण करनेमें न आवे मायासे मनुष्यरूप धारण करनेवाले बलदेवजीके अनेक
तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयोजयन्मुदा॥ क्रत्वंगं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम्॥३०॥ तेभ्यो विशुद्धविज्ञानं भगवान् व्यतरद्विभुः॥येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः॥३१॥ स्वपत्न्यावभृथस्नातो ज्ञातिबंधुसुहृद्वृतः॥ रेजे स्वज्योत्स्नयेवेंदुः सुवासाः सुष्ट्वलंकृतः॥३२॥ ईदृग्विधान्यसंख्यानि बलस्य बलशालिनः॥ अनंतस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य संति हि॥३३॥ योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः॥ सायं प्रातरनंतस्य विष्णोः स दयितो भवेत्॥३४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥ राजोवाच॥ भगवन्यानि चान्यानि मुकुंदस्य महात्मनः॥ वीर्याण्यनंतवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो॥१॥ को नु श्रुत्वा सकृद् ब्रह्मन्नुत्तमश्लोकसत्कथाः॥ विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः॥२॥
अनेक लीला और चरित्र हैं॥३३॥ हे भारत! अद्भुत कर्मकारी अनंत बलदेवजीके कर्मोंको जो पुरुष सायंकाल अथवा प्रातःकालके समय स्मरण करेगा, वह श्रीकृष्णचन्द्रका अत्यन्त प्यारा होगा॥३४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥ दोहा—अस्सीमें धनलोभसे, विप्र सुदामा रंक। गयो द्वारका कृष्णपै, धोवन हेत कलंक॥१॥ राजा परिक्षित् श्रीशुकदेवजीसे बोले कि, हे भगवन्! समर्थ अनंत पराक्रम मुक्तिके देनेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके पराक्रमको और भी सुननेकी मेरी अभिलाषा है॥२॥ हे श्रीशुकदेवजी!उत्तमयशी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके विषयोंमें वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली जो मनोहर कथा है, उसको निरन्तर सुनकर कामके बाणोंसे
खेदितहो त्रासपावै ऐसे सारके जाननेवाले कौन पुरुष हैंजो श्रवण न करै?॥२॥ जिस वाणीमें भगवान्के नाम और गुण निकलैंवही वाणी सफल है और जिन हाथोंमें भगवान् वासुदेवकी सेवा पूजाका कर्म बनैंवही हाथ सफल हैं, और स्थावर जंगम जीवोंमें अन्तर्यामी रूप होकर वसे भगवान्का जो स्मरण करे वही मन सफल है और जिन कानोंसे भगवान् हरिकी पवित्र कथा सुनै वही कान सफल हैं॥३॥स्थावर जंगम सब भगवान्के रूप हैं, यह जानकर जो पुरुष शिरसे प्रणाम करैवही शिर धन्य है, जिन नेत्रोंसे देखे, वही नेत्र धन्य हैं और भगवान् अथवा भक्तजनोंके चरणोंका धोवन जल नित्य जिन अंगोंमें लगैवही अंग धन्य है॥४॥श्रीसूतजी शौनकादिक ऋषियोंसे कहनेलगे कि, विष्णुरात राजापरीक्षित्के यह प्रश्न करनेपर
सा वाग् यया तस्य गुणान्गृणीते करौ च तत्कर्मकरौमनश्च॥ स्मरेद्वसंतं स्थिरजंगमेषु शृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः॥३॥ शिरस्तु तस्योभयलिंगमानमेत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः॥ अंगानि विष्णोरथ तज्जनानां पादोदकं यानि भजंति नित्यम्॥४॥ सूत उवाच॥ विष्णुरातेन संपृष्टो भगवान्बादरायणिः॥ वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत्॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ कृष्णस्यासीत्सखा कश्चिद्ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः॥ विरक्त इंद्रियार्थेषु प्रशांतात्मा जितेंद्रियः॥६॥ यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी॥ तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा॥७॥ पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा॥ दरिद्रा सीदमाना सा वेपमानाभिगम्य च॥८॥ ननु ब्रह्मन्भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः॥ ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान्सात्त्वतर्षभः॥९॥
वासुदेव भगवान्में निमग्नहृदय हो वेदव्यासके पुत्र श्रीशुकदेवजी बोले॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परमभागवत राजा परीक्षित्! कोई एक ब्राह्मण ब्रह्मके जाननेवालोंमें उत्तम विषयोंमें वैराग्यवान् शांतमन जितेंद्रिय श्रीकृष्णचन्द्रका मित्र था॥६॥ गृहस्थाश्रमको वर्त्ते और जो कुछ अनायास पूर्वक प्राप्तहो उसीसे अपना निर्वाह करै, जीर्णवस्त्रको धारण करै, उसीप्रकार उसकी स्त्री भी थी, क्षुधाके मारे पीड़ित होनेसे समस्त अंगोंसे कृशित और जो अन्न प्राप्तहो, उसे पतिको परोस दे, आप भूँखी रहजाय॥७॥ बहुत दुःखित और भयके मारे थरथर काँपती वह पतिव्रता स्त्री दरिद्री पतिके समीप आनकर बोली हे ब्राह्मण!साक्षात् लक्ष्मीके पति ब्रह्मभक्त शरणागतके पालक यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारे सखा सुनेहैं॥८॥९॥
अहो बड़भागी! साधुओंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पास तुम जाओ, दुःखित कुटुम्बी तुमको वह बहुतसा धन देंगे॥१०॥ भोज, वृष्णि, अंधक यह यादवोंके गोत्र हैं, तिनके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अब द्वारका पुरीमें विराजते हैं वह अपने चरणकमलोंके स्पर्श करने वालोंको आत्मातक देनेको समर्थ हैं॥११॥जगत्के गुरु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भजन करनेवाले अपने भक्तोंको परिणाममें दुःखरूप धन और विषयका देना कुछ बहुत नहीं है, इस प्रकार कोमल वचनोंसे स्त्रीने बहुत प्रार्थना करी॥१२॥तब तो सुदामा ब्राह्मण उत्तम यशवाले श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होगा यह बड़ा लाभ है, इस प्रकार मनमें विचारकर जानेकी इच्छा करनेलगा, और स्त्रीसे बोला कि, हे मंगलरूपिणी!तेरे घरमें कुछ
तमुपेहि महाभाग साधूनां च परायणम्॥ दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुंबिने॥१०॥ आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यंधकेश्वरः॥ स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति॥११॥ किं त्वर्थकामान्भजतो नात्यभीष्टाञ्ज गद्गुरुः॥ स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदुः॥१२॥ अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम्॥ इति संचित्य मनसा गमनाय मतिं दधे॥ अप्यस्त्युपायनं किंचिद् गृहे कल्याणि दीयताम्॥१३॥ याचित्वा चतुरो मुष्टीन्विप्रान्पृथुकतंडुलान्॥ चैलखंडेन तान्बद्धा भर्त्रेप्रादादुपायनम्॥१४॥ स तानादाय विप्राग्र्यःप्रययौ द्वारकां किल॥ कृष्णसंदर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिंतयन्॥१५॥ त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च स द्विजः॥ विप्रोऽगम्यांधकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम्॥१६॥ गृहं द्व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः॥ विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानंदं गतो यथा॥१७॥
भेंट देनेको होय तो ला॥१३॥ यह सुन सुदामाकी स्त्री किसी पड़ोसी ब्राह्मणके घरसे चार मुट्ठी चावल मांगलाई और सुदामाके कपड़ेमें बांधनेलगी हे राजन! इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको भेट देकर सुदामाको बिदा किया॥१४॥ हे राजन्!इस प्रकार ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदामा चावलोंको ले श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन मुझे कैसे होगा? ऐसे विचार करताहुआ द्वारकापुरीमें पहुँचा॥१५॥ सुदामा ब्राह्मण तीन चौकी और तीन ड्योढीवानोंको उल्लंघनकर कृष्णके धर्मधारी और अगम्य अन्वक और वृष्णियोंके घरोंके बीचमें हो॥१६॥ उन घरोंके बीचमें सोलह हजार
श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंके घरमेंसे एक अत्यन्त सुन्दर घरमें सुदामाने प्रवेश किया, उससमय ब्रह्मकी प्राप्तिके समान आनन्द पाया॥१७॥हे राजा परीक्षित्! प्यारी रुक्मिणीकी शय्यापर विराजमान भगवान् श्रीकृष्णने द्वारपालके मुखसे यह संदेशा सुन और निकट खड़े अपने प्राचीन मित्र सुदामाको देख, शीघ्र उठ भुजा पसारके मिले॥१८॥ हे नृपश्रेष्ठ! अपने अत्यन्त प्यारे मित्र सुदामा ब्राह्मणके मिलनेसे अति आनन्दसे प्रसन्नहुए कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके नेत्रोंसे आँशुओंकी बूंदें टपकनेलगीं॥१९॥हे राजन्!लोकोंके पवित्र करने वाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सुदामासे मिल और उसको पलँगपर बैठाय, भेंटदे उसके चरणका धोवन जल अपने मस्तकपर चढाया और दिव्य
तं विलोक्याच्युतो दूरात्प्रियापर्यंकमास्थितः॥ सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा॥१८॥ सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरंगसंगातिनिर्वृतः॥ प्रीतो व्यमुंचदब्बिंदून्नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः॥१९॥ अथोपवेश्य पर्यंके स्वयं सख्युः समर्हणम्॥ उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः॥२०॥ अग्रहीच्छिरसा राजन्भगवान्लोकपावनः॥ व्यलिंपद्दिव्यगंधेन चंदनागुरुकुंकुमैः॥२१॥ धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा॥ अर्चित्वाऽऽवेद्य तांबूलं गां च स्वागतमव्रवीत्॥२२॥ कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं धमनिसंततम्॥ देवी पर्यचरच्छेब्या चामरव्यजनेन वै॥२३॥ अंतःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना॥ विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम्॥२४॥
गंध, अतर चंदन, केशर इत्यादि सुदामाजीके लगाया॥२०॥२१॥ श्रेष्ठगंधयुक्त धूप दीप, और बराबर दीपक जलाकर धरदिये और बड़े आनन्दसे मित्र सुदामाकी पूजा कर तांबूल दे सन्मुख खड़े हो “मित्र भले आये” इसप्रकार कृष्ण कहनेलगे॥२२॥ फटे मलीन वस्त्र पहरे और दुर्बलताके कारण अंगोंकी नसैंनिकल रहीं, ऐसे सुदामा ब्राह्मणकी साक्षात् देवी रुक्मिणी चमर ढोर पंखा इत्यादिसे सेवा करनेलगी॥२३॥ हे राजन्! इसप्रकार निर्मल कीर्त्तिवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब सत्कार किया, तब अवधूत सुदामाको देख सब द्वारकावासी जन आश्चर्य
माननेलगे
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॥२४॥ और कहनेलगे कि, भिक्षा माँगनेवाले दरिद्री निंदित अधम फटे वस्त्र इस सुदामाने ऐसा क्या पुण्य किया है?॥२५॥ क्योंकि जैसे बडे भाई बलदेवजीसे मिले उसी प्रकार त्रिलोकीके गुरु लक्ष्मीनिवास श्रीकृष्णचन्द्र शय्याके ऊपर बैठी अपनी प्रियतमा रुक्मिणीको त्यागकर इससे मिले॥२६॥ हे परीक्षित्!इसके उपरान्त सुदामा और श्रीकृष्णचन्द्र दोनों परस्पर हाथ पकड़ जब गुरुकुलमें वास किया था, तबकी बात कहनेलगे॥२७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे धर्मके जाननेवाले ब्राह्मण!दक्षिणा दे गुरुके पाससे जब हम तुम विद्या पढ़ कर
किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा॥ श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन्गर्हितेनाधमेन च॥२५॥ योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन संभृतः॥ पर्यंकस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा॥२६॥ कथयांचक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः॥ आत्मनोर्ललिता राजन्करौ गृह्य परस्परम्॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद् भवता लब्धदक्षिणात्॥ समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा॥२८॥ प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहतं तथा॥ नैवातिप्रीयसे विद्वन्धनेषु विदितं हि मे॥२९॥ केचित्कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः॥ त्यजंतः प्रकृतीर्देवीर्यथाहं लोकसंग्रहम्॥३०॥ क्वचिद्गुरुकुले वासं ब्रह्मन्स्मरसि नौ यतः॥ द्विजो विज्ञाय विज्ञेयंतमसः पारमश्नुते॥३१॥
आये, तबसे तुमने घर आय अपने योग्य स्त्रीसे विवाह किया या नहीं?॥२८॥ हे विवेकी मित्र सुदामा!मैं निश्चय जानताहूं कि, तुम्हारा चित्त विषयोंमें बहुंत चलायमान नहीं है और घरमें वस्त्रादिकोंसे भी तुम प्रसन्न नहीं हो विवेकी हो, तुमको ऐसाही योग्य है॥२९॥ यदि कहो कि, चाहना नहीं तो घरमें रहनेसे क्या प्रयोजन है? उसके उत्तरमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे मैं ईश्वरहूं, उसी प्रकार ईश्वरकी मायासे रची विषयवासना त्यागकर कितने एक पुरुष मेरे समान लोकमर्यादाकेलिये विषयोंमें आसक्त न होने पर भी कर्म करते हैं॥३०॥ हे ब्राह्मण! हम तुम जब गुरुके
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शंका—श्रीकृष्ण भगवान्के द्वारपर मूर्ख लोग रहतेथे क्योंकि जो मूर्खलोग पहरा नहीं देते होते तो भगवान्ने सुदामाका पूजन किया तो उन लोगोंने आश्चर्य क्यों माना? क्योंकि सज्जन लोग तो जानते हैं कि, भगवान् तो सदा ब्राह्मणोंका पूजन करतेथे वह आश्चर्य क्यों मानते?
उत्तर—श्रीकृष्णके स्थानपर मूर्ख लोग नहीं रहतेथे गोलोकवासी थे, उन लोगोंकी यह प्रतिज्ञा थी कि त्रिलोकीमें श्रीकृष्णसे बडाकोई नहीं है सर्वोपर श्रीकृष्णचन्द्रहीको जानतेथे, ब्रह्मादिक देवताओंको तथा योगियोंको ब्राह्मणोंको भी श्रीकृष्णचन्द्रसे बडा नहीं जानतेथे, इसलिये सुदामाका पूजन जबश्रीकृष्णजीने किया तो सब आश्चर्य माननेलगे कि इनसे बडा यह कौन आया?जिनका पूजन आप श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् त्रिलोकीनाथ करते हैं॥
घरमें जाकर रहे थे, तबकी भी कुछ यादहै कि नहीं? जिन गुरुसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जानने योग्य आत्माका स्वरूप जानकर पुरुष संसारसे छूट जाता है॥३१॥ इस संसारमें तीन गुरु हैं, जन्मदाता पिता, दूसरा यज्ञोपवीतकर वेद पढावे, संध्या गायत्री सुन्दर कर्म सिखानेवाला और तीसरा ब्रह्मचारी, गृहस्थ वानप्रस्थ, संन्यासी इन चारों आश्रमोंको ज्ञान देनेवाला गुरु है, इसमेंसे प्रथम गुरु पूज्य है, दूसरा मेरे बराबर पूज्य है और तीसरा गुरु साक्षत् मेराही स्वरूप है॥३२॥ जो पुरुष मनुष्यरूप धारण करके गुरूरूप मेरे उपदेशसे संसाररूपी समुद्रके पार लगते हैं, हे ब्राह्मण!वह पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णोंमें और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, इन चारों आश्रमोंमें चतुर हैं॥३३॥ ज्ञानके देनेवाले गुरुसे अधिक और सेवा योग्य कोई नहीं है, इसलिये उन गुरुके भजनसे और कोई अधिक धर्म नहीं है, सब
स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह संभवः॥ आद्योंग यत्राश्रमिणां यथाऽहं ज्ञानदो गुरुः॥३२॥ नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह॥ ये मया गुरुणा वाचा तरंत्यंजो भवार्णवम्॥३३॥ नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन च॥ तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा॥३४॥ अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन्वृत्तं निवसतां गुरौ॥ गुरुदारैश्चोदितानामिंधनानयने क्वचित्॥३५॥ प्रविष्टानां महारण्यमपर्तौ सुमहद् द्विज॥ वातवर्षमभूत् तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्नवः॥३६॥ सूर्यश्चास्तंगतस्तावत्तमसा चावृता दिशः॥ निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किंचन॥३७॥ वयं भृशं तत्र महानिलांबुभिर्निहन्यमाना मुहुरंबुसंप्लवे॥ दिशोऽविदंतोऽथ परस्परं वने गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः॥३८॥
प्राणियोंका आत्मा मैं जैसा गुरुकी सेवासे प्रसन्न होताहूं, ऐसा ब्रह्मचर्य, यज्ञ, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासधर्मसे भी प्रसन्न नहीं होता॥३४॥ हे ब्राह्मण! हम और तुम जब गुरुके घर रहा करतेथे उस समय हमैंतुम्हैंगुरुकी स्त्रीने लकड़ी काटनेको वनमें भेजा, वहां दैवइच्छासे जो कुछ हुआ वह तुम्हैंस्मरण है?॥३५॥हे मित्र! लकडी लेनेको हम तुम एक महावनमें गये यद्यपि वहां वर्षाऋतु नहीं थी परन्तु तो भी महातीव्र पवनके साथ वर्षा होने लगी और अत्यन्त घोर कठोर गर्जना हुई॥३६॥ इतनेहीमें भगवान् सूर्य अस्त होगये और सम्पूर्ण दिशाओंमें अन्धेरा छागया, सब स्थलमें जलमें जलही जल दृष्टि आनेलगा, इसकारण ऊंचा नीचा कुछ दिखाई न दिया॥३७॥ जलमय उस वनमें अति प्रचण्ड वायु तथा वर्षासे
हम तुम दोनों पीडाको प्राप्त हुए दिशाओंकी कुछ सुधी न रही तब आतुर हो आपसमें हाथ पकड मस्तकपर लकड़ीके बोझोंको धरकर फिरने लगे॥३८॥ हे ब्राह्मण!जब गुरुजी को इस बातकी खबरहुई, तब सूर्योदय होतेही सांदीपन गुरु हमैंतुम्हैंढूँढूते २ आये और आतुर अपने शिष्योंको बैठा देखा॥३९॥ और उस समय कृपा करके तीन श्लोक कहे, जिनसे हम कृतार्थ होगये, हे पुत्रो! तुम हमारे लिये बहुत दुःखित हुये क्योंकि प्राणियोंको देह बहुत प्यारा है, उसका निरादर करके तुमने हमारी सेवा करी॥४०॥ सत्पात्र शिष्योंको इसीप्रकार गुरुकी सेवा करनी योग्य है, शुद्ध भावना करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह चारों पदार्थ जिससे प्राप्तहों ऐसे
एतद्विदित्वा ह्युदिते रवौ सांदीपनिर्गुरुः॥ अन्वेषमाणो नः शिष्यानाचार्योऽपश्यदातुरान्॥३९॥ अहो हे पुत्रकायमस्मदर्थेऽतिदुःखिताः॥ आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठस्तमनादृत्य मत्पराः॥४०॥ एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं रुनिष्कृतम्॥ यद्वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ॥४१॥ तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्या संतु मनोरथाः॥ छंदांस्ययातयामानि भवंत्विह परत्र च॥४२॥ इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु॥ गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशांतये॥४३॥ ब्राह्मण उवाच॥ किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्गुरो॥ भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत्॥४४॥
देहको गुरुके अर्पण करदे॥४१॥ हे द्विजश्रेष्ठ!तुम्हारे ऊपर मैं प्रसन्न हुआ हूं तुम्हारे मनोरथ सब सत्पहों, तुमने मुझसे जो वेद पढे हैं, सो इस लोक और परलोकमें सारभरे नवीन पढे याद बनेरहैं॥४२॥ श्रीभगवान्ने कहा कि, हे मित्र!कलियुगमें चेले गुरु दोनों लोभी लालची होते हैं, गुरुके घर जब हम रहते थे, तब के ऐसे अनेक चरित्र हैं, वह आपको याद हैं? गुरुओंकी कृपासेही मनुष्य पूर्ण मनोरथ होकर शांतिको प्राप्त होता है
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॥४३॥ तब सुदामा बोले कि, हे देवदेव जगत्केगुरु! सत्यसंकल्प तुम्हारे संग हमारा गुरुके पास वास हुआ था, फिर
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दृष्टान्त—एक चेला गुरूजीके पास आया और सेवा करने लगा, सेवा करनेही पर माल भी बहुत मिलते हैं, नया जानकर पुराने चेलोंने सब काम घन्धा उसीपर डाल दिया, एक दिन उसने गुरूजीसे कहा कि, महाराज! एकबात कहताहूँ गुरूजी बोले कह, चेलेने कहा कि, महाराज! ऐसा भी कोई उपाय है कि, जो मैंगुरू होजाऊँ और तुम्हारे समान गद्दीपर बैठ हलुआपूरी उडाऊ, काम चेलोंसे कराऊ, गुरूजीने सुनतेही क्रोधकर उसे निकाल दिया और फिर अपने यहां न आने दिया, चेलेको तो चाट लगरहीथी एक दिन एक पल्लेदारको बुला दो पेसे दे उससे कहा कि,रेता पल्लेमें भरकर लेचलो, उसने पल्ला भरलिया यह गरूजीके दरवाजेपर पहुँच खबर दी कि चेला आया है, गुरूजी बोले कि, हम दर्शन नहीं देंगे, तब चेलेने कहा महाराज! एक पल्लेमें कुछ लाया भी है, हम नहीं-
हमको कौन वस्तुकी प्राप्ति न हुई अर्थात् सब वस्तु पाचुके॥४४॥ हे समर्थ!संपूर्ण कल्याणदायक छन्दोमय वेद आपकी मूर्ति हैं ऐसे आपने गुरुके यहाँ वास किया, यह तो लीलामात्र है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सुदाम्नः उपाख्याने अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥ दोहा—इक्यासी हरि विप्रके, तन्दुल भोग लगाय। किये समर्पण लोक द्वै, तौहू रहे लजाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजन्! सब प्राणियोंके मनकी बात जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र द्विजोंमें मुख्य सुदामाके संग बातैंकरते मुसकाकर बोले॥१॥ ब्राह्मणोंकी भक्ति करनेवाले साधुपुरुषोंकी गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रेमभरी चितवनसे देखते और हँसतेहुये ब्राह्मण सुदामासे बोले कि॥२॥ हे
यस्य च्छंदोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो॥ श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यंतविडंबनम्॥४५॥ इति श्रीमद्भा० म० द० उ० अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥ श्रीशुक उवाच॥ स इत्थं द्विजमुख्येन सह संकथयन्हरिः॥ सर्वभूतमयोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम्॥१॥ ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान्प्रहसन्प्रियम्॥ प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥ किमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे भवता गृहात्॥ अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्॥ भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥३॥ पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति॥ तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥४॥ इत्युक्तोपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः॥ पृथुकप्रसृतिं राजन्न प्रायच्छदवाङ्मुखः॥५॥ सर्वभूतात्मदृक् साक्षात्तस्यागमनकारणम्॥ विज्ञायाचिंतयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा॥६॥
ब्राह्मण!तुम मेरे लिये क्या भेंट लाये हो? क्योंकि भक्ति प्रेमपूर्वक जो मुझे थोडीसी भी भेंट देता है, सो बहुत होजाती है और जो भक्ति विनामुझे बहुत भी दे, परन्तु उससे मुझे संतोष नहीं होता॥३॥ जो पुरुष भक्ति करके पत्र, पुष्प, फल मुझे देतेहैं, सो भक्तिसे भेंट करनेके कारण मैं उसे प्रसन्नतापूर्वक भोजन करता हूं॥४॥ हे राजन् परीक्षित्! इसप्रकार भगवान्ने जब कहा तो भी लज्जाके मारे नीचेको मस्तककर विराजमान सुदामाने लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको तंडुल नहीं दिये॥५॥ हे राजन्!साक्षात् सब प्राणियोंके साक्षी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुदामाके आनेका
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–जानते कि, बूरा या खाड है, इससे बुलालो, फिर भगा दीजो, गुरुजी बोले तो फिर बुलालो, चेला सुनते ही बुलाने गया, उसने आतेही आँगनमें पल्लागिरवाया और गुरुजीकी ओर चरणकर पल्लेको दण्डवत् करी गुरुजी बोले कि मूर्ख यह क्या करताहै? चेलेने कहा कि महाराज! मुझे तोयह पल्लाही लाया है यह कहकर भागगया गुरुजी रेता देख अत्यन्त लज्जित हुये, कलियुगमें गुरु चेले बहुधा कुपात्रही हैं॥
विचार करनेलगे कि, धनकी चाहना करके इस सुदामाने मेरा भजन नहीं किया॥६॥पर अभी अपनी पतिव्रता स्त्रीको प्रसन्न करनेके लिये मेरे पास आया है, इसलिये जो संपत्ति देवताओंको भी दुर्लभ है सो इसे दूंगा॥७॥इस प्रकार विचार कर चीरमें बँधे चावलोंको “यह क्याहै” ऐसे कह वह चावल सुदामाके वस्त्रमेंसे आपही ले लिये॥८॥ और एक मुट्ठी चावल खाकर केशवमूर्ति बोले कि, हे मित्र सुदामा! यह जो तुम चावल लाये हो सो मुझे अत्यन्त प्यारे लगे हैं, इनको थोड़ा मत जानो, यह चावल मेरे सब विश्वका पेट भरदेंगे॥९॥ ऐसे कह एक मुट्ठी चावलोंका भोजनकर और दूसरी मुट्ठी खानेलगे, तबहीं श्रीकृष्णपरायण रुक्मिणी परमेष्ठी श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ पकडकर कहनेलगीं कि,
पत्न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया॥ प्राप्तो मामस्य दास्यामि संपदोऽमर्त्यदुर्लभाः॥७॥ इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धान्द्विजन्मनः॥ स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतंडुलान्॥८॥ नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे॥ तर्पयंत्यंग मां विश्वमेते पृथुकतंडुलाः॥९॥ इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे॥ तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः॥१०॥ एतावताऽलं विश्वात्मन्सर्वसंपत्समृद्धये॥ अस्मिंल्लोकेऽथवाऽमुष्मिन्पुंसस्त्वत्तोषकारणम्॥११॥ ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाऽच्युतमंदिरे॥ भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेन आत्मानं स्वर्गतं यथा॥१२॥ श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवंदितः॥ जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नंदितः॥१३॥
मित्रके घरकी सब वस्तु आपही भोजनकर जाओगे या कुछ हमको भी रहने दोगे?॥१०॥ रुक्मिणी बोली कि, हे विश्वके आत्मा!एक मुट्ठी चावल भोजन करके तो सब विश्वकी संपत्ति इसे दे चुके और दूसरी मुट्ठी भोजन करके क्या मुझे भी दे चुकोगे? क्योंकि इस लोक और परलोकमें तुम्हारे संतुष्ट होनेसेही संपत्ति प्राप्त होतीहै॥११॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्!ब्राह्मण सुदामाने उस रात्रिको श्रीकृष्णचन्द्रके मन्दिरमें रह, भोजन कर जल पी स्वर्गकी प्राप्तिके समान सुखपाया॥१२॥ जब प्रातःकाल हुआ तो विश्वके पालन करनेवाले आत्माके आनन्दमें मग्न श्रीकृष्णचन्द्र सुदामाको प्रणामकर मार्गमें पहुँचानेको पीछे पीछे संग आये, और बोले कि, मित्र सुदामा! तुमने भला दर्शन किया, और इस प्रकार स्वाधीन
वचनोंसे आनंदहो सुदामा अपने घरको चला॥१३॥हे नृप! न तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसे धनदिया और न उसने लाजके मारे मांगा, श्रीकृष्णके दर्शनहीसे सुखपाकर अपने घरकी ओरको चला॥१४॥चलते समय चित्तमें शोचनेलगा कि अहो! ब्राह्मणोंकी भक्ति करनेवालोंके दैवत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भक्ति मैंने देखी, क्योंकि लक्ष्मीको छातीमें धारणकरनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र अतिदरिद्री मुझ सुदामाको छातीसे लगाकर मिले॥१५॥कैसा आश्चर्य है कि दरिद्री पापी ब्राह्मण मैंकहाँ? और लक्ष्मी जिनके अंगमें वासकरैंऐसे श्रीकृष्णचन्द्र कहाँ? मुझमें उनमें बड़ा अंतर है, सो भुजा पसारकर मुझसे मिले॥१६॥ अपनी प्रिय भार्याके सेवा करनेयोग्य शय्यापर जैसे अपने भ्राता बलदेवजीको बैठालेते थे, उसी प्रकार
स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान्स्वयम्॥ स्वगृहान्व्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिर्वृतः॥१४॥ अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया॥ यद्दरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो बिभ्रतोरसि॥१५॥ क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः॥ ब्रह्मबंधुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरंभितः॥१६॥ निवासितः प्रियाजुष्टे पयंके भ्रातरो यथा॥ महिष्या वीजितः श्रांतो बालव्यजनहस्तया॥१७॥ शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः॥ पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत्॥१८॥ स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि संपदाम्॥ सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्॥१९॥ अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत्॥ इति कारुणिको नूनं धनं मे भूरि नाददात्॥२०॥ इति तच्चिंतयन्नंतः प्राप्तो निजगृहांतिकम्॥ सूर्यानलेंदुसंकाशैर्विमानैः सर्वतो वृतम्॥२१॥
मुझे बैठाया और मार्गकी थकावट दूर होनेको श्रीकृष्णचन्द्रकी भार्या रुक्मिणीने चमर हाथमें लेकर मेरे पवन करी॥१७॥ बड़ी सेवा करके पांवोंका दाबना, धोना, पोंछना, इत्यादि सत्कार करके देवोंके देव ब्रह्मण्यदेव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने देवताओंके समान मेरी पूजा की॥१८॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंकी शोभा मनुष्योंको स्वर्ग मोक्ष और पाताल, पृथ्वीकी संपत्ति, तथा सर्व सिद्धियोंका कारण है, परन्तु तोभी॥१९॥ दरिद्री सुदामा धनको पाय, बहुत मतवाला होकर मुझे भूल जायगा इसकारण करुणानिधान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मुझे यत्किंचित् भी धन न दिया॥२०॥ हे महाराज! इस प्रकार सुदामा मनहीमनमें विचार करता हुआ अपने नगरमें पहुँचा तो क्या देखता है कि, सूर्य, अग्नि, चंद्रमाके समान
प्रकाशमान चारों ओर विमान शोभित हो रहे हैं॥२१॥ चित्र विचित्र बगीचे शोभायमान तिनमें पक्षियोंके झुंडके झुंड बोल रहे हैं और कुमुद अंभोज कह्लार, उत्पलसे शोभायमान सरोवर भर रहे हैं॥२२॥ शृंगार किये पुरुष और हरिणके तुल्य नेत्रवाली स्त्रियें जहाँ तहाँ फिररही हैं, ऐसी शोभा औरविमानोंका प्रकाश देख आश्चर्यमान “यह क्या है? किसका स्थान है?” फिर अपने मनमें विचार किया कि यह तो हमारेही रहनेका स्थान है, ऐसा कैसे होगया॥२३॥ इसप्रकार बड़भागी सुदामाको देवताओंके समान शोभावाले स्त्री पुरुष गाते बजाते सम्मुख लिवानेको आये॥२४॥ पतिका आगमन सुन आनन्द और घबराहटसे सुदामाकी स्त्री साक्षात् कमलवनमेंसे रूपधरेलक्ष्मीके समान शीघ्रही घरसे बाहर
विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्द्विजकुलाकुलैः॥ प्रोत्फुल्लकुमुदांभोजकह्लारोत्पलवारिभिः॥२२॥ जुष्टं स्वलंकृतैः पुंभिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः॥ किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्॥२३॥ एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः॥ प्रत्यगृह्णन्महाभाग गीतवाद्येन भूयसा॥२४॥ पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षाऽतिसंभ्रमा॥ निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात्॥२५॥ पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कंठाऽश्रुलोचना॥ मीलिताक्ष्यनमद्बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे॥२६॥ पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरंतीं देवीं वैमानिकीमिव॥ दासीनां निष्ककंठीनां मध्ये भांतीं स विस्मितः॥२७॥ प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमंदिरम्॥ मणिस्तंभशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा॥२८॥ पयःफेननिभाः शय्या दांता रुक्मपरिच्छदाः॥ पर्यंका हेमदंडानि चामरव्यजनानि च॥२९॥
निकली श्रीकृष्णचन्द्र स्वर्गको सुदामाके महलमें लायेथे इसलिये सुदामा और सुदामाकी स्त्री दोनों देवस्वरूप होगये॥२५॥ प्रेम और उत्कंठासे नेत्रोंमें आंशूभरे पतिव्रता सुदामाकी स्त्रीने पतिको आया देख नेत्र मूँद, बुद्धिसे विचार मनमें आलिंगन कर नमस्कार किया॥२६॥ जैसे विमानमें बैठी देवी प्रकाशमान होती है, उसी प्रकार धुकधुकी कण्ठमें धारण किये दासियोंके मध्यमें प्रकाशमान अपनी स्त्रीको देख सुदामाजीने बहुत आश्चर्य माना॥२७॥ और प्रसन्न हो अपनी स्त्रीके साथ अपने घरमें गये, जहाँ सहस्रों मणियोंके खंभ लग रहे थे, मानों इन्द्रभवन है॥२८॥ दूधके श्वेत झागोंके समान कोमल श्वेत बिछौने बिछरहे, हाथीदाँत व सुवर्णके पलँग जिस मन्दिरमें बिछ रहे और सुवर्णकीही डंडीके
चमर पंखे धरे हैं॥२९॥कोमल कोमल पथरनोवाले सुवर्णके सिंहासन और मोतियोंके झालरीदार प्रकाशमान चँदोवे तन रहे थे॥३०॥ और निर्मल स्फटिक मणियोंकी भीतोंमें महामरकतमणियोंकी तथा स्त्रीसहित मंदिरमें रत्नोंके दीपक प्रकाशमान होरहेथे॥३१॥इस प्रकार उस मंदिरमें संपत्तियोंकी वृद्धि देख स्थिर हो, “अकस्मात् इतनी संपत्तिकहाँसे आई” ऐसे सुदामाजी विचार करने लगे॥३२॥ सदाके दरिद्री भाग्यहीन मुझे बड़े ऐश्वर्यमान यादवोंमें उत्तम श्रीकृष्णचन्द्रकी चितवन विना निश्चय और कोई इस संपत्तिका कारण नहीं है॥३३॥जिस प्रकार समुद्रको पूर्ण करनेवाला महाउदार मेघ किसी समय अधिकतर वृष्टिको भी सूक्ष्म जानकर मानो लज्जित होता हो ऐसे समक्षमें नहीं वरसता,
आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च॥ मुक्तादामविलंबीनि वितानानि द्युमंति च॥३०॥ स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च॥ रत्नदीपान्भ्राजमानाल्लँलनारत्नसंयुतान्॥३१॥ विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसंपदाम्॥ तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकम्॥३२॥ नूनं बतैतन्मम् दुर्भगस्य शश्वद्दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः॥ महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य॥३३॥ नन्वब्रुवाणो दिशतेऽसमक्षं याचिष्णवे भूर्य्यपि भूरिभोजः॥ पर्जन्यवत्तत्स्वयमीक्षमाणो दाशार्हकाणामृषभः सखा मे॥३४॥ किंचित्करोत्युर्वपि यत्स्वदत्तं सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारि॥ मयोपनीतां पृथुकैकमुष्टिं प्रत्यग्रहीत्प्रीतियुतो महात्मा॥३५॥ तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्रीदास्यं पुनर्जन्मनिजन्मनि स्यात्॥ महानुभावेन गुणालयेन विषज्जतस्तत्पुरुषप्रसंगः॥३६॥
रात्रिको नगरके लोगोंके सोजानेपर उनके खेतोंको जलसे पूर्ण करताहै, उसी प्रकार मेरे सखा पूर्णकाम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी भक्तको देनेके लिये इन्द्रादिक पदको भी तुच्छ और उसके लिये भजनको अधिक मानकर समक्षमें न कहतेहुये सब सम्पदायें प्रदान करते हैं॥३४॥ आप बहुत दें, उसे थोड़ा मानैऔर सुहृदोंके थोड़े दियेको भी बहुत मानते हैं, क्योंकि मैं एक मुट्ठी चावलोंकी लेगया था उसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने प्रसन्न होकर लिया॥३५॥ मुझे जन्मजन्ममें उन्हींके विषयमें प्रेम हितेच्छुता मैत्री व दासपन प्राप्तहो और महानुभाव व गुणोंके धाम भगवान् वासुदेवमें आसक्त होते उनके भक्तोंका सत्संग प्राप्तहुआ करैयही उनसे विनय है॥३६॥
धनी पुरुषोंके धनके अभिमानसे नीच जन्म होते देखकर विवेकसे श्रीकृष्णचन्द्र अपने अज्ञानी भोरे भक्तोंको विचित्र संपदा और राज्यके ऐश्वर्य नहीं देते किन्तु दृढ़ भक्ति देते हैं, मुझे भक्ति नहीं थी, इससे संपदाका सुख मिला परन्तु अब भक्तिहीकी प्रार्थना करताहूं॥३७॥ इस प्रकार बुद्धिसे निश्चयकर श्रीकृष्णचन्द्रका अत्यन्त भक्त सुदामा विषयोंका धीरे धीरे त्याग करता अति आसक्त न होकर स्त्रीके साथ विषयोंका सेवन करने लगा॥३८॥ देवदेव तथा यज्ञपति इन प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रके ब्राह्मणही प्रभु और इष्ट देवता हैं, इन ब्राह्मणोंसे अधिक और कोई देवता नहीं है॥३९॥ हे राजन्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका मित्र वह ब्राह्मण सुदामा उस समय अजित भगवान्को भी भक्तोंके सम्मुख पराजित होते
भक्ताय चित्रा भगवान्हि संपदा राज्यं विभूतीर्नसमद्धयत्यजः॥ अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं पश्यन्निपातं धनिनां मदोद्भवम्॥३७॥ इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने॥ विषयाञ्जयया त्यक्ष्यन्बुभुजे नातिलंपटः॥३८॥ तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः॥ ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम्॥३९॥ एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्॥ तद्ध्यानवेगोद्ग्रथितात्मबंधनस्तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम्॥४०॥ एतद्ब्रह्मण्य देवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः॥ लब्धभावो भगवति कर्मबंधाद्विमुच्यते॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः॥ सूर्योपरागः सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा॥१॥
देखकर उनके ध्यानके वेगसे अहंकार दूरकर शीघ्रही सत्पुरुषोंके शरणरूप श्रीकृष्णचन्द्रके धामको चलागया॥४०॥ जो पुरुष ब्रह्मण्यदेव श्रीकृष्णचन्द्रकी, ब्राह्मणकी गौरवता प्रतिपादन करनेवाली यह लीला मन लगाकर सुनतेहैं, वह भगवान् वासुदेवकी भक्तिको प्राप्त होकर कर्मबंधनसे छूट जाते हैं॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सुदाम्न उपाख्याने एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥ दोहा—अंकबयासीमें भयो, कुरुक्षेत्र रविपर्व। मिले प्रेम अरु प्रीतिसे, यादव औ नृप सर्व॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसके उपरान्त द्वारकापुरीमें वास करते रामकृष्णको एक समय प्रलयकालके समान बड़ा भारी सूर्यग्रहण आया॥१॥
हे महाराज! ज्योतिषियोंसे उस ग्रहणको पहलेही जानकर मनुष्य सब ओरसे दान, पुण्य, स्नान करनेके लिये कुरुक्षेत्रको जाने लगे॥२॥ जहाँ शस्त्र धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ महात्मा परशुरामजीने पृथ्वीको इक्कीसवार निःक्षत्रियकरके राजाओंके रुधिर समूहसे कुण्ड भरदिये थे॥३॥ यद्यपि पाप रहित हैं, परन्तु तोभी समर्थ भगवान् परशुरामजी अपने पाप दूर करनेके लिये अज्ञानी पुरुषके समान सब लोकोंको शिक्षा देनेके कारण जाकर कुरुक्षेत्रमें यज्ञ किये॥४॥ बडी तीर्थयात्रामें संपूर्ण भरतखण्डकी प्रजा आई उसीप्रकार वृष्णि, अक्रूर, वसुदेव, राजा उग्रसेनादि यादव॥५॥ अपना अपना पाप दूरकरनेके लिये कुरुक्षेत्रमें आये, गद, प्रद्युम्न, सांबादि, श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र आये;
तं ज्ञात्वा मनुजा राजन्पुरस्तादेव सर्वतः॥ स्यमंतपंचकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया॥२॥ निःक्षत्रियां महीं कुर्वन् रामः शस्त्रभृतां वरः॥ नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान्॥३॥ ईजे च भगवान्रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा॥ लोकस्य ग्राहयन्नीशो यथाऽन्योऽघापनुत्तये॥४॥ महत्यां तीर्थयात्रायां तत्राऽऽगन् भारतीः प्रजाः॥ वृष्णयश्च तथाऽक्रूरवसुदेवाहुकादयः॥५॥ ययुर्भारत तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः॥ गदप्रद्युम्नसांवाद्याः सुचंद्रशुकसारणैः॥६॥ आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः॥६॥ ते रथैर्देवधिष्ण्याभैर्हयैश्च तरलप्लवैः॥ गजैर्नदद्भिरभ्राभ्रैर्नृभिर्विद्याधरद्युभिः॥७॥ व्यरोचंत महातेजाः पथि कांचनमालिनः॥ दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव॥८॥ तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः॥ ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनुर्वासस्स्रग्रुक्ममालिनीः॥९॥
परन्तु सुचन्द्र शुक सारण सहित अनिरुद्ध और कृतवर्मा यह दोनों द्वारकापुरीकी रक्षा करनेके लिये रहगये॥६॥ बड़े तेजस्वी सुवर्णकी माला और दिव्य फूलोंकी माला वस्त्र कवच धारणकिये यादव देवताओंके विमानोंके समान प्रकाशमान और जलतरंगके समान चंचल घोडे और वादलोंकीसी कान्ति ऐसे हाथियोंके ऊपर विद्याधरोंकीसी कान्तिवाले सिपाहियोंसहित यादव मार्गमें जातेहुये देवांगनासहित देवताओंके समान शोभायमान होनेलगे॥७॥८॥ बडे भाग्यवान् बहुत सावधान यादवोंने कुरुक्षेत्रमें व्रत स्नानकर वस्त्र और फूल व सुवर्णकी माला पहराय
गौ ब्राह्मणोंको दान करके दीं॥९॥इसके उपरान्त यादवोंने परशुरामजीके सरोवरोंमें युक्त स्नान कर “श्रीकृष्णचद्रमें हमारी भक्ति होवै” यह संकल्प करके ब्राह्मणोंको बहुतसा सुवर्ण दान किया॥१०॥इसके उपरान्त उन ब्राह्मणोंसे आज्ञा पाय यादव आप यथेच्छ भोजन कर शीतल छायायुक्त वृक्षोंके नीचे बैठगये॥११॥हे परीक्षित्! वहाँ मत्स्य, उशीनर, कौशल्य, विदर्भ, कुरु, सृंजय कांबोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त्त व केरल देशके वासी अपने मित्र, बांधव, व राजा और दूसरे भी अपने पक्षके और परपक्षके सैकडों मनुष्य और नंदआदि अपने प्रिय स्नेही ग्वाल
रामह्रदेषु विधिवत्पुनराप्लुत्य वृष्णयः॥ ददुः स्वर्णं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति॥१०॥ स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः॥ भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायांघ्रिपांघ्रिषु॥११॥ तत्रागतास्ते ददृशुः सुहृत्संबंधिनो नृपान्॥ मत्स्योशीनरकौसल्यविदर्भकुरुसृंजयान्॥१२॥ कांबोजकेकयान्मद्रान्कुंतीनानर्तकेरलान्॥ अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप॥ नंदादीन्सुहृदो गोपीन्गोपीश्चोत्कंठिताश्चिरम्॥१३॥ अन्योऽन्यसंदर्शनहर्षरंहसा प्रोत्फुल्लहृद्वक्रसरोरुहश्रियः॥ आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम्॥१४॥ स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृदस्मितामलापांगदृशोभिरेभिरे॥ स्तनैः स्तनान्कुंकुमपंकरूषितान्निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः॥१५॥ ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान्यविष्ठरभिवंदिताः॥ स्वागतं कुशलं पृष्टा चक्रुः कृष्णकथां मिथः॥१६॥
व बहुत दिनोंकी उत्कण्ठावाली गोपियें प्रभृति जो आये, उन सबको देखा॥१२॥१३॥ परस्पर दर्शनसे उत्पन्न हुए आनंदके वेगसे प्रफुल्लित हृदय और कमलमुखसे शोभायमान पुलकित शरीर प्रेमसे रुद्ध कण्ठ नेत्रोंसे जल बहाते परस्पर आलिंगन करते यादव और दूसरे लोग बडे आनंदमें मग्न होगये॥१४॥ अत्यन्त स्नेहभरी मुसकान निर्मल कटाक्षयुक्त दृष्टि और स्नेहके आँशु नेत्रोंमें भरे स्त्री स्त्रियोंको देख केशरलगे स्तनोंको स्तनोंसे लगाय भुजा पसार परस्पर मिलनेलगीं॥१५॥ जो छोटी अवस्थावाले बडोंको प्रणाम करचुके तब वह यादव बृद्धोंको प्रणामकर “भले आये” प्रसन्न
हो इसप्रकार कुशल पूछ आपसमें कृष्णकथाओंको पूँछनेलगे॥१६॥कुन्ती भाई बहन, भतीजे, माता, पिता और भाइयोंकी बहुओंको देख तथा मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रको देख आपसमें प्रेमकी बात चीतकर नेत्रोंसे आंशू बहानें लगीं॥१७॥कुन्ती बोली कि, हे आर्य! मैं अपनेको अपूर्ण मनोरथ मानतीहूँक्योंकि जब मुझपर विपत्ति पड़ती है, तब जो श्रेष्ठ मेरी बातको स्मरण भी नहीं करते॥१८॥ जिससे दैव रुष्ट होजाता है, उसको कोई भी संबन्धी अर्थात् जातवाले, पुत्र, भाई, माता, पिता यह स्मरण नहीं करते॥१९॥वसुदेवजी बोले कि हे बहन! दैवके खिलौने
पृथा भ्रातन्स्वसृर्वीक्ष्य तत्पुत्रान्पितरावपि॥ भ्रातृपत्नीर्मुकुंदं च जहौ संकथया शुचः॥१७॥ कुंत्युवाच॥ आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम्॥ यद् वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः॥१८॥ सुहृदो ज्ञातयः पुत्राः भ्रातरः पितरावपि॥ नानुस्मरंति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम्॥१९॥ वासुदेव उवाच॥ अंब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान्नरान्॥ ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथवा॥२०॥ कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशो दश॥ एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ वसुदेवोग्रसेनाद्यैर्यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः॥ आसन्नच्युतसंदर्श परमानंदनिर्वृताः॥२२॥ भीष्मो द्रोणोंबिकापुत्री गांधारी ससुता तथा॥ सदाराः पांडवाः कुन्ती सृंजयो विदुरः कृपः॥२३॥
ऐसे हम मनुष्योंको दोष मत लगावै, क्योंकि लोक ईश्वरके आधीन होकर कर्म करता है और ईश्वरही कर्म कराता है॥२०॥ प्रथम हम कंससे अत्यन्त दुःखित हो सब दिशाओंमें चले गयेथे, दैव इच्छासे अभी अपने स्थानपर आयेहैं॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित्! वसुदेव उग्रसेनादिक यादवोंसे पूजित हो व राजा लोग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शनकर सुखपूर्वक परमानन्दमें मग्न होगये॥२२॥ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य अंबिकाका पुत्र धृतराष्ट्र, पुत्रों सहित गान्धारी, स्त्रियों सहित पांडव, कुंती, संजय, बुद्धिमान् विदुर, कृपाचार्य॥२३॥
कुन्तिभोज राजाविराट्, भीष्मक और नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, काशीनरेश, सहित धृष्टकेतु बड़े नेत्रवाला राजा दमघोष, मिथिलादेशका राजा, मद्रदेशका राजा, कैकयदेशका राजा, युधामन्यु, सुशर्मा, और पुत्रों सहित बाह्लीकादिक हे राजाओंके इन्द्र राजा परीक्षित्!महाराज युधिष्ठिरके आज्ञाकारी राजा संपूर्ण रानियों सहित अत्यन्त शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका रूप देखकर परम आश्चर्य मानने लगे
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॥२४॥२५॥२६॥ दर्शन करनेके उपरान्त रामकृष्णसे भलीप्रकार सत्कार पाय राजालोग श्रीकृष्णचंद्रादि यादवोंकी
कुन्तीभोजो विराटश्च भीष्मको नग्रजिन्महान्॥ पुरुजिद्द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः स काशिराट्॥२४॥ दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ॥ युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः॥२५॥ राजानो ये च राजेंद्र युधिष्ठिरमनुव्रताः॥ श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः॥२६॥ अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक्प्राप्तसमर्हणाः॥ प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन्कृष्णपरिग्रहान्॥२७॥ अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह॥ यत्पश्यथासकृत्कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम्॥२८॥ यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम्॥ भूः कालभर्जित भगापि यदंघ्रिपद्मस्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान्॥२९॥
प्रशंसा करनेलगे॥२७॥ “अहो! महाराज उग्रसेन! यहाँ मनुष्योंमें जन्म तो आपहीका सफल है, क्योंकि जिनके दर्शन योगीजनोंको भी दुर्लभ हैं उन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके आप नित्य प्रति दर्शन करते हैं॥२८॥ वेद जिनकी स्तुति कीर्त्ति वर्णन करते हैं, उन
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शंका—मुनिसत्तम युधिष्टिरकी आज्ञा करनेवाले राजा श्रीकृष्णचन्द्रको स्त्रीसहित देखकर विस्मयको क्यों प्राप्तदुए?
उत्तर—सब शास्त्रोंमें श्रीकृष्णके वचनको राजा लोग मुनियोंके मुखसे सुनतेथे कि भगवान्ने कहा था कि, सब शास्त्रोंमें लिखाहै कि स्त्री सदा नरककी देनेवाली है जो कोई प्राणी मोक्षकी अभिलाषा करैवह स्त्रीकी संगति न करै, फिर स्त्रियों सहित श्रीकृष्णको देखकर राजाओंने कहा कि जिस जिस कामको श्रीकृष्ण बुरा कहते हैं उसी कामको आप करतेहैं, इसप्रकार स्त्रियोंके वश हुये श्रीकृष्णको देखकर राजा लोगोंने बडा सन्देह किया देखो! प्राणियोंको स्त्रियोंके वश होना मने करते हैं और आप स्त्रियोंके वशीभूत हो रहे हैं, इसलिये राजा लोग विस्मयको प्राप्तहुए।
श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दका धोवन गंगाजल और मुखारविन्दका वचनरूप वेद इस विश्वको अत्यन्त पवित्र करते हैं और कालसे दग्ध माहात्म्य जाननेवाली पृथ्वी भी श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलके स्पर्शसे शक्तिमती हो हमारी चारों ओरसे संपूर्ण कामना पूर्ण करती है॥२९॥ उन श्रीकृष्णचन्द्रके संग दर्शन, स्पर्शन, अनुसरण, आसन, गोष्ठी, पलँग, भोजन, विवाह और सपिंडताके संबंधसे बँधे हुए हो और आप यद्यपि नरकके मार्गरूप गृहमें वास करते हो, परन्तु तो भी तुम्हारे घरमें स्वर्ग व मोक्षकी तृष्णा निवृत्त करनेवाले विष्णु भगवान् आपही प्रगट हुए हैं, इसलिये तुम्हारा जन्म सफल है॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्!नंदरायजी कुरुक्षेत्रमें श्रीकृष्णादि यादवोंका आगमन जान गोपों
तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्पशय्यासनाशनसयौनसपिंडबंधः॥ येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदस्तत्र यदून्प्राप्तान्ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान्॥ तत्रागमद्वृतो गोपैरनः स्थार्थैर्दिदृक्षया॥३१॥ तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टास्तन्वः प्राणमिवोत्थिताः॥ परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः॥३२॥ वासुदेवः परिष्वज्य संप्रीतः प्रेमविह्वलः॥ स्मरन्कंसकृतान्क्लेशान्पुत्रन्यासं च गोकुले॥३३॥ कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च॥ नाकिंचनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकंठौ कुरूद्वह॥३४॥ तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च॥ यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः॥३५॥
सहित और गाडियोमें लदी वस्तु सहित देखनेके लिये यादवोंके पास आये॥३१॥ बहुत दिनोंसे जिनका दर्शन न हुआ ऐसे कायरचित्त यादव नंदरायजीको देख अत्यन्त प्रसन्नहो, जैसे प्राण देहमें आनेसे इन्द्रियें उठकर सम्मुख होती हैं उसी प्रकार सम्मुख जाय चिरकालसे दर्शन न पानेसे उत्कंठित हो गाढ आलिंगनकर परस्पर मिले॥३२॥ वसुदेवजी नंदरायजीसे मिल प्रसन्न हो प्रेममें विह्वल होगये और कंसके दिये कष्टको और गोकुलमें जैसे कृष्णको पहुँचा आये थे, उसका स्मरण किया॥३३॥ हे राजन्!कृष्ण बलदेव माता पिता नंद व यशोदासे मिल प्रणामकर ऐसे प्रेममें विह्वल होगये कि, आँशुओंसे कंठ रुक गये, इसलिये कुछ भी न बोलागया॥३४॥ महाभागा यशोदा और नंदजी कृष्ण बलदेवको
अपने आसनपर बैठाय भुजाओंसे आलिंगनकर नेत्रोंसे आँशु बहानेलगे॥३५॥ पीछे रोहिणी और देवकी व्रजकी रानी यशोदासे मिल व यशोदाकी करी मित्रताका स्मरण कर आँशूकंठमें भर यह कहनेलगीं॥३६॥ कि, हे व्रजकी महारानी! जिसका बदला न होसके, ऐसी तुम्हारी मित्रताको कौन भूल सकता है? और देवराज इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी संसारमें तुम्हारी मित्रताका बदला नहीं होसकता, हे यशोदे! जिन्होंने अपने माता पिताको नेत्रोंसे नहीं देखा, ऐसे कृष्ण बलदेवको तुम माता पिताके पास रख्खे, तब तुमसे प्यार बढ़ाना पोषण, पालन, लालनपाय निर्भय तुम्हारे पास वास करनेलगे, जैसे पलक नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसीप्रकार तुमने इनकी रक्षा करी, यह तुमको योग्यही है, क्योंकि, साधुओंको
रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम्॥ स्मरंत्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकंठ्यौ समूचतुः॥३६॥ का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां व्रजेश्वरि॥ अवाप्याप्यैंद्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया॥३७॥ एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः संप्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि॥ प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यहदक्ष्णोर्न्यस्तावकुत्रचभयौन सतां परः स्वः॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शंपति॥ दृग्भिर्हृदि कृतमलं परिरभ्य सर्वास्तद्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्॥३९॥ भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसंगतः॥ आश्लिष्याऽनामयं पृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥४०॥ अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया॥ गतांश्चिरायिताञ्शत्रुपक्षक्षपणचेतसः॥४१॥
यह अपना विराना इसप्रकार बुद्धि नहीं होती है॥३७॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!जिनके दर्शनमें पलकोंकी ओट पडनेसे पलकोंके रचनेवाले विधाताको गालियाँ देती हैं, क्योंकि वह अतिप्यारे श्रीकृष्णचन्द्र बहुत दिनोंमें दृष्टिगोचर हुए, इसलिये नेत्रद्वारा उन्हैंहृदयमें स्थापितकर समाधिनिष्ठ योगियोंको भी जिसकी प्राप्ति बहुत कठिन है, उन श्रीकृष्णचन्द्रके भाव (अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्रके रूपको) उन गोपियोंने प्राप्त किया॥३९॥ इसप्रकार प्रेम भरी गोपियोंके पास एकान्तमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जाय आलिंगनकर कुशल पूँछ मुसकायकर यह वचन बोले कि॥४०॥ हे सखियों! हम अपने बाँधवोंका कार्य करनेकी कामनासे गयेथे और वहाँ वैरियोंके पक्षका नाश करनेमें लगगये
जिससे बहुत दिनोंतक रुकगये सो तुमने हमारा भी कभी स्मरण किया?॥४१॥“यह कृतघ्नी है” क्या ऐसे तुमको हमपर कुछ क्रोध तो नहीं उत्पन्न होताहै? हाँहमको त्यागकर आप चलेगये, इससे यह बात सत्य है, इस प्रकार गोपियोंकी ओरसे संभावना करके कहते हैं कि, देवही तो प्राणियोंको मिलाता है और वही वियोग करा देता है॥४२॥जैसे वायु बादलोंके समूहको तृणोंको रुईको और धूरिको उड़ाकर संयोग करता है, फिर वियोग करता है, उसी प्रकार सब प्राणियोंका उत्पत्तिकर्त्ता ईश्वर सबको मिलता है, और फिर अलग अलग कर देता है, इसमें मुझे क्या दोष है?॥४३॥प्राणियोंकी मुझमें भक्तिही जन्म और मृत्युसे छुडाती है, तुम्हारा मुझमें स्नेह हुआ है, इसलिये मुझे प्राप्त होउगी, यही बड़ा मंगल है॥४४॥कैसे तुम हो जिन्हैंस्नेह करके हम पावेंगी ऐसी इच्छा सब गोपियोंकी हुई तो अपना रूप कहते हैं कि, हे गोपियो! जैसी
अप्यवध्या यथाऽस्मान्स्विदकृतज्ञा विशंकया॥नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च॥४२॥वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च॥ संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत्॥४३॥मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः॥४४॥अहं हि सर्वभूतानामादिरंतोंतरं बहिः॥भौतिकानां यथा खं वा भूर्वायुर्ज्योतिरंगनाः॥४५॥एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्मात्मना ततः॥उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे॥४६॥
पंचभूतोंके बने घटादिकके पृथ्वी जल, तेज, वायु, आकाश यह आदिमें भी हैं, अंतमें भी हैं, इसी प्रकार जरायुज मनुष्य तथा पशु आदि और अण्डोंसे जन्म पानेवाले पक्षी इत्यादिक और पसीनेसे जन्मवाले खटमल जुएँ इत्यादिक और उद्भिज्जअर्थात् ब्रह्मादिक चारप्रकारके आदिमें भी मैं हूँ, और अंतमें भी मैं हूं, भीतर बाहर होनेके कारण व्यापक हूं ऐसे मुझे तुम प्राप्त हुई हो॥४५॥ यहाँएक शंका है कि, चारप्रकारके प्राणियोंका भोक्ता आत्मा आदि अंतमें है और व्यापक आत्मामें सब प्राणी वास करते हैं, फिर तुम्हारी प्राप्ति हमैंकैसे हुई? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, मृत्तिका घटादिकोंके आदिमें भी है और अंतमें भी हैऐसे चार प्रकारके प्राणी अपने कारणसे भूतोंमें वर्त्तमान रहते हैं भोक्ता आत्मामें नहीं रहता है आत्मा देहमें भोक्ता रूपसे व्यापक है, पंचभूतरूप देहरूप भोग करनेयोग्य पदार्थ और भोग करनेवाले आत्मा परिपूर्णरूप मुझमें
प्रकाशित देखो॥४६॥इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने अपने स्वरूपका उपदेश कर गोपियोंको समझाया, तब श्रीकृष्णचन्द्रके स्मरणसे उनके लिंगदेह छूटगये; तब उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्राप्ति की॥४७॥ गोपी बोली कि, हे कमलनाभ श्रीकृष्ण! बड़े ज्ञानी योगीश्वरोंके ध्यान करने योग्य और संसाररूपी कुएँमें गिरे प्राणियोंके निकलनेका आश्रय तुम्हारे चरणकमल घरमें रहने पर भी सदा हमारे मनमें स्मरण बनारहै, यही वर माँगती हैं॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषा
श्रीशुक उवाच॥ अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः॥ तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन्॥४७॥ आहुश्च ते नलिननाभ पदारविंदं योगेश्वरैर्हृदि विचिंत्यमगाधबोधैः॥ संसारकूपपतितोत्तरणावलंबं गेहंजुषामपि मनस्युदियात्सदा नः॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे वृष्णिगोपसंगमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥ श्रीशुक उवाच॥ तथानुगृह्य भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः॥ युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम्॥१॥ त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः॥ प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः॥२॥
टीकायां वृष्णिगोपसंगमोनाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥ दोहा—कह्यो नारियोंकी कथा, सकल तिरासी अंक। पाणिग्रह जैसे कियो, श्रीव्रजचन्दनिशंक॥८३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशीय राजा परीक्षित्!गोपियोंके गुरु और शरणदायक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने गोपियोंपर अनुग्रह करके पीछे राजा युधिष्ठिरसे और सब सुहृदोंसे कुशल पूंछी
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॥१॥ इस प्रकार लोकोंके नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कुशल पूँछने और
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शंका—वेद, शास्त्र, पुराणोंका यह प्रमाण है कि, तीन लोकमें जो चराचर जीव हैं उन सब जीवोंके भगवान् गुरु हैं और गति भी हैं, फिर व्यासजीने सब जीवोंको त्यागके भगवान्को गोपियोंका गुरु तथा गति क्यों कहा? यह बडा मारी सन्देह है?
उत्तर—“गोपीनां स गुरुर्गतिः” इस श्लोकका अर्थ व्यासजी व्रजकी गोपी जो श्रीकृष्णकीं प्यारी थीउन गोपियोंको गोपी नहीं कहे थे उस श्लोकका अर्थ तो व्यासजीने ऐसे किया है कि, गो शब्दको संसार भी कहते हैं, शास्त्रोंमें ऐसा कहा हैं गो कहिये चराचर संसार उसका जो पालन करैउसका नाम गोप है गो भगवान् है तथा गोपी भगवान्की माया है सोई मायारूप लक्ष्मीहै ऐसा अर्थ गोपीका श्री व्यास भगवान्ने किया है मायाके और जगदीश्वर जो जगत्के पति भगवान् हैं सो श्रीकृष्ण होकर पृथ्वीमें विराजमान रहते थे इसलिये मायाके पति और गुरु भी भगवान् हैं क्योंकि मायारूप संसार है इसलिये श्रीकृष्णको गोपीपति और गुरु, व्यासजीने कहाथा, व्रजवासियोंको—पति गुरु अकेला नहीं कहाथा॥
सत्कार करनेसे भगवान्के चरणकमलके दर्शनसे पापरहित हो वह सब लोग प्रसन्न होकर कहनेलगे॥२॥कि हे प्रभो! तुम्हारे चरणारविन्दका रस जो कि, अभी महात्मालोगोंके मनद्वारा प्रगट हुआ है और जो देहधारण करनेवालोंके देहमें अभिमान उत्पन्न करनेवाली अविद्याको काटता है, उसे जो कर्णरूप दोनाओंसे पान करते हैं, उन पुरुषोंके अमंगल कहाँ?॥३॥स्वरूपके प्रकाशसे बुद्धिकृत जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति अवस्था दूर होनेके कारणसे संपूर्ण आनंदके समूहरूप आवरण रहित, अकुण्ठचैतन्य शक्तिमान् कालसे नष्ट हुए वेदकी रक्षा करनेके लिये योगमायाको अंगीकार कर मनुष्यदेह धारण करनेवाले और परमहंसकी प्राप्तिके योग्य तुमको हम वारंवार नमस्कार करते हैं॥४॥योगीवर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे
कुतोऽशिवं त्वच्चरणांबुजासवं महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित्॥ पिबंति ये कर्णपुटैरलं प्रभो देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम्॥३॥ हित्वाऽत्मधामविधुतात्मकृतत्र्यवस्थमानंदसंप्लवमखंडमकुंठबोधम्॥ कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोगमायाकृतिं परमहंसगतिं नताः स्मः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युत्तमश्लोकशिखामणिं जनेष्वभिष्टुवत्स्वंधककौरवस्त्रियः॥ समेत्य गोविंदकथा मिथो गृणंस्त्रिलोकगीताः शृणु वर्णयामि ते॥५॥ द्रौपद्युवाच॥ हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जांबवति कौसले॥ हे सत्यभामे कालिंदि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे॥६॥ हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान्स्वयम्॥ उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया॥७॥ रुक्मिण्युवाच॥ चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु राजस्वजेयभटशेखरितांघ्रिरेणुः॥ निन्ये मृगेंद्र इव भागमजावियूथात्तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय॥८॥
नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इस प्रकार निर्मलकीर्त्ति पुरुषोंके मुकुटमणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लोग प्रशंसा कर रहेथे कि, इतनेमें अंधक और कौरवोंकी स्त्रियें एकत्र हो परस्पर भगवान् संबंधी जो बातैंकरती थीं वही कथा जो त्रिलोकीमें गाई हैं, तुम्हारे आगे वर्णन करते हैं, तुम सावधान होकर सुनो॥५॥ द्रौपदी बोली कि, हे रुक्मिणि हे भद्रे! हे जाम्बवति! हे सत्यभामा!हे सत्या! हे कालिंदी! हे मित्रविंदा! हे रोहिणी!हे लक्ष्मणा!और हे सोलह सहस्र श्रीकृष्णकी रानियो!स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी मायासे मनुष्यलीला कर जैसे तुम्हारे साथ विवाह किया सो सब बातैंहमारे सम्मुख कहो॥६॥७॥ रुक्मिणी बोली कि, जरासन्धादिक राजाओंके संग जब धनुष उठाय शिशुपाल मुझे व्याहनेके लिये आया तब
अजीत योद्धाओंके मस्तकपर चरणधर जैसे भेंड़ बकरियोंके समूहमेंसे सिंह अपने बलिको बेखटके ले आता है, उसी प्रकार मुझे ले आये, उन्हीं श्रीकृष्णचन्द्र लक्ष्मीनिवासके चरणोंकी मैंपूजा करती हूं॥८॥इसके उपरान्त सत्यभामा अपने विवाहकी बात कहने लगी कि, भ्रातृवधके परितापसे दुःखितहृदय मेरे पिता सत्राजितने मिथ्या कलंक लगाया, उसको मिटानेके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ऋच्छराज जाम्बवान्को जीत मणि लाकर मेरे पिताको दी तब मिथ्या कलंक लगानेसे मेरे पिताने भयभीत हो अक्रूरादिकको देना स्वीकार करके भी मुझे श्रीकृष्ण चन्द्रकोही दिया॥९॥ जाम्बवतीने कहा कि मेरे पिताने इन वासुदेवको “यह अपने इष्टदेव भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं” ऐसे न जानकर इनसे सत्ताईस दिनतक संग्राम किया इसके उपरान्त “यह अपने स्वामी साक्षात् श्रीरामचन्द्रजी हैं” इस प्रकार बुद्धिसे निश्चय होनेपर मेरे पिताने
सत्यभामोवाच॥यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन लिप्ताभिशापमपमार्गमुपाजहार॥जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात् स तेन भीतः पिताऽदिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम्॥९॥जांबवत्युवाच॥प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदेवं सीतापतिं त्रिणवहान्यमुनाऽभ्ययुध्यत्॥ ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां पादौ प्रगृह्य मणिनाऽहममुष्य दासी॥१०॥कालिंद्युवाच॥तपश्चरंतीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाऽऽशया॥सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योहं तद्गृहमार्जनी॥११॥मित्रविंदोवाच॥यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्निन्ये श्वयूथगमिवात्मबलिं द्विपारिः॥भ्रातंश्च मेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकस्तस्यास्तु मेऽनुभवमंघ्र्यवनेजनत्वम्॥१२॥
चरणोमें गिरकर भेंटकी नाई मणिसहित मुझे भी अर्पण कर दिया यह सुनकर द्रौपदीने कहा कि तुम बड़ी श्रेष्ठ हो, इसके उत्तरमें जाम्बवती बोली कि, मैं तो इनकी दासी हूं॥१०॥ कालिंदी बोली कि, मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणस्पर्शकी आशासे तप कर रही थी कि, भगवान्ने अर्जुन सहित आनकर मेरा हाथ पकड़ लिया उन श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं बुहारी देनेवाली हूं॥११॥ मित्रविन्दा बोली कि, लक्ष्मीके वक्षनिवास भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्वयंवरमें जा, राजाओंको जीत और उनका तिरस्कार कर मेरे भाइयोंको भी जीत हाथियोंका शत्रु सिंह जैसे कुत्तोंके बीचमेंसे अपने भक्ष्यको ले आता है उसी प्रकार मुझे अपने पुरमें लेआये, उन श्रीकृष्णचन्द्रके चरण धोनेकी सेवा मुझे जम््म
जन्ममें प्राप्त हो, यही मेरी प्रार्थना है॥१२॥सत्या बोली कि, बड़े बलवान् पराक्रमी बड़े पैने सींगवाले और शूरवीरोंके घमण्डको चूर्ण करनेवाले राजाओंकी परीक्षा लेनेके कारण मेरे पिताके पाले हुये सात बैलोंको पकड जैसे बालक काष्ठकी बकरियोंके बच्चोंको बाँधता है, उसी प्रकार भगवान्ने बाँधलिये॥१३॥पराक्रमही है मोल जिसका ऐसी मुझे दाथी, घोडे, प्यादों सहित व दासियों सहित मार्गमें क्षत्रियोंको जीत श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार लाये उनकी मैं सदा दासी रहूं, यही प्रार्थना है॥१४॥ भद्रा बोली कि, हे द्रौपदी! मेरा मन श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्त जान मेरे पिताने मेरे मामाके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रको बुलाय मुझे अक्षौहिणी सेना सहित इन्हैंदेदिया॥१५॥अनेक कर्मोंसे भटकनेवाली मुझे जम््म सत्योवाच॥सप्तोक्षणौऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णशृंगान्पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय॥तान्वीरदुर्मदहनस्तरसानिगृह्य क्रीडन्बबंध ह यथा शिशवोऽजतोकान्॥१३॥य इत्थं वीर्यशुल्कां मां दासीभिश्चतुरंगिणीम्॥पथि निर्जित्य राजन्यान्निन्ये तद्दास्यमस्तु मे॥१४॥भद्रोवाच॥ पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्॥कृष्णे कृष्णाय तच्चितामक्षौहिण्या सखीजनैः॥१५॥अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनिजन्मनि॥ कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः॥१६॥लक्ष्मणोवाच॥ममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्म श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह॥चित्तं मुकुंदे किल पद्महस्तया वृतः सुसंसृश्य विहाय लोकपान्॥१७॥ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः॥बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत्॥१८॥
जन्ममें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका दर्शन प्राप्त हो, जिन चरणारविन्दके स्पर्शसे मोक्षनाम कल्याण मुझे प्राप्त हो, यही मेरी प्रार्थना है॥१६॥ लक्ष्मणा बोली कि, हे रानी द्रौपदी! बारम्बार देवर्षि नारदजीके गाये हुये भगवान् वासुदेवके जन्म, कर्म, श्रवण कर, आश्चर्य है कि, लक्ष्मीजीने भी लोकपालोंको त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रकोही वरण किया है, इस प्रकार विचारकर मेरा मन भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लगगया॥१७॥ हे सुशीले द्रौपदी! पुत्रीपै हित करनेवाले बृहत्सेन नाम विख्यात मेरे पिताने मेरे मनकी बात जान श्रीकृष्णचन्द्रके आनेके लिये
उपाय किया॥१८॥ हे रानी द्रौपदी! जैसे तेरे स्वयम्वरमें अर्जुनके आनेके लिये मत्स्य रचा गया था, उसी प्रकार मेरे पितानेभी मत्स्य रचा यह सुन द्रौपदी बोली कि, फिर अर्जुनने उस मत्स्यको क्यों नहीं वेधा? इसके उत्तरमें लक्ष्मणाने कहा कि, तेरे स्वयम्वरकी मछली बाहर ढ़की थी, भीतरसे नहीं ढ़कीथी इसलिये खंभमें लगाकर ऊपरको दृष्टि करके देखनेसे दिखाई देती थी और मेरे स्वयम्वरकी मछली ऐसी नहीं थी, किन्तु खंभकी जडमें धरे कलशके जलमें केवल परछांई दिखाई देती थी, देखना तो नीचे जलमें और वेधना ऊपर, ऐसी मछलीको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके विना और कौन वेध सक्ता है?॥१९॥ स्वयम्वर रचा है, यह बात सुनकर संपूर्ण अस्त्र शस्त्रोंके जाननेवाले उपाध्याय अर्थात् सिखाने
यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः॥ अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम्॥१९॥ श्रुत्वैत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम्॥ सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः॥२०॥ पित्रा संपूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः॥ आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः॥२१॥ आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः॥ आकोष्ठं ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुना हताः॥२२॥ सज्यं कृत्वाऽपरे वीरा मागधांबष्ठचेदिपाः॥ भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविंदंस्तदवस्थितिम्॥२३॥ मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्॥ पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम्॥२४॥
वालोंको संग ले सहस्रों राजा मेरे पिताके पुरमें आनकर उपस्थित हुये, उस समय जैसा जिसका पराक्रम और जैसी जिसकी अवस्था थी, उसी प्रकार उसका पूजन मेरे पिताने किया, इसके पीछे कोई भी राजा मुझमेमन लगनेके कारण हाथमें धनुष उठाय मत्स्यके वेधनेको सभामें समर्थ न हुआ॥२०॥२१॥ बहुत राजाओंने तो धनुष हाथमें ले पटक दिया, बहुतसे प्रत्यंचाको खौंच धनुषके चपेटसेही गिरपड़े॥२२॥ और जो शूरवीर जरासंध, अंबष्ठ, चंदेलीका राजा भीम, दुर्योधन, कर्ण यह लोगभी अपने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाय “मछली कैसे लगी है”?यह भी जाननेको समर्थ न हुए॥२३॥इसके उपरान्त जलमें मछलीकी परछाइदेख ‘ऐसे मछली लगी है’ सो जान उपाय करनेवाले अर्जुनने
बाण चलाया वह बाण मछलीसे स्पर्श तो होगया परन्तु मछली कटी नहीं॥२४॥ जब समस्त क्षत्रिय हारकर बैठ रहे, तब अभिमानियोंका अभिमान दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने धनुष हाथमें ले लीलापूर्वकही प्रत्यंचा चढाय धनुषमें बाण लगाय और एकही बार मछलीको जलमें देख मध्याह्न समय अभिजित् नक्षत्रमें अर्थात् सब कार्य सिद्ध करनेवाले मुहूर्त्तमें मछलीको बाणसे काटकर पटकदिया॥२५॥२६॥ उस समय स्वर्गमें देवताओंके नगारे बजनेलगे पृथ्वीमें “जयहो जयहो"इसप्रकार शब्द होने लगा और देवतालोग आनन्दमें मग्न हो आकाशसे फूलों की वर्षा करनेलगे॥२७॥ हे द्रौपदी!इसके उपरान्त लाजभरी हँसनयुक्त मुख और चोटीमें पुष्पमाला गुहे नवीन रेशमी सुन्दर धोती, चद्दर पहर
राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु॥ भगवान् धनुरादाय सज्यं कृत्वाऽथ लीलया॥२५॥ तस्मिन्संधाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले॥ छित्त्वेषुणाऽपातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते॥२६॥ दिवि दुंदुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि॥ देवाश्च कुसुमासारान्मुमुचुर्हर्षविह्वलाः॥२७॥ तद्रंगमाविशमहं कलनूपुराभ्यां पद्भ्यांप्रगृह्य कनकोज्ज्वल रत्नमालाम्॥ नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाग्र्ये सव्रीडहासवदना कबरीधृतस्रक्॥२८॥ उन्नीय वक्रमुरुकुंतल कुंडलत्विड्गंडस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः॥ राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारेरंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम॥२९॥ तावन्मृदंगपटहाः शंखभेर्यानकादयः॥ निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः॥३०॥ एवं ते भगवतिमयेशे नृपयूथपाः॥ न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः॥३१॥
सुवर्णकी जडी रत्नोंकी माला हाथमें ले और मनोहर नूपुरवाले चरणोंसे मैं रंगभूमिमें आई॥२८॥ और श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्तहृदय मैंबड़े केश और कुण्डलोंसे शोभायमान कपोलवाले मुखको उठाय, संतापको दूर करनेवाले हास्य कटाक्षपूर्वक चितवनसे चारों ओरके राजाओंको देख धीरे धीरे जाकर मुरारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके हृदयमें माला डाली॥२९॥ उस समय मृदंग, ढोल, शंख, भेरी, नगारे, आदि बाजे बजने लगे, नट और नृत्यकारी नाचनेलगे और गवैये गानेलगे॥३०॥ हे यज्ञसेनकी पुत्री द्रौपदी!इसप्रकार मैंने जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपने वशमें किया, तब ईर्षा और कामसे आतुर राजाओंके यूथोंने यह बात नहीं सहन की॥३१॥
इसके उपरान्त अत्यन्त शोभायमान चार घोडे जुते रथमें उस समय मुझे बैठाय शार्ङ्गधनुषको ले कवच पहर चारभुजायुक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रखडे हो गये॥३२॥हे रानी द्रौपदी!तब रथवान्ने सुनहरी साजका रथ हाँकदिया और जैसे मृगोंके देखते सिंह चलाजाता है, उसी प्रकार राजाओंके बीचमेंसे उनके देखतेही चलेगये॥३३॥ उनको जाता देखकर बडे बडे क्षत्रिय राजा इनके पकडनेके लिये पीछे दौडे और कोई राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके रोकनेको आगेजाय धनुषको ऊंचा उठाय, जैसे सिंहके रोकनेको कुत्ता खडा होताहै, उसी प्रकार मार्गमें सावधान होकर खडे होगये॥३४॥ शार्ङ्गधनुषसे छूटेहुए बाणोंके समूहोंसे भुजा, पाँव, नार कटनेसे अनेक क्षत्रिय युद्धमें गिरगये और बहुतसे संग्रामको छोडकर भागगये॥३५॥ इसके उप
मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम्॥ शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः॥३२॥ दारुकश्चोदयामास कांचनोपस्करं रथम्॥ मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव॥३३॥ तेन्वसज्जंत राजन्या निषेद्धुं पथि केचन॥ संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम्॥३४॥ ते शार्ङ्गच्युतबाणौघैः कृत्तवाह्वंघ्रिकंधराः॥ निपेतुः प्रधने केचिदेकेसंत्यज्य दुद्रुवुः॥३५॥ ततः पुरीं यदुपतिरत्यलंकृतां रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्॥ कुशस्थलीं दिवि भुवि चापि संस्तुतां समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम्॥३६॥ पिता मे पूजयामास सुहृत्संबंधिबांधवान्॥ महार्हवासोलंकारैः शय्यासनपरिच्छदैः॥३७॥ दासीभिः सर्वसंपद्भिर्भटेभरथवाजिभिः॥ आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः॥३८॥ आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः॥ सर्वसंगनिवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम॥३९॥
रान्त यादवोंके पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त शोभायमान सूर्यकी आवरण करनेवाली ध्वजाके वस्त्रोंसे शोभित, और चित्र विचित्र बन्दनवार माला बँधी स्वर्ग और पृथ्वीमें जिसकी स्तुति हो ऐसी द्वारकापुरीमें अस्ताचलमें सूर्यके समान प्रोश किया॥३६॥ उसके उपरान्त मेरे पिताने सुहृदयतासे गोत्री और बंधुओंको बडे मोलके वस्त्र, गहने, शय्या, आसन और साजसे पूजन किया॥३७॥ संपूर्ण संपत्तिमान् दासी और प्यादे, रथ, हाथी, घोडे और बहुत मोलके शस्त्रों सहित मुझे मेरे पिताने परिपूर्ण श्रीकृष्णचन्द्रको दिया॥३८॥ यह आठों हम आत्मामें रमण करनेवाले
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सब संग त्याग अपने धर्मसे साक्षात् घरकी दासीहुई हैं॥३९॥ इसके उपरान्त सोलह हजार एकसौ रानियाँ कहनेलगीं कि, भौमासुरने दिग्विजयमें जिन हम राजकन्याओंको जीतकर रोक रक्खा था, उन्हैंसंसारसे छुडानेवाले अपने चरणारविन्दका स्मरण करते जान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्वयं पूर्णकाम रहतेभी संग्राममें भौमासुर और उसके कुटुम्बको मार हमारे साथ विवाह किया॥४०॥हे द्रौपदी! हम चक्रवर्ती राज्य और इन्द्रपदके भोगका भोगना नहीं चाहती और अणिमादिक सिद्धि ब्रह्मलोक, मोक्ष तथा वैकुण्ठधामकी भी चाहना नहीं करती परन्तु गदाके धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके लक्ष्मीके कुचोंकी केशर लगे सुन्दरचरणारविन्दोंकी रज अपने माथेके ऊपर चढानेकी चाहना करती हैं
महिष्य ऊचुः॥ भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा ज्ञात्वाऽथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः॥ निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरंतीः पादांबुजं परिणिनाय य आप्तकामः॥४०॥ न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भोज्यमप्युत॥ वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनंत्यं वा हरेः पदम्॥४१॥ कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजःश्रियः॥ कुचकुंकुमगंधाढ्यंमूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः॥४२॥ व्रजस्त्रियो यद्वांछंति पुलिंद्यस्तृणवीरुधः॥ गावश्चारयतो गोपाः पादस्पर्शं महात्मनः॥४३॥ इति श्रीमद्भाग०महा० दशमस्कंधोत्तरार्धे त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥ श्रीशुक उवाच॥ श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः॥ कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबंधं सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः॥१॥ इति संभाष्यमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु॥ आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया॥२॥
॥४१॥४२॥ महात्मा होतेभी गाय चराते हुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणरजको जैसे गोप, गोपियें, भीलनियें, तृण और लतायें चाहना करती हैं उसी प्रकार हम भी उनकी चाहना करती हैं॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां स्वयंवरादिवर्णनो नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥ दोहा—भयो समागम मुनिनसों, चौरासी अध्याय। संस्कार वसुदेवको, कियो सबनि सुखपाय॥८४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!कुन्ती, द्रौपदी, गांधारी, सुभद्रा, राजाओंकी स्त्रियें और भक्त गोपियोंने सबके महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रमें रानियोंका इसप्रकार प्रेम सुन नेत्रोंमें आँसूभर बडा आश्चर्य माना॥१॥ उस कुरुक्षेत्रमें इसप्रकार स्त्रियोंके संग स्त्री, पुरुषोंके संग पुरुष, बात चीत
करही रहे थे कि, इतनेहीमें श्रीकृष्ण बलदेवका दर्शन करनेको मुनि लोग आये॥२॥ उनके नाम यह हैं, यथा—वेदव्यास, नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानंद, भारद्वाज और गौतम॥३॥ शिष्यों सहित भगवान् परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति॥४॥ द्वित, त्रित, एकत, उसीप्रकार ब्रह्माके पुत्र अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य, तथा वामदेवादि और मुनि भी संपूर्ण आये॥५॥ विश्वपूजित ऐसे मुनियोंको आये देख राजा आदि जो प्रथम बैठे थे और पांडव अर्थात् राजा युधिष्ठिरादि तथा कृष्ण बलदेवने शीघ्र उठकर प्रणाम किया॥६॥ इसके उपरान्त इन मुनियोंका यथायोग्य सब जनोंने पूजन किया और बलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृ
द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः॥ विश्वामित्रः शतानंदो भारद्वाजोऽथ गौतमः॥३॥ रामः सशिष्यो भगवान्वसिष्ठो गालवो भृगुः॥ पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च मार्कंडेयो बृहस्पतिः॥४॥ द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रस्तथांगिराः॥ अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे॥५॥ तान्दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः॥ पांडवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववंदितान्॥६॥ तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोर्चयत्॥ स्वागतासनपाद्यार्घ्यमाल्यधूपानुलेपनैः॥७॥ उवाच सुखमासीनान्भगवान्धर्मगुप्ततुः॥ सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुशृण्वतः॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम्॥ देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम्॥९॥ किं स्वल्पतपसां नॄणामर्चायां देवचक्षुषाम्॥ दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्वपादार्चनादिकम्॥१०॥
ष्णचन्द्र ‘भले आये’ इस प्रकार मुनियोंसे कह आसन दे अर्घ्य, पुष्प, धूप, दीप और चन्दन इत्यादिसे पूजा करनेलगे॥७॥ चुपचाप हो संपूर्ण जिसमें बैठे ऐसी सभामें धर्मकी रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुखपूर्वक बैठे ब्राह्मणोंसे कहनेलगे॥८॥ श्रीभगवान् बोले कि, अहो! बडा आश्चर्य है, आज हम सफल जन्म हुए और सब जन्मका साफल्य हमको प्राप्त हुआ, क्योंकि जिनका दर्शन देवताओंको भी दुर्लभ है उन योगीश्वरोंका दर्शन हुआ॥९॥ केवल तीर्थस्नानादिकोंको तप जानै, प्रतिमाहीको देवतास्वरूप मानै, आपसरीखे मनुष्योंका दर्शन, स्पर्शन व वार्त्तालाप प्रश्न, नमस्कार व चरणपूजा आदिकी प्राप्ति, कहाँ होसकती है? अर्थात् नहीं होसकती॥१०॥
जलमय तीर्थ नहीं हैं, सो नहीं हैं, मृत्तिका शिलाओंके देवता नहीं हैं, सो नहीं हैं, क्योंकि जब बहुत दिनोंतक देवताओंकी पूजा करें; तब वह पवित्र करते हैं और साधु महात्मा लोग तो केवल दर्शनहीसे पवित्र कर देतेहैं॥११॥अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, पृथ्वी, जल, आकाश, पवन, वाणी, मन यदि इनकी भली भाँतिसे उपासना कीजाय तो भेदबुद्धिके कर्त्ताहोनेसे पुरुषके अज्ञानको दूर कर सकते हैं और विवेकी पुरुष तो केवल दो
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः॥ते पुनंत्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥११॥नाग्निर्न सूर्यो न च चंद्रतारका न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः॥उपासिता भेदकृतो हरंत्यघंविपश्चितो घ्नंति मुहूर्त्तसेवया॥१२॥यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः॥ यत्तीथबुद्धिः सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गौखरः॥१३॥श्रीशुक उवाच॥निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुंठमेधसः॥वचो दुरन्वयं विप्रास्तूष्णीमासन्भ्रमद्धियः॥१४॥
घड़ी सेवा करतेही अज्ञानको दूर कर देतेहैं॥१२॥ जो पुरुष वात, पित्त, कफमय देहकोही आत्मारूप समझते हैं और स्त्री पुत्रादिकोंकोही अपना मानते हैं वा मूर्त्तिकोही पूज्य समझते हैं और जलहीको तीर्थ जानते हैं, और विवकी पुरुषोको आत्मारूप अपने व पूज्य तीर्थ इत्यादि नहीं समझते वह गायका चारा ढोनेवाले बैल और गधेके समान हैं
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॥१३॥ “यहाँ साधुओंकी महिमा दिखानेका तात्पर्य है मूर्त्ति तथा तीर्थक
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शंका—श्रीकृष्णचन्द्रने ब्राह्मणोंसे कुरुक्षेत्रमें कहा कि, भौम जो प्रतिमा देवताओंकी होती है, उस प्रतिमामें जो प्राणी देवता मानते है कि, यह प्रतिमामें भगवान् बसे हैं यह प्राणी नहीं है, ऐसा मानने वाले प्राणी बैल वा गधाही है, तथा जलमें तीर्थ मानते हैं कि, मैंने इस तीर्थमें स्नान किया मेरी मुक्ति होगी नहीं कभी मोक्ष न होगी वह बैल और गधाही होगा, मुझको यह बडा आश्चर्य है कि, भगवान्ने वेद और शास्त्रके विरुद्ध वचन क्यों कहे? प्रतिमाकी तथा गंगादिक तीर्थोकी निंदा क्यों की? यह बडा भारी सन्देह है?
उत्तर—वेदमें और शास्त्रमें दो मार्ग हैं, एक कर्ममार्ग, दूसरा मोक्षमार्ग, संसारीजीव दोनों मार्गोंका सेवन करते हैं, जो जीव कर्ममार्गका सेवन करता है जैसे गृहस्थादिक प्राणी प्रतिमामें देवताको मानते हैं, तब सेवन करते हैं वह पुरुष प्रतिमामें देवताको जानते है, तथा प्रतिमाका पूजन करेंगे वा जलमें स्नान कियेसे मोक्ष होना मानैंगे तब निश्चयसे कर्म करनेवाले मनुष्यको गिनतीसे हीन सुख होगा और जो प्राणी प्रतिमाको देवस्वरूप और जलको मोक्षरूप मानैंगे तब वह प्राणी बैल गधा हैं, श्रीकृष्णने कर्ममार्ग सेवन करनेवाले जीवके लिये यह वचन नहीं कहा, जो जीव संसारके कर्म त्यागकर ईश्वरका भजन करता उसके लिये यह वचन कहा है, श्रीकृष्णके वचनमें भ्रम नहीं है।
निषेध नहीं है और विशेष करके यह दिखाया है कि तीर्थको जानेमें बहुतेरा द्रव्य उठावे पूजामें घंटों बैठे, परन्तु महात्मा और हरिभक्तोंको देखतेही दुर्वाक्य कहे उन्हैंअन्न तो क्या जल भी न दे, ऐसे भेद बुद्धिवालोंके लिये यह वाक्य है ज्ञानी पुरुष तो सबमेंही उसका प्रकाश देखते हैं,” श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इसप्रकार अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धिवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह वचन सुनकर चकित बुद्धि हो वह सब ब्राह्मण चुप होगये॥१४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका कर्मोंमें अधिकार बहुत देरतक विचार करके समझा कि, लोकोंको शिक्षा देनेके कारण हमारी स्तुति करते हैं, इस प्रकार मुनीश्वर लोग बुद्धिसे निश्चयकर कुछेक मुसकाय जगद्गुरु श्रीकृष्णचन्द्रसे बोले॥१५॥ कि तत्त्वके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ हम और विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिक जिनकी मायासे मोहित हुए हैं, क्योंकि जिस मायासे आप मनुष्यलीला करनेको
चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम्॥ जनसंग्रह इत्यूचुः स्मयंतस्तं जगद्गुरुम्॥१५॥ यन्मायया तत्त्व विदुत्तमा वयं विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः॥ यदीशितव्यायति गूढ ईहया अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितम्॥१६॥ अनीह एतद्बहुधैक आत्मना सृजत्यवत्यत्ति न बुध्यते यथा॥ भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी अहो विभूम्नश्चरितं विडंबनम्॥१७॥ अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च॥ स्वलीलया वेदपथं सनातनं वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान्॥१८॥ ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपः स्वाध्यायसंयमैः॥ यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तमव्यक्तं च ततः परम्॥१९॥
गूढ़ रहकर मुनीश्वरके समान चेष्टा करते हो इसलिये आपकी लीला बड़ी विचित्र है॥१६॥ चेष्टारहित और एक होकर भी तुम अपने आत्मासे इस विश्वको बहुत प्रकार पालन उत्पत्ति और रक्षा करते हो जैसे पृथ्वी घटादि विकारोंसे बहुत नामकी होती है, यदि तुम कहो कि, मैं कैसे उत्पत्ति पालन व संहार करता हूं मैं तो वसुदेवका पुत्र हूं? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, परिपूर्ण रूप तुमने वसुदेवके घर जन्म लिया है, यह विचित्र लीलामात्र है सत्य नहीं है॥१७॥ समयपर अपने भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये और दुष्टोंको दंड देनेके लिये आप शुद्ध सतोगुण रूपको धारण करते हो और अपनी लीलासे सनातन वेदमार्गको प्रवृत्त करते हो यद्यपि तुम किसीके पुत्र नहीं हो, परन्तु तो भी चारवर्ण और चार आश्रमके आत्मा परमपुरुष तुम हो, इसलिये ब्राह्मणोंका बहुत सत्कार करतेहो॥१८॥ शुद्ध वेद तुम्हारा भीतरका रूप है; क्योंकि तप करना, वेद पढना, इन्द्रियोंको
रोकना इन कार्य और कारण दोनोंसे परे ब्रह्मकी प्राप्ति होती है॥१९॥हे ब्रह्मन्! वेदके कारण आत्मा तुम हो और अपने बतानेवाले ब्रह्मकुलका पूजन करते हो और इसीलिये ब्राह्मणोंकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ हो॥२०॥इसकारण ईश्वर होकर जो तुम हमारा सत्कार करते हो, सो पुरुषोंकी शिक्षा करनेके लिये है और हम तुम्हारे संगसे कृतार्थ हुए, साधुओंकी गति आपका संग हुआ, इसलिये हमारा जन्म, विद्या, तप, दृष्टि, यह संपूर्ण सफल हुए, क्योंकि तुम सब कल्याणकी अवधि हो॥२१॥अकुंठित बुद्धि और अपनी योगमायासे गूढ़महिमावाले परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको हम नमस्कार करतेहैं॥२२॥ मायारूपी चित्रसे ढके, सृष्टि इत्यादिकोंके कारण ईश्वर आत्मा तुमको आपके साथ
तस्माद्ब्रह्मकुलं ब्रह्मशास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः॥ सभाजयसि सद्धाम तद्ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान्॥२०॥ अद्य नो जन्मसा फल्यं विद्यायास्तपसो दृशः॥ त्वया संगम्य सद्गत्या यदतः श्रेयसां परः॥२१॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ स्वयोगमाययाच्छन्नमहिम्ने परमात्मने॥२२॥ न यं विदंत्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः॥ मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमीश्वरम्॥२३॥ यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक्॥ नाममात्रेंद्रियाभातं न वेद रहितं परम्॥२४॥ एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विंद्रियेहया॥ मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात्॥२५॥ तस्याद्य ते ददृशिमांघ्रिमघौघमर्षतीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्कयोगैः॥ उत्सिक्तभक्त्युपहताशयजीवकोशा आपुर्भवद्गतिमथोऽनुगृहाण भक्तान्॥२६॥
एकही स्थानमें रहनेवाले यह यादव और राजा लोग नहीं जानते हैं॥२३॥ जैसे पुरुष स्वप्नावस्थामें मिथ्या पदार्थको सत्य मानता है मनसे सिंह व्याघ्रादि रूप आप बन जाता है और जाग्रत् अवस्थाके स्वरूपको नहीं जानता॥२४॥ उसीप्रकार स्वप्नादि तुल्य विषयपदार्थमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति रूप मायासे चलायमान चित्त पुरुष विवेकके नाशसे आपको नहीं जानता॥२५॥ पापोंके समूहोंको दूर करनेवाले गंगारूपी तीर्थ जिसमेंसे प्रगट हुआ और दृढ़ योगवाले योगीजनभी जिनका केवल हृदयमें ध्यान करते हैं परन्तु तुम उनको भी दिखाई नहीं दिये और तुम्हारे चरणारविन्दोंका हमने प्रत्यक्ष दर्शन किया, इसलिये हमें भक्ति करनेका अनुग्रह करो। यदि कहो कि, भक्ति करके क्या करोगे? पहलेके समान तप करजाओ
इसका उत्तर देते हैं कि, वृद्धिको प्राप्त हुई भक्तिसे जिनके लिंगशरीरका नाश होगया है, वही पुरुष तुम्हारे स्वरूपको प्राप्त हुए हैं और नहीं
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॥२६॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! इसप्रकार मुनीश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और राजा धृतराष्ट्र तथा युधिष्ठिरसे आज्ञा माँग अपने अपने आश्रमोंमें जानेकी इच्छा करनेलगे॥२७॥तब महायशवान् वसुदेवजी उन मुनियोंको जाते देखकर उनके समीप आय सावधान
श्रीशुक उवाच॥इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम्॥राजर्षे स्वाश्रमान्गंतुं मुनयो दधिरे मनः॥२७॥तद्वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः॥प्रणम्य चोपसंगृह्य बभाषेदं सुयंत्रितः॥२८॥वसुदेव उवाच॥नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ॥कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम्॥२९॥नारद उवाच॥नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया॥कृष्णं मत्वाऽर्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः॥३०॥
होकर कहनेलगे॥२८॥ वसुदेवजी बोले कि, संपूर्ण देवतारूप तुम हो सो आपको मैं वारम्वार प्रणाम करताहूँ, हे ऋषीश्वरो! मेरी एक आपसे प्रार्थना है, सो कृपा करके सुनिये, जिन कर्मोंके करनेसे कर्मोंका नाश होता है, सो हमें बताओ?॥२९॥ श्रीकृष्णचन्द्रको छोड़कर हमसे कल्याण पूँछने आये हैं इस प्रकार आश्चर्य मान नारदजी बोले कि, हे ब्राह्मणो! जो वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपना पुत्र जाननेके कारण
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दृष्टान्त—विना गुण जाने वस्तुकी महिमा प्रगट नहीं होती यहाँ एक महात्माने कृष्ण नामकी बहुत प्रशंसा करी कि, एकबार नाम लेनेसे अनेक पाप दूर होजाते हैं चेले बोले महाराज! फिर यह मनुष्य तो दिनरात नामका स्मरण करते हैं, यह क्यों दुख पाते हैं? गुरुजी बोले महिमा नहीं जाननेसे यह दशा है, चेला मनमें संंदेह करने लगा, तो बाबाजीने अपने पाससे एक अमूल्य रत्न दे चेलेसे कहा कुँजडीसे पूछ, इसका कितना शाक देगी, चेलेने जाकर पूछा, उसने सेरभर शाक देनेको कहा, फिर गुरुजीने सराफपर भेजा, उसने वीस रुपये कहे, फिर गुरुजीने जौहरीके पास भेजा, उसने करोड रुपये कहे फिर गुरुजीने सबसे बडे जौहरीके पास रत्न लेकर भेजा, तब उसने कहा, मेरे यहाँ असंख्य द्रव्य है, परन्तु यह तो इसके द्रव्यके व्याजमें है मेरे यहाँ इसका मूल्य देनेको द्रव्य नहीं, यह अमूल्य है, चलेने गुरुजीसे सब वृत्तान्त कहा, तब गुरुजी बोले इसीप्रकार कृष्ण नामकी महिमा है, जो जानते हैं, वह संसारसागरके पार होजाते हैं और जो नहीं जानते वह कर्म भोगते हैं॥
अपना कल्याण हमसे पूँछते हैं यह आश्चर्य नहीं है॥३०॥क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रको बालक मानना अविद्यासे है इस संसारमें मनुष्योंके पास रहनेसे अनादर होता है, जैसे गंगातटका रहनेवाला पुरुष गंगाको छोड शुद्ध होनेके लिये और जलमें स्नान करनेको जाता है॥३१॥जिन श्रीकृष्णचन्द्रका ज्ञान किसी कारणसे भी नष्ट नहीं होता सोई कहते हैं जैसे कालसे काँकरी फटजाती है और इस विश्वको उत्पन्न कर पालन और नाश करनेसे भी तुम्हारा ज्ञान नहीं जाताहै और जैसे बिजली चमक कर बिलाय जातीहै और जिसप्रकार गुणोंसे पूर्वरूपका नाश और रूपान्तरकी प्राप्ति होती है उसी प्रकार नहीं जाय है॥३२॥ऐसे जो कृष्ण अद्वितीय ईश्वर और अखण्डित ज्ञानस्वरूप हैं उन्हैंऔर मनुष्य जैसे रविमण्डलको बालक राहु
सन्निकर्षोऽत्र मर्त्यानामनादरणकारणम्॥ गांगं हित्वा यथाऽन्यांभस्तत्रत्यो याति शुद्धये॥३१॥ यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनाऽस्य वै॥ स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति॥३२॥ तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहैरव्या हतानुभवमीश्वरमद्वितीयम्॥ प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः॥३३॥ अथो चुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानकदुदुंभिम्॥ सर्वेषां शृण्वतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः॥३४॥ कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधु निरूपितः॥ यच्छ्रद्धया यजेद्विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः॥३५॥ चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा॥ दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः॥३६॥ अयं स्वस्त्ययनः पंथा द्विजातेर्गृहमेधिनः॥ यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः॥३७॥
वा हिमसे आच्छादित मानै, उसी प्रकार क्लेश कर्म सुख दुःख गुणोंका प्रवाह और अपने कार्यरूप प्राणादिकसे आच्छादित मानैतो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥३३॥ हे राजन्! इसके उपरान्त वह मुनि सब राजा और श्रीकृष्ण बलदेवके सुनते वसुदेवजीको संबोधन देकर बोले॥३४॥ मुनि बोले कि, सब यज्ञोंके ईश्वर विष्णु भगवान्का यज्ञोंद्वारा श्रद्धासहित यजन करना यही सर्वोत्कृष्ट कर्मसे कर्म मिटानेका उपाय कहा है॥३५॥ पण्डितलोगोंने शास्त्ररूप नेत्रोंसे चित्तोपशम और मोक्षका उपाय व शनैः शनैः अंतःकरणको शुद्ध करनेवाला सुगम स्वधर्म भी यही दिखाया है॥३६॥ गृहस्थी, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको यही कल्याणका मार्ग है कि, निष्काम होकर प्राप्तहुए शुद्ध द्रव्यसे ईश्वरका पूजन करै, क्योंकि महात्मा पुरुषोंका ही
द्रव्य यज्ञादिकोंमें लगताहै और लोभियोंका धन वृथा जाताहै॥३७॥हे वसुदेवजी! बुद्धिमान्को उचित है कि, धनके फलरूप यज्ञ और दान करके धनकी इच्छाका त्यागन कर घरके भोग भोगकर स्त्री पुत्रकी तृष्णा त्यागैऔर संसारको नाशवान् जानकर अपनी प्रतिष्ठा और स्वर्गादिककी कामना त्यागै
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॥३८॥ ग्राममें चाहना त्यागकर समस्त वीरपुरुष तप करनेके लिये वनको गये, हे वसुदेवजी!ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,
वित्तेषणां यज्ञदानैर्गृहैर्दारसुतेषणाम्॥ आत्मलोकेषणां देव कालेन विसृजेद् बुधः॥३८॥ ग्रामे त्यक्तेषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम्॥ ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितृणां प्रभो॥ यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन्पतेत्॥३९॥ त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते॥ यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ऋणोऽशरणो भव॥४०॥
देव, ऋषि, पितृ इन तीनों ऋणोंसे इस जन्ममें उद्धार हो यज्ञ करके देवताओंका ऋण और विद्या पढकर ऋषियोंका ऋण तथा पुत्र उत्पन्न करके पितरोंका ऋण चुकावै, इन ऋणोंके चुकाये विना जो कर्मोंका त्याग करै तो वह पुरुष नरकमें गिरता है॥३९॥ हे मतिमान् वसुदेव! अब तुम दो ऋणोंसे तो छूटगये, विद्या पढे, इसलिये ऋषियोंके ऋणसे तो उद्धार होगये और पुत्र होनेके कारण पितरोंके ऋणसे उद्धार होगये, अब यज्ञ
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दृष्टान्त—एक पीपलसाहके छप्पन कोटि द्रव्य था परन्तु रहे बडे सूम, बेटे कहैंपिताजी! गंगा पुष्कर स्नान करनेको चलो पुण्य करो. वह कहैंकि, पुण्य करनेसे कुछ नहीं होताहै, और जो हम चलें तो पीछे घर चोर लूटकर ले जायँगे, रास्तेमें लुट जाओगे, बेटोंने कहा हम तो जायँगे, सतोंके दर्शन करैंगे वह बोले तुम मेरा घर लुटानेको फिरते हो, तब बेटेवोलेहम भीख माँगते चले जायँगे, वह बोले तो नाम लेजाओगे एक काम करो, गहना कपडा सब उतार धरो मैले कपडे पहरो उन्होंने वैसाही किया, सो इन्होंने भोजनमात्र खर्च दिया और कहदिया कि, पुण्य मत कीजो जल्दी आइयो वे सब स्त्री बालक गये पीछे इन्होंने गढा खोद सब गहना द्रव्य गाडदिया जबवे स्नान कर आये, तब यह बोले तुम न्हाने गये पीछे चोरी होगई, अब बनियेसे उधार लेकर खाते हैं, हमारे पास कुछ नहीं रहा ऐसा कह बागमें जा बैठे अब यह विलाप करनेलगे कि, परमेश्वर भले स्नान करनेको गये भोजनसेही ठरहे संध्यासमयतक रोते रहे, उस समय महादेवजी शैरको आये, और इनको देखकर बोले कि, द्रव्य तो कोठेमें दव रहा है यह कह गये, उन्होंने झट गढा खोद सब धन निकाल लिया और बाँटनेलगे, पीछेसे पीपलसाह बोले अरे दुष्टो! जल्दी किबाँड खोलो नहीं तो इसी जगह अपना मस्तक, फोडकर मरजाऊंगा, इन्होंने किबाडखोलनेमें विलम्व किया उन्होंने जाना, कि सब धन लूटगया सो शिर फोडकर मरगये।
करके देवताओंके ऋणसे उद्धार हो, गृहको त्याग संन्यास ग्रहण करो॥४०॥और हे वसुदेवजी! तुमने बड़ी भक्तिसे जगत्के ईश्वर हरि भगवान्का पूजन किया था, इसीलिये स्वयं भगवान् हरिने आनकर तुम्हारे यहाँ अवतार लिया॥४१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! उदारमन वसुदेवजी इसप्रकार ब्राह्मणोंका वचन सुन मस्तक नवाय नमस्कार कर उन ऋषियोंसे यज्ञ करनेवाले ऋत्त्विक्जनोंका वर्णन करनेलगे॥४२॥हे नृपोत्तम परीक्षित्!धर्मसे वरणको प्राप्त हो, ऋषि महात्माओंने वसुदेवजीको कुरुक्षेत्रमें उत्तम सामग्रियोंसे यजन कराया॥४३॥ हे राजन! जिस समय वसुदेवजीको यज्ञदीक्षा दोगई, उस समय कमलोंकी माला पहरे यादव स्नानकर शोभायमान वस्त्र धारण कर श्रृंगार कियेहुए बहुतसे राजा
वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम्॥ जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वांपुत्रतां गतः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महात्मनाम्॥ तानृषीनृत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च॥४२॥ त एनमृषयो राजन्वृता धर्मेण धार्मिकम्॥ तस्मिन्नयाजयन्क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः॥४३॥ तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः॥ स्नाताः सुवाससो राजन्राजानः सुष्ठ्वलंकृताः॥४४॥ तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककंठ्यः सुवाससः॥ दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणयः॥४५॥ नेदुर्मृदंगपटहशंखभेर्यानकादयः॥ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्टुवुः सूतमागधाः॥ जगुः सुकंठ्यो गंधर्व्यः संगीतं सहभर्तृकाः॥४६॥ तमभ्यर्षिचन्विधिवदक्तमभ्यक्तमृत्विजः॥ पत्नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः॥४७॥ ताभिर्दुकूलवलयैहरनूपुरकुंडलैः॥ स्वलंकृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः॥४८॥
आये॥४४॥ और कंठमें धुकधुकी व सुन्दर वस्त्र पहरे केशर चंदन लगाये राजाओंकी स्त्रियें पूजाकी सामग्री हाथमें लिये यज्ञशालामें आईं॥४५॥ मृदंग, ढोल, शंख, भेरी, नगारे आदि बाजे बजनेलगे नट और नृत्य करनेवाली नाचनेलगीं सूत तथा मागध स्तुति करनेलगे और स्वरीले कंठवाली गन्धर्वपत्नियें अपने पति सहित सुन्दर गीत गानेलगीं॥४६॥ नेत्रोंमें अंजन लगाये हुए, शरीरमें मक्खन मले वसुदेवजीका विधिपूर्वक अठारह स्त्रियों सहित ऋत्त्विजोंने अभिषेक किया, जैसे तारागणों सहित चन्द्रमाका अभिषेक करते हैं॥४७॥ हे राजन्! उस समय
वस्त्र, कंकण, हार, नूपुर, कुंडल पहरे; स्त्रीसहित दीक्षा लिये, मृगछाला ओढे वसुदेवजी अत्यन्त शोभायमान लगने लगे॥४८॥हे महाराज! रत्नोंके गहने और वस्त्र धारण किये वसुदेवजी यज्ञ करनेवाले तथा, सभामें बैठे पुरुषोंसहित वृत्रासुरके मारनेवाले देवराज इन्द्रके समान शोभाको प्राप्त हुए॥४९॥भगवान् कृष्ण बलदेवजी भी संपूर्ण जीवोंके ईश्वर अपने अपने बांधवोंको संग लिये और अपने अपने पुत्र स्त्रियोंसहित अपने अपनेऐश्वर्यसे सुन्दर लगनेलगे॥५०॥यज्ञमें विधिपूर्वक अग्निहोत्रादि प्रकृति और विकृतिरूप यज्ञ अर्थात् समस्त अंगके ज्योतिष्टोम, दर्श पौर्णमास आदि यज्ञ और थोड अंगवाले शौर्यसत्रादिक द्रव्य अर्थात् साकल्यमंत्र कर्मसे ईश्वर भगवान्का पूजन करनेलगे॥५१॥इसके उपरान्त वसुदेव
तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः॥ ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे॥४९॥ तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैर्बंधुभिरन्वितौ॥ रेजतुः स्वसुतैर्दारैर्जीवेशौ स्वविभूतिभिः॥५०॥ ईजेऽनुयज्ञं विधिना ह्यग्निहोत्रादिलक्षणैः॥ प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम्॥५१॥ अथत्त्विग्भ्योऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः॥ स्वलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो गोभूकन्या महाधनाः॥५२॥ पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते महर्षयः॥ सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः॥५३॥ स्नातोऽलंकारवासांसि बंदिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः॥ ततः स्वलंकृतो वर्णानाश्वभ्योऽन्नेन पूजयत्॥५४॥ बंधून्सदारान्ससुतान्पारिबर्हेण भूयसा॥ विदर्भकोसलकुरून्काशिकेकयसृञ्जयान्॥५५॥
जीने समयपर आभूषणोंसे शोभायमान यज्ञ करनेवाले ऋषियोंको आभूषणोंसे शोभायमान कर गौ, पृथ्वी, कन्या और बडे धनकी बडी दक्षिणा वेदविधिसे दी॥५२॥ इसके उपरान्त पत्नीसंयाजावभृथ्य यज्ञांग कराकर बड़े ऋषि ब्राह्मणोंने यजमान वसुदेवजीको आगे कर रामह्रदमें स्नान कराया॥५३॥ स्नानकर वसुदेव और उसीप्रकार उनकी स्त्रीने बंदीजनोंको अपने अंगके आभूषण इत्यादि दिये इसके उपरान्त वसुदेवजीने और आभूषण पहर चारों वर्णोंका दान करके पूजन किया और जीवोंमें श्वानको भी अन्न दिया॥५४॥ इसके उपरान्त स्त्री पुत्रों सहित अपने बंधुओंकी बहुत द्रव्यसे पूजा की, फिर विदर्भ, कोसल, कुरु, कैकय, इन देशोंके राजा और सभासद तथा यज्ञ
करनेवाले देवतागण, मनुष्य, भूत, पितर, चारण गणका पूजन किया और फिर सब राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको सम्बोधन दे, यज्ञकी प्रशंसाकर अपने अपने देशोंके जानेकी इच्छा करनेलगे॥५५॥५६॥इसके उपरान्त धृतराष्ट्र, विदुर, पृथाके पुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन भीष्मजी, द्रोणाचार्य, कुंती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासजी और सुहृद, उनसे तथा नाते गोतेवाले बंधु यादव सबसे मिल, स्नेहकर खेदित चित्त विरहके कष्टसे अपने २ देशोंको चलेगये और जो मनुष्य वहाँपर थे, वह भी अपने अपने देशोंको चलेगये॥५७॥५८॥ रामकृष्ण उग्रसेनादिक यादवोंसे बड़ी पूजा और सत्कार पाय गोप ग्वालोंसहित नंदरायजीने बन्धुबान्धवोंके निकट स्नेहके कारण कुछ दिनतक वहीं वास किया॥५९॥
सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान्॥ श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसंतः प्रययुः क्रतुम्॥५६॥ धृतराष्ट्रोनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ॥नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्संबंधिबांधवाः॥५७॥ बंधून् परिष्वज्य यदून् सौहृदाऽऽक्लिन्नचेतसः॥ ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः॥५८॥ नंदस्तु सह गोपालैर्बृहत्या पूजयार्चितः॥ कृष्णरामोग्रसेनाद्यैर्न्यवात्सीद्बंधुवत्सलः॥५९॥ वसुदेवोंजसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम्॥ सुहृद्वृतः प्रीतमना नंदमाह करे स्पृशन्॥६०॥ वसुदेव उवाच॥ भ्रातरीशकृतः पाशो नृणां यः स्नेहसंज्ञितः॥ तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम्॥६१॥ अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताऽज्ञेषु सत्तमैः॥ मैत्र्यर्पिताऽफला वापि न निवर्तेत कर्हिचित्॥६२॥ प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि॥ अधुना श्रीमदांधाक्षा न पश्याम पुरः सतः॥६३॥
अनायाससे मनोरथरूप महासागरको पार उतर प्रसन्नचित्त और सम्बन्धी लोगोंसे आवृत्त वसुदेवजी हाथ पकड़ नंदजीसे बोले॥६०॥ कि, हे भाई नंदजी! मनुष्योंको स्नेहरूपी फाँसी ईश्वरने रची है, इसकारण इसे शूरवीर बलसे और ज्ञानी ज्ञानसे भी नहीं काट सकते॥६१॥ तुमसे महात्माने जो अकृतज्ञ हमारे साथ मित्रता करी है, उसका पलटा हम किसी प्रकार नहीं देसकते, तोभी वह सदा एकरूप बनी रहतीहै कभी निवृत्त नहीं होती॥६२॥ हे नंदरायजी!पहले तो हम असमर्थ थे, इसलिये तुम्हारा कुछ उपकार न करसके और अब धनसे अंधेहो सम्मुख बैठे तुमसे
महात्माओंकी ओरको देखते भी नहीं॥६३॥ हे मानदेनेवाले भाई नंदजी! कल्याणकी अभिलाषा करनेवाले मनुष्यको राजलक्ष्मी, चाहैन मिलै, क्योंकि इससे अंधा होकर पुरुष अपने आश्रित तथा बंध बांधवोंको भी नहीं देखता॥६४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसप्रकार स्नेहसे शिथिलचित्त आँसू नेत्रोंमें भरे वसुदेवजी नन्दजीकी मित्रताको स्मरणकर रोनेलगे॥६५॥ नन्दरायजी यादवोंसे मान पाकर अपने मित्र वसुदेवजीको प्रसन्न करते भगवान् कृष्ण बलदेवजीके प्रेमसे “आज कल, आज कल” करते तीन महीनेतक वहीं रहे॥६६॥ इसके उपरान्त बड़े मोलके आभूषण रेशमीवस्त्र तथा अनेक प्रकारके बड़े मोलकी वस्तुसे व्रजवासियों सहित नंदरायजीको पूर्ण कर दिया॥६७॥
माराज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद॥ स्वजनानुत बंधून् वा न पश्यति ययांधदृक्॥६४॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं सौहृदशैथिल्यचित्त आनकदुंदुभिः॥ रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन्नश्रुविलोचनः॥६५॥ नंदस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविंदरामयोः॥ अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत्॥६६॥ ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबांधवः॥ परार्द्ध्याभरणक्षौमनानानर्घ्यपरिच्छदैः॥६७॥ वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः॥ दत्तमादाय पारिबर्हंयापितो यदुभिर्ययौ॥६८॥ नंदोगोपाश्च गोप्यश्च गोविंदचरणांबुजे॥ मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुमनीशा मथुरां ययुः॥६९॥ बंधुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः॥ वीक्ष्य प्रावृषमासन्नां ययुर्द्वारवतीं पुनः॥७०॥ जनेभ्यः कथयांचक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम्॥ यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्संदर्शनादिकम्॥७१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
और वसुदेव उग्रसेन तथा कृष्ण बलदेवादि यादवोंकी दी हुई प्रीति सहित सामग्रीको ग्रहण कर, जिससमय नंदरायजी बिदा हुए, उससमय यादवोंने इनके संग एक बडभारीसेना कर दी थी॥६८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दमें लगे मनको हटानेमें असमर्थ नन्दरायजी व गोप गोपियें मथुराको चले॥६९॥ बंधु लोगोंके जानेपर श्रीकृष्णचन्द्र इष्टदेव माननेवाले यादव, वर्षाऋतु निकट आई देख, पीछे द्वारकाको चलेगये॥७०॥ और जाकर सब यादव वसुदेवजीका यज्ञ और कुरुक्षेत्रकी यात्रामें सुहृदोंका मिलाप यह सब प्रजासे कहा॥७१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमकन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां वसुदेवयज्ञसमाप्तिवर्णनो नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
दोहा—विनय पचासीमें करी, कृष्ण और बलराम। मरे पुत्र मातहिदिये, पितुहि ज्ञान सुखधाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! कुरुक्षेत्रकी यात्रा करनेके उपरान्त एकसमय वसुदेवजी आय चरणोंमें प्रणाम और रामकृष्णकी प्रशंसा कर प्रीतिपूर्वक कहनेलगे॥१॥ पुत्रोंके प्रभावको जाननेवाला जो मुनियोंका कहा वचन कि, तुम्हारे पुत्र परमेश्वर हैं, सुनकर श्रीकृष्ण बलदेवका पराक्रम देख विश्वासयुक्त वसुदेवजी। संबोधन देकर बोले॥२॥ कि, हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे राम! हे महायोगिन्! हे संकर्षण! हे सनातन! इस विश्वके कारण प्रकृति पुरुषके भी कारण साक्षात् ईश्वर तुम हो, यहमें जानताहुँ॥३॥ जिसमें, जिस साधनसे, जिससे, जिस कारणसे, जिसका, जिसके लिये, जिसको, जो, जैसे और जब यह संसार स्थित है और स्थित कियाजाता है उस सब भोग्य और भोक्ता के नियंता साक्षात आपहीहो॥४॥ हे अधोक्षज! आप जो
श्रीबादरायणिरुवाच॥ अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवंदनौ॥ वसुदेवोऽभिनंद्याह प्रीत्या संकर्षणाच्युतौ॥१॥ मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्॥ तद्वीर्यैर्जातविश्रंभः परिभाष्याभ्यभाषत॥२॥ कृष्ण कृष्ण महायोगिन् संकर्षण सनातन॥ जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ॥३॥ यत्र येन यता यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा॥ स्यादिदं भगवान्साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः॥४॥ एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज॥ आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यजः॥५॥ प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः॥ पारतंत्र्याद्वै सादृश्याद्द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम्॥६॥
अजन्मा हो, वे अपने रचेहुए इस अनेकप्रकारके जगत्में अपने रूपसे प्रवेश कर क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिरूप होकर उसका पोषण और भरण करतेहो॥५॥ पृथक् पृथक शक्तिवाले प्राणादिक इस विश्वके कारण जाननेमें न आवैंपरमेश्वरको कारण रूपसे सर्वरूप कैसे कहतेहो, यह शंका जब हुई तो उसका समाधान यह है कि, प्राणादिकोंमें जो शक्ति है सो ईश्वरके करनेवाले प्राण आदि तत्त्वमें जो शक्तिहै सो परमकारण ईश्वरकी ही है, क्योंकि प्राणादिक ईश्वरके आधीनहैं और जैसे तीरमें वेधनेकी स्वतंत्र शक्ति नहीं है किन्तु पुरुषकी शक्ति से वेधताहै, उसीप्रकार प्राणादिकोंमें ईश्वरकी शक्ति है, प्राणादिक जड़है, और ईश्वर चैतन्य है और जड़पदार्थको चैतन्यकी आधीनता योग्यहै, वहाँ कहतेहैं कि, प्राणादिकोंमें शक्ति
नहीं है तो क्रिया कैसे करते हैं, उसका उत्तर यह है कि, चेष्टा करनेवाले प्राणादिककी चेष्टा यहाँ कुछ शक्ति नहीं है, जैसे पवनकी शक्तिसे तृण हिलते हैं, उसी प्रकार क्रिया करतेहैं॥६॥ चन्द्रमाकी कान्ति, अग्निका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र, व बिजलियोंकी स्फुरसत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता और पृथ्वीकी आधारता तथा गंध यह संपूर्ण तुम्हारीही शक्तियें हैं॥७॥ हे देव! जल उसकी तृप्ति करनेकी शक्ति जीवित करनेकी शक्ति व उसका रस यह सब तुम्हीं हो हे ईश्वर! वायुके जो ओज, सह, बल, चेष्टा और गति हैंयह सब तुम्हारेही रूप हैं॥८॥ दिशाओंमें जो खालीपन और दिशाएँ समस्त तुम्हारेही रूप हैं और आकाश तथा आकाशमें शब्द रूप गुण सब तुम्हारेही रूप हैं, वाणी ॐकार और नामरूप कहनेमें न आवै सो सब तुम्हीं हो॥९॥ नेत्रोंमें दर्शनशक्ति और कानोंमें श्रवणशक्ति तथा जिह्वामें रसकी ग्रहणशक्ति इत्यादिक इन्द्रियोंमें विषयोंके ग्रहण करनेकी शक्ति तुम्हीं हो और
कांतिस्तेजः प्रभा सत्ता चंद्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्॥ यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गधोऽर्थतो भवान्॥७॥ तर्पणं प्राणनमपां देवत्वं ताश्च तद्रसः॥ ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर॥८॥ दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः॥ नादो वर्णस्त्वमोंकार आ^(१)कृतीनां पृथक्कृतिः॥९॥ इंद्रियं त्विंद्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः॥ अव^(२)बोधो भवान् बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती॥१०॥ भूतानामसि भूतादिरिंद्रियाणां च तैजसः॥ वैकारिको विकल्पानां प्रधा^(४)नमनुशायिना^(५)म्॥११॥ नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्॥ यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम्॥१२॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः॥ त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया॥१३॥
इन्द्रियोंकी अधिष्ठात्री देवता तुम्हीं हो देवता इन्द्रियोंको प्रेरणा करतेहैं, यह तुम्हारीही शक्तिहै, बुद्धिमें निश्चय करनेकी शक्ति तुम्हींहो और जीवोंको श्रेष्ठवार्त्ताजो स्मरण रहती है, यह तुम्हारीही शक्ति है॥१०॥ पंचभूतका कारण तामसाहंकार, इन्द्रियोंके देवताओंका कारण सात्त्विकाहंकार, इन्द्रियोंका कारण राजसाहंकार और जीवोंके संसारका कारण प्रधान यह सब तुम्हीं हो॥११॥ नाशवान पदार्थमें जो शेष रहे अर्थात् जिसका नाश न हो सो तुम्हींहो, जैसे मृत्तिका, सुवर्णके बने घड़े, मूँदरी, कड़े इत्यादि सब नाशवान हैं, मृत्तिका सुवर्णका नाश नहीं होता॥१२॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्ति साक्षात् परब्रह्ममें योगमायासे कल्पित है॥१३॥
इसीकारण यह पदार्थ आपसे अलग नहीं हैं, जब यह पदार्थ कल्पना कियेजाते हैं तभी प्रतीतिमात्रसे आपमें हैं और आप कारणतासे उनमें अनुगत हो और जब कल्पना नहीं किये जाते, तब निर्विकल्प आप ही अवशेष रहते हो॥१४॥ यह जो गुणोंका प्रवाहरूप संसार है, उसमें सबके आत्मा तुम्हारी संसारसे अलग गतिको नहीं जाननेवाले अज्ञानी पुरुष देहमें अभिमानसे करे कर्मसे इस संसारमें जन्मे हो॥१५॥ हे ईश्वर! शोभायमान हाथ, पाँव, नाक, कान, सब इंद्रिययुक्त बहुत दुर्लभ देहको इस संसारमें कोई एक पुण्यके फलसे पाकर स्वार्थमें भूलकर मैंने अपनी अवस्थामेंतुम्हारी मायासे वृथाही गँवाई॥१६॥ मैंब्राह्मण हूं, क्षत्रिय हूं, इसप्रकार देहमें अभिमान और इस देहके संबंधी स्त्री पुत्रादिक
तस्मान्न संत्यमी भावा यर्हित्वयि विकल्पिताः॥ त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदाऽव्यावहारिकः॥१४॥ गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः॥ गतिं सूक्ष्मावबोधेन संसरंतीह कर्मभिः॥१५॥ यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्॥ स्वार्थेप्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर॥१६॥ असावहं ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु॥ स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत्॥१७॥ युवां न नः सुतौ साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरौ॥ भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थह॥१८॥ तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविंदमापन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो॥ एतावताऽलमलमिंद्रियलालसेन मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः॥१९॥ सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ संजज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै॥ नानातनूर्गगनवद्विधज्जहासि को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम्॥२०॥
मेरे हैं इस अभिमानसे स्नेहके रस्सोंमें यह जगत् तुमने बाँध रक्खाहै॥१७॥ हम तुम्हारे पुत्र हैं तुम क्यों हमारी स्तुति करते हो, उसके उत्तरमें वसुदेवजी कहते हैं कि, तुम हमारे पुत्र नहीं हो, किन्तु प्रधानपुरुष ईश्वर हो, और पृथ्वीके भाररूप क्षत्रियोंका नाश करनेको आपने अवतार धारण किया है, क्योंकि आप ऐसे ही हैं॥१८॥ हे दीनबंधो! शरण प्राप्तहुए पुरुषके संसारभयको दूर करनेवाले! मैं तुम्हारे चरणारविन्दकीशरणमें प्राप्त हुआहूं “तुम तो बड़े सुखी हो वृथा क्यों खेद करते हो ऐसे जो कदाचित् श्रीकृष्ण कहै” इसके उत्तरमें वसुदेवजी कहते हैं कि, विषयकी लालसा इतनीही है कि, मरणधर्मा शरीरको आत्मा माना और तुम परमेश्वरको पुत्र माना॥१९॥ तुमने सूतिकागृहमेंही हमसे कहा था, कि
“जब तुम सुतपा और पृश्निव कश्यपजी, अदिति रूप दंपती हुए, तब और अभी वसुदेवजी देवकी रूप दंपती दो मैंअजन्मा प्रथम निजधर्मकी रक्षाके लिये आपसे प्रगट हुआ, और अब भी प्रगट हुआहूं” आप असंग रहकर भी अनेक अवतार धारण करते हो और छोड़ते होसर्वव्यापक आपकी विभूति रूप मायाको कौन जान सक्ता है?॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने इसप्रकार पिताके वचन सुन अधीनतापूर्वक नम्र हो मनोहर वाणीसे कहा॥२१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे पितः! हम पुत्रोंके विषयमें आपने जो तत्त्वसमूहोंका भलीभाँति निरूपण किया सो तुम्हारे वचनको हम यथार्थ मानते हैं॥२२॥ यदुश्रेष्ट पितः! तुम और बडे भ्राता बलदेवजी तथा सब द्वारका
श्रीशुक उवाच॥ आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः॥ प्रत्याह प्रश्रयाऽऽनम्रः प्रहसञ्छ्क्ष्णया गिरा॥॥२१॥ श्रीभगवानुवाच॥ वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे॥ यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः॥॥२२॥ अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः॥ सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृश्याः सचराचरम्॥२३॥ आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः॥ आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भृतेषु बहुधेयते॥२४॥ खं वायुज्योंतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्॥ आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वंयात्यसावपि॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः॥ श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत्॥२६॥ अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता॥ श्रुत्वाऽऽनीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता॥२७॥
वासी यादव और स्थावर जंगम जगत्को ब्रह्मरूप जानो॥२३॥ यहाँ एक शंका है, नाना विकारवान्को ब्रह्मरूपता कैसे बने? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, आत्मा एक स्वयंप्रकाश नित्य सबसे पृथक निर्गुण है, अपने रचे सत्त्वगुण रजोगण तमोगुणसे उत्पन्न देहमें बहुत प्रकार प्रतीत हो फिर जैसी देह उसमें वैसाही प्रतीत होता है जैसे आकाश, पवन, ज्योति, जल, पृथ्वी यह पंचभूत घट पटादि पदार्थोंमें कहीं प्रगट कही अंतर्द्धान कहीं थोडे कहीं बहुत प्रतीत होय हैं ऐसे एक आत्मा ब्रह्मस्वरूप अनेक रूपसे प्रतीत होताहे॥२४॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका कहा वचन सुन भेदभाव त्याग प्रसन्नमन हो वसुदेवजी चुप होगये॥२६॥ हे कुरुश्रेष्ठ! फिर अपने
पुत्र, गुरुपुत्रको पीछे ले आये, यह वृत्तान्त सुन अत्यन्त आश्चर्य मान, कंसके मारे पुत्रोंकी सुधि करके सब जगत्की देवतारूप देवकी व्याकुल हो नेत्रोंमेंआँशू भर श्रीकृष्ण बलदेवको बतलाकर इसप्रकार दीन वचन कहने लगी॥२७॥२८॥ देवकी बोली कि, हे राम! हे राम! हे अप्रमेय आत्मन्! हे कृष्ण! हे योगेश्वरोंके ईश्वर! आप विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिकोंके ईश्वर! और आदिपुरुष हो तुमको मैं जानती हूँ॥२९॥ कालसे, सत्त्वगुणका नाश होनेपर शास्त्रकी मर्यादा त्यागनेवाले पृथ्वीपर भाररूप राजाओंका नाश करनेके लिये तुम मेरे यहाँ आनकर प्रगट हुए हो॥३०॥ सबके कारण! हे विश्वकेआत्मा! तुम्हारा अंश पुरुष है, उसकी अंश माया, उस मायाके अंश सत्त्व, रज, तम, इन तीनों गुणोंके परमाणु
कृष्णरामौसमाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्॥ स्मरंती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना॥२८॥ देवक्युवाच॥ राम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगेश्वरेश्वर॥ वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपुरुषौ॥२९॥ कालविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञा मुच्छास्त्रवर्तिनाम्॥ भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे॥३०॥ यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः॥ भवंति किल विश्वात्मस्तं त्वाऽद्याहं गतिं गता॥३१॥ चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ॥ आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम्॥३२॥ तथा मे कुरु तं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ॥ भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान्॥३३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं संचोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत॥ सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ॥३४॥
मात्रलेशसे इस विश्वकी उत्पत्ति पालन और प्रलय होती है, ऐसे तुम हो, सो मैं तुम्हारी शरण आई हूं॥३१॥ हे योगेश्वर! चिरकालसे मरेहुये पुत्रको लानेके लिये गुरुने आज्ञा की, तब तुमने यमराजके लोकमेंसे उस पुत्रको लाकर गुरुको गुरुदक्षिणारूप अर्पण किया, उसी प्रकार मेरी कामना भी पूर्ण करो अर्थात कंसके मारेहुए पुत्रोंको मैंयहाँ लाये हुए देखना चाहती हूं॥३२॥३३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! जब माता देवकीने इसप्रकार कहा, तब राम कृष्ण योगमायाका आश्रय ले सुतललोकमें गये॥३४॥
वहाँ दैत्यराज बलिने विश्वके आत्मा देवता अपने इष्टदेव कृष्ण बलदेवको सुतललोकमें आया देख और उनके दर्शनसे आनन्द हो, परिपूर्ण अंतःकरणसे परिवार सहित शीघ्र उठकर नमस्कार किया॥३९॥ और प्रीतिसहित आसन लाकर उन महात्माओंको आसनपर बैठाया फिर चरण पखार ब्रह्म पर्यन्त जगत्को पावन करनेवाला जल, दैत्यराज बलिने और उसके परिवारने अपने मस्तकपर चढ़ाया॥३६॥ उत्तम वस्त्र आभूषण, लेपन, तांबूल, दीप और अमृतसे भोजन आदि अनेक वैभवसे उनकी पूजा की और अपना तन, धन, कुटुम्ब सब अर्पण किया॥३७॥हे नृप! राजा बलि भगवान्के चरणारविन्दको बारम्बार मस्तकपर धर प्रेमसे द्रवीभूतहुई बुद्धिसे आनन्दके आँशु नेत्रोंमें भरे पुलकितशरीर हो
तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराट् विश्वात्मदेवं सुतरां तथात्मनः॥ तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः॥३५॥ तयोः समानीय वरासनं मुदा निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः॥ दधार पादाववनिज्य तज्जलं सवृंद आब्रह्म पुनद्यदंबु ह॥३६॥ समर्हयामास स तौ विभूतिभिर्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः॥ तांबूलदीपामृतभक्षणादिभिः स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च॥३७॥ स इंद्रसेनो भगवत्पदांबुजं बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया॥ उवाच हाऽऽनंद जलाकुलेक्षणः प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम्॥३८॥ बलिरुवाच॥ नमोऽनंताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे॥ सांख्ययो गवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने॥३९॥ दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्॥ रजस्तमः स्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया॥४०॥ दैत्यदानवगंधर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः॥ यक्षरक्षःपिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः॥४१॥
इसप्रकार कहने लगे॥३८॥ राजा बलि बोले कि, समस्त विश्व फणके ऊपर धारण करनेवाले शेषरूप तुमको प्रणाम है और सब जगत् के रचने वाले तुमको नमस्कार है, सांख्यशास्त्र योगशास्त्र के विस्तार करनेवाले ब्रह्म परमात्मा तुमको नमस्कार है॥३९॥ योगीश्वरोंकोभी तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है सो हमको हुआ, यह आश्चर्य नहीं है, यद्यपि प्राणियोंको तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है, परन्तु तो भी तुम्हारी कृपासे किसी किसीको सुलभ होजाताहै, इसलिये रजोगुणी, तमोगुणी स्वभाववाले हम असुरोंको अकस्मात् आपने दर्शन दिया॥४०॥ बडा आश्चर्य है, हम शत्रु सत्त्व
गुणी भक्तोंसे भी बडभागी हैं, दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच भूत और प्रमथोंमें मुख्य हैं॥४१॥ हम और हमसे दूसरे लोगोंने शास्त्रकी रक्षा करनेवाले सत्त्वगुणी स्वभाव तुमसे नित्य शत्रुता कररक्खी है, उन्हैंभी आपका दर्शन प्राप्त होजाता है॥४२॥ कोई एक (शिशुपालादि) भक्तिसे तुमको जैसे पागये, और गोपी आदिकोंने काम भक्तिसे जैसे तुम्हैंपाया उसी सत्त्वगुणसे देवता तुमको प्राप्त हुये॥४३॥ हे योगेश्वरों के ईश्वर! इसप्रकार तुम्हारी योगमायाको जब योगेश्वर भी नहीं जानते, तो हम असुर क्या जान सकते हैं?॥४४॥ इसलिये हमपर आप ऐसी दया करो कि, जिससे निष्काम पुरुषोंके ढूंढने योग्य तुम्हारे चरणारविन्दका आश्रय ले चरणारविन्दसे अलग घर रूप कुएँसे निक
विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि॥ नित्यं निवद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः॥४२॥ केचनोद्वद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः॥ न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः॥४३॥ इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर॥ न विदंत्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम्॥४४॥ तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्पादारविन्दधिषणान्यगृहांधकूपात॥ निष्क्रम्य विश्वशरणांघ्र्युपलब्धवृत्तिः शांतो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि॥४५॥ शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो॥ पुमान्यच्छद्धया तिष्ठञ्चोदनाया विमुच्यते॥४६॥ श्रीभगवानुवाच॥ आसन्मरीचे षट् पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽतरे॥ देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतां यभितुमुद्यतम्॥४७॥ तेनासुरीमगन्योनिमधुनाऽवद्य कर्मणा॥ हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया॥४८॥
लकर विश्वकी रक्षा करनेवाले वृक्षकी जड़ोंमें आपहीसे गिरे फल फूलको भोजन कर मैं शान्त चित्त होकर अकेला विचरूं, अथवा सबके सहाय करनेवाले महात्मा पुरुषोंके संग विचरूं॥४५॥ हे प्रभो! सब जीवोंके स्वामी! हमैंशिक्षा देकर पापरहित निष्पाप करो, कि जिस शिक्षाको श्रद्धापूर्वक पालनेसे पुरुषोंके विधिनिषेधरूप बन्धन छूट जाते हैं॥४६॥ श्रीभगवान् बोले कि, इस स्वायंभुव मन्वन्तरमें मरीचि प्रजापतिके ऊर्णा स्त्रीमें छः पुत्र हुये एक समय देवतारूप छहों पुत्र अपनी कन्याके पीछे भाजे और ब्रह्माजीको देखकर हँसे॥४७॥ इस पापकर्मसे असुर योनिको प्राप्त हुये, फिर उन्होंने हिरण्यकशिपुसे जन्म लिया, सोई छहोंने हिरण्यकश्यप के यहाँसे योगमाया के प्रेरे॥४८॥
देवकीके उदरमें जन्म लिया, जो कंसके हाथसे मारेगये, सो अब वह तुम्हारे पास हैं, इन्हैंदेवकी अपने पुत्र मानकर शोच करती है॥४९॥ माता देवकीका शोक दूर करनेके लिये यहाँसे इन छहों पुत्रोंको लेजायँगे इसके उपरान्त शापसे छूट खेद रहित होकर यह देवलोकमें जायँगे॥५०॥ स्म^(१)र उद्गीथ^(२), परि^(३ष्वं)ग, पतंग^(४), क्षुद्रभुक्^(५) और घृणी ये जो छः पुत्र हैं, सो मेरे प्रसादसे मुक्त होजायँगे॥५१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार जब कहा तब राजा बलिसे पूजित हो, श्रीकृष्ण बलदेव उन पुत्रोंको संगले, द्वारकापुरीमें आय माता देवकीको देदिये॥५२॥ पुत्रोंके स्नेहसे स्तनोंमें दूध चुवै, ऐसी
देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः॥ सा ताञ्छोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेंऽतिके॥४९॥ इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये॥ ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यंति विज्वराः॥५०॥ स्मरोद्गीथः परिष्वंगः पतंगः क्षुद्रभृद् घृणी॥ षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यंति सद्गतिम्॥५१॥ इत्युक्त्वा तान्समादाय इंद्रसेनेन पूजितौ॥ पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम्॥५२॥ तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्तुतस्तनी॥ परिष्वज्यांकमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः॥५३॥ अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिप्लुता॥ मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते॥५४॥ पीत्वाऽमृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः॥ नारायणांगसंस्पर्शप्रतिलब्धात्मदर्शनाः॥५५॥ ते नमस्कृत्य गोविंदं देवकीं पितरं बलम्॥ मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम्॥५६॥
देवकी उन बालकोंको देख गोदमें बैठाय छातीसे लगाय बारम्बार माथा सूँघनेलगी॥५३॥ सृष्टिको उत्पन्न करनेवाली विष्णु भगवान्की मायासे मोहित और पुत्रोंको छातीसे लगानेके कारण मग्न देवकी प्रसन्न होकर पुत्रोंको स्तन पिलाने लगी॥५४॥ गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पीनेसे बचा अर्थात् भगवान्का प्रसाद वह अमृतरूप देवकीका दुग्ध पानकर और श्रीकृष्णके अंग स्पर्श करनेसे “हम देवता है” यह ज्ञान होनेसे वह देवता गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र और देवकी तथा वसुदेवजीको नमस्कारकर सब प्राणियोंके देखते देवताओंके धाम देवलोकमें चलेगये
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॥५५॥५६॥
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शका—देवकीके सब बालकोंको श्रीकृष्णने लादिया, तब वह सब बालक देवकीके स्तनका दूध पीने लगे, श्रीमद्भागवतमें लिखाहै कि, कैसा देवकीके स्तनोंका दूध था जिसको बालक पीरहथे, पहिले, तो मगवान्ने देवकीके स्तनोंका दूध पियाथा, जो दूध शेष रहाथा उसको देवकीके और बालकोंने पिया अब यहाँ मुझको यह सन्देह है कि, श्रीकृष्ण तो जन्मलेतेही गोकुलको चलेगये देवकीका दूध नहीं पिया फिर व्यासजी क्यों कहते हैं, देवकीके स्तनोंका दूध भगवान्ने पिया, और जो बाकी रहा उसको और पुत्रोंने पिया?॥
हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्! मरेहुये पुत्रोंका आगमन और फिर गमन देखकर विस्मित देवकीने जान लिया कि, यह सब श्रीकृष्णचन्द्रकी रचीहुई माया है॥५७॥ अनंतशक्ति परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे ऐसे आश्चर्ययुक्त अनंत चरित्र हैं॥५८॥ सूतजी बोले कि, हे शौनकादिक ऋषीश्वरो! व्यासनंदन महात्मा शुकदेवजीके कहेहुए और सब जगत् के पापोंके दूर करनेवाले, भक्तोके कानोंको आनन्ददायक अमृतरूपी कीर्त्ति मुरारी भगवान्के चरित्रोंको भगवान्में चित्त लगाकर जो पुरुष श्रवण करैअथवा श्रवण करावै, वह पुरुष काल और मायासे रहित भगवान्के
तद्दृष्ट्वादेवकी देवी मृतागमननिर्गमम्॥ मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप॥५७॥ एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः॥ वीर्याण्यनंतवीर्यस्य संत्यनंतानि भारत॥५८॥ सूत उवाच॥ य इदमनु शृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः॥ जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे मृताग्रजानयनं नाम पंचाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः॥ यथोपयेमे विजयो या ममासीत्पितामही॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नवनीं प्रभुः॥ गतः प्रभासमशृणोन्मातुलेयीं स आत्मनः॥२॥
परमधामको प्राप्त होताहै॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां मृताग्रजानयनं नाम पंचाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ दोहा—हरण सुभद्राको कियो, छ्यासी अर्जुन धीर॥ कियो सुखी श्रुतदेवको, अरु द्विजको यदुवीर॥८६॥ राजा परीक्षित पूंछने लगे कि हे योगीश्वर श्रीशुकदेवजी! बलराम और श्रीकृष्णचन्द्रकी भगिनी सुभद्रा जो मेरी दादी थी उसके संग अर्जुनने जिसप्रकार विवाह किया, सो मेरी सुननेकी इच्छा है॥१॥ यह प्रश्न सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! एक समय सामर्थ्यवान् अर्जुन तीर्थयात्रा करनेके लिये
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** उत्तर**—शास्त्रमें लोकमें तीन प्रकारका कर्म वर्णन होता है, एक वचनसे कर्म होताहै, दूसरा मनसे कर्म होताहै, तीसरा शरीरसे कर्म होताहै, इन तीनों कर्मोंमें कोई कर्म छोटा नहीं है, अरु कोई कर्म बडाभी नहीं है यह तीनों कर्म समान हैं देवकीके दूधको भगवान् सदा मनसे पीतेरहे, जो मनसे दूध पिया तो वचन तथा शरीरसे दूधका पीना सत्य होगया, इसलिये व्यासजीने देवकीके दूधको कहा॥
पृथ्वीपर भ्रमण करता करता प्रभासतीर्थमें पहुँचा॥२॥ वहाँ जाय अपने मामाकी पुत्री सुभद्रा बलदेवजी दुर्योधनको व्याह देंगे और वसुदेवादिकोंकी इसमें सम्मति नहीं है, यह बात सुन उस सुभद्राके लेनेकी इच्छासे अर्जुन संन्यासी बन तीन दंड धारणकर द्वारकापुरीमें आया॥३॥ अपने कार्यको सिद्ध करनेकी इच्छासे अर्जुनने चार महीने वर्षाऋतुके द्वारकापुरीमें बिताये, पर वहाँके मनुष्योंको और बलरामजीको भी इस छलकी खबर न हुई, इस कारण वह उसका नित्यप्रति सन्मान करते थे॥४॥ एक दिन संन्यासीभावसे अर्जुनका निमंत्रणकर घरमें बुला श्रद्धापूर्वक बलदेवजीने जो भोजन परोसा सो अर्जुनने भोजन किया॥५॥ वहाँ शूरवीरोंके मनको हरनेवाली एक अत्यन्त सुन्दर कन्या अर्जुनने
दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे॥ तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदंडी द्वारकामगात्॥३॥ तत्र वै वार्षिकान्मासानवात्सीत्स्वार्थसाधकः॥ पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः॥४॥ एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमंत्र्य तम्॥ श्रद्धयोपाहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल॥५॥ सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम्॥ प्रीत्युत्फुल्ले क्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे॥६॥ सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम्॥ हसंती व्रीडितापांगी तन्न्य स्तहृदयेक्षणा॥७॥ तां परं समनुध्यायन्नंतरं प्रेप्सुरर्जुनः॥ न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा॥८॥ महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गताम्॥ जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः॥९॥ रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चाऽऽरुंधतो भटान्॥ विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव॥१०॥
देखी, जिसपर दृष्टि पड़तेही उसके नेत्र प्रीतिसे प्रफुल्लित होगये और रतिके अभिप्रायसे चलायमान मन सुभद्रामें लगगया॥६॥ स्त्रियोंका मन हरनेवाले अर्जुनको देख सुभद्राने भी अपना मन अर्जुनमें लगाया और लाजभरे नेत्रोंसे कटाक्षसहित उसकी ओर देखनेलगी॥७॥ बड़े बलवान् कामदेवसे चलायमान चित्त अर्जुनने केवल सुभद्राका ध्यान और हरण करनेका अवसर देखते बलदेवजी के किये सन्मानसे कुछ सुख नहीं पाया॥८॥ इसके उपरान्त बडी देवीकी यात्रामें रथमें बैठकर निकली सुभद्राको माता, पिता, देवकी, वसुदेव, और श्रीकृष्णकी सम्मतिसे महारथी अर्जुनने हरण किया॥९॥ रथमें बैठ धनुष हाथमें ले अर्जुन चारों ओरसे रोंके प्यादोंको भजाय उनके पुकारतेही जैसे सिंह अपने भागको ले
जाता है, उसी प्रकार लेगया॥१०॥अर्जुन सुभद्राको लेगया, यह बात श्रवणकर जैसे पूर्णमासीको समुद्र उमडता है, उसीप्रकार क्रोधितहुए बलदेवजीको सुहृदोंसहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने शान्त किया॥११॥फिर बलदेवजीने अति आनन्दपूर्वक दहेजमें उन दूलह दुलहनके लिये अमूल्य सामान, हाथी, घोडे, रथ, दास, और दासियें आदि भेजे॥१२॥श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि हे महाराज परीक्षित्!श्रीकृष्णचन्द्रकी एक भक्तिसे पूर्णमनोरथ, शान्तस्वभाव विवेकी विषयोमें अनासक्त एक श्रुतदेव नाम प्रसिद्ध ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका भक्त था॥१३॥ विना उपाय करे मिले भोजनहीसे निर्वाह करके अपने कर्मोंको करे, ऐसे गृहस्थी ब्राह्मण विदेहदेशकी मिथिलापुरीमें वास करता था॥१४॥ जितनेमें शरीरका
तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीवमहार्णवः॥ गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद्भिश्चान्वशाम्यत॥११॥ प्राहिणोत्परिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः॥ महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषितः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ कृष्णस्यासीद्द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः॥ कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शांतः कविरलंपटः॥१३॥ स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी॥ अनीहयाऽऽगताऽऽहार्यनिर्वर्तितनिजक्रियः॥१४॥ यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत॥ नाधिकं तावता तुष्टः क्रियाश्चक्रे यथोचिताः॥१५॥ तथा तद्राष्ट्रपालोंऽग बहुलाश्व इति श्रुतः॥ मैथिलो निरहंमान उभावप्यच्युतप्रियौ॥१६॥ तयोः प्रसन्नो भगवान्दारुकेणाहृतं रथम्॥ आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान्प्रययौ प्रभुः॥१७॥ नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः॥ अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः॥१८॥
निर्वाह हो, उतना भोजन प्रतिदिन अकस्मात् उसके लिये आजाता था, और अधिक नहीं, परन्तु उतनेहीमें संतोष करके यथायोग्य संध्योपासनादि कर्म करता था॥१५॥ हे परीक्षित्!जैसा श्रुतदेव ब्राह्मण भक्त था, उसी प्रकार मिथिलादेशका पालन करनेवाला जनकके वंशमें हुआ निरभिमान बहुलाश्व नामसे विख्यात राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका भक्त था, ब्राह्मण और राजा यह दोनों श्रीकृष्णचन्द्रके प्यारे हैं॥१६॥ उन दोनों भक्तोंके ऊपर प्रसन्न हुए सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रथवान्के लाये रथमें बैठ मुनियोंको संगले विदेह देशको चलेगये॥१७॥ तब नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यासजी, परशुराम, असित, अरुणि मैं(शुकदेवजी) बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय और च्यवन, आदि ऋषि भी संगगये थे॥१८॥
हे राजन्! मार्गमें मुनियोंको संगलिये श्रीकृष्णचन्द्र जहाँ जहाँ गये तहाँ तहाँ पुरवासी उनके लिये अर्घ्यहाथमें लेकर उनकी स्तुति करतेथे, जैसे ग्रह उदयहोकर सूर्यको अर्घ्य देते हैं॥१९॥ आनर्त्तदेश, धन्व, कुरु, जांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुंति, मधु, कैकय, कोसल, अर्ण इन देशोंके वासी स्त्री पुरुष उदार हँसनियुक्त स्नेहभरी चितवनवाले श्रीकृष्णचन्द्रका मुखारविन्द दृष्टि भरकर देखनेलगे॥२०॥ अपनी कृपादृष्टिसे अज्ञान दूरकर पुरुषोंकी दृष्टिको कल्याण और तत्त्वज्ञान देते, दिशाओंके अंततक व्याप्त पापनाशक देवता और मनुष्योंसे गाये अपने यशको श्रवण करते
तत्रतत्र तमायांतं पौरा जानपदा नृप॥उपतस्थुः सार्घहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम्॥१९॥ आनर्तधन्वकुरुजांगलकंकमत्स्यपांचालकुंतिमधुकैकयकोसलार्णाः॥ अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहासस्निग्धेक्षणं नृप पप्रुर्दृशिभिर्नृनार्यः॥२०॥ तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन्॥ शृण्वन्दिगंतधूवलं स्वयशोऽशुभघ्नं गीतं सुरैर्नृभिरगाच्छनकैर्विदेहान्॥२१॥ तेच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप॥ अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः॥२२॥ दृष्ट्वा त उत्तमश्लोकं प्रीत्युत्फुल्लाननाशयाः॥ कैर्धृतांजलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वांस्तथा मुनीन्॥२३॥
त्रिलोकीके गुरु श्रीकृष्णचन्द्र धीरे २ विदेहादिक देशोंमें पहुँचे॥२१॥ हे राजा परीक्षित्! वह संपूर्ण पुरवासी देशवासी जन श्रीकृष्णचन्द्रको आया सुन हर्षितहो पूजाके योग्य सामग्रियोंको हाथमें ले सम्मुख आये॥२२॥ उत्तमयशी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शनकर प्रफुल्लित मुख और अंतःकरणवाले पुरुष हाथ जोड मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगे और उक्त मुनियोंको भी प्रणाम किया*****॥२३॥
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** *शंका—** मुनीश्वर लोग विदेह राजाके नगरको सदा आते थे और नगरमें कुछ दिन वास करके अपने अपने आश्रमोंको चलेजाते थे, जब कि, जनकपुरमें बडे बडे महात्मा और प्रजागण बसते थे, तब वह पुरवासी प्रजागण और महात्माजन मुनियोंको देखते थे और पहिचानते थे, फिर व्यासजीने क्यों कहा कि, प्रथम जिन मुनियोंको ब्राह्मणने सुन रक्खा था उन मुनियोंका पूजन किया, इस बातसे यह जान पडता है कि, नारदादि मुनि जनकपुरीको कभी भी नहीं गये, नये नये कृष्णके साथ गये हैं, इसलिये व्यासजी कहैहैं कि, जनकपुरवासी प्रजा देखे नहीं थे परन्तु सुने तो ये कि, अमुक अमुक मुनि पृथ्वीपर हैं, यह शका बडी भारी है?
** उत्तर—** “श्रुतपूर्वान्मुनीश्वरान्” इस श्लोकमें विद्वान् पुरुष सब दिन तथा वर्षको तथा बहुत दिनको बहुत पहिले नहीं मानतेथे बहुत दिन तथा वर्षसे तो पुरवासी प्रजा सब मुनियोंको जानते थे परन्तु जब श्रीकृष्णके साथ सब मुनि आये तब सब मुनियोंको पुरवासी प्रजाने देखा, उससमयसे पहिचाना और पहिलेसे तो सुन रक्खा था, मुनियोंको पुरवासी ऐसा अर्थ है क्योंकि जनकपुरमें बडा कोलाहल मच गयाथा कि श्रीकृष्णचन्द्र जनकपुर को आते हैं, उनके सग अमुक अमुक मुनि लोग भी आते हैं, ऐसा पुरवासियोंने सुनाथा तब जिन जिनके आनेको सुनाथा सो सब आगये, उन सबका यथायोग्य पूजन किया “श्रुतपूर्वान्मुनीश्वरान्” का अर्थ व्यासजीने ऐसा किया है और ऐसा नहीं किया कि कमी देखे नहीं थे सुने ही थे॥
जगत्के गुरु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हमारे ऊपर अनुग्रह करनेके लिये आये हैं, इसप्रकार बुद्धिसे निश्चयकर मिथिलापुरीका राजा बहुलाश्व और श्रुतदेव ब्राह्मण दोनों श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें आनकर गिरपड़े॥२४॥मिथिलापुरीका राजा बहुलाश्व और श्रुतदेवजी इन दोनोंमें एक संग हाथ जोड़ ब्राह्मणोंसहित श्रीकृष्णचन्द्रका आतिथ्यभाव कर निमंत्रण किया॥२५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दोनोंका निमंत्रण मान दोनोंका प्रिय करनेके लिये ब्राह्मणोंसहित दो रूप धर दोनोंके घरगये, उससमय राजा और ब्राह्मणोंने यह नहीं जाना कि इन्होंने दो रूप कर लिये हैं॥२६॥उदारमन बड़ी भक्तिसे हृदयमें हर्ष, नेत्रोंमें आँशुभरे जनकवंशी राजा बहुलाश्व असत् पुरुषोंके सुननेमें भी न आवैं, ऐसे भगवान्को अपने घरलाय बिछाये
स्वानुग्रहाय संप्राप्तं मन्वानौ तं जगद्गुरुम्॥ मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः॥२४॥ न्यमंत्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः॥ मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत्संहतांजली॥२५॥ भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया॥ उभयोराविशद्गेहमुभाभ्यां तदलक्षितः॥२६॥ श्रोतुमप्यसतां दूराञ्जनकः स्वगृहागतान्॥ आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान्महामनाः॥२७॥ प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्षहृदयास्राविलक्षणः॥ नत्वा तदंघ्रीन्प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः॥२८॥ सकुटुंबो वहन्मूर्ध्ना पूजयांचक्रईश्वरान्॥ गंधमाल्यांबराकल्पधूपदीपार्घगोवृषैः॥२९॥ वाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान्॥ पादावंकगतौ विष्णोः संस्पृशन्शनकैर्मुदा॥३०॥ राजोवाच॥ भवान्हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग्विभो॥ अथ नस्त्वत्पदांभोजं स्मरतां दर्शनं गतः॥३१॥
आसनपर सुखसे बिठाया, और वह सुखसे यथायोग्य आसनपर बैठे॥२७॥ इसीप्रकार मुनियोंको नमस्कारकर उनके चरणोंको धोय लोकोंको पवित्र करनेवाला चरणोंका जल॥२८॥ कुटुम्ब सहित राजा बहुलाश्वने अपने माथेपर चढ़ाय ईश्वर और ईश्वरके समान ब्राह्मणोंका गंध, पुष्प, माला, वस्त्र, आभूषण, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल, इन सामग्रियोंसे पूजन किया॥२९॥ भोजनकर तृप्त हुए उन ब्राह्मणों व भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रसन्न करता गोदमें धरे श्रीकृष्णके चरण धीरे धीरे दाबता वह यह कहनेलगा॥३०॥ राजा बहुलाश्वने कहा कि हे समर्थ! सब प्राणियोंके
आत्मा साक्षी स्वयंप्रकाश तुम्हीं हो, इसलिये तुम्हारे चरणारविन्दका स्मरण करनेवाले मुझे तुमने दर्शन दिया है॥३१॥“मेरे एकान्त भक्तसे बढ़कर शेषजी, लक्ष्मीजी और ब्रह्माजी भी प्यारे नहीं हैं”यह जो तुमने कहा, सो अपना वचन सत्य करनेके लिये आपने हमको दर्शन दिया॥३२॥ भक्त तुम्हैंप्रियहैं, इसप्रकार जानकर कौनपुरुष तुम्हारे चरणारविन्दको त्यागन करैगा? निष्किंचन अर्थात् जिनके पास कुछ नहीं है, शान्त शीलस्वभाव मुनियोंको तुम अपने पद दे चुके हो॥३३॥ ऐसे तुम यदुवंशमें अवतार लेकर संसारी जीवोंके संसार छुडानेके लिये त्रिलोकीका दुःख दूर करनेवाले यशका विस्तार करते हो॥३४॥ अकुंठबुद्धि शान्त तप करनेवाले नारायण ऋषि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको
स्ववचस्तदृतं कर्तुमस्मदृग्गोचरो भवान्॥ यदात्थैकांतभक्तान्मे नानंतः श्रीरजः प्रियः॥३२॥ को नु त्वच्चरर्णाभोजमेवंविद्विसृजेत्पुमान्॥ निष्किंचनानां शांतानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः॥३३॥ योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृर्णा
संसरतामिह॥ यशो वितेने तच्छांत्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम्॥३४॥ नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ नारायणाय ऋषये सुशांतं तप ईयुषे॥३५॥ दिनानि कतिचिद्भूभन्गृहान्नो निवस द्विजैः॥ समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेःकुलम्॥३६॥
इत्युपामंत्रितो राज्ञा भगवाँल्लोकभावनः॥ उवास कुर्वन्कल्याणं मिथिलानरयोषिताम्॥३७॥ श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहान्जनको यथा॥ नत्वा मुनीन्सुसंहृष्टो धुन्वन्वासो ननर्त ह॥३८॥ तृणपीठवृसीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः॥ स्वागतेनाभिनंद्यांघ्रीन्सभायाऽवनिजे मुदा॥३९॥
नमस्कार है॥३५॥ हे व्यापक! सब ब्राह्मणों सहित कुछ काल इमारे घरमें वास कर अपने चरणकमलकी रजसे इस निमिराजाके कुलको पवित्र करो॥३६॥ राजा बहुलाश्वने जब इस प्रकार बहुत प्रार्थना की, तब लोकोंके उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मिथिलापुरीके पुरुषस्त्रियोंका कल्याण करनेके लिये कुछेक दिन तक वास किया॥३७॥ जैसे जनकवंशोत्पन्न बहुलाश्व राजाको प्राप्त हुए, उसीप्रकार श्रुतदेव ब्राह्मण भी आया और श्रीकृष्णचन्द्र तथा मुनियोंको नमस्कार कर अत्यन्त हर्षित हो नाचनेलगा॥३८॥ तृणपाटा लायकर बिछाय और कुशके आसन पर ब्राह्मणों सहित श्रीकृष्णचन्द्रको बैठाय “भले आये” इसप्रकार बड़ाई कर स्त्रीसहित श्रुतदेव ब्राह्मण
उनके चरण धोनेलगा॥३९॥और अति प्रसन्नतासे पूर्ण मनोरथ हो बडबागी श्रुतदेव ब्राह्मणने चरणारविन्दके धोवन जलसे आत्मासहित संपूर्ण कुलको पवित्र किया॥४०॥आमले आदि फलोंसे और मंगलरूप अमृतके समान मधुर जलसे तथा सुगंध युक्त मृत्तिका तुलसी, कुश और अनायास लब्ध पूजाकी सामग्रीसे, सत्त्वगुणको बढानेवाले शुद्ध अन्नसे श्रुतदेव ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन करके आराधना करनेलगा॥४१॥जिनकी चरणरेणु सब तीर्थोंको पवित्र करनेवाली है और श्रीकृष्णचन्द्रके रहनेके स्थान ब्राह्मणोंका संग घररूप कुएँमें पड़े मुझे किसकारण से प्राप्त हुआ, इस प्रकार ब्राह्मण तर्क करने लगा॥४२॥ आतिथ्यकर भलीभाँति विराजमान किये ब्राह्मणोंके निकट स्त्री,
तदंभसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम्॥स्नापयांचक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः॥४०॥ फलार्हणोशीरशिवामृतां भसा मृदा सुरभ्या तुलसीकुशांबुजैः॥ आराधयामास यथोपपन्नया सपर्यया सत्त्वविवर्धनांधसा॥४१॥ स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्गृहांधकूपे पतितस्य संगमः॥ यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः॥४२॥ सूपविष्टान्कृतातिथ्याञ्श्रुतदेव उपस्थितः॥ सभार्यस्वजनापत्य उवाचांघ्य्रभिमर्शनः॥४३॥ श्रुतदेव उवाच॥ नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपुरुषः॥ यर्हीदंशक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया॥४४॥ यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया॥ सृष्ट्वा लोकं परं स्वात्ममनुविश्यावभासते॥४५॥ शृण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाऽभिवंदताम्॥ नृणां संवदतामंतर्हृदि भास्यमलात्मनाम्॥४६॥
कुटुम्ब और पुत्रसहित उपस्थितहो श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोका स्पर्श करता श्रुतदेव यह वचन कहनेलगा॥४३॥ श्रुतदेव बोला कि, जिससमय शक्ति इस विश्वको रचकर अपनी सत्तासे इसमें प्रविष्टहुए, उसीसमय तुम परमपुरुष हमको प्राप्तहुए, परन्तु इस साँवरे स्वरूपका दर्शन अभी प्राप्त हुआ है॥४४॥ जिसप्रकार सोतेहुए पुरुषने अपनी अविद्यासे स्वप्नमें मनहीसे दूसरे शरीरको रचकर उसमें मानो प्रवेश किया हो। उसीप्रकार तुमने भी इस संसारको निर्माणकर मानों इसमें घुसेहो, मुझको ऐसा प्रतीत होता है॥४५॥ तुम्हारी कथाओंको श्रवण करै तुम्हारे नामका कीर्त्तन करै, सदा तुम्हारी पूजा करै, तुमको प्रणाम करै, उन शुद्ध अंतःकरणवाले पुरुषोंकोभी आप हृदयमेंही दर्शन देते हो, परन्तु मुझे
तो आपने प्रत्यक्षही दर्शन दिया, इसकारण मुझे जान पडता है कि, मैं सबसे बढ़कर आजदिन सुभाग्य पुरुष हूं॥४६॥कर्मोंसे चलायमान चित्त पुरुषोंके हृदयमें भी स्थित हो, परन्तु अति दूरहो और तुम्हारी कथाको सुनने और तुम्हारे नाम लेनेसे जिनके निर्मल अंतःकरण होगये हैं, उन पुरुषोंके तुम सदा समीप रहतेहो॥४७॥देह और गेहमें अभिमान रहित पुरुषोंको मोक्ष देनेवाले और देह गेहमें अभिमान करनेवाले पुरुषोंको आप संसार देतेहो, कार्य महदादिक कारण माया जो दोनों उपाधि हैं उनको सेवन करतेहो अपनी मायासे आप ढके नहीं हो और जीवोंका ज्ञान मायासे आच्छादन करनेवाले आपको मैं प्रणाम करताहूं, तुम हम भक्तोंको शिक्षा दो, हे प्रकाशमान! हम तुम्हारा क्या पूजन करैं? जबतक
हृदिस्थोऽप्यतिद्वरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम्॥ आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽप्यंत्युपेतगुणात्मनाम्॥४७॥ नमोऽस्तु तेऽघ्यात्मविदां परात्मने अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे॥ सकारणाकारणलिंगमीयुषे स्वमाययाऽसंवृतरुद्धदृष्टये॥४८॥ स त्वं शाधि स्वभृत्यान्नः किं देव करवामहे॥ एतदंतो नृणां क्लेशो यद्भवानक्षिगोचरः॥४९॥ श्रीशुक उवाच॥ तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान्प्रणतार्तिहा॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसंस्तमुवाच ह॥५०॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय संप्राप्तान्विद्ध्यमून्मुनीन्॥ संचरंति मया लोकान्पुनंतः पादरेणुभिः॥५१॥ देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः॥ शनैः पुनंति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया॥५२॥
तुम नेत्रोंके सन्मुख नहीं आतेहो, तबतकही मनुष्यको क्लेश रहता है॥४८॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि; हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसप्रकार श्रुतदेव ब्राह्मणका कहा वचन सुन शरणागतोंका दुःख हरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे ब्राह्मणका हाथ पकड हँसकर यह वचन बोले॥५०॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्राह्मण! यह मुनिलोग तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करनेके लिये यहाँ आये हैं यह तुम निश्चय जानो, क्योंकि यह पुरुष अपने चरणारविंदकी रजसे मनुष्योंको पवित्र करते मेरे साथ भ्रमण किया करते हैं॥५१॥ देवता, क्षेत्र, तीर्थ, इनके दर्शन, स्पर्शन, अर्चन करनेसे
बहुत कालमें धीरे धीरे पवित्र करते हैं, सोभी महात्माओंकी इच्छा होय तो और ब्राह्मण तो शीघ्रही पवित्र करदेते हैं॥५२॥इस संसारमें समस्त प्राणियोंकी अपेक्षासे ब्राह्मण जन्महीसे श्रेष्ठ हैं और जो तप करके श्रेष्ठ होयतो इसमें कहनाही क्या है?॥५३॥ यह मेरा चतुर्भुज रूप भी मुझे ब्राह्मणोंसे विशेष प्यारा नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण सर्व वेदमय हैं और देवतारूप मैंहूं और देवताओंकी सिद्धि वेदके आधीन होनेसे ब्राह्मण मुझे इस रूपसे भी अधिक प्रिय हैं॥५४॥खोटीबुद्धि गुणोंमें दोषको देखनेवाले पुरुष भी ब्राह्मण वेदमय हैं, यह न जान गुरुरूप, ब्राह्मणरूप सबके आत्मा मेरा निरादर करते हैं॥५५॥स्थावर, जंगम, यह विश्व और इस विश्वके कारण महदादिक पदार्थ सब ईश्वरही रूपहैं, इसप्रकारसे ब्राह्मण सब
ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान्सर्वेषां प्राणिनामिह॥तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः॥५३॥न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम्॥ सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम्॥५४॥दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानत्यसूयवः॥गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टयः॥५५॥ चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः॥ मद्रूपाणीति चेतस्याऽऽधत्ते विप्रो मदीक्षया॥५६॥ तस्माद्ब्रह्मऋषीनेतान्ब्रह्मन्मच्छ्रद्धयाऽर्चय॥एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभृतिभिः॥५७॥श्रीशुक उवाच॥स इत्थं प्रभुणाऽदिष्टः सहकृष्णान्द्विजोत्तमान्॥ आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद्गतिम्॥५८॥
ओर अपनी दृष्टिसे जानते हैं॥५६॥ हे ब्राह्मण श्रुतदेव!जैसी श्रद्धा मुझमें है, इसीप्रकार श्रद्धासहित ब्रह्मऋषियोंका पूजन करो, मुझमें इनमें एकसा भाव करोगे तो मेरी साक्षात् पूजा होजायगी और जो भेदभावसे मेरी बहुतसी संपत्तियोंसे भी पूजा करोगे तो मैं प्रसन्न न हूगा॥५७॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा पाय श्रुतदेव ब्राह्मण श्रीकृष्ण चन्द्रसहित सब ब्राह्मणोंका एकभावसे आराधन कर सुन्दरगतिको प्राप्त हुआ और मिथिलापुरीके राजाने भी सुन्दरगति पाई॥५८॥
हे राजन्! इसप्रकार भक्तोंपर प्रीतिकरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने भक्त बहुलाश्व और श्रुतदेवके यहाँवासकर सन्मार्ग अर्थात् उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड इन तीनों काण्डोंका उपदेशकर फिर द्वारकापुरीमआनकर सुशोभित हुए॥५९॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धेभाषाटीकायां श्रुतदेवानुग्रहो नाम षड़शीतितमोऽध्यायः॥८६॥दोहा — सत्तासी अध्यायमें, नारद हरि सुखधाम।परब्रह्म निश्चय कियो, वेदस्तुतिपरिणाम॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्!गत अध्यायके अंतमें भगवान् वेदका मार्ग ब्रह्मपर इसप्रकार उपदेश करके द्वारकाको चलेगये, यह कहा, तहाँ शब्दरूप वेदोंको ब्रह्मपरत्व नहीं बनता, क्योंकि मुख्या, लक्षणा और गौणी इन तीन प्रकारकी वृत्तियोंसे शब्दकी प्रवृत्ति होती है मुख्यावृत्ति भी दो प्रकारकी है, रूढि और योग जो वस्तुस्वरूप जाति अथवा क्रियासे वा गुणसे निर्देश करी जाय, उसमें रूढिकी प्रवृत्ति होती है, जिसका स्वरूप जाति, क्रिया, गुणसे निर्देश न हो, उसमें यह संभव नहीं हो सकता, सो ब्रह्म तो
एवं स्वभक्तयो राजन्भगवान्भक्तभक्तिमान्॥ उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात्॥५९॥ इति श्रीमद्भावते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥ परीक्षिदुवाच॥ ब्रह्मन्ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः॥ कथं चरंति श्रुतयः साक्षात्सदसतः परे॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ बुद्धींद्रियमनःप्राणाञ्जनानामसृजत्प्रभुः॥ मात्राऽर्थंच भवार्थंच आत्मनेऽकल्पनाय च॥२॥
जाति, गुण, क्रिया, अथवा स्वरूपसे निर्देश नहीं होता, इससे ब्रह्ममें रूढिकी प्रवृत्ति नहीं होसकती, और कार्य कारणसे परे और असंग होनेसे योगवृत्तिका भी संभव नहीं होसकता और लक्षणामें सम्बन्धकी आवश्यकता है, ब्रह्म सब सम्बन्धसे रहित है, इस लक्षणावृत्तिका भी संभव नहीं होसक्ताऔर जो श्रुति गुणका निरूपण करै, ब्रह्म स्वयं निर्गुणहै, इससे गौणी वृत्तिसे ब्रह्मका निरूपण नहीं होसकता, फिर ब्रह्मको श्रुति किस प्रकारसे प्रतिपादन करतीहै?॥१॥ राजा परीक्षित्का यह प्रश्न सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!नित्यमुक्त सर्वशक्तिमान ईश्वरने प्रलयकालमें अपनेमें लीनहुए प्राणियोंके विषयभोगरूप अर्थ जन्मसे कर्मपर्यन्त रूप धर्म परलोकमें उनके सुख भोग रूप काम और कल्पना निवृत्तिरूप मोक्ष पुरुषार्थ देनेके लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राण इनकी रचना की है, यदि यह न हों तो अर्थ धर्म कामकी प्राप्ति
नहीं होसक्ती और जो स्वरूपका विचार न हो तो मोक्ष भी नहीं मिलसकती है “यःसर्वज्ञः सर्वशक्तिमान्” इस लक्षणक निरूपण करनेवाली श्रुति सगुणब्रह्मका निरूपण करतीहै, और जीवोंका संसारनिवृत्तिके लिये (तत्त्वमसि — वहतूहै) यह वाक्य ईश्वरकी ईश्वरत प्रतिपादन करताहै, इसमें नित्य मुक्त ईश्वरका वाचक (तत्) शब्द संसारी जीवका वाचक त्वं पदका समानाधिकरण्य प्रतीत होताहै, सो यह अजहद्स्वार्थीलक्षणासे अथवा भागत्याग लक्षणासे बन सकैहैं, तत् पद तो सर्वज्ञादि गुणवाले ईश्वरका और त्वंपद अल्पज्ञादि गुणवाले पदार्थका वाचक है, इन परस्पर विरुद्ध गुणवाले शब्दोंमेंसे परस्पर विरुद्ध रूप अंशका त्यागन करनेसे दोनोंमें प्राप्त चैतन्य रूपका समान अंश ग्रहण करके (तत् त्वं) यह दोनों पद ब्रह्मरूप एक अर्थके प्रतिपादक होकर एकताका निरूपणकर शुद्ध ब्रह्मको कथन करतेहैं, और (स्थूलमनण्वह्रस्वम्) इत्यादि निषेधका निरूपण करनेवाली श्रुति तत्पदार्थके शोधन करनेमें चरितार्थ हो उपाधिके निषेधसे साक्षात् निर्गुण ब्रह्ममें पर्यवसान होतीहै, उत्पत्ति,
सैषा ह्युपनिषद्ब्राह्मी पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता॥ श्रद्धया धारयेद्यस्तां क्षेमं गच्छेदकिंचनः॥३॥
अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्॥ नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च॥४॥
एकदा नारदो लोकान्पर्यटन्भगवत्प्रियः॥ सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम्॥५॥
यो वै भारतवर्षेऽस्मिन्क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्॥ धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः॥६॥
पालन और प्रलयकी प्रतिपादक श्रुति भी आवागमनरूप सृष्टिका निरूपण कर उसीसे वैराग्यरूप ज्ञानके साधनोंका उपदेश करती ज्ञानके परम्परा सम्बन्धसे ब्रह्मकोही प्रतिपादन करती है, उपासनाकी निरूपण करनेवाली श्रुति उपासनाद्वारा अन्तःकरण शुद्ध करके ज्ञानसाधनका उपदेश देती ज्ञानद्वारा ब्रह्मकोही प्रतिपादन करती है, इसकारण सर्वथा श्रुति ब्रह्मकोही प्रतिपादन करतीहै, यह अभिप्राय है॥२॥ यह जो ब्रह्मपर उपनिषद् है, सो प्रथमहुए सनकादिकोंने पहले धारण करे हैं, जो पुरुष निष्किंचन होकर श्रद्धापूर्वक इसे धारण करैंगे, सो मोक्षको प्राप्त होंगे॥३॥ हे नृपोत्तम!यहाँ तुम्हैंनारायणसम्बन्धी गाथा हम सुनातेहैं, जिस गाथामें नारदजी और ऋषि नारायणजीका संवादहै॥४॥ एक समय भगवान्के प्यारे नारदजी समस्त लोकोंमें फिरते फिरते सनातन ऋषिको देखनेके लिये नारायणके आश्रम बद्रिकाश्रममें आये॥५॥ जो नारायण भरतखण्डमें
लोकोंके कारण क्षेम और मंगलके लिये धर्मज्ञानसे युक्त तपको कल्पपर्यन्त करतेहैं
*
॥६॥ वहाँ कलाप ग्रामके वासी ऋपियोंसहित विराजमान नारायणजीसे नम्र होकर यह पूँछनेलगे॥७॥ उससमय ब्रह्मविचार जनलोकनिवासी सनकादिकोंमें जो हुआथा, सोई भगवान् नवऋषियोंके श्रवण करते नारदजीके अर्थ कहने लगे॥८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे नारदजी! पहले जनलोकमें ब्रह्माके मनसे उत्पन्न हुए नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनकादिक मुनियोंका ब्रह्मसूत्र अर्थात् ब्रह्मविद्याका विचार हुआथा॥९॥ अहो!यह ब्रह्मसत्र मुझे ज्ञात नहीं, इसपर कहते हैं कि हे नारद!उस समय श्वेतद्वीपके
तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः॥ परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह॥७॥ तस्मै ह्यवोचद्भगवान्नृषीणां शृण्वतामिदम्॥ यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम्॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ स्वायंभुव ब्रह्मसत्रं जनलोकऽभवत्पुरा॥ तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्॥९॥ श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम्॥ ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते॥ तत्र हाऽयमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनु पृच्छसि॥१०॥ तुल्यव्रततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः॥ अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे॥११॥ सनंदन उवाच॥ स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः॥ तदंते बोधयांचक्रुस्तल्लिंगैः श्रुतयः परम्॥१२॥
ईश्वर अनिरुद्ध मूर्त्ति देखनेके लिये श्वेतद्वीपमें तुम गये थे तब पीछे ब्रह्मवाद हुआ ब्रह्मवादमें श्रुति भगवान्का प्रतिपादन करती हैं, वहाँ यही प्रश्न हुआ जो तुमने मुझसे पूछाहै॥१०॥ यद्यपि श्रवण तप शील शास्त्राभ्यास मित्र, शत्रु, मध्यम इन सबमें सनकादिक समानहैं परन्तु तोभी एकको वक्ता बनाकर संपूर्ण श्रोता होगये॥११॥ सनंदनजी बोले, कि अपने निर्माण किये इस संसारका नाशकर अपनी शक्ति सहित सोये भगवान्को प्रलयके
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*शंका— बद्रिकाश्रममें नारायणनाम मुनि मनुष्योंके कल्याण होनेके लिये बहुत युग कल्प कल्पान्तसे तप करते हैं सो उस तप करनेसे मनुष्योंका क्या कल्याण होताहै?॥
** उत्तर—** सबजीवोंको इन्द्रियोंको अलग अलग विषय सुख सब लोकमें, है परन्तु नारायणनाम मुनि मरतखण्डमें तप करते हैं, इसलिये मनुष्योंको ज्ञानका सुख तथा मोक्षरूप कल्याण ज्ञानसे होना सिबाय मरतखण्डके दूसरे द्वीप तथा खण्ड तथा और लोकमेंज्ञान नहींहैहे श्रोताओ! ज्ञानसे दूसरा कल्याण मनुष्योंको कोई भी नहीं है इसलिये मनुष्योंके कल्याण होनेके कारण नारायण मुनि तप करतेहैऐसा लिखाहै।
अंतसमयमें ब्रह्मके प्रतिपादक वचनोंसे श्रुतियें जगानेलगीं॥१२॥ जैसे रात्रिके सोये चक्रवर्त्ती राजाको प्रातःकालको राजोपजीवी बंदीजन उठ उसके पराक्रमके सुन्दर यशको वर्णन करके जगाते हैं॥१३॥ श्रुतियें बोलीं कि; हे सर्वविजयी ईश्वर!तुम्हारी जय हो, आप अपने वैभवको प्रगट करो और इस घोरनिद्राको त्यागकर हमारा प्रतिपादन करो, जिसप्रकार स्त्री और दूसरे पुरुषको छलनेके लिये अनेक प्रकारके रूप और गुण धारण करतीहै, उसीप्रकार आनन्दादिकका आवरण करनेके लिये गुण ग्रहण करनेवाली स्थावर और जंगम शरीराश्रित जीवोंकी अविद्याका नाश करो, क्योंकि अनादिकालसे यह अविद्या संसारके जीवोंको मोहित करके अनेक अनेक प्रकारके दुःख दिखाती है, और इसीकारण प्राणियोंको अनेक योनियोंमें जन्म लेना पड़ताहै, यह सब अविद्याहीका प्रभावहै, क्योंकि यह अविद्या महाबलवान है, मनुष्योंकी तो क्या सामर्थ्य है? देवताओंके मनको भी मोहनेवालीहै, वहभी इसके दूर करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते, आपही इसको दूर कर सक्तेहो, क्योकि आप सर्वान्तर्यामी और मायासे रहित हो,
यथा शयानं सम्राजं बंदिनस्तत्पराक्रमैः॥ प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयंत्यनुजीविनः॥१३॥ श्रुतय ऊचुः॥ जयजय जह्यजामजित दोषगृहीतगुणां त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः॥ अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः॥१४॥ बृहदुपलब्धमेतदवयंत्यवशेषतया यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाऽविकृतात्॥ अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं कथमयथाभवंति भुवि दत्तपदानि नृणाम्॥१५॥
और इस महागंभीर संसारसागरसे पार उतार मोक्षके देनेवाले आपही हो, इसी लिये वारम्वार आपसे यह निवेदन है, कि आप इन जीवोंपर अनुग्रह करके इस महाप्रबल अविद्याका नाश करो, क्योंकि माया आपके वश होनेसे सब ऐश्वर्य आपको स्वरूपहीसे प्राप्त है इसीकारण अविद्या आपमें किसीप्रकारका दोष नहीं लगासक्ती और आप सनातन धर्म पालनेके और भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये जगत्में अनेक अवतार धारण करतेहो, हे सर्व प्राणियोंके बोध करनेवाले परमेश्वर! सृष्टिकी आदि समयमें माया करके क्रीडा करतेहो और आनन्द देकर अपने आत्मा करके वर्त्तमान जो आप हो सो आपका प्रतिपादन करैहै और आपही सम्पूर्ण शक्तियोंके जगानेवाले हो, तुम अखण्ड विभव और ज्ञानशक्तिसे जीवोंका अज्ञान दूर करो हो, इस विषयमें हम (श्रुति) ही प्रमाण हैं॥१४॥ (१) यदि कहो कि, मंत्रोंमें अग्नि आदि देवताओंका प्रतिपादन देखनेमें
आताहै, वेभी सब तुम्हारेही रूपकेहैं, ऐसा ज्ञानी जानते हैं, क्योंकि यह जो कुछ दृश्यमान है, इसके न होनेपर आपही अवशेष रहतेहो, इस सब जगत्की उत्पत्ति नाश आपहीमें होता है, जैसे घटादिकोंका उदय, अस्त मृत्तिकामें होताहै, मंत्र दृष्ट्या ऋषियोंके मन और वचनका तात्पर्य तुम्हारे विषय है, अन्यमें नहीं, जैसे मनुष्य अपने चरण मृत्तिका, पाषाण, ईट, इनके ऊपर धरताहै, परन्तु भूमिसे पृथक नहीं है, उसी प्रकार जो कुछ विचार है सो सब तुम्हींसे हुआहै, सर्व कारण परमार्थरूप तुम हो इस प्रकार हम (वेद) प्रतिपादन करतेहैं॥१५॥ (२)॥ हे त्रिगुण मायामृगीके नचाने वाले!विवेकी पुरुष तुम्हारे अखिल लोकोंके मल नाश करनेवाले कथारूपी अमृतके समुद्रको सेवन करके पाप और दुःखोंको त्यागदेते हैं जब तुम्हारी कथामात्रसेही पापोंका नाश होजाताहै, तब स्वरूपका स्मरणकर अंतःकरणके गुण रागादिक और कालके गुण जरादिक जिनके निवृत्त होगये हैं इसमें फिर क्या? और हे प्रभो! तुम्हारा परम अखण्ड आनंद अनुभव स्वरूपका भजन करके दुःखोंको त्यागे तो इसमें कहनाही क्या है?
इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमलक्षपणकथाऽमृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः॥ किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः परम भजंति ये पदमजस्रसुखानुभवम्॥१६॥ दृतय इव श्वसंत्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा महदहमादयोंडमसृजन्यदनुग्रहतः॥ पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम्॥१७॥
॥१६॥ (३) अब जो पुरुष तुम्हारा भजन नहीं करते उनकी निन्दा है, और जो प्राणधारी तुम्हारा भजन करते हैं, उनका सफल जन्म है, इस प्रकार स्तुति करते हैं, अथवा जो प्राणधारी तुम्हारा भजन करके श्वासोंको पूर्ण करते हैं वही सफलजन्मा हैं और जो विना भजन करे श्वास लेते हैं, वह लुहारकी धौंकनीके समान वृथा श्वास हैं, तुम्हारे भजनके विना कृतघ्नियोंको फलकी सिद्धि नहीं होती फिर यह कहते कि जिसके अनुग्रहसे महत्तत्त्व अहंकारादिक तत्त्व इस देहको रचते हैं, उस देहमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश जो देह, प्राण, मन, बुद्धि और ज्ञान कहलातेहैं उनमें प्रवेश करके उनही उन आकारोंसे चेतन करनेवाले तुम्हीं हो इसप्रकार वेदने अंतमें वर्णन किया है, अन्नमयादिकोंकेसा आकारवाला पुरुष अन्नमयादिकोंमें मिल रहा है यद्यपि यह बात सत्य है परन्तु तोभी तुम्हारा असंगत्व नहीं मिटता तो अन्नमयादिकोंके अंतमेंही इसलिये रूपको वर्णन करते हैं, स्थूल सूक्ष्मसे परे हो और इनमें अविशेषरूप हो, इस कारण सत्य हो; शाखाचन्द्रकी तुल्य शुद्ध रूप
दिखानेके लिये अन्नमयादिकोंमें सम्बन्ध कहाहै, जैसे शुद्ध चन्द्रमाके दिखानेको वृक्षकी शाखाका अवलम्बन करतेहैं, इसीप्रकार ब्रह्मके दिखानेको कोशादिका अवलम्बन है॥१७॥ (४) हे अनन्त! जो मनुष्य ऋषिवर्त्म अर्थात् वेदोक्त कर्ममार्गमें स्थित होकर वेदके उदररूपी कर्मकी उपासना करते हैं अर्थात अग्निहोत्र याग करते हैं भगवद्दर्शनमें रुचि नहीं करते वह कूपदृश हैं अर्थात् उनके नेत्रोंमें धूरिपडी हुई है, इसलिये सूक्ष्मवस्तुका दर्शन नहीं करसकते “यज्ञो वै विष्णुः” इस श्रुति के अनुसार वह भी भगवदुपासकही है और योगीजन नाड़ियों द्वारा हृदयमें भगवदुपासना करते हैं, इस लिये वे आरुणी अर्थात अरुणोदयमें थोडा प्रकाश होजाता है, इसीप्रकार इनकी उपासना है और आपकी प्राप्तिका स्थान सुषुम्ना नाडी जो मूला धारसे हृदयमें हो ब्रह्मरंध्रतक गई है, जिसको पाकर फिर प्राणी संसारमें नहीं आते इसीका नाम मुक्ति है॥१८॥ (५) तुम सबके उपादान कारण
उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम्॥ तत उदगादनंत तव धाम शिरः परमं पुनरिह यत्समेत्य न पतंति कृतांतमुखे॥१८॥ स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया तरतमतश्चकास्त्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः॥ अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं विरजधियोऽन्वयंत्यभिविपण्यव एकरसम्॥१९॥ स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरंतरसंवरणं तव पुरुषं वदंत्यखिलशक्तिधृतोंशकृतम्॥इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं भवत उपासतेंघ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः॥२०॥
हो, इसलिये प्रथमही सबसे वर्त्तमान हो, इसीसे तुम्हारे निर्मित किये, ऊंच, नीच, मध्यम देहोंमें तुम्हारा प्रवेश होना संभव नहीं हो- सकता, तो भी जैसे उनमें प्रवेश किये हो, इसीप्रकारसे देहादिकोंका अनुकरण करते न्यूनाधिक प्रतीत होते हो जैसे अग्नि तारतम्यरहित है परन्तु काष्ठमें व्याप्त होनेसे उसीके समान प्रतीत होती है, इसीप्रकार आपको सब उपाधिसे रहित समान एक रस जानकर दोनों लोकके कर्म फल रहित उज्ज्वल बुद्धिवाले मनुष्य असत्य देहादिमें आपको ही सत्य मानकर तुम्हारी उपासना करते हैं॥१९॥ (६) अपने कर्मोंसे प्राप्त हुये नरकादिक देहमें यह जीव भोक्तृत्वसे वर्त्तमान है, वह जीव भीतर बाहर आवरण रहित संपूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले तुम्हारा अंशहीहैं, इस प्रकार पण्डित जीवकी गतिको विचार वेदोंके उत्पत्ति स्थान और संसारसे छुड़ानेवाले तुम्हारे चरणोंकी उपासना करते हैं, इसप्रकार विश्वास
पूर्वक अर्चन वन्दन करना यही मत्यलोकमें उचित है॥२०॥ (७) हे ईश्वर! दुर्बोध आत्मतत्त्वके जनानेके लिये अवतार धारण करनेवाले तुम्हारे चरित्ररूपी अमृतसमुद्रमें अवगाहनकर श्रमरहित हो कोई एक तुम्हारे भक्त मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, और तुम्हारे चरणकमलमें अवगाहन कर हंसके समान रमण करते हैं, ऐसे भक्तोंके संगके लिये घर भी उन्होंने त्याग दिये हैं, जब गृहादिका त्यागन कर दिया, तब परलोकके सुखकी क्या कथा है? इसलिये आपकी भक्ति, मुक्तिसे भी अधिक है॥२१॥ (८) तुम्हारी सेवाका साधक यह शरीर जब आत्मा सुहृद और प्रियके समान स्वाधीन है, तो भी सन्मुख स्थित हितकारी प्यारे आत्मारूप आपका साक्षात् भावसे भजन नहीं करते हैं, और देहादिके लालन पालन करनेमें पडेरहते हैं, यह बडे कष्टकी बात है, मिथ्याभूत देहादिकोंके सेवनसे असत् उपासनामें वासनावाले नीच देहको धारण करनेवाले बडे
दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः॥ न परिलषंति केचिदपवर्गमपीश्वर ते चरणसरोजहंसकुलसंगविसृष्टगृहाः॥२१॥ त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियवच्चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च॥ न बत रमंत्यहो असदुपासनयाऽऽत्महनो यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः॥२२॥ निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि यन्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्॥ स्त्रिय उरगेंद्रभोगभुजदंडविषक्तधियो वयमपि ते समाः समदृशोंघ्रिसरोजसुधाः॥२३॥ क इह तु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं यत उदगादृषिर्यमनु देव गणा उभये॥ तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा॥२४॥
भयरूप संसारमें भ्रमण करते हैं, इसलिये वह आत्मघाती हैं॥२२॥ (९) प्राण, मन, इन्द्रिय जीतकर दृढ योगके करनेवाले मुनिलोग हृदयमें जिसकी उपासना करतेहैं, वह जिस तत्त्वको योगद्वारा प्राप्त हुये हैं, उसीप्रकार शत्रु भी तुम्हारे स्मरणसे तुमको प्राप्त हुये हैं, तथा शेषके शरीरके तुल्य तुम्हारे भुजदण्डमें आसक्त बुद्धि भी तुमको प्राप्त हुई है, इसी कारण हम कहते हैं कि, आपकी कृपादृष्टि सबपर समान है और हम तुम्हैंदेश काल परिच्छेद रहित देखते हैं, तुम्हारा प्रताप ऐसा है कि, जो जिस भावसे आपका ध्यान करै, उन सबको तुम्हारे शरीरकी प्राप्ति होती है॥२३॥ (१०) हे भगवन्! इस संसारमें पूर्व सिद्ध तुमको आधुनिक उत्पत्ति विनाशसे युक्त पुरुष कैसे जानेंगे? अर्थात् नहीं जानेंगे, तुमसे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ है
ब्रह्माके पीछे अध्यात्मक आधिदैवके देवताओंके गण उत्पन्न हुये, इसके पीछे सब चराचर उत्पन्न हुये; इसलिये इन सबका वृत्तान्त आप तो भलीभाँति जानते हो क्योंकि, आप तो सबसे पूर्व अनादि हैं, फिर आपको पीछे उत्पन्न होनेवाला और नाशवान् कौन मूर्ख कह सक्ता है? जिस समय तुम संहार करके शयन करते हो, उस समय जीवोंको ज्ञान साधन नहीं है, इसलिये प्रलयके समय स्थूल आकाशादिक नहीं हैं तथा स्थूल सूक्ष्मसे आरब्ध शरीर भी नहीं है और शरीरका कारणरूप कालका विषमभाव भी नहीं है, उस समय इंद्रिय प्राणादिक कुछ नहीं हैं और सबका जाननेवाला पुरुष भी नहीं है केवल तात्पर्य यह है कि, पूर्व कालके पुरुष अपने पीछे हुओंके वृत्तान्तको जानतेहैं परन्तु पीछे उत्पन्नहुये पूर्वजोंका चरित्र नहीं जानसक्ते, जिसप्रकार पिता पुत्रके वृत्तान्तको तो भले प्रकार जानता है, क्योंकि उसके सामने उसका जन्म और सब कार्य हुये, परन्तु पुत्र पिताका वृत्तान्त किसी रीतिसे नहीं जानसक्ता क्योंकि जब उसका जन्म कर्मही उसके आगे नहीं हुवा, फिर उसके
जनिमसतः सतोमृतिमुतात्मनि ये च भिदां विपणमृतं स्मरंत्युपदिशंति त आरुपितैः॥ त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे॥२५॥ सदिवमनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्सदभिमृशंत्यशेषमिदमात्मतयात्मविदः॥न हि विकृतिं त्यजंति कनकस्य तदात्मतया स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयाऽवसितम्॥२६॥
भेदभावको वह कैसे जानसक्ता है, इसीप्रकार आपके पीछे हुये सब प्राणी आपको नहीं जान सक्ते इससे आपका भजनही करना उचित है॥२४॥ (११) मिथ्याभूत जगत्की उत्पत्ति है, अर्थात् यह पहले कुछ नहींथा इसप्रकार वैशेषिकादिक आचार्य कहते हैं और जीवोंमें ब्रह्मत्त्व नहीं है, परन्तु योगसाधनसे होजाता है, यह योगशास्त्रवाले कहते हैं और इक्कीस प्रकारके दुःखोंका नाश मोक्ष है, इस प्रकार नैयायिक कहते हैं, और सांख्याचार्य आत्मामें भेदभाव मानतेहैं और कर्मफलके व्यवहारको मीमांसक सत्य कहते हैं, सो संपूर्ण आरोपित भ्रमसे ही उपदेश करते हैं, तत्त्वदृष्टिसे उपदेश नहीं करते, वास्तवमें वह पुरुष त्रिगुणमय हो तो इनका कहना सत्य है, सो नहीं, त्रिगुणमय पुरुष यह भेद तुम्हारे विषे अज्ञानसे किया है, तुम अज्ञानसे परे संगरहित ज्ञानघन हो, इसलिये तुममें अज्ञानका होना संभव नहीं॥२५॥ (१२) जो पुरुष असत् नहीं उपजै और त्रिगुणमय पुरुष नहीं है, तो इससे यह विदित हुवा यह सब प्रपंच और पुरुष संपूर्णतः तुमसे भिन्न नहीं है, सो उनके स्वरूपसेसत्यकी प्रतीति
कैसे संभव है? मनोमात्रविलसित, त्रिगुणात्मक प्रपंच मिथ्याही है, तो सत्य कैसे प्रतीत हो सक्ता है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, तुम अधिष्टान हो इसकारण तुम्हारी सत्तासे सत्यसा प्रतीत होता है, केवल निषेधसे प्रतीत हुआ है, अर्थात् अभिप्रायसे मनुष्यसे पुरुषकी भिन्न जो सत्ता प्रतीत होती है सो मनमात्रका विलास है, आत्माके जाननेवाले इस भोक्ता और भोग्यरूप जगत्को स्थितहुए आत्माकी सत्तासेही सत्तावाला कहते हैं आत्मासे भिन्नसत्तावाला नहीं मानते आत्माका कार्य है इसलिये भिन्न नहीं है, जैसे स्वर्णके विकार कुण्डलादिक आभूषणोंको स्वर्णके लेनेवाले त्याग नहीं करते हैं, किन्तु स्वर्णही जानकर ग्रहण करते हैं, इसकारणसे अपने किये विश्वमें प्रविष्ट पुरुषरूप जीव भी आत्माही है, यह निश्चय है॥२६॥(१३) परमात्माको सर्वत्र जान लेना और भक्ति न करना यह बात नहीं परन्तु उसकी सदा भक्ति करनी, क्योंकि जो आपको संपूर्ण पदार्थोंमें स्थित जानकर तुम्हारी सेवा करते हैं, वे संसारको तिरस्कार कर मृत्युके मस्तकपर चरणधर मुक्त होजाते हैं और जो तुमसे विमुख
तव परि ये चरंत्यखिलसत्त्वनिकेततया त उत पदाऽऽक्रमंत्यविगणय्य शिरो निर्ऋतेः॥परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तांस्त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनंति न ये विमुखाः॥२७॥ त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरस्तव बलिमुद्वहंति समदंत्यजयाऽनिमषाः॥ वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः॥२८॥ स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः॥ न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्वियत इवाऽपदस्य तव शून्यतुलां दधतः॥२९॥
हैं और तुम्हारे अभक्त हैं उन्हैंपशुओंके समान वाणीसे तुम बाँधते हो और जिनने आपसे प्रेम किया है, वह निश्चय आपको और दूसरोंको पवित्र कर सकते हैं॥२७॥ (१४) हे प्रभो! तुम इन्द्रियोके संबंधसे रहित हो और समस्त प्राणियोंकी इन्द्रियोंकी शक्तियोंको प्रवृत्ति करते हो, अपने स्वरूपसेही प्रकाशमान हो, स्वतःसिद्ध ज्ञानशक्ति होनेसे तुमको इंद्रियोंकी अपेक्षा नहींहै, इसीकारणसे विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिक और इन्द्रादिक देवता संपूर्ण माया सहित तुम्हारी पूजा करते हैं और मनुष्योंका दिया हव्य कव्यादिक बलि भक्षण करते हैं, जैसे संपूर्ण पृथ्वीके ईश्वर चक्रवर्ती (राजा) को खण्ड मंडलोंके राजा भेट देते हैं और आप अपनी प्रजासे भेंट लेते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणादिक तुमको भेंट देते हैं और जिन्हैंआपने अधिकार दे रक्खाहै, उसी अधिकारको तुम्हारे भयसे पूर्णकरते हैं॥२८॥ (१५) है नित्य मुक्त! जिस समय मायासे
तुम्हारा विहार होता है, उसी समय आपकी दृष्टिसे प्रगटहुए कर्म अथवा कर्मयुक्त लिंग शरीरसे स्थावर, जंगम जातिके जीव उत्पन्न होतेहैं, यदि उत्तम, मध्यम, अधम सृष्टि होनेमें उन जीवोंके पूर्व कर्म निमित्त न मानैंतो मन, वाणीसे परे शून्य भावसे बराबरीके करनेवाले आकाशकी सदृश संपूर्णमें सब भाव और परमदयालु आपमें विषमताका लेश भी नहीं है, क्योंकि तुम्हारी दृष्टिमें कोई अपना पराया नहीं है, इसलिये आपका भजनही मुख्य है॥२९॥(१६)॥ जो जीव अनंत और रूपसे नित्य हैं और सर्वव्यापी हैं, तो यह पक्ष हमारा नहीं, क्योंकि यदि जीव वास्तवमें अनंत नित्य और उसी रूपसे व्यापक हो तो वह व्यापकतादि गुणोंसे आपके समान होगये जब समान हुए तो आप उनके नियन्ता नहीं होसकते, जो यह न मानैंतो आपसे उनका नियम संभव न हो, क्योंकि जो वस्तु उपाधिसे जिस पदार्थका विकाररूप है, वह पदार्थ उस वस्तुका निश्चय नियन्ता होगा, क्योंकि उसमें अनुस्यूत रहा, वह पदार्थ कारणतासे उस वस्तुका त्याग नहीं करना तुम्हारे स्वरूपसे “यत्” “तत्” शब्दके अतिरिक्त कुछ
अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगतास्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा॥ अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियंतृ भवेत्सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया॥३०॥ न घटत उद्भवः प्रकृतिपुरुषयोरजयोरुभययुजा भवंत्यसु भृतो जलबुद्बुदवत्॥ त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः॥३१॥
भी कहा जाय, ऐसे नहीं हैं, क्योंकि हम ब्रह्मको जानते हैं, इसप्रकार जो कहते हैं, वह ब्रह्मस्वरूपको कुछ भी नहीं जानते, क्योंकि ब्रह्म किसीका विषय नहीं और जो जाननेमें आता है, वह अनात्म पदार्थ है॥३०॥ (१७)॥ प्रकृति और पुरुषका जन्म संभव नहीं क्योंकि प्रकृतिपुरुष अजन्मा हैं, इसलिये प्रकृति पुरुषके संबंधसे जीव जन्म लेता है, जैसे जलमें बबूला केवल जलसे और पवनसे भी नहीं उत्पन्न होता है, किन्तु दोनोंसे उत्पन्न होताहै तुम कारणरूप ईश्वरहो, तुम्हारे विषे अनेक नाम रूप गुण सहित जीव लीन होते हैं, जैसे शहतमें संपूर्ण वनस्पतियोंके रस लीन होते हैं, जैसे मधुमें सम्पूर्ण फूलोंके रस विशेषतासे दृष्टि नहीं आते, परन्तु सामान्य रूपसे दीख सकते हैं, वैसे निद्रामें और प्रलयकालमें आपमें लय हुए जीव विशेषरूपसे नहीं रहते और मोक्ष तो आपके निरुपाधिक रूपमें जो लीन होते हैं, जैसे समुद्रमें सम्पूर्ण नदी लीन होती हैं,
ऐसे वह मुक्तिदशामें आपमें लीन होजाते हैं॥३१॥(१८) जीवोंके विषे तुम्हारी मायासे वारम्वार जन्म, मरण रूप यह भ्रमण यह जानकर सुबुद्धि पुरुष संसारके निवृत्ति करनेवाले तुम्हारे विषे भावना करते हैं और जो तुम्हारी शरण होकर भजन करते हैं, उनको संसारका भय नहीं होता, क्योंकि शीत, उष्ण वर्षानेवाला संवत्सररूपी काल तुम्हारा भ्रूभंगरूप है और जो तुम्हारे शरण नहीं हैं उनके रक्षक नहीं; किन्तु भयकारक हो इसलिये बुद्धिमान् पुरुष तुममें भाव करते हैं॥३२॥(१९) हे अजित! मनके निग्रह करनेसे ऐसा सेवन बनसक्ता है; परमदेव गुरुके चरणकी शरण लिये विना जो इन्द्रिय प्राणोंको जीतकर अति चंचल दुर्जय मनरूपी घोड़ेके जीतनेका यत्न करते हैं, वह उपायसे खेद पाते हैं और विघ्नोंसे व्याकुल होते हैं, क्योंकि, मनका जीतना गुरुकी कृपासेही होताहै, जैसे जो व्यापारी मल्लाहको नहीं
नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम्॥ कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद्भ्रुकुटिः सृजति मुहुस्त्रिणेमिरभवच्छरणेषु भयम्॥३२॥ विजितहृषीकवायुभिरदांतमनस्तुरगं य इह यतंति यंतुमतिलोल मुपायखिदः॥ व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं वणिज इवाऽज संत्यकृतकर्णधरा जलधौ॥३३॥ स्वजनसु तात्मदारधनधामधराऽसुरथैस्त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे॥ इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां सुखयति कोन्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे॥३४॥ भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदास्त उत भवत्पदांबुजहृदोऽभिदंघ्रिजलाः॥ दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्॥३५॥
रखते, वह समुद्रमें पड़े दुःख पाते हैं॥३३॥ (२०) जो प्राणी आपका आश्रय लेते हैं, उनको सर्व सुखके स्थान आत्मरूप आपके होते सुजन, पुत्र, देह, घर, पृथ्वी, प्राण, रथ, इत्यादि वस्तुसे क्या प्रयोजन है? जो पुरुष आत्माका सेवन करता है, उसको इन तुच्छ पदार्थोंसे क्या प्रयोजन है? सत्य परमार्थ सुखको न जान स्त्री पुरुष मिलकर रतिके लिये विचरते हैं; उनको इस संसारमें तुम्हारे सिवाय कौन सुख है? अर्थात् कोई नहीं, यह संसार आपसे मिथ्याभूत और साररहित है, इसलिये तुम्हाराही भजन करना उचित है॥३४॥ (२१) अहंकारको त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दको हृदयमें धारण करना तुम्हारे भक्त ऋषि मुनि कि, जिनके चरणोंका जल स्वतःही पापनाशक है, परन्तु तो भी इस पृथ्वीमें
आपका भजनरूप महापुण्य करनेवाले महात्माजनोंके आश्रमोंका और अतिपावन तीर्थ क्षेत्रोंका सेवन करते हैं, और पुरुषोंके, ज्ञान वैराग्यके नाश करनेवाले गृहादिकोंका सेवन नहीं करते हैं, जिन्हैंगुरुकी कृपासे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति और संसारकी मिथ्या प्रतीत होगई है, वह महात्माओंकी संगति करते हैं, क्योंकि जिसे एकबार भी आत्माके सुखका अनुभव हुआ है, वह कदाचित् गृहमें आसक्त नहीं होता, तब उत्तम पुरुष किसप्रकारसे घरमें आसक्त हो सक्ते हैं॥३५॥ (२२) यह जगत् सत्यसे उत्पन्न हुआ इसलिये सत्य है, जैसे सुवर्णसे उत्पन्नहुए कुण्डलादिक सुवर्णदी हैं, इसप्रकार मानोगे तो व्यभिचार प्राप्त होगा, जैसे पितासे पुत्र होता है, सो प्रथम क्यों मरजाता है? तथा पृथ्वीसे उत्पन्नहुए घटादिक क्यों फूट जाते हैं इससे यह जगत् मिथ्या है, तो कहते हैं कि, उत्पन्न नाम उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है इससे कुछ दोष नहीं, इसमें दोष देकर समाधान करते हैं कि, जो वस्तु जिस उपादानसे हुई हो वह वस्तु उस उपादानसे भिन्न नहीं होती है, यह भी नियत नहीं, क्योंकि रज्जुरूप उपादानसे हुआ सर्प रज्जुसे पृथक् होता है रज्जु सत्य और सर्प मिथ्या होता है, यदि सर्प सत्य हो तो जिस प्रकार कुण्डलका बाध नहीं होता, इसी
सत इदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं व्यभिचरति क्वच क्वच मृषा न तथोभययुक्॥
व्यवहृतये विकल्प इषितोंधपरंपरया भ्रमयति भारतीत उरुवृत्तिभिरुक्थजडान्॥३६॥
प्रकार सर्पका भी बाध न हो “शंका” रज्जुमें हुए सर्पमें केवल रज्जुही उपादान कारण नहीं, किन्तु अज्ञान भी उपादानका कारण है, इसप्रकारके उपादान कारणसे हुई वस्तुका मिथ्यापन बनसकैऔर जो केवल सत्य उपादान कारणसे उत्पन्न हो उसको मिथ्यापना सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये द्वैत असत्य नहीं “उत्तर” यह द्वैत भी सत्यरूप ब्रह्म और उसके साथ अज्ञानरूप उपादान कारणसे हुआ है “शंका” जो इसप्रकार जगत् नित्य कहा है, तो मिथ्या किस प्रकार है? “समाधान” कर्मफलको नित्य कहना वेदका तात्पर्य नहीं, किन्तु उन वाक्योंसे कर्मकी स्तुति की है, यदि वेद कर्मफलको नित्य मानता तो जैसे यहाँ परिश्रमसे उत्पन्न किये पदार्थ कालान्तरमें क्षीण होजाते हैं, उसी प्रकार परलोकमें पुण्यका सुख कालान्तरमें नष्ट होजाता है “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशन्ति” इसकारण कर्म श्रद्धाके भारसे जिनकी बुद्धि मंद होगई है, उन्हैंवेद वाणी गौणी और लक्षणा वृत्तिमें डालकर भ्रमयुक्त करदेती है, इससे वह यथार्थ वेदके तात्पर्यकी न जानकर कर्मफलको
नित्य मनाते हैं, कर्मसेअंतःकरण शुद्ध होता है, उस वातको नहीं जानते आशय यह है कि, जैसे मकरी अपनेमेंसे तन्तु निकाल फिर आपहीग्रहण करलेती है, उसी प्रकार ईश्वर जगत्को उत्पन्नकर अपनेमें लय कर लेता है, वास्तवमें शुद्ध है, इसलिये अद्वैत सिद्ध है, मिथ्यासे द्वैत भासता है॥३६॥(२३) हम और कारणसे सत्य करैंगे जगत सत्य है, क्योंकि अर्थ क्रियाका करनेवाला है, यदि न हो तो सीपीमें रूपेकीप्रतीत कैसे होती है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, व्यवहारके लिये अर्थ क्रियाके लिये भ्रम इष्ट है; जैसे खोटे रुपयेसे व्यवहार खो जाता है, तो कहते हैं, जो एक ठौर सत्य है, उसको और भ्रम होता है, यह प्रसिद्ध है, अत्यन्त झूंठा प्रपंच होय तो भ्रम न हो, इससे सत्य है, तो कहते हैं, सत्य नहीं है किन्तु अंधपरम्परासे भ्रम किया है, इसकारण सत्य नहीं है, तहाँ वेदकर्मफलकी सत्यताका प्रतिपादन कराहै कि, चातुर्मासके पूजन करनेवालोंको अक्षय पुण्य होताहै और अमृतपान करैंगे इत्यादि वचनसे कर्मफलको यह द्वैत सृष्टिसे पहले भी नही था और आगेको भी न होगा, मध्यमें
न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधनादनुमितमंतरा त्वयि विभाति मृषैकरसे॥ अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथैर्वितथमनोविलासमृतमित्यवयंत्यबुधाः॥३७॥ स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः॥त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः॥३८॥
आपके शुद्ध अद्वैतरूपमें मिथ्याही प्रतीत होता है, यह निश्चय है, इसी कारण मृत्तिका, सुवर्ण, लोह आदि पदार्थोंके घट, कुण्डल, परशु आदि निर्माण कियेहुए आकारसे नाममात्रही हैं, उनके कारण मृत्तिका, सुवर्ण, लोहादि सत्य हैं, इसलिये पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाशादि कार्य नाममात्र हैं, उनका कारण ब्रह्म सत्य है, इसकारण द्वैतकी सत्यतामें कुछ प्रणाम नहीं इसकारण मनके विलाससे इस मिथ्याभूत द्वैतको जो सत्य मानते हैं, वह अज्ञानी हैं॥३७॥ (२४) जब द्वैत कोई वस्तु नहीं तो इसमें चैतन्यका संबंध लेशमात्र भी न होना चाहिये, फिर जीव किस अपराधसे जन्म, मरण, सुख, दुःखकी प्राप्ति करते हैं और ईश्वर नित्य मुक्त किसप्रकार है? कर्मकाण्ड किसकारण है? इसपर कहते हैं कि यह जीव मायामें पड़े अविद्याका आलिंगन करते हैं, इसलिये देह इन्द्रियादिकोंका सेवन करते उन्हें अपनाही स्वरूप मानते हैं इसीलिये देह और इन्द्रियोंके धर्मसे युक्तहो आनंदादि गुणोंके आवरणसे जन्म, मरणकी प्राप्ति करते हैं यह सब काण्ड अविद्यायुक्त जीवमें है और
आप तो मायाकी असत्यता जानते हो; जैसे सर्प केंचुली को सत्य नहीं समझता और उसे त्याग देता है, उसी प्रकार आप मायाको त्याग देतेहो, इसकारण तुम नित्य अखण्ड ऐश्वर्ययुक्त अप्रमेय अणिमादि अष्ट ऐश्वर्यमान् अपनेमें आपही विराजते हो॥३८॥(२५) हे भगवन्! जो संन्यासी यती अपने हृदयमें स्थित कामकी वासनाओं को नहीं उन्मूलित करते, उन असाधुओंके हृदयमें तुम स्थित होकर भी नहीं मिलते। जैसे स्मृति न रहनेपर कंठस्थित मणि नहीं मिलती उन दुष्ट असाधुओंको आपकी प्राप्ति नहीं होती इतनाही नहीं किन्तु जो इन्द्रियोंके तृप्त करनेवाले हैं उनको इसलोक तथा परलोकमें दुःखही होता है क्योकि लोकोंको प्रसन्न करना, धन संचय करना, भोग करना, गुप्त कार्य करना इत्यादिमें यहाँ दुःख होता है और आपकी प्राप्तिके लिये संन्यास लेनेपर यदि आपकी प्राप्ति न हुई और धर्मका अतिक्रमण किया, तो तुम्हारे दंडरूप
यदि न समुद्धरंति यतयो हृदि कामजटा दुरधिगमोऽसतां हृदिगतोऽस्मृतकंठमणिः॥ असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगवन्नपगतांतकादनधिरूढपदाद्भवतः॥३९॥ त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयोर्गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः॥अनुयुगमन्वहं सगुणगीतपरंपरया श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः॥४०॥ द्युपतय एव ते न ययुरंतमनंततया त्वमपि यदंडतरांडनिचया ननु सावरणाः॥ ख इव रजासि वांति वयसा सह यच्छतयस्त्वयि हि फलंत्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः॥४१॥
नरककी प्राप्ति हुई, इससे परलोकमें भी सुख नहीं, वह दोनों लोकोंसे भ्रष्ट हुए॥३९॥ (२६) हे भगवन्!जिन भक्तोंको तुम्हारा ज्ञान होगया है, वे आपसे प्रगट हुए अपने प्राचीन पुण्य पापोंके फलरूप दुःख सुखके सम्बन्धको कुछ नहीं समझते और देहाभिमानियोंके सम्बन्धी प्रवृत्ति निवृत्तिके करनेवाले विधिनिषेधके वचनोको नहीं सुनते, देहाभिमान रहित होजानेसे कार्याकार्यका सम्बन्ध नहीं रहता, हे ऐश्वर्यवान्!आप प्रत्येक युगमें अवतार धारण करके सन्मार्गमें चलनेवाले मनुष्योंको जो प्रतिदिन तुम्हारे चरित्र श्रवणकर हृदयमें धारणकरते श्रेष्ठ गति देतेहो, जब ऐसे पुरुषोको भी किसीप्रकारकी बाधा नहीं रहती तो तत्त्ववेत्ताओंको कर्मकी शंका भी नही होसकती और जो पुरुष कपट प्रबंधकर इन्द्रियोका भोगसे पूजन करते हैं, वह इस लोक और परलोकमें दुःख पाते हैं॥४०॥ (२७) हे भगवन्! स्वर्गलोकादिके पति ब्रह्मादिक
तुम्हारे प्रतापके अंतको नहीं पाते और आप भी अपने अंतको नहीं पाते, ब्रह्मादिक आपके अंतको नहीं जानते, इसमें क्या आश्चर्य है? अपने अन्तको न जाननेसे आपकी सर्वज्ञता सर्वशक्तिमत्ता नष्ट नहीं होती जैसे शशकके सींग न मिलनेसे सर्वज्ञका सर्वज्ञपन नहीं जाता, क्योंकि शशकके सींग हैंही नहीं फिर मिलैंकहाँसे?इसी प्रकार आपका अंत जब हैही नहीं तो कोई जाने कहाँसे? क्योंकि तुम्हारे स्वरूपमें, आकाशमें, रजकणके सदृश दशदश गुण उत्तर उत्तर अधिक सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डोंके समूह कालचक्रसे भ्रमण करते हैं इसकारण श्रुति तात्पर्यसे आपकाही प्रतिपादन करती है साक्षात् नहीं कह सकती सगुण स्वरूपके तो गुण अपार हैं और निर्गुणमें वाणीकी गति नहीं इस कारण तुम्हारा संपूर्ण और साक्षात् निरूपण नहीं होता अनात्म पदार्थोंका निषेध कर अंतमें हम श्रुति आपकोही वर्णन करती हैं, क्योंकि अवधिके विना निषेध
श्रीभगवानुवाच॥ इत्येतद्ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्॥ सनंदनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम्॥४२॥ इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः॥ समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः॥४३॥ त्वं चैतद्ब्रह्मदायाद श्रद्धयात्मानुशासनम्॥ धारयंश्चर गां कामं कामानां भर्जनं नृणाम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं स ऋषिणादिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान्॥ पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः॥४५॥ नारद उवाच॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाऽमलकीर्तये॥ यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः॥४६॥
नहीं हो सकता, इसकारण निषेधके अवधिरूप आपमें ही हम वेदों का तात्पर्य निकलता है॥४१॥ (२८) श्रीभगवान् बोले कि, हे नारदजी! इसप्रकार ब्रह्माके पुत्र सनकादिक वेदोंकी स्तुति सुनकर आत्माकी गति जान सनंदनजीकी पूजा करनेलगे॥४२॥ इसप्रकार आकाशमें गमन करनेवाले सृष्टिमें प्रथम उत्पन्न हुये, ऐसे महात्मा सनकादिकोंने समस्त वेद पुराण और उपनिषद्का रस उद्धार किया है॥४३॥ हे ब्रह्माके पुत्र नारदजी! तुम श्रद्धापूर्वक आत्माके अनुशासनको धारण करके पृथ्वीमें यथेच्छ विचरो, यह आत्मानुशासन मनुष्योंकी विषयवासनाका नाश करनेवाला है॥४४॥ इतनी कथा सुनाकर योगीवर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! इसप्रकार श्रीनारायणके उपदेशको सुनकर कृतार्थ नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रुतियोंके धारण करनेवाले नारदमुनि कहनेलगे॥४५॥ श्रीनारदजी बोले कि, जो भगवान् श्रीकृष्णचंद्र संपूर्ण
भूतोंके कल्याणके लिये सुन्दर अवतार धारण करते हैं, उन निर्मलकीर्त्ति श्रीकृष्णचन्द्रके अर्थ नमस्कार है॥४६॥ उदार मन नारद आदि ऋषि नारायण और उनके शिष्योंको नमस्कार कर मेरे पिता साक्षात् व्यासदेवके आश्रममें चलेगये॥४७॥ व्यासदेवजीने सन्मानकर आसन दिया, उसको ग्रहणकर नारदजीने नारायणके मुखसे जो श्रवण किया था वह सब व्यासजीके अर्थ वर्णन करदिया॥४८॥ हे नृपश्रेष्ठ! तुमने पूछाथा सो हमने वर्णन किया, जैसे अनिर्देश्य और निर्गुण ब्रह्ममें श्रुतियें प्रवृत्त होती हैं॥४९॥ मायाके दूर करनेवाले भक्तोंके भयनाशक नारायण जो कि अपने स्वरूपमें शयन करते जीवोंके पुरुषार्थ सिद्ध करनेके लिये सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं, जो इस संसारके आदि, मध्य और अंतमें भी रहते हैं, जो प्रकृति पुरुषके भी उपादान कारण हैं और जो इस जगत्को उत्पन्न करके जीवके साथही प्रवेश कररहे हैं, जिन्होंने जीवोंको
इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः॥ ततोऽगादाश्रमं साक्षात्पितुर्द्वैपायनस्य मे॥४७॥ सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः॥ तस्मै तद्वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम्॥४८॥ इत्येतद्वर्णितं राजन्यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया॥ यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि श्रुतिश्चरेत्॥४९॥ योऽस्योत्प्रेक्षक आदिमध्यनिधने योऽव्यक्तजीवेश्वरो यः सृष्ट्वेदमनु प्रविश्य ऋषिणा चक्रे पुरः शास्ति ताः॥ यं संपद्य जहात्यजामनुशयी सुप्तः कुलायं यथा तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं ध्यायेदजस्रं हरिम्॥५०॥ इति श्रीमद्भा० म०द०उ० नारदनारायणसंवादे वेदस्तुतिर्नामसप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥ राजोवाच॥ देवासुरमनुष्येषु ये भजंत्यशिवं शिवम्॥ प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम्॥१॥
भोग देनेके लिये पृथक् २ शरीर बनाये हैं, जो जीवोंको अनेक भोग देके शरीरोंका पालन करते हैं और प्रणामादिकसे भक्ति करनेवाले जीव उन्हैंप्राप्त होकर जैसे सुषुप्तिमें सोताहुआ शरीरके सन्बन्ध रहित होता है उसी प्रकार देहादिरूप अविद्याको वह भक्त त्यागन करदेते हैं, उन्हीं नारायणका भजन करना चाहिये॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां नारदनारायणसंवादे देवस्तुतिर्नामसप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥ दोहा — विष्णुभक्तिसे मुक्ति है, अन्नदेवसे भोग॥ अट्ठासी अध्यायमें, कहौंभक्तिके योग॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! देवता, असुर, मनुष्योंमें जो शिवका भजन करतेहैं वह धनवान् होते हैं और लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका
भजन करनेवाले धनी नही होते उसका कारण जाननेकी हमारी इच्छा है शिव और विष्णुके भजन करनेवालोंको संपूर्णतः विरुद्ध फल मिलते हैं क्योकि जो शिवजी विभूति लगा श्मशानमें वास करनेवाले अमंगलरूप हैं जिन शिवजीके कुछ नहीं, उनका जो पुरुष भजन करें, वह लक्ष्मीवान् हों और भोग भोगें और लक्ष्मीपति अच्छे भोग भोगें, सुन्दर वस्त्र पहरें, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रका जो भजन करैं, वह बहुधा दरिद्रीही देखे जाते हैं यह स्वामियोंकी गति और है, सेवकोंकी गति और है उचित तो यह है कि, जैसा स्वामी होय उसी प्रकार सेवक हो॥१॥२॥ यह सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत!शिवमें शक्ति रहतीहै, गुणोंके परस्पर जो आपसमें संघर्षणसे तमोगुण तीन प्रकारका है, सात्त्विक अहंकार, राजस अहंकार और
एतद्वेदितुमिच्छामः संदेहोत्र महान्हि नः॥ विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ शिवः शक्तियुतः शश्वत्त्रिलिंगो गुणसंवृतः॥ वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा॥३॥ ततो विकारा अभवन्षोडशामीषु कंचन॥उपधावन्विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम्॥४॥ हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः॥ स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत्॥५॥ निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः॥ शृण्वन्भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम्॥६॥ स आह भगवांस्तरमै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः॥ नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥७॥
तामस अहंकार ऐसे तीन प्रकारके अहंकारके अधिष्ठानसे विष्णु, ब्रह्मा, शिव यह तीन रूप धारण करते हैं॥३॥ उस अहंकारसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश यह पंचभूत और दश इंद्रियें तथा एक मन ऐसे सोलह विकार हुए इन विकारोंमें कोई एक विकारवान् उपाधिरूप विकारके भजन करनेसे संपत्ति मिलती हैऔर उपाधिवालेका भजन करनेसे उपाधि मिलती है॥४॥ निर्गुण साक्षात् मायासे परे सबके देखनेवाले साक्षीभूत हरि भगवान्का जो पुरुष भजन करैंवह निर्गुण होतेहैं॥५॥ अश्वमेधयज्ञ जब पूर्ण होचुका तबतुम्हारे दादा राजा युधिष्ठिरने वैष्णवधर्मको श्रवणकर पीछे श्रीकृष्णचन्द्रसे यही बात पूँछीथी॥६॥ तब मनुष्योका कल्याण करनेके लिये यदुकुलमें आप अवतारधारी समर्थ भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्र प्रपन्न होकरराजा युधिष्ठिरसे कहनेलगे॥७॥श्रीभगवान् बोले कि, जिस पुरुषके ऊपर मैंकृपा करताहूं, उस पुरुषका धन धीरे धीरे हर लेताहूं, इसके उपरान्त जब वह दरिद्री होजाताहै, तब उसे दुःखीके तुल्य और निर्धन जानकर उसे उसके भाई बंधु सब त्याग देते हैं॥८॥यह भक्त, भाई लोगोके आग्रहसे धन उपार्जन करनेका फिर उद्योग भी करै, परन्तु मेरे अनुग्रहसे उसके सब उद्योग व्यर्थ होजाते हैं और जब उप्तमें प्रबल वैराग्य उत्पन्न होजाता है, तब वह भक्त मेरे और भक्तोंके संग मित्रता करता है, तब उस पुरुषके ऊपर मैं असाधारण अनुग्रह करताहूं॥९॥मेरी कृपासे उस परब्रह्म सूक्ष्म चैतन्य सर्वव्यापी नाशरहित आत्माका ज्ञान होता है इसीलिये मेराआराधन बहुत कठिन है और इसीकारण मुझे त्यागकर वह पुरुष और देवताको भजताहै॥१०॥सेवन करनेसे शीघ्र प्रसन्न होनेवाले देवताओंसे राज्य और धन
श्रीभगवानुवाच॥ यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः॥ ततोऽधनं त्यजंत्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम्॥८॥ स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद्धनेहया॥ मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्॥९॥ तद्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनंतकम्॥ अतो मांसुदुराराध्यं हित्वाऽन्यान्भजते जनः॥१०॥ ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः॥ मत्ताः प्रमत्ता वरदान्विस्मरंत्यवजानते॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ सद्यः शापप्रसादोंग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः॥१२॥ अत्र चोदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥ वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाऽऽप संकटम्॥१३॥ वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्॥ दृष्ट्वाऽऽशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः॥१४॥
प्राप्ति होनेसे उद्धत मतवाले उन्मत्त होकर वे प्राणी वरके देनेवाले देवताओंको भूलकर अवज्ञा करते हैं॥११॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे श्रेष्ठ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादिक देव शाप और अनुग्रह करनेमें समर्थ है, शिव, ब्रह्मा दोनों शीघ्रही प्रसन्न होते हैं और शीघ्रही शाप देते हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्र प्रसन्न नहीं होते और जिसपर प्रसन्न होते हैं फिर उसे शाप नहीं देते॥१२॥ इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, सो वर्णन करते हैं, जैसे शिवजीने वृकासुरको वर देकर कष्ट पाया॥१३॥ दुष्टबुद्धि शकुनिका पुत्र वृकासुर मार्गमें देवर्षि नारदजीको देख ब्रह्मा, विष्णु, महादेव इन तीनों देवताओमें शीघ्र कौन प्रसन्न होता हैं, यह पूँछने लगा॥१४॥
तब देवर्षि नारदजीने कहा कि तू भगवान् भूतनाथ महादेवजीकी पूजाकर यह करनेसे शीघ्र तेरा मनोरथ सिद्ध होगा, क्योंकि शिवजी थोड़ेही गुणोंसे शीघ्र प्रसन्न और थोड़ेही दोषसे क्रोधित होजाते हैं॥१५॥ बंदीजनोंके समान स्तुति करनेवाले राक्षसराज रावण और बाणासुरके ऊपर प्रसन्न होकर शिवजीने बडा ऐश्वर्य दे फिर उन असुरोंसे आपहीने कष्ट पाया, रावणने तो कैलास उखाड़लिया और बाणासुरने कहा कि, मेरे पुरकी रक्षा करो॥१६॥ इसप्रकार जब देवर्षि नारदजीने कहा तो उसी समय वृकासुर अपने देहसे शिवजीका सेवन करनेलगा, इसके उपरान्त केदारतीर्थमें शिवजीके लिये अपने शरीरका माँस काटकर अग्निमें हवन करनेलगा॥१७॥ जब महादेवकी प्राप्ति न हुई, इसलिये सातवें दिन तीर्थमें स्नान करनेसे भीजे
स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिध्यति॥ योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति॥१५॥ दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्बंदिनोरिव॥ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप संकटम्॥१६॥ इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः॥ केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानोऽग्निमुखं हरम्॥१७॥ देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमेऽहनि॥ शिरो वृश्चत्स्वधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम्॥१८॥ तदा महाकारुणिकः स धूर्जटिर्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात्॥ निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारयत्तत्स्पर्शनाद्भूय उपस्कृताकृतिः॥१९॥ तमाह चांगाऽलमलं वृणीष्व मे यथाभिकामं वितरामि ते वरम्॥ प्रीये यतो येन नृणां प्रपद्यतामहो त्वयाऽऽत्मा भृशमर्द्यते वृथा॥२०॥ देवं स वव्रेपापीयान्वरं भूतभयावहम्॥ यस्य यस्य करं शीर्ष्णिधास्ये स म्रियतामिति॥२१॥
केशवाले शिरको छूरी लेकर काटनेलगा॥१८॥ उससमय अत्यन्त करुणानिधान शिवजी हेम सरीखे मूर्त्तिमान्, अग्निके समान प्रकाशयुक्त अग्निकुण्डमेंसे निकल, हाथोंसे असुरकी भुजा पकड़ जैसे कोई दुःखके मारे मरनेको आवैउसे मने करते हैं, उसीप्रकार मनेकरने लगे और शिवजीका हाथ लगतेही उसका देह ज्योका त्यों होगया॥१९॥ वृकासुरसे शिवजी बोले कि, हे वृकासुर!तू तप करके पूर्ण होगया, अब वर माँग, जो तेरी इच्छा हो, सोही वर दूंगा, क्योंकि जो मनुष्य मेरी शरण आते हैं, उनके ऊपर जलमात्रके चढातेही मैंप्रसन्न होजाताहूं, बडा आश्चर्य है। तैंने वृथादी अपने शरीरको कष्ट दिया॥२०॥ तब वृकासुरने जिस जिस पुरुषके शिरपर मैंहाथ धरूं, वह पुरुष उसी समय मरजावैइस
प्रकार संपूर्ण प्राणियोंको भयका देनेवाला वर माँगा॥२१॥हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्!इस प्रकार वृकासुरका वचन सुन उदासीनसे हो “अच्छी बातहै” इस प्रकार शिवजीने मुसकाकर सर्पको दूध पिलानेके समान वृकासुरको वर देदिया॥२२॥ इस प्रकार सुनतेही जगज्जननी पार्वतीके लेनेकी चाहनासे वह असुर वर मिथ्या है वा सत्य है, यह परीक्षा लेनेके लिये महादेवजीके माथेपर हाथ धरनेका उपाय करनेलगा, उससमय अपने कर्त्तव्यसे भयभीत होकर भगवान् शिवजी भागने लगे॥२३॥ असुर जिनके पीछे लगा; ऐसे शिवजी डरकर स्वर्गतक भागे और पृथ्वीका जहाँ
तच्छ्रुत्वा भगवान्रुद्रोदुर्मना इव भारत॥ ओमिति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा॥२२॥ इत्युक्तः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः॥ स तद्वरपरीक्षार्थं शंभोर्मूर्ध्नि किलासुरः॥२३॥ स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः॥ तेनोपसृष्टः संत्रस्तः पराधावत्सवेपथुः॥ यावदंतं दिवो भूमेः काष्ठानामुदगादुदक्॥२४॥ अजानंतः प्रतिविधिं तूष्णीमासन्सुरेश्वराः॥ ततो वैकुंठमगमद्भास्वरं तमसः परम्॥२५॥ यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमा गतिः॥ शांतानां न्यस्तदंडानां यतो नावर्तते गतः॥२६॥ तं तथा व्यसनं दृष्ट्वा भगवान्वृजिनार्दनः॥ दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा बटुको योगमायया॥२७॥ मेखलाजिनदंडाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्॥ अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत्॥२८॥
तक अंत है, तहाँतक भागे, फिर उत्तर दिशामें भागकर गये॥२४॥ उससमय उपायको न जान संपूर्ण देवता चुप होगये, इसके उपरान्त प्रकाशमान मायासे परे वैकुण्ठधाममें शिवजी गये॥२५॥ जिस वैकुण्ठधाममें शान्त स्वभाव और कालके दण्ड रहित संन्यासियोंकी परमगति अर्थात् प्राप्त होने योग्य नारायण विराजमान हैं॥२६॥ दुःखोंके दूर करनेवाले भगवान् नारायण शिवजीके पीछे दौड़े चले आते वृकासुरको दूरसे देख अपनी योगमायासे॥२७॥ ब्रह्मचारीका वेषधर मूंजकी करधनी मृगछाला दण्ड मालाओंको पहर तेजसे अग्निके समान प्रकाशमान कुश हाथमें
लिये भगवान् नम्र हो अभिवादन कर उससे बोले*****॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे शकुनिके पुत्र!तुझे निश्चय खेद है तू इतनी दूर क्यों आया? थोड़ी देर विश्रामले, क्योंकि समस्त कामनाओंका देनेवाला यह देह हैइसे पीड़ा मत दे॥२९॥ हे समर्थ!जो तुम्हारा अभिप्राय हमारे आगे सुनाने योग्य हो तो कहो, क्योंकि बहुधा दूसरोंकी सहायतासे पुरुष अपना कार्य सिद्ध करसते हैं॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! इस प्रकार अमृतरूप वचनसे जब भगवान्ने पूँछा, तब खेद रहित वृकासुरने अपना सब वृत्तान्त सुनादिया॥३१॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, शिवने
श्रीभगवानुवाच॥ शाकुनेय भवान्व्यक्तं श्रांतःकिं दूरमागतः॥ क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्माऽयं सर्वकामधुक्॥२९॥ यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो॥ भण्यतां प्रायशः पुंभिर्धृतैः स्वार्थान्समीहते॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा॥ गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम्॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि॥ यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट्॥३२॥ यदि वस्तत्र विश्रंभो दानवेंद्र जगद्गुरौ॥ तर्ह्यंगाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम्॥३३॥ यद्यसत्यं वचः शंभोः कथंचिद्दानवर्षभ॥ तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्ताऽनृतं पुनः॥३४॥
तुमको वर दियाहै तो शिवके वचनको हम सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि यह शिव दक्षके शापसे पिशाचोंकी दशाको प्राप्त हुआ है, और प्रेत पिशाचोंका राजा है॥३२॥ हे दानवेन्द्र वृकासुर!यदि इस शिवके वचनमें तुझे विश्वास है तो तू शीघ्र अपने मस्तकपर हाथ धरकर परीक्षा लेले॥३३॥ हे दानवश्रेष्ठ!इस महादेवका वचन कसे सत्य होगा? यह तो मिथ्यावादी है, पीछे जो किसी प्रकार भी महादेवका वचन असत्य
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***शंका—**वृकासुरको छलनेके लिये परमेश्वरने ब्रह्मचारीका स्वरूप क्यों धारण किया?क्योंकि वेदमें ब्रह्मचारीके लिये झूठ बोलना बुरा लिखा है, इसलिये और अनेकरूप भगवान्के बनाये ससारमें बहुत है दूसरा रूप धारण करके छल करना था, ब्रह्मचारी बनकर क्यों छला?
** उत्तर—** वृकासुरको त्रिलोकीमें किसीका विश्वास नहीं था, क्योंकि वह बडा धूर्त्तथा, अरु उसको अपने बलका बडा घमण्ड था परन्तु त्रिलोकीमें उसको दो जनोंका विश्वास था एक नारदमुनिका और दूसरे ब्रह्मचारी वेषका, भगवान्ने विचारा कि, यह दैत्यनारद मुनिको आज्ञा मानके यह कर्म किया है, इसलिये ब्रह्मचारीका रूपधर भगवान्ने सब काम किये।
विदित हो तो महादेवको मार, जो फिर कभी मिथ्या न बोले॥३४॥इस प्रकार मनोहर विचित्र विचित्र भगवान्के वचनोंसे भ्रष्टबुद्धि हो कुबुद्धि वृकासुरने भूलकर अपने शिरपर अपना हाथ रक्खा॥३५॥ हे महाराज!शिरपर हाथ धरतेही वज्रके मारेके समान क्षणभरमें शिर फूटनेसे वह वृकासुर गिरगया, उससमय स्वर्गमें जय जय और नमः नमः तथा साधुशब्द होनेलगा॥३६॥ जिससमय पापात्मा वृकासुर मरगया उससमय देवता, पितृ, ऋषि, गंधर्व फूलोंकी वर्षा करनेलगे और भगवान् महादेवजीको भी कष्टसे छुड़ादिया॥३७॥ जब शिवजी कष्टसे छूटगये तब श्रीपुरुषोत्तम भगवान् बोले कि अहो देव!महादेव!यह वृकासुर पापी अपनेही पापसे मराहै॥३८॥ ईश्वर और बडोंका अपराध करनेसे कौन पुरुष कल्याण
इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः॥ भिन्नधीर्विस्मितः शीर्ष्णिस्वहस्तं कुमतिर्न्यधात्॥३५॥ अथापतद्भिन्न शिरा वज्राहत इव क्षणात्॥ जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि॥३६॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे॥ देवर्षिपितृगंधर्वा मोचितः संकटाच्छिवः॥३७॥ मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तमः॥ अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना॥३८॥ हतः को नु महत्स्वीश जंतुर्वै कृतकिल्बिषः॥ क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद्गुरौ॥३९॥ य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः॥ गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा विमुच्यते संसृतिभिस्तथाऽरिभिः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे रुद्रमोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥
को प्राप्त होता है? देखो विश्वके ईश्वर जगत्के गुरू तुम्हारा अपराध करनेसे कदापि भला नहीं होता है॥३९॥ इसप्रकार वाणीके अगोचर अनन्तशक्ति सबके साक्षात् परमेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रने शिवजीको कष्टसे छुडाया, यह चरित्र जो पुरुष कहै और सुनैऔर उनपर भरोसा करते हैं, वह संसार तथा शत्रुओंसे छूट जातेहैं॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धेभाषाटीकायां वृकासुरवधो नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥
दोहा — तीन देवमें को बडो, सबको यही विचार॥ भृगु मुनिने सबसे कह्यो, विष्णु जगत् आधार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!एकसमय सरस्वती नदीके तटपर ऋषि यज्ञ कर रहेथे, तहाँ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन तीनों देवताओंमें कौन बडा है?इसप्रकार परस्पर झगड़ा होने लगा॥१॥ हे राजन्! इनमें कौन बड़ा है, इसकी परीक्षा करनेके लिये भृगुको भेजा, सो भृगु परीक्षाके कारण ब्रह्माकी
श्रीशुक उवाच॥ सरस्वत्यास्तटे राजनृषयः सत्रमासत॥ वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान्॥१॥ तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसृतं नृप॥ तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद्ब्रह्मणः सभाम्॥२॥ न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया॥ तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा॥३॥ स आत्मन्युत्थितं मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः॥ अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणाऽऽत्मभूः॥४॥
सभामें गये*****॥२॥ भृगुजीने ब्रह्माके स्वभावकी परीक्षा लेनेके लिये स्तुति प्रमाण कुछ भी नहीं किया, तब ब्रह्माजीने अपने क्रोधसे प्रज्वलित हो भृगुके ऊपर अत्यन्त क्रोध किया॥३॥ परन्तु ब्रह्मा अपने पुत्रके लिये चित्तमें उठे क्रोधको आपही शान्त करनेलगे, जैसे अपने कारण जलसे अग्निशान्त होती है और अग्निके शान्त करनेमें जैसे अग्निसे उत्पन्न जल काम आताहै, उसीप्रकार ब्रह्माका क्रोध शान्त करनेमें
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*शंका— तीनों देवताओंमें बडादेवता कौन है? ब्रह्मा बडे हैं कि, विष्णु बढे हैं कि, शिव बडेहैं, ऐसा विचार मुनि लोगोंने क्यों किया? क्योंकि ऐसा विचार तो बडे बडे अज्ञानी तथा बालक और बडेबडे मूर्ख किया करते हैं, मुनि लोग ऐसा विचार कभी नहीं करते, फिर उन लोगोंने क्यों किया?
** उत्तर—** सारस्वत मुनिके वशमें जो जन्म लिये ब्राह्मण हैं सो सबब्रह्मकर्ममें बडे निपुण होते थे, ऐसा ब्रह्मकर्मका अभिमान करके सब देवताओंका और मुनिजनोंका अनादर करने लगे, वचनोंसे भी किसीका आदर नहीं करते थे, ऐसा सारस्वत ब्राह्मणोंका अभिमान जानकर विचार किया कि, ऐसा अभिमान करके सब सारस्वत ब्राह्मण नरकमें पडेंगे, क्योंकि हमैंआदि लेके जितने देवता है तथा ब्राह्मण हैं, उन सबको यह ब्राह्मण कुछ भी नहीं जानते, ऐसा भगवान्ने विचार करके उनहीं ब्राह्मणोंकी यज्ञमें कृपाकरके उनही ब्राह्मणोंकी बुद्धिको भ्रष्ट कर दिया, तब उन सब ब्राह्मणोंने ज्ञान त्याग दिया और मूर्ख होगये और उस मूर्खतासे भस्म होने लगे, कुछ कालोपरान्त भगवान्का चरित्र भृगुजीने वर्णन किया, तब सब सारस्वत ब्राह्मण अभिमान रहित होगये, इसलिये सारस्वत ब्राह्मण बुद्धि अष्ट होगये॥
उन्हींसे उत्पन्न हुए भृगुजी काम आये॥४॥वहाँसे भृगुजी कैलास पर्वतपर शिवजीके पास गये, उस समय शिवजी भाई भृगुसे प्रीतिपूर्वक उठकर मिलनेको उद्यत हुए॥५॥तब भृगुजीने महादेवजीसे मिलनेकी इच्छा न की और कहा तुम कुमार्गमें चलतेहो, हम तुमसे नहीं मिलैंगे, यह सुनतेही महादेवजी क्रोधसे लाल नेत्र कर हाथमें त्रिशूल ले मारनेको प्रस्तुत हुए॥६॥ उससमय पार्वती महादेवजीके चरणोंमें गिरकर बोली कि, महाराज!तुम्हारा भ्राता है, इसे कैसे मारते हो? इस प्रकार वाणीसे शान्त करनेलगीं, इसके उपरान्त भृगु वैकुण्ठमें गये जहाँ जनार्दन भगवान् वास करते हैं॥७॥लक्ष्मीकी गोदी शयन करते विष्णु भगवान्के हृदयमें भृगुने जाकर लात मारी, तदनंतर साधुओंकी गति विष्णुभगवान्ने
ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः॥ परिरब्धुंसमारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा॥५॥ नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह॥ शूलमुद्यम्य तं हंतुमारेभे तिग्मलोचनः॥६॥ पतित्वा पादयोर्देवी सांत्वयामास तं गिरा॥ अथो जगाम वैकुंठं यत्र देवो जनार्दनः॥७॥ शयानं श्रिय उत्संगे पदा वक्षस्यताडयत्॥ तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गतिः॥ स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्॥८॥ आह ते स्वागतं ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्॥ अजानतामागतान्वः क्षंतुमर्हथ नः प्रभो॥९॥ अतीव कोमलौतात चरणौ ते महामुने॥ इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन्स्वेन पाणिना॥१०॥ पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्॥ पादोदकन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा॥११॥
लक्ष्मीसहित पलँगपरसे उठ और पृथ्वीमें मस्तक धर भृगुजीको प्रणाम किया॥८॥ और कहनेलगे कि, हे ब्रह्मन् “तुम भले आये” आसन ग्रहण करो. हे समर्थ! आपके आनेको हमने नहीं जाना, सो अपराध क्षमा करो॥९॥हे तात! हे महामुनि! तुम्हारे चरण कोमल हैं और मेरी छाती अत्यन्त कठोर है, तुम्हारे चरणोंमें चोट लगी होगी, इसप्रकार कह अपने हाथोंसे ब्राह्मणके चरण सहलाने लगे॥१०॥ गंगादिक तीर्थोंको पवित्र करनेवाले अपने चरणोंके जलसे मुझे और मुझमें अधिष्ठित लोक और लोकपालोंको पवित्र करो॥११॥
हे ब्राह्मण! अब मैं लक्ष्मीके वास करनेका अत्यन्त पात्र हुआ और तुम्हारे चरण स्पर्शसे पाप दूर हुए, इसलिये मेरी छातीमें सदा लक्ष्मी वास करैगी॥१२॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!इसप्रकार श्रीनारायणकी कही मनोहर वाणीसे तृप्त होकर भक्तिसे आनंदमें मग्न हो भृगुजी नेत्रोंमें आँसू भरकर चुप होगये॥१३॥ हे राजन! भृगुजीने फिर अपने यज्ञमें आय वेदपाठी मुनियोंसे तीनोंकी जो बात देखकर आये थे सो कहदी॥१४॥ भृगुकी बात सुन आश्चर्यको प्राप्त हो संदेहोंको त्याग मुनियोंने कहा कि इतना उनका अपराध किया, परन्तु क्रोध न आया विष्णु भगवान्मेंही शान्ति है और किसी देवतामें नहीं है, इसलिये सबसे बड़े विष्णुभगवान्ही हैं; यह निश्चय है॥१५॥ साक्षात् धर्म और धर्मके
अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकांतभाजनम्॥ वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं ब्रुवाणे वैकुंठे भृगुस्तन्मंद्रया गिरा॥ निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कंठोऽश्रुलोचनः॥१३॥ पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्॥स्वानुभूतमशेषेण राजन्भृगुरवर्णयत्॥१४॥ तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः॥ भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शांतिर्यतोऽभयम्॥१५॥ धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्॥ ऐश्वर्यंचाष्टधा यस्माद्य शश्चात्ममलापहम्॥१६॥ मुनीनां न्यस्तदंडानां शांतानां समचेतसाम्॥ अकिंचनानां साधूनां यमाहुः परम गतिम्॥१७॥ सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः॥ भजंत्यनाशिषः शांता यं वा निपुणबुद्धयः॥१८॥ त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः॥गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम्॥१९॥
लिये ज्ञान तथा वैराग्य और आठ प्रकारके ऐश्वर्य और आत्माके मलोंका दूरकरनेवाला यश यह सब भगवान्मेंही विद्यमान हैं॥१६॥ कालदंडके भयरहित, शान्त स्वभाव और समान चित्त, निष्किंचन अर्थात् किसी वस्तुकी जिनमें चाहना नहीं, साधु मुनियोंको जिन भगवान्की परमगति कहते हैं॥१७॥ सत्त्वगुण भगवन्का प्यारा रूप है और ब्राह्मण भगवान्के इष्ट देवता हैं, शांत और निष्काम बड़ी बुद्धिवाले जिनका भजन करते हैं, वही सबसे श्रेष्ठ हैं॥१८॥ जिन भगवान्ने अपनी मायासे सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी तीन प्रकारके देवता असुर
राक्षस बनाये हैं, सबही उनका रूप हैं परन्तु उनमें सत्त्वगुणी रूप कल्याणका देनेवाला है॥१९॥श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार सरस्वतीके तीरवासी ब्राह्मण मनुष्योंका संदेह दूर करेनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दकी सेवा करके श्रीकृष्णचन्द्रकीहीगतिको प्राप्त हुए॥२०॥सूतजी बोले कि, ऋषीश्वरो! व्यासदेव मुनिके पुत्र श्रीशुकदेवजीके मुखकमलकी सुगंधि मिला अमृके समान संसारके भयका कटानेवाला श्रेष्ठ पुरुष श्रीकृष्णचन्द्रका यश कानरूपी दोनोंमें भरकर जो पान करैगा, वह संसारके आवागमनके परिश्रमसे छूट जायगा॥२१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इस चरित्रमें श्रीकृष्णचन्द्रका उत्कर्ष कहा अब श्रीकृष्णचन्द्रकाही उत्कर्ष करनेवाला और चरित्र वर्णन करतेहैं
श्रीशुक उवाच॥ एवं सारस्वता विप्रा नृणां संशयनुत्तये॥ पुरुषस्य पदांभोजसेवया तद्गतिं गताः॥२०॥ सूत उवाच॥ इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगंधपीयूषं भवभयभित्परस्य पुंसः॥ सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णं पांथोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः॥ जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत॥२२॥ विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः॥ इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः॥२३॥ ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः॥ क्षत्रबंधोः कर्मदोषात्पंचत्वं मे गतोऽर्भकः॥२४॥ हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेंद्रियम्॥ प्रजा भजंत्यः सीदंति दरिद्रा नित्यदुःखिताः॥२५॥ एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च॥ विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत॥२६॥
हे राजन्!एक समय द्वारकामें एक स्त्रीके पुत्र उत्पन्न होकर पृथ्वीका स्पर्श करतेही मरगया॥२२॥ वह ब्राह्मण मरे पुत्रको ले राजा उग्रसेनकीड्योढी पर धर विलापकर आतुर दीन मन होकर यह कहनेलगा॥२३॥ ब्रह्मणोंका द्वेषी शठबुद्धि लोभी विषयोंमें आसक्तमन क्षत्रियोंमें अधम इस राजाके दोषसेही मेरा पुत्र मरा हैं मेरा कुछ दोष नहीं है॥२४॥ हिंसा करनेवाले दुःस्वभाव अजितेन्द्रिय राजाके सेवन करनेसे प्रजा दुःखी और दरिद्री होती है॥२५॥ इसीप्रकार वह ब्राह्मण दूसरे पुत्रको फिर तीसरे पुत्रको लेकर राजाके द्वारपर धरकर यही कहने लगा, कि मेरा कुछ दोष
नहीं है, इस राजाके दोषसे यह सब मेरे पुत्र मरे हैं॥२६॥ किसीसमय अर्जुन श्रीकृष्णचन्द्रके निकट ब्राह्मणकी बात श्रवणकर नवम बालक जब मर चुका, तब ब्राह्मणसे कहने लगा॥२७॥हे ब्राह्मण! तू किसलिये रुदन करता है, क्या तेरे रहनेके स्थान द्वारकामें धनुषका धारण करने वाला कोई क्षत्रिय नहीं है? धन, स्त्री और पुत्रोंमें आसक्त यह यादव तो यज्ञमें भोजनको आयेहुए ब्राह्मके समान बैठे हैं॥२८॥क्षत्रियोंके जीवित होनेपर भी धन, स्त्री, पुत्र, संयुक्त ब्राह्मण जहाँ शोच करते हैं वे उदरपोषक क्षत्रिय और उनके वेषसे नटही जीते हैं ऐसा समझना चाहिये॥२९॥हे ब्राह्मण! तुम दीन हो, इसलिये तुम्हारे पुत्रकी मैंरक्षा करूंगा और जो मुझसे रक्षा न होगी अर्थात् मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण न होगी तो ब्राह्मणकी
तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवांतिके॥ परेते नवमे बाले ब्राह्मण समभाषत॥२७॥ किंस्विद्ब्रह्मस्त्वन्निवास इह नास्ति धनुर्धरः॥ राजन्यबंधुरेते वै ब्राह्मणाः सत्रमासते॥२८॥ धनदारात्मजाऽपृक्ता यत्र शोचाते ब्राह्मणाः॥ ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवंत्यसुंभराः॥२९॥ अहं प्रजां वां भगवन्रक्षिष्ये दीनयोरिह॥ अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निंप्रवेक्ष्ये हतकल्मषः॥३०॥ ब्राह्मण उवाच॥ सकर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः॥ अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवंति यत्॥३१॥ तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः॥ चिकीर्षसि त्वं बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम्॥३२॥ अर्जुन उवाच॥ नाहं संकर्षणो ब्रह्मन्न कृष्णः कार्ष्णिरेव च॥ अहं वा अर्जुनो नाम गांडीवं यस्य वै धनुः॥३३॥
प्रीतिसे पापरहित हो मैं अग्निमें प्रवेश कर जाऊंगा॥३०॥ ब्राह्मण बोला कि, महाराज! संकर्षण, वासुदेव और धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नजी तथा जिसके समान कोई योद्धा नहीं ऐसे अनिरुद्ध यह सब भी मेरे बालकोंकी रक्षा करनेको समर्थ न हुए॥३१॥ जगत्के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी जिस कर्मको न करसके, हे अर्जुन! उस कर्मको तू कैसे करसकेगा? तू अज्ञानसे करना चाहताहै इसकारण तेरी बातका मुझे विश्वास नहीं होता॥३२॥ अर्जुन बोले कि, हे ब्राह्मण! मैं संकर्षण, कृष्ण, प्रद्युम्न नहीं हूं, गांडीव धनुषधारी अर्जुन नामक क्षत्रिय हूं॥३३॥
हे ब्राह्मण!तू मेरा अपमान मत करै, महादेवका प्रसन्न करनेवाला मेरा पराक्रम है, हे समर्थ ब्राह्मण! संग्रामके बीच मृत्युको जीतकर भी तेरे पुत्र ला दूंगा॥३४॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्!इसप्रकार धृष्टताके वचनोंसे विश्वासको प्राप्त हो, वह ब्राह्मण अर्जुनके पराक्रमको श्रवण कर प्रसन्न हो अपने घरको चला आया॥३५॥ जब स्त्रीसे प्रसूतिकालका समय आया, तब ब्राह्मण “मृत्युसे पुत्रकी रक्षाकर” इसप्रकार वारम्वार आतुर हो अर्जुनसे कहने लगा॥३६॥ उस समय अर्जुनने पवित्र जलका स्पर्श कर हाथ, पाँव धो, आचमनकर, शिवजीको नमस्कार करके दिव्य शस्त्रोंका स्मरण कर प्रत्यंचा चढाय गांडीव धनुषको हाथमें लिया॥३७॥ अनेक शस्त्रोंमें मिलाये बाणोंसे सोवरके घरको पिंजरा बना दिया, तिरछे बाण चलाये,
माऽवमंस्था मम ब्रह्मन्वीर्यं त्र्यंबकतोषणम्॥ मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजां प्रभो॥३४॥ एवं विश्रंभितो विप्रः फाल्गुनेन परंतप॥ जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यंनिशामयन्॥३५॥ प्रसूतिकाल आसन्नेभार्याया द्विजसत्तमः॥ पाहिपाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः॥३६॥ स उपस्पृश्य शुच्यंभो नमस्कृत्य महेश्वरम्॥ दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गांडीवमाददे॥३७॥ न्यरुणत्सूतिकाऽगारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः॥ तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपंजरम्॥३८॥ ततः कुमारः संजातो विप्रपत्न्या रुदन्मुहुः॥ सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा॥३९॥ तदाऽह विप्रो विजयं विनिंदन्कृष्णसन्निधौ॥ मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम्॥४०॥ न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः॥ यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः॥४१॥
ऊपरको चलाये और नीचेको चलाकर घरके ऊपर बाणोंका पिंजरा करदिया॥३८॥ इसके उपरान्त ब्राह्मणकी स्त्रीके उत्पन्न हुआ बालक बारम्बाररुदनकर शीघ्रही शरीर सहित आकाश मार्गमें होकर चलागया और बार देह पडा रहता था, अबकीबार देह भी न रहा॥३९॥ उससमय ब्राह्मण श्रीकृष्णचन्द्रके निकटही अर्जुनकी निन्दा करके यह कहनेलगा कि, मेरी मूढता देखो, मैंने इस नपुंसक अर्जुनका कहना सत्य माना॥४०॥ प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, बलदेवजी और श्रीकृष्णचन्द्र यह सब मिलकर भी जिसकी रक्षा न करसके, उसकी रक्षा करनेको और कौन समर्थ है?॥४१॥
मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है, इस अपनी श्लाघा करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है, यह दुर्बुद्धि दैवके विनाश किये पदार्थको मूर्खतासे बचाना चाहताहै॥४२॥ इसप्रकार जब ब्राह्मणने खोटा वचन कहा, तब अर्जुनने योगविद्याको धारणकर यमराज भगवान्की संयमनीपुरीमें शीघ्र प्रवेश किया॥४३॥ वहाँ यमराजकी पुरीमें पुत्रोंको न देखा, तब वहाँसे अर्जुन इन्द्रकी पुरीमें गया, फिर अग्निकी पुरीमें गया, वहाँसे कुबेरकी पुरीमें गया वायुकी पुरीमें गया, वरुणकी पुरीमें गया, इसके उपरान्त रसातल और स्वर्गमें गया फिर धनुषको उठाये और स्थानोंको गया॥४४॥ स्थान ढूंढे परन्तु कहीं ब्राह्मणके पुत्रका पता न मिला, तब प्रतिज्ञासे अर्जुन अग्निमें प्रवेश करनेकी इच्छा करनेलगा, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे मने करके
धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः॥ दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः॥४२॥ एवं शपति विप्रर्षौविद्यामास्थाय फाल्गुनः॥ ययौ संयमिनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यमः॥४३॥ विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐंद्रीमगात्पुरीम्॥ आग्नेयीं नैर्ऋर्तिं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ॥ रसातलं नाकपृष्ठंधिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः॥४४॥ ततोऽलब्ध द्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः॥ अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता॥४५॥ दर्शये द्विजसूनुंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना॥ ये ते हि कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयंति नः॥४६॥ इति संभाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः॥ दिव्यस्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत्॥४७॥ सप्त द्वीपान्सप्त सिंधून्सप्तसप्त गिरीनथ॥ लोकालोकं तथाऽतीत्य विवेश सुमहत्तमः॥४८॥ तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः॥ तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ॥४९॥
बोले॥४५॥ कि ब्राह्मणके पुत्रको मैं ला दूंगा, तू अग्निमें मत जलै, इसलिये जो तेरी निन्दा करते हैं वेही तुम्हारी निर्मल कीर्त्तिको हमारे साथ पृथ्वीपर निरन्तर गान करैंगे कि, अंतमें श्रीकृष्णके साथ अर्जुनने ब्राह्मणके पुत्रोंको लाही दिया॥४६॥ सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इसप्रकार कह और अर्जुनको संग ले अलौकिक अपने रथमें चढ पश्चिमदिशाको चलेगये॥४७॥ और सात सात पर्वतके सात द्वीप उल्लंघन कर तथा सात समुद्रोंको और लोकालोक पर्वतीको उल्लंघन कर बड़े अंधकारमें घुसगये॥४८॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! उस अंधकारमें शैब्य, सुग्रीव,
मेघपुष्प, बलाहक इन रथके घोड़ोंकी गात शिथिल होगई॥४९॥महायोगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने घोड़ोंकी शिथिलगतिको देख हजार सूर्यके तेजवाले अपने सुदर्शन चक्रको रथके आगे चलनेकी आज्ञा दी॥५०॥अति घोर सघन प्रकृतिके परिमाण रूप अंधकारको अपनी उत्कृष्ट कांतिसे विदीर्णकर मनके तुल्य वेगवान् सुदर्शनचक्रने प्रत्यंचासे सेनापर श्रीरामचन्द्रके बाणके समान प्रवेश किया॥५१॥चक्रके पीछे गमन करके उस अंधकारसे परे वर्त्तमान श्रेष्ठ व्याप्त भगवान्का प्रकाशरूप देख चकाचौंधीसे अर्जुनने अपने दोनों नेत्र मूँद लिये॥५२॥इसके उपरान्त बड़े पवन चलनेसे उठी लहरोंसे शोभायमान जलमें वह रथ गया, उस जलमें प्रकाशमान वस्तुमें श्रेष्ठ और दीप्तिमान् सहस्रों मणि
तान्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः॥ सहस्रादित्यसंकाशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः॥५०॥ तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्विदारयद्भूरितरेण रोचिषा॥ मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः॥५१॥ द्वारेण चक्रा नुपथेन तत्तमः परं परंज्योतिरनंतपारम्॥ समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे॥५२॥ ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता बलीयसैजद्बृहद्वर्मिभूषणम्॥ तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं भ्राजन्मणिस्तंभसहस्रशोभितम्॥५३॥ तस्मिन्महाभीममनंतमद्भुतं सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः॥ विभ्राजमानं द्विगुणोल्वणेक्षणं सिताचलाभं शितिकंठजिह्वम्॥५४॥ ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्॥ सांद्रांबुदाभं सुपिशंगवाससं प्रसन्नवक्रं रुचिरायतेक्षणम्॥५५॥
योंके खंभ लग रहे हैं, उनसे शोभायमान अद्भुत भवन देखा॥५३॥ उस भवनमें बड़ी देहवाले अद्भुत सहस्र मस्तकोंमें मणियोंकी कान्तिसे प्रकाशमान दो सहस्र नेत्रोंसे शोभायमान स्फटिकमणिके श्वेतपर्वतकी तुल्य कांति और श्याम कंठ तथा जिह्वा संयुक्त शेषनागको अर्जुनने देखा॥५४॥ उन शेषनागके देहको सुखदायक आसन बनाये बड़े प्रभाववाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ उत्तम भूमा पुरुषको शयनकरते अर्जुनने देखा जिन की वर्षाऊ मेघके समान कान्ति, सुन्दर पीत वस्त्रोंको धारण किये, मुख प्रसन्न मनोहर और बड़े बड़े नेत्र हैं॥५५॥
जिनके केश बड़ी मणियोंसे जटित किरीट और कुण्डलोंकी कान्तिसे शोभायमान लंबी सुन्दर आठ भुजा कौस्तुभमणिको धारण करे और भृगुलत्ताके चिह्न संयुक्त वनमाला पहररहे थे॥५६॥सुनंद, नंद, मुख्य अपने पार्षद और मूर्त्तिमान चक्रादि अपने शस्त्र और पुष्टि, श्री, कीर्त्ति, माया तथा समस्त अणिमादिक विभूतियोंसे सेवित ब्रह्मादिकोंके पालन करनेवाले॥५७॥ इस प्रकार अनन्तभूमा भगवान्के दर्शनकर सब लोकोंके पति श्रीकृष्णचन्द्रने अपने स्वरूपको प्रणाम किया और भयभीत अर्जुनने भी प्रणाम किया, इसके उपरान्त श्रीकृष्ण और अर्जुनको हाथ जोड़े खड़ा देख वह पुरुष गंभीर वाणीसे मुसकातेहुए बोले॥५८॥कि, तुम्हारे देखनेके लिये ब्राह्मणके पुत्रोंको मैं ले आयाहूं, पृथ्वीमें मेरी कलासे अवतीर्णहुए
महामणिव्रातकिंरीटकुंडलप्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुंतलम्॥ प्रलंबचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं श्रीवत्सलक्ष्म्या वनमालयावृतम्॥५६॥ सुनंदनंदप्रमुखैः स्वपार्षदैश्चक्रादिभिमूर्तिधरैर्निजायुधैः॥ पुष्ट्या श्रिया कीर्त्यजयाऽखिलर्द्धिभिर्निषेव्यमाणं परमेष्ठिनां पतिम्॥५७॥ ववंद आत्मानमनंतमच्युतो जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः॥ तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभुर्बद्धांजली सस्मितमूर्जया गिरा॥५८॥ द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये॥ कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमंति मे॥५९॥पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी॥ धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसंग्रहम्॥६०॥ इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना॥ ओमित्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान्॥६१॥ न्यवर्ततां स्वकं धाम संप्रहृष्टौ यथागतम्॥ विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावयः॥६२॥ निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः॥ यत्किंचित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकंपितम्॥६३॥
तुम पृथ्वी के ऊपर बोझरूप असुरोंको मार शीघ्र मेरे पास आजाओ॥५९॥ तुम दोनों पूर्ण मनोरथ महाश्रेष्ठ नरनारायण ऋषि हो तो भी लोकोंको शिक्षा करनेके लिये धर्म करते हो॥६०॥ श्रेष्ठ आसनपर विराजमान भगवान् भूमापुरुषने जब इस प्रकार आज्ञा दी तो श्रीकृष्णचन्द्र अर्जुन भूमापुरुषको प्रणामकर ब्राह्मणके बालकोंको संग ले अपने धाम द्वारकापुरीमें आये और उन्होंने ब्राह्मणको उसी अवस्था और रूप वाले पुत्र देदिये॥६१॥६२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका प्रभाव देख अर्जुनने महाआश्चर्य मानकर पुरुषमें जो कुछ पराक्रम है सो श्रीकृष्णचन्द्रकी
कृपासेही है यह निश्चय किया॥६३॥इसप्रकार अनेक पराक्रम इस संसारमें दिखाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जगत्के विषयोंको भोग किया और बड़े यज्ञोंसे यजन किया॥६४॥समयके अनुसार धर्ममार्गमें स्थित हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्राह्मणसे आदि ले सब प्रजाके मनोरथको जैसे नववर्षासे पृथ्वीको पूर्ण करते हैं उसीप्रकार पूर्ण किया॥६५॥अधर्मी राजाओंको मारकर और कितनोंको अर्जुन भीमसेनादिकोंके द्वारा घात कराया धर्मपुत्र युधिष्ठिरादि धार्मिक राजाओंके द्वारा अनायास संसारमें धर्म प्रवृत्त किया॥६६॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णचरित्रवर्णनं नामैकोननवतितमोऽध्यायः॥८९॥ दोहा — नब्बेके अध्यायमें, यदुकुलको
इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्॥ बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्यूर्जितैर्मखैः॥६४॥ प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु॥ यथाकालं यथैवेंद्रो भगवाञ्श्रैष्ट्यमास्थितः॥६५॥ हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्घातयित्वाऽर्जुनादिभिः॥ अंजसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः॥६६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे द्विजकुमारानयनं नाम नवाशीतितमोऽध्यायः॥८९॥ श्रीशुक उवाच॥ सुखं स्वपुर्यां निवसन्द्वारकायां श्रियः पतिः॥ सर्वसंपत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः॥१॥ स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिर्नवयौवनकांतिभिः॥ कंदुकादिभिर्हर्म्येषुक्रीडंतीभिस्तडिद्युभिः॥२॥ नित्यं संकुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतंगजैः॥ स्वलंकृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः॥३॥ उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु॥ निर्विशद्भगविहगैर्नादितायां समंततः॥४॥
विस्तार॥ हरिलीला सक्षेपसे, वरणों बारम्बार॥१॥ श्रीशुकदेजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्!संपूर्ण संपत्तियोंसे भरी और श्रेष्ठ यादवोंसे सेवित द्वारकापुरीमें॥१॥ जहाँ नवयौवनकी शोभासे शोभायमान और विजलीके समान कान्तिवाली स्त्रियें महलोंमें गेंद क्रीड़ा कर रही हैं और शृंगारसे मनोहर वेष धारण कररही हैं॥२॥ जहाँके मार्गोंमें मद चुवाते हाथी और उत्तम वेषकिये योद्धा घोड़े और सुवर्णसे दीप्तिमान् रथोंकी सदा भीड़ बनी रहती है॥३॥ जहाँ फूलसंयुक्त अत्यन्त शोभायमान बगीचे लगरहे हैं, और फूलेहुए वृक्षोंकी पंक्तियोंमें
चारों ओरसे भौंरे और पक्षी निरन्तर गुंजार करते रहते हैं॥४॥ ऐसी द्वारकापुरीमें सोलह सहस्र पत्नियोंके प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रने जितने स्त्रियोंके जितने सम्पन्न महलहैं, उनमें उतनेही विचित्ररूप धारणकर उनके संग रमण किया*****॥५॥ इन घरोंमें फूलेहुए उत्पल, कह्लार,
रेमे षोडशसाहस्रपत्नीनामेकवल्लभः॥ तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गृहेषु महर्द्धिषु॥५॥ प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लारकुमुदांभोजरेणुभिः॥ वासितामलतोयेषु कूजद्द्विजकुलेषु च॥६॥ विजहार विगाह्यांभो ह्रदिनीषु महोदयः॥ कुचकुंकुमलिप्तांगः परिरब्धश्च योषिताम्॥७॥ उपगीयमानो गंधर्वैर्मदंगपणवानकान्॥ वादयद्भिर्मुदा वीणां सूतमागधबंदिभिः॥८॥
कुमुद, अंभोज, परागकी सुगंधियुक्त निर्मल जलवाले सरोवरोंमें पक्षियोंके समूह शब्द कररहे॥६॥ स्त्रियोंके आलिंगनसे कुचोंकी केशर जिनके लगरही, ऐसे महाप्रतापी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सरोवरोंके भीतर विहार करते हैं॥७॥ मृदंग, ढोलक आदि बाजे और वीणाओंको गंधर्वगण
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*शंका— श्रीकृष्ण भगवान् अपनी स्त्रियोंके साथ मनुष्योंके समान क्रीडा क्यों करते थे!
उत्तर— श्रीकृष्णने विचार किया कि, अब कलियुगके आनेके थोडेही दिन और रहे हैं, जब कलियुग अवेगा तो कलियुगमें बडे बडे दुष्ट अधर्मी मनुष्य जन्मैंगे और अपनी स्त्रियोंको छोडकर दूसरी स्त्रियोंसे मन लगावेंगे और उनहींको अनेक २ प्रकारके वस्त्र आभूषण पहिरावेंगे और अपनी स्त्रियोंको भरकर पेट रोटीभी न देंगे और हरेक वस्तुको तरसावेंगे और बात वातोंमें लात और घूसोंसे मार लगावेंगे तब वेदमें जो विवाहिता स्त्री पुरुषोंका धर्म लिखा है सो सब नष्ट हो जायगा तब सनातन धर्म नष्ट हुए पीछे सब प्रजा वर्णसकर होजायगी, तबपृथ्वी रसातलके जानेकी इच्छा करैगी, तब मुझको अवतार लेना पडेगा ऐसा भगवान् विचारके कलियुगमें जो मनुष्य उत्पन्न होवेंगे उन मनुष्योंको सिखानेके लिये और कलियुगमें स्त्रियोंकी रक्षा करनेकेलिये अपनी स्त्रियोंके साथ अत्यन्त क्रीडा और विहार करते थे श्रीकृष्णने विचारा कि अपनी स्त्रियोंके क्रीडाको कलियुगकेमनुष्य सुनके जारकर्म छोडके अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ इसीप्रकार विहार करेंगे और आदर सत्कार सहित उनका पूजन करेंगे और अपनी स्त्री गृहस्थीमें परमोत्तम हैं, क्योंकि श्रीकृष्णने भी उनके साथ अत्यन्त प्रीति की थी इसीप्रकार हम भी उनसे प्यार करैंऔर जो परमोत्तम न होती तो श्रीकृष्ण अपनी स्त्रियोंका सन्मान क्यों करते इसलिये श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीडा की थी कामदेवके वश होकर नहीं की थी।
बजाय रहेहैं, और सूत, मागध, बंदीजन स्तुति कररहेहैं॥८॥ हँसती हुई स्त्रिये अपनी २ पिचकारियोंसे भिजोती और श्रीकृष्णचन्द्र भी स्त्रियोंको छिडकते यक्षराज कुबेरके समान क्रीडा करनेलगे॥९॥ भीजे वस्त्रोंसे उर, कुच, प्रगटहोने और ढीली चोटियोंमेंसे फूल गिरनेसे स्त्रियें पिचकारीसे बचनेके कारण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आलिंगन करतेही कामदेवके उत्सवसे प्रकाशमान मुखवाली होगईं और भगवान्को भिजोती शोभा पानेलगीं॥१०॥ स्त्रियोंके स्तनोंकी केशरसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी माला भरगई और हाथिनियोंके संग विहार करनेवाले हाथीके समान शोभायमान होनेलगे॥११॥ नट और नाचनेवालियोंको गीत गाने तथा बाजे बजाकर जीविका करनेवालोंको श्रीकृष्णचन्द्र और
सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिर्हसंतीभिः स्म रेचकैः॥ प्रतिषिंचन्विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव॥९॥ ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः सिंचंत्य उद्धृतबृहत्कबरप्रसूनाः॥ कांतं स्म रेचकजिहीरषयोपगुह्य जातस्मरोत्सवलसद्वदना विरेजुः॥१०॥
कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्जितकुंकुमस्रक्क्रीडाभिषंगधुतकुंतलवृंदबंधः॥ सिंचन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः॥११॥ नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम्॥ क्रीडालंकारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः॥१२॥ कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः॥ नर्मक्ष्वेलिपरिष्वंगैः स्त्रीणां किल हृताधियः॥१३॥ ऊचुर्मुकुंदैकधियो गिर उन्मत्तवज्जडम्॥ चिंतयंत्योऽरविंदाक्षं तानि मे गदतः शृणु॥१४॥ महिष्य ऊचुः॥ कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेष स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः॥ वयमिव सखि कच्चिद्गाढ निर्भिन्नचेता नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन॥१५॥
उनकी स्त्रियोंने क्रीड़ा करनेके अलंकार और वस्त्र दिये॥१२॥ इसप्रकार विहार करते भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी चलनि, बोलनि मुसकानि और हास्यकी वार्त्ता, क्रीड़ा, आलिंगनसे स्त्रियोंकी बुद्धि हरगईथी॥१३॥ हे राजन्! मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रमें बुद्धिवाली एक स्त्रीने पहले चुप होय फिर भगवान् वासुदेवका ध्यानकर, उन्मत्त हो जड़की नाई जो वचन कहेथे, उन वचनोको मैं वर्णन करताहूं, तुम सुनो॥१४॥ स्त्रियें बोलीं कि, हे टिटहरी! संसारमें गुप्तबोध भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तो शयन कररहेहैं और तू निद्रारहित हो विलाप करके उनकी नींदमें बाधा देतीहै,
तू शयन नहीं करती, सो यह सत्य नहीं, हे सखी! क्या हमारीही नाईं कमलनेत्र श्रीकृष्णचन्द्रका हास्य लीला पूर्वक चितवनसे तेरा चित्त बँधगया है, इसीसे पुकारतीहै?॥१५॥हे चकवी!तैंने क्यों नेत्र मूँदलिये हैं, रात्रिमें पतिको न देखनेसे करुणाके मारे रुदन करती है, अथवा दास्यभावमें प्राप्त हुई हमारी समान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकी प्रसादी माला अपनी चोटीपर चढ़ानेकी इच्छा करती है, क्या इसीलिये रोती है?॥१६॥ हे समुद्र!निद्राके न आनेसे क्या तुझेभी प्रजागर होगया, जो सदा चिल्लाता रहता है। अथवा हमारीसी दशा तेरी भी है जैसे भोगसे मुकुन्दने हमारे कुचोंकी केशर लेली है, क्या इसी प्रकार तुझेभी मथकर तुझमेंसे लक्ष्मी और कौस्तुभमणि निकालही है?॥१७॥ हे
नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबंधुस्त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि॥ दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम्॥१६॥ भोभोः सदा निष्टनसे उदन्वन्नलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः॥ किं वा मुकुंदापहृतात्मलाञ्छनः प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम्॥१७॥ त्वं यक्ष्मणा बलवताऽसि गृहीत इंदो क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोऽषि॥ कच्चिन्मुकुंदगदितानि यथा वयं त्वं विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः॥१८॥ किं त्वाचरितम
स्माभिर्मलयानिल तेऽप्रियम्॥ गोविंदापांगनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम्॥१९॥ मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो यादवेंद्रस्य नूनं श्रीवत्सांकं वयमिव भवान्ध्यायति प्रेमबद्धः॥ अत्युत्कंठः शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसंगः॥२०॥
चन्द्रमा! जान पड़ता है कि, तुझे बलिष्ठ क्षयके रोगने ग्रहण करलिया है, इसीकारण क्षीणताको प्राप्त हुआहै, अपनी किरणोंसे अंधकारको दूर नहीं करता, हमारीही समान मुकुन्दकी रहस्य वार्त्ताओंको भूल उसी चिन्ताके मारे क्षीण होगया है और हमैंनिश्चय है कि तेरी वाणीभी हमारी समान बंद होगई है!॥१८॥ हे मलयाचलके पवन!हमने ऐसा क्या तेरा अप्रिय कार्य किया है?जिससे तू गोविन्दके अंगमें लगकर हमारे हृदयमें कामाग्निको प्रगट करता है॥१९॥ हे मेघ! हे श्रीमन्! हम जानती हैं तू यादवोंके इन्द्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका प्यारा मित्र है, इसीलिये जो ताप दूर करनेको भगवान्में गुण है सो तुझमें भी है, सो हमारे समान भगवान्के प्रेममें बँधकर तूभी नारायणका चिंतवन करता है, क्योंकि तेरे हृदयमें जो अति
उत्कंठा है इससे भृगुलताके चिह्नवाले श्रीकृष्णका स्मरणकर हमारे समान अश्रुकी धारा बहाताहै, तेरा हृदय भी श्याम होरहाहै तैने उनके संग मित्रता क्यों करी? उनका संग तो दुःखदायी ही है॥२०॥हे शोभायमान कंठवाले कोकिल! मृतकको जिलानेवाली कोमल वाणीसे प्यारी बातें करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे वचन कहती हैं तेरा मैंक्या प्रिय करूं, सो मुझसे कह॥२१॥ हे उदारबुद्धे! हे पर्वत! तू चलता और बोलताभी नहीं है, और बड़ी चिन्ता करता है, जैसे वसुदेवनंदनके चरण हम अपने हृदयमें धरनेकी चाहना करती हैं, उसी प्रकार तू भी अपने शिखरपर धरनेकी इच्छा करता है, यदि धरेगा तो हमारीसी दशा तेरी भी होगी॥२२॥ हे समुद्रपत्नियो नदियो! इस समय ग्रीष्मके आनेसे मेघद्वारा समुद्रका जल न पानेसे दुर्बल, सूखे ह्रद और कमलोंकी शोभासे हीन होगई हो, धारा वर्षाकर तुम्हैंआनन्द नहीं देती, यह बडा कष्ट है, इसीसे
प्रियरावपदानि भाषसेऽमृतसंजीविकयाऽनया गिरा॥ करवाणि किमद्य ते प्रियं वद मे वल्गितकंठ कोकिल॥२१॥ न चलसि न वदस्युदारबुद्धे क्षितिधर चिंतयसे महांतमर्थम्॥ अपि बत वसुदेवनंदनांघ्रिं वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम्॥२२॥ शुष्यद्धदाः कृशतरा बत सिंधुपत्न्यः संप्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः॥ यद्वद्वयं यदुपतेः प्रणयावलो कमप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म॥२३॥ हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यंग शौरेःकथां दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यात उक्तं पुरा॥ किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं कस्माद्भजामो वयं क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम्॥२४॥
तुम्हारे हृदय सुखकर लट गये हैं, जैसे वांछित पति यदुपति श्रीकृष्णचन्द्रकी स्नेहभरी चितवनके पडे विना हमारे हृदय चुरायेजानेसे हम दुर्बल होगई हैं॥२३॥ अकस्मात् आये हंसको दूत कल्पना करके कहती हैं कि, हे हंस!आप अच्छे आये। आओ विराजो, पयपान करो; श्रीकृष्णचन्द्रकी वार्ता कहो, आप दूतबनकर आयेहो सो हमको विदितहै, श्रीकृष्णचन्द्र भेलीप्रकार तो हैं? क्षणिकप्रीति रखनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आपही हमसे जो कुछ कहगये थे उसका किसी समय स्मरण करते हैं? हे दूत! हमारा भगवान् वासुदेवसे क्या अर्थ? जो हमैंकामके सुख के लिये बुलातेहों तो उन्हींको हमारे निकट बुलाकर लेआ, परन्तु यह बात है कि, लक्ष्मी हमसे छलकर श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवा करती है, इसकारण लक्ष्मी
रहित श्रीकृष्णचन्द्रकोही बुलाकर ला, कमला एकनिष्ठावाली है, सो उसको किसप्रकार छोड़ा जाय, यदि तेरे मनमें यह बात हो तो क्या स्त्रियोंमें केवल लक्ष्मीही निष्ठावाली है, क्या हम वैसी नहीं?॥२४॥योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें इसप्रकार भावकर श्रीकृष्णचन्द्रकी स्त्रियें वैष्णवगतिको प्राप्त हुईं॥२५॥जो श्रीकृष्णचन्द्रका कीर्त्तन करने और श्रवण करनेसेही स्त्रियोंके मनको हर लेते हैं और जो दर्शन करने वालियोंके मनको हर लें तो क्या आश्चर्य है?॥२६॥हे राजन्! जो स्त्री जगत्के गुरु श्रीकृष्णचन्द्रको अपना पति मान प्रेमपूर्वक उनकी चरण आदि सेवा करती थीं, उनका तप और भाग्य कहाँतक वर्णन करैं?॥२७॥इसप्रकार साधुओंकी गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, वेदविहित धर्मका
इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे॥ क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम्॥२५॥ श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः॥ उरुगायोरुगीतो वा पश्यंतीनां कुतः पुनः॥२६॥ याः संपर्यचरन्प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः॥ जगद्गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः॥२७॥ एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन्सतां गतिः॥ गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत्पदम्॥२८॥ आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम्॥ आसन्षोडशसाहस्रं महिष्योष्टशताधिकम्॥२९॥ तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ याः प्रागुदाहृताः॥रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः॥३०॥ एकैकस्यां दशदश कृष्णोऽजीजनदात्मजान्॥ यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः॥३१॥ तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथाः॥ आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे शृणु॥३२॥
अनुष्ठानकर घरमें रह धर्म, अर्थ, विषय सेवन करनेवाले संसारी पुरुषोंको बारम्बार दिखाया॥२८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गृहस्थियोंके उत्तम , धर्मका पालन करते थे, उस समय भगवान्के सोलह सहस्र एकसौ आठ (१६१०८) रानियें थीं॥२९॥ हे राजन्! स्त्रियोंमें रत्नके समान सोलह हजार एकसौ आठ रानियोंमें रुक्मिणीसे आदिले आठ पटरानी थीं, जिनके पुत्रोंके नाम भी पहले वर्णन कर चुके हैं॥३०॥ अप्रमेयगति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके जितनी भार्या थीं, सो एक एक भार्यामें दश दश पुत्रोंको उत्पन्न किया, वे सब मिलकर एक लाख इकसठ हजार और अस्सी १६१०८० हुये॥३१॥ हे नृपश्रेष्ठ!उनमें बड़े पराक्रमी उदार और यशस्वी अठारह १८ महारथी हुये, उनके नाम सुनो॥३२॥
यथा प्रद्युम्न अनिरुद्ध^(२), दीप्तिमान, भानु^(४), साब^(५), मधु^(६), बृहद्भानु^(७), चित्रभानु^(८), वृक, अरुणं^(१०)॥३३॥पुष्कर^(११), वेयाहु, श्रुतदेव^(१३), सुनंदन^(१४), चित्रबाहु^(१५), विरूप^(१६), कवि^(१७) और न्यग्रोध^(१८)॥३४॥हे राजन! मधुदैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सब पुत्रोंमें रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नजी श्रीकृष्णचन्द्रके समान गुणी हुये॥३५॥महारथी प्रद्युम्नजीने रुक्मीकी पुत्रीसे विवाह किया, उन प्रद्युम्नजीसे रुक्मीकी पुत्रीमें दशहजार हाथियोंके बलवाले अनिरुद्ध पुत्र हुये॥३६॥अनिरुद्धने रुक्मीकी पोती रोचनाको व्याहा उस रोचनामें अनिरुद्धके वज्रनाभ पुत्र हुआ, जो वज्रनाभ प्रभासक्षेत्रकी सुशललीलामें शेष रहा॥३७॥ उस वज्रनाभके प्रतिबाहु पुत्र हुआ, प्रतिबाहुके सुबाहु हुआ, सुबाहुके शांतसेन हुआ और शांतसेनके शतसेन हुआ॥३८॥इस यदुकुलमें धनहीन
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान्भानुरेव च॥ सांबो मधुर्बृहद्भानुश्चित्रभानुर्वृकोऽरुणः॥३३॥ पुष्करो देवबाहुश्च श्रुतदेवः सुनदंनः॥ चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च॥३४॥ एतेषामपि राजेंद्र तनुजानां मधुद्विषः॥ प्रद्युम्न आसीत्प्रथमः पितृवद्रु- क्मिणीसुतः॥३५॥ स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः॥ तस्मात्सुतोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः॥३६॥ स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः॥ वज्रस्तस्याभवद्यस्तु मौसलादवशेषितः॥३७॥ प्रतिबाहुरभृत्तस्मात्सुबाहुस्तस्य चात्मजः॥ सुबाहोः शांतसेनोऽभूच्छतसेनस्तु तत्सुतः॥३८॥ न ह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः॥अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे॥३९॥ यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम्॥ संख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैर्नृप॥४०॥ तिस्रः कोट्यः सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च॥ आसन्यदुकुलाचार्याः कुमाराणामिति श्रुतम्॥४१॥ संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्॥ यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुकः॥४२॥
प्रजाहीन किसीने जन्म नहीं लिया और थोड़ी आयु पराक्रम रहित ब्राह्मणोंका भक्तिहीन ऐसा कोई उत्पन्न नहीं हुआ॥३९॥ हे राजा परीक्षित्! यदुवंशमें उत्पन्नहुये विख्यातकर्मा पुरुषोंकी संख्या दशहजार वर्षोंमें भी कहनेको समर्थ नहीं होसक्ते॥४०॥ क्योंकि तीन करोड आठ सहस्रआठसौ ३०००८८०० यदुकुलके बालकोंको पढ़ानेवाले आचार्य नियत थे, यह मैंने सुनाहै॥४१॥ महात्मा यादवोंकी संख्या कौन कर सकता है? क्योंकि जिस कुलमें हजारोंके दशहजार उनके लाख इतने यादवोंको लेकर द्वारकापुरीमें उग्रसेनने वास किया॥४२॥
देवता और असुरोंके युद्धमें मरे दारुण दैत्यही मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्ववंत होकर प्रजाको बाधा देनेलगे थे॥४३॥हे महाभागवतपरीक्षित्!उन असुरोंको दंड देनेके लिये हरि भगवान्की आज्ञा पाय देवताओंने यदुकुलमें अवतार लियाथा॥४४॥ उन यादवोंकी प्रभुतामें भगवान्ही प्रमाण हुए, उन श्रीकृष्णचन्द्रके आज्ञानुवर्ती सब यादव हो वृद्धिको प्राप्तहुए॥४५॥ सोते, बैठते, बोलते, क्रीडा, स्नान, भोजनादि कर्म करते श्रीकृष्णचन्द्रमें चित्त लगाये यादवोंने अपने आत्माको नहीं जाना॥४६॥ उससे प्रथम श्रीगंगाजीही अधिक तीर्थ रही, जब यादवोंमें श्रीकृष्णचन्द्रका यशरूपी तीर्थ प्रगट हुआ तबसे अपने चरणोदकरूप गंगातीर्थको भी न्यून करने लगे और आपही संपूर्ण तीर्थोंके ऊपर विराजनेवाले भगवान्
देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः॥ ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे॥४३॥ तन्निग्रहाय हरिष्या प्रोक्ता देवा यदोः कुले॥ अवतीर्णाः कुलशतं तेषामेकाधिकं नृप॥४४॥ तेषां प्रमाणं भगवान्प्रभुत्वेनाभवद्धरिः॥ ये वानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः॥४५॥ शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु॥ न विदुः संतमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥४६॥ तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु स्वःसरित्पादशौचं विद्विट्स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपराः श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्नः॥ यन्नामाऽमंगलघ्नं श्रुतमथ गदितं यत्कृतो गोत्रधर्मः कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं कालचक्रायुधस्य॥४७॥ जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो यदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्॥ स्थिरचरष्ट जिनघ्नः सुस्मितः श्रीमुखेन व्रजपुरवनितानां वर्धयन्कामदेवम्॥४८॥
श्रीकृष्णचन्द्रने जिन पुरुषोंसे वैर किया और जिसने स्नेह किया वह भी तद्रूपको प्राप्त हुएदेखो। जिस लक्ष्मीके लिये ब्रह्मादिक उपाय करते हैं, सो किसीको प्राप्त नहीं हुई, वह लक्ष्मी भी श्रीकृष्णचन्द्रको त्यागकर कहीं नहीं जाती, जिन श्रीकृष्णचन्द्रका नाम श्रवण करनेसे अथवा कथन करनेसे सब पापोंका नाश कर देताहै, फिर उनके स्वरूपका तो कहनाही क्या है! और ऋषियोंके वंशमें धर्म चलाया काल चक्र आयुधधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दुष्टोंका मारना और पृथ्वीका बोझ उतारना, यह कुछ आश्चर्य नहीं है॥४७॥ सब जीवोंमें अंतर्यामीरूप होकर वास करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सर्वदा उत्कर्षतापूर्वक विराजमान हैं, देवकीमें जन्म हुआ, यह तो कथनही मात्र है, श्रेष्ठ यदुवंशियोंसे सेवित इच्छामात्रसे अध
र्मके नाश करनेमें समर्थ है परन्तु तोभी क्रीडाके लिये अपनी भुजाओंसे अधर्मको दूरकर स्थावर, जंगम सब जीवोंका दुःख दूरकर सुन्दर मुसकान युक्त अपने श्रीमुखसे व्रजकी स्त्री गोपिका और पुरी मथुरा द्वारका की स्त्रियोंको कामदेव बढ़ानेवाले सर्वदा विराजमान रहते हैं, ऐसे सर्वोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी जय हो॥४८॥अपने धर्मकी रक्षा करनेके लिये मत्स्य कूर्मादिक अवतार धारण करनेवाले, यादवोंमें उत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो रूप धरकर योग्य कर्म कियेथे, उनको सुनकर पुरुष पाप कर्मसे छूट जाता है॥४९॥तीनों कालमें बड़ी मुक्तिके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभायमान कथाका श्रवण कीर्त्तन और विचार करके पुरुष कालकी गतिरहित भगवान्के धामको प्राप्त होता है, यह श्रवण करके चक्रवर्ती राजा भी राज्य त्याग श्रीकृष्णचन्द्रकी प्राप्तिके लिये ग्रामके बाहर वनको चलेगये॥५०॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टादश
इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयाऽऽत्तलीलातनोस्तदनुरूपविडंबनानि॥ कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य श्रयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन्॥४९॥ मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुंदश्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिंतयैति॥ तद्धाम दुस्तरकृतां तजवापवर्गं ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः॥५०॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यांसंहितायां वैंयासिक्त्यां दशमस्कंधोत्तरार्द्धे कृष्णचरितानुवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः॥९०॥ ॥दशमस्कन्धः समाप्तः॥
सादस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णचन्द्रानन्दकन्दचरित्रवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः॥९०॥ इति भाषाटीकासमेत दशमस्कन्ध समाप्त॥१०॥ दोहा —श्रीकृष्णदासात्मज, खेमराज गुणग्राम।विद्वत्तम उपकारचित, सकल सुलक्षणधाम॥१॥ कहाँ होतहैं जगतमें, ऐसे पुरुष उदार। देशदेशमें छै रह्यो, जिनको सुयश प्रचार॥२॥ कुटुँब सहित रक्षा करैं, जिनकी श्रीजगदीश। बार बार यह देत हैं, शालिग्राम अशीश॥३॥ भई दशमस्कन्धकी, भाषा पूरण आज। विरची शालिग्राम कवि, सुमिरि श्रीवजराज॥४॥
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इस ग्रन्थका रजिस्टरी सर्वप्रकारका हक सन् १८६७ के २५ में ऐक्टके सर्कारी नियमानुसार “श्रीवेङ्कटेश्वर” प्रेसाध्यक्षने स्वाधीन रखा है।
इदं पुस्तकं मुम्बय्यां श्रीकृष्णदासात्मजेन क्षेमराजेन स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणयन्त्रालयेऽङ्कयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.
॥इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते दशमस्कन्धोत्तरार्धं समाप्तम्॥ |
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“शका—सूर्यवंशसे चद्रवंश हुवा है और राजा परीक्षित्के प्रश्नवाले लोकसे प्रथम सोमवंशका नाम हैं, सो पीछे सूर्यवश क्यों वर्णन किया। सूर्यवश तो प्रथम वर्णन करना चाहिये? ’ यह वडे सदेहकी बात हैं, प्रथमवालेको पीछे वर्णन करना और पीछे वालेको प्रथम यह क्या कारणहै यहा कोई छन्दमी नहीं जो आगे पीछे छन्दभ्रष्ट होजानेके कारण लिखदिया. उत्तर—राजा परीक्षित्ने चद्रवंशमें श्रीकृष्णका जन्म सुनकर और अपनेभी कुलका सन्मान करनेके लिये श्लोकमें प्रथम चद्रमाका कीर्त्तन किया॥” ↩︎
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“कवित्त—वनेहें आचारी कोई कर्मधुरधारी ध्रुव कोई उपकारी बडे कोई निर्विकारी है॥कोई बडे पण्डित विरागसे न सण्डित अदण्डित अयनिमें उदण्डित विचारी है॥ कोई यबशास्त्र पढे याद औ विषाद बढे कोई कुलकाव्य गढे दया भढे मारी है॥छाके नाहिं सीके पीके प्रेगरस पीके नीके कहा किये जीके जीके फीके युगकारी हैं॥” ↩︎
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“कवित्त—फेर देवकीसे सबै देव अस बोले वैन, आदिपुरुष विश्वात्मा धाम है अशोकको॥जगत्को निवास सो निवास तेरी कुक्षीमार्हि, त्रास नाशबेको सबदेवनके योकको॥ जननी जगत मातु धैर्य धरो धेर्य धरो, कसकाल आयगयो कामनाहीं शोकको॥ यदुवंशपालक रु दुष्टकुलघालक सो, है है तुव बालक जो मालिक त्रिलोकीको॥” ↩︎
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“शंका—कंसने राक्षसोंसे जिस ब्रह्मका बन्धन कराकर अपना कल्याण माना वह ब्रह्म कौन है ? क्योंकि सर्वव्यापी, अजर, अमर, चैतन्यकारक, ऐसा जो ब्रह्म है वह कभीभीकिसीके बन्धनंमें नहीं आसक्ता और किसीके मारनेसे नहीं मर सक्ता, वह मरनेवाला ब्रह्म किसीके मारनेको नहीं है। जो राक्षसोंके मारनेसे मरगया। उत्तर—अजर, अमर, सर्वव्यापी ब्रह्म है सो " ↩︎
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“शंका—श्रीकृष्णचन्द्रने यशोदा माताको पहिले तो बहुत दुःखी किया फिर पीछे रस्सीसे बँधगये और पहिले अनेक उपायोंसे नहीं बँबे इसका क्या कारण? श्रीकृष्ण भक्तभयहारी, जगत् हितकारीने मृत्युलोकके आनेकी इच्छा की, तब सब गोलोककीगायें श्रीकृष्णके सग व्रजको आने लगीं, तब गोलोककी सेवा करनेवाली दासी रस्सी बनकर गायोंके वाँध फर चली आई, भगवान्ने विचार कि, गोलोककीगायोंकी सेवा करनेवाली तो नन्दबाबाके घर आगई अब नन्दकी गायोंकेदासी जो यहापर रस्सी बनगाई है। इनको गोलोकमें भेजना ऐसा विचार उन गायोंकी दासियोंकों ससारसे मुक्त करनेके लिये फिर गोलोकको भेजनेके लिये एक रस्सीसे नहीं बँधे, एक रस्सीसे बॅधे जाते तो यशोदा सबघरभरकी रस्सी क्यों इकट्ठी करके ले आती॥” ↩︎
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“अरत्नि- समुष्टिहस्त अर्थात् कोहनीसे बीचको अगुलीतक।” ↩︎