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॥ अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते नवमस्कंधप्रारम्भः ॥

सोरठा-जय वृन्दावन चन्द, जय मुकुन्द गोविन्द हरि॥ जय प्रभु आनँदकन्द, जगवन्दन दुष्टनदलन॥१॥ जय त्रिभुवन आधार, जय जय जीवन जगतपति॥ मम उर करहु विहार, कर मुरली शिर मुकुट धर॥२॥ हे वृन्दावन चन्द, यह वर दीजे दयाकर॥श्रीव्रजको आनन्द, नित्यप्रति निरखत रहौं॥३॥ शीश मुकुट उरमाल, सँग राधा बाधा हरण॥ इहि छबिसों नँदलाल, बसहु सदा मेरे हिये॥४॥ श्रीयमुनाके तीर, गाय चरावत सखन सँग॥ ता छबिसों यदुवीर, वास करहु मेरे हृदय॥५॥ अहो मदन गोपाल, रास रसिक राधारमण॥हरहु जगत जंजाल, करहु दया जन जान कर॥६॥ कर त्रिशूल शशिभाल, शीश गंग मन्मथ दहन।गलमें गरल कराल, आठपहर झलकत रहत॥७॥ दोहा— स्कन्ध नवममें वंश द्वै, सूर्य सोम विस्तारि॥ तेरहग्यारहसोंभने, क्रम अध्याय विचारि॥१॥ तहां प्रथम अध्यायमें वैवस्वतसुत वंश॥ मध्यभन्यो सुद्युम्नके स्त्रीत्व जास विधुवंश॥२॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ राजोवाच॥ मन्वंतराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे॥ वीर्याण्यनंतवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च॥१॥ योऽसौ सत्यंव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः॥ ज्ञानं योऽतीतकल्पांते लेभे पुरुषसेवया॥२॥ स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम्॥ त्वत्तस्तस्य सुताश्चोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः॥३॥ तेषां वंशं पृथग् ब्रह्मन्वंश्यानु चरितानि च॥ कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः॥४॥ ये भूता ये भविष्याश्च भवंत्यद्यतनाश्च ये॥ तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान्॥५॥

श्रीशुकदेवजीसे राजा परीक्षित बोले कि, हे भगवन्! सब मन्वन्तरोंका वृत्तान्त और उन मन्वन्तरोंमें अनन्तवीर्यवान् भगवान् हरिने जो वीर्य प्रकाश किया, वह सम्पूर्ण आपके अनुग्रहसे मैंने सुना॥१॥ हे योगिन्! अतीत कल्पके अन्तमें द्रविडाधिपति सत्यव्रत नामक राजर्षिने भगवान्की सेवा करके जो ज्ञान प्राप्त किया॥२॥और वह वैवस्वतके पुत्र मनु हुए थे इसको भी मैंने सुना और उन वैवस्वत मनुके पुत्र जो इक्ष्वाकु आदि राजा हुये, उनका वृत्तान्तभी आप कहही चुके हैं॥३॥ हे महाभाग! इन इक्ष्वाकु आदिका पृथक् पृथक् वंश और वंशोंमें होनेवालोंके चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ, सो कृपापूर्वक आप मुझसे वर्णन कीजिये॥४॥ हे महाभाग!इस वंशमें जो पुरुष होगयेहैं और जो आगेको होंगे जो अब

वर्तमान हैं पुण्यकीर्तिवाले उन सब मनुष्योंका विक्रम आप यथार्थ यथार्थ मुझसे कहिये॥५॥ श्रीसूतजी बोले कि, ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंकी सभामें राजा परीक्षित्ने जब इस प्रकारसे पूँछा, तब परमधर्मज्ञ श्रीशुकदेवजी कथाका आरंभ करनेलगे॥६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् !मनुके वंशका वृत्तान्त हम कहतेहैं; तुम श्रवण करो। परन्तु इनका विस्तारसे वृत्तान्त तो हम सहस्रों वर्षतक नहीं कहसक्ते॥७॥ हे राजन्! जो परम पुरुष पर अपर भूतोके आत्मा हैं, आगे केवल वही थे कल्पके अन्तमें उनके अतिरिक्त विश्वमें और कुछ वस्तु नहीं थी॥८॥ उन परमपुरुषकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमल उत्पन्नहुआ। हे महाराज ! उस कमलसे चतुर्मुख ब्रह्माजीकाजन्म हुआ॥ ९॥ इन ब्रह्माजीके मनसे मरीचि जन्मे, उनके पुत्र

सूत उवाच॥ एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम्॥ पृष्टः प्रोवाच भगवाञ्छुकः परमधर्मवित्॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परंतप॥ न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि॥७॥ परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः॥ स एवासीदिदं विश्वं कल्पांतेऽन्यन्न किंचन॥८॥ तस्य नाभेःसमभवत्पद्मकोशो हिरण्मयः॥ तस्मिञ्जज्ञे महाराज स्वयंभूश्चतुराननः॥९॥ मरीचिर्मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः॥ दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वानभवत्सुतः॥१०॥ ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत॥ श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान्स आत्मवान्॥११॥ इक्ष्वाकुनृगशर्यातिदिष्टधृष्टकरूषकान्॥ नरिष्यंतं पृषध्रंच नभगं च कविं विभुः॥१२॥ अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान्किल॥ मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोत्प्रभुः॥१३॥ तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत। दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता॥१४॥

कश्यपजी हुये, इन कश्यपजीकी भार्या दक्षकी बेटी आदितिके गर्भ और कश्यपजीसे सूर्यका जन्म हुआ॥१०॥ हे भारत!इन सूर्यनारायणसे संज्ञाके गर्भमें श्राद्धदेव मनु, उत्पन्नहुए। इन श्राद्धदेवकी भार्या श्रद्धा हुई कि जिनके गर्भसे इन महात्मावे दश पुत्र उत्पन्न हुए॥११॥ उनके नाम यह हैं यथा इक्ष्वाकु, नृग, शर्य्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग, और कवि॥१२॥ हे राजन्! इक्ष्वाकु आदि पुत्रोंकी उत्पत्तिके पहले मनुजी निःसन्तान थे, इसलिये महर्षि वसिष्टजीने उनको मित्रावरुणका यज्ञ कराया॥१३॥ हे राजन्! मनुकी भार्या श्रद्धा उस यज्ञमें केवल दूधही पीकर नियमसहित

होताके निकटगई और प्रणाम करके यह प्रार्थना करी कि आप ऐसा होम करैंकि, जिससे मेरे कन्या उत्पन्नहो॥ १४॥ श्रद्धाकी प्रार्थनासे “अहे यज्ञकर” इसप्रकार अध्वर्य्युसे प्रेरित हो, होताने हविके ग्रहण होजानेपर मनमें इस प्रकारका ध्यान और मुखसे “वषट्” शब्द उच्चारण करके मनुभार्याकी प्रार्थनाको पूर्ण किया,॥१५॥ हे राजन्! जब होताने इस प्रकारसे आचरण किया तब मनुके इला नाम एक कन्या उत्पन्नहुई। पुत्रकी चाहना होनेके कारण पुत्रीके होनेसे मनुको संतोष नहीं हुआ। इसलिये वह असंतुष्ट हो वसिष्ठजीसे बोले कि॥१६॥ हे भगवन्! आप ब्रह्मवादी हैं। आप लोगोंका यह विपरीत कर्म कैसे हुआ? हा! कैसा कष्ट है? इस प्रकारसे मंत्रका उलटा होना उचित नहीं हैं॥१७॥ आपलोग ब्रह्मज्ञ और योगी हैं। तपकी

प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायंस्तत्सुसमाहितः॥ हविषि व्यचरत्तेन वषट्कारं गृणन्द्विजः॥१५॥ होतुस्तव्द्यभिचारेण कन्येला नाम साऽभवत्॥ तां विलोक्य मनुः प्राह नातिहृष्टमना गुरुम्॥१६॥ भगवन्किमिदं जातं कम वो ब्रह्मवादिनाम्॥ विपर्ययमहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया॥१७॥ यूयं मंत्रविदो युक्तास्तपसा दग्धकिल्बिषाः॥कुतः संकल्पवैषम्यमनृतं विबुधेष्विव॥१८॥ तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान्प्रपितामहः॥ होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनंदनम्॥१९॥ एतत्संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः॥ तथाऽपि साधयिष्ये ते सुप्रजस्त्वं स्वतेजसा॥२०॥ एवं व्यवसितो राजन्भगवान्सुमहायशाः॥ अस्तौषीदादिपुरुषमिलायाः पुंस्त्वकाम्यया॥२१॥ तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान्हरिरीश्वरः॥ ददाविलाऽभवत्तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः॥२२॥ स एकदा महाराज विचरन्मृगयां वने॥ वृतः कतिपयामात्यैरश्वमारुह्य सैंधवम्॥२३॥

अग्निसे आपके अनन्तपाप भस्म होगये हैं, देवता लोगोंमें अमृतकी समान आप सब लोगोंमें इस प्रकार संकल्पकी विषमता कैसे हुई?॥१८॥ हे राजन्! मनुके यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठजी होताके व्यभिचारको समझगये और मनुसे बोले कि॥१९॥ हे वत्स! यद्यपि तुम्हारे होताने अन्यथाचरण किया हैं, तौभी हम तुमको सुन्दर पुत्रही देंगे॥२०॥हे राजन्। वसिष्ठजी इस प्रकारसे कह मनुकी कन्या इलाको पुत्र बनानेकी कामनासे भगवान् आदिपुरुषकी स्तुति करने लगे॥२१॥ वसिष्टजीकी स्तुतिसे भगवान् शीघ्रही प्रसन्न होगये और संतुष्ट हो वसिष्ठजीको मनमाना वरदान दिया उस वरके प्रभावसे मनुकी कन्या इला सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र होगई॥२२॥हे महाराज! यह सुद्युम्न एक दिन सिंधुदेशके उत्पन्नहुये।

घोड़ेपर चढ़कर और कुछेक मंत्रियोंको साथले आखेटके लिये वनमें विचरण करनेलगा॥२३॥ उसके हाथमें रुचिर धनुष और विचित्र बाण था और शरीरमें दृढ बख्तर पहरे हुए था, इसलिये वह मृगोंके पीछे निर्भय दौड़ता हुआ उत्तर दिशामें पहुँचा॥२४॥ यहाँ सुमेरु पर्वतकी तलैटीमें सुकुमार वन है, जहाँ भगवान् भूतनाथ भूतेश्वर सदा पार्वतीजीके साथ रहकर विहार किया करते हैं, मनुका पुत्र सुद्युम्न अपने सेवकोंके साथ उसी वनमें पहुँचा। उसने वहाँ पहुँचतेही अपने आपको स्त्री देखा और अपने घोड़ेको घोड़ी रूप पाया॥२५॥२६॥ और उसके सब सेवक अकस्मात् अपने अपने पुरुषपनमें विकार हुआ देख परस्पर एक दूसरेको निहार विस्मित हुये॥२७॥ यह सुन राजा परीक्षित बोले कि, भगवन्! यह स्थान ऐसे गुणवाला कैसे हुआ? और किस पुरुषने इस स्थानको ऐसा करदिया? इस बातको सुनकर हमको बडा कौतूहल हुआ

प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्भुतान्॥ दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम्॥२४॥ स कुमारो वन मेरोरधस्तात्प्रविवेश ह॥ यत्रास्ते भगवान्रुद्रोरममाणः सहोमया॥२५॥ तस्मिन्प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नःपरवीरहा। अपश्यत्स्त्रियमात्मानमश्वं च वडवां नृप॥२६॥ तथा तदनुगास्सर्वे आत्मलिंगविपर्ययम्॥ दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन्वीक्षमाणाः परस्परम्॥२७॥ राजोवाच॥ कथमेवंगुणो देशः केन वा भगवन्कृतः॥ प्रश्नमेनं समा चक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥२८॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयस्तत्र सुव्रताः॥ दिशो वितिमिराभासाः कुर्वंतः समुपागमन्॥२९॥ तान्विलोक्यांबिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम्॥ भर्तुरंकात्समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात्॥३०॥ ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसंगं रममाणयोः॥ निवृत्ताः प्रययुस्तस्मान्नरनारायणाश्रमम्॥३१॥

है, सो आप कृपा करके इस प्रश्नकी व्याख्या कीजिये॥२८॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे नृपश्रेष्ठ !एक समय श्रेष्ठ बुद्धिवाले ऋषिलोग भगवान् गिरीश (महादेवजी) का दर्शन करनेकी वासनासे सब दिशाओंका अंधकार दूर करते और प्रकाशको रहित करते केवल अपना प्रभाव प्रकाशित करते हुये इस वनमें गये थे॥२९॥ उस समय भगवती अम्बिकादेवी विवसन अर्थात् वस्त्ररहित थीं, इसलिये मुनि लोगोको देखकर अत्यन्त लज्जित हुई और घबराय पतिकी गोदीसे उतर झटपट कटि वसन पहरलिये॥३०॥ हरंगौरीका विहार देखकर उन सब ऋषिगणोंका मनभी स्त्री प्रसङ्गसे कलुषित हुआ। और वह उसी समय वहॉसे लौटकर नर नारायणके आश्रमको चलेगये॥३१॥

तिसके पीछे भगवान् भूतनाथ अपनी प्राणप्यारीका प्रियकार्य करनेको समझाते बुझाते हुये बोले कि, आजसे जो कोई इस स्थानमें आवेगा, वह उसीसमय स्त्री होजायगा * हे राजन्! तबसे सब पुरुषोंने इस वनको छोड़ दिया कोई उस दिशाकोभी तो नहीं जाता था॥३२॥ राजकुमार सुद्युम्नअपने सेवकोंके साथ इस वनमें प्रवेश करनेके पीछे वन वनमें भ्रमण करने लगे॥३३॥ सखी सहेली नारियोंके साथ उस सुद्युम्नको अपने

तदिदं भगवानाह प्रियायाः प्रियकाम्यया॥ स्थानं यः प्रविशेदेतत्स वै योषिद्भवेदिति॥३२॥ तत ऊर्ध्वं वनं तद् वै पुरुषा वर्जयंति हि॥ सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद्वनम्॥३३॥ अथ तामाश्रमाभ्याशे चरंतीं प्रमदोत्तमाम्॥ स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान्बुधः॥३४॥ सापि तं चकमे सुभ्रूःसोमराजसुतं पतिम्॥ स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम्॥३५॥ एवं स्त्रीत्वमनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः॥ सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम॥३६॥ स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः॥ सुद्युम्नस्याशयन्पुंस्त्वमुपाधावत शंकरम्॥३७॥

आश्रमके समीप भ्रमण करता हुआ भगवान् बुधजीने देखा॥३४॥ देखतेही बुधके मनमें कामदेवका संचार हुआ। और वह सुद्युम्न जो कि, मनोहर स्त्रीके रूपमेंथे, चन्द्रमाके पुत्रको देख उनको पति बनानेकी अभिलाषा की॥३५॥ इसलिये बुधने उसका पाणिग्रहण किया और उसके गर्भसे बुधके पुरूरवा नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ॥३६॥हे राजन्! ऐसा सुना गया हैं कि, मनुके पुत्र सुद्युम्नने इस प्रकार स्त्रीपनको प्राप्त

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*** शंका—**महादेवजी तो वडेशीलवान् और दयानिधान थे, फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? कि हमारे स्थानके सामने जो कोई पुरुषमात्र आवेगा वह उसी समय स्त्री हो जावेगा, चौरासी लाख योनिमें किसी योनिका पुरुष क्यों न हो? और तीन लोकमें जो चराचरप्राणी हैं वह सब अपने अपने कामकी सिद्धिके लिये शिवके समीप कैलासको जाते हैं और वह लोग स्री नहीं होते क्या कारण?

**उत्तर—**जब शिवजी शाप दे चुके तो पीछे अपने मनमें विचारा कि, अब क्या उपाय करना चाहिये उसी दिनसे कैलासके चारों ओर अपने गण बैठाल दिये हैं जो कोई प्राणी कैलासको आता हैं तोशिवगण एक कोस आगे उसको रोकलेते हैं, और शिवजीसे वूझते हैं कि, हे महाराज! अमुक पुरुष आपके दर्शनके लिये आये हैं, तव महादेव आज्ञादेते हैं कि, आनेदो, तब वह मनुष्यको कैलासकी सीमाके भीतर ले जाते हैं. इसलिये वह लोग स्त्री नहीं होते कोशभर पर खडा होनेका कारण यही हैं, कि जिस सीमाके भीतर आनेमें स्त्री होते हैं, उस सीमाके दूर वह एक कोश भरपर खड़ा करते है॥

हो अपने कुलाचार्य महर्षि वसिष्टजीको स्मरण किया था॥३७॥ स्मरण करतेही महर्षि वसिष्टजी इनके समीप आये और इनकी यह दशा देख दयासिंधु दयाके मारे अति दुःखित हुये। और फिर उनको पुरुष करनेकी इच्छासे श्रीमहादेवजीके निकट जाय उनकी स्तुति करने लगे॥३८॥ हे राजन्!वशिष्ठजीकी स्तुतिसे भगवान् उनके प्यारे कार्यको और अपने वचनको सत्य करनेके लिये यह बोले कि तुम्हारे गोत्रमें उत्पन्नहुआ सुद्युम्न एक मास पुरुष और एक मास स्त्री रहेगा। इस व्यवस्थासे यह सुद्युम्न पृथ्वीका पालन करेगा॥३९॥ हे राजन्! इस प्रकारसे कुलाचार्य वशिष्ठजीकी कृपासे यद्यपि सुद्युम्न पुरुषत्व पाय व्यवस्थापूर्वक पृथ्वीका पालन करता था परन्तु महीनेके महीने स्त्री होजानेसे छिपकर सभामें न आता, इसलिये

तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन्॥ स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशांपते॥३८॥ मासं पुमान्स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः॥ इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम्॥३९॥ आचार्यानुग्रहात्कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया॥ पालयामास जगतीं नाभ्यनंदन्स्म तं प्रजाः॥४०॥ तस्योत्कलो गयो राजन्विमलश्च सुतास्त्रयः॥ दक्षिणापथ राजानो बभूवुर्धर्मवत्सलाः॥४१॥ ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः॥ पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे इलोपाख्याने सुद्युम्नस्य स्त्रीपुंस्त्वयोः प्राप्तिर्नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं गतेऽथ सुद्युम्ने मनुर्वैवस्वतः सुते॥ पुत्रकामस्तपस्तेपे यमुनायां शतं समाः॥१॥

प्रजा उनसे असंतुष्ट थीं॥४०॥ इस राजा सुद्युम्नके तीन पुत्र थे, उत्कल, गय और विमल। यह तीनों जन धर्मपरायण थे और दक्षिण देशकाराज्य करते थे॥४१॥ प्रतिष्ठान पुरीका (जो अब प्रयागमें गंगाजीके पार झसी नामसे प्रसिद्ध हैं) पति सुद्युम्न वृद्धावस्थाको प्राप्त हुआ देख अपने पुत्र पुरूरवाके हाथमें राज्यका भार सौप वनको चलागया॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायामिलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा— मनु द्वै सुत वैराग्यसे, रहे असुत वन जाय। करुपादिक पँचसुतनकी, कथा द्वितिय अध्याय॥१॥ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षितसे बोले कि, हे नृपोत्तम ! सुद्युम्नकी इस प्रकारसे अवस्था हुई तब वैवस्वत मनुने पुत्रकी कामना करके शतवर्षतक यमुनामें तप

किया था॥१॥ तिसके पीछे सन्तानके अर्थ भगवान् वासुदेवका यज्ञ किया, तिस यज्ञके करनेसे उन्होंने अपने योग्य दश पुत्र पाये। इन दश पुत्रोंमें इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे॥२॥हे राजन्! मनुके पृषधनामक जो पुत्रहुआ था, उसको मनुजीने गोपालक बनाया इसलिये वह पुत्र वीरासन व्रत धारण करके रात्रिके समय सावधान होकर गायोंकी रक्षा करता था॥३॥ एक दिन रात्रिके समय जल वर्षरहा था कि उसी समय एक सिंह आनकर गोठमें घुस गया। उसके घुसतेही गोठमें जितनी गायें सो रही थीं सब डकरायकर इधर उधर दौड़ने लगीं॥४॥ गोठमें घुसा हुआ सिंह अतिशय बलवान् था, वह एक गायको जब पकड़कर भागने लगा, तब वह एक गाय अति आर्त होकर पुकारी, उस गायका

ततोऽयजन्मनुर्देवमपत्यार्थं हरिं प्रभुम्॥ इक्ष्वाकुपूर्वजान् पुत्रान् लेभे स्वसदृशान् दश॥२॥ पृषध्रस्तु मनोः पुत्रो गोपालो गुरुणा कृतः॥ पालयामास गा यत्तो रात्र्यां वीरासनव्रतः॥३॥ एकदा प्राविशद् गोष्टं शार्दूलो निशि वर्षति॥ शयाना गाव उत्थाय भीतास्ता बभ्रमुर्व्रजे॥४॥ एकां जग्राह बलवान् सा चुक्रोश भयातुरा॥ तस्यास्तत्कंदितं श्रुत्वा पृषध्रोऽभिससार ह॥५॥ खङ्गमादाय तरसा प्रलीनोडुगणे निशि॥ अजानन्नहनद् बभ्रोःशिरः शार्दूलशंकया॥६॥ व्याघ्रोऽपि वृक्णश्रवणो निस्त्रिंशाऽग्राहतस्ततः॥ निश्चक्राम भृशं भीतो रक्तं पथि समुत्सृजन्॥७॥ मन्यमानो हृतं व्याघ्रं पृषध्रःपरवीरहा। अद्राक्षीत्स्वहतां बभ्रुंव्युष्टायां निशि दुःखितः॥८॥ तं शशाप कुलाचार्यः कृतागसम कामतः॥ न क्षत्रबंधुः शूद्रस्त्वं कर्मणा भवितामुना॥९॥

डकराना सुनकर पृषध्र उस शार्दूलके पीछे दौड़ा॥५॥ एक तो रात ऐसी अँधियारी थी, कि अपना देहभी नहीं दिखाई देता था, दूसरे घनघोर घटासे औरभी अंधकार होरहा था, कि जिससे कुछ नहीं दीखता था, इसलिये पृषध्रनेखङ्गग्रहण करके समीप व्याघ्र समझ अज्ञानतासे गायका शिर काट डाला॥६॥इस खङ्गके चलानेसे सिंहकाभी कान कट गया वह अत्यन्त भीत हो मार्गमें रुधिर गिराता हुआ भागगया॥७॥ पृषध्रनेमनमें समझा था कि सिंह मरगया, परन्तु जब प्रभात हुआ तो देखा कि, कपिला मारी गई, तब बहुतही दुःखित हुआ॥८॥ हे राजन्!यद्यपि राजकुमार पृषध्रनेयह अपराध अनजानमें किया था, तौ भी कुलपुरोहितने गायके शोकसे व्याकुल हो उसको यह शापदिया।

कि, रे पापिष्ट! तू क्षत्रियोंका बंधुभी नहीं हो सकेगा बरन् इसी जन्ममें क्रमसे शूद्र होगा *॥९॥ जब इस प्रकारसे आचार्यने शाप दिया, तब पृषध्रने हाथ जोडकर उसको अंगीकर किया, फिर ब्रह्मचर्य धारणकर मुनियोंके प्यारे व्रतको ग्रहण किया॥१०॥ तिसके पीछे सर्वात्मा निर्मल परमपुरुष भगवान् वासुदेवमें भक्ति करके एकान्तताको प्राप्त, सर्व प्राणियोंका सुहृद् और सबको समान अर्थात् बराबर देखनेवाला हुआ। उसने

एवं शप्तस्तु गुरुणा प्रत्यगृह्णात्कृतांजलिः॥ अधारयद्व्रतं वीर ऊर्ध्वरेता मुनिप्रियम्॥१०॥ वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले॥ एकांतित्वं गतो भक्त्या सर्वभृतसुहृत्समः॥११॥ विमुक्तसंगःशांतात्मा संयताक्षोऽपरिग्रहः॥ यदृच्छयोपपन्नेन कल्पयन् वृत्तिमात्मनः॥१२॥ आत्मन्यात्मानमाधाय ज्ञानतृप्तः समाहितः॥ विचचार महीमेतां जडांधबधिराकृतिः॥१३॥

संग छोड़ दिया, उसकी आत्मा शान्त होगई, दोनों नेत्र जिसके वशमें होगये संग्रहको त्याग अपने आपसे जो कुछ मिल जाता था, उसीसे अपनी जीविका करताथा॥११॥१२॥ और परमात्मामें आत्माको लगाकर ज्ञानसे तृप्त हो जड़ अंध, अथवा बहरेकी समान पृथ्वीपर घूमताथा॥१३॥

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*शंका— गौका वध करनेवाला राजा पृषध्रजो था उसको वसिष्टजीने यह शाप दिया कि, तू गायका मारनेवाला हैं, इस दुष्ट कर्मके करनेसे शूद्रयोनिको प्राप्तहोगा, ऐसा शाप उसको क्यों दिया? क्योंकि गायका वध करना शूद्रका कर्म नहीं हैं, चाण्डालका कर्म हैं,

उत्तर— सत्ययुगमें त्रिदण्डीनाम मुनि किसी समय वाज पक्षीका रूप धरकर संसारमें भ्रमण करते थे, एक दिन यमपुरीको अपनी इच्छासे कौतुक देखनेके लिये चलेगये, तब यमपुरीकी स्त्री मुनिका चरित्र जानकर कौतूहल करनेके लिये गौका रूप धरकर पक्षी रूप जो मुनि थे उनको अपने शृगोंसे मारनेके लिये दौडी, तत्र मुनिने शाप दिया कि बारह १२ वर्ष तू गाय रूप रहैगी इसलिये वह यमपुरीकी स्त्री गाय बनकर अयोध्याके राजाकी गायोंमें रहा करती थी उसकी गोरूप स्त्रीको नृपधने देवयोगसे मारा वशिष्ठजीने ध्यान करके सब चरित्र जान लिया और दो काम विचारकर गायका महात्म्य बढाने के लिये, कि आगेको कोई ऐसा काम न करें और पृथ्धकी मोक्ष होनेके लिये शाप दिया कि जा? तू शुद्र तब मुनिका शाप छूटकर पृषध्रकी मोक्ष होनेके लिये आशीर्वाद देकर अपने पतिके पास गई. होजा, कोई बूझैकि शूद्र होनेका शाप क्यों दिया तो शूद्र होनेका कारण यह है कि शूद्र अभिमान रहित होते हैं मोर श्री गंगाजीका भाई भी शूद्र हैं और यह सबको विदित हैं कि, भगवान्के चरणसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं और गंगाजी भी भगवान्के चरणसे निकली हैं, इसलिये दो गुण करके शूद्रकी मुक्ति शीघ्र होती हैं, इसलिये वशिष्ठजीने पृषध्रको शुद्ध होना कहा था॥

हे राजन्! इसप्रकार आचार्य व्यवहारयुक्त हो पृषध्रनेवनमें प्रवेश करके अपने शरीरको भस्म करदिया और परब्रह्मके पदको प्राप्त हुआ॥१४॥ हे महाराज! मनुका छोटा पुत्र कवि विषयका लालच छोड़ बंधु बांधवों सहित राज्यको छोड़नेके पीछे परमपुरुषको हृदयमें धारण करके किशोर अवस्थाके समयमेंही वनको चला गया। इसलिये उसका भी वंश आगेको न चला॥१५॥ परन्तु मनुके कारूष नामक जो पुत्र था, उससे कारूप आख्यासे विख्यात क्षत्रिय जातिकी उत्पत्ति हुई, वह जाति ब्रह्मनिष्ठ, धर्मरक्षक और उत्तर मार्गके देश की राजा हुई॥१६॥इस प्रकार धृष्टनामक मनुके पुत्रसे धार्ष्ट्यनामसे प्रसिद्ध क्षत्रियोंकी जाति उत्पन्न हुई। वह इस पृथ्वीमण्डलपर ब्राह्मणपनको प्राप्त हुई हैं। हे राजन्!नृगनामक जो मनुका

एवं वृत्तो वनं गत्वा दृष्ट्वा दावाग्निमुत्थितम्॥ तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं मुनिः॥१४॥ कविः कनीयान् विषयेषु निस्स्पृहो विसृज्य राज्यं सह बंधुभिर्वनम्॥ निवेश्य चित्ते पुरुषं स्वरोचिषं विवेश कैशोरवयाः परं गतः॥१५॥ करूषान्मानवादासन् कारूषाः क्षत्त्रजातयः॥ उत्तरापथगोप्तारो ब्रह्मण्या धर्मवत्सलाः॥१६॥ धृष्टा द्धार्ष्ट्यमभूत् क्षत्त्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ॥ नृगस्य वंशः सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसुः॥१७॥ वसोः प्रतीकस्तत्पुत्र ओघवानोघवत्पिता॥ कन्या चौघवती नाम सुदर्शन उवाह ताम्॥१८॥ चित्रसेनो नरिष्यंताद्दक्षस्तस्य सुतोऽभवत्॥ तस्य मीद्वांस्ततः कूर्च इंद्रसेनस्तु तत्सुतः॥१९॥ वीतिहोत्रस्त्विंद्रसेनात्तस्य सत्यश्रवा अभूत्॥ उरुश्रवाः सुतस्तस्य देवदत्तस्ततोऽभवत्॥२०॥

पुत्र था, उसका पुत्र सुमति, उसका पुत्र भूतज्योतिः और उसका संतान वसु हुआ॥१७॥ वसुका पुत्र प्रतीक, उसका पुत्र ओघवान हुआ, इस ओघवानके औघवान नामक एक पुत्र और औघवती नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई। उस औघवती कन्याके साथ राजा सुदर्शनने विवाह किया॥१८॥ हे राजन्! नरिष्यन्त नामक जो मनुका पुत्र था, उसका पुत्र चित्रसेन, उस चित्रसेनका पुत्र ऋक्ष उसका पुत्र मीढ्वान और मीढ्वान्से कूर्च उत्पन्न हुआ, उस कूर्चके इन्द्रसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥१९॥ इन्द्रसेनका पुत्र वीतिहोत्र और वीतिहोत्रसे सत्यश्रवाने जन्म ग्रहण किया इस सत्यश्रवाका पुत्र

उरुश्रवा और उरुश्रवासे देवदत्तकी उत्पत्ति हुई॥२०॥ देवदत्तके पुत्र अग्निवेश्य हुए। यह स्वयं भगवान् अनि उत्पन्न हुएथे, यह अग्निवेश्यही कानीन और जातूकर्ण्य नाम से विख्यात महान् ऋषि हुए थे और उनसेही आग्निवेश्यायन नाम प्रसिद्ध ब्रह्मकुलकी उत्पत्ति हुई है ॥२१॥ हे नृप। नरिव्यंतके वंशका वर्णन हुआ, अब दिष्टवंशका वर्णन करता हूं सो आप मन लगाय एकाग्रचित्त हो सुनिये॥२२॥ दिष्टका पुत्र नाभाग, पीछे जिस नाभागकी कथा कहेंगे वह यह नाभाग नहीं है, यह और है जो कर्मद्वारा वैश्यपनको प्राप्त हुआथा, इसका पुत्र भलन्दन और भलन्दन से वत्सप्री

ततोऽग्निवेश्यो भगवानग्निः स्वयमभूत्सुतः॥ कानीन इति विख्यातो जातृकर्ण्योमहानृषिः॥२१॥ ततो ब्रह्मकुलं जातमाग्निवेश्यायनं नृप॥ नरिष्यंतान्वयः प्रोक्तो दिष्टवंशमतः शृणु॥२२॥ नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्यः कर्मणा वैश्यतां गतः॥ भलंदनः सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलंदनात्॥२३॥ वत्सप्रीतेः सुतः प्रांशुस्तत्सुतं प्रमतिं विदुः॥ खनित्रः प्रमते स्तस्माच्चाक्षुषोऽथ विविंशतिः॥२४॥ विविंशतिसुतो रंभः खनिनेत्रोऽस्य धार्मिकः॥ करंधमो महाराज तस्यासी दात्मजो नृपः॥२५॥ तस्यावीक्षित्सुतो यस्य मरुत्तश्चक्रवर्त्यभूत॥ संवर्त्तोऽयाजयद्यं वै महायोग्यंगिरस्सुतः॥२६॥ मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथाऽन्यस्य कश्चन॥ सर्वंहिरण्मयं त्वासीद्यत्किंचिच्चास्य शोभनम्॥२७॥ अमाद्यदिंद्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः॥ मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवाः सभासदः॥२८॥

तिकी उत्पत्ति हुई॥२३॥ वत्सप्रीतिका पुत्र प्रांशु, उसका पुत्र प्रमति, प्रमतिका पुत्र खनित्र, तिससे चाक्षुषने जन्म ग्रहण किया। चाक्षुषका पुत्र विविंशति॥२४॥ तिसका पुत्र रम्भ, रम्भका पुत्र खनिनेत्र, जोकि परमधार्मिक हुआ, इस खनिनेत्रके पुत्र करन्धम राजाहुये॥२५॥ करन्धमके पुत्र अवीक्षित् अविक्षित्के मरुत्त जो कि, चक्रवर्ती हुए। जिनको अंगिराके पुत्र महायोगी संवर्त्तने यज्ञ करायाथा॥२६॥ इस मरुत्तके यज्ञकी समान किसीका यज्ञ प्रसिद्ध नहीं है। उनके यज्ञके मध्य सब पात्र सुवर्णके बने हुए शोभायमानथे॥२७॥ जिनके यज्ञमें सोमपान करके

सुरेन्द्र प्रसन्न हुये बहुत सारी दक्षिणा पाय ब्राह्मणोंको हर्ष होताथा, इस यज्ञमें मरुद्गण परोसने वाले और विश्वेदेवागण सभासद हुएथे॥२८॥ इन मरुत्तके पुत्र दम, तिनके पुत्र राज्यवर्द्धन, तिनके सुत सुधृति सुधृतिका पुत्र नर॥२९॥ तिनका पुत्र केवल, तिससे बन्धुमान् उत्पन्न हुए। बन्धु मानकेपुत्र वेगवान्, तिनके पुत्र बंधु, तिनके संतान तृणबिन्दु राजा हुये॥३०॥ यह राजा अति उत्तमोत्तम गुणविभूपित था, श्रेष्ठ अप्सरा अलम्बुषा देवी उनके गुणोंपर मोहित हो, उनके संग हुई. इस अलम्बुषा अप्सराके तृणबिन्दुसे कई एक पुत्र और इडविडा नामक एक कन्या उत्पन्न

मरुत्तस्य दमः पुत्रस्तस्यासीद्राज्यवर्धनः॥ सुधृतिस्तत्सुतो जज्ञे सौधृतेयो नरः सुतः॥२९॥ तत्सुतः केवलस्तस्मा द्बंधुमान्वेगवांस्ततः॥ बंधुस्तस्याभवद्यस्य तृणबिंदुर्महीपतिः॥३०॥ तं भेजेऽलंबुषा देवी भजनीयगुणालयम्॥ वराप्सरा यतः पुत्राः कन्या चेडविडाऽभवत्॥३१॥ तस्यामुत्पादयामास विश्रवा धनदं सुतम्॥ प्रादाय विद्यां परमामृषिर्योगेश्वरात्पितुः॥३२॥ विशालश्शून्यबंधुश्च धूम्रकेतुश्च तत्सुताः॥ विशालो वंशकृद्राजा वैशालीं निर्ममे पुरीम्॥३३॥ हेमचन्द्रः सुतस्तस्य धूम्राक्षस्तस्य चात्मजः॥ तत्पुत्रात्संयमादासीत्कृशाश्वः सहदेवजः॥३४॥ कृशाश्वात्सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेधैरिडस्पतिम्॥ इष्ट्वा पुरुषमापाग्र्यांगतिं योगेश्वराश्रितः॥३५॥

हुई॥२१॥हे राजन्।योगीश्वर विश्रवाजी ऋपिने अपने पिताजीसे परमविद्याको प्राप्त होकर इस इडविडाके गर्भमें कुबेरको उत्पन्न किया॥३२॥ अब तृणबिन्दुके पुत्रोंका वृत्तान्त सुनो। विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु, यह तीन जन तृणबिंदुके पुत्र हुए। उनमें विशालही वंशकारी राजा हुआ। और उसने वैशाली नामक एक पुरी भी बनाई॥३३॥ इस विशालका पुत्र हेमचन्द्र हेमचन्द्रका पुत्र धूम्राक्ष और इसका पुत्र संयम हुआ संयमके देवज और कृशाश्व यह दो पुत्र उत्पन्न हुए॥३४॥ उनमें कृशाश्वका पुत्र सोमदत्त हुआ कि, जिसने अनेक अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञपति परम

पुरुषकी पूजा कर योगीश्वर लोगोंकी आश्रित उत्तमगति प्राप्त की॥३५॥सोमदत्तका पुत्र सुमति, सुमतिका पुत्र जनमेजय हुआ, श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! विशालवंशमें यह राजागण उत्पन्न हुए यह सब राजा तृणविन्दुका यश धारण करनेवाले थे॥३६॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा— मनुसुतवंश शर्यातिके, भई सुकन्या एक। तिसरे में रैवतकथा, वरणौं सहित विवेक॥१॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजा परीक्षित! मनुका पुत्र शर्य्यातिअति ब्रह्मनिष्ठ राजा हुआ। उसने अंगिरागणोंके यज्ञमें दूसरे दिवसका कर्तव्य कर्म उपदेश किया॥१॥इस राजाके कमलके समान नेत्रवाली सुकन्या नाम एक कन्या हुई। एक समय राजा उसको साथले वनमें गया, जहां कि च्यवन मुनिका आश्रम था॥२॥ उस वनमें यह राजकुमारी अपनी सुकुमारी सखियोके साथ फूल पत्तोको

सौमदत्तिस्तु सुमतिस्तत्सुतो जनमेजयः॥ एते वैशालभूपालास्तृणविंदोर्यशोधराः॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे कारूषकादिवंशानुकीर्त्तनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः स बभूव ह।यो वा अंगिरसां सत्रे द्वितीयमह ऊचिवान्॥१॥ सुकन्या नाम तस्यासीत्कन्या कमललोचना॥ तयासार्धं वनगतो ह्यगमच्च्यवनाश्रमम्॥२॥ सा सखीभिः परिवृता विचिन्वंत्यंघ्रिपान्वने॥ वल्मीकरंध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी॥३॥ सा दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै॥ अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्रावासृक्ततो बहु॥४॥ शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात्॥ राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत्॥५॥ अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य विचेष्टितम्॥ व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतमाश्रमदूषणम्॥६॥

एकत्र करते करते एक स्थानमें गई और उसने उसी वनके मध्य बॅबईकी मट्टीके छेदमें पटबीजनेकी समान दो प्रकाशवान् वस्तु देखीं॥३॥ यह देखकर राजकुमारी सुकन्याको अतिकौतूहल उत्पन्न हुआ, उसने भाग्य प्रेरितकी समान हो, उसीसमय एक कांटा ग्रहणकर मोहसे उन प्रकाशित छिद्रोंको फोड़दिया। हे राजन्। विद्ध होतेही उस बम्बईके छिद्रोंमेंसे बराबर रुधिरकी धार निकलने लगी॥४॥ राजा शर्य्यातिके साथ जो सेना थी, उन सब वीरोंका मल मूत्र रुकगया।यह देखकर राजा शर्याति विस्मित हुआ। और अपने साथी पुरुषोंसे पूंछनेलगा॥५॥ क्या तुममेंसे किसीने महर्षि च्यवन ऋषिका कुछ अपराध किया हैं? हमको भली भांति जान पड़ताहै कि, हम लोगोंमेंसे किसीने महर्षिके

आश्रमको दूषित किया होगा॥६॥ यह सुनकर सुकन्याने भीत हो अपने पितासे निवेदन किया कि, हे पितः! मुझसे कुछ अपराध हुआ है। मैंने न जानकर एक काँटेसे दो प्रकाशित पदार्थोंको वेध डाला है॥७॥ बेटीके यह वचन सुनकर राजा शर्यातिको बड़ा भय हुआ। बँबईमें मुनि अंतर्हित हुए हैं उनके निकट जा विविध भाँतिकी स्तुतिसे प्रसन्न किया॥८॥ इसके उपरान्त महर्षिका अभिप्राय जान राजाने अपनी कन्या उनको देदी। हे राजन् इस प्रकार राजा शर्याति विपदसे छूट, मुनिश्रेष्ठ च्यवनजीसे सम्भाषण करनेके पीछे सावधान चित्तसे अपने स्थानको लौटगया॥९॥ इस ओर अपने पति परमक्रोधी च्यवन ऋषिके योग्य चित्त की जाननेवाली सुकन्या सावधान होकर सदा चित्तको देखकर उनकी

सुकन्या प्राह पितरं भीता किंचित्कृतं मया॥ द्वे ज्योतिषी अजानंत्या निर्भिन्ने कंटकेन वै॥७॥ दुहितुस्तद्वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः॥ मुनिं प्रसादयामास वल्मीकांतर्गतं शनैः॥८॥ तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादादृुहितरं मुनेः॥ कृच्छ्रान्मुक्तस्तमामंत्र्य पुरं प्रायात्समाहितः॥९॥ सुकन्या च्यवनं प्राप्य पूतिं परमकोपनम्॥ प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्ताऽनुवृत्तिभिः॥१०॥ कस्यचित्त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ॥ तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ॥११॥ ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः॥ क्रियतां मे वयो रूपं प्रमदानां यदीप्सितम्॥ १२॥ बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनंद्य भिषक्तमौ॥ निमज्जतां भवानस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते॥१३॥ इत्युक्त्वा जरया ग्रस्तदेहो धमनिसंततः॥ ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलितविप्रियः॥१४॥

सेवा करती थी॥१०॥ कुछ कालके बीतनेपर एक दिन दोनों अश्विनीकुमार उनके आश्रममें आये। मुनिश्रेष्ठ च्यवनजीने भली भाँति उनकी पूजा करके कहा कि, आप दोनों जन बड़े वैद्य है, सो कृपा करके हमको आप युवा कर दीजिये॥११॥ स्त्रियें जिसरूप और जिस वयसको चाहती। हैं वही तुम हमको देदो। तुम सोमपानरहित हो, कभी सोमपान नहीं किया हैं सो हम सोमयज्ञ करके तुमको सोमपूर्ण पात्र देवेंगे॥१२॥ त्राह्मणश्रेष्ट च्यवनजीके यह वचन सुनकर दोनों अश्विनीकुमारोंने कहा कि “यही करते हैं” यह कह फिर आनन्द प्रकाशकर बोले कि, अच्छा तो पहले सिद्धोंके बनाये इस सरोवरमें स्नान करनेको चलिये॥१३॥ हे राजन्! इसप्रकार कहने से जरासे ग्रसित हैं देह जिनका, नसें दिखाई देती हैं

कुप्यारे पकेहुए केशवाले महर्षि च्यवनजी इन दोनों देव वैद्योंके साथ सरोवरमें घुसे। अर्थात् दोनों अश्विनीकुमार इनको लेकर सरोवरमें घुसे॥१४॥ कुछ देर पीछे उस सरोवरसे सुडौल शरीरवाले, रमणीप्रिय, तीन पुरुष निकले. तीनों जनोंके गलोंमें कमलकी मालायें पड़ी हुए थीं; कानोंमें कनक (सुवर्ण) कुण्डल विराजमान थे; तीनोंका स्वरूप अनुपम था और वस्त्रोंकी शोभा एक अपूर्वही भावको धारण किये हुए थी॥१५॥ तीनों जनेही सूर्यके समान तेजस्वी, समानरूप और समान अवस्थावाला देख पतिव्रता सुकन्याको अति विस्मय प्राप्त हुआ और वह नहीं

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीच्या वनिताप्रियाः॥ पद्मस्रजः कुंडलिनस्तुल्यरूपास्सुवाससः॥१५॥ तान्निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः॥ अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ॥१६॥ दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ॥ ऋषिमामंत्र्य ययतुर्विमानेन त्रिविष्टपम्॥१७॥ यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिश्च्यवनस्याश्रम गतः॥ ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम्॥१८॥

पहॅचान सकी कि, हमारे पति कौनसे हैं? इसलिये दोनों अश्विनीकुमारोंकी शरण गई अर्थात् उसने यह प्रार्थना करी कि, आप लोग पृथक होकर हमारे पतिको हमैं दिखादें *॥१६॥ सुकन्याका पातिव्रत्य देख अश्विनीकुमारोंको संतोष हुआ और अपने आप अलग हो उसे उसके पति च्यवन ऋषिको देदिया।तिसके पीछे महर्षि च्यवनजीसे सम्भाषण कर वह दोनों अश्विनीकुमार विमानपर बैठ स्वर्गको गये॥१७॥ हे राजन् !कुछेक कालके पीछे शर्याति राजाने यज्ञ करनेके लिये च्यवन ऋषिके आश्रममें जाकर देखा कि, कन्याके धोरे सूर्यके समान एक तेजस्वी पुरुष बैठे हुए हैं॥१८॥

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* शंका—सुकन्या अपने सन्मुख एक सरीखे तीन पुरुष खडे देखके अश्विनीकुमारकी शरणमें कैसे गई? क्योंकि वह तो तीनों एक ठौर रहे थे, दीपक दीपकसे जलावे तो यह कैसे जान पडेगा कि, यह तिलके तेलका है यह अलसीके तेलका है, यह घीका दीपक हैं, ऐसेही वह तीनों एक रूप थे फिर उसने अश्विनीकुमारोंको कैसे पहुँचाना?

उत्तर—सुकन्याने अपने मनमें अश्विनी-कुमारोंका ध्यान किया था और उन दोनों देवताओंके सन्मुख वह नहीं गई थी, उसने अश्विनीकुमारोंका ध्यान करके वारम्वार उन्हीकी प्रार्थनाकी कि, हे महाराज! है दीनवत्सल !! हे कृपासिन्धो !!! आप दोनों जने मेरे पिताकी समान हो किसी प्रकार कृपा करके मेरे पतिको मुझे दिखा दो, जब अश्विनीकुमारोंकी इस प्रकार विनय की तो उसका पति उसको मिलगया॥

सुकन्या पिता को देखकर शीघ्रतासे उठी और उनके चरण छुए। राजा शर्यातिने आशीर्वाद दिया, परन्तु यह विचार वह प्रसन्न न हुए कि, हम जराजीर्णच्यवन ऋषिको अपनी कन्या देगये थे, वह आश्रममें नहीं हैं। बरन् उनके बदलेमें स्वरूपवान् एक और युवा पुरुष बैठा हुआ है।यह सोचकर उनको बडी शंका हुई। तब वह अप्रसन्न होकर अपनी बेटीसे बोले॥१९॥ कि, यह क्या करनेकी वासना की हैं? अरी असत्यन! तेरे पति; लोकोंके नमस्कार करने योग्य हैं, उनको तैंने क्यों ठगा? जराग्रसित होनेके कारण तू उनसे प्रसन्न न हुई। इससेही इस पथिकको उपपति बनाय तू भजती हैं॥२०॥ अरे कुलकलंकिनि!तैंने अति बुरे कुलमें उत्पन्नहुई सीकी बुद्धि करनेका किस प्रकारसे साहस किया? हा! हमारे कुलको दूषित किया, निर्लज्ज होकर

राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवंदनाम्॥ आशिषश्चाप्रयुंजानो नातिप्रीतमना इव॥१९॥ चिकीर्षितं ते किमिदं पति स्त्वया प्रलंभितो लोकनमस्कृतो मुनिः॥ त्वं यज्जराग्रस्तमसत्यसंमतं विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम्॥२०॥ कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम्॥ बिभर्षि जारं यदपत्रपाकुलं पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः॥२१॥ एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता॥ उवाच तात जामाता तवैष भृगुनंदनः॥२२॥ शशंस पित्रे तत्सर्वं वयोरूपाभिलंभनम्॥ विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे॥२३॥ सोमेन याजयन्वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत्॥ असोमपोरप्यश्विनोच्यवनः स्वेन तेजसा॥२४॥ हंतुं तमाददे वज्रं सद्यो मन्युरमर्षितः॥ सवज्रंस्तंभयामास भुजमिंद्रस्य भार्गवः॥२५॥

उपपतिकी पूजा करती हैं। पिता और पतिके कुलको तैंने एक बारही डुबायदिया॥२१॥ पिताजीके यह वचन सुन मन्द मुसकानवाली सुकन्या विस्मित हो कहने लगी कि, हे पिताजी ! यही आपके जमाई हैं, यही भृगुनन्दन च्यवनजी हैं॥२२॥ फिर जिस प्रकारसे इनको रूपयौवन की प्राप्ति हुई थी, वही सब वृत्तान्त पिताजीको कह सुनाया। यह सुन राजा शर्यातिने विस्मित और प्रसन्न होकर अपनी सुकन्याको हृदयसे लगाया॥२३॥ हे राजन्! तिसके पीछे महर्षि च्यवनजीने शर्याति राजाको सोमयज्ञ कराय सोम पीने के योग्य न होनेपरभी अश्विनीकुमारोंको सोम पीनेको दिया॥ २४॥ हे राजन्! इन्द्रको तत्कालही क्रोध होआता हैं, उसने यह देख च्यवनऋषिका विनाश करनेके लिये वज्र हाथमें लिया था, परन्तु भृगुनन्दनने

अपने ब्रह्मतेजसे वज्रसहित इन्द्रका हाथ स्तम्भित करदिया॥२५॥ यद्यपि पहले चिकित्सक होनेके कारण अश्विनीकुमार सोमयज्ञसे बाहर थे, तथापि तबसे सब देवताओंने उनको यज्ञमें सोम देनेके लिये अंगीकार किया॥२६॥ इन शर्य्यातिके तीन पुत्र उत्पन्न हुये उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिसेन इन तीनोंमें आनर्तके रेवत नाम एक पुत्र हुआ॥२७॥ हे अरिन्दम! यह रेवत सागरके बीचमें कुशस्थली नामक एक नगरी बसाय उसमें विराजमान हो आनर्त्तादि देशोंका पालन करताथा॥२८॥ उसके शत पुत्र जन्में, उनमें ककुद्मी बड़ा और गुणोंमें श्रेष्ठ था यह ककुद्मी रेवती नामक अपनी कन्याको साथले उसके लिये वर ढूंढने को ब्रह्माजीके पास गया॥२९॥ उस समय ब्रह्माजीकी सभामें गन्धर्वोका गाना होरहा था, इसलिये अवसर न पाय

अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः॥ भिषजाविति यत्पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ॥२६॥ उत्तान बर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः॥ शर्यातेरभवन्पुत्रा आनर्ताद्रेवतोऽभवत्॥२७॥ सोंऽतः समुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम्॥ आस्थितोऽभुंक्त विषयानानर्तादीनरिंदम॥२८॥ तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मि ज्येष्ठमुत्तमम्॥ ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वामादाय विभुं गतः॥२९॥ कन्यावरं परिप्रष्टं ब्रह्मलोकमपावृतम्॥ आवर्त्तमाने गांधर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम्॥३०॥ तदंत आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत्॥ तच्छ्रुत्वा भगवान्ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह॥३१॥ अहो राजन्निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः॥ तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां गोत्राणि च न शृण्महे॥३२॥ कालोभियातस्त्रिनवचतुर्युगविकल्पितः॥ तद्गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः॥३३॥ कन्यारत्नमिदं राजन्नररत्नाय देहि भोः॥ भुवो भारावताराय भगवान्भृतभावनः॥३४॥ अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ इत्यादिष्टोऽभिवंद्याजं नृपः स्वपुरमागतः॥३५॥

कर ककुद्मी वहां क्षण कालतक ठहरा। और फिर अवकाश पाय प्रणाम करके अपना सब अभिप्राय निवेदन किया।यह सुन ब्रह्माजी हँसकर बोले॥३०॥३१॥ कि, हे राजन्! तुमने जिन पुरुषोंको विचारा है, उन सबको कालने संहार कर डाला। इस समय उनके बेटे पोते और नातियोंका गोत्र व नाम मात्रभी नहीं सुनाजाता॥३२॥ मूल बात यह हैं कि, तुमको यहाँ सत्ताईस चौकड़ी युग बीतगये इसलिये जाओ देवदेवके अंशसे जो महा बलवान बलदेव हैं॥३३॥ उन नररत्नको तुम यह अपनी कन्यारत्न समर्पण करो। हे राजन्! जिनके कहने सुननेसे पुण्य होता है, वह भूत

भावन भगवान् भूमिका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतार लेचुके हैं इस प्रकारसे आज्ञा पाय ककुद्मी ब्रह्माजीको प्रणाम करके अपने पुरमें आया॥३४॥३५॥ इनके भ्रातालोग यक्षोंके भयसे इस पुरीको छोड़कर सब दिशामें भागगये थे इसके पीछे दूषणरहित अंगवाली अपनी बेटीको बलवानोंमें श्रेष्ठ बलदेवको इस राजाने देदिया और आप तप करनेके लिये नारायणके स्थान बदरिकाश्रमको चलागया॥३६॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा— चतुर्थ मनुसुत नभगको, कहौं सहित विस्तार।अम्बरीषताके तनय, भये भक्त आधार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, नभगका पुत्र नाभाग हुआ। इस नाभागने जब बहुत कालतक गुरुकुलमें वास किया; तब नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भ्राता लोगोंने झगडा करनेके समय इनके लिये पिताके धनका अंश नहीं रक्खा॥१॥ जब नाभाग ब्रह्म

त्यक्तं पुण्यजनवासाद्भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः॥ सुतां दत्त्वाऽनवद्यांगीं बलाय बलशालिने॥ बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम्॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे शर्यात्यन्वयनिरूपणं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम्॥ यविष्ठं व्यभजन्दायं ब्रह्मचारिणमागतम्॥१॥ भ्रातरोऽभांक्तकिं मह्यं भजाम पितरं तव॥ त्वां म आर्यास्तताऽभांक्षुर्मा पुत्रक तदादृथाः॥२॥ इमे अंगिरसः सत्रमा सतेऽद्य सुमेधसः॥ षष्ठंषष्ठमुपेत्याह को मुह्यंति कर्मणि॥३॥

चर्यकी समाप्ति करके गुरुकुलसे अपने घरपर आया, तब उसके भाइयोंने पिताकोही उसके भागमें रक्खा, अर्थात् जब नाभागने आनकर भाइयोंसे पूंछा कि, तुमने हमारे लिये क्या रक्खा है? तब भाइयोंने कहा कि, हमने तुम्हारे अर्थ पिताकोही अंशस्वरूप कर रक्खा है। इसलिये तुम पिताको ग्रहण करो। यह सुन नाभागने पिताजीके निकट जायकर कहा कि, हे पितः! हमारे बड़े भाइयोंने आपको किसलिये हमारा भाग बनाया है? तब पिताजी बोले कि, हे वत्स! तुम उनकी बातका विश्वास मत करो, क्योंकि हम भागकी समान भोगनेयोग्य वस्तु नहीं हैं॥२॥ परन्तु तुम्हारे भ्राताओंने जो हमको तुम्हारा भाग बताया है इसलिये हम तुम्हारी जीविकाका उपाय बतलाये देतेहैं, हे विद्वन्! अंगिरा मुनिलोग यज्ञ कररहे हैं, वह लोग यद्यपि सुबुद्धिमान् हैं, तौभी वह विहित षड्यज्ञ उपस्थित होनेपर प्रत्येक षष्ट दिवसमें कर्मको प्राप्त होकर ज्ञानके अभावसे

उनके अनुष्ठानमें मोहित होतेहैं॥३॥ तुम जाकर उन महात्माओंको विश्वदेवसम्बन्धीय दो सूक्त पढाओ। कर्मके समाप्त होनेपर जब वह स्वर्गमें गमन करेंगे, तब यज्ञका बचाहुआ धन अवश्य तुमको देदेंगे, जाओ बिलम्ब न करो। इसी समय उनके निकट चले जाओ। हे राजन् ! जब इस प्रकार नाभागने अपने पितासे सुना; तो उन्होंने ऐसाही किया और वह अंगिरा भी अपने यज्ञका बचाहुआ सब धन इस नाभागको देकर स्वर्गलोकमें चलेगये॥४॥५॥ जब नाभाग वह धन अंगीकार करनेके लिये प्रस्तुत हुआ, तब इतनेहीमें श्यामवर्ण शरीरवाले एक पुरुष (रुद्र) ने उत्तरकी ओरसे आनकर कहा कि, यज्ञभूमिमें रक्खाहुआ यह सब धन हमारा हैं॥६॥ तब नाभाग बोले कि, यह कैसे? यह धन तो हमको अभी ऋषिलोग देगयेहैं। नाभागके यह वचन सुन उस पुरुषने कहा “भाई झगड़ा क्यों करते हो? तुम जाकर अपने पितासे तो पूँछो” उस पुरुषके

तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः॥ ते स्वर्यंतो धनं सत्रपरिशेषितमात्मनः॥४॥ दास्यंत्यथ ततो गच्छ तथा स कृतवान्यथा॥ तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गे ते सत्रपरिशेषितम्॥५॥ तं कश्चित्स्वीकरिष्यंतं पुरुषः कृष्णदर्शनः॥ उवा चोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु॥६॥ ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तर्हि स्म मानवः॥ स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्ट वान्पितरं तथा॥७॥ यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषयः क्वचित्॥ चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति॥८॥ नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम्॥ इत्याह मे पिता ब्रह्मशिरसा त्वां प्रसादये॥९॥ यत्ते पिताऽवदद्धर्मं त्वं तु सत्यं प्रभाषसे॥ ददामि ते मंत्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम्॥१०॥

यह वचन सुनकर नाभागने अपने पिताके निकट जाय यथाविधिसे पूँछा॥७॥ यह सुन उसके पिता मनुने कहा कि, वत्स ! दक्षके यज्ञमें जो वस्तु बची थी, ऋषिलोगोंने उन सबको भगवान् रुद्रका भाग बताया था, अधिक करके वह ईश्वर सबही कुछ पानेयोग्य हैं। फिर यज्ञमें बचेहुएकी तो बातही क्या है?॥८॥ यह सुनकर नाभाग फिर उस पुरुष (रुद्र) के निकट आय शिर नवायकर बोला कि, हे ईश ! यज्ञभूमिमें पडेहुए सब धनके आप अधिकारी हैं यह बात हमसे हमारे पिताने कही हैं। इसलिये प्रसन्न होकर आप हमारा अपराध क्षमा कीजिये, हम मस्तक झुकाकर आप को प्रणाम करतेहैं॥९॥ नाभागकी विनती सुनकर रुद्रजीने कहा। “तुम्हारे पिताने धर्मवाक्य कहा हैं। और तुमभी धर्मवाक्य कहते हो इस

लिये तुम मन्त्रके जाननेवालेको हम ज्ञानरूप सनातन ब्रह्म देते हैं॥१०॥ और यज्ञका बचा हुआ जो धनहैं इसको भी तुम ग्रहण करो! क्योंकि हमने यह तुमको दिया” हे राजन्! धर्मवत्सल भगवान् रुद्रजी इस प्रकारसे कहकर वहीं अन्तर्धान होगये॥११॥ जो पुरुष भलीभांतिसे सावधान हो सन्ध्या और प्रातःकालके समय इस उपाख्यानको सुनेगा, वह इसके प्रभावसे विद्वान् और मन्त्रका जाननेवाला हो अभिलाषा कियाहुआ धन पावेगा॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे महाराज परीक्षित्! इसी नाभागसे अम्बरीषकी उत्पत्ति हुई, जो ब्रह्मशाप कहीं भी निष्फल नहीं होता; वहभी अर्थात् ब्राह्मण (दुर्वासा) की बनाई कृत्यारूप अग्निभी जिनको स्पर्श न करसक्ती; इसलिये वह परमभक्त और अतिशय

गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम्॥ इत्युक्त्वांतर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः॥११॥ य एतत्संस्मरेत् प्रातस्सायं च सुसमाहितः॥ कविर्भवति मंत्रज्ञो गतिं चैव तथात्मनः॥१२॥ नाभागादंबरीषोऽभून्महाभागवतः कृती॥ नास्पृशद्ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित्॥१३॥ राजोवाच॥ भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः॥न प्राभूद् यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदंडो दुरत्ययः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ अंबरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ॥ अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि॥१५॥ मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत् स्वप्नसंस्तुतम्॥ विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत् पुमान्॥१६॥ वासुदेवे भगवति तद्भक्तेषु च साधुषु॥ प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत् स्मृतम्॥१७॥

बुद्धिमान् हुए॥१३॥यह सुनकर राजा परीक्षित् बोले कि हे भगवन्! बुद्धिमान् राजा अम्बरीषके चरित्र सुननेकी मुझे बड़ी अभिलाषा हैं। बडे आश्वर्यकी बात हैं कि, ब्रह्म निर्मित कृत्यानल जो अति दुरत्यय हैं, वहभी राजा अम्बरीषको ठहरानेके लिये सामर्थ्यवान् न हुई॥१४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग! राजा अम्बरीष सप्तद्वीप पृथ्वी, अक्षय सम्पद और पृथ्वीके अतुल ऐश्वर्यको पायकर यद्यपि यह सब पदार्थ और पुरुषोंको अति दुर्लभ हैं, स्वप्नकी समान झूठे समझने लगा, क्योंकि विभवके नाशका न जाननेवाला पुरुषभी विभवमें अथवा उसके अंशसे मोहको प्राप्त होता हैं॥१५॥१६॥ और इस राजाने भगवान् वासुदेवमें और उनके भक्त सब साधुओंमें उस परमभाव (भक्ति) को

प्राप्त हुआ था, जिससे यह विश्व अति तुच्छ जानपडता हैं॥१७॥ अधिक करके उन्होंने श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्रजीके पादारविन्दमें अपने चित्तको अपर्ण करदिया था। और अपने वचनोंको वैकुण्ठके गुणवर्णनमें लगाया था, अपने दोनों हाथ हरिमंदिरके मार्जनादिमें लगादिये थे, अपने कानोंको अच्युत सत्कथाओंके श्रवण करनेमें लगादियाथा॥१८॥ नेत्रोंको मुकुन्दके रूप देखनेमें लगा रक्खा था अंगसंगको भगवत् सेवकोंके शरीरस्पर्शमें, नासिकाको भगवच्चरण कमलके संयोगसे श्रेष्ठ तुलसीका जो सौरभ हैं उसके ग्रहणमें और रसनाको भगवान के प्रति निवेदित अन्नादिके स्वाद चखनेमें तत्पर कर रक्खा था॥१९॥ और चरण हरिके क्षेत्रमें जानेके लिये नियत कर रक्खे थे, इन्होंनें अपना मस्तक

स वै मनः कृष्णपदारविंदयोर्वचांसि वैकुंठगुणानुवर्णने॥ करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये॥१८॥ मुकुंदलिंगालयदर्शने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पर्शेंऽगसंगमम्॥ घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते॥१९॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवंदने ॥ कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः॥२०॥ एवं सदा कर्मकलापमात्मनः परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे॥ सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह॥२१॥ ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं महाविभूत्योपचितांगदक्षिणैः॥ ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभिर्धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम्॥२२॥

हृषीकेशके चरणोंमें लगा दिया था चन्द्रमादिकी सेवा दासभावसे करता था, कुछ विषयकी इच्छासे नहीं उत्तम श्लोक भगवान् के जन जिसप्रकार इन वस्तुओमें प्रीति रखते हैं, उसी प्रकार यहभी रखते थे॥२०॥ इस प्रकारसे सब कर्मकलापोंको राजाने यज्ञपति भगवान्के अर्पण कर दिया था और भगवद्भक्त ब्राह्मणोंके उपदेशानुसार राज्यका पालन करता था॥२१॥ और अनेक अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान्की आराधनामें सदा लगा रहता था इन यज्ञोंके अंग और दक्षिणामें बहुत धन लगाता था, और यह सब यज्ञ वसिष्ठ, असित गौतमादि ऋषियोंके कारणसे विस्तारित होते थे।हे राजन्!धन्वदेश (मारवाड) में जहां सरस्वतीजी बहती थीं वहांपर राजा अम्बरीपने इन यज्ञोंको किया था॥२२॥

उनके यज्ञमें सदस्य और ऋत्विगादि वसन भूषणादिद्वारा सजधजकर देवतालोगोंकी समान रूपवाले दिखाई देतेथे. आश्चर्य देखनेकी उत्कण्ठासे उन सभासदोंके पलक तलकभी नहीं लगते थे, इसलिये वह सबप्रकारसे देवतालोगोंकी समान होजातेथे॥२३॥और राजा अम्बरीषकी प्रजाभी देवताओंके प्यारे स्वर्गलोककी चाहना नहीं रखतीथी।केवल भगवच्चरित्र श्रवण और कीर्त्तन करनेमें लगीरहतीथी॥२४॥ फिर इससे उनके संबंधमें क्या कहाजाय? बस जो पुरुष अपने हृदयमें भगवान् मुकुन्दको देखताहैं और स्वरूपसुखके द्वारा जो अतिशय आनन्द पाताहैं॥२५॥ इससे सिद्ध लोगोंकोभी दुर्लभ जो समस्त विषय हैं वह सब इस पुरुषको आनन्द नहीं उपजाय सक्ते वा हर्षित कराय सक्ते हैं। अधिक करके इस प्रकार राजा अम्बरीषने स्त्री, पुत्र, मित्र,

यस्य ऋतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः॥ तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यदृश्यंत सुवाससः॥२३॥ स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः॥ शृण्वद्भिरुपगायद्भिरुत्तमश्लोकचेष्टितम्॥२४॥ समर्द्धयंति तान्कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः॥ दुलभ नापि सिद्धानां मुकुंदं हृदि पश्यतः॥२५॥ स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः॥ स्वधर्मेण हरिं प्रीणन्संगान्सर्वाञ्छनैर्जहौ॥२६॥ गृहेषु दारेषु सुतेषु बंधुषु द्विपोत्तमस्यंदनवाजिपत्तिषु॥ अक्षय्यरत्नाऽभरणायुधादिष्वनंत कोशेष्वकरोदसन्मतिम्॥२७॥ तस्मा अदाद्धरिश्चक्रंप्रत्यनीकभयाहवम्॥ एकांतभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम्॥२८॥ आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया॥ युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम्॥२९॥ व्रतांते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः॥ स्नातः कदाचित्कालिंद्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत्॥३०॥

हाथी, घोड़े, रथादि व अक्षय रत्न भूषणादि व अनंत कोषकोभी वृथा समझा॥२६॥२७॥हे राजन्! यद्यपि राजा अम्बरीष इसप्रकार विरागी होगयाथा तौभी अपने शत्रुओंके जीतनेको असमर्थ नहीं हुआ, भगवान् वासुदेवने इस राजर्षिके भक्तिभावसे प्रसन्न हो जिससे शत्रुकी सेनाको भय होवैऔर भक्तोंकी रक्षा होवै, ऐसा सुदर्शन चक्र उनको देदियाथा॥२८॥ हे राजन् !यह राजा अम्बरीष भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करनेकी इच्छासे अपनी भार्या जो कि, शीलतामें अपनेही समान थी, उसके साथ मिलकर एक वर्षतक अखंड एकादशीके व्रतको धारण करनेलगे॥२९॥ एक समय मथुरामें जाय व्रतके अंतमें कि, जब कार्तिक महीनेके तीन दिन उपवास किया था।कालिन्दीमें स्नानकर मधुवनमें श्रीकृष्ण

चन्द्रकी पूजा करी॥३०॥ महाभिषेककी विधिसे सब सामग्रियोंकी सम्पत्तिसे वस्त्र, आभूषण, गंध, फूल, मालाके द्वारा एकाग्रचित्तसे मुरलीमनोहरकी पूजा करनेलगे। तिसके उपरान्त बड़ेभाग्यवाले सिद्धकाम ब्राह्मणोंकी भक्तिभावसे पूजा करनेलगा॥३१॥३२॥ जिनके सींग, और खुर चांदीसे मढेथे शरीरमें शोभायमान वस्त्र पहर रही थीं, दुधारी थीं, स्वर्णलता, वयस; रूप और वत्सादि श्रेष्ठ सम्पत्तियोंसे भूषित थीं, ऐसी छःअर्ब ६००००००००० गायें राजा अम्बरीषने साधु ब्राह्मणोंको दक्षिणामें देदी इसके पीछे ब्राह्मणलोगोंको पडूरसभोजन कराय*****॥३३॥३४॥ उनकी आज्ञा ले

महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसंपदा॥अभिषिच्यांबराकल्पैर्गंधमाल्यार्हणादिभिः॥३१॥ तद्गतांतरभावेन पूजया मास केशवम्॥ ब्राह्मणांश्च महाभागान्सिद्धार्थानपि भक्तितः॥३२॥ गवां रुक्मविषाणीनां रूप्यांघ्रीणां सुवाससाम्॥ पयश्शीलवयोरूपवत्सोपस्करसंपदाम्॥३३॥ प्राहिणोत्साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट्॥ भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम्॥३४॥ लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे॥ तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षादृुर्वासा भगवानभृत्॥३४॥३५॥ तमानर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थानासनार्हणैः॥ ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः॥३६॥

आपभी व्रतपारणा करनेको तत्पर हुआ। हे राजन्! राजा अम्बरीष व्रतपारणा करनेको जाताही था कि, इसी अवसर में दुर्वासा मुनि अतिथिकी भाँति उन राजा अम्बरीषके स्थानमें आये॥३५॥ दुर्वासा मुनिको देखतेही राजा अम्बरीषने व्रतपारणा नहीं किया और उसीसमय आकर प्रणाम व पूजा करके उनका भली भाँतिसे आदर सन्मान किया।फिर विनीतभावसे चरणोंके निकट खड़ा होकर भोजन करनेके लिये उनसे

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***शंका—**राजा अम्बरीषने (६०००००००००) छह अर्व गायोंका दान किया हैं, सो हमको बडा सन्देह हैं कि वह अर्बगायें और उह अर्व बछडे और वछियाॅऔर छह अर्ब दानके लेनेवाले ब्राह्मण क्योंकर इकट्ठे होगये?

**उत्तर—**ज्योतिष शास्त्रमें अर्बुद पांच सहस्र सज्ञा लिखीहै और एक अर्बुदको दशकोटि लिखा हैं “प्रायश्चित्तकदम्ब” तथा ‘विधानपारिजातक’ जिनमें एक एक लाख श्लोक हैं इनके सिवाय और भी जो धर्मशास्त्रके प्रन्थ हैं उनमें भी एक अर्म्बुद ५००० सहस्रकी सज्ञा हैं इसी प्रमाणसे जानाजाताहैं कि, पांच हजार गायें राजा अम्बरीपने दान की थीं।

प्रार्थना की॥३६॥ राजाकी इस प्रार्थनासे दुर्वासा ऋषि हर्षित हो भोजन करना स्वीकार कर बोले कि, अभी नियमित मध्याह्नके नित्यकर्म हमने समाप्त नहीं किये हैं, यह कहकर नित्यकर्म करनेको यमुनाके तटपर गये। तिसके पीछे ब्रह्मचिन्ता करते करते यमुनाके पवित्र जलमें स्नान किया॥३७॥ हे राजन्! जब दुर्वासा मुनि मध्याह्नकालकी क्रिया करनेगये तो वह बहुत विलम्ब होनेपरभी वहाॅनहीं गये। इस ओर द्वादशीका केवल अर्द्ध मुहूर्त्त शेष रहगया। इस मुहूर्त्तमें पारणा न करनेसे व्रतमें विकार होजायगा।धर्मज्ञ अम्बरीष राजा धर्म संकटमें पड़ ब्राह्मणों सहित विचार करने लगे॥३८॥ राजाने कहा कि, जो दोष ब्राह्मणके अतिक्रममें हैं, द्वादशीमें पारणा न करनेसेभी वही दोषहैं, अब हम क्या करैं?क्या करनेसे मेरा भला होगा? और अधर्म मुझको न स्पर्श कर सकैगा॥३९॥ ब्राह्मणोंके सहित इस प्रकार विचार करके राजाने फिर यह निश्चय

प्रतिनंद्य स तद्याच्ञांकर्तुमावश्यकं गतः॥ निममज्ज बृहद्ध्यायन्कालिंदीसलिले शुभे॥२७॥ मुहूर्त्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति॥ चिंतयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसंकटे॥३८॥ ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे॥ यत्कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत्॥३९॥ अंभसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम्॥ प्राहुरब्भक्षणं विप्रा ह्यशितं नाशितं च तत्॥४०॥ इत्यपः प्राश्य राजर्षिश्चिंतयन्मनसाऽच्युतम्॥ प्रत्याचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः॥४१॥ दुर्वासा यमुनाकूलात्कृतावश्यक आगतः॥ राज्ञाऽभिनंदितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया॥४१॥४२॥ मन्युना प्रचलद्गात्रोभृकुटीकुटिलाननः॥ बुभुक्षितश्च सुतरां कृतांजलिमभाषत॥४३॥ अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत॥ धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिनः॥४४॥

किया कि, केवल चरणामृत पीकर व्रत समाप्त किया जायगा, क्योंकि केवल जलपान करनेको मुनि लोगोंने भोजन अभोजन दोनों कहा हैं॥४०॥ हे कुरुश्रेष्ठ! राजा अम्बरीषेने इसप्रकार विचार मनमें भगवान् वासुदेवका स्मरणकर जैसेही चरणामृत पिया वैसेही द्विजा गमन देखा॥४१॥ अर्थात् उसी समय दुर्वासाजी नित्यकर्म समाप्त करके यमुनाके किनारेसे राजा अम्बरीपके स्थानपर आन पहुँचे। यद्यपि राजाने उन मुनिको देखकर आनन्द प्रकाशित किया और हाथ जोड उनके सन्मुख खड़े हुए। तौभी इस राजा अम्बरीषका आचरण दुर्वासा ऋषिने ध्यान धरकर जानलिया॥४२॥ इसलिये क्रोधसे कम्पित शरीरहो, भौहैंटेढ़ीकर हाथ जोड़े खड़े हुए राजा अम्बरीषसे कहने लगे कि॥४३॥ अहो! यह पुरुष

कैसा निर्लज्ज हैं, धन सम्पत्तिके मदसे अत्यन्त मतवाला हो रहा हैं, अपने आपको ईश्वर मानता हैं, इसके धर्मव्यतिक्रमको तो देखो॥४४॥ हम इसके आश्रममें अतिथि आये हैं; इसने आपही पहुनई करनेके लिये हमको निमंत्रण दिया परन्तु हमारा भोजन होनेसे प्रथमही यह इच्छानुसार भोजन करके बैठगया। इसका फल इसको अभी दिखाताहूं॥४५॥ इसप्रकार कहते कहते क्रोधायमान हो मस्तकसे एक जटा उखाड़ उस राजाके सामने कालाग्निकी समान एक कृत्या बनाई॥४६॥ हे राजन्! वह कृत्या खड्ग हाथमें ले अपने चरण धरनेसे पृथ्वीको कम्पायमान करती हुई प्रकाश पूर्वक आई। राजा अम्बरीष उसको अपने सन्मुख आती हुई देखकरभी अपने स्थानसे चलायमान नहीं हुए॥४७॥ राजा अम्बरीष विष्णु भगवान्के परमभक्त थे, उन्होंने अपने भक्तपर यह भीर पड़ी देख अपने चक्रको आज्ञा दी, परम पुरुष भगवान्की आज्ञा

यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमंत्र्य च॥ अदत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम्॥४५॥ एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषविदीपितः॥ तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम्॥४६॥ तामापतंतीं ज्वलतीमसिंहस्तां पदा भुवम्॥ वेपयंतींसमुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः॥४७॥ प्राग्दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना॥ ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः॥४८॥ तदभिद्रवदुद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम्॥ दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया॥४९॥ तमन्वधावद्भगवद्रथागं दावाग्निरुद्धुतशिखो यथाऽहिम्॥ तथानुषक्तं स निरीक्षमाणो गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः॥५०॥ दिशो नमः क्ष्मां विवरान्समुद्राल्लोँकान्सपालांस्त्रिदिवं गतः सः॥ यतोयतो धावति तत्रतत्र सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श॥५१॥

पातेही अपने तेजसे इस कृत्याको भस्म करनेलगा, जिसप्रकार दावानल वनमें रहते हुए क्रोधित सर्पोंको दग्ध करै॥ ४८॥ जब दुर्वासा ऋषिने देखा कि, हमारा किया यत्न विफल हुआ और अब यह चक्र हमारीही ओरको चला आता हैं इसलिये भीत हो प्राणोंकी रक्षा करनेको त्रासके मारे सब दिशाओंमें भागने लगे॥४९॥ हे राजन! जैसे लपटयुक्त उठी हुई दावानल बनैले सर्पोंके पीछे दौडती हैं, वैसेही भगवान्का चक्र इन ऋषिके पीछे पीछे दौड़ा। दुर्वासा मूनि इस चक्रको इसप्रकारसे अपने पीछे आता हुआ देखकर सुमेरुकी गुफामें प्रवेश करने की इच्छाकर महावेगसे दौड़ने लगे॥५०॥ दौड़ते दौड़ते दिक् आकाश, भूमि, विवर, सागर और लोकपाल सहित सब लोकोंमें और स्वर्गमेंभी दुर्वासा गये।

परन्तु जहाँ वह जाते थे उस उस स्थानमें दुर्द्धर्ष चक्रभी उनके पीछे लगाही चला जाता था॥५१॥ इसप्रकार शरण ढूंढते ढूंढते सब जगहमें भ्रमण करके यह कहीं भी अपने किसी रक्षकको नहीं पासके तब त्रसित हो पद्मयोनि ब्रह्माजीके निकटगये और कातरता प्रकाश करके बोले कि, हे भगवन्! हे आत्मयोने! इस दुःसह हरिके चक्रसे आप मेरी रक्षा करें॥५२॥ ब्रह्माजी बोले कि, परार्द्ध नामक काल क्रीडाके अन्तमें काल स्वरूप जो विष्णु भगवान् हैं, वह जब सबके दग्ध करनेकी वासना करते हैं, तब उनकी भ्रुकुटी टेढी होजाती हैं, ब्रह्माण्ड समेत हमारा यह स्थान भी भस्म हो जायगा और हम (ब्रह्मा) शिव, दक्ष, भृगु आदि और प्रजापति, भूतपति, सुरपति इत्यादि जिनकी आज्ञाको प्राप्त होकर जिस प्रकारसे लोक

अलब्धनाथस्य यदा कुतश्चित्संत्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः॥ देवं विरिंचं समगाद्विधातस्त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसोमाम्॥५२॥ ब्रह्मोवाच॥ स्थानं मदीयं सहविश्वमेतत्क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे॥ भ्रूभंगमात्रेण हि संदिधक्षोः कालात्मनो यस्य तिरो भविष्यति॥५३॥ अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्याः॥ सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्ना मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः॥५४॥ प्रत्याख्यातो विरिंचेन विष्णुचक्रोपतापितः॥ दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम्॥५५॥ श्रीरुद्र उवाच॥ वयं न तात प्रभवाम भूम्नि यस्मिन्परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः॥ भवंति कालेन भवंति हीदृशाः सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः॥५६॥ अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः॥ कपिलोऽपांतर तमो देवलो धर्म आसुरिः॥५७॥

हितहो, उसीप्रकार अपने मस्तकपर सब नियमोंको रखते हैं सो तुमने उनकेही भक्त से द्रोह किया हैं। इस लिये तुम्हारी रक्षा करनेकी सामर्थ्य हममें नहीं हैं॥५३॥५४॥ हे राजन्! जब ब्रह्माजीनेभी शरण नहीं दी, तब दुर्वासा कैलासके शिखर पर गये और विष्णुचक्रसे अति सन्तापित होनेके। कारण कातरता प्रगट कर भगवान् महादेवजी की शरण हुये॥५५॥ महादेवजी बोले कि, हे तात! उन महान् परमेश्वरके सन्मुख हमारी प्रभुताई। कुछ नहीं चलेगी, उनसे ब्रह्मादि रूपका उपाधि भूत यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता हैं इस प्रकारसे दृश्यमान ब्रह्माण्डका प्रमाण व और पदार्थ भी जिनमें कल्पित हैं; लोकपालाभिमानी हम हजार हजार वार भ्रान्त हुआ करते हैं॥५६॥ हे वत्स! सनत्कुमार, नारद, भगवान्, ब्रह्मा, कपिल (जिनके

अन्तका अंधकार दूर होगया था) देवल, धर्म, आसुरि॥५७॥ और मरीचि आदि और भी सिद्धगण सर्वज्ञ होकरभी जिनकी मायाको नहीं जान सक्ते बरन् स्वयं उनकी मायासे घिरे हुए हैं॥५८॥ उन्हीं विश्वेश्वरका यह शस्त्र (चक्र) हैं; सो हमलोग किसी भाँति इसे नहीं सहसक्ते इसलिये तुम उन्हीं विष्णु भगवान्‌की शरण जाओ वही तुम्हारी रक्षा करेंगे॥५९॥ हे राजन्! जब इस प्रकारसे दुर्वासाजीको महादेवजीने भी शरणमें न रक्खा और कोरा जवाब दिया तब वह भगवान्के धाम वैकुण्ठको गये। कि, जहॉ भगवान् श्रीनिवास लक्ष्मीजीके साथ विराजमानथे॥६०॥ यह ऋषि कम्पायमान होकर श्रीभगवान्के चरणोंपर गिरपडे और कहने लगे कि, हे अच्युत ! हे अनन्त ! हे साधुजनोंका भय

मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः॥ विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययाऽवृताः॥५८॥ तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः॥ तमेव शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति॥५९॥ ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ ॥ वैकुंठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह॥६०॥ स दह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना तत्पादमूले पतितः सवेपथुः॥ आहाच्युतानंत सदीप्सित प्रभो कृतागसं माऽव हि विश्वभावन॥६१॥ अजानता ते परमानुभावं कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम्॥ विधेहि तस्यापचितिं विधातर्मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि॥६२॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज॥ साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥६३॥ नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना॥ श्रियं चात्यंतिकीं ब्रह्मन्येषां गतिरहं परा॥६४॥

हरनेवाले ! हे प्रभो ! मैंने बडा भारी अपराध किया हैं. हे विश्वभावन ! मेरी रक्षा करो॥६१॥ हे प्रभो ! आपके परम प्रभावको न जानकर मैंने आपके प्रियभक्तका अपराध किया हैं।सो हे प्रभो ! अब अपराधका आप प्रायश्चित बताइये कि जिस्से मेरा छुटकारा हो।हे भगवन् ! जो आपके भक्तका द्रोह करता हैं उसका छुटकारा नहीं हो सक्ता यह बात ठीक नहीं. क्योंकि जिनका नाम लेतेही नरकमें पडा हुआ पुरुष मुक्तिको प्राप्त होजाता हैं, उसके लिये असाध्य क्या हैं ? ॥६२॥ यह वचन सुनकर श्रीभगवान् बोले कि, हम भक्तके वश हैं, इसलिये परवश हैं. भक्तजन हमारे प्रिय हैं, इससे साधुगण हमारे हृदयको ग्रसे हुये हैं॥६३॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! जिन मनुष्योंकी गति एक मुझसेही

होती हैं, उन सब साधु पुरुषोंके सिवाय अपनी आत्माको और अत्यन्त लक्ष्मीकोभी प्यार नहीं करते॥६४॥ जो पुरुषगण, स्त्री, पुत्र, गृह, स्वतन धन प्राण और इसलोक व परलोक सबको छोड़कर हमारी शरणमें आये हैं, हम उनको त्याग करके किस प्रकार उत्साहित होसक्ते हैं?॥६५॥ हे मुनि महाराज ! सर्वत्र समदर्शी साधुपुरुष लोग हममें अपने अपने हृदयको बांध हमको अपने वश किये हुये हैं कि जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने श्रेष्ठपतिको वश करलेती हैं॥६६॥ और वह भक्तगण साधुसेवाद्वारा सालोक्यादि चारों पदार्थोंके सन्मुख आने परभी उनके ग्रहण करनेकी इच्छा नही करते, वह साधु सेवासेही परितृप्त होजाते हैं, इसलिये कालसे नाश होनेवाली और किसी वस्तुमें उनकी अभिलाषाहोनेकी क्या सम्भावना हैं॥६७॥

ये दारागारपुत्राप्तान्प्राणान्वित्तमिमं परम्॥ हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥६५॥ मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः॥ वशे कुर्वंति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा॥६६॥ मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम्॥ नेच्छंति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्कालविद्रुतम्॥६७॥ साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्॥मदन्यत्तेन जानंति नाहं तेभ्यो मनागपि॥६८॥ उपायं कथयिष्यामि तव विप्र शृणुष्व तत्॥ अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं यातु वै भवान्॥६९॥ साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम्॥ तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे॥ ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा॥७०॥

और जिन २ पुरुषोंने हमको अपना हृदय अर्पण करदिया हैं। हम उनके हृदयको जानते हैं, वह हमारे अतिरिक्त और किसीको नहीं जानते। और हमभी उनके अतिरिक्त और किसीको नहीं समझते॥६८॥ इसलिये हे मुने !जिससे कि, यह तुम्हें हिंसा उत्पन्न हुई हैं उसकेही निकट तुम विना विलम्ब किये चलेजाओ।हे मुने!क्या तुम यह नहीं जानते हो कि, साधु लोगोके ऊपर चलाया हुआ तेज प्रहार करनेवालेकाही अमंगल करता हैं। ब्राह्मणोंकी तपस्या और विद्या यह दोनों भला करनेवाली तो हैं। परन्तु दुर्विनीत स्वामीके लिये यह दोनों विपरीत फल देनेवाली हैं,

परन्तु इस समय अपनी तपविद्याको मनमें लाय इस अनर्थ घटनापर विस्मय करना आपको योग्य नहीं हैं॥६९॥ ७०॥ इस समय तुम महाभाग नाभागपुत्र राजा अम्बरीषके निकट जाओ। जिससे तुम्हारा मंगल हो, उस पृथ्वीपतिसे क्षमा मांगनेका यत्न करो। तब इस उत्पातकी शांति होगी॥७१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषा टीकायामम्बरीषोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा—अम्बरीष हरिचक्रकी, विनय करी शिर नाय। ब्राह्मणकी रक्षा करी, इस पंचम अध्याय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण ! चक्रकी अग्निसे संतापित हुये

ब्रह्मंस्तद्गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम्॥ क्षमापय महाभागं ततः शांतिर्भविष्यति॥७१॥ इति श्रीमद्भागवते म० नवम स्कंधे अम्बरीषोपाख्याने दुर्वासोऽनुतापशमनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवतादिष्टो दुर्वासाश्चक्र तापितः॥ अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत्॥१॥ तस्य सोद्यमनं वीक्ष्यपादस्पर्शविलज्जितः॥ अस्तावीत्तद्धरेरस्त्रं कृपया पीडितो भृशम्॥२॥ अम्बरीष उवाच॥ त्वमग्निर्भगवान्सूर्यस्त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः॥ त्वमापस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेंद्रियाणि च॥३॥

दुर्वासा ऋषि विष्णु भगवान्की आज्ञासे उसी समय राजा अम्बरीषके यहाँ गये और दुःखित हो इस राजर्षिके चरण पकड़नेको झपटे*॥१॥जब यह चरण छूने लगे, तब राजर्षि अम्बरीष अत्यन्त लज्जितहो और दुर्वासाजीको ऐसा व्याकुल देख व्यथा पाय भगवान्के चक्रकी स्तुति करने लगे॥२॥ राजा अम्बरीष बोले कि, हे सुदर्शन ? तुमही भगवान् सूर्य हो और तुमही सब नक्षत्रोंके स्वामी चंद्रमा हो, तुमही जल, तुमही भूमि,

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**शंका—**दुर्वासा मुनि भगवान्‌के चक्रके तेजसे भस्म होनेको प्रस्तुत था, तो फिर उसने अम्बरीषके चरण कैसे ग्रहण किये ? यह तो बडा अयोग्य कर्म हैं।दुर्वासाऋषि कुछ कलियुगी ब्राह्मण तो नहीं थे जो कि, देहके सुखके लिये नीचकर्म करने लगते, वह तो महाप्रतापी और परमतेजस्वी ब्राह्मण थे, फिर इसने नींचकर्म क्यों किया ?

**उत्तर—**दशसहस्र (१ ० ० ० ०) ब्राह्मणोंको साथ लिये दुर्वासाऋषि वडे अभिमान सहित त्रिलोकीमें घूमते फिरा करते थे और त्रिलोकीके मनुष्योंको शाप देदेकर बहुत दुखीं कर दिया, जो कोई किंचिन्मात्रमी अपराध करता उसको ऐसा मारी शाप देते कि, वह बहुत कालतक कष्टपाता तीनलोकको कम्पायमान देखकर भगवान् महादेवने दुर्वासा ऋषिका अभिमानमञ्जन करनेके लिये यह यत्न करके त्रिलोकीको सुखीकिया क्योंकि दुर्वासा ऋषिके चित्तमें अम्बरीषका चरित्र खटकनेलगा यह विचारके क्रोध करने लगे, इसलिये मोहको प्राप्तहुये दुर्वासा ऋषिने अम्बरीषके चरणोंको ग्रहण किया॥

तुमहीं आकाश, तुमहीं पवन, तुमहीं मात्रा और तुमहीं सब इंद्रियें हो, अर्थात् तुम्हारीही शक्तिसे अग्नि आदि अपना अपना कार्य करते हैं॥३॥ इसलिये तुम्हें नमस्कार हैं हेअच्युतप्रिय ! तुम्हारी हजार धार हैं हे सर्वघातिन् ! हे पृथ्वीनाथ ! इस ब्राह्मण की रक्षा करो॥४॥ हे सुदर्शन!ब्राह्मणकी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य कर्म हैं। क्योकि तुम साक्षात् धर्म, अमृत, सत्य, यज्ञमूर्ति और सब यज्ञोंके भोगनेवाले हो, अधिक करके तुमही लोकपाल और ईश्वरकी परम सामर्थ्य हो॥५॥ और तुम अद्भुतकर्मकारी हो, क्योंकि अखिल धर्मके सेतु स्वरूप हो, इसलिये तुमही अधर्म करतेहुए असुर लोगोंके धूमकेतु अर्थात् दाहक दो, तुम्हारा तेजसमूह अतिउज्ज्वल हैं, तुम त्रिलोकीके रक्षक हो, तुम मनकी समान वेगवान् हो

सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय॥ सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते॥४॥ त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक्॥ त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम्॥५॥ नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे ह्यधर्मशी लासुरधूमकेतवे॥ त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे मनोजवायाद्भुतकर्मणे गृणे॥६॥ त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं तमः प्रकाशश्च धृतो महात्मनाम्॥ दुरत्ययस्ते महिमा गिरांपते त्वद्द्रुपमेतत्सदसत्परावरम्॥७॥ यदा विसृष्टस्त्वमनं जनेन वै बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम्॥ बाहूदरोर्वंघ्रिशिरोधराणि वृक्णन्नजस्रंप्रधने विराजते॥८॥ स त्वं जगत्राणखलप्रहाणये निरूपितः सर्वसहो गदाभृता॥ विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवे विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः॥९॥

तुम्हारी स्तुति करनेकी सामर्थ्य किसमें हैं? इसलिये मैं तुम्हारे प्रति केवल नमः शब्दका प्रयोग करता हूं॥६॥ हे सुदर्शन ! तुम्हारे धर्ममय तेजसे अन्धकार दूर होताहैं और महात्मा लोगोंकी दृष्टि प्रकाशित होती हैं। हे वाणीनाथ ! तुम्हारी महिमा अपरम्पार हैं। सत्, असत्, पर, अपर इत्यादि समस्त पदार्थ तुम्हारेही स्वरूप हैं। क्योंकि सूर्यादिका प्रकाशभी तुमहीसे होता हैं॥७॥ हे अनन्त अनञ्जन भगवान्के करसे जब तुम छोड़ेजाते हो, तब दैत्य दानवोंके बीचमें प्रवेश कर उनकी भुजायें, पेट, जाॅघैं,चरण और कन्धोंको काटतेहुए समरमें विराजमान होतेहो॥८॥ हे जगत्रातः ! तुम ऐसे गुणोसे युक्तहो कि, भगवान् गदाधरने खलपुरुषोंके मारनेको तुम्हें नियुक्त किया हैं इसलिये हमारे कुलका सौभाग्य करनेको

तुम इस विपदमें पड़ेहुए ब्राह्मणका मंगल करो। ऐसा करनेसे तुम्हारा बडाभारी अनुग्रह मेरे ऊपर होगा॥९॥ हे सुदर्शन! यदि हमारे किसी दान करनेसे, वा किसी यज्ञ करनेसे कुछ पुण्य हुआ हो। यदि मैंने अपने धर्मका भलीभांतिसे अनुष्ठान किया हो, यदि मेरे कुलदेवता ब्राह्मण हों तो मेरी यही प्रार्थना हैं कि, इस धर्मके प्रभावसे यह मुनिजी शीघ्र निष्कण्टक होजायँ॥१०॥ और अनुपम वह सब प्राणियोंके प्रति आत्मभावके हेतु सर्वगुणोंके आश्रय भगवान् यदि हमारे ऊपर प्रसन्न हैं तो उनके प्रसादसे यह ब्राह्मण शीघ्र संतापरहित हों॥११॥ हे राजन् ! जब राजा अम्बरीषने इस प्रकार स्तुतिकी; तब भगवान्का सुदर्शनचक्र, जो ब्राह्मण श्रेष्ठ दुर्वासाजीको जलाये देता था, इन राजर्षिकी प्रार्थनासे शान्त

यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः॥ कुलं नो विप्रदैवं चेद्द्विजो भवतु विज्वरः॥१०॥ यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः॥ सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम्॥ अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद्राजयाच्ञया॥१२॥ स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमां स्ततः॥ प्रशशंस तमुर्वीशं युंजानः परमाशिषः॥१३॥ दुर्वासा उवाच॥ अहो अनंतदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे॥ कृतागसोऽपि यद्राजन्मंगलानि समीहते॥१४॥ दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम्॥ यैः संगृहीतो भगवान् सात्त्वतामृषभो हरिः॥१५॥ यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान्भवति निर्मलः॥ तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामव शिष्यते॥१६॥ राजन्ननुगृहीतोऽहं त्वयाऽतिऽकरुणात्मना॥ मदघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः॥१७॥

होगया॥१२॥ इसलिये दुर्वासाजी अस्त्राग्निके तापसे छुटकारा पाय कल्याणवान हुए। फिर दुर्वासा मुनि राजाको आशीर्वाददे अनेक अनेक प्रशंसा करने लगे॥१३॥ दुर्वासाजी बोले, अहो ! भगवद्भक्तोंकी अद्भुत महिमा आज हमने देखी।हे राजन्!यद्यपि हमने अपराध किया तौभी तुमने हमारी भलाईही चाही॥१४॥ अथवा जिन पुरुषोने सात्वतपति भगवान्‌को अपने वश किया हैं उन महात्मा साधु पुरुषो के लिये कौन बात दुस्त्यज वा दुर्लभ हैं?॥१५॥ जिनका नामश्रवण करतेही पुरुष निर्मल हो जाताहैं तीर्थपाद भगवान्के उन दासोसे कौनसा कार्य बच रहा हैं॥१६॥हे राजन् ! तुम अतिकरुणात्मा हो, हम पर आपने बड़ाभारी अनुग्रह किया क्योकि हमारे अपराधकी ओर न निहार कर हमारे

प्राणोंकी रक्षाकी॥१७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! अबतक राजा अम्बरीपने भोजन नहीं किया था इस राजाने फिर कभी इनके आनेको प्रार्थनाकी। और बारम्बार इनके चरण कमलोंकी वन्दना करके भोजन कराया॥१८॥आदर सहित आये हुए सर्वाभिलाषकी पूर्ण करनेवाली पहुन ईको मानकर महर्षि दुर्वासाजीको अति सन्तोष उत्पन्न हुआ।दुर्वासाजी आहार करनेके उपरान्त राजासे बोले कि, हे महाराज तुमभी भोजन करो॥१९॥ हे महीपाल! तुम परम भागवत हो। हमारे ऊपर तुम्हारा बड़ा अनुग्रह हुआ तुम्हारे दर्शनकर और तुम्हारे सम्भापण करनेसे जिससे कि, आत्मामें बुद्धि होती हैं ऐसा आतिथ्य जो तुमने किया इससे हमको बहुतही प्रीति उत्पन्न हुईहैं॥२०॥ स्वर्गवासी देवता लोगोंकी स्त्रिये तुम्हारे इस

राजा तमकृताहारः प्रत्यागमनकांक्षया॥ चरणावुपसंगृह्य प्रसाद्य समभोजयत्॥१८॥ सोऽशित्वाऽऽदृतमानीतमातिथ्यं सार्वकामिकम्॥ तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतामिति सादरम्॥१९॥ प्रीतोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि तव भाग वतस्य वै॥ दर्शनस्पर्शनालापैरातिथ्येनात्ममेधसा॥२०॥ कर्मावदातमेतत्ते गायन्ति स्वस्त्रियो मुहुः॥ कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम्॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं संकीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः। ययौ विहायसाऽऽमंत्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम्॥२२॥ संवत्सरोऽत्यगात्तावद्यावता नागतो गतः॥ मुनिस्तद्दर्शनाकांक्षी राजाऽब्भक्षो बभूव ह॥२३॥ गते च दुर्वाससि सोंऽबरीषो द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत्॥ ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्धा मेने स्ववीर्यं च परानुभावम्॥२४॥

निर्मल कर्मको सदा गावेंगी और पृथ्वीके रहनेवाले सदा तुम्हारी परमपवित्र कीर्तिको गावेंगे॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! महर्षि दुर्वासाजी सन्तुष्ट हो इस प्रकार कहकर राजर्षि अम्बरीषके साथ वार्त्तालाप करके आकाश मार्गसे हो ब्रह्मलोकको चले गये॥२२॥ परन्तु वह गमन करके जबतक न आये थे, तब लों एक वर्ष समय तक के बीतनेपरभी राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी इच्छासे केवल जलही पीकर रहेथे॥२३॥ इसके उपरान्त एक वर्ष पीछे जब वह ऋषि आये, तब राजा अम्बरीषने ब्राह्मण भोजनसे जो पवित्र हुआ आहार सो भोजन किया और

ऋषिकी विपद व उद्धारकी बात स्मरण करके अपने धैर्यादि रूप वीर्य और भगवान्के प्रभावको आधार मानने लगा॥२४॥ हे राजन्! अम्बरीष राजामें इस प्रकारके अनेक गुण हैं, वह अपने क्रिया कर्मसे परमात्मा भगवान् वासुदेवके प्रति परमभक्ति दिखलाते थे, उसी भक्तिके प्रभावसे ब्रह्मपदके सहित सब प्रकारके भोग इनके सन्मुख सदा प्राप्त रहते थे, परन्तु यह उन सबको नरककी समान जानते थै॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! तिसके उपरान्त यह वीर अपनी समान वीर्यवान पुत्रको राज्य भार सौंप वनमें चलागया। जब कि, इस राजर्षिने अपना मन व आत्मा भगवान्में लगा दिया था, इसलिये उनका गुण प्रवाह विध्वंस होगया। अर्थात् आवागमनसे इनका छुटकारा होगया॥२६॥हे राजन्!

एवंविधाऽनेकगुणः स राजा परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे॥ क्रिया कलापैः समुवाह भक्तिं ययाऽऽविरिंचान्निरयांश्चकार॥२५॥ अथांबरीषस्तनयेषु राज्यं समानशीलेषु विसृज्य धीरः॥ वनं विवेशात्मनि वासुदेवे मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः॥२६॥ इत्येतत्पुण्यमाख्यानमंबरीषस्य भूपतेः॥ संकीर्तयन्ननुध्यायन्भक्तो भगवतो भवेत्॥२७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे अंबरीषोपाख्याने दुर्वास उपचरणं नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ विरूपः केतुमान् शंभुरंबरीषसुतास्त्रयः॥ विरूपात्पृषदश्वोऽभूत्तत्पुत्रस्तु रथीतरः॥१॥ रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तंतवेऽर्थितः॥ अंगिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान्॥२॥

राजा अम्बरीषके इस पवित्र चरित्रको जो मनुष्य सुनेंगे, और ध्यान करेंगे, सो भगवान्के भक्त होंगे। और जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इन महाराज अम्बरीषके चरित्रको गान करेंगे वह समस्त भगवान् विष्णुके प्रसादसे सरलतापूर्वक मुक्तपदवीको प्राप्त होंगे॥२७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायामंबरीपचरित्रे पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ दोहा—अम्बरीष अध्याय षट, अरु शशाद इतिहास।मानधात इक्ष्वाकु कुल, सौभरि ऋषी विलास॥१॥ शुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! राजा अम्बरीषके विरूप, केतुमान और शम्भु यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए तिनमें विरूपका पुत्र पृषदश्व और इसका पुत्र रथीतर हुआ॥१॥ रथीतरके पुत्र वा कन्या कुछ नहीं हुआ, वह निःसन्तान था, जब इसने संतानके

लिये महर्षि अंगिराजीसे प्रार्थना की, तब महर्षि अंगिराजीने उनकी भार्यामें ब्रह्मतेजसे युक्त कई पुत्र उत्पन्न कर दिये ॥२॥हे राजन्! अंगिराजीसे जो पुत्र उत्पन्न हुए थे, वह रथीतरके क्षेत्रमें उलटा होनेके कारण यद्यपि रथीतर गोत्री हुये थे तौभी अंगिराजीके वीर्यसे उनकी उत्पत्ति होनेके कारण आंगिरस नामसे विख्यात हुए। अधिक करके इनके क्षेत्रोपेत ब्राह्मण होनेपर रथीतरकी दूसरी सन्तानमें मुख्य थे॥३॥हे राजन् ! “मनुके दशपुत्रोंमें पृषध्रऔर कवि संसारत्यागी हुए थे, इसलिये उनका वंश नहीं हुआ। करूपादि सप्त पुत्रोंका वंश प्रथम कहा गया हैं इक्ष्वाकुका वंश बहुत बड़ा हैं। इसलिये पहले नहीं कहा, अब कहतेहैं” छींकें लेतेहुए मनुकी नासिकासे मनुपुत्र इक्ष्वाकुकी उत्पत्ति हुई। इन इक्ष्वाकुके शत पुत्र हुए। तिनमें विकुक्षि, निमि और दण्डकादि श्रेष्ठ थे॥४॥ इन शत पुत्रोंमें पचीस जन विंध्याचल और हिमालय पर्वतके मध्यमें पूर्वकी ओर आर्यावर्तके सन्मुख

एते क्षेत्रे प्रसूता वै पुनस्त्वांगिरसाः स्मृताः॥ रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः॥३॥ क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः॥ तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदंडकाः॥४॥ तेषां पुरस्तादभवन्नार्यावर्ते नृपा नृप॥ पंच विंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्ये परेऽन्यतः॥५॥ स एकदाऽष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत्॥ मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम्॥६॥ तथेति स वनं गत्वा मृगान्हत्वा क्रियार्हणान्॥ श्रांतो बुभुक्षितो वीरः शशं चाऽऽददप स्मृतिः॥७॥ शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्गुरुः॥ चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतदकर्मकम्॥८॥

समुद्र तक एक एक मण्डलके राजा हुए। इसी प्रकार पश्चिममेंभी इतनेमेंसे पंचीस पुत्र एक एक मण्डलके राजा हुए। परन्तु मध्यस्थलमें ज्येष्ठ तीन पुत्र और दक्षिण उत्तरादि भागमें और पुत्रगण राजसिंहासन पर बैठे॥५॥ एक दिन राजा इक्ष्वाकुने अष्टका श्राद्ध करनेके लिये विकुक्षिको निकट बुला यकर कहा हे वत्स! शीघ्र वनमें जाय श्राद्धके लिये पवित्र मॉस लाओ॥६॥ विकुक्षि “बहुत अच्छा” कह उसी समय वनमें चलागया और श्राद्धके योग्य अनेक पशुओंको मारने लगा। तिसके उपरान्त जब विकुक्षि थककर भूखा होगया, तब इसने भूलकर मारेहुए पशुओंमेंसे एक खरहे (खरगोश) का मॉस भूनकर खालिया॥७॥ फिर अवशिष्ट मॉस लेकर पिताके निकट आया और सब उनको देदिया। इक्ष्वाकु राजाने उस मॉसका श्राद्धोचित संस्कार करनेके लिये कुलगुरु वसिष्टजीको बुलाया तब वशिष्टजीने कहा कि, यह मॉस दूषित होगया, इसलिये श्राद्ध कर्मके

योग्य नहीं हैं॥८॥ जब महर्षि वशिष्ठजीने सब ब्योरा भली भाँति कह सुनाया। तब राजाने अपने पुत्रके कर्मको जानकर उसको अपने देशसे निकाल दिया, क्योंकि श्राद्धके योग्य माँसका प्रथम भाग ग्रहण करलेनेसे उसका सदाचार छूटगया था॥९॥ तिसके पीछे राजा इक्ष्वाकु वसिष्ठजीके साथ ब्रह्मज्ञानका विचार करनेलगे फिर राज्यभोगसे विरागी होगये और योगके द्वारा शरीरको छोड़ परमतत्त्वको प्राप्त हुए॥१०॥ जब पिता वनको चले गये, तब विकुक्षि अपने देशमें आय शशाद नामसे विख्यात हो पिताके राज्यको ग्रहणकर उसको पालने लगा, इस शशादने यज्ञोंको करके भगवान् वासुदेवकी पूजा की।इस राजाने शशाका माँस जो खालिया था इसलिये इसका नाम शशाद प्रसिद्ध हुआ॥११॥ शशादका पुत्र पुरञ्जय हुआ, यह पुत्र इन्द्रवाह नामसे भी विख्यात था और कोई २ इसको ककुत्स्थभी कहते हैं जिन कर्मोंके करनेसे इनके यह कई नाम हुए

ज्ञात्वा पुत्रस्य तत्कर्म गुरुणाऽभिहितं नृपः॥ देशान्निस्सारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा॥९॥ स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन्॥ त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावापयत्परम्॥१०॥ पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम्॥ शासदीजे हरिं यज्ञैःशशाद इति विश्रुतः॥११॥ पुरंजयस्तस्य सुत इंद्रवाह इतीरितः॥ ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः॥१२॥ कृतांत आसीत्समरो देवानां सह दानवैः॥ पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः॥१३॥ वचनाद्देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभो॥ वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेंद्रो महावृषः॥१४॥ स सन्नद्धोधनुर्दिव्यमादाय विशिखाञ्छितान्॥ स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः॥१५॥

हम उनको कहते हैं तुम श्रवण करो॥१२॥ पहले समयमें जब दानवोंके साथ देवता लोगोंका विश्वविनाशन संग्राम होरहा था, उस समय देवताओंने दैत्योंसे पराजितहो इस वीरको अपना सहायक बनाया॥१३॥इसने कहा कि जो इन्द्र हमारे वाहन बनें।तो हम अवश्य दैत्योंको वध करेंगे यह कहकर इन्होंने इन्द्रको अपना वाहन बनाया था। पहले तो इन्द्रने लाजके मारे इस बातको नहीं माना फिर विश्वात्मा देवदेव विष्णुके कहनेसे पुरञ्जयका वाहन होनेके लिये महावृषभ हुए। “जब इस प्रकारसे इन्द्र वाहन हुए तब इन पुरञ्जयका नाम इन्द्रवाह हुवा”॥१४॥ तिसके पीछे राजा पुरञ्जय बख्तर पहर दिव्य धनुष और बहुतसे तीक्ष्ण बाण ग्रहण करके उस बैलकी पीठपर जाय

विराजे। यह देखकर देवतालोग उनकी पूजा करनेलगे॥१५॥ फिर महात्मा पुरञ्जयने परमपुरुष विष्णुजीके तेजसे बढकर देवतालोगोंके द्वारा पश्चिम दिशासे दैत्योंकी पुरीको घेरा॥१६॥ तिसके उपरान्त इन पुरंजयके साथ दैत्यलोगोंका घोर संग्राम हुआ। जो दैत्य संग्राममें इनके सन्मुख आये, उन सबकोही इस नरनाथने यमराजके भवनको भेज दिया॥१७॥ प्रलयाग्निके समान इन महाराजके उल्वण बाणोंका उत्पात देख सव बचेवचाये दैत्य पातालको भागगये॥१८॥दैत्योंके भागनेपर इस राजर्षिने स्त्रियोंके सहित समस्त धन और पुर जीतकर देवराज इन्द्रको देदिया इन कार्योंके करनेसे इन महाराजका पुरञ्जय नाम हुआ॥१९॥ हे कुरुश्रेष्ट राजा परीक्षित्!इस पुरंजयका पुत्र अनेना था, इसका पुत्र पृथु,

तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः॥ प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत्त्रिदशः पुरम्॥१६॥ तैस्तस्य चाभूत्प्रधनं तुमुलं रोमहर्षणम्॥ यमाय भल्लैरनयद्दैत्यान्येऽभिययुर्मृधे॥१७॥ तस्येषुपाताभिमुखं युगांताग्निमिवोल्वणम्॥ विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानास्स्वमालयम्॥१८॥ जित्वा पुरं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये॥ प्रत्ययच्छत्स राजर्षिरिति नामभिराहृतः॥१९॥ पुरंजयस्य पुत्रोऽभूदनेनास्तत्सुतः पृथुः॥ विश्वरंधिस्ततश्चंद्रो युवनाश्वश्च तत्सुतः॥२०॥ शाबस्तस्तत्सुतो येन शाबस्ती निर्ममे पुरी॥ वृहदश्वस्तु शाबस्तिस्ततः कुवलयाश्वकः॥२१॥ यः प्रियार्थमुतंकस्य धुंधुनामाऽसुरं बली॥ सुतानामेकविंशत्या सहस्ररहनद् वृतः॥२२॥ धुंधुमार इति ख्यातस्तत्सुतास्ते च जज्वलुः॥ धुंधोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः॥२३॥ दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत॥ दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुंभस्तत्सुतः स्मृतः॥२४॥

तिससे विश्वरन्धिने जन्म ग्रहण किया, तिसका पुत्र चन्द्र, तिसका पुत्र युवनाश्व हुआ॥२०॥ युवनाश्वके पुत्र शाबस्त हुआ जिसने शाबस्ती पुरी बसाई, इस शाबस्तीका पुत्र बृहदश्व, उसका पुत्र कुवलयाश्वहुआ॥२१॥ इस महाबलवान् राजाने उतङ्क ऋषिका प्रिय कार्य करनेको अपने इक्कीस सहस्र (२१०००) पुत्रोंको साथ ले धुन्धु नामक असुरको मारडाला था॥२२॥इससे इसका नाम धुन्धुमार हुआ। परन्तु इनके समस्त पुत्र धुन्धुकी मुखाग्निसे भस्म होगये केवल तीन बचेथे अर्थात् दृढाश्च, कपिलाश्व और भद्राश्व इन तीनोंमें दृढाश्वका पुत्र

हर्यश्व और हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ हुआ॥२३॥२४॥ निकुम्भका पुत्र बर्हणाश्व कि, जिससे कृशाश्व उत्पन्न हुआ, इस कृशाश्वका पुत्र सेनजित् नामक हुआ उसका पुत्र युवनाश्व हुआ। यह युवनाश्व सन्तान रहित था, इसलिये वनको चलागया॥२५॥ इसके सौ (१००) स्त्री थीं, संतानके न होनेसे वनमें जाकर यह सब अपनी भार्याओके साथ सदा शोकाकुल रहा करताथा, यह देख वनवासी ऋषिलोगोंने राजापर दया की और पुत्रके लिये सावधानहो उस राजासे इन्द्रदैवत्य यज्ञ करानेलगे॥२६॥ हे राजन्! अब आश्चर्यकी बात सुनो जब यज्ञ होहीरहा था कि,

बर्हणाश्वो निकुंभस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित्॥ युवनाश्वोऽभवत्तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः॥२५॥ भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः॥ इष्टिं स्म वर्तयांचक्रुरैंद्रीं ते सुसमाहिताः॥२६॥ राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः॥ दृष्ट्वा शयानान्विप्रांस्तान्पपौ मंत्रजलं स्वयम्॥२७॥ उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो॥ पप्रच्छुः कस्य कमदं पीतं पुंसवनं जलम्॥२८॥ राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते॥ ईश्वराय नमश्चक्रुरहो दैवबलं बलम्॥२९॥

तब युवनाश्व एक दिन रात्रिके समय प्यासा हो जलके लिये यज्ञशालामें गया, उस समय यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण सोरहे थे, तब राजाने उस जलको उठाकर पीलिया कि जो राजाकी स्त्रीको देनेके लिये मंत्रसे पढकर रक्खागयाथा *॥२७॥ जब पुरोहित लोग जागे तो उन्होंने देखा कि, कलशमें जल नहीं। इसलिये विस्मित होकर पूँछाकि “यह कर्म किसकाहैं? पुत्रके उत्पन्न करनेवाले जलको कौन पीगया”॥२८॥ इसके उपरान्त जब ज्ञात हुआ कि, ईश्वर प्रेरित होकर राजाने यह जल स्वयंपान कर लिया हैं। तब “अहो! भाग्य बड़ा बली हैं” पुरुषका बल किसी कामका

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*शंका—राजा युवनाश्वने आप उठकर चोरकी तुल्य ब्राह्मणको सोता देखकर यज्ञका जल पीलिया, अनुचरोंके होते यह बालकोंके समान कर्म राजाने क्यों किया?

उत्तर—पुष्करजीमें राजा युवनाश्व गंगाजीके राजा शन्तनुके वीर्यसे गर्भ देखकर बहुत हसा, परन्तु गंगाजीने युवनाश्वके अपराधका कुछ ध्यान न किया और क्षमा किया, परन्तु राजाके अपराधको भगवान्नेक्षमा नहीं किया, इसलिये राजाओंमें श्रेष्ठ जो युवनाश्व राजाथा उरुको माया करके मूर्ख बनादिया और वह जल पिलाकर उसको गर्भ धारण करादिया कि, जैसे तू गर्भ देखकर हसाया ऐसेहीं तेरा गर्भदेखकर लोग हसेंगे॥

नहीं। यह वाक्य उच्चारण करते हुए ईश्वरको बारम्बार नमस्कार करनेलगे॥२९॥ इसके पीछे जब समय पूर्ण होगया, तब युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाडकर चक्रवर्ती लक्षणोंसे युक्त एक पुत्र उत्पन्न हुआ॥३०॥ यह देखकर ब्राह्मणलोग दुःखित हो यह कहकर चिल्लाने लगे कि हा। यह कुमार दूध पीनेको बहुत रोरहा है, सो अब क्या पियेगा तब देवराज इन्द्र वत्स! रोवैमत “मां धाता अर्थात् मुझे पान कर” यह कहा। और अपनी अंगुली पीने को दी इसी लिये इनका नाम मान्धाता हुआ॥३१॥ मान्धाताके पिता युवनाश्वदेव ब्राह्मणोंके प्रसादसे मरे नहीं बरन उन्होंने तप करके कुछ दिनों पीछे उसी स्थानमें सिद्धि प्राप्त की॥३२॥ रावणादि चोरगण इस मान्धाताके प्रतापसे कम्पायमान हो त्रासित होते थे इसलिये

ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम्॥ युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्ती जजान ह॥३०॥ कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम्॥ मां धाता वत्स मा रोदीरितींद्रो देशिनीमदात्॥३१॥ न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः॥ युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात्॥३२॥ त्रसद्दस्युरितींद्रोंग विदधे नाम तस्य वै॥ यस्मात्रसंति ह्युद्विग्नादस्यवो रावणादयः॥३३॥ यौवनाश्वोथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः॥ सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा॥३४॥ ईजे च यज्ञं क्रतुभिरात्मविद्भूरिदक्षिणैः॥ सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतींद्रियम्॥३५॥ द्रव्यं मंत्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः॥ धमा देशश्च कालश्च सर्वमेतद्यदात्मकम्॥३६॥ यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति॥ सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मांधातुः क्षेत्रमुच्यते॥३७॥ शशबिंदोर्दुहितरि बिंदुमत्यामधान्नृपः॥ पुरुकुत्समंबरीषं मुचुकुंदं च योगिनम्॥३८॥

इन्द्रने मान्धाताका दूसरा नाम ‘त्रसद्दस्यु’ खखा था. तिसके उपरान्त युवनाश्वका पुत्र सम्राट् हो भगवान् वासुदेवके तेजसे अकेलाही सप्तद्वीपोंको पालता था॥३३॥३४॥ आत्मवान् होकरभी अनेक अनेक दक्षिणा दे, अनेक यज्ञ करने लगा, उनसे यज्ञरूपी सर्वदेवमय सर्वात्मक सब इंद्रियोंसे पर उन यज्ञ भगवानकी पूजा करने लगा॥३५॥ कि-द्रव्य, मंत्र, बलि, यज्ञ, यजमान, ऋत्विक, धर्मोपदेश और काल यह सब जिसके स्वरूप हैं॥३६॥हे महाराज परीक्षित्! जहांसे सूर्य भगवान् उदय होते हैं और जहाँ अस्त हुआ करते हैं। इतनी दूरतक सब स्थान युवनाश्वके पुत्र मान्धाताके क्षेत्र कहे जाते थे॥३७॥इस राजा मान्धाताके शशबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमतीके गर्भसे पुरुकुत्स, अम्बरीषऔर योगी

मुचुकुन्द यह तीन पुत्र हुए॥३८॥ इन तीन पुत्रोंकी ५० पचास बहने थीं, अर्थात् तीन पुत्रोंके अतिरिक्त मान्धाताके पचास ५० कन्या हुई थीं और वह सब सौभरि ऋषिको व्याही गईं॥३९॥ हे राजन्! सौभरि यमुनाके जलमें बैठे तप कर रहे थे, तब उन्होंने मीनराजाके मैथुनका आनंद देखा कि, जिससे इनकाभी विवाह करनेमें बड़ा भारी अनुराग हुआ, इसलिये तप करना छोड़ मान्धाताके निकट जाय अपनी स्त्री बनानेको एक कन्या माँगी॥४०॥ मान्धाताने इन ऋषीश्वरकी प्रार्थना सुनकर कहा कि, हमारी कन्याका स्वयंवर होगा सो जो कन्या तुम्हें वरै, उसको तुम लेना॥४१॥ यह सुनकर सौभरिने मनमें समझा कि हम जरा (बुढापा) से जीर्ण होगये हैं और हमारे केश श्वेत होगये हैं, बडी अवस्था होजानेसे मस्तक कम्पायमान होता हैं, तिसपर हम तपस्वी हैं, यही जानकर राजा हमें कन्या देनेको सम्मत न हुए। इन्होंने हमैंस्त्रियोंका कुप्यारा जान

तेषां स्वसारः पंचाशत्सौभरिं वब्रिरे पतिम्॥ यमुनांतर्जले मग्नस्तप्यमानः परंतपः॥३९॥ निर्वृतिं मीनराजस्य वीक्ष्य मैथुनधर्मिणः॥ जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यामेकामयाचत॥४०॥ सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन्कामं कन्या स्वयंवरे॥ स विचिंत्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयमसंमतः॥४१॥ वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः॥ साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामपीप्सितम्॥ किं पुनर्मनुजेंद्राणामिति व्यवसितः प्रभुः॥४२॥ मुनिः प्रवेशितः क्षत्रा कन्यांतःपुरमृद्धिमत्॥ वृतश्च राजकन्याभिरेकः पंचाशता वरः॥४३॥ तासां कलिरभूद्भूयांस्तदर्थेऽपोह्य सौहृदम्॥ ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम्॥४४॥

छलसे हमको लौटाय दिया, अच्छा अब हम अपनी चेष्टा ऐसी बनाते हैं कि, जिससे मनुष्य स्त्रियोंकी तो बात ही क्या? सुरसुन्दरीभी देखकर चाहना कर बैठें।यह सोच विचार इस कार्यके करनेको निश्चय किया॥४२॥ इसके उपरान्त तप प्रभावसे इनका रूप वैसाही होगया जैसा कि, इन्होंने सोचा था. एक समय राजपुरीका प्रतिहारी इनको राजकन्याओंके अन्तःपुरमें लेगया। तिससे पचाशों कन्याओंने इनको अपना पति वरण किया॥४३॥हे राजन्! मान्धाताकी कन्याओंमें प्रथम परस्पर बड़ा प्रेम था, परन्तु सौभरि ऋषिसे व्याह करनेके लिये उनमें चित्त लगाय सबकी सब परस्पर क्लेश करने लगीं और बोलीं कि, “यह हमारे योग्य वर हैं, तुम्हारे योग्य नही हैं” बस इन ऋषिके लिये उनमें बडा

क्लेश मचने लगा। तब सौभरि ऋषि बोले कि, तुम सबही हमसे विवाह करलो॥४४॥ सौभरि ऋषि तपःसामर्थ्यसम्पन्न थे उनके कठिन तपः प्रभावसे उसी समय प्रत्येक भवनमें अनमोल सामग्री प्रस्तुत हुई। और अनेक प्रकारके वन, उपवन, शोभायमान होने लगे, सरोवरोंमें सुगन्धित कुमुद, कह्रारके वन फूल उठे। जितने गृह थे, सब दास दासियोंसे भलीभाँति शोभायमान होगये और सबकहीं भ्रमर गुंजार करने लगे। बन्दियोने मधुर स्वरसे गाना आरम्भ किया। वे ऋषि महामोलकी शय्या, आसन, वसन, भूषण, स्नान व उबटनादिसे सम्पन्न हो सब गृह व उपवनादिमें अपनी सब स्त्रियोसहित सदा विहार करने लगे॥४५॥४६॥ हे राजन्!सौभरिका गृहस्थाश्रम देख कर सातद्वीप पृथ्वीके राजा मान्धाताजी अति विस्मित होगये। उन्होंने अपने राज्य और सम्पत्तिका गर्व छोडदिया॥४७॥ सौभरि ऋषि इस प्रकारसे

स बाचस्ताभिरपारणीयतपश्श्रियाऽनर्घ्यपरिच्छदेषु॥ गृहेषु नानोपवनामलांभस्सरस्सु सौगंधिककाननेषु॥४५॥ महाऽर्हशय्यासनवस्त्रभूषणस्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः॥ स्वलंकृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा रेमेऽनुगायद्द्विजभृंगबंदिषु॥४६॥ यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः॥ विस्मितः स्तंभमजहात्सार्वभौमश्रियान्वितम्॥४७॥ एवं गृहेष्वभिरतो विषयान्विविधैः सुखैः॥ सेवमानो न चाऽतुष्यदाज्यस्तोकैरिवानलः॥४८॥ स कदाचिदुपासीन आत्मापह्रवमात्मनः॥ ददर्श वाचाचार्यो मीनसंगसमुत्थितम्॥४९॥ अहो इमं पश्यत मे विनाशं तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य॥ अंतर्जले वारिचरप्रसंगात्प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत्॥५०॥ संगं त्यजेत मिथुनव्रतिनां मुमुक्षुः सर्वात्मना न विसृजेद्बहिरिन्द्रियाणि॥ एकश्चरन्रहसि चित्तमनंत ईशे युंजीत तद्द्व्रतिषु साधुषु चेत्प्रसंगः॥५१॥

गृहस्थाश्रममें रहकर भोग विलासके सुख भोगने लगे, परन्तु तौ भी उनको किसी प्रकारसे तृप्ति नहीं हुई कि, जिस प्रकार घीकी बूँद गिरनेसे अग्नि बढ़ती हैं घटती नहीं॥४८॥ किसी समय ऋग्वेदाचार्य यह सौभरि ऋषि एकान्तमें बैठ अपने आपकी चिन्ता करने लगे। तब वह उस तपस्याकी हानिको समझे। जो उनको मत्स्यके संसर्गसे प्राप्त हुई थी॥४९॥ इसलिये अछताय पछतायकर आपही आप बोले कि, हाय! हम साधु चरित्र व्रत और तपस्वी थे, हमारा यह नाश देखो। जलमें जलचरके संगमें रहनेसे सदाका इकट्ठा किया तपस्या रत्न खो दिया॥५०॥ मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि, दाम्पत्य धर्मवान् पुरुषोंका संग त्याग न करैंऔर इन्द्रियोंकी अग्नि उत्पन्न करनेको रोकना

भी उनका आवश्यकीय कार्य हैं। अकेले निर्जन वनमें भ्रमण करके अनन्त परमेश्वरमें चित्त लगाना उचित हैं। जो कहीं प्रसंग आजाय तो ईश्वरके लिये केवल धर्मवान् साधुका संग करना चाहिये॥५१॥ हम अकेले जलमें तप कररहे थे, वहॉ मत्स्यसंसर्गवश भार्या ग्रहण करनेकी हमारी अभिलाषा हुई और एकके बदले पचास (५०) करी और एक एक स्त्रीके गर्भ से सौ सौ पुत्र उत्पन्न हुए कि जिससे सब पाँच हजार हुए। तौ भी हम इस लोक व परलोक के मनोरथका अंत नहीं पाते क्योंकि मायाके गुण से मेरी प्रति हरी गई। इसलिये मैं विषयमें ही पुरुषार्थ समझ ताहॅू॥ ५२॥ हे राजन्!जब सौभरि इस प्रकारसे गृहस्थाश्रममें वास करते करते विरक्त हुए तब संग छोडनेको वानप्रस्थ धर्म धारण कर वनको चले गये। उनकी पतिपरायणा सब स्त्रियें उनके संग संग चलीं॥५३॥ आत्मज्ञानके जाननेवाले यह मुनि जिससे परमात्मा मिलजाय ऐसी

एकस्तपस्व्यहमथांभसि मत्स्यसंगात्पञ्चाशदासमुतपञ्चसहस्रसर्गः॥ नांतं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां मायागुणैर्हृत मतिर्विषयेऽर्थभावः॥५२॥ एवं वसन्गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः॥ वनं जगामानुययुस्तत्पत्न्यः पतिदेवताः॥५३॥ तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मकर्षणमात्मवान्॥ सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि॥५४॥ ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याऽऽध्यात्मिकीं गतिम्॥ अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शांतमिवार्चिषः॥५५॥ इति श्रीभागव० म० नवम० इक्ष्वाकुवंशवर्णने सौभर्याख्यानं नाम षष्टोध्यायः॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ मांधातुः पुत्रप्रवरो योंबरीषः प्रकीर्तितः॥ पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः॥१॥

तीक्ष्ण तपस्या करके तीनों अग्नियोके साथ आत्माको परमात्मामें मिला देते हुए॥५४॥ व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी, राजा परीक्षित्से बोले कि, हे कुरुकुलभूषण!अपने पतिकी ऐसी आध्यात्मिकगति अर्थात परब्रह्ममें लीन देख उनकी सब स्त्रियें उनके प्रभावसे उनके पीछे गईं जैसे अग्निके शान्त होजाने पर उसकी लपट उसके संगही बुझ जाती हैं॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायां सौभर्युपाख्याने षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा— सप्तम मान्धाता कुलहि, पुरु कुत्सो हरिचन्द। भये सत्यव्रत जगतमें, पूरण परमानन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! मान्धाताके श्रेष्ठ पुत्र अम्बरीषको युवनाश्वने पुत्रभावसे गोद लिया, अम्बरीषका बेटा हारीत हुआ सो मान्धाताके गोत्रमें

श्रेष्ठ हुआ १॥ हे राजन्! उरगोंने अपनी बहन नर्मदाको पुरुकुत्ससे विवाह दिया, शेषजीके कहनेसे यह नर्मदा अपने स्वामी पुरुकुत्सको पातालमें ले गई॥२॥ विष्णु शक्ति धारण करके वध करनेके योग्य अनेक गन्धर्वोको निहत किया और पीछे आपने नागराजसे अनुपम वर प्राप्त किया। वह वर यह था कि, नर्मदाका यह समस्त रसातलके आनेका व्यापार जो पुरुष स्मरण करेंगे, उनको सर्पसे भय नहीं होगा। पुरुकुत्सका पुत्र त्रसद्दस्यु, इनके पुत्र अनरण्य॥३॥४॥ तिनके हर्यश्व जिससे अरुणजीने जन्म ग्रहण किया। अरुणका पुत्र निबन्धन हुआ निबन्ध नका पुत्र सत्यव्रत, जो कि “दुःखके हेतु तीन दोषोंके रहनेसे” त्रिशंकु नाम हुआ॥५॥ इनके पिताने क्रोधित होकर शाप दिया कि, तू चाण्डाल

हारीतस्तस्य पुत्रोऽभून्मांधातृप्रवरा इमे॥ नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः॥२॥ तया रसातलं नीतो भुजगेंद्रप्रयुक्तया॥ गंधर्वानवधीत्तत्र वध्यान्वै विष्णुशक्तिधृक्॥३॥ नागाल्लब्धवरः सर्पादभयं स्मरतामिदम्॥ त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत्॥४॥ हर्यश्वस्तत्सुतस्तस्मादरुणोथ निबंधनः॥ तस्य सत्यव्रतः पुत्रस्त्रिशंकुरिति विश्रुतः॥५॥ प्राप्तश्चांडालतां शापाद्गुरोः कौशिक तेजसा॥सशरीरो गतः स्वर्गमद्यापि दिवि दृश्यते॥६॥ पातितोऽर्वाक्छिरा देवैस्तेनैव स्तंभितो बलात्॥ त्रैशंकवो हरिश्चन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयोः॥ यन्निमित्तमभूद्युद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम्॥७॥

होजा इसलिये यह चाण्डालपनको प्राप्त हुए थे। फिर विश्वामित्र मुनिके प्रभावसे शरीरके सहित स्वर्गको गये और अबतक आकाशमें टिके हुए हैं, देवतालोगोंने इनको अवाशिरा कर स्वर्गसे गिराना चाहाथा, परन्तु महर्षि विश्वामित्रने इनको अपने बलसे वहीं थाम दिया। इन त्रिशंकुके पुत्र सत्यव्रतधारी महात्मा हरिश्चन्द्र हुए इनहीं राजार्षिके निमित्त वसिष्ठजी और विश्वामित्रजी परस्पर शाप देकर आडी और बक (बगला) पक्षी हुए। और इन दोनोंने एक वर्ष तक घोर युद्ध किया था॥६॥७॥

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^(१) हरिवशमें यह तीन दोषप्रगट हैं, यथा—“पिताको असन्तुष्ट रखना, गुस्की दुधारी गायका वध करना, विना धुली वस्तुका सेवन करना” यहापर एक इतिहास हैं कि, विश्वामित्र मुनिसे राजसूय यज्ञ कराय इस त्रिशकुने ब्राह्मणकी कुमारी कन्याको हरण कर लिया था॥

^(२) यहापर एक इतिहास प्रसिद्ध हैं कि “विश्वामित्र मुनिने राजसूय यज्ञ कराय उसकी दक्षिणामें सर्वस्व हरणकर राजा हरिश्चन्द्रको आर्त किया यह सुन महर्षि वसिष्ठजी क्रोधित हो विश्वामित्रके पास जाय शाप दिया कि, यह अन्यायाचरण करनेके हेतु तुम आडी पक्षी होजाओ विश्वामित्रने बदलेमें यह शाप दिया कि “तुम बगला होजाओ” फिर इन दोनोंने परस्पर आडी और बगला हो घोर युद्ध कियाथा” ॥६॥

इन हरिश्चन्द्रके प्रथम कोई पुत्र न था, इसलिये सदा अनमने रहते थे, एक समय देवर्षि नारदजीके उपदेशसे जलाधिपति वरुणजीकी शरण जाय कर प्रार्थना की कि, हे देव! आप हमें यह वर दें कि हमारे एक पुत्र हो, हे प्रभो!जो हमारे वीर पुत्र उत्पन्न होवे तो हम उसी पशु पुरुषसे आपका यज्ञ करें॥८॥ वरुणजी ने कहा कि, ऐसाही होगा। तब राजा हरिश्चन्द्रके रोहित नामक एक पुत्र हुआ। पुत्रके उत्पन्न होनेपर वरुणजी राजाके निकट आन कर बोले कि, हे राजन्!तुम्हारे पुत्र होगया, अब कहनेके अनुसार तुम हमारा यज्ञ करो कि, जिसमें यह तुम्हारा पुत्रही पशु बनैतब राजा हरिश्चंद्र

सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः॥ वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो॥८॥ यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति॥ तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः॥९॥ जातस्सुतो ह्यनेनांग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत्॥ यदाप शुर्निर्दशः स्यादथ मेध्यो भवेदित॥१०॥ निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्॥ दंताः पशोर्यज्जायेरन्नथ मेध्यो भवेदिति॥११॥ जाता दंता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्॥ यदा पतंत्यस्य दंता अथ मेध्यो भवेदिति॥१२॥

बोले कि, हे देव! दश दिनकी आयु न होनेसे पशु पवित्र और यज्ञके योग्य नहीं होता, इसलिये में दशदिन बीतनेपर आपका यज्ञ करूंगा*॥९॥१०॥ हे राजापरीक्षित्!दश दिनके बीततेही वरुणजी फिर आयकर बोले कि, अब यज्ञ करो तब महाराज हरिश्चंद्रने कहा कि, दांत निकलनेपर यज्ञ किया जायगा॥११॥ दांत निकलनेपर वरुणजीने आनकर कहा कि, दांतभी निकल आये अब तो यज्ञ करो तब राजा हरिश्चन्द्र बोले कि, दांत गिरनेपर यह

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***शका—**राजा हरिश्चन्द्रने सबयज्ञको त्यागकर पुत्रका मांस करके वरुणका जो यज्ञ उसके करनेको क्यों विचार किया और वरणभी ऐसे उत्तम देव उससे बालहत्या ग्रहण करनेको क्यों अगीकार किया? इस बातसे जान पडता हैं कि, वरुण भी महापापी हैं इससे तो कलियुगही अच्छा हैं, क्योंकि इसमें ऐसे ऐसे अन्याय तो नहीं होते।

**उत्तर—**राजा हरिश्चन्द्र अपने आपको पुत्रहीन जानके मनसे राजनीति विचारकर पुत्रके माससे यज्ञकरनेका विचार किया कि, अभी मेरे पुत्र नहीं हैं, चरणको लोभ देके जो पुत्र मेरे होजावेगा तो नहीं मारुगा पुत्रके लिये झूठ बोलनेका पापभी नहीं होवेगा, इसलिये हरिश्चन्द्रने पुत्र के मांससे यज्ञ करनेका विचारकिया॥

महा पवित्र यज्ञ भली भाँति सम्पूर्ण होगा॥१२॥ कुछदिन पीछे रोहितके दॉत गिरगये तब वरुणजी फिर राजाके निकट आनकर बोले कि, हे राजन्! हमारे पशुके दाँत गिरगये। अब तो यज्ञ अवश्यही करना चाहिये। हरिश्चन्द्रने कहा कि, दाँत गिरकर जबतक फिर न उपजें तबतक पशु पवित्र नही होता, यह सुनकर वरुणजी अपने स्थानको चलेगये॥१३॥और कुछ समय उपरान्त फिर आनकर बोले कि, तुम्हारे पुत्रके दॉत दूसरी बार उत्पन्न हो आये, अब तो यज्ञकरो। तब राजर्षि हरिश्चन्द्रने उत्तर दिया कि, हे वरुणदेव !जब क्षत्रिय पशु कवच बख्तर पहरने योग्य होताहैं, तब वह पवित्र कहा जाताहैं। सो हमारा पुत्र अभी इस योग्य हुआ नहीं। सो भला हम कैसे यज्ञ करदें?॥१४॥ हे महाराज परीक्षित्!राजा हरिश्चन्द्रका चित्त स्नेहके वश हो गया था, उन्होंने पुत्रानुरागके वश यज्ञकरनेके लिये वरुणजीको जो जो समय बताये, वह वरुणजी उसी समयकी राह देखनेलगे॥१५॥

पशोर्निपतिता दंता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्॥ यदा पशोः पुनर्दंता जायंतेऽथ पशुः शुचिः॥१३॥ पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्॥ सान्नाहिको यदा राजन्राजन्योऽथ पशुः शुचिः॥१४॥ इति पुत्रानुरागेण स्नेहयं त्रितचेतसा॥ कालं वंचयता तंतमुक्तो देवस्तमैक्षत॥१५॥ रोहीतस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम्॥ प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिररण्यं प्रत्यपद्यत॥१६॥ पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम्॥ रोहितो ग्राममेयाय तमिंद्रः प्रत्यषेधत॥१७॥ भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः॥ रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत्समाम्॥१८॥ एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पंचमे तथा॥ अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाह वृत्रहा॥१९॥

कि, इतनेमें रोहित पिताका अभिप्राय अर्थात् अपनेको पशु बनायकर वरुणजीके यज्ञ करनेकी इच्छाको जानगया। इसलिये वह अपने प्राण बचानेको धनुष ग्रहणकर वनको चलागया॥१६॥इससे वरुणजीको महाक्रोध उत्पन्न हुआ और उन्होंने राजा हरिश्चन्द्रको सताया, इसलिये राजा हरिश्चन्द्रका पेट अति बड़ा होगया। इसके पीछे रोहितने सुना कि, पिताजीको वरुण देवताने पीड़ा दीहै इसलिये अपनी पुरीमें जानेकी इच्छा की, परन्तु देवराज इन्द्र ने वहाँ आय रोहितको जानेसे रोका॥१७॥ और कहा कि, तीर्थोंकी सेवा करते हुए पृथ्वीपर विचरण करना अत्यन्त पुण्यदायक हैं। सो तुम ऐसाही करो। यहाँ रोहिताश्वने एक वर्षतक वनमें वास किया था॥१८॥ इस प्रकारसे दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें वर्षमें जब रोहितने

पिताजीके पास जानेकी इच्छा की उसीसमय देवराज इन्द्र ब्राह्मणरूपसे उनके निकट आय इस प्रकारसे कहतेथे कि, “पुण्य तीर्थोंमें विचरण करो”॥१९॥ इसलिये रोहित राजकुमारने छै(६) वर्षतक वनमें विचरण किया, इस प्रकार जब रोहितको छठा वर्ष वनमें रहते बीत गया और पुरीमें आनेलगा, तब यह रोहित अजीगर्त्तके मध्यम पुत्र शुनःशेपको उसके पितासे मोलले आये॥२०॥ और इस शुनःशेपको अपने पिता राजा हरिश्चन्द्रको देकर प्रणाम किया। तिसके पीछे महायशस्वी प्रसिद्ध महात्मा महाराज हरिश्चन्द्रजीने नरमेध यज्ञकी विधिसे वरुणदेवताका यज्ञ प्रारंभ किया॥२१॥ तब वरुणजीने राजा हरिश्चन्द्रकी उदर पीड़ा शान्त करदी।इस यज्ञमें विश्वामित्रजी होता, जमदग्नि अध्वर्यु, वसिष्ठ ब्रह्मा और अयास्य मुनि सामग हुए। हे राजा परीक्षित ! इस व्यापारसे देवराज इन्द्रने राजा हरिश्चन्द्रके ऊपर प्रसन्न हो उनको एक सुवर्णका रथ दिया॥२२॥

षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम्॥ उपव्रजन्नजीगर्तादक्रीणान्मध्यमं सुतम्॥२०॥ शुनश्शेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवंदत॥ ततः पुरुषमेधेन हरिश्चंद्रो महायशाः॥२१॥ मुक्तोदरोऽयजद्देवान्वरुणादीन्महत्कथः॥ विश्वामित्रोऽभवत्तस्मिन्होता चाध्वर्युरात्मवान्॥२२॥ जमदग्निरभूद्ब्रह्यावसिष्ठोऽयास्यसामगः॥ तस्मै तुष्टो ददाविंद्रश्शातकौंभमयं रथम्॥२३॥ शुनश्शेपस्य माहात्म्यमुपरिष्टात्प्रचक्षते॥ सत्यसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः॥२४॥ विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददावविहतां गतिम्॥ मनः पृथिव्यां तामद्भिस्तेजसाऽऽपोऽनिलेन तत्॥२५॥ खे वायुं धारयंस्तच्च भृतादौ तं महात्मनि॥ तस्मिञ्ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाऽज्ञानं विनिर्दहन्॥२६॥

॥२३॥हे महाराज! शुनःशेपका माहात्म्य (विश्वामित्र उपाख्यानके प्रसंगमें) आगे वर्णन करेंगे।हे महाराज! भार्या सहित राजा हरिश्चन्द्रका सत्य सामर्थ्य और धैर्य देखकर॥२४॥महामुनि विश्वामित्रजी अत्यन्त प्रसन्न हुये थे, इसलिये उन्होंने महाराज हरिश्चन्द्रको अविहता अर्थात् परमज्ञान दियाथा तब इन राजर्षि हरिश्चन्द्रजीने अन्नमय मनको अन्न शब्द वाच्य पृथ्वीमें धारण अर्थात् पृथ्वीके साथ मिलाकर फिर उसको जलके साथ मिलाया। इसके उपरान्त उस जलको तेजके साथ एक करके उस तेजको वायुके साथ मिलाया, तिसके पीछे पवनको आकाशमें धारण करके इस आकाशको अहंकारमें मिलादिया फिर उस अहंकारको महत्तत्त्वमें मिलाय, विषयाकार हटाय, ज्ञानांशका आत्मस्वरूपमें

ध्यानकर जिससे आत्माके आवरण अज्ञानको सम्मका॥२५॥२६॥ फिर निर्वाण मुख सम्पत्तिसेज्ञानकलाको त्यागकर वचनसेमुक्त हुआ अनिर्देश्य और अप्रत्यद्यस्वरूपमें स्थित हुआ॥२७॥ इति श्रीभागवतेमहापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां हरिश्चन्द्रोपाख्यानं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा— अष्टम रोहित वंशमें, प्रगटे सगर सुवाल।तिनके मृत ऋषि शापने, भस्मभयेतत्काल॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!गोहितका पुत्राहग्नि हुआ इसचम्पने जन्म लिया कि, जिसने चम्पापुरी बनाई चम्पका पुत्र सुदेव और

हित्वा तां स्पेन भावेन निर्वाणसुखमंविदा॥अनिर्देश्याप्रतर्क्यैण तस्यौ विध्वस्तवन्धनः॥२७॥ इति श्रीमद्भागव०म० नवमस्कन्धेहरिश्चन्द्रोपाख्यानं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ हरितो रोहितमृतश्चंपस्तस्माद्विनिर्मिता॥ चंपापुरी मृदेवोऽतोविजयो यस्य चात्मजः॥१॥ भरुकस्तन्मृतस्तस्मादवृकस्तस्यापि बाहुकः॥ सोऽरिभिर्हृतभूराजा ममायौ वनमाविशन्॥२॥ वृद्धं नं पंचतां प्राप्तं महिष्यनुमरिष्यती॥ और्वेण जानतात्मानं प्रजावंतं निवारिता॥३॥ आज्ञायास्यै मपत्नीभिर्गगेदत्तोधमा मह॥ मह तेनैव संजातः मगराख्यो महायशाः॥४॥

सुदेवका पुत्र विजय हुआ॥१॥विजयका पुत्र भरुक, उसका पुत्र वृक और वृकसेबाहुकने जन्म लिया।जब शत्रुओंने इस बाहुकका राज्य छीन लिया तब अपनी स्रियोको साथ ले वनमें चलागया॥२॥उसी स्थानमें वृद्ध होकर वहमृत्युको प्राप्तहुआ। उनकी स्रीउनके साथ सनी होनेको जातीथी कि, महर्षि और्वनेउसको गर्भवती जानकर मरनेसे निवारण किया *॥३॥ रानीकी सौताने इसको गर्भवती जानकर हिंसाके वश हुईऔर उसके गर्भका नाश करनेको अन्नके सहित गरल (विष) उसे खानेको दे दिया, परन्तु वह गर्भ

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* शंका—.………………………और अपने……. …..माना कि, वह स्त्री भस्म नही होगी तो हमारे पुत्र होगा, वह बडा ……. हैं।

**उत्तर—……………………**मानी नहीं देगी तो हम पुत्र होगा, ………..और हमारा शिष्य होगा,………….. यह विचार है और पेट नहीं बाये यह दोनों…………………. विचार करने आपको मानने॥

विष देनेसे विनाश नहीं हुआ।तब इस गरके संग उत्पन्न होनेसे उस गर्भसे उपजे पुत्रका नाम सगर हुआ॥४॥हे महाराज परीक्षित् ! यह सगर बड़ा प्रतापी और चक्रवर्ती राजा हुआ इसी राजाने अपने गुरु और्व ऋषीश्वरके कहनेसे तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर॥५॥ इन जातियोंको मार नहीं डाला बरन् राजा सगरने प्रत्येक जातिको पृथक् २ प्रकारसे विकृत कियाथा अर्थात किसी जातिके केश सम्पूर्ण मुँडवादिये, किसीके डाढी मूछें रखवादीं किसी जातिको खुले केश किया और किसीको अर्धमुण्डित॥६॥ किसी जातिको अन्तर्वासविहीन करके केवल बहिर्वास धारी किया और किसी जातिको बहिर्वासहीन करके केवल कौपीनधारी किया।हे राजन्! महाराज सगरने महर्षि और्वके बताये हुए उपायसे अश्वमेध यज्ञ करके सर्व देव और सर्वदेवमय परमात्मा परमेश्वर भगवान्ने हरिकी पूजा की जब उसने पृथ्वीपर

सगरश्चक्रवर्त्यासीत्सागरो यत्सुतैः कृतः॥ यस्तालजंघान्यवनाञ्छकान्हैहयबर्वरान्॥५॥ नावधीद्गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः॥ मुंडाञ्छश्रुधरान्कांश्चिन्मुक्तकेशार्धमुंडितान्॥६॥ अनंर्तवाससः कांश्चिदबहिर्वा ससोऽपरान्॥ सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम्॥७॥ और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम्॥ तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरंदरः॥८॥ सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः॥ हयमन्वेषमाणास्ते समंतान्न्यखनन्महीम्॥९॥ प्रागुदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलांतिके॥ एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः॥१०॥ हन्यतांहन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः॥ उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनिः॥११॥

भ्रमण करनेको घोड़ा छोड़ा तब उसको देवराज इन्द्रने हरण करलिया॥७॥८॥ हे कुरुप्रवीर! सगर राजाके दो स्त्री सुमति और केशिनी थीं राजाने यज्ञका घोड़ा ढूँढनेके लिये सुमतिके साठ हजार (६०,०००) पुत्रोंको आज्ञा दी।इस आज्ञाको पाय सुमतिके पुत्र अहंकार करके यज्ञके घोड़ेको खोजनेके लिये सारी पृथ्वी खोजने लगे॥९॥ जब पृथ्वीपर घोड़ा नहीं मिला तो चारों ओरसे पृथ्वीको खोदडाला कुछ दिन पीछे यह सगरके पुत्र उत्तरपूर्वके कोनेमें जहां महर्षि कपिलदेवजीका आश्रम था वहां पहुॅचे और वहांपर उस घोड़ेको बँधाहुआ देख “इसने हमारे घोड़ेको चुराया हैं, यही चोरहैं देखो कैसी आखें बंद करली हैं॥१०॥ इस दुराचारी पापीको अभी मारडालो” इसप्रकारसे कहकर यह साठ हजार सहोदर

भाई अस्त्र शस्त्र उठाय महात्मा कपिलदेवजी पर दौडे भगवान् कपिलदेवजी उस समय समाधिमें स्थित थे, उन्होंने कुलाहल सुनकर समाधि त्यागदी और नेत्र खोले॥११॥ हे राजन्! देवराज इन्द्रकी मायासे सगरके पुत्रोंकी बुद्धि नाशको प्राप्त होरहीथी इसीलिये वह महर्षि कपिलदेवजी पर ऐसा अत्याचार करनेको प्रस्तुत हुए परन्तु इस महाकुकार्य करनेके हेतु अतिमहान् अग्नि जो कि, महर्षि कपिलदेवजीके शरीरसे निकलतीथी उससे यह सबके सब क्षण मात्रमें भस्म होगये॥१२॥ हे परीक्षित्! कोई कोई यह कहते हैं कि, कपिलदेवजी की क्रोधाग्निसेसगरके पुत्र भस्म हुए, यह साधुवाद नहीं क्योंकि भगवान् कपिलदेवजी शुद्ध सत्व मूर्ति हैं उनकाभी आत्मा जगत्को पवित्र करनेबीलाहैं, सो आकाशमें पार्थिव धूरिकी समान उन कपिलदेवजीमें किस प्रकारसे क्रोधरूपी तमोगुणका उदय होसक्ता हैं॥१३॥और जिन कपिलदेवजीने इस संसारमें सांख्य शास्त्रकी अति

स्वशरीराग्निना तावन्महेंद्रहृतचेतसः॥ महद्व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन् क्षणात्॥१२॥ न साधुवादो मुनिको पभर्जिता नृपेंद्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि॥ कथं तमो रोषमयं विभाव्यते जगत्पवित्रात्मनि खे रजोभुवः॥१३॥ यस्येरिता सांख्यमयी दृढेह नौर्यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम्॥ भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः॥१४॥ योऽसमंजस इत्युक्तः स केशिन्यां नृपात्मजः॥ तस्य पुत्रोंशुमान्नाम पितामहहितेरतः॥१५॥ असमंजस आत्मानं दर्शयन्नसमंजसम्॥ जातिस्मरः पुरा संगाद्योगी योगाद्विचालितः॥१६॥ आचरन्गर्हितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम्॥ सरय्वां क्रीडतो बालान्प्रास्यदुद्वेजयञ्जनम्॥१७॥

दृढ नौका चलाई हैं, जिस नौकापर चढ़कर मुमुक्षुलोग दुरत्यय मृत्युके पन्थरूप संसारके पार होते हैं उन सर्वज्ञ सर्वात्मास्वरूप महामुनिमें शत्रुमित्रादि भेददृष्टिका होना किस प्रकारसे सम्भव हैं?॥१४॥ सगर राजा के एक पुत्रका नाम असमंजस था “केवल अज्ञानी लोगही इनको असमंजस कहतेथे, पर वास्तवमें यह समंजसही थे” जो केशिनी रानीके गर्भसे उत्पन्न हुये थे उस असमंजसका पुत्र अंशुमान, सदा अपने दादाके हितकारी कार्य करता था॥१५॥हे राजन्! यह असमंजस पहले जन्ममें योगी था, संग करनेके हेतु योगसे भ्रष्ट हुआ। इसलिये अपनी जातिका स्मरणकर दूसरे जन्ममेंभी संगके छोड़नेको निन्दनीय कार्य करनेवाली जातिकी भाँति निन्दनीय कर्म करता था अर्थात् लोगोंको उद्वेग जन्माय लोग निंदित

आचार और अपनी जातिके अर्थ विप्रिय कर्म करता हुआ खेलही खेलमें बालकोंको सरयूके जलमें डाल देता था॥१६॥१७॥ इस प्रकारके कर्म देख इनके पिता राजा सगरने पुत्रपनका स्नेह छोड़ इनको त्याग दिया।तब यह अपने योगके प्रभावसे मृतक बालकोंको फिर जिलायकर सबको दिखाया और फिर उस पुरीसे निकलकर चलेगये॥१८॥ हे राजन्!अयोध्यावासी प्रजाके लोग असमंजसके मारे हुये अपने अपने बालकोंको सजीव देखकर महाविस्मित हुये और राजा सगरने फिर असमंजसके लिये महासन्ताप किया॥१९॥ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित्से कहने लगे कि, हे कुरुकुलभूषण! अब इधरकी कथा सुनिये कि, जब सुमतिके सब पुत्र मारे गये तब राजा सगरने यज्ञके घोड़ेको खोजनेके लिये असमं जसके पुत्र अंशुमानको भेजदिया, तब अंशुमान उसी मार्गसे चले जो कि, उनके चाचा लोगोंने खोदकर बनाया था और फिर बहुत दूर जाकर

एवं वृत्तपरित्यक्तः पित्रा स्नेहमपोह्य वै॥ योगैश्वर्येण वालांस्तान्दर्शयित्वा ततो ययौ॥१८॥ अयोध्यावासिनः सर्वे बालकान्पुनरागतान्॥ दृष्ट्वा विसिष्मिरे राजन्राजा चाप्यन्वतप्यत॥१९॥ अंशुमांश्चोदितो राज्ञा तुरंगान्वेषण ययौ॥ पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति ददृशे हयम्॥२०॥ तत्रासीनं मुनिं वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम्॥ अस्तौत्समाहितमनाः प्रांजलिः प्रणतो महान्॥२१॥ अंशुमानुवाच॥ न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः॥ कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधीविसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः॥२२॥ ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना गुणान्विपश्यंत्युत वा तमश्च॥ यन्मायया मोहितचेतसस्ते विदुः स्वसंस्थं न बहिः प्रकाशाः॥२३॥

भस्मकी ढेरके समीपही घोड़ेको बँधा हुआ देखा॥२०॥ हे राजन्! उस स्थानमें कपिल मुनि साक्षात् भगवान् रूप बैठे थे उनको बैठा हुआ देख महात्मा अंशुमान सावधान चित्तसे हाथ जोडकर उनकी स्तुति करनेलगे॥२१॥ हे देव! जो ब्रह्मा जन्मसे रहित हैं, उन्होंनेभी अबतक आपसे परे जो परमेश्वर आप हैं, आपको समाधि लगाकरभी नहीं देख पाया।न वह युक्तिसे आपको जानसके। फिर दूसरे अर्वाचीन पुरुष आपको कैसे देख सकते हैं? ब्रह्माजीके मन शरीर और बुद्धिसे जो विविध देव तियक् नर सृष्टि होती है, वह लोग उसमेंही उत्पन्न हुये हैं, फिर तिसपर हम उनसे भी मूर्ख हैं; इसलिये हमको आपके दर्शन पाने की कुछभी सम्भावना नहीं हैं॥२२॥ हे देव! जो पुरुष देहधारी हैं यद्यपि वह लोग आपकी

आत्मामें भली भाँति विराजमान हैं तो भी आपको नहीं जानते, केवल सब गुणोंको देखते हैं, अथवा गुणभी उनको दिखाई नहीं देते, केवल तुमही देखते हैं, क्योकि उनमें त्रिगुण बुद्धिही प्रधान हैं।इसलिये बादरमें उनका ज्ञान हैं, अर्थात् वह बुद्धिके वश हैं, इसलिये जाग्रत और स्वप्न अवस्थामें विषय देखते हैं और सुषुप्ति अवस्थामें केवल तुमही देखते हैं, आप निर्गुण हैं, इससे आपको किसी अवस्थामें नहीं देख पाते। क्योकि उनका चित्त आपकी मायासे मोहित होरहा हैं॥२३॥हे प्रभो! आप ज्ञान घन स्वभाव अर्थात् शुद्ध सत्त्व मूर्ति हैं इसलिये जिन पुरुषोंका माया गुण निमित्त भेद ध्वंसको प्राप्त हो गया हैं, ऐसे सनक सनन्दनादि मुनिजनो के भी आप विचारने योग्य हैं, मैं मूढ विचार करके भी किस प्रकार आपको जान सक्ता हूं? फलतः आप ज्ञान वन स्वरूप हैं, इसलिये ज्ञानगम्य नहीं हैं, यद्यपि आप विचार के विषय हों तो भी मैं मायाके गुणों में लिपटा

तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभावप्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः॥ सनंदनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं कथं हि मूढः परिभावयामि॥२४॥ प्रशांतमायागुणकर्मलिंगमनामरूपं सदसद्विमुक्तम्॥ ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम्॥२५॥ त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु॥ भ्रमंति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रांतचेतसः॥२६॥ अद्य नः सर्वभूतात्मन्कामकर्मेन्द्रियाशयः॥ मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात्॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं गीतानुभावस्तं भगवान्कपिलोमुनिः॥ अंशुमंतमुवाचेदमनुगृह्य धिया नृपः॥२८॥

हुआ हूं इससे विचार करनेको समर्थ नहीं हूं॥२४॥हे प्रशान्त!मायाके गुणसेही आपको विश्व सृष्ट्यादि कर्म हैं, आपका लिंग ब्रह्मादि रूपहैं आप कार्य कारणसे परे हैं, आपने केवल ज्ञानका उपदेश देनेके लिये इस शुद्ध सत्त्व मूर्तिको प्रगट किया हैं, इसलिये आप पुराणपुरुष हैं, सोमैं आपको केवल नमस्कार करता हूं॥२५॥हे विभो!यह लोक आपकी मायासे, बना हुआ हैं इसमें वस्तुबुद्धि करके काम, लोभ, ईर्षा और मोहसे जिन मनुष्योंका चित्त भ्रान्त हैं, वह सबही गृहादिमें भ्रमण करते हैं॥२६॥ हे सर्वात्मन्!परन्तु आपकी कृपासे और आपका दर्शन होनेसे आज हमारा काम कर्म और इन्द्रियोंका आश्रय रूप अतिदृढ मोहपाश छिन्न होगया, अर्थात् आपके प्रसादसे हम कृतार्थ होगये॥२७॥ श्रीशुक देवजी राजा परीक्षितसे बोले कि, हे महाराज!इसप्रकारसे स्तुति करके कपिलदेवजीका प्रभाव गाया, तब वह कपिल भगवान् अनुग्रह

करने लगे। शीघ्र प्रसन्न होनेवाले शिवजी इस राजर्षिपर बहुत शीघ्र प्रसन्न होगये॥८॥ महात्मा भगीरथजीने जो कुछ प्रार्थना की उसको लोकहितैषी भगवान् महादेवजीने तथास्तु कहा। और सावधान होकर गंगाजीको धारण किया, हे राजन्! गंगाजीके माहात्म्यका वर्णन कैसे करें? उनका जल भगवान् वासुदेवके चरण स्पर्शसे पवित्र हुआ हैं॥९॥ राजर्षि भगीरथजी भुवन पावनी गंगाजीको उस स्थान पर ले आये कि, जहां उनके चचा लोगोंकी भस्मढेर पडी थी भगीरथजी पवनकी समान वेगगामी रथपर सवार हो आगे आगे चलने लगे और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली गंगाजी उनके पीछे पीछे बहती हुई सब लोकोंको पवित्रकर भस्महुए सगरके पुत्रों पर अपना पवित्र जल डालने लगीं॥१०॥ ११॥ हे राजन्! सगरके पुत्र ब्राह्मणका अपराध करके भस्म हुए थे, जब कि उनकी राखके ऊपर गंगाजीका जल पडा और वह स्वर्गको

तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः शिवः॥ दधारावहितो गंगां पादपूतजलां हरेः॥९॥ भगीरथः स राजर्षिर्निन्ये भुवनपावनीम्॥ यत्र स्वपितॄणां देहा भस्मीभृताः स्म शेरते॥१०॥ रथेन वायुवेगेन प्रयांतमनुधावती॥ देशान्पुनंती निर्दग्धानासिंचत्सगरात्मजान्॥११॥ यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदंडहता अपि॥ सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहभस्मभिः॥१२॥ भस्मीभूतांगसंगेन स्वर्याताः सगरात्मजाः॥ किं पुनः श्रद्धया देवीं ये सेवंते धृतव्रताः॥१३॥ न ह्येतत्परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम्॥ अनंतचरणांभोजप्रसूताया भवच्छिदः॥१४॥ संनिवेश्य मनो यस्मिञ्श्रद्धया मुनयोऽमलाः॥ त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम्॥१५॥

चले गये, तब उन लोगोंको कैसा फल मिलेगा जो कि श्रद्धापूर्वक श्रीगंगामहारानी जगत्सुखदानीकी सेवा करते हैं॥१२॥ सगरके पुत्र अपनी राखपर गंगाजीका जल पडनेसे जब पवित्र होगये और स्वर्गको सिधारे तब जो पुरुष गंगाजीका व्रत धारण करेंगे और श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करेंगे, उनका स्वर्गमें जाना कुछ विचित्र बात नहीं हैं॥१३॥ हे कुरुश्रेष्ठ!यहां पर यह गंगाजीकी महिमा जो हमने वर्णन की, यह कुछ बड़े आश्वर्यकी बात नहीं हैं, क्योंकि यह भगवान्के चरणसे उत्पन्न हुई हैं और संसारका नाशकरनेवाली हैं अर्थात् इनकी सेवा करनेसे संसारका आना जाना छूट जाता हैं॥१४॥ हे परीक्षित्!अमल मुनि लोग श्रद्धासहित जिनमें

मनलगाय छोड़नेके अयोग्य देहका सम्बन्ध त्याग शीघ्रही उन परब्रह्म भगवान् वासुदेव के रूपको प्राप्त होजाते हैं, उनके चरण से उत्पन्न हुई गंगाजीका प्रभाव अवश्यही अनिर्वचनीय है॥१५॥ इन राजा भगीरथ के पुत्र श्रुत, तिनके पुत्र नाभ, तिनसे सिंधुद्वीप उत्पन्न हुए। और तिनके अयुतायु जन्मे॥१६॥ तिन अयुतायुके ऋतुपर्ण हुए जोकि नलके सखा थे इन ऋतुपर्णने राजा नलको चौपडकी विद्या शिखाय उनसे अश्वविद्या सीखी थी इन ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ॥१७॥ तिसका पुत्र सुदास, तिसका बेटा सौदास हुआ जो मदयन्तीका पति था जिसको कोई कोई मित्रसह और कोई कोई कल्माषपाद कहते हैं, इनके कोई सन्तान नहीं हुई। यह अपने कर्म दोषऔर वसिष्ठजी के शापसे राक्षस योनिको प्राप्त हुए॥१८॥ राजापरीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! महात्मा सौदासको वसिष्ठजीने शाप क्यों दिया था? इस कथाके श्रवण

श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्य नाभोऽपरोऽभवत्॥ सिंधुद्वीपस्ततस्तस्मादयुतायुस्ततोऽभवत्॥१६॥ ऋतुपर्णोनलसखो योऽश्वविद्यामयान्नलात्॥ दत्त्वाऽक्षहृदयं चास्मै सर्वकामस्तु तत्सुतः॥१७॥ ततःसुदासस्तत्पुत्रो मदयंती पतिर्नृप॥ आहुर्मित्रसहं यं वै कल्माषांघ्रिमुत क्वचित्॥ वसिष्ठशापाद्रक्षोऽभूदनपत्यस्स्वकर्मणा॥१८॥ राजोवाच॥ किंनिमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य महात्मनः॥ एतद्वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो यदि॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ सौदासो मृगयां किंचिच्चरन्रक्षो जघान ह॥ मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः प्रतिचिकीर्षया॥२०॥ स चिन्तयन्नघं राज्ञः सूद रूपधरो गृहे॥ गुरवेभोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये नरामिषम्॥२१॥ परिवेक्ष्यमाणं भगवान्विलोक्याभक्ष्यमंजसा॥ राजानमशपत्क्रुद्धो रक्षो ह्येवं भविष्यसि॥२२॥

करनेकी मेरी बडी अभिलाषाहै, सो कृपापूर्वक वर्णन कीजिये॥१९॥ व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! एक समय राजा सौदासने मृगया के लिये वनमें जाय घूमते घूमते एक राक्षसको मारडाला और उसके भाईको छोड दिया। इसलिये यह निशाचर राजासे बदला लेने की खोज में रहा यह निशाचर इस राजाका बुरा चाहने लगा, रसोइयेका रूप बनाय उनके घर में रहने लगा, एकदिन राजपुरोहित वसिष्ठजीने आयकर भोजनकी इच्छा प्रकाशकी, तब इसी कपटवेषधारी राक्षसने भोजन बनाया। और उस भोजन में मनुष्यका मांसभी मिला दिया॥२०॥२१॥ जब वह भोजन परोसा गया तब उस समय भगवान् वसिष्ठजीने दिव्य नेत्रोंसे देख लिया कि, भोजनमें अभक्ष्य वस्तु मिलाई गई है; इसलिये महाक्रोधित

होकर राजाको शाप दिया कि “मनुष्यका मांस व्यवहार करनेसे तुम राक्षस योनि पाओगे”॥२२॥ परन्तु तिसके पीछे महर्षि वसिष्ठजीने जाना कि, यह कर्म राक्षसका किया हुआ है, तब वशिष्ठजीने शापका क्षय करने को बारह वर्षका व्रत किया राजाभी विना अपराध शाप पाकर क्रोधित हो हाथमें जल लेकर गुरुजीको शाप देनेके लिये प्रस्तुत हुआ॥२३॥ परन्तु उसकी स्त्री मदयन्तीने उसको निवारण किया, तब राजाने रोष से तीव्रहो वह जल अपने पैरों पर डाल लिया, इस राजर्षिने यह जल इसलिये अपने पैरोंपर डाला कि दिग्, आकाश, पृथ्वी, यह सबही जीवमय हैं॥२४॥ उस शापित जलके डालनेसे उसके पैर काले होगये फिर यह राजा कल्माषपाद राक्षस भावको प्राप्त हो एक समय वनमें विचरण कर रहा था। हे राजन्! इस प्रकार वनमें घूमते हुए उसने एक ब्राह्मणको ब्राह्मणी के साथ रति करता हुआ देखा

रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम्॥ सोऽप्यपोंजलिनादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः॥२३॥ वारितो मदयंत्याऽपो रुशतीः पादयोर्जहौ॥ दिशः खमवनीं सर्वं पश्यञ्जीवमयं नृपः॥२४॥ राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां गतः॥ व्यवायकाले ददृशे वनौकोदंपती द्विजौ॥२५॥ क्षुधार्तो जगृहे विप्रं तत्पत्न्याहाकृतार्थवत्॥ न भवान्राक्षसस्साक्षा दिक्ष्वाकूणां महारथः॥२६॥ मदयंत्याः पतिवीर नाधर्मे कतुमर्हसि॥ देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पर्ति द्विजम्॥२७॥ देहोऽयं मानुषो राजन्पुरुषस्याखिलार्थदः॥ तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते॥२८॥ एष हि ब्राह्मणो विद्वांस्तपशीलगुणान्वितः॥ आरिराधयिषुर्ब्रह्म महापुरुषसंज्ञितम्॥ सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वंतर्हितं गुणैः॥२९॥

॥२५॥ इससमय इस राजाको बड़ी भारी भूख लगी थी, तब इसने क्षुधासे पीडितहो उनमें से ब्राह्मणको भक्षण करनेके लिये पकड़ लिया \।\। ब्राह्मण के पकड़ लेने से ब्राह्मणी अत्यन्त दीन तनु छीन मन मलीन होकर बोली कि, हे राजन्! तुम राक्षस नहीं हो, इक्ष्वाकुवंशियों में से एक महारथी वीर हो॥२६॥ मदयन्तीके पति हो, आपको अधर्म करना उचित नहीं है। यह ब्राह्मण हमारा पति है, हम सन्तानकी इच्छा करके इनकी सेवाकर रही थी अबतक इनकी रति समाप्त नही हुई है, इसलिये आप अनुग्रह करके महारे पतिको छोड़ दीजिये॥२७॥ हे राजन्! इस मनुष्य देहसे अखिल पुरुषार्थ होते हैं, इसलिये देहके नाशको सब अर्थोंका नाश कहा जाता है॥२८॥ अधिक करके यह ब्राह्मण विद्वान तपःशील और

गुणयुक्त है और महापुरुष नामवाले जो परब्रह्म गुणयोगसे सब प्राणियों में अंतर्हित हैं " सर्व भूतके आत्मा” इस प्रकारकी चिन्तासे यह उनकी आराधना करना चाहते हैं॥२९॥ हे प्रभो! हे धर्मज्ञ! तुम राजर्षियोंमें श्रेष्ठ हो, इसलिये पिता से पुत्रकी समान तुम्हारे हाथ से यह ब्राह्मण मारे जानेके योग्य नहीं है॥३०॥ हे धर्मज्ञ! आप साधुजनों के सम्मत हैं, सो आज आप किस प्रकार गोवधकी समान इस निष्पाप और तीन वेदोंके वक्ता ब्राह्मणका वध सम्मत समझते हैं ?॥३१॥ हे राजन्!हम इनके विना एक क्षणकोभी नहीं जीसकेंगी। सो इन हमारे पतिको यदि तुमने अवश्यही अपना भोजन करना विचारा हैं तो मृतकतुल्य हमकोभी तुम पहले भक्षण करलो॥३२॥ हे कुरुश्रेष्ठ! ब्राह्मणकी भार्यांने इस प्रकार

सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद्विभो॥ कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः॥३०॥ तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः॥ कथं वधं यथा बभ्रोर्मन्यते सन्मतो भवान्॥३१॥ यद्ययं क्रियते भक्षस्तर्हि मां खाद पूर्वतः॥ न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा॥३२॥ एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत्॥ व्याघ्रः पशुमिवाखा दत्सौदासः शापमोहितः॥३३॥ ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषं पुरुषादेन भक्षितम्॥ शोचंत्यात्मानमुवशमशपत्कुपिता सती॥३४॥ यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः पतिस्त्वया॥ तवापि मृत्युराधानादकृतप्रज्ञ दर्शितः॥३५॥ एवं मित्रसहं शब्वा पतिलोकपरायणा॥ तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता॥३६॥ विशापो द्वादशाब्दांते मैथुनाय समुद्यतः॥ विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारितः॥३७॥

अनाथकी समान हो करुणाके वचन कहे, परन्तु तो भी शाप मोहित सौदासने उस ब्राह्मणको भक्षण करही लिया कि जैसे व्यात्रपशुको भक्षण कर जाता है॥३३॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि गर्भाधानकारी ब्राह्मणको राक्षसने भक्षण करही लिया, इसलिये अपने निमित्त शोक करते करते क्रोधित हो इसने उस राजाको यह शाप दिया कि॥३४॥ अरे पापात्मा। तैंने हमारे पतिको रतिसे अलग करके भक्षण कर लिया है, इसलिये तेरी मृत्युभी रति करते होगी॥३५॥ हे राजन्! पतिलोकपरायण उस ब्राह्मणीने इसप्रकार इस सौदोस राजाको शाप दे पतिकी अस्थि जलती हुई

अग्निमें डाल और स्वयंभी उसी चितामें बैठ स्वामीकी गतिको प्राप्त हुई और इस ओर जब बारहवर्ष बीतगये तब राजा सौदास शापसे छूटा. तिसके पीछे जब यह राजा एकदिन मैथुन करनेको प्रस्तुत हुआ. तब इस राजाकी भार्याने ब्राह्मणीका शाप कहकर राजाको निवारण किया॥३६॥॥३७॥ हे राजन्! तबसे राजा सौदास स्त्रीके सुखसे अलग हुआ और अपने कर्मदोष से निःसन्तान रहा, कुछ कालके पीछे वसिष्ठ मुनिने राजाकी अनुमति से उसकी स्त्री मदयन्तीको गर्भाधान किया॥३८॥परन्तु यह अबला सात वर्षतक इस गर्भको धारण किये रही, किसी प्रकार से इसको प्रसव नहीं किया । तब वसिष्ठजीने आनकर अश्म (पत्थर) रानीके पेटमें मारा, इसलिये इस गर्भ से उत्पन्न हुये पुत्रका नाम अश्मक हुआ॥३९॥इस अश्मकसे मूलक राजाकी उत्पत्ति हुई जब परशुरामने पृथ्वीको निःक्षत्रिय किया उस समय उसकी स्त्रियोंने चारों ओरसे घेरकर परशु

तत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाऽप्रजाः॥वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयंत्यां प्रजामधात्॥३८॥सा वै सप्त समा गर्भम विभ्रन्न व्यजायत॥जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन कथ्यते॥३९॥अश्मकान्मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षितः॥नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोऽभवत्॥४०॥ततो दशरथस्तस्मात्पुत्र ऐडविडस्ततः॥राजा विश्वस हो यस्य खट्वांगश्चक्रवर्त्यभूत्॥४१॥यो देवैरर्थितो दैत्यानवधीद्युधि दुर्जयः॥मुहूर्तमायुर्ज्ञात्वैत्य स्वपुरं संदधे मनः॥४२॥न मे ब्रह्मकुलात्प्राणाः कुलदैवान्न चात्मजाः॥न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवल्लभाः॥४३॥

रामजी के कोपसे रक्षा की थी, इसलिये इसका एक नाम नारीकवच हुआ और पृथ्वी जब क्षत्रियहीन हुई तब यही क्षत्रियवंशके मूल हुये थे, इससे मूलक कहलाते थे॥४०॥इन अश्मकसे राजा दशरथका जन्म हुआ, दशरथका पुत्र ऐडविड, तिसका पुत्र राजा विश्वसह तिसके पुत्र चक्रवर्ती महाराज खट्वांग हुये. यह राजा खट्वांग अति अजीत थे जब देवतालोगोंने प्रार्थना की, तब इन्होंने युद्ध में राक्षस लोगोंका वध किया फिर जब प्रसन्न होकर देवता लोगोने इनसे वरदान माँगने को कहा तब इन्होंने कहा कि, प्रथम तो यह बताओ “हमारी परमायु कितनी है” तब देवता लोगोंने कहा कि, आपकी परमायु दो घड़ी शेष है। यह जानकर खड्ढांग राजा देवता लोगों के दियेहुये विमान में बैठकर अति शीघ्र अपने नगर में आये और परमे श्वरमें मन लगाया॥४१॥४२॥फिर पीछे उनको यह निश्चय हुआ कि कुलदेव जो ब्रह्मकुल है, उनसे अधिक प्राण, पुत्र, धन, सम्पत्ति, पृथ्वी,

राज्य और स्त्री, भी प्यारी नहीं है॥४३॥ और हमारी मति कदाचित् थोडे अधर्ममें भी रत नहीं हो और उत्तमश्लोक भगवान् के अतिरिक्त और।किसी वस्तुको हम नहीं देख सकें!॥४४॥ इसलिये त्रिभुवनेश्वर देवतालोग प्रसन्न होकर जो हमसे कहते हैं कि, “अभिलषित वर मांगो” परन्तु भूत भावन हरिमें अपनी भावना रहनेसे, हम उनसे भी कुछ वर नहीं चाहते॥४५॥ जिन पुरुषोंकी इन्द्रियें चलायमान और बुद्धि विक्षिप्त है, वह देवता होकर भी अपने हृदय में स्थित प्रिय आत्माको नित्य नहीं देख पाते, फिर और किसीके देखनेकी क्या सम्भावना है॥४६॥ इसलिये गन्धर्व पुरकी समान ईश्वरकी मायासे रचे हुये जो गुण हैं, तिनमें वह संग जो कि, स्वभावसेही आत्मामें आरूढ हो रहा है, विश्वकर्ताके भावसे

न बाल्येऽपि मतिर्मह्यमधर्मे रमते क्वचित्॥ न पश्यामुत्तमश्लोकादन्यत्किंचन वस्त्वहम्॥४४॥ देवैः कामवरो दत्तो मह्यं त्रिभुवनेश्वरैः॥ न वृणे तमहं कामं भृतभावनभावनः॥४५॥ ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम्॥ न विदंति प्रियं शश्वदात्मानं किमुतापरे॥४६॥ अथेशमायारचितेषु संग गुणेषु गंधर्वपुरोपमेषु॥ रूढं प्रकृत्याऽऽत्मनि विश्वभर्तुर्भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये॥४७॥ इति व्यवसितो बुद्ध्या नारायणगृहीतया॥ हित्वाऽन्यभवमज्ञानं ततस्स्वं भावमाश्रितः॥४८॥ यत्तद्ब्रह्म परं सूक्ष्ममशून्यं शून्यकल्पितम्॥ भगवान्वासुदेवेति यं गृणंति हि सात्वताः॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे सूर्यवंशानुवर्णने गंगावतरणादि नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ खट्वांगाद्दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात्पृथुश्रवाः॥ अजस्ततो महाराजस्तस्माद्दशरथोऽभवत्॥१॥

छोडकर हम केवल उनकीही शरण जाते हैं॥४७॥ हे राजन्! राजा खट्वांग नारायण सम्बन्धिनी बुद्धिके योग से इस प्रकार निश्चयकर देहादिके आभिमानरूप अज्ञान को छोड़ फिर अपने भावमें स्थित हुआ॥४८॥ जो सूक्ष्म परब्रह्म और रागादिसे परे हैं, इसलिये शून्यकी समान कल्पित होते हैं और अशून्य स्वरूप हैं और जिनके प्रति भक्तजन भगवान् वासुदेव शब्दका प्रयोग किया करते हैं, क्योंकि परब्रह्मही भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये शक्ति प्रकाशित करके वासुदेव होते हैं॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां सूर्यवंशवर्णने खट्वांगचरितं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा-दशवेंमें खट्वांगकुल, उसमें रामअवतार। रावणवध घर आवनो, राज्यकाज व्यवहार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा

परीक्षित्! खट्वांगराजाका पुत्र दीर्घबाहु हुआ, तिससे रघुने जन्म लिया, रघुके पुत्र महायशश्री अज हुये। हे महाराज परीक्षित्! इन्हीं अजसे महात्मा दशरथजी उत्पन्न हुये॥१॥ ब्रह्ममय हरि साक्षात् भगवान् देवता लोगों की प्रार्थनासे राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न इन चार नामोंसे चार अंशोंमें विभक्त हो इन्हीं दशरथजी के पुत्र हुये थे,॥२॥ हे राजन्! वाल्मीकादि तत्त्वदर्शी ऋषिलोगोंने इनही सीतापति रामचन्द्रजीका वर्णन किया है, यद्यपि यह चरित्र आपने बारंबार सुना है, तो भी हम संक्षेपसे वर्णन करते हैं तुम सुनो॥३॥ जो पिताजीका सत्य पालन करनेको राज्य छोड प्यारी सीताजीका स्पर्शभी जो नहीं सहारते थे, ऐसे कमलकी समान सुकुमार दोनों चरणोंसे वन वन में घुसे थे, वानरेन्द्र हनुमान अथवा सुग्रीव और अनुज लक्ष्मण जिनके मार्गकी थकावट दूर करते थे, शूर्पणखा के कान नाक काटने से विरूप करनेके कारण उसने रावणके

तस्यापि भगवानेष साक्षाद्ब्रह्ममयो हरिः॥ अंशांशेन चतुर्धाऽगात्पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः॥२॥ रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ना इति संज्ञया॥ तस्यानुचरितं राजन्नृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहुः॥३॥ गुर्वर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं पद्मपद्भ्यां प्रियायाः पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजितपथरुजो यो हरीन्द्रानुजाभ्याम्॥ वैरूप्याच्छूर्पणख्याः पियविरहरूषा रोषितभूविजृंभत्रस्ताब्धिर्बद्धसेतुः खलदवदहनः कोसलेंद्रोऽवतान्नः॥४॥ विश्वामि त्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचराः॥ पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैर्ऋतपुंगवाः॥५॥ यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रं सीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम्॥ आदाय बालगजलील इवेक्षुयष्टिं सज्जीकृतं नृप विकृष्य बभंज मध्ये॥६॥

निकट जाय उनकी स्त्रीको लोभ दिखाया, तब रावण आकर जिनकी प्यारी सीताजीको हरके लेगया था, प्रियाका विरह होने से जिनकी भ्रुकुटीसे समुद्र त्रसित होगया इसके उपरान्त उसही समुद्रके कहने से जो समुद्र पर सेतु बांध रावणादि खलगण रूप गहनवनके, बँधे अग्निरूप वही कोश लेन्द्र श्रीरामचन्द्रजी हमारी रक्षा करें॥४॥ उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि विश्वामित्रजीके यज्ञमें मारीचादि प्रधान २ राक्षसोंको अकेलेही मारडाला था धोरे खडे होकर देखते हुये लक्ष्मणजीकी कुछ सहायता नहीं चाही॥५॥ उन्होंने सीताजी के स्वयंवरगृहमें वीर पुरुष समूहके बीच में जिन्होंने महादेवजीके धनुषको गन्ने की समान उठाय लिया था और ज्यो चढाने के उपरान्त खचकर बीचमेंसे तोड़ दिया. हे राजन्!

वह धनुष अति भारी था कि, जिसे तीनसौ (३००) वाहक खैंचकर लाये थे परन्तु श्रीरामचन्द्रजीकी लीला बालगजतुल्य अद्भुत कि, जिन्होंने एक खेलमेंही उस धनुषको तोड़ डाला॥६॥ तिसके उपरान्त जिन सीताजीने उनके हृदय में वास किया था, जिन सीताजी में गुण, शील, वयस और अंगों का गढन सब गुण श्रीरामचन्द्रजीकीही समान थे, उनको धनुष तोड़ सीताजीको लेजानेके समय धनुष टूट नेकी महाध्वनि सुनकर क्षुभित हुये परशुरामजी ने जब धमकाया तब श्रीरामचन्द्रजीने मार्ग में गमन करते करतेही उनका गर्व चूर्ण कर दिया. हे महाराज! आप तो परशुरामजीको जानते हैं? यह वही महात्मा परशुरामजी हैं कि, जिनके बाहुबलसे यह पृथ्वी इक्कीसवार क्षत्रि योंसे हीन हो गई थी॥७॥ किसी समय रानी कैकेयी पर प्रसन्न होकर राजा दशरथजीने यह वचन दिया था कि, जब कोई वरदान तुम मांगोगी,

जित्वानुरूपगुणशीलवयोंगरूपां सीताऽभिधां श्रियमुरस्यभिलब्धमानाम्॥ मार्गे व्रजन्भृगुपतेर्व्यनयत्प्ररूढं दर्पं महीम कृत यस्त्रिरराजबीजाम्॥७॥ यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशं स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे सभार्यः॥ राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं त्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसंगः॥८॥ रक्षस्स्वसुवर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धेस्तस्याः खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून्॥ जघ्ने चतुर्दशसहस्रमपारणीय कोदंडपाणिरटमान उवास कृच्छ्रम्॥९॥ सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन सृष्टं विलोक्य नृपते दशकंधरेण॥ जघ्नेऽद्भुतैणवपुषाऽऽश्रमतोऽपकृष्टो मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्रः॥१०॥

हम तुम्हें अवश्य देंगे. जब श्रीरामचन्द्रको अभिषेक होनेकी तैयारियां हुईं, तब इस कैकेयीने भरतजीका युवराज होना और श्रीरामचन्द्रजीका वन जाना यह दो वरदान माँगे। यद्यपि महाराज दशरथजी स्त्रैण थे, तो भी यह जानकर कि, वचनभंग होनेसे इनको महापाप होगा. श्रीरामचन्द्रजीने, अपने पिता की आज्ञाको मस्तकपर चढ़ाकर ग्रहण किया. कहा भी है कि “रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाहिं बरु वचन न जाई” फिर जिस प्रकार योगीलोग त्यागनेके अयोग्य प्राणोंको छोड़ देते हैं वैसेही राज्य, श्री, प्रणय, सुहृद् और रहनेका स्थानभी छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी वनको चले गये॥८॥ वनके बीच कामातुरा शूर्पणखा के नाक, कान, काट, खर, दूषण, त्रिशिरादि उस शूर्पणखा के मुख्य बान्धवों सहित चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला, फिर महा कठिन धनुष हाथमें लेकर बरावरही विचरण करते हुये अतिकष्टसे वनमें वास

करने लगे। इसी बीच में जनककुमारी जानकीजीकी सुन्दरता सुनकर राक्षस रावण के हृदय में कामाग्नि वलनेलगी और सीताजीका हरण करनेकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजीको आश्रमसे दूर करनेके लिये उस दुरात्मा रावणने मारीच नाम राक्षसको नियुक्त किया. तब मारीच अद्भुत मृगका रूप धारण करके श्रीरामचन्द्रजीको आश्रम से बहुत दूरतक भागता हुआ लेगया “प्रगटत दुरत करत छल भूरी। यहि विधि प्रभुहि गयउ ले दूरी” जब श्रीरामचन्द्रजी उस कपटमृगके पीछे बहुत दूरतक चलेगये, तब उन्होंने हरिणरूपी निशाचरको अति तीक्ष्ण बाण चलायकर मारडाला कि, जैसे भगवान् रुद्रजीने मृगरूप धारण करके दौड़ते हुए ब्रह्माजीको बाणसे मारा था॥९॥१०॥ इसी समयमें राक्षसों में नीच रावणने; भेडिय जैसे चुप चाप भेड़को उठाकर लेजाता है, वैसेही श्रीरामचन्द्रजीके पीछे उनकी भार्या सीताजीको हरण करलिया; तव श्रीरामचन्द्रजी अपनी प्राण प्यारीसे अलग हो स्त्री रखनेवालों का परिणाम अति दुःखितरूपी गतिको प्रकाशित करते हुए दीनकी समान अपने परमप्रिय भाई लक्ष्मणको

रक्षोधमेन वृकवद्विपिनेऽसमक्षं वैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम्॥ भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः स्त्रीसंगिनां गतिमिति प्रथयंश्चकार॥११॥ दग्ध्वात्मकृत्यहतकृत्यमहन्कबंधं सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः॥ बुद्धाथ वालिनि हते प्लवगेंद्रसैन्यैर्वेलामगात्स मनुजोऽजभवार्चितांघ्रिः॥१२॥ यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपातसंभ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः॥ सिंधुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी पादारविंदमुपगम्य बभाष एतत्॥१३॥

संगलिये वन वनमें घूमने लगे॥११॥ और घूमते २ देखा कि, उनकेही लिये कर्म करके अर्थात् रावणके साथ संग्राम करके जटायु गिद्ध मरगया है, उसका देह पड़ा है, शास्त्रोक्त संस्कार अर्थात् दहनादि संस्कार कुछभी नहीं हुए थे, इसलिये इस पक्षीके मृतक देहको जलाय दिया और आगे चले। फिर उनके ग्रहण करनेको जो एक कबन्ध बाहें फैलाये मुख बायेहुए आरहा था, उसका प्राण संहार किया, फिर वानरश्रेष्ठसुग्रीवसे मित्रता करके वलिनाम वानरका वधकर, उनकी सेनासे अपनी भार्याका खोज कराया, फिर उनका पता जानकर समुद्र तटपर गये इन श्रीरामचन्द्रजीने यद्यपि मनुष्यावतार धारण किया था, परन्तु महेश्वर और ब्रह्माजीभी उनके चरणोंकी वन्दना करते थे॥१२॥ श्रीरामचन्द्रजीने समुद्रके तटपर पहुँच तीन रात उपवासकर समुद्रके आनेकी बाट देखी, जब ऐसा करनेपर भी समुद्र न आया, तब श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त

कुपित हुए। क्रोधके कारण श्रीरामचन्द्रजीकी भ्रुकुटियें ऐसी टेढ़ी हो रहीं थीं कि उनकी दृष्टि समुद्र में पड़तेही जलधिके रहनेवाले नाके आदि जलजन्तु अत्यन्त व्याकुल होगये तब समुद्र अपने शब्दको निवारण करके मूर्ति धार और मस्तकपर अर्घ्यादि पूजा उपहार लिये हुए श्रीराममचन्द्रजीके चर णोंके निकट आनकर कहने लगा॥१३॥ हे भूमन्! हम जडमति हैं, इसलिये अबतक आपको नहीं जानसके, आप निर्विकार आदिपुरुष और जगत् के अधीश्वर हैं, अधिक करके जिनके वश हुए सत्त्वगुणसे देवता लोग, रजोगुणसे प्रजापतिगण और तमोगुण से भूतपति उत्पन्न होते हैं, सो आपही गुणेश्वर हैं॥१४॥ हे प्रभो! जो आपकी इच्छा हो तो हमारे जलको लांघकर चले जाओ, विश्वश्रवाके विष्ठाकी तुल्य दुरात्मा रावण त्रिभुवनको केशका देनेवाला है, उसका शीघ्र वध करके अपनी भार्या सीताजीको ग्रहण कीजिये. हे प्रभो! यद्यपि हमारा जल आपके गमन

न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भ्रमन्कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम्॥ यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा मन्योश्च भृतपतयः स भवान्गुणेशः॥१४॥ कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं त्रैलोक्यरावणमवाप्नुहि वीरपत्नीम्॥बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै गायंति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः॥१५॥ बद्धोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटैः सेतुं कपीन्द्रकरकंपितभूरुहांगैः॥ सुग्रीवनीलहनुमत्प्रमुखैरनीकैर्लंकांविभीषणदृशाऽविशदग्रदग्धाम्॥१६॥ सा वानरेंद्रबलरुद्धविहारकोष्ठश्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटंका॥ निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भशृंगाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा॥१७॥

करनेमें बाधा नहीं देसक्ता, तो भी इसमें पुल बाँध दीजिये। सेतुके बांधनेसे सदाही आपकी कीर्ति स्थिर रहेगी। क्योंकि इस सेतुके समीप आयकर यह दुष्करकार्य देख निःसन्देह राजालोग आपके यशको गावेंगे॥१५॥ हे राजन्! समुद्रके ऐसे वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने विविध भांतिके पर्वत शिखर और वृक्षोंसे उसके ऊपर सेतु बांधा, उन पर्वतोंके शिखरोंपर बहुतसे पेड़भी लगे हुए थे उन वृक्षोंकी शाखा वानरेन्द्रों की भुजाओंसे अत्यन्त कम्पायमान हुई थीं, जब सेतु बाँधलिया गया, तब विभीषणकी परामर्शसे सुग्रीव, नील, हनुमानादि सेना के साथ श्रीरघुनाथ जीने लंकापुरीमें प्रवेश किया, श्रीरामचन्द्रजीके प्रवेश करनेसे प्रथमही सीताजीके खोजने के समय हनुमानजीने लंकापुरीको जलाय दिया था॥१६॥ जैसेही श्रीरामचन्द्रजी सेनाके साथ लंकापुरी में पहुँचे, वैसेही लंकापुरी घूमनेसी लगी जिसप्रकार हाथियों के समूहसे

नदी चलायमान होजाती है, क्योंकि वानरेन्द्रोंकी सेनाने वहां के विहारस्थान, खजाने, कोषगृहादिके द्वार, पुरद्वार, सभा, बलभी (महलकी अग्र भागाच्छादनी छज्जा) और कपोतपालिकादि स्थान घेर लिये और इस सेनाने वेदि, चबूतरे, पताका, स्वर्णकलश और चौराहे आदि सब तोड़ फोड दिये॥१७॥ राक्षसराज रावणने यह देखकर निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, सम्पूर्ण अनुचर और इन्द्रजित् प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पादि पुत्रोंको और पीछेसे अपने भाई कुम्भकर्णको भेजा॥१८॥ हे महाराज परीक्षित्। यद्यपि सब राक्षसों की सेना, असि, शूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, शर, तोमर, खड्गादि विविध भाँतिके शस्त्रोंसे अतिशय दुर्द्धर्ष थी, तो भी वीर्यवान् श्रीरामचन्द्रजीने माला पहिरेहुये, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान्, गन्धमादन, नील, अंगद, जाम्बवान् और पनसादि सेनापतियों के साथ उनके ऊपर चढाई की थी॥१९॥ हे राजन्! श्रीरामचन्द्रजीके

रक्षः पतिस्तदवलोक्य निकुंभकुंभधूम्राक्षदुर्मुखसुरांतनरांतकादीन्॥ पुत्रं प्रहस्तमतिकायविकंपनादीन्सर्वानुगान्सम हिनोदथ कुंभकर्णम्॥१८॥ तां यातुधानपृतनामसिशूलचापप्रासर्ष्टिशक्तिशरतोमरखड्गदुर्गाम्॥ सुग्रीवलक्ष्मणमरुत्सुतगंधमादनीलांगदर्क्षपनसादिभिरन्वितोऽगात्॥१९॥ तेऽनीकषारघुपतेरभिपत्य सर्वेद्वंद्वं वरूथमिभपत्तिरथा श्वयोधैः॥ जघ्नुर्द्रुमैर्गिरिगदेषुभिरंगदाद्याः सीताऽभिमर्शहत मंगलरावणेशान्॥२०॥ रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट आरुह्य यानकमथाभिससार रामम्॥ स्वस्स्यंदने द्युमति मातलिनोपनीते विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः॥२१॥

इन सेनापतियोंने रावण के हाथी घोड़ोंसे युक्त जितनी सेना आईथीं उनमें जिसप्रकार से इन्द्रयुद्ध हो वैसाही कार्य करनेलगे अर्थात् उनके ऊपर झपटने लगे और पर्वत, गदा, बाण, चलाय चलाय कर उन राक्षसों का संहार करने लगे। हे महाराज! राक्षसोंकी सेनाका संहार क्यों न हो? जब कि, बलात्कार जगज्जननी जानकीजीका अंगस्पर्शकरनेवाला रावण जिनका स्वामी था कि, जिसका सब मंगल नाशको प्राप्त होगया था॥२०॥ इस प्रकार से अपनी सेनाका नाश होता हुआ देखकर दुरात्मा रावण सहसा पुष्पक विमानपर आरूढ होकर श्रीरामचन्द्रजी के ऊपर दौडा, इसी समय इंद्रका सारथि मातलि दीप्तिमान् देवराज इंद्रका रथ लेकर श्रीरामचंद्रजीके निकट आया रघुनाथजी इस देदीप्यमान रथको देख झट सवार होकर स्थितहो

गये। श्रीरामचन्द्रजीको रथारूढ देखकर दुरात्मा रावण तीक्ष्ण २ छुरेवाले बाण श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर चलाने लगा॥२१॥ तब सीतापति पाखण्डी रावणको ललकार कर बोले कि, अरे दुष्ट। तू राक्षसों में भी विष्ठाकी समान हैं; कुत्ता जैसे गृहस्वामी के पीछे घरमें प्रवेश करके किसी सामग्रीको चुराकर ले जाता है. वैसेही हमारे पीछे हमारी भार्याको तू हरण कर लेआयाहै, तू अति निर्लज्ज है क्योकि नीच कर्म किया है, हमारा वीर्य अमोघ है। देख! हम कृतान्तकी समान अभी तेरे किये इस नीच कर्मका फल देते हैं॥२२॥ इस प्रकार रावणको धिक्कार देकर वह बाण जो कि, धनुषपर चढाहुआ था, श्रीरामचन्द्रजीने छोड़ा, इस बाणने निशाचरराज रावणके ऊपर गिरकर उसके हृदयको फाड डाला तब हे राजन्!

रामस्तमाह पुरुषादपुरीषयन्नः कांताऽसमक्षमसतापहृता श्ववत्ते॥ त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य यच्छामि काल इव कर्तुरलंघ्यवीर्यः॥२२॥ एवं क्षिपन्धनुषि संधितमुत्ससर्ज वाणं सवज्रमिव तदयं बिभेद॥ सोऽसृ ग्वमन्दशमुखैर्न्यपतद्विमानाडाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः॥२३॥ ततो निष्क्रम्य लंकाया यातुधान्यः सहस्रशः॥ मंदोदर्या समं तस्मिन्प्ररुदत्य उपाद्रवन्॥२४॥ स्वान्स्वान्धून्परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरर्दितान्॥ रुरुदुस्सुस्वरं दीना नंत्य आत्मानमात्मना॥२५॥ हा हता स्म वयं नाथ लोकरावण रावण॥ कं यायाच्छरणं लंका त्वद्विहीना परार्दिता॥२६॥ नैवं वेद महाभाग भवान्कामवशं गतः॥ तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम्॥२७॥

इस प्रकार रावण पुष्पक विमानसे नीचे गिर पडा कि; जैसे पुण्य क्षीणहोकर पुण्यवान् स्वर्ग से नीचे गिरता है रावणको गिरता हुआ देखकर सब लोक हाहाकार करने लगे॥२३॥ तिसके पीछे सहस्रों राक्षसियें लंकाके बाहर आय मन्दोदरीनामक रावणकी स्त्री सहित रोती हुईं रणभूमिमें घूमने लगीं॥२४॥ इन राक्षसियोंके बन्धु बान्धव वीर्यवान् लक्ष्मणजीके बाणोंसे मारे गये थे. यह राक्षसियें उनको अपने हृदयसे लगाय लगाय शिर पीट पीट और छाती कूट कूट आर्त वाणी से रोने लगी॥२५॥ राक्षसियें कहने लगीं कि, हा नाथ \। हम मर मिटीं। हे रावण! तुम लोकोंके रुवाने वाले थे, हमारी लंकापुरी तुमसे विहीन हो शत्रुसे पीड़ित हो रही है, सो इस समय हम किसकी शरण जाँय?॥२६॥ हे महाभाग! तुम कामके

वश हो एक वारही बुद्धिहीन होगये थे, जनकनन्दिनीके प्रभाव और तेजको नहीं जाना। इससेही तुम्हारी यह दशा हुई॥२७॥ हे कुलनन्दन! तुम्हारे मारेजानेसे हम और यह लंकापुरी दोनों पतिहीन हुई। तुमने अपनेही दोपसे अपनी देहको शृगालोंका भक्ष्य किया और आत्माको नरकभोगी बनाया॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत परीक्षित्!इसके उपरान्त राक्षसेन्द्र विभीषणने महात्मा रामचन्द्रजीकी आज्ञा पाय अपने ज्येष्ठ भ्राता रावण के मृतककर्म किये॥२९॥ तिसके पीछे श्रीरामचन्द्रजी अशोक वनमें गये; वहीं शीशमके वृक्षके नीचे बैठी हुई अतिक्षीण विरहके दुःख से दुःखी जानकीजीको महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने देखा॥३०॥ प्रियतमा जानकीजको अत्यन्त दीन हीन देखकर श्रीरामचन्द्रजीके कोमलहृदय में दया आगई परन्तु पति के दर्शन से आनन्द पाय जनकनन्दिनी जानकीजीका वदनारविन्दभी विकसित

कृतैषा विधवा लंका वयं च कुलनन्दन॥ देहः कृतोऽन्नं गृध्राणामात्मा नरकहेतवे॥२८॥ श्रीशुक उवाच॥ स्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेंद्रानुमोदितः॥ पितृमेधविधानेन यदुक्तं सांपरायिकम्॥२९॥ ततो ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे॥ क्षामां स्वविरहव्याधिं शिशपामूलमास्थिताम्॥३०॥ रामः प्रियतमां भार्यां दीन वीक्ष्यान्वकंपत॥ आत्मसंदर्शनाह्लादविकसन्मुखपंकजाम्॥३१॥ आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युतः॥ विभीषणाय भगवान्दत्त्वा रक्षोगणेशताम्॥३२॥ लंकामायुश्च कल्पांतं ययौ चीर्णव्रतः पुरीम्॥ अवकीर्यमाणः कुसुमैर्लोकपालार्पितः पथि॥३३॥ उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा॥ गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम्॥३४॥

होने लगा, फिर महात्मा लक्ष्मण और सुग्रीवके साथ श्रीरामचन्द्रजी जानकीजीको विमानपर बैठाय फिर हनुमानजी के साथ आपभी उसपर बैठे इसके उपरान्त विभीषणको राक्षसोंका राज्य दे लंकाका स्वमी बनाया॥३१॥३२॥ और एक कल्पभरकी आयु देदी, फिर चौदह वर्षका वनवास समाप्त करके विभीषण के साथ अयोध्यापुरीको चले, मार्ग में जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर लोकपाल गणोंके हाथों से छूटी’॥३३॥ हुई फूलोकी मालाओकी वर्षा होने लगी और शतधृत आदि गंधर्वगण परमानन्द से श्रीरामचन्द्रजीके चरित्र गाने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने मार्ग में जाते हुए सुना कि, भ्राता भरत अयोध्या से बाहर भदरसा में आय अपना डेरा किये हुये हैं, वह कुशोंपर सोते और वल्कल पहरते हैं, प्राण धारण

करने के लिये गोमूत्र में पका केवल यवान्न खाते हैं, यह सुन रामचन्द्रजीका हृदय भर आया, रुवें खड़ेहोगये और विलाप कलाप करते हुए विभीषणसे बोले॥३३॥३४॥ महात्मा रामचन्द्रजी इसप्रकार विभीषणसे कहते विलाप करते चले जाते थे, हे महाराज परीक्षित्! जबसे श्रीरामचन्द्रजी वनको गये, तबसे भरतजी अयोध्या में न जाय नन्दिग्राम (भदरसाही) में रहते थे, अब भरतजीने सुना कि श्रीरघुनाथजी रण में शत्रुको जीत, सीता और लक्ष्मण सहित कुशलपूर्वक आगये तब भरतजी मंत्री, पुरोहित और पुरवासियोंके साथ उनको लिवालानेके लिये श्रीरामचन्द्रजीके निकट चले॥३५॥ उस समय अनेक बाजे बजने लगे, गीत सुनाई आये और वेदपाठी ब्राह्मणोंके वेद पढनेका शब्द अतिजोरसे होने लगा और सुवर्णमय अनेक पता

महाकारुणिकोऽतप्यज्जटिलं स्थंडिलेशयम्॥ भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः॥ पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम्॥३५॥ नंदिग्रामात्स्वशिबिराद्गीतवादिननिस्स्वनैः॥ ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्भिर्ब्रह्मवादिभिः॥३६॥ स्वर्णकक्षपताकाभिर्हेमैश्चित्रध्वजै रथैः॥ सदश्वै रुक्मसन्नाहैर्भटैः पुरटवर्मभिः॥३७॥ श्रेणीभिर्वारमुख्याभिर्भृत्यैश्चैव पदानुगैः॥ पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च॥३८॥ पादयोर्न्यपतत्प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः॥ पादुके न्यस्य पुरतः प्रांजलिर्वाष्पलोचनः॥३९॥ तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन्नेत्रजैर्जलैः॥ रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः॥४०॥

कायें और चित्रमय ध्वजाओंसे शोभायमान असंख्य सुवर्णमय रथ, बख्तर पहिरे हुये बहुतसी सेना और पदाति सेवकभी बहुत सारे संग गये॥३६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार जब राजाके योग्य चँवर, छत्र और सब सामग्री लेकर जब भरतजी अपने बड़े भ्राता श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंपर गिरपड़े, तब उनके नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगी कि, जिससे उनके नेत्र व हृदय भीग गये। तब हाथ जोड़ दोनों करसे खड़ाऊँ आगे रखदीं और फिर नेत्रजल से स्नान कराते कराते बहुत देरतक भुजाओंसे पकड़ श्रीरामचन्द्रजीको अपने हृदयसे लगाये रहे। तिसके पीछे श्रीरामचन्द्रसे सीता और लक्ष्मणजी के साथ मिलकर ब्राह्मण और कुलवृद्धपुरुषोंको नमस्कार किया तिसके उपरान्त सब प्रजाने श्रीरामचन्द्रजीको

नमस्कार किया॥३७॥३८॥३९॥४०॥ और उत्तर कोशलके सब रहनेवाले बहुत कालके पीछे अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको आया हुआ देखकर आनन्दके समुद्रमें स्नान करने लगे और अपने अपने दुपट्टे कॅपातेहुये हर्षित हो फूलों की मालायें वर्षाय कर नाचे॥ हे महाराज परीक्षित्! जब महाराजाधिराज श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यापुरी में आये उसकालमें भरतजीने उनकी खडाऊँ धारण करलीथीं. विभीषण, सुग्रीवने चामर और व्यजन लिया था पवनकुमार हनुमानजी श्वेत छत्र धारण किये हुए थे शत्रुहनजीने धनुप और तरकश लिया, और जगज्जननी जानकीजीने तीथके जलसे भराहुआ कमण्डलु ग्रहण कियाथा और युवराज अंगदजी खड्गऔर ऋक्षराज जाम्बवान् सुर्वणमय वख्तर ले आये पुष्पक विमानमें जब

तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः॥ धुन्वंतमुत्तरासंगान्पतिं वीक्ष्य चिरागतम्॥४१॥ उत्तराः कोशला माल्यैः किरंतो ननृतुर्मुदा॥ पादुके भरतोऽगृह्णाच्चामरव्यजनोत्तमे॥४२॥ विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः॥ धनुर्निषंगाञ्छत्रुघ्नः सीता तीर्थकमंडलुम्॥४३॥ अविभ्रंगदः खड्गंहैमं चर्मर्क्षराण् नृप॥ पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च बंदिभिः॥४४॥ विरेजे भगवान्राजन्ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः॥ भ्रातृभिर्नंदितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत्पुरीम्॥४५॥ प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नीः स्वमातरम्॥ गुरून्वयस्यावरजान्पूजितः प्रत्यपूजयत्॥४६॥

वीर्यवान श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हुए, तब नारियोंने उनकी प्रशंसा की, बन्दीजनोंने यश बखाना॥४१॥४२॥४३॥४४॥ उस समय महाराज श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार शोभायमान होरहे थे कि, जैसे तारागणोंके साथ निशानाथ चन्द्रमाकी शोभा होती है। अपने भ्राताओंसे सन्मानित होकर श्रीरामचन्द्रजीने उत्सवयुक्त पुरीमें प्रदेश किया॥४५॥ तिसके उपरान्त राजभवन के भीतर जाय कैकेयी आदि गुरुपत्नी, अपनी माता और गुरुजनोंकी पूजा श्रीरामचन्द्रजीने की फिर अपने सखा और छोटे जनोंसे पूजित हो सबका यथोचित सन्मान किया॥४६॥

इसके पीछे सीता और लक्ष्मणजी भी जायकर यथानियम इन सब गुरुजनोंसे मिले प्राणोंको पायकर जिस प्रकार देह उठ खड़ी होती हैं। उसी प्रकार अपने अपने पुत्रोंको पाय सब मातायें सहसा उठ खडी हुई। और उनको गोदीमें बिठाय नेत्रजलसे उनका अभिषेक कर अपना शोक सन्ताप दूर करने लगीं॥४७॥ इसके उपरान्त ब्रह्मर्षि वसिष्टजीने श्रीरामचन्द्रजी की जटा छुडवाय कुलवृद्ध पुरुषोंके साथ मिलकर समुद्रके व और सब तीर्थोके जलसे उनका अभिषेक किया॥४८॥ हे महराज परीक्षित्! श्रीरामचन्द्रजीने इसप्रकार शिरसे स्नानकर प्रथम शोभायमान वस्त्र धारण किये। फिर हार और अलंकारोंसे सजकर वसन भूषण पहरे, भाइयों और सीताजी के साथ दीप्तिमान् हो विराजमान होने लगे॥४९॥

वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत्समुपेयतुः॥ पुत्रान्स्वमातरस्तांस्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः॥ आरोप्यांकेऽभिषिंचंत्यो बाष्पौघैर्विजहुःशुचः॥४७॥ जटा निर्मुच्य विधिवत्कुलवृद्धैः समं गुरुः॥ अभ्यषिंचद्यथैवेन्द्रं चतुस्सिंधुजलादिभिः॥४८॥ एवं कृतशिरस्त्रानः सुवासाः स्रग्व्यलंकृतः॥ स्वलंकृतैः सुवासोभिर्भ्रातृभिर्भार्यया बभौ॥४९॥ अग्रहीदासनं भ्राता प्रणिपत्य प्रसादितः॥ प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः॥५०॥ जुगोप पितृवद्रामो मेनिरे पितरं च तम्॥ त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत्॥५१॥ रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभृत सुखावहे॥ वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिंधवः॥५२॥ सर्वे कामदुघा आसन्प्रजानां भरतर्षभ॥ नाधिव्याधिजराग्लानिदुःखशोकभयक्लमाः॥५३॥

तिसके पीछे महात्मा भरतजीने प्रमाण कर जब श्रीरामचन्द्रजी को प्रसन्न किया, तब उन्होने राज्यसिंहासन ग्रहण किया स्वधर्मनिरत और वर्णाश्रम गुणोंसेयुक्त प्रजापुंजको पिताकी समान पालन करने लगे। हे राजा परीक्षित्! सब प्राणियोंको सुखके देनेवाले धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी जब राजा हुए उस समय यद्यपि त्रेतायुग वर्तमान था, तो भी वह काल सत्ययुगकी समान जान पड़नेलगा। समुद्र, नद, नदी, पर्वत, वन, द्वीप, खण्ड सबही प्रजाका मनोरथ पूर्ण करनेवाले हुए। कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीके राजत्वमें राज्य के बीच आधि, व्याधि, जरा, शोक, दुःख, भय, ग्लानि,

अथवा थकावट कुछभी न रही॥५०॥५१॥५२॥५३॥ जबतक इच्छा न होती, तबतक मृत्यु किसीको नहीं दबा सकती थी श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् ! श्रीरामचन्द्रजी पवित्र और एकपत्नीव्रतधारी होकर सब लोगोंको राजर्षियोंका अनुष्ठान किये हुए गृहमें धैर्य उपदेश करके उसका स्वयंभी पालन करनेलगे* और भावकी जाननेवाली देवी सीताजी अपने स्वामीका आश्रय ले प्रेम, सेवा, शीलता, भय और लाजसे उनके चित्तको हरे लेतीथीं॥५४॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायां रामचरिते दशमोऽध्यायः॥ १०॥ दोहा - ग्यारहमें

मृत्युश्चानिच्छतां नासीद्रामे राजन्यधोक्षजे॥ एकपत्नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः॥५४॥ स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्ष यन्स्वयमाचरन्॥ प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती॥ धिया हिया च भावज्ञा भर्तुः सीताऽहरन्मनः॥५५॥ इति श्रीभाग० म० नवमस्कंधे इक्ष्वा० सगरोपाख्याने श्रीरामचरितं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानात्मनात्मानं राम उत्तम कल्पकैः॥ सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान्मखैः॥१॥ होत्रेऽददाद् दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः॥ अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः॥२॥ आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदंतरा॥ मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोर्हति निस्स्पृहः॥३॥

श्रीरामने, अवधपुरी में आन॥ यज्ञ किये भाइन सहित, सो सब कहौ बखान॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! तिसके, पीछे भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने आचार्य लोगोंके साथ उत्तमोत्तम यज्ञ करके सर्व देवमय परमदेव जो आप हैं, सो अपनीही पूजा करनेलगे॥१॥ यज्ञके अन्तमें पश्चिम दिशा, होताको और ब्रह्माजीको दक्षिण दिशा, अध्वर्युको पूर्वदिशा, और सामगान करने वालोंको उत्तरदिशा, श्रीरामचन्द्रजीने देदी इन दिशाओंके बीचकी जितनी भूमि थी, “इसको ब्राह्मणही पानेके योग्य हैं” यह विचार निःस्पृह श्रीरामचन्द्रजीने अवशेष पृथ्वी आचार्यको देदी॥२॥ ३॥

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*शंका — रामचन्द्रके राज्यमें जो प्राणी मरनेकी इच्छा आप करता था उसीका मरण होता था और जो अपना मरना नहीं चाहता था, उसका मरण कभी नहीं होता था क्योंकि मृत्युतो सब लोकमें है किसी लोकमें जलदी, किसी लोकमें देरसे परन्तु ऐसा लोक कोईभीनहीं है कि जिसलोकमें मृत्यु न होवे ‘॥

उत्तर

“अनिच्छता” इस शब्दका अर्थ मरणकी इच्छा करना नहीं होगा इसका यह अर्थ है कि, जो प्राणी रामचन्द्रके चरणारविन्दके त्यागनेकी इच्छा नहीं करते थे दिन रात उन्हीके चरणोंमें उन्मत्त रहते थे उन प्राणियों की मृत्यु नहीं होती थी॥

इस प्रकार से दानशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीने जब सब दान कर दिया तब केवल उनके पास वसन भूषण बचरहे और राजराजेश्वरी श्रीमती जानकी। जीके पास भी केवल वसन भूपणही रहे अर्थात् इसके अतिरिक्त श्रीरामचन्द्रजीने सब कुछ दान कर दिया*॥४॥ परन्तु ब्राह्मण देवता श्रीरामचन्द्र जीकी ऐसी वत्सलता देख अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनकी स्तुति करके सब वस्तु श्रीरामचन्द्रजीको लौटायदी और बोले॥५॥ हे भगवन्! हे भुवनेश्वर! आपने हमको क्या नहीं दिया है? अर्थात् आपने हमको सब कुछ दिया क्योंकि आपने हम लोगों के हृदयमें प्रवेश करके अपनी प्रभा

इत्ययं तदलंकारवासोभ्यामवशेषितः॥ तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमंगल्यावशेषिता॥४॥ ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम्॥ प्रीताः किन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे॥५॥ अप्रत्तं नस्त्वया किन्तु भगवन्भुवनेश्वर॥ यन्नोंतर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा॥६॥ नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुंठमेधसे॥ उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदंडार्पितांघ्रये॥७॥ कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः॥ चरन्वाचोऽशृणोद्रामो भार्यामुद्दिश्य कस्यचित्॥८॥

विस्तार कर हमारे अन्धकारको दूर किया है॥६॥ हे प्रभो! आप ब्राह्मणदेव अकुण्ठ बुद्धिमान् हैं, सो हम आपको नमस्कार करते हैं। हे भगवन्! आप उत्तम श्लोकों में आगे गिने जाने योग्य हैं, मुनिलोग भी अपने अपने चित्तमें आपके दोनों चरणकमलकी सदा चिन्ता करते हैं॥७॥ बहुत दिन गये पीछे किसी समय श्रीरामचन्द्रजी गूढ़ वेष धारण कर यह जानने के लिये कि, हमारे राज्यमें लोग हमारी निन्दा करते हैं वा स्तुति, रात्रि

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शंका — जो कुछ वस्तु रामचन्द्रजीने ब्राह्मणको दान करके दी थी, वह वस्तु ब्राह्मणोंने दान लेकर कुछ घडी अथवा कुछ दिन पीछे वही दानवाली वस्तु ब्राह्मणोंने फिर पीछे प्रीतिसहित रामचन्द्रको देदी तत्र रामचन्द्रने अपनी दान की हुई वस्तु ब्राह्मणोंसे क्यों ली? क्या कारण यह बडे सन्देहकी बात है।

**उत्तर —**ब्राह्मण लोग प्रसन्न होकर अपना प्रसाद तुलसीदल पत्र आदि लेकर तथा तीन लोकका सुखपर्यंत जब क्षत्रियोंको देते हैं तब उसीसमय क्षत्रियलोग ब्राह्मणोंका दिया हुआ प्रसाद प्रीतिपूर्वक ले लेते हैं जब कोई राजा नहीं ले तो शीघ्रही ब्राह्मणलोग उस राजाको शाप दे देते हैं, ऐसा रामचन्द्रने मनमें विचारकर अपनी दी हुई वस्तु प्रसाद समझकर ग्रहण की थी, कुछ लोभ समझकर नहीं ली थी॥

कालमें गुप्तभावसे घूमने लगे, एकदिन अकेले घूमरहेथे कि, एक पुरुषने अपनी स्त्रीसे कुछ कटुवचन कहे कि, जिनको वीर्यवान् श्रीरामचन्द्रजीने सुना॥८॥ वह पुरुष अपनी स्त्रीसे कहरहा था कि, तू पराये घर जाया करती है, तू अतिदुष्टा असती है, मैं अब तुझे खाने पहरने को नहीं दूंगा, रामचन्द्रजीकाही स्त्रियोंपर अनुराग है कि, पराये घरमें बहुत दिनोंतक रही सीता को फिर अपने घर रखी पालन कररहे हैं। मैंरामचन्द्र नही हूं; चली जा तेरा मुख नहीं देखनेका॥॥९॥ अज्ञान, अबाध्य, बहुमुख पुरुषके मुॅहसे यह वचन सुनतेही श्रीरामचन्द्रजीको अत्यन्त भय हुआ और उन्होंने स्थानपर आय अपनी प्रियतमा जनकनन्दिनी जानकीजीको त्यागदिया। भीत पतिसे त्यागी हुई जानकीजी गर्भावस्था में महर्षि वाल्मीकि

नाहं बिभर्मित्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम्॥ स्त्रीलोभी विभृयात्सीतां रामो नाहं भजे पुनः॥९॥ इति लोकाद्बहुमुखाद्दुराराध्यादसंविदः॥ पत्या भीतेन सात्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्॥१०॥ अंतर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ॥ कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः॥११॥ अंगदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ॥ तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते॥१२॥ सुबाहुश्श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः॥ गंधर्वान्कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम्॥१३॥ तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत्॥ शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम्॥॥१४॥ हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम्॥ मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता॥१५॥

जीके आश्रम में आई॥१०॥ कुछ दिनोंमें जानकीजी के समय पूर्ण होनेपर दो पुत्र उत्पन्न हुये। यह दोनों कुश, लव नामसे विख्यात हुये. महर्षि वाल्मीकिजीने उन दोनों पुत्रोंका जातकर्म और संस्कार किया॥११॥ हे परीक्षित! इधर अयोध्यापुरी में वीर्यवान् लक्ष्मणजीके दो पुत्र उत्पन्न हुये। उनका नाम अंगद और चित्रकेतु हुआ। महात्मा भरतजीके भी तक्ष और पुष्कल नामक दो पुत्र हुये॥१२॥ और शत्रुहनजीके पुत्रों का नाम सुबाहु और श्रुतसेन हुआ। उसी समय भरतजी दिग्विजय करनेके लिये गये और करोड़ों गन्धर्वोका संहार किया॥१३॥ और उनका सब धनं लाकर राजाको देदिया। शत्रुहनजीने मधुके पुत्र लवणासुरका प्राणसंहार करके मधुवन में मथुरापुरी बसाई। जनकनंदिनी जानकीजीका

जब रामचन्द्रजीने त्याग करदिया॥१४॥१५॥ तब कुछ दिन पीछे अपने पुत्र महर्षि वाल्मीकिजी को सौप अपने पति श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करती हुई पृथ्वीके विवर में समाय गईं यह बात श्रीरामचन्द्रजीने भी सुनी। यद्यपि इन महाराज स्वयं ईश्वर ने अपनी बुद्धिके बल से शोक निवारण किया॥१६॥ तोभी प्राणप्यारीके गुणगण बारम्बार याद आनेलगे कि, जिनके याद आनेको यह किसी प्रकार न रोकसके हे राजा परीक्षित्! स्त्री पुरुषोंका अनुराग सब कालमें इसीप्रकार भयका देनेवाला है॥१७॥ जब कि, यह अनुराग अवतारोंकोभी भयदाई हुआ तब गृहस्थी में चित्त लगाये ग्रा म्य पुरुषोंकी तो क्या बात है? तिसके उपरान्त श्रीरामचन्द्रजी अखण्डित ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अग्रिहोत्र करते रहे॥१८॥

ध्यायंती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह॥ तच्छ्रुत्वा भगवान्रामो रुंधन्नपि धिया शुचः॥१६॥ स्मरस्तस्या गुणां स्तांस्तान्नाशक्नोद्रोद्धुमीश्वरः॥ स्त्रीपुंप्रसंग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः॥१७॥ अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः॥ तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत् प्रभुः॥ त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखंडितम्॥१८॥ स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दंडककंटकैः॥ स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात्ततः॥१९॥ नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः॥ रक्षो वधो जलधिबंधनमस्त्रपूगैः किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः॥२०॥ यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि गायंत्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्॥ तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादांबुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥२१॥

तिसके पीछे दण्डक वनके कॉटोंसे जिनके चरणकमल वींधगये थे उन्हीं चरणोंके स्मरणकारी भक्तजनोंके हृदय में स्थापित करके अपने धामको चले गये॥१९॥ हे राजन्! भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका समुद्र में पुलबाँधना और असमूहसे राक्षसादिका वधकार्य यद्यपि कवि लोगोंने आश्च र्यमय वर्णन किया है तो भी इन कार्यों से उनका कुछ यश नहीं हो सक्ता, क्योंकि उनका यश बहुत साम्यसे छुटा हुआ है, सो वैरीको मारनेके समय बन्दर बिचारे क्या उनकी सहायता करसक्ते हैं, इसलिये जिस प्रकार सुग्रीवादिके निकट इन श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय लेना केवल लीला मात्र है। वैसही राक्षसों का वधादि कार्यमी लीलाही है हे महाराज। आप ऐसा न समझ लेना कि, हमारे यह वचन अयुक्त हैं। देवता लोगों की। देवतालोगोंकी

प्रार्थनासे लीला करनेके लियेही भगवान्ने, यह अवतार धारण किया था। अहो! जिनका निर्मल यश दिग दिगन्तर में व्याप्त होकर दिक्पाल हस्तियोंका आच्छादनपुटस्वरूप हुआ है, इसलिये अबतक जिसको युधिष्ठिरादि नृपतियों की सभा में ऋषिलोग निरन्तर गान करते हैं और जिनके चरणकमल देवता और नृपति लोगोंसे सेवित हैं। हम उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीकी शरण में जाते हैं॥२०॥२१॥ अयोध्या निवासियोंने जिन पुण्यात्मा श्रीरामचन्द्रजीको स्पर्श किया, वा दर्शन किया, अथवा जिन्होंने उनको बैठाला था, किंवा जो लोग उनके अनुमत हुये थे, वह सब पुण्यात्मा लोग उस स्थान में गये जहाँ कि, योगी लोग जाया करते हैं॥२२॥ हे परीक्षित्! जो पुरुष श्रवणोंके द्वारा श्रीरामचन्द्रजी के इस आ ख्यानको धारण करेंगे; वह उपशमनिष्ठ हो निःसंदेह कर्मबंधन से छूट जायेंगे॥२३॥ तिसके उपरान्त राजा परीक्षित्श्रीशुकदेवजी से कहने लगे

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोपि वा॥ कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छंति योगिनः॥२२॥ पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन्॥ आनृशंस्यपरो राजन्कर्मबंधैर्विमुच्यते॥२३॥ राजोवाच॥ कथं स भगवान्रामो भ्रातॄन्वा स्वयमात्मनः॥ तस्मिन्वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे॥२४॥ श्रीशुक उवाच॥ अथादिशद्दिग्विजये भ्रातॄंस्त्रिभुवनेश्वरः॥ आत्मानं दर्शयन्स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः॥२५॥ आसिक्तमार्गी गंधोदैः करिणां मदशीकरैः॥ स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव॥२६॥

कि, हें ब्रह्मन्! भगवान् श्रीरामचन्द्रजी स्वयं किस प्रकार वर्तमान थे? उन्होंने अपने भ्राताओंसे जो कि, उनके अंशरूपही थे कैसा व्यवहार किया था और साक्षात् परमेश्वरस्वरूप जो श्रीरामचन्द्रजी थे, उनसे उनके भ्राता और प्रजाके लोग कैसा व्यवहार करते थे॥२४॥ सुतजी बोले कि, हे शौनक! इस प्रकार राजा परीक्षितका प्रश्न सुनकर व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजापरीक्षित्। त्रिभुवनके ईश्वर श्रीरामचन्द्रजीने अयोध्या में आय राजसिंहासन पर बैठनेके पीछे अपने भ्राताओंको दिग्विजय करनेके लिये आज्ञादी, फिर अपनी जातिवाले लोगोंके साथ बन्धुत्व, प्रकाशितकर अपने मित्रोंके साथ निरन्तर पुरीकी देखभाल करनेलगे॥२५॥ जबसे श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक हुआ, तबसे अयोध्यापुरीके सब मार्गो पर बराबर सुगन्धिका जल और हाथियोंके मदका जल छिड़का जाता था, यह अयोध्यापुरी अपने स्वामीको

प्राप्त होकर सब प्रकार से समृद्धिसंपन्न हुई थी॥२६॥ वहाँ के महल, पुरके द्वार, पत्थर से बने हुये थे और द्वार, द्वार पर जल से भरे हुए सुवर्णके कलश सदा रक्खे रहते थे, सर्व स्थानों में सदाही पताका फहराती थीं, गुच्छोंके साथ, सुपारियें, केला और शोभायमान वसन, पाट और कौतुक बनाने के योग्य वस्त्र, माला इत्यादिसे स्थान स्थान में मंगल के तोरण बनाये गये थे॥२७॥२८॥ और जहाँ जहॉपर श्रीरामचन्द्रजी गमन करते थे उसी उसी स्थानमें पुरवासी लोग भेंट साथ लेकर आते थे और यह कहकर आशीर्वाद देते थे कि, हे देव! आपने प्रथम वराहरूप धारण करके इस पृथ्वीका उद्धार किया था, अब इसका आप प्रतिपालन कीजिये॥२९॥ राज्यकी प्रजा बहुत समय के पीछे अपने राजा के आनेका समा चार पाकर उनके दर्शन करनेकी वासनासे स्त्री पुरुष सबही अपने अपने घर छोड़कर महलोंकी छत्तपर चढे हुए थें और अपरितृप्तलोचनसे

प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु॥ विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मंडिताम्॥२७॥ पूगैः सर्वदै रंभाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम्॥ आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम्॥२८॥तमुपेयुस्तत्रतत्र पौरा अर्हणपाणयः॥ आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक त्वयोद्धृताम्॥२९॥ ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः॥ आरुह्य हर्म्याण्यरबिंदलोचनमतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन्॥३०॥ अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वजादिभिः॥ अनंताखिलकोशाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम्॥३१॥ विद्रुमौदुंबरद्वारैर्वैडूर्यस्तंभपंक्तिभिः॥ स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातंस्फटिकभित्तिभिः॥३२॥ चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः॥ मुक्ताफलैचिदुल्लासैः कांतकामोपपत्तिभिः॥३३॥

राजीवलोचन श्रीरामचन्द्रजीको अवलोकन करके उनके ऊपर फूल वर्षाय रहे थे॥३०॥ जिस समय श्रीरामचन्द्रजीने अपने गृहमें प्रवेश, किया उस समय श्रीरामचन्द्रजीका धनागार अत्यन्त अखिल रत्नादिसे परिपूर्ण और अनेकानेक महामोलकी सामग्रियोंसे सुशोभित था. यद्यपि इस धनागारको पहले श्रीरामचन्द्रजी के सम्बन्धीलोग भोग करचुके थे॥३१॥ परन्तु तोभी यह पूर्ण था वहाँके द्वारों की देहलियें मूंगों की बनी हुई थीं थम्भ वैदूर्य्यमणिके बने हुए थे, गृहोंके आंगन मरकतमय होनेके कारण अतिस्वच्छ थे और स्फटिकमणिकी बनी हुई भी अत्यन्त दीप्तिमान् होरही थीं॥३२॥ विचित्र पुष्पों के हारोंसे श्रेष्ठ पट्टिकाओंसे और वस्त्र व रत्नोंकी किरणोंसे यह भवन दीप्तिमान्

होरहा था और चैतन्यतुल्य उज्ज्वल मुक्ताफलोंसे व कमनीय भोग साधनद्रव्य समूहों से यह भवन सबप्रकार सुसज्जित था. सुगन्धित धूपसे सुगन्धित पुष्पमण्डलसे मण्डित और सब अलंकारोंके अलंकारस्वरूप देवताओंकी समान स्त्री पुरुषोंसे यह भवन सेवित हो रहा था॥३३॥३४॥ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी यद्यपि अत्माराम मुनिलोगोंके अग्रगण्य थे, तो भी उस भवन में अपनी प्राणप्यारी श्रीजानकीजीके साथ विहार करते थे,इन रामचन्द्रजीने बहुत वर्षोंतक यथाकालमें सब अभिलषित भोगोंका भोग किया था सब मनुष्य उन श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका ध्यान करते थे उन आत्माराम और धैर्यवान में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने कालानुसार धर्मको विना पीड़ा दिये रमण किया था॥३५॥३६॥

धूपदीपैः सुरभिभिर्मंडितं पुष्पमण्डितैः॥ स्त्रीपुंभिः सुरसंकाशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः॥३४॥ तस्मिन्स भगवान्रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया॥ रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल॥३५॥ बुभुजे च यथाकामं कामान्धर्ममपीडयन्॥ वर्षपूगान्बहून्नॄणामभिध्यातांघ्रिपल्लवः॥३६॥ इति श्रीभा० म० नव० इक्ष्वा० सगरचरिते श्रीरामोपाख्यानं नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ कुशस्य चातिथिस्तस्मान्निषधस्तत्सुतो नभः॥ पुण्डरीकोऽथ तत्पुत्रः क्षेमधन्वाऽभवत् ततः॥१॥ देवानीकस्ततोऽनीहः पारियात्रोऽथ तत्सुतः॥ ततो बलः स्थलस्तस्माद्वज्रनाभोऽर्कसं भवः॥२॥ खगणस्तत्सुतस्तस्माद्विधृतिश्चाभवत्सुतः॥ ततो हिरण्यनाभोऽभूद्योगाचार्यस्तु जैमिनेः॥३॥

इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीरामचरितवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा —द्वादशमें कुशवंशकी, कहूँ कथा समझाय। पुनि इक्ष्वाकुसुत वंशकी, सकल कथा कहौं गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! श्रीरामचन्द्रजीके पुत्र कुशजीके अतिथि नामक जो पुत्र उत्पन्न हुए थे, उनसे निषध उत्पन्न हुए। निषधका पुत्र नभ, तिसका पुत्र पुंडरीक और तिसका सुत क्षेमधन्वा हुआ॥ १॥ क्षेमधन्वाका पुत्र देवानीक, तिसका पुत्र अनीह, अनीहके पारियात्र, पारियात्रका पुत्र बल हुआ, बलका पुत्र स्थल हुआ, स्थलके अर्क हुआ, अर्कके वज्रनाभ उत्पन्न हुआ॥२॥ वज्रनाभका बेटा खगण और तिसका पुत्र विधृति जन्मा, विधृतिसे हिरण्यनाभकी उत्पत्ति हुई।

यह हिरण्यनाभ महर्षि जैमिनिका शिष्य और योगाचार्य था॥३॥ इसके ही निकट याज्ञवल्क्य ऋषिने उस अध्यात्मयोगको सीखा जिस्से महान् सिद्ध होकर हृदयकी गाँठ खुलजाती है॥४॥ इस हिग्ण्यनाभका पुत्र पुष्य और इस पुष्यसे ध्रुवसंधिकी उत्पत्ति हुई. तिसका पुत्र सुदर्शन, तिसका सुत अग्निवर्ण और अग्निवर्णका पुत्र शीघ्र उत्पन्न हुआ। इस शीघ्रसे राजा मरु जन्मे॥५॥ यहमरु योग में सिद्धि प्राप्त करके कलापनामक ग्राममें विराजमान हैं। जब यह कलियुग के अंतमें सूर्यवंशका नाश होता हुआ देखेंगे तब यह अपने फिर वंशको उत्पन्न करेंगे*॥६॥ इनके पुत्र

शिष्यः कौसल्य अध्यात्मं याज्ञवल्क्योऽध्यगाद्यतः॥ योगं महोदयमृषिर्हृदयग्रंथिभेदकम्॥४॥ पुष्यो हिरण्यनाभस्य ध्रुवसंधिस्ततोऽभवत् । सुदर्शनोऽग्निवर्णश्च शीघ्ररतस्य मरुः सुतः॥५॥ योऽसावास्ते योगसिद्धः कलापग्राममाश्रितः॥ कलेरंते सूर्यवंशं नष्टं भावयिता पुनः॥६॥ तस्मात्प्रसुश्रुतस्तस्य संधिस्तस्याप्यमर्षणः॥ सहस्वांस्तत्सुतस्तस्माद्विश्वसाह्वोऽन्वजायत॥ ततः प्रसेनजित् तस्मात्तक्षको भविता पुनः॥७॥ ततो बृहद्बलो यस्तु पित्रा ते समरे हतः॥ एते हीक्ष्वाकुभूपाला अतीताः शृण्वनागतान्॥८॥ बृहद्बलस्य भविता पुत्रो नाम बृहद्रणः॥ उरुक्रियस्ततस्तस्य वत्सवृद्धो भविष्यति॥९॥

प्रसुश्रुत, तिनके संतानसंधि, तिनका पुत्र अमर्पण, अमर्षणका पुत्र सहस्वान् और सहस्वान के विश्वसा हुआ विश्वसाह के प्रसेनजित्। प्रसेनजित से तक्षक॥७॥ तक्षकसे बृहद्बल उत्पन्न हुआ कि, जिसका तुम्हारे पिता अभिमन्युने संग्राम में संहार किया था है परीक्षित! ऊपर कहे हुये राजा इक्ष्वाकुवंशमें होगये हैं अब उनका वृत्तान्त सुनो जो कि, आगेको होंगे॥८॥ इसके पीछे बृहद्बलके बृहद्रणनामक पुत्र होगा तिसका

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*शंका — त्रिलोकीमें जो प्राणी जन्म लेता है उस प्राणीको काल खा लेता है परन्तु राजा मरुको कालने क्यों नहीं खाया? जो राजा मह कलियुग के नाश हुए पीछे सूर्यदेशको फिर उत्पन्न करेना

उत्तर — राजा मरु बाल्यावस्था से परमेश्वरका भजन करने लगा था और मजन करते करते बड़ा योगी होगया और योगियोंको काल किसी प्रकार नहीं खा सक्ता। क्योंकि काल तो योगियोंका रूप देखकर दूरसेही उरता है इसलिये राजा मरुको फालने नहीं खाया॥

पुत्र उरुक्रिय होगा उरुक्रियका पुत्र वत्सवृद्ध॥९॥ इस वत्सवृद्धसे प्रतिव्योम, तिसके भानु और इस भानुसे सेनापति दिवाकका जन्म होगा. तिसका पुत्र सहदेव, तिसका पुत्र वीरबृहदश्व तिसका पुत्र भानुमान् होगा॥१०॥ इस भानुमान्का पुत्र प्रतीकाश्व, तिससे सुप्रतीक जन्मग्रहण करेंगे. तिसके मरुदेव, तिसके सुनक्षत्र और सुनक्षत्र से पुष्कर नामक पुत्र उत्पन्न होगा॥११॥ तिसके अन्तरिक्ष, तिसका पुत्र सुतपा, तिसके पुत्र अमित्रजित् तिसका पुत्र बृहद्राज, बृहद्राज के बर्हि और बर्हिसे कृतञ्जयका जन्म होगा॥१२॥ कृतञ्जयका पुत्र रणञ्जय और तिस से संजय की उत्पत्ति होगी। सञ्जयका पुत्र शाक्य, तिसका पुत्र शुद्धोद और तिसका पुत्र लांगल होगा॥१३॥ लांगल से प्रसेनजित्, तिससे क्षुद्रक और क्षुद्रकसे रणक और

प्रतिव्योमस्ततो भानुर्दिवाको वाहिनीपतिः॥ सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्वोऽथ भानुमान्॥१०॥ प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोऽथ तत्सुतः॥ भविता मरुदेवोऽथ सुनक्षत्रोऽथ पुष्करः॥११॥ तस्यांतरिक्षस्तत्पुत्रः सुतपास्तदमित्रजित्॥ बृहद्राजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात्कृतंजयः॥१२॥ रणजयस्तस्य सुतः संजयो भविता ततः॥ तस्माच्छाक्योऽथ शुद्धोदो लांगलस्तत्सुतः स्मृतः॥१३॥ ततः प्रसेनजित्तस्मात्क्षुद्रको भविता ततः॥ रणको भविता तस्मात्सुरथस्तं नयस्ततः॥१४॥ सुमित्रो नाम निष्ठांत एते वार्हद्वलान्वयाः॥ इक्ष्वाकूणामयं वंशस्सुमित्रांतो भविष्यति॥ यतस्तं प्राप्य राजानं संस्था प्राप्स्यति वै कलौ॥१५॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे नवमस्कन्धे इक्ष्वाकुचरिते कुशान्वयवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥॥ श्रीशुक उवाच॥ निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम्॥ आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः॥१॥

रणकसे सुरथ जन्म लेगा॥१४॥ हे महाराज परीक्षित्। तिसके यहाँ सुमित्र जन्मग्रहण करेगा और यह सब राजा बृहद्बलके वंशमें उत्पन्न होंगे, हे राजन् ! इक्ष्वाकु के वंशमें सुमित्र तक यह सब राजा होंगे। और सबसे पीछे सुमित्र के राजा होनेपर कलियुग में यह वंश ध्वस्त हो जायगा॥१५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां कुशान्वयवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा —तेरह में इक्ष्वाकु सुत, निमिका वंश बखान। तिसमें प्रगटे जनकसे, ज्ञानी परम सुजान॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इक्ष्वाकुके पुत्र निमिने यज्ञ आरम्भ करके वसिष्ठ महर्षिजीको अपना ऋत्विज वरण किया, तब वसिष्टजी बोले कि, यज्ञ करनेके लिये देवराज इन्द्र हमको वरण कर चुके हैं॥१॥

इस कारण बिना इन्द्रका यज्ञ समाप्त किये हुये हम तुमसे यज्ञ नहीं करा सक्ते हैं जबतक इन्द्रका यज्ञ समाप्त हो तर्वतक ठहरे रहो यह सुनकर महाराज, निमि कुछ न बोले चुपचाप रहे। और महर्षि वसिष्ठजी देवराज इन्द्रका यज्ञ करने लगे॥२॥ वसिष्ठजीके जानेपर महाराज निमि ने विचारा कि, इस जीवनका क्या ठिकाना है? यदि इन्द्रका यज्ञ समाप्त होने के प्रथमंही हमारी मृत्यु हो जाय, तो फिर यज्ञ न हुआ, इसलिये जबतक

तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय॥ तूष्णीमासीद्ग्रहपतिः सोपींद्रस्याकरोन्मखम्॥२॥ निमिश्चलमिदं विद्वान्सत्त्रमारभतात्मवान्॥ ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद्यावता गुरुः॥३॥ शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः॥ अशपत्पतताद्देहो निमेः पंडितमानिनः॥४॥ निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने॥ तवापि पतताद्देहो लोभाद्धर्ममजानतः॥५॥

इसके कुलगुरु वसिष्ठजी न आवें तबतक किसी औरही ऋत्विकसे यज्ञ आरम्भ कराऊं। यह विचार निमिराजाने यज्ञारम्भ किया॥ उपरान्त महर्षि वसिष्टजी इन्द्रका यज्ञ समाप्त कराय, राजा निर्मिके स्थानपर आये, शिष्यका अन्याय देखकर मुनिको क्रोध उत्पन्न हुआ और क्रोध करके यह शाप दिया कि, पण्डिताभिमानी इस निमिका देह शीघ्र छूट जाये॥४॥ जब कुलगुरु वसिष्ठजीने इस प्रकार अधर्मवर्ती

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*शंका — राजा निमि बडा, ज्ञानी और व्यानी या वसिष्टमुनि आदिक मुनियों में पूजन करने योग्य वडा महात्मा पुरुष था, उन दोनोंने फिर मूर्खोकी समान काम क्यों किया ? राजाने मुनिको शाप दिया, मुनिने राजाको शांपुदिया, यह क्या कारण

उत्तर — जब नारदमुनि, स्त्रीके लिये मोहित होगये और विवाह करनेकी इच्छा की, वडे कामियोंकी समान ससारमें भ्रमण करते फिरे, तब राजा निमि और वसिष्ठ, वह दोनों उनको देखकर बहुत हँसे, तब दोनों जनों को नारद मुनिने शापदिया कि, हे वसिष्ठमुनि! हे राजा निमि! हम खीके लिये दुखी हो रहे हैं, हमारे मनमें विवाह करनेकी इच्छा नहीं है परन्तु भगवान्की मायाने हमको मोहित करदिया है, इसपर मी तुम दोनोंजन हमारी हँसी करते हो, इसलिये तुम दोनोजने बहुत शीघ्र मायाके फन्दमें फँसकर हमारी समान बडी दुर्गतिको प्राप्त हो भोगे, इसलिये दोनों जनोंकी बुद्धि भ्रष्ट होगई थी॥

होकर शाप दिया, तब राजा निमिभी उनको यह शाप देने लगा कि, “तुमने लोभके वश होकर धर्मकी ओरको नहीं देखा इसलिये तुम्हारादेहभी छूटजाय “॥५॥ यह कहकर राजा निमिने अपनी देहको छोड़ दिया। उसी समय वसिष्ठ ऋत्विक्का भी देह छूट गया, परन्तु कुछ कालके पीछे मित्रावरुणके यज्ञमें उर्वशीके गर्भसे वसिष्ठजीने फिर जन्म लिया, अर्थात् यज्ञ करते करते उर्वशीको देखकर मित्रावरुणजीका जो वीर्य गिरा, उस वीर्यको उन्होंने कलशमें रक्खा था, तिससेही फिर वसिष्ठजी उत्पन्न हुये॥६॥ इधर जब यज्ञ करते करते राजा निमिका देह छूट गया, तब मुनि लोगोंने सुगंधित वस्तु में (उत्तम तेलमें) उनके शरीरको रखदिया, इसके उपरान्त जब यज्ञ समाप्त होगया तो आयेहुये देवता लोगों से बोले कि “आप लोग यदि प्रसन्न हो और सामर्थ्य रखते हो तो राजाका यह देह सजीव हो उठे” देवता लोगोंने

इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः॥ मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः॥६॥ गंधवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः॥ समाप्ते सत्त्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान्॥७॥ राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि॥ तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबंधनम्॥८॥ यस्य योगं न वांछंति वियोगभयकातराः॥ भजंति चरणांभोजं मुनयो हरिमेधसः॥९॥ देहं नावरुरुत्सेहं दुःखशोकभयावहम्॥ सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा॥१०॥ देवा ऊचुः॥ विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम्॥ उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः॥११॥

कहा ऐसा ही हो। तब राजा निमिका शरीर गंध वस्तुमेंसे ही बोला कि, हे प्रिय ! हमें कभी देहका बन्धन न होवे॥७॥८॥ हरिसेवक मुनिलोग वियोगके भयसे कातर हो कदापि देह धारण करनेकी वाञ्छा नहीं करतें। वह केवल मुक्ति के लिये भगवान्के चरणकमलकी सदा वन्दना किया करते हैं॥९॥ और दुःख, शोक, भयके देनेवाले मनुष्य के शरीरकी में इच्छा नहीं करता, क्योंकि इस देहकी सर्वत्र मृत्यु है, जैसे मछलियोंकी जलमें सर्वत्र मृत्यु है॥१०॥ तब देवता लोगोंने कहा कि, यह निमि विनाही देहके सब प्राणियोंके नेत्रोंपर इच्छानुसार वास करै॥ इसका तात्पर्य यह है कि, ऐसा होनेसे मुनिलोग जिसलिये राजा के जीवनकी प्रार्थना करते हैं; वह प्रार्थना सिद्ध होजायगी और राजाको देहका संबंधभी नहीं होगा. हे राजन्! इसी वाक्यके अनुसार निमि जीवित हुए थे, नेत्रोंपर पलकका उघड़ना और

पडना इन्हीं राजा निमिके कियेसे होता है॥१३॥ परन्तु तिसके पीछे महर्षियोंने विचारा कि, विना राजाके राज्य सदा प्रजाका भय दिलाने वाला है। इसलिये सबने राजकुमारकी कामना करके इन निमिके देहको मथा, मथन करनेसे राजा निमिके मृतक देह से एक कुमार उत्पन्न हुआ॥१२॥ उस निमिके पुत्रका असामान्य जन्म होनेके कारण जनक नाम हुआ। इस शब्दका अर्थ उत्पादक है। और विदेहसे जन्म ग्रहण करनेके कारण इनका एक नाम विदेह हुआ और मथनेसे जन्म होनेके कारण एक नाम मिथिल हुआ अथवा मिथिलापुरीके निर्माण कर्ता होने के कारण मिथिलाधिपति कहलाते थे॥१३॥ इन जनकके पुत्र उदावसु, इनके पुत्र नन्दिवर्द्धन हुए. नंदिवर्द्धनका पुत्र सुकेत और सुकेतका पुत्र देवरात हुआ॥१४॥ देवरातसे बृहद्रथका जन्म हुआ, तिसका पुत्र महावीर्य, महावीर्यका पुत्र सुधृति, तिसका सुत धृष्टकेतु,

अराजकभयं नृणां मन्यमाना महर्षयः॥ देहं ममंथुः स्म निमेः कुमारस्समजायत॥१२॥ जन्मना जनकः सोऽभूद्वैदेहस्तु विदेहजः॥ मिथिलो मनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता॥१३॥ तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नंदिवर्धनः॥ ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते॥१४॥ तस्माद्र बृहद्रथस्तस्य महावीर्यस्सुधृत्पिता॥ सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वे हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः॥१५॥ मरोः प्रदीपकस्तस्माज्जातः कृतिरथो यतः॥ देवमीढस्तस्य सुतो विश्रुतोथ महाधृतिः॥१६॥ कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथतत्सुतः॥ स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत॥१७॥ ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम्॥ सीता सीराग्रतो जाता तस्मात्सीरध्वजः स्मृतः॥१८॥ कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजोनृपः॥ धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौकृतध्वजमितध्वजौ॥१९॥

तिसका पुत्र हर्यश्व और तिससे मरुकी उत्पत्ति हुई॥११॥ मरुका बेटा प्रदीप, तिससे कृतरथने जन्म लिया. तिसका पुत्र देवमीढ और तिससे विश्रुत उत्पन्न हुआ और उससे महाधृतिने जन्म लिया॥१६॥ महाधृतिका पुत्र कृतरात, तिसका पुत्र महारोमा और महारोमाका बेटा स्वर्णरोमा हुआ तिससे ह्रस्वरोमाने जन्म ग्रहण किया॥१७॥ तिसके सीरध्वज जन्मा, ह्रस्वरोमा राजा यज्ञके लिये भूमि जोतरहे थे, उसी समय उसकी सीर अर्थात् हलके अग्र भागसे इस पुरुषका जन्म हुआ, इस कारणसे यह सीरध्वज कहलाता था॥१८॥ सीरध्वजका पुत्र कुशध्वज तिसका पुत्र धर्मध्वज धर्मध्वजके कृतध्वज और मितध्वज नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए॥१९॥

अनेकवार चन्द्रमांके निकट गये और उनसे अपनी भार्याको माँगा, परन्तु मदमत्तताके कारण चन्द्रमाने अपनी गुरुभार्याको नहीं त्यागा। बस इसीलिये दैत्य व सुरोंमें महा संग्राम हुआ था॥५॥ बृहस्पतिजीसे दैत्यगुरु शुक्राचार्य डाह रखते थे इसीलिये उन्होंने अपने शिष्य असुर लोगोंके साथ चन्द्रमाको ग्रहण किया अर्थात् चन्द्रमाका पक्ष लिया और भूतेश्वर (महादेव) अंगिराजीके निकट विद्या पानेसे सब भूतको साथ ले अपने गुरुपुत्र बृहस्पतिजीकी ओर हुए॥ ६॥ देवराज इन्द्रभी अपने सब देवताओंके संग मिल अपने गुरु बृहस्पतिजीकी ओर गये। तिसके पीछे ताराके लिये सुर और असुरोंका नाशकारी महाघोर संग्राम होनेलगा॥७॥ हे राजन्! जब कुछ दिनोंतक युद्ध हुआ। तब देवगुरु बृहस्पतिजीने ब्रह्माजी से जाकर यह सब वृत्तान्त कहा। यह सुन महात्मा ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बुलाकर बहुत डाँटा। और तारा बृहस्पतिजीको

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषादग्रहीत्सासुरोडपम्॥ हरो गुरुसुतं स्नेहात्सर्वभूतगणावृतः॥६॥ सर्वदेवगणोपेतो महेंद्रो गुरुमन्वयात्॥ सुरासुरविनाशोऽभूत्समरस्तारकामयः॥७॥ निवेदितोऽथांगिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत्॥ तारांस्वभर्त्रे प्रायच्छदंतर्वत्नीमवैत्पतिः॥८॥ त्यजत्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रादाहितं परैः॥ नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सांतानिकः सति॥९॥ तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम्॥ स्पृहामांगिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च॥१०॥

दिला दी॥८॥ बृहस्पतिजी अपनी भार्या ताराको पायकर जानगये कि, यह अवला अन्तर्वत्नी अर्थात् गर्भवती हुई है। इसलिये ताराके ऊपर घृणा प्रकाश करके कहने लगे। अरे दुर्म्मति रमणि!हमारे क्षेत्र में औरका गर्भ धारण किया। इसे शीघ्र गिरादे। अरे असति! तू ऐसा समझकर न डरना कि, गर्भगिराने के पीछे हम तुझे मार डालेंगे यद्यपि हमारे क्रोधकी अनि बहुत भड़क रही है तो भी तुझे स्त्री जातिको हम क्या भस्म करेंगे? और अधिक करके हम सन्तानकी इच्छा करते हैं॥९॥ पतिके यह वचन सुनकर तारा अतिलज्जित हुई और अपने गर्भ से तत्कालही कनक प्रभासम सुकुमारको छोड़ दिया। हे राजन्! इस परम कुमारको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनोंने लेना चाहा॥ १०॥

और दोनों परस्पर कहने लगे कि, यह बालक तुम्हारा नहीं है हमारा है इसलिये इन दोनों जनोंमें बहुत झगडा हुआ, पुत्रके लिये इन दोनोंमें झगड़ा होता हुआ देखकर ऋषि और देवता लोगोने तारा से पूंछा कि, यह वास्तव में किसका पुत्र है, परन्तु तारा लाजके मारे कुछ भी न कहसकी और चुप होरही॥११॥ इसलिये वह बालक अलीक लाज से कोपायमान हो अपनी माता से बोला “अरी अशुभे! बोलती क्यों नहीं? शीघ्र मेरे सामने अपना दोष वर्णन कर”॥१२॥ तिसके पीछे ब्रह्माजीने एकान्त में ताराको बुलाय समझाया बुझाया और कहा हे वत्से! बतलाओ यह किसका पुत्र है? तब तारा नीचेको शिर झुकाय लाजसहित धीरेसे बोली कि “पुत्र तो यह चन्द्रमाजीका है” ताराके मुखसे यह वचन निकलतेही चन्द्रमाने उस पुत्रको लेलिया॥१३॥ भगवान् ब्रह्माजीने इस बालक की गंभीर बुद्धि देखकर इसका नाम “बुध” रक्खा है. हे राजन्! चन्द्रमा इस पुत्रको पाकर

ममायं न तवेत्युच्चैस्तस्मिन्विवदमानयोः॥ प्रपच्छऋषयो देवा नैवोचे ब्रीडिता तु सा॥११॥ कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया॥ किं नावोचस्यसदवृत्ते आत्मावद्यं वदाऽऽशु मे॥१२॥ ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सांत्वयन्॥ सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत्॥१३॥ तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप। बुद्ध्या गंभीरया येन पुत्रेणाऽऽपोडुराण्मुदम्॥१४॥ ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः॥ तस्य रूपगुणौदार्यशीलंद्रविणविक्रमान्॥॥१५॥ श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान्सुरर्षिणा॥ तदंतिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता॥१६॥ मित्रावरुणयोः शापादापन्ना नरलोकताम्॥ निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कंदर्पमिव रूपिणम्॥१७॥ धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदंतिके॥ स तां विलोक्य नृपतिर्हर्षेणोत्फुल्ललोचनः॥ उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः॥१८॥

परम हर्षित हुआ॥१४॥ इस बुधसे इलाके गर्भ में पुरूरवाका जन्म हुआ यह पुरूरवा अत्यन्त विख्यात हुआ॥१५॥ एक समय देवर्षि नारदजी देवराज इन्द्रकी सभा में पुरूरवाके रूप, गुण, धन, उदारता, शीलता और विक्रमका गान कररहेथे। देववेश्या उर्वशी यह गुण सुनकर कामके वश होगई और राजाके निकट स्वयंही आई॥१६॥ हे परीक्षित्!तुम ऐसी शंका मत करना कि, उर्वशी स्वर्गकी अप्सरा होकर मनुष्य के निकट क्यों गई? यह अप्सरा मित्रावरुण के शापसे इस समय मनुष्य भावको प्राप्त हुई थी इसलिये पुरुषश्रेष्ठपुरूरवाको कामदेवकी समान रूपवान् सुनकर यह अधीर हो उनके निकट जाकर खड़ी होगई॥१७॥ हे राजन्! उस उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र आनन्दके मारे खिल

गये। राजाने पुलकित हो मधुर वचनसे कहा॥१८॥ हे सुन्दरी! हमारे साथ विहार करो। बहुत वर्षोंतक हमारा दोनों का परमसुख से रमण होगा और मैं यही चाहता हूं कि, मेरा तुम्हारा स्नेह ऐसाही बनारहे॥१९॥ उर्वशी बोली कि. हे सुन्दर ! तुम्हारे प्रति किसके नेत्र और मन अनुरागी न होंगे? तुम्हारे हृदयको प्राप्त हो रमण करनेकी इच्छा से कोई इस हृदयसे दूर होने की इच्छा न करेगी॥२०॥ तिसके उपरान्त शा पके अंत में प्रतिज्ञाभंग करने के छल से जानेके लिये कहने लगी कि, हे प्रियवर में प्रथमदी आपसे यह वचन माँगे लेती हूं कि, मेरे यह दोनों भेड़ों के बच्चे तुमको धरोहरकी समान रखनेपडेंगे और हमारे साथ तुम रमण करो। क्योकि जो पुरुष बडाई के योग्य है उसकोही स्त्रिये वरण करती हैं। इसलिये विजातीय होनेपर भी तुम्हारे वरण करने में हमें कोई दोष नहीं है॥२१॥ हे वीर! परन्तु मैं तुम्हारे निकट रहकर घृतभक्षण करूंगी

राजोवाच॥ स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम्॥ संरमस्व मया साकं रतिनीं शाश्वतीः समाः॥१९॥ उर्वश्युवाच॥ कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुंदर॥ यदंगांतरमासाद्य च्यवते न रिरंसया॥२०॥ एतावरणकौ राजन्न्यासौ रक्षस्व मानद। संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः॥२१॥ वृतं मे वीर भक्ष्यं स्यान्नेक्षे त्वाऽन्यत्र मैथुनात्॥ विवाससं तत्तथेति प्रतिपेदे महामनाः॥२२॥ अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम्॥ को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम्॥२३॥ तया स पुरुषश्रेष्ठोरमयंत्या यथार्हतः॥ रेमे सुरविहारेषु कामं चैत्ररथा दिषु॥२४॥ रममाणस्तया देव्या पद्मकिंजल्कगंधया॥ तन्मुखामोदमुपितो मुमुदेऽहर्गणान्वन्॥२५॥

और मैथुनके अतिरिक्त किसी समय तुमको वस्त्ररहित न देखें। जबतक इतनी बातें आप मेरी स्वीकार न करलंगे तबतक में आपके संग कदापि प्रसंग न करूंगी. राजा पुरूरवाने उसकी सुन्दरताईपर मोहित होकर यह सब बातें अंगीकार करली॥२२॥ और कहा कि, हे सुन्दरि ! तुम्हारा आश्चर्यमय रूप और आश्चर्यमय भाव देखते ही मनुष्य का हृदय मोहित होजाता है। तुम स्वर्गवासी देवी अपने आप यहाँ आई हो। फिर कौन मनुष्य तुम्हारी सेवा न करेगा?॥२३॥ हे राजन्! यह कहकर पुरुषप्रधान पुरूरवा उर्वशीके साथ देवतालोगोंके विहार स्थल चैत्ररथादि वनोंमें विहार करनेलगे।और उर्वशीभी यथायोग्य उस नृपालको आनन्द देनेलगी॥२४॥ इस देवी उर्वशी के शरीर में कमलके परागकी समान सुगंधि

निकलती थी। उव्वशी के साथ विहार करके राजा इसके वदनकी सुगन्धिसे बहुत दिनतक हर्ष पातेरहे॥२५॥ इस ओर पुरमें देवराज इन्द्रने उर्वशीका दर्शन न पायकर गन्धर्वोको अज्ञा दी कि, वह उर्व्वशी जहाँपर हो वहाँ से शीघ्र लेआओ! क्योंकि विना उर्व्वशीके हमारे स्थानकी शोभा नहीं होती॥२६॥ आधीरात के समय जब महाअन्धकार हुआ उस समय वह इन्द्रके भेजे गन्धर्व मृत्युलोक में आये और उन मेढोंको हरण करके चल दिये जिनको धरोहरकी भाँति उर्वशीने पुरूरवा के निकट सौंपाथा॥२७॥ उन दोनों मेढोंको उर्व्वशी पुत्रके समान मानती थी, जब उन मेढोंको गन्धर्व गण हरण करके लेजानेलगे तब वह अति आर्त्त वाणीसे चिल्लाये। उस चिल्लाने के शब्दको सुन उर्व्वशी देवलोक में जानेकी वासनासे खेदसहित राजा पुरूरवासे कहने लगी हा; ! मैं इस कुत्सित स्वामीसे मारी पड़ी, इस नपुंसक में कुछ भी पुरुषार्थता नहीं है। बरन यह अपने आपको वृथाही वीर

अपश्यनुशीमिन्द्रो गन्धर्वान्समचोदयत्॥ उर्वशीरहितं महामास्थानं नातिशोभते॥२६॥ त उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते॥ उर्वश्या उरणौ जहुर्न्यस्तौ राजनि जायया॥२७॥ निशम्याक्रंदितं देवी पुत्रयोर्नीयमानयोः॥ हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना॥२८॥ यद्विस्रंभादहं नष्टा हृतापत्या च दस्युभिः॥ यः शेते निशि संत्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान्॥२९॥ इति वाक्सायकैर्विद्धः प्रतोत्रैरिव कुंजरः॥ निशि निस्त्रिंशमादाय विवस्त्रोऽभ्यद्रवदुषा॥३०॥ ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतंत स्म विद्युतः॥ आदाय मेषावायांतं नग्नमैक्षत सा पतिम्॥३१॥

जानकर अभिमान करता है। इसके ऊपर विश्वास करने से मेरा नाश होगया। हाय! मेरे पुत्रसमान मेढ़ोंको चोर हरण करके लिये चलेजाते हैं। अरे! यह पुरुष कैसा? कि, जो नारीकी समान भीत रहकर दिन रात घर में पड़ा रहता है, हे राजन्! जिसप्रकार हाथी अंकुशसे विद्ध होता है, उसीप्रकार उर्व्वशीके वचन बाणके समान राजाके हृदय में बिंधगये और उसी समय खड्ग ग्रहण करके क्रोधके मारे वस्त्र रहित मेढोंको हरनेवालोंपर झपटा॥२८॥२९॥३०॥ गंन्धर्वोने देखा कि, राजा हमारे पीछे आता है तब गन्धर्वगणोंने मेढोंको छोड़ दिया। और विशेष द्युतिमान होकर वहाँ प्रकाश करने लगे। तब राजा उन मेढोके बच्चों को लेकर वहाँ आया, परन्तु उस समय उर्वशीने उनको नग्न देखलिया। हे कुरुश्रेष्ठ। “मैथुनके

अतिरिक्त नंगा न देख सकूँगी” इस बातको विचार वह अप्सरा वहाँसे चलीगई। इसके उपरान्त राजा पुरूरवा सेजपर उव्वशीको न पायकर अत्यन्त विमन हुआ। और उसीमें चित्त लगाय कातरता प्रकट करके शोकके वेगसे उन्मत्तकी नाईं पृथ्वीपर भ्रमण करनेलगा॥३१॥३२॥ कुछ दिनों पीछे कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तीर वह अप्सरा पाँच सखियो के साथ राजा पुरूरवाको दिखाई दी, तब राजाने सिटपिटायकर हर्षित हो यह वचन कहे॥३३॥ हे प्यारी! हे निर्दयी बाला! रहो रहो। हे सुमुखि! मैं अबतक सावधान नहीं हूं प्राणेश्वरि! आओ तो दोनों एक स्थानपर बैठकर बात चीत करें॥३४॥ हे देवि! हमारा यह कमनीय शरीर तुमसे दूर कियाहुआ जो यहाँ आया है अभी यहाँ गिरता है और देखो तुम्हारी

ऐलोपि शयने जायामपश्यन्विमना इव॥ तच्चित्तो विह्वलः शोचन्वभ्रामोन्मत्तवन्महीम्॥३२॥ स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः॥ पंच प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः॥३३॥ अहो जाये तिष्ठतिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि॥ मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै॥३४॥ सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया॥ खादंत्येनं वृका गृध्रास्त्व त्प्रसादस्य नास्पदम्॥३५॥ उर्वश्युवाच॥ मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाऽयुका इमे॥ कापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा॥३६॥ स्त्रियो करुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः॥ नंत्यल्पार्थेऽपि विस्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत॥॥३७॥ विधायालीकविस्रंभमज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः॥ नवंनवमभीप्संत्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः॥३८॥

प्रसन्नता का पात्र न होनेसे भेडिये और गिद्ध इसको भक्षण कर जायेंगे॥३५॥ राजाके यह वचन सुनकर उर्व्वशी बोली कि, हे राजन्। मरो नहीं तुम पुरुष हो धैर्य धारण करो। यह भेडिये अथवा प्रसिद्ध इन्द्रियें तुमको भक्षण न करें अर्थात् तुम इंद्रियों के वश मत होओ। हे राजन्! कहीं भी स्त्रियोंकी मित्रता नहीं स्थिर होती क्योंकि इनका हृदय भेडियेकी समान होता है॥३६॥ स्त्रियोंको स्वभावसेही करुणा नहीं होती, यह क्रूर और शान्तिरहित कहलाती हैं। अपने प्रीतमके लिये साहस करती हैं। थोडीसी बात के लिये यह विश्वासघातिनी पति अथवा भ्राताको प्राणोंसे मार डालती है॥३७॥ अधिक करके जो पुंश्चली अर्थात् व्यभिचारिणी हैं। इच्छानुसार घूमती हैं वह तो सौहार्दको एक साथ ही छोड़ देती हैं। वह अज्ञानी पुरुषके

सामने बाहरी और अलीक प्रेम प्रकट करती है॥३८॥ जब राजाने बहुत विनती की, तब उर्वशी बोली कि, वर्षके अन्तमें तुम मेरे साथ एक दिन विहार कर सकोगे। और उससे ही तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होगे॥३९॥ उसके उपरान्त राजा पुरूरवा देवी उर्वशीको गर्भवती देख उसके वचन मान अपने नगरको चला आया परंतु वर्षके व्यतीत होनेपर फिर वहॉपर आया जहाँ कि, पहले उर्वशी से भेंट हुई थी. वीर प्रसविनी उर्वशीको देखकर राजाको परम हर्ष हुआ। और प्रमुदितचित्तसे उर्वशीके पास एक रात बास किया॥४०॥ फिर वियोगके भयसे राजाका चित्त व्याकुल हुआ।उर्वशी दीन राजाको विग्हातुर देखकर कृपा करके बोली हे राजन्! हमारे लिये शोक क्यों करते हो? गंधर्वगो विनय करों। वह गन्धर्वगण प्रसन्न होकर हमको सदाके लिये तुम्हें देदेंगे॥४१॥ हे परीक्षित! उर्वशीके यह वचन

संवत्सरां हि भवाने रात्रं मयेश्वर॥ वत्स्यत्यपत्यानि च ते भविष्यत्यपराणि भोः॥३९॥ श्रीशुक उवाच॥ अंतर्वतीमुपलभ्य देव प्रययौ पुरम्॥ पुनर गतोऽब्दांत उर्वशीं वीरमातरम्॥४०॥ उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तयाऽनिशम्॥ अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम्॥४१॥ गंधर्वानुपधावे मरतुभ्यं दास्यंति मामिति॥ तस्य संस्तुतस्तुष्टा अग्निस्थाली ददुर्नृप। उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन्वने॥४२॥ स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि॥ त्रेतायां संप्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत॥४३॥ स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भ विलक्ष्य सः॥ तेन है अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया॥४४॥

भवानेकरानं सुनकर राजा पुरूरवाने गन्धवों की बड़ी स्तुति की कि, जिससे गन्धर्वगण बहुत ही शीघ्र प्रसन्न होगये उन्होने प्रसन्न होकर राजाको अनि ( स्थाली ( टोकनी ) दी। उसके देनेका तात्पर्य यह था कि, जब इससे अग्रिकर्म किया जायगा, तबहीं उर्वशी प्राप्त हो जायगी। परंतु राजा पुरूरवाने उस अग्निस्थालीकोही उर्वशी समझा और उसको काँखमें दबाये वन वनमें घूमता फिरा। परन्तु फिर राजाका भ्रम दूर हो गया, अर्थात् यह समझलिया कि, यह उर्वशी नहीं किन्तु अग्निस्थाली है॥४२॥ उसके उपरान्त इस अग्निस्थालीको वन में डालकर घर आया और घर में आय नित्य रात्रिके समय उर्वशीका ध्यान करने लगे। तिससे त्रेतायुग के आरंभके समय राजाके हृदय में कर्मबोधक तीन वेद उत्पन्न हुये॥४३॥ उसके पीछे राजा फिर वहीं पर गया कि, जहॉ अग्निस्थाली पड़ी थी। और देखा कि, शमीवृक्षके गर्भ में एक चलद्रोणीका पेड

जमा है उसमें अग्निका होना भली भाँति से देख उर्वशीलोककी कामना से उस राजाने उस चलद्रोणीके पेड़से दो अरणी बनाई। और उस अग्रिको मथा; हे राजन्! राजा पुरूरवाने किस प्रकारसे अरणियोंसे अग्नि निकाली, सो तुम सुनो। मंत्र के अनुसार नीचेकी अरणीको उवशी और उत्तरकी अरणीको आत्मा समझकर और इन दोनोंमें जो काठका टुकड़ा था, उसका यह राजा पुत्रकी भांति ध्यान करने लगे॥४४॥४५॥ जैसेही वह अरणी मथीगई कि, उनमें से अग्नि निकली यह अग्रि साधारण नहीं। इससेही भोज्यधन जन्म लेता है उसके पीछे वह अग्नि त्रयीविद्याकी विधिके अनुसार कहे हुये संस्कारसे त्रिवृत अर्थात् आहवनीयादि त्रिरूप हुई। फिर राजाने उस त्रिवृत अग्निको अपना पुत्र कहकर मान॥४६॥ और उर्वशीलोककी कामना करके उस अग्निसे सर्वदेवमय यज्ञेश भगवान् वासुदेवका यज्ञ इस राजाने किया॥४७॥ हे राजन्! पहले सत्ययुग में सब प्रकार के वाक्योका बीजभूत

उर्वशीं मंत्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम्॥ आत्मानमुभयोर्मध्ये यत्तत्प्रजननं प्रभुः॥४५॥ तस्य निर्मेथुनाज्जातो जातवेदा विभावसुः॥ त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितत्रिवृत्॥४६॥ तेनायजत यज्ञेशं भगवंतमधोक्षजम्॥ उर्वशीलोकमन्विच्छन्सर्वदेवमयं हरिम्॥४७॥ एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः॥ देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च॥४८॥ पुरूरवस एवासीत्त्रयी त्रेतामुखे नृप॥ अग्निना प्रजया राजा लोकं गांधर्वमेयिवान्॥॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महा०नवमस्कंधे सोमवंशचरिते ऐलोपाख्याने चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ ऐलस्य चोर्वशीगर्भात्षडासन्नात्मजा नृप॥ आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः॥ १॥

ओंकारही एक मात्र वेद था, नारायणही अकेले देवता थे। अग्निही अकेला लौकिक था वर्ण भी एकही था और अग्निभी एकही था॥४८॥ फिर त्रेतायुग के आरम्भ में पुरूरवा से तीन वेद उत्पन्न हुये। इसलिये इस युग में यह राजा अग्रिरूप प्रजाद्वारा गंधर्वलोकको प्राप्त होकर उर्वशीके साथ विहार करने लगा। सत्ययुगमें सब ही पुरुष सत्त्वगुणप्रधान थे. इसलिये सवही ध्याननिष्ठ हुआ करते थे. उसके पीछे रजोगुणप्रधान त्रेतायुग में वैदादिके विभागसे कर्ममार्ग प्रकाशित हुआ है॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंध भाषाटीकायाम् ऐलोपाख्यानवर्णनं नाम चतुर्दशो ध्यायः॥ १४॥ दोहा — पुरुवाके वंश में, भये गाधि गम्भीर॥ ता दौहित्र के पुत्र भे, परशुराम रणधीर॥१॥ इसके उपरांत श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे परीक्षित्। राजा पुरूरवाके उर्वशीके गर्भ से ६ पुत्र उत्पन्न हुये जिनके नाम यह हैं। आयु, श्रुतायु, सत्यायु, स्य, विजय और जय॥१॥

इनमें श्रुतायुके वसुमान्, सत्यायुके श्रुतञ्जय हुआ, रयका पुत्र एकनामा हुआ। जयकी संतान अमित हुई॥२॥ विजयका पुत्र भीम हुआ भीमका दुन काञ्चन और काञ्चनके होत्रक जन्मा। इस होत्रकके उन जहुका जन्म हुआ कि जिन्होने एकही घंटमें सब गंगाजीका जल पान कर लियाथा जहुके पुरु जन्मा उसका बलाक तिसका बेटा अजक॥३॥ अजकके यहाँ कुशने जन्म लिया। कुशके कुशाम्बु, मूर्तय, वसु और कुशनाभ यह चार पुत्र

श्रुतायोर्वसुमान्पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतंजयः॥ रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः॥२॥ भीमस्तु विजयस्याथ कांचनो होत्रकस्ततः॥ तस्य जहुः सुतो गंगां गंडूषीकृत्य योऽपिबत्॥ जह्नोस्तु पूरुस्तत्पुत्रो बलाकश्चात्मजोऽञ्जकः॥॥३॥ ततः कुशः कुशस्यापि कुशबुर्मूर्तयो वसुः॥ कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत्कुशांबुजः॥४॥ तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीकोऽयाचत द्विजः॥ वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत्॥५॥ एकतः श्यामकर्णानां हयानां चंद्रवर्चसाम्॥ सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम्॥॥६॥

हुए उनमें से कुशाम्बुके गाधिने जन्म ग्रहण किया॥४॥ इन गाधिके सत्यवती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। ब्राह्मण ऋचीकने राजा गाधिसे उम कन्याको माँग लियाथा। तब राजा गाधिने कन्या के योग्य यह वर न विचार कर निवेदन किया॥५॥ हे महाराज! जिनका दायाँ अथवा बाँयाँ एक ओरका कान श्यामवर्ण हो और जिनके सब अंगों में चन्द्रमाकी समान ज्योति हो ऐसे एक सहस्र घोड़े तुम हमें इस कन्याके मूल्यमें दो

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*शंका — पुत्र होनेके लिये सब राजा लोग यज्ञ किया करते थे परन्तु राजा गाधिने पुत्र होनेके लिये यज्ञ क्यों नहीं किया ? क्योंकि राजा गाधिकी स्त्रीने पुत्र होनेके लिये अपने जामातृसे याचना की थी, यह सन्देह हमारा निवारण करो?॥

उत्तर — राजा गाधि नित्यप्रति यही चिन्ता करते थे कि, किसीसमय पुत्र होनेके लिये यज्ञ करेंगे, यही विचार करते करते बहुत दिन बीतगये, तबतक ऋचीक नाम भृगुवशमें तपस्वी था. उसके सग राजा गाधिने अपनी सत्यवती कन्याका विवाह करदिया, तब रानी अपने जामातृ ( जमाई ) को सिद्ध समझकर, और अधिक अवस्था समझकर, पुत्रकी याचना करनेलगी, रानीने अपने मनमें विचारा कि, राजा यज्ञ करनेके लिये अभी विचारही रहाहै परंतु अभी यज्ञ करता नहीं, इसलिये रानीने जामातृसे पुत्र होनेकी याचना की, कि राजा यज्ञ करे वा न करै॥

तब हम तुम्हें यह कन्या दें \। कुछ इन हजार घोड़ोंको आप अधिक न समझें, क्योंकि हम कुशिक के वंश में उत्पन्न हुए हैं॥६॥ हे राजन् ऋचीक मुनि राजाके ऐसे वचन सुनकर सब अभिप्राय जान वरुणजीके निकट उसीसमय चलेगये और वहॉसे एक हजार घोड़ोंको लाकर उस श्रेष्ठ मुखवाली कन्यासे विवाह किया॥७॥ कुछ कालके पीछे ऋचीक मुनिकी भार्या और सासने पुत्रकी कामना करके इन ऋचीकसे प्रार्थना की तब इस ऋषिने अपनी भार्याके लिये ब्रह्ममन्त्रसे और सास के लिये क्षत्रिय मन्त्रसे चरु पकाय स्नान करने को गये॥८॥ उसी सत्यवतीकी माताने मनमें विचारा कि, भार्याके ऊपर पतिका अधिक स्नेह हुआ करता है जामाता मेरी कन्या के लिये जो चरु बनायकर गये हैं वह अवश्यही हमारे

इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणांतिकम्॥ आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम्॥७॥ स ऋषिः प्रार्थितः पत्न्या श्वश्वा चापत्य काम्यया॥ श्रपयित्वोभयैर्मत्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः॥८॥ तावत्सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती॥ श्रेष्ठं मत्वा तयाऽयच्छन्मात्रे मातुरदत्स्वयम्॥९॥ तद्विज्ञाय मुनिः प्राह पत्नी कष्टमकारषीः॥ घोरो दंडधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः॥१०॥ प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूदिति भार्गवः॥ अथ तर्हि भवेत्पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत्॥११॥ सा चाभूत्सुमहापुण्या कौशिकी लोकपावनी॥ रेणोः सुतां रेणुकां वै जमग्निरुवाह याम्॥ १२॥

चरुसे श्रेष्ठ होगा। यह सोच विचार इसने अपनी कन्यासे वह चरु माँगा जो कि, ऋषि इस अपनी भार्याके लिये बनागये थे। सत्यवतीने माताकी प्रार्थनासे ब्रह्ममन्त्रयुक्त अपना चरु उसको देदिया और आपने क्षत्रिय मंत्रका पढ़ा हुआ चरु भक्षण किया॥९॥ इसके उपरान्त जब मुनिनेआकर यहबात जानली तब अपनी स्त्री से बोले! “बडा नीचकर्म किया, चरुका अदल बदल करने से तुम्हारा पुत्र घोर दण्डधारी होगा। और तुम्हारा भ्राता ब्रह्मचारी होगा”॥१०॥ यह सुन सत्यवती अत्यन्तभीत हो अनेक भौतिकी अनुनय विनय कर ऋषिसे बोली कि, महाराज! “ऐसा न हो " तब भार्गव प्रसन्न होकर बोले कि तुम्हारा पौत्र भयंकर होगा। हे राजन्। तिसके पीछे सत्यवती के जमदग्नि नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥११॥ हे राजन्! उसके वह सत्यवती अबला लोकपावनी महा पुण्यमय कौशिकी नदी होकर बही हैं हे परीक्षित्! इन महर्षि जमदग्निने रेणुकी कन्या रेणुकासे विवाह किया॥१२॥

उस रेणुका के गर्भसे इन ऋपिके वसुमानादि बहुत पुत्र उत्पन्न हुये इनके सब पुत्रोंमें छोटे परशुराम हुए॥१३॥ प्राचीन कविलोग इनको भगवान् वासुदेवका अंश और हैहय नाम) क्षत्रिय कुलका अन्त करनेवाला कहते हैं । इन परशुरामजीने पृथ्वीको इक्कीसवार क्षत्रियहीन किया था॥१४॥ पहले क्षत्रियजातिके लोग रजोगुणसे व तमोगुणसे परिपूर्ण हो गर्वकारी और वेदविरुद्धाचारी हुए । इसलिये यह पृथ्वीपर भारकी नाई होगये थे, यद्यपि अपराध इनका थोड़ा था, तौभी परशुरामजीने इनको मारही डाला॥१५॥ यह सुनकर राजा परीक्षित बोले कि, हे ब्रह्मन् ! अजितेन्द्रिय क्षत्रिय जातिने भगवान् परशुरामजीका ऐसा क्या अपराध किया था कि, जिससे उनका क्रोधानल बारम्बार

तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः॥ यवीयाञ्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः॥१३॥ यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलांतकम्॥ त्रिस्सप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम्॥१४॥ दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्॥ रजस्तमोवृतमहन्फल्गुन्यपि कृतेंहसि॥१५॥ राजोवाच॥॥ किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः॥ कृतं येन कुलं नष्ट क्षत्त्रियाणामभीक्ष्णशः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ हैहयानामधिपतिरर्जुनः क्षत्त्रियर्षभः॥ दत्तं नारायणस्यांशमाराध्य परिकर्मभिः॥१७॥बाहून्दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु॥ अव्याहतेंद्रियौजश्श्रीस्तेजो वीर्यं यशो बलम्॥१८॥ योगेश्वरत्वमैश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः॥ चचाराव्याहतगतिर्लोकेषु पवनो यथा॥१९॥ स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडन्नेवांभसि मदोत्कटः॥ वैजयंतीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः॥२०॥

क्षत्रियकुलके ऊपर पडा था॥१६॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक । इस प्रकार राजा परीक्षितका प्रश्न सुनकर सहर्ष श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! हैहयोके अधिपति क्षत्रियश्रेष्ठ कार्त्तवीर्यार्जुनने सेवा के कर्म्मसे नारायणके अंशके अंश भगवान् दत्तात्रेयकी पूजा करके सहस्र भुजा प्राप्त कीं और इनके ही बलसे यह शत्रुओं पर दुर्द्धर्ष हुए थे । दत्तात्रेय की सेवासे राजाको अव्याहत इन्द्रियसामर्थ्य, सम्पदा, प्रभाव, वीर्य, बल॥१७॥१८॥ योगेश्वरत्व और जिससे अणिमादिगुण विराजमान रहें ऐसा ऐश्वर्य भी उन्होंने पाया था इसलिये यह राजा पवनकी समान अव्यर्थगतिवाला हो सब लोकोमें विना बाधा के भ्रमण करने लगा॥१९॥ एक समय यह सहस्रार्जुन वैजयन्ती माला धारणकर बहुतसी

स्त्रियोंके साथ नर्मदानदीके जलमें क्रीडा करने लगा \। मदोन्मत्तता के कारण केलि करते करते इसकी हजार बाँहोंसे अचानक नर्मदाकी धार रुकगई॥२०॥ उसी समय राक्षसराज रावण दिग्विजय करनेके लिये बाहर हो माहिष्मतीपुरीके समीप डेरा डाल शिवलिंग स्थापित कर, इस नदीके किनारे उनकी पूजा करता था, जब कार्तवीर्यार्जुनकी भुजाओंसे जलकी धार रुक गई। तब नदीकी धार प्रतिकूल हो नदीके किनारेको डुबाती हुई दूसरी ओरको लौटी। नदीकी धारके जलसे अपने डेरेको डूबता हुआ देखकर अर्जुनके वीर्यको वीर्याभिमानी रावण नहीं सहसका। तब रावणने विहार करतेहुए सहस्रार्जुनको पराजित करनेका उद्योग किया। हे राजन्! जब स्त्रियोंके सामने रावणने इस प्रकारका ढीठपन किया तब सहस्रार्जुनने क्रोधित हो उसको पकड़ लिया और अपने नगर में बाँधकर ले आया और बंदरकी समान कुछ दिन अपने

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतस्सरिज्जलैः॥ नामृष्यत्तस्य तद्वीर्यं वीरमानी दशाननः॥२१॥ गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः॥ माहिष्मत्यां सन्निरुद्धोमुक्तो येन कपिर्यथा॥२२॥ स एकदा तु मृगयां विचरन्विपिने वने॥ यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत्॥२३॥ तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत्॥ ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः॥२४॥ स वीरस्तत्र तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम्॥ तन्नाऽऽद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः॥२५॥ हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान्हर्तुमचोदयत्॥ ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रंदतीं बलात्॥२६॥

घरमें बाँधा और फिर अवज्ञा कर छोड़ दिया॥२१॥२२॥ जिस प्रकार कार्त्तवीर्यार्जुन अपराधी होकर परशुरामजीके हाथसे मारागया। उसकाभी वर्णन हम करते हैं तुम सुनो। एक समय सहस्रार्जुन मृगया के लिये विजन वनमें घूमता घूमता अकस्मात् जमदग्निजी के आश्रम में आय पहुँचा॥॥२३॥ मंत्री, सेना, सामन्त और अश्वादि वाहनसहित इस राजाको अपने आश्रम में आया हुआ देखकर जमदग्निऋषिने अपनी कामधेनु गायके द्वारा भलीभाँति इनका अतिथिसत्कार किया॥२४॥ मुनिकी इस धेनुरत्नको अपने ऐश्वर्यमें श्रेष्ट देखकर इस पहुनईसे सहस्रार्जुनको सन्तोष न हुआ। उसने हैहय लोगों के साथ परामर्श करके इस गायके ले जानेका अभिलाष किया॥२५॥ इसलिये दर्प करके अपने पुरुषोंको

आज्ञा दी कि, ऋषिके अग्निहोत्रकी गाय लेलो \। यह आज्ञा पाय सहस्रार्जुनके सेवक रोती और डकराती हुई बच्चे सहित उस गायको बला त्कार (जबरदस्ती) पकडकर माहिष्मती नगरीको लेगये॥२६॥ जब राजा गायको लेकर माहिष्मती पुरीको चला आया तब जमदग्नि जीके पुत्र परशुरामजी आश्रम में आये। वह इस राजाकी यह दुष्टता सुनकर चोट खाये हुए सर्पकी समान क्रोधाग्निसे जल उठे॥२७॥ उसी समय परशुरामजी घोर परशा हाथमें ले तूणसहित धनुष बाण ले बख्तर पहरकर महाक्रोधित हो उस राजा के पीछे दौडे जैसे सिंह यूथपति हाथी के ऊपर झपटता है \।\। २८॥ हे राजन्!कार्तवीर्यार्जुन जब अग्रिहोत्रकी गाय लेकर अपनी माहिष्मती पुरीमें प्रवेश करनाही चाहता था कि, इतनेही में उसने देखा कि, भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी मृगचर्म पहरे बाणादि आयुधसहित धनुप धारण किये महावेगसे आयरहे हैं और

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः॥ श्रुत्वा तत्तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाऽऽहतः॥२७॥ घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम्॥ अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेंद्र इव यूथपम्॥२८॥ तमापतंतं भृगुवर्यमोजसा धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम्॥ ऐणेयचर्मांबरकर्मधामभिर्युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन्॥२९॥ अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभिर्गदासिबाणष्टिशतघ्निशक्तिभिः॥ अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणास्ता राम एको भगवानसूदयत्॥३०॥ यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो मनोनिलौजाः परचक्रसूदनः॥ ततस्ततश्छिन्नभुजो रुकंधरा निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः॥३१॥

सूर्य की समान प्रकाशमान इनकी जटा इधर उधर छिटकरही हैं॥२९॥ यह देखकर सहस्रार्जुन ने भीतहो अपने बचने के लिये हाथी, घोडे, रथ, पैदल और गदा, असि, बाण, ऋष्टि ( अत्रविशेष ) शतघ्नी और शक्तिसहित सत्रह अक्षौहिणी भयंकर सेना भेजदी। परन्तु परशुराम जीने अकेले ही उस सब सेनाका संहार करडाला॥३०॥ महात्मा परशुरामजीका वीर्य और मन पवनकी तुल्य, इस कारण शत्रुसेनाको नाश करने के लिये वह अग्रिकी समान थे वह अपना परशा चलातेहुए जहाँ जहाँ गये उसी उसी स्थान में शत्रुसेना के वीरगण छिन्नबाहु, छिन्नजंघ और छिन्नमुण्ड होकर पृथ्वीपर गिरनेलगे। और उनके अश्व सारथि सबही मारेगये॥३१॥

हैहयपति अर्जुन रणभूमिमें रुधिरकी धारा से कीच उठी देख और परशुरामजीके कुठार व बाण प्रहारसे वर्म, ध्वजा, धनुष, बाण और शरीर छिन्न भिन्न होने से प्रायः सबही सेना युद्ध में गिरपड़ी है यह देख क्रोधित हो सहस्रबाहु आपही संग्राम में चलाआया॥३२॥ और परशुरामजीका संहार करने को अपनी सव भुजाओंसे एकवारही पॉचसौ (५००) धनुप ग्रहण कर पॉचसौ पर पॉचसौ तीक्ष्ण बाण चढाकर चलाने लगा। हे राजन्! महा तेजस्वी परशुरामजी अस्त्रधारियोंमें आगे गिनने योग्य हैं यद्यपि वह एक धनुप चढा रहे थे, तोभी उसी धनुपसे अगणित बाण चलाकर एक साथ अर्जुनके पांचसौ धनुषकाट डाले॥३३॥ धनुषोके कटजानेपर अपनी भुजाओसे समर करने के योग्य अनेक अनेक पर्वत और वृक्ष लेकर

दृष्ट्वा स सैन्यं रुधिरौघकर्दमे रणाजिरे रामकुठारसायकैः॥ वितृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं निपातितं हैहयमापतद्रुषा॥३२॥ अथार्जुनः पंचशतेषु बाहुभिर्धनुष्षु बाणान्युगपत्स संदधे॥ रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणीस्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत्समम्॥३३॥ पुनः स्वहस्तैरचलान्मृधेंघ्रिषानुंत्क्षिप्य वेगादभिधावतो युधि॥ भुजान्कुठारेण कठोरनेमिना चिच्छेद रामः प्रसभंत्वहेरिव॥३४॥ कृत्तवाहोः शिरस्तस्य गिरेः शृंगमिवाहरत्॥ हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात्॥३५॥ अग्निहोत्रीमुपावत्य सवत्सां परवीरहा। समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत्॥३६॥ स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च॥ वर्णयामास तच्छ्रुत्वा जमदग्निरभाषत॥३७॥ रामराम महाबाहो भवान्पापमकारषीत्॥ अवधीन्नरदेवं यत्सर्वदेवमयं वृथा॥३८॥

महावेगसे रणभूमिमें खड़े हुए परशुरामजीके ऊपर दौड़ा यह देख परशुरामजीने अति पैनी धारवाले कुठारसे सर्पके फणों की समान उसकी सब भुजायें काटडाली॥३४॥ और पीछेसे पर्वत के शिखर की समान सहस्रबाहु का मस्तकभी काट दिया। हे राजन। सहस्रबाहुके मारे जाने पर उस के दश सहस्र पुत्र भयके मारे भाग गये॥३५॥ इसके उपरान्त परशुरामजी बच्चेसहित उस गाय को लेकर आश्रम में आये और शत्रुके हाथमें जानेसे क्लेशित हुई उस गायको लाकर अपने पिताजीको सौप दिया॥३६॥ परन्तु जिस समय परशुरामजी ने अपना कियाहुआ कर्म पिता और भ्राताओंसे वर्णन किया, तब मुनिश्रेष्ठ जमदग्रिको संतोष नहीं हुआ, और संमोहित विराग दिखाकर बोले॥३७॥ हे राम! हे महाबाहो!

तुम पापकर आये। कैसी खेदकी बात है? नरदेव राजा सर्वदेवमय स्वरूप है उसको तुमने वृथाही मारडाला॥३८॥ हे तात! हम ब्राह्मण क्षमागुणसेही पूजित हुये हैं। यह गुण साधारण नहीं है। इसी गुणसे ब्रह्माजी लोकगुरु हो परमेष्ठी पदको प्राप्त हुयेहैं॥३९॥ हे महाराज! जमदग्रि फिर बोले कि, हे वत्स! क्षमासेही सूर्यसम्बन्धिनी प्रभाकी समान ब्रह्मसम्बन्धिनी श्री शोभायमान होती है। और क्षमाशील पुरुष के ऊपर भगवान् वासुदेव शीघ्र ही प्रसन्न होजाते हैं॥४०॥ हे अंग! चक्रवर्ती राजाका वध ब्रह्मवधसे भी भारी है। इसलिये तुम भगवान हरि में मन लगाय तीर्थसेवा और यम नियमादि द्वारा अपने पापोंका नाश करो॥४१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां परशुरामचरिते हैहयाज्र्जुनवधो नाम

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः॥ यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात्पदम्॥३९॥ क्षमया रोचते लक्ष्मीर्ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा॥ क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वरः॥४०॥ राज्ञो मूर्धावसिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद्गुरुः॥ तीर्थसंसेवया चांहो जह्यंगाऽच्युतचेतनः॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महा नवमस्कंधे सोमवंशचरिते कार्त्तवीर्यार्जुनवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ श्रीशुक उवाच॥ पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनंदन॥ संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत्॥१॥ कदाचिद्रेणुका याता गंगायां पद्ममालिनम्॥ गन्धर्वराजं क्रीडतमप्सरोभिरपश्यत॥२॥ विलोकयंती क्रीडंतमुदकार्थं नदीं गता॥ होमवेलां न सस्मार किंचिच्चित्ररथस्पृहा॥३॥

पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा — सोलह में जमदग्नि वध, युत सुत कियो हजार॥ परशुराम तासों करत, क्षत्रिनको संहार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुवंशावतंस परीक्षित्। पिताके उपदेशसे परशुरामजी “बहुत अच्छा” कह वनको चलेगये और एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके आश्रम में लौट आये॥१॥ किसी समय जमदग्रिकी स्त्री रेणुकाने गंगाजीपर जाय वहॉ पद्ममाली गन्धर्वराजाको अप्सराओंके साथ विहार करता हुआ देखा॥२॥ रेणुका जल लानेके लिये गंगाजीपर गई थी, विहार करतेहुये गन्धर्वराजाके देखनेसे रेणुकाने उनकी चाहना की और होमका

समय व्यतीत होगया इसको भी रेणुकाने न जाना॥३॥ इसके उपरान्त कालको बीत जाता हुआ देख; मुनिसे शापकी आशंक कर वह अत्यन्त भीत हुई । और शीघ्र आय जलकलशको मुनिके आगे रख खड़ी हो गई॥४॥ इधर अपनी भार्याके मानसिक व्यभिचारको जान महर्षि जमदग्निको अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ उन्होंने प्रज्वलित अग्रिके समान तीक्ष्ण हो अपने पुत्रोंको पुकारकर यह आज्ञा दी कि, तुम इसी समय अपनी पापिनी माताको मारडालो परन्तु इन पुत्रोंने पिताका वचन नहीं सुना॥५॥ परंतु परशुराम अपने पिताकी समाधि और तपस्या के प्रभावको

कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशंकिता॥ आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृतांजलिः॥४॥ व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत्॥ घ्नतैनां पुत्रकाः पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे॥५॥ रामः संबोधितः पित्रा भावन्मात्रा सहावधीत्॥ प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक्समाधेस्तपसश्च यः॥६॥ वरेण च्छंदयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः॥ वव्रेहतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे॥७॥

जानते थे, जब इनसे मुनिने कहा कि, तुम अपने इन भाइयों को और अपनी माताको मारडालो । तब उन्होने विचारा कि, जो पिताकी आज्ञा उल्लंघन कर इनको नहीं मारता, तो पिताजी क्रोधित होकर हमको शाप देदेंगे और जो हम इनको मारडालेंगे तो कदाचित् हमारे ऊपर प्रसन्न हो यह हमारी माता और भ्राताओं को जिलाभी सक्ते हैं। इसलिये जैसेही पिताने आज्ञा दी वैसेही महात्मा परशुरामजीने माताके सहित अपने भ्राताओंका संहार किया॥६॥ यह देखकर सत्यवतीके पुत्र जमदग्निमुनि परशुरामजीपर अत्यन्त प्रसन्न हुये । और परशुरामजी से बोले कि, इच्छानुसार वर

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*शंका — रेणुकाकी वृद्धावस्था थी तोभी स्त्रीपुरुषके रतिका आनन्द देखती थी यह बात सन्देह योग्य है? वृद्धावस्थामें विषयकर्मका आनद क्यों देखा?

उत्तर — बाल्यावस्थामें रेणुका अत्यन्त चञ्चल थी और अपने पिता के भवनमें रहती थी तोभी प्रत्येक कार्य चंचलपने के साथ करती थी, एक दिन बहुतसी सखियों को संग लेकर स्नान करनेके लिये एक नदीपर गई, एक वृद्ध चिडिया अपने प्रिय पति पक्षीके संग विहार कररही थी उसको देखकर रेणुका बहुत हँसी तब चिडियाने अत्यन्त कुपित होकर शाप दिया कि, हे दुष्टिनी! में तो अपने पति के साथ रमण करती हूँ परतु तू वृद्धावस्थामें और दूसरे पुरुषके संग क्रीडा करेगी, सब क्रीडाओंका मूल आँखोंसे देखना है सो क्रीडा तू करेगी इसलिये रेणुकाने वृद्धवस्थामें पाप किया और कुछ दूसरा अन्याय नहीं किया

मॉगो। तब परशुरामजीने यह वरदान चाहा कि, हमारे भ्राता और माता फिर जी जाय? और यह इस बातको भी भूलजायें कि, हमने इनको मारा है॥७॥ वैसेही जमदग्निमुनिने वर देकर कहा कि " ऐसाही हो " वैसेही इन मरे हुओं में प्राण आगया और जैसे सोयाहुआ पुरुष नींद से उठ बैठता है? वैसे ही यह सब उठ बैठे॥ हे राजन्! यह शंका मत करना कि, परशुरामने ऐसा निन्दित कर्म क्यों किया? यह परशुरामजी अपने पिताके तपबलको भलीभाँति जानते थे! इसीलिये उन्होंने अपने सुहृदों को मारडाला था॥८॥ हे महाराज! इधर कार्त्तवीर्यार्जुन के दश हजार पुत्र परशुरामजी के वीर्यसे पराभवपाय अपने पिताके वधको याद करके कहीं भी सुख स्वच्छन्दता पानेके लिये समर्थ नहीं हुए॥९॥ एक समय

उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवांजसा॥ पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम्॥८॥ येऽर्जुनस्य सुता राजन्स्मरंतः स्वपितुर्वधम्॥ रामवीर्यपराभूता लेभिरे न शमं क्वचित्॥९॥ एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते॥ वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन्॥१०॥ दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं मुनिम्॥ भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः॥११॥ याच्यमानाः कृपणया राममात्राऽतिदारुणाः॥ प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्त्रबधवः॥१२॥ रेणुका शोकदुःखार्ता निघ्नंत्यात्मानमात्मना॥ रामरामैहि तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती॥१३॥

परशुरामजी भ्राताओं सहित वनको गये थे। तब कार्तवीयार्जुन के यह सब पुत्र अवसर पाय पिछला वैर लेनेकी इच्छासे परशुरामजीके आश्रममें आये॥१०॥ इन सबने वहाँ आकर देखा कि, परशुरामजी के पिता जमदग्निमुनि भगवान् में चित्त लगाये हुए अग्रिशाला में बैठे हुए हैं। यह अवसर पाय इन पापात्माओंने उसी समय इन मुनिको मार डाला॥११॥ परशुरामजीकी माता रेणुका अपने पतिको मरा हुआ देख अतिदीन हो अप ने पति के प्राणोंकी भिक्षा चाहने लगी परन्तु तोभी इन निठुर क्षत्रियों को दया न आई और बलपूर्वक रेणुका के केश पकड़कर ले गये॥॥१२॥ तब परशुरामजीकी माता पतिशोकसे आर्त हो अपनी छाती पीटती हुई " हा राम! हा राम!! हा तात! हा तात!!” कह बड़े जोरसे रोनें और

विलाप करने लगी॥१३॥ दूरसे “हा राम।” की पुकार और आर्त वाणी सुनकर वीर्यवान् परशुरामजी भ्राताओं सहित अति शीघ्र अपने आश्रम में आये और वहां देखा कि, पिता मृतक हुए पडे हैं॥१४॥ पिताको मृतक देख सब भाइयोंको ऐसा दुःख, शोक, क्रोध, झुंझलाहट और पीडा, उत्पन्न हुइ कि, सबके वेगसे सब मोहित से हो गये इसके उपरान्त महात्मा परशुरामजी “हा तात! हा साधो! हा धार्मिक!” हमको छोड़कर आप स्वर्गको चलेगये॥१५॥ इस प्रकार विलाप करनेलगे। और पिताके मृतक देहको अपने भाइयोंके निकट रखकर भयंकर परशा लिये मनमें विचारने लगे कि, अब हम क्षत्रियों के वंशको ध्वंस करदेंगे॥१६॥ हे राजन्! परशुरामजीने अतिशीघ्र माहिष्मती पुरीमें जाय उसके बीचमें

तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा रामेत्यार्तवत्स्वनम्॥ त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं हतम्॥१४॥ तद्दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः॥ हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वाऽस्मान्स्वर्गतो भवान्॥१५॥ विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम्॥ प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्त्रांताय मनो दधे॥१६॥ गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नं विहतश्रियम्॥ तेषां स शीर्षभी राजन्मध्ये चक्रे महागिरिम्॥१७॥ तद्रक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहम्॥ हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्त्रे मंगलकारिणि॥१८॥ त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः॥ स्यमंतपंचके चक्रे शोणितोदान्ह्रदान्नव॥१९॥ पितुः कायेन संधाय शिर आदाय बर्हिषि॥ सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः॥२०॥

अर्जुनपुत्रोंके मस्तक काट काटकर एक बडा भारी पर्वत बनाया॥१७॥ जब वह सहस्रार्जुन के पुत्र ब्रह्महत्या कर आये थे। तबहीं इस माहि ष्मती पुरीकी शोभा जाती रही थी। मध्यस्थान में मुण्डमय पर्वत के होनेसे वह पुरी और भी भयानक हो गई। फिर तेजस्वी परशुरामजीने उस कार्तवीर्यार्जुनके पुत्रोंके रुधिरसे एक नदी उत्पन्न की, वह नदी ब्रह्मद्वेषियोंको अत्यन्त भयकी देनेवाली हुई॥१८॥ इसके उपरान्त क्षत्रियजा तिको अन्यायके वश हुआ देख पिताके वधका हेतु कर परशुरामजीने इक्कीसवार पृथ्वीको क्षत्रियहीन किया और स्यमन्तपञ्चकस्थानमें रुधिरके नौ कुण्ड भरदिये॥१९॥ उसके पीछे परशुरामजी ने अपने पिताका शिर उनकी देहसे लगाय, कुशोंके ऊपर रख विविध

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*प्रश्न — परशुरामजीने इक्कीसवार क्षत्रियोंको क्यों मारा था.।

उत्तर — रेणुकाने सहस्रार्जुनके पुत्रोंकी दुष्टता देख दुखके मारे इक्कीस बार अपनी छातीको कूटा था इसलिये महात्मा परशुरामजीने इक्कीस बार क्षत्रियोंका नाश किया॥

यज्ञोंसे सर्व देवमय आत्मा ईश्वर की पूजा की॥२०॥ उस यज्ञमें होताको पूर्वदिशा, ब्रह्माको दक्षिण दिशा, अध्वय्युको पश्चिम दिशा और उद्गाताको उत्तर दिशा दक्षिणा में देदी! अवान्तर दिशायें और दूसरे ऋत्विक् लोकोंको देदीं मध्यस्थल कश्यपजीको दान कर दिया। फिर उपद्रष्टाको आर्या वर्त देश दक्षिणा देकर सभासदों को भी यथायोग्य भूमि दक्षिणा में देदी॥२१॥२२॥ उसके पीछे महानदी सरस्वती में जाकर यज्ञान्त स्नान कर अनन्तपापोंको दूरकर बादल रहित सूर्यके समान आकाशमें विराजमान होने लगे॥२३॥ इस ओर महामुनि जमदग्नि परशुरामजी से पूजित होने के कारण स्मृतिही जिसका शरीर है ऐसे अपने शरीरको प्राप्तकर सप्तर्षि मण्डल में जाय सप्तऋषि हुये॥२४॥ हे राजन्! कमललोचन जमदग्निके

ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्॥ अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम्॥२१॥ अन्येभ्योऽवांतरदिशः कश्यपाय च मध्यमाम्॥ आर्यावर्तमुपद्रष्टे सदस्येभ्यस्ततः परम्॥२२॥ ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः॥ सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान्॥२३॥ स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम्॥ ऋषीणां मंडले सोऽभूत्सप्तमो रामपूजितः॥२४॥ जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः॥ आगामिन्यंतरे राजन्वर्तयिष्यति वै बृहत्॥२५॥ आस्तेऽद्यापि महेंद्राद्रौ न्यस्तदंडः प्रशांतधीः॥ उपगीयमानचरितः सिद्धगंधर्वचारणैः॥२६॥ एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान्हरिरीश्वरः॥ अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन्बहुशो नृपान्॥२७॥ गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः॥ तपसा क्षात्त्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम्॥२८॥

सुत भगवान् परशुरामजी भी आगामी मन्वन्तरमें वेदका प्रचार करेंगे अर्थात् वहभी वेदका प्रचार करनेवाले सप्तर्षियों में से एक होंगे॥२५॥ वह परशुरामजी दण्ड छोड शान्त चित्तसे अबतक महेन्द्र पर्वतपर विराजमान हैं। सिद्ध चारण और गंधर्वगण सदा उनके विचित्र चरित्रको गाया करते हैं॥२६॥ हे राजन्! इस प्रकार से भगवान् विश्वात्मा ईश्वर हरिने भृगुकुलमें अवतार ले अनेकवार क्षत्रियोंका संहार कर भूमिका भार उतार दिया॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! अब आगे सुनो। गाधिके प्रकाशमान अग्नितुल्य महातेजस्वी विश्वामित्रजी उत्पन्न हुए

हे राजन्! यह तपके प्रभाव से क्षत्रीपन छोड़ ब्राह्मण होगये॥ २८॥ हे महाराज! इन तेजस्वी विश्वामित्रजीके एक शत पुत्र उत्पन्न हुए तिनमें यद्यपि केवल मध्यमपुत्रका नाम मधुच्छन्द था, तोभी सब पुत्रही मधुच्छन्दस कहे जाते थे॥ २९॥ महर्षि विश्वामित्रजीने अजीगर्त्तके पुत्र शुनः शेपको भृगुवंशीय देवरात नामक पुत्र करके अपने सब पुत्रोंसे कहा था कि, तुम सब इनको अपना बड़ा भाई समझना॥३०॥ हे राजन्! इस शुनःशेपके पिता अजीगर्त्तने महाराजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ में पशु बनाने के लिये मध्यम समझ, ममता छोड़ बेच दिया था परन्तु यह पुरुषपशु (शुनःशेप) प्रजेशादि वरुणादि देवता लोगोकी स्तुति करके पाशबंधन से छूट गया॥३१॥ वह देवता लोगोंको रात (प्रदत्त) होनेसे गाधिवंश में

विश्वामित्रस्य चैवासन्पुत्रा एकशतं नृप॥ मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छंदस एव ते॥२९॥ पुत्रं कृत्वा शुनश्शेपंदेवरातं च भार्गवम्॥ आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम्॥३०॥ यो वै हरिश्चंद्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः॥ स्तुत्वा देवान्प्रजेशादीन्मुमुचे पाशबंधनात्॥३१॥ यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः॥ देवरात इति ख्यातः शुनःशेपःस भार्गवः॥३२॥ ये मधुच्छंदसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत्॥ अशपत्तान्मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः॥३३॥ स होवाच मधुच्छंदाः सार्धं पंचाशता ततः॥ यन्नो भवान्संजानीते तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम्॥३४॥ ज्येष्ठंमंत्रदृशं चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि॥ विश्वामित्रः सुतानाह वीरवंतो भविष्यथ॥ ये मानं मेऽनुगृह्णंतो वीरवंतमकर्त माम्॥३५॥

देवरात नामसे प्रसिद्ध हुआ। परन्तु भृगुवंशमें उसका नाम शुनःशेष था॥३२॥ विश्वामित्रके मधुच्छन्द नामक जो पचास पुत्र बड़ेथे, उन्होंने शुनःशेपको बड़ा माननेमें अपना भला न समझा, इसलिये क्रोधित होकर विश्वामित्रजीने अपने पुत्रोको यह शाप दिया कि, तुम अतिदुर्जन हो आजसे म्लेच्छ होजाओगे॥३३॥ इसके उपरान्त मध्यमपुत्र मधुच्छन्दने अपने पचास छोटे भाइयो के साथ पिताके पास आनकर कहा कि “आप हमारे पिता हैं” हमको बडाई अथवा छुटाई जिसकी भी आज्ञा देंगे हम वही स्वीकार करेंगे॥३४॥ कहकर इन्होंने मंत्रदर्शी शुनःशेपको अपना बड़ा भ्राता बनाया और सब एकवचन होकर बोले कि “हम सबही तुम्हारे अनुगामी अर्थात् छोटे भाई हुए” यह सुनकर

विश्वामित्रजी प्रसन्न हो अपने इन पुत्रोंसे बोले कि, तुमने हमारे मानको रखकर हमको पुत्रवान किया इससे हमको बहुत सन्तोष हुआ और हम मन्तुष्ट होकर तुमको यह वर देते हैं कि, तुम लोग पुत्रवान होगे॥३५॥ हे कुशिकगण! यह देवरात भी तुम्हारा कौशिक गोत्री है, क्योंकि यह हमारा पुत्र हुआ है। इसलिये तुम इसके अनुगामी होओ। हे राजन्। इन पुत्रोंके अतिरिक्त विश्वामित्रजी अष्टक, हारीत, जय, क्रतुमदादि औरभी अनेक पुत्र हुए थे॥३६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन! इस प्रकार अनुगृहीत हुए और एक पुरुपको पुत्र मानलेनेसे विश्वा मित्रके पुत्रोंसे कौशिक अनेक प्रकारका हो गया अर्थात् कुछ अभिशप्त और कुछेक प्रवरान्त प्राप्त हुए। वस देवरात को सबसे बड़ा माननेहीका यह

एष वः कुशिका वीरो देवशतस्तमन्वित॥ अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः॥३६॥ एवं कौशिकगोत्रं तु वैश्वामित्रः पृथग्विधम्॥ प्रवरांतरमापन्नंतद्धिचैवं प्रकल्पितम्॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे परशुरामकृतक्षत्त्रवधविश्वामित्रान्वययोर्वर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ यः पुरूरवसः पुत्र आयुस्तस्या भवन्सुताः॥ नहुषः क्षत्त्रश्च रजी रंभश्च वीर्यवान्॥१॥ अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्रधोऽन्वयम्॥ क्षत्त्रवृद्धसु तस्यासन्सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः॥२॥ काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत्॥ शुनकश्शौनको यस्य वह्वृचप्रवरोमुनिः॥३॥ काश्यस्य काशिस्तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमाः पिता॥ धन्वंतरिर्दैर्घ्यतम आयुर्वेदप्रवर्तकः॥ ४॥

बीज हुआ॥३७॥ इतिश्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां परशुरामचरितवर्णनं नाम पोडशोऽध्यायः॥ १६॥ दोहा — सत्रह में पुरूरवा को, ज्येष्ठ पुत्र भयो आय। ताके पाँचो सुतनको, सकल वंश कहो गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! पुरूरवा* के आयु नामक जो पुत्र हुआथा उसके पाँच पुत्र हुए नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, रम्भ और अनेना इनके नाम थे। उनमें क्षत्रवृद्ध के वंशका वृत्तान्त अब कहता हूं तुम श्रवण करो॥१॥२॥ क्षत्रवृद्ध के पुत्र सुहोत्र, सुहोत्र के काश्य, कुश और गृत्समद यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए तिनमेंसे गृत्समद के शुनक उत्पन्न हुआ। उस शुनकसे ऋग्वेदियो में श्रेष्ठ शौनक मुनि हुए॥३॥ काश्यका पुत्र काशी, उसका पुत्र राष्ट्र और बेटा तिसका दीर्घतमा, दीर्घतमा के पुत्र धन्वन्तरी

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*इस स्थानमें श्रीकृष्णावतारका प्रस्ताव करनेके लिये संक्षेपसे वंशका वर्णन किया जाता है। जिसके वंशमें स्वयं भगवान् अवतार लेंगे। इस वंशका वर्णन पीछेसे विस्तार सहित किया जायगा। इसलिये पुरूरवाके पाँच पुत्रोंमेंसे छोटे पुत्रका वर्णन करके अब ज्येष्ठके वंशका वर्णन करते हैं॥

हुए कि, जिन्होंने आयुर्वेदका प्रचार किया यह धन्वन्तरि यज्ञभोगी भगवानके अंश स्मरण करतेही रोग क्लेशका भय नाश करते हैं इन धन्वन्तरि जीका पुत्र केतुमान, केतुमानका पुत्र भीमरथ॥४॥५॥ उससे दिवोदासकी उत्पत्ति हुई इनके पुत्र मान जो कि, प्रतर्दन भी कहाये जाते थे। और शत्रुजित, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्व भी यही कहाते थे इस मानके अलर्कादि अनेक पुत्र उत्पन्न हुए॥६॥ उनसे अलर्कने साठ सहस्र साठसौ अर्थात् छासठ (६६०००) सहस्रवर्षतक युवा अवस्था रखकर राज्यभोग किया था। हे राजन्! अलर्कके अतिरिक्त किसी युवाने इतने कालतक पृथ्वीका भोग नहीं किया॥ ७॥ इस अलर्कसे संतति नामवाले राजाकी उत्पत्ति हुई, उसका पुत्र सुनीथ,

यज्ञभुग्वासुदेवांशस्स्मृतमात्रार्तिनाशनः॥ तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः॥५॥ दिवोदासो द्युमांस्तस्मात्प्रतर्दन इति स्मृतः॥ स एव शत्रुजिद्वत्स कृतध्वज इतीरितः॥ तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः॥६॥ षष्टिवर्षसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च॥ नालर्कादपरो राजन्मेदिनीं बुभुजे युवा॥७॥ अलर्कात्संततिस्तस्मात्सुनीथोऽथ सुकेतनः॥ धर्मकेतुः सुतस्तस्मात्सत्यकेतुरजायत॥८॥ धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात्सुकुमारः क्षितीश्वरः॥ वीतिहोत्रस्य भर्गोऽतो भार्गभृमिरभून्नृपः॥९॥ इतीमे काशयो भूपाः क्षत्त्रवृद्धान्वयाऽयिनः॥ रंभस्य रभसः पुत्रो गंभीरश्चा क्रियस्ततः॥१०॥ तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे शृणु वंशमनेनसः॥ शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात्त्रिककुद्धर्मसारथिः॥११॥

सुनीथका पुत्र निकेतन, निकेतनका पुत्र धर्मकेतु और धर्मकेतुसे सत्यकेतुने जन्मग्रहण किया॥८॥ सत्यकेतुके पुत्र धृष्टकेतु, उसके कुमार उत्पन्न हुए। उनका पुत्र वी.तोत्र, इनके सुतभर्ग और इनके पुत्र भार्गभ्रमि॥९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् \। यह सब नरेश का शिवंशीय हुये यह काशिके परदादा क्षत्रवृद्ध वंश के अनुगामी थे हे परीक्षित! अब रम्भके वंशका वर्णन करते हैं आप सावधान दो चित्त लगाय सुनिये। रम्भका पुत्र रभत, उसका पुत्र गम्भीर उससे अक्रिय की उत्पत्ति हुई॥१०॥ अयिका पुत्र ब्रह्मवित् हुआ। अब अनेनाके

वंशका वर्णन करते हैं अनेनाका पुत्र शुद्ध हुआ उसके शुचि उत्पन्न हुआ। शुचिके त्रिककुद, उनसे धर्मसारथि॥११॥ इसके पुत्र शान्तरय जो कि, बड़े जितेन्द्रिय और ज्ञानी थे। इसलिये उन्होंने कोई पुत्रभी उत्पन्न नहीं किया हे महाराज! रजिके अत्यन्त बलशाली पांच सौ (५००) पुत्र हुए॥१२॥ एक समय जब देवतालोगोंने प्रार्थना की तब इस रजिने दैत्योंका संहार करके इन्द्रपुरी देवतालोगोंको देदी देवताओंने राजा रजिको पुनः लौटाकर देदी॥१३॥ राजा रजिकोमृत्यु होनेपर देवराज इन्द्र ने जब उनके पुत्रोसे स्वर्गपुरी मांगी, तब उनके पुत्रोंने नहीं दी। और

ततश्शांतरयो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान्॥ रजेः पंचशतान्यासन्पुत्राणाममितौजसाम्॥१२॥ देवैरभ्यर्थितो दैत्यान्हत्वेंद्रायाददाद्दिवम्॥ इंद्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः॥१३॥ आत्मानमर्पयामास प्रह्रादाद्यरिशंकितः। पितर्युपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः॥१४॥ त्रिविष्टपं महेंद्राय यज्ञभागान्समाददुः॥ गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित्तनयान्रजेः॥१५॥ अवधीद् भ्रंशितान्मार्गान्न कश्चिदवशेषितः॥ कुशात्प्रतिः क्षात्त्रवृद्धात्संजयस्तत्सुतो जयः॥१६॥ ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः॥ सहदेवस्ततोऽहीनो जयसेनस्तु तत्सुतः॥१७॥

आपही स्वर्गपति होकर यज्ञका भाग लेनेलगे इसीलिये देवगुरु बृहस्पतिजीने रजिके पुत्रोंकी बुद्धिका नाश करनेके लिये अभिचार विधान से अग्रिमें होम किया॥१४॥१५॥ उससे शीघ्रही रजिके सब पुत्र नीतिमार्ग से भ्रष्ट होगये। और फिर देवराज इन्द्रने सरलतासे उन सबको मारडाला, कोई शेष न रहा हे राजन्! क्षत्रवृद्धका पोता कुश, उसका पुत्र प्रति, प्रतिका पुत्र संजय, संजयका पुत्र जय॥१६॥ जयका पुत्र कृत और उसका पुत्र हर्यवन राजा हुआ हर्यवन राजाका पुत्र सहदेव उसका पुत्र अहीन और अहीनका पुत्र जयसेन हुआ॥१७॥

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* शंका — बृहस्पतिजी अग्निमें किस वस्तुका होम करते थे? जिस चीजके होमके प्रतापसे रजिराजाके पुत्रोंको इन्द्रने मारडाला?

**उत्तर —**रक्षा करनेवाले जो परमरक्षक बृहस्पतिजी थे, सो राजा रजिके पुत्रोंको तेज मन्त्रसे अग्निमें होम करते थे, इसीकारण राजा रजिके तेजहीन होगये, तब राजा रजिके पुत्रोंको इन्द्रने मारडाला॥

जयसेनका पुत्र संस्कृति उनका पुत्र जय, जय के क्षत्रधर्म और क्षत्रधर्मके महारथ हुआ यह सब भूपाल क्षत्रवृद्ध के वंशमें उत्पन्न हुये थे। अब आगे नहुषसे वंशका वृत्तान्त हम तुमसे वर्णन करते हैं तुम चित्त लगाय सावधान होकर श्रवण करो॥१८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां क्षत्रवृद्धवंशानुवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा — अट्ठारहमें नहुष सुत, भयो ययाति जुझार। षट पुत्र तिनके भये, तिनमें छोट उदार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जैसे शरीरके छः इन्द्रियें होती हैं, इसी प्रकारसे नहुष राजाके यति-ययति-संयाति-आयति-वियति और कृति नामक छः (६) पुत्र उत्पन्न हुए॥१॥ इनमें से यति राजाका परिणाम अर्थात् राज्यको अनर्थका हेतु जान गया था। इसलिये पिताके राज्य

संस्कृतिस्तस्य च जयः क्षत्त्रधर्मा महारथः॥ क्षत्त्रवृद्धान्वया भूपाः शृणु वंशं च नाहुषात्॥१८॥ इति श्रीमद्भा० म० नव० चंद्रवं० क्षत्त्रवृद्धवंशा० सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः॥ षडिमे नहुषस्यासन्निद्रियाणीव देहिनाम्॥ १॥ राज्यं नैच्छद्यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्॥ यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते॥२॥ पितरि भ्रंशिते स्थानार्द्रिद्राण्या घर्षणाद्द्विजैः॥ प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥३॥ चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातन्भ्राता यवीयसः॥ कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः॥४॥ राजोवाच॥ ब्रह्मर्षिर्भगवान्काव्यः क्षत्रबधुश्च नाहुषः॥ राजन्यविप्रयोः कस्माद्विवाहः प्रतिलोमकः॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा दानवेंद्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका॥ सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी॥६॥

देनेपर इसने राज्यग्रहण नहीं किया, क्योंकि राज्यकार्यमें लगा हुआ पुरुष अपने आत्माको नहीं जानता है॥२॥ इससे इन्द्राणीके ऊपर ढिठाईका व्यवहार करने हेतु पिता (नहुष) के स्वर्गभ्रष्ट और अगस्त्यादि विप्रोंके शाप से अजगर होने पर मध्यम पुत्र ययातिही राजा हुआ था॥३॥ राजा ययातिने राजगद्दी पर बैठ अपने चार छोटे भाइयों को चारों दिशाओं में राज्य करने की आज्ञा देदी व आप शुक्राचार्य और वृषपर्वाकी दो कन्याओंसे विवाह कर पृथ्वी की रक्षा करने लगा॥४॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! भगवान् शुक्राचार्यजी ब्रह्मर्षि और नहुषपुत्र ययाति क्षत्रिय था। सो यह ब्राह्मण क्षत्रियका प्रतिलोम विवाह कैसे हुआ था?॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! ईश्वरकी इच्छा से प्रतिलोम विवाह दोषदायी है

नहीं है। एकसमय दानवराज वृषपर्वाकी शर्मिष्ठा नामक कन्या सहस्र सखी और गुरुकी कन्या देवयानीके साथ पुरके समीपही एक उद्यानमें विहार करनेको गई। यह उपवन अत्यन्त मनोहर था। वृक्ष फूलों के भारसे झुके हुए थे। और वहाँ निकटही एक नलिनीकी रेतीमें भ्रमरगण कलवाणीसे गान कर रहे थे॥६॥७॥ शर्मिष्ठाने सखियों के साथ घूमते घूमते बागमें एक सरोवर देखा। यह सब कन्यायें किनारेपर अपने वस्त्र उतार परस्पर जलको उड़ाकर एक दूसरे के ऊपर जल डाल खेल करने लगीं॥८॥ उसी समय अचानक देवताओं में श्रेष्ठ श्रीमहादेवजी पार्वती के साथ नंदीश्वर पर चढे इस ओरको आये। यह इनको देखकर सब कन्यायें अत्यन्त लज्जित हो झटपट सरोवरसे बाहर निकलकर अपने वस्त्र पहरने लगीं॥९॥

देवायान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले॥ व्यचरत्कुलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला॥७॥ ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः॥ तीरे न्यस्य दुकूलानि विजःसिंचतीर्मिथः॥८॥ वीक्ष्य व्रजतं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्॥ सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः॥९॥ शर्मिष्ठाऽजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्॥ स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्॥१०॥ अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसांप्रतम्॥ अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे॥११॥ यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये॥ धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पंथाश्च दर्शितः॥१२॥ यान्वदंत्युपतिष्ठंते लोकनाथाः सुरेश्वराः। भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः॥१३॥ वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पिताऽसुरः॥ अस्मद्धार्यंधृतवती शूद्रो वेदमिवासती॥१४॥

घबडाहटके मारे भूल में गुरुकन्या के वस्त्र शर्मिष्ठाने अपने समझकर पहर लिये। यह देख देवयानी अति क्रोधित होकर बोली॥१०॥ अरे इस दासीका अन्याय कर्म तो देखो जिस प्रकार कुतिया यज्ञके हविको खाजाती है। वैसेही इस दुष्टाने मेरे पहरनेके कपड़े पहर लिये॥ ११॥ देखो जिन ब्राह्मणोंने तपस्या करके इस जगतकी उत्पत्ति की है, जो लोग परमपुरुषके मुख अर्थात् ब्रह्ममुखसे उत्पत्तिके हेतु सर्व श्रेष्ठ हैं। जो कि, ब्रह्मको धारण किये हुये हैं जिन्होंने वेदका शुभ मार्ग बताया है। और सब लोकोंके नाथ सुरेश्वरगणभी और भगवान् विश्वात्मा पावन श्रीनिवासभी जिनकी पूजा किया करते हैं॥१२॥१३॥ वह ब्राह्मणजाति सहजसेही माननीय है। और उनमें फिर हम महाप्रभावशाली भृगुवंशमें उत्पन्न हुई हैं। इस दासीका पिता

जो असुर है। वह भी हमारे पिताका शिष्य है। इस असत्यनकी चाल तो देखो कि, इसने हमारे पहरनेके वस्त्र पहर लिये हैं। जैसे शूद्रजाति वेदोंको धारण करै॥१४॥ हे राजन्! जब गुरुकन्या देवयानींने इस प्रकार तिरस्कार किया। तब शर्मिष्ठा घर्शित हुई सर्पिणीकी समान बारम्बार लम्बे लम्बे श्वास लेने लगी। और क्रोधके मारे होठ चबाय चबायकर कहने लगी कि॥१५॥ अरी भिखमंगी। अपने आचरणको विना जानेही कटुवचन कहने लगी। काककी समान क्या तुम हमारे गृहका सुख नहीं देखती रहती हो ?॥१६॥ हे महाराज परीक्षित! इस प्रकारसे कठोर वचनभी गुरुकन्या देवायानीको कहकर शर्मिष्ठा का क्रोध शान्त नहीं हुआ, बरन इसके वस्त्र उतार नङ्गीकर एक कुए में धक्का देदिया॥१७॥ देवयानीको

एवं शपंतीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत॥ रुषा श्वसंत्युरगीव धर्षिता दष्टदच्छदा॥१५॥ आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि॥ किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान्बलिभुजो यथा॥१६॥ एवंविधैः सुपुरुषैः शप्त्वाचार्यसुतां सतीम्॥ शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे वास आदाय मन्युना॥१७॥ तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्॥ प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥१८॥ दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः॥१९॥ तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा॥ राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरंजय॥२०॥ हस्तग्राहोऽपरो मा भूद्गृहीतायास्त्वया हि मे॥ एष ईशकृतो वीर संबंधो नौ न पौरुषः॥२१॥

कुए में ढकेलकर शर्मिष्ठा अपने घरपर चली आई। भाग्यसे शिकार खेलकर घूमते घूमते राजा ययातिभी उस वनमें आय पहुँचे और प्यासके मारे जल भरनेके लिये जैसेही इस कुएँके समीप गये कि, वैसेही उन्होंने देवयानीको कुए में देखा॥१८॥ शुक्राचार्यकी कन्याको कुऍमें नङ्गी गिरी हुई देखकर राजाको अत्यन्त दया आई और तत्काल अपना दुपट्टा राजाने उसे पहरनेको देदिया और अपने हाथसे उसका हाथ पकडकर उस दयावान् राजाने उसको कुऍसे बाहर निकाल लिया॥१९॥ देवयानी कुऍसे निकलकर प्रेम भरे वचन राजा ययातिसे बोली हे महाराज। आपने अनुग्रह करके हमारा हाथ पकड़ा है॥२०॥ अब यही प्रार्थना है कि, जिस हाथको एकबार आपने मेरा पाणिग्रहण किया।

उसको कोई दूसरा ग्रहण न करने पावे॥२१॥ हे वीर! यद्यपि प्रतिलोम विवाह ठीक नहीं तोभी मैं कुए में डूबकर मरती थी इसी अवसरपर आपका दर्शन हुआ तब हमारा दोनों जनों का यह बानक परमेश्वरने बनाया है। यह किसी पुरुषका बनाया नहीं है और हे नरेश। ब्राह्मणके साथ \। मेरा विवाह नही होगा। क्योंकि पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कचको शाप दिया था। तब उन्होंने भी हमको शाप दिया था॥२२॥ शास्त्रके प्रति कूल और इच्छानुसार न होने परभी भाग्यसे प्राप्त हुआ जान और अपने अन्तःकरणको भी उसके प्रति सकाम देख यह निश्चय करके कि, मेरा मन अधर्म में नहीं प्रवेश करता देवयानीके वाक्य को राजा ययातिने अंगीकार किया॥२३॥ इसके उपरान्त जब राजा ययाति चलेगये। तब देवयानी

यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम॥ न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज॥ कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद्यमशपं पुरा॥२२॥ ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः॥ मनस्तु तद्गतं बुद्धा प्रतिजग्राह तद्वचः॥२३॥ गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः॥ न्यवेदयत्ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम्॥२४॥ दुर्मना भगवान्काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन्॥ स्तुवन्वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्॥२५॥ वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्॥ गुरुं प्रसादयन्मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥२६॥

उस स्थान से रोती रोती पिताके निकट गई और सब वृत्तान्त निवेदन कर दिया। अर्थात् शर्मिष्ठाने जो भिखमंगी कहा था। और कुए में डालकर जो कुकर्म किया था, यह सब विस्तारपूर्वक इसने अपने पितासे कहा॥२४॥ यह सुनकर शुक्राचार्य के मन में बडा दुःख हुआ पुरोहिताईकी निन्दा करते और भिक्षावृत्तिकी प्रशंसा करते यह दैत्यराजकी पुरीसे अपनी कन्यासहित बाहर चले॥२५॥ यह सुनकर राजा वृषपर्वाने जाना कि, गुरुजी अप्रसन्न होकर देवताओंकी जीतकरेंगे। इसलिये शीघ्रही मार्गमें जायकर उनके चरणों में गिर पड़ा। और शिर नवायकर प्रसन्न

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१ इसमें यह दृष्टान्त है कि बृहस्पतिके पुत्र कच जब शुक्राचार्य मुनिके निकट मृतसंजीवनी विद्या ग्रहण करते थे उस समय एक दिन शुक्रकी पुत्री देवयानीने उनके साथ विवाह करना चाहाथा, तब कच बोले कि “तुम हमारी गुरुकन्या होनेसे पूजने योग्य हो” फिर हम किसप्रकारसे तुम्हारा पाणि ग्रहण करें! तब देवयानीने कुपित हो यह शाप दिया कि, तुम्हारी विद्या प्रभाहीन होगी, तबकचनेभी यह शाप दिया कि " तुम्हारा ब्राह्मणके साथ विवाह नहीं होगा” इसलिये ब्राह्मण हमसे विवाह नहीं कर सकेगा॥

करने लगा॥२६॥ एक क्षणभर में शुक्राचार्यका आधा क्रोध शान्त होगया और वह शिष्यसे बोले कि, हे राजन् ! हमारी कन्या जो कुछ कहै सो इस की अभिलाषको तुम पूर्ण करो। क्योंकि हम इस अपनी कन्याको छोड़कर रह नहीं सक्ते॥२७॥ गुरुजीके यह वचन सुनकर गुरुकन्याकी प्रसन्नता चाहता हुआ राजा वृषपर्व्वा खड़ा रहा। तब देवयानी अपने मनकी बात प्रकाशित करके बोली कि, हमारे पिता जहाँ हमारा विवाह करें, यह शर्मिष्ठा तुम्हारी कन्या उसी स्थानमें अपनी सब सखियों के साथ जायकर हमारी दासी होवे॥२८॥ वृषपर्व्वाने विचारा कि, गुरुजीके चलेजानेसे हमारे ऊपर घोर संकट आन पड़ेगा। और यहाॅ रहनेसे हमारे कार्य सिद्ध होंगे। यह सोच विचार राजा वृषपर्व्वाने गुरुकन्या देवयानीके हाथमें सखियों सहित श मिष्टाको सौंप दिया। जब पिताने शर्मिष्ठाको देदिया, तब यह हजार सखियों के साथ देवयानीकी सेवा करनेलगी॥२९॥ इसके पीछे दैत्यगुरु शुक्रा

क्षणार्धमन्युर्भगवाञ्शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः॥ कामोऽस्याः क्रियतां राजन्नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे॥२७॥ तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्॥ पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥२८॥ स्वानां तत्संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्॥ देवयानीं पर्यचरत्स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥२९॥ नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशनाः॥ तमाह राजञ्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित्॥३०॥ विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्॥ तमेव वव्रेरहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥३१॥ राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्॥ स्मरञ्छुकवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत॥३२॥ यदुंच तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत। द्रुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥३३॥

चार्यजीने शर्मिष्ठासहित देवयानीका राजा ययातिके साथ विवाह करदिया और भली भाँति से कह दिया कि, यद्यपि हम अपनी कन्या के साथ शर्मिष्ठाभी तुमको देते हैं तो भी तुम किसी समय इसको अपनी शय्यापर न ग्रहण कर सकोगे॥३०॥ हे महाराज परीक्षित्! किसी समय शर्मिष्ठाने देखा कि देवयानीने स्वामीके सहवास से परम सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया है। इसलिये ऋतुकाल आन पहुँचनेपर अपनी सखीके पति ययाति राजाको एकान्तमें बुलाय पुत्र उत्पन्न करनेके लिये प्रार्थना की॥३१॥ राजा ययाति अत्यन्त धर्मात्मा थे ऋतुकालमें राजकुमारी शर्मिष्ठासे संतान के लिये प्रार्थित होकर विचारने लगे कि, इसकी कामना पूरी करनेसे धर्म है। इसलिये शुक्राचार्यजीका वचन स्मरण आनेपर भी उन्होंने दैवप्राप्त पिता ज्ञान से

शर्मिष्ठाके साथ विहार किया राजा ययातिने धर्म समझकरही शर्मिष्ठा की प्रार्थना पूर्ण की थी. कुछ कामके वश होकर नहीं की, उसके उपरान्त देव यानीने यदु और तुर्व्वसु, दो पुत्र उत्पन्न किये और शर्मिष्ठाके गर्भ से छु, अनु और पुरु; इन तीन पुत्रोंने जन्म ग्रहण किया॥३२॥३३॥ अरे महाराज! अपने स्वामी से शर्मिष्ठाके गर्भकी उत्पत्ति जानकर देवयानी अभिमान से परिपूर्ण होगई और क्रोधके मारे मूच्छितसी हो तत्काल पिताके घरको चलीगई॥३४॥ हे राजन्! राजा ययाति अत्यन्त कामीथे वह प्यारीका क्रोध देखकर विनती करके प्रसन्न करते करते अपनी प्रियभार्याके पीछे पीछे चले गये परन्तु चरण दाबनेसे भी तो वह देवयानीको प्रसन्न न करसके॥३५॥ महाराज! इस ओरका कन्याके मुखसे सब वृत्तान्त जानकर दैत्यगुरु शुक्राचार्यजी महा क्रोधित हो घृणायुक्त वचनोंसे नामाताको पुकारने लगे। तू स्त्रीकामी होकर अन्यायके कर्म करता है अरे

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी॥ देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्च्छिता॥३४॥ प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमंत्रयन्॥ न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥३५॥ शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामाऽनृतपुरुष॥ त्वां जरा विशतां मंद विरूपकरणी नृणाम्॥३६॥ ययातिरुवाच॥ अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन्दुहितरि स्म ते॥ व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योभिधास्यति॥३७॥ इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत। यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः॥३८॥ मातामहकृतं वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्॥ वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः॥३९॥

मतिमन्द! इस अपराधसे मनुष्यों को विरूप करनेवाली जरा (बुढापा) तेरे शरीर में प्रवेश करे॥३६॥ यह शाप सुनकर राजा ययातिका चित्त अत्यंत दुःखित हुआ। और निवेदन किया कि, ब्रह्मन्! आपकी बेटीके काम भोगसे हम अबतक भी सब प्रकारसे तृप्त नहीं हुए हैं। तब शुक्राचार्यजी बोले कि, हाँ जो कोई पुरुष तुम्हारी जरा ग्रहण करले तो उसकी वयस अवस्थासे तुम इच्छानुसार काम भोग करसकोगे॥३७॥ हे राजन्! इस प्रकार राजा ययाति जराके उतरने की व्यवस्था पाकर पहले अपने बड़े पुत्र यदुको बुलाकर बोले। हे तात यदो! हमारी यह जरा अवस्था ग्रहण करके अपनी वयस हमको दो। बेटा! तुम्हारे नाना शुक्राचार्यने हमको जराग्रस्त किया है। परन्तु हम अबतक विषय भोगसे तृप्त नहीं हुए हैं। इसलिये यह जरा तुम लो। और तुम्हारी युवा अवस्था लेकर कुछ वर्षोंतक मैं विहार करूंगा॥३८॥ क्योंकि तेरे नानाकी दी हुई

इस वृद्धावस्थाको मैं सह नहीं सकता इसलिये तुम्हारी दी हुई अवस्था से मैं विषयोंको भोगकर तृप्त होजाऊँगा॥ ३९॥ यह सुनकर यदु बोले कि, हे पिता! आप मध्यम समय में जराको प्राप्त हुये हैं आपको इस जराके लेनेको हमारा चित्त नहीं चाहता। क्योंकि बिना ग्राम्य सुखोंके भोगे कौन पुरुष उससे (काम भोग से) तृष्णारहित होजाता है॥४०॥ हे भारत! तिसके पीछे तुर्वसु और द्रुह्य इन दो पुत्रोंसे राजाने युवा अवस्था मांगी। परन्तु उन्होंने भी कोरा जवाब दिया। हे राजन! इन लोगोंको धर्मज्ञान नहींथा। यह अनित्य पदार्थकोही नित्य मानते थे। फिर भला इन लोगोंसे पिताकी आज्ञा मानी जानेकी क्या सम्भावना?॥४१॥ परन्तु राजा ययातिका सबसे छोटा पुत्र यद्यपि वयसमें छोटा, तथापि गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था सबसे पीछे उसको बुलाकर राजा ययातिने जरालेनेके लिये बोले कि, हे वत्स! तुम अपने बडे भ्राताओंकी समान “नहीं” हमसे कहने योग्य

यदुरुवाच॥ नोत्सहे जरसा स्थातुमंतरा प्राप्तया तव॥ अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पुरुषः॥४०॥तुर्वसुचोदितः पित्रा दुह्यश्चानुश्च भारत॥ प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥४१॥ अपृच्छत्तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम्॥ न त्वमग्रजवद्वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥४२॥ पूरुरुवाच॥ को नु लोके मनुष्येंद्र पितुरात्मकृतः पुमान्॥ प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद्विंदते परम्॥४३॥ उत्तमश्चिंतितं कुर्यात्प्रोक्तकारी तु मध्यमः॥ अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्ताच्चारितं पितुः॥४४॥ इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः॥ सोऽपि तद्वयसा कामान्यथावज्जुजुषे नृप॥४५॥ सप्तद्वीपपतिः सम्यक्पितृवत्पालयन्प्रजाः॥ यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेंद्रियः॥४६॥

नहीं हो॥४२॥ जब इसप्रकार राजा ययाति कहा, तब पुरुने कहा कि, हे मनुष्येंद्र। इस लोक में कोई पुरुषभी पिता का प्रत्युपकार नहीं करसक्ता है। पिता क्या साधारण पुरुष हैं? क्योंकि उनसे देहका सम्बन्ध है। और उनकी प्रसन्नता से पुरुष परम गतिको प्राप्त होजाता है॥४३॥ जो पुत्र पिताका विचारा हुआ कार्य अपने आपही करदेता है, वह उत्तम कहलाता है। और जो आज्ञापाकर कार्य करता है, वह मध्यम है और जो आज्ञा पाकर भी उस कार्यको नही करता है, वह पुत्र नहीं किन्तु पिताका विष्ठामात्र है। और नीच कहलाता है॥४४॥ इस प्रकार कह हर्ष प्रकाश करके उसने पिताकी जरा अवस्था ग्रहण करली। राजा ययातिभी अपने पुत्रकी युवा अवस्था पाकर भली भांति सुख भोगनेलगा॥४५॥ हे महाराज! राजा ययाति सप्तद्वीपका राजा था। वह भली भांति पुत्रकी समान प्रजाका पालन करने लगा। और इच्छानुसार

विषय भोग भोगने लगा। पुत्रकी युवा अवस्था पानेसे इस राजा ययातिकी सब इन्द्रियें प्रबल और अनिवारित होगई*॥४६॥ और देवयानी भी मन, वचन कायसे व और भी सब भाँति एकान्त में दिनपर दिन अपने प्राणेश्वरको अत्यन्त प्रसन्न करती रहती थी॥४७॥ हे राजन्! राजा ययाति भी अनेक अनेक दक्षिणा देकर अनेक यज्ञकर सर्ववेदमय सर्वदेवस्वरूप, यज्ञपुरुष भगवान् वासुदेवका भजन करने लगे॥४८॥

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः॥ प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः॥४७॥ अयजद्यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः॥ सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्॥४८॥ यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः॥ नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥४९॥ तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्॥ नारायणमणीयांसं निराशीरयजत्प्रभुम्॥५०॥

अर्थात् आकाशमण्डलमें जलदावलि (बादरों की पंक्ति) की समान जिससे प्रत्यक्ष परिदृश्यमान जगत् विरचित होकर यावत् इन्द्रियवृत्ति तावत् विचित्ररूपसे प्रकाश पाता है और इसी इन्द्रियवृत्तिके उपरममें स्वप्न और मायासहित मनोरथ पाय प्रकाशहीन होते हैं॥४९॥ राजा ययातिने विरागी

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*शंका — राजा ययाति छोटे पुत्रकी अवस्था लेकरके उसी छोटे पुत्रकी माताके सग विहार करताया, इस बात से जानपडता है कि पुत्रनेही अपनी माताके संग रमण किया, क्योंकि राजामें रमणकरनेकी सामर्थ्य होती तो पुत्रकी युवावस्था क्यों लेता? इसने यह दो महापाप क्योंकिये? जो कोई ऐसा कहे कि, पुत्रको पिताकी आज्ञा करनी चाहिये यह भगवान्की बनाई मर्यादा है और धर्मशास्त्रकामी यही वाक्य है, सो सत्य है, नि सन्देह वह मर्यादा पूरी करनी चाहिये परन्तु न्याय अन्याय विचारकर कार्य करना चाहिये? क्योंकि जो पिताकी बुद्धि मलिन होजाय और पिता आज्ञा करे कि, मेरे लिये वेश्या अथवा वारुणी अथवाबुरी वस्तुको लादे और वह अनेक प्रकारकी कुत्सित वस्तुपर दृष्टि करे तो पुत्रको ऐसे पिताकी आज्ञा कमी नहीं माननी चाहिये, फिर पुत्र ने ऐसे पिताका वचन क्यों माना?

उत्तर — शर्मिष्ठाके ओष्ठपान करके ययातिकी बुद्धि भ्रष्ट होगई और दैत्यकी कन्याका पुत्र राजा है इसलिये वह दोनों पापी मिलगये इस कारण महापाप किया॥

होकर उन्हीं अन्तर्यामी परमसूक्ष्मरूप भगवान् वासुदेवके अनेक यज्ञ किये॥ ५०॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्!इस प्रकार सहस्र वर्ष तक अपराङ्मुख पञ्चइन्द्रिय और छठे मनसे सदा विषयभोग करके भी सर्वभूमीश्वर राजा ययाति सव भॉतिसे तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ॥५१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायामष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा— नृप ययाति निज प्रियाको, अज सम चरित सुनाय। बहुरि मोक्षभागी भया, उन्निसवें अध्याय॥ १॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजा परीक्षित्! राजा ययाति इस प्रकार विषयभोग करते करते अकस्मात् एक दिन अपने आपको स्त्रैण समझकर अपनी आत्माका विकार जान, वैराग्ययुक्त हो, अपनी परमप्यारी देवयानीसे यह वर्णन करने

एवं वर्षसहस्राणि मनष्षष्ठैर्मनःसुखम्॥ विदधानोऽपि नातृप्यत्सार्वभौमः कदिंद्रियैः॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते म० नवमस्कंधे ययातिचरितं नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ श्रीशुक उवाच॥ स इत्थमाचरन्कामांस्त्रैणोपह्नवमात्मनः॥ बुद्ध्या प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत॥१॥ शृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि॥ धीरा यस्यानुशोचंति वने ग्रामनिवासिनः॥२॥ वस्त एको वने कश्चिद्विचिन्वन्प्रियमात्मनः॥ ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम्॥३॥ तस्या उद्धरणोपायं वस्तः कामी विचिंतयन्॥ व्यधत्त तीर्थमुद्धत्य विषाणाग्रेण रोधसी॥४॥ सोत्तीर्य कपात्सुश्रोणी तमेव चकमे किल॥ तया वृतं समुद्वीक्ष्य वह्व्योऽजाः कांतकामिनीः॥ पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढांसं याभकोविदम्॥५॥

लगे॥१॥ कि, हे भार्गवि! हमारी समान कोई कामी एक गाँव में रहाता था। वनवासी वीरगण उसके आचरणोंपर अबतक कभी कभी शोक किया करते हैं। सो उस पुरुपकी अनुष्ठान की हुई गाथा में तुमसे वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥२॥ “एक छागनी (पुरुष) वन (संसार) अपने प्रिय विषय को ढूंढते ढूँढते अचानक एक छागीको कर्मके वशसे कुए में गिरी हुई देखी॥३॥ इस अत्यन्तकामी छागने उस बकरीके निकालनेका उपाय सोचा और कुएके किनारे, अपने सींगोंसे मट्टी खोदकर उसके निकलनेका मार्ग कर दिया॥४॥ इस मार्ग से वह कान्तियुक्त छागी कुएसे निकल उसी छागका अभिलाप करने लगी. जब उस बकरीने इस बकरेको वरण करलिया तो और बहुत सारी छागी भी मोटे, ताजे रति करने में समर्थ, वीर्यके

सींचनेवाले और मैथुन करनेमें चतुर समझकर इस छागको चाहने लगीं॥५॥ इसलिये वह एकही बकरा इन बहुतसी बकरियोंकी रति बढ़ाताहुआ इनके साथ केलि करने लगा वह छाग कामरूप गृहमें ऐसा फँस गया कि, अपनी आत्माको भी न जान सका॥६॥ परन्तु जो छागी कुएमें गिरी थी, वह और छागियोंको अपनेसे अधिक प्यारी और उनके साथ अपने प्रियतमको सदा रमण करताहुआ देख अत्यन्त क्रोधित हुई और उस छागका यह कर्म बहुत नहीं सहसकी॥७॥ इसलिये वह सुहृदयरूपी, वास्तव में सुहृदक्षण सौहृद इन्द्रियासक्त और कामुक उस छागको छोड़ दुःखित हो अपने स्वामीके पास चली गई॥ ८॥ यह छाग तो बहुतही स्त्रैण था, इसलिये कातर हो शब्दकरता हुआ उसको मनानेके लिये

स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः॥ रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत॥६॥ तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजाऽन्यया॥ विलोक्य कूपसंलग्ना नामृष्यद्बस्तकर्म तत्॥७॥ तं दुर्हृदं सुहृद्रूपं कामिनं क्षणसौहृदम्॥ इंद्रियाराममुत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ॥८॥ सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम्॥ कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत्पथि संधितुम्॥९॥ तस्य तत्र द्विजः कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद्रुषा॥ लंबतं वृषणं भूयः संदधेर्थाय योगवित्॥१०॥ संबद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया॥ कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति॥११॥ तथाहं कृपणः सुभ्रुभवत्या प्रेमयंत्रितः॥ आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया॥१२॥

उसके पीछे २ जाने लगा, परन्तु मार्गमें वह उस बकरीको किसी प्रकारसे भी प्रसन्न न करसका॥९॥ उस स्थानमें इस छागीके स्वामी एक ब्राह्मण ने क्रोध करके इस छागके दोनों लम्बायमान अण्डकोश काटडाले। अर्थात् उसको भोग करने योग्य न रक्खा। परन्तु वह ब्राह्मण उपायभी जानता था, इसलिये अपनी बकरीके काम भोगार्थ फिर इस छाग के अण्ड जोड़ दिये अर्थात फिर उस छागको मैथुन करनेकी सामर्थ्य देदी॥१०॥ हे भद्रे! इस प्रकारसे यह छाग सवृद्ध वृषण अर्थात् रतिशक्ति युक्त हो कुपसे निकाली उस छागीके साथ बहुत कालतक विषयभोग करता रहा। परन्तु कामकी सेवासे अबतक उस बकरेको सन्तोष नहीं हुआ”॥११॥ हे सुभ्रु! इस छागकी समान हमभी तुम्हारे प्रेममें

बँधकर अत्यन्त दीन होगये हैं। तुम्हारी मायासे मोहित होने के कारण हम अपने आपको भी तो भूल गये हैं॥१२॥ हे भद्रे! पृथ्वी में जितना धान्य, सुवर्ण, जितने पशु, जितनी स्त्री और जो जो वस्तु हैं सो यह सब भी कामसे हते हुये पुरुपके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सक्ती हैं॥१३॥ भोग विलासके, द्वारा कामकी किसीप्रकार शान्ति नहीं होती। वरन् वृतद्वारा अफ्रिकी समान विषय भोग बढ़ताही जाता है। जैसे घृत डालने से अग्नि॥१४॥ परन्तु जिस समय पुरुषसब प्राणियोंसे अमंगल भाव - अर्थात् राग द्वेषादिकी विषमताका त्याग कर देता है और सबमें समदृष्टि कर लेता है, तब उसको सब दिशा सुखदाई हो जाती हैं॥१५॥ इसलिये दुर्म्मति पुरुष जिसको नहीं छोड़ सक्ते और प्राचीन पुरुषके

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः॥ न दुह्यंति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥१३॥ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति॥ हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥१४॥ यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम्॥ सम दृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः॥१५॥ या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते॥ तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत्॥१६॥ मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्॥ बलवानिंद्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥१७॥ पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान्सेवतोऽसकृत्॥ तथाऽपि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते॥१८॥ तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्॥ निर्द्वंद्वो निरहंकारश्चरिष्यामि मृगैः सह॥१९॥ दृष्टश्रुतमसद्बुद्धा नानुध्यायेन्न संविशेत्॥ संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान्स आत्मदृक्॥२०॥

पासभी जो पुरानी नही होती और जो दुःखकी राशिके लिये रहती है सुख चाहनेवाले पुरुषको चाहिये कि, उस तृष्णाको शीघ्र छोड़ दे॥१६॥ और स्त्रीका संग तो सब प्रकारसे त्यागना आवश्यकहै,क्योंकि माता, बहन अथवा कन्याके संग इकलेमें एकासन पर बैठना ठीक नहीं। क्योंकि इन्द्रियें अतिशय बलवान हैं विद्वान पुरुपको भी खच लेती हैं॥१७॥ हे भद्रे! विचार करके देखो वारम्वार विषयकी सेवा करते हुये इसको पूरे एक सहस्र वर्ष बीत गये तोभी दिन दिन तृष्णा बढ़ती ही जाती है॥१८॥ इसलिये में पहले तृष्णाको छोडकर फिर ब्रह्ममें मन लगा जाऊंगा \। फिर सुख दुःखादि द्वन्द्वरहित और निरहंकार हो मृगगणोंके साथ घूमूँगा॥१९॥ हे प्रिये! जो पुरुष देखे सुने संसारको भी आत्मनाशक

और असत् जानकर उसका अनुध्यान वा भोग छोड देते हैं। वही देखे सुने विषय के अनुध्यानादिमें पण्डित आत्मदर्शी हैं॥२०॥ श्रीशुक देवजी बोले कि, हे परीक्षित्। राजा ययातिने इसप्रकार अपनी स्त्रीको समझाय छोटे पुत्र पुरुको उसकी युवा अवस्था लौटाय उससे अपनी जरा अवस्था ग्रहण करली। फिर पीछे राजा ययातिको कुछ चाहना न रही॥२१॥ पूर्व दिशा द्रुको, दक्षिण दिशा यदुको, पश्चिम दिशा तुर्व्वसुको और उत्तर दिशा अनुको राजा बनायदी॥२२॥ फिर सब भूमण्डलका राज्य क्षत्रियोत्तम प्यारे पुत्र पुरुको देकर और बड़े बेटोंको इस पुरुकी

इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः॥ दत्त्वा स्वां जरसं तस्मादाददे विगतस्पृहः॥२१॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युंदक्षिणतो यदुम्॥ प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम्॥२२॥ भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुर्महत्तमं विशाम्॥ अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ॥२३॥ आसेवितं वर्षपूगान्षड्वर्गं विषयेषु सः॥ क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः॥२४॥ स तत्र निर्मुक्तसमस्तसंग आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिंगः॥ परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे लेभेगतिं भागवतीं प्रतीतः॥२५॥

आज्ञा में रखकर आप वनको चलेगये*॥२३॥ हे राजन्! राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक शब्दादि विषय समूहमें है इंद्रियोंके द्वारका सुख भोगा था। परन्तु उसने स्पृहा छोड़ एक क्षणभर में इंद्रियोंके सुखको छोड़ दिया जैसे पंख जम आनेपर पक्षियोके बच्चे घोंसलेको छोड़ जातेहैं॥२४॥ राजा ययाति संगको छोड़कर आत्मानुभावसे त्रिगुणात्मक रूप लिंग निस्तर होगया और भली भाँति विख्यात हो निर्मल परब्रह्म

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*शंका — राजा ययाति बडे बुद्धिमान् और गुणनिधान थे, तोभीऐसा बडा अन्याय क्योंकिया कि, बडे पुत्रको छोडकर छोटे पुत्रको राज्य दिया, क्या कारण?

उत्तर — कामी लोमी क्रोधी ऐसे ऐसे जीव पृथ्वीपर हैं परन्तु न्याय अन्यायका विचार नहीं करते, नित्य अपने शरीरका सुख चाहते हैं, न्यायमें दुःख देखेंगे, तत्र न्यायको त्याग देंगे अन्याय में सुख देखेंगे तत्र अन्याय करेंगे, जिसमें शरीरको सुखहो, उसीको पुण्य जानते है, और जिसमें शरीर के कष्टहो उसको पाप समझते हैं, सुकर्म कुकर्म कुछ नहीं देखते इस पापके प्रतापसे ययाति राजाने छोटे बडेका विचार नहीं किया जिसकी देहसे सुखपाया उसीको राज्य दिया॥

वासुदेव में शीघ्र ही भगवत् गतिको प्राप्त होगया॥२५॥ स्त्री पुरुषका परस्पर स्नेह हेतु परिहासकी समान जो इतिहास कहागया देवयानी इसको सुनकर अपने प्रस्तोभ अर्थात निवृत्तिमार्ग में उत्साहित हुई॥२६॥ और वह अबला प्याऊ पर जानेवालोंकी समान ईश्वरपरतंत्र सुहृदगणोंका वास मायाविरचित समझी और स्वप्नकी समान उपमा देकर सबको मिथ्या जान सर्वत्र संग छोड़कर भगवान्में मन लगाय अपने शरीरको भी छोड़दिया॥२७॥२८॥ हे राजन्! अब यह बतलाते हैं कि, देवयानीने किस प्रकारसे भगवान् वासुदेवमें अपना मन लगाया था, सो तुम सुनो। भगवन्! आप विधाता, वासुदेव, सर्वभूतोंके निवासस्थान, परमशान्त और अतिबृहत् हो इसलिये में आपको नमस्कार करती हूं॥२९॥

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः॥ स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात्परिहासमिवेरितम्॥२६॥ सा सुन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम्॥ विज्ञायेश्वरतंत्राणां मायाविरचितं प्रभोः॥२७॥ सर्वत्र संगमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी॥ कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिंगमात्मनः॥२८॥ नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे॥ सर्वभृताधिवासाय शांताय बृहते नमः॥२९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नव० ययातिविरक्तिवर्णनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत। यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे॥१॥ जन्मेजयो ह्यभूत्पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः॥ प्रवीरोऽथ नमस्युर्वैतस्माच्चारुपदोऽभवत्॥२॥ तस्य सुद्युरभूत्पुत्रस्तस्माद्बहुगवस्ततः॥ संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः॥३॥

इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां ययात्युपाख्याने एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ दोहा — ययाति सुत पुरुवंशमें, भये नृपति दुष्यंत। भरत पुत्र तिनके भये, भक्त शिरोमणि संत॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत। अव पुरुके वंशका वर्णन करते हैं, सो तुम सुनों। इसी वंश में तुमने जन्म लिया है। अनेक राजर्षि इस पुरुवंश में उत्पन्न हुये हैं॥१॥ पुरुसे जन्मेजय उत्पन्न हुये। जन्मेजयका पुत्र प्राचिन्वान् और उससे प्रवी रने जन्म ग्रहण किया, प्रवीरका पुत्र नमस्यु और उससे चारुपदका जन्म हुआ, चारुपदके यहाँ सुद्युने जन्म लिया, उससे बहुगव उत्पन्न हुआ

उसका पुत्र संयाति, संयातिका पुत्र अहंयाति और अहंयातिके यहाँ रौद्राश्व जन्मा॥२॥३॥ इस रौद्राश्वने घृताची अप्सरास, दश पुत्र उत्पन्न किय, इनके नाम यह है — ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थंडलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु,व्रतेयुऔर सबसे छोटा अवैनेयु, हुआ। हे राजन्!जिस प्रकार इन्द्रियगण जगत्के आत्मभूत मुख्य प्राणके वश रहते हैं, वैसेही यह दशपुत्र रौद्रावके वशमें रहते थे॥४॥५॥ इन रौद्रावके दशपुत्रों मेंसे ऋतेयुका रन्तिभार नामक एक पुत्र हुआ। उसके तीन पुत्र हुये. यथा सुमति, ध्रुव और अप्रतिरथ इन तीनोंमेंसे अप्रतिरथके पुत्र कण्व हुये॥६॥ कण्वके मेधातिथि और तिनसे प्रस्कण्वादि द्विजातिगण उत्पन्न हुये। हे राजन्! रन्तिभार नामका बडा बेटा सुमति और उसका

ऋतेयुस्तस्य कुक्षेयुः स्थंडिलेयुः कृतेयुकः॥ जलेयुः संततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः॥४॥ दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः॥घृताच्यामिंद्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः॥५॥ ऋतेयो रंतिभारोऽभूत्त्रयस्तस्यात्मजा नृप॥ सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः॥६॥ तस्य मेधातिथिस्तस्मात्प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः॥ पुत्रोऽभूत्सुमते रैभ्यो दुष्यंतस्तत्सुतो मतः॥७॥ दुष्यंतो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः॥ तत्रासीनां स्वप्रभया मंडयंतीं रमामिव॥ विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम्॥८॥ बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः॥ तद्दर्शनप्रमुदितः सन्निवृत्तपरिश्रमः॥९॥ पप्रच्छ कामसंतप्तः प्रहसञ्छ्लक्ष्णया गिरा॥ का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे॥१०॥

पुत्र रैभ्य और इन रैभ्यकेही पुत्र राजा दुष्यन्त हुये॥७॥ एक समय यह राजा दुष्यन्त आखेट करते करते वनमें प्रवेशकर महर्षि कण्वके आश्रम में आय पहुँचे, वहांपर एक स्त्री बैठी हुई लक्ष्मीकी समान अपने शरीर की प्रभासे आश्रमको शोभायमान कररही थी॥ देवमायाकी समान उस तरुणीको देखतेही राजा दुष्यन्त मोहित होगया॥८॥ इसके उपरान्त कुछ सेनाके सिपाही लेकर निकट जाय उस वरारोहाके साथ राजाने सम्भाषण किया. हे राजा परीक्षित्! उस सुन्दरीको देखतेही राजा दुष्यन्तको अनिर्व्वचनीय आनन्द प्राप्त हुआ था। और मानो उसको देखकर जंगलमें घूमनेसे जो थकावट हुई थी वह भी सब जातीरही॥९॥ कामपीडित हो हँसते हँसते मधुर वचनसे राजाने

पूँछा कि, हे कमलपत्राक्ष। तुम कौन हो? किसकी कन्या हो?॥१०॥ और इस निर्जन वनमें क्या करनेकी वासना किये हुयेहो? हे सुमध्यमे! पुरुवंशीय लोगोंका चित्त कभी अधर्म में नहीं लगता है. इसलिये स्पष्ट जान पड़ता है कि, तुम किसी क्षत्रिय वंशकी बेटी हो॥११॥ यह सुनकर शकुन्तलाने उत्तर दिया कि, हे राजन्! मैं विश्वामित्रकी पुत्री हूं मेनका नामक अप्सरा मेरी माता है। स्वर्गमें जाने के समय माता मुझको इस निर्जन वनमें अकेली छोड़कर चली गई। इसलिये वास्तव में मैं क्षत्रियकी कन्या हूं इस बातको भगवान् कण्वऋषि भलीभांति जानते हैं. हे वीर! हम आपका कौनसा कार्य करें? सो आज्ञा कीजिये॥१२॥ हे महाराज! आसन ग्रहण कीजिये और हमारी

किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने॥ व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे॥ न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्ववित्॥११॥ शकुंतलोवाच॥ विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने॥ वेदैतद्भगवान्कण्वो वीर किं करवाम ते॥१२॥ आस्यतां ह्यरविंदाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः॥ भुज्यतां संति नीवारा उष्यतां यदि रोचते॥१३॥ दुष्यंत उवाच॥ उपपन्नमिदं सुभ्रुजातायाः कुशिकान्वये॥ स्वयं हि वृण्वते राज्ञां कन्यकास्सदृशं वरम्॥१४॥ ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुंतलाम्॥ गांधर्वविधिना राजा देशकालविभागवित्॥१५॥ अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे॥ श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम्॥१६॥

पूजा भी आप अंगीकार करें यहाॅ निवारीके चावल हैं भोजन कीजिये और यदि रुचि हो तो रात्रि को भी यहांही रहिये॥१३॥ राजा दुष्यन्त बोले कि, हे सुन्दरि! तुमने कुशिक के वंश में जन्म लिया है वास्तवमें तुम्हारा आचरण ठीक है, क्योंकि राजकन्यायें समान स्वयम् वरको वरण करती हैं॥१४॥ शकुन्तलाने राजाकी यह बात सुनकर कहा कि, ‘हां’ तब देशकालके जाननेवाले इस राजाने शकुन्त लासे गन्धर्व विवाह किया॥१९॥ हे भारत! अमोघवीर्यवान् राजा दुष्यन्त भार्या शकुन्तलामें वीर्याधान करके दूसरेदिन इसके

उपरान्त राजा अपने नगर हस्तिनापुर को चलेगये। तब यथायोग्य समय में शकुन्तलाके एक कुमार उत्पन्न हुआ॥१६॥ महर्षि कण्वऋषीश्वरने वन मेंही यथायोग्य उस बालककी संस्कारादि क्रिया करदी। हे राजन्! यह कुमार बालकपन से ही अपने बलसे सिंह पकड़ करके उनके साथ खेला करता था॥१७॥ इसलिये महाविक्रमशाली देखकर प्रमदोत्तमा शकुन्तला भगवान् हरिके अंश से उत्पन्न उस पुत्रको ले अपने स्वामीके निकट गई॥१८॥ परन्तु राजा दुष्यन्तने अनिन्दित इस स्त्री और पुत्रको ग्रहण नहीं किया। परन्तु जिस समय राजा दुष्यन्तने शकुन्तलाका निरादर किया तब श्रवण कारी सब प्राणियों के सन्मुख आकाशसे अशरीरिणी वाणी प्रगट हो राजाको पुकारकर बोली कि॥१९॥ हे राजा दुष्यन्त! माता भस्त्रा अर्थात्

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुदिताः क्रियाः॥ बद्धा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म सबालकः॥१७॥ तं दुरत्ययविक्रांतमादाय प्रमदोत्तमा॥ हरेरंशांशसंभूतं भर्तुरंतिकमागमत्॥१८॥ यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिंदितौ॥ शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी॥१९॥ माता भस्त्रापितुः पुत्रो येन जातः स एव सः॥ भरस्व पुत्रं दुष्यन्तमाऽवमंस्थाः शकुंतलाम्॥२०॥ रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्। त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुंतला॥२१॥ पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः॥ महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि॥२२॥

चर्मपात्रवत् आधार मात्र पिताकाही पुत्र है। क्योंकि आत्माही पुत्ररूप से उत्पन्न होता है। इसलिये अपने पुत्रको ग्रहण करके पालो और शकुन्त लाका अपमान न करो॥२०॥ हे नरदेव! जो पुरुष वीर्य डालता है पुत्र उसकाही यमालय से निस्तार करता है। और शकुन्तला यह सत्य कहती है तुमनेही इस पुत्रको गर्भ में धारण किया था॥२१॥ हे भारत! आकाशवाणीको सुनतेही राजा दुष्यन्तने पुत्रसहित शकुन्तलाको अंगीकार किया। कुछ कालके पीछे महाराज दुष्यन्त स्वर्गवासी होनेपर राजाके महायशस्वी यही भरतजी सिंहासनपर बैठकर चक्रवर्ती राजा हुए थे. महाराज

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*शंका — थोडे ही दिनमें राजा दुष्यन्त अपने चरितको भूल गया, और शकुन्तलाको और अपने पुत्रको भी भूलगया, यह बडे आश्चर्य की बात हैं? क्या पहले पुरुष भोले होते थे?

** उत्तर —** बडा बुद्धिमान् राजा दुष्यन्त था और यह भली प्रकार जानता था कि यह हमाराही पुत्र है और यह शकुन्तला हमारी स्त्री है, परन्तु लोकापवादसे डरकर उसको ग्रहण नहीं करता था, आकाशवाणीसे सबको विदित होगया तो राजाने ग्रहण किया॥

भरत श्रीभगवान् हरिके अंश से उत्पन्न हुए थे इसलिये उनकी महिमा समस्त भूमण्डलमें गाई जाती है॥२२॥ उनके दाहिने हाथमें चक्र और दोनों चरणों में पद्मकोषका चिह्न विराजमान था। उन्होंने महाभिषेक कराय राजाधिराज हो गंगाजीके किनारे पर पचपन (५५) अश्वमेधयज्ञ करके भगवान् वासुदेवजी की पूजा की॥२३॥ यह राजा भरत ममता के पुत्र मामतेय ऋषिको अपना पुरोहित बनाकर यमुनाके तीर पर अश्वमेध यज्ञ के अठत्तर (७८) पवित्र अश्व (घोड़े) यथाक्रम से बाँधे। इन यज्ञोंके समय राजर्षि भरतजीने बहुत सा धन ब्राह्मणोंको दक्षिणामें दिया था॥२४॥ राजन्! श्रेष्ठगुणवाले देशमें महाराज भरतजीकी अग्रि प्रणीत थी। उस अग्निप्रचयन कालमें हजारों ब्राह्मणलोग उन महाराज भरतजीकी दी हुई

चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः॥ ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराभुिः॥२३॥ पंचपंचाशतमेध्यैर्गंगायामनु वाजिभिः॥ सामंतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः॥२४॥ अष्टसप्ततिमेध्याश्वान्बबंध प्रददद्वसु॥ भरतस्य हि दौष्यंतेरग्निः साचीगुणे चितः॥ सहस्रं वद्वशो यस्मिन्ब्राह्मणा गा विभेजिरे॥२५॥ त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान्बद्धा विस्मापयन्नृपान्॥ दौष्यंतिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ॥२६॥ मृगाञ्छुक्लदतः कृष्णान्हिरण्येन परीवृतान्॥ अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश॥२७॥ भरतस्य महत्कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः॥ नैवापुर्नैव प्राप्स्यंति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा॥२८॥

गायोंको एक एक वृद्धमें भाग करके लेगये थे एक वद्व तेरह सहस्र चौरासी १३०८४ का होता है॥२५॥ और महाराज भरतजीने एक बारही में एक सौ तैंतीस १३३ यज्ञीय घोड़े बाँध राजा लोगोंको विस्मितकर देवता लोगोंके विभवकोभी आक्रमण किया था उनका ऐसा कर्म करना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि वह भगवान् हरिको प्राप्त हुए थे॥२६॥ इन महाराज भरतने मष्णार नामक कर्ममें श्वेतदन्त और कृष्ण रंगके चौदह लाख १४००००० हाथी सुवर्णसे सजे हुए दान किये॥२७॥ महाराज भरतजीने जो कर्म किये, उन कर्मोंको पहिले हुए नृपति गणभी प्राप्त नहीं करसके और आगेको जो राजा होंगे वह भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। जैसे भुजाओंके बलसे स्वर्ग प्राप्त नहीं होसक्ता॥२८॥

इन महाराज भरतजीने दिग्विजय करनेको जाकर किरात, हूण, यवन, पौण्ड्र, कङ्क, खश, शक और दूसरे अब्रह्मण्य राजाओंको और सब म्लेच्छजातिका संहार कर डाला॥२९॥ पूर्वसमय में जिन दानवोंने देवतालोगों को जीतकर जिन रसातलादि स्थानों में वास किया था और यह बली दानव लोग देवता लोगोंकी स्त्रियोंको भी पातालमें लेगये थे। महात्मा भरतजीने उन सब देवाङ्गनाओंका उद्धार किया था॥३०॥ हे महाराज ! महाराज भरतजीके समय में स्वर्ग और पृथ्वीसे प्रजा लोगोंकी सब अभिलाषा पूरी होती थी। इस राजा भरतने सत्ताईस हजार वर्ष तक राज्य करके सब दिशाओं में अपनी सेना भेजी थी॥३१॥ इसप्रकार राज्य भोग करनेके पीछे महाराज भरतजीने लोकपालोंका विभव

किरातहूणान्यवनानंध्रान्कंकान्खशाञ्छकान्॥ अब्रह्मण्यान्नृपांश्चाहन्म्लेच्छान्दिग्विजयेऽखिलान्॥२९॥ जित्वा पुराऽसुरा देवान्ये रसोकांसि भेजिरे॥ देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत्॥३०॥ सर्वकामान्दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी॥समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत्॥३१॥ स सम्राड्लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट्च्छ्रियम्॥ चक्रं चास्खलितं प्राणान्मृषेत्युपरराम ह॥३२॥ तस्यासन्नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसंमताः॥ जघ्नुस्त्यागभयात्पुत्रान्नानुरूपा इतीरिते॥३३॥ तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम्॥ मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः॥३४॥

अधिराज्यकी सम्पत्ति, अस्खलित सेना और आत्मप्राणादि सबहीको मिथ्या विचार कर विषयसे मुँह मोडा॥३२॥ इन भरतजीके विदर्भ देशके राजाकी बेटी सुसम्मत तीन स्त्रियें थी। एकसमय राजाने कहा कि “यह पुत्र हमारे अनुसार नहीं हैं” इसलिये यह तीनों ऐसी शंका करने लगीं कि, वारंवार अनुहारका विचार कर कहीं यह राजा हमपर व्यभिचारकी शंका न कर बैठे और हमको त्यागदे। इसलिये अपनी अपनी संतानको मारडाला॥३३॥ इस प्रकार वंश के व्यर्थ होने से महाराज भरतजीने पुत्रार्थ वायु और सोमका यज्ञ किया। इस यज्ञके मरुद्गुणोंने प्रसन्न हो राजाके

हाथमें भरद्वाज नामक एक पुत्र समर्पण किया॥३४॥ हे परीक्षित्! अब भरद्वाज के जन्मका वृत्तान्त और समर्पणकी कथा कहते हैं।अपने भ्राता उतथ्य की स्त्री ममतासे एक दिन छिपकर बृहस्पतिजीने भोग करना चाहा था। परन्तु उस समय गर्भके बीच एक और बालक था, फिर उस समय गर्भके मध्य दूसरे गर्भका स्थान कैसे हो? इसलिये, गर्भके बालकने बृहस्पतिजीको वीर्य डालने के अर्थ निवारण किया परन्तु बृहस्पतिजी कामान्ध होरहे थे। उन्होंने क्रोधित होकर बालकको यह शाप दिया कि, “तू अंधा होजा” और अपना वीर्य ममताके पेटमें डाला॥३५॥ बृहस्पतिजी के शापसे उतथ्य नयनहीन दीर्घतमा हुयेथे परन्तु उन्होंने अपनी एडीके प्रहारसे बृहस्पतिजी के वीर्यको योनि के बाहर निकाल दिया। परन्तु उस भूमिपर गिरेहुये वीर्यसे उसी समय एक कुमार उत्पन्न हुआ। पीछे स्वामी हमको व्यभिचारिणी जानकर छोड़ न दें इस भय से भीत होकर जब उतथ्य की स्त्री ममताने उस कुमारको त्याग करनेकी इच्छा की, तब उस समय देवता लोगोंने बृहस्पति और ममता के विवाद रूप इस

अंतर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः॥ प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वावीर्यमवासृजत्॥३५॥ तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशंकिताम्॥ नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः॥३६॥ मूढे भरद्वाजमिमं भरद्वाजं बृहस्पते॥ यातौ यदुक्त्वापितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम्॥३७॥

कुमारका नाम धरनेके लिये यह वचन कहे॥३६॥ यथा-पुत्रको त्याग करके जाती हुई देख बृहस्पतिजीने ममता से कहा। अरी मूढ स्त्री ! यह बालक एकके क्षेत्रमें दूसरेके वीर्य से होने के कारण इसका दो जनोंसे जन्म हुआ। इसलिये यह तुम्हारे स्वामीका भी पुत्र है। स्वामीसे कुछ भयकी शंका नहीं तुम इस बालकको पालो तब ममताने उत्तर दिया कि, तुमभी इसका पालन पोषण करो। हम दोनों जनोंसे अन्यायके द्वारा यह बालक उत्पन्न हुआ है। सो मैं इकली क्यो इसका पालन पोषण करूंगी। पिता माता अर्थात् बृहस्पति और ममता इस प्रकार कह झगडा करते करते इस बालकको छोड़कर चले गये इसीलिये इसका नाम भरद्वाज हुआ क्योंकि भर (पोषण) और द्वाज (दोनोंसे उत्पन्न) इन दोनों शब्दों के मिलानेसे भरद्वाज नाम हुआ॥३७॥

हे राजा परीक्षित्! देवता लोगोंके इस प्रकार कहते कहते पर भी व्यभिचारसे उत्पन्न हुये उस बालकको व्यर्थ समझकर उतथ्यकी भार्याने त्यागदिया। तब उस बालकको मरुद्गुणोंने लेकर पालन किया था। जब भरत वंशके वितथ होनेका उपक्रम हुआ तब उस समय मरुद्रणोंने इस पुत्र को लेकर महाराजाधिराज भरतजीको देदिया॥ ३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां शकुन्तलोपाख्यानं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ दोहा — भरत वंश इक्कीस में, रंतिदेव अजमीढ। तिनके कुलकी कीर्ति सब, वरणों सहित सपीढ॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्!वंशके वितथ होनेपर भरतजीको मरुद्गणोंने यह बालक दिया इसलिये इन भरद्वाजका नाम वितथ हुआ। इन वितथका पुत्र मन्यु उनसे बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग ये पॉच पुत्र उत्पन्न हुये॥१॥ उनमें नरका पुत्र संकृति हुआ। तिसका पुत्र गुरु और

चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्॥ व्यसृजन्मरुतोऽबिभ्रन्दत्तोऽयं वितथेऽन्वये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे शकुन्तलोपाख्याने विंशोऽध्यायः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्त्रो जयस्ततः॥ महावीर्यो नरो गर्गस्संकृतिस्तु नरात्मजः॥१॥ गुरुश्च रंतिदेवश्च संकृतेः पांडुनंदन॥ रंतिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते॥२॥ वियद्वित्तस्य ददतो लब्धंलब्धं बुभुक्षतः॥ निष्किंचनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः॥३॥ व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपि गतः किल॥ घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम्॥४॥ कृच्छप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः॥ अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत्॥५॥

रन्तिदेव हुआ। हे राजन्! इन रन्तिदेवकी महिमा इस लोक और परलोक दोनो में गाई जाती है॥२॥ इस राजाका चित्त निरन्तर व्ययमें नियु क्त था। वह आप भूखे रहकर भी जो कुछ मिलता तत्काल दान कर देते? यह धीर नरपति सब कुछ दान करके निष्किञ्चन हो सपरिवार क्षुधा के मारे अत्यन्त व्याकुल होगया॥३॥ और विना जल पानकिये राजाको अडतालीस दिन व्यतीत होगये। सब परिवार विना आहारके कष्ट पारहा था और आप भी भूख प्यास के मारे कम्पायमान होरहे थे। उसी समय घृत, खीर और थूली भोजन करनेके लिये राजाको प्राप्त हुई॥४॥ उसको पाय राजा प्रातःकाल भोजन करने को चले जाते थे। उसी समय कोई ब्राह्मण अतिथि आगया॥५॥

तो राजा श्रद्धापूर्वक सर्वदेवमय भगवान् हरिको देखते हुए आदर पूर्वक उस ब्राह्मणको भी उस सब अन्नमें से विभाग करके देते हुए। और वह ब्राह्मण भोजन करके चला गया॥६॥ तिसके पीछे उस बचे हुये अन्नादिको अपने सब परिवारको बाँट चूंट आप स्वयं भोजन करना चाहते थे कि उस अवसरपर और कोई शूद्र अपनेको अतिथि बताकर आया तो यह रन्तिदेव भगवान् हरिका स्मरण करके उस बचेहुए अन्नमें से उस शूद्रकोभी भाग देते हुए॥७॥ जब वह एक शूद्र अतिथि आयकर बिदा हो चला गया कि, इतनेहीमें और एक जन बहुत सारे कुत्तोंको साथ लिये अतिथि बनकर वहाँ आया और आनकर बोला कि “मैं इन सब कुत्तों के साथ बहुतही भूखा हूँ” सो इस यूथके सहित मुझको तुम आहार दो

तस्मै संव्यभजत्सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः॥ हरिं सर्वत्र संपश्यन्स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः॥६॥ अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते॥ विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन्॥७॥ याते शुद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः॥ राजन्मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते॥८॥ स आहत्यावशिष्टं यद्बहुमानपुरस्कृतम्॥ तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः॥९॥ पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम्। पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपोदेह्यशुभस्य मे॥॥१०॥ तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम्॥ कृपया भृशसंतप्त इदमाहामृतं वचः॥११॥ न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा॥ आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामंतःस्थितो येन भवंत्यदुःखाः॥१२॥

॥८॥ राजाने उसका बहुतही आदर किया और सन्मान करके वह बचा हुआ अन्न कुत्तोंके यूथको और उनके स्वामिको खानेके लिये देकर उनको नमस्कार किया॥९॥ उसके पीछे सब कुछ देकर एक जनकी तृप्तिके योग्य जो जल वहाँ बचा था। उसकेही पीनेका राजाने उद्योग किया कि, इतनेही में एक पुल्कस (चाण्डाल) आया और करुणा सहित यह वचन बोला कि, हे महाराज! मैं बहुत थक गया हूँ। सो मुझ अशुभ पुरुषको कुछ जल दीजिये॥१०॥ इस चाण्डालके ऐसे करुणायुक्त वचन सुनकर राजा रन्तिदेवको अत्यन्त दया हुई और दुःखित हो यह अमृतमय वचन बोले कि॥११॥ हम परमेश्वर से अणिमादि अष्टसिद्धियुक्त गति अथवा मुक्तिकी भी कामना नहीं

करते। हमारी यही प्रार्थना है कि, हम सम्पूर्ण देहधारियोंके दुःखको भोक्तारूपसे भीतर स्थिर होकर प्राप्त हों। और हमसे सब प्राणियोंका दुःख दूर होजावे॥१२॥ यह दीन जन जीवन धारण करनेकी वासना करता है। इसके जीवन के लिये जल अर्पणकरतेही हमारी क्षुधा, तृषा, थकावट, अंगोंका घूमना कातरता, क्रान्ति, खेद, विपाद, मोह सबही निवृत्त होगये \।\। १३ \। इसप्रकार कहकर स्वभावसेही दयालु महाराज \। रन्तिदेवने स्वयं प्यास के मारे त्रियमाण होनेपर भी उस चाण्डालको अपने पीनेका जल देदिया॥१४॥ हे राजन्! त्रिभुवनाधीश जो ब्रह्मादि देवता फलाकांक्षी पुरुषोंको फल दान किया करते हैं यह सब महाराज रन्तिदेव के धैर्य और धर्मकी परीक्षा करनेके लिये विष्णुकी बनाई हुई मायासे

क्षुत्तृट्च्छमो गात्रपरिश्रमश्च दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः॥ सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तोर्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे॥१३॥ एवं प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया॥ पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नृपः॥१४॥ तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम्॥ आत्मानं दर्शयांचक्रुर्मायाविष्णुविनिर्मिताः॥१५॥ स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निस्संगो विगतस्पृहः॥ वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे नमः परम्॥१६॥ ईश्वरालंबनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः॥ माया गुणमयी राजन्स्वप्नवत्प्रत्यलीयत॥१७॥ तत्प्रसंगानुभावेन रंतिदेवानुवर्तिनः॥ अभवन्योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः॥१८॥

अपने अपने स्वरूपको दिखाते हुए॥१५॥ परन्तु महाराज रन्तिदेवने इन सब देवताओंको नमस्कार किया। और निःसङ्ग व स्पृहा रहित होकर केवल भगवान् वासुदेवको अर्पण कर दिया॥१६॥ इसलिये उन्होंने ब्रह्मादि देवताओंसे कुछभी नहीं चाहा। हे राजन् ! रन्तिदेव के ईश्वरातिरिक्त और किसी फलकी इच्छा न करनेपर अपने चित्तको ईश्वरावलम्बित करनेसे उनके निकट गुणमयी माया स्वप्नकी समान आत्मामेंही विलीन हुई थी॥१७॥ उनके अनुगामी जनगण इन राजा रन्तिदेव के संसर्गप्रभावसे सबही नारायणपरायण योगी होगये॥१८॥

हे कुरुश्रेष्ठ! मन्युके पुत्र नरका वंश कहा गया। अब गर्गके वंशका वृत्तान्त कहते हैं सो तुम सुनो। गर्गसे शिनि उत्पन्न हुए। शिनिसे गार्ग्य यह ब्रह्मकुलके प्रवर्तक हुए॥१९॥ अब महावीर्यके वंशका विवरण सुनो। महावीर्यसे दुरितक्षय उत्पन्न हुआ। उनका पुत्र त्र्य्यारुणि, कवि और पुष्करा रुणि, यह तीनोंजने क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न होकर ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुये थे। अब मन्युके पॉच पुत्रों में से सबसे बड़ेका वंश सुनों। बृहत्क्षेत्रका पुत्र हस्ती हुआ कि, जिसने हस्तिनापुर बसाया॥२०॥ इस+हस्तीके* अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ, यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए. इनमें अजमीढके वंश से

गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद्ब्रह्म ह्यवर्तत॥ दुरितक्षयो महावीर्यात्तस्य त्रय्यारुणिः कविः॥ १९॥ पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः॥ बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम्॥२०॥ अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः॥ अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः॥२१॥ अजमीढाद् बृहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः॥ बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्जयद्रथः॥२२॥ तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित्समजायत॥ रुचिराश्वो हृढहनुःकाश्यो वत्सश्च तत्सुताः॥२३॥ रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनस्तदात्मजः॥ पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत॥२४॥ स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत्॥ स योगी गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात्सुतम्॥२५॥

प्रियमेधादि ब्राह्मणगण उत्पन्न हुए॥२१॥ और इस अजमीढसे वृहदिषु नाम और एक पुत्र जन्मा, उसका पुत्र बृहद्धनु हुआ। बृहद्धनुकी सन्तान वृहत्काय इसका पुत्र जयद्रथ हुआ॥२२॥ जयद्रथका पुत्र विशद उसका पुत्र सेनजित्, सेनजितके रुचिराश्व, दृढ, हनुकाश्य और वत्स यह चार पुत्र हुए॥२३॥ उनमें रुचिराश्वका पुत्र पार हुआ। उसका पुत्र पृथुसेन हुआ। हे राजन्! पारका दूसरा पुत्र नीप और नीपके सौ (१००) पुत्र हुए॥२४॥ और इसी नीपने शुक्रकी कन्या कृत्वी के गर्भ से ब्रह्मदत्तको उत्पन्न किया इस योगी ब्रह्मदत्त ने अपनी भार्या सरस्वतीके गर्भ से

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  • इसा राजा हस्तीने हस्तिनापुरबसाया था जो अबतक गंगा भागीरथी के किनारे पर उपस्थित है॥

* इसी अजमीढने ‘अजमेर’ वसाया जो आजकल पुष्करजीके निकट वर्तमान है और वास्तवमें इसका नाम ‘अजमेढ’ था जो आजकल अजमेर नामसे विख्यात है.

विष्वक्सेन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया॥२५॥ जिसने जैगीषव्यके उपदेश से योगशास्त्र प्रणयन किया था। इस विष्वक्सेनसे उदक्स्वनने जन्म लिया। इनसे भल्लाद नाम पुत्र उत्पन्न हुआ \।\।२६\।\। द्विमीढका पुत्र यवीनर, यवीनरका पुत्र कृतमान उसके यहां सत्यधृति नामक पुत्र जन्मा सत्यधृ तिका पुत्र दृढनेमि और दृढनेमिका पुत्र सुपार्श्व हुआ॥२७॥ सुपार्श्वसे सुमतिने जन्म लिया उसका पुत्र सन्नति नाम, उसका पुत्र कृति, जिसने हिरण्य नामसे योग विद्या सीखकर॥२८॥ प्राच्य सामकी छः संहिताओंका विभाग करके उनको पढ़ाया इस कृतिके नीप हुआ और नीपसे उग्रायुधकी

जैगीषव्योपदेशेन योगतंत्रं चकार ह॥ उदक्स्वनस्ततस्तस्माद्भल्लादो बार्हदीषवः॥२६॥ यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः॥ नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत्॥२७॥ सुपार्श्वात्सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमां स्वतः॥ कृती हिरण्यनाभाद्यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट्॥२८॥ संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्यग्रायुधस्ततः॥ तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुंजयः॥२९॥ ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोऽप्रजोऽभवत्॥ नलिन्यामजमीढस्य नीलः शांतिस्सुतस्ततः॥३०॥ शांतेः सुशांतिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत्॥ भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पंचाऽऽसन्मुद्गलादयः॥॥३१॥ यवीनरो बृहदिषुः कांपिल्यः संजयः सुताः॥ भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पंचानां रक्षणाय हि॥३२॥

उत्पत्ति हुई. उग्रायुधके क्षेम्य, उसका पुत्र सुवीर, सुवीरका पुत्र रिपुञ्जय॥२९॥ उसका पुत्र बहुरथ हुआ हस्तीका पुत्र पुरुमीढ निःसन्तान रहा नलिनी नाम जो भार्या थी उससे नीलनाम एक पुत्र उत्पन्न हुआ। और नीलका पुत्र शान्तिजन्मा॥३०॥ शान्तिका बेटा सुशान्ति, सुशान्तिका पुत्र पुरुज और उससे अर्कने जन्म ग्रहण किया। अर्कका पुत्र भर्म्याश्व और उसके मुद्गलादि पाँच पुत्र उत्पन्न हुए॥३१॥ अर्थात् मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु

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***शंका —**राजा नीपने क्षत्रिय होकर शुकदेवजी ब्राह्मणकी कन्याके साथ अपना विवाह क्यों किया? क्षत्रियकी पुत्रीको तो ब्राह्मण सदेव विवाहते रहे परन्तु ब्राह्मणकी कन्या के साथ क्षत्रियका विवाह हमने आजही सुना, कभीदेवयानी की बात तो शापसे होगई, परन्तु यह अबकी हमको वढी शंका है।

उत्तर— तीन लोकमें शुकदेवजीकी कन्या सव ब्रह्मज्ञानियों में परम ब्रह्मज्ञानी थी और ब्रह्मज्ञानीही पुरुषको अपना पतिकरना चाहती थी और किसी दूसरे पुरुषको नहीं चाहती थी और राजा नीप वडा ब्रह्मज्ञानी या ऐसा विचार के अपनी इच्छा से राजा नींपको उसने अपना पति बनाया, कुछ संसारकी रीतिसे वह विवाह नहीं हुवा था॥

काम्पिल्य और संजय यह पांच पुत्र जन्मे। भर्म्याश्वने इन पुत्रोंको देखकर एक समय कहा था कि, हमारे यह पांच पुत्र पांच विषय के रक्षा करने में समर्थ हैं॥३२॥ वह पांच देशका पालन कर सक्ते हैं। इसी कारण इन पुत्रोंकी पाञ्चाल संज्ञा हुई। और पाञ्चाल देश इनहींके नामसे प्रसिद्ध हुवा और मुगलसे मौद्गल्य गोत्री ब्रह्मकुल हुआ॥३३॥ भर्म्याश्व के पुत्र मुद्गलसे शुभनरा मिथुनने जन्मलिया। इनमें दिवोदास नर और अहल्या नाम नारी थी। उसी अहल्या में गौतमजी से शतानन्दकी उत्पत्ति हुई॥३४॥ शतानन्दका पुत्र सत्यधृति हुआ। यह धनुर्वेदको भलीभाँति से जानता था। उसका पुत्र शरद्वान् कि, जिसका वीर्य उर्वशीके दर्शन से शरकण्डों के समूहमें गिरा था। और फिर इसी वीर्यसे एक शुभ जोड़ा उत्पन्न हुआ॥३५॥

विषयाणामलमिमे इति पांचालसंज्ञिताः॥ मुद्गलाद्ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं मौद्गल्यसंज्ञितम्॥३३॥ मिथुनं मुद्गलाद्भार्म्याद्दिवोदासः पुमानभूत्॥ अहल्या कन्यका यस्यां शतानंदस्तु गौतमात्॥३४॥ तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः॥ शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात्किल॥३५॥ शरस्तंवेऽपतद्रेतो मिथुनं तदभृच्छुभम्॥ तद्दृष्ट्वा कृपयाऽगृह्णाच्छंतनुर्मृगयां चरन्॥ कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्न्यभवत्कृपी॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महा० न० भरतरन्तिदेवाजमीढादिचरितं नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ मित्रायुश्च दिवोदासाच्च्यवनस्तत्सुतो नृप॥ सुदासः सहदेवोऽथ सोमको जंतुजन्मकृत्॥१॥ तस्य पुत्रशतं तेषां यवीयान्पृषतः सुतः॥ द्रुपदो द्रौपदी तस्य धृष्टद्युम्नादयः सुताः॥२॥

जब शन्तनु राजा मृगया करनेको गया तब उसने दैवात् इस जोड़ेको देखा। और दयाके वश हो अपने घरपर ले आया उस नर मिथुनमेंसे बालकका नाम कृप और बालिकाका नाम कृपी हुआ जो कि, द्रोणाचार्यकी स्त्री हुई॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायांवंशानुकीर्त्तनं नाम एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ दोहा — दिवोदासको वंश कह, ऋक्ष वंश बाईस। जरासन्ध और धर्मसुत, दुर्योधन धनईस॥१॥श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षितसे बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ! दिवोदासका पुत्र मित्रायु, उसका पुत्र च्यवन, च्यवनका पुत्र सुदास, सुदासका सुत सहदेव और उसकी सन्तान सोमक हुआ. इस सोमक के सौ (१००) पुत्र थे। उनमें जन्तु बड़ा था॥१॥ और पृषत छोटा हुआ। इस

पृषतके सर्व सम्पद्-युक्त राजा द्रुपदने जन्म लिया। इन्ही राजा द्रुपदसे द्रौपदीका जन्म हुआ और इनके पुत्र धृष्टद्युम्नादि हुए॥२॥ धृष्टद्युम्नका पुत्र धृष्टकेतु हुआ। यह सब धर्म्याश्व के पाञ्चाल वंशमे हुए और पंजाबके राजा थे। हे राजा परीक्षित्! अब अजमीढका दूसरा पुत्र जो ऋक्ष ॐ था, उसका पुत्र संवरण हुआ॥३॥ इस संवरणसे सूयकी कन्या तपतीके गर्भसे कुरुक्षेत्रपति कुरुने जन्म ग्रहण किया, इन कुरुके परीक्षित, सुधनु, ज, और निषधाश्व यह चार पुत्र उत्पन्न हुए॥४॥ इनमें सुधनुका पुत्र सुहोत्र, सुहोत्रका पुत्र च्यवन और इनके कृती हुआ। कृतीका उप रिचरवसु नाम पुत्र हुआ। उससे बृहद्रथ प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए॥५॥ और पुत्रोंके यह नाम हैं यथा — कुशांब, मत्स्य, प्रत्यय और चेदिप इत्यादि।

धृष्टद्युम्नाद्धृष्टकेतुर्भार्याः पांचालका इमे॥ योऽजमीढसुतो ह्यन्य ऋक्षः संवरणस्ततः॥३॥ तपत्यां सूर्यकन्यायां कुरुक्षेत्रपतिः कुरुः॥ परीक्षित्सु धनुर्जह्नुर्निषधाश्वः कुरोस्सुताः॥४॥ सुहोत्रोऽभूत्सु धनुषश्च्यवनोऽथ ततः कृती॥ वसुस्तस्योपरिचरो बृहद्रथमुखास्ततः॥५॥ कुशबिमत्स्यप्रत्ययचेदिपाद्याश्च चेदिपाः॥बृहद्रथात्कुशाग्रोऽभूदृषभ स्वस्य तत्सुतः॥ ६॥ जज्ञे सत्यहितोऽपत्यं पुष्पवांस्तत्सुतो जहुः॥ अन्यस्यां चापि भार्यायां शकले द्वेबृहद्रथात्॥७॥ ते मात्रा बहिरुत्सृष्टे जरया चाभिसंधिते॥ जीवजीवेति क्रीडंत्या जरासंधोऽभवत्सुतः॥८॥ ततश्च सहदेवोऽभूत्सोमापिर्यच्छ्रुतश्रवाः॥ परीक्षिदनपत्योऽभूत्सुरथो नाम जाह्नवः॥९॥ ततो विद्वरथस्तस्मात्सार्वभौमस्ततोऽभवत्॥ जयसेनस्तत्तनयो राधिकोऽतोऽयुतो भूत्॥१०॥

यह सबही चेदिप अर्थात् चंदेली के राजा थे बृहद्रथसे कुशाग्रका जन्म हुआ उसका पुत्र ऋषभ, उसका सुत॥६॥ सत्यहित सत्यहितका पुत्र पुष्यवान्, तिसका बेटा जब हुआ। हे राजन्! बृहद्रथकी दूसरी भार्यासे एक पुत्र दो खण्ड होकर जन्मा था॥७॥ उसकी माताने उस बालकको ऐसा देखकर बाहर फेंकवादिया। फिर जरा राक्षसीने उसको देख “जीवितहो जीवितहो” यह वाक्य उच्चारणपूर्वक क्रीडा करते करते उन दोनों खण्ड़ोंको जोड दिया था उससे ही यह बालक सर्वावयव सम्पन्न हो जरासंघ नाम हुआ॥८॥ इस जरासन्धका पुत्र सहदेव, उसका पुत्र सोमापि, उससे श्रुतश्रवाकी उत्पत्ति हुई। हे राजन्! कुरुपुत्र परीक्षित के सन्तान नहीं थी। जदुक्का पुत्र सुरथ॥९॥ इस सुरथसे विदूरथका जम््म

हुआ। उसका पुत्र सार्वभौम, उसका पुत्र जयसेन, जयसेनका पुत्र राधिक, राधिकसे अयुतायुने जन्म लिया॥१०॥ अयुतायुके क्रोधन, क्रोधनके देवातिथि उनके ऋक्ष और ऋक्षसे दिलीपने जन्म ग्रहण किया। और दिलीप के प्रतीप नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥११॥ इन प्रतीपके देवापि, शन्तनु और बाहीक नामक तीन पुत्र हुए। तिनमें बडा पुत्र देवापि पितृराज्यको छोडकर वनमें चला गया था॥१२॥ इसलिये मध्यम पुत्र शन्तनु राजा हुए। पूर्व जन्म में इनका नाम महाभिषक् था। यह शन्तनु अपने हाथ से जिस किसी वृद्ध पुरुषको स्पर्श करते वही युवा होजाता॥१३॥ और शान्ति प्राप्त कर लेता था. इस कर्म के ही करने से इनका शन्तनु नाम हुआ। इन शन्तनुजीके राजा होनेपर देवराज इन्द्रने जब बारह वर्षतक पानी न वर्षाया॥१४॥ तब राजाने उद्विग्न होकर ब्राह्मणोंसे इसका कारण पूँछा तब ब्राह्मणोंने इस विषय में केवल इतनाही कहा कि, महाराज! बड़े भाईके

ततश्च क्रोधनस्तस्माद्देवातिथिरमुष्य च॥ ऋष्यस्तस्य दिलीपोऽभूत्प्रतीपस्तस्य चात्मजः॥११॥ देवापिश्शंतनुस्तस्य वाहीक इति चात्मजाः॥ पितृराज्यं परित्यज्य देवापिस्तु वनं गतः॥१२॥ अभवच्छंतनू राजा प्राङ्महाभिषसंज्ञितः॥ यंयं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं यौवनमेति सः॥१३॥ शांतिमाप्नोति चैवाग्र्यां कर्मणा तेन शंतनुः॥ समा द्वादश तद्राज्ये नववर्ष यदा विभुः॥१४॥ शंतनुर्ब्राह्मणैरुक्तः परिवेत्ताऽयमग्रभुक्॥ राज्यं देवग्रजायाशु पुरराष्ट्रविवृद्धये॥१५॥ एवमुक्तो द्विजैज्येष्टं छंदयामास सोऽब्रवीत्॥ तन्मंत्रिप्रहितैर्विप्रैर्वेदाद्विभ्रंशितो गिरा॥१६॥ वेदवादातिवादान्वै तदा देवो ववर्ष ह॥ देवापिर्योगमास्थाय कलापग्राममाश्रितः॥१७॥

रहते जो पुरुष राजसिंहासन पर बैठता है वह अपनी समान पुरुष होनेपर भी परिवेत्ताही होजाता है आप परिवेदन दोषसे दूषित हुये हैं. सो इस दोषको दूर करनेके लिये शीघ्र अपने बडे भाईको बुलाकर उनको राज्यभार देदो। तब देवता जल वर्षावेंगे। और पुरराष्ट्रोंकी वृद्धि होगी॥१५॥ ब्राह्मणों के यह वचन सुनकर राजा शन्तनु उसीसमय वनको चलेगये। और “प्रजापालन करनाही राजाका परम धर्म है। आप राज्यको स्वीकार कीजिये” यह कहकर अपने बड़े भ्राता से राज्य ग्रहण करने के लिये विनय करने लगे। परन्तु इससे पहले शन्तनुके मंत्री अश्ववारने देवापिको पाखण्ड करके राज्यके अयोग्य करनेके लिये उनके पास कुछेक ब्राह्मणों को भेज दिया था. पाखण्डमतानुयायी ब्राह्मणलोगों की कथा के द्वारा जब देवापि वेदमार्गसे

परिभ्रष्ट हुये तब इन्होंने शन्तनुकी प्रार्थना न मानी और वेद शास्त्रकी निन्दा करने लगे तब वेदोंकी निन्दा करनेसे नीचता पानेके कारण राज्यके योग्य देवापि न रहे। फिर उसके उपरान्त शन्तनुके राज्य भोग करनेमें और कोई दोष नहीं रहा। फिर यथाकालमें वर्षा होने लगी तबसे देवापि योगमार्गका अवलम्बनकर कलाप ग्राममें रहते हैं॥१६॥१७॥ जब कलियुग में चन्द्र वंशका नाश होजायगा तब सत्ययुगके पहले यह देवापि फिर चन्द्रवंशको स्थापित करेंगे शन्तनुके पुत्र बाह्रीकसे सोमदत्त की उत्पत्ति हुई। इस सोमदत्तके भूरि भूरिश्रवा और शल यह तीन पुत्र उत्पन्न हुये॥१८॥

सोमवंशे कलौ नष्टे कृतादौ स्थापयिष्यति॥ वाहीकात्सोमदत्तोऽभूद्भूरिर्भूरिश्रवास्ततः॥१८॥ शलश्च शंतनोरासीद्गंगायां भीष्म आत्मवान्॥ सर्वधर्मविदां श्रेष्ठो महाभागवतः कविः॥१९॥ वीरयूथाग्रणीर्येन रामोऽपि युधि तोषितः॥ शंतनोदशकन्यायां जज्ञे चित्रांगदः सुतः॥२०॥ विचित्रवीर्यश्चावरजो नाम्ना चित्रांगदो हतः॥ यस्यां पराशरात्साक्षादवतीर्णो हरेः कला॥२१॥

हे परीक्षित्! इन शन्तनुके गंगाजीके गर्भ से भीष्मजीका जन्म हुवा था। यह भीष्मजी धर्म के जाननेवालों में श्रेष्ठ महाभागवत विद्वान और वीर गणोंके अगुए थे, उन्होने संग्राम में परशुरामजीको* भी प्रसन्न किया था। हे राजन्! इन शन्तनुसे दाशकान्यामें चित्रांग और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र जन्में+॥१९॥२०॥ उनमें छोटा विचित्रवीर्य हुआ बडा पुत्र चित्राङ्गत जिसको चित्रांगद नामक किसी गन्धर्वने मारडाला। शंतनुराजा के ग्रहण करनेसे पहले इस दाशकन्या (सत्यवती) में महर्षि पराशरसे साक्षात् भगवान् हरिके अंशसे कृष्णद्वैपायन मुनि (श्रीव्यासजी) का अवतार हुआ॥२१॥

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*शंका — रामचन्द्रके सामने त्रेतायुगमें परशुरामजी अपना धनुष बाण रखके उत्तर दिशामें तप करनेको चले गयेथे, रामायण में ऐसा लिखा है, फिर द्वापर युग में भीष्मजी संग युद्ध कैसे किया उस समय परशुरामजी के पास धनुष बाण कहा से आया?

उत्तर — जब परशुरामजीने रामचन्द्रजी के सामने अस्त्रोंका त्याग किया, उस समय कुछ उन्होंने ऐसी शपथ नहीं कीथी कि, आजसे हम कभी अस्त्रग्रहण न करेंगे, इसलिये अम्बिकाको अत्यन्त दुखी देख कर और अपनी शरण आई जानकर तपके प्रभावसे दूसरा धनुषबाण बनाकर भीष्मके संग युद्ध करने लगे॥

+उपरिवसुके वीर्यद्वारा मत्स्यगर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई थी और केवट लोगोंने उसका पालन पोषण किया था। इसीलिये यह दाश कन्याके नाम से विख्यात हुई वास्तव में इसका नाम सत्यवती था॥

हे परीक्षित्! उनके जन्म होनेसे पहिले समस्त वेद गुप्त होगये थे और उनसेही हमनेभी श्रीमद्भागवत शास्त्र प था जो कि, इस समय आपको सुना रहे हैं। इन भगवान् बादरायणके पैलादि अनेक शिष्य थे परन्तु इन्होंने उनका स्वभाव जानकर सब शिष्योंको छोडकर हमारे प्रति परमगुह्य श्रीमद्भागवत शास्त्रकी व्याख्या की क्योंकि मैं उनका शान्त पुत्रथा॥२२॥ इन विचित्रवीर्यने काशीराजकी दो कन्या अम्बिका और अम्बा लिकासे विवाह किया, इन दोनों कन्याओंको महाबलवान् भीष्म स्वयंवर मेंसे लडकर छीन लाये थे। इन दोनों स्त्रियों में विचित्रवीर्य अत्यन्त अनुराग करतेथे इसलिये अल्प काल मेंही यक्ष्मारोग से ग्रसित हो मृत्युको प्राप्त हुये॥२३॥२४॥ इनके कोई सन्तान नहीं हुई तब इनके सहोदर भगवान्

वेदगुप्तो मुनिः कृष्णो यतोऽहमिदमध्यगाम्॥ हित्वा स्वशिष्यान्पैलादीन्भगवान्बादरायणः॥२२॥ मह्यं पुत्राय शांताय परं गुह्यमिदं जगौ॥ विचित्रवीर्योऽथोवाह काशिराजसुते बलात्॥२३॥ स्वयंवरादुपानीते अंबिकां बालिके उभे॥ तयोरासक्तहृदयो गृहीतो यक्ष्मणा मृतः॥२४॥ क्षेत्रेऽप्रजस्य वै भ्रातुर्मात्रोक्तोबादरायणः॥ धृतराष्टं च पांडुं च विदूरं चाप्यजीजनत्॥२५॥ गांधार्यां धृतराष्ट्रस्य जज्ञे पुत्रशतं नृप॥ तत्र दुर्योधनो ज्येष्ठो दुःशला चापि कन्यका॥२६॥ शापान्मैथुनरुद्धस्य पांडोः कुंत्यां महारथाः॥ जाता धर्मानिलेंद्रेभ्यो युधिष्ठिरमुखास्त्रयः॥२७॥

वेदव्यासजी ने अपनी सत्यवती माताके कहने से अपने भाई विचित्र वीर्य के क्षेत्रमें धृतराष्ट्र पाण्डु और विदुर यह तीन पुत्र उत्पन्न किये॥२५॥ इनमें धृतराष्ट्रकी स्त्री गान्धारी हुई इस धृतराष्ट्रके गान्धारीसे सौ (१००) पुत्र जन्मे इन पुत्रों में दुर्योधन सबसे बड़ा था और दुःशला नाम एक कन्या हुई॥२६॥ हे राजन्! पाण्डु राजा एक समय वनमें शिकार खेलने को गये थे, वहॉ इन्होंने मैथुन करते हुये एक मृगका वध किया, तब मृगने इनको शाप दिया कि जब तुम मैथुन करोगे तबही तुम्हारी मृत्यु होजायगी। इन राजा पाण्डुकी स्त्री कुन्तीमें धर्म, पवन और इन्द्रके

वीर्यसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन, यह तीन पुत्र महारथी उत्पन्न हुये। और इन्हीं राजाकी माद्री नामक दूसरी भार्यामें अश्विनीकुमारसे नकुल और सहदेवका जन्म हुआ इन पाँचों पाण्डवोंकी भार्या द्रौपदी हुई। द्रौपदीके गर्भ में युधिष्ठिरादि पॉच पांडवोंसे पॉच पुत्र उत्पन्न हुये, जोकि तुम्हारे पितृव्य थे॥२७॥२८॥ अर्थात् युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसे श्रुतसेन और अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक और सहदेवसे श्रुतकर्मा उत्पन्न हुआ \।\। हे राजन्! इन पॉच पांडवोंसे इनकी दूसरी भार्याओंमें इन पुत्रोंके अतिरिक्त (सिवाय) और भी पुत्र उत्पन्न हुयेथे युधिष्ठिरकी पौरवो नामक जो दूसरी भार्याथी। उससे देवक नाम एक पुत्र उत्पन्न हुआ। भीमसेनकी हिडिम्बा नामक वनितामें घटोत्कचने जम््म नकुलः सहदेवश्च माद्र्यां नासत्यदस्रयोः॥ द्रौपद्यां पंच पंचभ्यः पुत्रास्ते पितरोऽभवन्॥२८॥ युधिष्ठिरात्प्रतिविंध्यः श्रुतसेनो वृकोदरात्॥ अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः॥२९॥ सहदेवसुतो राजञ्छ्रुतकर्मा तथाऽपरे॥ युधिष्ठिरात्तु पौरव्यां देवकोथ घटोत्कचः॥३०॥ भीमसेनाद्धिडिंबायां काल्यां सर्वगतस्ततः॥ सहदेवात्सुहोत्रं तु विजयाऽसुत पार्वती॥३१॥ करेणुमत्यां नकुलो निरमित्रं तथार्जुनः॥ इरावतमुलुप्यां वै सुतायां बभ्रुवाहनम्॥ मणिपूरपतेः सोऽपि तत्पुत्रः पुत्रिकासुतः॥३२॥ तव तातः सुभद्रायामभिमन्युरजायत॥ सर्वातिरथजिद्धीर उत्तरायां ततो भवान्॥३३॥

ग्रहण किया॥२९॥३०॥ इन भीमसेन के कालीनामक एक और भी भायी थी, जिससे सर्वगत नामक एक सन्तानने जन्म लिया सहदेवकी विजया नामक दूसरी भर्या पर्वतकी बेटीने सुहोत्र नाम एक पुत्र उत्पन्न किया। नकुलकी करेणुमती नामक वनितामें निरमित्र नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ हे राजन्! अर्जुनने नागराजकी कन्या उलूपीके गर्भ से इरावन्त नामक एकपुत्र उत्पन्न किया और मणिपुराधीशकी बेटीमें बभ्रुवाहन नाम पुत्र उत्पन्न कियाथा। यद्यपि यह अर्जुनका बेटाथा। पर नानाके गोद लेने से मणिपुरपतिका पुत्र कहायाथा॥३१॥३२॥ इन अर्जुन के सुभद्रा नामक और एक भर्याथी, उससे तुम्हारे पिता अभिमन्युने जन्म लिया। यह अभिमन्यु समस्त अतिरथी वीरोंके जयकारी और

महावीरथे! हे महाराज परीक्षित्! उनकेही औरससे उत्तरा के गर्भ में आपने जन्म लिया॥३३॥ हे राजन्! अश्वत्थामा के छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र के तेजसे कुरुवंशका जब नाश होरहाथा, तब तुमभी उससे नष्ट होते। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मुरलीमनोहर के प्रभावसे मृत्यु के हाथसे तुम छूट गये॥३४॥ हे तात ! तुम्हारे इस समय जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन, और उग्रसेन यह चार पुत्रहैं॥३५॥ हे परीक्षित्!तुम्हारे इन पुत्रों में से (जनमेजय तक्षक (सर्प) से तुम्हारी मृत्युका होना सुनकर रोष के मारे सर्पसत्र यज्ञका अनुष्ठान करके यज्ञाग्निमें सब सर्पोंको होम देगा॥३६॥ और तुम्हारे यह पुत्र समस्त पृथ्वीको जीत अश्वमेध यज्ञ करेंगे और कावषेयवंशके " तुर ” नामक ऋषिको पुरोहित बनाकर और भी बहुत से

परिक्षीणेषु कुरुषु द्रौणैर्ब्रह्मास्त्रतेजसा॥ त्वं च कृष्णानुभावेन सजीवो मोचितोंतकात्॥३४॥ तवेमे तनयास्तात जनमेजयपूर्वकाः॥ श्रुतसेनो भीमसेन उग्रसेनश्च वीर्यवान्॥३५॥ जनमेजयस्त्वां विदित्वा तक्षकान्निधनं गतम्॥ सर्पान्वै सर्पयागाग्नौ स होष्यति रुषाऽन्वितः॥३६॥ कावषेयं पुरोधाय तुरं तुरगमेधयाट्॥ समंतात्पृथिवीं सर्वां जित्वा यक्ष्यति चाध्वरैः॥३७॥ तस्य पुत्रश्शतानीको याज्ञवल्क्यात्त्रयींंपठन्॥ अस्त्रज्ञानं क्रियाज्ञानं शौनकात्परमेष्यति॥॥३८॥ सहस्रानीकस्तत्पुत्रस्ततश्चैवाश्वमेधकः॥ असीम कृष्णस्तस्यापि निमिचक्रस्तुतत्सुतः॥३९॥ गजाह्वये हृते नद्या कौशांब्यां साधु वत्स्यति॥ उक्तस्ततश्चित्ररथस्तस्मात्कविरथः सुतः॥४०॥

अश्वमेध यज्ञ करेंगे॥३७॥ हे परीक्षित्! तुम्हारे पुत्र जनमेजय के शतानीक नामक एक पुत्र होगा यह शतानीक याज्ञवल्क्य मुनिसे तीन वेद पढेगा और शौनक मुनिसे ब्रह्मविद्या और अत्मज्ञान सीखेगा और कृपाचार्य से अत्रज्ञान प्राप्त करेगा॥३८॥ शतानीकका पुत्र सहस्रानीक होगा, उससे अश्वध्वजकी उत्पत्ति होगी। उनका पुत्र असीम कृष्ण और उनका पुत्र निमिचक्र होगा॥३९॥ इस निमिचक्रकेराजकाल में हस्तिनापुर गंगाजी में डूबेगा। तब यह राजा कौशांबी नगरी में वास करेगा। इस निमिचक्र सन्तान चित्ररथ और

उसके कविरथ जन्मेगा॥४०॥ कविरथका पुत्र वृष्टिमान् और उनका पुत्र सुषेण नामक राजा होगा। सुषेणके सुनीथ नामक पुत्र जन्मेगा उसका पुत्र नृचक्षु होगा और उससे सुखीनल जन्म लेगा॥४१॥ सुखीनलका पुत्र परिप्लव होगा उससे सुनय जन्म धारण करेगा उसका पुत्र मेधावी, मेधावीका पुत्र नृपञ्जय और उससे दुर्व्व जन्म लेगा और उसका पुत्र तिमि होगा तिमिसे बृहद्रथकी उत्पत्ति होगी। इसका पुत्र सुदास और सुदास से शतानीक जन्म धारण करेगा॥४२॥ शतानीकका पुत्र दुर्दमन, इसका पुत्र बहीनर, बहीनरका पुत्र दंडपाणि इस दंडपाणिका पुत्र नेमि और इस नेमि से क्षेमक नाम पुत्र उत्पन्न होगा॥४३॥ हे महाराज परीक्षित्! देवर्षि सत्कृत ब्रह्म क्षत्रियवंश इस क्षेमकको राजा पाकर कलियुग में

तस्माच्च दृष्टिमांस्तस्य सुषेणोऽथ महीपतिः। सुनीथस्तस्य भविता नृचक्षुर्यत्सुखीनलः॥४१॥ परिप्लवः सुतस्तस्मान्मेधावी सुनयात्मजः॥ नृपंजयस्ततो दूर्वस्तिमिस्तस्माज्जनिष्यति॥ तिमेर्बृहद्रथस्तस्माच्छतानीकः सुदासजः॥॥४२॥ शतानीकाद्दुर्दमनस्तस्यापत्यं बहीनरः॥ दंडपाणिर्निमिस्तस्य क्षेमको भविता नृपः॥४३॥ ब्रह्मक्षत्त्रस्य वै प्रोक्तो वंशो देवर्षिसत्कृतः॥ क्षेमकं प्राप्य राजनं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ॥४४॥ अथ मागधराजानो भवितारो वदामि ते॥ भविता सहदेवस्य मार्जारिर्यच्छतश्रवाः॥४५॥ ततोऽयुतायुस्तस्यापि निरमित्रोऽथ तत्सुतः॥ सुनक्षत्रः सुनक्षत्राद बृहत्सेनोऽथ कर्मजित्॥४६॥ ततः सृतंजयाद्विप्रः शुचिस्तस्य भविष्यति॥ क्षेमोऽथ सुव्रतस्तस्माद्धर्मसूत्रः शमस्ततः॥४७॥

समाप्तिको प्राप्त हो जायगा॥४४॥ श्रीशुकदेवजी इतनी कथा सुनाय कर नृपश्रेष्ठ परीक्षित्से बोले कि, हे कुरुवंशावतंस! अब मगध वंश में जो राजा होंगे उनका वृत्तान्त कहता हूं। आप सचेत हो मन लगायकर सुनिये। वृहद्रथ के पुत्र जरासन्धके सहदेव नामक पुत्र होगा सहदेव के मार्जार और इस मार्जारिसे श्रुतश्रवा जन्म ग्रहण करेगा॥४५॥ इसका पुत्र अयुतायु उसकी सन्तान निरमित्र इसका पुत्र सुनक्षत्र, इस सुनक्षत्रसे बृहत्सेनकी उत्पत्ति होगी इस बृहत्सेनका पुत्र कर्मजित् उसके सृतञ्जय और उससे विप्रनाम एक नरेश उत्पन्न होगा। उसका पुत्र शुचि शुचिका

पुत्र क्षेम, उससे सुव्रत जन्मेगा। सुत्रतका पुत्र धर्मसूत्र और इस धर्मसूत्र के राम नाम पुत्र उत्पन्न होगा॥४६॥४७॥ इस समसे द्युमत्सेनकी उत्पत्ति होगी द्युमत्सेनका पुत्र सुमति होगा। इस सुमतिका पुत्र सुबल उत्पन्न होगा, सुबलका पुत्र सुनीथ, सुनीथका पुत्र सत्यजित्, सत्यजितका पुत्रविश्वजित् और विश्वजितका पुत्र रिपुञ्जय उत्पन्न होगा। हे राजा परीक्षित्! हजार वर्षतक यह सब राजा उत्पन्न होंगे और इनके उपरान्त जो समस्त राजा होंगे वह पीछे (द्वादशस्कन्धमें) कहे जायँगे॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ दोहा — ययाति सुत अनु पुनि, वरणों तुर्वसु वंश॥ पीछे ज्यामघ राज्य तक, यदुकुल कहौं प्रशंश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरु

द्युमत्सेनोऽथ सुमतिः सुबलो जनिता ततः॥ सुनीथः सत्यजिदथ विश्वजिद्यद्रिपुंजयः॥ बार्हद्रथाश्च भूपाला भाव्याः साहस्रवत्सरम्॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे दिवोदासर्क्षयोर्वंशवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ श्रीशुक उवाच॥ अनोः सभानरश्चक्षुः परोक्षश्च सुतास्त्रयः॥ सभानरात्कालनरः संजयस्तत्सुतस्ततः॥१॥ जनमेजयस्तस्य पुत्रो महाशीलो महामनाः। उशीनरस्तितिक्षुश्च महामनस आत्मजौ॥ शिबिर्वेनः शनिर्दक्षश्चत्वारोशीनरात्मजाः॥२॥ वृषादर्भः सुवीरश्च भद्रः कैकेय आत्मजाः \।\। शिबेश्चत्वार एवासंस्तितिक्षोश्च रुशद्रथः॥३॥ ततो हेमोऽथ सुतपा बलिः सुतपसोऽभवत्॥ अंगबंगकलिंगाद्याः सुह्मपुंड्रांध्रसंज्ञिताः॥४॥ जज्ञिरे दीर्घतमसो बलेः क्षेत्रे महीक्षितः॥ चक्रुः स्वनाम्ना विषयान्षडिमान्प्राच्यकांश्च ते॥५॥

कुलभूषण! पुरुका वंशतो आपसे कहा, अब राजा ययातिके चौथे पुत्र अनुके वंशका वर्णन करते हैं अनुके सभानर, चक्षु और परोक्ष यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सभानरका पुत्र कालनर, उसका पुत्र संजय॥१॥ और उसका पुत्र जनमेजय हुआ जनमेजयका पुत्र महाशील महामना नाम हुआ, महामना के उशीनर और तितिक्षु यह दो पुत्र उत्पन्न हुए, इन दोनोंमें उशीनरके शिबि, वेन, शमि और दक्ष यह चार पुत्र उत्पन्न हुए॥२॥ इनमें शिबिसे वृषादर्भ, वीर, भद्र, कैकय यह चार पुत्र जन्मे। तितिक्षुका पुत्र रुशद्रथ॥३॥ इसका पुत्र हेम, उसका पुत्र सुतपा

और सुपासे बलि नाम पुत्र हुआ, इस बलिके क्षेत्र में दीर्घतमासे अंग, वंग, कलिङ्गादि और सुल, पुंडू और अन्ध नामक छः पुत्र उत्पन्न हुए सबोंने अपने अपने नामों से छः जनपद प्राच्य देशमें अंग, वंग, कलिंग, सुल्झ और पुण्डरीक और अन्ध्र आदि वसाये॥४॥५॥ अंगसे खनपान नामक जो पुत्र जन्मा उसका पुत्र दिविरथ, उसकी सन्तान धर्मरथ और उससे चित्ररथ जन्मा चित्ररथ के कोई सन्तान नहीं हुई॥६॥रोमपाद नाम करके यह राजा विख्यात था, उसके सखा दशरथ राजाने उसको पुत्रार्थ शान्तानामक अपनी कन्या दान करदी थी, इस कन्याका पाणिग्रहण ऋष्यश्रृंग मुनिने किया॥७॥ हे राजन् ! रोमपाद राजा के राज्यमें किसी कारणसे कुछ कालतक देवता इंद्रने जल नहीं वर्षाया

खनपानोंगतो जज्ञे तस्माद्दिविरथस्ततः॥ सुतो धर्मरथो यस्य जज्ञे चित्ररथोऽप्रजाः॥६॥ रोमपाद इति ख्यातस्तस्मै दशरथः सखा॥ शांतां स्वकन्यां प्रायच्छदृष्यश्रृंग उवाह ताम्॥७॥ देवेऽवर्षति यं रामा आनिन्युर्हरिणीसुतम्॥ नाट्यसंगीतवादित्रैर्विभ्रमालिंगनार्हणैः॥८॥ स तु राज्ञोऽनपत्यस्य निरूप्येष्टिं मरुत्वतः॥ प्रजामदाद्दशरथो येन लेभेऽप्रजाः प्रजाः॥९॥ चतुरंगो रोमपादात्पृथुलाक्षस्तु तत्सुतः॥ बृहद्रथो बृहत्कर्मा बृहद्भानुश्च तत्सुतः॥१०॥ आद्याद् बृहन्मनास्तस्माज्जयद्रथ उदाहृतः॥ विजयस्तस्य संभूत्यां ततो धृतिरजायत॥११॥

तब राजाकी अनुमति से वारांगनागण तपोवनमें जाय गीत गाय बाजे बजाय बजाय नाचने लगीं। और हाव भाव कटाक्ष आलिंगन और अर्हण योगसे इन ऋष्यशृंगको ले आई॥८॥ ऋष्यशृंगके आतेही जल वर्षा। इसके उपरान्त इन मुनिने राजाको निःसन्तान देख यज्ञ कराय पुत्रका मुख दिखाया॥९॥ इन रोमपादसे चतुरंग उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तान पृथुलाक्ष पृथुला से वृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्भानु यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए॥१०॥ इनमें बृहद्रथसे बृहन्मना जन्मा, उसका पुत्र जयद्रथ, जयद्रथका पुत्र विजय हुआ। इस विजयकी सम्भूति नामक भार्यासे धृतिने जम््म

ग्रहण किया॥११॥ धृतिका पुत्र धृतव्रत, उसका पुत्र सत्कर्मा, उससे अधिरथ उत्पन्न हुआ, इस अधिरथने श्रीगंगाजीके किनारे पर क्रीडा करते हुये कुन्तीजीका बहाया सुन्दूक में एक बालक पाया पर यह अधिरथ सन्तानहीनथा। इसीलिये इसने संदूकसे पाये हुये बालकको अपना पुत्र बनालिया। हे राजन्! इस बालकका नाम कर्ण था और इससेही वृषसेनकी उत्पत्ति हुई॥१२॥१३॥ ययाति सुत दुधका पुत्र बभ्रु हुआ, बभ्रुका पुत्र सेतु, सेतुका पुत्र आरब्ध उसका पुत्र गान्धार, उसका बेटा धर्म और उससे धृत जन्मा॥१४॥ धृतका पुत्र दुर्मना और उससे प्रचेताकी उत्पत्ति हुई। इस प्रचेता के सौ

ततो धृतव्रतस्तस्य सत्कर्माऽधिरथस्ततः॥ योऽसौ गंगातटे क्रीडन्मंजूषांतर्गतं शिशुम्॥१२॥ कुंत्यापविद्धं कानीनमनपत्योऽकरोत्सुतम्॥ वृषसेनः सुतस्तस्य कर्णस्य जगतीपतेः॥१३॥ दुह्योश्च तनयो बभ्रुःसेतुस्तस्यात्मजस्ततः॥ आरब्धस्तस्य गांधारस्तस्य धर्मसुतो धृतः॥१४॥ धृतस्य दुर्मनास्तस्मात्प्रचेताः प्राचेतसं शतम्॥ म्लेच्छाधिपतयोऽभूवन्नुदीचीं दिशमाश्रिताः॥१५॥ तुर्वसोश्च सुतो वह्निवह्नेर्भर्गोऽथ भानुमान्॥ त्रिभानुस्तत्सुतोऽस्यापि करंधम उदारधीः॥१६॥ मरुतस्तत्सुतोऽपुत्रः पुत्रं पौरवमन्वभूत्॥ दुष्यंतः स पुनर्भेजे स्ववंशं राज्यकामुकः॥१७॥ ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ॥ वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम्॥१८॥ यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ यत्रावतीर्णो भगवान्परमात्मा नराकृतिः॥१९॥

(१००) पुत्र हुये जो कि, उत्तरदिशा में विराजमान होकर म्लेच्छाधिपति हुये हैं॥१५॥ तुर्व्वसुका पुत्रवह्नि उसका सुत भर्ग, उससे भानुमानका जन्म हुवा भानुमानका पुत्र त्रिभानु उसका पुत्र उदारमति करन्धम जन्म॥१६॥ करन्धमका पुत्र मरुत इन्होंने पुत्ररहित होनेसे कुरुवंशीय राजा दुष्यन्तको गोद लिया, यह दुष्यन्त राज्याभिलापी होकर फिर अपने कुरुवंशको प्राप्त हुये थे॥१७॥ हे नरश्रेष्ठ! अब राजा ययातिके बड़े पुत्र यदुके वंशका वर्णन करते हैं। यह अतिपवित्र वंश मानवमण्डली के अनन्त पापों का नाश करनेवाला है॥१८॥ इस यदुवंशका वृत्तान्त सुननेसे मनुष्यमात्र

पापोंसे छुटकारा पाते हैं। क्योंकि इसी वंशमें भगवान् वासुदेव नराकारसे अवतीर्ण हुये थे॥ १९॥ यदुके सहस्रजित्, क्रोष्टा, नल और रिपु यह चार पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें सहस्रजितका पुत्र शतजित हुआ॥२०॥ इसके महाहय, रेणुहय और हैहय यह तीन पुत्र हुये इनमें हैहयका पुत्र धर्म, उनका पुत्र नेत्र और नेत्रका पुत्र कुन्ति हुआ। कुन्तिसे सोइंजि जन्मा, इसका पुत्र महिष्मान् और महिष्मानका पुत्र भद्रसेन हुआ॥२१॥ भद्रसेन के दुर्मद और धनक दो पुत्र हुये। इनमें धनकके कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा, यह चार पुत्र उत्पन्न हुये॥२२॥ इनमें कृतवीर्यका पुत्र

यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः॥ चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित्प्रथमात्मजः॥२०॥ महाहयो वेणुहयो है ह यश्चेति तत्सुताः॥ धर्मस्तु हैहयसुतोनेत्रः कुंतेः पिता ततः॥ सोहंजिरभवत्कुंतेर्महिष्मान्भद्रसेनकः॥२१॥ दुर्मदो भद्रसेनस्य धनकः कृतवीर्यसूः॥ कृताग्निः कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजाः॥२२॥ अर्जुनः कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत्॥ दत्तात्रेयाद्धरेरंशात्प्राप्तयोगमहागुणः॥२३॥ न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यति पार्थिवाः॥ यज्ञदानतपोयोगश्रुतवीर्यजयादिभिः॥२४॥ पंचाशीतिसहस्राणि ह्यव्याहतबलः समाः॥ अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्वसु॥२५॥ तस्य पुत्रसहस्रेषु पंचैवोर्वरिता मृधे॥ जयध्वजः शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जितः॥२६॥

अर्जुन हुआ। जो कि, सप्तद्वीपका अधीश्वर था। और जिसने श्रीभगवान्के अंश दत्तात्रेयजीसे योग गुण प्राप्त किया था॥२३॥ ऐसा जान पड़ता है कि, कोई राजा यज्ञ, दान, तप, योग, वेदाध्ययन और शूरता, वीरता व दयादिसे इन महात्मा अर्जुनकी गतिको नहीं प्राप्त होसकता॥२४॥ इस राजाने अव्याहत पराक्रमसे पचासी हजार (८५०००) वर्षतक अक्षय छः इन्द्रियोंके सुखको भोगा था। इस राजाकी स्मरणशक्ति आश्चर्यमय थी कि, जिससे कदापि वित्तका नाश नहीं होता था॥२५॥ इन अर्जुनके हजार पुत्र थे, इनमेंसे केवल पॉच परशुरामके संग्राम में मर

नेसे शेष बचे थे। जिनके नाम यह है। जयध्वज १ शूरसेन २ वृषभ ३ मधु और ऊर्जित ५॥२६॥ इनमें जयध्वजका पुत्र तालजंघ और इस तालजंघ के शत पुत्र हुये तालजंघनामवाले इन सबका क्षत्रियोंके संग्राममें सगरने संहार किया था॥२७॥ जो कुछ भी हो — तालजंघके इन सब पुत्रों में बड़ा वीतिहोत्र था। हे राजन्! महात्मा वृष्णि तो मधुका पुत्र था। इस मधुके शत (१००) पुत्र उत्पन्न हुये थे। यद्यपि वृष्णि और यदुके कारणसे मधुका कुल माधव, वृष्णि और यादव इन तीन नामोंको प्राप्त हुआ था तो भी वृष्णि ही इस कुलमें श्रेष्ठ था। यदुका पुत्र क्रोष्टु उसका

जयध्वजात्तालजंघस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्॥ क्षत्त्रं यत्तालजंघाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम्॥२७॥ तेषां ज्येष्ठो वीति होत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः॥ तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम्॥२८॥ माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः॥ यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥२९॥ श्वाहिस्ततो रुशेकुर्वै तस्य चित्ररथस्ततः॥ शशबिंदुर्महायोगी महाभोजो महानभूत्॥३०॥ चतुर्दशमहारत्नश्चक्रवर्त्यपराजितः॥ तस्य पत्नीसहस्राणां दशानां सुमहायशाः॥३१॥ दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत्॥ तेषां तु षट्प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मजः॥३२॥

पुत्र वृजिनवान्॥२८॥२९॥ वृजिनवान्का पुत्र वाहि, उसका पुत्र रुशेकु, उसका सुत चित्ररथ, उससे महायोगी महाभाग शशबिन्दु की उत्पत्ति हुई॥३०॥ यह प्रत्येक जातिके श्रेष्ठ चौदह महारत्नोंका (हाथी, घोडे, रथ, स्त्री, बाण, निधि, माला, वस्त्र, वृक्ष, शक्ति, झाल्य, मणि, छत्र और विमानादिका) स्वामी और अपराजित चक्रवर्ती था। हे परीक्षित्! इसके दश हजार (१००००) स्त्रियें थीं॥३१॥ इनमेंसे प्रत्येक स्त्रीके लक्षलक्ष (१०००००) पुत्र उत्पन्न हुये। जिससे सब मिलकर दशलाख हजार पुत्र जन्मे अर्थात् एक अर्ब (१०००००००००) इन सब

पुत्रोंमें पृथुश्रवा, पृथुकीर्ति, पृथुयशा इत्यादि छः पुत्र विख्यात हुये॥३२॥ इन छः पुत्रों में पृथुश्रवाका पुत्र धर्म हुआ कि, जिस धर्मके उशना पुत्रने सौ (१००) अश्वमेध यज्ञ किये उशनाका पुत्र रुचक हुआ। इस रुचकके पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ यह पाँच पुत्र उत्पन्न हुए॥३३॥ इनमें ज्यामोघकी भार्या शैव्या थी। इस ज्यामोघके कोई सन्तान नहीं थी भार्याके डर से और विवाह नहीं किया यह एक समय इन्द्र भवनसे भोज्या नामक कन्याको हरण करके लारहाथा॥३४॥ कि, इस कन्याको रथपर बैठे देखकर शैव्या अत्यन्त क्रोधित हुई और अपने

धर्मो नामोशनास्तस्य हयमेधशतस्य याट्॥ तत्सुतो रुचकस्तस्य पंचाशन्नात्मजाः शृणु॥ पुरुजिद्रुक्मरुक्मेषुपृथुज्या मघसंज्ञिताः॥३३॥ ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात्॥ नाविंदच्छभवनाद्भोज्यां कन्यामहारषीत्॥३४॥ रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्यापतिममर्षिता॥ केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै॥३५॥ स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयंती पतिमब्रवीत्॥ अहं वंध्याऽसपत्नी च स्नुषा मे युज्यते कथम्॥३६॥

पतिसे बोली कि, यह कौन है? जिसको मेरे बैठनेके रथपर चढ़ाकर लारहेो॥३५॥ तब ज्यामवने भयके मारे उत्तर दिया कि, यह तेरी पतोहूहें शैव्या विस्मित होकर बोली कि, मैं तो बॉझहूं और मेरे कोई सौत भी नहीं कि, यह कन्या जिसके बेटेकी बहू होवे फिर यह हमारी पतोहू कैसे हुई ?॥३६॥

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***शंका —**राजा शशबिन्दुके दशसहस्र (१००००) स्त्रियोंमें, एक अर्व (१०००००००००) पुत्र हुए, यह कैसे कौतूहलकी बात है कहनेवाले तो महात्मा हैं परन्तु सुननेवालोंको भी लज्जा आती है, मला यह बात सत्य हो सक्ती है?

**उत्तर —**शशबिन्दुके दशसहस्र (१०००००) स्त्रीर्थी, सो मनुष्य का स्वरूप धारण करनेवाली नहींयीं वह तो राजा बडा योगीथा सो दश इन्द्रियोंकी प्रकृति, सहस्र कहिये गिन्तीं से रहित सोई राजाकी स्त्रीर्थीउन स्त्रियोंसे सौ कोटि पुत्र हुए सो वह भी मनुष्य नहीं हुए, वह तो योग में प्रेम सुख आदि असंख्यगुणमान यह पुत्र हुए, व्यासजीने वर्णन तो किया परन्तु गुप्तरीति से किया क्योंकि संसारके प्राणियोंकी समझमें ऐसी बात नहीं आती और आती भी है तो देरसे आती है शीघ्र नहीं आती. इसलिये संसारपर घटाकर यह वही किया है।

ज्या मघने कहा कि, प्राणेश्वरी! तुम जो पुत्र उत्पन्न करोगी यह उसकी ही वह होगी. हे राजन् ! विश्वेदेव और पितृ लोगोंने ज्यामघके इस दीन वचनपर आनन्द प्रकाश किया, क्योंकि, ज्यामघने पहिले उनकी बहुत दिनों तक पूजा की थी। तो उन्होंने कृपा करके वरदान दिया॥३७॥ इसके उपरान्त शैब्याके गर्भाधान हुआ और यथायोग्य कालमें इस रानीने एक श्रेष्ट कुमार उत्पन्न किया, इस कुमारका नाम विदर्भ हुआ फिर कुमार विदर्भने इस पतिव्रता कन्याका पाणिग्रहण किया कि, जिसको पिता हरण करलाये थे। और इसी राजा विदर्भने अपने नामसे विदर्भ देश

जनयिष्यसि यं राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते॥ अन्वमोदंत तद्विश्वेदेवाः पितर एव च॥३७॥ शैब्यागर्भमधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम्॥ स विदर्भ इति प्रोक्तमुपयेमे स्नुषां सतीम्॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधेऽनुदुह्युतुर्वसुयदुवंशानुवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ॥ तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनंदनम्॥१॥ रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोःकृतिरजायत॥ कुशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप॥२॥ क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः॥ ततो दशार्होनाम्नाऽभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः॥३॥

बसाया॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भापाटीकायां यदुवंशानुकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ दोहा- चौविस माहिं विद भ, भये तीन सुत वीर। राम कृष्ण तक वंश सब, कहाँ सहित विस्तीर॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! कुमार विदर्भने अपनी स्त्रीके गर्भसे कुश और क्रथ नामक दो पुत्र उत्पन्न किये, इनका तीसरा पुत्र रोमपाद हुआ॥ १॥ इस रोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुसे कृतिने जन्म ग्रहण किया। कृतिका पुत्र उशिक, उससे चेदि और चेदिसे दमघषप राजाकी उत्पत्ति हुई॥२॥ हे राजन्! विदर्भात्मज कथका पुत्र कुंति

हुआ। उसका धृष्टि, धृष्टिका पुत्र निर्वृति उससे दर्शाह नाम पुत्र हुआ दशार्हके व्योम॥३॥ व्योमका पुत्र जीमूत जीमूतके भीमरथ. इनसे नवरथने जन्म ग्रहण किया इनके पुत्र दशरथ हुए॥४॥ इनके शकुनि, शकुनिके करम्भि, करम्भिके देवरात देवरात के देवक्षेत्र, उनके मधु, मधुसे कुरुवंश उत्पन्न हुआ और कुरुवंशका पुत्र अनु॥५॥ उसका पुत्र कुरुहोत्र, उसका पुत्र आयु और उससे सात्वतकी उत्पत्ति हुई। हे आर्य! सात्वतके भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज यह सात पुत्र उत्पन्न हुये॥ ६॥ इनमें भजमान के दो स्त्रियें हुई। एक स्त्रीसे

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः॥ ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः॥४॥ करंभिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः॥ देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः॥५॥ पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः॥ भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोंधकः॥६॥ सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष। भजमानस्य निम्लोचिः किंकिणो धृष्टिरेव च॥७॥ एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः॥ शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो॥८॥बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठंत्यमू॥ यथैव शृणुमो दूरात्संपश्यामस्तथांतिकात्॥९॥ बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः॥ पुरुषाः पंचषष्टिश्च षट्सहस्राणि चाष्ट च॥१०॥ येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि॥ महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये॥११॥

निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि, यह तीन और दूसरी स्त्री में भी शताजित्, सहस्राजित्, और अयुताजित् यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए॥७॥८॥ हे राजन्*! देवावृधकी सन्तान बभ्रु हुआ, इन पिता पुत्रके प्रसंग में कवि लोग दो श्लोक गाया करते हैं। तिन श्लोकोंका अर्थ यह है। “हम दूरसे जैसा सुनते हैं। निकटसे वैसा देखते भी हैं॥९॥ महात्मा बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ और देवावृध राजा देवताकी समान है। इस वंशमें पॉच

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*बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयो श्लोकौ पठंत्यमू॥ यथैव शृणुमो दूरात्सपश्यामस्तथांऽतिकात्॥ १॥ बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः। पुरुषाःपंच ५ षष्टिश्च ६० षट्सहस्राणि ६००० चाष्टच ८॥२॥ अर्थात् ६०७३ छ सहस्र तिहत्तर॥

षष्टि षट्सहस्र और आठ जो यह ६०७३ पुरुष हुये यह सब बभ्रु और देवावृधके उपदेशसे मोक्षको प्राप्त हुये थे” सात्वतके पुत्र महाभोज अति धर्मात्मा थे। इनके वंशमें भोजगणोंकी उत्पत्ति हुई॥१०॥११॥ हे परन्तप! सात्वतके चौथे पुत्र वृष्णिके सुमित्र और युधाजित् नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें युधाजितके पुत्र शिनि और अनमित्र हुये। उनमें अनमित्रका पुत्र निम्न हुआ॥१२॥ इस निम्नके सत्राजित और प्रसेन दो पुत्र हुये। हे राजन्! अन मित्रके शिनि नामक एक दूसरा पुत्र जो था उसके यहाँ सत्यक जन्मा॥१३॥ सत्यकका पुत्र युयुधान (सात्यकि) युयुधानका पुत्र जय, जयका पुत्र कुणि इस कुणिसे युगंधरका जन्म हुआ। हे कुरुश्रेष्ठ! अनमित्रके वृष्णि नामक दूसरे पुत्रसे॥१४॥

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परंतप॥ शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः॥१२॥ सवाजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ॥ अनमित्रमुतो योन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः॥१३॥ युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणि स्ततः॥ युगंधरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः॥१४॥ श्वफल्कश्चित्ररथश्च गांदिन्यां च श्वफल्कतः॥ अक्रूरप मुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः॥१५॥ आसंगः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्भिरिः॥ धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः॥१६॥ शत्रुघ्नो गंधमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश॥ तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि॥१७॥ देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः॥ पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनंदनाः॥१८॥ कुकुरो भजमानश्च शुचिः कंबलवर्हिषः॥ कुकुरस्यसुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः॥१९॥

श्वफल्क और चित्ररथने जन्म लिया, श्वफल्कसे गांदिनी के गर्भ में अक्रूरजीके सिवाय और भी बारह पुत्र जन्मे जो कि बड़े विख्यात हुये॥१५॥ यथा — आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुवित्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकमा, क्षेत्रोपेक्ष अरिमर्दन॥१६॥ शत्रु गन्धमाद और प्रतिबाहु यह बारह और अकूर मिलकर तेदर पुत्र हुये और इनके सुचीरा नामक एक बदनभी हुई थी॥१७॥ अक्रूरजीके देववान् और उपदेव दो पुत्र हुये ! चित्ररथका पुत्र पृथु इसके अतिरिक्त विदूरथादि बहुतसे पुत्र हुये॥१८॥दूसरे कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बल बर्हिष यह चार अन्धकके पुत्र हुये, उनमें कुकुरका

पुत्रवह्नि और वह्निका पुत्र विलोम॥१९॥ उसका पुत्र कपोतरोमा। उसकी सन्तान वह अनु हुआ कि, जिसका सखा तुम्बुरु गन्धर्व था, इस अनुका पुत्र अन्धक उससे दुन्दुभि उत्पन्न हुआ, उसका पुत्र अरिद्योत और तिसका पुत्र पुनर्वसु हुआ॥२०॥ पुनर्वसुके आहुक पुत्र और आहुकी कन्या हुई आहुकके देवक और उग्रसेन दो पुत्र हुये। देवकके देववान्, उपदेव, सुदेवं देववर्द्धनें यह चार पुत्र उत्पन्न हुये। इन चार पुत्रोंके धृतदेवादि सात बहनें थीं॥२१॥२२॥ यथा धृतदेवा, शान्तिदेवां, उपदेवां श्रीदेव, देवरक्षित्, सहदेव और देवकी इन सात कन्याओंके साथ वसुदेवजीने विवाह

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुंबुरुः॥ अंधको दुन्दुभिस्तस्मादरिद्योतः पुनर्वसुः॥२०॥ तस्याहुकश्चाऽऽहुकी च कन्या चैवाऽऽहुकात्मजौ॥ देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः॥२१॥ देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः॥ तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप॥२२॥ शांतिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता॥ सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः॥२३॥ कंसः सुनामा न्यग्रोधः कंकः शंकुः सुहस्तथा॥ राष्ट्रपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः॥२४॥ कंसा कंसवती कंका शूरभू राष्ट्रपालिका॥ उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः॥२५॥ शूरो विदूरथादासीद् भजमानः सुतस्ततः॥ शिनिस्तस्मात्स्वयंभोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः॥२६॥ देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः॥ देवमीढस्य शरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत्॥२७॥ तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्॥ वसुदेवं भागं देवश्रवसमानकम्॥२८॥

॥२३॥ हे परीक्षित्! उग्रसेनके पुत्र कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शकु सुहु, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान्, यह नव पुत्र उत्पन्न हुये॥२४॥ कंसो, कंसवंती, कंका, शूरभू, राष्ट्रपालिकां यह पांच कन्यायें वसुदेवजीके छोटे भाई जो देवभागादि थे इनकी भार्या हुई॥२५॥ हे राजन्! ले चित्ररथके बेटे विदूरथका जो वर्णन कर आये हैं, उन विदूरथसे शूर उत्पन्न हुये उसका पुत्र भजमान, उससे शिनिका जन्म हुआ, निका पुत्र भोज और उसका हृदीक नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥२६॥ उससे देवबाहु शतधनु और कृतवर्मा देवमीढ यह चार पुत्र उत्पन्न

हुये। उनमें देवमीढका पुत्र शूर हुआ, उसके मारिषा नामक एक पत्नी थी। मारिषा के गर्भ से शूरने दश पुत्र उत्पन्न किये! उनके नाम यह हैं, यथा— वसुदेव, देवभाग, देवश्रवस, आनक॥२७॥२८॥ शृञ्जय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृकहे राजन्! जिस समय वसुदेवजीका जन्म हुआ उससमय स्वर्गसे देवतालोगोंने नगाड़े और ढोल बजायेथे॥२९॥ इसीलिये इन वसुदेवजीका एक नाम आनकदुन्दुभि है क्योंकि

सृंजयं श्यामकं कंकं शमीकं वत्सकं वृकम्॥ देवदुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि॥२९॥ वसुदेवं हरेः स्थानं वदंत्यानकदुंदुभिम्॥ पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः॥३०॥ राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पंच कन्यकाः॥ कुंतेः सख्युः पिता शरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात्॥३१॥ साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतिं प्रतोषितात्॥ तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम्॥३२॥

यह भगवान् हरिकी उत्पत्ति के स्थान थे। शूरसेनके इन पुत्रोंके अतिरिक्त पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा॥३०॥ और राजाधिदेवी नामक पांच कन्या हुईं यह इन दश पुत्रोंकी बहने थीं, राजा शूरसेनने अपने सखा कुन्तिराजको निःसन्तान देखकर अपनी पृथा कन्या उसको देदी॥३१॥किसी समय हे परीक्षित्! दुर्वासा ऋषिके गृहमें आनेपर पृथाने भलीभाँति सेवाकर उनको संतुष्ट किया और दुर्वासा मुनिने प्रसन्न होकर पृथाको

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* शंका — मृत्युलोकमें मनुष्य जन्म तो लेते हैं परन्तु किसीके जन्म होनेपर देवता दुन्दुभि नहीं बजाते और हमने आजतक कभी सुनाभीनहीं कि, मनुष्योंके जन्म लेनेपर देवता दुन्दुभि बजाते है परंतु वसुदेवके जन्म होनेपर देवताओंने दुन्दुभि क्यों बजाया जो कोई कहे कि, भगवान् वसुदेवके घर जन्मलेंगे इसलिये देवताओंने आगेही हर्षमानकर बजाये हैं तो दशरथ आदि लेकर बहुत जनों के भगवान् पुत्र हुए तो दशरथ आदिके जन्म समय देवताओंने दुदुभि क्यों नहीं बजाये!

**उत्तर —**जो मथुरामें वसुदेवने जन्म लिया तब उससमय ंदुदुभिके निकट चन्द्रमा खडा था, चन्द्रमाने जान लिया कि इस लडके के पुत्र भगवान् होंगे मेरे वशका प्रकाश करनेवाला यह बालक होगा, ऐसाजानकर चन्द्रमाने दुंदुभि बजाया कुछ देवताओंने दुंदुभि नहीं बजाया, और दशरथ के जन्म के समय सूर्य दुदुभिके समीप नहीं थे और जो होते तो सूर्य भी निश्चय दुंदुभि बजाते अपने अपने वशकी वृद्धि देखकर सबको हर्षहोता है॥

देवाह्वान विद्या शिखा दी। इसके उपरान्त पृथाने उस विद्याके बलकी परीक्षा करने के लिये सूर्य भगवान् को बुलाया॥३२॥ परन्तु इन सूर्य भगवान् को तत्काल आता हुआ देखकर पृथा अति विस्मित हुई और विनयसहित यह वचन कहने लगी। हे देव! हमने केवल परीक्षा के लिये मन्त्र पढ़ा था इस समय आपसे कोई विशेष काम नहीं है इसलिये आप क्षमा करें॥३३॥ यह सुनकर सूर्य भगवान् बोले कि, देव दर्शन व्यर्थ नहीं होता हम तुममें गर्भाधान करेंगे, पृथा बोली कि, मैं कन्या हूं संसारमें दूषित हूंगी, सूर्यनारायणने कहा कि, तुम कन्या समझकर अपने मनमें कुछ संकोच मत करो हम ऐसा करेंगे कि, जिस प्रकारसे तुम्हारी योनि दुष्ट नहीं होगी॥३४॥ हे महाराज परीक्षित्! इस प्रकार गर्भाधान करके सूर्य भगवान् स्वर्गको चलेगये,

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मयमानसा॥ प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे॥३३॥ अमोघं दर्शनं देवि आधत्से त्वयि चात्मजम्॥ योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताऽहं ते सुमध्यमे॥३४॥ इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः॥ सद्यः कुमारः संजज्ञे द्वितीय इव भास्करः॥३५॥ तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य विभ्यती॥ प्रपितामहस्तामुवाह पांडुर्वैसत्यविक्रमः॥३६॥ श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्॥ यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः॥३७॥ कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविंदत॥ संतर्दनादयस्तस्यां पंचासन्कैकयाः सुताः॥३८॥ राजाधिदेव्यामावंत्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह॥ दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत्॥३९॥

उसी समय, दूसरे दिवाकरकी समान पृथाके एक कुमार उत्पन्न हुआ॥३५॥ तो पृथाने लोकापवादसे डरकर उस पुत्रको सन्दूक में रखकर नदीमें बहा दिया, इसके उपरान्त पृथाको देखकर तुम्हारे परदादा महाराज सत्यविक्रम पाण्डु विवाह कर लेगये॥३६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! शूरसेन की कन्या श्रुतदेवा करूषवंशीय वृद्धशर्माकी भार्या हुई। उसमें दितिसुत दन्तवकने सनकादि ऋषियोंके शापसे जन्म लिया और केकय वंशीय धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिका पाणिग्रहण किया, उससे सन्तर्द्दनादि पांच पुत्र उत्पन्न हुये॥३७॥३८॥ और अवन्तीके राजा

जयसेनने राजाधिदेवीका पाणिग्रहण करके उससे बिन्द, अनुबिंद नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। हे राजा ! चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया॥३९॥ इसका पुत्र शिशुपाल उत्पन्न हुआ कि, जिसका वृत्तान्त पहले वर्णन करचुके हैं। अब वसुवदेजीके भ्राताओंका वृत्तान्त कहते हैं।देवभागकी भार्या के साके चित्रकेतु और बृहद्वल यह दो पुत्र उत्पन्न हुये॥४०॥ देवश्रवसकी भार्या कंसवतीके गर्भ से सुवीर और इषुमान्ने जन्म ग्रहण किया। आनककी वनिता कंकासे सत्यजित् और पुरजित् यह पुत्र उत्पन्न हुये॥४१॥ सृञ्जयकी भार्या राष्ट्रपालीके गर्भसे वृषदुर्मर्षणादि

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य संभवः॥ देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्वलो॥४०॥ कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा॥ कंकायामानकाज्जातः सत्यजित्पुरुजित्तथा॥४१॥ सृंजयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्॥ हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः॥४२॥ मिश्रकेश्यामप्सरसि तृकादीन्वत्सकस्तथा॥ तक्षपुष्करशालादीन्दूर्वाक्ष्यां वृक आदधे॥४३॥ सुमित्राऽर्जुनपालादीन् शमीकात्तु सुदामिनी॥ कंकश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि॥४४॥

उत्पन्न हुये। श्यामककी वनिता शूरभूमि से हरिकेश और हिरण्याक्षने जन्म लिया॥४२॥ वत्सकने मिश्रकेशीनामक अप्सरामें वृकादि पुत्र उत्पन्न किये। वृककी पत्नी दूर्वाक्षीसे तक्ष, पुष्करशाल, प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए॥४३॥ शमीक वनिता सुदामिनीने शमीकसे सुमित्र, अर्जुन और पाल इत्यादि पुत्र उत्पन्न किये। आनकने अपनी स्त्री कर्णिका के गर्भ से ऋतुधामा और जयनामक दो पुत्र उत्पन्न किये॥४४॥

हे महाराज परीक्षित्! वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि अनेक पत्निये थीं॥४५॥ इन स्त्रियोंमें रोहिणीके गर्भ से बलदेव, गद सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृतादि पुत्र उत्पन्न हुए॥४६॥ पौरवीसे सुभद्र, भद्रबाहु, दुर्मद, भद्र और भूतादि बारह पुत्र जन्मे।मदिराके गर्भ से नन्द, उपनन्द, कृतक और शूरादि पुत्र उत्पन्न हुए। भद्राने कुलका आनन्द देनेवाला केवल केशी

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला॥ देवकीप्रमुखा आसन्पत्न्य आनकदुंदुभेः॥४५॥ बलं गदं सारणं च दुर्मदं विमलं ध्रुवम्॥ वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत्॥४६॥ सुभद्रो भद्रबाहुश्च दुर्मदो भद्र एव च॥ पौरव्यास्तनया ते भूताद्या द्वादशाऽभवन्॥४७॥ नंदोपनंदकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः॥ कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनंदनम्॥४८॥ रोचनायामतो जाता हस्तहेमांगदादयः॥ इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत्॥४९॥ विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुंदुभेः॥ शांतिदेवात्मजा राजञ्छमप्रतिश्रुतादयः॥५०॥ राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश॥ वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः॥५१॥

नामक एकही पुत्र उत्पन्न किया॥४७॥४८॥ रोचनाके गर्भ से हस्त, हेमांगद, प्रभृति जन्मे और इलामें उरुवल्कसे आदि लेके यदु जिनमें मुख्य ऐसे पुत्र हुए॥४९॥ धृतदेवा के वसुदेवसे विपृष्टने जन्म ग्रहण किया शान्तिदेवामें शम प्रतिश्रुत प्रभृति पुत्र उत्पन्न किये॥५०॥ इसी प्रकार उपदेवासे कल्प वर्षादि दशपुत्र उत्पन्न हुए। श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंशादि छः पुत्र उत्पन्न हुए॥५१॥

देवरक्षिता के गद प्रभृति नव पुत्र उत्पन्न हुए जसे साक्षात् धमने आठ वसु उपजाये वैसे ही वसुदेवजीने सहदेवासे पुरुविश्रुतप्रभृति आठ पुत्र उत्पन्न किये इस प्रकार उनके देवकी में आठ पुत्र उत्पन्न हुये। यथा कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्रं और अहीश्वर संकर्षण, यह सात पुत्र और॥५२॥५३॥५४॥ हे परीक्षित्! वसुदेव देवकीके अष्टम पुत्र स्वयं विष्णुभगवान् (श्रीकृष्ण) हुए। और तुम्हारी दादी महाभागा सुभद्राजी भी उनसेही उत्पन्न हुई॥५५॥ अधिक क्या कहें? जिस जिस समय धर्मका क्षय और अधर्मकी वृद्धि होती है उसी समय में भगवान् वासुदेव अपना अवतार

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः॥ वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया॥५२॥ पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद्धर्मो वसूनिव॥ वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्॥५३॥ कीर्तिमंतं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः॥ ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं संकर्षणमहीश्वरम्॥५४॥ अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल॥ सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही॥॥५५॥ यदायदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः॥ तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः॥५६॥ न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते॥ आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः॥५७॥ यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि॥ अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते॥५८॥

लिया करते हैं॥५६॥ नहीं तो जो मायाके नियन्ता, संगविहीन, सर्वसाक्षी और सर्वगत ईश्वर हैं उनका मायाविनोदके अतिरिक्त (सिवाय) जन्म अथवा कर्मका और क्या हेतु होता है ?॥५७॥ जिसकी माया चेष्ठा जीवकेलिये अनुग्रह स्वरूप है, क्योंकि यह मायाही सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी निदान है. इसलिये जो सर्व जीवोंके अनुग्राहक हैं। फिर उनको कर्मादिके वश पडकर जन्मादि संबंधकी क्या सम्भावना? इनके मायाचेष्टित श्रूयमाण होनेपर उसके द्वारा सृष्टि प्रभृतिकी निवृत्ति होनेपर वही जीवके मोक्ष होनेका कारण होते हैं॥५८॥

हे परीक्षित्! बहुतसी अक्षौहिणीके राजा नृपरूपी असुरगण जब पृथ्वीका आक्रमण करते हैं और अपने बोझसे पृथ्वीको दबालेते हैं। तब भूमिका भार उतारनेके लिये भगवान्का यह अवतार होता है। क्योंकि जिन कमको सुरेश्वर लोग मनके द्वारा तर्क करके भी नहीं करसक्ते भगवान् मधुसूदन संकर्षण के साथ उन सब कर्मोंको लीलाहीसे कर डालते हैं॥५९॥६०॥ हे राजन्! भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं यद्यपि वह संकल्पही करके पृथ्वी के भारको हरण करने में समर्थ थे, परन्तु तो भी कलियुग में जो भक्त होंगे, उनके प्रति अनुग्रह प्रगट करनेके लिये दुःख, शोक और तमोगु

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलांछनैः॥ भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः॥ ५९॥ कर्माण्यपरिमेयानि मनसाऽपि सुरेश्वरैः॥ सह संकर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः॥६०॥ कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्॥ अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद् यशः॥६१॥ यस्मिन्सत्कर्णपीयूषे यशस्तीर्थवरे सकृत्॥ श्रोत्रांजलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम्॥६२॥ भोजवृष्ण्यंधकमधुशूरसेनदशार्हकैः॥ श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृंजयपांडुभिः॥६३॥ स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया॥ नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वांगरम्यया॥६४॥

णका नाशक यह पुण्य यश भगवान्ने विस्तारित किया है यह श्रेष्ठयश साधुपुरुषोंके लिये कर्णामृत और श्रेष्ठ तीर्थस्वरूप है केवल एकबार कर्णरूप अञ्जलिसे पान करनेपर पुरुष कर्मवासना त्याग देने को समर्थ होता है॥६१॥६२॥ इसलिये भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सञ्जय और पाण्डुवंशीय सब मनुष्यगण भगवान् के चरित्रकी बड़ाई किया करते हैं॥६३॥ उन्हीं भगवान्ने सुन्दर मनोहर मुसकान के दर्शन, उदार वचन, विक्रमलीला, समस्त रमणीक मूर्तिके द्वारा सब मनुष्य लोकको प्रमुदित किया था॥६४॥

मकराकार कुण्डल, मनोहर कर्ण, चमकते दमकते हुए कपोल, इन सबसे श्रीभगवान्‌का वदन अनुपम शोभायमान था, विलासयुक्त मुसकान मानों उसमें लगी हुई थीं, इसलिये मानो सदाही उत्सव होता. उस वदनको दृष्टिके द्वारा पान करके नर नारी परितृप्त नहीं हुए। वह सब आनन्दित तो हुए थे परन्तु नेत्रोंके बारंबार पलक मारनेको न सहकर निमेष के बनानेवाले राजा निमिके ऊपर बारंवार कोप करते थे॥६५॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने अपने रूपसे जन्म ग्रहण किया, उसके पीछे मनुष्याकार हो पिताजीके घरसे व्रजको चले गये। वहॉपर शत्रुओं का नाश कर व्रजवासियोंकी अभिलाप पूर्ण कर धन संपत्तिको बढ़ाया। फिर बहुतसी

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्णभ्राजत्कपोलसुभगं सुविलासहासम्॥ नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबंत्यो नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमश्च॥६५॥ जातो गतः पितृगृहाजमेधितार्थोहत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः॥ उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीज आत्मानमात्मनिगमं प्रथयञ्जनेषु॥६६॥ पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामंतस्समुत्थकलिना युधि भूपचम्वः॥ दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम॥६७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशविदर्भान्वयानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥

॥समाप्तोऽयं नवमस्कन्धः॥

सुन्दरियों से विवाह कर उनसे सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। फिर लोकसमाज में स्वकृत वेदमार्गका विस्तार करके अनेक यज्ञोंको कर, आपने अपनीही पूजा की॥६६॥ फिर उन्होंने कौरव और पाण्डवों में द्वेष उपजाय पृथ्वीका भारी भार उतार दिया। और दृष्टिसेही युद्धभू मिमें खड़े हुए राजाओंको कम्पायमान कर दिया, फिर जब अर्जुनने रणमें जय पाई तब उसकी कीर्तिका विकास कर उद्धवजीको परमतत्त्वका उपदेश किया। और अन्त समय अपने उसी स्वरूपसे परमधामको चले गये॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषा टीकायां विदर्भवंशवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥

इदं पुस्तकं क्षेमराज-श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां (खेतवाडी ७वीं गली खम्बाटालैन)

स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणयन्त्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्।

संवत् १९७०, शके १८३५.

॥ इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते नवमस्कंधसमाप्तिः ॥
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सवैया– जाकी कृपा शुक ज्ञानी भये, अतिदानी औ ध्यानी भये त्रिपुरारी॥ जाकी कृपा विधि वेद रचे, भये व्यास पुराणनके अधिकारी॥ जाकीकृपाते त्रिलोकधनी, सुकहावत श्रीब्रजचन्द विहारी॥ मेरेहूँ काज करैगी सोई, श्रीकृष्णप्रिया वृषभानु दुलारी॥१॥ कबित्त– काहूको भरोसोहै गणेशशेष शारदको, काहूको भरोसोहै कालिका मशानीको॥ काहूको भरोसो उमा रमा सिया लक्ष्मीको, काहूको भरोसो महादेव ब्रह्मज्ञानीको॥ काहूकोभरोसो गंग यमुना हनुमानजीको, काहूको भरोसो सिंहवाहिनी भवानीको॥ तनसे औ मनसे कहै बार बार शालिग्राम, मोको तो भरोसो एक राधामहरानीको॥१॥ दोहा– हे मुकुन्द गोविंद हरि, नन्दनन्दन घनश्याम। चरणशरण मोहिं राखिये, कृपासिन्धु सुखधाम॥ १॥ पूरण दशमस्कंधमें

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ राजोवाच॥ कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः॥ राज्ञां चोभयवंश्यानां चरितंपरमाद्भुतम्॥१॥ यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम॥ तत्रांशनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः॥२॥

कियो कृष्ण यश गान॥सोनब्बे अध्याय करि, कीन्ह्यों सकल बखान॥ २॥ तहां प्रथम अध्यायमें, कंस आपनो काल।सुनि- देवकि संभूत तबइने तापट बाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी से राजा परीक्षित् बोले कि, हे दीनदयालु ! आपने प्रथम नवमस्कन्धमें चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जो जो नामीराजा हुये उन दोनों वंशोंके सब राजाओंका अति विचित्र चरित्र विस्तारसहित वर्णन किया*॥१॥ हे मुनिवर ! धर्मशील महाराज यदुकावंशभी विस्तारपूर्वक आपने अच्छी रीतिसे कहा परन्तु अब दयाकरके वह कथा कहो, जो, महाराज यदुके वंशमें बलरामजी के साथ परिपूर्ण रूपसेअवतार धारण करके संसारके सुख देनेको जो जो अद्भुत लीला भगवान् वासुदेवने की, उनको विस्तार सहित हमारे सामने वर्णन कीजिये॥२॥

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* **शंका-**सूर्यवंशसे चद्रवंश हुवा है और राजा परीक्षित् केप्रश्नवाले श्लोकसे प्रथम सोमवशका नाम हैं, सो पीछे सूर्यवश क्यों वर्णन किया। सूर्यवंश तो प्रथम वर्णन करना चाहियेयह वडे सदेहकी बातहैं, प्रथमबालेको पीछे वर्णन करना और पीछे बालेको प्रथम यह क्या कारणहै यहा कोई छन्दभी नहीं जो आगे पीछे छन्दभ्रष्ट होजानेके कारण लिखदिया.

उत्तर - राजा परीक्षित् नेचद्रवंशमें श्रीकृष्णका जन्म सुनकर और अपनेभी कुलका सन्मान करनेके लिये श्लोकमें प्रथम चद्रमाका कीर्त्तन किया॥

सब प्राणियोंके प्रतिपालक भगवान् भूतभावनने यदुकुलमें जन्म लेकर जो जो आश्चर्ययुक्त चरित्र किये वह भी सब यथावत् हमारे आगे कथन करो॥३॥ इस संसारमें तीन प्रकार के पुरुष हैं– एक तो ज्ञानी, दूसरे मुमुक्षु, तीसरे विषयी, इन तीनों प्रकारके मनुष्योंको उत्तमश्लोक भगवान् केचरित्रपरमप्रिय हैं, सो दिन रात उनको गाते रहते हैं और ज्ञानी लोगोंको परमेश्वरके चरित्र सुननेसे संसारकी सब वासना छूटनेका उत्तम उपाय दिखाईदेता है और जिन मुमुक्षु जनोंको मोक्षकी इच्छा है ऐसे नारद, उद्भवादिकोंको संसाररूपी रोगोंके दूर करनेको सजीवन मूल औषधि है और विषय में जिनका मन है ऐसे मनुष्योंके मनको और कानोंको परमानन्दका देनेवाला यही विषय है, सिवाय आत्मघातीके और पशुघातीके ऐसा कौनसामनुष्य है जो परमेश्वरके गुणानुवादको सुनकर आनन्दित न होगा ?॥४॥ चाहे कुछ हो परन्तु हमको तो वृन्दावनविहारी भक्तिहितकारीका गुण

अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान्भूतभावनः॥ कृतवान्यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात्॥३॥ निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोभिरामात्॥ क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान्वि- रज्येत विना पशुघ्नात्॥४॥ पितामहा मेसमरेऽमरंजयैर्देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिंगिलैः॥ दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं कृत्वाऽतरन्वत्सपदं स्म यत्प्लवाः॥५॥द्रौण्यस्त्रविप्लष्टमिदं मदंगं संतानवीजं कुरुपांडवानाम्॥ जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रोमातुश्च मे यः शरणं गतायाः॥६॥

दिन रात गाना और उनके उत्तम उत्तम चरित्रोंकी कथा नित्य प्रति सुननी, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र तो हमारे कुलपूज्यही थे, संग्राममें देवताओंकोभीपराजय करनेवाले पितामह भीष्म और दुर्योधन आदि महारथी रूप जिसमें वडवानल सौबल और दुःशासन रूप महागम्भीर नीर, भारी भारीवीर और योद्धाओंकी जहाॅतहाॅघूम रही थी वही उसमें तरंगें, शल्य, द्रोण, कर्ण आदिक महारथी रूप ग्राह थे, मर्यादारूप राजाओंकी कतार थीउस कौरवरूपी अत्यन्त गम्भीर समुद्रने जो द्रौपदीका चीर हरा वही उस समुद्रका विस्तार था, ऐसे दुस्तर महासागरको मेरे पितामहयुधिष्टिर आदिकोंने भक्तिरूप नौकाका आश्रय लेके बछड़ेके खुरकी सदृश समझकर बेखटक पार उतर गये॥५॥ इतनाही मत समझनाकि, भगवान् नेकृष्ण अवतार केवल पाण्डवोंकीही सहायताके लिये धारण किया था, मेरे भी प्राणोंकी रक्षा श्रीकृष्णजीनेही की थी, कौरव और

पाण्डवोंकी सन्तानका बीजरूप जो मेरा देह अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके तेजसे दग्ध होने को था, उसी समय मेरी माता उत्तराने महादुःखी हो श्रीकृष्णकी शरण ली, उत्तराको दुःखी जानकर भगवान् नेचक्र ग्रहण कर मेरी माताकी कुक्षिमें प्रवेश करके मेरे तनुकी रक्षा करी॥६॥ हे विद्वन्!सब जगत् के प्रकाश करनेवाले प्राणियोंमें परमपुरुष कालरूप, संसारको मोक्ष देनेवाले और उसीरूपसे दुरात्मा लोगों को मृत्युके देनेवाले,जिन्होंने भक्तोंके ऊपर दया करके नरशरीर धारण किया, उन श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला हमारे आगे कहो, हमको उनके पराक्रमोंके सुननेकी बड़ीलालसा है॥७॥ संकर्षण बलदेवको आपने पहिले तो देवकीका पुत्र कहा था अब दूसरी बार रोहिणीका पुत्र कहा, यह बडे आश्चर्यकी बात है।कि दो माताओं से एक पुत्र कैसे उत्पन्न हुवा॥८॥ भक्तभावन भगवान् अपने माता पिता वसुदेव देवकीका घर छोड़कर व्रजमें नन्द यशोदा के घर

वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजामंतर्बहिः पुरुषकालरूपैः॥ प्रयच्छतो मृत्युमुताऽमृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन्॥॥७॥ रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया॥ देवक्यां गर्भसंबंधः कुतो देहांतरं विना॥८॥ कस्मान्मुकुन्दोभगवान्पितुर्गेहाद्व्रजं गतः॥ क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान्सात्वतां पतिः॥९॥ व्रजे वसन्किमकरोन्मधुपुर्यांच केशवः॥ भ्रातरं चावधीत् कंस मातुरद्धाऽतदर्हणम्॥१०॥ देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः॥यदुपुर्यां सहावात्सीत्पत्न्यः कत्यभवन्प्रभोः॥११॥ एतदन्यच्च सर्वंमे मुने कृष्णविचेष्टितम्॥ वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम्॥१२॥

क्यों गये? और भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने अपनी जातिवालोंको संग लेकर कहाँ निवास किया ?॥९॥ गोपसखाओंके संग नन्दकुमार भगवान् नेव्रजमें नन्द यशोदाके घर रहकर कौन कौनसे उदार चरित्र किये? और मथुरामें जाकर अपने मामा कंसको अपने हाथसे कैसेमारा? मामाको मारना किसी प्रकार योग्य नहीं फिर उसका वध क्यों किया?॥ १०॥ हे प्रभो ! मनुष्यदेह धारण करके भगवान् वासुदेवने यादवोंके साथ मथुरापुरीमें कितने दिनतक वास किया? और श्रीकृष्ण महाराजके कितनी स्त्री थीं॥११॥ हे सर्वज्ञ ! जो जो प्रथम मैंने आपसे बूझाउसके सिवाय और जो कुछ चरित्र मेरे बूझनेसे शेष रहगये हैं वह सब मेरे सामने वर्णन करना चाहिये क्योंकि मेरा चित्त श्रीकृष्णके गुणानुवाद

सुननेको अधिक चाहता है और इस विषयमें मेरी बड़ी श्रद्धा है॥१२॥ हे मुनिवर ! यद्यपि यह क्षुधा पिपासा जगत्में परम दुःसहहै, तोभी मैंने उसकोत्याग दिया, परन्तु आपके मुखारविन्दसे जो भगवान् की अमृतरूपी कथाका अमृत टपकताहै उसको पीता हूं. उसीके पीनेसे मुझको भूख प्यासकीकुछ बाधा नहीं॥१३॥ सूतजी बोले कि, हे भृगुनन्दन शौनकजी ! इसप्रकार भागवतोंमें मुख्य श्रीशुकदेवजी महाराजने यह उत्तम प्रश्न सुनके राजापरीक्षितकी प्रशंसा करके कलियुगके पापोंका नाश करनेवाला श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र कहना आरम्भ किया॥१४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजऋषियोंमें श्रेष्ठ राजा परीक्षित्।आपकी बुद्धिने अच्छा निश्चय कियाहै कि, जिस बुद्धिसे आपकी कृष्णकथामें अत्यन्त उत्कृष्ट प्रीति हुई है॥१५॥

नैषातिदुस्सहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते॥ पिवंतं त्वन्मुखांभोजच्युतं हरिकथाऽमृतम्॥१३॥ सूत उवाच॥ एवंनिशम्य भृगुनंदन साधुवादं वैयासकिः स भगवानथ विष्णुरातम्॥ प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ सम्यग्व्यवसिता बुद्धिस्तव राजर्षिसत्तम॥ वासुदेवकथायां ते यज्जातानैष्ठिकी रतिः॥१५॥ वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि॥ वक्तारं पृच्छकं श्रोतृृंस्तत्पादसलिलं यथा॥१६॥भूमिर्दृप्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतैः॥ आक्रांता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥१७॥ गौर्भूत्वाऽश्रुमुखी खिन्नाक्रंदंती करुणं विभोः॥ उपस्थितांतिके तस्मै व्यसनं स्वमवोचत॥१८॥ ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह॥जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधेः॥१९॥

भगवान् वासुदेवकी कथा तीन जनोंको पवित्र करै है, श्रोताको, वक्ताको और प्रश्न कर्ताको, जैसे श्रीगंगाजीका जल तीन जनोंको पावन करैहै,पुरोहितको, यजमानको और ग्रहण करनेवालेको॥ १६॥ हे राजन् ! अभिमानी राजा जिनका सदा दैत्योंकेसा स्वभाव उनकी अधिक सेनाओंकेभारसे पृथ्वी अत्यन्त दुःखी होकर गायका रूपधर ब्रह्माजी के निकट गई॥१७॥ हे राजन् ! शरीर जिसका क्षीण मन मलीन जिसको देखकर सबकेमनमें दया उपजे, इस प्रकार रंभाती डकराती आँखोंसे आंसू बहाती हुई ब्रह्माजीके समीप जाकर खड़ी हुई और अपना सब दुःख उनसे कहा॥१८॥ ब्रह्माजी पृथ्वीका दुःख सुनकर सब देवताओंको और शिवजीको अपने संग लेकर क्षीरसागरके समीप गये, वहाँ विष्णुभगवान् शेषशय्यापर

शयन कररहे थे॥१९॥ वहाँ जाय समाधि लगाय, जगदीश्वर भगवान् सम्पूर्ण अर्थियोंके मनोरथ पूर्ण करनेवाले देवों के देव विष्णु भगवान्‌की पुरुषसूक्तके इन षोडश मंत्रोंसे “सहस्रशीर्षा पुरुषः” स्तुति करने लगे॥२०॥ समाधिहीमें ब्रह्माजीको आकाशवाणीहुई, उस वाणीको सुनकर ब्रह्माजी देवताओंसे बोले कि, हे देवताओ! मुझको श्रीनारायणकी आज्ञा हुई है उसको तुम सब लोग सुनो और सुनकर विलम्ब मत करो शीघ्र वैसेही करो॥२१॥हमारी प्रार्थनासे पहिलेही भगवान् ने इस पृथ्वीका दुःख दूर करनेका विचार करलिया है, अब जबतक सब देवपति भगवान् अपनी काल शक्तिसेवसुंधराका भार उतारनेके लिये धरणीपर मनुज अवतार धारण न करें, तबतक तुम सब अपने अपने अंशोंसे यदुकुलमें जाकर जन्म लो॥२२॥

तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम्॥ पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः॥२०॥ गिरं समाधौ गगने समीरितां निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह॥ गां पौरुषीं मे शृणुतामराः पुनर्विधीयतामाशु तथैव माचिरम्॥ २१॥ पुरैवपुंसाऽवधृतो धराज्वरो भवद्भिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्॥ स यावदुर्व्या भरमीश्वरेश्वरः स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद्भुवि॥२२॥वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान्पुरुषः परः॥ जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवंतु सुरस्त्रियः॥२३॥ वासुदेवकलाऽनंतः सहस्रवदनःस्वराट्॥ अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया॥ २४॥ विष्णोर्माया भगवती यया संमोहितं जगत्॥ आदिष्टाप्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिश्यामरगणान्प्रजापतिपतिर्विभुः॥ आश्वास्यच महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ॥ २६॥

वसुदेव देवकीके भवनमें साक्षात् आदिपुरुष भगवान् आनकर प्रगट होंगे उनके संग विहार करनेके लिये और हितके हेतु देवपत्नीभी व्रजमें जन्म धारणकरैं॥२३॥और सहस्र मुखवाले स्वयंप्रकाश विष्णु भगवान् कीअनंत कलासे शेषनागजी महाराज श्रीकृष्णचन्द्रके संग लीला करनेके लिये बलभद्रनामसे प्रथमही वसुदेवजीके घर जन्म धारण करेंगे॥२४॥फिर देवकीके गर्भको खैंचनेके लिये और यशोदाको मोह करनेके लिये परमेश्वरकी मायासब संसारके मनको मोहनेवाली, वह भी भगवान् की आज्ञाको मानकर अपने अशोंसहित यशोदाके भवनमें उत्पन्न होगी॥२५॥ श्रीशुकदेवजीबोले कि, इस प्रकार प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजीने देवताओंको आज्ञा दी और पृथ्वीको समझाय बुझाय आप अपने ब्रह्मलोकको चले गये॥२६॥

यदुपति शूरसेन पहले मथुरापुरीमें बसता हुआ माथुर शूरसेन आदि देशोंको भोगता भया॥२७॥ यह मथुरापुरी सदासे यदुवंशियोंकी राजधानीथी और इसी मथुरा पुरीसें श्रीकृष्ण भगवान् सदा विराजमान रहतेथे॥२८॥ कंसकी अनीतिसे उग्रसेन अत्यन्त दुःखी रहतेथे और उग्रसेनका भ्राताजो देवक था उसकी कन्या देवकी जब विवाहने योग्य हुई, तब उसने उग्रसेन और कंससे बूझा इस लड़कीका विवाह किसके साथ करें? कंस बोलाआजकल यदुवंशियोंमें शूरसेन बड़ा तेजस्वी और प्रतापी राजा है उनके पुत्र वसुदेवके साथ इसका विवाह कर दो तो अच्छा है, देवकने उसीसमय एक ब्राह्मणको बुलाय शुभ लग्न ठहराय राजा शूरसेनके घर टीका भेजदिया, शूरसेन बड़ी धूमधामसे बरात सजाय सब देशके नरेश संगले सब यदुवंशी मिल मथुरा पुरीमें वसुदेवजीको विवाहनेके लिये गये, जब बरात मथुरासमीप आई तब उग्रसेन देवक और कंस अपनी सेना संग

शूरसेनो यदुपतिर्मथुरामावसन् पुरीम्॥ माथुरान्शूरसेनांश्च विषयाञ्बुभुजे पुरा॥२७॥ राजधानी ततः साऽभृत्सर्वयादवभूभुजाम्॥मथुरा भगवान्यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः॥२८॥ तस्यां तु कर्हिचिच्छौरिर्वसुदेवः कृतोद्वहः॥देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत्॥२९॥ उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया॥ रश्मीन्हयानां जग्राहरौक्मै रथशतैर्वृतः॥३०॥ चतुश्शतं पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम्॥ अश्वानामयुतं सार्धं रथानां च त्रिषट्शतम्॥३१॥

ले आगे बढे और आदरसत्कारसे अगौनी कर बरातको नगरमें लाये और सुन्दर जनवासा दिया, फिर सब जनोंको अच्छे अच्छे भोजन जिमाय मंडपमेंबैठाय वेदविधिसे देवकने वसुदेवको कन्यादान दिया और बरातको विदाकियाः शूरसेनका पुत्र वसुदेव अपनी विवाहिता स्त्री देवकीके साथ अपने घरजानेको रथपर बैठे॥२९॥और उग्रसेनका पुत्र कंस अपनी भगिनी देवकीको प्रसन्न करने के लिये घोड़ों की राश, पकड़कर रथ हांकनेको बैठा, उसके संगसैकडों रथ रत्नजटित स्वर्णके और भी थे॥ ३०॥ अपनी कन्यापर अत्यन्त प्रीति करनेवाले देवकने देवकीको बिदाके समय स्वर्णकी माला औररत्नजटित अम्बारीवाले ४०० हाथी, पन्द्रहसहस्र १५००० घोड़े, अठारहसौ १८०० रथ॥ ३१॥

और शृंगारसहित सुंदर सुकुमार दोसौ दासी वर कन्याकी सेवा के लिये दीं॥३२॥ दूलह दुलहनकी यात्राके समय मंगलके लिये, शंख भेरीमृदंग दुंदुभि आदि सब बाजे बरातके बजने लगे और शूरसेन देवक आदि सब बरातके पहुँचानेको संगचले॥३३॥ जब मथुरासे थोडी दूर बाहर बरातनिकली और देवकीके रथके घोड़ोंकी बागडोर पकड़े जो कंस हॉक रहाथा उस समय कंसको आकाशवाणी हुई अरे मूर्ख ! जिसको हर्ष सहिततू पहुॅचाने जाता है इसी देवकीके आठवें गर्भमें तेरा मारनेवाला उत्पन्न होगा॥३४॥ इसप्रकार वाणीको सुन वह अधम पापी भोजवंशियोंके कुलकोकलंक लगानेवाला कंस बहन को मारनेके लिये उपस्थित हुवा और खड्ग हाथमें ले केश पकड़ देवकीको रथसे नीचे खैंच ली और क्रोधसेदाँत चबाय चबाय होठोंको काट काट कहने लगा कि, जिस वृक्षको जड़सेही उखाड़ डाले तो फिर उसमें फल फूल क्यों लगेगा ? इसलिये इसीको

दासीनां मुकुमारीणां द्वे शते समलङ्कृते॥ दुहित्रे देवकः प्रादाद्याने दुहितृवत्सलः॥३२॥ शंखतूर्यमृदंगाश्च नेदुर्दुंदुभयः समम्॥ प्रयाणप्रक्रमे तावद्वरवध्वोः सुमंगलम्॥३३॥ पथि प्रग्रहिणं कंसमाभाष्याहाऽशरीरवाक्॥ अस्यास्त्वामष्टमो गर्भो हंता यां वहसेऽबुध॥३४॥ इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः॥ भगिनीं हंतुमारब्धःखङ्गपाणिः कचेऽग्रहीत्॥३५॥ तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम्॥ वसुदेवो महाभाग उवाच परिसांत्वयन्॥३६॥ वसुदेव उवाच॥ श्लाघनीयगुणः शूरैर्भवान्भोजयशस्करः॥ स कथं भगिनीं हन्यात्त्रियमुद्वाहपर्वणि॥३७॥ मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते॥ अद्य वाऽब्दशतांते वा मृत्युर्वैप्राणिनां ध्रुवः॥३८॥

न मारूं जो पुत्र होनेकी संशय ही न रहै, फिर निर्भय होकर अपना निष्कंटक राज्य करूं॥३५॥ यह गति देख, उस निन्दनीय कर्म करनेवालेमहामूर्ख निर्लज्ज कंसको बड़े ऐश्वर्यवान् वसुदेवजी स्तुति और युक्तियों और करुणा भरे मधुर वचनोंसे शान्त करके बोले कि, हे कंस ! तुमबड़े शूरवीर और योद्धाओंमें प्रशंसनीय गुणज्ञ और भोजवंशका सुयश फैलानेवाले हो देखो ! इस समय, एक तो विवाहका उत्साह, दूसरे यहसीधी साध्वी जाति स्त्री अबला, तीसरे तुम्हारी प्यारी बहन, फिर इस बिचारी दीन अबलाको मारना कौन धर्म है बली कभी अबलापर हाथ नहीडालते क्योंकि स्त्रियोंके मारनेका शास्त्रमें महापाप लिखा है॥३६॥३७॥जो मृत्युके भयसे इस बिचारी दीनको मारो हो तो मृत्यु तो किसी

प्रकार मिटतीही नहीं क्योंकि मृत्यु तो जन्मधारी मनुष्योंके संगही लग रहीहै, जिस दिन मनुष्यका जन्म होता है, उसी दिन मृत्यु भी संग जन्मतीहैऔर जो अधिक जीवनके लिये इसको मारते हो तो मृत्यु आज अथवा सौ (१००) वर्षके अनंतर देह धारीका मरण निःसन्देह होगा॥३८॥ औरमनुष्यको उस समय पाप करना भी उचित है, जो यह शरीर छोडकर दूसरा शरीर धारण करना न पड़े, सो यह कदापि होना नहीं क्योंकि मरणसमय भी यह प्राणी अपने वशमें नहीं होता, वहॉभी कर्मों के अनुसार प्रथम दूसरे शरीरको प्राप्त कर लेता है तब पीछे इस शरीरको त्यागे है॥३९॥जैसे चलनेके समय मनुष्य अपना अगला पाँव सँभालकर रखलेता है तब पिछले पाँवको उठाता है जैसे जोंक चलते समय पहिले अगले तृणकोपकड़ लेती है तब पिछले तृणको छोड़ती है ऐसे ही यह देह जिसमें अनेक प्रकार के संस्कार लग रहे हैं जीवात्मा दूसरे शरीरको प्रथम ग्रहण

देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः॥ देहांतरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः॥३९॥ व्रजंस्तिष्ठन्पदैकेन यथैवैकेनगच्छति॥ यथा तृणजलौकैवं देही कर्मगतिं गतः॥४०॥ स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं मनोरथेनाभिनिविष्टचेतनः॥दृष्टश्रुताभ्यां मनसाऽनुचिंतयन्प्रपद्यते तत्किमपि ह्यपस्मृतिः॥४१॥ यतोयतो धावति दैवचोदितं मनो विकारात्मकमाप पंचसु॥ गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौप्रपद्यमानः सह तेन जायते॥४२॥

करलेता है पीछे पिछली देहको छोड़ता है॥४०॥ स्वप्नमें मनुष्य जैसे देखेहुए और सुनेहुए देह जिसमें अनेक प्रकारके संस्कार लग रहे हैंऔर मन उनके वशमें है वह मन उसीमें बस देहका चिन्तवन करता रहता है और वह मनुष्य स्वप्नमेंभी वैसाही देखता है और उसी देहको अपनीसमझकर कहता है, मैं हूं ‘यह मेरा देह दुःखी है, ऐसे अपने आपको राजा और इन्द्रादिककी समान मानकर अभिमान करता है और जाग्रतदेहकी सम्पूर्ण स्मृति भूलजाता है, फिर उसी संस्कारवाले मनसे मनोरथ देहको भूलकर जाग्रतमें भी उसी प्रकारके देहको देखता है और थोड़ी देरमेंकहने लगता है ‘मैं हूं यह शरीर मेरा है’ ऐसा मानता है और स्वप्नके देवकी स्मृति कुछभी नहीं रहती. इसी प्रकार कर्मोंके अधीन होकर पूर्वदेहकोछोडदेताहै और वैसाही और देह प्राप्त कर लेता है॥४१॥ फलके देनेवाले कर्मोंसे प्रेरित विकारोंसे भराहुवा जो मन है, सो मायारचित महापंच

भूतोंके बनेहुए मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादिक जो शरीर हैं, जिस जिसकी ओरको दौडताहै और अभिमानको बांधताहै, उस उस शरीरमें जीवको संगलेकर जन्म लेता है, यह मनही सब बातका कर्ता हर्ता ठहरा तो मनहीको जन्म लेना चाहिये. परंतु अकर्ता आत्मा क्यों जन्मताहै ? आत्मा उस मनकोयह करके मानता है कि, ‘मैं हूँ’ इसकारण आत्मा उस मनके साथ जन्म लेताहै॥४२॥ जैसे सूर्य चन्द्रमादिकोंकी ज्योति जलके भरे घटादिक पात्रों मेंप्रतिबिम्बरूप होकर पवनके वेगसे कंपायमान प्रतीत होते हैं, ऐसेही पुरुष अपनी अविद्यारचित देहमें रागके कारण प्रविष्ट आत्मा अभिमान करकेमोहको प्राप्त होताहै, आत्मामें देहादिककी भ्रान्ति होनेसे जैसे सूक्ष्म और स्थूल देहादिकके धर्म आत्मामें दिखाई देतेहैं, वैसेही देहादिक में आत्माकीभ्रांति होनेसे प्रेमपात्रत्व आदि आत्माके धर्म देहादिकमें प्रतीत होतेहैं, इसलिये इन्द्र और गर्दभादिके तनुमें प्रीति समान होनेसे मृत्युसे बचनेका

ज्योतिर्यथैवोदकपार्थिवेष्वदः समीरवेगानुगतं विभाव्यते॥ एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्गुणेषु रागानुगतोविमुह्यति॥४३॥ तस्मान्न कस्यचिद्द्रोहमाचरेत्स तथाविधः॥ आत्मनः क्षेममन्विच्छन्द्रोग्धुर्वैपरतो भयम्॥४४॥एषा तवानुजा बाला कृपणा पुत्तिकोपमा॥ हंतुं नार्हसि कल्याणीमिमां त्वं दीनवत्सलः॥४५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं ससामभिर्भेदैर्वोध्यमानोपि दारुणः॥ न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादाननुव्रतः॥४६॥ निर्बंधं तस्य तं ज्ञात्वा विचिंत्यानकटुंदुभिः॥ प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुमिदं तत्रान्वपद्यत॥४७॥

प्रयत्न करना वृथा है॥४३॥ इसलिये अपने आत्माका कल्याण करनेवाले प्राणीको चाहिये किसीसे शत्रुभाव न रक्खै, क्योंकि शत्रुता करनेवालेपुरुषको दूसरे शत्रु और यमसे भी भय होता है॥४४॥ इसलिये हे राजन्!यह तुम्हारी छोटी बहिन है और अभी बालक है, दीन है, अबलाहै, देखो काठकी पुतलीकी नाई तुम्हारे आगे खड़ी है और तुमको परमेश्वरने दीनहितकारी और स्वजनभयहारी बनाया है, यह मंगलरूपिणीआपके मारने योग्य नहीं, क्योंकि दीनको और पराधीनको मारनेका बडा दोष है॥४५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुवंशी राजा परीक्षित्!ऐसे प्रियवचन कहकर वसुदेवजीने साम और भेदसे समझाया, तो भी एक तो आपही दुष्ट, दूसरे राक्षसोंका साथी, तीसरे आकाशवाणीका भय,
उस महाक्रूर कंसने वसुदेवजीकी बात एक भी न मानी॥४६॥ वसुदेवजीने समझा कि, यह हठीला अपनी हठको कभी नहीं छोडेगा, ऐसा

विचारकर और देवकीकी मृत्यु निकट आई जानकर, समय बिताने के लिये अपने मनमें यह विचारने लगा॥४७॥ चतुर लोगों को उचित है कि,जहांतक अपना बल, विद्या, बुद्धि पहुँचे वहाँतक मृत्युको दूर करने का उपाय करै, जब इतने प्रयत्नोंसेभी मृत्युसे न बचैतो फिर पुरुषका कुछदोष नहीं है॥ ४८॥ इसलिये पहिले तो इस मृत्युरूप कंसको देवकीके जो पुत्र होंगे उनके देनेका वचन बन्धकर किसी प्रकार पहिले तो इस दीनदेवकीके प्राण बचाऊ, कदाचित् कोई कहे कि, पुत्र देके देवकीके प्राण बचाये यह तो बड़ी अनीति है ? नहीं, समयका टालदेना बड़े चतुरोंकाकाम है, जब देवकीके पुत्र होगा उस समय देखा जायगा, अब तो किसी प्रकार यह जीती बचै, न जानिये बालकके जन्मनेसे पहिले यह दुष्ट

मृत्युर्बुद्धिमताऽपोह्यो यावद् बुद्धिबलोदयम्॥ यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः॥४८॥ प्रादाय मृत्यवे पुत्रान्मोचये कृपणामिमाम्॥ सुता मे यदि जायेरन्मृत्युर्वा न म्रियेत चेत्॥४९॥ विपययो वा किं न स्याद्गतिर्धातुर्दुरत्यया॥ उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत्॥५०॥ अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयोरदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति॥ एवं हि जंतोरपि दुर्विभाव्यः शरीरसंयोगवियोगहेतुः॥५१॥ एवं विमृश्य तं पापं यावदात्मनिदर्शनम्॥पूजयामास वै शौरिर्वहुमानपुरस्सरम्॥५२॥

कंसही मरजाय तो फिर कुछ किसी बातका खटकाही न रहै, कदाचित् इसके पुत्रही न होय और जो पुत्र होय ही और कंस दया करके उसको न मारै,तो अवश्यही मेरा पुत्र कंसको मारैगा और जो यह उलटी बात न होय और कोई कहैकि, तुम्हारा पुत्र बालक इस तरुण कंसको कैसे मारसक्ता है ?तो आप ही वसुदेवजी अपने वचनका समाधान करते हैं कि, विधाताकी गति किसीके जाननेमें नहीं आती, जो प्राणी मरनेके योग्य हैं वहनहीं मरते और जो मरनेके योग्य नहीं हैं वह मरजाते हैं॥४९॥ ५०॥ देखो जब वनमें आग लगती है तो जो वृक्ष जलनहार नहीं हैं वह समीपके बच जाते हैं और जो जलनहार दूरके होते हैं वह जल जाते हैं जैसे गाॅवमें अग्निके पासके घर जलनेसे रहजाते हैं और दूरके जल जाते हैं

* श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! जहाँतक अपनी बुद्धि पहुॅची वहाँतक वसुदेवजीने विचार करके बड़े प्यारसे कंसका आदरसत्कार किया॥५१॥५२॥ कंसको विश्वास दिखानेके लिये वसुदेवजी लोकरीतिकी सदृश प्रफुल्लित मुख कमलसे, महाक्रूर निर्लज्ज कंसकेसामने मुसकराकर बोले, परन्तु मन तो अत्यन्त ही दुःखी था॥५३॥ वसुदेवजी बोले कि, हे सौम्य! जो भय आपके चित्तमें आकाशवाणीने

प्रसार्य वदनांभोजं नृशंसं निरपत्रपम्॥ मनसा द्वयमानेन विहसन्निदमब्रवीत्॥५३॥ वसुदेव उवाच॥ न ह्यस्यास्तेभयं सौम्य यद्धिसाऽऽहाऽशरीरवाक्॥ पुत्रान्समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम्॥५४॥ श्रीशुक उवाच॥स्वसुर्वधान्निववृते कंसस्तद्वाक्यसारवित्॥ वसुदेवोपि तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद्गृहम्॥५५॥

उत्पन्न किया है वह भय तुम किंचिन्मात्रभी मत मानो, क्योंकि देवकीसे आपको कुछ भय है ही नहीं, परन्तु इसके पुत्रोंसे कुछ भय है सो वहभय में आपका दूर करे देताहूं, जो पुत्र इसके होगा उसको मैं उसी समय आपको समर्पण कर दूंगा॥५४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् !वसुदेवजीके वचनको सत्य मानकर कंसने अपनी बहिनको मारनेसे छोड दिया और वसुदेवजीभी प्रसन्न हो कंसकी बडाई करके बरात

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* इस बातपर एक मनोहर दृष्टान्त है॥ एक सेठजी मन्दिरमें बैठे हनुमान् जी की पूजा कररहे थे, उसी समय नगरमें आग लगी और सैकडों घरोंको फूकती फांकती सेठजीके घरके निकट पहुँच गई, तब तो सबलोगों ने सेठजीसे जाकर कहा कि, आग आपके घरके समीप आगई शीघ्र पूजा छोड छाडके चलो कुयेंसेपानीके दशवीश घडे मरकर रखलो जब घरपर आग आगई तो पानी कहां ! सेठजी बोले कि, जिसकी हमपूजा करते हैं क्या आग वह नहीं बुझा सक्ता?और वह हमारे घरको नहीं बचा सक्ता ! हमको कुछ प्रयोजन नहीं, जिसका घर होगा वह आप बुझालेगा, जब उसका नाम पवनपुत्र है तो क्या अपने पिताकोनहीं समझा सक्ता ! जिसके लिये हम वरसोंसे तन मन लगा रहे हैं क्या यह एक घडीको भी हमारा काम नहीं करसक्ता मुझको पूर्ण विश्वास है कि, वह मेरा कार्य सिद्ध करैगा -

**कवित्त-**लकाको जरायो और सीताको त्रचाय दियो, आँच नाहिं आई विभीषणके मकानको। लगतेही शक्ति जव लखन गिरे पृथ्वी पर, औषधिको भेजो राम हनुमत् बलवानको॥ मिली ना सजीवन जव पर्वत उठाय लाये, लखनको जिवायो शिरनायो भगवानको॥ दुष्टनके भक्षक और रक्षक हरि भक्तनके, मोको तो भरोसो उन वीर हनुमानको॥ १॥

उसी समय पुरवाई पवनसे पछा दिया पवन होगई और सेठजीका घर छोडकर पवन पीछेको लौटी और सेठजीका घर छोडकर और सैकडों घर फुकदिये, देखो किस किसकी आशा थी और कौनकौनसे घर जल गये, ऐसेही प्राणियोंके जन्म मरणका कारण भी विचारमें नहीं आता॥

समेत देवकीको लेकर अपने घर आये॥५५॥ सब प्राणियोंके आत्मा वासुदेव भगवान् की पूजनेवाली देवकीने समय पाकर आठ पुत्र और एककन्या एक एक वर्षके उपरान्त उत्पन्न किये॥१६॥प्रथम कीर्तिमान् पुत्र हुआ, उसको वसुदेवजी बड़े कष्टसे कंसके पास लेगये, क्योंकि मिथ्याबोलनेसे वसुदेवजी बहुत डरते थे॥५७॥ अपने वचनोंका निर्वाह करनेवाले पुरुष ऐसी कौनसी वस्तु है जिसका सहन नहीं करसक्ते, देखोवसुदेवजीने अपने पुत्रको अपने हाथसे मृत्युके मुखमें देदिया एक परमेश्वरके सिवाय कोई पदार्थ सत्य नहीं है, ऐसे समझनेवाले मनुष्योंकोकिसी बातकी अभिलाषा नहीं रहती, इसलिये वसुदेवजीने पुत्रके लाड प्यारको पहिलेसे पहिलेही त्याग दिया क्योंकि विद्वान् पुरुषोंको सिवायसत्यके और किस वस्तु की अपेक्षाहै और वसुदेवजी ने यह भी नहीं समझा था कि, मैं पुत्रको आप ले जाऊंगा तो कंस दया करके न मारेगा, यह बात

अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता॥ पुत्रान्प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम्॥५६॥ कीर्तिमंतं प्रथमजंकंसायानकदुंदुभिः॥ अर्पयामास कृच्छ्रेण सोऽनृतादतिविह्वलः॥५७॥ किं दुस्सहं नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम्॥किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्॥५८॥ दृष्ट्वा समत्वं तच्छौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम्॥ कंसस्तुष्टमनाराजन्प्रहसन्निदमब्रवीत्॥५९॥ प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम्॥ अष्टमाद्युवयोर्गर्भान्मृत्युम विहितःकिल॥६०॥ तथेति सुतमादाय ययावानकदुंदुभिः॥ नाभ्यनंदत तद्वाक्यमसतोऽविजितात्मनः॥६१॥

वसुदेवजीके मनमें सैकड़ों कोसतकभी नहीं थी, क्योंकि दुष्टजन कौनसी बात नहीं कर सक्ता? कंससे दुष्टके मनमें दया कब आसक्ती है. कोई कहेंपहिली पहिलका तुरतका जन्मा पुत्र देवकीने कैसे दे दिया? देवकीने समझा कि, जिसका काल नहीं उसको मारनेवाला कोई नहीं और जो मारभी डाले तो ऐसे पुत्र बहुत होंगे. मेरे सच्चे पुत्रतो श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द वैकुण्ठविहारी भक्तहितकारी हैं, यह समझकर कंसको देदिया॥५८॥हे राजन्! वसुदेवजीकी समता और सत्यता देखकर अत्यन्त प्रसन्नतासे कंस बोला कि॥५९॥ इस बालकको अपने घर फेरकर ले जाओ,क्योंकि इससे मुझको कुछ भय नहीं है तुम्हारे आठवें पुत्रसे मेरी मृत्यु निश्चय रची है॥६०॥ ऐसाही होगा वसुदेवजी यह कह पुत्रको लेकर

अपने घरको चलदिये, परन्तु कंसके वचनका कुछ विश्वास नहीं किया, क्योंकि कंस क्षणिकबुद्धि है उसका मन उसके वशमें नहीं है, अब फेरदिया हैथोड़ी देर में फिर मॅगाले, जब यह बात नारदजीने सुनी कि, वसुदेवजीका पुत्र कंसने फेरदिया, उसी समय कंससे आनकर कहा॥ ६१॥ व्रजमेंनन्दजीसे आदि लेकर जो गोप ग्वाल हैं और वसुदेवजी से आदि लेकर वृष्णि यादव और देवकीसे आदि लेकर यादवों की स्त्री॥६२॥ यह जो तुम्हारेसमीपवर्ती हैं सो हे कंस!यह सम्पूर्ण वसुदेवजी और नन्दजीके वंशमें, जाति, बन्धु, सुहृद्, यह सब देवताही आनकर प्रगट हुये हैं॥६३॥ पृथ्वीपरजो दैत्यलोगों का भार बढ़ा है, उसके उद्धारके लिये भगवान् ने अवतार लेनेके लिये यह उपाय रचा है, सो तू जान ले, फिर आठ लकीरें पृथ्वीपरखैंचकर दिखाईं इधरसे गिनी तो आठ आई और उधरसे गिनी तो आठ आईं और बीचमेंसे गिनी तो आठ आईं तब नारदजी बोले कि, आठवाँ

नंदाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः॥ वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्रियः॥६२॥ सर्वे वै देवताप्रायाउभयोरपि भारत॥ ज्ञातयो वन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रताः॥६३॥ एतत्कंसाय भगवाञ्शशंसाभ्येत्य नारदः॥भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम्॥६४॥ ऋषेर्विनिर्गमे कंसो यद्वन्मत्वा सुरानिति॥ देवक्या गर्भसंभृतंविष्णुं च स्ववधं प्रति॥६५॥ देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे॥ जातंजातमहन्पुत्रं तयोरजनशंकया॥६६॥मातरं पितरं भ्रातन्सर्वांश्च सुहृदस्तथा॥ घ्नंति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः प्रायशो भुवि॥६७॥ आत्मानमिह संजातंजानन्प्राग्विष्णुना हतम्॥ महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत॥६८॥

गर्भ इनमें कौनसा समझना चाहिये॥६४॥ इसप्रकार समझा बुझाकर नारदजी तो चले गये, तब कंसने यादवोंको देवता समझकर और देवकीकेआठवें गर्भमें विष्णु भगवान् अवतार धारण करके, मुझको मारेंगे यह निश्चय समझके॥ ६५॥ देवकी और वसुदेवको वन्दीघरमें बंदकर पांवोंमेंबेड़ी और हाथोंमें हथकडी डालदीं और जो जो इनके पुत्र हुये विष्णु भगवान् कीशंका मान मँगवा मॅगवाकर मारता रहा॥६६॥संसारमें अपनेप्राणोंकी रक्षा करनेवाले अभिमानी घातकी और लोभी राजा, माता, पिता, भ्राता और मित्रोंकोभी मारडालते हैं॥६७॥ और कंस यह भी जानताथा कि, मैं पहिले जन्ममें कालनेमिनाम एक बडा राक्षस था और विष्णुने मुझको अपने हाथसे मारा था, सो अब में इस जन्ममें कंस हुवा हूं, यही

समझकर उसने यादवोंसे वैर किया॥६८॥ यदुवंशी, भोजवंशी, अन्धक वंशियोंके राजा उग्रसेन अपने पिताको कारागारमें डालकर महाबली कंसआपही शूरसेन देशका राज्य करने लगा॥६९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां कंसजन्मचरित्रवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा–इस द्वितीय अध्यायमें, कंसहतनहितदेव। गर्भान्तर्गतदेवकी, विनवत विष्णु अभेव॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! प्रलम्बासुर, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशि, धेनुकासुर॥१॥ असुरोंके राजा बाणासुर और भौमासुरको संग लेकर मगधदेशके राजा जरासंध आदि अपने सम्बन्धियोंकी सहायतासे महाबली कंस यादवोंको अत्यन्त दुःख देने लगा॥२॥ यादवलोग कंस के भयसे दुःखित

उग्रसेनं च पितरं यदुभोजांधकाधिपम् स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान्महाबलः॥६९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेदशमस्कंधे पूर्वार्धे श्रीकृष्णावतारहेत्वादिनिरूपणं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ प्रलंवबकचाणूरतृणावर्तमहाशनैः॥ मुष्टिकारिष्टद्विविदपृतनाकेशिधेनुकैः॥१॥ अन्यैश्चासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युतः॥ यद्वनां कदनंचक्रे बली मागधसंश्रयः॥२॥ ते पीडिता निविविशुः कुरुपांचालकैकयान्॥ शाल्वान्विदर्भान्निषधान्विदेहान्कोसलानपि॥३॥ एके तमनुसंधाना ज्ञातयः पर्युपासत॥ हतेषु षट्सु वालेषु देवक्या औग्रसेनिना॥४॥ सप्तमोवैष्णवं धाम यमनंतं प्रचक्षते॥ गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धनः॥५॥ भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजंभयम्॥ यद्वनां निजनाथानां योगमायां समादिशत्॥६॥

होकर कुरुदेश, पांचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह, कोसलादि देशोंमें जा जाकर वास करनेलगे॥३॥ और बहुतसे अक्रूरादिक यादव कंसकेआज्ञाकारी बन दिन रात उसकी सेवा करने लगे, जब कंसने देवकीके छः बालक मार डाले॥४॥ तब विष्णु भगवान्‌ की कला शेषजी जिनका नाम
कहतेहैं सो देवकीके गर्भमें स्थितहुये, यह गर्भ देवकीको हर्ष और शोकका बढानेवाला हुआ क्योंकि आनन्दरूप भगवान् का अवतार होगा इस बातकातो हर्ष और पहिलेके बालकोंकी समान इस बालककोभी कंस मार डालेगा इस बातका शोक दिन रात रहता था॥५॥ तब विश्वभावन भगवान् नेजाना

कि, मेरे प्रिय यादवोंको कंस बहुत दुःख देताहै उस समय अपने नेत्रोंसे योगमायाको प्रगट करके उसको आज्ञा की॥६॥ कि, हे भद्रे ! हे देवि ! हेकल्याणरूपिणि ! जो ग्वाल और गौवोसे शोभित ब्रजभूमि है, तू वहाँ जाकर वसुदेवकी स्त्री रोहिणी नन्दरायजीके घर गोकुलमें है और दूसरीवसुदेवजीकी स्त्रियें कंसके भयसे गुप्त स्थानमें वास करती हैं॥७॥ और देवकीके उदरमें मेरी कलारूप शेषनागजीने प्रवेश किया है, उनको वहॉसेनिकालकर रोहिणीके उदरमें पहुॅचादे कि, इस बातको कोई दूसरा न जाने और सब लोक तेरा यश बखानेंगे॥८॥हे मंगलरूपिणि ! जब तू गर्भकोखैंचेगी तो पीछे मैं परिपूर्णरूपसे देवकीके पुत्रभावको प्राप्त हूंगा और तू नंदरायजीकी भार्या यशोदाके उदरमें उत्पन्न हो॥९॥ हे कल्याणि !

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलंकृतम्॥ रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नंदगोकुले॥अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषुवसंति हि॥७॥ देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम्॥ तत्संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय॥८॥ अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे॥ प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नंदपत्न्यां भविष्यसि॥९॥ अर्चिष्यंति मनुष्यास्त्वांसर्वकामवरेश्वरीम्॥ धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम्॥ १०॥ नामधेयानि कुर्वंति स्थानानि च नरा भुवि॥ दुर्गेतिभद्रकालीति विजया वैष्णवीति च॥११॥ कुमुदा चंडिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च॥ माया नारायणीशानी शारदेत्यंविकेति च॥१२॥ गर्भसंकर्षणात्तं वै प्राहुः संकर्षणं भुवि॥ रामेति लोकरमणाद्वलं बलवदुच्छ्रयात्॥१३॥श्रीशुक उवाच॥ संदिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः॥ प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाऽकरोत्॥१४॥

तू पुत्रादिकोंकी कामना करनेवाले मनुष्योंकी सब मनोकामना पूर्ण करनेवाली है और सब संसारके मनुष्य धूप, दीप, फल, फूलादि सामग्रीऔर बलिदान, भेंटकर कलियुगमें तेरा पूजन करेंगे और तू उनके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करेगी॥१०॥ पृथ्वीपर मनुष्य तेरे स्थान, भवन और सुन्दरसुन्दर मन्दिर बनावेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी॥११॥ कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी,शारदा और अम्बिका यह नाम धरेंगे॥१२॥ गर्भके खैंचनेसे संसारके लोग उस बालकका नाम ‘संकर्षण’ कहेंगे और जगत् कोरमानेसे उसको’राम’ कहेंगे और महाबलशाली होने से उनको ‘बलभद्र’ कहेंगे॥१३॥इस प्रकार भगवान् कीआज्ञा पातेही उनकी परिक्रमा दे, वचनोंको स्वीकार

करके पृथ्वीपर आनकर वही कार्य किया और मोहनीरूप वन मथुरामें वसुदेवके घर आई “और जो गर्भ छिपाकर लाई थी वह रोहिणीके उदरमेंप्रवेश किया” और सब गोकुलवासियोंने यही जाना कि, पहिलाही आधान है, योग मायाका भेद किसीको प्रगट न हुवा, जब पूरे दिन हुए तो श्रावणसुदी चौदस बुधवारको वलदेवजीने गोकुलमें जन्म लिया और योगमायाने वसुदेव देवकीको स्वप्नदिया कि, मैंने तुम्हारे पुत्रको गर्भसे लेजाकर रोहिणीको दे दिया है अब तुम किसी वातकी चिन्ता मत करना, यह बात सुनतेही अचानक वसुदेव, देवकी चौंककर सोतेसे जाग उठे और देवकी अपनेपतिसे कहने लगी कि, यह काम तो भगवान् ने बहुत अच्छा करदिया, परन्तु कंसको इसी समय जाकर जतादेना चाहिये, न जानिये कि, पीछे वह

गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्रया॥ अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः॥१५॥

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः॥ आविवेशांशभावेन मन आनकदुंदुभेः॥१६॥

दुष्ट क्या उपद्रव मचावै, यह सोच समझकर रखवालोंको बुला सब वृत्तान्त कह दिया; उन्होंने ज्योंका त्यों कंसको जा सुनाया कि, हे महाराज !आज देवकीका गर्भ पतित होगया, बालक पूरा नहीं हुवा यह बात सुनतेही कंस अकुलाकर बोला कि, जो कुछ हुवा सो हुवा परन्तु अब आगेकोतुम आठवें गर्भको अच्छी चौकसी रखना, क्योंकि मुझको आठवेंही गर्भका वडा खटकाहै॥१४॥ और वह योगमाया देवकीके उदरसे वालककोले रोहिणी के उदरमें रख आई, तब सब पुरवासी मनुष्य पुकार पुकार कर कहनेलगे कि, अबकी बार कंसने अपनी बहिन देवकीको ऐसा धमकायाकि, उसका गर्भ अधूराही गिरगया; वालक पूरा नहीं होने पाया*॥१५॥अपने भक्तोंको अभयदान देनेवाले विश्वात्मा भक्तभावन भगवान्

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*शंका–रोहिणी और वसुदेवजीकी रीति प्रीति कुछ बहुत दिनोंसे नही थी और वलभद्ररोहिणीके गर्भसे जन्मे, तब लोकमें निन्दा और दुर्नामता वसुदेव और रोहिणीकी क्यों नहीं दुई ? और जो कोई कहैकि, योगमायाने सत्र काम किया, यह बात बहुत ठीक है, परन्तु ससारमें तो भगवान् केचरित्रको कोई नहीं जानता और योगमायाकी

नातको तो

करोगोंमनुष्योंमें एक दो जानते हैं, फिर संसारके लोगोंकासन्देह कैसे दूर हो ?

उत्तर— एक समय पुष्करजीके स्नान करनेके लिये सब संसारके मनुष्य गये, तब कसमी सब यदुवंशियोंको संग लेकर पुष्करजीको गया कसके संग वसुदेवजीभी पुष्करको गये भौर नन्दादिक गोपोंकीरक्षा सहित रोहिणीभी गई थी वहाँ सबकी रीति प्रीति सबसे हुई, परन्तु वसुदेव और रोहिणीकी भेंट फसके भयसे नहीं हुई. परन्तु संसारके सब लोगोंने जान लिया कि, पुष्करमें वसुदेवजीसे रोहिणीकी भेंटहोगई इसलिये बलदेवजीके जन्मनेपर कोईभी वसुदेव और रोहिणीकी निंदा नहीं करसका॥

अपने परिपूर्ण रूपसे वसुदेव देवकीके मनमें आनकर प्रगट हुए॥१६॥जब वसुदेवजीके मनमें भगवान् आनकर उपस्थितहुए, तब सूर्यकेतेजकी समान वसुदेवजीमें तेज होगया, उस समय कोई मनुष्य तेजके प्रकाशके मारे वसुदेवजीके सन्मुख न आवै, ऐसे तेजवान् वसुदेवजी होगये॥१७॥ फिर विश्वके कर्ता सर्वात्मा मूर्तिमान् भगवान् जो कि देवकीमें पहिलेहीसे विराजमान थे, उनको वसुदेवजीने अपने मनसे देवकीके मनमेंविराजमान किया, तब देवकीने भगवान् कोभले प्रकार अपने मनसे अपने शरीरमें धारण करलिया जैसे पूर्वदिशा सर्वसुखदायक चन्द्रमाकोपरमप्रेमसे अपने हृदयमें धारण करती है॥१८॥ जैसे घटके भीतर छिपेहुए दीपकका प्रकाश नहीं होता और ज्ञानवंचक पुरुषोंमें छिपी हुईविद्या दूसरे लोगोंको आनन्द नहीं देसक्ती ऐसे भगवान् अपनी कांतिसंयुक्त देवकीके उदरमें निरन्तर आनन्द देतेथे परंतु वैसेही देवकी शोभाको

स विभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः॥दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां संवभूव ह॥१७॥ ततो जगन्मंगलमच्युतांशं समाहितं शूरसुतेन देवी॥ दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठायथाऽनंदकरं मनस्तः॥१८॥ सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभृता नितरां न रेजे॥ भोजेंद्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती॥१९॥ तां वीक्ष्यकंसः प्रभयाऽजितांतरां विरोचयंतीं भवनं शुचिस्मिताम्॥ आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां ध्रुवं श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी॥२०॥ किमद्य तस्मिन्करणीयमाशु मे यदर्थतंत्रो न विहंति विक्रमम्॥ स्त्रियाः स्वसुर्गुरुमत्या वधोऽयं यशः श्रियंहंत्यनुकालमायुः॥२१॥

प्राप्त न होती थी॥१९॥ अजित भगवान् के देवकीके उदरमें रहनेसे कुछ २ कांति झलकी, उस कांतिने बन्दीगृहको प्रकाशवान् करदिया औरसुन्दर रूपवाली देवकी मन्द मन्द मुसकराकर वसुदेवजीसे कुछ कह रहीथी उसी समय वहॉ कंस आपहुँचा और गर्भका प्रकाश देखकर कंस अपनेमनमें कहने लगा कि, मेरे प्राणोंका हरनेवाला हरिरूप सिंह निश्चय इसी उदर रूप यमगुफामें आनकर बैठा है- क्योंकि पहिले इस देवकीका इतनातेज नहीं था॥२०॥ फिर तो कंस अपने मनमें अनेक प्रकारके विचार करने लगा कि, अब मैं शीघ्र इसके लिये क्या उपाय करूं? यह तोदेवताओंका कार्य करनेको आही पहुँचा, अब सब प्रकारसे मुझको निश्चय होता है कि, यह अवश्य मुझको मारेगा, अब जो इस समय देवकीको

मैं मारता हॅू तो संसारमें बडा अपयश होगा, क्योंकि एक तो स्त्रीकी जाति, दूसरे मेरी बहिन और उसपरभी फिर गर्भीणी, जो मैंने इसको मारडाला तो सब संसारमें मेरी अपकीर्ति होगी, दूसरे लक्ष्मी और आयुका नाश होजायगा. महात्माओंके मुखसे मैंने ऐसा सुना है॥ २१॥ जोमनुष्य संसारमें दुष्टता करता है, वह जीतेही जी मृतककी समान है और उनके सन्मुखही लोग बुरा कहते हैं और बारम्बार धिक्कार देते हैं, निश्चयवह मनुष्य घोर नरकमें जाता है॥२२॥ भगवान् वासुदेवसे वैर वॉधकर पापरूप कंस आप मरनेको समर्थ था तोभी इस घोरतम भावसे आपहीनिवृत्त हो भगवान् के जन्मकी बाट देखता रहा॥२३॥ जब बैठते, उठते सोते, जागते, भोजन करते और पृथ्वीपर विचरते, इन्द्रियोंकेईश्वर भगवान् हीकीचिन्तामें रहताथा और सब जगत् कोभगवत् रूपही देखता था॥२४॥ इतनेमें ब्रह्मा, महादेव, नारदादिक

स एष जीवन्खलु संपरेतो वर्तेत योऽत्यंतनृशंसितेन॥ देहे मृते तं मनुजाः शपंति गंता तमोंधं तनुमानिनो ध्रुवम्॥२२॥इति घोरतमाद्भावात्संनिवृत्तः स्वयं प्रभुः॥ आस्ते प्रतीक्षंस्तज्जन्म हरेवैर्रानुबंधकृत्॥२३॥ आसीनः संविशंस्तिष्ठन्भुंजानः पर्यटन्महीम्॥ चिंतयानो हृषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत्॥२४॥ ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः॥ देवैःसानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन्॥२५॥ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्त्यस्य योनिं निहितं च सत्ये॥ सत्यस्य सत्य मृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः॥२६॥ एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा॥ सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी दिखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥

मुनि और ऋपियोंसमेत देवता और गन्धर्व लोग वहाँ आनकर गर्भहीमें सर्व कामनाओंके पूर्ण करनेवाले भगवान् वासुदेवकीमधुर वाणीसे स्तुति करने लगे॥२५॥ आप सत्यसंकल्प और सत्य परायण हो, भूत भविष्य, वर्तमान तीनों कालमें पृथ्वी,जल, तेज, पवन, आकाश इन पञ्चभूतोंके कारणरूप हो और पञ्चभूतोंके विनाश होनेके समय आपही अवशिष्ट रहते हो, समदृष्टि और मनोहरवाणीप्रवर्तक और ज्ञानियोके प्रेरणा करनेवाले सत्यरूप आपही हो, सो हे नाथ! हम सब आपकी शरण आयेहैं॥२६॥ यह देह ब्रह्माण्डरूपआदि वृक्ष आपकी मायासे उत्पन्न होकर आपहीके आश्रय रहताहै और इसकी रक्षाके लिये आप अनेकरूप धारण करतेहैं, उस वृक्षका आधार एकमायाहै। उसमें दो फलहैं, सुख और दुःख। उसकी तीन जड़ है, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। उसमें चार रसहैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।उसमें पांच

अंकुर हैं, जिनसे ज्ञान होता है, नेत्र, जिह्वा, नाक, कान, त्वक्। उसके छै स्वभाव हैं, राग, द्वेष, क्षुधा, पिपासा, लोभ, मोह। उसमें सात प्रकारकीछाल हैं, लोहित, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि, मज्जा, रेत। उसकी आठ शाखा है. पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, उसमेंनौ खखोडल अर्थात् छिद्रहैं. नेत्र, मुख, कान, नाक उपस्थ और गुदा। उसमें दश पत्ते हैं, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म्म, कृकल,देवदत्त और धनंजय। उसपर दो पक्षी रहते हैं. जीव और ईश्वर यह देहरूप वृक्ष है, कभी उपजै हैं, कभी कटैहै, ऐसेही यह देह कभी जन्मे है, कभीमंरै है॥२७॥ इस संसारके उत्पत्ति, पालन, संहार, करनेवाले आपही हो यह जगत् आपसे भिन्न नहीं है, आपकी मायाके वशीभूत हो जिनकेचित्त भूल रहे हैं, वह लोग जगत् को आपसे भिन्न देखते हैं और आपको नानाप्रकारका जानते हैं और जो ज्ञानी पुरुष हैं वह आपको एकही रूप

त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं संनिधानं त्वमनुग्रहश्च॥ त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यंति नाना न विपश्चितो ये॥२८॥ विभर्षि रूपाण्यबोध आत्मा क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य॥ सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि सतामभद्राणि मुहुःखलानाम्॥२९॥ त्वय्यंबुजाक्षाखिलसत्त्वधामनि समाधिनाऽऽवेशितचेतसैके॥ त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वंतिगोवत्सपदं भवाब्धिम्॥३०॥ स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः॥ भवत्पदांभोरुहनावमत्रते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान्॥३१॥

मानतेहैं॥२८॥ हे प्रभो! एक रूप जो आप हो, सो ब्रह्मा बनकर जगत् कोउत्पन्न करतेहो, विष्णु बनकर रक्षा करते हो और शिव बनकर संहार करतेहो, सत्त्वगुणसे संयुक्त सत्पुरुषोंको सुख देते हो और अधार्मियोंको दण्ड देनेवाले जो रूपहैं उनके लिये उनको धारण करते हो॥२९॥ हे कमलदल लोचन! समस्त जीवोंके जीवन आधार आपही हो, इसीसे आपके विषे ज्ञानी पुरुष समाधिद्वारा चित्तको लगाकर महत्पुरुषोंकी सिद्ध करी हुईआपके चरणकमलरूप नौकाके आश्रयसे इस संसाररूप महासागरको अवगाहन करके बछड़ेके खुरकी समान समझकर पार उतर जाते हैं॥३०॥हे स्वयप्रकाश! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं इस महाभयंकर दुस्तर संसारसमुद्रको पार उतरनेके लिये, भजन भावना और सम्प्रदाय यह जो आपकेचरणकमलरूपी नौका है, उसको और दूसरे महात्माओंके पार उतरनेको छोडगये और आपभी पार उतरगये, हे प्रभो! आप अपने भक्तोंके

ऊपर दया करनेवाले हो॥३१॥ हे कमलनयन! जो ज्ञानी पुरुष अपने आपको जीवनमुक्त मानते हैं वह आपके चरणारविन्दके विषे भावना नहींरखते. उसीसे अशुद्ध बुद्धि बने रहते हैं और बड़े बड़े कष्ट सहकर उच्च पदको प्राप्त होते हैं, सो वह उच्चपद किसको समझते हैं? उत्तम कुलमें जन्महोना और परिश्रम करके शास्त्रोंका पढ़ना, इनहीको उच्चपद जानतेहैं, आपके चरणारविन्दकी भक्तिका निरादर करतेहैं ! और फिर पीछे विघ्नोंसे पराभवहोकर नीच योनियोंमें जन्म लेते हैं॥३२॥हे माधव! जो पुरुष आपहीके चरणोंमें प्रीति रखते हैं, और आपके दास कहलाते हैं, इन लोगोंको उनउच्चपद कहने वालोंकी नाई किसी प्रकारका विघ्न नहीं होता. वरन् हे प्रभु! आपके भक्त निर्भय होकर बड़े २ भारी भयंकर विघ्नोंके माथेपर पॉव धरकर

येऽन्येऽरविंदाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः॥ आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतंत्यधोऽनादृतयुष्मदंघ्रयः॥३२॥ तथा न ते माधव तावकाः कचिद्भ्रश्यंति मार्गात्त्वयि वद्धसौहृदाः॥ त्वयाभिगुप्ता विचरंति निर्भयाविनयाकानीकपमूर्धसु प्रभो॥३३॥ सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ शरीरिणां श्रेय उपायनं वपुः॥ वेदक्रियायोगतपस्समाधिभिस्तवार्हणं येन जनः समीहते॥३४॥ सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद्विज्ञानमज्ञानभिदाऽपमार्जनम्॥ गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः॥ ३५॥

सदा संसारमें घूमते रहते हैं॥३३॥हे प्रभु ! आप विश्वकी रक्षा करनेके समय सब प्राणियोंके पालनके लिये और शुभकमोंके फल देनेके लियेशुद्ध सत्त्वगुणस्वरूप धारण करते हो. जिस स्वरूपसे ब्रह्मचारी वेदपाठसे, गृहस्थी कर्म योगसे, वानप्रस्थ तपस्यासे, संन्यासी समाधिसे, सव अपनीअपनी प्रीतिसे आपका पूजन करते हैं. हे प्रभु ! जो आप संसार में अवतार न लेते तो आपका पूजन बननाभी कठिन था. क्योकि आपके सुन्दरस्वरूपकी मूर्तिमें भक्तों का मन लगा रहता है॥३४॥हे विधाता!आपका सत्त्वगुण मूर्तिमान् सुन्दर स्वरूप प्रगट न होता तो अज्ञानका नाशकविज्ञान जो आपका प्रेरणा किया हुवा बुद्ध्यादिक गुणोंको प्रकाशे है और आपही सब प्रकारसे उन गुणोंके साक्षी हैं और ऐसेही इन्द्रियोंके प्रकाश

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१ कवित्त - वनेहें आचारी कोई कर्मधुरधारी ध्रुव कोई उपकारी बढे कोई निर्विकारी है।कोई वडे पण्डित विरागसे न खण्डित अदण्डित अवनिमें उदण्डित बिचारी है॥ कोई

कट शास्त्र पढे वादऔ विवाद बढे कोई कुलकाव्य गढे दया मढे मारी है॥छाके नाहिं सीके पीके प्रेमरस पीके नीके कहा किये जीके जीके फीके सुखकारी है॥

आपके स्वरूपका अनुमान होता है, परन्तु आपका स्वरूप नेत्रोंके द्वारा प्रत्यक्ष देखनेमें नहीं आता॥ ३५॥ हे प्रकाशमान!इस विश्वके परिपूर्णसाक्षी आपही हो और आपके नाम, गुण, कर्म, जन्म, वर्णन करनेमें नहीं आते, मन वाणीके निरूपणसे आपके स्वरूपका वर्णन नहीं होता. हेप्रभु! तो भी जो आपके भक्तजनहैं सो ध्यान और उपासनामें आपके मनोहर स्वरूपका साक्षात् दर्शन करते हैं॥३६॥हे मंगलरूप! आपके जोमंगलरूप नाम हैं उनको कानोंसे सुनते हैं जिह्वासे उच्चारण करते हैं और दूसरे मनुष्योंको सुन्दर सुन्दर आपकी कथा सुनाते हैं, स्मरण करते हैं औरपूजनादिक क्रियाओंमें और आपके चरणारविन्दोंमें जिन मनुष्योंका मन लग रहा है फिर संसारमें उनका जन्म मरण नहीं होता॥३७॥ हे ईश!आपको अवतार लेनेसे और आपके चरणारविन्द पृथ्वीपर रखनेसे भूमिका भार सब एक बारही दूर हो जायगा, यह बड़े आनन्दकी बातहै कि,

न नामरूपे गुणजन्मकर्मभिर्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः॥ मनोवचोभ्यामनुमेयवत्मनो देव क्रियायां प्रतियंत्यथापि हि॥३६॥ शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिंतयन्नामानि रूपाणि च मंगलानि ते॥ क्रियासु यस्त्वच्चरणारविंदयोराविष्टचेता न भवाय कल्पते॥३७॥ दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः॥ दिष्ट्यांकितांत्वत्पदकैस्सुशोभनैर्द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकंपिताम्॥ ३८॥ न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे॥ भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया कृता यतस्त्वय्यभायाश्रयाऽऽत्मनि॥३९॥ मत्स्याश्वकच्छपन्नृसिंहवराहहंसराजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः॥ त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाऽधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तम वंदनं ते॥४०॥

आपके छोटे छोटे चरणारविन्द पृथ्वीपर जब पड़ेंगे और उनका हम दर्शन करेंगे तो आप अपने वैकुण्ठधामको जानकर पृथ्वी और स्वर्गपर कृपादृष्टि करोगे और उसको हम अपने नेत्रोंसे देखेंगे उस समय महामंगल होगा॥३८॥ हे भगवन् ! आप जो जन्मरहित हों; सो आपके जन्म लेनेकाकारण सिवाय क्रीड़ा और विनोदके दूसरा और कोई हमारी समझमें नहीं आता. हे नित्यमुक्तिद! प्राणियोंका भी जन्म मरण और पालन केवलआपके स्वरूपको न जाननेसे होताहै, यह अविद्याही जन्म मरणका मुख्य कारण है॥३९॥ हे भक्तवत्सल! मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह,वराह, हंस, रामचन्द्र, परशुराम वामनादिरूप धरकर आपने जिस प्रकार त्रिलोकीकी और हम लोगोंकी पहिले रक्षा की थी; उसी प्रकार अब

सब पृथ्वीका भार उतारो. हे वैकुण्ठविहारी! हमारा आपको बारम्बार नमस्कार है॥४०॥ अब सब देव देवकीसे कहते हैं, कि, हे माता! हमाराकल्याण करनेके लिये साक्षात् परमपुरुष भगवान् अपने परिपूर्ण रूपसे तुम्हारी कोखमें आये हैं, यह बड़ा आनन्द हुआ, अब कंसभी इनहीकेहाथ से मारा जायगा, हमको निश्चय है, तुम किसी प्रकार मत डरो तुम्हारा पुत्र सब यादववंशकी रक्षा करनेवाला होगा*॥४१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! जिनका स्वरूप कहनेमें नहीं आवे ऐसे जो परमपुरुष भगवान् हैं, उनकी इस प्रकार यथावत् स्तुति करके ब्रह्माजी औरमहादेवजीको आगे करके सब देवता स्वर्गको चले गये॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां गर्भस्तुतिवर्णनं नाम

दिष्ट्यांब ते कुक्षिगतः परः पुमानंशेन साक्षाद्भगवान्भवाय नः॥ मा भूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षोर्गोप्ता यद्बनां भवितातवात्मजः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिष्टूयपुरुषं यद्रूपमनिदं यथा॥ ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुर्दिवम्॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे ब्रह्मादिकृतगर्भगतविष्णुस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥श्रीशुक उवाच॥ अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः॥ यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शांतर्क्षग्रहतारकम्॥१॥ दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्॥ मही मंगलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा॥२॥

द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा-इस तृतीय अध्याय में, प्रगट भये व्रजचन्द। हरिको ले वसुदेवजी, गे गोकुल गृहनन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोलेकि, हे परीक्षित् ! जब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके प्रगट होनेका समय आया, वह समय सर्वगुणसम्पन्न परमशोभायमान होगया और सुधाकर रोहिणी नक्षत्रपर आगया, शान्तयुक्त शुभ ग्रह तारागण होगये॥१॥ दशों दिशा प्रसन्न होगईं आकाश निर्मल होगया समस्त तारागणउज्ज्वल उदित हुए, पृथ्वी परममंगलरूपिणी होगई. पुर, नगर, ग्राम, व्रज, आकर, वनवाटिका, अत्यन्त रमणीक शोभायमान दृष्टि आनेलगे॥२॥

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*** कवित्त-**फेर देवकीसे सबै देव अस बोले वैन, आदिपुरुष विश्वात्मा धाम है अशोकको॥जगत्को निवास सो निवास तेरी कुक्षीमार्हि, त्रास नाशबेको सव देवनके थोकको॥ जननी जगत मातु धैर्यधरो धैर्य धरो, कसकाल आयगयो कामनाहीं शोकको॥ यदुवशपालक रु दुष्टकुलघालक सो, है है तुव बालक जो मालिक त्रिलोकीको॥

नद नदियोंका जल स्वच्छ और शीतल होगया, तालोंमें कमल कमलिनी खिलने लगे, भ्रमर उन सुन्दर सुन्दर सुगन्धित पुष्पोंकी सुगन्धि सूंघसूंघकर उन्मत्त हो गुंजारने लगे, वृक्षोंकी शाखाओंपर पक्षी मनभावनी सुहावनी बोलियें बोलने लगे॥३॥ सुखदायक शीतल, मंद, सुगन्धसनी पवन बहने लगी, ब्राह्मणोंके होमकी अग्नि शान्त प्रज्वलित होगई॥४॥ सिवाय कंसादिक राक्षसोंके सब महात्माओंके मन प्रसन्न होगये,स्वर्गमें भगवान् के अवतारसूचक दुन्दुभी बजने लगी॥५॥ किन्नर, गंधर्व, भगवान् कायश गान करने लगे, सिद्ध, चारण, स्तुति करने लगे,विद्याधरोंकी स्त्रियें और अप्सरा नृत्य करने लगी॥६॥ मुनि और देवता ब्रजपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे. समुद्र आनन्दमें भरकर लहरैंलेने

नद्यः प्रसन्नसलिला हृदा जलरुहश्रियः॥ द्विजालिकुलसन्नादस्तबका वनराजयः॥३॥ ववौ वायुः मुखस्पर्शः पुण्यगंधवहः शुचिः॥ अग्नयश्च द्विजातीनां शांतास्तत्र समिंधत॥४॥ मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम॥ जायमानेऽजने तस्मिन्नेदुर्दुदुभयो दिवि॥५॥ जगुः किन्नरगंधर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः॥ विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिःसमं तदा॥६॥ मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः॥ मंदमंदं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥७॥ निशीथेतम उद्धते जायमाने जनार्दने॥ देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः॥ आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशींदुरिव पुष्कलः॥८॥ तमद्भुतं बालकमंबुजेक्षणं चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम्॥ श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीतांबरं सांद्रपयोदसौभगम्॥९॥ महार्हवैदूर्यकिरीटकुंडलत्विषा परिष्वक्तसहस्रकुंतलम्॥ उद्दामकांच्यंगदकंकणादिभिर्विरोचमानंवसुदेव ऐक्षत॥१०॥

लगा मेघ मन्दमन्द शब्दसे गर्जने लगे, चपला क्षण क्षण मात्रमें चमकने लगी॥७॥इस प्रकार भादों वदी अष्टमी बुधवार रोहिणी नक्षत्रमें आधीरातके समय देवरूपिणी देवकीके कोखमें सर्वान्तर्यामी भक्तभावन भगवान् साक्षात् अपनेरूपसे प्रगट हुए जैसे आधीरातके समय पूर्वदिशामेंपूर्णमासीका चन्द्रमा उदय होता है॥८॥ कमलसदृश नेत्रोंवाले, चार भुजा धारण किये; शंख, चक्र, गदा, आयुध उठाये; श्रीवत्सचिह्न धारण किये;गलसे शोभावाली कौस्तुभ मणि धारण किये; पीताम्बरधारण किये, सघन श्याम मेघके सदृश॥९॥ महँगे मूल्यकी वैडूर्यमणिसे जटित मुकुट

कुंडलोंकी कांतिकरके देदीप्यमान केश धारण किये, सुन्दर कांची बाजूबन्द कंकण आदिकों करके शोभायमान, ऐसे अद्भुत बालक श्रीकृष्णकोवसुदेवजी देखते भये॥१०॥ विष्णु भगवान् को अपना पुत्र जान आश्चर्यसे वसुदेवजीके नेत्र प्रफुल्लित होगये और मनमें धैर्यधर, उसी समयदशसहस्र गो दानकी मानसिक संकल्प ब्राह्मणोंको देनेके लिये किया॥११॥ हे भारत! हे अभिमन्युकुमार! उस बालककी कांतिसे प्रसुतिकागारऐसा प्रकाशमान हो रहा था कि किंचिन्मात्र भी अन्धकार नहीं रहा तो वसुदेवजीने पुत्रको परब्रह्म परमात्मा समझकर उनके प्रभावको देख शुद्धबुद्धिसे हाथ जोड शिर झुका, निर्भय होकर उनकी स्तुति करने लगे॥१२॥ हे भगवन्! आपको मैंने भलीभाँति जाना, आप मायासे परे साक्षात्परमपुरुष हो केवल अनुभव और आनन्दही आपका स्वरूप है और सम्पूर्ण जनोंकी बुद्धिके द्रष्टा हो॥ १३॥ मैं भलीभाँति जानता हूं कि आप वही है

स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिं सुतं विलोक्यानकदुंदुभिस्तदा॥ कृष्णावतारोत्सव- संभ्रमोऽस्पृशन्मुदा द्विजभ्योऽयुतमाप्लुतोगवाम्॥११॥ अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं परं नतांगः कृतधीः कृतांजलिः॥ स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं विरोचयंतं गतभीः प्रभाववित्॥१२॥ वसुदेव उवाच॥ विदितोऽसि भवान्साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः॥ केवलानुभवानंदस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्॥१३॥ स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्॥ तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इवभाव्यसे॥१४॥ यथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह॥ नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयंति हि॥१५॥ सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यंतेऽनुगता इव॥ प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह संभवः॥ १६॥

जो पहिले अपनी मायासे सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण रूप यह विश्व रचा है, आप उसमें प्रविष्ट नहीं होते और सद्रूपसे प्रदेशसदृश देखनेमें आतेहो॥१४॥ जैसे महत्तत्त्व, अंहकार, पंचतन्मात्रा अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, यह सातों पदार्थ, पंच ज्ञानेन्द्रिय, और पंचकर्मेन्द्रिय ग्यारहवाँमन पंचमहाभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, इन सोलह विकारोंके संग मिलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको रचते हैं और पृथक् पृथक् ब्रह्माण्डकोउत्पन्न करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते॥१५॥ और उत्पन्न होनेके उपरान्त ब्रह्माण्डमें प्रविष्टहोकर जैसे जाननेमें आतेहैं यथार्थ रीतिसे और प्रथम कारण रूपसे प्रविष्टही थे इसकारण उत्पन्न हुए कार्यमें उनका पीछेसे प्रवेश होना सम्भव नहीं होसक्ता तैसेही आपका प्रवेश पीछेसे सम्भव नहीं॥१६॥

ऐसेही आपके रूप बुद्धयादिक इन्द्रियोंसे जाननेमें नहीं आते, विषयोंमें अपार हो परन्तु विषयोंके साथ आप ग्रहण करनेमें नहीं आते जैसे एक दूधमेंशब्द, स्पर्श, यह पांचों वस्तु हैं परन्तु नेत्रोंसे रूपही देखनेमें आता है रसका ज्ञान नेत्रोंसे किसीप्रकार नहीं होसक्ता, ऐसे विषयोंके ग्रहण में आपकाग्रहण नहीं हो सक्ता, अपरिच्छिन्न पक्षीका घोसलेमें प्रवेश होताहै, आप अपरिच्छिन्न हैं इसलिये आपके स्वरूपमें बाहिर भीतरका भेद नहींहै, गर्भमेंआप कब रह सक्ते हो, आवरण करके रहित हो, सर्वस्वरूप हो, सर्वात्मा हो, सर्वव्यापक हो और परमार्थ वस्तुरूप हो॥१७॥ आत्मा के जो दृश्यगुण देहादिक हैं उनको आत्माके विना जो पुरुष सत्य मानते हैं वह

निरे अज्ञानी हैं, विचारके देखो तो कथनमात्र विना देहादिक सब झूठही

एवं भवान्बुद्ध्यनुमेयलक्षणैर्ग्राह्यैर्गुणैस्सन्नपि तद्बणाऽग्रहः॥ अनावृतत्वाद्बहिरंतरं न ते सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः॥१७॥ य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः॥ विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान्॥१८॥ त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभो वदंत्यनीहादगुणादविक्रियात्॥ त्वयीश्वरेब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः॥१९॥ स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया विभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः॥ सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये॥ २०॥ त्वमस्य विश्वस्य विभो रिरक्षिषुर्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाऽखिलेश्वर॥ राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपैर्निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥२१॥

हैं, इसलिये झूॅठे देहादिकोंको जो पुरुष सत्य मानते हैं वह अज्ञानी हैं॥१८॥हे विभो! निरीह, निर्गुण, निर्विकार, आपही हो, आपहीसे इस विश्वकीउत्पत्ति, पालने, संहार होताहै, आपही ईश्वर और ब्रह्मस्वरूप हो,इसीलिये आपमें कुछ विरोध नहीं है, आपका आश्रय लेकर तीनों गुणही विश्वकोरचते हैं इसीलिये आपका नाम कर्त्ता है॥१९॥ आप अपनी मायासे सृष्टिके पालनके लिये सत्त्वगुणी शुक्लवर्ण विष्णुरूप धारण करतेहो और जगत् की उत्पत्ति के समय रजोगुणी रक्तवर्ण ब्रह्मरूप धारण करते हो और विश्वके संहारके समय तमोगुणी कृष्णवर्ण रुद्ररूप धारण करते हो॥२०॥ हे सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण! हे ब्रह्मादिकोंके ईश्वर आप इस विश्वका पालन करनेके लिये मेरे घरमें उत्पन्न हुए हो और

क्षत्री जिनका नाम, ऐसे करोडों असुरोंके समूह जहां तहां चलायमान हो रहे हैं उनका विध्वंस करोगे॥ २१॥ हे देवेश! उस दुष्ट कंसने तुम्हारेजन्मका वृत्तान्त हमारे घरमें सुनके आपके बहुत भ्राता मारडाले हैं अभी जो कोई मनुष्य उस दुष्टसे कहदेगा कि आपका अवतार हुआ तो वहसुनतेही शस्त्र हाथमें लेकर यहाँ चला आवेगा॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब इस प्रकार वसुदेवजी स्तुति करचुके तब पीछेदेवकी पुत्रमें महापुरुष भगवान् के सब लक्षण जानकर और मधुर मुसकान देख, कंसके भयसे धीरे धीरे पुत्रकी स्तुति करनेलगी॥२३॥ अनादिव्यापक ज्योतिस्वरूप निर्गुण निर्विकार सत्तामात्र दिव्यगुणराशि निर्विशेष और चेष्टारहित जो तुम हो सो वह स्वरूप किसी के जाननेमें नही

अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत्सुरेश्वर॥ स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं श्रुत्वाऽधुनैवाभिसरत्युदायुधः॥२२॥ श्रीशुक उवाच॥ अथैनमात्मजं वीक्ष्यमहापुरुषलक्षणम्॥ देवकी तमुपाधावत्कंसाद्भीता शुचिस्मिता॥२३॥ देवक्युवाच॥ रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्मज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्॥ सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः॥२४॥ नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु॥ व्यक्तेऽव्यक्तंकालवेगेन याते भवानेकः शिष्यतेऽशेषसंज्ञः॥२५॥ योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबंधो चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम्॥निमेषादिर्वत्सरांतो महीयांस्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये॥२६॥ मर्त्योमृत्युव्यालभीतः पलायन्सर्वाँल्लोकान्निर्भयंनाध्यगच्छत्॥ त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाऽऽद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति॥२७॥

आता, वेद आपके स्वरूप का वर्णन करते हैं, सो तुम ज्ञानके प्रकाश करनेवाले साक्षात् विष्णु भगवान् हो॥२४॥ जिस समय ब्रह्माजीकी सौ(१००) वर्षकी अवस्था होती हैं उस समय प्रलयकालमें सब लोक नष्ट हो जाते हैं. पंचमहाभूत अपनी अपनी तन्मात्राओंमें मिल जाते हैं औरतन्मात्रा प्रधानमें लय हो जाती है, प्रधानके जाननेवाले उस समय केवल एक आपही अजन्मा अवशिष्ट रहजाते हो॥२५॥हे मायाप्रेरक! यहजो काल है इसको आपकी माया वर्णन करे है, इसी कालसे विश्व होता है, पलसे आदि लेके जिसकी वर्षतक गणना है यह परार्द्ध रूपसे बडा हैऐसे आप निर्भयरूप हो, सो मैं आपकी शरणागत हूं॥२६॥ हे आदिपुरुष! सब मनुष्य मृत्युरूपी सर्पके भयसे सब लोंकोंमें भागे भागे

फिरते हैं और उनको बैठनेके लिये निर्भय स्थान कहीं नहीं मिलता, जब किसी पूर्व पुण्यके प्रभावसे आपके चरणारविन्दका आश्रय मिल जाताहै तब उस निर्भय स्थानको प्राप्तकरके निर्भय होकर सोरहता है, फिर मृत्युभी उसके निकट नहीं आती, दूरसे दूर भागती है॥२७॥ महाभयानक स्वरूपवाला उग्रसेनका पुत्र जो कंस है, उससे हम अत्यन्त भयभीत हैं, सो उस दुष्टसे आप हमारी रक्षा करो, भक्तोके भय दूर करनेवाले और जाननेवाले ध्यान करनेके योग्य आप भगवान स्वरूप हो अब आप इस श्यामसुन्दर स्वरूपको चर्मचक्षुवालोंको मतदिखाओ॥२८॥ हे मधुसूदन! आपका जन्म जो मेरे यहां हुवा है यह मत जानो, क्योंकि अधीरचित्तवाली स्त्री जाति जो मैं हूं सो आपकेकारण उस कंसके भयसे अत्यन्त भयभीत हूं॥२९॥ हे विश्वात्मन्! शंख, चक्र, गदा, पद्मसे शोभायमान जो यह आपका चतुर्भुज और

स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्नस्त्राहि त्रस्तान्भृत्यवित्रासहाऽसि॥ रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः॥२८॥ जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन॥ समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः॥२९॥ उपसंहरविश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्॥ शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्॥३०॥ विश्वं यदेतत्स्वतनौ निशांते यथावकाशं पुरुषः परो भवान्॥ विभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभूदहो नृलोकस्य विडंबनं हि तत्॥३१॥ श्रीभगवानुवाचत्वमेव पूर्वसर्गेऽभूःपृश्निः स्वायंभुवे सति॥ तदाऽयं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः॥३२॥ युवां वै ब्रह्मणादिष्टौप्रजासर्गे यदा ततः॥सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः॥३३॥ वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु॥ सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ॥३४॥

अद्भुत स्वरूप है इसको छिपा लो॥३०॥ यह जो जगत् प्रत्यक्ष कालमें दृष्टि आता है प्रलयकालके समय विना परिश्रमही सब सृष्टिको अपनेउदरमें धारण कर लेते हो, सो आप मेरे गर्भमें प्राप्त हुए हो, यह बड़े हास्यकी बात है॥३१॥ यह बात सुन श्रीकृष्णचन्द्र मुसकराकर बोले कि,अहो मातः! तुमको अपने पूर्वजन्मकी सुधि नही है सो सुनो स्वायंभुव मन्वंतरमें पहिले तुम पृश्नि नाम थीं और वसुदेवजी उस समय पापरहितसुतपा प्रजापति थे॥३२॥ तब तुम दोनोंको ब्रह्माजीने सृष्टि रचनेकी आज्ञा दी, तब आपने इन्द्रियोंको रोककर बड़ा भारी तप किया॥३३॥वर्षा, वायु, धूप, गर्मी, शीत इन सब कालोंके गुणोंका ग्रहण किया और श्वास रोककर मनके मैलको दूर कर दिया॥३४॥

सुखे पत्र और पवनका भोजन करके वर्षोंतक रहे और मुझसे वरदान प्राप्त करनेके मनोरथसे, आप शान्तचित्त हो मेरी आराधना करनेलगे॥३५॥ हे मातः! तुम दोनों जनोंने मुझसे चित्त लगाकर बड़ा भारी तप किया, तप करते करते देवताओंके बारह सहस्र वर्ष बीत गये॥३६॥ हे निष्पाप! जब तुमने तप करनेके समय श्रद्धा भक्ति से हृदयमें मेरा ध्यान किया, उसी समय इस देहसे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुवा॥३७॥तुम दोनोंके मनकी अभिलाषा पूरी करने के लिये मैं उसी समय इसी शरीरसे आपके सन्मुख आनकर प्रगट हुवा और आपसे कहा कि, ‘वरमांगो’ ‘वर मांगो’ ‘वर मांगो’ तब आपने यह वर मांगा हे भगवन्! जो आपके मनमें वर देनेकी इच्छा है और हमपर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजै कि,

शीर्णपर्णानिलाहारावुपशांतेन चेतसा॥ मत्तः कामानभीप्तंतौमदाराधनमीहतुः॥३५॥ एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपःपरमदुष्करम्॥ दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनोः॥३६॥ तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषाऽनघे॥ तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः॥३७॥ प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया। व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वांवृतः सुतः॥३८॥ अजुष्टग्राम्य- विषयावनपत्यौ च दंपती॥ न वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ देवमायया॥३९॥ गते मयियुवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम्॥ ग्राम्यान्भोगानभुंजाथां युवां प्राप्तमनोरथौ॥४०॥ अदृष्ट्वाऽन्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्॥ अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः॥४१॥ तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्॥ उपेंद्र इतिविख्यातो वामनत्वाच्च वामनः॥४२॥

तुम्हारे समान हमारे पुत्र होय॥ ३८॥ संसारके विषयसुख आपने नहीं भोगे और कोई सन्तानभी नहीं, सो आपने मेरी मायासे मोहित होकरमुक्ति नहीं मांगी॥३९॥ उस समय मैंने तुमको मनवांछित वर दिया कि, तुम्हारे मेरीही समान पुत्र होगा. यह वर देकर मैं अन्तर्धान होगयाऔर तुम अपना मनोरथ करके विषयोंका सुखभोग भोगने लगे॥४०॥ जब मैंने शील उदारता इन गुणोंयुक्त अपनी सदृश दूसरा कोई पुरुष कहींनहीं देखा, तब पृश्निगर्भ नामसे विख्यात होकर मैंही आपका पुत्र हुआ॥४१॥ फिर पीछे दूसरे जन्ममें आप कश्यप और अदिति हुए, वहांभी मैंने उपेंद्रनामसे आपहीके घर आनकर फिर जन्म लिया. हे जननि! उस अवतारमें मेरा शरीर बहुत छोटा था, इसलिये मेरा नाम वामन विख्यात हुवा॥४२॥

फिर अब तीसरीबार उसीरूपसे आपके घरमें जन्म लिया हैं, हे मातः! मेरा वचन सत्य मानो देखो तुमने एक बार वर मांगा मैंने तुम्हारे घरतीनबार जन्म लिया॥४३॥ पहिले जन्मका स्मरण करानेके लिये मैंने तुमको यह रूप दिखाया हैं जो और प्रकार मनुष्यके बालककारूप धर कर प्रगट होता तो तुम क्या जानते? और तुमको कैसे विदित होता कि, परमेश्वरने हमारे घर आनकर अवतार लिया॥४४॥अब आपकी इच्छा है चाहे पुत्र भावसे मेरा सन्मान करो, चाहे ईश्वर जानकर मेरा ध्यान करो, मुझसे स्नेह करोगे तो परमभक्तिको प्राप्त होगे॥४५॥और जो तुमको कंसका यह भय है कि, मेरे इस पुत्रकोभी वह दुष्ट मार डालेगा, तो तुम मुझको गोकुलमें नन्दरायजीके घर पहुॅचा दो और यशोदा के

तृतीयेऽस्मिन्भवेऽहं वै तेनैव वपुषाऽथ वाम्॥ जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति॥४३॥ एतद्वां दर्शितंरूपं प्राग्जन्मस्मरणाय मे॥ नान्यथा मद्भवं ज्ञानं मर्त्यलिंगेन जायते॥४४॥ युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्॥चिंतयंतौ कृतस्नेहौयास्येथे मद्गतिं पराम्॥४५॥ यदि कंसाद्विभेषि त्वं तर्हि मां गोकुलं नय॥ मन्मायामानयाशुत्वं यशोदागर्भसंभवाम्॥४६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया॥ पित्रोः संपश्यतोःसद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः॥४७॥ ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदितः सुतं समादाय स सूतिकागृहात्॥ यदा बहिर्गतुमियेषतर्ह्यजा या योगमायाऽजनि नंदजायया॥४८॥ तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु द्वास्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ॥ द्वारस्तुसर्वाः पिहिता दुरत्यया बृहत्कपाटायसकीलशृंखलैः॥४९॥

गर्भ में प्रगट हुई मेरी योगमाया है उसको इसी समय अपने घरको लेआओ॥४६॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजन्! यह सब बातें समझाकर भगवान् चुप होगये और अपनी मायासे माता पिताके देखते देखते साधारण बालक होगये॥४७॥भगवत् कीप्रेरणासे वसुदेवजीने प्रसूतिका घरमेंसे पुत्रको लेकर बाहिर निकलनेकी इच्छा की उसी समय गोकुलमें नन्दरायजीकी स्त्रीयशोदाके उदरसे योगामायाने जन्म लिया॥४८॥ उस समय योगमायाने सब पुरवासी और द्वारपालोंका ज्ञान हरलिया, उसीसमय सब निद्राके वशीभूत होगये पावोंकी बेड़ी गिरपड़ी, जब श्रीकृष्णको लेकर वसुदेवजी चले तब द्वारोंके बड़े बड़े जो किवॉड़ थे

उनमें जो लोहेकी भारी भारी संकले पड़ी थीं और ताले लगरहे थे, वह सब आपसे आप खुलगये जैसे सूर्य नारायणके उदय होनेसे सर्वत्र अन्धकार दूर हो जाता है।और मन्द मन्द शब्दसे मेघ गर्ज गर्ज कर बरसने लगे आधीरात सायॅ सायॅ कररही थी अँधेरी झुक रहीथी मार्ग देखनेमेंनहीं आता था, कभी कभी बीच बीचमें बिजली चमक जातीथी उसके आश्रयसे धीरे धीरे चले जाते थे, परन्तु वर्षा इनके ऊपर नहीं होती थीक्योंकि, पीछे पीछे शेषजी महाराज फणरूप छत्रछायासे जलका निवारण करते थे॥४९॥५०॥ उस समय मेघोंके वर्षनेसे यमुना ऐसी चढ रही

ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते स्वयं व्यवर्तत यथा तमो रवेः॥ ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः शेषोऽन्वगाद्वारि निवारयन्फणैः॥५०॥ मघोनि वर्षत्यसकृद्यमानुजा गंभीरतोयौघजवो- मिंफेनिला॥ भयानकावर्तशताकुला नदी मार्गं ददौ सिंधुरिव श्रियः पतेः॥५१॥ नंदव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्गोपान्प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया॥ सुतं यशोदाशयनेनिधाय तत्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात्॥५२॥

थी कि, कोसोंतक जल ही जल दिखाई देता था पवनके वेगसे जलमें ऊंची ऊंची तरंगें उठती थीं और जलके घरघराहटका शब्द दूर तक सुनाईआताथा उस गम्भीर नीरमें महा भयानक सैकडों भँवर पडते थे परंतु जैसे लंकाकी चढाईके समय श्रीरामचन्द्र महाराजको समुद्रने मार्ग दियाथाउसी प्रकार यमुनाने वसुदेवजीको मार्ग दिया*॥५१॥ जैसे तैसे कर वसुदेवजी गोकुल में पहुँचे और नन्दजीके द्वारपर जाकर देखा तो किवाँड

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* शंका - श्रीशुकदेवजीमुनिने राजा परीक्षित् मे कहा कि, श्रीकृष्णको लेकर वसुदेवजी जब गोकुलको चले तब भगवान् को समुद्रने वडे सुखसे मार्ग दिया था उसी प्रकार यमुनानेवसुदेवजीको बढे सुखसे मार्ग दिया, हम बूझने है मला किस स्थानपर भगवान् कोसमुद्रने सुखसे मार्ग दिया यह वढीं शफाहैं जो कोई कहें कि, लंकाकों जानेके समय रामचन्द्रकोतो यह बात व्यर्थ है क्योंकि रामचन्द्रने बहुत दुःख सहकर समुद्रके शोषनेके लिये अग्निवाण धनुषपर चढाया, तो त्रास मानकर आन मिला, तो भी रामचन्द्र पुल बाँधकर समुद्रके पार गये सुखसेकी समुद्रने नहीं जाने दिया॥

उत्तर- इस स्थानपर भगवान् कोसुखसे मार्ग देना यह है कि, राजा बलिको दर्शन देनेके लिये वामनजी नित्यप्रति सुतल लोकको जाते हैं तब पातालके जानेका एकही मार्ग है दूसरा और कोई मार्ग नहीं है भगवान् बामनजीको समुद्र सुखकर मार्गदेता है इसवास्ते भगवान् व्यासजीने सुखसे समुद्रको पय देनेके लिये कहा॥

खुले पड़े हैं भीतर घुसकर देखा तो सब नींदमें मतवाले पड़े हैं और यशोदा मायाके मोहसे ऐसी बेसुध पड़ीथी कि, उसको कन्याके उत्पन्न होनेकाभी ध्यान नहीं था उसको सोती देखकर वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाकी शय्या पर सुला दिया और उसकी कन्याको उठाकर अपनी राहली॥५२॥ और उसी बन्दीगृहमें आनकर कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और आपने उसी प्रकार पांवों में बेडी और हाथोमें हथकड़ीपहन ली और उसी भांति बैठगये॥५३॥ वसुदेवजीको देख देवकी बूझने लगी कि, स्वामी! कुशलपूर्वक गोकुल में पहुॅचे पुत्र तो आनन्दमें है? वसुदेवजीने कहा सब नारायणकी कृपा है, उसी समय यहां गोकुलमें नन्दरायके घर यशोदाजीके मनसे जब माया हटी तो जाना कि, मेरे कुछ बालकहुवा, परन्तु कुछ परिश्रम और कष्ट न पडा, क्योंकि योगमायाने पहिलेही स्मृति भुलाकर नींदके वश कर दिया था और यहभी कुछ ज्ञान नहीं रहा

देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम्॥ प्रतिमुच्य पदोलोंहमास्ते पूर्ववदावृतः॥५३॥ यशोदा नंदपत्नी चजातं परमबुध्यत॥ न तल्लिंगं परिश्रांता निद्रयाऽपगतस्मृतिः॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेश्रीकृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ बहिरंतःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः॥ ततो बालध्वनिं श्रुत्वागृहपालाः समुत्थिताः॥१॥ ते तु तूर्णमुपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत्॥ आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते॥२॥स तल्पात्तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः॥ सूतीगृहमगात्तूर्णं प्रस्खलन्मुक्तमूर्धजः॥३॥

कि, मेरे पुत्रहुवा या कन्या॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भापाटीकायां श्रीकृष्णजन्मनिरूपणं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥दोहा– चौथे चण्डीवचन सुन, अतिसभीत भयो कंस। मंत्रिन सहित विचारकर, कियो बालविध्वंस॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! बाहिरभीतर के द्वार उसीप्रकार बन्द होगये, कन्या रो उठी बालकका रोना सुन सब रखवाले सावधान हो तोप छोडने लगे; हाथी चिंघाडने लगे,सिंह दहाडनें लगे भादोंकी अँधेरी झुकरहीथी, मेघ वरस रहा था सब चौकीदार और द्वारपाल पुकारते हुए उसी समय कंसके पास दौड़ेगये और जातेही देवकी बालक होनेका समाचार सुनाया, जो कंस उद्विग्न मनसे इसी आठवें गर्भका मार्ग जोहरहा था॥१॥२॥ सुनतेही कंस घबराकर यहकहता उठ खडा हुवा क्या मेरा कालरूप बालक उत्पन्न होगया? खुलेबाल; गिरता पडता, ठोकरें खाता, कांपता हुवा खड्ग हाथमें ले प्रसूतिका

भवनकी ओरको दौडता हुवा बहन के पास गया॥ ३॥ देवकी कंसको देख दीन होकर करुणा वचन बोली कि, जिसके सुननेसे सबके मनमें अत्यन्तदया उत्पन्न हो, हे भ्राता। हे कल्याणरूप ! यह पुत्र नहीं है, यह देवीरूप कन्याहे, इसको मत मार, क्योंकि यह तेरी भानजी है और जो कदाचितयह जीती रहेगी तो मैं तेरेही पुत्रके संग इसका विवाह कर दूंगी॥४॥ हे भ्राता ! अग्रिके समान तेजवाले मेरे सात पुत्र जो तैंने मारे हैं, वह तापमेरे हृदयसे अभी नहीं गया. परन्तु उसमें तेराभी क्या दोष है देवने तेरी बुद्धिभी वैसेही करंदी. अब यह कन्या तो मेरा हृदय ठण्डा करनेको मुझेछोड़ दे॥५॥ हे सामर्थ्यवान् ! तेने बहुत पुत्र मेरे मारे, अव दयाकर में तेरी छोटी बहन हूं, महादीन हूं, मन्दभागिनी हूँ, यह मेरी अन्तकी पेटपोछनी कन्या है इसको तू मुझे अपनी करके देदे जो मेरा थोडा बहुत धैर्य बँधारहे॥ ६॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन् ! देवकी इस प्रकार कंससे

तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती॥ स्नुपेयं तव कल्याण स्त्रियं मा हंतुमर्हसि॥४॥ बहवो हिंसिता भ्रातः शिशवःपावकोपमाः॥ त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम्॥५॥ नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो॥ दातुमर्हसिमंदाया अंगेमां चरमां प्रजाम्॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ उपगुह्यात्मजामेवं रुदंत्या दीनदीनवत्॥ याचितस्तां विनिर्भर्त्स्यहस्तादाचिच्छिदे खलः॥७॥ तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसुः सुताम्॥ अपोथयच्छिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः॥८॥ सा तद्धस्तात्समुत्पत्य सद्यो देव्यंवरं गता॥ अदृश्यताऽनुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा॥९॥दिव्यस्रगंवरालेपरत्नाभरणभूषिता॥ धनुश्शलेषुचर्मासिशंख चक्रगदाधरा॥१०॥

विनतीकर, कन्याको छातीसे लगाकर अति दीनकी नांई रुदन करने लगी. देवकी दीन तो नहीं थी, क्योंकि मनमें अत्यन्त प्रसन्न थी कि, मेरा पुत्रतो और स्थान पर पहुॅचही गया और यह कन्या योगमाया है यह इस दुष्टसे किसी प्रकार मरही नहीं सक्ती, तोभी देवकीके हाथसे उस दुष्टने कन्याकोछीन ही लिया, देवकीने नम्र होकर बहुतेरी प्रार्थना की परन्तु उस दुष्टने न माना और कहा कि, इस कन्या को मैं कभी जीता न छोडूंगा, जो इसकन्या के साथ विवाह करेगा वह मुझको मारेगा॥७॥ यह कह अपने स्वार्थ के सिद्ध करने के लिये तुरन्तकी उत्पन्न हुई अपनी भगिनीकी कन्याकाचरण पकड घुमाकर शिला पर ज्योहीं पटकनेको हुवा॥८॥ उसी समय वह कन्या कंसके हाथ से छूट उसके माथेपर पांवधर उछलकर आकाशकोचली गई और वहां प्रत्यक्ष देवीका दिव्यस्वरूप देखने में आया॥९॥ अतिविशाल लाल लाल नेत्र, ललाटपर चन्दनका तिलक, कण्ठमें

पुष्पोंकी माला, सुन्दर शोभायमान वस्त्र, रत्नजटित आभूषण, आठ भुजा जिनमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, कृपाण, गदा, पद्म, शंख, चक्र आयुधलिये॥१०॥ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर,और नाग यह बारम्बार बलिदान देते थे और प्रर्थना करते थे॥११॥ अरे अधम कंस ! मेरे मारनेसे तेरेहाथ क्या आया? तेरे पूर्व जन्मका वैरी जो कि, तेरा मारनेवाला है वह पहिलेही और कहीं दूसरे स्थान में जन्म लेचुका, अरे मूर्ख ! बालकों को मारकरऔर मुझको पटककर वृथा तैंने अपने शिरपर पापका भार धरा, तेरा मारनेवाला सर्पकी समान है और तू दादुरकी सदृशहै, दादुरको इतनी सामर्थ्यकहाँ है जो सर्पको निगलने की इच्छा करै अब तू सावधान रहना अब वह बहुत शीघ्र तुमको मारकर भूमिका भार उतारैगा॥१२॥ इसप्रकार भगवान्की देवी योगमाया कंससे कहकर बहुत स्थानोंमें दुर्गा, भद्रकाली, भगवती, भवानी, महामाया नामसे संसार में विख्यात हुई॥१३॥इसप्रकार योग

सिद्धचारणगंधर्वैरप्सरः किन्नरोरगैः॥ उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत्॥११॥॥ किं मया हतया मंद जातः खलु तवांतकृत्॥ यत्र क्व वाऽपूर्वशर्मा हिंसीः कृपणान्वृथा॥१२॥ इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि॥ बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह॥१३॥ तयाभिहितमाकर्ण्य कंसः परमविस्मितः॥ देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत्॥१४॥ अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना॥ पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः॥१५॥ स त्वहंत्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहृत्खलः॥ काँल्लोकान्वै गमिष्यामि ब्रह्मदेव मृतः श्वसन्॥१६॥ दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्याएव केवलम्॥ यद्विस्रंभादहं पापः स्वसुर्निहतवाञ्शिशून्॥१७॥

मायाका वचन सुनकर कंस अत्यन्त विस्मित हुवा और वसुदेव देवकीको कारागार से उसीसमय छोडदिया और बेडी हथकडी उनके हाथ पांवोंसेनिकलवादी और विनय करके बहन बहनोईसे बोला कि॥१४॥ अहो भगिनी । अहो भाम ! मैं आपका बडा अपराधी हूँ मुझ पापी अधर्मीने तुम्हारेसंग बडा अनर्थ किया और अपने शरीर के सुख के लिये तुम्हारे छः बालक मारे जैसे कोई राक्षस अपने पुत्रों को अपने हाथसे मारे है और मेरा मनोरथभी पूरा नहीं हुवा॥१५॥देखो ! मैं कैसा निर्दयी और हत्यारा हॅू, अपने जातिवाले हितकारी और सम्बन्धियोंका संग मैंने छोड दिया, हाय ! मैंमहापापी नीचबुद्धि न जानिये कौनसे नरक में जाऊंगा, ब्रह्मघातीकी नांई मैं जीताही मृतककी समान हूं यह कलंक मेरा कैसे छूटेगा और मैं किसॐ जन्ममें उद्धरूंगा॥१६॥ कोई कहे कि, मनुष्यही झूठ बोलते हैं, परन्तु देवताभी झूठ बोलते हैं जिन्होंने कहा था कि, देवकीके आठवें गर्भ में पुत्र होगा

सो कन्या उत्पन्न हुई; हाय ! मैंने झूॅठी आकाशवाणीके कहनेसे अपनी वहनके बालक मारे मेरी क्या गति होगी ?॥१७॥ हे महाभागियो ! तुमअपने पुत्रोंके मारनेका शोक मत करो, यह प्राणी अपने किये हुए कर्मोंका भोग भोगते हैं और दैवाधीन हैं सर्वदा एकत्र नहीं रहसते. तुम समझनाकि, हमारे पुत्रोंकी आयु इतनीही थी॥१८॥ जैसे पृथ्वी के विकार घटपट इत्यादिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और फूटजाते हैं, इनके होनेमें पृथ्वीका विकारनहीं आता, ऐसे ही यह देह जन्मता और मरताहै कुछ इसके संग आत्मा नहीं मरता जीता॥१९॥ मूर्ख लोग ऐसे नहीं जानते वह देहकोही आत्मामानते हैं और देहको आत्मा माननेसे “मैं हूं “तू है” यह अनेक प्रकारके बुद्धि भेद उत्पन्न होते हैं, इस भेदसे पुत्रादिकके देहसे योगवियोग होता है

मा शोचतं महाभागावात्मजान्स्वकृतं भुजः॥ जंतवो न सदैकत्र दैवाधीनाः सहासते॥१८॥ भुवि भौमानि भूतानियथा यांत्यपयांति च॥ नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः॥१९॥ यथाऽनेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः॥देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते॥२०॥ तस्माद्भद्रे स्वतनयान्मया व्यापादितानपि॥ माऽनुशोच यतःसर्वः स्वकृतं विंदतेऽवशः॥२१॥ यावद्धतोऽस्मि हंतास्मीत्यात्मानं मन्यते स्वदृक्॥ तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात्॥२२॥ क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः॥ इत्युक्त्वाऽश्रुमुखः पादौ श्यालस्स्वस्रोरथाग्रहीत्॥२३॥ मोचयामास निगडाद्विस्रब्धः कन्यकागिरा॥ देवकीं वसुदेवं च दर्शयन्नात्मसौहृदम्॥२४॥

इसीसे उनके अज्ञानकी निवृत्ति नहीं होती॥ २० हे मंगलरूपिणी ! मैंने तेरे पुत्रोंको मारा है तो भी तू उनका शोक संताप मत कर, क्योंकि सबप्राणियोको परतंत्रतासे अपने अपने किये हुए कर्मोंका भोग भोगना पडता है॥२१॥ जव तक प्राणी अपने स्वरूपको नहीं जाने और यह कहै कि,मैं मारता हूं और मैं मरता हूं, तब तक वह देहाभिमानी अज्ञान पुरुष मरता है और मारता है॥२२॥ हे दीनदयालु ! हे सत्यवक्ताओ ! अब आपमेरा अपराध क्षमा कीजिये, क्योंकि साधुजन दीनोंपर सदा दयाही करते हैं, यह कह आँखोंमें आँसू भरकर कंस वसुदेव देवकीके चरणों में गिरपड़ा॥२३॥और योग मायाने जो यह वचन कहा था कि, तेरा मारनेवाला कहीं उत्पन्न होगया इस वाणीपर विश्वास लाकर वसुदेव और देवकीके

पॉवोंकी बेड़ी कटवादी और सुहृदता और मित्रता अपनी जताने लगा॥२४॥ हे देवकी ! अब मेरा अपराध क्षमाकर, देवकी अपने भ्राता कंसका अत्यन्त व्याकुल देखकर बोली कि, हे भय्या ! मैंने तेरा सब अपराध क्षमा किया तू मत डरै, यह कह उसकी आखोंसे आंसू पोंछने लगी और वसुदेवजीभी उससे शत्रुता तजकर मुसकराकर बोले॥२५॥हे महाभाग कंस ! जैसे तुम कहते हो वैसेही है, देहधारियोंको अज्ञानसे अहंकार होता है, इसीअहंकारने मेरा तुम्हारा परस्पर भेद कर दिया॥२६॥ शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह, मद जिनको लगरहे हैं वह मनुष्य इनचारोंसे आपही मरते हैं,उनको कौन मारता है, वह उन्मत्त पुरुष यह नहीं जानते कि, परमेश्वरही पदार्थोंसे पदार्थोंका परस्पर नाश करता है और उस परमात्माको नहींदेखते और अज्ञानी पुरुष मैं मरता हूं, मैं मारताहूं, ऐसे मानते हैं॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! इस प्रकार प्रसन्न हो शुद्ध

भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षांत्वा रोषं च देवकी॥ व्यसृजद्वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह॥२५॥ एवमेतन्महाभाग यथावदसि देहिनाम्॥ अज्ञानप्रभवाऽहंधीः स्वपरेतिभिदा यतः॥२६॥ शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विताः॥ मिथो घ्नंतं न पश्यंति भावैर्भावं पृथग्दृशः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः॥ देवकीवसुदेवाभ्यामनुज्ञातोऽविशद्गृहम्॥२८॥ रात्र्यां तस्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः॥ तेभ्य आचष्ट तत्सर्वं यदुक्तंयोगनिद्रया॥२९॥ आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः॥ देवान्प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः॥३०॥ एवंचेत्तर्हि भोजेंद्र पुरग्रामव्रजादिषु॥ अनिर्दशान्निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून्॥३१॥

अंतःकरणवाले वसुदेव देवकीसे आज्ञा लेकर कंस अपने राजभवनको गया॥२८॥ और जैसे तैसे करके रात काटी प्रातःकाल होतेही कंसने अपनेसब मंत्रियोंको बुलाया और जो कुछ योगमायाने कहा था कि, तेरा मारनेवाला उत्पन्न होगया है, यह सब वृत्तान्त मंत्रियोंके सामने ज्योंकात्यों कह सुनाया॥२९॥ कंसके वचन सुनकर देवताओंके शत्रु अविवेकी, देवताओंपर क्रुद्ध होनेवाले जो अघासुर, तृणावर्त आदिक मंत्री थेवह कंससे बोले कि॥३०॥ हे यादवेन्द्र ! जो ऐसा भी है तो क्या चिन्ता है ? आप कुछ सन्देह न कीजै केवल इतना काम करो कि -पुर, ग्राम,खिरक इत्यादि जितने स्थान हैं, उनमें दश पांच दिन के भीतर जो बालक उत्पन्न हुएहैं उनको मारने की हमको आज्ञा देदीजै हम आजही सब

बालकोंको बीन बीन कर मारआयेंगे उनमें जो आपका शत्रु होगा वहभी मारा जायगा॥३१॥ और जो देवता संग्रामके नामसे थरथर काँपते हैंवह आपके सामने क्या पराक्रम करेंगे ? आपके धनुषकी टंकारही सुनकर निरन्तर व्याकुल रहते हैं॥३२॥जिस समय आप धनुषपर बाण चढा करचारों ओरको प्रहार करते हो उस समय देवता अपने अपने प्राणोंको लेकर रणस्थलसे भाग जाते हैं और भाग जानाही उनका अच्छा है॥३३॥उनमें कोई कोई तो शस्त्र त्याग, दीन बन, हाथ जोडकर खड़ा होजाता है और कोई निकच्छ होकर शरण में आ कहता है कि, हम हारगये २ हमको मतमारो॥३४॥ आपके सामने रथ जिनके टूटगये, शस्त्र हाथोंमेंसे छूटगये, भयभीत हो भाग गये, युद्धसे विमुख धनुष जिनके हाथोंसे गिरगये औरजो संग्राम छोड़कर बैठरहे उनको तो आप मारते ही नहीं हो॥३५॥जहाँ कोई शूरवीर और युद्ध करनेवाले योद्धा नहीं होते उस निर्भय स्थानमें

किमुद्यमैः करिष्यंति देवाः समरभीरवः॥ नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव॥३२॥ अस्यतस्ते शरव्रातैर्हन्यमानाः समंततः॥ जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः॥३३॥ केचित्प्रांजलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः॥मुक्तकच्छशिखाः केचिद्केचिद्भीताः स्म वादिनः॥३४॥ न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान्विरथान्भयसंवृतान्॥ हंस्यन्यासक्तविमुखान्भग्नचापानयुध्यतः॥३५॥ किं क्षेमशरैर्विबुधैरसंयुगविकत्थनैः॥ रहोजुषा किं हरिणा शंभुनावा वनौकसा॥३६॥ किमिद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता॥ तथापि देवाः सापत्न्यान्नोपेक्ष्या इति मन्महे॥ततस्तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्माननुव्रतान्॥३७॥

बैठकर झूठां बकवाद करनेवाले देवताओंसे और जो क्षीरसागर में शेषशय्यापर पड़ा दिन रात लक्ष्मीसे भोगविलास करता रहता है उसीकेध्यानमें नित्य मतवाला हो आलस्यके मारे कोई काम नहीं करता उससे युद्ध कब हो सक्ता है जो आपके डरसे क्षीर समुद्रमें छिपा हुआपड़ा हैं उस लक्ष्मीकी आशा करनेवाले विष्णुसे, इलावृतखण्डका रहनेवाला ज जातेही पुरुष स्त्री होजाय, दिन रात पार्वतीके संग क्रीड़ाकरनी और उसीके मोहजालमें मग्न रहनेवाला विपके पीनेसे जिसका चित्त नित्य उद्विग्न रहे ऐसे बावले बहुरंगे शिवसे॥३६॥ तुच्छ पराक्रमी, किंचिन्मात्र विपत्ति पड़नेसे देवताओंको साथ ले भगवान् के पास जाकर पुकार मचावै. आपने सुनाही होगा कि, हिरण्याक्ष हिरण्यकशिपु और रावणादिक अनेक असुरोंने उसकी कैसी २ दुर्दशा की और बताओ आजतक किसको जीता, सदा घर बैठादी वज्र घुमाता

रहता है और ऐसे असमर्थ इन्द्रसे, रहा ब्रह्मा वह दिन रात पूजा पाठमें लगा रहता है उसको अपनेही कामोंसे पलभरको सावकाश नहीं ? फिर बताओ कि,इन लोगोंसे हमको क्या भय है और कौन इनमें हमसे युद्ध कर सक्ता है परन्तु तोभी वैरीही हैं न जानिये कलको क्या उपद्रव कर उठावैं, क्योंकिशत्रुको और सर्पको छोटा न समझै, इसलिये इन लोगोंका छोडना अच्छा नहीं, इस समय तो इनकी जड उखाडनेको हम उपस्थित हैं, हमलोगोंको आज्ञा दीजिये॥३७॥जैसे विना उपाय किये शरीरका रोग जड पकड जाता है फिर पीछे उपाय करनेसे कुछ नहीं हो सक्ता, जैसे योगीजन पहिले इंद्रियोंसे विषयभोग करके फिर पीछे उनको रोकना चाहें तो फिर वह नहीं रुकसक्तीं, ऐसेही शत्रुको छोटा समझकर जो छोड देतेफिर पीछे प्रबल होकर वह शत्रु जीतनेमें नहीं आता और जो कदाचित् जीत भी लिया तो बडी विपत्ति उठानी पडती है और बहुत दाँत

यथाऽऽमयोंगे समुपेक्षितो नृभिर्न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम्॥ यथेंद्रियग्राम उपेक्षितस्तथा रिपुर्महान्बद्धबलोन चाल्यते॥३८॥ मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्मः सनातनः॥ तस्य च ब्रह्मगोविप्रास्तपोयज्ञाः सदक्षिणाः॥३९॥तस्मात्सर्वात्मना राजन्ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिनः॥ तपस्विनो यज्ञशीलान्गाश्च हन्मो हविर्दुघाः॥४०॥ विप्रागावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः॥ श्रद्धा दया तितिक्षा च ऋतवश्च हरेस्तनूः॥४१॥ स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्विड् गुहाशयः॥ तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः॥ अयं वै तद्वधोपायो यदृषीणां विहिंसनम्॥४२॥श्रीशुक उवाच॥ एवं दुर्मत्रिभिः कंसः सह संमंत्र्य दुर्मतिः॥ ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशवृतोऽसुरः॥४३॥

खट्टे होते हैं॥३८॥ सब देवताओंकी जड विष्णु है और विष्णुकी जड सनातन धर्म है और सनातनधर्मकी मूल गौ, ब्राह्मण, तप, यज्ञऔर दक्षिणा है॥३९॥ हे राजन् कंस ! इसलिये वेदपाठी, तपस्वी, याज्ञिक, ब्राह्मण, यज्ञके उपयोगी और दूध देनेवाली गायोंको हमअवश्य मारेंगे॥४०॥ गौ, ब्राह्मण, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, क्षमा और यज्ञ यह सब विष्णु भगवान् के अंग हैं॥४१॥ वह विष्णुसब देवताओंमें मुख्य, दैत्योंका द्रोही और सबके हृदयमें वास करनेवाला और ब्रह्मा, महादेव, सब देवता और ऋषियोंका मूलभी वही है,इसलिये ऋषीश्वरों मुनीश्वरोंका मारना, यही विष्णुके मारनेका ठीक उपाय है॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् !

दुष्टबुद्धि कंस कालके फन्दमें फँसे हुयेने इस प्रकार दुष्ट मंत्रियोंके साथ, सम्मतिकरके ब्राह्मणोंको मारकर अपना कल्याण चाहा॥४३॥ * महापुरुषोंका कष्ट जिनको प्रिय, इच्छापूर्वक रूप धारण करनेवाले असुरोंको सब देश विदेशों में साधु संतोंके मारनेके लिये आज्ञा देकर भेज दियाऔर आप अपने राज्यमंदिरको चलागया॥४४॥ राजस, तामस स्वभाववाले दुर्बुद्धि, आज्ञानसे जिनका अन्तःकरण आच्छादित होरहा, मृत्युजिनके शिरपर खेल रही, ऐसे ऐसे दैत्य साधुओंके विद्रोही होकर उनसे वैर करनेलगे॥४५॥ सत्पुरुषोंसे द्वेष रखनेवाले पुरुषकी आयु, धन, यश,

संदिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान्॥ कामरूपधरान्दिक्षु दानवान्गृहमाविशत्॥४४॥ ते वै रजःप्रकृतयस्तमसा मूढचेतसः॥ सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः॥४५॥ आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च॥ हंतिश्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशम स्कंधे पृ० कंसाज्ञप्तकृतवालादिहिंसनंनाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्लादो महामनाः॥ आहूय विप्रान्दैवज्ञान्स्नातःशुचिरलंकृतः॥१॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै॥ कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा॥२॥

धर्म, परलोकसुख, महात्माओंका आशीर्वाद और मंगल इन सबका नाश होजाता है॥४६॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे भाषाटीकायांकंसस्यानीतिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा- पंचममें उत्सव अधिक भयो नन्दके भौन। मथुराको वसुदेवने कियो मिलन हित गौन॥१॥हे राजन् ! पुत्रका जन्म होनेसे आनन्द सहित उदारचित्त नन्दरायजीने उसी समय स्नान कर पवित्र हो पीताम्बर पहन, शृंगार कर, आसनपर जा

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* **शंका-**कसने राक्षसोंसे जिस ब्रह्मका बन्धन कराकर अपना कल्याण माना वह ब्रह्म कौन है ? क्योंकि सर्वव्यापी, अजर, अमर, चैतन्यकारक, ऐसा जो ब्रह्म है वह कभीभी किसीके बन्धनंमें नहींआसक्ता और किसीके मारनेसे नहीं मर सक्ता, वह मरनेवाला ब्रह्म किसीके मारनेको नहीं है। जो राक्षसोंके मारने से मरगया।

उत्तर- अजर, अमर, सर्वव्यापी ब्रह्म है सो " ब्रह्महत्याहित” मैंने इस श्लोकका अर्थ नहीं किया, इसश्लोकका अर्थ व्यासजीने ऐसा किया है कि, यज्ञादि, दानादि, स्नानादि, नारायणके पूजनादि, अनुरागअपने हृदय में कोमलता, दया इनको आदिलेकर और अनेक प्रकारके कर्म सोई ब्रह्म हैं, उनका नाश कराकर कंस अपना हित मानताथा, ऐसा अर्थ व्यासजीने किया है॥

विराजे ज्योतिषी ब्राह्मणोंको बुलाय मोतियोसे चौक पुराय उसपैसुवर्णका कलश स्थापन कर, गणेश, गौरी, वरुण इत्यादि देवता, पितृ, लोकपालदिक्पाल इन सबका संस्थापन करके स्वस्तिवाचन कराय और पूजन कर पुत्रका जातिकर्म संस्कार कराय॥१॥२॥ उसीसमय भूषितकरी दोलाख गौवें और तिलोंके सातपर्वत बनाय ऊपरसे सुनहरी रंगका वस्त्र उढ़ाय उनके भीतर मणि, माणिक, मोती, हीरे और अनेकअनेक प्रकारके रत्न भर भरके ब्राह्मणोको दान कर दिये॥३॥कालसे तो पृथ्वी पदार्थ शुद्ध होता है, स्नान करनेसे शरीरशुद्धि होती है;धानेसे वस्त्रादिक शुद्ध होता है, संस्कारसे गर्भादिक शुद्ध होता है, तप करनेसे इंद्रियोंकी शुद्धि होती है, यज्ञ करनेसे ब्राह्मणोंकी शुद्धि होती है,दान करने से धनकी शुद्धि होती है, सन्तोपसे मनकी शुद्धि होती है और आत्मविद्यासे आत्माकी शुद्धि होती है. यह विचार नन्दरायजीने अनेक

धेनूनां नियुतं प्रादाद्विप्रेभ्यः समलंकृते॥ तिलाद्रीन्सप्त रत्नौघशातकौंभांबरावृतान्॥३॥ कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया॥ शुध्यंति दानैः संतुष्टया द्रव्याण्यात्माऽऽत्मविद्यया॥४॥ सौमंगल्यगिरो विप्राःसूतमागधवंदिनः॥ गायकाश्च जगुनेंदुर्भेर्यो दुंदुभयो मुहुः॥५॥ व्रजः संसृष्टसंसिक्तद्वाराजिरगृहांतरः॥ चित्रध्वजपताकास्रक्चैलपल्लवतोरणैः॥६॥

प्रकारके दान दिये॥४॥ ब्राह्मण स्वस्तिवाचन पढ़ने लगे, पुराणवक्ता पुराण बॉचने लगे, गायक वंशावली बखानने लगे, भाट बन्दीजनयश वर्णन करने लगे, गायक गुण गाने लगे और भेरी नगाडे जहां तहां बजने लगे॥५॥ व्रजमें द्वार द्वार आंगन आंगन घर घर सब झाडबुहार रहे हैं और बजारोंमें गलियोंमें घाटोंमें बाटोमें, रजवाहोंमें, चौराहोंमें बुहारी लगाकर गुलाबके जलसे, केवडेके जलसे, केतकीके जलसेसेवतीके जलसे, खसके जलसे, चन्दन के जलसे, छिरकने लगे. सब गोकुल और महावन नन्दगॉव सुगन्धसे सुगन्धित कर दिया। सबने अपनें अपनेंभवनोंकी शोभा निराले ही निराले ढंगकी बनादी सुन्दर स्फटिक मणिके द्वार सुवर्णके किवॉड, वैडूर्यकी देहरी, मूंगोंकी चौखट, जिनमें पुष्पबिखर रहे, आमके पत्ते और फूलोंकी बन्दनवारैंजहां तहां लटकरहीं, सुवर्णके कलश कलशियें द्वार द्वार पर विज्जुच्छटासी चमक रहीं, ध्वजास्तंभ

गड़रहे हैं, जिनमें चित्र विचित्र रंग ध्वजापताका फहराय रही हैं मोतियोंकी माला जहां तहां लटक रहीं हैं; मानो भवन भवनमें पुत्रजन्मोत्सवहो रहा है॥६॥ जबहीं ग्वालिये गाय बछडोंको लेलेकर वनको चले, उसी समय एक गोप वृक्षपर चढकर पिछौरिया घुमाकर बोला, अरेभैया ! आज कोई व्रजवासी वनको मत जाना हमारे नन्दरायजीके पुत्रका जन्म हुवा है, यह बात सुनके सब ग्वाल बाल आनन्दमें मग्न होगये औरसब अपनी अपनी गायोंका शृंगार बनाने लगे, पहिले तो छोटी छोटी गाय, बछड़े, बछियाओंको हलदी तेल लगाकर उबटन किया.फिर गेरू, मेंहदी, लाख, हरतालसे रँगा और बीच बीचमें हलदी और रोलीके थापे लगाये, जंगाल और सिंगरफसे उनके सींगरंगे और मोरछलजिनमें लटक रहे ऐसी शोभायमान झूलें उढायदीं, मोरछलकी कलगी न्यारी ही पहिराय दीं, गलेमें घण्टोंकी मालाका शब्द निराला ही सुनाईआता था और कोई कोई गोप अपने अपने घरोंसे सुनहरी आभूषणोंके डिब्बे और उत्तम उत्तम वस्त्रोंकी गठरी उठालाये, मोहनमाला, चन्दनदार,इमेल, पचलडी, चम्पाकली, धुकधुकी, बछडे बछियाओंके गलेमें डाल दिये, पाँवों में पावटे, घुंघरू, कडे झाँझन, पहराय दीं और ऊपरसे शाल

गावो वृषा वत्सतरा हरिद्रातैलरूषिताः॥ विचित्रधातुबर्हसग्वस्त्रकांचनमालिनः॥७॥

महार्हवस्त्राभरणाः कंचुकोष्णीषभृषिताः॥ गोपाः समाययूराजन्नानोपायनपाणयः॥८॥

दुसाले जरीकी ओढनी उढायदीं, इसप्रकार सबने अपनी अपनी गायोंका शृंगार किया॥ ७॥ सब गोप ग्वाल सुन्दर सुन्दर सुही, बैंजनी ऐंठदारपागे बांध बांध और दोचार पेंच गलेमें डाल सुन्दर सुन्दर जामें पहरलिये, किसी किसीने काछ बांध लिये किसीकी लटकवां धोती, रेशमी दुपट्टेओढ लिये और भाँति भाँतिके आभूषण सज सुन्दर शृंगार बनाये यमुनाकी रज मस्तकपर चढ़ाये, कन्धोंपर तलवारें घरे, कानों में फूलोंके तुरें उरसेहुए, शिरमें मोर के पंखोंकी कलंगी धरे, भारी भारी लट्ठ लिये, पानसे मुख लाल करे थालोंमें भेंट लिये गायोंको आगे आगे नचाते कुदातेगाते बजाते हँसते हँसाते, नन्दरायजीको बधाई देनेके लिये चले उस समय नन्दजीके द्वारपर बडी भारी भीर हुई उस छविको देख छविभीलज्जाकी मारी एक कोनेमें छिपी हुई, उस आनन्दको देख रही थी. इस उत्सवको देखनेके लिये स्वर्गसे ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण, कुबेरादिकअनेक देवता अपनी अपनी स्त्रियोंको संगलिये मनुष्यरूप धारण किये गोपग्वालोंमें आनमिले और सब नन्दके द्वारपर पुकार पुकार बार बार यहकहते थे कि, आज नन्दघर बधाई है. उस समय नन्दजी ऐसे मग्न थे कि, अंगमें फूले नहीं समाते थे, और सबके हाथ पकड पकड अत्यन्त

आदर सत्कारसे कुशलक्षेम बूझ बूझ मखमलके बिछौनोंपर बिठाते जाते थे और बारबार सबको पान मिठाई दे देकर यह कहते थे कि, सब आपहीका प्रताप है दूसरे दिन यह शुभ संवाद समीप समीपके सब ग्रामोंमें भी पहुँच गया कि, नन्दजीके पुत्रका जन्महुआ. यह शुभ समाचार सुनसब ब्रजवासी परमानन्द हो होकर इन इन ग्रामों से हथौरा, रीठा, कारब, रावल, लौहवन, महावन, राधाकुण्ड, बरसाना, गोपालपुर, विसौली,जसौली, विजौली, रसौली, मांठ, आंट, आढस, सुनर, वसई, छटीकरा, नरी, सेमरी, परासौली, कोठवन, मधुवन, बढैन, करहैला, नन्दीश्वर,नन्दगांव, बनेई, ऊंचागांव, चिकसौली, सुमहरा, कामवन, वृन्दावन, दीघम, होली, इत्यादि और अनेक गांवोंसे भेंटे ले ले कर चले तो वृद्ध वृद्ध जोगोप थे उन्होंने भी अपना अपना शृंगार किया और युवा बालकोंका तो कहनाही क्या है, सुवर्णके थालोंमें हीरे, मणि, रत्न, पन्ना, पुखराज, हंसली,खंडुवे, कण्ठी, माला, कुरते टोपी, रोली, चन्दन, पान, मिठाई, मेवा, श्रीफल, घर घर कर सब ब्रजवासी ड़फ, ढोल, झांझ, मृदंग, चंग, मुहचंग, उपंग,बजाते और गीत गाते धूम धाम मचाते नन्दरायजीके द्वारपर आये और उनको दण्डवत प्रणाम कर करके भेंटें उनके आगे घरीं उस समय नन्द

गोप्यश्चाकर्ण्य मुदिता यशोदायाः सुतोद्भवम्॥ आत्मानं भूषयांचक्रुर्वस्त्राऽऽकल्पांजनादिभिः॥९॥

नवकुंकुमकिंजल्कमुखपंकजभूतयः॥ बलिभिस्त्वरितं जग्मुः पृथुश्रोण्यश्चलत्कुचाः॥१०॥

राय उनको देख देख प्रसन्न हो हो बड़े बड़े गोपोंसे मिल मिल सबको आदर सन्मानसे आसन दे देकर बैठालते थे, सब गोप बोले कि, नन्दरायजी हम आपके भाग्यकी बडाई नहीं कर सक्ते आज आपका पूर्व पुण्य उदय हुआ, तुम बडे धन्य भागी हो, तुमने हमारे मनके मनोरथ सिद्धकिये और आज हमारे मनकेसा समाज सजा है, नन्दरायजी बोले कि, भैया ! यह सब तुमही लोगोंके पुण्यका प्रभाव है, नहीं तो बुढापेमेंमेरा ऐसा भाग्य कहांथा जो यह परमानन्द प्राप्त हुआ। कोई केवडा छिडक रहा है, कोई गुलाब छिड़क रहा है, कोई पुष्पोंकी माला पहिरावैहै, कोई केशर और चन्दन लगावै है, मानो त्रिलोकीका आनन्द नन्दकेही घर छाय रहा है॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जबब्रजबालाओंने सुना कि, हमारी व्रजेश्वरीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब सब गोपियोंने सुन्दर सुन्दर शृंगार बनाय, मेहँदी, महावर, रचाय नवीननवीन केशर कस्तूरी मिलाय, मस्तकपर तिलक लगाये, फिर पीछे रेशमी वस्त्र आभूषण पहन, नेत्रोंमें अंजन आज नखशिखसे अलंकृत हुई॥९॥ केशर मुखारविन्दपर मली हुई हैं, कटि लचकरही है नितम्ब जिनकेपुष्ट हैं, कुच चलायमान हैं भेंटें लेले कर नन्दरायजीके

मन्दिरको चलनेकी सब सुन्दरी अभिलाषा कर रहीं थी॥१०॥ उज्ज्वल मणियोंके जडाऊ कुण्डल कानोंमें शोभायमान हैं, अति सुन्दर मुक्ताओके हार कुचोंके बीचमें लटक रहे हैं, मानो दोपर्वतोंके बीचमें गंगाकी धार बह रही है. हाथोंमें कंकण, चित्र विचित्र वस्त्र धारण किये, कमलसेभीकोमल जिनके चरण उनमें अनवट, बिछुवे, नुपुर पगपान, पहिनरहीं, जब एक संग सब मिलकर पग उठावें उस समय पायल और नूपुरोंकी झनकारइस प्रकार हो मानो आनन्दमय घन गर्जे है, उस शब्दसे दशों दिशाओंका अमंगल दूर होता चला जाता है और क्षीणकटिकी लचकसे जो शरीरकम्पायमान होताथा तो जुड़ेसे मालती और मदनबाणके फूलोंके हार खसिखसिकर उनके चरणोंमें गिरते थे सो वह हार आपसे आप नहीं गिरते थेकेश उन चरणोंकी अद्भुत शोभा देख देखकर रीझते थे और बार बार प्रसन्न हो होकर पुष्पोंके हार उनपर चढाते थे और दूसरा प्रयोजन यह भी थाकि, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ थे यही हमको श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन करानेके लिये चलते हैं, ऐसी ऐसी गोपियोंके झुण्डके झुण्ड नन्दजीके घरको चले

गोप्यः सुमृष्टमणिकुंडलनिष्ककंठ्यश्चित्रांबराःपथि शिखाच्युतमाल्यवर्षाः॥ नंदालयं सर्वलया व्रजतीर्विरेजुर्व्यालोल कुंडलपयोधरहारशोभाः॥११॥ ता आशिषः प्रयुंजानाश्चिरं पाहीति बालके॥ हरिद्राचूर्णतैलाद्भिः सिंचंत्यो जनमुज्जगुः॥१२॥ अवाद्यंत विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे॥ कृष्णे विश्वेश्वरेऽनंते नंदस्य व्रजमागते॥१३॥

जाते हैं, उस समयकी शोभाको कौन कवि वर्णन करसक्ता है॥११॥ तब सब गोपिका नन्दरायजीके ऑगनमें आनकर श्रीकृष्ण चन्द्रको आशीर्वाद देने लगीं. हे कृष्ण ! तुम चिरंजीव रहो, चिरंजीव रहो और हमारी बहुत दिनोंतक रक्षा करो. इस प्रकार बालकको आशिष देकर हलदीकेचूर्णमें तैल और पानी मिलाय परस्पर छिड़कती छिड़काती गीत गाती आँगनमें केशर और चन्दनके रंगकी झारी और पिचकारी लियेधूम धाम मचारहीं थी॥१२॥विश्वेश्वर विश्वभावन भगवान् के व्रजमें आतेही मनुष्योंके मनमें परमोत्सव बढा और मन्दिर मन्दिरमेंभाँति भाँतिके बाजे बजने लगे, सब गोपिका श्यामसुन्दरका मुखारविन्द देख देख आनन्द हो हो न्यौछावर कर नन्दरानीसे कह रहीं थीकि, हे यशोदा !तेरे पुत्रके तो चक्रवर्तीकेसे लक्षण हैं, चक्रादिक चिह्नोंके छिपानेके लिये अपने हाथोकी मुट्ठी बांधली है तैने पूर्व जन्ममेंभगवान् कीबड़ी सेवा करी है जो ऐसा मनोहर पुत्र पाया है. यशोदा सबके पाओं पड़ पड़ कर कहती थी कि, इसमें

मेराक्या है यह सब

तुम्हाराही पुण्य हैं, सब गोपी आशिष देती हैं कि, सदा सुहागन रहु और तेरा पुत्र युग युग जिये॥१३॥ व्रजवासियोंने उस दिन अत्यन्त प्रसन्न होहोकर घी, दूध, दही, माखन, जल, हलदी, मिला मिलाकर दधिक्रांदोंका प्रबन्ध किया, प्रथम नन्दरायको बुलाकर उनके ऊपर छिड़का फिरपरस्पर ऐसा खेल मचा कि जहाँ देखो तहां दधि माखनहीकी रेल पेल होरही थी, इस आनन्दको देवता विमानोंपर बैठे देख देखकर कहरहे थेकि, गोकुलवासियों का धन्य भाग्य है, जिन परमपुरुष परमात्माका दर्शन शिव सनकादिकके ध्यानमें महा कठिनतासे आता है वह नन्दकेघर जन्म लेकर व्रजवासियोंको आनन्द दिखा रहे हैं और देवांगना पछिताय पछिताय कहरहीं थीं कि, हाय आज हम नन्दरायके घरकी दासीभीन हुई जो इस उत्सव के सुखको समीपसे देखकर अपने मनको प्रसन्नकरतीं, इसप्रकार दधिकांदोंके उत्सव में सब व्रजवासी विह्वल होरहे थे॥१४॥अति उदारचित्त नन्दरायजीने सूत, मागध, बन्दीजन और जो जो गुणीजन गाने बजानेवालेथे सबको वस्त्र, आभूषण, गाय द्रव्य दान दिया और नन्दरा

गोपाः परस्परं हृष्टा दधिक्षीरघृतांबुभिः॥ आसिंचंतो विलिंपतो नवनीतैश्च चिक्षिपुः॥१४॥

नंदो महामनास्तेभ्यो वासोऽलंकारगोधनम्॥ सूतमागधवंदिभ्यो येऽन्ये विद्योपजीविनः॥१५॥

तैस्तैः कामैरदीनात्मा यथोचितमपूजयत्॥ विष्णोराराधनार्थाय स्वपुत्रस्योदयाय च॥१६॥

यसे सब वृद्धवृद्ध जनोंने कहा हे मित्र नन्द आज तो नाचनेका दिन है हमारे संग नाचलो, सो सबने नन्दजीका हाथ पकडकर इनको उठाया और सबव्रजवासी मग्न हो होकर नन्दकेसंग नाचने लगे और गोपियें बाजे बजाय बजाय गीत गाने लगी उस समयकी शोभाको देखकर सरस्वती हकीचिकीसी हो चित्रकी समान होगई, फिर और कवियोंका क्या सामर्थ्य है जो उस मनभावनी सुहावनी शोभाका वर्णन करसकैं?॥१५॥नन्दरायजी उदारचित्त पुत्रके कल्याणके लिये विष्णु भगवान् की आराधना करते थे और बारंबार यह वरदान मांगतेथे कि हे नाथ ! मुझपरप्रसन्नहोओ और यह मेरा बालक चिरंजीव रहै, इसीलिये नन्दजी के समीप जो जो गुणीजन आन आन कर जिस जिस वस्तुकी कामना करतेथे, उनको वही वस्तु देदेकर उनकी अभिलाषा पूर्ण करते थे और यथायोग्य उनका पूजनभी करते थे॥१६॥

नन्दरायजीके घर सब ब्रजकी बहू और बेटी आई परन्तु रोहिणीजी नहीं आई क्योंकि इनके पति मथुरामें थे. लिखा है कि, जिस स्त्रीका पतिपरदेशमें हो उसको शृंगार करना नहीं चाहिये और पराये घर न जाय; इसलिये नन्दजीके घर न गईं तब नन्दजीने रोहिणीसे जाकर कहा कितुमही तो बड़भागिनी ठहरी सोई हमारे घर न आई हमारे घर बधाई होरही है तुमको अवश्य चलना पडेगा, वह घर तो आपहीका है तुम हमकोऊपरी मत समझो, वह तो सोवरमें बैठी है, केवल एक सुनन्दा है उसको ऊपरहीके काम बहुत हैं, आई गई गोपियोंका आदर सत्कार कौन करै, रोहिणीबोलीं कि, इतने तुम चलो तुम्हारे भतीजेको दूधपिलाकर मैं भी आऊं हूँ, तब नन्दराय बोले कि, मेरें संगही तुमको चलना पड़ेगा क्योंकि वहां कामका कारीधारी सिवाय आपके कोई दृष्टि नहीं आता नन्दजीकी आज्ञानुसार सुन्दर सुन्दर वस्त्र, आभूषण, मुक्तामाला, कण्ठाभरण, पहन बलदेवजीको गोदमें ले प्रसन्न होती हुई नन्दजीके संग चली और दासीके हाथमें पान फूल मेवा मिठाईकी थाली देदी और यशोदा के समीप आय कृष्णका

रोहिणी च महाभागा नंदगोपाभिनंदिता॥ व्यचरद्दिव्यवासस्त्रक्कंठाभरणभूषिता॥१७॥

तत आरभ्य नंदस्य व्रजः सर्वसमृद्धिमान्॥ हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभृन्नृप॥१८॥

गोपान्गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः॥ नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह॥१९॥

मुख देख नौछावर कर नायनको दी और आंगनमें जो जो गोपी कुरता टोपी लिये बैठी थीं उनके हाथसे लेकर मन्दिरमें धरने लगीं और यथायोग्यउनका आदर सन्मान करने लगीं और सब गोपी यह आशिष देती थीं कि, सदा नन्दालयमें ऐसाही उत्सव बना रहै॥१७॥ जिस दिन से व्रजमेंकृष्णजन्म हुआ उस दिनसे सम्पूर्ण सम्पत्तियोंसे नंदजी परिपूर्ण होगये, नंदरायजी नित खजानेको लुटाते थे परन्तु फिर भाण्डागारको जैसेकातैसाही भरा पाते थे, क्योंकि वैकुण्ठनाथकी भार्या लक्ष्मी सो व्रजमें आय मालिनीका वेष बनाय द्वारद्वार बन्दनवार बांधती फिरती थीतहां और सम्पत्तियोंकी क्या गिनती है ?॥१८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलदीपक ! एक दिन नंदरायजीने गोकुलकी रक्षा करनेकेलिये बहुतसे गोपोंको सब प्रकारसे नियुक्त किया और आप कुछ ग्वालोंको संग ले और दूध, दही, माखन, मटकियों में भरभर कर गाडियोंमें लाद

और वार्षिक कर लेकर मथुराको कंसकी भटके लिये लेगये॥१९॥ अपने परम हितकारी नन्दरायजीका आगमन सुनकर वसुदेवजी बहुत प्रसन्नहुए कि, आज हमारे मित्र नन्दजी कंसकी बरसौडी देनेके लिये आये हैं, जब नंदजी कंसको कर दे चुके और किसी स्थानपर आनकर विश्रामकिया, उस समय वसुदेवजी कुछ भोजनादिक लेकर नन्दजीसे मिलनेको गये॥२०॥ जैसे मृतक देहमें प्राण आनेसे देह उठ खड़ा होता है ऐसेहीवसुदेवजीको आये देख नन्दजी अकुलाकर शीघ्र खड़ेहोगये और अपने प्यारे सुहृदका हाथ पकडकर प्रेममें विह्वलहो हृदयसे लगाकर मिलनेलगे॥२१॥

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्॥ ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम्॥२०॥ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्॥ प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः॥२१॥ पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वाऽनामयमादृतः॥ प्रसक्तधीःस्वात्मजयोरिदमाह विशांपते॥२२॥ दिष्ट्या भ्रातः प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते॥ प्रजाशाया निवृत्तस्य प्रजा यत्समपद्यत॥२३॥ दिष्ट्या संसारचक्रेऽस्मिन्वर्तमानः पुनर्भवः॥ उपलब्धो भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम्॥२४॥

हे राजन् ! नन्दजीका वसुदेवजी पूजनकर सुखपूर्वक आसनपर बैठाय कुशल क्षेम वूझने लगे और अपने परम पियारे पुत्रोंमें जिनका मन अत्यन्तलगरहा था सो वसुदेवजी आदर सत्कार कर वोले॥२२॥अहो भ्राता नन्दजी तुम्हारे सन्तान नहीं होती थी और आपने पुत्र होनेकी आशाभी छोड़दी थी क्योंकि बहुत वृद्धावस्था होगई थी, सो परमेश्वरकी कृपासे अव आपके पुत्र हुआ, यह सुनकर हम बहुत प्रसन्न हुए *॥२३॥ इस संसारमेंरहकर पुनर्जन्मकी नाई आपका मिलना हुआ यह बड़े आनन्दका दिन है, सब मिलते हैं परन्तु संसारमें मित्रका मिलना बहुत दुर्लभ है॥२४॥

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* शंका - वसुदेवजी ऐसे महात्मा होकर फिर उन्होंने अपने परममित्र नन्दजीके सग कपट क्यों किया ? जो सत्य बोलते कि, हमारे दो पुत्र आपके पास हैं आप रक्षा करो, क्योंकि विपत्तिमें सिवाय मित्रकेऔर कोई दूसरा सहाय नहीं करसक्ता, ऐसा कहनेपर क्या श्रीकृष्णकी रक्षा नन्दजी न करते. कपटका क्या काम था ?

**उत्तर-**त्रिलोकीमें जो प्राणीहें सो मायासे उन्मत्त हो रहे हैं, उसी प्रकार वसुदेवजीभी उन्मत्त होगये, जो कोई यह कहै कि विना कारण माया किसीको नहीं मोह करती, यह सब सत्य है, परन्तु वसुदेवजीको मोह होनेका क्या कारण था ? पहिले किसी समय नन्द और यशोदाको भगवान् ने यह वरदान दिया था कि हम जन्म तो दूसरेके यहां लेंगे परन्तु बाललीला तुम्हारे यहा करेंगे, इसलिये भगवान् नेमायासे मोहित करके कपट कराया, जो वसुदेव सत्य बोलते तो नन्दजी कृष्णकी पालना करते तो सही परन्तु कुछ मेददृष्टि रहती कि, दूसरेके पुत्र है इसलिये नन्दसे वसुदेवजीने कपट कियाभावसे कपट नहीं किया॥

अहो प्यारे ! नदी के प्रवाहसे काष्ठ और तृणादिक बहते हैं कभी स्थिर होते हैं परन्तु एक स्थानपर संगम नहीं होता. ऐसेही जो अपने प्यारे सुहृद् हैं उनका एक स्थान पर रहना नहीं होता॥२५॥ हे नन्दजी ! बहुत जल, तृण और गुल्मलतायुक्त पशुओंका हितकारी जो अत्यन्त रमणीक महावनहै तहां अपने सम्बंधियों सहित आप निवास करते हो वह महावन निरोग तो है ? इस वचनसे यह ध्वनि निकली कि, हमारे पुत्र जो आपकेनिवास स्थानपर वास करते हैं वह तो अच्छे हैं ? जहाँ जल, तृण अधिक होगा तो वहां गायोंकी अच्छी उदरपूर्ति होगी और दूधभी अधिक होगाऔर निरोग होगा तो उस दूधको हमारे पुत्र पियेंगे तो वह भी निरोग रहेंगे॥२६॥ वसुदेवजी बोले कि, हे मित्र ! मेरा पुत्र अपनी जननीके संगआपके व्रजमें रहताहै और आपहीको अपना पिता समझता है और आपही उस बालकके प्रतिपालक हैं, सो वह अपनी मातासहित प्रसन्न है ?

नैकत्र प्रियसंवासः सुहृदां चित्रकर्मणाम्॥ ओघेन व्यूह्यमानानां प्लवानां स्रोतसो यथा॥२५॥ कच्चित्पशव्यं निरुजंभूर्यंबुतृणवीरुधम्॥ बृहद्वनं तदधुना यत्रास्ते त्वं सुहृद्वृतः॥२६॥ भ्रातर्मम सुतः कच्चिन्मात्रा सह भवद्व्रजे॥ तातं भवतंमन्वानो भवद्भ्यामुपलालितः॥२७॥ पुंसस्त्रिवर्गोविहितः सुहृदो ह्यनुभावितः॥ न तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थायकल्पते॥२८॥ नंद उवाच॥ अहो ते देवकीपुत्राः कंसेन बहवो हताः॥ एकाऽवशिष्टाऽवरजा कन्या सापि दिवंगता॥२९॥ नूनं ह्यदृष्टनिष्ठोऽयमदृष्टपरमो जनः॥ अदृष्टमात्मनस्तत्त्वं यो वेद न स मुह्यति॥३०॥

जो पुरुष अपने प्रियतम प्यारोंको संग लेकर धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पदार्थोंको करतेहैं और जो अपने प्यारे स्नेहियोंको छोड़कर अकेले धर्मकरते हैं, वा द्रव्यका भोग भोगतेहैं, अथवा काम विषयका भोग करते हैं तो यह त्रिवर्ग उनको सुखदायक नहीं होते॥२७॥२८॥ वसुदेवजीके मधुरवचन सुनकर नन्दजी बोले कि अहो मित्र ! सब ब्रजमें परमेश्वरकी कृपा है और आपके पुत्र बलरामजी भी अच्छे हैं उनके उत्पन्न होनेके पीछेमेरेभी एक पुत्र उत्पन्न हुआ है वहभी आपकी कृपासे अच्छा है, परन्तु आपकी ओरका हमको बडा दुःख बना रहता है॥ २९ हे मित्र ! प्रारब्धहीसर्वोपरि है, जिस समय पुत्रादिकोंका देनेवाला भाग्य हीन होजाता है उस समय वह पुत्रादिक भी नहीं होतेहैं, सब विछुड जाते हैं, और जब प्रारब्ध

अच्छा होता है तो फिर सब आन मिलते हैं. हे भ्राता ! प्रारब्धही सुखका देनेवाला है और प्रारब्धही दुःखका देनेवाला है जो पुरुष इस प्रकार जानते हैंवह कभी मोहको प्राप्त नहीं होते. इस वचनसे यह सूचित किया कि, अहो वसुदेव ! अपने मनमें पुत्रोंका सोच सकोच मत करो किसी समय आपके पुत्रोंकाभी संयोग होजायगा, हमसे वियोग हो जायगा॥३०॥ वसुदेवजी बोले कि, हे नन्दरायजी! विधाताने जो हमारे भाग्य में लिखा है।उसको कोई नहीं मेटसक्ता और इस संसारमें आनकर ऐसा कौनहै जो कष्ट नहीं भोगता ? और आपकी समान अपना मित्र हम किसीको नहींदेखते. देखो हमने कंसके भयसे अपनी गर्भवती स्त्रीको आपके यहां निःसन्देह भेज दिया और जब उसके पुत्र हुआ तो आपने अपने पुत्रकी समानउसका लालन पालन किया, यह परमोपकार आपका मैं कैसे भूल सक्ता हूं ? जन्म जन्मांतरभी आपकी सेवा करूं तोभी उऋण नहीं हो सक्ता.जब सुना कि, आपके यहां पुत्रका जन्म हुवा तो मैंने परमसुख माना. हे मित्र ! मैं अपने पुत्रोंमें और आपके पुत्रोंमें कुछ भेद नहीं समझता

वसुदेव उवाच॥ करो वै वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः॥ नेह स्थेयं बहुतिथं संत्युत्पाताश्च गोकुले॥ ३१॥श्रीशुक उवाच॥ इति नंदादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययुः॥ अनोभिरनडुद्युक्तैस्तमनुज्ञाप्य गोकुलम्॥३२॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू० नंदवसुदेवसंगमो नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदःपथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिंतयन्॥ हरिं जगाम शरणमुत्पातागमशंकितः॥१॥

परन्तु इन दिनों कंसने बडा उपद्रव मचा रक्खाहै छोटे छोटे बालकोंको मारनेकी आज्ञा देरक्खी है और आज एक पूतनानाम राक्षसीको गोकुलमेंभी भेजा है, अब तुम वार्षिककर कंसको देचुके और हमसे भी मिल चुके, अब यहाँ रहना तुम्हारा बहुत दिनतक अच्छा नहीं, न जानियेगोकुलमें पूतनाने क्या उत्पात मचाया होगा ?॥३१॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजीके वचन सुन नन्दरायने सब गोपोंको आज्ञा दी कि, शीघ्र गाडी जोतो ! यह कह वसुदेवजीसे आज्ञा लेकर नन्दजी मथुरा पुरीसे गोकुलको चल दिये॥३२॥ इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे भाषाटीकायां कृष्णजन्मोत्सववर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ दोहा-छठयेमें नॅदरायजी, शोच करत मन जाहिं।मरी परी इक राक्षसी, देखी मारगमाहिं॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित ! नन्दरायजी मार्गमें यह विचार करते हुए जारहे

थे कि वसुदेवका वचन तो मिथ्या होही नहीं सक्ता उत्पातके भयसे भगवान्‌का स्मरण करने लगे कि, हे जनप्रतिपालक ! जो यह दो बालक आपनेदिये हैं तो इनकी रक्षाभी आपहीको करनी पड़ेगी॥१॥ महाघोर रूपवाली बालघातिनी पूतना नाम राक्षसी कंसकी पठाई हुई, जितने व्रजमें पुरग्रामादिक थे सबमें बालकोंको मारती फिरती थी॥२॥ यह बात सुन राजा परीक्षित्के मनमें शंका हुई तो श्रीशुकदेवजी से बूझा कि, वह पूतनानन्दजीके मन्दिरमें गई वा नहीं गई ? और गई तो क्या किया ? श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! चिन्ता मत करो जहॉ परमेश्वरका यश औरयज्ञादिक कर्म नहीं होते वहीं राक्षसी जा सक्ती हैऔर अपना पुरुषार्थ करती है, और जिन स्थानोंमें भगवान् कास्मरण कीर्तन होता रहता है वहाँराक्षसलोग क्या कर सक्ते हैं ? और नन्दजीके भवन में तो साक्षात् अनन्त भगवान् विराजमान हैं फिर वहाँ पूतना बिचारी क्या कर सक्ती है ?आपही मारी जायगी॥३॥हे राजन् ! अनेक राक्षस गांव गांवमें बालकोंको मारनेके लिये फिरते थे परन्तु तो किसके मनमें धैर्य नहीं था और

कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी। शिशुश्चचार निघ्नंती पुरग्रामव्रजादिषु॥२॥ न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानिस्वकर्मसु॥ कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि॥३॥ सा खेचर्येकदोपेत्य पृतना नंदगोकुलम्॥ योषित्वा माययाऽत्मानं प्राविशत्कामचारिणी॥४॥ तां केशबंधव्यतिषक्तमल्लिकां बृहन्नितंबस्तनकृच्छमध्यमाम्॥ सुवाससं कंपितकर्णभूषणत्विषोल्लसत्कुंतलभूषिताननाम्॥५॥

ठोंपहर इसी सोचमें व्याकुल रहता था कि, उसी अवसरमें पूतना नाम राक्षसीको बुलाकर अपना सब वृत्तान्त कहा कि और किसीसे तो हमाराये पूरा न हुवा परन्तु मुझको विश्वास है कि, तुझसे हमारा काम सिद्ध होगा और बालकोंका तो मुझको थोडाही खटका है परन्तु गोकुलमें नन्दकेजो पुत्र हुवा है उसका मुझको बडा भय है सो तू गोकुल में जा और उसको किसी प्रकारसे मारके आ, मैं तुझको पूरा पारितोषिक दूंगा. यह बात सुनतेही पूतना कंसकी आज्ञा शिरपर धारणकर गोकुलको चलदी और मार्गमें यह विचार करती जाती थी की किसप्रकार नन्दकुमारको मारना चाहिये?फिर सोचा कि और किसीप्रकारसे यह कर्म नहीं होगा, गोपीका वेष बनाकर बधाई देनेके मिष नन्दके घर जाऊं और छलबल कर उस बालकको मारआऊँ ऐसा विचार, बन ठन गोकुलमें पहुँची॥४॥ उसकी चोटीमें मालतीके फूल गुँथे हुये थे, बडे २ नितम्ब और छोटे छोटे स्तनों के भारसे कटि जिसकी

नीचेको झुकी जातीथी, सुन्दर सुन्दर वस्त्र धारण कररहीथी, कानोंमें कर्णफूल, कुण्डलोंकी छबि शशिको लज्जित कररहीथी और केशोंसे जिसका मुखशोभायमान होरहा था॥५॥ मन्द मन्द मुसकान और बॉकी चिंतवन व्रजवासियोंके मनको मोहित करनेवाली, बेखटक राजभवन में चली गई और द्वारपालोंपर ऐसी मोहिनी डाली कि, किसीने उसको नहीं रोका ओर उसके हाथमें एक कमलका फूलथा उसको देखकर सब गोपियोंने कहा कि, यह लक्ष्मीअपने पति नारायणके दर्शनके लिये आई हैं और यशोदा रोहिणीनेभी यही जाना॥ ६॥ बालकोंको ग्रहरूप जो पूतनाहै सो छोटे २ बालकोंको खोजतीहुई नन्दजीके मंदिरमें आई जहां दुष्टोंके मारनेवाले भगवान्, भस्ममें दबी हुई अग्निके समान बालकरूपमें अपने तेजको छिपाये शय्यापर पड़े सोरहे थेउनको देखा॥७॥ स्थावर जंगम प्राणियों के अन्तर्यामी श्रीकृष्णचन्द्रने उस बालघातिनी पूतनाको देखकर आंखें मीचली और हँसकर चुप होरहे, उस दुष्टा

वल्गुस्मितापांगविसर्गवीक्षितैर्मनो हरतीं वनितां व्रजौकसाम्॥ अमंसतांभोजकरेण रूपिणीं गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतांपतिम्॥६॥ बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्यदृच्छया नंदगृहेऽसदंतकम्॥बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि॥७॥विबुध्य तां वालकमारिकाग्रहं चराचरात्मा स निमीलितेक्षणः॥ अनंतमारोपयदंकमंतकं यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः॥८॥ तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां वीक्ष्यांतरा कोशपरिच्छदासिवत्॥ वरस्त्रियं तत्प्रभया चधर्षिते निरीक्षमाणे जननी ह्यतिष्ठताम्॥९॥ तस्मिंस्तनं दुर्जरवीर्यमुल्वणं घोरांकमादाय शिशोर्ददावथ॥ गाढं कराभ्यांभगवान्प्रपीड्य तत्प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिवत्॥१०॥

ने आतेही कालरूप भगवान् को गोदीमें उठालिया, जैसे कोई अज्ञानी पुरुष रस्सी समझकर सोते हुये साँपको उठा लेता है॥८॥ जैसे मखमलके म्यानकीतलवार ऊपरसे मनोहर और भीतरसे महातीव्र तीक्ष्णधारावाली होती है, ऐसी पूतनाको देख चकित होकर रोहिणी और यशोदा देखती रही मुखसेकुछ न कहा, तब एक गोपी बोली कि, तू कौनहै? तब उस कपटिन पूतनाने कहा कि, मैं देवांगना हूं तुम्हारे यहां बधाई देने आई हूं इस मनोहरबालकको देखकर जी खिलानेको चाहा इसलिये गोदमें लेलिया, परमेश्वर करें यह बालक करोड़ वर्ष जीता रहे॥९॥ऐसी रीति प्रीति भरी बात चीतकर उस कपटरूप पूतनाने चुमकारके कृष्णको गोदमें ले लिया और भयानक विष लगा हुआ अपना स्तन उनके मुख कमलमें दे दिया,

तब तो कुपित होकर कृष्णचन्द्रने दोनों हाथोंसे स्तन उसका पकड़के प्राण सहित स्तनको औषधि समझकर पीगये॥१०॥ तब पूतनाबोली, अरे लाल ! छोडदे छोडदे मेरे प्राण चले बस रहनेदे मेरा अपराध क्षमाकर मेरे शरीरमें अत्यन्त पीडा होती है, जब नेत्र फटने लगे तो पुकारी अरीयशोदा ! अरी यशोदा ! अपने लालसे मुझको छुटा, मैं मरी, यह तेरा बालक मनुष्य नहीं है, यह तेरी कोखमें कोई महाबलवान् देवता उत्पन्न हुवा हैयह कहतीही कहती हाथ पांव पीटकर मरगई॥११॥ महा गम्भीर पूतनाके शब्दसे पर्वतों सहित पृथ्वी कम्पायमान होगई, ग्रहतारागणसहित सबआकाशमण्डल चलायमान होगया, रसातल और दिशाओंमें घोर शब्द पूरित होगया, इन्द्रवज्रपातहोनेकी शंकासे मनुष्य पछाड़ खाखाकर पृथ्वीपर

सा मुंचमुंचालमिति प्रभाषिणी निष्पीड्यमानाऽखिलजीवमर्मणि॥ विवृत्य नेत्र चरणौ भुजौ मुहुः प्रस्विन्नगात्रा क्षिपतीरुरोद ह॥११॥ तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा॥ रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः पेतुःक्षितौ वज्रनिपातशंकया॥१२॥ निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसुर्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि॥ प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप॥१३॥ पतमानोऽपि तद्देहस्त्रिगव्यूत्यंतरद्रुमान्॥ चूर्ण यामास राजेंद्र महदासीत्तदद्भुतम्॥१४॥ ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकंदरनासिकम्॥ गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम्॥१५॥

गिरगये *॥१२॥ स्तनोंकी व्यथासे प्राण जिसके निकलगये और मरती समय कपटरूप जिसने अपना त्याग दिया, राक्षसीरूप प्रगट करलियाजैसे मरनेके समय वृत्रासुर कपट तजकर भूतलपर गिरा था, इसीप्रकार पूतनाभी हाथ पांव पसारके पृथ्वीपर गिरी॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि,हे राजन् ! जिस समय पूतना मरकर पृथ्वीपर गिरी उस समय छह कोशके बीचमें जो वृक्ष थे उनका चूर्ण होगया॥ १४॥ उस महाभयानकरूपवाली पूतनाके मुखमें हलकी समान दाढैंऔर पहाड़की कन्दराकी समान जिसकी नाक, पर्वतके शृंगकी सदृश जिसके स्तन और महाभयंकर

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* शंका - कसंकी भेजी हुई पूतनाने मरते समय ऐसा गम्भीर शब्द किया कि, तीन लोक कम्पायमान होगये, बडा आश्चर्य मालूम पडता है, हम लोगोंने तो कभी नहीं सुना, राक्षसीके शब्द से तीनोंलोक काप उठे ?

**उत्तर-**जब पूतनाने मरतेसमय शब्द किया उस समय गुप्त होकर तीन लोकमें स्थित जो प्रजा थी सो सव श्रीकृष्णके दर्शनके लिये व्रजमें आये थे सो सब प्रजागण पूतनाके शब्दको सुनके शीघ्र काँपनेलगे इसलिये तीन लोकका नाम व्यासजीने कहा था, क्योंकि लोक प्रजाका भी नाम है लोकमें और प्रजामें कुछ भेद शास्त्रमें देखनेमें नहीं आता.

लोहित रंगके जिसके बिखरे हुए केश थे॥१५॥ अन्धकूपकी नाईं गम्भीर गम्भीर जिसके नेत्र, जैसे पुल बँधा होय तैसे हाथ पांव जंघा जिसके, सूखेसरोवरके समान जिसका उदर है॥१६॥ ऐसा महाभयानक पूतनाका देह देखकर गोप गोपी अत्यन्त भयभीत हुए. क्योंकि उसके गम्भीर शब्दसेपहिलेही उनके हृदय, कान, मस्तक, फटगये थे॥१७॥ उस पूतनाकी छातीपर निःशंक श्रीकृष्णचन्द्र क्रीडा कर रहे थे, सब गोपी जो हड़बड़ाईहुई व्याकुल फिरती थीं झटपट उस राक्षसीके ऊपरसे उठाकर हृदयसे लगालिया॥१८॥ सबगोपी और यशोदा रोहिणी व्रजनन्दनके गायकी पूँछसे झाडा देकर फूंक मारने लगीं और अनेक विधियोंसे रक्षाकर उतारे उतारे॥१९॥ फिर श्रीकृष्णचन्द्र मनमोहन प्यारेको गोमूत्रसे स्नान कराय

अंधकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम्॥ बद्धसेतुभुजोर्वंघ्रिशून्यतोयह्रदोदरम्॥१६॥ संतत्रसुः स्म तद्वीक्ष्य गोपागोप्यः कलेवरम्॥ पूर्वं तु तन्निस्स्वनितभिन्नहृत्कर्णमस्तकाः॥१७॥ बालं च तस्या उरसि क्रीडंतमकुतोभयम्॥गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसंभ्रमाः॥१८॥ यशोदारोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः॥ रक्षां विदधिरे सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभिः॥१९॥ गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसाऽर्भकम्॥रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशांगेषु नामभिः॥२०॥ गोप्यः संस्पृष्टसलिला अंगेषु करयोः पृथक्॥ न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत॥२१॥ अव्यादजोंघ्रिमणिमांस्तव जान्वथोरू यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः॥ हृत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तुकंठं विष्णुर्भुजंमुखमुरुक्रम ईश्वरः कम्॥२२॥

गोरजमें लुटाय गोबर लगाय द्वादश अंगोंमें केशवादिक द्वादश नामोंसे रक्षा करने लगीं॥२०॥ सब गोपियोंका मन जो व्याकुल होरहाथा इसलियेपहिले कुछ श्रेष्ठ उपाय न करसकीं. फिर सावधान हो स्वस्थ चित्त कर सब गोपी स्नानकर आचमन ले अपने अंगोंमें तथा करोंमें पृथक् पृथक्अंगन्यास और करन्यास करके फिर नन्दनन्दनके शरीर में बीजन्यास किया॥२१॥ हे यशोदानन्दन ! अजन्मा भगवान् तुम्हारे चरणोंकी रक्षा करैं,अणिमान् भगवान् तुम्हारे उरुओं की रक्षा करैं, यज्ञ भगवान् तुम्हारी जंघाओंकी रक्षा करैं, अच्युत भगवान् तुम्हारी कटिकी रक्षाकरैं, हयग्रीव भगवान्तुम्हारे उदरकी रक्षा करैं, केशव भगवान् तुम्हारे हृदयकी रक्षाकरैं, विष्णु भगवान् तुम्हारी भुजाओंकी रक्षा करैं, उरुक्रम भगवान् तुम्हारे सुखारविन्दकी

रक्षा करैं, ईश्वर भगवान् तुम्हारे माथेकी रक्षा करैं॥२२॥ चक्रधारी भगवान् तुम्हारे अग्रभागकी रक्षा करैं, गदाधर भगवान् तुम्हारे पश्चाद्भागकी रक्षाकरैं, धनुषधारी मधुनामदैत्यके हन्ता भगवान् और खड्गधारी अजन्मा भगवान् यह दोनों तुम्हारे दाहिने और बायें पार्श्वकी रक्षा करैं, शंखधारी उरुगाय भगवान् चारों कोनोंकी रक्षा करैं, उपेन्द्र भगवान् तुम्हारे ऊपर की रक्षा करैं, तार्क्ष्य भगवान्· नीचे पृथ्वीमें रक्षा करैं, हलधर भगवान् सब ओरसेतुम्हारी रक्षा करैं॥२३॥ हृषीकेश भगवान् तुम्हारी इन्द्रियोकी रक्षा करैं, नारायण भगवान् तुम्हारे प्राणोकी रक्षा करैं, श्वेतद्वीपाधिपति भगवान्तुम्हारे चित्तकी रक्षा करैं, योगेश्वर भगवान् तुम्हारे मनकी रक्षा करैं॥२४॥ पृश्निगर्भ भगवान् तुम्हारी बुद्धिकी रक्षा करैं, पर भगवान् तुम्हारेआत्माकी रक्षा करैं, विहारके समय गोविन्द भगवान् तुम्हारी रक्षा करैं, शयनके समय माधव भगवान् तुम्हारी रक्षा करैं॥२५॥ वैकुण्ठनाथ भगवान्

चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाऽजनश्च॥ कोणेषु शंख उरुगाय उपर्युपेंद्रस्तार्क्ष्यः क्षितौहलधरः पुरुषः समंतात्॥२३॥ इंद्रियाणि हृषीकेशः प्राणान्नारायणोऽवतु॥ श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु॥२४॥ पृश्निगर्भश्च ते बुद्धिमात्मानं भगवान्परः क्रीडतं पातु गोविंदः शयानं पातु माधवः॥२५॥ व्रजंतमव्याद्वै कुंठ आसीनं त्वां श्रियःपतिः॥ भुंजानं यज्ञभुक्पातु सर्वग्रहभयंकरः॥२६॥ डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्मांडा येऽर्भकग्रहाः॥ भूतप्रेतपिशाचाश्च यक्षरक्षोविनायकाः॥२७॥ कोटरारेवतीज्येष्ठापूतना- मातृकादयः॥ उन्मादा ये ह्यपस्मारादेहप्राणेंद्रिय द्रुहः॥२८॥ स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धबालग्रहाश्च ये सर्वे नश्यंतु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरवः॥२९॥श्रीशुक उवाच॥ इति प्रणयवद्धाभिर्गोपीभिः कृतरक्षणम्॥ पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम्॥३०॥

चलने फिरनेके समय तुम्हारी रक्षा करैं, लक्ष्मीपति भगवान् बैठनेके समय तुम्हारी रक्षा करैंऔर सर्व ग्रहोंके भयसे दूर करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान्भोजनके समय तुम्हारी रक्षा करैं॥२६॥ डाकिनी, शाकिनी, यातुधान, कूष्माण्ड, बालग्रह भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, विनायकगण॥२७॥ कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृकादिक जो राक्षसी हैं सो और उन्माद, अपस्मारादिक जो जो रोगके करनेवाले देह, प्राण, इन्द्रियोंकेद्रोही हैं॥२८॥ और जो जो स्वप्नमें देखने के उत्पात हैं वृद्ध ग्रह, बाल ग्रह, योगिनी, वेताल, जो समस्त विष्णु भगवान् के नाम लेनेसे डरते हैं सोसब नष्ट होजॉय॥२९॥ इस प्रकार हाथ जोड गोपियोने विष्णुभगवान् कीप्रार्थनासे रक्षा करके श्रीयशोदानन्दनको यशोदाको सौंपदिया

तब यशोदाजीने मनमोहनप्यारेको दूध पियाय घरमें छिपायके शय्यापर सुवायदिया॥३०॥ उसी अवसरमें नन्दादिक व्रजवासीभी मथुरासेआगये, तब मार्गमें मरीहुई पूतानाको पडी देखकर बड़ा आश्चर्य माना॥३१॥ नन्दजी कहनेलगे कि, वसुदेवजी तो निश्वय कोई ऋषि वा योगेश्वरजान पड़ते हैं, क्योंकि जो कुछ उन्होंने हमसे कहा था वही हुवा. हमसे कहा था कि, तुम शीघ्र मथुरासे गोकुलको जाओ वहां कोई नया उत्पातहोनेवाला है, सो आतेही नेत्रोंसे देखलिया॥३२॥ पीछे सब गोकुलवासियोंने पूतनाके देहको कुल्हाडोंसे काट काटकर घरोंसे दूर लेजाकरचितामें धर उसको फूँकदिया॥३३॥ जिस समय पूतनाका शरीर जलने लगा तो उसकी चितामेंसे अगरकीसी सुगंधिका धुवॉ निकलने लगा

तावन्नंदादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः॥ विलोक्य पूतनादेहं बभूवुरतिविस्मिताः॥३१॥ नूनं वतर्षिः संजातो योगेशो वा समास सः॥ स एव दृष्टो छत्पातो यदाहानकदुन्दुभिः॥३२॥ कलेवरं परशुभिश्छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः॥ दूरेक्षिप्त्वाऽवयवशो न्यदहन्काष्ठवेष्टितम्॥३३॥ दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः॥ उत्थितः कृष्णनिर्मुक्तसपद्याहतपाप्मनः॥३४॥ पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना॥जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप सद्गतिम्॥३५॥किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने॥ यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा॥३६॥

पाद्भ्याभक्तहृदिस्थाभ्यां वंद्याभ्यां लोकवंदितैः॥ अंगं यस्याः समाक्रम्य भगवानपिवत्स्तनम्॥३७॥ यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम्॥ कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावो नु मातरः॥ ३८॥

श्रीकृष्णचन्द्र ने उसके स्तन जो पान किये थे इससे सब पाप उसके दूर होगये॥३४॥ जगत् के बालकोंकी मारनेवाली और रुधिरकी प्यासीपूतनाने भगवान् कोस्तन पिलाकर मारने की इच्छा की परन्तु भगवान् नेतोभी उसको मोक्ष दिया॥३५॥ फिर श्रद्धा और भक्तिकरके श्रीकृष्णचन्द्रभगवान् को माता अत्यन्त प्रिय पदार्थोंकी देनेवाली मुक्तिको पावै तो क्या आश्चर्यकी बात है ?॥३६॥अपने जनोंके हृदयमें वास करनेवालेऔर लोकवन्दित देवताओंके भी पूजनीय ऐसे जो देवताधिपति ब्रह्मा जिनको प्रणाम करें ऐसे चरणारविन्दोंसे पूतनाका अंग दाबकरश्रीकृष्णचन्द्रने स्तन पान किया॥३७॥ माताकी गति स्वर्ग है उस गतिको पूतना राक्षसीने प्राप्त किया और जिन गायों, गोपियोंका दूध

श्रीकृष्णचंद्रने पिया है जो वह सुन्दर गतिको प्राप्त होयँ तो क्या आश्चर्य है ?॥३८॥ मोक्षको आदिलेकर समस्त पदार्थोंके देनेवाले देवकीकेपुत्र भगवान् ने पुत्रके स्नेहसे गाय और गोपियोंका दूध परिपूर्ण होकर पिया॥३९॥ हे राजन! श्रीकृष्णचन्द्रमें पुत्रभाव माननेवाली उन माता औरगोपियोंको अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला संसार न होगा॥४०॥ ब्रजवासी लोग पूतनाकी चिताके धुयेंकी सुगंधि सूँघकर परस्पर कहने लगे कियह आजक्या है ? और यह सुगन्धि कहांसे आती है ? यह कहते हुए नन्दादिक गोकुलमें आये॥४१॥ तब ग्वालबालोंके मुखसे पूतनाका आना और उसकामरना और कुशलपूर्वक बालकका बचना सुनकर नन्दादिक व्रजवासी बड़ा आश्चर्य माननेलगे॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेपरीक्षित् ! उदाखुद्धि नन्दजी मथुरासे आनकर पुत्रको गोदमें लेकर परमानन्दको प्राप्त हुए और बारंबार उसके शिरको सूंघ सूंघ मनही मनमें प्रसन्न

पयांसि यासामपिबत्पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम्॥भगवान्देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः॥३९॥ तासामविरतं कृष्णेकुर्वतीनां सुतेक्षणम्॥ न पुनः कल्पते राजन्संसारोऽज्ञानसंभवः॥४०॥ कटधूमस्य सौरभ्यमवघ्राय व्रजौकसः॥किमिदं कुत एवेति वदंतो व्रजमाययुः॥४१॥ ते तत्र वर्णितं गोपैः पूतनागमनादिकम्॥ श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्तिशिशोश्चासन्सुविस्मिताः॥४२॥ नंदः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः॥ मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह॥४३॥ य एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम्॥ शृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्योगोविंदे लभते रतिम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० पूतनामोक्षो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥

होते थे और चूम चूमकर प्यार करते थे॥४३॥ श्रीशुकदेवजीसे राजा परीक्षित् ने बूझा कि हे भगवन् ! यह पूर्वजन्ममें पूतना कौन थी ? जिसकोश्रीकृष्णचन्द्र महाराजने ऐसी उत्तम गति दी ? श्रीशुकदेवजी बोले कि, प्रथम जन्ममें यह राजा बलिकी कन्या थी और रत्नमाला इसका नाम था,जिस समय वामनजीके स्वरूपको इसने देखा तो मनहीमनमें यह कामना करी कि, जो ऐसा सुन्दर सुत मैं पाऊं तो हृदयपर रखकर स्तनपान कराऊं.श्रीभगवान् वासुदेव सर्व घटघटके वासी उसके हृदयकी गति जानकर उससे कहा कि, कृष्णावतारमें तेरी मनोकामना पूर्ण करूंगा. दैत्यकुलमेंजो इसका जन्म था इसलिये तामसी देहके कारण राक्षसकेही घरमें जन्म लिया और पूतना नाम हुवा॥४४॥ इति श्रीभागवते महापुराणेदशम स्कंधे पू० भाषाटीकायां षष्ठोऽध्यायः॥६॥

दोहा-इस सप्तम अध्यायमें शकटासुरहि गिराय। माताको मुखमें दिये, तीनों लोक दिखाय॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे प्रभो ! छः प्रकारकेऐश्वर्यसे परिपूर्ण सब प्राणियोंके दुःखोंके दूर करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् ने जिन जिन अवतारोंको धारण करके जो जो लीला करी है वह सब मेरेकानोंको और मेरे मनको प्रिय लगती हैं॥१॥ जो मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्रके चरित्रोंकी कथा दिन रात सुनतेहैं उनके मनकी ग्लानि जाती रहती है औरअनेक प्रकारकी तृष्णाभी दूर हो जाती हैं, शीघ्रही सम्पूर्ण अन्तःकरणकी शुद्धि हो जाती है, भगवान् में भक्ति और प्रेम बढताहै और हरिभक्तोंसेमित्रता होतीहै इसलिये अनुग्रह करके श्रीकृष्णके मनोहर चरित्र मुझको सुनाओ॥२॥ और अनन्त मनुष्य देह धारणकर मनुष्योंकीसी लीला

राजोवाच॥ येनयेनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः॥ करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो॥१॥ यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा सत्त्वं च शुध्यत्यचिरेण पुंसः भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं तदेव हारं वद मन्यसे चेत्॥२॥ अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्॥ मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुंधतः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्॥ वादित्रगीतद्विजमंत्रवाचकैश्चकार सुनोरभिषेचनं सती॥४॥ नंदस्यपत्नी कृतमज्जनादिकं विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः॥ अन्नाद्यवासस्रगभीष्टधेनुभिः संजातनिद्राक्षमशीशयच्छनैः॥५॥ औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी समागतान्पूजयती ब्रजौकसः॥ नैवाशृणोद्वै रुदितं सुतस्य सा रुदन्स्तनार्थीचरणावुदक्षिपत्॥६॥

करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रका मनोहर अद्भुत बालचरित्र हमारे सामने वर्णन करो॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! जब बहुत दिन व्यतीत हुए तोश्रीकृष्णकी वर्षगाॅठके उत्सवका दिन आया और उसी दिन जन्मनक्षत्रका योगभी आगया तो उस दिन महामंगल हुवा और सब गोपिकाभी बधाईलेलेकर आई. नन्दरानी यशोदाजीने बाजे बजवाये, गीतगवाये, ब्राह्मणोंको बुलाकर स्वस्तिवाचन पढवाये और श्रीकृष्णचन्द्रको अभिषेक स्नानकराने लगीं॥४॥ जब स्नान करवाया तो बालमुकुन्दके नेत्रोंमें निद्रा आगई, तब सहजसे श्रीकृष्णको गाड़ेके नीचे पालनेमें ब्रजरानीने थपकोरकेसुलादिया॥५॥ भगवान् कीबधाई लेनेसे जिनके मनमें अत्यन्त हर्ष बढ़रहा था, वह यशोदारानी उदारचित्त घर आईहुई गोपियोंका आदर

सन्मान कररही थी और ऐसी मग्न होरही थी कि, अपने पुत्रके रोनेका शब्दभी नहीं सुनसकीं, कृष्णको भूख लगी तो दूध पीनेकी इच्छा हुई, तब रोते २पॉव ऊपरको उठा लिये॥६॥गाड़ेके नीचे पालनेमें सोतेहुए श्रीकृष्णके अति छोटे २ कोमल कमलसे जो चरणारविन्द लाल लाल मूंगोंके रंगथे,उन चरणोंकी ठोकरसे गाडा गिरपडा और अनेक प्रकारसे रसोंसे भरे तांबे, पीतलके बासन गिरपड़े, पहिये न्यारे न्यारे उखडकर गिरगये, धुरीनिकलगई, जुआ टूटगया॥७॥ यशोदा आदि लेकर जो जो व्रजकी स्त्रियें थीं और जो जो भेंटें लेकर वसुदेवके घर उत्सवमें आईं थीं, और नन्दजीसे आदि लेकर जो जो व्रजवासी थे, सो सब उस आश्चर्यको देखके व्याकुल होगये कि, आपसे आप गाडा किस प्रकार टूट पडा॥८॥ कोई कुछ कोईकुछ परस्पर विवाद करके कहने लगे और मनही मनमें व्याकुल थे परन्तु किसीको कुछ निश्चय नहीं हुआ तब नन्द यशोदासे समीपके खेलनेवा

अधश्शयानस्य शिशोरनोऽल्पकप्रवालमृद्वंघ्रिहतं व्यवर्तत॥ विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्न कूवरम्॥ ७॥ दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय औत्थानिके कर्मणि याः समागताः॥ नंदादयश्राद्भुतदर्शनाकुलाःकथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात्॥८॥ (इति ब्रुवंतोऽतिविवादमोहिता जनाः समंतात्परिवब्रुरार्तवत्)॥ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्च बालकाः॥ रुदताऽनेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः॥९॥ न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत॥ अप्रमेयं वलं तस्य बालकस्य न ते विदुः॥१०॥ रुदंतं सुतमादाय यशोदा ग्रहशंकिता॥ कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत्॥११॥

ले बालकोंने कहा कि, तुम किसी बातका सन्देह क्यों करते हो, हमने अपनी आँखोंसे देखा कि, रोते रोते श्रीकृष्णने पॉवकी ठोकर मारी इससेयह शकट उलटकर गिर पड़ा, इसमें किंचिन्मात्रभी सन्देह नहीं॥९॥बालक समझकर श्रीकृष्णके अनन्त बलको किसीने नहीं जाना, इसलियेउन बालकोंकी बातका किसीने विश्वास नहीं माना और कहने लगे कि, कहां श्रीकृष्णके कोमल कमलसे चरण और कहां यह महाकठोर शकट, छोटेसे बालक की ठोकरसे कैसे टूट सक्ता है ? भाई हमको तो किसी प्रकार विश्वास नहीं आता॥१०॥ यशोदानेरोते हुये अपने पुत्रको उठाकर हृदयसे लगा लिया और कहने लगी आज कोई बडा खोटा ग्रह हमारे ऊपर आगया था परन्तु तुम

पंचोंके प्रतापसे मेरा बालक बचा. उसीसमय ब्राह्मणोंको बुलाय बहुतसा दान पुण्य कर स्वस्तिवाचन पढवाकर व्रजभूषण प्यारेको दूध पिलायाऔर बारबार यही विचार करती रही कि, कहीं डर न गया हो॥११॥ परन्तु श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावको न जाना और ब्राह्मणोंके कहनेसे आठोंदिशाओंमें बलिदान करके और सम्पूर्ण वस्तु धरके गाड़ा रख दिया और ब्राह्मणोंने नवग्रहादिकोंका पूजन होम कराय;दधि, अक्षत, फल, फूल,कुश, चन्दन मॅगाय जलसे गाडेका पूजन किया, देखो ! प्रेमी व्रजवासियोंका धान्य खाखाकर व्रजके ब्राह्मणभी प्रेमी हो गये जो गाड़ेका पूजनकिया॥१२॥ निन्दा, झूठ, पाखण्ड, ईर्षा, हिंसा, अभिमान नहीं है जिन पुरुषोंके उन सत्यवादी ब्राह्मणोंका अशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता॥१३॥ यह बात मनमें विचारकर नन्दरायजी श्रीकृष्णको गोदमें लेकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेदके मंत्रोंसे शुद्ध और पवित्र

पूर्ववत्स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम्॥ विप्रा हुत्वाऽर्चयांचक्रुर्दध्यक्षतकुशांबुभिः॥१२॥ येऽसूयानृतदंभेर्ष्याहिंसामानविवर्जिताः॥ न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः॥१३॥ इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः॥जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः॥१४॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नंदगोपः समाहितः॥ हुत्वा चाग्निं द्विजातिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम्॥१५॥ गावः सर्वगुणोपेता वासस्त्रग्रुक्ममालिनीः॥ आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्तेचान्व जत॥१६॥ विप्रा मंत्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाशिषः॥ ता निष्फला भविष्यंति न कदाचिदपि स्फुटम्॥१७॥ एकदाऽऽरोहमारूढं लालयंती सुतं सती। गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत्॥१८॥

औषधियोंके पानीसे पुत्रका अभिषेककरातेभये॥१४॥ फिर स्वस्तिवाचन और अग्निमें होम करातेभये नन्दरायजी और सब गोप गोपियोंने सावधानहोकर श्रेष्ठ गुणकारी अन्नका दान ब्राह्मणोंको दिया॥१५॥ सर्वगुणवाली गायोंको सुन्दर सुन्दर वस्त्रोंकी झूलैंउढाय, स्वर्ण, चांदी और पुष्पोंकीमाला आभूषण पहिराय, कञ्चनसे सींग मढाय पुत्रके कल्याणके लिये दीं और ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद लिया॥१६॥ वेद मंत्रोंके जाननेवालेयोग्य ब्राह्मणोंने जो जो आशीर्वाद दिये सो उसी प्रकार होंगे. क्योंकि ब्रह्मवाक्य किसी समय निष्फल नहीं होते, यह बात शास्त्र और पुराणोंसेप्रकट है॥१७॥ एक दिन नन्दरानी श्रीकृष्णको लाड लडा लडाकर प्यार कर रही थी, उसी समय श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वतके समान अपने

शरीरका भार बढ़ाया कि, वह भारी भार यशोदाजीसे सम्हारा न गया, बोझ बढानेका कारण यह है कि, श्रीकृष्णने जाना कि, जो मैं माताकीगोदमें रहा तो यह जो मेरे सन्मुख तृणावर्त्त उपस्थित है सो यह मेरी मातासहित मुझको उठाकर ले जायगा, इसलिये मुझको कष्ट होयतो होय परंतु मेरे कारण मेरी माताको कष्ट न होय॥१८॥ यशोदाने श्रीकृष्णमें भारी भार समझकर बड़ा आश्चर्य माना और बोझसेअति पीडित होकर त्रिलोकीनाथको पृथ्वीपर बैठालकर परमेश्वरका ध्यान करने लगी और मनही मनमें विचार करने लगी कि, आज मेरेकन्हैयामें इस प्रकार बोझ क्यों होगया ? इसी शोच विचारमें धरके कार्यमें लगगई॥१९॥ कंसका अनुचर जो तृणावर्त्त महाबलशाली था, कंसने

भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता॥ महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु॥१९॥ दैत्यो नाम्ना तृणावर्तःकंसभृत्यः प्रणोदितः॥ चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम्॥२०॥ गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णश्चक्षूंषि रेणुभिः॥ईरयन्सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिशः॥२१॥ मुहूर्तमभवद्गोष्ठं रजसातमसा वृतम्॥ सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन्न्यस्तवती यतः॥२२॥ नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः॥ तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः॥२३॥ इति खरपवनचक्रपांसुवर्षे सुतपदवीमबलाऽविलक्ष्य माता॥ अतिकरुणमनुस्मरंत्यशोचद्भुवि पतितामृतवत्सका यथा गौः॥२४॥

कृष्णके मारनेके लिये उसको भेजा, वह पवनके बबूलेका रूप धरकर आया और पृथ्वीपर खेलते हुए कृष्णको उड़ाकर लेगया॥२०॥ सबगोकुल धूरिसे आच्छादित होगया और ऐसी धूरि उडी कि सबकी आँखें मिचगईं और अन्धकार हो गया, उसके घोरशन्दसे दिशा विदिशाओंमेंसन्नाटा होने लगा॥२१॥ दो घडी तक गोकुलमें अन्धकार छायरहा, यशोदा ब्रजभूषणके उठानेको आँगनमें दौडी आई, देखा तो वहाँकृष्णका पता भी नहीं॥२२॥ तृणावर्तने कंकरी, ठीकरियोंकी बडी भारी वर्षा करी जिससे सब गोकुलवासी मोहको प्राप्त होकर अपनेही आपकोन देखसके फिर दूसरेका देखना तो महाकठिन था॥२३॥ इस प्रकार महाकठिन धूरिकी वर्षा होनेसे और आँधीके चलनेसे यशोदाने ढूँढते ढूँढते

कहीं भी ब्रजभूषण प्यारेको नहीं पाया, तब अत्यन्त व्याकुल हो मरेहुए बछड़ेवाली गायकी नाई निर्बल होकर पृथ्वीपर गिरपड़ी और करुणाभरे वचन कह कहकर शोच करने लगी॥२४॥ उस समय यशोदाका रुदन सुनकर पशुपक्षियोंकाभी हृदय विदीर्ण होताथा, अत्यन्तपीड़ित और महाव्याकुल हुई नेत्रोंमें आंसू भरे गोपियें श्रीकृष्णके विना देखे रोरोकर प्राण त्यागनेको प्रस्तुत थीं॥२५॥ इतनेमें धूलिवर्षा, ऑधीतो थमगई और बबूलेका रूप धरनेवाले तृणावर्त्त दैत्यका वेग, सब धरणीके धारण करनेवाले विश्वनाथ भगवान् के उठा लेजानेसे आकाशको नउडाया तो शान्त होगया, इसी कारण उस दैत्यसे अधिक भारी भार लेकर ऊपरको न उडागया*॥२६॥ जब तृणावर्त्तको

रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः॥ रुरुदुरनुपलभ्य नंदसूनुंपवन उपारतपांसुवर्षवेगे॥२५॥ तृणावर्तः शांतरयो वात्यारूपधरो हरन्॥ कृष्णं नभो गतोगंतुं नाश

कोद्भूरिभारभूत्॥२६॥ तमश्मानंमन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया॥ गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाश

कोद्भूतार्भकम्॥२७॥ गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलोचनः॥ अव्यक्तरावो न्यपतत्सहबालो व्यसुर्व्रजे॥२८॥ तमंतरिक्षात्पतितं शिलायां विशीर्णसर्वावयवं करालम्॥पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धं स्त्रियोरुदंत्यो ददृशुः समेताः॥२९॥

बहुत बोझ ज्ञात होने लगा तब यह जाना कि, मैं किसी बड़े पत्थरको उठालायाहूं, क्या कोई वज्र मेरे हाथमें है ! यह कह श्रीकृष्णसे छूटने की इच्छाकरने लगा, परंतु श्रीकृष्णने उसका कण्ठ ऐसा गहिकर पकड़ा था कि, वह किसी प्रकार न छूट सकै॥२७॥ कण्ठके घुटनेसे उसकी चेष्टा हतहोगई, नेत्र निकल पडे, मुखसे शब्द न निकल सका, प्राणहीन होकर वह तृणावर्त दैत्य श्रीकृष्णसमेत गोकुलमें गिरा॥२८॥ जैसे महादेवके बाणकामारा त्रिपुरासुर पृथ्वीपर गिरा था, ऐसेही आकाशसे वह विकराल दैत्य शिलाके ऊपर गिरा, जिसके सब अंग टूटकर चूर होगये, यह महा

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* **शंका-**श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द मुनिमनरञ्जन भक्तमयभञ्जन भगवान् का नाम है, फिर कृष्णचन्द्रने अपनी माताको और व्रजवासियोंको दुःखी करके और अपनी माताको रुवायके अपनी देहमें भारकोबढाया तो जब तृणावर्त्त हरिको हरिके ले चला तव भगवान् ने अपनी देहमें भार क्यो नहीं बढाया, जो राक्षसके उठानेसे न उठते तो सबको कष्ट क्यों होता?

उत्तर - ब्रह्माने पहिले तृणावर्त्तको वरदान दिया था, तेरे किये दुःखकरके यशोदाकी आँखोंसे आंसू गिरेंगे तब तेरी मृत्यु होगी इसलिये श्रीकृष्णने अपनी देहमें भार नहीं बढाया॥

भयानकरूप उस तृणावर्तका रोती हुई ब्रजबालाओंने देखा॥२९॥ उस तृणावर्तकी छातीके ऊपर निर्भय खेलता हुवा श्रीकृष्ण को भी देखा,सो तुरंत गोपियोंने दौडकर श्रीकृष्णको उठा, यशोदाकी गोदमें दे दिया और बड़ा आश्चर्य मानकर सब गोपी यह कहने लगीं कि, बालककोउठाकर यह राक्षस आकाशमें लेगयाथा, सो यह बालक मृत्युके मुखमेंसे फिर निकलकर आया है॥३०॥ नंदादिक गोप और गोपिका श्रीकृष्णकोपाकर परमानंदको प्राप्त हुए और परस्पर कहने लगे कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि, देखो इस राक्षसने इस बालकके मारनेमें कुछभी कसर नहींरक्खी, परंतु भगवान् नेंइसको बचाया और यह दुष्ट अपने पापसे आपही मरगया और यह बालक साधुकी समान है, इसलिये इस दुष्टके हाथसेछूट आया, साधु पुरुष अपनी समताके भयसे छूटजाते हैं॥३१॥ देखो हमने ऐसा कौनसा भारी तप किया है ? क्या भगवान् वासुदेवका पूजन

आदाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः कृष्णं च तस्योरसि लंबमांनम्॥ तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं विहायसा मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्॥ गोप्यश्च गोपाः किल नंदमुख्या लब्धाशिषः प्रापुरतीव मोदम्॥३०॥ अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसा बालोनिवृत्तिं गमितोऽभ्यगात्पुनः॥ हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते॥३१॥ किं नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं पूर्तेष्टदत्तमुत भूतसौहृदम्॥ यत्संपरेतः पुनरेव बालको दिष्ट्या स्वबंधून्प्रणयन्नुपस्थितः॥३२॥दृष्ट्वाद्भुतानि बहुशो नंदगोपो बृहद्वने॥ वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः॥३३॥ एकदार्भकमादाय स्वांकमारोप्य भामिनी॥ प्रस्तुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता॥३४॥

कियाहै ? क्या कुआँ, बावडी, ताल, खुदवाये हैं ? क्या पंचयज्ञ कियेहैं ? क्या कोई बड़ाभारी दान किया है ! अथवा भूखे नंगे प्राणियोंपर दया करीहै ? जिन पुण्योके प्रभावसे मृत्युको प्राप्त हुवा हमारा बालक अपने माता पिता बन्धुओंके सुख देनेके लिये लौटकर आगया॥३२॥ नंदजीनेगोकुलमें बहुतसे उत्पातोंको देखकर अपने मनमें बड़ा आश्चर्य माना, हमसे मथुरामें वसुदेवजीने पहिलेही कह दिया था कि, गोकुलमें बड़ाभारीउत्पात होगा, सो आज हमको वसुदेवजीके वचनका पूरा विश्वास हुवा॥३३॥ एक समय यशोदाजी मनमोहन प्यारेको अपनी गोदमें बैठालकरमोहमें अतिनिमग्न होकर जिन स्तनोंसे दूध टपकता था सो स्तन पिलाने लगी, देखो यशोदाके कैसे उत्तम भाग्य हैं॥३४॥

कुछ एक स्तन पिया पीछे यशोदाजी अपनी मन्दमुसकान सहित श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दके ऊपर अँगुली धरकर दूध पिलाने लगीं, इतनेहीमेंहे राजन ! श्रीकृष्णने जम्भाई ली उस समय उनके मुखमें यह सब संसार देखा॥३५॥ आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, तारागण, दिशा, सूर्य, चन्द्रमा,अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदी, वन, स्थावर, जंगम, जीव इन सबको देखा॥३६॥ हे राजन् ! सब विश्वको तत्काल यशोदा श्रीकृष्णके मुखमें

पीतप्रायस्य जननी सा तस्य रुचिरस्मितम्॥ मुखं लालायती राजञ्जृंभतो ददृशे इदम्॥३५॥ खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः सूर्येदुवह्निश्वसनांबुधींश्च॥ द्वीपान्नगांस्तद्दुहितर्वनानि भूतानि यानि स्थिरजंगमानि॥३६॥ सा वीक्ष्यविश्वं सहसा राजन्संजातवेपथुः॥ संमील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता॥३७॥ इति श्रीभागवते महापु०दशमस्कंधे पू० शकटतृणावर्तभंजन- विश्वप्रदर्शनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ गर्गः पुरोहितो राजन्यदूनां सुमहातपाः॥ व्रजं जगाम नंदस्य वसुदेवप्रचोदितः॥१॥

देखकर डरके मारे कम्पायमान होकर अपने मृगकेसे नेत्र बन्द करलिये और बड़ा आश्चर्य माना कि, इस बालकके मुखमें मैने क्या जाल जंजालदेखा*॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा-अष्टममें श्रीगर्गमुनिनन्दराय गृह आय। नामकरण उत्सव कियो, मुखमें विश्व दिखाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! बड़े तपस्वी और यादवोंके पुरोहित

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* राजा परीक्षित् बोले कि हे प्रभो ! पूर्वजन्ममें यह तृणावर्त्त कौन था, जो इसने राक्षसका शरीर पाया, यह सब कथा मुझको समझाकर कहो। श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन् ! यह तृणावर्त्त पाण्डुदेशका राजा था और विश्वविजय इसका नाम था दुर्वासा ऋषिके शापसे यह राक्षस होगया, परीक्षित् नेबूझा कि क्या ऐसा खोटा कर्म उसने किया जो यह शाप दुर्वासाने दिया ? श्रीशुकदेवजी बोले कि, पाण्डुदेशका नरेश विश्वविजय था और एक सहस्र इसकी स्त्री थीं, एक दिन उन सब स्त्रियों समेत वनविहारके हेतु वनको गया वहा ऊचे ऊचे वृक्ष आकाशसे बातें कररहे, सुन्दर सुन्दर फल फूल खिलरहे, मौर कीरकोकिला, बोलरहे, एक ओरको गन्धमादन पर्वत निरालाही शोभा देरहा, उसके नीचे पुष्पमद्रानदी न्यारीही लहरैदेती चली जाती थी ऐसा शोभायमान निर्जन वन देखकर उसी नदीमें स्त्री और आप नंगाहोकर जलक्रीडा करनेलगा, मद पीपी कर स्त्री और राजा ऐसा मतवाला होगया कि, सम्पूर्ण लज्जा त्याग निर्लज्ज बन जलविहार करनेलगा, उसी समय एकलाख शिष्योंको साथ लिये दुर्वासा ऋषि भी उसीआश्रममें आगये, देखा तो सब स्त्रियोंके सग राजा नगा केलि कर रहा है, मुनिने कोपकरके शाप दे दिया कि रे दुष्ट ! मेरे वचनके प्रतापसे तू असुर होजा, और भारतखड में एक लाख वर्षतक भ्रमता फिर, जबब्रजमें श्रीकृष्णचन्द्र अवतार लेंगे तू उनके हाथसे मृत्यु पावेगा तब तेरी मोक्ष होगी, राजा यह शाप सुन बहुत उदास हुवा और अग्निकुण्ड बनाय सब स्त्रियों सहित अपना शरीर भस्म कर दिया॥

श्रीगर्गाचार्य वसुदेवजीके भेजेहुए मथुरा पुरीसे गोकुलमें नन्दरायजीके घर आये॥१॥ गर्गाचार्यको देखकर नन्दजी बहुत प्रसन्न हुये और उठकरदण्डवत् प्रणाम किया और भगवान् की समान जानकर पूजन किया॥२॥ गर्गाचार्यजीको सुंदर आसनपर बैठालकर षट्रसभोजन कराया औरमधुर वाणीसे नन्दरायजी बोले कि, अहो ब्रह्मन् ! आप तो परिपूर्ण हो आपका पूजन हम किस प्रकार करसक्ते हैं॥३॥ हे भगवन् ! दीन गृहस्थलोगोंके कल्याण करनेके लिये आपसरीखे महात्मा अपने आश्रमसे गृहस्थोंके घर जातेहैं और उनसे अपना कुछ प्रयोजन नहीं रखते॥४॥और जो देखने और सुननेमें नहीं आता उस ज्ञानका प्रगट करनेवाला और सूर्य चन्द्र नक्षत्रादिकोंका प्रतिपादन करनेवाला ज्योतिषशास्त्र साक्षात्

तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृतांजलिः॥ आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरस्सरम्॥२॥ सूपविष्टं कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम्॥ नंदयित्वाऽब्रवीद्ब्रह्मन्पूर्णस्य करवाम किम्॥३॥ महद्विचलनं नृणां ग्रहिणां दीनचेतसाम्॥निःश्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्वचित्॥४॥ ज्योतिषामयनं साक्षाद्यत्तज्ज्ञानमतींद्रियम्॥ प्रणीतं भवतायेन पुमान्वेद परावरम्॥५॥ त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान्कर्तुमर्हसि॥ बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः॥६॥ गर्ग उवाच॥ यद्वनामहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वदा॥ सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम्॥७॥

आपने कथन कियाहै, जिसके पढ़नेसे पुरुष भूत, भविष्य, वर्तमान कालका वृत्तान्त जान सक्ताहै॥५॥ उस ज्योतिष शास्त्र के कर्त्ता और वेदवादियोंमेंभी आप परिपूर्ण हो, इसलिये तुम हमारे दोनों पुत्रोंका नामकरण और संस्कार करो. तब गर्गाचार्यजीने कहा कि, जो तुम्हारे गुरु आचार्यहोयँ उनसे नामकरण क्यों नहीं करालेते. तब नन्दजी बोले कि, हेमहाराज ! आपके सन्मुख और कौन है ! क्योंकि ब्राह्मण जन्मसेही सबकेगुरु हैं॥६॥ फिर गर्गाचार्यने कहा कि मैं यादवोंका पुरोहित हूं और सब जगत् में विख्यात हूं, जो मैं तुम्हारे पुत्रोंका नामकरण और संस्कारकरूंगा तो वह दुष्टात्मा कंस इन बालकोंको देवकीके पुत्र समझेगा*॥७॥

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* शंका- गर्गाचार्यने नन्दजीके सग कपट क्यों किया ? हम श्रीकृष्णका नाम नहीं धरेंगे यह क्यों कहा? इसलिये तो गये ही ये’ झूठ वचन एक क्षणमें ब्राह्मणोंके सब तपका नाश कर देताहै,जान बूझकर क्यों झूठ बोले ?

और आपकी और वसुदेवजीकी परम मित्रता है यह बात भी कंस भले प्रकार जानता है और दूसरे कंसको यहभी सन्देह है कि, देवकीकेगर्भमें कन्या न होनी चाहिये, कहीं अपने पुत्रको पहुॅचा न दिया हो यह समझे. क्योंकि कंस दिन रात सैकडों विचार किया करता है॥८॥और अब तो उसने देवकीके गर्भसे कन्या उत्पन्न हुई समझही रक्खीहै और जो दूसरी यह बात सुनेगा कि, गर्गाचार्यने नन्दजीके घरजाकर बालकोका नाम रक्खा है, इससे निश्चय यह जानेगा कि यह वसुदेवजीके पुत्र हैं और कंस तो विनाही जाने इन बालकोंके मारनेका उपाय

कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः॥ देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति॥८॥ इति संचितयञ्छ्रुत्वादेवक्या दारिकावचः॥ अपि हंताऽऽगताशंकस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत्॥९॥ नंद उवाच॥ अलक्षितोऽस्मिन्रहसिमामकैरपि गोव्रजे॥ कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम्॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं सम्प्रार्थितो विप्रःस्वचिकीर्षितमेव तत्॥ चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः॥११॥ गर्ग उवाच॥ अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन्सुहृदो गुणैः॥ आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद्वलं विदुः॥ यद्वनामपृथग्भावात्संकर्षणमुशंत्युत॥१२॥

कर रहाहै और जो सत्य समझकर इन बालकोको मरवादिया तो बडा अनर्थ होगा॥९॥ नन्दजी बोले कि, हे गर्गाचार्यजी ! वह उपाय करो जोहमारे साथी व्रजवासीभी नहीं जानै. इसप्रकार एकान्त स्थान जहाँ गायोंका खिरक था वहां बैठकर स्वस्तिवाचन पढकर दोनों बालकोंका संस्कारकिया. जोकि - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंको करना योग्य है॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इस प्रकार नन्दरायजीने जब प्रार्थना करी तोएकान्तमें गर्गाचार्यजीने छिपकर नामकरण किया. क्योंकि नामकरण करनेकी इच्छासे तो गगाचार्यजी आयेही थे॥११॥गर्गमुनि बोले कि, यह

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**उत्तर-**गर्ग मुनिने अपने मनमें विचारा कि, जो हम नदमे सत्य वोलेंगे और प्रत्यक्ष कृष्णका नाम धरेंगे तो वडे उत्साहसे बाजे बजायके अनेक हर्षसे आनन्द करेंगे तब कसादिक दैत्य जान जायँगे कि, यह बालक किसी यदुवशीका है तो वडामारी उत्पात होगा, इसलिये झूॅठ बोले कि, विना कपट किये नन्दजी गुप्त नाम न धराते बढा उत्साह करते और शास्त्रमें ऐसा भी लिखा है पराये उपकारके लियेझूँट बोलनेका कुछ दोप नहीं होता॥

रोहिणीका पुत्र अपने गुणोंसे सुहृदोंको रमण करावेगा, इसलिये इसका नाम राम रखना चाहिये और बल अधिकहोग इसलिये इसका नाम बलदेवरखना चाहिये और बिछुरे यादवोंको मिलावेगा इसलिये इसका नाम संकर्षण होगा॥१२॥ और यह जो तुम्हारा दूसरा पुत्र है सो यह युग युगमेंअवतार धारण करता है और इसके तीन रंग हुए श्वेत, लाल, पीला, सो सत्ययुगमें शुक्लवर्ण हुवा, त्रेतामें लाल वर्ण हुंवा और द्वापरमें पीतवर्ण हुवा.अब इन्द्रनीलमणिकी सदृश श्यामसुन्दररूप धारणकिया है, इसलिये ‘कृष्ण’ नाम रखना चाहिये॥१३॥ किसी समय यह तुम्हारा महाभाग पुत्रवसुदेवजीके घर जन्मा था, इसलिये ज्ञानीपुरुष इसका नाम वासुदेव भी कहेंगे। तुम्हारे पुत्रके गुणकर्मोंके अनुसार अनेक नाम हैं और रूपभी अनेकहैं, उनको में नहीं जानता और कोई दूसरा पुरुषभी नहीं जानता, क्योंकि यह बालक परब्रह्म परमेश्वरका अवतार है, इसलिये इसका भेद ब्रह्मा,

आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः॥ शुको रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥१३॥ प्रागयं वसुदेवस्यक्वचिज्जातस्तवात्मजः॥ वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः संप्रचक्षते॥१४॥ बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्यते॥ गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥१५॥ एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः॥ अनेन सर्वदुर्गाणियूयमंजस्तरिष्यथ॥१६॥ पुराऽनेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिताः॥ अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः॥१७॥ य एतस्मिन्महाभागाः प्रीतिं कुर्वंति मानवाः॥ नारयोऽभिभवत्येतान्विष्णुपक्षानिवासुराः॥१८॥ तस्मान्नंदात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः॥ श्रिया कीर्त्याऽनुभावेन गोपायस्व समाहितः॥१९॥

शिव, सनकादिकभी नहीं जानसक्ते॥१४॥ गाय, गोप, गोपी और तुमको आनन्द देनेवाला यह तुम्हारा पुत्र होगा और नन्दरायजी तुम्हारे ऊपरबडे बडे कष्ट आनकर प्राप्तहोंगे, उन कष्टोंको इनकी कृपासे सहजमें तर जाओगे॥१५॥१६॥ हे व्रजराज ! पहिले जब कोई राजा नहीं था, तब इसबालकने पृथ्वीपर सब दुष्ट चोरोंको पीडितकर महात्माओंकी रक्षा करी और चोरोंको पराजय किया॥१७॥ और जो महात्मा पुरुष इस तुम्हारे पुत्रसेस्नेह रखते हैं उनका शत्रुलोग तिरस्कार नहीं कर सक्ते. जिसप्रकार विष्णुके सहायक रहनेसे देवताओंका दैत्यलोग कुछ नहीं करसक्ते॥१८॥ हे नन्दरायजी ! यह तुम्हारा पुत्र गुण, कीर्ति, लक्ष्मी और प्रतापमें विष्णु भगवान् कीसमान जानपडताहै, सावधान होकर तुम इसकी रक्षा करना॥१९॥

शुकदेवजी बोले कि, हे व्रजनाथ ! इसीराधाके साथ आपके पुत्रका विवाह होगा और यही राधा तुम्हारे कुलकी बाधा हरनेवाली होगी, यह कह सबकोआशीर्वाद दे गर्गाचार्य बिदा होकर चलदिये, पीछे नन्दजीने परमानन्द हो अपने मनोरथको सब प्रकारसे परिपूर्ण समझा॥२०॥ जब कुछ और थोडेदिन व्यतीत हुए तब बलदेवजी और श्रीकृष्ण दोनों भैया हाथ

टेक२कर घुटनो चलने लगे॥ जिस समय कृष्ण और बलभद्र दोनों भाई व्रजकी कीचमेंविचरते थे उससमय उनके पावोंकी पैंजनी और कटिकी किंकिणीकी झनकारका सुन्दर शब्द सुनकर यशोदा और रोहिणी मनहीं मनमें आनन्द होती थींऔर जो पथिक मार्गमें जाते उनहीके पीछे घुटनों२ थोड़ी दूर चले जाते, जब वह पुरुष इनकी ओरको देखते तब डरकर अपनी माताके पास को भागते॥२१॥२२॥ तब माता यशोदा और रोहिणी अपने पुत्रको उठाय हृदयसे लगाय उनके अंगोंको देखैंहैं, कहीं तो व्रजकी कीचमें लिपट रहेहैं और कहीं

श्रीशुक उवाच॥ इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते॥ नंदः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम्॥२०॥कालेन व्रजताऽल्पेन गोकुले रामकेशवौ॥ जानुभ्यां सहपाणिभ्यां रिंगमाणौ विजह्नतुः॥२१॥ तावंघ्रियुग्ममनुकृष्यसरीसृपंतौ घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु॥ तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरंति मात्रोः॥२२॥तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवंत्यौ पंकांगरागरुचिरावुपगह्यदोर्भ्याम्॥ दत्त्वा स्तनं प्रपिवतोः स्म मुखं निरीक्ष्य मुग्धस्मिताल्पदर्शनं ययतुः प्रमोदम्॥२३॥ यर्ह्यंगनादर्शनीयकुमारलीलावंतर्व्रजे तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः॥ वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणी प्रेक्षंत्य उज्झितगृहा जहृषुर्हसंत्यः॥२४॥ शृंग्यग्निदंष्ट्र्यसिजलद्विजकंटकेभ्यः क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम्॥ गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम्॥२५॥

प्रमादकी केशर अंगमें लगी हुई है, जिनके स्तन दूधसे खसि आये हैं उनको खिलाय खिलाय दूध पिलाय पिलाय उनकी ओरको देख २ प्रेममें मग्नहोरही हैं और उनके मुखकी भोली भोली मुसक्यान और छोटी २ दॅतुरियोंकी छबि निहार निहार बारंबार प्रसन्न होती थीं॥२३॥ जिस समय व्रजमेंगोपियोंके देखनेके योग्य श्रीकृष्ण और बलराम बाललीलाओंको करने लगे और दौड दौडकर बछरोंकी पूँछ पकड पकडकर खैचें, जब बछडेभागते तो यह उनके पीछे पीछे खिंचे चले जाते थे, इस प्रकारकी लीला वह गोपी देख देख घरोंके कामको छोड छोड हॅस हँसकर हर्षको प्राप्तहोती थीं॥२४॥ माता यशोदा और रोहिणी, अति चंचल खेलमें लगेहुये श्रीकृष्ण बलदेवको देखकर गाय बैल डाढवाले जीव, बन्दर,

अग्नि, जल, सांप पक्षी कांटोंसे रोक रोक बचाती फिराकरती थीं और घरके काम धन्धे सब छोडदियेथे, जब रोहिणी और यशोदा फिरती फिरती हारजातीं तब श्रीकृष्ण बलभद्र माताओंके मनकी गति जानकर ऑगनमें खेलने लगते॥२५॥ हे राजन् ! व्रजमें रामकृष्ण दोनों भाई थोड़ेही दिनों पीछेघुटनोंहीके बल नहीं वरन् चरणोंसे अनायासपूर्वक चलने लगे॥ कभी घरमें जाते कभी बाहर आते कभी भुजा उठा उठा कर बालकोंकोबुलाते कभी धौरी, धूमरी, गौरी, काली नाम लेलेकर गायोंको गुहराते कभी माखन मिश्री मातासे माँग मॉगके खाते, कभी मुकुरमें जो अपनाप्रतिबिम्ब दिखाई देता तो उससे कहते ले भैया तू भी माखन खाले, जब वह प्रतिविम्ब न लेता तो दोनो हाथोसे आधा आधा कर एक भाग उसकोदेते, जब माखन पृथ्वीपर गिर जाता तो कहते कि, भैया अब क्यों नहीं लेते वह बातभी बताओ इन अद्भुत चरित्रोंको यशोदा मैया छिप छिपकरदेखती और अपने मनही मनमें प्रसन्न होती और झट पट आनकर गोदमे उठाय मुख चूम लेती, उस परमानन्दके सुखको कौन वर्णन करसक्ता

कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले॥ अघृष्टजानुभिः पद्भिर्विचक्रमतुरंजसा॥२६॥ ततस्तु भगवान्कृष्णोवयस्यैर्ब्रजवालकैः॥ सहरामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन्मुदम्॥२७॥ कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम्॥ शृण्वन्त्याः किल तन्मातुरिति होचुः समागताः॥२८॥ वत्सान्मुंचन्क्वचिदसमये क्रोशसंजातहासः स्तेयंस्वाद्वत्त्यथ दधिपयः कल्पितैः स्तेययोगैः॥ मर्कान्भोक्ष्यन्विभजति स चेन्नात्ति भांडं भिनत्ति द्रव्यालाभे स गृहकुपितो यात्युपक्रोश्य तोकान्॥२९॥

है॥२६॥ एक दिन मदनमोहन व्रजवासियोंके बालकोंके संग अपनी सिंहपौंर पर खेल रहे थे, सबकी एक अवस्था भोली भोली सूरत, कृष्णकीप्रीतिमें मतवाले अनेक अनेक प्रकारकी लीला कर रहेथे, कभी गाते, कभी हँसते, कभी किलकारी मारते, कभी अपनी माताको पुकारते, धन्य यशोदाके भाग्यको, मदनमोहनकी उस मनोहर छविको देख २ ब्रजवासी लोग स्त्री पुरुष मनहीं मनमें कहते थे कि, कोटि कामदेवभी इस शोभाकी समताको नहीं पासक्ते, देखो बलराम और घनश्याम अपनी समान अवस्थावाले व्रजवासियोंके बालकोंको संग लेकर नई नई क्रीडा कर हमलोगोंकोकैसा कैसा आनन्द देते हैं॥२७॥ गोपी श्रीकृष्णचन्द्रकी बाललीलाकी चपलता देखकर सब जुड मिलकर आईऔर श्रीकृष्णकी माता यशोदाको सुनासुनाकर यह कहनेलगीं॥२८॥ अहो यशोदा ! तुम अपने पुत्रको वर्जलेना हमारे घरोमें आनकर द्वन्द्व मचावै है, हम तो गायोंको

दुहने नहीं पातीं वह पहिलेसे पहिले बछडोंको खोलदेते हैं, बछडे दूध पीजाते हैं, दुहनेवाले ग्वालियें शिरमार मारकर चले जाते हैं, यशोदा बोली,अरी तुम्हारे घर जब यह जाय तो इसको डाट दिया करो, यशोदाजीका वचन सुनकर गोपिका कहने लगीं कि, जब हम इसको डाटें हैं तब यह हॅसदेता है, इसकी हॅसी देखकर हमकोभी हॅसी आजाती है और यह चोरी उपाय करके दूध दही और जो कुछ मीठे मीठे पदार्थ हमारे घरोंमें रक्खे होते हैंउनको स्वादसे चुरा चुराकर खा जाता है और जो कुछ बचरहता है उसको बन्दरोंको खिला देता है जो बन्दरभी नहीं खाते तो जान बूझकरदूध दही घीके चिकने बासनोंको फोड डालता है और जो कदाचित् माखन दूध इसके हाथ नहीं लगता तो क्रोध करके गालियें देता है और यह कहताहै कि, इनके घरोंमें आग लग जाओ फिर पालनेमें सोते हुए हमारे बालकोंको रुआकर भाग जाताहै॥२९॥ और ऊंचे २ छींकोंपर धरती हैं कि, जोइसके हाथ न आवै, तब पीढा, पट्टा, ऊखली इत्यादि धरकर चोरीका उपाय करता है और किसी किसी छीकेके बासनमें छेदकरदेता है और नीचे सब

हस्ताऽग्राह्ये रचयति विधिं पीठकोलूखलाद्यैश्छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः शिक्यभांडेषु तद्वित्॥ ध्वांतागारे धृतमणिगणंस्वांगमर्थप्रदीपं काले गोप्यो यर्हि गृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ताः॥३०॥ एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथास्ते॥ इत्थं स्त्रीभिः सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभिर्व्याख्यातार्था प्रहसितमुखीन ह्युपालब्धुमैच्छत्॥३१॥

बालक मुख लगाकर सब गोरस पी जाते हैं और जो मीठा दही होता है तब तो खाजाते हैं और जो खट्टा होता है तो गिरा देते हैं और जो मेवा मिष्टान्नहोताहै उसको बालकोंके कन्धेपर चढ़कर खा लेताहै और जो हम अन्धेरेमें घरमें दही माखन कहीं छिपाकरभी धरें हैं, तो इसके आभूषणोंमें जो रत्न,मणि, माणिक, हीरे जड़ेंहैं, उनका प्रकाश हो जाताहै, दूसरे इसका जो चन्द्रमासा मुख है उसकी उजियालीका चांदना होजाताहै तब हमारा धरा ढकासब निकाल लावै है, तबतक हम घरमें बैठी रहैहैं उस समय आवैहै तो हमको देखकर भाग जाताहै और जब हम अपने घरके काम धन्धेमें लग जातीहैं उस समय घरमें आन घुसताहै॥३०॥ और जब कभी हम आनकर इसको देख पाती हैं और कहती हैं कि, अरे चोर ! तो यह लौटकर कहता है कि,तुमहीं चोर हो मैं तो घरका स्वामीहू, ऐसे हॅसीकी बातोंमें बातको टाल देताहै, हमारे लिपे पुते घरोंको बिगाड़ देताहै, सब दिन सखाओंको संग लिये

चोरीकी चिंता में फिरता रहाता है, यह कन्हैया तुम्हारा बड़ा ढीठहै और पेटमें इसके सैकडों छल भरेहैं, परन्तु मुँहका मीठाहै, जो तुमको विश्वास नआवैतो हम पकडके दिखादें कभी किसीके कपड़े फाडताहै कभी किसीको मारताहै, सब व्रजमें धूम धाम मचारक्खी है।अब देखो ! तुम्हारे आगेकैसा भोला भाला बना खडाहै मानो कुछ जानताही नहीं। इसप्रकार जब गोपियोंने डराया तो उससमय भयसंयुक्त नेत्र उनमें श्रीमुखकी शोभा देखनेकेलिये श्रीयशोदाजीसे आनके गोपियोंने उलाहना दिया तब श्रीयशोदाजी हँसके मनमोहन प्यारेको गोदीमें उठालिया और पुत्रसे कुछ कहा नहीं॥३१॥एक समय बलभद्रादिक गोपियोंके बालकोंमें क्रीड़ा कर रहे थे, वहां श्रीकृष्णचन्द्र मट्टी खाने लगे, तब सब बालकोंने कहा आज कृष्णको कृष्णकीमातासे पिटवावेंगे और जाकर यह कहेंगे कि, आज श्यामसुन्दरने मट्टी खाई है, तब यह विचार कर सब बालक और श्रीदामा यशोदाजी के पास

एकदा क्रीडमाणास्ते रामाद्या गोपदारकाः॥ कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्यवेदयन्॥३२॥ सा गृहीत्वा करेकृष्णमुपालभ्य हितैहिणी॥ यशोदा भयसंभ्रांतप्रेक्षणाक्षमभाषत॥३३॥ कस्मान्मृदमदांतात्मन्भवान्भक्षितवान्रहः॥ वदंति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम्॥३४॥ नाहं भक्षितवानंब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः॥ यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम्॥३५॥

गये और जाकर कहा कि, आज श्रीकृष्णने मट्टी खाई है॥३२॥ तब परमहितकी करनेवाली श्रीकृष्णकी माता यशोदाने क्रोधितहो श्रीकृष्णकाहाथ पकड़कर धमकाया और भययुक्त चंचल नेत्र मोहन प्यारेसे यह कहा॥३३॥ हे चपलगात चंचल ! तैंने अकेलेमें जाकर मही क्यों खाईअरे अन्याई ! जो यह बात गॉवके लोग सुनेंगे तो घर घर यह जवाब होगा कि, नंदरानी ऐसी जोडा (कंजूस) हुई है कि, अपने बालकको पेटभररोटीभी नहीं देती, इसलिये वह मट्टी खाखाकर दिन पूरे करेहै. यह बात सुनकर श्यामसुन्दर डरते काँपते बोले कि. हे माता ! यह झूॅठबात तुझसेकिसने कही ? कदाचित् कोई बालक तेरे पास आकर मुझको झूठा कलंक लगा दे तो उसमें मेरा क्या अपराध है ? तब यशोदाने कहा कि, तेरे मित्रश्रीदामाने मुझसे कही है और तेरे ज्येष्ठ भ्राता बलदाऊने कही है॥३४॥ हे मैया। मैंने मट्टी नहीं खाई और श्रीदामाकी ओरको खडी दृष्टिसे देखकरबोले क्योंरे श्रीदामा ! मैंने तेरे सामने मट्टी कब खाई थी ? श्रीदामा बोला मैंने तेरी मातासे कुछ नहीं कहा, तब यशोदाने छडी लेकर कहा सच्चबता ?

श्रीकृष्ण बोले कि, मैय्या ! जो तुझको विश्वास नहीं हो तो मेरा मुख देखले॥३५॥ यह बात सुनकर यशोदा बोली मुझको तेरी झूॅठी बातोंका किसीप्रकार विश्वास नहीं आता, जो तू सच्चा है तो अपना मुख फैलाकर दिखलादे ? यशोदाकी यह बात सुन, अनेक दुःखोंके दूरकनेवाले अखण्डऐश्वर्यवान् भगवान् क्रीड़ा करनेके लिये मनुजतनुधारी बालकरूप श्रीकृष्णचद्रने अपना मुखारविन्द फैलाकर यशोदाको दिखला दिया॥३६॥तब यशोदाजीने श्रीकृष्णके मुखमें स्थावर जंगम, विश्व, अन्तरिक्ष, दिशा, पर्वत, द्वीप, समुद्र, भूगोल प्रवाह, वायु, अग्निं, चन्द्रमा, तारागण॥३७॥ज्योतिषचक्र, जल, तेज, आकाश, इन्द्रियोंके देवता, इन्द्रिय, मन, शब्दादिक और इनके विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, यह पांचों-सत्त्वगुण,रजोगुण, तमोगुण॥३८॥ जीव, काल, स्वभाव, कर्म, अन्तःकरण और उसके होनेवाले चराचर और सम्पूर्ण प्राणियोंके भेद सहित चित्र

यद्येवं तर्हि व्यादेहीत्युक्तः स भगवान्हरिः॥ व्यादत्ताऽव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः॥३६॥ सा तत्र ददृशे विश्वंजगत्स्थास्नु चखं दिशः॥ साद्रिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नींदुतारकम्॥३७॥ ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान्वियदेव च॥ वैकारिकाणींद्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः॥३८॥ एतद्विचित्रं सहजीवकालस्वभावकर्माशयलिंगभेदम्॥सूनोस्तनौवीक्ष्य विदारितास्ये व्रजं सहात्मानमवाप शंकाम्॥ ३९॥ किं स्वप्न एतदुत देवमाया किं वा मदीयो बतबुद्धिमोहः॥ अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य यः कश्चनोत्पत्तिक आत्मयोगः॥४०॥

विचित्र संसारको श्रीकृष्णचंद्रके मुखमें देखा और उसमेंही व्रजभूमि और अपने देहको देख यशोदाके मनमें भ्रम उत्पन्न हुवा॥३९॥ और अपनेमनहीं मनमें कहने लगी कि, मैं जो देख रही हूं क्या यह स्वप्न है ? नहीं नहीं, यह स्वप्न नहीं है, क्योंकि स्वप्न तो सोतेमें दिखाई देता है, तो क्या फिरपरमेश्वरकी माया है ? नहीं नहीं, यह माया भी नहीं है, क्योंकि माया होती तो और लोग भी देखते, क्या जैसे मुकुरमें मुख दीखता है ऐसे दिखाईदिया ? क्या यह मेरी बुद्धिकाही भ्रमजाल है ? नहीं नहीं, ऐसा भी नहीं हो सक्ता, क्योंकि ऐसा होता तो दर्पण में जैसे दर्पण दृष्टि नहीं आतातैसे इस पुत्रके मुखमें यह पुत्र भी दीखना अनुचित है और बाहर तथा भीतर एकरूपसे जगत् कीप्रतीति किसी प्रकार न होनी चाहिये,

अथवा मेरे पुत्र श्रीकृष्णका यह स्वाभाविक ऐश्वर्य है ?॥४०॥ जो ध्यान करके देखाजाय तो यह अंतिम पक्षही बलवान् जान पड़ता है, क्योंकि यह संसार जो किंचित्, मन वाणी और वचनसे अनायासपूर्वक भले प्रकार विचारमें नहीं आसक्ता, वह किसके आश्रय हैऔर किस रीतिसे प्रतीत हो सक्ता है ? उस अचिन्तनीय स्वरूपको मैं बारंबार नमस्कार करती हूं॥४१॥ इन व्रजराजके सम्पूर्णधनकी अधिष्ठाता मैं हूं यह व्रजनाथ नन्दजी मेरे स्वामी हैं यह श्रीकृष्ण मेरा पुत्र है और यह सब गोप गोपिका तथा गाय बछड़े मेरे हैं, मायासेजिनकी ऐसी कुबुद्धि हो रही है, सो अब हे भगवन् ! तुम्हारी शरण हूं॥४२॥ इस प्रकार यशोदाजीको कृष्णमें ईश्वरकी बुद्धि होगई तब

अथो यथावन्न वितर्कगोचरं चेतोमनःकर्मवचोभिरंजसा॥ यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम्॥४१॥ अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती॥ गोप्यश्च गोपाः सह गोधनाश्च मे यन्माययेत्थं कुमतिः स मे गतिः॥४२॥ इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः॥ वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः॥४३॥ सद्यो नष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्याऽऽरोहमात्मजम्॥ प्रवृद्धस्नेहकुलिलहृदयाऽऽसीद्यथा पुरा॥४४॥ त्रय्या चोपनिषद्भिश्च सांख्ययोगैश्च सात्वतैः॥ उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं साऽमन्यतात्मजम्॥४५॥राजोवाच॥ नंदः किमकरोद्ब्रह्मञ्श्रेय एवं महोदयम्॥ यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः॥४६॥

श्रीकृष्णने विचार किया कि, माता तो परमगतिको पहुॅची अब मेरा लालन पालन कौन करेगा. तब पुत्रने स्नेहरूपा अपनी वैष्णवी माया यशोदापरफैलादी॥४३॥ उस समय यशोदाजीके मनसे श्रीकृष्णचन्द्रकी ईश्वरबुद्धि अलग करदी और पुत्रभाव मानिके श्रीकृष्णको गोदमें बैठालप्रेममें मग्न होकर पहिलेकी समान वात्सल्यभाव करनेलगी॥४४॥ ऋग्, यजु, साम, यह तीनों वेद, सांख्य योग समस्त निरन्तर जिनवासुदेव भगवान् की महिमाको रातदिन गाते हैं उन श्रीकृष्णको यशोदा पुत्रभावसे मानती है॥ ४५॥ यह बात सुन राजा परीक्षितने श्रीशुकदे

वजीसे वृझा कि, हे ब्रह्मन् ! नन्दरायजीने ऐसा क्या पुण्य किया था जिसके प्रभावसे उनका ऐसा भाग्य उदय हुवा ? और यशोदाजीने ऐसा कौनसाश्रेष्ठ पुण्य किया था जिससे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दनें उनका स्तन पान किया॥४६॥ और सब लोकोंके पापका दूर करनेवाला श्रीकृष्णचन्द्रका बालचरित्र आजतक जिसे कवीश्वरलोग वर्णन करतेहैं सो उस बाललीलाका सुख देवकी और वसुदेवजीको प्राप्त नहीं हुवा और नन्दयशोदाको प्राप्त हुवा इसका क्या कारण ?॥४७॥ यह गूढ वचन राजा परीक्षित् कासुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! आठ वसुओंमें श्रेष्ठद्रोण नाम वसुने अपनी धरा नाम स्त्रीको साथ लेकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शीशपर धारणकर परमेश्वरका तप किया, तब परमेश्वरने प्रसन्न होकर चतुरा

पितरौ नान्वर्विदेतां कृष्णोदारार्भकेहितम्॥ गायंत्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम्॥४७॥ श्रीशुक उवाच॥द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्यया॥ करिष्यमाण आदेशान्ब्रह्मणस्तमुवाच ह॥४८॥ जातयोनौं महादेवेभुवि विश्वेश्वरे हरौ॥ भक्तिः स्यात्परमा लोके ययांजो दुर्गतिं तरेत्॥४९॥ अस्त्वित्युक्तः स भगवान्व्रजे द्रोणोमहायशाः॥ जज्ञे नंद इति ख्यातो यशोदा सा धराऽभवत्॥५०॥ ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने॥ दंपत्योनितरामासीद्गोपगोपीषु भारत॥५१॥

ननसे कहा कि, मेरे भक्त जो वर मांगें सो देना. ब्रह्मानें इन दोनोंके सन्मुख आनकर कहा कि, वर मॉगो, तब वह स्त्री पुरुप बोले कि, हे प्रभो ! जोहमपर प्रसन्न हो तो यह वर दो॥४८॥हमारे जन्म मृत्युलोकमें होयॅ परन्तु विश्वेश्वर देवोंके देव हरि भगवान् में हमारी भक्ति बनी रहे, जिससेअनायास इस संसारसागरसे पार उतर जॉय॥४९॥ ब्रह्माजीने वर दिया कि, जाओ पृथ्वीहीमें तुम्हारा जन्म होगा और तुमको भगवान् कीभक्तिभी होगी, तब तो बड़े यशस्वी और तेजस्वी द्रोण वसु व्रजमें जन्म धारण कर नन्दनामसे प्रसिद्ध हुए और वह धरा यशोदा नामसे विख्यातहुई॥५०॥ हे भारत ! जितने गोप गोपी थे सबमें भगवान् की भक्ति थी, परन्तु नन्द यशोदामें अधिकही भक्ति थी, जिनके घर पुत्र होकर वास

योगिराज उनका ध्यान करनेवाले भी उनकी गतिको नहीं पहुँचसक्ते और तप करके तपस्वियोंका मन जिनकी गतिको नहीं जान सक्ता, फिरयशोदा उनको कैसे पकड सक्ती थीं॥९॥ मनमोहनके पीछे यशोदाजीकी गति नितम्बके भारसे शिथिल होगई दौडनेसे शीशके केशोंके बन्धनखुलगये और चोटीमें जो मालतीके फूल गुँथे रहे थे वह पुष्प आगे आगे गिरते जाते थे और यशोदा उनपर पॉव धरती चली जाती थी, क्योंकिपुष्पोंकीं सुगंधसे चित्त व्याकुल नहीं होता, इस प्रकार यशोदाने महाकठिनतासे श्यामसुन्दरको पकडा॥१०॥ अपराधी तो थे ही पकडतेहीविह्वल होगये, रोरोकर काजल लगे हुये नेत्रोंको मलने लगे और हाहाकार कर यशोदासे कहने लगे कि, मया मुझे छोडदे, मैं नहीं जानता दही महीकिसनें गिराया तोभी कृष्णका हाथ पकड छडी उठाकर यशोदाने धमकाया और कहा कि, सिवाय तेरे और दधिमाखनका चोर मेरे घर कौन

अन्वंचमाना जननी बृहच्चलच्छ्रोणीभराक्रांतगतिस्सुमध्यमा॥जवेनविस्रंसितकेशबंधनच्युत- प्रसूनाऽनुगतिः परामृशत्॥१०॥ कृतागसं तं प्ररुदंतमक्षिणी कर्षतमंजन्मषिणी स्वपाणिना। उदीक्षमाणं भयविह्वलेक्षणं हस्ते गृहीत्वाभिषयंत्यवागुरत्॥११॥ त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला॥ इयेष किलतं बद्धुं दाम्नाऽतद्वीर्यकोविदा॥१२॥न चांतर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्॥ पूर्वापरं बहिश्चांतर्जगतो यो जगच्च यः॥१३॥ तं मत्वात्मज- मव्यक्तंमर्त्यलिंगमधोक्षजम्॥ गोपिकोलूखले दाम्ना बबंध प्राकृतं यथा॥१४॥ तद्दामबध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः॥ द्व्यंगुलोनमभूत्तेन संदधेऽन्यच्च गोपिका॥१५॥

आगया॥११॥ पुत्र पर हित करनेवाली और भगवत् की गति न जाननेवाली यशोदाने मनमोहन प्यारेको व्याकुल समझकर छडी हाथमेंसेडालदी और पुत्र के पराक्रमको न समझकर रस्सीसे बॉधनेको प्रस्तुत हुई॥१२॥ जिस आदि पुरुष अविनाशीके बाहर, भीतर, आगे पीछे कुछभीनहीं है और जो पूर्ण अवतार है, जगत् केअन्तर, बाहर, तथा आगे पीछे रहता और जो जगत् रूप है॥१३॥ इंद्रियोकी जिनमें गति नहींऐसे अव्यक्त भगवान् कोपुत्र मानकर यशोदाजी रस्सी लेकर उलूखलसे बॉधने लगी, जैसे कोई साधारण बालकको बाँधताहै॥१४॥ अपराधीसमझकर जब यशोदा अपने मनमोहन प्यारेको बाँधने लगी, उस समय वह रस्सी दो अंगुल ओछी रहगई, तब यशोदाने उसमें दूसरी रस्सी

और जोडी॥१५॥ जो उसमें और रस्सी जोडी थी वह भी दो अंगुल ओछी रहगई, तब तीसरी और जोडी तो वह भी दो अंगुल ओछी होगईइस प्रकार जितनी रस्सी जोड़ी परन्तु पूरा न पडसका॥१६॥ तब तो यशोदाने सब घर भरकी रस्सी इकट्ठी करके जोडी और श्यामसुन्दरन बँधे, तब तो सब गोपी आश्चर्यमान हँसने लगीं और मुसकराकर यशोदा भी विस्मित होनेलगी॥१७॥ सब शरीर पसीनेमें डूबनया मालाकण्ठसे टूटपडी, शिखासे शीशफूल खिसकगया तब यशोदाको श्रमित देखकर करुणामय श्रीकृष्णचन्द्र आपही कृपाकरके बन्धनमें बॅधगये

यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि संदधे॥ तदपि द्व्यंगुलं न्यूनं यद्यदादत्त बंधनम्॥१६॥ एवं स्वगेहदामानि यशोदासंदधत्यपि॥ गोपीनामुत्स्मयंतीनां समयंती विस्मिताऽभवत्॥१७॥ स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः॥दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयासीत्स्वबंधने॥१८॥ एवं संदर्शिता ह्यंग हरिणा भक्तवश्यता॥ स्ववशेनापि कृष्णेनयस्येदं सेश्वरं वशे॥१९॥ नेमं विरिंचो न भवो न श्रीरप्यंगसंश्रया॥ प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदात्॥२०॥

॥१८॥ हे राजन् ! ऐसे कष्ट हरनेवाले भगवान् ब्रह्मासहित सर्व विश्व जिनके अधीन है, उन श्रीकृष्णचन्द्रने अपने भक्तोंको भक्तवश होना दिखाया कि, जो मेरे भक्त मुझको बाँधना चाहे तो बॅधभी जाता हूं, मैं इस प्रकार भक्तोंके वशमें हूं*॥१९॥ हे राजन् !भक्ति देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् से पुत्रके सम्बन्धसे जो प्रसाद गोपियोंने पाया सो प्रसाद ब्रह्माको न मिला और शिवजी जो भगवान् कीआत्मा हैं उनकोभी प्राप्त न हुवा और लक्ष्मी सदा हृदय में विराजमान और भार्या है, तोभी उनको यह प्रसाद हाथ न आया, जो प्रसाद

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* **शंका-**श्रीकृष्णचन्द्रने यशोदा माताको पहिले तो बहुत दुःखी किया फिर पीछे रस्सीसे बँधगये और पहिले अनेक उपायोंसे नहीं बँचेइसका क्या कारण?

**उत्तर-**जब श्रीकृष्ण भक्तभयहारी, जगत् हितकारीने मृत्युलोकके आनेकी इच्छा की, तब सब गोलोककी गायें श्रीकृष्णके संग व्रजको आने लगीं, तब गोलोककी सेवा करनेवाली दासी रस्सी बनकर गायोंके

और कण्ठमें बँध कर चली आई, भगवान् ने विचारा कि,गोलोककी गायोंकी सेवा करनेवाली तो नन्दबाबाके घर आगई अब नन्दकी गायोंकी दासी जो यहापर रस्सी बनगई है इनको गोलोकमें भेजना चाहियें, ऐसा विचारों उन गायोंकी दासियोंकों संसारसे मुक्त करनेके लिये फिर गोलोकको भेजनेके लिये एक रस्सीसे नहीं बँधे, एक रस्सीसे बँधे जाते तो यशोदा सत्र घरभरकी रस्सी क्यों इकट्ठी करके ले आती॥

यशोदाने ले रक्खा है॥२०॥ यशोदानन्दन श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् जैसे भक्तोंको सहजमें प्राप्त होते हैं, ऐसे देहाभिमानी तपस्वी आदिकोंको औरदेहाभिमानरहित आत्मज्ञानियोंको सहज नहीं मिल सक्ते॥२१॥ इनको बाँध यशोदा तो घरके काम धन्धेमें लगगई इतने में सर्वसामर्थ्यवान्श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्, कुबेरके पुत्र जो प्रथम जन्ममें गुह्यक थे और अब आनकर यमलार्जुन वृक्ष हुए, उनका समय जान भगवान् नेउनकीओरको देखा॥२२॥ प्रथम यह दोनों अत्यन्त शोभायमान नलकूबर, मणिग्रीव, नामसे विख्यात थे, कुबेरके पुत्र प्रथम जन्मके मदसे नारदकेशापसे वृक्षयोनिको प्राप्तहुए॥२३॥इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां गोपीप्रसादो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा-

नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिकासुतः॥ ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह॥२१॥ कृष्णस्तु गृहकृत्येषुव्यग्रायां मातरि प्रभुः॥ अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ॥२२॥ पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात्॥नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियान्वितौ॥२३॥ इति श्रीभागव०म० दशम०पू० दामबन्धने कृष्णप्रसादो नामनवमोऽध्यायः॥९॥ राजोवाच॥ कथ्यतां भगवन्नेतत्तयोः शापस्य कारणम्॥ यत्तद्विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ॥ कैलासोपवने रम्ये मंदाकिन्यां मदोत्कटौ॥२॥ वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ॥ स्त्रीजनैरनुगायद्भिश्चेरतुः पुष्पिते वने॥३॥ अंतः प्रविश्यगंगायामंभोजवनराजिनि॥ चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभिः॥४॥

यमला अर्जुन वृक्ष दोउ दीन्हे कृष्ण गिराय। प्रगटे देव शरीर धर, परे चरणमें जाय॥१॥ इतनी कथा सुन राजा परीक्षित् बोले कि, हेभगवन् ! नलकूबर, मणिग्रीवके शापकी कथा वर्णन कीजिये कि. उन दोनोंने ऐसा क्या निन्दित कर्म किया था कि, जिससे नारदजीकेमनमें क्रोध उत्पन्न हुवा और उन दोनोंको ऐसा कठिन शाप दिया ?॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, शिवजीके अनुचर यह दोनों अत्यन्त अभिमानी मद पीनेसे मतवाले कुबेरके पुत्र, मन्दाकिनीके तटपर कैलासकी पुष्पवाटिकामें घूम रहेथे,॥ २॥ वारुणी मदिराको पान करनेसे उनकेनेत्र मदसे चलायमान होरहे थे और उपवनमें विचर रहे थे, उनके पीछे पीछे परमसुन्दरी स्त्रियें भी फिर रहीं थी॥३॥ और कमलोंके समूहोंसे

सुशोभित श्रीगंगाजीके मध्यमें जाकर स्त्रियोंको संग लेकर विहार करने लगे जैसे हथिनियोंके संग हाथी विहार कर रहे थे*॥४॥ हे कुरुकुलभूषण ! अनायासपूर्वक देवर्षि भगवान् नारदजी भी वहाँ आगये और उनको अत्यन्त क्रीडा करतादेखकर मतवाला समझा॥५॥ नंगी स्त्रियोंनेनारदजीको देखकर लज्जा मानी और शापके भयसे कॉपने लगीं उसी समय शीघ्रतासे अपने अपने वस्त्रोंके समीपको झपटीं परन्तु नलकूबर, मणिग्रीवने वस्त्र नहीं पहिरे, नंगे ही खडेरहे॥६॥ तब नारदजी कुबेरके पुत्रोंको मतवाला देखकर मद उनका दूर करनेके लिये और श्रीकृष्णचन्द्र आन

यदृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव॥अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौसमबुध्यत॥५॥ तं दृष्ट्वा ब्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशंकिताः॥ वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ॥६॥ तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदांधौ सुरात्मजौ॥ तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यान्निदं जगौ॥७॥ नारद उवाच॥ न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः॥ श्रीमदादाभिजात्यादिर्यत्र स्त्री यूतमासवः॥८॥ हन्यंते पशवो यत्र निर्दयैरजितात्मभिः॥ मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्युनश्वरम्॥९॥ देवसंज्ञितमप्यंते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम्॥ भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥१०॥

न्दकन्दके दर्शनके निमित्त शाप देतेहुए गान करने लगे॥७॥ तब नारदजीने कहा कि, प्रिय विषयोंके भोग करनेवाले पुरुषकी बुद्धिको धन मदकेविना हास्य हर्षणादिके कुलीनता पण्डिताई आदिसे हुवा मद अथवा रजोगुण नाश नहीं करसक्ता, परन्तु धनका मदही बुद्धिभ्रष्ट करदेताहै, क्योंकिलक्ष्मीका मद जिसको होताहै तो वह स्त्रीप्रसंग करता है अथवा जुआँखेलता है और वारुणीका पान करता है॥८॥ इस क्षणभंगुर शरीरकोलक्ष्मीके मदसे अजर और अमर माननेवाले अजितेन्द्रिय मनुष्य निर्दयी होकर पशुओंको मारते हैं॥९॥ राजाके देहकीभी मरनेके पीछे

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*शंका - किसी नदी में भी कमलोंका वन होता हैं। हमने शास्त्रोंमें ऐसा कहीं नहीं सुना और न आजतक किसी नदीमें हमने अपनी आंखसे कमलका वन देखा ? फिर दोनों यक्षोंने नदीके जलमें प्रवेशकरके कमलके वनमें स्त्रियोंके संग विहार कैसे किया ?

उत्तर-“अंमोजवनराजिनि” इस श्लोकमें अभोज

ननराजिनिका अर्थ व्यासजीने कमलका वन नहीं किया. इसका अर्थ व्यासजीने ऐसा किया है कि, अभोज जो कमल हैं उसके वनको राजि कहिये प्रकाशकरनेवाला जो सूर्य है तिसको साक्षी करके नदीमें स्त्रियोंके संग यक्षलोग क्रीडा कर रहे थे सॉझ या दिनमें क्रीडाकरी यह अर्थ व्यासजीने किया है कमलवनका नहीं किया॥

तीन गति होती हैं गाड़नेसे अथवा पृथ्वीपर डालनेसे कृमि होजाते हैं, जो पशु आदिक खाजाते हैं तो विष्ठा होजाताहै और अग्निमें जलनेसे भस्महो जाती है इस कारण इस तुच्छ शरीरके लिये प्राणियोंसे विरोध करना अच्छा नहीं है क्योंकि जीवोंके द्रोहसे तो नरकही प्राप्त होताहै॥१०॥फिर यह देह किसका कहना चाहिये ? क्योंकि जो अन्न देकर इसका पालन पोषण करता है वह पुरुष कहता है कि, यह मेरा है उसकाकहनाभी सत्य है माता पिता कहते हैं कि, हमारा है, हमारे वीर्यसे और हमारे उदरसे उत्पन्न हुआ है उनका कहना भी सत्य है, नाना कहताहै कि, यह मेरा दौहित्र है मेरी कन्याके पेटसे उत्पन्न हुआ है इसका दिया पानी और इसका किया श्राद्ध मुझको प्राप्त हो सक्ता है मेरा पुत्र नहोने के पीछे मेरे धनका अधिकारी यही है, इस रीतिसे नानाका कहनाभी सत्य है, मोल लेनेवाला कहता है कि, मेरा है, उसका कहना भीकिसी प्रकार असत्य नहीं है, कोई बलवान् पुरुष अपना दास वा चाकर बनाकर रक्खै और यह कहै कि, मेरा है तो उसका कहना भी वृथा नहीं,

देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव वा॥ मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा॥११॥ एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम्॥ को विद्वानात्मसात्कृत्वा हंति जंतूनृतेऽसतः॥१२॥ असतः श्रीमदांधस्य दारिद्र्यं परमांजनम्॥आत्मौपम्येन भृतानि दरिद्रः परमीक्षते॥१३॥ यथा कंटकविद्धांगो जंतोर्नेच्छति तां व्यथाम्॥ जीवसाम्यं गतोलिंगैर्न तथाऽविद्धकंटकः॥१४॥

अग्नि कहै है कि, यह मेरा है क्योंकि मेरेही तेजसे यह सब काम करता है, उसका कहना भी सत्य है, पृथ्वी आदिक कहते हैं कि, हमाराहै अन्तसमय हमारे सिवाय और कहीं जाही नहीं सक्ता, उनके कहने में भी कुछ संशय नहीं और श्वानादिक कहते हैं हमारा है एक दिन हम इसकोखायँगे, उनका कहना भी झूॅठ नहीं॥११॥ इस प्रकार यह तुच्छ शरीर मायाहीसे उत्पन्न होता है और मायाही में लय हो जाता है औरपाँच सात विवादी उसमें विवाद करें कि, यह हमारा है, ऐसे झगडेके देहको पाकर केवल अज्ञानियोंके सिवाय ऐसा कौन ज्ञानी पुरुष है जोजीवोंकी हिंसा करै॥१२॥ जो अज्ञानी पुरुष धनके मदसे अन्धे होजाते हैं उनके लिये दरिद्रही श्रेष्ठ अंजन है दरिद्री पुरुष सब प्राणियोंकोदुःख सुखमें अपनी समान देखता है, क्योकि अपने मनमें निर्धन विचार लेता है कि, मुझको दुःखने इस प्रकार बाधा करी थी, ऐसेही ओरोंकोभी बाधा करता होगा, जैसे मुझको सुख होता है ऐसे औरोंकोभी सुख होता है॥१३॥ जिस पुरुषके पाँवमें कॉटा लगैहै वह पुरुष दूसरेके

पॉवमें भी कॉटा लगना नहीं चाहता, वह अपने मनमें विचार करता है कि, जैसे मुझको कॉटा लगनेसे पीडा हुईहै ऐसेही सबको होती होगी औरजिसके कॉटा लगा नहीं वह कॉटेकी पीडाको कैसे जान सक्ताहै कि, कॉटा लगनेसे इतना कष्ट होताहै॥१४॥इस बातपर एक दृष्टान्त है* दरिद्री

दारिद्रो निरहंस्तंभो मुक्तः सर्वमदैरिह॥ कृच्छ्रं यदृच्छयाऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः॥१५॥

पुरुषका अहंकार, मद और सम्पूर्ण प्रकारका अभिमान नष्ट होजाताहै और जो कष्ट आनकर प्राप्त होताहै तो वह कष्टही उसको तपस्याकी समानहोजाता है; तपमें व्रत हो जाता है, क्योंकि दरिद्री अन्नके विना भूखा प्यासा रहता है, जब दरिद्रीको अन्न न मिले तो निःसन्देह वह भूखा प्यासा

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*एक राजा था उसका पुत्र गुरुके पास विद्या पढता था, जब राजाकी अवस्था अधिक हुई तो राजाने विचार किया कि, अब इस मोह ममताको त्यागकर तप करना चाहिये और मंत्रियोंको बुलाकर सबराज्यका प्रबन्ध करदिया और राज्यसिंहासनका अधिकार पुत्रको देना चाहा गह चर्चा उन गुरुके कानमें भी पढी जो उनके पुत्रको पढाते थे गुरुने अपने गनमें विचार किया कि, मैंने राजकुमारको सब विद्यापढादी, परन्तु अभीतक इसको दुःख सुखका ज्ञान नहीं हुआ, दुःख किसे कहते हैं और सुख किसे कहते हैं, ऐसी विद्या इसको अभी नहीं सिखाई अभी तो यह मेरे

वशमेंहै गैसब कुछ करसक्ताहूं और जब यहअपने वशमें होगया तो मैं कुछ नहीं करसक्ता और जो यह ऐसाही रहा तो न जानिये किस किसको दुःख दे, यह शोच समश उसको अपने पास बुलाकर पाँच सात साँटी ऐसी शक्तिसे मारी कि, शरीरकी सबखाल उडगई और रुधिर बहने लगा, इतने पर भी एक कोठरीमें बन्द फरलिया जो तत्काल उपायभी न हो सके और जब यह रोगा तो रोनेतक भी न दिया दोपहरतक बन्द रहा तब उसको खोल दिया और चार

लढोंफोके साथ राजकुमारको राज्यभवनमें राजाके पास भेजदिया, राजकुमारने अपने पितासे सब वृत्तान्त कहा कि, विना अपराध गुरूने मुझको मारा और अपना सब शरीर दिखाया, राजाने देखा तो सांटी जहाँकी तहाँ उज्जल रही है, रक्त बहरहाहै, राजकुमारकी यह दशा देखकर उसके पिताको वढा क्रोध आया और कोतवालको आज्ञा दी कि, उस ब्राह्मणको अभी पडकर शूली देदो कि, उस निर्दयीने विना अपराधराजकुमारको मारा है, राजाकी आज्ञानुसार कोतवालने पकडकर

कोंको सौंप दिया कि, इसको शूली देदो,

अधिक जिस समय उस ब्राह्मणको शूली देनेकोलेचले, तब उस ब्राह्मणने कहा कि, में कुछ बातराजा से कहना चाहता '

अधिक बोले चल, ब्राह्मणने राजा से कहा कि, मुझको शूलीकी आज्ञा किसलिये हुई ? आपने मुझको राजकुमारके पढानेके लिये नियत किया था या शूली देनेके लिये ?राजाने कहा कि,क्या हमने बिना अपराध मारनेके लिये कह दिया था, ब्राह्मण बोला कि, में नहीं मारा, राजाने राजकुमारका सब शरीर दिखाया और कहा यह क्या है ?ब्राह्मणने कहा कि, यह भी एक प्रकारकी विद्या है, राजाबोला कि, यह कैसी विद्या है? ब्राह्मण बोला किमैंने सुना कि, प्रात काल राजकुमार राज्य- सिंहासनपर बैठेंगे और अभीतक यह नहीं जानते दुःख कैसा होता है और जो मैने इनको दुःख न दिखाया तो यहहजारों मनुष्योंको दुःख देंगे, अब इन्होंने दुःखका भेद जान लिया तो अब किसीको विना अपराध दुःख न देंगे अब इनको भले प्रकार दुःखका रूप दरशा दिया, राजा ब्राह्मणकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुवाँ और दशगांवऔर अनेक प्रकारके आभूषण उसको पारितोषिकमें दे हाथ जोडकर कहा कि, मेरा अपराध क्षमा करना मैं आपकी गुप्त विद्याको नहीं समझा था, ब्राह्मण राजाको और कुँवरको आशीर्वाददेकर चलागया देखो ! पहिले ब्राह्मण कैसे चतुर होतेथे॥

रहेगा तो वही व्रत होजायगा॥१५॥ अन्नकी आकांक्षा करनेवाले दरिद्रीके घर नित्य कडाके होतेहैं. इससे उसका शरीर सूख जाताहै, इन्द्रियें शिथिलहोजाती हैं, फिर उससे हिंसाभी नहीं होती, जो आपही मरताहै वह दूसरेको कैसे मारसक्ता है?॥१६॥ दरिद्री मनुष्य सबको समान देखताहै औरदरिद्रीको साधु महात्मा पुरुषभी मिलजातेहैं, जिस समय दरिद्री क्षुधित होकर अन्न अन्न पुकारता है, तब साधु महात्मा उससे कहते हैं कि, अरे !कृष्ण कृष्ण पुकार जो सब संसारका पालन पोषण करनहाराहै. इसप्रकार वह साधु महात्मालोग उसके अन्नकी तृष्णाको दूर करदेतेहैं, तब शीघ्रउसका संताप छूटजाता है॥१७॥ समचित्त और परमेश्वरके चरणानुरागी साधु महात्मा पुरुषोंको दरिद्रीही प्यारा होता है, उनको लक्ष्मीके मदसे

नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकांक्षिणः॥ इंद्रियाण्यनुशुष्यंति हिंसापि विनिवर्तते॥१६॥ दरिद्रस्यैव युज्यंतेसाधवः समदर्शिनः॥ सद्भिः क्षिणोति तं वर्ष तत आराद्विशुध्यति॥ १७॥ साधूनां समचित्तानां मुकुंदचरणैषिणाम्॥उपेक्ष्यैः किं धनस्तंभैरसद्भिरसदाश्रयैः॥१८॥ तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदांधयोः॥ तमोमदं हरिष्यामिस्त्रैणयोरजितात्मनोः॥१९॥ यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ॥ न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ॥२०॥ अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः॥ स्मृतिः स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात्॥२१॥ वासुदेवस्यसान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते॥वृत्ते स्वलोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः॥२२॥

उन्मत्त दुष्ट लोगोंसे प्रयोजनही क्या ?॥१८॥ इसलिये मैं इन दोनोंको जोकि वारुणीके मदसे मतवाले, लक्ष्मीके मदसे अन्धे, स्त्रियोंके लम्पट औरअजितेन्द्रिय हैं, इनसे अज्ञान हुए मदको मैं दूर करूंगा, क्योंकि इस समय यह अन्धे, होरहेहैं॥१९॥ देखो ! यह कुबेरके पुत्र होकर अज्ञानमेंडूवरहे हैं, यह नहीं जानते कि हम नंगे हैं, इनको कुछ भी अपने तनुकी सुधि नहीं अत्यन्त मतवाले होरहे हैं॥२०॥ इसलिये यह दोनों स्थावरहोनेके योग्य हैं जो फिर आगेको इन्हें ऐसा मद न होय और वृक्षयोनिमें भी मेरी कृपासे इनको सुधि बनीरहै॥२१॥ और भगवान् वासुदेवका दर्शन पाकर पीछे फिर स्वर्गमें जाकर देवता होयँ, परन्तु पहिले देवताओंके सौ (१००) वर्ष वृक्षयोनि भोगनी पडेगी, तदनन्तर

इनको भक्ति प्राप्तहोगी॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! देवर्षि नारदजी इसप्रकार कहकर नारायणके आश्रमको चलेगये, अवनलकूबर, मणिग्रीव, दोनों यमलार्जुन वृक्ष हुए॥२३॥ अपने भक्तोंमें मुख्य श्रीनारदजीके वचन सत्यकरनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्र महाराजयमलार्जुनवृक्षोंके निकट हौले हौले चलेगये॥२४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मनमें विचार किया कि, श्रीनारदजी मेरे प्रिय भक्त हैंऔर यह कुबेरके दोनों पुत्र हैं सो नारद महात्माने इनके विषयमें जो कुछ कहाहै सो सब सत्य करूंगा॥२५॥ इसप्रकार विचार करकेयमलार्जुन वृक्षोंके बीचमें होकर निकले और वृक्षोके बीचमें आनकर उलूखल को तिरछा करदिया॥२६॥ रस्सीसे उदरमें बँधे हुए उलूखलको

श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्त्वा स देवर्षिर्गतो नारायणाश्रमम्॥ नलकूबरमणिग्रीवावासतुर्य- मलार्जुनौ॥२३॥ ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कतु वचो हरिः॥ जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ॥२४॥ देवर्षिर्मेप्रियतमो यदिमौधनदात्मजौ॥ तत्तथा साधयिष्यामि यद्गीतं तन्महात्मना॥२५॥ इत्यंतरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ॥ आत्मनिवशमात्रेण तिर्यग्गत- मुलूखलम्॥२६॥ बालेन निष्कर्षयताऽन्वगुलूखलं तद्दामोदरेण तरसोत्कलितांघ्रिबंधौ॥निष्पेततुः परमविक्रमिताऽतिवेपस्कंधप्रवालविटपौ कृतचंडशब्दौ॥२७॥ तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरंतौसिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः॥ कृष्णं प्रणम्य शिरसाऽखिललोकनाथं बद्धांजली विरजसाविदमूचतुः स्म॥२८॥कृष्णकृष्ण महायोगिस्त्वमाद्यः पुरुषः परः॥ व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः॥२९॥

बालकरूप श्रीकृष्ण दामोदरने झटका मारकर खींचा, उस समय दोनोंवृक्ष जडसे उखड़कर पृथ्वीपर गिरपडे, श्रीकृष्ण के पराक्रमसे गुद्धे, शाखा,डाली और पत्ते, सब कॉपने लगे बड़ा भारी शब्द हुवा॥२७॥ जैसे संघर्षणके होनेसे अनि निकले, ऐसेही अतिशोभायमान दश दिशाओंको प्रकाशमान करते दो पुरुष निकले, तब भगवान् त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्णचन्द्रको शिर झुकाकर प्रणाम किया और मदको त्यागा हाथजोड़ इस प्रकार प्रार्थना करनेलगे॥२८॥ हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महायोगिन् ! तुम बालक नहीं हो, परम कारणरूप हो और स्थूलसूक्ष्मरूप जो आपहो

उस रूपको ब्रह्मवेत्ता जानते हैं॥२९॥ सब प्राणियों के देह, प्राण, इन्द्रिय, अहंकारके आपही एक ईश्वर हो और सम्पूर्णमें व्यापक भगवान्कालरूप आपही हो॥३०॥आपही महानुरूप हो रजोगुण, तमोगुण सत्त्वगुण और सूक्ष्म मायारूप सब तुमही हो, देहोंके विकारके जाननेवालेसाक्षीपुरुष आपही हो॥३१॥ आप प्रकृतिके गुण, बुद्धि, अहंकार इन्द्रियादिकसे ग्रहणकरनेमें नहीं आते हो उत्पत्तिसे पहिलेही स्वयंप्रकाशजो आप हो तिनको कारण गुण आच्छादित जीव कैसे जानसक्ताहै॥३२॥ वासुदेव, सर्वके कर्त्ता और स्वयंप्रकाशित किये हुए गुणोंसेजिनकी महिमा ठकरही है ऐसे जो आप ज्ञानस्वरूप हैं सो हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं॥३३॥ हे भगवन् ! आप सबके शरीरोंमें

त्वमेकः सर्वभूतानां देहोऽस्वात्मेंद्रियेश्वरः॥ त्वमेव कालो भगवान्विष्णुरव्यय ईश्वरः॥३०॥ त्वं महान्प्रकृतिःसाक्षाद्रजस्सत्त्वतमोमयी॥ त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित्॥३१॥ गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः॥ कोन्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः॥३२॥ तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे॥ आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः॥३३॥ यस्यावतारा ज्ञायंते शरीरेष्वशरीरिणः॥ तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसंगतैः॥३४॥ स भवान्सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च॥ अवतीर्णेशभागेन सांप्रतं पतिराशिषाम्॥ ३५॥ नमः परमकल्याण नमः परममंगल॥ वासुदेवाय शांताय यद्वनां पतये नमः॥३६॥ अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचर- किंकरौ॥दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात्॥३७॥

रहकरभी शरीरके सम्बन्धसे रहित हो और यद्यपि आपका शरीरभी नहीं है परंतु जब अवतार धारण करते हो तब और प्राणियोंसे न होनेवालेजिनकी तुल्य वा अधिक कोई नहीं करसक्ता, ऐसे ऐसे चरित्रोंसे आपके अवतार जाने जाते हैं॥३४॥ सब लोकोंके ऐश्वर्य और मोक्षके लियेनिरन्तर परिपूर्ण रूप होकर अपने अंशोंसहित प्रगट हुए हो॥३५॥हे परमकल्याणरूप ! हे मंगलरूप ! आपको नमस्कार हैं, आपके शान्तरूपको नमस्कार हैं. हेवासुदेव ! यदुकुलके रक्षा करनेवाले आपको बारंबार नमस्कार है॥३६॥हे परिपूर्ण भगवन् ! हम आपके दासोंके दास हैं,हमने भगवान् नारदजी महाराजकी कृपासे आपका दर्शन पायाहै और आपको परिपूर्ण रीतिसे जाना अब हमको आप आज्ञा दीजिये॥३७॥

हमारी वाणी आपके गुणानुवादोंको निरन्तर गाया करें कान आपकी कथाओंको सदा सुनते रहें, हाथ आपकी सेवा और पूजनमें लगेरहैं हमारा मनसदा आपके चरणारविन्दोंमें लगा रहै, हमारा मस्तक आपके निवासरूप जगत् कोप्रणाम करता रहै, और हमारी दृष्टि तुम्हारी साधु मूर्तियोंकानित्यप्रति दर्शन किया करे, हे दीनबन्धु ! हम बारंबार आपसे यह वर मांगते हैं॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! जब इसप्रकार नलकूबर,मणिग्रीवने गोकुलनाथ भगवान् की स्तुतिकरी, तब रस्सीसे उलूखल जिनके उदरमें बॅधरहा ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्द मुसकराकरबोले॥३९॥ श्रीभगवान् बोले कि हे यक्षो ! करुणामय श्रीनारदजीने लक्ष्मी के मदसे तुमको अन्धा देखकर शाप दिया और तुमको लक्ष्मीसेभ्रष्ट करके तुम्हारे ऊपर अनुग्रह किया, इस सब इतिहासको मैं पहिलेहीसे जानता था॥ ४०॥ समानचित्त, ब्रह्मज्ञानी, सनातन धर्ममें तत्पर,

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः॥ स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे दृष्टिःसतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम्॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सकीर्तितस्ताभ्यां भगवान्गोकुलेश्वरः॥ दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ॥३९॥ श्रीभगवानुवाच॥ ज्ञातं मम पुरैवैतदृषिणा करुणात्मना॥ यच्छ्रीमदांधयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः॥४०॥ साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्॥ दर्शनान्नो भवेद्वंधः पुंसोऽक्ष्णोःसवितुर्यथा॥४१॥ तद्गच्छतं मत्परमौ नलकूबरसादनम्॥ संजातो मयि भावो वामीप्सितः परमोऽभवः॥४२॥श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः॥ बद्धोलूखलमामंत्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम्॥४३॥ इतिश्रीमद्भागवतमहापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे यमलार्जुनयोः नारदशापमोचनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

उनमें भी मुझमें निरन्तर मन लगानेवाले महात्मा पुरुषोंके दर्शनसे ऐसे पुरुषोंका बन्धन कटजाता है जैसे सूर्यके दर्शनसे नेत्रोंका अन्धकार दूरहोजाता है॥ ४१॥ हे नलकूबर! हे मणिग्रीव! तुम मेरे भक्त होकर अपने स्थानको जाओ, तुम्हारी मेरेविषे सर्वदा भावना रहेगी और तुम्हाराजन्म मरण रूप संसार मुझमें प्रेम करनेसे छूट गया॥४२॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इस प्रकार भगवान् के वचनसुनकर नलकूबर, मणिग्रीव बारंबार परिक्रमा करके प्रणाम करने लगे और उलूखलसे बँधेहुए श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा लेकर उत्तर दिशाको चलेगये॥४३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वाधेभाषाटीकायां यमलार्जुनयोः नारदशापमोचनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

दोहा - ग्यारहमें बछरन सहित, वृन्दावन हरि आय। वत्सासुर अरु बकासुर, हने कहूं सो गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले, हे कुरुकुलभूषण ! वृक्षोंकेगिरानेका शब्द सुन यशोदा अत्यन्त व्याकुल होकर दौड़ी और जिस उलूखलसे कृष्णको बाँधा था वहां न तो कृष्णको पाया और न उलूखलकोदेखा, तब तो एकाएकी घबराकर हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! हा मोहनप्यारे ! कह कहकर चिल्ला चिल्ला रोने लगीं, यशोदाकी चिल्लाहट सुनकर नन्दादिक समस्त गोप कहने लगे कि, यह कोई वज्र गिरा वा कोई और नया उत्पात हुवा।इस भयसे भयभीत हो सब गोप वहॉ आये जहां वृक्ष गिरेथे॥१॥देखा तो पृथ्वीपर यमलार्जुन वृक्ष उखड़ा हुवा पड़ाहै, गिरनेका कारण विद्यमान है, परन्तु गोपोंके मनमें भ्रम हुवा कि, आंधीभी नहीं आईवज्रभी नहीं टूटा, फिर यह वृक्ष आपसेआप कैसे उखड़पडे॥२॥ रस्सीसे बँधे बालक श्रीकृष्णको उलूखल खेंचते देखा तो भी ब्रजवासियोंने न

श्रीशुक उवाच॥ गोपा नंदादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो रवम्॥ तत्राजग्मुः कुरुश्रेष्ठ निर्घातभयशंकिताः॥१॥ भूम्यांनिपतितौ तत्र ददृशुर्यमलार्जुनौ॥ बभ्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम्॥२॥ उलूखलं विकर्षंतं दाम्ना वद्धं चबालकम्॥ कस्येदं कुत आश्चर्यमुत्पात इति कातराः॥३॥ बाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतमुलूखलम्॥ विकर्षता मध्यगेन पुरुषावप्यचक्ष्महि॥४॥ न ते तदुक्तं जगृहुर्न घटेतेति तस्य तत्॥ बालुस्योत्पाटनं तर्वोः केचित्संदिग्धचेतसः॥५॥ उलूखलं विकर्षंतं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम्॥ विलोक्य नंदः प्रहसद्वदनो विमुमोच ह॥६॥

जाना और परस्पर कहने लगे कि, यह किस राक्षसका कामहै कहांसे यह आश्चर्यरूप उत्पात हुवा, ऐसे कह व्रजवासी डरने लगे॥३॥ वहां जोछोटे छोटे बालक खेल रहे थे उन्होंने कहा कि, यह श्रीकृष्ण उलूखलको खैंचे वृक्षोंके बीचमें आगया, तब यह उलूखल तिरछा होकर इन दोनोंवृक्षोंके बीचमें अड़गया, तब इसने झटका मारकर खींचा, इससे यह दोनों वृक्ष गिरपड़े इनमेंसे दिव्यरूप दो पुरुष निकले उनको भी हमनेदेखा॥४॥ बालकोंकी बातका किसी किसी ब्रजवासीने तो विश्वास न माना और परस्पर कहने लगे कि, तनकसे बालकने इतने इतने बड़ेवृक्षोंको कैसे उखाड़ डाला ? और कोई कोई व्रजवासी कहने लगे कि, इस बालकने जन्मसेही ऐसे औटपाय कियेहैं, जब बहुतही छोटा सा था तोपूतनाको मारा, तृणावर्त्तको मारा और गाड़ा पटकदिया, फिर यह, दो वृक्ष उखाड़ डाले तो क्या अचम्भा है॥५॥ उलूखलको उदरमें बँधा देखकर

नन्दरायजी बोले कि, तुझको उलूखलसे किसने बाँधा है। तब श्यामसुन्दरने कहा कि, मेरी प्यारी मैयाने, कृष्णके तुतलाते मधुरवचन सुन नन्दरायनेउलूखलसे खोल हृदयसे लगालिया और हँसके बोले कि, चल बेटा तेरी मैयाको मारेंगे, श्रीकृष्ण बोले पिताजी ! मेरी मातासे कुछ मत कहना, क्योंकिउसका कुछ दोष नहीं सब अपराध मेराही है*॥६॥ तब गोपियें बोलीं कि, हे मनमोहन प्यारे! हम तो ताली बजावैं और तुम नाचो हम तुमको बहुतसा माखन खिलावैंगी, यह सुन श्रीकृष्ण भगवान् कभी वालककी नाईं नाचतेथे और कभी भोले बनकर गातेथे, जैसे काठकी पुतली बाजीगरके हाथमें

गोपीभिः स्तोभितोऽनृत्यद्भगवान्बालवत्क्वचित्॥ उद्गायति क्वचिन्मुग्धस्तद्वशो दारुयंत्रवत्॥७॥ बिभर्ति क्वचिदाज्ञप्तःपीठकोन्मानपादुकम्॥ बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन्॥८॥ दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम्॥व्रजस्योवाह वै हर्षं भगवान्बालचेष्टितैः॥९॥ गृह्णीहि भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः॥ फलार्थी धान्यमादायययौ सर्वफलप्रदः॥१०॥

होतीहै और जिधरको फेरताहै, उधरको फिरतीहै ऐसेही गोपियोके प्रेमके वशमें परब्रह्म परमेश्वर होरहेहैं॥७॥ कभी यशोदाजी कहें हैं कि, हे बेटा ! पीढ़ालेआव, कभी कहती बाबाकी खड़ाऊं ले आव, तब तुरन्तही पीढ़ा ले आवैं और तुरन्तही खड़ाऊं ले आवैं और जब कोई वस्तु नहीं उठती तवमातामाता पुकारतेहैं, इस प्रकार व्रजवासियोंको लीलाकरके आनंद देतेहैं॥८॥ संसारमें पण्डित लोगोंके दिखानेको कि, “मैंइसप्रकार भक्त लोगोंके वशमें हूं"जस नचातेहैं वैसे नाचता हूं, इसप्रकार बाललीला करके व्रजवासियोंको प्रसन्न करतेहैं और व्रजवासी आनन्दित होतेहैं॥९॥ (एकसमय फल लो ! ऐस

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*शंका - अपने पुत्र श्रीकृष्णको बहुत रोता देखकर और कमरमें बहुत कसके रस्सीमें वॅधा देखकर और वृक्षोंको टूटा हुआ देखकर, कभी श्रीकृष्णके ऊपर न गिरगया हो परन्तु श्रीकृष्णकी देहमें कहीं चोटनहीं लगीं, परमेश्वरने शरीरकी रक्षा की, ऐसे अपने पुत्रको देखकर नन्दजी क्यों हॅसे ? बालकको दुःखी देखकर तो ऊपरी लोगभी शोच करने लगते हैं और श्रीकृष्ण नन्दजीके पुत्र ठहरे फिर नन्दजीने शोचकिस लिये नहीं किया?

उत्तर - नन्दजी गर्गाचार्यके वचनोंको स्मरण करके हँसे क्योंकि गर्गाचार्य नन्दजीसे पहिलेही कह गये ये श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् नारायणका स्वरूपहैं श्रीकृष्णके जन्मसे नन्दजीने अपने भाग्यको लक्ष्मीके प्राणपतिजगत् के स्वामी ऐसे श्रीकृष्णको बारबार नमस्कार करके और अपने आपको धन्य जानकर मनमें परमानन्द होकर नन्दजी हँसेथे कि, देखो ? आज मेरे भाग्यकी वढाई शिव, सनकादिक भी नहीं कर सक्ते॥

मालिनीका शब्द सुनकर, सम्पूर्ण फलोंके देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान् धान्य लेकर फल लेनेको चले॥१०॥ मालिनीने उनके धान्य डाल देनेके उपरान्तमनमोहन प्यारेकी परमप्यारी छवि देख उनके दोनों हाथ फलोंसे भर दिये. तब व्रजरत्नने उसकी डलिया रत्नोंसे भरदी॥११॥ यमलार्जुन वृक्षोंकोउखाडके श्रीकृष्ण यमुनाके तीरपर बालकोंके संग बलभद्रसहित खेल रहे थे, इनको रोहिणीजीने पुकारा दोनों भाई खेलमें ऐसे मग्न हो रहे थे कि, रोहिणीके बुलानेसे भी न आये, तब पुत्रसे प्रेम करनेवाली यशोदाजींको रोहिणीने बुलानेकेलिये भेजा॥१२॥१३॥१४॥ बालकोंके संग कृष्ण बलदेवकेखेलते खेलते जब बहुत दिन चढ़ गया, तब यशोदाके पुत्रके स्नेहसे स्तनोंमेंसे दूध टपकने लगा तब यशोदाजी श्रीमनमोहन प्यारेको बुलाने लगीं

फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम्॥ फलैरपूरयद्रत्नैः फलभांडमपूरि च॥११॥ सारत्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाह्वयत्॥ (रामं च रोहिणी देवी क्रीडतं बालकैर्भृशम्)॥ जन्मर्क्षमद्य भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः॥१२॥पश्यपश्य वयस्यास्तेःमातृमृष्टान्स्वलंकृतान्॥ त्वं च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलंकृतः॥ १३॥ नोपेयातां यदाहूता क्रीडासंगेन पुत्रकौ॥ यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम्॥१४॥ इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नृप॥ हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतं नीत्वा स्ववाटं कृतवत्यथोदयम्॥१५॥ क्रीडंतं सा सुतं बालैरतिवेलंसहाग्रजम्॥ यशोदाऽजोहवीत्कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी॥१६॥ कृष्णकृष्णारविंदाक्ष तात एहि स्तनं पिब॥ अलं विहारैः क्षुत्क्षांतः क्रीडाश्रांतोऽसि पुत्रक॥१७॥ हे रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनंदन॥ प्रातरेव कृताहारस्तद्भवान्भोक्तुमर्हति॥१८॥ प्रतीक्षते त्वां दाशाहों भोक्ष्यमाणो व्रजाधिपः॥ एह्यावयोः प्रियं धेहि स्वगृहान्यात बालकाः॥१९॥

॥१५॥१६॥ हे कृष्ण ! हे कमलदललोचन ! हे प्यारे पुत्र ! स्तनपान करले, तू खेलते खेलते थकगया होगा. हे तात ! तुझको भूख बहुत लगी होगीअब खेलको रहनेदे, संध्याको फिर खेलना॥१७॥ हे राम ! हे मोहन! हे नंदलाल! हे कुलभूषण ! शीघ्र छोटे भाइको अपने साथ लेकर घरको आवोप्रातःकालही कलेऊ कर लिया है अब आनकर भोजन करले॥१८॥ अरे खेलके मतवाले ! व्रजनाथ तुझ विना भोजन करनेको बैठे हैं, तेरे आनेकी बाट देखरहे हैं, तुझको वूढे बाबाकी दया नहीं आती, तू आनकर हमको प्रसन्न कर, इस बात को सुनकर कृष्ण आये तब बालक बोले कि,

जैसे तैसे करके तो खेल जमा है अब श्रीकृष्ण जाते हैं, इसको कभी नहीं खिलानेके, यह बात सुनकर श्रीकृष्ण फिर खेलने लगे, तब यशोदाबोली कि, अरे बालको ! तुम्हारे घरबारहै कि नहीं, क्यों नहीं अपने घरोंको जाते॥१९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, जब व्रजमें बडेबडे उत्पात होने लगे तब नन्दादिक वृद्ध वृद्ध व्रजवासियोंने विचार किया कि, महावनमें तो नित नये उत्पात होते हैं. अब गोकुलके हितका कोईविचार करना चाहिये॥२०॥ जोकि, ज्ञान और अवस्था करके अधिक देश कालके तत्त्वको जाननेवाले और बलभद्र व कृष्णचन्द्रकेअतिहित करनेवाले उपनन्द नाम गोप तहाँ बोले॥२१॥ गोकुलके हितकी इच्छा करके उपनन्द कहने लगे कि, हम यहाँसे उठकेऔर स्थानपर वास करेंगे, यहां बालकोंके विघ्न करनेवाले बहुतसे उत्पात होतेहैं॥२२॥ बालकोकी घातिक पूतना राक्षसीके हाथसे जैसे

श्रीशुक उवाच॥ गोपवृद्धा महोत्पाताननुभूय बृहद्वने॥ नंदादयः समागम्य व्रजकार्यममंत्रयन्॥२०॥ तत्रोपनंदनामाह गोपो ज्ञानवयोधिकः॥ देशकालार्थतत्त्वज्ञः प्रियकृद्रामकृष्णयोः॥२१॥ उत्थातव्यमितोऽस्माभिर्गोकुलस्य हितैषिभिः॥ आयांत्यत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः॥२२॥ मुक्तः कथंचिद्राक्षस्या बालघ्न्या बालकोह्यसौ॥ हरेरनुग्रहान्नूनमनश्चोपरि नापतत्॥२३॥ चक्रवातेन नीतोऽयं दैत्येन विपदं वियत्॥ शिलायां पतितस्तत्रपरित्रातः सुरेश्वरैः॥२४॥ यन्न म्रियेत द्रुमयोरतंरं प्राप्य बालकः॥ असावन्यतमो वापि तदप्यच्युतरक्षणम्॥२५॥यावदौत्पातिकोऽरिष्टो व्रजं नाभिभवेदितः॥ तावद्बालानुपादाय यास्यामोऽन्यत्र सानुगाः॥२६॥ वनं वृंदावनंनाम पशव्यं नवकाननम्॥ गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम्॥२७॥

तैसे कर यह बालक बचा और एक समय शकट इसके ऊपर गिरा उस विपत्तिसेभी भगवानकी कृपासे बचा॥२३॥ एक समय तृणावर्तबबूलेका रूप धरके इस बालकको आकाशमें उडाकर लेगया और वहाँसे उसने शिलाके ऊपर पटक दिया, वहाँभी देवताओंने इसकीरक्षा करी॥२४॥ यह बालक उलूखलमें बँधाहुआ दोनों वृक्षोंके बीचमें फॅसगया और मरनेसे बचा, वहाँ उस समय और बालक भी कोईनही था, वहॉ भी इस बालककी परमात्माने रक्षा करी॥२५॥अब परमेश्वर और कोई दूसरा उत्पात व्रजमें न खडा करदे, इससे पहिलेहीबालकोको यहांसे लेकर और दूसरी ठौर कहीं चल बसैं॥२६॥ पशुओंका हितकारी और नये बाग बगीचे और पुष्पवाटिकावाला श्रीवृन्दावन

नाम वन है और वहीं अतीव उत्तम गोप गोपी, गायोंके रहने योग्य स्थान हैं और महापवित्र जहाँ गोवर्धन पर्वत है, यमुनाजीका किनारा हैवहॉ तृण, जल, लता और उत्तम उत्तम सब प्रकारके वृक्ष हैं॥२७॥ उस वृन्दावनका वास सदैव अच्छा है, आपकी इच्छा हो तो गाडोंकोजोतो और गायोंको आगे हाँकलो, अब विलम्ब करनेका समय नहीं है इस प्रकार उपनन्द गोपने नन्दजीसे कहा॥२८॥ उपनन्द गोपकेवचन सुनकर सब वृद्धजनोंने कहा धन्य है आपकी बुद्धिको आपने बहुत अच्छा कहा. हे व्रजराज ! उपनन्दका कहना बहुत ठीकहै, हमारी भीसम्मति यहीहै वृंदावन में वास कीजिये नन्दजीने कहा हमारीभी यही इच्छा थी परन्तु आपके कहनेसे और पक्की बात होगई. नन्दजीकी बात सुन

तत्तत्राद्यैव यास्यामः शकटान्युंक्तमाचिरम्॥ गोधनान्यग्रतो यांतु भवतां यदि रोचते॥२८॥ तच्छ्रुत्वैकधियो गोपाः साधुसाध्विति वादिनः॥ व्रजान्स्वान्स्वान्समायुज्य ययू रूढपरिच्छदाः॥२९॥ वृद्धान्बालान्त्रियो राजन्सर्वोपकरणानि च॥ अनस्स्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्तशरासनाः॥३०॥ गोधनानि पुरस्कृत्य शृंगाण्यापूर्य सर्वतः॥ तूर्यघोषेण महता ययुः सहपुरोहिताः॥३१॥ गोप्यो रूढरथा नूत्नकुचकुंकुमकांतयः॥ कृष्णलीलाजगुः प्रीता निष्ककंट्यः सुवाससः॥३२॥ तथा यशोदारोहिण्यावेकं शकटमास्थिते॥ रेजतुः कृष्णरामाभ्यांतत्कथाश्रवणोत्सुके॥३३॥

सबने अपनी अपनी गाडियोंको जोत घरकी सब सामग्री लादकर चलदिये॥२९॥ हे राजा परीक्षित् ! प्रथम सब समानको गाडियोंमेंभरकर ऊपर वृद्ध, बालक, स्त्रियोंको बैठालकर, धनुष बाण हाथोंमें लेलेकर॥३०॥ सब व्रजवासी सावधान हो गायोंको आगे कर,चारोओर बड़े बड़े रणसिंग बजाते और तुरहीका शब्द करते पुरोहितको संग लेकर सब गोकुलवासी वृन्दावनको चलदिये॥३१॥गाडियोमें बैठी गोपी नवीन केशर कुचाओमें लगाये कठला, धुकधुकी कण्ठमें पहिरे रथ और गाडियोंमें बैठीं कृष्णकी लीलागाती जाती थीं॥३२॥ उसी प्रकार रोहिणी और यशोदा भी एक गाडीमें श्रीकृष्ण और बलदेवजीको साथ लिये बैठी थीं और

उनकी लीला और चारित्रोंको सुन सुनकर आनन्दको प्राप्त होती थीं॥३३॥ सर्वानन्दको देनेवाले वृन्दावनमें आनकर गाडियोंको बराबरखडा करके अर्द्धचन्द्रमाकी समान गायोंके रहनेके लिये एक खिरक बनाया॥३४॥ हे राजन् ! वृन्दावन, गोवर्द्धन और यमुनाजीका अत्यन्तरमणीक तट देखकर श्रीकृष्ण और बलराम बहुत प्रसन्न हुए॥३५॥ इसप्रकार बाललीला और तोतली मधुरवाणीसे व्रजवासियोंको आनन्ददेने लगे और जब दोनों भाई बछरे चरावने योग्य हुए तब वत्सपालक कहलाये॥३६॥व्रजभूमिके निकटही गोपालोंके बालकोंको संग लेकेश्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई बछरोंको चराने लगे और भाँति भाँतिकी क्रीडा नित्य प्रति करने लगे॥३७॥ कभी बाँसुरी बजाते थे और कभीआमलोंको गोफनमें धरधरकर चलाते थे कभी पावोंमें घूँघुरू बॉधकर ऐसा नाच नचातेथे कि, अप्सराओंको लजाते थे. कभी परस्पर युद्ध करते

वृंदावनं संप्रविश्य सर्वकालसुखावहम्॥ तत्र चक्रुर्व्रजाऽऽवासं शकटैरर्धचंद्रवत्॥३४॥ वृन्दावनं गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च॥ वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप॥३५॥ एवं व्रजौकसां प्रीतिं यच्छंतौ बालचेष्टितैः॥ कलवाक्यैः स्वकालेन वत्सपालौ बभूवतुः॥ ३६॥ अविदूरे ब्रजभुवः सहगोपालदारकैः॥ चारयामासतुर्वत्सान्नानाक्रीडापरिच्छदौ॥३७॥ क्वचिद्वादयतो वेणुं क्षेपणैः क्षिपतः क्वचित्॥ क्वचित्पादैः किंकिणीभिः क्वचित्कृत्रिमगोवृषैः॥३८॥वृषायमाणो नर्दंतौ युयुधाते परस्परम्॥ अनुकृत्य रुतैर्जंतूंश्चेरतुः प्राकृतौ यथा॥३९॥ कदाचिद्यमुनातीरे वत्सांश्चारयतोः स्वकैः॥ वयस्यैः कृष्णबलयोर्जिघांसुर्दैत्य आगमत्॥४०॥

थे, कभी कम्बल उठाय कृष्ण बलदेव दोनों भैया ग्वालोंको बैल बनाते थे और उनके संग आप भी बैल बनकर गम्भीर शब्द करते थे॥३८॥ कभीपक्षियोंकी बोली बोल बोलकर कहते हैं कि, हम हंस हैं कोई कहते हम मोर हैं, जैसे प्राकृत बालक खेल खेलतेहैं वैसेही दोनों भाई वनमें जाकर गोपोंकेसंग नये नये खेल खेलते थे॥३९॥ एक समय यमुनाजीके तीरपर श्रीकृष्ण और बलराम बछरे चरानेको गये और वहॉ कंसने सुना कि, नन्दादिकगोप गोकुल छोडकर वृन्दावनमें जा बसे हैं, तब कंसने अपने साथी वत्सासुरको बुलाकर विनयपूर्वक अपने दुःखका सब वृत्तान्त कहाकि, भाई ! नन्दकेपुत्रने मुझको बडा दुःख देरक्खाहै, कोई ऐसा उपाय करो जो वह बालक माराजाय. कंसकी यह बात सुन बत्सासुर वछरेका रूप बनाकर वृन्दावनमें

गया॥४०॥ और जो बछरे कृष्ण और बलराम चराते थे उन्हीं बछरोंमें मिलकर यह भी चरने लगा और भयानकरूप देख सब बछरे डरकरजहाँ तहाँको भागगये. तब श्यामसुन्दरने उस राक्षसको पहॅचानकर आँखकी सैनसे बलदेवजीको जताया कि, देखो भाई ! यह दुष्ट राक्षस कंसकाभेजादुवा बछरेका रूप धरकर मेरे मारनेके लिये यहां आया है, तुम भी इसका ध्यान रखना॥४१॥ वत्सासुर भी घूमता घामता अपनी घातलगाताहुवा धीरे धीरे वृन्दावनविहारीके समीप आ पहुॅचा, तब श्रीकृष्णचन्द्रने उसका पिछला पैर पकड़कर एक कैथाके पड़की जडमें घुमाकर ऐसामारा कि, उसका प्राण निकलकर परमधामको सिधारा, बड़े भारी शरीरखाला वत्सासुर दैत्य कैथाके वृक्षसहित पृथ्वीपर गिरा॥४२॥ उसकोगिरा देखकर सब बालक अत्यन्त विस्मित हो धन्य धन्य कहने लगे और अत्यन्त प्रसन्न हो देवताओंने आकाशसे फूल बरसाये॥४३॥ समस्त

तं वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः॥ दर्शयन्बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत्॥४१॥ गृहीत्वाऽपरपादाभ्यां सहलांगूलमच्युतः॥ भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद्गतजीवितम्॥ स कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह॥४२॥तं वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति॥ देवाश्च परिसंतुष्टाः वभूवुः पुष्पवर्षिणः॥४३॥ तौ वत्सपालकौभूत्वा सर्वलोकैकपालकौ॥ सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयंतौ विचेरतुः॥४४॥ स्वंस्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यंत एकदा॥गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम्॥४५॥

बाल कोंकी रक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेव दोनों भ्राता बछरोंके वत्सपाल होकर प्रातः कालका कलेवा लेकर वनमें जाय बछरोंको चरातेऔर अनेक अनेक प्रकारकी लीला विहार करते थे॥४४॥ जब कंसने वत्सासुरके मारे जानेका वृत्तान्त सुना तो बडा शोच किया ? और उसकेभाई बकासुरसे जाकर कहा कि, तू अपने भाईका बदला ले और उस दुष्ट कृष्णको मारकर मेरी छाती ठण्ढीकर. यह बात सुनकर बकासुर बगलेका रूप धारण कर वृन्दावनमें आया और कालिन्दीके किनारे पर्वताकार हो, मुंह फैलाकर इस घातमें जा बैठा कि, श्याम सुन्दर यहाँ आवै तोनिगल जाऊँ उस दिन सब बालक अपने अपने बछरोके समूहोंको यमुनाजीके निकट जल पिलानेके लिये गये, वहाँ जाय बछरोंको जल

पिलाया और आप भी पिया॥४५॥ और वहाॅउन बालकोंने वज्रसे टूटे गिरे पर्वतके शिखरके तुल्य बड़े मुखवाला एक पक्षी देखा और उसकोदेखकर अत्यन्त भयभीत हुए॥४६॥ यह महाबली तीक्ष्णचोंचवाला बगलेका रूप धारणकिये बकासुरनाम दैत्य था. वह बकासुर बलवान् आनकर श्रीकृष्णको शीघ्रही निगल गया और कहा कि, मैंने आज अपने बत्सासुरका बदला ले लिया॥४७॥ जब श्रीकृष्णको बकासुर लीलगयातब बलदेवादिक सब बालक विना प्राणोंके इन्द्रियकी समान अचेत होगये और रोरोकर कहने लगे कि, हाय ! हम सब यशोदाको जाकर क्याउत्तर देंगे ? जिसने अपना प्यारा पुत्र हमको सौपदिया था, सब दौडे हुए बलदेवजीके पास आये और वृत्तान्त सुनाया कि, हमने बहुतेरा वर्जा परन्तु श्यामसुन्दरने हमारा कहना एक न माना, अब हम क्या करैंऔर क्या न करैं? बलदेवजी बोले कि, तुम घबराओ मत, उस दैत्यको मार

ते तत्र ददृशुर्वाला महासत्त्वमवस्थितम्॥ तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं गिरेः शृंगमिव च्युतम्॥४६॥ स वै वको नाम महान् सुरो वकरूपधृक्॥ आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुंडोऽग्रसहली॥४७॥ कृष्णं महावकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः॥बभूवुरिंद्रियाणीव विना प्राणं विचेतसः॥४८॥ तं तालुमूलं प्रदहंतमग्निवद्गोपालसूनुं पितरं जगद्वरोः॥ चच्छर्द सद्योऽतिरुषाऽक्षतं वकस्तुंडेन हंतुं पुनरभ्यपद्यत॥४९॥ तमापततं स निगृह्य तुंडयोर्दोर्भ्यांवकं कंससखं सतांपतिः॥ पश्यत्सु बालेषु ददार लीलया मुदावहो वीरणवद्दिवौकसाम्॥५०॥ तदा बकारिं सुरलोकवासिनः समाकिरन्नंदनमल्लिकादिभिः॥ समीडिरे चानकशंखसंस्तवैस्तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे॥५१॥

कर मनमोहन प्यारे अभी आते हैं, उसी समय गायनके पालनकरनहारे, नन्दके दुलारे, ग्वाल बालोंके प्यारे, यशोदाके नेत्रोंके तारे, जगत् के गुरु,ब्रह्मा के पिता, श्रीकृष्णचन्द्रने अनिके अंगारकी समान उसके तालूको जलाना आरम्भ किया, उस बकासुरने कृष्णको तुरन्तही उगलदिया औरउनके शरीरमें कुछ भी कष्ट न हुवा, तब तो अत्यन्त क्रोध करके फिर बकासुर व्रजविहारीके ऊपरको धाया॥४८॥४९॥ सज्जनोंके सहायक,देवताओंके आनन्ददायक, श्रीकृष्ण यदुनायक, कंसके सखा बकासुरको फिर आता देख दोनों हाथसे उसकी चोंच पकडके सब बालकोंके देखतेदेखतेही तृणकी समान चीरकर बगेल दिया॥५०॥ उस समय सुरपुरनिवासी देवताओंने बकासुरके मारनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके

ऊपर नन्दनवनके मालतीके पुष्पोंकी वर्षा करके दुंदुभि और शंख बजाय बजाय उनकी स्तुति करने लगे. इस कौतुकको देख देखकर ग्वाल बालआश्चर्य मानते थे॥५१॥ जैसे इंद्रिये प्राण आनेसे आनन्दित होती हैं तैसे बलभद्रादिक सब बालक बकासुरके मुखसे निकलेहुए श्यामसुन्दर प्यारेकोदेखकर आनन्दितहुए और छातीसे लगाकर सब बालक उनसे मिले और सब बछरोंको इकट्ठा करके बारंबार प्रशंसा करने लगे॥५२॥ यह सुनतेहीगोप और गोपी बहुत संशय करने लगे और गोप गोपी बडे आदर सत्कारसे श्रीकृष्णको देखनेलगे जैसे कोई मृतक होकर घर आजाताहै और सबकुटुम्बियोंका चित्त उनको देखते २ तृप्त नहीं होता॥५३॥ सब गोप कहने लगे कि, इस बालकके ऊपर बडी बडी विपत्तियें पडी, परन्तु जो मारनेकोआया वह आपही मारागया, क्योंकि पहिले उन्होंने औरोंको भय दिखाया॥५४॥ महाभयंकर रूप घर घरकर अनेक असुर और राक्षस कृष्णके

मुक्तं बकास्यादुपलभ्य बालका रामादयः प्राणमिवेंद्रियो गणः॥ स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृताः प्रणीय वत्सान्व्रजमेत्य तज्जगुः॥५२॥ श्रुत्वा तद्विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियादृताः॥ प्रेत्यागतमिवौत्सुक्यादैक्षंत तृषितेक्षणाः॥५३॥अहो बताऽस्य बालस्य बहवो मृत्यवोऽभवन्॥ अप्यासीद्विप्रियं तेषां कृतं पूर्वं यतो भयम्॥५४॥ अथाप्यभिभवंत्येनं नैवैते घोरदर्शनाः॥ जिघांसयैनमासाद्य नश्यंत्यग्नौ पतंगवत्॥५५॥ अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्याः संति कर्हिचित्॥ गर्गोयदाह भगवानन्वभावि तथैव तत्॥५६॥ इति नंदादयो गोपाः कृष्णरामकथा मुदा॥ कुर्वंतो रममाणाश्च नाविंदन्भववेदनाम्॥५७॥ एवं विहारैः कौमारे कौमारं जहतुर्व्रजे॥ निलायनैः सेतुबंधैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः॥५८॥ इति श्रीभागव०महापुराणे दशमस्कंधे पू० वत्सवकवधो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥

मारनेको आये, परन्तु परमेश्वरकी दयासे इनका कुछ कर न सके, आपही मरनेके लिये इसके पास आये जैसे अग्निमें आकर पतंग जल जाते हैंतैसे आपही आनकर मरजातेहैं॥५५॥ अहो! वेदवादियोंकी वाणी कभी मिथ्या नहीं होती जो जो बातें गर्गाचार्य कहगये थे, वह सब बातें अब सत्यहोती जाती हैं॥५६॥ इस प्रकार कृष्ण बलरामकी रसभरी बातें कह कहकर आनन्दित होते थे और सुख पातेथे, जिन्होंने भवसागरकी वेदनाको कुछन समझा इस प्रकार आँखमिचौनी, पुल बांधने, बन्दरोंकी समान कूदना, यह कौमार अवस्थाके खेल कर करके श्रीकृष्ण बलराम कौमारअवस्था व्यतीत करते थे॥५७॥५८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां वत्सबकवधो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥

दोहा - द्वादशमें धरि सर्प वपु, निगले ग्वाल रु बाल। तासुं अघासुरको हनो, कृपासिंधु गोपाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! श्रीकृष्णनेएक दिन वनमें भोजन करनेके विचारसे प्रातःकाल उठकर सुन्दर शृंगी बजाकर अपने प्यारे ग्वालबालोंको जगाया और कलेवा बाॅध बछरोंको आगेकरश्रीकृष्णचन्द्र घरसे निकले॥१॥ उन श्रीकृष्णके संग स्नेही ग्वालोके सहस्रों बालक उत्तम उत्तम छींके, बेत शृंगी और बॉसुरी लेलेकर सहस्रसे भीअधिक संख्यावाले अपने अपने बछरोंके समूहोंको आगे करके आनन्द सहित घरसे चले॥२॥ असंख्यात श्रीकृष्णके बछरोंमें मिलाकर चरातेचराते बाललीला करकरके यह बालक जहाॅतहाॅविहार करते थे॥३॥ मणियोंसे जडाऊ सुवर्णके गहने पहने हुए थे, तोभी वनमें जाकर फलोंके कोंप

श्रीशुक उवाच॥ कचिद्वनाशाय मनो दधद्व्रजात्प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान्॥ प्रबोधयञ्छगरवेण चारुणा विनिगतो वत्सपुरस्सरो हरिः॥१॥ तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः॥ स्वान्स्वान्सहस्रोपरिसंख्ययान्वितान्वत्सान्पुरस्कृत्य विनिर्य- युर्मुदा॥२॥ कृष्णवत्सैरसंख्यातैर्यूथीकृत्य स्ववत्सकान्॥ चारयंतोर्भलीलाभिर्विजह्रुस्तत्रतत्र ह॥३॥ फलप्रवालस्तवकसुमनःपिच्छधातुभिः॥ काचगुंजामणिस्वर्णभूषिता अप्यभूषयन्॥४॥मुष्णन्तोऽन्योन्यशिक्यादीञ्ज्ञातानाराच्च चि क्षिपुः॥ तत्रत्याश्च पुनर्द्वराद्धसंतश्च पुनर्ददुः॥५॥ यदि दूरं गतःकृष्णो वनशोभेक्षणाय तम्॥ अहंपूर्वमहंपूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरे॥६॥ केचिद्वेणून्वादयंतो ध्मांतः शृंगाणिकेचन॥ केचिद्भृंगैः प्रगायंतः कूजंतः कोकिलैः परे॥७॥

लोंके, चौटलियोंके, गुच्छोंके, फूलोंके, मोरपुच्छके और खडियामही. गेरूके तिलक लगा लगाकर अपना अपना शृंगार कररहे थे॥४॥ परस्पर छींका बेत आदिचुराते, जब जान लेते तो दूसरे बालकके पासको फेंक देते थे, वह बालक फिर औरके पासको फेंक देते थे तब वह छींकेवाले बालकरोने लगते, तब श्रीकृष्णचन्द्र हॅसकर उनके छींके बेत दिला देते थे॥५॥ सुन्दर वनकी शोभा देखनेके लिये जब श्रीकृष्ण दूर चले जाते तब बालक परस्पर होड बदबदकर दौड़ते थे और कहते थे कि, पहिले मैं छुऊं, वह कहते थे कि, पहिले मैं छुऊं, इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको छूते थे औरआनन्दित हो होकर खेलते थे॥६॥ कोई बालक बॉसुरी बजाते थे, कोई शृंगीका शब्द सुनाते थे, कोई २ बालक भौरोंके संग गाते थे.

और कोई कोई कोकिलाकी वाणीमें वाणी मिलाते थे॥७॥ और कोई आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके संग दौडते। कोई बालक हंसोंकेसंग धीरे धीरे चलते कोई बालक बगलोंकी पॉतिके पास चुपके चुपके जा बैठते और कोई वालक मोरोंके संग नाचते थे॥८॥ कोई बालकबन्दरोंकी पूँछ पकड पकड कर खींचते थे, कोई पूंछ पकडेही पकड़े उनके संग कूदकर वृक्षोंपर चढ जाते थे और कोई बालक अपने कान दबाकर आंखै फैलाकर बन्दरोंके सन्मुख खडे हो घुडकी बताते थे कोई वृक्षोंपर चढ चढ नीचेको कूदते थे॥९॥ कोई कोई मेंढकोंके संग फुदकतेथे, जब वह पानीमें डुबकी मारें तब आप भी उसके संग डुबकी (गोता) मारते हैं कोई बालक अपनी परछाईं पानीमें देखकर उसकी हँसीकरते थे कोई बालक कुएँ बावड़ीमें अपनी प्रतिध्वनिको सुन उनको गाली देते थे॥१०॥ ब्रह्मज्ञानियोंको ब्रह्मस्वरूप करके जाननेमें

विच्छायाभिः प्रधावंतो गच्छंतः साधुः हंसकैः॥ वकैरुपविशंतश्च नृत्यंतश्च कलापिभिः॥८॥ विकर्षंतः कीशवालानारोहंतश्च तैद्रुमान्॥ विकुर्वंतश्च तैः साकं प्लवंतश्च पलाशिषु॥९॥ साकं भेकैर्विलंघंतः सरित्प्रस्रवसंप्लुताः॥ विहसंतः प्रतिच्छायाः शपंतश्च प्रतिस्वनान्॥१०॥ इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या दास्यं गतानां परदैवतेन॥ मायाश्रितानां नरदारकेण साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुंजाः॥११॥ यत्पादपांसुर्वहुजन्मकृच्छ्रतो धृतात्मभिर्योगिभिरप्यगम्यः॥ स एव यदृग्विषयः स्वयं स्थितः किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्॥१२॥

आते हैं दासभावके करनेवाले भक्त जिनको परम दैवतरूप स्वामी जानते हैं और मायासे मोहित हुए पुरुष उनको मनुष्यका बालक मानते हैंजिनकी जैसी भावना है उनको वैसेही दिखाई देते . धन्य भाग्य है ग्वाल बालोंका, देखो ब्रह्मज्ञानियोंको केवल भगवान् काअनुभवही होताहै,भक्तोंके केवल भजनही सर्वानन्द है, परन्तु ग्वालबालोंकी ओरको देखिये कि, उन्होंने कैसे कैसे उग्र तप किये हैं कि दिनरात भगवान् वासुदेवजिनके संग आहार विहार करते हैं, देखो यह सखाभावका प्रभाव है॥११॥ योगिजनोंको भी अनेक जन्म महाकष्ट सहकर तप करनेसे जिनके चरणारविन्दकी धूरी मिलनी अत्यन्त दुर्लभ है, सो श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द स्वच्छन्दविहारी वासुदेव भगवान् जिनके सन्मुख प्रत्यक्ष विराजमान रहें

उन व्रजवासियोंके भाग्य की कहॉतक बडाई करें॥१२॥ इन ग्वालबालोंकी सुखपूर्वक लीलाको न सहन करके वह अघासुरनाम दैत्य उस वनमेंआया कि, अमृत पान करनेवाले देवताभी अपने जीनेकी इच्छासे नित्य प्रति जिसके मरनेकी राह देखते थे॥१३॥ कंसका भेजाहुवा, पूतना औरबकासुरका छोटा भ्राता, वह अघासुर कृष्णादिक छोटे छोटे बालकोंको देखकर मनमें विचार करने लगा कि, इसी कृष्णने मेरे भाई और बहिनकोमारा है, उन दोनोके बदले आज ग्वालबाल बछडें और बलदेव समेत इस कृष्णको मारूंगा॥१४॥ और अपने भैया बहनको भी इन बालकोंकेसंगही तिलांजलि दूंगा, तब सब व्रजवासी मृतक समान होजायॅगे; प्राण गये पीछे देहोंकी क्या चिन्ता है ? क्योकि प्राणधारी पुरुषोंके तो पुत्रही

अथाघनामाऽभ्यपतन्महासुरस्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः॥ नित्यं यदंतर्निजजीवितेप्सुभिः पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते॥१३॥ दृष्ट्वाऽर्भकान्कृष्णमुखानघासुरः कंसानुशिष्टः स बकीवकानुजः॥ अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयोर्द्वयोर्ममैनं सवलं हनिष्ये॥१४॥ एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापःकृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः॥ प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिंताप्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते॥१५॥ इति व्यवस्थाजगरं वृहद्वपुः स योजनायाममहाद्रिपीवरम्॥ धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुहाननं तदा पथिव्यशेतग्रसनाशया खलः॥१६॥ धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो दर्याननांतो गिरिशृंगदंष्ट्रः॥ ध्वांतांतरास्योवितताध्वजिह्नः परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः॥१७॥

जीवन प्राण हैं॥ १५॥ ऐसा विचारकर चार कोश लम्बा पर्वतकी समान मोटा अजगर सॉपका अद्भुत रूप धारणकर गुफाकी सहेश मुख पसारबछरे और बालकोंके निगलनेके लिये मार्गमें बैठगया॥१६॥ नीचेका होठ तो पृथ्वीपर और ऊपरका होठ बादलतक फैला रक्खा थापर्वतकी गुफाके समान जिसका मुख पहाडके शिखरकी सदृश जिसकी दाढैं, गूढ कन्दराकी तुल्य मुखमें अन्धकार, बडे लम्बे चौडेमार्गकी नाईं, जिसकी जीभ, कठोर पवनके समान जिसका श्वास और अग्रिकी तुल्य जिसकी दृष्टि थी*॥१७॥

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*शंका - अघासुर राक्षसके दोनों होठोंकी लम्बाई सुनकर हमारे सबके मनको वडा सन्देह है और हमारा हृदय कांपता है. क्योंकि ऐसी होठोंकी लम्बाई रावणकी तारककी और अनेक राक्षसोंकी भी न थीबह महिमा हमने आज तक कहीं नहीं सुनी, होठ थे वा कोट थे

सब बालक उस अजगरको देखकर वृन्दावनकी शोभा समझकर खेलते खेलते फैले हुए उस अजगरके मुखकी लीलासेही उत्प्रेक्षा करने लगे॥१८॥ और परस्पर कहते थे कि, अहो मित्रो ! यह तो कहो कि, यह जो हमारे सन्मुख दिखाई देता है कोई पक्षी है वा मुनुष्य है ? हमारेनिगलनेके लिये सर्पकी समान मुख पसार रहा है कि नहीं॥१९॥ सत्य है सूर्यके किरणोंसे लाल लाल बादल ऐसे दृष्टि आतेहैं मानो सर्पकाऊपरवाला होठ है और सूर्यकी परछाईंसे सब पृथ्वी ऐसी लाल लाल दिखाई देती है मानो सर्पके नीचेकी ठोड़ी है॥२०॥ इधर उधर पर्वतकी

दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम्॥ व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षंते स्म लीलया॥१८॥ अहो मित्राणि गदतसत्त्वकूटं पुरः स्थितम्॥ अस्मत्संग्रसनव्यात्तव्यालतुंडायते न वा॥१९॥ सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद्धनम्॥अधराहनुवद्रोधस्तत्प्रतिच्छाययाऽरुणम्॥२०॥ प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे॥ तुङ्गशृङ्गाऽऽलयोप्येतास्तद्दंष्टाभिश्च पश्यत॥२१॥ आस्तृताऽऽयाममार्गोयं रसनां प्रति गर्जति॥ एषामंतर्गतं ध्वांतमेतदप्यंतराननम्॥२२॥ दावोष्णखरवातोऽयं श्वासकद्भाति पश्यत॥ तद्दग्धसत्त्वदुर्गंधोऽप्यंतरामिषगंधवत्॥२३॥

कंदरासी महागम्भीर अँधियारी ऐसी जान पडती है मानो सर्पके मुखका अन्तहै ऊंचे ऊंचे पर्वतके शिखरसे हमको ऐसे दिखाई देते हैं मानो साक्षात्सर्प अजगरकी डाढेंहैं, तुम ध्यान करके देखो॥ २१॥ यह लम्बा चौडा मार्ग हमको ऐसा दृष्टि आता है मानो सॉपकी जिह्वा है और इनशिखरोंके भीतर हमको ऐसा अन्धकार दीखता है मानो सर्पके मुखके भीतरका भाग है॥२२॥दावानलसे उष्ण उष्ण महातीक्ष्ण पवन ऐसा

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उत्तर- अघासुरका पूर्वजन्मका पुण्य था, सो श्रीकृष्णका दर्शन करके बडे मुखसे अपने सन्मुख वर्द्धित होकर स्वर्गको चलागया, परन्तु अपने तेजसे ऊपरके होठको सगही लेतागया और इस जन्ममें जोपाप किया था वह श्रीकृष्णको देखकर डरकर भागा और पातालमें जानेकी इच्छाकी भूमिको भेद अघासुरका पाप रसातलको चला गया, परन्तु अघासुर नीचेके होठको खींचकर अपने संग लेतागया, पहिलेअघासुरने श्रीकृष्ण महाराजके शरीरको स्पर्श किया तब उसके पुण्य पाप दोनों नष्ट होगये, तब अघासुर कृष्णकी देहमें मिलगया, पाप पुण्य नाश होनेका कारण यह है जबतक प्राणीके पुण्य रहेंगे तबतक वहस्वर्ग प्राणी मोगेगा और पाप रहेगा तो नरक भोगेगा, जब दोनों नष्ट होजायगे तब ईश्वरमें मिलेगा इसलिये आकाश और भूमिमें अघासुरके होठोंकी वृद्धि हुई॥

लगता है मानो महाविषवाले सर्पका श्वास है और यह विचारकर देखो कि, अग्निमें जैसे जीव जलते हैं ऐसी दुर्गन्धि आती है यह सर्पके डसे हुएमानों मांसकी दुर्गन्धि है ?॥२३॥इस सर्पके मुखमें जो हम घुस भी गये तो क्या यह हमको निगल जायगा ? और जो यह हमको निगल भीगया तो श्रीकृष्ण इसको बकासुरकी नाई क्षणभरमें मार सक्ते हैं वा नहीं ? इस प्रकार परस्पर कहते सुनते बकासुरके विध्वंस करनेहारे श्रीकृष्णकासुन्दर मुखारविन्द देख हॅसते हॅसाते ताली बजाते सब ग्वालबाल आगेको चले, “ताली बजानेका कारण यह था कि, जो सर्प होगा तो सरक जायगाऔर जो वृन्दावन की यह अद्भुत शोभा होगी तो खेलैंगे”॥२४॥ श्रीवृन्दावनविहारी भक्तहितकारीने विचारा कि, वास्तवमें तो यह सर्पही है और सर्पकादेह धारण किये हुए कोई दैत्य है और हमारे साथी बालकोंने इसे वृन्दावनकी शोभा समझकर फिर सर्पके भी सब लक्षण वर्णन किये यह अजान हैं

अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टानयं तथा चेद्वकवद्विनंक्ष्यति ॥ क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं वीक्ष्योद्धसंतः करताडनैर्ययुः॥२४॥ इत्थं मिथोऽतथ्यमतज्ज्ञभाषितं श्रुत्वा विचित्येत्य मृषा मृषायते॥ रक्षो विदित्वाऽखिलभूतहृत्स्थितः स्वानां निरोद्धं भगवान्मनो दधे॥२५॥ तावत्प्रविष्टास्त्वसुरोदरांतरं परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः॥ प्रतीक्षमाणेन वकारिवेशनं हतस्वकांतस्मरणेन रक्षसा॥२६॥ तान्वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो ह्यनन्यनाथान्स्वकरा- दवच्युतान्॥ दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः॥२७॥ कृत्यं किमत्रास्य खलस्यजीवनं न वा अमीषां च सतां विहिंसनम्॥ इयं कथं स्यादिति संविचिंत्य तज्ज्ञात्वाऽविशत्तुंडमशेषदृग्घरिः॥२८॥

और परस्पर भूलसे बातें कर रहे हैं, ऐसा समझ सब प्राणियोंके हृदयमें वास करनेवाले भगवान् ने उन भोले बालकोंके वचन सुनकर जबतकउनके निषेध करनेको चाहा कि, इसमें मत घुसो कि,॥२५॥ इतनेमें वह सब बालक बछरों समेत उस अघासुर दैत्यके मुखमें घुसगये परन्तुअघासुरने अपने मरेहुए भाई बहनकी सुधि करके उन बालकोंको निगला नहीं, क्योंकि मनमें विचार किया कि, बकासुरका मारनेवाला मेरा वैरीकृष्ण तो अभी आयाही नहीं॥२६॥ सबके अभयदाता श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् अनाथकी समान दीन बालकोंको अपने हाथसे छूटे हुए जानऔर अघासुरके उदरमें घासकी सदृश देखकर दयासे पीडित हुये और आश्चर्यसे कहने लगे कि, कैसी अद्भुत गति है॥२७॥ अब इस समय

दैवकी क्या उपाय करना चाहिये कि, यह दुष्ट तो माराजाय और मेरे जीवन प्राण परम प्रिय ग्वाल बाल बच जायँ, यह दोनों बातें एकबारमें कैसे होयॅ ? यह विचारकरके सब संसारके द्रष्टा भगवान् ने अघासुरके मुखमें प्रवेश किया॥२८॥ उस समय वादलोंकी ओटमें खडे होकरदेवता हाहाकार करने लगे और नैर्ऋतवंशी अघासुरके भाई बन्धु तथा कंसादिक राक्षसोंको परमानन्द हुवा॥२९॥ अविनाशी श्रीकृष्णभगवान् देवताओंका हाहाकार शब्द सुनकर ग्वाल बाल वछरों समेत अपनेको चूर्ण करनेकी इच्छा करनेवाले उस अघासुरके कण्ठमें बढे॥३०॥ तब उस बड़े शरीरवाले राक्षसका घट विरगया आँखें वाहरको निकल आईं इधर उधर छटपटाने लगा, देहमें श्वास

तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशुः॥ जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघवांधवाः॥२९॥ तच्छ्रुत्वा भगवान्कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम्॥ चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले॥३०॥ ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणोयुद्गीर्णदृष्टेभ्रमतस्त्वितस्ततः॥ पूर्णोतरंगे पवनो निरुद्धो मूर्धन्विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः॥३१॥ तेनैव सर्वेषुबहिर्गतेषु प्राणेषु वत्सान्सुहृदः परेतान्॥ दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुनर्वक्रान्मुकुंदो भगवान्विनिर्ययौ॥३२॥पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं महज्ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद्दिशो दश॥ प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं विवेश तस्मिन्मिषतां दिवौकसाम्॥३३॥ ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं पुष्पैः सुरा अप्सरसश्च नर्तनैः॥ गीतैः सुगा वाद्यधराश्चवाद्यकैः स्तवैश्च विप्रा जयनिस्स्वनैर्गणाः॥३४॥

रुकगया, बाहर निकलनेको मार्ग नहीं मिला, पवन उसके ब्रह्मरन्धको छेदन करके बाहर निकलगया॥३१॥ अघासुरके श्वासके संगही प्राणबाहर सटक गये, तब सब बालक और बछरोंको मरा देखकर अपनी सजीवन दृष्टिसे अमृतकी वृष्टिकरके जिलादिया और उनको साथ लेकरफिर श्रीमुकुन्द भगवान् अघासुरके मुखसे बाहर निकले॥३२॥ उस दुष्ट अघासुरके देहमेंसे बड़ी अद्भुत ज्योति निकलके अपने तेजसे दशोंदिशाओको प्रकाशित करके आकाशमें स्थित हो श्रीकृष्णचन्द्रके बाहर निकलनेका पन्थ जोहती रही, जब श्रीकृष्ण उसके मुखसे बाहर निकलेतब सब देवताओंके देखतेही देखते श्रीकृष्णके शरीरमें प्रविष्ट होगयी॥३३॥ उस समय देवताओने प्रसन्न होकर आकाशसे फूल

वर्षाकर श्रीकृष्णकी पूजा करी, अप्सराओंने नृत्य किया, गन्धर्व गानेलगे, बाजेवाले बाजे बजाने लगे, ब्राह्मण जय जय शब्द करके स्तुति करनेलगे॥३४॥ वह अद्भुत स्तोत्र और गीत, वाद्य, जय आदिक अनेक उत्सव मंगल शब्दोंको सुनकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे शीघ्रही चले आयेऔर श्रीकृष्णकी महिमा देखकर आश्चर्यमय हुये॥३५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित ! उस अजगरका सूखा दुवा अद्भुत खखोड़लवृन्दावनमें बहुत दिनतक व्रजवासियोंके बालकोंके खेलनेके लिये एक गुफा होगई, मुखके मार्गको घुसें और नेत्रोंके मार्गसे निकल आवें, नेत्रोंकेमार्गको घुसें तो मुखके मार्गको निकल आवें, इस प्रकार दिनरात विहार करते रहैं॥३६॥ श्रीकृष्ण भगवान् नेबालकोंको और अपने आपकोमृत्युसे छुडाना और अघासुरकी मोक्षका करना यह सब पांच वर्षकी अवस्थाका कर्म आश्चर्य मानके सब बालक व्रजमें श्रीकृष्णकी पौगंड अवस्था

तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिकाजयादिनैकोत्सवमंगलस्वनान्॥ श्रुत्वा स्वधाम्नोंत्यज आगतोऽचि- राद्दृष्ट्वामहीशस्यजगाम विस्मयम्॥३५॥ राजन्नाजगरं चर्म शुष्कं वृंदावनेऽद्भुतम्॥ ब्रजौकसां बहुतिथं बभूवाऽऽक्रीडगह्वरम्॥३६॥ एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम्॥ मृत्योः पौगंडके वाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे॥३७॥नैतद्विचित्रं मनुजार्भमायिनः परावराणां परमस्य वेधसः॥ अघोपि यत्स्पर्शनधौतपातकः पापात्मसात्म्यं त्वसतां सुदुर्लभम्॥३८॥ सकृद्यदंगप्रतिमांतराहिता मनोमयीं भागवतीं ददौ गतिम्॥ स एव नित्यात्मसुखा- नुभूत्यभिव्युदस्तमायोंतर्गतो हि किं पुनः॥३९॥

अर्थात् पाँचवर्षके व्यतीत होने उपरान्त छठे वर्षके मध्यमें कहते भये॥३७॥ मायासे मनुष्य बालकरूप धारण कियेहुए सम्पूर्ण स्थावर जंगमकेआदिकारण परमात्मा श्रीकृष्णभगवान् के स्पर्शसे महापापी अघासुर पवित्र होगया, जो बात असत्पुरुषोंको महादुर्लभहै ऐसे भगवद्रूपमें वह लयहोगया, यह बात कुछ आश्चर्यकी नहीं है॥३८॥क्योंकि जिसकी मनोहर मूर्ति प्रह्लादादिक भक्तोंने एक बारहीं बलात्कारसे मनमें धारणकी औरउसीके प्रभावसे उन लोगोंने मोक्ष पाई तो सदैव अपने आत्मानन्दके अनुभवसे और माया करके रहित श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् के शरीरमें अघासुरकाप्रवेश होनेसे उसकी मुक्ति हुई तो इसमें क्या आश्चर्य है॥३९॥

शौनकादिक ऋषीश्वरोंसे सूतजी बोले कि, हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार अपनी माताके गर्भमें यदुकुलके देव श्रीकृष्णचन्द्रसे रक्षित हुए राजा परीक्षित्अपनी रक्षाकरनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके विचित्र पवित्र चरित्र सुनकर व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीसे फिर उसी प्रसंग सम्बन्धी प्रश्न किया, क्योकिउन चरित्रोंके सुननेसे राजा परीक्षित् कामन परीक्षित् के वशमें होगया॥४०॥ राजा परीक्षित् वोले कि, हे ब्रह्मन् ! श्रीकृष्ण महाराजने कुमारअवस्थामें जो लीला करी वह बालकोंने पौगंड अवस्थामें गाई, यह एक वर्षका अन्तर बीचमें कैसे पडगया ?॥४१॥ हे बड़े योगिराज ! हे गुरो !यह बात मुझको समझाकर कहो, मेरे मनमें वडा आश्चर्य है ? क्योंकि यह निश्चय भगवान् कीही माया है और कुछ नहीं है॥४२॥ हे गुरो !

सूत उवाच॥इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्॥ पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं वैयासकिंयन्निगृहीतचेताः॥४०॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्कालांतरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत्॥ यत्कौमारे हरिकृतं जगुः पौगंडकेऽर्भकाः॥४१॥ तद् ब्रूहि मे महायोगिन्परं कौतूहलं गुरो॥ नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा॥४२॥ वयंधन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रवंधवः॥ यत्पिवामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम्॥४३॥ सूत उवाच॥ इत्थं स्मपृष्टः स तु बादरायणिस्तत्स्मारि- तानंतहृताखिलेंद्रियः॥ कृच्छ्रात्पुनर्लव्धवहिर्दृशिः शनैः प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तमम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महा० दशम० पू० अघासुरवधो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ साधुपृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम॥ यन्नूतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः॥१॥

हम क्षत्रियवंशी संसारमें अतिशय धन्य हैं, जिससे कि, तुमसे वारंबार कृष्णकथारूप अमृतपान करते हैं॥४३॥ श्रीसूतजी बोले कि, हे हरिभक्तो ! इस प्रकार राजाने प्रश्न करके अपनी श्रद्धा दिखाई, दूसरे हरिका स्मरण करतेही प्रथम तो श्रीशुकदेवजीकी समस्त इन्द्रियें नारायणमें लयहोगईं तब व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीने बडे कष्टसे फिर नेत्र खोलकर भक्तोंमें श्रेष्ठ राजा परीक्षित् से कहा॥४४॥ इति श्रीभागवते महापुराणेदशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायाम् अघासुरवधोनाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा- तेरहमें अज मोहवश, हरे ग्वाल अरु बाल। उसी रूपकेकृष्णने, रचे बहुरि ततकाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! हे बड़भागी ! हे भक्तिभूषण ! तुमने अत्युत्तम प्रश्न किया, क्योंकि

ईश्वरकी कथाको श्रद्धासहित बारंबार सुनो हो इससे तुम परमश्रेष्ठ हो॥१॥सारवस्तुके ग्रहण करनेवाले सज्जनोंका यही स्वभाव है, क्योंकि जिन पुरुषोंकी वाणी, कान और मन, यह सब भगवान्की कथामें लगे रहते हैं, उस वाणीसे कृष्णचन्द्रके गुणवर्णन करते हैं, कानोंसे नित्य नयी कथा सुनते रहते हैं, मनसे श्यामसुन्दरके स्वरूपका ध्यान करते रहते हैं। इस प्रकार भगवान्की वार्त्तामें क्षण क्षण प्रति ध्यान लगाये रहते हैं और वह कथायें ऐसी प्रिय लगती हैं, मानो कभी नहीं सुनी हैं, जैसे विषयी पुरुषोंको स्त्रियोंकी बातें प्यारी लगती हैं॥२॥ हे राजापरीक्षित्! यह कथा परमगूढ है तो भी मैं आपसे कहता हूँ, क्योंकि कैसीही गुप्त वार्त्ता हो गुरुको चाहिये कि, अपने प्यारे शिष्य के सामने सब कहै, सो आप सावधान होकर सुनिये॥३॥ अघासुरके मुखमेंसे मृतक बालक और बछरोंको जिवायकर यमुनाके किनारे अत्यन्त रमणीक रेतीमें उनको लायकर श्रीकृष्ण

सतामयं सारभृतां निसर्गोयदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि॥ प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्स्त्रिया विटानामिव साधुवार्ता॥२॥ शृणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्यं वदामि ते॥ ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत॥३॥ तथाऽघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान्॥ सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत्॥४॥ अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः स्वकेलिसंपन्मृदुलाच्छवालुकम्॥स्फुटत्सरोगंधहृतालिपत्रिकध्वनिप्रतिध्वानलसद्द्रुमाकुलम्॥५॥ अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवाऽऽरूढं क्षुधार्दितैः॥ वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरंतु शनकैस्तृणम्॥६॥ तथेति पाययित्वांभो वत्सानारुध्य शाद्वले॥ मुक्त्वाशिक्यानि बुभुजः समं भगवता मुदा॥७॥

भगवान् यह कहने लगे॥४॥ हे परमप्यारे मित्रों! यह अत्यन्त रमणीक रेती है और विहार करनेके लिये परमश्रेष्ठ और शोभायमान स्थान है, देखो कैसे सुन्दर और स्वच्छ बालूके कोमलकोमल बिछौने बिछरहे हैं, रंग रंगके कमल फूल हहे हैं, उनपर सुगन्धके लोभसे भौंरे गुंजार रहे हैं और जल पक्षियोंके शब्दोंकी प्रतिध्वनिसे चारों ओरके वृक्ष शब्दायमान होरहे हैं॥५॥ यहाँ बैठकर कलेवा करलो, दिन भी बहुत चढ गया है और भूख भी अधिक लग रही है, बछरोंको भी जल पिलाकर यहीं चरने के लिये छोड दो, सहज सहजमें घास चरते रहैंगे॥६॥ सब बालकोंने; श्रीकृष्णके वचनोंको मान बछरोंको पानी पिला हरी हरी घासमें चरनेको छोड दिया और सब अपने अपने छींकोंको खोल खोल छाक परोस परोस

श्रीकृष्णके संग भोजन करनेको बैठे॥७॥ व्रजवासियोंके बालक श्रीकृष्णचन्द्रके चारों ओर अनेक पंक्तियोंकी मण्डली बनाकर एकसाथ बैठ यदुनाथके सन्मुख मुख करनेसे जिनकी दृष्टि प्रफुल्लित हो रही थी, जैसे कमलकी कलीके चारों ओर पखुरियोंकी छवि दिखाई देती है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र तो कलीकी समान थे और ग्वाल बाल पखुरीकी समान, इसप्रकार यमुनाकी रेती में शोभायमान जान पडते थे॥८॥ किसी बालकने फूलोंकी पत्तल बनाई, किसीने पखुरियों की पत्तल बनाई किसीने पत्तोंकी पत्तल बनाई किसीने अंकुरोंकी पत्तल बनाई और किसीने फलों की पत्तल बनाई और किसीने वृक्षोंकी छाल छीलकर पत्तलें बनाईं और उनपर भँति भाँति के भोजन परोसे, किसी किसीने छींकेहीमें भोजन करनेकी ठहरादी कोई शिलाहीपर अपना भोजन परोसकर खानेको बैठगया॥९॥ सब बालक अपने अपने भोजन पृथक पृथक प्रकारके

कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमंडलैरभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः॥ सहोपविष्टा विपिने विरेजुश्छदा यथांभोरुहकर्णिकायाः॥८॥ केचित्पुष्पैर्दलैः केचित्पल्लवैरंकुरैः फलैः॥ शिग्भिस्त्वग्भिर्दृषद्भिश्च बुभुजः कृतभाजनाः॥९॥ सर्वे मिथो दर्शयंतः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक्॥ हसंतो हासयंतश्चाभ्यवजह्नुःसहेश्वराः॥१०॥ बिभ्रद्वेणुं जठरपटयोः शृंगवेत्रे च कक्षे वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यंगुलीषु॥ तिष्ठन्मध्ये स्वपरिसुहृहो हासयन्नर्मभिः स्वैः स्वर्गेलोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्बालकेलिः॥११॥

आप खाते अरु औरोंको स्वाद दिखाते और चखाते परस्पर हँसते हँसाते ठट्टे उडाते श्रीकृष्णके साथ भोजन कर रहे थे॥१०॥ फेंटमें बाँसुरी उरझ रहे थे शृंगीबेतकी छड़ियोंको कँखमें दाब रहेथे, दही भातसे लिपटाहुवा ग्रास बँयें हाथ में ले रहेथे और बेर, आमले, नींबु, आम जामुनादि फल अँगुलियोंमें धर लिये थे, यज्ञभोक्ता भगवान् चारोंओर अपनी मित्रमण्डलींमें बैठे उनसे हँसीकी बातें कह कह कर उनको हँसाते जाते थे और धीरे२ भोजन खाते जाते थे इस बालचरित्रको स्वर्गमें देवता देख देखकर आश्चर्यमय हो मनही मन कहते थे कि, देखो यज्ञ भोक्ता भगवान् किस प्रकार आनन्दित हो होकर व्रजवासियों के बालकोंकी जूंठन छीन छीन कर खारहे हैं, पूर्वजन्म में इन्होंने पूर्ण पुण्य किये हैं॥११॥

हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्!इस प्रकार श्रीकृष्णमें मन लगाये ग्वालबाल भोजन कररहे थे और बछरे हरी हरी घासके लोभसे बहुत दूर वनके भीतर चले गये॥१२॥ जब बछरे दूर चले गये तब सब बालक अपने मनमें घबराये, उस समय उनकी घबराहट दूर करनेंके लिये भगवान्भयहारी उनसे बोले कि, हे मित्रो! तुम भोजन करते रहो उठो मत क्योंकि ऐसी सुन्दर मण्डली फिर न बँधेगी, मैं अभी बछरों लिये आता हूं॥१३॥ इस प्रकार सबका धैर्य बँधाय दही भातका ग्रास हाथमें लिये श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतकी गुफाओंमें, वनमें, कुंजोंमें, गह्वर स्थानोमें अपने बछ

भारतैवं वत्सपेषु भुंजानेष्वच्युतात्मसु॥ वत्सास्त्वंतर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः॥१२॥ तान्दृष्ट्वा भयसंत्रस्तानूचे कृष्णोऽस्य भीभयम्॥ मित्राण्याशान्मा विरमतेहाऽऽनेष्ये वत्सकानहम्॥१३॥ इत्युक्त्वाद्रिदरीकुंजगह्वरेष्वात्मवत्सकान्॥ विचिन्वन्भगवान्कृष्णः सपाणिकवलो ययौ॥१४॥ अंभोजन्मजनिस्तदंतरगतो मायार्भकस्येशितुर्द्रषुमंजु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान्॥ नीत्वान्यत्र कुरूद्वहांतरदधात्खेऽवस्थितो यः पुरा दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम्॥१५॥ ततो वत्सानदृष्ट्वत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान्॥ उभावपि वने कृष्णो विचिकाय समंततः॥१६॥

रोंको ढूँढ़तेढूँढ़ते दूर चले गये॥१४॥ हे कुरुकुलभूषण! उसी अवसरमें कमलोद्भव ब्रह्माजी जो कि, प्रथम मायासे बालकरूप श्रीकृष्णका किया अघासुरका मोक्ष होना देखकर, अत्यन्त विस्मयको प्राप्त हो आकाशमें खड़े खड़े देखरहे थे अब वह फिर श्रीकृष्णकी यह दूसरी माया देखनेके लिये यहांसे तो बालकोंको और वनमेंसे बछरोंको चुराकर दूसरे स्थानमें लेजाय अन्तर्धान होगये*॥१५॥ जब वनमें बछरों को न देखा तब

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*शंका— भगवान्के अनेक अवतार हुए परन्तु किसी अवतारमें ब्रह्माको मोह उत्पन्न नहीं हुवायह बात शास्त्र और पुराणोंके वक्ता और आचार्यलोगोंसे सुनरक्खी है, परन्तु कृष्णावतारमें ब्रह्माको मोह क्यों उत्पन्न हुवा?

उत्तर— ब्रह्माने नारदजीको मायामें ग्रसित हुवा देखकर उनकी हँसी करी, तब नारदने ब्रह्माको शाप दिया कि, हे पिताजी! आपको भी माया ग्रसित करेगी, किसीदिन श्रीकृष्णको भोजन करते देखकर उनकी मायामें ग्रसित होओगे, हे पिताजी! श्रीनारायणकी माया सर्वोपरि बलवती है, इस नारदके शाप से कृष्णावतार में ब्रह्माको मोह उत्पन्न हुवा॥

लौटकर फिर यमुनातीरपर आये तो यहाँ बालकोंको भी न पाया, उस समय बालकोंको और बछरोंको वनमें चारों ओर ढूँढ़ते फिरे॥१६॥ जब वनमें कहीं बछरोंको और बालकोंको न पाया तब विश्वभावन भगवान् सबविश्वकी गतिके जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मनमें जान लिया कि यह सब ब्रह्माका कौतुक है॥१७॥ यह समझ जगदीश्वर भगवान्ने विचार किया कि जो मैं चुप होकर बैठ रहा तो बालकोंकी माता रोवेंगी और जी ब्रह्माके पाससे छीनकर ले आऊंगा तो ब्रह्मा अपने मनमें लज्जित होगा और उसके मनका मोह दूर न होगा, बालकोंकी माताओंको आनन्द देनेकेलिये और ब्रह्माको मोह बढ़ाने के लिये विश्वके सृजनहार श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्ने अपने ही अनेक रूप बनाये, बछरे भी आपही बने और ग्वालबालभी आपही बने॥१८॥ जैसा जिसके बछरोंका और बालकोंका छोटा अथवा बड़ा शरीर और जैसे जिनके हाथ पाँव थे, किसीके छै अंगुली थीं,

क्वाप्यदृष्ट्वांतर्विपिने वत्सान्पालांश्च विश्ववित्॥ सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसाऽवजगाम ह॥१७॥ ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च॥ उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकदीश्वरः॥१८॥ यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्करां

घ्र्यादिकं यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्यावद्विभृषांवरम्॥ यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं सर्वं विष्णुमयं गिरोंगवदजः सर्वस्वरूपो बभौ॥१९॥ स्वयमात्मात्मगो वत्सान्प्रतिवार्यात्मवत्सपैः॥ क्रीडन्नात्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद्व्रजम्॥२०॥ तत्तद्वत्सान्पृथङ् नीत्वा तत्तद्गोष्ठे निवेश्य सः॥ तत्तदात्माऽभवद्राजंस्तत्तत्सद्म प्रविष्टवान्॥२१॥ तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम्॥ स्नेहस्नुतस्तन्यपयस्सुधाऽऽसवं मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन्॥२२॥

जैसी जैसी उनके पास छड़ी, शृंगी, बँसुरी, छींके थे, जैसे जिसके आभूषण वस्त्र, कुसुम्भी, हरी, पीली, गुलाबी, पगड़ी, थी, जैसा जिसका स्वभाव था वैसाही स्वभाव, रूप, गुण, नाम, अवस्था, आहार, व्योहार और लक्षण सर्वात्मा भगवान् आप बने॥१९॥ सर्वात्मा श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् आपही बछरे बने, आपही उनको घेर घेर कर अपने खेलोंसे खेलने लगे, उसी प्रकारका विहार करते हुए आपही व्रजमें पधारे॥२०॥ हे राजन्! जिन जिन व्रजवासियोंके बछरे थे समूहमेंसे अलग अलग होकर उन उनके खिरकोंमें घुसगये और जिन जिन व्रजवासियोंके बालक थे वह अपने अपने घरोंको चले गये॥२१॥ उन बालकोंकी माता बाँसुरियोंका शब्द सुनकर शीघ्रतासे उठ उठकर अपने अपने घरोंसे

बाहर निकलकर बालकोंके हाथ पकड़ पकड़ कर हृदयसे लगाने लगीं स्नेहसे स्तनोंमें दूध भर आया, वही अमृतकी तुल्य स्वादका दूध परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्रको अपने २ पुत्र मानकर पिलाने लगीं॥२२॥ फिर पीछे उबटन करके मज्जन स्नान कराया चन्दन केशर लगाय गहने पहराने लगीं; फिर मस्तकपर तिलक लगाय भोजन कराया। इस प्रकार सब गोपी श्रीकृष्णचन्द्रको लाड़ लड़ातीथीं और वृन्दावनविहारी अपने सुन्दर सुन्दर चरित्र दिखाकर उनको आनन्द देते थे, उस समय खेलका नियम साधकर सन्ध्याकाल व्रजमें आते थे॥२३॥ इस प्रकार गोपियोंका मोह कहकर अब गौओंका मोह करते हैं, गायें दौड दौडकर रम्भाय रम्भाय व्रजमें आती हैं और अपने अपने बछरोंको बुलाती हैं जब बहरे आते हैं तब अपने अपने बछरोंको प्रेमसे अपनमें संचित हुये दूधको उन्हैं, पिलावैंहैं बारंबार हित मानकर उनको चाटती जाती हैं॥२४॥ इस कृष्ण चन्द्र में

ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपनालंकाररक्षातिलकाशनादिभिः॥ संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्सायं गतो यामयमेन माधवः॥२३॥ गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं हुंकारघोषैः परिहूतसंगतान्॥ स्वकान्स्वकान्वत्सतरानपाययन्मुहुलिहंत्यः स्रवदौधसं पयः॥२४॥ गोगोपीनां मातृतास्मिन्सर्वा स्नेहर्धिकां विना॥ पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना॥२५॥ व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याऽऽब्दमन्वहम्॥ शनैर्निस्सीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत्॥२६॥ इत्थमात्मात्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः॥ पालयन्वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः॥२७॥ एकदा चारयन्वत्सान्स रामो वनमाविशत्॥ पंचषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः॥२८॥

सब गोप गोपियोंकी मैत्री भाव पहिले केसी नाईं होगया, परन्तु पहिले इतना हित नहीं था अब पहिलेसे अधिक स्नेह बढ़गया गोपियोंमें भी श्रीकृष्णकी बालभावना पहिलेकी समान रीति प्रीति होगई परन्तु मैं इसका पुत्र हूँ और यह मेरी माता है यह मोह नहीं रहा॥२५॥ व्रजवासियोंकी अपने बालकोंमें स्नेहरूपी लता एक वर्षतक धीरे धीरे ऐसी बढी जिसकी वृद्धिका पारावार नहीं जैसे पहिले देवकीनन्दनमें बढी थी॥२६॥ इस प्रकार सबके आत्मा श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् बछरे और बालकोंके बहानेसे आपरूप बछरोंके आपरूप ग्वालोंको बनाय बछरे चराकर वनमें व्रजमें एक वर्षतक क्रीड़ा करते रहे॥२७॥ जब कि, एक वर्ष पूरा होनेमें पांच सात दिन शेष रहगये तब एक दिन भगवान् बलभद्र भैयाको

संग लेकर वनमें बछरे चरानेको गये थे वहाँबलभद्रजीको ऐसा कुछ देखनेमें आया॥२८॥ बहुत दूर जो गायें गोवर्धन पर्वतके ऊपर चर रही थीं उन्होंने व्रजके निकट अपने बछरोंको चरता देखा॥२९॥ बछरों को देखतेही प्रेमके वश हो, अपने तन मनकी सब सुधि भूल गईं और उनके थनोंसे दूध टपकने लगा, गोपोंके निवारण करने और विषम मार्गका कुछ भी ध्यान नहीं किया और ऐसी भागीं मानो दोहीं पाओंसे चल रही हैं, मुख और पूँछ ऊपरको उठाये बड़े वेगसे हुंकार शब्द करती बछरोंके समीप पहुँची॥३०॥ यद्यपि इन गायोंके और छोटे छोटे दूसरे बछरे भी थे तौभी वह गायें गोवर्द्धनपर्वतसे नीचे आय इन बछरोंसे मिल, उन बछरोंको दूध पिलाने लगीं और ऐसे उनके शरीरको चाटने लगीं मानो

ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम्॥ गोवर्धनाद्रिशिरसि चरंत्यो ददृशुस्तृणम्॥२९॥ दृष्ट्वाऽथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा स गोव्रजोऽत्यात्मपदुर्गमार्गः॥ द्विपात्ककुदग्रीव उदास्यपुच्छोऽगाद्धुंकृतैरास्नुप्या जवेन॥३०॥ समेत्य गावोऽधो वत्सान्वत्सवत्योऽप्यपाययन्॥ गिलंत्य इव चांगागि लिहत्यः स्वौधसं पयः॥३१॥ गोपास्तद्रोधनायासमौघ्यलज्जोरुमन्युना॥ दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान्॥३२॥ तदीक्षणप्रेमरसाप्लुताशया जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान्॥ उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि प्राणैरवापुः परमां मुदं ते॥३३॥ ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृताः॥ कृच्छाच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदश्रवः॥३४॥

निगल जायँगी॥३१॥ अब गोपोंका मोह कहते हैं, जब गोपोंने गायोंको घेरा तब गायें नहीं घिरीं तब लज्जित हो अपने मनहीं मनमें कहने लगे कि, हम बानेत गोप कहलाते हैं, परन्तु आज हमसे गायेंभी नहीं रुकीं, तब अपने मनमें बडा क्रोध करने लगे और उन कठिन कठिन मार्गों में बड़ी कठिनतासे नीचे आये, वहां बलदेवजीके संग बछरोंको लिये अपने पुत्रोंको देखा॥३२॥ उनको देखतेही वह गोप अत्यन्तही प्रेमरसमें मग्न होगये, इससे सब क्रोध शान्त हुवा और प्रेम बढा. तब तो बालकोंको हाथ उठा उठाकर हृदयसे लगालिया और उनके माथेको सूंघकर व्रजवासी बडे आनन्दित हुये॥३३॥ फिर पीछे वृद्ध वृद्ध गोप बालकोंको हृदयसे लगाकर बडे प्रसन्न हुये और महाकठिनतासे सहज सहजमें बालकोंको छोडके

बहार निकले बालकोंकी सुधिसे उनके नेत्रोंमें जल भरआया॥३४॥ यद्यपि उन बालकों ने दूध पीना छोड़ दिया था और बड़े भी होगये थे, तोभी उन बालकोंमें व्रजवासियोंके प्रेमकी ऐसी वृद्धि देख और उसके कारणको न समझकर बलरामजी अपने मनमें विचार करने लगे॥३५॥ कि, सर्वात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर जैसा प्रेम प्रथम था वैसाही अपूर्व प्रेम अब बालकोंपर भी बढता जाता है और यही नही मेरे हृदय में भी वत्स और बालकों पर क्षण क्षण में अधिक प्रेमकी वृद्धि होती चली जाती है; यह बडी अद्भुत बात है न जानिये यह क्या कारण है?॥३६॥ यह क्या है? देवताओंकी मायाहै, वा मनुष्योंकी मायाहै, अथवा राक्षसी माया है,? मैं नहीं जानसक्ता यह कहाँसे आई और कैसी अलौकिक माया है? क्योंकि इसने मुझको भी मोहित कर लिया, इससे मुझको यह जान पडता है कि, जो यह माया मेरे स्वामी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी हो तो आश्चर्य

व्रजस्य रामः प्रेमर्द्धेर्वीक्ष्यौत्कंठ्यमनुक्षणम्॥ मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिंतयत्॥३५॥ किमेतदद्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि॥ व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्वं प्रेम वर्धते॥३६॥ केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युताऽऽमुरी॥ प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी॥३७॥ इति संचिंत्य दाशार्हो वत्सान्सवयसानपि॥ सर्वानाचष्टवैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः॥३८॥ नैते सुरेशा ऋषयो न चैते त्वमेव भासीश भिदाऽऽश्रयेऽपि॥ सर्वं पृथक्त्व निगमात्कथं वदेत्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत्॥३९॥

नहीं? क्योंकि और दूसरेकी माया मेरे मनको मोहित नहीं करसक्ती॥३७॥ इसप्रकार शोच विचारकर दाशार्हवंशोद्भव बलदेवजीने अपनी ज्ञानदृष्टिसे देखा तो सब बछरे और बालक सर्वात्मा श्रीकृष्णरूपमें दिखाई दिये॥३८॥ कि सब देवता ग्वाल बाल बने हैं और ऋषि मुनियोंने बछरोंका रूप धारण किया है, यह मैं जानता हूँ, परन्तु यह बालक अब तो देवता नहीं है और यह बछरे ऋषिभी नहीं हैं, अब तो मुझको सबमें श्री कृष्ण दृष्टि आते हैं, जब यह भ्रम हुवा तो श्रीकृष्ण से बूझा कि, हे प्रभु! इस भेदको प्रकाशो यह क्या भेद है? सो तुम सम्पूर्ण भेद भिन्न भिन्न संक्षेपसेसमझाकर कहो? जो मेरे मनका सन्देह दूर हो? जब इसप्रकार बलदेवजीने श्रीकृष्णसे कहा तब श्रीकृष्णने सब वृत्तान्त समझाकर कहा कि, हे भैया! तुमको आज सुधि हुई है, जब ब्रह्माको मोह हुवा और बछरे और बालकोंको चुराकर लेगया तब मैने, बालक और बछरोंक

वैसाही रूप धारण किया और उनके कुटुम्बियोंको क्लेश न होने दिया. इस प्रकार श्रीकृष्णके कहनेसे बलदेवजीने सब भेद जाना॥३९॥ देखो यहां तो एकवर्ष बीत गया, परन्तु ब्रह्माका एक पल ही बीता था तब ब्रह्माने फिर आनकर देखा तो पहिले केसी नाईं बछरे और बालकोंको संगलिये श्रीवृन्दावनविहारी नये नये ढंग के खेल खेल रहेहैं॥४०॥ यह अद्भुत कौतुक देख ब्रह्माजी अपने मनमें विचार करने लगे कि, गोकुलमें जितने बछरे और बालक हैं वह सब मेरी मायारूपी शयनमें पडे सोरहे हैं और अभीतक उठे नहीं॥४१॥ फिर यह मेरी मायासे अलग जो ग्वालबाल और बछरे चररहे हैं और अनेक प्रकारके विहार कर रहे हैं, सो यह यहां कैसे आगये! जितने मैं हरकर लेगयाहूं उतनेही उसी स्थानपर यहाँवर्षदिनसे भगवान्के संग विहार कररहे हैं॥४२॥ आपही मोहित हो ब्रह्माजी बहुत देरतक विचार करते रहे कि, इनमें कौनसे बालक और बछरे सत्यहैं और कौनसे

तावदेत्यात्मभृरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा॥ पुरोवदब्दं क्रीडंतं ददृशे सकलं हरिम्॥४०॥ यावंतो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि॥ मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः॥४१॥ इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्मायामोहितेतरे॥ तावंत एव तत्राब्दं क्रीडंतो विष्णुना समम्॥४२॥ एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मनि॥ सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथंचन॥४३॥ एवं संमोहयन्विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम्॥ स्वयैव माययाऽजोऽपि स्वयमेव विमोहितः॥४४॥ ताभ्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि॥ महतीतरमायैश्यं निहंत्यात्मनि युंजतः॥४५॥

असत्य हैं? मै जो हरकर लेगया वे सत्य हैं वा यह जो व्रजविहारीके संग विहार कर रहेहैं ये सत्य हैं, दोनों एकसे दिखाई देते हैं, क्या करूं मैं किसी प्रकार इस भेदको नहीं जानसक्ता॥४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजन्! कभी वनमें कभी ब्रह्मलोकमें एक वर्षतक चकईके समान ब्रह्मा दिन रात घूमते फिरे!देखो! इस प्रकार ब्रह्माजी विश्वके मोह करनेवाले और आप मोहरहित विष्णुभगवान्को अपनी मायासे मोहित करना चाहते थे परन्तु आपही मोहित होगये॥४४॥ जैसे अँधेरी रातमें कुहर अन्धकारसे अपना पृथक् आवरण नहीं करसक्ता. क्योंकि उसी अन्धकारमें आप भी लय होजाता है. जैसे दिनमें खद्योत (पटबीजना) अपना प्रकाश पृथक् नहीं कर सक्ता, ऐसेही ऐश्वर्यवान् पुरुषोंपर कोई साधारण पुरुष अपनी माया करना चाहे तो उस अधमकी माया उत्तमपुरुपका कुछभी नहीं करसक्ती, बरन् चलाने

वालेहीकी सामर्थ्यका विनाश करती है॥४५॥ देखो! ब्रह्मा के देखतेही देखते क्षणमात्रमें और एक अद्भुत आश्चर्य हुआ. सब बछरे और बालक मेघवत् श्यामवर्ण, पीताम्बर पहिरे॥४६॥ चतुर्भुजरूप धारे, हाथमें शंख, चक्र, गदा, पद्म, लिये मस्तकपर किरीट, मुकुट, धारण किये, कानोंमें कुण्डल विराजमान, कण्ठमें मोतियोंके हार और वनमाला पहिरे॥४७॥ श्रीवत्सकी कान्तिसे शोभायमान भुजाओंमें भुजबन्दपहिरे रत्नजटित शंखके समान तीन रेखावाले कंकण करमें धारण किये नूपुर, कटक कमरमें तगड़ी और मुन्दरियोंके धारण करनेसे शोभायमान॥४८॥ बडे पुण्यवान् सज्जनोंसे समर्पण की हुई तुलसीकी नवीन और कोमल मालाओंसे शिरसे पाँवोंतक परिपूर्ण॥४९॥

तावत्सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात्॥ व्यदृश्यंत घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः॥४६॥ चतुर्भुजाः शंखचक्रगदाराजीवपाणयः॥ किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः॥४७॥ श्रीवत्सांगददोरत्नकंबुकंकणपाणयः॥ नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्रांगुलीयकैः॥४८॥ आंघ्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभिः॥ कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः॥४९॥ चंद्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापांगवीक्षितैः॥ स्वकार्थानामिव रजस्सत्त्वाभ्यां स्रष्ट्टपालकाः॥५०॥ आत्मादिस्तंबपर्यन्तैमूर्तिमद्भिश्चराचरैः॥ नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक्पृथगुपासिताः॥५१॥ अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभिः॥ चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिः॥५२॥ कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभिः॥ स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद्भिरुपासिताः॥५३॥

चन्द्रिकाकी सदृश स्वच्छ मन्दहास्यसे मानो अपने दासोंको सत्त्वगुणसे पालन करते और अरुणाईयुक्त कटाक्षभरी चितवनसे अपने भक्तोंके मनोरथोंको मानो रजोगुणसे उत्पन्न करते विदित होतेथे॥५०॥ ब्रह्मासे आदि लेके तृणपर्यन्त स्थावर जंगम समस्त प्राणी मूर्तिमान् होकर एक एक बछरेके सन्मुख नाच और गान आदिक अनेक अनेक प्रकारसे उनकी पूजा और शिष्टाचार करते थे॥५१॥ और अणिमादिक अष्टसिद्धि, मायासे लेकर महदादिक विभूति चौबीस तत्त्व, चारों ओर देदीप्यमान थे॥५२॥ काल, स्वभाव, संस्कार, काम, कर्म, सत्त्वगुण, रजोगुण
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तमोगुण यह रूप धारण कर प्रत्येककी सेवा करते थे।इन सबकी स्वतंत्रता श्रीकृष्णचन्द्रकी महिमाके आगे नष्ट होगई थी॥५३॥ सत्यज्ञानरूप आनन्दमात्र एकरस जो ब्रह्ममूर्तिवाले तथा जिनकी चक्षु आत्मज्ञान हैं ऐसे महात्मा पुरुषभी जिनकी महिमाके माहात्म्यको नहीं जान सक्ते, ऐसा रूप ब्रह्माजीने सबका देखा॥५४॥इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ समस्त बछरे और बालकोंको परब्रह्ममय देखा जिसपर ब्रह्मकी कान्तिसे सम्पूर्ण स्थावर, जंगम और यह विश्व प्रकाशमान होरहा है॥५५॥ उसके पीछे फिर बड़े आश्चर्यसे ब्रह्माजीकी सब इंद्रियें शिथिल होगईं और उनके तेजसे ब्रह्माजी चुप होगये जैसे ग्रामकी रक्षा करनेवाली पुतलीके आगे चार मुखकी सुवर्णकी प्रतिमा खड़ी होय इस प्रकार खडा हुआ॥५६॥ इस प्रकार सरस्वतीके स्वामी तर्कना रहित, स्वप्रकाश सुखनिधान प्रकृतिसे परे और ब्रह्मसे पृथक वस्तुके मिथ्या जिनका

सत्यज्ञानानंतानंदमात्रैकरसमूर्तयः॥ अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्दृशाम्॥५४॥ एवं सकृद्ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान्॥ यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम्॥५५॥ ततोऽतिकुतुकोद्वृत्तस्तिभितैकादशद्रियः॥ तद्धाम्नाऽभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यंतीव पुत्तिका॥५६॥ इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके परत्राजातोऽतन्निरसन मुखब्रह्मकमितौ॥ अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम्॥५७॥ ततोऽर्वाक् प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः॥ कृच्छादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टेदं सहात्मना॥५८॥ सपद्येवाभितः पश्यन्दिशोऽपश्यत्पुरः स्थितम्॥ वृन्दावनं जनाजीव्यद्रुमाकीर्णं समाप्रियम्॥५९॥ यत्र नसर्गदुर्वैराः सहासन्नृमृगादयः॥ मित्राणीवाऽजितावासद्रुतरुट्तर्षकादिकम्॥६०॥

ज्ञान प्रतिपादन करनेवाले उपनिषदोंसे हो सक्ता है उस अलौकिक रूपको देखकर और उस महिमाको विचार कर यह क्या है ऐसे शोचतेहुए ब्रह्मा जो मोहित होगये और उनकी अवलोकन करनेकी शक्ति भी जाती रही।तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्रह्माजीकी यह दशा देखकर मायाका आवरण उनके हृदयसे दूर कर दिया॥५७॥ तब तो ब्रह्माजीकी सब इंद्रियें चैतन्य होगईं जैसे मृतक पुरुष जी उठे है ऐसे बड़े कष्टसे नेत्रोंको खोलकर अपनी आत्मासहित ब्रह्माजीने जगत्को देखा॥५८॥ जब ब्रह्माजीने चारों ओरको दृष्टि उठाकर देखा तो सन्मुखही चारों ओर प्रियपदार्थोंसे परिपूर्ण और मनुष्योकी जीविकाके लिये वृक्षोंसे भरापुरा वृन्दावन है॥५९॥ जिस वृन्दावनमें स्वाभाविक वैर करनेवाले सिंह

मृग और मनुष्य परस्पर परममित्रके समान रहते हैं, श्रीवृन्दावनविहारीके संग रहनेसे सब प्राणियोंका क्रोध और तृष्णा दूर होगई है॥६०॥ उस वृन्दावनमे गोपालवंशके बालकपनका आचरण करनेवाले अनन्त अगाध ज्ञानस्वरूप बछरे और ग्वालवालोंको पहिलेकी समान ढूँढते फिरते थे और हाथमें दहीभातका ग्रास लिये अद्वितीय परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र मुरलीमनोहरका दर्शन ब्रह्माको हुआ॥६१॥ इसप्रकार वृन्दावन विहारी भक्तहितकारी श्रीकृष्णचन्द्रको देख उसी समय ब्रह्माजी अपने वाहन हंससे नीचे उतर कञ्चनके दण्डकी तुल्य अपनी देहसे साष्टांगकर चारों मुकुटोंका अग्रभाग चरणारविन्दोंसे लगाय दण्डवत् कर आनन्दरूप आंसुओंके जलसे श्रीकृष्णका अभिषेक किया॥६२॥ प्रथम जो भगवान्की अद्भुत महिमा देखी थी उसको वारंवार स्मरण कर करके श्रीगोविन्द भगवान्के चरणारविन्दोमेंसे उठे और फिर गिरपड़े इस प्रकार

तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं ब्रह्माद्वयं परमनंतमगाध्वोधम्॥ वत्सान्सखीनिव पुरः परितो विचिन्वदेकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट॥६१॥ दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य पृथ्व्यांवपुः कनकदंडमिवातिपात्य॥ स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुटकोटिभिरंघ्रियुग्मं नत्वा मुदश्रुसुजलैरकृताभिषेकम्॥६२॥ उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन्॥ आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वास्मृत्वा पुनःपुनः॥६३॥ शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने मुकुंदमुद्वीक्ष्य विनम्रकंधरः॥ कृतांजलिः प्रश्रयवान्समाहितः सवेपथुर्गद्गदयैलतेलया॥६४॥ इति श्रीभाग० म० दशम० पू० ब्रह्ममोहनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ ब्रह्मोवाच॥ नौमीड्य तेऽभ्रवषुपे तडिदंवराय गुंजावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय॥ वन्यस्रजेकवलवेत्रविषाणवेणुलक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय॥१॥

बडी देरतक ब्रह्मा पाओमें पडेरहे॥६३॥ फिर पीछे कुछ कालोपरान्त सहज सहजमें उठ आंसू पोंछ भगवान् की ओर निहार लज्जाके मारे नीची नार कर हाथ जोड शरीर कम्पायमान मुखसे कुछ कुछ अक्षर निकले इसप्रकार गद्गद वाणीसे ब्रह्माजी स्तुति करनेलगे कि, हे नाथ!॥६४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां ब्रह्ममोहवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ दोहा–चौदहमें हरिके चरित, अद्भुत अलख लखाय। हरि अस्तुति अज ज्यों करी कहौंकथा सो गाय॥१॥ ब्रह्माजी बोले कि, हे स्तुति करने योग्य! श्यामघटाकी समान तुम्हारीशरीर, बिजलीसम पीताम्बर धारण किये, गुंजाओंके कर्णभूषण, मयूरपुच्छके मुकुटसे शोभायमान मस्तक, कण्ठमें वनमाल पहिरे, दहीभातका

हे अच्युत! हे अखंडरूप! मैंने रजोगुण से उत्पन्न होनेके कारण आपके स्वरूपको नहीं जाना आपसे भिन्नहीं भगवान्को जाना मै अजन्मा जगत्का कर्ता हूं इस अभिमानसे अंधा होरहाहूं आप मेरे स्वामी हो मुझे अपना दास जानकर कृपा करिये।क्योंकि मैं आपकी कृपाके योग्य हूं॥१०॥ यदि आप मुझको ब्रह्मांडका नाम कहो तो हे भगवन्! माया, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, पवन, अग्नि, जल और पृथ्वीसे बने ब्रह्मांडमें सात विलादिकी देह वाला मैं कहां और आपके रोमकूपरूप झरोखोंमें ऐसे अनंत ब्रह्मांडरूप परमाणु घूमते फिरते रहते हैं, ऐसी आपकी अद्भुत महिमा कहां? मुझमें और आपमें बड़ा अंतर है, इसलिये मुझको अत्यन्त तुच्छ जानकर मुझपर अनुग्रह कीजिये और यह भी समझना चाहिये कि, यह ब्रह्मा,यद्यपि और लोकका अधिष्ठाता है तो भी हमारा अनुचरही है॥११॥ हे अधोक्षज (इन्द्रियोंसे जाननेमें न आवे) जो अनजान बालक अपनी

अतः क्षमस्वाच्युत में रजोभुवो ह्यजानतस्त्वत्पृथगीशमानिनः॥ अजावलेपांधतमोंधचक्षुष एषोऽनुकंप्यो मयि नाथवानिति॥१०॥ क्वाहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भूसंवेष्टितांडघटसप्तवितस्तिकायः॥ क्वेदृग्विधाऽविगणितांडपराणुचर्या वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम्॥११॥ उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे॥ किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूपितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनंतः॥१२॥ जगत्रयांतोदधिसंप्लवोदे नारायणस्योदरनाभिनालात्॥ विनिर्गतोऽजस्त्विति वाङ् न वै मृषा किं त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोऽस्मि॥१३॥

माता की गोदमें बैठकर पाँव उछाले अथवा लात मारे तो क्या माता उसको अपराधी माने? “कोई कहैकि ब्रह्माने श्रीकृष्णको माता कैसे कहा ब्रह्माने श्रीकृष्णको माता इस प्रकार कहा”कि स्थूल सूक्ष्म कार्य कारणरूप सम्पूर्ण विश्व आपके उदरमें विद्यमान है जो शब्दसे कहनेमें नहीं आता जब सब विश्व आपके उदर में ठहरा, तो विश्वमें रहनेसे मैंभी आपके उदरमें हुवा, इसलिये मुझे अपना पुत्र समझकर मेरा अपराध क्षमा करो॥१२॥ हे नारायण! प्रलयकालमें जब भूर्लोक, भुवर्लोक स्वर्लोक इन तीनों लोकोंका नाश हो जाता है तब चारों ओर से समुद्रका जल उमड़ैहै, उस जलके भीतर नारायणकी नाभिसे एक कमल उपजै है, उस कमलनालसे ब्रह्मा उत्पन्न होता है, क्या यह बात झंठ है? क्या यह देववाणी नहीं है? क्या मैं आपसे उत्पन्न नहीं हूं? क्या तो कह दो यह बात झूंठ है और जो कहो कि झूठ नहीं है तो मैं आपका पुत्रही हूँ तो मेरा अपराध सब

प्रकारसे क्षमा करना चाहिये॥१३॥ क्या तुम नारायण नहीं हो? नहीं!तुमही नारायण हो और तुमहीं सम्पूर्णं देहधारियोंके आत्मा हो हे अधीश! सबके प्रेरणा करनेवाले समस्त लोकोंको साक्षात् देखोहो।नार जो जीवसमूह और जल जो आपका अयन (वास, आश्रय) है, इसलिये नारायण नाम आपका प्रसिद्ध है सो आपकी मूर्ति है और जो विचार करके देखिये तो यह भी सत्य नहीं है क्योंकि मुझको सब मायारूपही जान पडते हो॥१४॥ हे जगदीश्वर! जगत्का आश्रयभूत आपका रूप जलके भीतर सत्य है तो जिस समय मैंने कमलनालके भीतर बैठकर सौ (१००) वर्षतक आपको ढूँढ़ा तब आप क्यों नही दिखाई दिये? और हृदयमें भी क्यों नहीं प्रगट हुए फिर तप करनेसे तुरंतही क्यों आपका रूप दिखाई दिया? इसलिये यह सब आपकी मायाही है, तुम्हारी मूर्तिमें किसी देश कालका परिच्छेद नहीं बनसक्ता॥१५॥ हे मायाके करनहारे

नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिनामात्माऽस्यधीशोऽखिललोकसाक्षी॥ नारायणोङ्गं नरभूजलायनात्तच्चापि सत्यं न तवैव माया॥१४॥ तच्चेज्जलस्थं तव सज्जगद्वपुः किं मे न दृष्टं भगवंस्तदैव॥ किं वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव किन्नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि॥१५॥ अत्रैव मायाधमनाऽवतारे ह्यस्य प्रपंचस्य बहिः स्फुटस्य॥ कृत्स्नस्य चांतर्जठरे जनन्या मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते॥१६॥ यस्य कुक्षाविदं सर्वंसात्मं भाति यथा तथा॥ तत्त्वय्यपीह तत्सर्वं किमिदं मायया विना॥१७॥ अद्यैव त्वदृतेस्य किं मम न ते मायात्वमादर्शितमेकोऽसि प्रथमं ततो व्रजसुहृद्वत्साः समस्ता अपि॥ तावंतोऽसि चतुर्भुजास्तदखिलैः साकं मयोपासितास्तावंत्येव जगंत्यभूस्तदमितं ब्रह्माद्वयं शिष्यते॥१८॥

बाहर भीतर समस्त विश्वके प्रकाश करनेवाले यदि यह जलादि प्रपञ्च तुमसे पृथक होय तो इससे तुम्हारा परिच्छेद होना सम्भव है परंतु यह मायासे उत्पन्न है यह बात आपने इस अवतारमें यशोदा मैयाको अपने उदरमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको दिखाकर प्रत्यक्ष कर दिया, इससे यह प्रपञ्च मायाहीका किया हुवा है॥१६॥ जिस प्रकार आपके उदर के भीतर आप समेत यह विश्व प्रकाशमान है और तुम्हारे साथ इसका प्रकाश होना मायाके विनाही बनसक्ता है जो बाहर के जगत्का तुममें प्रतिबिम्ब पडे तो यह बाहर की वस्तु उलटी दीखनी चाहिये और यदि आपको दर्पणस्थानमें माना जाय तो आपका दर्शन उसमें नहीं होना चाहिये, इस कारण यह सब मायाही है॥१७॥ केवल आपके विना यह सब संसार मायारूप है,

क्या यह मायाही दिखाई है? क्योंकि, प्रथम आप अकेले थे, पीछे सम्पूर्ण व्रजके बछरे और ग्वालरूप हो गये, फिर कुछ कालोपरान्त सबके सब चतुर्भुजरूप होगये, फिर एक एक रूपके आगे मैं (ब्रह्मा) शिव, इन्द्र सहस्रों दृष्टि आये और एक एकने एक एक रूपकी स्तुति करी फिर आप ब्रह्मरूप होगये, फिर पीछे प्रणाम करनेमें भी नहीं आये, इस प्रकार अद्वितीय ब्रह्मरूप अवशेष रहगये॥१८॥ सर्वव्यापक आपके स्वरूपको मायामें स्थित हुये जो प्राणी नहीं जानते हैं उन पुरुषोंके ऊपर मायाको फैलाकर स्वतंत्रता से आप प्रकाशो हो जगत्के उत्पन्न करने के समय ब्रह्माका रूप धारण करलेते हो, पालनके समय विष्णुरूप धारण करलेते हो और संहारके समय तीन नेत्रवाले रुद्ररूप बन जाते हो॥१९॥ हे ईश! प्रभु!जन्मरहित विधाता! देवता, ऋषीश्वर, मनुष्य, पशु, पक्षी, और जलके जीवोंमें आप साधु लोगोंपर कृपा करनेके लिये और दुष्टों के

अजानतां त्वत्पदवीमनात्मन्यात्मात्मना भासि वितत्य मायाम्॥ सृष्टाविवाहं जगतो विधान इव त्वमेषोंत इव त्रिनेत्रः॥१९॥ सुरेष्वृषिष्वीश तथैव नृष्वपि तिर्यक्षु यादस्स्वपि तेऽजनस्य॥ जन्माऽसतां दुर्मदनिग्रहाय प्रभो विधातः सदनुग्रहाय च॥२०॥ कोवेत्ति भृमन्भगवन्परात्मन्योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम्॥ क्व वा कथं वा कति वा कदेति विस्तारयन्क्रीडसि योगमायाम्॥२१॥ तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम्॥ त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनंते माया त उद्यदपि यत्सदिवावभाति॥२२॥ एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः सत्यः स्वयं ज्योतिरनंत आद्यः॥ नित्योऽक्षरोऽजस्रसुखो निरंजनः पूर्णोऽद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृतः॥२३॥

अभिमान हरनेके लिये जन्म लेते हो॥२०॥ हेव्यापक! हे भगवन्! हे परमात्मन्**!** हे योगेश्वर! आप जो अपनी योगमायाको विस्तार करके जिस समय विहार करते हो उन लीलाओंको त्रिलोकीमें कौन जाननेवाला है? कि कहाँ हैं, कैसी हैं, कौन हैं और कितनी हैं॥२१॥ इस लिये यह है मिथ्या स्वरूप स्वप्नकी समान प्रकाशमान दुःखरूप सब संसार केवल आपके नित्यसुख चैतन्यमय अनन्तस्वरूपमें मायासे उत्पन्न होनेके कारण नित्यसुख और चैतन्यस्वरूपके समान भासै है परन्तु वास्तविकतासे असत्स्वरूप, स्वप्नतुल्य प्रतिभास रहित, कष्टसे भी अधिक कष्टरूप मानो कष्टमयही है॥२२॥ केवल सत्यस्वरूप तो एक आपही हो, क्योंकि आत्मा हो जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, जहाँतक मन जाता है

वह सब माया है, आत्मा दृश्य नहींइसलिये सत्य है आपमें कोई विकार नहीं इसलिये सत्यस्वरूप हो आप सबके कारण स्वरूप हो, सबके व्यापक होनेसे पुरुष कहलाते हो तुम सदा पूर्ण हो, नित्य सुखस्वरूप हो अक्षर हो अमृतहो, इसलिये आपका कभी विनाश नहीं होता, तुम अनंत और अद्वैत हो इसलिये आपके देश कालका परिच्छेद नहीं, आप स्वयंप्रकाश उपाधिरहित असंग हो, इसलिये ज्ञानके साधनसे आपकी प्राप्ति नहीं होती, आप निरञ्जन हो, इसलिये आपके स्वरूपमें किसी प्रकारका संस्कार भी नहीं है, आप नित्यमुक्तरूप हो अमृत हो॥२३॥ इसलिये आप सदा आत्मारूप हो और समस्त जीवों के आत्मा हो, जिन पुरुषोने सूर्यरूप गुरुसे उपनिषद्के ज्ञानरूप नेत्र प्राप्त किये हैं वह महात्मा आत्माहीसे आपका दर्शन करके संसारसागर के पार हो जाते हैं॥२४॥ जबतक प्राणी आपके आत्मस्वरूपको आत्मरूप नहीं जानते तबतक उनको अज्ञानसे यह

एवंविधं त्वां सकलात्मनामपि स्वात्मानमात्मात्मतया विचक्षते॥ गुर्वर्कलब्धोपनिषत्सु चक्षुषा ये ते तरंतीव भवानृतां बुधिम्॥२४॥ आत्मानमेवात्मतयाऽविजानतां तेनैव जातं निखिलं प्रपंचितम्॥ ज्ञानेन भूयोऽपि च तत्प्रलीयतेरज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा॥२५॥ अज्ञानसंज्ञौ भवबंधमोक्षौ द्वौ नाम नान्यौ स्व ऋतज्ञभावात्॥ अजस्रचित्यात्मनि केवले परे विचार्यमाणे तरणाविवाहनी॥२६॥ त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च॥ आत्मा पुनर्बहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताऽज्ञता॥२७॥

सम्पूर्ण प्रपञ्च प्रगट भासता रहता है और वही प्रपञ्च आत्मरूप को जाननेसे लय होजाता है, जबतक अज्ञान है तबतक रज्जु सर्परूप भासै है; जब ज्ञान होजाता है तबरज्जु रज्जुही जाननेमें आती हैं, अज्ञान से रज्जुमें सर्प जानना अध्यास है और ज्ञानसे रज्जुही जानना अपवाद है॥२५॥ संसारमें बन्धन और मोक्ष केवल अज्ञानसे है सत्य ज्ञानरूप आत्मासे भिन्न नहीं है निरन्तर चैतन्यरूप आत्मा परमेश्वर आपही हो ऐसा विचार करनेसे आत्मामें अज्ञान वा बन्धन कुछ भी नहीं है। जैसे सूर्यके सन्मुख रात दिन नही है, सदा प्रकाशही रहता है॥२६॥ आत्मस्वरूप परब्रह्म आपको देह मानकर और देहादिकको आत्म मानकर यही खोये हुए आत्मरूपी पदार्थको बाहर खोजना देखो!यह मूर्खोकी कैसी मूर्खता है, क्योंकि घरकी

खोई वस्तु कोई वनमें खोजने नहीं जाता॥२७॥ विना जाने झूँठ भी सत्यहीकी समान विदित होता है इस बातपर एक दृष्टान्त है॥*****हे अनन्त!ज्ञानीपुरुष तो इस देहमेंही आपको खोजते हैं, “यह भी आत्मा नहीं यह भी आत्मा नहीं”ऐसे जड़ पदार्थोंका त्याग करते हैं, क्योंकि

अंतर्भवेऽनंत भवंतमेव ह्यतत्त्यजतो मृगयंति संतः॥ असंतमप्यंत्यहिमंतरेण संतं गुणं तं किमु यंति संतः॥२८॥

अपने निकट यद्यपि सर्प नहीं भी है परन्तु उसका निषेध किये विना सत्य रज्जु जाननेका ज्ञान नहीं होता सर्पके निषेध होनेके उपरान्त रज्जु

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दृष्टांत— किसी राजाके यहाँ एक कुपट

न (वेपढा) पुरोहित था परन्तु बोल चालमें मद्दापूर्त और पाखण्डी था, उसने राजाको“शुक्लाबरधर विष्णु शशिवर्णं चतुर्भुजम्। प्रसन्नवदन ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये” इस श्लोकके अर्थ दहीवडेके बतला रक्खे थे कि, दही सफेद उसमें लिपटा होय है वही शुक्लवस्त्र है और वेष्टीति विष्णु विशेष लिपटा होनेसे विष्णुहै, गोल गोल चन्द्रमा के समान मुख है और चतुर्भुजम् अर्थात् चतुर पुरुषों के भोजन योग्य है ध्यान करतेही प्रसन्न मुखहोजाता है और भोजन करनेसे सब विघ्न शांत हो जाते हैं. राजा इस श्लोकके यह अर्थ सत्य समझकर और उसको महात्मा जानकर उसका बडा आदर सन्मान करता था, जो विद्वान्आवै, राजा उसीसे उस श्लोकका अर्थ बूझे, सब पंडित लोग विष्णु भगनान्हीका अर्थ करै, राजा कहैयह अर्थ इस श्लोकका नहीं इसी प्रकार अनेक पंडितोंका तिरस्कार होता था, तब एक पंडित और आये उन्होंने रुपयेका अर्थ किया, देखो! यह रुपया श्वेतवर्णहै और चार चौअन्नी जो हैं यही उसकी चार भुजा हैं देखतेही मुख प्रसन्न होजाताहै और सब विघ्नोंका शांत करनेवाला है, इस अर्थको सुनकर राजाने कहा और पंडितोंसे तुम अच्छे हो दशांश पारितोषिकके योग्य हो, परन्तु सत्य अर्थ इसका आपभी नहीं जानते, उस महात्मा पंडितने विचारा कि, यह राजा किसी मूर्खका बहँकाया हुवाहै और यह राजा भी मूर्खहै, यह महात्मा पंडित राजाके पुरोहित के घर जाने लगे और उनसे बडीमित्रता करली और मिसरानीकोभी एक बडी चिकनपटकी तीयल बनादी और आभूषण भी अनेक अनेक प्रकारके बनादिये और अत्यन्त प्रेमसे उनकी सेवा करने लगे और दिन रात माताही माता कहते मुख सूखै। एक दिन उस ब्राह्मणीने कहा कि, इतने दिनोंसे तू हमारे यहा रहताहै तैंने कुछ अपना अभिप्राय नहीं कहा कि, तेरा क्या मनोरथहै? ब्राह्मण बोला कि हे माता! मेरा तो नाम न लेना परन्तु (शुक्लाम्बर) इसश्लोकका अर्थ अपने पतिसे बूझदो तो बहुत अच्छा है, वह बोली आजही लो, जैसे पुरोहितजी घर आये उसी समय बूझा कि, हे स्वामिन (शुक्लम्बर) इस श्लोकका क्या अर्थ है? परन्तु पुरोहितजीने बहुतेरी तीन पाचकी “नारि विवश नर सकल गुसाई। नाचर्हि नट मर्कट की नाई”मिसराणीने एक न मानी निदान बतानाही पडा, मिसराणीने अगले दिन उन महात्माजीको बतादिया, महात्माजी अच्छे वस्त्र पहन काँखमें पोथी दबा, राजाकी सभामें गये और बडी धूमधामके साथ राजाको उस श्लोकका वही दहीबडेवाला अर्थ सुनाया, राजा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कहा तुम बडे विद्वान् हो, हमारे पास रहा करो और बहुत कुछबन भी उनको दिया, पुरोहितजी इस बातको सुनकर शून्य होगये और अपने मनमे कहनेलगे कि, परमेश्वरने आज हमारी आजीविका यहाँसे बन्द करदी और महात्माजीने कहा यह राजा मूर्ख और मूर्खके समीप रहना किसी प्रकार अच्छा नहीं, यातो इसको पढाना चाहिये और जो यह न पढैतो यहाँसे सिधारना अच्छा है, पण्डितजीने राजासे कहा आप कुछ पढा करैं तो अच्छा है, राजाने स्वीकार किया और पण्डितजीने राजाको पढाना आरम्भ किया, व्याकरणके पढनेसे राजाको पद पदान्तका बोध होगया तो एक दिन उसश्लोकको विचारनेलगा तो कहीं भी दही बडेका अर्थ न पाया, तब राजा चकित हो पण्डितजी—

जाननेमें आती है॥२८॥ हे देव! जब ज्ञानसेही मुक्ति हो जाती है तो मुक्तिकी क्यों बड़ाई कीब्रह्मा कहैं हैं यद्यपि ज्ञान प्राप्त होना बहुत सुगम है तो आपके चरणारविन्दोंके प्रसादके कणिकाके कणिकाका अनुग्रह जिसपर होगया वही तुम्हरी महिमाके स्वरूपको जानता है और जिसपर

अथापि ते देव पदांबुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि॥ जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन्॥२९॥ तदस्तु मे नाथ स भूरि भागो भवेऽत्र वाऽन्यत्र तु वा तिरश्चाम्॥ येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्॥३०॥

तुम्हारे चरणाविन्दोंकी कृपाही नहीं है चाहे वह कितनाही विचार किया करैऔर वर्षोंतक ढूँढ़ा करे तोभी आपकी महिमाको नहीं जान सक्ता शुद्धभक्तिसेही आपकी महिमा जानीजाती है॥२९॥ इस बातपर एक दृष्टान्त है

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हे नाथ! इस ब्रह्मा के जन्ममें, अथवा और कोई जन्म होय।

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— और पुरोहितजीको बुला भेजा और आतेही राजाने उससे क्रोधकरके कहा कि, पुरोहितजी? तुमने मुझे बढा धोखा दिया, बताओ इसमें दहीबडेका अर्थ कहा है? पुरोहितजीके तो छक्के छूट गये,पण्डित जीने कहा मैंनेही क्या सबही पण्डितोने शुद्ध अर्थ किया था, जब आपने क्यों न माना? तब राजा बोला उस समय मैअज्ञानी था, पडित बोले विना पढे यह ज्ञान कभी नहीं होता अब ज्ञान होनेसे आप समझे, ऐसे ही यह प्राणी मायाके वशमें हो उलटाही समझे है॥


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दृष्टात— एक राजाने अपने मंत्रीसे कहा कोई ऐसी औषधी भी है कि, जिसके खानेसे परमेश्वरका दर्शन होजाय? मंत्रीने कहा हमारे दादा परदेश से साढेतीनलाख रुपैये देकर एक ऐसीही पुडिया लायें हैं सो घर धरी है, राजा बोला मुझको लादो मैखाऊगा मंत्री अपने घर जाकर चूल्हे की राखकी पुडिया बाँधलाये और राजासे कहा इलायची, वशलोचन इसमें मिलाकर गहत में चाटो, परन्तु इसका पथ्य अवश्य करना और जो पथ्यन करोगे तो औषधि क्या गण करेगी, विनापथ्य साढेतीनलाख रुपैयेकी औषधि वृथा जायगी विचार देखो जो रोगी पथ्यको करे तो रोगको जीत लेहै और कुपथ्य करैतो रोग औषाधिको जीत लेहै इससे पथ्यकी पुडिया खाओ तो मनमें झूँठ मतलाना और झूँठ मनमें लाओगेतो परमेश्वरका दर्शन न होगा, यह कह मंत्री तो अपने घरको चले गये और प्रात कालहोनेही सजाने पुडिया खाई सो औषधि मनमें झूँठ जानपडी सो औषधि

वर चित्तको सावधान कर दोघडी पीछे फिर वह औषधि खाई, सो झूँठ फिर आँखों आगे आगया औषधि फिर रखदी, ऐसेही शोच विचार में तीन पहर बीतगये, कहा अब कल खाँयगे, सन्ध्याको मंत्री आया उसने बूझा औषधी खाई कि नहीं खाई ? राजा बोला झूँठ तो मनसे हटताही नहीं खांय कैसे? मंत्री बोला कि, यही उपाय भगवान्के मिलनेका है जो मनसे सब दुर्वासना निकलगई और मन शुद्ध होगया तब भगवान्‌का दर्शन होगया और तनक भी अन्तर रहगया तो भगवान् नहीं मिलते॥

उसमें अथवा पशुपक्षियोंमें जन्म होय तो मैं अपना बड़ा भाग्य मानूंगा जब तुम्हारे व्रजवासियोंमेंसे किसीके चरणारविन्दकी सेवा करूंगा॥३०॥ देवताके जन्मसे अथवा और किसीके जन्मसे जिसमें आपकी भक्ति होय वही जन्म श्रेष्ठ है, इस प्रकार उत्कण्ठापूर्वक सात श्लोकसे स्तुति करते हैं अहो आश्चर्य! व्रजकी गाय गोपी धन्यहैंहे प्रभु! जिन गोपियोंके स्तनोंका दूधरूप अमृत बछरे बन आपने आनन्दसे पेट भरकर पिया, आपकी तृप्तिके लिये अबतक यज्ञ भी पूर्ण नहीं हुये क्या यज्ञोंमें भी आपका पेट नहीं भरता है? भगवान्के सखाओंकी महिमा किसीके कहनेमें और जाननेमें नहीं आती॥३१॥ ब्रह्माजी बोले कि, नन्दरायजीके व्रजवासियोंका आश्चर्य रूप अहो भाग्य है परमानन्द पूर्णब्रह्म सनातन जिन व्रजवासियोंका सर्वदा मित्र होरहा है॥३२॥ है इन व्रजवासियोंके भाग्यकी महिमा कहनेको किसकी सामर्थ्य है, इन्द्रियोंके अधिष्ठाता यज्ञदेवता महादेव बुद्धिके

अहोऽतिधन्या व्रजगोरमण्यः स्तन्यामृतं पीतमतीव ते मुदा॥ यासां विभो वत्सतरात्मजात्मना यत्तृप्तयेऽद्यापि न चालमध्वराः॥३१॥ अहो भाग्यमहो भाग्यं नंदगोपव्रजौकसाम्॥ यन्मित्रं परमानंदं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्॥३२॥ एषां तु भाग्यमहिमाऽच्युत तावदास्तामेकादशैव हि वयं बत भूरिभागाः॥ एतद्धृषीकचषकैरसकृत्पिबामः शर्वादयोंघ्र्युदजमध्वमृतासवं ते॥३३॥ तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद्गोकुलेऽपि कतमांघ्रिरजोभिषेकम्॥ यज्जीवितं तु निखिलं भगवान्मुकुंदस्त्वद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव॥३४॥

अधिष्ठाता मैं (ब्रह्मा) ऐसे ग्यारह देवता महादेवसे आदि लेकर हम सब बड़ भागी हैं, कोई व्रजवासी इंद्रियरूप दोनोंसे आपके चरणारविन्दका मकरन्द अमृतकी तुल्य मधुर २ पीते हैं, जिस समय व्रजवासी तुम्हारा दर्शन नेत्रोंसे करते हैं, उस समय नेत्रोंका अधिष्ठाता सूर्य कृतार्थ होजाता है और कानोंसे तुम्हारी बात सुनते हैं, तब कानोंके देवता दिशा कृतार्थ होजाती हैं नाकसे तुम्हारा प्रसाद तुलसीपत्र सूंघें हैं, तब नासिकाके देवता अश्विनीकुमार कृतार्थ होजाते हैं, जब हाथोंसे तुम्हारी सेवा करतेहैं तब हाथोंके देवता कृतार्थ होजाते हैं, इसी प्रकार सब इन्द्रियोंके सेवन से सब देवता कृतार्थ होजाते हैं, सम्पूर्ण पदार्थोंके सेवा करनेवाले व्रजवासियोंके भाग्यकी महिमा कैसे कही जाय॥३३॥ इस लोकमें कदाचित मेरा जन्म होय तो वृन्दावनमें होय उसपरभी गोकुलमें, यह मैं नहीं कहता मनुष्यही योनिमें हो जो चाहे जिस योनिमें हो, परन्तु गोकुलमें हो, तो मैं

पूर्ण भाग्यशाली होऊं और मेरे धन्य भाग्य होयँ तब श्रीकृष्ण बोले कि, हे ब्रह्माजी! सत्यलोकको छोड़कर यहाँ जन्म लेनेसे तुमको क्या लाभ होगा तब बह्मा बोले, जिस जन्ममें व्रजवासियोंके चरणारविन्दकी रज मेरे मस्तकपर पडेगी वही मुझको परम लाभ होगा, तब श्रीकृष्ण बोले कि, व्रजवासी लोग काहेसे धन्य हैं!तब ब्रह्मा बोले कि, इन व्रजवासियोंका पूर्ण जीवन व्रज है, क्योंकि जहां श्रीमुकुन्दपरायण हैं जिनके चरणारविन्दकी रजको नित्यप्रति वेद खोजते रहते हैं उस वृन्दावनकी रजका मिलना अहोभाग्य है॥३४॥ इन व्रजवासियोंकी कृतार्थताका क्या वर्णन करूं? जिनकी भक्तिसे तुम भी ऋणीसे होरहे हो? तब श्रीकृष्णचन्द्र कहैं हैं कि, मैं किस वस्तु के देनेमें असमर्थ हूं? जो ऋणी रहूं तहाँ ब्रह्माजी बोले कि, हे देव! जगत्मेंप्रकाशमान समस्त फलरूप तुम हो इसलिये और फल व्रजवासियोंको क्या दोगे! यह जब विचार करताहूँतब मेरा मन मोहित हो जाता है, तब श्रीकृष्ण बोले, मैंअपने आपका ऋणी होजाऊँगा. तब ब्रह्माजी बोले कि, नहीं माताका स्वरूप धर कर पापिनी पूतना आई थी उसको आपनें

एषां घोषनिवासिनामुत भवान्किं देवरातेति नश्चेतो विश्वफलात्फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन्मुह्यति॥
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवाऽऽपिता यद्धोमार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते॥३५॥
तावद्रागादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्॥ तावन्मोहोंघ्रिनिगडो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥३६॥

सर्वस्व अपनपा दिया, तब श्रीकृष्ण बोले व्रजवासियोंको परिवार सहित सर्वस्व और अपनपा दूंगा, तब ब्रह्माजी बोले कि, पूतनाका कुटुम्ब अघासुर बकासुरको आपने सर्वस्व और अपनपा दिया तब कृष्ण बोले कि, मेरे पास तो यही पदार्थ देनेको है तब ब्रह्माजी बोले कि, जिन व्रजवासियोंने धाम, धन, सुहृद्, प्रिय, देह, पुत्र, प्राण और अन्तःकरण आपमें अर्पणकर रक्खा हैं फिर क्या ऐसे व्रजवासियोंको और वैरियोंको क्या बराबरही रक्खोगे! आप परमेश्वर हैं तो क्या है? परन्तु आपके यहां न्याय नहीं कहां बा

पुरी पूतना? और कहां परमहितकारी व्रजवासी! आपको अपनेही मनमें न्याय करना चाहिये॥३५॥ हे कृष्ण! जबतक रागादिक चोर इस शरीरमें उपस्थित हैं तबतक घराकारागार (बन्दीखाना) रूप है मोह भी तबहीतक पाओंकी बेडी है जबतक प्राणी तुम्हारे चरणारविन्दकी शरण नहीं आता, आपकी शरण लिये पीछे रागादिक जो चोर हैं

वह भी चोरसे साह होजाते हैं और जो घर हैं वह भी सुन्दर मन्दिर होजाते हैं और सम्पूर्ण मोह दूर हो जाता है॥३६॥ हे प्रभो! तुम संसाररहित हो तो भी संसार में शरणागत भक्तोंको आनन्द देने के लिये संसार में वारम्वार अवतार धारण करो हो॥३७॥ हे नाथ! हे प्रभो! जो पुरुष आपको जानते हैं वह जानते होंगे, परन्तु मैंबहुत क्या कहूं। मनसे, वचनसे देहसे, आपका वैभव मेरे जानने में किसी प्रकारसे नहीं आसक्ता?॥३८॥ हे कृष्ण! अब मुझपैअनुग्रह करके मुझको सत्यलोकके जाने की आज्ञा दीजै, आप सब जानते हो, अर्थात्अपनी अपार महिमा मेरा ज्ञान, बल, पराक्रम, सबके देखनेवाले हो, आपही इस जगत् के अधिष्ठाता हो, मैंने ऐसा ब्रह्मापना छोड़ा यह जगत् आपहीकी भेंट है॥३९॥ हे कृष्ण! यदुकुलकमलपर स्नेह करनेवाले (दिवाकर की सदृश) इसमें सूर्यकी उपामादी है. हे पृथ्वीके देवता! ब्राह्मण, पशु, समुद्र, इनके वृद्धि करने वाले

प्रपंचं निष्प्रपंचोऽपि विडंवयसि भूतले॥ प्रपन्नजनताऽऽनंदसंदोहं प्रथितुं प्रभो॥३७॥ जानंत एवं जानंतु किं बहूक्त्या न मे प्रभो॥ मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः॥३८॥ अनुजानीहि मां कृष्ण सर्वं त्वं वेत्सि सर्वदृक॥ त्वमेव जगतां नाथो जगदेतत्तवार्पितम्॥३९॥ श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोपदायिन्क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन्॥ उद्धर्म शार्वरहरक्षितिराक्षसध्रुगाकल्पमार्कमर्हन्भगवन्नमस्ते॥४०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिष्टूय भूमानं त्रिः परिक्रम्य पादयोः॥ नत्वाऽभीष्टं जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत॥४१॥ ततोनुज्ञाप्य भगवान्स्वभुवं प्रागवस्थितान्॥ वत्सान्पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम्॥४२॥

(सुधाकरकी समान) इसमें चन्द्रमाकी उपमा दी. हे पाखण्डरूप अन्धकारके विनाश करनेवाले, इसमें सूर्य और चन्द्रमा दोनोंकी उपमा आई पृथ्वीपर कंसादिक राक्षसोके मारनेवाले, इसमें फिर सूर्यकी उपमा आई, हे सूर्य! हे अर्हन्! सबके पूज्य भगवान्! अर्थात् छः प्रकारके ऐश्वर्य सेपरिपूर्ण तुमको मेरा दण्डवत् है और नमस्कार हैं॥४०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजा परीक्षित्! इस प्रकार सर्वव्यापक श्रीकृष्ण चन्द्रकी स्तुति कर, कल्पपर्यन्त तीन प्रदक्षिणादे, चरणारविन्दोंको नमस्कार कर जगत् के विधाता बह्मा अपने ब्रह्मलोकको चलेगये*****॥४१॥ तब पीछे श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञानुसार बछरे और बालकों को ले आये, प्रथमकी समान ग्वालमण्डलीको उसी यमुना की रेती में ले आये जहाँपहिले

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** * शंका**— जब श्रीकृष्णकी स्तुति करके ब्रह्माजी अपने लोकको गये परन्तु श्रीकृष्ण भगवान् ब्रह्मासे क्यों नहीं बोले? सबस्थानोंपर देवताओं से भगवान् बोलते हैं और आदर सत्कार करते हैं, फिर यहां भगवान् नेब्रह्माका निरादर क्यों किया?

बैठे भोजन कररहे थे और इस भेदको किसीने न जाना यह बात सुनकर राजा परीक्षित् ने श्रीशुकदेवजी से बूझा कि इतने दिनतक बालक कैसे यमुनाके किनारे पर बैठे रहे और भोजनपान कुछ न किया?॥४२॥ हे राजन्! जब अपने प्राणनाथ श्रीकृष्णचन्द्र विना एक वर्ष बीत गया, तौ भी भगवान्की मायासे मोहित हुए उन बालकों को वह समय आधे पलकी समान जान पडा॥४३॥ भगवान् की मायासे मोहितचित्तवाला पुरुष इस संसारमें क्या क्या नहीं भूलसक्ता? सो सम्पूर्ण जगत भगवत् कीमायासे मोहित होकर बारंबार अपने आत्मा को भूल रहा है॥४४॥ सब ग्वालबालोंने

एकस्मिन्नपि यातेऽब्दे प्राणेशं चांतरात्मनः॥ कृष्णमायाहता राजन्क्षणार्धं मेनिरेऽर्भकाः॥४३॥ किंकिं न विस्मरंतीह मायामोहितचेतसः॥ यन्मोहितं जगत्सर्वमभीक्ष्णं विस्मृतात्मकम्॥४४॥ ऊचुश्च सुहृदः कृष्णं स्वागतं तेऽतिरंहसा॥ नैकोऽप्यभोजि कवल एहीतः साधु भुज्यताम्॥४५॥ ततो हसन्हृषीकेशोऽभ्यवहृत्य सहार्भकैः॥ दर्शयंश्चर्माऽऽजगरं न्यवर्तत वनाद्व्रजम्॥४६॥ बर्हप्रसूननवधातुविचित्रितांगः प्रोद्दामवेणुदलशृंगरवोत्सवाढ्यः॥ वत्सान्गृणन्ननुगगीतपवित्रकीर्तिर्गोपीदृगुत्सवदृशिः प्रविवेश गोष्ठम्॥४७॥ अद्यानेन महाव्यालो यशोदानंदसूनुना॥ हतोऽविता वयं चास्मादिति बाला व्रजे जगुः॥४८॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्परोद्भेव कृष्णे इयान्प्रेमा कथं भवेत्॥ यो भूतपूर्वस्तोकेषु स्वोद्भवेष्वपि कथ्यताम्॥४९॥

श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा कि, भय्या! तुम तो बहुत शीघ्र आये, हमने तो तुम बिना एक ग्रास भी अभी नहीं खायाथा, अब आओ पहिले शीघ्रता से भोजन कर लो॥४५॥ सब इन्द्रियों के प्रेरणा करनेवाले श्रीकृष्णभगवान् बालकों की बात सुनकर हँसे और बालकों केसंग भोजन करके मार्गमें जो सुखा हुआ अघासुरका देह पडा था उसको दिखाते वनसे लौटकर व्रज में आये॥४६॥४७॥ वनसे आनकर सब बालक अपने माता पिताओंसे कहने लगे कि, आज यशोदानंदने वनमें एक बडा भारी सर्प मारा और उससे हमारी रक्षा करी॥४८॥ राजा परीक्षित्बोले कि, हे ब्रह्मन्! व्रजवासियों का इतना प्रेम

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उत्तर— अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना मूर्खों का काम है कि मैं ऐसा सज्जन हूँ, इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णब्रह्म, सर्व विश्वके नाथ ब्रह्मासे की हुई स्तुतिको सुनकर लज्जायमान हुये ब्रह्मासे कुछ भी नहीं बोले और विचार किया कि, हमने वृथा ब्रह्माके किये हुये चरित्रको नहीं माना क्योंकि जब ब्रह्मा वत्स बालकों को हरिकर लेगया था तो हमको ब्रह्माजीकी स्तुति करके लेआना चाहिये था, ऐसे दयालु भगवान् लज्जा से नहीं बोले॥

श्रीकृष्ण में कैसे हुआ? जो कि पराया पुत्र था, अपने पुत्रोंमें इतना प्रेम पहिले नहीं था यह बात मुझे समझाकर कहो॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! श्रीकृष्णका नाम सर्वात्मा है, इसलिये श्रीकृष्ण सब प्राणियों के साक्षात् आत्मा ठहरे, फिर सब प्राणियोंको अपना आत्माही परमप्रिय

श्रीशुक उवाच॥ सर्वेषामपि भूतानां नृप स्वात्मैकवल्लभः॥ इतरेऽपत्यवित्ताद्यास्तद्वल्लभतयैव हि॥५०॥

है, इसलिये श्रीकृष्णमें सन्तान से बढकर अधिक प्रेम था, स्त्री, पुत्र, धन आदिक और जो पदार्थ हैं सो सब आत्माहीके सुखके लिये हैं*****॥५०॥

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** * दृष्टान्त**— किसी नगर में एक ब्राह्मण था, उसके सन्तान नहीं होती थी, प्रथम तो उसने यत्रमत्रादिक के बहुत सेउपाय किये परन्तु कुछ न हुआ, फिर वैद्यलोगों की भी बहुतसी औषधिये की और ज्योतिषियों ने भी अनेक प्रकार के दान पुण्य कराये, परन्तु किसी प्रयत्न से भी उसने पुत्रका मुख नहीं देखा. एक दिन वह वनमें पूजाके लिये फल फूल लेनेको गया, वहा उसको उदास देखकर एक महात्मा पुरुष उससे बूझने लगे कि, हे ब्राह्मण! तू क्यों इतना उदास है? ब्राह्मण बोला कि, हे स्वामिन्! मेरे सन्तान नहीं इस बातका मुझको बडा क्लेश है. महात्माने कहा तू सन्तानगोपालका पाठकर तेरे पुत्र होगा. ब्राह्मणने वैसाही किया और भगवत् कीकृपासे उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ. जब वह बडा होगया तो साधुसन्तोंके धोरे बहुत बैठता और इकलौता बेटा समझकर उसके माता पिता भी उसपर लाडप्यार करते थे और वह भीअपने माता पितासे अत्यन्त प्रेम रखता था, एक दिन कोई साधु गीताका पाठ कर रहे थे उसमें यह श्लोक आयाः—

श्लोकअशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगवासूंश्वनानुशोचन्ति पण्डिताः॥

** श्लोकार्थ**— माता पिता सुहृद बन्धु कोई किसीका नहीं, यह सब केशवी माया है, इन लोगोंके लिये कभी शोच करना नहीं चाहिये. तुम बुद्धिहीनोंकी नाई उनके लिये शोक करते हो और कभी बुद्धिमानों की नाई बात करते हो परन्तु ज्ञानी लोग मरने जीनेका कुछ शोक नहीं करते, वह लडका बोला. महाराज! मेरे माता पिता तो मेरे ऊपर प्राण खोने को उपस्थित हैं और मुझको अपने प्राणोंसे भी अधिक चाहते हैं साधु बोले, यह बात सब झूँठ है, लडकेने कहा मेरी बात झूँठ हो सक्ती है? साधु बोले कि, अच्छा आज तू घर जाकर बीमार बनकर पड रह फिर तू सबकी परीक्षा कर लेना और तुझको झूँठ सत्य सब प्रत्यक्ष दिखादेंगे. उस द्विजपुत्रने वैसाही किया, तबतो वैद्यों के उपाय और अनेकप्रकार के यंत्र मंत्र बडे बडे दान पुण्य होने लगे, तब तो ब्राह्मण के बेटेने कहा कि, अब उन महात्मा पुरुषको बुलाना चाहिये जो कहते थे कि, न कोई माता है, न पिता है तब उसने उन महात्माको बुलाया और जैसे रुपैयों को कैंकरीकर दिया था वह सब दिखाया कि देखो मेरे माता पिता कितना रुपैया खर्च कर रहे हैं. साधु बोले कि, यह लडका मरजायगा तबउसके माता पिता बोले कि, किसी प्रकार यह अच्छा भी होगा! साधु बोले कि, एक उपाय है तीनबार इसके ऊपर दूध उतारा जाय जो उसको पियेगा वह तो मरजायगा परन्तु यह अच्छा हो जायगा। तुम आपस में सम्मत करलोकि, उस दूधको कौन पियेगा, अब तो सबको दिनमें तारे दींखने लगे और एककी ओरको एक देखने लगा परन्तु किसीने इस बातको अंगीकार न किया कि दूध मैंपिऊगा और सबने अपने अपने प्राणों की रक्षा करनी चाही तब बाबाजीने कहा कि, बच्चा! देख कोई नहीं पीता तो इस दूधको हम पियेंगे ससार में कोई किसीका नहीं सब अपने अपने प्राणों के रक्षक हैं॥

इसलिये हे राजा परीक्षित्! देहधारियोंको जितना अपने आत्मामें प्यार है उतना ममताके स्थान अपने पुत्र, धन, घर आदि लेकर जो वस्तु हैं उनमें नहीं है॥५१॥ हे क्षत्रिवंशोत्तम राजा परीक्षित्! जो पुरुष देहको आत्मा कहते हैं उनको भी देह अत्यन्त प्रिय है और जो देहके अनुवर्ती स्त्री पुत्र धन आदिक हैं वह देहकी समान प्यारे नहीं लगते॥५२॥ और देहको भी इस प्रकार मान ले कि, यह मेरा देह है, अर्थात् यह देह जब ममताका स्थान होजाता है तब यह देह आत्माकी समान प्यारा नहीं रहता.क्योंकि जिस समय यह देह जीर्ण होजाता है अर्थात् अब यह देह किसी प्रकार

तद्राजेंद्र यथा स्नेहः स्वस्वकात्मनि देहिनाम्॥ न तथा ममतालंबिपुत्रवित्तगृहादिषु॥५१॥ देहात्मवादिनां पुंसामपि राजन्यसत्तम॥ यथा देहः प्रियतमस्तथा न ह्यनुये च तम्॥५२॥ देहोऽपि ममताभाक् चेत्तर्ह्यसौ नात्मवत्प्रियः॥ यज्जीर्यत्यपि देहेऽस्मिञ्जीविताशा बलीयसी॥५३॥ तस्मात्प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्॥ तदर्थमेव सकलं जगच्चैतच्चराचरम्॥५४॥ कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्॥ जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया॥५५॥ वस्तुतो जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु चरिष्णु च॥ भगवद्रूपमखिलं नान्यद्वस्त्विह किंचन॥५६॥

स्थिर न रहैगा तौभी जीनेकी आशा बलवान् रहती है कि, किसी उपायसे दोचार दिन और वच रहूँ॥५३॥ इस बात से यह निश्चय होता है कि, सब देहधारियों को अपना आत्माही अधिक प्यारा है, उस आत्माही के लिये, सब स्थावर जंगम आदि संसारपर जो प्रीति होती है सो सब आत्माहीकाकारण है॥५४॥ हे राजन्! सब प्राणियोंके आत्मा जगत् के कल्याण करने के लिये मनुष्य देह धारण कर अपनी मायासे प्रकाश करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दही हैं, इस कारण उनपर प्रेम होना सम्भव है॥५५॥ यही न समझना कि, श्रीकृष्णचन्द्र केवल

देहधारियोंहीके आत्मा हैं, नहीं वह सब जड पदार्थों के भी आत्मा हैं वास्तवमें इस सब विश्वके आदिकारण श्रीकृष्णचन्द्रही हैं, इस प्रकार माननें वाले पुरुषों को सब स्थावर जंगम में भगवान्काही रूप भासै है कोई वस्तु इस संसार में भगवान् से भिन्न नहीं है॥५६॥ समस्त पदार्थों को परमार्थरूप से विचारकर देखिये तो कोई भी वस्तु अपने अपने कारणों से पृथक् नहीं है और जो जो कारण हैं वह भगवान् सेपृथक् नहीं, इससे सिद्ध हुआ कि, कारणों के भी मुख्य कारण श्रीकृष्णभगवान् हैं फिर कौनसी वस्तु श्रीकृष्णसे पृथक् रही तुमही बताओ!॥५७॥ पवित्र वंश निर्मल कीर्तिवाले श्रीकृष्ण भगवान् के चरण कमल रूप नौका जो परमप्रेमी सज्जनोंका आश्रय है जो पुरुष उन चरणारविन्दरूपी नौकाका आश्रय

सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः॥ तस्यापि भगवान्कृष्णः किमतद्वस्तु रूप्यताम्॥५७॥ समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः॥ भवांबुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यद्विपदां न तेषाम्॥५८॥ एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ यत्कौमारे हरिकृतं पौगंडे परिकीर्तितम्॥५९॥ एतत्सुहृद्भिश्चरितं मुरारेरघार्दनं शाद्वलजेमनं च॥ व्यक्तेतरद्रूपमजोर्वभिष्टवं शृण्वन्गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्॥६०॥

करते हैं, उनको संसाररूपी समुद्र बछरेके खुरके जलकी समान है और परम धामका उनको वास मिलता है कभी कोई विपत्ति नहीं होती॥५८॥ जो जो लीला भगवान् ब्रजविहारीने पांच वर्षकी अवस्था में की; सो बालकों ने पौगण्ड अवस्था में अपने अपने घर आन कही, उसका कारण जो तुमनेहमसे बूझा सो सम्पूर्ण हमने तुम्हारे सामने वर्णन किया॥५९॥ मुर नाम दैत्यके शत्रु श्रीकृष्णचन्द्रने मित्रोंके संग यह चरित्र किया अघासुरको मारा यमुनाकी रेती में ग्वालबालों के साथ भोजन किया जड़ प्रपञ्चसे भिन्न शुद्ध सत्त्वगुणीरूप ब्रह्मा को दिखाया बछरे और ग्वालबालों का तद्वत् रूप धारण किया ब्रह्माने प्रेममय हो बड़ी स्तुति की, इस अद्भुत चरित्रको जो कोई मनुष्य कहेगा अथवा सुनेगा उस पुरुष के सब पुरुषार्थ सफल होंगे और

श्रीकृष्णचन्द्र में पूर्ण भक्ति होगी॥६०॥ इसप्रकार आँखमिचौनी के खेलमें ठौर ठौर छिपना, नदियों के पुल बाँधने, बन्दरकी समान वृक्षोंपर चढना और कूदना और अनेक अनेक प्रकार के बाल्यावस्थाके और कौमार अवस्था के श्रीकृष्ण और बलदेवजीने विहारकर के कौमार अवस्था पूर्ण करी॥६१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा—पन्द्रह में धेनुक हनो, लीनी गाय बचाय। मित्रनको आनँद दियो, धन धन श्रीयदुराय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब कौमार अवस्था व्यतीत हुई और पौगण्ड अवस्थाका आरम्भ हुआ तब व्रजमें गाय चरानेके योग्य कृष्ण बलदेव दोनों भाई हुए तब ग्वाल बालों को साथ ले श्रीव्रजनाथने वृन्दावनको अपने कोमल चरण कमलसे अत्यन्त पवित्र किया॥१॥ मधुवंशके प्रकट होनेवाले श्रीश्यामसुन्दर बाँके विहारी कृष्णचन्द्र अपने यश गानेवाले ग्वाल

एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे॥ निलायनैः सेतुबंधैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः॥६१॥ इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ ततश्च पौगंडवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसंमतौ॥ गाश्चारयंतौ सखिभिः समं पदैर्वृंदावनं पुण्यमतीव चक्रतुः॥१॥ तन्माधवो वेणुमुदीरयन्वृतोगोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः॥ पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम्॥२॥ तन्मंजुघोषालिमृगद्विजाकुलं महन्मनः प्रख्यपयस्सरस्वता॥ वातेन जुष्टं शतपत्रगंधिना निरीक्ष्य रंतुं भगवान्मनो दधे॥३॥ स तत्रतत्रारुणपल्लवश्रिया फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः॥ स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदा स्मयन्निवाहाग्रजमादिपुरुषः॥४॥

बालों को संग लेकर बलदेव भ्राता सहित बाँसुरी बजाते, बछरों को कुदाते गायों को आगे आगे कर, क्रीड़ा करने के मनोरथ से पशु हितकारी अनेक प्रकारकी फुलवारी जहां फूल रहीं उस वृन्दावन में विहार करने के लिये गये सो वृन्दावन कैसा है॥२॥ मधुर मधुर वाणीवाले भौरे, मृग, अनेक प्रकारके पक्षी जहाँवास करैं, महत्पुरुषोंके मनकी सदृश निर्मल जलसे सुंदर सरोवर भरे हुए, जिनका स्पर्श करके कमल कमलिनी नित्य प्रफुल्लित रहते हैं उनकी सुगन्धयुक्त पवन दिनरात चलती रहती है, ऐसे मनोहर वृन्दावनको देखकर श्रीकृष्ण भगवान्ने विहार करनेकी इच्छाकी॥३॥ जहाँ तहाँ अरुण वर्णके पल्लव निकल रहे हैं उनकी अद्भुत शोभा होरही है फल फूलोके भारसे झुकके जिनकी शाखाओंके अग्रभाग चरणों में लग रहेथे ऐसे ऐसे सुन्दर

वृक्षों को देखकर परमानन्दितहोमुसकायके आदिपुरुष श्रीकृष्णचन्द्रने अपने बडे भ्राता बलदेवजीसे कहा॥४॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे देवताओंमें श्रेष्ठ बलदेवजी! देखो यह बडा आश्चर्य है! यह वृन्दावन के वृक्षदेवताओं के पूजने योग्य अपने पापोंके नाश करने के लिये मौन साध आपके चरणारविन्दोंको फल फूल भेंटले लेकर अपनी शाखाओंसे झुक झुक कर प्रमाण करते हैं किसलिये कि, जिस अज्ञानसे हमारा वृक्षजन्म हुवा है वह अज्ञान दूर होजाय इसलिये झुकेहैं॥५॥ हे आदिपुरुष! सब लोकोंका पवित्र करने वाला आपका यश है उसको निरन्तर यह भौरे गान कर करके आपका भजन करते हैं.ऐसा जान पडता है कि, यह भौंरे आपके मुख्य भक्त मुनिजन हैं? हे पापरहित! आप अपने दैवतरूपको छिपाये मनुजवेष बनाये

श्रीभगवानुवाच॥ अहो अमी देववरामरार्चितं पादांबुजं ते सुमनःफलार्हणम्॥ नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहृत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥५॥ एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं गायंत आदिपुरुषानुपदं भजंते॥ प्रायो अमीमुनिगणा भवदीयमुख्या गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम्॥६॥ नृत्यंत्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन॥ सूक्तैश्च कोकिलगणा गृहमागताय धन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः॥७॥ धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः॥ नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकैर्गोप्योंतरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः॥८॥

इन ग्वालबालों में क्रीडा कर रहेहो तो यह मुनि भी भौरे के रूपसे गुप्त होकर आपकी सेवा और भजन करते हैं. हे सर्वात्मन्! इन्होंने यहां भी आपका पीछा नहीं छोडा॥६॥ हे स्तुतिकरनेयोग्य! देखो? यह मोर आपके समीप कैसा सुन्दर नृत्य कररहे हैं और यह हरिणी गोपियोंकी नाईं चितवन सेभोली भोली सूरत बनाये आपके ऊपर कैसा प्यार कररही हैं और देखो यह कोकिलाओं के समूह कैसी कैसी मधुरवाणी से शुश्रूषा कररहे हैं यह वनवासी भी धन्य हैं क्योंकि अच्छे पुरुषोंका यही स्वभाव है जो कोई अतिथि अपने घर आवै तो जो कुछ अपने पास फल फूल होय सो उनकी भेंट करै॥७॥ आज यह भूमि, तृण, लता आपके चरणारविन्दों को स्पर्श करके आनन्दपावैहै, धन्य हैं नदी, पर्वत, पक्षी वन के

पशु भी धन्य हैं जो आप दयापूर्वक चितवन करैंहैं जिस वक्षस्थल की लक्ष्मी इच्छा करती हैं उसका स्पर्श गोपियों को होता है, इसलिये यह भी धन्य हैं॥८॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलमुकुटमणि! ऐसी अद्भुतवृन्दावन की शोभा देख प्रसन्नमन श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतके समीप यमुना नदी के तीरपर गायन को चराते ग्वालबालों के संग विहार करते थे॥९॥ मदोन्मत्त भौरे जिस समय गुंजार करते थे, तब वनमाल पहिरे बलदेवजी के साथ श्रीकृष्ण आप भी उनके स्वरमें स्वर मिलाकर गाते थे॥१०॥ कभी राजहंसोंकी मधुरवाणी सुन उनके संग वैसी ही मधुरवाणी बोलते थे, कभी अपने साथी मित्रोंको हँसाने के लिये मोरोंको नाचता देखकर उनके सन्सुख आप भी जामा फैलायके नाचते थे॥११॥

श्रीशुक उवाच॥ एवं वृंदावनं श्रीमत्प्रीतः प्रीतमनाः पशून्॥ रेमे संचारयन्नद्रेः सरिद्रोधस्सु सानुगः॥९॥ क्वचिद्गायति गायत्सु मदांधालिष्वनुव्रतैः॥ उपगीयमानचरितः स्रग्वी संकर्षणान्वितः॥१०॥ क्वचिच्च कलहंसानामनुकूजति कूजितम्। अभिनृत्यति नृत्यंतं बर्हिणं हासयन्क्वचित्॥११॥ मेघगंभीरया वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्॥ क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया॥१२॥ चकोरक्रौंचचक्राह्वभारद्वाजांश्च बर्हिणः॥ अनुरौति स्म सत्त्वानां भीतवव्द्याघ्रसिंहयोः॥१३॥ क्वचित्क्रीडापरिश्रांतं गोपोत्संगोपबर्हणम्॥ स्वयं विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः॥१४॥ नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः॥ गृहीतहस्तौ गोपालान्हसंतौ प्रशशंसतुः॥१५॥

कभी जो कोई गाय चरती २ दूर निकलजाय तो मेघ की समान गम्भीर शब्द से प्रसन्न हो उनके नाम लेलेकर बुलाते थे॥१२॥ कभी चकयी, चकोर, क्रौञ्च, चकवा, भारद्वाज चातक, कीर, कपोत, सारिका, मोर उनके शब्द सुन आप भी उसी प्रकार का शब्द उच्चारण करते थे कभी व्याघ्र, सिंहको देख डरकर और पशु भागते, वैसे ही गायों को देख भयभीत हो आप भी भागतेथे॥१३॥ किसी समय खेलते खेलते बलदेवजीको परिश्रम हो जाता तब किसी मित्र की गोदी में शिरधर उसकी जंघाका तकिया बनाकर सो जाते, तब श्रीकृष्णचन्द्र आप उनके चरण दबाय पंखा करके उनकी थकावट दूर करते थे***** ॥१४॥ किसी समय कृष्ण बलदेव परस्पर अद्भुत रीति से नृत्य करते, गाते,
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* शंका— श्रीकृष्णने विष्णु भगवान् होकर अपने अंश शेषजी को अपने से बडा क्यों किया? उलटा श्रीकृष्ण का बलदेवजी को सेवन करना पडा?

कूदते, लडते, भिडते और फिर ग्वालबालों की भुजा पकड हँसकर कृष्ण बलदेव दोनों भाई कहते देखो कैसा नाच नाचा कैसा गाना गाया, इस प्रकार अपनी अपनी बड़ाई करते थे॥१५॥ किसी समय मल्लयुद्ध करते करते जब हार जाते तबश्रीकृष्ण वृक्ष की जड के सहारे से, पत्तोंकी शय्यापर गोपों की गोदी का तकिया बनाकर सो जाते थे॥१६॥ हे राजन्! कोई ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दाबते, कोई पापरहित ग्वाल बाल पत्तोंके और पुष्पों के पंखे बनाकर श्यामसुन्दर के बयार करते थे॥१७॥ कोई ग्वाल स्नेहभरी बुद्धिसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र की नींद किसी प्रकार न

क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धश्रमकर्शितः॥ वृक्षमूलाश्रयः शेते गोपोत्संगोपबर्हणः॥१६॥ पादसंवाहनं चक्रुः क्वचित्तस्य महात्मनः॥ अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन्॥१७॥ अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः॥ गायंतिस्म महाराज स्नेहल्किन्नधियः शनैः॥१८॥ एवं निगूढात्मगतिः स्वमायया गोपात्मजत्वं चरितैर्विडंवयन्॥ रेमेरमालालितपादपल्लवो ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः॥१९॥ श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा॥ सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन्॥२०॥ रामराम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिवर्हण॥ इतोऽविदूरे सुमहद्वनं तालालिसंकुलम्॥२१॥

उचट जाय इससे ऐसे ऐसे मनोहर मलारोके पद सहज सहजमें गाते थे॥१८॥ इसप्रकार अपनी मायासे अपना ईश्वररूप छिपाये नई २ लीला करके गोपों के बालकों कोअनुकरण करते; लक्ष्मी जिनके चरणोंमें लोटें वह श्रीकृष्ण सुखधाम ग्राम के रहने वाले व्रजवासियों के संग उनकी इच्छानुसार खेल खेलते थे. बीच बीच में कभी ईश्वरपनकीभी लीला दिखला देते थे॥१९॥ बलराम और श्याम सुंदर के मित्र श्रीदामा नाम गोप, सुबल, स्तोक, कृष्णादिक गोप प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे॥२०॥ हे राम! हे राम! हे दीर्घबाहो! दुष्टों के दलन करने हारे! हे श्रीकृष्ण! यहां से थोड़ीसी दूर पर तालके

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** उत्तर**— त्रेतामें लक्ष्मणजी ने श्रीरामचन्द्रजी की बहुत सेवा की थी और बिना रामचन्द्रकी आज्ञा लक्ष्मणजी ने कोई कार्य नहीं किया, तबरघुनाथजी ने प्रसन्न होकर लक्ष्मण को वरदान दिया कि, हे भैया लक्ष्मण! द्वापर में हम तुमको अपना बडा भाई बनाकर हम तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम्हारा नाम बलदेव होगा और हमारा नाम विपिनविहारी होगा, इसलिये शेषजी विष्णु से वडे हुए ॥

वृक्षों का एक बडा गम्भीर वन है॥२१॥ उस तालवन में बहुत से तालन के फल वृक्षों के नीचे टूटे पडे हैं और भी टूट टूटकर बहुत से गिरते हैंपरन्तु धेनुकासुर दैत्य वहां रहता है उसने वह फल वहां रोक रक्खे हैं, न वह आप खाताहै और न किसी दूसरे को खाने देता है॥२२॥ हे राम हे कृष्ण वह दैत्य बडा पराक्रमी और बलशाली है सदा गधेका रूप धारण किये रहता है और उसके समीप उसीके समान बडे बडे योद्धा उसीकी जाति के बहुत से असुर उसके संग रहते हैं और उनके बीच में वह मंडली बनाये बैठा रहता है॥२३॥ हे दुष्टदमन! वह दुष्ठजहां कहीं मनुष्यको देखता है उसको खाजाता है, इस डरसे कोई मनुष्य उस वन में नहीं जाता और पशु पक्षियों ने भी उसके भय के मारे वह वन छोडदिया है॥२४॥

फलानि तत्र भूरीणि पतितानि पतंति च॥ संति किं त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना॥२२॥ सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्॥ आत्मतुल्यवलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः॥२३॥ तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्॥ न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसंघैर्विवर्जितम्॥२४॥ विद्यंतेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च॥ एष वै सुरभिर्गंधो विषू चीनोऽवगृह्यते॥२५॥ प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गंधलोभितचेतसाम्॥ वांछास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते॥२६॥ एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया॥ प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतो तालवनं प्रभू॥२७॥ बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्संपरिकंपयन्॥फलानि पातयामास मतंगज इवौजसा॥२८॥ फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः॥ अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकंपयन्॥२९॥

आजतक किसीने नहीं खाये ऐसे सुगन्धित और मधुर फल वहां हैं, न मानो तो चारों ओर उनकी सुगंध फैल रही है सूंघ केदेखलो॥२५॥ हे कृष्णचन्द्र! उनकी सुगंध से हमारे मन लुभायगये हैं तुम वह फल लाकर हमको दो उन फलों के खाने की हमारी बडी इच्छा है, जो आपकी भी इच्छा हो तो उस वनको चलैं॥२६॥ इस प्रकार मित्रों के वचन सुन उनको प्रसन्न करने के लिये सब मित्रोंको अपने संग ले दोनों भाई हँसकर ताल वनको चलदिये॥२७॥ वहां जाकर बलदेवजी ने ताल बजाकर हाथसे ताल के वृक्षों को हिलाया तो फलोंके ढेर के ढेर पृथ्वी के पर हो गये, जैसे मतवाला हाथी वृक्षों को हिलाकर फलों के ढेर के ढेर नीचे डाल देता है॥२८॥ पृथ्वीपर फलों के गिरने का शब्द सुनकर

वह गर्दभरूप धेनुकासुर पर्वतों समेत पृथ्वीको कम्पायमान करता दौडकर बलरामजीके सन्मुख आया॥२९॥ उस महाबलवान् धेनुकासुर ने शीघ्रता से आनकर दोनों पिछले पावों से बलदेवजीके हृदय में एक दुलत्ती मारी और गम्भीर शब्दसे रैंकने लगा॥३०॥ हे राजन्! क्रोधमें भरकर धेनुकासुरने फिर आनकर मुख फेर बलदेवजीके पिछले पावोंकी एक दुलत्ती और मारी॥३१॥ तब तो बलदेवजी ने उसकी दोनों टाँगे एक हाथ से पकड कर ऐसे घुमाया जैसे लडके गोफना घुमाते हैं जब उसके प्राण निकल गये तो फिर फिराकर एक तालके वृक्षके ऊपर फेंक दिया॥३२॥ हे राजन्! जब धेनुकासुरको वृक्षपर फेंका तो उसके फेंकनेसे वह अत्यन्त भारी तालका वृक्ष टूटकर पृथ्वीपर गिरगया, उसके गिरनेसे

समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली॥ निहत्योरसि काशब्दं मुंचन्पर्यसरत्खलः॥३०॥ पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः॥ चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा॥३१॥ स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना॥ चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम्॥३२॥ तेनाऽऽहतो महातालो वेपमानो महाशिराः॥ पार्श्वस्थं कंपयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम्॥३३॥ वलस्य लीलयोत्सृष्टखरदेहहताहताः॥ तालाश्चकंपिरे सर्वे महावातेरिता इव॥३४॥ नैतच्चित्रं भगवति ह्यनंते जगदीश्वरे॥ ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तंतुष्वंग यथा पटः॥३५॥ ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये॥ क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबांधवाः॥३६॥तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृपलीलया॥ गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु॥३७॥

चारों ओरके वृक्ष टूट टूट कर पृथ्वीपर गिर गये, एककी चपेट से एक, इस प्रकार अनेक वृक्षोंका चूरा हो गया॥३३॥ बलदेवजी ने लीला करके जो धेनुकासुरको वृक्षपर फेंका तो उस गर्दभ देहकी चपेट से सर्वत्र ताल वनके वृक्ष काँपने लगे, जैसे महावेगकी आँधीसे सब पृथ्वी तलके वृक्ष कम्पायमान हो जाते हैं॥३४॥ बलदेवजीके इस पराक्रम करने में कोई आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि वह अनन्त और जगदीश्वर हैं और यह विश्व उनमें ओतप्रोत होता रहता हैं जैसे वस्त्रके ताने बानेमें ओतप्रोत होता रहता है॥३५॥ जब धेनुकासुर मरगया, तब उसके भाई बन्धु जातिवाले सब गधे क्रोधित होकर श्रीकृष्ण बलदेवके ऊपरको झपटे॥३६॥ हे राजन्! श्रीकृष्ण बलदेव दोनों भाइयों के सामने जो जो गधे आये,

उनकी टाँगें पकड़ पकड़ घुमाय घुमाय वृक्षोंके ऊपर फेंक दिये॥३७॥ उस कालमें लाल लाल तालके फलोंके समूहसे, श्वेत श्वेत मरेहुए गधोंकी लोथोंसे, हरी हरी तालके वृक्षोंकी शाखाओंसे और काली काली उन वृक्षोंकी जडोंसे, पृथ्वी ऐसी शोभायमान जान पड़ती थी, जैसे लाल, श्वेत, हरी, काली घटाओंसे आकाश शोभायमान दिखाई देता है॥३८॥ ऐसे २ अद्भुत चरित्र कृष्ण बलदेवके देख देख देवतालोग प्रसन्न हो होकर आकाशसे फूलोंकी वर्षा करतेथे और अनेक प्रकारके बाजे बजाय बजाय स्तोत्र पढ़तेथे॥३९॥ जब धेनुकासुर मारागया तो फिर मनुष्य निःसन्देह होकर उन तालवृक्षोंके फलोंको खाने लगे और गायेंभी निर्भय होकर घास चरने लगीं॥४०॥ और अनुचर गोप जिनकी स्तुति करते कमलपत्रसे जिनके विशाल नेत्रोंको देखते और परमपवित्र जिनकी कथा और चरित्रोंको सुनते, सब ग्वाल बाल श्रीकृष्ण बलदेव सहित व्रजमें

फूलप्रकरसंकीर्णा दैत्यदेहैर्गतासुभिः॥ रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम्॥३८॥ तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादयः॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः॥३९॥ अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः॥ तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने॥४०॥ कृष्णः कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः साग्रजो व्रजमाव्रजत्॥४१॥ तं गोरजश्छुरितकुंतलबद्धबर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्॥ वेणुं क्वणंतमनुगैरनुगीतकीर्तिं गोप्योदिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन्समेताः॥४२॥ पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृंगैस्तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि॥ तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्ठंसव्रीडहासविनयं यदपांगमोक्षम्॥४३॥ तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयोः पुत्रवत्सले॥ यथाकामं यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः॥४४॥

आये॥४१॥ गायोंके खुरोंकी जो धूरि उड़ती थी उसके पड़नेसे जिनके केश धूसर वर्ण हो रहे हैं, मोरपुच्छोंके मुकुट शीशपर धारण कर रहेहैं, वनके पुष्पोंके तुरें कानोंमें लटक रहे हैं, तिरछी चितवनसे मनोहर मुसकानसे, इधर उधरको देखते, बाँसुरी बजाते, ग्वालबाल जिनका यश गाते, उन श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दके देखनेके लिये सब गोपी जुड़ मिलकर आईं॥४२॥ व्रजबालाओंने नेत्ररूपी भौरोंकी श्रीकृष्ण चन्द्रके मुखकमलके रससे दिन दिनकी तृष्णा और श्यामसुंदरके विरहकी तापको शान्त करके लाज भरी मुसकानसे और कटाक्ष भरी चित वनसे जो आदर सन्मान किया उसको स्वीकार करके व्रजमें आये॥४३॥ पुत्रोंमें जिनका परमस्नेह वह यशोदा और रोहिणी अपने

पुत्रोंकी इच्छानुसार सब पदार्थ उपस्थित रखती थीं॥४४॥ व्रजविहारीने व्रजमें आनकर उवटन स्नान किया तो मार्गका सबश्रम दूर होगया उस समय दोनों भाइयोंने सुन्दर सुन्दर पीताम्बर पहिर सुगन्धित पुष्पोंकी माला कण्ठमें धारण कर चन्दन चोवा लगाकर॥४५॥ जो निश्चिंत हुए तो बड़े प्रेम प्रीतिसे माता माखन, मिश्री, मिष्टान्न और षड्रसभोजन परोसकर लाई, उसको बड़ी प्रीतिसे भोग लगाया और आनन्दपूर्वक सुन्दर शय्यापर जाकर शयन करने लगे॥१६॥ हे राजन्! इस प्रकार वृन्दावनविहारी भक्तनहितकारी श्रीकृष्णभगवान् नित्य प्रति वृन्दावनमें विहार किया करते थे. एक दिन विना वलरामको संग लिये अकेलेही ग्वाल बालोंको साथ ले यमुनाके तीरपर धेनु चराने

गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः॥ नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यस्रग्गंधमंडितौ॥४५॥ जनन्युपहृतं प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ॥ संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे॥४६॥ एवं स भगवान्कृष्णो वृंदावनचरः क्वचित्॥ ययौ राममृते राजन्कालिंदीं सखिभिर्वृतः॥४७॥ अथ गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः॥ दुष्टं जलं पपुस्तस्या स्तृषार्ता विषदूषितम्॥४८॥ विषांभस्तदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतसः॥ निपेतुर्व्यसवः सर्वे सलिलांते कुरूद्वह॥४९॥ वीक्ष्य तान्वै तथाभूतान्कृणो योगेश्वरेश्वरः॥ ईक्षयाऽमृतवर्षिण्या स्वनाथान्समजीवयत्॥५०॥ ते संप्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलांतिकात्॥ आसन्सुविस्मिताः सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम्॥५१॥

गये॥४७॥ मार्गमें ग्रीष्मकी धूपसे अत्यन्त व्याकुल होकर गाय और ग्वालबाल बहुत तृषित हुए, तब सब प्यासके मारे कालीदहमें जाय विषसे दूषित यमुनाजीका जल पिया॥४८॥ हे राजन्! उस जहरीले जलके पीनेसे ऐसे अचेत हुये कि, तन मनकी कुछ सुधि बुद्धि न रही, मृतककी समान निष्प्राण हो, मुरझाकर यमुनाके किनारे पर गिरगये॥४९॥ योगेश्वरोंके ईश्वर श्रीकृष्ण भगवान् अपने मित्र ग्वाल बाल और गायोंको मूर्च्छित देख, अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टिसे देखकर सबको जिला दिया॥५०॥ जब सब गायें और ग्वालबाल जी उठे और श्रीकृष्णको अपने सन्मुख खड़ा देखा, और बडे आश्चर्यसे परस्पर देखने लगे॥५१ ॥

और श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी पूर्णानुकंपासे फिर जीवित हुये जान परमानन्द मानने लगे॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वर्धेभाषाटीकायां धेनुकासुरवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा— इस सोरह अध्यायमें, कालीदहमें जाय॥ नाथो कालीनाग को, पीछे करी सहाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! कालिन्दीको कालियसर्पके विषसे बिगरी देखकर प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रने यमुनाके जलको शुद्ध करनेके लिये उस कालिय सर्पको वहाँसे निकालदिया॥१॥ राजा परीक्षित् ने बूझा कि हे ब्रह्मन्! भगवान् नेमहागम्भीर जलके भीतर कैसे कालिय नागको दण्ड दिया और वह किसकारण कालिन्दीके महागम्भीर जलमें वास करता था सो कृपाकर विस्तार सहित वर्णन

अन्वमंसत तद्राजन्गोविंदानुग्रहेक्षितम्॥ पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते म० दशमस्कंधे पू० धेनुकासुरवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ श्रीशुक उवाच॥ विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः॥ तस्या विशुद्धिमन्विच्छन्सर्पं तमुदवासयत्॥१॥ राजोवाच॥ कथमंतर्जलेऽगाधे न्यगृह्णाद्भगवानहिम्॥ स वै बहुयुगावासं यथाऽऽसीद्विप्र कथ्यताम्॥२॥ ब्रह्मन्भगवतस्तस्य भूम्नः स्वच्छंदवर्तिनः॥ गोपालोदारचरितं कस्तृप्येतामृतं जुषन्॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कालिंद्यां कालियस्यासीद्ध्रदः कश्चिद्विषाग्निना॥ श्रप्यमाणपया यस्मिन्पतंत्युपरिगाः खगाः॥४॥ विप्रुष्मता विषोदोर्मिमारुतेनाभिमर्शिताः॥ म्रियंते तीरगा यस्य प्राणिनः स्थिरजंगमाः॥५॥

कीजिये!॥२॥ हे ब्रह्मन्! श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द स्वच्छन्दविहारी जो अपने भक्तोंको दिखाने के लिये अनेक अनेक प्रकारके चरित्र करते हैं सो उन भक्तभावन भगवान् गोपालनादिक परमोदार प्राणाधार चरित्रामृतके श्रवणद्वारा पान करनेसे कौन पुरुष तृप्त हो सक्ता है?॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, कालिन्दी (यमुना) में कालीनागका एक कुण्ड था, जिसमें विषकी अग्निसे नित्य जल औटता रहता था और आकाश के उड़नेवाले पक्षी उस गरलकी तापसे जलकर उस जलमें गिर पड़ते थे॥४॥ और उस विषैले जलकी लहरोंके जलकणोंसे मिली पवन जो चलतीथी उसके लगनेसे किनारेके वृक्ष और घास सूख जाती थी और जो जीव उस कुण्डके तटपर भूलसे चले जाते तो उसीसमय उस जलकी

झलसे जलकर तड़फ तड़फ मरजाते थे॥५॥ श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मनमें कहा कि, इस कुण्डमें ऐसे विषशाली सर्पका रहना अत्यन्त दुःखदायक है, क्योंकि जो कोई पशु पक्षी वा पुरुष इस जलको पीताहै वह एक क्षणभरभी नहीं जीता, उसीसमय अकुलाकर मर जाताहै और दूसरे यमुनाके जलको दोष लगाता है, इसलिये ऐसा दुष्टका यहाँसे निकालनाही अच्छाहै, क्योंकि जो यह यहां रहा तो लाखों जीवोंकी हत्या करेगा, जिसके विषकी लपटसे चार कोशतक जल भडकता रहता है, ऐसा कोई सामर्थ्यवान् नहीं जो उस कुण्डके पास जासके जब इस प्रकार श्रीकृष्ण विचार विषके अभिमानी कालिय नागको देखकर और उसके विषसे बिगडीहुई यमुनाको देखकर, दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये जिन्होंने अवतार लिया है, वे श्रीकृष्ण महाराज काँछ बाँध पीताम्बरसे कमर कस, उस महाऊँचे कदम्बके रूखसे ताल ठोंककर कालियकुण्डमें कूदपडे॥६॥

तं चंडवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन दुष्टां नदीं च खलसंयमनावतारः॥ कृष्णः कदंबमधिरुह्य ततोऽतितुंगमास्फोट्यगाढरशनो न्यपतद्विषोदे॥६॥ सर्पह्रदः पुरुषसारनिपातवेगसंक्षोभितोरगविषोच्छ्वसितांबुराशिः॥ पर्यक्प्लुतो विषकषायविभीषणोर्मिर्धावधन्नुश्शतमनंतबलस्य किं तत् ॥७॥ तस्य ह्रदे विहरतो भुजदंडघूर्णवार्घोषमंग वरवारणविक्रमस्य॥ आश्रुत्य तत्स्वसदनाभिभवं निरीक्ष्य चक्षुश्श्चवाः समसरत्तदमृष्यमाणः॥८॥ तं प्रेक्षणीयसुकुमारघनावदातं श्रीवत्सपीतवसनं स्मितसुंदरास्यम्॥ क्रीडंतमप्रतिभयं कमलोदरांघ्रिं संदश्य मर्मसु रुषा भुजया चच्छाद॥९॥

पुरुषोत्तम भगवान् जिस समय जलमें कूदे उस समय उनके भारके झटकेसे और सर्पके गरलकी गर्मीसे कालियदहका जल बहुत ऊपरको उछला और विषकी लपटोंके प्रभावसे अत्यन्त खारी और महाभयानक तरलतरंगें जलमें उठने लगीं और चारों ओरसे यमुनाका जल सौ सौ धनुषतक फैलगया, भगवान्‌का अनन्त बल है, इस कार्यमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥७॥ हे राजन्! महाबलवान् हाथीके समान जिनका पुरुषार्थ जिस समय कालियदहमें जाकर गिरे, उस समय बलशाली भगवान् के भुजदण्डसे ताडित जल शब्दको सुनकर और श्रीकृष्णसे अपने घरका विनाश समझकर कालीनाग अपने मनमें कहने लगा कि, ऐसा कौन बलवान् हैजो मेरे घरमें आनकर धूम मचा रहाहै, जब उससे न सहारागया तब झट झपट श्रीकृष्णके सन्मुख धाया॥८॥ दर्शन करनेके योग्य, सुन्दरस्वरूप, सुकुमार अवस्था, मेघवर्ण, हृदय में भृगुलताका चिह्न

विराजमान, पीतवसन धारण किये, मन्दहास्य सहित जिनका मुखारविन्द, निर्मल खिलेहुये कमलसे जिनके पदपंकज, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान् को निश्शंक उस विषैले जलमें विहार करता देख, अत्यन्त क्रोधित हो बक्षस्थलमें डसनेको दौडा परन्तु उस मोहनीमूर्तिको निहारकर मोहित होगया॥९॥ श्रीकृष्णके देहमें सर्प लिपटाहुआ देखकर सब प्यारे मित्र ग्वालबालक सब दुःखित हुये तथा श्रीकृष्णचन्द्रमें देह मित्र, धन, स्त्री समस्त कामना जिनमें अर्पण करदी और दुःख शोक भयसे सुधि बुद्धि बिसार वे गोप पृथ्वीमें पछार खायके गिरतेभये॥१०॥ गाय, बैल, वत्स, छोटी छोटी बछियें, महा दुःखी होकर रम्भाने लगीं और टकटकी बाँधकर मनमोहन प्यारेकी ओर देखने लगीं और डरके मारे ऐसे सुस्त

तन्नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्टमालोक्य तत्प्रियसखाः पशुपा भृशार्ताः॥ कृष्णेऽर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा दुःखानुशोकभयमूढधियो निपेतुः॥१०॥ गावो वृषा वत्सतर्यः क्रंदमानाः सुदुःखिताः॥ कृष्णे न्यस्तेक्षणा भीता रुदंत्य इव तस्थिरे॥११॥ अथ व्रजे महोत्पातास्त्रिविधा ह्यतिदारुणाः॥ उत्पेतुर्भुवि दिव्यात्मान्यासन्नभयशंसिनः॥१२॥ तानालक्ष्य भयोद्विग्ना गोपा नंदपुरोगमाः॥ विना रामेण गाः कृष्णं ज्ञात्वा चारतितुं गतम्॥१३॥ तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं मत्वा प्राप्तमतद्विदः॥ तत्प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुराः॥१४॥ आबालवृद्धवनिताः सर्वेंग पशुवृत्तयः॥ निर्जग्मुर्गोकुलाद्दीनाः कृष्णदर्शनलालसाः॥१५॥

होरहे थे मानों रोरहे हैं॥११॥ अनन्तर व्रजमें बडे २ तीन प्रकारके उत्पात हुये जैसे धरती कँपनेलगी, आकाशसे तारे छूटने लगे पुरुषोंकी बाईं भुजा और बाईं आँख फडकने लगे ऐसे शीघ्र भय जतानेवाले उत्पात होनेलगे॥१२॥ नन्दप्रभृति उन उत्पातोंको देखकर अत्यन्त भयभीत हुये कि, आज विना बलदेवको संग लिये कृष्ण अकेले गायें चरानेको गयेहैं॥१३॥ उन खोटे उत्पातोंसे श्रीकृष्णका निधन मानकर और उनके प्रभावको कुछ न जानकर श्रीकृष्णमें जिनका तन, मन, धन लग रहा था, वह इन कठिन उत्पातोंके भयसे अत्यन्त पीडित हो ऐसे कहने लगे॥१९॥ उस समय नन्द यशोदादिक सबव्रजवासी बाल, वृद्ध, स्त्री, अत्यन्त व्याकुल हो रोते पीटते पशुकी नाईं राम कृष्णके खोजनेको गोकुलसे

बाहर निकले, क्योंकि पूर्ण प्रेमसे जिनके मन श्रीकृष्णमें लग रहेथे॥१५॥ मधुवंशमें उत्पन्न हुये भगवान् बलदेवजी व्रजवासिनको व्याकुल देखके कुछ हँसे और अपने छोटे भैया श्रीकृष्णचन्द्रके अद्भुत प्रभावको जानतेथे। इनके हँसनेसे सबके प्राणबचे, क्योकि, जिसके बडेभैया हँसरहेहैं तब समझगये कि कुछ कुशल है॥१६॥ वह सब व्रजवासी कृष्णप्यारेको ढूँढते ढूँढते मार्गमें कृष्णचन्द्रके चरणचिह्न देखे, उन चरण चिह्नोंको देखकर सब पुकार कर कहने लगे कि, देखो भाई और ग्वाल बालोंकेभी चरणचिह्न पृथ्वीपर लग रहेहैं और गाय बछडे भी उनके संगहैं,विदित होताहै कि यमुनाके ओरको गये हैं, यह कह सब व्रजवासियोंने कुछ कुछ धैर्य धारण किया॥१७॥ हेराजन्! वह लोग गायोंके मार्गमें और

तांस्तथाकातरान्वीक्ष्य भगवान्माधवो बलेः॥ प्रहस्य किंचिन्नोवाच प्रभावज्ञोऽनुजस्य सः॥१६॥ तेन्वेषमाणा दयितं कृष्णं सूचितया पदैः॥ भगवल्लक्षणैर्जग्मुः पदव्या यमुनातटम्॥१७॥ ते तत्रतत्राब्जयवांकुशाशनिध्वजोपपन्नानि पदानि विश्पतेः॥ मार्गे गवामन्यपदांतरांतरे निरीक्षमाणा ययुरंगसत्वराः॥१८॥ अंतर्ह्रदे भुजगभो गपरीतमारात्कृष्णं निरीहमुपलभ्य जलाशयांते॥ गोपांश्च मूढधिषाणान्परितः पशूंश्च संक्रंदतः परमकश्मलमापुरार्ताः॥१९॥ गोप्योऽनुरक्तमनसो भगवत्यनंते तत्सौहृदस्मितविलोकगिरः स्मरंत्यः॥ ग्रस्तेऽहिना प्रियतमे भृशदुःखतप्ताः शून्यं प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम्॥२०॥

ग्वालोंके पदोंके बीचमें श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् जगदीश्वरके चरणोंके चिह्न कमल, यव, अंकुश, वज्र, ध्वजाकी रेखा देखते देखते बहुत शीघ्र चले॥१८॥ सब स्त्री, पुरुष कालीदहके किनारे पहुँचे जाकर देखा तो दहके भीतर कालीनाग श्यामसुंदरके शरीर में लिपट रहा है और उनकी चेष्टा विहीन हो रही है, किनारे पर जडबुद्धिहुए ग्वाल बाल पछाड खाये पडे हैं, चारों ओर गाय बछड़े रम्भाते फिरैंहैं, उन सबकी यह दशा देखकर सब महादुःखी हुए॥१९॥ जिन गोपियोंका मन अनन्त भगवान् मेंलय हो रहाहै वह गोपी मनमोहनमें मन लगानेवाली श्रीकृष्णचन्द्रका प्यार, मन्दमुसकान तिरछी चितवन, मधुर वचनोंकी सुधि करके अतिशय प्यारे श्यामसुंदरको सर्पसे

ग्रसितहुआ देखकर अत्यन्त व्याकुल होगई और तीनोलोक सूने

दिखाई देने लगे॥२०॥ पुत्र श्रीकृष्णको दहमें देख यशोदा माता जलमें गिरने चली, तब गोपियां उन्हैंपकड़ अति दुःखित होके आंखोंमें आँसू बहातीं यशोदाकी समान दुःख करतीं, व्रजमें करी हुई भगवान् की प्यारी लीला उनका वर्णन करतीं भगवान् के मुखकी ओर दृष्टि देकर गोपियां मृतकके समान होगईं॥२१॥ श्रीकृष्णचन्द्रमें प्राण लगाये कालिंदीके दहमें पुत्रशोकसे नन्द आदि व्रजवासियोंको दहमें गिरता देख श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले भगवान् बलदेवजी रोकते भये॥२२॥ इस प्रकार गोकुलवासियोकी अनन्य गति देख और उनको कोई छुडानेवाला नहीं यह समझके तथा स्त्री बालकों सहित गोकुलवासी मेरे लिये बहुत दुःखित हैं यह विचारके मनुष्यकी तुल्य लीला करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र

ताः कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टां तुल्यव्यथाः समनुगृह्य शुचः स्रवंत्यः॥ तास्ताः प्रियव्रजकथाः कथयंत्य आसन्कृष्णाननेऽर्पितदृशो मृतकप्रतीकाः॥२१॥ कृष्णप्राणान्निर्विशंतो नंदादीन्वीक्ष्य तं ह्रदम्॥ प्रत्यषेधत्स भगवान्रामः कृष्णानुभाववित्॥२२॥ इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य सस्त्रीकुमारमतिदुःखितमात्महेतोः॥ आज्ञाय मर्त्यपदवीमनुवर्तमानः स्थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरंगबंधात्॥२३॥ तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्मभोगस्त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफणान्भुजंगः॥ तस्थौ श्वसञ्श्वसनरंध्रविषांबरीषस्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाणः॥२४॥ तं जिह्वया द्विशिखया परिलेलिहानं द्वे सृक्किणी ह्यतिकरालविषाग्निदृष्टिम्॥ क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेंद्रो बभ्राम सोऽप्यवसरं प्रसमीक्षमाणः॥२५॥

दो घडीतक उस सर्पके कुंडलीमें रहके फिर उसके बाहर निकलते भये॥२३॥ श्रीकृष्णने अपना इतना देह बढाया कि, उसके अंगके सब बन्द बन्द ढीले होगये, नस नस दुखनेलगीं हड्डियोंके जोड़ जोड़ टूटने लगे, तब तो वह नाग कृष्णचन्द्रको छोड़ महाक्रोधकर फणोंको उठा उठाकर लम्बे लम्बे श्वास लेनेलगा और नथनोंमेंसे विषकी झलैंनिकलनेलगीं, आँखोंके पलक खुलेके खुले रहगये और मुखसे विषानलकी ज्वाला भडकनेलगीं, लकडी की नाईं कृष्णकी ओरको देख रहाथा॥२४॥ दो दो फाँकवाली जिह्वाओंसे अधरोंको क्षण क्षणमें चाट चाटकर क्रोध करता था; उस विकराल विषानलभरी चितवनवाले कालीनागके चारों ओर फिर फिर कर व्रजविहारी विहार करते फिरते थे जैसे गरुड सर्पके चारों ओर फिरताहै और वह

काली भी अपना अवसर देखता हुआ भगवान् केचारों ओर घूमता फिरता था, श्रीकृष्ण अपना दाँव विचारते थे, काली अपना दाँव विचारता था, श्रीकृष्णकी इच्छातो यह कि, मेरा दाँवलगैतो कालीके फणोंपर चढ़करनृत्यकरूँ और कालीके मनमें यह विचार कि, किसीप्रकार एक बारतो वनमाली को फिर लिपट जाऊँ दोनों अपना २ दाँव तक रहेथे॥२५॥ जब फिरते फिरते कालीका पराक्रम घट गया तब कालीके ऊपरको उठेहुये फणोंको नीचे नवाय श्रीकृष्णने झट झपट कर उसका फण पकड चरणतले दाब उसकी नाकमें नाथ डालदीं और उसके शीशपर जा चढे और नाचनेलगे॥२३॥ जिस समय नटनागर नटवरवेष धरकर कालीके फणोंपर नाचनेको खडे हुए, उसको देखनेके लिये गन्धर्व, सिद्ध सुरगण चारण, देवांगना यह सब अत्यन्त प्रसन्न होकर मृदंग ढोलक नगाड़े आदि अनेक प्रकारके बाजे बजाते गीत गाते, पुष्प वर्षाते, भेंटें ले लेकर आये और भगवान् कीस्तुति करने

एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांसमानम्य तत्पृथुशिरस्स्वधिरूढ आद्यः॥ तन्मूर्धरत्ननिकरस्पर्शातिताम्रपादांबुजोऽखिलकलादिगुरुर्ननते॥२६॥ तं नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीयगंधर्वसिद्धसुरचारणदेववध्वः॥ प्रीत्या मृदंगपणवानक वाद्यगीतपुष्पोपहारनुतिभिः सहसोपसेदुः॥२७॥ यद्यच्छिरो न नमतेंग शतैकशीर्ष्णस्तत्तन्ममर्द खलदंडधरोंघ्रिपातैः॥ क्षीणायुषो भ्रमत उल्वणमास्यतोऽसृग्नस्तो वमन्परमकश्मलमाप नागः॥२८॥ तस्याक्षिभिर्गरलमुद्वमतः शिरस्सु यद्यत्समुन्नमति निश्श्वसतोरुषोच्चैः॥नृत्यन्पदाऽनुनमयन्दमयांबभूव पुष्पैः प्रपूजित इवेह पुमान्पुराणः॥२९॥

लगे॥२७॥ हे राजन्! जिस कालीके एक सौ एक मस्तक थे, उसने जो मस्तक ऊपरको उठाया उसको दुष्टदमन श्रीकृष्णचन्द्रने उसीसमय पाँवकी ठोकरसे नीचेको दबादिया और जब वह क्षीण अवस्थावाला इधर उधर घूमने लगा तब मुखसे नासिकासे रुधिरकी धारा निकलने लगीं, शरीरके बन्द ढीले होगये, इस प्रकार कालीको दुष्टदमन भगवान् ने मर्दन किया॥२८॥ तोभी उस काली नागने महाक्रोध करके लम्बे लम्बे श्वास लिये और मुखसे विष उगला और फिर शिर ऊपरको उठाये परन्तु भगवान् शत्रुदमननें नृत्य कर करके चरणोंकी ठोकरोंसे उसके मस्तकोंको नीचेको झुकादिया, उस समय गन्धर्व और देवताओंने अत्यन्त प्रसन्न होकर, शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले नारायणकी समान जानकर

यशोदानन्दन भगवान् की पुष्पोंसे पूजा करी. उससमय व्रजवासियोंको आदिपुरुषकासा दर्शन हुवा॥२९॥ हे राजन्! नटनागर भगवान् नेजोचित्र विचित्र ताण्डव नृत्य किया उससे कालीके फणरूपी छत्र टूट गये और सब शरीरकी नस नस ढीली होगई, मुखसे रुधिर बहनेलगा, तब श्रीकृष्णको स्थावर जंगमका गुरु पुराणपुरुष नारायण समझकर मनसे उनकी शरण ली॥३०॥ समस्त ब्रह्माण्ड जिनके उदरमें विराजमान है ऐसे विश्वभावन भगवान् मुरलीधरने त्रिलोकीका भार अपने देहमें धारणकर कालीके मस्तकपर मुरली बजाय बजाय उछल उछलकर ताण्डवनृत्य किया, उस समय मुरलीमनोहरका कौतुक देखनेके लिये देवता, गन्धर्व, किन्नर, अप्सरादिक अपने अपने विमानोंपर बैठकर आये और अनेक प्रकारके बाजे बजाबजाकर श्रीवैकुण्ठविहारीके उत्तम उत्तम चरित्र गाने लगे, अप्सरायें भाँति भाँति के नृत्य करने लगीं. देवता आकाशसे पुष्प वर्षाने लगे, उस समय देवता गन्धर्व, जो ताल स्वर सहित गाते थे, उसीमें मुरलीमनोहर अपनी मुरलीकी तान मिलाते थे और जब कालीके शिरोंपर ठुमक ठुमक पग

तच्चित्रतांडवविरुग्णफणातपत्रो रक्तं मुखैरुरुवमन्नृप भग्नगात्रः॥ स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं नारायणं तमरणं मनसा जगाम॥३०॥ कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम्॥ दृष्ट्वाऽहिमाद्यमुपसेदुरमुष्य पत्न्य आर्ताः श्लथद्वसनभूषणकेशबंधाः॥३१॥ तास्तं सुविग्नमनसोऽथ पुरस्कृतार्भाः कायंनिधाय भुविभूतपतिं प्रणेमुः॥ साध्व्यः कृतांजलिपुटाः शमलस्य भर्तुर्मो

क्षेप्सवः शरणदं शरणं प्रपन्नाः॥३२॥

धरते थे और नूपुरोंका शब्द सब बाजोमें मिल रहा था उन नूपुरोंकी झनकारकी ध्वनि सुनकर पवन पानी भी बहनेसे बन्द होगये, उससमयका आनन्द वर्णन करनेमें ब्रह्मादिक देवताभी चकित होते हैं, फिर और किसी दूसरेकी क्या सामर्थ्य है जो उस आनन्दका वर्णन करसकै, जब त्रिभुवनपतिने त्रिभुवनका भार कालीके शिरपर रक्खा तब उसके सब अंग शिथिल होगये, मुखोंसे रक्तकी फुहारें निकलने लगीं देह थककर जब मृतक समान होगया और सब अभिमान जाता रहा, उस समय अपने जीवनकी आशा छोड फणोंको पृथ्वीपर पटकने लगा. मस्तक २ पर चरणारविन्दोंके चिह्न होगये, उससमय कालीकी दुर्दशा देख कर वस्त्र आभूषण जिनके अस्तव्यस्त होगये, केश खुलगये, ऐसी कालीकी पत्नियें पतिके शीशोंको छत्रकी समान टूटते देखकर हृदयमें कराघात करती नारायणकी शरण आईं॥३१॥ अत्यन्त व्याकुल जिनके मन अपने अपने छोटे छोटे बच्चोंको

आगे करके नागकी पतिव्रता स्त्रियें अत्यन्त पीडित हो प्रथम पृथ्वीपर पडकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और अपने पतिके पापछुटानेके लिये श्रीकृष्ण भगवान्केचरण शरणमें आईं॥३२॥ नागपत्नियें बोलीं, कि हे नाथ! इस अपराधीको आपने दण्डदिया सो अच्छा किया,क्योंकि आपका अवतार दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये है शत्रु और मित्रको आप एकसा समझते हो, इसीलिये आपका नाम समदर्शी है, दुष्टको विचारकर दण्ड देतेहो और मित्र समझकर उनपर अनुग्रह करते हो, दुष्टोंको दण्ड देते हो यह आपकी कुछ विषमता नहीं है॥३३॥ इस सर्पको आपने दण्ड दिया सो इसके ऊपर बडा अनुग्रह किया क्योंकि आपके दण्ड देनेसे सब पाप दूर हो जाते हैं, जिस अपराधसे इसकी सर्प

नागपत्न्य ऊचुः॥ न्याय्यो हि दंडः कृतकिल्बिषेऽस्मिंस्तवावतारः खलनिग्रहाय॥ रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेर्धत्सेदमं फलमेवानुशंसन्॥३३॥ अनुग्रहोऽयं भवता कृतो हि नो दंडोऽसतां ते खलु कल्मषापहः॥ यद्दंदशूकत्वममुष्य देहिनः क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव संमतः॥३४॥ तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं निरस्तमानेन च मानदेन॥ धर्मोऽथवा सर्वजनानुकंपया यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः॥३५॥ कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे तवांघ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः॥ यद्वांछया श्रीर्ललनाऽचरत्तपो विहाय कामान्सुचिरं धृतव्रता॥३६॥ न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं न पारमेष्ठ्यंन रसाधिपत्यम्॥ न योगसिद्धीरपुनर्भवंवा बांछंति यत्पादरजः प्रपन्नाः॥३७॥

योनि हुई वह अपराध दूर होगया, इसलिये आपका क्रोध भी कृपारूपी है॥३४॥ इस हमारे पतिने पूर्व जन्ममें ऐसा क्या तप किया है। जिससे सब प्राण दानदेनेवाले आप इसपर संतुष्ट हुए हो, इस मानरहित हमारे पतिने अपना मान तजकर औरोंका मान किया और सब लोगों पर दयाही करता रहा, नहीं तो ऐसे क्रूर बुद्धि सर्पपर आप क्यों अनुग्रह करते?॥३५॥ हे प्रकाशवान्! यह सर्प आपके चरणारविन्दकी रजके स्पर्श करनेका अधिकारी हुवा, सो कौनसी तपस्याका ऐसा श्रेष्ठ फल है? यह हम नहीं जानतीं, जिन चरणारविन्दके स्पर्शके लिये लक्ष्मीजीसी उत्तम स्त्रीने सब कामनाओंको तजकर व्रतको धारण करके बहुतबरसों तक तप किया॥३६॥ जिन पुरुषोंने आपके चरणरविन्दकी रजकी शरण

ली है, वह पुरुष न तो स्वर्गकी न चक्रवर्ती राज्यकी, न शिवलोककी न इन्द्रलोककी, न ब्रह्म लोककी न पातालकी, न योगकी, न सिद्धियोंकी और न मोक्षकी चाहना करतेहैं॥३७॥ हे नाथ! लक्ष्मीसे आदि लेकर बड़े बड़े ऋषि मुनियोंको आपके चरणारविन्दकी रज महादुर्लभ है, उस रजको, क्रोधके वश तमोगुणसे उत्पन्न विषवाले सर्पोंका राजा काली विना उपायही प्राप्त होगया क्योंकि अपने कर्मोंके वशसे संसारचक्रमें भ्रमते तुम्हारे चरणारविन्दके रजकी शरण चाहनेवाले शरीरधारियोंको मनमानी सम्पत्ति मिलती है॥३८॥ छःप्रकारके ऐश्वर्ययुक्त सर्व देहोंमें अन्तर्यामी रूप करके रहित उनमें विराजमान रहते हो, तोभी उनमें छिप नहीं जाते हो. पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, इन पंचभूतोंके आश्रयरूप, सबके आदि कारण, आप कारणसे रहित, ऐसे परमकारण परमात्माको हम वारंबार नमस्कार करतीहैं॥३९॥ आप ज्ञान विज्ञान कहिये चैतन्य

तदेष नाथाऽऽपदुरापमन्यैस्तमोजनिः क्रोधवशोऽप्यहीशः॥ संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो यदिच्छतः स्याद्विभवः समक्षः॥३८॥ नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने॥ भूतावासाय भृताय पराय परमात्मने॥३९॥ ज्ञानविज्ञान निधये ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥ अगुणायाविकाराय नमस्तेऽप्राकृताय च॥४०॥ कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे॥ विश्वाय तदुपद्रष्ट तत्कर्त्रे विश्वहेतवे॥४१॥ भूतमात्रेंद्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने॥ त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये॥४२॥ नमोऽनंताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते॥ नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये॥४३॥

शक्ति करिके परिपूर्ण हो, व्यापक हो अनन्त शक्तिमान, निर्गुण निर्विकार मायाके प्रवर्त्तक हम वारंबार आपको नमस्कार करतीहैं॥४०॥ आप कालरूप हो, कालशक्तिके आश्रय हो, कालके अंगोंके देखनेवाले हो, विश्वरूप हो, विश्वके देखनेवाले हो और विश्वके कर्त्ता हो और विश्वके कारण हो, तुमको बारंबार नमस्कारहै॥४१॥ पृथ्वी, जल, वायु, शब्द, आकाश, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और दश इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि चित्त इनके रूपहो, त्रिगुण अहंकारसे अपने अंशरूप जीवोंके स्वरूपका आच्छादन करनेवाले आपको बारंबार नमस्कारहै॥४२॥ आप अहंकारसे आच्छादित नहीं, इससे अनन्त हो, दृष्टिगोचर नहीं इससे सूक्ष्म हो, उपाधियोंका विकार नहीं इससे निर्विकार हो, कोई कहता है सर्वज्ञ हो, कोई

कहता है सर्वज्ञ नहीं हो, कोई कहताहै हो, कोई कहताहै अचिन्तनीयं हो, कोई कहताहै बद्ध हो, कोई कहताहै मुक्तहो कोई कहताहै एक हो कोई कहताहै अनेक हो इत्यादिक जो अनेक प्रकारके झगडेहैं तिनमें मायासे जो जैसे कहेंहैं उस समय वैसेही होजाते हो, नाम नामी यह जो शक्तिका भेद इससे अनेकरूप करके प्रतीक्षा करने योग्य जो तुम हो ऐसे आपको बारंबार हमारा नमस्कार है॥४३॥ आप नेत्रोंसे आदि लेकर सब इन्द्रियोंके प्रकाश करनेवाले हो, स्वतः सिद्ध ज्ञान के विषयी हो, वेदके कारण हो, वेद आपके श्वासोंसे हुए हैं प्रवृत्तिके प्रतिपादक वेदरूप आपको हम नमस्कार करतीहैं॥४४॥ शुद्ध अंतःकरण के प्रकाश करनेवाले भक्तोंके रक्षक रामकृष्णरूप वसुदेवतनय, प्रद्युम्न, संकर्षण, अनिरुद्ध रूप आपको

नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये॥ प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमोनमः॥४४॥ नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः॥४५॥ नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च॥ गुणवृत्त्यु पलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे॥४६॥

हमारा नमस्कार है॥४५॥ सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणके प्रकाशक, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के प्रकाश करनेवाले अर्थात् इनके अधिष्ठाता हो, इसी से चाररूप हो, तीनगुणोंसे उपासनाको चित्र विचित्र फल देनेके लिये अपने आत्माको ढककर अनेक रूपसे भासो हो. मन, बुद्धि, चित्त, अहंकारसे चैतन्य निश्चयको आदि लेकर वृत्तिसे जाननेमें आओ हो मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के साक्षी व अगोचर आपको नमस्कार करती हैं*****॥४६॥

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* दृष्टान्त— एक बनाढ्य ब्राह्मण कृष्णके वडेभक्त थे, परन्तु भोले भाले भी बहुत थे, लोगोंने धोखा दे दिलाकर और कुछ धन लेकर उनका एक चाण्डालकी कन्याके साथ विवाह कर दिया, एक दिन वह कन्या खिडकीमें बैठी थीं अकस्मात् उसके देशके चाण्डाल वहाँ आ निकले, वह देखकर बोले कि, अरी नत्थनकी बेटी! तू यहां कैसे आगई? लोगोंने बूझा कि, तुम इसको क्या जानों? वह बोले कि, हमारे गांवकी जाई जन्मी, हमारे सामने छोटीसे वडी हुई, नत्थन भगीकी बेटी है, तब तो वह ब्राह्मण बहुत घबराये, पण्डितको बुलाकर बूझा कि हमको क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये? ब्राह्मणोंने कहा कि, सूखे हुए पीपलके वृक्षके खखोडलमें जलो तो पाप छूटे, ब्राह्मण पीपलका खखोडल मँगाय उसमें माला लेकर वैठगये और लोगोंने उसमें भाग लगादी, जब सब पीपलकी लकडी जलकर भस्म होगई ब्राह्मण बैठे माला फेरते रहे तब सब लोग उन ब्राह्मण देवताको दंडवत् प्रणाम कर बोले कि, उठो अब प्रायश्चित हो चुका, ब्राह्मण बोले कि, अव वह स्त्री क्या करै? लोग बोले कि, उसकी विरादरीको देदो, ब्राह्मणने चाण्डालोंसे कहा कि, स्त्री को तुम ले जाओ, चाण्डाल बोले कि, जब यह ब्राह्मणके घरमें रही तो अब हमारे किसकाम की है? लोगोंने कहा तुमही रहने दो, ब्राह्मण बोले तुम मुझसे फिर प्रायश्चित कराओगे, लोग बोले नहीं—

आपकी महिमा विचारनेमें नहीं आती परन्तु सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति प्रकाश करनेके कारण जाननेमें आते हो, इन्द्रियोंके प्रेरक आत्मामें रमण करनेवाले सत्स्वभाव आपको हम बारंबार नमस्कार करती हैं॥४७॥ स्थूल सूक्ष्म सबकी गतिके जाननेवाले हो सम्पूर्ण विश्वके साक्षीहो, विश्व आपके स्वरूप में नहीं और विश्वके स्वरूपमें आप नहीं आप विश्वके निषेधकी अवधिहो जैसे सर्पके प्रकाशका आश्रय रस्सी आप विश्वप्रकाशनेके आश्रय हो, अरोप और निषेधके साक्षी आप हो; विश्वका आरोप और निषेधके ज्ञान अज्ञानके कारण हो, जहाँतक ज्ञान है वहाँतक विश्व माननेमें आवैहै अर्थात् विद्यासे और अविद्यासे अपवाद और अध्यासके हेतु आपको प्रणाम है॥४८॥ हे प्रभो! आप

अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये॥ हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने॥४७॥ परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः॥ अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्टेऽस्यच हेतवे॥४८॥ त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान्प्रभो गुणैरनीहोऽकृत कालशक्तिधृक्॥ तत्तत्स्वभावान्प्रतिबोधयन्सतः समीक्षयाऽमोघविहार ईहसे॥४९॥ तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां शांता अशांता उत मूढयोनयः॥ शांताः प्रियास्ते ह्यधुनाऽवितुं सतां स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः॥५०॥

चेष्टासे रहित हो। कालशक्तिको धारण करके सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे इस विश्वको उत्पन्न, पालन, संहार करोहो हे अमोघविहार अर्थात् सफलविहार क्रीड़ावाले अपनी इच्छासे उन उन संस्काररूपसे रहे स्वभावोंको प्रतिबोधन करतेहुए क्रीडा करते हो॥४९॥ त्रिलोकीमें शांतस्वभाव, अशान्तस्वभाव, घोरस्वभाव, मूढस्वभाव, इस प्रकार सत्त्वगुण रजोगुण तमोगुणकी प्रधानता से तीन स्वभावके प्राणी आपके खेलनेके लिये खिलौना हैं। साधुओंकी रक्षा करनेके लिये कटिबद्ध होकर अवतार धारण करते हो, इसलिये आपको शांत स्वभावही

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— अलग एक कोठरीमें रखदेना दो रोटी दूरसे दे दिया करना देवयोगले चाण्डालिनीका देह छूट गया, तब वह ब्राह्मण चाण्डालोंसे बोले कि इसको उठाओ, चाण्डाल बोले इसे उठानेसे हमको विरादरीमें रोटीदेनी पडेगीं, हम इसको नहीं उठानेके तुमही उठाओ, ब्राह्मण बोला मुझे प्रायश्चित्त करना पडैगा, ऐसेही शोच विचार करते दो घडी दिन रह गया, तब ब्राह्मणही उसको उठाने चले, उसका वस्त्र उघाड कर देखा तो उसके समीप फूल बहुतसे पडे हैं और पार्षदोंके पदोंके चिह्न लगरहे हैं, वद्दा न कोई चाण्डालिनी न कोई मृतक है बस वह नि सदेह परमधामको चली गई, सत्सङ्गतिकी ऐसी उत्तम महिमा है॥

प्राणी प्रियहैं, क्योंकि सज्जनोंके धर्म पालनकी इच्छासे प्रवृत्ति करते आपने अभी उनकी रक्षाके लियेअवतार लिया है॥५०॥ हे भगवन्! अब हम अबलाओंपर कृपाकीजिये नहीं तो यह काली सर्प प्राण छोड़े देता है, सत्पुरुषोंके शोचनीय हम दीन अबलाओंपरअनुग्रह करके पतिरूप प्राणदान दीजिये॥५१॥ स्वामीका यही धर्म है कि एकबार जो अपनी प्रजासे अपराध होजाय उस अपराधको क्षमा करदें, हे शान्तस्वरूप!

अनुगृह्णीष्व भगवन्प्राणांस्त्यजति पन्नगः॥ स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम्॥५१॥ अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः॥ क्षंतुमर्हसि शांतात्मन्मूढस्य त्वामजानतः॥५२॥ विधेहि ते किंकरीणामनुष्ठेयं तवाज्ञया॥ यच्छ्रद्धयाऽनुतिष्ठन्वै मुच्यते सर्वतो भयात्॥५३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं स नागपत्नीभिर्भगवान्समभिष्टुतः॥ मृर्च्छितं भग्नशिरसं विससर्जांघ्रिकुट्टनैः॥५४॥

अनजान इस अज्ञान कालीके अपराध अब क्षमा करो*॥५२॥ हम आपकी दासी हैं कुछ आज्ञा करनी हो सो आज्ञा कीजिये, हम आपकी आज्ञाको श्रद्धापूर्वक करेंगी हे नाथ! जो आपकी आज्ञाको हितचित्तसे करतेहैं उनके सम्पूर्ण भय छूट जातेहैं॥५३॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी

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** *दृष्टान्त**— जैसे एक राजाने किया, कैसे? आधी रातके समय वेष बदलकर नगरकी शैरको निकला कि देखैकोतवाल और चौकीदार रात पहरा देते हैं वा नहीं देते चौकीदार ने बूझा कौन! राजाने कुछ उत्तर न दिया, तब चौकीदारने पकडलिया और उनकी पगडी उतारकर उसीसे उनके हाथ बाँध लिये और बहुत मारा, परन्तु राजा तोमी न बोले, चौकीदारने और मारा और कहा कि, अरे दुष्ट! तूही रोज चोरी करके लेजाता था आज बहुत दिनोंमें पकढाहै, राजा तोभी न बोले कि चौकीदारने हवालातमें पफडकर बैठाल दिया, जब दिन निकला और लोग इधर उधरसे आने जाने लगे देखें तो राजा हवालातमें वैठे हैं, तव तो लोगोंने बडा आश्चर्य माना कि यह क्या बात हैं! चौकीदारने सब वृत्तान्त सुनाया और राजाके चरणोंमें गिर गया कि मेरा अपराध क्षमा कीजैऔर राजाके हाथ पान खोल दिये परन्तु मनमें डरता रहा, न जाने राजा मुझको क्या दड दें राजा चुप चाप उठकर मदिरमें चले गये और स्नान पूजाकर राज्य दर्वारमें आये और चोबदारसे कहा कि जो चौकीदार रातको गोपालगजमें पहरादेता था उसको इसी समय हमारे पास लाओ, चौकीदार डरता कापता राजाके सन्मुख आया राजाने प्रसन्न होकर सौ (१००) अशरफी पारितोपिकमें उसे दी और एक गाव उसकी सन्तानके वास्ते दिया. मन्त्रीने हाय जोडकर बूझा कि इसकी क्या वीरता लिखी जायगी राजाने अपना देह उघाडकर दिखाया और रातका सव वृत्तान्त सुनाया, मन्त्रीने कहा कि इसको तो शूली देनी चाहिये थी राजा बोला आप नहीं समझे यह अपने काममें बहुत सावधान है क्योंकि जो मुझसेही न चूका फिर यह औरसे कभी न चूकेगा अपने काममें सावधान रहनेवालेको सदा परमानन्द प्राप्त होता है।

बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जब इसप्रकार नागपत्नियोंने श्रीकृष्णचन्द्र महाराजकी स्तुतिकी, तब भगवान् ने मूर्छित पड़ेहुए उस भग्नमस्तक काली नागको चरणकी ठोकरसे प्रहार कर छोड़दिया॥५४॥ सहज सहजमें वह दीन काली सचेत होकर लम्बे लम्बे श्वास लेने लगा, और हाथ जोड़कर भगवान् से निवेदन करनेलगा॥५५॥ हे नाथ! जबसे हम उत्पन्न हुए हैं तबसेही हम दुष्टहैंतामसी हमारा स्वभावहै, बड़ा भारी हमारा क्रोध है, लोगोंका खोटा आग्रहरूप स्वभाव नहीं छूटता॥५६॥ हे सम्पूर्ण जगत् के रचनेवाले! सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे अनेक प्रकारका विश्व आपने रचा है और जिसके स्वभाव, शक्ति, बल, योनि, बीज संस्कार और आवृत्तियें, यह सबकी पृथक् पृथक् प्रकारकीहैं, यह विश्व आपहीका रचाहुआ है॥१७॥ हे

प्रतिलब्धेन्द्रियप्राणः कालियः शनकैर्हरिम्॥ कृच्छ्रात्समुच्छ्वसन्दीनः कृष्णं प्राह कृतांजलिः॥५५॥ कालिय उवाच॥ वयं खलाः सहोत्पत्त्या तामसा दीर्घमन्यवः॥ स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यदसद्ग्रहः॥५६॥ त्वया सृष्टमिदं विश्वं धातर्गुणविसर्जनम्॥ नानास्वभाववीर्यौजो योनिबीजाशयाकृति॥५७॥ वयं च तत्र भगवन्सर्पा जात्युरुमन्यवः॥ कथं त्यजामस्त्वन्मायां दुस्त्यजां मोहिताः स्वयम्॥५८॥ भवान्हि कारणं तत्र सर्वज्ञो जगदीश्वरः॥ अनुग्रहं निग्रहं वा मन्यसे तद्विधेहि नः॥५९॥ श्रीशुक उवाच॥॥इत्याकर्ण्य वचः प्राह भगवान्कार्यमानुषः॥ नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम्॥६०॥

भगवन्! इस विश्वमें हमैं सर्प बनाये. जन्मसेही हमारे त्हृदयमें अधिक क्रोध बढ़ा और हम आपहीकी मायासे मोहित होरहेहैं सो आपसे मोहित हुए हम आपकी मायाको कैसे छोड़ सक्तेहैं॥५८॥ सम्पूर्ण भेदोंको जानने वाले जगत्के ईश्वर आपही हो, सो आपही मायाके छुटानेके कारणहो, जो काम आपने हमको सौंपा, उसपै हम ऐसे दुष्ट रहे सो आपसे भी न चूके यह मानकर चाहैहमारे ऊपर कृपा करो, चाहे दण्ड दोआप परमेश्वर हो, सब काम करने योग्य हो हे राजन्! जब दीनदयालु दीनानाथने व्यालको अत्यन्त बेहाल देखा. तब उसका श्रम दूर कर चतुर्भुज रूप दर्शन दिया॥५९॥ और भगवान् नेकहा कि, मैंने तेरे मस्तकसे अपने चरणसरोज छुवादिये अब तुझको किसी प्रकारका शोक सन्ताप न होगा परन्तु

अब तू इस कुण्डका वास छोडकर रमणकद्वीपको चलाजा॥६०॥ और अपनी जातिके सर्प और बाल बच्चे स्त्रियोंको भी साथ लेजा, क्योंकि अब मैं यहाँ जलक्रीडा किया करूंगा और गाय बछड़े और ग्वालबाल यहाँका जल पिया करैंगे आजसे इसका नाम कालीकुण्ड हुआ, जो पुरुष प्रातःकाल उठकर अथवा संध्यासमय इस चरित्रका पाठ करेगा उसको सर्पका भय न होगा॥६१॥ यह कालीदह स्थान मेरे विहार करनेका है जो पुरुष इसमें स्नानकर इस जलसे पितृदेवताका तर्प्पण करेगा वा व्रत और मेरा पूजन करेगा उसको अश्वमेध यज्ञका पुण्य होगा और अन्तसमय परमधामको जायगा, फिर इस असार संसारमें जन्म न लेगा॥६२॥ जिस गरुडके भय से रमणद्वीपको छोडके तू इस

स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यतां नदी॥ य एतत्संस्मरेन्मर्त्यस्तुभ्यं मदनुशासनम्॥६१॥ कीर्तयन्नुभयोः सन्ध्योर्न युष्मद्भयमाप्नुयात्॥ योऽस्मिन्स्नात्वा मदाक्रीडे देवादींस्तर्पयेज्जलैः॥६२॥ उपोष्य मां स्मरन्नर्चेत्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ द्वीपं रमणकं हित्वा हृदमेतमुपाश्रितः॥ यद्भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पादलांछितम्॥६३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्तो भगवता कृष्णेनाद्भूतकर्मणा॥ तं पूजयामास मुदा नागपत्न्यश्च सादरम्॥६४॥ दिव्यांबरस्रङ्मणिभिः परार्ध्यैरपि भूषणैः॥ दिव्यगंधानुलेपैश्च महत्योत्पलमालया॥६५॥ पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरुडध्वजम्॥ ततः प्रीतोभ्यनुज्ञातः परिक्रम्याभिवाद्य तम्॥६६॥

दहमें आयके वास कियाहै गरुड तुझको अब न खायगा, क्योंकि तेरे मस्तकपर मेरा चरणचिह्न है॥६३॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि अद्भुत लीलावाले भगवान् श्रीकृष्णचंद्रने जब यह बात कही, तब नाग और नागकी स्त्रियें अत्यन्त आनन्द सहित श्रीकृष्ण भगवान् की पूजा करनेलगीं॥६४॥ दिव्यवस्त्र, माला मणि, अमूल्य आभूषण और दिव्य सुंगध, केशर, कस्तूरी, चन्दन, आदिका लेपन और बड़ी बड़ी कमल की मालाओंसे॥६५॥ गरुडध्वज भगवान् की पूजा करी और कालीसर्पने भगवान्की आज्ञामान उसी समय परिक्रमा दे दण्डवत् प्रणाम कर

अपने कुटुम्ब समेत अपने उरगद्वीपको चलागया॥६६॥ वृन्दावनविहारी, विहारकरनेके लिये मनुजरूपधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे यमुनाजीका जल अमृतके समान निर्मल होगया लेशमात्र भी विष न रहा॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां कालियमर्दनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा—सत्रह काली नागको, भेजो रमणकद्वीप। वंधु बचाये अग्निते, सो तुम सुनहु महीप॥१॥ इतनी कथा सुन राजा परीक्षित् ने पूँछा कि, हे भगवन्! ऐसे परमोत्तम रमणकद्वीपको छोडकर, कालीनाग यमुनामें क्यों आया? और क्या कारण जो अकेले कालीहीने गरुडका अपराध किया, इसका सब वृत्तान्त विस्तारसहित वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाबाहु!

सकलत्रसुहृत्पुत्रो द्वीपमब्धेर्जगाम ह॥ तदैव साऽमृतजला यमुना निर्विषाऽभवत्॥ अनुग्रहाद्भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू० कालियदमनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ राजोवाच॥ नागालयं रमणकं कस्मात्तत्याज कालियः॥ कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमंजसम्॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ उपहार्यैः सर्पजनैर्मासिमासीह यो बलिः॥ वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्निरूपितः॥२॥ स्वंस्वं भागं प्रयच्छंति नागाः पर्वणिपर्वणि॥ गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने॥३॥ विषवीर्यमदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः॥ कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम्॥४॥ तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन्भगवान्भगवत्प्रियः॥ विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत्॥५॥

राजा परीक्षित्! गरुड़ नित्यप्रति रमणकद्वीपमें सर्पोंको भक्षण करनेको आता था तब संपूर्ण सर्पोंने आपसमें विचार कर मासमासको अपना दुःख निवृत्त करनेके लिये वृक्षकी जडमें एकांत गरुडकी भेंट रखनेका निश्चय करदिया॥२॥सब सर्प अपनी अपनी बारीसे पीपलके वृक्षपर गरुडजीकी भेंट रखदिया करते थे कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत होगये॥३॥ अपने विषके और पराक्रमके घमण्डमें अभिमानी कद्रूका पुत्र काली, गरुडको कुछ वस्तु न समझकर सर्प्पान्न गरुडके भागको एक दिन आपही खागया॥४॥ हे राजन्! भगवान् केप्यारे भाग्यवान् गरुडजीने जब यह बात सुनी कि, हमारे भागका भोजन कालीनाग खागया, उसी समय क्रोधित होकर कालीके मारनेके लिये

अत्यन्त वेगसे कालीके पीछे झपटे॥५॥ विषही जिसके शस्त्र वह कालीनाग ऊपरको फण उठा दौडकर गरुड़जीके सन्मुख आया, दन्तआयुध भयानक जीभ, पलक जिनमें लगें नहीं ऐसे भयंकर नेत्रोंवाला काली दाँतोंसे गरुडको काटने लगा॥६॥ तब तो वासुदेव भगवान् के वाहन तार्क्ष्य गरुडजीने बड़े क्रोधसे अपने अंगसे छुटाया और सुवर्णकेसे प्रकाशवाले अपने पंखोंसे और चोंचसे कद्रूके पुत्र कालीको मार कर गिरा दिया॥७॥ गरुडजी जिसस मय पंख प्रहार करतेथे तब पंखोंमें से वेदोंके स्वरोंकी ध्वनि निकलतीथी, उनके प्रहारसे और स्वरोंकी गुंजारसे सर्प व्याकुल होते चले जातेथे और काली भी अत्यन्त व्याकुल होगया तो मनमें विचार करने लगा कि, अब गरुडसे मैं किसी प्रकार न जीतूंगा, हारकर यह शोचा कि, अब वहाँ चलना चाहिये जहाँ सौभारि ऋषिने गरुड़को शाप देरक्खा है कि, ‘यहाँ गरुड़ न आसके’ दूसरे जलमें गरुडका पराक्रम भी न चल सकै, इस प्रकार अ

तमापतंतं तरसा विषायुधः प्रत्यभ्ययादुच्छ्रितनैकमस्तकः॥ दद्भिः सुपर्णंव्यदशद्ददायुधः करालजिह्वोच्छ्वसितो ग्रलोचनः॥६॥ तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्प्रचंडवेगो मधुसूदनासनः॥ पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा जघान कद्रूसुतमुग्रविक्रमः॥७॥ सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः॥ ह्रदं विवेश कालिंद्यास्तदगम्यं दुरासदम्॥८॥ तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम्॥ निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोहरत्॥९॥ मीनान्सुदुःखितान्दृष्ट्वा दीनान्मीनपतौ हते॥ कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन्॥१०॥ अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान्स खादति॥ सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम्॥११॥ तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः॥ अवात्सीद्गरुडाद्भीतः कृष्णेन च विवासितः॥१२॥

पना बचाव समझकर वृन्दावनके निकट यमुनाके कुण्डमें जाकर निवास किया॥८॥ क्योंकि उस दहमें एक समय गरुड़जी मछलियाँ खानेकी इच्छासे आये, तब सौभरिऋषिनें गरुड़को रोका कि, भाई यह हमारे तपस्या करनेंका स्थानहै यहाँ मछली मत मारो, परन्तु क्षुधार्थी गरुड़नें ऋषीश्वरका वचन न मान॥९॥ जब मछलियोंका पति एक बडा मत्स्य गरुड़जीने मारा तब मछलियोंको दीन और व्याकुल देखकर उनके बचानेके लिये सौभरि ऋषिने महाक्रोधित होकर यह शाप गरुड़को दिया॥१०॥ कि, ‘इस दहमें गरुड आनकर जो मछलियोंको खायगा तो उसीसमय गरुड़का देहान्त हो जायगा’ यह बात मैं सत्य कहूँहूँ इस प्रकार प्राणीमात्रकी रक्षाकरनेवाले सौभरिऋषिने गरुड़को यह शाप दिया॥११॥ यह बात काली

भली भाँति जानता था और किसीको यह सुधि नहीं थी कि, गरुडको सौभरिऋषिका शाप है, इस भय से उस कुण्डमें काली वास करता था, सो श्रीकृष्णचन्द्रने उस कुण्डसे निकाल कर उसके प्राचीन स्थान रमणकद्वीपको भेज दिया*॥१२॥ जब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दन कण्ठमें सुन्दरमाला पहरे, केशर चन्दन चर्चित वस्त्र धारण किये, मणि रत्नोंसे दीप्त सुवर्णके गहने पहने दहमेंसे निकले॥१३॥ तब व्रज विहारीको देखकर सब व्रजवासी खड़े होगये जैसे मृतक शरीरमें प्राण आने से सब इन्द्रियें चैतन्य होजाती हैं उसप्रकार आनन्दसे पूर्णचित्त हो दौडकर सब ब्रजवासी हृदयसे लगा लगा कर मिले और विरहानलकी जो ताप हृदयमें भड़क रही थी वह सब शान्त होगई॥१४॥

कृष्णं ह्रदाद्विनिष्क्रांतं दिव्यस्रग्गंधवाससम्॥ महामणिगणाकीर्णं जांबूनदपरिष्कृतम्॥१३॥ उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः॥ प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याऽभिरभिरे॥१४॥ यशोदा रोहिणी नंदो गोप्यो गोपाश्च कौरव॥ कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसँल्लब्धमनोरथाः॥१५॥ रामश्चाच्युतमालिंग्य जहासास्यानुभाववित्॥ नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम्॥१६॥ नंदं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः॥ऊचुस्ते कालियग्रस्तोदिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः॥१७॥

हे कुरुवंशावतंस राजा परीक्षित्! यशोदाजी, रोहिणीजी, नन्दजी तथा गोप गोपियोंको श्रीकृष्णचन्द्रको आये हुये देखिके ऐसा अनन्द हुआ कि मानो गये हुए प्राण फिर चले आये॥१५॥ श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले बलरामजी घनश्यामकों छातीसे लगाकर हॅसकर मिले और गाय, बछरे, बैलोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुये और जो वृक्ष सूख गयेथे वह सब हरे होगये तब सब ब्रजवासी बोले कि, भाई बलराम! तुम भी अपने वचनके पूरेही निकले जो तुमने कहा था वैसाही हुवा अब घर चलनेकी क्या इच्छा है?॥१६॥ उसी समय गुरु, पुरोहित, ब्राह्मण, अपनी २ पत्नियों

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** * शंका**— क्या उस कुण्डको कालीही नाग जानताया और कोई दूसरा सर्प उस कुण्डको क्यों नहीं जानता था? इसका क्या कारण?

** उत्तर**—कालीनाग नारदजीका चलाथा, इसलिये नारदजीने कालीको कुण्ड बताया था कि, तुझको कभी विपत्तिकाल पढे तो तू यमुनाके कुडमें चले जाना, उस कुण्डमें गरुडका वल नहीं चल सकेगा, इसलिये केवल कालीकोही उस कुण्डका वृत्तान्त विदित था॥

सहित नन्दरायजीसे आनकर कहने लगे कि परमेश्वरने बड़ा अनुग्रह किया जो कालीनागका डसाहुवा तुम्हारा पुत्र बचगया, यह बडे मंगलका समय है॥१७॥ इनके कल्याणके लिये ब्राह्मणोंको मणि रत्न आभूषण सहित गोदान दीजिये उससमयकी बधाईमें नन्दरायजीनें प्रसन्न होकर हे राजन! गायें और सुवर्णका दान ब्रह्मणोंको दिया॥१८॥ धर्मशीला यशोदा भी बड़ी भाग्यवती है जिसका पुत्र कालके गालमें जाकर लौट आया. वह अपने पुत्रको पाय हृदयसे लगाय गोदमें बैठाय बारंबार नेत्रोंसे आंशू बहाने लगी ॥१९॥ हे राजन् परीक्षित्! भूख प्यास करके पीडित व्रजवासी नष्टभये पुत्रको पायके गौवों समेत संपूर्ण दिनरात यमुनाजीके किनारे वास करते भये॥२०॥ गरमीकी ऋतु थी आधी रातका समय था ठण्ढी ठण्डी पवन जो लगी तो सब ब्रजवासी पडके सोगये, तब सूखेवनको उस दावानल दैत्यने अग्निरूप बनकर जलाना आरम्भ कर दिया॥२१॥ सब

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे॥ नंदः प्रीतमना राजन्गाः सुवर्णं तदाऽदिशत्॥१८॥ यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती॥ परिष्वज्यांकमारोप्य मुमोचाश्रुकला मुहुः॥१९॥ तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्शिताः॥ ऊषुर्व्रजौकसो गावः कालिंद्या उपकूलतः॥२०॥ तदा शुचिवनोद्भूतो दावाग्निः सर्वतो ब्रजम्॥ सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे॥२१॥ तत उत्थाय संभ्रांता दह्यमाना व्रजौकसः॥ कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम्॥२२॥ कृष्णकृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम॥ एष घोरतमो वह्णिस्तावकान्ग्रसते हि नः॥२३॥ सुदुस्त रान्नः स्वान्पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो॥ न शक्नुमस्त्वच्चरणं संत्यतुमकुतोभयम्॥२४॥

पृथ्वी और आकाश लाल लाल दीखने लगा, पशु पक्षी व्याकुल होकर भागने लगे जब महा कुलाहलपडा तो सब व्रजवासी घबराकर जाग उठे और पुकार पुकार कर श्रीकृष्णचन्द्रके शरण आगये और कहने लगे॥२२॥ हेकृष्ण! हे कृष्ण! हे महाभाग! हे राम हे अत्यन्त पराक्रमी! आप शीघ्र हमारी सहाय कीजै यह महाभयानक कृशानु हमको भस्म करे डालता है हेसंकटमोचन! शीघ्र हमारी सहाय कीजै जब जब हमलोगों पर भारी भीर पडती है तब तब तुमहीं सहाय किया करते हो. तृणावर्त, शकटासुर, बकासुर, अघासुरको मार हमारी रक्षा करी वैसेही अब भी हमारी रक्षा करो, हम सब आपहीके हैं॥२३॥ हे प्रभो! इस महाघोर कालरूप अग्निसे हम लोगोंको बचाओ. हे मित्र! हम इस भयंकर अग्रिमें

जलनेसे भी नहीं डरते केवल आपके चरणारविन्दके वियोगसे डरतेहैं, सो आपके निर्भय पदको हम नहीं त्याग सक्ते॥२४॥ इस प्रकार विश्वके ईश्वर और अनंतशक्तियोंके धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र अपने व्रजवासियोंको व्याकुल देख उस भयानक अग्निको पान करते भये॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां दावानलमोचनं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा—अष्टादशमें ग्रीष्मसे, लक्षित सुखद वसंत। हरिकी पाय सहाय कछु, हत्यो प्रलम्ब अनंत॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले, कि हे नरेन्द्र! फिर श्रीवृन्दावनविहारी मनमें प्रसन्न होकर अपनी जातिके सब ब्रजवासियोंको साथ लिये, अग्निका पान किये, पीछेपीछे व्रजवासी जिनके चरित्र गाते चले आतेथे, ऐसे श्यामसुन्दरगायोंके समूहोंसे शोभित व्रजकी ओरको पधारे॥१॥ गायोंके चरानेके बहानेसे अनेक प्रकारकी माया करके दोनों भाई व्रजमें विहार करते थे

इत्थं स्वजनवैक्लब्यंनिरीक्ष्य जगदीश्वरः॥ तमग्निमपिबत्तीव्रमनंतोऽनन्तशक्तिधृक्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महा० दशमस्कंधे पू० कालियनिर्यापणदावाग्निपानं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः॥ अनुगीयमानोन्यविशद्व्रजंगोकुलमंडितम्॥१॥ व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया॥ ग्रीष्मोनामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम्॥२॥ स च वृन्दावनगुणैर्वसंत इव लक्षितः॥ यत्रास्ते भगवान्साक्षाद्रामेण सह केशवः॥३॥ यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम्॥ शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममंडलमंडितम्॥४॥

उसी अवसरमें ग्रीष्मऋतु आई वह समय देहधारियोंके लिये सुखदायक नही था॥२॥ परन्तु वह ग्रीष्मऋतु भी वृन्दावनके गुणोंसे वसंत ऋतुकी समान जान पड़ती थी क्योंकि जहॉ साक्षात् श्रीवृन्दावनविहारी कृष्णचन्द्र भगवान् बलरामजीके साथ विराजते थे फिर भी वहाँ वसन्त न रहै? बड़े आश्चर्यकी बात है? वहाँ तो सदा वसन्त रहना चाहिये, वृक्षोंपर बारहोंमास फल फूल खिलते रहें, त्रिविध बयारी झकोलती रहें आमोंकी डालियों पर कोकिला कूकती रहैंभाँतिभाँति के पक्षी मनभावनी सुहावनी बोलियें बोलते रहैं, मोर शोर कर कर चारों ओर झिंगारते रहैंऔर अनेक अनेक प्रकारकी शोभा नित्यप्रति बनीरहै तो क्या आश्चर्य है? क्योंकि जहाँ त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी विहार करैंवहाँ भी यह शोभा न हो तो फिर कहाँ हो?॥३॥ जहाँ जलके झरनोंका ऐसा गम्भीर शब्द हो रहाथा उस शब्दके सामने झींगरोंका शब्द सुनाई नहीं

देताथा और सदा झरनोकी छींटोंसे हरे हरे वृक्षोंके समूहोंसे वृन्दावन अत्यन्त शोभायमान हो रहा था॥४॥ वहाँ हरी हरी घास ऐसी शोभायमान जान पडती थी मानों हरी मखमलका बिछौना बिछ रहाहै, उस वृन्दावनमें कह्लार, कंज और उत्पल यह जो भाँतिभाँति के कमल हैं उनकी सुगन्धयुक्त नदी, सरोवर, झरनोंसे स्पर्श करके जो ठण्डी ठण्डी पवन आती थी इससे वृन्दावनवासियोंको ग्रीष्मकी अग्नि और मार्त्तण्डकी प्रचण्ड ताप नहीं सतातीथी॥५॥ जहाँ अनेक नदियें हैं जिनके तट पर पहुँचतेही जलकी तरंगोंसे टापुओंकी और किनारोंकी भूमिमें सजलताई आती है, उस पृथ्वीकी सजलताई और हरियालीको विषकी समान भयंकर सूर्यकी किरणें नहीं सुखा सक्तीं॥६॥ अनेक प्रकारके फूल जहाँ तहाँ फूल रहे

सरित्सरः प्रस्रवणोर्मिवायुना कह्लारकंजोत्पलरेणुहारिणा॥ न विद्यते यत्र वनौकसां दवो निदाघवह्व्यर्कभवोऽतिशाद्वले॥५॥ अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभिर्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समंततः॥ न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्वणा भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते॥६॥ वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्॥ गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम्॥७॥ क्रीडिष्यमाणस्तत्कृष्णो भगवान्बलसंयुतः॥ वेणुं विरणयन्गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत्॥८॥ प्रवालबर्हस्तबक स्रग्धातुकृतभूषणाः॥ रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः॥९॥ कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन्॥ वेणुपाणितलैः शृंगैः प्रशशंसुरथापरे॥१०॥ गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणः॥ ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप॥११॥

हैं, नाना प्रकारके जीव जन्तु, पक्षी मीठी मीठी बोलियें बोल रहेहैं॥७॥ उस अनुपम वनमें श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् बलदेवजीको और ग्यालबालोंको साथ लेकर बाँसुरी बजाते विहार करनेकेलिये गाय बछड़ों सहित वृन्दावनको चले॥८॥ वलराम श्रीकृष्णादिक ग्वालबाल, पत्र, मोरपुच्छ, गुच्छक, माला, धातु अर्थात् गेरू खडिया, मनशिल, हरतालसे शृंगार करके कभी नाचतेथे, कभी गातेथे और कभी परस्पर युद्ध मचातेथे॥९॥ श्रीकृष्णचन्द्र जब युद्ध करतेथे और नृत्य करतेथे, उस समय कितने बाँसुरीं करताल और शृंगी बजातेथे और कितने नई नई राग रागिनी गातेथे, कितने उनके नाचकी बडाई करतेथे॥१०॥ हे राजन! देवता लोग गुप्त हो गोपोंका रूप धारणकरकर श्रीकृष्ण और

बलरामकी बारम्बार इसप्रकार प्रशंसा करतेथे जैसे नट नटकी बड़ाई करते हैं॥११॥ सब शिरपर बाल धारणकिये श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई कभी चाईंमाईं खेलते, कभी कूदते, कभी धक्का मुक्की करते, कभी खम्भ ठोंकते कभी खैंचातानी करते और कभी मल्लयुद्ध करते, इस प्रकार एकसे एक अद्भुत लीला करतेथे॥१२॥ हे राजन्! कभी और दूसरे ग्वालबाल नाचतेथे तो कृष्ण बलदेव दोनों भाई आप गातेथे और वाँसुरी बजाते थे और फिर उनकी प्रशंसा करते थे कि, तुमने भला नृत्य किया॥१३॥ कभी बेलके फल हाथमें लेकर दो दो चार चार एक साथही उछालते कभी कुंभी वृक्षके फलोंको फेंकते थे. कभी ऑवलेके फल मुरलीनमें रख रखके बगेलते थे, कभी छोटे छोटे फल हाथमें लेकर बूझतेथे जो बतलादेते तो फल लेलेते और जो नही बतला सक्ते थे तो वह फल हार जाते थे। पहिले तो बलरामने श्यामसुंदर के नेत्र वन्द किये, सब सखा भागकर चारों

भ्रामणैर्लंघनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः॥ चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित्॥१२॥ क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौस्वयम्॥ शशंसतुर्महाराज साधुसाध्वितिवादिनौ॥१३॥ क्वचिद्विल्वैःक्वचित्कुंभैः क्वचामलकमुष्टिभिः॥ अस्पृश्यनेत्रबंधाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया॥१४॥ क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः॥ कदाचित्स्पंदोलिकया कर्हि चिन्नृपचेष्टया॥१५॥ एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने॥ नद्यद्रिद्रोणिकुंजेषु काननेषु सरस्सु च॥१६॥

ओर छिपगये.तव बलदेवजीने कृष्णको छोडदिया और उनकी आँखें खोलदी. जिसको कृष्ण पकडकर लाते थे बलदेवजी उनहीकी आँखें मीचते थे. कभी कुरंगके संग दौडते. कभी विहंगके ढंग पर चलते॥१४॥ कभी सरिताओंके सोतोंमें मेंढककी नाईं कूदते और जो कोईं कूदनेके समय पानीमें रपटकर गिर पडता तो सब सखा मिलके उसका हास्य करते थे. कभी वृक्षोंकी शाखाओंको पकड़ पकड़कर झूलते थे और सुंदर सुंदर पुष्पोंके आभूषण बना बनाकर पहनते थे, कोई कोई सखा कहते भाई। हमारी तो यह इच्छा है कि, बलरामको तो राजा बनावें और घनश्यामको मंत्री बनावैंऔर हम सब प्रजागण बनैंऔर श्रीदामादिक ग्वालवालोंको सिपाही बनावैंऔर जो ग्वालिनी इस मार्गको दधि लेकर निकले उनसे दान लें॥१५॥ इसप्रकार राम कृष्ण दोनों भाई जगत् में जो जो खेल विख्यात हैं उन उन खेलोंको खेलकर प्रसन्न होते थे.

कभी यमुनाजी न्हाते, कभी गोवर्द्धनकी कन्दराओंमें घुसजाते कभी कुञ्जोंमें विचरते फिरते, कभी काननमें आनन ढक ढक कर विचरते, कभी सरो वरोंमें जलविहार करते और कभी कमल कुमोदिनीके फूल तोड़ तोड़ कानोंमें धरते थे॥१६॥ इसप्रकार दोनों भाई ग्वाल बालोंके संग वृन्दावनमें गायें चराते थे. तहा कृष्ण बलदेवके हरनेके लिये कंसने प्रलम्बासुरको भेजा उसने इनको सखाओंके साथ खेलताहुवा देख अपना रूप भी गोपहीका बनाकर उन ग्वालोंमें आन मिला॥१७॥ सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जानलिया कि, यह असुर आया और

पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः॥ गोपरूपी प्रलंबोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया॥१७॥ तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान्सर्वदर्शनः॥ अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिंतयन्॥१८॥ तत्रोपाहूय गोपालान्कृष्णः प्राह विहारवित्॥ हे गोपा विहरिष्यामो द्वंद्वीभूय यथायथम्॥१९॥ तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ॥ कृष्णसं घट्टिनः केचिदासन्रामस्य चापरे॥२०॥ आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः॥ यत्रारोहंति जेतारो वहंति च पराजिताः॥२१॥

अपने मनमें उसके मारनेका विचारभी किया परन्तु तोभी उसको मित्र बनाकर उसकी प्रशंसा की और कहा कि, मित्र! आप भले खेलके समय आगये*****॥१८॥ आप तो सब खेल जानतेही हो? फिर सब सखाओंको बुलाकर कहा कि, हे मित्रो! हम बराबरकी दो टोली बनाकर खेल खेलेंगे॥१९॥ बलराम और घनश्यामको दोनों टोलियोंका मुखिया बनाया और सबको यह वचन पुकारकर सुनादिया कि, जो जीतैसो हारेकी पीठ पर चढ़े और हाराहुवा उसको अपनी पीठपर चढ़ाकर वटभाण्डीरतक उसी समय पहुॅचादे॥२०॥ इस प्रकार चढने चढ़ानेवाले
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** *शंका**— रावणादिक अनेक राक्षसोंको भगवान् नेमारा, परन्तु किसी राक्षसके मारनेमें ऐसी चिन्ता नहीं की जैसे छोटेसे प्रलम्बासुरके मारनेमे चिन्ता की. सो क्या कारण जो उसके मारनेमें इतनी चिन्ता की

** *उत्तर**— प्रलम्बासुरकी मृत्यु ब्रह्माने शेपजी के हाथसे लिखी थी कि, तू शेपके हायसे मरैगा और किसी दूसरेके हायसे नहीं मरेगा, इस बातको भगवान् भले प्रकार जानतेथे और यह भी जानतेथे कि, शेषके मनमें बडी दयाहै और उनके हृदयमें नम्रताहै कभी दया करके शेपजी उसको न मारैऔर इस दुष्टका मारना अवश्य है क्योंकि जो यह बचगया तो ग्वालबालोंको बहुत दुःख देगा इसलिये अधिक चिन्ता की॥

कई खेलोंका प्रारम्भ किया और परस्पर दोनोंने स्वीकार कर लिया॥२१॥ इस प्रकार चढ़ते चढ़ाते गायोंको चराते श्रीकृष्ण अपने थोकको लेकर वटभाण्डीरक में पहुँचे॥२२॥ हे राजन्! जब बलरामजीकी ओर श्रीदामा और वृषभादिक जीतगये तब श्रीकृष्णचन्द्रकी ओरके उनको अपनी पीठपर चढ़ाकर लेगये॥२३॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जब हारे तब श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया भद्रसेनने वृषभको चढ़ाया और प्रलम्बासुरने रोहिणीनन्दन बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ालिया॥२४॥ जब कि, उस प्रलम्बासुरने भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रको बलवान समझा तो बलदेवहीको लेकर वटभाण्डीरक वनकी ओरको अत्यन्त शीघ्रता सहित झपटा चलागया॥२५॥ जब उस असुरसे पर्वतके

वहंतो वाह्यमानाश्च चारयंतश्च गोधनम्॥ भांडीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः॥२२॥ रामसंघट्टिनो यर्हि श्री दामवृषभादयः॥ क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूचुः कृष्णादयो नृप॥२३॥ उवाह कृष्णो भगवाञ्छ्रीदामानं पराजितः॥ वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलंबो रोहिणीसुतम्॥२४॥ अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुंगवः॥ वहन्द्रुततरं प्रागादवरोहण तः परम्॥२५॥ तमुद्वहन्धरणिधरेंद्रगौरवं महासुरो विगतरयो निजं वपुः॥ स आस्थितः पुरटपरिच्छदी बभौ तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवांबुदः॥२६॥ निरीक्ष्य तद्वपुरलमंबरे चरत्प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्॥ ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डलत्विषाऽद्भुतंहलधर ईषदत्रसत॥२७॥

समान बलदेवजीका भारी भारन उठसका और पराक्रम उसका शिथिल होगया तब इसने अपना असुरदेह धारण करलिया, उस समय वह दैत्य सुवर्णके गहने पहने ऐसा शोभायमान दिखाई देता था जैसे चन्द्रमासहित बादलमें बिजली दमक जाती है और बलदेवजी उस दैत्य के काले शरीरपर कैसे दिखाई देते थे जैसे कालीघटामें चन्द्रमा, बलदेवजीके कानोके कुंडल कभी कभी दामिनीके समान दमक जाते थे, गलेका दुपट्टा जो झटका खाकर नीचेको लटक गया था वह ऐसा जान पडता था मानो इन्द्रका धनुष तन रहा है, गरमीके मारे उसकी देहसे प्रस्वेद जो टपकता था वह ऐसा ज्ञात होता था मानो आकाशसे बुन्दधारा पड़रही है॥२६॥ आकाशतक प्रकाशमान ऊंचा महाविकराल जिसका शरीर लाल लाल

नेत्र मानो तत्कालही ज्वालाको उगलेंगे महाभयंकर दाढ़ैमानो बाढैं धरीहुई बरछी बाल ताँबेके सदृश लाल लाल भयकारी दोनों भुजदण्ड मानो ब्रह्माण्डके तोडनेवाले हैं कानोंमें कनककुण्डल मस्तकपर मुकुटकी अद्भुत शोभा और उस असुरकी मनोहर कान्ति देखकर हल, मूशलके धारण करनेवाले बलदेवजी अपने मनमें कहने लगे कि, यह कैसा गोप? मेरा जी डरता है॥२७॥ पहिले तो कुछ भय माना परन्तु पीछे सुधि आगई कि, यह तो असुर है, फिर तो भय त्याग बलदेवजीने जाना कि, हमारे गोपोंको छुटाकर बलात्कार हमको लिये जाता है; तब तो अविनाशीने महाक्रोध करके उसके शीशमें एक मुष्टिक मारा जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको मारता है॥२८॥ मुष्टिकके लगतेही उसका शिर फूटकी नाई फूट गया, दाँत टूट गये,

अथाऽऽगतस्मृतिरभयो रिपुं बलो विहायसाऽर्थमिव हरंतमात्मनः॥ रुषाऽहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा॥२८॥ स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको मुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतोऽसुरः॥ महारवं व्यसुरपतत्स मीरयन्गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः॥२९॥ दृष्ट्वा प्रलंबं निहतं बलेन बलशालिना॥ गोपाः सुविस्मिता आसन्साधुसाध्विति वादिनः॥३०॥ आशिषोऽभिगृणंतस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्॥ प्रेत्यागतमिवालिंग्य प्रेमविह्वलचेतसः॥३१॥

मुखसे रक्तका वमन होने लगा, मानो रुधिरकी धारा बहरही है जिह्वा और नयन निकलकर बाहर आपड़े हाथ पॉव पसार दिये और बड़ा घोर शब्द कर मुख फैलाय पृथ्वीपर गिरा, जैसे इन्द्रके वज्रके मारे पहाड पृथ्वीपर गिरते हैं॥२९॥ महाबलवान् बलदेवजीके हाथसे प्रलम्बासुरको मराहुवा देखकर विस्मितहो ग्वालबाल कहनेलगे कि, भाई! तुम दोनों बड़े वीरहो हमसे तुम्हारी बडाई नहीं हो सक्ती जहां जहां हमपर विपत्ति पडती है वहीं वहींआप सहाय करते हैं जैसे जो भाई तुम इससमय न होते तो यह एकनएक लडके को पकडकर अवश्य लेजाता॥३०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजीबोले कि, उस समय सब ग्वालबाल और नंदलाल मिलकर बलदेवजीको आशीर्वाद देनेलगे कि, चिरंजीव रहो, चिरंजीव रहो, फिर प्रशंसा योग्य बलदेवजीकी

प्रशंसा करने लगे और जैसे कोई मरकर लौट आता है ऐसे बलदेवजीसे मिलकर प्रेममें मग्न होगये॥३१॥ पापी प्रलम्बासुरके मरनेसे देवताओंको बड़ा आनन्द हुवा बलदेवजी के ऊपर फूलोंकी वर्षा की और धन्यवाद देने लगे॥३२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां प्रलम्बासुरवधो नाम अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा— उन्निसवें अध्यायमें, मुञ्ज विपिनमें जाय। गोप गाय सब अग्निसे, क्षणमें लिये बचाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जब सब ग्वालबाल खेलमें लगगये तब उनकी गायें बछरे अपनी इच्छासे चरते २ हरी हरी घासके लालचमें

पापे प्रलंबे निहते देवाः परमनिर्वृताः॥ अभ्यवर्षन्बलं माल्यैः शशंसुः साधुसाध्विति॥३२॥ इति श्रीमद्भाग० म०द०पू० प्रलंबासुरवधो नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ श्रीशुक उवाच॥ क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणीः॥ स्वैरं चरंत्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम्॥१॥ अजा गावो महिष्यश्च निर्विशंत्यो वनाद्वनम्॥ इषीकाटवीं विविशुः क्रंदंत्यो दावतर्षिताः॥२॥ तेऽपश्यंतः पशून्गोपाः कृष्णरामादयस्तदा॥ जातानुतापा न विदुर्विचिन्वंतो गवां गतिम्॥३॥ तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैर्गोष्पदैरंकितैर्गवाम्॥ मार्गमन्वगमन्सर्वे नष्टाऽऽजीव्या विचेतसः॥४॥

आनकर सघन वनमें चले गये॥१॥ वह अजा अर्थात् ओसर गायें भैंसे उस वनसे चरती चरती आगे धेनुकवनमें चलीगईं उसके आगे महाघोर मुंज है तहाँ चलीगईं क्योकि वनमें चारोंओर दवॅ जो लगरही थी उसकी गर्मीसे प्यासकी मारी घबरा रहीं थीं*****॥२॥ जब बलराम कृष्णादिक ग्वालबालोंने पशुओंको नहीं देखा तो मनमें अत्यन्त दुःखी हुये और जहाँ तहाँ खोजने लगे परन्तु पता कहीं नहीं लगा॥३॥ फिर परस्पर विचार सब ग्वालबाल गायोंके खुरोके चिह्नोंको और जो गायोंके दांतोंसे कटा हुवा घास था, उसको देखते देखते जहाँ जहाँ होकर गायें

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** * शंका**— त्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको बकरीका पालन तथा भैंसका पालन अयोग्य है और शास्त्रमें भी इनका पालन अनुचित है, फिर श्रीकृष्णने बकरी और भैंसें क्यों पाली?

** उत्तर**— पण्डित लोग बकरीका नाम अजा कहते है परन्तु अजा गायकी बछियाको मी कहते हैं और ओसरभी कहते हैं और मुनियोंने अजाका ऐसा अर्थ किया है कि, बालक जिसमें न हों उसका नाम अजा है और महिषी नाम वृद्ध गायका है और जो युवा गाय हो उसका नाम गाय है, श्रीकृष्ण भगवान् सबबछिया और वृद्ध युवा गायोंका पालन किया करतेथे बकरी भैंसोका पालन करना तो गडरियोंका काम है श्रीकृष्णचन्द्रने बकरी भैंसें नहीं पाली॥

गईं थीं वहाँ पहुँचे॥४॥ मुंजवनमें घुसगये वहां जाकर मार्ग भूलगये, सीधा मार्ग अग्निसे रुकगया था, तब दुःखित हुई कुछ थोड़ीसी गायोंके समूहोंको देखा, भूखे और प्यासे ढूँढ़नेके खेदसे और भी घबरारहे, वे हारे थके अपनी गायोंको घेरकर पीछे को लौटे॥५॥ जो गायें इधर उधर रहगईं और दूर दूर चरती थीं, उनको मेघकी समान गम्भीर वाणीसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उनका नाम लेलेकर बुलाईं॥६॥ तब सब गायें अपने अपने नाम सुनकर, हर्षित होकर रम्भाईं, इससे यह सूचित किया कि, हम तुम्हारी मनोहर वाणीको, सुनती तो हैं परंतु मार्गमें आग जो लगी है इसलिये तुम्हारे समीप आ नहीं सक्तीं मार्ग बड़ा विकट है॥७॥ वहाँ बडी धूमधामसे धूमध्वजावाला अग्नि चारोंओर वनवासी जीवोंका जलानेवाला लगरहा था और पवनके वेगसे प्रचण्ड होरहा था और महाप्रबल लपटोंसे चराचरको भस्म करता चला जाता था और धुयेंके

मुंजाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रंदमानं स्वगोधनम्॥ संप्राप्य तृषिताः श्रान्तास्ततस्ते संन्यवर्तयन्॥५॥ ता आहूता भगवता मेघगंभीरया गिरा॥ स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः॥६॥ ततः समंताद्वनधूमकेतुर्यदृच्छयाऽभूत्क्षय कृद्वनौकसाम्॥ समीरितः सारथिनोल्वणोल्मुकैर्विलेलिहानः स्थिरजंगमान्महान्॥७॥ तमापतंतं परितो दवाग्निं गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः॥ ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः॥८॥ कृष्णकृष्ण महावीर्य हे रामामितविक्रम। दावाग्निना दह्यमानान्प्रपन्नांस्त्रातुमर्हथः॥९॥ नूनं त्वद्बान्धवाः कृष्ण न चार्हंत्यवसादितुम॥ वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्परायणाः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ वचो निशम्य कृपणं बंधूनां भगवान्हरिः॥ निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥११॥

धुन्धकारसे सर्वत्र वनमें महाघोर अन्धकार छागया. जीव, जन्तु, पशु, पक्षी धुयेंसे अन्धे हो २ जहाँके तहाँ जल जलकर रहजाते थे कोई किसीको वूझैनहीं था. तब सब ग्वाल मृत्युके भयसे दुःखित हो बलदेवजीसहित श्रीकृष्णकी शरणमें जाकर विनय करने लगे॥८॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाबलवान! हे राम! हे अनंतपराक्रमवाले ! यह वनकी अग्नि हमको भस्म करे डालती है, अब शरणागतोंकी रक्षा करनी चाहिये॥९॥ हे कृष्ण! हे सर्वधर्मज्ञ! हम तुम्हारे मित्र हैं हमको ऐसा कठिन कष्ट दिखाना नहीं चाहिये, क्योंकि हम इतने कष्ट सहने योग्य नहीं हैं. आपही हमारे अधिष्ठाता हो और आपहीका हमको आश्रय है॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! सब दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मित्रोंके

दीनवचन सुनकर कहने लगे कि, हे मित्रो भयभीत मतहो, अपनी अपनी आँखैंमीचलो॥११॥ उसीसमय श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार सबने अपने २ नेत्र मूँद लिये तब योगेश्वर भगवान् ने उस महाभयंकर अग्निको पानकर अपने प्यारे मित्रोंको महाकष्टसे बचाया॥१२॥ जब उन्होंने नेत्र खोलेतो फिर भाण्डीरवनमें आगये और अपने आपको और गायों को अग्निसे छुटा देखकर बहुत विस्मित हुए कि, यह क्षणमात्रमेंही, क्या अचम्भा होगया॥१३॥ योगमायाका प्रभाव प्रगट दिखानेवाले अग्निसे बचानेसे श्रीकृष्णचन्द्र के प्रभावको देखकर सब गोप कहने लगे कि, श्रीकृष्ण हमारे समान मनुष्य नहीं हैं यह देवता जान पडतेहैं॥१४॥ जब जाना कि, सन्ध्यासमय हुई तब बलरामजी सहित श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्द मन्द

तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्वणम्॥ पीत्वा मुखेन तान्कृच्छ्राद्योगाधीशो व्यमोचयत्॥१२॥ ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भांडीरमापिताः। निशम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्चमोचिताः॥१३॥ कृष्णस्य योगवीर्यं तद्योगमायाऽनुभावितम्॥दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्॥१४॥ गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः॥ वेणुं विरणयन्गोष्ठमगाद्गोपैरभिष्टुतः॥१५॥ गोपीनां परमानंद आसीद्गोविंददर्शने॥ क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाऽभवत्॥१६॥ इति श्रीमद्भाग० महापुराणे दशम० पूर्वार्धे श्रीकृष्णकृतदावाग्निपानं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ तयोस्तदद्भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः॥ गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलंबवधमेव च॥१॥

मन्द चालसे गायोंको लिये बाँसुरी बजाते गोपोंसे स्तुति कराते व्रजमें आये॥१५॥ जब ग्रामके समीप आगये तब मुरलीधरने मुरली बजाई; मुरलीकी ध्वनि सुनतेही सब ब्रजनारी अपने अपने घरोंका काम तजकर मार्गमें आन खड़ी हुईं और गोपीवल्लभका दर्शन करतेही गोपियोंको परमानन्द प्राप्त हुवा और त्दृदय में ठण्डक होगई. क्योंकि विना श्यामसुन्दर के देखे एक एक क्षण सौ सौ युगकी समान व्यतीत होताथा॥१६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशम० पू० भाषाटीकायां दावाग्निपानं नाम एकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥ दोहा—कहौंबीस अध्यायमें, पावस शरदानन्द। जो जो कुछ लीलाकरी, राम गोप नँदनन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! श्रीकृष्णचन्द्र बलरामने अग्निसे जो सब ग्वालबालोंको बचाया और प्रलम्बासुरको मारा, यह

अद्भुतकर्म गोपोंने स्त्रियोंसे कहा॥१॥ और बडे बडे वृद्ध गोप, गोपी, यह बात सुनकर आश्चर्य करने लगे और श्रीकृष्णको मुख्य देवता समझा॥२॥ जब ग्रीष्मऋतुने संसारके जीवोंको अधिक सताया. तब संसारी जीवोंको दुःखी देख पावस प्रचण्ड अपने बलके घमंडमें भरा, मार्त्तण्डके प्रकाशको दबाता, चारोंओर धूमधाम मचाता मेघोंका धौंसा वजाता, बादलका दल संग लिये, युद्धका सामान किये चढि आया तथा आकाशमें गड़गड़ाहट शब्द होने लगा॥३॥ दामिनी दमकने लगी, बादल गर्जनेलगे. घनमें श्यामघटा छागई, सूर्य चन्द्रमा तारागणोंका प्रकाश आच्छादित होगया; उस समय आकाश ऐसा शोभायमान जानपडता था जैसे सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे जीव आच्छादित होरहाहै यह त्यागने के योग्य दृष्टान्त है, प्राणीको ऐसा नहीं चाहिये कि, जो गुणोंसे आवृत होजाय॥४॥ जैसे आठ महीने तक पृथ्वीका जलरूप द्रव्य सूर्यनारायण अपनी

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः॥ मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौव्रजं गतौ॥२॥ ततः प्रावर्तत प्रावृट्सर्व
सत्त्वसमुद्भवा॥ विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला॥३॥ सांद्रनीलांबुदैर्व्योम सविद्युत्स्तनयित्नुभिः.॥ अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ॥४॥ अष्टौ मासान्निपीतं यद्भूम्याश्चोदमयं वसु॥ स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते॥५॥ तडित्त्वंतो महामेघाश्चंडश्वसनवेपिताः॥ प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव॥६॥ तपःकृशा देवमीढा आसीद्वर्षीयसी मही॥ यथैव काम्यतपसस्तनुः संप्राप्य तत्फलम्॥७॥

किरणोसे सोखै है और वर्षाऋतु आनेपर वरसावै है ऐसेही राजाको भी चाहिये कि, सुकालमें प्रजासे कर लेवैऔर अकालमें उनको अन्न धन देकर पालन करैयह ग्रहण करने योग्य दृष्टांत है, राजाको ऐसाही करना योग्यहै॥५॥ जैसे प्रबल पवनकी झकोरसे बडे बडे मेघ बिजली जिनमें चमके विश्वको तप्त देख पुष्ट करनेवाले जीवन (जल) वरसानेलगे जैसे दयावान् पुरुष दुःखी जनोंको देखकर उनको सुखी करने के लिये दया करके अपने प्राणतक देतेहैं, तैसेही बडे मेघ अपने बिजली रूप नेत्रोंसे संतप्त विश्वको देखकर पवनसे चलायमान हो जल बरसाते हैं, यहग्रहण करने योग्य दृष्टान्त है महात्मा पुरुषोको ऐसाही करना चाहिये॥६॥पृथ्वी ग्रीष्मऋतुकी धूपसे अत्यन्त तप्त होकर जो सूख गई थी, इन्द्रने जलवर्षाकर जब उसको सींचा तो फिर वर्षाऋतुमें फूली और वृक्षोंपर भाँति भाँति के फूल खिले और फल लगे ऐसेही सकामपुरुष धनकी अथवा

पुत्रकी इच्छा करके तप करता हैं, तवपहिले तो उसका देह दुर्बल होजाता हैं फिर तपका फल मिलनेसे उसका शरीर जैसेका तैसा होजाताहैं, यह त्यागने योग्य दृष्ठान्त हैं।पुरुषको उचित हैं कि, सकाम तप न करैं॥७॥ वर्षाऋतुमें सन्ध्या समय खद्योत (पटबीजने) प्रकाश करते हैं तारागण प्रकाश नहीं करते जैसे कलियुगमें पापके प्रभावसे पाखण्डमार्ग चमकते रहतेहैं और वेदमार्ग अस्त होजाते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्तहैं, चतुर पुरुषोंको ऐसा नहीं चाहिये जो पाखण्ड मार्गमें प्रवृत्त हों॥८॥ वर्षाऋतुमें मेघका गर्जना सुनकर मेढ़क बोलने लगते हैं; जैसे विद्यार्थी गुरुके सम्मुख मुख बन्द किये चुप बैठे रहतेहैं. जब गुरु नित्य नैमित्तिक कर्मसे निश्चिंत होकर बोलतेहैं, तब आपभी शिष्य अपना पाठ लेकर बैठतेहैं. यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं कि, विद्यार्थियोंको यही चाहिये कि, गुरु जब अपने कार्यसे निश्चिन्त होजायॅ और वह कहैं तब आप अपना पाठ पढ़ैं॥९॥ क्षुद्रनदी जिनका

निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भांति न ग्रहाः॥ यथा पापेन पाखंडा न हि वेदाः कलौ युगे॥८॥ श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मंडूका व्यसृजन्गिरः॥ तूष्णीं शयानाः प्राग्यद्वद्ब्राह्मणा नियमात्यये॥९॥ आसन्नुत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः॥ पुंसो यथाऽस्वतंत्रस्य देहद्रविणसंपदः॥१०॥ हरिता हरिभिः शष्पैरिंद्रगोपैश्च लोहिता॥ उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत्॥११॥

जल थोडेही दिनोंमें सुखजाताहैं वर्षाऋतुमें जब अधिक जल वर्षताहैं तब अपनी मर्यादाको छोड छोडकर चारों ओरको उफनने लगती हैं, जैसे अजितेन्द्रिय पुरुषका मन धन और ऐश्वर्य पाकर खोटे मार्गोंकी ओरको चलता हैं और सब ठौरको पॉव फैलाता हैं, यह त्याज्य दृष्टान्तहै ऐसा नहीं चाहिये जो मार्गमें अपने मनको चलावै॥१०॥ वर्षाऋतुमें हरी हरी घास उत्पन्न होनेसे, लाल लाल बीरबहूटियोंके फिरनेसे, उच्छिलीन्ध्र (छत्रिका, जो चौमासेमें छत्रके आकार पृथ्वीमें उत्पन्न होती हैं, बालक उनको सॉपकी छत्री कहा करते हैंउनके फूलनेसे और सुन्दर सुन्दर वृक्षोंसे पृथ्वी ऐसी शोभायमान जान पड़तीथी जैसे राजाकी सेना चित्र विचित्र रंगसे सजी हुई छत्र छायावाली दिखाई देती हैं यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं, राजाओंको ऐसाही चाहिये; जो हरे लाल मखमलके नये नये बिछौने बिछावेंऔर श्वेत श्वेत डेरे तम्बू तान दें॥११॥

वर्षाऋतुमें हरे हरे धानोंके खेतोंको देख देख कर किसानोंका चित्त आनन्दित होता था और लाभ हानि दैवाधीन हैं, इस बातको असत्य समझकर जिन लोगोंने अन्न संग्रह किया था, उनको क्लेश हुआ, यह त्याज्य दृष्टान्त हैं, ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये जिसमें सबका बुरा चिन्तवन करना पडै॥१२॥ वर्षाऋतुमें जैसे जलाशयके रहनेवाले मनुष्य नये जलके सेवनकरनेंसे सुन्दर स्वरूपवान् होजाते हैं, जैसे हरि भगवान्का सेवनकरनेसे हरिजन सुन्दर स्वरूपको पाते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं, मनुष्यको ऐसाही चाहिये॥१३॥ वर्षाऋतुमें समुद्रमें नदी आनकर मिली और पवनके चलनेसे तरंगें उठने लगीं उस समय समुद्रका जल चलायमान होगया, जैसे चित्त विषय वासनामें और काममें चलायमान हो जाता हैं।यह त्याज्य दृष्टान्तहैं योगियोंको ऐसा नहीं चाहिये जो विषयवासनामें चलायमान होजायँ॥१४॥ वर्षाऋतुमें मेघोंकी बुन्दधार

क्षेत्राणि सस्यसंपद्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः॥ धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम्॥१२॥ जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया॥ अबिभ्रद्रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया॥१३॥ सरिद्भिः संगतः सिंधुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान्॥ अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तंगुणयुग्यथा॥१४॥ गिरयो वर्षधाराभिर्हन्यमाना न विव्यथुः॥ अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाऽधोक्षजचेतसः॥१५॥ मार्गा बभूवुः संदिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः॥ नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव॥१६ ॥

पडनेसे पर्वत किञ्चिन्मात्र भी दुःख नहीं मानते बरन् धुल धुल कर उनकी शिलायें स्वच्छ और उज्ज्वल होजाती हैं, जैसे जिन मनुष्योंके मन भगवान्में लग रहे हैं उनके ऊपर कैसाही कष्ट पडै अर्थात् पुत्र मरजाय, धन लुटजाय, तनु दुर्बल होजाय, परन्तु वह कष्टको कुछ नहीं मानते, बरन यह कहते हैं कि, विपक्षियोंसे पीछा छुटा, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं कि, मनुष्यको चाहिये कि, विपत्तिमें व्याकुल न होय॥१५॥

वर्षाऋतुमें तृण और घासके बढ जानेसे मार्ग ढकगये और संदिग्ध (सन्देह युक्त) होगये यह न जान पडता था कि, किस ग्रामका कौनसा मार्ग हैं, जैसे, ब्राह्मण एकबार वेद पढ़के पुस्तक बांधकर रखदेते हैं और उसका अभ्यास छोड देते हैं, फिर बहुत दिन उपरान्त पुस्तकको खोलकर देखते हैं तो उनको अनेक प्रकारके सन्देह उत्पन्न होते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्तहै कि, ब्राह्मणोंको ऐसा नहीं चाहिये जो पढ़नेका अभ्यास छोडदें, नहीं

प्रातःकाल उठकर अपना नित्यकर्म करें॥१६॥ लोगोंके परमहितकारी मेघ हैं उनमें चलायमान चपला क्षणमात्रको स्थिर नहीं रहती, कभी किसी बादलमें जा चमकै हैं, कभी किसी बादलमें जा चमकै हैं जैसे ज्ञानी पुरुषोंमें व्यभिचारिणी स्त्री स्थिर होकर नहीं बैठती, कभी किसीके घर कभी किसीके घर एक पुरुषके घर नहीं ठहरती, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं कि, कभी भूलकर भी व्यभिचारिणी स्त्रीका विश्वास न करै*॥१७॥ वर्षाऋतुमें गर्जन शब्दके गडगडाहटवाले बादल आकाशमें प्रत्यञ्चा (रोदा) विना इन्द्रका धनुष शोभायमान दिखाई देता हैं, जैसे गुणोंके गम्भीर शब्दवाले प्रपञ्चमें आत्मा निर्गुण हैं, तोभी अत्यन्त शोभायमान जानपडै हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं कि, पुरुषको चाहिये कि,

लोकबंधुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः॥ स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव॥१७॥ धनुर्वियति महेंद्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात्॥ व्यक्ते गुणव्यतिकरेऽगुणवान्पुरुषो यथा॥१८॥ न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः॥ अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा॥१९॥ मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनंदञ्शिखंडिनः॥ गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाऽच्युतजनाऽऽगमे॥२०॥

ऐसे सुन्दर निर्गुण पुरुषका ध्यानकरै॥१८॥ वषाऋतुमें अपनी चांदनीसे प्रकाशमान जो मेघ हैं, उनसे आवृत होकर चन्द्रमा शोभायमान नहीं दीखाता, मलीनसा दिखाई देता हैं, जैसे आत्मासे प्रकाशमान अभिमानसे आच्छादित पुरुष अपने मनमें कहता हैं कि, मैंहीं ज्ञानी हूं, मैंहीं दानी हूं, मैंहीं शूरवीर हूं, मैंहीं रणधीर हूं मैंहीं पण्डित हूं मैंही सर्वज्ञ हूं, वही उसमें मलिनता हैं, यह त्याज्य दृष्टान्त हैं, पुरुषको चाहिये कि, अहंकार न करै॥१९॥ वर्षाऋतुमें ग्रीष्मके तपेहुये जो मोर मेघोंका शुभागमन देख, उनकी प्रशंसामें मनोहर शब्द करतेहैं।जैसे घरमें संतप्त हुये वैराग्यवान पुरुष महात्मा पुरुषोंके आनेसे हर्षित हो मनोहर वाणीसे उनका आदर सत्कार करतेहैं. यह नहीं कि, हमही भूखे मरेहैं, इनके

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** * शंका—** संसारमें जो गुणी जन हैं, सो सब अपनी स्त्रियोंके सग दुःख सुख गृहस्थीमें भोगते हैं परन्तु ऐसा किसी गुणीको नहीं सुना कि, उसकी स्त्रीने उसको त्याग दिया हो? फिर शुकदेवजीने क्यों कहा कि, गुणी प्राणीमें स्त्री बहुत समयतक नहीं ठहरती, जैसे आकाशमें बिजुली अधिक कालतक नहीं ठहरती यह शंका हैं?

** उत्तर—** “स्थैर्य न चक्रु कामिन्य” इस श्लोकमें शास्त्रके जाननेवाले मुनियोंने कामिनीका स्त्री अर्थ नहीं किया, संसारके सुखकी तृष्णा हैं कि जो अधिक प्रीति हैं सोई कामिनी हैं सो तृष्णाकी बहुत प्रीतिरूप कामिनी गुणी पुरुषोंमें बहुत कालतक नहीं ठहरती, बहुत कालतक मूखोंमें ठहरतीहैं ऐसा अर्थ श्रीशुकदेवजी ने किया हैं॥

लिये कहाँसे लावैं॥२०॥ वर्षाऋतुमें गरमीसे तपेहुये देवतालोग वृक्षरूप धारण किये अपनी मूलसे जल पीपीकर प्रफुल्लित हो, हरे हरे लाल लाल नवीन पल्लवोंसे समृद्धिमान् होरहे हैं जैसे तपस्या करनेसे मनुष्योंका देह प्रथम तो दुर्बल होजाता हैं फिर सुन्दर सुन्दर सुख भोग करनेसे और पुष्टकारक भोजन मिलनेसे उनका शरीर लाल होजाता हैं, यह त्याज्य दृष्टान्त हैं. मनुष्योंको चाहिये कि, खाने पीने के लिये तप न करैं॥२१॥ वर्षाऋतुमें कांटे और कीचमें संयुक्त किनारेवाले सरोवरोंमें चकवी चकवे और सारस वासकरते थे, जैसे अनेक प्रकारके कर्म करनेकी पीड़ासे घरोमें विषयी पुरुष वास करते हैं, यह त्याज्य दृष्टान्त हैं, मनुष्यको ऐसा नहीं चाहिये कि, जो सदा घरहीमें शिर दिये पड़ारहैं, नहीं कुछ कुछ भगवान् वासुदेवका भी भजन करै, जिसमें लोक और परलोक दोनों सुधरें॥२२॥ वर्षाऋतुमें जैसे इन्द्रके जल बरसानेसे नदियोंके जलका प्रवाह पुलोंको तोड़ता फोड़ता चलाजाता हैं और खेतोंकी मर्य्यादा भी टूटगई, जैसे पाखण्डियोंके शब्द सुनके कलियुगमें वेदमार्ग टूट

पीत्वाऽपः पादपाः पद्भिरासन्नानात्ममूर्तयः॥ प्राक्क्षामास्तपसा श्रांता यथा कामानुसेवया॥२१॥ सरस्वशांतरोधस्सु न्यूषुरंगापि सारसाः॥ गृहेष्वशांतकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः॥२२॥ जलौघैर्निरभिद्यंत सेतवो वर्षतीश्वरे॥ पाखंडिनामसद्वादैर्वेदमार्गाः कलौ यथा॥२३॥ व्यमुचन्वायुनिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः॥ यथाऽऽशिषो विश्पतयः कालेकाले द्विजेरिताः॥२४॥ एवं वनं तद्वर्षिष्टं पक्वखर्जूरजम्बुमत्॥ गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद्धरिः॥२५॥

जातेहैं और धर्म कर्म दूर हो जाते हैं यह त्याज्य दृष्टान्त हैं मनुष्य पाखण्डियोंके शब्द सुनकर वेदमार्गको न त्यागदे॥२३॥ वर्षाऋतुमें मेघगण पवनकी प्रेरणासे प्राणियोंपर अमृतकी तुल्य जल वर्ष रहे थे, जैसे समय समयपर राजा पुरोहितकी प्रेरणासे दान पुण्य करते रहते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं, पुरोहित गुरुजनोंको ऐसाही चाहिये कि, जो प्रेरणाकरके यजमान और शिष्योंसे दान करावे और दीनपुरुषोंको दिलावें॥२४॥ इस प्रकार जहाॅ चारोंओर आम, जामुन, खजूर जिस वृन्दावनमें पकरहे थे और उनकी शाखायें पृथ्वीकी ओर ऐसी झुकरही थीं जैसे परोपकारी पुरुष धन पाकर नीचेको झुकते हैं और फूल जो टपक टपक कर सुधासम वसुधापर गिरते थे, ऐसा जान पडता था मानो दानी द्रव्यका दान कर रहे हैं और खजूरके वृक्ष ऊँचे ऊँचे ऐसे विदित होते थे जैसे रणभूमिमें शूर खड़े हैं, ऐसे शोभायमान वनकी शोभा देखकर श्रीकृष्ण बलरामसमेत

ग्वाल बालोंको संग ले उस वनमें गायें चरानेके लिये गये॥२५॥ बड़े बड़े अयनोंके भारी भारी भारसे हौले हौले चलनेवाली गायें जब श्रीकृष्णचन्द्रने नाम लेलेकर प्रीतिसे बुलाईं, तब स्तनोंसे जिसके दूध टपकरहा वह सब गायें दौड़ दौड़कर वृन्दावनविहारीके सन्मुख आनकर खड़ी होगईं॥२६॥ वनवासियोंको श्रीकृष्णने देखा, मधु और मकरन्द टपकनेवाली वृक्षोंकी लताओंसे रस टपकता था, गोवर्द्धन पर्वतसे जलकी धारायें बहतीं थीं, कहीं कहीं झरनोंसे पानी जो गिरता था उस पानीके शब्दसे ऐसा ज्ञात होता था मानों वृक्ष परस्पर बातें कररहैं हैं, निकटही गुफायें थीं उनको देख देख ग्वालबाल और नंदलाल प्रसन्न होते थे॥२७॥ कहीं कहीं ऐसी वृक्षोंकी खखोडल और पर्वतकी कन्दरा थीं कि, जिनमें पानीकी बूॅदभी नहीं जाती थी, जब भारी वर्षा होती थी तो उनहीमें घुसकर बैठ जाते थे और वनके फल फूलखा खाकर प्रसन्न होतेथे॥२८॥ इतनेमें यशोदाने

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा॥ ययुर्भगवताऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः॥२६॥ वनौकसः प्रमुदिता वनराजी र्मधुच्युतः॥ जलधारा गिरेर्नादानासन्ना ददृशे गुहाः॥२७॥ क्वचिद्वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति॥ निर्विश्य भगवान्रेमे कन्दमूलफलाशनः॥२८॥ दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलांतिके॥ संभोजनीयैर्बुभुजे गोपैः संकर्षणान्वितः॥२९॥ शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान्॥ तृप्तान्वृषान्वत्सतरान्गाश्च स्वोधोभरश्रमाः॥३०॥

दुपहरका समय देख अपने मनमें समझा कि, मोहन प्यारेको भूख लगी होगी, यह विचार कई एक ग्वालिनियोंके हाथ दही, भात, माखन, मिश्री और अनेक प्रकारके व्यञ्जन थालोमें धर धरकर श्रीकृष्ण बलरामके पास भेज दिये, सो श्रीकृष्ण सखाओ समेत यमुनाके निकट ऐसे रमणीक घाट पर गये जहाॅ शिलाके ऊपर ही भात धरकर भोजन करनेयोग्य गोपोंको और बलदेवजीको संग लेकर भोजन करनेलगे और उसके स्वादकी सराहना कर करके कभी सखाओंको देते थे और कभी उनके हाथमेंसे लेलेते थे॥२९॥ उस समय बैल बछरे पेट भरजानेसे हरी हरी घासपर बैठे आँखें मीचे जुगाल कर रहे थे और गायें भी दूधके भारसे थक कर बैठी जुगाल कर रही थीं. राम कृष्ण उन गायोंको देख देखकर प्रसन्न होते थे और भोजन करते जाते थे और बारंबार परस्पर कहते थे कि, पावसकी समान संसारमें सुख देनेवाली और दूसरी ऋतु नहीं हैं॥३०॥

सब प्राणियोंकी आनन्दकारी और प्रेम प्रीतिकी बढ़ानेहारी पावसमें वृन्दावनकी शोभा और अपनी शक्तिसे युक्त वर्षा ऋतुको देखकर वृन्दावनविहारी वृन्दावनकी प्रशंसा करने लगे कि, देखो! वृन्दावनमें वर्षाऋतु कैसी अनुपम शोभा दे रही हैं॥३१॥ इस प्रकार व्रजमें श्यामसुन्दर और बलरामके वास करते करते बादलोंसे रहित निर्मल जल बहानेवाली और मन्द मन्द त्रिविध पवन चलानेंवाली परम सुखदाई शरदृतु आई॥३२॥ शरदृतुमें कमल उत्पन्न होनेसे जल निर्मल और शीतल होगया, जैसे योगीजनोंके चित्त भ्रष्ट होकर फिर योगका अभ्यास करनेसे शुद्ध होजाते हैं यह ग्राह्य दृष्टान्त कि, योगियोंको यही चाहिये कि, चित्तको शुद्ध करके योगाभ्यास करैं॥३३॥ वर्षाऋतुमें आकाशमें मेघ रात दिन गर्जते रहते हैं, शरदृतुमें सब उनका गर्जना बंद हो गया, वर्षाऋतुमें बहुतसे मनुष्य मिलकर एक स्थानमें रहते हैं, शरदृतुमें सब अलग अलग होगये, वर्षाऋतुमें ठौर ठौर कीच होती हैं, शरदृतुमें सब भूमि सुहावनी होगई, वर्षाऋतुमें जल गदला और मैला होजाता हैं। शरदृतुमें जल स्वच्छ और शीतल होगया

प्रावृट्च्छ्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदा वहाम्॥ भगवान्पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम्॥३१॥ एवं निवसतो स्तस्मिन्रामकेशवयोर्व्रजे॥ शरत्समभवद्व्यभ्रा स्वच्छांब्वपरुषानिला॥३२॥ शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः॥ भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया॥३३॥ व्याम्नोऽब्दं भूतशाबल्यं भुवः पंकमपां मलम्॥ शरज्जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाऽशुभम्॥३४॥

जैसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चारों आश्रमोंके भगवान्की भक्ति होनेसे सब क्लेश दूर होजाते हैं। ब्रह्मचारियोंके लिये शिष्य तबहीं तक जल भरा करते हैं, जबलों भक्ति प्राप्त नहीं होती भक्ति होनेके पीछे जल भरनेका परिश्रम नहीं रहता। जब शिष्यको भक्ति प्राप्त हो जाती हैं, तब उससे गुरुभी सेवा नहीं कराते। इसप्रकार बादलका गर्जना शरदृतुमें बन्द होगया। गृहस्थ के हृदयमें जबतक भक्ति उदय नहीं होती तबलों अपनी सन्तानादिकमें मोद ममता रखता हैं। भक्ति होनेके पीछे एकान्त वास करनेकी इच्छा करता हैं और सबका संग छोड़ देता हैं। ऐसेही प्राणियोंका एक स्थानपर वास हैं, सो छूट गया। वानप्रस्थको जबतक भक्ति प्रकट नहीं होती तबलों उसका मन मलिन रहता हैं। भक्ति होनेके पीछेजै उसकी मलिनता दूर होजाती हैं ऐसे पृथ्वीकी कीच सूख गई और सुहावनी होगई। संन्यासीका कामवासनारूप मल श्रीकृष्ण

वासुदेवमें भक्ति होनेसे दूर होजाता हैं, ऐसेही शरदमें जलका मल दूर हो गया॥३४॥ शरदृतुमें मेघ अपना सर्वस्व त्याग श्वेत श्वेत रुईकेसे पहल दिखाई देते हैं। जैसे धन, दारा, पुत्र और विषय वासनाके दूर होनेसे शान्त स्वभाव मुनीश्वरलोग शोभायमान जान पडते हैं। यह ग्राह्य दृष्टांत हैं, मुनिलोगोंको यही चाहिये कि; सब वासनाओंको दूर करें॥३५॥ पर्वत अपना कल्याणरूप निर्मलजल कहीं कहीं को तो झरनोंसे बहाते हैं और कहीं कहींको नहीं भी बहाते, जैसे ज्ञानीपुरुष समय समय पर अपना ज्ञानरूप अमृत सुपात्रको देखकर देते हैं और कुपात्रको नहीं देते। यह ग्राह्य दृष्टांत हैं कि, विवेकी पुरुषको यही चाहिये कि, सुपात्र कुपात्रको देखकर उपदेशकरें॥३६॥ शरदृतुमें सरोवरोंमें थोड़े जलके रहनेवाले जीव जन्तु नित्यः नित्य घटते जलको नहीं जान सके, जैसे अज्ञानी कुटुम्बी पुरुष घरोंमें रहकर अपनी नित्य

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः सुभ्रवर्चसः॥ यथा त्यक्तैषणाः शांता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः॥३५॥ गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम्॥ यथा ज्ञानामृतं काले झानिनो ददते न वा॥३६॥ नैवाविदन्क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः॥ यथायुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः॥३७॥ गाधवारिचरास्तापमविंदञ्शरदर्कजम्॥ यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेंद्रियः॥३८॥ शनैश्शनैर्जहुः पंकं स्थलान्यामं च वीरुधः॥ यथाहंममतां धीराः॥ शरीरादिष्वनात्मसु॥३९॥ निश्चलांबुरभूत्तूष्णीं समुद्रः शरदागमे॥ आत्मन्युपरते सम्यङ् मुनिर्व्युपरतागमः॥४० ॥

क्षीण होतीहुई आयुर्बलको नही जानते। यह त्याज्य दृष्टान्त हैं कि, कुटुम्बीलोगोंको चाहिये कि, अचेत न हो कुछ परमेश्वरकी ओरका भी चिन्तवन करैं॥३७॥ शरदृतुमें थोड़े जलके रहनेवाले जलचर सूर्यके तेजसे जल गरम होनेसे दुःखी होगये, जैसे कुटुम्बी पुरुष इन्द्रियोंको वशमें न करनेसे दरिद्रता और कृपणतामें रहकर कष्ट भोगते हैं। यह त्याज्य दृष्टांत हैं जो घरमें क्लेश होय तो उस घरको त्याग दे॥३८॥ शरदृतुमें सहज सहजमें सब स्थानोंकी कीच सूख गई, लताओंका सब कच्चापन जाता रहा, जैसे मिथ्या देह गेहमें सज्जनपुरुष सहज सहजमें मायाकृत अहंता ममताको त्याग देते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं, ज्ञानी पुरुषको यही चाहिये कि अभिमानका त्याग कर दें॥३९॥ शरदृतुके आनेसे समुद्रका जल निर्मल होगया, जैसे आत्मज्ञान होनेसे महात्मा मुनियोंका पढना लिखना सब छूट जाताहैं। यह ग्राह्य

दृष्टान्त हैं, आत्माके जाननेके पीछे लिखने पढनेका क्या प्रयोजन?॥४०॥ शरदृतुमें खेतवाले किसान लोंगोंने जहाँ तहाँ भारी भारी मेंडे बाँध बाँधकर पानी रोंक लिया हैं जैसे योगिराज इंद्रियरूप द्वारसे जातेहुये ज्ञानको रोकलेतेहैं, इंद्रियोंको रोककर फिर मनको रोकते हैं। यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं, योगियोंको यही चाहिये कि, ज्ञानको हृदयसे निकलने नही दें इन्द्रियोंको रोककर रक्खैं॥४१॥ शरदृतुमें सूर्यकी किरणोंके तापको रात्रिके समय चन्द्रमाने उदय होकर दूर कर दिया, जैसे ज्ञान होनेके पीछे देहके अभिमानरूप तापको शान्तरूप चन्द्रमा उदय होकर हरलेता हैं, ऐसेही व्रजवासियोंका ताप श्रीकृष्णचन्द्र मुकुन्दने दूर कर दिया॥४२॥ शरदृतुमें मेघ दूर होगये आकाश निर्मल होगया, तारागणोंके प्रकाशसे आकाश शोभा पाने लगा, जैसे वेदके अर्थको दिखानेवाले सत्त्वगुणी चित्त शोभायमान जान

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन्कर्षका दृढसेतुभिः॥ यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः॥४१॥शरदर्कांशुजांस्तापान्भूतानामुडुपोऽहरत्॥ देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम्॥४२॥ खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम्॥ सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम्॥४३॥ अखंडमंडलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी॥ यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि॥४४॥ आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसुनवनमारुतम्॥ जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः॥४५॥ गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाऽभवन्॥ अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव॥४६॥

पडते हैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं वही चित्त सुन्दर और शोभायमान हैं जिसमें वेदके अर्थका ज्ञान हैं॥४३॥ शरदृतुमें समस्त मण्डलसे चन्द्रमा आकाशमें तारागणसहित शोभा देताहैं, जैसे पृथ्वीमें यदुपति श्रीकृष्णचन्द्र यादवोंसमेत शोभायमान जान पडेहैं यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं। मनुष्यको चाहिये कि, जैसे चन्द्रमा आकाशमण्डलको प्रकाशित करताहैं ऐसेही शान्तरूप चन्द्रमासे हृदयको प्रकाशित करै॥४४॥ शरदृतुमें पुष्पवाटिकाओंके पुष्पोंका स्पर्श करके जो पवन चलता हैं उसके स्पर्श करनेसे सब प्राणियोंके तनुका ताप दूर होजाता हैं, जैसे गोपिकाओंका ताप श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके स्पर्शसे दूर होजाताहैं, यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं। मनुष्यको यही चाहिये कि भगवान्का स्पर्श करके सांसारिक तापोंको त्याग दें॥४५॥ शरदृतुमें गायें, हरिणी पक्षिणी और स्त्रियें पुष्पवती हुई, उनके पति उनके पीछे पीछे कामातुरहो

फिर रहे थे जैसे ईश्वरकी प्रसन्नताके लिये पुरुष योग, यज्ञ, जप, तप करतेहैं, उनके पीछे फल आपसे आप लगे फिरते हैं॥४६॥ शरदृतुमें कुमुदिनोंके सिवाय और सब प्रकारके कमल सरोवरोमें फूलते हैं जैसे चोरोंके सिवाय सब प्रजागण राजाके उदय होनेसे प्रफुल्लित रहते हैं यह ग्राह्य दृष्टान्त हैं। ऐसा कौनसा मनुष्य है जो अपने स्वामीको देखकर प्रसन्न न हो॥४७॥ शरदृतुमें ग्राम और नगरोंमें नवी न अन्नके भोजनका वैदिक उत्सवसे और इंद्रियोंके पुष्टिका कारक विवाहादिक लौकिक उत्सवसे और अन्न पकनेसे और श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजी के क्रीड़ा करनेसे पृथ्वी अत्यन्त शोभायमान दृष्टि आती थी॥४८॥ वर्षाऋतुके थँभनेसे वणिक्, मुनीश्वर, राजा, ब्रह्मचारी यह शरदृतुमें अपने अपने कार्यमें लगगये। बनिये अपने अपने व्यवहारके लिये देश देशांतरोंको जाने लगे। साधु संन्यासी तीर्थयात्राओंके जानेका प्रबन्ध करने लगे। राजा लोग

उदहृष्यन्वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्विना॥ राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून्विना नृप॥४७॥ पुरग्रामे त्वाग्रयणैरैंद्रियैश्च महोत्सवैः॥ बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः॥४८॥ वणिङ्मुनिनृपस्नाता निर्गम्याऽर्थान्प्रपेदिरे॥ वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिंडान्काल आगते॥४९॥ इति श्रीभा० म० दश० पृ० प्रावृट्शरद्वर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं शरत्स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना॥ न्यविशद्वायुना वातं सगोगोपाल कोऽच्युतः॥१॥ कुसुमितवनराजिशुष्मिभृंगद्विजकुलघुष्टसरस्सरिन्महीध्रम्॥ मधुपतिरवगाह्य चारयन्गाः सहपशु पालबलश्चुकूज वेणुम्॥२॥

अपनी चतुरंगिनी सेना ले शत्रुओंके विजय करनेको चलदिये। ब्रह्मचारी विद्या पढ़नेके लिये पाठशालाओंको चलने लगे। जैसे मंत्र और योगादिसे सिद्ध महात्मा, आयुके बन्धनसे रुकरहे हों, वह समय आनेपर दिव्यदेह पाते हैं॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां प्रावृट्शरदृतुवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ दोहा—इक्किसमें वृन्दाविपिन, गयेश्याम सुखधाम। वेणु गीत गोपीनको, वर्णत शालिग्राम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! शरदृतुमें निर्मल कमलोंकी सुगन्धयुक्त पवनवाले वृन्दावनमें गाय बछड़े और ग्वालबालोंको संगले श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द वृन्दावनमें गये॥१॥ फूलीहुई वनकी पंक्तियोंके सौरभसे मतवाले भौंरे और पक्षियोंके समूहके शब्दसे, सरोवर नदी

पर्वत, गूँजरहे थे, ऐसे सुन्दर मनोहर वृन्दावनमें बलराम और ग्वालबालोंसहित जाकर मुरली बजाने लगे और गायें बछरे चरनेको छोड़ दिये प्रमदात्मक कामका प्रकाश करनेवाला वंशीका शब्द सुनके कई एक व्रजवाला श्रीकृष्णके पीछे अपनी सखियोंके सामने उनकी प्रशंसा करने लगीं॥२॥३॥ हे महाराज! जिस समय कुछ कहनेका प्रारम्भ किया, उसीसमय मन मोहिनी मनमोहनकी छविका स्मरण होगया, उस छविका स्मरण होतेही कामदेवने उनके मन व्याकुल करदिये, इसलिये उनसे श्यामसुन्दरकी कान्तिका कुछ वर्णन नहीं होसका॥४॥ मोरपुच्छोंका मुकुट शीशपर धरके काछनी काछके कानोंमें कनेरके पुष्प धारण करके, सुवर्णकी सदृश पीतपट ओढ़कर कण्ठमें वैयजन्ती और वनमाल धारणकर नटवररूप बनाकर बॉसुरीके छिद्रोंको अपने अधरामृतसे पूर्ण करते गोपोंके समूह जिनकी कीर्ति वर्णन करैं, वह श्रीवृन्दावनविहारी अपने

तह्व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम्॥ काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन्॥३॥ तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरंत्यः कृष्णचेष्टितम्॥ नाशकन्स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप॥४॥ वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयंतीं च मालाम्॥ रंध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्गोपवृन्दैर्वृंदारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः॥५॥ इति वेणुरवं राजन्सर्वभूतमनोहरम्॥ श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयंतोऽभिरेभिरे॥६॥

चरणारविन्दोंके चिह्नसे रमणीक वृन्दावनमें गये, नटवर वेष बनानेका आशय यह हैं कि, तुमको नृत्य दिखानेके लिये मैंने यह वेषबनायाहैं और कनेरपुष्प कानमें धरनेका कारण यह हैं कि, जब गोपियोंकी बात कानमें सुनाई न आवै तो कानोंमें अत्यन्त सन्ताप होगा तब कानोंको शीतल करनेके लिये पुष्प धारण किये हैं और पीताम्बर धारण करनेका कारण यह हैं कि, राधा प्यारीका शरीर ऐसाही पीतवर्ण हैं इसको देखकर प्रीतमप्यारीके शरीकी सुधि आती रहेगी दूसरे प्यारीकेसा पीतरंग मेरे हृदयसे लगा रहेगा और वैजयन्ती और वनमाल हृदयपर पडी रहनेका अभिप्राय यह हैं कि प्यारीके वियोगकी जो विरहानल हैं उसे शान्त करती रहैं गोपियोंके चरणचिह्नयुक्त मनोहर वृन्दावन जानकर वृन्दावनमें प्रवेश किया ऐसा सुन्दर मनमोहनका मनमोहन रूप देख धैर्य धर जैसे तैसे कर एकसे एक कहने लगीं॥५॥ हे राजन्! इसप्रकार सब जीवोंके

मनकी मोहनेवाली मनमोहनकी बाॅसुरीकी टेर सुनकर व्रजबाला परस्पर उसकी प्रशंसा करने लगीं, प्रशंसा करती ही करती परमानन्द रूपके सागरमें मग्न हो मुरलीमनोहरका मनसे अलिंगन करती थीं॥६॥ गोपी कहने लगींहे सखियो! उनहीं नेत्रवान् पुरुषोंके नेत्र संसारमें धन्य हैं और हम दूसरेको धन्यवाद नहीं देसक्तीं, जिन्होंने सखाओंसमेत गायोंको चराते मुरलीबजाते, प्रेम भरे कटाक्ष चलाते श्रीकृष्ण बलदेवका मुखारविन्द देखाहैं वही धन्य हैं॥७॥ दूसरी सखी बोली कि, आमकी पल्लव मोरपुच्छ फूलोंके गुच्छे उत्पल कमलोंकी मालाओंसे देदीप्यमान नीलाम्बर पीताम्बरोंसे चित्र विचित्र वेष धारण किये, श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाई ग्वाल मण्डलीमें गाते हुए ऐसे शोभायमान जान पडते थे जैसे रंगभूमिमें दो नट नाटक कर रहे हैं॥८॥ तीसरी गोपी बोली कि, हे सखियो! इस बाँसुरीने ऐसा कौनसा तप किया हैं कि, जिसके पुण्यके प्रभावसे हमारे पीने योग्य

गोप्य ऊचुः॥ अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः पशूननुविवेशयतोर्वयस्यैः॥ वक्रंव्रजेशसुतयोरनुवेणुजुष्टंयैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्॥७॥ चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्जमालाऽनुपृक्तपरिधानविचित्रवेषौ॥ मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां रंगे यथा नटवरौ क्व च गायमानौ॥८॥ गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्॥ भुंक्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथाऽऽर्याः॥९॥ वृंदावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं

यद्देवकीसुतपदांबुजलब्धलक्ष्मि॥ गोविंदवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रि सान्वपरतान्यसमस्तसत्त्वम्॥१०॥

अधरामृतके रसको यह आपही अपनी इच्छापूर्वक पीरही हैं जिन सरोवरोंके जलसे इस बॉसुरीके बॉसोंको सींचा हैं उन सरोवरोंमें कमल नहीं फूलते मानो आनन्दसे रोमांच होआये हैं और जिन वृक्षोंके वंशमें इस बाॅसुरीके बॉस उत्पन्न हुए हैं उन वृक्षोंमें मद नहीं टपकता मानो आनन्दके आंसू बहाते हैं क्यों? वह अपने आपको धन्यवाद देते हैं कि, धन्य हमारे भाग्य जो हमारे वंशके बाँसोंमें ऐसी बाॅसुरी उत्पन्न हुई कि, जो आठों पहर श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके मुखारविन्दसे लगी रहती हैं, जैसे श्रेष्ठ मनुष्य अपने कुलमें सुपुत्रको भगवान्का भक्त देखकर आनन्दमान नेत्रोंसे ऑसू बहाते हैं॥९॥ चौथी सखी बोली कि, हे आली! यह वृन्दावन सुरपुरसे भी अधिक पृथ्वीका यश विस्तार कर रहा हैं, धन्य हैं यह पृथ्वी जिस

पर ऐसा परमानन्ददायक वृन्दावन परमधाम हैं, जिसमें देवकीनन्दन श्रीकृष्णचंद्रके चरणारविन्द धरनेसे जिसको और भी अधिक शोभा प्राप्त हुई और इस वृन्दावनमें जिस समय मुरलीमनोहरकी मुरलीका शब्द होता हैं, उसको मन्द गर्जनेवाली श्याम घटा जानके मोर प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं, उनका अनुपम नाच देखकर सब जीव जन्तु निश्चल होकर बैठ जाते हैं, ऐसा परमानन्द किसी और दूसरे लोकमें भी सुना हैं? कहीं नहीं यह पूर्णानन्द वृन्दावनमें ही हैं॥१०॥ पांचवीं सखी बोली कि, हे सजनी! यह पशु जाति मूर्ख हरिणी भी धन्य हैं कि, जो मुरलीका शब्द सुन अपने पतिको संग लिये विचित्र वेष किये, वृन्दावनविहारीका स्नेहकी चितवनसे सन्मान करै हैं और हमारे पति तो ऐसे निर्दयी हो गये कि, हमको उनका दर्शन भी नहीं करने देते॥११॥ छठी सखी बोली कि, हे प्यारी! यह तो अद्भुत बात सुनो! स्त्रियोंको आनन्दका

धन्याः स्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता या नंदनंदनमुपात्तविचित्रवेषम्॥ आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः पूजांदधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः॥११॥ कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपवेषं श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम्॥ देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः॥१२॥ गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीतपीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबंत्यः॥ शावाः स्तुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थुर्गोविन्दमात्मनि दृशाऽश्रुकलाः स्पृशंत्यः॥१३॥ प्रायो बतांब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम्॥ आरुह्य ये द्रुमभुजान्रुचिरप्रवालाञ्शृण्वंत्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः॥१४॥

देनेवाला श्यामसुन्दरका मनोहर रूप देखकर और उनकी बजाई बाँसुरीकी मनोहर ध्वनि सुनकर विमानोंमें बैठ गमन करती हुई देवताओंकी स्त्रियें यद्यपि अपने पतियोंकी गोदीमें बैठी हैं, तो भी कामदेवके बाणोंके लगनेसे ऐसी व्याकुल होगईं कि, उनके शिरके बालोंमेंसे पुष्प गिरे जाते हैं, और नीवी खुली जाती हैं, जब देवांगनाही मनमोहनके स्वरूपको देखकर मोहित होगईं तो फिर हम मोहित होगई तो क्या आश्चर्यकी बात हैं॥१२॥ श्रीकृष्णप्यारेके मुखसे निकलते हुए बाँसुरीके गीतरूप अमृतको गायें बछड़े कानरूप पात्रोंसे ऊपरको उठा उठाकर पीते हैं और श्रीकृष्णचन्द्रको दृष्टिसे आलिंगन करते, प्रेमके आँसू बहाते चित्रकी समान लिखेसे खडे हैं बछड़ोंके मुखमें दूधके थन और गायोंके मुखमें घासके तृण मुखके मुखमेंही रह जाते हैं॥१३॥ हे माता! इस वनमें जो पक्षी हैं सो सब मुनीश्वर हैं, जो मनोहर पत्रबाले वृक्षकी शाखाओंपर बैठकर

नेत्रोंको मूॅद, मौन साध, श्रीकृष्णचन्द्र मनमोहन प्यारेका दर्शन करैं हैं और बाँसुरीके मनोहर गीतोंको सुनैं हैं, क्योंकि मुनिलोग भी भगवान्के दर्शनके लिये काम कर्मको त्याग वेदकी शाखाओंके आश्रित हो, उनके विशालरूप कर्मोंका गुण ग्रहण कर सुखीहो मौन साध भगवान्के गुणानुवाद सुना करते हैं, इससे उसकी समतावाले यह पक्षी भी मुनिजनहीं जान पडते हैं॥१४॥ चैतन्य जीवोंकी दशा जो कुछ थी सो तो थी ही, परन्तु मुकुन्द भगवान्की बॉसुरीकीटेर सुनकर नदियोंमेंभी भ्रमर पड़ते हैं। उनसे यह सूचित होता हैं कि, यह भ्रमर नहीं पडते, हमारे त्हृदयमें

नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतमावर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः॥ आलिंगनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेर्गृह्णंति पादयुगलं कमलोपहाराः॥१५॥ दृष्ट्वाऽऽतपे व्रजपशून्सह रामगोपैः संचारयंतमनुवेणुमुदीरयंतम्॥ प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः सख्युर्व्यधात्स्ववपुषांबुद आतपत्रम्॥१६॥

कामदेवके गढे पडते हैं, मानो जल स्तम्भित हो आलिंगन करके आच्छादनकरता हैं। ऐसेही लहर रूप हाथोंसे कमलके पुष्प भेटें लेलेके मुरारी श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दको समर्पण करें हैं*॥१५॥ बलदेवजीको और ग्वालबालोंको संग लेकर धूपमें व्रजकी गायोंको चराते, मुरली बजाते अपने प्यारे मित्र घनश्यामको देख श्यामघन उनपर छत्र छाया कर नन्ही नन्ही बूँदोंकी वर्षा करने लगे, क्योंकि सच्चा मित्र

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** * दृष्टात—** चार भंगेडी नशेमें चूर होकर आपसमे कहने कि, राजाके आदमी कितेने होंगे? एक रणधीर सिंह बोला फलाने परगनेमें राजाके आदमी एक लाख हैं, दूसरा व्रजपालसिंह बोला फलाने परगनेमें पन्द्रह लाख आदमी हैं, तीसरा सरदारसिंह बोला कि, फलाने परगनेमें राजाके पच्चीस लाख आदमी हैं चौथा बलवन्तसिंह बोला फलाने परगनेमें पचास लाख आदमी हैंऔर नौलाख यहांहैं, सब एक करोड १००००००० हुये अब इसका खर्च विचारो कि, सालभरमें कुछ खजानेमें बचता वा नहीं एक बोला पचास लाख तो फौजका खर्च है, दूसरा बोला पचीसलाख महलमें उठैं हैं तीसरा बोला दश राजाने लाख इमारतमें उठै है, चौथा बोला पन्द्रहलाख वस्त्र आभूषणमें उठें हैं, इस हिसाबसे खजानेमें कुछ नहीं पडता? यह बात राजाके दूत सुन रहेथे, राजकाजकी बाते सुन राजाको परचा लिख दिया, राजाने मन्त्रीको बुलाकर खर्चका हिसाव बूझा तो सब उन्हींके कहनेके अनुसार ठीक निकला राजाने उन चारों भगेडियोंको बुलाकर बूझा कि, हमारे घरकी बात तुमने कैसे जानी? हमको ऐसा मालूम पडता है कि तुम हमारे खजांचीसे मिले हुए हो! भगेडी बोले कि न हम चोर और न हम आपके भडारीसे मिले हुए हम तो भगके नशेमें अपनी बातें कर रहेथे सो आपही विधि मिलगई होगी देखो चार कौडीकी भगके नशेमें राजाके घरका बन्दोवस्त बाँध दिया। और गोपी तो अमोल श्रीकृष्णका प्रेमामृत पी रही थी जो कृष्णरूपका प्रबंध बाँध दिया तो क्या बडी बात है।

श्यामसुंदरका मेघही हैं, देखो कृष्णकाभी श्याम रंगऔर मेघोंका भी श्याम रंग, कृष्णके भी पीत वस्त्र और मेघोंके पीत विजली, कृष्णके मुक्तामाल और मेघोंके बगपाँति, कृष्णकी मुरली गर्जैं और मेघ आपही गर्जैं, कृष्ण अमृतकी वर्षा करैं और मेघ जलकी वर्षा करैं, कृष्ण वनमें घूमै और मेघ आकाशमें घूमैं कृष्णपर भौंहोंके धनुष हैं मेघोंपर इन्द्रका धनुष हैं, कृष्णके मेघके सब लक्षण एकसे मिलते हैं॥१६॥ और सखी बोली आली! हमसे तो यह वनकी भीलनी भी धन्य हैं, क्योंकि प्रियाके स्तनोंमें जो कि, चर्चित केशर, कस्तूरी जब रतिके समय कृष्णचन्द्रके चरणोंमें लगी और वह चरण अरुणाई लिये जब वनमें विहार करते समय घासमें लगे हैं, उनको देख कामातुर भीलनी उस केशर और कस्तूरीको घासपरसे लेलेकर अपने मुख और स्तनोंपर लगा लगाकर कामानिकी तापको शान्त करती हैं, हे सखी! हमारे भाग्यमें तो

पूर्णाः पुलिंद्य उरुगायपदाब्जरागश्रीकुंकुमेन दयितास्तनमंडितेन॥ तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन लिम्पन्त्य आनन कुचेषु जहुस्तदाधिम्॥१७॥ हंतायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्पर्शप्रमोदः॥ मानं तनोति सहगो गणयोस्तयोर्यत्पानीयसूयवसकन्दरकंदमूलैः॥१८॥ गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदारवेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः॥ अस्पंदनं गतिमतां पुलकस्तरूणां निर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम्॥१९॥

इतनाभी नहीं जो किसी प्रकार अपनी कामाग्निको शान्त करलें॥१७॥ एक गोपी और बोली कि, हे अबलाओ! हे सहेलियो! यह गोवर्द्धन पर्वत भगवान्के भक्तोंमें कोई परमभक्त जान पडताहैं? क्योंकि इसके ऊपर बलराम और घनश्यामके चरणारविन्द लगनेसे तृणादिक जो उपजते हैं वह तृणादिक नहीं होते, मेरी समझमें ऐसा आता हैं कि, उसके रोम खडे हो रहे हैं और अपने आनंदमें मग्न हैं, कृष्ण बलरामको अपनेऊपर आता देख, उनको शीतल जल हरी घास, कंद, मूल, फल भेंट करके उनका आदर सत्कार करता हैं॥१८॥ एक और बोली हे सखियो! ग्वालबालोंको संग लेकर कृष्णचन्द्र बलराम जब वृन्दावनमें गायें चरातेहैं और सब त्रिलोकीके मोहनवालीको मधुर ध्वनिसे बजाते हैं

तब उस मनोहर बाँसुरीका शब्द सुनके सब जंगम स्थावरकी नाईं स्थिर होजाते हैं अर्थात् जहाॅके तहाॅ खड़ेकेखडे रहजाते हैं और अपने आनन्दमें मग्न हैं और वृक्षोंकी जंगमोंकेसी गति हैं, अर्थात् उनके रोमांच होजाते हैं।हे सखी! यह अद्भुत आश्चर्य हैं न आजतक कहीं आखोंसे देखा और न कानोंसे सुना, परंतु इतने परभी बलराम और नन्दलाल अपना ग्वालपन दर्शा रहे हैं कैंसे? गायदोहनके समय गायोंके बॉधनेकी रस्सी शिरसे बॉध रहे हैं और पांशी कन्धेपर धर रहे हैं उस समयकी कुंजविहारीलालकी शोभा वर्णन करनेकी किसको सामर्थ्य हैं॥१९॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण! इसप्रकार वृन्दावनमें विहार करनेवाले वृन्दावनविहारीके चरित्रोंको गोपी परस्पर वर्णन करती करती कृष्णमय होगई॥२०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां वेणुगीतवर्णनं नाम एकविंशो

एवंविधा भगवतो या वृंदावनचारिणः॥ वर्णयंत्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः॥२०॥ इति श्रीभाग० महा० दशमस्कंधे पू० श्रीकृष्णवेणुगीतवर्णनं नामैकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ हेमंते प्रथमे मासि नंद व्रजकुमारिकाः॥ चेरुर्हविष्यं भुंजानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्॥१॥ आप्लुत्यांभसि कालिंद्या जलांते चोदितेऽरुणे॥ कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानर्चुर्नृप सैकतीम्॥२॥ गंधैर्माल्यैः सुरभिभिर्बलिभिर्धूपदीपकैः॥ उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तंडुलैः॥३॥ कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि॥ नंदगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः॥४॥

ऽध्यायः॥२१॥ दोहा— बाइसवें अध्यायमें, वरणौ चीरचरित्र। गोपिनकों वरदान हैं, कीन्हो यज्ञ पवित्र॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजन्! हेमंतऋतुमें पहिला जो अगहन हैं उसमें सोलहसहस्र गोपकुमारी कन्याओंने मूंगभातका भोजन करके कात्यायनीदेवीका व्रत करना आरंभ किया॥१॥ और व्रत करके सर्योदयके समय यमुनाजलमें स्नानकर तटपर बैठ, बालूकी कल्याणीदेवीकी प्रतिमा बनाकर॥२॥ चन्दन, सुगंध, फूल, फल, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत और छोटी बड़ी सामग्रियोंसे देवीकी पूजा किया करती थीं॥३॥ हे कात्यायनी देवी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे अधीश्वरी! हे देवी! नन्दरायगोपके सुतको हमारा पति बना, हम बारंबार तुमको नमस्कार करती हैं॥४॥

वह सब गोपकुमारिका इस मंत्रका जप करके पूजा किया करतीं इसी प्रकार उनको पूजन करते करते एक महीना व्यतीत होगया श्रीमनमोहनमें उनका मन दिनरात लगा रहता था॥५॥ और नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर यही वर मॉगती थीं कि, हमको नन्दकुमार श्यामसुन्दर वरमिलैं। इसप्रकार एक एकका नाम ले पुकार पुकारकर परस्पर हाथ पकड़ पकड़कर॥६॥ उच्चस्वरसे अपने प्राणप्यारे यशोदानन्दनका नाम लेतीं और गुणानुवाद गातीं यमुनाजीपर स्नान करनेको जाया करतीं॥७॥ एक दिन पहिले केसीनाई यमुनाके किनारेपर अपने अपने वस्त्र उतारकर सबने घर दिये और श्रीकृष्णचन्द्रके गुणगान कर करके यमुना जलमें विहार करने लगीं, तब योगेश्वरोके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके

इति मंत्रं जपंत्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः॥ एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः॥५॥ भद्रकालीं समानर्चुर्भूयान्नंदसुतः पतिः॥ उषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्याबद्धबाहवः॥६॥ कृष्णमुच्चैर्जगुर्यांत्यः कालिंद्यां स्नातुमन्वहम्॥ नद्यां कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत्॥७॥ वासांसि कृष्णं गायंत्यो विजह्नुःसलिले मुदा॥ भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः॥८॥ वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये॥ तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः॥९॥ हसद्भिः प्रहसन्बालैः परिहासमुवाच ह॥ अत्रागत्याबलाः कामं स्वंस्वं वासः प्रगृह्यताम्॥१०॥ सत्यं ब्रवाणिनो नर्मयद्यूयं व्रतकर्शिताः॥ न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः॥११॥ एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवोत सुमध्यमाः॥ तस्य तत्क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः॥१२॥

मनका मनोरथ जानकर॥८॥ अपनी मण्डलीके सखाओंको संग लेकर उनकी मनोकामना सिद्ध करानेके लिये यमुनाके किनारेपर पहुॅचे और उन कन्याओंके वस्त्र लेकर झटपट कदम्बपर चढ़गये॥९॥ और बालकों समेत आप टट्ठेमारमारकर हँसने लगे और अनेक प्रकारकी मसखरीकी बातें करने लगे कि, हे अबलाओ! हमारे समीप आओ और अपने वस्त्र लेजाओ॥१०॥ इस समय मैं ठठोलीसे नहीं कहता। सत्य कहताहूं तुम व्रत करनेसे बहुत दुर्बल होगई हो इस बातको मेरे सखा सब प्रकारसे जानते हैं॥११॥ मुझे कुछ दुर्भाव और आग्रह नहीं हैं, तुम

एक एक मेरे सन्मुख आती जाओ और अपने अपने वस्त्र लेतीजाओ, चाहे सब मिलकर एकबार लेजाओ और जबतक तुम ऐसा न करोगी मुझे अपने बाबानन्दकी सौगन्दहैं तुम्हारे वस्त्र कभी न दूंगा॥१२॥ मनमोहनप्यारेकी मीठी मीठी बातें सुनकर परस्पर देख लज्जित हो, गोपियोंने जान लिया कि, ये परिहास करतेहैं यह शोच विचार कण्ठतक शीतल जलमें जाड़ेकी मारी खड़ी काँपतीं रहीं थीं जब बहुत देर होगई तब गोपिका बोलीं॥१३॥ हे कृष्णचन्द्र! अन्यायकी वार्ता न करो तुम नंदजीके प्यारे पुत्र हो यह हम जानती हैं हे प्यारे! शीतसे दुःखित हम सब कांपरही हैं इस

व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योऽन्यं जातहासा न निर्ययुः॥ एवं ब्रुवति गोविंदे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः॥ आकंठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुबन्॥१३॥ माऽनयं भोः कृथास्त्वां तु नंपगोपसुतं प्रियम्॥ जानीमोंग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः॥१४॥ श्यामसुंदर ते दास्यः करवाम तवोदितम्॥ देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद्राज्ञे ब्रुवामहे॥१५॥ श्रीभगवानुवाच॥ भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ॥ अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छंतु शुचिस्मिताः॥१६॥ ततो जलाशयात्सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः॥ पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः॥१७॥

लिये हमारे वस्त्र देओ॥१४॥ हे श्यामसुन्दर प्यारे! हम तुम्हारी दासी हैं, जो तुम कहोगे सोई करैंगी, परन्तु हमारी लाजके ग्राहक मत बनो जब लाजही जाती रही तो फिर शेष क्या रहा? हम आपके सामने निर्लज्ज होना नहीं चाहतीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा हैं, हे धर्मज्ञ! वस्त्र हमारेदेदो नहीं तो हम राजा कंससे जाकर कहैंगी॥१५॥ गोपियोंकी रोष भरी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले कि, जो तुम मेरी दासी हो और मेरा कहना तुमको अंगीकार हैं तो हे मन्दमुसकानवालियो! तुम यहाॅ आनकर अपने वस्त्र लेजाओ॥१६॥ जब कुछ उपाय न चलसका तब हारकर शरदीकी

मारी काँपती हुईं संकोच करती सम्पूर्ण गोपिका दोनों हाथोंसे अपने कुच और योनिको ढक जलसे बाहरको आईं, तब श्यामसुंदर बोले कि, दोनों हाथ जोडकर सूर्यनारायणको प्रणाम करो॥१७॥ उनके शुद्धभावको देख श्रीकृष्णमहाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनको शुद्धकन्या कुमारी देखकर उनके वस्त्र कन्धोंपर धरे मन्दमन्द मुसकाय प्रीति पूर्वक बोले॥१८॥ कि, हे शशिवदनयो! तुमने जो व्रत करके नंगी हो यमुनाजलमें स्नान किया यह वरुणदेवताका अपराध हुवा, उस पापके दूर करनेके लिये हाथ जोड़ माथेसे लगाय पृथ्वीमें प्रणाम करके अपने अपने वस्त्र पहनलो॥१९॥ व्रजबालाओंने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बातें सुन वस्त्र त्यागके नग्न स्नान करना व्रतखण्डकरनेवाला मानके उसके

भगवानाह ता वीक्ष्य शुद्धभावप्रसादितः॥ स्कन्धे निधाय वांसासि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम्॥१८॥ यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता व्यगाहतैतत्तदु देवहेलनम्॥ बद्धांजलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयेंहसः कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम्॥१९॥ इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला मत्वा विवस्त्राऽऽप्लवनं व्रतच्युतिम्॥ तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां साक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग्यतः॥२०॥ तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान्देवकीसुतः॥ वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत्करुणस्तेन तोषितः॥२१॥ दृढं प्रलब्धा त्रपया च हापिताः प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः॥ वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं ता नाभ्यसूयन् प्रिय संगनिर्वृताः॥२२॥ परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसंगमसज्जिताः॥ गृहीतचित्ता नोचेलुस्तस्मिँल्लज्जायितेक्षणाः॥२३॥

पूर्ण करनेके लिये व्रतके और सब कर्मोंके फलदायक श्रीकृष्णभगवान्को नमस्कार किया क्योंकि वह सब पापोंके दूर करनेवाले हैं॥२०॥ देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने अधीनता करनेवाली गोपियोंको देखकर उनके वस्त्र देदिये॥२१॥ उनके संग बहुत छल किया, लाज उनकी छुटाई हॅसी उनकी करी, खिलौनेंकी नाईं उन्हैं खिलाया वस्त्र उनके चुरालिये, तौ भी उन गोपियोंने कृष्णको दोष नहीं दिया, क्योंकि उनको अपना प्राणनाथ समझकर उनके संग परमानंद मान रही थीं,॥२२॥ अपने अपने वस्त्र पहिर प्यारेके संग ऐसी वशीभूत होगईं और उनके चित्त हरगये, श्रीकृष्णकी ओर खड़ी खड़ी देखतीही देखती ऐसी विह्वल होगईं कि, वहांसे चलने तककी सामर्थ्य न रही॥२३॥

श्रीकृष्णचन्द्र सर्वान्तर्यामी भगवान् दामोदरने उन अबलाओंके व्रतका संकल्प जानलिया कि, इन गोपिकाओंने मेरे चरणस्पर्शकी चाहनासे यह व्रत कियाहैं॥२४॥ तब श्रीकृष्णभगवान् बोले कि, हे सुशीलाओ! जिसलिये तुमने मेरा व्रत किया हैं उस मनोरथको लाजकी मारी तुम नहीं कहतीं, परन्तु तौ भी मैंने तुम्हारे मनोरथको जानलिया और मैंने तुम्हारे मनोरथका अनुमोदन किया, इसलिये तुम्हारा मनोरथ सत्य होगा॥२५॥ हे मनोरंजिनी! तुम अपने अपने घर जाओ, मुझ में मन लगानेवालोंकी कामना विषय भोगके लिये नही होती, जैसे भुनाहुआ अन्न दूसरी बार उपजनेके योग्य नहीं रहता॥२६॥ हे पूर्णव्रत करनेवालियो! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। हे पतिव्रताओ! जिस प्रयोजनके लिये तुमने यह व्रत किया और कात्यायनीदेवीकी आराधना की सो मैने जाना; अब जब शरदृतुकी रात्रि आवैंगी तब तुम सब मेरे संग विहार

तासां विज्ञाय भगवान्स्वपादस्पर्शकाम्यया॥ धृतव्रतानां संकल्पमाह दामोदरोऽबलाः॥२४॥ संकल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम्॥ मयाऽनुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति॥२५॥ न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते॥ भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते॥२६॥ याताऽबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथ क्षपाः॥ यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः॥ ध्यायंत्यस्तत्पदांभोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्व्रजम्॥२८॥ अथ गोपैः परिवृतो भगवान्देवकीसुतः॥ वृन्दावनाद्गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः॥२९॥ निदाघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः॥ आतपत्रायितान्वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः॥३०॥ हे स्तोक कृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जुन॥ विशालर्षभ तेजस्विन्देवप्रस्थ वरूथप॥३१॥

कीजियो, अब तुम इस समय अपने २ घरको जाओ॥२७॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, जिन गोपियोंकी मनोकामना पूर्ण होगई वह गोपी भगवान् की आज्ञा मान और उनके चरणकमलका ध्यान करती हुई अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने अपने घरोंको चली गईं और उसी दिनसे आठोपहर यही मानती थीं कि, वनमालीके संग परमसुख देनेवाली शरदृतु कब आवेगी॥२८॥ तब देवकीनन्दन श्रीकृष्णभी ग्वालबालोंको संग ले गायें चराते बलदेवजी सहित वृन्दावनसे भी और आगे बढगये॥२९॥ बडी तीक्ष्ण ग्रीष्मकी धूपमें अपनी छायासे छाया करनेवाले सघनवृक्षोंको देखकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने मित्रोंसे कहा कि॥३०॥ हे स्तोक कृष्ण! हे अंशी! हे श्रीमन्! हे अर्जुन!

हे विशाल! हे ऋषभ! हे तेजस्विन्! हे देवप्रस्थ! हे वरूथप!॥३१॥ इन बडभागी वृक्षोंको देखो तो यह कैसे भाग्यशाली हैं और सदा परोपकारके लिये एकान्तमें वास करते हैं, पवन, वर्षा, शीत, घाम आप सहते हैं और हमको इनसे बचाते हैं॥३२॥ अहो इन वृक्षोंका जन्म धन्य हैं, जिनसे हम सब लोग सुख पातेहैं और इनसे प्राणियोंकी जीविकाहैं जैसे किसी मनुष्यके पाससे याचक विमुख नहीं जाता ऐसेही इन वृक्षोंके समीप आनकर प्राणी विमुख नहीं जाता॥३३॥ इस संसारमें यह पत्र, फल, फूल, छाया, जड़, वल्कल, लकड़ी, सुगन्ध, गोंद, भस्म, कोयला कोंपल, आदिसे सब प्राणियोंकी मनोकामना पूर्ण करते हैं॥३४॥ इस संसारमें उन्हीं देहधारियोंका जन्म सफल हैं, जोकि प्राण, धन, बुद्धि

पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकांतजीवितान्॥ वातवर्षातपहिमान्सहंतो वारयंति नः॥३२॥ अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्॥ सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यांति नार्थिनः॥३३॥ पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः॥ गंधनिर्यासभस्मास्थितोक्मैः कामान् वितन्वते॥३४॥ एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु॥ प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा॥३५॥ इति प्रवालस्तबकफलपुष्पदलोत्करैः॥ तरूणां नम्रशाखानां मध्येन यमुनां गतः॥३६॥ तत्र गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः॥ ततो नृप स्वयं गोपा कामं स्वादु पपुर्जलम्॥३७॥ तस्या उपवने कामं चारयंतः पशून्नृप॥ कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रुवन्॥३८॥ इति श्रीमद्भगवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीकृष्णकृतगोपीवस्त्रापहरणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥

और वाणीसे परायेका भलाही करते रहते हैं॥३५॥ इसप्रकार हरे हरे पात, गुच्छ, फल, फूल, कोंपलोंके समूहोंसे जिनकी शाखा झुँकरही हैं उन वृक्षोंके बीचमें होकर श्रीकृष्णचन्द्र यमुनाकी ओरको गये॥३६॥ हे राजन्! उस यमुनाके तीर ग्वालबालोंने निर्मल जल मंगलरूप गायोंको पिलाया और आप भी पिया॥३७॥ हे महाराज! उस यमुना महारानीके किनारे पर गायोंको चराते हुए ग्वालबालोंको जब क्षुधालगी तब घनश्याम बलरामजीके पास आनकर यह बात कहने लगे॥३८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां चीरहरणलीलावर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥

दोहा— तेइसवें अध्यायमें, माँगो हरि यज्ञ अन्न। विप्रोंनने दीनों नहीं, दियो नारि ते धन्न॥ हे राम! हे राम! हे महापराक्रमी! हे कृष्ण! हे दुष्टोंके संहारकरनेवाले! यह भूख हमको बहुत सताती हैं आप इसके शान्त करनेका कोई उपाय करो॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! गोपोंने जब श्रीकृष्णसे इसप्रकारकी प्रार्थना की तब देवकीनन्दन भगवान्ने अपनी भक्तिवती ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंके ऊपर प्रसन्न होकर यह कहा॥२॥ हे सखाओ! वेदके पढ़नेवाले मथुरावासी ब्राह्मण स्वर्गकी इच्छा करनेके लिये आंगिरसनाम यज्ञ कररहे हैं, देवताओंका पूजन जहाँ होरहाहैं वहाँ जाओ॥३॥ हे गोपो! वहाँ उस यज्ञमें जाकर भात मॉग लाओ और जो तुमको भात माँगते लज्जा

गोपा ऊचुः॥ रामराम महावीर्य कृष्ण दुष्टनिवर्हण॥ एषा वै बाधते क्षुन्नस्तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति विज्ञापितो गोपैर्भगवान् देवकीसुतः॥ भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन्निदमब्रवीत्॥२॥ प्रयात देव यजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः॥ सत्रमांगिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया॥३॥ तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद्विसर्जिताः॥ कीर्तयंतो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम्॥४॥ इत्यादिष्टा भगवता गत्वाऽयाचंत ते तथा॥ कृतांजलि पुटा विप्रान् दंडवत् पतिता भुवि॥५॥ हे भूमिदेवाः शृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः॥ प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान्नो रामचोदितान्॥६॥ गाश्चारयंतावविदूर ओदनं रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ॥ तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः॥७॥

लगती हो तो तुम मेरा और मेरे भाई बलरामका नाम लेना कि, उनके भेजे हुए हम तुम्हारे पास भोजन माँगने आये हैं॥४॥ इसप्रकार श्रीकृष्ण भगवान्की आज्ञा मानकर वह गोपलोग वैसेही भोजन मॉगनेलगे और ब्राह्मणोंको हाथ जोड़ पृथ्वीमें पडकर दण्डवत्कर कहा॥५॥ भूमिदेव! हमारी बात सुनो? श्रीकृष्णमहाराजकी कृपासे सदा आपके यहाँ ऐसाही मंगल होता रहैं, हम श्रीकृष्णके आज्ञाकारी हैं और जातिके गोप (अहीर) हैं श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार बलदेवजीके भेजेहुए हम आपके पास आये हैं सो आप उनको जानतेही होंगे॥६॥ श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई गायें चरानेको आपके निकटही आये हैं और इस समय उनको भोजनकी इच्छाहैं और अधिक

भूखेहैं; इसलिये आपसे भातकी चाहनाहैं है ब्राह्मणो! हे धर्म के जानने बालोंमें उत्तम! तुम्हारे यहां भातहैं, यदि आपकी श्रद्धा हो तो माॅगनेवाले कृष्ण बलरामको भोजन देदीजे॥७॥ हे श्रेष्टब्राह्मणो! तुम चुप क्यों होरहे? जो तुम कहो कि, हम यज्ञके करनेवाले दीक्षित हैं। उनको हमारा भोजन करना नही चाहिये तो वहाँ यह विचारहैं कि, दीक्षाके आरम्भसे लेकर पशुके हिंसने पहिले सौत्रामण्य यज्ञसे और ठौर दीक्षावालेके अन्न खानेसे कुछ दोष नहीं लगता। सो पशुका हिंसन तुम्हारे यहाँ हो चुका हैं, सौत्रामण्य यज्ञ आपके हैं ही नहीं, सो आपके अन्न भोजनमें हमको किसी प्रकार दोष नही हैं॥८॥ इस प्रकार गोपोंने उनको शास्त्रानुसार समझाया भी, परन्तु तौ भी वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी वातको सुनी अनसुनी करगये क्योंकि वह ब्राह्मण क्षुद्रफल वाले स्वर्गके जानेकी इच्छा कर रहे थे, वह क्लेशकारी कर्ममें अपनी

दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः॥ अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति॥८॥ इति ते भगवद्याच्ञां शृण्वंतोऽपि न शुश्रुवुः॥ क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः॥९॥ देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्र तंत्र र्त्विजोऽग्नयः॥ देवता यजमानश्च क्रतुधर्मश्च यन्मयः॥१०॥ तं ब्रह्म परमं साक्षाद्भगवंतमधोक्षजम्॥ मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे॥११॥ न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परंतम्॥ गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः॥१२॥ तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः॥ व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयन् लौकिकीं गतिम्॥१३॥

मूर्खतासे लग रहेथे और अपने आपको बड़ा ज्ञानी और महात्मा जानतेथे॥९॥ देश काल अलग अलग, चरुपुरोडाशादिक सामग्री मंत्र, तंत्र, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, धर्मफल, यह सब कृष्णमय हैं॥१०॥ सो इंद्रियोंसे परे साक्षात् परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको उन कुत्सित बुद्धिवाले मूर्ख देहाभिमानी देहकोही आत्मा माननेवाले ब्राह्मणोने अज्ञानवश हो उनको कुछ भी नहीं पहिचाना मनुष्यही जानके अवज्ञा करी॥११॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे परंतप! उन ब्राह्मणोने चुप साथ ली, न तो अपने मुखसे हां की और न ना की, तब गोपनिराश होकर लौट आये और श्रीकृष्ण, बलरामके पास आनकर कहा कि भले ब्राह्मणोके पास भेजा, उन्होने कुछ भी नहीं दिया, देखो हमारा अपमान भी हुआ और भोजन भी नही मिला, अब क्या उपाय करैं? भूखके मारे तो प्राण निकले जाते हैं॥१२॥ जगदीश्वर श्रीकृष्णभगवान् इस बातको सुनकर हँसे और फिर गोपोंसे कहा कि, कार्यवालेको निराश होना नहीं चाहिये और मॉगनेवालेको

मान कहाँ? क्योंकि उसका मान तो सदैवही भंग रहता हैं। लौकिकरीति दिखलानेके लिये फिर श्रीकृष्णचन्द्रने गोपोंसे कहा कि॥१३॥ अब तुम फिर जाओ और उन ब्राह्मणोंकी स्त्रियोसे कहो कि, कृष्ण बलदेव दोनों भाई गायें चराते चराते यहाॅ आगये हैं और भूखे हैं वह तुमको मुँह माँगा भोजन देकर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करैंगी, क्योंकि वह शरीरसे तो घरमें वास करैहैं, परन्तु उनका मन मुझमेंही लग रहा हैं, इसीसे मुझमें उनका बड़ा प्यार हैं॥१४॥ श्रीकृष्णकी बात सुनकर ग्वाल फिर गये, देखा तो पत्नीशालामें सब ब्राह्मणी शृंगार किये बैठी थीं उनके पास जाकर गोपोंने नमस्कार कर अधीनता से यह वचन कहा॥१५॥ हे ब्राह्मणकी भार्याओ! तुमको नमस्कार हैं, तुम हमारी एक बात सुनो, श्रीकृष्णचन्द्र आपके समीपही आगये हैं, उन्होंने हमको तुम्हारे पास भेजाहैं॥१६॥ ग्वाल बाल और बलदेवजीको संगलेके गायें चराते चराते

मां ज्ञापयत पत्नीभ्यः ससंकर्षणमागतम्॥ दास्यंति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया॥१४॥ गत्वाऽथ पत्नी शालायां दृष्ट्वाऽऽसीनाः स्वलंकृताः॥ नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन्॥१५॥ नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि नः॥ इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम्॥१६॥ गाश्चारयन् स गोपालैः स रामो दूरमागतः॥ बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम्॥१७॥ श्रुत्वाऽच्युतमुपायांतं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः॥ तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसंभ्रमाः॥१८॥ चतुर्विधं बहुगुणमन्नमादाय भाजनैः॥ अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः॥१९॥

इतनी दूर चले आये हैं, इस समय भूखे हैं और उनके मित्र हम भी भूखे हैं, सो कुछ भोजन चाहते हैं तुम कृपा करके हमको दो॥१७॥ नित्य श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी चाहनावाली और कृष्णचन्द्रकी कथामें तन, मन, धन, लगानेवाली, वह ब्राह्मणोंकी स्त्रियें व्रजभूषणका आना सुनकर अत्यन्त हर्षमान हुईं, क्योंकि उनका मन तो पहिलेही श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दमें लग रहा था॥१८॥ बड़े बड़े थालोंमें सुन्दर सुगन्ध युक्त चारप्रकारका भोजन भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य (चने, चवैना, रोटी, पूरी यह भक्ष्य) (दाल, भात, इत्यादि भोज्य) (कढी, क्षीर, इत्यादि लेह्य) (ऊख, आम, नींबू, इत्यादि चोष्य) सब ब्राह्मणोंकी स्त्रियें अपने मनमोहनप्यारेके लिये भोजन लेलेकर ऐसे धाईं जैसे नदियें

समुद्रमें को जाती हैं॥१९॥ उनके पति, भाई, बन्धु, पुत्रोंने बहुतेरा रोका परंतु वह न रुकीं। क्योंकि उनके मन तो श्रीकृष्णचन्द्रके चरणार विन्दमें बरसोंसे लग रहे थे तब उन ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंने॥२०॥ उसी अशोक वृक्षके नवपल्लवोंसे शोभायमान यमुनाके निकट उपवनमें ग्वाल बालोंको संग लिये भाई बलराम समेत मनमोहनप्यारेको फिरते देखा॥२१॥ श्यामस्वरूप, पीतवसन धारन किये, वनमाला पहिरे, मोर पुच्छका मुकुट शीशपर धरे, खरिया, गेरूके छाप लगाये, धातु मूॅगा पहिरे, नटवर वेष बनाये, सखाके कण्ठमें भुजा डाले, दूसरे हाथमें कमलके फूलको घुमाते, कानोमें कमलके फूल लटकाये, कपोलोंपर अलकेंछिटकाये, मन्दमन्द मुसकाते श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥२२॥ हे राजन्! जैसे जैसे गुण कृष्ण प्यारेके अपने कानोंसे सुनके देखनेकी अत्यन्त अभिलाषा थी वैसेही प्रत्यक्ष जाकर अपने नेत्रोंसे देखे

निषिध्यमानाः पतिभिर्भ्रातृभिर्वंधुभिः सुतैः॥ भगवत्युत्तमश्लोके दीर्घश्रुतधृताशयाः॥२०॥ यमुनोपवनेऽशोकन वपल्लवमंडिते॥ विचरंतं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः॥२१॥ श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्हधातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे॥ विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥२२॥ प्रायः श्रुतप्रियतमो दयकर्णपूरैर्यस्मिन्निमग्नमनसस्तमथाक्षिरंध्रैः॥ अंतः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं प्राज्ञं यथाभिमतयोर्विजहुर्नरेंद्र॥२३॥ तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया॥ विज्ञायाखिलदृग् द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः॥२४॥ स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम्॥ यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः॥२५॥

और अपने आपको परमबडभागी समझकर उस व्रजराजके अनूप स्वरूपको नेत्रोंके द्वारा हृदयमें लेजाकर बहुत देरतक आलिंगन किया और मनमोहनप्यारेको वहीं रहनेको स्थान दे सर्वत्र तापको त्याग दिया, जैसे अहंकार वृत्तियाॅ सुषुप्ति अवस्थाकी साक्षी हैं उनको आलिंगन करके और उन्हींमें लीन होकर सब तापको त्याग देती हैं॥२३॥ पुत्रादिक गृहादिककी सब आश छोड़कर मेरा दर्शन करनेके लिये आई हैं उन ब्रह्मपत्नियोंको देखकर सबकी बुद्धिकी परीक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचंद्र मुसकराके बोले॥२१॥ कि, हे बडभगिनीयो! तुमने बहुत अच्छा किया जो यहाॅ आईं आओ आओ हमारे समीप बैठो! इस समय हम तुम्हारी क्या शुश्रुषा करैं? हमारे लिये क्या आज्ञाहैं? हमा

रा

दर्शन करनेके लिये आई दो सो तुमको योग्य हैं, तुम हमको भूखा समझकर इस महानिर्जन वनमें भोजन लेकर आईं, इससे अधिक और कुछ दया हैं? इसके बदलेमें हम तुम्हैं क्या दें? जो इस समय हमारा घर भी धोरे होता तो कुछ पान फूल तुम्हारे आगे धरते सो वृन्दावनभी हमारा यहाँसे बहुत दूर हैं, हमसे आपकी कुछ भी सेवा न बन पडी, इस बातका बड़ा पछतावाहैं और हमारा मुख नही जो आपके प्रेमकी और परिश्रमकी प्रशंसा करसकैं, इस समय हम सब प्रकारसे लाचार हैं॥२५॥ अपने स्वार्थके देखनेवाले ज्ञानी पुरुष आत्मारूप प्रिय जो मैं हूॅ, सो मुझमें फलकी बुद्धि अनिच्छा करके निरन्तर यथार्थ साक्षात् भक्ति करते हैं॥२६॥ परन्तु आत्मा सबसे अधिक प्रिय हैं। विचार लो प्राण, बुद्धि, मन, तनु, धन, स्त्री, पुत्र, आदिक सब वस्तु जिस आत्माके सम्बन्धसे प्रिय लगते हैं फिर भला उस आत्मासे बढ़कर और कौनसी वस्तु प्रिय हैं॥२७॥

नन्क्द्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शनाः॥ अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा॥२६॥ प्राणबुद्धिमनस्स्वात्मदारापत्यधनादयः॥ यत्संपर्कात्प्रिया आसंस्ततः कोन्वपरः प्रियः॥२७॥ तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः॥ स्वसत्रं पारयिष्यंति युष्माभिर्गृहमेधिनः॥२८॥ पत्न्य ऊचुः॥ मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम्॥ प्राप्ता वयं तुलसिदामपदावसृष्टं केशैर्निवोढुमतिलंघ्य समस्तबंधून्॥२९॥

इसलिये हे सुशीलाओ! अब तुम अपनी यज्ञशालामें जाओ तुम कृतार्थ होगईं पति तुम्हारे गृहस्थ हैं, जबतक तुम न जाओगी तबतक यज्ञ पूर्ण न होगा, क्योंकि, विना स्त्रीके यज्ञ पूरा नहीं होता इसलिये वह लोग यज्ञको तुम्हारे साथही पूरा करेंगे॥२८॥ विप्रपत्नियोंने कहा कि, हे नाथ! आपको अपने कोमल मुखारविन्दसे ऐसे कठोर वचन नहीं कहने चाहिये, क्योंकि आपहीने गीतामें कहा हैं, (न मे भक्तः प्रणश्यति) अर्थात् मेरे भक्तोंका नाश नहीं होता (न स पुनरावर्तते) अर्थात मुझमें प्राप्त होकर फिर लौट नहीं आता, यह आपहीकी आज्ञा हैं, फिर अपनी प्रतिज्ञाको सत्य क्यों नहीं करते? इधर उधर क्या देख रहे हो? तुमने अपने चरणसे जो तुलसीकी माला ठुकरादी हैं उसको बड़े आदर सत्कारसे शिरपर चढ़ानेके लिये अर्थात् आपके चरणारविन्दकी सेवा करनेके लिये आपकी शरण आई हैं, अब सब बन्धुजनोंको त्यागकर आपके चरण शरण हैं॥२९॥

हे दीनदयालु! हम यही चाहती हैं कि, आपहीके चरणारविन्दमें हमारे देह पडे रहैं, स्वर्गादिकका सुखभोग हम नहीं चाहतीं, हमको तो अपना दासभावही अच्छा हैं॥३०॥ द्विजपत्नियोंकी प्रेम प्रीति भरी मधुर वाणी सुनकर मनहरणप्यारे स्नेहयुक्त मनोहर वचन बोले कि, तुम निःसन्देह अपने घर जाओ, तुम्हारे पति, पिता, तात, माता, भ्राता, पुत्र, तुम्हारी कुछ निंदा न करेंगे और संसारमें भी कोई मनुष्य तुमको दोष न लगावेगा, देवताओंको साक्षात् दिखलाकर कहा कि, सब देवता और मनुष्यों को मेरा कहना स्वीकार हैं॥३१॥ इस संसारमें शरीरके स्पर्श होनेसे प्रीति नहीं रहती और अनुराग भी नहीं बढ़ता, इसलिये, तुम घरमें रहकर मुझमें मन लगाओ तो बहुत शीघ्र मुझको पाओगी॥३२॥ (मेरा स्मरण, दर्शन, ध्यान, कीर्त्तन करनेसे जैसा भाव मुझमें होता हैं वैसा समीप रहनेसे नहीं होता, इसलिये तुमको उचित हैं कि, शीघ्र अपने

गृह्णंति नो न पतयः पितरौ सुता वा न भ्रातृबंधुसुहृदः कुत एव चान्ये॥ तस्माद्भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो नान्या भवेद्गतिमरिंदम तद्विधेहि॥३०॥ श्रीभगवानुवाच॥ पतयो नाभ्यसूयेरन्पितृभ्रातृसुतादयः॥ लोकाश्च वो मयो पेता देवा अप्यनुमन्वते॥३१॥ न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यंगसंगो नृणामिह॥ तन्मनो मयि युंजाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥३२॥ (स्मरणाद्दर्शनाद्ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्॥ न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्॥) श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्ता मुनिपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः॥ ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन्॥३३॥ तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवंतं यथाश्रुतम्॥ हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबंधनम्॥३४॥ भगवानपि गोविंदस्तेनैवान्नेन गोपकान्॥ चतुर्विधेनाऽऽशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः॥३५॥

मखभवनको जाओ)॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, इसप्रकार जब श्रीकृष्णने द्विजपत्नियोंको समझाया तब वह द्विजांगना यज्ञशालामें पहुॅची और उन ब्राह्मणोंने कुछ अपराध उनको न लगाया, निर्दोष समझकर अपनी स्त्रियोंके साथ आनन्दपूर्वक यज्ञ समाप्त किया॥३३॥ जिस समय सब स्त्रिये श्रीकृष्णके पासको भोजन लेकर चलीं उस समय एक स्त्रीके पतिने अपनी स्त्रीको जानेसे रोक लियाथा, उसनें जैसा श्रीकृष्णका रूप, रंग, स्वभाव कानोंसे सुन रक्खाथा उसी रूपका ध्यानकर हृदयमें आलिंगन करके कर्मोंके अधीन जो देह था उसको त्यागकर चैतन्यस्वरूप भगवद्रूपमें लय होगई॥३४॥ और जो जो पक्वान्न मिठाई द्विजपत्नियोंने लाइ थीं उन चारप्रकारके व्यंजनोंको यमुनाके निकट

कुंजोंकी छायामें बैठ, अतिप्रसन्न हो श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी अपने हाथसे भोजन करातेथे और सब सखा उन भोजनोंकी प्रशंसा कर करके प्रेमसे भोग लगारहे थे। जब सब सखा भोजन कर चुके तो पीछे अपने आप भी भोजन करके ब्राह्मणियोंकी बड़ी सराहना की॥३५॥ इस प्रकार मनुष्यरूप धारण कर लीला करके लोगोंकी सदृश गोप गोपियोंको आनंददेके आपभी उनके साथ रमण करते भये॥३६॥ इसके उपरान्त वह ब्राह्मण अपने भोजन न देनेके अपराधको स्मरण करके दुःख पाते भये क्योंकि श्रीकृष्ण और बलदेवको सामान्य मनुष्य समझके अन्न नहीं दिया॥३७॥ उन अपनी पत्नियोंकी श्रीकृष्ण भगवान्में अलौकिक प्रीति देखकर और अपने आपको भक्तिहीन समझकर

एवं लीलानरवपुर्नृलोकमनुशीलयन्॥ रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः॥३६॥ अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः॥ यद्विश्वेश्वरयोर्याच्ञामहन्म नृविडंबयोः॥३७॥ दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम्॥ आत्मानं च तया हीनमनुतप्ता व्यगर्हन्॥३८॥ धिग् जन्म नस्त्रिवृद्विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम्॥ धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे॥३९॥ नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी॥ यद्वयं गुरवो नृृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः॥४०॥ अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद्गुरौ॥ दुरंतभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान्गृहाभिधान्॥४१॥

अत्यन्त दुःखी हो बारम्बार अपने आपको धिक्कार दे देकर अपनी निन्दा करते थे॥३८॥ शुद्ध माता पितासे, सावित्री यज्ञोपवीत हुएसे, यज्ञकी दीक्षा लियेसे यह तीन प्रकारका हमारा जन्म हैं इसको हमारी विद्याको हमारे कर्मको और हमारी चतुराईको बारम्बार धिक्कार हैं हमारे व्रत करनेको धिक्कार हैं हमारे अनेक शास्त्रके पढ़नेको धिक्कार हमारे कुलको और क्रिया दक्षताको भी धिक्कार हैं, क्योंकि जिससे जगदीश्वर भगवान्से विमुख हुए इसलिये हमको धिक्कार हैं और इस हमारी अधम बुद्धिको धिक्कार हैं॥३९॥ निश्चय हैं कि, भगवान् वासुदेवकी माया योगियोंको मोह उपजानेवाली हैं, इस मायासे मनुष्योंमें गुरु ब्राह्मण जो हम हैं सो स्वार्थमें मोहित

होरहेहैं हाय अहो बड़े आश्चर्यकी बातहैं देखो। जगद्गुरु श्रीकृष्णचन्द्रमें स्त्रियोंकी कैसी अलौकिक भक्ति हैं देखो। जिस भक्तिने गृहरूप मृत्युकी, फॉसियोंको काट दिया॥४०॥४१॥ तो विचारतो करो यह स्त्रीकी जाति, कैसी अशुद्ध हैं न तो इनके उपवीतसंस्कार हैं न गुरुके समीप वास हैं न तप हैं न जप हैं न आत्माका विचार हैं न पवित्रताहैं न सुकर्म हैं॥४२॥ तो भी योगीश्वरोंके ईश्वर परपुरुष श्रीकृष्णभगवान्में जैसी इन अबलाओंकी अचल भक्ति हैं ऐसी हम स्नान सन्ध्या जप तप करनेवालोंकी भी नहीं तो धिक्कार हैं हमारे इस संस्कार और यज्ञव्यवहारको॥४३॥ हम लोग कुछ भी अपने अर्थको नहीं पहिचानते घरके व्यवहारमें भूल रहे हैं और ऐसे अचेत हैं कि आगे पीछेकी कुछ भी सुधि नहीं, महात्माओंके आनन्द देनेवाले श्रीकृष्ण

नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि॥ न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥४२॥ अथापि उत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे॥ भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्करादिमतामपि॥४३॥ ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया॥ अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः॥४४॥ अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्याशिषांपतेः॥ ईशितव्यैः किमस्माभिरीशस्यैतद्विडंबनम्॥४६॥ हित्वाऽन्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशयाऽसकृत्॥ आत्मदोषापवर्गेण यद्याच्ञा जनमोहिनी॥४६॥ देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः॥ देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥४७॥ स एष भगवान्साक्षाद्विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः॥ जातो यदुष्वित्यशृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे॥४८॥

भगवान्ने गोपोंके वचनोंसे हमैं सचेत किया हाय! तो भी हम मूर्ख न चेते इसमें किसीका कुछ दोष नहीं यह सब हमारे कर्मोंका फल हैं॥४४॥ पूर्ण जिनका मनोरथ मोक्षादिक सब मनोरथोंके अधीश्वर श्रीकृष्णभगवान् उनको हमसे माया के वशीभूत पामर जीवोंसे क्या प्रयोजन था? केवल भातका मांगना तो ईश्वरका कौतुक था॥४५॥ देखो! त्रिभुवनेश्वरी लक्ष्मी ब्रह्मादिक देवता और सब संसारको छोड़कर चरणारविन्दके स्पर्शकी चाहना करके अपना चंचलपना और दोष दूर करनेके लिये जिनका दिन रात भजन करती हैं उन श्रीकृष्णका माॅगना केवल हम लोगोंको मोहका उत्पन्न करनेवाला हैं॥४६॥ देश काल अलग अलग चरुपुरोडाशादिक द्रव्य, मंत्र, तंत्र, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, धर्म, यह

सब श्रीकृष्णका रूप हैं। सो साक्षात् श्रीकृष्णभगवान् विष्णु योगेश्वरोंके ईश्वरने यदुकुलमें आनकर जन्म लियाहैं, यह बात हमने पण्डितलोगोंके मुखसे सुनी थी, परन्तु तो भी हम जान बूझकर मूर्ख अज्ञानी होगये॥४७॥४८॥ कोई कोई ब्राह्मण कहनेलगे कि, अहो हम बड़े धन्यहैं क्योंकि हमारी ऐसी भक्तिमती स्त्री हुईं कि, जिनकी भक्तिके प्रभावसे कृष्ण भगवान्में हमारी भी दृढ़ भक्ति हुई॥४९॥ अकुण्ठ बुद्धि जो आप श्रीकृष्ण भगवान् हैं, सो आपके लिये बारम्बार नमस्कार हैं, जिसकी मायासे मोहितबुद्धि हो हम कर्म मार्गमें भटकते फिरते हैं॥५०॥ संसारकी मायासे जो हमारा चित्त मोहित हो रहाहैं और आपकी महिमाको हम नहीं जानते, ऐसे जो हम अज्ञनी लोगहैं सो हे दीनदयालु! हमारा अपराध क्षमा

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः॥ भक्त्या यासां मतिर्जाता ह्यस्माकं निश्चला हरौ॥४९॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु॥५०॥ स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम्॥ अविज्ञातानुभावानां क्षंतुमर्हत्यतिक्रमम्॥५१॥ इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः॥ दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्भीता न चाऽचलन्॥५२॥ इति श्रीमद्भाग० म० द० पू० यज्ञपत्न्युद्धरणदीक्षितानुतापनं नाम त्रयोविंशोध्यायः॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः॥ अपश्यन्निवसन्गोपानिंद्रयागकृतोद्यमान्॥१॥ तदभिज्ञोऽपि भगवान्सर्वात्मा सर्वदर्शनः॥ प्रश्रयावनतोऽपृच्छद्वृद्धान्नन्दपुरोगमान्॥२॥

कीजै॥५१॥ श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्के अपराधी जो ब्राह्मण हैं, उनको अपने अपराधको स्मरण करके कृष्ण, बलदेवके दर्शनकी इच्छा हुई परन्तु कंसके भयके मारे नही जासके॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां यज्ञपत्न्युद्धरणं नाम त्रयोविशोऽध्यायः॥२३॥ दोहा— चौविसवें अध्यायमें, इन्द्र यज्ञको त्याग। गोवर्द्धन पूजन कियो, सबन सहित अनुराग॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले हे राजन्! श्रीकृष्ण भगवान् अपने बड़ेभाई बलदेवजी सहित सुखसे रहते थे कि, इन्द्रके यज्ञकी तय्यारी होती देखते भये॥१॥ सब प्राणियोंके आत्मा भगवान् सर्वव्यापक सब बतोके जाननेवाले, जानते भी थे कि इन्द्रके यज्ञका प्रबंध होरहा हैं तो भी नंदरानीसे बूझने

लगे कि माताजी! आज क्या हैं? जो घर घर पकवान मिठाई बन रही हैं और तुम भी बडी धूमधाममें हो? मुझे समझाकर कहो कि, यह क्या भेद हैं? जो मेरे मनका संशय मिटै? यशोदा बोली कि, पुत्र! इस समय मुझको सावकाश नहीं यह सब वृत्तान्त तुम अपने पितासे जाकर बूझो वह तुम्हारा सब सन्देह दूर करदेंगें। यह सुन नन्दजीके पास जाकर श्रीकृष्ण बोले॥२॥ कि, पिता! आज क्या हैं? जो सब व्रजमें कड़ाही खड़क रही हैं और अनेक अनेक प्रकारके व्यञ्जन बन रहे हैं, सब ठौर ठौर! कोलाहल मचरहा हैं और ग्वालबाल चारों ओर भागे भागे फिरते हैं, क्या उत्सव हैं? किस देवता के नामको यज्ञ हैं? क्या इसका फल हैं? कौनसे देवता की पूजन हैं? क्या क्या उसमें गुण हैं? कौन इसका अधिकारी हैं? किस किस वस्तुसे यज्ञ होताहैं॥३॥ हे पिता! मुझे इस बातके सुननेकी बड़ी अभिलाषा हैं। सज्जन पुरुष सब प्राणियोंमें और स्थानोंमें आत्माको

कथ्यतां मे पितः कोऽयं संभ्रमो व उपागतः॥ किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥३॥ एतद्ब्रूहि महान्कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः॥ न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह॥४॥ अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्त विद्विषाम्॥ उदासीनोऽरिवद्वर्ज्य आत्मवत्सुहृदुच्यते॥५॥ ज्ञात्वाऽज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति॥ विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्॥६॥ तत्र तावत्क्रियायोगो भवतां किं विचारितः॥ अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छत साधु भण्यताम्॥७॥

देखते हैं उनसे कोई कर्म छिपा नहीं हैं और छिपानेके योग्य भी नहीं हैं॥४॥ साधु पुरुष अपना बिराना कुछ नहीं समझते उनकी समदृष्टि हैं, मित्र उदासीन! वा वैरी भी उनका कोई नहीं होता, उदासीन तो शत्रुकी सदृश वर्जित हैं, सुहृद् आत्माकी समान मानना चाहिये, इससे उसको अवश्य सम्मतिमें साथ करले॥५॥ यह प्राणी जानकर भी कर्म करता हैं और बिना जाने भी कर्म करता हैं परंतु जानकर जो करता हैंउसका फल तत्काल मिलता हैं और जो बिना जाने कर्म करता हैं उसका कार्य किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता॥६॥ आपने जो यह यज्ञका अनुष्ठान कर रक्खा हैं सो शास्त्रकी रीतिसे किया हैं, अथवा लोकरीतिसे किया हैं और यह रीति आपके यहाँ परम्परासे चली आई हैं वो आज

किसीने नई बताई हैं, यह आपसे मेरा निवेदन हैं कि, आप कृपाकर मुझसे कहो॥७॥ श्रीकृष्णके गम्भीर वचन सुनकर नन्दगयजी बोले किवेटा! क्या यह वृत्तान्त तुमने आजतक नहीं सुना? मेवरूप भगवान् इन्द्र हैं और वही उनकी प्यारी मृति दे यही प्राणियों प्राणोंकी रक्षा करे नेवाला हे और संतोष देनेवाले जलकी वर्षा करता हैं॥८॥ मेवाका राजा भगवान् इन्द्र देउसीम भी और मारके दूसरे ‘पतिके बरसाये जलसे उत्पन्न हुवा जो अन्नं हैं उसीसे यह यजन करते हैं, उसके करनेसे देवता, पितृ, प्रमुत्र होते हैं।अनेक उत्पन्न होती हैं वन उपवन फूलतेहैं, तृण, घास उत्पन्न होताहैं, उससे सब पशु, पक्षी, जीव, जन्तु आनन्द पातेहैं और उसे भजनकरनेके उपरान्त जो

नंद उवाच॥ पर्जन्यो भगवानिंद्रो मेधास्तस्यात्ममूर्तयः॥ तेऽभिवर्षतिः भृतानां प्रीणनं जीवनं पयः॥८॥ तं तातवयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम्॥ द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥९॥ तच्छेपेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलतवे॥ पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः॥१०॥ य एव विसृजेन्धर्मंपारंपर्यागतं नरः॥ कामाल्लोभाद्भयाद्वेपात्सवै नाप्नोति शोभनम्॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ वचो निशम्य नन्दस्य तथाऽन्येषां व्रजौकसाम्॥ इन्द्राय मन्युं जनयन्पितरं प्राह केशवः॥१२॥ श्रीभगवानुवाच॥ कर्मणा जायते जंतुः कर्मणैव विलीयते॥ मुखं दुःखं भयं क्षेम कर्मणेवाभिपद्यते॥१३॥

शेषान्नरहजाता हैं उसीकी प्राप्तिके लिये अपनी जीविका करके धर्म करते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्षका सेवन करते हैं॥९॥१०॥ हेपुत्रयह इन्द्रयज्ञकी रीति हमारे यहाँ परम्परासे चली आई हैं, आज ही किसी पण्डिनने नईनहीं बताई,जो धर्म परम्परासे चला आयाहैं और जो मनुष्य काम, लोम, भय, द्रोहसेउसको छोड़ देते हैं उन पुरुषोंका कभी कल्यान नहीं होना॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेपरीक्षित्! नंदराय और वृद्ध वृद्ध व्रजवासियोंके ऐसे वचन सुनकर इन्द्रके उपर अत्यन्त क्रोधकरके उसका वढानेके लिये श्रीकृष्णभगवन्ने अपनेपिता नन्दादिकसे कहा॥१२॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे पिताजी ! कर्महीसेप्राणी जन्म लेताहैंऔर कर्महीसेदेहका त्याग करताहैं, दुःख, सुख, भय, कल्यान,

कुशल यह सब कर्महीके अधीन हैं॥१३॥ कोई कोई मतवाले ऐसा कहते हैं कि, ईश्वर प्राणियोंके किये हुए कर्मोंके फलका देनेवाला हैं इससे तो यह सिद्ध हुवा कि, ईश्वर कर्मोंके वशीभूत हैं जैसा कर्म जिसने किया वैसाही फल मिला ईश्वर अपनी ओरसे कुछ नहीं करसक्ता, इस बातसे यह निश्चय हुवा कि, फलकी सिद्धि देनेवाला कर्मही प्रधान रहा, इसलिये कर्मही जब मुख्य पर ठहरा तो फिर ईश्वर क्या वस्तु हैं? उसे तो ऐसा समझो कि, जैसे बकरीके कण्ठके स्तन॥१४॥ जब कर्मही प्रधान ठहरा, तो इन्द्रसे क्या प्रयोजन? जब सब प्राणी अपने अपने कर्मोंके अनुसार भोग भोगते हैं, पूर्वजन्मके संस्कारजन्य जो कर्म हैं उनको इन्द्रभी किसी प्रकार नहीं घटा बढ़ा सक्ता॥१५॥ प्राणी स्वभावहीके वशीभूत हैं और स्वभावहीको वर्तैं हैं देवता, असुर, मनुष्य यह सब स्वभावहीके वशमें हैं और कर्मकी प्रवृत्ति भी स्वभावके अधीन हैं तो फिर उस प्रवृत्तिमें ईश्वरकी

अस्तिचेदीश्वरः कश्चित्फलरूप्यन्यकर्मणाम्॥ कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः॥१४॥ किमिंद्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्॥ अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥१५॥ स्वभावतंत्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते॥ स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥१६॥ देहानुच्चावचाञ्जंतुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा॥ शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः॥१७॥ तस्मात्संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत्॥ अंजसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्॥१८॥ आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति॥ न तस्माद्विंदते क्षेमं जारं नार्यसती यथा॥१९॥

कुछ आवश्यकता नहीं॥१६॥ यह जीव कर्महीसे छोटे बड़े देहको पाता हैं और त्यागता हैं। कर्मही शत्रु हैं, कर्मही मित्र हैं, कर्मही गुरु हैं, कर्मही ईश्वर हैं॥१७॥ इस लिये स्वभावमें स्थित होकर अपने कर्मोंका अनुष्ठान करे। यही मुख्य हैं। यद्यपि देवताके नामसे यज्ञ, व्रत, पूजन, हवन, किया बस उस करनेहीका नाम कर्म हैं। यद्यपि तुमको यह सन्देह हो कि, बिना देवताके हमारा कार्य सिद्ध नहीं हो सक्ता, देवताही हमारा कार्य करता हैं, तो भी देवता कर्मकेही अधीन ठहरा, देखो? तुम किसी देवताका नाम लेकर अग्निपर दूधका पात्र रखदो, वह दूध औटजायगा और देवताका नाम नहीं भी लो तो भी औटजायगा, परंतु बिना अग्निपर धरे किसी प्रकार नहीं औट सक्ता, तो मुख्य कर्मही ठहरा, क्योंकि बिना कर्म कुछ नहीं होसक्ता अनायास पूर्वक कर्मकी पूजाकरै और जिससे जिस पुरुषका निर्वाह हो वही उसका देवता हैं॥१८॥ जो पुरुष एक पदार्थका सेवन

करके दूसरे पदार्थका सेवन करते हैं, वह पुरुष कभी कल्याणको नहीं पाते।जैसे व्यभिचारिणी स्त्री परपुरुषका सेवन करके कल्याणको नहीं पाती॥१९॥ हे पिता! चारो वर्णोको चाहिये कि, अपने अपने धर्मपर आरूढ़ रहैं। ब्राह्मणको चाहिये वेद पढ़ै और उसीसे अपनी आजीविका करै। क्षत्रियको चाहिये कि, पृथ्वीकी रक्षा करें, वैश्य व्यापारादिकसे अपना उदर पूर्ण करै और शुद्रको चाहिये कि. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सेवा करके अपना प्रतिपाल करै॥२०॥ खेती, वाणिज्य, गोरक्षा और व्याजलेना यह चार प्रकारकी वैश्यकी जीविका है।इन चारोंमें हमारे तो सदा गायोसेही जीविका हैं॥२१॥ हे पिता! ऐसा कभी मत समझना कि हमारी गायोंकी बृद्धि और आजीवका इन्द्रहीके अधीन हैं, क्योंकि सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण इन्हीं तीन गुणोसे विश्वका पालन उत्पत्ति नाश होता हैं। इस रजोगुणसे स्त्री पुरुषसे मिलके त्रिविध जगत् उत्पन्न होता

वर्त्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः॥ वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया॥२०॥ कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तुर्यमुच्यते॥ वार्त्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्॥२१॥ सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यंतहेतवः॥ रजसोत्पद्यते विश्वमन्योन्यं विविधं जगत्॥२२॥ रजसा चोदिता मेघा वर्षंत्यंबूनि सर्वतः॥ प्रजास्तैरेव सिद्ध्यंति महेंद्रः किं करिष्यति॥२३॥ न नः पुरो जनपदा न ग्रामा न गृहा वयम्॥ नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः॥२४॥ तस्माद्गवां ब्राह्मणानामद्रेश्चारभ्यतां मखः॥ य इंद्रयागसंभारास्तैरयं साध्यतां मखः॥२५॥ पच्यंतां विविधाः पाकाः सूपांताः पायसादयः॥ संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम्॥२६॥

हैं॥२२॥ रजोगुणकी प्रेरणासे मेघ सर्वत्र स्थानोंपर जल वर्षाते हैं, उसी जलसे प्रजाका जीवन होता हैं, इन्द्र इसमें क्या करसक्ता हैं॥२३॥ हमारे तो पुर, देश, नगर, ग्राम, घर कुछ भी नहीं हैं, हे तात! केवल वनही हमारा घर हैं और सदा वन और पर्वतोंमें हमारा वास हैं॥२४॥ इसलिये गौ, ब्राह्मणकी सेवा करनी उचित हैं और पर्वतोंका पूजन करना चाहिये जिससे हमारी गायोंका और हमारा पालन पोषण हो, सो हमारे समीप सब पर्वतोंमें श्रेष्ठ गोवर्द्धनपर्वत हैं उसीके यज्ञका प्रारम्भ करो, जो इन्द्रके यज्ञके लिये सामग्री इकट्ठी करी हैं उसी सामग्रीसे गोवर्द्धनके यज्ञका प्रारम्भ करो॥२५॥ खीरसे आदि लेके दालतक अनेक अनेक प्रकारके व्यञ्जन बनाओ, गेहूंकी पूरी, कचौरी, उडद,

मूंगकी दाल, कंढ़ी, पकौरी, रायता, चुनौरी, शाक, वासमतीके चावलोंका भात, दूध, दही, रबड़ी, मलाई और सब गायोंका दूध इकट्ठा करो॥२६॥ वेदके पढ़नेवाले ब्राह्मणोंको बुलाकर हवनकी सामग्री मँगाकर, अग्निमें होम कराओ और उन ब्राह्मणोंको भाँति भाँतिके अन्नं, गोदान, दक्षिणा और अलंकार पहिराओ॥२७॥ और जो दीन भिखारी, कुत्ते चांडालसे आदि लेकर पतिततक हैं, सबको यथायोग्य भोजन कराओ गायोंको घास दो, गोवर्द्धनपर्वतको बलिदान दो॥२८॥ अच्छे अच्छे वस्त्र आभूषण पहिर चन्द्रनका तिलक लगाय, नये नये वस्त्र धारण करके, शृंगार बनाओ गौ, ब्राह्मण, अग्नि, पर्वतकी प्रदक्षिणा करो॥२९॥ हे पिता! मेरा तो यह मत हैं, आगे आपकी इच्छा हो सो कीजै यह गौ, ब्राह्मण और गोवर्द्धनपर्वतका यज्ञ मुझको तो अत्यन्त प्रिय हैं॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इन्द्रका गर्व दूर करनेके

हूयंतामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः॥ अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः॥२७॥ अन्येभ्यश्चाऽऽश्वचां डालपतितेभ्यो यथार्हतः॥ यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः॥२८॥ स्वलंकृता भुक्तवंतः स्वनुलिप्ताः सुवाससः॥ प्रदक्षिणं च कुरुत गोविप्राऽनलपर्वतान्॥२९॥ एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते॥ अयं गोब्राह्मणा द्रीणां मह्यं च दयितो मखः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ कालात्मना भगवता शक्रदर्पजिघांसया॥ प्रोक्तं निशम्य नंदाद्याः साध्वगृह्णंत तद्वचः॥३१॥ तथा च व्यदधुः सर्वं यथाह मधुसूदनः॥ वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद्द्रव्येण गिरिद्विजान्॥३२॥ उपहृत्य बलीन्सर्वानादृता यवसं गवाम्॥ गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम्॥३३॥

लिये कालरूप भगवान्का बचन सुनकर नन्दादिक गोपोने और सब व्रजवासियोंने परस्पर कहा कि, हे पुत्र! मैं तेरा वचन, किसीप्रकार नहीं फेरसक्ता और न कोई और फेर सकै जो बात तुझको अच्छी लगै हम सब उसीमें प्रसन्न हैं इस बातको सुनकर बड़े बड़े जो वृद्ध गोप थे, वह कहने लगे कि, कृष्ण सत्य कहता हैं, हमारा इन्द्रसे क्या प्रयोजन हैं? हमको तो नदी, पहाड़, वन सदा बने रहैं॥३१॥ जिस प्रकार मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा उसीप्रकार सब व्रजवासी स्वस्तिवाचन वचायके संपूर्ण इन्द्रके यज्ञकी सामग्री करते भये॥३२॥ पर्वत और द्विजोंको आदर युक्त यथाविधि सन्मान करके सब व्रजवासी गोवोंको आगे करके गोवर्द्धन पर्वतराजकी परिक्रमा करते भये॥३३॥

फिर धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, अक्षत, पान, सुपारी गिरिराजके आगे पर आस्तीकर ….ष्ठान्नके ढेरके डेर चढ़ाने लगे, इतनी मिठाई चढी कि, सम्पूर्ण पर्वत ढकगया और दूध, दही, घृत इतना चढाया कि, नदियें बहने लगीं और जहाँ तहाँ अनेक रंगके थानके थान तान दिये, उससमय गिरिराज ऐसे शोभायमान जान पडते थे मानो भगवान् विराट् श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलनेको आये हैं, उस अद्भुत शोभाको देखकर व्रजवासी प्रसन्न हो होकर॥३४॥ ब्राह्मणोंका आशीश लेते भये वहाँ व्रजवासियोंके प्रतीति करानेके लिये श्रीकृष्णने नया कौतुक एक और किया, अपना दूसरा रूप और प्रगट किया कि, मैंही हूं गोवर्द्धन पर्वत, अतिशय बृहत् शरीर बड़ी लम्बी लम्बी भुजायें बडा चौडा लम्बा मुख, अखण्ड प्रकाश, महास्थूल जंघा और जानू और शैलकें शिखरकी समान शीश, रत्नजटित मुकुट धरे, आभूषण पहिरे, कण्ठमैं वनमाला पीताम्बर धारण किये

अनास्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलंकृताः॥ गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायंत्यः सद्द्विजाशिषः॥३४॥ कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रंमणं गतः॥ शैलोऽस्मीति ब्रुवन्भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः॥३५॥ तस्मै नमो ब्रजजनैः स चक्रे आत्मनाऽऽत्मने॥ अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात्॥३६॥ एषोऽवजानतो मर्त्यान्कामरूपी वनौकसः॥ हंति ह्यस्मै नमस्यामःशर्मणे आत्मनो गवाम्॥३७॥

गिरिराजकी कन्दरामेंसे निकलकर बोले॥३५॥ फिर तो सब गोप गोपी भोजनके थाल और परातें उठा उठा गिरिराजको पकड़ाते जाते थे, और वह प्रसन्न हो हो खाते थे और प्रत्येक भोजनकी प्रशंसा भी करतेथे, निदान जो कुछ पकवान मिठाई नन्दादिक व्रजवासी लेगये थे, उस सबको निर्वार प्रसादमात्र छोड दी, तब तो श्रीकृष्णचन्द्र सबसे पुकारकर कहनेलगे कि, हे पिता! हे भ्रातृगण! देखो गिरिराजने आज कैसी प्रत्यक्ष रूपसें दर्शन दिया और तुम्हारे ऊपर अनुग्रह किया, देखा आपने गिरिराजका कौतुक कभी इन्द्रनेभी इस प्रकार प्रगट होकर दर्शन दिया था? और अपने हाथसे इसप्रकार भोजन किया था? सबने उस गिरिराजको नमस्कार करना॥३६॥ यह गोवर्द्धननाथ अपने पूजनेवालोंपर सदा दयादृष्टि रखते हैं और जो कोई वनवासी इनका तिरस्कार करनेवाले हैं उनको सिंह सर्पादिक रूपसे कालकौर करलेते हैं, इसलिये

अपने और गायोंके मंगलार्थ इनको बारम्बार नमस्कार और दण्डवत करो॥३७॥ इसप्रकार सम्पूर्ण गोप वासुदेव भगवान्की आज्ञासे भलेप्रकार यज्ञ करके श्रीकृष्णचन्द्रको सङ्ग लेके गोवर्धनसे व्रजको आवत भये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे भाषाटीकायां इन्द्रमखभंगो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ दोहा— पच्चिसमें व्रजपर चढो, इन्द्र खाय कर खार। हरि व्रजकी रक्षा करी, करपर गिरिवर धार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इन्द्रने अपनी पूजाका लोप देखकर श्रीकृष्ण भगवान्ही

इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रणोदिताः॥ यथा विधाय ते गोपाः सहकृष्णा व्रजं ययुः॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे

दशमस्कंधे पू० इन्द्रमखभंगो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ श्रीशुक उवाच॥ इन्द्रस्तदात्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप॥ गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप सः॥१॥ गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चांतकारिणाम्॥ इंद्रः प्राचोदयत्क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमा

न्युत॥२॥ अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्॥ कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्॥३॥

जिनके नाथ हैं उन नंदादिक व्रजवासियोंको अपना शत्रु समझ अत्यंत कोप किया कि क्या कारण मेरी पूजा छोडकर गोवर्द्धनकी पूजा की *॥ उसी समय प्रलय करनेवालोंमें मुख्य सांवर्तक नाम गणको बुलाकर आज्ञादी (मैंहीं इन्द्र हूं) ऐसे अभिमानी इन्द्रने महाक्रोध करके अत्यन्त कठोर वचन कहा॥२॥ अहो बड़े आश्चर्य की बात हैं, वनके रहनेवाले, गँवार गायोंको चरानेवाले जातिके ग्वालियोंको लक्ष्मीका कैसा मद हुआहै जिन्होंने मनुष्य कृष्णका आश्रय लेकर (मैं सुराधीश इन्द्र हॅू) मेरा अपराध किया और कुछ आगा पीछा न विचारा, सत्यहै मूर्ख कहीं

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* शंका— इन्द्रको विनयसे भगवान्ने पृथ्वीमें अवतार लिया था सो इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णकी निन्दा क्यों की?

उत्तर— भगवान्की प्रिया जो देवी थी उसका अनादर इन्द्र अपने अभिमान और अज्ञानसे नित्य किया करता था, उस अपने इन्द्रके किये अनादरको देवीने स्मरण करके और अपना पक्षपाती श्रीकृष्णको समझकर प्रथम इन्द्रका उपद्रव देवीने नहीं किया, उससमय तो सहन करलिया फिर पीछे श्रीकृष्णका पक्षपात कर देवीने इन्द्रको मोहित कर लिया, मोहको प्राप्त होकर इन्द्र उन्मत्त हो भगवान्को भूल गया और व्रजके ऊपर प्रलयके करनेवाले मेघोंको भेजकर मूसलधार जल वर्षाया यह कारण था॥

ज्ञान सिखानेसे ज्ञानी हो सक्ता हैं?॥३॥ जो अदृढ़ नौकाकी सदृश यह कर्ममय यज्ञ हैं, इससे आत्माका कल्याण जिससे होता हैं, उस आत्मविद्याको छोड़कर हठकी करनीपर बैठ इस संसारसमुद्रके पार होना सहजमें ही चाहता हैं॥४॥ वह वाचाल, मूर्ख, अज्ञानी किसीकी बातको नहीं मानता और अपने आपको बड़ा पण्डित और ज्ञानी जानता है, और ऊंच नीचको कुछ नहीं पहिचानता। ऐसे छोटी अवस्थावाले मूर्ख मनुष्य श्रीकृष्णका आश्रय ले उन गॅवार ग्वालिनियोंने सब संसारमें मेरी अवज्ञा की॥५॥ लक्ष्मीके मदके मतवाले गोप कृष्णके सिखाने बुझानेसे हमैं इन गँवारोंने कुछ न समझा और हमारा तिरस्कार करके यज्ञभाग पर्वतको दिया, उस नाचनेवाले कृष्णका भरोसा करके अपने प्राणोंकी कुशल चाहते हैं तो तुम उनके सबके गर्वका और गायोंका नाश करो॥६॥ और ठौर वर्षनेका कुछ काम नहीं केवल चौरासीकोस व्रजपरही ऐसी वर्षा करो कि गोवर्द्धन पहाड़का खोजमात्र भी न रहै अरु गाय बछडोंका तो ऐसा विनाश करना कि, उनका कोई नाम लेवा और पानी

यथाऽदृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नाम नौनिभैः॥ विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षंति भवार्णवम्॥४॥ वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पंडितमानिनम्॥ कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्॥५॥ येषां श्रियाऽवलिप्तानां कृष्णेनाध्मायि तात्मनाम्॥ धुनुत श्रीमदस्तंभं पशुन्नयत संक्षयम्॥६॥ अहं चैरावतं नागमरुह्यानुव्रजे व्रजम्॥ मरुद्गणैर्महावीर्यैर्नं दगोष्ठजिघांसया॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबंधनाः॥ नन्दगोकुलमासारैः पीडया मासुरोजसा॥८॥ विद्योतमाना विद्युद्भिः स्तनंतः स्तनयित्नुभिः॥ तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः॥९॥

देवा भी न रहैं, लाख वह हाय हाय करैं परन्तु तुम कुछ दया चित्तमें मत लाना, क्योंकि जैसा उन्होंने किया हैं उस अपनी करनीका फल तो भोगैं, तुम किसीप्रकारका संदेह मत करना मैंभी तुम्हारे पीछे पीछे ऐरावत हाथीपर चढ़ देवताओंकी सेना समेत और सब प्रलय करनेवाले मेघोंको और उञ्चास (४९) मरुद्गण पवनोंको भी साथ लाऊँगा व्रजतो क्या? वहांकी भूमितक बहादूंगा फिर देखूं जगत्में किसकी सामर्थ्य है जो व्रजवासियोंकी रक्षा करें॥७॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि हे राजन्! मेघोंने इसप्रकार इन्द्रकी आज्ञा पाय मुक्तबंधन हो नंदरायके गोकुलपर बलते बडी वर्षा करने लगे॥८॥ चारों ओरसे घटा घिर आईं, बिजली चमकने लगीं, बादलोंके गर्जनेका गम्भीर शब्द होनेलगा; तीब्र मरुद्गणोंने मेघोंको चलायमानकर ओलोंकी झडी लगादी और मूशलधार वर्षा होंने लगी॥९॥

वर्षाकी धारा हाथीके शुण्डकी समान मोटी बादलोंमेंसे अखण्ड गिरती थी, जिससे समस्त व्रजमण्डल जलमें डूबगया और चारोंओरसे बादलोंके समूहके समूह उमडते चले आते थे, ऊँचे नीचे गाढ़ गढौले और पृथ्वी कहीं नहीं दिखाई देतीथी॥१०॥ बड़े वेगकी वर्षासे और महाप्रचण्ड पवनसे पशु सब थर थर काँपने लगे और गोपी गोप जाड़ेके मारे अत्यन्त दुःखी हो, हाय हाय! करती थर थर काँपती श्रीगोविन्द कृष्णकी शरणमें जाती भई॥११॥ मूसलधार जो जल वर्षा तो उससे पीड़ित होकर गायें अपना शिर नीचे किये बछड़ोंको नीचे लिये, थर थर कॉपती थीं और गोपियें गिरती पड़ती भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके निकट जाकर वोलीं॥१२॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाभाग! हे सामर्थ्यवान! हे भक्तहितकारी! हेगोकुलनाथ! इस महाक्रोधी इन्द्रसे इस अपने गोकुलकी और हमारी रक्षा करो॥१३॥ जब बड़ी बड़ी शिलायें ओलोंकी आकाशसे गिरनेलगीं उनसे बेसुधि

स्थूणास्थूला वर्षधारा मुंचत्स्वभ्रेष्वभीक्ष्णशः॥ जलौघैः प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्नतम्॥१०॥ अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः॥ गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविंदं शरणं ययुः॥११॥ शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्यासारपीडिताः॥ वेषमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः॥१२॥ कृष्णकृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो॥ त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद्भक्तवत्सल॥१३॥ शिलावर्षनिपातेन हन्यमानमचेतनम्॥ निरीक्ष्य भगवान्मेने कुपितेंद्रकृतं हरिः॥१४॥ अपर्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्॥ स्वयागे निहतेऽस्माभिरिंद्रो नाशाय वर्षति॥१५॥ तत्र प्रतिविधिं सम्यगात्मयोगेन साधये॥ लोकेशमानिनां मौढ्याद्धरिष्ये श्रीमदं तमः॥१६॥ न हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीश विस्मयः॥ मत्तोऽसतां मानभंगः प्रशमायोपकल्पते॥१७ ॥

और व्याकुल गोकुलवासियों को देखा, तब सबके दुःख दूर करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्ने जाना कि, यह सब कौतुक उसी महाक्रोधी इन्द्रकां हैं॥१४॥ विना वर्षाऋतुके जो यह महाभयानक शिलाओंकी वर्षा हो रहीहैं और महाप्रलयकेसा प्रचण्ड पवन चल रहाहैं, केवल इसका यही कारण हैं कि, मैंने जो इसके यज्ञको भंग करदिया और इसकी पूजा व्रजसे उठा दी, इसीसे इन्द्र हमारे विनाशके लिये मूसलधार पानी वर्षा रहा हैं॥१५॥ इसकारण अबमैं अपनी सामर्थ्यसे इस महाघोर वर्षाका उपाय करूंगा और उन अज्ञानी लोकपाल और अभिमानी इन्द्रादिक देवताओंको जो लक्ष्मीका मद होगया हैं उस मदको हरूंगा॥१६॥ मेरी भक्ति अथवा सत्त्वगुण जिन देवताओंके हृदयमें व्याप रहाहैंऔर मैंहीं उनका

ईश्वरहूं इसलिये उन देवताओंको अपने पराक्रम और बलका गर्व किसी प्रकार होना नहीं चाहिये, क्योंकि अभिमानमें भक्ति और प्रेम कहाँ? इसलिये जबतक उन अभिमानियोंका मानखण्डन न होगा तबतक वह मेरा मान न करेंगे और मेरा मान किये विना उनका कल्याण कहाँ?॥ १७॥ इससे वह उपाय करूं जो वह मेरी शरण आवे क्योंकि मेरा नाम गोकुलनाथ हैं जब मैंहीं गोकुलकानाथ होकर गोकुलकी रक्षा न करूंगा तो और कौन रक्षा करने आवेगा? क्योंकि सब गोकुलवासी मुझहीको अपना प्राण आधार समझते हैं मुझहीको अपना तन, मन, धन जानते हैं। यह सब मेरेही दर्शनकी अभिलाषा करते रहते हैं मेरे समान और किसी दूसरेको नहीं मानते॥१८॥ यह कह नटवर रूपधर लीलामात्र एक हाथसे गोवर्द्धन पर्वतको उखाड बायें करकी कन अँगुली पर धर, ऊपरको उठा व्रजमण्डलपर छत्रीकी समान तान दिया, जैसे कोई बालक

यस्मान्मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम्॥ गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥१८॥ इत्युत्त्कैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्॥ दधार लीलया कृष्णश्छत्राकमिव बालकः॥१९॥ अथाह भगवान् गोपान् हेंऽबतात ब्रजौकसः॥ यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः॥२०॥ न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने॥ वा तवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः॥२१॥ तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसाः॥ यथावकाशं सधनाः स व्रजाः सोपजीविनः॥२२॥

छत्राकको उखाड़कर ऊपरको उठालेताहैं (यह वह छत्राक हैं जिसको बालक सॉपकी छत्रीकहते हैं)॥१९॥ जब भगवान्ने पर्वतको उठा लिया. तब पीछे गोपोंसे कहा कि, हे भैया! हे पिता! हे ब्रजवासियो! अपनी २ गाय बछड़े बाल बच्चों समेत सुखसे इस पूर्वत के नीचे आजाओ॥२०॥ हे ब्रजवासियो! अपने मनमें यह मत समझना कि, कृष्णके हाथसे गिरि गिरजायगा, यह सब वावा नन्दका प्रभाव हैं, इसमें मेरा कुछ पराक्रम नहीं है, यहाँ पवन पानीका कुछ खटका नहीं अपने मनमें पूर्ण विश्वास करके गिरिकी छायामें चले आओ, मैंने तुम लोगोंकी रक्षाकरनेके लिये गोवर्द्धनको हाथपर उठा लिया हैं, जबलों बहुत वर्षा होय तबलों इसके नीचे सुखसे वास करो॥२१॥ जिन लोगोंको श्रीकृष्णके बलवीर्यका पूरा भरोसा था उन्होंने गाय बछड़े गाड़ी पुरोहितादिक, जिसको पाया उसको नन्द उपनन्द अपने संग ले आनन्दपूर्वक पर्वतके

नीचे गढ़ेलेमें घुसगये, उससमय सब श्रीकृष्णके मुखकी ओरको निहार रहे थे, न किसीको भूख थी न प्यास थी॥२२॥ उस दिनसे व्रजवासीं भूख प्यास तज चकोरकी नाईं श्रीकृष्णचन्द्रके चन्द्रमुखकोही देखतेरहे और श्यामसुन्दर भी सातदिन तक पर्वतको धारण किये एकही ठौर जहाँके तहाँ खड़े रहे, एक तिलभरभी चरणको नहीं सरकाया॥२३॥ और मेघ उसीप्रकार मूशलधार जल बरसातारहा ओले पडते रहे चपला चमकती रही परन्तु ब्रजका कुछ नाश नहीं हुआ, यह बात सुन इन्द्र चकित होगया और कृष्णके योगबलका प्रभाव देख अपने मनमें बडा आश्चर्य मानने लगा और अपनी प्रतिज्ञाकी अवज्ञा देख अत्यन्त व्याकुल हुवा और सब अज्ञान अभिमान धूलमें मिलगया, मेघोंको वर्जने

क्षुत्तृङ्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्ब्रजवासिभिः॥ वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत्पदात्॥२३॥ कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येंद्रोऽतिविस्मितः॥ निस्तंभो भ्रष्टसंकल्पः स्वान्मेघान्स न्यवारयत्॥२४॥ खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम्॥ निशाम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत्॥२५॥ निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः॥ उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥२६॥ ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वंस्वमादाय गोधनम्॥ शकटोढोपकरणस्त्रीबालस्थविराः शनैः॥२७॥ भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत् प्रभुः॥ पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया॥१८॥

लगा कि अब तुम्हारा बल यहां नहीं चलैगा॥२४॥ जब आकाशमें बादल छिन्न भिन्न होगये सूर्यनारायण उदय हुए भयानक वर्षा और पवन चलनेसे बन्द होगई, तब गोवर्द्धनधारी श्रीकृष्णमुरारीने गोपोंसे कहा कि॥२५॥ हे गोपो! स्त्री, बालक, गाय, बछडोंको लेकर तुम इस पर्वतके नीचेसे बाहर निकलो डरो मत। अब पवन वर्षा थम गई, नदियोंका जल भी उतरगया॥२६॥ तब बांकेविहारीकी मधुरवाणी सुन सब गोप अपने अपने बाल बच्चे और गायोंके समूहोंको लेलेकर और गाड़ियोंमें सब वस्तु धर धरकर स्त्री, बालक, वृद्ध सब सहज सहजमें निकले॥२७॥ सर्व समर्थवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सब ब्रजवासियोंके सन्मुख पर्वतको जहाँका तहां रखदिया॥२८॥

प्रेममें प्रफुल्लित हो सब ब्रजवासी परस्पर आनकर यथायोग्य मिलने लगे और स्नेहभरी गोपियें आनन्दपूर्वक दही, अक्षत, जलसे पूजनकर मां गलिक आशिष देने लगीं॥२९॥ यशोदा, रोहिणी, नन्दराय और बलियोंमें बलवान् श्रीबलदेवजी महाराज श्रीकृष्णचन्द्रको हृदयसे लगाकर, स्नेहमें मग्न होकर बारम्बार आशीर्वाद देतेथे॥३०॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! अन्तरिक्षमें देवताओंके समूह, साध्यगण, सिद्ध, गंधर्व, चारण सन्तुष्ट हो हो, स्तुति पढ़ पढ़ फूलोंकी वर्षा करने लगे॥३१॥ हे राजन! स्वर्ग में देवता शंख और दुन्दुभि बजानेलगे, तुम्बुरूआदि गन्धर्वपति श्रीमुकुन्दभगवान्के गुणानुवाद गानेलगे॥३२॥ नंद उपनन्द बलराम सहित मनमोहनप्यारे मित्रोको

तं प्रेमवेगान्निभृता व्रजोकसोयथा समीयुः परिरंभणादिभिः॥ गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन्मुदा दध्यक्षताद्भिर्युयुजः सदा शिषः॥२९॥ यशोदा रोहिणी नंदो रामश्च बलिनां वरः॥ कृष्णमालिंग्य युयुजुराशिषः स्नेहकातराः॥३०॥ दिवि देवगणाः साध्याः सिद्धगंधर्वचारणाः॥ तुष्टुवुमुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव॥३१॥ शंखदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रणोदिताः॥ जगुर्गंधर्वपतयस्तुंबुरुप्रमुखा नृप॥३२॥ ततोऽनुरक्तैःपशुपैः परिश्रितो राजन्स्वगोष्ठंसबलोऽव्रजद्धरिः॥ तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका गायंत्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू. गोवर्द्धनोद्धरणं नाम पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते॥ अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः॥१॥ बालकस्य यदतानि कर्माण्यत्यद्भुतानि वै॥ कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्॥२॥

संगले व्रजमें आये और गोपी परमानंद देनेवाली वनमाली श्रीकृष्णकी मनोहर मनोहर लीला गाती चली आती थी, इसप्रकार आनंद सहित सब अपने अपने घर आये॥३३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धें पूर्वाद्धे भाषाटीकायां गोवर्द्धनोद्धरणं नाम पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥ दोहा—छब्बिसमें हरिके चरित, विस्मय युक्त निहार। नन्द गर्गके वचन कह, वरणें यश विस्तार॥॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! गोपोंने गोवर्द्धन उठाना और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अनेक कर्म और प्रभाव देख बड़ा आश्चर्य मान नन्दरायजी के पास आनकर कहने लगे॥३॥ कि,इस बालकके बड़े अद्भुत चरित्र हैं, इन्हें देखकर हमको संदेह होता है कि, अपने स्वरूपके और इस ग्रामके रहनेवाले पुरुषोंमें इनका जन्म

होना कैसे संभवहै ?॥२॥ क्योंकि जो सातवर्षके बालकने एक हाथसे लीलापूर्वक जिसप्रकार हाथी कमलको उठा लेता है, उसीप्रकार पर्वतको उठालिया॥३॥ और नेत्र मूंदे हुए अति छोटी अवस्थामें इस वालकने बडे वेगवाली पूतनाके स्तनोंको प्राण सहित पान किया था, जैसे काल यौवन अथवा आयुर्बलको पीता है॥४॥ देखो! तीन महीनेके होके गाडियोंके नीचे पालनेमें सोतेहुए रोते रोते जो इस बालकने ऊपरको पॉव उछाले, तो चरणकी ठोकर लगकर गाड़ी उलटकर कैसी गिरी थी?॥५॥ और देखो! जब एकही वर्षका कृष्ण आँगनमें बैठा खेल रहा था, तब आकाशमें दैत्य तृणावर्त्त इसे हरकर लेगया, उस दैत्यका गला घोटकर इसने कैसा मारा?॥६॥ और देखो! कभी

यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया॥ कथं विभ्रद्गिरिवरं पुष्करं गजराडिव॥३॥ तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः॥ पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः॥४॥ हिन्वतोऽधःशयानस्य मास्यस्य चरणावुदक्॥ अनो ऽपतद्विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम्॥५॥ एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा॥ दैत्येन यरतृणावर्तमहन्कंठग्रहा तुरम्॥६॥ क्वचिद्धैयंगवस्तैन्ये मात्रा वद्ध उलूखले॥ गच्छन्नर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत्॥७॥ वने संचार यन्वत्सान्सरामो बालकैर्वृतः॥ हंतुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत्॥८॥ वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशतं जिघांसया॥ हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया॥९॥ हत्वा रासभदतेय तद्वंधूंश्च बलान्वितः॥ चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्वफलान्वितम्॥१०॥ प्रलंवं घातयित्वोग्रं वलेन वलशालिना॥ अमोचयद्रजपशून्गोपांश्चाऽरण्यवह्नितः॥११॥

जब कृष्ण ने माखन चुराया था, तब यशोदाजीने इसे ऊखलसे बॉध दिया इसके उपरान्त इसने वृक्षोंके बीच में आयहाथोंसे उनको कैसा उखाड़ डाला?॥७॥ और देखो! जब वनमेंबलदेवजी सहित बछडे चराते थे उस समय बकासुर इनके मारनेको आया, उसको दोनों हाथोंसे चोंच पकड कैसे चीरडाला?॥८॥ देखो बछड़ोंमें बछडेका रूप धरकर मारनेकी इच्छासे आये हुए वत्सासुरको मार उसकी देहको लीलापूर्वक कैथके वृक्षपर कैसा पटका था? और लीलासेही वह वृक्षपरसे फल भी गिरगये॥९॥ इसके उपरान्त बलदेवजी सहित धेनुकासुरको मार और उसके संगियों को भी मार फल जिनमें पक रहे, उन तालोंको निर्भय कर दिया॥१०॥ फिर महाबलवान् बलदेवजी से अत्यन्त

भयानक प्रलम्बासुर दैत्यको मरवाय और व्रजमें जो अग्नि लगी थी, उससे पशु तथा गोपोंको छुड़ादिया॥११॥ फिर देखो!इसी कृष्णने अति भयानक विषवाले कालीनागको दंड दें, उसके मदको दूरकर बलात्कार दहमें से निकाल यमुनाको निर्विष करदिया॥१२॥ नंद! हम सब ब्रजवासियोंका इनमें बड़ा अनुराग है. अर्थात इतना प्यार होगया है कि, छुटायेसे छूटना अत्यन्त कठिन है और इन श्रीकृष्णका भी हममेंस्वाभाविक प्यार है अर्थात् यह श्रीकृष्ण सबकी आत्मा हैं, यह शंका होती है॥१३॥ क्योंकि सातवर्षका बालक इतना बडाभारी पर्वत उठावै? इसलिये हे ब्रजनाथ! तुम्हारे पुत्रमें हमको शंका उत्पन्न होती है कि, कदाचित् परमेश्वर न हों? इसकारण हम इसका विचार करेंगे कि, तुम्हारे

आशीविषतमार्हीद्रं दमित्वा विमदं हृदात्॥ प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रऽसौ निर्विषोदकाम्॥१२॥ दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन्सर्वेषां नो व्रजौकसाम्॥ नंद ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम्॥१३॥ क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम्॥ ततो नो जायते शंका व्रजनाथ तवात्मजे॥१४॥ नंद उवाच॥ श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शंका च वोऽर्भके॥ एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गों मे यदुवाच ह॥१५॥ वर्णास्त्रयः किलास्यासन्गृह्णतोऽनुयुगं तनूः॥ शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥१६॥ प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः॥ वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः संप्रचक्षते॥१७॥ बहूनि संति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते॥ गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥१८॥

कैसा पुत्र हुआ है॥१४॥ इसप्रकार गोपोंकी बातें सुनकर नंदजी बोले कि, संदेह करनेकी कुछ बात नहीं है, मैं इस बालककी जन्मपत्री लाताहूँ, जो कि, गर्गाचार्यने बनाई है, यह कहकर जन्मपत्री ले आये और बोले कि हे गोपो! मेरी बात सुनो, जिससे इस बालकमेंसे तुम्हारी शंका मिट जायगी, गर्गाचार्यने इस बालकका नाम धरकर मुझे जो जो गुण बताये हैं, सो श्रवण करो॥१५॥ इस बालकके तीन वर्ण हैं और युगयुगमें देह धारण करता है, प्रथम इसका श्वेतवर्णथा, फिर रक्त और श्यामवर्णहुआ और अब इसने कृष्णरूप धारण किया है\।\।१६\।\। इस तुम्हारे पुत्रने पहले कभी वसुदेवके यहाँ जन्म लिया है, इसलिये जानने वाले इसको श्रीमान् वासुदेव कहते हैं॥१७॥ तुम्हारे पुत्रके नाम और रूप बहुत हैं,

इसलिये जैसे जैसे इसमें गुण होंगे वैसे वैसे कर्म करेगा और उन्हींके अनुसार नाम होंगे॥१८॥ यह तुम्हारा कल्याण करेंगे और गोप तथा गायोंको आनंद देंगे, अधिक क्या कहें? इस कृष्णकी सहायतासे तुम संपूर्ण कष्टोंसे सहजमेंही छूट जाओगे^(*)॥१९॥ हे व्रजराज! पहले तुम्हारे पुत्र श्रीकृष्णने राजारहित पृथ्वी में चोरोंसे पीडित साधुओं की रक्षा की थी, तब साधुओंने वृद्धिको प्राप्त हो चोरोंको जीत लिया था॥२०॥

एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनंदनः॥ अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमंजस्तरिस्यथ॥१९॥ पुराऽनेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिताः॥ अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः॥२०॥ य एतस्मिन्महाभागाः प्रीतिं कुर्वेति मानवाः॥ नारयोऽभिभवत्येतान्विष्णुपक्षानिवासुराः॥२१॥ तस्मान्नंदात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः॥ श्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः॥२२॥ इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते॥ मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥२३॥

जो बडभागी पुरुष इन श्रीकृष्णमें प्रीति करते हैं, उनको वैरी नहीं सन्ताप देते। जिस प्रकार विष्णुभगवान् से रक्षित देवताओंको असुर नहीं सता सक्ते॥२१॥ इस कारण हे नंद।तुम्हारा यह पुत्र गुण, शोभा, कीर्ति, प्रभाव इत्यादिमें नारायण के समान है इसके कर्मों में आश्चर्य मत मानना॥२२॥ इसप्रकार साक्षात् गर्गाचार्य मुझसे कहकर अपने घरको चले गये, उसी दिनसे बडे बडे कार्य करनेवालोंमें श्रीकृष्णको मैं नारायणका

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* शंका—नन्दजीसे गर्गमुनिने कहा कि, श्रीकृष्णके कर्मको हम जानते हैं ससारमें और कोई भी नहीं जानता, यह बडे सन्देहकी बात इससे यह ज्ञात होता है कि, गर्गमुनि तो परमज्ञानी थे इनके सिवाय और जो ऋषि मुनि थे यह सब ब्राह्मण नहीं थेगर्गमुनिकी वार्तोसे ऐसा जान पड़ता है।

उत्तर—सब ऋषि मुनियों का निरादर करके गर्गमुनि ऐसी बात कभी नहीं कहसक्ते गर्गमुनिने (अह) पदका यह अर्थ किया कि, हमारी जाति जितनी है ससारमें मुनि, ऋपि, गृहस्थ,किशान, सब श्रीकृष्ण भगवान्के कर्मको जानते हैं यह अर्थ अहपद का किया, कुछ अपने अके लेके लिये नहीं कहा\।\।

अंश मानताहूँ॥२३॥ इसप्रकार ब्रजवासियोंने गर्गाचार्यका वचन नंदरायजीसे सुन प्रसन्न हो नंदजीकी पूजा करी और श्रीकृष्णचंद्रमेंसे उनकी शंका दूर होगई॥२४॥ यज्ञके नाशसे क्रोधित हो इन्द्रने सात दिन रात जब व्रजपर मूशलधार वर्षा की उस समय व्रज पत्थर पवनसे पीडित, ग्वाल बाल पशु और स्त्रियोंको अपनी शरण आये देख जिन भगवान् श्रीकृष्णचंद्रको दया आगई और मुसकाकर जिसप्रकार बालक सर्पकी

इति नंदवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः॥ दृष्टश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः॥ मुदिता नंदमानर्चुः कृष्णं च गत विस्मयाः॥२४॥ देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा वज्राश्मवर्षानिलैः सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं दृष्ट्वानुकंप्युत्स्मयन्॥ उत्पाट्यैककरेण शैलमवलो लीलोच्छिलींध्रं यथा विभ्रद्गोष्ठमपान्महेंद्रमदभित्प्रीयान्न इंद्रो गवाम्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धेंगगगीतनिरूपणं नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥२६॥

छत्रीको उखाड डालता है, उसीप्रकार एक हाथसे गोवर्द्धन पर्वतको उखाड़ धारणकर ‘व्रजकी रक्षा की’ वही इन्द्रके मदको दूर करनेवाले गौवोंके इन्द्र भगवान् वासुदेव हमारे ऊपर प्रसन्न हों॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वाद्धेंभाषाटीकायां गर्गगीतनिरूपणं नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥२६॥

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* शंका—सौ १०० यज्ञ करनेवाले राजा इन्द्रका तिरस्कार करके सुरभी जो गायें हैं उन्होंने अपना इन्द्र श्रीकृष्णको क्यों किया, इन्द्र तो तीन लोकमें एकही है हमने आजतक दूसरा इन्द्र सुना नहीं फिर उन्होंने दूसरा इन्द्र क्यों किया?

उत्तर— इन्द्रने गापोंका नाश करनेके लिये गोकुलमें बढी वर्षा की गायोंको मारना विचारा, इसलिये इन्द्रके दशवेंअशके पुण्यका विनाश होगया, इन्द्रके दशनें अशके पुण्यका बाश होनेसे सुरमियोंने अपना इन्द्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको बनाया क्योंकि गायोंने विचारा कि, इन्द्र ऐसा चाण्डाल है कि, जिसने अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये अधर्म नहीं देखा और गोहत्यासे भी नहीं डरा, तो और दूसरे कामसे क्या डरेगा अबकी बार तो श्रीकृष्णचन्द्रने वचालिया यह दुष्ट ऐसा कर्म फिर कभी करैगा तो हमारी बछिया वछरे सब विप्पस हो जायँगे और वंशका नाश होजायगा, इसलिये कृष्णभगवान्को अपना इन्द्र बनाया\।\।

दोहा—सत्ताइस अध्याय में, लखि श्रीकृष्ण प्रभाव। गायइन्द्र अभिषेक पुनि, वरणों सहज स्वभाव॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!भगवान श्रीकृष्णचंद्रने गोवर्द्धन पर्वत उठाकर जो ब्रजकी रक्षाकी थी, सो देवराज इंद्रने जाकर सब बात कमलयोनि ब्रह्माजीको सुनाई, तब ब्रह्माजी बोले कि, इंद्र! तैंने बडा अपराध किया, पहले मैं भी उनके गोप, ग्वाल, बछडे इत्यादि हरकर अपनी बूढी दाढीपर धूल डाल चुकाहूं, इसके उपरान्त स्वर्गलोकसे सुरभी गौ और इन्द्रलोकसे इन्द्र आये॥१॥ और अपराध करनेके कारण अत्यंत लज्जित हो इन्द्रने एकान्तमें आय सूर्यके समान तेजवाले किरीटको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों से लगाया॥२॥ अमिततेजस्वी श्रीकृष्णचन्द्रका प्रभाव जिस प्रकार कानोंसे श्रवण किया था, उसी प्रकार नेत्रों से देखा और उस समय “त्रिलोकीका ईश्वर मैं हूं” यह मद भी जातारहा, तब देवराज इन्द्र हाथ जोडकर बोले॥३॥ इन्द्रने

श्रीशुक उवाच॥ गोवर्धने धृते शैले असाराद्रक्षिते व्रजे॥ गोलोकादाव्रजत्कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥ विविक्त उपसंगम्य व्रीडितः कृतहेलनः॥ पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा॥२॥ दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः॥ नष्टत्रिलोकेशमद इंद्र आह कृतांजलिः॥३॥ इंद्र उवाच॥ विशुद्धसत्त्वं तव धाम शांतं तपोमयं ध्वस्त रजस्तमस्कम्॥ मायामयोऽयं गुणसंप्रवाहो न विद्यते तेऽग्रहणानुबन्धः॥४॥ कुतो न तद्धेतव ईश तत्कृता लोभा दयो येऽबुधलिंगभावाः॥ तथाऽपि दंडं भगवान्बिभर्ति धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय॥५॥ पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो दुरत्ययः काल उपात्तदंडः॥ हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे मानं विधुन्वञ्जगदीशमानिनाम्॥६॥

कहा कि, तुम्हारा स्वरूप शुद्ध सत्त्वगुणी है, अर्थात् एक रूप है, शांत सर्वज्ञ है, रजोगुण तमोगुणसे रहित है और मायाका जो कार्य्य अज्ञानसे जीवोंको लगरहा है, सो संसार है, यह तुम्हारे स्वरूप में नहीं है॥४॥ हे ईश!देहसंबंध तुमको नहीं है तो उस देह बंधसे करेहुए और अन्य देहके कारण जो काम लोभादिक हैं सो कहाँसे होंगे बहुधा ऐसे काम लोभादिक तो अज्ञानी पुरुषोंको होते हैं, तुम्हारे काम लोभादिक तो नहीं हैं, परन्तु तोभी धर्म की रक्षा और दुष्टोंका मद दूर करनेके लिये तुम दंड देते हो॥५॥ तुम जगत्के पिता, गुरु और ईश्वर हो, नाश रहित, दंडके ग्रहण करनेवाले कालरूप हो, जीवोंका हित करनेके लिये और अपनेको ईश्वर माननेवालोंका मान दूर करनेके लिये अपनी इच्छापूर्वक रूप धरकर

लीला करते हो, तुम्हारी लीलामेंही हमारे मान दूर हो जाते हैं, लोकोंकी वाहवाहमें जीवोंका सत्यानाश हो जाता है॥६॥ जो मुझ सरीखे अज्ञानी भी आपको जगत्का ईश्वर मानते हैं, वे भयके समय भी निर्भय आपका दर्शन कर शीघ्र ही ईश्वरत्वका मद त्याग करदेते हैं और गर्वको छोड़कर सत्पुरुषोंकी और तुम्हारी भक्तिको करते हैं, तुम्हारी सहजकी चेष्टा जो है, सोई दुष्टोंको दण्डरूप है॥७॥ हे समर्थ!ऐश्वर्य के ऐश्वर्यके मदमें डूबेहुए तुम्हारे प्रभावको न जान तुम्हारा अपराध करनेवाले मूढचित्त मेरे ऊपर क्षमाकरो, हे ईश्वर! फिर मेरी ऐसी बुद्धि न हो; यही मैं प्रार्थना करता हूं॥८॥ हे अधोक्षज!इससंसारमें तुम्हारा अवतार और बडा भार जिनसे हो ऐसे सैन्यपालन करनेवाले मुख्य सेनापति

ये मद्विधाऽज्ञा जगदीशमानिनस्त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम्॥ हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजंत्यपस्मया ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम्॥७॥ स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम्॥ क्षंतुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती॥८॥ तवावतारोऽयमधोक्षजेह स्वयंभराणामुरुभारजन्मनाम्॥ चमूपतीनामभवाय देव भवाय युष्मच्चरणानुवर्तिनाम्॥९॥ नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने॥ वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः॥१०॥ स्वच्छंदोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये॥ सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः॥११॥ मयेदं भगवन् गोष्ठनाशायाऽऽसारवायुमिः॥ चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना॥१२॥ त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तंभो हतोद्यमः॥ ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः॥१३॥

योंको मारनेके कारण और तुम्हारे चरणोंका सेवन करनेवाले भक्तोंका कल्याण करनेके लिये है॥९॥ ऐसे जो तुम भगवान् महात्मापुरुष हो, सो तुम्हारे लिये नमस्कार है, शुद्ध अंतःकरणके प्रकाशक भक्तोंके रक्षक, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारे अर्थ नमस्कार है॥१०॥ अपने भक्तोंके ऊपर कृपा करनेके लिये देह धरनेवाले और शुद्ध ज्ञानमूर्ति सर्वरूप सबके कारण सब प्राणियोंके आत्मा तुमको नमस्कार है॥११॥ हे भगवन्! जब मेरा यज्ञ नाशको प्राप्त हुवा तब बडा क्रोध कर मुझ अज्ञानी अभिमानीने ब्रजका नाश करनेके लिये वर्षा और पवन चलाकर करनेके अयोग्य कार्य किये॥१२॥ यह आपने मेरे ऊपर अत्यन्त अनुग्रह किया जो मेरा गर्व दूर कर दिया, उद्यम भी वृथा गया,

तुम सबके ईश्वर आत्मा हो, इसलिये मैं तुम्हारी शरण प्राप्त हुवा हूं॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, इस प्रकार जब देवराज इन्द्रने स्तुति करी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर मेघ के समान गंभीरवाणीसे इन्द्रसे बोले॥१४॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे इन्द्र!मैंने तेरे ऊपर अनुग्रह करनेहीके लिये यज्ञका विध्वंस किया है, क्योंकि तुम देवताओंका राज्य पाकर अचेत हो गये थे, सो अपना स्मरण करानेके लिये यह मैंने किया॥१५॥ क्योंकि ऐश्वर्यमद और धनमदसे अंधे हुये पुरुष दण्ड हाथमें लिये मुझे नहीं देखते और जिसके ऊपर में कृपा करनेकी इच्छा करताहूं, उस पुरुषकी प्रथम संपत्ति हरलेता हूं॥१६॥ हे इन्द्र!अब तुम जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, अहंकार त्यागकर मेरी आंज्ञाका पालन करना और साव

श्रीशु उवाच॥ एवं संकीर्तितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्॥ मेघगंभीरया वाचा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥१४॥ श्रीभगवानुवाच॥ मया तेऽकारि मघवन् मखभंगोऽनुगृह्णता॥ मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येंद्रश्रिया भृशम्॥१५॥ मामैश्वर्यश्रीमदांधो दंडपाणिं न पश्यति॥ तं भ्रंशयामि संपद्भ्योयस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥१६॥ गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम्॥ स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तंभवर्जितैः॥१७॥ अथाह सुरभिः कृष्णमभिवाद्य मनस्विनी॥ स्वसंतानैरुपामंत्र्य गोपरूपिणमीश्वरम्॥१८॥ सुरभिरुवाच॥ कृष्णकृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसंभव॥ भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत॥१९॥ त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इंद्रो जगत्पते॥ भवाय भव गोविप्रदेवानां ये च साधवः॥२०॥ इंद्रं नस्त्वाऽभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम्॥ अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये॥२१॥

धान होकर, अपने अधिकार पर रहना॥१७॥ इसके उपरान्त जब इन्द्र स्तुति कर चुका तब उदारचित्त सुरभी गौने अपनी संतान सहित आकर गोपरूपी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार और संबोधन देकर कहा कि,॥१८॥ हे कृष्ण! हे महायोगिन्! हे विश्वात्मन्! हे विश्वको उत्पन्न करनेवाले! हे अच्युत!हे अखण्डरूप! इन्द्रने तो हमें माराही था परन्तु हे लोकोंके नाथ! आपने बचाया॥१९॥ हे जगत्पति! तुम हमारे श्रेष्ठ देवता हो और तुम्हीं गौ ब्राह्मण के देवता हो और जो साधु हैं उनके कल्याणार्थ हमारे इन्द्र होओ॥२०॥ ब्रह्माजीकी हमें आज्ञा हुई है, इसकारण

इन्द्रपदवी देनेके लिये हम तुम्हारा अभिषेक करेंगी। हे विश्वके आत्मा! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये तुमने अवतार लिया है॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!इसप्रकार कहकर श्रीकृष्णचन्द्रका; यह कामधेनु अपने दुग्धसे अभिषेक करनेलगी और ऐरावत हाथीकी सूंडसेलाये आकाशगंगाके जलसे अभिषेक किया॥२२॥ और इन्द्रने भी देवमाताओंकी प्रेरणासे देवर्षियोंके सहित भगवान्का अभिषेक किया और गोविन्द नाम धरा॥२३॥ और दाशार्हवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका उस समय तुंबुरु, नारदादि, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारण आनकर लोकोंके पापोंको दूर करनेके लिये भगवान्का यश गाने लगे और अति आनंदित होकर देवांगनायें नृत्य करने लगीं॥२४॥

श्रीशुक उवाच॥ एवं कृष्णमुपामंत्र्य सुरभिः पयसाऽऽत्मनः॥ जलैराकाशगंगाया ऐरावतकरोद्धृतैः॥२२॥ इंद्रः सुरर्षिभिः साकं नोदितो देवमातृभिः॥ अभ्यषिंचत दाशार्हं गोविंद इति चाभ्यधात्॥२३॥ तत्रागतास्तुंबुरुनारदादयो गंधर्वविद्याधरसिद्धचारणाः॥ जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः सुरांगनाः संननृतुर्मुदान्विताः॥२४॥ तं तुष्टुवुर्देवनिकाय केतवो व्यवाकिरंश्चाद्भुतपुष्पवृष्टिभिः॥ लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो गावस्तदा गामनयन्पयोद्रुताम्॥२५॥ नाना रसौघाः सरितो वृक्षा आसन्मधुस्रवाः॥ अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽब्रिभ्रदुन्मणीन्॥२६॥ कृष्णेभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनंदन॥ निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः॥२७॥

इसके उपरान्त देवताओंमें मुख्य देवता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति और अद्भुत फूलोंकी वर्षा करनेलगे, उस समय तीनोंलोक परम आनंदको प्राप्त होगये। फिर गौ दूधसे पृथ्वीको भिजोने लगीं॥२५॥ जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका गोविंदाभिषेक किया, उस समय नदियें अनेक प्रकारके रसोंकी बहनेवाली होगईं और वृक्षोंमेंसे मदकी धारा चूने लगी, बिना जोते खेत भी आपही पकने लगे और पर्वतोंने अपनी गुफाओंमेंसे मणियोंको बाहर निकालकर धर दिया\।\।२६॥ हे कुरुकुलके आनंददाता परीक्षित्! जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रका गोविन्दाभिषेक हुआ, उस समय

क्रूरस्वभाववाले सिंहादिक जीवोंका भी वैरभाव दूर होगया॥२७॥ इसप्रकार गोकुलके रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको गोविंदाभिषेक कर वह इन्द्रदेवताओंको संग ले स्वर्गको चलागया॥२८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां गोविंदाभिषेको नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ दोह—अट्ठाइसमें नन्दको, लाये कृष्ण छुटाय॥ गोपोंको वैकुण्ठ सव, हितकारी दियो दिखाय॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजन्। नन्दजीने एकादशीका निराहार व्रत करके भगवान्का पूजन किया, दूसरे दिन द्वादशी दो घड़ी थी उस समय पारण करनेके लिये अरुणोदयसे पहले

इति गोगोकुलपतिं गोविंदमभिषिच्य सः॥ अनुज्ञातो यर्यो शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पृ० इंद्रस्तुतिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम्॥ स्नातुं नंदस्तु कालिंद्या द्वादश्यां जलमाविशत्॥१॥ तं गृहीत्वाऽन्यद् मृत्यो वरुणस्यासुरोंतिकम्॥ अविज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि॥२॥ चुक्रुशुस्तमपश्यतः कृष्ण रामेति गोपकाः॥ भगवांस्तदुपश्रुत्य पितरं वरुणाहृतम्॥३॥ तदंतिकं गतो राजन्स्वानामभयदो विभुः॥ प्राप्तं वीक्ष्य हृषीकेशं लोकपालः सपर्यया॥ महत्या पूजयित्वाऽथ तद्दर्शनमहोत्सवः॥४॥

रात्रिमें धर्मसत्रके बलसे स्नान करनेके कारण यमुनाको गये, तब नंदरायजीने आसुरीवेलाको न जानकर यमुनाजीमें प्रवेश किया*॥१॥ इसलिये वरुणका एक दैत्य सेवक उन्हें पकड़ वरुण के पास लेगया॥२॥ नंदरायजीको न देख जो गोप संग गयेथे वह हे कृष्ण! हे राम! इस प्रकार पुकारनेलगे, उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, पिताको वरुण लेगया यह बात सुन अपने भक्तोंको अभयके देनेवाले वरुणके पास गये॥३॥ श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करने से बडा आनंद पाय लोकोंके पालन करनेवाले वरुणजीने इन्द्रियोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आये देख, बड़ी

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शंका— भागवतमें लिखा है कि, नन्दजी एकादशीका व्रत करके जब चार घडी पिछलीरात रही तब भगवान्की पूजा करके यमुनामें स्नान करने गये, इसमें यह शका होती है कि, विना स्नान कियेभगनान्का पूजन कैसे किया क्योंकि जो प्राणी विना स्नान किये भगवान्‌का पूजन करताहैंतो महादोषहोताहै?

उत्तर— महात्मा पुरुष भगवान्‌का पूजन ऐसे नहीं करते, मानसिक पूजन करते हैं, मानसिक पूजनमें भगवान् प्रसन्न भी होते हैं, इसलिये नन्दजी मानसिक पूजन भगवान्का करके पीछेसे स्नानको गये॥

पूजाकी सामग्रियोंसे पूजा करके कहा॥४॥ वरुणजी बोले कि, आज तुम्हारे दर्शन करनेसे मेरा जन्म सफल हुआ और आजही मेरे मनोरथ भी सफल हुये, हे भगवन्! तुम्हारे चरणारविन्दोंका जो भजन करते हैं, वह संसारके पार हो मोक्षको प्राप्त होजाते हैं॥५॥ परिपूर्णरूप, संपूर्ण जीवोंके साक्षी जिनके समान किसीका ऐश्वर्य नहीं, ऐसे भगवान्‌को नमस्कारहै और जिनके स्वरूपमें लोकोंकी रचना करनेवाली माया नहीं सुनी जाती॥६॥ धर्मकी महिमा और कार्यको नहीं जाननेवाला मूढ मेरा अनुचर तुम्हारे पिताको ले आया, सो अपराध क्षमा करो\।\।७\।\। हे श्रीकृष्ण! मेरे ऊपर तुम अनुग्रह करनेके योग्य हो, गोविंद! हे पितृवत्सल!अपने पिताको तुम ले जाओ॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ

वरुण उवाच॥ अद्य मे निभृतो देह अद्यार्थोऽधिगतः प्रभो॥ त्वत्पादभाजो भगवन्नवापुः पारमध्वनः॥५॥ नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने॥ न यत्र श्रूयते माया लोकसृष्टिविकल्पना॥६॥ अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना॥ आनीतोऽयं तव पिता तद्भवान्क्षन्तुमर्हति॥७॥ ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुमर्हस्यशेषदृक्॥ गोविंद नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल॥८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रसादितः कृष्णो भगवानीश्वरेश्वरः\।\। आदायागात्स्वपितरं बन्धूनां चावहन्मुदम्॥९॥ नंदस्त्वतींद्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम्॥ कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत्॥॥१०॥ ते त्वौत्सुक्यधियो राजन्मत्वा गोपास्तमीश्वरम्॥ अपि नः स्वगर्ति सूक्ष्मामुपाधास्यदधीश्वरः॥११॥ इति स्वानां स भगवान्विज्ञायाखिलदृक् स्वयम्॥ संकल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचितयत्॥१२॥

परीक्षित्!इसप्रकार ब्रह्मादिकोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जब वरुणजीने प्रसन्न किया, तब अपने पिता और बंधु बांधवोंको आनंद देते वहॉसे चले॥९॥ जो प्रथम कभी देखनमें न आया, ऐसा वरुणका ऐश्वर्य और श्रीकृष्णचन्द्रमें उनकी प्रीति देख नन्दरायजी अति आश्चर्य मान अपनी जातिके गोपोंसे कहने लगे कि, प्रथम मुझे ले जाकर एक कोनेमें बैठाय दिया, इसके उपरान्त यह कृष्ण गया, तब इसे देख वरुणने नमस्कार करके पूजा की॥१०॥ हे राजन्! उत्कण्ठायुक्त बुद्धिसे ब्रजवासी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ईश्वर मान विचार कर कहने लगे कि, श्रीकृष्णचंद्र क्या हमको वैकुण्ठधाम प्राप्त करेंगे? ब्रह्मादिकोंके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र अपने ब्रह्मस्वरूपका दर्शन करावेंगे॥११॥ इसप्रकार सबके देखनेवाले भगवान्

श्रीकृष्णचन्द्र अपने व्रजवासियोंका मनोरथ जान उसे पूर्ण करनेके लिये कृपाकरके यह विचार करने लगे॥१२॥ कि, इस संसारमें प्राणी देहमें अहंकार काम, कर्म इत्यादिसे देवता, पशु, पक्षी आदि जो जो योनि हैं, उनमें भटकता फिरता है और अपना स्वरूप नहीं जानता॥१३॥ इस प्रकार करुणा निधान भगवान्ने विचारकर गोपादि सब ब्रजवासियोंको ब्रह्मरूप दिखाया और इसके उपरान्त मायासे परे जो वैकुण्ठधाम है उसका दर्शन कराया॥१४॥ अब ब्रह्म स्वरूपका वर्णन करते हैं, सत्य अर्थात् बाधारहित ज्ञानस्वरूप है, अनंत अर्थात् गननेमें न आवे, ज्योति अर्थात् स्वयं प्रकाश है, गुणोंके निषेधमें सावधान मुनीश्वर उस रूपको देखते हैं॥१५॥ वह संपूर्ण व्रजवासी ब्रह्मस्वरूप देहमें प्राप्त होते ही मग्न होगये, फिर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कृपा कर वहाँसे निकाल वैकुण्ठलोक दिखाया, जहाँ प्रथम महात्मा अक्रूरजी गये थे, यहाँ शंका है कि, ब्रह्म में डूबे को वैकुण्ठलोकका

जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः॥ उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन्॥१३॥ इति संचिंत्य भगवान्महाकारुणिको हरिः॥दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम्॥१४॥ सत्यं ज्ञानमनंतं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्॥ यद्धि पश्यंति मुनयो गुणापाये समाहिताः॥१५॥ ते तु ब्रह्महृदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्धृताः॥ ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राऽक्रूरोऽध्यगात्पुरा॥१६॥ नंदादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानंदनिर्वृताः॥ कृष्णं च तत्र च्छंदोभिः स्तूयमानं सुविस्ताः॥१७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दानयनवैकुण्ठप्रदशनं नामाष्टाविंशतितमोऽध्यायः॥२८॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः॥ वीक्ष्य रंतु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥१॥

दर्शन नहीं बनता तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जिन श्री कृष्णचन्द्रकी कृपा से पहले अक्रूरजीने दर्शन किया था, उन्हीं श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे इन लोगोंने दर्शन किया, क्योंकि अचिन्त्य ऐश्वर्यमान भगवान् श्रीकृष्णचंद्रमें कुछ यह वात अनुचित नहीं है॥१६॥ हे नृप!वहॉ वेदोंसे होती हुई श्रीकृष्णचन्द्रभगवान्की स्तुति देख और नंदादि सब ब्रजवासियोंने वैकुण्ठ धामका दर्शन कर परमानंदसे सुखी हो वडा आनन्द प्राप्त किया॥१७॥ इति श्रीमद्भागवते महारापुणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां नन्दानयनवैकुण्ठप्रदर्शनं नामाष्टविंशोध्यायः॥२८॥ दोहा—उनतिसमें हरिने कियो, रास विलास बनाय। अन्तर्धान भये तुरत, सवन वहीं छिटकाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!गोपकन्याओंसे जिन

रात्रियोंकी प्रतिज्ञा की थी जब वही शरदृतु आनकर उपस्थित हुई कि जहाँ तहाॅ चमेली खिलरहीं थीं उन रात्रियोंको देख योगमायाका आश्रय ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रमण करनेका मनोरथ करने लगे॥१॥ और उसी समय सुखदायक किरणोंसे पूर्वदिशा मुखको अरुण करते भगवान् चन्द्रमा उदय हुये, जैसे परदेशसे बहुत दिनोंमें पुरुष आकर अपनी प्यारीके मुखको केशर लगाकर लाल करता है॥२॥ परिपूर्ण मंडल और लक्ष्मीके मुखके समान कांति नवीन केशरकी तुल्य अरुण चन्द्रमाको देख और राकाकी कोमल किरणोंसे रंगे वृन्दावनको देख भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र स्त्रियोके मनहरण करनेवाले कलरवसे गीत गानेलगे, इस कलरवमेंसेही बीजमंत्र ‘क्लीं’ निकलता है॥३॥ प्रेमात्मक कामको बढ़ानेवाले गीतको श्रवणकर श्रीकृष्णचन्द्रने जिनके मन हर लिये हैं वह स्त्रिये जहाँ पति श्रीकृष्णचन्द्र थे वहॉ आईं और अरी किशोरी वहां चलैगी, इस प्रकार परस्पर

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिंपन्नरुणेन शंतमैः॥ स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन् प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः॥२॥ दृष्ट्वा कुमुद्वंतमखंडमंडलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम्॥ वनं च तत्कोमलगोभिरंजितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्॥३॥ निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः॥ आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्य माः स यत्र कांतो जवलोलकुंडलाः॥४॥ दुहंत्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः॥ पयोऽधिश्रित्य संयावमनुद्वास्यापरा ययुः॥५॥ परिवेषयंत्यस्तद्धित्वा पाययंत्यः शिशून्पयः॥ शुश्रूषंत्यः पतीन् काश्चिदश्नंत्योऽपास्य भो जनम्॥६॥ लिपंत्यः प्रमृजंत्योऽन्या अंजंत्यः काश्च लोचने॥ व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णांतिकं ययुः॥७॥

कह अत्यन्त शीघ्रतासे चलीं, चलती समय उनके कानोंके कुण्डल हिलते जाते थे॥४॥ कितनीहीं गोपियें उत्कण्ठाके मारे दूहतीहुई गायोंको छोड़कर चली आईं और दूसरी चूल्हे पर चढेहुए दूधको वैसाही छोडकर चलीं, बहुत गोपियें गेहूंका पकाहुआ पदार्थ चूल्हेपरही छोडकर चलदीं॥५॥ कितनीही एक पत्तल परोसती थीं सो वंशीकी ध्वनि सुनतेही छोडकर चलीं आईं और कितनी एक गोपी अपने देवर जेठके बालकोंको दूध पिलातीथी, उनको छोड आई, कोई कोई गोपी अपने पतिकी सेवा करनेसेही चलीं और कोई कोई भोजन करनेसेही चली आई\।\।६\।\। कोई २ गोपी घरोंको लीपतीं, कोई नेत्रोंमें अंजन लगाती, कोई पॉवोंके गहने हाथों में पहर और हाथों के पावोंमें पहर, लहॅगा ओढ़, ओढ़नी पहर, भगवान्

मुरली मनोहरके पास आई॥७॥ “यद्यपि गोपियोंके शृंगार उलटे पुलटे थे, परन्तु तोभी योगमायाने सुधार दिये थे” *यद्यपि पति, पिता, माता, भ्राता और जातियोंने मनेभी किया परन्तु तो भी भगवान् केशवमूर्तिने जिनके मन हरलिये थे, उन गोपियोंने किसीका कहना नहीं माना॥८॥ किसी गोपीको उनके पुरुषोंने घरमें बन्द करदिया, जब निकलनेका मार्ग न मिला तब उनने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीकी इच्छाकर ऑंखें मूँद उनका ध्यान किया॥९॥ सहन न किया जाय, ऐसे प्यारेके विरहरूप तापसे पाप जिनके दूर होगये और ध्यानमें प्राप्त हुए भगवान्

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिर्भ्रातृबन्धुभिः॥ गोविंदापहृतात्मानो न न्यवर्तत मोहिताः॥८॥ अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः॥ कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः॥९॥ दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभाः॥ ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः॥१०॥ तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्याऽपि संगताः॥ जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥११॥ राजोवाच॥ कृष्णं विदुः परं कांतं न तु ब्रह्मतया मुने॥ गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम्॥१२॥

श्रीकृष्णचन्द्रको आलिंगन करके, सुखके पुण्य से बंधन उनके दूर होगये, ऐसे अत्यन्त विरहके दुःख और श्रीकृष्णकी अत्यन्त प्राप्तिके भोगसे एक संगही सब प्रारब्धकर्म क्षीण होजानेसे मुक्त हुईं॥१०॥ जारबुद्धिसे परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रको पाय बंधन जिनके कटगये, ऐसी गोपियोंने गुणोंके बने देहको तत्कालही त्याग दिया और दिव्य देह धारण कर सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलीं॥११॥ यह सुनकर राजापरीक्षित् बोले कि, हे महाराज! वह गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको केवल जार मानतीथीं, ब्रह्मपनसे उनको किंचित् भी भाव नहीं था, फिर
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*दृष्टान्त—जैसे आठ छल शैर करनेको निकले बागमें जाकर कहा कि, मांग बनावो, सो मीठीही छानी और मिठाईके लालचसे तीन २ लोटे गडगप्प करगये अर्थात् पोगये, एक मित्र उनमें चतुर था, तो इसने मनमें विचार किया कि, अभ्यास तो है नहीं और तीन तीन लोटे चढागये हैं, जब यह बेसुधि होजायँगे तो इन्हें कौन सँमालेगा? उसने एक चुल्लूमरही पी थी, अब चढा जो नशा तो किसीकी तो पाग गिरगई किसीका पटका खुलगया, किसीकी धोती खुलगई और जिस्को नशा नहीं था उसने सबको सँभाल लिया इसी प्रकार योगमायाने सबको सुधार दिया\।\।

गुणमय बुद्धिवाली उन गोपियोंके गुणोंका प्रवाह संसारसे कैसे छूटगया?॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!यह बात मैंने आपसे प्रथमही वर्णन की थी कि, जब शिशुपाल, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे शत्रुभाव रखता हुआ भी मुक्तिको प्राप्त हुआ, तब प्रीति करनेवाली गोपियोंके तरनेमें क्या आश्चर्य है?॥१३॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! अव्यय, अप्रमेय, निर्गुण और गुणोंके नियन्ता श्रीकृष्णचन्द्रका जो प्रगट होना है, सो पुरुषोंका कल्याण करनेके लिये है, इस कारण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जीवके समान कहना संभव नहीं॥१४॥ काम, क्रोध, भय, स्नेह, एकभाव

श्रीशुक उवाच॥ उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः॥ द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः॥१३॥ नृणां निश्श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप॥ अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः॥१४॥ कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च॥ नित्यं हरौ विदधतो यांति तन्मयतां हि ते॥१५॥ न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे॥ योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद्विमुच्यते॥१६॥ ता दृष्ट्वांतिकमायाता भगवान्व्रजयोषितः॥ अवदद्वदतां श्रेष्ठो वाचःपेशैर्विमोहयन्॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः॥ व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम्॥१८॥

सौहृद जो पुरुष नित्य भगवान् वासुदेवमें करते हैं, वह पुरुष तन्मय होजाते हैं॥१५॥ हे राजन्!अजन्मा योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें तुम आश्चर्य मत करो, क्योंकि उनमें प्रेम करनेसे स्थावरभी संसारसे छूट जाते हैं॥१६॥ * बोलनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने व्रजकी स्त्रियोंको अपने पास आया देख वाणियोंके विलाससे मोहित करके कहा॥१७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे बड़भागिनियो! भली आई आओ मैं तुम्हारा क्या आदर करूं? व्रजमें तो कुशल है और यहां कैसे आईं इसका कारण कहो॥१८॥

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* दृष्टांत—प्रेमसे मावसहित श्रीनारायणकी कथा सुन ले, कहीं श्रीमद्भागवत की कथा बैठी थी, किसीने कहा लालाजी सुननेको चलो लालाजीने उत्तर दिया कि, जब दशमस्कन्ध प्रारम्भ होगा तवचलेंगे, फिर जब दशम होने लगा तो लालाने कहा कि, पचाध्यायीमें चलेंगे जहाँ श्रीकृष्णने, लाखों गोपी बुलाकर उनके सग विहार किया, हम भी वैसाही करेैगे, जैसे वीर पुरुष कढखे सुनकर आगे वढते हैं, उसीप्रकार विषयी विषयसे और जगह जो मात्र बिगडे तो ठिकाना लग भी जाय और जो साक्षात् कृष्णकांता त्रैलोक्य जननीमें भाव बिगडा तो उसका सत्यानाशही हो जाता है॥

क्योंकि यह भयानक रात्रि है, सिंह, व्याघ्रादि घोर प्राणी यहाँ फिरते हैं, इसकारण तुम अपने घरको जाओ, हे सुमध्यमे। स्त्री जाति होकर यहाँ मति रहो॥१९॥ देखो तुम्हारे माता, पिता, पुत्र, भ्राता, पति तुमको विना देखे ढूँढ़ते होगे इसलिये वन्धुओंको घबराहट मत करो॥२०॥ क्योंकि फुलवार जिसमें फूल रही चन्द्रमाकी किरणोंसे रॅगाहुआ यमुनासे लग मंद पवनसे हिलनेवाले वृक्षोंके पातसे शोभायमान वन तुमने भली भाँति देख लिया॥२१॥ इस कारण तुम व्रजमें जाओ, अव विलम्ब मत करो, तुम पतिव्रता हो पतियोंकी सेवा करो, क्योंकि वहॉ बछड़े रम्भाते होंगे, बालक रोते होंगे, जाओ। बालकोंको दूध पिलावो और गायों को दुहो॥२२॥ अथवा मेरे स्नेहसे वशीभूत अंतःकरणसे तुम आईं, सो तुमको

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता॥ प्रतियात ब्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः॥१९॥ मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः॥ विचिन्वंति ह्यपश्यंतो मा कृध्वं बंधुसाध्वसम्॥२०॥ दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररंजितम्॥ यमुनाऽनिललीलैजत्तरुपल्लवशोभितम्॥२१॥ तद्यात मा चिरं गोष्ठंशुश्रूषध्वं पतीन्सतीः॥ क्रंदंति वत्सा बालाश्च तान्पाययत दुह्यत॥२२॥ अथवा मदभिस्नेहाद्भवंत्यो यंत्रिताशयाः॥ आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयंते मयि जंतवः॥२३॥ भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया॥ तद्वंधूनां च कल्याण्यः प्रजानां चानुपोषणम्॥२४॥ दुश्शीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा॥ पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी॥२५॥ अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्॥ जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियः॥२६॥

योग्यही है, क्योंकि सब जीव मुझमें प्यार करते हैं॥२३॥ हे मंगलरूपिणियो!निष्कपट होकर पतियोंकी सेवा करो, देवरोंकी सेवा करो, और पुत्रोंका पोषण करो, यही स्त्रियोंका परम धर्म है॥२४॥ यदि कदाचित् अपना पति खोटे स्वभावयुक्त हो, दुर्भाग्य हो अथवा वृद्ध हो, मूर्ख हो, रोगी हो, दरिद्री हो तोभी स्वर्गकी जिनको चाहना है, ऐसी स्त्रियोंको त्यागने योग्य नहीं है और जो पतित हो तो त्यागने योग्य है॥२५॥ कलियुगकी स्त्रियोंको उपपतिके सेवन करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता बरन यश जाता है, इसलिये उपपतिका सेवन तुच्छ है, दुःखका देनेवाला है और

सर्वत्र निंदाके योग्य है॥२६॥ जिसप्रकार भाव मुझमें श्रवण दर्शन ध्यान कीर्त्तनसे रहता है, वैसा पास रहने से नहीं होता इसलिये अपने घरको जाओ *श्रीकृष्णचन्द्रने इसकारण गोपियोंसे जाओ जाओ कहा कि, जो मैं इनसे कहूंगा तुम मेरे साथ विहार करो तो यह गालियें देंगी और निकट ओन आवेंगी इससे प्रथमही इनके मानखंडन करूं तो फिर यह आपही मेरा पल्ला पकडेंगी +॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!इसप्रकार गोपिये गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्रका वचन श्रवण कर अत्यन्त दुःखित हुईं और मनोरथके सिद्ध न होने से बड़ी चिन्ता करनेलगीं॥२८॥ चिन्ताके

श्रवणाद्दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्॥ न तथा संनिकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्॥२७॥ श्रीशुक उवाच इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविंदभाषितम्॥ विषण्णा भग्नसंकल्पाश्चिंतामापुर्ढुरत्ययाम्॥ २८॥ कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्विंवाधराणि चरणेन भुवं लिखंत्यः॥ अस्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुंकुमानि तस्थुर्मृजंत्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम्॥२९॥ प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः॥ नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किंचित्संरंभगद्गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः॥३०॥

श्वाससे कुंदुरूके फलके समान उनके अरुण होठ सूख गये और अपने अपने मुखोंको नीचाकर चरणके अँगूठेसे धरतीपै लिखने लगीं और रुदनके कारण नेत्रोसे कज्जलसहित जो ऑसू निकलरहे थे उनसे कुचोंकी केशर धुलगई, तब अति दुःखके बोझसे गोपी चुपचाप होकर खड़ी होगई॥३९॥ जिनके लिये गोपियोंने सब घरबार छोड़दिये, उन अपने परमप्रीतम श्रीकृष्णचन्द्रके कठोर वचन सुन प्रेमभरी गोपियें रोनेके कारण

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* दृष्टान्त— देखो स्त्रियोंको पतिव्रताधर्म पालन करना चाहिये, पतित्रताओंकी बडी महिमा है। एक स्त्रीका गोदीमें उसका पति शिर धरे सो रहाथा, उसका बालक खेलते खेलते अग्निमें जा पडा स्त्रीने यह देख पतिकी निद्रा भग न हो, यह विचार अपना घुटुआ न उठाया और अग्निपतिव्रताके शापके मयसे शीतल होगई

श्लोक— सुतं पतन्त प्रसमीक्ष्य पावके न बोधयामास पर्ति पतिव्रता॥ अभूत्तदानीं व्रतंभगशकया हुताशनश्चदनपकशीतल॥१॥ इस कारण हे सखियो! अपने पतियोंके पास जाओ॥

  • दृष्टान्त— श्रीकृष्णने वशी बजाते तो वजाढी और जब लाखों गोपियोंने आनकर घेरलिया, तब बुद्धि विहारी होगई, जैसे किसीके वालक घरमें रुईका फोहा जलाते हैं और फिर प्रसन्न होते हैं, सो वाजारमें किसीसाहूकारकी दूकानमें लाख रुपयेकी रुईका ढेर लगा देख उन्होंने मनमें विचार किया कि, इसमें वडा तमाशा होगा सो ढेरमें आग लगा दी जब वह ढेर थोडा२जला तबतक तो ताली बजाते रहे और जिस समय आग भडककर ऊची ऊंचीं लपटें निकलीं तब घबरागये, इसीप्रकार श्रीकृष्ण की दशा हुई, जब एकाधु गोपीको कहीं देखपाते, तव तो प्रसन्न होते अब लाखों गोपियों को देख घबराकर घर जानेको कहा॥

आंसुओसे पूर्ण नेत्रोंको पोंछ कुछेक क्रोधित हो गद्गद कंठसे बोलीं॥३०॥ कि, हे समर्थ!“जाओ जाओ” ऐसे कठोर वचन मत कहो, क्योंकि हम सब विषयोंको त्यागकर केवल तुम्हारेही चरणोंका सेवन करती हैं,हे दुराग्रही! हमको मत त्यागो, जैसे आदिपुरुष भगवान्की शरण सर्व त्याग नकर मुमुक्षुलोग जाते हैं मुमुक्षु पुरुषोंको वह भजते हैं,उसी प्रकार तुम्हारे लिये सर्वस्व त्यागकर हम आई हैं. इसलिये हमारा सेवन करो, त्यागो मत॥३१॥ हे कृष्ण धर्मवेत्ता! तुमने कहा, पति पुत्र सुतोंकी सेवा करो, यह स्त्रियोंका परमधर्म है जो कहा, सो हमारी धर्म सुननेकी इच्छा नहीं है क्योंकि हमें चाहना नहीं है, तुम धर्मके उपदेश करनेवाले नहीं हो किन्तु देहधारियोंके प्यारे हो आपने कहा पति आदिकोंकी सेवा करना धर्म है, सो आत्मासहित पति आदिक प्रिय लगते हैं स्त्रीको पति प्यारा लगता है,आत्मासे लगता है सो आत्मा जब निकल जाता है, पीछे इस देहको

गोप्य ऊचुः॥ मैवं विभोर्हति भवान्गदितुं नृशंसं संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्॥ भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्॥३१॥ यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्॥ अस्त्येवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठोभवांस्तनभृतां किल बंधुरात्मा॥३२॥ कुर्वंति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम्॥ तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिंद्या आशां भृतां त्वयि चिरादरविंदनेत्र॥३३॥ चित्तं सुखेन भवताऽपहृतं गृहेषु यन्निविंशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये॥ पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा॥३४॥

बांधकर लेजाते हैं और जला देते हैं, सो सबके आत्मा तुम हो, तुम्हारे सेवन करनेसे हमें सब धर्म स्वयं प्राप्त होजायेंगे, क्योंकि सब उपदेशवाक्य की सेवा करनाही परमधर्म बताते हैं, इसकारण तुम सब जीवोंके आत्मा होनेसे परमबंधु ईश्वर हो तुमसे जो जीव बहिर्मुख हैं सो दग्ध होनेके योग्य हैं॥३२॥ अपने आत्मा नित्य प्यारे तुम हो तिनमें विवेकीपुरुषप्रीति करते हैं, दुःखके देनेवाले पति पुत्रादिकोंसे क्या प्रयोजन है? इसकारण तुम हमपर प्रसन्न हो. हे ईश्वर कमलदललोचन! बहुत दिनोंसे तुममें आशारूपी लता लगाई है, उसे “जाओ जाओ” ऐसे कुठाररूप वचनसे कैसे काटते हो? देखो! विषके वृक्षको भी आप बढ़ाकर विवेकी नहीं काटते हैं॥३३॥ तुमने कहा, जाओ सो हम कैसे

जायें? क्योंकि जो चित्त सुखपूर्वक घरमें लगरहा था, सो तुमने हर लिया और जिन हाथोंसे घरका काम करती थीं, सो तुमने हर लिये, तब श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, हे गोपियो! अब तुम जाओ, परसोंके दिन तुम सबके चित्त विचार कर देंगे, तो गोपियोंने कहा कि, तुम्हारे चरण छोड़कर हमारे पॉव एक पग भी नहीं चलसक्ते व्रजमें कैसे जाये? और जाकर हम क्या करें?॥३४॥ हे सखे! आपके हास्य, दर्शन और मधुरगीतसे उत्पन्न हुई हमारी कामाग्निको तुम अपने अधरामृतरूप पिचकारीसे शान्तकरो, नहीं तो हम एक तो कामकी अग्नि और दूसरी विरहकी अग्नि इन दोनोंसे दग्ध

सिंचांग नस्त्वदधरामृतपूरकेण हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम्॥नो चेद्वयंविरहजाग्न्युपयुक्तदेहा ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते॥३५॥ यर्ह्यंबुजाक्ष तव पादतलं रमाया दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य॥ अस्प्राक्ष्मतत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग स्थातुं त्ययाभिरमिता बत पारयामः॥३६॥ श्रीर्यत्पदांबुजरजश्चकमे तुलस्या लब्ध्वाऽपि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्॥ यस्याः स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयासस्तद्वद्वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः॥३७॥

शरीर हो योगीजनोंकी नाईं तुम्हारे ध्यानसेही तुम्हारे चरणोंके निकट पहुँच जायेगी*॥३५॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, तुम अपने पतियोंकेपास जाओ, वही तुम्हारी कामानि बुझावैंगे, इसके उत्तरमें गोपी कहती हैं कि, हे कमलदललोचन!वनवासी जिन्हैंप्रिय हैं, ऐसे तुम हो और लक्ष्मीजीको किसीसमयही जिनकी सेवा प्राप्त होती है, ऐसे तुम्हारे चरणोंके तलुए हमने जबसे स्पर्श किये, उसी दिनसे उनका सुख अनुभव किया और उसीं दिनसे औरके सन्मुख भी खडी नही होसक्तीं॥३६॥ यद्यपि लक्ष्मीजी सदा वक्षस्थलमें रहती हैं परन्तु तो भी जिसका भक्तलोग सेवन

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* शंका—जैसे कामदेव से पीडित होकर मनुष्योंकी स्त्री ओष्ठ चुम्बन करनेके लिये मनुष्योंकी विनती करती हैं और गोपी तो मोक्षका रूप थीं परन्तु कामकी शांति करनेकी पूर्ण ब्रह्म सरीखे जो श्रीकृष्ण हैं उनसे ओष्ठ चुम्बन करनेके लिये याचना क्यों की?

**उत्तर—**गोपियोंने विचार किया कि, हम कुछ पढी नहीं और श्रीकृष्णकी जैसे विद्वान लोग स्तोत्रोंसे स्तुति करते हैं,यैसी स्तुति हम भी किया चाहती हैं, परन्तु विना विद्या हम कैसे स्तोत्रोंसे स्तुति करें? परन्तु हमने ऐसा भी सुना है कि, श्रीकृष्ण के ओष्ठोंमें सरस्वतीका वास है जो हमारे सबके औष्ठोंसे श्रीकृष्णके ओष्ठ छुइ जायँ तो हम सब विद्यावान होजायँगी, तब अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भगवानकी स्तुति हम भी विद्वानोंकी सदृश किया करेंगी, कामदेवकी पीडासे कृष्णके ओष्ठोंका चुम्बन करना नहीं चाहती थीं॥

करते हैं, ऐसी तुम्हारे चरणकी रेणुको तुलसीने सौत सहित चाहना की, जिस लक्ष्मीजीकी चितवनके लिये और देवता तप करके परिश्रम करते हैं उन्हीं लक्ष्मीकी समान हम भी तुम्हारे चरणकी रजको प्राप्त हुई हैं, अर्थात् शरण ली है॥३७॥ हे दुःखके काटनेवाले!तुम्हारे भजने में आशा लगाये हम घर छोडकर तुम्हारे चरणोंके पास आई हैं तुम हमारे ऊपर प्रसन्न होओ, तुम्हारी सुन्दर मुसकान चितवनसे बढे कामदेवसे तपित देह हमको अपनी दासी करके स्थान दीजिये॥३८॥ अलकावली जिसपर छूट रहीं और कुण्डलोंकी कान्तिसे युक्त कपोल अमृतभरे ओष्ठमें हास्य सहितचितवनवाले तुम्हारे मुखको देख और भक्तोंके अभयदान देनेवाले तुम्हारे दोनों भुजदण्डोंको देखकर लक्ष्मीको एकही प्रीतिके उपजानेवाले तुम्हारे

तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेंघ्रिमूलं प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः॥ त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्॥३८॥ वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम्॥ दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः॥३९॥ का स्त्र्यंग ते कलपदायतवेणुगीतसंमोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्॥ त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यविभ्रन्॥४०॥ व्यक्तं भवान्व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो देवो यथादिपुरुषः सुरलोकगोप्ता॥ तन्नो निधेहि करपंकजमार्तबन्धो तप्तस्तनेषु च शिरस्सु च किंकरीणाम्॥४१॥

वक्षस्थलको देख हम तुम्हारी दासी होती हैं, हे कृष्ण!मनोहर पदवाले बड़े बाँसुरीके गीतसे मोहित होकर त्रिलोकीमें ऐसी कौन स्त्री है जो अपने धर्मसे चलायमान न हो, त्रिलोकीमें सुन्दर इस तुम्हारे रूपको देख गौ, पक्षी, मृग यह भी रोमांचित होजाते हैं, फिर हम इस मनमोहनरूपसे मोहित होगईंतो इसमें आश्चर्यही क्या है? तुम्हारा प्रकाशक शब्द सुनकर भी अपना धर्म त्यागना उचित है और तुम्हारे रूपके अनुभवसे त्याग करनेमें क्या आश्चर्य है?॥३९॥४०॥ और आपने निश्चय व्रजके भय पीड़ा दूर करनेके लिये अवतार लिया है जैसे आदिपुरुष श्रीनारायण स्वर्गकी रक्षा करते हैं, इस कारण हे दीनबंधु!हम तुम्हारी दासी हैं, हमारे कामदेवसे तप्त स्तन और शिरोंपर अपने हस्तकमलको धरो॥४१॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित्! इसप्रकार योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंका विलाप सुन हँसकर दयाको प्राप्त हो, आत्माराम भी हैं, तो भी गोपियोंके संग रमण करनेलगे॥४२॥ प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रकी चितवनसे प्रफुल्लितमुखवाली इकठ्ठी हुईं गोपियोंके सहित उदार जिनकी चेष्टा और उदार जिनकी हॅसनि दॉतोंमें कुंदकलीकी समान कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे शोभायमान लगनेलगे जैसे तारागण सहित चन्द्रमा शोभायमान लगताहै॥४३॥ गोपियें जिनका गान करैंऔर स्त्रियोंके सैकडों यूथका पालन करैं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं गान करते

श्रीशुक उवाच॥ इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः॥ प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत्॥४२॥ ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः॥ उदारहासद्विजकुन्ददीधितिर्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः॥॥४३॥ उपगीयमान उद्गायन्वनिताशतयूथपः॥ मालां विभ्रद्वैजयंतीं व्यचरन्मंडयन्वनम्॥४४॥ नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुक॥ रेमे तत्तरलानंद कुमुदामोदवायुना॥४५॥ बाहुप्रसारपरिरंभकरालकोरुनीवीस्तनाऽऽलभननर्मनखाग्रपातैः॥ क्ष्वेल्याऽवलोकहसितैर्ब्रजसुंदरीणामुत्तंभयन्रतिपतिं रमयांचकार॥४६॥ एवं भगवतः कृष्णाल्लब्धमाना महात्मनः॥ आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि॥४७॥

वैजयन्ती माला पहरे, वनको शोभायमान करते विहार करनेलगे॥४४॥ शीतल वालूके बिछौनेवाले यमुनाजीके पुलिनमें गोपियोंसहित आकर रमण करनेलगे, वहाँ यमुनाजीकी लहरका आनन्द और कमलोंकी सुगंधसनी वायुसे अत्यन्त प्रसन्न हुए॥४५॥ भुजाओंका पसारना, आलिंगन करना कर, अलक, ऊरू, नीवी, स्तन इनका स्पर्श करना, परिहासके वचन कहना, नखोंके चिह्न, क्रीडा, चितवन और हँसियोंसे व्रजसुन्दरियों को भगवान् काम उद्दीपन कराय रमण करनेलगे॥४६॥ इसप्रकार महात्मा श्रीकृष्णचंद्रसे मान जिन्होंने प्राप्त किया ऐसी गोपियें मानवती होकर

पृथ्वीकी स्त्रियोंमें अपनेको अधिक मानने लगीं॥४७॥ ब्रह्मा और महादेवको वश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनगोपियोंको सौभाग्यके मदके अधीन देख, उनका गर्व दूर और कृपा करनेके लिये उस रासमंडलमेंही अंतर्धान होगये, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रने विचारा कि, अभी तो कुछ रासका प्रारंभही हुआ है सेरमें पौन भी नहीं और इन्हें मान हुआ, जो ऐसे लाखों गोपियोंके पांव पडता फिरूँ तो वर्षों लगजाय. फिर रास कैसे होगा? इसकारण उनका मानभंग करनेको अंतर्धान होगये, अथवा जो प्यारी थी, उसका मानघटने लगा कि, देखो हमकोभी कृष्ण सवकी बराबरही देखते हैं और साधारणको मान बढ़ा कि प्यारी गोपी हमारे अधीन है, सो दोनोंका मान समान करनेको भगवान् श्रीकृष्णचंद्र अंतर्धान होगये॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायां कृष्णान्तर्धानं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥

तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः॥ प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवांतरधीयत॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां कृष्णांतर्धानं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ अंतर्हिते भगवति सहसैव ब्रजांगनाः॥ अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम्॥१॥ गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितैर्मनोरमालापविहारविभ्रमैः॥ आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः॥२॥ गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः॥ असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुःकृष्णविहारविभ्रमाः॥३॥

दोहा—तीस माहिं सब ग्वालिनी, भईं हाल बेहाल। वन वन फिरत विरह दही, कहाँ गये नँदलाल॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित!जिससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रासमंडलमें से अंतर्धान होगये, उस समय तत्कालही व्रजकी स्त्रियें तथा गोपियें उनके देखे विना ऐसी अत्यन्त व्याकुल होगईं कि,॥१॥ जिसप्रकार हाथीके देखे विना हाथिनियें व्याकुल हो जाती हैं, श्रीकृष्णचन्द्रकी चलनि, स्नेहभरी मुसकान, विलासपूर्वक चितवन, मधुर बोलनेकी क्रीडाओंमें मन जिनके पकड़े गये; ऐसी गोपियें तन्मय होगईं, उनकी लीलाका अनुकरण करने लगीं॥२॥ श्रीकृष्णचन्द्रका गमन, हास्यभरी चितवन और मधुर वाणियोंकेविहारकर प्यारेमें आरूढ़ हो श्रीकृष्णचन्द्रका रूप बनकर कहने लगीं कि, “मैं

कृष्ण हू, मैं कृष्ण हूं” इसप्रकार चेष्टा करने लगीं॥३॥ इसके उपरान्त सम्पूर्ण गोपियें मिल श्रीकृष्णचन्द्रका ऊंचे स्वरसे गान करती मतवालेकी समान वन वनमें ढूंढने लगीं सब प्राणियोंमें आकाशकी तुल्य व्यापक जो श्रीकृष्णचन्द्र हैं, उनको वृक्षोंसे पूछने लगीं॥४॥ हे पीपरके वृक्ष! हे वटके वृक्ष! नंदका पुत्र श्रीकृष्ण प्रेमभरी चितवन और हँसी करके हमारा चित्त चुराकर ले गया है, यदि आपने देखाहो तो हमको अत्यन्त दुःखी जान कृपापूर्वक बता दो, कोई बोली, अरी! यह क्या बतावेंगे, यह तो अश्वत्थ है, इनकी जो जड़ थोड़ीसी ऊपर रही है, सो यह ऐसी चिन्ता किया करते हैं कि कहीं ऐसी पवन न आजाय जो हमें उखाड़कर फेंक दे, कोई बोली अरी!यह पीपल नारायणका रूप है, नारायण भक्तोंके कार्य में मग्न

गायंत्य उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम्॥ पप्रच्छुराकाशवदंतरं वहिर्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन्॥॥४॥ दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोधनो मनः॥ नन्दस्नुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः॥५॥॥ कच्चित्कुरवकाशोकनागपुन्नागचम्पकाः॥ रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः॥६॥ कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविंदचरणप्रिये॥ सह त्वाऽलिकुलैर्बिभद् दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः॥७॥

रहते हैं, सो हमैं क्या बतावेंगे? न्यग्रोध शिवका रूप है सो यह योग में मग्न रहते हैं, हमको क्या बतावेंगे*॥५॥ कुरबक! हे अशोक! हे नाग!हे पुन्नाग!हे केशर!हे चम्पे!हे मालती!गर्व हरनेवाली जिसकी मुसकान ऐसा बलरामका छोटा भाई (कृष्ण) कहीं तुमने देखा? फिर रामानुजियोंसे कहा कि, कहीं बडे भाईका प्रसाद भॉगके चुल्लूमें तो न पीगये? जो हमारी यह रक्षा करते फिरते, कोई बोली अशोकसे क्या पूँछती हो यह तो आप अशोच है, सो पराये शोचको क्या जाने॥६॥ कोई वनमें कहतीं हैं कि, हे तुलसी!कल्याणरूपिणी!गोविंदके चरणोंकी अत्यन्त

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* **शंका—**वृक्षों से गोपियोंने श्रीकृष्णचन्द्रजीको बूझा और वृक्ष जानते थे कि, इसी मार्ग होकर श्रीकृष्णचन्द्र गये है, फिर वृक्षोंने गोपियों से क्यों नहीं कहा कि, हमने श्रीकृष्णको देखा अथवा नहीं देखा चुप क्यों होगये?

उत्तर— जैसे कृष्णके प्रेममें गोपी उन्मत्त हो रही थीं, ऐसे ही कृष्णके व्यानमें वृक्ष भी मतवाले हो रहे थे, वृक्षोंको तो अपनी देहका अथवा और किसी दूसरी वस्तुका ध्यान भी नहीं था और कुछ स्मरण भी नहीं था, भगवान् में मन लगा रहे थे, इसलिये उत्तर नहीं दिया, दूसरे वृक्षोंमें बोलनेकी शक्तिभी नहीं होती॥

प्यारी और भौंरेजिसमें गुंजार करें, सो तुम्हारी मालाको पहरे, तुमने अपने अत्यन्त प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रको कहीं देखा होय तो बता दो॥७॥ हे मालती!मल्लिके हे यूथिके! हे जाति! क्या आपने कहीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखा? क्या हाथके छूनेसे तुम्हारी प्रीति उत्पन्न करते, इसी मार्गसे गये हों॥८॥ हे आम! हे चिरौजी! हे कटहर! हे विजयसार!हे कचनार! हे जामुन!हे वेल! हे मौलसिरी! हे सफरी! हे आम्र! और हे लोटन कदम्ब! तुम परोपकारी यमुनातीरवासी हो इसकारण हमें बता दो कि, तुमने कहीं श्रीकृष्णचन्द्रको जाते देखा?॥९॥ जब किसीने उत्तर न दिया तो एक गोपी बोली कि, पृथ्वीसे बूझो कि, हे पृथ्वी!ऐसा तैंने क्या तप किया, जो केशवभगवान्का चरणस्पर्श हुवा, जिससे तुझे आनंद सहित रोमांच हुवे हैं, जिसके कारण तू सुन्दर लगती है, यह आनन्द प्यारेका चरण लगने के कारण हुआ है,

मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जाति यूथिके॥ प्रीतिं वो जनयन्यातः करस्पर्शेन माधवः॥८॥ चूतप्रियालपनसाऽसनकोविदारजम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदंबनीच्चाः॥ येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः॥९॥ किं ते कृतं क्षिति तपो वत केशवांघ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकितांगरुहैर्विभासि॥ अप्यंघ्रिसंभव उरुक्रमविक्रमाद्वा आहो वराहवपुषः परिरंभणेन॥१०॥ अप्येणपत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रैस्तन्वन्दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः॥ कांतांगसंगकुचकुंकुमरंजितायाः कुन्दस्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः॥११॥ बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदांधैः॥ अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं किंवाऽभिनन्दति चरन्प्रणयावलोकैः॥१२॥

अथवा वामनजीने तुझे तीन पैग नापी है, अथवा उससे पहले वाराहजी तुझे दाढ़पर रखकर ले आये हैं, तबका आनन्द है, परन्तु वह आनंद तो पुराने पड़गये, अभी प्यारेका चरणारविन्द तैंने स्पर्श किया है और तैंने उन्हें निश्चय देखा हैं सो हमें बता दे॥१०॥ हे सखी, हरिणकी स्त्री! अच्युत श्रीकृष्णचन्द्र प्यारीको संग लिये अपने अंगोसे तुम्हारी दृष्टिको आनंद देते यहाँ आये हैं? क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रकी प्यारी जो अंगके संग है, इसीकारण कुचोंकी केशरसे रंगीहुई कुन्दकी मालाकी सुगंध यहाँ आती है. “हे मृगनयनी! हमारी बातका ऐसा अनादर? कि, इस ओरसे दृष्टिभी फेर ली, फिर बोली कि, तुम्हारा कुछ अपराध नहीं, जब विधाता वाम होता है तो सब ठौर अपमानही अपमान होता है”॥११॥ आगे बढ़कर वृक्षोंसे कहने लगी कि हे वृक्षो!प्यारीके कंधेपर भुजाको धारण किये और दूसरे हाथमें कमल लिये यहां फिरते

तुलसी संबंधी मदोन्मत्त भौरे जिनके पीछे जाया करते हैं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्नेहभरी चितवनसे क्या तुम्हारी दण्डवत् यहाँ आनकर करली है॥१२॥ कोई बोली कि, हे वीर!यह लतायें श्रीकृष्णचन्द्रसे अवश्य मिली होंगी, क्योंकि यह अपने पति वृक्षकी शाखारूप बॉहोंका आश्रय कर रही हैं इससे ज्ञात होता है कि, अवश्य हमारे प्यारे श्रीकृष्णचंद्रके नख इनमें लगेहैं, इसी कारण रोमांच हो आये हैं, हेवृक्षो! वृक्षोंके समागममें ऐसे रोमांच नहीं होते॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार मतवालेकी भाँति पूछतीं श्रीकृष्ण में तन्मय और उनके ढूँढने से विह्वल होकर गोपियां भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाओंका अनुकरण करने लगीं॥१४॥ *इसके उपरान्त कोई गोपी पूतना बनी

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः॥ नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो॥१३॥ इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः॥ लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः॥१४॥ कस्याश्चित्पूतनायंत्याः कृष्णायंत्यपिवत्स्तनम्॥ तोकायित्वा रुदत्यन्या पदाऽहन् शकटायतीम्॥१५॥ दैत्यायित्वाजहारान्यामेकां कृष्णार्भभावनाम्॥रिंगयामास काऽप्यंघ्रीकर्षंती घोषनिस्स्वनैः॥१६॥ कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायंत्यश्च काश्चन॥ वत्सायंती हंति चान्या तत्रैका तु बकायतीम्॥१७॥

कोई गोपी कृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी और कोई गोपी बालक बन रोती हुई शकटासुर बनी वह जो कोई गोपी है उसको पावकीठोकर मारनेलगी॥१५॥ एक गोपी तृणावर्त्त दैत्य बनकर कृष्णके बालक रूपको धरे जो और गोपी है उसे दूसरी दैत्यरूप बन हरकर लेगई और एक गोपी घुंघरू बॉध पॉवोंको घसीटती घुटुओं चलने लगी॥१६॥ दो गोपियाँ कृष्ण बलदेव बनीं और कोई गोपी गोप बनी और कोई

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* दृष्टान्त— एक बडा गयैया था, सो वह अपनी खुशीसे गाता और किसीके कहनेसे नहीं गाता था एक भले आदमीका मन उसका गाना सुननेको चाहा, तो उसने क्या चतुराई करी कि, उसीकी तानमें गाऊं क्योंकि मुझसे ठीक बनेगी नहीं, इस कारण वह अपनी तान सुधारनेको आपही गायैगा, सो गाने लगा तो तान वैसी न आई, तब गयैयेने अपने मनमे कहा कि, यह मेरी तान गा रहा है परन्तु बिगडी जाती है, तब आप मी गाने लगा और उससे कहा कि ऐसे गावो, इसी प्रकार गोपियोंने विचारा कि, हम श्रीकृष्ण चन्द्रकी लीला करें सो हमसे ठीक बनेगी तो हैही नही, इसकारण उसके बतानेको श्रीकृष्ण स्वयही आजायेंगे॥

वत्सासुर बन उसको मारनेलगीं, एक गोपी बकासुर बनी, उसे और गोपीने मारदिया॥१७॥ जैसे भगवान् श्रीकृष्णचंद्र दूर चरतीहुई गायोंको बुलाते थे, उसी प्रकार एक गोपी गायोंको बुलाय श्रीकृष्णका अनुकरण करनेलगी. बाँसुरीको बजाकर क्रीडा करती थीं और गोपियें धन्यवाद देती थीं॥१८॥ एक गोपी गोपीके कंधेपर हाथ धरकर कहनेलगी कि, मेरी मनोहर नृत्यलीलाको तुम देखो, इसप्रक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें जाकर उनका मन लगगया॥१९॥ कोई गोपी पवन वर्षासे भय मतकरो “मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा” इसप्रकार कद एक हाथसे यत्नकर जैसे गोवर्द्धन पर्वत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उठाया था, उसी प्रकार अपनी ओढनीको ऊंचा उठालिया॥२०॥ हे नृप! एक गोपी और गोपीके ऊपर चढ पॉव शिर ऊपर घर एक गोपी से कहने लगी कि हे दुष्टसर्प!तू यहाँसे निकलजा, क्योंकि मैं दुष्टोंका दण्ड देनेवाला उत्पन्न हुआहूं॥२१॥ उससम एकगोपी

आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुकुर्वतीम्॥ वेणुं क्वणंतीं क्रीडन्तीमन्याः शंसति साध्विति॥१८॥ कस्यचित्स्वभुजंन्यस्य चलंत्याहारा ननु॥ कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः॥१९॥ मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्राणं विहि मया॥ इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतंत्युन्निदधेंबरम्॥२०॥ आरुह्यैका पदाऽऽक्रम्य शिरस्याहाऽपरां नृप॥ दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दंडधृक्॥२१॥ तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्वणम्॥ चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममंजसा॥२२॥ बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले॥भीता सुदृक् पिधायास्यं भेजे भीति विडंबनम्॥२३॥ एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून्॥ व्यचक्षत बनोद्देशे पदानि परमात्मनः॥२४॥ पदानि व्यक्तमेतानि नंदसुनोर्महात्मनः॥ लक्ष्यंते हि ध्वजांभोजवज्रांकुशयवादिभिः॥२५॥

बोली कि, हे गोपियो! इस वनमें अत्यन्त भयानक अग्नि लगी है, इसे देखो और शीघ्र नेत्र बन्द करलो मैं इस अग्निको बुझाऊंगी, तथा अनायास देखे बिना कल्याण कहूंगी॥२२॥ कोई एक दुर्बल अंगकी गोपी माला से ऊखलमें बाँध दी, तब वह डरकर सुन्दर नेत्रवाले मुखको ढक डरनेका अनुकरणकरनेलगी, जब लीला करते करते रासलीला करनेलगीं, तब ज्योंही श्रीकृष्णचन्द्रके अन्तर्द्धान होनेकी लीला आई, तभी श्रीकृष्णचन्द्रका स्मरणकर व्याकुलहृदय हो ढूंढने लगीं॥२३॥ इस प्रकार वृन्दावनकी लता और वृक्षोंसे पूँछती पूँछती आगे वनमें जाकर परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंका खोज देखा॥२४॥ ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, आदि इन चिह्नोंसे महात्मा नंदजीके बेटेका यह चरण निश्चयहै, इसप्रकार खोज लगता है॥२५॥

इसप्रकार अबला गोपी चरणोंके खोजसे श्रीकृष्णचन्द्रके जानेका मार्ग ढूँढने लगीं, आगे जाय श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंके खोजमें प्यारीके चरणोंका खोज देख दुःखी हो यह कहने लगीं॥२६॥ कि, श्रीकृष्णचन्द्रके संग यह कौन गई है, यह किसके चरण हैं जिसने श्रीकृष्णके कन्धेपर अपना हाथ धराहैजसप्रकार हाथी हाथिनियोके ऊपर सून्ड घर लेता है॥२७॥ निश्चय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका इसने आराधन किया है जिस कारण हम सबको त्याग प्रसन्न हो श्रीगोविंद इसे एकान्तमें लेगये॥२८॥ हे सखियो! यह गोविन्दकी चरणरेणुको ब्रह्मा, महादेव, लक्ष्मी, संपूर्ण अपने पाप दूर करने के लिये माथेपर चढ़ाते हैं, यह रज बड़ी धन्य है, जो इसे शिरपर धारण करोगी तो भगवान् मिलजायेँगे॥२९॥ उस प्यारीके पॉवके

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छंत्योऽग्रतोऽबलाः॥ वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन्॥२६॥ कस्याः पदानि चैतानि याताया नंदसुनुना॥ अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा॥२७॥ अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः॥ यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥२८॥ धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दांघ्र्यब्जरेणवः॥ यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूर्न्यधनुत्तये॥२९॥ तस्या अमृनि नः क्षोभं कुर्वेत्युच्चैः पदानि यत्॥ यैकाऽपहृत्य गोपीनां रहो भुंक्तेऽच्युताधरम्॥३०॥ न लक्ष्यंते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणांकुरैः॥ खिद्यत्सुजातांघ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः॥३१॥ (इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो बधूम्॥ गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः॥ अवावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना।) अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः॥ प्रपदाक्रमणे एते पश्यताऽसकले पदे॥३२॥

खोज हमको अत्यन्त व्याकुल करते हैं देखो! हम सबको त्याग अकेली एकान्तमें ले जाय श्रीकृष्णचन्द्रका अधरामृत भोग करती है॥३०॥ आगे बढकर बोलीं कि, यहाँ तो उसके चरण नहीं दिखाई देते, परन्तु इसका कारण यह विदित होता है कि, जब तृणके अंकुरोंसे उसका कोमल चरण तल पीडित होगये हैं, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी प्रियतमाको कंधेपर चढाया॥३१॥ (हे वीर!जिससमय श्रीकृष्णने प्यारीको उठाया, तो उन कामके रसिया श्रीकृष्णचन्द्रके चरण पृथ्वीमें धसगये. देखो!यह फूलोंके लिये अवश्य सखीको उठाया है) हे सखी! यह देखो! प्यारेने प्यारीके कारण फूल तोडे हैं, इस स्थानमें चरणोंको उचकाकर खडे होने से थोडा चिह्न दिखाई देताहै॥३२॥

कामासक्त श्रीकृष्णचन्द्रने कामिनीके इस स्थानमें केश गुह कर सुधारे हैं, फिर प्यारीको बैठाय केश गुहे, जो प्यारा है सो इस स्थान में निश्चय बैठा होगा॥३३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र आत्मरत आत्माराम स्त्रियोंके विलासोंसे अखण्डित हैं. परन्तु तो भी उन्होंने कामी मनुष्योंकी दीनता और स्त्रियोंका दुष्टपन दिखलानेके लिये उनके साथ रमण किया॥३४॥ इसप्रकार वह सब गोपियें अचेत हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ढूंढनेका विचार करने लगीं, अब श्रीकृष्णचन्द्र और स्त्रियोंको वनमें त्याग जिस स्त्रीको संग लेगयेथे॥३५॥ वह गोपी सब स्त्रियोंमें अपने आपको श्रेष्ठ मानने लगी कि, देखो चाहना करनेवाली गोपियोंको छोड़ श्रीकृष्णचन्द्र मेरा सेवन करतेहैं॥३६॥ इसके उपरान्त वह गोपी गर्वित होकर केशव श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगी कि, मुझपे चला नहीं जाता, जहाँ तुम्हारा मनहो वहाँ लेचलो, तब

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम्॥ तानि चूडयता कांतामुपविष्टमिह ध्रुवम्॥३३॥ रेमे तया चात्मरत आत्मारामोप्यखंडितः॥ कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम्॥३४॥ इत्येवं दर्शयंत्यस्ताश्चैरुर्गोप्यो विचेतसः॥ यां गोपीमनयत् कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने॥३५॥ सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्॥ हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः॥३६॥ ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्॥ न पार येऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः॥३७॥ एवमुक्तः प्रियामाह स्कंधमारुह्यतामिति॥ ततश्चांतर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतृप्यत॥३८॥ हा नाथ रमण प्रेष्ठ कासि कासि महाभुज॥ दास्यास्ते कृपणाया मे सुखे दर्शय सन्निधिम्॥३९॥ श्रीशुक उवाच॥ अन्विच्छंत्यो भगवतो मार्गं गोप्यो विदूरतः॥ ददृशुः प्रियविश्लेषमोहितां दुःखितां सखीम्॥४०॥

श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, प्यारी! दश पैग और चलो किशोरीजी बोलीं, हांजी जैसे तुम चार पहर गायोंके पीछे फिरते हो उसी प्रकार सबको जानते हो, हम तो कभी महलके बाहर भी नहीं निकलीं. सो कैसे चलें॥३७॥ इसप्रकार जब प्यारीने कहा तब श्रीकृष्णचन्द्रने अपने कंधेपर चढ़नेको कहा। यह सुनकर ज्योंही राधिका चढ़ने लगी त्योंही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अन्तर्धान होगये, तब तो वह अत्यन्त घबराई॥३८॥ और कहनेलगी कि, हा नाथ! हे रमणकरानेवाले! हे महाभुज! तुम कहाँ हो? कहाँ हो? हे सखे!तुम्हारी ऐसी कृपण मैं दासीं हूं, इसकारण समीप आनकरमुछे अपना दर्शन दो॥३९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!उन सब इकट्ठी गोपियोंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दूरसे मार्ग ढूँढ़ते ढूँढ़ते

प्यारेके वियोगमें मोहित और अति दुःखित इस स्त्रीको देखा॥४०॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे प्रथम मान मिला फिर गर्व होनेसे अपमान मिला, यह बात उस स्त्रीके मुखसे श्रवण कर सब गोपियाँ बडे आश्चर्यको प्राप्त हुईं॥४१॥ और निशानाथ चन्द्रमाकी चॉदनीका प्रकाश जहाँ कथा, वहाँतकतो गोपियोंने वन में ढूँढा, आगे वृक्षोंकी छायाका अँधेरा देखकर लौट आईं॥४२॥ वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये कृष्ण संबंधी बातें और उन्हींकी लीला करतीं तन्मय हो उन्हींके गुण गानकर रहीं थीं कि, कृष्णवियोग में उन्हें अपने घरकी भी सुधि न रही॥४३॥ इसके उपरान्त सब लौट यमुनाजीके पुलिनमें आय भगवान् में जिनकी भावना लग रही, उनके आनेका पैंडा देख सम्पूर्ण गोपियाँ मिलकर

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात्॥ अपमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः॥४१॥ ततोऽविशन्वनं चंद्रज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते॥ तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः॥४२॥ तन्मनस्कास्त्नदालापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः॥ तद्गुणानेव गायंत्यो नात्मागाराणि सस्मरुः॥४३॥ पुनः पुलिनमागत्य कालिंद्याः कृष्णभावनाः॥ समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकांक्षिताः॥४४॥ इति श्रीमद्भाग० महापु० दशम० पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ गोप्य ऊचुः॥ जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि॥ दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥१॥ शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा॥ सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥२॥

श्रीकृष्णचन्द्रके गुण गानेलगीं॥४४॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायां भगवदन्वेषणं नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ दोहा— इकतिस माहिं निराश हो, बहुरि यमुन तट आय। करत प्रार्थना प्रेम सों, प्रगट होहु यदुराय॥१॥ इसके उपरान्त सम्पूर्णगोपी कहने लगीं कि, हे प्रीतम! तुम्हारे जन्म लेनेसे यह व्रज अत्यन्त शोभायमान लगता है और आपके प्रगट होनेके कारण यहां लक्ष्मीजी सदा वास करती हैं, इसप्रकार सब व्रजमें आनन्द होरहा है. हे प्यारे! तुम्हारेही लिये प्राण धारण किये तुम्हारी दासियों तुम्हें ढूँढ़ती फिरती हैं॥१॥ हे सुरतनाथ!शरदृतुके सरोवरोंमें भलीप्रकार उपजे श्रेष्ठ कमलके भीतरकी शोभाको चुरानेवाली तुह्मारी दृष्टिहै, उससे विना मोलकी जो हम दासी है

सो उनको तुम क्यों मारते हो, यदि तुम कहो कि, हम क्या मारते हैं? तो क्या शस्त्रहीसे मारते हैं, दृष्टिसे नहीं मारते? क्या इसीसे तुमने दृष्टि से हमारे प्राण हर लिये हैं, उनके देनेके कारण शीघ्र हमें दर्शन दो॥२॥ हे लाल! आपने वारम्वार मृत्युसे रक्षा करी अब क्यों कामदेवको भेजकर दृष्टिसे मारते हो? क्योंकि विषके जलसे मृत्यु थी, उससे रक्षा करी, फिर अघासुरसे बचाया, इन्द्रने महाघोर वर्षा और पवन चलाया उससे रक्षाकी, बिजली की आग तथा वृषासुर से बचाया, मयके पुत्र व्योमासुरसे और समस्त भयसे बचाया, फिर अब किसलिये हमको छोडते हो॥३॥ तुम यशोदा के पुत्र नहीं हो, क्योकि यशोदा के पुत्र होते तो ‘मापर पूत पितापर घोडा।बहुत नहीं तो थोडा थोडा’ कुछ तो अपनी जातिका पक्ष आता, सब देहधारियोंकी बुद्धिके साक्षी हो, ब्रह्माने विश्वकी रक्षाकी जब प्रार्थना करी तब हे कृष्ण! तुम यादवोंके कुलमें प्रगट हुए

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्॥ वृषमयात्मजाद्विश्वतो भयादृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥३॥ न खलु गोपिकानंदनो भवानखिलदेहिनामंतरात्मदृक्॥ विखनसाऽर्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्त्वतां कुले॥४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्॥ करसरोरुहं कांत कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित॥ भज सखे भवत्किकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्॥ फणिफणार्पितं ते पदां बुजं कृणु कुचेषु नः कुंधि हृच्छयम्॥७॥

और जब ब्रह्माजीने आपको रक्षा करनेके लिये कहा तब आपने यह कह दिया होगा कि, सबकी तो रक्षा करनी और गोपियोंको जला जलाकर मारना सो ब्रह्मा तो ब्राह्मण है इसकारण वह ऐसा अधर्म क्यों बतावेगा?॥४॥ हे यादवश्रेष्ठ कान्त! संसार के भयसे तुम्हारे चरणसेवन करने वाले जो पुरुष हैं, उनको अभयदाता कामनाओंके देनेवाला और लक्ष्मीका हाथ पकड़नेवाला जो तुझारा हस्तकमल हैं, सो हमारे माथेपर धरो॥५॥ हे सखे!हे वीर! हे व्रजवासियोंके दुःख हरनेवाले। अपने जनोंका गर्व दूर करनेवाली तुम्हारी मुसकानकी हम दासी हैं, उनका सेवन करो, क्योंकि पहली स्त्रियां हम हैं, उनको अपना मुखकमल दिखाओ॥६॥ प्रणत अर्थात् नम्र देहधारियो के पापोंको दूर करनेवाले

गायोंके पीछे पीछे चलनेवाले शोभाके स्थान, कालियके फणपर नृत्य करनेवाले आपके चरणकमल हैं, उनको कृपापूर्वक हमारे कुचोंपर धरकर कामकी व्यथा दूर करो*॥७॥ हे कमलदललोचन! हे वीर! सुन्दरवाक्यवाली गम्भीर वाणीसे मोहित हुईं हम दासियोंको अधरामृत पिलाकर जीवदान दो॥८॥ आपके विरहमें हमारे प्राण जाचुके हैं परन्तु तुम्हारे कथामृतको पान करतेहुए सुकृती जनोंने हमें बचालिया, क्योंकि संसार में तप्त पुरुषको जिलानेवाले ब्रह्मादिक जिसकी स्तुति करें, ऐसे पापोंको दूर करनेवाले मंगलरूप शान्त तुम्हारी कथारूप

मधुरया गिरावल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण॥ विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥८॥ तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्॥ श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणंति ते भूरिदा जनाः॥९॥ ग्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंगलम्॥ रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयंति हि॥१०॥ चलसि यद् व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुंदरं नाथ ते पदम्॥ शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कांत गच्छति॥११॥

अमृतको जो पुरुष पृथ्वीमें कहते हैं वह बड़े दाता हैं, जब तुम्हारी कथा कहनेवाले धन्य हैं, तो जो तुम्हारा दर्शन करते हैं, उनका तो कहनाही क्या है? इससे अब दया करके दर्शन दो॥९॥ हे सौम्य! हे कपटी!तेरा मुसकानसहित मुख, प्रेमभरी चितवन और ध्यानमें मंगलरूप तुम्हारा विहार, हृदयको स्पर्श करनेवाली एकान्तकी बातैंहमारे मनको क्षोभ करती हैं॥१०॥ हे नाथ! जिससमय गौ चरानेको

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* शंका—स्त्रियोंके स्तनोंको पुरुष हाथसे स्पर्श करता है तो स्त्रीको सुख होता है, कुछ पुरुषके चरणस्पर्शसे सुख नहीं होता?तवगोपियोंने कृष्णके चरण अपने स्तनपर स्पर्श होनेकी क्यों याचना की हे महाराज, आप अपने चरण हमारे सबके स्तनोंपर अर्पण करो, जो कोई कहे गोपी प्रेममें आतुर थीं उनको पदका और हायका स्मरण न रहा?इसलिये चरणकी याचना की थी, तो फिर कृष्णके दूसरे अगकी याचना क्यों नहीं की?अकेले चरणोंहीकी सव देहमें याचना क्यों की?

उत्तर—गोपियोंने सुना था और देखा मी था कि, श्रीकृष्णके चरणोंके स्पर्शसे कालियनागका जहर नष्ट होगया, कालियनाग निविष होगया इससे जो हमारे सबके स्तनोंपर श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श हो जाय तो हम सबके कामदेवका नाश हो जाय. क्योंकि कालियके गरलसे काम बढा नहीं है. कामदेवका नाश होनेसे सवससारकी बाधासे छूट जायेंगी इसलिये गोपियोंने श्रीकृष्णके चरणोंको अपने स्तनोंसे स्पर्श करनेकी याचना की थी, क्योंकि गोपी तो वेदोंकी ऋचा हैं\।

आप व्रजसे जाते हो, तब तुम्हारे कमलके तुल्य सुन्दर चरण काँकरी, तृण, अंकुर लगकर कष्ट पातेहैं, इसलिये हे कान्त! हमारा मन चंचल होताहै, सो इसप्रकार प्रेम रखनेवाली दासियोंपरभी आप दया नहीं करते?॥११॥ संध्यासमय नील केशसे ढके गोरजसे धूसरित कमलके समान मुखको धारणकर बेर बेर दिखाके, हे वीर! हमारे मनमें कामदेवको उत्पन्न करते हो, परन्तु संग नहीं देते यही तुम्हारा निश्चय कपट है॥१२॥ नम्र देह धारियोंको कामनाओंके देनेवाले, जिनका ब्रह्माजीने पूजन किया, पृथ्वीको शोभायमान करनेवाले आपत्तिमें ध्यानसेही पीडा दूर करनेवाले, सेवामें सुखरूप, ऐसे अपने चरणकमलोंको, हे कामकी पीडाको दूर करनेवाले! हमारे कुचोंपर घरो॥१३॥ हे वीर!कामको बढ़ानेवाला, शोकको दूर

दिनपरिक्षये नीलकुंतलैर्वनरुहाननं विभ्रदावृतम्॥ घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥१२॥ प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमंडनं ध्येयमापदि॥ चरणपंकजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाऽऽधिहन्॥१३॥ सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुंबितम्॥ इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥१४॥ अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्॥ कुटिलकुंतलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृदृशाम्॥१५॥

करनेवाला, स्वरभरी बजती हुई बाँसुरी भलेप्रकार चुम्बित, मनुष्योंके चक्रवर्ती आदि सुखका भुलानेवाला सुखदायक तुम्हारा अधरामृत है सो हमारे रोग शान्त करने को दीजिये. हे कृष्ण! यह औषधि मिलनेसे हम भली होजावेंगी और यदि जो तुम दवाका मोल माँगो तो दमड़ीकी बॉसकी वंशी, जिसे दिन रात मुखपर घरे रहते हो, वह तुम्हेैंक्या मोल देती है? और जो तुम कहो कि, तुम कुपथ्य करो हो कुपथ्यको दवा न देनी चाहिये तुम अभी गैय्या मैय्या, भाई और पत्यादिकों की वासनाका कुपथ्य करती हो सो प्यारे! तुम्हारी औषधी यह सब दूर कर देगी, तुम ही हमें पिलाओ तो सही॥१४॥ जब तुम दिनके समय वनमें जाते हो तब तुम्हारे देखे, विना आधा क्षण युगकी समान व्यतीत होता है॥

यह तो बिना देखेका दुःख कहा और जब घूमघूमारे केशोंसे युक्त तुम्हारे मुखकमलका दर्शन करती हैं, उससमय पलकोंका बनानेवाला ब्रह्मा हमैं मूर्ख विदित होता है, क्योंकि पलकोंसे दर्शनमें बाधा होती है, यह दर्शनमें दुःख है और छःवर्षकी हमारी ननॅद जब अपनी मासे जाकर कहती है कि, देखरी मा! भाबी उस नंदके पुत्रको देखने गई है, तब सास त्रास दिखाती है, दूसरे ब्रह्मा वैरी पडा है, अपनी आठ आँखें बनाई, हमारी दोही और उसपरभी पलक लगादिये हैं॥ पति, पुत्र और वंशके बंधु बांधवोंको त्याग, तुम्हारे गीतसे मोहित होकर हम तुम्हारे पास आई थीं और गानेकी गतोंको और हमारे आगमनको जाननेवाले, हे अच्युत! हम तुम्हारे निकट आई हैं, सो हे कपटी!रात्रिमें

पतिसुतान्वयभ्रातृबांधवानतिविलंध्य तेत्यच्युता॥ गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥१६॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्॥ वृहदुरश्श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥१७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते वृजिनहंत्र्यलं विश्वमंगलम्॥ त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥१८॥

आई स्त्रियोंको तुम बिना ऐसा कौन है जो त्यागेगा?॥१६॥ कामदेवका प्रगट करनेवाला एकान्तका संकेत देख और हँसी सहित मुख तथाप्रेमकी चितवन देख और लक्ष्मीके रहनेका स्थान तुम्हारा वक्षस्थल देखकर हमको बड़ी चाहना हुई है एवं हमारा मन भी मोहित होगया है॥॥१७॥ अंग अर्थात् हे श्रीकृष्ण! तुम्हारा प्रगट होना व्रजवासी और वनवासियोंके दुःखका दूर करनेवालाहै तथा अतिशय करके विश्वका मंगल रूप है, इसकारण तुम्हारे दर्शन विना व्याकुल अपने भक्तजनोंके मनकी पीड़ा दूर करनेवाली गुप्त औषधि दों कृपणता, मतकरो यह हम

जानती हैं कि, इस औषधिको तुमही जानते हो॥१८॥ कठोर स्तनोंपर तुम्हारे चरणकमलोंको हम भयसे, धीरे धीरे धारणकरती हैं, क्योंकि, कहीं कोमल चरणों में गढ़े न पड़जांय और तुम उन चरणोंको वनमें उठा उठाकर फिरते हो, क्या चरणोंमें कॉटे कंकड़ी लगकर खेद नहीं होता? जब यह विचार करती हैं, तो तुम्हें अपना जीवनधन माननेवाली हमारी बुद्धि मोहित होजाती है, परन्तु अब पुकारकर इतना तो कह दो कि, अरी गोपियो! तुम कहाँ हो में तो पुलिनमें लताओंके नीचे सुखपूर्वक बैठा हूँ॥१९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्ध भाषाटीकायां रासक्रीडायामेकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥दोहा—बत्तिस विरह वियोगते, द्रवीभूत भयो हीय। प्रगट भये तुरतहि हरी

यत् ते सुजातचरणांबुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु॥ तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥१९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे गोपिकागीतं नामैक त्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति गोप्यः प्रगायंत्यः प्रलपंत्यश्च चित्रधा॥ रुरुदुः सुस्वरं राजन्कृष्णदर्श नलालसाः॥१॥ तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखांबुजः॥ पीतांबरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥२॥ तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोबलाः॥ उत्तस्थुर्युगपत्सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥३॥ काचित् करांबुजं शौरेर्जगृहजलिना मुदा॥ काचिद् दधार तद्वाहुमंसे चंदनभूषितम्॥४॥

अति प्रसन्न भँइतीय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ राजा परीक्षित्! इसप्रकार गान और चित्रविचित्र विलाप करती हुईं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी इच्छासे वह गोपियें बड़े स्वरसे रोदन करने लगीं॥१॥ उसी समय मुस्कानयुक्त मुखकमल, पीताम्बर धारण किये वनमाला पहरे साक्षात् कामदेवका मन मोहित करनेवाले दाशार्हवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपियों के बीच में प्रगट होगये॥२॥ तब प्रीतिपूर्वक प्रसन्न और प्रफुल्लित संपूर्ण अबलायें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आया देखकर इसप्रकार उठकर खड़ी होगईं कि, जैसे देहमें प्राण आने से हाथ पाँव एक संग उठते हैं॥३॥ और किसी गोपीने तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका बड़े आनन्दपूर्वक हस्तकमल पकडलिया

और कोई चन्द्रनसे शोभायमान श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंको कंधेपरही घरने लगीं*॥४॥ और किसी कृश अंगवाली गोपीने श्रीकृष्णचन्द्रके मुखमेंसे तांबूलका बीडा अपने हाथमें लेलिया और कामसे कम्पायमान कोई गोपी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमल अपने स्तनोंपर

काचिदंजलिनाऽगृह्णात्तन्वी तांबूलचर्वितम्॥ एका तदंघ्रिकमलं संतप्ता स्तनयोरधात्॥५॥

एका भृकुटिमाबध्य प्रेमसंरंभविह्वला॥घ्नंतीवैक्षत्कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा॥६॥

अपराऽनिमिषग्भ्यां जुषाणां तन्मुखांबुजम्॥ आपीतमपि नातृप्यत्संतस्तचरणं यथा॥७॥

धरनेलगी॥५॥ एक गोपी अपनी भौंहें चढ़ाय कोपके आवेशसे विकल हो अपने ओष्ठोंको दॉतोंसे दाब कटाक्षरूपी बाणोंसे मारतीसी देखनेलगी॥६॥ हे राजन्!और गोपियें निमेषरहित दृष्टि से श्रीकृष्णचन्द्रका मुखकमल भले प्रकार देखती भी हैं, परन्तु तौ भी बेर बेर देखकर

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*“काचित् करायुज’’ यहा शुकदेवजीने “काचित्” कहा, नाम नहीं लिया, इसका कारण यह है कि, नाम श्रीशुकदेवजीका परम इष्ट है, दो अक्षर मत्ररूप हैं, सो जपमत्रका प्रकाश करना भला नहीं, भगवान् महादेवजीने शुकदेवजीसे तत्त्वज्ञान कहा, परन्तु नामके दो अक्षर प्रकाश नहीं किये, रा रा कहा करते हैं, दूसरा अक्षर नहीं कहते, कदाचित् कोई चुराकर लेजाय? एकवार तो तत्त्वज्ञान खोया जिसकी कया वर्णन करते हैं। एकसमय नारदजीने कैलासपर आनकर विचारा कि, यहाँ कुछ आग लगानी चाहिये, सो पार्वतीजीसे कहा तुम्हें महादेवजी कुछ प्यार भी करते हैं? पार्वती वोली कि, कुछ अंतर नहीं रखते तब नारदजी बोले तो तुम यह पूछियो कि, आपके गलेमें मुण्डोंकी माला क्या वस्तु है यह कह नारदजी चलेगये. जब वर्ष दिन पीछे महादेवजी समाधिसे जागे तो पार्वतीजी बोलीं कि, महाराज यह मुण्डोंकी माला क्या वस्तु है?बताओ, यह सुनकर शिवजी बोले कि, जब तुम्हारा शरीर छूट जाता है, तव धारण कर लेता हूँ पार्वती बोलीं—मेरे तो सैकडों जन्म हुए, और तुमने ऐसी क्या अमरौती खाई है, जो तुम अमर हो! शिवजीने अपने मनमें कहा कि, किसीने भली आग लगाई, फिर वोले मुझे तत्त्वज्ञान है, पार्वतीने कहा, वह तत्त्वज्ञान मुझे बताओ। अव शिवजीने स्नेह हटाय एक चुटकी बजाई, कि उसस्थानके सव पक्षी उडगये, फिर एक चुटकी बजाई बच्चोंके पत्र जमिआये, फिर बजाई, सव बच्चे उडा दिये, उसी समय शुकीके गर्भमें शुकदेवजी आये थे, सो एक चुटकीसे बाहर आये दूसरीसे अडा फूटा और तीसरीसे पर निकले, सो एक वृक्षकी डालीपर जा बैठे, तब महादेवजी पार्वती से तत्त्वज्ञान कहने लगे, पार्वती हुकार देती सोगई, यह तोता हूहू करनेलगा, और महादेवजी ब्रह्मानन्दमें मग्ननेत्र मीचे सपूर्ण कथा कहगये, जब नेत्र खोलकर देखा तो पार्वती सोगई और हूहू तोतेने करी, यह जान झट उसके मारनेको त्रिशूल चलाया, और पीछे दौडे, तोता भागा सो व्यासजीकी स्त्री कोठेपर खडीथी उसने जो जमाई ली, सो शुकदेवजी उसके उदरमें प्रवेश करगये, शिवजीने व्यासजीसे कहा कि, तुम्हारी स्त्रीमें हमारा चोर है, उसे निकालो, व्यासजी बोले कि, आपके पास है क्या?जो इसने चुराया है शिवजी बोले कि, तत्त्वज्ञान, जिससे अमर होते हैं, वह इसने चुराया है व्यासजी वोले कि, इसीसे आप भोलानाथ कहलाते हो. भला विचारो तो सही कि, जिसने तत्त्वज्ञान सुना, वह त्रिशूलसे कैसे मरेगा! महादेवजी हँसकर कैलासको चलेगये, और उसीदिनसे रा रा कहते हैं, पूरा नाम नहीं लेते, शुकदेवजी सपूर्णही गुप्त रखते हैं, इसी कारण राधिकाका कहीं नाम नहीं लिया॥

तृप्त नहीं हुईं, जिसप्रकार साधुपुरुष श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेसे तृप्त नहीं होते॥७॥ और कोई गोपी नेत्रोंके छिद्रद्वारा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको हृदयमें लेजाय नेत्रमूँद उन्हें आलिंगनकर रोमांचित शरीर होयोगिजनों के समान महान् आनन्दमें मग्न होगईं॥८॥ और केशवमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करके आनन्दसे सुखी हो संपूर्ण गोपियोंने विरहके तापको त्यागदिया, जैसे ईश्वरको पाकर मुमुक्षुजन ताप छोड देतेहैं, अथवा सुषुप्ति अवस्थाकी साक्षीको पाकर जाग्रतरूप अवस्थावान् जीव जैसे तापको छोडदेते हैं॥९॥ हे परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उन दुःखरहित गोपियोंके मध्यमें इसप्रकार शोभायमान लगनेलगे जैसे परमात्मा सब शक्तियोंसे और उपासक

तं काचिन्नेत्ररंध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च॥ पुलकांग्युपगुह्यास्ते योगीवानंदसंप्लुता॥८॥ सर्वास्ताः केशवा लोकपरमोत्सवनिर्वृताः॥ जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः॥९॥ ताभिर्विधृतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः॥ व्यरोचताधिकं तात पुरुषश्शक्तिभिर्यथा॥१०॥ ताः समादाय कालिंद्या निर्विश्य पुलिनं विभुः॥ विकसत्कुंदमंदारसुरभ्यनिलषट्पदम्॥११॥ शरच्चंद्रांशुसंदोहध्वस्तदोषातमः शिवम्\।\। कृष्णाया हस्ततरलाऽऽचितकोमलवालुकम्॥१२॥ तद्दर्शनाह्लादविधूतद्रुजो मनोरथांतं श्रुतयो यथा ययुः॥ स्वैरुत्तरीयैः कुचकुंकुमांकितैरचीक्लृपन्नासनमात्मबंधवे॥१३॥

पुरुष ज्ञान बल वीर्यादि जो शक्ति हैं, उनसे शोभायमान लगता है॥१०॥ इसके उपरान्त उन गोपियोंको संग ले फूलेहुए कुंद और मंदारकी सुगंधयुक्त पवन के कारण जहां भौंरे गुंजार कर रहेथे, ऐसे यमुनाके पुलिनमें सबको लेगये॥११॥ कैसे पुलिन हैं कि, शरदृतुके चन्द्रमाकी किरणोके समूह से रात्रिका अंधकार जिनमेंसे दूर होगया है और यमुनाजीका भी उसीके समान तरंगों से कोमल बालूके बिछौने जिसमें बिछरहे हैं॥१२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होनेके कारण आनंदपूर्वक हृदयके रोग दूरकर गोपियाँ अपने मनोरथोंके अंतको प्राप्त हुईं अर्थात् उनके मनोरथ पूर्ण हुए, जैसे ज्ञानकाण्डमें श्रुति परमेश्वरको देख आनंदसे परिपूर्ण हो कामके सम्पूर्ण बंधनोंका त्याग करती हैं और

कुचोंकी केशरयुक्त अपनी ओढनियोको उतार उतारकर गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रके बैठनेकी तकियां बनाने लगीं*॥१३॥ योगेश्वरोंके भीतरजिनका कल्पित आसन है, वह ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तीनलोककी शोभाका एकही स्थान क्या तीनों लोककी शोभा जिसमें आरही उसी प्रकार रूप धारण कर उस आसनपर बैठ गोपियों से पूजित हो, उनकी सभामें शोभायमान लगने लगे॥१४॥ कामदेवके बढ़ानेवाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रकी हासलीलापूर्वक चितवनसे चलायमान भ्रुकुटीसे सत्कार कर गोदमें धरेहुए श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंको हाथोंसे दाबतीं और स्तुति करतीं कुछेक

तत्रोपविष्टो भगवान्स ईश्वरो योगेश्वरांर्तहृदिकल्पितासनः॥ चकास गोपीपरिषद्गतोऽचितस्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्॥१४॥ सभाजयित्वा तमनंगदीपनं सहासलीलेक्षणविभ्रमद्भुवा॥ संस्पर्शनेनांककृतांप्रिहस्तयोः संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे॥१५॥ गोप्य ऊचुः॥ भजतोऽनुभजंत्येक एक एतद्विपर्ययम्॥ नोभयांश्च भजंत्यन्य एतन्नो ब्रूहि साधु भोः॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ मिथो भजंति ये सख्यः स्वार्थैकांतोद्यमा हि ते॥ न तत्र सौहृद धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा॥१७॥ भजंत्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा॥ धर्मों निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः॥१८॥

क्रोधसे गोपियां बोलीं॥१५॥ सब गोपी बोली कि, महाराज! एक पुरुष तो भजतेहुएको भजता है, वह कौन है? और एक ऐसे हैं कि, जो नहीं भजता उसको भजते हैं, वह कौन है? एक भजतोंको और न भजतोको दोनों को नहीं भजते हैं, वह कौन है? सो हे कृष्ण! यह हमारे आगे भली प्रकार समझा कर कहो॥१६॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे सखियो!जो पुरुष परस्पर भजते हैं अर्थात् जितना वह उनको चाहैं, उतना ही वह उनको चाहैं, वह पुरुष तो अपस्वार्थी हैं, उस भजनमें स्नेह, सुख धर्म कुछ भी नहीं है वह तो केवल अपनाही भजन है॥१७॥और जो नहीं भजतोंको

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* शंका— जिन गोपियोंके मित्र श्रीकृष्ण सो सब गोपी अपने पहिरेहुये वस्त्रोंका आसन श्रीकृष्ण के बैठनेको क्यों देती थीं? क्या गोपी दरिद्रिनी थीं?‘नया वस्त्र मॅगाकर भगवान् के बैठने को आसन वय नहीं दिया?

उत्तर—जो प्राणी अपने काममें उन्मत्त होजाता है, उसको कुछ नहीं जानपडता कि, यह काम अच्छा है यह काम बुरा है, इसीप्रकारसे कृष्ण के चरणों में गोपी उन्मत्त होरहीं थीं, उनको ज्ञात न हुवाकि वस्त्र हमारा पहिरा हुवा है वा विना पहिरा है इस लिये गोपीं भगवान्को अपने पहिरे वस्त्रका बैठनेको आसन देने लगीं॥

भजतेहैं, वह पुरुष दो प्रकारके हैं, एक तो करुणावान् दूसरे स्नेही जैसे माता पिताको पुत्र नहीं चाहताहै, परन्तु वह उसके ऊपर कृपा करतेहैं और इस भजनमें निर्दोष धर्म है, हे सुमध्यमाओ! दयालु होकर भजनमें सत्य धर्म है और स्नेहसे भजनमें सत्य प्रेम॥१८॥ “पर भजन विश्वाससे हीकरना योग्य है” इसमें एक दृष्टान्त* कहतेहैं कि, विश्वासमें ही भगवान्हें और कहीं नहीं और जो पुरुष भजतोंहीको नहीं भजते तो अभजतोंको कहांसे भजेंगे, वे चारप्रकारके हैं, एक तो आत्मामेंही रमण कररहेहैं और एक पूर्णमनोरथ हैं जिनको किसी बातकी चाहना नहीं है और एक अकृतज्ञ हैं, जो उपकारको नहीं

भजतोऽपि न वै केचिद्भजंत्यभजतः कुतः॥ आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुगुहः॥१९॥ नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जंतून्भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये॥ यथाऽधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिंतयाऽन्यन्निभृतो न वेद॥२०॥ एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽवलाः॥ मया परोक्षं भजतां तिरोहितं माऽसूयितुं माऽर्हथ तत्प्रियं प्रियाः॥२१॥

समझते और एक गुरुद्रोही हैं, अर्थात् जो उपकार करेैउसीसे द्रोह करतेहैं॥१९॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे सखियो!मैं इनमेंसे कोई नहीं, केवल दयालु और स्नेही हूं, जो कोई प्राणी मेरा भजन करता है, उसको अपनी ओर ध्यान लगानेके लिये मैं नहीं भजता हूँ जैसे दरिद्री पुरुषको धन मिले और वह धन जाता रहै, तब वह उसी चिन्ताका मारा भूख प्यास नहीं जानता॥२०॥ हे बालाओ! मेरे लियेही लोकमर्यादा वेदमर्यादा पति पुत्रा

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* दृष्टान्त— एक मनुष्य किसी कार्यवश भगवान् का पूजन करता था, परन्तु मनमें यही विचारता था कि, यह पत्थरकी मूर्ति हमारा कार्य कैसे साधन कर सकेगी? इसप्रकार चलविश्वास होनेसे उसका कार्य नहीं हुआ, तब किसीने उससे कहा कि, तू भगवती दुर्गादेवीका पूजन कर तुरन्त काम सिद्ध होगा, वह मनुष्य ऊपर के आलेमें श्री ठाकुरजीकी मूर्तिरख नीचे दुर्गादेवीका पूजन करनेलगा, एकदिन धूप देतेसमय मन में विचारा कि, सीधी ऊपरी को जाती है सो नारायणको पहुँचती है इस कारण दुर्गादेवीको पीछे मिलनेसे वह प्रसन्न नहीं होती, इसका यत्न करू, यह विचार रुई ढूँढ भगवन्मूर्तिको नाकमें भरने लगा जिससे कि, सुगन्ध न जाय, भगवान् तत्कालही मूर्ति में प्रसन्नहोकर और हँसकर चोलेकि, माई रुई मत ठूते वर माग क्या चाहिये, यह बोला कि, महाराज! मुझे क्या खबर थी कि, आप रुई ठूसनेसे प्रसन्न होते हैं, यह विधि किसी पद्धतीमें भी नहीं लिखी, भगवान् बोले पहिले तुझे विश्वास नहीं था, मूर्तिको पाषाण अर्थात् पत्थर जानता था, आज वह बात जाती रही आज ईश्वरही जाना, नहीं तो पत्थरमें सूचनेकी शक्ति कहा, आज तेरा विश्वास ईश्वररूपका था॥

दिक तुमने त्यागदिये, सो तुम्हारी चितवृत्ति लगानेके लिये तुमको देखनेके लिये नही आया, तुम्हारे पासही छिपरहा था, कुछ दूर नहीं गया था. प्रियाओ! यह कृष्ण बुराहै, ऐसे मुझमें दोष मत लगाओ॥२१॥ तुम निर्दूषित तुम्हारे संग उपकारका बदला मुझपर यदि देवताओंकी समान अवस्था हो, तो भी नहीं होसक्ता, क्योंकि जो छोड़ी न जाये ऐसी घररूप बेडियोंको काटकर तुमने मेरी सेवा की, इसलिये तुम्हीं कहदो कि, कृष्ण हमारा ऋणीया नहीहै. तो मेरा छुटकाराहै, मुझपै तुम्हारे उपकारका बदला नहीं होक्ता॥२२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां रासक्रीडायां द्वात्रिंशोध्यायः॥३२॥ दोहा— नारिमण्डली के विषे, ठाढ़े श्रीयदुराय। करत विहार प्रियान सँग, तेंतिसवें अध्याय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!इसप्रकार उन श्रीकृष्णचन्द्रके हस्त चरण आदि अंग स्पर्शकर मनोरथ पाय गोपियोंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका

न पारयेहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः॥ या माऽभजन्दुर्जयगेहश्रृंखलाः संवृश्च्यतद् वः प्रतियातु साधुना॥२२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दश० पूर्वार्द्धे हरिकृतविरहितगोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥श्रीशुक उवाच॥ इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः॥ जहुर्विरहजं तापं तद्गोपचिताशिषः॥१॥ तत्रारभत गोविंदो रासक्रीडामनुव्रतैः॥ स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्या बडवाहुभिः॥२॥ रासोत्सवः संप्रवृत्तौ गोपी मण्डलमण्डितः॥ योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः॥ प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः॥३॥ यं मन्येरन्नभस्तावद् विमानशतसंकुलम्॥ दिवौकसां सदाराणामौत्सुक्यापहृतात्मनाम्॥४॥

अति कोमल वचन श्रवण कर विरहके तापको छोड़ दिया॥१॥ और इसके उपरान्त गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र भी वहाँ अपनी आज्ञा करनेवाली प्रसन्नमन, परस्परमें हाथ पकडेखडी हुई स्त्रियोंमें रत्न गोपियोंको संग ले रासक्रीडाका आरंभ करनेलगे॥२॥ फिर गोपियोंके समूह से शोभायमान रासका उत्सव योग के ईश्वर श्रीकृष्णचंद्र रचने लगे और मण्डलाकार खडीहुईं दो दो गोपियोंके बीचमें अपने अनेक रूप धारणकर कण्ठमें गलबाहीं डाल गान करते श्रीकृष्ण आपभी खडे हुए॥३॥ हे राजन्! जिन श्रीकृष्णचन्द्रको, सब गोपियें प्यारा मेरे पास है, कोई बोलीं मेरे पास है, इसप्रकार अपने अपने पास जानने लगीं और रासदेखने की इच्छासे देवतालोगभी अपनी अपनी स्त्रियोंको लेकर आये, उनके विमानोंसे

आकाश छा रहा था॥४॥ देवताओंके आने उपरान्त नगाडे बजनेलगे, फूलोंकी वर्षा होनेलगी और मुख्य मुख्य गन्धर्व अपनी अपनी स्त्रियोंको संग ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका निर्मल यश गाने लगे॥५॥ और प्यारे श्रीकृष्णचंद्रके संग जो स्त्रियें थीं, उनके कंकण नूपुर तथा किंकिणियोंका रासमण्डलमें बडा झनकार शब्द होनेलगा॥६॥ जैसे दो दो मणियोंके बीचमें एक एक नीलमणि सुन्दर लगती है, उसीप्रकार उस रासमंडलमें दो दो गोपियोंके बीचमें एक एक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अत्यन्त शोभायमान लगने लगे॥७॥ पाँवका धरना, भुजाओंका हलना, मुसकानसहित भ्रुकुटियोंका चढना, कमरका लचकना, कुचों और वस्त्रोंका हिलना, कपोलों पर कुण्डलोंकी हलन, उनसे जिनके मुखपर पसीना आगया, चोटियोंके नारोंकी गाँठि जिनकी खुलगईं, ऐसी भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकी वधू गोपियें श्रीकृष्णचन्द्र के गुणानुवाद गान करतीं, जैसे मेघमण्डल में बिजली

ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्पवृष्टयः॥ जगुर्गंधर्वपतयः सस्त्रीकास्तद्यशोऽमलम्॥५॥ वलयानां नूपुराणां किंकीणीनां च योषिताम्॥ सप्रियाणामभूच्छब्दस्तुमुलो रासमण्डले॥६॥ तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान्देवकीसुतः॥ मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा॥७॥ पादन्यासैर्भुजविधुतिभिःसस्मितैर्भूविलासैर्भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलैर्गंडलोलैः॥ स्विद्यन्मुख्यः कबररशनाग्रन्थयः कृष्णवध्वो गायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्रे विरेजुः॥८॥ उच्चैजगुर्नृत्यमाना रक्तकंठ्यो रतिप्रियाः॥ कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्गीतेनेदमावृतम्॥९॥ काचित्समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः॥ उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधुसाध्विति॥ तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात्॥१८

शोभायमान लगती है, उसी प्रकार शोभायमान लगने लगीं॥८॥ अनेक प्रकारके रंगोंसे कण्ठ जिनके रॅगरहे, रतिही जिनको प्यारी और श्रीकृष्ण चन्द्रका स्पर्श जिनको हो उससे बडा आनन्द जिनको, वह गोपियें नृत्य करते ऊँचे स्वरसे गाने लगीं, जिनका गीत इस विश्वमें छारहा है॥९॥ और कोई गोपी मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रके संग उच्चस्वरोंके अलापोंकी गतिको उठाने लगीं, कैसे स्वरोकी जाति ली कि, श्रीकृष्णचन्द्रने जो स्वर उठाया, उनमें मिलतीथी. तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न हो धन्य है, धन्य है, इस प्रकार बडाई करने लगे इसलिये जिन स्वरोकी जाति ली थी उनको ध्रुवतालमें बाँधकर गाती हुई गोपियें प्रशंसा करने लगीं तब गोपियोंको श्रीकृष्णचंद्रने बहुत मान दिया॥१०॥

कोई गोपी रासमें श्रमित हो गदा धारण करनेवाले पासमें खडे हुए श्रीकृष्णचन्द्रके कंधेको हाथसे पकड़ने लगी, चूरी तथा फूलोंके हार जिनके शिथिल होगये. यहाॅ गदा वंशीकोही जानना. क्योंकि गोपियों के हृदयको चूर करती है॥११॥ इसके उपरांत एक गोपीने रोमांच जिसके होआये कमलोंकी समान सुगंधवाली चन्दनसे चर्चित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाको अपने कंधेपर धरकर चुम्बन किया॥१२॥ और फिर नृत्यसे चलायमान कपोलोंको श्रीकृष्णके कपोलोंपर लगाती हुई गोपीको श्रीकृष्णचन्द्रने बीरीका जूँठन दिया॥१३॥ और किसी गोपीने नूपुर करधनी जिसके बजें

काचिद्रासपरिश्रांता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः॥जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका॥११॥ तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम्॥ चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्व ह॥१२॥ कस्याश्चिन्नाट्यविक्षिप्तकुण्डलत्विषमंडितम्॥ गण्डे गण्ड सन्दधत्या अदात्ताम्बूलचर्वितम्॥१३॥ नृत्यन्ती गायती काऽपि कूजन्नूपुरमेखला॥ पार्श्वस्थाऽच्युतहस्ताब्जं श्रांताऽधात्स्वनयोः शिवम्॥१४॥ गोप्यो लब्ध्वाऽच्युतं कांतं श्रिय एकांतवल्लभम्॥ गृहीतकंठ्यस्तद्दोर्भ्यां गायन्त्यस्तं विजह्रिरं॥१५॥ कर्णोत्पलालकविटंककपोलघर्मवक्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यैः॥ गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेशस्रस्तस्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम्॥१६॥

नृत्य व गान करतेहुए श्रम पाय पास खड़े हुए मंगलरूप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका हस्तकमल अपने स्तनोंपर धारण किया*॥१४॥ लक्ष्मीके अत्यन्त प्यारे अच्युत श्रीकृष्णको सुंदर पति पाय उनकी भुजाओंसे कंठमें गलबाहीं डाल गोपियें श्री कृष्णचन्द्रको गाती विहार करने लगीं॥१५॥ उस रासमण्डल में स्त्रियों सहित गंधर्व और किन्नरादिक जो बाजे बजारहे थे, तथा गवैये बनकर गा रहे थे, वह सब रासरसमें मोहित होकर नृत्य करने

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* शंका—गोपीने श्रीकृष्णका हाथ अपने हाथसे पकडकर अपने स्तनोंपर क्यों रक्खा? जैसे मनुष्यकी स्त्री कर्म करती हैं, ऐसा कर्म क्यों किया?

उत्तर—गोपीने विचार किया कि, इनहीं श्रीकृष्णभगवान्ने अपने हस्तकमलोंको प्रह्लादके और ध्रुवके मस्तकपर रक्खा था तब प्रह्लाद और ध्रुव ससारके दु खसे छूटकर भगवानके भजनमें मग्न होगये, इसलिये में भी खपने कुचपर भगवान्का हाथ धरके इन दोनोंको भक्तजन बनाऊंगी क्योंकि कामदेव जब कुपित होकर पुष्पधनुष सधान कर मेरे ऊपरको चढता है, तो स्तनोंमें अधिक बाधा होती है, अब जो यह भक्त होजायँ तो ससारके सब दु खोंसे निवृत्त होजाऊगी और कामदेव भी मुझको नहीं सतावेगा उसकी बाधासे भी छूट जाऊगी, पुरुषकी ममता शिरपर बहुत होती है और स्त्रीकी ममता स्तनोंपर अधिक रहती है ऐसा विचार करके गोपीने कृष्णका हाथ अपने कुचपर रक्खा॥

लगे, उससमय कंकण और नूपुर बाजेका कार्य और भरे गवैयोंका काम कररहे थे, रास मण्डलमें व्रजवनिता कृष्णके संग नृत्य करतीहुईं अत्यन्त शोभा पारही थीं, उनके कानोंके कमल अलकोंसे युक्त कपोल और पसीनेके बूँदोंकी शोभा मुखपर छा रहीथी और नृत्य समय में जो फूलोंकी माला गिरती थीं; उनसे ऐसी शोभा होरही थी कि, मानों तालोंकी गति से प्रसन्न होकर केश शिर हिलाय चरणोंपर फूलोंकी वर्षा कररहेहैं॥१६॥ इसप्रकार लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आलिंगन, हाथोंका स्पर्श, स्नेह भरी चितवन और बड़े विलास हास्यसे, जैसे बालक अपनी परछाहींसे खेलता है, उसी प्रकार व्रजसुंदरिओं के संग रमण करनेलगे॥१७॥ हे कुरुकुलको आनन्द देनेवाले राजा परीक्षित्!उससमय श्रीकृष्णके अंगमें जो आनन्द उससे जिनकी इन्द्रियें विवश होरहीं और जिन व्रजकी स्त्रियोंके माला गहने खिसक रहेथे, वह अपने केश, शरीर, कुच और वस्त्रोंके सम्हारनेको

एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः॥ रेमे रमेशो व्रजसुंदरीभिर्यथाऽर्भकः स्वप्रतिबिंबविभ्रमः॥१७॥ तदंगसंगप्रमुदाकुलेंद्रियाः केशान्दुकूलं कुचपट्टिकां वा॥॥ नांजः प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो विस्रस्तमालाभरणाः कुरू इह॥१८॥ कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः॥ कामार्दिताः शशांकश्च सगणो विस्मितोऽभवत्॥१९॥ कृत्वा तावंतमात्मानं यावतीर्योपयोषितः॥ रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया॥२०॥ तासामतिविहारेण श्रांतानां वदनानि सः॥ प्रामृजत्करुणः प्रेम्णा शंतमेनांग पाणिना॥२१॥ गोप्यः स्फुरत्पुरटकुंडलकुंतलत्विङ्गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन॥ मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः॥२२॥

भी समर्थ न हुईं॥१८॥ हे नृपश्रेष्ठ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी रासक्रीडा देख आकाशमें देवांगनायें भी कामसे पीडित होकर मोहित होगईं और तारागण सहित निशानाथ चन्द्रमा भी आश्चर्य मानकर चलना भूल गया, तब और ग्रह भी जहाँके तहाँ हर गये, उससे राति जो बढ़ गई उससे सुखपूर्वक विहार करने लगे॥१९॥ जितनी गोपोंकी स्त्रियें थीं; उतनेही अपने रूपधर आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उन गोपियोंके संग लीला करने लगे॥२०॥ फिर अत्यंत विहारसे जिनको श्रम प्राप्त हुआ ऐसी गोपियोंके मुखका पसीना देख करुणाको प्राप्त हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे उनका मुख पोंछने लगे॥२१॥ वे मानवती गोपियें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके हस्तकमल नख स्पर्शसे

महासुख पाय प्रकाशमान सुवर्णके कुण्डलसे कान्तिमान कपोल तथा रसभरी चितवन और मुसकान युक्त श्रेष्ठ गुणभरे श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करके सुन्दर चरित्र गाने लगीं॥२२॥ मर्यादाको उल्लंघन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जब रास विलास करते करते थकगये, तब उन गोपियोंको संगले श्रम दूर करनेके लिये जल में घुसे, कुचोंकी केशर जिसमें लगी अंग अंगसे रगड़ी मालाकी सुगंधसे गंधवोंके समान भौंरे गातेहुए उनके पीछे चले जाते थे, जैसे हथिनियोंको संग लेकर हाथी जलविहार करनेको जाते हैं॥२३॥ हे अंग!इधर उधर से जल में स्त्रियोंको छींटी देते हैं, जिस समय जलविहार करते समय व्यंग वचन बोल और प्रेमपूर्वक कृष्णको देखकर हँसती हैं और भगवान्को जलसे भिजोती हैं विमानोंपर बैठे देवता स्तुति और पुष्पोंकी वर्षा करते हैं, हाथी के समान जिनकी लीला, ऐसे आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तहाँ जलमें

ताभिर्युतः श्रममपोहितुसंगसंगघृष्टस्रजः स कुचकुंकुमरंजितायाः॥ गंधर्वपाऽलिभिरनुद्रुत आविशद् वाः श्रांतो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः॥२३॥ सौंभस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरितस्ततोंग॥ वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेंद्रलीलः॥२४॥ ततश्च कृष्णोपवने जलस्थलप्रसूनगंधानिलजुष्टदिक्कटे॥ चचार भृंगप्रमदागणावृतो यथा मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः॥२५॥ एवं शशांकांशुविराजिता निशः स सत्यकामोऽनुरताबलागणः॥ सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः॥२६॥ राजोवाच॥ संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च॥ अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः॥२७॥

अथवा गोपियोंके मंडलमें क्रीडा करनेलगे॥२४॥ जलक्रीडा करनेके उपरान्त जल स्थलके पुष्पोंकी सुगंधभरी पवन जिसके सबदिशाओं में व्याप्त होरही है, ऐसे जो यमुनाजीके बागमें भरे रूप गोपियोंके संग श्रीकृष्णचन्द्र विहार करनेलगे, जैसे मदस्रावी हाथी हथिनियोंके संग विहार करता है॥२५॥ इस प्रकार सत्यसंकल्प भगवान् चन्द्रमाकी किरणोंसे शोभायमान उस शरदकी रात्रियोंमें साहित्य काव्यों में जो करने की विधि लिखी है, उसीप्रकार वह स्नेहभरी गोपियों के संग वीर्यको धारणकर करनेलगे, और जितनी गोपी उतनेहीं श्याम उतनीहीं कुंजों में फूलोकी शय्यापर लेटे हँसते हँसाते कोमल बातें करते थे॥२६॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे श्रीशुकदेवजी!धर्मके स्थापन

और अधर्मका नाश करनेके लिये जगत् के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने परिपूर्ण रूपसे अवतार लिया है॥२७॥ फिर धर्मकी मर्यादाके रक्षा करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रने पराई स्त्रीका स्पर्श करना, यह अधर्म क्यों किया?॥२८॥ पूर्णकाम यादवोंके पति श्रीकृष्णने यह निंदित कर्म कैसे किया? इसका क्या अभिप्राय है? हे सुन्दर व्रतवाले शुकदेवजी! यह हमारा संदेह शमन करो॥२९॥ यह वचन सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्!सामर्थ्यवानोंको धर्मका उलांघना और साहस भी देखाहै, जैसे अग्निमें भली बुरी वस्तु डालदो, उसको भस्म करदे और उसे

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताऽभिरक्षिता॥ प्रतीपमाचरद्ब्रह्मन्परदाराभिमर्शनम्॥२८॥ आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम्॥ किमभिप्राय एतं नः संशयं छिंधि सुव्रत॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्॥ तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा॥३०॥ नैतत्समाचरेज्जातु मनसाऽपि ह्यनीश्वरः॥ विनश्यत्याचरन्मौढ्याद् यथाऽरुद्रोऽधिजं विषम्॥३१॥ ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्॥ तेषां यत्स्ववचो युक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्॥३२॥

दोष नहींलगता, उसी प्रकार सामर्थ्यवान तेजस्वी पुरुषोंको भी दोष नहीं लगता, कहा भी है, “समरथ को नहिं दोषगुसाँईं”॥३०॥ बड़ोंकी रीति न करे उसमें पीछे पछताना पडताहै* सामर्थ्यवान पुरुषोंके करे कर्मको मनसे भी न करें और जो कदाचित् अज्ञानसे करे तो माराजाय, जैसे रुद्र (शिव) के विना और कोई समुद्रके विषको पान नहीं कर सकता॥३१॥ ईश्वरके वचनों कोही सत्यमाने और उनके आचरणोंको भी सत्यमानै, जैसा उन्होंने कहा है, उसीके अनुसार बुद्धिमान पुरुष करौ। राम-कृष्ण दोनों अवतार हुए हैं श्रीरामचन्द्रजीने जैसा कहा वैसाही किया,

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* दृष्टान्त— एक राजा रानीने सम्मति करो कि हमारे यहाँ भी अनेक युद्ध हुए हैं इसकारण ऐसा महाभारत बनाना चाहिये, यह विचार पडितों को बुलायकर कहा कि, एक हमारे नामका भी महामारत बनाओ परन्तु वह व्यासजीके महाभारत से किसी प्रकार न्यून न हो चाहे बढती हो, नहीं तो तुम्हें देशसे निकालदूगा ब्राह्मण आपसमें सम्मति कर राजाके पास आनकर कहने लगे कि महाराज! महाभारत बनानेकी सामग्री सब प्रस्तुत है सब बातें अधिकही करेँगे पर एक बात आप बताइये राजाने कहा क्या?ब्राह्मण बोले महाभारत में द्रौपदीके पाच पति थे, आपकी रानीके उससे अधिक कितने लिखे सो बताइये और उनके नाम वर्णन कीजिये? सुनतेही राजाकी बुद्धि लोप होगई और घबराकर वोला महाराज क्षमा करो, मुझे महाभारत लिखानेकी सामर्थ्य नहीं, इसलिये बर्डोके चरित्र पे शका नहीं करनी चाहिये\।\।

इस लियेउनका कहना करना दोनों करे और श्रीकृष्णचन्द्रने जो गीतामें कहा है, उसे करे और जो उन्होंने लीला करीहें उनको नकरै किन्तु ध्यान करै॥३२॥ हे प्रभो!इस संसारमें जिनको अहंकार नहीं है, ऐसे सामर्थ्यवान पुरुष जो अच्छा कर्म करें उससे उनको पुण्य और निकृष्टकर्म करनेसे पाप नहीं होता है, क्योंकि पुण्य पापतो देहमें अहंकारके वशसे लगेहैं, इसकारण अहंकार रहित पुरुषको कुछ दोष नहीं है॥३३॥ जब और महात्माओंको भी पाप पुण्य नहीं लगता तब समस्तप्राणी, पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता, जीव, इनके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको पाप पुण्य नहीं लगता है, इसमें कहना ही क्या है?॥३४॥ जिनके चरणारविन्दका पराग अर्थात् मकरंदका सेवन करनेसे तृप्तहोकर भक्तजन और योगप्रभावसे संपूर्ण कर्मबंधन दूरकर मुनीश्वर ज्ञानी बंधनोंसे रहित हो अपनी इच्छापूर्वक विचरते हैं, तो इच्छासे शरीर धारण करनेवाले

कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते॥ विषर्ययेण वाऽनर्थो निरहंकारिणां प्रभो॥३३॥ किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्मर्त्यदिवौकसाम्॥ ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः॥३४॥ यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः॥ स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमानास्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः॥३५॥ गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्॥ यतश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्॥३६॥ अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः॥ भजते तादृशीः क्रीडा याः स्मृत्वा तत्परो भवेत्॥३७॥ नासूयन्खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया॥ मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्त्रजौकसः॥३८॥ ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः॥ अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान्भगवत्प्रियाः॥३९॥

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको बंधन कहाँसे हो?॥३५॥ गोपी और उनके पतियोंके व संपूर्ण देहधारियोंके साक्षीरूप होकर जो देह के भीतर रहते हैं, उन श्रीकृष्णचन्द्रने क्रीडा करनेके लिये देह धारण किया है, इसकारण उनमें कुछ दोष नहीं होसक्का, क्योंकि सर्वत्र वही रमण करते हैं, और बाहर भीतर व्याप्त हैं॥३६॥ संपूर्ण प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये मनुष्य देह धारण करके ऐसी मनुष्य लीला करीहैं कि, जिन लीलाओंको श्रवण करनेसे मनुष्य कृष्णपरायण होजाता है॥३७॥ उन श्रीकृष्णचन्द्रकी मायासे मोहित व्रजवासियोंने श्रीकृष्णचन्द्रको कुछ दोष नहीं लगाया और अपनी अपनी स्त्रियोंको अपने अपने पास जाना॥३८॥ इसके उपरान्त ब्रह्म मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी रात रहे, श्रीकृष्णचन्द्रकी

आज्ञानुसार घर आनेको जिनकी इच्छा नहीं ऐसी प्यारी गोपियें अपने अपने घर आई॥३९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका परम कौतुक जो व्रजवधू गोपियोंके संग रासलीला है इसे जो पुरुष श्रद्धा सहित श्रवण और कथन करतेहैं* वह पुरुष भगवान्में परमभक्ति प्राप्तकर थोडेही दिनों में धीर होकर शीघ्रही हृदयके कामरूप रोगों का त्यागकर देते हैं॥४०॥ इति श्रीभा० महा० दश० पू० भाषाटीकायां रासकीडावर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥ दोहा—चौतिसमें नँदरायको, निगल गयो इक नाग। शंखासुरको वध कियो, कृष्ण सकल भय त्याग॥१॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्!

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद्यः॥ भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रयस्त्रिशोऽध्यायः॥३३॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः॥ अनोभिरनडुद्युक्तैःप्रययुस्तें विकावनम्॥१॥ तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्॥ आनर्चुरणैर्भक्त्या देवीं च नृपतेविकास॥२॥ गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृताः॥ ब्राह्मणेभ्यो ददुः सर्वे देवो नः प्रीयतामिति॥३॥ ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य धृतव्रताः॥ रजनीं तां महाभागा नन्दसुनंदकादयः॥४॥ कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः॥ यदृच्छयाऽऽगतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत्॥५॥

एकसमय अत्यन्त उत्साहसे सव व्रजवासी देवीकी यात्रा करनेके लिये वैलोको जोत गाडियोंपर बैठकर देवीके बनमें गये॥१॥ हे राजन्!वहाँ पहुँच सरस्वती नदीमें स्नान कर फिर महादेवजीका भली भाँति पूजनकर अम्बिका देवीका पूजन किया॥२॥ संपूर्ण व्रजवासी, महादेव हमारे ऊपर प्रसन्नहों, इसलिये मधुयुक्त मधुर अन्न और गौ, ब्राह्मणोंको दान किया॥३॥और बडे भाग्यवान् नन्दादिक और सब ब्रजवासियोंने उस दिन रात्रिको जलका आचमन कर तथा तीर्थ व्रत करके सरस्वतीके किनारेही वास किया॥४॥ हे नृप! उस वनमें कोई अत्यन्त भूखा सर्प रहताथा, उसने

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* दृष्टान्त—एक बुढिया वडी कहा मुनीसे कथा सुनने गई पीछेसे कटोरा जाता रहा दूसरे दिन कथामें न आई, लुगाइयोंने कहा, बुढिया तू कथा सुननेको न आई बोली कि, मैना। खर्च बहुत पढता है पहले दिनगई तो कटोरा गया अनकी सुनगी तो थाली लोटे परात सवखोवैठुगी इसकारण मेरी तो कथाको दूरसेही दंडयत् है।

अकस्मात् आनकर नन्दरायजीको ग्रसा*॥५॥ सर्पसे ग्रसित होकर नन्दजी पुकारने लगे कि, हे कृष्ण! हे कृष्ण! यह अत्यन्त भयानक सर्प मुझको निगले जाता है, हे पुत्र! मैं तेरी शरण हॅू, तू मुझे छुड़ा॥६॥ इसप्रकार नन्दजीकी पुकार सुन घबराहटसे ब्रजवासी शीघ्रही उठे, देखाकि, नंदजीको सर्प निगले जाता है तो सुलगती लकड़ियोंसे उसको मारने लगे॥७॥ यद्यपि ब्रजवासियोंने सुलगती लकड़ियोंसे उसे मारा परन्तु तोभी उस सर्पने नंदजीको न छोड़ा, तब भक्तोंकी रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उस सर्पको अपने चरणकी ठोकर मारी॥८॥ भगवान श्रीकृष्ण

स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्णकृष्ण महानयम्॥ सर्पों मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय॥६॥ तस्य चाक्रंदितं श्रुत्वा गोपालाः सहसोत्थिताः॥ ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ताः सर्प विव्यधुरुल्मुकैः॥७॥ अलातैर्हन्यमानोऽपि नामुंचत्तमुरं गमः॥ तमस्पृशत्पदाऽभ्येत्य भगवान्सात्वतां पतिः॥८॥ स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः॥ भेजे सर्षवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम्॥९॥ तमपृच्छद्धृषीकेशः प्रणतं समुपस्थितम्॥ दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम्॥॥१०॥ को भवान् परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः॥ कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः॥११॥ सर्प उवाच॥ अहं विद्याधरः कश्चित सुदर्शन इति श्रुतः॥ श्रिया स्वरूपसंपत्त्या विमानेनाचरन्दिशः॥१२॥

चन्द्रके चरणकी ठोकर लगतेही उसके सब पाप दूर होगये और उस सर्पने सर्पदेहको त्यागकर विद्याधर जिसका पूजन करैं, ऐसे स्वरूपको धारण किया॥९॥ इसके उपरान्त प्रकाशमान रूप धारण किये सुवर्णकी मालापहिरे उस खड़ेहुए पुरुषसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूछने लगे कि॥१०॥ परम शोभायमान अद्भुतदर्शन तुम कौन हो? और विवश होकर यह सर्पकी योनि तुमको कैसी मिली॥११॥ यह सुनकर वह सर्प बोला कि, महाराज!

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शंका— सब सर्प प्राणियोंको काटते हैं परन्तु अपनी भूखकी शान्तिके लिये नहीं काटते केवल प्राणियोंको उसना (काटना) सर्पोका स्वभाव है, भागवत्में लिखा है कि, भूखें सर्पने नन्दजीको दश लिया ऐसा क्यों लिखा?

** उत्तर**—जिस सर्पका भागवतमें इतिहास है, वह सर्प पूर्वजन्मका देवता था. जब मुनीश्वरने उसको शाप दिया था तव इससे कह दिया था कि, जिससमय श्रीकृष्णका चरण तेरी देहसे छू जायगा तव तेरी मोक्ष होगी, उस सर्पको वही आशारूपी क्षुधा थी, उसीसे दुःखी होकर सर्पने नन्दजीको काटा॥

मैं सुदर्शन नाम करके विख्यात कोई गंधर्व था, संपत्ति और शरीरकी सुन्दरतासे गर्वित हो विमानमें बैठकर दिशाओं में विचरता था॥१२॥ तब एक समय मैंने रूपके मदसे मत्त होकर कुरूप अंगिरसादि ऋषियोंकी हँसी करी, तब उन्होंने मुझे शाप दिया, जिससे मेरी सर्पयोनि होगई॥१३॥ करुणावान् ऋषीश्वरोंने कृपा करनेहीके लिये मुझे शाप दिया था, जिसकारण त्रिलोकीके गुरु आपके चरणारविन्द स्पर्श करनेसे सब पाप छूटगये, और यदि वे शाप न देते तो तुम्हारे चरण मेरे कैसे लगते?॥१४॥ संसारसे डरकर शरण आये पुरुषका भय दूर करनेवाले आप हैं, सो मुझसे क्या पूछते हो। हे पापनाशक! तुम्हारे चरण स्पर्शसे मेरे सब पाप दूर होगये॥१५॥ हे महायोगिन्! हे महापुरुष! हे महासाधुओं के पति! हे प्रकाशमान! हे सबलोंकोंके ईश्वर! हे इश्वरके ईश्वर! तुम्हारी मैं शरण आया हूँ, सो मुझे आज्ञादो॥१६॥ हे अच्युत!तुम्हारा दर्शनकरके मैं शीघ्र ही ब्राह्मणोंके

ऋषीन्विरूपानंगिरसः प्राहसं रूपदर्पितः॥ तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना॥१३॥ शापो मेऽनुग्रहायैव कृतस्तैः करुणात्मभिः॥ यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभः॥१४॥ तं त्वाऽहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्॥ आपृच्छे शापनिमुक्तः पादस्पर्शादमीवहन्॥१५॥ प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते॥ अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर॥१६॥ ब्रह्मदंडाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्॥ यन्नाम गृह्णन्नखिलान् श्रोतॄनात्मानमेव च॥१७॥ सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते॥ इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवंद्य च॥ सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नंदश्च मोचितः॥१८॥ निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं व्रजौकसो विस्मितचेतस स्वतः॥ समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्व्रजं नृपाऽऽययुस्तत्कथयन्त आदृताः॥१९॥ कदाचिदथ गोविंदो रामश्चाद्भुतविक्रमः॥ विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम्॥२०॥

शापसे छूट गया, क्योंकि जिनका नामही उच्चारण करके वक्ता और श्रोता अपनेको पवित्र करते हैं॥१७॥ फिर तुम्हारे चरणोंसे मैं पवित्र हुवा तो इसमें आश्चर्यही क्या है? इस प्रकार दाशार्हवंशोत्पन्न भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा ले, परिक्रमा दे, प्रणाम कर वह सुदर्शन स्वर्ग को चलागया और नंदजी कष्टसे छूटगये॥१८॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वैभव देख आश्चर्यको प्राप्त हो व्रजवासी तीर्थमें हो नेमको पूर्ण कर बड़े आनन्दपूर्वक श्रीकृष्णचंद्रका चरित्र कहतेहुए व्रजमें आये॥१९॥ किसी समय एक यात्राके उपरान्त गोविंद

और अद्भुत पराक्रमवाले बलराम दोनों भाई वनके बीच रात्रिमें व्रजस्त्रियोंके मध्य में विहार करते थे॥२०॥ स्नेहसे बद्ध होने के कारण ललित स्त्रियें भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र गारहींथीं और दोनों भाई सुन्दर आभूषण धारण किये, केशर चंदन लगाये, वनमाला और निर्मल वस्त्र पहरे॥२१॥ रात्रिके प्रारम्भ होनेसे तारागण और चन्द्रमाका उदय होरहा था, चमेलीकी सुगन्धसे मत्त होकर भौंरे गुंजार कर रहे थे, फूली कुमोदिनीसे लगकर पवन चल रहाथा॥२२॥ उसकी सराहना करते सब प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्ददायक संगही स्वरके मंडलोंकी मूर्च्छना करते गाने लगे॥२३॥ हे राजा परीक्षित्!श्रीकृष्ण बलदेवका गाना सुनकर मूर्च्छाको प्राप्त हो गोपियोंके वस्त्र ढीले पड़गये और

उपगीयगानौ ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः॥ स्वलंकृतानुलिप्तांगौस्रग्विणो विरजोंबरौ॥२१॥ निशामुखं मानयंताबुदितोडुपतारकम्॥ मल्लिकागंधमत्तालिजुष्टं कुमुदवायुना॥२२॥ जगतुः सर्वभूतानां मनश्श्रवणमंगलम्॥ तौ कल्पयं तौ युगपत् स्वरमंडलमूर्छितम्॥२३॥ गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य मूर्च्छिता नाविदन् नृप॥ स्रंसद्दुकूलमात्मानं स्रस्तके शस्रजं ततः॥२४॥ एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः संप्रमत्तवत्॥ शंखचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात्॥॥२५॥ तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नार्थं प्रमदाजनम्॥ क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशंकितः॥२६॥ क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्॥ यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम्॥२७॥ मा भैष्टेत्यभयाऽऽरावौ शालहस्तौ तरस्विनौ॥ आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम्॥२८॥

चोटियोंकी गॉठे खुलाई कि, जिनसे फूलोंकी माला गिर गईं अधिक क्या कहैं, उन्हें अपने २ आपकी भी सुधि न रही॥२४॥ हे नृपोत्तम! इस प्रकार कृष्ण बलदेव दोनों भाई मतवालेके समान क्रीड़ा और गान कररहे थे कि, इतनेमेंही शंखचूड़ नाम कुबेरका टहलुआ आया॥२५॥ हे राजा परीक्षित्! कृष्ण बलदेवके देखते निर्भय हो शंखचूड़ जब उन गोपियोंके समूहको जिसके स्वामी कृष्ण बलदेव हैं, लेकर उत्तरकी ओर चला, उस समय वह गोपियें पुकारने लगीं॥२६॥ जैसे सिंहकी पकड़ी गौ पुकारती है, उसी प्रकार हे कृष्ण बलदेव! इस प्रकार पुकार करती गोपियोंको देख कृष्ण बलदेव दोनों भाई शंखचूडके पीछे दौड़े॥२७॥ मतडरो ऐसे भयके दूर करनेवाले वचन कह शालका वृक्ष हाथमें

लिये शीघ्रतासे कृष्ण बलदेव दौड़ गुहाकगणमें अधम शंखचूड़के पीछे गये॥२८॥ काल मृत्युके समान पीछे दौड़े चले आते श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवको देख, स्त्रियोंको छोड़ मूढ शंखचूड़ अपने प्राण बचाने के लिये भागा॥२९॥ जहां जहां शंखचूड़ भागकर गया वहाँ वहाँ गोविंद श्रीकृष्णचन्द्र उसके शिरकी मणि लेनेके लिये उसके पीछे दौडे और बलदेवजी स्त्रियोंकी रक्षा के लिये वहीं रहे॥३०॥ हे राजा परीक्षित्!थोडी दूर पर जाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने दुष्टमनवाले शंखचूडके मुष्टिक मार शिर सहित उसके माथेकी मणि लेली॥३१॥ भगवान् श्रीकृष्ण

स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्॥ विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया॥२९॥ तमन्वधावद् गोविंदो यत्रयत्र स धावति॥ जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं तस्थौ रक्षन् स्त्रियो बलः॥३०॥ अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः॥ जहार मुष्टिनैवांग सह चूडामणि विभुः॥३१॥ शंखचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्॥ अग्रजाया ददत् प्रीत्या पश्यंतीनां च योषिताम्॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे शंखचूडवधो नामचतुस्त्रिंशोध्यायः॥३४॥ श्रीशुक उवाच॥ गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः॥ कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान्॥१॥

चन्द्रने इसप्रकार शंखचूड दैत्यको मार प्रकाशमान् मणि लेकर संपूर्ण स्त्रियोंके देखते प्रसन्नतापूर्वक अपने बड़े भाई बलदेवजीको देदी॥३२॥ ति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्ध भाषाटीकायां शंखचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३४॥ दोहा— पैंतिस में हरि वन गये, पीछे गोकुल नारि। वेणु गीतही गायकर, दियो कष्ट सब टारि॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वनमें गये तब श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये गोपियें विरहमें उनकी लीलाको गाय गाय अत्यन्त कष्टसे दिन व्यतीत करनेलगीं*॥१॥

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* शंका—श्रीशुकदेवजीने परीक्षितसे कहा था कि, हे राजन्! श्रीकृष्ण जिस दिन गौयें चराने जाते थे, तब विना कृष्णको देखे अलग होकर गोपी बहुत दु खसे दिन काटती थीं, इस वचनसे जानपढता है कि सब गोपी गोकुलमें रात्रि के समय श्रीकृष्णके पास सभा बनाकर रहती होंगी? प्रातःकाल होतेही व्रज विहारी फिर गाय चराने चले जाते होंगे, तत्र फिर सत्र गोपी उसीप्रकार व्याकुल हो जाती होंगी।

गोपियें परस्पर बोलीं कि, हे सखियो! बाईं भुजापर बायें कपोलको घर भ्रुकुटियों को चढ़ाय मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रजी अधरके ऊपर बॉसुरीको धर और अपनी कोमल अँगुलियोंसे उसके छिद्रोंको दाब जिससमय बजाते हैं॥२॥ उससमय आकाशमें गमन करनेवाली देवताओंकी स्त्रियें अपने पतियों सहित बॉसुरीको सुन प्रथम आश्चर्यमान लाज सहित कामके बाणोंसे परवशहो मन हरजाने के कारण नारोंकी भी जिनको सुधि न रहीइसप्रकार मोहको प्राप्त होगई॥३॥हे अबलाओ! यह आश्चर्य सुनो हारकी समान निर्मल जिनकी हँसनि, बाँसुरी बजाते समय नीचा मुख करके जो हँसते हैं, तो उनकी हारों में प्रकाशित हॅसनि होती है, अथवा हारकी तुल्य छातीमें शोभायमान जिसकी हॅसनि है और छातीमें बिजु

गोप्य ऊचुः॥ वामबाहुकृतवामकपोलो वल्गितवरधरार्पितवेणुम्॥कोमलांगुलिभिराश्रितमार्गं गोप्य ईरयति यत्र मुकुदः॥२॥ व्योमयानवनिताः सह सिद्धैर्विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः॥ काममार्गणसमर्पितचित्ताः कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्यः॥३॥ हंत चित्रमबलाः शृणुतेदं हारहास उरसि स्थिरविद्युत॥ नंदसुनुरयमार्तजनानां नर्मदो यहि कूजितवेणुः॥४॥ वृंदशो व्रजवृषा मृगगावो वेणुवाद्यहृतचेतस आरात्॥ दंतदष्टकवला धृतकर्णा निद्रिता लिखितचित्रमिवासन्॥५॥ बर्हिणस्तबकधातुपलाशैर्बद्धमल्लपरिबर्हविडंबः॥ कर्हिचित्सवल आलि सगोपैर्गाः समाह्वयति यत्र मुकुन्दः॥६॥ तर्हिभग्नगतयः सरितो वै तत्पदांबुजरजोऽनिलनीतम्॥ स्पृहयतीर्वयमिवाऽबहुपुण्याः प्रेमवेपितभुजाः स्तिमितापः॥७॥

लीकी तुल्य प्रकाशमान स्थिर लक्ष्मी जिसके हृदयमें वास करती है पीड़ितजनों को सुख देनेवाला यह नंदका पुत्र जिस समय बाँसुरी बजाता है॥४॥ तब दूरसे बाँसुरीका शब्द सुन हरगये हैं मन जिनके ऐसे गौ, बैल और हिरणोंके समूहके समूह दॉतोंसे कौर काटकर उसे दाबे हुए कानोंको ऊंचाकर सोते से चित्र लिखे के समान खड़े होगये. बड़ा आश्चर्य है कि, पशु, पक्षियोंकी यह दशा है॥५॥ हे सखी!मोरपुच्छ, खडिया गेरू, मनसिल, पात, इनसे मल्लके समान स्वरूपसे कभी बलदेव भाई सहित और गोपियों सहित मुकुन्द जिससमय बाँसुरी बजाकर गौओंको

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उत्तर—व्याकरणके पढनेवाले जो विद्वानूपुरुप हैं वह (निन्युर्दुःखेन वासरान) इस श्लोक में वासरका अर्थ दिनका नहीं करते, वास, सत्र वस्तुके प्रमाणका नाम है उसी वासको जो ग्रहण करै, उसका नाम वासर है, व्याकरणके पढने वाले विद्वानोंने वासरका अर्थ निमिषका किया है, इसी निमपको गोपी बडे दुःखसे बिताती थी आँखोंके पडने उघडनेका नाम निमिषहै॥

बुलाते हैं; उससममबाँसुरीका शब्द सुनकर नदियोंका प्रवाह बहनेसे रुकजाता है और पवनसे उड़कर गई उनके चरणोंकी रजको हमारी तुल्य आकांक्षा करती हैं और हमारी तुल्य उनके भी उत्कृष्ट पुण्य नहीं हैं, इसलिये वह नदियों को नहीं मिलती, प्रेमसे जिनकी लहर कॉपती हैं, जल जिनके निश्चल होजाते हैं॥६॥७॥ गोप, ग्वाल और देवता जिनके निर्मल यशको गाते हैं, नारायणकी तुल्य सदा स्थिर लक्ष्मीवाले वनके वित्तरनेवाले कृष्ण जिससमय गोवर्द्धन पर्वतके शिखरपरसे चरतीहुईं गौओंको बासुरी बजाकर बुलाते हैं, उस समय फूल, फल, जिनमें लगे उनके बोझसे शाखा जिनकी झुकरहीं, प्रेमसे हर्षित चित्त, वनके लता, वृक्ष, अपनेमें विष्णुको प्रगट करते मकरंदकी धारा बहाते हैं॥८॥९॥ सुन्दरोंमें अतिसुन्दर अथवा सुन्दर देखने योग्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र श्याम ललाटमें केशरका तिलक लगाये वनमाला पहरे जिसकी दिव्य गंध और

नुचरैः समनुवर्णितवीर्य आदिपुरुष इवाचलभृतिः॥ वनचरो गिरितटेषु चरंतीर्वेणुनाऽऽह्वयति गाः स यदा हि॥८॥ वनलतास्तरव आत्मनि विष्णुं व्यंजयंत्य इव पुष्पफलाढ्याः॥ प्रणतभारविटपा मधुधाराः प्रेमहृष्टतनवः ससृजुः स्म॥९॥ दर्शनीयतिलको वनमालादिव्यगंधतुलसीमधुमत्तैः॥ अलिकुलैरलघु गीतमभीष्टमाद्रियन्यर्हि संधितवेणुः॥१०॥ सरसि सारसहंसविहंगाश्चारुगीतहृतचेतस एत्य॥ हरिमुपासत ते यतचित्ताः हंत मीलितदृशो धृतमौनाः॥११॥ स हबलः सगवतंसविलासः सानुषु क्षितिभृतो व्रजदेव्यः॥ हर्षयन्यर्हिवेणुरवेण जातहर्ष उपरंभति विश्वम्॥१२॥ मह दतिक्रमणशंकितचेता मंदमंदमनुगर्जति मेघः॥ सुहृदमभ्यवर्षत्सुमनोभिश्छायया च विदधत्प्रतपत्रम्॥१३॥

तुलसीके मकरंदसे मत्त हो, भौरेउनके उच्च और अनुकूल गानको मान देते हैं, ऐसे भगवान् जब अधरके ऊपर बॉसुरीको धरके बजाते हैं उस समय सरोवरोंमें सारस, हंस और पक्षी गानसे मोहितचित्त हो उस स्थानमें ऑंखें मूँदे मौन धारण करे चित्त रोके कृष्णके निकट बैठे रहते हैं॥१०॥११॥ हे गोपियो! मालाओंसे कानोंमें कुण्डलसे शोभायमान, आनन्दको प्राप्त बलदेव भाई सहित कृष्ण जब सब विश्वको आनन्द दे बासुरीके शब्दसे पूर्ण करते हैं, उससमय इस महान् कृष्णका अपराध न हो, इस प्रकार मेघ मनमें शंका सान मुरलीके शब्दके पीछे मंद मंद गर्जते हैं, और अपने मित्र श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर फूलोंकी वर्षाकरते हैं, छत्रसे छाया करते हैं, सो वह मेघ इसका सच्चा मित्र है

क्योंकि यह भी साँवरा और वह भी सॉवरा॥१२॥१३॥ हे यशोदा! अनेक प्रकारके गोपोंके खेलोंमें निपुण तुम्हारा पुत्र अधरके ऊपर बासुरी धरकर अपने आपही सीखगये, क्योंकि षड्ज, निषाद, ऋषभ, गांधारादि स्वरोके आलापनेके भेद वह स्वयंही उठालेता है॥१४॥ उस समय इन्द्र, शिव, ब्रह्मा यह जिनमें मुख्य हैं, ऐसे बुद्धिमान देवता मंद मध्यतारसे बाँसुरीको सुनकर मोहित होगये और नीचेको मुखकरके कौनस्वरको गाते हैं। यह भी निश्चय नहीं करसके॥१५॥ ध्वजा, वज्र, अंकुश, कमल इनके चित्र विचित्र चिह्नवाले अपने चरणकमलसे व्रजभूमिको गायोंके खुर पडनेसे जो खेद है उसको शांत किया और मतवाले हाथीके समान चलनेवाले श्रीकृष्ण बाँसुरीको बजाकर जिस समय चलते हैं उस

विविधगोपरसेषु विदग्धो वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षाः॥ तव सुतस्सति यदाऽधरविंबे दत्तवेणुरनयत्स्वरजातीः॥१४॥

सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः॥ कवय आनतकंधरचित्ताः कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः॥१५॥

निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्रनीरजांकुशविचित्रललामैः॥ व्रजभुवश्शमयन्खुरतोदं वर्ष्मधुयगतिरीडितवेणुः॥१६॥

ब्रजति तेन वयं सविलासवीक्षणार्पितमनोभववेगाः॥ कुजगतिं गमिता न विदामः कश्मलेन कवरं वसनं वा॥१७॥

मणिधरः क्वचिदागणयन्गा मालया दयितगंधतुलस्याः॥ प्रणयिनोऽनुचरस्य कदांसे प्रक्षिपन्भुजमगायत तत्र॥१८॥

कणितवेणुरववंचितचित्ताः कृष्णमन्वस्त कृष्णगृहिण्यः॥ गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्यो गोपिका इव विमुक्तगृहाशाः॥॥१९॥

कुंददामकृतकौतुकवेषो गोपगोधनवृतो यमुनायाम्॥ नंदसुनुरनधे तव वत्सो नर्मदः प्रणयिनां विजहार॥॥२०॥

मंद्रवायुरनुवात्यनुकूलं मानयन्मलयजस्पर्शेन॥ वंदिनस्तमुपदेवगणा ये वाद्यगीतवलिभिः परिवनुः॥२१॥

समय विलासपूर्वक चिन्तवनसे कामदेवके वेगमें भरी हमें वृक्षोंकी तुल्य जड होकर चोटी और वस्त्रोंकीभी सुधि नहीं रहती है॥१६॥१७॥ प्यारी सुगंधिवाली तुलसीकी मालाको पहरे मणियोंकी सुमिरणी हाथमें लेकर गायोंको गिनतेहुए प्यारे मित्रके कंधेपर हाथ रखकर जिस समय गाते हैंउस समय बजतीहुई बॉसुरीका शब्द सुन चित्त हरजानेसे हारणोंकी स्त्रियें हरिणी गुणोंके समुद्र श्रीकृष्णचन्द्रके पास आनकर गोपियोंकी समान घरकी आशाओंको त्याग सेवन करनेलगीं॥१८॥१९॥ हे यशोदे! गोपियोंको आनन्द देनेके लिये कुंदकी मालाओंसे आनंदपूर्वक शृंगार

किये स्नेहियों को आनंद देनेवाला यह तेरा पुत्र नंदकुमार गोप गौओंको संग लिये जिस समय यमुनामें विहार करता है, उससमय चंदनकेसी सुगंधिवाला शीतलस्पर्श पवन श्रीकृष्णका सन्मान करता है। अनुकूल मन्द मन्द चलता है और गंधर्वादि तथा बंदिजनोंकी नाईं बाजे बजाता गाता फूलोंकी वर्षा करके सेवा करता है॥२०॥२१॥ देखो व्रजमें गायोंका हित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब इन्द्रने वर्षा कीथी तब गोवर्द्धन उठाकर रक्षा करी और बडे बडे ब्रह्मादिक आनकर उनके चरणोंमें प्रणाम करते हैं और संध्यासमय जब गायोंको इकट्ठाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बाँँसुरी बजाते और मित्रोंसे अपनी कीर्ति श्रवण करते श्रमभरी शोभासे आनन्द देते गायोंकी रज मालामें लग रही चन्द्रमाके समान प्रकाशमान देवकीके गर्भसे उत्पन्नहुए श्रीकृष्णचन्द्र जो हैं सो हमारा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये आते हैं॥२२॥२३॥ कुछेक मंदमंद नेत्र जिनके

वत्सलो व्रजगवां यदगध्रो वद्यमानचरणः पथि वृद्धैः॥ कृत्स्नगोधनमुपोह्य दिनांते गीतवेणुरनु गेडितकीर्तिः॥२२॥

उत्सवं श्रमरुचाऽपि दृशीनामुन्नयन्खुररजश्छुरितस्रक्॥ दित्स्यैति सुहृदाशिष एष देवकीजठरभूरुडराजः॥२३॥

मदविघूर्णितलोचन ईषन्मानदः स्वसुहृदां वनमाली॥ बदरपांडवदनो मृदुगंडं मंडयन्कनक कुंडललक्ष्म्या॥२४॥

यदुपतिर्द्विरदराजविहारो यामिनीपतिरिवेष दिनांते॥ मुदितवक्रउपयाति दुरंतं मोचयन्त्रजगवां दिनतापम्॥॥२५॥

श्रीशुक उवाच॥ एवं व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीला नु गायतीः॥ रेमिरेऽहस्सु तच्चित्तास्तन्मनस्का महोदयाः॥॥२६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे वृंदावनक्रीडायां गोपिकागीतं नाम पंचत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥

घूम रहे अपने स्नेहियोंको मान देनेवाले वनमाला पहरे पके बेरके समान श्याममुख और कुण्डलोंकी कान्तिसे कोमल कपोलोंको शोभायमान करते मतवाले हाथीके समान जिनका विहार प्रसन्न मुख इसप्रकार यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने संध्यासमय जिसप्रकार चन्द्रमा उदय होता है, उसीप्रकार उदय होकर व्रजकी गायरूप हमारा बहुत दिनोंका ताप दूर कर दिया॥२४॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमेंही जिनका जीवन और वृद्धिको प्राप्त हुआ उत्सव ऐसी व्रजवालायें श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला गा गाकर दिन व्यतीत करने लगीं॥२६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां गोपिकागीतं नाम पंचत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥

दोहा—कंस सुनो छत्तीसमें, मरो अरिष्ट विसर\। रामकृष्ण के लेनको, भेजो जन अक्रूर॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे भरतवंशावतंस परीक्षित!इस प्रकार देवता गंधर्वादिक जिनका गान और नृत्य करें, बाजे बजाकर फूलोंकी वर्षा करें ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर परम उत्सव हुआ, इसके उपरान्त उसीसमय व्रजमें बैलका रूप बनाकर अत्यन्त विशाल देह और खुरोंसे पृथ्वीको विदीर्ण और कम्पायमान करताहुआ, अरिष्टासुर आया॥१॥ अत्यन्त रंभाता, खुरोंसे धरती खोदता, पूंछ उठाता, खेतोंकी मँडोको तोडता॥२॥ बीच बीचमें

श्रीशुक उवाच॥ अथ तर्ह्यागतो गोष्ठमरिष्टो वृषभासुरः॥ महीं महाककुत्कायः कंपयन्खुरविक्षताम्॥१॥ रंभमाणः खरतरं पदा च विलिखन्महीम्॥ उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन्॥२॥ किंचित्किचिच्छकृन्मुंचन्मूत्रयं स्तब्धलोचनः॥ यस्य निर्ह्रादितेनांग निपुरेण गवां नृणाम्॥३॥ पतंत्यकालतो गर्भाः स्रवंति स्म भयेन वै॥ निर्विशंति घना यस्य ककुद्यचलशंकया॥४॥ तं तीक्ष्णशृङ्गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः॥ पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन्संत्यज्य गोकुलम्॥५॥ कृष्ण कृष्णति ते सर्वे गोविदं शरणं ययुः॥ भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम्॥६॥

गोबर और मूत्र करता अत्यन्त भयानक ऑखवाला इसप्रकार अरिष्टासुरके रंभानेका शब्द सुनकर गाय और स्त्रियोंके बिना समयही गर्भ गिरगये, जिसके टांटके ऊपर पर्वत जानकर मेघ आन बैठते हैं *॥३॥४॥ हे परीक्षित्! इसप्रकार अत्यन्त पैने सींगवाले अरिष्टासुरको देखकर सब गोप और गोपी अत्यन्त भयभीत होगये, पशु खिरकों को छोडकर डर के मारे भागगये, हेकृष्ण! हेकृष्ण!! इसप्रकार पुकारनेलगे और संपूर्ण

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* शंका—वृषभासुरके शब्दसे गायोंका और स्त्रियोंका गर्म गिरजाता था, ऐसा भागवतमें लिखा है, तब वह दुष्ट वृषभासुर तो नित्य शब्द करता रहता होगा तब गायोंकी और स्त्रियोंकी सृष्टिका नाश क्यों नहीं हुआ ‘गायोंका और मनुष्योंका वश नष्ट होना चाहिये था, सो क्यों न हुआ?ऐसी बात न तो हमने आजतक आँखसे देखी न कानोंसे सुनी॥

उत्तर—वृषभासुरके प्रभावको जानकर भगवान्ने सुवीर्य और सुरपालक दोनों देवताओंको आज्ञा दी कि, जब दुष्ट शब्द करनेलगे तब तुम दोनों उसका कण्ठ रोक लो ऐसी भगवान्की आज्ञा पाकर वे वृषभासुरके पास रहने लगे जव वृषभासुर गर्जन शब्द करता, तब वह दोनों देवता उसके कण्ठको रोकलेते थे, इसी प्रकार सव अवस्था व्यतीत होगई, वृषभासुरको शब्द नहीं करने दिया, जिसदिन मरनेका समय आया उसदिन महागम्भीर शब्द करके भगवान्के हायसे मारागया, इसलिये नित्य शब्द करने नहीं पाया॥

ब्रजवासी गोविंद श्रीकृष्णचन्द्रकी शरणमें आये इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, डरके मारे गोकुलवासियोंको भागता देखकर “भय मतकरो” इसप्रकार कहा अरिष्टासुरको निकट बुलाकर कहा॥५॥६॥ हे मूर्ख! हे असाधो! ग्वाल गायोंके डरानेसे तुझे क्या मिलेगा? मेरे सन्मुख आ, क्योंकि तुझ सरीखे मतवाले दुष्टोंका बल और मद दूर करनेको मैंने अवतार लियाहै॥७॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कह, स्वम्भठोंक और अरिष्टासुरको क्रोध उत्पन्न कराय, मित्रके कंधेपर सर्पाकार भुजा पसारकर खडे होगये॥८॥ इसप्रकार क्रोधको प्राप्तहुआ अरिष्टासुर पूँछ उठाय खुरोंसे धरती खोदताहुआ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके सन्मुख आया॥९॥ सींगोंका अग्रभाग आगे किये पलक विसारे, लाल लाल

मा भैष्टेति गिराऽऽश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत्॥ गोपालैः पशुभिर्मंद त्रासितैः किमसत्तम॥७॥ वलदर्पहाऽहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम्॥ इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन्॥८॥ सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः॥ सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन्॥ उद्यत्पुच्छ भ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत्॥९॥ अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृरलोचनो ऽच्युतम्॥ कटाक्षिप्याऽद्रवत्तूर्णमिद्रमुक्तोऽशनिर्यथा॥१०॥ गृहीत्वा शृंगयोस्तं च अष्टादश पदानि सः॥ प्रत्यपोवाह भगवान्गजः प्रतिगजं यथा॥११॥ सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरः॥ आपतत्स्विन्नसर्वांगो निश्श्वसन्क्रोधमूर्च्छितः॥१२॥ तमापततं स निगृह्य शृंगयोः पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले॥ निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमंबरं कृत्वा विषाणेन जघान सोऽपतत्॥१३॥ असृग् वमन्मूत्रशकृत्समुत्सृजन्क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः॥ जगाम कृच्छ्रं निर्ऋतेरथ क्षयं पुष्पैः किरंतो हरिमीडिरे सुराः॥१४॥

आँखें किये, अरिष्टासुर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर देवराज इन्द्रके छोडे वज्रसेभी शीघ्र उनके सन्मुख आनकर उपस्थित हुआ॥१०॥ और आतेही उनके सींग पकड़ जैसे हाथीको दाथी धक्का देता है, उसी प्रकार उलटे पाँव करके उसे धकियाने लगे॥११॥ जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अरिष्टासु रको ढकेल दिया, तब फिर वह उठकर पसीनेमें चुचियाता अत्यन्त क्रोधित हो बडे बडे श्वास लेता हुआ दौड़कर आया॥१२॥ आतेही भगवान् श्रीकृष्णचंद्रने उसके शींग पकडकर पृथ्वीमें दे मारा और पॉवसे छाती दाब कर जैसे गीले कपडेको निचोड़ते हैं. उसीप्रकार उमेठदे, शींग उखाड़ उसका प्राण संहार किया॥१३॥उस समय उसके नेत्र चलायमान होगये, रुधिरकी वमन और गोबर करता पाँवों को पटकता अरिष्टासुर मरगया;

तब देवतालोगोंने फूल वर्षाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की स्तुति की॥१४॥ इस प्रकार अरिष्टासुरको मार, मित्रोंसे सन्मानित हो, गोपियोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र व्रजमें आये॥१५॥ अद्भुत कर्मकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब अरिष्टासुरको मार दिया, तब देवताओंके समान देवर्षि नारदजीने सब वृत्तान्त कंससे जाकर कहा॥१६॥ कि, हे राजन्!यशोदाके कन्या हुई और देवकीके कृष्ण हुआथा, बलदेव रोहिणीके पुत्र हैं तुम्हारे भयके मारे वसुदेवजी अपने मित्र नंदजीके घर रातों रात पहुँचा आयेथे और प्रत्यक्ष देखलो कि, जितने दैत्य आपने भेजे वह सब कृष्ण बलदेवने मारडाले; यह वचन नारदजीका श्रवणकर क्रोधके मारे कंस विकलेन्द्रिय होगया॥१७॥१८॥ तब वसुदेवजीके मारने के लिये

एवं ककुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः स्वजातिभिः॥ विवेश गोष्टं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः॥१५॥ अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णे नाद्भुतकर्मणा॥ कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः॥१६॥ यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च॥ रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता॥१७॥ न्यस्तौ स्वमित्रे नंदे वै याभ्यां वैपुरुषा हताः॥ निशम्य तद् भोजपतिः कोपात्प्रचलितेंद्रियः॥१८॥ निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया\।\। निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः॥१९॥ ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैर्बंबंध सह भार्यया॥ प्रतियाते तु देवर्षौकंस आभाष्य केशिनम्॥२०॥ प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ॥ ततो मुष्टिकचाणूरशलतोशलकादिकान्॥२१॥ अत्मात्यान्हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट्॥ भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिक॥२२॥

कंसने अत्यन्त पैनी तलवार ग्रहण की, परंतु नारदजीने निवारण करदिया, इसके उपरान्त कृष्ण बलदेवसे अपनी मृत्यु जान॥१९॥ देवकी सहित वसुदेवके पैरों में बेड़ी डालदी, नारदजीके चले जानेपर फिर कंसने केशी नाम राक्षसको बुलाकर॥२०॥ कहा कि, तुमही रामकृष्णको मार आओ और फिर मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि जो मल थे, उन्हें बुलाया॥२१॥ इसके उपरांत मंत्रियों और हाथियोंके महावतोंको बुलाकर भोजवंशियोंका राजा कंस बोला कि, हे वीर! हे चाणूर! हे मुष्टिक! मेरी बात सुनो॥२२॥

नंदजीके गोकुलमें वसुदेवके पुत्र जो कृष्ण, बलराम रहते हैं उनहींके हाथसे निश्चय नारदजीने मेरी मृत्यु बताई है॥२३॥ इसलिये वह जिस समय आवैं उसी समय पॉवोंसे दाब मललीलाकरके मारडालना और मल्लोंकी जो रंगभूमि है, उसमें अनेक प्रकारके मञ्चान बनाओ॥२४॥ क्योंकि पुरवासी और देशवासी संपूर्ण उनपर बैठकर मल्लोंकी कुस्ती देखेंगे, इसके उपरान्त मंगल रूप कुवलयापीड हाथीको रंगभूमिके द्वारपर खडा करदो॥२५॥ बस ज्योंही कृष्ण बलदेव आवैं त्योंहीं उन्हें हाथीसे मरवाडालना और चतुर्दशीके दिन विधिपूर्वक धनुषयज्ञकी तैयारी करो और संपूर्ण कामनाओंके देनेवाले महादेवजीका पूजन करनेके लिये पवित्र पवित्र पशु लाओ॥२६॥ हे राजन्! अपने अर्थके तत्त्वको जाननेवाले राजा

नंदजे किलासाते सुतावानकदुंदुभेः॥ रामकृष्णौ ततो मां मृत्युः किल निदार्शतः॥२३॥ भवद्भयामिह संप्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया॥ मंचाः क्रियतां विविधा मल्लरंगपरिश्रिताः॥॥२४॥ पौरा जानपदाः सर्वे पश्यंतु स्वैर संयुगम्॥ महामात्र त्वया भद्र रंगद्वार्युपनीयताम्॥२५॥ द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ॥ आरभ्यतां धनुर्यागश्चतुर्दश्यां यथाविधि॥ विशसंतु पशून्मेध्यान्भृतराजाय मीढुषे॥२६॥ इत्याज्ञाप्यार्थतंत्रज्ञ आहूय यदुपुंगवम्॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह॥२७॥ भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः॥ नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु॥२८॥ अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम्॥ यर्थेद्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः॥२९॥ गच्छ नंदनजं तत्र सुतावानकदुंदुभेः॥ आसाते ताविहानेन रथेनानय माचिरम्॥३०॥ निसृष्टः किल मेमृत्युर्देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः॥ तावानय समं गोपैर्नंदाद्यैः साभ्युपायनैः॥३१॥

कंसने अपने सेवकों को इसप्रकार आज्ञादी, इसके उपरान्त यादवश्रेष्ठ अकूरको बुला हाथ पकड़कर कहा॥२७॥ हे दानपति अक्कूर! तुम एक हमारी मित्रताका कार्य करो, क्योंकि इससमय भोज और वृष्णि वंशियों में तुम्हारे अतिरिक्त मेरा अतिशय हितकारी कोई नहीं है॥२८॥ हे साधो! हे सौम्य! जैसे इन्द्रने विष्णु भगवानका आश्रय लेकर अपने मनोरथको प्राप्त किया था, उसीप्रकार अब मैं तुम्हारा आश्रय लेकर अपने मनोरथको प्राप्त हूंगा इसलिये मैंने तुम्हारा आश्रय लिया है॥२९॥ अब तुम ब्रजमें जाकर वसुदेवात्मज कृष्ण और बलदेवको शीघ्रही रथ में बैठाल कर ले आओ॥३०॥ क्योंकि विष्णुका आश्रय लेकर देवता लोगोंने मेरे मारनेके कारण कृष्ण बलदेवको उत्पन्न किया है, इसलिये तुम नन्दादिक संपूर्ण व्रजवासियों

सहित कृष्ण बलदेवको यहां ले आओ और मेरी ओरसे कहना कि चलकर राजा कंसको भेंट दो॥३१॥ बस जहॉ कृष्ण बलदेव आये कि, तहाँहीं कालके समान कुवलयापीड हाथी उन्हैंमारडालेगा और यदि हाथोसे भी छूट जायेंगे तो बिजलीके समान मेरे मल्ल मारडालेंगे॥३२॥ फिर जहां कृष्ण बलदेव मारे गये, तब उसी समय उनके शोक से व्याकुल वसुदेवादि बंधु बांधुवों को भी मार डालूंगा और इसके उपरांत वृष्णि, भोज, दाशार्हवंशमें उत्पन्न हुए यादवों को भी मारूंगा॥३३॥ यद्यपं। उग्रसेन मेरे वृद्ध पिताहैं, परन्तु तोभी उनकी राज्य की चाहना विद्यमान है, इसलिये उनको और उनके भ्राता देवकको भी मारूंगा, अधिक कहने से क्या, जितने मेरे वैरी हैं, सबकोही मारूंगा॥३४॥ हे अक्रूर!इसके

घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना॥ यदि मुक्तौ ततो मल्लैर्घातये वैद्युतोपमैः॥३२॥ तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान्॥ तद्वंधून्निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान्॥३३॥ उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्य कामुकम्॥ तद्भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम्॥३४॥ ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकंटका॥ जरासंधो मम गुरुर्द्विविदो दयितः सखा॥३५॥ शंबरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः॥ तैरहं सुरपक्षीयान्हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान्॥३६॥ एतज्ज्ञात्वाऽऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ॥ धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम्॥३७॥ अक्रूर उवाच॥ राजन् मनीषितं सम्यक् तव स्वावद्यमार्जनम्॥ सिद्ध्यसिद्धयोः समं कुर्याद्दैवं हि फलसाधनम्॥३८॥

उपरांत यह पृथ्वी कंटकरहित होजायगी, फिर जरासन्ध है, सो मेरा श्वशुर है और द्विविद मेरा प्यारा मित्र है॥३५॥ शंबरासुर, नरकासुर, बाणासुर इत्यादिकोंने मुझमें स्नेह बढ़ाही रक्खाहै बस इनको संग लेकर जितने देवताओंकी ओरके राजा हैं, सबको मारकर आनन्दपूर्वक पृथ्वीका राज्य करूंगा॥३६॥ यह बात अपने मनमें गुप्त रखकर कृष्ण बलदेवको शीघ्रही लिवालाओ और मेरी ओरसे कहना कि, तुम्हारे मामाने धनुषयज्ञ किया है, उसको चलकर देखआओ, इसमें तुम्हैॆयादवोंकी पुरी मथुराकी शोभा भी देखनेको मिलजायगी॥३७॥ यह सुनकर अक्रूरजी बोले कि, हे राजन्! तुमने भला विचारा, तुम्हारी मृत्युका दूर करनेवाला यही उपाय है, परन्तु होने और न होनेमें मनुष्य समता करै,

क्योंकि जो प्रारब्धहै सोही फलका दाता है॥३८॥ यह पुरुष बड़े बड़े मनोरथ करता है, परंतु जब दैव हत कर देता है तो दुःखी होताहै; जो मनोरथ पूर्ण होजाय तब तो मनमें हर्ष माने और न हो तो शोक करै, इसमेंसे क्या ध्वनि निकली कि, तुम कहते हो कि, कृष्ण बलदेवको मरवाऊंगा. क्या जाने ही तुम्हें मार डालें पर तो भी तुम्हारी आज्ञा करूंगा॥३९॥ इसप्रकार राजा कंस अक्रूरजीको आज्ञा दें, मंत्रियोंको बिदाकर अपने महलमेंचलागया और अक्कूरजी भी अपने घरको चलेगये

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॥४०॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां अक्रूरसंप्रेषणं

मनोरथान् करोत्युच्चैर्जनोदैवहतानपि॥ युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते॥३९॥ एवमादिश्य चाक्रूरं मंत्रिणश्च विसृज्य सः॥ प्रविवेश गृहं कंसस्तथाऽक्रूरः स्वमालयम्॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेअक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ श्रीशुक उवाच॥ केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं महाहयो निजरयन्मनोजवः॥ सटावधूताऽभ्रविमानसंकुलं कुर्वन्नभो ह्रेषितभीषिताखिलः॥१॥ (विशालनेत्रो विकटास्यकोरोल बृहद्गलो नीलमहाघनोपमः॥ दुराशयः कंसहितं चिकीर्षुर्व्रजं स नंदस्य जगाम कंपयन्)॥

नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ दोहा—सैंतिस केशी मरणको, नारद कियो बखान॥ व्योमासुर मारो यथा, सो सब सुनो सुजान॥३७॥ श्रीशुकदेवजी बोले, कि, हे कुरुकुलभूषण राजा परीक्षित्!मनसे भी अधिक वेगवान् कंसका भेजा केशी दैत्य बड़े घोड़ेका रूपधर टापुओंसे पृथ्वीको खोदता फुरहरी लेता अपने कंधोंसे इधर उधर विमानोंको चलायमान करता और हींसनेसे संपूर्ण विश्वको डराता हुआ आया॥१॥

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* दृष्टान्त—यदि कोई कहे कि, अक्रूरजी कंसके पास रहने से महात्मा कैसे रहे उसपर यह दृष्टांत है कि, महात्मा कुसगतसे भी महात्मापन नहीं त्यागने। एक बाबाजी आधीरातको कहीं जा रहे थे, मार्ग में चोर मिले चोर बोले कौन, बाबाजी बोले जो तुम सो हम, चोर बोले कहाँ जाते हो? बाबाजीने कहा जहांको तुम जाते हो, चोरोंने जाना यह चोर है, सग बेलिया बाबाजीने भी जाना कि, यह चोर हैं चोरोंने किसीके घरमें सेंध दिया और चोरी करनेलगे, बाबाजी भी घुसे एक वरतन जो उघाडा तो इमरती रक्खी थीं, बाबाजी सारे दिनके भूखे थे झट ठाकुरजीका बटुभा निकाल ठाकुरजीके सामने भोग रख शंख बजाया, शंख वजतेही घरके लोग जाग गये और चोरोंके संग बाबाजी भी पकडे गये, बावाजी तो वृत्तान्त सुनाकर छूटगये चोरोंको दंढ हुआ सो साधु पुरुषों को कुतगतिका फल नहीं व्यापता, इसीप्रकार अक्रूरजीको कुसगत अर्थात् कमकी सगतका फल न व्यापा चोरोंकी नाई मरवाया॥

कठोर हींसनेसे गौओंके समूहको बिडराता, पुच्छ हिलाता, बादरोंको चलायमान करता, युद्ध करनेकी इच्छासे, श्रीकृष्णचन्द्रको ढूँढ़ताहुआ आया, तब केशी दैत्यको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आगे निकल कर अपने पास बुलाया, तब वह दैत्य इनको देख सिंहकी समान गर्जने लगा॥२॥ केशी दैत्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर मुखसे मानो आकाशको पी जायगा, इस प्रकार मुख फाडता और दौडता हुवा सन्मुख आया जो किसीके जीतनेमें न आवै अत्यन्त वेगवान् ऐसा केशीदैत्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको पिछले पाँवोंकी दुलत्ती मारने लगा॥३॥जिनमें इंद्रियोंकी पहुँच नहीं ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उस दैत्यकी दुलत्ती बचाय अत्यन्त क्रोधित हो, अपने हाथोंसे उसके दोनो हाथ पकड चारों ओर घुमाकर

तं त्रासयंतं भगवान्स्वगोकुलं तद्ध्रेषितैर्वालविघूर्णितांबुदम्॥ आत्मानमाजौ मृगयंतमग्रणीरुपाह्वयत्स व्यनदन्मृगेंद्रवत्॥२॥ स तं निशम्याभिमुखो मुखेन खं पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः॥ जघान पद्भ्यामरविन्दलोचनं दुरासदश्चं डजवो दुरत्ययः॥३॥ तद्वंचयित्वा तमधोक्षजो रुषा प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः॥ सावज्ञमुत्सृज्य धनुश्शतां तरे यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः॥४॥ स लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुपा व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम्॥ सोऽप्यस्य वक्रेभुजमुत्तरं स्मयन्प्रवेशयामास यथोरगं विले॥५॥ दंता निपेतुर्भगवद्भुजस्पृशस्ते केशिनस्तप्तमयः स्पृशो यथा॥ बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः॥६॥

जैसे गरुड सर्पको फेंकदेता है उसी प्रकार अवज्ञा करके सौ १०० धनुषपर फेंककर आप खड़े रहे॥४॥ इसके उपरान्त जब चेत हुवा तब केशी दैत्य फिर उठकर मुख फाडता क्रोधयुक्त दौडकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख आया तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने हँसकर उस दैत्य के मुखमें अपना बायाँ हाथ जैसे सर्प बिलमें घुसता है उसीप्रकार डालदिया॥५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ लगतेही केशीके दांत ऐसे गिरगये जैसे तपेहुए लोहके लगनेसे गिरजातेहैं और औषधी न करनेसे जैसे जलंधर रोग उदरमें बढ़ता है उसीप्रकार केशी दैत्यके मुखमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी

भुजा बढने लगी*॥६॥ बढतीहुई श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजासे उसका श्वास रुकगया, अंगमें पसीना आगया, नेत्रोंके तारे निकल आये, इसप्रकार केशीदैत्य पाँओंको पटकता, लीद करता, प्राणरहित होकर पृथ्वी में गिरपडा॥७॥ प्राणमुक्त उस दैत्य के “पककर फटीहुई ककडीके समान” शरीरसे महाभुज श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी बॉह निकालली, यद्यपि इन्होंने शत्रुको अनायास मारा, परंतु तो भी भगवान्ने कुछ गर्व न किया, तब आश्वर्यमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूल वर्षाकर देवतालोग स्तुति करने लगे॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! इसके उपरान्त भक्तोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजीने, क्लेशरहित कर्मवाले श्रीकृष्णचंद्रके पास आनकर एकांतमें कहा कि॥९॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण!हे अप्रमेयात्मन्!

समेधमानेन स कृष्णबाहुना निरुडवायुश्चरणांश्च विक्षिपन्॥ प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः पपात लैंडं विसृजन्क्षितौ व्यसुः॥७॥ तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः॥ अविस्मितोऽयत्नहतारिरुत्स्मयैः प्रसूनवर्षैर्दिविषद्भिरीडितः॥८॥ देवर्षिरुपसंगम्य भागवतप्रवरो नृप॥ कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत॥९॥ कृष्णकृष्णाप्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर॥ वासुदेवाखिलावास सात्त्वतां प्रवर प्रभो॥१०॥ त्वमात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्॥ गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः॥११॥ आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान्॥ तैरिदं सत्यसंकल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः॥१२॥

हे योगके ईश!हे जगत्के ईश्वर!हे वासुदेव! हे जगदीश्वर! हे विश्वके साक्षी! हे अखिलावास! हे सात्त्वतां प्रवर! हे प्रभो!॥१०॥ तुम जैसे काष्ठमें ज्योति रहती है, उसीप्रकार सब प्राणियोंमें व्यापक गूढ अर्थात् सबमें रहते हो, परंतु उनको दिखाई नहीं देते, क्योकि बुद्धिके परे हो साक्षी हो और आपका स्वरूप देखनमें नहीं आता, महापुरुष ईश्वर हो, इसकारण जीव आपके स्वरूपको नहीं जानसकते॥११॥ तुम स्वतंत्र हो. इसलिये तुम्हें साधनकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि तुम तो अपनी माया शक्तिसेही गुणोंको सृजते हो, व उन्हींसे सत्यसंकल्प ईश्वर आप

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* शंका—शत्रुके मारने के लिये शास्त्रमें और लोकमें अनेक उपाय लिखे है, परंतु केशीको मारने के लिये सत्र उपाय त्यागकर श्रीकृष्णने अपनी भुजा केशीके मुख में क्यों दे दी।

उत्तर— केशीको ब्रह्माने यह वरदान दिया था कि, हमारे हाथकी बनाई सृष्टिसे तेरी मृत्यु न होगी, जब श्रीकृष्ण अपनी वाहु तेरे मुखमें प्रविष्ट करेंगे तब तेरी मृत्यु होगी, इसलिये केशीके मुखमें भगवान् श्रीकृष्णने अपनी भुजा प्रविष्ट करदी थी॥

इस जगत्को रचते हो, पालते हो और फिर संहार भी करदेते हो॥१२॥ सो तुमने राजारूप दैत्य और राक्षसोंका नाश करनेके लिये और धर्ममर्यादाकी रक्षा करनेके लिये अवतार लिया है॥१३॥ यह बहुतही उत्तम हुआ जो इस घोड़ेरूप दैत्यको लीलापूर्वकही आपने मारडाला, जिसके हींसनेका शब्द सुनतेही भयके मारे देवता क्षण में स्वर्ग त्यागकर भाग जाते थे॥१४॥ हे विभो! परसोंको तुम्हारे हाथोंसे चाणूर, मुष्टिक और मल्लको तथा कुवलयापीड हाथी व राजा कंसको मरा हुआ देखूंगा॥१५॥ कंसके मारने के उपरान्त शंखासुर, कालयवन, मुर दैत्य, नरकासुर उनका वध और स्वर्गसे देवराज इन्द्रको जीतकर जो कल्पवृक्ष लाओगे, उसे देखूंगा॥१६॥ जिनका पुरुषार्थही मूल्य है ऐसी राजकन्याओंका

स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्॥ अवतीर्णो विनाशाय सेतूनां रक्षणाय च॥१३॥ दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयाऽयं हयाकृतिः॥ यस्य ह्रेषितसंत्रस्तास्त्यजंत्यनिमिषा दिवम्॥१४॥ चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम्॥ कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो॥१५॥ तस्यानुशंखयवनमुराणां नरकस्य च॥ पारिजातापहरणमिंद्रस्य च पराजयम्॥१६॥ उद्वाहं वीरकन्यानां वीरशुल्कादिलक्षणम्॥ नगस्य मोक्षणं शापाद्द्वारकायां जगत्पते॥१७॥ स्यमंतकस्य च मणेरादानं सह भार्यया॥ मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः॥१८॥ पौंड्रकस्य वधं पश्चात्काशिपुर्याश्च दीपनम्॥ दंतवक्त्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ॥१९॥ यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन्भवान्॥ कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि॥२०॥ अथ ते कालरूपस्य शपयिष्णोरमुष्य वै॥ अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः॥२१॥

विवाह और जगत्पति! द्वारकामें जाकर जो नृग राजाको पाप से छुड़ाओगे, सो देखूंगा॥१७॥ जाम्बवतीके साथ स्यमंतकमणिका पीछे लाना और सांदीपन गुरुके महाकालपुर से मरेपुत्र सजीव लाकर दोगे, सो देखूंगा॥१८॥ फिर मिथ्यावासुदेवका मारना, काशीपुरीको जलाना, दंतवक्रतामारना और राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें शिशुपालका मारना देखूंगा॥१९॥ और भी द्वारका में वास करके तुम जो जो लीला करोगे, उन लीलाओंका कवि लोग पृथ्वीपर गान करैंगे॥२०॥ इसके उपरान्त कालरूप तुम इस पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये अर्जुन के सारथी

होकर सेनाओं का संहार करोगे, सो सब हम देखेंगे॥२१॥ केवल ज्ञानमूर्ति अपनी पूर्णानन्द स्थिति से पूर्णकाम सत्यसंकल्प और अपनी चैतन्यशक्ति अपने तेजसे नित्य मायासे निवृत्त और छः प्रकारके ऐश्वर्ययुक्त हम तुम्हारी शरण प्राप्त होतेहैं॥२२॥ ईश्वर स्वतंत्र अपनी मायासे सब प्रकारके विशेषोंकी कल्पना करनेवाले, क्रीड़ाके लिये अभी मनुष्यदेह धारण करनेवाले, यदु, वृष्णि, सात्त्वतोंमें अग्रणी मैं आपको नमस्कार करता हूं॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! भक्तोंमें श्रेष्ठ मननशील भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनसे प्रसन्न हो नारदजी इसप्रकार यादवपति श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार कर और आज्ञाले चलेगये॥२४॥ व्रजवासियोंको सुख देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया समाप्तसर्वार्थममोघवांछितम्॥ स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमायया गुणप्रवाहं भगवंतमीमहि॥२२॥ त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्॥ क्रीडार्थमद्याऽऽत्तमनुष्यविग्रहं नतोऽस्मि धुर्ये यदुवृष्णिसात्त्वताम्॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः॥ प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः॥२४॥ भगवानपि गोविंदो हत्वा केशिनमाहवे॥ पशूनपालयत्पालैः प्रीतैर्ब्रजसुखावहः॥२५॥ एकदा ते पशुन्पालाश्चारयंतोऽद्रिसानुषु॥ चक्रुर्निलायनक्रीडाश्चौरपालापदेशतः॥२६॥ तत्रासन्कतिचिच्चौराः पालाश्च कतिचिन्नृप॥ मेषायिताश्च तत्रैके विजह्नुरकुतोभयाः॥२७॥ मयपुत्रो महामायो व्यामो गोपालवेषधृक्॥ मेषायितानपोवाह प्रायश्चौरायितो बहून्॥२८॥ गिरिद विनिक्षिप्य नीतंनीतं महासुरः॥ शिलया पिदधे द्वारं चतुःपंचावशेषिताः॥२९॥

युद्धमें केशीको मारकर ग्वालबालोंसहित पशुओंका पालन करनेलगे॥२५॥ एक समय गायोंके पालनकर्त्ता ग्वालबाल गोवर्द्धनपर्वतके शिखरपर गायोंको चराते चौर पालनका मिसकर छिपा छिपी खेल करने लगे॥२६॥ हे राजन्! उस खेलमें कितने ही बालक चोर बने और कितनेही रखवाले बने. कितनेदी भेड़ बने, इसप्रकार निर्भय होकर खेलने लगे॥२७॥ इतनेमें मयदैत्यका पुत्र अत्यन्त मायावी व्योमासुरनामक दैत्य ग्वालका रूप धारणकर, चोर बन जो बालक भेड़ बने थे, उनको चुराकर लेजानेलगा॥२८॥ वह बड़ा दैत्य उनको लेलेजाकर पहाड़की गुफामें डाल शिलासे गुफाका मुँह बन्द करदेता जब केवल चार पाँच ग्वाल शेष रहगये॥२९॥

तव साधु पुरुषको शरणदेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मनमें विचार किया कि, हमने तो खेल किया है, यह सच्चादी चोर आनपहुँचा, इसप्रकार उस दुष्टका छल जान गोपोंको लेजाते व्योमासुरको, जैसे सिंह बलपूर्वक व्याघको पकड़ लेता है, उसी प्रकार पकड़ लिया॥३०॥ उस बलवान् दैत्यने अपना शरीर पर्वतकी समान धारण किया और अपने छुटानेके लिये बहुतेरा यत्न किया परन्तु पकडनेसे आतुर होगया इसलिये कृतकार्य न हुआ॥३१॥अच्युत भगवान् श्रीकृष्णने व्योमासुरकी दोनों भुजा पकड पृथ्वीमें पटककर देवताओंके देखते देखते वास घोटकर मारडाला॥३२॥इसके उपरान्त गुफाका ढकना तोड गोपोंको कष्टसे बाहर निकाल देवता और गोप जिनकी

तस्य तत्कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम्॥ गोपान्नयंतं जग्राह वृकं हरिरिवोजसा॥३०॥ स निजं रूपमास्थाय गिरींद्रसदृशं वली॥ इच्छन्विमोक्तमात्मानं नाशक्नोद्ग्रहणातुरः॥३१॥ तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले॥ पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत्॥३२॥ गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान्निस्सार्य कृच्छ्रतः॥ स्तूयमानः सुरैर्गोपिः प्रविवेश स्वगोकुलम्॥३३॥ इति श्रीमद्भाग० महा० दशमस्कंधे पूवार्द्धेकेशिव्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः\।\।३७\।\। श्रीशुक उवाच॥ अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः॥ उपित्वारथमास्थाय प्रययौ नंदगोकुलम्॥१॥ गच्छन्पथि महाभागो भगवत्यंबुजेक्षण॥भक्तिं परामुपगत एवमेतदचिंतयन्॥२॥ किं मया चरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः॥ किं वाऽथाप्यर्हते दत्तं यद्द्रक्ष्याम्यद्य केशवम्॥३॥

स्तुति करें ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोकुलमें आये॥३३॥ इति श्रीमना० महापु० दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां केशिव्योमासुरवधोनाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥ दोहा—अड़तिसमें अक्रूर मन, जैसो कियो विचार। तेसोही अक्रूरको, कियो कृष्ण सत्कार॥३८॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! बडे बुद्धिमान अक्रुरजीभी उस रात मधुपुरीमें बासकर प्रात होतेही, थमें चढ़कर नंदजीके गोकुलको चले॥१॥ महाभाग अक्रूरजी मार्गमें जाते कमलनेत्र भगवान श्रीकृष्णचन्द्रमें परमभक्तिको प्राप्त हो यह विचार करनेलगे॥२॥ कि, मैंने ऐसा कौन मंगल कर्म, अथवा तप, वा सत्पात्रोंको दान किया था, जिसके प्रभावसे ब्रह्मा, महादेवके ईश्वर, भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीका आज

दर्शन करूंगा॥३॥ मैं जानता हूँ कि, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होना अत्यन्त दुर्लभ है, जैसे विषयों में मन, शूद्रकुलमें जन्म, ऐसे पुरुषको वेदका उच्चारण दुर्लभ है॥४॥ अथवा ऐसे नहीं मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन होजॉय कारण कि, जिस प्रकार नदी में बहते हुए तृणसे कदाचित् कोई तीरपर भी पहुँच जाय तैसेही कर्मवशसे कालसे लेजायेहुए जीवोंमेंसे भी कभी कोई तरजाय॥५॥ मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिवानेको चलाहूं, इसलिये अब मेरा मंगल हुआ, जन्म सफल हुआ, क्योंकि योगीजन जिनका ध्यान धरतेहैं, उन्हीं भगवान्

ममैतद्दुर्लभं मन्य उत्तमश्लोकदर्शनम्॥ विषयात्मनो यथा ब्रह्मकीर्तनं शुद्रजन्मनः॥४॥ मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम्॥ ह्रियमाणः कालनद्या क्वचित्तरति कश्चन॥५॥ ममाद्यामंगलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः॥ यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयांघ्रिपंकजम्॥६॥ कंसो बताद्याऽकृत मेत्यनुग्रहं द्रक्ष्येंघ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः॥ कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः पूर्वेऽतरन् यन्नखमंडलत्विषा॥७॥ यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्त्वतैः॥ गोचारणायानुचरैश्चरद्वने यद्गोपिकानां कुचकुंकुमांकितम्॥८॥

श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंमें आज नमस्कार करूंगा॥६॥ अहो!बडा आश्चर्य है, दुष्ट कंसने आज मेरे ऊपर बडा अनुग्रह किया, जिसके भेजनेसे मुझको अवतार घरेहुए हरि भगवान्का दर्शन होगा। जिनके नखमंडलकी कांतिसे अंबरीष आदि सब दुरत्यय भवसागरको तरगये॥७॥ जो चरणारविंद ब्रह्मा महादेवादि देवतालोगोंने प्रकाशमान् लक्ष्मी तथा मुनीश्वरोंने और भक्तोंने पूजे हैं और गाय चरानेके लिये जो चरणारविन्द

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* शंका—वेदका कीर्त्तन करना, श्रवण करना और पढना शूद्रके लिये वर्जित है, चाहे विरक्त होषैचाहे गृहस्थी होषै,

तो फिर अक्रूर ने क्यों कहा कि, विषयमें रमित शूद्र उसको वेदका कीर्त्तन आदि महादुर्लभ है, इस वाक्यसे विदित होता है कि गृहस्थ शूद्रके लिये वेदका कीर्त्तन आदि दुर्लभ है तो भी विरक्त शूद्रको दुर्लभ नहीं है, पुण्य हैं यह भ्रम है॥

उत्तर—(शूद्रजन्मा) इस शब्दका शुद्र अर्थ कभी भी मत समझना शूद्रजन्मा इसका अर्थ यह है कि, शुद्ध सरीखा जिसका जन्महोय उसको शूद्रजन्मा जानना चाहिये, जन्म तो हुवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके कुलमें परन्तु भ्रष्ट लोगोंकी सदृश काम करे, सज्जनो! जान लेना इस अर्थको में गुप्त लिख हूँ एक भ्रष्ट दूसरे विपयसे निन्दनीय लक्षणों करके सयुक्त जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, उसको वेदका कीर्त्तन आदि दुर्लभ है, ऐसा अक्रूरजीने कहा था, शूद्रको नहीं कहा था॥

ग्वालबालोंके संग वनमें फिरे हैं और जिन चरणारविन्दोंमें गोपियों के कुचों की केशर लगी है, उन्हीं चरणारविन्दोंका आज दर्शन करूंगा॥८॥ सुन्दर कपोल, नासिका और मुसकानयुक्त चितवन, लाल डोरे जिनमें आरहे घूँघुरवारे अलकोंसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका आज निश्चय दर्शन करूंगा, क्योंकि हिरण भी मेरे दाहिनी ओर आये हैं॥९॥ पृथ्वीका भार उतारनेकेलिये, अपनी इच्छासे अब मनुष्यरूप धारण करने वाले, शोभा के धाम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके शोभायमानरूपका जब दर्शन करूंगा, तब मेरे नेत्र सफल होंगे॥१०॥ तीन लोकके कार्यरूप जगत् और कारणरूप महदादिक तत्त्वको यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चितवनसेही करते हैं परन्तु तो भी उनको अहंकार नहीं है, अपने तेजसे अज्ञानके भेद भ्रम से रहित हैं, अपने आधीन मायाकी ओर चितवन करके अपने रचे जीव वृन्दावनके वृक्षोंके नीचे और गोपियोंके

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं स्मितावलोकारुणकंज लोचनम्॥ मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं प्रदक्षिणं मे प्रचरंति वै मृगाः॥९॥ अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो भारावताराय भुवो निजेच्छया। लावण्यधाम्नो भवितोपलंभनं मह्यं न न स्यात्फलमंजसा दृशः॥१०॥ य ईक्षिताऽहं रहितोऽप्यसत्सतः स्वतेजसाऽपास्ततमोभिदा भ्रमः॥ स्वमाययाऽऽत्मन्रचितैस्तदीक्षया प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते॥११॥ यस्याखिलाऽमीवहभिः सुमंगलैर्वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः॥ प्राणंति शुंभंति पुनंति वै जगद्यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः॥१२॥ स चावतीर्णः किल सात्त्वतान्वये स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत्॥ यशो वितन्वन्व्रज आस्त ईश्वरो गायंति देवा यदशेषमंगलम्॥१३॥

घरोंमें लीलापूर्वक वृद्धिसे दिखाई देतेहैं॥११॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्रके अहंकार नहीं है जो आत्माराम हैं उन्हें लीला करना कैसे संभव है? तो कहते हैं कि, भक्तोंके ऊपर कृपा करनेके लिये लीला करते हैं सबके पापोंको दूर करनेवाले सुन्दर मंगलरूप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गुण, जन्म, कर्मसे मिली वाणी जगत् को जिलानेवाली है और शोभायमान करती है, पवित्र करती है और जिन वाणियोंमें श्रीकृष्णचन्द्रकी लीला, गुण, जन्म, कर्म नहीं गाये गये हैं उनको जो कहते हैं और श्रवण करते हैं, सो अपवित्र हैं जैसे मृत्युको प्राप्त हुआ शरीर अपवित्र है॥१२॥ यादवोंके कुलमें जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अवतार लिया है, वह अपनी मर्यादाओं का पालन करनेवाले, लोकपालोंको सुखदेनेवाले लीला पूर्वक यश

विस्तार करते व्रजमें रहते हैं और सबको मंगलकारी, उनके यशको देवता लोग गाते हैं॥१३॥ महत् पुरुषोंको सुन्दरगति देनेवाले गुरु त्रिलोकीमें सुन्दर नेत्रवाले पुरुषोंको आनंददेनेवाले, लक्ष्मी निवासस्थान, सुन्दररूप धारण किये श्रीकृष्णचन्द्रका आज मैं निश्वयही दर्शन करूंगा, क्योंकि आज प्रातःकालके समय मुझे श्रेष्ठ शकुन हुए हैं॥१४॥ दर्शन करने उपरान्त उसीसमय रथ मेंसे उतर इन प्रधानपुरुष कृष्ण बलरामके चरणकी जिनका योगीपुरुष भी स्वरूपकी प्राप्तिके लिये केवल बुद्धिसेही ध्यान करते हैं उनको मैं साक्षात् प्रणाम करूंगा और फिर इन सहित व्रजवासी सखाओको भी प्रणाम करूंगा॥१५॥ चरणोंमें पड़ेहुए मस्तकपर समर्थवान् भगवान् अपना हाथ धरेंगे, जो हाथ कालरूप सर्पके वेगसे

तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं त्रैलोक्यकांतं दृशिमन्महोत्सवम्॥ रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं द्रक्ष्ये ममाऽसन्नुषसः सुदर्शनाः॥१४॥ अथावरूढः सपदीशयो स्थात्प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये॥ धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं नमस्य आभ्यां च सखीन्वनौकसः॥१५॥ अप्यंघ्रिमूले पतितस्य मे विभुः शिरस्यधास्यन्निजहस्त पंकजम्॥ दत्ताभयं काल भुजंगरंहसा प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां नृणाम्॥ १६॥ समर्हणं यत्र निधाय कौशिकस्तथा बलिश्चाप जगत्रयेद्रताम्॥ यद्वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं स्पर्शेन सौगंधिकगंध्यपानुदत्॥१७॥ न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः कंसस्य द्वतः प्रहितोऽपि विश्वदृक्॥ योंतर्बहिश्चेतस एतदीहितं क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा॥१८॥

डरेहुए व शरण चाहनेवाले मनुष्योंको अभयका देनेवाला है॥१६॥ जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करके इन्द्रने इन्द्रता पाई, और ऐसेही राजा बलिने संकल्प करके त्रिलोकीकी इन्द्रता प्राप्त करी और रासक्रीड़ामें व्रज की स्त्री गोपियोंके श्रम के पसीनेको श्रीकृष्णने जिस हाथसे पोंछा था और जिन हाथोंमें कमल के समान सुगंधि आती है, वही हाथ मेरे मस्तकपर धरेंगे॥१७॥ यद्यपि मैं राजा कंसका भेजाहुआ दूत हूं, परन्तु तोभी श्रीकृष्णचन्द्र मुझपर यह शत्रुका दूत है, ऐसी बुद्धि नहीं करैंगे, क्योंकि वह अन्तर्यामी श्रीकृष्णचन्द्र मेरे चित्तकी बाहर भीतरकी चेष्टाको नित्य ज्ञानसे देखते हैं, मैं ऊपरसे तो कंसका भेजाहुआ जाताहूं, परन्तु भीतरसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकाही ध्यान लगा रहा है इसबातको नित्य

ज्ञानसे भलीभाँति श्रीकृष्णचन्द्र जानते*॥१८॥ चरणारविंदमें गिरा, हाथ जोडे मुझे मुसकाकर करुणाभरी दृष्टिसे जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचंद्र देखेंगे, उसी समय पाप और भय दूर होजानेसे आशंकाओंसे रहित हो में परमानन्दको प्राप्त हूंगा॥१९॥ जिनके अत्यन्त हितकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अतिरिक्त और कोई देवता नहीं, वह भगवान् जिस समय अपनी जाति और कुटुम्बी जान मुझे भुजा पसार छातीसे लगावेंगे उसी समय यह देह परमपवित्र होजायगा और कर्मरूप बन्धन भी इस देहके छूट जायँगे॥२०॥ जब मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलमस्तक झुका हाथ जोड खडा हूँगा, तब हे काका अक्रूर!इसप्रकार बडे यशस्वी श्रीकृष्ण मुझसे करैॆगे, उस समय हमारा जन्म सफल होगा

अप्यंघ्रिमूलेऽवहितं कृतांजलि मामीक्षिता सस्मितमार्द्रयादृशा॥ सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो वोढा मुदं वीत विशंक ऊर्जिताम्॥१९॥ सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं दोर्भ्यां बृहद्भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम्॥ आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे बंधश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः॥२०॥ लब्ध्वांगसंगं प्रणतं कृतांजलिं मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः॥ तदा वयं जन्मभृतो महीयसा नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत्॥२१॥ न तस्य कश्चिद्दयितः सुहृत्तमो न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा॥ तथाऽपि भक्तान्भजते यथा तथा सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः॥२२॥ किं चाऽग्रजो माऽवनतं यद्वत्तमः स्मयन्परिष्वज्य गृहीतमंजलौ॥ गृहं प्रवेश्याप्तसमस्तसत्कृतं संप्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबंधुषु॥२३॥

और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जिस पुरुपका आदर सन्मान नहीं करते, उस पुरुषको धिक्कार है॥२१॥ यद्यपि उनको न तो कोई प्रिय है, न सुहृद है, न कुप्यारा है और न उदासीन है परन्तु तोभी भगवान् भक्तको भजतेहैं, जैसे कल्पवृक्षकी जो सेवा करै, वह उसको फल देता है॥२२॥ जब मैं नमस्कारकर, हाथ जोडूंगा, तब मेरी भुजा पकड, हास्यपूर्वक छातीसे लगा, गृहमें लेजाय भलीभाँति आदर सत्कारकर फिर बडे भ्राता

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* दृष्टांत—कृष्ण अन्तर्यामी हैं, इस कारण कपट प्रीति सबकी जानते हैं। एक बडे मारी ठगथे सो एकदिन बढी ऐंठमा पाग वाँधकर चले, लोग वोले कहाँ चले? तो उत्तर दिया कि, सबको तो हमने ठगा परन्तु जो परमेश्वरको ठगकर लाँवें, तो हमारा नाम ठगहै, ऐसा कह चले परन्तु थोडीही दूरजाय लौट आये, लोग बोले क्यों भाई! लौट कैसे आये यह बोले कि, भाई क्या कहै ठगते तो सही परन्तु वह तो अन्तर्यामी हैं हमारे मनका कपट जान जायगे उनपर हमारा छापा नहीं लग सकता॥

बलरामजी अपने बन्धु यादवोंमें कंसके कर्त्तव्यको पूछैँगे॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् इसप्रकार श्रफल्कके पुत्र अक्रूर मार्ग में श्रीकृष्णकी चिन्ताकरते रथमें बैठेहुए गोकुलमें पहुँचे, कि इतनेहींमें भगवान् सूर्य अस्ताचलको प्राप्त हुए\।\।२४॥ समस्तलोकोंके पालन करनेवाले ब्रह्मादिक देवता अपने मुकुटोंके ऊपर जिनके चरणोंकी रेणुकाको धारण करतेहैं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंके चिह्न महात्मा अक्रूरजीने व्रजमें देखे, जो पृथ्वी के गहनेरूप थे और जिनमें कमल, यव, अंकुश आदि चिह्न प्रतीत होतेथे\।\।२५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणचिह्नके दर्शनके आनंदसे संभ्रम और प्रेमसे रोमांच हो आये, नेत्रोंमें आंसू भरिआये, सो अक्रूरजी रथसे उतर अहो! यह मेरे प्रभुके चरणोंकी

श्रीशुक उवाच॥ इति संचिंतयन्कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि॥ रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्वास्तगिरिं नृप॥२४॥ पदानि तस्याखिललोकपालकिरीटजुष्टामलपादरेणोः॥ ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि विलक्षितान्यब्जयवांकुशाद्यैः॥॥२५॥ तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसंभ्रमः प्रेम्णोर्ध्वरोमाऽश्रुकलाकुलेक्षणः॥ रथादवस्कंद्य स तेष्वचेष्टत प्रभोरमून्यंघ्रिरजां स्यहो इति॥२६॥ देहभृतामियानर्थों हित्वा दंभं भियं शुचम्॥ संदेशाद्यो हरेर्लिंगदर्शनश्रवणादिभिः॥२७॥ ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गर्तो॥ पीतनीलांबरधरौ शरदंबुरुहेक्षणौ॥२८॥ किशोरौश्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्भुजौ\।\। सुमुखौ सुन्दरवरौ बालद्विरदविक्रमी॥२९॥ ध्वजवज्रांकुशांभोजैश्चिह्नितैरंघ्रिभिर्व्रजम्॥ शोभयंतौ महात्मानौ सानुक्रोशास्मितेक्षणौ॥३०॥

रज है, इसप्रकार कहते कहते चरणोंके चिह्नोंमें लोटने लगे॥२६॥ देहधारियोंका इतनाही पुरुषार्थ है, जो

इसका सन्देशा ले, दंभ, भय, शोच त्याग श्रीकृष्णचंद्रके चिह्न दर्शन व श्रवणादिकसे अक्रूरको प्रेम उत्पन्न हुआ\।\।२७॥ इसके उपरांत ब्रजकी गोशालामें गाय दुहनका जात श्रीकृष्णचंद्र और बलरामजीको महात्मा अक्रूरजीने देखा, पीताम्बर और नीलाम्बर धारणकर रहे हैं और जिनके शरद्ऋतुके कमलसे नेत्र हैं॥२८॥ किशोर अवस्था, श्याम और गौर स्वरूप, लक्ष्मीके शोभाके स्थान, लम्बी भुजा, सुंदर मुख, स्वरूपवानोमें अत्यन्त शोभायमान, हाथीके बालकके समान पराक्रमवाले॥२९॥ ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुशके चिह्नवाले, चरणोंसे व्रजभूमिको शोभायमान करते महात्मा अनुकंपाजन्य जो

मंदमुसकान व चितवन॥३०॥ उदार रुचिर जिनकी क्रीडा है, मोतियोंके हार और वनमाला पहरे, पवित्र चंदन और केशर लगाये, स्नान किये निर्मलवस्त्र पहरे॥३१॥ प्रकृति पुरुषरूप आदिकारण जगत् के पालन करनेवाले पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम केशवमूर्ति दो रूप धरके अवतार लिये हैं॥३२॥ हे राजन्!अपने तेजसे दिशाओंका अंधकार दूर करतेहुए, जैसे सुवर्ण से नीलमणिका पर्वत अथवा रूपेका पर्वत जगमगाता है।इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलरामजीके रूपको निहार॥३३॥ स्नेहमें विह्वल हो महात्मा अक्रूरजीने शीघ्र रथमेंसे उतर रामकृष्णके चरणोंमें दण्डवत करी॥३४॥ हे महाराज परीक्षित्!श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनके आनन्दसे आँखोमें आंसू आगये, उत्कण्ठासे अंगमें रोमांच होगये और प्रेम

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौवनमालिनौ॥ पुण्यगंधानुलिप्तांगो स्नातौ विरजवाससौ॥३१॥ प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती॥ अवतीर्णो जगत्यर्थे स्वांशेन वलकेशव॥३२॥ दिशो वितिमिरा राजन्कुर्वाणों प्रभया स्वया॥ यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ॥३३॥ रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः॥ पपात चरणोपांते दंडवद्रामकृष्णयोः॥३४॥ भगवद्दर्शनाह्लादवाष्पपर्याकुलेक्षणः॥ पुलकाचितांग औत्कंठ्यात्स्वाख्याने नाशकन्नृप॥३५॥ भगवांस्तमभिप्रेत्य रथांगांकितपाणिना॥ परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः॥३६॥ संकर्षणश्च प्रणतमुपगुह्य महामनाः॥ गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत्सानुजो गृहम्॥३७॥ पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम्॥ प्रक्षाल्य विधिवत्पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत्॥३८॥ निवेद्य गां चातिथये संवाद्य श्रांतमादृतः॥ अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयौपाहरद्विभुः॥३९॥

के मारे अपना नाम बतानेको भी समर्थ न हुये॥३५॥ हित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अक्रूरका अभिप्राय जान,चक्रकी रेखावाले अपने हाथ से पकड प्रसन्न हो छाती से लगाकर मिले। यहाँ मिलनेका तात्पर्य यह है कि, श्रीकृष्णने कंसके मारने की सामर्थ्य जताई॥३६॥ इसके उपरांत उदारमन बलरामजी दंडवत् करते हुए अक्रूरजीको छातीसे लगाय अपने हाथोंसे उनके दोनों हाथ पकड़ श्रीकृष्णसहित घरमें लिवाकर लेगये॥३७॥ और “भले आये” इसप्रकार कुशल पूँछ अक्रूरजीके लिये आसन बिछाय, विधिपूर्वक चरण पखार मधुपर्क (दधि, घृत, मधु,) दे पूजा करनेलगे॥३८॥ विधिपूर्वक पूजाकर गौदान अक्रूरजीको दी, फिर मार्गमें परिश्रम पाये अक्रूरजीके चरणारविन्द आदरसहित

दाबके गुणभरी पवित्र अन्नकी सामग्री भोजनार्थ अति श्रद्धा से अक्रूरजीके आगे निवेदन करी॥३९॥ इसके उपरान्त जब अक्रूरजी भोजन करचुके तब परमधर्मके जाननेवाले बलदेवजी बीरी, चन्दन, केशर, अतर और फूलोंके हार इत्यादिकोंसे उन्हें प्रसन्न करनेलगे॥४०॥ सन्मान करने के पीछे अक्रूरजीसे नंदरायजी कहने लगे कि, निर्दयी कंसके जीते हे अक्रूर!तुम्हारा जीवन किसप्रकार होता है कसाईके घर रहती भेडके समान तुम कैसे रहते हो?॥४१॥ प्राणोंका पोषण करनेवाले दुष्ट कंसने विलाप करती जब अपनी वहिनकेही पुत्र मारडाले उस दुष्टकी प्रजा तुम हो सो तुम्हारी क्या कुशल पूछें॥४२॥ इस प्रकार जब मधुर वचनसे पूंछ नंदरायजीने सत्कार किया तब महात्मा अक्रूरजीने मार्गके

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित्॥ मुखवासैर्गंधमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात्पुनः॥४०॥ पप्रच्छ सत्कृतं नंदः कथं स्थ निरनुग्रहे॥ कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः॥४१॥ योऽवधीत्स्वस्वमुस्तोकान्क्रोशंत्या असुतृप् खलः॥ किंनु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे॥४२॥ इत्थं सूनृतया वाचा नंदेन सुसभाजितः॥ अक्रूरःपरिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम्॥४३॥ इति श्रीमद्भाग०महा०.दशम० पृ० अक्रूरागमनं नामाऽष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ सुखोपविष्टः पर्यंके रामकृष्णोरुमानितः॥ लेभे मनोरथान्सर्वान्पथि यान्स चकार ह॥१॥ किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने॥ तथाऽपि तत्परा राजन्न हि वाञ्छन्ति किंचन॥२॥ सायंतनाशनं कृत्वा भगवान्देवकीसुतः॥ सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम्॥३॥

श्रमको त्यागदिया॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां अक्रूरागमनं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ दोहा—उनतालिसमें नन्दसुत, मथुरा कियो पयान। यमुना में अक्रूरने, लखो भवन भगवान्॥३९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!शय्याके ऊपर आनन्दपूर्वक विराजमान श्रीकृष्ण बलदेवसे बडा सत्कार पाय, अक्रूरजीने मार्गमें जो जो मनोरथ किये थे सो सो सब पूर्ण हुए॥१॥ क्योंकि छः प्रकार के ऐश्वर्ययुक्त परिपूर्ण शोभाके स्थान भगवान श्रीकृष्णही जब प्रसन्न होगये तब किस वस्तुकी प्राप्ति न हुई? हे राजा परीक्षित्!कृष्णपरायण भक्त किसी वस्तुकी चाहना नहीं करते॥२॥ इसके उपरान्त देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र संध्यासमयका भोजन कर अपने यादवोंसे

जैसा कंसका वर्ताव है, सो अक्रूरजीसे पूछने लगे? और जो कुछ करनेका विचार है, उसको भी पूँछा॥३॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे सौम्य! भला तुम्हारा आगमन कुशल क्षेमसे तो हुआ है? तुम्हारा कल्याण! जातिके बंधु बांधव तो सुखसे और आरोग्य हैं? किसी को कुछ दुःखतो नहीं है?॥४॥हे अक्रूरजी! मामा कंस तो हमारे कुलका रोग बढ़ा है, फिर अपने बंधु बांधव और प्रजाकी क्या कुशल पूछें?॥५॥ देखो हमारे निरपराध माता पिताको अत्यन्त कष्ट हुआ, हमारे लिये उनके पुत्र मारेगये और हमारेही लिये वह बन्दीहुये॥६॥ हे साधु!बहुत दिनोंसे तुम्हारे दर्शनोंकी अभि

श्रीभगवानुवाच॥ तात सौम्यागतः कच्चित्स्वागतं भद्रमस्तु वः॥ अपि स्वज्ञातिबंधूनामनमीवमनामयम्॥४॥ किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये॥ कंसे मातुलनाम्न्यंग स्वानां नस्तत्प्रजासु च॥५॥ अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रो वृजिनमार्ययोः॥ यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बंधनं तयोः॥६॥ दिष्ट्वाऽद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य कांक्षितम्॥ संजातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम्॥७॥ श्रीशुक उवाच॥ पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः॥ वैरानुबंधं यदुषु वसुदेववधोद्यमम्॥८॥ यत्संदेशो यदर्थं वा दूतः संप्रेषितः स्वयम्॥ यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुंदुभेः॥॥९॥ श्रुत्वाऽक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा॥प्रहस्य नंदं पितरं राज्ञाऽऽदिष्टं विजज्ञतुः॥१०॥

लापा लगरही थी सो आपने आनकर हमको दर्शन दिया, यह बड़ाही अनुग्रह किया, अब यह बताइये कि, आपका आना कैसे हुआ?॥७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके इसप्रकार पूँछनेपर महात्मा अक्रूरजीने सब वृत्तान्त वर्णन कर दिया कि, कंस यादवोंसे शत्रुभाव रखता है और वसुदेवजी के मारने का भी उद्योग उसने कियाथा॥८॥ और जो संदेशा लायेथे, व जिसलिये स्वयं उनको दूत बनाकर भेजा था और देवर्षि नारदजीने जो कहा था कि, श्रीकृष्ण वसुदेव के पुत्र हैं। सो सब कह सुनाया*॥९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बड़े २ शत्रुओंको

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* शंका— ब्रजमें नन्दादिकोंने अक्रूरसे बूझा कि आप किस कामके लिये व्रजमें आये हो? तत्र अक्रूरने कृष्णचन्द्रसे कहा कि आपको और बलदेवजीको मारनेके लिये यज्ञ देखनेके बहानेसे कस बुलाया है, ऐसा कहा तब स्वामीका विश्वासघातकपनका पाप अक्रूरको लगेगा क्योंकि वह वात गुप्त करके कसने अक्रूरका विश्वास मानके कही थी कि, अक्रूर किसीसे नहीं कहेगा और जो कस सरीखे कपट करके कहैंकि, महाराज आपका मामा हे और कस राजा भी है, सो यज्ञका कौतुक देखनेको बुलाया है, तब भगवान्की ओर कपटका पाप मोगैंगे॥

पराजय करनेवाले बलरामजीने महात्मा अक्रूरजीका वचन श्रवणकर कुछेक मुसकातेहुए नन्दजीसे राजा कंसका संदेशा कहा॥१०॥ यह सुनतेही उन्होंने गोपलोगोंको आज्ञा दी कि, दही दूध संग लेके हमारे साथ आनेके वास्ते गाड़ियें जोडो॥११॥ कल मथुराको चलकर राजा कंसको गोरस देंगे और बड़ा भारी उत्सव देखेंगे, देखो! यह सब देशवासी जाते हैं, इस प्रकार नंदजीने गोकुलमें ढंढोरा पिटवा दिया॥१२॥ इसके उप

गोपान्समादिशत्सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः॥ उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च॥११॥ यास्यामः श्वो मधु पुरीं दास्यामो नृपते रसान्॥द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यांति जानपदाः किल॥ एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगो कुले॥१२॥ गोप्यस्तास्तदुपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्॥ रामकृष्णौ पुरीं नेतुमक्रूरं व्रजमागतम्॥१३॥ काश्चि तत्कृतहृत्तापश्वासम्लानमुखश्रियः॥ स्रंसद्दुकूलवलय केशग्रन्थ्यश्च काश्चन॥१४॥ अन्याश्च तदनुध्याननिवृत्ताशेषवृत्तयः॥ नाभ्यजानन्निमं लोकमात्मलोकं गता इव॥१५॥

रान्त संपूर्ण गोपियें जिस समय अपने जीवन श्रीकृष्ण बलरामको मथुराको लेजानेको व्रजमें अक्रूर आयेहैं, यह बात सुनकर अत्यन्त दुःखी हुईं॥१३॥ बहुत गोपियोंकी तो यह दशा हुई कि उसके सुननेसे जो हृदयमें ताप हुआ उससे गोपियोंके मुख कुम्हलागये और वस्त्र, चूरी, कंकण, केशोंकी ग्रंथि यह सब शिथिल होगई॥१४॥और बहुत स्त्रियोकी यह दुर्दशा हुई कि श्रीकृष्णचन्द्रके ध्यानसे सब इन्द्रियोंकी वृत्तियें जाती रहीं, व मुक्त

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उत्तर— जत्र श्रीकृष्णने अक्रूरसे वृझा कि, आपका आना व्रजमें कैसे हुआ?तब अक्रूर ने अपने मनमें बढा दुःख माना कैसा दुःख माना? जैसे एक लकढी दोनों ओरसे जलती हो उस लकडीको कोई पुरुष हायसे नहीं छुसक्ता, क्योंकि जो उस लकडीको पकडता है तो दोनों हाथ जलते हैं और हाथोंके बचानेका उपाय करता है तो लकडीहाथसे जाती है, ऐसेही आकरहोगये, कसका पक्ष करते हैं तो भगवान्‌का द्रोही होना पडता है और भगवान्का पक्ष करते हैं तो कसका द्रोही होना पडता है, तब प्राण त्यागनेका विचार किया फिर श्रीकृष्ण भगवान् का ध्यान किया, उस ध्यानमें श्रीकृष्णचन्द्रने अक्रूरको आज्ञा दी कि, तुम क्यों इतना कष्ट सहते हो, कसका कपट हो सो भाप प्रगट मत करो, हमारी ओरसे कपटमें तुमको कुछ दोष नहीं होगा, फिर भगवान्ने कहा हमारी ओरसे कपटकी त्रास त्याग दो, क्योंकि हम सब ससारका कर्म जानते हैं, मनुष्योंकी नाईं हम नहीं हैं, इसप्रकार भगवान्की आज्ञा पाकर अकूरने कसके कपटरूप वचन कृष्णसे कहैभगवान् तो सब जानतेही हैं, फिर क्यों गुप्त रखकर दोषका भागी बनू, इसलिये कह दिया कि, तुम दोनों जनोंको यज्ञ देखनेके लिये कसने बुलाया है॥

होनेपर जैसे देहका भान जाता रहता वैसेही देहका भान भूलगई॥१५॥ बहुतसी गोपियें स्नेहसे मुसकाय हृदयको आनन्ददायक चित्रविचित्र बोलनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके वचनोंका स्मरण कर मोहित होगईं॥१६॥ बहुतसी मुक्तिके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मनोहर चलन स्नेहभरी चितवन शोककी दूर करनेवाली बोलन इत्यादि चेष्टा और बड़े बड़े चरित्रोंको स्मरण करनेलगीं॥१७॥ यह अवश्यही जायँगे इस भयसे विरहमें कातर ऑसू बहाती भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये हजारों गोपियों के झुण्डके झुण्ड मिलकर संपूर्ण परस्पर यह कहने लगीं॥१८॥ गोपियें कहने लगीं कि, हे विधाता!तुझे कुछ भी दया नहीं है, क्योकि जीवोंका परस्पर मिलाप व प्रेम बँधाय उनके पूरे सुख न भोगनेपर

स्मरन्त्यश्चापराः शौरेरनुरागस्मितेरिताः॥ हृदिस्पृशश्वित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः॥१६॥ गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्ध हासावलोकनम्॥ शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च॥१७॥ चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य लीला विरहकातराः॥ समेताः संघशः प्रोचुरश्रुमुख्योऽच्युताशयाः॥१८॥ गोप्य ऊचुः॥ अहो विधातस्तव न क्वचिद्दया संयोज्य मैत्र्या प्रणये न देहिनः॥ तांश्चाकृतार्थान्वियनंक्ष्यपार्थकं विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा॥१९॥ यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं मुकुन्दवक्रंसुकपोलमुन्नसम्॥ शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम्॥२०॥ क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म नश्चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत्॥ येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः॥२१॥

भी वृथा वियोग करदेताहै इसीसे तेरी कीड़ा बालकोंके समान है अर्थात् तू मूर्ख है॥१९॥ जो तू श्याम अलंकोंसे आच्छादित सुन्दर कपोल ऊंची नासिकावाला शोच मिटानेवाले मंदहास्यके लेशमात्रसे भी शोभायमान श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका एकवार दर्शन कराय पीछे छिपालेता है हमने तेरा क्या अपराध किया है?॥२०॥ दान करके लेता है इसलिये तू बड़ा कठोर है (अक्रूर लिये जाता है मैं तो नहीं लिये जाता यदि विधाता यह कहै तो इसके उत्तर में गोपियें कहती हैं कि,) अरे विधाता!निर्दयी अकूर नाम धरकर तूही आया है सो अपने दियेहुए कृष्णरूप नेत्र अज्ञानीकी समान हरके लिये जाता है जिस तेरी दी हुई ऑखसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके एक एक अंगमें तेरी संपूर्ण सृष्टिकी सुन्दरता

हम देखती हैं॥२१॥ अरे! रे!! क्षणभंग स्नेहवाले नंदके पुत्रकी मुसकानसे मोहित हुईं घरमें बंधु और पुत्र पतियोंको छोड़ हम साक्षात् उनकी दासी हुई परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है, वह हमारी ओरको दृष्टि उठाकर देखता भी नहीं। जान पड़ता है कि, उसे नित्य प्रति नये नये प्यारे लगते हैं॥२२॥ मथुराकी स्त्रियोंको इस रातका सबेरा अच्छा होगा, क्योंकि उनके मनोरथ निश्चय सच्चे होंगे॥देखो जो स्त्रियें मथुरा में पधारे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका मुर्ख कि, जो कटाक्षसे वृद्धिंगत और मुसकानरूप जिसमें रस ऐसे सुन्दर रसका पान करेंगी॥२३॥ हे बालाओ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र यद्यपि माता पिता आदिके पराधीन हैं और धीर हैं परन्तु तो भी उन स्त्रियोंके मदके समान मीठे भाषणोंसे इनका चित्त

न नन्दसनुः क्षणभंगसौहृदः समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत॥ विहाय गेहान्स्वजनान्सुतान्पतींस्तद्दास्यमद्धोपगता नव प्रियः॥२२॥ सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः सत्या बभ्रुवुः पुरयोषितां ध्रुवम्॥ याः सम्प्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः पास्यन्त्यपांगोत्कलितस्मितासवम्॥२३॥ तासां मुकुन्दो मधुमंजुभाषितैर्गृहीतचित्तः परवान्मनस्व्यपि॥ कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽवला ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन्॥२४॥ अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते दाशार्हभोजांधकवृष्णिसात्त्वताम्॥ महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं द्रक्ष्यंति ये चाध्वनि देवकीसुतम्॥२५॥ मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भूदक्रूर इत्येतदतीव दारुणः॥ योसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः॥२६॥ अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः॥ गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते॥२७॥

हरण होजायगा, व उन स्त्रियोंके लजीले मंदहास्य व विलासोंसे भ्रम जायेंगे इसलिये जो अपने गॉवकी रहनेवाली हैं उनके निकट पीछे किस प्रकार आवेंगे॥२४॥ आज तो मथुरा में दाशार्हवंशी, भोजवंशी, यादवोंकी आँखोंको निश्चय आनन्द होगा, क्योंकि लक्ष्मीके संग रमण करनेवाले संपूर्ण गुणयुक्त देवकीनंदनभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको जो पुरुष मार्गमें देखेंगे उनके नेत्रोंको निश्चयही बड़ा आनन्द होगा॥२५॥ ऐसे क्रूर कर्म करनेवाले निर्दयीका अक्रूरनाम किसने रक्खा है, जो यह निर्दयी बहुत दुःखित हमारे विना पूँछे प्राणोंसे प्यारे भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रको हमारी ऑखोंसे दूर लियेजाता है॥२६॥ देखो! यह कठोरबुद्धि कृष्ण रथमें जाबैठे तिसपर यह अभागे ग्वाल गाड़ीको

शीघ्रही हाँकने की चेष्टा करते हैं ऐसी अनीतिको होता हुआ देखकर कोई बडा बूढ़ा भी मने नहीं करता इससमय किसी गोपके विघ्न होजाता तो बुरा शकुन विचारकर श्रीकृष्ण नहीं जाते; हाय! हाय!! आज दैवही हमारे प्रतिकूल चेष्टा करताहै॥२७॥ फिर गोपियें बोलीं कि, संखी! हम सब चलकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मने करेंगी और उनके रथके आगे जाय, आडी पडकर कहेंगी कि, यदि आप जातेही हैं तो हमारी छातीपर रथका पहिया उतारकर चले जाओ और हमारे कुलके बड़े बूढे भी क्या करेंगे, क्योंकि जो आधेक्षणको भी नहीं छूट सक्ते, उन्हीं मुकुन्दका वियोगकर देवने हमारे चित्त दीन कर दिये हैं॥२८॥ हे गोपियो! और देखो सखी! उन्हीं कृष्णकी स्नेहभरी मनोहरमुसकान मनोहर लीलापूर्वक चितवन आलिंगनसे रासकी सभामें अत्यन्त बड़ी रात्रियें एक क्षणके समान बीत गई थीं, अब विना श्रीकृष्णचन्द्र

निवारयामः समुपेत्य माधवं किं नोऽकरिष्यन्कुलवृद्धबान्धवाः॥ मुकुंदसंगान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम्॥२८॥ यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमंत्रलीलावलोकपरिरंभणरासगोष्ठ्याम्॥ नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरंतम्॥२९॥ योऽह्नः क्षये व्रजमनंतसखः परीतो गोपैर्विशन्खुररजश्छुरितालका॥ वेणुं क्वणन्स्मित कटाक्षनिरीक्षणेन चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः॥ विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं गोविंद दामोदर माधवेति॥॥३१॥ स्त्रीणामेवं रुदंतीनामुदिते सवितर्यथ॥ अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम्॥३२॥

आनंदकंदके विरहरूपी दुःखके समुद्रको कैसे तरेंगी?॥२९॥ संध्यासमय बलदेवजी के संग ग्वालबालोंसे वेष्टित हो बाँसुरी बजाते जिनके बाल और माला गायोंके खुरों की धरिसे परिपूर्ण रहते थे, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ब्रजमें आनेके समय कुछेक हँसते हुए कटाक्ष सहित दृष्टि से हमारे चित्तको हरलेतेथे उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके विना अब हम किस प्रकार जीवन धारण करैंगी?॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! इस प्रकार अत्यन्त विरहमें व्याकुल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये, गोपियें लज्जा त्याग हे गोविन्द!हे दामोदर!हे माधव! इसभॉति पुकार पुकारकर रोनेलगीं॥३१॥ हे राजन्! इसप्रकार गोपियें विलाप कर रहीं थीं कि, इतनेहीमें श्रीसूर्यनारायण उदित होगये, इसके उपरान्त महात्मा

अक्रूरजीने संध्योपासनकर रथ हाँका तब गोपियें हाहाकारकर रोतीहुईं कहने लगीं॥३२॥ केशवमूर्तिके वियोगमें यशोदा व गोपियें इसप्रकार व्याकुल हो हाहाकर करनेलगीं, इसके उपरान्त नंदादिक संपूर्ण व्रजवासी ग्वालबाल दूध, दही, माखन से भरे कलशोंको ले गाडियोंमें बैठकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके संग चले॥३३॥और श्रीकृष्ण में आसक्त मन गोपियें श्रीकृष्णके पीछे जाय कदाचित् श्रीकृष्ण लौट आवैं, इस प्रकार पेंड़ा देखनेलगीं॥३४॥ यादवश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने चलनेके समय उन गोपियोंको व्याकुल देख “शीघ्रही आऊंगा” ऐसे प्रेम सहित वचन दूतसे कहलाकर शान्त किया॥३५॥ हे परीक्षित्!जहाँतक रथकी ध्वजा देखी, तहाँतक तो रथकी धूल उडती देखी और तब तक गोपियें

गोपास्तमन्वसज्जंत नंदाद्याः शकटैस्ततः॥ आदायोपायनं भूरि कुंभान्गोरससंभृतान्॥३३॥ गोप्यश्च दयितं कृष्ण मनुव्रज्यानुरंजिताः॥ प्रत्यादेशं भगवता कांक्षंत्यश्चावतस्थिरे॥३४॥ तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाने यद्वत्तमः॥ सांत्वयामास सप्रेमैरायास्य इति दौत्यकैः॥३५॥ यावदालक्ष्यते केतुर्यावद्रेणू रथस्य च॥ अनुप्रस्थापितात्मानो ले ख्यानीवोपतस्थिरे॥३६॥ ता निराशा निववृतुर्गोविंदविनिवर्तने॥ विशोका अहनी निन्युर्गायंत्यः प्रियचेष्टितम्॥३७॥ भगवानपि संप्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप॥ रथेन वायुवेगेन कालिंदीमघनाशिनीम्॥३८॥ तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम्॥ वृक्षखंडमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत्॥३९॥ अक्रूरस्तावुपामंत्र्य निवेश्य च रथोपरि॥ कालिंद्या हृदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत्॥४०॥

भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये चित्रकी नाईं लिखीसी खड़ी रहीं॥३६॥ परन्तु जब जाना कि, अब मुरलीमनोहर नहीं आयेंगे, तब वह गोपियें अत्यन्त व्याकुल हो लौटीं और शोक प्रकाशकर काल बिताने लगीं॥३७॥ पवनकी तुल्य वेगवाले रथमें बैठ बलदेव अक्रूर सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, संपूर्ण पापोंके नाश करनेवाली यमुनाके निकट पहुँचे॥३८॥ वहाँ पहुँच हाथ पाँव धो आचमन कर, निर्मल मीठा जलपी, फिर बगीचेंमें आनकर बलरामसहित रथमें बैठगये॥३९॥ इसके उपरान्त महात्मा अकूर भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तथा बलरामजीको

रथमें बैठाल और उनसे आज्ञा मॉग कालिंदीमें विधिपूर्वक स्नान करनेलगे॥४०॥ और जलमें गोता मारकर गायत्रीका जप करते २ महात्मा अक्रूरजीने कृष्ण बलदेवको देखा॥४१॥ फिर अक्रूरजीको भ्रम हुआ कि, रामकृष्णको तो मैं रथमें बैठालकर आया था, सो यहाँ कैसे आये? कदाचित् रथमेंसे उतर तो न आये हों, इसलिये निकलकर देखूं, इस प्रकार विचार करने लगे॥४२॥ फिर अक्रूरजीने निकलकर देखा कि, पहलेके समान कृष्ण बलदेव रथमें विराजमान हैं, उससमय अक्रूरजी महाविस्मयको प्राप्त होकर कहने लगे कि, जलके भीतर जो मुझे दर्शन हुवा सो मिथ्या है, इस प्रकार बुद्धिसे निश्वयकर फिर गोता मारा, तो सिद्ध, चारण, गन्धर्व, देवता, नर्त्तक, स्तुति कर रहे हैं और भगवान् शेषजी विराजमान

निमज्ज्य तस्मिन्सलिले जपन्ब्रह्म सनातनम्॥ तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ॥४१॥ तौ रथस्थौ कथमिह सुतावानकदुंदुभेः॥ तर्हि स्वित्स्यंदने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः॥४२॥ तत्रापि च यथापूर्वमासीन पुनरेवसः॥ न्यमज्जद्दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः॥४३॥ भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत्स्तूयमानमहीश्वरम्॥ सिद्धचारणगं धर्वैरसुरैर्नतकं धरैः॥४४॥ सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम्॥ नीलांबरं बिसश्वेतं शृंगैः श्वेतमिव स्थितम्॥४५॥ तस्योत्संगे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥पुरुषं चतुर्भुजं शांतं पद्मपत्रारुणेक्षणम्॥४६॥ प्रसन्नचारुवदनं चारुहास निरीक्षणम्॥ सुभ्रून्नसं चारुकर्णंसुकपोलारुणाधरम्॥४७॥ प्रलंबणीवरभुजं तुंगांसोरःस्थलश्रियम्॥ कंचुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमपल्लवोदरम्॥४८॥ बृहत्कटितटश्रोणिकरभोरुद्वयान्वितम्॥ चारुजानुयुगं चारुजंघायुगलसंयुतम्४९॥

हैं ऐसा देखा॥४३॥४४॥ जिनके सहस्रशिर मुकुटोंसहित सहस्रही फण, नीले वस्त्र धारण किये कमलनाली तुल्य श्वेतवर्ण कैलासके समान प्रकाशमान शेषजीको देखा॥४५॥ शेषजीके ऊपर कुण्डलसे विराजमान श्याम और पीतवस्त्रोंको धारण किये चार भुजा शांतस्वरूप पुरुष कमलके पत्तोंके समान अरुण नेत्र॥४६॥ सुन्दर प्रसन्न मुख सुन्दर हास्यभरी चितवन, सुन्दर भ्रुकुटी और शोभायमान नासिका, सुंदर कर्ण सुन्दर कपोल और अरुण ओष्ठ॥४७॥ लम्बी मोटी भुजा, विशाल हृदयमें लक्ष्मी विराजमान, गोल शंखसी ग्रीवा, तीन बलि जिसमें पडरहीं शोभायमान जिनकी नाभि पीपलके पत्तेके समान चिकना उदर॥४८॥ पतली कमर और बृहत् श्रोणीसे शोभायमान दोनों जंघा॥४९॥

लम्बायमान दोनों गुल्फ, लाल नखोंके समूहकी कांतिसे वेष्टित, कोमल अंगुली, सुन्दर चरणकमल॥५०॥ बहुत मोलके मणियोंसे जटित किरीट, कडे, बाजूबन्द और कमर कर्धनी, यज्ञोपवीत, मोतियोंके हार, चरणों में नूपुर तथा कानोंमें कुण्डल जो पहर रहे हैं, उनसे अत्यन्तही प्रकाशमान हैं॥५१॥ कमल और शंख, चक्र, गदाको धारण किये भृगुलताका चिह्न जिनकी छाती में प्रकाशमान, कौस्तुभमणिकी जिनके धुकधुकी॥५२॥ सुनंद नंद जिनमें मुखिया ऐसे पार्षद, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और ब्रह्मामहादेवादि देवता मरीच्यादि जो ब्राह्मण, प्रह्लाद, नारद, वसु जिनमें मुख्य इसप्रकार उत्तम भक्त अलग अलग भावसे उनकी स्तुति कररहे हैं॥५३॥५४॥ और श्री, पुष्टि, वाणी, कान्ति, कीर्ति,

तुङ्गगुल्फारुणनखव्रातदीधितिभिर्वृतम्॥ नवांगुल्यंगुष्ठदलैर्विलसत्पादपंकजम्॥५०॥ सुमहार्हमणिव्रातकिरीटकटकांगदैः॥ कटिसूत्रब्रह्मसूत्रहारनूपुरकुण्डलैः॥५१॥ भ्राजमानं पद्मकरं शंखचक्रगदाधरम्॥ श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥६२॥ सुनंदनंदप्रमुखैः पार्षदैः सनकादिभिः॥ सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैर्नवभिश्च द्विजोत्तमैः॥५३॥ प्रह्लादनारर्दवसुप्रमुखैर्भागवतोत्तमैः॥ स्तूयमानं पृथग्भावैर्वचोभिरमलात्मभिः॥५४॥ श्रिया पुष्ट्या गिरा कांत्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया॥ विद्ययाऽविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम्॥५५॥ विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः॥ हृष्यत्तनूरुहो भावपरिक्लिन्नात्मलोचनः॥५६॥ गिरा गद्गदयाऽस्तौषीत्सत्त्वमालंव्य सात्त्वतः॥ प्रणम्य मूर्ध्वावहितः कृतांजलिपुटः शनैः॥५७॥ इति श्रीमद्भाग० म० द० पूर्वार्धेऽक्रूरप्रतियानं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९

तुष्टि, इला, ऊर्जा, विद्या, अविद्या, शक्ति, माया जिनका निरंतर सेवन करती हैं॥५५॥ ऐसे परिपूर्ण रूप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हो, परमभक्तिको प्राप्त हो, देहमें रोमांच होगये और भक्तिके कारण नेत्रोंमें आँसू भर आये, ऐसे महात्मा अक्रूरजी मस्तक नवाय प्रमाण कर, सावधान हो, हाथ जोड, धीरेसे सत्त्वगुणका आश्रय ले गद्गदवाणीसे उनकी स्तुति करने लगे॥५६॥५७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भाषाटीकायां अक्रूरप्रतियानं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥

दोहा—चालिसमें अक्रूरने, लख हरि चरित अपार। सगुण निगुणकी भक्तिसे, बिनवत वारम्वार॥४०॥ अक्रूरजी बोले कि, हे कृष्ण! संपूर्ण कारणोंके कारण नारायण आदिपुरुष अविनाशी जिनकी नाभिमें उत्पन्न हुए कमलसे ब्रह्मा हुए और उस ब्रह्मासे यह लोक उत्पन्न हुआ, तुमको मैं नमस्कार करता हूं॥१॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, पुरुष, मन, इन्द्रिय, समस्त इन्द्रियोंके लिये विषयसे संपूर्ण देवता यह जो जगत्के कारण है सो तुम्हारेही अंगसे हुये हैं॥२॥ ब्रह्मासे आदि लेकर जड जो सम्पूर्ण तत्त्व हैं, सो अपने स्वरूपको नहीं जानते और जीव हैं

अक्रूर उवाच॥ नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं नारायणं पुरुषमाद्यमव्ययम्॥ यन्नाभिजातादरविंदकोशाद्ब्रह्माऽऽविरासीद्यतः एष लोकः॥१॥ भूस्तोयमग्निः पवनः खमादिर्महानजादिर्मन इन्द्रियाणि॥ सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे ये हेतवस्ते जगतोंगभूताः॥२॥ नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः॥ अजोऽनुवद्धः स गुणैरजाया गुणात्परं वेद न ते स्वरूपम्॥३॥ त्वां योगिनो यजंत्यद्धामहापुरुषमीश्वरम्॥ साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः॥४॥ त्रय्या च विद्यया केचित्त्वां वै वैतानिका द्विजाः॥ यजंते विततैर्यज्ञैर्नानारूपामराख्यया॥५॥ एकेत्वाऽखिलकर्माणि संन्यस्योपशमं गताः॥ ज्ञानीनो ज्ञानयज्ञेन यज॑ति ज्ञानविग्रहम्॥६॥

सो तत्त्वोंको जानते हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, मायाके गुणोंसे बँधे हुए जीव गुणोंसे अलग तुम्हारे स्वरूपको नहीं जानते॥३॥ ब्रह्माके उपासक महापुरुष ईश्वर तुम हो, तुम्हारी ही पूजा करते हैं और इन्द्रिय, पंचभूत, देवता, इनके साक्षी अन्तर्यामी तुम हो, इसीलिये तुम्हारी साधुलोग पूजा करते हैं,॥४॥ और कोई एक कर्मोंमें निष्ठावाले, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदसे यज्ञोंका विस्तार करके अनेक रूप देवताओंका नाम लेलेकर पूजा करते हैं॥५॥ और कोई कोई ज्ञानी पुरुष संपूर्ण कर्मकोंत्याग, समाधिमें आनकर ज्ञानरूप तुम्हारा पूजन करते हैं*॥६॥

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* शंका— योगमें बडे चतुर, ऐसे योगीजन सव ससारके सुखको त्यागकर जिस ब्रह्ममें मिल जाते हैं सो श्रीकृष्णचन्द्र हैं, यह शका हमको वारम्बार होती है?

उत्तर—जिस ब्रह्मको मुमुक्षु लोग जाते हैं, उस ब्रह्मको योगीजन नहीं जासक्ते, वह ब्रह्म वडा कठिन है, परन्तु ससारमें अपने अपने इष्टको ब्रह्मके स्वरूपकी नाई बढाई करके सत्र प्राणी वर्णन करते हैं, इस लिये अभी कृष्णको ब्रह्मस्वरूप करके वर्णन करते हैं॥

और दूसरे पुरुष विष्णुकी दीक्षा लेकर नारदपंचरात्रमें कही पूजाकी विधिसे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, इन भेदोंसे बहुत रूप और नारायणरूपसे एकरूप आपकीही पूजा करते हैं॥७॥ और कोई कोई पुरुष शिवजीके कहे शैवमार्ग और पाशुपतमार्ग से शिवरूप तुमको हे भगवन्! अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं॥८॥ हे सर्वदेवतारूप!हे समर्थ!जो पुरुष और देवताओंके भक्त हैं और देवताओं में उनके मन लग रहेहैं वह सबके ईश्वर तुम्हारीही पूजा करते हैं, क्योंकि आप सब देवताओंके रूप हैं॥९॥ हे प्रभो! जैसे पर्वतोंसे निकली मेघके जलसे परिपूर्ण हो नदियें चारों ओरसे बह बहकर समुद्रमें जा मिलतीहैं उसीप्रकार सब देवताओंके मार्ग अन्तमें तुमही में आनकर मिलजाते हैं॥१०॥ सत, रज, तम यह

अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाऽभिहितेन ते॥ यजंति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम्॥७॥ त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम्॥ बह्वाचार्यविभेदेन भगवन्तमुपासते॥८॥ सर्व एव यजंति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम्॥ येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो॥९॥ यथाऽद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्याऽपूरिताः प्रभो॥ विशंति सर्वतः सिंधुं तद्वत्त्वां गतयततः॥१०॥ सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः॥ तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः॥॥११॥ तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये सर्वात्मने सर्वाधियां च साक्षिणे॥ गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु॥१२॥ अग्निर्मुखं तेऽवनिरंघिरीक्षणं सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः॥ द्यौः कं सुरेंद्रास्तव बाहवोऽर्णवाः कुक्षिर्मरुत्प्राणबलं प्रकल्पितम्॥१३॥ रोमाणि वृक्षोषधयः शिरोरुहा मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः॥ निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापतिर्मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते॥१४॥

तुम्हारी प्रकृतिके गुण हैं, इन गुणों में ब्रह्म आदि स्थावर तक सब जीव पोयेहुए हैं, वे गुण प्रकृतिमें और प्रकृति तुममें॥११॥ संसार में अलिप्तबुद्धि जिसके आत्मा सब प्राणियोंकी बुद्धिके साक्षी तुम हो, सो मैं आपको नमस्कार करता हूं आविद्यासे हुआ गुणका प्रभाववाला संसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी इनकी देह मेंही प्रवृत्त होता है, इसलिये इनमें और आपमें बड़ा अन्तर है॥१२॥ अग्निमें तुम्हारा मुख है, पृथ्वी तुम्हारा चरण है, सूर्य नेत्र, आकाश नाभि, दिशा कान, स्वर्ग मस्तक, देवता भुजा और समुद्र कोंख है, पवन प्राणरूप तथा बलरूप कल्पना किया है॥१३॥ वृक्ष औषधि देहमें रोम, मेघ तुम्हारे केश, पर्वत तुम्हारे दाड और नख हैं, रात्रि दिन पलकोंका खोलना तथा बंद करना है, प्रजापति तुम्हारा मेढ्रहै

और वर्षाको तुम्हारा वीर्य कहते हैं॥१४॥ तुम अविनाशी पुरुषमेंही लोकपालोंसहित लोक स्थित हैं और वह बहुत जीवोंसे व्याप्त हैं, छोटे कीडे चलते हैं, गूलरमें भुनगे उडते हैं उसीप्रकार मनकी वृत्तिसे जानने में आओ जो तुम हो तिनमें अनंत ब्रह्माण्ड फिरते हैं॥१५॥ इस संसारमें लीला करनेके लिये आप जो जो रूप धारण करतेहो उनसे शोक दूरकर लोग आनन्दसे तुम्हारे यशको गातेहैं॥१६॥ सत्यवतको माया दिखाने के लिये मत्स्यरूप धरकर प्रलयके समुद्र में विचरनेवाले तुम्हारे अर्थ नमस्कार है, मधुकैटभ दैत्यको मारनेके लिये हयग्रीवरूप धरनेवाले आपको नमस्कार है॥१७॥ मंदराचल पर्वतके धारण करनेवाले बड़े कच्छपरूप तुम्हारे अर्थ नमस्कार है। पृथ्वी लाने के

त्वय्यव्ययात्मन्पुरुषे प्रकल्पिता लोकाः सपाला बहुजीवसंकुलाः॥ यथा जले संजिहते जलौकसोऽप्युदुंबरे वा मशका मनोमये॥१५॥ यानियानीह रूपाणि क्रीडनार्थं विभर्षि हि॥ तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायंति ते यशः॥१६॥ नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च॥ हयशीर्ष्णेनमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे॥१७॥ अकूपाराय रहते नमो मंदरधारिणे॥ क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये॥१८॥ नमस्तेऽतसिंहाय साधुलोकभयापह॥ वामनाय नमस्तुभ्यं कांतत्रिभुवनाय च॥१९॥ नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे॥ नमस्ते रघुवर्यांय रावणांतकराय च॥२०॥ नमस्ते वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च॥ प्रयुम्नायाऽनिरुद्धाय सात्त्वतां पतये नमः॥२१॥ नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने॥ म्लेच्छप्रायक्षत्रहंत्रे नमस्ते कल्किरूपिणे॥२२॥

लिये वाराहरूप आपको नमस्कार हैं॥१८॥ साधुपुरुषोका भय दूर करनेवाले अद्भुत नृसिंहरूप धरनेवाले आपको नमस्कार है। वामनरूप होकर तीनों लोक नापनेवाले तुम्हें नमस्कार है॥१९॥ गर्वीले क्षत्रियरूप वनको काटनेवाले भृगुवंशियोके पति परशुराम तुमको नमस्कार है। रावणके मारनेवाले रघुवंशियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्ररूप आपको नमस्कार है॥२०॥ वासुदेवरूप तुमको नमस्कार है, संकर्षणरूप तुमको नमस्कार है, प्रद्युम्न और अनिरुद्धरूप तुमको नमस्कार है, भक्तोंके पति तुमको नमस्कार है॥२१॥ दैत्य दानवो के मोहित करनेवाले शुद्धबुद्धरूप तुमको नमस्कार है। म्लेच्छ क्षत्रियो को मारनेवाले कल्कीरूप तुमको नमस्कार है॥२२॥

हे भगवन्! यह जीव तुम्हारी मायासे मोहित हो अहंता ममतारूप दुराग्रहसे कर्ममार्गों में भ्रमण करता है॥२३॥हे विभो! मैं भी स्वप्नके समान आत्मा, पुत्र, घर, स्त्री, धन, भाई, बन्धु इत्यादिमें मूर्खता से सत्यबुद्धि कर भ्रमण करताहूं॥२४॥ अनित्य आत्मा दुःखरूप है उनको नित्य आत्मा सुखरूप जानताहूं और सुखदुःखमें क्रीडा करनेवाला अज्ञानसे भरा में अपने प्रिय तुमको नहीं जानता॥२५॥ जैसे अज्ञानी पुरुष सिवारसों ढके जलको छोड़ सूर्यकी किरणोंसे बालू चमकते जलके लिये जातेहैं॥उसी प्रकार मायासे ढके तुमको त्याग देहादिकोंमें मेरा मन लगरहा है॥२६॥ कृपणबुद्धि अर्थात् विषयोंमें बुद्धि लगनेसे काम्य कर्मसे क्षुभितहुए मनको रोकने में असमर्थ नहीं हूं परन्तु बलवान्

भगवञ्जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया॥ अहं ममेत्यसद्वाहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु॥२३॥ अहं चात्मात्मजागारदारार्थस्वजनादिषु॥ भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो॥२४॥ अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम्॥ द्वंद्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वाऽऽत्मनः प्रियम्॥२५॥ यथाऽबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्भवैः॥ अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्वाऽहं पराङ्मुखः॥२६॥ नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः॥ रोद्धुंप्रमाथिभिश्चाक्षैर्ह्रियमाणमितस्ततः॥२७॥ सोऽहं तवांघ्य्रुपगतोऽस्म्यसतां दुरापं यच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये॥ पुंसो भवेद्यर्हि संसरणापवर्गस्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्॥२८॥ नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्यक्षहेतवे॥ पुरुषे शप्रधानाय ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥२९॥

इन्द्रियें मनको इधर उधर चलायमान कर देतीहैं॥२७॥ हे परमेश्वर! हे पद्मनाभ! विषयीपुरुषोंको दुर्लभ मैं आपके चरणारविन्दोंकी शरण आया हूं और तुम्हारी शरण आना, यह भी आपकेही अनुग्रहसे हुआ है ऐसे मानताहूं, क्योंकि जब पुरुषका संसार छूटनहार होताहै, तब हे कमलनाभ! साधुओंकी सेवा करतेहैं उस सेवासे तुममें आनकर बुद्धि लगती है परन्तु तुम्हारी कृपा विना साधुओंकी सेवा भी नहीं बनती और तुममें बुद्धि भी नहीं लगसक्ती है॥२८॥ विज्ञानमूर्ति समस्त ज्ञान के कारण पुरुष, काल, माया इनरूप ब्रह्म तुम हो, इसलिये हे

अनन्तशक्ति! मैं आपको नमस्कार करता हूं॥२९॥ हे समर्थ! हे इन्द्रियोंके प्रेरनेवाले! चित्तके अधिष्ठाता सब प्राणियों के आश्रय! तुमको मैं नमस्कार करता हूं तुम्हारी शरण में प्राप्त हुए मेरी रक्षा करो॥३०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥४०॥दोह—इकतालिस अध्यायमें, मथुरा कियो प्रवेश। रजकवधो माली दियो, शुभ वरदान व्रजेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्तुति करते हुए अक्रूरजीको जलके भीतर अपना स्वरूप दिखलाकर फिर जैसे नट अपने स्वांगको दिखलाकर समेट लेताहै, उसी प्रकार समेट लिया॥१॥ अक्रूरजी भी श्रीकृष्णचन्द्रको जलमेंसे अन्तर्धान हुआ देख

नमस्ते वासुदेवाय सर्वभृतक्षयाय च॥ हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो॥३०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥४०॥ श्रीशुक उवाच॥ स्तुवत्तस्तस्य भगवान्दर्शयित्वा जले वपुः॥ भूयः समाहरत्कृष्णो नटो नाट्यमिवात्मनः॥१॥ सोपि चांतर्हितं वीक्ष्य जलादुन्मज्ज्य सत्वरः॥ कृत्वा चावश्यकं सर्वं विस्मितो रथमागमत्॥२॥ तमपृच्छद्धृषीकेशः किं ते दृष्टमिवाहुतम्॥ भूमौ वियति तोये वा तथा त्वां लक्ष्यामहे॥३॥ अक्रूर उवाच॥ अद्भूतानीह यावंति भूमौ वियति वा जले॥ त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेऽदृष्टं विपश्यतः॥४॥ यत्राद्भूतानि सर्वाणि भूमौ वियति वा जले॥ तं त्वाऽनुपश्यतो ब्रह्मन्कि मे दृष्टमिवाद्भुतम्॥५॥

अत्यन्त शीघ्रतासहित जलमेंसे निकल सम्पूर्ण सन्ध्योपासन कर आश्चर्य मान रथके निकट आये॥२॥ इनको देखकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे अक्रूर! पृथ्वी में, जलमें, आकाशमें तुमने ऐसी आश्चर्य वस्तु क्या देखी है, क्योंकि तुम आश्चर्यरूप चकितसे दिखाई देतेहो॥३॥ तब अक्रूरजी बोले कि, इस संसारमें, पृथ्वीमें, जलमें, जितने आश्चर्य हैं वह सब आश्चर्य विश्वरूप आपमें विद्यमान हैं, सो तुम्हारा मैंने दर्शन किया॥४॥ जो तुममें सब आश्चर्य भरे हैं जब तुम्हारा दर्शन मैंने कर लिया फिर हे परमेश्वर!पृथ्वी, आकाश और इस संसार में क्या आश्चर्य देखना शेष रहगया?॥५॥

ऐसे कह गांदिनीके पुत्र महात्मा अक्रूरजीने रथ हांका और तीसरेही पहरतक मथुरापुरीमें राम कृष्णको पहुँचा दिया॥६॥ हे राजन! मार्गों में ग्रामोंके मनुष्य जहाँ तहाँ इकट्ठे हो कृष्णबलदेवका दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनके रूपमें से अपनी दृष्टिके हटाने को भी समर्थ न हुए॥७॥ हे महाराज! इसी बीचमें नन्दादिक समस्त व्रजवासी आगे आनकर मथुराके बागमें कृष्ण बलदेवके आनेका पैंड़ा देखनेलगे॥८॥ इसके उपरान्त जगत्के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन व्रजवासियोके पास आय, नम्र हो कुछेक मुसकान सहित अक्रूरसे कहा कि॥९॥ हे अक्रूर! तुम आगे रथको लेजाय पुरी में प्रवेश करो और अपने घर जाओ, हम यहां कुछ देर विश्राम लेकर मथुरापुरी को देखेंगे॥१०॥ तब अक्रूरजी बोले

त्युक्त्वा चोदयामास स्यंदनं गांदिनीसुतः॥ मथुरामनयद्रामं कृष्णं चैव दिनात्यये॥६॥ मार्गे ग्रामजना राजंस्तत्र तत्रोपसंगताः॥ वसुदेवसुतौ वीक्ष्य प्रीता दृष्टिं न चाऽऽददुः॥७॥ तावद्ब्रजौकसस्तत्र नन्दगोपादयोऽग्रतः॥ पुरो पवनमासाद्य प्रतीक्षंतोऽवतस्थिरे॥८॥ तान्समेत्याह भगवानक्रूरं जगदीश्वरः॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिंप्रश्रितं प्रह सन्निव॥९॥ भवान्प्रविशतामग्रे सहयानः पुरीं गृहम्॥ वयं त्विहावमुच्याथ ततो द्रक्ष्यामहे पुरीम्॥१०॥ अक्रूर उवाच॥ नाहं भवद्भ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो॥ त्यक्तुं नार्हसि मां नाथ भक्तं ते भक्तवत्सल॥११॥ आगच्छ याम गेहान्नः सनाथान्कुर्वधोक्षज॥ सहाग्रजः सगोपालैः सुहृद्भिश्च सुहृत्तम॥१२॥ पुनीहि पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम्॥ यच्छौचेनानुतप्यंति पितरः साग्नयः सुराः॥१३॥ अवनिज्यांघ्रियुगलमासीच्छ्लोक्यो बलिर्महान्॥ ऐश्वर्यमतुलं लेभे गतिं चैकांतिनां तु या॥१४॥

कि, हे प्रभो!तुम बिन अकेला में मथुरा पुरीमें नहीं जाऊंगा, हे नाथ! हे भक्तोंपर हित करनेवाले! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, इसलिये मुझे मत त्यागो॥११॥ तुम आओ हम तुम घर चलें, हे अधोक्षज! हे सुहृदोत्तम! आज अपने बड़े भाई बलदेवजी और ग्वालबालों सहित मेरे घर चलकर मुझे सनाथ करो॥१२॥ अपने चरणोंकी रजसे मुझ गृहस्थके घरको पवित्र करो और तुम्हारे चरणोंकी धोवनसेही मेरे पितृ, अग्नि,देवता, तृप्त होजायेंगे॥१३॥ देखो! तुम्हारे युगल चरण धोनेसे राजा बलिका कैसा पवित्र यश हुआ कि, जिससे अत्यन्त दुर्लभ ऐश्वर्यको प्राप्तहुआ

और अनन्य भक्तोंको जो गति मिलतीहै, वही गति उसने पाई॥१४॥ हे भगवान्! तुम्हारे चरणारविन्दका धोवन जल गंगारूप होकर त्रिलोकीको पवित्र करता है उसी जलको शिवजीने अपने मस्तकपर धारण किया है और उसी जलके स्पर्शसे साठहजार सगरके पुत्र स्वर्गको चले गये॥१५॥ हे देवदेव! हे जगन्नाथ!तुम्हारी कथा श्रवण और गुणकथनसे भक्त पवित्र हो जाते हैं, ऐसे तुम पवित्र गुणयुक्त हो, सो हे नारायण!आपको नमस्कार है॥१६॥ तब श्रीभगवान् बोले कि यादवोंसे द्रोह करनेवाले कंसको मार सुहृदों का प्रिय करूंगा, इसके उपरान्त बडे भाई बलदेवजीको संग ले मैं तुम्हारे घर आऊंगा॥१७॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन श्रवण कर अकूरजी विमन हो पुरीमें जाय कंससे “राम कृष्णको ले

आपस्तेंघ्य्रनेजन्यस्त्रील्लोँकाच्छुचयोऽपुनन्॥ शिरसाऽधत्त याः शर्वः स्वर्याताः सगरात्मजाः॥१५॥ देवदेव जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन॥ यद्वत्तमोत्तमश्लोक नारायण नमोऽस्तु ते॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ आयास्ये भवतो गेहमहमार्यसमन्वितः॥ यदुचक्रद्रुहं हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम्॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमुक्तो भगवता सोऽक्रूरो विमना इव॥ पुरीं प्रविष्टः कंसाय कर्माऽऽवेद्य गृहं ययौ॥१८॥ अथापराह्ने भगवान्कृष्णः संकर्षणाऽन्वितः॥ मथुरां प्राविशद्गोपैर्दिदृक्षुः परिवारितः॥१९॥ ददर्श तां स्फाटिकतुंगगोपुरद्वारां वृहद्धेमकपाटतोरणाम्॥ ताम्राऽऽरकोष्ठां परिखादुरासदामुद्यानरम्योपवनोपशोभिताम्॥२०॥ सौवर्णशृंगाटकहर्म्यनिष्कुटैः श्रेणीसभाभिर्भवनैरुपस्कृताम्॥ वैदूर्यवज्राऽमलनीलविद्रुमैर्मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु वेदिषु॥२१॥

आया” ऐसे कह अपने घरको चले गये॥१८॥ इसके उपरान्त तीसरे पहर के समय बडे भाई बलराम सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोप ग्वालोंको संग ले मथुरापुरी देखनेके लिये चले॥१९॥ उस पुरीकी कैसी शोभा है कि, स्फटिक मणियोंके ऊँचे शहरपनाह के और घरोंके द्वार बन रहेहैं, उनमें बडे बडे सोनेके किंवाड चढ़ रहे हैं और ठौर ठौर बन्दनवारें टॅग रही हैं, अन्न भरने के लिये तॉबे तथा पीतलके कोठे बने हैं चारों ओर चौडीखाई बन रही हैं, उद्यान और उपवन आदिसे यह पुरी अत्यन्त शोभायमान हो रही है॥२०॥ सुवर्णके चारों ओर मार्ग, साहूकारोंके महल और बडे २ कारीगर मनुष्योंके मकानोंसे यह पुरी शोभायमान हो रही है, वैदूर्यमणि, हीरे, निर्मल नीलमणि, मूंगे, मोती इनके काम जिनमें हो रहे

ऐसे शोभायमान छज्जे हैं॥२१॥ जाली झरोखोंमें बैठेहुए मोर जहाँ तहाँ शोर कर रहे हैं राजमार्ग व गलियोंमें छिडकाव हो रहा है, उनमें पुष्पोंकी माला अंकुर धानकी खीलें और चावल यह मंगल द्रव्य फैल रहा है॥२२॥ चंदन दहीसे छिडके फूल जिनपर धरे, ऊपर दीपकोंकी पंक्ति घरी आमकी डाल जिन पर घरी ध्वजा जिनपर फहरा रही दरियाईके कपडे जिनकी नारिसे बँधे गहिर सहित केले व सुपारीके वृक्ष जिनके निकट लग रहे जलके भरे कलश दरवाजोंपर रक्खे हैं, जिनसे वह पुरी बहुतही शोभायमान होरही है॥२३॥ बराबरके मित्रोंको संग ले मथुरा पुरीके बीच बाजार में हो जिस समय वसुदेवनन्दन कृष्ण बलदेव निकले, उस समय इनको देखनेके लिये पुरीकी बहुत स्त्रियें दौड आई और

जुष्टेषु जालामुखरंध्रकुट्टिमेष्वाविष्टपारावतबर्हिनादिताम्॥ संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां प्रकीर्णमाल्यांकुरलाजतंडुलाम्॥२२॥ आपूर्णकुम्भैर्दधिचंदनोक्षितैः प्रसून दीपावलिभिः सपल्लवैः॥ सवृंदरंभाकमुकैः सकेतुभिः स्वलंकृतद्वारगृहां सपट्टिकैः॥२३॥ तां संप्रविष्टौ वसुदेवनंदनौ वृतौ वयस्यैर्नरदेववर्त्मना॥ द्रष्टुं समीयुस्त्वरिताः परस्त्रियो हर्म्याणि चैवारुरुहुर्नृपोत्सुकाः॥२४॥ काश्चिद्विपर्यग्धृतवस्त्रभूषणा विस्मृत्य चैकं युगलेष्वथापराः॥ कृतैकपत्रश्रवणैकनूपुरा नांक्त्वा द्वितीयं त्वपराश्च लोचनम्॥२५॥ अश्नंत्य एकास्तदपास्य भोजनमभ्यज्यमाना अकृतोपमज्जनाः॥ स्वपंत्य उत्थाय निशम्य निस्स्वनं प्रपाययंत्योऽर्भमपोह्य मातरः॥२६॥ मनांसि तासामरविंदलोचनः प्रगल्भलीलाहसिताव लोकनैः॥ जहार मत्तद्विरदेंद्रविक्रमो दृशां ददच्छीरमणात्मनोत्सवम्॥२७॥

बहुतसारी स्त्रियें देखने की इच्छासे महलोंपर चढ गईं॥२४॥ कोई कोई स्त्री उतावलके मारे ओढ़नियोंको पहर, लहँगेको ओढ, हाथोंके गहने पाँवोंमें पहर कर चली आई, कोई एक स्त्री एक हाथ और एक पांवही गहना पहरकर चली आई और कोई स्त्री एक कानमें कर्णफूल व एक पॉवमें पायजेब पहरकर चली आई, कोई स्त्री एकही आँख में काजल लगाकर चली आई॥२५॥ कोई कोई स्त्री भोजन करतेहीसे चली आई और कोई स्त्री अंगनमें तेल मलरही थी, वह विनाही स्नान किये चली आई, कोई सोतेसेही चली आई कोई स्त्री अपनेबालकोंको दूध पिला रही थी, सो सुना कि, कृष्ण बलदेव आये हैं, सो बालकोंको रोताही छोड़कर चली आई॥२६॥ मतवाले हाथी के समान

पराक्रमवाले कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वकही हँसनी चितवनीसे उन स्त्रियोंका मन चुरालिया और लक्ष्मीको रमण कराने वाले अपने रूपसे उन स्त्रियोंकी आखोंको आनन्द देनेलगे॥२७॥ वारंवार बातें सुनकर उन कृष्णमें लगे हैं चित्त जिनके और उनकी चितवन मुसकानरूपी अमृतका जो सींचना है उससे सत्कार पानेसे रोमांच हो आये, ऐसी स्त्रियें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको देख, नेत्रद्वारा हृदयमें लेजाय आनंद रूप श्रीकृष्णको आलिंगनकर हे काम लोभादिकोंके दंड देनेवाले राजा परीक्षित्! श्रीकृष्णके विना मिलेही कामकी पीडाको त्यागदिया॥२८॥ इसके उपरान्त प्रफुल्लित नेत्रवाली स्त्रियें महलोंके शिखर पर चढीं कृष्ण बलदेवके ऊपर फूलोंकी वर्षा करके कहने लगीं॥२९॥ इसप्रकार परस्पर

दृष्ट्वा मुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तं तत्प्रेक्षणोत्स्मितसुधोक्षणलब्धमानाः॥ आनंदमूर्तिमुपगुह्य दृशात्मलब्धं हृष्यत्त्वचो जहुरनंतमरिंदमाधिम्॥२८॥ प्रासादशिखरारूढाः प्रीत्युत्फुल्लमुखांबुजाः॥ अभ्यवर्षन्सौमनस्यैः प्रमदा बलकेशवौ॥२९॥ दध्यक्षतैः सोदपात्रैः स्रग्धैरभ्युपायनैः॥ तावानर्चुः प्रमुदितास्तत्रतत्र द्विजातयः॥३०॥ ऊचुः पौरा अहो गोप्यस्तपः किमचरन्महत्॥ या ह्येतावनुपश्यंति नरलोकमहोत्सव॥३१॥ रजकं कंचिदायांतं रंगकारं गदाग्रजः॥ दृष्ट्वाऽयाचत वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च॥३२॥ देह्यावयोः समुचितान्यंग वासांसि चार्हतोः॥ भविष्यति परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशयः॥३३॥ स याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः॥ साक्षेपं रुषितः प्राह भृत्यो राज्ञः सुदुर्मदः॥३४॥

कहने लगीं. फिर दही, अक्षत, जलके भरे पात्र और माला चंदन भेंट लेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रसन्न होकर कृष्ण बलदेवका पूजन करने लगे॥॥३०॥ और संपूर्ण मथुरावासी अत्यन्त आश्चर्यमान यह कहने लगे कि, गोपियोंने ऐसा क्या उत्कृष्ट तप किया है, जो गोपी मनुष्य लोकको बड़े उत्सवरूप श्रीकृष्ण बलदेवका दर्शन करती हैं॥३१॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने वस्त्रोंका धोनेवाला और रंगनेवाला मार्गमें आताहुआ एक धोबी देखा और अतिनम्रता सहित उससे अति उत्तम धुलेहुए वस्त्र माँगे॥३२॥ और कहा कि, हे धोबी!हमको हमारे योग्य वस्त्र दे, कारण कि, हम इन वस्त्रोंके योग्य हैं और हमें वस्त्र देनेसे तेरा कल्याण होगा इसमें संदेह नहीं है॥३३॥ हे राजन! जब इस प्रकार सब ओरसे

परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने धोबीसे वस्त्र माँगे तब अत्यन्त क्रोधित हो, कंसका सेवक अति घमण्डी डांटकर बोला कि॥३४॥ नित्य पर्वत और वनके फिरनेवाले ऐसेही कपड़े पहरते हो, हे उद्धत!तुम राजाके वस्त्रों पर क्यों मन ललचाते हो॥३५॥ हे मूर्खो! यदि अपना जीना चाहो तो तुम शीघ्रही यहाँसे निकल जाओ, फिर मत माँगना क्योंकि राजा कंसके बहुत सेवक फिरते हैं और जो धूम मचाता है, उसे वह मारते हैं, लूटते हैं, बांधते हैं॥३६॥ हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने महाक्रोधित हो इसप्रकार बकवाद करतेहुए उस धोबीका शिर अपने हाथकी थापसे काट

ईदृशान्येव वासांसि नित्यं गिरिवनेचराः॥ परिधत्त किमुद्धृत्ता राजद्रव्याण्यभीप्सथ॥३५॥ याताशु बालिशा मैवं प्रार्थ्यं यदि जिजीविषा॥ बध्नंति घ्नंति लुंपति दृप्तं राजकुलानि वै॥३६॥ एवं विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः॥ रजकस्य कराग्रेण शिरः कायादपातयत्॥३७॥ तस्यानुजीविनः सर्वे वासःकोशान्विसृज्य वै॥ दुदुवुः सर्वतो मार्ग वासांसि जगृहेऽच्युतः॥३८॥ वसित्वात्मप्रिये वस्त्रे कृष्णः संकर्षणस्तथा॥ शेषाण्यादत्त गोपेभ्यो विस्सृज्य भुवि कानिचित्॥३९॥ ततस्तु वायकः प्रीतस्तयोर्वेषमकल्पयत्॥ विचित्रवर्णैश्चैलेयैराकल्पैरनुरूपतः॥४०॥

डाला॥३७॥ जब मुख्य धोबी मारागया, तब उसके टहलुए धोबी वस्त्रोंको पटक पटक चारों ओरको भागगये, उस समय श्रीकृष्ण और बल रामजीने मनमानते वस्त्रोंको पहिर बाकी जो रहे सो गोप ग्वालोंको देदिये और जो रहे सो वहीं छोड दिये *॥३८॥३९॥ हे महाराज! इसके उपरान्त जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और ग्वालबाल सब वस्त्र पहरकर चले, उसी समय प्रसन्नमन एक दर्जी आया उसने आतेही रामकृष्णके लाल, हरे, पीले, जो वस्त्र थे उनके माला, चंपकली बाजूबंद और अनेक प्रकारके आभूषण बनाकर शोभायमान पोशाक बनाई॥४०॥

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* शंका—तीन लोकके पति भगवान् दूसरे दुष्टजीवका उच्छिष्ट अर्थात् पहिरा कपडा आप क्यों पहिरतेहुए, यह बढी शका है॥

उत्तर—धर्मशास्त्रमें यह लिखा है कि, मामाका पहिरा वस्त्र, तथा कुमारी लढकीका पहिरा वस्त्र, तथा ब्रह्मचारीका पहिरा वस्त्र, इनके पहिरेहुए वस्त्रोको कोई पहिर लो उनका कीसीको दोष नहीं और कटिभागसे नीचेका पहिरा वस्त्र मामा, कन्या, ब्रह्मचारीका भी धारण न करना और दूसरे पुरुपकी तो क्या बात है! श्रीकृष्णने अपने मामाका वस्त्र जानकर उच्छिष्ट वस्त्र धारण किया॥

इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी दोनों भाई अनेक प्रकारसे दर्जीके बनाये वस्त्रोंके आभूषणोंसे ऐसे शोभायमान लगनेलगे, जैसे पर्वमें साँवरे गोरे शृंगार किये हाथीके छौना शोभायमान लगते हैं॥४१॥ फिर उस दर्जीके ऊपर प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी सारूप्य मुक्ति दी और इसलोकमेंसम्पत्ति, बल, ऐश्वर्य, स्मरण तथा हाथ, पाँव, नाक, कान, आँख अच्छे बने रहें, इनकी चतुराई दी॥४२॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलराम सुदामा मालीके घर गये, इनको देखतेही उसने पृथ्वीमें शिर लगाय प्रणाम किया॥४३॥ और आसन दिया पाद्यार्ध्य इत्यादि पूजाकी सामाग्रियोंसे दोनों भाइयों का पूजन किया, फिर पीछे पानकी बीड़ी और चन्दन इत्यादि अर्पण

नानालक्षणवेषाभ्यां कृष्णरामौ विरेजतुः॥ स्वलंकृतौ बालगजौ पर्वणीव सितेतरौ॥४१॥ तस्य प्रसन्नो भगवान्प्रादात्सारूप्यमात्मनः॥ श्रियं च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतींद्रियम्॥४२॥ ततः सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जग्मतुः॥ तौ दृष्ट्वा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि॥४३॥ तयोरासनमानीय पाद्यं चाथार्हणादिभिः॥ पूजां सानुगयोश्चक्रे सक्तांबूलानुलेपनैः॥४४॥ प्राह नः सार्थकं जन्म पावितं च कुलं प्रभो॥ पितृदेवर्षयो मह्यं तुष्टा ह्यागमनेन वाम्॥॥४५॥ भवंतौ किल विश्वस्य जगतः कारणं परम्॥ अवतीर्णाविंहांशेन क्षेमाय च भवाय च॥४६॥ न हि वां विषमा दृष्टिः सुहृदोर्जगदात्मनोः॥ समयोः सर्वभूतेषु भजंतं भजतोरपि॥४७॥ तावाज्ञापयतं भृत्यं किमहं करवाणि वाम्॥ पुंसोऽत्यनुग्रहो ह्येष भवद्भिर्यन्नियुज्यते॥४८॥ इत्यभिप्रेत्य राजेंद्र सुदामा प्रीतमानसः॥ शस्तैस्सुगंधैः कुसुमैर्मालां विरचितां ददौ॥४९॥

किया॥४४॥ फिर माली बोला कि, हे प्रभो! आज तुम्हारे आनेसे हमारा जन्म सफल तथा कुल पवित्र हुआ और हमारे पितृ देवता ऋषिभी संतुष्ट होगये॥४५॥ तुम निश्चय इस संसारके परमकारण हो और जगत के कल्याण और वृद्धिके लियेही आपने अपने अंशसे अवतार लिया है॥ ॥४६॥ जगत्के हितकारी आत्मा तुमहींहो, तुम्हारी विषमदृष्टि नहीं है, सब प्राणियोंमें समवर्ती हो और जो तुम्हारा भजन करता है उसको तुम भी भजते हो॥४७॥ अब तुम दासको आज्ञा करो मैं तुम्हारी क्या पूजा करूं? क्योंकि पुरुषों को जो तुम्हारा दर्शन होता है यही बड़ा अनुग्रह है॥४८॥ हे राजन्!इस प्रकार प्रसन्नमन सुदामा मालीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको शोभायमान सुगंधित फूलोंकी माला समर्प्पण करी॥४९॥

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उस मालाको पहर मित्रों सहित प्रसन्न हो सुदामा मालीको वरदान दिया॥५०॥ और सुदामा मालीने भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे यही वर माँगा कि, सबके आत्मा श्रीकृष्णचन्द्र में भक्ति रहे और तुम्हारे भक्तोंमें स्नेह और जीवमात्रमें दया रहै॥५१॥ इसप्रकार उस मालीको मनवांछित वरदान दे और उसके वंश में सदा रहनेवाली सम्पत्ति दे, तथा बल, आयु, यश, शोभा दे, बलदेवजीको संग ले भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उसके घरमेंसे निकले॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाटीकायां मथुरापुरप्रवेशो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ दोहा—कुब्जाको सीधी कियो, कियो शरासन भंग! देखो परमोत्सव तहाँ, बयालीस भूरंग॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले हे कि, कुरुकुलभूषण परीक्षित!

ताभिः स्वलंकृतौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ॥ प्रणताय प्रपन्नाय ददतुर्वरदो वरान्॥५०॥ सोऽपि वव्रेऽचलां भक्तिं तस्मिन्नेवाखिलात्मनि॥ तद्भक्तेषु च सौहार्दं भृतेषु च दयांपराम्॥५१॥ इति तस्मै वरान्दत्त्वा श्रियं चान्वयवर्धिनीम्॥ बलमायुर्यशः कांति निर्जगाम सहाग्रजः॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० पुरप्रवेशो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ व्रजन्राजपथेन माधवः स्त्रियं गृहीतांगविलेपभाजनाम्॥ विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां पप्रच्छ यांतीं प्रहसन्नतिप्रदः॥१॥ का त्वं वरोर्वैतदुहानुलेपनं कस्यांगने वा कथयस्व साधु नः॥ देह्यावयोरंगविलेपमुत्तमं श्रेयस्ततस्तेन चिराद्भविष्यति॥२॥ सैरंध्युवाच॥ दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससंमता त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि॥ मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति॥३॥ रूपपेशलमाधुर्यहसितालापवीक्षितैः॥ धर्षितात्मा ददौ सांद्रमुभयोरनुलेपनम्॥४॥

इसके उपरान्त सुख देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने राजमार्ग बाजारमें आयकर ग्रहण किये चन्दनका पात्र, शोभायमान मुखबाली सामने आती हुई तरुण कुबरी स्त्रीको देख हँसकर पूंछा॥१॥ कि, हे सुन्दर जंघावाली! तू कौन है? और यह चन्दन किसका है हमारे सन्मुख भली प्रकार समझाकर कहो, क्योंकि जो यह उत्तम चन्दन हमको दो तो तुम्हारा अभी कल्याण होगा॥२॥ यह सुनकर कुबरी बोली कि, हे सुन्दर! मेरा नाम कुबरी है और कंसकी दासी हूं और नित्यप्रति चंदन घिसना यही मेरा काम है, क्योंकि मेरा घिसा चंदन राजा कंसको अच्छा लगता है, परन्तु अब तुम्हारे बिना इस चन्दनके लगाने का कोई पात्र नहीं है॥३॥ इसप्रकार सुन्दर रूप सुकुमार और रसिकता, हँसनि, बोलनि तथा

चितवन से मोहित हो कुबरीने श्रीकृष्ण बलदेवके चन्दन लगाया॥४॥ केशर मिलाहुआ चन्दन साँवरे अंगमें जिससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लगाया और कस्तूरी मिलाहुआ चन्दन गोरे अंगमें जिससमय बलदेवजीने लगाया, उससमय दोनों भाई अत्यन्तही शोभायमान लगनेलगे॥५॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त प्रसन्न हो अपने दर्शनका फल दिखानेके लिये सुन्दरमुखी तीन स्थानसे टेढी कुबरीको सूधी करनेका विचार किया॥६॥ और फिर कुबरीके पाँवोंको अपने चरणोंसे दाब दो अँगुली जिसमें ऊंची करी, ऐसे हाथको ठोडीके नीचे लगाय, श्रीकृष्णने कुब्जाके देहको सुधा करदिया॥७॥उससमय सूधे बराबर है अंग जिसके, बड़े नितम्बऔर स्तनवाली, ऐसी कुब्जा भगवान्

ततस्तावंगरागेण स्ववर्णेतरशोभिना॥ संप्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरंजितौ॥५॥ प्रसन्नो भगवान्कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम्॥ ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन्दशने फलम्॥६॥ पद्भ्यामाक्रम्य प्रपदे व्यंगुल्युत्तानपाणिना॥ प्रगृह्य चिबुकेऽध्यात्ममुनीनमदच्युतः॥७॥ सा तदर्द्धसमानांगी बृहच्छ्रोणिपयोधरा॥ मुकुंदस्पर्शनात्सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा॥८॥ ततो रूपगुणौदार्यसंपन्ना प्राह केशवम्॥ उत्तरीयांतमाकृष्य स्मयंती जातहृच्छया॥९॥ एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे॥ त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ॥१०॥ एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः॥ मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसंस्तामुवाच ह॥११॥ एष्यामि ते गृहं सुभ्रूः पुंसामाधिविकर्शनम्॥ साधितार्थोऽग्रहाणां नः पांथानां त्वं परायणम्॥१२॥

श्रीकृष्णचन्द्रके हाथका स्पर्श होनेसे एक सुन्दर स्त्री होगयी॥८॥ इसके उपरान्त आपही रूप, गुण, उदारता यह सब कुब्जामें आगये, तब कामदेवसे पीडित हो, वह कुब्जा दुपट्टेका छोर पकड़ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहनेलगी॥९॥ कि, हे वीर! हे पुरुषश्रेष्ठ!तुम मेरे संग चलकर मेरा भवन पवित्र करो, क्योंकि अब मैं तुम्हें छोड़ नहीं सक्ती और तुमने मेरा मन चलायमान किया है इसलिये मेरे ऊपर प्रसन्न होओ॥१०॥ हे महाराज परीक्षित! इसप्रकार जब कुब्जाने कहा, तब उसीसमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजी और अपने मित्रोंका मुख देख कुछेक मुसकातेहुए कुब्जा से बोले॥११॥ कि,हे सुन्दरभ्रुकुटियोंवाली! तुम्हारी भ्रुकुटी हमारे मनको खैँचती है, तुम हमारा दुपट्टा क्यों खचतीहो, मैं कंसको

मार, अपने सुहृदोंका कार्य सिद्धकर मनका दुःख दूर करनेवाले तुम्हारे घर आऊंगा॥ क्योंकि मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूं, किसीसे जान पहिचान नहीं और हमारा यहाँ घर भी नहीं, हमैं तो केवल तुम्हाराही आश्रय है, जब तुम्हारे ही यहाँ न आवेंगे तो और जायेंगे कहाँ?॥१२॥ इस प्रकार मीठे मीठे वचन कद और कुब्जा को वहीं छोड़ आगे चले. तब बनियोंने पान, माला, चन्दन इत्यादि भेंट ले वलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दी॥१३॥ हे महाराज! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेके कारण उत्पन्न हुए कामदेवके क्षोभसे स्त्रियोंने अपनेकोभी नहीं जाना, वस्त्र खुलगये,

विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन्मार्गे वणिक्पथैः॥ नानोपायनतांबूलस्रग्गंधैः साग्रजोऽर्चितः॥१३॥ तद्दर्शनस्मरक्षोभादात्मानं नाविदन्स्त्रियः॥ विस्रस्तवासःकवरवलयालेख्यमूर्तयः॥१४॥ ततः पौरान्पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः॥ तस्मिन्प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रमिवाद्भुतम्॥१५॥ पुरुषैर्वहुभिगुप्तमर्चितं परमर्द्धिमत्॥ वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे॥१६॥ करेण वामेन सलीलमुद्धतं सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्॥ नृणां विकृष्य प्रवभंज मध्यतो यथेक्षुदंडं मदकर्युरुक्रमः॥१७॥

चोटी खुलगई, चूडी खिसलआई और जैसे कोई चित्र खैचकर खड़ाकर देता है, उसीप्रकार खड़ी रहगई*॥१४॥ इसके उपरान्त अच्युत भगवान् कृष्णचन्द्र मथुरावासियोंसे पूछते पूछते धनुषशालामें गये और वहाँ जाकर इन्द्रके धनुष की समान घराहुवा धनुष देखा॥१५॥ हे महाराज! यद्यपि बड़े बड़े बलवान् पुरुप उसकी रक्षा कर रहे थे पूजा हो रही थी, अत्यन्त जिसकी शोभा थी, परन्तु तो भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लोगोंके मने करनेपर भी उसे उठाया॥१६॥ और लीला पूर्वकही एक हाथसे उठाय पलभर में मनुष्योंके देखते देखते बीचमेंसे खेंच जैसे मतवाला

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* शंका— वडे आश्चर्यकी बात हैं कि, मथुराकी स्त्रियाँ कृष्णको देखकर कामदेवसे विह्वल होगई और ऐसी विह्वल होगई कि, तन मनकी और अपने शरीरकी कुछ भी सुधि बुधि न रही, परन्तु परपुरुषको देखकर विह्वल होजाना यह गृहस्यस्त्रियोंका धर्म नहीं, यह धर्म तो व्यभिचारिणी स्त्रियोंका है।

उत्तर— व्रजमें कृष्ण ने गोवर्द्धनको उठाया उस सरीखे और बहुत काम किये उन सत्र कामको सुनकर स्मरण करके त्रास मानकर विह्वल हुई कामदेव करके बिल नहीं हुई, मथुराकी स्त्रियाँ ऐसी नहीं जो पर पुरुषको देखकर कामदेवसे विह्वल हो जातीं॥

हाथी गन्नेको तोड़डालता है उसीप्रकार तोड डाला॥१७॥ हे राजन्!जिस समय धनुष टूटा उस समय महागम्भीर शब्द हुआ उस शब्दसे पृथ्वी, आकाश स्वर्ग और सब दिशायें व्याप्त होगईं और उस शब्दको सुनकर कंसका हृदयभी अत्यन्त भयभीत हुआ॥१८॥ इसके पीछे उस धनुषके रक्षकोंने अत्यन्त क्रोधित हो अपने २ अनुचरोंसहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको “पकड़लो पकड़लो” इसप्रकार कहते चारों ओरसे घेर लिया॥१९॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी इन असुरोंको अपने मारनेके लिये देख क्रोधित हो धनुपका एक २ टुकडा हाथमें ले इन पुरुषों को मारने लगे॥२०॥ फिर कंसकी भेजी हुई संपूर्ण सेना मार धनुषशालासे बाहर निकल मथुरापुरीकी सम्पदा देख

धनुषोभज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः॥ पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत्॥१८॥ तद्रक्षिणः सानुचराः कुपिता आततायिनः॥ ग्रहीतुकामा आवर्गृह्यतां बध्यतामिति॥१९॥ अथ तान्दुरभिप्रायान्विलोक्य बलकेशवौ॥ क्रुद्धौधन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः॥२०॥ बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः॥ निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसंपदः॥२१॥ तयोस्तदद्भुतं वीर्य निशम्य पुरवासिनः॥ तेजःप्रागल्भ्यरूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ॥२२॥ तयोर्विचरतोः स्वैरमादित्योऽस्तमुपेयिवान्॥ कृष्णरामौ तौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः॥२३॥ गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन्॥ संपश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं हित्वेतरान्नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः॥२४॥ अवनिक्तांघ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम्॥ ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम्॥२५॥

हर्षित होकर घूमनेलगे॥२१॥ मथुरावासी नरनारियोने भगवान् कृष्ण बलदेवका अद्भुत कर्म, धृष्टता और पराक्रम देख अपने मनमें जाना कि, यह कोई उत्तम देवता हैं॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!इसप्रकार कृष्ण बलदेव विचररहे थे कि, इतनेहीमें भगवान् सूर्य अस्त होगये और सन्ध्या होगई तब भगवान श्रीकृष्ण बलदेव गोपों सहित मथुरापुरीसे बाहर निकले और जहाँ गाडिये छूटीथीं वहाँ पहुँचे॥२३॥ भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीको व्रजसे चलती समय गोपियोंने विरहमें व्याकुल होकर जो जो बातें कहीं थीं, वह सबही श्रीकृष्णचन्द्रके अंगकी शोभा देख मथुरा वासियोने सत्य जानी, क्योकि लक्ष्मीजी भी अपने भजनेवाले ब्रह्मादिकों को छोड़ इसी रूपकी चाहना करतीं हैं॥२४॥ इसके उपरान्त चरण धो

राम कृष्ण दूधभातका भोजन कर कंसका विचार जान उस रात्रिको सुखपूर्वक वहीं रहे॥२५॥ कंस धनुषका टूटना, रक्षकोंका मरना और अपनी सेनाका वध सुनकर कि, यह कृष्णका केवल खेल है, कुछ पराक्रम नहीं है॥२६॥ ऐसा विचारकर मारे भय के उसे नींद नहीं आई महाभयभीत हुआ तब वह दुष्टबुद्धि कंस मृत्युके जतानेवाले जागतेमें सोतेमें बहुत से खोटे स्वप्न देखने लगा॥२७॥ दर्पण और जल में मुख देखनेपर भी उसको अपना शिर नहीं दीखे, चन्द्रमा सूर्य दो दो रूप नहींहैं परन्तु उसे दो दो दिखाई दिये॥२८॥ अपनी परछाही में छिद्र दीखे, अँगुली देकर कानमें देखा तो घूं घूं शब्द भी सुनाई नहीं आया, वृक्ष सोनेके दिखाई देने लगे और कीच व रेतमें अपने पॉवके चिह्न भी न देखे॥२९॥ इसके उपरान्त यह स्वप्न देखा कि, भूत

कंसस्तु धनुषो भंगं रक्षिणां स्वबलस्य च॥ वधं निशम्य गोविंदरामविक्रीडितं परम्॥२६॥ दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः॥ बहून्याचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यिकराणि च॥२७॥ अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि॥ असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा॥२८॥ छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः॥ स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदशनम्॥२९॥ स्वप्ने प्रेतपरिष्वंगः खरयानं विषादनम्॥ यायान्नलद्माल्येकस्तैलाभ्यक्तो दिगंबरः॥॥३०॥ अन्यानि चेत्थंभूतानि स्वप्नजागरितानि च॥ पश्यन्मरणसंत्रस्तो निद्रां लेभे न चिंतया॥३१॥ व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्भ्यःसमुत्थिते॥ कारयामास वै कसो मल्लक्रीडामहोत्सवम्॥३२॥ तानर्चुः पुरुषा रंगं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥ मंचाश्चालंकृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः॥३३॥ तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः॥ यथोपजोषं विवि राजानश्च कृतासनाः॥३४॥

प्रेत छातीसे लगालगाकर मिलतेहैं और गधेपर चढ़ा, गुडहरके फूलों की माला पहरे अकेला, तेलमें भीजा जहर खाता, नम्र वेष किये दक्षिणदिशाको चला जा रहा हॅू॥३०॥ इस प्रकार स्वप्न में और जागतेमें खोटे खोटे शकुन देख मृत्युसे डरे कंसको रातभर चिंताके मारे नींद न आई॥३१॥ हे कुरुवंशोत्पन्न राजा परीक्षित!इसभॉति ज्यों त्यों कर वह रात्रि व्यतीत हुई, प्रातःकाल हुआ जलमेंसे सूर्य निकला, उससमय राजा कंसने मल्लोंकी कुश्तीलडवाने के लिये बडा उत्सव कराया॥३२॥ पुरुष रंगभूमिकी पूजा करनेलगे, उसीसमय भेरी बजनेलगीं, माला, पताका और वस्त्रोंकी बन्दनवारोसे मंचान स जायेगये॥३३॥ और उन मंचानोंके ऊपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जिनमें मुख्य मुख्य पुरवासी तथा देशवासी थे, सुखपूर्वक आनकर बैठगये॥३४॥

इसके उपरान्त राजा कंस भी अपने प्रधानमंत्रीको संग ले, अखण्डमण्डलवाले राजोंके बीचमें एक राजमंचान था, उसके ऊपर आन बैठा, परन्तु भयके मारे हृदय कॉप रहा था॥३५॥ नगारोंके बजतेही झटपट मल्ल खम्भ ठोंक जॉघिये पदर, सिंदूरकी बिंदी लगा, धूरी मल, छोटीछोटी चुटियें, बड़े गर्व भरे, अपने अपने उस्तादों को संग लेकर रङ्गभूमिमें आये॥३६॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल यह अखाड़ेमें आये और मनोहर बाजोंका शब्द सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए॥३७॥ इसके उपरान्त कंसके बुलाये नंद आदिक संपूर्ण गोप भी राजा कंसको भेंट दे, एक मंचानपर आनकर बैठगये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां मल्लरंगोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥ दोहा—मार

कंसस्तु संवृतोऽमात्यै राजमंच उपाविशत\।\। मंडलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता॥३५॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च॥ मल्लाः स्वलंकृता दृप्ताः सोपाध्यायाः समागताः॥३६॥ चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशल एव च॥ त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः\।\।३७॥ नंदगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः॥ निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन्मंच आविशन्॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पू० कुब्जोन्नमनादिवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परंतप॥ मल्लदुदुंभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः॥१॥ रंगद्वारं समासाद्य तस्मिन्नागमवस्थितम्\।\। अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोंबष्ठप्रचोदितम्॥२॥ बद्धा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान्॥ उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया॥३॥

कुवलयापीड गज, रंगभूमि हरि जाय॥ वचन कहे चाणूरसों, तैंतालिस अध्याय॥४३॥ श्रीशुदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! श्रीकृष्ण भगवान्ने विचार किया कि, यद्यपि हमने धोबीको मार धनुष तोड़, अपना ऐश्वर्य जताया, परन्तु तोभी हमारे माता पिताको नहीं छोडता और हमको मारना चाहता है, इसलिये इस मामाके मारनेमें हमें कुछ दोष नहीं है, इसप्रकार दोषके दूर करनेका विचार कर कृष्ण बलदेव दोनों भाई जहाँ मल्ल खम्भ ठोक रहेथे नगाड़े बजरहेथे, उनका शब्द सुन देखने को गये॥१॥फिर श्रीकृष्णने रङ्गभूमिके द्वारपर जाकर देखा कि, कुवलयापीड हाथी खडा है और महावत उसे आगेको पेल रहा है॥२॥ यह देखतेही शूरवंशोत्पन्न भगवान्

श्रीकृष्णचन्द्र फेंट बाँध, मुखपर छुटीहुई कुटिल अलकोंको सँभाल गलेकी लम्बी माला को जनेऊ की समान कंधेपर डाल मेघकी तुल्य गर्जकर, अत्यन्त गंभीरवाणीसे बोले॥३॥ कि, हे महावत! हे महावत!! हाथी को हटाकर हमको शीघ्र मार्ग दे, और जो नहीं हटा वेगा तो अभी हाथी सहित तुझको मार यमलोकको भेजदूंगा॥४॥ हे महाराज! यह सुनतेही कालमृत्युके समान क्रोधित हो महावतने हाथीको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर हूल दिया॥५॥ हाथीने अत्यन्त शीघ्रता से आतेही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपनी सूंड में पकड़ लिया, परन्तु श्रीकृष्णचन्द्र भी उसकी सूंड़मेंसे खिसल और उसके मस्तक में मुष्टिक मार पिछले पॉवोंमें छिप गये॥६॥ और फिर जिससमय श्रीकृष्णको देख, क्रोधित हो सूंघा सॉघीकी दृष्टिवाले हाथीने इनकेपकड़ने को सूंडचलाई, उससमय सूंड़ पकड़ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसके पिछले पॉवोंमेंसे निकलगये॥७॥ अत्यन्त

अंबष्ठांवष्ठमार्गं नौ देह्यक्रम मा चिरम्॥नो चेत् सकुंजरं त्वाद्य नयामि यमसादनम्॥४॥ एवं निर्भत्सितोंबष्ठःकुपितः कोपितं गजम्॥ चोदयामास कृष्णाय कालांतकयमोपमम्॥५॥ करींद्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाऽग्रहीत्॥ कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्यांविष्वलीयत॥६॥ संक्रुद्धस्तमचक्षाणो प्राणदृष्टिः स केशवम्॥ परामृशत्पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः॥७॥ पुच्छे प्रगृह्याऽतिबलं धनुषः पंचविंशतिम्॥ विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया॥॥८॥ स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः॥ बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः॥९॥ तताऽभिमुखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम्॥ प्रद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदेपदे॥१०॥ स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः॥ तं मत्वा पतितं क्रुद्धो देताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम्॥११॥

बलवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने हाथीकी पूछपकड़ जैसे गरुड़ सर्पको घसीटताहै, उसीप्रकार पच्चीस धनुषतक लीलापूर्वकही घसीटा॥८॥ पूँछ पकड़े श्रीकृष्णचन्द्रको पकड़ने के लिये जब दाहिनी ओर हाथी आता, तब श्रीकृष्ण उसे बाँईंओर लेजाते और बाँईओर आता तो दाहिनी और लेजाते, अधिक क्या कहैं, जैसे गायोंके बछड़ों के संग वालक फिरते हैं, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हाथीके पीछे फिर रहेथे॥९॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सन्मुख आय थप्पड मार, दौड़कर उस हाथीको पटक दिया॥१०॥ जब उसे गिरा दिया, श्रीकृष्णचन्द्र भी लीलापूर्वक पृथ्वीपर गिरके अत्यन्त शीघ्रतासे खडे होगये, तब श्रीकृष्णचन्द्रको गिरा जान वह हाथी दाँतोंसे

पृथ्वीको खोदने लगा॥११॥ हे नृपश्रेष्ठ! जब हाथीका बल घटगया तब हाथीको महा क्रोध उत्पन्न हुआ, और महावतने जिससमय उसके अंकुश मारा, तब वह हाथी श्रीकृष्णचन्द्रपर झपटा॥१२॥ मधुदैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सन्मुख आते हाथीकी सूंड पकड़ पृथ्वीमें पटक दिया॥१३॥ और सिंहके समान गर्जते हुए हाथीको पॉवोंके नीचे दाब लीलापूर्वक उसके दॉत उखाड भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन दॉतोंसे महावतको मारा॥१४॥ जब हाथी मरगया, तब श्रीकृष्ण बलदेव उसे वहीं छोड़ हाथमें हाथीके दॉत ले कंधेपर धारणकर वहाँसे आगे चले,

स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेंद्रोऽत्यमर्षितः॥ चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवदुषा॥१२॥ तमापतंतमासाद्य भगवान्मधुसूदनः॥ निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले॥१३॥ पतितस्य पदाक्रम्य मृगेंद्र इव लीलया॥ दंतमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः॥१४॥ मृतकं द्विपमुत्सृज्य दंतपाणिः समाविशत्॥ अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्मंदबिंदुभिरंकितः॥ विरूढस्वेदकणिकावदनांबुरुहो बभौ॥१५॥ वृतौ गोपैः कतिपयैर्बलदेवजनार्दनौ॥ रंगं विविशुतूराजन्गजदंतवरायुधौ॥१६॥ मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः॥ मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परं योगिनां वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः॥१७॥

उस समय रुधिर और मदकी बूंदें उनके लग रहीं थी*॥१५॥ और कुछेक पसीनाभी उनके मुखकमलपर आ रहा था। इसप्रकार शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गोपग्वालोंको संग लिये हाथीदाँतके शोभायमान शस्त्र धारण किये कृष्ण बलदेव दोनो भाई हे राजन्!रंगभूमिमें पहुँचे॥१६॥ उससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मल्लोंको मल्लोंकी समान दृष्टि आये, मनुष्योंको अत्यन्त सुन्दर जानपड़े और स्त्रियोंने साक्षात् कामदेवस्वरूप समझा, गोपोंको स्वजन जानपडे दुष्टराजाओंको कालके समान दिखाई दिये, वसुदेव देवकीने पुत्र के समान देखा, भोजपति कंसने

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* शंका—जो कोई दरिद्री मी राजाकी समामें जाता है, तब अपने विचानुसार वस्त्राभूषण पहिर जाता है और शास्त्रमें तथा लोकमें इसको भी बहुत निन्दित कर्म कहते हैं कि, रक्त देहमें लगाकर राजाकी सभा में जाना, सो श्रीकृष्ण जगत्के ईश्वर होकर अपने देहमें रक्तके बिन्दु लगाकर कंसकी सभामें क्यों आये?॥

उत्तर—सत्य है जिसके शरीर में रक्त लगारहता है, उस पुरुपको लोकमें, शास्त्रमें और वेदमें भ्रष्ट कहते हैं परन्तु श्रीकृष्ण कंसका नाश करनेके लिये विचारकर उन्मत्त प्रमत्तकी नाई मथुराको चलेगये और शूरवीरोंको शरीरमें रक्त लगाकर सभामें जाना कुछ दोष नहीं है, इसलिये जगदीश्वर शरीरमें रक्त लगाकर सभामें गये॥

तो यही देखा कि, साक्षात् मेरी मृत्यु चली आती है अज्ञानियोंको भयंकर रूप दृष्टि पड़े और ज्ञानियोंको परमतत्त्व रूप दृष्टि आये, यादवोंको परम देवतारूप जानपडे, अधिक क्या कहें जैसी जिसकी भावना थी उसे उसीप्रकार दिखाई दिये॥इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वलरामजीको संग लेकर रंगभूमिमें पहुँचे॥१७॥ हे राजा परीक्षित्!कुवलयापीड हाथीको मरा देख जो किसीके जीतनेमें न आवैं, ऐसे कृष्ण बलदेवको देख अत्यन्त धैर्यवान् राजा कंस भी डर गया॥१८॥ बडी भुजा विचित्र वेष आभूषण माला इत्यादि वस्त्रोंको धारण किये भगवान् कृष्ण बलदेव रंगभूमिमें जाकर ऐसे शोभायमान लगनेलगे, जैसे उत्तमरूप धारण करनेवाला नट शोभायमान लगता है। इसप्रकार अपनी कान्तिसे देखनेवाले

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ॥ कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप॥१८॥ तौ रेजतू रंगगतौ महाभुजौ विचित्रवेषाभरणस्रगंबरौ॥ यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ मनः क्षिपतौ प्रभया निरीक्षताम्॥१९॥ निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना मंचस्थिता नागरराष्ट्रका नृप॥प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्॥॥२०॥ पिवंत इव चक्षुर्भ्यां लिहंत इव जिह्वया॥ जिघंत इव नासाभ्यां श्लिष्यंत इव वाहुभिः॥२१॥ ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम्॥ तद्रूपगुणमाधुर्यप्रागल्भ्यस्मारिता इव॥२२॥ एतौ भगवतः साक्षाद्धरेर्नारायणस्य हि॥ अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि॥२३॥

पुरुषोंके मन को चुरातेथे॥१९॥ हे राजन्! मंचानोंके ऊपर बैठे पुरवासी देशवासी जन पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण बलदेवको देख आनंदके वेगसे प्रफुल्लित मुख होगये और अपने नेत्रोंसे उनके मुखकी शोभा देखकर तृप्त न हुए॥२०॥ इस प्रकार नेत्र चलानेलगे कि, मानों रूपको पीजायेंगे, जीभ ऐसी चलातेथे मानों चाट जायेंगे, नासिका ऐसी चलावें मानों संघलेंगे भुजा ऐसी चलावें, मानों लिपटजॉयगे। जैसा श्रीकृष्णचन्द्रका रूप कानोंसे सुनाथा उसीप्रकार आँखोंसे देखकर उनके रूप गुण माधुर्य्य ढिठाईसे बुद्धि जिनकी होगई ऐसे पुरुष जैसा सुना वैसाही आपसमें कहने लगे॥२१॥॥२२॥ कि, यह जो कृष्ण बलदेव हैं सो साक्षात् भगवान् हरि नारायण हैं और अपने अंशसहित इस संसार में वसुदेवके घर अवतार लिया है॥२३॥

देखो यह जो साँवरा बालक है, इसने देवकीसे जन्म लिया था. अब तक छिपा रहा, क्योंकि पिताने गोकुलमें पहुँचादिया था, इसलिये नन्दजीके घर वृद्धिको प्राप्त हुआ है॥ २४॥ इसी कृष्णने पूतना मारी और बगलेका स्वरूप धरेहुए बकासुर दैत्यको मारा, यमलार्जुन वृक्ष उखाड़े और केशी अघासुर इत्यादिक बहुतसे दानव मारे॥२५ ॥देखो जब वनमें अग्नि लगी थी, तब इसी कृष्णने गौ, ग्वाल बचाये थे, काली सर्पको दंड दिया और इन्द्रका मद दूर किया॥ २६॥ यही सात दिनतक गोवर्द्धन पर्वतको हाथमें लिये रहा, वर्षा, पवन, वज्रपातसे गोकुलकी रक्षा करी॥ २७॥ गोपियें इस कृष्णका नित्य प्रसन्न हँसन चितवन युक्त श्रमरहित मुख देखकर अनेक तापोंको दूर करतीं थीं॥ २८॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम्॥ कालमेतं वसन्गूढो ववृधे नंदवेश्मनि॥२४॥ पूतनाऽनेन नीतांतं चक्रवातश्च दानवः॥ अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः॥२५॥ गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः॥ कालियो दमितः सर्प इंद्रश्च विमदः कृतः॥२६॥ सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना॥ वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम्॥२७॥ गोप्योऽस्य नित्यमुदितहसितप्रेक्षणं मुखम्॥ पश्यंत्यो विविधांस्तापांस्तरंति स्माऽऽश्रमं मुदा॥२८॥ वदंत्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः॥ श्रियं यशो महत्त्वं च लप्स्यते परिरक्षितः॥२९॥ अयं चास्याग्रजः श्रीमान्रामः कमललोचनः॥ प्रलंबो निहतो येन वत्सको ये बकादयः॥३०॥ जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च॥ कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत्॥ ३१॥

अधिक क्या कहैं, इस कृष्णसे यह यदुवंश बहुत विख्यात हो, सम्पत्ति, यश बडाई पावैगा और इसी कृष्णसे रक्षा होगी इस प्रकार सेमनुष्य परस्पर बात चीत करनेलगे॥ २९॥ कमलके समान नेत्र स्वरूपवान् इस कृष्णके बडे भाई बलरामजीने प्रलम्बासुर धेनुकासुर मारे, क्योंजी ! मारे तो कृष्णने बलदेवका नाम क्यों लेते हो? देखी सुनी बातोंमें भी भेद होजाताहै॥ ३०॥ हे महाराज ! सब मनुष्य इस प्रकार कहही रहे थे और नगाडे बजही रहे थे कि, इतनेमें चाणूर नामक बलवान् श्रीकृष्ण बलदेवको संबोधन देकर बोला॥ ३१॥

कि हे नंदके पुत्र ! हे राम ! तुममें बल अधिक है और कुश्ती लडनी भी भलीप्रकार जानते हो, यही सुनकर राजा कंसने तुम्हें बुलायाहै॥ ३२॥ क्योंकि प्रजा मन कर्म वचनसे राजाका प्रिय करैंतो कल्याण प्राप्त होताहै और जो विपरीत करतेहैं उनका कल्याण नहीं होता॥ ३३॥ और यह बात भी प्रगट है कि, प्रतिदिन बछडोंके चरानेवाले गोप प्रसन्न होकर व्रजमें कुश्तीका खेल करके गाय चरातेहैं॥ ३४॥ इसकारण हम तुम कुश्ती लडकर राजा कंसका प्रिय करें तो राजा कंस प्रसन्न होंगे और फिर सब प्राणी हमारे ऊपर प्रसन्न होंगे॥ ३५॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र चाणूरका वचन सुनकर और कुश्ती लड़ना अपने योग्य जान बडाई करके उस समयके उचित वाक्य कहने लगे॥ ३६॥ कि, जिस

हे नंदसूनो हे राम भवंतौ वीरसंमतौ॥ नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा॥ ३२॥ प्रियं राज्ञः प्रकुर्वंत्यश्श्रेयो विंदति वै प्रजाः॥ मनसा कर्मणा वाचा विपरीतमतोऽन्यथा॥ ३३॥ नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम्॥ वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडंतश्चारयति गाः॥ ३४॥ तस्माद्राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवामहे॥ भूतानि नः प्रसीदंति सर्वं भृतमयो नृपः॥ ३५॥ तन्निशम्याब्रवीत्कृष्णो देशकालोचितं वचः॥ नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनंद्य च॥ ॥ ३६॥ प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः॥ करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः॥ ३७॥ बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम्॥ भवेन्नियुद्धं माऽधर्मः स्पृशेन्मल्लसभासदः ॥३८॥ चाणूर उवाच॥ न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः॥ लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत्॥ ३९॥

कंसकी तुम प्रजा हो उसी कंसकी हम वनमें रहनेवाली प्रजा हैं इसलिये राजा कंसका नित्य प्रिय करैंइसीमें हमारा कल्याण है ॥३७॥ परन्तु देखो हम बालक हैं इसलिये हम अपने समानके बालकोंसे कुश्ती लडैंगे जैसा उचित हो उसी रीतिसे कुश्ती लड़ो, क्योंकि मल्लोंकी सभामें अधर्म न हो॥ ३८॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुनकर चाणूर बोला कि, तुम बालक नहीं हो और बलियोंमें बलवान् बलदेव भी बालक नहीं है, किशोर नहीं हो क्योंकि, हजार हाथियोंका बल रखनेवाला कुवलयापीड़ हाथी तुमने लीला पूर्वकही मारडाला॥ ३९॥

इसलिये हमारे संग तुम कुस्ती लड़ो, यह अनीति नहीं है, हे वृष्णिवंशमें जन्मे कृष्ण !मेरी तुम्हारी और बलराम मुष्टिककी कुस्ती हो॥ ४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां कुवलयापीडवधोनाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४३॥ दोहा—कंसादिकको वध कियो, माँइन ज्ञान बताय।दर्श कियो पितु मातुको, चौंवालिस अध्याय॥ ४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस राजा परीक्षित् ! इसप्रकार निश्चय संकल्प कर नीलाम्बर पीतांबरके कच्छे बाँध खंभे ठोंककर खड़े होगये. इसके उपरान्त मधु दैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण तो चाणूरके सन्मुख हुये और रोहिणीनन्दन बलरामजी मुष्टिकसे जुटे॥ १॥ हाथोंसे हाथ, पाँवोंसे पाँव मिलाय परस्पर जीतनेकी इच्छासे एक एकको

तस्माद्भवद्भ्यां बलिभिर्योद्धव्यं नाऽनयोऽत्र वै॥ मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पू० कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं चर्चितसं कल्पो भगवान्मधुसूदनः॥ आससादाथ चाणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः॥१॥ हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्धा पद्भ्यामेव च पादयोः॥ विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया॥२॥ अरत्नी हे अरत्निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी॥ शिरः शीर्ष्णोरसो रस्तावन्योन्यमभिजघ्नतुः॥३॥ परिभ्रामणविक्षेपपरिरंभावपातनैः॥ उत्सर्पणापसर्पणैश्चान्योन्यं प्रत्यरुंधताम्॥४॥ उत्थापनैरुन्नयनैश्चालनैः स्थापनैरपि॥ परस्परं जिगीषंतावपचक्रतुरात्मनः॥५॥ तद्बलाबलवद्युद्धं समेताः सर्वयोषितः॥ ऊचुः परस्परं राजन्सानुकंपा वरूथशः॥ ६॥

बलात्कार खैंचनेलगे॥ २॥ अरत्नि1में अरत्नि मिलाय घुटुओंसे घुटुएँ मिलाय, शिरसे शिर, छातीसे छाती मिलाकर कृष्ण और चाणूर दोनों परस्पर कुस्ती लड़नेलगे॥ ३॥ चारोंओर घुमाना, धक्का देना, परिरम्भण अर्थात् हाथसे विडारना, अवपातन अर्थात् नीचे पटक देना, उत्सर्पण अर्थात् छोडकर पीछेसे आगे तक जाना, अपसर्पण अर्थात् पीछे जाकर खड़ा होना इस प्रकार दांव पेंच कर करके लडनेलगे॥ ४॥ उत्थापन अर्थात् पाँव और घुटुएँमिलाकर गिरतेहैं, उनका उखाडदेना चालन अर्थात् बँधे दॉवको दूर करना, स्थापन अर्थात् हाथ पाँव पकड़कर मिलादेना इसप्रकार परस्पर देहको पीडा देने लगे॥५॥इसप्रकार इनका युद्ध देखकर वहांकी बैठी हुई स्त्रियें परस्पर कहने लगीं कि, देखो !

यह कृष्ण तो निर्बल है और चाणूर सबल है, यह विचार वह स्त्रियें अत्यन्त दयाको प्राप्त हुईं॥ ६॥ इन राजसभामें बैठनेवालोंकोभी महाअधर्महोगा क्योंकि राजाके देखनेको कहीं निर्बल सबलकी कुस्ती कराई जाती है॥ ७॥ भला विचारो तो सही कि, कहां तो वज्रसे कठोर अंगवाले पर्वतके समान ऊँचे ऊँचे सब मल्ल और कहॉ अतिसुकुमार कोमल अंग जिनकी यौवन अवस्था भी अभी प्राप्त नहीं हुई ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र॥ ८॥ इस सभामें इस समय निश्चय धर्मनाश होरहा है इसकारण इस सभामें बैठना उचित नहीं, क्योंकि जहाँ धर्मका नाश हो वहां कभी न बैठे

महानयं बताऽधर्म एषां राजसभासदाम्॥ ये बलाबलवयुद्धं राज्ञोऽन्विच्छंति पश्यतः॥७॥ क्व वज्रसारसर्वांगौमल्लौ शैलेंद्रसन्निभौ॥ क्वचातिसुकुमारांगौ किशोरौ नाप्तयौवनौ॥८॥ धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत्॥ यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेन्न स्थेयं तत्र कर्हिचित्॥९॥ न सभां प्रविशेत्प्राज्ञः सभ्यदोषाननुस्मरन्॥ अब्रुवन्विब्रुन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते॥१०॥ वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनांबुजम्॥ वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवांबुभिः॥ ११॥

॥ ९॥ विवेकी पुरुषको ऐसी सभामें जाना योग्य नहीं है क्योंकि दोषोंको स्मरणकर बातको जानकर जो चुप बैठा रहैतो दोष लगैऔर किसीकी झुंठी सच्ची कहै तो दोषलगै, अथवा हम किसीकी भली जाने न बुरी ऐसे कहै तो दोषका भागी हो इसकारण सभामें जाना योग्य नहीं है॥ १०॥ “सत्य बोलनेवालेको दुःख नहीं होता सत्ययुक्त पुरुषको कोई विघ्नदोष नहीं सता सक्ते” * शत्रुके चारों ओर

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* दृष्टान्त–एक राजाने एक बाजार बनवाया और कहा कि जो वस्तु यहाँ वेचनेको लावेगा और सन्ध्यातक न बिकेगी, उसे मैं स्वयं ले लूंगा इसप्रकार वह बाजार विख्यात होगया, एक दिन एक लुहार लोहेकी शनैश्वरकीकी मूर्ति बनाकर लाया, एक लाख रुपया उसका मोल मागा और कहा कि, जिसके यहा यह मूर्ति रहेगी उसके यहाँ द्रव्यादि कुछ न रहेगा, अब उस अनिष्टकारक मूर्तिको किसीने न लिया, सन्ध्यासमय राजाने देखा कि बडी भीढ होरही है, कारण पूछतेही राजाने विचारकर उस मूर्तिको ले लिया और लाखरुपये उसे देदिये, जब राजाने घरमें मूर्ति रक्खी तो पहले लक्ष्मी राजासे बोली महाराज ! मैं जातीहूराजा बोला क्यों? लक्ष्मीजी बोलीं जहाँ शनिश्वर देव रहें वहाँ हमारा क्या काम ?राजाने कहा जाओ इसीप्रकार नीति, साम, दाम, दण्ड, भेद, सब रूप धरकर आये औरराजाने जाने दिया पीछेसे जब सत्यदेव आये और राजासे कहकर जानेलगे तबराजाने हाथ पकडकर कहा कि, आपके रखनेको तो हम शनैश्वर देवको लाये हैं, तुम कैसे जाते हो ’ सत्यदेवसे कुछ उत्तर न वन पडा, और रहगये सत्यके रहनेसे नीति लक्ष्मी आदि सब लौट आये और सत्यके प्रभावसे शनैश्वर राजाका कुछ न कर सके॥

दौड धूप करते श्रीकृष्णके मुखकी शोभा देखो, कुश्तीमें जोर करनेसे इनके मुखपर पसीनेकी बुन्दै आय रहीहैं, जैसे कमलकोशके ऊपर ओसकी बून्दें पडतीहैं॥ ११॥ अरुण नेत्र बलदेवजीके मुखकी शोभा देखो मुष्टिकके ऊपर क्रोध आय रहा है, तो भी मुसकानसहित हैं, इसलिये सुन्दर लगतेहैं॥ १२॥ भूमिमें व्रजभूमि परमपवित्र है, क्योंकि जिसके वनके चित्रविचित्र फूलोंको धारण किये पुराणपुरुष भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजी सहित मनुष्यरूपमें छिपकर गौओंको चराती समय बांसुरी बजाते खेलते फिरते हैं, जिनके चरणोंका महादेव और लक्ष्मीजी भी पूजन करती हैं॥ १३॥ बडा आश्चर्य है कि, गोपियोंने ऐसा क्या तप किया है जिसकारण इनसे श्रेष्ठ कोई नहीं और जिनकी समान कोई नहीं; इनसे अधिक

किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम्॥ मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरंभशोभितम्॥ १२॥ पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिंगगूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः॥ गाः पालयन्सहबलः क्वणयंश्च वेणुं विक्रीडयांचति गिरिवरमार्चितांघ्रिः॥१३॥ गोप्यस्तपः किमचरन्यदमुष्य रूपं लावण्यसारमस- मोर्ध्वमनन्यसिद्धम्॥ दृग्भिः पिबंत्यनुसवाभिनवं दुरापमेकांतधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य॥१४॥ या दोहनेऽवहनने मथनोपलेपप्रेंखेंखनार्भ- रुदितोक्षणमार्जनादौ॥ गायंति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकंठ्यो धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः॥१५॥ प्रातर्व्रजाद्व्रजत आविशतश्च सायं गोभिस्समं क्वणयतोस्य निशम्य वेणुम्॥ निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः पश्यति सस्मितमुखं सदयावलोकम्॥१६॥

कोई नहीं देखा, जो आभूषण वस्त्र विनाही सुंदर लगता है, यश लक्ष्मी ऐश्वर्य इनको एकान्त स्थान, अर्थात् सर्वदा जिनमें वास करैऐसे प्यारेके स्वरूपको दृष्टिसे देखते हैं॥ १४॥ हे सखियो!व्रजबालायें धन्य हैं, जो गोपी गाय दुहानेके समय, धान्य छरती समय, दूध विलोती समय, बालकोंको झुलाती समय, और चुपाती समय, घरोंका कामकाज करती समय, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्त होकर उनके गुण गाती है, उससमय उनका मन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमेंही लगजाता है, और प्रेमानन्दसे उनके नेत्रोंमें आंसू आजातेहैं॥ १५॥ प्रातःकाल जब व्रजसे गौ चरानेको जातेहैं और संध्यासमय जब गायोंको ले बांसुरी बजातेहुए आतेहैं, उससमय वह महाभाग गोपियें बांसुरीका शब्द सुन शीघ्र

अपने घरसे निकल, मार्गमें आय सुंदर मुसकान दयापूर्वक चितवनयुक्त श्रीकृष्णचन्द्रके मुखका दर्शन करती हैं॥ १६॥ हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इधर तो स्त्रियें परस्पर इस प्रकार बातें कर रही थीं, और उधर योगके ईश्वर सबका दुःख हरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शत्रुओंके मारनेका विचार करनेलगे॥ १७॥ भयसहित स्त्रियोंकी बातें सुनकर, पुत्रोंमें स्नेहके शोकसे व्याकुल, और पुत्रोंके बलको नहीं जाननेवाले माता पिता वसुदेव देवकी अत्यन्त दुःखित हुए2

॥१८॥ अनेकप्रकार कुश्तीके दॉव पेंचोंसे जैसे श्रीकृष्ण और चाणूर लडतेथे उसीप्रकार महात्मा बलदेव और मुष्टिक लडनेलगे॥ १९॥ वज्रपातके समान कठोर भगवान्के अंगके प्रहारसे, चाणूरका अंग चुरकुट होगया, जिससे वह बहुत दुःखित

एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः॥ शत्रुं हंतुं मनश्चक्रे भगवान्भरतर्षभ॥ १७॥ सभायाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचातुरौ॥ पितरावन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम्॥१८॥ तैस्तैर्नियुद्धविधिभिर्विविधैरच्युतेतरौ॥ युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ॥१९॥ भगवद्गात्रनिष्पातैर्वज्रनिष्पेष- निष्ठुरैः॥ चाणूरो भज्यमानांगो मुहुर्ग्लानिमवाप ह॥२०॥ स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्यकरावुभौ॥ भगवंतं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यऽबाधत॥ २१॥ नाचलत्तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः॥ बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन्हरिः॥ २२॥

हुआ॥ २०॥ इसके उपरान्त शिकरेके वेगके समान चाणूरने दोनों हाथ की मुष्टि बॉध, क्रोधमें भर ऊपरको उछल भगवान् वासुदेवकी छातीमें एक घूसा मारा॥ २१॥ हे महाराज जिसप्रकार हाथी फूलोंकी मालाके लगनेसे नहीं चलायमान होता, वैसेही श्रीकृष्णचन्द्र उसके मुष्टिसे चलायमान न हुए, इसके उपरान्त अत्यन्त क्रोधित हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने चाणूरके दोनों हाथ पकड, बहुत घुमाय बडे वेगसे पृथ्वीमें पटक दिया, गिरतेही उसके प्राण निकलगये और गहने, केश, माला इत्यादि सब विखरगये गिरते समय ऐसा शब्द

हुआ कि, मानो इन्द्रध्वज गिरा॥२२॥२३॥ इसीप्रकार मुष्टिक कि, जिसने पहले बलदेवजीके मुष्टिप्रहार किया था, उसे बलदेवजीने थापमारकर गिरा दिया॥२४॥ मुष्टिक कंपित हो, मुखसे रुधिर वमन करता, पीड़ित हो प्राण निकल जानेसे जैसे पवनका मारा वृक्ष उखडकर गिरपडता है उसीप्रकार गिरगया॥२५॥हे राजा परीक्षित् !इसके उपरान्त दौडतेहुए कूट मल्लको मारनेवालोंमें श्रेष्ठ बलदेवजीने लीलापूर्वक तिरस्कार कर बांई मुष्टिसे मारडाला॥२६॥ शल, तोशलने अपने मनमें विचार किया कि, दण्डवत्के बहाने चरण पकडकर पटक देंगे परन्तु भगवान् तो सबके बाहर भीतरकी जाननेवाले हैं, यह जिससमय दण्डवत् करने को आये उससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने

भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीणजीवितम्॥ विस्रस्ताऽऽकल्पकेशस्रगिंद्रध्वज इवापतत्॥ २३॥ तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै॥ बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम्॥ २४॥ प्रवेपितः स रुधिरमुद्वमन्मुखतोऽर्दितः॥ व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवांघ्रिपः॥ २५॥ ततः कूटमनुप्राप्तो रामः प्रहरतां वरः॥ अवधील्लीलया राजन्सावज्ञं वाममुष्टिना॥२६॥ तर्ह्येव हि शलः कृष्णपदापहतशीर्षकः॥ द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः॥२७॥ चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते॥ शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः॥२८॥ गोपान्वयस्यानाकृष्य तैः संसृज्य विजह्नतुः॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गंतौ धुतनूपुरौ॥२९॥ जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः॥ ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधुसाध्विति॥ ३०॥ हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट्॥ न्यवारयत्स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह॥ ३१॥

एक लात ऐसी मारी जिसके लगनेसे शिर फटगया, इसप्रकार शल तोशल दोनों दो खण्ड विदीर्ण होकर पृथ्वीपर गिरगये॥ २७॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल इत्यादि मुख्य मल्ल जब मारेगये, तब वहाँऔर जो मल्ल उपस्थित थे, वह अपना प्राण बचानेके लिये भागगये॥२८॥ बराबरके गोपोंको अखाडेमें खेंच श्रीकृष्णबलदेव उनके संग विहार करनेलगे।उससमय बाजे बज रहेथे और श्रीकृष्णचन्द्रके नूपुर नृत्य करनेसे परम सुहावन बज रहेथे॥ २९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीके चरित्र देख कंसके विना सब मथुरावासी प्रसन्न होगये, मुख्य मुख्य ब्राह्मण तथा सज्जनपुरुष “साधु साधु” ऐसे कह कह स्तुति करनेलगे॥ ३०॥ जब बड़े बड़े मल्ल मरगये कितनेई भागगये तब भोजवं

शियोंके राजा कंसने नगारे थमादिये और क्रोधित होकर कहने लगा॥ ३१॥ कि, कुटिलकर्मा वसुदेवके पुत्रोंको पुरसे बाहर निकाल दो और गोपोंका धन छीनलो, कुटिलबुद्धि नन्दको बाँध लो॥ ३२॥ खोटीबुद्धिवाले वसुदेवको जल्दी मारो और इसके उपरान्त शत्रुसे मिलनेवाले पिता उग्रसेनको भी अनुचरों सहित बाँधलो॥३३॥ इसप्रकार जब राजा कंस बकने लगा तब अत्यन्त क्रोधित हो अव्यय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र धीरेसे उछल ऊंचे मंचानपर चढ़ गये॥३४॥ तब धीरजवान अत्यन्त अभिमानी राजा कंसने अपनी मृत्युको आता हुआ देख आसनसे उठकर ढाल तलवार ग्रहण की॥३५॥ तलवार हाथमें ले आकाशमें जैसे शिकरा पक्षी फिरता है, उसीप्रकार दाईं बाईं ओर जल्दी जल्दी फिरनेवाले कंसको असह्य और

निस्सारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात्॥ धनं हरत गोपानां नं बध्नीत दुर्मतिम्॥ ३२॥ वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः॥ उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः॥३३॥ एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः॥ लघिम्नोत्पत्य तरसा मंचमुत्तुंगमारुहत्॥३४॥ तमाविशंतमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात्॥ मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी॥३५॥ तं खडपाणिं विचरंतमाशु श्येनं यथा दक्षिणसव्यमंबरे॥ समग्रहीद्दुर्विषहोग्रतेजा यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य॥३६॥ प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीटं निपात्य रंगोपरि तुंगमंचात्॥ तस्योपरिष्टात्स्वयमब्जनाभः पपात विश्वाश्रय आत्मतंत्रः॥३७॥ ( कंसोपि कृष्णेन जगत्त्रयैकनिवासभूतेन निपात्य सोधः॥ तेनात्मतन्त्रेण निपीडितोसुंतत्याज राजन्निमिषान्तरेण॥ ) तं संपरेतं विचकर्ष भूमौ हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः॥ हाहेति शब्दः सुमहांस्तदाऽभूदुदीरितः सर्वजनैर्नरेंद्र॥ ३८॥

उग्रतेजवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, तार्क्ष्यका पुत्र गरुड़ जैसे सर्पको पकडलेता है उसीप्रकार पकड लिया॥ ३६॥ फिर उसकी फेंट तथा केश पकड ऊंचे मंचानपरसे रंगभूमिमें पटक दिया और इसके ऊपर सर्व जगत्के आश्रय और स्वतंत्र कमलनाभ भगवान् स्वयं कूदपडे, केश पकड नेका कारण यह है कि, कंसने देवकीके केश पकडेथे इसलिये उसका बदला लिया॥ ३७॥ इसके उपरान्त सिंह जैसे हाथीको खैँचताहै उसीप्रकार सब जगत्के देखते मृतकहुए कंसको पृथ्वीमें घसीटनेलगेहे नरेन्द्र!उस समय समस्त प्रजामें बड़ा भारी हाहाकार शब्द हुआ॥ ३८॥

कंस प्रतिदिन चलायमान चित्तसे जल पीतें, बात कहते, चलते, सोते और श्वास लेते चक्र आयुधवाले भगवान्काही शत्रुभावसे ध्यान करता था। इसलिये श्रीकृष्णचन्द्रके स्वरूपको प्राप्त हुआ॥ ३९॥ इसके उपरान्त उस कंसके कंक, न्यग्रोधसे आदि लेकर छोटे आठ भाई अत्यन्त क्रोधित हो कंसका बदला लेनेके लिये दौडकर आये॥ ४०॥ उसी समय रोहिणीके सुप्त बलरामजीने क्रोधित हुए हाथोंमें शस्त्र लेकर आयेहुए कंसके भाइयोको सिंह जैसे पशुओको मारता है, उसी प्रकार परिघ उठाकर मारडाला॥ ४१॥ उस समय आकाशमें नगारे बजने लगेऔर भगवान्की विभूति जो ब्रह्मा महादेवादिक देवता हैं, सो प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूलोकी वर्षा करनेलगे, स्त्रियें नृत्य

स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं पिबन्वदन्वा विचरन्स्वपञ्श्वसन्॥ ददर्श चक्रायुधमग्रतो यतो तदेव रूपं दुरवापमाप॥ ३९॥ तस्याऽनुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः॥ अभ्यधावन्नभिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः॥४०॥ तथाऽतिरभसांस्तांस्तु संयत्तान्रोहिणीसुतः॥ अहन्परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः॥४१॥ नेदुर्दंर्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः॥ पुष्पैः किरंतस्तं प्रीत्या शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः॥४२॥ तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः॥ तत्राभीयुर्विनिघ्नंत्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः॥४३॥ शयानान्वीरशय्यायां पतीनालिंग्य शोचतीः॥ विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजंत्यो मुहुः शुचः॥४४॥ हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथ वत्सल॥त्वया हतेन निहता वयं ते सगृह प्रजाः॥ ४५॥ त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ॥ न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमंगला॥ ४६॥

करने लगीं॥ ४२॥ हे महाराज।इसके उपरान्त पतिके मरणसे अत्यन्त दुःखित हो नेत्रोमें आँसू भर कंसकी स्त्रियें शिर पीटती जहाँ उसकी लोथ पडी थी, वहाँ आईं॥ ४३॥ वीरशय्यामें पड़े पतिको आलिंगनकर शोकातुर स्त्रियें वारंवार नेत्रोंसे आँशुबहाय बहाय पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं॥ ४४॥ हा नाथ ! हे प्राणपति । हे धर्मके जाननेवाले ! हे करुणानाथ !हा दीनवत्सल !तुम आप मरकर घरबार सहित और बालकों सहित हमको क्यो मारगये ?॥ ४५॥ हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ ! जैसे तुम विना हम विधवा होकर शोभायमान नही लगतीं उसी प्रकार तुम्हारे

बिना मथुरापुरी भी शोभा नही पाती क्योंकि संपूर्ण मंगल उत्सव इसमें दूर होगये॥६॥निरपराध प्राणियोंसे तुमने बड़ा द्रोह किया, इसीसे तुम्हारी यह दशा हुई जो मरे पडेहो, प्राणियोंसे वैर करके कौन पुरुष सुख पाता है॥ ४७॥ क्योंकि इन संसारमेंसमस्त प्राणियोंके उत्पत्ति, पालन और नाशकर्त्ता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रहीहैं, इसलिये जो इनकी अवज्ञा करता है, वहकभी सुख नहीं पाता॥ ४८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! लोकोके पालन करनेवाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने राजा कंसकी स्त्रियोंकीसमाधान कर कंसकी दाहादिक क्रिया कराई॥ ४९॥इसके उपरान्त माता, पिता देवकीवसुदेवको कंसके बंदीखानेसे छुडाया और राम कृष्ण दोनों भाइयोंने मातापिताके चरणोंमें

अनागसां त्वं भूतानां कृतवान्द्रोहमुल्बणम्॥ तेनेमां भोदशां नीतो भृतध्रुक्को लभेत शम्॥ २७॥ सर्वेषामि भूतानामेष हि प्रभवाप्ययः॥ गोप्ता च तदवध्यायी न कचित्सुखमेधते॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ राजयोषित आश्वास्य भगवाँल्लोकभावनः॥ यमाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत्॥ ४९॥ मातरं पितरं चैव मोचयित्वाऽथ बंधनात्॥ कृष्णरामो वबंदाते शिरसाऽऽस्पृश्य पादयोः॥५०॥ देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ॥ कृतसंवंदनौ पुत्रौ सस्वजाते न शंकितौ॥५१॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेकंसवधो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ पितरावुपलब्धार्थौविदित्वा पुरुषोत्तमः॥ मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम्॥१॥ उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्त्वतर्षभः॥ प्रश्रयावनतः प्रीणन्नंवतावेति सादरम्॥ २॥

शिर लगाकर प्रणाम किया॥ ५०॥ माता, पिता, देवकी वसुदेव प्रणाम करते पुत्रोंको जगतके ईश्वर जान, भयभीत होकर उनसे नहीं मिले ॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धेभाषाठीकायां कंसवधो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ 8॥दोहा-पितुनंदादिक शान्तकर, उग्रसेन दियो राज । बहुरि गये गुरुके भवन, पैतालिस सुखभाज॥ ३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित ! पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने माता पिताको ज्ञान प्राप्तहुआ जान विभाग कि, यह ज्ञान अभी ठीक नहीं इसलिये सब लोगोंको मोहित करनेवाली अपनी माया फैलाई ॥१ ॥यादवश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजीको संग लेकर माता, पिताके पास आये और विनयपूर्वक नम्र हो,

हे मातु ! हे पिता ! इस प्रकार आदरपूर्वक प्रसन्न होकर कहने लगे॥ २॥ हे पिता ! सर्वदा तुम्हैंचाहनाही बनीरही और हम पुत्रोंसे बाल्य अवस्था पौगण्ड अवस्था तथा किशोर अवस्थाका सुख कभी तुमको न हुआ॥ ३॥ दैवके मारे हम तुम्हारे निकट वासभी न कर सके, पिताके घर बालक रहते हैं और उनका लालन पालन होता है, आनन्द पातेहैं हमको कुछभी प्राप्त न हुआ॥४॥ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सर्व पदार्थ जिससे हों ऐसा यह देह जिस माताने उत्पन्न किया उनकी यह मरणधर्मा मनुष्य सौवर्षतक सेवा करै परन्तु तोभी उनसे उऋण नहीं होसक्ता॥५॥ जो पुत्र समर्थ होकर

नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कंठितयोरपि॥ बाल्यपौगंडकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित्॥३॥ न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदंतिके॥ यां बालाः पितृगेहस्था विंदंते लालिता मुदम्॥४॥ सर्वार्थसंभवो देहो जनितः पोषितो यतः॥ न तयोर्याति निर्देशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा॥५॥ यस्तयोरात्मजः कल्पमात्मना च धनेन च॥ वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयंति हि॥६॥ मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्॥ गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽविभ्रच्छ्वसन्मृतः॥ ७॥ तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः॥ मोघमेते व्यतिक्रांता दिवसा वामनर्चतोः॥ ८॥

देहसे अथवा धनसे माता पिताको जीविका नहीं देते, उसे परलोकमें यमके दूत उसका सांस उसेही काट काटकर भक्षण करते हैं॥ ६॥ माता, पिता, वृद्ध, सुशीला स्त्री, पुत्र बालक गुरु, ब्राह्मण अथवा और जो कोई शरण आवै इनका जो मनुष्य भरण पोषण न करैं, तो वह मृतकके समान है

*

॥ ७॥ असमर्थ और कंसके भयके मारे नित्य चंचल मन होनेके कारण तुम्हारी सेवा विना किये हमारे इतने दिन व्यर्थ बीतगये॥ ८॥

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* **शंका—**श्रीकृष्णने कहा कि, वृद्ध पिताका सेवन करना चाहिये, परंतु शास्त्रमें ऐसा नियम कहा नहीं है कि, वृद्ध पिताकी सेवा करना और युवा पिताकी सेवा न करना, श्रीकृष्णके वचनसे ऐसा जान पडता है कि, समर्थ भी होवे तौभीयुवा पिताकी सेवा न करना, समर्थ होवे वा असमर्थ होवे तब वृद्ध पिताका सेवन करना ऐसा भगवान्के वचनसे विदित होताहै फिर भगवान्ने ऐसा क्यों कहा?

**उत्तर—”**मातर पितर वृद्धम्” इस श्लोकमें वृद्धका अर्थ बूढेपनका नहीं है वृद्ध बुढेका नाम है वृद्धका अथ श्रीकृष्णने ऐसा किया है कि, सर्वधर्मसे पिता वृद्ध कहिये श्रेष्ठ, अथवा पण्डित और धर्मशास्त्र भी सव धर्मोसे पिताको बढा कहते हैं, पितासे माता बडी है, ऐसा धर्मशास्त्रका मत जानकर श्रीकृष्णचन्द्रने वृद्ध पिताका पूजन करनेके लिये कहाथा यह नहीं कहा था कि, बूढे पिताका सेवन करना और युवा पिताका सेवन न करना॥

हे पिता ! हे मातु !पराये अधीन होनेके कारण हमसे तुम्हारी सेवा न बनी और दुष्टहृदय कंससे अत्यन्त दुःखित रहे, इसलिये अब हमपर तुम क्षमा करने के योग्य हो सो क्षमा कीजिये॥ ९॥ इसप्रकार मायासे मनुष्यरूपधारी विश्वके आत्मा हरिके वचनसे मोहित होकर देवकी, वसुदेव पुत्रोंको गोदमें बैठाय परमानन्दको प्राप्तहुए॥ १०॥ हे राजा परीक्षित्! स्नेहके पाशसे बँधे मोहित देवकी वसुदेव ऑसुओकी धारोंसे कृष्ण बलदेवको भिजोते कुछभी न बोले॥११ ॥देवकीके पुत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार माता पिताको सावधान कर नाना उग्रसेनको यादवोंका राजा बनाया॥ १२॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे महाराज ! हम तुम्हारी प्रजा हैं सो हमें तुम आज्ञा करनेके

तत्क्षंतुमर्हथस्तात मातर्नौ परतंत्रयोः॥ अकुर्वतोर्वांशुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ इति माया मनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा॥ मोहितावंकमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम्॥१०॥ सिंचंतावश्रुधराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ॥ न किंचिद्वचतु राजन्बाष्पकंठौ विमोहितौ॥११॥ एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः॥ मातामहं तूग्रसेनं यद्वनामकरोन्नृपम्॥१२॥ आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि॥ ययातिशापाद्य- दुभिर्नाऽऽसितव्यं नृपासने॥१३॥ मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः॥ बलिं हरंत्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः॥१४॥ सर्वान्स्वज्ञाति- संबंधान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्॥ यदुवृष्ण्यंधकमधुदाशार्हकुकुरादिक॥१५॥ सभाजितान्समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्॥ न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः संतर्प्य विश्वकृत्॥ १६॥

योग्य हो और यदुवंशियोंको ययातिका शाप है, इसकारण यादवोंका सिंहासनपर बैठना और राज्य करना योग्य नहीं है॥ १३॥ मैं सेवकके समान तुम्हारे निकट सदा उपस्थित रहूंगा, बड़े बड़े देवादिक तुमको भेंट देंगे और राजा देंगे इसमें तो कहनाही क्या है ?॥ १४॥ और कंसके डरके मारे जो अपनी जातिके यदु, वृष्णि, अंधक, मधु, दाशार्ह, कुकुरादिक भागगये थे॥ १५॥ उनको बुलाकर और विदेशमें वसनेके कारण जो यादव कृश हो रहे थे, उनका सत्कारकर बहुतसा धन दे तृप्तकर सब विश्वके कर्त्ता भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने

अपने अपने घरोंमें बसाया॥१६ ॥कृष्ण बलदेवकी भुजासे रक्षित हो, पूर्ण मनोरथ पाय पापको दूर कर, वह यादव घरोंमें रमण करनेलगे॥ १७॥ और नित्य आनंदसे पूर्ण शोभायुक्त दयासहित मंदहास्यपूर्वक चितवन युक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके मुखकमलका दर्शन करके परमानंद होते थे॥ १८॥ भगवान् मुकुन्दके मुखकमलके अमृतको पीकर उस समय वृद्ध भी तरुणावस्थाको प्राप्त हो अत्यन्त बलवान् होगये॥ १९॥ हे राजन् ! इसके उपरान्त भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी नन्दरायजीके पास आय मिल यह वचन बोले॥ २०॥ हे पिता ! तुम स्नेहिंयोने हमारा पोषण किया बहुत लाड लडाया, अधिक क्या कहैं, माता पिताको अपने पुत्रोंमें अधिक प्रीति होती है, सो तुमने उससेभी अधिक

कृष्णसंकर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः॥ गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः॥ १७॥ वीक्षंतोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनांबुजम्॥ नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम्॥ १८॥ तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः॥ पिबंतोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखांबुजसुधां मुहुः॥ १९॥ अथ नंदं समासाद्य भगवान्देवकीसुतः॥ संकर्षणश्च राजेंद्र परिष्वज्येदमूचतुः॥२०॥ पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्॥ पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि॥ २१॥ स पिता सा च जननी यो पुष्णीतां स्वपुत्रवत्॥ शिशून्बंधुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे॥ २२॥ यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्॥ ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्॥२३॥ एवं सांत्वय्य भगवान्नंदं सव्रजमच्युतः॥ वासोऽलंकारकुप्या- द्यैरर्हयामास सादरम्॥ २४॥ इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नंदः प्रणयविह्वलः॥ पूर यन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ॥ २५॥

प्रीति करी॥ २१॥ वही पिता है, वही माता है, जो पराये पुत्रको अपने पुत्रके समान पोषण करें और पोषण करनेमें जिनकी सामर्थ्य न हुई ऐसे हमारे माता पिताने हमको बालकपनसेही छोड दिया॥ २२॥ हे पिता!अब तुम व्रजको जाओ हमभी बन्धु बांधवोंका प्रिय करके स्नेहसे दुःखी जातिवाले और तुम्हारे देखने को पीछेसे आवेंगे॥ २३॥ इस प्रकार अच्युत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने व्रजवासियों सहित नंदरायजीको समझाकर और अनेक भाँतिके वस्त्र, आभूषण तथा सोने चांदीके बर्त्तन देकर बडे आदरपूर्वक उनका पूजन किया॥ २४॥ इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णका वचन

सुन, नंदरायजी कृष्ण बलदेवको छातीसे लगा, प्रेमसे व्याकुल हो नेत्रोंमें आँसू भर, संपूर्ण व्रजवासियोंको संग ले व्रजको चले॥ २५॥ इसके उपरान्त हे राजन्! शूरसेनके पुत्र वसुदेवजीने ब्राह्मण पुरोहितको बुलाय पुत्रोंका यथायोग्य द्विजन्म संस्कार कराया॥ २६॥ इसके उपरान्त शृंगार करी हुई रेशमी झूल व सुवर्णकी माला पहिरे अनेक गायें बछड़ों सहित ब्राह्मणों को दान कीं॥ २७॥ अत्यन्त बुद्धिमान वसुदेवजीने रामकृष्ण के जन्मन क्षत्रके समय जिन गायों का मनमें संकल्प किया था और कंसने अधर्मसे हरली थीं, उतनीही गौ स्मरण करके ब्राह्मणोको दान करीं॥ २८॥ इसके उपरान्त सुव्रती कृष्ण बलदेव द्विजन्मा संस्कार पाय यदुकुलके पुरोहित गर्गाचार्यसे गायत्रीका उपदेश ले ब्रह्मचर्य व्रतमें रहनेलगे॥ २९॥ यद्यपि

अथ शरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्॥ पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्दि्वजसंस्कृतिम्॥२६॥ तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलंकृताः॥ स्वलंकृतेभ्यः संपूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः॥ २७॥ या कृष्णरामजन्मर्क्षे मनो दत्ता महामतिः॥ ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः॥ २८॥ ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ॥ गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ॥२९॥ प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ॥ नान्यसिद्धाम- लज्ञान” गूहमानौनरेहितैः॥ ३०॥ अथो गुरुकुले वासमिच्छंतावुपजग्मतुः॥ काश्यं सांदीपनिं नाम ह्यवंतिपुरवासिनम्॥॥ ३१॥ यथोपसाद्य तौ दांतो गुरौ वृत्तिमनिंदिताम्॥ ग्राहयंतावुपेतौ स्म भक्त्त्या देवमिवादृतौ॥ ३२॥ तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः॥ प्रोवाच वेदानखिलान्सांगो- पनिषदो गुरुः॥ ३३॥ सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा॥ तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम्॥ ३४॥

संपूर्ण विद्या जाननेवाले सर्वज्ञ अर्थात् सब बातके जाननेवाले कृष्ण बलदेव सब जगत्के ईश्वर थे परन्तु तौभी स्वतः सिद्धि निर्मल ज्ञानको मनुष्योंके समान चेष्टा करनेके कारण गुप्त रखेते थे॥ ३०॥ इसके उपरान्त कृष्ण बलदेव गुरुकुलमें वास करने की इच्छासे कश्यपगोत्री उज्जैनपुरीके वासी सांदीपनि गुरुके पास गये. जो काश्यनामसे भी प्रसिद्ध थे॥ ३१॥ जितेन्द्रिय कृष्ण बलदेव भले प्रकार गुरुके पास आय, बडे आदरसत्कारसे भक्तिपूर्वक जैसे नारायणकी सेवा करते हैं, उसी प्रकार गुरुकी सेवा करने लगे॥ ३२॥ शुद्ध भक्तिपूर्वक सेवासे संतुष्ट हुए द्विजन्माओंमें श्रेष्ठ गुरुजीने श्रीकृष्णबलदेवको शिक्षादिक छः अंग और उपनिषदों सहित समस्त वेद पढ़ाये॥ ३३॥ इसके उपरांत मंत्र और देवताके ज्ञानसहित शस्त्र चलाना,

धनुर्वेद और धर्मशास्त्र, राजनीति, मीमांसादिक, तर्कविद्या तथा शत्रुसे मिलापकरना, युद्धकरना, उसके ऊपर चढ़जाना, निकट जाकर रहना, अपनी ओर तोडलेना, मेल करना, यह छः प्रकारकी राजनीति पढ़ाई॥ ३४॥ सब मनुष्योंमें तथा उत्तमोंमें उत्तम सब विद्याओंके चलानेवाले सावधान कृष्ण वलदेवने हे राजन् ! गुरुके विना बतायेही संपूर्ण विद्या सीख लीं॥ ३५॥ चौंसठ रात्रियों में गाना, बजाना, नृत्य करना, आदि चौंसठ कला सीखीं, जब विद्या पढ़ चुके तब हे राजन्! कृष्ण बलदेव दोनों भाई गुरुजीसे गुरुदक्षिणाकी आज्ञा करो इस प्रकार कहनेलगे॥ ३६॥ तब सांदीपनिने कृष्ण बलदेवकी अद्भुत महिमा देख कि, मनुष्योंमें ऐसी चमत्कारी कहां? स्त्रीसे परामर्शकर प्रभासक्षेत्रके समुद्रमें डूबकर जो पुत्र मरगया था सो स्त्रीके कहनेसे उसेही

सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ॥ सकृन्निगदमात्रेण तौ संजग्रहतुर्नृप॥ ३५॥ अहोरात्रैश्चतुष्षष्ट्या संयतौ तावतीः कलाः॥ गुरुदक्षिणयाऽऽचार्यं छंदयामासतुर्नृप॥ ३६॥ द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्॥ संमंत्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं बालं प्रभासे वरयांबभूव ह॥ ३७॥ तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ॥ वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं सिंधुर्विदित्वाऽर्हणमाहरत्तयोः॥३८॥ तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्॥ योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा॥३९॥ समुद्र उवाच॥ नैवाहार्षमहं देव दैत्यः पंचजनो महान्॥ अंतर्जलचरः कृष्ण शंखरूपधरोऽसुरः॥४०॥ आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः॥ जलमाविश्य तं हत्वा नापश्य दुदुरेऽर्भकम्॥४१॥ तदंगप्रभवेशंखमादाय रथमागमत्॥ ततः संयमिनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम्॥४२॥

मांगा॥ ३७॥ तथास्तु, इस प्रकार कह अत्यन्त पराक्रमी, बड़े रथी, कृष्ण बलदेव रथमें बैठ प्रभासक्षेत्रमें पहुँच समुद्रके किनारे जाय एक क्षण बैठगये, तब समुद्र कृष्ण बलदेवको आया जान उनकी पूजा लेकर आया॥ ३८॥ तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उस समुद्रसे कहने लगे कि, जो हमारे गुरुके बालक तैंने यहां बडी लहरोंसे डुबा लिये हैं वे गुरुके पुत्र लादे॥ ३९॥ तब समुद्र बोला कि देव ! मैंने तो तुम्हारे गुरुके पुत्र नहीं डुबाये, बरन मेरे भीतर रहनेवाला शंखरूप धारण किये एक बड़ा दैत्य है, वह हर लेगया है और निश्चय उसके पास है, यह सुनतेही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त शीघ्रतासे जलमें घुस पंचजन दैत्यको मारडाला परन्तु उसके पेटमें बालक नहीं देखा॥ ४०॥ ४१॥ इसके उपरांत

उस दैत्य के अंगमेंसे शंख ले, श्रीकृष्णचन्द्र रथपर आये और वहाँसे यमराजकी अति प्यारी संयमनीपुरीमें आये॥ ४२॥ और वहाँ जाकर वलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने शंख बजाया, तब प्रजाका दण्ड देनेवाला धर्मराज शंखका शब्द सुन॥ ४३॥ कृष्ण बलदेवकी भक्तिपूर्वक पूजा करने लगा और सब प्राणियोंके हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीसे हाथ जोडकर बोला कि, हे विष्णु भगवान् लीलापूर्वक आपने मनुष्यका रूप धारण किया है; सो तुम्हारी क्या सेवा करूं ?॥ ४४॥ तव श्रीभगवान बोले कि, हे महाराज ! यहाँ जो आप गुरुपुत्रले आयेहैं सो लादीजिये, तब यमराजने कहा कि, वह अपने कर्मोंसे बँधे पडे हैं कैसे लाऊं ? तव श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि उन्हें मेरी आज्ञा हुई है कुछ मेरी आज्ञासे

गत्वा जनार्दनः शंखं प्रदध्मौ सहलायुधः॥ शंखनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः॥४३॥ तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपसंहिताम्॥ उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्॥ लीलामनुष्ययोर्विष्ण्वोर्युवयोः करवाम किम्॥४४॥ श्रीभगवानुवाच॥ गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्म- निबंधनम्॥ आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः॥४५॥ तथेति तेनोपनीतं गुरुपुत्रं यद्वत्तमौ॥ दत्त्वा स्वगुरवेभूयो वृणीष्वेति तमूचतुः॥४६॥ सम्यक् संपादितो वत्स भवद्ध्यां गुरुनिष्क्रयः॥ कोनु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते॥४७॥ गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी॥छंदांस्ययातयामानि भवंत्विह परत्र च॥४८॥ गुरूणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा॥ आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै॥ ४९॥

कर्म बलवान नहीं है॥ ४५॥ तब " जो आज्ञा " ऐसा कहकर यमराजने गुरुपुत्र लादिया, इसके पीछे यादवोंमें उत्तम श्रीकृष्ण वलदेव उसको ले अपने गुरुको देकर बोले कि, और वर मांगो॥ ४६॥ तव गुरु कहने लगे कि, हे पुत्र ! तुमने गुरुसेवा भलीभांति करी और तुमसरीखोंका जब मैं गुरु हुआ तब मेरे कौन बातकी चाहना शेष रही ?॥ ४७॥ हे वीर ! अब तुम अपने घरको जाओ इस लोक और परलोकमें तुम्हारी पवित्र कीर्त्ति होवे, तुम्हारे वेद नवीन पढेहुए स्मरण बने रहैं॥ ४८॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् ! इस प्रकार गुरुसे आज्ञा पाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेव

दोनों भाई पवनके समान शीघ्रगामी मेघकी तुल्य गर्जनेवाले रथमें बैठ अपने घरको आये॥ ४९॥ बहुत दिनोंसे नहीं देखनेके कारण रामकृष्णका दर्शनकर प्रजा बडे आनन्दको प्राप्त हुइ जैसे गयाहुआ धन मिलनेसे आनन्द होताहै॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां गुरुकुलवासो नाम पंचचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥ दोहा-छियालीस अध्यायमें; उद्धव व्रजहि पठाय। शोक यशोदा नन्दको, मेटो ज्ञान सिखाय॥ ४६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् !यादवोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णके प्रिय मंत्री सखा अर्थात् बृहस्पतिके शिष्य बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जो उद्धवजी थे॥ १॥ उन्हें शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने एकान्तमें बुला हाथ पकडकर कहा॥ २॥ हे उद्धव !

समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ। अपश्यंत्यो बह्वहानि नष्टलव्धधना इव॥५०॥ इति श्रीमद्भाग०म० द०पू० नन्दादिसान्त्वनोग्रसेना- भिषेकगुरुकुलवासकरणं नाम पंचचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥ श्रीशुक उवाच॥ वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णस्य दयितः सखा॥ शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः॥१॥ तमाह भगवान्प्रेष्ठंभक्तमेकांतिनं क्वचित्॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः॥२॥ गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह॥ गोपीनां महियोगाधिं मत्संदेशैर्विमोचय॥३॥ ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः॥ ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्॥ ४॥ मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः॥ स्मरंत्योंग विमुह्यंति विरहौत्कंण्ठ्यविह्वलाः॥ ५॥

हे साधु ! तुम व्रजको जाओ हमारे माता पिताको प्रसन्न करो और गोपियोंको जो मेरे बिछुडनेमें कष्ट हुआ है सो मेरा संदेशा लेजाकर दूर करो ॥३॥मुझमें जिनके मन और प्राण लग रहे हैं मेरेलिये पति पुत्रादि त्याग दिये हैं मैंही प्यारा जिनके आत्मा हूं जो मुझमें मन लगाकर रहती हैं मेरेलिये जिन्होंने इस लोक तथा परलोकके जितने सुखके उपाय हैं सब त्याग दिये हैं. उनको मैं सुख देता हूं॥ ४॥ हे उद्धव ! उनका प्यारा मैं जबसे दूर आया हूं तब से वह गोकुलकी स्त्रियें मेरी सुधि करके विरहसे मेरी चाहके कारण विवश हो मोहित होजातीहैं

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॥ ५॥

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*** शका—**व्रजसे और गोकुलसे मथुरापुरीका चारकोशका अन्तर है और मथुरासे व्रजभी चारही कोश है, परन्तु व्रजको श्रीकृष्ण कभी नहीं गये और गोपीभी मथुराको कभी नहीं गई गोपियें दही छाँउ, माखन बेचनेको भी मथुरापुरीको कभी नहीं गई, छाँछ बेचनेको आतीं तो भीमोहन प्यारेकी मुलाकात होजाती, हे स्वामिन् ! परस्पर मित्रसे मिलनेके लिये स्त्री, वा पुरुष हजारों कोश चले जाते हैं और कृष्ण-

क्योंकि जब मैंने उनसे कह दियाथा कि मैं शीघ्रही आऊंगा इस कारणसे किसी प्रकार वे गोपियें प्राण धारण किये रहीं सो भी महाकष्टसे यदि उनका आत्मा उनके शरीरमें रहता तो दग्ध होजाता वह तो मुझमें लीन है इसीलिये वह प्राण धारण कररहीं हैं॥ ६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इस प्रकार जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा तब उद्धवजी बड़े आदरपूर्वक स्वामीके संदेशको ले रथमें बैठ नंदरायनीके गोकुलको चले॥ ७॥ और सूर्यके छिपतेही शोभायमान नंदरायजीके गोकुलमें पहुँचे तब संध्यासमय आती हुई गायोंके खुरोंकी रेणुसे उद्धवजीका रथ ढक गया॥ ८॥

धारयंत्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान्कथंचन॥ प्रत्यागमनसंदेशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त उद्धवो राजन्संदेशं भर्तुरादृतः॥ आदाय रथमारुह्य प्रययौ नंदगोकुलम्॥ ७॥ प्राप्तो नंदव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ॥ छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः॥ ८॥ वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः॥ धावंतीभिश्च वास्त्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्॥९॥ इतस्ततो विलंवद्भिर्गोवत्सैर्मंडितं सितैः॥ गोदोहशब्दाभिरवैर्वेणूनां निस्स्वनेन च॥१०॥ गायंतीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः॥ स्वलंकृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम्॥११॥

पुष्पवती गायोंके लिये चारों ओरसे मतवाले बैलोंके युद्धका शब्द वहाँ होरहाथा और ऐनोंके भारसे व्याईहुई गायें दौड दौडकर अपने बछडोंके पास आतीथीं॥९॥ जहाँ तहाँ सफेद गायें गायोंके बछड़े कूदते फाँदते फिरते हैं गायोंके दुहनेका शब्द जहाँ तहाँ होरहाहै कोई कहता था “लाओ” कोई कहताथा “देओ” ऐसा कोलाहल जहाँ तहाँ मचरहाथा और बाँसुरी बजनेका भी शोर होरहाथा॥ १०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और

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-और गोपियोंकी ऐसी परम मित्रता थी फिर चार कोशके अन्तर मिले भटे क्यों नहीं इसका क्या कारण ? इधर तो कृष्णके मनमें मोहकी ज्वाला मत्स्करही थी और उधर गोपियोंके हृदयमें मोहकी जाला जलरही थी, फिर क्या कारण जो कोई न तो मथुरासे गया, न कोई गोकुलसे आया ? यह बढा सन्देह है।

**उत्तर—**श्रीकृष्ण लोकनिन्दासे डरे व्रजमें जो लीला हमने करी तब हम बालक ये अव हमारी युवा अवस्था हुई जो गोपी ब्रजसे हमारे पास आवेंगी अथवा व्रजको हम जायेंगे तो पहिलेके समान चरित्र मथुरामें तथा व्रजमें करने पडेंगे और वह चरित्र हम यहाँ करें तो संसारमें हमारी निन्दा होगी, इस बातका डर करके मायासेगोपियोंको मोहित कर दिया जब गोपी मोहको प्राप्त होगई तो मनही मनमें विना कृष्ण ‘यारेके मनमें परिताप तो किया परन्तु मथुराकी ओरको पाँव न रक्खा और भगवान् लोकलाजसे गोकुलको नहीं गये॥

बलदेवजीके मंगलरूप कर्मोंको बनी ठनी गोपियें गातीहुईं अत्यन्त शोभायमान लगतींथीं॥११॥ अग्नि, सूर्य, अभ्यागत, गौ, ब्राह्मण, पितर, देवता इनके पूजन की सामग्री जहाँ तहाँ धरी थी, धूप होरहीथी दीपक जलरहे थे, फूल धरेथे, गोपोंके घरोंमें पूजा होनेसे यह व्रज मनोहर होरहा था॥॥ १२॥ सब ओरसे फुलवारी फूल रहींथीं, पक्षी बोलरहे थे भौंरे गुंज रहेथे राजहंस और कारंडवपक्षी जहां बैठेथे, ऐसे कमलोंके समूहसे वह व्रज शोभायमान होरहा था॥ १३॥ श्रीकृष्णचन्द्रके प्रियमित्र उद्धवजीको आया जान नन्दरायजी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मिले और श्रीकृष्ण चन्द्रके पाससे आये हैं, यह जानकर ईश्वर बुद्धिसे पूजन किया॥१४॥ इसके उपरान्त अत्यन्त श्रेष्ठ सामग्रियोंका भोजन कराय, शय्यापर सुख

अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितैः॥ धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम्॥१२॥ सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्॥ हंसकारंड- वाकीर्णैःपद्मखंडैश्च मंडितम्॥ १३॥ तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्॥ नंदः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियाऽऽर्चयत्॥१४॥ भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्॥ गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसं वाहनादिभिः॥१५॥ क्वचिदंग महाभाग सखा नः शूरनंदनः॥ आस्ते कुशल्यपत्या- द्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्वृतः॥ १६॥ दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना॥ साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा॥१७॥ अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्॥ गोपान्व्रजं चात्मनाथं गावो वृंदावनं गिरिम्॥ १८॥ अप्यायास्यति गोविंदः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्॥ तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रंसुनसं सुस्मितेक्षणम्॥ १९॥

पूर्वक पौढ़ाय, चरण दाब, मार्गका खेद मिटाय, उद्धवजीसे नन्दरायजी बोले॥ १९॥ हे बडभागी उद्भव ! कहो शूरसेनके पुत्र हमारे सखा वासुदेवजी पुत्रोंसहित कुशल पूर्वक हैं ? कंसके बंदीखाने से छूटे हैं ? भाई बन्धु हितकारियों सहित प्रसन्न हैं ?॥ १६॥ और पापी कंस समस्त सेवकों सहित मारा गया. यह बड़ाही मंगल हुवा क्योकि वह कंस धर्मस्वभाववाले यादवोंसे सदा वैर करताथा॥ १७॥ हे उद्धवजी !और यह भी कहो कि, वह कृष्णचन्द्रभी कभी हमारी और अपनी माताकी सुधि करते हैं, तथा सुहृद सखा गोपोंकी सुधि करते हैं ? और जिसके आपदी रक्षक हैं ऐसे ब्रजकी भी कभी सुधि करते हैं, और गौ, ब्राह्मण, गोवर्द्धन पर्वतकी भी कभी सुधि करते हैं ?॥ १८॥ गायोंका हित करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र जब कभी

अपने भाई बंधुके देखनेके लिये आवैंगे तब सुंदर नासिका सुंदर मुसकान चितवनयुक्त उनके मुखका दर्शन करेंगे॥ १९॥ दावाग्निसे, पवनसे, इन्द्रकी वर्षासे, विषयुक्त सर्पसे, अघासुरसे और बडी बडी मृत्युओंसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने हमारी रक्षा करी॥ २०॥ हे उद्धवजी ! “भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पराक्रम और लीलापूर्वक कटाक्षभरी चितवन, हँसन और बोलनेकी सुधि करते हैं, तब हमारी संपूर्ण क्रिया शिथिल होजाती हैं॥ २१॥ मुकुन्दके चरणोंके चिह्न पर्वत, नदी, वनके स्थान और उनके खेलनेके स्थानोंको जब देखते हैं, तब हमारा मन कृष्णमय होजाता है॥ २२॥ देवताओंका कार्य करनेके लिये. इस संसारमें कृष्ण अवतार लेकर आये हैं उन्हैंमैंदेवताओंमैंउत्तम मानताहूँ और मैंने बडा गंभीर गर्गाचार्यका

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः॥ दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना॥२०॥ स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापांगनिरीक्षितम्॥ हसितं भाषितं चांग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः॥२१॥ सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुंदपदभूषितान्॥ आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम्॥२२॥ मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ॥ सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा॥२३॥ कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं तथा॥ अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः॥२४॥ तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्॥बभंजैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाङ्गिरिम्॥२५॥ प्रलंवो धेनुकोऽरिष्टस्तृणा- वर्तोबकादयः॥ दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया॥२६॥ श्रीशुक उवाच॥ इति संस्मृत्य संस्मृत्य नंदः कृष्णानुराक्तधीः॥ अत्युत्कंठोऽभव- त्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः॥२७॥

वचनभी ऐसेही सुना है ॥३॥दशहजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस और मल्लोंको वैसेही कुवलयापीड हाथीको, सिंह जैसे पशुओंको मारता है उसीप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने लीला पूर्वकही मारडाला॥ २४॥ फिर बडा भारी तीन तालके समान धनुष एक हाथसे उठाकर जैसे हाथी लठियाको तोडताहै उसीप्रकार तोडडाला और सात दिनतक गोवर्द्धन पर्वतको बायें हाथकी अंगुलीपर धारण किया॥ २५॥ प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, तृणावर्त्त, बकासुर आदि और भी जो सुर असुरोंके जीतनेवाले दैत्य थे, सो श्रीकृष्णचन्द्रने लीला पूर्वकही मारडाले॥ २६॥ श्रीशुक देवजी बोले कि, हे राजन्! कृष्णमें प्रेमबुद्धिवाले नन्दरायजी इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सुधि करके, आँखोमें आँसू भर गद्गद कण्ठ प्रेमके

भावमें व्याकुल होकर चुप होगये॥ २७॥ यशोदाने जो ऐसे वर्णन कियेजाते श्रीकृष्णके सुन्दर चरित्र श्रवण किये, तो स्नेहसें स्तनोंमें दूध उमडि आया और नेत्रोंसे आंसू बहने लगे॥ २८॥ इस प्रकार नन्दराय और यशोदाका भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें परम अनुराग देखकर उद्धवजी नन्दजीसे बोले॥ २९॥ उद्धवजी बोले कि, मानदेनेवाले नंदजी! इस संसारमें देहधारियोंके मध्यमें निश्चय तुम प्रशंसाके योग्य हो,‘क्योंकि जो सबके गुरु नारायण हैं, उनमें ऐसी बुद्धिं लगाई हैं॥ ३०॥ यह जो कृष्ण बलदेव हैं, सो विश्वके लिये उपादान कारण हैं इसीसे पुरुषप्रकृतिरूप हैं, सब प्राणियोंमें प्रवेश करके अनेक प्राणियोंके अनेक प्रकारके ज्ञानके साक्षी और अनादि हैं॥ ३१॥ प्राण छूटती समय

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च॥ शृण्वंत्यश्रूण्यवस्त्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा॥२८॥तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः॥ वीक्ष्यानुरागं परमं नंदमाहोद्धवो मुदा॥ २९॥ उद्धव उवाच॥ युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनीमिह मानद ॥नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी॥ ३०॥ एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी रामो मुकुंदः पुरुषः प्रधानम्॥ अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ॥३१॥ यस्मिञ्जनः प्राणवियोगकाले क्षणं समावेश्य मनो विशुद्धम्॥निर्हृत्य कामाशयमाशु याति परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः॥३२॥ तस्मिन्भवंतावखिलात्महेतौनारायणे कारण- मर्त्यमूर्तौ॥ भावं विधत्तां नितरां महात्मन्किं वाऽवशिष्टं युवयोः सुकृत्यम्॥ ३३॥ आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः॥ प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्त्वतां पतिः॥ ३४॥ हत्वा कंसं रगमध्ये प्रतीपं सर्वसात्त्वताम्॥ यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत्॥ ३५॥

यह पुरुष क्षणभर शुद्ध मनको जिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लगा शीघ्रही कर्मोंकी वासनाओंको छोड सूर्यके समान प्रकाशमान ब्रह्मरूप होकर परमंगतिको प्राप्त करता है॥ ३२॥ जब सबके आत्मा कार्य और कारणसे मनुष्यरूप धरे परिपूर्ण नारायणमें अतिशय करके तुम भक्ति करतेहोतो फिर तुमको क्या करना शेष रहा॥ ३३॥ अच्युत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्रही व्रजको आवेंगेक्योंकि वह भक्तोंका पालन करनेवाले हैं, इसलिये तुम्हैंऔर यशोदाको वह थोडेही दिनोंमें आनकर आनन्द देंगे ॥३४॥ सब यादवोंके वैरी कंसको रंगभूमिमें मार तुम्हारे पास आनकर

श्रीकृष्णचन्द्रने जो वचन कहा था, उसे अवश्य सत्य करेंगे॥ ३५॥ हे बडभागियो!अब तुम कुछ खेद मत करो, कृष्णको अपने पासही देखोगे, क्योंकि जैसे लकडीमें ज्योति रहतीहै उसी प्रकार सब प्राणियोंके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रहते हैं॥ ३६॥ श्रीकृष्णचन्द्रको न कोई प्यारा है न कोई कुप्यारा है, न कोई उत्तम है, न कोई अधम है, न कोई समान है, न कोई विषम है और न उन्हैंअभिमान है, वह तो समदृष्टिहैं॥ ३७॥ न उनके माता है, न पिता है, न स्त्री है, न पुत्रादिक हैं, न उनके देह है और उनका जन्म भी नहीं है॥ ३८॥ इन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कर्मभी नहीं हैं क्योंकि वह तो संसारमें देवादिक, मनुष्यादिक, नृसिंहादिकोंकी जो योनि हैं, उनमें खेलनेके लिये और साधुपुरुषोंकी रक्षा करनेके लिये

माखिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमंतिके॥ अंतर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि॥ ३६॥ न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वाऽस्त्यमानिनः॥ नोत्तमो नाधमो वाऽपि समोनास्यासमोऽपि वा॥ ३७॥ न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः॥ नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च॥ ३८॥ न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु॥ क्रीडार्थं सोपि साधूनां परित्राणाय कल्पते॥ ३९॥ सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्॥ क्रीडन्नतीतोऽत्र गुणैः सृजत्यवति हंत्यजः॥४०॥ यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते॥ चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः॥ ४१॥ युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः॥ सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः॥ ४२॥ दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च॥ विनाऽच्युताद्वस्तुतरां न वाच्यं स एव सर्वं परमार्थभूतः॥ ४३॥

प्रगट होतेहैं॥३९॥ निर्गुण भगवान् सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, इन तीन मायाके गुणोंको अंगीकार करतेहैं और निर्गुणसे अलग अजन्मा भगवान् क्रीडा करके विश्वको उत्पन्न, पालन तथा संहार करतेहैं॥ ४०॥ जैसे बालक चाँईं मांईं फिरताहै तब उसकी दृष्टि फिरती है और उससे पृथ्वी फिरतीसी दिखलाई देती है, इसी प्रकार चित्त जो कर्त्ता है, उसमें अहंकारसे आत्मा भी कर्तासा दिखाई देताहै॥ ४१॥ यह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारेही पुत्र नहीं हैं, बरन सबके पुत्र हैं, आत्मा हैं, पिता हैं, माता हैं और ईश्वरोंके ईश्वर हैं॥ ४२॥ जो कुछ दीखता है और जो कुछ

होचुका और जो होता है और जो होगा और जो स्थावर जंगम हैं, जो कुछ बड़ा छोटा है, सो सब श्रीकृष्णचन्द्रके विना अतिशय करके कहनेके योग्य नहीं है. परमार्थ रूप श्रीकृष्ण हैं सोई सर्वरूप हैं॥ ४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् !इसी प्रकार वार्ता करते करते सब रात्रि बीत गई और गोपियें प्रातःकालको उठ, दीवे बाल, देहलियोंका पूजनकर, दही मथने लगीं॥ ४४॥ दीवोंसे प्रकाशमान मणियोंके जड़ाऊ गहनोंसे उस समय वह गोपियें अत्यन्त शोभायमान लगनेलगीं, नेतियोंके खैंचनेसे भुजाओंके चूरी कंकण हिल रहे हैं, नितम्ब हिलते जाते हैं, स्तनोंपर हार भी हिलता है, कुण्डलोंसे प्रकाशमान कपोल और अरुण केशरकी खौर मुखपर लगी है॥ ४५॥ कमलदललोचन भगवान्

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता नंदस्य कृष्णानुचरस्य राजन्॥ गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्वास्तृन्समभ्यर्च्य दधीन्यमंथन्॥४४॥ ता दीपदीप्तै- र्मणिभिर्विरेजू रज्जूर्विकर्षद्भुजकंकणस्रजः॥ चलन्नितंबस्तनहारकुंडलत्विषत्कपोलारुणकुंकुमाननाः॥४५॥ उद्गायतीनामरविंदलोचनं व्रजां- गनानां दिवमस्पृशुद्धनिः॥ दध्नश्च निर्मंथनशब्दमिश्रितो निरस्यते येन दिशाममंगलम्॥४६॥ भगवत्युदिते सूर्ये नंदद्वारि व्रजौकसः॥ दृष्ट्वा रथं शातकौंभं कस्यायमिति चा+वन्॥४७॥ अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः॥ येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः॥ ४८॥

श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र जब व्रजबालाओंने गाया, तब वह गीत स्वर्गतक पहुँचा और दहीके मथनेका शब्द भी उस गीतमें मिल रहा था, उन गोपियोंके गीतोंसे दिशाओंके सब अमंगल दूर होजातेहैं॥ ४६॥ भगवान् सूर्यके उदय होनेपर नंदरायजीके दरवाजेपर सुनहरी साजका रथ खड़ा देखकर “यह किसका रथ है” इसप्रकार कहते व्रजवासी नर नारी कहने लगे॥ ४७॥ कि, क्या कंसके कार्यका साधक अक्रूर आया है! जो कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मथुरा लेगयाहै फिर अपने स्वामीको मरवाकर अब क्यों आया ? अब क्या हमें लेजाकर हमारे मांसके पिंड

बनाकर देगा। इस प्रकार गोपियें आपसमें बातें करही रहीथीं कि, इननेहीमें उद्धवजी संध्योपासनादि नित्यकर्म करके आये॥ ४८॥ ४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायां षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४६॥ दोहा-उद्धव सैंतालीसमें, पायकृष्ण आदेश। गोपिनको जाके दियो, तत्त्वज्ञान उपदेश॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित! लम्बी भुजा, नवीन कमलसे नेत्र, पीताम्बर पहरे कमलकी माला धारण किये, प्रकाशमान मुखारविन्द स्वच्छ कानोंमें कुण्डल पहरे कृष्णके अनुचर उद्धवजीको देख व्रजकी स्त्रियोंको परम आश्चर्य प्राप्त हुआ और परस्पर कहने लगीं॥१॥ कि, सुन्दर रूप यह कौन है, कहाँसे आया है ? भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकेसा वेष हैं, वैसेही गहने पहर रहा है, इसप्रकार

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम्॥ इति स्त्रीणां वदंतीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे नंदशोकापनयनंनाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥ श्रीशुक उवाच॥ तं वीक्ष्य कृष्णानुचरं व्रजस्त्रियः प्रलंबबाहुं नवकंजलोचनम्॥ पीतांबरं पुष्करमालिनं लसन्मुखारविंदं परिमृष्टकुंडलम्॥१॥ शुचि स्मितः कोऽयमपीच्यदर्शनः कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः॥ इति स्म सर्वाः परिवब्रुरुत्सुकास्तमुत्तमश्लोकपदांबुजाश्रयम्॥ २॥ तं प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः॥ रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने विज्ञाय संदेशहरं रमापतेः॥ ३॥ जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्॥ भर्त्रेहप्रेषितः पित्रोर्भवान्प्रियचिकीर्षया॥ ४॥ अन्यथा गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे॥ स्नेहांनुबंधो बंधूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः॥ ५॥

सब गोपियोंने श्रीकृष्णचंद्रके चरणारविन्दका भक्त जान उद्धवजीको चारों ओरसे घेरलिया॥ २॥ और अत्यन्त आधीनतासे नम्र हो, लाजभरी हँसन, चितवन तथा मीठी वाणीसे सत्कारकर एकान्त आसनपर बैठे उद्धवजीको श्रीकृष्णचन्द्रके पाससे संदेशा लेकर आये जान, वह गोपियें पूछने लगीं॥ ३॥ कि, हमैंजान पड़ता है तुम श्रीकृष्णचन्द्रके सेवक हो और माता पिताके प्रसन्न करनेको तुम्हैंश्रीकृष्णचन्द्रने भेजा हैं॥ ४॥ क्योकि इस व्रजमें और कोई ऐसा नहीं है, जो उन्हैंस्मरण आंवे और माता पिताका तो स्नेह बड़े वैराग्यवान् पुरुषपर भी नहीं छूट सक्त

इसी कारण औरोंसे यहाँ अपने कार्यके लिये मित्रता जनाई, जबतक कामपडा,तबतक मित्रता रक्खी, जैसे पुरुष स्त्रियोंसे प्यार करता है और भौरा फूलो से प्यार रखता है, यह स्वार्थदीकी प्रीति है॥ ५॥ ६॥ यद्यपि उन श्रीकृष्णचन्द्रने हमसे प्रीति करी थी, परन्तु तौभी दरिद्रीपुरुषको जैसे वेश्या त्याग देती है, प्रजा असमर्थ राजाको त्यागदेती है और दक्षिणापाकर पुरोहित जैसे यजमानको त्याग देता है॥ ७॥ पक्षी जैसे फलरहित वृक्षको छोड देते हैं, अभ्यागत भोजन करके जैसे गृहको त्याग देतेहैं, जारंपुरुष भोग करके जैसे स्त्रीको त्यागदेता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र हमको त्यागकर चलेगये॥ ८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित!भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके दूत उद्धवजी जिस समय व्रजमें

अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडंबनम्॥ पुंभिः स्त्रीषु कृतां यद्वत्सुमनस्स्विव षट्पदैः॥६॥ निस्स्वं त्यजंति गणिका अकल्पं नृपति प्रजाः॥ अधीतविद्या आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम्॥७॥ खगावीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम्॥दग्धं मृगास्तथाऽरण्यं जारी भुक्त्वारतां स्त्रियम्॥ ८॥ इति गोप्यो हि गोविंदे गतवाक्कायमानसाः॥ कृष्णदूते व्रजं यातेउद्धवे त्यक्तलौकिकाः॥९॥ गायंत्यः प्रियकर्माणि रुदत्यश्च गतह्रियः॥ तस्य संस्मृत्यसंस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः॥१०॥ काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायंति कृष्णसंगमम्॥ प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत्॥११॥ गोप्युवाच॥ मधुप कितवबंधो मा स्पृशांध्रिंसपत्न्याः कुचविलुलितमालाकुंकुमश्मश्रुभिर्नः॥ वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं। यदुसदसि विडंब्यंयस्य द्रुतस्त्वमीदृक्॥ १२॥

आये, उसीसमय गोपियोंकी वाणी, देह, मन, इत्यादि गोविंदमै जायलगे, अधिक क्या कहें, लौकिकव्यवहार खानपानादिक भी सब छूटगये॥ ९॥ अपने प्यारेके कर्मों की गानेलगी और भगवान् केशवमूर्ति बाल अवस्था तथा तरुण अवस्थाकै जो चरित्र थे, उनको याद कर, लाज त्याग, रोतीहुईं उद्धवजीसे पूछने लगी और कोई एक गोपी उद्धवजीका स्वरूप देख, श्रीकृष्णके संगका ध्यान कर भौैरेको देख उसे प्यारेका भेजाहुआ दूत जान वक्ष्यमाण वचन कहनेलगीं, अर्थात् भौरेके बहाने उद्धवजीसे कहने लगीं॥ १०॥ ११॥ गोपी बोली कि, हे मधुप हे! कपटी मित्र ! हमारे चरणोंका स्पर्श मत करै, क्योंकि भौंरेका देह तो काला और मुख पीला होताहै और तेरे तो सोतके कुचसे मीठी पुष्पोंकी

मालाकी केशर डाढी मूछोंमें लगी है, जो तू स्पर्श करेगा तो हमें स्नान करना पडेगा, यदि कहो कि, मुझे तो तुम्हारे प्रसन्न करनेको श्रीकृष्णचन्द्रने भेजाहै, सो तुम जाकर मथुराकीही स्त्रियोंको प्रसन्न करो, जैसे तू हमारे पास आया है, इसी प्रकार यादवोंकी स्त्रियोंके पास भी गयाहोगा, परन्तु यादवोंकी सभामें इस बातकी हँसी हुई होगी कि, कृष्णका दूत ऐसा निर्लज्ज है॥ १२॥ जैसा तू है, वैसाही तेरा स्वामी है, जैसे तू फूलोंकी सुगंधिले उसी समय उनको छोड़देताहै, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने भी मोहित करनेवाला अपने अधरोंका अमृत एकबार पिलाय हमको त्यागन करदिया, परन्तु बड़े आश्चर्यकी बात है कि, लक्ष्मी उनके चरण कमलका कैसे सेवन करतीहै, अनुमान होता है कि, श्रीकृष्णके मीठे मीठे वचनोंसे उसका चित्त हरगया होगा, इसीलिये वह पड़ी रहती है॥ १३॥ हे भ्रमर ! तू हमारे प्रसन्न करनेको श्रीकृष्णचरित्र क्यों गाता है,

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्॥ परिचरति कथं तत्पादपद्मं तु पद्मा ह्यपि बत हृतचेता उत्तमश्लोकजल्पैः॥१३॥ किमिह बहु षडंघ्रेगायसि त्वं यदूनामधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्॥ विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसंगःक्षपितकुचरुजस्ते कल्पयंतीष्टमिष्टाः॥१४॥ दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः कपटरुचिरहासभ्रूविजृंभस्य यास्स्युः॥ चरणरज उपास्ते यस्य भृतिर्वयं का अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः॥ १५॥ विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहंचाटुकारैरनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुंदात्॥ स्वकृत इव विसृष्टापत्यपत्यन्यलोकाः व्यसृजदकृतचेताः किं नु संधेयमस्मिन्॥ १६॥

क्योकि हमनें तो घर इत्यादि भी त्याग दियाहै, श्रीकृष्णकी सखी मथुराकी जो स्त्रियें हैं, उनके आगे उनका प्रसंग गा, जिनकी कामाग्नि वह शान्त करतेहैं, वह प्यारी सखियें तुझे रीझकर कुछ देंगी॥ १४॥ हे कपटी कपटभरी रुचिर हाँसीवाले श्रीकृष्णचन्द्रकी भ्रुकुटीकी मरोर ऐसी है कि, स्वर्ग, पृथ्वी और पातालकी स्त्रियें भी उन्हें दुर्लभ नहीं हैं, लक्ष्मीजी जिनके चरणरजकी सेवा करती हैं, वहाँ हमारी क्या चलसक्ती है, परन्तु तौभी हमने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका उत्तमश्लोक नाम सुनाहै, सो जब हम गरीबनियोंकी सुधि लेंगे, तब वह नाम रहेगा, नहीं तो जाता रहेगा॥ १५॥ अपने शिरको मेरे पाँवोंमेंसे उठाले, क्योंकि मैं तेरी संपूर्ण घातें जानतीहूं, तू मुकुंद श्रीकृष्णचन्द्रसे दूतकर्म सीखकर

चतुर होगया है, देखो हमने इस संसारमें श्रीकृष्णचन्द्रकेलिये पति, पुत्र, लोक, परलोक सब छोड़ दिया और वह हमें छोड़कर चलेगये, अब उससे हमें क्या मिलाप करना? इस प्रकार गोपियें कहनेलगीं॥ १६॥ फिर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पहले कर्मोंकी सुधि करके कहनेलगीं कि हम को श्रीकृष्णसे भय लगता है क्योंकि पहले अयोध्यामें राजा दशरथके पुत्र रामचन्द्र हुये, तो सुग्रीवकी ओर होकर वधिक समान वालिको मारा; व्याध तो मांस खानेके लिये मारे है परन्तु इन्होंने तो व्यर्थही मारा, बंदरका कोई मांस नहीं खाताहै, दूर्वादलश्यामके सुन्दर रूपपर रीझकर रावणकी बहन शूर्पणखा आई, तो लक्ष्मणको दिखा, स्त्रीके वश हो उसके नाक कान काटलिये फिर वामन अवतार लेकर काकके समान आचरण कर राजा बलिकी भेंट पूजा ले उसीको बाँध दिया इस कारण हम इस कालेकी मित्रतासे अघायगईं, अब कभी भूलकर भी, कालोंसे मित्रतान करेंगी

मृगयुरिव कपींद्रं विव्यधे लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्॥ बलिमपि बलिमत्त्वाऽवेष्टयद्धांक्षवद्यस्तदलमसितसख्यैर्दुस्त्य- जस्तत्कथाऽर्थः॥१७॥ यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्सकृददनविधूतद्वंद्वधर्मा विनष्टाः॥ सपदि गृहकुटुंबं दीनमुत्सृज्य दीना बहव इह विहंगा भिक्षुचर्यां चरंति॥१८॥ वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः॥ ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्रस्मररुज उपमंत्रिन्भण्यतामन्यवार्ता॥ १९॥

तब उद्धवजी बोले कि, मैं जिस समयसे आयाहूं तुम उनकीही बातें कररही हो, तो गोपी बोलीं कि, जैसे उनमें और गुण हैं उसी प्रकार यह अवगुण है यद्यपि उनको दुःखदायी जानती हैं, परन्तु तौ भी उनकी बातोंका छूटना तो हमसे महाकठिन है॥ १७॥ जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लीलाचरित्ररूपी अमृतका कानोंमें एक कणका भी स्वाद लेलियाहै, वह राग, द्वेष, त्याग असत्यके तुल्य हो दुःखरूप पुत्र पौत्रादिकोंत्याग भोगोंको छोड़ पक्षीके समान घर घर भीख माँगते फिरते हैं॥ १८॥ जैसे अज्ञानी कृष्णसार हरिणकी स्त्री हारणी वधिकके गीतसे मोहित होकर घायल होजाती है उसी प्रकार हमने कपटी श्रीकृष्णका वचन सत्य मानकर यह देखा, जिनके नखोंके स्पर्शसे हमैंभी कामदेवकी पीड़ा उत्पन्न हुई,

इस लिये हे दूत! उस कपटीकी बात, जानेदे और बात कहु॥ १९॥ हे प्यारेके सखा ! क्या तू फिर आया, तुझे प्यारे कृष्णने भेजा है, इस कारण हे दूत! तू पूजा करनेके योग्य है और जो तुझे इच्छा हो सो वर माँग, क्या लक्ष्मीका संग, न छोड़नेवाले, श्रीकृष्णचन्द्रके पास हमैंलेचलना चाहता है परन्तुकैसे लेजायुगा, क्योंकि उनके वक्षस्थलमें तो लक्ष्मीजी, संगही रहती हैं इसलिये हमारा क्या प्रयोजन है॥ २०॥ हे सौम्य! भला श्रीकृष्णचन्द्र तो अभी मथुरामे वास करते हैं, कभी उन्हें अपने माता पिता नन्द यशोदा आदिकका भी स्मरण आता है और कभी अपने बंधु बांधवोंकी भी याद करते हैं, कभी गोपोंका भी स्मरण करते हैं और कभी हमारी बात भी चलाते हैं, अगरके समान सुगंधवाली भुजा कभी हमारे शिरपर भी आनकर

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसाः प्रेषितः किं वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेंग॥ नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वंद्वपार्श्वं सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते॥ २०॥ अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनाऽस्ते स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बंधूंश्च गोपान्॥ क्वचिदपि स कथा नः किंकरीणां गृणीते भुजमगुरुसुगंधं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथोद्धवोनिशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः॥ सांत्वयन्प्रियसंदेशैर्गोपीरिदमभाषत॥ २२॥ उद्धव उवाच॥ अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः॥ वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः॥२३॥ दानव्रततपोहोमजप- स्वाध्यायसंयमैः॥ श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते॥२४॥ भगवत्युत्तमश्लोके भवतीभिरनुत्तमा। भक्तिः, प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा॥

धरेंगे॥ २१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! इस प्रकार उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनकी चाहना गोपियोंकी सुन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके संदेशको समझानेलगे॥ २२॥ उद्धवजी बोले कि, हे गोपियो ! तुमने भगवान वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाया है इस लिये तुम निश्चय कृतार्थ होगईं और संपूर्ण लोकोंमें तुम्हारा यश होगा॥ २३॥ क्योंकि दान, व्रत, तप, होम, जप, यज्ञ, वेदपाठ, इन्द्रियोंका रोकना और अनेक प्रकारके कल्याणके उपाय सब करनेका फल यही है, जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र में भक्ति हो॥ २४॥ बड़े मुनीश्वरोंको दुर्लभ भक्ति तुमने

उत्तमश्लोक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें करी, यह बड़ा मंगल है *॥२५॥ पति, पुत्र, देह, भाई, बंधु और अपने घरोंको त्याग परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको तुमने अपना पति करा, यह बहुत बड़ा मंगल हुआ॥ २६॥ हे बडभागियो!इन्द्रियोंकी जिनमें गम नहीं, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें विरहसे एकान्तभक्ति तुम्हैंउत्पन्न हुई, यह तुमने मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया॥२७॥ हे मंगलरूपिणियो!तुमको सुख देनेवाले प्यारेका संदेशा कहता हूँ सो सुनो, श्रीकृष्णचन्द्रके रहस्यकार्य करनेवाले संदेशको लेकर मैं आया हूँ॥ २८॥ उद्धवजी गोपियोंसे भगवान्ने श्रीसुखसे जो

दिष्ट्या पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च॥ हित्वाऽवृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम्॥२६॥ सर्वात्मभावोधिकृतो भवतीनामधोक्षजे॥ विरहेण महाभागामहान्मेऽनुग्रहः कृतः॥२७॥ श्रूयतां प्रियसंदेशो भवतीनां सुखावहः॥ यमादायागतो भद्रा अहं भर्त्तूरहस्करः॥२८॥ श्रीभग- वानुवाच॥ भवतीनां वियोगो मेन हि सर्वात्मना क्वचित्॥ यथा भूतानि भूतेषु ख वाय्वग्निर्जलं मही॥ तथाऽहं च मनः प्राणभूतेंद्रियगुणात्मना॥ २९॥ आत्मन्येवात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये॥ आत्ममायानुभावेन भूतेंद्रियगुणात्मना॥ ३०॥

वचन कहे थे, सो कहने लगे, श्रीभगवान्ने उपदेश किया है कि, सबका उपादान कारण मैं हूँ सो मुझसे तुम कभी दूर नहीं हों जैसे आकाश, पवन, जल, पृथ्वी, तेज ये पंचतत्त्वसमस्त प्राणियोंकी देहमें रहते हैं॥२३॥ उसी प्रकार मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय और गुण इनका आश्रय हूं, अपनेमें अपनेसे अपनेको उत्पन्न करता हूं और अपनी मायाके प्रभावसे पंचभूत इन्द्रियें तीनोंगुण इनरूप जो अपनपो है, इसीलिये सृष्टिको

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** * शंका—**गोपियोंने क्या, बडी भक्ति कृष्णमें की थी कि, जिस भक्तिकी प्रशंसा उद्धवजीने करी क्या ऐसी भक्ति योगीलोग नहीं करसक्ते यद्यपि कोई कहें कि पति आदि सब परिवारसे कपट करके भगवान श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रीति गोपियोंने करी तो कुटुम्बसे कंपट करना यह कौनसा उत्तम कर्म है; कपटको तो मुनिलोग क्या सबही लोग बुरा कहते हैं॥

** उत्तर—**कपट करके जो ऊपरसे नवधा भक्ति भी करे सो मुक्ति नहीं वह तो धर्मके फाटनेके लिये कतरनी है मनुष्यके ऊपर तो मुक्तिका लक्षण ऐक भी नहीं दीखपडे और मनमें सब भक्तिके लक्षण होय वह भक्ति मुक्तिकी देनेवाली है गोपियोंने ऊपरसे तो निन्दारूप कर्म किये और मनमें भक्तिका सब लक्षणकरती थीं, इसलिये उद्धवने कहा कि गोपियोंने जो मुक्ति भगवान्कीकी है सो भक्ति मुनिजनोंको दुर्लभ है॥

उत्पन्न पालन और नाश करता हूं॥ ३०॥ यहाँ यह शंका है कि, आत्मा पंचभूत रूप होय तो उसे पंचभूतोंके संग दोष लगता है, इसका उत्तर देते हैं कि, आत्मा तो शुद्ध है, क्योंकि मायाके गुणोंमें जाता है सबसे अलग और ज्ञानरूप है, अहंकारके कारण जाननेमें नहीं आता, आत्माकी न्यारी अवस्था है, शुद्धता कैसे? तो कहते हैं सुषुप्ति, स्वप्न, जाग्रत् यह जो मनकी वृत्ति हैं, उनसे प्रतीत होता है॥ ३१॥ जैसे जागता हुआ मनुष्य स्वप्नको झुंठाही जानताहै, उसी प्रकार पण्डितजन जिनको झूंठा मानते हैं, ऐसे विषयोंका जिनसे चिंतवन कियाजाता है और चिंतवन करते इन्द्रियों पर असर होता है, उस मनको आलस्य त्यागकर रोकना चाहिये॥ ३२॥ जब जिस मनुष्यका मन रुक जाता है तब वह पुरुष कृतार्थ होताहै और यह कहते हैं कि, वेद पढ़नेका, अष्टांगयोग करनेका अनात्माके विचार करनेका त्याग, सब इन्द्रियोंका जीतना सत्य बोलना, इत्यादि कर्मोंसे विवेकी

आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः॥ सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते॥३१॥ येनेंद्रियार्थान्ध्यायेत मृषास्वप्नवदुत्थितः॥ तन्निरुंध्यादिंद्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत॥ ३२॥ एतदंतः समाम्नायो योगः सांख्यं मनीषिणाम्॥ त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रांता इवापगाः॥ ३३॥ यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्॥ मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया॥ ३४॥ यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते॥ स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षगोचरे॥ ३५॥ मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्॥ अनुस्मरत्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ॥ ३६॥ या मया क्रीडता रात्र्या वनेऽस्मिन्व्रज आस्थिताः॥ अलब्धरासाः कल्याण्यो माऽऽपुर्मद्वीर्यचिंतया॥ ३७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः॥ ता ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्संदेशाऽऽगतस्मृतीः॥ ३८॥

पुरुषोंसे मन रुकता है, यही फल है जैसे नदियोंका अंत समुद्र में होता है॥ ३३॥ ३४॥ जैसे दूर रहे प्यारेमें स्त्रीका मन लगा रहता है और जो सदा नेत्रोंके आगे रहे उसमें चित्त नहीं रहता॥ ३५॥ यदि संपूर्णवृत्ति त्याग मनको मुझ ( कृष्ण ) में लगाये नित्य मेरा ध्यान करती रहोगी तो शीघ्र मुझे प्राप्त होगी॥३६॥ हे मंगलरूपिणियो ! जिस समय मैंने रात्रिके समय वृन्दावनमें रासक्रीड़ा करी थी, उस समय जिन गोपियोंको उनके स्वामियोंने रोकलिया था और इसी कारण वह रासक्रीड़ामें न आ सकीं तब वह मेरी लीलाओंका ध्यान करके मुझेही प्राप्तहुईं॥ ३७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन ! इसप्रकार अपने प्यारे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके उपदेशको सुनकर व्रजकी गोपियें प्रसन्न हो उनका स्मरण कर उद्धवजीसे बोलीं॥ ३८॥

सब गोपियें कहने लगी कि, यादवोंका दुःख देनेवाला अपने भृत्योंसहित राजा कंस मारागया, यह बडा मंगल हुआ और पूर्ण मनोरथको प्राप्त हो अपना हित करनेवालों सहित श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न हैं, यह भी बडा मंगल है॥ ३९॥ हे साधु उद्भव ! रामका छोटा भाई कृष्ण हमसे जो प्रीति करता था, सो प्रीति क्या अब मथुराकी स्त्रियोंसे करताहै ? वह लाजभरी हँसनि और उदार भरी चितवनिसे उनका सत्कार करते हैं ?॥ ४०॥ रतिविशेषके जाननेवाले प्यारे कृष्ण मथुराकी स्त्रियोंके वचनोंसे विलासोंसे सब सत्कार करेंगी, तब कैसे न बँधेंगे॥ ४१॥ हे साधु उद्धव ! भगवान् गोविंद प्रसंग पाय मथुराकी स्त्रियोंकी सभामें बैठ जब कभी बातें करतेहैं, तब ग्रामकी स्त्रिये हमारा भी कभी स्मरण करतेहैं ?॥ ४२॥ हे उद्धवजी !

गोप्य ऊचुः॥ दिष्ट्याऽहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोऽधकृत्॥ दिष्ट्याऽऽप्तैर्लब्धसर्वार्थैःकुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना॥॥३९॥ कच्चिद्गदाग्रजः सौम्य करोति पुरयोषिताम्॥ प्रीतिं नः स्निग्धसव्रीडहासोदारेक्षणार्चितः॥४०॥ कथं रतिविशेषज्ञः प्रियश्च वरयोषिताम्॥ नानुबध्येत तद्वाक्यै- र्विभ्रमैश्चानुपूजितः॥४१॥ अपि स्मरति नः साधो गोविंदः प्रस्तुते क्वचित्॥ गोष्टीमध्ये पुरस्त्रीणां ग्राम्याः स्वैरकथांतरे॥४२॥ ताः किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभिर्वृंदावने कुमुदकुन्दशशांकरम्ये॥ रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्यामस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित्॥४३॥ अप्येष्यतीह दाशार्हस्तप्ताः स्वकृतया शुचा॥ संजीवयन्नु नो गात्रैर्यथेंद्रो वनमंबुदैः॥४४॥ कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हता हितः॥ नरेंद्रकन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः॥४५॥

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको कभी उन रात्रियोंका भी स्मरण आता है कि, जिनमें कुमोदिनी कुंद फूलरहेथे और चन्द्रमाकी चाँदनीसे रमणीय वृन्दावनमें पाँवोमें नूपुर बजते जाते थे और हमारे संग रमण करते थे और हमने उनकी स्तुति की अब वह कभी हमें याद करते हैं या नहीं ?॥ ४३॥ जैसे ग्रीष्मऋतुसे दग्ध वनके सींचनेको इन्द्र आता है, उसीप्रकार उन कृष्णके दिये शोकसे जली हुई हमको हाथके स्पर्शसे जीवन देते दाशार्हवंशोत्पन्न श्रीकृष्ण चन्द्र कभी यहाँ आवेंगे, या नहीं ?॥ ४४॥ अब श्रीकृष्णचन्द्र यहां क्यों आवेंगे, क्योंकि अब उन्हें राज्य मिलगया, शत्रु मारेगये राजा

ओंकी कन्या व्याहलीं सब मित्र उनके पास हैं, इसलिये वह वहाँही प्रसन्न हैं यहाँ आनकर क्या करेंगे॥ ४५॥ लक्ष्मीके पति पूर्णकाम श्रीकृष्णको वनकी रहनेवाली हमसे और राजाओंकी कन्याओंसे क्या प्रयोजन है॥ ४६॥ आशाका त्यागही बडा सुख है; यह पिंगला वेश्याने ( एकादशस्कन्धमें ) कहा है कि, निराशाके समान सुख नहीं है, यद्यपि यह जानती हैं, परन्तु तोभी हमारी आशा छूटनी अत्यन्त कठिन है॥ ४७॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी एकान्तकी बातें त्यागनेको कौन समर्थ है, यद्यपि उनके रखनेकी इच्छा नहीं, परन्तु तौभी लक्ष्मी अंगसे अलग नहीं होती है॥४८॥ हे उद्धव! बलदेवजीके संग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जिनमें विचरण करते थे, वह नदियें, पर्वत, वनके प्रदेश, गौ, बाँसुरीका शब्द॥ ४९॥

किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मनः॥ श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेताऽर्थः कृतात्मनः॥४६॥ परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिंगला॥ तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाऽप्याशा दुरत्यया॥४७॥ क उत्सहेत संत्यक्तमुत्तमश्लोकसंविदम्॥ अनिच्छतोऽपि यस्य श्रीरंगान्न च्यवते क्वचित्॥ ४८॥ सरिच्छैलवनोद्देशा गावो वेणुरवा इमे॥ संकर्षणसहायेन कृष्णेनाऽऽचरिताः प्रभो॥४९॥ पुनःपुनः स्मारयंति नंदगोपसुतं बत॥ श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं नैव शक्नुमः॥५०॥ गत्या ललितयोदारहासलीलावलोकनैः॥ माध्व्यागिरा हृतधियः कथं तद्विस्मरामहे॥५१॥ हे नाथ हे रमानाथ ब्रजनाथार्तिनाशन॥ मग्नमुद्धर गोविंद गोकुलं वृजिनार्णवे॥ ५२॥

यह सब बेर बेर श्रीकृष्णके चरित्रोंकी याद दिलाते हैं,लक्ष्मीके आस्पद उनके चरणचिह्न देख हमभी विस्मरण नहीं करसक्ती॥ ५०॥ मनोहर चलन, उदार हँसनि, लीला पूर्वक चितवनि, मनोहर वचन इनसे जिन्होंने हमारी बुद्धि हरली; उन श्रीकृष्णचन्द्रको हम कैसे भूलसक्ती हैं॥ ५१॥ इसके उपरान्त वे सब गोपियें मथुराकी ओरको हाथ उठाय पुकारने लगी कि, हे रमानाथ हे व्रजनाथ ! हे दुःख हरनेवाले! हे गोविन्द ! यह नाम तो गायोंका पालन करोगे तभी रहेगा, नहीं तो इस नामसे हाथ धोबेठों और आपको स्मरण होगा कि, इन्द्रने जब वर्षा करी थी, तो तुमने, संकल्प किया था कि मैं अपने व्रजकी रक्षा करूंगा, सो अब तो तुम्हारेही विरहरूपी समुद्रमें संपूर्ण गोकुल डूब जाता है, इसका

शीघ्र आनकर उद्धार करो॥ ५२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे महाराज ! श्रीकृष्णके संदेशसे विरह ताप मिटाय उन गोपियोंने श्रीकृष्णचन्द्रको परमेश्वर जान और परमेश्वरको अपना आत्मा निश्चय कर उद्धवजीकी पूजा करी॥ ५३॥ गोपियोंका शोक दूर करनेके लिये कितनेही मास उद्धवजीने व्रजमें वास किया और श्रीकृष्णकी लीला कथाओंको गाय गाय व्रजवासियोंको परमानन्द दिया॥ ५४॥ जितने दिनोंतक उद्धवजीने व्रजमें वास किया, वह दिन व्रजवासियोंको श्रीकृष्णकी लीलासे क्षणके समान बीतिगये॥ ५५॥ नदी, पर्वत, वन, गुफा, पुष्पित वृक्ष इत्यादिकोंको देख हरिदास उद्धवजी व्रजवासियोंको श्रीकृष्णचन्द्रका स्मरण करानेलगे॥ ५६॥ गोपियोंके चित्तको इस प्रकार श्रीकृष्णमें लीन होनेसे व्याकुल देख

श्रीशुक उवाच॥ ततस्ताः कृष्णसंदेशैर्व्यपेतविरहज्वराः॥ उद्धवं पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वात्मानमधोक्षजम्॥५३॥ उवास कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुद- ञ्छुचः॥ कृष्णलीलाकथां गायन्रमयामास गोकुलम्॥५४॥ या वंत्यहानि नंदस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः॥ व्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया॥५५॥ सरिद्वनगिरिद्रोणीर्वीक्षन्कुसुमितान्द्रुमान्॥ कृष्णं संस्मारयन्रेमे हरिदासो व्रजौकसाम्॥५६॥ दृष्ट्वैवमादि गोपीनां कृष्णाऽऽवे शात्मविक्लवम्॥ उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ॥५७॥ एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो गोविंद एव निखिलात्मनि रूढभावाः॥ वांछंति यद्भवभियो मुनयो वयं च किं ब्रह्म जन्मभिरनंतकथारसस्य॥५८॥ क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः॥ नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षाच्छ्रेयस्तनोत्य गदराज इवोपयुक्तः॥५९॥

परम प्रसन्न हो गोपियोको दण्डवत् करके कहनेलगे॥ ५७॥ इन गोपोंकी स्त्रियोंका पृथ्वीपर जन्म सफल है क्योंकि सबके आत्मा गोविन्दमें इनका अत्यन्त प्रेम हुआ है जिस प्रेमको संसारसे भयभीत मुमुक्षु पुरुष और मुक्त और हम भक्त इच्छा करते हैं अनंत श्रीकृष्णचन्द्रकी कथामें जिसका अनुराग है उसे ब्रह्मजन्मसे क्या प्रयोजन है, अथवा एक तो शुद्ध माता पितासे, द्वितीय गायत्री उपदेशसे, तृतीय यज्ञदीक्षासे जो ब्राह्मणके तीन जन्म हैं, उनसे क्या प्रयोजन है॥ ५८॥ वृंदावनकी विचरनेवाली व्यभिचार दृष्टिसे दूषित गोपस्त्रियें कहाँ और परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रमें

आरूढ़ भाववाले मन कहाँक्योंकि निरंतर भगवान्को स्मरण कर अज्ञानी पुरुष भी कल्याण प्राप्त करता है, जैसे अमृतका सेवन करनेवाला पुरुष अमर होजाताहै ॥१९॥सर्वकाल अंगमें रहनेवाली लक्ष्मीपरभी यह प्रसन्नता न हुई और कमलके गन्धकीसी कान्तिवाली देवांगनाओंको भी जो प्रसाद नहीं मिला, सो रातके उत्सवमें श्रीकृष्णचन्द्रके भुजदण्डोंमें गलबाहीं डाल व्रजसुन्दरियों को मिला॥ ६०॥ इन गोपियोंके चरणरजका सेवन करनेवाले वृंदावन में गुल्म, लता औषधियोंमें कुछेक मेरा जन्म हो, जो गोपियें दुस्त्यज अपने भाई, बंधु बडोंके मार्गको त्याग वेदगम्य मुकुंद श्रीकृष्णचन्द्रके मार्गका सेवन करती हैं॥६३॥ जिन्होंने लक्ष्मीसे पूजित पूर्णकाम ब्रह्मादिक देवता और योगेश्वर अपने हृदयमें

नायं श्रियोंग उ नितांतरतेः प्रसादः स्वर्योषितां नलिनगंधरुचां कुतोऽन्याः॥ रासोत्सवेऽस्य भुजदंडगृहीतकंठलब्धा शिषां य उदगाद्व्रजवल्ल- वीनाम्॥६०॥ आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृंदावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्॥ या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुंदपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥६१॥ या वै श्रियाऽर्चितमजादिभिराप्तकामै योगेश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ठ्याम्॥कृष्णस्य तद्भगवतश्चरणारविंदं न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम्॥॥६२॥ वंदे नंदव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः॥ यासां हरिकथद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥ ६३॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नंदमेव च॥ गोपानामंत्र्य दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम्॥६४॥ तं निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः॥ नंदादयोऽनु- रागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः॥ ६५॥

जिनका चितवन करते उन श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंको राससभामें स्तनोंके ऊपर धर आलिंगन करके इन गोपियोंने तापको दूर किया॥ ६२॥ नंदके व्रजकी स्त्रियोंके चरणकी रजको मैं वारम्बार नमस्कार करता हूं, जिन गोपियोंकी गाई हरिकथा तीनों लोकोंको पवित्र करती है॥ ६३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् ! इसके उपरान्त उद्धवजी गोपियोंसे, यशोदासे और नंद आदिक सब ब्रजवासियोंसे आज्ञा माँग॥१६९॥ गमनसमय अपने रथमें जा बैठे॥ ६४॥ उद्धवजीके विदा होनेके समय नंद आदिक सब व्रजवासी अनेक प्रकारकी भेंट हाथमें ले उद्धवजीकेपास आय स्नेहसे नेत्रोंमें आँसूभर कहने॥६५॥

कि, हमारे मनकी वृत्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दमें लगी है और हमारी वाणी उनका नाम लिया करती है और हमारा शरीर उन श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करता है॥ ६६॥ अपने कर्मानुसार ईश्वरेच्छासे जिस किसी योनिमें हम जाये, तो जो कुछ हमने मंगलरूप कर्म करे हैं अथवा दान करेहैं उनका फल यही माँगती हैं कि, श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति बनी रहे ॥६७॥ हे महाराज ! इस प्रकार गोपियोंने श्रीकृष्णकी भक्तिसे उद्धवजीका सत्कार किया, तब उद्धवजी उनसे बिदा हो कृष्णपालित मथुरापुरीमें आये॥ ६८॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम कर व्रजवासि

मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्णपादांबुजाश्रयाः॥ वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु॥६६॥ कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया॥ मंगलाचरितैर्दानैर्मतिर्नः कृष्ण ईश्वरे॥६७॥ एवं सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नराधिप॥ उद्धवः पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम्॥६८॥ कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रेकं व्रजौकसाम्॥ वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात्॥६९॥ इति श्रीमद्भा०महा० दश० पूर्व०उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोध्यायः॥४७॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ विज्ञाय भगवान्सर्वात्मा सर्वदर्शनः॥ सैरंध्र्याःकामतप्तायाः प्रियमिच्छन्गृहं ययौ॥ १॥

योंकी भक्तिकी अधिकता वर्णन करी, इसके उपरान्त वसुदेव और बलदेवजीको प्रणाम करके राजा उग्रसेनको भेंट दी ॥६९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायामुद्धवप्रतियानवर्णनं नाम सप्तचत्वारिशोऽध्यायः॥ ४७॥ दोहा-अड़तालिस अध्याय हरि, कुबरी रमण कराय॥ हस्तिनापुर अक्रूरको, दीन्हों कृष्ण पठाय॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इसके उपरान्त सबके आत्मा और

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** * शंका—**कुबरीऔर कृष्णका रमण सुनि हमारे मनमें बडा भ्रम हुआ, क्या कारण जो जगत्के ईश्वर होकर कुब्जाके संग रमण किया?

** उत्तर—**सन्यासी होवै, ब्रह्मचारी होवै, वानप्रस्थ होवै, गृहस्थ होवैब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाहे स्त्री पतित होवै, चाहे नपुंसक होवैचाहे सबकर्ममें भ्रष्ट होवैचाहे पुरषहोवैपरन्तु भगवान्की सेवा करे वही भगवान्‌को प्यारा है, सब कर्ममें नीच होये तो कुछ भगवान् बुरा नहीं मानते और वडा उत्तम होवैऔर भगवान्की प्रीति न करे तो उसको भगवान् शत्रुसमान मानते हैं, भगवान् भक्तजनोंकी प्रेमरूप रस्सीमें बँधे हुए हैं जैसा भक्तजन भगवान्को नाच नाचते हैं, वैसा नाच भगवान् नाचते हैं, जैसे काष्ठकी पुतली नचानेवाले पुरुषके आधीन है, ऐसेही भगवान् भी भक्तोंके आधीन हैं और जैसे बैलकी नाकमें नाथ डालके मनुष्य जहाँको चाहे वहाँको लेजाताहै और वेदरूप कृष्ण, वेदकी ऋचारूप कुब्जा भगवान्‌की दासी, इसलिये जैसी कुब्जाने इच्छा करी बैसी भगवान्ने उसकी अभिलाषापूर्ण करी॥ कहीं ऐसा भी

सबके देखनेवाले छः प्रकारके ऐश्वर्य युक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कामसे पीड़ित कुब्जाका प्रिय करनेके लिये उसके घर गये॥ १॥ कैसा वह घर है कि जहाँ अनेक प्रकारकी बहुमूल्य वस्तुयें धरी हैं कामके उद्दीपन करनेवाले जिसमें चित्र लिखे हैं, मोतियोंकी झालरें लटक रही हैं, पताकायें फहरा रही हैं, चंदोवे तन रहे हैं, शय्या तथा शोभायमान आसन बिछ रहे हैं, सुगंधकी धूप लगरही हैं, दीपक प्रज्वलित हो रहे हैं, और माला, अतर, अरगजा आदिसे वह घर अत्यन्त शोभायमान हो रहा है॥ २॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपने घरमें आया देख कुब्जाअति

महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम्॥ मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनादिभिः॥ धूपैः सुरभिभिर्दीपैः स्रग्गंधैरपि मंडितम्॥२॥ गृहं तमायांतमवेक्ष्य साऽऽसनात्सद्यः समुत्थाय हि जातसंभ्रमा॥ यथोपसंगम्य सखीभिरच्युतं सभाजयामास सदासनादिभिः॥ ३॥ तथोद्धवः साधु तयाऽभिपूजितो न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम्॥ कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः॥४॥ सा मज्जनालेपदुकूल- भूषणस्रग्गंधतांबूलसुधासवादिभिः॥ प्रसाधितात्मोपससार माधवं सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः॥ ५॥

शीघ्रतासे आसनपरसे उठ, घबराहटको प्राप्त हो सखियोंको संगलिये श्रीकृष्णचन्द्रके पास आय सुन्दर आसन बिछाय चरण धो सत्कार करने लगी॥ ३॥ उसी प्रकार भली भाँति पूजित हो उद्धवजी आसन स्पर्शकर पृथ्वीमें बैठ गये और लौकिक लीलाओंके करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्रतासे सुन्दर बिछीहुई शय्यापर पहुँचे॥ ४॥ इसके उपरान्त कुब्जा भी स्नान कर, चन्दन लगाय, वस्त्र पहर गहने, माला अतर, अरगजा,

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- लिखा है, कि पुष्पांगी नाम एक वेश्या थी परन्तु भगवान्की वडी भक्तिनी थी, उसने यह सुना कि, रामचन्द्र वनको गये पीछे पीछे यहभी चलदी, वनमें जाकर उसको भगवान्‌का दर्शन हुआ और देखकर मोहित होगई और यह चाहा कि, रामचन्द्रके साथ रमण करू एकसमय रामचन्द्रको अकेला पाकर उनकी कुटीमें जा बैठी, पीछेसे सीता भी वहा आगई और उस वेश्याको वहाँपर बैठी देखा तो बडा क्रोधकर सीताने शाप दिया कि, अगले जन्ममें तेरे सब अग भग होंगे, और तू कुबरीहोगी, और राक्षसकी दासी होगी तब श्रीरामचन्द्रजीने वेश्यासे कहा कि, जब में कृष्णावतार लुगा तो तेरा मनोरथ पूर्ण करूगा, अव तू जा तबतो उस पुष्पांगी वेश्याने शापके भयसे बडी स्तुति की, तब भगवान्ने वर दिया कि, जिस समय मेरा दर्शन तुझको होगा, उसी समय तेरा देह परमोत्तम होजायगा और एक दिन तेरे घरमें वास करूंगा, उस समय तेरी सबमनोकामना पूरी होगी॥

ताम्बूल और अमृतके समान मादकवस्तुसे अपनेको बनाय, ठनाय लाजभरी लीला पूर्वक मुसकान, कटाक्षभरी चितवनसे मोहित हुई श्रीकृष्णचन्द्रके पास आई॥५॥ नवीन समागमकी लज्जासे शंकासहित कुब्जाको बुलाकर कंकणसे शोभायमान हाथको पकड शय्यापर बैठाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसके साथ रमण करनेलगे, अहो !कुब्जाका भाग्य जिसने चंदन लगानेके अतिरिक्त दूसरा कोई पुण्य नहीं किया था॥ ६॥ कामदेवसे पीड़ित कुच और छाती तथा नेत्रोंके तापको अनन्त श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंमें लगाय और उन चरणारविन्दको सूँघि स्तनोंके मध्यमें प्राप्तहुए सुन्दर आनन्दमूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रको भुजाओंसे आलिंगनकर बहुत दिनोंसे बढे तापको त्याग दिया॥ ७॥ चन्दनके अर्पण करनेसे मोक्षके देनेवाले दुर्लभ

आहूय कांतां नवसंगमह्रिया विशंकितां कंकणभूषिते करे॥ प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया॥६॥ सानंगतप्तकुचयो- रुरसस्तथाक्ष्णोर्जिघ्रंत्यनंतचरणेन रुजो मृजंती॥ दोर्भ्यां स्तनांतरगतं परिरभ्य कांतमानंदमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्॥७॥ सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम्॥ अंगरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत॥८॥ आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया॥ रमस्व नोत्सहे त्युक्तं संगं तेंबुरुहेक्षण॥९॥ तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः॥ सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितः॥१०॥ दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरे- श्वरम्॥ यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात्कुमनीष्यसौ॥११॥ अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः॥ किंचिञ्चिकीर्षयन्प्रागादक्रूरप्रियकाम्यया॥ १२॥ स तान्नरवरश्रेष्ठानाराद्वीक्ष्य स्वबांधवान्॥ प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभिनंद्य च॥१३॥

श्रीकृष्णचन्द्रको पाय अभागिनी कुब्जाने यह मांगा॥ ८॥ अहो प्यारे ! कुछ दिनों रहकर मेरे संग रमण करो हे कमलनेत्र ! मैं तुम्हैंत्याग नहीं करसक्ती॥ ९॥ “एकबार तुम्हारे यहाँ नित्य आया करूंगा” इस प्रकार कुब्जाको कामवर दे उसका सन्मानकर, मान देनेवाले, ब्रह्मादिकोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीको संग लेकर अपने घर आये॥ १०॥ संपूर्ण ईश्वरोंके ईश्वर, दुःखसे आराधन करनेमें आवैंऐसे विष्णु भगवान्को प्रसन्न करके जो पुरुष विषयोंका वर मांगे वह बड़ा कुबुद्धि है, क्योंकि विषय तुच्छ हैं॥ ११॥ बलदेव उद्धवजी संग लेकर समर्थ श्रीकृष्णचन्द्रकुछ कार्य करानेके लिये और अक्रूरका भला करनेके लिये उसके घर आये ॥१२ ॥अक्रूरजी मनुष्योंमें श्रेष्ठ अपने बंधु श्रीकृष्ण. बलदेवको

दूरसे आते देख प्रसन्न हो मिलकर अत्यानंदको प्राप्तहुए॥ १३॥ तबकृष्ण वलदेव और उद्धवजीने उन्हें नमस्कार किया, इसके उपरांत अक्रूरजीने कृष्ण बलदेवको प्रणाम कर और आसन पर बैठाय उनकी पूजा करी॥ १४॥ हे राजन्!फिर कृष्ण वलदेवके चरणोंको धोकर उस जलको अपने मस्तक पर चढ़ाया और दिव्य, चंदन, माला, वस्त्राभूषण इत्यादि भेंट दे नमस्कार किया और गोदमें चरणोंको धरके दावनेलगे, इसके उपरांत आधीनतापूर्वक नम्र हो अक्रूरजी कृष्ण वलदेव से कहने लगे॥ १५॥ १६॥ कि, मंत्रियोंसहित पापी कंसको मार बड़े कष्टसे तुमने

ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः॥ पूजयामास विधिवत्कृतासनपरिग्रहान्॥१४॥ पादावनेजनीरापो धारयञ्छिरसा नृप॥अर्हणेनांव- रैर्दिव्यैर्गंधस्रग्भूषणोत्तमैः॥ १५॥ अर्चित्वा शिरसाऽऽनम्य पादावंकगतौ मृजन्॥ प्रश्रयावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत॥१६॥ दिष्ट्या पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम्॥ भवद्भ्यामुद्धृतं कृ+द्दुरंताच्च समेधितम्॥ १७॥ युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ॥ भवद्भ्यां न विना किंचित्परमस्ति न चापरम्॥॥ १८॥ आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभिः॥ ईयते बहुधा ब्रह्मञ्छुतप्रत्यक्षगोचरम्॥१९॥ यथा हि भूतेषु चराचरेषु मह्यादयो योनिषु भांति नाना॥ एवं भवान्केवल आत्मयोनिष्वात्मात्मतंत्रो बहुधा बिभाति॥॥ २०॥ सृजस्यथो लुंपसि पासि विश्वं रजस्तमस्सत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः॥ न वध्यसे तद्गुणकर्मभिर्वा ज्ञानात्मनस्ते क्व च बंधहेतुः॥ २१॥

इस अपने कुलका उद्धार किया और कुलकी वृद्धिका, यह बडाही मंगल हुआ॥ १७॥ तुम प्रकृतिरूप हो जगत्के कारण हो, जगन्मय हो, तुमसे पृथक कुछ कार्य कारण नहीं है॥ १८॥ तुम अपने विश्वमें अपनी शक्तियों सहित प्रवेश करके हे ब्रह्मन् ! श्रवण करनेमें देखनेमें बहुत प्रकारके प्रतीत होतेहो॥ १९॥ जैसे स्थावर, जंगम देहमें पृथ्वी आदि पंचभूत हैं, उनमें अनेक प्रकारसे प्रकाशते हो, उसी प्रकार अपने आधीन अकेले तुम आपही अपने कार्य पंचभूत और पंचभूतोंके बने देहमें बहुत रूपसे प्रकाशतेहो॥ २०॥ रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण तुम्हारी

शक्ति हैं, उनकेही द्वारा विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करते हो, गुण और उत्पत्त्यादिक कर्मोंसे बँधे नहीं हो, ज्ञानरूप हो, तुम्हैंबाँधनेवाली कोई अविद्या नहीं हैं॥ २१॥ तुम्हारे तो बंधनकी शंका संभवही कहाँ? पर विद्योपाधि जीवात्माके भी वस्तुतः जन्म तथा जन्ममूलक भेद नहीं है क्योंकि देहादि उपायका किसीप्रकार निरूपण होना संभवही नहीं, अविद्यारहित होनेसे न तो आपके बंधन है और न मोक्ष है, जो बंध हमें मोक्ष दिखाई देते हैं, वह केवल हमारे अज्ञानसेही हैं॥ २२॥ जगत्का कल्याण करनेके लिये तुम्हारा कहा सनातन वेदमार्ग जिस समय असाधुओंके पाखण्डमार्गसे बाधित होता है, उस समय सगुणरूपको धारण करते हो॥ २३॥ हे प्रभो ! तुमने इस संसारमें

देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्भवो न साक्षान्न भिदाऽऽत्मनः स्यात्॥ अतो न बंधस्तव नैव मोक्षः स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः॥२२॥ त्वयोदि- तोऽयं जगतो हिताय यदायदा वेदपथः पुराणः॥ बाध्येत पाखण्डपथैरसद्भिस्तदा भवान्सत्त्वगुणं बिभर्ति॥२३॥ स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽ- वतीर्णः स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः॥ अक्षौहिणीशतवधेन सरेतरांशराज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन्॥२४॥ अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा यः सर्वदेवपितृभृतनृवेदमूर्तिः॥ यत्पादशौचसलिलं त्रिजगत्पुनाति स त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः॥२५॥ कः पंडितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात्॥ सर्वान्ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामानात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य॥ २६॥

पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंश बलदेवसहित वसुदेवजीके घर जन्म लिया है, जिससे दैत्योंके अंशरूप राजाओंकी अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करोगे और यदुकुलके यशको बढ़ाओगे॥२४॥ हे ईश ! आज हमारा घर निश्चय बड़भागी है, सब देवता, पितृ, मनुष्य प्राणी देवरूप तुम्हारे चरणारविन्दका धोवन जल गंगारूप होकर तीनों लोकोंको पवित्र करता है सो तुम जगत्के गुरु अधोक्षज भगवान् हमारे घरमें आये हो इसलिये हमारा घर बड़भागी है॥ २५॥ हे प्रभो ! आप भक्तवत्सल, सत्यवक्ता सबके हितकारी, कृतके जाननेवाले उनको त्यागकर कौन ऐसा बुद्धिमान् है जो औरकी शरण ले, भजन करनेवाले को तुम संपूर्ण कामना देतेहो और अपना आत्मातक भी

देते हो और तुम्हारे यह उत्तम है, यह नीच है, यह भेद नहीं है॥ २६॥ हे जनार्दन ! आपने मेरे घर आनकर दर्शन दिया यह बड़ा मंगल हुआ योगेश्वर और देवता भी तुम्हारे स्वरूपको नहीं जानते हैं पुत्र, स्त्री, धन, हितकारी और देहादिकोंमें मोहकी रस्सीरूप जो तुम्हारी माया है सो हमें लिपट रही है, इससे शीघ्रही काटो ॥२७॥ भक्त अकूरने इस प्रकार जब पूजन और स्तुति करी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वाणीसे मोहित करते हुये मुसकुराकर बोले॥ २८॥ श्रीभगवान् बोले कि, आप हमारे गुरु हो, इस कारण नित्य स्तुति करनेयोग्य हो वन्धु हो, हम तुम्हारे लडके बाले हैं, हमरी रक्षा करो, पोषण करो और हमपर कृपा करो॥ २९॥ हे पूज्योंमें श्रेष्ठ !तुम्हारे समान बड़भागी कल्याणकी इच्छा करनेवाले

दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः॥ छिंध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेहदेहादिमोहरशनां भवदीयमायाम्॥ २७॥ इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान्हरिः॥ अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः संमोहयन्निव॥ २८॥ श्रीभगवानुवाच॥ त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बंधुश्च नित्यदा। वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकंप्याः प्रजा हि वः॥ २९॥ भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः॥ श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः॥॥३०॥ न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः॥ ते पुनंत्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥३१॥ स भवान्सुहृदां वै नः श्रेयाञ्छ्रेय- चिकीर्षया॥ जिज्ञासार्थं पांडवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम्॥ ३२॥ पितर्युपरते बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः॥ आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसंत इति शुश्रुम॥ ३३॥

मनुष्योंकी नित्य सेवा करने योग्य हो, देवता आपस्वार्थी हैं, साधु महात्मा आपस्वार्थी नहीं होते॥ ३०॥ कहीं जलमय तीर्थ नहीं हैं? और मृत्तिका शिलाके देवता नहीं हैं ? किंतु वह सब बहुत दिनतक सेवा करनेसे पवित्र करते हैं और साधुपुरुष तो दर्शनसेही पवित्र करतेहैं॥ ३१॥ हे अकूरजी! तुम हमारे सुहृदोंमें उत्तम हो इस कारण पाण्डवोंका कल्याण करनेके लिये हस्तिनापुरको जाओ॥ ३२॥ पिता पाण्डुके मरनेके पीछे माता कुन्तीसहित दुःखित पाण्डव बालकोंको धृतराष्ट्र अपने पुरमें लेआया है, वह उसके पास रहते हैं॥ ३३॥

लुब्धबुद्धि अम्बिकाका पुत्र राजा धृतराष्ट्र भाईके पुत्र पाण्डवोंमेंसमता नहीं रखता और दुष्ट दुर्योधनादिके वशमें होरहा है और उसकी दृष्टि भी अन्धेरी होरही है॥ ३४॥ इसलिये तुम अब हस्तिनापुरको जाओ और बुरी भली उनकी सब खबर लाओ, जब हमैंवहाँका भेद विदित होजायगा, तो जिसमें पाण्डवोंको सुख होगा, वही उपाय करेंगे॥ ३५॥ इस प्रकार अक्रूरजीसे कह छः प्रकारके ऐश्वर्ययुक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बलदेव और उद्धवजीको संग लेकर अपने घर आये॥ ३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायामक्रूरप्रेषणं नामाष्टचत्वारिंशोध्यायः॥ ४८॥ दोहा-उनञ्चास अक्रूरजी, हस्तिनपुरमें जाय। विषमदृष्टि लखि भ्रातृ सुत, फिरे घरो नहिं पाँय॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले

तेषु राजांबिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः॥ समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोंधदृक्॥३४॥ गच्छ जानीहि तद्वृत्तमधुना साध्वसाधु वा॥ विज्ञाय तद्विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत्॥३५॥ इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान्हरिरीश्वरः॥ संकर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे पूर्वार्धे कुब्जारमणादिनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोध्यायः॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेंद्रयशोंकितम्॥ ददर्श तंत्रां बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम्॥१॥ सहपुत्रं च बाह्लीकं भारद्वाजं सगौतमम्॥ कर्णंसुयोधनं द्रौणिं पांडवान्सुहृदोऽपरान्॥२॥ यथावदुपसंगम्य बंधुभिर्गंदिनीसुतः॥ संपृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम्॥३॥ उवास कति चिन्मासान्राज्ञो वृत्तविवित्सया॥ दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छंदानुवर्तिनः॥ ४॥

कि, हे राजन् ! पुरुवंशी राजाओके यशसे शोभायमान हस्तिनापुरमें जाकर अम्बिकाके पुत्र धृतराष्ट्रको अक्रूरजीने देखा और भीष्म पितामहविदुर, कुन्ती, तथा सोमदत्त, पुत्र सहित बाह्लीक, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाँचों पाण्डव और भी जो सुहृद थे उन सबको देखा॥ १॥ २॥ गांदिनीके पुत्र अक्रूरजी बन्धु बांधवोंके संग यथायोग्य मिलकर, वे बन्धु सुहृदोंकी वार्त्ता अक्रूरजीसे पूँछनेलगे और अक्रूरजी भी उनसे कुशल क्षेम पूँछनेलगे॥ ३॥ दुष्ट पुत्र और अल्पबुद्धि दुष्ट कर्णादिकोंके कहनेमें रहनेवाले धीरतारहित राजा धृतराष्ट्रका

वृत्तान्त जाननेके लिये कितने एक महीनेतक अक्रूरजीने वहाँ वास किया॥ ४॥ तेज अर्थात् प्रभाव ओजोबल, अर्थात् शस्त्र चलानेकी निपुणत वीर्य अर्थात् शूरता पाण्डवोंमें प्रजाका स्नेह वीरता आदि जो अच्छे गुण हैं उन्हें न सहकर धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी और जो कुछ आगे करनेकी इच्छा है उसे॥ ५॥ और धृतराष्ट्रके पुत्रोंने विष देना आदि जो कुछ अन्याय किया था, सो सम्पूर्ण वार्त्ता विदुरजीने अक्रूरजीसे कहदी॥ ६॥

तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्गुणान्॥ प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्भिश्चिकीर्षितम्॥५॥ कृतं च धार्तराष्ट्रैर्यद्गरदानाद्यपेशलम्॥ आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च॥६॥ पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसृत्य तम्॥ उवाच जन्मनिलयं स्मरंत्यश्रुकलेक्षणा॥७॥ अपि स्मरंति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे॥ भगिन्यो भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च॥८॥ भ्रात्रेयो भगवान्कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः॥ पैतृष्वसेयान्स्मरति रामश्चांबुरुहेक्षणः॥ ९॥

कुन्ती भाई अक्रूरको-आया सुन मिलकर और अपने जन्मस्थानका स्मरण कर नेत्रोंसे आँसू बहाती अक्रूरजी से बोली॥ * ७॥ हे सौम्यमेरे माता पिता कभी मेरा स्मरण करते हैं? और मेरे भाई, बहन, भतीजे स्त्री, सखी यह सब कभी मेरी सुधि करते हैं ?॥ ८॥ शरणागतोंके पालक, भक्तोंके हितकारी भाईके पुत्र श्रीकृष्ण कभी अपनी फूफीके पुत्रोंकी भी सुधि करते हैं ? कमलके समान नेत्रवाले बलरामजी भी

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*** शंका—**वडे आश्चर्यकी बात है, वसुदेवजी बन्दीगृहसे छूटगये और अनेक प्रकारके मंगल वसुदेवजीके घर हुए, तो भी कुन्तीको न बुलाया, लोकशास्त्रकी रीति है वहिन अथवा लडकीको माता, पिता भाई अपने घर वर्ष दोवर्षमें बुलाते रहते हैं परन्तु अपने घर उत्सवमें अथवा उसके दुखमें तो अवश्यही बुलाते हैं, वा आप जाकर लेआते हैं क्योंकि पिताके घर आनेसे बेटीका चित्त सावधान होजाता हैं, फिरवसुदेवजीके घर उत्सव भी हुआ और पुत्रभी हुआ और बन्दीसे छूटे फिर वसुदेवजीने कुन्तीको अपने घर क्यों नहीं बुलाया इसका क्या कारण ?

** उत्तर—**कुन्ती सातद्वीपके राजा पाण्डुकी स्त्री थी और पतिके वियोगसे महादुःखी थी तो भी कुन्तीको वसुदेवजी अपने घर लेआनेको समर्थ न हुए, क्योंकि वसुदेवजी दीन और द्रव्यहीन थे और वह कुन्ती दुःखीभीथी तो भीसात द्वीपके नरेशकी रानी थी दसलिये वसुदेव कुन्तीकोअपने घर न लाये क्योंकि हजारों तो दासी उसके संग आतींऔर सेनाका तो ठिकानाही क्या था, फिर कुन्तीको अपने घर रखनेकी

कभी हमारा स्मरण ( याद ) करते हैं ?॥ ९॥ मैं तो जैसे व्याघ्रोंके बीचमें हरिणी घिर जाती है, उसी प्रकार वैरियोंके बीचमें गिरकर शोच करती हूं, सो क्या मुझे और पिताहीन मेरे बालकोंको श्रीकृष्ण तुम्हारे वचनोंसे क्या समझावैंगे ?॥ १०॥ हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महायोगिन् ! हे विश्वके आत्मा ! हे सबके अंतर्यामी ! हे विश्वके पालनकर्त्ता!हे गोविन्द ! बालकोंके सहित दुःखित होकर मैं तुम्हारी शरण आई हूं सो मेरी रक्षा करो॥११॥ मृत्युरूपी संसारसे भयभीत मनुष्योंके ईश्वर तुम हो और मोक्षको देनेवाले तुम्हारे चरणकमलके विना मुझे और कोई शरण देनेवाला नहीं दीखता॥ १२॥ शुद्ध अर्थात धर्मात्मा ब्रह्म अपरिच्छिन्न अर्थात् ढकनेमें नही आवै, परमात्मा अर्थात् जीवके सखा, योगेश्वर

सपत्नमध्ये शोचंतीं वृकाणां हरिणीमिव॥ सांत्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च बालकान्॥१०॥ कृष्णकृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वभावन॥ प्रपन्नां पाहि गोविंद शिशुभिश्चावसीदतीम्॥११॥ नान्यत्तव पदांभोजात्पश्यामि शरणं नृणाम्॥ बिभ्यतां मृत्युसंसारादीश्वरस्याऽऽपवर्गिकात्॥ १२॥ नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने॥ योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता॥१३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदी- श्वरम्॥ प्रारुदद्दुःखिता राजन्भवतां प्रपितामही॥१४॥ समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः॥ सांत्वयामासतुः कुंतीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः॥ १५॥ यास्य राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम्॥ अवदत्सुहृदां मध्ये बंधुभिः सौहृदोदितम्॥ १६॥

अर्थात् अणिमादिक शक्तियुक्त योग अर्थात् ज्ञानरूप ऐसे जो श्रीकृष्णचन्द्र तुम हो, सो तुम्हैंनमस्कार है और तुम्हारीही मैंने शरण ली है॥ १३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ ! परीक्षित्! इसप्रकार जगत्के ईश्वर अपने भतीजे श्रीकृष्णकी याद करके तुम्हारी, परदादी कुन्ती दुःखित होकर रोनेलगी॥ १४॥ अक्रूर और बड़े यशवान् विदुर कुन्तीको समझाने लगे कि, तुम्हारे पुत्र धर्म, पवन, इन्द्र इत्यादिकोंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं, तुम इतना शोच क्यो करती हो, इसप्रकार समझाने लगे॥ १५॥ चलते समय अपने पुत्रोंमें स्नेह और भतीजोंमें विषमता

करनेवाले राजा धृतराष्ट्रके पास जाकर सुहृदोंके बीचमें जो रामकृष्णने वचन कहे थे वह अक्रूरजी कहने लगे॥ १६॥ अक्रूरजी बोले कि, हे धृतराष्ट्र ! कौरवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाले भाई पाण्डुके मारनेके उपरान्त अब तुम राजसिंहासन पर बैठे हो॥ १७॥ अच्छा! बहुत उत्तम राज्य करो, धर्मसे पृथ्वीका पालन करो, क्योंकि अपनी प्रजाको सुखपूर्वक आनंद रक्खोगे, अपने बांधवोंमें समान दृष्टि रक्खोगे तो तुम्हारा कल्याण और जगतमें यश होगा॥ १८॥ और जो विषमता रक्खोगे तो संसारमें निन्दा होगी और अंतमें नरकको जाओगे, इस कारण पांडवोंमें और अपने पुत्रोंमें समता रक्खो॥ १९॥ हे राजन् धृतराष्ट्र ! इस संसारमें सदा किसीका सत्संग नहीं रहता है और अपना देहभी सदा नहीं रहता, विचार

अक्रूर उवाच॥ भोभो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन॥ भ्रातर्युपरते पांडावधुनाऽऽसनमास्थितः॥१७॥ धर्मेण पालयन्नुर्वीं प्रजाः शीलेन रंजयन्॥ वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि॥१८॥ अन्यथा त्वाचरँल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः॥ तस्मात्समये वर्तस्व पांडवेष्वात्मजेषु च॥१९॥ नेह चात्यंतसंवासः कर्हिचित्केनचित्सह॥ राजन्स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः॥२०॥ एकः प्रसूयते जंतुरेक एव प्रलीयते॥ एकोनुभुंक्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥ २१॥ अधर्मोपचितं वित्तं हरंत्यन्येऽल्पमेधसः॥ संभोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः॥२६॥ पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्यातमपंडितम्॥ तेऽकृतार्थं प्रहिण्वंति प्राणा रायः सुतादयः॥ २३॥ स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः॥ असिद्धार्थो विशत्यंधं स्वधर्मविमुखस्तमः॥ २४॥

करके देखो कि, स्त्री पुत्र यह सदा नहीं रहैंगे॥ २०॥ जीव अकेलाही जन्म लेता है और अकेलाही मृत्युको प्राप्त होता है अकेलाही पुण्यके फल सुखको भोगता है और अकेलाही पापका फल दुःख भोग करता है॥ २१॥ अज्ञानीपुरुषोंने जो पापकरके धनसंचय किया है, उसे स्त्री, पुरुष, भाई, बंधु होकर लेते हैं, जैसे जलकी रहनेवाली मछलियोंका जीवन जल है और जब उसको उसके पुत्र पीलेते हैं तब उसे कष्ट होता है॥ २२॥ पाप करनेवाला पुरुष नरकमें जाता है और जिन्हें अपना समझ अधर्मसे पोषण करता है, वह प्राण, धन और पुत्रादिक उस पोषण करनेवाले मूर्ख पुरुषको भोगका सुख प्राप्त न हुआ हो, तब उसे पहलेही त्याग देतेहैं॥ २३॥ जब स्त्री पुत्रादिक इसको त्याग

देते हैं, तब यह सच्चे स्वार्थको न जानकर और प्रयोजन नष्ट होनेसे निजधर्मसे विमुख हो, सबके पापको अपने शिरपर धर वही पूर्णनरकमें गिरता है॥२४॥इस कारण हे समर्थ राजा धृतराष्ट्र! स्वप्न और बाजीगरकी माया तथा मनका विचार यह सब तुमको मिथ्याभूत दिखाई देता है, उसीप्रकार इस संसारको मिथ्याभूत समझ आपभी अपने मनको रोककर समता रक्खो और शान्त हो॥ २५॥ तब राजा धृतराष्ट्र बोले कि, हे अक्रूर ! यह जो तुमने कल्याणकारक श्रेष्ट वचन कहे उनको श्रवण करते करते मेरा मन तृप्त नहीं हुआ, जैसे मनुष्य अमृत पीनेसे तृप्त नहीं होता॥ २६॥ परन्तु तो भी हे अक्रूर ! मेरा चंचल पुरुषोंमें स्नेह है, इसलिये विषमहृदयमें तुम्हारी प्यारी बात नहीं ठहरती जैसे स्फटिकमणिके

तस्माल्लोकमिमं राजन्स्वप्नमायामनोरथम्॥ वीक्ष्याऽऽयम्यात्मनात्मानं समः शांतो भव प्रभो॥ २५॥ धृतराष्ट्र उवाच॥ यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान्॥ तथाऽनया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम्॥२६॥ तथाऽपि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले॥ पुत्रानुरागविषमे विद्युत्सौदामनी यथा॥ २७॥ ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनो त्यन्यथा पुमान्॥ भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥२८॥ यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं दृष्ट्वा गुणान्विभजते तदनुप्रविष्टः॥ तस्मै नमो दुरवबोधविहारतंत्रसंसारचक्रगतये परमेश्वराय॥२९॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादवः॥ सुहृद्भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात्॥३०॥

सुदामापर्वतपर बिजली चमककर स्थिर नहीं रहती॥ २७॥ भगवान्की इच्छाको कौन पुरुष खंडन करसक्ता है, अर्थात् उसकी इच्छाके प्रतिकूल कुछ नहीं होता, सब उसकी इच्छानुसारही होता है जिस ईश्वरने पृथ्वीका भार उतारनेके कारण यदुकुलमें आनकर अवतार लिया है॥ २८॥ जो ईश्वर विचारने में न आवे, ऐसी अपनी मायासे इस विश्वको उत्पन्न कर और उसमें प्रवेश कर कर्म तथा कर्मोंके फलको अलगअलग कर जीवोंको देते हैं जाननेमें न आवे ऐसी लीलाओंसे रचेहुए संसारचक्रके घुमाने वाले उस परमेश्वरको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूं॥ २९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित् ! इसप्रकार यदुवंशोत्पन्न अक्रूरजी धृतराष्ट्रका अभिप्राय जान सुहृदोंसे आज्ञा ले मथुरापुरीमें

आये॥ ३०॥ हे परीक्षित्!बलदेव श्रीकृष्णने आप जिस कारण अक्रूरजीको पाण्डवोके पास भेजा था सो अक्रूरजीने सब धृतराष्ट्रजीको कही

शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम्॥ पांडवान्प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम्॥३१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहि- तायां दशमस्कंधे पूर्वार्धे पाण्डववृत्तनिरूपणं नामैकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥

॥ *॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥ समाप्तोऽयं दशमस्कंधपूर्वार्धः॥ *॥

वार्ताका अभिप्राय जानकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीसे कह दिया॥३१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे भाषाटीकायामे- कोनपंचाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥ समाप्तोऽयं भाषाटीकासहितः दशमस्कन्धपूर्वाधः॥

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इदं पुस्तकं क्षेमराज-श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां ( खेतवाडी ७ वीं गली खम्बाटालैन ) स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” ( स्टीम् ) मुद्रणयन्त्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्।

संवत् १९७०, शके १८३५.

[TABLE]

॥अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकासहिते दशमस्कन्धोत्तरार्धप्रारम्भः॥

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श्रीः॥ दशमस्कंधोत्तरार्द्धम्॥ दोहा-उत्तरार्द्ध प्रारम्भमें, व्रजपति चरित ललाम। कह्यो पंचाशाऽध्यायमें, जरासन्ध संग्राम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित् ! अब पूर्वार्द्धके उपरान्त इकतालीस ( ४१ ) अध्यायमें जो कथा है, सो हम वर्णन करते हैं कि, जरासन्धके भयसेही मानो समुद्रमें किला बनाकर श्रीकृष्णचन्द्र अपने यादवोंको उसमें लेगये, व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित् !अस्ति और प्राप्ति यह दोनों कंसकी रानी अपने पति कंसके मरनेसे अत्यन्त दुःखी होकर अपने पिताके घर चलीगईं॥१॥ अपने स्वामीके मरनेसे शोकाकुल अस्ति, प्राप्ति दोनों बहनोंने अपने पिता मगधदेशके राजा जरासंधसे जाकर सब वृत्तान्त कदा॥२॥ हे राजा परीक्षित् ! यह बात सुनतेही जरासन्ध अतिक्रोध कर अपने जामाताका शोक न सह पृथ्वीको यादवरहित करनेका उपाय करनेलगा॥३॥और तेईश अक्षौहिणी सेनाको साथ लेकर

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीशुक उवाच॥ अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ॥ मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान्॥१॥ पित्रे मगधराजाय जरासंधाय दुःखिते॥ वेदयांचक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम्॥२॥ स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप॥अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम्॥ ३॥ अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः॥ यदुराजधानीं मथुरां न्यरुणत्सर्वतोदिशम्॥४॥ निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्॥ स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम्॥५॥ चिंतयामास भगवान्हरिः कारणमानुषः॥ तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम्॥६॥ हनिष्यामि बलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम्॥ मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम्॥७॥

जरासंधने यादवोंकी राजधानी मथुरापुरीको चारोंओरसे घेरलिया॥४॥ जिसप्रकार अपनी मर्यादा त्यागकर समुद्र उमडता चला आता है, उसी प्रकार जरासन्धकी सेनाको आतीहुई देखकर और सेनासे मथुरापुरीको ग्रसित जान, अपने सुहृद यादवोंको व्याकुल देख॥५॥ दुःखोंके नाशक भूभार उतारनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र उस समय देशकालके योग्य अपने अवतारका कारण देखकर विचार करनेलगे॥६॥ कि, पहिले इस समस्त सेनाका संहार करूं, या जरासन्धको वधकर इसकी सब सेना अपने अधीन करूं अथवा सैन्यसहित जरासंधका प्राण संहार करूं, ऐसे तीन प्रकारके मनमें संकल्प विकल्प कर प्रथमविचार सैन्यबधका निश्चय किया, क्योंकि पृथ्वीका भाररूप यह सेनाही है, इसलिये प्रथम इसकाही

मारना उचित है और इस समय यह सम्पूर्ण राजाओंकी सेनाओंको इकट्ठाकर लेआया है, फिर बारम्बार ऐसा अवसर नहीं मिलेगा॥ ७॥ पहिले पैदल,अश्व, हस्ती और चतुरंगिणी अनेक अक्षौहिणी3

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सेनाकोही मारना योग्य है, जरासंधका मारना योग्य नहीं, क्योंकि इससे अभी बहुत कार्य सिद्ध होगा, यह सम्पूर्ण राक्षसोंको समेट कर ले आवेगा, मैं कहाँ कहाँ ढूंढता फिरूंगा॥ ८॥ भूमिका भार उतार साधुपुरुषोंकी रक्षा और दुष्टोंका विनाश करनेके लियेही मैंनेअवतार लिया है॥ ९॥ जब पृथ्वीपर अधर्म बढ़ता है, तब तबही उस अधर्मके नष्ट करने और धर्मकी रक्षा करनेके लिये मैं अवतार लेताहूं॥ १०॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र विचार करही रहे थे कि, उसी समय सूर्यके समान

अक्षौहिणीभिः संख्यातं भटाश्वरथकुंजरैः॥ मागधस्तु न हंतव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम्॥ ८॥ एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे॥ संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां बधाय च॥ ९॥ अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संम्रियते मया॥ विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित्॥१०॥ एवं ध्यायति गोविंद आकाशात्सूर्यवर्चसौ॥ रथावुदस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ॥११॥ आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया॥ दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः संकर्षणमथाब्रवीत्॥१२॥ पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो॥ एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च॥१३॥ यानमास्थाय जह्येतद्व्य- सनात्स्वान्समुद्धर॥एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत॥१४॥ त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु॥ एवं संमंत्र्य दशार्हौदंशितौ रथिनौ पुरात्॥ १५॥

ध्वजा कवचसे सुसज्जित, सारथी सहित दो रथ शीघ्रही आकाशसे उतरे॥ ११॥ तब अकस्मात् आये दिव्य शस्त्र देखकर हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी बलदेवजीसे बोले कि॥ १२॥ हे आर्य !हे श्रेष्ठ !तुम जिनकी रक्षा करते हो, आज उन्हीं यादवोंको आनकर दुःख उपस्थित हुआहै और इसीलिये यह रथ और वीरघाती शस्त्र आयेहैं॥ १३॥ रथमें बैठ, सब सेनाका संहार कर अपने यादवोंका कष्ट दूर करो, हे ईश ! साधुलोगोंके कल्याणार्थही संसारमें आपका जन्म हुआ है॥ १४॥ तेईस अक्षौहिणी सेना आनकर उपस्थित हुई है और इसीका पृथ्वीपर बोझ है, इसको दूर

करो, इस प्रकार दाशर्हवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीने विचारकर, कवच पहर, सुन्दर शस्त्रोंको ले और कुछ थोड़ीसी सेनाके साथ, पुरके बाहर निकल दारुक सारथीको लिये शंखध्वनि करी॥ १५॥ १६॥ इसके उपरान्त जरासन्धकी सेनाके हृदय भयभीत हो कम्पायमान होने लगे, तब श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजीको रणभूमिमें खड़ा देख, जरासन्ध कहनेलगा॥ १७॥ हे अधम ! मुझे तेरे साथ युद्ध करनेमें अत्यन्त लाज आती है, क्योंकि तू बालक है इसलिये तेरे संग युद्ध नहीं करूंगा हे मूर्ख ! तू गुप्त रहनेवाला अत्यन्त छली है, इस कारण तेरे साथ युद्ध करना उचित नहीं॥ १८॥ हे राम ! जो तुझमें सामर्थ्य होय तो धीरज धरके युद्ध कर और मेरे बाणोंसे कटेहुए देहको त्याग स्वर्गको जा, या संग्रामके बीचमें मेरा

निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्यौ बलेनाल्पीयसाऽवृतौ॥ शंखं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः॥१६॥ ततोऽभूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः॥ तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम॥ १७॥ न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया॥ गुप्तेन हि त्वया मंद न योत्स्ये याहि बंधुहन्॥१८॥ तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह॥ हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि॥१९॥ श्रीभगवानुवाच॥ न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयत्येव पौरुषम्॥ न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः॥ २०॥ श्रीशुक उवाच॥ जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्॥ ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी सूर्यानलौवायुरिवाभ्ररेणुभिः॥२१॥ सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथावलक्षयंत्यो हरिरामयोर्मृधे॥ स्त्रियः पुराट्टालक- हर्म्यगोपुरं समाश्रिताः संमुहुर्मुहुः शुचार्दिताः॥ २२॥

प्राण ले॥ १९॥ हे परीक्षित् ! ऐसे जरासन्धके वचन सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे जरासन्ध ! शूरवीर व्यर्थ बकवाद न कर अपने पुरुषार्थको दिखाते हैं और तुम्हारी मृत्यु निकट आई है, इसलिये मैं तुम्हारे वचनोंपर अधिक ध्यान नहीं देताहूं॥ २०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन् ! जैसे पवन, बादल, धूरि, यह सूर्य और अग्निको घेर लेते हैं, इसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रबलदेवजीके निकट जाकर जरासन्धने उनको अपनी वलवान् सेना प्यादे, रथ, ध्वजा, घोड़े और रथवानों सहित घेर लिया॥ २१॥ जब गरुड और तालकी ध्वजाके चिह्नवाले रामकृष्णके

रथ युद्धमें नहीं दीखे, तब पुरीकी नारी अटारी, महल और द्वारोंपर खड़ी हुई शोकसे व्याकुल हो मोह करने लगीं॥ २२॥ शत्रुकी सेनारूप बादलों मेंसे बारम्बार बाणोंकी भयंकर वर्षासे अपनी सेनाको पीड़ित देखकर श्रीकृष्णचन्द्र देवता व असुरोंसे पूजित उत्तम शार्ङ्गधनुषमें टंकार करने लगे॥ २३॥ तरकससे तीर निकालकर शीघ्र प्रत्यंचामें लगाय प्रत्यंचाको खैंचकर तीक्ष्णबाणोंके समूहोंसे रथ, घोडे, हाथी, पैदल मारकर जैसे, सुलगती लकडीके घुमानेसे चक्र बँधजाता है उसी प्रकार बाणोंके पीछे बाण मारनेलगे॥ २४॥ मस्तक कटनेसे हजारों हाथी, नारी कटनेसे घोडे पृथ्वीपर गिरने लगे, रथोंकी ध्वजा कटगई और रथवान् गिरगये भुजा, नाडी कटनेसे पैदल गिरगये ॥२५॥ युद्धमें पैदल, हाथी, कटकर गिरने

हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः शिलीमुखात्युल्वणवर्षपीडितम्॥ स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम्॥२३॥ गृह्णन्निषं- गादथ संदधच्छरान्विकृष्य मुंचञ्छितबाणपूगान्॥ निघ्नन्रथान्कुंजरवाजिपत्तीन्निरं तरं यद्वदलातचक्रम्॥२४॥ निर्भिन्नकुंभाः करिणो निपेतुरने- कशोऽश्वाः शरवृक्णकंधराः॥ रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः पदातयश्छिन्नभुजोरुकंधराः॥२५॥ संछिद्यमानद्विपदेभवाजिनामंगप्रसूताः शतशो- ऽसृगापगाः॥ भुजाऽहयः पुरुषशीर्षकच्छपा हतद्विपद्वीपहयग्रहाकुलाः॥२६॥ करोरुमीना नरकेशशैवला धनुस्तरंगायुधगुल्मसंकुलाः॥अच्छूरि- कावर्तभयानका महामणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः॥२७॥ प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे मनस्विनां हर्षकरी परस्परम्॥ विनिघ्नताऽरीन्मुसलेन दुर्मदान्संकर्षणेनापरिमेयतेजसा॥ २८॥

लगे, तब उनके शरीरसे लोहूकी नदियें बहने लगीं, जिनमें भुजाएँ सर्पकी सदृश दृष्टि आती थीं, मनुष्योंके शिर कच्छपसे जान पड़ते थे मृत्युको प्राप्तहुए हाथी टापूके समान दीखते थे और रुधिरकी नदीमे घोडे ग्राहसेपड़ेथे॥२६॥ भुजा व उरू मछलीके समान मनुष्योके केश सिवारके समान थे और नदीमे जो तरंगे उठती हैं, वही रुधिरकी नदीमे धनुषतरंगके समान हैं। नदीमें झाड़ झंकाड़ होते हैं रुधिरकी नदियोमें शस्त्र हैं सोई झाड़ झंकाडके समान है, नदीमें भँवर पडते हैं, तिनसे अति भयंकर होकर रुधिरकी नदियोंमें ढालें मानो भयंकर भँवर पडते हैं, नदियोंमें कंकर पत्थर इत्यादि होते हैं रुधिरकी नदियोंमें मणि गहने कंकर पत्थरके तुल्य हैं॥२७॥ हे राजन् ! महातेजस्वी बलदेवजीने संग्रामके बीच

मतवाले शत्रुओंको मुसलायुधसे मार मारकर रुधिरकी नदियें बहाईं, जो कि कायर पुरुषोंको भयकी देनेवाली और वीर पुरुषोंको आनन्दकी देनेवाली हैं॥ २८॥ हे परीक्षित दुर्मद वैरियोको मुसलसे मार सागरके समान दुस्तर और भयंकर उस जरासन्धपालित सेनाका महापराक्रमी श्रीकृष्ण बलदेवने मार मार कर नाश करदिया, वसुदेवके पुत्र जगत्के ईश्वर कृष्ण बलदेवको सेनाका नाश करना एक साधारण बात है, कुछ पराक्रम नहीं है॥२९॥ अनंतगुण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपनी लीलासे ही तीनों लोकोंको उत्पन्न, पालन और संहार करते हैं, उन श्रीकृष्णचन्द्रको जरासन्धकी सेनाका मारना कुछ आश्चर्य की बात नहीं हैं, तो भी मनुष्योंके अनुकरण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके कर्म आश्चर्यमय तुमसे वर्णन करता हूं॥ ३०॥ सेनाके नष्ट होने और रथ टूट जानेसे जब प्राणमात्रही अवशेष रहे, तब बलवान् जरासन्धको जैसे सिंह सिंहको पकड़ता है,

बलं तदंगार्णवदुर्गभैरवं दुरंतपारं मगधेंद्रपालितम्॥ क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयोर्विक्रीडितं तज्जगदीशयोः परम्॥ २९॥ स्थित्युद्भवांतं भुवनत्रयस्य यः समीहतेऽनंतगुणः स्वलीलया॥ न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते॥३०॥ जग्राह विरथं रामो जरासंधं महाबलम्॥ हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा॥३१॥ बध्यमान हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः॥ वारयामास गोविंदस्तेन कार्यचिकीर्षया॥३२॥ स मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसंमतः॥ तपसे कृतसंकल्पो वारितः पथि राजभिः॥३३॥ वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि॥ स्वकर्मबंधप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः॥ ३४॥

उसीप्रकार बलपूर्वक बलदेवजी पकड़कर॥३१॥ शत्रुओंके मारनेवाले जरासन्धको वरुणपाश और मनुष्यपाशसे जब ( बलदेवजी ) बांधनेलगे, तब श्रीकृष्णचन्द्रजीने उसको छुडादिया और कहा कि, अभी जरासन्धसे और कुछ काम लेना है॥ ३२॥ शूरवीरोंके माननीय जरासन्धको त्रिलोकी नाथ श्रीकृष्ण बलदेवने जिस समय छोड़दिया, तब यह मनमें लज्जित होकर विचार करने लगा कि, वनमें जाकर तप करना उचित है, घरजाकर क्या करूंगा तब मार्गमें जातेहुए राजाओंने निवारण किया॥ ३३॥ धर्मके उपदेश करनेवाले पदयुक्त नीतिके तुष्टिकारक वचन कहकर जरासन्धको समझाने लगे कि, हे राजन् ! कोई तुम्हारा बड़ाही दुष्कर्म आनकर प्राप्त हुआ जो तुच्छ यादवोंने तुम्हैंपरास्त किया अब तुम कुछ

लाज मत करो ॥३४॥ जिस समय समस्त सेना नष्ट हो गई और श्रीकृष्णचन्द्रने छोड़ दिया, तब वह बृहद्रथका पुत्र जरासन्ध अत्यन्त उदास होकर मगध देशको चलागया॥ ३५॥ शत्रुकी सेनारूप सागरसे तरकर और अपनी अक्षत सेना संग लिये जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रने मथुरापुरीमें प्रवेश किया, तब देवताओंने आकाशसे फूल वर्षाये और प्रशंसापूर्वक उनकी स्तुति करी॥३६॥ तब श्रीकृष्णचन्द्र अपनी मथुरापुरीमें आकर खेदरहित प्रसन्नमन पुरवासियोंसे मिले. सूत, मागध, बन्दीजन, उनकी विजयके यश गान करनेलगे॥३७॥ हे राजन् ! जिस समय श्रीकृष्णचन्द्र मथुरापुरीमें आये तब शंख, नगारे, अनेक भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग यह सब बाजे बजनेलगे॥ ३८॥

हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा॥ उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ॥ ३५॥ मुकुंदोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णा खिलार्णवः॥ विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रिदशैरनुमोदितः॥३६॥ माथुरैरुपसंगम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः॥ उपगीयमानविजयः सूतमागधबंदिभिः॥३७॥ शंखदुंदुभयो नेदुर्भेरी- तूर्याण्यनेकशः॥ वीणावेणुमृदंगानि पुरं प्रविशति प्रभौ॥३८॥ सिक्तमार्गांहृष्टजनां पताकाभिरलंकृताम्॥ निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्ध- तोरणाम्॥ ३९॥ निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षतांकुरैः॥ निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः॥४०॥ आयोधनगतं वित्तमनंतं वीर- भूषणम्॥ यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः॥४१॥ एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः॥ युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः॥ ४२॥

मार्गमें छिरकाव हो रहा है, पताकायें लगाई गई हैं और वेदध्वनिसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रके शुभागमनसे घर घर बन्दनवारोंसे परिपूर्ण इसप्रकार मथुरापुरीकी शोभा हुई॥३९॥ श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर स्त्री, पुरुष, पुष्प, दधि, अक्षत और अंकुरोंकी वर्षा करनेलगे, स्त्रियें स्नेहसे प्रफुल्लित नेत्रोंसे श्रीकृष्णचन्द्रको देखने लगीं॥४०॥ शूरवीर राजाओंकी शोभा करनेवाले, रणभूमिमें पड़े बहुत धन लाकर श्रीकृष्णचन्द्र यादवराज उग्रसेनको देदिया॥ ४१॥ इसीप्रकार जरासन्ध उतनीही अक्षौहिणी साथ लेलेकर सत्रहबार चढि आया और श्रीकृष्णसे रक्षित यादवोंसे उसने युद्ध

किया॥ ४२॥ हे राजा परीक्षित् !यादवगण श्रीकृष्णचन्द्रके तेजसे जरासन्धकी समस्त सेनाका संहार करनेलगे, सम्पूर्ण सेना जब कटगई शत्रुने छोड़ दिया, तब जरासन्ध फिर अपने देशको चलागया॥ ४३॥ अठारहवीं बार जरासन्ध तो आनेवाला थाही, उसके बीचमेंही देवर्षि नारदजीका भेजा वीर कालयवन आनकर दिखाई दिया॥ ४४॥ संसारमें जिसके समान कोई योद्धा नहीं, ऐसा कालयवन यादवोंको अपने समान

अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा॥ हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽयादरिभिर्नृपः॥४३॥

अष्टादशमसंग्रामे आगामिनि तदंतरा॥ नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत॥४४॥

रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः॥ नृलोके चाप्रतिद्वंद्वो वृष्णीच्छुत्वात्मसंमितान्॥४५॥

जान, उसने तीन करोड़ महाम्लेच्छ अतिभयावने इकट्ठे किये ऐसे कि जिनके मोटे भुजा, बड़े गले, मैले दाँत, भूरे वेष, घूँघचीसे नयन लाल तिन्हैंसाथ ले डंका दे, मथुरापुरी पर चढ़ आया चारों ओरसे घेरलिया, क्योंकि देवर्षि नारदजीने इससे कहा था कि, यादवलोग तुम्हारेसमान हैं, इसलिये उनसे युद्ध करो॥ ४५॥

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*** शंका—**तेईस अक्षौहिणी सेनाको जरासन्ध अपने संग लेकर श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेके लिये चढि आया, तब श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनाको मारडाला, बडे आश्चर्यकी बात है कि, इतनी सेना जरासन्ध कहाँसे लेआया ? पृथ्वीपर सेना तो बहुत थी परन्तु दुष्ट सेना इतनी किधर थी जिसको जरासन्ध सत्रह १७ वार बटोर बटोर कर लेआया और तेईस तेईस अक्षौहिणी सेना सत्रहवार श्रीकृष्णने मारडाली, सब जोडकर तीनसहस आठसौ ग्यारह ३८११ अक्षौहिणी हुए, परन्तु बढे अचम्भेकी बात है, कि इतनी सेनामें कोई भी शूरवीर नहीं था ? जब श्रीकृष्णने मारा तो क्याजान पड़ा क्योंकि श्रीकृष्णके सामने शूरवीरोंकी क्या सामर्थ्य थी और मर्यादा पालन करनेवाले श्रीकृष्णका अवतार भी हुवा फिर वीरोंकी मर्यादा क्यों विनाश करी ?

**उत्तर—**जरानामक राक्षसीने जरासन्धको वरदान दिया था कि, तू जितनी सेना बनाया चाहेगा, उतनी सेना बनालेगा इसलिये जरासन्ध तेईस, तेईस, अक्षौहिणी सेना बनायके श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये आया, मर्यादापुरुषोत्तम मर्यादाके पालन करनेवाले श्रीकृष्णने विचार लिया कि, इस सेनामें शूरवीर नहीं है, इसलिये जरासन्धकी सेनाका विनाश किया, मर्यादाका नाश नहीं किया॥

उस समय श्रीकृष्णन्द्र बलदेवजी सहित इस दुरात्मा कालयवनको आयाहुआ देखकर विचार करने लगे कि, यादवोंको दोनों ओरसे कष्ट आनकर उपस्थित हुआहै, बड़ेही आश्चर्य की बात है॥ ४६॥ क्योंकि अब तो यह महाबली कालयवन हमको घेर रहाहै और फिर जरासन्ध आज या कल अथवा परसोंतक अवश्यही आवेगा॥ ४७॥ यदि इस समय हम इससे युद्ध करें और बीचमें जरासन्ध आगया तो अवश्यही हमारे बांधवोंका प्राण संहार करेगा और जो न मारेगा तो बांधकर अपने पुरमें लेही जायगा, क्योंकि वह बलवान् है॥ ४८॥ इसलिये जहॉ मनुष्य न प्रवेश करसके ऐसा एक किला बनाय, उसमें अपने जातिके यादवोंको रख फिर कालयवनका बध करूं॥ ४९॥ हे राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने इसप्रकार मनमें

तं दृष्ट्वाऽचिंतयत्कृष्णः संकर्षणसहायवान्॥ अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत्॥४६॥ यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः॥ मागधोऽप्यद्य वा श्वोवा परश्वो वाऽऽगमिष्यति॥४७॥ आवयोर्युध्यतोरस्य यद्यागंता जरासुतः॥ बंधून्वधिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली॥४८॥ तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गे द्विपददुर्गमम्॥ तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे॥४९॥ इति संमंत्र्य भगवान्दुर्गंद्वादशयोजनम्॥ अंतस्समुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्॥५०॥ दृश्यते यत्र हि त्वाष्टविज्ञानं शिल्पनैपुणम्॥ रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम्॥५१॥ सुरद्रुमलतोद्यान- विचित्रोपवनान्वितम्॥ हेमशृंगैर्दिविस्पृग्भिः स्फाटिकाट्टालगोपुरैः॥५२॥ राजताऽऽरकटैः काष्ठैर्हेमकुम्भैरलंकृतैः॥ रत्नकूटैर्गृहैर्हेमैर्महामरकत- स्थलैः॥ ५३॥

विचारकर अड़तालीस कोश ( बारह योजन ) का समुद्र के बीचमें एक दुर्ग ( किला ) और उस किलेके बीचमें एक महाअद्भुत आश्चर्यमय नगर बनाया॥५०॥ इस नगरीमें सब विश्वकर्माकी कारीगरी दिखाई देती है, राजाओंके जाने योग्य बड़े बड़े बाजार गली और चौक बन रहे हैं॥ ५१॥ बीचबीचमें स्थान बनानेके लिये जगह छोड दीगई है, कल्पवृक्ष और लतावाले फूलोंके बगीचे, चित्र विचित्र फुलवारी, सुवर्णके शिखरसे आकाशको स्पर्श करनेवाले ऊँचे ऊँचे स्फटिकमणिके अटा बनरहे हैं और ऊँचे ऊँचे किलेके द्वार बन रहे हैं॥ ५२॥ घोड़ोको बाँधने और अन्न भरनेके लिये लोहे और पीतलके स्थान बने हैं तिनके ऊपर सुवर्णके कलश विराजमान हैं, जिनसे इस नगरकी अत्यन्तही मनोहर शोभा होरही है, जिनके पद्मरागमणिके

शिखर और महामरकतमणिकी जिसमें पृथ्वी, इसप्रकार शोभायमान सुवर्णके गृह जहाँ तहाँ बनरहे हैं॥ ५३॥ देवताओंके मन्दिर और चित्रविचित्र चित्रसारी बन रही हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह वर्ण जिसमें वास करते हैं यादव और देवराज उग्रसेनके महल तो अत्यन्तही शोभायमान हैं॥ ५४॥ देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिये सुधर्मा सभा और कल्पवृक्ष भेजे, जो मनुष्य इस सभामें वास करता है, उसको भूख, प्यास, शीत, गरमी, शोक और मोह इत्यादि कुछ नहीं सताते॥ ५५॥ श्यामकर्ण श्वेतवर्ण मनके समान वेगवान् वरुणजीने घोड़े भेजे, पालन करनेवाले कुबेरजीने पद्म, महापद्म, मत्स्य, कूर्म, कुन्द, नील, मुकुन्द, शंख, खर्व यह आठ विभूति भेजीं॥ ५६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुश्रेष्ठ परीक्षित् !! भगवान् वासुदेवने इन देवतालोगोंको अपने अपने अधिकारकी सिद्धिके लिये जो कुछ सम्पदायें दी थीं, वह सब वस्तु

वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वलभीभिश्च निर्मितम्॥ चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णंयदुदेवगृहोल्लसत्॥५४॥ सुधर्मा पारिजातं च महेंद्रः प्राहिणोद्धरेः॥ यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते॥५५॥ श्यामैककर्णान्वरुणो हयाञ्छुक्लान्मनो जवान्॥ अष्टौ निधिपतिः कोशाँल्लोकपालो निजोदयान्॥ ५६॥ यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये॥ सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप॥५७॥ तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः॥ प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमं त्रितः॥ निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः॥ ५८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५०॥ श्रीशुक उवाच॥ तं विलोक्य विनिष्क्रांतमुज्जिहानमिवोडुपम्॥ दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम्॥ १॥

जिससमय श्रीकृष्णचन्द्र पृथ्वीपर आये, उन्होंने लाकर अर्पण करदीं॥ ५७॥ उस द्वारकापुरीमें योगके प्रभावसे सब यदुवंशियोंको पहुँचाकर श्रीकृष्णचन्द्र बलदेवजीसे कहनेलगे कि, हे वीर!तुम यहाँ मथुरापुरीमें रहकर शेष प्रजाकी रक्षा करो, इस प्रकार बलदेवजीसे आज्ञाकर कमल नयन भगवान् कमलोंकी माला धारणकिये शस्त्ररहित मथुरापुरीके दरवाजेसे बाहर निकले॥५८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां दुर्गनिवेशनं नाम पंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५०॥ दोहा—कालयवन मुचुकुन्दकी, दृष्टि परत भो छार । जब हरिकी विनती करी, फिर इक्यावनबार॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण !जिससमय श्रीकृष्णचन्द्रजी रेशमी वस्त्र पहरे, पुरसे बाहर निकले, तो

उनकी ऐसी शोभा हुई कि मानो निशानाथचन्द्रमा उदय हुए॥१॥ छातीमें भृगुलताका चिह्न, कण्ठमें कौस्तुभमणि धारण किये, चतुर्भुज, नवीन कमल के समान अरुण नेत्र॥२॥ नित्य प्रसन्न, शोभायमान और सुन्दर मुसकान, मकराकृत कुण्डलसे देदीप्यमान मुखारविन्द॥३॥इस प्रकार मनोहर मूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रकी देखकर कालयवन अपने मनमें विचार करनेलगा कि, ठीक यही श्रीकृष्ण है॥ ४॥ क्योंकि देवर्षि नारदजीने

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभाऽऽमुक्तकंधरम्॥ पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकंजारुणेक्षणम्॥२॥ नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्॥ मुखारविंदं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥३॥ वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलांछनः॥ चतुर्भुजोऽरविंदाक्षो वनमाल्यतिसुंदरः॥४॥ लक्षणै- र्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति॥ निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः॥५॥ इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवतं पराङ्मुखम्॥ अन्वधावज्जि- घृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम्॥ ६॥ हस्त प्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदेपदे॥नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकंदरम्॥ ७॥

जो जो लक्षण बताये थे, सो सब इसमें पाये जातेहैं, इसके अतिरिक्त और कोई वासुदेव नहीं है और यह अकेला शस्त्ररहित चला जाता है, इसलियेमैं भी शस्त्ररहित पैदलहोकर इसके संग युद्ध करूं॥५॥हे महाराज ! इस प्रकार कालयवन मनमें निश्चयकरके पराङ्मुख होकर भागते हुए, योगीजनोंके भी हाथ न आवैं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रके पकडनेको पीछे दौडा * ॥ ६॥ पग पगपर “अब पकडा”

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** * शंका—**यवनको देखकर श्रीकृष्ण भगवान् क्यों भाग गये, इसका क्या कारण !

** उत्तर—**एक समय यदुवंशी अपनी सभामें अपने कुलकी कन्याके वचनोंको स्मरणकर गर्गाचार्यको सनेलगे, गर्गाचार्य तो श्रीभगवान्के पूजनमें रात दिन रहतेथे और स्त्रीसे प्रीति कम रखतेथे इससे उनकी स्त्रीने अपने यादवोंसे कहा कि गर्गमुनि नपुंसक हैं इससे यदुवंशी उक्त मुनिकी हँसी किया करते थे इसलिये गर्गने यादवोंका नाश करनेके लिये एक पुत्र उत्पन्न करके उसी पुत्रको वरदान दिया कि, हे पुत्र ! युद्धमें यदुवंशीतेरे कुलके सामने अथवा तेरे सामने जो खडे होंगे तो उसी समय भागजायँगे श्रीकृष्ण इस बातको जानकर भाग गये॥

ऐसे अपने आपको दिखाते दिखाते म्लेच्छराज कालयवनको श्रीकृष्णचन्द्र बड़ी दूर पर्वतकी गुफामें लेगये॥ ७॥ यादवोंके कुलमें तू जन्मा है, इसलिये तेरा भागना उचित नहीं है, इसप्रकार आक्षेप करताहुआ महावेगसे दौडनेलगा, परन्तु पापी होनेके कारण श्रीकृष्णको न पकड सका, क्योंकि विना पाप नष्टहुये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्राप्ति नहीं होती है॥ ८॥ हे परीक्षित् ! जब म्लेच्छराज कालयवनने श्रीकृष्णचन्द्रपर दुर्वाक्यरूपी बाणोंका आक्षेप किया, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतकी गुफामें घुसगये, कालयवन भी दौडता हाँफता इनके पीछे पीछे उस गुफामें घुस गया, वहाँ एक पुरुष और सोरहा था, उसे देख कालयवन विचार करने लगा॥ ९॥ कि यह दुष्ट मुझे इतनी दूर लाकर यहाँ साधुकी

पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्॥ इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः॥८॥ एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकंदरम्॥ सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम्॥९॥ नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्॥ इति मत्वाऽच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत्॥१०॥ स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने॥ दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम्॥११॥ स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत॥देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात्॥॥१२॥ राजोवाच॥ को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किंवीर्य एव च॥ कस्माद्गुहां गतः शिश्ये किं तेजो यवनार्दनः॥१३॥

नाई शयन कर रहाहै, इस प्रकार कालयवनने निश्चय कर, उस सोतेहुये पुरुषको कृष्ण जानकर एक लात मारी॥ १०॥ वह पुरुष बहुत दिनोंका सोया हुआ था, इसलिये धीरे धीरे नेत्र खोल, चारों ओरको देख, कालयवनको देखा॥ ११॥ हे भारतवंशी राजा परीक्षित् !उसी समय क्रोधी मुचुकुन्दके देखने से कालयवनके शरीरसे ऐसी अग्निप्रगटहुई कि, जिससे उसका शरीर क्षणभरमें जलभुनकर भस्म होगया॥ १२॥ यह सुनकर राजा परीक्षित पूँछने लगे कि, हे ब्रहान् ! जिसने अपनी क्रोधाग्निसे कालयवनका प्राण संहार किया, उसका क्या नाम और वह कौन पुरुष है ? किसके वंशमें जन्म ग्रहण किया है, क्या उनका प्रभाव है, किनके पुत्र हैं ? और किसलिये इस गुफामें सोते थे ! सो सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मुझे सुनाइये॥ १३॥

तब श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजा परीक्षित् !इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न मान्धाताका पुत्र गुणवान् ब्राह्मणोंका भक्त मुचुकुन्दनाम राजा था॥ १४॥एक समय असुरोंसे भयभीत होकर इन्द्रादिक देवताओंने अपनी रक्षा करनेके लिये राजा मुचुकुन्दसे प्रार्थना की तो इन्होंने बहुत दिनोंतकदेवताओंकी रक्षा की॥ १५॥ इसके उपरान्त स्वर्गके पालन करनेवाले स्वामिकार्तिकजीको आयाहुआ देखकर सब देवता इनसे कहने लगे कि, हे राजा मुचुकुन्द!हमारी रक्षा करनेमें जो कुछ कष्ट आपको हुवा है इससे निवृत्त होकर आराम करो॥ १६॥ हे वीर!तुमने मनुष्य लोकके निष्कंटक राज्यको त्यागकर हमारी रक्षा की है, इससे तुम्हारे विषयके भोग छूटे॥ १७॥ और तुम्हारे पुत्र रानी, जातिके बन्धु बांधव,

श्रीशुक उवाच॥ स इक्ष्वाकुकुले जातो मांधातृतनयो महान्॥ मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसंगरः॥१४॥ स याचितः सुरगणैरिंद्राद्यै- रात्मरक्षणे॥ असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम्॥१५॥ लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्॥ राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात्॥१६॥ नरलोके परित्यज्य राज्यं निहतकंटकम्॥ अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः॥१७॥ सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमंत्रिणः॥ प्रजाश्च तुल्यकालीया नाऽधुना संति कालिताः॥१८॥ कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः॥ प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पाशून्॥१९॥ वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः॥ एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः॥॥२०॥ एवमुक्तः स वै देवानभिवंद्य महायशाः॥ निद्रामेव ततो वव्रे स राजा श्रमकर्शितः॥२१॥ यः कश्चिन्मम निद्राया भंगं कुर्यात्सुरोत्तमाः॥ स हि भस्मीभवेदाशु तथोक्तश्चसुरैस्तदा॥ २२॥

प्रधान, दीवान, मंत्री, राज्यकी प्रजा इनमेंसे अब कोई शेष नहीं है, सबका कालने संहार करदिया॥ १८॥ काल बलवान्से बलवान् है, भगवान्की शक्ति है समर्थ अविनाशी है और जिस प्रकार पशुओंका पालन करनेवाला ग्वालिया पशुओंको चलाता है, उसीप्रकार आप क्रीड़ा करके सब प्रजाको इधर उधर चलाता है॥ १९॥ सब देवता कहने लगे कि, हे राजा मुचुकुन्द!तुम्हारा कल्याण हो, मोक्षके अतिरिक्त और जो इच्छा हो सो वर मांगो क्योंकि मोक्षके दाता तो केवल एक विष्णु भगवान् ही हैं॥२०॥ हे परीक्षित!जब इस प्रकार देवता लोगोंने कहा, तब महायशस्वी राजा मुचुकुन्दने बहुत दिनोंतक देवताओंकी रक्षा करनेसे श्रमित होनेके कारण यह वर मांगा कि, मैं सोताही रहूं और जो कोई

मेरी निद्रा भंग करै, वह उसीसमय भस्म होजाय, यह वर माँगा, देवताओंने कहा कि ऐसाही होगा, तब राजा मुचुकुन्द देवताओंकी आज्ञा पाय पर्वतकी गुफामें जाकर सो रहा॥ २१॥ २२॥ इससे देवताओंने कह दिया था कि, जो तुम्हारी निद्रा भंग करेगा, वह तत्कालही जलके भस्म होजायगा॥ २३॥ जब कालयवन जलके भस्म होगया, तब चतुर्भुजरूप होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने राजा मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया॥२४॥ मेघके समान श्यामवर्ण पीतवस्त्रधारणकिये हृदयमें प्रकाशमान भृगुलताका चिह्न और कौस्तुभमणि धारण करनेसे अत्यन्तही देदीप्यमान होरहे थे॥२५॥ चतुर्भुज, वैजयन्ती मालासे सुशोभित और दमकते हुये मकराकृत कुण्डलोंसे शोभायमान होरहे थे॥ २६॥ देखने योग्य प्रेमभरी

अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया॥स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतनः॥ स त्वया दृष्टमात्रस्तु भस्मीभवतु तत्क्षणात्॥२३॥ यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्त्वतर्षभः॥ आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते॥२४॥ तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥ श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्॥२५॥ चतुर्भुजं रोचमानं वैजयंत्या च मालया॥ चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥२६॥ प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्॥ अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम्॥२७॥ पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः॥ शंकितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा॥ २८॥ मुचुकुन्द उवाच॥ को भवानिह संप्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे॥ पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकंटके॥॥२९॥ किंस्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः॥ सूर्यः सोमो महेंद्रो वा लोकपालोऽपरोपि वा॥ ३०॥

मुसकान सहित विलक्षण और नवीन अवस्था युक्त मतवाले सिंहके समान पराक्रमी॥ २७॥ इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका तेज देखतेही भयभीत होकर राजा मुचुकुन्द धीरे धीरे पूछनेलगा॥ २८॥ राजा मुचुकुन्द बोला कि, हे पुरुषश्रेष्ठ !तुम कौन हो ? कमलके समान आपके कोमल चरण हैं और इस पर्वतकी गुफामें किसलिये आयेहो ? जो काँटोंके वनमें विचरते फिरोहो॥ २९॥ क्या आप तेजवान् भगवान् अग्नि हैं वा सूर्य हैं, अथवा चन्द्रमा हैं, या इन्द्र हैं ? किंवा समस्त लोकपालोंके कर्त्ता या देवता हैं ?॥ ३०॥

अथवा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन तीनों देवताओंमेंसे कोई हो! मुझे जान पडता है कि, आप विष्णु भगवान् हैं, क्योंकि जैसे दीपक अपने प्रकाशसे अंधकार का नाश कर देता है, वैसेही आपने अपने तेजसे इस गुफाका अंधकार नाश करदिया॥३१॥ यह कहकर फिर मुचुकुंद बोले कि, हे नरपुंगव हमें आपका जन्म, कर्म व गोत्र सुननेकी अत्यन्त अभिलाषा है, सो प्रसन्नतापूर्वक हमें सुनाइये॥३२॥ हे पुरुषसिंह ! मैं तो इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुआ हूं, मान्धाताका पुत्र और मुचुकुन्द मेरा नाम है॥॥३३॥मैं बहुत दिनोंमें जागाहूं इसलिये मुझे खेद प्राप्त हुआ है और नींदके मारे मेरी इन्द्रियें चलायमान होरहींहै, क्योंकि मैं इच्छानुसार इस वनमें सो रहाथा और अभी किसीने आकर जगादिया ॥३४॥ और जिसने मुझे

मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्॥ यद्बाधसे गुहाध्वांतं प्रदीपः प्रभया यथा॥ ३१॥ शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुंगव॥ स्वजन्मकर्मगोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते॥३२॥ वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबंधवः॥ मुचुकुंद इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो॥३३॥ चिरप्रजागरा- श्रांतोनिद्रयापहतेंद्रियः॥ शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना॥३४॥ सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना॥ अनंतरं भवाञ्श्री- माँल्लक्षितोऽमित्रशातनः॥३५॥ तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः॥ हतौजसो महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम्॥३६॥एवं संभाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः॥ प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया॥ ३७॥ श्रीभगवानुवाच॥ जन्मकर्माभिधानानि संति मेंग सहस्रशः॥ न शक्यंतेऽनुसंख्यातुमनंतत्वान्मयापि हि॥ ३८॥ क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः॥ गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित्॥ ३९॥

आनकर जगाया, वह पुरुष उसीसमय जलकर भस्म होगया उसके पीछे आपके दर्शन हुए॥३५॥हे भगवन् ! तुम्हारा असह्यतेज बहुत काल तक हम नहीं देख सक्ते, क्योंकि आप देहधारियोंके माननीय हैं॥३६॥इसप्रकार जब राजा मुचुकुन्दने प्रार्थना करी, तब संपूर्ण प्राणियोंके पालन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहनेलगे॥३७॥ कि, हे मुचुकुन्द ! मेरे जन्म, कर्म और नामका अंत नहीं इसलिये मैं भी उनकी गणना नहीं करसक्ता॥ ३८॥ अनेक जन्म धारण करके कदाचित् मनुष्य पृथ्वीके रजकणोंकी तो गणना करसक्ता है,

परन्तु मेरे गुण, कर्म, जन्म, नामकी गिनती नहीं करसक्ता॥ ३९॥ हे राजा मुचुकुन्द ! भूत, भविष्य, वर्त्तमान, मेरे जन्मोंकी गणना करते करते बडे बडे ऋषि, मुनि भी पार न सके॥४०॥ तोभी हे अंग ! अभीके जो मेरे नाम कर्म हैं सो मैं कहताहूं, तुम श्रवण करो. पृथ्वीका भार उतारने और धर्मकी रक्षा करनेके लिये प्रथम कमलयोनि ब्रह्माजीने मेरी प्रार्थना की थी॥४१॥ इस कारण यदुवंशमें वसुदेवके गृह मैंने जन्म लिया, और इसीलिये मेरा नाम वासुदेव प्रसिद्ध हुआ॥४२॥ हे मुचुकुन्द ! साधुद्वेषी कालनेमि, कंस इत्यादिका मैंने वध किया और यह जो कालयवन

कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप॥ अनुक्रमंतौ नैवांतं गच्छति परमर्षयः॥४०॥ तथाप्यद्यतनान्यंग शृणुष्व गदतो मम॥ विज्ञापितो विरिंचेन पुराऽहं धर्मगुप्तये॥ भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च॥४१॥ अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुंदुभेः॥ वदंति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम्॥ ४२॥ कालनेमिर्हतः कंसः प्रलंवाद्याश्च सहिषः॥ अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा॥४३॥ सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः॥ प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाऽहं भक्तवत्सलः॥ ४४॥ वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते॥ मां प्रपन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम्॥४५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तस्तं प्राणम्याह मुचुकुंदो मुदान्वितः॥ ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन्॥४६॥ मुचुकुंद उवाच॥ विमोहितोऽयं जन ईश मायया त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्॥ सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः॥४७॥

है, सो तुम्हारी तीक्ष्णदृष्टिसे भस्म हो गया॥ ४३॥ हे राजन् ! पहले तुमने मेरी प्रार्थना की थी इसलिये मैं तुमपर अनुग्रह करनेके लिये इस गुफामें आया हूं ॥४४॥हे मुचुकुन्द ! मैं तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूं वर माँगो, क्योंकि मेरी शरण आनेसे मनुष्यको फिर किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं रहती॥ ४५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! जब इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने कहा, तब प्रसन्न हो गर्गाचार्यके वचन स्मरणकर उन्हें साक्षात् परिपूर्ण भगवान् जान प्रणाम करके राजा मुचुकुन्द बोलनेलगा॥ ४६॥ मुचुकुन्दने कहा कि, हे ईश !तुम्हारी मायासे यह

लोग मोहित होकर अनर्थ ( जगत् ) की ओर दृष्टि लगाय, सुखके लिये दुःखके दुःखमूल घरोंमें रहकर क्या स्त्री क्या पुरुष सभी ठगकर मोहित होजातेहैं॥ ४७॥ इस मृत्युलोकमें जन्म लेकर जो मनुष्य आपके चरणोंका ध्यान नहीं करता है सो पशु समझना ऐसा है तो भी शरीरका मैंने इतना अभिमान किया है कि, रथ, घोड़े, हाथी, पैदल, सेना और मुख्य मुख्य सेनाध्यक्षको साथ लेकर पृथ्वीपर विचारतारहा, परंतु कालरूप तुम्हारा स्मरण कभी न किया इसलिये मेरा इतना समय व्यर्थ गया और पशुकी नाई गृहान्धकूपमें पडगया॥ ४८॥ ४९॥ कच्चे घटके समान इस देहको राजा मान अभिमानसे हम रथ, हाथी, घोडे, पदातिके संग पृथ्वीपर भ्रमण करते हुए आपका हमने बहुत अनादर किया ऐसे

लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं कथंचिदव्यंगमयत्नतोऽनघ॥ पादारविंद न भजत्यसन्मतिर्गृहांधकूपे पतितो यथा पशुः॥ ४८॥ ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः॥ मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभूष्वासज्जमानस्य दुरंतचिंतया॥४९॥ कलेवरेऽस्मिन्घटकुड्य- सन्निधेनिरूढमानो नरदेव इत्यहम्॥ वृतो रथेमाश्वपदात्यनीकपैर्गांपर्यटंस्त्वाऽगणयन्सुदुर्मदः॥५०॥ प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्॥ त्वमप्रमत्तः सहसाऽभिपद्यसे क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमंतकः॥५१॥ पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः॥ स एवं कालेन दुरत्ययेन ते कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः॥५२॥ निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो वरासनस्थः समराजवंदितः॥ गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां क्रीडामृगः पुरुष ईश नीयते॥ ५३॥

मनुष्यको मुखसे जिसप्रकार गलाफू चाटता सर्प उंदर ( मूँसा ) को पकड़ लेता है, उसी प्रकार अप्रमत्त ( सावधान ) कालस्वरूप आप झटपट लेतेहैं॥ ५०॥ ५१॥ मनुष्यदेव अर्थात् राजा यह नाम धरकर जो सुवर्णके बने रथोंपर बैठकर चलते हैं, सो देह दुरत्ययकाल करके मेरे पीछे कुत्ते सियार यदि भक्षण करलें तो विष्ठा होजाय, पड़ा रहे तो कृमि पड़ जाँय और अग्निसे जला दिया सो भस्म होजाय, इस प्रकार तीन नामोंको धारण करते हैं॥ ५२॥ हे भगवन् !जिस पुरुषने सम्पूर्ण दिशाओंको जीतलिया है, जिसको संग्राममें कोई शत्रु शेष नहीं रहा और जिसे सब बराबरके राजा प्रणाम करते हैं, ऐसेउत्तम सिंहासनपर विराजमान चक्रवर्ती राजा भी मैथुन करनेके लिये घरोंमें क्रीड़ामृगके समान स्त्रियोंसे

नाच नचाये जाते हैं, जैसे बाजीगर बंदरको नचाता है॥५३॥ प्रथम यह पुरुष सब विषयोंको त्यागके, तपमें बड़ी श्रद्धाकर पृथ्वीमें शयन करता है और ब्रह्मचर्य रहकर विषयभोगनेके लिये दान पुण्य करता है और फिर विचार करता है कि, इस जन्ममें तपकर चक्रवर्ती राजा हो, तपस्याके प्रभावसे फिर इन्द्र होजाऊंगा, इसप्रकार तृष्णाके बढ़नेसे उस पुरुषको कभी सुख नहीं होता॥ ५४॥ हे भगवन् !इस संसारमें जन्म मरण प्राप्तहुए जीवको जिस समय तुम्हारे अनुग्रहसे संसारका अंत होता है; उस समय तुम्हारे भक्तोंका सत्संग हो तो सब संगको त्यागकर कार्य कारणकेनियन्ता आपमें भक्ति करते हैं, वह संसारके बंधनों से छूट जाते हैं॥ २५॥ हे ईश्वर ! यह आपने बड़ाही अनुग्रह किया, जो मैं अकस्मात् राज्यबंधनोंसे

करोति कर्माणि तपस्सु निष्ठितो निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाऽऽददत्॥ पुनश्च भूयेयमहं स्वराडिति प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते॥५४॥ भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य तर्ह्यच्युततत्समागमः॥ सत्संगमो यहि तदैव सद्गतौ परावरेशे त्वयि जायते मतिः॥५५॥ मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो राज्यानुबंधापगमो यदृच्छया॥ यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्या वनं विविक्षद्भिरखंडभूमिपैः॥५६॥ न कामयेऽन्यं तव पादसेवनादकिंचन- प्रार्थ्यतमाद्वरं विभो॥ आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृणीत आर्यो वरमात्मबंधनम्॥५७॥ तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो रजस्तमस्सत्त्वगु- णानुबंधनाः॥ निरंजनं निर्गुणमद्वयं परं त्वां ज्ञप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम्॥५८॥ चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापैरवितृषषडमित्रोऽल- ब्धशांतिः कथंचित्॥ शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्नभयमृतमशोकं पाहि माऽपन्नमीश॥ ५९॥

छूटगया, यह मैं मानताहूं, राज्य छूटनेके लिये अकेला होकर वनमें जानेकी इच्छा करनेवाले चक्रवर्ती राजा भी प्रार्थना करते हैं कि हमाराकिसीप्रकार राज्यबंधन छूटजाय, जिससे स्वाधीन होकर वनमें जा बैठें॥ ५६॥ हे समर्थ! निष्किंचन साधुसे पूजित, तुम्हारे चरणारविन्दोंका सेवन करनेसे मैं और किसी वरकी इच्छा नहीं करता, क्योंकि साक्षात् मोक्षला देनेवाला तुम्हारा आराधना करके ऐसा कौन विवेकी पुरुष है, जो आत्माका बंधनरूप वर मांगेगा ?॥ ५७॥ हे ईश ! इसीलिये सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इनके बंधन और ऐश्वर्य, अथवा शत्रुका विनाश और धर्मादिक मनोरथ त्याग ज्ञानघन, निरंजन, उपाधिरहित, निर्गुण, अद्वैत, ईश्वर मैं आपकी शरण आयाहूं॥ ५८॥ हे अच्युत ! मैं इस संसारमें

बहुत दिनोंसे कर्म फलोंके कारण दुःखी हूं और कर्मोंकी वासनाओंसे पीड़ित हूं और तृष्णा सहित जो यह छः इन्द्रियरूप शत्रु मेरे पीछे पड़रहे हैं, इसलिये मुझे किसी प्रकारसे शांति नहीं है, अब मैं जैसे तैसे शोकरहित भयके दूर करनेवाले तुम्हारे चरणारविन्दकी शरण आगया हूं, सो मेरी रक्षा करो॥ ५९॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे राजन् ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी निर्मल और उदार है, क्योंकि मैंने वर देनेके लिये कहकर तुम्हें लोभ उत्पन्न किया, तो भी कामना करके तुम्हारी बुद्धि चलायमान न हुई॥ ६०॥ मैंने वर देनेके लिये कहकर जो लोभ उत्पन्न किया, सो तुझे सचेत किया है, और हे राजन् ! यह तू निश्चय जान कि, मेरे भक्तोंको कदाचित् दुःख आनकर प्राप्त हो तो भी उनकी बुद्धि चलायमान नहीं होती है

श्रीभगवानुवाच॥ सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता॥ वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः॥६०॥ प्रलोभितो वरैर्यस्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्॥ न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित्॥६१॥ युंजानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः॥ अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरु- त्थितम्॥६२॥ विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः॥ अस्त्वेव नित्यदातुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी॥६३॥ क्षात्रधर्मे स्थितो जंतून्न्यवधीर्मृगया- दिभिः॥ समा हितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः॥६४॥ जन्मन्यनंतरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः॥ भृत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम्॥ ६५॥ इति श्रीमद्भा० महापु० दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५१॥

॥६१॥ हे मुचुकुन्द ! जो मेरे भक्त नहीं हैं, वह प्राणायामादि साधनासे मनको वश करते हैं, तो भी उनका मन विषयोंके लोभमें जाताहुआ दीखता है, क्योंकि उनकी वासना क्षीण नहीं हुई॥ ६२॥ हे वीर ! मुझमें मन लगाकर जहाँ आपकी इच्छा हो, तहाँ विचरण करो, और तुम्हारी भक्ति नित्यप्रति मुझमें होवे॥ ६३॥ क्षत्रिय वंशमें रह शिकार खेलकर जो तैने जीवोंकी हिंसा की है, सो अब सावधान होकर मेरा आश्रय लेकर तप कर, जिससे तेरे सब पाप छूट जाये॥ ६४॥ हे राजा मुचुकुन्द ! दूसरे जन्ममें सब प्राणियोंके हित करनेवाले द्विजरूप तुममुझे प्राप्त होगे॥ ६५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्ध भाषाटीकायां मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ६१॥

दोहा—बवन्वें अध्यायमें, रक्मिणिको संदेश। द्विजवर लेगयोद्वारका, जहँश्रीकृष्ण व्रजेश॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् इसप्रकार कृष्णमें अनुगृहीत होकर इक्ष्वाकुनन्दन मुचुकुन्द श्रीकृष्णकी परिक्रमा दे, नमस्कार कर गुफासे बाहर निकल आये॥ १॥ राजा मुचुकुन्द मनुष्य, पशु लतादिक और छोटे छोटे वृक्षोंको देखकर “अब कलियुग आगया " इसप्रकार निश्चय कर उत्तर दिशाको चलेगये *॥२॥ वहाँसे फिर श्रद्धापूर्वक सब संग त्याग, संदेह रहित हो राजा मुचुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाय गंधमादन पर्वत पर चले गये ॥३॥ हे नृपोत्तम।

॥श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सोऽनुगृहीतोंग कृष्णेनेक्ष्वाकुनंदनः॥ तं परिक्रम्य संनम्य निश्चक्राम गुहामुखात्॥१॥ स वीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्प- शून्वीरुद्वनस्पतीन्॥ मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम्॥२॥ तपश्श्रद्धायुतो धीरो निस्संगो मुक्तसंशयः॥ समाधाय मनः कृष्णे प्राविशद्गंधमादनम्॥३॥ बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्॥ सर्वद्वंद्वसहः शांतस्तपसाऽऽराधयद्धरिम्॥४॥ भगवान्पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्॥ हृत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम्॥ ५॥

फिर नरायणके स्थान बद्रिकाश्रममें जाकर समस्त द्वन्द्व अर्थात सुख दुःख, भूख प्यास, शीत उष्णादि सहकर शान्त स्वरूप मुचुकुन्द तप करके भगवान् वासुदेवकी आराधना करनेलगा॥ ४॥ फिर इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्रने म्लेच्छोंसे घिरी मथुरापुरीमें आकर म्लेच्छोंकी सब सेनाका संहार किया और उनका सब धन लेकर द्वारकापुरीको भेज दिया॥ ५॥

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*** शंका—**श्रीकृष्णजी मर्त्यलोकमें विराजते थे, फिर उनके सामने पृथ्वीपर मनुष्य, पशु, वृक्ष, पर्वत आदि लेके जो सत्र वस्तु प्रथम बडी बडी थी, सो वस्तु छोटी छोटी क्यों होगई ? यह वढा आश्चर्य है?क्योंकि कृष्ण भगवान् मृत्युलोकसे बैकुण्ठको चले जाते तत्र बडीबडी वस्तु छोटी छोटी हो जातीं, तो शंका न होती श्रीकृष्णके सामने विपरीत होनेका क्या कारण?

**उत्तर—**द्वापरयुगमें जैसी प्रजा ब्रह्माने बनाई थी, वैसीही प्रजा मर्त्यलोकमें उससमय थी, न तो तिलसमान कम और न तिलसमान अधिक, परन्तु राजा मुचुकुन्दने श्रीकृष्णके दर्शनकी प्रीतिसे प्रसन्न होके पर्वतको मी छोटा समझा और पढायौकी तो क्या बात है इसका यह अर्थ है कि, कृष्णके दर्शनसे सबवस्तुको राजाने छोटा समझा, एक कृष्णके स्नेहहीको बढा समझा॥

श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा पातेही मनुष्य बैलोंके ऊपर धन लादकर जब ले चले; तब जरासन्ध तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर फिर चढिआया॥६॥ श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी शत्रुकी सेनाको देख मनुष्यावतारके कारण शीघ्रही उठकर भागे॥ ७॥ यद्यपि इन्हैंकिसीका डर नहीं था, तौ भी बहुत भयभीत होगये; इसलिये बहुतसे धनको मार्गमें छोड़ कमलसे कोमल चरणोंसे बहुत दूर तक कोशों भागे चलेगये॥ ८॥ मगध देशका राजा जरासन्ध कृष्ण बलदेवको भागता हुआ देख हँसकर आप भी उनके पीछे दौड़ने लगा॥ ९॥ बहुत दूरतक भागनेके कारण श्रमित होकर श्रीकृ

नीयमाने धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः॥ आजगाम जरासंधस्त्रयोविंशत्यनीकषः॥६॥ विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ॥ मनुष्यचेष्टा- मापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम्॥७॥ विहाय वित्तं प्रचुरमभीतो भीरुभीतवत्॥ पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम्॥८॥ पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली॥ अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित्॥९॥ प्रद्रुत्य दूरं संश्रांतौतुंगमारुहतां गिरिम्॥ प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति॥१०॥ गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पद नृप॥ददाह गिरिमेधोभिः समंतादग्निमुत्सृजन्॥११॥ तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ॥दशैकयोजनोत्तुंगान्निपेततुरधो भुवि॥१२॥ अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यद्वत्तमौ॥ स्वपुरं पुनरायातौ समुद्रपरिखां नृप॥१३॥

ष्णचन्द्र और बलरामजी प्रवर्षणनाम पर्वतपर चढगये, जिसपर देवराज इन्द्र नित्य जल वर्षाते रहते थे॥१०॥ हे राजा परीक्षित !जरासन्धनेकृष्ण बलरामको पर्वतपर चढ़ा जान उनको बहुत ढूँढ़ा परन्तु कहीं पता न लगा, तब उस पर्वतके चारोंओर आग लगादी॥११ ॥हे राजन् ! जब पर्वत जलने लगा, तब श्रीकृष्णचन्द्र बलदेव दोनों भ्राता उस ४४ चवालीस कोश ऊँचे पर्वतके शिखरसे उछलकर पृथ्वीपर कूद पड़े॥ १२॥ हे महाराज! सेवकों सहित जरासन्धसे अलक्षित यादवोंमें श्रेष्ठ कृष्ण बलराम समुद्रकी खाईसे युक्त द्वारकापुरीमें आये॥ १३॥

हे राजन्! जब समस्त पर्वत जलकर भस्म होगया, तब मगधदेशके राजा जरासन्धने विचारा कि, कृष्ण बलदेव भी इसके संगही भस्म होगये, इसलिये अपनी सब सेना साथ लेकर मगधदेशको चलागया॥ १४॥ यद्यपि अब श्रीकृष्णचन्द्रके विवाहकी कथा कहनेके लिये प्रथम ( नवमस्कन्ध ) में बलदेवजीके विवाहकी कथा वर्णनकर आये हैं, तो भी फिर एक श्लोकमें वर्णन करते हैं, हे परीक्षित् ! आनर्त्तदेश के राजा रैवतने, कमलयोनि ब्रह्माजीके कहनेसे अपनी पुत्री रेवतीका बलदेवजीसे विवाह कर दिया, यह पहले कहचुके है॥ १५॥ हे भारतवंशावतंस परीक्षित्! भगवान् वसुदेव भी स्वयंवरमें जाकर लक्ष्मीजीके अंशसे विदर्भदेशमें उत्पन्न हुई भीष्मककी कन्या रुक्मिणीको विवाह लाये॥ १६॥ शाल्व

सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ॥बलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ॥१४॥ आनर्ताधिपतिः श्रीमानैरेवतो रेवतींसुताम्॥ ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम्॥१५॥ भगवानपि गोविंद उपयेमे कुरूद्वह॥ वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे॥१६॥ प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्॥ पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव॥१७॥ राजोवाच॥ भगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्॥ राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम्॥१८॥ भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः॥ यथा मागधशाल्वादीञ्जित्वा कन्यामुपाहरत्॥१९॥ ब्रह्मन्कृष्ण- कथाः पुण्यामाध्वीर्लोकमलापहाः॥ को नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः॥ २०॥

और शिशुपालादिक राजाओंकी सेनाको जीत, सब लोकोंके देखतेहुये जैसे देवताओंको जीतकर गरुडजी अमृत ले आते हैं उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीजीको लेआये॥ १७॥ इतनी कथा सुनकर राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन् ! अत्यन्त स्वरूपवान् राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणीको युद्धमेंसे हरके राक्षसविधिसे श्रीकृष्णचन्द्रने व्याहा, यह वार्त्ता हमने आपकेही मुखसे सुनी है॥ १८॥ हे व्यासनंदन! जरासन्ध शाल्व इत्यादि राजाओंको जीतकर जिस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीको लाये, वह चरित्र सुननेकी मेरी अत्यन्त अभिलाषा है, सो प्रसन्नता पूर्वक वर्णन कीजिये॥ १९॥ हे ब्रह्मन् ! श्रीकृष्णचन्द्रकी कथा अत्यन्त पवित्र और मनोहर है और समस्त लोकोंके पापोंका नाश करनेवाली हैं,

नित्य नवीन सुननेके सारको जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो ऐसी कथायें सुनकर तृप्त हो !॥ २०॥ जब राजाने यह वचन कहे, तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! विदर्भदेशका पालन करनेवाला, महायशस्वी भीष्मक नाम राजा था, इसके पाँच पुत्र और परमस्वरूपवान एक कन्या उत्पन्न हुई॥ २१॥ इन पुत्रोंमें सबसे बड़ा रुक्मी, इससे छोटा रुक्मरथ, इससे छोटा रुक्मबाहु, इससे छोटा रुक्मकेश और रुक्मकेशसे छोटा रुक्ममाली, यह पांच पुत्र उत्पन्न हुये और पाँचोंकी बहन परमसुशीला पतिव्रता रुक्मिणी हुईं॥ २२॥ घरमें आये हुये देवर्षि नारदजीके मुखसे श्रीकृष्णचन्द्रका गुणानुवाद सुनकर श्रीरुक्मिणीजीने अपने समान जान, विवाह करनेके लिये मनमें प्रतिज्ञा की॥२३॥और इधर सुन्दर बुद्धि, उदारता, रूप, पराक्रम, शोभायुक्त रुक्मिणीके गुण सुनकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने

श्रीशुक उवाच॥ राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्॥ तस्य पंचाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना॥२१॥ रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहु- रनंतरः॥ रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषां स्वसा सती॥२२॥ सोपश्रुत्य मुकुंदस्य रूपवीर्यगुणश्रियः॥ गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम्॥२३॥ तां बुद्धिलक्षणौदार्यरूपशीलगुणाश्रयाम्॥ कृष्णश्च सदृशीं भार्यांसमुद्वोढुं मनो दधे॥२४॥ बंधूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप॥ ततो निवाय कृष्णद्विड् रुक्मी चैद्यममन्यत॥२५॥ तदवेत्यासितापांगी वैदर्भी दुर्मना भृशम्॥ विचिंत्याऽऽप्तं द्विजं कंचित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम्॥२६॥ द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः॥ अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं कांचनासने॥ २७॥

समान स्त्रीके व्याहनेका अभिलाष किया॥ २४॥ हे राजन्! माता, पिता, भ्राता, आदि सबकी यही इच्छा थी कि, रुक्मिणीका विवाह श्रीकृष्णचन्द्रसे करैंगे, परन्तु श्रीकृष्णचन्द्रका शत्रु रुक्म “हम अपनी बहनका विवाह कृष्णके साथ नहीं करैंगे” इस प्रकार निषेधकररुक्मिणीके योग्यवर शिशुपाल है” यह मनमें निश्चय किया॥ २५॥॥ सुन्दर नील कटाक्षवाली विदर्भदेशके राजाकी पुत्री रुक्मिणीने सुना कि, श्रीकृष्णके साथ मेरा भाई व्याहनेको निषेध करता है, यह जान बहुत उदास होकर उसी समय एक ब्राह्मणको बुलाय श्रीकृष्णचन्द्रके लिवालानेके लिये भेजा॥ २६॥ हे राजन्! यह ब्राह्मण जिस समय द्वारकापुरीमें पहुंचा, उसी समय द्वारपालोंने इसे भीतर पहुँचाया, वहाँ इसने

सुवर्णके सिंहासनपर विराजमान आदि पुरुष भगवान् वासुदेवके दर्शन किये॥ २७॥ गौ ब्राह्मणोंका पालन करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र उसब्राह्मणको देखतेही सिंहासनपरसे उतरपड़े और ब्राह्मणको सिंहासनपर बिठाय, जिस प्रकार कोई अपने देवताकी पूजा करता है उसी प्रकार पूजा करनेलगे॥ २८॥ हे नृपोत्तम परीक्षित ! जब ब्राह्मण भोजन करचुका और मार्गकी थकावट दूर होगई, तब सत्पुरुषोंकी गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसके निकट जा अपने हाथोंसे उसके चरण दाबते दाबते यह पूँछा॥ २९॥ कि, हे द्विजश्रेष्ठ! वृद्धसंमत तुम्हारा धर्म बहुत कठिनतापूर्वक तो

दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्॥ उपवेश्यार्हयांचक्रे यथात्मानं दिवौकसः॥२८॥ तं भुक्तवंतं विश्रांतमुपगम्य सतां गतिः॥ पाणिनाऽभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत॥२९॥ कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसंमतः॥ वर्तते नातिकृच्छ्रेण संतुष्टमनसः सदा॥३०॥ संतुष्टो यहि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्॥ अहीयमानः स्वाद्धर्मात्स ह्यस्या खिलकामधुक्॥३१॥ असंतुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः॥ अकिंचनोऽपि संतुष्टः शेते सर्वांगविज्वरः॥ ३२॥

नहीं चलता है ? सदा तुम्हारे मनमें संतोष तो वर्त्तमान है ?॥ ३०॥जिस किसी प्रकारके ब्राह्मण संतोष होकर वर्त्ते अर्थात् जो वस्तु मिले उसीमें संतोष रक्खे, स्वधर्मसे च्युत न हो तो यही उसको समस्त फलके देनेवाले हैं॥ ३१॥ और जिसके मनमें संतोष नहीं है वह ब्राह्मणयद्यपि इन्द्र हो जाय तौ भी सब लोकोंमें घूमता फिरता है, तृष्णाकेमारे एक स्थानपर स्थिर नहीं रहता, हे ब्राह्मण ! प्रारब्धही तो मनुष्यको राजा रंक करताहै * और जिसके पास कुछ भी नहीं है और मनमें सन्तोष है, वह ब्राह्मण सब खेदको त्यागकर आनन्दपूर्वक सोता है॥ ३२॥

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** * दृष्टान्त—**एक घोडोंके व्यापारीके घोडेसे राजाके पुत्रका कोई रोग जाता रहा, राजाने व्यापारीसे कहा कि, इस घोडेकी कीमत लेलो, व्यापारीने कहा, महाराज ! यहघोडा कुमारके चढनेको मैने पैसेही दिया और मुझे द्रव्यकी इच्छा नहीं, जब उसने ऐसा कहा, तब राजाने उसका बहुत आदर सन्मानकर विदा किया और कहा कि, यहाँ आते जाते रहियो अब कुछ वर्ष उपरान्त व्यापारीका प्रारब्ध विगत धन सब चोरी होगया, घोड मरगये और जब कुछ उपाय न चला तो राजाके पास आया, राजाने यह समाचार सुन, उसे एक मकानमें टिका दिया और कुछदिन पीछे उससे भेंट कर पूछा कि, तुमको क्या बनाना आता है ? व्यापारी बोला कि, मैं चाबुक बनाना जानताहू, राजाने उसी समय पाँच रुपये देकर कहा कि, इसके चाबुक बनाओ और बेचो, रहनेके लिये मकान तुम्हें देही दिया है, तो व्यापारी चाबुक बनाने लगा, कुछ दिन उपरान्त उनमें भी घाटा हुआ और पाँचों रुपये व्यय होगये, तो राजाने फिर पाँच रुपये देदिये और फिर घटगये, इसी प्रकार पाँच पाँच रुपये, सात वर्षतक राजाने दिये परन्तु जमा घटतीही-

जो द्विज आपही मिली वस्तुमेंसन्तोष करता है, अपने धर्ममें निष्ठ है और समस्त जीवोंकी रक्षा करता है शान्तस्वभाव अहंकार रहित है उसको मैं भी बारम्बार नमस्कार करता हुँ॥ ३३॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! जिस राजाके देशमें तुम वास करते हो, वह राजा तो तुम पर प्रसन्न है ? क्योंकि जिस राजाके देशमें भली भाँति गौ ब्राह्मणका पालन होता है, वह राजा मुझे अत्यन्त प्यारा लगता है॥ ३४॥ हे द्विजोत्तम ! समुद्रको उल्लंघन कर जिस

विप्रान्स्वलाभसंतुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्॥ निरहंकारिणः शांतान्नमस्ये शिरसाऽसकृत्॥ ३३॥ कच्चिद्वःकुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः॥ सुखं वसंति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः॥ ३४॥ यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया॥ सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते॥ ३५॥ एवं संपृष्टसंप्रश्नो ब्राह्मणः परिमेष्ठिना॥ लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत्॥ ३६॥ रुक्मिण्युवाच॥ श्रुत्वा गुणान्भुवनसुंदर शृण्वतां ते निर्विश्य कर्णविव रैर्हरतोंगतापम्॥ रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं त्वय्यच्युताऽविशति चित्तमपत्रपं मे॥ ३७॥

कार्य करनेकी इच्छासे आप यहाँपर आये हैं, जो कहने योग्य वार्त्ता होय तो हमारे सन्मुख कहो, जिससे उस कार्यको करनेका उपाय कियाजाय॥ ३५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित् !श्रेष्ठ आसनपर विराजमान, लीलासेही जिन्होंने मनुष्य देह धारण किया है, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके पूछनेपर वह ब्राह्मण बोला कि॥ ३६॥ हे मधुसूदन! रुक्मिणीने आपको एकान्तमें

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-गई, जत्र आठवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तो एक रुपया बढा अर्थात् पाँच रुपयेके छ रुपये होगये तब यह देखकर राजाने दश रुपये दिये, फिर अधिक उन्नति हुई और द्रव्य बढनेही लगा । राजाने फिर घोडे लिवादिये उसमें वहुत द्रव्य उपार्जन किया, जब पहलेके समान द्रव्य होगया, तब व्यापारीने विचारा कि, जितना कुछ राजाका द्रव्य हमने लिया है, सो देदेना चाहिये, यह अपने मनमें निश्चय कर राजासे मिलने गया उस दिन राजाने उसका बहुत सत्कार किया और कहा कि, मेरा आधा राज्य तु लेले तब व्यापारी कोष करके बोला कि जब मेरे पासकुछ नहीं थातबपाँच रुपयेसे अधिक नहीं दिये, न मुझसे अच्छी प्रकार मिले और अब आधा राज्य देतेहो, तब राजा वोले कि उस समय तेरा प्रारब्ध विगड रहाया यदिमें अपना सारा राज्य भी तुझको देदेता, परन्तु तौभीतेरे पास कुछ नहीं रहता, इसलिये थोडेही द्रव्यसे तेरा ग्रह टाल दिया, प्रारब्धके वली होनेसे और बलहीन होजातेहैं ॥

यह पत्री दीहै, तब श्रीकृष्णचन्द्रजीकी आज्ञासे उस प्रेमके चिह्नवाली पत्रीको खोलकर वह ब्राह्मण सुनाने लगा, रुक्मिणीने लिखा है कि, हे त्रिलोकीमें सुन्दर!हे अच्युत अर्थात् अखण्डरूप जबसे श्रवण करनेवाले पुरुषोंके कणोंके छिद्रों द्वारा, हृदयमें प्रवेश कर शोकसन्ताप दूर करनेवाले आपके गुण और दृष्टिवालोंकी दृष्टिके सकल मनोरथोंका लाभरूप श्रीमान्का रूप सुना है, तभीसे मेरा मन आपमें लग रहाहै॥ ३७॥ हे मुकुन्द!हे पुरुषशार्दूल! कौन बलवान् उदार गुणयुक्त धैर्यवान् कन्या तुम्हैंंजो कि, मनुष्य लोकके अतिप्रिय कुल, शील, रूप, विद्या, अवस्था, धन, घर इन सबमें तुम्हारी ही समान हो, जिन्हैंविवाहके समयमें पति स्वीकार न करे॥ ३८॥ हे समर्थ !

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूपविद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्॥ धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या काले नृसिंह नरलोकमनोभि- रामम्॥३८॥ तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरंग जायामात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि॥ मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्गोमायुवन्मृगपते- र्बलिमंबुजाक्ष॥३९॥ पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्रगुर्वर्चनादिभिरलं भगवान्परेशः॥ आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं गृह्णातु मे न दमघोष- सुतादयोऽन्ये॥ ४०॥ श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः॥ निर्मथ्य चैद्यमगधेंद्रबलं प्रसह्य मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम्॥ ४१॥

इसकारण मैंने अपना पति आपको वरण किया है और अपनी देह अर्पण करदी है, मुझे अपनी दासी अर्थात् भार्या बनाओ. हे कमलदललोचन! मैं आपका भाग हुँ, उसे जैसे सिंहके भागको सियार ग्रहण नहीं करसक्ता, इसी प्रकार शिशुपाल आनकर मुझे स्पर्श न करैं॥ ३९॥ बावली, कुआँ, तालाव, बाग, यज्ञ, दान, नियम, तीर्थ, देवता, ब्राह्मण, गुरु इनकी पूजा करनेसे भगवान् वासुदेव प्रसन्न होते हों तो श्रीकृष्ण चन्द्र मेरा हाथ पकडके लेजाँय और शिशुपालादि कोई राजा न आने पावें॥ ४०॥ हे अजित ! कल्हही विवाहका दिन है, इसलिये तुम गुप्तवेषसे विदर्भदेशमें आओ, परन्तु अकेले मत आना, पीछे सेना भी साथमें लेते आना शिशुपाल और मगधदेशके राजा जरासन्धकी

सब सेनाको मथनकर उस पराक्रमके मोलमें मुझ अपनी दासीके संग आसुरविधिसे विवाह करलो॥४१॥ कदाचित् कहो कि, तुम तो अंतःपुरके भीतर रहती हो, तुम्हारे बंधु बांधवोंके मारे विना कैसे विवाह करूं यह सन्देह मनमें कभी मत करो, क्योंकि हमारे कुलमें विवादसे प्रथम दिन बड़ी कुलदेवी अम्बिकाकी यात्रा होती है, सो यात्रा करने के लिये और देवीकी पूजा करनेको नववधू कन्या बाहर जाती हैं, वहाँसे मेरा लेजाना अतिसहज हैं, जैसे पार्वतीको महादेवजी लेगये॥ ४२॥ जिनके चरणारविन्दोंकी रजसे स्नान करनेको बड़े बडे साधु महात्मा अपना महान् अज्ञान दूर करनेके लिये इच्छा करते हैं, हे कमलदललोचन !जो तुम मेरे ऊपर प्रसन्न न होगे, तो व्रत करके प्राण त्यागन करदूँगी, यदि कहो कि, प्राण त्यागनेसे क्या होगा; तो उत्तर यह है कि, बारम्बार त्यागन करूंगी तो सौ जन्ममें तो प्रसन्न होगे ?॥ ४३॥ ब्राह्मण बोला कि, हे द्वारकानाथ !

अंतःपुरांतरचरीमनिहत्य बंधूंस्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्॥ पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा यस्यां वहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात्॥ ४२॥ यस्यांघ्रिपंकजरजस्स्नपनं महांतो वांछंत्युमापतिरिवात्मतमोऽपहृत्यै॥ यर्ह्यंबुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं जह्यामसून्व्रतकृशाञ्शतजन्मभिः स्यात्॥४३॥ ब्राह्मण उवाच॥ इत्येते गुह्यसंदेशा यदुदेव मयाऽऽहृताः॥ विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनंतरम्॥ ४४॥ इति श्रीमद्भाग०महा० दश०उत्तरा०कृष्णं प्रति रुक्मिणीसंदेशप्रेषणं नाम द्विपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५२॥ श्रीशुक उवाच॥ वैदर्भ्या स तु संदेशं निशम्य यदुनंदनः॥ प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ १॥ श्रीभगवानुवाच॥ तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि॥ वेदाहं रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः॥ २॥

यह जो मैं गुप्त संदेशा लेकर आया हूं यदि यह करने योग्य कार्य होय तो शीघ्रता करनी चाहिये, विलम्ब करना उचित नहीं॥ ४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां रुक्मिण्युद्वाहे द्विपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५२॥ दोहा-तिरपनमें निज प्रियाहित, हरि विदर्भ पग दीन॥ छीन लीन वैरीनसों, अपनी प्रिया प्रवीन॥ १॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!यदुवंशियोंको आनन्दके देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र विदर्भदेश के राजाकी पुत्री रुक्मिणीका इस प्रकार संदेशा सुनकर ब्राह्मणका हाथ हाथमें पकड़कर कहने लगे॥ १॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, जैसा रुक्मिणीका चित्त मुझमें लगा है, ऐसाही मेरा चित्त भी रुक्मिणी में लग रहा है और चिन्ताके मारे रातको नींद भी नहीं आती

मैं जानता हूं कि रुक्मने द्वेष करके मेरे विवाहको मने कर दियाहै॥ २॥ दुष्ट राजाओंको जीतकर दोष रहित अंगवाली अनन्यगति रुक्मिणीको जिस प्रकार काष्टके मथनेसे मनुष्य अनि निकाल लेतेहैं, वेसेही लेआऊंगा॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्। मुर दैत्यके मारनेवाले भगवान् रुक्मिणीके विवाहका नक्षत्र जान रथवान्से बोले कि, रथवान्। शीघ्रही रथ जोतकर लाओ॥४॥ शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प, बलाहक नामक घोडोंको रथमें जोत श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख ला सारथी हाथ जोडकर कहने लगा, रथ उपस्थित है॥ ५॥ रथको देखतेही शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र प्रथम ब्राह्मणको चढाय पीछे आप चढ़ शीघ्रगामी, घोड़ोंके द्वारा आनर्त्तदेशसे चलकर एकही रातमें विदर्भदेश

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे॥ मत्परामनवद्यांगीमेधसोऽग्निशिखामिव॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः॥ रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम्॥४॥ स चाश्वैः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पवलाहकैः॥ युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्रांजलिरग्रतः॥ ५॥ आरुह्य स्यंदनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः॥ आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः॥ ६॥ राजा स कुंडिनपतिः पुत्रस्नेहवशं गतः॥ शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकार यत्॥७॥ पुरं संमृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम्॥ चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलंकृतम्॥८॥ स्रग्गंधमाल्याभरणै- र्विरजोंवरभूषितैः॥ जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद्गृहैरगुरुधूपितैः॥ ९॥

पहुँचे॥ ६॥ अपने पुत्र रुक्मके स्नेहवश होकर और उसकी आज्ञानुसार चलनेवाला कुंडिनपुरका राजा भीष्मक शिशुपालको अपनी कन्या देनेके लिये पुरकी शोभा और पितृ, देवताओंके पूजनादिकर्म करानेलगा॥ ७॥ इसके उपरान्त राजा भीष्मकने अपने पुरको शोभायमान करनेके लिये राजमार्गमें झाडू बुहारी दिलवाकर छिड़काव कराया, चित्र विचित्र ध्वजा पताका और बन्दनवारोंसे अपने पुरको अत्यन्त शोभायमान किया॥ ८॥ माला, चन्दन, फूलोंके गहने और स्वच्छ वस्त्रोंसे शोभायमान स्त्री, पुरुष धाराप्रवाहकी भाँति इधर उधर फिर रहे थे और सब मन्दि अगरकी सुगन्धसे सुगंधित थे॥ ९॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित् ! पितृ देवताओंका पूजन करके और विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन जिमाय राजा भीष्मकने रुक्मिणीकायथावत् स्वस्तिवाचन कराया॥ १०॥॥ फिर कन्याको भलीप्रकार स्नान कराय; कौतुकसे उसके हाथमें विवाहका कंकण बाँध उत्तम नवीन वस्त्र पहराय अनेक अलंकारोंसे सुशोभित किया॥ ११॥ तब द्विजोत्तम ब्राह्मण सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेदके मंत्रोंको पढकर श्रीरुक्मिणीजीकी रक्षा करनेलगे और अथर्व वेदके मंत्रोंको जाननेवाले पुरोहितने सूर्यादि नवग्रहोंकी शान्ति करनेके लिये होम किया ॥१२॥ हे राजन् ! विधि जाननेवाले राजाओंमें श्रेष्ठ राजा भीष्मकने ब्राह्मणोंको सुवर्णरूपी वस्त्र और तिल मिलाकर गुड़ वा दूधवाली बहुतसी गायोंका दान दिया॥ १३॥

पितॄन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप॥भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मंगलम्॥१०॥ सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमंगलाम्॥ अहतां- शुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥११॥ चक्रुः सामर्ग्यजुर्मंत्रैर्बद्धा रक्षां द्विजोत्तमाः॥ पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशांतये॥१२॥ हिरण्य- रूप्यवासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्॥ प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः॥१३॥ एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै॥ कारयामास मंत्रज्ञैःसर्वमभ्युदयोचितम्॥१४॥ मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यंदनैर्हेममालिभिः॥ पत्त्यश्वसंकुलैः सैन्यैः परीतः कुंडिनं ययौ॥ १५॥ तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च॥ निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने॥१६॥ तत्र शाल्वो जरासंधोदंतवक्रोविदूरथः ॥आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौंड्रकाद्याः सहस्रशः॥ १७॥ कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्॥ यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः॥ १८॥

जिस प्रकार राजा भीष्मकने अपनी कन्याका मंगल कराया उसी प्रकार चंदेलीके राजा दमघोषने अपने पुत्र शिशुपालके सब मंगलकर्म मंत्रोंके जाननेवाले ब्राह्मणोंसे कराये॥ १४॥ मतवाले हाथियोंका समूह, रथ, पैदल, घोड़े इत्यादि चतुरंगिणी सेनाको साथ लेकर राजा दमघोष कुंडिनपुरमें पहुँचा॥ १५॥ समाचार सुनतेही विदर्भदेशके राजा भीष्मकने अगौनीकर एक सजेहुये स्थानमें उन्हें जनवासा दिया॥ १६॥ तहाँ शाल्व, जरासंध, दंतवक, विदूरथ और पौंड्रक आदि सहस्रों राजा शिशुपालकी ओरके आये॥ १७॥ यह समस्त कृष्णबलदेवके शत्रु

सजकर शिशुपालको कन्या दिलानेके लिये आये थे, और मनमें प्रथमही निश्चय करलिया था कि, कदाचित् बलदेव व समस्त यदुवंशियोंको साथ ले कृष्ण आनंकर रुक्मिणीको हरेगा तो उसके संग युद्ध करैंगे इस प्रकार मनमें विचार अच्छे २ बलवान् सिपाही घोड़े हाथियोंको संग लेकर संपूर्ण राजा आये॥ १८॥ १९॥ भगवान् बलदेवजी भी शत्रु शिशुपालकी ओरके राजाओंका साहस सुनकर कहने लगे कि, “रुक्मिणीके लेनेके लिये भाई श्रीकृष्ण अकेला गया है इस कारण लड़ाई अवश्य होगी” यह मनमें निश्चय कर श्रीकृष्णके स्नेहसे हाथी, घोडे, रथ, प्यादे इत्यादि समस्त चतुरंगिणी सेनाको लेकर कुंडिनपुर पहुँचे॥ २०॥ २१॥ श्रेष्ठ जंघाओंवाली भीष्मककी कन्या रुक्मिणी श्रीमोहनप्यारेका

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः॥ आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः॥ १९॥ श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीयन्नृपोद्यमम्॥ कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशंकितः॥ २०॥ बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः॥ त्वरितः कुंडिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः॥२१॥ भीष्मकन्या वरारोहा कांक्षंत्यागमनं हरेः॥ प्रत्यापत्तिमपश्यंती द्विजस्याचिंतयत्तदा॥२२॥ अहो त्रियामांतरित उद्वहो मेऽल्पराधसः॥ नागच्छत्यरविंदाक्षो नाहं वेद्म्यत्रकारणम्॥ २३॥ सोपि नवर्ततेऽद्यापि मत्संदेशहरो द्विजः॥ अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किंचिज्जुगुप्सितम्॥ मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः॥ २४॥ दुर्भगाया न मे धाता नानुनुलो महेश्वरः॥ देवी वा विमुखा गौरी रुद्राणी गिरिजा सती॥ २५॥

पैंड़ा देख देख " ब्राह्मण पत्रीलेकर गया है वह अभी लौटकर नहीं आया" इस प्रकार चिन्ता करनेलगी॥ २२॥ मुझ मंदभागिनीके विवाहमें अब एकही रात्रि शेष रही है और कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अभीतक न आये॥ २३॥ और ब्राह्मण जो मेरा सन्देशा लेगया है, वह भी अभीतक लौट नहीं आया नहीं जान पडता है कि, इसका क्या कारण है ? ॥फिर कहने लगी कि, निर्दोष श्रीकृष्णचन्द्रने मेरे - पाणिग्रहणका उपाय तो निश्चय किया होगा परन्तु " कन्या अभीसे पत्री लिख लिखकर भेजती है" यह दोष विचारकर नहीं आये॥ २४॥ मुझ अभागिनीको विधाता

ईश्वर और देवी पार्वती अनुकूल नहीं हैं॥ २५॥ भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके न आनेसे दुःखी मन समयकी जाननेवाली रुक्मिणी आँसुओंसे व्याकुल हुए नेत्रोंको बंद करके बैठ गई॥ २६॥ हे परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके आनेका मार्ग जोहती जोहती रुक्मिणीके बायें अंग, ऊरू, भुजा और नेत्र यह अंग फड़कने लगे, क्योंकि स्त्रियोंके बायें अंग फड़कनेसे शुभदायक और प्यारी बातके जतानेवाले हैं॥ २७॥ इसके उपरान्त श्रीकृष्ण चन्द्रने कहा कि हे द्विजोत्तम तुम आगे जाकर खबर करो, श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञासे ब्राह्मणने अंतःपुरमें व्याकुलतासे दौड़ती हुई राजकुमारी रुक्मिणीको देखा॥ २८॥ पतिव्रता रुक्मिणी प्रसन्नवदन और स्वस्थरीतिसे ब्राह्मणको आताहुआ देखकर अपने मनमें “यह कार्य कर आया है” ऐसा निश्चय

एवं चिंतयती बाला गोविंदहृतमानसा॥ न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले॥२६॥ एवं वध्वः प्रतीक्षत्या गोविंदागमनं नृप॥ वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः॥२७॥ अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः॥ अंतःपुरचरीं देवीं राजपुत्री ददर्श ह॥२८॥ सा तं प्रहृष्टवदनमव्य- ग्रात्मगतिं सती॥ आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञ समपृच्छच्छुचिस्मिता॥२९॥ तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनंदनम्॥ उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति॥३०॥ तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा॥ न पश्यंती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा॥ ३१॥ प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ॥ अभ्यायात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः॥ ३२॥

कर और उसके लक्षणोसे पहुँचान पूछने लगी ॥२९॥ हे राजन्! तब रुक्मिणीजी से " श्रीकृष्णचन्द्र आये हैं" यह त्राह्मणने कहा और श्रीकृष्णचन्द्रने जो कहा था कि “राजाओंको जीतकर रुक्मिणीको लेआऊंगा” यह भी सब वृत्तान्त उनको सुनाया॥ ३०॥ श्रीकृष्णचन्द्रको आयाहुआ जान हर्षित मनसे राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणी विचार करने लगी कि, इस समय ब्राह्मणको सर्वस्व दूं, तौ भी थोडा है जब ब्राह्मणके देनेयोग्य कोई वस्तु न देखी, तब केवल प्रणाम करके बहुतसा धन्यवाद दिया

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॥ ३१॥ कन्याका विवाह देखनेके लिये श्रीकृष्ण बलदेवको आया सुन नगाड़े

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शंका—ब्राह्मणको देनेके योग्य कोई वस्तु त्रिलोकी में रुक्मिणीने नहीं देखी कि, यह वस्तु ब्राह्मणको देनी चाहिये, इसीलिये हार मानकर केवल नमस्कारही किया, यह बढी शंका है, क्योंकि वह ब्राह्मण मुनि तो थाही नहीं उसको तो जो वस्तु देती सो लेबेता फिर क्यों नहीं दी? उस ब्राह्मणको तो धनादिक लेके जो वस्तु ससार में है, सब वस्तुके लेनेकी इच्छा थी, फिर रुक्मिणीने धनादिक वस्तु क्यों नहीं दी, को नमस्कार क्यों किया ?

बजाता हुआ और बहुतसी पूजाकी सामग्री लेकर राजा भीष्मक श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख गया॥३२॥ मधुपर्क लाकर आगे धर सुन्दरवस्त्र और अनेक प्रकारकी भेंट देकर विधिपूर्वक राजा भीष्मक श्रीकृष्ण बलदेवका पूजन करनेलगा॥ ३३॥ अत्यन्त बुद्धिमान् राजा भीष्मक श्रीकृष्ण बलदेवको उत्तम स्थानमें टिकाय सेना सेवको सहित यथायोग्य आतिथ्य करनेलगा॥ ३४॥ इसप्रकार जो राजा इकट्ठे हुएथे उनमें जैसा जिमका पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सब राजाओंका सत्कार किया॥ ३५॥ विदर्भनगरके पुरवासी श्रीकृष्णचन्द्रका आगमन सुनकर

मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः॥ उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत्॥ ३३॥ तयोर्निवेशनं श्रीमदुपकल्प्य महामतिः॥ ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा॥३४॥ एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः॥ यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत्॥ ३५॥ कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः॥ आगत्य नेत्रांजलिभिः पपुस्तन्मुखपंकजम्॥३६॥ अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा॥ असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः॥ ३७॥ किंचित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्॥ अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः॥ ३८॥ एवं प्रेमकलाबद्धा वदंति स्म पुरौकसः॥ कन्या चांतःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्तांबिकालयम्॥ ३९॥

नेत्ररूप अंजलियोंसे श्रीकृष्णचन्द्रके मुखकमलको पान करने लगे॥ ३६॥ और सब नर नारी विचार करनेलगे कि, दोषरहित रुक्मिणी श्रीकृष्ण चन्द्रकेही योग्य है, एवं श्रीकृष्णचन्द्र भी रुक्मिणीके पति होनेयोग्य हैं इसप्रकार परस्पर कहने लगे॥ ३७॥ कि, जो कुछ हमने पुण्य किये हैं । उसके प्रभावसे प्रसन्न होकर ईश्वर हमारे ऊपर अनुग्रह करैंकि, जिससे श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मिणीका पाणिग्रहण करें ॥३८॥हे राजन् ! इस प्रकार

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** उत्तर—**लक्ष्मीका पिता जो समुद्र था उसको ब्राह्मणने पान करलिया ( पीलिया ) और लक्ष्मीका पति जो भगवान् उनको ब्राह्मणने छातसे मारा, और लक्ष्मीका छोटाभाई कमल, उसको ब्राह्मणोंने देवताओंके पूजनेके लिये तोडलिया, ब्राह्मणोंका ऐसा कुकर्म देखके लक्ष्मी ब्राह्मणोंसे रुष्ट होगई, ब्राह्मणोंको घनादिक वस्तु नहीं देती हैं इसलिये लक्ष्मीका रूप रुक्मिणीने ब्राह्मणको धन नहीं दिया, कोरा नमस्कार किया है॥

प्रेममें मग्न होकर जिससमय सब पुरवासी कहनेलगे, उसी समय बहुतसी सखियोंके साथ श्रीरुक्मिणीजी पुरसे बाहर अम्बिकादेवीका पूजन करनेके लिये चलीं॥ ३९॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका भले प्रकार ध्यान करते करते श्रीरुक्मिणीजी अम्बिकादेवीका दर्शन करनेके लिये पैरोंही गई॥ ४०॥ हे परीक्षित ! श्रीरुक्मिणीजीके संग मौन धारण किये पुरोहितानी और सखी सहेली जिस समय चलीं, उसी समय कवच पहर पहर और अत्र हाथोंमें ले महाबलवान् राजाके सिपाही उसकी रक्षाके लिये संग होलिये और उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही, भेरी, रणसिंहादिक अनेक प्रकारके बाजे बजने लगे॥ ४१॥ संगीत विद्यामें अतिनिपुण सहस्रों वेश्या संगमें नाचती हुई चली जाती थीं और माला चन्दन वस्त्र

पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्॥ सा चाऽनुध्यायती सम्यङ्मुकुंदचरणांबुजम्॥ ४०॥ यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता॥गुप्ता राजभटैः शरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः॥ मृदंगशंखपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥४१॥ नानोपहारबलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः॥ स्रग्गंधवस्त्राभरणै- र्द्विजपत्न्यः स्वलंकृताः॥४२॥ गायन्तश्च स्तुवंतश्च गायका वाद्यवादकाः॥ परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवंदिनः॥४३॥ आसाद्य देवीसदनं धौतपादकरांबुजा॥ उपस्पृश्य शुचिः शांता प्रविवेशांबिकांतिकम्॥४४॥ तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः॥ भवानीं वंदयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम्॥॥ ४५॥ नमस्ये त्वांबिकेऽभीक्ष्णं स्वसंतानयुतां शिवाम्॥ भूयात्पतिर्मेभगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम्॥ ४६॥

आभूषणोंसे शृंगार करके और अनेक प्रकारकी सामग्री भेंट लेके ब्राह्मणोंकी स्त्रिये संग गई॥ ४२॥ गाने और बजानेवाले सूत, बन्दीजन श्रीरुक्मिणाी- जीको बीचमें करके, चले जारहे थे॥ ४३॥ हाथ पाँव धोय, आचमन कर, पवित्र हो, देवीके मन्दिरमें जाय रुक्मिणी अम्बिकादेवीके निकट गई॥ ४४॥ विधिपूर्वक वृद्ध ब्राह्मणोंकी स्त्रियें रुक्मिणीजीसे महादेवजीसहित भवानीकी पूजा कराने लगीं॥ ४५॥ जब पूजा कर चुकीं, तब रुक्मिणीजीने मनमें कहा कि, हे अंबिका पार्वती ! तुम्हारे सन्तानसमेत मंगलरूपिणी तुम्हें वारम्वार प्रणाम करके यही वर माँगती हूं कि, श्रीकृष्णचन्द्र

मेरे पति हों, इस प्रकार मस्तक नवायकर रुक्मिणीजीने प्रार्थना की॥ ४६॥ हे राजन् !इसके उपरान्त जल, चन्दन, अक्षत, धूप, वस्त्र, माला, फल, आभूषण और अनेक प्रकारकी भेंटसे अलग अलग दीपकोकी पक्तियोंसे देवकी पूजा करनेलगीं॥४७॥ इसके पीछे उसी प्रकार रुक्मिणी नमकीन पूऐ, पान, लावा, सुपारी गन्ने आदिसे सौभाग्यवती ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंका पूजन करनेलगीं॥ ४८॥ फिर श्रीरुक्मिणीने अम्बिकादेवी और ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंको नमस्कार कर उनसे प्रसाद और आशीर्वाद लिया॥ ४९॥ फिर मौन व्रतको त्याग, जडाऊ मुँदरीसे शोभायमान श्रीरुक्मिणीजी अपनी दासीका हाथ पकड़ मंदिरसे बाहर निकलीं॥ ५०॥ ईश्वरकी मायाकी तुल्य बड़े बड़े शूरवीर राजाओंको मोहित करनेवाली, सुन्दर कटिवाली,

अद्भिर्गंधाक्षतैर्धूपैर्वासस्स्रङ्माल्यभूषणैः॥ नानोपहारवलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक्॥४७॥ विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्॥ लवणापू- पतांबूलकंठसूत्रफलेक्षुभिः॥४८॥ तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः॥ ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः॥४९॥ मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामांविकागृहात्॥ प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना॥५०॥ तां देवमायामिव वीरमोहिनीं सुमध्यमां कुंडलमंडिताननाम्॥ श्यामां नितंवार्पितरत्नमेखलां व्यंजत्स्तनीं कुंतलशंकितेक्षणाम्॥५१॥ शुचिस्मितां विंबफलाधरद्युतिशोणायमानद्विजकुंदकुङ्मलाम्॥ पदा चलंतीं कलहंसगामिनीं शिंजत्कलानूपुरधामशोभिना॥५२॥ विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः॥५३॥ यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहासव्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः॥ पेतुः क्षितौ गजरथाश्व गता विमूढा यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम्॥ ५४॥

कुण्डलोंसे शोभायमान मुखवाली रुक्मिणी रत्नजडित जड़ाऊ, करधनी नितम्बोंमें पहरे स्तनोंकी प्रगटता और केशोंकी शंकासे चलायमान नेत्रवाली॥ ५१॥ सुन्दर मुसकान, कुन्दरूके फलकी तुल्य अव्रण और होठोंकी कान्तिसे कुन्दकी कलीके समान दंत पाँतिपर अरुणाई छाईहुई राजहंसके समान गतिसे और झनकारशब्द करते, नूपुरोंकी प्रभासे शोभित चरणोंसे गमन करती हुई, रुक्मिणीको देख, संगमें जो वडे बडे तेजस्वी शूरवीर योद्धा आये थे, वह सबके सब कामदेवसे पीडित हो मोहित होगये॥ ५२॥ ५३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित !

उन रुक्मिणीजीकी उदार हँसनि और लज्जापूर्वक चितवनसे समस्त राजाओंके मन हरेगये और वह अस्त्रशस्त्रोंको छोड़कर रथ घोड़े इत्यादिसे मूढ़ होकर पृथ्वीमें गिरपड़े॥ ५४॥ हे राजन् ! इस प्रकार चलायमान कमलकेशके समान कोमल चरणोसे धीरे धीरे चली, उस समय श्रीकृष्ण चन्द्रके आनेका मार्ग देखतीहुई रुक्मिणीजीने बायें हाथवे नखोंसे अल्कोको उठाय सब आये हुये राजाओंको देख सन्मुख खड़ हुये वृन्दावनविहारी भक्तहितकारी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दको देखा॥ ५५॥ हे कुरुवंशावतंस परीक्षित ! राजा भीष्मककी कन्या रुक्मिणी ज्योहीरथपर चढ़ने लगी, त्योही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे हरण कर अपने गरुड़ चिह्नवाले रथमें चढ़ाय क्षत्रियोंकी सेनाका तिरस्कारकर उसे इस प्रकार निकालकर

सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा॥ उत्सार्य वामकरजैरलकानपांगैः प्राप्तान्ह्रियैक्षत नृपान्ददृशेऽच्युतं सा॥५५॥ तां राजकन्यां रथमारुरुक्षतीं जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्॥ रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं राजन्यचक्रं परिभूय माधवः॥ ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः शृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः॥५६॥ तं मानि नः स्वाभिभवं यशःक्षयं परे जरासंधवशा न सेहिरे॥ अहो धिगस्मान् यश आत्तधन्वनां गोपैर्हृतं केसरिणां मृगैरिव॥ ५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुरणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५३॥

लेगये कि, जैसे सियारोंके बीचमें अपने भागको लेकर सिंह बेधड़क होकर चला जाता है, फिर बलरामादि सब यदुवंशियों सहित रुक्मिणीको लेके धीरे धीरे चलनेलगे॥ ५६॥ हे नृपोत्तम! महाअभिमानी जरासन्धादि राजा यशका नाश करनेवाला यह अपना अपमान न सहसके और बोले कि, अहो ! हमको धिक्कार है, जिसप्रकार केशरीके भागको कुत्ता चुराकर लेजाता है, वैसेही हम धनुषधारियोके यशका नाश कर यह गँवार ग्वालिया राजकुमारी रुक्मिणीको चुराकर लिये जाता है॥ ५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः॥

दोहा—चौवनमें रिपुपक्षके, सब राजनको जीति। रुक्मिणिको लै द्वारका, करी व्याहकी रीति॥ १॥ श्रीशुकदेजी बोले कि, हे राजा परीक्षित ! इस प्रकार सब राजा अत्यन्त क्रोधित होकर कवच पहर, अपने अपने वाहनोंपर चढ़कर श्रीकृष्णचन्द्रके पीछे दौड़े॥ १॥ हे परीक्षित !जब यादवोंके सेनाध्यक्षने इनकी सेनाको आता हुआ देखा, तो वह लोग भी अपने धनुषकी टंकार करके उनके सन्मुख उपस्थित हुए॥ २॥ युद्धविद्यामें अत्यन्त प्रवीण वह राजा लोग घोड़े, हाथी और रथोंपर बैठकर जिस प्रकार मेघ पर्वतोंपर जल वर्षाते हैं, उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे

श्रीशुक उवाच॥ इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः॥ स्वैःस्वैर्बलैः परिक्रांता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः॥१॥ ताना पतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः॥ तस्थुस्तत्संमुखा राजन्विफूर्ज्य स्वधनूंषि ते॥२॥ अश्वपृष्ठे गजस्कंधे रथोपस्थे च कोविदाः॥ मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा॥३॥ पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा॥ सव्रीडमै क्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना॥४॥ प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने॥ विनंक्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम्॥ ५॥ तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसंकर्षणादयः॥ अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान्॥ ६॥

॥३॥ सुन्दर कटिभागवाली रुक्मिणी अपने स्वामी श्रीकृष्णचन्द्रकी सब सेनाको बाणोंसे ढकाहुआ देख, अतिभयभीत और विह्वलनेत्र हो लाज सहित श्रीकृष्णचन्द्रका मुख देखनेलगी

*

॥ ४॥ तब भगवान् वासुदेव रुक्मिणीको डराहुआ जान कहनेलगे कि, हे वामलोचने! हे सुनयनी ! तुम कुछ भय मतकरो, क्योकि हमारे ओरके यादव इनकी समस्त सेनाको क्षणभरमें विध्वंस करदेंगे। हे राजन् ! गद, संकर्षणादि शूरवीर उन राजाओंका पराक्रम न सहसके और उनके घोड़े, हाथी और रथोंको महातीक्ष्ण बाणोसे नाश करनेलगे॥ ५॥ ६॥

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*** शंका—**श्रीकृष्णकी स्त्री रुक्मिणी श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाली फिर रुक्मिणी युद्ध देखकर दुःखी क्यों हुई ? यह बडे अचम्भेकी वात है।

**उत्तर—**युद्धमें वढे बढे शूरमाओंका और वीरलोगोंका नाश हुवा, यह कलंक अपने ऊपर विचार कर रुक्मिणी बहुत दुखी हुई कि, यह कलंक मुझको जन्म जन्मको लगा और संसारके लोग कहैंगे कि, रुक्मिणीके विवाहमें बहुतसे शूरवीर मारगये॥

रथी, घुड़चढे और हाथियोंपर विराजमान योद्धाओंके पगड़ियोंसहित सहस्रों शिर कटकट गिरने लगे॥ ७॥ तलवार गदा और धनुषसे हाथ कट कटकर गिरने और करभके समान जंघायें कट कटकर गिरनेलगीं, अनेक घोड़े, खच्चर, हाथी, गधे, मनुष्य इनके शिर कटकर पृथ्वीमें गिर गये॥ ८॥ हे भारत ! जीतनेकी इच्छा करनेवाले यादवोने जब इस प्रकार शत्रुसेनाका संहार किया तब अत्यन्त डरकर जरासन्धादि राजा रण छोड़कर भागगये॥ ९॥ जब स्त्रीके हरजानेसे व्याकुल तेजहीन, उत्साहरहित शिशुपालका मलीनमुख होगया, तब सब राजा उसके पास आनकर समझाने लगे॥१०॥ कि हे पुरुषसिंह ! तुम अपने मनकी उदासीको छोड़दो क्योंकि, देह धारण करनेवालोंको सुख और दुःख सर्वदा नहीं रहते हैं॥११॥

‘पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि॥ सकुंडलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः॥ ७॥ हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोंघ्रयः॥ अश्वाश्वतरनागोष्टखरमर्त्यशिरांसि च॥८॥ हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकांक्षिभिः॥ राजानो विमुखा जग्मुर्जरासंधपुरस्सराः॥९॥ शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्॥ नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन्॥१०॥ भो भो पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज॥ न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते॥ ११॥ यथा दारुमयी योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया॥ एवमीश्वरतंत्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः॥ १२॥ शौरैः सप्तदशाहं वै संयुगा निपराजितः॥ त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्य एकमहं परम्॥१३॥ तथाऽप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्॥ कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत्॥ १४॥ अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः॥ पराजिताः फल्गुतंत्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः॥१५॥ रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि॥ तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः॥ १६॥

जिस प्रकार काठकी पुतली नचानेवालेकी इच्छासे नाचती है ऐसेही ईश्वरके आधीन जीवको सुख दुःख होता है॥ १२॥ जरासन्ध बोला कि, शिशुपाल ! देखो ! इसी कृष्णसे मैंने सत्रह बार तेईस तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध किया, परन्तु मेरी हारही हुई और कुछ शोच न हुआ, केवल एक बार जीता, उसका कुछ हर्षभी न हुआ, दैवके वश कालने समस्त जगत् चलायमान किया है, ऐसा मेरा निश्चय है॥ १३॥ १४॥ है राजन ! यद्यपि बड़े बड़े शूरवीर यूथनाथोंके पतियोंके भी हम पालन करनेवाले थे, तोभी थोडी सेनावाले कृष्णपालित यदुवंशियोंसे हारगये॥ १५॥ जानपडता है कि, इस समय उनके दिन अच्छे हैं, इसी कारण उन्होंने हम ऐसे बलवान् शत्रुओंको जीत लिया, जब हमारे

दिन भले आवेंगे तो हम भी जीतेंगे॥ १६॥ हे महाराज! जब इसी प्रकार अनेक राजाओंने शिशुपालको समझाया तब अपने बचे बचाये नौकर चाकर और सेनाको लेकर शिशुपाल अपने देशको चला गया और मरनेसे बचे बचाये राजाभी अपने अपने स्थानोंको चलेगये॥ १७॥ इधर एक अक्षौहिणी सेना लेकर श्रीकृष्णका शत्रु रुक्मी अपनी बहनके हरनेका अपराध न सहकर श्रीकृष्णके पीछे दौडा॥ १८॥ और अत्यन्त क्रोधित हो कवच पहर, धनुष ग्रहण कर, सब राजाओंके सुनानेको महाबलवान् रुक्मीने यह प्रतिज्ञा की॥ १९॥ कि, युद्धमें श्रीकृष्णके मारे विना और रुक्मिणीको लाये विना सत्य है कि, मैं कुंडिनपुरमें न आऊंगा॥ २०॥ इसप्रकार रुक्मी प्रतिज्ञा कर और रथमें चढ़ सारथीसे बोला

एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्॥ हतशेषाः पुनस्तेपि ययुः स्वस्वं पुरं नृप॥१७॥ रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः॥ पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली॥१८॥ रुक्म्यमर्षि सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्॥ प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दशितः सशरासनः॥१९॥ अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्॥ कुंडिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः॥२०॥ इत्युक्ता रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः॥ चोदयाश्वान्यतः कृष्णस्तस्य मे संयुगं भवेत्॥२१॥ अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सदुर्मतेः॥ नेष्ये वीर्यमिदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता॥२२॥ विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्॥ रथेनैकेन गोविंदं तिष्ठतिष्ठेत्यथाह्वयत्॥२३॥ धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः॥ आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन॥ २४॥

कि, जहाँ कृष्ण हैं वहाँ शीघ्रही घोडोंकोहांककर ले चलो क्योंकि, मुझे उससे युद्ध करना है॥२१॥ मैं आज उसीमन्दबुद्धि, ग्वालके पराक्रमका मद अपने तीक्ष्ण बाणोंसे चूर्ण करूंगा, जो मेरी बहन रुक्मिणीको बलात्कार हरके ले गया है ॥२२॥ खोटी बुद्धिवाला रुक्मी, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके बलको न जान कटुवाक्य कहत हुआ अकेला रथ दौड़ाकर " खड़ा रहु खडा रहु " इस प्रकार भगवान् वासुदेवको पुकारने लगा॥ २३॥ इसके उपरान्त अपने दृढ धनुषको खैचकर रुक्पने श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा कि, हे यादवकुलकलंक ! एक क्षणमात्र

खड़ा होकर मुझसे युद्धकर॥ २४॥ अरे दुष्टबुद्धि ! जिसप्रकार होमकी सामग्रीको कौवा लेजाता है इसी प्रकार तू मेरी बहनको कहाँ चुराकर लिये जाता है ? अरे कपटयुद्ध करनेवाले छली ! तेरे घमंडको मैं अभी चूर्ण करता हूँ॥ २५॥ और तेरे भले दिन हैं तो मेरे बाणोंसे पीडित होकर युद्धक्षेत्रमें मत सोवै और रुक्मिणीको छोड़कर जहाँ तेरे सींग समायँ वहाँ चलाजा, तब श्रीकृष्णचन्द्रने मनमें मुसकाय, उसके धनुषको काट छः बाणोंसे रुक्मीको छेदन किया॥ २६॥ आठ बाणोंसे रथके घोड़ोंको, दो बाणोंसे रथवानको वींधडाला और तीन बाणोंसे ध्वजा काटडाली कि, इतनेहीमें रुक्मने और धनुष लेकर पाँच बाण श्रीकृष्ण के शरीरमें मारे ॥२७॥ तब भगवान् वासुदेवने उसका वह धनुषभी

कुत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वांक्षवद्धविः॥ हरिष्येऽद्य मदं मंद मायिनः कूटयोधिनः॥२५॥ यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुंच दारिकाम्॥ स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम्॥२६॥ अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः॥ स चान्यद्धनुरादाय कृष्णं विव्याध पंचभिः॥ २७॥ तैस्ताडितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः॥ पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः॥२८॥ परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ॥ यद्यदायुधमा दत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः॥ २९॥ ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया॥ कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतंग इव पावकम्॥ ३०॥ तस्य चापततः खड्गंतिलशश्चर्म चेषुभिः॥ भित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हंतुमुद्यतः॥३१॥ दृष्ट्वाभ्रतृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला॥ पतित्वा पदयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती॥ ३२॥

काट डाला, फिर रुक्म और धनुष ले आया, उसको भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय काट दिया॥ २८॥ रुक्मने जो जो परिघ, पट्टिश, त्रिशूल, ढाल, तलवार, बरछी, भाले हाथमें लिये वह सब भगवान् देवकीनन्दनने काट गिराये॥ २९॥ हे महाराज ! इसके उपरान्त ह रथसे कूदकर और हाथमें तलवार लेकर मारनेकी इच्छासे, जिस प्रकार पतंग अनिके सन्मुख झपटताहै, उसी प्रकार रुक्म श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर झपटा॥ ३०॥ झपटते हुए उस रुक्मकी ढाल तलवारको तिल तिलभर बाणोंसे काटकर पैनी धारकी तलवार लेकर श्रीकृष्णचन्द्र रुक्मका प्राण संहार करनेको उपस्थित हुए॥ ३१॥ भाईके मारने की इच्छा देख भयसे व्याकुल होकर पतिव्रता रुक्मिणी नेत्रोंसे आँसू भरके श्रीकृष्णचन्द्रके

चरणोंपर गिर यह करुणाभरे वचन कहने लगी॥ ३२॥ कि, हे योगेश्वर ! हे अप्रमेयात्मन् !हे देवदेव ! हे जगत्पालक श्रीकृष्णचन्द्र ! हे महाभुज ! मेरे भाईको तुम मत मारो, क्योंकि यह तुम्हारे मारनेयोग्य नहीं है॥ ३३॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे पाण्डुनन्दन परीक्षित् ! त्राससे कम्पायमान सब अंग, शुष्क मुख, गद्गद कण्ठ कि जिसकी व्याकुलतासे सुवर्णकी माला गिरी जातीं थीं, इस प्रकार रुक्मिणीको अपने चरणोंपर गिरीहुई देख करुणावश हो श्रीकृष्णचन्द्रके नेत्रोंमें जल भर आया॥ ३४॥ उन्होंने उस दुष्ट कर्म करनेवाले रुक्मको वस्त्रसे बाँध और मूछों सहित शिर मूंड, अभद्र कर अपने रथके पीछे बाँधलिया कि, इस बीचमें ही यदुवंशियों सहित बलराम सुखधामने रुक्मकी सेनाको जिस प्रकार हाथी कमलिनियोंको मर्दन करता है, उसी प्रकार मर्दन किया ॥३५॥ इसके उपरान्त रुक्मकी समस्त सेनाका संहार कर बलदेवजीने श्रीकृष्ण

योगेश्वराप्रमेयात्मन्वेवदेव जगत्पते॥ हंतुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज॥३३॥ श्रीशुक उवाच॥ तया परित्रासविकंपितांगया शुचाऽवशुष्यृ- न्मुखरुद्धकंठया॥ कातर्यविस्रंसितहेममालया गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत॥३४॥चैलेन बद्धा तमसाधुकारिणं सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्॥ तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः॥३५॥ कृष्णांतिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्॥ तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा संकर्षणो विभुः॥ विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत्॥३६॥ असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्॥ वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः॥ ३७॥ मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिंतया॥ सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान्॥३८॥

चन्द्रके पास आनकर रुक्मको देखा कि, उसका शिर मुड़गया है और मृतकके समान रथके पीछे बँधाहुआ देखकर सामर्थ्यवान् बलभद्रजीने उसे छोड़ दिया ॥३६॥और अत्यन्त झुंझलाकर कहा कि, हे कृष्ण ! आपने यह बड़ा निन्दित कर्म किया, जो सालेको पकड बाँधा, हमारी इसमें बहुत निन्दा होगी, क्योंकि शिर, मूंछ, दाढी मुड़वाकर विरूप करदेना यही अपने नातेदारका मारना है॥ ३७॥ फिर रुक्मिणीसे बोले कि, हे सुशीले ! तुम्हारे भाईके कुरूप होनेमें हमारा कुछ दोष नहीं है, क्योंकि यह पुरुष अपने कर्मोंका फल भोगता है, सुख दुःखका देनेवाला और

कोई नहीं है॥ ३८॥ इसके उपरान्त बलदेवजी श्रीकृष्णचन्द्रको समझानेलगे कि, हे भाई ! अपने नातेदारका मारना अपराध करनेपर भी उचित नहीं, उसको अपराधी जानकर छोडदे, क्योंकि वह तो अपने पहलेही दोषोंसे मररहा है, फिर उसके मारनेकी क्या आवश्यकता है ?॥ ३९॥ फिर रुक्मिणीसे बोले हे सुमुखि ! क्षत्रियोंका यही धर्म विधाताने बनाया है कि, जिस धर्मके कारण भाई भाईका प्राणसंहार कर देताहै, फिर साले श्वशुरोंकी तो बातही क्या है, इसलिये हमारा क्या दोष है ?॥ ४०॥ तिसके पीछे श्रीकृष्णसे बोले कि, हे कृष्ण ! राज्य, पृथ्वी, धन, स्त्री, प्रतिष्ठा, तेज और वस्तुके हेतु श्रीमदान्ध अभिमानी राजा लड़ते हैं परन्तु हमको यह बात उचित नहीं॥ ४१॥ फिर रुक्मिणीसे बोले कि, सब प्राणियोंमें दुष्टहृदय, अर्थात् सब बातका बुरा विचारनेवाला जो शिशुपाल उसका बुरा और अपने भाईका भला चाहती हो, यह बात तुमको

बंधुर्वधार्हदोषोऽपि न बंधोर्वधमर्हति॥ त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः॥३९॥ क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः॥ भ्राताऽपि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः॥ ४०॥ राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः॥ मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदांधाः क्षिपंति हि॥४१॥ तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्॥ यन्मन्यसे सदाऽभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत्॥४२॥ आत्ममोहो नृणामेष कल्पते देवमायया॥ सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम्॥४३॥ एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्॥ नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः॥४४॥ देह आद्यंतवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः॥ आत्मन्यविद्यया क्लृप्तः संसारयति देहिनम्॥ ४५॥

उचित नहीं, हे रुक्मिणी ! तुम्हारी विषम बुद्धि है, जैसी कि, अज्ञानी पुरुषोकी होती है इसलिये तुम्हारा भाई जो सब जीवोंका शत्रुरूप है, उसका तुम अज्ञानी पुरुषोंके समान भला चाहती हो, सो यह तुम्हारी बुद्धिकी भूल है, क्योकि उसका भला चाहनेसे और सम्बंधियोंका बुरा होगा॥ ४२॥ यह हमारा मित्र, यह शत्रु और यह समान हैं, इस प्रकार देहाभिमानी पुरुषोको मोह उत्पन्न हो जाता है ॥४३॥जैसे जलभरे घड़ेमें एकही सूर्यके अनेन प्रतिबिम्ब दीखते हैं, आकाश एकही हैं, परन्तु तो भी घट आदिमें बहुतसे दीखते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण देहधारियोंमें एकहीशुद्ध आत्मा है, उसीको अज्ञानी पुरुष अनेक रूपसे मानते हैं॥ ४४॥ यह जो द्रव्य अर्थात् अधिभूत, प्राण, इन्द्रिय और अध्यात्मक गुण, अधिदैव

इतने स्वरूप आत्माके अविद्याने रचे हैं, वह देहधारियोंको संसारमें भटकाते हैं॥ ४५॥ हे पतिव्रता रुक्मिणी! मिथ्या देहसे आत्माका संयोग नहीं है, और इस देहसे वियोग भी नहीं है, यदि कोई कहे कि, देह मिथ्या कैसे ? -तो उसका उत्तर यह है कि, जैसे चक्षु इन्द्रिय और रूपका प्रकाशक सूर्य है, उसी प्रकार देहका प्रकाश आत्मासे होताहै॥ ४६॥ जन्म मरणादि छः विकार देहके हैं, आत्माके कदाचित् नहीं, जैसे चन्द्रमाकी कला घटती बढती है, चन्द्रमा कभी नहीं घटता बढ़ता, क्योंकि वह तो पूर्णरूप है और जैसे अमावास्याके दिन चन्द्रमाकी कला घटनेसे चन्द्रमाका नाश मानते हैं, उसी प्रकार देहके नाश तिरोभावसे आत्माका नाश कहनेमें आता है॥॥ ४७॥ जैसे स्वप्नावस्थामें पुरुष अपने आपको विषयके भोगनेके सुखको मिथ्याभोग करता है, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष संसारको प्राप्त होता है॥ ४८॥ हे सुहासिनी !इसलिये तुम अज्ञानसे उत्पन्न हुये

नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्चासतः सति॥ तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः॥४६॥ जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्॥ कलानामिव नैर्वेदोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव॥४७॥ यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च॥ अनुभुंक्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम्॥४८॥ तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्॥ तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते॥४९॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता। वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे॥५०॥ प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः॥ स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनो रथः॥५१॥ अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्॥ कुंडिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा॥५२॥ भगवान् भीष्मकतामेवं निर्जित्य भूमिपान्॥ पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह॥ ५३॥

आत्माको शोष और मोह देनेवाले शोकका तत्त्वज्ञानसे त्यागन करो और स्वस्थ होओ॥ ४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् बलदेवजीने जब समझाया, तब सुकुमारी श्रीरुक्मिणीजीने मनकी उदासी त्याग बुद्धिसे मनको सावधान किया॥ ५०॥ हे राजन् ! शत्रुसे छूटा, हतसैन्य, केवल प्राणही जिसके शेष रहेहैं, प्रभाव और मनोरथ हीन, मुण्डित शिर, दुष्टबुद्धि रुक्म विचार करनेलमा कि, मैं प्रतिज्ञा करके आया था कि, कृष्णको विना मारे और विना रुक्मिणीको लाये कुंडिनपुर नहीं आऊंगा, सो अब क्या करूं ? यह विचार वहाँही भोजकट पुर बसाकर रहने लगा॥५१॥ ५२॥ हे कौरवोंके आनन्द देनेवाले परीक्षित्!भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार समस्त राजाओंको जीतकर राजा

भीष्मककी पुत्री रुक्मिणीको द्वारकापुरीमें लाकर विधिपूर्वक विवाह किया॥ ५३॥ हे महाराज परीक्षित् ! उस समय द्वारकापुरीमें घर घर बडा उत्सव होने लगा, क्योंकि यदुवंशियोंके पति श्रीकृष्णचन्द्रमें उनकी अनन्यभक्ति थी॥ ५४॥ आनन्दमें मग्न, उज्वल उज्वल मणियोंके जडाऊ गहने पहरेहुये स्त्री पुरुष चित्र विचित्र वस्त्र धारण किये कृष्ण रुक्मिणीके देनेके लिये सुन्दर सुन्दर वस्तु लानेलगे॥५५॥ ऊँची ऊँची ध्वजा और चित्र विचित्र माला, वस्त्र रत्नोंकी बन्दनमालाओंसे और द्वार द्वारपर धानकी खीलें, अंकुर, फूल और जलके भरे कलश और अगर व धूप दीप इत्यादिकोंसे द्वारकापुरी अत्यन्त शोभायमान होनेलगी॥ ५६॥ स्थान स्थानपर छिडकाव होरहाहै, दरवाजोंपर केले सुपारियोंके घने वृक्ष लग रहेहैं और जो सुहृद्

तदा महोत्सवो नृणां यदुपुर्यां गृहेगृहे॥ अभृदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप॥५४॥ नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः॥ पारिबर्ह- मुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः॥५५॥ सा वृष्णिपुर्युत्तभितेंद्रकेतुभिर्विचित्रमाल्यांवररत्नतोरणैः॥ बभौ प्रतिद्वार्युपक्ऌप्तमंगलैरापूर्णकुंभाऽगुरुधूप- दीपकैः॥५६॥ सिक्तमार्गां मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्॥ गजैर्द्वार्षु परामृष्टरंभापूगोपशोभिता॥ ५७॥ कुरुसंजयकैकेया विदर्भयदुकुंतयः॥ मिथो मुमुदिरे तस्मिन्संभ्रमात्परिधावताम्॥५८॥ रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः॥ राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः॥ ५९॥ द्वारकाया मभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्॥ रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम्॥ ६०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहोत्सवो नाम चतुष्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५४॥

राजा बुलायेगयेहैं, उनके मद झरते हाथियोंसे ऊंचे उठाये सुपारी और केलोंके वृक्षोंसे बड़ी शोभा होरही है॥ ५७॥ अत्यन्त प्रसन्नताके मारे द्वारकावासी दौड़े दौड़े फिरते हैं और उनके बीचमें कुरुदेश, सृंजय देश, केकयदेश और विदर्भ देशके राजा भी विवाहमें मिलकर आनन्द प्राप्त करने लगे॥ ५८॥ हे राजन् !इसी प्रकार जहाँ तहाँ रुक्मिणी हरके ले जानेके चरित्रको श्रवण कर राजा और राजाओंकी कन्या बडा आश्चर्य मानने लगीं॥ ५९॥ हे राजा परीक्षित् !द्वारकापुरीमें पुरवासियोंको लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रके लक्ष्मी सहित दर्शन कर बडा आनन्द प्राप्त हुआ॥ ६०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां रुक्मिणीविवाहोत्सववर्णनं नाम चतुःपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५४॥

दोहा—पचपनमें प्रद्युम्नको, भयो जन्म उत्साह। शंबरासुर हरले गयो, ताहि मारि किय व्याह॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् !वासुदेवका अंश जो कामदेव सो प्रथम महादेवजीके क्रोधसे भस्म होगया था, वही अब फिर देह पानेके लिये वासुदेवके यहाँ आया॥ १॥ और वही कामदेव श्रीकृष्णचन्द्रके वीर्यसे रुक्मिणीमें जन्म ले प्रद्युम्ननामसे विख्यात हुआ, जो कि अपने पिता श्रीकृष्णचन्द्रसे किसी प्रकार न्यून नहीं था॥ २॥ हे राजन् ! एक शंबरनाम दैत्य उसे अपना वैरी जान दशदिनके भीतर कुमार प्रद्युम्नको हरण कर समुद्रमें डाल अपने घरको चलागया

*

॥ ३॥

श्रीशुक उवाच॥ कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग्रुद्रमन्युना॥ देहोपपत्तये भूयस्तमेव प्रत्यपद्यत॥ १॥ स एव जातो वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्भवः॥ प्रद्युम्न इति विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः॥२॥ तं शंबरः कामरूपी हृत्वा तोकमनिर्दशम्॥ स विदित्वाऽऽत्मनः शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगा- द्गृहम्॥३॥ तं निर्जगार बलवान्मीनः सोऽप्यपरैः सह॥ वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभिः॥४॥ तं शंबराय कैवर्ता उपजह्नुरु- पायनम्॥ सुदा महानसं नीत्वाऽवद्यन्स्वधितिनाऽद्भुतम्॥५॥ दृष्ट्वा तदुदरे बालं मायावत्यै न्यवेदयन्॥ नारदोऽकथयत्सर्वं तस्याः शंकितचेतसः॥ बालस्य तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम्॥६॥

एक बडा बलवान् मत्स्य इस बालकको निगल गया, उस मत्स्यको धीमरोंने बडा जाल डालकर और मछलियों सहित पकड़ा॥ ४॥ उस बडे मत्स्यको लाकर धीमरोंने शंबरासुरको भेंट किया और शंबरासुरने रसोई बनानेवालोंको दिया उन्होंने रसोईमें लाकर छूरीसे इस अद्भुत मत्स्यका हृदय विदीर्ण किया॥ ५॥ तो उस मत्स्यके पेटमे बालकको निहार उन्होंने मायावतीको देदिया तब मायावतीको अत्यन्त शंका हुई तब देवर्षि

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*** शंका—**श्रीकृष्णचन्द्रकी बसाई हुई द्वारकापुरीमें कपट करके कोई प्राणी वहाँ नहींजासक्ता और कपटवेषधारी जो कोई द्वारकाके भीतर चलाभीजाय तो वह उसी समय भस्म होजाय है, क्योंकि क्षण क्षणमें द्वारकापुरीके चारों ओर सुदर्शनचक्र घूमता रहता है, वही द्वारकापुरीकी रात दिन रक्षा करता रहता है, ऐसी कठिन द्वारकापुरीमें शबरनाम दैत्य कैसे चलागया। और भगवान्के पुत्रको कैसेहर लेगया यह महा आश्चर्यकी बात है।

**उत्तर—**जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रने द्वारकापुरीको घसाया था उस समय यह आज्ञा दी थी कि हे सुदर्शनचक्र! तुम रात दिन द्वारकापुरीके चारों ओर घूमते रहना और रक्षा करते रहना, परन्तु ब्राह्मण वश चाहे तो उसको पुरीमें जानेके लिये मत रोकना और ब्राह्मण कपट रूप धारण करके आवे तो उसको भी मत रोकना इसप्रकारकी श्रीकृष्णकी आज्ञाको शम्बरासुर जानके ब्राह्मणका रूप बनाकर द्वारकापुरीमें चलागया और श्रीकृष्णके पुत्रको चुराकर ले आया॥

नारदजीने आनकर उससे सव वृत्तान्त कहा कि, यह बालक तेरा स्वामी कामदेव है और श्रीकृष्णचन्द्रके वीर्यसे रुक्मिणीमें उत्पन्न हुआ है, इसप्रकार उत्पत्ति और शंबरासुर जैसे समुद्रमें डाल आया था वहाँ जिस प्रकार इसे मत्स्य निगलगया सो सब कह सुनाया॥ ६॥ “शिवजीने जब कामदेवको भस्म किया था, तब रतिके विलाप करनेपर उसे समझाकर कहा था कि, तू शंबरासुरके यहाँ जाकर वास कर वहाँतेरा पति तुझे रसोई घरमें मिलेगा, तू उसे पाल लीजियो मछलीके उदरसे प्राप्त होगा, तबसे रति रूप छिपाये वहाँ रहती थी” वह जो कामदेवकी स्त्री थी, सो वड़ी पतिव्रता और उसका नाम रति था, अपने पति कामदेवका जो देह भस्म होगया था, सो उसके उत्पन्न होनेके लिये प्रतीक्षा कर रही थी ॥७॥वह मायावती कामदेवकी

सा च कामस्य वै पत्नी रतिर्नाम यशस्विनी॥ पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती॥ ७॥ निरूपिता शंबरेण सा सूपौदनसाधने॥ कामदेवं शिशुं बुद्धा चक्रे स्नेहं तदाऽर्भके॥८॥ नातिदीर्घेण कालेन स कार्ष्णी रूढयौवनः॥ जनयामास नारीणां वीक्षंतीनां च विभ्रमम्॥९॥ सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं प्रलंबबाहुं नरलोकसुंदरम्॥ सव्रीडहा सोत्तभितभ्रुवेक्षती प्रीत्योपतस्थे रतिरंग सौरतैः॥१०॥ तामाह भगवान्कार्ष्णिर्मातस्ते मतिरन्यथा॥ मातृभावमतिक्रम्य वर्तसे कामिनी यथा॥११॥ रतिरुवाच॥ भवान्नारायणसुतः शंवरेणाहृतो गृहात्॥ अहं तेऽधिकृता पत्नी रतिः कामो भवान्प्रभो॥ १२॥

स्त्रीको शंबरासुरने मूँग भात करनेके लिये अपने पास रक्खा था, सो वह उस बालकको कामदेव जान उससे अत्यन्त स्नेह करनेलगी॥ ८॥ हे राजा परीक्षित्!थोड़ेही दिनोंमें यौवन अवस्थाको प्राप्त होकर श्रीकृष्णचन्द्रका पुत्र प्रद्युम्न देखनेवाली स्त्रियोंको मोहउत्पन्न करनेलगा॥ ९॥ कमल दलसे बड़े नेत्र, लम्बी भुजायें, मृत्युलोकमें सुन्दर ऐसे अपने पति प्रद्युम्नको लाजभरी मुसकान और उठी भ्रुकुटीसे देख प्रीति करके सुरतसम्बन्धी जो भाव हैं, उनसे वह रती सेवन करनेलगी॥ १०॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र प्रद्युम्नजीने कहा कि हे माता !जान पड़ता है कि, तुम्हारी मति और प्रकारकी होगई है, इसीलिये मातृभावको त्यागकर स्त्रीके समान आचरण करती हो॥ ११॥ यह सुनकर रतिने कहा कि, तुम भगवान् वासुदे

वके पुत्र हो, शंबरासुर तुम्हें चुराकर ले आया है में तुम्हारी स्त्रीहूं रति मेरा नाम है, आप कामदेव हो॥ १२॥ तुम जब दशदिनके भी नहीं थे, तत्र शंबरासुर समुद्र में डाल आया था और वहाँ तुम्हें एक मत्स्य निगलगया, हे प्रभो ! यहाँ आप मत्स्यके पेटमेंसे आये हें॥ १३॥ तुम्हारा शत्रु शंबरासुर वडा मायावी है, सेकडों माया जानता है इसलिये असह्य और दुर्जय है उसको मोहनादि मायासेआप मारिये ॥१४॥क्योंकि तुम्हारे ढूँढनेके लिये स्नेहसेअति व्याकुल परम दीन तुम्हारी माता टिटिहरीके समान शोच कर रही है और बिना वछडेके गौकी समान आतुर है॥ १५॥ इस प्रकार मायावती स्त्रीने कह सब मायाओंको नाश करनेवाली महामाया महात्मा प्रद्युन्नजीको दी॥ ३६॥ तव प्रद्युम्नजीने शंबरासुरके पास

एषत्वाऽनिर्दशं सिंधावाक्षिपच्छंवरोऽसुरः॥ मत्स्योऽग्रसीत्तदुदरादिह प्राप्तो भवान्प्रभो॥१३॥ तमिमं जहि दुर्धर्षंदुर्जयं शत्रुमात्मनः॥ मायाशतविदं त्वं च मायाभिर्मोहनादिभिः॥१४॥ परिशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा॥ पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवांतुरा॥१५॥ प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने॥ मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम्॥१६॥ स च शंवरमभ्येत्य संयुगाय समाह्वयत्॥ अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन्संजनयन्कलिम्॥१७॥ सोऽधिक्षिप्तो दुर्वचोभिः पदा हत इवोरगः॥ निश्चक्राम गदापाणिरमर्षात्ताम्रलोचनः॥१८॥ गदामाविध्य तरसा प्रद्युम्न य महात्मने॥ प्रक्षिप्य व्यनदन्नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम्॥१९॥ तामापतंतीं भगवान्प्रद्युम्नो गदया गदाम्॥ अपास्य शत्रवे क्रुद्धः प्राहिणोत्स्वगदां नृप॥ २०॥

आकर और उसका असह्य वचनोंसे तिरस्कार कर कलह उत्पन्न करके युद्ध करनेके लिये बुलाया॥ ३७॥ हे राजन् ! खोटे वचनोंसे तिरस्कार पाय शंबरासुर जिस प्रकार ठोकर लगनेसे सर्प फुंकार मारता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधित हो लाल लाल नेत्र किये और गदा हाथमें लेकर निकला॥ १८॥ इसके उपरान्त शंबरासुरने गदाको फिराय महात्मा प्रद्युम्नजीके ऊपर डालकर वज्रपातके समान कठोर शब्द किया॥१९॥ हे परीक्षित् ! भगवान् प्रद्युम्नजीने अपने ऊपर आतीहुई उस गदाको चूर्णकर और महाक्रोधित हो एक गदा शंबरासुरको मारी॥ २०॥

तब शंबरासुर दैत्यकी बताई मायाका आश्रय ले आकाशमें जाकर श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र प्रद्युम्नजीके ऊपर पत्थरोंकी वर्षा करने लगा॥ २१॥ उन पत्थरोंकी वर्षासे पीडित होकर कृष्ण कुमार प्रद्युम्नजीने सब मायाओका नाश करनेवाली अपनी सत्त्वगुणी मायाको बुलाया॥ २२॥ इसके उपरान्त शंबरासुरने गुह्यक, गंधर्व, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी सहस्रों माया छोड़ीं परन्तु कृष्णकुमार प्रद्युम्नजीने उसी समय सब मायाओको नाश कर दिया ॥२३॥ हे राजा परीक्षित् ! महात्मा प्रद्युम्नजीने महातीक्ष्ण पैनी धारकी तलवार लेकर कुण्डल, किरीट और दाढी मूछों सहित शंबरासुरका मस्तक काट लिया॥ २४॥ तब आकाशसे देवतालोगोने फूल वर्षाये और स्तुति करी और फिर आकाशमें विचरनेवाली स्त्रियोंने

स च मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शिताम्॥ मुमुचेऽस्त्रमयं वर्षे कार्ष्णो वैहायसोऽसुरः॥२१॥ बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः॥ सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम्॥ ततो गौह्यकगांधर्वपैशाचौरगराक्षसीः॥ प्रायुंक्त शतशो दैत्यः काष्णिर्व्यधमयत्स ताः॥२२॥ निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुंडलम्॥ शंवरस्य शिरः कायात्ताम्रश्मश्व्रंजसाऽहरत्॥२३॥ आकीर्यमाणो दिविजैः स्तुवद्भिः कुसुमोत्करैः॥ भार्ययांबरचारिण्या पुरीं नीतो विहायसा॥२५॥ अंतःपुरवरं राजँल्ललनाशतसंकुलम्॥ विवेश पत्न्या गगनाद्विद्युतेव बलाहकः॥२६॥ तं दृष्ट्वा जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥ प्रलंबबाहुं ताम्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम्॥२७॥ स्वलंकृतमुखांभोजं नीलवक्त्रालकालिभिः॥ कृष्णं मत्वा स्त्रियो ह्रीता निलिल्युस्तत्रतत्र ह॥ २८॥ अवधार्य शनैरीषद्वैलक्षण्येन योषितः॥ उपजग्मुः प्रमुदिताः सस्त्रीरत्नं सुविस्मिताः॥ २९॥

आकाशमार्गमें होकर महात्मा प्रद्युम्नजीको द्वारकापुरीमें पहुँचा दिया॥२५॥हे राजन् !सहस्रों स्त्रियोंसे सुशोभित अंतःपुरमें आकाशसे उतरकर। बिजली सहित जैसे मेघ आता है, उसी प्रकार आये॥ २६॥ वर्षााकी घटाओंके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीतवस्त्र धारण किये लम्बी भुजा अरुण नेत्र, सुन्दर मुसकान मनोहर मुख, नीली टेढ़ी अलकावलीसे शोभायमान मुखारविन्दवाले प्रद्युम्नजीको देखकर “श्रीकृष्ण आये” यह जान स्त्रियें लज्जित होकर जहाँ तहाँ छिपगईं॥ २७॥ २८॥ और कुछ एक स्त्री कोई न्यूनाधिक बात देखकर “यह कृष्ण नहीं हैं” यह निश्चयकर

प्रसन्न हो आश्चर्य मान स्त्रियोंमें श्रेष्ठ रतिसहित कृष्णकुमार प्रद्युम्नजीके पास आईं॥ २९॥ इसके उपरान्त स्नेहसे जिसके स्तनोंसे दूध चुवे, नीले कटाक्ष और मनोहर वचनवाली, राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी अपने नष्ट हुये पुत्रको स्मरणकरके कहनेलगी॥३०॥ कि, मनुष्योंमें श्रेष्ठ कमलकी समान नेत्रवाला यह बालक किसका है? और किस स्त्रीने इसे गर्भमें धारण किया है? और इसे यह स्त्री कौनसी मिली है ?॥३१॥ मेरा भी पुत्र नष्ट होगया है और सूतिकागृहमेंसेही उसे कोई लेगया है, जो कदाचित् जीवित होगा तो इसीके समान बड़ा और ऐसाही उसका स्वरूप होगा॥ ३२॥ परन्तु बड़ा आश्चर्य है कि ( शार्ङ्ग ) धनुषधारी श्रीकृष्णचन्द्रके समान रूप इसने पाया इसका स्वरूप और हाथ

अथ तत्रासितापांगी वैदर्भी वल्गुभाषिणी॥ अस्मरत्स्वसुतं नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा॥३०॥ को न्वयं नरवैडूर्यः कस्य वा कमलेक्षणः॥ धृतः कया वा जठरे केयं लब्धा त्वनेन वा॥३१॥ मम चाप्यात्मजो नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात्॥ एतत्तुल्यवयोरूपो यदि जीवति कुत्रचित्॥३२॥ कथं त्वनेन संप्राप्तं सारूप्यं शार्ङ्गधन्वनः॥ आकृत्याऽवयवैर्गत्या स्वरहासावलोकनैः॥ ३३॥ स एववा भवेन्नूनं यो मे गर्भे धृतोऽर्भकः॥ अमुष्मिन्प्रीतिरधिका वामः स्फुरति मे भुजः॥३४॥ एवं मीमांसमानायां वैदर्भ्यां देवकीसुतः॥ देवक्याऽऽनकदुंदुभ्यामुत्तमश्लोक आगमत्॥३५॥ विज्ञातार्थोऽपि भगवान्तूष्णीमासीज्जनार्दनः॥ नारदोऽकथयत्सर्वं शंबराहरणादिकम्॥ ३६॥

पाँवका चलाना, बोलना, हँसना चितवन इत्यादि भी सब श्रीकृष्णचन्द्रकेही समान हैं॥३३॥जान पड़ताहै कि, जो बालक मैंने गर्भमें धारण किया था, वह निश्चय यही है, क्योंकि प्रतिक्षण इसमें मेरी प्रीति बढ़तीही जाती है और मेरी बाँई भुजा भी फड़क रही है॥३४॥ हे राजा परीक्षित् !विदर्भदेशके राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी बैठीहुई इस प्रकार चिन्ता कर रही थी कि, इतनेहीमें उत्तम यशवाले, भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र वसुदेव देवकीको संग लेकर वहाँ आये॥३५॥ यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र यह स्वयं जानते थे कि, पत्नीसहित पुत्र आया है, परन्तु तो भी चुपचाप रहे, इतनेहीमें देवर्षि नारदजीने आनकर जिस प्रकार इनको शंबरासुर चुराकर लेगया और समुद्रमें डाल आया, वहाँ मछली निगलगई वह

सब वृत्तान्त सुनाया॥३६॥ कृष्णके अंतःपुरमें वास करनेवाली स्त्रियें बहुत कालके पीछे जैसे मृतकशरीरमें प्राण आते हैं उसी प्रकार प्रद्युम्नजीको आयाहुआ श्रवण कर बडा आश्चर्य मान उनकी बडाई करने लगीं॥ ३७॥ हे परीक्षित् ! वसुदेव देवकी और कृष्ण बलदेव तथा रुक्मिणीजी और स्त्री पुरुष प्रद्युम्नजीसे मिलकर आनन्दमें मग्न होगये॥३८॥ उस समय सब द्वारकावासी प्रद्युम्नको आयाहुआ सुन “अहो ! बडा आश्चर्य है मृतककी तुल्य यह बालक आया है,” इस प्रकार कहनेलगे॥ ३९॥ अपने पिता श्रीकृष्णचन्द्रके समान स्वरूपवान, प्रद्युम्नजी हमारे पुत्र हैं यह विचार एकान्तमें अत्यन्त प्रेमसे प्रद्युम्नजीकी माता रुक्मिणी आदि श्रीकृष्णकी रानी भ्रान्त हो प्रद्युम्नजीकी सेवा करने लगीं सो यह कुछ आश्चर्यकी

तच्छ्रुत्वा महदाश्चर्यं कृष्णांतःपुरयोषितः॥ अभ्यनंदन्बहूनब्दान्नष्टं मृतमिवागतम्॥३७॥ देवकी वसुदेवश्च कृष्णरामौ तथा स्त्रियः॥ दंपती तौ परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम्॥३८॥ नष्टं प्रद्युम्नमायातमाकर्ण्य द्वारकौकसः॥ अहो मृत इवायातो बालो दिष्ट्येति हाब्रुवन्॥३९॥ यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावास्तन्मातरो यदभजन्रहरूढभावाः॥ चित्रं न तत्खलु रमास्पदबिंबबिंबे कामे स्मरेऽक्षिविषये किमुतान्यनार्यः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे समुद्रक्षिप्तप्रद्युम्नप्रत्यागमनं नाम पंचपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५५॥ श्रीशुक उवाच॥ सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्विषः॥ स्यमंतकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान्॥१॥

बात नही है, क्योंकि लक्ष्मीनिवास श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र कामदेवका स्मरण करतेही मन चलायमान होजाता है, फिर साक्षात् मूर्त्तिका दर्शन करतेदी यदि स्त्रियें सेवा करैं, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?॥४०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां प्रद्युम्नोत्पत्तिनिरूपणं नामपंचपंचाशत्तमोऽध्यायः॥ ५५॥ दोहा-छप्पनमें हरिको वृथा, मणिको लगो कलंक। सत्राजितको मणि दई, लई सुता सुमयंक॥ १॥ इसके उपरान्त श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित ! अब सत्राजित्की कथा वर्णन करते हैं, आप सावधान होकर श्रवण कीजिये

कि, प्रथम अपराध करके सत्राजित्ने अपने पापकी निवृत्तिके लिये पीछे अपनी कन्याको स्यमंतकमणिके साथ श्रीकृष्णचन्द्रको देनेका उपाय किया था॥ १॥ तब राजा परीक्षित् कहने लगे कि, हे योगीश्वर शुकदेवजी ! सत्राजित्ने श्रीकृष्णचन्द्रका क्या अपराध किया औरस्यमंतकमणि उसने कहाँसे पाई? और पीछे किसलिये अपनी कन्या श्रीकृष्णचन्द्रको दी, यह सब हमारे आगे विस्तारसहित वर्णनकरो॥२॥ तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!सत्राजित् भगवान् सूर्यनारायणका परमभक्त और मित्र था, इसलिये प्रसन्न होकर सूर्य भगवान्ने सत्राजितको स्यमंतकमणि दी ॥३॥हे महाराज ’ सत्राजित् उस मणिको कण्ठमें पहर सूर्यके समान प्रकाशमान हो द्वारकापुरीमें आया उस समय उसके तेजसे

राजोवाच॥ सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन्कृष्णस्य किल्बिषम्॥ स्यमंतकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा॥ प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्सूर्यस्तुष्टः स्यमंतकम्॥३॥ स तं बिभ्रन्मणिं कंठे भ्राजमानो यथा रविः। प्रविष्टो द्वारकां राजंस्तेजसा नोपलक्षितः॥४॥ तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः॥ दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशंकिताः॥५॥ नारायण नमस्तेऽस्तु शंखचक्रगदाधर॥ दामोदरारविंदाक्ष गोविंद यदुनंदन॥६॥ एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते॥ मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः॥ ७॥ नन्वन्विच्छति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः॥ ज्ञात्वाऽद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो॥ ८॥

यह भी ज्ञात नहीं होता था कि, यह सत्राजित् आरहा है॥ ४॥ तेजकी चकचौंवीके कारण दृष्टि चौंव जाने से मनुष्य सत्राजित् को दूरसे आता हुआदेखकर उग्रसेनकी सभामें चौपड़ खेलते श्रीकृष्णचन्द्रसे “यह सूर्य भगवान् आरहे हैं” इस प्रकार कहने लगे ॥५॥हे नारायण ! हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले ! हे दामोदर ! हे कमलनेत्र ! हे गोविन्द ! हे यादवोंके आनन्ददायक ! आपको नमस्कार है॥ ६॥ हे जगत्पति ! तुम्हारे दर्शन करनेके लिये सूर्य भगवान् अपनी तीक्ष्ण किरणोंके समूहसे मनुष्योंके नेत्रोंको चुराते हुए चले आते हैं॥ ७॥ हे प्रभो! त्रिलोकीके देवताओंमें श्रेष्ठ देवताभी आपका मार्ग ढूँढते हैं और इसीलिये यादवोंमें छिपा जान आपके ढूँढनेको सूर्य भगवान् आरहे हैं॥ ८॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे नृपोत्तम परीक्षित्! कमलदलनेत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अज्ञानी पुरुषोंकी यह बात सुन हँसकर कहनेलगे कि, यह सूर्यदेव नहीं हैं, मणि करके प्रकाशमान सत्राजित् आरहा है॥९॥ इसके उपरान्त सत्राजित्ने अपने घरमें मांगलिक कर्म करवाय और देवमन्दिरमें ब्राह्मणोंसे पूजा कराय वहां उस मणिको स्थापित किया*॥१०॥ हे भारत! वह मणि नित्यप्रति चार मनका भार आठभार सुवर्ण उगलती थी, उस मणिमें एक यह भी प्रभाव था कि, जहॉवह मणि है, उस देशमें कभी दुर्भिक्ष न पड़ै, अकालमृत्यु तथा अरिष्ट न हो, सर्प नहीं काटै,

श्रीशुक उवाच॥ निशम्य बालवचनं प्रहस्यांबुजलोचनः॥ प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन्॥९॥ सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमंगलम्॥ प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत्॥१०॥ दिनेदिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो॥ दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः॥ न संति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः॥॥११॥ स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा॥ नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभंगमतर्कयन्॥१२॥ तमेकदा मणिं कंठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्॥ प्रसेनो हयमारुह्य मृगयां व्यचरद्वने॥१३॥

मनुष्यके देहमें दुःख न हो अशुभ दृष्टि न आवै और मायावी पुरुष अर्थात् माया जाननेवाले भी उस देशमें वास नहीं करसक्ते हैं॥११॥ एक समय श्रीकृष्णचन्द्रने वह मणि राजा उग्रसेनके लिये सत्राजित्से मॉगी परन्तु सत्राजित्ने लोभके वश होकर वह मणि श्रीकृष्णचन्द्रको नहीं दी, और अपने मनमें “श्रीकृष्णचन्द्रको कैसे मना करूं” यह भी विचार न किया॥१२॥ इसके उपरान्त कुछ समय व्यतीत होनेपर सत्राजित्का भाई

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** शंका**—सत्राजित् यादव देवताके मदिरमें ब्राह्मणोंसे मणिको क्यों स्थापन कराया? देवमदिरमें उस मणिको आपही आप क्यों स्थापन नहीं किया?

उत्तर—सूर्यने सत्राजितको मणिदेके पीछेसे सत्राजित्से कहा कि, इस मणिको रात दिन धारण मत करना जो तुम्हारी अग्निहोत्र कोठरी है उसमें इस मणिको रखदेना, सत्राजित सूर्यका ऐसा वचन सुनके अपने घरको आया और विचार किया कि, विना दूसरा स्नान किये देवमदिरमें कैसे जाऊ ऐसा विचार करके जबतक स्नान करनेकी तैयारी की, तबतक ऋषिलोगोंसे मणिको रखायके आप स्नान करके तब अग्निहोत्रकी कोठरीमें होम करनेके लिये गया इसलिये देवमदिरमें ब्राह्मणों करके सत्राजित्ने मणिको स्थापन कराया॥

प्रसेन उस महाप्रकाशवाली मणिको कण्ठमें पहर घोडेपर चढकर वनमें शिकार खेलनेको गया॥१३॥ कि, इतनेहीमें एक सिंह घोडेसहित प्रसेनको मार मणि लेकर पर्वतकी कन्दरामें जानेलगा, उसी समय मणि लेनेकी इच्छासे जाम्बवान् ऋच्छने उसे मारडाला॥१४॥ और अपने बिलमें जाकर उस मणिको पुत्रका खिलौना किया, इधर सत्राजित् अपने भाई प्रसेनको शिकार खेलकर वनसे न आयाहुआ जान चिन्ता करने लगा॥१५॥ कि, मणि कण्ठमें धारण करके मेरा भाई वनमें शिकार खेलनेको गयाहै और उस मणिपर कृष्णका दॉत है इसलिये जान पडता है कि, भाईको श्रीकृष्णने

प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केसरी॥ गिरिं विशञ्जांबवता निहतो मणिमिच्छता॥१४॥ सोपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले॥ अपश्यन्भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत॥१५॥ प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः॥ भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णेकर्णेऽजपञ्जनाः॥१६॥ भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि॥ मार्ष्टुं प्रसेनपदवी मन्वपद्यत नागरैः॥१७॥ हतं प्रसेनमश्वं च वीक्ष्य केसरिणा वने॥ तं चाद्रिपृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः॥१८॥ ऋक्षराजबिलं भीममंधेन तामसा वृतम्॥ एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः॥१९॥

मारडाला, इस बातको सत्रजित्ने अपनी स्त्रीसे कहा उसके मुखसे सुनकर मनुष्य गुप्त रीतिसे बातें करनेलगे*॥१६॥ तब भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र यह यशका नाश करनेवाला कलंक लगा सुन और बहुतसे द्वारकावासियोंको संग ले प्रसेनके ढूँढनेको चले॥१७॥ हे राजन्! वनमें सिंहसे मारे प्रसेन व घोडेको देख और आगे पर्वतके ऊपर ऋच्छसे मरेहुये सिंहको सब द्वारकावासी देखनेलगे॥१८॥ बडी अँधेरी भयानक ऋच्छराज जाम्बवा

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* दृष्टान्त— सत्राजित्ने स्त्रीसे कहा कि घरकी बात किसी स्त्रीसे नहीं कहना (दृष्टान्त) एक बनियाँ था सो दिशाको गया, वहा उसने दोनों घोंटोंके बीचमें नीचे कौवेका पख पडा था देखकर यह बहम दुआ कि, यह हमारे पेटसे निकला है, सो घर माय अपनी घरवालीसे बोले कि, आज हमारे पेटसे कौषेका पख निकला, जाने क्या रोग हुआ, उसने टहलनियोंसे कही, टहलनियें औरके घर जाकर बोलीं कि, फलाने साहजीके पेटमेंसे पाच कौवे निकले! यह हमने अपनी आखोंसे देखा, उस स्त्रीने औरसे कहा कि, साहजीके पेटमेंसे पचास कौवे रोज निकले करेहैं उसने औरसे पाचासौ कहे कहाँतक कहैं, जब वह लाला बाहर निकले, तो लोग कहने लगे कि, जब यह लाला दिशाको जाते हैं तो इनके पेटमेंसे दो हजार कौवे निकलते हैं स्त्रीसे बात कहने में यह दोष है कि, निकली होठों चढगई कोठों॥

न्के बिलपर सब प्रजाको बाहर खडा करके आप अकेलेही उसके भीतर गये॥१९॥ तहॉ उस मणिसे बालकको खेलताहुआ देख मणि लेनेकी इच्छासे आप भी बालकके समीपही खडे होगये॥२०॥ प्रथम कभी न देखनेके कारण मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर डरपोककी नाई धाई पुकारनेलगी तब महाबलवान् जाम्बवान् धाईका पुकारना सुन क्रोधित हो सामने दौड़कर आया॥२१॥ क्रोधी जाम्बवान् श्रीकृष्णके प्रभावको न जान और उनको साधारण पुरुष जान, अपने स्वामी श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेलगा॥२२॥ परस्पर जीतनेकी इच्छासे, श्रीकृष्ण और जाम्बवान्का शस्त्र, पत्थर, वृक्ष और भुजाओंसे महाघोर संग्राम होनेलगा, जिसप्रकार मांसके लिये दो शिकारी पक्षी लडतेहैं॥२३॥ वज्रपातके समान कठोर दृष्टिसे खेदरहित

तत्र दृष्ट्वा मणिं श्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्॥ हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकांतिके॥२०॥ तमपूर्वनरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्॥ तच्छ्रुत्वाऽभ्यद्रवत्क्रुद्धो जांबवान्बलिनां वरः॥२१॥ स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः॥ पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित्॥२२॥ द्वंद्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः॥ आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे शये

नयोरिव॥२३॥ आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः॥ वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम्॥२४॥ कृष्णमुष्टि विनिष्पातनिष्पिष्टांगोरुबंधनः॥ क्षीणसत्त्वः स्विन्नगावस्तमाहातीव विस्मितः॥२५॥ जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्॥ विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम्॥२६॥ त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृज्यानामपि यच्च सत्॥ कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम्॥२७॥

अट्ठाईस दिनरात परस्पर युद्धहुआ॥२४॥ जब श्रीकृष्णके मुष्टिकके प्रहारसे उसके सब अंग शिथिल होगये, बल घटगया और पसीना आगया, तब जांबवान् महा आश्चर्य मानकर कहने लगा॥२५॥ कि, समस्त प्राणियों के प्राणमें जोबल है और सहोबल अर्थात्, इन्द्रिय, हृदय, देह इत्यादिकोंका बल आपही हो और विष्णुभगवान् पुराणपुरुष कृपालु सबके ईश्वर आपही हो॥२६॥ विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिकके तुम निश्चय निमित्तकारण हो और उत्पत्तिके योग्य पदार्थके उपादानकारण हो और समस्त प्रेरणाव, लोके ईश्वर तुम कालरूप हो, तथा आत्मा जीवके उत्कृष्ट आत्मा हो॥२७॥

विष्णु पुराण हो, इसीलिये मेरे इष्टदेव रघुनाथ हो, जिन रघुनाथजी के कुछेक क्रोधसे भ्रूके कटाक्षपातसे मगर और बड़े बड़े ग्राह दुःखित होगये, तब समुद्रने मार्ग दिया और जिन श्रीरामचन्द्रजीने अपना यश प्रगट करनेके लिये पुल बाँधा, लंका जलाई, महातीक्ष्ण बाणोंसे राक्षसराज रावणके शिर काटकर पृथ्वीमें डाले, सो मुझे निश्चय विदित होता है, कि आप मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी हैं॥२८॥ हे परीक्षित्! जब इसप्रकार जाम्बवान्को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उससे कहने लगे॥२९॥ कमलनेत्र श्रीकृष्णचन्द्र सुखके देनेवाले अपना हाथ परमकृपाकर अपने भक्तजाम्बवान्के ऊपर घर प्रेमगर्भित वाणी से कहनेलगे॥३०॥ हे ऋच्छराज जाम्बवान्! हम मणि लेने के लिये यहाँ तेरे

यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षैर्वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिंगिलोऽव्धिः॥ सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लंका रक्ष शिशरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि॥२८॥ इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः॥ व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुतः॥२९॥ अभिमृश्यारविंदाक्षः पाणिना शंकरेण तम्॥ कृपया परया भक्तं प्रेमगंभीरया गिरा॥३०॥ मणिहेतोरिह प्राप्ता वयंमृक्षपते बिलम्॥ मिथ्याऽभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनाऽमुना॥३१॥ इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जांबवतीं मुदा॥ अर्हणार्थं समणिना कृष्णायौपजहार ह॥३२॥ अदृष्ट्वा निर्गमं शौरैः प्रविष्टस्य बिलं जनाः॥ प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः॥३३॥ निशम्य देवकीदेवी रुक्मिण्यानकदुंदुभिः॥ सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन्बिलात्कृष्णम निर्गतम्॥३४॥ सत्राजितं शपंतस्ते दुःखिता द्वारकौकसः॥ उपतस्थुर्महामायां दुर्गां कृष्णोपलब्धये॥३५॥

बिलमें आये हैं, क्योंकि हमें एक मिथ्या कलंक लगा है, उसे मणि लेजाकर दूर करेंगे॥३१॥ यह वचन सुनतेही जाम्बवान्ने बड़े आनन्द पूर्वक मणिसहित अपनी कन्या जाम्बवती सेवा करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दी॥३२॥ हे राजन! जिन द्वारकावासियोंको श्रीकृष्णचन्द्र बिलके बाहर खड़ा कर गये थे, उन्हैं श्रीकृष्णका मार्ग देखते जब बारह दिन होगये, तब उन्होंने जाना कि, श्रीकृष्ण अब नहीं निकलेंगे इसलिये सब दुःखित होकर द्वारकापुरीको चलेगये॥३३॥ बिलमेंसे श्रीकृष्णचन्द्र नहीं निकले, यह बात द्वारकावासियोंके मुखसे श्रवण कर देवकी, रुक्मिणी, वसुदेव और सुहृद्जन तथा जातिके मनुष्य सबही अत्यन्त चिन्ता करनेलगे॥३४॥ और सब द्वारकावासी दुःखित

होकर सत्राजित्को दुर्वाक्य कहते श्रीकृष्णचन्द्रके मिलनेकेलिये महामाया दुर्गादेवीकी पूजा करनेलगे॥३५॥ जब देवीकी पूजा करनेसे “श्रीकृष्णको देखोगे” इसप्रकार द्वारकावासियोंको देवीने आशीर्वाद दिया तब उसी समय सिद्धमनोरथ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारकावासियोंको आनन्द देते स्त्री सहित आये॥३६॥ हे राजन्! जिसप्रकार कोई मृतक पुरुष फिर लौट आवै, उसी प्रकार मणि पहरे स्त्रीको लिये श्रीकृष्णचन्द्रको आया हुआ देख समस्त द्वारकावासी परमआनंदित हुए॥३७॥ इसके उपरान्त सभामें राजा उग्रसेनके पास सत्राजितको बुलाकर “जाम्बवान् ऋच्छ से मणि लाये हैं” यह कहकर वह मणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सत्राजित्को दे दी॥३८॥ सत्राजित् मणि ले अत्यन्त लज्जित हो और मुख नीचाकर पछताताहुआ घरको चलागया॥३९॥ महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे विरोध हुआ जान व्याकुल हो, सत्राजित् अपने पूर्व अपराधको वारंवार

तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च॥ प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन्हरिः॥३६॥ उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्॥ सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः॥३७॥ सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ॥ प्राप्तिं चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्यवेदयत्॥३८॥ स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वाऽवाङ्मुखस्ततः॥ अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना॥३९॥ सोऽनुध्यायंस्तदेवाधं बलवद्विग्रहाकुलः॥ कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाऽच्युतः कथम्॥४०॥ किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा॥ अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम्॥४१॥ दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च॥ उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शांतिर्न चान्यथा॥४२॥

स्मरण करके यह पाप कैसे दूर हो? और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कैसे प्रसन्न हों? इस प्रकार चिन्ता करनेलगा॥४०॥ अब मैं क्या कर्म करूं कि, जिससे कल्याण हो! क्योंकि, मैंने विना विचारे श्रीकृष्णचन्द्रको दोष लगाया है, मैं अत्यन्त कृपण मंदबुद्धि और द्रव्यका लोभी हूं इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि, जिससे मनुष्य मुझे बुरा न कहें॥४१॥ हे भरतवंशावतंस! इसप्रकार सत्राजित्ने विचार करके यह निश्चय किया कि, श्रीकृष्णचन्द्रको मैं अपनी कन्या दूंगा और पीछेसे दहेजमें मणि भी देदूंगा यही अच्छा उपाय है, इसके अतिरिक्त और उपायसे मेरा अपराध दूर न होगा; इस प्रकार बुद्धिसे स्थिर करके सत्राजित्ने मंगलरूप अपनी कन्या और मणिको स्वयंही उपाय करके

श्रीकृष्णचन्द्रके अर्पण करी॥४२॥४३॥ श्रीकृष्णचन्द्रने भी सुन्दर स्वभाव रूप उदारतादि गुणयुक्त सत्यभामाका पाणिग्रहण किया, जिसको पहले कृतवर्मादि कई यादव माँग चुके थे॥४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे महाराज परीक्षित्! तब श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सत्राजितसे कहा कि, यह मणि हमको नहीं चाहिये क्योंकि तुम सूर्यके भक्त हो, इसलिये यह मणि तुम्हारेही पास रहेगी और इससे जो सुवर्ण होगा सो हमारे यहाँ भिजवादेना कारण कि, तुम्हारे कोई पुत्र नहीं है इस कारण तुम्हारा जो धन है सो हमाराही है, यह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका गूढ़ अभिप्राय था॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां स्यमंतकमणिहरणं नाम षट्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥ दोहा—शतधन्वाके इतनको

एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्॥ मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह॥४३॥ तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि॥ बहुभिर्याचितां शीलरूपौदार्यगुणान्विताम्॥४४॥ भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप॥ तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे जाम्बवती विवाहो नाम षट्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥श्रीशुक उवाच॥ विज्ञातार्थोऽपि गोविंदो दग्धानाकर्ण्य पांडवान्॥ कुंतीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून्॥१॥ भीष्मं कृपं सविदुरं गांधारीं द्रोणमेव च॥ तुल्यदुःखौ च संगम्य हा कष्टमिति होचतुः॥२॥ लब्ध्वैतदंतरं राजञ्शतधन्वानमूचतुः॥ अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते॥३॥

जो कुछ लगो कलंक। मणि मॅगाय अक्रूरसे, मेटो सतवन अंक॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ!यद्यपि पांडवगण बिलमें होकर लाक्षाभ वनसे बाहर निकल गये, यह बात आप भली प्रकार जानते थे, परन्तु तोभी पांडव और कुन्तीको जला हुआ सुन कुलोचित व्यवहार करनेके लिये बलरामजीको संग लेकर श्रीकृष्णचन्द्र कुरुदेशको गये॥१॥ भीष्म पितामह, विदुर सहित कृपाचार्य, गान्धारी द्रोणाचार्य इनसे श्रीकृष्णचन्द्र कहनेलगे कि, हाय! पांडव जलगये और बडाही कष्ट उपस्थित हुआ॥२॥ हे राजन् कुछ दिनोंके पीछे अक्रूर और कृतवर्मा यह दोनों अवसर पाय शतधन्वासे कहनेलगे कि, इस समय सत्राजित्से मणि क्यो नहीं छीन लेता, क्योंकि जिस सत्राजितने अपनी कन्यारत्न हमको देनी स्वीकार

कर फिर कृष्णको व्यादही, वह सत्राजित् अपने भाई प्रसेनके पीछे क्यों न जाय अर्थात् मरे क्यों नहीं?॥३॥४॥ इसप्रकार अक्रूर और कृतवर्मा के बहॅकानेसे बुद्धिहीन और क्षीणजीवन हो, पापी असाधु शतधन्वाने शयन करते हुए, सत्राजित्का शिर काट लिया॥५॥ कसाई जिस प्रकार पशुका वध करता है, ऐसेही सत्राजित्को जब शतधन्वा मारकर चलागया तब सत्राजित्की स्त्री अनाथके समान पुकार पुकार कर रोदन करने लगी॥६॥ इसके पीछे अपने पिता सत्राजित्को माराहुआ देख सत्यभामा “हाय पिता! हाय पिता!!” कहकर अत्यन्त विलाप करनेलगी॥७॥ फिर मृतक पिताकी देहको तेलकी कोठरीमें रखकर सत्यभामा हस्तिनापुरको चलीगई, यद्यपि शतधन्वासे सत्राजितको

योऽस्मभ्यं संप्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः॥ कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात्॥४॥ एवं भिन्नम तिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः॥ शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः॥५॥ स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रंदंती नामनाथवत्॥ हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान्॥६॥ सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचाऽर्पिता॥ व्यलपत्ताततातेति हा हतास्मीति मुह्यती॥७॥ तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्॥ कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम्॥८॥ तदाकर्ण्यश्वरो राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्॥ अहो नः परमं कष्टमित्यास्राक्षौ विलेपतुः॥९॥ आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम्॥ शतधन्वानमारेभे हंतुं हर्तुं मणि ततः॥१०॥ सोऽपि कृष्णोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया॥ साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत्॥११॥

मारा है यह बात अंतर्यामी श्रीकृष्णचन्द्रने प्रथमही जानली थी परन्तु तो भी सत्यभामा “मेरे पिताको शतधन्वाने मारा है” यह बात दुःखित होकर कहने गई॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेवजी सत्राजित्का मरना सुन और अपने मनुष्यावतारका कारण जान “हमको महाकष्ट उपस्थित हुआ हैं” इसप्रकार कह और आँखोंमें आँसू भरकर विलाप करने लगे॥९॥ इसके उपरान्त सत्यभामा और अपने भाई बलदेवजीको साथ लेकर श्रीकृष्णचन्द्र हस्तिनापुरसे द्वारकापुरीमें आनकर शतधन्वाके मारने और उससे मणि लेनेका उपाय करनेलगे॥१०॥ यहॉ शतधन्वाने सुना कि, श्रीकृष्णचन्द्रने मेरे मारनेका उपाय किया तब वह

अत्यन्त भयभीत होकर प्राण बचानेके लिये कृतवर्मासे सहायके निमित्त कहा, तब कृतवर्माने उत्तर दिया॥११॥ कि, भाई! भगवान् श्रीकृष्ण और बलदेवजीका अपराध मैं कभी न करूंगा, क्योंकि उनका अपराध करके किसका कल्याण होगा॥१२॥ देखो इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रसे द्वेष करके कंस लक्ष्मीसे भ्रष्ट होकर अपने भाइयों सहित मारागया और मगध देशके राजा जरासन्धने तेईस २ अक्षौहिणी सेना लेकर सत्रहवार युद्ध किया परन्तु युद्धमें हार अंतको विरथ होकर चला गया॥१३॥ जब कृतवर्मासे कोरा जवाब पाया तब यह निपट उदास हो, अक्रूरजीके पास जाकर कहने लगा तब अक्रूरजीने कहा कि, भाई! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पराक्रम जान लेनेपर कौन पुरुष उनसे विरोध

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः॥ कोनु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन्॥१२॥ कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया॥ जरासंधः सप्तदश संयुगान्विरथो गतः॥१३॥ प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमया चत॥ सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम्॥१४॥ य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हंति च॥ चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताऽजया॥१५॥यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना॥दधार लीलया बाल उच्छिलींभ्रमिवार्भकः॥१६॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे॥ अनंतायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः॥१७॥ प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्॥ तस्मिन्न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ॥१८॥ गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ॥ अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम्॥१९॥

करेगा?॥१४॥ जो ईश्वर लीलापूर्वक इस विश्वकी उत्पत्ति, पालन और नाश करता है, उसकी मायासे मोहित होकर उसकी चेष्टाको ब्रह्मादिक भी नहीं जानते॥१५॥ देखो! सातवर्षकीही अवस्थामें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने गोबर्द्धन पर्वतको उखाडकर जिस प्रकार बालक छत्राकको उठाताहै उसी प्रकार उठालिया॥१६॥ उन्हीं अद्भुतकर्मकारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके लिये नमस्कार है और जो सबके आदिकारण, निर्विकार सबके आत्मा हैं, उन्हैं हम केवल नमस्कार करते हैं॥१७॥ हे परीक्षित्! इस प्रकार जब अक्रूरजीने भी सुखा उत्तर दिया, तब शतधन्वा अति घबराय मणि अक्रूरके पास रख, चारसौ कोस चलनेवाले घोडेपर चढकर भागगया॥१८॥ हे राजन्! जब इसप्रकार शतधन्वा भागा, तब रामकृष्ण गरुड़

ध्वजाबाले रथमें बैठ शीघ्रगामी घोडोंसे श्वशुरके मारनेवाले शतधन्वाके पीछे दौडे॥१९॥ जब शतयोजनसे अधिक घोडेसे न चलागया और मिथिलापुरीके बागमे गिरपडा, तब शतधन्वा उस घोडेको छोड भयभीत हो पाँव प्यादे भागनेलगा और श्रीकृष्ण भी अत्यन्त क्रोधित होकर

पीछे दौडनेलगे॥२०॥ इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्र शतधन्वाको पकड और अत्यन्त तीक्ष्णधारवाले चक्रसे उसका शिर काट वस्त्रोंमें मणि ढुॅढ़नेलगे॥२१॥ जब शतधन्वाके वस्त्रोंमें मणि न निकली, तब श्रीकृष्णचन्द्रने बलदेवजीसे आनकर कहा कि, देखो भाई! शतधन्वाको वृथाही मारा उसपर मणि न निकली॥२२॥ इसके पीछे बलदेवजी कहनेलगे कि, शतधन्वा और किसीके पास मणि घर आया है, इस कारण उस पुरुषको ढूँढ़नेके लिये तुम द्वारका जाओ॥२३॥ यद्यपि श्रीकृष्णचन्द्र सब बातको जानतेहैं परन्तु तोभी “मणिका मुझसे छिपाव किया है

मिथिलाया उपवने विसृज्य पतितं हयम्॥ पद्भ्यामधावन्संत्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा॥२०॥ पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना॥ चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम्॥२१॥ अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाऽग्रजां तिकम्॥ वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते॥२२॥ तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना॥ कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज॥२३॥ अहं विदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम॥ इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदुनंदनः॥२४॥ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मथिलः प्रीतमानसः॥ अर्हयामास विधिवदर्हणीयं समर्हणैः॥ उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः॥२५॥ मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना॥ ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः॥२६॥

यह मनमें निश्चयकर बलदेवजी क्रोधकरके कहने लगे, तात्पर्य यह है कि, द्रव्य ऐसा निषिद्ध पदार्थ हैं, जिसके लिये कृष्ण बलदेवका भी मन बिगड़गया, फिर मनुष्योंकी तो बातही क्या है?” कि, मेरा परमप्यारा विदेहदेशका राजा बहुलाश्व है, उसके देखनेको मेरा चित्त बहुत भटक रहा है, इसलिये मैं वहाॅ जाऊंगा, इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रसे कह यादवोंके आनंददायक महात्मा बलदेवजीने मिथिलापुरीमें प्रवेश किया॥२४॥ प्रसन्न मन मिथिलापुरीका राजा बलदेवजीको आयाहुआ देख शीघ्र उठ, पूजन करनेके योग्य बलदेवजी की पूजन करनेकी सामग्रियोंसे पूजा करनेलगा, तब सामर्थ्यवान् बलदेवजी कितने एक वर्षतक वहाॅ रहे॥२५॥ प्रीतियुक्त महात्मा जनकजीसे सत्कार पाय धृतराष्ट्रका पुत्र

दुर्योधन वहाँ आय महात्मा बलदेवजी से गदा चलानेकी विद्या सीखनेलगा॥२६॥ इसके उपरान्त प्रियकार्य करनेवाले सामर्थ्यवान् भगवान् केशवमूर्तिने द्वारकापुरीमें आनकर शतधन्वाका नाश और मणिका न मिलना अपनी प्यारी भार्या सत्यभामा से कहा॥२७॥ इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने सुहृदोंको संग लेकर मृतक सत्राजितके परलोकसाधनकी क्रिया कराने लगे॥२८॥ सत्राजित्से मणि छीन लेनेकी शिक्षा देनेवाले अक्रूर और कृतवर्मा शतधन्वाका मरना सुन श्रीकृष्णचन्द्रसे अत्यन्त भयभीत होकर भागगये॥२९॥ हे राजा परीक्षित! जब द्वारकापुरी से अक्रूरजी चलेगये तब द्वारकावासीमनुष्योंके मनमें ताप और अरिष्ट बारम्बार होनेलगे॥३०॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्! कितने

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः॥ अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः॥२७॥ ततः स कारयामास क्रियां बंधोर्हतस्य वै॥ साकं सुहृद्भिर्भगवान्यायाः स्युः सांपरायिकाः॥२८॥ अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्व धम्॥ व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ॥२९॥ अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्॥ शारीरा मान सास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः॥३०॥ इत्यंगोपदिशंत्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्॥ मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्श नम्॥३१॥ देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै॥ स्वसुतां गांदिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु॥३२॥ तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्रयत्र ह॥ देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः॥३३॥

एक ऋषि जिन्होंने प्रथम श्रीकृष्णचन्द्रकी महिमा वर्णन की है, वह श्रीकृष्णके माहात्म्यको भूलकर ऐसा कहते हैं, क्योंकि मुनियोंके निवास श्रीकृष्णचन्द्रके विद्यमान रहते अरिष्ट किस प्रकार होसक्ते हैं?॥३१॥ इस प्रकार दूषित करके फिर और ऋषियोंका मत वर्णन करते हैं, कोई कोई ऋषि कहते हैं कि, एक समय जब इन्द्रने जल नहीं वर्षाया, तब काशीके राजाने अपनी कन्या गांदिनी पुरीमें आयेहुए श्वफल्कको दी, तब काशीके सम्पूर्ण देशोंमें खूब वर्षा हुई॥३२॥ पिता श्वफल्कके समान प्रभावशाली अक्रूरजी जहाँ वास करते हैं,

उस देशमें खूब वर्षा होती है और महामारी इत्यादि किसी प्रकारका खेद, प्राणियोंको नहीं होता है*॥३३॥ इस प्रकार वृद्ध पुरुषोंका वचन सुनकर, “केवल अक्रूरही यहाॅसे गया है और मणिकोभी बही लेगया है” यह बात निश्चय करके अक्रूरको काशीसे बुलानेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रने कहा॥३४॥ उसके पीछे आपही अक्रूरकी पूजा कर हे काका अक्रूर! इस प्रकार सम्बोधन देकर प्यारी प्यारी बात कह सब

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्॥ इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः॥३४॥पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः॥ विज्ञाताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह॥३५॥ ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना॥ स्यमंतक मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः॥३६॥ सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः॥ दायं निनीयाऽपः पिंडान्विमुच्यर्णं च शेषितम्॥३७॥ तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः॥ किं तु मामग्रजः सम्यङ् न प्रत्येति मणिं प्रति॥३८॥

विश्वके जाननेवाले श्रीकृष्णचन्द्र अक्रूरके मनकी बात जान मुसकराकर कहने लगे॥३५॥ कि, हे दाननके पति अक्रूर! हम निश्चय जानते हैं कि, स्यमंतकमणि शतधन्वा तुम्हारे पास रखगया है और वह तुम्हारे पास है॥३६॥ सत्राजित्के कोई पुत्र नहीं है, इसलिये उसे पिंड जलदान और ऋण चुकाकर जो शेष धन रहेगा, उसे शास्त्रानुसार उसकी कन्याके पुत्र लेंगे॥३७॥ हे अक्रूर! यद्यपि तुम हमसे कहो मत, परन्तु

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** * शंका**— बढे बढे आश्चर्यकी बातैं भागवतमें सुनी जाती है कि, जिस जिस गाँवमें अक्रूर वास करता है, उसी उसी गाँवमें इन्द्र जलकी वर्षा करता है फिर उस गाँवमें महामारीकी बीमारी नहीं होती, तब अक्रूर तो मथुरामें जन्में मथुरा छोडके दूसरे गाँवको नहीं गये, फिर मथुरा छोडके द्वारकामें वास किया दूसरे गाँवमें वास नहीं किया, फिर सातद्वीपमें तो अक्रर नहीं है, तब सात द्वीपमें इन्द्र जलको वर्षा क्योंकरताहै?

** उत्तर**— अक्रूरकी माता गादिनीने ब्रह्माका तप करके ब्रह्मासे यह वरदान लिया कि, जिस स्थानपर तू (गान्दिनी) या तेरा पति, अथवा तेरा पुत्र निवास करैगा और अपने मनमें जब वर्षनेकी इच्छा करैगा उसी समय जिस स्थानपर चाहेगा वर्षा बहुत होगी और जब अपने मनमें अभिमान करके प्रजाकी बुराई विचारेगा, वर्षा होनेकी इच्छा नहीं करेगा उसी समय तुम्हारा प्राण छूट जायगा, इसलिये बुद्धिमान् अक्रूर रात दिन प्रजाको सुख देनेके लिये अपने मनमें रात दिन वर्षा होनेकी इच्छा करते थे॥

तो भी हम जानते हैं कि, मणि तुम्हारे अतिरिक्त और किसीपर नहीं रह सक्ती, क्योंकि आप सुन्दर व्रत धारण करनेवाले हैं, तब अक्रूरजीने कहा कि, अच्छा मेरेही पास सही. तुम्हैं क्या प्रयोजन है, यह सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, बड़े भाई बलदेवजी इस मणिके पीछे मेरा विश्वास नहीं करते हैं॥३८॥ हे बड़भागी अक्रूर! तुम मणि दिखाकर शीघ्रही मेरे भाईको शान्त करो और मेरे पास मणि नहीं है यह मत कहो, यदि कदा चित् मणि तुम्हारे पास न होती तो सुवर्णकी वेदी बनाकर काशीमें जाकर अखण्ड यज्ञ काहेसे करते?॥३९॥ जब इस प्रकार साम भेदन कर समझाया, तव अक्रूरजीने सूर्य के समान तेजवाली, वस्त्रसे ढकीहुई वह मणि निकालकर श्रीकृष्णचन्द्रको दैदी॥४०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्यमंतकमणि अक्रूरजीसे लेकर जातिके बन्धु बांधवोको दिखाय अपना मिथ्या कलंक दूरकर फिर वह मणि श्रीकृष्णचन्द्रने अक्रूरजीको समर्पण

दर्शयस्व महाभाग बंधूनां शांतिमावह॥ अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तते रुक्मवेदयः॥३९॥ एवं सामभिरालब्धः श्वफ ल्कतनयो मणिम्॥ आदाय वाससा छन्नं ददौ सूर्यसमप्रभम्॥४०॥ स्यमंतकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः॥ विसृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः॥४१॥ यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमंगलं च॥ आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शांतिम्॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे स्यमंतकोपाख्यानं नाम सप्तपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा पांडवान्द्रष्टुं प्रतीतान्पुरुषोत्तमः॥ इंद्रप्रस्थं गतः श्रीमान्युयुधानादिभिर्वृतः॥१॥

करदी॥४१॥ परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीका कहाहुआ मनुष्योंके दुःखोंका हरनेवाला, सुन्दर मंगलरूप इस स्यमंतक मणिके प्रसंगको जो कोई पुरुष पढ़े वा श्रवण करे अथवा स्मरण करै वह कुत्सित पापोंके कलंकको दूर कर कल्याणको प्राप्त होनाहै॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां स्यमंतकोपाख्याने सप्तपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥ दोहा—++ भद्रा, लक्ष्मणा, मित्रविन्दका लिन्द। अट्ठावन अध्यायमें, वरीं सकल गोविन्द॥१॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजा परीक्षित्। + पाण्डव जलगये यह बात होने पर फिर द्रुपदराजाके यहाँपीछे दिखाईदिये, इस प्रकार पाण्डवोंकी खबर पाय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकी आदि यादवोंको संग ले

एक समय इन्द्रप्रस्थ गये॥१॥ सबके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको देखतेही, जिस प्रकार मृतकशरीरमें प्राण आनेसे इंद्रिय चैतन्य होजाती हैं, उसी प्रकार बलवान् पाण्डव उठ खड़ेहुये॥२॥ श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलकर पापरहित होनेके कारण वीर पाण्डव स्नेहभरी मुसकान सहित श्रीकृष्णचन्द्रका मुखारविन्द देखकर परमानन्दको प्राप्त हुये॥३॥ प्रथम श्रीकृष्णचन्द्र बड़े युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें नमस्कार करके फिर अपने समान अर्जुनसे मिले इसके उपरान्त छोटे नकुल और सहदेवने श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार किया॥४॥ फिर इसके उपरान्त श्रेष्ठ आसनपर विराजमान श्रीकृष्णचन्द्रको नवविवाहिता, निन्दारहित, लज्जावती द्रौपदीने आनकर धीरे धीरे प्रणाम किया॥५॥॥उसी प्रकार सात्यकीको भी

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुंदमखिलेश्वरम्॥ उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणं मुख्यमिवागतम्॥२॥ परिष्वज्याच्युतं वीरा अगसंगहतैनसः॥ सानुरागस्मितं वत्क्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः॥३॥ युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवंदनम्॥ फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवंदितः॥४॥ परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिंदिता॥ नवोढा व्रीडिता किंचिच्छनैरेत्याभ्यवंद॥॥५॥ तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवंदितः॥ निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासिताः॥॥६॥ पृथां समागत्य कृताभिवादनस्तयातिहार्द्रार्द्रदृशाऽभिरंभितः॥ आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां पितृष्वसारं परिपृष्टबांधवः॥७॥ तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकंठाश्रुलोचना॥ स्मरंती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम्॥८॥ तदैव कुशलं नोऽभूत्सनाथास्ते कृता वयम्॥ ज्ञातीन्नः स्मरतां कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया॥९॥

पांडवोंने आकर पूजन कर आसनपर बैठाला फिर और मनुष्योका भी आदर सन्मान किया॥६॥ फिर श्रीकृष्णचन्द्रने कुन्तीके पास आकर प्रणाम किया तो कुन्तीने भी स्नेहभरीचितवन से आलिंगन किया, फिर श्रीकृष्णचन्द्रने पिता व बहनकी कुशल कुन्तीसे पूछी और इसके उपरान्त कुन्ती श्रीकृष्णचन्द्रसे भाइयोकी कुशल पूछने लगी॥७॥ प्रेमकी व्याकुलतासे गद्गद कण्ठ हो नेत्रोंमें आँसू भर कौरवोंके दिये कष्टकी सुधि करके कुन्ती भक्तोंके क्लेशोंका नाश करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे कहनेलगी॥८॥ कि, हे कृष्ण! जाति बन्धु हमको स्मरण करके जिस समय तुमने मेरे

भाई अक्रूरको खवर लेने भेजा, उस समय हमारी सव कुशल होगई और तुमने हमको सनाथ करदिया॥९॥ यद्यपि सव विश्वके हितकारी आत्मा तुम “यह अपना है, यह पराया हैं” इस भ्रमसे रहित हो परन्तु तो भी जो कोई तुम्हारा सर्वदा स्मरण करता है, तुम उसके हृदयमें स्थित होकर समस्त क्लेशोंका नाश कर देतेहो॥१०॥ राजा युधिष्टिर कहनेलगे कि, हे त्रह्मादिकोके ईश्वर! नहीं ज्ञात होता कि, मैंने क्या कल्याणकारी कार्य किया है, क्योंकि योगेश्वरोंको जिनका दर्शन होना महाकठिन है, उनको हम सरीखे कुमतियोंको दर्शन हुआ॥११॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्! इस प्रकार राजा युधिष्ठिर के प्रार्थना करनेपर श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थ निवासियोंके नेत्रोंको आनन्द देते वर्षाकालतक वहीं विराजे॥

न तेऽस्तिं स्वपरभ्रांतिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः॥ तथाऽपि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थितः॥१०॥ युधिष्ठिर उवाच॥ किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वरः॥ योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम्॥११॥ इति वै वार्षिकान्मासान्राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्॥ जनयन्नयनानंदमिंद्रप्रस्थौकसां विभुः॥१२॥ एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्॥ गांडीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ॥१३॥ साकं कृष्णेन संनद्धो विहर्तुं गहनं वनम्॥ बहुव्याल मृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा॥१४॥ तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान्सूकरान्महिषान्सरून्॥ शरभान्गवयान्खङ्गान्हरिणाञ्शशशल्लकान्॥१५॥ तान्निन्युः किंकरा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते॥ तृट्परीतः परिश्रांतो बीभत्सुर्य मुनामगात्॥१६॥ तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ॥ कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरंतीं चारुदर्शनाम्॥१७॥

॥१२॥एक समय महाबलवान् शत्रुओंका मारनेवाला अर्जुन कपिध्वजावाले रथमें चढ़कर, गांडीव धनुष और बाणोंसे भरा तरकसले, कवच पहर बहुत सर्प और मृगवाले बड़े वनमें श्रीकृष्णचन्दके संग शिकार खेलनेको गया॥१३॥१४॥ और उस वन में पहुँचकर व्याघ्र, सूकर, भैंसा, रुरु अर्थात् हरिण, शरभ, रोझ, गैंड़ा मृग और खरहा, इनको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे छेदन करने लगा॥१५॥ हे राजन्! पूर्णमासी पर्व जब आनकर प्राप्त हुये तब सेवकलोग पवित्र पशु राजा युधिष्ठिरके पास लाये और जब अर्जुनको प्यास लगी तो थका हुआ यमुनाजीपर आया॥१६॥ महारथी अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र यमुनाके निर्मल जलका आचमन कर और जल पीकर जब खड़े हुये, तब

इन्होंने एक सुन्दर कन्या बैठी देखी॥१७॥ सुंदर जंघा, श्रेष्ठ दाँत, मनोहर मुख, ऐसी प्रमदा कन्याके पास श्रीकृष्णका भेजा अर्जुन आनंकर पूॅछने लगा॥१८॥ कि, हे सुश्रोणि! तुम कौन हो? और किसकी पुत्री हो, कहाँसे आई हो, और तुम्हारे मनमें क्या करनेकी इच्छा है? सो सब वृत्तान्त कहो, मुझे निश्चय जान पड़ता है कि तुम्हारी पति करनेकी इच्छा है॥१९॥ इतना पूँछनेपर कलिन्दीने कहा कि, मैं सूर्यदेवकी पुत्री हॅू कालिन्दी मेरा नाम है और वरके देनेवाले विष्णुभगवान्को पति करने की इच्छासे तप कर रही हूँ॥२०॥ हे वीर! अत्यन्त स्वरूपवान्भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अतिरिक्त और किसीको मैं नहीं वरूगी, वह अनाथके आश्रय मुकुन्द भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न हों॥२१॥ में कालिन्दी नामसे विख्यात हूँ और

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्॥ पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम्॥१८॥ का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतोऽसि किं चिकीर्षसि॥ मन्ये त्वां पतिमिच्छंतीं सर्वं कथय शोमने॥१९॥ कालिंद्युवाच॥ अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती॥ विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता॥२०॥ नान्यं प्रतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्॥ तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः॥२१॥ कालिंदीति समाख्याता वसामि यमुनाजले॥ निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम्॥२२॥ तथाऽवदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्॥ रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्म राजमुपागमत्॥२३॥ यदैव कृष्णः संदिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम्॥ कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा॥२४॥ भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया॥ अग्नये खांडवं दातुमर्जुनस्यास सारथिः॥२५॥

मेरे पिता सूर्यदेवने यमुनाजलमें स्थान बना दिया है, इसलिये जबतक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन न होगा, तबलों यहाॅ वास करूंगी॥२२॥ यह सुन अर्जुन श्रीकृष्णचन्द्र के पास

+लिन्दीके सब वचन कहे, कालिन्दी मेरे लिये तप करती है, यह बात जान श्रीकृष्णचन्द्र कालिन्दीको रथमें बैठाय धर्मराज

क पास आये॥२३॥ उस समय पाण्डवोंकी आज्ञासे श्रीकृष्णचन्द्रने देवताओंके कारीगरविश्वकर्मासे कहकर पाण्डवोंके

+ अद्भुत नगर बनवाये॥२४॥ पाण्डवोंका भला चाहनेके लिये इन्द्रप्रस्थमें वास करनेवाले

श्रीकृष्णभगवान् अग्निको खांडववन चरानेके लिये अर्जुनके सारथी हुए॥२५॥ हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! तब उस अग्निने प्रसन्न होकर अर्जुनको धनुष, श्वेत घोड़े, तीरोंसे भरा तरकस और जो अस्त्रवालोंसे भी न कटे, ऐसा एक कवच दिया॥२६॥ और वहाँ इन्होंने अग्निसे मयनाम दैत्यको बचाया, इसलिये उसने प्रसन्न होकर पाण्डवोंको एक सभा दी, जिस सभामें जलमें थल और स्थलमें जल इस प्रकार देखकर दुर्योधनकी दृष्टिमें भ्रम हुआ॥२७॥ राजा युधिष्ठिरसे आज्ञा पाय और सुहृदोंमें बड़ाई पाय श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकी यादवोंको संग लेकर फिर द्वारका

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयाञ्श्वेतान्रथं नृप॥ अर्जुनायाक्षयौ तृणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः॥२६॥ मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्॥ यस्मिन्दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशि भ्रमः॥२७॥ स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमोदितः॥ आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः॥२८॥ अथोपयेमे कालिंदीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते॥ वितन्वन्प रमानंदं स्वानां परममंगलम्॥२९॥ विंदानुविंदावावंत्यौ दुर्योधनवशानुगौ॥ स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम्॥३०॥ राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविंदां पितृष्वसुः॥ प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्राज्ञां प्रपश्यताम्॥॥३१॥ नग्नजिन्नाम कौसल्य आसीद्राजातिधार्मिकः॥ तस्य सत्याऽभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप॥३२॥

पुरीमें आये॥२८॥ इसके उपरान्त सुन्दर पवित्र ऋतु नक्षत्रमें कालिन्दीका पाणिग्रहण किया और फिर अनेक प्रकार से परमरूप श्रीकृष्णचन्द्र अपने यादवोंको सुख देनेलगे॥२९॥ उज्जैनपुरी के रहनेवाले राजा विन्द और अनुविन्दकी बहनने श्रीकृष्णचन्द्रको स्वयंवरमें वरनेकी इच्छा की परन्तु उन दोनों भाइयोंने मने किया, क्योंकि वह दुर्योधनके आधीन थे॥३०॥ हे राजन् वासुदेवकी बहन राजाधिदेवीकी पुत्री मित्रविन्दाको श्रीकृष्णचन्द्र सब राजाओंके देखते बलपूर्वक हरण करके लेगये *॥३१॥ हे राजा परीक्षित्! अयोध्या पुरीका पालन करनेवाला बडा धर्मात्मा

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** * शंका**— धर्मशास्त्रमें लिखा है कि फुककी लडकी बहिन होती है फिर श्रीकृष्णने फूफीकी लडकी के साथ विवाह क्यों किया?

** उत्तर**— पूर्व जन्ममें वसुदेवजी तप करते थे, तत्र वसुदेवजीकी जो दासी थी मो सव वसुदेवजीकी सेवामें लग रही थी जब भगवान्ने वसुदेवको वरदान दिया कि, तुम्हारे पुत्र होगा, तब लक्ष्मीजी भी वसुदेवजीने दासियोंको वरदान दिया कि, हे दीसियो! तुम्हारी सबकी हम बहुतसी कन्या होवेगी, इस प्रकार भगवान् और लक्ष्मीके वचनसे प्रथमकी जो, वासुदेवजीकी दासी थीं सो सब इस जन्ममें वमुदेवजीकी

राजा नग्नजित् नामसे विख्यात था, उस राजा के प्रकाशमान सत्या नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई कि, जिसका उपनाम नाग्नजिती भी प्रसिद्ध था॥३२॥ राजाने यह प्रतिज्ञा करी कि, जो वीरपुरुषकी गंध भी न सहसकें ऐसे दुष्ट, तीखे सींगोंवाले, अति दुर्धर्ष सात बैलोंको जीते वह मेरी पुत्रीसे विवाह करेगा, अनेक राजा मार खाकर फिर गये परन्तु कोई भी जीतनेको समर्थन हुआ॥३३॥ यहाँ यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सुना कि, जो बैलोंको जीते, उससे कन्या विवाह करे, यह बात सुनकर बड़ी भारी सेनाको संग लेकर अयोध्यापुरी में आये॥३४॥ हे नृपश्रेष्ठ! राजा नग्नजितने देखा कि, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र आये हैं, इसलिये अत्यन्त प्रसन्न हो उठकर “भले आये महाराज” इस प्रकार प्रशंसा करके सुन्दर

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्त गोवृषान्॥ तीक्ष्णशृंगान्सुदुर्धर्षान्वीरगंधासहान्खलान्॥३३॥ तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान्सात्त्वतां पतिः॥ जगाम कौसल्यपुरं सैन्येन महता वृतः॥३४॥ स कोसलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः॥ अर्हणेनापि गुरुणापूजयत्प्रतिनंदितः॥३५॥ वरं विलोक्याभिमतं समागतं नरेंद्रकन्या चकमे रमापतिम्॥ भूयादयं मे पतिराशिषोऽमलाः करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः॥३६॥ यत्पादपंकजरजः शिरसा बिभर्ति श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः॥ लीलातनूः स्वकृतसेतुपरीप्सयेशः काले दधत्स भगवान्मम केन तुष्येत्॥३७॥

आसन बिछाय चरण धोकर पूजाकी सामग्रियोंसे उनका पूजन करनेलगा॥३५॥ राजा नग्नजित्की कन्या लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचंद्रको आया हुआ देख और अपने योग्य वर जान, इनकी इच्छा करके कहनेलगी कि, जो मैंने श्रद्धासहित व्रत किये हैं, तो कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मेरे पति हों और मेरा मनोरथ सत्य हो॥३६॥ जिन भगवान्के चरणकमलकी रजको लक्ष्मी और कमलयोनि ब्रह्मा वा महादेव और लोकपाल संपूर्ण शिरपर धारण करते हैं और जो अपनी बॅधीहुई मर्यादा पालनेकी इच्छासे समयानुसार लीलापूर्वक नृसिंहादि अवतार धारण करते हैं, वह

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—बहिनें हुई, उन वसुदेवकी बहिनकी पुत्री लक्ष्मी हुई, अपने वचनके प्रमाणसे, लक्ष्मीरूप जो वसुदेवकी बहिनकी लडकी उनका भगवान् विना दूसरा पुरुष कैसे विवाह करेगा? इसलिये भगवान्ने जाना कि, हमारी बहिन है इनको हम विवाह लेवेंगे तो बडा पाप होगा ऐसा जानते थे तो मी विवाह किया।

भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न हों॥३७॥ इसके उपरान्त भलीभाँति विधिपूर्वक पूजा करके राजा नग्नजित् कहनेलगे कि, हे नारायण! हे जगत्पते! हे आनन्दसे पूर्ण! आपकी में तुच्छ क्या पूजा करूं?॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्

++सनपर विराजमान भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने मुसकातेहुए मेघके समान गंभीर वाणीसे राजा नग्नजित्के प्रति कहा॥३९॥ हे राजन् नग्नजित्! विद्वान पुरुष कहते हैं कि, मांगना अत्यन्त बुरा है, तोभी स्नेहके वश होकर मैं आपकी कन्या मागता हूं; कुछ मूल्यके देनेवाले हम नहीं है॥४०॥ राजा नग्नजितने कहा कि, हे नाथ! सब गुण जिनमें विद्यमान और लक्ष्मी सदा जिनके अंगमें वास करैं ऐसे सर्वगुणालंकृत तुमसे अधिक संसारमें कौन वर है, जिसको

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते॥ आत्मानंदेन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ तमाह भगवान्हृष्टः कृतासनपरिग्रहः॥ मेघगंभीरया वाचा सस्मितं कुरुनंदन॥३९॥ श्रीभगवानुवाच॥ नरेंद्र याञ्चा कवि भिर्विगर्हिता राजन्यबंधोर्निजधर्मवर्तिनः॥ तथापि याचे तव सौहृदेच्छया कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम्॥४०॥ राजोवाच॥ कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः॥ गुणैकधाम्नो यस्यांगे श्रीर्वसत्यनपायिनी॥४१॥ किं त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्त्वतर्षभ॥ पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया॥४२॥ सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरखग्रहाः॥ एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः॥४३॥ यदीमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनंदन॥ वरो भवानभिम दुहितुर्मे श्रियः पते॥४४॥ एवं समयमाकर्ण्य बद्धा परिकरं प्रभुः॥ आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान्॥४५॥

मैं अपनी कन्या दूंगा?॥४१॥ हे यादवोंमें श्रेष्ठ! पुरुषोंमें पराक्रमकी परीक्षा लेनेके कारण और कन्याके वरकी परीक्षाके लिये हमने प्रथम एक प्रतिज्ञा करी है॥४२॥ हे वीर कृष्ण! इन शिक्षा रहित और पकड़नेमें न आवैं, ऐसे बैलोंको जो जीतै, वह कन्याको वरै, यह बात सुन बहुतसे राजपुत्र यहाँ आये परन्तु इनसे अपना शरीर जर्जरितही कराकर चलेगये॥४३॥ हे यदुनन्दन! हे लक्ष्मीपति! जो तुम इन बैलोंको जीतलो, तो निश्चय मेरी कन्याका विवाह करो॥४४॥ सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार राजा नग्नजित्का वचन

सुनकर फेंट बाँध अपने सात रूप धारणकर लीलापूर्वकही बैलोंको पकडनेलगे॥४५॥ गर्व और शक्ति नाश करके उन बैलोंको शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र रस्सियोंसे बॉधकर, जैसे बालक काष्टके बैलको खैंचता है, ऐसेही खैंचने लगे॥४६॥ इसके उपरान्त अत्यन्त आश्चर्यमान राजा नग्नजित् प्रसन्न होकर श्रीकृष्णचन्द्रको अपनी कन्या देनेका उद्योग करनेलगा और सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने समान कन्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया॥४७॥ राजा नग्नजित्की रानी अपनी कन्याके प्रियपति श्रीकृष्णचन्द्रको वर पाकर परमआनन्दित हुई और बड़ा उत्सव हुआ॥४८॥ शंख, भेरी, नगारे बजने लगे, गीतोंका शब्द सुनाई दिया, ब्राह्मणोंने अनेक आशीर्वाद दिये और सुन्दर वस्त्र मालाओंसे

बद्धा तान्दामभिः शौरिर्हतदर्पान्हतौजसः॥ व्यकर्षल्लीलया बद्धान्बालो दारुमयान्यथा॥४६॥ ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः॥ तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान्विधिवत्सदृशीं प्रभुः॥४७॥ राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्॥ लेभिरे परमानदं जातश्च परमोत्सवः॥४८॥ शखभेर्यानकाः नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः॥ नरानार्यः प्रमुदिताः सुवाससस्रगलंकृताः॥४९॥ दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः॥ युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्री वसुवाससाम्॥५०॥ नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान्रथान्॥ रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान्॥॥५१॥ दंपती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ॥ स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोसलः॥५२॥ श्रुत्वैतद्रुरुधुर्भूपा नयंतं पथि कन्यकाम्॥ भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा॥५३ ॥

शोभायमान सब नर नारी प्रसन्न होगये॥४९॥ सामर्थ्यवान् राजा नग्नजित्ने यौतुकमें दशहजार गौवें दीं और धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे शोभायमान तीनहजार दासियें दीं॥५०॥ नौहजार हाथी और हाथियोंसे सौगुणे अर्थात् नौलाख रथ, रथोंसे सौगुणे अर्थात् नौकरोड घोड़े दिये और घोडोंसे सौगुण अर्थात् एक अर्ब मनुष्य दिये॥५१॥ स्नेहसे व्याप्त हृदय कौशलदेशका राजा नग्नजित् अपनी कन्या सहित श्रीकृष्णको रथमें बैठाल और बहुतसी सेना संग लेकर पहुँचाने चला॥५२॥ जिनका पुरुषार्थ प्रथम यादव और बैलोंसे भंग होगया

था वह राजा यह बात सुनकर न सहसके और कन्याको लेजातेहुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मार्गमें रोकलिया॥५३॥ श्रीकृष्णके प्यार करने वाले गांडीव धनुषधारी अर्जुनने बाण चलाकर समस्त राजाओंको क्षणभरमें सिंह जैसे वनके छोटे छोटे जीव व मृगोंको भगादेता है उसी प्रकार भगादिया॥५४॥ इसप्रकार यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दहेज लेकर द्वारकापुरीमें आय सत्यारानीसे रमण करनेलगे॥५५॥ वसुदेवकी बहन श्रुतिकीर्तिकी पुत्री केकयदेशोत्पन्न भद्राको संतर्दनादि भाइयोंके देनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने व्याहा॥५६॥ सुन्दर लक्षणवाली मद्रदेशके राजाकी कन्या लक्ष्मणाको गरुड जैसे अमृत लाते हैं, उसी प्रकार अकेले श्रीकृष्णचन्द्र हरकर ले आये॥५७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा

तानस्यतः शरव्रातान्बंधुप्रियकृदर्जुनः॥ गांडीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव॥५४॥ पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्यसत्यया॥ रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः॥५५॥ श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसुः॥ कैकेयीं भ्रातृ भिर्दत्तां कृष्णः संतर्दनादिभिः॥५६॥ सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्॥ स्वयंवरे जहारैकः ससुपर्णः सुधामि व॥५७॥ अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन्सहस्रशः॥ भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः॥५८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे अष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५८॥ राजोवाच॥ यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः स्त्रियः॥ निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ इंद्रेण हृत च्छत्रेण हृतकुण्डलबंधुना॥ हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्॥२॥

परीक्षित्! श्रीकृष्णकी भौमासुर के बन्दीखानेसे छुडाईहुई सुन्दर स्वरूपवान् हजारों स्त्री और भी थीं॥५८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामष्टमहिष्युद्वा हो नामाष्टपंचाशत्तमोऽध्यायः॥५८॥ दोहा—उनसठवें अध्यायमें, भौमासुरको मारा इन्द्र पराभव कर हरी, कन्या वरीं हजार॥१॥ राजा परीक्षित्ने कहा कि, हे व्यासपुत्र शुकदेवजी! श्रीकृष्णचन्द्रने जिस प्रकार भौमासुरको मारा और जैसे भौमासुरने

१ स्त्रियें रोकीं यह सम्पूर्ण कथा और शार्ङ्गधनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पराक्रम हमारे सन्मुख वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! जब देवराज इन्द्रने श्रीकृष्णचन्द्रसे आनकर कहा कि, हे भगवन्! मेरा छत्र अदितिके कुण्ड़ल भौमासुर हरकर

लेगया और अमराद्रि सुमेरुके मणिपर्वत स्थानमें उसने अपना अधिकार करलिया है और हमैं अत्यन्तही दुःखित कर दिया है, देवराजकी यह बात सुनकर॥२॥ श्रीकृष्णचन्द्र पक्षिराज गरुडपर सवार हो सत्यभामा रानीको संग ले प्राग्ज्योतिषनामक भौमासुरके नगरमें गये जहाँ पर्वत, शस्त्र, जल, अग्नि और पवन के किले थे, जिनमें कोई प्रवेश न करसके ऐसा भयानक गढ़ और मुरदैत्यकी हजारों दृढ़ फाँसियों करके चारों ओरसे व्याप्त था॥३॥ श्रीकृष्णचन्द्रने गदासे गिरिदुर्ग तोडा, शस्त्रदुर्ग बाणोंसे, चक्रसे अग्निदुर्ग तोडा, इसके उपरान्त जलदुर्ग और पवनदुर्गको तोड, इसीप्रकार मुरदैत्यकी फॉसियोंको काटडाला॥४॥ शंख बजनेके शब्दसे अनेक युद्धके यंत्र उलटे चलनेलगे और

सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ॥ गिरिदुर्गैश्शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम्॥ सुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत्र आवृतम्॥३॥ गदया निर्बिभेदाद्रीञ्शस्त्रदुर्गाणि सायकैः॥ चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना॥४॥ शंखनादेन यंत्राणि हृदयानि मनस्विनाम्॥ प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः॥५॥ पांचजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगांताशनिभीषणम्॥ मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पंचशिरा जलात्॥६॥ त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो युगांतसूर्यानलरोचिरुल्वणः॥ ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पंचभिर्मुखैरभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः॥७॥ आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते निरस्य वक्रै र्व्यनयत्स पंचभिः॥ स रोदसी सर्वदिशोंबरं महानापूरयन्नंडकटाहमावृणोत्॥८॥

शूरवीरोंके हृदय व मन थरथर कॉपनेलगे, तब गदाधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने बडी गदासे भौमासुरकी नगरीके कोटको तोडडाला॥५॥ प्रलयकालीन वज्रके शब्द के समान भयंकर शब्दवाले पांचजन्य शंखका शब्द सुनकर पाँच मुखवाला मुरदैत्य जो जलके भीतर सो रहा था, सो उठा॥६॥ अति खोटी दृष्टि प्रलयकालके सूर्य और अग्निके समान तेज, भयंकर रूपवाला मुरदैत्य त्रिशूल हाथमें ले पाॅचों मुख फाड़कर, मानों त्रिलोकीको निगल जायगा इस प्रकार दौड़ताहुआ भगवान् श्रीकृष्णचद्रके सन्मुख आया जैसे गरुड़ सर्पोंके सन्मुख जाता है॥७॥ और बडे जोर से त्रिशुलको फिराय गरुड़पर चला पाॅचों मुख फाडकर महाघोर शब्द किया, उस शब्दका नाद अंतरिक्ष, पृथ्वी, सम्पूर्ण दिशओंमें

फैलकर ब्रह्माण्डमें व्याप्त होगया॥८॥ उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने गरुडके ऊपर त्रिशूल आता देखकर अपने बाणोंसे तीन टुकड़े करदिये और मुर दैत्यके पाॅचों मुखोंमें पाँच बाण मारे, तब मुरदैत्य अत्यन्त क्रोधित होकर श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर गदा चलानेलगा॥९॥ तब भगवान्ने संग्राममें आतीहुई उस गदा के हजारों टुकडे करडाले, उस समय भुजाओंको उठाय दौडकर सन्मुख आये हुये मुरदैत्यका शिर श्रीकृष्णचन्द्रने लीलापूर्वक अपने चक्रसे काटलिया॥१०॥ जिस प्रकार इन्द्रके वज्रसे पर्वतका शिखर कटकर गिर पडता है, उसी प्रकार मस्तक कटनेपर प्राणमुक्त हो वह जलमें गिरगया, उसके जो अति बलवान सात पुत्र थे, वह पिता के दुःखसे अत्यन्त दुखी हो, महाक्रोधकर बदला लेनेके लिये आये॥११॥

तदा पतद्वै त्रिशिखं गरुत्मते हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा॥ मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत॥९॥ तामापतंतीं गदया गदां मृधे गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा॥ उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः शिरांसि चक्रेण जहार लीलया॥१०॥ व्यसुः पपातांभसि कृत्तशीर्षो निकृत्तशृंगोऽद्रिरिवेंद्रतेजसा॥ तस्यात्मजाः सप्त पितुर्व धातुराः प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः॥११॥ ताम्रोंतरिक्षः श्रवणो विभावसुर्वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः॥ पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे भौमप्रयुक्ता निरगन्धृतायुधाः॥१२॥ प्रायुंजतासाद्य शरानसीन्गदाः शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्वणाः॥ तच्छस्त्रकूटं भगवान्स्वमार्गणैरमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह॥१३॥ तान्पीठमुख्याननयद्यमालयं निकृत्तशीर्षोरुभुजांघ्रिवर्मणः॥ स्वानीकपानच्युतचक्रसायकैस्तथा निरस्तान्नरको धरासुतः॥१४॥

ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, पिभा^(४)वसु, वसु^(५), नभस्वा^(६)न् और सातवां अरु^(७)ण यह सब पीठनाम सेनापतिको आगे कर भौमासुरकी प्रेरणासे शस्त्र लेलेकर रणभूमिमें आये॥१२॥ अत्यन्त क्रोध करके भयानक मुरदैत्यके पुत्र आकर श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर बाण, तलवार, गदा, बर्छी, गुर्ज और त्रिशूल इत्यादि शस्त्र चलानेलगे, तब महापराक्रमी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने बाणोंसे उनके चलायेहुये शस्त्रोंको क्षणभरमें तिलके समान काटडाला॥१३॥ पीठ आदि मुरदैत्यके पुत्रोके शिर, ऊरू, भुजा, पाँव, कवच इत्यादि काट और उनको मारकर श्रीकृष्णचन्द्रने यमलोक भेज

दिया, तब पृथ्वीका पुत्र नरकासुर श्रीकृष्णचन्द्रके चक्र और बाणोंसे अपने सब सेनापतियोंका नाश देखकर॥१४॥ महाक्रोधित हो समुद्रसे प्रगटहुए मद झरते हाथियोंकी सेना लेकर बाहर निकला सूर्यके ऊपर जिसप्रकार बिजली सहित मेघ आता है, उसी प्रकार गरुड़के ऊपर सत्यभामा सहित श्रीकृष्णचन्द्रको विराजमान देख भौमासुर बरछी चलानेलगा और सम्पूर्ण योद्धा भी प्रहार करनेलगे॥१५॥ गदके बड़े भाई श्रीकृष्णचन्द्रने चित्र विचित्र पंखवाले बाणोंसे भौमासुरकी सेनाको काट फिर क्षणमात्रमें तीखे बाणोंसे भुजा, ऊरू, गर्दन और अंग काट हाथी घोड़ोंको मार छिन्न भिन्न कर दिया॥१६॥ हे कौरवोंके आनन्द देनेवाले परीक्षित्! जो जो शस्त्र योद्धाओंने चलाये, उन सबको भगवान् श्रीकृष्ण

निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदैर्गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमत्॥ दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं सूर्योपरिष्टात्सतडिद्धनं यथा॥ कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं योधाश्च सर्वे युगपत्स्म विव्यधुः॥१५॥ तद्भौमसैन्यं भगवान्गदाग्रजो विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः॥ निकृत्तबाहूरुशिरोंघ्रिविग्रहं चकार तर्ह्येव हताश्वकुंजरम्॥१६॥ यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह॥ हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णैः शरैरेकैकशस्त्रिभिः॥१७॥ उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान्॥ गरुत्मता हन्यमानास्तुंडपक्षनखैर्गजाः॥१८॥ पुरमेवाविशन्नार्त्ता नरको युध्ययुध्यत॥ दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकम्॥१९॥ तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः॥ नाकंपत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः॥२०॥

चन्द्रने तीक्ष्ण तीन तीन बाणोंसे एक एक टूककर काटडाला॥१७॥ श्रीकृष्णको अपने ऊपर चढायेहुये गरुड़जीने भी अपनी चोंच और पंखोंसे हाथियोंको मार मारकर व्याकुल कर दिया॥१८॥ और वह अत्यन्त पीड़ित होकर पुरमें प्रवेश करगये, तब नरकासुरने युद्ध करतेहुए गरुडसे पीडित अपनी सेनाको भागीहुई देखा॥१९॥ भौमासुरने महापैनी धारवाली गरुड़जीको बरछी मारी, जिससे वज्र रुकगया था, परन्तु जैसे मालाके प्रहारको हाथी कुछ नहीं गिनता, उसी प्रकार गरुड़जी उसके प्रहारसे कुछ भी व्यथित नहीं हुये॥२०॥

तब भौमासुरने अपना उद्यम वृथा देख श्रीकृष्णके मारनेको त्रिशूल हाथमें लिया, परन्तु हे परीक्षित्! उस शूलको छोडनेसे प्रथमहीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने चक्रसे हाथीपर बैठेहुये भौमासुरका शिर काट डाला॥२१॥ हे राजन्! जिस समय कुण्डलों सहित मनोहर किरीटसे शोभायमान भौमासुरका शिर कटकर पृथ्वीमें सुशोभित हुआ, उस समय दैत्योंने हाहाकार किया और ऋषि, देवता धन्य धन्य कहते भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर फूलोंकी वर्षाकर स्तुति करनेलगे॥२२॥ भौमासुरके मरने उपरान्त पृथ्वीने श्रीकृष्णचन्द्रके पास आकर तपायमान सुवर्णमें जडे रत्नोंसे प्रकाशमान कुण्डल वैजयन्ती माला और प्रचेताका छत्र तथा महामणिदिये॥२३॥ हे नृपोत्तम! उस समय पृथ्वी विश्वके ईश्वर देवताओंमें

शूलं भौमोऽच्युतं हेतुमाददे वितथोद्यमः॥ तद्विसर्गात्पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः॥ अपाहरद्गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना॥२१॥ सकुंडलं चारुकिरीटभूषणं बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत्॥ हाहेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा माल्यैर्मुकुंदं विकिरंत ईडिरे॥२२॥ ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुंडले प्रतप्तजांबूनदरत्नभास्वरे॥ सर्वे जयंत्या वनमाल याऽऽर्पयत्प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम्॥२३॥ अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम्॥ प्रांजलिः प्रणता राजन्भ क्तिप्रवणया धिया॥२४॥ भूमिरुवाच॥ नमस्ते देवदेवेश शंखचक्रगदाधर॥ भक्तच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्न मोऽस्तु ते॥२५॥ नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने॥ नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये॥२६॥ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे॥ पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः॥२७॥

श्रेष्ठ ब्रह्मादिकोंमें पूजित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख दोनों हाथ जोड नम्र हो, भक्ति और श्रद्धासहित स्तुति करनेलगी॥२४॥ पृथ्वीने पुत्रके लिये तपस्या की थी, तब देवताओंने प्रसन्न होकर पुत्र होनेका वर दिया उसी वरके प्रभाव से भौमासुर उत्पन्न हुआ, पृथ्वीने कहा कि, दे देव देव! हे शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी! हे परमात्मन! भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये साकार रूप धारण करनेवाले, आपको नमस्कार है॥२५॥ जिनकी नाभिमें कमल, कमलकी माला धारण करनेवाले कमलनेत्र और कमलके समान चरण रखनेवाले आपको नमस्कार है॥२६॥ भगवान् वासुदेव सम्पूर्ण

प्राणी जिनमें वास करैं, विष्णु अर्थात् सबके हृदयमें व्यापक, समस्त कार्योंके आदिकारण पूर्णज्ञानस्वरूप आपको नमस्कार है॥२७॥ आप जन्म रहित हो, इस विश्वके उत्पत्तिकर्त्ता हो, ब्रह्म हो, इसीलिये अजन्मा हो, अनन्तशक्ति हो, इसीसे विश्वके उत्पत्ति कर्त्ता हो, यदि कोई कहै कि, पित्रादि तो पुत्रादिकोंके उत्पत्तिकर्त्ता हैं और पित्रादिकोंके उत्पत्ति कर्त्ता उनके पूर्वपुरुष हैं और पूर्व पुरुषोंके उत्पत्तिकर्त्ता पंचभूतहैं और पंचभूतोंका अपने कर्मद्वारा जीव है, मैं क्या करूं इसके उत्तरमें पृथ्वी कहैहैं कि, हे कार्यकारणरूप! हे संपूर्ण प्राणियोंके आत्मा! हे परमात्मन्! तुम सर्वरूप हो, इसलिये तुम्हारे अर्थ नमस्कार है॥२८॥ यहाँ यह शंकाहै कि, तीन गुणोंसे इस विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करतेहैं और तीनों गुण मायाके अधीनहैं और मायाका क्षोभ करनेवाला पुरुष है काल निमित्त है और यह बात प्रसिद्ध है, फिर मैं क्या करताहूं इसके उत्तरमें पृथ्वी कहतीहै कि, तुम आवरण

अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणऽनतशक्तये॥ परावरात्मन्भूतात्मन्प्रमात्मन्नमोऽस्तु ते॥२८॥ त्वं वै सिसृक्षू रज उत्कटं प्रभो तमोनिरोधाय बिभर्ण्यसंवृतः॥ स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते कालः प्रधानं पुरुषो भगवान्परः॥२९॥ अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो मात्राणि देवा मन इंद्रियाणि॥ कर्ता महानित्यखिलं चराचरं त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः॥३०॥ तस्यात्मजोऽयं तव पादपंकजं भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः॥ तत्पालयैनं कुरु हस्तपंकजं शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम्॥३१॥

रहित हो, हे समर्थ! जिस समय आप विश्वके रचनेकी इच्छा करते हो, तब रजोगुणको धारण करते हो और हे जगत्पति! जगत्के पालन करनेको सत्तोगुण धारण करते हो तथा नाशकरनेके लिये तमोगुणको धारण करतेहो, कालरूपहो, पुरुषरूप और सबसे परे हो इसलिये सबके उत्पन्नकर्त्ता तुमही हो॥२९॥ हे ईश! मुझे (पृथ्वी) जल, ज्योति, पवन, आकाश, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, देवता, मन, इन्द्रियाॅ, अहंकार, तत्त्व और समस्त स्थावर जंगम आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमसे भासते हैं॥३०॥ हे शरणागतोंके दुःखहर्त्ता! यह भौमासुरका पुत्र भगदत्त भयभीतहोकर तुम्हारे चरणोंमें आनकर पड़ा है सो तुम इसका पालन करो और सब क्लेशोंका शमन करनेवाला अपना हस्तकमल इसके मस्तकपर रक्खो॥३१॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि भक्तिपूर्वक नम्र हो मधुरवाणीसे पृथ्वीने, जब इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे अभयदान दे, सर्व सम्पत्तियुक्त भौमासुरके स्थानपर गये॥३२॥ वहाँ जाकर श्रीकृष्णचन्द्रने सोलह हजार एकसौ कन्या भौमासुरके मंदिरमें देखीं, जिन्हें भौमासुर अपने पराक्रमसे बलत्कार हरलाया था*॥३३॥ इसके उपरान्त महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आया हुआ देख सम्पूर्ण स्त्रियें मोहित हो

शुक उवाच॥ इति भूम्याऽर्थितो वाग्भिर्भगवान्भक्तिनम्रया॥ दत्त्वाऽभयं भौमगृहं प्राविशत्सकलर्द्धिमत्॥॥३२॥ तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम्॥ भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः॥३३॥ तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवीरं विमोहिताः॥ मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं देवोपसादितम्॥३४॥ भूयात्पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम्॥ इति सर्वाः पृथक् कृष्ण भावेन हृदय दधुः॥३५॥ ताः प्राहिणोद्द्वारवतीं सुमृष्टविरजांबराः॥ नरयानैर्महाकोशान्रथाश्वान्द्रविणं महत्॥३६॥

कर दैवसे प्राप्त हुए मनोवांछित श्रीकृष्णचन्द्रको मनसे पति वरण करनेलगीं॥३४॥ हे विधाता! इन्हैं ऐसी अनुमति दो कि, यह हमारे पति हों इस प्रकार सबकन्याओंने भक्तिभावसहित अपना अपना मन श्रीकृष्णचन्द्रमें लगाया॥३५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हैं उज्ज्वल व

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** * शंका**— भौमासुर तो बडा बुद्धिमान् था, फिर कुमारी कन्याओंको क्यों हर हर इकट्ठा किया है? वह तो सब लडकियें थीं, उनका विवाह नहीं हुआ था, उनको राक्षसकर्म करनेके लिये, हरकर ले आया।

** उत्तर**—राजाओंका अभिमान भजन करनेके लिये सव राजाओं की कन्याओंको हरकर वह अपना विवाह करने के लिये लाया था और राजालोग उसका कुछ भी नहीं करसके, तब नारदमुनिने विचारा कि, यह सब कन्या तो भगवान्की स्त्री होंगी, ऐसा विचारके भौमासुरसे मने करदिया कि, हे भौमासुर विना हमारी आज्ञा लिये इन कन्याओंके सग अपना विवाह मत करना, ऐसे कहकर भौमासुरको विवाह करनेकी आज्ञा नहीं दी, इन लडकियोंके संग भौमासुर विवाह करताही करता श्रीकृष्णने उसको मारडाला, कन्याओंको अपने आप वर लिया, इसलिये भौमासुरने राजकन्याओंको हरण किया था॥

स्वच्छ वस्त्र पहराय पालकियोंमें बैठाय द्वारकापुरीको भेजदिया और साथही बड़े बड़े खजाने, रथ, घोडोंको भी भजे॥३६॥ इसके उपरान्त चार चार दॉतके श्वेतरंग, शीघ्रगामी, चौंसठ ऐरावतकुलके हाथी श्रीकृष्णचन्द्रने द्वारकापुरीमें भेजे॥३७॥ इसके पीछे जब भगवान् वासुदेवने इन्द्रलोकमें जाकर अदितिको कुण्डल दिये, तब इन्द्राणीसहित देवराज इन्द्रने सत्यभामा सहित श्रीकृष्णचन्द्रकी विधि पूर्वक पूजा करी॥३८॥ सत्यभामा के कहनेसे श्रीकृष्णचन्द्र कल्पवृक्षको उखाड़, गरुडके ऊपर रख और इन्द्रसहित समस्त देवताओंको जीत द्वारकापुरीमें लेआये॥३९॥ और सत्यभामाके बगीचेको शोभायमान करनेके लिये कल्पवृक्ष उसके बगीचेमें लगाया, उसकी सुगन्धके मदके लोभी भौंरे स्वर्गसे पीछे पीछे

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दंतांस्तरस्विनः॥ पांडुरांश्च चतुष्षष्टिं प्रेषयामास केशवः॥३७॥ गत्वा सुरेंद्रभवनं दत्त्वाऽदित्यै च कुंडले॥ पूजितस्त्रिदशेंद्रेण सर्हेद्राण्या च स प्रियः॥३८॥ चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारिजातं गरुत्मति॥ आरोप्य सेंद्रान्विबुधान्निर्जित्योपानयत्पुरम्॥३९॥ स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः॥ अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात्तद्गंधासवलंपटाः॥४०॥ यया च आनम्य किरीटकोटिभिः पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम्॥ सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महानहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम्॥४१॥ अथ मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु ताः स्त्रियः॥ यथोपयेमे भगवांस्तावद्रूपधरोऽव्ययः॥४२॥ गृहेषु तासामनपाय्यतर्क्यकृन्निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः॥ रेमे रमाभिर्निजका मसंप्लुतो यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन्॥४३॥

चलेआये॥४०॥ हे राजन्! प्रथम तो देवराज इन्द्रने कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने किरीटोंके अग्रभाग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें लगा नमस्कार करके उनकी प्रार्थना की और कार्य सिद्ध होनेपर भगवान्से विरोध किया, अहो! देवताओंको बड़ा क्रोध आता है, धनिकताकोहीधिक्कार है॥४१॥ इसके उपरान्त एक मुहूर्तमात्रमें सोलह हजार एक सौ आठ महलमें सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जितनी स्त्रियें थीं उनकेही स्वरूप धारण कर सबका यथायोग्य पाणिग्रहण किया॥४२॥ जिनके घरके समान और कोई घर नहीं है, इस प्रकार उन रानियोंके घरोंमें सदा पूर्ण आनन्द स्वरूप रहते भी औरोंके समान गृहस्थधर्म करते अचिन्त्य कार्य करते अविनाशी भगवान् लक्ष्मीका अंशरूप स्त्रियोंके

साथ विहार करते थे॥४३॥ हे परीक्षित्! ब्रह्मादिक देवता जिनको मार्गके नहीं जानते, उन लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाय वह स्त्रियें उनका निरंतर बढीहुई प्रीति और स्नेहभरे हास्यपूर्वक अवलोकन करती थीं और आनन्दपूर्वक नवीन^(२) संगम भाषण और लज्जाका सेवन करती थीं॥४४॥ यद्यपि एक एक रानीके पास सौ सौ दासी हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं, परन्तु तो भी सामने जाकर लिवालाना, आसनको बिछाना, सुन्दर पूजा करनी चरण धोना, बीरा लगाना, चरण दाबने, पंखा करना, अतर लगाना, फूल चढ़ाना, केशोंका सँभालना, शय्या बिछाना, स्नान कराना और भेंट देना यह सेवा भलीप्रकार आपही करती थीं॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनषष्टितमोध्यायः॥५९॥

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्॥ भेजुर्मुदाऽविरतमेधितयाऽनुरागहासाव लोकनवसंगमजल्पलज्जाः॥४४॥ प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौचतांबूलविश्रमणवीजनगंधमाल्यैः॥ केशप्रसारशयनस्न पनोपहार्यैर्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नरकवधपारिजातहरणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः॥५९॥ श्रीशुक उवाच॥ कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्॥ पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः॥१॥ यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः॥ स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः॥२॥ तस्मिन्नंतर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलंबिना॥ विराजिते वितानेन दीपैर्मणिभयैरपि॥३॥ मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते॥ जालरंध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चद्रमसोऽमलैः॥४॥

दोहा—साठ हॅसीसे कुछ कही, हरि रुक्मिणिसों बात। रूठ गई तब रुक्मिणी, कृष्णमनावत जात॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित! किसी समय सुखपूर्वक एक शय्यापर बैठे हुए जगत्गुरु अपने पति श्रीकृष्णचंद्रकी रुक्मिणीसखियों सहित चमर करके सेवा करनेलगीं॥१॥ जो जन्म रहित भगवान् लीला पूर्वक इस विश्वको उत्पन्न, पालन और संहार करतेहैं, वही भगवान् अपनी मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें आनकर प्रगट हुए॥२॥ वहाॅ गहोंके भीतर अत्यन्त देदीप्यमान मालायें लटक रही थीं, अत्यन्त शोभायमान छत बॅधी थीं, और मणिमय दीपक जगमगा रहे थे॥३॥ मधुमल्लिकाके पुष्पोंकी मालाओंपर भौरोंके झुण्डके झुण्ड गूजरहे थे और झरोखोंकी जालियोंमें होकर चंद्रमाकी निर्मल किरणैं

झिलमिला रही थीं॥४॥ कल्पवृक्षके वनकी सुगंधिलिये उद्यानसे सुगंधसनी वायु चली आती थी, हे महाराज! झरोंखे जालियोंमें अगर तगरके धूपका धुआँ निकल रहा था॥५॥ उस मंदिरके भीतर शय्या बिछी थी उसपर दूधके फेनके समान कोमल श्वेत बिछौना बिछ रहा था, उसके ऊपर सुखपूर्वक बैठेहुये जगत्के ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी रुक्मिणी सेवा करती थी॥६॥ हीरेकी दंडीवाला चमर सखीके हाथमेंसे लेकर उससे पवन करती रुक्मिणी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंकी ओरको देख रही थी॥७॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके निकट मणियोंके जड़ाऊ नूपुरोंका शब्द करती अत्यन्त शोभायमान लगतीथीं, कैसी रुक्मिणी हैं, उॅगलियोंमें मुॅदरी पहरे, कलाइयोंमें चूड़ी व कंकण पहरे और हाथोंमें बीजना ले रही हैं

पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना॥ धूपैरगुरुजै राजञ्जालरंध्रविनिर्गतैः॥५॥ पयःफेननिभे शुभ्रपर्यंके कशिपूत्तमे॥ उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम्॥६॥ वालव्यजनमादाय रत्नदंडं सखीकरात॥ तेन वीजयती देवी उपासांचक ईश्वरम्॥७॥ सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां रेजेंगुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता॥ वस्त्रांतगूढकुचकुंकुमशोणहारभासा नितंबधृतया च परार्ध्यकांच्या॥८॥ तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य या लीलया धृततनो रनुरूपरूपा॥ प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककंठवत्क्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे॥९॥ श्रीभगवानुवाच॥ राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः॥ महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोजितैः॥१०॥तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्॥ दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान्॥११॥

सारीके छोरसे ढके जो स्तन तिनकी केशरसे रँगाहुआ अरुण जो मोतियोंका हार और कटिमें पहरे हुये जो अमूल्य मेखला उससे शोभायमान रहती थीं॥८॥ लीलापूर्वक देह धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रकेही योग्य जिसका रूप है और श्रीकृष्णके विना जिसका कोई आश्रय नहीं है, ऐसी रूपवती साक्षात् लक्ष्मीके समान रुक्मिणीजी को देखकर कि, जिसकी अलकै कुण्डल धुकधुकी युक्त कंठसे शोभायमान मुखारविन्दमें मंद मुसका

श्री अमृत झलक रहाथा, उसे देख प्रसन्न हो हँसकर श्रीकृष्णचन्द्र बोले॥९॥ कि, हे राजपुत्री! लोकपालोके समान ऐश्वर्याबाले महानुभाव

बातपर रुविभः रूप, उदारता और बलसे बढे हुए राजा तुम्हारी चाहना करते थे॥१०॥ और कामदेवके मदसे व्याकुल शिशुपालादि++जा तुम्हारे

लेनेकेलिये आये, जिन्हैं तुम्हारे पिता दे भी चुके थे फिर तुमने किस कारण उन्हैं छोड़कर हमैं जो तुम्हारी बराबरके भी नहीं हैं, वग्ण किया?॥११॥ हे सुन्दरभ्रुकुटियोवाली! बहुधा गजाओंसे डरकर तो हमने समुद्रकी शरण लीहै और बलवानोंके साथ विरोध होनेसेही हमने राजगद्दी त्यागन कररक्खीहै॥१२॥ हे सुभ्रु! जिनके आचरणकी खबर नहीं, और जो स्त्रियोंके कहेमें न चलैं, जिनका मार्ग जगत्से निरालाहै ऐसे पुरुषोंका जो स्त्रियें अनुसरण करती हैं, वह बहुधा क्लेश और कष्ट पाती हैं॥१३॥ और हम निष्किंचन हैं, जो निष्किंचन है वह जन हमैं अत्यन्त प्रिय हैं, इसलिये हे सुमध्यमे! धनवान् पुरुष कहते हैं कि, हम दरिद्री हो जांयगे, इस भयसे बहुधा मेरा भजन नहीं करते॥१४॥ जिनके

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रूः समुद्रं शरणं गतान्॥ बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान्॥१२॥ अस्पष्टवर्त्मनां पुंमामलोकपथमीयुषाम्॥ आस्थिताः पदवीं सुभ्रूः प्रायः सीदंति योषितः॥१३॥ निष्किंचना वयं शश्वन्निष्किंचनजन प्रियाः॥ तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजंति सुमध्यमे॥१४॥ ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः॥ तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित्॥१५॥ वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयाऽदीर्घसमीक्षया॥ वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा॥१६॥ अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्त्रियर्षभम्॥ येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे॥१७॥

बराबर धन, बराबर जन्म, बराबर ऐश्वर्य, और बराबरकी रूप जाति हैं और सदा जिनका एकसा निर्वाह होताहै, उन्हीका विवाह और मित्रता होतीहै, छोटे बड़ोंकी कदापि नहीं हो सकती॥१५॥ हे राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी! तुमने कुछ विचार न किया और बराबरका संबंध होता है, यह बात जानेविना गुणहीन हमको भिक्षुकके सराहनेसे भूलकर वर लिया॥१६॥ हे सुन्दरी! अब भी तुम अपनी बराबरीका क्षत्रिय देखकर उसका हाथ पकड़लो, उस क्षत्रियसे इस लोक और परलोकके मनोरथोंको प्राप्त होगी *॥१७॥

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** * शंका**— श्रीकृष्णचन्द्रने रुक्मिणीसे कहा कि, तुम हमको छोडकर और कोई दूसरा पति करलो ऐसा मूर्खो और अज्ञानियोंकी नाई कुवांच्य भगवान् तो अपने मुखसे लक्ष्मीको कभी नहीं कह सक्ते, न कभी कहा, फिर इस अवतारमें क्यों कहा? जो कोई कहै कि, रुक्मिणीका मानभंग करनेके लिये यह वचन श्रीकृष्णने कहा तो भी कृष्णके सामने तो रुक्मिणीने कभी मान भी नहीं किया, फिर ऐसा खोटा वाक्य भगवान्ने रुक्मिणीते क्यों कहा।

तब रुक्मिणीने कहा कि, आप मुझे क्यों ले आये? श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, हे वामोरु! शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दंतवक्रादि समस्त राजा हमसे शत्रुता रखतेहैं और तेरा भाई रुक्मीभी वैर करताहै॥१८॥ हे मंगलरूपिणी! पराक्रमके मदसे अंधे गर्ववन्त राजाओंका गर्व दूर करनेके लिये और दुष्टोंका तेज हरण करनेके लिये मैं तुम्हें हरलाया था॥१९॥ हम घर और देहमें उदासीन हैं, हमको स्त्री पुत्रोंकी चाहना नहीं है, क्योंकि आत्माके आनन्दसे सदा परिपूर्ण हैं और ज्योतिके समान साक्षीमात्र क्रियारहित वर्ततेहैं॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!

चैद्यशाल्वजरासंधदंतवक्रादयो नृपाः॥ मम द्विषंति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः॥१८॥तेषां वीर्यमदांधानां दृप्तानां स्मयनुत्तये॥ आनीतासि मया भद्रे तेजोऽपहरताऽसताम्॥१९॥ उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः॥ आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव॥ मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत्॥२१॥ इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्॥ आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथुश्चिंतां दुरन्तां रुदती जगाम ह॥२२॥

रुक्मिणीका मन हरनेवाले और जो आपसे कभी अलग न होय, इसलिये आपको अपना प्राणवल्लभ जाननेवाली रुक्मिणीका गर्व दूर करनेके लिये इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चुप होगये॥२१॥ इसप्रकार त्रिलोकीके ईश्वरोंका पालन करनेवाले अपने प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रका जो पहले कभी न सुना था, ऐसा कटुवाक्य सुनकर हृदयमें रुक्मिणीजी कांपने लगीं और भयभीत हो रुदन करके बड़ी चिन्ता करने लगीं॥२२॥

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** उत्तर**— श्रीकृष्णने समझा कि, कलियुगका राज्य थोडेही दिनोंमें आनेवाला है, यह जानकर संसारके कत्याणार्थ और कलियुगकी स्त्रियोंके मानभंग करनेके लिये रुक्मिणीसे ऐसा अनुचित वाक्य श्रीकृष्णने कहा कि, स्त्रीका अभिमान भजन करनेवाले मेरे इस वचनको कलियुगमें जो कोई स्त्री पुरुष सुनेंगे वह स्त्रीभी डरेंगी और वह पुरुष भी डरेगा और कहेंगे स्त्री पुरुषका प्रेम सबसे बडा है देखो तुच्छ बातपर रुक्मिणीको भगवान्ने त्यागनेके लिये हँसी की थी, तो भी रुक्मिणी प्राण त्यागने के लिये उपस्थित दुई, ऐसा विचार करके स्त्री तो अपने पतिसे प्रेम करैं और पुरुष स्त्रीसे प्रेम करैं, इस धर्मसे दूसरा कोई भी बढा धर्म नहींहै कलियुगके जीव ऐसा मानलेंगे, इसलिये कृष्णावतारमें लक्ष्मीको कुवाक्य श्रीकृष्णने कहा कुछ छलसे नहीं कहा॥

नखकी अरुण कांतिवाले सुकुमार चरणोंसे पृथ्वी लिखनेलगीं, आखोंमें अंजन लगनेके कारण श्याम आँसू बहने लगे, उनसे केशरयुक्त स्तनोंको भिजाती, नीचेको मुख किये अत्यन्त दुःखित हो वाणी रुकनेसे रुक्मिणी व्याकुल होकर चुप होगईं॥२३॥ अप्रियवचन सुननेके कारण अत्यन्त दुःख और त्याग करनेकी आशंकाके शोकसे बुद्धिरहित होकर रुक्मिणी व्याकुल होगईं, तब उनके हाथसे पंखा गिरगया, कंकण शिथिल हो गिरने लगे और महाव्याकुलतासे मोहित हो पवनसे गिराईहुई कदलीके समान रुक्मिणी मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिरपड़ीं और उससमय उनके केश भी खुलगये॥२४॥ हास्यकी गंभीरता न जाननेवाली अपनी प्यारी रुक्मिणीका प्रेमबंधन देख करुणाकर श्रीकृष्णचन्द्र द्रवीभूत होगये॥२५॥

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया भुवं लिखत्यश्रुभिरंजनासितैः॥ आसिंचती कुंकुमरूषितौ स्तनौ तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक्॥२३॥ तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात॥ देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्रंभेव वायुविहता प्रविकीर्य केशान्॥२४॥ तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबंधनम्॥ हास्यप्रौढि मजानंत्याः करुणः सोन्वकंपत॥२५॥ पर्यंकादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः॥ केशान्समुह्य तद्वत्क्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना॥२६॥ प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा॥ अश्लिषद्बाहुना राजन्ननन्यविषयां सतीम्॥२७॥ सांत्वयामास सांत्वज्ञः कृपयाऽकृपणां प्रभुः॥ हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हाीसतां गतिः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ मा मां वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्॥ त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमंगने॥२९॥

और चार भुजा धारणकर शीघ्र पलॅगसे नीचे उतर दो हाथोंसे रुक्मिणीको उठाय एक हाथसे उसके केशोंको सॅभालकर, कमलके समान मुखको कोमल कमलसी भुजासे पोछने लगे॥२६॥ हे परीक्षित्! आँसू भरे नेत्र और शोकसे ताडित स्तनोंको पोंछ अनन्य आश्रय पतिव्रता रुक्मिणीको भुजाओंसे आलिंगन कर॥२७॥ हंसीसे चलायमान चित्त और कठोर हॅसीके अयोग्य दीन रुक्मिणीको साधु पुरुषोंकी गति सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र समझाने लगे॥२८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे रुक्मिणी! तुम मुझसे ईर्षा मत करो और यह बात मैं निश्चय जानताहूं कि, मेरे अतिरिक्त तुम और किसीको नहीं जानती हो, हे सुन्दरी! तुम क्या कहोगी, यह जाननेके लिये मैंने हॅसी करी थी॥२९॥

स्नेहके कोपसे फडके हैं अधर जिसमें और चलायमान अरुण कटाक्षसे टेढ़ी भ्रुकुटिवाले मुखकी शोभा देखनेके लिये हँसी करीथी॥३०॥ हे भीरु प्रिये! अपनी प्राणप्यारीके संग हॅसी करके समय व्यतीत करना गृहस्थियोंको घरमें यही लाभ है॥३१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब शांत करी, तब रुक्मिणीने “प्यारेने मुझसे हँसी करी हैं” यह बात जानकर त्यागनेके भयको छोडदिया॥३२॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्! लाजभरी मधुर मुसकान और शोभायमान स्निग्ध, कटाक्षोंसे सुन्दर मुख देखतीहुई रुक्मिणी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगी॥३३॥ प्रथम श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था कि, तुम हमारे समान नहीं हो, फिर हमारा हाथ क्यों पकडा? इसके उत्तरमें रुक्मिणी

मुखं च प्रेमसंरंभस्फुरिताधरमीक्षितुम्॥ कटाक्षेपारुणापांग सुंदरभ्रुकुटीतटम्॥३०॥ अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्॥ यन्नर्मैर्नीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसांत्विता॥ ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ॥३२॥ बभाषे ऋषभं पुंसां वीक्षंती भगवन्मुखम्॥ सव्रीडहासरुचिरस्निग्धापांगेन भारत॥३३॥ रुक्मिण्युवाच॥ नन्वेवमेतदरविंदविलोचनाऽऽह यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः॥ क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा॥३४॥ सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमांतः शेते समुद्र उपलंभनमात्र आत्मा॥ नित्यं कदिंद्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोंधम्॥३५॥

बोली कि, हे कमलदललोचन! तुम्हारे समान मैं नहीं हूं, छःप्रकारके ऐश्वर्ययुक्त आपकी बात सत्य है अपनी महिमासे आप आवृत तीनों ब्रह्मादिकोंके ईश्वर, आप कहाँ? और सकाम पुरुषोंने जिसके चरण पकडे ऐसी सत्त्वगुणी तमोगुणी रूपवाली, मैं माया कहाॅ, मुझमें और आपमें बड़ा अन्तर है॥३४॥ और श्रीकृष्णचन्द्र ने यह जो कहा था कि, राजाओंके डरके मारे समुद्र में आनकर रहे हैं, उसके उत्तरमें रुक्मिणी कहती हैं कि, हे उरुक्रम! यह सत्य है, सत्, रज और तम यह तीन गुणही राजा हैं उनके भयसेही मानो सागरके समान अगाध विषयोंसे अक्षोभित हृदयमें चैतन्यघन तुम निश्चलतासे प्रकाश करतेहो, और बलवानोंसे हमने वैर किया है, यह बात जो आपने कही, सो भी सत्य है; क्योंकि विषयमें

जिनकी इन्द्रियें लगरही हैं ऐसे पुरुषोंने तुमसे विरोध किया है, सो उनमें तुम्हारी अप्रीति है और जो श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था कि, हमको राज्याधिकार नहीं है उसके उत्तरमें रुक्मिणी कहती हैं कि, महा अविवेकका स्थान राज्य है, इसलिये तुम्हारे सेवकलोग भी उसको छोड़ देते हैं, फिर आपने छोड़ दिया तो इसमें आश्चर्यही क्या है?॥३५॥ श्रीकृष्णचन्द्रने यह जो कहा था कि, हमारा मार्ग जाननेमें नहीं आता और मैं स्त्रीके वशमें नहीं हूॅ इसके उत्तरमें रुक्मिणीने यह कहा कि, तुम्हारे चरणारविन्दमकरन्दका सेवन करनेवाले मुनि लोगोंका आचरणभी पशुतुल्य मनुष्योंकी समझमें नहीं आता, यदि तुम्हारा मार्ग जाननेमें न आवै तो इसमें क्या आश्चर्य है? क्योंकि तुम्हारे अनुवर्ती भक्तोंकी और तुम्हारी चेष्टा अलग है फिर इसमें आश्चर्यही क्या है?॥३६॥ और निष्किंचन पुरुषोंके हम प्रिय हैं और धनवान् पुरुष यह समझकर हम दरिद्री होजायॅगे, इस डर के मारे

त्वत्पादपद्ममकरंदजुषां मुनीनां वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्॥ यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य भूमंस्त वेहितमथो अनु ये भवंतम्॥३६॥ निष्किंचनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किंचिद्यस्मै बलिं बलिभुजोपि हरंत्य जाद्याः॥ न त्वा विदंत्यसुतृपोन्तकमाढ्यतांधाः प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम्॥३७॥ त्वं वै समस्त पुरुषार्थमयः फलात्मा यद्वांछया सुमतयो विसृजंति कृत्स्नम्॥ तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्नः॥३८॥

हमारा भजन नहीं करते, यह वार्त्ता जो श्रीकृष्णचन्द्रने कही थी, उसके उत्तरमें रुक्मिणीने कहा कि, आपसे भिन्न कुछ नहीं, इस लिये तुम निष्किंचन हो, दरिद्रतारूपी निष्किंचनता तुमसे नहीं बनती है, प्रजा लोगोंसे भेंट लेनेवाले ब्रह्मादिक देवता आपको भेंट देते हैं और जो तुमने कहा कि, हम निष्किंचनोंके प्यारे हैं और वे मुझको प्रिय हैं, सो भी सत्य है क्योंकि जिनको किंचित् भी देहाभिमान नहीं है, ऐसे ब्रह्मवेत्ता और ब्रह्मादिकोंको आप प्यारे हैं, वे आपके प्रिय हैं और जो आपने कहा कि, धनवान् लोग हमारा भजन नहीं करते यह बात भी सत्यहै, क्योंकि धन पात्रताके अभिमानसे अंधे लोग कालस्वरूप आपको नहीं जानते, इसलिये वह इन्द्रियोंको तृप्त करतेहैं आपका भजन नहीं करते॥३७॥ जिनका बराबरका जन्म है, उनका विवाह और मित्रता होती है यह जो श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था, सो इसके उत्तर में रुक्मिणी कहने लगी कि, हे पूर्ण

स्वरूप! तुम सम्पूर्ण पुरुषार्थ और परमानन्दरूप हो सुन्दर बुद्धिवाले मनुष्य तुम्हारी प्राप्तिके लिये सब वस्तु त्याग देते हैं, प्रभो! उन पुरुषोंका और तुम्हारा सेव्यसेवकभाव है, सुख दुःखसे व्याकुल और परस्पर प्रीतिकी ग्रंथि बाँधेहुए पामर स्त्री पुरुषोंको योग्य नहीं॥३८॥ और भिक्षुकोंने झूठी बडाई करी है, यह जो श्रीकृष्णचन्द्रने कहा था, उसके उत्तरमें रुक्मिणीने कहा कि, सबको अभयदान देकर संन्यासी और मुनिजन आपकी सराहना करते हैं और यह जो आपने कहा कि, तुमने विनाजाने हमैं वरा, सो यह ऐसे नहीं है, क्योंकि आपको जिसके लिये सब वस्तु प्रिय लगती हैं, उस जगत्के आत्मारूप और अपना स्वरूप देनेवाले आप हो, इसलिये आपको वरा और भूलकर वरा, यह भी आपका कथन ठीक नहीं औरोकी तो बातही क्याहै? ब्रह्मा और इन्द्रादिक देवताओंको भी कि, जिनका आपकी भ्रुकुटिसे प्रेरित कालके वेगसे सुखका नाश होताहै, यह

त्वं न्यस्तदंडमुनिभिर्गदितानुभाव आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि॥ हित्वा भवदुद्भ्रुव उदीरितकाल वेगध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये॥३९॥ जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्॥ सिंहो यथा स्वबलिमीश पशुन्स्वभागं तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः॥४०॥ यद्वांछया नृपशिखामणयोंग वैन्यजायंतनाहुषगयादय ऐकपत्यम्॥ राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमंबुजाक्ष सीदंति तेऽनु पदवींत इहास्थिताः किम्॥४१॥

विचार उन्हैं छोड़ मैंने आपको वरण किया, इस कारण जो आपने मुझपर अविचारताका दोष लगाया, सो ठीक नहीं॥३९॥ हे राजा परीक्षित! अपने अज्ञानको दूर करके और पुरुषोंकी बड़ाईसे क्रोधित हो श्रीकृष्णचन्द्रसे रुक्मिणी कहनेलगी कि, हे गदाग्रज! तुमने शार्ङ्ग धनुषके शब्दसे जरासन्धादि राजाओंको भगाकर जिसप्रकार सिंह पशुओंको भगाकर अपना बलि लाते हैं, उसीप्रकार आप अपना भागरूप मुझे ले आये इसलिये तिन राजाओंसे डरकर हम समुद्रमें आनकर रहे हैं, यह भी आपका कहना नहीं बनता॥४०॥ आपने कहा कि, जो हमारे चरणोंमें पडतेहैं वह दुःख पातेहैं, सो भी नहीं बनता, हे कमलदललोचन! तुम्हारे भजनकी इच्छासे राजाओंके मुकुटमणि राजा अंग, पृथु, भरत, ययाति

और गय आदि चक्रवर्ती राजा राज्यको त्यागन कर वनको चलेगये, तुम्हारा भजन करनेवाले राजाओंको कहाँ दुःख हुआ है? किन्तु सुखही हुआ और वैकुण्ठ धामकी प्राप्ति हुई है॥४१॥ और श्रीकृष्णचन्द्रने यह जो कहा था कि, समान क्षत्रियका अब भी हाथ पकड़ लो, इसके उत्तर में रुक्मिणी कहती हैं कि, साधुओंसे वर्णित जनोंको मोक्षका देनेवाला और लक्ष्मी जिसका सेवन करै, ऐसे गुणोंकी खानि तुम्हारे चरणारविन्दको सुँघकर फिर त्यागसकै मरणधर्मिणी कौन विवेकिनी स्त्री है, जो सदा मृत्युसे डरनेवाले पुरुषकी सेवा करैगी? इसीलिये मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा है॥४२॥ हे जगदीश्वर! आत्मारूप भजन करनेवालोंको इस लोक और परलोकमें कामनाओंके पूर्ण करनेवाले अपने योग्य तुम्हाराही मैंने सेवन किया है, चाहे अनेक प्रकारकी योनियोमें मेरा जन्म होय परन्तु उन जन्मोंमें भी मिथ्या संसारके भयका नाश करनेवाले और भक्तोंको अप

काऽन्यं श्रयेत तव पादसरोजगंधमाघ्राय सन्मुखरितं जनताऽपवर्गम्॥ लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य मर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टिः॥४२॥ तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशमात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्॥ स्यान्मे तवांघ्रिररणं श्रुतिभिर्भ्रमंत्या यो वै भजंतमुपयात्यनृतापवर्गः॥४३॥ तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वबिडालभृत्याः॥ यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्युष्मत्कथा मृडविरिंचसभासु गीता॥४४॥ त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमंतर्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्॥ जीवच्छवं भजति कांतमतिर्विमूढा या ते पदाब्जमकरंदमजिघ्रती स्त्री॥४५॥

नानेवाले तुम्हारे चरणोंकी शरण मुझे प्राप्तहो, यही मेरी प्रार्थना है॥४३॥ हे शत्रुदमन! हे अखण्डरूप! आपने कहा कि, बड़े बड़े वैभववाले राजा आपकी इच्छा करतेथे सो उन्हैं किसलिये छोड़ दिया, यह आपका कहना असंगत है, क्योंकि आपने जो राजा बताये हैं वह कैसे हैं कि, जो स्त्रियोंके गृहोंमें गधेके समान केवल भार उठानेवाले, बैलके तुल्य सर्वदा क्लेश उठानेवाले, श्वानकी नाई अपमान पानेवाले, बिड़ालके समान कृपण और क्रूर और सेवककी भाँति पराधीन हैं, वह तो उस मंदभागिनी स्त्रीको पति मिलने चाहिये कि जिसके कानमें शंकर और ब्रह्माजीकी सभाओंमें गाईजाती आपकी कथा न आई हो, अर्थात् जिसने तुम्हारे गुण न सुने हो, वह तो कदाचित् भूल जाय, परन्तु मैंने तो प्रथमदी आपके गुणानुवाद सुन लियेथे॥४४॥ और जिस स्त्रीने तुम्हारे चरणारविंदकी सुगंधि नहीं

सूॅघी है वह स्त्री जीवितही मृतक पुरुषको पति मानकर भजै जो, कि, बाहर तो चर्म, रोम, नख और केश इनसे ढका है और भीतर मांस, हाड, रुधिर, कीडे, विष्ठा, कफ और वात पित्तसे भरा है उसे अपना पति मानकर कौन सेवन करैं?॥४५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, हम घर और देहमें उदासीन हैं, रुक्मिणीने कहा कि, हे कमलदललोचन! तुम अपने स्वरूपमें रमण करतेहो और मुझमें आसक्त नहीं है, दृष्टि जिनकी अर्थात् मेरी चाहना नहींहै, तौभी तुम्हारे चरणारविन्दोंमें मेरा स्नेह हो, तब श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, स्नेह होनेसे तुम्हैं क्या लाभ होगा? इसके उत्तरमें रुक्मिणीजीने कहा कि, तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अनुराग होनाही बडा लाभ है, और जिससमय इस विश्वको बढ़ानेके लिये गुणको ग्रहणकर मुझ मायाकी ओर देखोगे, वही बड़ा अनुग्रह है॥४६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो

अस्त्वबुंजाक्ष मम ते चरणानुराग आत्मन्रतस्य मयि चानतिरक्तदृष्टेः॥ यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो मामीक्षसे तदु ह नः परमाऽनुकंपा॥४६॥ नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन॥ अंवाया इव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित्॥४७॥ व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवंनवम्॥ बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः॥४८॥ श्रीभगवानुवाच॥ साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्रि प्रलंभिता॥ मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि॥४९

यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि॥ संति ह्येकांतभक्तायास्तव कल्याणि नित्यदा॥५०॥

बातैं कही, इन सबका यथायोग्य उत्तर देकर रुक्मिणी बोली कि, हे मधुसूदन! “आपने कहा कि, अपने समान क्षत्रियका अब भी हाथ पकड़लो” यह मैं झूठ नहीं मानती, जैसे काशीके राजाकी पुत्री अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका इन तीनों कन्याओंमेंसे अम्बा कन्याकी शाल्वराजासे जैसी प्रीति हुई, उसीप्रकार मेरी प्रीति आपमें हुई है॥४७॥ और हे अच्युत! विवाहिता व्यभिचारिणी स्त्रीके मन नवीन पुरुषोंमें जाते हैं, ऐसी बहुत कथा हैं, विवेकी पुरुष इस प्रकारकी खोटी स्त्रियोंको अपने घरमें नहीं रखते हैं, यदि रक्खैं भी तो इस लोक और परलोकसे भ्रष्ट होजायॅ॥४८॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे रुक्मिणी! तुम्हारी बात सुननेके लिये मैंने ऐसी ऐसी बातें कही थीं और मेरे वचनका जो जो उत्तर तुमने दिया सो सब सत्य है॥४९॥ हे भामिनी! हे मंगलरूपिणि! जिस जिस वस्तुकी तुम चाहना करती हो, सो सो मुझमें एकान्त भक्ति होनेसे तुमको प्राप्तही हैं हे

कल्याणी! मुक्तिपर्यन्त तुम्हारे सब मनोरथ प्राप्त होंगे॥५०॥ हे निष्कलंक रुक्मिणी! तुम्हारा पतिपर प्रेम और पतिव्रतापन हमने भलीप्रकार जानलिया, क्योंकि हमने यद्यपि वचन कहकर तुमको चलायमानभी किया, परन्तु तोभी तुम्हारी बुद्धि मुझसे चलायमान न हुई॥५१॥ विषयोंमें आत्मा और मन लगाये जो पुरुष तपस्या और ब्रह्मचर्य करके स्त्री पुरुष भोगार्थ सुखके लिये मेरा भजन करते हैं, वह मेरी मायासे मोहित होकर भूलरहे हैं॥५२॥ हे भामिनी! मोक्षसहित सम्पूर्ण सम्पत्तियोंका दाता मुझे पाकर भी जो विषयोंकी चाहना करतेहैं, और मेरी चाहना नहीं करते, वह पुरुष अभागी हैं, क्योंकि विषयोंका सुख तो कुत्ते और शुकरोंकी योनिमें भी मिलजाताहै, विषयोंमें मन रहनेसे नरक

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे॥ यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता॥५१॥ ये मां भजंति दांपत्ये तपसा व्रतचर्यया॥ कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया॥५२॥ मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसंपदं वांछंति ये संपद एव तत्पतिम्॥ ते मंदभाग्या निरयेऽपि ये नृणां मात्रात्मकत्वान्निरयः सुसंगमः॥५३॥ दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः॥ सुदुष्कराऽसौ सुतरां दुराशिषो ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः॥५४॥ नत्वा दृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले॥ प्राप्तान्नृपानविगणय्य रहोहरो मे प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य॥५५॥ भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्॥ दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते॥५६॥

होताहै॥५३॥ हे घरकी महारानी! संसारको छुडानेवाली चाहना रहित मनकी वृत्ति तैंने मुझमें लगाई, यह भली बात है, खोटे अभिप्राय और अपने प्राणोंका भरण पोषण कर औरको ठगनेवाली स्त्रीके मनकी वृत्ति मुझमें नहीं लगतीहै॥५४॥ हे प्राणेश्वरी! सोलह हजार एकसौ आठ महलोंमें तुम्हारे समान प्यार करनेवाली मैं और स्त्री नहीं देखता, क्योंकि विवाहके समय आयेहुये राजाओंको त्यागकर मेरी ओर देख पाती लिखकर मेरे पास ब्राह्मणको भेजा॥५५॥ युद्धमें तुम्हारे भाईको जीत उसका शिर मुॅडकर विरूप कर दिया था और अनिरुद्धके विवाहमें चौपड़ खेलते खेलते उसे मारडाला, यह भाईका दुःख हमारे त्यागनेके भयसे तुमने सहज कर लिया और मुझसे कुछ न कहा, ऐसी

तुम्हारी बातोंने हमको वशकर लिया है॥५६॥ हे प्राणवल्लभे! मेरे बुलानेके लिये सबसे छिपाकर दूतको मेरे पास भेजा और जब मुझे आनेमें विलम्ब हुआ तब इस विश्वको शून्य मानकर “और राजा मेरे योग्य नहीं हैं” यह निश्चय कर शरीर त्यागनेकी इच्छा करने लगी, यह बात तुम्हारे अतिरिक्त और किससे हो सक्तीहै, हम तुम्हारी क्या प्रशंसा करैं?॥५७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इस प्रकार जगत्के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मनुष्यलोककी लीलाका अनुकरण कर हास्यकी बातैं करके रुक्मिणी आदि रानियोंके साथ रमण करते थे॥५८॥ सामर्थ्यवान् सम्पूर्ण लोकोंके गुरु सबका दुःख हरनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र इसीप्रकार और रानियोंके महलोंमें भी रहकर

द्वतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमंत्रः प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्॥ मत्वा जिहास इदमंगमनन्ययोग्यं तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनंदयामः॥५७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं सौरतसंलापैर्भगवाञ्जगदीश्वरः॥ स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडंबयन्॥५८॥ तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव॥ आस्थितो गृहमेधीयान्धर्माँल्लोकगुरुर्हरिः॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥ श्रीशुक उवाच॥ एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान्दशदशाबलाः॥ अजीजनन्ननवमात्पितुः सर्वात्मसंपदा॥१॥ गृहा दनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्॥ प्रेष्ठं न्यमंसत स्वंस्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः॥२॥ चार्वब्जकोशवदनायतबा हुनेत्रसप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्यैः॥ संमोहिता भगवतो न मनो विजेतुं स्वैर्विभ्रमैः समशकन्वनिता विभूम्नः॥३॥

गृहस्थाश्रमकेसा धर्म सिखाते थे॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भाषाटीकायां रुक्मिणीसंवादोनाम षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥ दोहा—इकसठमें परिवार हरी, वरणौं सब सन्तान। विवाहमें अनिरुद्धके, दनो रुक्म बलवान्॥६१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी एकएक रानीने श्रीकृष्णचन्द्रकेही समान रूप, गुणवाले दश दश पुत्र उत्पन्न किये॥१॥ घरसे कहीं बाहर न जायँ अपने पास ही रहैं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर राजाओंकी पुत्री “श्रीकृष्ण आत्माराम हैं” इस बातको न जान अपना अपना प्यारा मानने लगीं॥२॥ व्यापक श्रीकृष्णचन्द्र भगवान्ने कमलकोशके समान सुकुमार मुख, बड़ी भुजा, बड़े

नेत्र और प्रेमसहित मन्द मुसकान, रसभरी चितवन, मनोहर वाणी इत्यादिकोंसे मोहित होकर जो स्त्री अपने अपने अनेक विलासोंसे पूर्णब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्रका मन मोहित करने को समर्थ नहीं हुई॥३॥ गूढ हास्ययुक्त कटाक्षसे जताये अभिप्रायसे मनके हरनेवाले भ्रुकुटीरूप मण्डलप्रेरित जो सुरत सम्बन्धी विचार उनमें प्रगल्भ जो मन्मथ (कामदेव) के बाण और दूसरे भी कामशास्त्रमें प्रसिद्ध जो उपाय, उनसे यह सोलह हजार एकसौ आठ स्त्रियें भी भगवान् वासुदेवका मन वश करनेको समर्थ न हुईं॥४॥ ब्रह्मादिक देवता भी जिनके मार्गको नहीं जानते, ऐसे लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको इसप्रकार पति पाकर यह स्त्रियें निरन्तर बडे आनन्दसे स्नेहभरी हँसनि, चितवन और हास्य चितवनपूर्वक नवीन संगम उन नवीन संगममें बोलना इत्यादि विलाससमूहों का सेवन करतीथीं॥५॥ यद्यपि एक एक रानीके सन्मुख सौ सौ दासी हाथ

स्मायावलोकल

वदर्शितभावहारिभ्रूमंडलप्रहितसौरतमंत्रशौंडैः॥ पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनंगवाणैर्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः॥४॥ इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्॥ भेजुर्मुदाऽविरतमेधि तयाऽनुरागहासावलोकनवसंगमलालसाद्यम्॥५॥ प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौचतांबूलविश्रमणवीजनगंधमाल्यैः॥ केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैर्दासीशता अपि विभोर्विदधुस्म दास्यम्॥६॥ तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः॥ अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्गृणामि ते॥७॥ चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्॥ सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः॥८॥ चारुचंद्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः॥ प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः॥९॥

जोड़े खड़ी रहती थीं, परन्तु तोभी सम्मुख जाकर लिवालाना, आसन बिछाना, पूजन करना, चरण धोना, बीरा लगाना, चरण दाबना, पंखा करना, अंतर लगाना, पुष्प चढ़ाना, केश सुधारना, शय्या बिछाना, स्नान कराना और भेंट देना इत्यादि यह श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवा आपही करती थीं॥६॥ हे राजन्! दश दश पुत्रोंवाली श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियें थीं, उनमें आठ पटरानी प्रथम वर्णन कर आये हैं उनके प्रद्युम्नादि पुत्रोंके नाम तुमसे वर्णन करता हूं॥७॥ यथा— प्रद्युम्न^(१), चारुदेष्ण^(२), सुदेष्ण^(३) बलवान् चा^(४)रुदेह, सुचारु^(५), चारुगु^(६)प्त, भद्व^(७)चारु॥८॥ चारु^(८)चन्द्र, विचारु^(९) और ^(१०)चारु, यह दश पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रके रुक्मिणीसे उत्पन्न हुए॥९॥

भानु^(१), सुभा^(२)नु, स्व^(३)र्भानु, प्रभानु^(४), भानु^(५)मान्, चन्द्र^(६)भानु, बृहद्भा^(७)नु, रतिभा^(८)नु॥१०॥ श्रीभा^(९)नु और प्रतिभानु^(१०), यह दश पुत्र सत्यभामाने उत्पन्न किये और सा^(१)म्ब, सुमित्र, पुरुजित् शत^(८)जित् सहस्र^(९)जित्॥११॥ विजय^(६), चित्रकेतु^(७),वसुमान्, द्रविड़ और क्र^(१०)तु, यह साम्बसे आदि लेकर श्रीकृष्णचन्द्रके समान गुणवाले दश पुत्र जाम्बवतीके उत्पन्न हुए॥१२॥ और वीर^(१), चन्द्र, अश्वसेन, चित्र, वेगवान^(५), वृष, आम^(७), शंकु^(८), शोभायमान वसु^(९) और कुंति यह दश नाग्नजितीके पुत्र उत्पन्न हुए॥१३॥ श्रुत, क^(२)वि, वृष, वीर^(८), सुबा^(५)हु, भद्र^(६), शा^(७)न्ति, द^(८)र्श, पूर्णमास और इन सबसे छोटा सोमक^(१०) यहदश पुत्र कालिन्दीके हुए॥१४॥ प्रघोष^(१), गात्रवा^(२)न्, सिंह^(३), बल, प्रब^(५)ल, ऊर्ध्व^(६)ग, महा^(७)शक्ति, सह, ओज और अपरा^(१०)जित इन दश पुत्रोंने

भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा॥ चंद्रभानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः॥१०॥ श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश॥ सांबः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित्॥११॥ विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविडः क्रतुः॥ जांबवत्याः सुता ह्येते सांबाद्याः पितृसंमताः॥१२॥ वीरश्चंद्रोऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान्वृषः॥ आमः शंकुर्वसुः श्रीमान्कुंतिर्नाग्निजितेः सुताः॥१३॥ श्रुतः कविवृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः॥ शांतिर्दर्शः पूर्णमासः कालिंद्याः सोमकोऽवरः॥१४॥ प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः॥ माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः॥१५॥ वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोन्नाद एव च॥ महाशः पावनो वह्निर्मित्रविदात्मजाः क्षुधिः॥१६॥ संग्रामजिद् बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित॥ जयः सुभद्रा भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः॥१७॥ दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः॥ प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः॥१८॥

लक्ष्मणासे जन्मग्रहण किया॥१५॥ वृक^(१), हर्ष, अनिल^(३), गृभ, वर्द्वन^(५), उन्नाद^(६), महाश, पवन^(८), व^(९)ह्नि और ^(१०)क्षुचि, यह दश पुत्र मित्रविन्दासे जन्मे॥॥१६॥ संग्राम^(१)जित, बृह^(२)त्सेन, शूर^(३), प्रहरण^(४), अरिजि^(५)त, जय^(६), सुभद्र^(७), वाम^(८), आयु^(९) और सत्यक^(१०) यह दश पुत्र भद्रा नाम रानीसे उत्पन्न हुए,॥१७॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्! यह भगवान् श्रीकृष्णचंद्रकी आठ रानियोंके पुत्रोंका वर्णन किया अब बलदेवजीकी रानी रेवतीके दीप्तिमान् ताम्रतप्तादि पुत्र उत्पन्न हुए भोजकटपुरवासी रुक्मकी पुत्री रुक्मवतीमें प्रद्युम्नजीसे महाबलवान् अनिरुद्धनाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥१८॥

हे परीक्षित! यह जो श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र और उनके पुत्र और नाती करोड़ों हुए और श्रीकृष्णचन्द्रसे उत्पन्नहुए पुत्रों की सोलह हजार माता हुई॥१९॥ राजा परीक्षित्ने कहा कि, हे भगवन्! रुक्मीने अपने वैरीके पुत्रको अपनी कन्या कैसे व्याही? वह तो युद्धमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे पराजित होकर उनके मारनेका उपाय देख रहा था, हे विद्वन्! इन दोनों शत्रुओंके बीचमें विवाहका सम्बन्ध कैसे हुआ? यह विस्तार सहित हमारे आगे वर्णन कीजिये॥२०॥ कदाचित् आप कहैं कि, हम इस बातको क्या जानें इसका उत्तर यह है कि, योगीश्वर तो भूत, भविष्य, वर्त्तमान, इंद्रियोंसे अगम्य दूर अथवा किसीके ओटमें हो उसे भी भलीप्रकार जानते हैं॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत

पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे॥ एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप॥ मातरः कृष्णजातानां सहस्त्राणि च षोडश॥१९॥ राजोवाच॥ कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादा्द्दुहितरं युधि॥ कृष्णेन परिभूतस्तं हंतुं रंध्रं प्रतीक्षते॥२०॥ एतदाख्याहि मे विद्वन्द्विषोर्वैवाहिकं मिथः॥ अनागतमतीतं च वर्तमानमतींद्रियम्॥ विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक् पश्यंति योगिनः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ वृतः स्वयंवरे साक्षादनंगोंगयुतस्तया॥ राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि॥२२॥ यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः॥व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम्॥२२॥रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मुसुतो बली॥ उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल॥२४॥ दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्यददाद्धरेः॥ रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया॥ जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबंधनः॥२५॥

परीक्षि! रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीने साक्षात् मूर्त्तिमान् कामदेवका अवतार प्रद्युम्नको स्वयंवरमें वरलिया, तो वह युद्धमें इकट्ठे हुए राजाओंको एकही रथमें जीत उसे हरण करके लेगये॥२२॥ यद्यपि रुक्मी श्रीकृष्णचन्द्रके तिरस्कारका वैर स्मरण रखता था परन्तु तो भी बहनको प्रसन्न करनेके लिये भानजेको अपनी कन्या दी॥२३॥ हे महाराज परीक्षित्! सुन्दरबुद्धि, विशालनेत्रवाली रुक्मिणीकी चारुमती पुत्रीका बलवान् कृतवर्माके पुत्रने पाणिग्रहण किया॥२४॥ यद्यपि रुक्मी वैर बांध रहा था परन्तु तोभी अपनी बहनको राजी करनेके लिये श्रीकृष्णके

नाती अपने दौहिते अनिरुद्धको अपनी पोती रोचना नामक कन्या दी, शत्रुके साथ सम्बन्ध करना अयोग्य है, इस बातको स्वयं रुक्मी जानता था परन्तु स्नेहके पाशसे बँधकर विवाह करदिया*॥२५॥ हे राजा परीक्षित्! उस अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें रुक्मिणी, श्रीकृष्ण, बलदेव और साम्ब प्रद्युम्नको आदि लेकर सब यादव भोजकटपुरको बरातमें गये॥२६॥ जब विवाह होचुका, तब कलिंगदेश के राजाको आदिले घमंडी राजा

तस्मिन्नभ्युदये राजन् रुक्मिणी रामकेशवौ॥ पुरं भोजकटं जग्मुः सांबप्रद्युम्नकादयः॥२६॥ तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिंगप्रमुखाः नृपाः॥ दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय॥२७॥ अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्॥ इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षै रुक्म्यदीव्यत॥२८॥ शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्॥ तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिंगः प्राहसद्बलम्॥ दंतान्संदर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः॥२९॥

रुक्मीसे कहनेलगे कि, हे रुक्मी! बलदेवजीको जुएमें जीतली॥२७॥ हे राजा रुक्मी! यह बलदेव पॉसेका खेल नहीं जानता, परन्तु इनको खेलनेका व्यसन बड़ा है, यह सुन्तेही रुक्मी बलदेवजीको बुलाय उनके संग जुआ खेलनेलगा॥२८॥ बलरामजीने वहॉ प्रथम सौ, फिर हजार, इसके पीछे दशहजार रुपयेका दाॅव लगाया, परन्तु वह दॉव रुक्मीही धाधलबाजी करके जीतगया उस समय कलिंगदेशका राजा दॉत दिखाकर

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** * शंका**— भागवतमें लिखा है कि, राजा रुक्मी जानता था कि, फूफीकी लडकीके साथ विवाह करनेका तथा मामाकी लडकीके साथ विवाह करनेका महादोप है, इस धर्मको विना जाने जो विवाह करेगा तो पाप होगा और जो जानबूझके करेगा तो उसको महापाप होगा, फिर जानबूझकर अपने पुत्रकी लडकीको अनिरुद्धके संग क्यों विवाहदी? क्योंकि वह कन्या अनिरुद्धके मामाकी थी और जो कोई कहे कि, रुक्मीने, श्रीकृष्णचन्द्रजीके स्नेह करके भी अधर्मरूप कन्यादान किया है तोभी यह बात ठीक है, परन्तु जिस स्नेहसे संसारमें निन्दा होय और मृत्यु होनेके पीछे प्राणीको रौरवनरकमें जानापडैं, ऐसे स्नेहकी मुनिलोग प्रशंसा नहीं करते॥

उत्तर— राजा रुक्मीने विचार किया कि, जो में अपने लडकेकी लडकीको श्रीकृष्ण के पोतेको विवाह दूगा तो श्रीकृष्ण मेरे ऊपर बहुत प्रसन्न होवेंगे, ऐसा विचारके अपने ऊपर श्रीकृष्णका स्नेह समझकर अधर्मरूप विवाह किया और लोककी निन्दा और नरककी त्रास दोनोंको त्यागकर अपनी पोतीका विवाह श्रीकृष्णके पोतेके संग करदिया, राजा रुक्मीने विचार किया कि, जो मेरे ऊपर कृष्ण प्रसन्नरहैंगे तब लोकमें मेरी निन्दा कौन कर सक्ता है? और नरकमें भी कृष्ण के सामने मुझे कौन ढाल सक्ता है। ऐसा विचारके रुक्मीने अधर्मरूप विवाह किया था॥

बलदेवजीकी बहुत हँसी करके कहने लगा कि, रे! जुँवाका खेल और पाशोंकी सार तुम गॅवार क्या जानोगे, क्योंकि, जुँवा खेलना और युद्ध करना तो राजाओं का काम है तुम गोपग्वाल तो गौवोंको पहचानते हो ऐसे सुन तब बलरामजी उस हँसीको सहन न करसके॥२९॥ इसके उपरान्त रुक्मीने एक लाख मोहरोंका दाव लगाया, उसे बलदेवजी जीते, परन्तु उस समय कपट करके “मैंने जीता” इस प्रकार रुक्मी कहने लगा॥३०॥ जिस प्रकार अमावस व पूर्णमासीको समुद्र क्षोभयुक्त होताहै, उसी प्रकार श्रीमान् बलदेवजी अत्यन्त क्रोधसे क्षुभित होगये और स्वभावही से जिनके अरुण नेत्र हैं ऐसे बलरामजीने अति क्रोधकर दश करोड़का दाँव लगादिया॥३१॥ और वास्तवमें बलदेवजी वह दाँव जीतगये तब फिर रुक्मीने कपट करके कहा कि मैं जीता हूं, इस विषयमें यह जो सभासद उपस्थित हैं, इनसे बूझलो

ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद् ग्लहं तत्राजयद्बलः॥ जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः॥३०॥ मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि॥ जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे॥३१॥ तं चापि जितवान्रामो धर्मेण च्छलमाश्रितः॥ रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति॥३२॥ तदाऽब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः॥ धर्मता वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा॥३३॥ तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः॥ संकर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः॥३४॥ नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः॥ अक्षैर्दीव्यंति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः॥३५॥ रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः॥ क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि॥३६॥ कलिंगराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे॥ दंतानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः॥३७॥

इस प्रकार बलदेवजी और रुक्मीका विवाद हो रहा था कि, इतनेहीमें आकाशवाणी हुई कि बलदेवजी जीते हैं और रुक्मीका वचन मिथ्या है॥३२॥३३॥ उस समय आकाशवाणीका निरादर करके दुष्ट राजाओंका सिखाया रुक्मी, महात्मा बलदेवजीकी हँसी करता कालसे प्रेरित होकर यह वचन कहनेलगा कि,॥३४॥ गौओंके चरानेवाले तुम पॉसे खेलना नहीं जानते, पॉसोंसे और बाणोंसे तो राजालोग खेलतेहैं, आपसरीखे पॉसे खेलना क्या जाने?॥३५॥ हे परीक्षित्! जब इस प्रकार रुक्मीने अनादर और राजाओने हँसी करी, तब महाबलवान् बलरामजीने अत्यन्त क्रोधित हो, परिघ उठाय मंगल सभामें रुक्मीका संहार किया और कहा॥३६॥ हे राजन्! जब बलरामजीने सब राजोंके देखते २

रुक्मीको मारडाला उस समय कालिंगदेशका राजा अत्यन्त भयभीत होकर भागा, तब झुझलाकर बलरामजीने उसे दशही पगपर पकड लिया और जौनसे दॉत फाडकर वह हँसा था, वह दाँत तोड़दिये॥३७॥ और राजा भी बलदेवजीके परिघसे पीड़ित हो, डरकर भागगये, जिनके हाथ, जंघा और शिर टूट गये थे और रुधिरसे उनका शरीर भीज रहा था॥३८॥ हे परीक्षित्! जब श्रीकृष्णका साला रुक्मी मारागया, उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने न तो अच्छा कहा, न बुरा कहा क्योंकि, जो अच्छा कहते, तो रुक्मिणी अप्रसन्न होती और बुरा कहते, तो बलदेवजी अत्यन्त बुरा मानते, इसलिये कुछ न कहा चुप चाप रहे॥३९॥ इसके उपरान्त दुलहिनके साथ अनिरुद्धजीको रथमें बिठाय बलरामादि सब यादव भग

अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिताः॥ राजानो दुद्रुवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः॥३८॥ निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा॥ रुक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभंगभयाद्धरिः॥३९॥ ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्॥ रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः॥४०॥ इति श्रीमद्भा० महापु० दशमस्कंधे उत्त० अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥ राजोवाच॥ बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तमः॥ तत्र युद्धमभूद्धोरं हरिशंकरयोर्महत्॥ एतत्सर्वं महायोगिन्समाख्यातुं त्वमर्हसि॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः॥ येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी॥२॥

वान् श्रीकृष्णचन्द्रका आश्रय पाय सब मनोरथ सिद्धकर भोजकटपुरसे चल द्वारकापुरीमें आये॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे भाषाटीकायामनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥ दोहा—बासठवें अध्यायमें, बाणासुर बलवान्। बाँधिलियो अनिरुद्धको, सो सब कहौ बखान॥६२॥ राजा परीक्षित पूॅछनेलगे कि, हे योगिन! बाणासुरकी पुत्री ऊषाने अनिरुद्ध के साथ विवाह किया, इसमें श्रीकृष्णका और महादेवजीका बडा युद्ध हुआ उस कथाको कहिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! भगवान् विष्णुने जब वाम

नरूप धारण करके राजा बलिसे पृथ्वी माँगी तब सब पृथ्वी जिनने दान करदी॥२॥ ऐसे महात्मा राजा बलिके सौ पुत्र उत्पन्न हुए उनमें ज्येष्ठ पुत्र भगवान् महादेवजीका अत्यन्त भक्त सबका मान्य, ज्ञानवान् बुद्धिवान्, सत्यसंकल्प, दृढव्रत, बाणासुर नामसे प्रसिद्ध था॥३॥ और शोणितनाम रमणीकपुरमें राज्य करता था उस बाणासुरके सन्मुख भगवान्, महादेवजीकी कृपासे संपूर्ण देवता सेवकोंकी भाँति खड़े रहते थे, एक समय तांड़व नृत्यमें हजार भुजाओंसे बाजे बजाय भोलानाथको बाणासुरने प्रसन्न किया, तब सब प्राणियोंके ईश्वर भक्तवत्सल भगवान् महादेवजी बाणासुर को वर देनेकी इच्छा करने लगे, त

ब शिवजीसे “मेरे पुरकी तुम रक्षा करो” यह बाणासुरने वर माँगा॥४॥५॥ पराक्रमके दुर्म

तस्यौरसः सृतो वाणः शिवभक्तिरतः सदा॥ मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसंधो दृढव्रतः॥३॥ शोणिताख्यपुरे रम्ये सराज्यमकरोत्पुरा॥ तस्य शंभोः प्रसादेन किंकरा इव तेऽमराः॥ सहस्रबाहुर्वाद्येन तांडवेऽतोषयन्मृडम्॥४॥ भगवान्सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः॥ वरेण छंदयामास स तं वव्रे पुराधिपम्॥५॥ स एकदाह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः॥ किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदांबुजम्॥६॥ नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम्॥ पुंसामपूर्ण कामानां कामपूरामरांघ्रिपम्॥७॥ दोस्सहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत्॥ त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृतेसमम्॥८॥ कंडूत्या निभृतैर्दोर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम्॥ आद्याऽयां चूर्णयन्नद्रीन्भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः॥९॥

दसे बाणासुर अपने पास रहनेवाले शिवजीके चरणारविन्दोंको सूर्यके तेज के समान किरीटसे स्पर्श करके एक समय कहने लगा॥६॥ कि, हे सब लोकोंके गुरु महादेव! जिनके मनोरथ पूर्ण नहीं हुए हैं, तुम उन पुरुषोके मनोरथ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्ष हो इसलिये आपको नमस्कार है॥७॥ और हे देव! आपने जो कृपाकरके हजार भुजा मुझे दीं, सो उनका अवतक केवल बोझही हुआ है, इसलिये त्रिलोकीमें तुम्हारे विना और कोई मुझे बराबरका युद्ध करनेवाला नहीं मिलता॥८॥ हे आदिपुरुष! जब मेरी भुजाओंमें बहुत खुजली उठी, तब मैं युद्ध करनेके लिये पर्वतोंको तोडता फोडता दिग्गजोंके पास गया, परन्तु वह भी मेरे भयसे भीत दो दिशाओंको छोड़कर भागगये, इस कारण कृपा करके आप

मुझसे युद्धकर मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये॥९॥ हे राजन्! इस प्रकार बाणासुरका वचन सुन भगवान् महादेवजी अत्यन्त क्रोधित होकर कहने लगे कि, मूढ! जिस समय मेरी दीहुई ध्वजा तेरे महलपरसे टूटकर गिरपडेगी, उस समय तेरी बराबरीके बलवान्से तेरा युद्ध होगा, और तेरा गर्व भी उसी समय चूर्ण होजायगा॥१०॥ हे परीक्षित्! जब भगवान् भूतनाथ महादेवजीने इस प्रकार कहा, तब कुबुद्धि बाणासुर शिरनवाय अपने घरको चलागया और अपने बल, बुद्धि पराक्रमके नाश करनेवाली महादेवजीकी आज्ञाका पैंडा देखने लगा॥११॥ हे राजन्! इस बाणासुरके एक ऊषानामक कन्या

थी उसका पहले कभी जिसको न देखा और न कभी सुना ऐसे सुन्दर अनिरुद्धके साथ स्वप्नमें

तच्छ्रुत्वा भगवान्क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा॥ त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते॥१०॥ इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप॥ प्रतीक्षन्गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः॥१९॥ तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम्॥ कन्याऽलभत कांतेन प्रागदृष्टश्रुतेन च॥१२॥ सा तत्र तमपश्यंती क्वासि कांतेति वादिनी॥ सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम्॥१३॥ बाणस्य मंत्री कुंभांडश्चित्रलेखा च तत्सुता॥ सख्यपृच्छत्सखीमूषां कौतूहलसमन्विता॥१४॥कं त्वं मृगयसे सुभ्रुः कीदृशस्ते मनोरथः॥ हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये॥१५॥ ऊषोवाच॥ दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः॥ पीतवासा बृहद्बाहुर्योषितां हृदयंगमः॥१६॥

समागम हुआ॥१२॥ इसके उपरान्त जागनेपर वहाँ अनिरुद्धको न देख अत्यन्त लज्जित हो, हे कंत! तुम कहाॅ गये? इसप्रकार पुकारती पुकारती विह्वल होकर सखियोंके बीच में गिरपड़ी॥१३॥ तब बाणासुरके मंत्री कुंभाण्डकी पुत्री चित्ररेखा आश्चर्य मानकर अपनी प्रिय सखी ऊषासे पूॅछनेलगी॥१४॥ कि, हे सुभ्र! हे प्यारी ऊषा! तू किसे ढूँढ़ती है और तेरा क्या मनोरथ है! हे राजकुमारि! अभी तो तेरा विवाद भी नहीं हुआ है, फिर किस प्रकार पति पुकारती फिरती है?॥१५॥ इस प्रकार चित्ररेखाका वचन सुनकर ऊषा बोली कि, श्याम

स्वरूप, कमलके समान नेत्र पीताम्बर धारण किये, बडी भुजा और स्त्रियोंके मनको मोहित करनेवाला ऐसा पुरुष मैंने स्वप्नमें देखाहै॥१६॥ मैं उसी प्रीतमको ढूँढ़ रही हूॅ, वह मुझे अधरामृत पिलाय मुझ अभिलाषिणीको दुःखके समुद्रमें पटककर कहीं चला गया॥१७॥ यह वचन सुनकर चित्ररेखा बोली कि, हे ऊषा! तेरा दुःख मैं दूर करूॅगी, जिस पुरुषने तेरा चित्त चुराया है, यदि वह त्रिलोकीमें कहीं होगा तो ढूॅढ़कर ले आऊॅगी, परन्तु उसे बता दे॥१८॥ इसके उपरान्त चित्ररेखा देवता, गंधर्व, सिद्ध, चारण और पन्नग इनके चित्र लिखकर फिर दैत्य, विद्याधर, यक्ष, मनुष्य इन सबके चित्र लिखनेलगी॥१९॥ मनुष्योंमें भी वृष्णि और वृष्णिमें भी शूरसेन, वसुदेव, राम, कृष्ण और

तमहं मृगये कांतं पाययित्वाऽधरं मधु॥ क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे॥१७॥ चित्रलेखोवाच॥ व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते॥ तमानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश॥१८॥ इत्युक्त्वा देवगंधर्व सिद्धचारणपन्नगान्॥ दैत्यविद्याधरान्यक्षान्मनुजांश्च यथाऽलिखत्॥१९॥ मनुजेषु च सा वृष्णीञ्शूरमानकदुंदुभिम्॥ व्यलिखद्रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता॥२०॥ अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषाऽवाङ्मुखी ह्रिया॥ सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते॥२१॥ चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी॥य यौ विहायसा राजन्द्वारकां कृष्णपालिताम्॥२२॥ तत्र सुप्तं सुपर्यंके प्राद्युम्निं योगमास्थिता॥ गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्॥२३॥

प्रद्युम्नका चित्र लिखा उसको देखतेही “यह श्वशुर है” ऐसा समझकर लज्जित होगई॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पृथ्वीपति! ऊषा अनिरुद्धका चित्र देखकर अत्यन्त लाजसे नीचेको मुख किये “मेरा चित्तचोर यही है” ऐसे मुसकराकर सखीसे कहने लगी॥२१॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! योगकी ज्ञाता चित्ररेखा उसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पौत्र जान आकाशमार्गसे, होकर कृष्णपालित द्वारकापुरीमें पहुँची॥२२॥ वहाँ उस समय अनिरुद्धकुमार पलॅगपर शयन कर रहेथे उन्हें योगके बलसे उठाय शोणितपुरमें लेआई और सखीने ऊषाको दर्शन

कराया *॥२३॥ अत्यन्त स्वरूपवान् सुन्दर वर अनिरुद्धजीको देख प्रसन्नमुख उषा, पुरुषोंके देखनेमैं न आवै इस प्रकर अपने घरमें अनिरुद्धके संग रमण करनेलगी॥२४॥ और बडे मोलके वस्त्र, माला, सुगंधी, धूप, दीप आसन इत्यादि और पीनेकी सामग्री तथा भोजन, भक्ष्य वचनोंसे उनकी पूजा करनेलगी॥२५॥ अत्यन्त बढ़ा है स्नेह जिसका ऐसी ऊपाने हरी हैं इंद्रियें जिनकी ऐसे अनिरुद्धजीको मोहित होकर

सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना॥ दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुंभी रेमे प्राद्युम्निना समम्॥२४॥ परार्ध्यवासस्त्रग्गं॥ धधूपदीपासनादिभिः॥ पानभोजनभक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषयार्चितः॥२५॥ गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रबृद्धस्नेहयातया॥ नाहर्गणान्स बुबुधे ऊषयाऽपहृतेंद्रियः॥२६॥ तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम्॥ हेतुभिर्लक्षयां चक्रुराप्रीतां दुरवच्छदैः॥२७॥

वास करते कितनेही दिन रात बीतगये, परन्तु उन्हैं कुछ सुधि न हुई॥२६॥ हे नृपोत्तम! यादवोंमें वीर अनिरुद्धजीके भोग करनेसे जिसका कन्यापनेका व्रत दूर होगया तब उस अत्यन्त प्रसन्नमन उषाको गुप्त न रहनेवाले लक्षणोंसे पहरेदारोंने पहिचानलिया और उसीसमय बाणासुरसे

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** * शंका**— श्रीकृष्णके तेजसे रचीहुई द्वारकापुरी, जिसके चारोंओर समुद्र, रात दिन सुदर्शनचक्र घूमता रहै, ऐसी अद्भुत द्वारकापुरीमें जो कोई पुरुष कपटवेप धारण करके उस पुरीमें जानेकी इच्छा करना चाहै तो कभी नहीं जासक्ता, जो ब्रह्मदेवके बनाये जीव हैं उनको तो सामर्थ्यही नहीं जो कपट करके द्वारकाके भीतर जासकैं, फिर क्या कारण जो चित्ररेखा रक्षा करनेवाले प्राणियोंकी आज्ञा नहीं ले बिना बूझे कपट करके द्वारकामें जाकर सोतेहुए अनिरुद्धकुमारको पलँगसहित उठाय बडे सुखसे लेकर चलीगई, कोई दूसरा यादव नहीं वह स्वयं श्रीकृष्णके पोतेहीको हरकर लेगई किसी और दूसरे यादवको लेजाती तो थोडी ही शंका होती कि, कोटके बाहर सोताहुआ रहगया होगा वह तो कोटके भीतर इक्कीस द्योढीवाले मदिरमेंसे अनिरुद्धको लेगई अर किसीको सुधि भी न हुई यह बडा अचमा है?

उत्तर— बाणासुरकी मृत्युका उपाय भगवान्ने विचारकर और उसकी कन्याके सग अपने पोतेका विवाह विचारकर, सुदर्शनचक्रको आज्ञा दी कि द्वारकापुरीको चित्ररेखा राक्षसी आयेगी, उसको तुम द्वारकाके भीतर जानेसे मत रोकना, एक बार द्वारकासे बाहरको जाय तो चली जाने देना और भीतरसे कोई वस्तु बाहरको लेजाय तो लेजाने देना बर्जना मत, ऐसी भगवान्की आज्ञाको मानकर सुदर्शनचक्रने चित्ररेखाको नहीं वर्जा, इसलिये चित्ररेखा अनिरुद्धको हरकर लेगई॥

आनकर कहा कि॥२७॥ हे राजन् जिस प्रकार कुलको कलंक लगै, ऐसी तुम्हारी कन्याकी कुचेष्टा हमको दीख पडती है॥२८॥ हे समर्थ! बाणासुर!! हम लोग तो घरका अखण्ड पहरा देते हैं और राजकुमारी ऊषाकी रक्षा करते हैं, इसे कोई मनुष्य देख भी नहीं मक्ता इतनेपर भी कन्याको यह दूषण कहाँसे लगगया? सो हम नहीं जानते॥२९॥ इस प्रकार कन्याका दोष सुन अत्यन्त दुःखी हो, बाणासुरने शीघ्रही कन्याके घरमें जाकर यादवोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धको देखा॥३०॥ हे परीक्षित्! कामदेवका पुत्र त्रिभुवनमें एक सुन्दर श्यामस्वरूप, पीताम्बर धारण किये, कमलके समान नेत्र, बड़ी भुजा कानोंमें दीप्तिमान् कुण्डल और केशोंकी कान्ति व मुसकानपूर्वक चितवनसे शोभायमान मुख॥३१॥ और सब

भटा आवेदयांचक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम्॥ विचेष्टितं लक्ष्यामः कन्यायाः कुलदूषणम्॥२८॥ अनपायिभिरस्माभिर्गुप्तायाश्च गृहे प्रभो॥ कन्याया दूषणं पुंभिर्दुष्प्रेक्षाया न विद्महे॥२९॥ ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः॥ त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद्यदूद्वहम्॥३०॥ कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं श्यामं पिशंगांबरमंबुजेक्षणम्॥ बृहद्भुजं कुंडलकुंतलत्विषा स्मितावलोकेन च मंडिताननम्॥३१॥ दीव्यंतमक्षैः प्रिययाऽभिनृम्णया तदंगसंगस्तन कुंकुमस्रजम्॥ बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः॥३२॥ स तं प्रविष्टं वृतमाततायि भिर्भटैरनेकैरवलोक्य माधवः॥ उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो यथांऽतको दडधरो जिघांसया॥३३॥ जिघृक्षयातान्परितः प्रसर्पतः शुनो यथा सूकरयूथपोऽहनत्॥ ते हन्यमाना भवनाद्विनिर्गता निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः॥३४॥

मंगलरूप प्यारीके साथ पाँसोंसे खेलता, उस प्यारीके अंगसंगसे जिसमें स्तनोंकी केशर लगगई थी, ऐसी मनोहर जो वसन्त ऋतुकी मालतीहै, उसके पुष्पोंकी माला कण्ठमें धारण किये कामदेवके पुत्र अनिरुद्धजीको ऊषाके निकट बैठा देखकर बाणासुर अत्यन्त आश्चर्य करनेलगा॥३२॥ शत्रुओंको संगलिये अनेक पैदलोंसहित बाणासुरको मन्दिरमें आता देखकर मधुवंशोत्पन्न अनिरुद्धजी लोहेका परिघ उठाय मारनेके लिये दंड धारण करके कालके समान खड़े होगये॥३३॥ पकड़नेके लिये चारोंओरसे चले आते, सूकरोंके यूथका पालन करनेवाले मुख्य सूकर जैसे

कुत्तोंको मारता है, उसी प्रकार मारनेलगे और मार पड़नेके कारण शिर, हाथ, पाँव टूटनेसे वह सिपाही घरमेंसे निकलकर भागगये॥३४॥ राजा बलिका पुत्र बली बाणासुरने क्रोध करके अपनी सेनाको मारतेहुए अनिरुद्धकुमारको नागफाँससे बॉधलिया, उस समय अनिरुद्धजीको बँधा देखकर अत्यन्त शोक और खेदसे व्याकुल हो नेत्रोंमें जल भरकर ऊषा रोनेलगी॥३५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामनिरुद्धबन्धनोनाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥ दोहा—तिरसठमें यादवन अरु, बाणासुरको युद्ध। सहसभुजातेहि काटि हरि, बरो बहुरि अनिरुद्ध॥६३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित्! अनिरुद्धजीको देखे विना बंधु बांधवोंको शोच करते वर्षाऋतु चार

तं नागपाशैर्बलिनंदनो बली घ्नंतं स्वसैन्यं कुपितो बबंध ह॥ ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत्॥३५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे अनिरुद्धबन्धो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥ श्रीशुक उवाच॥ अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बंधूनां च भारत॥ चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम्॥१॥ नारदा त्तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च॥ प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदेवताः॥२॥ प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः सांबोऽथ सारणः॥ नंदोपनंदभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः॥३॥ अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतोदिशम्॥ रुरुधुर्बाणनगरं समंतात्सात्वतर्षभाः॥४॥ भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम्॥ प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ॥५॥

महीने व्यतीत होगये॥१॥ हे राजन्! जिस समय सब यदुवंशी शोकसागरमें निमग्न पड़े थे, उसी समय देवर्षि नारदजीने आनकर अनिरुद्धके बॅधनेका सब समाचार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा, सुनतेही श्रीकृष्णचन्द्र बहुतसे यादवोको साथ ले बाणासुरके शोणित पुरको गये॥२॥ प्रद्युम्न, युयुधान, गद, साम्ब, सारण, नंद, उपनन्द और भद्रादि राम कृष्णके आज्ञाकारी मुख्य मुख्य यादवोको श्रीकृष्णचन्द्रने संगले बारह अक्षौहिणी सेनासे बाणासुरके नगरको चारो ओरसे घेरलिया॥३॥४॥ हे परीक्षित्! यादवोंसे अपने पुरके बाग, परकोटे, अटारी, द्वार आदि टूटे देख अत्यन्त क्रोधित हो, बारह अक्षौहिणी सेना लेकर बाणासुर पुरसे बाहर निकला॥५॥

इसके उपरान्त अपने भक्त बाणासुर पर विपत् पडी जान, अपने पुत्र स्कंद और बहुतसे भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी इत्यादि साथ ले नंदीश्वरपर चढ़कर कृष्ण बलदेवसे युद्ध करनेके लिये भगवान् महादेवजी रणभूमिमें आनकर सुशोभित हुये॥६॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! अब वहॉ परस्पर बडा अद्भुत व भयानक जिसको देखतेही रोमाञ्च खड़े होजायँ, इस प्रकार युद्ध होनेलगा, श्रीकृष्णचन्द्र महादेवजीके सम्मुख, प्रद्युम्न स्वामिकार्तिकजीके सम्मुख॥७॥ कुंभांड और कूपर्णका युद्ध बलदेवजीसे होनेलगा, साम्बका बाणासुरके पुत्रके संग और बाणासुरका युद्ध सात्यकीके साथ होनेलगा॥८॥ देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मादिक और मुनि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष यह सब विमानोंपर

बाणार्थे भगवान्रुद्रः ससुतैः प्रमथैर्वृतः॥ आरुह्य नंदिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः॥६॥ आसीत्सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ कृष्णशंकरयो राजन्प्रद्युम्नगुहयोरपि॥७॥ कुंभांडकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः॥ सांबस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः॥८॥ ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः॥ गंधर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टु मागमन्॥९॥ शंकरानुचराञ्शौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान्॥ डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान्सविनायकान्॥१०॥ प्रेतमा तृपिशाचांश्च कूष्मांडान्ब्रह्मराक्षसान्॥ द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः॥११॥ पृथग्विधानि प्रायुंक्त पिनाक्यस्त्राणि शार्ङ्गिणे॥ प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः॥१२॥ ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम्॥ आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च॥१३॥

चढ़कर युद्ध देखने की इच्छासे आये॥९॥ उस समय भगवान् भूतेश्वरके अनुचर भूत, प्रेत, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक॥१०॥ प्रेत, मातृ, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्मराक्षस इन सबको शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र पैंनी धारके भालोंसे मार मारकर भगानेलगे॥११॥ पिनाक धनुषधारी महादेवजी श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर अलगही अस्त्र शस्त्र चलानेलगे, परन्तु आश्चर्यरहित— श्रीकृष्णचन्द्रजीने उन सब अस्त्र शस्त्रोंको शान्त करदिया॥१२॥ श्रीभोलानाथने ब्रह्मास्त्र चलाया उसे श्रीकृष्णचन्द्रजीने ब्रह्मास्त्रसे शान्त करदिया, इसके उपरान्त जब महादेवजीने वायुदेवताका अस्त्र

चलाया, तब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वतदेवताक अस्त्र छोड़ा उस समय पर्वतसे रुककर पवन थमगया, इसके पीछे महाकोधित हो शिवजीने अग्निदेवताको अस्त्र चलाकर आग लगा दी, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय मेघास्त्र छोड़कर क्षणमात्रमें सब अग्निको शान्तकर दिया फिर भगवान् भूतनाथने अपना पाशुपत अस्त्र चलाया, उसको श्रीकृष्णचन्द्रने अपने नारायणास्त्रसे काटडाला॥१३॥ फिर भगवान् वासुदेवने जृम्भणास्त्र चलागया उससे शिवजी जॅभाई लेनेलगे, इस प्रकार उन्हैं मोहित करके बाणासुरकी सेनाको तलवार, गदा और बाणोसे, मारनेलगे॥१४॥ हे राजन्! प्रद्युम्नजीके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर स्वामिकार्त्तिकजीके अंगोंमेंसे रुधिर बहनेलगा, तब वह समर छोड मोरपर चढ़कर भाग गये॥१५॥ कुंभांड

मोहयित्वा तु गिरिशं जृंभणास्त्रेण जृंभितम्॥ वाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभिः॥१४॥ स्कंदः प्रद्युम्नबाणौघैरर्द्यमानः समंततः॥ असृग्विमुंचन्गात्रेभ्यः शिखिनाऽपाक्रमद्रणात्॥१५॥ कुंभांडः कूपकर्णश्च पेततुर्मु सलार्दितौ॥ दुद्रुवुस्तदनीकानि हतनाथानि सर्वतः॥१६॥ विशीर्यमाणं स्ववलं दृष्ट्वा वाणोऽत्यमुषर्णः॥ कृष्णमभ्य द्रवत्संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम्॥१७॥ धनूंष्याकृष्य युगपद्वाणः पंचशतानि वै॥ एकैकस्मिञ्छरौ द्वौद्वौ संदधे रणदुर्मदः॥१८॥ तानि चिच्छेद भगवान्धनूंषि युगपद्धरिः॥ सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शंखमपूरयत्॥१९॥ तन्माता कोटरा नाम नग्ना मुक्तशिरोरुहा॥ पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया॥२०॥

और कूपकर्ण मूसलके लगनेसे पृथ्वीपर गिरगये, तब स्वामीके मरजानेसे उनकी सम्पूर्ण सेना चारोंओरको भागगई॥१६॥ हे महाराज! इस प्रकार अपनी सेनाको जहाॅ तहाॅ भागता देख बड़ी असहनतासे बाणासुर संग्राममें सात्यकी यादवको छोड़कर श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आया॥१७॥ और रणमें बड़े गर्वसे बाणासुरने एक संग पॉचसौ धनुष खैंच एक एक धनुषमें दो दो बाण लगाये॥१८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय बाणासुरके वह पाॅचसौ धनुष काट डाले फिर सारथी और घोडोंको मार रथको चूर्णकर शंखध्वनि करी॥१९॥ उस समय कोटरानाम

बाणासुरकी माता अपने बालोंको खोल, नग्न हो, पुत्रके प्राण बचानेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आनकर खडी होगई *॥२०॥ हे राजन्! नंगी स्त्रीको देखना शास्त्रकी आज्ञा नहीं है, इसीलिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मुख फेर कर खडे होगये, इस बीचमें जिसका रथ टूटगया, धनुष कट गया, ऐसा बाणासुर रणभूमि छोड पुरमें भागगया॥२१॥ भूतगण जिस समय भागये, तब तीन शिर और तीन पॉवका ज्वर दशों दिशओको जलाता शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख आया॥२२॥ तब नारायणदेव श्रीकृष्णचन्द्रने शिवजीके ज्वरको आया देख अपना शीतज्वर

ततस्तिर्यङ्मुखो नग्नामनिरीक्षन्गदाग्रजः॥ वाणश्च तावद्विरथश्छिन्नधन्वाऽविशत्पुरम्॥२१॥ विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रिशिरास्त्रिपात्॥ अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश॥२२॥ अथ नारायणो देवस्तं दृष्ट्वा व्यसृज ज्ज्वरम्॥ माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ॥२३॥ माहेश्वरः समाक्रंदन्वैष्णवेन बलार्दितः॥ अलब्ध्वाऽभय मन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः॥ शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयतांजलिः॥२४॥ ज्वर उवाच॥ नमामि त्वाऽनंत शक्तिं परेशं सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम्॥ विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं यत्तद्ब्रह्म ब्रह्मलिंग प्रशांतम्॥२५॥

छोडा, इसके उपरान्त शिवजीका ज्वर और भगवान्का ज्वर दोनों परस्पर मिलकर युद्ध करनेलगे॥२३॥ जब विष्णुके, ज्वरने शिवजीके ज्वरको बलपूर्वक दबालिया, तब अत्यन्त पीडित होकर पुकारने लगा और अपनी रक्षाके लिये कोई निर्भय स्थान न पाय, हाथ जोड भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति करने लगा॥२४॥ ज्वर बोला कि, अनन्तशक्ति, ब्रह्मादिकोंके ईश्वर सबके आत्मा शुद्ध चैतन्यघन जगत्की उत्पत्ति

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** * शंका**— अपने पुत्रकी रक्षा करनेके लिये बाणासुरकी माता नंगी होकर श्रीकृष्णके सामने क्यों खड़ी होगई, नग्न होकर खडी होनेसे क्या जान पडताहै, जैसे किसी कामीके सामने स्त्री नग्न होकर खडी होजाय तो वह कामी स्त्रीको देखकर मोहित होजाय तो स्त्री जो कुछ आज्ञा करैं, सो सो आज्ञा वह कामी पुरुष उसे पूर्ण किया करैं वही काम बाणासुरकी माताने किया, यह शंका भारी है॥

** उत्तर**— ब्रह्माने कोटराको वरदान दिया था कि, हे कोटरे! तीन लोकमें जो पुरुष हैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव और चौंरासी लक्ष योनिके पुरुष मात्र तुमको नंगी देखेंगे तब उसी समय भस्म होजायँगे केवल एक तेरा पतिही भस्म न होगा और सब जल्दी भस्म होंगे, कोटराने ऐसा जानकर श्रीकृष्णको भस्म करनेके लिये श्रीकृष्ण के सम्मुख खडी हुई

स्थिति और संहारके कारण, वेदसे गम्य, शान्तमूर्ति, ब्रह्म जो आप हैं, सो मैं आपको नमस्कार करताहूं॥२५॥ काल, दैव, कर्म, जीजी स्वभाव, द्रव्य, शरीर, प्राण, अहंकार, विकार और मन अर्थात् ग्यारह इंद्रियें और पंचमहाभूत, अर्थात् पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश इन तत्त्वोंका बना यह देह जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे फिर बीज होजाताहै, इसीप्रकार कर्मोंसे देह, फिर देहसे कर्म, फिर कर्म देह ऐसे जलकेसा प्रवाह चला जाताहै, बस यही तुम्हारी माया तुम उनके निषेधके अवधि हो इसलिय मैं आपकी शरण आया हूं॥२६॥ यदि कहो कि, मैं देवकीका पुत्र हूँ सो यह मुझसे कैसे बनसक्ताहै इसका उत्तर यह है कि, आप लीलापूर्वक मत्स्यादि अवतार धारण करके देवताओंका पालन और वर्णाश्रमके धर्मकी रक्षा करते हो और धर्म करनेवाले साधुलोगोंका पालन व हिंसासहित पापमार्गका नाश करते हो, इसकारण पृथ्वीका बोझा उतारनेके लिये

कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः॥ तत्संघातो बीजरोहैः प्रवाहस्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्य॥२६॥ नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नैर्देवान्साधूँल्लोकसेतृन्बिभर्षि॥ हंस्युन्मार्गान्हिसया वर्तमानाञ्जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः॥२७॥ तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन शांतोग्रेणात्युल्वणेन ज्वरेण॥ तावत्तापो देहिनां तेऽघ्रिमूलं नो सेवेरन्यावदाशाऽनुबद्धाः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद्भयम्॥ यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद्भयम्॥२९॥ इत्युक्तोच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः॥ बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम्॥३०॥ ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः॥ मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप॥३१॥

तुम्हारा जन्म है॥२७॥ आपके उत्पन्न किये दुःसह भयंकर उग्र शीतज्वरसे मैं तपायमान हुआहूं क्योंकि देहधारियोंको तबतकही ताप है जबतक आशा बाँधकर आपके चरणकमलोंका सेवन न करै॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जब इसप्रकार शिवज्वरने भगवान् वासुदेवकी स्तुति करी तब श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे तीन शिरके ज्वर! मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हुआहूँ और मेरे ज्वरसे जो तुझे भय हुआ है वह डर निवृत्त हो परन्तु जो पुरुषगण इस संवादका स्मरण करैं उनको तू मत व्यापना॥२९॥ इसप्रकार जब कहा, तो शिवज्वर श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करके चलागया, इसके उपरान्त बाणासुर रथमें चढ़ श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध करनेके लिये आया॥३०॥ हे महाराज! हजार भुजाओंमें

अनेक प्रकारके शस्त्रोंको धारण कर बाणासुर अत्यन्त क्रोधित हो, चक्रधारी श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर शस्त्रोंकी वर्षा करनेलगा॥३१॥ निरन्तर शस्त्रोंको चलाते बाणासुरकी भुजाओंको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने छूरीके समान पैंनी धारके चक्रसे जैसे माली वृक्षोंको काटताहै, उसीप्रकार काटडालीं॥॥३२॥ हे परीक्षित्! जब बाणासुरकी भुजा कटगईं, तो उस समय भक्त बाणासुरपर कृपा करनेवाले भगवान् भूतनाथ आकर चक्रधारी श्रीकृष्णचन्द्रकी स्तुति करनेलगे॥३३॥ महादेवजीने कहा कि, हे परब्रह्म! आपके विनाजाने इस वाणासुग्ने युद्ध किया है, इसमें आश्चर्य नहीं, इस कारण वाणीमय वेदमें तुम छिपेहुए परब्रह्म दो और ज्योति सूर्यादिकोंके तुम प्रकाशक हो, इसलिये किसीके जाननेमें नही आते, यदि कहो कि,

तस्याऽस्यतोऽस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना॥ चिच्छेद भगवान्वाहूञ्छाखा इव वनस्पतेः॥३२॥ बाहुषु च्छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान्भवः॥ भक्तानुकंप्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत॥३३॥ श्रीरुद्र उवाच॥ त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये॥ यं पश्यंत्यमलात्मान आकाशमिव केवलम्॥३४॥ नाभिर्नभोग्निर्मुखमंवु रेतो द्यौः शीर्षमाशाः श्रुतिरंध्रिरुव॥ चंद्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा अहं समुद्रो जठरं भुजेंद्रः॥३५॥ रोमाणि यस्यौषधयोंऽबुवाहाकेशा विरिंचो धिषणा विसर्गः॥ प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः स वै भवान्पुरुषो लोककल्पः॥३६॥ तवावतारोऽयमकुंठधामन्धर्मस्य गुप्त्यै जगतो भवाय॥ वयं च सर्वे भवतानुभाविता विभावयामो भुवनानि सप्त॥३७॥

प्रतीत कैसे हो? इसके उत्तर में शिवजी कहतेहैं कि, निर्मल मन बुद्धिवाले पुरुष आकाशके समान निर्लेप, निर्गुण तुम्हैं देखतेहैं॥३४॥ निर्गुण ज्ञानकी बात तो एक और है परन्तु तुम्हारी लीलाका आश्रय ब्रह्माण्डभी जाननेमें नहीं आता जैसे गूलर फलके भीतरके जीव गूलरके फलको नहीं जानते उसीप्रकार इस अभिप्रायसे ब्रह्माण्डरूप करके शिवजी स्तुति करतेहैं कि, आकाश आपकी नाभि, अग्निमुख, जल वीर्य, स्वर्ग मस्तक, दिशा कान, पृथ्वी चरण, चंद्रमा मन, सूर्य नेत्र मैं (शिव) अहंकार, समुद्र उदर, इन्द्र भुजा, औषधी रोम, मेघ केश, ब्रह्मा बुद्धि, प्रजापति लिंग और धर्म हृदय है, लोकोंकी कल्पनासे विराट् पुरुष तुम हो॥३५॥३६॥ सो हे अखण्डरूप! यह तुम्हारा अवतार धर्मकी रक्षा और जगत्का

कल्याण करनेके लिये हुआ है और हम सब लोकपाल आपद्दीसे रक्षित होकर सब लोकोंका पालन करतेहैं॥३७॥ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीन अवस्थामें पुरुषके आप कारण हो और शुद्ध हो इसलिये अद्वितीय पुरुष हो और सब विश्वके कारण हो, स्वयं कारण रहित हो परन्तु तोभी संपूर्ण विषय प्रकाश करनेके लिये अपनी मायासे जो देह धारण किया है, उसमें ऐसेही प्रतीत होतेहो॥३८॥ जैसं सूर्य अपनी मेघरूपी छायासे ढका हुआ होनेपर भी बादलोको प्रकाशित करता है और बादलोंके बाहर भी रूपको प्रकाशमान करताहै उसी प्रकार हे भ्रमन्! स्वयंप्रकाश आप जीवकी दृष्टिमें अपने कार्यरूप अहंकारसे ढकेहुए प्रतीत होने पर भी सत्त्व, रज, तम, गुण, रूप, उपाधि और उनके जीवोको भी प्रकाशित करते

त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीयस्तुर्यः स्वदृग्धेतुरहेतुरीशः॥ प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै॥३८॥ यथैव सूर्यः पिहितच्छायया स्वया छायां च रूपाणि च संचकास्ति॥ एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्वमात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन्॥३९॥ यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु॥ उन्मज्जंति निमज्जंति प्रसक्ता वृजिनार्णवे॥४०॥ देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेंद्रियः॥ यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवंचकः॥४१॥ यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम्॥ विपर्ययेंद्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन्॥४२॥ अहं ब्रह्माऽथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः॥ सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमीश्वरम्॥४३॥ तं त्वां जगत्स्थित्युदयांतहेतुं समं प्रशांतं सुहृदात्मदैवम्॥ अनन्यमेकं जगदात्मकेतुं भवापवर्गाय भजाम देवम्॥४४॥

हो॥३९॥ तुम्हारी मायासे मोहित होकर स्त्री, पुत्र और घरादिमें लगेहुए लोग दुःखमय संसारसागरमें ऊंच, नीच योनियोंको पातेहैं॥४०॥ भगवान्की दीहुई मनुष्यदेहको पाकर जिसने अपनी इन्द्रियोंको नहीं जीता और जिस पुरुषने तुम्हारे चरणोंका भलीभाॅति पूजन न किया उस पुरुषको शोच करने योग्य और आत्माका ठगनेवाला समझना चाहिये॥४१॥ प्यारे पुत्रादिकोंके लिये जो पुरुष प्रिय आत्मा आपका त्याग करताहैं, वह पुरुष अमृत छोड़कर विष पीता है॥४२॥ मैं (शिव) ब्रह्मा और देवता निर्मल अंतःकरणवाले मुनिभी प्रिय ईश्वर और आत्मरूप आपकाही भजन करते हैं॥४३॥ जगत्के उत्पत्ति पालन और नाशके कारण सबमें समान, शान्तस्वरूप, हितकारी आत्मा, ईश्वर, अनन्य और दूसरा

जिनके समान नहीं, बड़ा नहीं, जगत्के आत्मा आश्रय देव तुम हो! सो तुम्हैं संसार त्यागनेके लिये हम भजते॥४४॥ हे प्रकाशमान! यह बाणासुर मेरा अत्यन्त प्रिय और इष्ट भक्त है इस कारण मैंने इसे अभयदान दिया है, जैसे आपने प्रह्लादपर दया की, उसीप्रकार इसपर भी दया करनी चाहिये॥४५॥ यह प्रार्थना सुनकर भगवान् वासुदेवने कहा कि, हे भगवन्! आपने जिसप्रकार कहा मैं वैसेही आपको प्रसन्न करूंगा आपने जिस बातका विचार किया है, मैं उसमें भलीभाँति सम्मति देता हूं॥४६॥ विरोचनके पुत्र राजा बलिका बेटा यह बाणासुर है, इसलिये मारने योग्य नहीं, क्योंकि मैंने प्रह्लादको वर दियाहै कि, जो तेरे वंशमें उत्पन्न होगा, मैं उसको नहीं मारूंगा॥४७॥ अभिमान दूर करनेके लिये

अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती मयाऽभयं दत्तममुष्य देव॥ संपाद्यतां तद्भवतः प्रसादो यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः॥४५॥ श्रीभगवानुवाच॥ यदात्थ भगवंस्त्वं नः करवाम प्रियं तव॥ भवतो यद्व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्॥४६॥ अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः॥ प्रह्रादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः॥४७॥ दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया॥ सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः॥४८॥ चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यंत्यजरामराः॥ पार्षदमुख्यो भवतो न कुतश्चिद्भयोऽसुरः॥४९॥ इति लब्ध्वाऽभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसाऽसुरः॥ प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत्॥५०॥ अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासःसमलंकृतम्॥ सपत्नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः॥५१॥

मैंने इसकी सहस्रभुजा काटी हैं और जो पृथ्वीपर भारी बोझ होरहाथा उसको भी मैंने उतारदिया॥४८॥ कटनेसे इसकी चार भुजा शेष रहगई हैं, सो अजर अमर होंगी और यह दैत्य बाणासुर भयरहित तुम्हारे पार्षदोमें मुख्य पार्षद होगा॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! इसप्रकार अभय पाकर बाणासुरने श्रीकृष्णचन्द्रको बारंबार प्रणाम करके ऊषा सहित अनिरुद्धको रथमें बैठालकर बिदा कर दिया॥५०॥ और बाणासुरकी दीहुई एक अक्षौहिणी सेना सगलिये सुन्दर वस्त्रालंकारोंसे शोभायमान स्त्री सहित प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धको आगेकर शिवजीसे अनुमोदन पाय श्रीकृष्णचन्द्रने वहाँसे पयान किया॥५१॥

नगरके मनुष्य, सम्बन्धी और ब्राह्मणोंने बधाये, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रने शंख, आनक, नगारे बजाते तोरण व ध्वजाओंसे शोभायमान मार्गमें जहाँ छिडकाव होगया है, ऐसी अपनी नगरी द्वारकापुरीमें प्रवेश किया॥५२॥ हे राजन्! यह श्रीकृष्णचन्द्रकी जीत और श्रीकृष्णका शिवजीसे युद्ध जो पुरुष प्रातःकाल उठकर स्मरण करेंगे, उनकी कभी हार नहीं होगी॥५३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकाया भूषाचरित्रवर्णनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥ दोहा—चौंसठमें श्रीकृष्णने, नृगको शाप छुटाय। ब्रह्म अंशकी लगनको, सब फल दियो दिखाय॥६४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित्! सांब, प्रद्युम्न, चारुभानु, गद इत्यादि यादवोंके पुत्र विहार करनेके लिये

स्वराजधानीं समलंकृतां ध्वजैः सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम्॥ विवेश शंखानकदुंदुभिस्वनैरभ्युद्यतः पौरसुहृद्द्विजातिभिः॥५२॥ य एवं कृष्णविजयं शंकरेण च संयुगम्॥ संस्मरेत्प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात्पराजयः॥५३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बाणनिग्रहो नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदोपवनं राजञ्जग्मुर्यदुकुमारकाः॥ विहर्तुं सांवप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः॥१॥ क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वंतः पिपासिताः॥ जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्वमद्भुतम्॥२॥ कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः॥ तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृपयान्विताः॥३॥ चर्मजैस्तांतवैः पाशैर्बद्धा पतितमर्भकाः॥ नाशक्नुवन्समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः॥४॥ तत्रागत्यारविंदाक्षो भगवान्विश्वभावनः॥ वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण सलीलया॥५॥

वनको गये॥१॥ उस वनमें बहुत देरतक क्रीड़ा करते रहे, जब प्याससे पीडित हो यादवोंके पुत्रोंने जलको ढूॅढा, तब विना जलके कुऍमें एक अद्भुत जीव पड़ा देखा॥२॥ पर्वतके समान करकेटा देख आश्चर्ययुक्त मनसे कृपायुक्त हो यादवोंके बालक उसके निकालनेका यत्न करनेलगे॥३॥ हे राजन्! यह बालक उस करकेटेको चाम और सूतके रस्सोंसे बाँधनेपर भी निकालनेको नहीं समर्थ हुए तब उत्कंठायुक्त बालक श्रीकृष्णचन्द्रसे आनकर कहनेलगे॥४॥ तब विश्व उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने वहाँ आकर लीलापूर्वकही बायें हाथ से उस करकेटेको निकाललिया॥५॥

उत्तमश्लोक श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ लगतेही वह करकेटा रूप त्याग तप्त सुवर्णके समान सुन्दर वर्ण, अद्भुत आभूषण और वस्त्र मालाओंको, धारण किये, वह देवस्वरूपको प्राप्त होगया॥६॥ मुक्ति देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र यद्यपि उसके करकेटा होनेका कारण जानते भी थे परन्तु तो भी सबको दिखाने के लिये पूछने लगे कि, हे बडभागी! सुन्दर स्वरूपवान् आप कौन हो? मुझे तुम देवताओंमें उत्तम देवता जान पडते हो॥७॥ हे मंगलरूप! इस योग्य तुम नहीं हो, किस अपराधसे तुम्हैं

यह करकेटेकी योनि प्राप्तहुई, जो हमको कहनेयोग्य समझो तो

स उत्तमश्लोककराभिमृष्टो विहाय सद्यः कृकलासरूपम्॥ संतप्तचामीकरचारुवर्णः स्वर्ग्यद्भुतालंकरणांवरस्रक्॥॥६॥ पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं जनेषु विख्यापयितुं मुकुंदः॥ कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम्॥७॥ दशामिमां वा कतमेन कर्मणा संप्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र॥ आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम्॥८॥ श्रीशुक उवाच॥ इति स्म राजा संस्पृष्टः कृष्णेनानंतमूर्तिना॥ माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा॥९॥ नृग उवाच॥ नृगो नाम नरेंद्रोऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो॥ दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम्॥१०॥ किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः॥ कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया॥११॥

हमारे सन्मुख अपना सब वृत्तांत वर्णन करो॥८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जब अनन्तमूर्त्ति श्रीकृष्णचन्द्रने इस प्रकार पूँछा, तब राजा नृग सूर्यके समान तेजवाला किरीटोंसे श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके कहने लगा॥९॥ राजा नृगने कहा कि, हे समर्थ! मैं इक्ष्वाकुका पुत्र नृग नाम राजा हूं जब कभी दानी राजाओंकी बात चली होगी, तो मेरा नाम भी आपके सुननेमें आया होगा॥१०॥ हे नाथ! सब प्राणियोकी बुद्धिके साक्षी और सर्वातर्यामी आप हैं सो तुम क्या नहीं जानते? और कालसे तुम्हारे ज्ञानका नाश नहीं होता, तो भी आपने जो पूॅछा है, सो आपकी आज्ञानुसार मैं वर्णन करता हूं॥११॥

हे भगवन्! जितनी पृथ्वीकी रेणुका और जितने आकाशमें तारे अथवा जितनी वर्षाकी बूॅदैं हैं उतनीही गायोका मैंने दान किया है *॥१२॥ दूध देनेवाली तरुण अवस्था शील स्वभाव रूप गुण से भरी कपिला और नीतिपूर्वक संचय करी, सुवर्णसे सींग, रूपेसे खुर मढ़े बछडे साथ और

यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः॥ यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः॥१२॥ पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूपगुणोपपन्नाः कपिला हेमशृंगीः॥ न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा दुकूलमालाभरणा ददावहुम्॥१३॥ स्वलंकृतेभ्यो गुणशीलवन्यः सीदत्कुटुंवेभ्य ऋतव्रतेभ्यः॥तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः प्रादां युवभ्यो द्विजपुंगवेभ्यः॥१४॥ गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः॥ वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रया निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम्॥१५॥

वस्त्र, माला, गहने पहराय, ऐसी गायें मैंने दान की थीं॥१३॥ भलेप्रकार शोभायमान गुण शीलयुक्त, दूध विना दुःखित कुटुम्बी पाखण्डरहित आचारवाले तपस्या करके प्रसिद्ध, वेदपाठी तरुण अवस्थावाले द्विजोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान करके दी थीं॥१४॥ गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, महल,

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* शंका— जो वचन श्रीकृष्णसे राजा नृगने गोदान देनेवाले कहे थे, उन वचनोंको सुनकर हमारा सबका मन काँपता है, ऐसे मूर्खोके समान राजा नृगने वचन क्योंकहे? भला रेतेके कणका क्या प्रमाण? एक मूठीभर रेता हाथमें ले तो दश वीस कोटि कण मूठीभर रेतमें होंगे, फिर गंगा आदि नदियों में अथवा रेतेवाले देशोंमें रेतके सिबाय और दूसरी मृत्तिका नहीं, तहाँ कणकी क्या गणना है, फिर तारा भी गणनासे हीन हैं, वर्षाकी धारा पृथ्वीपर पडती हैं, उनकी गिनती नहीं है, ऐसा वचन बडा अयोग्य है॥

** उत्तर** —मेदिनीकोशमें सत्रह १७ श्लोकसे लेकर बयालीस ४२ श्लोकतक भूमिका और द्वीप आदिका पर्वतोंका नाम लिखाहै ‘सिकता’ सात द्वीपका नाम लिखाहै और ‘तारका’ बडी बडी नदियोंका नाम लिखा है, ‘अदिव’ मर्त्यलोकका नाम लिखा है, मर्त्यलोक और भरतखण्डका नाम भी अदिव हैं, ‘वर्ष धार’ पर्वतका नाम लिखा है और राजा नृग भरतखण्डमें वसता था इसलिये भरतखण्डकी नदियोंके पर्वतोंके और सात द्वीपोंके बहानेसे गोदान करनेकी गिनती श्रीकृष्ण से गुप्त करके बताई थी कि, सबको प्रगट होनेसे पुण्यका नाश होजाताहै, पंचमस्कधंके उन्नीसवें अध्यायमें लिखाहै कि मर्त्यलोकमें भरत खण्डमें पर्वतोंमें श्रेष्ठ २७ पर्वत हैं और नदियों में श्रेष्ठ नदी ४५ हैं, और पंचमस्कंधके प्रथम अध्यायमें लिखा है कि, पृथ्वीमें सात द्वीप हैं इसलिये गप्त करके श्रीकृष्णसे राजा नगने कहा था कि, महाराज! जितने भूमिके सिकता कहिये द्वीपहें उतनी गायें मैंने दीहैं और भरतखण्डमें जितने तारका कहिये गंगा आदि बडी बडी नदी हैं उतनी गायें मैंने दीहैं और जिसने वर्षाधारा कहिये पर्वत मर्त्यलोकके भरतखण्डमें हैं उतनी गायें मैने ब्राह्मणोंको दीहैं सब गायोंकी संख्या कितनी हुई विद्वान् लोगो विचार लेना, अककी उलटी रीतिसे प्रथम सात ७ दूसरे ४५ तीसरे सत्ताईस सब जोडकर २७४५७ सत्ताईस सहस्र चारसौ सत्तावन गायें देनेको श्रीकृष्णसे राजा नृगने कहा था रेतकी कण, आकाशके तारे, जलवृष्टिके लिये नहीं कहा था॥

हाथी, घोडे इत्यादि दान करे और दासियों सहित कन्यादान करीं, तिल, रूपा, शय्या, वस्त्र, रत्न और आच्छादनके श्रेष्ठ वस्त्र और रथोंका दान किया यज्ञ किये, कुआँ, तालाव, सरोवर बनवाये॥१५॥ ऐसा मैं दानी था, परन्तु मुझे एक संकट आनकर प्राप्तहुआ सो सुनो, किसी एक अयाचक ब्राह्मण की गौ भागकर मेरी गायोंमें मिलगई, वह गाय विना जाने मैंने ब्राह्मणको दान करदी॥१६॥ उस गौका स्वामी गौको लेजाता देखकर “यह गौ मेरी है” इस प्रकार कहने लगा, दूसरा ब्राह्मण बोला कि, भाई यह गौ मुझे राजा नृगने दान करके दी है॥७॥ हे दीनबन्धु! इस प्रकार आपसमें विवाद कर अपने अपने प्रयोजनको सिद्ध करनेवाले वह दोनों ब्राह्मण मेरे निकट आये, तब जिस ब्राह्मणको गाय दान करके दी थी; वह बोला कि हे राजन्! इस गाय आपही दाता हैं और जिसकी गाय थी वह बोला कि, यह क्यों दाता है, जो पराई गौ दान करता है? हे भगवन्! यह बात

कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने॥ संपृक्ताऽविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये॥१६॥ तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्वोवाच ममेति तम्॥ ममेति प्रतिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति॥१७॥ विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ॥ भवान्दाताऽपहर्तेति तच्छत्वा मेऽभवद्भमः॥१८॥ अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै॥ गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम्॥१९॥ भवंतावनुगृह्णीतां किंकरस्याविजानतः॥ समुद्धरतं मां कृच्छ्रात्पतंतं निरयेऽशुचौ॥२०॥ नाहं प्रतीच्छ वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्॥ नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरोययौ॥२१॥ एतस्मिन्नतंरे याम्यैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्॥ यमेन पृष्टस्तत्राऽहं देवदेव जगत्पते॥२२॥

सुनकर मुझे अत्यन्त भ्रम हुआ॥१८॥ इसके उपरान्त धर्मसे कष्टित मैंने उन दोनों ब्राह्मणोंको बहुत विनती करके कहा कि, महाराज! इस गौके बदलेमें सुन्दर एक लाख गौ दूंगा, यह गौ देदीजिये॥१९॥ मैं तुम्हारा दास हूं, मैंने यह नहीं जाना कि यह गौ तुम्हारी है सो मेरे ऊपर अनुग्रह करके घोर नरकमें गिरतेहुए मेरी रक्षा करो॥२०॥ तव त्राह्मण बोला कि, हे राजा नृग! और तेरी लाख गौकी मुझे आवश्यकता नहीं है जो दान करके दी है, सोई लूंगा, यह कहकर वह ब्राह्मण और जिस ब्राह्मणको गौ दी थी वह उस गौको त्यागकर घरको चलागया॥२१॥ हे देवदेव! इसके उपरान्त जब मेरा देहान्त हुआ, तब यमदूत आनकर यमराजके पास मुझे लेगये वहाँ धर्मराजने मुझसे पूँछा कि॥२२॥

हे राजा नृग! मैं तुम्हारे दान और धर्मका लोकके प्रकाशकोंमें अन्त नहीं देखता परन्तु यत्किंचित् तुम्हारा पाप भी है और संपूर्ण शुभ सो प्रथम तुम पाप भोगोगे अथवा पुण्य॥२३॥ इस प्रकार जब धर्मराजने कहा तब प्रथम पाप भोगूंगा ऐसा मैंने कहा उसी समय धर्मराजने आज्ञा करी कि, इसको करकेटेकी योनिमें गिरादो हे प्रभो! तब मैंने गिरतेही अपनेको करकेटेके रूपमें देखा॥२४॥ हे केशव! ब्राह्मणोंका भक्त और दाता तुम्हारे दर्शनोंकी अभिलाषा अबतक मुझे लगरही थी क्योंकि आपकी कृपासे स्मृतिका नाश नहीं हुआ था॥२५॥ हे योगेश्वर! वेदरूप नेत्र करके निर्मल हृदयमें जिनकी भावना करें और इन्द्रियोंकी जिनमें पहुँच नहीं ऐसे परमात्मा तुम अति दुःखोंसे अँधेरी बुद्धिवाले मुझे कैसे दिखाई दिये?

पूर्वं त्वमशुभं भुंक्षे उताहो नृपते शुभम्॥ नांतं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः॥२३॥ पूर्वं देवाशुभं भुंज इति प्राह पतेति सः॥ तावदद्राक्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो॥२४॥ ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव॥ स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्संदर्शनार्थिनः॥२५॥ स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा योगेश्वरैः श्रुतिदृशाऽमलहृद्विभाव्यः॥ साक्षादधोक्षज उरुव्यसनांधबुद्धेः स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य ममापवर्गः॥२६॥ देवदेव जगन्नाथ गोविंद पुरुषोत्तम॥ नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय॥२७॥ अनुजानीहि मां कृष्ण यांतं देवगतिं प्रभो॥ यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम्॥२८॥ नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनंतशक्तये॥ कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः॥२९॥

क्योंकि इस संसारमें जिस मनुष्यका संसार छूटनहार होताहै; उसको ही आपके दर्शन मिलतेहैं॥२६॥ हे देवदेव! हे जगत्के नाथ! हे गोविन्द! हे पुरुषोत्तम! हे नारायण! हे इन्द्रियोंके प्रेरनेवाले! पवित्रयशी! श्रीकृष्णचन्द्र! हे अखण्डरूप! हे अविनाशी!॥२७॥ हे कृष्ण! हे समर्थ! अब मैं स्वर्ग जाऊॅ मुझे आज्ञादो और जहाॅ कहीं मैं रहूॅ वहाॅ मेरा चित्त तुम्हारे चरणोमें लगा रहै॥२८॥ आप सब कार्योंके उत्पन्न करनेवाले विश्वके कर्त्ता और विकाररहित हो, अनन्त माया शक्तिमान् वासुदेव अर्थात् सब प्राणियोंके आश्रय कृष्ण अर्थात् सर्वदा आनन्दरूप, वेदोंके कहे जो यज्ञादिक कर्म और स्मृतियोंके कहे जो कुऑ, बावली, तालाव इत्यादि कर्मोंके फलदाता आपको नमस्कार है॥२९॥

राजा नृग इस प्रकार कह श्रीकृष्णचन्द्रको परिक्रमा दे अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श कर, आज्ञा ले सब प्राणियोंके देखतेही विमानपर बैठ कर स्वर्गको चलागया॥३०॥ ब्राह्मणोके भक्त, धर्मात्मा देवकीके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र क्षत्रियोंकी शिक्षाके लिये अपने कुटुम्बी यादवोंसे कहने लगे॥३१॥ कि, देखो! अग्निके समान तेजस्वी पुरुषोंको भी ब्रह्मअंश नही पचता और अपनेको ईश्वर माननेवाले राजाओकी तो बातही क्या है?॥३२॥ मैं विषको हलाहल विष नहीं मानता क्योंकि उसके दूर करनेकी औषधी है परन्तु ब्रह्मअंश विषसे भी अधिक विष है, और इस पृथ्वीमें ब्रह्मअंशके दूरकरनेका कोई उपाय नहीं है॥३३॥ विषतो केवल खानेवालेकोही मारता है और अग्नि भी जलसे शान्त होजाती है, व

इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना॥ अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम्॥३०॥ कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः॥ ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन्॥३१॥ दुर्जरं वत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि॥ तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञामीश्वरमानिनाम्॥३२॥ नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया॥ ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि॥३३॥ हिनस्ति विषमत्तारं बह्निरद्भिः प्रशाम्यति॥ कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणि पावकः॥३४॥ ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं मुक्तं हंति त्रिपूरुषम्॥ प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान्॥३५॥ राजानो राजलक्ष्म्याऽन्धा नात्मपातं विचक्षते॥ निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः॥३६॥

अग्निके जलानेमें जड़ बाकी रहजाती है, परन्तु ब्रह्मअंशरूप लकड़ीमेंसे उत्पन्नहुई अग्नि मूलसहित कुलको भस्म करडालती है॥३४॥ ब्राह्मणकी पूर्ण आज्ञा लिये विना उसका धन खायाजाय तो तीनपीढीको नरकमें गिराता है और हठसे वा राजा आदिकी सहायतासे भक्षण किया जाय तो दश प्रथम और देश पीछेकी पीढियोंको और एक अपनी, इस प्रकार इक्कीस पीढीको नरकमें डालता है॥३५॥ इसलिये ब्राह्मणका पूजनही करै, (इस कथापर एक दृष्टान्त भी लिखते हैं) * जोकि लक्ष्मीकेसे अंधे हुए राजा हैं, सो अपना नरकमें गिरना नहीं देखते

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* दृष्टान्त— एक राजा परदेशी ब्राह्मण जो द्वारपर आता उसे लाख रुपया दिया करते थे, तो एक दरिद्र ब्राह्मणको स्त्रीने कह सुनकर अपने पत्निको इस राजा के नगरमें भेजा, यह चले, राजा शिकार खेलकर आ रहे थे, मार्गमें ब्राह्मणसे भेंट हुई, राजाने कहा कि, महाराज! आप कहाँते आये और कहाँ जाओगे? ब्राह्मणने कुछ उत्तरन दिया, तब राजाने प्रार्थनाकर चरण पकडकर पूछा कि, क्या काम है? कहो—

और जो पुरुष ब्रह्मअंशपर मन ललचाते हैं, सो नरकमें जानेकी इच्छा करतेहैं॥३६॥ कुटुम्बी उदार जीविका हरजानेसे सो ब्राह्मण रुदन करते हैं उनके नेत्रोंसे ऑसुवोंकी बूॅद गिरकर जितनी पृथ्वीकी रेणुका भीजती हैं, उतने वर्षतक ब्राह्मणका धन हरण करनेवाले निरंकुश राजा और उनके मंत्री, प्रधान टहलुए हैं, सो सब कुम्भीपाक नरकमें गिरतेहैं॥३७॥३८॥ जो पुरुष अपनी दान की हुई अथवा औरकी दी हुई ब्राह्मणकी

गृह्णंति यावतः पांसून्क्रंदतामश्रुबिंदवः॥ विप्राणां हृतवृत्तीनां वदान्यानां कुटुंबिनाम्॥३७॥ राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरंकुशाः॥ कुंभीपाकेषु पच्यंते ब्रह्मदायापहारिणः॥३८॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः॥ षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कमिः॥३९॥ न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृद्ध्वाल्पायुषो नराः॥ पराजिताश्च्युता राज्याद्भवंत्युद्वेजिनोऽहयः॥४०॥ विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्येत मामकाः॥ घ्नंतं बहु शपंतं वा नमस्कुरुत नित्यशः॥४१॥

जीविका हरै, वह पुरुष साठ सहस्र वर्षतक विष्टाका कीड़ा होता है॥३९॥ मेरे घरमें ब्राह्मणका धन न आवै, जिस धनके लोभसे राजा अल्पआयुष्यवाले पराजयको प्राप्त हुए और राज्यसे भ्रष्ट होकर मनुष्योको भय देनेवाले सर्प होजाते हैं॥४०॥ हे मित्र! जो ब्राह्मण अपराध करे, मारताही आवै और गालियें भी बहुत दे, ऐसे ब्राह्मणसे भी द्रोह करना उचित नहीं बग्न् उसको नित्य प्रति नमस्कारही करनाचाहिये॥४१॥

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—तो, तब यह चोले हम पण्डिन हैं और काशीजीसे आये हैं, इस राजाके शिरपर पनही भार लाख रुपये लेजायँगे, राजाने कहा कि, ब्राह्मण बुरे, जो लाख रुपया लेजायॅ और पनही भारै, सो महलोंमें जाकर ड्योढीवानोंसे कहा कि, किसी ब्राह्मणको भीतर मत आनेदो अव उन पण्डितजीकी यहाँतक दशा हुई कि, थाली, कटोरा वेचकर खागये, परन्तु भीतर न घुस सके, तब फिर लौटकर अपने घर जाय सब समाचार सुनाये, यह राजा वैष्णव था और कृष्ण, बलदेवका पूजन करता था, एक दिन अकस्मात् बल्देवजी सिंहासन परसे गिरपडे, यह देख राजा अत्यन्त भयभीत हुआ? उसी समय ब्राह्मणोंको बुलाकर पूछा कि, क्या उत्पात होगा? कोई कुछ कोई कुछ कहनेलगे परन्तु यथार्थ उत्तर कोई न दे सका, तब राजाने टॅढोरा पिटवाया कि, जो समाधान करेगा, उसे बडा द्रव्य मिलेगा, इसके उपरान्त फिर उस ब्राह्मणकी स्त्रीने प्रार्थना करी, तव वही ब्राह्मण राजाके प्रश्नका उत्तर देनेको आये और बोले कि, राजा! तू कुछ मत डरैं, कुछ उत्पात नहीं होगा, जगन्नाथजी गिरते तो उत्पात होनेकी सम्भावना थी और बलदेवजी तो नित्य वारुणी पिये उन्मत्त रहते हैं, इनके गिरनेका क्या आश्चर्य है! तब राजाने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मणको लाख रुपये देदिये और कहा कि, ब्राह्मणको आनेसे कोई मत रोकियो यह पनही मार करही द्रव्य लेते हैं यदि यह ब्राह्मण न होते तो मेरे प्रश्नका उत्तर कौन देता?॥

जैसे सावधान होकर समय समयपर ब्राह्मणोंको मैं नमस्कार करता हूं, उसी प्रकार तुम भी नमस्कार करो और जो कोई मेरी इस आज्ञाको उल्लंघन करेगा, वह पुरुष मुझसे दण्ड पावेगा॥४२॥ ब्राह्मणका धन हरनेवाला नरकमें गिराया जाता है, इस बातको कोई मिथ्या मत समझना, क्योंकि जैसे विनाजाने नृग राजाने ब्राह्मणकी गाय यद्यपि ब्राह्मणकोही दान करदी थी, परन्तु तो भी नरकमें गिरा इसी प्रकार और भी जो ब्रह्मअंश लेते हैं, उन्हैं नरकमें गिरना पड़ता है॥४३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन! सब लोकोंको पवित्र करनेवाले मुकुन्द भगवान् इस प्रकार द्वारकावासी यदुवंशियोंको समझाकर अपने मन्दिरमें चलेगये॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः॥ तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दंडभाक्॥४२॥ ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः॥ अजानंतमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव॥४३॥ एवं विश्राव्य भगवान्मुकुंदो द्वारकौकसः॥ पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमंदिरम्॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्त० नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६४॥ श्रीशुक उवाच॥ बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान्रथमास्थितः॥ सुहृद्दिदृक्षुरुत्कंठः प्रययौ नंदगो कुलम्॥१॥ परिष्वक्तश्चिरोत्कंठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च॥ रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनंदितः॥२॥ चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः॥ इत्यारोप्यांकमालिंग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः॥३॥ गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवंदितः॥ यथावयो यथासख्यं यथासंबंधमात्मनः॥४॥

नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६४॥ दोहा—पैंसठमें बलरामने, वृन्दावनमें आय। रास रचो यमुना निकट, सबको ताप मिटाय॥६५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण! एक समय भगवान् बलदेवजी अपने सुत्दृदोंके देखनेके लिये रथमें चढ़कर गोकुलको गये॥१॥ और बहुत दिनों के आशा लगाये गोप गोपियोंसे मिले, इसके उपरान्त बलदेवजीने पिता माताको प्रणाम किया, तब उन्होंने इनको आशीर्वाद दिया॥२॥ हे दाशार्हवंशोत्पन्न! जगदीश्वर! छोटे भाई कृष्ण सहित तुम हमारी बहुत कालतक रक्षा करो, इस प्रकार गोदमें बैठाल छातीसे लगा, नेत्रोंके आँसुओंसे बलदेवजीको भिजोनेलगे॥३॥ विधिपूर्वक वृद्ध गोपोंको प्रणाम करके, छोटे गोपोंने इनको प्रणाम किया, इस प्रकार

बलदेवजी जैसी जिसकी अवस्था और जैसी जिससे मित्रता, जैसा जिससे सम्बन्ध था॥४॥ उसी प्रकार उनको प्राप्त होकर हास्य और हाथ पकड़ना इत्यादिकोंसे मिलकर जब बलरामजी विश्राम लेचुके, तब सुखपूर्वक बैठे और कुशल पूँछी॥५॥ उस समय सब गोप कि जिन्होंने कमलदल लोचन श्रीकृष्णके लिये सब विषय त्याग दिये हैं, वे सब बलदेवजीके निकट आय चारों ओर बैठ गये और प्रेमसे गद्गद बचन हो अपने बंधु यादवोंकी कुशल पूॅछने लगे॥६॥ कि, हे राम! हमारे सब बन्धु तो कुशल हैं? स्त्री और पुत्रसहित तुम हमारी भी कभी सुधि करते हो?॥७॥ यह बड़ी प्रसन्नताकी बात हुई जो महादुराचारी पापी कंस मारागया और यह भी बहुत अच्छा हुआ जो सुहृदलोग बन्दीखानेमे छूटगये, फिर

समुपेत्याथ गोपालान्हास्यहस्तग्रहादिभिः॥ विश्रांतं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः॥५॥ पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा॥ कृष्णे कमलपत्राक्षे संन्यस्ताखिलराधसः॥६॥ कच्चिन्नो बांधवा राम सर्वे कुशलमासते॥ कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः॥७॥ दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः॥ निहत्य निर्जित्य रिपून्दिष्ट्या दुर्गं समाश्रिताः॥८॥ गोप्यो हसंत्यः पप्रच्छू रामसंदर्शनादृताः॥ कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनबल्लभः॥९॥ कच्चित्स्मरति वा बंधून्पितरं मातरं च सः॥ अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति॥ अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः॥१०॥ मातरं पितरं भ्रातॄन्पतीन्पुत्रान्स्वसृृरपि॥ यदर्थेऽजहिम दाशार्ह दुस्त्यजान्स्वजनान्प्रभो॥११॥

वैरियोंका नाश कर समुद्रमें द्वारकापुरी बसाई, यह भी अत्यन्त मंगलकी बात है॥८॥ बलरामजीके दर्शनसे गोपियें प्रसन्न हो हॅसकर पूॅछने लगीं कि, जिनको नगरकी स्त्रियें अत्यन्त प्यारी हैं वह श्रीकृष्ण तो अच्छे हैं॥९॥ वह श्रीकृष्ण कभी अपने बन्धु बांधवोंकी भी सुधि करते हैं? क्या अपनी माताका दर्शन करनेको एकबार भी वह यहाॅ आवेंगे? और बड़ी भुजावाले श्रीकृष्णचन्द्र कभी हमारी भी सुधि करते हैं?॥ हे दाशाहर्वशोत्पन्न समर्थ बलदेवजी! जिसके कारण हमने दुस्त्यज्य माता, पिता, भाई, पति, पुत्र, बहन और सुहृद यह सब त्याग दिये॥११॥

वा हम सबको त्याग वह शीघ्रही चलेगये और स्नेह तोड़दिया परन्तु उनके वैसे मनोहर कहनेपर कौन स्त्री भरोसा न करै?॥१२॥ हमैं अचम्भा होता है कि, कृतघ्न और जिसका मन स्थिर नहीं, ऐसे श्रीकृष्णके कहनेको बुद्धिमान् द्वारकाकी स्त्रियें किस प्रकार स्वीकार करतीहोंगी? परन्तु हम कल्पना करती हैं कि, चित्र विचित्र कथावाले श्रीकृष्णचन्द्रके शोभायमान हास्यपूर्वक भौंहें चलानेसे बढा जो कामदेव उससे आतुर हो स्वीकार करती होंगी *॥१३॥ और गोपियें बोलीं कि, उनकी बातसे हमें क्या काम? और बात क्यों नहीं कहती, क्योंकि हमारे विना

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः संछिन्नसौहृदः॥ कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम्॥१२॥ कथं नु गृह्णंत्यनव स्थितात्मनो वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः॥ गृह्णंति वै चित्रकथस्य सुन्दरस्मितावलोकोच्छसितस्मरातुराः॥१३॥ किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः॥ यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः॥१४॥ इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारु वीक्षितम्॥ गतिं प्रेमपरिष्वंगं स्मरंत्यो रुरुदुः स्त्रियः॥१५॥ संकर्षणस्ताः कृष्णस्य संदेशैर्हृदयं गमैः॥ सांत्वयामास भगवान्नानाऽनुनयकोविदः॥१६॥

जैसे उनका समय व्यतीत होता है उसी प्रकार उनके विना हमारा काल भी व्यतीत होता है। उनका सुखसे बीते है, हमारा दुःखसे, अन्तर इतनाही है॥१४॥ इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी हँसनि बोलनि सुन्दर चितवन शोभायमान चलना और प्रेमपूर्वक आलिंगन इन बातोंका स्मरण कर सब गोपियें रोनेलगीं॥१५॥ अनेक प्रकारसे समझानेमें निपुण, भगवान् संकर्षण श्रीकृष्णचन्द्रके संदेशेको कहकर समझाने लगे॥१६॥

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** * दृष्टान्त**—एक लालाने बिल्ली पाली थी और उसको नित्यप्रति दूध मलाई खिलाते थे, एक दिन लाला कार्यवश गाँवको गये और बिल्लीको डोरीसे खमेमें बाँधगये और उसका स्मरण न रहा और कई दिन लगगये बिल्लीका भूखके मारे प्राणान्त होनेलगा, इसके पीछे घरमें कहीं दल्लानके कोनेमें एक रुईका गाला धरा था, सो बिल्लीने जाना कि, यह घीका लोंदा है, सो उछल उछलकर बिल्ली उस रुईके गालेपर जाय परन्तु वह हाथ न आये, “अब लिया अब लिया” इसी आशामें अठारह दिन व्यतीत होगये इधर लाला अठारह दिनके उपरान्त आनकर कहनेलगे कि, हरे राम बिल्लीकी तो इतिश्री होगई होगी ताला खोलकर देखै तो अभी जीवित है यह विचार ज्यों उसकी डोरी खोली कि, वह झपटकर रुईके गाचेपर गिरी परन्तु वह तो रुईही थी, इसलिये निराश हो झट बिल्लीके प्राण निकलगये इसलिये जीवित है आशा, मरे निराशा, यह बात सत्य है॥

इसके उपरान्त भगवान् बलदेवजीने उस व्रजमें गोपियोंको अनेक प्रकार आनन्द देते चैत्र और वैशाख दो महीने तक वास किया॥१७॥ पूर्ण चन्द्रमाकी कलासे शोभायमान कुमुदिनियोंकी सुगंधयुक्त पवन जहाँ आरही थी इसप्रकार शोभायमान यमुनाजीके बागमें स्त्रियोंको संग लेकर बलदेवजी रमण करनेलगे॥१८॥ उससमय वरुणजीकी भेजी वारुणी मदिरा वृक्षोंकी खोतरियोंमेंसे गिरकर सब वनको अपनी गंधसे सुगंधित करनेलगी॥१९॥ पवनसे प्राप्त मधुधाराकी सुगन्ध सूंघकर बलदेवजी वहाॅ आय स्त्रियोंके साथ मदिरापान करनेलगे॥२०॥ स्त्री जिनके चरित्र गान कररहीं और हलायुध धारण करनेवाले मतवाले कमलसे विह्वलनेत्र हो बलदेवजी अपने मनमें विचार करनेलगे॥२१॥ वनमाला

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च॥ रामः क्षपासु भगवान्गोपीनां रतिमावहन्॥१७॥ पूर्णचंद्रकलामृष्टे कौमुदीगंधवायुना॥ यमुनोपावने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः॥१८॥ वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात्॥ पतंती तद्वनं सर्वं स्वगंधेनाध्यवासयत्॥१९॥ तं गंधं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः॥ आघ्रायोपागतस्तत्र ललनाभिः समंपपौ॥२०॥ उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुधः॥ वनेषु व्यचरत्क्षीबो मदविह्वललोचनः॥२१॥ स्रग्व्ये ककुंडलो मत्तो वैजयंत्या च भालया॥ बिभ्रत्स्मितमुखांभोजं स्वेदप्रालेयभूषितम्॥२२॥ स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः॥ निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापणां बलः॥ अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह॥२३॥ पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाऽऽहुता॥ नेष्ये त्वां लांगलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्॥२४॥

और कानोंमें कुण्डल पहरे मतवाले, वैजयन्तीमाला धारण किये इससे अधिक शोभायमान और पसीनेके बिन्दुसे सुन्दर मंद मंद हास्ययुक्त, कमलरूप मुख धारण किये॥२२॥ जलक्रीड़ा करनेके लिये सामर्थ्यवान् बलदेवजी यमुनाजीको बुलानेलगे “यह मतवाले हैं” इसलिये बलदेवजी के वचनका अनादर करके यमुना नहीं आई, तब भगवान् बलरामजीने अत्यन्त क्रोधित हो, हलके अग्रभागसे खैंचलिया॥२३॥ और बोले कि, रे पापिनि! मैंने तुझे बुलाया और तू न आई इसलिये स्वच्छन्द फिरनेबाली तुझको मैं हलके अग्रभागसे

खण्डित करदूँगा *॥२४॥ हे परीक्षित्! जब इस प्रकार बलदेवजीने कहा तब यमुना अत्यन्त भयभीत और चकित हो उनके चरणोंमें गिरकर कहनेलगी॥२५॥ हे राम! हे राम!! महाबाहो!!! मैं तुम्हारा पुरुषार्थ नहीं जानती, जिन आपके अंश शेषजीने संपूर्ण पृथ्वीको सहस्र फणोंमेंसे एक फणपर धारण कररक्खा है॥२६॥ हे भगवन्! मैं आपके श्रेष्ठ प्रभावको नहीं जानती परन्तु आपकी शरण आई हूँ सो आप क्या मुझे छोडनेको योग्य हो॥२७॥ हे कुरुवंशावतंस परीक्षित्! जब इस प्रकार प्रार्थना करी तब प्रसन्न होकर भगवान् बलदेवजीने यमुनाको छोड दिया और जिसप्रकार हाथी हथिनियोंके संग विहार करताहै उसी प्रकार यमुनामें गोपियोंके साथ विहार करने लगे॥२८॥ इच्छापूर्वक विहार करके जब

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनंदनम्॥ उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप॥२५॥ राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम्॥ यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते॥२६॥ परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम्॥ मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन्प्रपन्नां भक्तवत्सल॥२७॥ ततो व्यमुंचद्यमुनां याचितो भगवान्बलः॥ विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट्॥२८॥ कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासितांबरे॥ भूषणानि महार्हाणि ददौ कांतिः शुभां स्रजम्॥२९॥ वसित्वा वाससी नीले मालामामुच्य कांचनीम्॥ रेजे स्वलंकृतो लिप्तो माहेंद्र इव वारणः॥३०॥ अद्यापि दृश्यते राजन्यमुना कृष्टवर्त्मना॥ बलस्यानंतवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि॥३१

बलदेवजी जलमेंसे बाहर निकले तब लक्ष्मीजीने इनको दो नीलाम्बरी वस्त्र अमूल्य आभूषण और शोभायमान माला दी॥२९॥ बलरामजी भी नीलवस्त्र पहर और सुवर्णकी माला धारण कर, अच्छी प्रकार चन्दन लगाय इन्द्रके ऐरावत हाथीके समान शोभायमान होनेलगे॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! महावीर्यवान् भगवान् बलरामजीने यमुनाजीको खैंचा, इस कारण वह स्थान अबतक अनन्त पराक्रम बलरामजीके पराक्रमको जताता हो वैसेही देखने में आता है॥३१॥

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** * शंका**— शेषावतार बलदेवजीका मुनियोंने वर्णन किया है सो बलदेवजीने बडे कामीकी नाईं यमुनाको क्यों खैचा? यमुनाकी मर्यादाका भी नाश किया यह बडी शंका हैं?

** उत्तर**— श्रीकृष्णने जव यमुनासे कालियनागको बाहर निकालदिया तव यमुना बहुत अभिमान करनेलगी, विनाही वर्षाके अधिक मर्यादाको छोडकर चढनेलगी, मुनिजन मथुराको और वृन्दावनको आते जाते तो रात दिन भरी पाते, नौकाको चलने नहीं दे, इस प्रकार यमुनाको उन्मत्त जानकर जलक्रीडाके मिस करके बलदेवजीने यमुनाको दण्ड दिया॥

व्रजकी स्त्रियोंके संग विलास करके चलायमान चित्त बलदेवजीको व्रजमें रमण करते एक रात्रिके समान संपूर्ण रात्रिर्ये व्यतीत होगई॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां बलदेवकृतयमुनाऽकर्षणनाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ दोहा—छासठ काशी जाय हरि, पौंड्रकनृपको मार। मित्र सुदक्षिण सहित सब, हनो तासु परिवार॥६६॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब बलरामजी नन्दरायके व्रजमें आये तब अज्ञानी करूषदेशके राजा पौंड्रकने “मैं वासुदेव हूँ” इस प्रकार मनमें विचारकर श्रीकृष्णचन्द्र के पास दूत

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे॥ रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम्॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे बलदेवविजये यमुनाकर्षणं नाम पंचषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप॥ वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत्॥१॥ त्वं वासुदेवो भगवानवतीर्णो जगत्पतिः॥ इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम्॥२॥ दूतं च प्राहिणोन्मंदः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने॥ द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः॥३॥ दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्॥ कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसंदेशमब्रवीत्॥४॥ वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः॥ भूतानामनुकंपार्थं त्वं तु मिथ्याऽभिधां त्यज॥५॥

भेजा॥१॥ आप जगत्पति भगवान् वासुदेव प्रगट हुए हो ऐसे मूर्ख मनुष्योंकी प्रशंसासे उत्साह दिलानेपर उसने अपने आपको वासुदेव समझ लिया॥२॥ अचिंत्य मार्गवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के पास द्वारकापुरीमें अज्ञानी पाड्रकने दूत भेजा, जैसे खेलमें बालक एक बालकको राजा बना देता है और वह अपनेको राजा मानता है, उसी प्रकार अपने आपको पौंड्रक वासुदेव मानने लगा॥३॥ कमलपत्रके समान नेत्रवाले श्रीकृष्णचन्द्रको सभामें बैठा देखकर दूत राजा पौंड्रकका संदेशा कहने लगा॥४॥ संपूर्ण प्राणियोंके ऊपर कृपा करनेके लिये मैं एकही

वासुदेव उत्पन्न हुआ हूं दूसरा नहीं है। इस कारण तैंने जो अपना मिथ्या नाम वासुदेव घर रक्खा है उसे त्याग दे॥९॥ हे यादवमूढ! तैंने मेरे चिह्न गदा पद्मादि जो धारणकर रक्खे हैं उन्हें शीघ्रही त्यागकर मेरी शरणमें आ और जो इन्हैं त्याग न दे और मेरी शरण न आवै तो मुझसे युद्ध करनेके लिये तैयारी कर॥६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! इसप्रकार मंदबुद्धि पौंड्रकका संदेश सुन, उग्रसेनादि सव सभासद इस बातको असत्य जानकर हॅसनेलगे॥७॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हॅसकर दूतसे कहने लगे कि, हे मूर्ख! कृत्रिम सुदर्शनादि चिह्नोंसे तू अपनी ऐसी बडाई करता है, उन चिह्नोंको मैं तुझपरसे छुड़ादूंगा॥८॥ हे अज्ञानी! जिस समय तू अपने मुखको

यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्विभर्षि सात्वत॥ त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम्॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः॥ उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा॥७॥ उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु॥ उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे॥८॥ मुखं तदपिधायाज्ञ कंकगृध्रवटैर्वृतः॥ शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शूनाम्॥९॥ इति दूतस्तदाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्॥ कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह॥१०॥ पौंड्रकोपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः॥ अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम्॥॥

११॥ तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्णिग्राहोऽन्वयान्नृप॥ अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौंड्रकं हरिः॥१२॥

ढ़ककर और काक, गृध्र बगलोसे घिरकर तू मरके सोवैगा, उस समय तू कुत्तोंकी शरण लेगा, अर्थात् वह तुझको भक्षण करेंगे॥९॥ उस समय जो श्रीकृष्णचन्द्रने अनादर करके कहा, सो उसी प्रकार दूतने अपने स्वामी मिथ्या वासुदेवसे जाकर सब कहा और श्रीकृष्णचन्द्र भी रथमें चढ़कर काशीपुरीको गये क्योंकि, उस समय पौंड्रक भी अपने मित्र काशीनरेशके यहाँ आया था, इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र भी वहाँ पहुँचे॥१०॥ हे राजा परीक्षित्! उस समय महारथी पौंड्रक भी श्रीकृष्णचन्द्रके युद्धका उद्यम जान, दो अक्षौहिणी सेना संग लेकर शीघ्रदी काशीपुरीसे बाहर निकला॥११॥ उस पौंड्रककाः मित्र काशीनरेश मित्रकी सहायता करनेके लिये पीछेसे आया, तब तीन अक्षौहिणी सेना संगलिये पौंड्रकको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने देखा॥१२॥

शंख, चक्र, तलवार, गदा, धनुष, भृगुलता आदि चिह्नयुक्त और कौस्तुभमणि धारणकिये वनमालासे देदीप्यमान॥१३॥ रेशमी पीली धोती, उपरना पहरे गरुडध्वज बड़े मोलका मुकुट और आभूषण पहरे मकराकृत कुण्डलोंसे प्रकाशमान हैं *॥१४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरत वंशावतंस परीक्षित्! जैसे रंगभूमिमें वेष बनाकर नट आता है, उसी प्रकार अपने समान वेष बनाये, मिथ्यावासुदेवको देखकर श्रीकृष्णचन्द्र हँसने लगे, क्योंकि नकलीने ज्योंकी त्यों, नकल उतारी थी॥१५॥ इसके उपरान्त शत्रुलोग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर त्रिशूल, गदा, बेड़े, बर्च्छी,

शंखार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम्॥ बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम्॥१३॥ कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्॥ अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥१४॥ दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यवेषं कृत्रिममास्थितम्॥ यथा नटं रंगगतं विजहास भृशं हरिः॥१५॥ शूलैर्गदाभिः परिधैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः॥ असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम्॥१६॥ कृष्णस्तु तत्पौंड्रककाशिराजयोर्बलं गजस्यंदनवाजिपत्तिमत्॥ गदासिचक्रेषुभिरार्दयन्भृशं यथा युगांते हुतभुक्पृथक्प्रजाः॥१७॥ आयोधनं तद्रथवाजिकुंजरद्विपत्खरोष्टैररिणाऽवखंडितैः॥ बभौ चितं मोदवहं मनस्विनामाक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम्॥१८॥

गुर्ज, नेजा, तलवार, पटा, बाण, आदि शस्त्र चलानेलगे॥१६॥ जैसे प्रलयाग्नि जरायुज, स्वेदज, अंडज, उद्भिज्ज इन चार प्रकारके प्राणियोंको पीड़ा देती है, उसी प्रकार भगवान् वासुदेव, मिथ्या वासुदेव और काशी नरेश व उनके हाथी, घोड़े, प्यादे इत्यादि संपूर्ण चतुरंगिणी सेनाको गदा, तलवार, चक्र, बाणादिसे पीडा देनेलगे॥१७॥ हे महाराज! चक्रसे कटेहुए रथ, घोडे, हाथी और प्यादे जिसमें पड़े, वह भूमि उस समय

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** * शंका**— योगियोंको बडे दुःखसे प्राप्त होनेयोग्य जो भगवान् वासुदेवका रूप उस रूपको पौंड्रक नाम राजा क्यों प्राप्त हुआ?

** उत्तर**— पूर्वजन्ममें पौंड्रकनाम राजा भगवान्का बडा भारी तप करता था, जब भगवान् प्रसन्न होकर वर देनेको आये तब उसने यह वरदान मांगा कि, आपका स्वरूप बनानेकी बुद्धि मुझको दीजिये, तथा पृथ्वीमें जन्म धारण करके आपके हाथसे मेरी मृत्यु हो तब भगवान्ने यह वरदान दिया, इसलिये पौंड्रकने भगवान्का रूप बनाया था॥

भगवान् भूतनाथकी क्रीडाभूमिके समान भयंकर लगनेलगी, जिसको देखकर वीर पुरुषोंके हृदयमें अति आनन्द प्राप्त हुआ॥१८॥ सेना मारने उपरान्त शूरवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र क्रोधित होकर पौंड्रकसे कहनेलगे कि रे! रे! पापिष्ठ, जो तैंने दूतसे कहलाया था, वह शस्त्र अब तुझपरही छोड़ता हूँ॥१९॥ अरे अज्ञानी! जो तैंने हमारा मिथ्यानाम वासुदेव रखलिया है यह तेरा नाम शीघ्रही छूट जायगा और यदि तेरे सम्मुख युद्ध न करूं तो तेरी शरण लूंगा॥२०॥ हे राजन्! इस प्रकार तिरस्कार कर अत्यन्त तीक्ष्णधारवाले बाणोंसे पौंड्रकका रथ तोड जिस प्रकार देवराज इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतका शिखर काटते हैं उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मिथ्यावासुदेव पौंड्रकका शिर काटडाला॥२१॥

अथाह पौंड्रकं शौरिर्भोभो पौंड्रक यद्भवान्॥ दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते॥१९॥ त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाऽज्ञ मृषा धृतम्॥ व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम्॥२०॥ इति क्षिप्त्वाशितैर्बाणै र्विरथीकृत्य पौंड्रकम्॥ शिरोऽवृश्चद्रथांगेन वज्रेणेंद्रो यथा गिरेः॥२१॥ तथा काशिपतेः कायाच्छिर उत्कृत्त्य पत्त्रिभिः॥ न्यपातयत्काशिपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः॥२२॥ एवं मत्सरिणं हत्वा पौंड्रकं ससखं हरिः॥ द्वारकामा विशत्सिद्धैर्गीयमानकथाऽमृतः॥२३॥ स नित्यं भगवद्ध्यानप्रध्वस्ताखिलबंधनः॥ बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत्॥२४॥ शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुंडलम्॥ किमिदं कस्य वा वत्क्रमिति संशयिरे जनाः॥२५॥ राज्ञः काशिपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबांधवाः॥ पौराश्च हा हता राजन्नाथनाथेति प्रारुदन्॥२६॥

इसके उपरान्त हे परीक्षित्! काशीनरेशका बाणोंसे शिर उखाड काशीपुरीमें ऐसे पटक दिया कि, जिस प्रकार कमलकोशको पवन पटक देता है॥२२॥ इसप्रकार मित्रसहित मिथ्यावासुदेवको मार सिद्धोंसे गाईहुई अपनी कीर्त्तिको श्रवण करतेहुए भगवान् वासुदेव द्वारकापुरीमें आये॥२३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! सदा भगवान्का ध्यान करनेके कारण कटगये हैं सब बंधन जिसके, ऐसा वह मिथ्या वासुदेव पौंड्रक श्रीकृष्णचन्द्रका रूप धारण किये तद्रूप होगया॥२४॥ हे महाराज! काशीके राजद्वारपर कुण्डलोंसहित पड़े शिरको देखकर “यह क्या है? किसका शिर है?” इस प्रकार मनुष्य सन्देह करनेलगे॥२५॥ हे कुरुकुलकी शोभा! पीछे काशीपुरीके राजाका शिर जानकर

रानी, पुत्र, भाई और पुरवासी, हे नाथ! हे नाथ! हम मरे, इस प्रकार कह रोदन करने लगे। इसपर एक दृष्टान्त है *॥२६॥ काशीनरेशका सुदक्षिण नाम पुत्र अपने पिताके मरनेसे अत्यन्त शोकाकुल हो पिताके मारनेवाले कृष्णको मारकर पिताका ऋण चुकाऊॅगा॥२७॥ इस प्रकार बुद्धिसे निश्चय करके उपाध्यायोंसहित सुदक्षिण परमसमाधि लगाकर भगवान् महादेवजीका पूजन करनेलगा॥२८॥ विशेष करके

सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पितुः॥ निहत्य पितृहंतारं यास्याम्यपचितिं पितुः॥२७॥ इत्यात्मनाऽभिसंधाय सोपाध्यायो महेश्वरम्॥ सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना॥२८॥ प्रीतो विमुक्तो भगवांस्तस्मै वरमदाद्भवः॥ पितृहंतृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम्॥२९॥ दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्॥ अभिचार विधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः॥३०॥ साधयिष्यति संकल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः॥ इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन्व्रती॥३१॥

मुक्त भगवान् भूतेश्वर प्रसन्न होकर सुदक्षिणसे “वर मॉग” इस प्रकार कहने लगे, तब सुदक्षिणने “पिताके मारनेवालेके मारनेका उपाय बताओ" यह वर माँगा॥२९॥ तब भगवान् भोलानाथ बोले कि, तू ब्राह्मणोंके संग ऋत्विक्के समान आज्ञाकारी दक्षिणाग्रिका मारणकी विधिसे पूजन कर, वह अग्नि प्रमथोंके साथ तेरे सब मनोरथोंको पूर्ण करेगी॥३०॥ परन्तु यह प्रयोग ब्राह्मणकी भक्तिसे रहित पुरुषपर चला

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** * दृष्टान्त**– एक बनियेने देखा देखी अपनी डडी तोलनी छोड दी और चोरोंके साथ रह कमर बाँध चोरी करनेलगा, अपने मनमें विचार किया कि, भला रोजगार है, घडीभरमेंही हजारोंका माल मिलजाताहै सो कहीं किसी चोरोंके सग कुमल दे भीतर घुसे तो जाग होगई राजाके सिपाही दौडपडे, सो वह चोर तो सगके सब रफू चक्कर होगये, परन्तु इस बनियेसे न भागागया तब निकटही एक तालावमें तलवार डाल वह वनियाँ जलमें घुसा अब सिपाहियोंको चोर तो मिले नहीं और प्यास लगी तो वह तालावके निकट आये, सो वहाँ लालाको देखकर पकडा कि, तुम यहाँ कैसे आये? बनियाँ बोला कि, महाराज! मैं शोचके लिये यहाँ भाया था सो चोरोंको देख डरकेमारे तालाबमें घुसगया फिर आपसे डरा कि कहीं चोर जानकर मुझे भी न पकडलें और चोरोंको मैने पहँचान लिया है, जिनके नाम भी आपको बतलाताहूं, परसा, सेहू, रामसहा, फकीरा, ऊधा, लल्ला, बाँके, शकर, सिपाहीलाल, ज्ञानी, बाबू, मुन्नासिंह, चोखे, गौरी, और मक्खन इत्यादि पचास आदमियोंके नाम लिखवाकर सबको पकडवादिया और भी अब बनियेपर गंगाराम घूमें इसलिये अपना काम छोडकर पराया काम नहीं करना चाहिये देखो पराया काम करनेसे पौंड्रक मारागया॥

वेगा, तो तेरा संकल्प सिद्ध होगा, अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्रपर चलावेगा तो उलटा पड़ेगा, क्योंकि वह तो ब्राह्मणोंके सेवा करनेवाले और उनके अत्यन्त प्रिय हैं, इसप्रकार आज्ञा पाय, नेम ग्रहण कर सुदक्षिण श्रीकृष्णकी घात और उनके मारनेके लिये जैसे शिवजीने आज्ञा दी थी उसी प्रकार करने लगा॥३१॥ हे राजन! तब कुण्डमेंसे अत्यन्त भयानक मूर्त्तिमान् अग्नि निकला, जिसकी तप्तता ताम्रके समान शिखा और दाढी मूछैं थीं, नेत्र और मुखसे अंगारे उगलता था॥३२॥ जिसका मुख, दाढ़ और बड़ी तीक्ष्ण भ्रुकुटी दंडसे विकराल हैं, इसप्रकार अपनी जीभसे होठोंको चाटता नग्न और देदीप्यमान त्रिशुलको घुमाता॥३३॥ बड़े तालके समान लम्बे पाँवोंसे पृथ्वीको कम्पायमान और दशों दिशाओंको

ततोऽग्निरुत्थितः कुंडान्मूर्तिमानतिभीषणः॥ तप्तताम्रशिखाश्मश्ररंगारोद्गारिलोचनः॥३२॥ दंष्टोग्रभ्रुकुटीदंडकठोरास्यः स्वजिह्वया॥ आलिहन्सृक्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलन्॥३३॥ पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कंपयन्नवनी तलम्॥ सोऽभ्यधावद् वृतोभूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः॥३४॥ तमाभिचारदहनमायांतं द्वारकौकसः॥ विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा॥३५॥ अक्षैः सभायां क्रीडंतं भगवंतं भयातुराः॥ त्राहित्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम्॥३६॥ श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्॥ शरण्यः संप्रहस्याह मा भैष्टेत्यविताऽस्म्यहम्॥३७॥ सर्वस्यांतर्बहिः साक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः॥ विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत्॥३८॥

जलाता, भूत प्रेतोंको संग लिये वह अग्नि द्वारकापुरीमें पहुॅचा॥३४॥ वनके जलनेसे मृग जैसा त्रास पातेहैं, ऐसी कृत्याग्निको देखकर उसी प्रकार सब द्वारकावासी लोग त्रास पानेलगे॥३५॥ और वह सब भयभीत हो सभामें पॉसोंसे खेलते श्रीकृष्णचन्द्रसे जाकर कहनेलगे कि, हे त्रिलोकीनाथ! अग्निसे सब पुरी भस्म हुई जाती है, इसकी रक्षा करो॥३६॥ मनुष्योंकी अधिक व्याकुलता सुन और अपने पुरवासियोंकी घबराहट देखकर, शरणागतोंके रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर “भय मत करो मैं रक्षा करूंगा” इस प्रकार कहनेलगे॥३७॥ सबके भीतर बाहरके देखनेवाले सामर्थ्यवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे श्रीमहादेवजीकी कृत्याग्नि जान उसका नाश करनेके लिये समीपही खडेहुये चक्रसे

आज्ञा करने लगे॥३८॥ करोड सूर्यके समान तेजस्वी प्रलयकालके, अग्निकी तुल्य कान्तिमान् अपने तेजसे आकाश, दिशा, स्वर्ग और पृथ्वीको प्रकाशमान करता भगवान्का अस्त्र सुदर्शनचक्र उस अग्निको पीडा देनेलगा॥३९॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्! श्रीकृष्णचन्द्रके अस्त्रके तेजसे प्रतिहत और भग्नमुख होकर वह अग्नि पीछेको लौटगई और काशीमें आकर यज्ञ करानेवाले ऋत्विजोसहित सुदक्षिणको जलानेलगी, क्योंकि अपना किया अभिचार है, इसका यही स्वभाव है कि, जो शत्रुपर चलजाय तो चलजाय, नहीं तो जो चलावै उसको भस्म करै, सो सुदक्षिणको क्षणमात्रमें भस्म करदिया॥४०॥ उस अग्निके पीछे पीछे आय श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रने मंचान सहिन सभा, हवेली, दूकान, पुरके दरवाजे और खजाने

तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्॥ स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी चक्रं मुकुंदास्त्रमथाग्निमार्दयत्॥३९॥ कृत्यानलः प्रतिहतः स रथांगपाणेरस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः॥ वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः॥४०॥ चक्रं च विष्णोस्तदनु प्रविष्टं वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्॥ सगोपुराट्टालककोष्ठसंकुलां सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालाम्॥४१॥ दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्॥ भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः॥४२॥ य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमश्लोकविक्रमम्॥ समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे पौंड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥

सहित अटारी, कोठे, घोडे, अन्न इनकी शालावाली काशी पुरीको क्षणमात्रमें भस्म करदिया॥४१॥ सरलकर्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका सुदर्शनचक्र संपूर्ण काशीको भस्म कर फिर निकट आनकर खड़ा होगया॥४२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत परीक्षित्! उत्तमश्लोक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह पराक्रम जो मनुष्य सावधान होकर श्रवण करतेहैं अथवा औरको श्रवण करातेहैं वह संपूर्ण पापोंसे छूट जाते हैं॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां पौंड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥

दोहा—सरसठमें बलरामजी, रैवत गिरिपर जाय। नारिन सँग क्रीड़ा करत, हनो द्विविद कपिराय॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! अद्भुतकर्मा अनन्त अप्रमेय बलदेवजीने जो जो चरित्र किये उनके सुननेकी फिर मेरी अभिलाषा है, सो कृपाकरके मेरे सन्मुख वर्णन कीजिये॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! नरकासुरका मित्र सुग्रीवका मंत्री और मयंदका भ्राता बडा पराक्रमी कोई वानर द्विविद नामसे प्रसिद्ध था *॥२॥ सो अपने मित्र नरकासुरका ऋण चुकानेके लिये इस बंदरने पुर, ग्राम, खानि, खिरक, छपरोंका और देशोंका नाश

राजोवाच॥॥ भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्भुतकर्मणः॥ अनंतस्याप्रमेयस्य यदन्यत्कृतवान्प्रभुः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ नरकस्य सखा कश्चिद्द्विविदो नाम वानरः॥ सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान्॥२॥ सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन्वानरो राष्ट्रविप्लवम्॥ पुरग्रामाकरान्घोषानदहद्वह्निमुत्सृजन्॥३॥ क्वचित्स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान्समचूर्णयत्॥ आनर्तान्सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः॥४॥ क्वचित्समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्य तज्जलम्॥ देशान्नागायुतप्राणो वेलाकूलानमज्जयत्॥५॥ आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन्॥ अद्वषयच्छ कृन्मूत्रैरग्नीन्वैतानिकान्खलः॥६॥

करदिया॥३॥ कभी यह बन्दर पर्वतोंको उठाय, उनसे देशोंका चकनाचूर कर देता और विशेष करके आनर्त्तदेशोंको महाकष्ट देनेलगा, क्योंकि नरकासुरके मारनेवाले श्रीकृष्ण वहीं विराजते थे॥४॥ दशहजार हाथीके बलवाला द्विविद बन्दर समुद्रके बीच में खडा होकर

भुजाओंसे जलको उछालता समुद्रके तटपर जो देश थे, उनको डुबोने लगा॥५॥ वह दुष्ट वानर बड़े बड़े ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर वृक्षोंको

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* शंका— द्विविद नाम वानर श्रीकृष्णका बडा प्यारा था, तब सब वानर तो त्रेतामें स्वर्गको चलेगये द्विविदको श्रीराघवजी स्वर्गको क्यों नहीं लेगये?

** उत्तर**— रामचन्द्र और रावणका युद्ध होता था, उस समय अर्द्धरात्रि थी द्विविद नाम वानरने रामचन्द्रसे बूझा भी नहीं अपनी सेना लेके रावणके मंदिर में घुसगया और बहुतसी रावणकी रानियोंको पकड कर नंगी कर दिया और मारा भी, कुछ देर पीछे श्रीमर्यादापुरुषोत्तम जो श्रीरघुनाथजी थे उनको यह खोटा कर्म द्विविदने किया ऐसा जानपदा, तब उसी समय श्रीरघुनाथजीने अपनी सेनासे उसको निकाल दिया द्विविदने पीछेसे अपने मोक्ष होनेके लिये श्रीरघुनाथजीकी विनय की, तब रामचन्द्रजीने कहा द्वापरमें तेरी मुक्ति होगी है दुष्ट! आजसे हम तेरा मुख नहीं देखेंगे परन्तु शेषजी तुझको द्वापरमें मारेंगे तब तेरी मोक्ष होगी इसलिये द्विविदको बलदेवजीने मारा और त्रेतामें स्वर्गको नहीं गया॥

तोड़, मल, मूत्र करके यज्ञकी अग्निको दूषित करनेलगा॥६॥ महाघमण्डी वह बन्दर स्त्री और पुरुषोंको पकड़ पकड़कर पर्वतोंकी गुफा व कंदराओमें रखकर जैसे भ्रमरी कीडको मूंद देती है उसी प्रकार मूंद देता था॥७॥ इस प्रकार वह बंदर देशोंमें उपद्रव करता और कुलकी स्त्रियोंको दोष लगाय, मनोहर गीत सुनकर रैवत नाम पर्वतपर चला गया॥८॥ वहाँ जाकर यादवोंके पालन करनेवाले, कमलकी माला धारण किये, सुन्दर अंग स्त्रियोंके बीचमें बैठे बलरामजीको देखा॥९॥ वारुणी मदिरा पीकर गान करते, मदसे विह्वल नेत्र मतवाले हाथियोंके समान शरीरसे प्रकाशमान॥१०॥ दुष्ट शाखामृग बन्दर वृक्षोकी शाखाओंपर चढकर उनको हिलाताहुवा आपेको दिखाकर किचिरशब्द करने

पुरुषान्योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः॥ निःक्षिप्य चाप्यधाच्छलैः पेशकारीव कीटकम्॥७॥ एवं देशान्विप्रकुर्वन्दूषयंश्च कुलस्त्रियः॥ श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ॥८॥ तत्रापश्यद्यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम्॥ सुदर्शनीयसर्वांगं ललनायूथमध्यगम्॥९॥ गायंतं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम्॥ विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम्॥१०॥ दुष्टः शाखामृगः शाखामारूढः कंपयन्द्रुमान्॥ चक्रे किल किलाशब्दमात्मानं संप्रदर्शयन्॥११॥ तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः॥ हास्यप्रिया विजहसुर्वल देवपरिग्रहाः॥१२॥ ता हेलयामास कपिर्भ्रूक्षेपैः संमुखादिभिः॥ दर्शयन्स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षतः॥१३॥ तं ग्राव्णा प्राहरत्क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः॥ स वंचयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः॥१४॥ गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपन्हसन्॥ निर्भिद्य कलशं धृष्टो वासांस्यास्फालयहलम्॥१५॥

लगा॥११॥ उस बन्दरकी धृष्टता देख, स्वभावसे चंचल जो हास्यप्रिय श्रीबलदेवजीके संगकी स्त्रियें भी हँसनेलगीं॥१२॥ वह बन्दर भ्रुकुटी चढ़ाकर सामने ही घुडककर स्त्रियोंको अपनी गुदा दिखलाय बलदेवजीके देखतेही स्त्रियोंकी अवज्ञा करने लगा॥१३॥ प्रहार करनेवालोंमें श्रेष्ठ बलदेवजीने क्रोधित होकर उस बन्दरको पत्थर मारा परन्तु वह धूर्त बन्दर पत्थरको बचाय, मदिराके कलशको फोड॥१४॥ उसे लेकर हँसकर बलदेवजीको क्रोध उत्पन्न कराय अवज्ञा करने लगा, इसके पीछे वह धृष्ट बन्दर मदिराके कलशको फोड स्त्रियोके वस्त्रोंको

खैंचकर फाडनेलगा॥१५॥ बडा बलवान् मदसे उद्धत बन्दर बलदेवजीकीभी कदर्थना करके दुःख देनेलगा॥ उस बन्दरकी अनम्रता देख और उसके किये देशोंमें उपद्रव देख अत्यन्त क्रोधित हो बलदेवजीने उस वैरीके मारनेके लिये अपने हाथमें हल, मूसल ग्रहण किया॥१६॥ हे राजन्! उस बडे पराक्रमी बंदरने भी हाथसे शालवृक्षको उखाड और शीघ्रतासे निकट आय उस वृक्षकी चोट भगवान् बलरामजीके माथेमें मारी॥१७॥ पर्वतके समान माथेपर पडतेहुए शालवृक्षको भगवान् बलरामजीने बलपूर्वक पकड लिया, और अपने मूसलको घुमाकर उस बन्दरको मारा॥१८॥ मूसलसे बन्दरका शिर फूटगया, तब जलप्रवाहके समान रुधिरकी धारा बहने लगी, जिससे वह गेरू निकलतेपर्वतके

कदर्थीकृत्य बलवान्विप्रचक्रे मदोद्धतः॥ तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान्॥ क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया॥१६॥ द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना॥ अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत्॥१७॥ तं तु संकर्षणो मूर्ध्नि पतंतमचलो यथा॥ प्रतिजग्राह भगवान्सुनंदेनाहनच्च तम्॥१८॥ मुसलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया॥ गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिंतयन्॥१९॥ पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा॥ तेनाहनत्सुसंक्रुद्धस्तं बलः शतधाऽच्छिनत्॥२०॥ ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाऽच्छिनत्॥ एवं युध्यन्भगवता भग्नेभग्ने पुनःपुनः॥२१॥ आकृष्य सर्वतो वृक्षान्निर्वृक्षमकरोद्वनम्॥ ततोऽमुंचच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः॥तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः॥२२॥

समान शोभायमान होनेलगा और उस प्रहारको कुछ न विचारकर उस बन्दरने॥१९॥ अत्यन्त क्रोधसे फिर बलपूर्वक और वृक्षको उखाड उसके सब पत्तोंको छुडाकर बलदेवजीको मारा, बलदेवजीने उसी समय उस वृक्षके टुकडे टुकडे कर दिये इसके उपरान्त इस बंदरने और वृक्षको उखाड महावीर्यवान् बलदेवजीके ऊपर प्रहार किया, परन्तु बलदेवजीने उसके भी सौ खण्ड कर दिये इसप्रकार भगवान् बलदेवजीके साथ युद्ध करके बारम्बार जब वृक्ष कटगये तब यह चारोंओरसे वृक्षोको उखाडकर निर्वृक्ष वन करनेलगा॥२०॥२१॥ इसके उपरान्त असहनतासे वह बन्दर महात्मा बलदेवजीके ऊपर पत्थरोंकी वर्षा करनेलगा, तब मूसलधारी बलदेवजीने लीलापूर्वकदी बन्दरके वर्षाये पत्थरोंको चूर्ण करदिया॥२२॥

बन्दरोंके स्वामी इस बन्दरने तालवृक्षके समान बड़ी भुजाओंकी मुट्टी बाँध, रोहिणीके पुत्र बलरामजीके पास जाकर उनकी छातीमें एक घूँसा मारा॥२३॥ हे राजन्! यादवोंके इन्द्र बलरामजी भी हल मूसलको छोड और अत्यन्त क्रोधित होकर भुजाओंसे उसके कंठको मर्दन करनेलगे, उससमय वह बन्दर रुधिरको वमन करताहुआ पृथ्वीमें गिरकर मृत्युको प्राप्तहुआ॥२४॥ हे कुरुशार्दूल! जिससमय वह बन्दर गिरा तब जैसे जलमें नाव कॉपती है, उसीप्रकार टंक और वृक्षोसहित वह पर्वत कॉपने लगा॥२५॥ आकाशमार्गमें देवता, सिद्ध, मुनीश्वर फूलोंकी वर्षाकर जय शब्द और नमःशब्द और भले भले शब्द करने लगे॥२६॥ इसप्रकार जगत्के नाश करनेवाले बन्दरको मार और जनोंसे स्तुतिको

स बाहू तालसंकाशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः॥ आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत्॥२३॥ यादवेंद्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललांगले॥ जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद्रुधिरं वमन्॥२४॥ चकंपे तेन पतता सटंकः सवनस्पतिः॥ पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवांभसि॥२५॥ जयशब्दो नमःशब्दः साधुसाध्विति चांबरे॥ सुरसिद्ध मुनींद्राणामासीत्कुसुमवर्षिणाम्॥२६॥ एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम्॥ संस्तूयमानो भगवाञ्जनैः स्वपुरमाविशत्॥२७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोध्यायः॥६७॥॥ श्रीशुक उवाच॥ दुर्योधनसुतां राजँल्लक्ष्मणां समितिंजयः॥ स्वयंवरस्थामहरत्सांबो जांबवतीसुतः॥१॥ कौरवाः कुपिता ऊचुर्दुर्विनीतोऽयमर्भकः॥ कदर्थीकृत्य नः कन्यामकामामहरद्बलात्॥२॥

प्राप्त होकर ऐसे भगवान् बलदेवजी अपनी पुरी द्वारकामें आये॥२७॥ इति श्रीमद्भागवतेमहापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥ दोहा—अरसठमाहीं साम्बको, कौरव कीन्हो बन्द॥ हलधर गजपुर उलटकर, लाये सुत निरद्वन्द॥६८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! युद्धमें जीतनेवाला जाम्बवतीका पुत्र साम्ब दुर्योधनकी पुत्री लक्ष्मणाको जब, स्वयंवरमेंसे हरलाया उससमय सम्पूर्ण कौरव क्रोधित होकर कहनेलगे कि, यह बालक बडा अनम्र है, क्योकि हमारा अनादर करके इच्छा न

करती हमारी कन्याको बलात्कार हरण किया॥१॥२॥ इसलिये इस अनम्र बालकको पकडकर बाँधलो, यादव हमारा क्या करैंगे, क्योंकि वह तो हमारीही प्रसन्नतासे वृद्धिको प्राप्त हुएहैं और हमारी ही दीहुई पृथ्वीका भोग करतेहैं॥३॥ यदि इस बालकको बँधा सुनकर जो यहां यादव आवेंगे, तो जैसे प्राणायाम करनेपर इन्द्रियें शान्त होजाती हैं, उसीप्रकार गर्वभंजन होनेपर शान्तिको प्राप्त होवेंगे॥४॥ हे महाराज! इस प्रकार भीष्मजीकी संगतिसे कर्ण, शल्य, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधन यह बाँधनेका उपाय करनेलगे॥५॥ महारथी साम्ब पीछे आते छः धृतराष्ट्रके अनुयायिओंको देखकर सुन्दर धनुष हाथमें ले सिंहके समान अकेलाही खड़ाहुआ॥६॥ इसके उपरान्त कर्णादि धनुषधारी वीर क्रोधमें भर

बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यंति वृष्णयः॥ येऽस्मत्प्रसादोपचितां दत्तां नो भुंजते महीम्॥३॥ निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यंतीह वृष्णयः॥ भग्नदर्पाः शमं यांति प्राणा इव सुसंयताः॥४॥ इति कर्णः शलो भूरिर्यज्ञकेतुः सुयोधनः॥ सांबमारेभिरे बद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिताः॥५॥ दृष्ट्वानुधावतः सांबो धार्तराष्ट्रान्महारथः॥ प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः॥६॥ तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धास्तिष्ठतिष्ठेतिभाषिणः॥ आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन्॥७॥ सोऽपाविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनंदनः॥ नामृष्यत्तदचिंत्यार्भः सिंहः क्षुद्रमृगैरिव॥८॥ विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान्विव्याध सायकैः॥ कर्णादीन्षड्रथान्वीरस्तावद्भिर्युगपत्पृथक्॥९॥ चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकैकेन च सारथीन्॥ रथिनश्च महेष्वासांस्तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन्॥१०॥

साम्बको पकडने के लिये “खड़ा रहु, खडा रहु" इसप्रकार कहतेहुए निकट आकर बाणोंकी वर्षा करनेलगे॥७॥ हे कुरुकुलभूष यदुवंशियोंको आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र साम्बको जब कौरवोंने बाण मारे तब वह, क्षुद्र पशुओंके पराक्रमको सिंह जैसे सहन नहीं करता है उसी प्रकार साम्ब उनका बल नहीं सहसके॥८॥ इसके पीछे वीर साम्बने मनोहर धनुष चढ़ाकर कर्णादिक छः वीरोको, छः बाणोसे एक संग बींधड़ाला॥९॥ चार बाणोंसे रथके चारों घोड़ोंको और एक बाणसे रथवानको बींध ड़ाला, तब बड़े बड़े धनुषधारी छः रथी

साम्बके पराक्रमकी प्रशंसा करनेलगे॥१०॥ उन कौरवोंमेंसे चार जने तो साम्बके चारों घोड़ोंको और एक जनेने रथवान्को मारा, एकने धनुषको तोड़दिया इस प्रकार मिलकर साम्बको विरथ करने लगे॥११॥ इसके उपरान्त हे परीक्षित्! कौरववीर युद्धमें बालक साम्बको विरथ कर उन्हें बाँध, जीतके अपनी कन्या ले अपने पुरमें चले गये॥१२॥ हे नृपोत्तम! देवर्षि नारदजीके मुखसे साम्बको बँधा सुन यादव अत्यन्त क्रोधित हो; राजा उग्रसेनकी आज्ञा पाकर कौरवोंसे लडनेका उद्यम करने लगे॥१३॥ कलियुगके पापोंका नाश करनेवाले बलदेवजी, कौरव और यादवोका विरोध न हो, यह विचार कवच पहर, हथियार बाँध, यादवोंको समझाय॥१४॥सूर्यके समान प्रकाशमान रथमें बैठ, ब्राह्मण

तं तु ते विरथं चक्रुश्चत्वारश्चतुरो हयान्॥ एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम्॥११॥ तं बद्धा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि॥ कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन्॥१२॥ तच्छत्वा नारदोक्तेन राजन्संजातमन्यवः॥ कुरून्प्रत्युद्यमं चक्रुरुग्रसेनप्रचोदिताः॥१३॥ सांत्वयित्वा तु तान्रामः सन्नद्वान्वृष्णिपुंगवान॥ नैच्छत्कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः॥१४॥ जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा॥ ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चंद्र इव ग्रहैः॥१५॥ गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः॥ उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्टं बुभुत्सया॥१६॥ सोऽभिवंद्यां बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च वाह्निकम्॥ दुर्योधनं च विधिवद्राममागतमब्रवीत्॥१७॥ तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम्॥ तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मंगलपाणयः॥१८॥

और कुलवृद्ध पुरुषोंको संग लेकर, जैसे ग्रहों सहित चन्द्रमा जाता है, उसी प्रकार हस्तिनापुरको चले गये॥१५॥ हे महाराज! महाबलवान् बलरामजीने हस्तिनापुरमें पहुँच और पुरके बाहर बगीचेमें ठहरकर कौरवोंका अभिप्राय जाननेके लिये धृतराष्ट्रके पास उद्धवजीको भेजा॥१६॥ उद्धवजीने अम्बिकाके पुत्र धृतराष्ट्रको प्रणाम कर भीष्मजी और बाह्नीकसहित द्रोणाचार्य व दुर्योधनको विधिपूर्वक प्रणाम करके “बलदेवजी आये हैं” यह कहा॥१७॥ अत्यन्त हितकारी बलरामजीको आयाहुआ सुन सब कौरव अतिप्रसन्न हो उद्धवजीका पूजनकर और भेंट हाथमें लेले भगवान् बलरामजीके सन्मुख गये॥१८॥

और संपूर्ण कौरवोंने यथायोग्य बलदेवजीसे मिलकर गौ और धन दिया और उन कौरवोंमें बलरामजीके प्रभावको जाननेवाले इन्हैं शिर नवाकर प्रणाम करनेलगे॥१९॥ समस्त बंधुबांधवोंकी कुशल श्रवणकर, परस्पर कुशल क्षेम पूँछ, इसके पीछे जिसके सुननेसे व्याकुलता उत्पन्न हो, ऐसा वचन बलरामजी कहनेलगे॥२०॥ बलरामजीने कहा कि, सामर्थ्यवान् पृथ्वीके ईश्वर राजा उग्रसेनने जो तुम्हैं आज्ञा की है, उसे एकाग्रचित्तसे श्रवणकर शीघ्र उसका पालन करो॥२१॥ राजा उग्रसेनने यह कहा है कि, तुम बहुत जनोंने जो अधर्म कर उस धर्मात्मा बालकको बॉधलिया है, यह तुम्हारा अपराध, भाइयोंकी परस्पर एकता रहै, विरोध न हो, इसलिये हमने सहन करलिया अब तुम शीघ्र साम्बको लाकर

तं संगम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यदेवयन्॥ तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम्॥१९॥ बंधून्कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम्॥ परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः॥२०॥ उग्रसेनः क्षितीशेशो यह आज्ञा पयत्प्रभुः॥ तदव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं मा विलंबितम्॥२१॥ यद्यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाऽधर्मेण धार्मिकम्॥ अबध्नीताथ तन्मृष्ये बंधूनामैक्यकाम्यया॥२२॥ वीर्यशौर्यबलोन्नद्धमात्मशक्तिसमं वचः॥ कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः॥२३॥ अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया॥ आरुरुक्षत्युपानद्वै शिरो मुकुटसेवितम्॥२४॥ एते यौनेन संबद्धाः सहशय्यासनाशनाः॥ वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद्दत्तनृपासनाः॥२५॥ चामरव्यजने शंखमात पत्रं च पाण्डुरम्॥ किरीटमासनं शय्यां भुंजंत्यस्मदुपेक्षया॥२६॥

हमको अर्पण करो॥२२॥ इसप्रकार पराक्रम, शूरता, बलयुक्त और अपने सामर्थ्यके समान बलरामजी के वचन सुन अत्यन्त कुपित होकर कौरव कहनेलगे॥२३॥ कि अहो! बड़े आश्चर्यकी बात है, देखो! कालकी गति बडी दुरत्यय है जो मुकुटके सेवाकरने योग्य मस्तकपर जूती अपना अधिकार करना चाहती है॥२४॥ इनके यहॉसे जबसे पृथाको व्याह कर लाये तबसेही यादवोंसे संबन्ध हुआ और हमनेही पलॅगपर सुवा, संगबिठा, संग भोजन करा, राज्यसिंहासन दे यादवोंको अपने समान कर लिया है॥२५॥ चमर, पंखा, श्वेतछत्र, किरीट, आसन और

शय्या इत्यादि हमारी दीहुई वस्तु यादवलोग भोग करते हैं जैसे कोई॥२६॥ सर्पोको दूध पिलाता है और वह पिलानेवालेकोही काटता है, उसी प्रकार इन्होने हमारे साथ वर्त्ताव किया, ऐसे यादव राज्यकी वस्तु छत्र, चामरादिकसे परिपूर्ण हो और हमारीही प्रसन्नतासे वृद्धिको प्राप्त हुये, अब हमकोही आज्ञा करते हैं, बड़े कष्टकी बात है कि, इन्हैं लाज न आई, इसलिये यादव बड़े निर्लज्ज हैं॥२७॥ भीष्म, द्रोण और अर्जुन आदि कौरवोकी नदीहुई वस्तु क्या इन्द्र भी लेसक्ता है? कभी नहीं, जिस प्रकार सिंहकी वस्तु उसके दिये विना भेड़ नहीं ग्रहण कर सक्ती॥२८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इस प्रकार जन्म बन्धु और लक्ष्मीसे मदोन्मत्त वह असभ्य कौरव बलरामजी से दुर्वचन कह

अलं यदूनां नरदेवलांछनैर्दातुः प्रतीपैः फणिनामिवामृतम्॥ येऽस्मात्प्रसादोपचिता हि यादवा आज्ञापयंत्यद्य गतत्रपा बत॥२७॥ कथमिंद्रोऽपि कुरुभिर्भीष्मद्रोणाजुनादिभिः॥ अदत्तमवरुंधीत सिंहग्रस्तमिवोरणः॥२८॥ श्रीशुक उवाच॥ जन्मबंधुश्रियोन्नद्धमदास्ते भरतर्षभ॥ आश्राव्य रामं दुर्वाच्यमसभ्याः पुरमाविशन्॥२९॥ दृष्ट्वा कुरूणां दौःशील्यं श्रुत्वाऽवाच्यानि चाच्युतः॥ अवोचत्कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन्मुहुः॥३०॥ नूनं नानामदोन्नद्धाः शांतिं नेच्छंत्यसाधवः॥ तेषां हि प्रशमो दंडः पशूनां लगुडो यथा॥३१॥ अहो यद्वन्सुसंरब्धान्कृष्णं च कुपितं शनैः॥ सांत्वयित्वाऽहमेतेषां शममिच्छन्निहागतः॥३२॥

कर हस्तिनापुरको चलेगये॥२९॥ कौरवोंकी दुष्टता देख और न कहने योग्य वचन सुन अत्यन्त क्रोधित हो, देखनेमें न आवैं इस प्रकार बलदेवजी वारंवार हॅसकर कहनेलगे॥३०॥ कि, अनेकप्रकार के मदसे मर्यादारहित असाधु कौरव निश्चयही शान्ति नहीं चाहते, पशु जैसे लाठीसेही शान्त होते हैं, उसी प्रकार दुष्टोंके शान्ति करनेका उपाय दण्डही है॥३१॥ अत्यन्त क्रोधी यादवोंको धीरे धीरे समझाकर और क्रोधमें भरे श्रीकृष्णको संमझाकर इन कौरवोंका मिलाप करानेके लिये मैं यहाॅ आयाहॅू॥३२॥

और यह मंदबुद्धि, कलहप्रिय, दुष्ट अभिमानी कौरवोंने मेरा अपमान करके और मुझे निन्दित वचन कहे॥३३॥ भोज, वृष्णि, अंधक कुलके ईश्वर, उग्रसेनकी आज्ञाको इन्द्रादि बडे बडे लोकपाल भी मानतेहैं सो क्या वह कौरवोंको आज्ञा करनेको समर्थ नहीं हैं॥३४॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्रने देवराज इन्द्रकी सभाको पाँवोंसे खूंद और देवताओंका कल्पवृक्ष लाकर अपने महलके बगीचेमें लगाया, वह क्या समर्थ नहीं हैं?॥३५॥ संपूर्ण जगत्की ईश्वरी लक्ष्मी साक्षात् जिनके चरणारविन्दोंका सेवन करें वह लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्र क्या राजाओंकी वस्तुके योग्य नहीं हैं॥३६॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दोंकी रज, सब लोकोंका पालन करनेवाले ब्रह्मादिक अपने मुकुटयुक्त माथेपर धारण करतेहैं और जो गंगा

त इमे मंदमतयः कलहाभिरताः खलाः॥ तं मामवज्ञाय मुहुर्दुर्भाषान्मानिनोऽब्रुवन्॥३३॥ नोग्रसेनः किल विभुर्भो जवृष्ण्यंधकेश्वरः॥ शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः॥३४॥ सुधर्माऽऽम्यते येन पारिजाताऽमरांघ्रिपः॥ आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः॥३५॥ यस्य पादयुगं साक्षाच्छ्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी॥ स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान्॥३६॥ यस्यांघ्रिपंकजरजोऽखिललोकपालैर्मोल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम्॥ ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व॥३७॥ भुंजते कुरुभिर्दत्तं भूखंडं वृष्णयः किल॥ उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः॥३८॥ अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम्॥ असंबद्धा गिरो रूक्षाः कः सहेतानुशासिता॥३९॥ अद्य निष्कौरवीं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः॥ गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम्॥४०॥

तीर्थोंको पवित्र करनेवाली हैं, जिनके अंशके अंश ब्रह्मा, महादेव, लक्ष्मी और हम संपूर्ण बहुत दिनोंतक चरणारविन्दकी रजको माथे पर धारण करते हैं उन श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख राजसिंहासन क्या पदार्थ है?॥३७॥ कौरवोंने पृथ्वीके खण्ड कर दिये हैं उसका यादव भोग करते हैं और हम पाँवकी जूती और कौरव शिर ठहरे॥३८॥ अहो! ऐश्वर्यसे मतवालोंके समान अभिमानी कौरवोंके कर्कश टेढ़े वचनोंको सुनकर दण्डका देनेवाला कौन पुरुष सह सकेगा?॥३९॥ इसलिये अब कौरवोंसे रहित पृथ्वी करूंगा; इसप्रकार भगवान्

बलदेवजी मनमें निश्चयकर हल हाथमें ले। नो त्रिलोकीको भस्म करदेंगे, ऐसे अत्यन्त क्रोधित हो खडे होगये॥४०॥ असहनतासे बलदेवजीने हलके अग्रभागसे हस्तिनापुरको उखाडकर नाश करनेके लिये गंगाजीकी ओर खैॆचा *॥४१॥ नौकाके समान भ्रमण करते गंगाजीमें गिरते नगरको देख अत्यन्त भ्रमित हो, कौरव लक्ष्मणासहित साम्बको आगे कर, हाथ जोड कुटुम्बसहित जीवनकी इच्छा करके सामर्थ्यवान् भगवान्

लांगलाग्रेण नगरमुद्विदार्य गजाह्वयम्॥ विचकर्ष स गंगायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः॥४१॥ जलयानमिवाघूर्णं गंगायां नगरं पतत्॥ आकृष्यमाणमालोक्य कौरवा जातसंभ्रमाः॥४२॥ तमेव शरणं जग्मुः सकुटुंबा जिजीषवः॥ सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य सांबं प्रांजलयः प्रभुम्॥४३॥ राम रामखिलाधार प्रभावं न विदाम ते॥ मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षंतुमर्हस्यतिक्रमम्॥४४॥ स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः॥ लोकान्क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदंति हि॥४५॥ त्वमेव मूर्ध्नीदमनंत लीलया भूमंडलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन्॥ अंते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः॥४६॥

बलरामजीकी शरण आये॥४२॥४३॥ और आनकर कहने लगे कि, हे राम! हे राम! हे सबके आश्रय! हम तुम्हारा प्रभाव नहीं जानते थे, इसलिये हमारे ऊपर तुम क्षमा करनेयोग्य हो॥४४॥ स्थिति, उत्पत्ति और नाश इनके तुम निराश्रय कारण हो, हे ईश! यह लोक तुम्हारी लीला करनेका खिलौना है॥४५॥ हे अनन्त! हे सहस्रमूर्द्धन! तुम इस भूमंडलको लीलापूर्वकही मस्तकपर धारण करते हो और

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* शका— हस्तिनापुरमें अनेक प्रकारके प्राणी तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, साधु, सन्यासी, गाय, पशु और अनेक जातिके पशु पक्षी बसते थे, ऐसे हस्तिनापुरको जलमें हुबोनेके लिये बलदेवजी उपस्थित हुए इस पापसे नहीं डरे कि, हस्तिनापुर को जलमें डुबोचेंगे तो असत्य जीवोंकी हत्या होगी यह विचार क्यों नहीं किया? अकेले कौरवोंको डुबोनेकी क्यों नहीं इच्छा की सब पुरवासियोंने क्या अपराध किया था अपराध तो कौरवोंने किया था?

** उत्तर**— कौरवोंने उग्रसेनकी और यदुवशियोंकी निन्दा करी, तब बलदेवजी अपने बटोंकी और सब कुलकी निन्दा सुनके बडे क्रोधित हुये उसी क्रोधसे व्याकुल होकर जीवोंकी हत्याको भूलगये॥

अंतसमय सब विश्वको उदरमें धरकर शेषशय्यापर शयन करते हो, इसलिये आप अद्वितीय ब्रह्म हो॥४६॥ हे भगवन्! सतोगुणी तुम्हारा क्रोध सबकी शिक्षा देनेके लिये है, कुछ द्वेष और मत्सरता नहीं है, हे राम! विश्वकी स्थिति और पालन करना कोपका तात्पर्य है॥४७॥ हे सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा! हे सम्पूर्ण शक्तिके धारण करनेवाले! आपको नमस्कार है, हे विश्वके धारण करनेवाले, हम आपकी शरण आये हैं॥४८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम! उद्वेगयुक्त शरण आये कौरवोंने कि, जिनका नगर कम्पित हो रहा था, जब इस प्रकारसे भगवान् बलदेवजीको प्रसन्न किया, तब बलरामजीने प्रसन्न होकर उनको, “भय मत करो” यह अभय दान दिया॥४९॥ इसके उपरान्त दुर्योधनने अपनी कन्याके

कोपस्तेखिऽलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात्॥ बिभ्रतो भगवन्सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः॥४७॥ नमस्ते सर्वभूतात्मन्सर्वशक्तिधराव्यय॥ विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः॥४८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं प्रपन्नैः संविग्नैर्वेपमानायनैर्बलः॥ प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ॥४९॥ दुर्योधनः पारिबर्हं कुंजरान्षष्टिहाय नान्॥ ददौ च द्वादशशतान्ययुतानि तुरंगमान्॥५०॥ रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम्॥ दासीनां निष्ककंठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः॥५१॥ प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं भगवान्सात्वतर्षभः॥ ससुतः सस्नुषः प्रायात्सुहृद्भिर भिनंदितः॥५२॥ ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः समेत्य बधूननुरक्तचेतसः॥ शशंस सर्वं यदुपुंगवानां मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम्॥५३॥ अद्यापि च पुरं ह्येतत्सूचयद्रामविक्रमम्॥ समुन्नतं दक्षिणतो गंगायामनु दृश्यते॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे हस्तिनपुरकर्षणविजयो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥

दहेजमें साठ साठ वर्षकी अवस्थाके बारह सहस्र हाथी और बारह हजार घोड़े दिये॥५०॥ हे राजन्! सुर्वण के साजसे शोभायमान, सूर्यके समान चमचमाहट ऐसे छः हजार रथ दिये और पुत्रीपर प्यार अधिक होनेके कारण दुर्योधनने धुकधुकी कंठमें पहरे हजार दासी दीं॥५१॥ यादवश्रेष्ठ बलदेवजीने सम्पूर्ण दहेज ग्रहणकर और बेटा बहूको संग ले, कौरवोंका अभिवादन ग्रहणकर वहाॅसे प्रस्थान किया॥५२॥ हे नृप! सम्पूर्ण कौरवोसे बिदा हो हलधारी बलदेवजी अपने पुरमें आय, स्नेह भरे चित्तसे, सब बन्धु बांधवोंसे मिल उत्तम यादवोंकी सभामें बैठ कौरवोने जो जो बातें की थीं, सो सो सब कहने लगे॥५३॥ हे राजा परीक्षित्! इसकारण अबतक हस्तिनापुर, बलरामजीके

पराक्रमको सूचना कराता, दक्षिण दिशाकी ओरसे गंगाजीमें झुका दिखाई देताहै॥५४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे भापाटी कायां संकर्षणविजयो नामाष्टषष्टितमोध्यायः॥६८॥ दोहा—उनहत्तरवें देखकर, घर घर कृष्णविहार॥ अति विस्मित भये देवऋषि, पुनि सब मिटो विकार॥६९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन परीक्षित्! नरकासुरका बधकर अकेले भगवान् ने बहुत स्त्रियोंके साथ विवाह किया यह बात सुन देखनेकी इच्छा से देवर्षि नारद द्वारकापुरीमें आये *॥१॥ नारदजी विचार करनेलगे कि, बडे आश्चर्यकी बात है, एक

श्रीशुक उवाच॥ नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम्॥ कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद्दिदृक्षुः स्म नारदः॥१॥ चित्रं वतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक्॥ गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत्॥२॥ इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमा गमत्॥ पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम्॥३॥ उत्फुल्लेंदीवरांभोजकह्रारकुमुदोत्पलैः॥ छुरितेषु सरस्सूच्चैः कूजितां हंससारसैः॥४॥

देहसे एक संग, अलग घरोंमें सोलह सहस्र स्त्रियोंका श्रीकृष्णचन्द्रने एकही साथ पाणिग्रहण किया॥२॥ इसप्रकार उत्कंठासे नारदजी द्वारकापुरीमें आये, जिस द्वारकापुरीमें फूली फुलवारी और बागमे पक्षी तथा भौरोंके झुण्ड गुंजार रहे थे॥३॥ फूलेहुए इंदीवर, अंभोज, कह्रार, कुमुद और उत्पलोंसे सरोवर व्याप्त थे उनमें उच्चस्वरसे हंस सारस बोलते थे, उनका शोर होरह्रा था॥४॥

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** * शंका**— मुनीश्वर नारदकी बुद्धि क्यों भ्रष्ट होगई? त्रिलोकीनाथको षोडश सहस्र १६००० स्त्रियों के संग क्रीडा सुनके आश्चर्यमानना विना प्रयोजन दुःखी होना यह काम साधुलोगोंका नहीं है, यह काम तो मूर्खोका है, जो कोई कहे कि, नारदको माया ग्रसित कररहीहैं, तो यह बात वृथा है, माया तो वारम्बार ग्रसित नहीं करती है, वारवार पाप ग्रसित करता है॥
** उत्तर**— जो कोई प्राणी भूलकर थोढासा भी पाप करलेता है, फिर वह पाप करनेसे नहीं डरता ऐसेही बहुतसे जीवोंको विना विचार किये नारदने शाप दिया इसीप्रकार बहुतसे जीवोंको नारदने शाप देकर दुःख दिया, उन पापोंसे मक्तवत्सल श्रीकृष्ण उन भगवान्में दुष्टबुद्धि करने लगे, पापसे सम्पूर्ण मूर्ख होगये॥

स्फटिकमणि और महामणियोंसे प्रकाशमान सुवर्ण व रत्नोंकी सामग्रीसे युक्त नौलाख महल बन रहेथे॥५॥ अलग अलग राजमार्ग और गली, कूचे, बाजार, शाला, सभा और देवतालोगोंके मन्दिर बन रहेथे, उनसे वह पुरी अत्यन्त शोभायमान लगतीथी, मार्ग, आँगन, गली और देहलियोंमें छिडकाव होरहा था, छोटी २ पताका और बड़ी बड़ी ध्वजाओंके फहराने से यहाॅ धूप नहीं आतीथी॥६॥ इस द्वारकापुरीमें सम्पूर्ण लोकपालोंस पूजित श्रीकृष्णचन्द्रके अंतःपुरकी रचनामें विश्वकर्माने अपनी संपूर्ण चतुराई दिखाई थी॥७॥ इसप्रकार सोलह हजार महलोसे शोभायमान अंतःपुरसे श्रीकृष्णचन्द्रकी रानीके एक भवनमें देवर्षि नारदजी गये॥८॥ वह भवन कैसा है, जहॉ मूँगोंके खम्भ लगरहे थे और वैदूर्यमणियो के फलकोत्तम

प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः॥ महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥५॥ विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः॥ संसिक्तमार्गांगणवीथिदेहलिं पतत्पताकाध्वजवारितात्पम्॥६॥ तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः॥ हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्टा कार्त्स्न्येन दर्शितम्॥७॥ तत्र शोडशभिः सद्मसहस्रैः समलं कृतम्॥ विवेशैकतमं शौरैः पत्नीनां भवनं महत्॥८॥ विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैर्वैडूर्यफलकोत्तमैः॥ इंद्रनीलमयैः कुड्यै र्जगत्यां चाऽहतत्विषा॥९॥ वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलंबिभिः॥ दांतैरासनपर्यंकैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥१०॥ दासीभिर्निष्ककंठीभिः सुवासोभिरलंकृतम्॥ पुंभिः सकंचुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥११॥ रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभि र्निरस्तध्वांतं विचित्रबलभीषु शिखंडिनोंऽग॥ नृत्यंति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैर्निर्यांतमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥१२॥

अर्थात् खम्भधरनेकी चौकियें बन रही थीं, इन्द्रनीलमणियोंकी भीतैं और अत्यन्त शोभायमान नीलमणिकी भूमि बन रही थी॥९॥ मोतियोंकी झालर जिनमें लगीं, ऐसे विश्वकर्माके बनाये चॅदोवेसे वह भवन अधिक शोभायमान था, मणियोंसे शोभायमान हाथीदाँतकी चौकी और पलॅग विछरहे थे, उनकी अलगही शोभा होरही थी॥१०॥ धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दरवस्त्र धारे दासियोंसे शोभायमान जामा, पगडी, पटका और मणियोंके कुण्डलोंको पहरे पुरुषोंसे शोभायमान था॥११॥ हे राजा परीक्षित्! रत्नोंके दीपकोंकी

पंक्ति लग रही थीं उनके प्रकाशसे उस भवनमें अन्धकार नहीं था और घरोंके भीतर अगरकी धूपका धुआँ जाली झरोखोंमें होकर निकल रहा था उसे देख बादल आये जान मोर शब्द करके भवनके चित्र विचित्र छज्जोंके ऊपर नृत्य कर रहे थे॥१२॥ उस महलमें रूप, गुण, अवस्थामें अपने समान, गहनापहरे सहस्र दासियोंके संग सदा सुवर्णकी दंडीका चमर पंखा लिये रुक्मिणी यादवपति श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर चॅवर कर रहीथी इस प्रकार नारदजीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥१३॥ सब धर्मके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने नारदजीको देख, पलँगपर से शीघ्र उठ किरीटयुक्त शोभायमान शिरसे चरणों में नमस्कार कर हाथ जोड़ उन्हैं अपने आसनपर

तस्मिन्समानगुणरूपवयः सुवेषदासीसहस्रयुतयाऽनुसर्व गृहिण्या॥ विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्मदण्डेन सात्वत पतिं परिवीजयंत्या॥१३॥ तं संनिरीक्ष्य भगवान्सहसोत्थितः श्रीपर्यंकतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः॥ आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीटजुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥१४॥ तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना विभ्रज्जगद्गुरु तरोपि सतां पतिर्हि॥ ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनामयुक्तं तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥१५॥ संपूज्य देवऋषिवर्य मृषिः पुराणो नारायणो नरसखो विधिनोदितेन॥ वाण्याभिभाष्य मितयाऽमृतमिष्टया तं प्राह प्रभो भगवते करवामहे किम्॥१६॥ नारद उवाच॥ नैवाद्भुतं तव विभोऽखिललोकनाथ मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्॥ निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥१७॥

बैठाला॥१४॥ जगत्के अतिशय गुरु साधुओंके रक्षक श्रीकृष्णचन्द्र ने देवर्षि नारदजीके चरण धो, चरणामृत अपने मस्तकपर चढ़ाया, जिन श्रीकृष्णका चरणोदक गंगा सबको पवित्र करतीहैं उनमें ब्रह्मण्यदेव यह गुणयुक्त नाम ज्योंका त्यों बनता है॥१५॥ नरके सखा ऋषियोंमें श्रेष्ठ नारायण, नारदजीको शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पूजनकर अमृतकी तुल्य प्रमाणीभूत मधुर वाणी से कहने लगे कि, हे नारदजी! आपके आने से मंगल हुआ हे समर्थ भगवन्! हम तुम्हारा क्या पूजन करै? यह कहने लगे॥१६॥ नारदजी बोले कि, हे समर्थ! हे उरुगाय! आप सब जीवोंसे मित्रता रखते हो और दुष्टोंको दण्ड देते हो, सब लोकोंके नाथ तुममें यह आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जगत्की स्थिति और रक्षासहित कल्याण करनेके लिये

स्फटिकमणि और महामणियोंसे प्रकाशमान सुवर्ण व रत्नोंकी सामग्रीसे युक्त नौलाख महल बन रहे थे॥५॥ अलग अलग राजमार्ग और गली, कूचे, बाजार, शाला, सभा और देवतालोगोके मन्दिर बन रहेथे, उनसे वह पुरी अत्यन्त शोभायमान लगतीथी, मार्ग, आँगन, गली और देहलियोंमें छिडकाव होरहा था, छोटी २ पताका और बड़ी बड़ी ध्वजाओंके फहराने से यहाॅ धूप नहीं आतीथी॥६॥ इस द्वारकापुरीमें सम्पूर्ण लोकपालोंसे पूजित श्रीकृष्णचन्द्रके अंतःपुरकी रचनामें विश्वकर्माने अपनी संपूर्ण चतुराई दिखाईथी॥७॥ इसप्रकार सोलह हजार महलोंसे शोभायमान अंतःपुरसे श्रीकृष्णचन्द्रकी रानी के एक भवनमें देवर्षि नारदजी गये॥८॥ वद भवन कैसा है, जहाॅ मँगोंके खम्भ लगरहे थे और वैदूर्यमणियो के फलकोत्तम

प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः॥ महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥५॥ विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः॥ संसिक्तमार्गांगणवीथिदेहलिं पतत्पताकाध्वजवारितात्पम्॥६॥ तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः॥ हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्टा कार्त्स्न्येन दर्शितम्॥७॥ तत्र शोडशभिः सद्मसहस्रैः समलं कृतम्॥ विवेशैकतमं शौरेः पत्नीनां भवनं महत्॥८॥ विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैर्वैडूर्यफलकोत्तमैः॥ इंद्रनीलमयैः कुड्यै र्जगत्यां चाऽहतत्विषा॥९॥ वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलंविभिः॥ दांतैरासनपर्यंकैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥१०॥ दासीभिर्निष्ककंठीभिः सुवासोभिरलंकृतम्॥ पुंभिः सकंचुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥११॥ रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभि र्निरस्तध्वांतं विचित्रबलभीषु शिखंडिनोंऽग॥ नृत्यंति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैर्निर्यांतमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥१२॥

अर्थात् खम्भधरनेकी चौकियें बन रही थीं, इन्द्रनीलमणियोंकी भीतैं और अत्यन्त शोभायमान नीलमणिकी भूमि बन रही थी॥९॥ मोतियोंकी झालर जिनमें लगीं, ऐसे विश्वकर्माके बनाये चॅदोवेसे वह भवन अधिक शोभायमान था, मणियोंसे शोभायमान हाथीदाँतकी चौकी और पलॅग विछरहे थे, उनकी अलगही शोभा होरही थी॥१०॥ धुकधुकी कंठमें पहरे सुन्दरवस्त्र धारे दासियोंसे शोभाय मान जामा, पगडी, पटका और मणियोके कुण्ड़लोंको पहरे पुरुषोसे शोभायमान था॥११॥ हे राजा परीक्षित्! रत्नोंके दीपकोंकी

पंक्ति लग रही थीं उनके प्रकाशसे उस भवनमें अन्धकार नहीं था और घरोंके भीतर अगरकी धूपका धुऑ जाली झरोखोंमें होकर निकल रहा था उसे देख बादल आये जान मोर शब्द करके भवन के चित्र विचित्र छज्जोके ऊपर नृत्य कर रहे थे॥१२॥ उस महलमें रूप, गुण, अवस्थामें अपने समान, गहनापहरे सहस्र दासियोंके संग सदा सुवर्णकी दंडीका चमर पंखा लिये रुक्मिणी यादवपति श्रीकृष्णचन्द्र के ऊपर चॅवर कर रहीथी इस प्रकार नारदजीने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥१३॥ सब धर्मके जाननेबालोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने नारदजीको देख, पलँगपरसे शीघ्र उठ किरीटयुक्त शोभायमान शिरसे चरणोंमें नमस्कार कर हाथ जोड़ उन्हैं अपने आसनपर

तस्मिन्समानगुणरूपवयः सुवेषदासीसहस्रयुतयाऽनुसवं गृहिण्या॥ विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्मदण्डेन सात्वत पतिं परिवीजयंत्या॥१३॥ तं संनिरीक्ष्य भगवान्सहसोत्थितः श्रीपर्यंकतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः॥ आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीटजुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥१४॥ तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना विभ्रज्जगद्गुरु तरोपि सतां पतिर्हि॥ ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनामयुक्तं तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥१५॥ संपूज्य देवऋषिवर्य मृषिः पुराणो नारायणो नरसखो विधिनोदितेन॥ वाण्याभिभाष्य मितयाऽमृतमिष्टया तं प्राह प्रभो भगवते करवामहे किम्॥१६॥ नारद उवाच॥ नैवाद्भुतं तव विभोऽखिललोकनाथ मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्॥ निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥१७॥

बैठाला॥१४॥ जगत्के अतिशय गुरु साधुओंके रक्षक श्रीकृष्णचन्द्रने देवर्षि नारदजीके चरण धो, चरणामृत अपने मस्तकपर चढ़ाया, जिन श्रीकृष्णका चरणोदक गंगा सबको पवित्र करतीहैं उनमें ब्रह्मण्यदेव यह गुणयुक्त नाम ज्योंका त्यों बनता है॥१५॥ नरके सखा ऋषियोंमें श्रेष्ठ नारायण, नारदजीको शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पूजनकर अमृतकी तुल्य प्रमाणीभूत मधुर वाणीसे कहने लगे कि, हे नारदजी! आपके आने से मंगल हुआ हे समर्थ भगवन्! हम तुम्हारा क्या पूजन करै? यह कहने लगे॥१६॥ नारदजी बोले कि, हे समर्थ! हे उरुगाय! आप सब जीवोंसे मित्रता रखते हो और दुष्टोंको दण्ड देते हो, सब लोकोंके नाथ तुममें यह आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जगत् की स्थिति और रक्षासहित कल्याण करनेके लिये

अपनी इच्छानुसार अवतार लेते हो मैं भले प्रकार जानता हूँ कि, दुष्टोंको दण्ड और साधुओंका सत्कार करना, यही तुमको योग्य है॥१७॥ मनुष्योंको मोक्षके देनेबाले और बड़े ज्ञानी, ब्रह्मादिक देवता जिनका हृदयमें ध्यान धरते हैं, जो संसाररूपी कूपमें पडे जीवोंको निकालनेके आश्रय भूत तुम्हारे चरणारविन्दोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ, अब ऐसी कृपा करो कि, मुझे सदा तुम्हारा स्मरण बना रहे और तुम्हारे चरणारविन्दोंका ध्यान करताहुआ सुखसे विचरूं॥१८॥ हे राजा परीक्षित! इसप्रकार कह नारदजी योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमाया जाननेकेलिये श्रीकृष्णचन्द्रकी और रानीके महलमें गये॥१९॥ उस महलमें भी प्यारी सत्यभामाके संग और उद्धवजीके संग चौपड़ खेलते श्रीकृष्णचन्द्रको देवर्षि नारदजीने

दृष्टं तवांघ्रियुगलं जनताऽपवर्गं ब्रह्मादिभिर्हृदि विचित्यमगाधबोधैः॥ संसारकूपपतितोत्तरणावलंबं ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात्॥१८॥ ततोऽन्यदाविशद्गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः॥ योगेश्वरेश्वरस्यांग योगमायाविवित्सया॥१९॥ दीव्यंतमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च॥ पूजितः पराया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः॥२०॥ पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति॥ क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णैरस्मदादिभिः॥२१॥ अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मञ्जन्मैतच्छोभनं कुरु॥ स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यद्गृहम्॥२२॥ तत्राप्याचष्ट गोविंदं लालयंतं सुताञ्छिशून्॥ ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यमम्॥२३॥ जुह्वतं च वितानाग्नीन्यजंतं पंचभिर्मखैः॥ भोजयंतं द्विजान्क्वापि भुंजानमवशेषितम्॥२४॥

देखा इनको देखतेही श्रीकृष्णचन्द्र परमभक्तिपूर्वक उठ आसन बिछाय, अर्ध्य देकर पूजन करनेलगे॥२०॥ “तुम कब आये” इस प्रकार अज्ञानीके समान श्रीभगवान् नारदजी से पूॅछने लगे, पूर्ण तुमको हम अपूर्ण क्या पूजन करैं॥२१॥ हे ब्रह्मन्! हम पूर्ण नहीं हैं, परन्तु तो भी हमसे कुछ आज्ञाकर हमारा जन्म सार्थक करो, यह सुन नारदजी आश्चर्य मानकर वहाँसे और मन्दिर में गये॥२२॥ उस महलमें भी छोटे छोटे बालकोको खिलाते श्रीकृष्णचन्द्रजीको देखा, इसके उपरान्त और महलोंमें जाकर देखैं तो स्नानका उपाय कररहे हैं॥२३॥ किसी महलमें श्रीकृष्णचन्द्र अग्निहोत्र कररहे हैं, किसीमें पंचयज्ञ कररहे हैं और किसी महलमें ब्राह्मणोंको भोजन जिमाय उनका बचा प्रसाद आप भोजन

कररहे हैं, इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥२४॥ किसी महलमें संध्या और किसीमें मौन होकर गायत्री जप रहे हैं, एक महलमें ढाल तलवार लेकर फिररहे हैं इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन हुआ॥२५॥ किसीमहलमें घोडे, हाथी रथोंपर चढ़कर फिररहे हैं और किसी महलमें शयन कर रहे बन्दीजन स्तुति कररहे हैं, इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका नारदजीने दर्शन किया॥२६॥ किसी महलमें उद्धवा दिक मंत्रियोंके संग विहार करते देखा और किसी महलमें मुख्य मुख्य वारांगना स्त्रियोके संग जलमे विहार करते श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥२७॥ किसी महलमें शृंगार करके ब्राह्मणोंको गौ दान कररहे हैं और किसी महलमें इतिहास, पुराण, मंगलरूपी वाक्य श्रवण करते

क्वापि संध्यामुपासीनं जपंतं ब्रह्म वाग्यतम्॥ एकत्र चासिचर्मभ्यां चरंतमसिवर्त्मसु॥२५॥ अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरंतं गदाग्रजम्॥ क्वचिच्छयानं पर्यंके स्तूयमानं च बंदिभिः॥२६॥ मंत्रयंतं च कस्मिश्चिन्मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः॥ जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याऽबलावृतम्॥२७॥ कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलंकृताः॥ इतिहास पुराणानि शृण्वंतं मंगलानि च॥२८॥ हसंतं हासकथया कदाचित्प्रियया गृहे॥ क्वापि धर्मं सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित्॥२९॥ ध्यायंतमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम्॥ शुश्रूषंतं गुरून्क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया॥३०॥ कुर्वंतं विग्रहं कैश्चित्संधिं चान्यत्र केशवम्॥ कुत्रापि सह रामेण चिंतयंतं सतां शिवम्॥३१॥ पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम्॥ दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयंतं विभूतिभिः॥३२॥

श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन किये॥२८॥ किसी महलमें हॅसीकी बात कहकर श्रीकृष्णचन्द्र प्यारीके संग हॅसरहे हैं, किसी महलमें अपने धर्मकी सेवा करते हैं और किसी महलमें अर्थ और कामका संपादन कररहे हैं॥२९॥ किसी महल में मायासे अतीत परब्रह्मका एकासनपर बैठे ध्यान कर रहेहैं और किसी महलमें काम, भोग, पूजन इत्यादिसे गुरुकी शुश्रूषा कर रहे हैं॥३०॥ किसी महलमें वियोग और किसीमें मिलापकी बातें कररहे हैं और किसी महलमें बलदेवजीके संग साधुओंके सुखार्थ यत्न कररहे हैं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥३१॥ किसी महलमें पुत्रको, समयपर सदृश स्त्रियोको देखकर विवाद करते हैं और किसी महलमें अपनी कन्याके समान वर देख द्रव्योंकरके विवाह

करतेहैं॥३२॥ किसी महलमें कन्या और जमाईका बिदा कर रहे हैं और किसी महलमें पुत्रोंको सुसराल भेजकर उनकी स्त्रियोंको बुलातेहैं, इस प्रकार योगेश्वरोके ईश्वर, श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्रोका बडा उत्सव देख लोग आश्चर्यको प्राप्त होगये॥३३॥ किसी महलमें बड़े यज्ञोंसे अपनी कुल देवताओंका पूजन कररहेहैं और किसी महलमें, अमुक रास्तेमें कुआँ बनाओ, बाग लगाओ और नवीन मंदिर बनवावो, इस प्रकार धर्म करते श्रीकृष्णचन्द्रको देवर्षि नारदजीने देखा॥३४॥ किसी महल से सिंधुदेशके घोडेपर चढ, यादवोंको संग ले शिकार खेलनेको जारहेहैं, वहॉ चित्र विचित्र मेध्य पशुओंको मारते श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥३५॥ किसी महलमें अपना रूप छिपाकर अंतःपुरके भीतर गृहादिमें प्रजाका अभिप्राय

प्रस्थापनोपानयनैरपत्यानां महोत्सवान्॥ वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिष्मिरे॥३३॥ यजंतं सकलान्दे वान्क्वापि ऋतुभिरूर्जितैः॥ पूर्तयंतं क्वचिद्धर्मं कूपाराममठादिभिः॥३४॥ चरंतं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम्॥ घ्नंतं ततः पशून्मेध्यान्परीतं यदुपुंगवैः॥३५॥ अव्यक्तलिंगं प्रकृतिष्वंतःपुरगृहादिषु॥ क्वचिच्चरंतं योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया॥३६॥ अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव॥ योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषो गतिम्॥३७॥ विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम्॥ योगेश्वरात्मन्निर्भाता भवत्पादनिषेवया॥३८॥ अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसा प्लुतान्॥ पर्यटासि तवोद्गायँल्लीलां भुवनपावनीम्॥३९॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मन्धर्मस्य वक्ताऽहं कर्ता तदनुमोदिता॥ तच्छिक्षयँल्लोकमिममास्थितः पुत्र मा खिदः॥४०॥

जाननेके लिये विचरते योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥३६॥ इस प्रकार मनुष्यदेहको प्राप्तहुए श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमायाका वैभव देख संपूर्ण लीला देखनेके उपरान्त नारदजी हँसकर कहने लगे॥३७॥ कि, हे योगेश्वर! तुम्हारे चरणारविन्दोकी सेवा करके मेरे मनमें प्रकाशमान तुम्हारी योगमायाही केवल हम जानतेहैं और तुम्हारा सत्यस्वरूप नहीं जानते॥३८॥ हे देव! तुम्हारे यशसे व्याप्त लोकोमें सब लोकोंकी पवित्र करनेवाली तुम्हारी लीला मैं गाता फिरूं, यह आज्ञा तुम मुझे दो इस प्रकार नारदजीने कहा॥३९॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्रह्मन्! मैं धर्मका कहनेवाला हूं और दूसरेको धर्म करता देखकर प्रशंसा करताहूं, इस कारण सब लोकोके शिखानेके लिये मैं कर्म करताहूं इसलिये

हे अंग! तुम अपने मनमें खेद मत करो॥४०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! इस प्रकार गृहस्थ पुरुषोंके पवित्र करनेवाले, श्रेष्ट धर्मके कर्त्ता अकेले श्रीकृष्णचन्द्रको सब घरोंमें नारदजीने देखा॥४१॥ अनन्त पराक्रम श्रीकृष्णचन्द्रकी योगमायाका बडा उदय वारंवार देखकर लीला पूर्वकही नारदजीको बड़ा आश्चर्य प्राप्त हुआ॥४२॥ इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम, मोक्षमें श्रद्धासहित मन लगाये श्रीकृष्णचंद्रसे भलीप्रकार पूजित होकर नारदजी प्रपन्नतापूर्वक श्रीकृष्णचन्द्र को मनमें स्मरण करते चलेगये॥४३॥ हे राजन्! इसप्रकार मनुष्यों का मार्ग चलनेवाले, सब जीवोंका कल्याण करनेके लिये अनेक मूर्ति धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र सोलह हजार श्रेष्ठ स्त्रियोंके बीचमें लाजभरी

श्रीशुक उवाच॥ इत्याचरंतं सद्धर्मान्पावनान्गृहमेधिनाम्॥ तमेव सर्वगेहेषु संतमेकं ददर्श ह॥४१॥ कृष्णस्या नंतवीर्यस्य योगमायामहोदयम्॥ मुहुर्दृष्ट्वा ऋपिरभूद्विस्मितो जातकौतुकः॥४२॥ इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना॥ सम्यक्सभाजितः प्रीतस्तमेवानुस्मरन्ययौ॥४३॥ एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो नारायणोऽखिल भवाय गृहीतशक्तिः॥ रेमेंऽग षोडशसहस्रवरांगनानां सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः॥४४॥ यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार॥ यस्त्वंग गायति शृणोत्यनुमोदते वा भक्तिर्भवेद्भगवति ह्यपवर्ग मार्गे॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उ० एकोनसप्ततितमोऽध्याः॥६९॥ श्रीशुक उवाच॥ अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान्कूजितोऽशपन्॥ गृहीतकंठ्यः पतिभिर्माधव्यो विरहातुराः॥१॥

स्नेहकी चितवन, हॅसन इनसे सेवित होकर रमण करनेलगे॥४४॥ हे परीक्षित्! विश्वकी प्रलय और उत्पत्तिके कारण हरि भगवान्के दूसरोंको अगम्य साधारण कर्म, इस संसार में जो पुरुष गावैं अथवा सुनैं या बडाई करैं, उन पुरुषोंको मोक्षके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भक्ति प्राप्त होती है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥६९॥ दोहा—सत्तरमें गोविन्दको, भारी परो विचार। इतने आयो दूत एक, उत नारद अविकार॥७०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! स्वामियोंके गलेमें भुजा डाले हृदयसे चिपटाये श्रीकृष्णकी स्त्रियें प्रातःकाल के समय अरुण शिखाओंका (मुर्गोका) शब्द सुन “श्रीकृष्णचन्द्र जाग उठेंगे” इसप्रकार जानकर

विरहसे आतुर हो उन मुर्गोसे क्रोध कर कहने लगीं कि, अरे अभागे! तुम अभीसे बोलनेलगे श्रीकृष्णचन्द्र प्रातःकाल जानकर कहीं उठ न बैठें?॥१॥ इसके उपरान्त प्रातःसमय सब पक्षी नींदको त्याग बोलनेलगे और कल्पवृक्षकी पवन सूंघकर भौंरे गुंजार करने लगे; उनके मनोहर शब्दकी ऐसी शोभा होती थी कि, मानो बंदीजन श्रीकृष्णको जगा रहे हैं॥२॥ अपने प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंके बीचमें प्राप्त हुई रुक्मिणीने आलिंगनका वियोग देख अति सुन्दर प्रातःकालके समयका सहन न किया॥३॥ प्रसन्न इंद्रिय मधुवंशोत्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र ब्राह्ममुहूर्त्त अर्थात् सूर्योदयसे दो तीन घड़ी पहले उठ जलका आचमन कर मायासे परे अपने स्वरूपका ध्यान करने लगे॥४॥ कैसे स्वरूपका ध्यान

वयांस्यरूरुवन्कृष्णं बोधयंतीव वंदिनः॥ गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मंदारवनवायुभिः॥२॥ मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यद तिशोभनम्॥ परिरंभणविश्लेषात्प्रियवाह्वंतरं गता॥३॥ ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः॥ दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्॥४॥ एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम्॥ ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतम्॥५॥ अथाप्लतोंऽभस्यसले यथाविधि क्रियाकलापं परिधाय

वाससी॥ चकार संध्योपगमादि सत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः॥६॥ उपस्थायार्कमुद्यतं तर्पयित्वात्मनः कलाः॥ देवानृषीन्पतृृन्वृद्धान्विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान्॥७॥ धेनूनां रुक्मशृंगीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम्॥ पयस्विनीनां गृष्टीनां सर्वत्सानां सुवाससाम्॥८॥

किया सो कहते हैं, एक अखण्ड स्वयंज्योतिस्वरूपका उपाधिरहित अविनाशी सर्वकाल अविद्यारहित ब्रह्म विश्वकी उत्पत्ति और नाशके कारण अपनी शक्तिसे देखनेमें आवैं सत्तामात्र आनन्दरूप॥५॥ हे राजन्! इसके उपरान्त निर्मल जलमें स्नान कर धोती पहर श्रीकृष्णचन्द्र सन्ध्योपासनादि कर्म और अग्निहोत्र कर मौन हो गायत्रीका जप करने लगे, फिर सूर्यनारायणको अर्घ्य दे अपने अंशके जो देवता, ऋषि, पितृ थे उनका तर्पण करके ज्ञानवान् श्रीकृष्णचन्द्र ब्राह्मणोंका पूजन करनेलगे॥६॥७॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुवर्णसे सींग मढ़े अत्यन्त

सूधी मोतियोंकी माला पडीं दूध देनेवाली और एकही बारकी ब्याईं शोभायमान बछडों सहित सुन्दर वस्त्र उढाय॥८॥ रूपेसे खुरोंके अग्रभाग मढे ऐसी तेरह हजार चौरासी १३०८४ गौ एक एक महलमेंसे प्रतिदिन शोभायमान सत्पात्र ब्राह्मणोंको रेशमी वस्त्र मृगछाला और तिलसहित दान करते थे॥९॥ अपनी विभूति गौ ब्राह्मण देवता और वृद्धोंको नमस्कार करके मंगल वस्तु कपिलादि गौका स्पर्श करते थे॥१०॥ और नरलोकका भूषणरूप अपने शरीरको वस्त्र और चन्दन इत्यादिसे शोभायमान करते थे॥११॥ घीमें मुख देख कांच देख गाय, वृषभ अथवा देवतालोगोंका दर्शनकर पीछे नगर व रनिवासी व सब प्रजागणकी अभिलाषासिद्धकर फिर मंत्री और प्रधानोंका मनोरथ पूर्ण व प्रसन्न कर उनका यथायोग्य

ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह॥ अलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो बदंबद्धं दिनेदिने॥९॥ गोविप्रदेवतावृद्धगुरून्भूतानि सर्वशः॥ नमस्कृत्यात्मसंभूतीर्मंगलानि समस्पृशत्॥१०॥ आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम्॥ वासोभिर्भूषणैः स्वीयैर्दिव्यस्रगनुलेपनैः॥११॥ अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः॥ कामांश्च सर्ववर्णानां पौरांतः पुरचारिणाम्॥ प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनंदत॥१२॥ स विभज्याग्रतो विप्रान्स्रक्तांबूलानुलेपनैः॥ सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुंक्त ततः स्वयम्॥१३॥ तावत्सूत उपानीय स्यंदनं परमाद्भुतम्॥ सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः॥१४॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं सारथेस्तमथारुहत्॥ सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः॥१५॥ ईक्षितोंऽतःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः॥ कृच्छ्राद्विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन्मनः॥१६॥

आदर सत्कार करते थे, फिर कुछ और कार्यको देखते थे॥१२॥ पहले विप्र फिर मित्र और कार्याधीश व स्त्रियें इनको पान, पुष्प अर अरगजा दे, सबसे पीछे उन वस्तुओको आप अंगीकार करते थे॥१३॥ हे राजन्! इतनेहीमें सारथीने सुग्रीवादि घोड़े जोत परम अद्भुत रथ लाप्रणाम करके सन्मुख खडा करदिया॥१४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे रथवान्का हाथ पकड सात्यकी और उद्धवको संग ले जैसे सूर्य नारायण सुमेरुपर्वत के ऊपर चढ़ते हैं, उसी प्रकार रथमें चढ़गये॥१५॥ लाजभरी प्रेमकी चितवनसे अंःतपुरकी स्त्रियोंके देखनेसे मुसकाते

श्रीकृष्णचन्द्र अत्यन्त कष्टसे, उनको छोड और उनके मन हरकर बाहर निकले॥१६॥ इस प्रकार सब घरोंसे अलग अलग निकल, पीछे सब एकरूप हो सब यादवोंको साथ ले भगवान् वासुदेव सुधर्मासभामें गये, हे राजन्! सुधर्मा सभामें बैठेहुये पुरुषोंको क्षुधा, पिपासा, शीत, गर्मी, शोक और मोह इत्यादि बाधा नहीं व्यापती हैं *॥१७॥ उस सभामें यादवोंसे वेष्टित व्यापक श्रीकृष्णचन्द्र सिंहासनपर बैठ अपनी कान्तिसे

सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः॥ प्राविशद्यन्निविष्टानां न संत्यंग षडूर्मयः॥१७॥ तत्रोपविष्टः परमासने विभुर्बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन्॥ वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो यथोडुराजो दिवि तारकागणैः॥॥१८॥ तत्रोपमंत्रिणो राजन्नानाहास्यरसैर्विभुम्॥ उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्तांडवैः पृथक्॥१९॥

सब दिशाओंको प्रकाशमान करनेलगे जैसे तारागणोंके बीचमें निशानाथ चन्द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार यादवोंके बीचमें बैठेहुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभा होने लगी॥१८॥ हे राजा परीक्षित्! उस सभामें भाट अनेकप्रकारसे हॅसीकी बातें कर श्रीकृष्णचंद्रका सेवन करते थे और नटोंमें मुख्य और नृत्यकरनेवाली स्त्रियें अलगही अपने अपने गवैयोंको संग ले सन्मुख खडी हुई॥१९॥

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* शंका—सुधर्म्मासभामैं बैठनेवाले जीवोंके हृदयमें काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर यह छः वैरी उत्पन्न नहीं होते थे, फिर श्रीकृष्णचन्द्रके हृदयमें वही छहों वैरी क्यों उत्पन्न हुये, जिन वैरियोंको ग्रहण करके श्रीकृष्णजीने बडे बडे दुष्टोंको मारा, यह बडी शका है?

** उत्तर**— तीनलोकमें इसलोकका काम तथा परलोकका काम विना काम आदि छहों वैरियोंको सेवन किये नहीं सिद्ध होगा इसलिये कामादिक छःशत्रुओंका सेवन अवश्य करना चाहिये, परन्तु विचारके सेवन करना, क्योंकि यह छःशत्रु सुन्दर काममें भी हैं, सो सुन्दर काममें छःहोको ग्रहण करना, जैसे सुन्दर कामकी इच्छामें लोभ इसीप्रकारसे जानलेना चाहिये, और बुरे काममें त्यागना चाहिये, सुधर्मा समामें बुरे कामवाले छःशत्रु नहीं थे सुन्दर कामवाले कामादिक छःवैरी थे, इसलिये सुन्दर कर्मोंके छहों वैरियोंको श्रीकृष्णचन्द्रने ग्रहण किया और बुरे कामनलोंको त्यागदिया क्योंकि, यह कामादिक छःवेरी सुन्दरकर्ममें सुन्दर फल देते हैं बुरे कर्मसे बुरा फल देते हैं, इसलिये श्रीकृष्णने सुधर्मा समामें बैठकर छहोवैरियोंको ग्रहण करके दुष्टोंको जीता और मारा॥

इसके उपरान्त मृदंग, वीणा, मुरज, बांसुरी, झांझ, शंख इत्यादि बजाकर नृत्य करने लगे और सूत, मागध, बंदीजन श्रीकृष्णचन्द्र के सन्मुख स्तुति करने लगे॥२०॥ उस समय कोई चतुर ब्राह्मण वेदकी ऋचा पढ़कर व्याख्या देने लगे और कोई कोई ब्राह्मण पवित्र वंशवाले राजाओंकी कथा कहने लगे॥२१॥ हे नृपश्रेष्ठ! उस समय एक अजान मनुष्य उस स्थानपर कहीं से आया, तब ड्योढीवानों ने श्रीकृष्णचन्द्र से जाकर खबर दी, श्रीकृष्णने आज्ञा दी कि, जाओ उसे लिवालाओ, तब उस मनुष्यको सभाके भीतर पहुँचाया॥२२॥ ब्रह्मादिकों के ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र के सन्मुख उस पुरुषने हाथ जोड नमस्कार करके जरासन्ध के कैद किये हुये बीसहजार आठसौ राजाओंका दुःख कहा॥२३॥ जब जरासन्धने दिग्विजय किया था,

मृदंगवीणामुरजवेणुतालदरस्वनैः॥ ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवंदिनः॥२०॥ तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचिदासीना ब्रह्मवादिनः॥ पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन्कथाः॥२१॥ तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोऽपूर्वदर्शनः॥ विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः॥२२॥ स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः॥ राज्ञामावेदयद्दु्ःखं जरासन्धनिरोधजम्॥२३॥ ये च दिग्विजये तस्य संनतिं न ययुर्नृपाः॥ प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरिव्रजे॥२४॥ कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन्प्रपन्नभयभञ्जन॥ वयं त्वां शरणं यामो भवभीतः पृथग्धियः॥२५॥ लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे॥ यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै॥२६॥ लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः॥ कश्चित्त्वदीयमतियाति निदेशमीश किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः॥२७॥

तब उस समय जिन राजाओंने आकर भेंट नहीं दी थी, इसलिये उसने बीसहजार आठसौ राजाओं को पकड गिरिव्रजनाम किले में कैदकर दिया है ॥२४॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्! हे शरणागत का भय काटनेवाले! इस संसार में भयभीत तुमसे प्रेम करनेवाले हम आपकी शरण आये हैं॥२५॥ क्योंकि यह लोग अतिशय पापकर्म में लग रहे हैं, सो तुम्हारे बताये कल्याणरूप पूजन सेवनरूप कर्ममें भूल रहे हैं, इस संसार में जीने की आशा काटनेवाले सामर्थ्यवान् कालरूप आपको नमस्कार है॥२६॥ हे भगवन्! जगत् के ईश्वर!तुमने इस संसार में साधु

पुरुषोंकी रक्षा और दुष्टपुरुषों को दण्ड देने के लिये अपने अंशसे अवतार धारण किया है और आपके विद्यमान रहते भी जरासन्ध सरीखा बलवान् तुम्हारी आज्ञाको नहीं मानता आपकी रक्षामें रहे जीव अपने कर्मजनित दुःखों को प्राप्त होते हैं यह किसलिये होते हैं?सो हम नहीं जानसकते॥२७॥हे ईश!यह राज्यके संबन्धका सुख विषयसाध्य है इसीसे परतंत्र है, इसीलिये यह स्वप्नसुख के समान है और यह शरीर भी सदैव भयसे युक्त मृतक के समान है, परन्तु तो भी हम इस शरीर से केवल भार्या सन्तानादि की चिन्ता करते रहते हैं, निष्काम भक्त जिस स्वतः सुखको आपसे प्राप्त होते हैं; उसे त्याग अत्यन्त कृपण बने आपकी माया से दुःख पाते हैं, क्योकि पहले निष्काम हो आपके चरणों की शरण न ली॥२८॥ इसलिये दुःखी पुरुषों का शोक हरनेवाले जिनके चरणकमल हैं, ऐसे आप हम बॅधे हुओं को जरासन्धरूपी कर्मबन्धनसे छुड़ाओ दशहजार

स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीश शश्वद्भयेन मृतकेन धुरं वहामः॥ हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह॥२८॥ तन्नो भवान्प्रणतशोकहरांघ्रियुग्मो बद्धान्वियुंक्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात्॥ यो भूभुजोऽयुतमतंगजवीर्यमेको बिभ्रद्रुरोध भवने मृगराडिवाऽवीः॥२९॥ यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्रः भग्नो मृधे खलु भवंतमनंतवीर्यम्॥ जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पोयुष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित् तद्विधेहि॥३०॥ दूत उवाच ॥ इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकांक्षिणः॥ प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम्॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः॥ विभ्रत्पिंगजटाभारं प्रादुरासीद्यथा रविः॥३२॥

हाथियोंका बल धारण करनेवाले इस जरासन्धने सिंह जिस प्रकार भेडों को घेर लेता है, उसी प्रकार अपने दुर्ग में हम राजाओं को रोक रक्खाहै॥२९॥ हे चक्रधर!हे कृष्ण! आपसे अठारह बार जरासन्धने संग्राम किया और सत्रह बार आपने हरा दिया परन्तु अठारहवीं बार संग्राम में आप मनुष्यलीला कर रण छोड़ गये आपको यह एक बार जीत महागर्व को प्राप्त हुआ है, इसलिये आपकी प्रजा हमको बहुत दुःख देता है अब जो आप उचित समझो सो करो॥३०॥ दूत बोला कि, इस प्रकार जरासन्ध के रोके आपके दर्शनकी अभिलाषाकिये राजालोग आपके चरणकमल की शरण लिये हुए हैं इन दीनों का बहुत शीघ्र उद्धार करना चाहिये॥३१॥ हे नृपोत्तम!इस प्रकार राजाओंका दूत कह ही

रहा था कि, इतने ही में श्रेष्ठ कान्तिवाले पीली जटायें धारण किये श्रीमन्नारदजी सूर्यके समान वहां आन प्रगट हुए॥३२॥ सब लोकों के महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र नारदजी को आया देख अपने सभासदों सहित शिर नवायकर प्रणाम करने लगे॥३३॥ आसनपर विराजमान नारदजी का विधिपूर्वक सत्कार करके श्रद्धासहित मधुर मधुर वचनोंसे भगवान् तृप्त करने लगे॥३४॥ श्रीकृष्णचन्द्रने कहा कि, नारदजी! त्रिलोकी में कहीं भय तो नहीं है? तुम्हारे लोकों में भ्रमण करने से हमेंबड़ा लाभ है, क्योंकि घर बैठे ही सब समाचार मिल जाते हैं॥३५॥ ईश्वर के बनाये लोकों में ऐसी कोई बात नहीं है जिसको तुम न जानो इसलिये हम तुमसे पूछते हैं कि,पाण्डवोंकी क्या करनेकी इच्छा है?॥३६॥ यह

तं दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः॥ ववंद उत्थितः शीर्ष्णाससभ्यः सानुगो मुदा॥३३॥ सभाजयित्वा विधिवत्कृतासनपरिग्रहम्॥ बभाषे सूनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन्मुनिम्॥३४॥ अपिस्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम्॥ ननु भूयान्भगवतो लोकान्पर्यटतो गुणः॥३५॥ न हि तेऽविदितं किंचिल्लोकेष्वीश्वरकर्तृषु॥ अथ पृच्छामहे युष्मान्पांडवानां चिकीर्षितम्॥३६॥ नारद उवाच॥ दृष्ट्वा मया ते बहुशो दुरत्यया माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः॥ भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिर्वह्नेरिव च्छन्नरुचो न मेऽद्भुतम्॥३७॥ तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः॥ यद्विद्यमानात्मतयाऽवभासते तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने॥३८॥ जीवस्य यः संसरतोऽविमोक्षणं न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः॥ लीलावतारैः स्वयशःप्रदीपकं प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये॥३९॥

सुनकर नारदजीने कहा कि, हे समर्थ! आप अपनी माया से ब्रह्मा को भी मोहित करते और अपनी अचिन्तनीय शक्ति से प्राणियों में अन्तर्यामी रूपसे रहने पर भी काष्ठमें रहे अग्नि के समान गुप्त प्रकाशवाले हो आपकी माया मैंने कई वार अवलोकन की है, इसलिये यह आपका चरित्र कुछ अद्भुत विदित नहीं होता॥३७॥ यह संसार जो कि, मिथ्या होनेपर भी आपकी मायासे विद्यमान सा प्रतीत होता है, इसके उत्पन्न, पालन और संहार करने वाले आपके अभिप्राय को कौन पुरुष भली भॉतिसे जान सकताहै? अर्थात् कोई भी नहीं जान सकता, ऐसे अचिन्त्यस्वरूप आपको मैं प्रणाम करता हूं॥३८॥ जिन आपने बहुत प्रकार जन्म, मरण पाते और विविध अनर्थकारक शरीर से मुक्त होने का उपाय न

जाननेवाले जीवों को अज्ञानीरूपी अंधकार का मिटानेवाला अपना यशरूपी दीपक लीलासे अवतार धारणकर प्रगट किया है, ऐसे आपकी मैं शरण प्राप्त हुआ हूँ॥३९॥ परन्तु तो भी हेब्रह्मन्! मनुष्य के अनुकरण करनेवाले आपसे आपकी फूफी के पुत्र भक्त राजा युधिष्ठिर जो कुछ करना चाहते हैं, सो मैं कहकर सुनता हूं॥४०॥ पाण्डु का पुत्र चक्रवर्ती राज्य करने की इच्छा करनेवाले राजा युधिष्ठिर यज्ञराट्राजसूय यज्ञ करके तुम्हारा पूजन करना चाहते हैं, यह आप अनुमोदन करो॥४१॥ हे देव!उस यज्ञमें तुम्हारा दर्शन करने के लिये इन्द्रादिक देवता आवेंगे और बड़े बड़े यशस्वी राजा लोग तुम्हारे दर्शन की इच्छा से आवेंगे॥४२॥ हे ईश्वर! ब्रह्मरूप तुम्हारी कथाओंके श्रवण करने से और

अथाप्याश्रावये ब्रह्मन्नरलोकविडंबनम्॥ राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम्॥४०॥ यक्ष्यति त्वां मखेंद्रेण राजसूयेन पांडवः॥ पारमेष्ठ्यकामो नृपतिस्तद्भवाननुमोदताम्॥४१॥ तस्मिन्देव क्रतुवरे भवंतं वै सुरादयः॥ दिदृक्षवः समेष्यंति राजानश्च यशस्विनः॥४२॥ श्रवणात्कीर्तनाद्ध्यानात्पूयंतेऽन्तेवसायिनः॥ तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः॥४३॥ यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां भूमौ च ते भुवनमंगल दिग्वितानम्॥ मंदाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो गंगेति चेह चरणांबु पुनाति विश्वम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ तत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृह्णत्सु विजिगीषया॥ वाचः पेशैः स्मयन्भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः॥४५॥

तुम्हारा ध्यान करने से चाण्डाल भी पवित्र हो जाते हैं और जो तुम्हारे दर्शन करने ही से पवित्र हो जाय तो इसमें कहने की बात ही क्या है?॥४३॥ हे त्रिलोकी के मंगलरूप!तुम्हारा निर्मल यश स्वर्ग, रसातल और संपूर्ण पृथ्वी पर फैल रहा है और दिशाओं को चंदोवे के समान शोभायमान कर रहा है, स्वर्ग में मंदाकिनीरूप, पाताल में भोगवतीरूप और इस संसार में आपका चरणोदक गंगारूप होकर सब विश्वको पवित्र कर रहा है, इस लिये तुम्हारे चलते ही यज्ञमें बडा मंगल होगा॥४४॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे भारतवंशावतंस परीक्षित्!इस प्रकार देवर्षि नारद जी ने जब कहा तब उस सभा में अपनी ओर के यादवों ने जरासन्धके जीतनेकी इच्छासे जब यज्ञमें जाने की अनुमति न दी, तब मनोहर वचनों से

कुछेक मुसकाते हुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजी से बोले॥४५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, हे उद्धव! तुम हमारे परममित्र और परमहितकारी हो और गुह्य बातों के अभिप्रायको भलीभाँति जानते हो, इसकारण इस विषय में हमको क्या करना चाहिये सो कहो, उसको हम श्रद्धापूर्वक करेंगे॥४६॥ सब बात के जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने मानों कुछ नहीं जानते, इस प्रकार अनजान की समान जब पूछा, तब उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञा शिरपर धारणकर बोले॥४७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्धे भाषाटीकायां सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥ दोहा - इकहत्तर उद्धव चतुर, हरिकी सम्मति मान। इन्द्रप्रस्थ गवने तुरत, पाण्डव बुद्धिनिधान॥७१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित! इसप्रकार बड़ी बुद्धिवाले उद्धवजी श्रीकृष्णचन्द्र का वचन सुन और नारदजी की सम्मति यज्ञ में जाने की जान

श्रीभगवानुवाच॥ त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन्मंत्रार्थतत्त्ववित्॥ तथाऽत्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत्॥४६॥इत्युपामंत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत्॥ निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत॥४७॥ इति श्रीमद्भा०महा०दशमस्कंधोत्तरार्धे भगवद्याने सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युदीरितमाकर्ण्य देवर्षेरुद्धवोऽब्रवीत्॥ सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः॥१॥ उद्धव उवाच॥ यदुक्तमृषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया॥ कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम्॥२॥ यष्टव्यं राजसूयेन दिक्चक्रजयिना विभो॥ अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम॥३॥ अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति॥ यशश्च तव गोविंद राज्ञो बद्धान्विमुंचतः॥४॥

और सभामें बैठनेवाले यादवों की सम्मति राजाओं की रक्षा करनेकी देख और श्रीकृष्णचन्द्र की इच्छा दोनों कार्य करनेकी देखकर कहने लगे॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रकाशमान श्रीकृष्ण!देवर्षि नारदजी ने जो कहा कि, राजा युधिष्ठिर तुम्हारा पूजन करना चाहते हैं, सो उनकी भी सहायता करनी योग्य हैं और शरणागत राजाओं की भी रक्षा करनी योग्य है॥२॥ हे समर्थ! संपूर्ण दिशाओंके राजाओं का जीतनेवाला राजसूययज्ञ करके पूजन होगा इसकारण जरासन्धको भी अवश्य जीतना पड़ेगा, इसमें दोनों कार्य सिद्ध हो जायँगे, यज्ञ भी हो जायगा और शरणागत राजाओं की रक्षा भी हो जायगी॥३॥ हे भगवन्! यज्ञमें आप चलेंगे, तो हमारे मनोरथ इसी से सिद्ध हो जायँगे और हे गोविंद!बँधे

राजाओं को जो छुड़ाओगे, इसमें आपका बडा ही यश होगा॥४॥ बडी चाहना से जरासन्धके मारनेकी इच्छा करनेवाले यादवों को देखकर कहते हैं कि, जरासन्ध के समान बलवान् भीमसेनके विना दशहजार हाथियों का बल रखनेवाला जरासन्ध और राजाओं से नहीं जीता जायगा, क्योंकि भीमसेन के हाथसे ही विधाताने उसकी मृत्यु रची है॥५॥ द्वंद्वयुद्ध में राजसन्ध जीता जायगा और सेनाको संग लेकर जो पुरुष उसके जीतने की आशा करे सो यह आशा कदापि फलवती न होगी, वह जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त है, इसकारण भीमसेन ब्राह्मण का रूप धरकर जो उससे द्वंद्वयुद्ध माँगे तो आशा है कि, वह निषेध नहीं करेगा॥६॥ वृकनामा अग्नि जिसके उदरमें रहे सो भीमसेन ब्राह्मण का वेष धारणकर जरासन्ध से युद्धकी भिक्षा माँगे कि, तुम्हारे साथ में द्वंद्वयुद्ध करूँगा, तुम निकट रहो तो भीमसेन जरासन्ध को अवश्य मारेगा, इसमें सन्देह

स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले॥बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना॥५॥ द्वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः॥ ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैर्न प्रत्याख्याति कर्हिचित्॥६॥ ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः॥ हनिष्यति न संदेहो द्वैरथे तव संनिधौ॥७॥ निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः॥ हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्या रूपिणस्तव॥८॥ गायंति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च॥ गोप्यश्च कुंजरपतेर्जनकात्मजायाः पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च॥९॥

नहीं॥७॥ प्राकृत रूपरहित तुम ही तो उत्पन्न, पालन और संहार करते हो, ब्रह्मा और महादेव तो नाममात्र हैं, इसलिये तुमही पास रहकर जरासन्धका संहार करोगे, भीमसेन का तो केवल नामही होगा॥८॥ बन्दी हुए राजाओं की रानियें तुम्हारे निर्मल यशको गाती हैं और जब उनके बालक रोते हैं, तब वह कहती हैं कि, हे पुत्र!तुम किसलिये रोते हो, जो कोई अनाथ हो सो रोवै, तुम्हारे शिरपर तो द्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र विद्यमान हैं, तुम मत रोओ, जैसे गोपी शंखचूड का मारना और अपना छूटना गाती हैं, और गजराज का छूटना व ग्राह की मृत्यु गाती हैं और जनकनन्दिनी जानकी का छूटना व रावणका मरना जैसे गावै हैं और माता पिता का छूटना, कंस का मरना शरणागत मुनि और हम भक्त गान करते हैं उसी प्रकार जरासन्ध का मरना और अपने पतियोंका छूटना राजाओंकी स्त्रियें वारम्वार गाती हैं॥९॥

हे कृष्ण! जरासन्ध के मरने से बडा कार्य सिद्ध होगा और फिर शिशुपालादि का मारना भी सहज हो जायगा, राजाओं के पुण्यका फल उदय होगा, और यज्ञ हो, यह आपकी इच्छा है ही, राजा युधिष्ठिर के पास जाने से सब काम बन जायगा॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!सब ओर से मंगलरूप बड़ी युक्ति सहित उद्धवजीका वचन सुन नारदजी बडाई करने लेगे, इसके उपरान्त मुख्य यादव और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी प्रशंसा करने लगे॥३१॥ इसके पीछे देवकीनन्दन सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र चलने के लिये सेवक दारुक रथवान् और हाथियों के महावत व वसुदेव इत्यादि यादवों मे आज्ञा करने लगे॥१२॥हे नृपश्रेष्ठ!पुत्र, दासी, दास और सामग्रियों सहित प्रथम अपनी रानियों को भेज

जरासंधवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते॥ प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः ऋतुः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युद्धव व्रचो राजन्सर्वतोभद्रमच्युतम्॥ देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन्॥११॥ अथादिशत्प्रयाणाय भगवान्देव कीसृतः॥ भृत्यान्दारुकजेत्रादीननुज्ञाप्य गुरून्विभुः॥१२॥ निर्गमय्यावरोधान्स्वान्ससुतान्सपरिच्छदान्॥ संकर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन्॥ सूतोपनीतं स्वरथमारुहद्गरुडध्वजम्॥१३॥ ततो रथद्विपभटसादिनायकैः करालया परिवृत आत्मसेनया॥ मृदंगभेर्यानकशंखगोमुखैः प्रघोषघोषत्ककुभो निराक्रमत्॥१४॥ नृवाजिकांचनशिबिकाभिरच्युतं सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः॥ वरांबराभरणविलेपनस्रजः सुसंवृता नृभिरसिचर्मषाणिभिः॥१५॥ नरोष्ट्रगोमहिषरवराश्वतर्यनःकरेणुभिः परिजनवरयोषितः॥ स्वलंकृताः कटकुटिकंबलांबराद्युपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः॥१६॥

बलराम और राजा उग्रसेनसे आज्ञा ले, श्रीकृष्णचन्द्र सारथीके लाये गरुडध्वज रथमें चढे॥१३॥इसके उपरान्त रथ, हाथी, प्यादे और महातीव्र सवारोंकी सेना ले मृदंग, भेरी, नगारे, शंख और रणसिंहों के शब्दसे शब्दायमान दिशा में से भगवान् निकले॥१४॥ सुन्दर वस्त्र, गहने और चन्दन माला पहरे ढ़ाल, तलवार हाथमें लिये, दोनो ओर सिपाहियो से रक्षित रथ और पालकियोमें बैठ, पतिव्रता कृष्ण की रानियें अपने पुत्रोको साथ ले अपने पति श्रीकृष्णचन्द्र के पीछे चलीं॥१५॥ नौकरोकी स्त्रियें और वेश्या शृंगारकर चटाइयों के बने घर तथा कम्बल और

बनातों के ढेरे, तम्बू इत्यादि सब वस्तुको मनुष्य, ऊंट, भैंसे, गधे, खच्चर, गैड़े व हाथियोंपर लादकर चले॥१६॥ बड़े शब्दवाली सेना बड़ी बडी ध्वजाओं के वस्त्र, छत्र, चमर और सुन्दर हथियार, गहने, किरीट इत्यादि कों की चमक से और सूर्य की किरणों से, जैसे समुद्र क्षुभित हुए मत्स्यों और कलोलोंसे शोभायमान होता है, उसी प्रकार शोभा देती थी॥१७॥ इसके उपरान्त यादवपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी से सत्कार पाय पूजा ले, श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनसे सुखी इन्द्रियहो, नारदमुनि श्रीकृष्णको प्रणामकर, उनके निश्चयको सुन और श्याम स्वरूपको हृदय में धारणकर आकाशमार्गमें होकर चले गये॥१८॥ इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दूत को प्रसन्न करने के लिये बोले कि, हे दूत!तुम सब राजाओं से जाकर कह दो कि,

बलं बृहद्धजपटछत्रचामरैर्वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः॥ दिवांशुभिस्तुमुलरवंबभौ रवैर्यथार्णवः क्षुभिततिमिंगिलोर्मिभिः॥१७॥ अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः प्रणम्य तं हृदि विदधद्विहायसा॥ निशम्य तद्व्यवसितमाहृतार्हणो मुकुंदसंदर्शननिर्वृतेंद्रियः॥१८॥ राजदूतमुवाचेदं भगवान्प्रीणयन्गिरा॥ मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम्॥१९॥ इत्युक्तः प्रस्थितो द्वतो यथावदवदन्नृपान्॥ तेऽपि संदर्शनं शौरैः प्रत्यैक्षन्यन्मुमुक्षवः॥२०॥ आनर्तसौवीरमरूंस्तीर्त्वा विनशनं हरिः॥ गिरीन्नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान्॥२१॥ ततो दृषद्वीतीं तीर्त्वा मुकुंदोथ सरस्वतीम्॥ पंचालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत्॥२२॥ तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम्॥ अजातशत्रुर्निरगात्सोपाध्यायः सुहृद्वृतः॥२३॥

किसी प्रकार का भय मत करो, क्योंकि मैं शीघ्र ही जरासन्ध को मार तुम्हारा कल्याण करूंगा॥१९॥ जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा, तब दूत वहाँ से चल राजाओंके पास आकर कहने लगा कि, किसी प्रकार का भय मत करो श्रीकृष्णचन्द्र आते हैं, तब वह छूटने की इच्छासे भगवान् केआने का पैंडा देखने लगे॥२०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनर्त्त, सौवीर, मरुदेशको पीछे दे, कुरुक्षेत्र, पर्वत, नदियें, पुर, गॉव, व्रज और खानोंके देशो को लाँघकर दृषद्वती व सरस्वती के पार उतर पांचाल तथा मत्स्यदेश को छोड इन्द्रप्रस्थ पहुंचे॥२१॥२२॥ मनुष्यों को जिनका दर्शन दुर्लभ है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र का आगमन सुन, प्रसन्न हो, अजातशत्रु राजायुधिष्ठिर उपाध्यायो को संगले पुर के बाहर निकले॥२३॥

गाते बजाते और भारी वेदध्वनि के साथ राजा युधिष्ठिर जैसे आदरयुक्त इन्द्रिय प्राणलेनेको आवें, उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र के सन्मुख लिवानेको आये^(1)॥२४॥ श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शनकर आर्द्र हृदय पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर ने बहुत दिनों में देखे अत्यन्त प्यारे श्रीकृष्णचन्द्र को बारम्बार आलिंगन किया॥२५॥ लक्ष्मी के रहनेका निर्मल स्थान, श्रीकृष्णचन्द्र के अंग को भुजाओं से आलिंगनकर, पापरहित, प्रसन्न वदन, नेत्रोंमें अश्रु युक्त सब लौकिक व्यवहार विसार राजा युधिष्ठिर अत्यन्त सुख पाने लगे॥२६॥ मामा के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र को आलिंगनकर, प्रसन्न भीमसेन

गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा॥ अभ्ययात्स हृषीकेशं प्राणः प्राणमिवादृतः॥२४॥ दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पांडवः॥ चिराद्दृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनःपुनः॥२५॥ दोर्भ्यां परिष्वज्य रमाऽमलालयं मुकुंदगात्रं नृपतिर्हताशुभः॥ लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो हृष्यत्तनुर्विस्मृतलोकविभ्रमः॥२६॥ तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो भीमः स्मयन्प्रेमजवाकुलेंद्रियः॥ यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम्॥२७॥ अर्जुनेन परिष्वक्तोयमाभ्यामभिवादितः॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथाऽर्हतः॥२८॥ मानितो मानयामास कुरुसृं जयकेकयान्॥ सूतमागधगंधर्वान्वंदिनश्चोपमंत्रिणः॥२९॥

प्रेमके वेगसे आकुल इन्द्रिय हो गया, इसके उपरान्त बडे २ नेत्रों में आंसू भरे नकुल सहदेव और किरीटधारी अर्जुन यह सब अत्यन्त हितकारी श्रीकृष्णचन्द्रको आनन्दपूर्वक आलिंगन करने लगे॥२७॥ हे राजन्!अर्जुन बराबर का होनेके कारण श्रीकृष्णचन्द्र को छाती से लगाकर मिला और नकुल सहदेव ने नमस्कार किया, पीछे यथा योग्य ब्राह्मण और वृद्धों को नमस्कार करके॥२८॥मानने योग्य कुरुदेश और सृजयदेशके राजा और

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^(1)शंका - हस्तिनापुरमें श्रीकृष्णका और पांडवों का मिलाप हुआ, तब उस समय शूद्र अन्त्यज चर्मकार आदि और सब नीच जाति तथा म्लेच्छ तमासा देखने के लिये तथा अनेक प्रकारके संसारिक काम करनेके लिये उस सेनामें रहते थे, इन सबको सुनाकर ब्राह्मणों ने ब्रह्म अर्थात् वेदोच्चारण क्यों किया?

उत्तर - वेदको श्रवण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के सिवाय दूसरे को नहीं करना चाहिये दूसरा कोई भी दोष नहीं, सो वेद का पाठ कोईभीनहीं उस समय सुनता था, क्योंकि जब श्रीकृष्णचन्द्र और पाण्डवों का मिलाप हुआ तब ऐसा शब्द मनुष्यों का परस्पर होने लगा कि, उस कुलाहल में तोप का शब्द तो किसी को सुनाई ही नहीं पडता था तब वेदपाठ कैसे लोगों को सुनाई देता?किसी को भी कुछ सुनाई नहीं पडा, इसलिये ब्राह्मणों ने वेदपाठ किया॥

सूत, मागध, गंधर्व, भाट, बंदीजनों का सत्कार करनेलगे॥२९॥ मृदंग, शंख, ढोल, वीणा, नगाड़े बाँसुरी इनको बजाकर ब्राह्मण स्तुति करने लगे और नाचने गाने लगे॥३०॥ इस प्रकार सुहृदों को संग ले पुण्ययश युधिष्ठिरादिकों के मुकुटमणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने सबसे स्तुति और सत्कार पाय शोभायमान राजा युधिष्ठिर के पुर में प्रवेश किया॥३१॥ हाथियों के मद और सुगन्धयुक्त जल से जिसमें छिड़काव हो रहा ऐसे मार्ग और चित्र विचित्र ध्वजाओंसे सुवर्णके तोरण और जलके पूर्ण कलश तथा नवीन वस्त्र, गहने, माला, केशर, अतर, अरगजा लगाये, स्त्री और पुरुषों से शोभाय

मृदंगशंखपटहवीणापणवगोमुखैः॥ ब्राह्मणाश्चारविंदाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः॥३०॥ एवं सुहृद्भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः॥ संस्तूयमानो भगवान्विवेशाऽलंकृतं पुरम्॥३१॥ संसिक्तवर्त्म करिणां मदगंधतोयैश्चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुंभैः॥ मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्गंधैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम्॥३२॥ उद्दीप्तदीपवलिभिः प्रतिसद्म जालनिर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम्॥ मूर्धन्यहेमकलशै रजतोरुशृंगैर्जुष्टं ददर्श भवनैः कुरुराजधाम॥३३॥ प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्रमौत्सुक्यविश्लथितकेशदुकूलबंधाः॥ सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेंद्रमार्गे॥३४॥ तस्मिन्सुसंकुल इभाश्वरथद्विपद्भिः कृष्णं सभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः॥ नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मनसोपगुह्य सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन॥३५॥

मान कौरवों के राजा युधिष्ठिर को देखा॥३२॥ कैसा महल है कि, जहाँ प्रकाशमान दीपकों की पंक्ति और महलके झरोखों में से निकली धूप की सुंगध से शोभायमान हो रहा है और प्रकाशमान पताका तथा रूपे के शिखरों के ऊपर सुवर्णके कलश संयुक्त कौरवराज युधिष्ठिर के महल देखे॥३३॥ मनुष्योंके नेत्रोंका सौंदर्यरूपी अमृत पीने के पात्र श्रीकृष्णचन्द्र को आया श्रवण कर उत्कंठा से जिनके केश और वस्त्रों के बंधन ढीले हो गये वह स्त्रिये घरोंके कार्यों को शीघ्रत्याग और शय्याओं को ऊपर पतियोंको त्याग देखनेके लिये राजमार्ग बाजारमें आई^(1)॥३४॥ हाथी, घोडे, रथ और

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^(1)

सबलोग उत्सव छोड छोड़कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन को दौडे, कहीं विवाह मेअधिक उत्सवतो है ही नहीं तथापि एक कन्या का विवाह था, द्वारेपर नौबतबज रही थी, व भाई विरादरी के लोग बैठे थे और मंडप के नीचे वरकन्या बैठे थे, ब्राह्मण हवन कर रहे थे, सो नोबतवालोंने सुना कि श्रीकृष्ण वलदेव आये हैं, सुनते ही नगर को छोड़कर भागे और जो भीतर भाई, बारी झगडा कर रहेथे, वह भीसुनते ही भागे, पाधा (पुरोहित) पोथी पटक कृष्णके दर्शनको दौडे, अधिक क्या कहे?बराती भी चले गये, अब दुलहन ने शोचा कि, इस चाम के दूलह का क्या करना है? जाकर उस दूलहके दर्शन करू, सो आंचल छुडाकर दुलहन भी पहुँच गयी, पीछे दुलह भी चला गया॥

पैदलों की भीरसे युक्त राजमार्ग में रानी सहित श्रीकृष्णचन्द्र को देख कोठों के ऊपर चढ़ी स्त्रियें फूल वर्षाय, मनसे आलिंगन कर मुसकानपूर्वक चित वनसे देखकर “भले आये” इस प्रकार कहने लगीं॥३५॥ जैसे चन्द्रमासहित तारागण, उसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों के मार्ग में देख “इन रानियोंने क्या पुण्य किया है, जिनके नेत्रों को पुरुषों में मुकुट समान श्रीकृष्णचन्द्र उदार हास्य लीलापूर्वक अवलोकन की कला से आनन्द देते हैं” इसप्रकार सब स्त्रियें कहने लगीं॥३६॥ पापरहित पुरवासी पान, खुपारी, बतासे और नारियल इन सब मंगल वस्तुओं को हाथमें लेकर श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा करने लगे॥३७॥ प्रफुल्लित नेत्र खुशी के मारे घबराहट से अंतःपुर के वासियो ने प्रीतिपूर्वक सम्मुख आकर जब सत्कार किया

ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुंदपत्नीस्तारा यथोडुपसहाः किमकार्यऽमृभिः॥ यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहासलीलावलोककलयोत्सवमातनोति॥३६॥ तत्र तत्रोपसंगम्य पौरा मंगलपाणयः॥ चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः॥३७॥ अंतःपुरजनैः प्रीत्या मुकुंदः फुल्ललोचनैः॥ ससंभ्रमेैरभ्युपेतः प्राविशद्राजमंदिरम्॥३८॥ पृथा विलोक्य भ्रात्रेय कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम्॥ प्रीतात्मोत्थाय पर्यंकात्सस्नुषा परिषष्वजे॥३९॥ गोविंदं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः॥ पूजायां नाविदत्कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः॥४०॥ पितृष्वसुर्गुरुस्‍त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम्॥ स्वयं च कृष्णया राजन्भगिन्या चाभिवंदितः॥४१॥ श्वश्र्वासंचोदिता कृष्णा कृष्णपत्नीश्च सर्वशः॥ आनर्चं रुक्मिणीं सात्यां भद्रां जांबवतीं तथा॥४२॥

तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र राजाके मंदिरमें चले गये॥३८॥ त्रिलीकीके ईश्वर अपने भतीजे श्रीकृष्णचन्द्रको देख प्रसन्नमन कुन्ती अपनी बहू द्रौपदी सहित पलंगपर से उठकर श्रीकृष्णचन्द्रसे मिली॥३९॥ देवों के देव और ब्रह्मादिकों के ईश्वर गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्रजी को घरमें ला आनन्दसे सुधि बिसार राजा युधिष्ठिर पूजा करने की विधि भी भूल गये॥४०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!द्रौपदी और बहन सुभद्रा के प्रणाम करने पर श्रीकृष्णचन्द्र ने पिता, वसुदेव की बहन कुन्ती और बडे पुरुषों की स्त्रियों को प्रणाम किया॥४१॥ सास कुन्ती की आज्ञा पाय द्रौपदी

संपूर्ण श्रीकृष्णचन्द्रकी रानी रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती इत्यादि का पूजन करने लगीं॥४२॥ कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा पतिव्रता और नाग्नजिती इनकी और जो सँग आई हैं, उनकी वस्त्र, माला, अतर, अरगजा, चन्दन इत्यादिकों से पूजा करने लगी॥४३॥ धर्मराजा युधिष्ठिर भी सेनासस्ति मंत्री तथा सेवक और रानियों सहित श्रीकृष्णचन्द्रको नित्यप्रति नये सुख में रखने लगे॥४४॥ अर्जुन सहित श्रीकृष्णचन्द्र खांडव वन से अग्निको तृप्त करके मयनाम दैत्य को बचाया उसने राजा युधिष्ठिर को दिव्य सभा बनाकर अर्पण की॥४५॥ रथमें बैठ अर्जुन तथा और योद्धाओं को संग ले विहार करते श्रीकृष्णचन्द्र राजा युधिष्ठिर का प्रिय करनेके लिये कितने ही दिन तक इन्द्रप्रस्थमें रहे॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते

कालिंदीं मित्रविंदां च शैन्यां नाग्नजितीं सतीम्॥ अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्मंडनादिभिः॥४३॥ सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम्॥ ससैन्यं सानुगामात्यं सभार्यं च नवंनवम्॥४४॥ तर्पयित्वा खांडवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः॥ मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता॥४५॥ उवास कतिचिन्मासान्राज्ञः प्रियचिकीर्षया॥ विहरन्रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धेएकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः॥ ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः॥१॥ आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसंबंधिबांधवैः॥ शृण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह॥२॥ युधिष्ठिर उवाच॥ ऋतुराजेन गोविंद राजसूयेन पावनीः॥ यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्संपादय नः प्रभो॥३॥

महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥ दोहा - जरासन्धकी विजय लख, कृष्ण बहत्तर अंक। भीमसेनको सैनदे, करवाये द्वै फंक॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत परीक्षित्!एक समय मुनीश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, भाई, आश्चर्य और कुलमें वृद्ध तथा जाति के सम्बन्धी बांधव इन सहित सभा में बैठे हुए राजा युधिष्ठिर इन सबके सुनते हुए हे कृष्ण! हे भक्तवत्सल, इस प्रकार संबोधन देकर बोले॥१॥॥२॥ कि, हे समर्थ!यज्ञों का राजा राजसूय यज्ञ करके मैं पवित्र कर्मवाले आपका पूजन करूंगा, इस कारण आप इस कार्य को सिद्ध करो॥३॥

अभद्र के नाश करनेवाली तुम्हारी चरणपादुका का जो पुरुष सेवन, ध्यान और पवित्र होकर वाणी से नाम लेते हैं हे कमलनाभ! वही पुरुष संसार से छूट जाते हैं और जो चाहना करते हैं, वह मनोरथ भी उनके सिद्ध हो जाते हैं और कैसा ही चक्रवर्ती क्यों न हो, विना भक्तिके कुछ नहीं होता॥४॥ इस कारण हे देवदेव!यह लोक इस संसार में तुम्हारे चरणारविन्द की सेवा के प्रभाव को देख, हे समर्थ! कितने ही कुरु व सृंजय वंशी लोग जो कि कर्मादिक को प्रधान मानकर आपकी भक्ति को उत्तम नहीं समझते, उनका अज्ञान दूर करने को जो आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते उन दोनोंकी स्थिति दिखाओ॥५॥ सबके आत्मा, समदर्शी, आत्ममुख, अनुभवरूप ब्रह्म तुम हो, आपके अपना बिराना यह भेद बुद्धि कुछ

त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरंति ध्यायंत्यभद्रनशने शुचयो गृणंति॥ विन्दंति ते कमलनाभ भवापवर्गमाशासते यदि त आशिष ईश नान्ये॥४॥ तद्देवदेव भवतश्चरणारविंदसेवाऽनुभावमिह पश्यतु लोक एषः॥ ये त्वां भजंति न भजंत्युत वोभयेषां निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसंजयानाम्॥५॥ न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः॥ संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र॥६॥ श्रीभगवानुवाच॥ सम्यग्व्यवसितं राजन्भवता शत्रुकर्शिना॥ कल्याणी येन ते कीर्तिर्लोकाननुभविष्यति॥७॥ ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो॥ सर्वेषामपि भृतानामीप्सितः क्रतुराडयम्॥८॥ विजित्य नृपतीन्सर्वान्कृत्वा च जगतीं वशे॥ संभृत्य सर्वसंभारानाहरस्व महाक्रतुम्॥९॥

नहीं है, जैसे कल्पवृक्षका जो सेवन करे उसी को फल प्राप्त हो, उसी प्रकार जो तुम्हारा सेवन करैतुम उसी पर प्रसन्न होते हो, जो जैसी सेवा करै, उसे वैसा ही फल देते हो, इसमें कुछ सन्देह नहीं॥६॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे राजा युधिष्ठिर!हे शत्रुनाशक! तुमने यह भला निश्चय किया है, क्योंकि इस यज्ञ के करने से सब लोको में तुम्हारी मंगलरूप कीर्त्ति फैलेगी॥७॥ हे समर्थ राजा युधिष्ठिर!यह संपूर्ण यज्ञों का राजा राजसूययज्ञ तुमने करना विचारा है, सो ऋषीश्वर और पितृ तथा देवता और सुहृद तथा हम और समस्त प्राणियों को प्यारा है ॥८॥ सम्पूर्ण राजाओंको जीत

और संपूर्ण पृथ्वीको वशमें कर और सब सामग्रियाँइकट्ठी करके तुम इस यज्ञको करो॥९॥ हे राजा युधिष्ठिर!यह तुम्हारे भाई लोकों का पालन करने वाले देवताओ के अंश से उत्पन्न हुए और दूसरे में भी जिनको अजितेन्द्रिय पुरुष कभी वशमें नहीं कर सकते, तुम्हारे जितेन्द्रियपन से तुम्हारे वशमें हूँ इसलिय शीघ्र ही यज्ञ पूर्ण होगा॥१०॥ मेरे आश्रयवाले पुरुषों को लोक में तेज, वैभव, सेना से कोई देवता भी पराभव नहीं कर सकतेहैं तो राजा क्या कर सकतेहैं॥११॥ श्रीशुकदेवजी मुनि बोले कि, हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का वचन सुन प्रसन्नता से प्रफुल्लित वदन राजा युधिष्ठिर ने भगवान् के तेज से बढे हुए अपने भ्राताओं को दिशाओं के जीतने को भेजा॥१२॥ संजय देश के राजाओं को संग करके दक्षिण देश के

एते ते भ्रातरो राजँल्लोकपालांशसंभवाः॥ जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः॥१०॥ न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया॥ विभूतिभिर्वाऽभिभवेद्देवोऽपि किमु पार्थिवः॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखांबुजः॥ भ्रातॄन्दिग्विजयेऽयुंक्त विष्णुतेजोपबृंहितान्॥१२॥ सहदेवं दक्षिणस्यामादिशत्सह सृंजयैः॥ दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम्॥ प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः॥१३॥ ते विजित्य नृपान्वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा॥अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते॥१४॥ श्रुत्वाऽजितं जरासंधं नृपतेर्ध्यायतो हरिः॥ आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह॥१५॥ भीमसेनोर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिंगधरास्त्रयः॥ जग्मुर्ग‍िरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः॥१६॥

राजाओं को जीतने के लिये सहदेव को, उसी प्रकार पश्चिम दिशा की तरफ मत्स्य देशके राजों सहित नकुल को, केकय राजों के साथ उदीची तरफ अर्जुन को और पूर्वकी ओर मद्रदेशके राजों सहित भीम को आज्ञा दी, हे परीक्षित!सहदेव, अर्जुन, नकुल और भीमसेनने संपूर्ण दिशाओंके राजाओं को बलपूर्वक जीत यज्ञ करने की इच्छावाले अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर को बहुत द्रव्य लाकर दिया॥१३॥१४॥सब दिशाओंके राजा तो जीत गये परन्तु पूर्व दिशा का राजा जरासन्ध जीतने में नहीं आया, इस बात को श्रवण कर अतिचिन्ता को प्राप्त हुए राजा युधिष्ठि रसे जो उपाय उद्धवजीने श्रीकृष्णचन्द्रको बताया था, सो उपाय श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा॥१५॥हे राजन! तब तो भीमसेन, अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र

तीनों ब्राह्मणका रूप धारण कर जहाँ बृहद्रथ का पुत्र जरासन्ध गिरिव्रजनाम किले में रहता था वहाँ गये॥१६॥ ब्राह्मण का वेष धारण किये इन क्षत्रियों ने भिक्षुको के आने के समय ब्रह्मभक्त गृहस्थ घरमें स्थित राजा जरासन्ध से भिक्षाकी प्रार्थना की॥१७॥ कि, राजा जरासन्ध! हम बहुत दूरसे अतिथि आये हैं, सो तुम जानो और जिस वस्तुकी हम चाहना करते हैं, वह वस्तु हमको दो, इसमें तुम्हारा कल्याण होगा

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॥१८॥ सहनशीलपुरुष क्या नहीं सह सकते हैं? और असाधु लोग कौनसा अकृत्य नहीं कर सक्ते? और दाता लोगोंको कौनसी वस्तु अदेय है? और समदर्शियों का कौन शत्रु है? इसलिये नाम लेनेसे क्या प्रयोजन जो मांगें सो दो॥१९॥ साधुओं से गाने योग्य नित्य यश को जो पुरुष

ते गत्वातिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम्॥ब्रह्मण्यं समयाचेरन्राजन्या ब्रह्मलिंगिनः॥१७॥ राजन्विद्ध्यतिथीन्प्राप्तानार्थिनो दूरमागतान्॥ तन्नः प्रयच्छ भद्र तयद्वयं कामयामहे॥१८॥ किं दुर्मर्षं तितिक्षूणकमकार्यमसाधुभिः॥ किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम्॥१९॥ योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम्॥ नाऽऽचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः॥२०॥ हरिश्चंद्रो रंतिदेव उच्छवृत्तिः शिबिर्बलिः॥ व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्टैर्व्याहतैरपि॥ राजन्यबंधून्विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिंतयत्॥२२॥ राजन्यबंधवो ह्येते ब्रह्मलिंगानि विभ्रति॥ ददामि भि‍क्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम्॥२३॥

अनित्य देह में आप समर्थ होकर नहीं करै, वह पुरुष निन्दा और शोच करने योग्य है॥२०॥राजा हरिश्चन्द्र तथा रंतिदेव और मुद्गल ऋषि, राजा शिवि, तथा बलि, वधिक और कपोत पक्षी और ऐसे बहुत महात्मा वा अनित्य देहसे ध्रुव यशको प्राप्त हुये॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!जरासन्ध कर्कश बोलना और स्वरूप तथा धनुषकी प्रत्यंचा के गट्ठे के चिह्नवाले पहुॅचोंको देखकर “यह क्षत्रियो में नीच हैं " यह जानकर द्रौपदी के स्वयंवर में मैंने पहले देखे हैं, यह विचार करने लगा॥२२॥ यद्यपि यह क्षत्रियों में नीच हैं, परन्तु तो भी ब्राह्मणों का वेष

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शंका - श्रीकृष्णने ब्राह्मणका रूप धारणकर जरासंधसे कहा कि, हे राजन्!तुम्हारा कल्याण होगा, फिर उसी समयमें युद्ध करके कुछ दिन पीछे अमंगलरूप मरणको क्यों प्राप्त हुआ? जब भगवान् नेअपने मुख से मंगल होना कहा फिर वह एक महीने भी जीता न रहा, यह कैसा मंगल?

**उत्तर -**शूरवीर योद्धायुद्धमें मरनेको अशुभ और अमंगल नहीं समझते, युद्धमें मरण ही को अपना वडा कल्याण मानते है, इसलिये श्रीकृष्ण के वाक्य के प्रमाण से युद्ध में मरणरूप कल्याण जरासन्ध को प्राप्त हो गया।

धारण किया है, इसलिये अदेय अपनी आत्मा भी यदि यह मांगें तो इनको भिक्षा दूंगा॥२३॥विष्णु भगवान् नेब्राह्मण का स्वरूप वामन अवतार धर दैत्यराज बलिको ऐश्वर्यभ्रष्ट किया, परन्तु उसकी निर्मल कीर्त्ति पृथ्वीपर अबतक श्रवणगोचर होती है॥२४॥ देवराज इन्द्रकी शोभा हरने के लिये ब्राह्मणका रूप धरके आये हुये विष्णु भगवान् कोयद्यपि जानता भी था कि, मेरे छलने के लिये आये हैं और शुक्राचार्य ने मने भी किया, परन्तु तोभी दैत्यो के राजा बलिने वामनजी को पृथ्वी का दान दिया॥२५॥ एक दिन तो अवश्य ही यह देह पतित होगा, फिर जीवित ही क्षत्रिय के देह से ब्राह्मण केलिये निर्मल यशको न करें तो इस देह से प्रयोजन ही क्या है?॥२६॥ इसप्रकार निश्चय करके उदाग्बुद्धि जरासन्ध श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनसे कहने लगा कि, हे ब्राह्मणो!जो तुम्हारी इच्छा हो सो वर मांगो तब श्रीकृष्णचन्द्र फिर पक्की करते हैं, कि हे राजन्!

बलेर्नु श्रूयते कीर्तिर्वितता दिक्ष्वऽकल्मषा॥ ऐश्वर्याद्भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना॥२४॥ श्रियं जिहीर्षतेंद्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे॥ जानन्नपि महीं प्रादाद्वार्यमाणोपि दैत्यराट्॥२५॥ जीवताऽब्राह्मणार्थाय कोन्वर्थः क्षत्रबंधुना॥ देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः॥२६॥ इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान्॥ हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोपि वः॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ युद्धं नो देहि राजेंद्र द्वंद्वशो यदि मन्यसे॥युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकांक्षिणः॥२८॥ असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्राताऽर्जुनो ह्ययम्॥ अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम्॥२९॥ एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः॥ आह चामर्षितो मंदा युद्धं तर्हि ददामि वः॥३०॥

हम जो मांगेंगे सो दोगे? तब जरासन्ध बोला कि, वारंवार क्या कहते हो यदि आपको मेरे शिर की भी आवश्यकता होगी, तो वह भी काटकर समर्पण करूंगा॥२७॥तब तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे राजाओंके इन्द्र राजन् जरासंध! यदि तुम्हारे मनमें आवैतो द्वन्द्वयुद्ध हमकोदो और युद्धके लिये ही हम क्षत्रिय तुम्हारे पास आये हैं, अन्नके लेने वाले हम ब्राह्मण नहीं हैं॥२८॥ तब जरासन्धने पूछा तुम कौन हो? यह सुन श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा कि, वृकनामा अग्नि जिसके उदर में ऐसा यह भीमसेन है, इसका भाई यह अर्जुन है और इनके मामाका पुत्र तेरा पहला वैरी मैं श्रीकृष्ण हूं, सो मुझे तो तुम भलीभाँति जानते होंगे॥२९॥ इसप्रकार सुनकर मगधदेशका राजा जरासन्ध बहुत हँसा इसके उपरान्त क्रोधमें

भरकर हे मूर्ख! मैं तुमको युद्ध दूँगा, इसप्रकार कहने लगा॥३०॥ अरे डरपोक कृष्ण!व्याकुलचित्त तेरे संग मैं युद्ध नहीं करूंगा, क्योंकि मेरे डर से तो तू प्रथम ही मथुरापुरी को त्याग समुद्र में जाय वसा है॥३१॥ अर्जुन मुझसे युद्धमें न्यून है और न मेरे समान बलवान् है, इसलिये अर्जुन योद्धा नहीं है, हां भीमसेन कुछेक मेरे समान बलवान् है, इसके संग युद्ध करूंगा॥३२॥ इतनी बात कह जरासन्ध भीमसेन को बड़ी गदा दे और आप दूसरी गदालेकर पुर से बाहर निकला॥३३॥इसके उपरान्त हे परीक्षित! बडा मदवाला भीमसेन और जरासन्ध परस्पर मिलकर रणभूमिमें वज्र के समान गदा का प्रहार करनेलगे॥३४॥ रंगभूमि में प्राप्तहुए नटों के समान बांयें दांयें विचित्र मंडलमें फिरते इन दोनों का युद्ध अत्यन्त

न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवचेतसा॥ मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः॥३१॥ अयं तु वयसाऽतुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः॥ अर्जुनो न भवेद्योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम॥३२॥ इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम्॥ द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद्बहिः॥३३॥ ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ॥ जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ॥३४॥ मंडलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च॥ चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रंगिणोः॥३५॥ ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः॥ गदयोः क्षिप्तयो राजन्दंतयोरिव दंतिनोः॥३६॥ ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने अन्योऽन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून्॥ चूर्णी बभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे संयुध्यतोर्द्व‍िरदयोरिव दीप्तमन्य्वोः॥३७॥ इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्पर्शैरपिष्टाम्॥ शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासीन्निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः॥३८॥

शोभायमान लगने लगा॥३५॥ हे महाराज परीक्षित्!दांतवाले हाथियों का जैसा शब्द होता है उसीप्रकार इनदोनों वीरों के गदा चलानेका वज्र जैसे पिसे ऐसे ही शब्द होनेलगा॥३६॥ युद्ध करनेसे बढा है क्रोध जिनका ऐसे हाथियों की लडाईमें आकडी जैसे चूर्ण हो जाती है, उसी प्रकार भुजाओंके वेगसे आपसमें बडा क्रोधकर लड़नेवाले हाथियों के शरीरपर पछाड़कर जैसे आककी गुद्दिया टूट जाती हैं, उसी प्रकार बाँहों के वेगसे चलायमान गदा, कंधा, कमर, पॉव, हाथ, जंघा इनसे लगकर चूर्ण होगईं॥३७॥ इस प्रकार जब दोनों वीरों की गदा टूट गईं, तब

क्रोधी मनुष्योंमें वीर भीमसेन और जरासन्ध लोहेके समान स्पर्शवाले घूसों की मार शरीरमें मारने लगे, हाथियों के समान आपस में मारते जरासन्ध व भीमसेन के प्रहार से उठा शब्द जैसे विना बादल वज्रपात का शब्द होता है, उसी प्रकार कठोर होने लगा॥३८॥ हे राजा परीक्षित! नहीं घटा है बल जिनका और बराबर है दॉव, पेंच, बल, प्रभाव जिनका इसी प्रकार घूंसों की मारसे भीमसेन और जरासंध का बराबर युद्ध होने लगा॥३९॥ हे राजन् परीक्षित्!इस प्रकार दिन में तो युद्ध करे और रात को मित्र के समान एक स्थानपर रहें ऐसे जरासन्ध और भीमसेन दोनों वीरोंको युद्ध करते सत्ताईस दिन बीत गये॥४०॥ हे राजा परीक्षित्!एक समय मामा के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रसे भीमसेन ने कहा कि, हे माधव!युद्धमें जरासन्धको मैं नहीं जीत सकता॥४१॥ क्योंकि जरासन्ध का दो भाग होकर जन्म हुआ है और उन खण्डों को जरा नाम राक्षसी ने जोड़ दिया है,

तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः॥ निर्विशेषमभूद्युद्धमक्षीणजवयोर्नृप॥३९॥ एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः॥ दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्वन्निशि तिष्ठतोः॥४०॥ एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन्वृकोदरः॥ न शक्तोऽहं जरासंधं निर्जंतुं युधि माधव॥४१॥ शत्रोर्जन्ममृती विद्वाञ्जीवितं च जराकृतम्॥ पार्थमाप्याययन्स्वेन तेजसाऽचिंतयद्धरिः॥४२॥ संचिंत्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः॥ दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया॥४३॥ तद्विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतांवरः॥ गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले॥४४॥ एकं पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः॥ गुदतः पाटयामास शाखामिव महागजः॥४५॥

इस कारण यह दो खण्ड होनेसे ही मरेगा, इस बातको जानने वाले श्रीकृष्णचन्द्रने भीमसेनको अपने तेजसे बढाया और जरासन्धके चीरनेका विचार किया॥४२॥ सफल ज्ञान श्रीकृष्णचन्द्र वैरी जरासन्धके मारनेका चिंतवन कर तिनुका चीरकर भीमसेन को सैन से जताया कि, जैसे मैंने तिनुका चीरा उसी प्रकार तू इसको चीरडाल॥४३॥ मारने वालोंमें श्रेष्ठ, महाबलवान भीमसेन ने श्रीकृष्णचन्द्र के संकेत को जान वैरी जरासन्धका पॉव पकड़कर पृथ्वी में पटक दिया॥४४॥ हे महाराज! जैसे बड़ा हाथी वृक्ष की शाखा को पकड़कर चीर ड़ालता है, उसी प्रकार अपने पाँवसे उसके एक पॉवको दाब और दूसरे पाँवको भुजाओंसे पकड़ गुदाके बीचसे चीरडाला॥४५॥

एक एक पाँव, जंघा, अंडकोश, कमर, पीठ, स्तन, कन्धा, एक एक भ्रुकुटी और कान ऐसे दोखण्ड किये सब प्रजा ने देखा॥४६॥ मगधदेश का राजा जरासन्ध जिस समय मारा गया, उस समय महा हाहाकार शब्द होने लगा, इसके पीछे अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्र भीमसेन को आलिंगन करके पूजा करने दलगे॥४७॥ अप्रमेयस्वरूप, समर्थ, सब प्राणियो के पालन करने वाले श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धके पुत्र सहदेव को मगधदेश का राज्यतिलक दिया इसके उपरान्त जरासन्धने जो बीसहजार आठसौ राजाओंको बंदी कर लिया था उन्हैंभी बंदीखाने से छुडा दिया॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे भाषाटीकायां जरासन्धवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ दोहा - तेहत्तर हरि बंदिसे, सब

एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके॥ एकवाह्वक्षिभ्रूकर्णे सकले ददृशुः प्रजाः॥४६॥ हाहाकारोमहानासीन्निहते मगधेश्वरे॥ पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्युतौ॥४७॥ सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावनः॥ अभ्यर्षिचदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः॥ मोचयामास राजन्यान्संरुद्धा मागधेन ये॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धेजरासंधवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ श्रीशुक उवाच॥ अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलाया युधि निर्जितः॥ ते निर्गता गिरिद्रोण्या मलिना मलवाससः॥१॥ क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः॥ ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥२॥ श्रीवत्सांकं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम्॥ चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥३॥ पद्महस्तं गदाशंखरथांगैरुपलक्षितम्॥ किरीटहारकटककटिसूत्रांगदाचितम्॥४॥

नृप दिये छुटाय। भोग्य योग्य बहु वस्तु दै, दिये घरन पहुॅचाय॥७३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! मलिनरूप, क्षुधा से कृश सूखे मुख, ऐसे बीसहजार आठसौ राजा जो गिरिद्रोणी नाम दुर्गमें कैद थे उन्हें लीलापूर्वक ही छुडा दिया, तब उन सब राजाओंने बन्दीखाने से बाहर निकलकर मेघके समान श्यामरूप, पीले वस्त्र धारण किये हुए भगवान श्रीकृष्णचन्द्रको देखा॥१॥२॥ अब जैसे स्वरूपसे श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन किया, सो वर्णन करते हैं, तुम श्रवण करो। हृदय में शोभायमान भृगुलता का चिह्न, चार भुजा और कमलके गर्भके समान अरुण नेत्र सुन्दर प्रसन्न मुख और प्रकाशमान मकराकृत कुण्डल धारण किये, कमल हाथ में लिये विराजमान, शंख, चक्र, गदा धारण करे और किरीट, हार, कड़ा,

करधनी व बाजूबन्द पहरे॥३॥४॥प्रकाशमान सुंदर मणिग्रीवा तथा गलेसे पांवतक वनमाला से शोभायमान इस प्रकार रूपको देखकर राजाओं में लूटसी पड गई और नेत्रों को ऐसे चलाने लगे, मानो रूपको पी जायँगे॥५॥ जीभ ऐसी चलावेैंमानो चाट जाँयगे, भुजा ऐसी चलावैंमानो स्वरूपको आलिंगन कर लेंगे, इस प्रकार पाप दूर होनेसे वह राजा मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें प्रणाम करने लगे॥६॥ हे राजन! इन राजा लोगोंके भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन होनेके कारण बन्दीखानेके सब क्लेश मिट गये, तब यह सब राजा हाथ जोड़ हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर वाणीसे स्तुति करने लगे॥७॥ राजा लोग कहने लगे कि, हे देवदेव! हे शरणागत का कष्ट हरने वाले!अवि

भ्राजद्वारमणिग्रीवं निवीतं वनमालया॥ पिबंत इव चक्षुर्भ्यांलिहंत इव जिह्वया॥५॥ जिघ्रंत इव नासाभ्यां रंभंत इव बाहुभिः॥ प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः॥६॥ कृष्णसंदर्शनाह्लादध्वस्तसंरोधनक्लमाः॥ प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्रांजलयो नृपाः॥७॥ राजान ऊचुः॥ नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय॥ प्रपन्नान्पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान्घोरसंसृतेः॥८॥ नूनं नाथान्वसूयामो मागधं मधुसूदन॥ अनुग्रहो यद्भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो॥९॥ राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विंदते नृपः॥ त्वन्मायामोहितोनित्या मन्यते संपदोऽचलाः॥१०॥ मृगतृष्णां यथा बाला मन्यंत उदकाशयम्॥ एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वरतु चक्षते॥११॥ वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो जिगीषयाऽस्या इतरेतरस्पृधः॥ घ्नंतः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो मृत्युं पुरस्त्वाऽविगणय्य दुर्मदाः॥१२॥

नाशी!हे कृष्ण! इस घोर संसार से दुःखी हुए और तुम्हारी शरण आये हमारी रक्षा करो॥८॥ हे नाथ! हे मधुसूदन!हम लोग जरासन्धको दोष नही लगाते, क्योकि हे प्रभो! राजाओं का जो राज्य भ्रष्ट होवे, यह आपका अनुग्रह समझना चाहिये, राज्यसंबन्धी ऐश्वर्यसे मदमत्त राजा आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य पदार्थोंको स्थिर मानते हैं, और उसी से कल्याणको प्राप्त नहीं होते॥९॥१०॥ जैसे अज्ञानी पुरुष सूर्यकी किरणोंसे चमकते हुए वालूको जलका सरोवर मानते है, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष नाना सृष्टि असद्रूपी जो माया है, उसको सत्य मानते हैं॥११॥ हे समर्थ!इन लक्ष्मी के मदसे अन्धे हो इस पृथ्वीके जीतने की इच्छासे परस्पर द्वेष करते और मृत्यु के समान शिरपर खड़े कालरूप आपको नहीं

गिनते थे और मदसे उन्मत्त हो, निर्दयीपनसे अपनी प्रजाको महाकष्ट देते थे॥१२॥हे कृष्ण! गंभीर वेग और बड़े पराक्रमवाली तुम्हारी कालमूर्तिने हमको लक्ष्मीसे भ्रष्ट कर दिया, परन्तु अब तुम्हारी कृपासे गर्वरहित होकर आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं*****॥१३॥ इसके उपरान्त नित्य आयु जिसकी क्षीण हो और एक न एक रोग जिसमें उत्पन्न हो, ऐसे देहसे मृगतृष्णारूप मिथ्या राज्यकी हम अच्छा नहीं करते, केवलराज्यकी इच्छा नहीं करते इतना ही नहीं, बरन् परलोकमें क्रियाके फलरूप कर्णप्रिय स्वर्गादिक भोग भी नहीं चाहते॥१४॥ और हे भगवन्!

त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा दुरंतवीर्येण विचालिताः श्रिया॥ कालेन तन्वा भवतोऽनुकंपया विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम॥१३॥ अथो न राज्यं मृगतृष्णिरूपितं देहेन शश्वत्पतता रुजां भुवा॥ उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम्॥१४॥ तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः॥ स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह॥१५॥ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥ प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमोनमः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ संस्तूयमानो भगवान्राजभिर्मुक्तं धनैः॥ तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा॥१७॥

इस संमारमें भूले हम राजा लोग किसी योनिमें भी तुम्हारे चरणारविन्दोंको न भूलें ऐसा उपाय बताओ॥१५॥ भक्तोंके क्लेशको दूर करनेवाले, शुद्ध अंतःकरणके प्रकाशक हरि परमात्मा और अपने भक्तोंका क्लेश काटनेवाले गोविन्द आपको हम प्रणाम करते हैं॥१६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेभरतवंशावतंस परीक्षित्!जब जरासंध के बंदीखानेसे छूटे राजाओने इसप्रकार स्तुति करी तब शरणके योग्य करुणावान् भगवान् श्रीकृष्ण

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* शंका - श्रीकृष्णचन्द्रने जरासन्धका वध करके बीससहस्र २०००० राजाओं को कारागारसे छुटाया तव तो सब राजा भगवान् कोहे कृष्ण! कहिकर क्यों पुकारे जैसा कोई मनुष्य अपने वरावर वाले को पुकारते हैं इस प्रकार क्यों पुकारा?यह बडा अयोग्य वचन कहा। राजाओंको ऐसा वचन कहना नहीं चाहिये था, उनको इसप्रकार कहना चाहिये था कि, हे महाराज! हे त्रिलोकीनाथ! हे दीनपालक! हे दीनदयालु! हे करुणासागर! हे भक्तवत्सल! ऐसे वाक्योंसे और अनेक प्रकारका दुलार करके श्रीकृष्णको पुकारना चाहिये था।

उत्तर - राजा लोग प्रथम तो अपने २ राज्यसिंहासनपर बैठे थे तब तो अभिमान से सत्संग किया नहीं इस कारण मूर्ख तथा गँवार हो गये, जबजरासन्ध पकडकर लाया और वैडीपहराकर वन्दीगृहमें डाल दिया तब दुःखी होकर सुधि बुधि भूलगये, दोनों भाँति उनको बोलनेकी चतुराई न आई, वह बिना सींग के पशु हैं इसीलिये उन राजाओं के मुखसे जो वचन निकले सोई अच्छे हैं क्योंकि दुःखी और अभिमानी जो न कहै सो थोडा इस बातपर एक दृष्टान्त है॥एक ब्राह्मणको किसी प्रेमी ने बडी शुश्रूषासे न्योता और अनेक प्रकार के भोजन उसको जिमाये तब उसका पेट बहुत मर गया तब वह बोला बडे सत्यानाशी के यहां भोजन किया, इससे मूर्खकि दुर्वाक्यों पर ध्यान न करै॥

चन्द्र ने मनोहर वाणीसे राजाओंसे कहा॥१७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे राजाओ!जैसे तुमने चाहना करी उसी प्रकार सबका ईश्वर और आत्मा जो मैं हूं, सो मुझमें तुम्हारी आज से दृढ़ भक्ति हुई॥१८॥हे राजा लोगो! सत्यवादी तुमने मेरा भजन करना, यह भला सत्य संकल्प निश्चय किया है, क्योंकि मनुष्य धन और ऐश्वर्य के मदसे उन्मत्त हो इच्छानुसार विचरते देखे जाते हैं॥१९॥ कृतवीर्यका पुत्र चक्रवर्ती राजा सहस्रबाहु एकसमय जमदग्नि ऋषिकी गौ हरके ले आया तब उसका परशुरामजीने पुत्रोंसहित संहार किया और राजा नहुष मदोन्मत्त होकर इन्द्राणीके पास जानेके लिये ब्राह्मणोंको पालकी में जोतकर चला, तब ब्राह्मणोंने उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट करके सर्प कर दिया और राजा वेन ने मदोन्मत्त होकर ब्राह्मणों का तिरस्कार किया, तब ब्राह्मणोंने अत्यन्त क्रोधित होकर हुंकार शब्दसे उसका प्राणसंहार किया और राक्षसराज रावणने सीताकी आकांक्षा करी, तब महात्मा श्रीरा

श्रीभगवानुवाच॥ अद्यप्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे॥ सुदृढा जायते भक्तिर्वाढमाशंसितं तथा॥१८॥ दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवंत ऋतभाषिणः॥ श्रियैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम्॥१९॥ हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे॥ श्रीमदाद्भ्रंशिताः स्थानाद्देवदैत्यनरेश्वराः॥२०॥ भवंत एतद्विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमंतवत्॥ मां यजतोऽध्वरैर्युक्ताःप्रजा धर्मेण रक्षय॥२१॥ संतन्वंतःप्रजातंतॄन्सुखं दुःखं भवाभवौ॥ प्राप्तंप्राप्तं च सेवंतो मच्चित्ता विचरिष्यथ॥२२॥ उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतव्रताः॥ मय्यावेश्य मनः सम्यङ्गामंते ब्रह्म यास्यथ॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान्भुवनेश्वरः॥ तेषां न्ययुंक्त पुरुषान्स्त्रियोमज्जनकर्मणि॥२४॥

मचन्द्रजीने उसका वध किया और दैत्यराज नरकासुर ने जब अदिति के कुण्डल हर लिये तब उसे मैंने ही मारा और कितने ही देवता और राजा धनके मदसे स्थानभ्रष्ट होगये॥२०॥ और तुम समस्त उत्पन्न देहादिक से नाश हो लगे, यह जान सावधान हो यज्ञ करके मेरा पूजन और प्रजा की रक्षा करो॥२१॥ और पुत्रादिकों को उत्पन्न करो, जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख जो प्राप्त होय उसका सेवन करो और मुझमें चित्त लगाकर विचरो॥२२॥ आत्मामें रमण करते व्रतधारण किये देह और घरों में उदासीन होकर भले प्रकार मुझमें मन लगाओगे तो अंतमें परब्रह्मरूप मुझे प्राप्त होगे॥२३॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत!त्रिलोकी के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार राजाओंको आज्ञा कर और उनको

उबटन स्नान और क्षौर इत्यादि कर्म करानेके लिये स्त्री पुरुषों को भेजा॥२४॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित्!राजाओंके स्नान कर चुकने पर जरासन्धके पुत्र सहदेवसे राजाओंके योग्य वस्त्र आभूषण माला और चंदनादि से उनकी पूजा कराने लगे॥२५॥ सुन्दर स्नान करे वस्त्र आभूषणों से शोभित और अनेक प्रकार के भोगोंसे युक्त राजाओं को श्रेष्ठ अन्न भोजन कराय राजाओंके योग्य ताम्बूलादिक देनेउलगे॥२६॥ मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रसे पूजित और प्रकाशमान कुण्डलोंको पहरे बन्दीखानेके क्लेशसे छुटाये राजा वर्षाऋतुके पीछे आकाशमें तारागणोंके समान शोभायमान लगने लगे॥२७॥ मणि और सुवर्णके गहनोंसे शोभायमान राजाओंको सुन्दर घोडे जुते रथोंमें चढ़ाय और मनोहर

सपर्यांकारयामास सहदेवेन भारत॥नरदेवोचितैर्वस्त्रैर्भूषणैः स्रग्विलेपनैः॥२५॥ भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान्समलंकृतान्॥ भोगैश्च विविधैर्युक्तांस्तांबूलाद्यैर्नृपोचितैः॥२६॥ ते पूजिता मुकुंदेन राजानो मृष्टकुंडलाः॥ विरेजुर्मोचिताः क्लेशात्प्रावृडंते यथा ग्रहाः॥२७॥ रथान्सदश्वानारोप्य मणिकांचनभूषितान्॥ प्रीणय्य सूनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान्प्रत्ययापयत्॥२८॥ त एवं मोचिताः कृच्छ्रात्कृष्णेन सुमहात्मना॥ ययुस्तमेव ध्यायंतः कृतानि च जगत्पतेः॥२९॥ जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम्॥ यथाऽन्वशासद्भगवांस्तथा चक्रुरतंद्रिताः॥३०॥ जरासंधं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः॥ पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात्सहदेवेन पूजितः॥३१॥

वचनों से प्रसन्न कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हें अपने देशों को भेज दिया॥२८॥ हे महाराज! इस प्रकार जगत्पति महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके छुड़ाये हुए कष्टमुक्त राजा लोग भगवान् काऔर उनके चरित्रों का ध्यान करते अपने अपने नगर को चले गये॥२९॥ वह समस्त राजा जैसे महापुरुष श्रीकृष्णचन्द्रने छुड़ाए थे और जैसे पूजा कराई थी, उसी प्रकार वह सब वृत्तान्त अपनी प्रजाके सन्मुख वर्णन किया और जिस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने शिक्षा दी थी, उसी प्रकार आलस्य छोडकर करने लगे॥३०॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार भीमसेनके हाथसे जरासंधको मरवाय और सहदेवसे अपना पूजन कराय भीम और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थ आये॥३१॥

दुष्ट हृदय शत्रुओं को दुःख देनेवाले और अपने सुहृदोंको आनन्द देनेवाले श्रीकृष्ण, भीम, अर्जुन यह सब वैरी जरासन्धको मार इन्द्रप्रस्थमें आनकर शंखध्वनि करने लगे॥३२॥हे परीक्षित्!शंखका शब्द सुन प्रसन्नमन इन्द्रप्रस्थ निवासी “जरासन्धकी मृत्यु हुई” यह जान गये और धर्मराज राजा युधिष्ठिरके मनोरथ पूर्ण होगये॥३३॥ इसके उपरान्त भीम अर्जुन और श्रीकृष्णचन्द्रने आये राजा युधिष्ठिरको प्रणाम कर आपने जो कुछ किया सो सब कहा॥३४॥ धर्मराजके पुत्र राजा युधिष्ठिर ब्रह्मा महादेवके वश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो कार्य किया उसे सुन, नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओं की धार बहाते, प्रेमसे विह्वल हो कुछ न बोले॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे

गत्वा ते खांडवप्रस्थं शंखान्दध्मुर्जितारयः॥ हर्षयंतः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः॥३२॥ तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इंद्रप्रस्थनिवासिनः॥ मेनिरे मागधं शांतं राजा चाप्तमनोरथः॥३३॥ अभिवंद्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः॥ सर्वमाश्रावयांचक्रुरात्मना यदनुष्ठितम्॥३४॥ निशम्य धर्मराजस्तत्केशवेनानुकंपितम्॥ आनंदाश्रुकलां मुंचन्प्रेम्णा नोवाच किंचन॥३५॥ इति श्रीमद्भा०महा० दशमस्कंधोत्तरार्धे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं युधिष्ठिरो राजा जरासंधवधं विभोः॥ कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत्॥१॥ युधिष्ठिर उवाच॥ ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः॥ वहंति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम्॥२॥ स भवानरविंदाक्षो दीनानामीशमानिनाम्॥ धत्तेऽनुशासनं भ्रमंस्तदत्यंतविडंबनम्॥३॥

भाषाटीकायां त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ दोहा - चौहत्तरमें राजसुय, कियो युधिष्ठिर यज्ञ। तबही हनो शिशुपाल नृप, श्रीकृष्ण सर्वज्ञ॥७४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! इस प्रकार राजा युधिष्ठिर जरासंधका वध और श्रीकृष्ण का प्रभाव सुन अत्यन्त प्रसन्न होकर श्रीकृष्णचन्द्रसे बोले कि॥१॥ जो पुरुष त्रिलोकी के गुरु हैं सब लोकोंके बड़े ईश्वर हैं, वह भी दुर्लभ मानकर तुम्हारी आज्ञाको शिरपर धारण करते हैं॥२॥ हे व्यापक कमलनयन! आप हम दुःखी और सामर्थ्यपनका अभिमान रखने वालोंकी आज्ञाको शिरपर धारण करते हो, यह

विडम्बनामात्र है, वास्तवमें आपको यह बात संभव नहीं हो सकती॥३॥ एक अद्वितीय अर्थात् कोई जिनकी बराबर नहीं और कोई जिनसे बड़ा नहीं ऐसे परमात्मा तुम हो, आपका तेज परोपकारके लिये कर्मोंसे न्यून भी नहीं होता, जैसे सूर्य का उदय अस्तमें तेज बढ़ता ही है, घटता नहीं॥४॥ यदि कहो कि, मैं परमेश्वर हूं सो सबकी आज्ञा माननी, यह मंदकर्म करना योग्य नहीं है, सो कहते हैं, कि, हे मधुवंशोत्पन्न! श्रीकृष्णचन्द्र!हे अजित! जैसे अज्ञानी पुरुषोंके देहमें अहंकार और देहके संगमें समता रहती है, उसी प्रकार तुम्हारे भक्तोंके “तू और तेरा मैं और मेरा” यह बुद्धि नहीं होती है॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!राजा युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे यह वचन कहे

न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः॥ कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः॥४॥ न वै तेऽजितभक्तानां ममाहमिति माधव॥ त्वं तवेति च नाना धीः पशूनामिव वैकृता॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान्स ऋत्विजः॥ कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिनः॥६॥ द्वैपायनो भरद्वाजः सुमंतुर्गौतमोऽसितः॥ वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः॥७॥ विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिजैमिनिः क्रतुः॥ पैलः पराशरो गर्गो वैशंपायन एव च॥८॥ अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामोभार्गव आसुरिः॥ वीतिहोत्रो मधुच्छंदा वीरसेनोऽकृतव्रणः॥९॥ उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः॥ धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः॥१०॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः॥ तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप॥११॥

और उनकी सम्मति ले, यज्ञ करनेके योग्य वसंतादिकाल में वेदके पढ़नेवाले योग्य ब्राह्मणोंको होता, उद्गाता, अध्वर्यु, इत्यादिकोंमें वरण किया॥६॥ द्वैपायन, भरद्वाज, सुमंतु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित,॥७॥ विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशंपायन॥८॥ अथर्व, काश्यप, धौम्य, परशुराम, भार्गव, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुछन्द, वीरसेन, अकृतव्रण॥९॥ इसी प्रकार बुलाये हुए द्रोणाचार्य, भीष्मजी तथा कृपाचार्यादि ऋषि आये तब पुत्रों सहित धृतराष्ट्र और बडे बुद्धिमान् विदुरजी भी आनकर सुशोभित हुए॥१०॥ हे राजन्! और भी यज्ञ देखनेके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व सब राजा और उनके प्रधान दीवान आये॥११॥

इसके उपरान्त ब्राह्मण लोग यज्ञ करने की भूमिमें सुवर्णका हल चलाय भूमि शोधनकर राजा युधिष्ठिरको यज्ञ दीक्षा देने लगे॥१२॥ जैसे पहले वरुणके यज्ञमें सुवर्णकी सामग्री और सुवर्णके पात्र थे उसी प्रकार इस यज्ञमें भी थे और ब्रह्मा, महादेव, तथा इन्द्रादिक देवताओंको संग लेकर लोक पाल भी आये॥१३॥ गणोंसहित सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर और बड़े बड़े सर्प, मुनीश्वर, यक्ष, राक्षस, खग, किन्नर, चारण इनके समूह के समूह आये॥१४॥ और आये हुए राजाओं की सब स्त्रियें, भी पांडुपुत्र राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें आई॥१५॥ हे महाराज! इस बात को कोई आश्चर्य न करे क्योंकि हरिभक्त की सब वार्त्तासिद्ध हो सकती है इसीलिये इन्होंने युधिष्ठिर के यज्ञमें विस्मय न किया, जैसे देवताओंने वरुणको

ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलांगलैः॥ कृष्ट्वा तत्र यथम्नायं दीक्षयांचक्रिरे नृपम्॥१२॥ हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा॥ इंद्रदयो लोकपाला विरिंचभवसंयुताः॥१३॥ सगणाः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः॥ मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः॥१४॥ राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः॥ राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पांडुसुतस्य वै॥१५॥ मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः॥ अयाजयन्महाराजं याजका देववर्चसः॥१६॥ राजसूयेन विधिवत्प्राचेतसमिवामराः॥ सौत्येऽहन्यवनीपालो याजकान्सदसस्पतीन्॥ अपूजयन्महाभागान्यथावत्सुसमाहितः॥१७॥ सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशंतः सभासदः॥ नाध्यगच्छन्न नैकांत्यात्सहदेवस्तदाब्रवीत्॥१८॥

यज्ञ कराया था उसी प्रकार देवताओंके समान कान्तिवाले ऋत्विज राजसूययज्ञ करके विधिपूर्वक महाराज युधिष्ठिरसे यजन कराने लगे॥१६॥ अतिशय करके सावधान पृथ्वीका पालन करनेवाले राजा युधिष्ठिरने जिस दिन सोमवल्ली कूटी गई, उस दिन यज्ञकराने वालों का तथा बड़भागी जो सभामें मुख्य थे उनका पूजन किया॥१७॥ सभाके बैठने वालोंमें प्रथम किसकी पूजा करनी चाहिये॥ यह विचार करते करते एककी अपेक्षा एक बडा है, इस कारण जब किसीका निश्चय न हुआ तब युधिष्ठिर के भाई सहदेवने कहा*****॥१८॥

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* शंका - पृथ्वीपर युधिष्ठिरने ही कुछपहिले यज्ञ नहीं किया यज्ञ तो सतयुगसे अनेक राजा करते चले आये हैं फिर युधिष्ठिरकी यज्ञमें पहिले पूजन करने के लिये देवता का विचार क्यों किया? कुछ ब्राह्मण भी प्रथम ही यज्ञ करनेके लिये नहीं आये थे, पहिले सतयुग में ब्राह्मण सहस्रों यज्ञ करा चुके थे, फिर धर्मराजके यज्ञमें इतना विचार क्यों किया? जो नई बात हो उसका विचार करना चाहिये और सैंकडों वर्षसे जिस बातकी रीति चली आती हो, उस बातमें क्या सन्देह?

भक्तों का पालन करने वाले अखण्डरूप समस्त देवता देशकालधनादिकरूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ही इस यज्ञमें पूजा करने के योग्य हैं॥१९॥ यह सब विश्व कृष्णका ही रूप है और यज्ञादिक भी कृष्णरूप ही हैं और अग्न‍ि, आहुति, मंत्र, ज्ञान, उपासनादि भी सब कृष्णपरायण हैं॥२०॥ हे सभा बैठनेवालो! अजन्मा एक अद्वितीय यह कृष्ण हैं सो अपने स्वरूप विश्वको अपने आत्मा हीसे दूसरेकी सहायता विना उत्पन्न पालन और नाश करते हैं॥२१॥ सब जनों के अनुग्रह से इस संसार में अनेक प्रकारके तप योगादिक कर्म करके धर्मादिकरूप कल्याण को करते हैं और अनेक प्रकार के

अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान्सात्वतां पतिः॥ एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः॥१९॥ यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः॥ अग्निराहुतयो मंत्राः सांख्यं योगश्च यत्परः॥२०॥ एक एवाद्वितीयोऽसावैतदात्म्यमिदं जगत्॥ आत्मनाऽऽत्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हंत्यजः॥२१॥ विविधानीह कर्माणि जनयन्यदवेक्षया॥ ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥२२॥ तस्मात्कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम्॥ एवं चेत्सर्वभृतानामात्मनश्चार्हणं भवेत्॥२३॥ सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने॥ देयं शांताय पूर्णाय दत्तस्यानंत्यमिच्छता॥२४॥ इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत्तूष्णीं कृष्णानुभाववित्॥ तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधुसाध्विति सत्तमाः॥२५॥

सब कर्मो के फल भी सब कृष्णके आधीन ही हैं॥२२॥ इसलिये सबसे बडे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की ही पहले पूजा करनी योग्य है और इनकी पूजा करने से सब प्राणियों की पूजा हो जायगी॥२३॥और जो कोई पूजाके योग्य होगा उसकी भी पूजा हो जायगी, इस कारण जो पुरुष पूजाके अनन्तफलकी चाहना करे वह पुरुष सब प्राणियों के आत्मा, भेदभावरहित और शान्त परिपूर्ण भगवान् वासुदेवकी पूजा करें॥२४॥ हे महाराज! इतनी बात कह श्रीकृष्णचन्द्र के प्रभावको जानने वाला सहदेव चुप हो गया और उस समय सब श्रेष्ठपुरुष सहदेव का वचन सुनकर “सत्य कहा सत्य

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उत्तर- सव ब्राह्मण भगवान् कोभूल नहीं गये थे सब जानते थे कि, सब कर्मोंमें और यज्ञमें भगवान्‌का पूजन करना चाहिये ऐसा सब जानते थे, परन्तु देवयोग से शिशुपालने कालवश मुनियोंको और यज्ञकी सभामें बैठनेवाले प्राणियोंको मोहित कर लिया काल करके सब मुनिजन मोहित हो गये और सब मनुष्योंने बालक सरीखा काम किया क्योंकि जो यज्ञमें पहिले पूजन करने योग्य कौन है ऐसा विवाद न होता तौ शिशुपाल श्रीकृष्णकी निन्दा क्यों करता? और विना निन्दा किये भगवान् उसको क्यों मारते? शिशुपालके काल करके मोहित जो मुनि और सब सभाके बैठनेवाले प्रथम पूजन करने योग्य का विचार करने लगे॥

कहा” इसप्रकर कहकर बडाई करने लगे॥२५॥ स्नेहसे विह्वल और प्रसन्न हो राजा युधिष्ठिर ने उन ब्राह्मणों के कहे वचन सुन और सभामें बैठे हुए पुरुषों के हृदयका अभिप्राय जान इंद्रियों को प्रेरण करने वाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन किया॥२६॥ स्त्री, भाई, मंत्री और सब कुटुम्बके पुरुषोंसहित राजा युधिष्ठिरने श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंको धोय सब लोकों के पवित्र करनेवाले चरणारविन्दका धोवन जल अपने मस्तकपर चढ़ाय॥२७॥ पीले रेशमी वस्त्र और बहुत मोलके आभूषणों से भी पूजा कर आँसू भरे नेत्रोंसे राजा युधिष्ठिर श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करने को समर्थ न हुआ॥२८॥ इस प्रकार जब राजा युधिष्ठिरने पूजा करी, तब श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर सब जन हाथ जोड नमोनमः और जय २

श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदा॥ समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः॥२६॥ तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः॥ सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुंबोऽवहन्मुदा॥२७॥ वासोभिः पीतकौशेयैर्भूषणैश्च महाधनैः॥ अर्हयित्वाऽश्रुपूर्णाक्षोनाशकत्समवेक्षितुम्॥२८॥ इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्रांजलयो जनाः॥ नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः॥२९॥ इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठादुत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः॥ उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी सश्रावयन्भगवते परुषाण्यभीतः॥३०॥ ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुतिः॥ वृद्धानामपि यद्बुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते॥३१॥ यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषितम्॥ सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत्संमतोऽर्हणे॥३२॥

शब्द से श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके फूलोंकी वर्षा वर्षाने लगे॥२९॥ हे महाराज परीक्षित्!जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा हुई, तब उस समय दमघोष का पुत्र शिशुपाल श्रीकृष्णचन्द्रके गुणोंका वर्णन सुन अत्यन्त क्रोधित हो, भुजा उठाय ईर्षाकर निर्भय हो श्रीकृष्णचन्द्रको कठोरवचन सुनाकर यह कहने लगा॥३०॥ नाशरहित श्लाघ्य सामर्थ्यवान् काल बडा प्रबल है, वास्तवमें यह वेदकी श्रुति सत्य है, क्योंकि काल से ही वृद्ध वृद्ध सभामें बैठाने वालों की बुद्धि इस बालक सहदेवके कहने से चलायमान होगई॥३१॥ हे पात्रके जाननेवालों में श्रेष्ठ सभापतियो! भला यह कृष्ण पूजाके योग्य है? कदापि नहीं इसकारण इस बालक का वचन मानना उचित नहीं॥३२॥

क्योंकि तप करने वाले विद्यावान्, व्रती, ज्ञानी, पापरहित, ब्रह्मनिष्ठ और लोकपालों से पूजित ब्रह्मर्षि॥३३॥ इस सभा में विराजते हैं, इन सबको त्याग गायों का चराने वाला और कुलको दोष लगाने वाला पूजाके योग्य कैसे हो सकता है? और यज्ञमें देवताओंके योग्य बलि कौआ कैसे ग्रहण करने के योग्य॥३४॥ न जिसका कोई वर्ण, न आश्रम और न कोई कुल है, संपूर्ण धर्म से बहिष्कृत, जैसे मनमें आवै वैसे ही करै गुणहीन, ऐसा कृष्ण कैसे पूजाके योग्य हो सकताहै?॥३५॥ राजा ययातिने इसके कुलको शाप दिया और सत्पुरुषोंने जातिबहिष्कृत किया और सर्वदा वृथा मदिरापान करनेवाला इसका कुल है, फिर इस कुलमें आज कृष्ण कैसे पूजाके योग्य होता है॥३६॥

तपोविद्याव्रतधराञ्ज्ञानविध्वस्तकल्मषान्॥ परमर्षीन्ब्रह्मनिष्ठाँल्लोकपालैश्च पूजितान्॥३३॥ सदसस्पतीनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः॥ यथा काकः पुरोडाशं सपर्यो कथमर्हति॥३४॥ वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः॥ स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति॥३५॥ ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम्॥ वृथा पानरतं शश्वत्सपर्यांकथमर्हति॥३६॥ ब्रह्मर्षिसेवितान्देशान्हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम्॥ समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधते दस्यवः प्रजाः॥३७॥ एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमंगलः॥ नोवाच किचिंद्भगवान्यथा सिंहः शिवारुतम्॥३८॥ भगवन्निंदनं श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः॥ कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपंतश्चेदिपं रुषा॥३९॥ निंदा भगवतः शृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा॥ ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः॥४०॥

ब्रह्मर्षिसेवित देशोंको त्याग ब्रह्मतेजरहित समुद्रके किलेका आश्रय लेकर यादवोंमें चोर के समान बाधा देता है॥३७॥ भूपाल! नष्टमंगल शिशुपाल और भी अनेक प्रकारके अमंगल वचन कहता रहा, परन्तु जैसे सिंह सियारोंके बोलनेपर ध्यान नहीं देता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कुछ न बोले॥३८॥ सभासद दुस्सह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी इसप्रकार निन्दा सुन, कर्ण मूँदि अत्यन्त क्रोधित हो शिशुपालको गाली देने लगे॥३९॥ भगवानकी निन्दा सुन अथवा भगवत् परायण पुरुषोंकी निन्दा सुनकर जो पुरुष उस स्थानसे न उठ जायँ वह पुरुष अपने पुण्यसे भ्रष्ट होकर नरक में गिरते हैं॥४०॥

इसके उपरान्त हे परीक्षित्! क्रोधसे पाण्डुके पुत्र और मत्स्यदेश व संजय देशके राजा अपने अपने शस्त्रोंको उठाकर शिशुपालके मारनेको उपस्थित हुए॥४१॥ हे भरतवंशोत्पन्न परीक्षित्! इसके पीछे घबराहटरहित शिशुपाल ने श्रीकृष्णचन्द्रके पक्षी राजाओंको मारनेके लिये ढ़ाल और अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाली तलवार ग्रहण की॥४२॥ यह मेरा पार्षद है और मेरे समान बलवान् है यह सबको मारैगा इससे मैं ही इसको मारू, यह विचार उसी समय उठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी ओर के राजाओंको निवारण करके सम्मुख आते अपने वैरी शिशुपालका शिर क्षुरेके समान पैनीधारवाले चक्र से काट लिया॥४३॥ उस समय बडा कोलाहल शब्द हुआ और शिशुपालके पिछलगू राजा जीने की इच्छा करके

ततः पांडुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः॥ उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः॥४१॥ ततश्चैद्यस्त्वसंभ्रांतो जगृहे खड्गचर्मणी॥ भर्त्सयन्कृष्णपक्षीयान्राज्ञः सदसि भारत॥४२॥ तावदुत्थाय भगवान्स्वान्निवार्य स्वयं रुषा॥ शिरः क्षुरांतचक्रेण जहारापततो रिपोः॥४३॥ शब्दः कोलाहलोऽप्यासीच्छिशुपाले हते महान्॥ तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीर्वितैषिणः॥४४॥ चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत्॥ पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्युता॥४५॥ जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया॥ ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम्॥४६॥ ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिणां विपुलामदात्॥ सर्वान्संपूज्य विधिवच्चक्रेऽवभृथमेकराट्॥४७॥

भाग गये॥४४॥ उस समय शिशुपालके देहमें से निकली हुई ज्योति सब प्राणियोंके देखते श्रीकृष्णचन्द्रमें मिल गई, जिस प्रकार आकाशसे गिरे तारे पृथ्वी में मिल जाते हैं॥४५॥ पहले जन्ममें हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप हुये, दूसरे जन्ममें रावण, कुम्भकर्ण हुये, तीसरे जन्ममें शिशुपाल और दन्तवक्र हुये, इस प्रकार तीन जन्मके चले आये वैर से तन्मय बुद्धिसे रूपका ध्यान करते करते, उसी रूपको प्राप्त हुये, अर्थात् पार्षद हो गये, क्योंकि जैसी जो भावना करता है, वैसा ही उसका जन्म होता है॥४६॥ इसके उपरान्त चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिरने यज्ञके कराने वाले ब्राह्मणोंको और बड़े सभामें बैठनेवालों को बडी दक्षिणा दी और विधिपूर्वक सबका पूजन करके यज्ञांत स्नान किया॥४७॥

योगेश्वरोंके ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्रने राजा युधिष्टिरका यज्ञ सिद्ध करके और सुहृदों की विनयसे कितनेही मास पर्यन्त वहाँ वास किया॥४८॥ इसके उपरान्त जाने देने की इच्छा न करने वाले राजा युधिष्ठिरसे आज्ञा मॉग सामर्थ्यवान् भगवान् देवकीनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अपने स्त्री पुत्रोंको संग लेकर द्वारकापुरी में आये॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! वैकुण्ठके वास करने वाले जय, विजय पार्षदोंको सनकादिक का शाप लगा, इस कारण वारम्वार जन्म हुआ, प्रथम यह कथा तुम्हारे आगे विस्तार सहित वर्णन कर चुके हैं॥५०॥ राजसूययज्ञ कर चुकने के पीछे स्नानका राजा युधिष्ठिर ब्राह्मण और क्षत्रियोंके मध्यमे बैठे इन्द्रके समान सभा में शोभायमान लगने लगे॥५१॥ राजा युधिष्ठिरसे सत्कार पाय

साधयित्वा ऋतुं राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः॥ उवास कतिचिन्मासान्सुहृद्भिरभियाचितः॥४८॥ ततोऽनुज्ञाप्य राजानमनिच्छंतमपीश्वरः॥ ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः॥४९॥ वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम्॥ वैकुंठवासिनोर्जन्म विप्रशापात्पुनः पुनः॥५०॥ राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः॥ ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव॥५१॥ राज्ञः सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः॥ कृष्णं क्रतुं च शंसंतः स्वधामानि ययुर्मुदा॥५२॥ दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम्॥ यो न सेहे श्रियं स्फीतां दृष्ट्वा पांडुसुतस्य ताम्॥५३॥ य इदं कीर्तयेद्विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम्॥ राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥५४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥

सब देवता और आकाशके विचरनेवाले मनुष्य, प्रमथगण श्रीकृष्णचन्द्र और सभा तथा यज्ञ इनकी प्रशंसा करते आनन्दपूर्वक अपने अपने लोकोंको चले गये॥५२॥ परन्तु कौरवोंके कुलमें कलियुग रूप कुलका नाशक, धर्मद्वेषी दुर्योधन पांडुपुत्र महाराज युधिष्ठिर की बडी शोभाको देख अपने मनमें बहुत कुढ़ा॥१३॥शिशुपालके वध आदिक जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कर्म बीस हजार आठसौ राजा कैदसे छुटाये और राजा युधिष्ठिर का यज्ञ कराया, इस प्रसंगको जो पुरुष कहें अथवा सुनेंगे, वह सब पापों से छूट जायँगे॥५४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥

दोहा - पिछहत्तर भ्रम में पडो, अवभृथको अस्नान। दुर्योधनको क्षमा विन, भयो मान अपमान॥७५॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी! अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञकी बडी शोभा देखकर जो राजा आये थे, वह सब प्रसन्न हुये॥१॥ और संपूर्ण देवताओंने भी आनन्द पाया, केवल दुर्योधन ही आनन्दसे वंचित रहा, यह हमने आपके ही मुखसे सुना, सो दुर्योधनको आनन्द क्यों न हुआ इसका कारण कृपा करके मेरे सम्मुख वर्णन कीजिये॥२॥ तब श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! महात्मा तुम्हारे दादे राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें सब बन्धु बांधव प्रेमवश होकर सबही टहल करते थे॥३॥ किसने कौन काम किया सो कहते हैं, भीमसेनको रसोईंका अधिष्ठाता,

राजोवाच॥ अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम्॥ सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन्नृदेवा ये समागताः॥१॥ दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः॥ इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम्॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः॥ बांधवाः परिचर्यायां तस्यासन्प्रेमबंधनाः॥३॥ भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः॥ सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने॥४॥ गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने॥ परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः॥५॥ युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः॥ बाहीकपुत्रा भूर्याद्या ये च संतर्दनादयः॥६॥ निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा॥ प्रवर्तते स्म राजेंद्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥७॥

दुर्योधनको खर्च करनेका स्वामी कोशाध्यक्ष किया, क्योंकि यह हमको शत्रु जानकर बहुत द्रव्य उठावेगा, तो इसमें हमारा यश होगा, सहदेवको आये गयेकी पूजा करनेका काम सौंपा और नकुलको अनेक प्रकार की सामग्रियोंका सम्पादक बनाया॥४॥ साधुओंकी सेवा अर्जुन करता था, और श्रीकृष्णचन्द्र यज्ञमें आने वालोंके पॉव धोकर पोंछ देते थे, परोसा परोसीमें द्रौपदी लग रही थी उदारमन कर्ण दान देनेकी टहलमें लग रहा था॥५॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्!सात्यकी, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुरादिक, भूरिश्रवादि, बाहीक राजाके पुत्र और संतर्दन आदि उस बड़े यज्ञमें अनेक प्रकारके कामों में लगा दिये, उस समय वह सब महाराज युधिष्ठिर का प्रिय करने के लिये सब प्रवृत्त हो गये॥६॥ ऋत्विक और सभासद तथा

विवेकी सुहृज्जनों ने सुन्दर मनोहर वचन गहने और दक्षिणासे पूजित होकर शिशुपालको श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकी प्राप्ति होनेके उपरान्त स्वर्गनदी गंगा में यज्ञकी समाप्तिका स्नान किया॥७॥८॥ यज्ञकी समाप्तिके उत्सवमें मृदंग, शंख, ढोलक, खंजरी, नगारे, गोमुख, नरसिंहादिक चित्र विचित्र बाजे बजने लगे॥९॥ नाचनेवालीं नाचनेलगीं और आनन्दपूर्वक गवैयोंके झुण्डके झुण्ड गाने लगे, तिनके वीणा वेणु और हथेलीका शब्द स्वर्गतक व्याप्त हो रहा था॥१०॥ चित्र विचित्र छत्र, ध्वजा पताका जिनके ऊपर ढकी, ऐसे बड़े बड़े रथ, हाथी और घोड़ोंपर चढ सुवर्णकी माला पहरे सेनाको संग लेकर राजा निकले॥११॥ राजा युधिष्ठिरको आगे किये यदु सञ्जय, कांबोज कुरु कैकय और कौशल देशके

ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सुसुहृत्तमेषु स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः॥ चैद्ये च सात्वतपूतेश्चरणं प्रविष्टेचक्रुस्ततस्त्ववभृथस्नपनं द्युनद्याम्॥८॥ मृदंगशंखपणवधुंधुर्यानकगोमुखाः॥ वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे॥९॥ नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः॥ वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत्॥१०॥ चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेंद्रस्यंदनार्वभिः॥ स्वलंकृतैर्भटैर्भूषानिर्ययू रुक्ममालिनः॥११॥ यदुसृंजयकांबोजकुरुकेकयकोसलाः॥ कंपयंतो भुवं सैन्यैर्जयमानपुरःसराः॥१२॥ सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा॥देवर्षिपितृगंधर्वास्तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः॥१३॥ स्वलंकृता नरा नार्यो गंधस्रग्भूषणांबरैः॥ विलिंपंत्योऽभिषिचंत्यो विजह्नुर्विविधै रसैः॥१४॥ तैलगोरसगंधो दहरिद्रासांद्रकुंकुमैः॥ पुंभिर्लिप्ताः प्रलिंपंत्यो विजह्रुर्वारयोषितः॥१५॥ गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः॥ ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः सव्रीडहासविकसद्वदना विरेजुः॥१६॥

राजा पृथ्वीको कम्पायमान करते सेना सहित चले॥१२॥सभासद, ऋत्विज तथा ब्राह्मण वेदकी ध्वनि करते चले और ऋषि, पितृ, गंधर्व, पुष्पोंकी वर्षा कर करके स्तुति करते थे॥१३॥ चन्दन, माला, गहने और वस्त्रोंसे शृंगार करे स्त्री पुरुष अनेक प्रकारके दूध, दही आदि रसोंको लेपन और छिरकाव करते थे॥१४॥ तेल और माखन सुगंधिके जल हरदी व केशर इत्यादिकों को लेपन करते और छिड़कते परस्पर विहारकरते थे॥१५॥ इस उत्सवको देखने के लिये जैसे उत्तम विमानोंपर बैठकर देवांगना आई हों उसी प्रकार वीर और रावतों से रक्षित हो रनवासकी

रानियें रथ और पालकियों में बैठकर निकलीं, वह रानियें मामाके पुत्रोंसे और सखियोंसे भिगोयी हुई लाजभरी मुसकान व प्रफुल्ल‍ित मुखसे शोभायमान होरही थीं॥१६॥ भीजने से और शरीर में चिपटनेसे उन स्त्रियोंके अंग, कुच, जंघाऔर मध्यभाग स्पष्ट दिखाई देते थे उत्सुकतासे चोटी शिथिल होनेके कारण उससे फूल बिखर रहे थे देवर और सखीजन उन्हें डोलचियोंसे भिगो रहे थे उनकी लीला देखकर मलीनमन कामीजनोंके चित्त अत्यन्त क्षुभित होते थे॥१७॥ सुवर्णकी माला पहरे और सुन्दर घोडे जुते रथमें बैठे राजा युधिष्ठिर जैसे क्रियाओं सहित यज्ञ सुन्दर

ता देवरानुत सखीन्सिषिचुर्हतीभिः क्लिन्नांवरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः॥ औत्सुक्यमुक्तकवराच्च्यवमानमाल्याः क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः॥१७॥ स सम्राड्रथमारूढः सदश्वं रुक्ममालिनम्॥ व्यरोचत स्वपत्नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव॥१८॥ पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते तमृत्विजः॥ आचांतं स्वापयांचक्रुर्गंगायां सह कृष्णया॥१९॥ देवदुंदुभयो नेदुर्नरदुंदुभिभिः समम्॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः॥२०॥ सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः॥ महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्विषात्॥२१॥ अथ राजाऽहते क्षौमे परिधाय स्वलंकृतः॥ ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणांवरैः॥२२॥

लगता है उसी प्रकार स्त्रियों सहित शोभायमान लगनेलगे*****॥१८॥ ऋत्विजों ने वे पत्नी संयाज और आवभृथ्य नाम दो यज्ञांग करके गंगामें द्रौपदी सहित आचमन कर राजा युधिष्ठिर को स्नान करवाया॥१९॥ देवता तथा मनुष्योंके नगारे वजने लगे और देवता ऋषिपितृ मनुष्यादि फूलों की वर्षा करने लगे॥२०॥ वर्णयुक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह चारों वर्ण और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, इन चार आश्रमों ने भी गंगामें स्नान किया, क्योंकि इस गंगामें स्नान करने से महापापी पुरुष भी शीघ्र पाप से छूट जाते हैं॥२१॥ स्नान करने उपरान्त राजा

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* शंका - शास्त्रमें और लोकमें भी ऐसा सुना है कि, राजा युधिष्ठिरने एक स्त्री केस‍िवाय दूसरी स्त्रीके संग अपना विवाह नहीं किया, क्योंकि राजा युधिष्ठिर के एक स्त्री थी, फिर यज्ञमें बहुत स्त्रियों करके शोभायमान युधिष्ठिर क्यों हुए!

उत्तर- द्रौपदीने युधिष्ठिरकी सेवा ऐसी की कि, जो सेना करोडों स्त्रियोंके करनेसे नहीं हो सकतीऐसे, द्रौपदी के पतिव्रत को युधिष्ठिर ने देख कर मन में जाना कि, हमारे करोडों स्त्रीहैं, और व्यासजीने भी युधिष्ठिर के मनकी बात जानकर कहा कि, युधिष्ठिर मनकी बहुतसी स्त्रियों करके अपने यज्ञमें शोभित हुए॥

युधिष्ठिर नवीन रेशमी धोती पहर भले प्रकार शोभायमान होकर ऋत्विज सभासद और ब्राह्मणादिकों की वस्त्रोंसहित पूजन करने लगे॥२२॥ नारायणके आश्रय राजा युधिष्ठिरने भाई बंधु, जातिके राजा मित्र सुहृद् और भी सब मनुष्योंका वारंवार पूजन किया॥२३॥देवताओंके समान कान्तिवाले मणियोंके जडाऊ कुण्डल, माला, पगड़ी, जामा, पटुका और बड़े मोलके हार पहरे पुरुष और दोनों कुण्डल अलकोंके समूहसे शोभायमान मुखवाली स्त्रियें सुवर्णकी कौंधनी पहरे सब शोभायमान लगती थीं॥२४॥ हे राजन्!स्नानकरे पीछे राजा युधिष्ठिरसे पूजित हो शील स्वभाववाले ऋत्विज सभासद वेदपाठी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और राजा॥२५॥ देवता, ऋषि, पितृ सब प्राणी अनुचरों सहित

बंधुज्ञातिनृपान्मित्रसुहृदोन्यांश्च सर्वशः॥ अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः॥२३॥ सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुंडलस्रगुष्णीषकंचुकदुकूलमहार्घ्यहाराः॥ नार्यश्च कुंडलयुगाऽलकवृंदजुष्टवक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः॥२४॥ अथर्त्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः॥ ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा राजानो ये समागताः॥२५॥ देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः॥ पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप॥२६॥ हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम्॥ नैवातृप्यन्प्रशंसंतः पिबन्मर्त्योऽमृतं यथा॥२७॥ ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत्संबंधिबांधवान्॥ प्रेम्णा निवासयामास कृष्णं च त्यागकातरः॥२८॥ भगवानपि तत्रांग न्यवात्सीत्तत्प्रियंकरः॥ प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च सांबादींश्च कुशस्थलीम्॥२९॥ इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम्॥ सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद्गतज्वरः॥३०॥

लोकपाल राजा युधिष्ठिरसे पूजन कराय आज्ञा माँग अपने स्थानको चले गये॥२६॥ हरि भगवान् केभक्तों में राजर्षि राजा युधिष्ठिरके राजसूययज्ञको बड़ी शोभाकी प्रशंसा करते करते तृप्त नहीं हुए, जिस प्रकार मनुष्यका चित्त अमृत पीते पीते तृप्त नहीं होता॥२७॥ सुहृद, सम्बन्धी, बंधू और श्रीकृष्णचन्द्रके बिछुडनेसे कायर मन हो राजा युधिष्ठिरने प्रेमसे रक्खा॥२८॥ हे नृपोत्तम परीक्षित!उन राजा युधिष्ठिरका प्रिय करने के लिये सांब आदि पुत्र और यादवोंमें शूर वीरोंको द्वारकामें भेज आप श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थ में रहने लगे॥२९॥ धर्मके पुत्र राजा युधिष्ठिरने

दुस्तर मनोरथरूपी बडा समुद्र भगवान श्रीकृष्णचन्द्रकी सहायतासे तरकर सब खेद दूर किया॥३०॥ हे राजन्! एक समय भगवद्भक्त राजा युधिष्ठिरके रनवासकी लक्ष्मी व राजसूययज्ञकी महिमा देखकर दुर्योधन संताप करने लगा॥३१॥ राजा युधिष्ठिरका अंतःपुर कि जहाँ मयदैत्यरचित नरपति, दैत्यपति और देवपतियोंकी नाना प्रकारकी विभूतियाँ प्रकाशमान हो रही थीं और जहाँ उन विभूतियोंके साथ द्रौपदी अपने स्वामियोंकी सेवा करती थीं उसे देख दुर्योधनका मन अत्यन्त तापको प्राप्त हुआ॥३२॥ राजा युधिष्ठिरके अंतःपुर में उस समय मधुपति श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंके समूह नितम्बोंके भारसे धीरे धीरे चलने में बजते नूपुरोंसे शोभित चरण, कुचोंकी केशरसे अरुणहार धारण किये,

एकदांतःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम्॥ अतप्यद्राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः॥३१॥ यस्मिन्नरेंद्रदितिजेंद्रसुरेंद्रलक्ष्मीर्नाना विभांति किल विश्वसृजोपक्लृप्ताः॥ ताभिः पतीन्दुपदराजसुतोपतस्थे यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत्॥३२॥ यस्मिंस्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदंघ्रिशोभम्॥ मध्ये सुचारुकुचकुंकुमशोणहारं श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुंतलाढ्यम्॥३३॥ सभायां मयक्लृप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट्॥ वृतोऽनुजैर्वंधुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा॥३४॥ आसीनः कांचने साक्षादासने मघवानिव॥ पारमेष्ठ्यश्रिया जुष्टः स्तूयमानश्च बंदिभिः॥३५॥ तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप। किरीटमाली न्यविशदसिहस्तः क्षिपत्रषा॥३६॥ स्थलेऽभ्यगृह्णाद्वस्त्रांतं जलं मत्वा स्थलेऽपतत्॥ जले च स्थलवद्भ्रांत्या मयमायाविमोहितः॥३७॥

चंचल कुण्डल और केशपाश से युक्त सुन्दर मुख, रमणीय कटिसे युक्त श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियें वहाँ फिरती थीं॥३३॥ मयदैत्यकी बनाई सभा उसमें किसी समय अपना आज्ञाकारी भाई, बंधुसहित और हित अहितके जानने वाले श्रीकृष्णचन्द्रसहित धर्मपुत्र राजा चक्रवर्ती युधिष्ठिर॥३४॥ साक्षात् सिंहासनपर जैसे इन्द्र विराजमान होता है, उसी प्रकार सुवर्णके सिंहासनपर विराजमान होकर राज्यकी शोभासे सेवित और बन्दीजनों से स्तुतिपाय शोभायमान होने लगे॥३५॥ हे राजा परीक्षित! उसी समय भाइयोंको संग ले किरीट धारण किये, माला पहरे और हाथमें तलवार लिये क्रोधकर द्वारपालोंको डाटता हुआ अभिमानी दुर्योधन सभामें आया॥३६॥ वहॉ मयदैत्यकी बनाई सभा में सूखेमें जल दीखे

और जलमें सुखा दीखे, ऐसी मयरचित सभा में मयदैत्यकी मायासे मोहित होकर दुर्योधनने भ्रमसे सूखेमें जल जान अपना जामा उठाया और सूखा जानकर जलमें छोड दिया और जलमें गिर गया॥३७॥ हे राजा परीक्षित्!दुर्योधनको गिरा देखकर भीमसेन व सब स्त्रियेंहँसने लगीं यह देख राजा युधिष्ठिरने यद्यपि मने भी करा, परन्तु तो भी श्रीकृष्णचन्द्रकी सैन देने से पहिले भीमसेन हॅसा फिर पीछे सब राजा हँसने लगे॥३८॥ इन राजाओंको हँसता देख दुर्योधन अत्यन्त लज्जित हो नीची नारकर क्रोधाग्निसे भभकता हुआ सभासे निकल चुप चाप हस्तिनापुरको चला गया उस समय साधुओं के बीच बड़ा हाहाकार शब्द हुआ और अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर उदास हो गये, जिनकी दृष्टिसे सब जगत् भ्रमण करताहैं, वह भगवान् तो चुप होकर बैठ गये, क्योंकि उनकी इच्छा पृथ्वीका भार उतारने की थी कि, किसी न किसी प्रकार यह पृथ्वीका भार उतरे, सो

जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे ॥ निवार्यमाणा अप्यंग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः॥३८॥ स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम्॥ हाहेति शब्दः सुमहानभूत्सतामजातशत्रुर्विमना इवाभवत्॥ बभूव तूष्णीं भगवान्भुवो भरं समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यदृशा॥३९॥ एतत्तेऽभिहितं राजन्यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उ० दुर्योधनमानभंगो नाम पंचसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥ श्रीशुक उवाच॥ अथान्यदपि कृष्णस्य शृणु कर्माद्भुतं नृप॥ क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः॥१॥ शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्वाह आगतः॥ यदुभिर्निर्जितः संख्ये जरासंधादयस्तथा॥२॥

यह समागम सहजमें बन गया प्रथम यही भारत का बीज जमा॥३९॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जो आपने प्रश्न किया था कि, राजसूययज्ञ में दुर्योधन कैसे कुढ़ा सो उसका उत्तर मैंने सब आपके सन्मुख वर्णन कर दिया॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायांदुर्योधनमानभंगो नाम पंचसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥ दोहा- युद्ध छिहत्तरमें भयो, यादव शाल्व अपार। द्यूमत गदा प्रहारसे, गये प्रद्युमन हार॥७६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!इसके उपरान्त क्रीडा से ही मनुष्य शरीर धारण करने वाले श्रीकृष्णचन्द्रके और भी अद्भुत कर्म हैं, जिस प्रकार सौभविमानका पति शाल्वको मारा, सो श्रवण करो॥१॥ शिशुपालका मित्र शाल्व

रुक्मिणीके विवाह में आया था, तब उसको संग्राममें यादवोंने जीत लिया और उसी प्रकार जरासन्धादि राजा भी जीते॥२॥ सब राजाओं कों सुनाकर राजा शाल्वने यह प्रतिज्ञा करी कि, सम्पूर्ण पृथ्वी यादवकुलरहित करूंगा, अब तुम सब मेरे पराक्रमको देखो॥३॥ हे परीक्षित्!इस प्रकार मूर्ख शाल्व प्रतिज्ञाकर केवल धूलकी एक मुट्ठी फाँकता हुआ पशुपति शिवजीकी आराधना करने लगा॥४॥ शीघ्र सन्तुष्ट होनेवाले शिवजी श्रीकृष्णके द्वेषी शाल्वको वर देना निष्फलजान शीघ्र प्रगट न हुए, परन्तु शरण आये शाल्वसे एक वर्षके पीछे यह कहने लगे कि, वर मॉग॥५॥ उस समय देवता असुर, मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, इनसे न टूटै और जहाँ की इच्छा हो वहाँ पहुँचाने, यादवों को भयका

शाल्वः प्रतिज्ञामकरोच्छृण्वतां सर्वभूभुजाम्॥ अयादवीं क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत॥३॥ इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम्॥ आराधयामास नृप पांसुमुष्टिं सकृद्वसन्॥४॥ संवत्सरांते भगवानाशुतोष उमापतिः॥ वरेणच्छंदयामास शाल्वं शरणमागतम्॥५॥ देवासुरमनुष्याणां गंधर्वोरगरक्षसाम्॥ अभेद्यं कामगं वव्रेस यानं दृष्णिभीषणम्॥६॥ तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः॥ पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्साैभमयस्मयम्॥७॥ स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्॥ ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्॥८॥ निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ॥ पुरीं बभंजोपवनान्युद्यानानि च सर्वशः॥९॥ सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः॥ विहारान्स विमानाग्र्यान्निपेतुः शस्त्रवृष्टयः॥१०॥ शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः॥ प्रचंडचक्रवातोऽभूद्रजसाऽऽच्छादिता दिशः॥११॥

देनेवाला ऐसा विमान दो, यह वर माँगा॥६॥ तब ऐसा ही होगा, यह कहकर भगवान् महादेवजीने मयदानवको आज्ञा दी, उसने झट वैरियोंके पुरको जीतनेवाला सौभनाम लोहेका बना विमान शाल्वको दिया ॥ ७ ॥ अन्धकार का घर, दुष्प्राप्य और इच्छानुसार चलने वाला विमान पाय वह शाल्व कृष्णके वैरका स्मरण करके द्वारकापुरीकी ओरको चला॥८॥ हे राजन्! शाल्व बड़ी सेनासे द्वारकापुरीको घेरकर सम्पूर्ण फूलोंके बाग और उद्यानोंको तोड़ने लगा॥९॥ गोपुर, दरवाजे, महल, अटा उनकी भीतैं व विहारस्थान तोड़ने लगा और उस उत्तम विमानपरसे शस्त्रोंकी वर्षा होने लगी॥१०॥ और शिला, वृक्ष, बिजली, सर्प, ओले, बरसने लगे और प्रचण्ड पवन चलनेके कारण सम्पूर्ण

दिशायें आच्छादित हो गईं ॥११॥ हे परीक्षित्! इस प्रकार सौभविमानसे पीडित श्रीकृष्णचन्द्रकी द्वारकापुरी जैसे त्रिपुरदैत्य से पृथ्वी दुःखी हुई थीं, उसीप्रकार दुःखी हो गई, सुखका कहीं लेश भी न रहा॥१२॥ बडे यशी महारथी भगवान् प्रद्युम्न अपनी प्रजाको दुःखी देखकर “भय मत करो” इस प्रकार कहकर रथमें बैठकर सन्मुख आये॥१३॥ और सात्यकि, चारुदेष्ण, सांब और छोटे भाई सहित अक्रूर तथा हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक सारण॥१४॥ बडे धनुषधारी महारथी योद्धा कवच पहर, रथ, हाथी, घोडे और पैदल इत्यादिकोको संग लेकर निकले॥१५॥ इसके उपरान्त हे राजन्! असुरों का जैसे देवताओंके संग युद्ध हुआ था उसी प्रकार रोमाञ्चकारक महाभयानक युद्ध शाल्वकी सेनाका यादवोंके संग

इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम्॥ नाभ्यपद्यत शं राजंस्त्रिपुरेण यथा मही॥१२॥ प्रद्युम्नो भगवान्वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः॥ मा भैष्टेत्यभ्यधाद्वीरो रथारूढो महायशाः॥१३॥ सात्यकिश्चारुदेष्णश्च सांबोऽक्रूरः सहानुजः॥ हार्दिक्यो भानुविंदश्च गदश्च शुकसारणौ॥१४॥ अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः॥ निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः॥१५॥ ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह॥ यथाऽसुराणां विबुधैस्तुमुलं लोमहर्षणम्॥१६॥ ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः॥ क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः॥१७॥ विव्याध पंचविंशत्या स्वर्णपुंखैरयोमुखैः॥ शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः॥१८॥ शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्य सैनिकान्॥ दशभिर्दशभिर्नेतन्वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः॥१९॥ तदद्भुतं महत्कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः॥ दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः॥२०॥

होने लगा॥१६॥ जैसे रात्रिके अन्धकारको भगवान् सूर्य दूर कर देते हैं, वैसे ही रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्नजीने सौभविमानके पति शाल्वकी मायाओंका क्षणभर में नाश कर दिया॥१७॥ सोनेके पुंख लोहेकी भाली और छोटी छोटी गांठवाले पचीस बाणोंसे शाल्व के सेनापतिको शीघ्र वींध डाला॥१८॥ इसके उपरान्त भगवान् प्रद्युम्नजीने सौ बाण शाल्वके और एक एक बाण प्यादोंके तथा दश दश बाण सारथी और तीन तीन बाणोंसे घोडे हाथियोंको बींध डाला॥१९॥ महात्मा प्रद्युम्नजीका यह अद्भुत पराक्रम देखकर अपनी पराई सेनाके योद्धा सबही प्रद्युम्नजीकी

बडाई करने लगे*****॥२०॥ मयदैत्यका बनाया वह मायामय विमान कभी तो नानारूपसे और कभी एक रूपसे दिखाई देता, कभी बिलकुल दीखताही नहीं, इसलिये शत्रु जो यादव उनको उसका तर्क करना महाकठिन होगया॥२१॥ वह विमान कभी भूमिपर, कभी आकाशमार्गमें, कभी पर्वतोंके शिखरपर और कभी जलमें अलातचक्रके समान भ्रमण कर रहा था, इसकारण उसकी व्यवस्थाका ठिकाना लगना अत्यन्त कठिन हो गया॥२२॥ विमान और सेना सहित जहाँ जहाँ शाल्व दिखाई देता था वहाँ वहाँ यादवों में मुख्य वीरगण बाणोंको छोड़ते थे॥२३॥ अग्नि सूर्यके समान गरम स्पर्शवाले विषके तुल्य असह्य वैरियोंके चलाये बाणोंसे शाल्वकी सेना अत्यन्त पीडित हो गई और शाल्वभी व्याकुल

बहुरूपैकरूपं तद्दृश्यते न च दृश्यते॥ मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत्॥२१॥ क्वचिद्भूमौ क्वचिद्व्योम्नि गिरि मूर्ध्नि जले क्वचित॥ अलातचक्रवद्भ्राम्यत्सौभं तद्दुरवस्थितम्॥२२॥ यत्रयत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः॥ शाल्वस्ततस्ततोऽमुंचञ्छरान्सात्वतयूथपाः॥२३॥ शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैराशीविषदुरासदैः॥ पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत्परेरितैः॥२४॥ शाल्वानीकपशस्त्रौघैर्वृष्णिवीरा भृशार्दिताः॥ न तत्यजू रणं स्वंस्वं लोकद्वयजिगीषवः॥२५॥ शाल्वामात्यो द्युमान्नाम प्रद्युम्नं प्राक्प्रपीडितः॥ आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद्बली॥२६॥ प्रद्युम्नं गदया शीर्णवक्षस्थलमरिंदमम्॥ अपोवाह रणात्सूतो धर्मविद्दारुकात्मजः॥२७॥

हो गया॥२४॥ शाल्वकी सेनाके शस्त्रों के समूहसे अत्यन्त पीडित होकर भी लोक परलोकके जीतनेकी इच्छावाले यादव शूरवीरोंने अपनी अपनी युद्धभूमिको नहीं छोडा॥२५॥ प्रद्युम्नके पहले गदाप्रहारसे पीडित हुआ शाल्वका बली द्युमान् नाम मंत्री लोहेकी गदा छातीमें मारकर पुकारने लगा॥२६॥ वैरीको शांत करने वाले प्रद्युम्नजीका वक्षस्थल गदाकेलगने से विदारित होगया, तब धर्मका जाननेवाला

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* शंका- प्रद्युम्नने बाणोंसे शाल्वको और शाल्वकी सेनाको मूर्च्छित कर दिया तब प्रद्युम्नके ऐसे पराक्रमको देखकर शाल्वकी सेना और प्रद्युम्नकी सेनाने क्यों आश्चर्य माना। प्रद्युम्नका क्या यह नवीन कर्तव्य था ऐसा कर्तव्य तो प्रद्युम्नने अनेकवार किया था॥

उत्तर- शाल्वको ब्रह्माने किसी समय वर दिया था कि तुमको और तेरी सेनाको संग्राममें श्रीकृष्णजी मूर्च्छित करैगे और त्रिलोकीमें कोई प्राणी तुझको और तेरी सेनाको दुःखित नहीं कर सकैगा जब प्रद्युम्नने शाल्वको और उसकी सेनाको मूर्च्छित कर दिया तब ब्रह्मादिक सब देवता आश्चर्य मानने लगे, उस समय और प्राणियोंने आश्चर्य माना तो क्या बडी बात है?

दारुकका पुत्र सारथी प्रद्युम्नजीको लेकर रणभूमिसे बाहर निकल आया॥२७॥ दो घड़ीमें चैतन्य हो श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र, प्रद्युम्नजी सारथी बो कि; अहो रथवान्!तू रणमेंसे जो मुझे भगाकर ले आया; यह बुरा काम किया॥२८॥ व्याकुल चित्तवाले तुझ रथवानने मुझे कलंक लगाया, क्योंकि मुझ विना यादवोंके कुलमें जन्म ले रणमें से भागा और किसीको नहीं सुना, परन्तु मेरा इसमें क्या दोष है, यह कलंक तो सारथीने लगाया॥२९॥ पिता राम कृष्णसे मिलूंगा तो क्या कहूंगा वह पूछेंगे, तब युद्धमेंसे भागकर निकला हुआ मैं अपनी योग्यताके विषयमें किस प्रकार निवेदन करूंगा ३०॥ भाइयोंकी स्त्रिये, भाभी, हे वीर!युद्धमें शत्रुओंके सन्मुख नपुंसकहो कैसे आज भाग आये, हमसे तो कहो

लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत्॥ अहो असाध्विदं सूत यद्रणान्मेऽपसर्पणम्॥२८॥ न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः॥ विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्विषात्॥२९॥ किं नु वक्ष्येऽभिसंगम्य पितरौ रामकेशवौ॥ युद्धात्सम्यगपक्रांतः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम्॥३०॥ व्यक्तं मे कथयिष्यति हसंत्यो भ्रातृजामयः॥ क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे॥३१॥ सारथिरुवाच॥ धर्मं विजानताऽऽयुष्मन्कृतमेतन्मया विभो॥ सुतः कृच्छ्रगतं रक्षेद्रथिनं सारथिं रथी॥३२ एतद्विदित्वा तु भवान्मयापोवाहितो रणात्॥ उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥ श्रीशुक उवाच॥ स उपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः॥ नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम्॥१॥

इस प्रकार हँसकर मुझसे कहेंगी॥३१॥ यह सुनकर रथवान बोला हे चिरंजीवित हे समर्थ!धर्मका ज्ञाता मैं तुम्हैंरणमेंसे निकाल लाया, क्योंकि धर्ममें ऐसा ही कहा है कि, जब रथमें बैठने वालेको कष्ट आनकर उपस्थित हो तो रथवान् रक्षा करें और सारथीके ऊपर कष्ट आवै तो बैठनेवाला उसकी रक्षा करें॥३२॥ हे वीर! शत्रुने आपके गदा जो मारी तो आप अति पीडित होकर मूर्च्छित होगये, इसलिये धर्म जानकर मैं तुम्हैंरणमेंसे निकाल लाया॥३३॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥ दोहा- सतहत्तर अध्यायमें, शाल्ववीरको मार। तोरो सौभ विमान पुनि, यदुपति परम उदार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन! इसके उपरान्त

प्रद्युम्नजीने हाथ पाँव धो कवच पहर और धनुष हाथमें लेकर कहा कि, हे रथवान्!वीर द्युमानके पास मुझे ले चल॥१॥ रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नजीने मुसकाकर अपनी सेनाके योद्धाओंको मारते हुये द्युमानको अत्यन्त तीक्ष्ण आठ बाण मारे॥२॥ चार बाणोंसे चारों घोडों को एक बाणसे रथवान् कोमारा, दो बाणोंसे धनुष और ध्वजाको काटडाला और एक बाणसे महारथी प्रद्युम्नजीने द्युमानका शिर काट लिया॥३॥ गद, सात्यकी और सांब आदि यादव विमानका पालन करनेवाले शाल्वकी सेनाको मारनेलगे और शिर कटनेसे संपूर्ण विमानके बैठने वाले समुद्र में गिर गये॥४॥ हे नृपोत्तप! इसप्रकार २७ सत्ताइस दिनतक यादव और शाल्वकी सेनाका महाभयानक युद्ध हुआ॥५॥

विधमंतं स्वसैन्यानि द्युमंतं रुक्मिणीसुतः॥ प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन्नाराचैरष्टभिः स्वयम्॥२॥ चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत्॥ द्वाभ्यां धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः॥३॥ गदसात्यकिसांबाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम्॥ पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकंधराः॥४॥ एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम्॥ युद्धं त्रिणवरात्रं तदभूत्तुमुलमुल्बणम्॥५॥ इंद्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना॥ राजसूयेऽथ निर्वृत्ते शिशुपाले च संस्थिते॥६॥ कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम्॥ निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन्द्वारवतीं ययौ॥७॥ आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसंगतः॥ राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम॥८॥ वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम्॥ सौभं च शाल्वराजं च दारुक प्राह केशवः॥९॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि, राजा परीक्षित्! धर्मके पुत्र राजा युधिष्ठिरके बुलाये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थमें गये थे, वहाँ जब राजसूययज्ञ हो चुका और शिशुपाल मर चुका॥६॥ इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कौरवोंमें वृद्धोंसे और मुनियोंसे और पुत्रों सहित कुन्तीसे आज्ञा मॉग मार्ग में कुत्सित शकुन देख द्वारकापुरीको प्रस्थान किया॥७॥ और मार्गमें खोटे शकुन देखकर विचार करनेलगे कि, बड़े भाई बलदेवजी सहित मैं यहाॅ यज्ञ में आया हूं, इससे शिशुपालकी ओर के राजा निश्चय मेरी पुरीका नाश करते होंगे॥८॥ अपने यादवोंका कष्ट देख, बलदेवजीसे द्वारका

पुरी की रक्षा करनेके लिये कहकर सौभविमानमें बैठे हुये शाल्वको देख केशव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रथवान् से कहने लगे कि॥९॥ हे रथवान्!शीघ्र मेरे रथको शाल्वके समीप पहुॅचा दे, क्योंकि इस विमानका राजा शाल्व बडा मायावी है, इससे तू घबराना मत॥१०॥ इस प्रकार वचन सुन रथवान् रथपर बैठकर रथको हाँकने लगा और अपनी पराई सेनाके लोगोंने रथकी ध्वजामें गरुडको आता देखा॥११॥ शाल्वकी बहुतसी सेना नाश होगई उस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको युद्धमें आया देखकर शाल्वने उनके सारथीपर अत्यन्त भयंकर वेगवाली शक्ति फेंकी॥१२॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने दिशाओको प्रकाश करती बडे तारेके समान आकाशमें चली आती बरछीको अपने बाणोंसे सौ खण्ड कर दिये॥१३॥ और

रथं प्रापय में सूत शाल्वस्यांतिकमाशु वै॥ संभ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम्॥१०॥ इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः॥ विशंतं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम्॥११॥ शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः॥ प्राहरत्कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे॥१२॥ तामापतंतीं नभसि महोल्कामिव रंहसा॥ भासयंती दिशः शौरिः सायकैः शतधाऽच्छिनत्॥१३॥ तं च षोडशभिर्विद्धा बाणैः सौभं च खे भ्रमत्॥ अविध्यच्छरसंदोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः॥१४॥ शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं सशार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः॥ विभेद न्यपतद्धस्ताच्छार्ङ्गमासीत्तदद्भुतम्॥१५॥ हाहाकारोमहानासीद् भूतानां तत्र पश्यताम्॥ विनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम्॥१६॥ यत्त्वया मूढ नः सख्युर्भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम्॥ प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा॥१७॥

अत्यन्त कुपित हो सोलह बाणोंसे शावको बींधडाला, फिर आकाशमार्गमें भ्रमण करनेवाले विमानको सूर्यकी किरणोंसे विंधे हुये आकाशके समान बाणोंके समूहोंसे वेध दिया॥१४॥ शार्ङ्गधनुषधारी शौरि श्रीकृष्णचन्द्रकी धनुषसहित वाम भुजाको शाल्वने वींध दिया, तब श्रीकृष्णचन्द्र के हाथसे धनुष गिर गया, यह बडी ही आश्चर्यकी बात हुई॥१५॥ हाथमेंसे धनुष गिरा देख प्राणियोंमें बडा हाहाकार शब्द हुआ, और उसी अवसर में विमानका राजा शाल्व अत्यन्त ऊँचे स्वरसे गर्जना कर श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगा कि॥१६॥ हे मूर्ख! जो तू हमारे भाई अथवा सखा शिशुपालकी

स्त्रीको हमारे देखतेही हरकर लेगया और सभाके बीच असावधान विराजमान तैंने हमारे सखाको मारा॥१७॥ अपनेको अजित माननेवाले तू जो आज मेरे सन्मुख खडा रहेगा तो निश्चय यमलोक पहुँचा दूँगा॥१८॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे अधम! तू वृथा बकवाद करता है और निकट ही जो तेरी मृत्यु उपस्थित है उसे नहीं देखता, शूरवीर बहुत बकते नहीं अपना पुरुषार्थ दिखाते हैं और जो बहुत बकतेहैं, सो वह कुछ पराक्रम नहीं करते॥१९॥ इस प्रकार कह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने बड़े वेगकी गदा क्रोध करके कण्ठके नीचे हाड में मारी कि; जिसके लगनेसे शाल्व रुधिर वमन करता हुआ काँपने लगा॥२०॥ और तत्कालही शाल्व अंतर्धान होगया, फिर दो घड़ी पीछे एक पुरुष आय शिर

तं त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम्॥ नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ वृथा त्वं कत्थसे मंद न पश्यस्यंतिकेंतकम्॥ पौरुषं दर्शयंति स्म शूरा न बहुभाषिणः॥१९॥ इत्युक्त्वा भगवाञ्छाल्वं गदया भीमवेगया॥ तताड जत्रौसंरब्धः स चकंपे वमन्नसृक्॥२०॥ गदायां संनिवृत्तायां शाल्वस्त्वंतरधीयत॥ ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाऽच्युतम्॥ देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन्॥२१॥ कृष्णकृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल॥ बध्वाऽपनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः॥२२॥ निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः॥ विमनस्को घृणी स्नेहाद्बभाषे प्राकृतो यथा॥२३॥ कथं राममसंभ्रांतं जित्वाऽजेयं सुरासुरैः॥ शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान्विधिः॥२४॥ इति ब्रुवाणे गोविंदे सौभराट् प्रत्युपस्थितः॥ वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः॥२५॥

झुकाय श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार कर, रोता हुआ “मुझे देवकीने भेजा है” यह वचन कहने लगा॥२१॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महाबाहो! हे पिताका हित करनेवाले! जैसे कसाई पशुको बाँधकर ले जाता है, उसी प्रकार शाल्व तुम्हारे पिताको बाँधकर लेगया॥२२॥ऐसा अप्रियवचन सुन मनुष्य स्वभावमें प्राप्त मन दयावान् श्रीकृष्णचन्द्र विमन होकर प्राकृत मनुष्यके समान कहने लगे॥२३॥ कि, संभ्रमरहित देवता असुरोंके अजेय बलदेवजीको जीतकर तुच्छ शाल्व मेरे पिताको कैसे बाँधकर ले गया? विधाता बलवान् है, कदाचित् लेगया होगा॥२४॥ श्रीकृष्णचन्द्र इतना कहते ही थे कि, इतनेमें मायाके वसुदेवको लेकर शाल्व आया और श्रीकृष्णचन्द्रसे बोला कि, हे नीच! यह तेरा उत्पन्न करने वाला पिता है,

जिसके लिये तू जीवित है, सो अभी तेरे देखते इसे मारूंगा, यदि तुझमें कुछ सामर्थ्य होय तो इसकी रक्षा कर *॥२५॥२६॥ मायावी शाल्वने इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको कटुवाक्य कह, तलवारसे वसुदेवजीका मस्तक काट डाला और उस मस्तक को ले आकाशमें स्थित सौभविमान में पहुँचा॥२७॥ स्वतःसिद्ध ज्ञानवाले श्रीकृष्णचन्द्र अपने जनों के संग दो घड़ी तक मनुष्योंके स्वभावसे शोकमें डूबे रहे इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मय दैत्यकी प्रगट करी शाल्व की चलाई आसुरी मायाको जान लिया॥२८॥जब इस प्रकार चेते तो जैसे जागता हुआ पुरुष स्वप्नके पदार्थको

एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि॥ वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्चेत्पाहि बालिश॥२६॥ एवं निर्भर्त्स्यमायावी खड्गेनानकदुंदुभेः॥ उत्कृत्य शिर आदाय स्वस्थं सौभं समाविशत्॥२७॥ ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपाप्लुतः स्वबोध आस्ते स्वजनानुषंगतः॥ महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम्॥२८॥ न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः॥ स्वाप्नं यथा चांबरचारिणं रिपुं सौभस्थमालोक्य निहंतुमुद्यतः॥२९॥ एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः केचनान्विताः॥ यत्स्ववाचो विरुध्येत नूनं तन्नः स्मरंत्युत॥३०॥

न देखे उसी प्रकार रणभूमिमें श्रीकृष्णचन्द्रने न तो दूतको देखा और न पिताके देहको देखा, वरन् सौभ विमानमें विराजमान आकाशमें भ्रमण करते हुए शत्रुको देखकर उसके मारनेका उपाय करने लगे॥२९॥ श्रीशुकदेवजी कहनेलगे कि, हे महाभागवत परीक्षित! पूर्वापरका अनुसंधान न रखने वाले कितने एक ऋषिलोग यह कहते हैं, पर वह अपनी वाणीमें, जो विरोध आता है, उसका ध्यान नहीं करते, उन्होंने पहले कहा कि,

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* शंका- शाल्वनेमाया करके वसुदेवजीकी मूर्ति साक्षात् बनाली यह बडी शंका है? क्या माया रात दिन सबकी बुद्धि भ्रमाती है, क्योंकि राक्षस मायाके द्वारा अनेक प्रकारकी वस्तु बना लेते हैं, परन्तु शास्त्रोंमें लिखा है कि, वसुदेव सरीखे तपधारी, और श्रीकृष्ण भगवान् भक्त हितकारी बैकुण्ठनाथसे जिनके पुत्र, ऐसे धर्मात्माकी मूर्तिको मायासे क्षुद्र राक्षसने बना लिया यह महाआश्चर्यकी बात है?

उत्तर- ब्रह्माने किसी समय शाल्वको घर दिया था कि, ब्रह्मा, विष्णु, महादेवकी मूर्ति तुझसे बनगी नहीं, और त्रिलोकीमें जिसकी मूर्ति बनाना चाहेगा उसकी मूर्ति बना लेगा, और ब्रह्माने वरदानके देते समय शाल्वसे यह भीकहा था कि, जब तू वसुदेवकी मूर्ति बनावेगा उसी समय तू मारा जायगा, उस ब्रह्माके वचनको कालवश होकर भूल गया और वसुदेवकी मूर्ति बनाई उसी समय वृन्दावनविहारी श्रीगोवर्धनधारी ने शाल्वको मारडाला। देखो जब मृत्युके दिन आते हैं, तब परमेश्वर वैसा ही बनावेबना देता है, इसलिये शाल्वने वसुदेवकी मूर्ति बनाई थी मूर्ति क्या बनाई थीअपना काल बुलाया था॥

“बलदेवजीकी आज्ञा ले और उन्हें हस्तिनापुर में छोड आप इन्द्रप्रस्थ गये” इसके उपरान्त कहते हैं कि, “इन्द्रप्रस्थ से आ, शाल्वको युद्ध करता देख बलदेवजीको द्वारकाकी रक्षा करनेके लिये भेजा, यह उनके वचनमें ही भेद होता है, सो शुकदेवजी कहते हैं कि, हे राजन्! यह हमारा मत नहीं है, और ऋषियों का है॥३०॥ शोक, मोह, स्नेह, भय यह कहाँ? और अखण्ड विज्ञान ऐश्चर्य देवता जिनकी स्तुति करें ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र कहाँ॥३१॥जिनके चरणारविन्दकी सेवासे पुष्ट हुई, आत्मविद्या के प्रभावसे सज्जन पुरुष अनादिकालकी देहात्मबुद्धिको त्याग अनन्त ईश्वरसम्बन्धी पद आत्माको पाते हैं, उन सर्वोत्तम शरणागतपालक श्रीकृष्णचन्द्रमें कदाचित् मोड़ नहीं हो सकता॥३२॥ यही यथार्थ हैकि, बड़े पराक्रमी शूरवंशो

क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसंभवाः॥ क्व चाखंडितविज्ञानज्ञानैश्वर्यस्त्वखंडितः॥३१॥ यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया हिन्वंत्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम्॥ लभंत आत्मीयमनंतमैश्वरं कुतो न मोहः परमस्य सद्गतेः॥३२॥ तं शस्त्रपूगैः प्रहरंतमोजसा शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः॥ विद्धाऽच्छिनद्वर्म धनुः शिरोमणिं सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह॥३३॥ तत्कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं पपात तोये गदया सहस्रधा॥ विसृज्य तद्तलमास्थितो गदामुद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद्द्रुतम्॥३४॥ आधावतः सगदं तस्य बाहुं भल्लेन छित्त्वाथ रथांगमद्भुतम्॥ वधाय शाल्वस्य लर्याकसन्निभं विभ्रद्बभौ सार्क इवोदयाचलः॥३५॥ जहार तेनैव शिरः सकुंडलं किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः॥ वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरंदरो वभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम्॥३६॥

त्पन्न श्रीकृष्णचन्द्र ने बलपूर्वक शस्त्रोंके प्रहारसे शाल्वको वेध उसका कवच, धनुषऔर उसके शिरकी मणि काटकर उसके विमानको गदासे चूर्णकर दिया॥३३॥भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके हाथकी चलाई हुई गदासे हजारों खण्ड होकर वह विमान चूर्णीभूत हो पृथ्वीमें गिर गया, उस समय शाल्व विमान छोड़ गदा हाथमें ले श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपरको दौडा॥३४॥ दौडते हुए शास्त्रका गदासहित हाथ भालेसे काटकर उसके मारनेके लिये प्रलय कालके सूर्य के समान सुदर्शनचक्रको ग्रहणकर उदयाचल पर्वतपर सूर्य के समान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शोभायमान लगने लगे॥३५॥ जैसे देवराज इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुर का माथा काटा था, उसी प्रकार अत्यन्त मायावी शाल्वका कुण्डलों सहित शिर भगवान श्रीकृष्णचन्द्रने काट

लिया, उस समय मनुष्योंमें बडा हाहाकार शब्द हुआ॥३६॥ इतनी कथा सुन श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्!जिससमय गदासे विमान टूटा और अत्यन्त पापी दुराचारी शाल्व पृथ्वीमें गिरपड़ा, तब स्वर्गमें देवताओंके नगारे बजने लगे, इसके उपरान्त मित्र शिशुपाल और शाल्व, तथा पौण्ड्रक इनका ऋण चुकाने के लिये क्रोधित हो दंतवक्त्र आया॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सौभशाल्ववधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥७७॥ दोहा - दन्तवक हरि मार पुनि, हनो विदूरथ वीर॥ रोमहर्षण हलधर वधो, अठहत्तर रणधीर॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! परलोकमें प्राप्तहुए शिशुपाल और शाल्व तथा पौण्ड्रकके परोक्षमें मित्रता का जानने

तस्मिन्निपतिते पापे सौंभे च गदया हते॥नेदुर्दुंदुभयो राजन्दिवि देवगणैरिताः॥ सखीनामपचितिं कुर्वन्दंतवक्रो रुषाऽभ्यगात्॥३७॥ इति श्रीमद्भा०म०द०उ० सौभशाल्ववधोनाम सप्तसप्ततितमोध्यायः॥७७॥ श्रीशुक उवाच॥ शिशुपालस्य शाल्वस्य पौंड्रकस्यापि दुर्मतिः॥ परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम्॥१॥ एकः पदातिः संक्रुद्धो गदापाणिः प्रकंपयन्॥ पद्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत॥२॥ तं तथाऽऽयांतमालोक्य गदामादाय सत्त्वरः॥ अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिंधुं वेलेव प्रत्यधात्॥३॥ गदामुद्यम्य कारूषो मुकुंदं प्राह दुर्मदः॥ दिष्ट्यादिष्ट्याभवानद्य मम दृष्टिपथं गतः॥४॥ त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ् मां जिघांससि॥ अतस्त्वां गदया मंद हनिष्ये वज्रकल्पया॥५॥ तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः॥ बंधुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा॥६॥

वाला दुष्टबुद्धि दंतवक्त्र क्रोधकर अकेला ही पांव प्यादा महाबलवान् गदा हाथमें लिये पृथ्वीको कम्पायमान करता अत्यन्त शीघ्रता से आता हुआ दिखाई दिया॥१॥२॥ इसप्रकार दंतवक्रको आता हुआ देख भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने गदा हाथमें ले रथसे उतर समुद्रके जैसे किनारे रोकै हैं, उसी प्रकार दंतवक्रको रोक दिया॥३॥ दुर्मद करूपदेशका राजा दंतवत्र मुक्ति के देनेवाले भगवान श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगा कि, तू जो मेरे नेत्रों के सन्मुख आया यह बड़ा ही मंगल हुआ॥४॥ हे कृष्ण! तू हमारे मामाका पुत्र और हमारे मित्रका मारने वाला है और मुझे भी मारना चाहता है, इसलिये हे मूर्ख!वज्र के समान इस गदासे तेरा प्राण संहार करूंगा॥५॥ हे अज्ञानी!देह में रहे रोगको जिस प्रकार नाश करते हैं

उसी प्रकार बन्धुरूप वैरी जो तू है, उसे मारूंगा, तब मित्रवत्सल मैं मित्रोंके ऋणसे उऋण हूंगा॥६॥ इस प्रकार कठोर वाक्य कहश्रीकृष्णचन्द्रके माथेमें गदा मारकर सिंहके समान दंतवक्त्र गर्जने लगा, जैसे हाथीके अंकुश लगे ऐसेही वह गदा लगी॥७॥ संग्राममें गदा लगनेसे भी श्रीकृष्णचन्द्रन गिरे, इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने भी कौमोदकी बडी गदाको ले दंतवक्रकीछातिमें मारी॥८॥ अत्यन्त वेगवान् गदा पड़नेके कारण हृदय विदीर्ण होनेसे दंतवक्त्र मुखसे रुधिरका वमन करता हुआ प्राणोंको छोड़ केश, हाथ, पाँव, फैलाकर पृथ्वी में गिर पड़ा॥९॥ हे परीक्षित! इसके उपरान्त दंतवक्त्रके शरीरसे अद्भुत सूक्ष्मज्योति निकलकर सब प्राणियोंके देखते शिशुपाल वधके समान श्रीकृष्णचन्द्रमें प्रवेश कर गई

एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विषम्॥ गदयाऽताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद् व्यनदच्च सः॥७॥ गदयाऽभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः॥ कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनांतरे॥८॥ गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रूधिरं मुखात्॥ प्रसार्य केशबाह्वंघ्रीन्धरण्यां न्यपतद् व्यसुः॥९॥ ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्॥ पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप॥१०॥ विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः॥ आगच्छदसिचर्मभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया॥११॥ तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना॥ शिरो जहार राजेंद्र सकिरीटं सकुंडलम्॥१२॥ एवं सौभं च शाल्वं च दंतवक्रं सहानुजम्॥ हत्वा द्वावषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः॥१३॥ मुनिभिः सिद्धगंधर्वैर्विद्याधरमहोरगैः॥ अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः॥१४॥

॥१०॥ इसके उपरान्त भाई दंतवक्त्रके शोकसे व्याकुल विदूरथ ढाल, तलवार ले श्रीकृष्णचन्द्रको मारनेके लिये बडे बडे श्वास लेता हुआ आया॥११॥ हे परीक्षित्!विदूरथको इसप्रकार आता हुआ देख मुकुट और कुण्डलों सहित उसका शिर क्षुरेके समान धारवाले चक्रसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने काट लिया॥१२॥इसप्रकार सौभ विमान और शाल्व तथा भ्राताओंसहित दंतवक्त्रको जब भगवान् वासुदेव मार चुके, तब देवता और मनुष्य स्तुति करने लगे॥१३॥ मुनीश्वर, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर और बडे सर्प, अप्सरा, पित्रोंके गण, यक्ष, किन्नर, चारण॥१४॥

यह सब कोई श्रीकृष्णचन्द्रकी विजय गायफूल बरसाय कर चले गये, इसके उपरान्त श्रीकृष्णचन्द्र सब यादवोंको संग ले शोभायमान द्वारकापुरीको गये॥१५॥ इसप्रकार योग और जगत् के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सदा जय को ही प्राप्त करते हैं, पशुओंके समान दृष्टिवाले अज्ञानी पुरुषोंको जरासन्धसे हारे जीते प्रतीत होते हैं॥१६॥ पीडित कौरवोंको एक तुल्य मानने वाले बलदेवजी उनके युद्धका उद्यम सुनकर तीर्थयात्रा का बहानाकर द्वारकासे चले गये, क्योंकि यहाँ रहनेसे जिसकी ओर न हूंगा वही बुरा मानेगा॥१७॥ प्रभासतीर्थ में स्नान कर देवता ऋषि, पितृ, मनुष्यों को तर्पणकर और ब्राह्मणोंको संग ले सरस्वती के प्रवाहके सन्मुख महात्मा बलदेवजी गये॥१८॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित!पृथूदक, बिंदुसरोवर, त्रित

उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः॥ वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालंकृतां पुरीम्॥१५॥ एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवाञ्जगदीश्वरः॥ ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः॥१६॥ श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पांडवैः॥ तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल॥१७॥ स्नात्वा प्रभासे संतर्प्य देवर्षिपितृमानवान्॥ सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः॥१८॥ पृथूदकं बिंदुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्॥विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम्॥१९॥ यमुनामनुयान्येव गंगामनु च भारत॥जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते॥२०॥ तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः॥ अभिवंद्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चाऽर्चयन्॥२१॥ सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः॥ रोमहर्षणमासीनं महर्षेः ऽशिष्यमैक्षत॥२२॥ अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणांजलिम्॥ अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः॥२३॥

कूप, सुदर्शन तीर्थ, विशालब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती, व यमुनाके तीर्थ गंगाके तीर्थ और जहाँ ऋषि यज्ञ करैंउस नैमिषारण्यमें बलदेवजी गये॥१९॥२०॥ बडे यज्ञवाले मुनि बलदेवजीको आया हुआ देख प्रशंसा करते हुए शीघ्र उठ प्रणाम कर यथायोग्य उनका पूजन करने लगे॥२१॥ ब्राह्मणोसहित पूजापाय और आसनपर बैठ महात्मा बलदेवजीने वेदव्यासके शिष्य रोमहर्षणको बैठा देखा॥२२॥ यह सूतजाति होकर उन सब ब्राह्मणोसे ऊँचे आसन पर विराजमान था, न तो इसने प्रत्युत्थान किया और न विनय की और न हाथ जोडकर स्तुति करी, तब इसको देखकर भगवान् बलरामजीको अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ॥२३॥

और अपने मनमें विचार करने लगे कि, यह प्रतिलोम जाति होकर इन ब्राह्मण और धर्मपालक हमसे भी ऊँचे आसन पर विराजमान है, इस अपराधसे यह दुर्बुद्धि मार डालने के योग्य है॥२४॥ क्योंकि भगवान् वेदव्यासजी का शिष्य होकर, इतिहास और पुराणों सहित धर्मशास्त्र पढकर यह सूत ऐसा आचरण रखता है॥२५॥ सत्य है जो नटके समान वेष धारण करने वाले, अजितेन्द्रिय, अजितमन, विनयरहित वृथा पण्डिताभिमानी पुरुष हैं उनको शास्त्राभ्यास भी गुणकारक नहीं होता॥२६॥इसलोक में मैंने इसलिये अवतार लिया है कि, ऐसे धर्मध्वजी पुरुषों का विनाश करना क्योंकि

कस्मादसाविमान विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः॥ धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः॥२४॥ ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च॥ सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः॥२५॥ अदांतस्याविनीतस्य वृथापंडितमानिनः॥ न गुणाय भवंति स्म नटस्येवाजितात्मनः॥२६॥ एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः॥ वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः॥२७॥ एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि॥ भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः॥२८॥ हाहेति वादिनः सव मुनयः खिन्नमानसाः॥ ऊचुः संकर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो॥२९॥ अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनंदन॥आयुश्चात्माऽक्लमं तावद् यावत्सत्रं समाप्यते॥ अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा॥३०॥

वह सबसे अधिक पापी होतेहैं॥२७॥ हे राजन्! यद्यपि महात्मा बलरामजी ने दुष्टोंको मारना छोड़ दिया था, परन्तु तोभी होनी ऐसेही थी. इस कारण इतना कहकर उन्होंने हाथमें स्थित डाभके अग्रसे उसको मारडाला *॥२८॥ तब उसके मरतेही सब मुनिलोग महा हाहाकर करने लगे और खेदको प्राप्त होकर बलरामजी से बोले कि, हे भगवन्! यह आपने बडा अधर्म किया॥२९॥ हे प्रभो! जबतक यज्ञ सम्पूर्ण हो, तबतक

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* शका- भावी प्राकृत जीवोंके लिये है उनहीसे भला बुरा कर्म कर सकतीहै, कुछ भगवान् केऊपर भावी नहीं चलसकती? फिर वलदेवजी तो भगवान् शेषजी थे सो भावीके वश कैसे हो गये? जो सूतजी को मार डाला यह बडी शंका है!

उत्तर- ब्रह्मा, विष्णु, महेशके ऊपर भावी कुछ भी नहीं करसकतीतो भीभावीकी मर्यादा पालन करनेवाले तीनों देव संसारमें भावीके वश होकर अनेक प्रकार का काम करते हैं, इसलिये अनन्त रूप बलदेवजीने मायाके वशीभूत हो सूत को मार डाला॥

हमारे पास पुराणों की कथा कहने के लिये हम लोगों ने इस सूतको ब्रह्मासन दिया था और शरीर खेदित न हो, ऐसी आयु दी थी, परन्तु आपने विना जाने यह ब्रह्महत्याका सा कार्य किया॥३०॥ हे लोकपावन बलरामजी! तुम योगेश्वर हो इस कारण आपको वेदमें कही ब्रह्महत्या का निषेध नहीं लगता परन्तु तो भी आप स्वयं इस ब्रह्महत्या के समान पापका प्रायश्चित्त करोगे, तभी संसारकी मर्यादा रहेगी॥३१॥ यह सुनकर बलरामजीने कहा जगत् कीमर्यादाकी रक्षा करनेके लिये मैं प्रायश्चित्त करूँगा, इस कारण मुख्य पक्षमें जो नियम होवे सो मुझे बताओ॥३२॥ इस रोमहर्षण कीदीर्घ आयु, बल, इन्द्रिय और सामर्थ्य होने में जो तुम्हारी अभिलाषा हो सो वर्णन करो, क्योंकि जसी आप आज्ञा करेंगे वैसा ही में योग मा

योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः॥ यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन॥ चरिष्यति भवान् लोकसंग्रहोऽनन्यचोदितः॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ करिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया॥ नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम्॥३२॥ दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिंद्रियमेव च॥ आसादितं यत्तद् ब्रूत साधये योगमायया॥३३॥ ऋषय ऊचुः॥ अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च॥ यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम्॥३४॥ श्रीभगवानुवाच॥ आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्॥ तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिंद्रियसत्त्ववान्॥३५॥ किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ॥ अजानतस्त्वपचितिं यथा मे चिंत्यतां बुधाः॥३६॥ ऋषय ऊचुः॥ इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः॥ स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणिपर्वणि॥३७॥

याके प्रभावसे करूंगा॥३३॥ तब मुनि बोले कि, हे राम! जिस प्रकार तुम्हारे अस्त्रकी, पराक्रमकी और मृत्युकी सत्यता हो और तुमने जो वचन हमसे कहा है, वह भी सत्य होजाय उसी प्रकार करो॥३४॥ बलरामजी बोले कि, “पिताही पुत्ररूप उत्पन्न होता है” इस प्रकार वेदकी आज्ञा है, सो इसका पुत्र उग्रश्रवा तुम्हें पुराण श्रवण करावेगा और आयुष्य इन्द्रियशक्ति व शरीरके बलसे परिपूर्ण होगा॥३५॥ हे मुनिजनो! आपको दूसरी किस बातकी अभिलाषा है? सो हमसे कहो? आप जो कहेंगे सो मैं करूंगा? हे बुधलोगो!मैं प्रायश्चित्त नहीं जानता, इस कारण उसका भी विचार करो॥३६॥ तब ऋषीश्वर बोले कि, हे राम!घोररूप इल्वलका पुत्र बल्वल नाम दानव अमावस पूनोंको आनकर हमारे यज्ञको

भ्रष्ट करता है॥३७॥ सो हे दाशार्हवंशोत्पन्न बलदेवजी!पीब, रुधिर, मूत्र, विष्ठा, मदिरा और मांस इनकी वर्षा करने वाले पापी वल्वल को मारो, यही हमारी सेवा है॥३८॥ इसके उपरान्त अत्यन्त सावधान होकर कामक्रोधादिको को त्याग भरतखण्डकी परिक्रमाकर जन एक वर्षतक तीर्थों में स्नान करोगे तब शुद्ध होगे॥३९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धेभाषाटीकायां बलदेवचरित्रे वल्वलवधोपक्रमोनामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥ दोहा - उन्नासी अध्यायमें, बल्वलको वध राम। बहुरि तीर्थयात्रा करी, जहाँ जहाँ शुभधाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्!इसके उपरान्त जब अमावास्या की पूर्णमासीका पर्व आया तो धूरि वर्षासहित अत्यन्त भयानक प्रचण्ड पवन चलने

तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्॥ पूयशोणितविण्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम्॥३८॥ ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः॥ चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसे॥३९॥ इति श्रीमद्भा० दशमस्कंधे उत्तरार्धे वलदेवचरित्रे सूत०बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥ श्रीशुक उवाच॥ ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचंडः पांसुवर्षणः॥ भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगंधस्तु सर्वशः॥१॥ ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्॥ अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक्॥२॥ तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नांजनचयोपमम्॥ तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम्॥३॥ सस्मार मुसलं रामः परसैन्यविदारणम्॥ हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः॥४॥ तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्॥ मुसलेनाहनत्क्रुद्धोमूर्ध्नि ब्रह्मदुहं बलः॥५॥

लगा और चारों ओरसे राधकी सी दुर्गन्ध आई॥१॥ इसके पीछे बल्वलदैत्यकी करी विष्ठा और मूत्रकी वर्षा यज्ञ शालामें होनेलगी, फिर त्रिशूल हाथमें लिये वह बल्वल भी दीख पड़ा॥२॥ टूटेहुये अंजनके ढेरके समान बडे शरीरवाला तपे तॉबेके सी लाल शिखाओं दाढ़ी मूंछवाला दाढ और भ्रुकुटीसे डरावने मुखवाले उस दैत्यको देख॥३॥ शत्रुकी सेनाके विदीर्ण करनेवाले मूशलको स्मरणकर दैत्योंको मारनेवाले हलका स्मरण किया इसके उपरान्त पार्षदरूप हल मूशल आपही आनकर उपस्थित हो गये॥४॥ आकाशमें विचरनेवाले बल्वलको हलके अग्रभागसे

खेंच और अत्यन्त क्रोधमें भरकर महात्मा बलदेवजीने ब्रह्मद्रोही बल्वलके माथेमें मुशल मारा॥५॥ उसके लगते ही माथेके फूटनेसे बल्वल रुधिर को वमन करता हुआ वज्रके मारे गेरुके पर्वतके समान पृथ्वी में गिर पडा॥६॥ तब मुनीश्वरोंने बलदेवजीकी स्तुतिकर सफल आशीर्वाद दे, जैसे बडभागी देवतालोगोंने वृत्रासुरके मारनेवाले देवराज इन्द्रका अभिषेक किया था, उसी प्रकार बलदेवजी का अभिषेक किया॥७॥ लक्ष्मीके निवास कोमल कमलोंकी वैजयन्ती माला और दिव्य नीलाम्बर धोती उपरना और अनेक प्रकारके आभूषण उन मुनियोंने महात्मा बलदेव

सोऽपतद्भुविनिर्भिन्नललाटोऽसृक् समुत्सृजन्॥ मुंचन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः॥६॥ संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः॥ अभ्यर्षिचन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा॥७॥ वैजयंता ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपंकजाम्॥ रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च॥८॥ अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः॥ स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयुरास्रवत्॥९॥ अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः॥ स्नात्वा संतर्प्य देवादीञ्जगाम पुलहाश्रमम्॥१०॥ गोमती गंडकी स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः॥ गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वागंगासागरसंगमे॥११॥ उपस्पृश्य महेंद्राद्रौ रामं दृष्ट्वाऽभिवाद्य च॥ सप्तगोदावरीं वेणां पंपां भीमरथीं ततः॥१२॥

जीको दिये॥८॥ इसके उपरान्त मुनियोंसे आज्ञा पाय बलदेवजी ब्राह्मणोंको संग ले कौशिकी नदीमें आय स्नानकर जिस सरोवरसे सरयू निकली है, वहां गये॥९॥और सरयूप्रवाहके किनारे किनारे हो प्रयागमें आय स्नान व देवादिकों का तर्पणकर पुलहऋषिके आश्रम हरिक्षेत्रको गये॥१०॥ वहांसे गोमती और गण्डकी तथा विपाशा व शोणनदीमें स्नानकर बलदेवजी गयातीर्थमें गये और वहांसे पितरोंका पूजन कर गंगा और समुद्र के संगममें पहुॅच *॥११॥ इसके उपरान्त महेंद्राचल पर्वत में भृगुवंशावतंस परशुरामजीका दर्शन व प्रणामकर सप्तगोदावरी

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* शंका- वलदेवजी सब तीर्थोमें गये परन्तु काशीको और उज्जैनको क्यों नहीं गये?और काशी और उज्जैनके जो आसपास तीर्थ थेउनको गये फिर क्याकारण जो दोनों मोक्षदायक तीर्थोको छोड दिया?॥

** उत्तर -** शास्त्रों में ऐसा लिखा हैकि विना स्त्रीके जो मनुष्य अकेला इन तीर्थोंमें जाय और उनका दर्शन करैतब उसको आधा फल मिलता है(शंका) आधे फलमें क्या हानि थावहाँका तो किंचित्फल परमानन्दका देनेवाला है? (उत्तर) वहाँ जानेसे सब तीर्थोका आधाफल रह जाता इसलिये नहीं गये, क्योंकि यह अकेलेही गये थे, स्त्री संग नहीं थी, वलदेवजीने विचारा कि स्त्रीको संग लेकर आवेंगे उस समय काशी और उज्जैनको दर्शन करेंगे, इसलिये काशी और उज्जैन को नहीं गये॥

तथा वेणा तथा पंपामें जाकर भीमरथीमें गये॥१२॥ इसके उपरान्त स्वामिकार्त्तिक का दर्शनकर जहांपर भगवान् महादेवजी विराजते हैं, ऐसे श्रीशैलपर्वतको गये और द्रविडदेशोंमें परमपवित्र वेंकटपर्वतका दर्शनकर कामकोष्णीपुरीमें गये, फिर कावेरीमें स्नानकर बडे पवित्र और जहां नित्य हरि विराजते हैं, ऐसे श्रीरंगनाम विख्यात स्थानको गये॥१३॥१४॥ वहाँ से ऋषभाद्रि पर्वत हरिक्षेत्रमें आय, दक्षिण मथुरामें जाकर फिर बड़े पापोंके नाश करनेवाले सेतुबंध रामेश्वरको गये॥१५॥वहाँ जाकर हलायुध धारण करनेवाले बलदेवजीने दशहजार गायोंका ब्राह्मणोंको दान किया पीछे कृतमाला नदी और ताम्रपर्णी नदियोमें होकर मलयाचल कुलाचल पर्वतों में गये॥१६॥ वहॉ पहुँच विराजमान अगस्त्यमुनि की नमस्कार

स्कंदं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्॥ द्रविडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः॥१३॥ कामकोष्णीं पुरीं कांचीं कावेरीं च सरिद्वराम्॥ श्रीरंगाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः॥१४॥ ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा॥सामुद्रं सेतुमगमन्महापातकनाशनम्॥१५॥ तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः॥ कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम्॥१६॥ तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च॥ योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम्॥ दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः॥१७॥ ततः फाल्गुनमासाद्य पंचाप्सरसमुत्तमम्॥ विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वाऽस्पर्शद्गवायुतम्॥१८॥ ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्॥ गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः॥१९॥ आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः॥ तापीं पयोष्णीं निर्विंध्यामुपस्पृश्याथ दंडकम्॥२०॥

पूर्वक स्तुतिकी, फिर अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और आज्ञा पाय बलदेवजीने दक्षिणदेशमें समुद्रके तटपर जाय कन्यानाम दुर्गादेवीका दर्शन किया॥१७॥ इसके पीछे फाल्गुन अनंतपुरमें जाय जहां विष्णु भगवान् सदा विराजते हैं ऐसे श्रेष्ठ पंचाप्सरस नाम सरमें स्नानकर दशहजार गायोंका संकल्प किया॥१८॥ वहाँसे चलकर भगवान् बलदेवजी केरल और त्रिगर्तदेश में हो धूर्जटी शिवसे नित्य सन्निहित गोकर्ण नाम शिवक्षेत्रमें गये॥१९॥ वहाँसे आर्याद्वीपवासिनी देवीका दर्शनकर शूर्पारक क्षेत्रमें आये, वहांसे तापी और पयोष्णी नदीम हो दण्डकारण्यमें आये॥२०॥

जहां माहिष्मती पुरी है, वहां पहुँच रेवा नदीपर गये फिर मनुतीर्थमें आचमनकर प्रभासक्षेत्रमें आये॥२१॥ तब कौरव और पाण्डवोंके संग्राममें सबक्षत्रियोंका नाश हो गया यह ब्राह्मणों का वचन सुन बलदेवजीने अपने मनमें जान लिया कि, पृथ्वीका भार उतर गया॥२२॥यादवोंको आनन्द देनेवाले बलदेवजी संग्राम में गदाओंसे युद्ध करते भीमसेन और दुर्योधनको समझानेके लिये कुरुक्षेत्रको गये॥२३॥राजा युधिष्ठिर नकुल, सहदेव और श्रीकृष्णचन्द्र व अर्जुन बलदेवजीको आया हुआ देख प्रणाम कर पूछने लगे कि, हे बलदेवजी! आप कहां कहां हो आये? तो यह भय के मारे चुप होगये॥२४॥इसके उपरान्त क्रोधमें भरे एकको एक जीतना चाहै, चित्र विचित्र मण्डलोंमें फिरते भीमसेन और

प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी॥ मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत्॥२१॥ श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपांडवसंयुगे॥ सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः॥२२॥ स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे॥ वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनंदनः॥२३॥ युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि॥ अभिवाद्याभवंस्तूष्णीं किं विवक्षुरिहागतः॥२४॥ गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ॥मंडलानि विचित्राणि चरंताविदमब्रवीत्॥२५॥ युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर॥ एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम्॥२६॥ तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः॥ न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः॥२७॥ न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्॥ अनुस्मरंतावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च॥२८॥ दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ॥ उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः॥२९॥

दुर्योधनको देख बलदेवजी कहने लगे॥२५॥ कि, हे राजा दुर्योधन! और भीमसेन!तुम दोनों शुरवीर हो और समान तुम्हारा बल है, भीमसेनमें कुछ बल अधिक है, दुर्योधनमें दाव पेंच अधिक हैं, यह मैंजानता हूं॥२६॥ इसलिये बराबर पराक्रमवाले तुम दोनोंके बीचमें एककी भी जीत हार न होगी, इस कारण इस निष्फल युद्धको शान्त करो॥२७॥हे राजन्! परस्पर कुत्सित वचन और कुत्सित कर्मोको स्मरण कर वैरमें भरे भीमसेन और दुर्योधनने बलरामजी के प्रयोजन भरे वाक्यको नहीं माना॥२८॥ भीमसेन और दुर्योधनका पिछला कर्म ऐसा ही है, यह जानकर

बलदेवजी द्वारकापुरीमें आये और वहां उग्रसेनसे आदि ले प्रसन्नमन यादवोंसे मिले॥२९॥ समस्तविरोधरहित यज्ञमूर्त्ति भगवान् बलदेवजी फिर नैमिषारण्यमें आये, तब उन्हें आनन्दपूर्वक सब ऋषीश्वरोंने यज्ञोंसे यजन करवाया॥३०॥ तब सामर्थ्यवान् भगवान् बलदेवजीने उन ब्राह्मणोंको विशुद्ध ज्ञान दिया जिस ज्ञानसे आत्मामें विश्व और विश्वमें पुरुष आत्माको जानता है॥३१॥ यज्ञ करने के पीछे स्नानकर सुन्दर वस्त्र आभूषणोंसे अलंकृत ज्ञाति बंधु सुहृदोंको संग ले अपनी चांदनीसे शोभित चन्द्रमाके समान बलदेवजी अपनी स्त्रियोंसहित अत्यन्त शोभाको प्राप्त हुए॥३२॥ बलवान् अनन्त अप्रमेय अर्थात् प्रमाण करनेमें न आवे मायासे मनुष्यरूप धारण करनेवाले बलदेवजीके अनेक

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयोजयन्मुदा॥ क्रत्वंगं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम्॥३०॥ तेभ्यो विशुद्धविज्ञानं भगवान् व्यतरद्विभुः॥ येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः॥३१॥ स्वपत्न्यावभृथस्नातो ज्ञातिबंधुसुहृद्वृतः॥ रेजे स्वज्योत्स्नयेवेंदुः सुवासाः सुष्ठ्वलंकृतः॥३२॥ ईदृग्विधान्यसंख्यानि बलस्य बलशालिनः॥ अनंतस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य संति हि॥३३॥ योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः ॥ सायं प्रातरनंतस्य विष्णोः स दयितो भवेत्॥३४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥ राजोवाच॥ भगवन्यानि चान्यानि मुकुंदस्य महात्मनः॥ वीर्याण्यनंतवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो॥१॥ को नु श्रुत्वा सकृद् ब्रह्मन्नुत्तमश्लोकसत्कथाः॥ विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः॥२॥

अनेक लीला और चरित्र हैं॥३३॥ हे भारत! अद्भुत कर्मकारी अनंत बलदेवजीके कर्मोंको जो पुरुष सायंकाल अथवा प्रातःकालके समय स्मरण करेगा, वह श्रीकृष्णचन्द्रका अत्यन्त प्यारा होगा॥३४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायामेकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥ दोहा - अस्सीमें धनलोभसे, विप्र सुदामा रंक। गयो द्वारका कृष्णपै, धोवन हेत कलंक॥१॥ राजा परिक्षित श्रीशुकदेवजीसे बोले कि, हे भगवन्! समर्थ अनंत पराक्रम मुक्तिके देनेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के पराक्रमको और भी सुनने की मेरी अभिलाषा है॥३॥ हे श्रीशुकदेवजी!उत्तमयशी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके विषयोंमें वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली जो मनोहर कथा है, उसको निरन्तर सुनकर कामके बाणोंसे

खेदितहो त्रासपावै ऐसे सारके जाननेवाले कौन पुरुष हैं जो श्रवण न करें?॥२॥ जिस वाणीमें भगवान के नाम और गुण निकले वही वाणी सफल है और जिन हाथोंमें भगवान् वासुदेवकी सेवा पूजाका कर्म बनें वही हाथ सफल हैं, और स्थावर जंगम जीवोंमें अन्तर्यामी रूप होकर वसे भगवान्का जो स्मरण करे वही मन सफल है और जिन कानोंसे भगवान् हरिकी पवित्र कथा सुनै वही कान सफल हैं॥३॥ स्थावर जंगम सब भगवान्के रूप हैं, यह जानकर जो पुरुष शिरसे प्रणाम करें वही शिर धन्य है, जिन नेत्रोंसे देखे, वही नेत्र धन्य हैं और भगवान् अथवा भक्तजनोंके चरणोंका धोवन जल नित्य जिन अंगोंमें लगैवही अंग धन्य है॥४॥ श्रीसूतजी शौनकादिक ऋपियोंसे कहनेलगे कि, विष्णुरात राजापरीक्षितके यह प्रश्न करने पर

सा वाग् यया तस्य गुणान्गृणीते करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च॥ स्मरेद्वसंतं स्थिरजंगमेषु शृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः॥३॥ शिरस्तु तस्योभयलिंगमानमेत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः॥ अंगानि विष्णोरथ तज्जनानां पादोदकं यानि भजंति नित्यम्॥४॥ सूत उवाच॥ विष्णुरातेन संपृष्टो भगवान्बादरायणिः॥ वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत्॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ कृष्णस्यासीत्सखा कश्चिद्ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः॥ विरक्त इंद्रियार्थेषु प्रशांतात्मा जितेंद्रियः॥६॥ यदृच्छयोपपत्रेन वर्तमानो गृहाश्रमी॥ तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा॥७॥ पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा॥ दरिद्रा सीदमाना सा वेषमानाभिगम्य च॥८॥ ननु ब्रह्मन्भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः॥ ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान्सात्त्वतर्षभः॥९॥

वासुदेव भगवान् मेंनिमग्नहृदय हो वेदव्यासके पुत्र श्रीशुकदेवजी बोले॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परमभागवत राजा परीक्षित्!कोई एक ब्राह्मण ब्रह्मके जाननेवालोंमें उत्तम विषयोंमें वैराग्यवान् शांतमन जितेंद्रिय श्रीकृष्णचन्द्रका मित्र था॥६॥ गृहस्थाश्रमको वत्तेंऔर जो कुछ अनायास पूर्वक प्राप्त हो उसीसे अपना निर्वाह करै, जीर्णवस्त्रको धारण करै, उसी प्रकार उसकी स्त्री भी थी, क्षुधा के मारे पीड़ित होने से समस्त अंगोंसे कृशित और जो अन्न प्राप्तहो, उसे पतिको परोस दे, आप भूँखी रह जाय॥७॥ बहुत दुःखित और भयके मारे थरथर काँपती वह पतिव्रता स्त्री दरिद्री पतिके समीप आनकर बोली हे ब्राह्मण!साक्षात् लक्ष्मी के पति ब्रह्मभक्त शरणागतके पालक यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारे सखा सुने हैॆ॥८॥९॥

अहो बड़भागी! साधुओंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पास तुम जाओ, दुःखित कुटुम्बी तुमको वह बहुतसा धन देंगे॥१०॥ भोज, वृष्णि, अंधक यह यादवों के गोत्र हैं, तिनके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अब द्वारका पुरीमें विराजते हैं वह अपने चरणकमलोंके स्पर्श करनेवालोंको आत्मा तक देने को समर्थ हैं॥११॥ जगत् के गुरु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भजन करनेवाले अपने भक्तोंको परिणाममें दुःखरूप धन और विषयका देना कुछ बहुत नहीं है, इस प्रकार कोमल वचनोंसे स्त्रीने बहुत प्रार्थना करी॥१२॥ तबतो सुदामा ब्राह्मण उत्तम यशवाले श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन होगा यह बड़ा लाभ है, इस प्रकार मनमें विचारकर जानेकी इच्छा करनेलगा, और स्त्रीसे बोला कि, हे मंगलरूपिणी!तेरे घर में कुछ

तमुपेहि महाभाग साधूनां च परायणम्॥ दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुंबिने॥१०॥ आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यंधकेश्वरः॥ स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति॥११॥ किं त्वर्थकामान्भजतो नात्यभीष्टाञ्जगद्गुरुः॥ स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदुः॥१२॥ अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम्॥ इति संचित्य मनसा गमनाय मतिं दधे॥ अप्यस्त्युपायनं किंचिद् गृहे कल्याणि दीयताम्॥१३॥ याचित्वा चतुरो मुष्टीन्विप्रान्पृथुकतंडुलान्॥ चैलखंडेन तान्बद्धा भर्त्रेप्रादादुपायनम्॥१४॥ स तानादाय विप्राग्र्यःप्रययौ द्वारकां किल॥ कृष्णसंदर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिंतयन्॥१५॥ त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च स द्विजः॥ विप्रोऽगम्यांधकदृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम्॥१६॥ गृहं व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः॥ विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानंदं गतो यथा॥१७॥

भेंट देने को होय तो ला॥१३॥ यह सुन सुदामाकी स्त्री किसी पड़ोसी ब्राह्मणके घरसे चार मुट्ठी चावल मांगलाई और सुदामाके कपड़ेमें बांधने लगी हे राजन! इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रको भेट देकर सुदामा को बिदा किया॥१४॥ हे राजन्!इस प्रकार ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदामा चावलोंको ले श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन मुझे कैसे होगा? ऐसे विचार करता हुआ द्वारकापुरी में पहुँचा॥१५॥ सुदामा ब्राह्मण तीन चौकी और तीन ड्योढीवानोंको उल्लंघनकर कृष्णके धर्मधारी और अगम्य अन्वक और वृष्णियों के घरोंके बीचमें हो॥१६॥ उन घरोंके बीचमें सोलह हजार

श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंके घरमेंसे एक अत्यन्त सुन्दर घरमें सुदामाने प्रवेश किया, उससमय ब्रह्मकी प्राप्तिके समान आनन्द पाया॥१७॥ हे राजा परीक्षित! प्यारी रुक्मिणीकी शय्यापर विराजमान भगवान् श्रीकृष्णने द्वारपालके मुखसे यह संदेशा सुन और निकट खड़े अपने प्राचीन मित्र सुदामा को देख, शीघ्र उठ भुजा पसार के मिले॥१८॥हे नृपश्रेष्ठ! अपने अत्यन्त प्यारे मित्र सुदामा ब्राह्मणके मिलनेसे अति आनन्दसे प्रसन्नहुए कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके नेत्रोंसे ऑशुओंकी बूंदें टपकने लगीं॥१९॥ हे राजन्!लोकोंके पवित्र करने वाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने सुदामा से मिल और उसको पलॅगपर बैठाय, भेंट दे उसके चरणका धोवन जल अपने मस्तकपर चढाया और दिव्य

तं विलोक्याच्युतो दूरात्प्रियापर्यंकमास्थितः॥ सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा॥१८॥ सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरंगसंगातिनिर्वृतः॥ प्रीतो व्यमुंचदब्विंदून्नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः॥१९॥ अथोपवेश्य पर्यंके स्वयं सख्युः समर्हणम्॥ उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः॥२०॥ अग्रहीच्छिरसा राजन्भगवान्लोकपावनः॥ व्यलिंपद्दिव्यगंधेन चंदनागुरुकुंकुमैः॥२१॥ धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा॥ अर्चित्वाऽऽवेद्य तांबूलं गां च स्वागतमब्रवीत्॥२२॥ कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं धमनिसंततम्॥ देवी पर्यचरच्छैब्याचामरव्यजनेन वै॥२३॥ अंतःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना॥ विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम्॥२४॥

गंध, अंतर चंदन, केशर इत्यादि सुदामाजीके लगाया॥२०॥२१॥ श्रेष्ठगंधयुक्त धूप दीप, और बराबर दीपक जलाकर धर दिये और बड़े आनन्दसे मित्र सुदामा की पूजा कर तांबूल दे सन्मुख खड़े हो “मित्र भले आये” इसप्रकार कृष्ण कहने लगे॥२२॥ फटे मलीन वस्त्र पहरे और दुर्बलता के कारण अंगोंकी नसें निकल रहीं, ऐसे सुदामा ब्राह्मणकी साक्षात् देवी रुक्मिणी चमर ढोर पंखा इत्यादिसे सेवा करने लगी॥२३॥ हे राजन्! इसप्रकार निर्मल कीर्त्तिवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जब सत्कार किया, तब अवधूत सुदामा को देख सब द्वारकावासी जन आश्चर्य

माननेलगे *॥२४॥ और कहनेलगे कि, भिक्षा माँगनेवाले दरिद्री निंदित अधम फटे वस्त्र इस सुदामाने ऐसा क्या पुण्य किया है?॥२५॥ क्योंकि जैसे बडे भाई बलदेवजीसे मिले उसी प्रकार त्रिलोकी के गुरु लक्ष्मीनिवास श्रीकृष्णचन्द्र शय्याके ऊपर बैठी अपनी प्रियतमा रुक्मिणीको त्यागकर इससे मिले॥२६॥ हे परीक्षित!इसके उपरान्त सुदामा और श्रीकृष्णचन्द्र दोनों परस्पर हाथ पकड़ जब गुरुकुलमें वास किया था, तबकी बात कहनेलगे॥२७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे धर्मके जाननेवाले ब्राह्मण!दक्षिणा दे गुरुके पाससे जब हम तुम विद्या पढ़ कर

किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा॥ श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन्गर्हितेनाधमेन च॥२५॥ योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन संभृतः॥ पर्यंकस्थां श्रियं हित्वा परिष्वत्तोऽग्रजो यथा॥२६॥ कथयांचक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः॥ आत्मनोर्ललिता राजन्करौ गृह्य परस्परम्॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद् भवता लब्धदक्षिणात्॥ समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा॥२८॥ प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहतं तथा॥ नैवातिप्रीयसे विद्वन्धनेषु विदितं हि मे॥२९॥ केचित्कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः॥ त्यजंतः प्रकृतीर्देवीर्यथाहं लोकसंग्रहम्॥३०॥ क्वचिद्गुरुकुले वासं ब्रह्मन्स्मरसि नौ यतः॥ द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते॥३१॥

आये, तबसे तुमने घर आय अपने योग्य स्त्री से विवाह किया या नहीं?॥२८॥ हे विवेकी मित्र सुदामा!मैं निश्चय जानता हूं कि, तुम्हारा चित्त विषयोंमें बहुत चलायमान नहीं है और घरमें वस्त्रादिकोंसे भी तुम प्रसन्न नहीं हो विवेकी हो, तुमको ऐसाही योग्य है॥२९॥ यदि कहो कि, चाहना नहीं तो घरमें रहने से क्या प्रयोजन है? उसके उत्तरमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे मैं ईश्वर हूं, उसी प्रकार ईश्वरकी मायासे रची विषयवासनात्यागकर कितने एक पुरुष मेरे समान लोकमर्यादा केलिये विषयोंमें आसक्त न होने पर भी कर्म करते हैं॥३०॥ हे ब्राह्मण! हम तुम जब गुरुके

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* शंका- श्रीकृष्ण भगवान्के द्वारपर मूर्ख लोग रहते थे क्योंकि जो मूर्खलोग पहरा नहीं देते होते तो भगवान् नेसुदामा का पूजन किया तो उन लोगोंने आश्चर्य क्यों माना? क्योंकि सज्जन लोग तो जानते हैं कि, भगवान् तो सदा ब्राह्मणोंका पूजन करते थे वह आश्चर्य क्यों मानते?

उत्तर- श्रीकृष्णके स्थानपर मूर्ख लोग नहीं रहते थे गोलोकवासी थे, उन लोगोंकी यह प्रतिज्ञा थी कि त्रिलोकीमें श्रीकृष्ण से बढा कोई नहीं है सर्वोपर श्रीकृष्णचन्द्रहीको जानते थे, ब्रह्मादिक देवताओं को तथा योगियोंको ब्राह्मणोंको भी श्रीकृष्णचन्द्रसे बढा नहीं जानते थे, इसलिये सुदामाका पूजन जबश्रीकृष्णजीने किया तो सव आश्चर्य माननेलगे कि इनसे बडा यह कौन आया! जिनका पूजन आप श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् त्रिलोकीनाथ करते हैं॥

घरमें जाकर रहे थे, तबकी भी कुछ याद है कि नहीं? जिन गुरुसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जानने योग्य आत्माका स्वरूप जानकर पुरुष संसारसे छूट जाता है॥३१॥ इस संसारमें तीन गुरु हैं, जन्मदाता पिता, दूसरा यज्ञोपवीतकर वेद पढावै, संध्या गायत्री सुन्दर कर्म सिखानेवाला और तीसरा ब्रह्मचारी, गृहस्थ वानप्रस्थ, संन्यासी इन चारों आश्रमोंको ज्ञान देनेवाला गुरु है, इसमेंसे प्रथम गुरु पूज्य है, दूसरा मेरे बराबर पूज्य है और तीसरा गुरु साक्षत् मेराही स्वरूप है॥३२॥जो पुरुष मनुष्यरूप धारण करके गुरूरूप मेरे उपदेशसे संसाररूपी समुद्रके पार लगते हैं, हे ब्राह्मण! वह पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णोंमें और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, इन चारों आश्रमों में चतुर हैं॥३३॥ ज्ञानके देनेवाले गुरुसे अधिक और सेवा योग्य कोई नहीं है, इसलिये उन गुरुके भजन से और कोई अधिक धर्म नहीं है, सब

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह संभवः॥ आद्योंग यत्राश्रमिणां यथाऽहं ज्ञानदो गुरुः॥३२॥ नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह॥ ये मया गुरुणा वाचा तरंत्यंजो भवार्णवम्॥३३॥ नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन च॥ तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा॥३४॥ अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन्वृत्तं निवसतां गुरौ॥ गुरुदारैश्चोदितानामिंधनानयने क्वचित्॥३५॥ प्रविष्टानां महारण्यमपर्तौसुमहद् द्विज॥ वातवर्षमभूत् तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्नवः॥३६॥ सूर्यश्चास्तंगतस्तावत्तमसा चावृता दिशः॥ निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किंचन॥३७॥ वयं भृशं तत्र महानिलां बुभिर्निहन्यमाना मुहुरंबुसंप्लवे॥ दिशोऽविदंतोऽथ परस्परं वने गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः॥३८॥

प्राणियों का आत्मा मैं जैसा गुरुकी सेवासे प्रसन्न होता हूं, ऐसा ब्रह्मचर्य, यज्ञ, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासधर्म से भी प्रसन्न नहीं होता॥३४॥ ब्राह्मण! हम और तुम जब गुरुके घर रहा करते थे उस समय हमें तुम्हें गुरुकी स्त्रीने लकड़ी काटने को वनमें भेजा, वहां दैव इच्छासे जो कुछ हुआ वह तुम्हें स्मरण है?॥३५॥हे मित्र!लकडी लेनेको हम तुम एक महावनमें गये यद्यपि वहां वर्षाऋतु नहीं थी परन्तु तो भी महातीव्र पवनके साथ वर्षा होने लगी और अत्यन्त घोर कठोर गर्जना हुई॥३६॥इतने ही में भगवान सूर्य अस्त हो गये और सम्पूर्ण दिशाओंमें अन्धेरा छा गया, सब स्थलमें जलमें जलहीजल दृष्टि आने लगा, इसकारण ऊंचा नीचा कुछ दिखाई न दिया॥३७॥ जलमय उस वनमें अति प्रचण्ड वायु तथा वर्षासे

हम तुम दोनों पीडाको प्राप्त हुए दिशाओंकी कुछ सुधी न रही तब आतुर हो आपसमें हाथ पकड मस्तकपर लकड़ीके बोझोंको धरकर फिरने लगे॥३८॥ हे ब्राह्मण!जब गुरुजी को इस बातकी खबर हुई, तब सूर्योदय होते ही सांदीपन गुरु हमें तुम्हें ढूँढते २ आये और आतुर अपने शिष्यों को बैठा देखा॥३९॥ और उस समय कृपा करके तीन श्लोक कहे, जिनसे हम कृतार्थ होगये, हे पुत्रो! तुम हमारे लिये बहुत दुःखित हुये क्योंकि प्राणियोंको देह बहुत प्यारा है, उसका निरादर करके तुमने हमारी सेवा करी॥४०॥ सत्पात्र शिष्यों को इसीप्रकार गुरुकी सेवा करनी योग्य है, शुद्ध भावना करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह चारों पदार्थ जिससे प्राप्त हों ऐसे

एतद्विदित्वा ह्युदिते रवौ सांदीपनिर्गुरुः॥ अन्वेषमाणो नः शिष्यानाचार्योऽपश्यदातुरान्॥३९॥ अहो हे पुत्रकायमस्मदर्थेऽतिदुःखिताः॥ आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठस्तमनादृत्य मत्पराः॥४०॥ एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं रुनिष्कृतम्॥ यद्वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ॥४१॥ तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्या संतु मनोरथाः॥ छंदांस्ययातयामानि भवंत्विह परत्र च॥४२॥ इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु॥ गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशांतये॥४३॥ ब्राह्मण उवाच॥ किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्वरो॥ भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत्॥४४॥

देहको रुके अर्पण कर दे॥४१॥हे द्विजश्रेष्ठ!तुम्हारे ऊपर मैं प्रसन्न हुआ हूं तुम्हारे मनोरथ सब सत्य हों, तुमने मुझसे जो वेद पढे हैं, सो इस लोक और परलोक में सारभरे नवीन पढे याद बने रहैं॥४२॥ श्रीभगवान् ने कहा कि, हे मित्र! कलियुग में चेले गुरु दोनों लोभी लालची होते हैं, गुरुके घर जब हम रहते थे, तब के ऐसे अनेक चरित्र हैं, वह आपको याद हैं? गुरुओंकी कृपासेही मनुष्य पूर्ण मनोरथ होकर शांतिको प्राप्त होता है *॥४३॥ तब सुदामा बोले कि, हे देवदेव जगत् के गुरु! सत्यसंकल्प तुम्हारे संग हमारा गुरु के पास वास हुआ था, फिर

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* दृष्टान्त - एक चेला गुरूजीके पास आया और सेवा करने लगा, सेवा करनेहीपर माल भी बहुत मिलते हैं, नया जानकर पुराने चेलोंने सब काम धन्धा उसीपर डाल दिया, एक दिन उसने गुरूजीसे कहा कि, महाराज! एकबात कहता हूँ गुरूजी बोले कह, चेलेने कहा कि, महाराज! ऐसा भी कोई उपाय है कि, जो मैंगुरू होजाऊँ और तुम्हारे समान गद्दीपर बैठ हल्लुआपूरी उडाऊ, काम चेलोंसे कराऊ, गुरूजीने सुनते ही क्रोधकर उसे निकाल दिया और फिर अपने यहां न आने दिया, चेलेको तो चाट लग रही थी एक दिन एक पल्लेदारको बुला दो पेसे दे उससे कहा कि रेता पल्लेमें भरकर ले चलो, उसने पल्ला भरलिया यह गरूजीके दरवाजेपर पहुँच खबर दी कि चेला आया है, गुरूजी बोले कि, हम दर्शन नहीं देंगे, तबचेले ने कहा महाराज! एक पल्ले में कुछ लाया भी है, हम नहीं-

हमको कौन वस्तुकी प्राप्ति न हुई अर्थात् सब वस्तु पाचुके॥४४॥ हे समर्थ! संपूर्ण कल्याणदायक छन्दोमय वेद आपकी मूर्ति हैं ऐसे आपने गुरुके यहाँ वास किया, यह तो लीलामात्र है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सुदाम्नः उपाख्याने अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥ दोहा - इक्यासी हरि विप्रके, तन्दुल भोग लगाय।किये समर्पण लोक द्वै, तौहू रहे लजाय॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!सब प्राणियोंके मनकी बात जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र द्विजों में मुख्य सुदामाके संग बातैंकरते मुसकाकर बोलें॥१॥ ब्राह्मणोंकी भक्ति करने वाले साधुपुरुषों की गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रेमभरी चितवनसे देखते और हँसते हुये ब्राह्मण सुदामा से बोले कि॥२॥ हे

यस्य च्छंदोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो॥ श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यंतविडंबनम्॥४५॥ इति श्रीमद्भा० म० द० उ० अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥ श्रीशुक उवाच॥ स इत्थं द्विजमुख्येन सह संकथयन्हरिः॥ सर्वभूतमयोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम्॥१॥ ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान्प्रहसन्प्रियम्॥ प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥ किमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे भवता गृहात्॥ अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्॥ भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥३॥ पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति॥ तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥४॥ इत्युक्तोपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः॥ पृथुकप्रसृतिं राजन्न प्रायच्छदवाङ्मुखः॥५॥ सर्वभूतात्मकदृक्साक्षात्तस्यागमनकारणम्॥विज्ञायाचिंतयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा॥६॥

ब्राह्मण!तुम मेरे लिये क्या भेंट लाये हो? क्योंकि भक्ति प्रेमपूर्वक जो मुझे थोडीसी भी भेंट देता है, सो बहुत हो जाती है और जो भक्ति विना- मुझे बहुत भी दे, परन्तु उससे मुझे संतोष नहीं होता॥३॥जो पुरुष भक्ति करके पत्र, पुष्प, फल मुझे देते हैं, सो भक्तिसे भेंट करनेके कारण मैं उसे प्रसन्नतापूर्वक भोजन करता हूं॥४॥ हे राजन् परीक्षित! इसप्रकार भगवान्ने जब कहा तो भी लज्जाके मारे नीचे को मस्तककर विराजमान सुदामा ने लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्रको तंडुल नहीं दिये॥५॥ हे राजन्!साक्षात् सब प्राणियोंके साक्षी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुदामाके आनेका

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- जानते कि, बूरा या खाटहै, इससे बुला लो, फिर भगा दीजो, गुरुजी बोले तो फिर बुला लो, चेला सुनते ही बुलाने गया, उसने आतेही आँगनमें पल्ला गिरवाया और गुरुजी की ओर चरणकर पल्लेको दण्डवत् करी गुरुजी बोले कि मूर्ख यह क्या करता है?चेलेने कहा कि महाराज! मुझे तो यह पल्ला ही लाया है यह कहकर भाग गया गुरुजी रेता देख अत्यन्त लज्जित हुये, कलियुग में गुरु चेले बहुधा कुपात्र ही हैं॥

विचार करनेलगे कि, धनकी चाहना करके इस सुदामा ने मेरा भजन नहीं किया॥६॥ पर अभी अपनी पतिव्रता स्त्रीको प्रसन्न करनेके लिये मेरे पास आया है, इसलिये जो संपत्ति देवताओं को भी दुर्लभ है सो इसे दूंगा॥७॥ इस प्रकार विचार कर चीरमें बँधे चावलों को “यह क्या है” ऐसे कह वह चावल सुदामा के वस्त्रमें से आपही ले लिये॥८॥ और एक मुट्ठी चावल खाकर केशवमूर्ति बोले कि, हे मित्र सुदामा! यह जो तुम चावल लाये हो सो मुझे अत्यन्त प्यारे लगे हैं, इनको थोड़ा मत जानो, यह चावल मेरे सब विश्वका पेट भर देंगे॥९॥ ऐसे कह एक मुट्ठी चावलों का भोजनकर और दूसरी मुट्ठी खाने लगे, तबहीं श्रीकृष्णपरायण रुक्मिणी परमेष्ठी श्रीकृष्णचन्द्रका हाथ पकडकर कहने लगीं कि,

पत्न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया॥ प्राप्तो मामस्य दास्यामि संपदोऽमर्त्यदुर्लभाः॥७॥ इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धाद्विजन्मनः॥ स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतंडुलान्॥८॥ नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे॥ तर्पयंत्यंग मां विश्वमेते पृथुकतंडुलाः॥९॥ इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे॥तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः॥१०॥ एतावताऽलं विश्वात्मन्सर्वसंपत्समृद्धये॥ अस्मिंल्लोकेऽथवाऽमुष्मिन्पुंसस्त्वत्तोषकारणम्॥११॥ ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाऽच्युतमंदिरे॥ भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेन आत्मानं स्वर्गतं यथा॥१२॥ श्वोभूते विश्वभावेन स्वमुखेनाभिवंदितः॥ जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नंदितः॥१३॥

मित्रके घर की सब वस्तु आपही भोजनकर जाओगे या कुछ हमको भी रहने दोगे?॥१०॥ रुक्मिणी बोली कि, हे विश्वके आत्मा!एक मुट्ठी चावल भोजन करके तो सब विश्वकी संपत्ति इसे दे चुके और दूसरी मुट्ठी भोजन करके क्या मुझे भी दे चुकोगे? क्योंकि इस लोक और परलोकमें तुम्हारे संतुष्ट होनेसे ही संपत्ति प्राप्त होती है॥११॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्!ब्राह्मण सुदामाने उस रात्रिको श्रीकृष्णचन्द्रके मन्दिरमें रह, भोजन कर जल पी स्वर्गकी प्राप्तिके समान सुख पाया॥१२॥ जब प्रातःकाल हुआ तो विश्वके पालन करने वाले आत्माके आनन्दमें मग्न श्रीकृष्णचन्द्र सुदामाको प्रणामकर मार्ग में पहुॅचानेको पीछे पीछे संग आये, और बोले कि, मित्र सुदामा! तुमने भला दर्शन किया, और इस प्रकार स्वाधीन

वचनोंसे आनंद हो सुदामा अपने घर को चला॥१३॥ हे नृप! न तो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसे धन दिया और न उसने लाजके मारे मांगा, श्रीकृष्णके दर्शनहीसे सुखपाकर अपने घरकी ओरको चला॥१४॥ चलते समय चित्तमें शोचने लगा कि अहो! ब्राह्मणोंकी भक्ति करनेवालोंके दैवत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी भक्ति मैंने देखी, क्योंकि लक्ष्मीको छातीमें धारणकरने वाले श्रीकृष्णचन्द्र अतिदरिद्री मुझ सुदामाको छातीसे लगाकर मिले॥१५॥कैसा आश्चर्य है कि दरिद्री पापी ब्राह्मण मैंकहाँ? और लक्ष्मी जिनके अंगमें वासकरैंऐसे श्रीकृष्णचन्द्र कहाँ? मुझमें उनमें बड़ा अंतर है, सो भुजापसार कर मुझसे मिले॥१६॥अपनी प्रिय भार्याके सेवा करनेयोग्य शय्यापर जैसे अपने भ्राता बलदेवजीको बैठा लेते थे, उसी प्रकार

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान्स्वयम्॥ स्वगृहान्व्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिर्वृतः॥१४॥ अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया॥ यद्दरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो विभ्रतोरसि॥१५॥ काहं दरिद्रः पापीयान्क कृष्णः श्रीनिकेतनः॥ ब्रह्मबंधुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरंभितः॥१६॥ निवासितः प्रियाजुष्टे पयंके भ्रातरो यथा॥ महिष्यावीजितः श्रांतो बालव्यजनहस्तया॥१७॥ शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः॥ पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत्॥१८॥ स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि संपदाम्॥ सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्॥१९॥ अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत्॥ इति कारुणिको नूनं धनं मे भूरि नाददात्॥२०॥ इति तच्चिंतयन्नंतः प्राप्तो निजगृहांतिकम्॥ सूर्यानलेंदुसंकाशैर्विमानैः सर्वतो वृतम्॥२१॥

मुझे बैठाया और मार्गकी थकावट दूर होनेको श्रीकृष्णचन्द्रकी भार्या रुक्मिणीने चमर हाथमें लेकर मेरे पवन करी॥१७॥ बड़ी सेवा करके पांवों का दाबना, धोना, पोंछना, इत्यादि सत्कार करके देवोंके देव ब्रह्मण्यदेव भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने देवताओंके समान मेरी पूजा की॥१८॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंकी शोभा मनुष्यों को स्वर्ग मोक्ष और पाताल, पृथ्वीकी संपत्ति, तथा सर्व सिद्धियोंका कारण है, परन्तु तोभी॥१९॥ दरिद्री सुदामा धनको पाय, बहुत मतवाला होकर मुझे भूल जायगा इसकारण करुणानिधान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मुझे यत्किंचित् भी धन न दिया॥२०॥ हे महाराज! इस प्रकार सुदामा मन ही मनमें विचार करता हुआ अपने नगर में पहुॅचा तो क्या देखता है कि, सूर्य, अग्नि, चंद्रमा के समान

प्रकाशमान चारों ओर विमान शोभित हो रहे हैं॥२१॥ चित्र विचित्र बगीचे शोभायमान तिनमें पक्षियोंके झुंड के झुंड बोल रहे हैं और कुमुद अंभोज कहार, उत्पलसे शोभायमान सरोवर भर रहे हैं॥२२॥ शृंगार किये पुरुष और हरिणके तुल्य नेत्रवाली स्त्रियें जहाँ तहाँ फिर रही हैं, ऐसी शोभा औरविमानोंका प्रकाश देख आश्चर्यमान “यह क्या है? किसका स्थान है?” फिर अपने मनमें विचार किया कि यह तो हमारेही रहने का स्थान है, ऐसा कैसे हो गया॥२३॥ इसप्रकार बड़भागी सुदामाको देवताओंके समान शोभावाले स्त्री पुरुष गाते बजाते सम्मुख लिवानेको आये॥२४॥ पतिका आगमन सुन आनन्द और घबराहटसे सुदामाकी स्त्री साक्षात् कमलवनमेंसे रूपधरें लक्ष्मीके समान शीघ्र ही घर से बाहर

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्द्विजकुलाकुलैः॥ प्रोत्फुल्लकुमुदांभोजकहारोत्पलवारिभिः॥२२॥ जुष्टं स्वलंकृतैः पुंभिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः॥ किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्॥२३॥ एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः॥ प्रत्यगृह्णन्महाभाग गीतवाद्येन भूयसा॥२४॥ पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षाऽतिसंभ्रमा॥ निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात्॥२५॥ पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कंठाऽश्रुलोचना॥ मीलिताक्ष्यनमद्बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे॥२६॥ पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरंतीं देवीं वैमानिकीमिव॥ दासीनां निष्ककंठीनां मध्ये भांतीं स विस्मितः॥२७॥ प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमंदिरम्॥ मणिस्तंभशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा॥२८॥ पयःफेननिभाः शय्या दांता रुक्मपरिच्छदाः॥ पर्यंका हेमदंडानि चामरव्यजनानि च॥२९॥

निकली श्रीकृष्णचन्द्र स्वर्गको सुदामा के महलमें लाये थे इसलिये सुदामा और सुदामाकी स्त्री दोनों देवस्वरूप होगये॥२५॥ प्रेम और उत्कंठा से नेत्रों में आंशु भरे पतिव्रता सुदामाकी स्त्रीने पतिको आया देख नेत्र मूँद, बुद्धिसे विचार मनमें आलिंगन कर नमस्कार किया॥२६॥ जैसे विमानमें बैठी देवी प्रकाशमान होती है, उसी प्रकार धुकधुकी कण्ठमें धारण किये दासियोंके मध्यमें प्रकाशमान अपनी स्त्रीको देख सुदामाजीने बहुत आश्चर्य माना॥२७॥ और प्रसन्न हो अपनी स्त्रीके साथ अपने घर में गये, जहाँ सहस्रों मणियोंके खंभ लग रहे थे, मानों इन्द्रभवन है॥२८॥ दूध के श्वेत झागों के समान कोमल श्वेत बिछौने बिछ रहे, हाथीदाँत व सुवर्णके पलंग जिस मन्दिर में बिछ रहे और सुवर्ण की ही डंडीके

चमर पंखे धरे हैं॥२९॥ कोमल कोमल पथरनो वाले सुवर्णके सिंहासन और मोतियोंके झालरीदार प्रकाशमान चंदोवे तन रहे थे॥३०॥ और निर्मल स्फटिक मणियों की भीतोंमें महामरकतमणियों की तथा स्त्रीसहित मंदिरमें रत्नोंके दीपक प्रकाशमान होरहे थे॥३१॥ इस प्रकार उस मंदिरमें संपत्तियोंकी वृद्धि देख स्थिर हो, “अकस्मात् इतनी संपत्ति कहाँसे आई” ऐसे सुदामाजी विचार करने लगे॥३२॥ सदाके दरिद्री भाग्य हीन मुझे बड़े ऐश्वर्यमान यादवोंमें उत्तम श्रीकृष्णचन्द्रकी चितवन विना निश्चय और कोई इस संपत्तिका कारण नहीं है॥३३॥ जिस प्रकार समुद्रको पूर्ण करनेवाला महाउदार मेघ किसी समय अधिक तर वृष्टिको भी सूक्ष्म जानकर मानो लज्जित होता हो ऐसे समक्षमें नहीं वरसता,

आसनानि च हैमानि मृद्वपस्तरणानि च॥ मुक्तादामविलंबीनि वितानानि द्युमंति च॥३०॥ स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च॥ रत्नदीपान्भ्राजमानाल्लँलनारत्नसंयुतान्॥३१॥ विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसंपदाम्॥ तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम्॥३२॥ नूनं वतैतन्मम दुर्भगस्य शश्वद्दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः॥ महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो नैवोपपद्येत यद्वत्तमस्य॥३३॥ नन्वब्रुवाणो दिशतेऽसमक्षं याचिष्णवे भूर्य्यपि भूरिभोजः॥ पर्जन्यवत्तत्स्वयमीक्षमाणो दाशार्हकाणामृषभः सखा मे॥३४॥ किंचित्करोत्युर्वपि यत्स्वदत्तं सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारि॥ मयोपनीतां पृथुकैकमुष्टिं प्रत्यग्रहीत्प्रीतियुतो महात्मा॥३५॥ तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्रीदास्यं पुनर्जन्मनिजन्मनि स्यात्॥ महानुभावेन गुणालयेन विषज्जतस्तत्पुरुषप्रसंगः॥३६॥

रात्रिको नगरके लोगोंके सो जानेपर उनके खेतोंको जलसे पूर्ण करता है, उसी प्रकार मेरे सखा पूर्णकाम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी भक्तको देनेके लिये इन्द्रादिक पदको भी तुच्छ और उसके लिये भजनको अधिक मानकर समक्षमें न कहते हुये सब सम्पदायें प्रदान करते हैं॥३४॥ आप बहुत दें, उसे थोड़ा माने और सुहृदोके थोड़े दियेको भी बहुत मानते हैं, क्योंकि मैं एक मुट्ठी चावलों की लेगया था उसे महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने प्रसन्न होकर लिया॥३५॥ मुझे जन्मजन्म में उन्हीं के विषयमें प्रेम हितेच्छुता मैत्री व दासपन प्राप्तहो और महानुभाव व गुणोंके धाम भगवान् वासुदेवमें आसक्त होते उनके भक्तोंका सत्संग प्राप्तहुआ करे यही उनसे विनय है॥३६॥

धनी पुरुषोंके धनके अभिमानसे नीच जन्म होते देखकर विवेकसे श्रीकृष्णचन्द्र अपने अज्ञानी भोरे भक्तों को विचित्र संपदा और राज्यके ऐश्वर्य नहीं देते किन्तु दृढ़ भक्ति देते हैं, मुझे भक्ति नहीं थी, इससे संपदाका सुख मिला परन्तु अब भक्तिही की प्रार्थना करता हूं॥३७॥ इस प्रकार बुद्धिसे निश्चयकर श्रीकृष्णचन्द्रका अत्यन्त भक्त सुदामा विषयों का धीरे धीरे त्याग करता अति आसक्त न होकर स्त्रीके साथ विषयोंका सेवन करने लगा॥३८॥ देवदेव तथा यज्ञपति इन प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रके ब्राह्मण ही प्रभु और इष्ट देवता हैं, इन ब्राह्मणोंसे अधिक और कोई देवता नहीं है॥३९॥ हे राजन्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका मित्र वह ब्राह्मण सुदामा उस समय अजित भगवान् को भी भक्तोंके सम्मुख पराजित होते

भक्ताय चित्रा भगवान्हि संपदा राज्यं विभूतीर्नसमद्धयत्यजः॥ अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं पश्यन्निपातं धनिनां मदोद्भवम्॥३७॥ इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने॥ विषयाञ्जयया त्यक्ष्यन्बुभुजे नातिलंपटः॥३८॥ तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः॥ ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम्॥३९॥ एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्॥ तद्ध्यानवेगोद्ग्रथितात्मबंधनस्तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम्॥४०॥ एतद्ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः॥ लब्धभावो भगवति कर्मबंधाद्विमुच्यते॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥ श्रीशुक उवाच॥ अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः॥ सूर्योपरागः सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा॥१॥

देखकर उनके ध्यानके वेगसे अहंकार दूरकर शीघ्रही सत्पुरुषोंके शरणरूप श्रीकृष्णचन्द्रके धामको चलागया॥४०॥ जो पुरुष ब्रह्मण्यदेव श्रीकृष्णचन्द्रकी, ब्राह्मणकी गौरवता प्रतिपादन करनेवाली यह लीला मन लगाकर सुनते हैं, वह भगवान् वासुदेवकी भक्तिको प्राप्त होकर कर्मबंधनसे छूट जाते हैं॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां सुदाम्न उपाख्याने एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥ दोहा - अंकबयासीमें भयो, कुरुक्षेत्र रविपर्व। मिले प्रेम अरु प्रीतिसे, यादव औ नृप सर्व॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसके उपरान्त द्वारकापुरीमें वास करते रामकृष्णको एक समय प्रलयकालके समान बड़ा भारी सूर्यग्रहण आया॥१॥

हे महाराज! ज्योतिषियोंसे उस ग्रहणको पहलेही जानकर मनुष्य सब ओरसे दान, पुण्य, स्नान करनेके लिये कुरुक्षेत्रको जाने लगे॥२॥ जहाँ शस्त्र धारण करने वालोंमें श्रेष्ठ महात्मा परशुरामजीने पृथ्वीको इक्कीसवार निःक्षत्रियकरके राजाओंके रुधिर समूहसे कुण्ड भर दिये थे॥३॥ यद्यपि पाप रहित हैं, परन्तु तोभी समर्थ भगवान् परशुरामजी अपने पाप दूर करनेके लिये अज्ञानी पुरुषके समान सब लोकों को शिक्षा देनेके कारण जाकर कुरुक्षेत्रमें यज्ञ किये॥४॥ बडी तीर्थयात्रामें संपूर्ण भरतखण्डकी प्रजा आई उसी प्रकार वृष्णि, अक्रूर, वसुदेव, राजा उग्रसेनादि यादव॥५॥ अपना अपना पाप दूर करनेके लिये कुरुक्षेत्र में आये, गद, प्रद्युम्न, सांबादि, श्रीकृष्णचन्द्रके पुत्र आये;

तं ज्ञात्वा मनुजा राजन्पुरस्तादेव सर्वतः॥ स्यमंतपंचकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया॥२॥ निःक्षत्रियां महीं कुर्वन् रामः शस्त्रभृतां वरः॥ नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान्॥३॥ ईजे च भगवान्नामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा॥ लोकस्य ग्राहयन्नीशो यथाऽन्योऽघापनुत्तये॥४॥ महत्यां तीर्थयात्रायां तत्राऽऽगन् भारतीः प्रजाः॥ वृष्णयश्च तथाऽक्रूरवसुदेवाहुकादयः॥५॥ ययुर्भारत तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः॥ गदप्रद्युम्नसांबाद्याः सुचंद्रशुकसारणैः॥६॥आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः॥६॥ ते रथैर्देवधिष्ण्याभैर्हयैश्च तरलप्लवैः॥ गजैर्नदद्भिरभ्राभ्रैर्नृभिर्विद्याधरद्युभिः॥७॥ व्यरोचंत महातेजाः पथि कांचनमालिनः॥ दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव॥८॥ तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः॥ ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनुर्वासस्त्रग्रुक्ममालिनीः॥९॥

परन्तु सुचन्द्र शुक सारण सहित अनिरुद्ध और कृतवर्मा यह दोनों द्वारकापुरीकी रक्षा करनेके लिये रहगये॥६॥ बड़े तेजस्वी सुवर्णकी माला और दिव्य फूलोंकी माला वस्त्र कवच धारणकिये यादव देवताओंके विमानोंके समान प्रकाशमान और जलतरंगके समान चंचल घोडे और वादलोंकीसी कान्ति ऐसे हाथियोंके ऊपर विद्याधरोंकीसी कान्तिवाले सिपाहियोंसहित यादव मार्गमें जातेहुये देवांगनासहित देवताओंके समान शोभायमान होनेलगे॥७॥८॥ बडे भाग्यवान् बहुत सावधान यादवोंने कुरुक्षेत्रमें व्रत स्नानकर वस्त्र और फूल व सुवर्णकी माला पहराय

गौ ब्राह्मणोंको दान करके दीं॥९॥ इसके उपरान्त यादवोंने परशुरामजीके सरोवरोंमें युक्त स्नान कर “श्रीकृष्णचद्रमें हमारी भक्ति होवे” यह संकल्प करके ब्राह्मणोंको बहुतसा सुवर्ण दान किया॥१०॥ इसके उपरान्त उन ब्राह्मणोंसे आज्ञा पाय यादव आप यथेच्छ भोजन कर शीतल छायायुक्त वृक्षोंके नीचे बैठगये॥११॥ हे परीक्षित्! वहाँ मत्स्य, उशीनर, कौशल्य, विदर्भ, कुरु, संजय कांबोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त्त व केरल देशके वासी अपने मित्र, बांधव, व राजा और दूसरे भी अपने पक्षके और परपक्षके सैकडों मनुष्य और नंद आदि अपने प्रिय स्नेही ग्वाल

रामह्रदेषु विधिवत्पुनराप्लुत्य वृष्णयः॥ ददुः स्वर्णं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति॥१०॥ स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः॥ भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायांघ्रिपांघ्रिषु॥११॥ तत्रागतास्ते ददृशुः सुहृत्संबंधिनो नृपान्॥ मत्स्योशीनरकौसल्यविदर्भकुरुसृंजयान्॥१२॥ कांबोजकेकयान्मद्रान्कुंतीनानर्तकेरलान्॥ अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप॥ नंदादीन्सुहृदो गोपीन्गोपीश्चोत्कंठिताश्चिरम्॥१३॥ अन्योऽन्यसंदर्शनहर्षरंहसा प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः॥ आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम्॥१४॥ स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृदस्मितामलापांगदृशोभिरेभिरे॥ स्तनैः स्तनान्कुंकुमपंकरूषितान्निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः॥१५॥ ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान्यविष्ठरभिवंदिताः॥ स्वागतं कुशलं पृष्टा चक्रुः कृष्णकथां मिथः॥१६॥

व बहुत दिनोंकी उत्कण्ठावाली गोपियें प्रभृति जो आये, उन सबको देखा॥१२॥१३॥ परस्पर दर्शनसे उत्पन्न हुए आनंदके वेगसे प्रफुल्लित हृदय और कमलमुखसे शोभायमान पुलकित शरीर प्रेमसे रुद्ध कण्ठ नेत्रोंसे जल बहाते परस्पर आलिंगन करते यादव और दूसरे लोग बडे आनंदमें मग्नहोगये॥१४॥ अत्यन्त स्नेहभरी मुसकान निर्मल कटाक्षयुक्त दृष्टि और स्नेहके आँशु नेत्रोंमें भरे स्त्री स्त्रियोंको देख केशर लगे स्तनोंको स्तनोंसे लगाय भुजा पसार परस्पर मिलने लगीं॥१५॥ जो छोटी अवस्थावाले बडोंको प्रणाम कर चुके तब वहयादव वृद्धोंको प्रणामकर “भले आये” प्रसन्न

हो इसप्रकार कुशल पूछ आपसमें कृष्णकथाओंको पूछनेलगे॥१६॥ कुन्ती भाई बहन, भतीजे, माता, पिता और भाइयोंकी बहुओंको देख तथा मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रको देख आपसमें प्रेमकी बात चीतकर नेत्रोंसे आंशू बहानें लगीं॥१७॥ कुन्ती बोली कि, हे आर्य! मैं अपनेको अपूर्ण मनोरथ मानतीहूं क्योंकि जब मुझपर विपत्ति पड़ती है, तब जो श्रेष्ठ मेरी बातको स्मरण भी नहीं करते॥१८॥जिससे देव रुष्ट हो जाता है, उसको कोई भी संबन्धी अर्थात् जातवाले, पुत्र, भाई, माता, पिता यह स्मरण नहीं करते॥१९॥ वसुदेवजी बोले कि हे बहन! दैवके खिलौने

पृथा भ्रातृन्स्वसृर्वीक्ष्य तत्पुत्रान्पितरावपि॥ भ्रातृपत्नीर्मुकुंदं च जहौ संकथया शुचः॥१७॥ कुंत्युवाच॥ आर्यभ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम्॥ यद् वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः॥१८॥ सुहृदो ज्ञातयः पुत्राः भ्रातरः पितरावपि॥ नानुस्मरंति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम्॥१९॥ वासुदेव उवाच॥ अंब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान्नरान्॥ ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथवा॥२०॥ कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशो दश॥ एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ वसुदेवोग्रसेनाद्यैर्यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः॥ आसन्नच्युतसंदर्शपरमानंदनिर्वृताः॥२२॥भीष्मो द्रोणोंबिकापुत्री गांधारी ससुता तथा॥ सदाराः पांडवाः कुन्ती सृंजयो विदुरः कृपः॥२३॥

ऐसे हम मनुष्योंको दोष मत लगावै, क्योंकि लोक ईश्वरके आधीन होकर कर्म करता है और ईश्वरही कर्म कराता है॥२०॥ प्रथम हम कंससे अत्यन्त दुःखित हो सब दिशाओंमें चले गये थे, देव इच्छासे अभी अपने स्थानपर आये हैं॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित! वसुदेव उग्रसेनादिक यादवोंसे पूजित हो व राजा लोग भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शनकर सुखपूर्वक परमानन्द में मग्न होगये॥२२॥ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य अंबिकाका पुत्र धृतराष्ट्र, पुत्रों सहित गान्धारी, स्त्रियों सहित पांडव, कुंती, संजय, बुद्धिमान् विदुर, कृपाचार्य॥२३॥

कुन्तिभोज राजाविराट्, भीष्मक और नग्नजित् पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, काशीनरेश, सहित धृष्टकेतु बड़ेनेवाला राजा दमघोष, मिथिलादेशका राजा, मद्रदेशका राजा, कैकयदेशका राजा, युधामन्यु, सुशर्मा, और पुत्रों सहित बाह्वीकादिक हे राजाओंके इन्द्र राजा परीक्षित्! महाराज युधिष्ठिरके आज्ञाकारी राजा संपूर्ण रानियों सहित अत्यन्त शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका रूप देखकर परम आश्चर्य मानने लगे *॥२४॥२५॥२६॥ दर्शन करनेके उपरान्त रामकृष्णसे भली प्रकार सत्कार पाय राजालोग श्रीकृष्णचंद्रादि यादवोंकी

कुन्तीभोजो विराटश्च भीष्मको नग्रजिन्महान्॥ पुरुजिद्द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः स काशिराट्॥२४॥ दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ॥ युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्ल‍िकादयः॥२५॥ राजानो ये च राजेंद्र युधिष्ठिरमनुव्रताः॥ श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः॥२६॥ अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक्प्राप्तसमर्हणाः॥ प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन्कृष्णपरिग्रहान्॥२७॥ अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह॥ यत्पश्यथासकृत्कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम्॥२८॥ यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम्॥ भूः कालभर्जितभगापि यदंघ्रिपद्मस्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान्॥२९॥

प्रशंसा करनेलगे॥२७॥ “अहो! महाराज उग्रसेन! यहाँ मनुष्यों में जन्म तो आपही का सफल है, क्योंकि जिनके दर्शन योगीजनों को भी दुर्लभ हैं उन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके आप नित्य प्रति दर्शन करते हैं॥२८॥ वेद जिनकी स्तुति कीर्त्ति वर्णन करते हैं, उन

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* शंका- मुनिसत्तम युधिष्ठिरकी आज्ञा करनेवाले राजा श्रीकृष्णचन्द्रको स्त्रीसहित देखकर विस्मयको क्यों प्राप्तहुए?

** उत्तर-** सब शास्त्रोंमें श्रीकृष्णके वचनको राजा लोग मुनियोंके मुखसे सुनते थे कि भगवान् नेकहा था कि, सब शास्त्रोंमें लिखा है कि स्त्री सदा नरक की देनेवाली है जो कोई प्राणी मोक्षकी अभिलाषाकरे वह स्त्रीकी संगति न करै, फिर स्त्रियों सहित श्रीकृष्णको देखकर राजाओंने कहा कि जिस जिस कामको श्रीकृष्ण बुरा कहते हैं उसी काम को आप करते हैं, इसप्रकार स्त्रियोंके वश हुये श्रीकृष्णको देखकर राजा लोगों ने वडा सन्देह किया देखो! प्राणियों को स्त्रियोंके वश होना मने करते हैं और आप स्त्रियों के वशीभूत होरहे हैं, इसलिये राजा लोग विस्मयको प्राप्तहुए।

श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्द का धोवन गंगाजल और मुखारविन्दका वचनरूप वेद इस विश्वको अत्यन्त पवित्र करते हैं और कालसे दग्ध माहात्म्य जानने वाली पृथ्वी भी श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलके स्पर्शसे शक्तिमती हो हमारी चारों ओरसे संपूर्ण कामना पूर्ण करती है॥२९॥ उन श्रीकृष्ण चन्द्रके संग दर्शन, स्पर्शन, अनुसरण, आसन, गोष्ठी, पलॅग, भोजन, विवाह और सपिंडता के संबंधसे बँधे हुए हो और आप यद्यपि नरक के मार्गरूप गृहमें वास करते हो, परन्तु तो भी तुम्हारे घरमें स्वर्ग व मोक्षकी तृष्णा निवृत्त करनेवाले विष्णु भगवान् आपही प्रगट हुए हैं, इसलिये तुम्हारा जन्म सफल है॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्!नंदरायजी कुरुक्षेत्रमें श्रीकृष्णादि यादवों का आगमन जान गोपों

तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्पशय्यासनाशनसयौनसपिंडबंधः॥ येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ नंदस्तत्र यद्वन्प्राप्तान्ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान्॥ तत्रागमदृतो गोपैरनःस्थार्थैर्दिदृक्षया॥३१॥ तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टास्तन्वः प्राणमिवोत्थिताः॥ परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः॥३२॥ वासुदेवः परिष्वज्य संप्रीतः प्रेमविह्वलः॥ स्मरन्कंसकृतान्क्लेशान्पुत्रन्यासं च गोकुले॥३३॥ कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च॥ नाकिंचनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकंठौ कुरूद्वह॥३४॥ तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च॥ यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः॥३५॥

सहित और गाडियों में लदी वस्तु सहित देखनेके लिये यादवोंके पास आये॥३१॥ बहुत दिनोंसे जिनका दर्शन न हुआ ऐसे कायरचित्त यादव नंदरायजीको देख अत्यन्त प्रसन्न हो, जैसे प्राण देह में आनेसे इन्द्रियें उठकर सम्मुख होती हैं उसी प्रकार सम्मुख जाय चिरकालसे दर्शन न पानेसे उत्कंठित हो गाढ आलिंगनकर परस्पर मिले॥३२॥ वसुदेवजी नंदरायजीसे मिल प्रसन्न हो प्रेममें विह्वल हो गये और कंसके दिये कष्टको और गोकुलमें जैसे कृष्णको पहुॅचा आये थे, उसका स्मरण किया॥३३॥ हे राजन्! कृष्ण बलदेव माता पिता नंद व यशोदा से मिल प्रणामकर ऐसे प्रेममें विह्वल हो गये कि, ऑशुओंसे कंठ रुक गये, इसलिये कुछ भी न बोला गया॥३४॥ महाभागा यशोदा और नंदजी कृष्ण बलदेवको

अपने आसनपर बैठाय भुजाओंसे आलिंगनकर नेत्रोंसे आँशु बहाने लगे॥३५॥ पीछे रोहिणी और देवकी व्रजकी रानी यशोदासे मिल व यशोदाकी करी मित्रताका स्मरण कर आँशु कंठमें भर यह कहने लगीं॥३६॥ कि, हे व्रजकी महारानी! जिसका बदला न हो सके, ऐसी तुम्हारी मित्रताको कौन भूल सकता है? और देवराज इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी संसारमें तुम्हारी मित्रताका बदला नहीं हो सकता, हे यशोदे! जिन्होंने अपने माता पिताको नेत्रोंसे नहीं देखा, ऐसे कृष्ण बलदेवको तुम माता पिता के पास रख्खे, तब तुमसे प्यार बढ़ाना पोषण, पालन, लालनपाय निर्भय तुम्हारे पास वास करने लगे, जैसे पलक नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुमने इनकी रक्षा करी, यह तुमको योग्य ही है, क्योंकि, साधुओंको

रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम्॥ स्मरंत्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकंठ्यौ समूचतुः॥३६॥ का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां व्रजेश्वरि॥ अवाप्याप्यैंद्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया॥३७॥ एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः संप्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि॥ प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णोर्न्यस्तावकुत्रचभयो न सतां परः स्वः॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपंति॥ दृग्भिर्हृदि कृतमलं परिरभ्य सर्वास्तद्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्॥३९॥ भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसंगतः॥ आश्लिष्याऽनामयं पृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥४०॥ अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया॥ गतांश्चिरायिताञ्शत्रुपक्षक्षपणचेतसः॥४१॥

यह अपना विराना इसप्रकार बुद्धि नहीं होती है॥३७॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!जिनके दर्शनमें पलकोंकी ओट पडनेसे पलकोंके रचनेवाले विधाताको गालियाँ देती हैं, क्योंकि वह अतिप्यारे श्रीकृष्णचन्द्र बहुत दिनोंमें दृष्टिगोचर हुए, इसलिये नेत्रद्वारा उन्हें हृदयमें स्थापितकर समाधिनिष्ठ योगियोंको भी जिसकी प्राप्ति बहुत कठिन है, उन श्रीकृष्णचन्द्रके भाव (अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्रके रूपको) उन गोपियोंने प्राप्त किया॥३९॥ इसप्रकार प्रेम भरी गोपियोंके पास एकान्त में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जाय आलिंगनकर कुशल पूछ मुसकायकर यह वचन बोले कि॥४०॥ हे सखियो! हम अपने बांधवोंका कार्य करने की कामनासे गये थे और वहाँ वैरियों के पक्षका नाश करनेमें लग गये

जिससे बहुत दिनों तक रुक गये सो तुमने हमारा भी कभी स्मरण किया?॥४१॥ “यह कृतघ्नी है” क्या ऐसे तुमको हमपर कुछ क्रोध तो नहीं उत्पन्न होता है? हॉ हमको त्यागकर आप चले गये, इससे यह बात सत्य है, इस प्रकार गोपियोंकी ओरसे संभावना करके कहते हैं कि, दैवही तो प्राणियोंको मिलाता है और वही वियोग करा देता है॥४२॥ जैसे वायु बादलोंके समूहको तृणोंको रुईको और धूरिको उड़ाकर संयोग करता है, फिर वियोग करता है, उसी प्रकार सब प्राणियोंका उत्पत्तिकर्त्ता ईश्वर सबको मिलता है, और फिर अलग अलग कर देता है, इसमें मुझे क्या दोष है?॥४३॥ प्राणियोंकी मुझमें भक्तिही जन्म और मृत्युसे छुडाती है, तुम्हारा मुझमें स्नेह हुआ है, इसलिये मुझे प्राप्त होउगी, यही बड़ा मंगल है॥४४॥ कैसे तुम हो जिन्हें स्नेह करके हम पावेंगी ऐसी इच्छा सब गोपियोंकी हुई तो अपना रूप कहते हैं कि, हे गोपियो! जैसी

अप्यवध्या यथाऽस्मान्स्विदकृतज्ञा विशंकया॥ नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च॥४२॥ वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च॥ संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत्॥४३॥ मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥ दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः॥४४॥ अहं हि सर्वभूतानामादिरंतोंतरं बहिः॥ भौतिकानां यथा खं वा भूर्वायुज्योंतिरंगनाः॥४५॥ एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्मात्मना ततः॥ उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे॥४६॥

पंचभूतोंके बने घटादिकके पृथ्वी जल, तेज, वायु, आकाश यह आदि में भी हैं, अंतमें भी हैं, इसी प्रकार जरायुज मनुष्य तथा पशु आदि और अण्डोंसे जन्म पानेवाले पक्षी इत्यादिक और पसीनेसे जन्मवाले खटमल जुएँ इत्यादिक और उद्भिज्जअर्थात् ब्रह्मादिक चार प्रकार के आदि में भी मैं हूँ, और अंत में भी मैं हूं, भीतर बाहर होनेके कारण व्यापक हूं ऐसे मुझे तुम प्राप्त हुई हो॥४५॥ यहॉ एक शंका है कि, चारप्रकार के प्राणियोंका भोक्ता आत्मा आदि अंतमें है और व्यापक आत्मामें सब प्राणी वास करते हैं, फिर तुम्हारी प्राप्ति हमैं कैसे हुई? इसके उत्तर में कहते हैं कि, मृत्तिका घटादिकों आदिमें भी है और अंतमें भी हैं ऐसे चार प्रकारके प्राणी अपने कारणसे भूतोंमें वर्त्तमान रहते हैं भोक्ता आत्मामें नहीं रहता है आत्मा देहमें भोक्ता रूपसे व्यापक है, पंचभूतरूप देहरूप भोग करनेयोग्य पदार्थ और भोग करने वाले आत्मा परिपूर्णरूप मुझमें

प्रकाशित देखो॥४६॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!इसप्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने अपने स्वरूप का उपदेश कर गोपियोंको समझाया, तब श्रीकृष्णचन्द्रके स्मरणसे उनके लिंगदेह छूटगये; तब उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की प्राप्ति की॥४७॥ गोपी बोली कि, हे कमल नाभ श्रीकृष्ण! बड़े ज्ञानी योगीश्वरोंके ध्यान करने योग्य और संसाररूपी कुऍमें गिरे प्राणियोंके निकलने का आश्रय तुम्हारे चरणकमल घरमें रहने पर भी सदा हमारे मनमें स्मरण बना रहे, यही वर माँगती हैं॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषा

श्रीशुक उवाच॥ अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः॥ तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन्॥४७॥ आहुश्च ते नलिननाभ पदारविंदं योगेश्वरैर्हृदि विचिंत्यमगाधबोधैः॥ संसारकूपपतितोत्तरणावलंबंगेहंजुषामपि मनस्युदियात्सदा नः॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्धे वृष्णिगोपसंगमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥ श्रीशुक उवाच॥ तथानुगृह्य भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः॥ युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम्॥१॥ त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः॥ प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः॥२॥

टीकायां वृष्णिगोपसंगमोनाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥ दोहा - कह्यो नारियोंकी कथा, सकल तिरासी अंक। पाणिग्रह जैसे कियो, श्रीव्रजचन्दनिशंक॥८३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशीय राजा परीक्षित्!गोपियोंके गुरु और शरणदायक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने गोपियों पर अनुग्रह करके पीछे राजा युधिष्ठिरसे और सब सुहृदोंसे कुशल पूंछी *॥१॥ इस प्रकार लोकोंके नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कुशल पूँछने और

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* शंका - वेद, शास्त्र, पुराण का यह प्रमाण है कि, तीन लोकमें जो चराचर जीव हैं उन सब जीवोंके भगवान् गुरु हैं और गति भी हैं, फिर व्यासजीने सब जीवोंको त्यागके भगवान्‌को गोपियोंका गुरु तथा गति क्यों कहा? यह बडा भारी सन्देह है?

** उत्तर-** “गोपीनां स गुरुर्गतिः” इस श्लोकका अर्थ व्यासजी व्रजकी गोपी जो श्रीकृष्णकीं प्यारी थीं उन गोपियोंको गोपी नहीं कहे थे उस श्लोकका अर्थ तो व्यासजीने ऐसे किया है कि, गो शब्दको संसार भी कहते हैं, शास्त्रोंमें ऐसा कहा है गो कहिये चराचर संसार उसका जो पालन करे उसका नाम गोप है गो भगवान् है तथा गोपी भगवान्की माया है सोई मायारूप लक्ष्मी है ऐसा अर्थ गोपी का श्रीव्यास भगवान् ने किया है मायाके और जगदीश्वर जो जगत् केपति भगवान् हैं सो श्रीकृष्ण होकर पृथ्वीमें विराजमान रहते थे इसलिये मायाके पति और गुरु मी भगवान् हैं क्योंकि मायारूप संसार है इसलिये श्रीकृष्णको गोपीपति और गुरु, व्यासजीने कहा था, व्रजवासियों को- पति गुरु अकेला नहीं कहा था॥

सत्कार करनेसे भगवान्के चरणकमलके दर्न से पापरहित हो वह सब लोग प्रसन्न होकर कहने लगे॥२॥ कि हे प्रभो! तुम्हारे चरणारविन्द का रस जो कि, अभी महात्मालोगोंके मनद्वारा प्रगट हुआ है और जो देहधारण करने वालोंके देहमें अभिमान उत्पन्न करनेवाली अविद्याको काटता है, उसे जो कर्णरूप दोनाओंसे पान करते हैं, उन पुरुषोंके अमंगल कहाँ?॥३॥ स्वरूप के प्रकाशसे बुद्धिकृत जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति अवस्था दूर होनेके कारणसे संपूर्ण आनंदके समूहरूप आवरण रहित, अकुण्ठचैतन्य शक्तिमान् कालसे नष्ट हुए वेदकी रक्षा करनेके लिये योगमायाको अंगीकार कर मनुष्यदेह धारण करनेवाले और परमहंसकी प्राप्तिके योग्य तुमको हम वारंवार नमस्कार करते हैं॥४॥ योगीवर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे

कुतोऽशिवं त्वच्चरणांबुजासवं महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित्॥ पिबंति ये कर्णपुटैरलं प्रभो देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम्॥३॥ हित्वाऽत्मधामविधुतात्मकृतत्र्यवस्थमानंदसंप्लवमखंडमकुंठबोधम्॥ कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोगमायाकृतिंपरमहंसगतिं नताः स्मः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युत्तमश्लोकशिखामणिं जनेष्वभिष्टुवत्स्वंधककौ रवस्त्रियः॥ समेत्य गोविंदकथा मिथो गृणंस्त्रिलोकगीताः शृणु वर्णयामि ते॥५॥ द्रौपद्युवाच॥ हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जांबवति कौसले॥ हे सत्यभामे कालिंदि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे॥६॥ हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान्स्वयम्॥ उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया॥७॥ रुक्मिण्युवाच॥ चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु राजस्वजेयभटशेखरितांघ्रिरेणुः॥ निन्ये मृगेंद्र इव भागमजावियूथात्तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय॥८॥

नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इस प्रकार निर्मलकीर्त्ति पुरुषोके मुकुटमणि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लोग प्रशंसा कर रहे थे कि, इतने में अंधक और कौरवों की स्त्रियें एकत्र हो परस्पर भगवान् संबंधी जो बातें करती थीं वही कथा जो त्रिलोकीमें गाई हैं, तुम्हारे आगे वर्णन करते हैं, तुम सावधान होकर सुनो॥५॥ द्रौपदी बोली कि, हे रुक्मिणि हे भद्रे! हे जाम्बवति! हे सत्यभामा!हे सत्या! हे कालिंदी! हे मित्रविंदा! हे रोहिणी!हे लक्ष्मणा!और हे सोलह सहस्र श्रीकृष्णकी रानियो!स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी मायासे मनुष्यलीला कर जैसे तुम्हारे साथ विवाह किया सो सब बातैं हमारे सम्मुख कहो॥६॥७॥ रुक्मिणी बोली कि, जरासन्धादिक राजाओंके संग जब धनुष उठाय शिशुपाल मुझे व्याहने के लिये आया तब

अजीत योद्धाओंके मस्तकपर चरणधर जैसे भेंड़ बकरियों के समूह में से सिंह अपने बलिको बेखटके ले आता है, उसी प्रकार मुझे ले आये, उन्हीं श्रीकृष्णचन्द्र लक्ष्मीनिवासके चरणोंकी में पूजा करती हूं॥८॥ इसके उपरान्त सत्यभामा अपने विवाहकी बात कहने लगी कि, भ्रातृवधके परितापसे दुःखितहृदय मेरे पिता सत्राजितने मिथ्या कलंक लगाया, उसको मिटानेके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ऋच्छराज जाम्बवान् कोजीत मणि लाकर मेरे पिताको दी तब मिथ्या कलंक लगानेसे मेरे पिताने भयभीत हो अक्रूरादिक को देना स्वीकार करके भी मुझे श्रीकृष्णचन्द्र को ही दिया॥९॥ जाम्बवतीने कहा कि मेरे पिताने इन वासुदेवको “यह अपने इष्टदेव भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं” ऐसे न जानकर इनसे सत्ताईस दिनतक संग्राम किया इसके उपरान्त “यह अपने स्वामी साक्षात् श्रीरामचन्द्रजी हैं” इस प्रकार बुद्धिसे निश्चय होनेपर मेरे पिताने

सत्यभामोवाच॥ यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन लिप्ताभिशापमपमार्मुपाजहार॥ जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात् स तेन भीतः पिताऽदिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम्॥९॥ जांववत्युवाच॥ प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदेवं सीतापतिं त्रिणवहान्यमुनाऽभ्ययुध्यत्॥ ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां पादौ प्रगृह्य मणिनाऽहममुष्य दासी॥१०॥ कालिंद्युवाच॥ तपश्चरंतीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाऽऽशया॥ सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योहं तहमार्जनी॥११॥ मित्रविंदोवाच॥ यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्निन्ये श्वयूथगमिवात्मबलिं द्विपारिः॥ भ्रातंश्च मेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकस्तस्यास्तु मेऽनुभवमंघ्र्यवनेजनत्वम्॥१२॥

चरणोमें गिरकर भेंटकी नाईं मणिसहित मुझे भी अर्पण कर दिया यह सुनकर द्रौपदीने कहा कि तुम बड़ी श्रेष्ठ हो, इसके उत्तरमें जाम्बवती बोली कि, मैं तो इनकी दासी हूं॥१०॥ कालिंदी बोली कि, मैं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणस्पर्शकी आशासे तप कर रही थी कि, भगवान्ने अर्जुन सहित आनकर मेरा हाथ पकड़ लिया उन श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं बुहारी देनेवाली हूं॥११॥ मित्रविन्दा बोली कि, लक्ष्मीके वक्षनिवास भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्वयंवर में जा, राजाओं को जीत और उनका तिरस्कार कर मेरे भाइयोंको भी जीत हाथियों का शत्रु सिंह जैसे कुत्तोंके बीचमेंसे अपने भक्ष्यको ले आता है उसी प्रकार मुझे अपने पुर में लेआये, उन श्रीकृष्णचन्द्रके चरण धोनेकी सेवा मुझे जम््म

जन्ममें प्राप्त हो, यही मेरी प्रार्थना है॥१२॥ सत्या बोली कि, बड़े बलवान् पराक्रमी बड़े पैने सींगवाले और शूरवीरोंके घमण्डको चूर्ण करनेवाले राजाओं की परीक्षा लेने के कारण मेरे पिताके पाले हुये सात बैलोंको पकड जैसे बालक काष्ठकी बकरियोंके बच्चों को बाँधता है, उसी प्रकार भगवान् नेबॉध लिये॥१३॥पराक्रमहीहै मोल जिसका ऐसी मुझे हाथी, घोडे, प्यादों सहित व दासियों सहित मार्गमें क्षत्रियोंको जीत श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार लाये उनकी मैं सदा दासी रहूं, यही प्रार्थना है॥१४॥भद्रा बोली कि, हे द्रौपदी!मेरा मन श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्त जान मेरे पिता ने मेरे मामाके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रको बुलाय मुझे अक्षौहिणी सेना सहित इन्हें दे दिया॥१५॥अनेक कर्मों से भटकनेवाली मुझे जम््म सत्योवाच॥ सप्तोक्षणौऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णशृंगान्पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय॥ तान्वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृह्य क्रीडन्बबंध ह यथा शिशवोऽजतोकान्॥१३॥ य इत्थं वीर्यशुल्कां मां दासीभिश्चतुरंगिणीम्॥ पथि निर्जित्य राजन्यान्निन्ये तद्दास्यमस्तु मे॥१४॥ भद्रोवाच॥ पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्॥ कृष्णे कृष्णाय तच्चितामक्षौहिण्या सखीजनैः॥१५॥ अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनिजन्मनि॥ कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः॥१६॥ लक्ष्मणोवाच॥ ममापि राज्यच्युतजन्मकर्म श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह॥ चित्तं मुकुंदे किल पद्महस्तया वृतः सुसंभृश्य विहाय लोकपान्॥१७॥ ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः॥ बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत्॥१८॥

जन्ममें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका दर्शन प्राप्त हो, जिन चरणारविन्दके स्पर्शसे मोक्षनाम कल्याण मुझे प्राप्त हो, यही मेरी प्रार्थना है॥१६॥ लक्ष्मणा बोली कि, हे रानी द्रौपदी!वारम्वार देवर्षि नारदजी के गाये हुये भगवान् वासुदेवके जन्म, कर्म, श्रवण कर, आश्चर्य है कि, लक्ष्मीजी ने भी लोकपालोंको त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रको ही वरण किया है, इस प्रकार विचारकर मेरा मन भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लग गया॥१७॥ हे सुशीले द्रौपदी! पुत्री पै हित करने वाले बृहत्सेन नाम विख्यात मेरे पिताने मेरे मनकी बात जान श्रीकृष्णचन्द्रके आने के लिये

उपाय किया॥१८॥ हे रानी द्रौपदी! जैसे तेरे स्वयम्वरमें अर्जुनके आनेके लिये मत्स्य रचा गया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी मत्स्य रचा यह सुन द्रौपदी बोली कि, फिर अर्जुनने उस मत्स्यको क्यों नहीं वेधा ? इसके उत्तरमें लक्ष्मणाने कहा कि, तेरे स्वयम्वरकी मछली बाहर ढ़की थी, भीतर से नहीं ढ़की थी इसलिये खंभमें लगाकर ऊपर को दृष्टि करके देखनेसे दिखाई देती थी और मेरे स्वयम्वरकी मछली ऐसी नहीं थी, किन्तु खंभकी जडमें घरे कलशके जलमें केवल परछाई दिखाई देती थी, देखना तो नीचे जलमें और वेधना ऊपर, ऐसी मछलीको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके विना और कौन वेध सकताहै?॥१९॥ स्वयम्वर रचा है, यह बात सुनकर संपूर्ण अस्त्र शस्त्रोंके जानने वाले उपाध्याय अर्थात् सिखाने

यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः॥ अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम्॥१९॥ श्रुत्वैत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम्॥ सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः॥२०॥ पित्रा संपूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः॥ आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः॥२१॥ आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः॥ आकोष्ठं ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुना हताः॥२२॥ सज्यं कृत्वाऽपरे वीरा मागधांबष्ठचेदिपाः॥ भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविंदंस्तदवस्थितिम्॥२३॥ मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्॥ पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम्॥२४॥

बालोंको संग ले सहस्रों राजा मेरे पिताके पुरमें आनकर उपस्थित हुये, उस समय जैसा जिसका पराक्रम और जैसी जिसकी अवस्था थी, उसी प्रकार उसका पूजन मेरे पिताने किया, इसके पीछे कोई भी राजा मुझमें मन लगनेके कारण हाथमें धनुष उठाय मत्स्यके वेधनेको सभामें समर्थ न हुआ॥२०॥२१॥ बहुत राजाओंने तो धनुष हाथमें ले पटक दिया, बहुतसे प्रत्यंचाको खैंच धनुषके चपेटसेही गिरपड़े॥२२॥ और जो शूर वीर जरासंध, अंबष्ठ, चंदेलीका राजा भीम, दुर्योधन, कर्ण यह लोगभी अपने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाय “मछली कैसे लगी है”?. यह भी जाननेको समर्थ न हुए॥२३॥इसके उपरान्त जलमें मछली की परछाईं देख ‘ऐसे मछली लगी है’ सो जान उपाय करनेवाले अर्जुनने

बाण चलाया वह बाण मछलीसे स्पर्शतो हो गया परन्तु मछली कटी नहीं॥२४॥ जब समस्त क्षत्रिय हारकर बैठ रहे, तब अभिमानियोंका अभिमान दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने धनुष हाथ में ले लीलापूर्वकही प्रत्यंचा चढाय धनुषमें बाण लगाय और एकही बार मछलीको जलमें देख मध्याह्न समय अभिजित् नक्षत्रमें अर्थात् सब कार्य सिद्ध करनेवाले मुहूर्त्तमें मछलीको बाणसे काटकर पटक दिया॥२५॥२६॥ उस समय स्वर्गमें देवताओंके नगारे बजनेलगे पृथ्वीमें “जयहो जयहो” इसप्रकार शब्द होने लगा और देवता लोग आनन्दमें मग्न हो आकाशसे फूलों की वर्षा करने लगे॥२७॥ हे द्रौपदी!इसके उपरान्त लाजभरी हँसनयुक्त मुख और चोटीमें पुष्पमाला गुहे नवीन रेशमी सुन्दर धोती, चहर पहर

राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु॥ भगवान् धनुरादाय सज्यं कृत्वाऽथ लीलया॥२५॥ तस्मिन्संधाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले॥ छित्त्वेषुणाऽपातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते॥२६॥ दिवि दुंदुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि॥ देवाश्च कुसुमासारान्मुमुचुर्हर्षविह्वलाः॥२७॥ तद्रंगमाविशमहं कलनूपुराभ्यां पद्भ्यांप्रगृह्य कनकोज्ज्वलरत्नमालाम्॥ नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाम्ये सव्रीडहासवदना कवरीधृतस्रक्॥२८॥ उन्नीय वक्रमुरुकुंतलकुंडलत्विड्गंडस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः॥ राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारेरंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम्॥२९॥ तावन्मृदंगपटहाः शंखभेर्यानकादयः॥ निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः॥३०॥ एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपाः॥ न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः॥३१॥

सुवर्णकी जडी रत्नोंकी माला हाथमें ले और मनोहर नूपुरवाले चरणोंसे मैं रंगभूमिमें आई॥२८॥ और श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्तहृदय मेैंबड़े केश और कुण्डलोंसे शोभायमान कपोलवाले मुखको उठाय, संतापको दूर करनेवाले हास्य कटाक्षपूर्वक चितवनसे चारों ओरके राजाओंको देख धीरे धीरे जाकर मुरारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके हृदयमें माला डाली॥२९॥ उस समय मृदंग, ढोल, शंख, भेरी, नगारे, आदि बाजे बजने लगे, नट और नृत्यकारी नाचनेलगे और गवैये गानेलगे॥३०॥ हे यज्ञसेनकी पुत्री द्रौपदी!इसप्रकार मैंने जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको अपने वशमें किया, तब ईर्षा और कामसे आतुर राजाओं के यूथोंने यह बात नहीं सहन की॥३१॥

इसके उपरान्त अत्यन्त शोभायमान चार घोडे जुते रथमें उस समय मुझे बैठाय शार्ङ्गधनुषको ले कवच पहर चारभुजायुक्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र खडे हो गये॥३२॥ हे रानी द्रौपदी!तब रथवान् नेसुनहरी साजका रथ हॉक दिया और जैसे मृगोंके देखते सिंह चलाजाता है, उसी प्रकार राजाओंके बीचमेंसे उनके देखते ही चले गये॥३३॥ उनको जाता देखकर बडे बडे क्षत्रिय राजा इनके पकड़नेके लिये पीछे दौडे और कोई राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके रोकनेको आगे जाय धनुषको ऊंचा उठाय, जैसे सिंहके रोकने को कुत्ता खडा होता है, उसी प्रकार मार्गमें सावधान होकर खडे हो गये॥३४॥ शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाणोंके समूहोंसे भुजा, पाँव, नार कटनेसे अनेक क्षत्रिय युद्धमें गिर गये और बहुतसे संग्रामको छोडकर भाग गये॥३५॥ इसके उप

मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम्॥ शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः॥३२॥ दारुकश्चोदयामास कांचनोपस्करं रथम्॥ मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव॥३३॥ तेन्वसज्जंत राजन्या निषेद्धुं पथि केचन॥ संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम्॥३४॥ ते शार्ङ्गच्युतवाणौधैःकृत्तबाह्वंघ्रिकंधराः॥ निषेतुः प्रधने केचिदेके संत्यज्य दुद्रुवुः॥३५॥ ततः पुरीं यदुपतिरत्यलंकृतां रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्॥ कुशस्थलीं दिवि भुवि चापि संस्तुतां समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम्॥३६॥ पिता मे पूजयामास सुहृत्संबंधिबांधवान्॥ महार्हवासोलंकारैः शय्यासनपरिच्छदैः॥३७॥ दासीभिः सर्वसंपद्भिर्भटेभरथवाजिभिः॥ आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः॥३८॥ आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः॥ सर्वसंगनिवृत्त्याऽद्धा तपसा च बभूविम॥३९॥

रान्त यादवोंके पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अत्यन्त शोभायमान सूर्य की आवरण करनेवाली ध्वजाके वस्त्रोंसे शोभित, और चित्र विचित्र बन्दनवार माला बॅधी स्वर्ग और पृथ्वीमें जिसकी स्तुति हो ऐसी द्वारकापुरीमें अस्ताचलमें सूर्यके समान प्रवेश किया॥३६॥ उसके उपरान्त मेरे पिताने सुहृदयतासे गोत्री और बंधुओंको बडे मोलके वस्त्र, गहने, शय्या, आसन और साजसे पूजन किया॥३७॥ संपूर्ण संपत्तिमान् दासी और प्यादे, रथ, हाथी, घोडे और बहुत मोलके शस्त्रों सहित मुझे मेरे पिताने परिपूर्ण श्रीकृष्णचन्द्र को दिया॥३८॥ यह आठों हम आत्मामें रमण करनेवाले

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सब संग त्याग अपने धर्मसे साक्षात् घरकी दासी हुई हैं॥३९॥ इसके उपरान्त सोलह हजार एकसौ रानियाँ कहने लगीं कि, भौमासुरने दिग्विजयमें जिन हम राजकन्याओंको जीतकर रोक रक्खा था, उन्हें संसार से छुडानेवाले अपने चरणारविन्दका स्मरण करते जान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने स्वयं पूर्णकाम रहते भी संग्राममें भौमासुर और उसके कुटुम्बको मार हमारे साथ विवाह किया॥४०॥ हे द्रौपदी! हम चक्रवर्ती राज्य और इन्द्रपदके भोगका भोगना नहीं चाहती और अणिमादिक सिद्धि ब्रह्मलोक, मोक्ष तथा वैकुण्ठधामकी भी चाहना नहीं करती परन्तु गदाके धारण करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रके लक्ष्मीके कुचोंकी केशर लगे सुन्दरचरणारविन्दों की रज अपने माथे के ऊपर चढाने की चाहना करती हैं

महिष्य ऊचुः॥ भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा ज्ञात्वाऽथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः॥ निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरंतीः पादांबुजं परिणिनाय य आप्तकामः॥४०॥ न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भोज्यमप्युत॥ वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनंत्यं वा हरेः पदम्॥४१॥ कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजःश्रियः॥ कुचकुंकुमगंधाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः॥४२॥ व्रजस्त्रियो यद्वांछंति पुलिंद्यस्तृणवीरुधः॥ गावश्चारयतो गोपाः पादस्पर्शं महात्मनः॥४३॥ इति श्रीमद्भाग०महा० दशमस्कंधोत्तरार्धे त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥ श्रीशुक उवाच॥ श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः॥ कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबंधं सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः॥१॥ इति संभाष्यमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु॥ आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया॥२॥

॥४१॥४२॥ महात्मा होते भी गाय चराते हुए भगवान श्रीकृष्णचन्द्रके चरणरजको जैसे गोप, गोपियें, भीलनियें, तृण और लतायें चाहना करती हैं उसी प्रकार हम भी उनकी चाहना करती हैं॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधे उत्तरार्धे भाषाटीकायां स्वयंवरादिवर्णनो नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥ दोहा - भयो समागम मुनिनसों, चौरासी अध्याय। संस्कार वसुदेवको, कियो सबनि सुखपाय॥८४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्!कुन्ती, द्रौपदी, गांधारी, सुभद्रा, राजाओंकी स्त्रियें और भक्त गोपियोंने सबके महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रमेंरानियों का इसप्रकार प्रेम सुन नेत्रोंमें ऑसूभर बडा आश्चर्य माना॥१॥ उस कुरुक्षेत्र में इसप्रकार स्त्रियोंके संग स्त्री, पुरुषोंके संग पुरुष, बात चीत

करही रहे थे कि, इतनेही में श्रीकृष्ण बलदेवका दर्शन करने को मुनि लोग आये॥२॥ उनके नाम यह हैं, यथा - वेदव्यास, नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानंद, भारद्वाज और गौतम॥३॥ शिष्यों सहित भगवान् परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति॥४॥ द्वित, त्रित, एकत, उसीप्रकार ब्रह्माके पुत्र अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य, तथा वामदेवादि और मुनि भी संपूर्ण आये॥५॥ विश्वपूजित ऐसे मुनियोंको आये देख राजा आदि जो प्रथम बैठे थे और पांडव अर्थात् राजा युधिष्ठिरादि तथा कृष्ण बलदेवने शीघ्र उठकर प्रणाम किया॥६॥ इसके उपरान्त इन मुनियोंका यथायोग्य सब जनोंने पूजन किया और बलदेवजी सहित भगवान् श्रीकृ

द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः॥ विश्वामित्रः शतानंदो भारद्वाजोऽथ गौतमः॥३॥ रामः सशिष्यो भगवान्वसिष्ठो गालवो भृगुः॥ पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च मार्कंडेयो वृहस्पतिः॥४॥ द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रस्तथांगिराः॥ अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे॥५॥ तान्दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः॥ पांडवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववंदितान्॥६॥ तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोचयत्॥ स्वागतासनपाद्यार्घ्यमाल्यधूपानुलेपनैः॥७॥ उवाच सुखमासीनान्भगवान्धर्मगुप्तनुः॥ सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुशृण्वतः॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम्॥ देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम्॥९॥ किं स्वल्पतपसां नॄणामर्चायां देवचक्षुषाम्॥दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्वपादार्चनादिकम्॥१०॥

ष्णचन्द्र ‘भले आये’ इस प्रकार मुनियोंसे कह आसन दे अर्घ्य, पुष्प, धूप, दीप और चन्दन इत्यादिसे पूजा करनेलगे॥७॥ चुपचाप हो संपूर्ण जिसमें बैठे ऐसी सभामें धर्म की रक्षा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सुखपूर्वक बैठे ब्राह्मणोंसे कहनेलगे॥८॥ श्रीभगवान् बोले कि, अहो! बडा आश्चर्य है, आज हम सफल जन्म हुए और सब जन्मका साफल्य हमको प्राप्त हुआ, क्योंकि जिनका दर्शन देवताओंको भी दुर्लभ है उन योगीश्वरोंका दर्शन हुआ॥९॥ केवल तीर्थस्नानादिकोंको तप जानै, प्रतिमाहीको देवतास्वरूप माने, आपसरीखे मनुष्योंका दर्शन, स्पर्शन व वार्त्तालाप प्रश्न, नमस्कार व चरणपूजा आदिकी प्राप्ति, कहाँ होसकती है? अर्थात् नहीं हो सकती॥१०॥

जलमय तीर्थ नहीं हैं, सो नहीं हैं, मृत्तिका शिलाओंके देवता नहीं हैं, सो नहीं हैं, क्योंकि जब बहुत दिनोंतक देवताओंकी पूजा करें; तब वह पवित्र करते हैं और साधु महात्मा लोग तो केवल दर्शनहीसे पवित्र कर देतेहैं॥११॥ अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, पृथ्वी, जल, आकाश, पवन, वाणी, मन यदि इनकी भली भाँतिसे उपासना कीजाय तो भेदबुद्धिके कर्त्ता होने से पुरुषके अज्ञानको दूर कर सकते हैं और विवेकी पुरुष तो केवल दो

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः॥ ते पुनंत्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥११॥ नाग्निर्न सूर्यो न च चंद्रतारका न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः॥ उपासिता भेदकृतो हरंत्यघं विपश्चितो घ्नंति मुहूर्त्तसेवया॥१२॥ यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः॥ यत्तीथबुद्धिः सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः॥१३॥ श्रीशुक उवाच॥ निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुंठमेधसः॥ वचो दुरन्वयं विप्रास्तूष्णीमासन्भ्रमद्धियः॥१४॥

घड़ी सेवा करतेही अज्ञानको दूर कर देतेहैं॥१२॥ जो पुरुष वात, पित्त, कफमय देहकोही आत्मारूप समझते हैं और स्त्री पुत्रादिकोंको ही अपना मानते हैं वा मूर्त्तिको ही पूज्य समझते हैं और जलही को तीर्थ जानते हैं, और विवेकीपुरुषोंको आत्मारूप अपने व पूज्य तीर्थ इत्यादि नहीं समझते वह गायका चारा ढोनेवाले बैल और गधेके समान हैं *॥१३॥ “यहाँ साधुओंकी महिमा दिखाने का तात्पर्य है मूर्त्ति तथा तीर्थका

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* शंका- श्रीकृष्णचन्द्रने ब्राह्मणोंसे कुरुक्षेत्रमें कहा कि, भौम जो प्रतिमा देवताओंकी होती है, उस प्रतिमामें जो प्राणी देवता मानते है कि, यह प्रतिमामें भगवान् बसे हैं यह प्राणी नहीं है, ऐसा मानने वाले प्राणी बैल वा गधा ही हैं, तथा जलमें तीर्थ मानते हैं कि, मैंने इस तीर्थमें स्नान किया मेरी मुक्ति होगी नहीं कभी मोक्ष न होगी वह बैलऔर गधाही होगा, मुझको यह वडा आश्चर्य है कि, भगवान्ने वेद और शास्त्र के विरुद्ध वचन क्यों कहे? प्रतिमाकी तथा गंगादिक तीर्थोंकी निंदा क्यों की? यह बडा भारी सन्देह है?

** उत्तर-** वेदमें और शास्त्रमें दो मार्ग हैं, एक कर्ममार्ग, दूसरा मोक्षमार्ग, संसारीजीवदोनों मार्गो का सेवन करते हैं, जो जीव कर्ममार्गका सेवन करता है जैसे गृहस्थादिक प्राणी प्रतिमा देवता को मानते हैं, तब सेवन करते हैं वह पुरुष प्रतिमामें देवताको जानते है, तथा प्रतिमाका पूजन करेंगे वा जलमें स्नान किये से मोक्ष होना मानेंगे तब निश्चयसे कर्म करनेवाले मनुष्यको गिनतीसे हीन सुख होगा और जो प्राणी प्रतिमाको देवस्वरूप और जलको मोक्षरूप मानेंगे तब वह प्राणी बैल गधा हैं, श्रीकृष्णने कर्ममार्ग सेवन करनेवाले जीवके लिये यह वचन नहीं कहा, जो जीव संसारके कर्म त्यागकर ईश्वरका भजन करता उसके लिये यह वचन कहा है, श्रीकृष्ण के वचनमें भ्रम नहीं है।

निषेध नहीं है और विशेष करके यह दिखाया है कि तीर्थको जानेमें बहुतेरा द्रव्य उठावे पूजामें घंटों बैठे, परन्तु महात्मा और हरिभक्तोंको देखते ही दुर्वाक्य कहे उन्हें अन्न तो क्या जल भी न दे, ऐसे भेद बुद्धिवालोंके लिये यह वाक्य है ज्ञानी पुरुष तो सबमें ही उसका प्रकाश देखते हैं, श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! इसप्रकार अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धिवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह वचन सुनकर चकित बुद्धि हो वह सब ब्राह्मण चुप होगये॥१४॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका कर्मोंमें अधिकार बहुत देरतक विचार करके समझा कि, लोकोंको शिक्षा देनेके कारण हमारी स्तुति करते हैं, इस प्रकार मुनीश्वर लोग बुद्धिसे निश्चयकर कुछेक मुसकाय जगद्गुरु श्रीकृष्णचन्द्रसे बोले॥१५॥ कि तत्त्वके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ हम और विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिक जिनकी मायासे मोहित हुए हैं, क्योंकि जिस मायासे आप मनुष्यलीला करनेको

चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम्॥ जनसंग्रह इत्यूचुः स्मयंतस्तं जगद्गुरुम्॥१५॥ यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः॥ यदीशितव्यायति गूढ ईहया अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितम्॥१६॥ अनीह एतद्बहुधैक आत्मना सृजत्यवत्यत्ति न बुध्यते यथा॥ भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी अहो विभूम्नश्चरितं विडंबनम्॥१७॥ अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च॥ स्वलीलया वेदपथं सनातनं वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान्॥१८॥ ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपः स्वाध्यायसंयमैः॥ यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तमव्यक्तं च ततः परम्॥१९॥

गूढ़ रहकर मुनीश्वरके समान चेष्टा करते हो इसलिये आपकी लीला बड़ी विचित्र है॥१६॥ चेष्टारहित और एक होकर भी तुम अपने आत्मासे इस विश्वको बहुत प्रकार पालन उत्पत्ति और रक्षा करते हो जैसे पृथ्वी घटादि विकारोंसे बहुत नाम की होती है, यदि तुम कहो कि, मैं कैसे उत्पत्ति पालन व संहार करता हूं मैं तो वसुदेवका पुत्र हूं? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, परिपूर्ण रूप तुमने वसुदेवके घर जन्म लिया है, यह विचित्र लीलामात्र है सत्य नहीं है॥१७॥ समयपर अपने भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये और दुष्टोंको दंड देनेके लिये आप शुद्ध सतोगुण रूपको धारण करते हो और अपनी लीलासे सनातन वेदमार्गको प्रवृत्त करते हो यद्यपि तुम किसीके पुत्र नहीं हो, परन्तु तो भी चारवर्ण और चार आश्रमके आत्मा परमपुरुष तुम हो, इसलिये ब्राह्मणोंका बहुत सत्कार करते हो॥१८॥ शुद्ध वेद तुम्हारा भीतरका रूप है; क्योंकि तप करना, वेद पढना, इन्द्रियोंको

रोकना इन कार्य और कारण दोनोंसे परे ब्रह्मकी प्राप्ति होती हैं॥१९॥ हे ब्रह्मन्! वेदके कारण आत्मा तुम हो और अपने बतानेवाले ब्रह्मकुलका पूजन करते हो और इसीलिये ब्राह्मणोंकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ हो॥२०॥ इसकारण ईश्वर होकर जो तुम हमारा सत्कार करते हो, सो पुरुषोंकी शिक्षा करनेके लिये है और हम तुम्हारे संगसे कृतार्थ हुए, साधुओंकी गति आपका संग हुआ, इसलिये हमारा जन्म, विद्या, तप, दृष्टि, यह संपूर्ण सफल हुए, क्योंकि तुम सब कल्याण की अवधि हो॥२१॥ अकुंठित बुद्धि और अपनी योगमायासे गूढमहिमा वाले परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको हम नमस्कार करते हैं॥२२॥ मायारूपी चित्रसे ढके, सृष्टि इत्यादिकोंके कारण ईश्वर आत्मा तुमको आपके साथ

तस्माद्ब्रह्मकुलं ब्रह्मञ्शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः॥ सभाजयसि सद्धाम तद्ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान्॥२०॥ अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः॥ त्वया संगम्य सद्गत्या यदंतः श्रेयसां परः॥२१॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ स्वयोगमायया च्छन्नमहिम्ने परमात्मने॥२२॥ न यं विदंत्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः॥ मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमीश्वरम्॥२३॥ यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक्॥ नाममात्रेंद्रियाभातं न वेद रहितं परम्॥२४॥ एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विंद्रियेहया॥ मायया विभ्रमच्च‍ित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात्॥२५॥ तस्याद्य ते ददृशिमांघ्रिमघौघमर्षतीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः॥ उत्सिक्तभक्त्युपहताशयजीवकोशा आपुर्भवद्गतिमथोऽनुगृहाण भक्तान्॥२६॥

एकही स्थानमें रहनेवाले यह यादव और राजा लोग नहीं जानते हैं॥२३॥ जैसे पुरुष स्वप्नावस्थामें मिथ्या पदार्थको सत्य मानता है मनसे सिंह व्याघ्रादि रूप आप बन जाता है और जाग्रत् अवस्थाके स्वरूप को नहीं जानता॥२४॥ उसीप्रकार स्वप्नादि तुल्य विषयपदार्थमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चलायमान चित्त पुरुष विवेकके नाशसे आपको नहीं जानता॥२५॥ पापों के समूहोंको दूर करनेवाले गंगारूपी तीर्थ जिसमें से प्रगट हुआ और दृढ़ योगवाले योगीजन भी जिनका केवल हृदयमें ध्यान करते हैं परन्तु तुम उनको भी दिखाई नहीं दिये और तुम्हारे चरणारविन्दों का हमने प्रत्यक्ष दर्शन किया, इसलिये हमें भक्ति करनेका अनुग्रह करो। यदि कहो कि, भक्ति करके क्या करोगे? पहलेके समान तप करजाओ

इसका उत्तर देते हैं कि, वृद्धिको प्राप्त हुई भक्तिसे जिनके लिंगशरीरका नाश होगया है, वही पुरुष तुम्हारे स्वरूपको प्राप्त हुए हैं और नहीं *॥२६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! इसप्रकार मुनीश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और राजा धृतराष्ट्र तथा युधिष्ठिरसे आज्ञा माँग अपने अपने आश्रमोंमें जाने की इच्छा करने लगे॥२७॥ तब महायशवान् वसुदेवजी उन मुनियोंको जाते देखकर उनके समीप आय सावधान

श्रीशुक उवाच॥ इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम्॥ राजर्षे स्वाश्रमान्गंतुं मुनयो दधिरे मनः॥२७॥ तद्वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः॥ प्रणम्य चोपसंगृह्य बभाषेदं सुयंत्रितः॥२८॥ वसुदेव उवाच॥ नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ॥ कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम्॥२९॥ नारद उवाच॥ नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया॥ कृष्णं मत्वाऽर्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः॥३०॥

होकर कहने लगे॥२८॥ वसुदेवजी बोले कि, संपूर्ण देवतारूप तुम हो सो आपको मैं वारम्वार प्रणाम करता हू, हे ऋषीश्वरो! मेरी एक आपसे प्रार्थना है, सो कृपा करके सुनिये, जिन कर्मोंके करनेसे कर्मों का नाश होता है, सो हमें बताओ?॥२९॥ श्रीकृष्णचन्द्रको छोड़कर हमसे कल्याण पूँछने आये हैं इस प्रकार आश्चर्य मान नारदजी बोले कि, हे ब्राह्मणो! जो वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को अपना पुत्र जाननेके कारण

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* दृष्टान्त - विना गुण जाने वस्तुकी महिमा प्रगट नहीं होती यहाँ एक महात्माने कृष्ण नामकी बहुत प्रशंसा करी कि, एकबार नाम लेनेसे अनेक पाप दूर होजाते हैं चेले बोले महाराज! फिर यह मनुष्य तो दिनरात नामका स्मरण करते हैं, यह क्यों दुःख पाते हैं? गुरुजी बोले महिमा नहीं जाननेसे यह दशा है, चेला मनमें संदेह करने लगा, तो बाबाजीने अपने पाससे एक अमूल्य रत्न दे चेले से कहा कुँजडीसे पूछ, इसका कितना शाक देगी, चेलेने जाकर पूछा, उसने सेरभर शाक देनेको कहा, फिर गुरुजीने सराफपर भेजा, उसने बीस रुपये कहे, फिर गुरुजीने जौहरीके पास भेजा, उसने करोड रुपये कहे फिर गुरुजीने सबसे बडे जौहरी के पास रत्न लेकर भेजा, तब उसने कहा, मेरे यहाँ असंख्य द्रव्य है, परन्तु यह तो इसके द्रव्यके व्याजमें है मेरे यहाँ इसका मूल्य देनेको द्रव्य नहीं, यह अमूल्य है, चले ने गुरुजीसे सब वृत्तान्त कहा, तब गुरुजी बोले इसीप्रकार कृष्ण नामकी महिमा है, जो जानते हैं, वह संसार सागरके पार हो जाते हैं और जो नहीं जानते वह कर्म भोगते हैं\।

अपना कल्याण हमसे पूछते हैं यह आश्चर्य नहीं है॥३०॥ क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रको बालक मानना अविद्यासे है इस संसारमें मनुष्योंके पास रहनेसे अनादर होता है, जैसे गंगातट का रहनेवाला पुरुष गंगाको छोड शुद्ध होनेके लिये और जलमें स्नान करनेको जाता है॥३१॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्रका ज्ञान किसी कारणसे भी नष्ट नहीं होता सोई कहते हैं जैसे कालसे कॉकरी फट जाती है और इस विश्वको उत्पन्न कर पालन और नाश करनेसे भी तुम्हारा ज्ञान नहीं जाता है और जैसे बिजली चमक कर बिलाय जाती है और जिसप्रकार गुणोंसे पूर्वरूपका नाश और रूपान्तर की प्राप्ति होती है उसी प्रकार नहीं जाय है॥३२॥ ऐसे जो कृष्ण अद्वितीय ईश्वर और अखण्डित ज्ञानस्वरूप हैं उन्हें और मनुष्य जैसे रविमण्डलको बालक राहु

सन्निकर्षोऽत्र मर्त्यानामनादरणकारणम्॥ गांगं हित्वा यथाऽन्यांभस्तत्रत्यो याति शुद्धये॥३१॥ यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनाऽस्य वै॥ स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति॥३२॥ तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहैरव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम्॥ प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः॥३३॥ अथोचुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानकदु्दुभिम्॥ सर्वेषां शृण्वतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः॥३४॥ कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधु निरूपितः॥ यच्छ्रद्धया यजेद्विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः॥३५॥ चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा॥ दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः॥३६॥ अयं स्वस्त्ययनः पंथा द्विजातेर्गृहमेधिनः॥ यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः॥३७॥

वा हिमसे आच्छादित माने, उसी प्रकार क्लेशकर्म सुख दुःख गुणोंका प्रवाह और अपने कार्यरूप प्राणादिकसे आच्छादित माने तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥३३॥हे राजन्! इसके उपरान्त वह मुनि सब राजा और श्रीकृष्ण बलदेवके सुनते वसुदेवजीको संबोधन देकर बोले॥३४॥ मुनि बोले कि, सब यज्ञोंके ईश्वर विष्णु भगवान् कायज्ञोंद्वारा श्रद्धासहित यजन करना यही सर्वोत्कृष्ट कर्मसे कर्म मिटाने का उपाय कहा है॥३५॥ पण्डितलोगोंने शास्त्ररूप नेत्रोंसे चित्तोपशम और मोक्षका उपाय व शनैःशनैः अंतःकरणको शुद्ध करनेवाला सुगम स्वधर्म भी यही दिखाया है॥३६॥ गृहस्थी, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको यही कल्याणका मार्ग है कि, निष्काम होकर प्राप्तहुए शुद्ध द्रव्यसे ईश्वरका पूजन करै, क्योंकि महात्मा पुरुषोंका ही

द्रव्य यज्ञादिकोंमें लगता है और लोभियोंका धन वृथा जाताहै॥३७॥ हे वसुदेवजी! बुद्धिमान् कोउचित है कि, धन के फलरूप यज्ञ और दान करके धनकी इच्छाका त्यागन कर घरके भोग भोगकर स्त्री पुत्रकी तृष्णा त्यागे और संसारको नाशवान् जानकर अपनी प्रतिष्ठा और स्वर्गादिक की कामना त्यागे *॥३८॥ ग्राममें चाहना त्यागकर समस्त वीरपुरुष तप करनेके लिये वनको गये, हे वसुदेवजी!ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,

वित्तेषणां यज्ञदानैर्गृहैर्दारसुतेषणाम्॥ आत्मलोकेषणां देव कालेन विसृजेद् बुधः॥३८॥ ग्रामे त्यक्तेषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम्॥ ऋणौस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितृणां प्रभो॥ यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन्पतेत्॥३९॥ त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते॥ यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ऋणोऽशरणो भव॥४०॥

देव, ऋषि, पितृ इन तीनों ऋणोंसे इस जन्ममें उद्धार हो यज्ञ करके देवताओं का ऋण और विद्या पढकर ऋषियोंका ऋण तथा पुत्र उत्पन्न करके पितरोंका ऋण चुकावै, इन ऋणोंके चुकाये विना जो कर्मोंका त्याग करै तो वह पुरुष नरक में गिरता है॥३९॥ हे मतिमान् वसुदेव! अब तुम दो ऋणों से तो छूट गये, विद्या पढे, इसलिये ऋषियोंके ऋणसे तो उद्धार होगये और पुत्र होनेके कारण पितरोंके ऋणसे उद्धार हो गये, अब यज्ञ

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* दृष्टान्त - एक पीपलसाह के छप्पन कोटि द्रव्य था परन्तु रहे बडे सूम, बेटे कहें पिताजी! गंगा पुष्कर स्नान करने को चलो पुण्य करो,वह कहें कि, पुण्य करनेसे कुछ नहीं होता है, और जो हम चलें तो पीछे घर चोर लूटकर ले जायँगे, रास्तेमें लुट जाओगे, बेटोंने कहा हम तो जायँगे, संतोंके दर्शन करेंगे वह बोले तुम मेरा घर लुटाने को फिरते हो, तब बेटे वोले हम भीख माँगते चले जायँगे, वह बोले तो नाम लेजाओंगे एक काम करो, गहना कपडा सब उतार धरो मैले कपडे पहरो उन्होंने वैसाही किया, सो इन्होंने भोजनमात्र खर्च दिया और कह दिया कि, पुण्य मत कीजो जल्दी आइयो वे सब स्त्री बालक गये पीछे इन्होंने गढा खोद सब गहना द्रव्य गाढ दिया जव वे स्नान कर आये, तब यह बोले तुम नहाने गये पीछे चोरी होगई, अबबनियेसे उधार लेकर खाते हैं, हमारे पास कुछ नहीं रहा ऐसा कह बाग में जा बैठे अब यह विलाप करने लगे कि, परमेश्वर भले स्नान करनेको गये भोजन से ही ठैरहे संंध्‍यासमयतक रोते रहे, उस समय महादेवजी शैरको आये, और इनको देखकर वोले कि, द्रव्य तो कोठेमें दव रहा है यह कह गये, उन्होंने झट गढा खोद सब धन निकाल लिया और बाँटनेलगे, पीछेसे पीपलसाह बोले अरे दुष्टो! जल्दी किवॉड खोलो नहीं तो इसी जगह अपना मस्तक, फोढकर मर जाऊंगा, इन्होंने किवाडखोलने में विलम्बकिया उन्होंने जाना, कि सब धन लूटगया सो शिर फोडकर मरगये।

करके देवताओंके ऋणसे उद्धार हो, गृहको त्याग संन्यास ग्रहण करो॥४०॥ और हे वसुदेवजी! तुमने बड़ी भक्तिसे जगत् केईश्वर हरि भगवान् कापूजन किया था, इसीलिये स्वयं भगवान् हरिने आनकर तुम्हारे यहाँ अवतार लिया॥४१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! उदारमन वसुदेवजी इसप्रकार ब्राह्मणोंका वचन सुन मस्तक नवाय नमस्कार कर उन ऋषियोंसे यज्ञ करनेवाले ऋत्त्विकजनोंका वर्णन करनेलगे॥४२॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्!धर्मसे वरणको प्राप्त हो, ऋषि महात्माओंने वसुदेवजीको कुरुक्षेत्रमें उत्तम सामग्रियोंसे यजन कराया॥४३॥ हे राजन्! जिस समय वसुदेवजीको यज्ञदीक्षा दीगई, उस समय कमलोंकी माला पहरे यादव स्नानकर शोभायमान वस्त्र धारण कर श्रृंगार किये हुए बहुतसे राजा

वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम्॥ जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वांपुत्रतां गतः॥४१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महात्मनाम्॥ तानृषीनृत्विजो वव्रेमूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च॥४२॥ त एनमृषयो राजन्वृता धर्मेण धार्मिकम्॥ तस्मिन्नयाजयन्क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः॥४३॥ तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः॥ स्नाताः सुवाससो राजन्राजानः सुष्ट्वलंकृताः॥४४॥ तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककंठ्यः सुवाससः॥ दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणयः॥४५॥ नेदुर्मृदंगपटहशंखभेर्यानकादयः॥ ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्टुवुः सूतमागधाः॥ जगुः सुकंठ्यो गंधर्व्यः संगीतं सहभर्तृकाः॥४६॥ तमभ्यषिंचन्विधिवदक्तमभ्यक्तमृत्विजः॥ पत्नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः॥४७॥ ताभिर्दुकूलवलयैर्हारनूपुरकुंडलैः॥ स्वलंकृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः॥४८॥

आये॥४४॥ और कंठमें धुकधुकी व सुन्दर वस्त्र पहरे केशर चंदन लगाये राजाओंकी स्त्रियें पूजाकी सामग्री हाथमें लिये यज्ञशालामें आईं॥४५॥ मृदंग, ढोल, शंख, भेरी, नगारे आदि बाजे बजने लगे नट और नृत्य करनेवाली नाचनेलगीं सूत तथा मागध स्तुति करनेलगे और स्वरीले कंठवाली गन्धर्व पत्नियें अपने पति सहित सुन्दर गीत गानेलगीं॥४६॥ नेत्रोंमें अंजन लगाये हुए, शरीर में मक्खन मले वसुदेवजीका विधिपूर्वक अठारह स्त्रियों सहित ऋत्विजोंने अभिषेक किया, जैसे तारागणों सहित चन्द्रमाका अभिषेक करते हैं॥४७॥ हे राजन्! उस समय

वस्त्र, कंकण, हार, नूपुर, कुंडल पहरे; स्त्रीसहित दीक्षा लिये, मृगछाला ओढे वसुदेवजी अत्यन्त शोभायमान लगने लगे॥४८॥ हे महाराज! रत्नोंके गहने और वस्त्र धारण किये वसुदेवजी यज्ञ करनेवाले तथा, सभामें बैठे पुरुषों सहित वृत्रासुरके मारनेवाले देवराज इन्द्रके समान शोभाको प्राप्त हुए॥४९॥ भगवान् कृष्ण बलदेवजी भी संपूर्ण जीवोंके ईश्वर अपने अपने बांधवोंको संग लिये और अपने अपने पुत्र स्त्रियों सहित अपने अपनेऐश्वर्यसे सुन्दर लगने लगे॥५०॥ यज्ञमें विधिपूर्वक अग्निहोत्रादि प्रकृति और विकृतिरूप यज्ञ अर्थात् समस्त अंगके ज्योतिष्टोम, दर्श पौर्णमास आदि यज्ञ और थोडा अंगवाले शौर्यसत्रादिक द्रव्य अर्थात् साकल्यमंत्र कर्मसे ईश्वर भगवान् कापूजन करने लगे॥५१॥ इसके उपरान्त वसुदेव

तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः॥ ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे॥४९॥ तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैःस्वैर्वैधुभिरन्वितौ॥ रेजतुः स्वसुतैर्दारैर्जीवेशौ स्वविभूतिभिः॥५०॥ ईजेऽनुयज्ञं विधिना ह्यग्निहोत्रादिलक्षणैः॥ प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम्॥५१॥ अथर्त्विग्भ्‍योयाऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः॥ स्वलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो गोभूकन्या महाधनाः॥५२॥ पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते महर्षयः॥ सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः॥५३॥ स्नातोऽलंकारवासांसि बंदिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः॥ ततः स्वलंकृतो वर्णानाश्वभ्योऽन्नेन पूजयत्॥५४॥ बंधून्सदारान्ससुतान्पारिबर्हेण भूयसा॥ विदर्भकोसलकुरून्काशिकेकयसृञ्जयान्॥५५॥

जीने समयपर आभूषणोंसे शोभायमान यज्ञ करनेवाले ऋषियोंको आभूषणोंसे शोभायमान कर गौ, पृथ्वी, कन्या और बडे धनकी बडी दक्षिणा वेदविधिसे दी॥५२॥ इसके उपरान्त पत्नीसंयाजावभृथ्य यज्ञांग कराकर बड़े ऋषि ब्राह्मणोंने यजमान वसुदेवजीको आगे कर रामह्रदमें स्नान कराया॥५३॥ स्नानकर वसुदेव और उसीप्रकार उनकी स्त्रीने बंदीजनोंको अपने अंगके आभूषण इत्यादि दिये इसके उपरान्त वसुदेवजीने और आभूषण पहर चारों वर्णोंका दान करके पूजन किया और जीवोंमें श्वानको भी अन्न दिया॥५४॥ इसके उपरान्त स्त्री पुत्रों सहित अपने बंधुओंकी बहुत द्रव्यसे पूजा की, फिर विदर्भ, कोसल, कुरु, कैकय, इन देशोंके राजा और सभासद् तथा यज्ञ

करनेवाले देवतागण, मनुष्य, भूत, पितर, चारण गणका पूजन किया और फिर सब राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको सम्बोधन दे, यज्ञकी प्रशंसा कर अपने अपने देशों के जाने की इच्छा करने लगे॥५५॥५६॥ इसके उपरान्त धृतराष्ट, विदुर, पृथाके पुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन भीष्म जी, द्रोणाचार्य, कुंती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासजी और सुत्दृद, उनसे तथा नाते गतिवाले बंधु यादव सबसे मिल, स्नेहकर खेदित चित्त विरहके कष्टसे अपने २देशों को चले गये और जो मनुष्य वहॉपर थे, वह भी अपने अपने देशों को चले गये॥५७॥५८॥ रामकृष्ण उग्रसेनादिक यादवोंसे बड़ी पूजा और सत्कार पाय गोप ग्वालोंसहित नंदरायजीने बन्धुबान्धवोंके निकट स्नेहके कारण कुछ दिनतक वहीं वास किया॥५९॥

सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान्॥ श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसंतः प्रययुः क्रतुम्॥५६॥ धृतराष्ट्रोनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ॥ नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्संबंधिबांधवाः॥५७॥ बंधून् परिष्वज्य यद्वन् सौहृदाऽऽक्लिन्नचेतसः॥ ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः॥५८॥ नंदस्तु सह गोपालैर्बृहत्या पूजयार्चितः॥ कृष्णरामोग्रसे नाद्यैर्न्यवात्सीद्बंधुवत्सलः॥५९॥ वसुदेवोंजसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम्॥ सुहृद्वृतः प्रीतमना नंदमाह करे स्पृशन्॥६०॥ वसुदेव उवाच॥ भ्रातरीशकृतः पाशो नृणां यः स्नेहसंज्ञितः॥ तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम्॥६१॥ अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताऽज्ञेषु सत्तमैः॥ मैत्र्यर्पिताऽफला वापि न निवर्तेत कर्हिचित्॥६२॥ प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि॥ अधुना श्रीमदांधाक्षा न पश्याम पुरः सतः॥६३॥

अनायास से मनोरथरूप महासागरको पार उतर प्रसन्नचित्त और सम्बन्धी लोगोंसे आवृत्त वसुदेवजी हाथ पकड़ नंदजीसे बोले॥६०॥ कि, हे भाई नंदजी! मनुष्यों को स्नेहरूपी फॉसी ईश्वरने रची है, इसकारण इसे शूरवीर बलसे और ज्ञानी ज्ञानसे भी नहीं काट सकते॥६१॥ तुमसे महात्माने जो अकृतज्ञ हमारे साथ मित्रता करी है, उसका पलटा हम किसी प्रकार नहीं दे सकते, तोभी वह सदा एकरूप बनी रहती है कभी निवृत्त नहीं होती॥६२॥ हे नंदरायजी!पहले तो हम असमर्थ थे, इसलिये तुम्हारा कुछ उपकार न कर सके और अब धनसे अंधेहोसम्मुख बैठे तुमसे

महात्माओं की ओरको देखते भी नहीं॥६३॥ हे मान देने वाले भाई नंदजी! कल्याणकी अभिलाषा करनेवाले मनुष्यको राजलक्ष्मी, चाहे न मिले, क्योंकि इससे अंधा होकर पुरुष अपने आश्रित तथा बंधुबांधवोंको भी नहीं देखता॥६४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित! इस प्रकार स्नेहसे शिथिलचित्त ऑसू नेत्रों में भरे वसुदेवजी नन्दजीकी मित्रताको स्मरणकर रोनेलगे॥६५॥ नन्दरायजी यादवोंसे मान पा कर अपने मित्र वसुदेवजी को प्रसन्न करते भगवान् कृष्ण बलदेवजीके प्रेमसे “आज कल, आज कल” करते तीन महीने तक वहीं रहे॥६६॥ इसके उपरान्त बड़े मोलके आभूषण रेशमीवस्त्र तथा अनेक प्रकारके बड़े मोलकी वस्तुसे व्रजवासियों सहित नंदरायजीको पूर्ण कर दिया॥६७॥

माराज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद॥स्वजनानुत बंधून् वा न पश्यति ययांधदृक्॥६४॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं सौहृदशैथिल्यचित्त आनकदुंदुभिः॥ रुरोद तत्कृतां मैत्री स्मरन्नश्रुविलोचनः॥६५॥ नंदस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविंदरामयोः॥ अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत्॥६६॥ ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबांधवः॥ पराद्धर्याभरणक्षौमनानानर्घ्यपरिच्छदैः॥६७॥ वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धववलादिभिः॥ दत्तमादाय पारिवर्हं यापितो यदुभिर्ययौ॥६८॥ नंदोगोपाश्च गोप्यश्च गोविंदचरणांबुजे॥ मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुमनीशा मथुरां ययुः॥६९॥ बंधुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः॥ वीक्ष्य प्रावृषमासन्नां ययुर्द्वारवतीं पुनः॥७०॥ जनेभ्यः कथयांचक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम्॥ यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्संदर्शनादिकम्॥७१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्ध तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥

और वसुदेव उग्रसेन तथा कृष्ण बलदेवादि यादवोंकी दी हुई प्रीति सहित सामग्रीको ग्रहण कर, जिस समय नंदरायजी विदा हुए, उस समय यादवोंने इनके संग एक बडीभारी सेना कर दी थी॥६८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दमें लगे मनको हटाने में असमर्थ नन्दरायजी व गोप गोपियें मथुराको चले॥६९॥ बंधु लोगोंके जानेपर श्रीकृष्णचन्द्र इष्टदेव माननेवाले यादव, वर्षाऋतु निकट आई देख, पीछे द्वारका को चले गये॥७०॥ और जाकर सब यादव वसुदेवजी का यज्ञ और कुरुक्षेत्रकी यात्रा में सुहृदों का मिलाप यह सब प्रजा से कहा॥७१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे दशमकन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां वसुदेवयज्ञसमाप्तिवर्णनो नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥

दोहा - विनय पचासीमें करी, कृष्ण और बलराम। मरे पुत्र मातहिदिये, पितुहि ज्ञान सुखधाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! कुरुक्षेत्रकी यात्रा करनेके उपरान्त एकसमय वसुदेवजी आय चरणोंमें प्रणाम और रामकृष्णकी प्रशंसा कर प्रीतिपूर्वक कहने लगे॥१॥ पुत्रोंके प्रभावको जाननेवाला जो मुनियोंका कहा वचन कि, तुम्हारे पुत्र परमेश्वर हैं, सुनकर श्रीकृष्ण बलदेवका पराक्रम देख विश्वासयुक्त वसुदेवजी संबोधन देकर बोले॥२॥ कि, हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे राम! हे महायोगिन्!हे संकर्षण!हे सनातन! इस विश्वके कारण प्रकृति पुरुषके भी कारण साक्षात् ईश्वर तुम हो, यह में जानताहॅू॥३॥ जिसमें, जिस साधनसे, जिससे, जिस कारणसे, जिसका, जिसके लिये, जिसको, जो,जैसे और जब यह संसार स्थित है और स्थित किया जाता है उस सब भोग्य और भोक्ताके नियंता साक्षात आपही हो॥४॥ हे अधोक्षज! आप जो

श्रीबादरायणिरुवाच॥ अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवंदनौ॥ वसुदेवोऽभिनंद्याह प्रीत्या संकर्षणाच्युतौ॥१॥ मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्॥ तद्वीर्यैर्जातविश्रंभः परिभाष्याभ्यभाषत॥२॥ कृष्ण कृष्ण महायोगिन् संकर्षण सनातन॥ जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ॥३॥ यत्र येन यता यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा॥ स्यादिदं भगवान्साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः॥४॥ एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज॥ आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यजः॥५॥ प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः॥ पारतंत्र्याद्वै सादृश्याद्द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम्॥६॥

अजन्मा हो, वे अपने रचेहुए इस अनेक प्रकारके जगत् में अपने रूपसे प्रवेश कर क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिरूप होकर उसका पोषण और भरण करते हो॥५॥ पृथक् पृथक् शक्तिवाले प्राणादिक इस विश्वके कारण जानने में न आवैंपरमेश्वरको कारण रूपसे सर्वरूप कैसे कहते हो, यह शंका जब हुई तो उसका समाधान यह है कि, प्राणादिकोंमें जो शक्ति है सो ईश्वरके करनेवाले प्राण आदि तत्त्वमें जो शक्ति है सो परमकारण ईश्वरकी ही है, क्योंकि प्राणादिक ईश्वर के आधीनहैं और जैसे तीरमें वेधनेकी स्वतंत्र शक्ति नहीं है किन्तु पुरुषकी शक्तिसे वेधता है, उसी प्रकार प्राणादिकोंमें ईश्वरकी शक्ति है, प्राणादिक जड़है, और ईश्वर चैतन्य है और जड़पदार्थको चैतन्यकी आधीनता योग्य है, वहाँ कहते हैं कि, प्राणादिकोंमें शक्ति

नहीं है तो क्रिया कैसे करते हैं, उसका उत्तर यह है कि, चेष्टा करनेवाले प्राणादिक की चेष्टा यहाँ कुछ शक्ति नहीं है, जैसे पवनकी शक्ति से तृण हिलते हैं, उसी प्रकार क्रिया करते हैं॥६॥ चन्द्रमा की कान्ति, अग्निका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र, व बिजलियोंकी स्फुरसत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता और पृथ्वीकी आधारता तथा गंध यह संपूर्ण तुम्हारी ही शक्तियें हैं॥७॥ हे देव! जल उसकी तृप्ति करने की शक्ति जीवित करने की शक्ति व उसका रस यह सब तुम्हीं हो हे ईश्वर! वायुके जो ओज, सह, बल, चेष्टा और गति हें यह सब तुम्हारे ही रूप हैं॥८॥ दिशाओंमें जो खालीपन और दिशाएँ समस्त तुम्हारे ही रूप हैं और आकाश तथा आकाशमें शब्द रूप गुण सब तुम्हारेही रूप हैं, वाणी ॐकार और नामरूप कहने में न आवै सो सब तुम्हीं हो॥९॥ नेत्रोंमें दर्शनशक्ति और कानोंमें श्रवणशक्ति तथा जिह्वामें रसकी ग्रहणशक्ति इत्यादिक इन्द्रियोंमें विषयोंके ग्रहण करनेकी शक्ति तुम्हीं हो और

कांतिस्तेजः प्रभा सत्ता चंद्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्॥ यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गंधोऽर्थतो भवान्॥७॥ तर्पणं प्राणनमपां देवत्वं ताश्च तद्रसः॥ ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर॥८॥ दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः॥ नादो वर्णस्त्वमोंकार आकृतीनां पृथक्कृतिः॥९॥ इंद्रियं त्विंद्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः॥ अवबोधो भवान् बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती॥१०॥ भूतानामसि भूतादिरिंद्रियाणां च तैजसः॥ वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनाम्॥११॥ नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्॥ यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम्॥१२॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः॥ त्वय्यद्धाब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया॥१३॥

इन्द्रियोंकी अधिष्ठात्री देवता तुम्हीं हो देवता इन्द्रियोंको प्रेरणा करते हैं, यह तुम्हारी ही शक्ति है, बुद्धिमें निश्चय करनेकी शक्ति तुम्हींहो और जीवोंको श्रेष्ठवार्त्ताजो स्मरण रहती है, यह तुम्हारी ही शक्ति है॥१०॥ पंचभूतका कारण तामसाहंकार, इन्द्रियोंके देवताओंका कारण सात्त्विकाहंकार, इन्द्रियों का कारण राजसाहंकार और जीवोंके संसारका कारण प्रधान यह सब तुम्हीं हो॥११॥ नाशवान् पदार्थमें जो शेष रहे अर्थात् जिसका नाश न हो सो तुम्हींहो, जैसे मृत्तिका, सुवर्णके बने घड़े;मूँदरी, कड़े इत्यादि सब नाशवान हैं, मृत्तिका सुवर्णका नाश नहीं होता॥१२॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्ति साक्षात् परब्रह्म में योगमायासे कल्पित है॥१३॥

इसीकारण यह पदार्थ आपसे अलग नहीं हैं, जब यह पदार्थ कल्पना किये जाते हैं तभी प्रतीतिमात्रसे आपमें हैं और आप कारणता से उनमें अनुगत हो और जब कल्पना नहीं किये जाते, तब निर्विकल्प आप ही अवशेष रहते हो॥१४॥ यह जो गुणोंका प्रवाहरूप संसार है, उसमें सबके आत्मा तुम्हारी संसारसे अलग गतिको नहीं जाननेवाले अज्ञानी पुरुष देहमें अभिमानसे करे कर्मसे इस संसारमें जन्मे हो॥१५॥ हे ईश्वर!शोभायमान हाथ, पाँव, नाक, कान, सब इंद्रिययुक्त बहुत दुर्लभ देहको इस संसारमें कोई एक पुण्यके फलसे पाकर स्वार्थमें भूलकर मैंने अपनी अवस्थामेंतुम्हारी मायासे वृथाही गॅवाई॥१६॥ में ब्राह्मण हूं, क्षत्रिय हूं, इसप्रकार देह में अभिमान और इस देहके संबंधी स्त्री पुत्रादिक

तस्मान्न संत्यमी भावा यर्हित्वयि विकल्पिताः॥ त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदाऽव्यावहारिकः॥१४॥ गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः॥ गतिं सूक्ष्मावबोधेन संसरतीह कर्मभिः॥१५॥ यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्॥ स्वार्थेप्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर॥१६॥ असावहं ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु॥ स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत्॥१७॥ युवां न नः सुतौ साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरौ॥ भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह॥१८॥ तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविंदमापन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो॥ एतावताऽलमलमिंद्रियलालसेन मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः॥१९॥ सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ संजज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै॥ नानातनूर्गनवदधज्जहासि को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम्॥२०॥

मेरे हैं इस अभिमान से स्नेहके रस्सोंमें यह जगत् तुमने बाँध रक्खाहै॥१७॥ हम तुम्हारे पुत्र हैं तुम क्यों हमारी स्तुति करते हो, उसके उत्तर में वसुदेवजी कहते हैं कि, तुम हमारे पुत्र नहीं हो, किन्तु प्रधानपुरुष ईश्वर हो, और पृथ्वीके भाररूप क्षत्रियोंका नाश करनेको आपने अवतार धारण किया है, क्योंकि आप ऐसे ही हैं॥१८॥ हे दीनबंधो! शरण प्राप्त हुए पुरुषके संसारभयको दूर करनेवाले! मैं तुम्हारे चरणारविन्दकीशरण में प्राप्त हुआ हूं “तुम तो बड़े सुखी हो वृथा क्यों खेद करते हो ऐसे जो कदाचित् श्रीकृष्ण कहै” इसके उत्तरमें वसुदेवजी कहतेहैं कि, विषयकी लालसा इतनी ही है कि, मरणधर्मा शरीरको आत्मा माना और तुम परमेश्वरको पुत्र माना॥१९॥ तुमने सूतिकागृह में ही हमसे कहा था, कि

“जब तुम सुतपा और पृश्नि व कश्यपजी, अदिति रूप दंपती हुए, तब और अभी वसुदेवजी देवकी रूप दंपती दो में अजन्मा प्रथम निजधर्मकी रक्षा के लिये आपसे प्रगट हुआ, और अब भी प्रगट हुआ हूं” आप असंग रहकर भी अनेक अवतार धारण करते हो और छोड़ते हैसर्वव्यापक आपकी विभूति रूप मायाको कौन जान सकताहै?॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! यादवोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने इसप्रकार पिताके वचन सुन अधीनतापूर्वक नम्र हो मनोहर वाणी से कहा॥२१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे पितः! हम पुत्रोंके विषयमें आपने जो तत्त्वसमूहों का भलीभाँति निरूपण किया सो तुम्हारे वचनको हम यथार्थ मानते हैं॥२२॥यदुश्रेष्ठपितः!तुम और बडे भ्राता वलदेवजी तथा सब द्वारका

श्रीशुक उवाच॥ आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः॥ प्रत्याह प्रश्रयाऽऽनम्रः प्रहसञ्चक्ष्णया गिरा॥२१॥ श्रीभगवानुवाच॥ वचो वः समवेतार्थं तातेतदुषमन्महे॥ यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः॥२२॥ अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः॥ सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृश्याः सचराचरम्॥२३॥ आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः॥ आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भृतेषु बहुधेयते॥२४॥ खं वायुज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्॥ आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानालं यात्यसावपि॥२५॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः॥ श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत्॥२६॥ अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता॥ श्रुत्वाऽऽनीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता॥२७॥

वासी यादव और स्थावर जंगम जगत्‌को ब्रह्मरूप जानो॥२३॥ यहाँ एक शंका है, नाना विकारवान् कोब्रह्मरूपता कैसे बने? इसके उत्तर में कहते हैं कि, आत्मा एक स्वयंप्रकाश नित्य सबसे पृथक निर्गुण है, अपने रचे सत्त्वगुण रजोगण तमोगुणसे उत्पन्न देहमें बहुत प्रकार प्रतीत हो फिर जैसी देह उसमें वैसाही प्रतीत होता है जैसे आकाश, पवन, ज्योति, जल, पृथ्वी यह पंचभूत घट पटादि पदार्थों में कहीं प्रगट कही अंतर्द्धान कहीं थोडे कहीं बहुत प्रतीत होय हैं ऐसे एक आत्मा ब्रह्मस्वरूप अनेक रूपसे प्रतीत होता है॥२४॥२५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्!इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका कहा वचन सुन भेदभाव त्याग प्रसन्नमन हो वसुदेवजी चुप हो गये॥२६॥हे कुरुश्रेष्ठ!फिर अपने

पुत्र, गुरुपुत्रको पीछे ले आये, यह वृत्तान्त सुन अत्यन्त आश्चर्य मान, कंसके मारे पुत्रोंकी सुधि करके सब जगत् कीदेवतारूप देवकी व्याकुल हो नेत्रोंमें ऑशू भर श्रीकृष्ण बलदेवको बतलाकर इसप्रकार दीन वचन कहने लगी॥२७॥२८॥ देवकी बोली कि, हे राम! हे राम! हे अप्रमेय आत्मन्! हे कृष्ण! हे योगेश्वरोंके ईश्वर! आप विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिकोंके ईश्वर! और आदिपुरुष हो तुमको मैं जानती हूँ॥२९॥ कालसे सत्त्वगुणका नाश होनेपर शास्त्रकी मर्यादा त्यागने वाले पृथ्वीपर भाररूप राजाओंका नाश करनेके लिये तुम मेरे यहाॅ आनकर प्रगट हुए हो॥३०॥ हे सबके कारण!हे विश्वके आत्मा! तुम्हारा अंश पुरुष है, उसकी अंश माया, उस मायाके अंश सत्त्व, रज, तम, इन तीनों गुणोंके परमाणु

कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्॥ स्मरंती कृषणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना॥२८॥ देवक्युवाच॥ राम रामाप्रमेयात्मकृष्ण योगेश्वरेश्वर॥ वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपुरुषौ॥२९॥ कालविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञा मुच्छास्त्रवर्तिनाम्॥ भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे॥३०॥ यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः॥ भवंति किल विश्वात्मस्तं त्वाऽद्याहं गतिं गता॥३१॥ चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ॥ आनिन्यथुः पितृ स्थानाद्वरवे गुरुदक्षिणाम्॥३२॥ तथा मे कुरु तं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ॥ भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान्॥३३॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं संचोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत॥ सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ॥३४॥

मात्रलेशसे इस विश्वकी उत्पत्ति पालन और प्रलय होती है, ऐसे तुम हो, सो मैं तुम्हारी शरण आई हूं॥३१॥ हे योगेश्वर!चिरकालसे मरे हुये पुत्रको लाने के लिये गुरुने आज्ञा की, तब तुमने यमराजके लोकमेंसे उस पुत्रको लाकर गुरुको गुरुदक्षिणारूप अर्पण किया, उसी प्रकार मेरी कामना भी पूर्ण करो अर्थात कंसके मारे हुए पुत्रों को मैं यहाँ लायेहुए देखना चाहती हूं॥३२॥३३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्!जब माता देवकीने इसप्रकार कहा, तब राम कृष्ण योगमाया का आश्रय ले सुतल लोकमें गये॥३४॥

वहाँ दैत्यराज बलिने विश्वके आत्मा देवता अपने इष्टदेव कृष्ण बलदेवको सुतल लोकमें आया देख और उनके दर्शनसे आनन्द हो, परिपूर्ण अंतःकरण से परिवार सहित शीघ्र उठकर नमस्कार किया॥३९॥ और प्रीतिसहित आसन लाकर उन महात्माओंको आसन पर बैठाया फिर चरण पखार ब्रह्म पर्यन्त जगत् कोपावन करने वाला जल, दैत्यराज बलिने और उसके परिवार ने अपने मस्तकपर चढ़ाया॥३६॥उत्तम वस्त्र आभूषण, लेपन, तांबूल, दीप और अमृतसे भोजन आदि अनेक वैभवसे उनकी पूजाकी और अपना तन, धन, कुटुम्ब सब अर्पण किया॥३७॥ हे नृप!राजा बलि भगवान् के चरणारविन्दको बारम्बार मस्तकपर घर प्रेमसे द्रवीभूतहुई बुद्धिसे आनन्द के आँशु नेत्रोंमें भरे पुलकितशरीर हो

तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराट् विश्वात्मदेवं सुतरां तथात्मनः॥ तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः॥३५॥ तयोः समानीय वरासनं मुदा निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः॥ दधार पादाववनिज्य तज्जलं सवृंद आब्रह्म पुनद्यदंबु ह॥३६॥ समर्हयामास स तौ विभृतिभिर्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः॥ तांबूलदीपामृतभक्षणादिभिः स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च॥३७॥ स इंद्रसेनो भगवत्पदांबुजं विभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया॥ उवाच हाऽऽनंद जलाकुलेक्षणः प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम्॥३८॥ बलिरुवाच॥ नमोऽनंताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे॥ सांख्ययो गवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने॥३९॥ दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्॥ रजस्तमःस्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया॥४०॥ दैत्यदानवगंधर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः॥ यक्षरक्षः पिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः॥४१॥

इस प्रकार कहने लगे॥३८॥राजा बलि बोले कि, समस्त विश्व फणके ऊपर धारण करनेवाले शेषरूप तुमको प्रणाम है और सब जगत् केरचने वाले तुमको नमस्कार है, सांख्यशास्त्र योगशास्त्र के विस्तार करनेवाले ब्रह्म परमात्मा तुमको नमस्कार है॥३९॥ योगीश्वरोंकोभी तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है सो हमको हुआ, यह आश्चर्य नहीं है, यद्यपि प्राणियों को तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है, परन्तु तो भी तुम्हारी कृपा से किसी किसीको सुलभ हो जाताहै, इसलिये रजोगुणी, तमोगुणी स्वभाववाले हम असुरोंको अकस्मात् आपने दर्शन दिया॥४०॥ बडा आश्चर्य है, हम शत्रु सत्त्व

गुणी भक्तोंसे भी बडभागी हैं, दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच भूत और प्रमथोंमें मुख्य हैं॥४१॥ हम और हमसे दूसरे लोगोंने शास्त्रकी रक्षा करनेवाले सत्त्वगुणी स्वभाव तुमसे नित्य शत्रुता कररक्खी है, उन्हें भी आपका दर्शन प्राप्त होजाता है॥४२॥ कोई एक (शिशुपालादि) वैर भक्तिसे तुमको जैसे पागये, और गोपी आदिकोंने काम भक्तिसे जैसे तुम्हें पाया उसी सत्त्वगुणसे देवता तुमको प्राप्त हुये॥४३॥ हे योगेश्वरोंके ईश्वर! इसप्रकार तुम्हारी योगमायाको जब योगेश्वर भी नहीं जानते, तो हम असुर क्या जान सकते हैं?॥४४॥ इसलिये हमपर आप ऐसी दया करो कि, जिससे निष्काम पुरुषोंके ढूंढने योग्य तुम्हारे चरणारविन्दका आश्रय ले चरणारविन्दसे अलग घर रूप कुऍसे निक

विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि॥ नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः॥४२॥ केचनोद्वद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः॥ न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः॥४३॥ इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर॥ न विदंत्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम्॥४४॥ तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्पादारविन्दधिषणान्यगृहांधकू पात्॥ निष्क्रम्य विश्वशरणांघ्र्युपलब्धवृत्तिः शांतो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि॥४५॥ शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो॥ पुमान्यच्छद्धया तिष्ठञ्चोदनाया विमुच्यते॥४६॥ श्रीभगवानुवाच॥ आसन्मरीचेः षट् पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेंऽतरे॥ देवाः कं जहमुर्वीक्ष्य सुतां यभितुमुद्यतम्॥४७॥ तेनासुरीमगन्योनिमधुनाऽवद्य कर्मणा॥ हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया॥४८॥

लकर विश्वकी रक्षा करनेवाले वृक्षकी जड़ोंमें आपहीसे गिरे फल फूलको भोजन कर मैं शान्त चित्त होकर अकेला विचरूं, अथवा सबके सहाय करनेवाले महात्मा पुरुषोंके संग विचरूं॥४५॥ हे प्रभो! सब जीवोंके स्वामी! हमें शिक्षा देकर पापरहित निष्पाप करो, कि जिस शिक्षाको श्रद्धापूर्वक पालनेसे पुरुषोंके विधिनिषेधरूप बन्धन छूट जाते हैं॥४६॥ श्रीभगवान् बोले कि, इस स्वायंभुव मन्वन्तरमें मरीचि प्रजापतिके ऊर्णा स्त्रीमें छः पुत्र हुये एक समय देवतारूप छहों पुत्र अपनी कन्याके पीछे भाजे और ब्रह्माजीको देखकर हॅसे॥४७॥ इस पापकर्मसे असुरयोनिको प्राप्त हुये, फिर उन्होंने हिरण्यकशिपुसे जन्म लिया, सोई छहोंने हिरण्यकश्यपके यहाँसे योगमायाके प्रेरे॥४८॥

देवकीके उदरमें जन्म लिया, जो कंसके हाथसे मारेगये, सो अब वह तुम्हारे पास हैं, इन्हें देवकी अपने पुत्र मानकर शोच करती है॥४९॥ माता देवकीका शोक दूर करनेके लिये यहाँसे इन छहों पुत्रोंको लेजायँगे इसके उपरान्त शापसे छूट खेद रहित होकर यह देवलोकमें जायँगे॥५०॥ स्म^(१)र उद्गीथ^(२), परिष्वं^(३)ग, पतंग^(४), क्षुद्रभुक्^(५) और घृणी ये जो छः पुत्र हैं, सो मेरे प्रसादसे मुक्त होजायँगे॥५१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! इसप्रकार जब कहा तब राजा बलिसे पूजित हो, श्रीकृष्ण बलदेव उन पुत्रोंको संगले, द्वारकापुरीमें आय माता देवकीको देदिये॥५२॥ पुत्रोंके स्नेहसे स्तनोंमें दूध चुवै, ऐसी

देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः॥ सा ताञ्छोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेंऽतिके॥४९॥ इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये॥ ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यंति विज्वराः॥५०॥ स्मरोद्गीथः परिष्वंगः पतंगः क्षुद्रभृद् वृणी॥ षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यति सद्गतिम्॥५१॥ इत्युक्त्वा तान्समादाय इंद्रसेनेन पूजितौ॥ पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम्॥५२॥ तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी॥ परिष्वज्यांकमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः॥५३॥ अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिप्लुता॥ मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते॥५४॥ पीत्वाऽमृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः॥ नारायणांगसंस्पर्शप्रतिलब्धात्मदर्शनाः॥५५॥ ते नमस्कृत्य गोविंदं देवकीं पितरं बलम्॥ मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम्॥५६॥

देवकी उन बालकोंको देख गोदमें बैठाय छातीसे लगाय बारम्बार माथा सूॅघनेलगी॥५३॥ सृष्टिको उत्पन्न करनेवाली विष्णु भगवान्‌की मायासे मोहित और पुत्रोंको छातीसे लगानेके कारण मग्न देवकी प्रसन्न होकर पुत्रोंको स्तन पिलाने लगी॥५४॥ गदाके धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके पीनेसे बचा अर्थात् भगवान्का प्रसाद वह अमृतरूप देवकीका दुग्ध पानकर और श्रीकृष्णके अंग स्पर्श करनेसे “हम देवता हैं” यह ज्ञान होनेसे वह देवता गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र और देवकी तथा वसुदेवजीको नमस्कारकर सब प्राणियोंके देखते देवताओंके धाम देवलोकमें चलेगये *॥५५॥५६ ॥

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* शंका— देवकीके सब बालकोंको श्रीकृष्णने लादिया, तब वह सब बालक देवकीके स्तनका दूध पीने लगे, श्रीमद्भागवतमें लिखाहै कि, कैसा देवकीके स्तनोंका दूध था जिसको बालक पीरहथे, पहिले तो भगवान्ने देवकीके स्तनोंका दूध पियाथा, जो दूध शेष रहाथा उसको देवकीके और बालकोंने पिया अब यहाँ मुझको यह सन्देह है कि, श्रीकृष्ण तो जन्मलेतेही गोकुलको चलेगये देवकीका दूध नहीं पिया फिर व्यासजी क्यों कहते हैं, देवकीके स्तनोंका दूध भगवान्ने पिया, और जो बाकी रहा उसको और पुत्रोंने पिया ?॥

हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित् ! मरेहुये पुत्रोंका आगमन और फिर गमन देखकर विस्मित देवकीने जानलिया कि, यह सब श्रीकृष्णचन्द्रकी रची हुई माया है॥५७॥ अनंतशक्ति परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे ऐसे आश्चर्ययुक्त अनंत चरित्र हैं॥५८॥ सूतजी बोले कि, हे शौनका दिक ऋषीश्वरो! व्यासनंदन महात्मा शुकदेवजीके कहेहुए और सब जगत्के पापोंके दूर करनेवाले, भक्तोके कानोंको आनन्ददायक अमृतरूपी कीर्त्ति मुरारी भगवान्के चरित्रोंको भगवान्में चित्त लगाकर जो पुरुष श्रवण करे अथवा श्रवण करावे, वह पुरुष काल और मायासे रहित भगवान्के

तद्दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्॥ मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप॥५७॥ एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः॥ वीर्याण्यनंतवीर्यस्य संत्यनंतानि भारत॥५८॥ सूत उवाच॥ य इदमनु शृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः॥ जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे मृताग्रजानयनं नाम पंचाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ राजोवाच॥ ब्रह्मन्वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः॥ यथोपयेमे विजयो या ममासीत्पितामही॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नवनीं प्रभुः॥ गतः प्रभासमशृणोन्मातुलेयीं स आत्मनः॥२॥

परमधामको प्राप्त होताहै॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां मृताग्रजानयनं नाम पंचाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ दोहा— हरण सुभद्राको कियो, छ्यासी अर्जुन धीर॥ कियो सुखी श्रुतदेवको, अरु द्विजको यदुवीर॥८६॥ राजा परीक्षित् पूंछने लगे कि हे योगीश्वर श्रीशुकदेवजी! बलराम और श्रीकृष्णचन्द्रकी भगिनी सुभद्रा जो मेरी दादी थी उसके संग अर्जुनने जिसप्रकार विवाह किया, सो मेरी सुननेकी इच्छा है॥१॥ यह प्रश्न सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित्! एक समय सामर्थ्यवान् अर्जुन तीर्थयात्रा करनेके लिये

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उत्तर— शास्त्रमें लोकमें तीन प्रकारका कर्म वर्णन होता है, एक वचनसे कर्म होताहै, दूसरा मनसे कर्म होताहै, तीसरा शरीरसे कर्म होताहै, इन तीनों कर्मोंमें कोई कर्म छोटा नहीं है, अरु कोई कर्म बढा भी नहीं है यह तीनों कर्म समान हैं देवकीके दूधको भगवान् सदा मनसे पीतेरहे, जो मनसे दूध पिया तो वचन तथा शरीरसे दूधका पीना सत्य होगया, इसलिये व्यासजीने देवकीके दूधको कहा॥

पृथ्वीपर भ्रमण करता करता प्रभासतीर्थमें पहुँचा॥२॥ वहाँ जाय अपने मामाकी पुत्री सुभद्रा बलदेवजी दुर्योधनको व्याह देंगे और वसुदेवा दिकोंकी इसमें सम्मति नहीं है, यह बात सुन उस सुभद्राके लेनेकी इच्छासे अर्जुन संन्यासी बन तीन दंड धारणकर द्वारकापुरीमें आया॥३॥ अपने कार्यको सिद्ध करनेकी इच्छासे अर्जुनने चार महीने वर्षाऋतुके द्वारकापुरीमें बिताये, पर वहाँके मनुष्योंको और बलरामजीको भी इस छलकी खबर न हुई, इस कारण वह उसका नित्यप्रति सन्मान करते थे॥४॥ एक दिन संन्यासीभावसे अर्जुनका निमंत्रणकर घरमें बुला श्रद्धा पूर्वक बलदेवजीने जो भोजन परोसा सो अर्जुनने भोजन किया॥५॥ वहाँ शूरवीरोंके मनको हरनेवाली एक अत्यन्त सुन्दर कन्या अर्जुनने

दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे॥ तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदंडी द्वारकामगात्॥३॥ तत्र वै वार्षिकान्मा सानवात्सीत्स्वार्थसाधकः॥ पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः॥४॥ एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमंत्र्य तम्॥ श्रद्धयोपाहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल॥५॥ सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम्॥ प्रीत्युत्फुल्ले क्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे॥६॥ सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम्॥ हसंती व्रीडितापांगी तन्न्य स्तहृदयेक्षणा॥७॥ तां परं समनुध्यायन्नंतरं प्रेप्सुरर्जुनः॥ न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा॥८॥ महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गताम्॥ जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः॥९॥ रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चाऽऽरुंधतो भटान्॥ विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव॥१०॥

देखी, जिसपर दृष्टि पड़तेही उसके नेत्र प्रीतिसे प्रफुल्लित होगये और रतिके अभिप्रायसे चलायमान मन सुभद्रामें लगगया॥६॥ स्त्रियोंका मन हरनेवाले अर्जुनको देख सुभद्राने भी अपना मन अर्जुनमें लगाया और लाजभरे नेत्रोंसे कटाक्षसहित उसकी ओर देखनेलगी॥७॥ बड़े बलवान् कामदेवसे चलायमान चित्त अर्जुनने केवल सुभद्राका ध्यान और हरण करनेका अवसर देखते बलदेवजीके किये सन्मानसे कुछ सुख नहीं पाया॥८॥ इसके उपरान्त बडी देवीकी यात्रामें रथमें बैठकर निकली सुभद्राको माता, पिता, देवकी, वसुदेव, और श्रीकृष्णकी सम्मतिसे महारथी अर्जुनने हरण किया॥९॥ रथमें बैठ धनुष हाथमें ले अर्जुन चारों ओरसे रोंके प्यादोंको भजाय उनके पुकारतेही जैसे सिंह अपने भागको ले

जाताहै, उसी प्रकार लेगया ॥ १० ॥ अर्जुन सुभद्राको लेगया, यह बात श्रवणकर जैसे पूर्णमासीको समुद्र उमडता है, उसीप्रकार क्रोधितहुए बल

देवजीको सुहृदों सहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने शान्त किया॥११॥ फिर बलदेवजीने अति आनन्दपूर्वक दहेजमें उन दूलह दुलहनके लिये अमूल्य सामान, हाथी, घोडे, रथ, दास, और दासियें आदि भेजे॥१२॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि हे महाराज परीक्षित् ! श्रीकृष्णचन्द्रकी एक भक्तिसे पूर्णमनोरथ, शान्तस्वभाव विवेकी विषयोमें अनासक्त एक श्रुतदेव नाम प्रसिद्ध ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका भक्त था॥१३॥ विना उपाय करे मिले भोजनहीसे निर्वाह करके अपने कर्मोंको करे, ऐसे गृहस्थी ब्राह्मण विदेहदेशकी मिथिलापुरीमें वास करता था॥१४॥ जितनेमें शरीरका

तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीत महार्णवः॥ गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद्भिश्चान्वशाम्यत॥११॥ प्राहिणोत्परिवर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः॥ महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषितः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ कृष्णस्यासीद्द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः॥ कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शांतः कविरलंपटः॥१३॥ स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी॥ अनी हयाऽऽगताऽऽहार्यनिर्वर्तितनिजक्रियः॥१४॥ यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत॥ नाधिकं तावता तुष्टः क्रियाश्चक्रे यथोचिताः॥१५॥ तथा तद्राष्ट्रपालोंऽग बहुलाश्व इति श्रुतः॥ मैथिलो निरहंमान उभावप्यच्युतप्रियौ॥१६॥ तयोः प्रसन्नो भगवान्दारुकेणाहृतं रथम्॥ आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान्प्रययौ प्रभुः॥१७॥ नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः॥ अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः॥१८॥

निर्वाह हो, उतना भोजन प्रतिदिन अकस्मात् उसके लिये आजाता था, और अधिक नहीं, परन्तु उतनेहीमें संतोष करके यथायोग्य संध्योपासनादि कर्म करता था॥१५॥ हे परीक्षित्! जैसा श्रुतदेव ब्राह्मण भक्त था, उसी प्रकार मिथिलादेशका पालन करनेवाला जनकके वंशमें हुआ निरभिमान बहुलाश्व नामसे विख्यात राजा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका भक्त था, ब्राह्मण और राजा यह दोनों श्रीकृष्णचन्द्रके प्यारे हैं॥१६॥ उन दोनों भक्तोंके ऊपर प्रसन्न हुए सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रथवान्के लाये रथमें बैठ मुनियोंको संगले विदेह देशको चलेगये॥१७॥ तब नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यासजी, परशुराम, असित, अरुणि मैं (शुकदेवजी) बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय और च्यवन, आदि ऋषि भी संगगये थे॥१८॥

हे राजन्! मार्गमें मुनियोंको संगलिये श्रीकृष्णचन्द्र जहाँ जहाँ गये तहाँ तहाँ पुरवासी उनके लिये अर्घ्य हाथमें लेकर उनकी स्तुति करतेथे, जैसे ग्रह उदय होकर सूर्यको अर्घ्य देते हैं॥१९॥ आनर्त्तदेश, धन्व, कुरु, जांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुंति, मधु, कैकय, कोसल, अर्ण इन देशोंके वासी स्त्री पुरुष उदार हॅसनियुक्त स्नेहभरी चितवनवाले श्रीकृष्णचन्द्रका मुखारविन्द दृष्टि भरकर देखनेलगे ॥२०॥ अपनी कृपादृष्टिसे अज्ञान दूरकर पुरुषोंकी दृष्टिको कल्याण और तत्त्वज्ञान देते, दिशाओंके अंततक व्याप्त पापनाशक देवता और मनुष्योंसे गाये अपने यशको श्रवण करते

तत्रतत्र तमायांतं पौरा जानपदा नृप॥उपतस्थुः सार्घहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम् ॥१९॥ आनर्तधन्वकुरुजांगलकंकमत्स्यपांचालकुंतिमधुकैकयकोसलार्णाः॥ अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहासस्निग्धेक्षणं नृप पप्रुर्दृशिभिर्नृनार्यः ॥२०॥ तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन्॥ शृण्वन्दिगंतधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं गीतं सुरैर्नृभिरगाच्छनकैर्विदेहान् ॥२१॥ तैच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप॥ अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः ॥२२॥ दृष्ट्वा त उत्तमश्लोकं प्रीत्युत्फुल्लाननाशयाः॥ कैर्धृतांजलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वांस्तथा मुनीन् ॥२३॥

त्रिलोकीके गुरु श्रीकृष्णचन्द्र धीरे २ विदेहादिक देशोंमें पहुॅचे॥२१॥ हे राजा परीक्षित्! वह संपूर्ण पुरवासी देशवासी जन श्रीकृष्णचन्द्रको आया सुन हर्षितहो पूजाके योग्य सामग्रियोंको हाथमें ले सम्मुख आये॥२२॥ उत्तमयशी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शनकर प्रफुल्लित मुख और अंतःकरणवाले पुरुष हाथ जोड मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगे और उक्त मुनियोंको भी प्रणाम किया *॥२३॥

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* शंका— मुनीश्वर लोग विदेह राजाके नगरको सदा आते थे और नगरमें कुछ दिन वास करके अपने अपने आश्रमोंको चलेजाते थे, जब कि, जनकपुरमें बडे बडे महात्मा और प्रजागण बसते थे, तब वह पुरवासी प्रजागण और महात्माजन मुनियोंको देखते थे और पहिचानते थे, फिर व्यासजीने क्यों कहा कि, प्रथम जिन मुनियोंको ब्राह्मणने सुन रक्खा था उन मुनियोंका पूजन किया, इस बातसे यह जान पडता है कि, नारदादि मुनि जनकपुरीको कभी भी नहीं गये, नये नये कृष्णके साथ गये हैं, इसलिये व्यासजी कहे हैं कि, जनकपुरवासी प्रजा देखे नहीं थे परन्तु सुने तो थे कि, अमुक अमुक मुनि पृथ्वीपर हैं, यह शका बडी भारी है?

उत्तर— “श्रुतपूर्वान्मुनीश्वरान्” इस श्लोकमें विद्वान् पुरुष सब दिन तथा वर्षको तथा बहुत दिनको बहुत पहिले नहीं मानतेथे बहुत दिन तथा वर्षसे तो पुरवासी प्रजा सब मुनियोंको जानते थे परन्तु जब श्रीकृष्णके साथ सब मुनि आये तब सब मुनियोंको पुरवासी प्रजाने देखा, उससमयसे पहिचाना और पहिलेसे तो सुन रक्खा था, मुनियोंको पुरवासी ऐसा अर्थ है क्योंकि जनकपुरमें बडा कोलाहल मच गयाथा कि श्रीकृष्णचन्द्र जनकपुर को आते हैं, उनके संग अमुक अमुक मुनि लोग मी आते हैं, ऐसा पुरवासियोंने सुनाथा तब जिन जिनके आनेको सुनाथा सो सब आगये, उन सबका यथायोग्य पूजन किया “श्रुतपूर्वान्मुनीश्वरान्” का अर्थ व्यासजीने ऐसा किया है और ऐसा नहीं किया कि कमी देखे नहीं थे सुने ही थे॥

जगत्के गुरु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हमारे ऊपर अनुग्रह करनेके लिये आये हैं, इसप्रकार बुद्धिसे निश्चयकर मिथिलापुरीका राजा बहुलाश्व और श्रुतदेव ब्राह्मण दोनों श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें आनकर गिरपड़े॥२४॥ मिथिलापुरीका राजा बहुलाश्व और श्रुतदेवजी इन दोनोंमें एक संग हाथ जोड़ ब्राह्मणोंसहित श्रीकृष्णचन्द्रका आतिथ्यभाव कर निमंत्रण किया॥२५॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र दोनोंका निमंत्रण मान दोनोंका प्रिय करनेके लिये ब्राह्मणोंसहित दो रूप धर दोनोंके घरगये, उससमय राजा और ब्राह्मणोंने यह नहीं जाना कि इन्होंने दो रूप करलिये हैं॥२६॥ उदारमन बड़ी भक्ति से हृदयमें हर्ष, नेत्रोंमें आँशुभरे जनकवंशी राजा बहुलाश्व असत् पुरुषोंके सुननेमें भी न आवैं, ऐसे भगवान्को अपने घरलाय बिछाये

स्वानुग्रहाय संप्राप्तं मन्वानौ तं जगद्गुरुम्॥ मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः॥२४॥ न्यमंत्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः॥ मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत्संहतांजली॥२५॥ भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया॥ उभयोराविशद्गेहमुभाभ्यां तदलक्षितः॥२६॥ श्रोतुमप्यसतां दूराञ्जनकः स्वगृहागतान्॥ आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान्महामनाः॥२७॥ प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्षहृदयास्राविलेक्षणः॥ नत्वा तदंघ्रीन्प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः॥२८॥ सकुटुंबो वहन्मूर्ध्ना पूजयांचक्र ईश्वरान् ॥ गंधमाल्यांबराकल्पधूपदीपार्घगोवृषैः॥२९॥ वाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान्॥ पादावंकगतौ विष्णोः संस्पृशन्शनकैर्मुदा॥३०॥ राजोवाच॥ भवान्हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग्विभो॥ अथ नस्त्वत्पदांभोजं स्मरतां दर्शनं गतः॥३१॥

आसनपर सुखसे बिठाया, और वह सुखसे यथायोग्य आसनपर बैठे ॥२७॥ इसीप्रकार मुनियोंको नमस्कारकर उनके चरणोंको धोय लोकोंको पवित्र करनेवाला चरणोंका जल ॥२८॥ कुटुम्ब सहित राजा बहुलाश्वने अपने माथेपर चढ़ाय ईश्वर और ईश्वरके समान ब्राह्मणोंका गंध, पुष्प, माला, वस्त्र, आभूषण, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल, इन सामग्रियोंसे पूजन किया॥२९॥ भोजनकर तृप्त हुए उन ब्राह्मणों व भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रसन्न करता गोदमें धरे श्रीकृष्णके चरण धीरे धीरे दाबता वह यह कहनेलगा॥३०॥ राजा बहुलाश्वने कहा कि हे समर्थ! सब प्राणियोंके

आत्मा साक्षी स्वयंप्रकाश तुम्हीं हो, इसलिये तुम्हारे चरणारविन्दका स्मरण करनेवाले मुझे तुमने दर्शन दिया है॥३१॥ “मेरे एकान्त भक्तसे बढ़कर शेषजी, लक्ष्मीजी और ब्रह्माजी भी प्यारे नहीं हैं” यह जो तुमने कहा, सो अपना वचन सत्य करनेके लिये आपने हमको दर्शन दिया॥३२॥ भक्त तुम्हें प्रियहैं, इसप्रकार जानकर कौनपुरुष तुम्हारे चरणारविन्दको त्यागन करेगा? निष्किंचन अर्थात् जिनके पास कुछ नहीं है, शान्त शीलस्वभाव मुनियोंको तुम अपने पद दे चुके हो॥३३॥ ऐसे तुम यदुवंशमें अवतार लेकर संसारी जीवोंके संसार छुडानेके लिये त्रिलोकीका दुःख दूर करनेवाले यशका विस्तार करते हो॥३४॥ अकुंठबुद्धि शान्त तप करनेवाले नारायण ऋषि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको

स्ववचस्तदृतं कर्तुमस्मद्दृग्गोचरो भवान्॥ यदात्थैकांतभक्तान्मे नानंतः श्रीरजः प्रियः॥३२॥ को नु त्वच्चरणांभोजमेवंविद्विसृजेत्पुमान्॥ निष्किंचनानां शांतानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः॥३३॥ योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरातामिह॥ यशो वितेने तच्छांत्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम्॥३४॥ नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुंठमेधसे॥ नारायणाय ऋषये सुशांतं तप ईयुषे॥३५॥ दिनानि कतिचिद्भूभन्गृहान्नो निवस द्विजैः॥ समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम्॥३६॥ इत्युपामंत्रितो राज्ञा भगवाँल्लोकभावनः॥ उवास कुर्वन्कल्याणं मिथिलानरयोषिताम्॥३७॥ श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहान्जनको यथा॥ नत्वा मुनीन्सुसंहृष्टो धुन्वन्वासो ननर्त ह॥३८॥ तृणपीठवृसीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः॥ स्वागतेनाभिनंद्यांघ्रीन्सभायाऽवनिजे मुदा॥३९॥

नमस्कार है॥३५॥ हे व्यापक! सब ब्राह्मणों सहित कुछ काल इमारे घरमें वास कर अपने चरणकमलकी रजसे इस निमिराजाके कुलको पवित्र करो॥३६॥ राजा बहुलाश्वने जब इस प्रकार बहुत प्रार्थना की, तब लोकोंके उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने मिथिलापुरीके पुरुष स्त्रियोंका कल्याण करनेके लिये कुछेक दिन तक वास किया॥३७॥ जैसे जनकवंशोत्पन्न बहुलाश्व राजाको प्राप्त हुए, उसीप्रकार श्रुतदेव ब्राह्मण भी आया और श्रीकृष्णचन्द्र तथा मुनियोंको नमस्कार कर अत्यन्त हर्षित हो नाचनेलगा॥३८॥ तृणपाटा लायकर बिछाय और कुशके आसन पर ब्राह्मणों सहित श्रीकृष्णचन्द्रको बैठाय “भले आये” इसप्रकार बड़ाई कर स्त्रीसहित श्रुतदेव ब्राह्मण

उनके चरण धोनेलगा॥३९॥ और अति प्रसन्नतासे पूर्ण मनोरथ हो बडबागी श्रुतदेव ब्राह्मणने चरणारविन्दके धोवन जलसे आत्मासहित संपूर्ण कुलको पवित्र किया॥४०॥ आमले आदि फलोंसे और मंगलरूप अमृतके समान मधुर जलसे तथा सुगंध युक्त मृत्तिका तुलसी, कुश और अनायास लब्ध पूजाकी सामग्रीसे, सत्त्वगुणको बढानेवाले शुद्ध अन्नसे श्रुतदेव ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन करके आराधना करनेलगा॥४१॥ जिनकी चरणरेणु सब तीर्थोंको पवित्र करनेवाली है और श्रीकृष्णचन्द्रके रहनेके स्थान ब्राह्मणोंका संग घररूप कुऍमें पड़े मुझे किसकारणसे प्राप्त हुआ, इस प्रकार ब्राह्मण तर्क करने लगा॥४२॥ आतिथ्यकर भलीभाॅति विराजमान किये ब्राह्मणोंके निकट स्त्री,

तदंभसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम्॥ स्नापयांचक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः॥४०॥ फलार्हणोशीरशिवामृतांभसा मृदा सुरभ्या तुलसीकुशांबुजैः॥ आराधयामास यथोपपन्नया सपर्यया सत्त्वविवर्धनांधसा॥४१॥ स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्गृहांधकूपे पतितस्य संगमः॥ यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः॥४२॥ सूपविष्टान्कृतातिथ्याञ्श्रुतदेव उपस्थितः॥ सभार्यस्वजनापत्य उवाचांघ्र्यभिमर्शनः॥४३॥ श्रुतदेव उवाच॥ नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपुरुषः॥ यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया॥४४॥ यथा शयानः पुरुषो मनसैवा त्ममायया॥ सृष्ट्वा लोकं परं स्वात्ममनुविश्यावभासते॥४५॥ शृण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाऽभिवंदताम्॥ नृणां संवदतामंतर्हृदि भास्यमलात्मनाम्॥४६॥

कुटुम्ब और पुत्रसहित उपस्थितहो श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोका स्पर्श करता श्रुतदेव यह वचन कहनेलगा॥४३॥ श्रुतदेव बोला कि, जिससमय शक्तिसे इस विश्वको रचकर अपनी सत्तासे इसमें प्रविष्टहुए, उसीसमय तुम परमपुरुष हमको प्राप्तहुए, परन्तु इस साँवरे स्वरूपका दर्शन अभी प्राप्त हुआ है॥४४॥ जिसप्रकार सोतेहुए पुरुषने अपनी अविद्यासे स्वप्रमें मनहीसे दूसरे शरीरको रचकर उसमें मानो प्रवेश किया हो उसीप्रकार तुमने भी इस संसारको निर्माणकर मानों इसमें घुसेहो, मुझको ऐसा प्रतीत होता है॥४५॥ तुम्हारी कथाओंको श्रवण करे तुम्हारे नामका कीर्त्तन करे, सदा तुम्हारी पूजा करे, तुमको प्रणाम करे, उन शुद्ध अंतःकरणवाले पुरुषोंकोभी आप हृदयमेंही दर्शन देते हो, परन्तु मुझे

तो आपने प्रत्यक्षही दर्शन दिया, इसकारण मुझे जान पडता है कि, मैं सबसे बढ़कर आजदिन सुभाग्य पुरुष हूं॥४६॥ कर्मोंसे चलायमान चित्त पुरुषोंके हृदयमें भी स्थित हो, परन्तु अति दूरहो और तुम्हारी कथाको सुनने और तुम्हारे नाम लेनेसे जिनके निर्मल अंतःकरण होगये हैं, उन पुरुषोंके तुम सदा समीप रहतेहो॥४७॥ देह और गेहमें अभिमान रहित पुरुषोंको मोक्ष देनेवाले और देह गेहमें अभिमान करनेवाले पुरुषोंको आप संसार देतेहो, कार्य महदादिक कारण माया जो दोनों उपाधि हैं उनको सेवन करतेहो अपनी मायासे आप ढके नहीं हो और जीवोंका ज्ञान मायासे आच्छादन करनेवाले आपको मैं प्रणाम करताहूं, तुम हम भक्तोंको शिक्षा दो, हे प्रकाशमान! हम तुम्हारा क्या पूजन करें? जबतक

हृदिस्थोऽप्यतिद्वरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम्॥ आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽप्यंत्युपेतगुणात्मनाम्॥४७॥ नमोऽस्तु तेऽघ्यात्मविदां परात्मने अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे॥ सकारणाकारणलिंगमीयुषे स्वमाययाऽसंवृतरुद्धदृष्टये॥४८॥ सत्वं शाधि स्वभृत्यान्नः किं देव करवामहे॥ एतदंतो नृणां क्लेशो यद्भवानक्षिगोचरः॥४९॥ श्रीशुक उवाच॥॥ तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान्प्रणतार्तिहा॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसंस्तमुवाच ह॥५०॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय संप्राप्तान्विद्ध्यमून्मुनीन्॥ संचरंति मया लोकान्पुनंतः पादरेणुभिः॥५१॥ देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः॥ शनैः पुनंति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया॥५२॥

तुम नेत्रोंके सन्मुख नहीं आतेहो, तबतकही मनुष्यको क्लेश रहता है॥४८॥४९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! इसप्रकार श्रुतदेव ब्राह्मणका कहा वचन सुन शरणागतोंका दुःख हरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने हाथसे ब्राह्मणका हाथ पकड हँसकर यह वचन बोले॥५०॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्राह्मण! यह मुनिलोग तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करनेके लिये यहाँ आये हैं यह तुम निश्चय जानो, क्योंकि यह पुरुष अपने चरणारविंदकी रजसे मनुष्योंको पवित्र करते मेरे साथ भ्रमण किया करते हैं॥५१॥ देवता, क्षेत्र, तीर्थ, इनके दर्शन, स्पर्शन, अर्चन करनेसे

बहुत कालमें धीरे धीरे पवित्र करते हैं, सोभी महात्माओंकी इच्छा होय तो और ब्राह्मण तो शीघ्रही पवित्र करदेते हैं॥५२॥ इस संसारमें समस्त प्राणियोंकी अपेक्षासे ब्राह्मण जन्महीसे श्रेष्ठ हैं और जो तप करके श्रेष्ठ होयतो इसमें कहनाही क्या है?॥५३॥ यह मेरा चतुर्भुज रूप भी मुझे ब्राह्मणोंसे विशेष प्यारा नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण सर्व वेदमय हैं और देवतारूप में हूं और देवताओंकी सिद्धि वेदके आधीन होनेसे ब्राह्मण मुझे इस रूप से भी अधिक प्रिय हैं॥५४॥ खोटीबुद्धि गुणोंमें दोषको देखनेवाले पुरुष भी ब्राह्मण वेदमय हैं, यह न जान गुरुरूप, ब्राह्मणरूप सबके आत्मा मेरा निरादर करते हैं॥५५॥ स्थावर, जंगम, यह विश्व और इस विश्वके कारण महदादिक पदार्थ सब ईश्वरही रूपहैं, इसप्रकार से ब्राह्मण सब

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान्सर्वेषां प्राणिनामिह॥ तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः॥५३॥ न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम्॥ सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम्॥५४॥ दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानत्यसूयवः॥ गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टयः॥५५॥ चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः॥ मद्रूपाणीति चेतस्याऽऽधत्ते विप्रो मदीक्षया॥५६॥ तस्माद्ब्रह्मऋषीनेतान्ब्रह्मन्मच्छ्रद्धयाऽर्चय॥ एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धानान्यथा भूरिभृतिभिः॥५७॥ श्रीशुक उवाच॥ स इत्थं प्रभुणाऽदिष्टः सहकृष्णान्द्विजोत्तमान्॥ आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद्गतिम्॥५८॥

ओर अपनी दृष्टिसे जानते हैं॥५६॥ हे ब्राह्मण श्रुतदेव। जैसी श्रद्धा मुझमें हैं, इसीप्रकार श्रद्धासहित ब्रह्मऋषियोंका पूजन करो, मुझमें इनमें एकसा भाव करोगे तो मेरी साक्षात् पूजा होजायगी और जो भेदभावसे मेरी बहुतसी संपत्तियोंसे भी पूजा करोगे तो मैं प्रसन्न न हूंगा॥५७॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभाग परीक्षित्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा पाय श्रुतदेव ब्राह्मण श्रीकृष्णचन्द्रसहित सब ब्राह्मणोंका एकभावसे आराधन कर सुन्दरगतिको प्राप्त हुआ और मिथिलापुरीके राजाने भी सुन्दरगति पाई॥५८॥

हे राजन् ! इसप्रकार भक्तोंपर प्रीतिकरनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने भक्त बहुलाश्व और श्रुतदेवके यहाॅ वासकर सन्मार्ग अर्थात् उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड इन तीनों काण्डोंका उपदेशकर फिर द्वारकापुरीमें आनकर सुशोभित हुए॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धं भाषाटीकायां श्रुतदेवानुग्रहो नाम पड़शीतितमोऽध्यायः॥८६॥ दोहा–सत्तासी अध्यायमें, नारद हरि सुखधाम। परब्रह्म निश्चय कियो, वेदस्तुतिपरिणाम॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्। गत अध्यायके अंतमें भगवान् वेदका मार्ग ब्रह्मपर उपदेश करके द्वारकाको चलेगये, यह कहा, तहाँ शब्दरूप वेदोंको ब्रह्मपरत्व नहीं बनता, क्योंकि मुख्या, लक्षणा और गौणी इन तीन प्रकारकी वृत्तियोंसे शब्दकी प्रवृत्ति होती है, मुख्यावृत्ति भी दो प्रकारकी है, रूढि और योग जो वस्तुस्वरूप जाति अथवा क्रियासे वा गुणसे निर्देश करी जाय, उसमें रूढिकी प्रवृत्ति होती है, जिसका स्वरूप जाति, क्रिया, गुणसे निर्देश न हो, उसमें यह संभव नहीं हो सकता, सो ब्रह्म तो

एवं स्वभक्तयो राजन्भगवान्भक्तभक्तिमान्॥ उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात्॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धोत्तरार्द्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥ परीक्षिदुवाच॥ ब्रह्मन्ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः॥ कथं चरंति श्रुतयः साक्षात्सदसतः परे॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ बुद्धींद्रिय मनः प्राणाञ्जनानामसृजत्प्रभुः॥ मात्राऽर्थे च भवार्थे च आत्मनेऽकल्पनाय च॥२॥

जाति, गुण, क्रिया, अथवा स्वरूपसे निर्देश नहीं होता, इससे ब्रह्ममें रूढिकी प्रवृत्ति नहीं होसकती, और कार्य कारणसे परे और असंग होनेसे योगवृत्तिका भी संभव नहीं होसकता और लक्षणामें सम्बन्धकी आवश्यकता है, ब्रह्म सब सम्बन्धसे रहित है, इस लक्षणावृत्तिका भी संभव नहीं होसक्ता और जो श्रुति गुणका निरूपण करै, ब्रह्म स्वयं निर्गुणहै, इससे गौणी वृत्तिसे ब्रह्मका निरूपण नहीं होसक्ता, फिर ब्रह्मको श्रुति किस प्रकारसे प्रतिपादन करतीहै?॥१॥ राजा परीक्षित्का यह प्रश्न सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। नित्यमुक्त सर्वशक्तिमान ईश्वरने प्रलयकालमें अपनेमें लीनहुए प्राणियोंके विषयभोगरूप अर्थ जन्मसे कर्मपर्यन्त रूप धर्म परलोकमें उनके सुख भोग रूप काम और कल्पना निवृत्तिरूप मोक्ष पुरुषार्थ देनेके लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राण इनकी रचना की है, यदि यह न हों तो अर्थ धर्म कामकी प्राप्ति

नहीं होसक्ती और जो स्वरूपका विचार न हो तो मोक्ष भी नहीं मिलसकतीहै “यः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान्” इस लक्षणक निरूपण करनेवाली श्रुति सगुणब्रह्मका निरूपण करतीहै, और जीवोंका संसारनिवृत्तिके लिये (तत्त्वमसि— वह तूहे) यह वाक्य ईश्वरकी ईश्वरत प्रतिपादन करताहै, इसमें नित्य मुक्त ईश्वरका वाचक (तत्) शब्द संसारी जीवका वाचक त्वं पदका समानाधिकरण्य प्रतीत होताहे, सो यह अजहद स्वार्थीलक्षणासे अथवा भागत्याग लक्षणासे बन सके हैं, तत् पद तो सर्वज्ञादि गुणवाले ईश्वरका और त्वंपद अल्पज्ञादि गुणवाले पदार्थका वाचक है, इन परस्पर विरुद्ध गुणवाले शब्दोंमेंसे परस्पर विरुद्ध रूप अंशका त्यागन करनेसे दोनोंमें प्राप्त चैतन्य रूपका समान अंश ग्रहण करके (तत् त्वं) यह दोनों पद ब्रह्मरूप एक अर्थके प्रतिपादक होकर एकताका निरूपणकर शुद्ध ब्रह्मको कथन करतेहैं, और (स्थूलमनण्वह्नस्वम्) इत्यादि निषेधका निरूपण करनेवाली श्रुति तत्पदार्थके शोधन करनेमें चरितार्थ हो उपाधिके निषेधसे साक्षात् निर्गुण ब्रह्ममें पर्यवसान होतीहै, उत्पत्ति,

सैषा ह्युपनिषद्ब्राह्मी पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता॥ श्रद्धया धारयेद्यस्तां क्षेमं गच्छेदकिंचनः॥३॥

अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्॥ नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च॥४॥

एकदा नारदो लोकान्पर्यटन्भगवत्प्रियः॥ सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम्॥५॥

यो वै भारतवर्षेऽस्मिन्क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्॥ धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः॥६॥

पालन और प्रलयकी प्रतिपादक श्रुति भी आवागमनरूप सृष्टिका निरूपण कर उसीसे वैराग्यरूप ज्ञानके साधनोंका उपदेश करती ज्ञानके परम्परा सम्बन्धसे ब्रह्मकोही प्रतिपादन करती है, उपासनाकी निरूपण करनेवाली श्रुति उपासनाद्वारा अन्तःकरण शुद्ध करके ज्ञानसाधनका उपदेश देती ज्ञानद्वारा ब्रह्मकोही प्रतिपादन करती है, इसकारण सर्वथा श्रुति ब्रह्मकोही प्रतिपादन करतीहै, यह अभिप्राय है॥२॥ यह जो ब्रह्मपर उपनिषद् है, सो प्रथमहुए सनकादिकोंने पहले धारण करे हैं, जो पुरुष निष्किंचन होकर श्रद्धापूर्वक इसे धारण करेंगे, सो मोक्षको प्राप्त होंगे॥३॥ हे नृपोत्तम! यहाँ तुम्हें नारायणसम्बन्धी गाथा हम सुनातेहैं, जिस गाथामें नारदजी और ऋषि नारायणजीका संवादहै॥४॥ एक समय भगवान्के प्यारे नारदजी समस्त लोकोंमें फिरते फिरते सनातन ऋषिको देखनेके लिये नारायणके आश्रम बद्रिकाश्रममें आये॥५॥ जो नारायण भरतखण्डमें

लोकोंके कारण क्षेम और मंगलके लिये धर्मज्ञानसे युक्त तपको कल्पपर्यन्त करतेहैं *॥६॥ वहाँ कलाप ग्रामके वासी ऋषियोंसहित विराजमान नारायणजीसे नम्र होकर यह पूॅछनेलगे॥७॥ उससमय ब्रह्मविचार जनलोकनिवासी सनकादिकोंमें जो हुआथा, सोई भगवान् नव ऋषियोंके श्रवण करते नारदजीके अर्थ कहने लगे॥८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे नारदजी! पहले जनलोकमें ब्रह्माके मनसे उत्पन्नहुए नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनकादिक मुनियोंका ब्रह्मसूत्र अर्थात् ब्रह्मविद्याका विचार हुआथा॥९॥ अहो! यह ब्रह्मसूत्र मुझे ज्ञात नहीं, इसपर कहते हैं कि हे नारद! उस समय श्वेतद्वीपके

तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः॥ परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह॥७॥ तस्मै ह्यवोचद्भगवान्नृषीणां शृण्वतामिदम्॥ यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम्॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ स्वायंभुव ब्रह्मसूत्रं जनलोकऽभवत्पुरा॥ तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्॥९॥ श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम्॥ ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते॥ तत्र हाऽयमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनु पृच्छसि॥१०॥ तुल्यव्रततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः॥ अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे॥११॥ सनंदन उवाच॥ स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः॥ तदंते बोधयांचक्रुस्तल्लिंगैः श्रुतयः परम्॥१२॥

ईश्वर अनिरुद्ध मूर्त्ति देखनेके लिये श्वेतद्वीपमें तुम गये थे तब पीछे ब्रह्मवाद हुआ ब्रह्मवादमें श्रुति भगवान्का प्रतिपादन करती हैं, वहाँ यही प्रश्न हुआ जो तुमने मुझसे पूछाहै॥१०॥ यद्यपि श्रवण तपशील शास्त्राभ्यास मित्र, शत्रु, मध्यम इन सबमें सनकादिक समानहैं परन्तु तोभी एकको वक्ता बनाकर संपूर्ण श्रोता होगये॥११॥ सनंदनजी बोले, कि अपने निर्माण किये इस संसारका नाशकर अपनी शक्ति सहित सोये भगवान्‌को प्रलयके

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* शंका— बद्रिकाश्रममें नारायणनाम मुनि मनुष्योंके कल्याण होनेके लिये बहुत युग कल्प कल्पान्तसे तप करते हैं सो उस तप करनेसे मनुष्योंका क्या कल्याण होताहै?॥

उत्तर— सब जीवोंको इन्द्रियोंको अलग अलग विषय सुख सब लोकमें, है परन्तु नारायणनाम मुनि भरतखण्डमें तप करते हैं, इसलिये मनुष्योंको ज्ञानका सुख तथा मोक्षरूप कल्याण ज्ञानसे होना सिवाय भरतखण्डके दूसरे द्वीप तथा खण्ड तथा और लोकमें ज्ञान नहींहे हे श्रोताओ! ज्ञानसे दूसरा कल्याण मनुष्योंको कोई भी नहीं है इसलिये मनुष्योंके कल्याण होनेके कारण नारायण मुनि तप करतेहैं ऐसा लिखा है॥

अंतसमयमें ब्रह्मके प्रतिपादक वचनोंसे श्रुतियें जगानेलगीं॥१२॥ जैसे रात्रिके सोये चक्रवर्त्ती राजाको प्रातःकालको राजोपजीवी बंदीजन उठ उसके पराक्रमके सुन्दर यशको वर्णन करके जगाते हैं॥१३॥ श्रुतियें बोलीं कि; हे सर्वविजयी ईश्वर! तुम्हारी जय हो, आप अपने वैभवको प्रगट करो और इस घोर निद्राको त्यागकर हमारा प्रतिपादन करो, जिस प्रकार स्त्री और दूसरे पुरुषको छलनेके लिये अनेक प्रकारके रूप और गुण धारण करतीहै, उसीप्रकार आनन्दादिकका आवरण करनेके लिये गुण ग्रहण करनेवाली स्थावर और जंगम शरीराश्रित जीवोंकी अविद्याका नाश करो, क्योंकि अनादिकालसे यह अविद्या संसारके जीवोंको मोहित करके अनेक अनेक प्रकारके दुःख दिखाती है, और इसीकारण प्राणियोंको अनेक योनियोंमें जन्म लेना पड़ताहै, यह सब अविद्याहीका प्रभाव है, क्योंकि यह अविद्या महाबलवान है, मनुष्योंकी तो क्या सामर्थ्य है? देवताओंके मनको भी मोहनेवाली है, वहभी इसके दूर करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते, आपही इसको दूर कर सक्तेहो, क्योंकि आप सर्वान्तर्यामी और मायासे रहित हो,

यथा शयानं सम्राजं बंदिनस्तत्पराक्रमैः॥ प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयंत्यनुजीविनः॥१३॥ श्रुतय ऊचुः॥ जयजय जह्यजामजित दोषगृहीतगुणां त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः॥ अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते

क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः॥१४॥ बृहदुपलब्धमेतदवयंत्यवशेषतया यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदिवाऽविकृतात्॥ अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं कथमयथाभवंति भुवि दत्तपदानि नृणाम्॥१५॥

और इस महागंभीर संसारसागरसे पार उतार मोक्षके देनेवाले आपही हो, इसी लिये वारम्वार आपसे यह निवेदन है, कि आप इन जीवोंपर अनुग्रह करके इस महाप्रबल अविद्याका नाश करो, क्योंकि माया आपके वश होनेसे सब ऐश्वर्य आपको स्वरूपहीसे प्राप्त है इसीकारण अविद्या आपमें किसीप्रकारका दोष नहीं लगासक्ती और आप सनातन धर्म पालनेके और भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये जगत्में अनेक अवतार धारण करतेहो, हे सर्व प्राणियोंके बोध करनेवाले परमेश्वर! सृष्टिकी आदि समयमें माया करके क्रीडा करतेहो और आनन्द देकर अपने आत्मा करके वर्त्तमान जो आप हो सो आपका प्रतिपादन करे है और आपही सम्पूर्ण शक्तियोंके जगानेवाले हो, तुम अखण्ड विभव और ज्ञानशक्तिसे जीवोंका अज्ञान दूर करो हो, इस विषयमें हम (श्रुति) ही प्रमाण हैं॥१४॥ (१) यदि कहो कि, मंत्रोंमें अग्नि आदि देवताओंका प्रतिपादन देखनेमें

आताहै, वेभी सब तुम्हारेही रूपके हैं, ऐसा ज्ञानी जानते हैं, क्योंकि यह जो कुछ दृश्यमान हैं, इसके न होनेपर आपही अवशेष रहतेहो, इस सब जगत्की उत्पत्ति नाश आपहीमें होता है, जैसे घटादिकोंका उदय, अस्त मृत्तिकामें होता है, मंत्र दृष्ट्या ऋषियोंके मन और वचनका तात्पर्य तुम्हारे विषय है, अन्यमें नहीं, जैसे मनुष्य अपने चरण मृत्तिका, पाषाण, ईंट, इनके ऊपर धरता है, परन्तु भूमिसे पृथक नहीं है, उसी प्रकार जो कुछ विचार है सो सब तुम्हींसे हुआ है, सर्व कारण परमार्थरूप तुम हो इस प्रकार हम (वेद) प्रतिपादन करते हैं॥१५॥ (२)॥ हे त्रिगुण मायामृगीके नचाने वाले! विवेकी पुरुष तुम्हारे अखिल लोकोंके मल नाश करनेवाले कथारूपी अमृतके समुद्रको सेवन करके पाप और दुःखोंको त्यागदेते हैं जब तुम्हारी कथामात्रसेही पापोंका नाश होजाता है, तब स्वरूपका स्मरणकर अंतःकरणके गुण रागादिक और कालके गुण जरादिक जिनके निवृत्त होगये हैं इसमें फिर क्या? और हे प्रभो! तुम्हारा परम अखण्ड आनंद अनुभव स्वरूपका भजन करके दुःखोंको त्यागे तो इसमें कहनाही क्या है?

इति तव सूरयख्यधिपतेऽखिललोकमलक्षपणकथाऽमृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः॥ किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः परम भजंति ये पदमजस्रसुखानुभवम्॥१६॥ दृतय इव श्वसंत्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा महदहमादयोंडम सृजन्यदनुग्रहतः॥ पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम्॥१७॥

॥१६॥ (३) अब जो पुरुष तुम्हारा भजन नहीं करते उनकी निन्दा है, और जो प्राणधारी तुम्हारा भजन करते हैं, उनका सफल जन्म है, इस प्रकार स्तुति करते हैं, अथवा जो प्राणधारी तुम्हारा भजन करके श्वासोंको पूर्ण करते हैं वही सफलजन्मा हैं और जो विना भजन करे श्वास लेते हैं, वह लुहारकी धौंकनीके समान वृथा श्वास हैं, तुम्हारे भजनके विना कृतघ्नियोंको फलकी सिद्धि नहीं होती फिर यह कहते कि जिसके अनुग्रहसे महत्तत्त्व अहंकारादिक तत्त्व इस देहको रचते हैं, उस देहमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश जो देह, प्राण, मन, बुद्धि और ज्ञान कहलाते हैं उनमें प्रवेश करके उनही उन आकारोंसे चेतन करनेवाले तुम्हीं हो इसप्रकार वेदने अंतमें वर्णन किया है, अन्नमयादिकों केसा आकारवाला पुरुष अन्नमयादिकोंमें मिल रहा है यद्यपि यह बात सत्य है परन्तु तोभी तुम्हारा असंगत्व नहीं मिटता तो अन्नमयादिकोंके अंतमेंही इसलिये रूपको वर्णन करते हैं, स्थूल सूक्ष्मसे परे हो और इनमें अविशेषरूप हो, इस कारण सत्य हो; शाखाचन्द्रकी तुल्य शुद्ध रूप

दिखानेके लिये अन्नमयादिकोंमें सम्बन्ध कहाहै, जैसे शुद्ध चन्द्रमाके दिखानेको वृक्षकी शाखाका अवलम्बन करते हैं, इसीप्रकार ब्रह्मके दिखानेको कोशादिका अवलम्बन है॥१७॥ (४) हे अनन्त! जो मनुष्य ऋषिवर्त्म अर्थात् वेदोक्त कर्ममार्गमें स्थित होकर वेदके उदररूपी कर्मकी उपासना करते हैं अर्थात् अग्निहोत्र याग करते हैं भगवद्दर्शनमें रुचि नहीं करते वह कूर्पदृश हैं अर्थात् उनके नेत्रोंमें धूरिपडी हुई है, इसलिये सूक्ष्मवस्तुका दर्शन नहीं कर सकते “यज्ञो वै विष्णुः” इस श्रुतिके अनुसार वह भी भगवदुपासकही है और योगीजन नाड़ियों द्वारा हृदयमें भगवदुपासना करते हैं, इसलिये वे आरुणी अर्थात् अरुणोदयमें थोडा प्रकाश होजाता है, इसीप्रकार इनकी उपासना है और आपकी प्राप्तिका स्थान सुषुम्ना नाडी जो मूलाधारसे हृदयमें हो ब्रह्मरंध्रतक गई है, जिसको पाकर फिर प्राणी संसारमें नहीं आते इसीका नाम मुक्ति है॥१८॥ (५) तुम सबके उपादान कारण

उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम्॥ तत उदगादनंत तव धाम शिरः परमं पुनरिह यत्समेत्य न पतंति कृतांतमुखे॥१८॥ स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया तरतमतश्चकास्त्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः॥ अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं विरजधियोऽन्वयंत्यभिविपण्यव एकरसम्॥१९॥ स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरंतरसंवरणं तव पुरुषं वदंत्यखिलशक्तिधृतोंशकृतम्॥ इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं भवत उपासतेंघ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः॥२०॥

हो, इसलिये प्रथमही सबसे वर्त्तमान हो, इसीसे तुम्हारे निर्मित किये, ऊंच, नीच, मध्यम देहोंमें तुम्हारा प्रवेश होना संभव नहीं होसकता, तो भी जैसे उनमें प्रवेश किये हो, इसीप्रकारसे देहादिकोंका अनुकरण करते न्यूनाधिक प्रतीत होते हो जैसे अग्नि तारतम्यरहित है परन्तु काष्ठमें व्याप्त होनेसे उसीके समान प्रतीत होती है, इसीप्रकार आपको सब उपाधिसे रहित समान एक रस जानकर दोनों लोकके कर्म फल रहित उज्ज्वल बुद्धिवाले मनुष्य असत्य देहादिमें आपको ही सत्य मानकर तुम्हारी उपासना करते हैं॥१९॥ (६) अपने कर्मोंसे प्राप्त हुये नरकादिक देहमें यह जीव भोक्तृत्वसे वर्त्तमान है, वह जीव भीतर बाहर आवरण रहित संपूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले तुम्हारा अंशही हैं, इस प्रकार पण्डित जीवकी गतिको विचार वेदोंके उत्पत्ति स्थान और संसारसे छुड़ानेवाले तुम्हारे चरणोंकी उपासना करते हैं, इसप्रकार विश्वास

पूर्वक अर्चन वन्दन करना यही मत्यलोकमें उचित है॥२०॥ (७) हे ईश्वर! दुर्बोध आत्मतत्त्वके जनानेके लिये अवतार धारण करनेवाले तुम्हारे चरित्ररूपी अमृतसमुद्रमें अवगाहनकर श्रमरहित हो कोई एक तुम्हारे भक्त मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, और तुम्हारे चरणकमलमें अवगाहन कर हंसके समान रमण करते हैं, ऐसे भक्तोंके संगके लिये घर भी उन्होंने त्याग दिये हैं, जब गृहादिका त्यागन कर दिया, तब परलोकके सुखकी क्या कथा है? इसलिये आपकी भक्ति, मुक्तिसे भी अधिक है॥२१॥ (८) तुम्हारी सेवाका साधक यह शरीर जब आत्मा सुहृद और प्रियके समान स्वाधीन है, तो भी सन्मुख स्थित हितकारी प्यारे आत्मारूप आपका साक्षात् भावसे भजन नहीं करते हैं, और देहादिके लालन पालन करनेमें पड़े रहते हैं, यह बडे कष्टकी बात है, मिथ्याभूत देहादिकोंके सेवनसे असत् उपासनामें वासनावाले नीच देहको धारण करनेवाले बडे

दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः॥ न परिलषंति केचिदपवर्गमपीश्वर ते चरणसरोजहंसकुलसंगविमृष्टगृहाः॥२१॥ त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियवच्चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च॥ न बत रमंत्यहो असदुपासनयाऽऽत्महनो यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः॥२२॥ निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि यन्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्॥ स्त्रिय उरगेंद्रभोगभुजदंडविषक्तधियो वयमपि ते समाः समदृशोंघ्रिसरोजसुधाः॥२३॥ क इह तु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं यत उदगादृषिर्यमनु देव गणा उभये॥ तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा॥२४॥

भयरूप संसारमें भ्रमण करते हैं, इसलिये वह आत्मघाती हैं॥२२॥ (९) प्राण, मन, इन्द्रिय जीतकर दृढ योगके करनेवाले मुनिलोग हृदयमें जिसकी उपासना करते हैं, वह जिस तत्त्वको योगद्वारा प्राप्त हुये हैं, उसीप्रकार शत्रु भी तुम्हारे स्मरणसे तुमको प्राप्त हुये हैं, तथा शेषके शरीरके तुल्य तुम्हारे भुजदण्डमें आसक्त बुद्धि भी तुमको प्राप्त हुई है, इसी कारण हम कहते हैं कि, आपकी कृपादृष्टि सबपर समान है और हम तुम्हें देश काल परिच्छेद रहित देखते हैं, तुम्हारा प्रताप ऐसा है कि, जो जिस भावसे आपका ध्यान करे, उन सबको तुम्हारे शरीरकी प्राप्ति होती है॥२३॥ (१०) हे भगवन्! इस संसारमें पूर्व सिद्ध तुमको आधुनिक उत्पत्ति विनाशसे युक्त पुरुष कैसे जानेंगे? अर्थात् नहीं जानेंगे, तुमसे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ है

ब्रह्माके पीछे अध्यात्मक आधिदैवके देवताओंके गण उत्पन्न हुये, इसके पीछे सब चराचर उत्पन्न हुये; इसलिये इन सबका वृत्तान्त आप तो भलीभाॅति जानते हो क्योंकि, आप तो सबसे पूर्व अनादि हैं, फिर आपको पीछे उत्पन्न होनेवाला और नाशवान् कौन मूर्ख कह सक्ता है? जिस समय तुम संहार करके शयन करते हो, उस समय जीवोंको ज्ञान साधन नहीं है, इसलिये प्रलयके समय स्थूल आकाशादिक नहीं हैं तथा स्थूल सूक्ष्मसे आरब्ध शरीर भी नहीं है और शरीरका कारणरूप कालका विषमभाव भी नहीं है, उस समय इंद्रिय प्राणादिक कुछ नहीं हैं और सबका जाननेवाला पुरुष भी नहीं है केवल तात्पर्य यह है कि, पूर्व कालके पुरुष अपने पीछे हुओंके वृत्तान्तको जानते हैं परन्तु पीछे उत्पन्नहुये पूर्वजोंका चरित्र नहीं जानसक्ते, जिसप्रकार पिता पुत्रके वृत्तान्तको तो भले प्रकार जानता है, क्योंकि उसके सामने उसका जन्म और सब कार्य हुये, परन्तु पुत्र पिताका वृत्तान्त किसी रीतिसे नहीं जानसक्ता क्योंकि जब उसका जन्म कर्मही उसके आगे नहीं हुवा, फिर उसके

जनिमसतः सतोमृतिमुतात्मनि ये च भिदां विपणमृतं स्मरंत्युपदिशंति त आरुपितैः॥ त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे॥२५॥ सदिव मनस्त्रित्त्वयि विभात्यसदामनुजात्सदभिमृशंत्यशेषमिदमात्मतयात्मविदः॥ न हि विकृतिं त्यजति कनकस्य तदात्मतया स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयाऽवसितम्॥२६॥

भेदभावको वह कैसे जानसक्ता है, इसीप्रकार आपके पीछे हुये सब प्राणी आपको नहीं जान सक्ते इससे आपका भजनही करना उचित है

॥२४॥ (११) मिथ्याभूत जगत्की उत्पत्ति है, अर्थात् यह पहले कुछ नहींथा इसप्रकार वैशेषिकादिक आचार्य कहते हैं और जीवोंमें ब्रह्मत्त्व नहीं है, परन्तु योगसाधनसे होजाता है, यह योगशास्त्रवाले कहते हैं और इक्कीस प्रकारके दुःखोंका नाश मोक्ष है, इस प्रकार नैयायिक कहते हैं, और सांख्याचार्य आत्मामें भेदभाव मानते हैं और कर्मफलके व्यवहारको मीमांसक सत्य कहते हैं, सो संपूर्ण आरोपित भ्रमसे ही उपदेश करते हैं, तत्त्वदृष्टिसे उपदेश नहीं करते, वास्तवमें वह पुरुष त्रिगुणमय हो तो इनका कहना सत्य है, सो नहीं, त्रिगुणमय पुरुष यह भेद तुम्हारे विषे अज्ञानसे किया है, तुम अज्ञानसे परे संगरहित ज्ञानघन हो, इसलिये तुममें अज्ञानका होना संभव नहीं॥२५॥ (१२) जो पुरुष असत् नहीं उपजै और त्रिगुणमय पुरुष नहीं है, तो इससे यह विदित हुवा यह सब प्रपंच और पुरुष संपूर्णतः तुमसे भिन्न नहीं है, सो उनके स्वरूपसे सत्यकी प्रतीति

कैसे संभव है? मनोमात्रविलसित, त्रिगुणात्मक प्रपंच मिथ्याही है, तो सत्य कैसे प्रतीत हो सक्ता है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, तुम अधिष्ठान हो इसकारण तुम्हारी सत्तासे सत्यसा प्रतीत होता है, केवल निषेधसे प्रतीत हुआ है, अर्थात् अभिप्रायसे मनुष्यसे पुरुषकी भिन्न जो सत्ता प्रतीत होती है सो मनमात्रका विलास है, आत्माके जाननेवाले इस भोक्ता और भोग्यरूप जगत्को स्थितहुए आत्माकी सत्तासेही सत्तावाला कहते हैं आत्मासे भिन्नसत्तावाला नहीं मानते आत्माका कार्य है इसलिये भिन्न नहीं है, जैसे स्वर्णके विकार कुण्डलादिक आभूषणोंको स्वर्णके लेनेवाले त्याग नहीं करते हैं, किन्तु स्वर्णही जानकर ग्रहण करते हैं, इसकारणसे अपने किये विश्वमें प्रविष्ट पुरुषरूप जीव भी आत्माही है, यह निश्चय है॥२६॥ (१३) परमात्माको सर्वत्र जान लेना और भक्ति न करना यह बात नहीं परन्तु उसकी सदा भक्ति करनी, क्योंकि जो आपको संपूर्ण पदार्थोंमें स्थित जानकर तुम्हारी सेवा करते हैं, वे संसारको तिरस्कार कर मृत्युके मस्तकपर चरणधर मुक्त होजाते हैं और जो तुमसे विमुख

तव परि ये चरंत्यखिलसत्त्वनिकेततया त उत पदाऽऽकमंत्यविगणय्य शिरो निर्ऋतेः॥ परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधा नपि तांस्त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनंति न ये विमुखाः॥२७॥ त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरस्तव बलिमुद्वहंति समदंत्यजयाऽनिमषाः॥ वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः॥२८॥ स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः॥ न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्वियत इवाऽपदस्य तव शून्यतुलां दधतः॥ २९॥

हैं और तुम्हारे अभक्त हैं उन्हें पशुओंके समान वाणीसे तुम वाॅधते हो और जिनने आपसे प्रेम किया है, वह निश्चय आपको और दूसरोंको पवित्र कर सकते हैं॥२७॥ (१४) हे प्रभो! तुम इन्द्रियोंके संबंधसे रहित हो और समस्त प्राणियोंकी इन्द्रियोंकी शक्तियोंको प्रवृत्ति करते हो, अपने स्वरूपसेही प्रकाशमान हो, स्वतःसिद्ध ज्ञानशक्ति होनेसे तुमको इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं है, इसीकारणसे विश्वके रचनेवाले ब्रह्मादिक और इन्द्रादिक देवता संपूर्ण माया सहित तुम्हारी पूजा करते हैं और मनुष्योंका दिया हव्यकव्यादिक बलि भक्षण करते हैं, जैसे संपूर्ण पृथ्वीके ईश्वर चक्रवर्ती (राजा)को खण्ड मंडलोंके राजा भेंट देते हैं और आप अपनी प्रजासे भेंट लेते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणादिक तुमको भेंट देते हैं और जिन्हें आपने अधिकार दे रक्खा है, उसी अधिकारको तुम्हारे भयसे पूर्णकरते हैं॥२८॥ (१५) है नित्य मुक्त! जिस समय मायासे

तुम्हारा विहार होता है, उसी समय आपकी दृष्टिसे प्रगटहुए कर्म अथवा कर्मयुक्त लिंग शरीरसे स्थावर, जंगम जातिके जीव उत्पन्न होते हैं, यदि उत्तम, मध्यम, अधम सृष्टि होनेमें उन जीवोंके पूर्व कर्म निमित्त न मानें तो मन, वाणीसे परे शून्य भावसे बराबरीके करनेवाले आकाशकी सदृश संपूर्णमें सब भाव और परमदयालु आपमें विषमताका लेश भी नहीं है, क्योंकि तुम्हारी दृष्टिमें कोई अपना पराया नहीं है, इसलिये आपका भजनही मुख्य है॥२९॥ (१६)॥ जो जीव अनंत और रूपसे नित्य हैं और सर्वव्यापी हैं, तो यह पक्ष हमारा नहीं, क्योंकि यदि जीव वास्तवमें अनंत नित्य और उसी रूपसे व्यापक हो तो वह व्यापकतादि गुणोंसे आपके समान होगये जब समान हुए तो आप उनके नियन्ता नहीं हो सकते, जो यह न मानें तो आपसे उनका नियम संभव न हो, क्योंकि जो वस्तु उपाधिसे जिस पदार्थका विकाररूप है, वह पदार्थ उस वस्तुका निश्चय नियन्ता होगा, क्योंकि उसमें अनुस्यूत रहा, वह पदार्थ कारणतासे उस वस्तुका त्याग नहीं करना तुम्हारे स्वरूपसे “यत्” “तत्” शब्दके अतिरिक्त कुछ

अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगतास्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा॥ अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियंतृ भवेत्सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया॥३०॥ न घटत उद्भवः प्रकृतिपुरुषयोरजयोरुभययुजा भवत्यसु भृतो जलबुद्बुदवत्॥ त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः॥३१॥

भी कहा जाय, ऐसे नहीं हैं, क्योंकि हम ब्रह्मको जानते हैं, इसप्रकार जो कहते हैं, वह ब्रह्मस्वरूपको कुछ भी नहीं जानते, क्योंकि ब्रह्म किसीका विषय नहीं और जो जाननेमें आता है, वह अनात्म पदार्थ है॥३०॥ (१७)॥ प्रकृति और पुरुषका जन्म संभव नहीं क्योंकि प्रकृतिपुरुष अजन्मा हैं, इसलिये प्रकृति पुरुषके संबंधसे जीव जन्म लेता है, जैसे जलमें बबूला केवल जलसे और पवनसे भी नहीं उत्पन्न होता है, किन्तु दोनोंसे उत्पन्न होता है तुम कारणरूप ईश्वरहो, तुम्हारे विषे अनेक नाम रूप गुण सहित जीव लीन होते हैं, जैसे शहतमें संपूर्ण वनस्पतियोंके रस लीन होते हैं, जैसे मधुमें सम्पूर्ण फूलोंके रस विशेषता से दृष्टि नहीं आते, परन्तु सामान्य रूपसे दीख सकते हैं, वैसे निद्रामें और प्रलयकालमें आपमें लय हुए जीव विशेषरूपसे नहीं रहते और मोक्ष तो आपके निरुपाधिक रूपमें जो लीन होते हैं, जैसे समुद्रमें सम्पूर्ण नदी लीन होती हैं,

ऐसे वह मुक्तिदशामें आपमें लीन होजाते हैं॥३१॥ (१८) जीवोंके विषे तुम्हारी मायासे वारम्वार जन्म, मरण रूप यह भ्रमण यह जानकर सुबुद्धि पुरुष संसारके निवृत्ति करनेवाले तुम्हारे विषे भावना करते हैं और जो तुम्हारी शरण होकर भजन करते हैं, उनको संसारका भय नहीं होता, क्योंकि शीत, उष्ण वर्षानेवाला संवत्सररूपी काल तुम्हारा भ्रूभंगरूप है और जो तुम्हारे शरण नहीं हैं उनके रक्षक नहीं; किन्तु भयकारक हो इसलिये बुद्धिमान् पुरुष तुममें भाव करते हैं॥३२॥ (१९) हे अजित! मनके निग्रह करनेसे ऐसा सेवन बनसक्ता है; परमदेव गुरुके चरणकी शरण लिये विना जो इन्द्रिय प्राणोंको जीतकर अति चंचल दुर्जय मनरूपी घोड़ेके जीतनेका यत्न करते हैं, वह उपायसे खेद पाते हैं और विघ्नोंसे व्याकुल होते हैं, क्योंकि, मनका जीतना गुरुकी कृपासेही होता है, जैसे जो व्यापारी मल्लाहको नहीं

नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम्॥ कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद्भ्रुकुटिः सृजति मुहुस्त्रिणेमिरभवच्छरणेषु भयम्॥३२॥ विजितहृषीकवायुभिरदांतमनस्तुरगं य इह यतंति यंतुमतिलोलमुपायखिदः॥ व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं वणिज इवाऽज संत्यकृतकर्णधरा जलधौ॥३३॥ स्वजनसुतात्मदारधनधामधराऽसुरथैस्त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे॥ इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां सुखयति कोन्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे॥३४॥ भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदास्त उत भवत्पदांबुजहृदोऽभिदंघ्रिजलाः॥ दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्॥३५॥

रखते, वह समुद्रमें पड़े दुःख पाते हैं॥३३॥ (२०) जो प्राणी आपका आश्रय लेते हैं, उनको सर्व सुखके स्थान आत्मरूप आपके होते सुजन, पुत्र, देह, घर, पृथ्वी, प्राण, रथ, इत्यादि वस्तुसे क्या प्रयोजन है? जो पुरुष आत्माका सेवन करता है, उसको इन तुच्छ पदार्थोंसे क्या प्रयोजन है? सत्य परमार्थ सुखको न जान स्त्री पुरुष मिलकर रतिके लिये विचरते हैं; उनको इस संसारमें तुम्हारे सिवाय कौन सुख है? अर्थात् कोई नहीं, यह संसार आपसे मिथ्याभूत और साररहित है, इसलिये तुम्हाराही भजन करना उचित है॥३४॥ (२१) अहंकारको त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दको हृदयमें धारण करना तुम्हारे भक्त ऋषि मुनि कि, जिनके चरणोंका जल स्वतःही पापनाशक है, परन्तु तो भी इस पृथ्वीमें

आपका भजनरूप महापुण्य करनेवाले महात्माजनोंके आश्रमोंका और अतिपावन तीर्थ क्षेत्रोंका सेवन करते हैं, और पुरुषोंके, ज्ञान वैराग्यके नाश करनेवाले गृहादिकोंका सेवन नहीं करते हैं, जिन्हें गुरुकी कृपासे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति और संसारकी मिथ्या प्रतीत होगई है, वह महात्माओंकी सं

गति करते हैं, क्योंकि जिसे एकबार भी आत्माके सुखका अनुभव हुआ है, वह कदाचित् गृहमें आसक्त नहीं होता, तब उत्तम पुरुष किसप्रकारसे घरमें आसक्त हो सक्ते हैं॥३५॥ (२२) यह जगत् सत्यसे उत्पन्न हुआ इसलिये सत्य है, जैसे सुवर्णसे उत्पन्नहुए कुण्डलादिक सुवर्णही हैं, इसप्रकार मानोगे तो व्यभिचार प्राप्त होगा, जैसे पितासे पुत्र होता है, सो प्रथम क्यों मरजाता है? तथा पृथ्वीसे उत्पन्नहुए घटादिक क्यों फूट जाते हैं इससे यह जगत् मिथ्या है, तो कहते हैं कि, उत्पन्न नाम उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है इससे कुछ दोष नहीं, इसमें दोष देकर समाधान करते हैं कि, जो वस्तु जिस उपादानसे हुई हो वह वस्तु उस उपादानसे भिन्न नहीं होती है, यह भी नियत नहीं, क्योंकि रज्जुरूप उपादानसे हुआ सर्प रज्जुसे पृथक् होता है रज्जु सत्य और सर्प मिथ्या होता है, यदि सर्प सत्य हो तो जिस प्रकार कुण्डलका बाध नहीं होता, इसी

सत इदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं व्यभिचरति क्वच क्वच मृषा न तथोभययुक्॥
व्यवहृतये विकल्प इषितोंधपरंपरया भ्रमयति भारतीत उरुवृत्तिभिरुक्थजडान्॥३६॥

प्रकार सर्पका भी बाध न हो “शंका” रज्जुमें हुए सर्पमें केवल रज्जुही उपादान कारण नहीं, किन्तु अज्ञान भी उपादानका कारण है, इसप्रकारके उपादान कारणसे हुई वस्तुका मिथ्यापन बनसके और जो केवल सत्य उपादान कारणसे उत्पन्न हो उसको मिथ्यापना सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये द्वैत असत्य नहीं “उत्तर” यह द्वैत भी सत्यरूप ब्रह्म और उसके साथ अज्ञानरूप उपादान कारणसे हुआ है “शंका” जो इसप्रकार जगत् नित्य कहा है, तो मिथ्या किस प्रकार है? “समाधान” कर्मफलको नित्य कहना वेदका तात्पर्य नहीं, किन्तु उन वाक्योंसे कर्मकी स्तुति की है, यदि वेद कर्मफलको नित्य मानता तो जैसे यहाँ परिश्रमसे उत्पन्न किये पदार्थ कालान्तरमें क्षीण होजाते हैं, उसी प्रकार परलोकमें पुण्यका सुख कालान्तरमें नष्ट होजाता है “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशन्ति” इसकारण कर्म श्रद्धाके भारसे जिनकी बुद्धि मंद होगई है, उन्हें वेद वाणी गौणी और लक्षणा वृत्तिमें डालकर भ्रमयुक्त करदेती है, इससे वह यथार्थ वेदके तात्पर्यकी न जानकर कर्मफलको

नित्य मनाते हैं, कर्मसे अंतःकरण शुद्ध होता है, उस वातको नहीं जानते आशय यह है कि, जैसे मकरी अपनेमेंसे तन्तु निकाल फिर आगही ग्रहण करलेती है, उसी प्रकार ईश्वर जगत्को उत्पन्नकर अपनेमें लय कर लेता है, वास्तवमें शुद्ध है, इसलिये अद्वैत सिद्ध है, मिथ्यासे द्वैत भासता है॥३६॥ (२३) हम और कारणसे सत्य करेंगे जगत् सत्य है, क्योंकि अर्थ क्रियाका करनेवाला है, यदि न हो तो सीपीमें रूपेकी प्रतीत कैसे होती है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, व्यवहारके लिये अर्थ क्रियाके लिये भ्रम इष्ट है; जैसे खोटे रुपयेसे व्यवहार खो जाता है, तो कहते हैं, जो एक ठौर सत्य है, उसको और भ्रम होता है, यह प्रसिद्ध है, अत्यन्त झूठा प्रपंच होय तो भ्रम न हो, इससे सत्य है, तो कहते हैं, सत्य नहीं है किन्तु अंधपरम्परासे भ्रम किया है, इसकारण सत्य नहीं है, तहाॅ वेदकर्मफलकी सत्यताका प्रतिपादन करा है कि, चातुर्मासके पूजन करनेवालोंको अक्षय पुण्य होता है और अमृतपान करेंगे इत्यादि वचनसे कर्मफलको यह द्वैत सृष्टिसे पहले भी नही था और आगेको भी न होगा, मध्यमें

न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधनादनुमितमंतरा त्वयि विभाति मृषैकरसे॥ अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथैर्वितथमनोविलासमृतमित्यवयंत्यबुधाः॥३७॥ स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः॥ त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः॥३८॥

आपके शुद्ध अद्वैतरूपमें मिथ्याही प्रतीत होता है, यह निश्चय है, इसी कारण मृत्तिका, सुवर्ण, लोह आदि पदार्थोंके घट, कुण्डल, परशु आदि निर्माण किये हुए आकारसे नाममात्रही हैं, उनके कारण मृत्तिका, सुवर्ण, लोहादि सत्य हैं, इसलिये पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाशादि कार्य नाममात्र हैं, उनका कारण ब्रह्म सत्य है, इसकारण द्वैतकी सत्यतामें कुछ प्रणाम नहीं इसकारण मनके विलाससे इस मिथ्याभूत द्वैतको जो सत्य मानते हैं, वह अज्ञानी हैं॥३७॥ (२४) जब द्वैत कोई वस्तु नहीं तो इसमें चैतन्यका संबंध लेशमात्र भी न होना चाहिये, फिर जीव किस अपराधसे जन्म, मरण, सुख, दुःखकी प्राप्ति करते हैं और ईश्वर नित्य मुक्त किसप्रकार है ? कर्मकाण्ड किसकारण है? इसपर कहते हैं कि यह जीव मायामें पड़े अविद्याका आलिंगन करते हैं, इसलिये देह इन्द्रियादिकोंका सेवन करते उन्हें अपनाही स्वरूप मानते हैं इसीलिये देह और इन्द्रियोंके धर्मसे युक्तहो आनंदादि गुणोंके आवरणसे जन्म, मरणकी प्राप्ति करते हैं यह सब काण्ड अविद्यायुक्त जीवमें है और

आप तो मायाकी असत्यता जानते हो; जैसे सर्प केंचुली को सत्य नहीं समझता और उसे त्याग देता है, उसी प्रकार आप मायाको त्याग देतेहो, इसकारण तुम नित्य अखण्ड ऐश्वर्ययुक्त अप्रमेय अणिमादि अष्ट ऐश्वर्यमान् अपनेमें आपही विराजते हो॥३८॥ (२५) हे भगवन्! जो संन्यासी यती अपने हृदयमें स्थित कामकी वासनाओंको नहीं उन्मूलित करते, उन असाधुओंके हृदयमें तुम स्थित होकर भी नहीं मिलते। जैसे स्मृति न रहनेपर कंठस्थित मणि नहीं मिलती उन दुष्ट असाधुओंको आपकी प्राप्ति नहीं होती इतनाही नहीं किन्तु जो इन्द्रियोंके तृप्त करनेवाले हैं उनको इसलोक तथा परलोकमें दुःखही होता है क्योंकि लोकोंको प्रसन्न करना, धन संचय करना, भोग करना, गुप्त कार्य करना इत्यादिमें यहाँ दुःख होता है और आपकी प्राप्ति के लिये संन्यास लेनेपर यदि आपकी प्राप्ति न हुई और धर्मका अतिक्रमण किया, तो तुम्हारे दंडरूप

यदि न समुद्धरंति यतयो हृदि कामजटा दुरधिगमोऽसतां हृदिगतोऽस्मृतकंठमणिः॥ असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगवन्नपगतांतकादनधिरूढपदाद्भवतः॥३९॥ त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयोर्गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः॥ अनुयुगमन्वहं सगुणगीतपरंपरया श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः॥४०॥ द्युपतय एव ते ययुरंतमनंततया त्वमपि यदंडतरांडनिचया ननु सावरणाः॥ ख इव रजासि वांति वयसा सह यच्छतस्त्वयि हि फलंत्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः॥४१॥

नरककी प्राप्ति हुई, इससे परलोकमें भी सुख नहीं, वह दोनों लोकोंसे भ्रष्ट हुए॥३९॥ (२६) हे भगवन्! जिन भक्तोंको तुम्हारा ज्ञान होगया है, वे आपसे प्रगट हुए अपने प्राचीन पुण्य पापोंके फलरूप दुःख सुखके सम्बन्धको कुछ नहीं समझते और देहाभिमानियोंके सम्बन्धी प्रवृत्ति निवृत्तिके करनेवाले विधिनिषेधके वचनोको नहीं सुनते, देहाभिमान रहित होजानेसे कार्याकार्यका सम्बन्ध नहीं रहता, हे ऐश्वर्यवान्। आप प्रत्येक युगमें अवतार धारण करके सन्मार्गमें चलनेवाले मनुष्योंको जो प्रतिदिन तुम्हारे चरित्र श्रवणकर हृदयमें धारणकरते श्रेष्ठ गति देते हो, जब ऐसे पुरुषोंको भी किसीप्रकारकी बाधा नहीं रहती तो तत्त्ववेत्ताओंको कर्मकी शंका भी नही होसकती और जो पुरुष कपट प्रबंधकर इन्द्रियोंका भोग से पूजन करते हैं, वह इस लोक और परलोकमें दुःख पाते हैं॥४०॥ (२७) हे भगवन्! स्वर्गलोकादिके पति ब्रह्मादिक

तुम्हारे प्रतापके अंतको नहीं पाते और आप भी अपने अंतको नहीं पाते, ब्रह्मादिक आपके अंतको नहीं जानते, इसमें क्या आश्चर्य है ? अपने अन्तको न जाननेसे आपकी सर्वज्ञता सर्वशक्तिमत्ता नष्ट नहीं होती जैसे शशकके सींग न मिलनेसे सर्वज्ञका सर्वज्ञपन नहीं जाता, क्योंकि शशकके सींग हैंही नहीं फिर मिलें कहाँसे? इसी प्रकार आपका अंत जब हैही नहीं तो कोई जाने कहाँसे? क्योंकि तुम्हारे स्वरूपमें, आकाशमें, रजकणके सदृश दशदश गुण उत्तर उत्तर अधिक सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डोंके समूह कालचक्रसे भ्रमण करते हैं इसकारण श्रुति तात्पर्यसे आपकाही प्रतिपादन करती है साक्षात् नहीं कह सकती सगुण स्वरूपके तो गुण अपार हैं और निर्गुणमें वाणीकी गति नहीं इसकारण तुम्हारा संपूर्ण और साक्षात् निरूपण नहीं होता अनात्म पदार्थोंका निषेध कर अंतमें हम श्रुति आपकोही वर्णन करती हैं, क्योंकि अवधिके विना निषेध

श्रीभगवानुवाच॥ इत्येतद्ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्॥ सनंदनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम्॥४२॥ इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः॥ समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः॥४३॥ त्वं चैतद्ब्रह्मदायाद श्रद्धयात्मानुशासनम्॥ धारयंश्वर गां कामं कामानां भर्जनं नृणाम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं स ऋषिणादिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान्॥ पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः॥४५॥ नारद उवाच॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाऽमलकीर्तये॥ यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः॥४६॥

नहीं हो सकता, इसकारण निषेधके अवधिरूप आपमें ही हम वेदों का तात्पर्य निकलता है॥४१॥ (२८) श्रीभगवान् बोले कि, हे नारदजी! इसप्रकार ब्रह्माके पुत्र सनकादिक वेदोंकी स्तुति सुनकर आत्माकी गति जान सनंदनजीकी पूजा करनेलगे॥४२॥ इसप्रकार आकाशमें गमन करनेवाले सृष्टिमें प्रथम उत्पन्न हुये, ऐसे महात्मा सनकादिकोंने समस्त वेद पुराण और उपनिषद्का रस उद्धार किया है॥४३॥ हे ब्रह्माके पुत्र नारदजी! तुम श्रद्धापूर्वक आत्माके अनुशासनको धारण करके पृथ्वीमें यथेच्छ विचरो, यह आत्मानुशासन मनुष्योंकी विषयवासनाका नाश करनेवाला है॥४४॥ इतनी कथा सुनाकर योगीवर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! इसप्रकार श्रीनारायणके उपदेशको सुनकर कृतार्थ नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रुतियोंके धारण करनेवाले नारदमुनि कहनेलगे॥४५॥ श्रीनारदजी बोले कि, जो भगवान् श्रीकृष्णचंद्र संपूर्ण

भूतोंके कल्याणके लिये सुन्दर अवतार धारण करते हैं, उन निर्मलकीर्त्ति श्रीकृष्णचन्द्रके अर्थ नमस्कार है॥ ४६॥ उदार मन नारद आदि ऋषि नारायण और उनके शिष्योंको नमस्कार कर मेरे पिता साक्षात् व्यासदेवके आश्रममें चलेगये॥४७॥ व्यासदेवजीने सन्मानकर आसन दिया, उसको ग्रहणकर नारदजीने नारायणके मुखसे जो श्रवण किया था वह सब व्यासजीके अर्थ वर्णन करदिया॥४८॥ हे नृपश्रेष्ठ! तुमने पूछाथा सो हमने वर्णन किया, जैसे अनिर्देश्य और निर्गुण ब्रह्ममें श्रुतियें प्रवृत्त होती हैं॥४९॥ मायाके दूर करनेवाले भक्तोंके भयनाशक नारायण जो कि अपने स्वरूपमें शयन करते जीवोंके पुरुषार्थ सिद्ध करनेके लिये सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं, जो इस संसारके आदि, मध्य और अंतमें भी रहते हैं, जो प्रकृति पुरुषके भी उपादान कारण हैं और जो इस जगत्को उत्पन्न करके जीवके साथही प्रवेश कररहे हैं, जिन्होंने जीवोंको

इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः॥ ततोऽगादाश्रमं साक्षात्पितुर्द्वैपायनस्य मे॥४७॥ सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः॥ तस्मै तद्वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम्॥४८॥ इत्येतद्वर्णितं राजन्यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया॥ यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि श्रुतिश्चरेत्॥४९॥ योऽस्योत्प्रेक्षक आदिमध्यनिधने योऽव्यक्तजीवेश्वरो यः सृष्ट्वेदमनु प्रविश्य ऋषिणा चक्रे पुरः शास्ति ताः॥ यं संपद्य जहात्यजामनुशयी सुप्तः कुलायं यथा तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं ध्यायेदजस्रं हरिम्॥५०॥ इति श्रीमद्भा० म० द० उ० नारदनारायणसंवादे वेदस्तुतिर्नामसप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥ राजोवाच॥ देवासुरमनुष्येषु ये भजंत्यशिवं शिवम्॥ प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम्॥१॥

भोग देनेके लिये पृथक् २ शरीर बनाये हैं, जो जीवोंको अनेक भोग देके शरीरोंका पालन करते हैं और प्रणामादिकसे भक्ति करनेवाले जीव उन्हें प्राप्त होकर जैसे सुषुप्तिमें सोताहुआ शरीरके सन्बन्ध रहित होता है उसी प्रकार देहादिरूप अविद्याको वह भक्त त्यागन करदेते हैं, उन्हीं नारायणका भजन करना चाहिये॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां नारदनारायणसंवादे देवस्तुतिर्नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥ दोहा–विष्णुभक्तिसे मुक्ति है, अन्नदेवसे भोग॥ अट्ठासी अध्याय में, कहों भक्तिके योग॥१॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! देवता, असुर, मनुष्योंमें जो शिवका भजन करते हैं वह धनवान् होते हैं और लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका

भजन करनेवाले धनी नही होते उसका कारण जाननेकी हमारी इच्छा है शिव और विष्णुके भजन करनेवालोंको संपूर्णतः विरुद्ध फल मिलते हैं क्योंकि जो शिवजी विभूति लगा श्मशानमें वास करनेवाले अमंगलरूप हैं जिन शिवजीके कुछ नहीं, उनका जो पुरुष भजन करें, वह लक्ष्मीवान् हों और भोग भोगें और लक्ष्मीपति अच्छे भोग भोगें, सुन्दर वस्त्र पहरें, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रका जो भजन करें, वह बहुधा दरिद्रीही देखे जाते हैं यह स्वामियोंकी गति और है, सेवकोंकी गति और है उचित तो यह है कि, जैसा स्वामी होय उसी प्रकार सेवक हो॥१॥२॥ यह सुनकर श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत! शिवमें शक्ति रहती है, गुणोंके परस्पर जो आपसमें संघर्षणसे तमोगुण तीन प्रकारका है, सात्त्विक अहंकार, राजस अहंकार और

एतद्वेदितुमिच्छामः संदेहोत्र महान्हि नः॥ विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ शिवः शक्तियुतः शश्वत्त्रिलिंगो गुणसंवृतः॥ वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा॥३॥ ततो विकारा अभवन्षोडशामीषु कंचन॥ उपधावन्विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम्॥४॥ हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः॥ स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत्॥५॥ निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः॥ शृण्वन्भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम्॥६॥ स आह भगवांस्तरमै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः॥ नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥७॥

तामस अहंकार ऐसे तीन प्रकारके अहंकारके अधिष्ठानसे विष्णु, ब्रह्मा, शिव यह तीन रूप धारण करते है॥३॥ उस अहंकारसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश यह पंचभूत और दश इंद्रियें तथा एक मन ऐसे सोलह विकार हुए इन विकारोंमें कोई एक विकारवान् उपाधिरूप विकारके भजन करनेसे संपत्ति मिलती हैं और उपाधिवालेका भजन करनेसे उपाधि मिलती है॥४॥ निर्गुण साक्षात् मायासे परे सबके देखनेवाले साक्षीभूत हरि भगवान्का जो पुरुष भजन करें वह निर्गुण होते हैं॥५॥ अश्वमेधयज्ञ जब पूर्ण होचुका तव तुम्हारे दादा राजा युधिष्ठिरने वैष्णवधर्मको श्रवणकर पीछे श्रीकृष्णचन्द्रसे यही बात पूछी थी॥६॥ तब मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये यदुकुलमें आप अवतारधारी समर्थ भगवान्

श्रीकृष्णचन्द्र प्रसन्न होकर राजा युधिष्ठिरसे कहनेलगे॥७॥ श्रीभगवान् बोले कि, जिस पुरुषके ऊपरमें कृपा करताहूं, उस पुरुषका धन धीरे धीरे

हर लेताहूं, इसके उपरान्त जब वह दरिद्री होजाता है, तब उसे दुःखीके तुल्य और निर्धन जानकर उसे उसके भाई बंधु सब त्याग देते हैं॥८॥ यह भक्त, भाई लोगोंके आग्रहसे धन उपार्जन करनेका फिर उद्योग भी करे, परन्तु मेरे अनुग्रहसे उसके सब उद्योग व्यर्थ होजाते हैं और जब उसमें प्रबल वैराग्य उत्पन्न होजाता है, तब वह भक्त मेरे और भक्तोंके संग मित्रता करता है, तब उस पुरुषके ऊपरमैं असाधारण अनुग्रह करताहूं॥९॥ मेरी कृपासे उस परब्रह्म सूक्ष्म चैतन्य सर्वव्यापी नाशरहित आत्माका ज्ञान होता है इसीलिये मेरा आराधन बहुत कठिन है और इसीकारण मुझे त्यागकर वह पुरुष और देवताको भजता है॥१०॥ सेवन करनेसे शीघ्र प्रसन्न होनेवाले देवताओंसे राज्य और धन

श्रीभगवानुवाच॥ यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः॥ ततोऽधनं त्यजंत्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम्॥८॥ स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद्धनेहया॥ मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्॥९॥ तद्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनंतकम्॥ अतो मां सुदुराराध्यं हित्वाऽन्यान्भजते जनः॥१०॥ ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः॥ मत्ताः प्रमत्ता वरदान्विस्मरंत्यवजानते॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ सद्यः शापप्रसादोंग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः॥१२॥ अत्र चोदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥ वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाऽऽप संकटम्॥१३॥ वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्॥ दृष्ट्वाऽऽशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः॥१४॥

प्राप्ति होनेसे उद्धत मतवाले उन्मत्त होकर वे प्राणी वरके देनेवाले देवताओंको भूलकर अवज्ञा करते हैं॥११॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे श्रेष्ठ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादिक देव शाप और अनुग्रह करनेमें समर्थ हैं, शिव, ब्रह्मा दोनों शीघ्रही प्रसन्न होते हैं और शीघ्रही शाप देते हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र शीघ्र प्रसन्न नहीं होते और जिसपर प्रसन्न होते हैं फिर उसे शाप नहीं देते॥१२॥ इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, सो वर्णन करते हैं, जैसे शिवजीने वृकासुरको वर देकर कष्ट पाया॥१३॥ दुष्टबुद्धि शकुनिका पुत्र वृकासुर मार्गमें देवर्षि नारदजीको देख ब्रह्मा, विष्णु, महादेव इन तीनों देवताओंमें शीघ्र कौन प्रसन्न होता है, यह पूछने लगा॥१४॥

तब देवर्षि नारदजीने कहा कि तू भगवान् भूतनाथ महादेवजीकी पूजाकर यह करनेसे शीघ्र तेरा मनोरथ सिद्ध होगा, क्योंकि शिवजी थोड़ेही गुणोंसे शीघ्र प्रसन्न और थोडेही दोषसे क्रोधित होजाते हैं॥१५॥ बंदीजनोंके समान स्तुति करनेवाले राक्षसराज रावण और बाणासुरके ऊपर प्रसन्न होकर शिवजीने बडा ऐश्वर्य दे फिर उन असुरोंसे आपहीने कष्ट पाया, रावणने तो कैलास उखाड़लिया और बाणासुरने कहा कि, मेरे पुरकी रक्षा करो ॥१६॥ इसप्रकार जब देवर्षि नारदजीने कहा तो उसी समय वृकासुर अपने देहसे शिवजीका सेवन करनेलगा, इसके उपरान्त केदारतीर्थमें शिवजीके लिये अपने शरीरका मॉस काटकर अग्निमें हवन करनेलगा ॥१७॥ जब महादेवकी प्राप्ति न हुई, इसलिये सातवें दिन तीर्थमें स्नान करनेसे भीजे

स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिध्यति॥ योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति॥१५॥ दशास्य बाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्बंदिनोरिव॥ ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसंकटम्॥१६॥ इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः॥ केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानोऽग्निमुखं हरम्॥१७॥ देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमेऽहनि॥ शिरो वृश्चत्स्वधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम्॥१८॥ तदा महाकारुणिकः स धूर्जटिर्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनला तत्॥ निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारयत्तत्स्पर्शनाद्भूय उपस्कृताकृतिः॥१९॥ तमाह चांगाऽलमलं वृणीष्व मे यथाभि कामं वितरामि ते वरम्॥ प्रीये यतो येन नृणां प्रपद्यतामहो त्वयाऽऽत्मा भृशमर्द्यते वृथा॥२०॥ देवं स वव्रे पापीयान्वरं भूतभयावहम्॥ यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति॥२१॥

केशवाले शिरको छूरी लेकर काटनेलगा ॥१८॥ उससमय अत्यन्त करुणानिधान शिवजी हेम सरीखे मूर्त्तिमान्, अग्निके समान प्रकाशयुक्त अग्निकुण्डमेंसे निकल, हाथोंसे असुरकी भुजा पकड़ जैसे कोई दुःखके मारे मरनेको आवे उसे मने करते हैं, उसीप्रकार मनेकरने लगे और शिवजीका हाथ लगतेही उसका देह ज्योका त्यों होगया॥१९॥ वृकासुरसे शिवजी बोले कि, हे वृकासुर! तू तप करके पूर्ण होगया, अब वर माँग, जो तेरी इच्छा हो, सोही वर दूंगा, क्योंकि जो मनुष्य मेरी शरण आते हैं, उनके ऊपर जलमात्रके चढातेही मैं प्रसन्न होजाताहूं, बडा आश्चर्य है! तैंने वृथाही अपने शरीरको कष्ट दिया॥२०॥ तब वृकासुरने जिस जिस पुरुषके शिरपर मैं हाथ धरूं, वह पुरुष उसी समय मरजावे इस

प्रकार संपूर्ण प्राणियोंको भयका देनेवाला वर माँगा॥२१॥ हे भरतवंशोत्पन्न राजा परीक्षित् ! इस प्रकार वृकासुरका वचन सुन उदासीनसे हो “अच्छी बात है” इस प्रकार शिवजीने मुसकाकर सर्पको दूध पिलानेके समान वृकासुरको वर देदिया॥२२॥ इस प्रकार सुनतेही जगज्जननी पार्वतीके लेनेकी चाहनासे वह असुर वर मिथ्या है वा सत्य है, यह परीक्षा लेनेके लिये महादेवजीके माथेपर हाथ धरनेका उपाय करनेलगा, उससमय अपने कर्त्तव्यसे भयभीत होकर भगवान् शिवजी भागने लगे॥२३॥ असुर जिनके पीछे लगा; ऐसे शिवजी डरकर स्वर्गतक भागे और पृथ्वीका जहाँ

तच्छ्रुत्वा भगवान्रुद्रो दुर्मना इव भारत॥ ओमिति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा॥२२॥ इत्युक्तः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः॥ स तद्वरपरीक्षार्थं शंभोर्मूर्ध्नि किलासुरः॥२३॥ स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः॥ तेनोपसृष्टः संत्रस्तः पराधावत्सवेपथुः॥ यावदंतं दिवो भूमेः काष्ठानामुदगादुदक्॥२४॥ अजानंतः प्रतिविधिं तूष्णीमासन्सुरेश्वराः॥ ततो वैकुंठमगमद्भास्वरं तमसः परम्॥२५॥ यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमागतिः॥ शांतानां न्यस्तदंडानां यतो नावर्तते गतः॥२६॥ तं तथा व्यसनं दृष्ट्वा भगवान्वृजिनार्दनः॥ दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा बटुको योगमायया॥२७॥ मेखलाजिनदंडाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्॥ अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत्॥२८॥

तक अंत है, तहॉतक भागे, फिर उत्तर दिशामें भागकर गये॥२४॥ उससमय उपायको न जान संपूर्ण देवता चुप होगये, इसके उपरान्त प्रकाशमान मायासे परे वैकुण्ठधाममें शिवजी गये॥२५॥ जिस वैकुण्ठधाममें शान्त स्वभाव और कालके दण्ड रहित संन्यासियोंकी परमगति अर्थात् प्राप्त होने योग्य नारायण विराजमान हैं॥२६॥ दुःखोंके दूर करनेवाले भगवान् नारायण शिवजीके पीछे दौड़े चले आते वृकासुरको दूरसे देख अपनी योगमायासे॥२७॥ ब्रह्मचारीका वेषधर मूंजकी करधनी मृगछाला दण्ड मालाओंको पहर तेजसे अग्निके समान प्रकाशमान कुश हाथमें

लिये भगवान् नम्र हो अभिवादन कर उससे बोले *॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे शकुनिके पुत्र! तुझे निश्चय खेद है तू इतनी दूर क्यों आया? थोड़ी देर विश्रामले, क्योंकि समस्त कामनाओंका देनेवाला यह देह हैं इसे पीड़ा मत दे॥२९॥ हे समर्थ! जो तुम्हारा अभिप्राय हमारे आगे सुनाने योग्य हो तो कहो, क्योंकि बहुधा दूसरोंकी सहायतासे पुरुष अपना कार्य सिद्ध करसक्ते हैं॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! इस प्रकार अमृतरूप वचनसे जब भगवान्ने पूँछा, तब खेद रहित वृकासुरने अपना सब वृत्तान्त सुना दिया॥३१॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, शिवने

श्रीभगवानुवाच॥ शाकुनेय भवान्व्यक्तं श्रांतः किं दूरमागतः॥ क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्माऽयं सर्वकामधुक्॥२९॥ यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो॥ भण्यतां प्रायशः पुंभिर्धृतैः स्वार्थान्समीहते॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा॥ गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम्॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि॥ यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट्॥३२॥ यदि वस्तत्र विश्रंभो दानवेंद्र जगद्वरौ॥ तर्ह्यंगाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम्॥३३॥ यद्यसत्यं वचः शंभोः कथंचिद्दानवर्षभ॥ तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्ताऽनृतं पुनः॥३४॥

तुमको वर दिया है तो शिवके वचनको हम सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि यह शिव दक्षके शापसे पिशाचोंकी दशाको प्राप्त हुआ है, और प्रेत पिशाचोंका राजा है॥३२॥ हे दानवेन्द्र वृकासुर! यदि इस शिवके वचनमें तुझे विश्वास है तो तू शीघ्र अपने मस्तकपर हाथ धरकर परीक्षा लेले॥३३॥ हे दानवश्रेष्ठ! इस महादेवका वचन कैसे सत्य होगा? यह तो मिथ्यावादी है, पीछे जो किसी प्रकार भी महादेवका वचन असत्य

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* शंका— वृकासुरको छलनेके लिये परमेश्वरने ब्रह्मचारीका स्वरूप क्यों धारण किया? क्योंकि वेदमें ब्रह्मचारीके लिये झूठ बोलना बुरा लिखा है, इसलिये और अनेकरूप भगवान्‌के बनाये ससारमें बहुत है दूसरा रूप धारण करके छल करना था, ब्रह्मचारी बनकर क्यों छला?

उत्तर— वृकासुरको त्रिलोकीमें किसीका विश्वास नहीं था, क्योंकि वह बडा धूर्त्त था, और उसको अपने बलका बडा घमण्ड था परन्तु त्रिलोकीमें उसको दो जनोंका विश्वास था एक नारदमुनिका और दूसरे ब्रह्मचारी वेषका, भगवान्ने विचारा कि, यह दैत्य नारद मुनिकी आज्ञा मानके यह कर्म किया है, इसलिये ब्रह्मचारीका रूपधर भगवान्ने सब काम किये।

विदित हो तो महादेवको मार, जो फिर कभी मिथ्या न बोले॥३४॥ इस प्रकार मनोहर विचित्र विचित्र भगवान्के वचनोंसे भ्रष्टबुद्धि हो कुबुद्धि वृकासुरने भूलकर अपने शिरपर अपना हाथ रक्खा॥३५॥ हे महाराज! शिरपर हाथ धरतेही वज्रके मारेके समान क्षणभरमें शिर फूटने से वह वृकासुर गिरगया, उससमय स्वर्गमें जय जय और नमः नमः तथा साधुशब्द होनेलगा॥३६॥ जिससमय पापात्मा वृकासुर मरगया उससमय देवता, पितृ, ऋषि, गंधर्व फूलोंकी वर्षा करनेलगे और भगवान् महादेवजीको भी कष्टसे छुड़ादिया॥३७॥ जब शिवजी कष्टसे छूटगये तब श्रीपुरुषोत्तम बोले कि अहो देव! महादेव! यह वृकासुर पापी अपनेही पाप से मरा है॥३८॥ ईश्वर और बडोंका अपराध करनेसे कौन पुरुष कल्याण

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः॥ भिन्नधीर्विस्मितः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्न्यधात्॥३५॥ अथापतद्भिन्नशिरा वज्राहत इव क्षणात्॥ जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि॥३६॥ मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे॥ देवर्षिपितृगंधर्वा मोचितः संकटाच्छिवः॥३७॥ मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तमः॥ अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना॥३८॥ हतः को नु महत्स्वीश जंतुर्वै कृतकिल्बिषः॥ क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशेकृतागस्को जगद्गुरौ॥३९॥ य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः॥ गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा विमुच्यते संसृतिभिस्तथाऽरिभिः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे रुद्रमोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥

को प्राप्त होता है? देखो विश्वके ईश्वर जगत्के गुरू तुम्हारा अपराध करनेसे कदापि भला नहीं होता है॥३९॥ इसप्रकार वाणीके अगोचर अनन्तशक्ति सबके साक्षात् परमेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रने शिवजीको कष्टसे छुडाया, यह चरित्र जो पुरुष कहे और सुने और उनपर भरोसा करते हैं, वह संसार तथा शत्रुओंसे छूट जाते हैं॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे भाषाटीकायां वृकासुरबधो नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥

दोहा–तीन देवमें को बडो, सबको यही विचार॥ भृगु मुनिने सबसे कह्यो, विष्णु जगत् आधार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! एकसमय सरस्वती नदीके तटपर ऋषि यज्ञ कर रहेथे, तहाँ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन तीनों देवताओंमें कौन बडा है! इसप्रकार परस्पर झगड़ा होने लगा॥१॥ हे राजन्! इनमें कौन बड़ा है, इसकी परीक्षा करनेके लिये भृगुको भेजा, सो भृगु परीक्षाके कारण ब्रह्माकी

श्रीशुक उवाच॥ सरस्वत्यास्तटे राजनृषयः सत्रमासत॥ वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान्॥१॥ तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसुतं नृप॥ तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद्ब्रह्मणः सभाम्॥२॥ न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया॥ तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा॥३॥ स आत्मन्युत्थितं मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः॥ अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणाऽऽत्मभूः॥४॥

सभामें गये *॥२॥ भृगुजीने ब्रह्माके स्वभावकी परीक्षा लेनेके लिये स्तुति प्रमाण कुछ भी नहीं किया, तब ब्रह्माजीने अपने क्रोधसे प्रज्वलित हो भृगुके ऊपर अत्यन्त क्रोध किया॥३॥ परन्तु ब्रह्मा अपने पुत्रके लिये चित्तमें उठे क्रोधको आपही शान्त करनेलगे, जैसे अपने कारण जलसे अग्नि शान्त होती है और अग्निके शान्त करनेमें जैसे अग्निसे उत्पन्न जल काम आता है, उसीप्रकार ब्रह्माका क्रोध शान्त करनेमें

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* शंका— तीनों देवताओंमें बडा देवता कौन है? ब्रह्मा बडे हैं कि, विष्णु बडे हैं कि, शिव बडे हैं, ऐसा विचार मुनि लोगोंने क्यों किया? क्योंकि ऐसा विचार तो बडे बडे अज्ञानी तथा बालक और बडे बडे मूर्ख किया करते हैं, मुनि लोग ऐसा विचार कभी नहीं करते, फिर उन लोगोंने क्यों किया?

उत्तर— सारस्वत मुनिके वशमें जो जन्म लिये ब्राह्मण हैं सो सव ब्रह्मकर्ममें बडे निपुण होते थे, ऐसा ब्रह्मकर्मका अभिमान करके सब देवताओंका और मुनिजनोंका अनादर करने लगे, वचनोंसे भी किसीका आदर नहीं करते थे, ऐसा सारस्वत ब्राह्मणोंका अभिमान जानकर विचार किया कि, ऐसा अभिमान करके सब सारस्वत ब्राह्मण नरकमें पडेंगे, क्योंकि हमें आदि लेके जितने देवता हैं तथा ब्राह्मण हैं, उन सबको यह ब्राह्मण कुछ भी नहीं जानते, ऐसा भगवान्ने विचार करके उनहीं ब्राह्मणोंकी यज्ञमें कृपाकरके उनही ब्राह्मणोंकी बुद्धिको भ्रष्ट कर दिया, तब उन सब ब्राह्मणोंने ज्ञान त्याग दिया और मूर्ख होगये और उस मूर्खतासे भस्म होने लगे, कुछ कालोपरान्त भगवान्का चरित्र भृगुजीने वर्णन किया, तब सब सारस्वत ब्राह्मण अभिमान रहित होगये, इसलिये सारस्वत ब्राह्मण बुद्धि भ्रष्ट होगये॥

उन्हींसे उत्पन्न हुए भृगुजी काम आये॥४॥ वहॉ से भृगुजी कैलास पर्वतपर शिवजीके पास गये, उस समय शिवजी भाई भृगुसे प्रीतिपूर्वक उठकर मिलनेको उद्यत हुए॥५॥ तब भृगुजीने महादेवजीसे मिलनेकी इच्छा न की और कहा तुम कुमार्गमें चलतेहो, हम तुमसे नहीं मिलेंगे, यह सुनतेही महादेवजी क्रोधसे लाल नेत्र कर हाथमें त्रिशूल ले मारनेको प्रस्तुत हुए॥६॥ उससमय पार्वती महादेवजीके चरणोंमें गिरकर बोली कि, महाराज! तुम्हारा भ्राता है, इसे कैसे मारते हो? इस प्रकार वाणीसे शान्त करनेलगीं, इसके उपरान्त भृगु वैकुण्ठमें गये जहॉ जनार्दन भगवान् वास करते हैं॥७॥ लक्ष्मीकी गोदी शयन करते विष्णु भगवान्के हृदयमें भृगुने जाकर लात मारी, तदनंतर साधुओंकी गति विष्णुभगवान्ने

ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः॥ परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा॥५॥ नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह॥ शूलमुद्यम्य तं हंतुमारेभे तिग्मलोचनः॥६॥ पतित्वा पादयोर्देवी सांत्वयामास तं गिरा॥ अथो जगाम वैकुंठं यत्र देवो जनार्दनः॥७॥ शयानं श्रिय उत्संगे पदा वक्षस्यताडयत्॥ तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गतिः॥ स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्॥८॥ आह ते स्वागतं ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्॥ अजानतामागतान्वः क्षंतुमर्हथ नः प्रभो॥९॥ अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने॥ इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन्स्वेन पाणिना॥१०॥ पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्॥ पादोदकन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा॥११॥

लक्ष्मीसहित पलँगपरसे उठ और पृथ्वीमें मस्तक धर भृगुजीको प्रणाम किया॥८॥ और कहनेलगे कि, हे ब्रह्मन्! “तुम भले आये” आसन ग्रहण करो, हे समर्थ! आपके आनेको हमने नहीं जाना, सो अपराध क्षमा करो॥९॥ हे तात! हे महामुनि! तुम्हारे चरण कोमल हैं और मेरी छाती अत्यन्त कठोर है, तुम्हारे चरणोंमें चोट लगी होगी, इसप्रकार कह अपने हाथोंसे ब्राह्मणके चरण सहलाने लगे॥१०॥ गंगादिक तीर्थोंको पवित्र करनेवाले अपने चरणोंके जलसे मुझे और मुझमें अधिष्ठित लोक और लोकपालोंको पवित्र करो॥११॥

हे ब्राह्मण! अब मैं लक्ष्मीके वास करनेका अत्यन्त पात्र हुआ और तुम्हारे चरण स्पर्शसे पाप दूर हुए, इसलिये मेरी छातीमें सदा लक्ष्मी वास करेगी॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्। इसप्रकार श्रीनारायणकी कही मनोहर वाणीसे तृप्त होकर भक्तिसे आनंदमें मग्न हो भृगुजी नेत्रोंमें आँसू भरकर चुप होगये॥१३॥ हे राजन! भृगुजीने फिर अपने यज्ञमें आय वेदपाठी मुनियोंसे तीनोंकी जो बात देखकर आयेथे सो कहदी॥१४॥ भृगुकी बात सुन आश्चर्यको प्राप्त हो संदेहोंको त्याग मुनियोंने कहा कि इतना उनका अपराध किया, परन्तु क्रोध न आया विष्णु भगवान्में ही शान्ति है और किसी देवतामें नहीं है, इसलिये सबसे बड़े विष्णुभगवान्ही हैं; यह निश्चय है॥१५॥ साक्षात् धर्म और धर्मके

अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकांतभाजनम्॥ वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं ब्रुवाणे वैकुंठे भृगुस्तन्मंद्रया गिरा॥ निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कंठोऽश्रुलोचनः॥१३॥ पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्॥ स्वानुभूतमशेषेण राजन्भृगुरवर्णयत्॥१४॥ तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः॥ भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शांतिर्यतोऽभयम्॥१५॥ धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्॥ ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद्य शश्चात्ममलापहम्॥१६॥ मुनीनां न्यस्तदंडानां शांतानां समचेतसाम्॥ अकिंचनानां साधूनां यमाहुः परमगतिम्॥१७॥ सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः॥ भजंत्यनाशिषः शांता यं वा निपुणबुद्धयः॥१८॥ त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः॥ गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम्॥१९॥

लिये ज्ञान तथा वैराग्य और आठ प्रकारके ऐश्वर्य और आत्माके मलोंका दूरकरनेवाला यश यह सब भगवान्मेंही विद्यमान हैं॥१६॥ कालदंडके भयरहित, शान्त स्वभाव और समान चित्त, निकिंचन अर्थात् किसी वस्तुकी जिनमें चाहना नहीं, साधु मुनियोंको जिन भगवान्की परमगति कहते हैं॥१७॥ सत्त्वगुण भगवान्का प्यारा रूप है और ब्राह्मण भगवान्के इष्ट देवता हैं, शांत और निष्काम बड़ी बुद्धिवाले जिनका भजन करते हैं, वही सबसे श्रेष्ठ हैं॥१८॥ जिन भगवान्ने अपनी मायासे सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी तीन प्रकारके देवता असुर

राक्षस बनाये हैं, सबही उनका रूप हैं परन्तु उनमें सत्त्वगुणी रूप कल्याणका देनेवाला है॥१९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार सरस्वतीके तीरवासी ब्राह्मण मनुष्योंका संदेह दूर करेनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दकी सेवा करके श्रीकृष्णचन्द्रकीही गतिको प्राप्त हुए॥२०॥ सूतजी बोले कि, ऋषीश्वरो! व्यासदेव मुनिके पुत्र श्रीशुकदेवजीके मुखकमलकी सुगंधि मिला अमृके समान संसारके भयका कटानेवाला श्रेष्ठ पुरुष श्रीकृष्णचन्द्रका यश कानरूपी दोनोंमें भरकर जो पान करेगा, वह संसारके आवागमनके परिश्रमसे छूट जायगा॥२१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इस चरित्रमें श्रीकृष्णचन्द्रका उत्कर्ष कहा अब श्रीकृष्णचन्द्रकाही उत्कर्ष करनेवाला और चरित्र वर्णन करते हैं

श्रीशुक उवाच॥ एवं सारस्वता विप्रा नृणां संशयनुत्तये॥ पुरुषस्य पदांभोजसेवया तद्गतिं गताः॥२०॥ सूत उवाच॥ इत्येतन्मुनितनयास्य पद्मगंधपीयूषं भवभयभित्परस्य पुंसः॥ सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णं पांथोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः॥ जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत॥२२॥ विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः॥ इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः॥२३॥ ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः॥ क्षत्रबंधोः कर्मदोषात्पंचत्वं मे गतोऽर्भकः॥२४॥ हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेंद्रियम्॥ प्रजा भजंत्यः सीदंति दरिद्रा नित्यदुःखिताः॥२५॥ एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च॥ विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत॥२६॥

हे राजन्! एक समय द्वारकामें एक स्त्रीके पुत्र उत्पन्न होकर पृथ्वीका स्पर्श करतेही मरगया॥२२॥ वह ब्राह्मण मरे पुत्रको ले राजा उग्रसेनकी ड्योढी पर धर विलापकर आतुर दीन मन होकर यह कहनेलगा॥२३॥ ब्रह्मणोंका द्वेषी शठबुद्धि लोभी विषयोंमें आसक्तमन क्षत्रियोंमें अधम इस राजाके दोषसेही मेरा पुत्र मरा हैं मेरा कुछ दोष नहीं है॥२४॥ हिंसा करनेवाले दुःस्वभाव अजितेन्द्रिय राजाके सेवन करनेसे प्रजा दुःखी और दरिद्री होती है॥२५॥ इसीप्रकार वह ब्राह्मण दूसरे पुत्रको फिर तीसरे पुत्रको लेकर राजाके द्वारपर धरकर यही कहने लगा, कि मेरा कुछ दोष

नहीं है, इस राजाके दोषसे यह सब मेरे पुत्र मरे हैं॥२६॥ किसीसमय अर्जुन श्रीकृष्णचन्द्रके निकट ब्राह्मणकी बात श्रवणकर नवम बालक जब मर चुका, तब ब्राह्मणसे कहने लगा॥२७॥ हे ब्राह्मण! तू किसलिये रुदन करता है, क्या तेरे रहनेके स्थान द्वारकामें धनुषका धारण करनेवाला कोई क्षत्रिय नहीं है? धन, स्त्री और पुत्रोंमें आसक्त यह यादव तो यज्ञमें भोजनको आयेहुए ब्राह्मणोंके समान बैठे हैं॥२८॥ क्षत्रियोंके जीवित होनेपर भी धन, स्त्री, पुत्र, संयुक्त ब्राह्मण जहाँ शोच करते हैं वे उदरपोषक क्षत्रिय और उनके वेषसे नटही जीते हैं ऐसा समझना चाहिये॥२९॥ हे ब्राह्मण! तुम दीन हो, इसलिये तुम्हारे पुत्रकी मैं रक्षा करूंगा और जो मुझसे रक्षा न होगी अर्थात् मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण न होगी तो ब्राह्मणकी

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवांतिके॥ परेते नवमे बाले ब्राह्मण समभाषत॥२७॥ किंस्विद्ब्राह्मंस्त्वन्निवास इह नास्ति धनुर्धरः॥ राजन्यबंधुरेते वै ब्राह्मणाः सत्रमासते॥२८॥ धनदारात्मजाऽपृक्ता यत्र शोचाते ब्राह्मणाः॥ ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवंत्यसुंभराः॥२९॥ अहं प्रजां वां भगवन्रक्षिष्ये दीनयोरिह॥ अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः॥३०॥ ब्राह्मण उवाच॥ सकर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः॥ अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवंति यत्॥३१॥ तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः॥ चिकीर्षसि त्वं बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम्॥३२॥ अर्जुन उवाच॥ नाहं संकर्षणो ब्रह्मन्न कृष्णः कार्ष्णिरेव च॥ अहं वा अर्जुनो नाम गांडीवं यस्य वै धनुः॥३३॥

प्रीतिसे पापरहित हो मैं अग्निमें प्रवेश कर जाऊंगा॥३०॥ ब्राह्मण बोला कि, महाराज! संकर्षण, वासुदेव और धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नजी तथा जिसके समान कोई योद्धा नहीं ऐसे अनिरुद्ध यह सब भी मेरे बालकोंकी रक्षा करनेको समर्थ न हुए॥३१॥ जगत्के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी जिस कर्मको न करसके, हे अर्जुन! उस कर्मको तू कैसे करसकेगा? तू अज्ञानसे करना चाहता है इसकारण तेरी बातका मुझे विश्वास नहीं होता॥३२॥ अर्जुन बोले कि, हे ब्राह्मण! मैं संकर्षण, कृष्ण, प्रद्युम्न नहीं हूं, गांडीव धनुषधारी अर्जुन नामक क्षत्रिय हूं॥३३॥

हे ब्राह्मण! तू मेरा अपमान मत करे, महादेवका प्रसन्न करनेवाला मेरा पराक्रम है, है समर्थ ब्राह्मण! संग्रामके बीच मृत्युको जीतकर भी तेरे पुत्र ला दूंगा॥३४॥ हे नृपोत्तम परीक्षित्! इसप्रकार धृष्टताके वचनोंसे विश्वासको प्राप्त हो, वह ब्राह्मण अर्जुनके पराक्रमको श्रवण कर प्रसन्न हो अपने घरको चला आया॥३५॥ जब स्त्रीको प्रसूतिकालका समय आया, तब ब्राह्मण “मृत्युसे पुत्रकी रक्षाकर” इसप्रकार वारम्वार आतुर हो अर्जुनसे कहने लगा॥३६॥ उस समय अर्जुनने पवित्र जलका स्पर्श कर हाथ, पॉव धो, आचमनकर, शिवजीको नमस्कार करके दिव्य शस्त्रोंका स्मरण कर प्रत्यंचा चढाय गांड़ीव धनुषको हाथमें लिया॥३७॥ अनेक शस्त्रोंमें मिलाये बाणोंसे सोवरके घरको पिंजरा बना दिया, तिरछे बाण चलाये,

माऽवमंस्था मम ब्रह्मन्वीर्यं त्र्यंबकतोषणम्॥ मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजां प्रभो॥३४॥ एवं विश्रंभितो विप्रः फाल्गुनेन परंतप॥ जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन्॥३५॥ प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः॥ पाहिपाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः॥३६॥ स उपस्पृश्य शुच्यंभो नमस्कृत्य महेश्वरम्॥ दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गांडीवमाददे॥३७॥ न्यरुणत्सूतिकाऽगारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः॥ तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपंजरम्॥३८॥ ततः कुमारः संजातो विप्रपत्न्या रुदन्मुहुः॥ सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा॥३९॥ तदाऽह विप्रो विजयं विनिंदन्कृष्णसन्निधौ॥ मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीवकत्थनम्॥४०॥ न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः॥ यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः॥४१॥

ऊपरको चलाये और नीचेको चलाकर घरके ऊपर बाणोंका पिंजरा करदिया॥३८॥ इसके उपरान्त ब्राह्मणकी स्त्रीके उत्पन्न हुआ बालक बारम्बार रुदनकर शीघ्रही शरीर सहित आकाश मार्गमें होकर चलागया और बार देह पडा रहता था, अबकीबार देह भी न रहा॥३९॥ उससमय ब्राह्मण श्रीकृष्णचन्द्रके निकटही अर्जुनकी निन्दा करके यह कहनेलगा कि, मेरी मूढता देखो, मैंने इस नपुंसक अर्जुनका कहना सत्य माना॥४०॥ प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, बलदेवजी और श्रीकृष्णचन्द्र यह सब मिलकर भी जिसकी रक्षा न करसके, उसकी रक्षा करनेको और कौन समर्थ है ?॥४१॥

मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है, इस अपनी श्लाघा करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है, यह दुर्बुद्धि दैवके विनाश किये पदार्थको मूर्खतासे बचाना चाहता है॥४२॥ इसप्रकार जब ब्राह्मणने खोटा वचन कहा, तब अर्जुनने योगविद्याको धारणकर यमराज भगवान्की संयमनीपुरीमें शीघ्र प्रवेश किया॥४३॥ वहाँ यमराजकी पुरी में पुत्रोंको न देखा, तब वहाँसे अर्जुन इन्द्रकी पुरीमें गया, फिर अग्निकी पुरीमें गया, वहाँसे कुबेरकी पुरीमें गया वायुकी पुरीमें गया, वरुणकी पुरीमें गया, इसके उपरान्त रसातल और स्वर्गमें गया फिर धनुषको उठाये और स्थानोंको गया॥४४॥ स्थान ढूंढे परन्तु कहीं ब्राह्मणके पुत्रका पता न मिला, तब प्रतिज्ञासे अर्जुन अग्निमें प्रवेश करनेकी इच्छा करनेलगा, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उसे मने करके

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः॥ दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः॥४२॥ एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः॥ ययौ संयमिनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यमः॥४३॥ विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐंद्रीमगात्पुरीम्॥ आग्नेयीं नैर्ऋतिं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ॥ रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः॥४४॥ ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः॥ अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता॥४५॥ दर्शये द्विजसूनूंस्ते भावज्ञात्मानमात्मना॥ ये ते हि कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयंति नः॥४६॥ इति संभाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः॥ दिव्यस्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत्॥४७॥ सप्त द्वीपान्सप्त सिंधून्सप्तसप्त गिरीनथ॥ लोकालोकं तथाऽतीत्य विवेश सुमहत्तमः॥४८॥ तत्राश्वाः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः॥ तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ॥४९॥

बोले॥४५॥ कि ब्राह्मणके पुत्रको मैं ला दूंगा, तू अग्रिमें मत जलै, इसलिये जो तेरी निन्दा करते हैं वेही तुम्हारी निर्मल कीर्त्तिको हमारे साथ पृथ्वीपर निरन्तर गान करेंगे कि, अंतमें श्रीकृष्णके साथ अर्जुनने ब्राह्मणके पुत्रोंको लाही दिया॥४६॥ सामर्थ्यवान् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इसप्रकार कह और अर्जुनको संग ले अलौकिक अपने रथमें चढ पश्चिमदिशाको चलेगये॥४७॥ और सात सात पर्वतके सात द्वीप उल्लंघनकर तथा सात समुद्रोंको और लोकालोक पर्वतोको उल्लंघन कर बड़े अंधकारमें घुसगये॥४८॥ हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! उस अंधकारमें शैव्य, सुग्रीव,

मेघपुष्प, बलाहक इन रथके घोड़ोंकी गात शिथिल होगई॥४९॥ महायोगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने घोड़ोंकी शिथिलगतिको देख हजार सूर्यके तेजवाले अपने सुदर्शन चक्रको रथके आगे चलनेकी आज्ञा दी॥५०॥ अति घोर सघन प्रकृतिके परिमाण रूप अंधकारको अपनी उत्कृष्ट कांतिसे विदीर्णकर मनके तुल्य वेगवान् सुदर्शनचक्रने प्रत्यंचासे सेनापर श्रीरामचन्द्रके बाणके समान प्रवेश किया॥५१॥ चक्रके पीछे गमन करके उस अंधकारसे परे वर्त्तमान श्रेष्ठ व्याप्त भगवान्का प्रकाशरूप देख चकाचौंधीसे अर्जुनने अपने दोनों नेत्र मूॅद लिये॥५२॥ इसके उपरान्त बड़े पवन चलनेसे उठी लहरोंसे शोभायमान जलमें वह रथ गया, उस जलमें प्रकाशमान वस्तुमें श्रेष्ठ और दीप्तिमान् सहस्रों मणि

तान्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः॥ सहस्रादित्यसंकाशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः॥५०॥ तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्विदारयद्भूरितरेण रोचिषा॥ मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः॥५१॥ द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः परं परंज्योतिरनंतपारम्॥ समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे॥५२॥ ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता बलीयसैजद्बृहद्वर्मिभूषणम्॥ तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं भ्राजन्मणिस्तंभसहस्रशोभितम्॥५३॥ तस्मिन्महाभीममनंतमद्भुतं सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः॥ विभ्राजमानं द्विगुणोल्वणेक्षणं सिताचलाभं शितिकंठजिह्वम्॥५४॥ ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्॥ सांद्रांबुदाभं सुपिशंगवाससं प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम्॥५५॥

योंके खंभ लग रहे हैं, उनसे शोभायमान अद्भुत भवन देखा॥५३॥ उस भवनमें बड़ी देहवाले अद्भुत सहस्र मस्तकोंमें मणियोंकी कान्तिसे प्रकाशमान दो सहस्र नेत्रोंसे शोभायमान स्फटिकमणिके श्वेतपर्वतकी तुल्य कांति और श्याम कंठ तथा जिह्वा संयुक्त शेषनागको अर्जुनने देखा॥५४॥ उन शेषनागके देहको सुखदायक आसन बनाये बड़े प्रभाववाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ उत्तम भूमा पुरुषको शयनकरते अर्जुनने देखा जिनकी वर्षाऊ मेघके समान कान्ति, सुन्दर पीत वस्त्रोंको धारण किये, मुख प्रसन्न मनोहर और बड़े बड़े नेत्र हैं॥५५॥

जिनके केश बड़ी मणियोंसे जटित किरीट और कुण्डलोंकी कान्तिसे शोभायमान लंबी सुन्दर आठ भुजा कौस्तुभमणिको धारण करे और भृगुलताके चिह्न संयुक्त वनमाला पहररहे थे॥५६॥ सुनंद, नंद, मुख्य अपने पार्षद और मूर्त्तिमान चक्रादि अपने शस्त्र और पुष्टि, श्री, कीर्त्ति, माया तथा समस्त अणिमादिक विभूतियोंसे सेवित ब्रह्मादिकोंके पालन करनेवाले॥५७॥ इस प्रकार अनन्तभूमा भगवान्के दर्शनकर सब लोकोंके पति श्रीकृष्णचन्द्रने अपने स्वरूपको प्रणाम किया और भयभीत अर्जुनने भी प्रणाम किया, इसके उपरान्त श्रीकृष्ण और अर्जुनको हाथ जोड़े खड़ा देख वह पुरुष गंभीर वाणीसे मुसकातेहुए बोले॥५८॥ कि, तुम्हारे देखनेके लिये ब्राह्मणके पुत्रोंको मैं ले आया हूं, पृथ्वीमें मेरी कलासे अवतीर्णहुए

महामणिव्रातकिंरीटकुंडलप्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुंतलम्॥ प्रलंबचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं श्रीवत्सलक्ष्म्या वनमालावृतम्॥५६॥ सुनंदनंदप्रमुखैः स्वपार्षदैश्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधैः॥ पुष्ट्या श्रिया कीर्त्यजयाऽखिलर्द्धिभिर्निषेव्यमाणं परमेष्ठिनां पतिम्॥५७॥ ववंद आत्मानमनंतमच्युतो जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः॥ तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभुर्वद्धांजली सस्मितमूर्जया गिरा॥५८॥ द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये॥ कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमंति मे॥५९॥ पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी॥ धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसंग्रहम्॥६०॥ इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना॥ ओमित्यानस्य भूमानमादाय द्विजदारकान्॥६१॥ न्यवर्ततां स्वकं धाम संप्रहृष्टौ यथागतम्॥ विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावयः॥६२॥ निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः॥ यत्किंचित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकंपितम्॥६३॥

तुम पृथ्वीके ऊपर बोझरूप असुरोंको भार शीघ्र मेरे पास आजाओ॥५९॥ तुम दोनों पूर्ण मनोरथ महाश्रेष्ठ नरनारायण ऋषि हो तो भी लोकोंको शिक्षा करनेके लिये धर्म करते हो॥६०॥ श्रेष्ठ आसनपर विराजमान भगवान् भूमापुरुषने जब इस प्रकार आज्ञा दी तो श्रीकृष्णचन्द्र अर्जुन भूमापुरुषको प्रणामकर ब्राह्मणके बालकोंको संग ले अपने धाम द्वारकापुरीमें आये और उन्होंने ब्राह्मणको उसी अवस्था और रूप वाले पुत्र देदिये॥६१॥६२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका प्रभाव देख अर्जुनने महा आश्चर्य मानकर पुरुषमें जो कुछ पराक्रम है सो श्रीकृष्णचन्द्रकी

कृपासेही है यह निश्चय किया॥६३॥ इसप्रकार अनेक पराक्रम इस संसारमें दिखाकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जगत्के विषयोंको भोग किया और बड़े यज्ञोंसे यजन किया॥६४॥ समयके अनुसार धर्ममार्गमें स्थित हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्राह्मणसे आदि ले सब प्रजाके मनोरथको जैसे नव वर्षासे पृथ्वीको पूर्ण करते हैं उसीप्रकार पूर्ण किया॥६५॥ अधर्मी राजाओंको मारकर और कितनोंको अर्जुन भीमसेनादिकोंके द्वारा घात कराया धर्मपुत्र युधिष्ठिरादि धार्मिक राजाओंके द्वारा अनायास संसारमें धर्म प्रवृत्त किया॥६६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णचरित्रवर्णनं नामैकोननवतितमोऽध्यायः॥८९॥ दोहा–नब्बेके अध्यायमें, यदुकुलको

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्॥ बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्यूर्जितैर्मखैः॥६४॥ प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु॥ यथाकालं यथैवेंद्रो भगवाञ्श्रैष्ठ्यमास्थितः॥६५॥ हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्घातयित्वाऽर्जुनादिभिः॥ अंजसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः॥६६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कंधोत्तरार्द्धे द्विजकुमारानयनं नाम नवाशीतितमोऽध्यायः॥८९॥ श्रीशुक उवाच॥ सुखं स्वपुर्यां निवसन्द्वारकायां श्रियः पतिः॥ सर्वसंपत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः॥१॥ स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिर्नवयौवनकांतिभिः॥ कंदुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडंतीभिस्तडिद्द्युभिः॥२॥ नित्यं संकुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतंगजैः॥ स्वलंकृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः॥३॥ उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु॥ निर्विशद्भगविहगैर्नादितायां समंततः॥४॥

विस्तार॥ हरिलीला सक्षेपसे, वरणों बारम्बार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्! संपूर्ण संपत्तियोंसे भरी और श्रेष्ठ यादवोंसे सेवित द्वारकापुरीमें॥१॥ जहाँ नवयौवनकी शोभासे शोभायमान और विजलीके समान कान्तिवाली स्त्रियें महलोंमें गेंद कीड़ा कर रही हैं और शृंगारसे मनोहर वेष धारण कररही हैं॥२॥ जहाँके मार्गोमें मद चुवाते हाथी और उत्तम वेषकिये योद्धा घोड़े और सुवर्णसे दीप्तिमान रथोंकी सदा भीड़ बनी रहती है॥३॥ जहाँ फूलसंयुक्त अत्यन्त शोभायमान बगीचे लगरहे हैं, और फूलेहुए वृक्षोंकी पंक्तियोंमें

चारों ओरसे भोंरे और पक्षी निरन्तर गुंजार करते रहते हैं॥४॥ ऐसी द्वारकापुरीमें सोलह सहस्र पत्नियोंके प्यारे श्रीकृष्णचन्द्रने जितने स्त्रियोंके जितने सम्पन्न महल हैं, उनमें उतनेही विचित्ररूप धारणकर उनके संग रमण किया *॥५॥ इन घरोंमें फूलेहुए उत्पल, कहार,

रेमे षोडशसाहस्रपत्नीनामेकवल्लभः॥ तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गृहेषु महर्द्धिषु॥५॥ प्रोत्फुल्लोत्पलकहारकुमुदांभोजरेणुभिः॥ वासितामलतोयेषु कूजद्द्विजकुलेषु च॥६॥ विजहार विगाह्यांभो ह्रदिनीषु महोदयः॥ कुचकुंकुमलिप्तांगः परिरब्धश्च योषिताम्॥७॥ उपगीयमानो गंधर्वैर्मदंगपणवानकान्॥ वादयद्भिर्मुदा वीणां सूतमागधबंदिभिः॥८॥

कुमुद, अंभोज, परागकी सुगंधियुक्त निर्मल जलवाले सरोवरोंमें पक्षियोंके समूह शब्द कररहे॥६॥ स्त्रियोंके आलिंगनसे कुचोंकी केशर जिनके लगरही, ऐसे महाप्रतापी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सरोवरोंके भीतर विहार करते हैं॥७॥ मृदंग, ढोलक आदि बाजे और वीणाओंको गंधर्वगण

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* शंका— श्रीकृष्ण भगवान् अपनी स्त्रियोंके साथ मनुष्योंके समान क्रीडा क्यों करते थे!

उत्तर— श्रीकृष्णने विचार किया कि, अब कलियुगके आनेके थोडेही दिन और रहे हैं, जब कलियुग अवेगा तो कलियुगमें बडे बडे दुष्ट अधर्मी मनुष्य जन्मेंगे और अपनी स्त्रियोंको छोडकर दूसरी स्त्रियोंसे मन लगावेंगे और उनहींको अनेक २ प्रकारके वस्त्र आभूषण पहिरावेंगे और अपनी स्त्रियोंको भरकर पेट रोटीमी न देंगे और हरेक वस्तुको तरसावेंगे और वात वातोंमें लात और घूसोंसे मार लगावेंगे तब वेदमें जो विवाहिता स्त्री पुरुषोंका धर्म लिखा है सो सब नष्ट हो जायगा तब सनातन धर्म नष्ट हुए पीछे सब प्रजा वर्णसंकर होजायगी, तब पृथ्वी रसातलके जानेकी इच्छा करेगी, तब मुझको अवतार लेना पडेगा ऐसा भगवान् विचारके कलियुगमें जो मनुष्य उत्पन्न होवेंगे उन मनुष्योंको सिखानेके लिये और कलियुगमें स्त्रियोंकी रक्षा करनेकेलिये अपनी स्त्रियोंके साथ अत्यन्त क्रीडा और विहार करते थे श्रीकृष्णने विचारा कि अपनी स्त्रियोंके क्रीडाको कलियुगके मनुष्य सुनके जारकर्म छोडके अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ इसीप्रकार विहार करेंगे और आदर सत्कार सहित उनका पूजन करेंगे और अपनी स्त्री गृहस्थीमें परमोत्तम हैं, क्योंकि श्रीकृष्णने भी उनके साथ अत्यन्त प्रीति की थी इसीप्रकार हम भी उनसे प्यार करें और जो परमोत्तम न होती तो श्रीकृष्ण अपनी स्त्रियोंका सन्मान क्यों करते इसलिये श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीडा की थी कामदेवके वश होकर नहीं की थी।

बजाय रहे हैं, और सूत, मागध, बंदीजन स्तुति कररहे हैं॥८॥ हँसती हुई स्त्रियें अपनी २ पिचकारियोंसे भिजोती और श्रीकृष्णचन्द्र भी स्त्रियोंको छिडकते यक्षराज कुबेरके समान क्रीडा करनेलगे॥९॥ भीजे वस्त्रोंसे उर, कुच, प्रगटहोने और ढीली चोटियोंमेंसे फूल गिरनेसे स्त्रियें पिचकारीसे बचनेके कारण भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आलिंगन करतेही कामदेवके उत्सवसे प्रकाशमान मुखवाली होगई और भगवान्को भि जोती शोभा पानेलगीं॥१०॥ स्त्रियोंके स्तनोंकी केशरसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी माला भरगई और हाथिनियोंके संग विहार करनेवाले हाथीके समान शोभायमान होनेलगे॥११॥ नट और नाचनेवालियोंको गीत गाने तथा बाजे बजाकर जीविका करनेवालोंको श्रीकृष्णचन्द्र और

सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिर्हसंतीभिः स्म रेचकैः॥ प्रतिषिंचन्विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव॥९॥ ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः सिंचंत्य उद्धृतबृहत्कबरप्रसूनाः॥ कांतं स्म रेचकजिहीरषयोपगुह्य जातस्मरोत्सवलसद्वदनाविरेजुः॥१०॥ कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्जितकुंकुमस्रक्क्रीडाभिषंगधुतकुंतलवृंदवंधः॥ सिंचन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः॥११॥ नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम्॥ क्रीडालंकारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः॥१२॥ कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः॥ नर्मश्वेलिपरिष्वंगैः स्त्रीणां किल हृता धियः॥१३॥ ऊचुर्मुकुंदैकधियो गिर उन्मत्तवज्जडम्॥ चिंतयंत्योऽरविंदाक्षं तानि मे गदतः शृणु॥१४॥ महिष्य ऊचुः॥ कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेष स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः॥ वयमिव सखि कच्चिद्गाढनिर्भिन्नचेता नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन॥१५॥

उनकी स्त्रियोंने क्रीड़ा करनेके अलंकार और वस्त्र दिये॥१२॥ इसप्रकार विहार करते भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी चलनि, बोलनि मुसकानि और हास्यकी वार्त्ता, क्रीड़ा, आलिंगनसे स्त्रियोंकी बुद्धि हरगईथी॥१३॥ हे राजन्! मुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्रमें बुद्धिवाली एक स्त्रीने पहले चुप होय फिर भगवान् वासुदेवका ध्यानकर, उन्मत्त हो जड़की नाई जो वचन कहेथे, उन वचनोको मैं वर्णन करताहूं, तुम सुनो॥१४॥ स्त्रियें बोलीं कि, हे टिटहरी! संसारमें गुप्तबोध भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तो शयन कररहे हैं और तू निद्रारहित हो विलाप करके उनकी नींदमें बाधा देती है,

तू शयन नहीं करती, सो यह सत्य नहीं, हे सखी! क्या हमारीही नाई कमलनेत्र श्रीकृष्णचन्द्रका हास्य लीला पूर्वक चितवनसे तेरा चित्त बॅधगया है, इसीसे पुकारती है?॥१५॥ हे चकवी! तैंने क्यों नेत्र मूँदलिये हैं, रात्रिमें पतिको न देखनेसे करुणाके मारे रुदन करती है, अथवा दास्यभावमें प्राप्त हुई हमारी समान भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकी प्रसादी माला अपनी चोटीपर चढ़ानेकी इच्छा करती है, क्या इसीलिये रोती है?॥१६॥ हे समुद्र! निद्राके न आनेसे क्या तुझेभी प्रजागर होगया, जो सदा चिल्लाता रहता है! अथवा हमारीसी दशा तेरी भी है जैसे भोगसे मुकुन्दने हमारे कुचोंकी केशर लेली है, क्या इसी प्रकार तुझेभी मथकर तुझमेंसे लक्ष्मी और कौस्तुभमणि निकालही है?॥१७॥ हे

नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबंधुस्त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि॥ दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम्॥१६॥ भोभोः सदा निष्टनसे उदन्वन्नलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः॥ किं वा मुकुंदापहृतात्मलाच्छनः प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम्॥१७॥ त्वं यक्ष्मणा बलवताऽसि गृहीत इंदो क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोऽषि॥ कच्चिन्मुकुंदगदितानि यथा वयं त्वं विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः॥१८॥ किं त्वाचरितमस्माभिर्मलयानिल तेऽप्रियम्॥ गोविंदापांगनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम्॥१९॥ मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो यादवेंद्रस्य नूनं श्रीवत्सांकं वयमिव भवान्ध्यायति प्रेमबद्धः॥ अत्युत्कंठः शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसंगः॥२०॥

चन्द्रमा! जान पड़ता है कि, तुझे बलिष्ठ क्षयके रोगने ग्रहण करलिया है, इसीकारण क्षीणताको प्राप्त हुआ है, अपनी किरणोंसे अंधकारको दूर नहीं करता, हमारीही समान मुकुन्दकी रहस्य वार्त्ताओंको भूल उसी चिन्ताके मारे क्षीण होगया है और हमें निश्चय है कि तेरी वाणीभी हमारी समान बंद होगई है!॥१८॥ हे मलयाचलके पवन! हमने ऐसा क्या तेरा अप्रिय कार्य किया है? जिससे तू गोविन्दके अंगमें लगकर हमारे हृदयमें कामाग्निको प्रगट करता है॥१९॥ हे मेघ! हे श्रीमन्! हम जानती हैं तू यादवोंके इन्द्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका प्यारा मित्र है, इसीलिये जो ताप दूर करनेको भगवान्में गुण है सो तुझमें भी है, सो हमारे समान भगवान्के प्रेममें बॅधकर तूभी नारायणका चिंतवन करता है, क्योंकि तेरे हृदयमें जो अति

उत्कंठा है इससे भृगुलताके चिह्नवाले श्रीकृष्णका स्मरणकर हमारे समान अश्रुकी धारा बहाता है, तेरा हृदय भी श्याम होरहा है तैने उनके संग मित्रता क्यों करी? उनका संग तो दुःखदायी ही है॥२०॥ हे शोभायमान कंठवाले कोकिल! मृतकको जिलानेवाली कोमल वाणीसे प्यारी बातें करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे वचन कहती हैं तेरा में क्या प्रिय करूं, सो मुझसे कह॥२१॥ हे उदारबुद्धे! हे पर्वत! तू चलता और बोलताभी नहीं है, और बड़ी चिन्ता करता है, जैसे वसुदेवनंदनके चरण हम अपने हृदयमें धरनेकी चाहना करती है, उसी प्रकार तू भी अपने शिखरपर धरनेकी इच्छा करता है, यदि धरेगा तो हमारीसी दशा तेरी भी होगी॥२२॥ हे समुद्रपत्नियो नदियो! इस समय ग्रीष्मके आनेसे मेघद्वारा समुद्रका जल न पानेसे दुर्बल, सूखे ह्रद और कमलोंकी शोभासे हीन होगई हो, धारा वर्षाकर तुम्हें आनन्द नहीं देती, यह बडा कष्ट है, इसीसे

प्रियरावपदानि भाषसेऽमृतसंजीविकयाऽनया गिरा॥ करवाणि किमद्य ते प्रियं वद मे वल्गितकंठ कोकिल॥२१॥ न चलसि न वदस्युदारबुद्धे क्षितिधर चिंतयसे महांतमर्थम्॥ अपि बत वसुदेवनंदनांघ्रिं वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम्॥२२॥ शुष्यद्ध्रदाः कृशतरा बत सिंधुपत्न्यः संप्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः॥ यद्वद्वयं यदुपतेः प्रणयावलोकमप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म॥२३॥ हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यंग शौरेः कथां दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा॥ किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं कस्माद्भजामो वयं क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम्॥२४॥

तुम्हारे हृदय सूखकर लट गये हैं, जैसे वांछित पति यदुपति श्रीकृष्णचन्द्रकी स्नेहभरी चितवनके पडे विना हमारे हृदय चुरायेजानेसे हम दुर्बल होगई हैं॥२३॥ अकस्मात् आये हंसको दूत कल्पना करके कहती हैं कि, हे हंस! आप अच्छे आये! आओ विराजो, पयपान करो; श्रीकृष्णचन्द्रकी वार्ता कहो, आप दुतबनकर आयेहो सो हमको विदित है, श्रीकृष्णचन्द्र भलीप्रकार तो हैं? क्षणिकप्रीति रखनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र आपही हमसे जो कुछ कहगये थे उसका किसी समय स्मरण करते हैं? हे दूत! हमारा भगवान् वासुदेवसे क्या अर्थ? जो हमें कामके सुखके लिये बुलाते हों तो उन्हींको हमारे निकट बुलाकर लेआ, परन्तु यह बात है कि, लक्ष्मी हमसे छलकर श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवा करती है, इसकारण लक्ष्मी

रहित श्रीकृष्णचन्द्रकोही बुलाकर ला, कमला एकनिष्ठावाली है, सो उसको किसप्रकार छोड़ा जाय, यदि तेरे मनमें यह बात हो तो क्या स्त्रियोंमें केवल लक्ष्मीही निष्ठावाली है, क्या हम वैसी नहीं?॥२४॥ योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें इसप्रकार भावकर श्रीकृष्णचन्द्रकी स्त्रियें वैष्णवगतिको प्राप्त हुई॥२५॥ जो श्रीकृष्णचन्द्रका कीर्त्तन करने और श्रवण करनेसेही स्त्रियोंके मनको हर लेते हैं और जो दर्शन करने वालियोंके मनको हर लें तो क्या आश्चर्य है?॥२६॥ हे राजन्! जो स्त्री जगत्के गुरु श्रीकृष्णचन्द्रको अपना पति मान प्रेमपूर्वक उनकी चरण आदि सेवा करती थीं, उनका तप और भाग्य कहॉतक वर्णन करें?॥२७॥ इसप्रकार साधुओंकी गति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, वेदविहित धर्मका

इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे॥ क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम्॥२५॥ श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः॥ उरुगायोरुगीतो वा पश्यंतीनां कुतः पुनः॥२६॥ याः संपर्यचरन्प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः॥ जगद्गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः॥२७॥ एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन्सतां गतिः॥ गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत्पदम्॥२८॥ आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम्॥ आसन्षोडशसाहस्रं महिष्योष्टशताधिकम्॥२९॥ तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ याः प्रागुदाहृताः॥ रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः॥३०॥ एकैकस्यां दशदश कृष्णोऽजीजनदात्मजान्॥ यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः॥३१॥ तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथाः॥ आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे शृणु॥३२॥

अनुष्ठानकर घरमें रह धर्म, अर्थ, विषय सेवन करनेवाले संसारी पुरुषोंको बारम्बार दिखाया॥२८॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र गृहस्थियोंके उत्तम धर्मका पालन करते थे, उस समय भगवान्के सोलह सहस्र एकसौ आठ (१६१०८) रानियें थीं॥२९॥ हे राजन्! स्त्रियोंमें रत्नके समान सोलह हजार एकसौ आठ रानियोंमें रुक्मिणीसे आदिले आठ पटरानी थीं, जिनके पुत्रोंके नाम भी पहले वर्णन कर चुके हैं॥३०॥ अप्रमेयगति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके जितनी भार्या थीं, सो एक एक भार्यामें दश दश पुत्रोंको उत्पन्न किया, वे सब मिलकर एक लाख इकसठ हजार और अस्सी १६१०८० हुये॥३१॥ हे नृपश्रेष्ठ! उनमें बड़े पराक्रमी उदार और यशस्वी अठारह १८ महारथी हुये, उनके नाम सुनो॥ ३२॥

यथा प्रद्युम्न अनिरुद्ध^(२), दीप्तिमान, भानु^(४), सांब^(५), मधु^(६), बृहद्भानु^(७), चित्रभा^(८)नु, वृक, अरुण^(१०)॥३३॥ पुष्क^(११)र, वेयाहु, श्रुतदेव^(१३), सुनंद^(१४)न, चित्रबा^(१५)हु, विरूप^(१६), क^(१७)वि और न्य^(१८)ग्रोध॥३४॥ हे राजन! मधुदैत्यके मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सब पुत्रोंमें रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नजी श्रीकृष्णचन्द्रके समान गुणी हुये॥३५॥ महारथी प्रद्युम्नजीने रुक्मीणीकी पुत्रीसे विवाह किया, उन प्रद्युम्नजीसे रुक्मीणीकी पुत्रीमें दशहजार हाथियोंके बलवाले अनिरुद्ध पुत्र हुये॥३६॥ अनिरुद्धने रुक्मीणीकी पोती रोचनाको व्याहा उस रोचनामें अनिरुद्धके वज्रनाभ पुत्र हुआ, जो वज्रनाभ प्रभासक्षेत्रकी सुशललीलामें शेष रहा॥३७॥ उस वज्रनाभके प्रतिबाहु पुत्र हुआ, प्रतिबाहुके सुबाहु हुआ, सुबाहुके शांतसेन हुआ और शांतसेनके शतसेन हुआ॥३८॥ इस यदुकुलमें धनहीन

प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान्भानुरेव च॥ सांबो मधुर्बृहद्भानुश्चित्रभानुर्वृकोऽरुणः॥३३॥ पुष्करो देवबाहुश्च श्रुतदेवः सुनदंनः॥ चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च॥३४॥ एतेषामपि राजेंद्र तनुजानां मधुद्विषः॥ प्रद्युम्न आसीत्प्रथमः पितृवद्रुक्मिणीसुतः॥३५॥ स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः॥ तस्मात्सुतोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः॥३६॥ स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः॥ वज्रस्तस्याभवद्यस्तु मौसलादवशेषितः॥३७॥ प्रतिबाहुरभूत्तस्मात्सुबाहुस्तस्य चात्मजः॥ सुबाहोः शांतसेनोऽभूच्छतसेनस्तु तत्सुतः॥३८॥ न ह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः॥ अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे॥३९॥ यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम्॥ संख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैर्नृप॥४०॥ तिस्रः कोट्यः सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च॥ आसन्यदुकुलाचार्याः कुमाराणामिति श्रुतम्॥४१॥ संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्॥ यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुकः॥४२॥

प्रजाहीन किसीने जन्म नहीं लिया और थोड़ी आयु पराक्रम रहित ब्राह्मणोंका भक्तिहीन ऐसा कोई उत्पन्न नहीं हुआ॥३९॥ हे राजा परीक्षित्! यदुवंशमें उत्पन्नहुये विख्यातकर्मा पुरुषोंकी संख्या दशहजार वर्षोंमें भी कहनेको समर्थ नहीं होसक्ते॥४०॥ क्योंकि तीन करोड आठ सहस्र आठसौ ३०००८८०० यदुकुलके बालकोंको पढ़ानेवाले आचार्य नियत थे, यह मैंने सुना है॥४१॥ महात्मा यादवोंकी संख्या कौन कर सकता है? क्योंकि जिस कुलमें हजारोंके दशहजार उनके लाख इतने यादवोंको लेकर द्वारकापुरीमें उग्रसेनने वास किया॥४२॥

देवता और असुरोंके युद्धमें मरे दारुण दैत्यही मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्ववंत होकर प्रजाको बाधा देनेलगे थे॥४३॥ हे महाभागवते परीक्षित! उन असुरोंको दंड देनेके लिये हरि भगवान्की आज्ञा पाय देवताओंने यदुकुलमें अवतार लिया था॥४४॥ उन यादवोंकी प्रभुतामें भगवान्ही प्रमाण हुए, उन श्रीकृष्णचन्द्रके आज्ञानुवर्ती सब यादव हो वृद्धिको प्राप्तहुए॥४५॥ सोते, बैठते, बोलते, क्रीडा, स्नान, भोजनादि कर्म करते श्रीकृष्णचन्द्रमें चित्त लगाये यादवोंने अपने आत्माको नहीं जाना॥४६॥ उससे प्रथम श्रीगंगाजीही अधिक तीर्थ रही, जब यादवोंमें श्रीकृष्णचन्द्रका यशरूपी तीर्थ प्रगट हुआ तबसे अपने चरणोदकरूप गंगातीर्थको भी न्यून करने लगे और आपही संपूर्ण तीर्थोंके ऊपर विराजनेवाले भगवान्

देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः॥ ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे॥४३॥ तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले॥ अवतीर्णाः कुलशतं तेषामेकाधिकं नृप॥४४॥ तेषां प्रमाणं भगवान्प्रभुत्वेनाभवद्धरिः॥ ये वानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः॥४५॥ शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु॥ न विदुः संतमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥४६॥ तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु स्वःसरित्पादशौचं विद्विट्स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपराः श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्नः॥ यन्नामाऽमंगलघ्नं श्रुतमथ गदितं यत्कृतो गोत्रधर्मः कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं कालचक्रायुधस्य॥४७॥ जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो यदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्॥ स्थिरचरबृजिनघ्नः सुस्मितः श्रीमुखेन व्रजपुरवनितानां वर्धयन्कामदेवम्॥४८॥

श्रीकृष्णचन्द्रने जिन पुरुषोंसे वैर किया और जिसने स्नेह किया वह भी तद्रूपको प्राप्त हुए देखो! जिस लक्ष्मीके लिये ब्रह्मादिक उपाय करते हैं, सो किसीको प्राप्त नहीं हुई, वह लक्ष्मी भी श्रीकृष्णचन्द्रको त्यागकर कहीं नहीं जाती, जिन श्रीकृष्णचन्द्रका नाम श्रवण करनेसे अथवा कथन करनेसे सब पापोंका नाश कर देता है, फिर उनके स्वरूपका तो कहना ही क्या है! और ऋषियोंके वंशमें धर्म चलाया काल चक्र आयुधधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको दुष्टोंका मारना और पृथ्वीका बोझ उतारना, यह कुछ आश्चर्य नहीं है॥४७॥ सब जीवोंमें अंतर्यामीरूप होकर वास करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सर्वदा उत्कर्षतापूर्वक विराजमान हैं, देवकीमें जन्म हुआ, यह तो कथनही मात्र है, श्रेष्ठ यदुवंशियोंसे सेवित इच्छामात्रसे अध

र्मके नाश करनेमें समर्थ है परन्तु तोभी क्रीडाके लिये अपनी भुजाओंसे अधर्मको दूरकर स्थावर, जंगम सब जीवोंका दुःख दूरकर सुन्दर मुसकान युक्त अपने श्रीमुखसे व्रजकी स्त्री गोपिका और पुरी मथुरा द्वारका की स्त्रियोंको कामदेव बढ़ानेवाले सर्वदा विराजमान रहते हैं, ऐसे सर्वोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी जय हो॥४८॥ अपने धर्मकी रक्षा करनेके लिये मत्स्य कूर्मादिक अवतार धारण करनेवाले, यादवोंमें उत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने जो जो रूप धरकर योग्य कर्म कियेथे, उनको सुनकर पुरुष पाप कर्मसे छूट जाता है॥४९॥ तीनों कालमें बड़ी मुक्तिके देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभायमान कथाका श्रवण कीर्त्तन और विचार करके पुरुष कालकी गतिरहित भगवान्के धामको प्राप्त होता है, यह श्रवण करके चक्रवर्ती राजा भी राज्य त्याग श्रीकृष्णचन्द्रकी प्राप्तिके लिये ग्रामके बाहर वनको चले गये॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टादश

इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयाऽऽत्तलीलातनोस्तदनुरूपविडंबनानि॥ कर्माणि कर्मकषणानि यद्वत्तमस्य श्रयादमुष्यपदयोरनुवृत्तिमिच्छन्॥४९॥ मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुंदश्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिंतयैति॥ तद्धाम दुस्तरकृतां तजवापवर्गं ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः॥५०॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणेऽष्टादशसाहस्यां संहितायां वैयासिक्यां दशमस्कंधोत्तरार्द्धे कृष्णचरितानुवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः॥९०॥ दशमस्कन्धः समाप्तः॥

साहरूयां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्द्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णचन्द्रानन्दकन्दचरित्रवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः॥९०॥ इति भाषाटीकासमेत दशमस्कन्ध समाप्त॥१०॥ दोहा— श्रीकृष्णदासात्मज, खेमराज गुणग्राम! विद्वत्तम उपकारचित, सकल सुलक्षणधाम॥१॥ कहाँ होत हैं जगतमें, ऐसे पुरुष उदार। देशदेशमें छै रह्यो, जिनको सुयश प्रचार॥२॥ कुटुॅब सहित रक्षा करें, जिनकी श्रीजगदीश। बार बार यह देत हैं, शालिग्राम अशीश॥३॥ भई दशमस्कन्धकी, भाषा पूरण आज। विरची शालिग्राम कवि, सुमिरि श्रीव्रजराज॥४॥

इस ग्रन्थका रजिस्टरी सर्वप्रकारका हक सन् १८६७ के २५ वें ऐक्टके सर्कारी नियमानुसार “श्रीवेङ्कटेश्वर” प्रेसाध्यक्षने स्वाधीन रखा है।

इदं पुस्तकं मुम्बय्यां श्रीकृष्णदासात्मजेन क्षेमराजेन स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणयन्त्रालयेऽङ्कयित्वा
प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.

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श्रीगणेशाय नमः॥ दोहा— जय गणेश वारणवदन, विघ्नहरण सुखमूल। अनुपम भाल विशाल मुख, सोहत हाथ त्रिशूल॥१॥ जय जगज्जननी शारदा, सुखदायिनी गुणखान॥ शीघ्र पूर्ण हो भागवत, दीजै यह वरदान॥२॥ जय शिवकाशीनाथ पद, करन अनाथ सनाथ॥ बारबार वर माँगिहौं, तिन पर धरकर माथा॥३॥ सो०— जय हरि कृपानिधान, अधम उधारन सुखसदन। भाषत वेद पुरान, अस दयालु नहिं दूसरो॥१॥ प्रभुपद पोतहिं पाय, अगम अथाद भवाम्बुनिधि। मोसम पतित निकाय, तरन चहत गोपद सरिस॥२॥ दोहा— गुरुपद रज शिरधर कहों, एकादशस्कन्ध॥ हरि उद्धव सम्वाद वर, ज्ञान विराग प्रबन्ध॥३॥ कहों प्रथम अध्यायमें, बहु अद्भुत इतिहास॥ जैसे ऋषिके शापसे, यदुकुल भयो विनाश॥४॥ पहले दशमस्कन्धमें भक्तोंका उद्धार और भूमिका भार उतारनेको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रगट हुए, उनकी लीला कही। अब एकादशस्कन्धमें भक्तोंको आत्मतत्त्वका उपदेश, और पूजामार्ग, भक्तिमार्ग, इनके फल निर्णय करके कहेंगे और सब भक्त पुरुषोंको अपने स्थानपर प्राप्त करेंगे। इसप्रकार इस एकादशस्कन्धमें मुक्तिलीला कहते हैं, तहाँ प्रथम कुरुक्षेत्रमें जैसे वसुदेवजीने नारदजीसे कर्मयोग पूँछा, तब नारदजीने कर्मयोग सब कहा

श्रीबादरायणिरुवाच॥ कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः॥ भुवोऽवतारयद्भारं जविष्ठं जनयन्कलिम्॥१॥

उससे जब चित्त शुद्ध हुआ तब वसुदेवजीको ज्ञान उत्पन्न हुआ, अर्थात् राम, कृष्ण, यह दोनों साक्षात् ईश्वर हैं और जब यह ज्ञान नहीं रहेगा तो फिर ब्रह्मज्ञान नारदजीसे पूछेंगे, तब नारदजी पॉच अध्यायोमें वर्णन करेंगे सो पहले अध्यायमें वैराग्य उत्पन्न करानेके लिये यदुकुलको ब्रह्मशापके बहानेसे विषयसुखको अनित्य कहते हैं, इसके उपरान्त चार अध्यायोंमें राजा जनक और नवयोगीश्वरोंका संवाद कहेंगे, उसमें परमतत्त्व निरूपण करेंगे, फिर छठे अध्यायमें श्रीकृष्ण और उद्धवका संगम कहेंगे, इसके पीछे तेईस अध्यायमें उद्धवको श्रीकृष्ण परमतत्त्व निरूपण करेंगे फिर दो अध्यायोंमें यादवोंका संहार कहेंगे, इसीप्रकार इकतीस अध्यायोंमें “एकादशस्कन्ध” वर्णन करेंगे इसलिये पहले पूर्वस्कन्धकी कथा स्मरण करके श्रीशुकदेवजी प्रारंभ करते हैं॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! जिसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने और बलदेवजीने मिलकर यादवो सहित शीघ्र कलह उत्पन्न कर संपूर्ण पृथ्वीका भार उतारा, सो हम तुम्हारे आगे वर्णन करते हैं *॥१॥

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* शंका— श्रीकृष्णचन्द्रने त्रिलोकीके स्वामी होकर अनेकप्रकारके पुत्र, पौत्र, परपौत्र उत्पन्न करके फिर उनका विनाश क्यों किया? जो कोई कहें कि, कृष्णचन्द्रने विचार किया कि, इन यदुवंशियोंको छोडकर परमधामको जायँगे तो यह सब पृथ्वीके मनुष्योंको दुःख देंगे, जो ऐसा कहें, वे सम्पूर्ण मूर्ख हैं, क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र महाराज तो घट घटकी जाननेवाले थे कुछ मनुष्य नहीं थे, जानते थे कि, हम वैकुण्ठधामको

कि, जो पाण्डुके पुत्र शत्रुओंसे बहुत कोपित किये गये, जुआँ खेलनेसे जिनका राज्य जाता रहा, अवज्ञासे द्रौपदीके केश खेंचेगये, लाक्षाभवनमें पाण्डवोंको बन्द करके आग लगादी गई, जहाँतक होसका वहाँतक कष्टपर कष्ट दिये उन्हींके लिये दोनों पक्षोंमें मिले राजाओंको मार पृथ्वीका भार उतारा, परन्तु तोभी विचारनेलगे॥२॥ कि, यद्यपि पृथ्वीका भाररूप जो राजाओंकी सेना थी सो अपनी भुजाओंसे पालित यादवोंसे नाश भी

ये कोपिताः सुबहु पांडुसुताः सपत्नैर्दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान्॥ कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्हत्वा नृपान्निरहरत्क्षितिभारमीशः॥२॥ भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य गुप्तैः स्वबाहुभिरचिंतयदप्रमेयः॥ मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं यद्यादवं कुलमहो हविषह्यमास्ते॥३॥ नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथंचिन्मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्॥ अंतः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणुस्तंबस्य वह्निमिव शांतिमुपैमि धाम॥४॥

करवाई, परन्तु तोभी भार न गया, क्योंकि यदुकुल अभी अनन्त शेष है जिसका कि, पृथ्वीपर बडा भारी भार है॥३॥ जिसके मैं आश्रयहूँ उसका पराजय तो और किसी दूसरेसे हो नहीं सक्ता, और यह संपूर्ण यादव वैभवसे उद्धत होगये हैं और विना इनका संहार किये किसी प्रकार पृथ्वीका

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जायँगे, सर्वान्तर्यामी ईश्वर थे, विचारा कि, यह हमारे अशसे जो जन्मे यादव हैं सो पृथ्वीको अत्यन्त दुःख देवेंगे, ऐसा जानते थे तो उन सबको उत्पन्न क्यों किया? क्योंकि आपही उत्पन्न करके आपही नाश करना यह बडा अयोग्य कर्म है क्योंकि शास्त्रमें ऐसा लिखा है कि, विषके खायेसे प्राणी मरजाते हैं, विष ऐसी बुरी वस्तु है, परन्तु जो अपने हाथसे विषका वृक्ष भी लगाते हैं, अपने हाथसे वह लोग उसको भी नहीं काटते और चेतनस्वरूपको उत्पन्न करके आपसे आपही उसको विनाश करना यह बडा खोटा कर्ममें है, फिर श्रीकृष्णने ऐसा खोटा कर्म क्यों किया?

उत्तर— श्रीकृष्णने ऐसा विचार किया कि, जिस दिन हम इस लोकसे परलोकको जायँगे उसीदिन कलियुग महाघोर इस मर्त्यलोकका राजा होगा और यह सब यादव हमारे अंशसे जो उत्पन्न हुए हैं और +

ले गमें जो यह सव एसेही रहेंगे तो अनेक दुःख पावेंगे, इसलिये इन सबका प्रबन्ध ऐसा कर कि, प्रथमही अपने लोकमें भेजकर पीछे हम जायँगे क्योंकि यादवोंके नाश होनेसे दुःख तो होहगा परन्तु

      • होगा, कैसा २ कि जैसे कोई औषधि खानेके समय कछुवा मुख हो जाता है, परन्तु पीछेसे सुख होता है, फोडेको चीरनेके समय जीव दुःख मानता है, परन्तु पीछे सुख पाता है, इस बातको

+ + +पृथ्वीके मारके कारणसे अपने अंश करके जो यादव उत्पन्न किये उन सबको नाश करके अपने अंशको संग लेकर चलेगये, कुछ निर्दयपनसे यादवका विनाश नहीं किया॥

भार उतर नहीं सक्ता इसलिये इनमें परस्पर कलह उत्पन्न करा, जैसे बांसोंमें अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार सुलगाय शान्तिको प्राप्त हो पीछे अपने परमधामको जाऊँगा॥४॥ हे राजन्! इसप्रकार बुद्धिसे निश्चयकर सत्यसंकल्प भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने ब्रह्मशापके मिससे अपने कुलका संहार किया॥५॥ जिनके समान लोकमें कहीं लावण्यता नहीं और जिनके संबंधसेही लोकोको शोभा मिलती है, इसप्रकार अपनी देहसे पुरुषोंके चित्त हरकर जिससे चित्त ओरको स्मरण न करें और जो चरणारविन्द देखते हैं; उनकी योग और क्रिया चरणोंके देखनेसे हरली, फिर भक्तोकी सब इन्द्रियें वृत्तिमें और अपने संसारी जीवोंका अज्ञानरूपी अँधेरा दूरकर, उनके लिये पृथ्वीमें अतिविमल कीर्त्ति विस्तारकर श्रीकृष्णचन्द्र व

एवं व्यवसितो राजन्सत्य संकल्प ईश्वरः॥ शापव्याजेन विप्राणां संजह्रे स्वकुलं विभुः॥५॥ स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्॥ गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः॥६॥ आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्यह्यंजसा तु कौ॥ तमोऽनया तरिष्यंतीत्यगात्स्वं पदमीश्वरः॥७॥ राजोवाच॥ ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम्॥ विप्रशापः कथमभूद्वृष्णीनां कृष्णचेतसाम्॥८॥ यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम॥ कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्वं वदस्व मे॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ विभ्रद्वपुः सकलसुंदरसन्निवेशं कर्माऽऽचरन्भुवि सुमंगलमाप्तकामः॥ आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः॥१०॥

बलरामजी अपने धामको चलेगये॥६॥७॥ राजा परीक्षित् पूँछने लगे कि, हे ब्रह्मन्! यादव तो ब्राह्मणोंके भक्त, अतिदानी और नित्य प्रति वृद्धोंकी सेवा करते थे, इतनेपर भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें जिनके मन लगरहे थे उन्हें किसलिये ब्राह्मणलोगोंने शाप दिया?॥८॥ हे भगवन्! इस शापका क्या कारण है? क्यों हुआ? और यह सब लोग एक चित्त थे; उनमें भेद क्यों उत्पन्न हुआ? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! यह सब मुझसे कहो॥९॥ तब श्रीशुकदेवजी कि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्! प्रथम भक्तोंको सुख देनेके लिये संपूर्ण शोभायमान स्वरूप धारणकर भूमिपर अत्यंत मंगल कर्म किये और यद्यपि आप पूर्णकाम हैं, परन्तु तो भी फिर द्वारकापुरीमें घर बनाय अनेक क्रीड़ाकर सब भक्तोंको सुख दिया, इसका तात्पर्य

दोहा— दुसरेमें वसुदेव अरु, नारद प्रश्न सुस्वाद।

योगेश्वर अरु जनक सों, भयो धर्म सम्वाद॥१॥ दूसरे अध्यायमें भक्तिसे पूँछे वसुदेवजीको नारद जनक और नव योगियोंके संवादसे शुद्ध धर्म कहेंगे श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! गोविन्दकी भुजासे पालित द्वारकापुरीमें श्रीकृष्णचन्द्रकी उपासनामें प्रेम करनेवाले नारदजी निरंतर वास करते थे॥१॥ क्योंकि ऐसा कहा भी है, जिन श्रीकृष्णचन्द्रकी उपासनामें मुक्त पुरुषोंको भी उत्कंठा होती है, उनको कौन नहीं भजता, सर्वत्र मृत्युसे त्रासित कौन इन्द्रियवन्त भगवान्के चरणारविन्दका भजन नहीं करता, जिन चरण कमलोंकी देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मादिक सेवा करते हैं॥२॥ एक दिन देवर्षि नारदजी वसुदेवजीके घर आये, तब वसुदेवजीने अत्यन्त भक्तिपूर्वक उत्तम आसनपर बैठाल पूजा और नमस्कार करके पूछा॥३॥ कि, हे भगवन्! जैसे हरिकी प्राप्तिका मार्गरूप महत् पुरुष है, उनका आगमन

श्रीशुक उवाच॥ गोविंदभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह॥ अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः॥१॥ को नु राजन्निंद्रियवान्मुकुंदचरणांबुजम्॥ न भजेत्सर्वतो मृत्युरुपास्यममरोत्तमैः॥२॥ तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम्॥ अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत्॥३॥ वसुदेव उवाच॥ भगवन्भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम्॥ कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम्॥४॥ भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च॥ सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम्॥५॥ भजंति ये यथा देवान्देवा अपि तथैव तान्॥ छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः॥६॥

दीनोंका कल्याण करनेके लिये है और जैसे पिताका आना पुत्रादिकोंके सुखके लिये है उसीप्रकार तुम्हारा अगमन सब देहधारियोंके कल्याणार्थ है॥४॥ महात्मा लोगोंको देवताओंकी उपमा भी अनुचित है, क्योंकि देवताओंका चरित्र बहुत वृष्टि आदिसे दुःख और सुख दोनों करता है, परन्तु साधुओंका चरित्र तो सदा सुखही करता है, इसकारण तुम सरीखे अच्युत रूप पुरुषोंका आगमन सुखहीके लिये है॥५॥ यद्यपि देवतालोग सुख देते हैं, परन्तु तो भी जिसने जितना भजन किया हो उसे उस भजनके अनुसारही सुख देते हैं, क्योंकि जैसे मनुष्य जितना कार्य करे, उतनाही उसकी परछाही कार्य करै, ऐसेही मनुष्य जैसा और जितना काम करे, उसे देवतालोग कर्मानुसारही फल ते

    • ++ + +

सरीखे साधु पुरुष तो दीनोंके देखतेही

हे नारद! यद्यपि हम तुम्हारे आनेसेही कृतार्थ होगये, परन्तु तो भी आपसे जिन धर्मोंसे भगवान् प्रसन्न हों, सो वैष्णवधर्म पूछते हैं, जिस धर्मको श्रद्धासहित श्रवण करनेसे मनुष्य संसारसे छूट जाता है॥७॥ यदि तुम कहो कि, भगवान्की प्रसन्नताके पात्र तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं सो इसका उत्तर यह है कि, मुक्तिदाता अनंतभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्रथम मैंने पुत्रकामनासे आराधन कियाथा, देवमायासे मोहित हो मोक्षप्राप्तिके लिये आराधन नहीं किया, यह बात सूतिकागृह (सरोवर) में ही श्रीकृष्णचन्द्रने मुझसे कही थी सो मुझे याद है॥८॥ हे नारद! इसलिये अनेक दुःखसंयुक्त सब ओरसे भयदेनेवाले संसारसे जिसमें हम विनाही श्रमके छूट जायॅ, वैसाही तुम शिक्षा दो॥९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!

ब्रह्मंस्तथापि पृच्छामो धर्मान्भागवतांस्तव॥ याञ्छ्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते विश्वतो भयात्॥७॥ अहं किल पुरानंतं प्रजाऽर्थो भुवि मुक्तिदम्॥ अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया॥८॥ यथा विचित्रव्यसनाद्भवद्भिर्विश्वतो भयात्॥ मुच्येम ह्यंजसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता॥ प्रीतस्तमाह देवर्षिहरेः संस्मारितो गुणैः॥१०॥ नारद उवाच॥ सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्त्वतर्षभ॥ यत्पृच्छसे भागवतान्धर्मांस्त्वं विश्वभावनान्॥११॥ श्रुतो नु पठितो ध्यात आदृतो वाऽनुमोदितः॥ सद्यः पुनाति सद्धर्मों देवविश्वोद्रुहोऽपि हि॥१२॥ त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम॥१३॥

इसप्रकार जब अत्यन्त बुद्धिमान् वसुदेवजीने पूछा, तब भगवान्के गुणोंको स्मरण करानेसे प्रसन्न हो, देवर्षि नारदजी वसुदेवजीसे कहनेलगे॥१०॥

कि, हे यादवोंमें श्रेष्ट वसुदेवजी तुमने यह भला निश्चय उत्तम प्रश्न किया, क्योंकि, तुमने सबके चित्तको शुद्ध करनेवाला वैष्णवधर्म पूछा॥११॥ यह धर्म सुननेसे, स्मरण करनेसे, श्रद्धापूर्वक आदरसे ध्यान करनेसे, सम्मति देनेसे समस्त विश्वके पातकी जनोंको शीघ्र पवित्र करदेता है, क्योंकि यह भगवत् सम्बन्धी धर्म है *॥१२॥ हे वसुदेव! तुमने परमकल्याणरूप जिनके श्रवण और कीर्त्तन अत्यन्त पावन पवित्र

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* शंका— ऐसा उत्तम कौनसा धर्म है, जो शीघ्रही दुष्टोंको पवित्र करता है? कैसे दुष्टोंको जो दुष्ट तीन लोककी और देवताओंकी बुराई करते हैं, उनको पवित्र करना महाकठिन है, क्योंकि शास्त्रोंमें ऐसा लिखा है कि, जो प्राणी किसी दूसरे प्राणीकी एक भी बुराई करेगा तो वह बुराई करनेवाला पुरुष कभी पवित्र नहीं होगा वह तो चण्डालके सदृश बना रहेगा और जो तीनलोककी तथा तीनलोकके देवताओंकी निन्दा करेगा यह कैसे पवित्र हो सक्ता है?

हैं ऐसे भगवान् नारायणको मुझे स्मरण कराकर मेरा आपने बड़ाही उपकार किया॥१३॥ अब मैं यहाँ तुमसे एक प्राचीन कथा कहताहूं, जिसमें उदारचित्त राजा जनक और ऋषभदेवके पुत्र नव योगीश्वरोंका संवाद है॥१४॥ स्वायंभुवमनुका प्रियव्रतनाम एक पुत्र हुआ उसके अग्नीध्र इनके नाभि और नाभिके ऋषभदेवजी हुए॥१५॥ यह वासुदेवके अंशरूप ऋषभदेवजी मोक्षसंबंधी धर्म कहनेकी कामनासे प्रगट हुएथे, इनके सौ १०० पुत्र हुए सो सब, वेदके जाननेवाले थे॥१६॥ इनमें नारायण और भरतजी अत्यन्त श्रेष्ठ हुए अधिक

अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥ आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः॥१४॥ प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः॥ तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिर्ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः॥१५॥ तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया॥ अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद्वेदपारगम्॥१६॥ तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः॥ विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भारतमद्भूतम्॥१७॥ स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम्॥ उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः॥१८॥

तेषां नव नवद्वीपपत्तयोऽस्य समंततः॥ कर्मतंत्रप्रणेतारं एकाशीतिर्द्विजातयः॥१९॥ नवाभवन्महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः॥ श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः॥२०॥

कहनेकी अवश्यकता नहीं यह अजनाभखंडही जिनके नामसे भरतखण्ड प्रसिद्ध होगया॥१७॥ सो राजा भरत पृथ्वीको भली प्रकार भोगकर, अन्तमें पृथ्वीको छोड, तपस्या करनेको चलेगये और भगवान् हरिकी उपासना करते करते तीन जन्ममें हरिकी पदवीको प्राप्त हुए॥१८॥ शेष निन्नानवे पुत्रोंमें नौ पुत्र इस भरतखण्डके मध्य नवों द्वीपोंके पति हुए और इक्यासी पुत्र कर्ममार्गके प्रवर्त्तक ब्राह्मण हुए॥१९॥ और जो नौ पुत्र यहाँ भागवतमुनि थे, वह परमार्थके उपदेश करनेवाले आत्मज्ञानके अभ्यासमें तत्पर दिगंबर

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उत्तर— जो धर्म तीनलोक अथवा सब देवताओंकी निन्दा करनेवाले प्राणीको पवित्र करता है, वह धर्म यह है कि, मनमें दया करके भगवान्का भजन करना, यह ऐसा सुन्दर धर्म है कि, सब पपोंका नाश करता हैं, जैसे रूईके ढेरको एक सरसों प्रमाण अग्नि भस्म कर देती है, ऐसाही भगवान्के नामका जप है, थोडाभी करेगा तो अनेक जन्मके पापोंका नाश करदेगा ऐसा लिखा है।

वेष आत्मविद्यामें निपुण हुए॥२०॥ उनके नाम यथा— क^(१)वि, ह^(२)रि, अ^(३)ररिक्ष, प्रबुद्ध^(४), पिप्पलायन^(५), आविहोंत्र^(६), द्रूमिल^(७), चमस^(८) और करभोजन॥२१॥ यह सब इस विश्वको भगवद्रूपसे देखनेलेगे, स्थूल सूक्ष्मको आत्मासे भिन्न देखनेलगे, अधिक क्या कहें, वह सब आत्मरूपहीको देखते संपूर्ण पृथ्वीमें फिरनेलगे॥२२॥ अप्रतिहत गतिसे आसक्ति रहित यह योगीश्वर देवता, सिद्ध, साध्य, गंधर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर, नाग, मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओके लोकोंमें अपनी इच्छासे विचर रहेथे॥२३॥ विचरते २ यह सब अपनी इच्छासे एक दिन

कविर्हरिरंतरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः॥ आविर्होत्रोऽथ दुमिलश्चमसः करभाजनः॥२१॥ एते वै भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम्॥ आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यंतो व्यचरन्महीम्॥२२॥ अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्यगंधर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान्॥ मुक्ताश्चरंति मुनिचारणभूतनाथविद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम्॥२३॥ त एकदा निमेः सत्रमुपजग्मुर्यदृच्छया॥ वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मनः॥२४॥ तान्दृष्ट्वा सूर्यसंकाशान्महाभागवतान्नृप॥ यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे॥२५॥ विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान्॥ प्रीतः संपूजयांचक्र आसनस्थान्यथार्हतः॥२६॥ तान्रोचमानान्स्वरूचा ब्रह्मपुत्रोपमान्नव॥ पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः॥२७॥ विदेह उवाच॥ मन्ये भगवतः साक्षात्पार्षदान्वो मधुद्विषः॥ विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरंति हि॥२८॥

ऋषियोंसे

क्रिरतत उदारचित्त अजनाभ राजा जनकके यज्ञमें आये॥२४॥ सूर्यके समान तेजस्वी परमभागवत इन ऋषियोंको देख यजमान, ऋषि, ब्राह्मण,सब उनपर

स होगये॥२५॥ इसके उपरान्त राजा जनक उनको नारायणपरायण जान अतिप्रसन्न हो आसन दे यथायोग्य+ + + + + +॥२६॥ आपनि कान्तिमें शोभासंयुक्त मनकादिकोंके समान उन नव योगीश्वरोंको देख, प्रसन्न हो, विनयकर, नम्र होकर पूॅछने लगे॥२७॥

प म उनकी स्तुति करी कि, तुम साक्षात् मधुदैत्यके द्वेषी भगवान्के पार्षद हो, जिससे विष्णुभक्त लोगोंके पवित्र करनेको सब

ठौर विचरते हो॥२८॥ मैंने दुर्लभ वस्तु पाई है, इसलिये मेरा बड़ा भाग्य है, क्योंकि ऐसा कहा है कि, देहधारियोंको मनुष्यदेह दुर्लभ है, सो भी क्षणभंगुर है, उसमें भी भगवान्के प्रिय भक्तोंका दर्शन तो अत्यन्तही दुर्लभ है॥२९॥ हे निष्पाप! इसलिये मैं आपसे पूँछताहूं कि, संसारमें सबसे उत्तमकल्याणका साधन क्या है क्योंकि इस संसारमें अर्द्धक्षणका सत्संग भी मनुष्योंको बड़ी निधि है॥३०॥ इसकारण यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझो तो हमसे वैष्णवधर्म कहो, जिन धर्मोंसे प्रसन्न होकर भगवान् भक्तोंको अपना आत्मातक भी दे देते हैं॥३१॥ नारदजी बोले कि, हे वसुदेव! इसप्रकार जब राजा जनकने पूछा, तब उन महंत ऋषिवजोंने सभासदों सहित राजा जनककी स्तुति करके प्रीतिपूर्वक कहा॥३२॥

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः॥ तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुंठप्रियदर्शनम्॥२९॥ अत आत्यंतिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः॥ संसारेऽस्मिन्क्षणार्धोऽपि सत्संगः शेवधिर्नृणाम्॥३०॥ धर्मान्भागवतान्ब्रूत यदि नः श्रुतयेक्षमम्॥ यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यजः॥३१॥ नारद उवाच॥ एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः॥ प्रतिपूज्याब्रुवन्प्रीत्या ससदस्यर्त्विज नृपम्॥३२॥ कविरुवाच॥ मन्येऽकुतश्रियमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्॥ उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद्विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः॥३३॥ ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये॥ अंजः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान्हि तान्॥३४॥

जनकजीने नौ प्रश्न किये, प्रथम वैष्णवधर्म, दूसरा परमेश्वरकी भक्ति, तीसरे माया, चौथे मायाके तरनेका उपाय, पाँचवाँ ब्रह्म, छठा कर्म, सातवाँ अवतार चरित्र, आठवाँ भक्तिप्राप्ति, नवाँ युग, इन एक एक प्रश्नका उत्तर नवों मुनीश्वरोंने दिया, प्रथम अतिकल्याणरूप धर्म कवि योगेश्वर बोले कि, हरिके चरणारविन्दकी उपासनाही सब प्रकारके भय दूर करती है, जिसके करनेसे देहादि भिन्न पदार्थोंके गर्वसे सदा उद्वेगको प्राप्त होकर यह पुरुष संसारके भयसे छूट जाता है॥३३॥ अब वैष्णवधर्मके लक्षण कहते हैं, प्रथम मनु आदि ऋषियोंके मुखसे सब वर्ण आश्रम धर्म कहते हैं कि अतिरहस्यसे अपने मुखसे भगवान्ने अज्ञानियोंको सुखपूर्वक आत्मज्ञान पानेके जो उपाय कहे हैं, वह सब वैष्णवधर्म हैं॥३४॥

उन धर्मोंका आश्रयकर मनुष्य कभी विघ्नोंसे पीड़ित नहीं होता।

हे राजन्! नेत्र बन्द करके दौडे तो भी नहीं गिरता और यदि वर्ण आश्रम धर्म न बन पड़े तो भी प्रत्यवायी नहीं होता और न फलसे भ्रष्ट होता है॥३५॥ जिस विधिसे बताये शास्त्रोक्त किये कर्मही नारायणके अर्पण करे, यह नियम नहीं हैं, किन्तु शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, अहंकार और अध्याससे मानेहुए ब्राह्मणत्वादिसे भी जो कुछ कर्म करनेमें आवे, वह सब परमेश्वरके अर्पण करनेसे शारीरक क्रिया सब नारायण सम्बन्धी धर्मरूप होजाती हैं॥३६॥ परमेश्वरसे विमुख पुरुषको ईश्वरकी मायासे भगवत् स्वरूपका ज्ञान नहीं होता, बरन् उससे अहंदेह, मैं देहहूं, अभिमान होता है तब दूसरेके अभिनिवेशसे भय होता है, जिस कारण कि, उनकी मायासे भय होता है, इससे गुरुको देवता और इष्ट माननेवाले बुद्धिमान् निश्चय करके भक्तिसहित ईश्वरको ही भजें,

यानास्थाय नरो राजन्न प्रमाद्येत कर्हिचित्॥ धावन्निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥३५॥ कायेन वाचा मन सेंद्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वानुश्रितस्वभावात्॥ करोति यद्यत्सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥३६॥ भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः॥ तन्माययाऽतो बुध आभजेत्तं भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥३७॥ अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयोर्ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथो यथा॥ तत्कर्मसंकल्पविकल्पकं मनो बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात्॥३८॥ शृण्वन्सुभद्राणि रथांगपाणेर्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके॥ गीतानि नामानि तदर्थकानि गायन्विलज्जो विचरेदसंगः॥३९॥

तहाॅ पूर्वपक्षमें कहते हैं कि, चित्त तो विषयोंसे चंचल है, फिर निश्चल भक्ति कैसे हो? और भक्ति न हो तो भय कैसे जाय? इसके उत्तरमें कहतें हैं कि, विषय कुछ वस्तु नहीं है, केवल मनका विलास मात्र है, इसलिये मनको निग्रह करके जो भजन करें तो अभय होय, यद्यपि यह प्रपंच सब ब्रह्मरूपही है, दूसरा कोई नहीं है॥३७॥ परंतु तोभी अविद्यासे द्वैत भासता है, जैसे ध्यान करनेवाले पुरुषको मनसे स्वप्न और मनोरथ दीखते हैं, इसकारण संकल्प विकल्पके कर्त्ता मनको बुद्धिमान पुरुष रोंके, तब निश्चल भक्तिसे भजन करे, तो अभय होवे॥३८॥ जो जगदीशके शुभ कर्म जन्म हैं और जो जन्म कर्मसे हुये नाम लोकोंमें प्रसिद्ध हैं, उनको लज्जा छोड निस्पृही होकर गाता फिरे॥३९॥

इस प्रकार भजन करनेसे प्रेमलक्षणा भक्तियोगको प्राप्त होनेसे उसकी संसारसे न्यारीही गति होजाती है, ऐसा जिसका आचरण है और भगवान् वासुदेवके नामकीर्तनसे अनुराग वढने और चित्त अतिकोमल होनेसे वह भक्त भगवान्को जीत लेते हैं, तब उनकी यह दशा होजाती है कि, कभी भगवान्को अपने वशमें जानकर हँसते हैं और कभी इतना समय व्यर्थ गया, यह जानकर रोते हैं, कभी अति उत्कण्ठासे पुकारते हैं, कभी आनंदमें मग्न हो उच्च स्वरसे गाते हैं, अरु कभी नाचते हैं, इस प्रकार अलौकिक उन्मत्तोंके सी चेष्टा केरते हैं, जैसे मतवाले अज्ञानी पुरुष

करते हैं॥४०॥ आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ज्योति, सब प्राणी मात्र, दिशा, वृक्ष, नदी सबको हरिहीका शरीर जाने, अनन्य चित्त होकर प्रणाम करे, यह वैष्णवोके लक्षण हैं॥४१॥ यदि कोई कहे कि, यह धर्म तो योगेश्वरोको भी दुर्लभ है, अनेक जन्मोंमें भी प्राप्त नहीं हो

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः॥ हमत्यथो रोदिति रौति गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकवाह्यः॥४०॥ खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सर्वाणि दिशो द्रुमादीन्॥ सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः॥४१॥ भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः॥ प्रपद्यमानस्य यथाऽश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्॥४२॥ इत्यच्युतांघ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रवोधः॥ भवंति वै भागवतस्य राजंस्ततः पर शांतिमुपैति साक्षात्॥४३॥ राजोवाच॥ अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम्॥ यथा चरति यद्ब्रूते यैर्लिंगैर्भगवत्प्रियः॥४४॥

सक्ता, सो एक नाममात्रका कीर्त्तन करनेसे एकही जन्ममें कैसे होसक्ता है? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, प्रेमलक्षणा भक्ति और प्रेमाश्रय भगवत स्वरूपकी स्फूर्ति और गृहादिकोमें वैराग्य, यह तीनों हरि भजनकर्त्ता पुरुषको एकहीसमय होते हैं, जिस प्रकार भोजन करनेसे सुख, पुष्टि, पेट भरना, भूंखकी निवृत्ति यह तीनों एकही कालमें ग्रास विषे होती हैं॥४२॥ फिर भगवान्के प्रसादसे कृतार्थ होता है सो कहते हैं, इस प्रकार जब पुरुष हरिचरणारविन्दका नित्य भजन करे, तो उसे प्रेमलक्षणा भक्ति तथा वैराग्य और साक्षात् भगवत् स्वरूप ज्ञान तीनों होते हैं, तब पुरुष परमशान्तिको प्राप्त होता है॥४३॥ यह सुनकर राजा जनकने पूछा कि, हे मुनिश्रेष्ठ! वैष्णव मनुष्योंके बीचमें कैसे होते हैं, किस

धर्मके विषे स्थित, कैसा स्वभाव, कैसा आचरण, कैसा बोलना, और कैसे चिह्न हैं? जिससे भगवान्का प्रिय होता है, सो कृपापूर्वक संपूर्ण मेरे आगे वर्णन करो!॥४४॥ इसका उत्तर हरिनामा योगीश्वर तीन श्लोकोंसे देते हैं कि, जो अपनेको सब प्राणीमात्रमें ब्रह्मस्वरूपसे स्थित देखे और ब्रह्मरूप अपनेमें सर्व प्राणीमात्रको देखे, सो उत्तम भागवत है॥४५॥ ईश्वरमें प्रेम करे, भगवान्के भक्तोंसे मित्रता करे, मूर्खोपर कृपाकरे और शत्रुओंकी उपेक्षा करे, वह मध्यम वैष्णव है॥४६॥ भेदबुद्धिसे केवल प्रतिमाहीमें श्रद्धा रखता है और जीवोंमें तथा भक्तोंमें जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह प्राकृत भक्त है॥४७॥ अब आठ श्लोकों उत्तम वैष्णवोंके लक्षण कहते हैं, जो इन्द्रियोंसे विषयोंको भोग करते हैं, परन्तु न किसीसे द्वेष

हरिरुवाच॥ सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः॥ भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥४५॥ ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च॥ प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥४६॥ अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते॥ न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः॥४७॥ गृहीत्वापींद्रियैरर्थान्यो न द्वेष्टि न हृष्यति॥ विष्णोर्मायामिदं पश्यन्स वै भागवतोत्तमः॥४८॥ देहेंद्रियप्राणमनोधियां यो जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः॥ संसारधर्मैरविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः॥४९॥ न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि संभवः॥ वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥५०॥ न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः॥ सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥५१॥

है, न प्रीति है, सब वस्तुमात्रको ईश्वरकी मायासे जानते हैं, सो भक्तोंमें उत्तम हैं॥४८॥ देहके संसारी धर्म, जन्म, मरण, इन्द्रियोंको कष्ट, प्राणोको भूॅख, मनको भय, बुद्धिको तृष्णा, इन संसारके धर्मोंसे जो मोह न पावें और निरंतर भगवान् हरिका स्मरण करें सो वैष्णव भक्तोंमें मुख्य हैं॥४९॥ जिसके मनमें काम, कर्म और वासना न उत्पन्न हो, चित्त केवल भगवान् वासुदेवके स्वरूपमेंही वसता रहे, सो वैष्णवोंगें उत्तम है, इन तीन श्लोकोंमें भक्तोंके आचरणको उत्तम कहा॥५०॥ जिसके इस देहमें कुल, तप, वर्ण, आश्रम और जातिका अभिमान नहीं है, सो भगवान्‌का अतिप्यारा भक्त

है॥५१॥ जिसके चित्त और आत्मामें अपनी पराई बुद्धि नहीं और सब प्राणीमात्रमें समान दृष्टि होकर शान्त हो सो वैष्णवोंमें उत्तम है॥५२॥ त्रिलोकीके राज्यके लिये भगवान् वासुदेवमेंही जिनका चित्त है और जो देवताओंसे दुर्लभ भगवान्के चरणकमलके भजन विना अर्द्धक्षण लव मात्र भी नहीं व्यतीत करते, सो वैष्णवोंमें श्रेष्ट हैं, क्योंकि इनको ऐसा दृढ़ ज्ञान है कि, भगवान् वासुदेवके चरणोंसे अधिक और कुछ सार नहीं॥५३॥ यदि विषयके संगसे और कामसे संतापित हुए भक्तोंके मन चंचल होयँ तो क्या? इसपर कहते हैं कि, हरिसेवामें सुख माननेवालेका तो मन नही चलायमान हो, परन्तु अनंतपराक्रम भगवान् वासुदेवके चरणकी शाखारूप अंगुलियोंके नखरूप मणिकी चन्द्रिकासे सब कामादि ताप दूर

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा॥ सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोत्तमः॥५२॥ त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुंठस्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्॥ न चलति भगवत्पदारविंदाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः॥५३॥ भगवत उरुविक्रमांघ्रिशाखानखमणिचंद्रिकया निरस्ततापे॥ हृदि कथमुपसीदतां पुनः स प्रभवति चंद्र इवोदितेऽर्कतापः॥५४॥ विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः॥ प्रणयरशनया धृतांघ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधान उक्तः॥५५॥ इति श्रीमद्भाग० म० एका० नारदवसुदेवसंवादांतर्गतनिमिजायंतेयसंवादे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ राजोवाच॥ परस्य विष्णोरीशस्य मायिनामपि मोहिनीम्॥ मायां वेदितुमिच्छामि भगवंतो ब्रुवंतु नः॥१॥

होनेसे भक्तके हृदयमें ताप उत्पन्न नहीं होता, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे सूर्यका ताप दूर होजाता है और भी मुख्यलक्षण कहते हैं॥५४॥ केवल नाममात्रके लेतेही सम्पूर्ण पापोंके समूहका नाश करनेवाले साक्षात् भगवान् वासुदेवको हृदयमेंसे न त्यागे वही वैष्णवोंमें उत्तम है, क्योंकि इसने प्रेमडोरीसे हरिके चरणकमल हृदयमें बाँध रक्खे हैं॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा— माया मायासे तरन, ब्रह्म कर्म यह चार॥ इनको उत्तर देत अब, योगेश्वर सुविचार॥१॥ माया और मायासे तरनेका उपाय तथा ब्रह्मकर्म इन चार प्रश्नोंका उत्तर ऋषभदेवके पुत्र मुनि तीसरे अध्यायमें कहेंगे, राजा जनकजी बोलेकि, हे भगवन्! परमात्मा ईश्वर विष्णुकी मायाको मैं जानना

चाहताहूं सो कृपापूर्वक तुम मुझसे कहो, जो माया बड़े जाननेवालोंको भी मोहित करलेती है॥१॥ यदि तुम कहो कि, उक्त (जिसको प्रथम कह आये हैं) लक्षणवाला भक्त होकर कृतार्थ होय तो बहुत परिश्रम करके क्या करेंगे? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, मरणधर्ममें संसारके तापसे अत्यन्त ताप होता है, उस तापकी औषध हरिकथारूप अमृतको तुम्हारे वचनोंद्वारा पीनेसे मेरी तृप्ति नहीं हुई॥२॥ यह सुनकर अंतरिक्ष नामा योगेश्वर बोले कि, हे राजन्! आदिपुरुष भगवान् सब प्राणिमात्रके कारण अपने अंशभूत जीवोंको मोक्षके अर्थ पंचमहाभूतोंकी शक्तिसे, बुद्धि, इन्द्रिय, मन, प्राण और शरीर उत्पन्न करते हैं। सो शक्ति मायाका रूप है॥३॥ इसप्रकार पंचमहाभूतोंसे सृष्टिरच सम्पूर्ण प्राणियोंके मध्यमें भगवान् अंतर्यामी रूपसे प्रविष्ट

नानुतृप्य जुषन्युष्मद्वचो हरिकथामृतम्॥ संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यस्तत्तापभेषजम्॥२॥ अंतरिक्ष उवाच॥ एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज॥ ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये॥३॥ एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पंचधातुभिः॥ एकधा दशधात्मानं विभजञ्जुषते गुणान्॥४॥ गुणैर्गुणान्स भुजान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः॥ मन्यमान इदं सृष्टमात्मानमिह सज्जते॥५॥ कर्माणि कर्मभिः कुर्वन्सनिमित्तानि देहभृत्॥ तत्तत्कफलं गृह्णन्भ्रमतीह सुखेतरम्॥६॥ इत्थं कर्मगतीर्गच्छन्वह्वभद्रवहाः पुमान्॥ आभूतसंप्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः॥७॥ धातूपप्लव आसन्ने व्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम्॥ अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति॥८॥ शतवर्षा नावृष्टिर्भविष्यत्युल्वणा भुवि॥ तत्कालोपचितोष्णार्को लोकांस्त्रीन्प्रतपिष्यति॥९॥

होकर एकप्रकार मन और दश इन्द्रियरूपसे जीवोंको भिन्न भिन्न विषयभोग कराते हैं॥४॥ तब जीवात्मा अंतर्यामी से प्रकाशित इन्द्रियों से विषयभोग करते मायारचित शरीरको आत्मा मान उसी शरीरमें आसक्त होते हैं॥५॥ यह जीव कर्मेन्द्रियोंसे वासनासहित कर्म करते हैं और इन्हीं कर्मोंसे सुख दुःखरूप फलको भोग करते संसारमें भ्रमण करते हैं, परन्तु मोक्ष नहीं होते, यह परमेश्वरकी माया है॥६॥ इस भाॅति अनेक क्लेशयुक्त कर्ममार्गमें चलते जीवात्मा पराये वश होकर महाप्रलयतक जन्म मरणको प्राप्त होते हैं॥७॥ अब प्रलय कहते हैं कि, पंचमहाभूतोंके नाशका काल जब निकट आता है, तब आदि अंत रहित कालमें लीन करनेको इस स्थूल सूक्ष्म प्रपंचको खैंचलेते हैं॥८॥ अब नाशका कारण कहते हैं, पहले

पृथ्वीमें सौ १०० वर्षतक अतिदारुण अनावृष्टि होगी, पीछे उस कालमें बड़ी उष्णतासे सूर्य तीनों लोकोंमें तपैगा॥९॥ और पाताल तलसे आरंभ होकर जलाताहुआ ऊंचेको शिखाकिये अग्नि, वायुसे प्रेराहुआ चारों दिशाओंमें बढैगा॥१०॥ इसके उपरान्त सांवर्त्तकनाम प्रलयकालके मेघगण सौ १०० वर्षतक हाथीकी सूंड़के समान धारोंसे वर्षेगे, तब उस जलमें यह ब्रह्माण्ड लीन होजायगा॥११॥ हे राजन्! जैसे अग्नि काष्ठ न हो तो शुद्ध अग्निमें मिलजाती है, इसीप्रकार ब्रह्माण्डरूप शरीरवाला विराट्पुरुष ब्राह्माण्डरूप अपने शरीरको छोड़ कर सूक्ष्म परब्रह्ममें प्रवेश करजाता है॥१२॥ पृथ्वीका गुण गंध है, उसको प्रलयाकारकी पवन हरलेती है, तब पृथ्वी गुणरहित होकर जलमें लीन

पातालतलमारभ्य संकर्षणमुखानलः॥ दहन्नूर्द्धशिखो विष्वग्वर्धते वायुनेरितः॥१०॥ सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः॥ धारांभिर्हस्तिहस्ताभिर्लियते सलिले विराट्॥११॥ ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप॥ अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिंधन इवानलः॥१२॥ वायुना हृतगंधा भूः सलिलत्वाय कल्पते॥ सलिलं तद्धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते॥१३॥ हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते॥ हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते॥१४॥ कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते॥ इंद्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप॥ प्रविशंति ह्यहंकारं स्वगुणैरहमात्मनि॥१५॥ एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यंतकारिणी॥ त्रिवर्णा वर्णितास्माभिर्भूयः किं श्रोतुमिच्छसि॥१६॥

होजाती है, पीछे जलके गुण रसको वही पवन सोख लेता है, तब जल तेजमें लीन होजाता है॥१३॥ प्रलयकालके अंधकारसे रूपरहित हो तेजवायुमें लीन होजाता है, पीछे आकाशसे स्पर्शगुण हरजानेसे वायु आकाशमें लीन होजाता है, इसके उपरान्त आकाशके गुण शब्दको कालरूप ईश्वर हरलेते हैं, तब आकाश तामसाहंकारमें लीन होजाता है॥१४॥ फिर इन्द्रियें और बुद्धि राजसाहंकारमें लीन होती हैं, मन इन्द्रियोंके देवताओं सहित सात्त्विक अहंकारमें लीन होता है; हे राजन्! इसीप्रकार तामस, राजस और सात्विक यह तीनों गुणोंका कार्य इन्द्रियादिक सहित अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होता है और वह महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन होता है॥१५॥ सात्त्विक, राजस, तामस, तीनों गुणयुक्त उत्पत्ति पालन और

प्रलय करनेवाली यह भगवान्की माया है, सो मैंने तुमसे इसका रूप वर्णन किया, अब और क्या सुननेकी इच्छा है?॥१६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित्! इस प्रकार अतिदयायुक्त मुनिको देख इस संसारकी मायासे तरनेका उपाय राजा जनक पूँछनेलगे, कि यह ईश्वरकी माया अजितेंद्रियोंको अति दुस्तर है, इसलिये देहाभिमानी भी जिसप्रकार इसे सुखपूर्वक तरसके सो हे महाऋषि! वोही उपाय तुम मुझे बताओ॥१७॥ तब प्रबुद्ध नाम चौथे योगीश्वर बोले कि, हे राजन्! भगवान् स्त्री पुरुष मिलकर अपने सुखको और दुःख दूर करनेके कर्मोंका आरंभ करते हैं, और फिर उन कर्मोंके फलमें दुःखही देखते हैं॥१८॥ कर्मके साधनसे धनादिक मिलकर भी सुख नहीं देते; इसपर कहते हैं कि, नित्य दुःखदायी उसपर भी दुर्लभ, अपनी मृत्युकारक धन, गृह, पुत्र, बंधु और पशुओंके पायेसे क्या सिद्धि है? यह तो सब मिथ्या है॥१९॥

राजोवाच॥ अथैतामैश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः॥ तरंत्यंजः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम्॥१७॥ प्रबुद्ध उवाच॥ कर्मण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च॥ पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम्॥१८॥ नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना॥ गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः॥१९॥ एवं लोकं परं विद्यान्नश्वरं कर्मनिर्मितम्॥ सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मंडलवर्तिनाम्॥२०॥ तस्माद्गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्॥ शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्॥२१॥ तत्र भागवतान्धर्माञ्छिक्षेद्गुर्वात्मदैवतः॥ अमाययाऽनुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्मप्रदो हरिः॥२२॥

इसीप्रकार कर्मोंसे उत्पन्न हुए परलोकको भी मिथ्या जाने, जिसमें अपने समानसे ईर्षा, अधिककी निन्दा स्वर्गसे गिरनेका भय, इतने दुःख स्वर्गके विषे भी हैं, जैसे थोडी भूमिके राजाओंको समान देखकर ईर्षा अधिककी निन्दा और चक्रवर्ती राजासे भय इत्यादि दुःख होते हैं॥२०॥ इसलिये अपना उत्तम कल्याण चाहे तो भक्तिपूर्वक गुरुकी सेवा करे, गुरुके लक्षण कहते हैं, मुख्य तो वेदका अर्थ अतिश्रेष्ठ जानता हो, जिससे कि, सब संदेह दूर करसके और परब्रह्म भगवान्के स्वरूपको जाने, जो आप ब्रह्मको न जाने तो औरको कैसे ज्ञान देगा? अति शांतरूप हो, क्योंकि ब्रह्मज्ञान उसेही होगा जो पुरुष शांत होगा॥२१॥ भक्तोंको आत्माके देनेवाले परमात्मा भगवान् हरि जिन वैष्णवधर्मसे संतुष्ट होते हैं, उन धर्मोको गुरुको आत्मा और इष्ट जानकर भक्तजनको गुरुकी निष्कपट सेवा करनी सीखै॥२२॥

पहले तो संपूर्ण वस्तुओंमें मनको चलायमान न करें, इसके उपरान्त सत्संग करें, फिर सब प्राणियोंमें और दीनोंपर मन वचनसे दयायुक्त चित्तमें सबसे मित्रता करे और उत्तमोंमें नम्रता सीखै॥२३॥ बाह्य शौच सीखै, (मृत्तिकासे हाथ पाँव आदि धोवे) अन्तर शौच सीखे (मनमें दंभ अहंकार न रखे) धर्मका आचरण, क्षमा यथायोग अध्ययन, ब्रह्मचर्य सीखे, वृथा वार्त्ता न करें, कुटिल न रहै, द्रोह न करै, सुख दुःखमें समान बुद्धि रखे॥२४॥ सब प्राणिमात्रमें समान चैतन्य आनन्दरूपसे ब्रह्मको विचारे, नियंता समझकर ईश्वरको विचारै, एकान्तमें वास करै, गृहादिकोंमें अभिमान न करै; निर्जन मार्गमें पड़ेहुए वस्त्र अथवा वल्कलको पहरे, अधिक क्या कहैं, जो वस्तु प्राप्त हो उसीमें संतोष रक्खै और की इच्छा न करै॥२५॥ जो शास्त्र केवल भगवान्ही बताते हैं, वह भागवत शास्त्र है, इसे सुननेकी श्रद्धा रक्खे औरकी निन्दा भी न करें और मन, वचन, कर्म इन

सर्वतो मनसोऽसंगमादौ संगं च साधुषु॥ दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्॥२३॥ शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्॥ ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वंद्वसंज्ञयोः॥२४॥ सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्॥ विविक्तचीरवसनं संतोषो येन केनचित्॥२५॥ श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिंदामन्यत्र चापि हि॥ मनोवाक्कर्मदंडं च सत्यं शमदमावपि॥२६॥ श्रवणं कीर्त्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः॥ जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम्॥२७॥ इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम्॥ दारान्सुतान्गृहान्प्राणान्यत्परस्मै निवेदनम्॥२८॥ एवं कृष्णात्मनार्थेषु मनुष्येषु च सौहृदम्॥ परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु॥२९॥

तीनोंको दण्ड दे, मनको तो प्राणायाम करके रोके, वाणीका दण्ड यह है कि, मिथ्या वचन न कहै, कर्मका दण्ड चेष्टा न करे, सत्य वचन सीखे अंतःकरण और सब इन्द्रियोंको निग्रह करे॥२६॥ अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् हरिके जन्म कर्म गुणका श्रवण कीर्त्तन तथा ध्यान करे और भी जो कर्म करे सो सब भगवान् वासुदेवमें अर्पण करे॥२७॥ यज्ञ, दान, तप, सदाचार और आपको जो प्रियवस्तु होय सो सब गंध पुष्पादिक और स्त्री, पुत्र, गृह, प्राण यह सब परमपुरुष भगवान् वासुदेवको निवेदन करे और यह सब धर्म गुरुके पाससे सीखे॥२८॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको आत्मा माननेवाले मनुष्योंसे मित्रता और स्थावर, जंगम प्राणियोंमें सेवा विशेष करके मनुष्योंकी और उनमें

भी महात्मा तथा साधुओंकी सेवा करे॥२९॥ इन साधुओंका सत्संग करके भगवान् वासुदेवके पवित्र यशको परस्पर कहना सीखे, फिर ईर्षा छोड़ आपसमें प्रीति, सबसे संतोष, परस्पर सुख समस्त दुःखोंकी निवृत्ति सीखे॥३०॥ सम्पूर्ण पापसमूहके नाश करनेवाले भगवान् हरिको आप निरंतर स्मरण करे तथा औरोंको स्मरण करावे तब स्मरण, कीर्तनरूप भक्तिके करनेसे प्रेमलक्षणा भक्तिसे रोमांच युक्त शरीर होजाता है *॥३१॥ इस प्रकार भगवान् वासुदेवका चिंतवन करनेवाले कभी रोवे हैं, कभी हँसे हैं, कभी आनन्दको प्राप्त होते हैं, कभी बालकोंके समान वचन

परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः॥ मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिर्निवृत्तिर्मिथ आत्मनः॥३०॥ स्मरंतः स्मारयंतश्च मिथोऽघौघहरं हरिम्॥ भक्त्या संजातया भक्त्या बिभ्रत्युत्पुलकां तनुम्॥३१॥ क्वचिद्रुदंत्यच्युतचिंतया क्वचिद्धसंति नंदंति वदंत्यलौकिकाः॥ गायंति नृत्यंत्यनुशीलयंत्यजं भवंति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः॥३२॥ इति भागवतान्धर्माञ्छिक्षन्भक्त्या तदुत्थया॥ नारायणपरो मायामंजस्तरति दुस्तराम्॥३३॥ राजोवाच॥ नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः॥ निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः॥३४॥

कहते हैं, कभी नाचते हैं, कभी गाते हैं, कभी भगवान्के स्वरूपकी लीला करते हैं, कभी परमसुखमें मग्न होते हैं, और कभी चुप चाप रहते हैं॥३२॥ इस प्रकार यह वैष्णवधर्म सीखकर प्राप्त हुई भक्तिसे नारायणपरायण होकर सुखपूर्वक दुस्तर मायासे तरें॥३३॥ यह सुनकर राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्! तुमने कहा कि, नारायणपरायण होकर मायाको तरें सो नारायणके तो तीन नाम सुने हैं, एक तो नारायण, दूसरा ब्रह्म, तीसरा परमात्मा सो इन तीन नामोंसे निर्विशेष वस्तु कहिये अथवा इनमें कुछ भेद है? सो विशेष करके मुझसे कहो, क्योंकि

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* शंका— भक्ति करके उत्पन्न जो भक्ति है, उस भक्तिसे भगवान्के भक्तोंका रोम रोम खडा होजाता है, ऐसी रोमांच हुई देहको धारण करके भक्तजन भगवान्का भजन करते हैं, ऐसी उत्तमभक्ति कौनसी है?

उत्तर— भगवान्में बड़ी भक्ति जैसा अम्बरीष आदिकभक्त भक्ति करतेथे ऐसी भक्ति करके भगवान्के चरणकमलमें प्रीति उत्पन्न होय, उसी प्रीति करनेका नाम भक्तिसे उत्पन्न हुई भक्ति है, ऐसी भक्ति करके भगवान्का भजन करेगा तब प्राणी मोक्षको प्राप्त होजायगा!

तुम ब्रह्मको भली प्रकार जानते हो॥३४॥ तब पांचव पिप्पलायन ऋषि उत्तर देते हैं कि, हे राजा जनक! जो इस विश्वके उत्पत्ति, पालन तथा प्रलयके कारण हैं और आप कारण रहित हैं, सो नारायण हैं वही परमतत्त्व हैं, जो स्वरूप स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्तिमें एकरस है, सो ब्रह्म है, वही परमतत्त्व है, समाधिमें जिसको मुनीश्वर देखते हैं, उसीको ब्रह्म कहते हैं वही परमतत्त्व है और जिससे देह, इंद्रिय, मन, प्राण, यह सब चैतन्यही कार्यको समर्थ होते हैं सो परमात्मा है वही भगवान्का स्वरूप है इस प्रकार तीनों नामके भेदसे एकही तत्त्व, जानना चाहिये॥३५॥ यदि तुम कहो कि, इससे ब्रह्मको विषय तत्त्वता प्राप्त हुई तो इसका निषेध करते कि, इस ब्रह्मको वाणी, नेत्र, बुद्धि, प्राण और सब इंद्रियें स्पर्श नहीं करसक्ते जैसे छोटी चिनगारी महाभूत अग्निको नहीं प्रकाश करसक्ती और न जला सक्ती है, ऐसेही मन आदिजड़ इंद्रियें सृष्टिके प्रकाशक ब्रह्मको क्योंकर ऐसा सकेगी? तहाँ पूर्वपक्ष करते हैं कि, अहो वेद तो ब्रह्मको बताते हैं, तो कहते हैं वेद भी प्रगट नहीं कारण यह है कि, वेद स्वयंही कहता है कि, वाणी

पिप्पलायन उवाच॥ स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सहिश्च॥ देहेंद्रियासुहृदयानि चरंति येन संजीवितानि तदवेहि परं नरेंद्र॥३५॥ नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा प्राणेंद्रियाणि च यथाऽनलमर्चिषः स्वाः॥ शब्दोपि बोधकनिषेधतयाऽऽत्ममूलमर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः॥३६॥ सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ सूत्रं महानहमिति प्रवदंति जीवम्॥ ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत्॥३७॥

मन आदिसे जो पदार्थ जाने जाते हैं, जो इनके बोध न करनेवाले हैं, वह ब्रह्मको नहीं प्राप्त होसक्ते, इससे यह न समझलेना कि, वेद ब्रह्मको नहीं कहते किन्तु वेद कहते हैं, कि, स्थूल भी ब्रह्म नहीं है, अणु भी ब्रह्म नहीं जो वाणीसे कहा जाय सो भी ब्रह्म नहीं इत्यादि इस निषेधकी जो अवधि है, वही ब्रह्म है, विना अवधिके निषेध नहीं होसक्ता॥३६॥ फिर कहते हैं कि, जो सबका प्रमाण जहॉ वेदकी भी गम्य नहीं तो ब्रह्मही न होगा, इसका उत्तर देते हैं, कि, ब्रह्म नहीं यह नहीं कहा जाता, जो कुछ स्थूल सूक्ष्म देखाजाता है, सो सब ब्रह्मही भासता है इसलिये सब विश्वके कारण भगवान् वासुदेवही है (यहाँ पूछते हैं कि) एक ब्रह्म बहुविध विश्वका कारण क्यों है (सो कहते हैं कि) ब्रह्मकी शक्ति अनंत सामर्थ्यसे अनंतरूप है, पहले एक रूप होकर पीछे सत्त, रज, तम मायाके रूप हुये पीछे क्रियाशक्तिसे प्राणरूप हुये, फिर ज्ञानशक्तिसे महत्तत्त्व हुये,

फिर अहंकाररूप हुये, जिसमें जीव बँधा है, इसके उपरान्त इन्द्रियरूप हुये, फिर इन्द्रियोंके देवतारूप हुये, फिर कर्मोंके फल सुख दुःख रूप हुये, इसभाॅति सर्वरूप ब्रह्मही हैं और सर्वरूप आपसे प्रकाशमान ब्रह्मकी स्थापना विषे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं॥३७॥ तहाँ पूर्वपक्ष करते हैं, संपूर्णरूप आपही हैं, तो यह सब विश्व तो मरता है, फिर उत्पन्न होता है, इससे ज्ञात होता है कि, ब्रह्मका भी जन्म मरण होता है, इसके उत्तरमें कहते हैं कि, यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है न बढै है, न क्षीण होता है, इसकारण आगमापाई बालयुवादिक देहोंकी अवस्थाका साक्षी है और साक्षीको यह अवस्था नहीं लगती, केवल ज्ञानरूप है, यदि यहाँ कोई कहे कि, ज्ञान तो एकक्षणमें उत्पन्न होता है, एकही क्षण रहता है और एकही क्षणमें नाशको प्राप्त होजाता है (सो कहते) यह ज्ञान सदा रहता है, जो कोई कहै कि, नील ज्ञान उत्पन्न हुआ, पीत ज्ञान गया, ऐसे ज्ञानका भी उत्पत्ति और नाश सुना है इसके उत्तरमें कहते हैं कि नील पीत इन्द्रियोंकी वृत्ति उत्पन्न होती हैं और वृत्तियोंकाही नाश होता है, ज्ञान तो एक

नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ न क्षीयते सवनविद्व्यभिचारिणां हि॥ सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं प्राणो यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत्॥३८॥ अंडेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्वितेषु प्राणो हि जीवमुपधावति तत्रतत्र॥ सन्ने यदिंद्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः॥३९॥

रूप है, यह प्राणके दृष्टान्त कहे गये॥३८॥ इन्द्रियादि केवल हरिहीको दिखती हैं, जैसे पशु, पक्षी, स्वेदज, वृक्षादिकोंमें सर्वत्र जहाँ जहाँ जीव जाता है, उसी उसी स्थानमें इनके संग प्राण भी जाते हैं, परन्तु प्राण निर्विकार हैं, जैसे आत्मा भी निर्विकार रहता है, (यहाँ शंका है कि) मनुष्यादिक देहोमें आत्मा सब विकारसा क्यों दीखता है? तो कहते हैं कि, जाग्रत्में इन्द्रियगणके दोषसे, स्वप्नमें अहंकारसे, सब विकारसा दीखता है, सुषुप्तिमें तो इन्द्रियगण और अहंकारके लयसे निर्विकार आत्मा है, इससे विकारके हेतु लिंगशरीरकी उपाधिका अभाव है (यहाँ शंका है) सब नष्ट होनेसे आत्मा रहता है यह कैसे जानें? सो इसका उत्तर यह है, कि जब जागता है, तब जो सुषुप्तिमें आत्माको सुख अनुभव हुआ है उसका स्मरण होता है, आज मैं बहुत सुखसे सोया, यह ज्ञान अनुभवके स्मरण विना नहीं होता, इसलिये सुषुप्तिमें आत्माका

अनुभव निर्विकार होता है, पर विषयका सम्बन्ध नहीं, इसलिये वह अनुभव प्रगट नहीं होता है॥३९॥ फिर पूछते हैं कि, इसका सुस्वप्नमें निर्विकार अनुभव होय तो संसार फिर क्यों होता है? यदि कहो कि, इसकी अविद्या नहीं गई, उसकी वासनासे संसार होता है, तो अविद्या कैसे जाय? सो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जब गृह पुत्र धनादिकोंकी वासना छोड़कर केवल भगवान् वासुदेवकी इच्छा करें, ऐसा करनेसे भक्ति बढ़ती है, उस भक्तिसे चित्तके गुणकर्मसे उत्पन्न हुए सब पाप दूर होजाते हैं, तब चित्त शुद्ध होकर प्रगट आत्मतत्त्वको प्राप्त करता है, जैसे निर्मल दृष्टिके होनेसे सूर्यमण्डलका प्रकाश दीखता है॥४०॥ राजा जनक बोले कि, भक्ति तो कर्मयोगके अधीन है, इसलिये प्रथम मुखसे कर्मयोग कहो? जिस कर्मके करनेसे शुद्ध होकर फिर कर्मका वेग दूर करके पुरुष निष्कर्म श्रेष्ठ ज्ञान पाता है जिससे सब कर्म निवृत्ति

यर्ह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या चेतोमलानि विधमेद्गुणकर्मजानि॥ तस्मिन्विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं साक्षाद्यथाऽमलदृशोः सवितृप्रकाशः॥४०॥ राजोवाच॥ कर्मयोगं वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः॥ विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विंदते परम्॥४१॥ एवं प्रश्नमृषीन्पूर्वमपृच्छं पितुरंतिके॥ नाब्रुवन्ब्रह्मणः पुत्रास्तत्र कारणमुच्यताम्॥४२॥ आविर्होत्र उवाच॥ कर्माकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिकः॥ वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुह्यंति सूरयः॥४३॥ परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम्॥ कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा॥४४॥

होय सो कर्मयोग कहो॥४१॥ हे महाराज! यही प्रश्न मैंने पिताके आगे जब सनकादिक आये थे, तब किया था, उन्होंने भी मुझे कुछ उत्तर न दिया इसका क्या कारण है, सो मुझसे कहो॥४२॥ तब आविर्होत्र बोले कि, हे राजन्!वेदमें जिसके करनेकी आज्ञा है, वह कर्म है, जिसका निषेध है, वह अकर्म है और जिसके करने की आज्ञा है, वह न करे तो विकर्म कहाजाता है, यह तीनों भेद वेदहीको गम्य हैं, इसका निर्णय मनुष्योंको अशक्य है, इससे वेद साक्षात् ईश्वररूप है, पुरुषके वचनमें वक्ताका अर्थ जानना अतिकठिन है, यहाँ पण्डित भी मोहको प्राप्त होते हैं, तब तुम बालक थे, इसलिये तुमसे न कहा॥४३॥ वेदका तात्पर्य क्यों नहीं जानाजाता सो कहते हैं, यह वेद सब परोक्षवाद है, अर्थ तो और भाँति होता हो उसके छिपानेको और भांति कहें, इसे परोक्षवाद कहते हैं, उसीप्रकार वेदमें कर्म छुटानेका कर्म कहा है मूर्ख उसी कर्मको

जानता है, यहाँ पूछते हैं कि, कर्मका तो स्वर्गादिक फल सुना जाता है, फिर कर्मको त्यागकर फल कैसे जाने? इसका उत्तर कहते हैं कि, यह जो कर्म कारण कहे हैं, सो मूर्खोंकी शिक्षाके लिये है, नहीं तो धर्ममें किसीकी भी प्रवृत्ति नहीं होती, जैसे बालकोंको औषधी खिलानी चाहिये, तब लड्डू दिखाइये, और दीजिये उस लड्डूके लोभसे वह बालक औषधी पीलेगा, तब औषधीका यह फल नहीं, जो लड्डू खाय औषधीका तो यही फल है कि, आरोग्य कर देगी, उसीप्रकार जीव सब विषयी हैं, लोभी हैं उनको स्वर्गादिकका लोभ दिखाय कर्ममें प्रवृत्ति करते हैं, पीछे इससे भी निवृत्तिका फल उत्तम है, इस ज्ञानसे उन कर्मोंको छुड़ाते हैं, यह वेदका तात्पर्य है॥४४॥ जो कर्म त्यागनाही मुख्य है, तो पहलेही कर्म त्याग कीजिये तो कहते हैं कि, आप अज्ञ हो, अजितेन्द्रिय हो, जो वेदोक्त कर्म न करे तो कर्मके विना करे अधर्मसे मरकर फिर मृत्युहीको प्राप्त होता है और

नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेंद्रियः॥ विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः॥४५॥ वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसंगोऽर्पितमीश्वरे॥ नैष्कर्म्यां लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः॥४६॥ य आशु हृदयग्रंथिं निर्जिहीर्षुः परमात्मनः॥ विधिनोपचरेद्देवं तंत्रोक्तेन च केशवम्॥४७॥ लब्धानुग्रह आचार्यात्तेन संदर्शितागमः॥ महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयात्मनः॥४८॥

सदा कालकेही मुखमें रहता है॥४५॥ इसलिये वेदोक्ती कर्म करे, निषिद्ध कर्म न करे, फिर कर्मके फलकी इच्छा न रक्खे, जो कुछ कर्म करे सो सब ईश्वर भगवान् वासुदेवमेंही समर्पण करे तब पुरुष मोक्षरूप सिद्धिको प्राप्तहो (तहाँ पूर्वपक्ष कहते हैं) कि, अहो, वेद विषे जो फल सुने जाते हैं, जैसे औषध पिलानेके लिये बालकोंको लड्डू देता है, उसी प्रकार कर्म करनेसे फल अवश्य होगा, तो कहते हैं कि, यह मत कहो, कर्मोंमें प्रीति उपजानेका फल सुनाना है, जैसे औषध देनेके समय बालकोंको मीठी चीज दिखाते हैं, अब वैदिककर्म कहकर आगमकी विधि कहते हैं॥४६॥ जो कोई निर्विकार जीवकी अहंकारकी गांठि छुड़ाना चाहे सो आगम और वेदोक्तके प्रकारसे सबकी पूजा करे॥४७॥ सो पूजाकी विधि कहते हैं कि, जब इस पुरुषपर ईश्वर अनुग्रह करे, तो सद्गुरु मिलते हैं, फिर उन गुरुओंसे पूजाकी विधि जाने तब आपको जैसी मूर्त्ति रुचे, उसी

प्रकार मूर्त्ति बनाकर भगवान् वासुदेवकी पूजा करे॥४८॥ सो विधि कहते हैं कि, पहले तो स्नानादिक करके पवित्र हो और फिर उस मूर्त्तिके सन्मुख बैठ प्राणायाम और भूतशुद्धि कर देहको शुद्ध करे, इसके उपरान्त उत्तम न्यासोंको कर अपनी रक्षाकरके भगवान् हरिकी पूजा करे॥४९॥ पुष्पादिक द्रव्यको जंतुआदि शोधन कर, भूमिको संमार्जन और मनको सावधानकर, मूर्त्तिको स्नानादिक कराय आसनको प्रोक्षणकर प्रतिमादिक विषे अथवा हृदयमें यथा प्राप्त उपचारोंसे पूजा करें॥५०॥ पाद्य, अर्घ्य इत्यादि सब विधिपूर्वक देनेके उपरान्त पहले अपने हृदयमें पूजित भगवान् वासुदेवको संनिधापन मुद्रासे दृढ़ घर सावधान होकर ध्यान करे, इसके पीछे हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र, अस्त्र, मंत्र और

शुचिः संमुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः॥ पिंडं विशोध्य संन्यासकृतरक्षोऽर्चयेद्धरिम्॥४९॥ अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकैः॥ द्रव्यक्षित्यात्मलिंगानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य चासनम्॥५०॥ पाद्यादीनुपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः॥ हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमंत्रेण चार्चयेत्॥५१॥ सांगोपांगां सपार्षदां तांतां मूर्तिं स्वमंत्रतः॥ पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः॥५२॥ गंधमाल्याक्षतस्रग्भिर्धूपदीपोपहारकैः॥ सांगं संपूज्य विधिवत्स्तवैः स्तुवा नमेद्धरिम्॥५३॥ आत्मानं तन्मय ध्यायन्मूर्तिं संपूजयेद्धरेः॥ शेषामाधाय शिरसि स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम्॥५४॥

मूलमंत्रसे पूजा करे॥५१॥ इसके उपरान्त अंग हृदयादिक, उपांग, सुदर्शन आदि पार्षद परिवार, देवता सहित उस मूर्त्तिको, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, भूषण, उपचार कर॥५२॥ गंध, पुष्प, अक्षत, माला, धूप, दीप, नैवेद्यसे पूजा करै; फिर स्तोत्रोंसे स्तुतिकर नमस्कार करे और अक्षत सहित उस मूर्त्तिको तिलक करके पूजे और समय न पूजे क्योंकि अक्षतसे भगवान् हरिकी और केतकीसे महादेवजीकी पूजा निषिद्ध है॥५३॥ और फिर मूर्त्तिरूप भगवान् वसुदेवका ध्यान करके पूजा करे, इसके उपरान्त उस निर्माल्यको मस्तकपर चढा, देवताका स्वरूप हृदयमें धारण कर पूजीहुई मूर्त्तिको विसर्जन करके अपने स्थानमें रक्खे॥५४॥

इसप्रकार अग्नि, सूर्य, जल आदिमें स्थित अतिथिमें, हृदयमें, आत्मारूप ईश्वर भगवान् वासुदेवकी जो पुरुष पूजा करेगा सो थोडेही कालमें संसारी बंधनोंसे छूटकर मुक्त हो जायगा, यह आगमकी विधि वर्णन की॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा— इस चौथे अध्यायमें, द्रुमिल नाम योगीश॥ लीला हरि अवतारकी, कहत धरनधर शीश॥१॥ राजा जनक बोले कि, हे भगवन्! आपने प्रथम कहा कि, भगवान् हरिकी मूर्त्तिको जैसा मन माने वैसी बनाकर पूजा और स्तुति करें, सो हमको

एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः॥ यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते च सः॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे तृतीयोऽध्यायः॥३॥ राजोवाच॥ यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छंदजन्मभिः॥ चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवंतु नः॥१॥ द्रुमिल उवाच॥ यो वा अनंतस्य गुणाननंताननुक्रमिष्यन्स तु बालबुद्धिः॥ रजांसि भूमेर्गणयेत्कथंचित्कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः॥२॥

न तो मूर्त्तिका ज्ञान है, न गुण कर्मका ज्ञान है, जो स्तुति करें इसलिये तुम उनके अवतार और कर्म कहो कि, भगवान् वासुदेवने जो जो जन्म लिये हैं और जो जो कर्म किये हैं और अब करते हैं और जो आगेको करेंगे सो सब वर्णन कीजिये *॥१॥ राजा जनकने जब इसप्रकार पूँछा तब द्रुमिल योगीश्वर बोले कि, जो पुरुष अनंतरूप भगवान् वासुदेवके चरित्रको गिनना चाहै, वह अज्ञानी है, क्योंकि पृथ्वीके परमाणुओंको तो बहुत कालतक परिश्रम करके कोई बुद्धिमान् गिन भी सकता है, परंतु अनंतशक्तिका आश्रय भगवान् वासुदेवके गुणोंको कोई नहीं गिनसक्ता॥२॥

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* शंका— राजा जनक बडे ब्रह्मके जाननेवाले थे, ऐसे ब्रह्मज्ञानी होकर ब्रह्मकी कथाको त्यागकर मुनिराजसे सगुण अवतारकी कथा क्यों बूझी? क्योंकि ब्रह्मज्ञानी महात्मा पुरुष सगुणमें प्रीति नहीं करते।

उत्तर— तीन लोकमें जो चर अचर जीव हैं, उन सबका बीज विना जन्म नहीं होसक्ता, किसीका भी जन्म आजतक बीज विना नहीं, तैसेही ब्रह्मज्ञानका बीज सगुण ब्रह्मका कीर्त्तन है, सगुणके कीर्त्तनसे ब्रह्मज्ञान होता है, इसलिये राजा जनकने ब्रह्मज्ञानी होकर सगुण भगवान् अवतारकी कथा बूझी।

परन्तु तोभी संक्षेपसे उनके कितने एक गुण वर्णन करताहूं कि, जब स्वयं भगवान् वासुदेव पंचमहाभूत उत्पन्न कर ब्रह्माण्डरूप नगर बनाय उसमें लीलापूर्वक प्रविष्टहुए, इसलिये इनका आदि देव नारायण पुरुष नाम हुआ॥३॥ यह तीन लोककी स्थापना जिस पुरुषको देता है और जिसकी इन्द्रियोंसे सब देहधारियोंकी इन्द्रियें होती हैं, जिसके स्वरूपसे भूत सत्त्वगुणसे ज्ञान होता है, प्राणसे देहशक्ति और इन्द्रियशक्ति तथा चेष्टा इत्यादि यह सब होती हैं, इससे ज्ञात होता है कि, विश्वका कर्त्ता भी कोई है॥४॥ प्रथम इस विश्वके उत्पन्न करनेको रजोगुणसे ब्रह्मा हुए, सत्तोगुणसे यज्ञके फलदाता और धर्मके रक्षा करनेवाले विष्णु हुए, तमोगुणसे संहार करनेको रुद्र हुए, इसप्रकार प्रजाओंके बीच जिससे निरंतर जन्म,

भूतैर्यदा पंचभिरात्मसृष्टैः पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन्॥ स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानमवाप नारायण आदिदेवः॥

३॥ यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो यस्येंद्रियैस्तनुभृतामुभयेंद्रियाणि॥ ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहासत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्भव आदिकर्ता॥४॥ आदावभूच्छतधृती रजसाऽस्य सर्गे विष्णुः स्थितो क्रतुपतिर्द्विजधर्मसेतुः॥ रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य इत्युद्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु॥५॥ धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्टमूर्त्यो नारायणो नरऋषिप्रवरः प्रशांतः॥ नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेवितांघ्रिः॥६॥ इंद्रो विशंक्य मम धाम जिघृक्षतीति कामं न्ययुंक्त सगणं स बदर्युपाख्यम्॥ गत्वाप्सरोगणवसंतसुमंदवातैः स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः॥७॥

पालन और नाश होता है, वही आदि पुरुष हैं॥५॥ वही आदिदेव दक्षकी बेटी मूर्ति नाम धर्मकी स्त्रीके विषे ऋषियोंमें श्रेष्ठ अतिशान्तस्वरूप नरनारायण अवतार हुआ और जिससे कर्म नष्ट न हो, ऐसा निष्कर्म ज्ञान बनाया और आपने भी उसीके अनुसार कर्म किया, सोही श्रेष्ठ ऋषियोंसे सेवित जिनके चरण सो भगवान् नरनारायणरूपसे बद्रिकाश्रममें आजतक विराजमान हैं॥६॥ हे महाराज! इससमय एक भगवान् वासुदेवके अवतारोंका बतानेवाला परमशक्ति दिखानेवाला इतिहास कहते हैं, सो आप मन लगाकर श्रवण करें, एकसमय नरनारायणको

परमशान्त तप करते देख देवराज इन्द्रने मनमें विचार किया कि, यह मेरा स्थान तप करके लेना चाहते हैं, यह विचार तपस्यामें विघ्न करनेके लिये परिवार सहित कामको भेजा और भगवान् वासुदेवकी महिमाको नहीं जाननेके कारण कामदेव उनके स्थानमें अप्सराओंके गण वसंत और मंद वायुसहित जाकर स्त्रियोंके कटाक्षरूप बाणोंसे उनको मारने लगा॥७॥ तब गर्वरहित नरनारायण इन्द्रका कियाहुआ अपराध जान शापके भयसे कॉपतेहुए कामादिक देवताओंसे हँसकर बोले कि, हे कामदेव! हे देवांगनाओ! भय मत करो, हमरा आतिथ्य ग्रहण करके हमारे आश्रमको सुवास करो, क्योंकि जिस स्थानपर अतिथिका आदर सन्मान नहीं होता वह स्थान शून्य कहलाता है॥८॥ है राजन्! अभयके देनेवाले श्रीभगवान् हरिके इसप्रकार कहनेपर लज्जासहित और नम्र शिर हो, कामादिक देवता दयासंयुक्त श्रीनरनारायणसे बोले कि, हे प्रभो! तुम्हारा

विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान्॥ मा भैष्ट भो मदनमारुतदेववध्वो गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम्॥८॥ इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः॥ नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं स्वारामधीरनिकरानतपादपद्मे॥९॥ त्वां सेवतां सुरकृता बहवोंऽतरायास्वौको विलंध्य परमं व्रजतां पदं ते॥ नान्यस्य बर्हिषि बलीन्ददतः स्वभागान्धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि॥१०॥ क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्व्यशैश्न्यानस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्॥ क्रोधस्य यांति विफलस्य वशं पदे गोर्मज्जंति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृर्जति॥११॥

इस प्रकार कहना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं, क्योंकि तुम मायासे परे हो, निर्विकार हो, आत्माराम और धीर मुनियोंके समूह तुम्हारे चरण कमलको नमस्कार करते हैं॥९॥ हमारे अपराधका आचरण भी कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि हमारा स्वभावही ऐसा है, तुम्हारी सेवा करनेवाले पुरुष देवताओंके स्थानको उल्लंघनकर आपका जो परमधाम वैकुण्ठ है उसमें जाते हैं, उनको इन्द्रादिक देवता बहुत विघ्न करते हैं तुम्हारी सेवा नहीं करनेवाले दूसरे पुरुष कि, जो यज्ञमें देवताओंको उनके भागरूप कर देते हैं, उनको विघ्न नहीं करते, परन्तु जिसके तुम रक्षक हो, वह तुम्हारा भक्त निश्चय विघ्नोंके माथेपर चरण धरकर तुम्हें प्राप्त होजाता है॥१०॥ अभक्तोंको काम क्रोधादिक सब वशमें करलेते हैं, उनमें जो जो हमारे वश होते हैं,

सो भोग भी करते हैं और जो क्रोधके वश हैं, वह तो अतिमूर्ख क्षुधा, तृष्णा, शर्दी, गर्मी, वर्षा, पवन, जीभका रस और शिश्नका रस ये रूप हैं, उनको लाँघकर जो पुरुष निष्फल क्रोधके वशीभूत होजाते हैं, वह अपार समुद्रको पार उतरकर गायोंके खुरोंके गढोंमें डूब जाते हैं, यह लोग शाप आदि देकर अतिकठिन तपस्याको वृथा छोड़ देते हैं न तो मोक्षके अर्थ न भोगके अर्थ है॥११॥ इसप्रकार भगवान् वासुदेवने कामादिककी स्तुति सुन अपने योगबलसे उत्पन्न अद्भुत रूपवाली सेवा करती अभूषणों सहित स्त्रियें कामादिकको दिखाई॥१२॥ वह देवताओंके सेवक मूर्त्तिमान लक्ष्मीके समान उन स्त्रियोंको देख, उनकी गंधसे मोहित हो, उनके रूप गुण उदारतासे इनकी शोभा दर्प सब जाता रहा॥१३॥ तब देवोंके देव प्रभु भगवान् वासुदेव हास्यकर नम्रहुए कामादिक देवताओंसे बोले कि, इन स्त्रियोंमेंसे किसीको तुम वरो, यह सुनकर देवताओंने कहा कि, हम तुच्छ हैं, कहाँ

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्भुतदर्शनाः॥ दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः॥१२॥ ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः॥ गंधेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः॥१३॥ तानाह देवदेवेशः प्रणतान्प्रहसन्निव॥ आसामेकतमां वृड्घ्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम्॥१४॥ ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवंदिनः॥ उर्वशीमप्सरः श्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः॥१५॥ इन्द्रमानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम्॥ ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रा स विस्मितः॥१६॥ हंसस्वरूप्यवददच्युत अत्मयोगं दत्तः कुमार ऋषभो भगवान्पिता नः॥ विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतीर्णस्तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये॥१७॥

ऐसी स्त्रियें, और कहाँ हम, तब नारायण बोले कि, तुम्हारे समान जो हो उसे ग्रहण करो, तब कमादिक देवताओंने फिर कहा कि, हे महाराज! इनमें हमारे समान एक भी नहीं है तब भगवान्ने कहा कि, एक तो तुम लो तुम्हारे स्वर्गका भूषण होगी॥१४॥ तब कामादिक देवता भगवान् नरनारायणकी आज्ञा मान अप्सराओंमें श्रेष्ठ उर्व्वशीको ले, प्रभुको नमस्कारकर स्वर्गको चलेगये॥१५॥ स्वर्गमें जाय देवराज इन्द्रको प्रणामकर सभामें सब देवताओंके सुनते नरनारायणका बल कहा, तब इन्द्र अति आश्चर्यमान अत्यन्त भयको प्राप्त हुआ॥१६॥ इन्हीं प्रभुने हंसावतार लेकर संपूर्ण आत्मयोग कहा, फिर एक दत्तात्रेय, एक सनकादिक, एक भगवान् ऋषभ

विष्णुरूपही अपने अंशसे जगत्का कल्याण करनेको प्रगट हुए थे और इन्हीं विष्णुने एक समय हयग्रीव अवतार ले, मधुदैत्यको मार वेदोंका उद्धार किया था॥१७॥ एक समय प्रलयके समुद्रमें मत्स्यरूप धारण कर मनु, पृथ्वी और औषधियोंकी रक्षा की थी, वराह अवतार ले हिरण्याक्षको मार जलसे पृथ्वीका उद्धार किया, कूर्मावतार ले अमृत मथनेको अपनी पीठपर मंदराचल पर्वत धारण किया, इसके उपरान्त दुःखित होकर शरण आयेहुए गजेन्द्रको ग्राहसे छुडाया॥१८॥ एक समय वालखिल्य ऋषि कश्यपजीके लिये काष्ठ लेने गये थे, सो वहाँ गायके खुरके गढेमें पानी भररहाथा उसमें डूबने लगे, तब इन्होंने बहुत स्तुति करी, वहाँसे आत्मविद्यामें तत्पर ऋषियोंको छुड़ाया और वृत्रा

गुप्तोऽऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये क्रोडे हतो दितिज उद्धरतांभसः क्ष्माम्॥ कौर्मे धृतोऽद्रिरमृतोन्मथने स्वपृष्ठे ग्राहात्प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम्॥१८॥ संस्तुन्वतोऽब्धिपतिताच्छ्रमणानृषींश्च शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम्॥ देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा जघ्नेऽसुरेंद्रमभयाय सतां नृसिंहे॥१९॥ देवासुरे युधि च दैत्यपतीन्सुरार्थे हत्वांतरेषु भुवनान्यदधात्कलाभिः॥ भूत्वाऽथ वामन इमामहरद्बलेः क्ष्मां याच्ञाच्छलेन समदाददितेः सुतेभ्यः॥२०॥ निःक्षत्त्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वो रामस्तु हैहयकुलाऽप्ययभार्गवाग्निः॥ सोऽब्धिं बबंध दशवक्त्रमहन्सलंकं सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः॥२१॥

सुरके मारनेसे जो ब्रह्महत्या हुई थी, उससे देवराज इन्द्रको छुड़ाया, अनाथ देवताओंकी स्त्रियें असुरोंके घरमें रुक रहीथीं, उन सबको अनेक अवतार लेकर छुड़ाया, फिर नृसिंहरूप धारणकर भक्तोंको अभयदान देनेके लिये हिरण्यकश्यपका वध किया॥१९॥ मन्वन्तरोंमें देवता और दैत्योंके संग्राममें देवताओंके लिये अपनी कलासे दैत्यपतियोंका संहार किया, संपूर्ण लोकोंकी रक्षा करी और वामनरूप धरकर राजा बलिसे भीखके मिष इस पृथ्वीको लेकर देवताओंको देदी॥२०॥ परशुरामका अवतार ले इक्कीसबार पृथ्वीको क्षत्रियरहित किया और हैहय कुलके नाशको भृगुवंशमें अग्निरूप प्रगटहुए, उन्होंनेही फिर रामावतार लेकर समुद्र बाँधा और लंकापुरीमें स्थित परिवार समेत राक्षसराज रावणका

वध किया, जिनकी कीर्त्ति संसारके पाप नाश करती है, सोई रघुनाथजी अब विद्यमान हैं॥२१॥ भूमिका भार उतारनेके लिये अजन्मा आप यादव कुलमें जन्म ले, जो देवताओंसे भी न करे जायँ ऐसे कर्म करेंगे, पीछे जो यज्ञादिक करनेके अयोग्य दैत्योंको बौद्धरूप घर मोहित करेंगे, इसके उपरान्त कलियुगके अंतमें कल्कि अवतार लेकर शुद्र जातिके राजाओंको मारेंगे॥२२॥ हे महाराज! महाभुज! इसप्रकार जगत्पति भगवान् वासुदेवके जन्म और कर्म अनंत हैं, मैंने तो संक्षेपसे वर्णन किये॥२३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा— पंचम हरिकी भक्तिविन, नरकी गति है कौन। सो सब वर्णन करतहों, पूजन सेवन जौन॥१॥ राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्! जिनकी कामना नहीं छूटीं वह पुरुष बहुधा भगवान् वासुदेवका भजन नहीं करते उनकी क्या गति होगी? सो

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि॥ वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हाञ्छूद्रान्कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदंते॥२२॥ एवं विधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः॥ भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज॥२३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ राजोवाच॥ भगवंतं हरिं प्रायो न भजंत्यात्मवित्तमाः॥ तेषामशांतकामानां का निष्ठाऽविजितात्मनाम्॥१॥ चमस उवाच॥ मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह॥ चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक्॥२॥ य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम्॥ न भजंत्यवजानंति स्थानद्भ्रष्टाः पतंत्यधः॥३॥ दूरे हरिकथाः केचिद्दूदूरे चाच्युतकीर्तनाः॥ स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकंप्या भवादृशाम्॥४॥

कृपापूर्वक आप हमसे वर्णन कीजिये॥१॥ तब आठवें चमस ऋषिने उत्तर दिया कि, हे राजन्! पहले परमपुरुषके मुखद्वारा सतोगुणसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए, भुजाओंसे सत रजसे क्षत्रिय हुए, ऊरू द्वारा रजोगुण तमोगुणसे वैश्य हुए, चरणद्वारा केवल तमोगुणसे शूद्र हुए और आश्रम सहित भिन्न २ वर्ण उत्पन्न हुए॥२॥ अपना जन्मदाता पुरुष ईश्वरका इन वार्णोंके मध्य जो भजन नहीं करता और जान बूझकर निरादर करता है, वह पुरुष वर्ण आश्रमसे भ्रष्ट होकर अधोगतिको प्राप्त होता है॥३॥ कोई एक पुरुष इसप्रकारके हैं, जिनको हरिकथा सुनना बहुत कठिन है, किसी किसीको हरिका कीर्तन बहुत कठिन है, इसप्रकार कितने एक द्विजलोग और स्त्रियें तथा शूद्रादिक कि, जो

भगवान् वासुदेवको न जाननेसे नहीं भजते उनके ऊपर आप सरीखेही कृपा करते हैं॥४॥ यद्यपि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यह यज्ञोपवीतरूप दूसरे जन्मसे और वेदाध्ययनसे हरिभजनके उत्तम अधिकारी हैं परन्तु तो भी वेदके फल स्तुतिके वचनोंमें मोहित होकर जानने पर भी भगवान् वासुदेवका भजन नहीं करते और कर्मोंमें आसक्त होरहे हैं उन अर्द्धदग्ध लोगोंको सुधारनेका उपाय कोई न होनेसे आपसरीखे पुरुषोंको उनकी उपेक्षा करनी चाहिये॥५॥ कर्म करनेमें अकुशल मूर्ख अपनेको पण्डित माननेवाले, अनम्र, ऐसी मनोहर बातें कहते हैं कि, जिनमें मोह उत्पन्न हो, वह यह है कि यज्ञादिकोंका फल अक्षय होगा, न स्वर्गमें शीत है, न उष्ण है, न मलिनता है, न पराजय है और वचनसे उत्कंठित होकर कहते हैं कि, हम अप्सराओंसे विहार करेंगे, यह कहतेहुए कर्ममें बँधे रहते हैं॥६॥ उनको उस फलके भ्रमसे कर्महीमें आदर होता है!

विप्रो राजन्यवैश्यौ च हरेः प्राप्ताः पदांतिकम्॥ श्रौतेन जन्मनाऽथापि मुह्यत्याम्नायवादिनः॥५॥ कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पंडितमानिनः॥ वदंति चाटुकान्मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः॥६॥ रजसा घोरसंकल्पाः कामुका अहिमन्यवः॥ दांभिका मानिनः पापा विहसंत्यच्युतप्रियान्॥७॥ वदंति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो गृहेषु मैथुन्यसुखेषु चाशिषः॥ यजंत्यसृष्टान्नविधानदक्षिणं वृत्त्यै परं घ्नंति पशूनतद्विदः॥८॥ श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा॥ जातस्मयेनांधधियः सहेश्वरान्सतोऽवमन्यंति हरिप्रियान्खलाः॥९॥

उससे काम, क्रोध, मदादिक वृद्धिको प्राप्त होते हैं और यह भी कहा है कि, रजोगुणसे राग द्वेष उत्पन्न होता है, उससे अभिचारके कर्मोंपर मन होता है, तब वह घोरसंकल्पी, महातृष्णावाले सर्पके समान क्रोधी महाअभिमानी दुष्ट स्वभावसे अधजले लोग नारायणके भक्तोंपर हँसते हैं॥७॥ सदा स्त्रियोंकीही सेवा करते हैं कि वृद्धोंकी सेवा नहीं करते केवल मैथुनमें ही सुख माननेवाले अतिथिकी पूजारहित घरोंमें रहकर मनके मनोरथवाले लोग कहा करते हैं कि, आज मैंने यह पाया यह मनोरथ फिर प्राप्त करूंगा और जो कदाचित् किसी देवताकी पूजा करें तो अपने स्वार्थके लिये पशुकी हिंसा करते हैं, न कुछ विधि न दक्षिणा, न अन्नदान करें ऐसे मूर्ख हैं जो हिंसादोषको नहीं जानते॥८॥ धन, ऐश्वर्य, कुल, विद्या, दान, रूप, बल और कर्मोंसे उनको गर्व उत्पन्न होता है, इससे मंदबुद्धि दुष्ट ईश्वर सहित साधु परमेश्वरके भक्तोंका निरादर करते हैं॥९॥

यह दुष्ट पुरुष वेदके अर्थको नहीं जानते, वेद कहते हैं कि, यद्यपि सब देहधारियोंमें यह आत्मा सदा आकाशकी भाँति व्यापरहा है और अपने प्रिय ईश्वरको फिर वेद प्रगट बताते हैं, परन्तु तोभी यह मूर्ख नहीं सुनते, अपने मनोरथोंकीही बातोंमें वाद विवाद करते हैं॥१०॥ तहाँ पूर्वपक्ष कहते हैं कि, स्त्री संभोग तो कहा है कि, रजस्वला होनेपर मैथुन करे देवताका बचाहुआ भोजन करे, फिर तुम क्यों निन्दा करते हो? इसके उत्तरमें कहते हैं कि लोकमें स्त्रीप्रसंग मांस भक्षण और मदिराका सेवन नित्य है और विषयासक्तोंको अनुराग स्वभावहीसे प्राप्त है,

सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम्॥ वेदोपगीतं च न शृण्वतेऽबुधा मनोरथानां प्रवदंति वार्तया॥१०॥ लोक व्यवायाऽऽमिषमद्यसेवा नित्यास्तु जंतोर्न हि तत्र चोदना॥ व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा॥११॥ धनं च धर्मैकफलं यतो वै ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशांतिः॥ गृहेषु युंजंति कलेवरस्य मृत्युं न पश्यंति दुरंतवीर्यम्॥१२॥

फिर कुछ विधि नहीं बस एक यही चाहिये और जहाँ विधि कही है तहाँ ऋतुकालके दिन स्त्रीसंग करे, यज्ञहीमें मांस मद्य ग्रहण करे और २ दिन न करे इस नियमसे करे, परन्तु दिनका निषेध किया है, इसे विषयी मूर्खलोग नहीं समझते, जो कामी अरुचिसे अथवा द्वेषसे स्त्री प्रसंगादिक करें उनका यह नियम है और जिनके यह कामना नहीं, उनका नियम नहीं। वेदका अभिप्राय तो सब दिन छुडानेकाही है, उसे मूर्ख नहीं समझते *॥११॥ धर्म करनाही धर्मका फल है क्योंकि धर्मानुष्ठान करनेसे परोक्ष ज्ञान (नहीं दीखनेवाला ज्ञान) और तत्काल शांतिदायक

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* दृष्टान्त— वास्तवमें उसका तात्पर्य यह हैं जैसे किसीका लडका खेलमें अत्यन्त मतवाला हो और वेश्याके घर दिन रात पडा रहता हो और पढनेमें उसकी रुचि न हो, तो उसके पिताको कहना चाहिये कि, तू प्रातःकाल उठकर तो वेश्याके घर जायाकर, फिर एक घंटाभर खेलकर और जो तू प्रातःकाल वेश्याके घर नहीं गया और एक घंटाभर न खेला तो मैं तुमको बहुत मारुंगा, क्योंकि इन दोनों कामोंके दो घंटेमें निश्चित होकर फिर अपना चित्त कहीं इधर उधर मत मटकाना और जो फिर मटकावेगा तो पिटेगा, यह वाक्य निवृत्तिका निरूपण करता है इसी प्रकार वेद भी निवृत्तिका निरूपण करता हैं प्रवृत्तिका निरूपण नहीं कराता जो मनुष्य समीप आनेपर भी ऋतुस्नात मार्यासे प्रसंग न करे, तो गर्भहत्याका जो महापाप होता है, वही पाप उस मनुष्यको लगता है अनेक श्रुतियोंके वचन तो यह हैं कि, मनमें कामना होनेपर भी स्त्रीके विषे अरुचि अथवा द्वेषादिक होनेसे उसके साथ प्रसंग न करे, ऐसे जानना?

अपरोक्ष ज्ञान दोनों प्राप्त होजाते हैं, ऐसे सुखदायक धनको यह पुरुष देहादिकके लिये घरोंमें वृथा खो देते हैं, हॉ! न तो इसका विचार करते हैं और न शिरपर घूमतीहुई मृत्युकोही देखते हैं॥१२॥ और वेदका तात्पर्य नहीं जानते कि, ऋतुके दिनभी स्त्रीप्रसंग गर्भाधानहीको कहा है कुछ यथेष्ट कामभोगको नहीं कहा और सुरापान भी नहीं कहा है, आघ्राण कहा है, पशुकी हिंसा देवताके लिये करें अपने लोभसे न करें, ऐसे शुद्ध धर्मको विषयकी आसक्तिसे न करें इस बातको यह मूर्ख नहीं जानते॥१३॥ जो इस धर्मको नहीं जानते सो आसाधु हैं, अनम्र हैं वैसेही अपनेको साधुकरके मानलेते हैं, विश्वाससे पशुओंका वध करते हैं और कहते हैं कि, इसके करनेसे मनोरथ सिद्ध होगा

यद्घ्राणभक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा॥ एवं व्यवायः प्रजया न रत्या इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम्॥१३॥ ये त्वनेवंविदोऽसंतः स्तब्धाः सदभिमानिनः॥ पशून्दृह्यंति विस्रब्धाः प्रेत्य खादंति ते च तान्॥१४॥ द्विषंतः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम्॥ मृतके सानुबंधेऽस्मिन्बद्धस्नेहाः पतंत्यधः॥१५॥ ये कैवल्यमसंप्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम्॥ त्रैवर्गिका हाक्षणिका आत्मानं घातयंति ते॥१६॥ एत आत्महनोऽशांता अज्ञाने ज्ञानमानिनः॥ सीदंत्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः॥१७॥

परन्तु ऐसा कहा गया है कि, इस जन्ममें उसका माँस यह खाते हैं, अगले जन्ममें वह इनका माँस भक्षण करेगा इसलिये इसका नाम मांस4 है॥१४॥ मृतक समान अपने और पुत्रादिकोमें स्नेहसे बद्ध हो पराये भी देहोंमें विद्यमान अपने आत्मा ईश्वर हरिसे जो पुरुष द्वेष करते हैं, वह मरनेके पीछे नरकमें प्रड़ते हैं॥१५॥ जो अज्ञ हैं वह ज्ञानीपुरुषोंकी कृपासे संसारसागरको तरजाते हैं और जो मध्यवर्ती हैं, सो नरकमें गिरते हैं, अधिक क्या कहें, जो जो तत्त्वज्ञानको प्राप्त नहीं हुए, मूढ़ताहीको प्राप्त हुए और अपने स्वार्थकेही लिये धर्म, अर्थ, कामादिक करे वह, पुरुष वारम्वार जन्म मरणको प्राप्त होते हैं॥१६॥ जो पुरुष आत्मघाती व अशांत हैं, अज्ञानहीको ज्ञान मानते हैं और जो कृतकृत्य नहीं हुए, सो कलासे

नष्ट मनोरथ हो दुःखदी पाते हैं॥१७॥ और जो पुरुष भगवान् वासुदेवसे विमुख हैं, वह अतिश्रमसे गृह, पुत्र, मित्र, धन संपूर्णवस्तुको प्राप्त होकर इच्छा न रहनेपरभी नीच योनि अंधतममें पड़ते हैं *॥१८॥ राजा जनक बोले कि, हे ब्रह्मन्! आपने जो सब त्यागकर केवल भगवान्

हित्वाऽऽत्मायासरचिता गृहापत्यसुहृच्छ्रियः॥ तमो विशंत्यनिच्छंतो वासुदेवपराङ्मुखाः॥१८॥ राजोवाच॥ कस्मिन्काले स भगवान्किंवर्णः कीदृशो नृभिः॥ नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम्॥१९॥ करभाजन उवाच॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः॥ नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेजते॥२०॥

नारायणकी भक्ति करनेको कहा सो यह भगवान् किस समयमें? कैसे वर्णके? कैसी आकृतिके? कौनसे नामसे? और किस विधिसे लोकोंमें पूजे जाते हैं सो मुझे भली भाँति समझाकर आप कहिये॥१९॥ तब करभाजन ऋषीश्वर नौवें प्रश्नका उत्तर देते हैं कि, हे राजन्! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर,

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* शंका— राजा जनकने मुनियोंसे भगवान्का भजन और सेवन आदि सब कर्म युग युगके अलग अलग वूझे कि, सत्ययुगमें किस प्रकारका भजन सेवन होता है और त्रेतामें और द्वापरमें और कलियुगमें किस किस प्रकारका भजन और सेवन होना चाहिये और मुनि भी चारों युगोंमें भिन्न भिन्न पूजन भजन आदि करते हैं, यह बडा अनुचित कर्म है, किस लिये कि शस्त्रोंमें भगवान् सर्वव्यापी निरजन लिखा है भिन्न भिन्न कर्म तो जीवोंके लिये होता है, ईश्वरके नहीं होता यह बडी शंका है॥

उत्तर— भगवान् तो भक्तवत्सल और दीनदयालु हैं, और त्रिलोकीमें जो चराचर प्राणी हैं, उन सब प्राणियोंमें भगवान् किसीयुगमें भी भिन्नभाव नहीं रखते, सबको एक समान मानते हैं, ऐसे कृपासिंधु हैं, परन्तु मनुष्योंमें अनेक प्रकारके जीव हैं, जितने मनुष्यके देह हैं, उतनेही जीव हैं, इसलिये सब जीवोंमें भगवान्की भक्ति अलग अलग होती है, सब युगोंमें कोई किसी प्रकारकी भक्ति करता है, कोई किसी प्रकारकी भक्ति करता है और भगवान्के नाम और चरित्रोंका भी अन्त नहीं, जिस नामपर जिसप्राणीको भक्ति हुई उसी नामको जपने लगा, युगयुगमें भगवान् उस अपने नाम जपनेवाले प्राणीकी रक्षा कैसे करते हैं? जैसे गाय अपने वत्सकी रक्षा करती है और राजा जनकभी भगवान्के भक्तकी लीला करके उन्मत्त होरहे थे, भगवान्की भक्तिको वृद्धि होनेके लिये युग युगमे भिन्न भिन्न भगवान्के नाम और सेवन बूझने लगे, कुछ भिन्न भाव मानकर नहीं बूझा।

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और कलियुग इन चार युगोंमें नाना वर्ण, नाम, आकारयुक्त भगवान् केशव अनेक विधिसे पूजेजाते हैं॥२०॥ सत्ययुगमें शुक्लवर्ण, चतुर्भुज, जटा धारण करे, वल्कल वस्त्र पहरे, काले मृगका चर्म यज्ञोपवीत रुद्राक्ष दण्ड कमण्डलु धरे, ब्रह्मचारीके रूपसे दर्शन देते हैं॥२१॥ उस युगमें मनुष्य सब शांत, निर्वैर, सुहृदय, समदृष्टि, शम, दम और ध्यानसे देवताको पूजते हैं॥२२॥ उस कालमें इन नामोंसे भगवान् हरि गाये जाते हैं, हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा॥२३॥ त्रेतामें आरक्त, चार भुजा, तीन मेखला धारण करे, सुवर्णके समान केशवाले, वेदत्रयीमय मूर्त्ति और स्रुक् स्रुवा आदि चिह्नोंको धारण करते हैं॥२४॥ जो अति धर्मात्मा

कृते शुक्लश्चतुर्बाहुर्जटिलो वल्कलांबरः॥ कृष्णाजिनोपवीताक्षान्बिभ्रद्दंडकमंडलू॥२१॥ मनुष्यास्तु तदा शांता निर्वैराः सुहृदः समाः॥ यजंति तपसा देवं शमेन च दमेन च॥२२॥ हंसः सुपर्णो वैकुंठो धर्मो योगेश्वरो मनुः॥ ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते॥२३॥ त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः॥ हिरण्यकेशस्त्रय्यात्मासुक्स्रुवाद्युपलक्षणः॥२४॥ तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम्॥ यजंति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः॥२५॥ विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः॥ वृषाकपिर्जयंतश्च उरुगाय इतीर्यते॥२६॥ द्वापरे भगवाञ्छ्यामः पीतवासा निजायुधः॥ श्रीवत्सादिभिरंकैश्च लक्षणैरुपलक्षितः॥२७॥ तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम्॥ यजंति वेदतंत्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप॥२८॥ नमस्ते वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः॥२९॥

वेदके ज्ञाता मनुष्य हैं, व सर्ववेदरूप भगवान् वासुदेवका, तीनों वेदोंके कर्मसे, त्रेतामें पूजन करते हैं॥२५॥ और विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयंत, उरुगाय, यह नाम गाये जाते हैं॥२६॥ द्वापरमें भगवान् वासुदेव श्याम मूर्ति, पीताम्बर धरे, श्रीवत्सादि चिह्न और कौस्तुभादिक लक्षण धारण करते हैं॥२७॥ हे राजन्! जो मनुष्य ईश्वरके जाननेकी इच्छा रखते हैं, वह मनुष्य उससमय महाराजोंके लक्षण संयुक्त उन महापुरुषकी वेदमंत्र और आगमके मंत्रोंसे पूजा करते हैं॥२८॥ वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धरूप भगवान् तुमको

नमस्कार करते हैं॥२९॥ नारायण ऋषि, पुरुष, महात्मा, विश्वेश्वर, विश्वरूप, सर्वभूतोंके आत्माको नमस्कार है॥३०॥ हे राजन्! इस प्रकार द्वापरमें भगवान् वासुदेवकी स्तुति करते हैं, अब नाना आगम मार्गोंसे कलियुगमें भी जैसे पूजे जाते हैं, सो सुनो॥३१॥ कलियुगमें कृष्णवर्ण है, कांतिसे अति निर्मल है और जैसे नीलमणि होती है, इसी प्रकार अंग हृदयादि उपांग कौस्तुभ तथा सुदर्शनादिक अस्त्र पार्षद सुनंदनादिकनामका कथन और स्तुति आदिक प्रधान पूजासे अतिबुद्धिमान् मनुष्य भगवान् हरिकी पूजा करते हैं॥३२॥ इसके उपरान्त स्तुति करते हैं कि, हे प्राणियोंके रक्षक! हे महापुरुष! तुम्हारे चरणारविन्दको नमस्कार है, जो चरणारविन्द सदा ध्यान करनेके

नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने॥ विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः॥३०॥ इति द्वापर उर्वीश स्तुवंति जगदीश्वरम्॥ नानातंत्रविधानेन कलावपि यथा शृणु॥३१॥ कृष्णवर्णं त्विषा कृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदम्॥ यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजंति हि सुमेधसः॥३२॥ ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरंचिनुतं शरण्यम्॥ भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं वंदे महापुरुष ते चरणारविंदम्॥३३॥ त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम्॥ मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्वंदे महापुरुष ते चरणारविंदम्॥३४॥ एवं युगानुरूपाभ्यां भगवान्युगवर्तिभिः॥ मनुजैरिज्यते राजञ्छ्रेयसामीश्वरो हरिः॥३५॥

योग्य है, इन्द्रिय कुटुम्बके संगसे अनिष्टको दूर करते हैं, मनके अभिलाष पूर्ण करते हैं, गंगादिक तीर्थके स्नानभूत हैं, शिव ब्रह्मादिकसे स्तुति किये हुए हैं, और जो दीन होकर शरण जाता है, उसके रक्षक हैं सेवककी पीडाको दूर करते हैं, और संसार सागरसे तरनेको नौकारूप हैं॥३३॥ हे धर्मात्मन्! हे श्रीरामचन्द्रजी! आप जो देवताओंसे भी न त्यागी जाय, देवता जिसकी अभिलाषामेंही रहते हैं, ऐसी राज्यलक्ष्मी पिताकी आज्ञासे छोडकर धर्मकी रक्षा करनेके लिये वनको चलेगये, और प्रिय सीताके प्रेम तथा वचनसे मायामृगके पीछे दौडे उन भक्तप्रिय आपके चरणारविन्दोंको हम प्रणाम करते हैं॥३४॥ हे राजा जनक! इसप्रकार चारोंही युगमें नाम रूप भेदसे उस उस युगके

मनुष्योंसे कल्याणके देनेवाले हरि भगवान् पूजे जाते हैं॥३५॥ अब चारों युगोंमें कलियुग श्रेष्ठ है, क्योंकि जो श्रेष्ठ हैं गुणज्ञ सारग्राही हैं, वह कलियुगकी स्तुति करते हैं, और युगोंमें ध्यान, यज्ञ, पूजा आदिसे जो फल होता है, सो सब स्वार्थ कलियुगमें भगवान्के भजन कीर्तनमात्रसेही प्राप्त होजाते हैं॥३६॥ यह प्राणी और देहके अभिमानसे संसारमें भ्रमण करते हैं, उनको इससे परम और लाभ नहीं॥३७॥ हे राजन्! सत्ययुगादिकी प्रजा कलियुगमें जन्म पावें, ऐसी इच्छा करती हैं, इसकारण निश्चय ज्ञात होता है कि, कलियुगमें सब जीव नारायणपरायण होंगे॥३८॥ हे महाराज! कहीं कहीं महाराष्ट्रदेशमें भी भक्त होंगे और द्रविडदेशमें भी बहुत होंगे, जहाँ ताम्रपर्णी नदी, कृतमाला और पयस्विनी है॥३९॥ कावेरी,

कलिं सभाजयंत्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः॥ यत्र संकीर्तनेनैव सर्वः स्वार्थोऽभिलभ्यते॥३६॥ न ह्यतः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह॥ यतो विंदेत परमां शांतिं नश्यति संसृतिः॥३७॥ कृतादिषु प्रजा राजन्कलाविच्छंति संभवम्॥ कलौ खलु भविष्यंति नारायणपरायणाः॥३८॥ क्वचित्क्वचिन्महारज द्रविडेषु च भूरिशः॥ ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी॥३९॥ कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी॥ ये पिबंति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर॥ प्रायो भक्ता भविष्यन्ति वासुदेवेऽमलाशयाः॥४०॥ देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किंकरो नायमृणी च राजन्॥ सर्वात्मना यः शरण शरण्यं गतो मुकुंदं परिहृत्य कर्तम्॥४१॥ स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः॥ विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः॥४२॥

प्रतीची आदि परमपवित्र नदियें हैं, इनका जल जो पान करते हैं, हे मनुजेश्वर! वह मनुष्य निर्मलचित्त होकर श्रीभगवान् वासुदेवमें बहुधा भक्त हैं॥४०॥ जो मनुष्य सर्वथा भेद छोड़कर केवल शरणदाता मुकुन्द भगवान्के शरण जाते हैं, उनपर देवता, ऋषि, भूत, कुटुम्बी मनुष्य और पितरोंका ऋण नहीं रहता, हे राजन्! इनके लिये पंच यज्ञादिकोंके करनेकी भी प्रबलविधि नहीं, जो सर्वत्र एक हरिकोही देखते हैं॥४१॥ यहां यह सन्देह राजा जनकने किया कि, हे महाराज! जो कि सब कर्म छोड़कर केवल भजन करे तो कर्म छोड़नेका पाप लगेगा? इसका समाधान यह है कि, जो सब देवादिकोंको छोड़कर एक हरिकेही चरणारविंदोंका भजन करते हैं, उनको विकर्म सर्वथा नहीं होते, जो कदाचित् प्रमादसे हों

तो उसके हृदयमें भगवान् हरि बैठ जाते हैं, यह यमादिकोंके भी नियंता हैं और उसके सब कर्म नाश करते हैं, इससे भगवान्को भक्तही प्यारे हैं॥४२॥ इन नौ योगीश्वरोंका संवाद कहकर श्रीनारदजी बोले कि, हे वसुदेव! इसप्रकार भगवद्धर्म सुन संतुष्ट होकर राजा जनकने अपने गुरुओं सहित जयंतीपुत्र योगीश्वरोंकी पूजा की॥४३॥ इसके उपरान्त वह योगीश्वर संपूर्ण मुनि सिद्ध लोगोंके देखते देखते अंतर्धान होगये और राजा जनकभी उन्हीं धर्मोके करनेसे परमगतिको प्राप्त हुए॥४४॥ नारदजी बोले कि, हे महाभाग वसुदेव! तुमभी यह वैष्णवधर्म करो, इन धर्मोंमें श्रद्धा करनेसे निःसंग परममंगलको प्राप्त होंगे॥४५॥ यह तो मैंने शास्त्रादिकोंकी रीतिसे सब तुमसे कहा है, परन्तु हे वसुदेवजी!

नारद उवाच॥ धर्मान्भागवतान्नित्यं श्रुत्वाथ मिथिलेश्वरः॥ जायंतेयान्मुनीन्प्रीतः सोपाध्यायो ह्यपूजयत्॥४३॥ ततोंतर्दधिरे सिद्धाः सर्वलोकस्य पश्यतः॥ राजा धर्मानुपातिष्ठन्नवाप परमां गतिम्॥४४॥ त्वमप्येतान्महाभाग धर्मान्भागवताच्छतान्॥ आस्थितः श्रद्धया युक्तो निःसंगो यास्यसे परम्॥४५॥ युवयोः खलु दंपत्योर्यशसा पूरितं जगत्॥ पुत्रतामगमद्यद्वां भगवानीश्वरो हरिः॥४६॥ दर्शनालिंगनालापैः शयनासनभोजनैः॥ आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं प्रकुर्वतोः॥४७॥ वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौंड्रशाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः॥ ध्यायंत आकृतधियः शयनासनादौ तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम्॥४८॥

तुम तो विनाही शास्त्रके क्रम कृतार्थ हो तुम दोनों स्त्री पुरुष परम भागवत हो, तुम्हारे यशसे सब जगत् पूर्ण होरहा है क्योंकि तुम्हारे यहाँ स्वयं भगवान् ईश्वरने आनकर अवतार लिया है॥४६॥ तुमको और लोगोंके समान भ्रान्ति, सर्व कर्म समर्पण आदि वैष्णवधर्मोसे चित्त शुद्ध करना नहीं पड़ेगा, क्योंकि दर्शन, आलिंगन, आलाप, शयन, आसन, भोजनसे श्रीकृष्णमें पुत्रस्नेह करनेसे तुम्हारा भगवान् ईश्वर, आत्मा पवित्र होगया है॥४७॥ शिशुपाल पौण्ड्रक तथा शाल्व आदि राजा शय्या आसन आदिमें जिसका वैरसे भी ध्यानकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी गति चिन्तवन आदिसे तदाकार हुई बुद्धिसे सारूप्य मुक्तिको प्राप्त होगये तो जो पुरुष स्नेहसे इनमें चित्त रखते हैं, वह सारूप्य गतिको प्राप्त हों तो इसमें आश्चर्यही क्या है॥४८॥

अहो जो पुत्रस्नेह मुक्तिका कारण हैं, तो सबही मुक्त होने चाहिये? तो कहते हैं कि, हे वसुदेवजी! तुम इनपर पुत्रबुद्धि मत रक्खो यह तो सर्वात्मा ईश्वर हैं, मायासे मनुष्याकार दिखाई देते हैं अलौकिक ऐश्वर्य इनका गुप्त है यह श्रीकृष्णचन्द्र अविनाशी परमपुरुष हैं॥४९॥ यह पृथ्वीका भाररूप राजाओंके मारनेको और साधु पुरुषोंकी रक्षा करनेको तथा मोक्ष देनेको अवतार लेकर लोकोंमें यश विस्तार करते हैं॥५०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस राजा परीक्षित्! यह सुन महाभाग वसुदेव देवकीने अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्तहो अपने आपका मोह स्नेह छोड़ दिया॥५१॥ यह इतिहास अति पुण्यजनक है, जो पुरुष नेमसे इसे मनमें धरते हैं, सो इसी देहमें मोह दूरकर ब्रह्मभावको प्राप्त होते हैं॥५२॥ इति श्रीमद्भा० महा० एका ०

मापत्यबुद्धिमकृथाः कृष्णे सर्वात्मनीश्वरे॥ मायामनुष्यभावेन गूढैश्वर्यपरेऽव्यये॥४९॥ भूभारासुरराजन्यहंतवे गुप्तये सताम्॥ अवतीर्णस्य निर्वृत्त्यै यशो लोके वितन्यते॥५०॥ श्रीशुक उवाच॥ एतच्छ्रुत्वा महाभागो वसुदेवोऽतिविस्मितः॥ देवकी च महाभागा जहतुर्मोहमात्मनः॥५१॥ इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद्यः समाहितः॥ स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते॥५२॥ इति श्रीमद्भा० म० ए० पंचमोऽध्यायः॥५॥ छ॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ ब्रह्मात्मजैर्देवैः प्रजेशैरावृतोऽभ्यगात्॥ भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृतः॥१॥ इंद्रो मरुद्भिर्भगवानादित्या वसवोऽश्विनौ॥ ऋभवोंगिरसो रुद्रा विश्वे साध्याश्च देवताः॥२॥ गंधर्वाप्सरसो नागाः सिद्धचारणगुह्यकाः॥ ऋषयः पितरश्चैव सविद्याधरकिन्नराः॥३॥

भाषाटीकायां निमिजायंतेयसंवादे पंचमोऽध्यायः॥५॥ दोहा— छठवेंमें ब्रह्मादिकन, विनयकरी करजोरि॥ मोहिं संग लीजै प्रभू, उद्धव कही निहोरि॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! इसप्रकार वसुदेवजीसे नारदजी कहकर चलेगये, इसके उपरान्त द्वारकामें ब्रह्मा, सनकादिक और संपूर्ण देवता मिलकर आये, सृष्टि भूतोंके ईश्वर महादेव भूतगणोंसे मिलकर आये॥१॥ देवताओंसे मिलकर देवराज इन्द्र आये, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिरा, एकादश रुद्र, विश्वदेव, साध्य॥२॥ गंधर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर, किन्नर यह सब श्रीकृष्णचन्द्रका

दर्शन करनेको द्वारकामें आये॥३॥ जिस देहसे भगवान्ने मनुष्यलोकमें परमसुन्दर मूर्त्तिसे सब लोगोंका पाप दूर करनेवाले यज्ञका विस्तार किया उसी मूर्त्तिके देखनेको आये॥४॥ अत्यन्त स्वरूपवान् धनी पुरुषोंसे अति समृद्ध द्वारकामें आय अतृप्तरूप देवताओंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया॥५॥ इसके उपरान्त नंदनवनके फूलोंसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी पूजा और विचित्र पद तथा अर्थयुक्त वाणियोंसे जगदीश्वरकी स्तुति करनेलगे॥६॥ देवता बोले कि, हे नाथ! जो जीव कर्मरूप बड़े पाशसे छूटनेको बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय, मन, वचनसे भावयुक्त हो जिनका हृदयमें सदा चिंतवन करते हैं, परन्तु तो भी दर्शन नहीं पाते और हम तुम्हारा प्रगट दर्शन कर रहे हैं, हमारा अहोभाग्य है, इसलिये हम तुम्हारे

द्वारकामुपसंजग्मुः सर्वे कृष्णदिदृक्षवः॥ वपुषा येन भगवान्नरलोकमनोरमः॥ यशो वितेने लोकेषु सर्वलोकमलापहम्॥४॥ तस्यां विभ्राजमानायां समृद्धायां महर्द्धिभिः॥ व्यचक्षतावितृप्ताक्षाः कृष्णमद्भुतदर्शनम्॥५॥ स्वर्गोद्यानोपगैर्माल्यैश्छादयंतो यद्वत्तमम्॥ गीर्भिश्चित्रपदार्थाभिस्तुष्टुवुर्जगदीश्वरम्॥६॥ देवा ऊचुः॥ नताः स्म ते नाथ पदारविंदं बुद्धींद्रियप्राणमनोवचोभिः॥ यच्चिंत्यतेंतर्हृदि भावयुक्तैर्मुमुक्षुभिः कर्ममयोरुपाशात्॥७॥ त्वं मायया त्रिगुणयात्मनि दुर्विभाव्यं व्यक्तं सृजस्यवसि लुंपसि तद्गुणस्थः॥ नैतैर्भवानजित कर्मभिरज्यते वै यत्स्वे सुखेऽव्यवहितेऽभिरतोऽनवद्यः॥८॥ शुद्धिर्नृणां न तु तथेड्य दुराशयानां विद्याश्रुताध्ययनदानतपःक्रियाभिः॥ सत्त्वात्मनामृषभ ते यशसि प्रवृद्धसच्छ्रद्धया श्रवणसंभृतया यथा स्यात्॥९॥

चरणारविन्दको वारम्वार नमस्कार करते हैं॥७॥ तहाँ हरि यह एक तर्क करते हैं कि, मोक्षके लिये मेरे चरणारविन्दका चिंतवन क्यों करते हो? क्योंकि मैं तो अनेक दुष्ट कर्म करताहूं, मेरा तो कर्म छूटताही नहीं तो तुम्हारे कर्म क्या छुड़ाऊंगा? इसके उत्तरमें कहते हैं कि, हे अजित! तुम ऐसी बात मत कहो, क्योंकि जो औरोंपर मनसे भी न जाने जायँ ऐसे महत्वादि प्रपंचको त्रिगुण अपनी मायासे आपहीमें उत्पन्न करते हो, पालते हो, संहार करते हो, परन्तु तो भी इन कर्मोंमें लिप्त नहीं होते, तुम मायाके गुणोंमें नियंतास्वरूपसे स्थित हो रागादि रहित हो और नित्य अपने आनंदस्वरूपविषे मग्न रहते हो॥८॥ तो मुझको कर्म करनेका क्या प्रयोजन हैं, मैं तो आत्म

योग्य! हे परम श्रेष्ठ देव! विषयी पुरुषोंके चित्त विद्या, श्रवण, अध्ययन, दान, तप और कर्म करनेसे वैसे शुद्ध नहीं होते जैसे साधु पुरुषोंके चित्त तुम्हारे यश श्रवण करनेसे शुद्ध होजाते हैं॥९॥ अब प्रार्थना करते हैं कि, तुम्हारे चरणकमल हमारी अशुभ वासना जलानेके लिये अग्निरूप हैं, जिन चरणोंका संपूर्ण मुनि अत्यन्त प्रेमपूर्वक कोमल हृदय हो, मोक्षके कारण ध्यान करते हैं और भक्तजन सारूप्य मुक्तिकी इच्छासे वासुदेव, संकर्षण व प्रद्युम्न, अनिरुद्ध इन चतुर्व्यूहसे तीन कालमें पूजा करते हैं और उनके बीचमें भी जो ज्ञानी है, वे इन्हींसे स्वर्गको उल्लंघन करके वैकुण्ठ जानेके लिये पूजते हैं॥१०॥ हे ईश! सदा तुमको यज्ञ करनेवाले कर्ममार्गमें हाथ जोड़ यज्ञकी अग्निमें तीनों वेदकी विधिसे हविको लेकर चिंतवन करते हैं और योगिराज अध्यात्मयोगसे तुम्हारी माया अणिमादिक ऐश्वर्य जाननेका चिंतवन करते हैं और परम

स्यान्नस्तवांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः क्षेमाय यो मुनिभिरार्द्रहृदो ह्यमानः॥ यः सात्त्वतैः समविभूतय आत्मवद्भिर्व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरतिक्रमाय॥१०॥ यश्चिंत्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ त्रय्या निरुक्तविधिनेशहविर्गृहीत्वा॥ अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायां जिज्ञासुभिः परमभागवतैः परीष्टः॥११॥ पर्युष्टया तव विभो वनमालयेयं संस्पर्धिनी भगवती प्रतिपत्निवच्छ्रीः॥ यः सुप्रणीतममुयाऽर्हणमाददन्नो भूयात्सदांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः॥१२॥ केतुस्त्रिविक्रमयुतस्त्रिपतत्पाताको यस्ते भयाभयकरोऽसुरदेवचम्वोः॥ स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्पादः पुनातु भगवन्भजतामघं नः॥१३॥

भक्त सर्वत्र पूजते हैं॥११॥ हे विभो! तुम्हारे सब अंगोंमें व्याप्त जो वनमाला सो उससे भगवती लक्ष्मीजी सौतकी समान ईर्षा रखती हैं और यह वनमाला भक्तोंने अर्पण करी है, इसी कारणसे तुम इसको धारण करते हो, उसी मालासे पूजाको ग्रहण करते हो, तुम्हारे चरण हमारी विषयवासनाके जलानेको अग्नि हैं॥१२॥ हे व्यापक! जब तुम त्रिविक्रमरूप हुए, तब आपने बलिराजाको बाँधा, तब तुम्हारा एक चरण सत्यलोकमें रहा सो वह चरण जैसे विजयपताका हो इसी प्रकार दिखाई देताथा और उसी चरणसे गंगाजीके तीन प्रवाह छूटे, सो पताका हुई चरण ध्वजदण्ड हुवा सो सुर, असुर सबकी सेनाको भय अभयका देनेवाला हुआ देवता और साधुओंको अभयका दाता स्वर्ग दिया असुर दुष्टोंको

भयदायक अधोगति दी वह आपका चरण हम कि, जो भजन कर रहे हैं, उनके पापको दूर करो और हमारी रक्षा करो॥१३॥ यदि कहो कि, युद्धमें देवता, दैत्य परस्पर जीतते हैं, हारते हैं मेरा वहां क्या निमित्त हैं? तो कहते हैं कि ब्रह्मासे आदि लेकर देहधारी सब जगत् परस्पर युद्धसे जब पीड़ित होते हैं, तब तुम्हारे वशमें आते हैं इसीलिये कालरूप तुम हो और कालके, अधीन सब हैं, इससे जय पराजय सब आपहीके अधीन है, जैसे नाथके अधीन बैल है, इसीप्रकार सब तुम्हारे अधीन हैं तुम प्रकृति पुरुषसे भी परे हो पुरुषोत्तम हो तुम्हारे चरण हमको सुखकारी हों॥१४॥ हे प्रभो! तुम इस जगत्के उत्पत्ति, पालन और प्रलयके कारण हो और प्रकृति पुरुष महत्तत्त्वके भी नियंता हो, यह काल संवत्सर है सो चक्ररूप है, इसके ग्रीष्म, वर्षा, शरद् तीन नाम हैं, सबका नाश करनेको प्रवृत्त है, इसका वेग अत्यन्त गंभीर है, सो काल तुम्हाराही रूप है इसलिये

नस्योतगाव इव यस्य वशे भवंति ब्रह्मादयस्तनुभृतो मिथुरर्द्यमानाः॥ कालस्य ते प्रकृतिपुरुषयोः परस्य शं नस्त नोतु चरणः पुरुषोत्तमस्य॥१४॥ अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमानामव्यक्तजीवमहतामपि कालमाहुः॥ सोऽयं त्रिणाभिरखिलापचये प्रवृत्तः कालो गभीररय उत्तमपुरुषस्त्वम्॥१५॥ त्वत्तः पुमान्समधिगम्य यया स्ववीर्यं धत्ते महांतमिव गर्भममोघवीर्यः॥ सोऽयं तयाऽनुगत आत्मन अंडकोशं हैमं ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम्॥१६॥ तत्तस्थुषश्च जगतश्च भवानधीशो यन्माययोत्थगुणविक्रिययोपनीतान्॥ अर्थाञ्जुषन्नपि हृषीकपते न लिप्तो येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति स्म॥१७॥

तुम उत्तम पुरुष हो॥१५॥ अव सृष्टिका प्रकार कहते हैं, प्रथम तुमसे सफल वीर्य एक पुरुष उत्पन्न होता है, सो पुरुष तुमसे शक्तिको प्राप्त हो मायासे मिलकर विश्वका गर्भरूप महत्तत्त्व उत्पन्न करता है और वही महत्तत्त्व मायासे मिल आत्मासे यह स्वर्णमय अण्डकोश बाहरके सात आवरण संयुक्त सृजता है॥१६॥ इसलिये सब तुमसेही प्रगट हुआ है और इसीकारण इस स्थावर, जंगम, विश्वाधीश तुम हो, हे संपूर्ण स्त्रियोंके पति! मायासे उत्पन्न हुई इन्द्रियें वृत्ति करके विषय भोग करते भी तुम निर्लेप रहते हो, यद्यपि योगीश्वर योगसे विषयको छोड़ देते हैं, परन्तु तो भी डरते हैं कि, कदाचित हमको विषयवासना उत्पन्न न हो; क्योंकि तुम प्रपंचसे मिलरहेहो और विषय सम्बन्ध नहीं, यह + + +

विशेष धर्म है॥१७॥ क्योंकि जो सोलह हजार (१६०००) स्त्रियें अपने मंदहास्य सहित चिंतवनके कटाक्षसे दिखाये अभिप्रायसे मनको हरनेवाली भूमण्डलसे प्रेरे संभोग मंत्रोंके विषे निपुण, कामके बाण और कामकी कलासे भी वशमें न करसकीं तो तुम विषयोंसे निर्लिप्तही हो॥१८॥ इसलिये तुम्हारी अमृतरूपी कथा, जलभरी कीर्तिरूपी नदी और तुम्हारे चरणोदकरूपी गंगा, यह दोनों त्रिलोकीका पाप दूर करनेको समर्थ हैं, श्रवणेन्द्रियसे वेदमें गाये तुम्हारे यशके सुननेसे सब पाप नष्ट होजाते हैं, गंगामें स्नान करनेसे सब पाप छूट जाते हैं, इसप्रकार जो पुरुष धर्म जानते हैं, सो इन दोनों तीर्थोंका सेवन करते हैं॥१९॥ शुकदेवजी कहते हैं कि इसप्रकार ब्रह्मा, महादेव सहित देवताओंसे मिल, स्तुति और नमस्कार

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारिभ्रूमंडलप्रहितसौरतमंत्रशौंडेः॥ पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनंगबाणैर्यस्येंद्रियं विमथितुं करणर्न विभ्व्यः॥१८॥ विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः पादावनेजसरितः शमलानि हंतुम्॥ आनुश्रवं श्रुतिभिरंघ्रिजमंगसंगैस्तीर्थद्वयं शुचिषदस्त उपस्पृशंति॥१९॥ बादरायणिरुवाच॥ इत्यभिष्टूय विबुधैः सेशः शतधृतिर्हरिम्! अभ्यभाषत गोविंदं प्रणम्यांबरमाश्रितः॥२०॥ ब्रह्मोवाच॥ भूमेर्भारावताराय पुरा विज्ञापितः प्रभो॥ त्वमस्माभिरशेषात्मंस्तत्तथैवोपपादितम्॥२१॥ धर्मश्च स्थापितः सत्सु सत्यसंधेषु वै त्वया॥ कीर्तिश्च दिक्षु विक्षिप्ता सर्वलोकमलापहा॥२२॥ अवतीर्य यदोर्वंशे विभ्रद्रूपमनुत्तमम्॥ कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः॥२३॥ यानि ते चरितानीश मनुष्याः साधवः कलौ॥ शृण्वंतः कीर्तयंतश्च तरिष्यंत्यंजसा तमः॥२४॥

कर, आकाशहीमें खड़े भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीसे बोले॥२०॥ ब्रह्माजीने कहा कि, हे प्रभो! हे सर्वान्तर्यामी! हमने भूमिका भार उतारनेके लिये प्रथम आपसे विनती की थी सो भार तुमने उसी प्रकार दूर किया॥२१॥ संतोंमें धर्म स्थापन किया, साधुओंमें सत्य रक्खा और सबोंका पाप दूरकर दशोंदिशाओंमें कीर्त्तिका विस्तार किया॥२२॥ यदुवंशमें अवतार ले उत्तमरूप धर जगत्का हित करनेके लिये अति उदार चरित्र और कर्म किये॥२३॥ हे ईश! जिन कर्मोंको कलियुगमें साधुजन श्रवण कीर्त्तन करके सुखपूर्वक संसार सागरसे तरेंगे॥२४॥

हे विभो! हे पुरुषोत्तम! यदुवंशमें अवतार लिये तुमको एकसौ पच्चीस (१२५) वर्ष बीत गये॥२५॥ हे सर्वाश्रय! अब तुमको कोई देव कार्य भी करना शेष नहीं है और यह तुम्हारा कुल भी ब्रह्मशापसे नष्ट होरहा है॥२६॥ इसलिये यदि अब आपकी इच्छा हो तो अपने वैकुण्ठ धामको चलो, हे वैकुण्ठनाथ! हम तुम्हारे किंकर हैं, लोक सहित लोकपालोंकी रक्षा करो *॥२७॥ श्रीकृष्णभगवान् बोले कि, हे देव

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम॥ शरच्छतं व्यतीयाय पंचविंशाधिकं प्रभो॥२५॥ नाधुना तेऽखिलाधारदेवकार्यावशेषितम्॥ कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम्॥२६॥ ततः स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे॥ सलोकाँल्लोकपालान्नः पाहि वैकुंठ किंकरान्॥२७॥ श्रीभगवानुवाच॥ अवधारितमेतन्मे यदात्थ विबुधेश्वर॥ कृतं वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोवतारितः॥२८॥ यदिदं यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम्॥ लोकं जिघृक्षद्रुद्धं मे वेलयेव महार्णवः॥२९॥

ताओंके ईश्वर! तुमने जो कहा सो मैंने मनमें धारण किया, तुम्हारा सब काम पूर्ण करदिया और भूमिका भार उतारा॥२८॥ परन्तु अभी यह यादवकुल बल, शूरता और श्रीसे अतिउद्धत है, लोकको ग्रसा चाहता है, उसे भी महासमुद्रको जैसे वेला (तट) रोक रक्खे, उसीप्रकार

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शंका— भगवान्ने अनेक अवतार धारण करके पृथ्वीपर अनेक प्रकारके चरित्र किये, परन्तु पृथ्वीसे भगवान्‌को धेकुण्ठधामके जानेके लिये किसी अवतारमें ब्रह्माने प्रार्थना नहीं की कि, महाराज! आप अब परमधामको चलो! और इन्द्रको तथा ब्राह्मणोंको ब्रह्माने अपने संग लेकर वैकुण्ठको संग चलनेके लिये श्रीकृष्णकी याचना क्यों किया कि, अव आप वैकुण्ठको चलो॥

उत्तर— संसारको सुख देनेके लिये भगवान्ने अनेक अवतार धारण किये, ऐसेही पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीकृष्णरूप धारणकर मर्त्यलोकमें आये, जब श्रीकृष्ण मर्त्यलोकमें आये तब तारकनाम राक्षस वैकुण्ठपुरीको भगवान्से हीन देखकर भगवान्‌की पुरीको दुःख देनेका विचार करनेलगा, आज दुःखदें कल दुःखदें, ऐसा विचार करते करते एकेसौ चौबीस १२४ वर्ष, दश १० महीने बीत गये, परन्तु जिस दिन निश्चय करके दुःख देनेको चला, तब कुछ थोडा थोडा उत्पात वैकुण्ठमें दुवा, तब सुदर्शनचक्र तारकके मारनेके लिये उसके पीछे दौड़ा उस समय सुदर्शनके डरके मारे तारक भाग निकला, तो उसी दिन ब्रह्माने विचार किया कि, भाज दुष्ट राक्षसने वैकुण्ठमें उपद्रव कियाहै, न जानिये क्या हो? ऐसा विचारकर ब्रह्माने श्रीकृष्णसे वैकुण्ठजानेके लिये प्रार्थना की।

मैंने रोक रक्खा है॥२९॥ जो मैं ऐसे गर्वसे उद्धत यादवोंके विशाल कुलका संहार किये विना अपने लोकको चला जाऊंगा तो यह लोक मर्यादा र

ति या यदुकुलसे नष्ट होजायगा॥३०॥ सो विप्रशापसे इस कुलके नाशका अब आरंभ किया है, हे ब्रह्मा! इनको संहार करके मैं वैकुण्ठ जाऊंगा, हे निष्पाप! तुम्हारे घर आऊंगा॥३१॥ लोकोंके नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी इस प्रकार वाणी सुनकर स्वयंभू देव ब्रह्मा श्रीकृष्णको नमस्कार कर देवताओंसे मिल अपने धामको चलेगये॥३२॥ इसके उपरान्त द्वारकापुरीमें बड़े बड़े उत्पात होनेलगे उन्हें देखकर बडे वृद्ध

यद्यसंहृत्य दृप्तानां यदूनां विपुलं कुलम्॥ गंतास्म्यनेन लोकोऽयमुद्वेलेन विनंक्ष्यति॥३०॥ इदानीं नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापजः॥ यास्यामि भवनं ब्रह्मन्नेतदंते तवानघ॥३१॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तो लोकनाथेन स्वयंभूः प्रणिपत्य तम्॥ सह देवगणैर्देवः स्वधाम समपद्यत॥३२॥ अथ तस्यां महोत्पातान्द्वारवत्या समुत्थितान्॥ विलोक्य भगवानाह यदुवृद्धान्समागतान्॥३३॥ श्रीभगवानुवाच॥ एते वै सुमहोत्पाता ह्युत्तिष्ठंतीह सर्वतः॥ शापश्च नः कुलस्यासीद्ब्राह्मणेभ्यो दुरत्ययः॥३४॥ न वस्तवव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यकाः॥ प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम्॥३५॥ यत्र स्नात्वा दक्षशापाद् गृहीतो यक्ष्मणोडुराट्॥ विमुक्तः किल्बिषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम्॥३६॥ वयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितॄन्सुरान्॥ भोजयित्वोशिजो विप्रान्नानागुणवतान्धसा॥३७॥

यादव इकट्ठे हुए, उन यादवोंको एकत्र देखकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले॥३३॥ कि, सब ओरसे यहाँ बडे बडे उत्पात उठते हैं और अपने कुलको ब्राह्मणोंका शाप भी हुआ है॥३४॥ इसलिये हे यादवो! जो जीनेकी इच्छा है तो हमको यहाँ रहना नहीं चाहिये, अतिपुण्य प्रभासतीर्थको आजही चलो, विलम्ब मत करो॥३५॥ जिस तीर्थमें स्नान करके दक्षके शापसे क्षयरोगसे ग्रसा चन्द्रमा पापसे छूटा और तत्काल फिर कलाओंकी वृद्धिको प्राप्त हुआ॥३६॥ हम भी वहाँ स्नान और पितरोंका तर्पण कर अनेक गुणसंयुक्त अन्नसे उत्तम ब्राह्मणोंको भोजन करवाय॥ ३७॥

श्रद्धासहित महान् सत्पात्रों विषे बीज बोय उन दानोंसे पापोंको तरेंगे, जैसे नावमें बैठकर समुद्रको तरते हैं॥३८॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आज्ञा दी तब सब यादव भगवान्की आज्ञा मान चलनेका उद्यम करनेलगे, तीर्थ जानेकी इच्छासे रथ जुतवाने लगे॥३९॥ हे राजन्! उससमय यादवोंके प्रभासतीर्थ जानेका उद्यम देख और श्रीकृष्णके वचन सुन और घोर उत्पातोंको देख नित्य श्रीकृष्णके निकट रहनेवाले उद्धवजी॥४०॥ एकांतमें निकट जाय जगत्के ईश्वरोंके ईश्वरको माथेसे नमस्कारकर हाथ जोड कहनेलगे॥४१॥ कि, हे देवदेवेश! योगेश! हे पुण्यश्रवणकीर्त्तन! तुम्हारी ऐसी इच्छा जानी जाती है, कि इस कुलका संहारकर निश्चयसे भूलोकको

तेषु दानातिपात्रेषु श्रद्धयोध्वा महांति वै॥ वृजिनानि तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम्॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं भगवताऽऽदिष्टा यादवाः कुलनंदन॥ गंतुं कृतधियस्तीर्थे स्यंदनान्समयूयुजन्॥३९॥ तन्निरीक्ष्योद्धवो राजञ्छ्रुत्वा भगवतोदितम्॥ दृष्ट्वाऽरिष्टानि घोराणि नित्यं कृष्णमनुव्रतः॥४०॥ विविक्त उपसंगम्य जगतामीश्वरेश्वरम्॥ प्रणम्य शिरसा पादौ प्रांजलिस्तमभाषत॥४१॥ उद्धव उवाच॥ देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन॥ संहृत्यैतत्कुलं नूनं लोकं संत्यक्ष्यते भवान्॥ विप्रशापं समर्थोपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः॥४२॥ नाहं तवांघ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव॥ त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि॥४३॥ तव विक्रीडिनं कृष्ण नृणां परममंगलम्॥ कर्णपीयूषमास्वाद्य त्यजत्यन्यस्पृहां जनः॥४४॥ शय्यासनाटनस्थानस्नानक्रीडाशनादिषु॥ कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेमहि॥४५॥

छोडना चाहतेहो यद्यपि तुम ईश्वर संपूर्ण कार्य करनेको समर्थ हो, परन्तु तोभी विप्रशापको निवारण नहीं किया॥४२॥ हे केशव! हे नाथ! मैं तुम्हारे चरणकमल छोड़नेको असमर्थ हूं अर्थात् आधे क्षणकोभी नहीं छोड़ सक्ता, इसलिये मुझे भी अपने धामको ले चलो॥४३॥ हे कृष्ण! तुम्हारी लीला मनुष्योंको परममंगलदायक है, श्रवणेन्द्रियको अमृतरूप है उसका आस्वाद ले मनुष्य औरकी इच्छाको छोडते हैं, हम तुम्हारे दिन रात्रिके सेवक हैं॥४४॥ शयन, आसन, गमन, स्नान, क्रीडा, भोजन आदि और भी क्रियाओंमें सदा संग रहे हैं, सो हम भक्तप्रिय आत्मारूप

तुमको कैसे छोड़ सक्ते हैं?॥४५॥ तुम्हारे समीप तुम्हारे प्रसादकी माला सुगंध चंदन और प्रसाद वस्त्रसे चर्चित होकर वाह्य शुद्ध होते हैं, पीछे तुम्हारे उच्छिष्ट महाप्रसाद भोजनसे अंतर शुद्ध करके तुम्हारी मायाको जीतते हैं॥४६॥ हे महायोगिन्! जो केवल वायु भक्षण करके रहते, वह दिगंबर हैं, शमयुक्त हैं, जितेन्द्रिय हैं, संन्यासी हैं, निर्मल चित्त हैं, आत्मविद्यामें जिसने श्रम किया है, वह ऋषि अनेक क्लेशसे तुम्हारे वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं॥४७॥ हे महायोगीश्वर! हम तो तुम्हारे भक्तोंके संग तुम्हारी वार्ता करते सकल कर्मोंमें भ्रमते भी तुम्हारी दुस्तर मायाको तरेंगे॥४८॥

मनुष्यलोकको आश्वर्यदायक तुम्हारे कर्म वचन गति हास्य चिंतवन हास्यकी वार्त्ता और जो कुछ मनुष्यलोकमें लीला करी है, उसका स्मरण

त्वयोपभुक्तस्रग्गंधवासोलंकारचर्चिताः॥ उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेमहि॥४६॥ वाताशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्द्धमंथिनः॥ ब्रह्माख्यं धाम ते यांति शांताः संन्यासिनोऽमलाः॥४७॥ वयं त्विह महायोगिन्भ्रमंतः कर्म वर्त्मसु॥ त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः॥४८॥ स्मरंतः कीर्तयंतस्ते कृतानि गदितानि च॥ गत्युत्स्मिते क्षणक्ष्वेलीर्यन्न लोके विडंबनम्॥४९॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं विज्ञापितो राजन्भगवान्देवकीसुतः॥ एकांतिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत॥५०॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० स्कं० षष्ठोऽध्यायः॥६॥ श्रीभगवानुवाच॥ यदात्थमां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे॥ ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकांक्षिणः॥१॥

कीर्तन, करेंगे इससेही तरजायँगे, मैं यह आपके भयसे प्रार्थना नहीं करता हूं, परन्तु आपका संग नहीं छोडा जाता॥४९॥ इतनी कथा कह शुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! इसप्रकार उद्धवजीकी विनती सुन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सदा निकटवर्त्ति परमप्रिय भक्त उद्धवजीसे बोले॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां ब्रह्मादिस्तुतिर्नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा— हरि विवेककी सिद्धिको, वरणो जस इतिहास! सो सप्तम अध्यायमें, वर्णत सहित हुलास॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीसे बोले कि, हे महाभाग उद्धव! तुमने जो मुझसे कहा सो सब मुझे करना है, क्योंकि ब्रह्मा, महादेव और लोकपाल यह सब स्वर्ग जानेके लिये मेरी प्रार्थना करगये हैं!॥१॥

मैंने यहाँ वह सब देवकार्य सिद्ध किया, जिसके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे बलदेव सहित मैंने अवतार लिया था॥२॥ हमारा कुल शेष रहा है, सो भी विप्रशापसे जल रहा है, इससे निश्चयही परस्परकी लड़ाइयोंसे नष्ट होजायगा और आजसे सातवें दिन इस द्वारकापुरीको समुद्र डुवावेगा॥३॥ जिस दिन में इस लोकको छोडूंगा उसदिन यह मंगल नष्ट होजायगा। हे उद्धव! इसके उपरान्त फिर कलियुग भी प्रवृत्त होकर सब धर्मको दूर करेगा और थोड़ेही कालमें इसलोकका निरादर करेगा॥४॥ मेरे त्याग किये महीतल विषे तुम मत वास करना, क्योंकि हे

मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः॥ यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः॥२॥ कुलं वै शापनिर्दग्ध नंक्ष्यत्यन्योन्यविग्रहात्॥ समुद्रः सप्तमेऽह्न्येतां पुरीं च प्लावयिष्यति॥३॥ तर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमंगलः॥ भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृतः॥४॥ न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले॥ जनोऽधर्मरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे॥५॥ त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबंधुषु॥ मय्यावेश्य मनः सम्यक्समदृग्विचरस्वगाम्॥६॥ यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः॥ नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्॥७॥ पुंसो युक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक्॥ कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा॥८॥

उद्धव! कलियुगमें मनुष्योंकी प्रीति अधर्ममें होगी *॥५॥ हे उद्धव! तुम तो स्वजन, बन्धु और कुटुम्बका स्नेह छोड़ मेरे स्वरूपमें चित्त रख समदृष्टि होकर पृथ्वीमें विचरण करो॥६॥ इस संसारमें दृष्टि मत रखना, क्योंकि वचन, नेत्र, श्रवणादिक करके जो ग्रहण किया है, सो सब झुठी मायाका रचा यह मन भी मिथ्या है, ऐसा जानो॥७॥ विक्षिप्त चित्तवाले पुरुषको वेदार्थ अनेक प्रकारसे दीखते हैं, सो भ्रमते हैं, गुण दोष

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* शंका— श्रीकृष्णचन्द्रने उद्धवसे कहा कि, हम पृथ्वीको त्याग कर परमधामको जायँगे, तब पृथ्वी पर वास मत करना, तब श्रीकृष्णके वैकुण्ठ जानेके पीछे बदरिकाश्रममें उद्धवने वास क्यों किया?

उत्तर— वृन्दावन, अयोध्या, प्रयाग, नैमिषारण्य, द्वारका, काशी, बदरिकाश्रम इन सब क्षेत्रोंकी सात द्वीपोंकी पृथ्वीपर गिनती नहीं है ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है, यह सब मोक्षभूमि हैं, सात द्वीपकी सदृश भूमि नहीं इसलिये बदरिकाश्रममें उद्धवजीने वास किया।

संयुक्त हो कर्म, अकर्म, विकर्म, भेद गुणदोषबुद्धिवालेको है, समदृष्टि आत्मज्ञानवंतको यह भेद नहीं॥८॥ इसलिये इन्द्रियोंके समूहको और चित्तको वश करके इस विशाल जगत्को अपने आपमें देखो, आपको परमेश्वरमें ब्रह्मरूपसे देखो॥९॥ यदि कहो कि, विघ्न बहुत हैं, कैसे देखें? इसका उत्तर यह है कि, वेदके अभिप्रायका निश्चय और उसके अर्थका अनुभव मिलाय आत्माके ज्ञानसेही संतुष्ट और दीनता आदि भी आत्मरूप जानोगे तब कोई विघ्न नहीं करेगा और जबतक आत्मज्ञानकी प्राप्ति न हो तबतक वर्णके अनुसार कर्म करे, अनुभव प्राप्त होनेपर विघ्नोंसे कुछ नहीं होता॥१०॥इससे यह न समझ लेना कि, “ज्ञानी मनुष्य यथेष्ट आचरण करे” क्योंकि जैसे बालक संकल्प विकल्पसे

तस्माद्युक्तेंद्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत्॥ आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे॥९॥ ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम्॥ आत्मानुभवतुष्टात्मा नांतरायैर्विहन्यसे॥१०॥ दोषबुद्ध्योभयातीतो निषेधान्न निवर्तते॥ गुणबुद्ध्या च विहितं न करोति यथार्भकः॥११॥ सर्वभूतसुहृच्छांतो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः॥ पश्यन्मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः॥१२॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप॥ उद्धवः प्रणिपत्याह तत्त्वजिज्ञासुरच्युतम्॥१३॥ उद्धव उवाच॥ योगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसंभव॥ निःश्रेयसाय मेप्रोक्तस्त्यागः संन्यासलक्षणः॥१४॥

रहित होनेपर भी कोई कर्म करता है, कोई नही करता, इसीप्रकार गुणदोषबुद्धिसे रहित हुआ यह पहले कर्मोंके संस्कारसे विवर्त्त होता है, किन्तु न दोषबुद्धिसे बहुधा विहित कर्मका कर्त्ता है, न गुणबुद्धिसे॥११॥ सब प्राणियोंका मित्र हो ज्ञान विज्ञानका निश्चयवाला हो, सब विश्वको मेराही रूप समझकर देखे, वह पुरुष फिर कभी इस संसारमें न आवे॥१२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत राजा परीक्षित्! इस प्रकार जबभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने समझाया, तब परमभागवत उद्धवजी प्रणामकर तत्त्वज्ञानकी इच्छा किये हुए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे कहने लगे॥१३॥ उद्धवजी बोले कि, हे योगके फलदाता! हे योगके आधार! हे योगरूप! हे योगके कारण! मेरे मोक्षके अर्थ यह संन्यास रूपका त्याग मुझसे कहा

सो आपने सहज दयासे कहा, क्योंकि मैं तो ऐसा अधिकारी नहीं था॥१४॥ हे सर्वव्यापक! हे सर्वात्मा! मेरी बुद्धि तो ऐसी है कि, जिन पुरुषोंका मन विषयोंमें लगा हुआ है, उनसे ऐसा त्याग बनना अशक्य है और जो उसमें भी तुम्हारे भक्त नहीं उनको तो बहुतही कठिन है॥१५॥ और जो मुझसे तुम त्याग कहते हो सो महाराज! मैं अहंता ममतामे मूढमति हूँ तुम्हारी मायासे उत्पन्न हुए पुत्र कलत्र देह आदिमें मग्न हूँ इसलिये हे भगवन्! जैसे यह सब तुम्हारी आज्ञा विना परिश्रम करसकूं, उसी प्रकार तुम मुझे शिक्षा दो॥१६॥ तुम समानरूप हो, स्वप्रकाश हो, आत्मा हो, इसलिये हे ईश! मुझे और ऐसा वक्ता देवताओंमें भी कोई नहीं देखपड़ता है, क्योंकि यह ब्रह्मादिक देहधारी तो तुम्हारी मायासे मोहितबुद्धि

त्यागोऽयं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः॥ सुतरां त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः॥१५॥ सोहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढस्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबंधे॥ तत्त्वंजसा निगदितं भवता यथाहं संसाधयामि भगवन्ननु शाधि भृत्यम्॥१६॥ सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे॥ सर्वेविमोहितधियस्तव माययेमे ब्रह्मादयस्तनुभृतो बहिरर्थभावाः॥१७॥ तस्माद्भवंतमनवद्यमनंतपारं सर्वज्ञमीश्वरमकुंठविकुंठधिष्ण्यम्॥ निर्विण्णधीरहमुह वृजिनाभितप्तो नारायणं नरसखं शरण प्रपद्ये॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ प्रायेणमनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणाः॥ समुद्धरंति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात्॥१९॥ आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः॥ यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविंदते॥२०॥

हैं और बाहरके विषयोंमें इनकी अर्थबुद्धि है॥१७॥ कोई एक दुष्टबुद्धि हैं और कोई एक ऐसे हैं जो सेवा करनेपर भी फल देनेके समय नष्ट होजाते हैं, कोई अज्ञानी हैं कोई रक्षाकरनेमें असमर्थ हैं, कोई स्थानभ्रष्ट हैं, इसलिये संसारके दुःखसे अतीत नहीं, मैं अति विरक्तचित्त हूं इसकारण तुम्हारी शरण आया हूं, क्योंकि तुम तो निंदारहित हो, तुम्हारा कालसे अंत और देशसे पार नहीं, सर्वज्ञ हो, ईश्वर हो, तुम्हारा नाशरहित वैकुण्ठ स्थान है, तुम सब जीवोंके आश्रय हो जीवके सखा हो॥१८॥ श्रीभगवान् बोले कि, जो लोग तत्त्वको अतिश्रेष्ठ जानते हैं, वह मनुष्य बहुधा गुरुविनाही अपने आत्माको संसारसे उद्धार करते हैं, गुरुके उपदेशकी अपेक्षा नहीं करते॥१९॥ अपना गुरु आपही हैं, क्योंकि विशेषकर

पुरुष जो यह प्रत्यक्षसे अथवा अनुमानसे विचारे तो आपहीसे सुख पावे और सहजसेही अपने स्वरूपकी प्राप्ति हो, पशुओंको अपने हित ज्ञानका कौन गुरु है, आपहीसे अपने हितमें प्रवृत्त होते हैं, इसलिये अपना आपही गुरु, तहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान दिखलाते हैं कि, जब जीव पुरुषजन्म प्राप्त करता है, तब यह ज्ञानमार्गमें निपुण होजाता है॥२०॥ मनुष्यके शरीरमें आत्मा अधिक प्रत्यक्ष है, यह सांख्य योगमें चतुर बुद्धिवाले धीर पुरुषोंका निश्चय है॥२१॥ वह शक्तियुक्त मुझे प्रत्यक्ष देखते हैं, मेरे उत्पन्न किये बहुतरूप और बहुत शरीर हैं, कोई एकचरण हैं, कोई अर्द्धचरण हैं, कोई नीचे चरण हैं, कोई चार चरण हैं, कोई बहुत चरण हैं, कोई चरण रहित हैं, परन्तु इन सबोंमें जो पुरुषरूप देह है, सो मुझे अतिप्रिय

पुरुषत्वे च मां धीराः सांख्ययोगविशारदाः॥ आविस्तरां प्रपश्यंति सर्वशक्त्युपबृंहितम्॥२१॥ एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस्तथाऽपदः॥ बह्व्यः संति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया॥२२॥ अत्र मां मार्गयंत्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम्॥ गृह्यमाणैर्गुणैर्लिंगैरग्राह्यमनुमानतः॥२३॥ अत्राप्युदाहरंतीममितिहासं पुरातनम्॥ अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजसः॥२४॥ अवधूतं द्विजं कंचिच्चरंतमकुतोभयम्॥ कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित्॥२५॥ यदुरुवाच॥ कुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तुः सुविशारदा॥ यामासाद्य भवाँल्लोकं विद्वांश्चरति बालवत्॥२६॥ प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवाः॥ हेतुनैव समीहंते आयुषो यशसः श्रियः॥२७॥

हे॥२२॥ इस पुरुषदेहमें जो सावधान है, सो अहंकारादिकोंसे रहित मुझे प्रगट ढूँढलेते हैं, बुद्धि आदि यत्नोंको एक स्वप्रकाश आत्माविना प्रकाश नहीं होसक्ता ऐसा अनुमान करके मुझे ढूंढलेते हैं॥२३॥ इस विषयमें एक बड़े तेजस्वी राजा यदु और अवधूतका संवादरूप प्राचीन इतिहास कहते हैं॥२४॥ अवधूत वेष किये महापण्डित और सदा तरुण अवस्थावाले गुरु दत्तात्रेयजी कि जो निर्भय रीतिसे संसारमें घूम रहे थे उन्हें देखकर धर्मके ज्ञाता राजा यदुने इस प्रकार पूँछा॥२५॥ कि, हे ब्रह्मन्! अकर्त्ता तुमको ऐसी निपुणमति कहॉसे प्राप्त हुई है, जिसको पाकर अवधूत पण्डित तुम बालकके समान इसलोकमें विचरतेहो॥२६॥ बहुधा मनुष्य धर्म, अर्थ, कामना

विषे और आत्माके विचार विषे आयुर्दाय कीर्ति और श्रीकी कामनासे प्रवृत्त होते हैं॥२७॥ परन्तु तुम तो कुछ नहीं चाहते हो न कोई कर्म करते हो और जड उन्मत्त पिशाचके समान हो और सब कार्य करनेको समर्थ और पूर्ण ज्ञानवान् हो, अतिप्रवीण हो सुन्दर हो आपकी उत्तम मधुर वाणी है॥२८॥ मनुष्य काम, लोभरूप दावानलसे जलता है, उसमें तुम उस तापसे संतप्त नहीं हो, जैसे अग्निसे छूटकर गंगामें खडा हाथी उस तापसे तप्त नहीं होता है॥२९॥ हे ब्रह्मन्! तुम विषयभोग रहित हो, कलत्र आदिसे शून्य हो, आनंदरूप हो इसलिये हम आपसे पूँछते कि, तुम्हारे आनंदका कारण क्या है? सो हमसे कहो॥३०॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव!इसप्रकार जब अतिब्रह्मण्य सुबुद्धि राजा यदुने

त्वं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः॥ न कर्ता नेहसे किंचिज्जडोन्मत्तपिशाचवत्॥२८॥ जनेषु दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना॥ न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गंगांभःस्थ इव द्विपः॥२९॥

त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानंदकारणम्॥ ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः॥३०॥ श्रीभगवानुवाच॥ यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा॥ पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं नृपम्॥३१॥ ब्राह्मण उवाच॥ संति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्ध्यपाश्रिताः॥ यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह ताञ्छृणु॥३२॥ पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चंद्रमा रविः॥ कपोतोऽजगरः सिंधुः पतंगो मधुकृद्गजः॥३३॥ मधुहा हरिणो मीनः पिंगला कुररोऽर्भकः॥ कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्॥३४॥ एते मे गुरवो राजंश्चतुर्विंशतिराश्रिताः॥ शिक्षावृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः॥३५॥

विनयपूर्वक पूजाकर पूँछा, तब महाभाग अवधूतजी राजा यदुसे बोले॥३१॥ कि हे राजन्! अपनी बुद्धि करके मेरे बहुत गुरु हैं, जिनसे मैं बुद्धि पाकर मुक्त हुआ हूँ और इसलोकमें फिरता हूं, उनको सुनो॥३२॥ पृ^(१)थ्वी, वायु^(२), आकाश^(३), जल^(४), अ^(५)ग्नि, चन्द्र^(६)मा, सूर्य^(७), क^(८)पोत, अजग^(९)र, सिंधु^(१०), प^(११)तंग, म^(१२)धुकृत, ग^(१३)ज॥३३॥ म^(१४)धुहा, मृ^(१५)ग, मीन^(१६) पिं^(१७)गला, कुरर^(१८)पक्षी, बाल^(१९)क, कुमा^(२०)री, कड़^(२१)डी (बाणका बनानेवाला) सा^(२२)प, म^(२३)करी और भृ^(२४)गी॥३४॥ हे राजा यदु!मैंने यह चौबीस गुरु सेवन किये हैं, इनके आचरणसे मैंने अपनी शिक्षा ग्रहण करली है॥३५॥

हे ययातिपुत्र!हे पुरुषसिंह! मैंने जहां जातेहुए जो शिक्षाग्रहण की है, सो उसीप्रकार कहता हूं, तुमश्रवण करो॥३६॥ प्रथम भूमिसे क्षमा सीखी है सो कहते हैं कि, पृथ्वीको सब प्राणी खूँदते हैं, परन्तु तो भी वह अपने नियमसे चलायमान नहीं होती इसीप्रकार देवके वशीभूत प्राणी धीर पुरुषको कष्टदे तो भी उनके दैवाधीनपनको जाननेवाले उस पुरुषको अपने नियमसे चलायमान होना उचित नहीं, यह पृथ्वीसे सीखा है॥३७॥ पृथ्वी दोप्रकारकी है, एक तो पर्वतरूप, एक वृक्षरूप, यहाँसे जो सीखा है, सो कहते हैं कि, पर्वतकी जो वस्तु है, वृक्ष, तृण, झरना, फूल, फल, यह सदा पराये अर्थ है और पर्वतका तो केवल जन्म भी पराये ही अर्थ है, अपना स्वार्थ कुछ नहीं, इसीप्रकार अपनी वस्तु और देह सब परोपकारार्थ लगा दीजिये, यह पर्वतरूप भूमिसे सीखा है और वृक्ष भी पराये अधीन हैं, यदि उनको कोई काटे उखाडे तो वह सहलेते हैं और क्षमाको नहीं तजते, इसीप्रकार साधुपुरुष

यतो यदनुशिक्षमि यथा वा नाहुषात्मज॥ तत्तथा पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते॥३६॥ भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः॥ तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम्॥३७॥ शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकांतसंभवः॥ साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम्॥३८॥ प्राणवृत्त्यैव संस्तुष्येन्मुनिर्नैवेंद्रियप्रियैः॥ ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः॥३९॥ विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः॥ गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत्॥४०॥ पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः॥ गुणैर्न युज्यते योगी गंधैर्वायुरिवात्मदृक्॥४१॥

भी जो अपने संग भलाई बुराई करे तो उसे सहन करलें (१)॥३८॥वायु भी दो प्रकारकी है, एक तो प्राणरूप है दूसरी बाहर फिरती है, सो प्राण जैसे आहार मात्रसे संतुष्ट रहते हैं और इन्द्रियोंके भोग नहीं चाहते इसीप्रकार मुनीश्वरभी रहेआहार जो न मिले तो मन वचन विक्षिप्त होकर ज्ञान सिद्धि न हो इसलिये एक आहारमात्रसेही संतोष मानलें, इससे अधिककी चाहना न करेयह विद्या प्राणवायुसे सीखी है॥३९॥ जैसे पवन सब जगह चलता है, पर कहीं आसक्त नहीं होता, इसीप्रकार योगिराज भी शीत उष्ण आदि नानाधर्मवाले विषयभोग करते भी आसक्त नहीं होते, सबमें गुणदोषरहित मन होय, यह विद्या बाहिरकी वायुसे सीखी है॥४०॥ और भी एक बात पवनसे सीखी है सो कहते हैं कि,

यद्यपि वायु सुगंधसे मिलीसी चलती है और ऐसाही जाना जाता है, परन्तु तोभी वायु गंधसे मिला नहीं है, गंध कुछ वायुका गुण नहीं है पृथ्वीका गुण है, उसीप्रकार आत्मा पृथ्वीका विकार देहमें प्रविष्ट है देहके धर्मका आश्रय है, पर मिला नहीं है, देहोंसे अलग है, इसप्रकार समझे और स्थानमें आत्माहीको देखे यह विद्या भी पवनसेही सीखी इस लिये वायु गुरु हुआ (२)॥४१॥ अब आकाशसे जो विद्या सीखी है, सो कहते हैं, जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक और बड़ा है परन्तु घटमें छोटा दिखाई देता है, सो घटसे आकाशका कुछ सम्बन्ध नहीं क्योंकि वह निर्विकार है, तैसेही आत्मा इस देहमें है और यह देहसे मिला है, इसकारण इतनाही है और ठौर नहीं ऐसे न समझे, क्योंकि जो आत्मा देहमें है, सोई सर्वत्र है जैसे आकाश सब ठौर है, वैसेही स्थावर जंगमविषे ब्रह्म व्यापक है, यह एक विद्या आकाशसे सीखी है॥४२॥ द्वितीय वायु कहते हैं जैसे पवनके

अंतर्हितश्च स्थिरजंगमेषु ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन॥ व्याप्त्याऽव्यवच्छेदमसंगमात्मनो मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत्॥४२॥ तेजोऽबन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः॥ न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसृष्टैर्गुणैः पुमान्॥४३॥ स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्न्नृणाम्॥ मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः॥४४॥ तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः॥ सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत्॥४५॥ क्वचिच्छन्नः क्वचित्स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम्॥ भुंक्ते सर्वत्र दातॄणां दहन्प्रागुत्तराशुभम्॥४६॥

प्रेरेसे तेज, जल, पृथ्वीमय मेघादिक आकाशमें व्याप्त होते हैं, पर मेघादिकोंसे आकाशका स्पर्श नहीं होता, वह निर्लेप है, वैसेही यह पुरुष कालसे सृजे पंचभूत रूप इस देहसे संयुक्त है, उनका निजके साथ स्पर्श नहीं है, यह धर्मभी आकाशसेही सीखा (३)॥४३॥ जैसे स्वभावहीसे जल अति निर्मल है ऐसेही मुनि भी निर्मल हो सबके ऊपर स्नेह करेमीठा बोलेजल भी मधुर है जैसे जल तीर्थ स्थान है और मनुष्योंको पापसे छुड़ाता है इसीप्रकार मुनीश्वर भी दर्शन स्पर्श कीर्त्तनसे सबको पवित्र करें, यह गुण जलसे सीखे हैं (४)॥४४॥ अब अग्निसे सीखा सो कहते हैं, जैसे अग्नि अतितेजस्वी है, तेजसे दीप्त है, अति दुःसह है और उसका उदरही पात्र है क्योंकि जो होम करते हैं, वह अग्निके उदारमेंही डालते हैं, इससेवही पात्र है, जो संपूर्ण वस्तुको भक्षण करती है और तोभी पवित्र करनेवाली है, ऐसेही मुनीश्वर भी हों॥४५॥ जैसे अग्नि कहीं गुप्त है, कहीं

प्रगट है, जो अपने कल्याणकी चाहना करते हैं, उनको सेव्य है, दाताकी इच्छासे सर्वत्र हविष्य लेती है, उनके भूत, भविष्य, वर्त्तमान पाप सब दूर करती है, इसीप्रकार मुनि रहें॥४६॥ और भी अग्निसे सीखा है, जैसे अग्नि एकरूप है, बहुत ईंंधनसे बहुत भाँति बड़ी दिखाई देती है और जब ईंंधन थोडा रहता है तो छोटी दीख पडती है, ऐसेही जीवात्मा एकरूप है, न छोटा है, न बडा है, अपनी अविद्यासे उपजाये ऊंच नीच भेदसंयुक्त देहमें प्रविष्ट हुआ ऊँच नीच रूपसे दिखाई देता है (५)॥४७॥ चन्द्रमासे जो सीखा है, सो कहते हैं, जन्मसे आदिलेकर मरणपर्यन्त धर्म देहकेही हैं आत्माके नहीं, इसमें दृष्टान्त कहते हैं, जैसे चन्द्रमाका मण्डल सदा पूर्ण एकरूप है, नित्य वृद्धि और क्षय जो देखा जाता है सो कलाओंका है, जितना सूर्यमण्डलसे नित्य अलग पड़े है, उतनाही दीखता है और ज्यों ज्यों मण्डलके नीचें दबता है, त्यों त्यों घटता है,इसीप्रकार आत्मा एकरूप है, अप्र

स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः॥ प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोऽग्निरिवैधसि॥४७॥ विसर्गाद्याः श्मशानांताभावा देहस्य नात्मनः॥ कलानामिव चंद्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना॥४८॥ कालेनह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ॥ नित्यावपि न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम्॥४९॥ गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुंचति॥ न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः॥५०॥ बुध्यते स्वेन भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः॥ लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत्॥५१॥

गट गति कालसे जन्ममरणादिक भाव देहके होते हैं, आत्माके नहीं, यह ज्ञान चन्द्रमासे पाया है, इससे चन्द्रमा गुरु है (६)॥४८॥ अग्नि गुरुकी फिर प्रशंसा करते हैं, जैसा अग्निका स्वरूप है कि, नाश नहीं होता, अग्निकी ज्वालाओंका नाश होता है; परन्तु दीखता नहीं, वैसेही काल नदीके वेगसे जन्ममरण इस देहकोही है, आत्माको नहीं, क्योंकि आत्मा तो नित्य अर्थात् अमर है॥४९॥ अब सूर्यसे जो सीखा है सो कहते हैं, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे जल सोखता है और फिर वर्षाके समय वही जल छोड देता है, परन्तु उसमें आसक्त नही है,इसीप्रकार योगीजन इन्द्रिय अपेक्षित पदार्थोंका ग्रहण करेऔर कोई, याचना करेतौ तत्काल देंदें, ममता न रक्खें॥५०॥ जिसप्रकार सूर्य आकाशमें अपने स्वरूपमें रहता है और एकही है, परन्तु जलादिकमें प्रतिबिम्ब पडनेसे अनेकरूप दीखता है, इसी प्रकार आत्मा स्वरूपसे भिन्न नहीं है, देदादिकोंमें व्याप्त

होनेसे स्थूल बुद्धिबालोंको अनेकरूपका प्रतीत होता है (७)॥५१॥ अब कपोतसे जो सीखा है, सो कहते हैं, कहीं किसीसे अधिक स्नेह न करे, किसीसे आसक्त न हो, जो संग करे तो संतापको प्राप्त होता है और दीनमति होती है, जैसे कपोतको हुआ॥५२॥ सो कपोतकी कथा कहते हैं, एक कपोत वनमें किसी वृक्षपर अपना घर बनाय कपोतिनी अपनी स्त्रीसे मिलकर कितने वर्षतक दोनोंने वास किया॥५३॥ वह दोनों स्त्री पुरुष कपोत कपोतिनी परमस्नेहसे बँधेहुए दृष्टि दृष्टिसे बँधी, हृदय हृदयसे बँधा, अंग अंगसे बँधा, बुद्धि बुद्धिसे बँधी॥५४॥ शयन, आसन, गमन, स्थान, वार्त्ता, क्रीडा, भोजन, सब काम एकही स्थानपर बैठकर करें, अलग २ होकर कभी न करें इसप्रकार एक पंगतमें

नातिस्नेहः प्रसंगो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित्॥ कुर्वन्विंदेत संतापं कपोत इव दीनधीः॥५२॥ कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ॥ कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित्समाः॥५३॥ कपोतौ स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ॥ दृष्टिं दृष्ट्यांगमंगेन बुद्धिं बुद्ध्या वबंधतुः॥५४॥ शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम्॥ मिथुनीभूय विस्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु॥५५॥ यंयं वाञ्छति सा राजंस्तर्पयंत्यनुकपिता॥ तंतं समनयत्कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेंद्रियः॥५६॥ कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते॥ अंडानि सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती॥५७॥ तेषु काले व्यजायंत रचितावयवा हरेः॥ शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलांगतनूरुहाः॥५८॥ प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दंपतीपुत्रवत्सलौ॥ शृण्वंतौ कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः॥५९॥

निःशंक हुए फिरा करें॥५५॥ इसके उपरान्त वह कपोतिनीने अपने हाव भाव, लावण्य मधुर भाषणसे प्रसन्नकर कपोतसे दीन होकर जो जो वस्तु माँगी, सो सो वह कपोत कष्टसे भी ले आवे, इसभाँति अजितेन्द्रिय उसके अधीन रहा करे॥५६॥ एक समय प्रथमही गर्भवती हुई, सो पतिव्रता कपोतिनीने अपने समीपके आये पतिके समीपही अपने घरमें अंडे दिये॥५७॥ कुछ समय बीतनेपर उन अण्डोंमेंसे अचिन्तनीय हरिकी शक्तियोंसे हाथ पाँव आदि युक्त बच्चे उत्पन्न हुए और उनके कोमल अंगोंमें रूएँहुए॥५८॥ इसके उपरान्त यह दोनों कपोत कपोतिनी प्रसन्न हुये और अपने बच्चोंका यत्नसहित पालन करने लगे; पुत्रोंमें स्नेह बहुत हुआ और दिन दिन अपने बच्चोंका मधुर वचन सुननेसे

उनको बड़ा संतोष प्राप्त हुआ॥५९॥ उनके पंखोंसे जब आपको स्पर्श हो तब बहुत सुख पावें प्रसन्न होजायँ, अपने पुत्रोंके मुखकी सुन्दर चेष्टा, उनके वचन और अपने निकट आनेसे परमसुख प्राप्त करनेलगे॥६०॥ उस स्नेहसे बद्धहृदय हो हरिकी मायासे परस्पर मोहित हुए अतिदीनबुद्धि यह स्त्री पुरुष बच्चोंको पालनेलगे॥ ६१॥ एक दिन यह दोनों कुटुम्बी कपोत वनके चारों ओर बलकोंके अन्नके लिये बड़ी देरतक अभिलाषासे फिरे॥६२॥ अपनी इच्छासे वनमें फिरते किसी एक क्रूर वधिकने अपने घोंसलेके निकट चुगते बालकोंको देख जाल रोपकर पकड़ लिया॥६३॥इसके उपरान्त यह कपोत कपोतिनी सदा हर्ष संयुक्त, प्रजाका चुग्गा चारा लेनेको गये और लेके अपने घरमें आये॥६४॥ तब वह कपोतिनी

तासां पतत्त्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः॥ प्रत्युद्गमैरदीनानां पितरौ मुदमापतुः॥६०॥ स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया॥ विमोहितौ दीनधियौशिशून्पुपुषतुः प्रजाः॥६१॥ एकदा जग्मतुस्तासामन्नार्थौतौकुटुंबिनौ॥ परितः कानने तस्मिन्नर्थनौ चेरतुश्चिरम्॥६२॥ दृष्ट्वा ताँल्लुब्धकः कश्चिद्यदृच्छातो वनेचरः॥ जगृहे जालमावृत्य चरतः स्वालयांतिके॥६३॥ कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ॥ गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः॥६४॥ कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकाञ्जालसंवृतान्॥ तानभ्यधावत्क्रोशंती कोशतो भृशदुःखिता॥६५॥ साऽसकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताऽजमायया॥ स्वयं चावध्यत शिचा बद्धान्पश्यंत्यपस्मृतिः॥६६॥ कपोतश्चात्मजान्बद्धानात्मनोऽप्यधिकान्प्रियान्॥ भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः॥६७॥ अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः॥ अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः॥६८॥

अपने बालकोंको जालमें अतिदुःखित पुकारते देखकर आप भी पुकारती हुई दौड़ी॥६५॥ वह कपोतिनी बहुत स्नेहसे बँधी दुःखित चित्त जालमें बँधे बालकोंको देख वहाँ हरिकी मायासे ज्ञानरहित हो आप भी जालमें बँधगई॥६६॥ इसके उपरान्त वह कपोत भी आपसे अधिक प्यारे बालकोंको और अपने समान स्त्रीको भी बँधा देख अति दुःखित हो विलाप करनेलगा॥६७॥ अहो! देखो मैंअल्प पुण्य हूं, मूर्ख हूं, इन भोगोंमें अब भी तृप्त नहीं हुआ, देखो मैंने कुछ पुण्य नहीं किया, इसीलिये धर्म, अर्थ, काम, साधक मेरा घर नष्ट होगया॥६८॥

यह स्त्री मेरे अनुकूल और पतिव्रता थी सो आज मुझे सूने घरमें छोड़कर साधु पुत्रों समेत स्वर्गकी जाती है॥६९॥ मेरी स्त्री, पुत्र सब मरे सो मैं दीन हुआ विधुर अर्थात् रँडुआ हुआ, अतिदुःखित हुआ सो अब किसलिये जीनेकी इच्छा करूं, मेरा जीवन दुःखरूप है॥७०॥ इसप्रकार वह कपोत विलाप करता उन बालकोंको और अपनी प्रियाको मृत्युसे ग्रसे जालमें, चेष्टा करते देख दीन हो आप भी उस पुरुषके देखते जालमें जा पड़ा॥७१॥ इसके उपरान्त उस गृहस्थ कपोतको और कपोतिनी तथा उसके बालकोंको ले कार्य सिद्ध होनेपर वह दुष्ट वधिक अपने घरको चला गया॥७२॥ अवधूत बोले कि, हे यदु! जिस प्रकार कुटुम्बी कपोत अशान्तचित्त हुआ इसीप्रकार यह पुरुष सुखदुःखहीमें रति मान दीन होकर कुटुंबका भरण पोषण

अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता॥ शून्ये गृहे मां संत्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः॥६९॥ सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः॥ जिजीविषे किमर्थंवा विधुरो दुःखजीवितः॥७०॥ तांस्तथैवावृतान्वीक्ष्य मृत्युग्रस्तान्विचेष्टतः॥ स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत्॥७१॥ तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम्॥ कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम्॥७२॥ एवं कुटुंब्यशांतात्मा द्वंद्वारामः पतत्त्रिवत्॥ पुष्णन्कुटुंबं कृपणः सानुबंधोऽवसीदति॥७३॥ यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्॥ गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः॥७४॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० सप्तमोऽध्यायः॥७॥ ब्राह्मण उवाच॥ सुखमेैंद्रियकं राजन्स्वर्गे नरक एव च॥ देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद्बुधः॥१॥

करते कुटुम्बसहित दुःखही प्राप्त करते हैं, सुख कभी नही पाते किंतु कपोतकी भाँति बँध जाते हैं॥७३॥ जो पुरुष मुक्तिका खुला द्वाररूप इस मनुष्यलोकको पाकर कपोतके समान गृहोंमें आसक्त होता है, वह उत्तम गति पाकर भी अधोगतिमें पड़ता है, घरकी आसक्ति पशु पक्षियोंको भी अनर्थ देती है, वह मनुष्योंको भी दे तो इसमें कहनाही क्या है? यह विद्या मैंने कपोतसे सीखी इसलिये कपोत गुरु हुआ (८)॥७४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायामवधूतोपाख्याने सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा— इस अष्टम अध्यायमें, दत्तात्रेय सुजान॥ नवमें अजगरकी कथा, सो सब कहीं बखान॥१॥ ब्राह्मण बोले हे राजन्। प्रारब्धके, कर्मोंका भोग अवश्य करनेसेही छूटता है, इसलिये कर्मोंके उद्यमसे

वृथा आयु न खोवे, तहाँ अजगरकी सीख अवधूतजी कहते हैं कि, हे राजन्! जिन पुरुषोंको देहाभिमान है, उन्हें इन्द्रियोंका सुख नरकमें भी होता है, जैसे दुःख विना इच्छाके होता है, ऐसेही सुख भी होता है इसलिये बुद्धिमान पुरुषको उचित है कि, सुखकी चाहना न करे॥१॥ उद्यम विना अनायाससे जो कुछ प्राप्त हो अथवा विरस हो, थोड़ाहो या बहुतहो, उसे प्रसन्नतापूर्वक करले, सबसे उदासीन रहे, शरीरके निर्वाहमात्रही ग्रहण करे इस प्रकार अजगर रहता है॥२॥जिसदिन कुछ न प्राप्त हो उस दिन विना भोजन करेही सो रहे, तो अवश्य अजगरके समान ईश्वर देगा, उद्यम न करे इस प्रकार धैर्यसे रहै॥३॥ यद्यपि इन्द्रिय समर्थ हों, मन पुष्ट हो, शरीर पुष्ट हो, परन्तु तो भी कुछ कर्म न करे, जागताही पडा रहै, किसी वस्तुकी अपेक्षा होय तो भी यत्न न करे, इस भाँति निरपेक्ष होकर रहे (९)॥४॥ अब जो समुद्रसे सीखा है सो कहते हैं, जैसे समुद्रजल

ग्रासं सुमृष्टं विरसं महांतं स्तोकमेव वा॥ यदृच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोऽक्रियः॥२॥ शयीताहानि भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः॥ यदि नोपनमेनासो महाहिरिव दिष्टभुक्॥३॥ ओजःसहोबलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम्॥ शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेंद्रियवानपि॥४॥ मुनिः प्रसन्नगंभीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः॥ अनंतपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः॥५॥ समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ॥ नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिरिव सागरः॥६॥ दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्भावैरजितेंद्रियः॥ प्रलोभितः पतत्यंधे तमस्यग्नौ पतंगवत्॥७॥

निश्चल है, ऐसेही अंतःकरणमें प्रसन्न रहे, समुद्र महागंभीर है, उसका पार और अंत नहीं जिसको कोई लाॅघ न सके, कोई पकड न सके;क्षोभ न कर सकेयह सब गुण समुद्रसे सीखे हैं, यही महात्माओंको उचित है॥५॥ जैसे समुद्र चौमासेमें नदियोंके जलसे चढता नहीं, ग्रीष्ममें सूखता और घटता नहीं, इसीप्रकार योगिराजोको चाहिये कि, जो कुछ मिले उसीमें संतोष करेयदि न मिले तो खेद न करे, केवल एक नारायणके विषेही तत्पर होकर विषयोंसे दूर रहे (१०)॥६॥ इन्द्रियोंके पांच विषय हैं, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, रस इनमें आसक्त होनेसे यह जीव नष्ट होजाता है, जैसे पतंग, भ्रमर, गज, हरिण, मीन इत्यादिक नाशको प्राप्त होते हैं, इसलिये इन पांच विषयोंमें आसक्त न हो यह बात इन पाँचोंके पाससे सीखी है, इनमें पहले पतंगसे जो सीखी है सो कहते हैं, जैसे पतंग अग्निका रूप देख भ्रमके वश होकर उसमें जा पडता है॥७॥

इसीप्रकार यह स्त्री देवमाया है, सुवर्ण, आवरण और वस्त्रादि मायाविलास देख उसके हावभावसे मोहित होकर अजितेन्द्रिय लोभी पुरुष भोगकी इच्छासे अंधकूपमें जा पडते हैं, इनकी दृष्टि नष्ट होगई है इसलिये अंध कूपको नहीं जानते, रूपको देखतेही उत्तमसे नष्ट होजाते हैं, यह विद्या पतंगसे सीखी (११)॥८॥ अब भ्रमरसे जो सीखी है सो कहते हैं, भ्रमर दो प्रकारका होता है, एक शहतकी मक्खी, दूसरा भौंरा जो मुनि हो तो थोडा ग्रासमात्र माँगले जितनेसे देह रहे परन्तु एकही घरसे न माँगे जिससे गृहस्थको पीडा हो जैसे भ्रमर सुगंधिके लोभसे एक कमल ही में वसै तो उसमें बँध जाय, ऐसे ही यह एक ठौर माँगनेसे बँधे जाते हैं॥९॥ चतुर मनुष्यको चाहिये कि, सब शास्त्रोंसे सारवस्तु ग्रहण करले शास्त्र छोटे हों अथवा बडे हों, सार सबका लै ले जैसे भ्रमर पुष्पोंमेंसे मकरंदका सार लेलेता है यह बात भ्रमरसे सीखी है॥१०॥ भ्रम

योषिद्धिरण्याभरणांबरादिद्रव्येषु मायारचितेषु मूढैः॥ प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्या पतंगवन्नश्यति नष्टदृष्टिः॥८॥ स्तोकंस्तोकं ग्रसेद्ग्रासं देहो वर्त्तेत यावता॥ गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्वत्तिंमाधुकरीं मुनिः॥९॥ अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः॥ सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पेभ्य इव षट्पदः॥१०॥ सायंतन श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षितम्॥ पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न संग्रही॥११॥ सायंतनं श्वस्तनं वा न संगृह्णीत भिक्षुकः॥ मक्षिका इव संगृह्णन्सह तेन विनश्यति॥१२॥ पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद्दारवीमपि॥ स्पृशन्करीव बध्येत करिण्या अगसंगतः॥१३॥

रका दूसरा नाम मधुकर है सो मधुकर मधुमक्खियोंहीमें रहता है उन मधुमक्खियोंसे जो सीखा है सो कहते हैं मुनि भिक्षाको ले आवेपरन्तु सँझको अथवा दूसरे दिनको संग्रह न रक्खेपाणिपात्रमें लेकर उदरपात्र पूर्ण करेमधुमक्खीकी नाई संग्रह न करेदेखो मधुकी मक्खी सब वृक्षोंके पुष्पोंका रस संग्रह करके एक मुहाल बनाती है, वह शहद अनेक रोगोंको दूर करता है ऐसेही मुनि लोगोंको चाहिये कि शास्त्रोंमेंसे ऐसा उत्तम सार निकालें जो मनुष्योंके मायारूप रोगोंको हरे॥११॥ और जो मोहमें फँसकर संग्रह करे तो नष्ट होय, जैसे मधुमक्खी मधु सहित नष्ट होजाती हैं(१२)॥१२॥ अब हाथीकी सीख कहते हैं, भिक्षुक काष्ठकी स्त्री पूतरीको पाँवसे भी न छुवे और यदि छुवे तो बँधजाय

जैसे हाथी हथिनीके अंग संगसे बँध जाते हैं, यह विद्या मैंने हाथीसे भी सीखी॥१३॥ जो बुद्धिमान् होय तो कभी स्त्रीके निकट न जाय, जाय तो अवलम्बन करके पिटे, क्योंकि स्त्री आत्माकी मृत्यु है, जैसे और बलवान् हाथियोंसे हाथी माराजाता है (१३)॥१४॥ जो कोई मधुमक्खियोंके पास जाय, उन्हें छुड़ाय मधु हरकर ले आवेसो मधुहा कहावेे, जो मनुष्य लोभी हैं और अनेक दुःखोंसे धनसंचय करते हैं, न दान करते हैं न आप भोग करते हैं, तो उस धनका भोग और ही कोई करेगा, जैसे मक्खी ठौर ठौरसे मधु लाकर संग्रह करती हैं, परन्तु भोग और ही कोई करता है, यह धनके उपाय जानने॥१५॥ अतिदुःखसे संचय करेहुए धनसे ग्रहण करे मनोरथोंकी चाहना करनेवाले गृहस्थोंके पहले संन्यासी भोजन करता है, जैसे मधुहा मक्खियोंसे प्रथम भोजन करता है, संन्यासी और ब्रह्मचारी रांधे अन्नके स्वामी हैं; इनको पहले दिये विना जो पुरुष

नाधिगच्छेत्स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः॥ बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा॥१४॥ न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर्यद्दुःखसंचितम्॥ भुंक्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु॥१५॥ सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिषः॥ मधुहेवाग्रतो भुंक्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम्॥१६॥ ग्राम्यगीतं न शृणुयाद्यतिर्वनचरः क्वचित्॥ शिक्षेत हरिणाद्बद्धान्मृगयोर्गीतमोहितात्॥१७॥ नृत्यवादित्रगीतानि जुषन्ग्राम्याणि योषिताम्॥ आसां क्रीडनको राजनृष्यशृंगो मृगीसुतः॥१८॥ जिह्वयाऽतिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः॥ मृत्युमृच्छत्यसद्बद्धिर्मीनस्तु बडिशैर्यथा॥१९॥

भोजन कर लेता है, वह चांद्रायण व्रत करनेसे शुद्ध होता है (१४)॥१६॥ संन्यासी वनमें फिरते हैं, गाँवके गीत प्राकृत कभी नहीं सुनते यदि सुनें तो बंधनमें पड़ें जैसे मृगगण वधिकके गीत सुनकर मरजाते हैं, यह विद्या हरिणसे सीखी॥१७॥ गाँवके गीत, नृत्य, वादित्र सुन और उनके वशमें हो बंधनमें पड़ते हैं, जैसे मृगीके पुत्र ऋष्यशृंगऋषि वेश्याओंके विषयसम्बन्धी नाच वाद्य और गाना सुननेसेही, उन वेश्याओंके खिलौने कैसे बनकर वशमें होगये (१५)॥१८॥मीनसे जो विद्या सीखी सो कहते हैं, यह मूर्ख मनुष्य अतिबलवंत जिह्वाके वश हो मृत्युको प्राप्त होते हैं, जैसे वंशीके लोइमें माँस लगाते हैं, उसके स्वादसे मछली वंशीको पकड़ती है, तो मृत्युको प्राप्त होती है॥१९॥

पण्डितजन आहारको त्यागकर शीघ्र इन्द्रियोंको जीत लेते हैं परन्तु एक रसनेन्द्रियोंको नहीं जीत सकते हैं, क्योंकि आहार त्यागनेसे जिह्वाका लोभ बढता है॥२०॥ जिस पुरुषने और इन्द्रिय जीत ली हैं; परन्तु तबतक जितेन्द्रिय नहीं होता है, जबतक जिह्वा न जीते, क्योंकि जो जीभ जीते तो जानो कि, सब जीते,यहाँ अभिप्राय यह है कि, जो आहार छोड़िये तो केवल और इन्द्रियोंकी जय होय रसनेन्द्रिय बढ़े और भोजन करे तो रसकी आसक्तिसे सब इन्द्रियोंको लोभ होय इसलिये रसकी आसक्ति छोड़कर ओषधीके समान अन्न ले (१६)॥२१॥ अब पिंगलाका उपाख्यान कहते हैं, अवधूतजी बोले कि, हे महाराज! पिंगलानामक एक वेश्या पहले विदेहनगरमें थी उससे भी मैंने कुछ सीखा है॥२२॥ हे राजन्! एक दिन उस कामचारिणी वेश्याने द्वारेपर नगारे धरकर यह संकेत किया कि, जो पुरुष इस नगाड़ेपर जितने डंके मारे वह रात्रिमें मेरे पास आनकर उतने

इंद्रियाणि जयंत्याशु निराहारा मनीषिणः॥ वर्जयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते॥२०॥ तावज्जितेंद्रियो न स्याद्विजितान्येंद्रियः पुमान्॥ न जयेद्रसनं यावज्जितं सर्वंजिते रसे॥२१॥ पिंगला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा॥ तस्या मे शिक्षितं किंचिन्निबोध नृपनंदन॥२२॥ सा स्वैरिण्येकदा कांतं संकेत उपनेष्यती॥ अभूत्काले बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम्॥२३॥ मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ॥ ताञ्छुल्कदान्वित्तवतः कांतान्मेनेऽर्थकामुका॥२४॥ आगतेष्वपयातेषु सा संकेतोपजीविनी॥ अप्यन्यो वित्तवान्कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः॥२५॥ एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलंबती॥ निर्गच्छंती प्रविशती निशीथं समपद्यत॥२६॥

हजार रुपये देगा, इसप्रकार समस्या बनाई, इतनेहीमें मैंने जाकर उस नगाड़ेपरदश बीस डंडे लगा दिये और सामने जो दूकान खुली पड़ी थी उसमें जा बैठा, तब उस वेश्याने समझा कि, आज कोई बड़ा धनी पुरुष आया, इस आशापर वह कंतको रतिस्थानमें लेजानेकी इच्छासे अत्युत्तम रूप धारण किये सायंकालके समय द्वारपर आनकर स्थित हुई॥२३॥उस वेश्याने मार्गमें आतेहुए धनवान् मोलके दाता पुरुषोंको देख अपने मनमें जाना कि, यह भोगके योग्य हैं, क्योंकि उसके तो अधिक अर्थकी ही कामना थी॥२४॥ उनको आये और गये देखकर और कोई धनवान् मुझे बड़ा दाता प्राप्त होगा, इस आशासे वह संकेतकी जीवनहारी वेश्या द्वारपर बेठी रही॥२५॥ इसप्रकार दुराशासे जागतेहुए द्वारपर आवे कभी भीतर जाय

इस भाँति अर्द्धरात्रि होगई॥२६॥ उसका धनकी आशासे चित्त दीन होगया मुख सूखने लगा और चिंतासे परमवैराग्य उत्पन्न होगया उस वैराग्यसे जो कहा सो सुनो *॥२७॥ उसका धनकी आशासे चित्त दीन हुआ, मुख सूखने लगा, निर्वेद चित्तसे उससमय कामकंदलाने जो गाया सो मैं

तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः॥ निर्वेदः परमो जज्ञे चिंताहेतुः सुखावहः॥२७॥ तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं शृणु यथा मम॥ निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः॥ न ह्यंगाऽजातनिर्वेदो देहबंधं जिहासति॥२८॥ पिंगलोवाच॥ अहो मे मोहविततिं पश्यताऽविजितात्मनः॥ या कांतादसतः कामं कामये येन वालिशा॥२९॥

कहताहूं तुम सुनो वह मनमें विचार करे है कि, वैराग्य पुरुषके दुराशापाश काटनेको खड्ग है हेराजन्! जिसको वैराग्य नहीं उस पुरुषके देहके बंधन नहीं छूटते हैं॥२८॥ पिंगला बोली अहो देखो! मेरे लोभका विस्तार कि, मैंने अपना मन न जीता मैंविवेकरहित हूं, जो ऐसे दुष्टोंका प्रियकर अपना

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*** शंका—**ज्ञानकी प्राप्तिके लिये मुनियोंने अनेक जन्म तप किया और तपस्याही करते करते अनन्तयुग बीत गये, परन्तु ज्ञानकी प्राप्त मुनियोंको नहीं हुई, ज्ञान ऐसा महाकठिन है और पिंगला वेश्याने कभी भीसुन्दर कर्म नहीं किये कि, जिन कर्मो करके ईश्वर प्रसन्न हो ऐसी पतित महाअपवित्र पिंगला गणिका एक क्षणमात्रमें ज्ञानको कैसे प्राप्त होगई? यह बडे आश्चर्यकी बात है।

**उत्तर—**जिस काम करनेके लिये ब्रह्माने जिस प्राणीको बनाया है, वह प्राणी उसी कामको करेगा तो उसको किसी प्रकारका दोषनहीं लगनेका, देखो! हरिश्चन्द्रने चाण्डालकी नौकरी की और मरघटमें मुर्दोंको उससमय फूकने देता था, जब अपना दंडलेलेता था, परन्तु भगवान् उसपें अत्यन्त प्रसन्न हुए और ऐनेहीसदना कसाईपर मगवान् प्रसन्न हुए सो अपने कारबारमें किसी प्रकारका दोष नहीं परन्तु अपने कुलका धर्म करके कुछ देर भगवान्का प्रीति सहित ध्यान करेगा तो निस्सन्देह भगवान् उससे प्रसन्न होंगे, ऐसेही ब्रह्माने जिस कर्म करनेके लिये पिंगलाको बनाया था, वही कर्म पिंगला करती थी, क्योंकि जनकपुरीमें सब प्राणी अपने अपने कुलके धर्मको करके पीछे भगवान्में प्रीति करते थे, ईश्वरको नहीं भूलते थे स्त्री पुरुष सब भगवान्का नाम जपते थे और पिंगला भी पुरुषोंके संग रति करके पीछेसे स्नान करके दूसरे वस्त्र पहनकर भगवान्का ध्यान करती थी, और ईश्वरकी प्रार्थना करके अपनी देहसे जो पाप होते थे, उनको बारम्बार क्षमा कराती थी उस दिन भगवान्की कृपा होगई जो उसनेपापकर्मसे ग्लानि मानी और ज्ञानमें लय होगई, एक क्षणमें पिंगलाको ज्ञान हुआ तो कुछ आश्चर्यकी बात नहीं।

अभिलाषा पूर्ण किया चाहती हूं॥२९॥ अपना अतिप्रिय निकटही सदा रहता है, अति सुखकारी रतिका दाता धनदाता नित्य प्रियको छोड दुःखित हुई, चिंता शोक मोहके देनेवाले तुच्छ मनुष्योंका मैंने सेवन किया, न तो उनसे मेरा काम पूर्ण होता है, न सुखही होता है, मैं मूढ हूं॥३०॥ अहो! मैंने यह आत्मा वृथा सताया, जिससे अतिनिन्दा संयुक्त शोकसे ग्रसे धन और रतिकी इच्छासे मेरी देह बिकी॥३१॥ हाथ पावोंके हाड थूनी पँसलियोंके हाड बाँस और पीठके हाड जहाँ वरेंडा है, ऐसा शरीर रूपधर त्वचा रोम नखसे ढका है, जिसके नौ द्वार स्रवते हैं, सो विष्ठा

संतं समीपे रमणं रतिप्रदं वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय॥ अकामदं दुःखभयादिशोकमोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा॥३०॥ अहो मयात्मा परितापितो वृथा सांकेत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यवार्तया॥ स्त्रैणान्नराद्याऽर्थतृषोऽनुशोच्यात्क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती॥३१॥ यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंश्यस्थूणं त्वचा रोमनखैः पिनद्धम्॥ क्षरन्नवद्वारमगारमेतद्विण्मूत्रपूर्णं मदुर्पेति कान्या॥३२॥ विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः॥ याऽन्यमिच्छंत्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात्॥३३॥सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायंशरीरिणाम्॥ तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा॥३४॥ कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नराः॥ आद्यंतवंतो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः॥३५॥ नूनं मे भगवान्प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा॥ निर्वेदोऽयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः॥३६॥

मूत्रसे पूर्ण नरकरूप कांतको मेरे विना कौन स्त्री सेवैगी?॥३२॥ इस विदेहराजाके नगरमें एक मैंही अति मूढ हूं, क्योंकि जो मैं असाध्वी साक्षात् अच्युत परमात्माको छोड तुच्छ कामभोगकी इच्छा करती हूं,॥३३॥ यह ईश्वरही सब देहधारियोंका आत्मा और सुहृद है, परमप्रिय नाथ है, क्योंकि अपने देहको देकर दूसरेको मोल लेलेता है, इसलिये अब उसीसे लक्ष्मीके समान रमण करूंगी॥३४॥ विषय और कामके दाता मनुष्य और देवता यह सब उत्पत्ति मरण संयुक्त हैं, कालसे ग्रसे हैं, वह स्त्रीकी कामना क्या करेंगे॥३५॥ अब अपने भाग्यकी सराहना

करती है मुझे जान पड़ता है कि, निश्चय मुझपर भगवान् विष्णु किसी कर्मसे प्रसन्न हुये हैं, जिससे दुष्ट आशासंयुक्त मुझे सुखदायक ऐसा वैराग्य उत्पन्न हुआ॥३६॥ कदाचित् कहो कि, धनकी प्राप्ति न हुई उसका खेद हुआ, विष्णु क्या प्रसन्न हुये? तो कहते हैं कि, मंदभागिनीको ऐसे क्लेश वैराग्यके कारण नहीं होते, क्योंकि इसीप्रकार और भी पहले दिन होगयेथे जब धनकी प्राप्ति न हुई थी, न कोई पुरुष आयाथा, आज मुझे क्लेशसे वहवैराग्य हुआ है, जिस वैराग्यसे यह पुरुष गृहादिक बंधन छोड़कर शान्तिको प्राप्त होता है॥३७॥ईश्वरने मेरा यह बड़ा उपकार किया है, इस उपकारको मैंने माथेपर चढ़ा लिया और नीच लोगोंके योग्य दुष्ट आशाओंको त्याग मैंउन्हीं जगदीशकी शरण लेतीहूं॥३८॥ अब मैं

मैवं स्युर्मंदभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः॥ येनानुबंधं निर्हृत्य पुरुषः शममृच्छति॥३७॥ तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसंगताः॥ त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम्॥३८॥ संतुष्टा श्रद्दधत्येतद्यथालाभेन जीवती॥ विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै॥३९॥ संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ॥ ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः॥४०॥ आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात्॥ अप्रमत्त इदं पश्येद्ग्रस्तं कालाहिना जगत्॥४१॥ ब्राह्मण उवाच॥ एवं व्यवसितमतिर्दुराशां कांततर्षजाम्॥ छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा॥४२॥

संतुष्ट हो परमेश्वरमें श्रद्धा करती यथालाभसे जीविका करती, निश्चयसे आत्माकोही रमणकर आनंदसे विहार करूंगी॥३९॥ जो पुरुष संसारके कुएँमें पड़ा है, विषयोंसे अंधदृष्टि है, कालस्वरूपसे ग्रस रहा है, ऐसे आत्माकी रक्षा करनेको इस आत्मस्वरूप भगवान् विना और कौन समर्थ॥४०॥ जब सबसे यह आत्मा विरक्त हुआ तब अपनी आपही रक्षा करनेको सावधान हुआ, इस जगत्को जो कि, कालस्वरूपसे ग्रसित है, अप्रमत्त होकर देखे॥४१॥ अवधूत बोले कि, हे महाराज!इसभाँति निश्चय मतिसे धन और विषयभोगकी आशा छोड़, शान्तिको प्राप्त हो

वह वेश्या शय्यापर सोगई॥४२॥ इसमें मैने फलितार्थ इतना लिया है कि, आशा परमदुःखरूप है, आशाको छोड़बैठनाही परमसुख है, जैसे पिंगला कांतकी आशा छोड़ सुखसे सोई, साधुओंको संग्रह करना उचित नहीं है, इससे दुःख होता है (१७) *॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धवसंवादे पिंगलोपगीतेऽष्टमोऽध्यायः॥८॥ दोहा— इस नवमें अध्यायमें कुररीसों उपदेश॥ जो पायो सो कहतहो, सुनहु कृपालु नरेश॥१॥ अवधूतजी बोले कि, हे यदु! अब कुरर पक्षीसे जो मैंने सीखा है, सो कहते हैं, मनुष्योंको जो जो वस्तु प्रिय हैं सो सो मुझे दुःखदायी हैं, यह जानकर जो पुरुष संग्रहको छोड़े वह अनंत सुखको प्राप्त होगा॥१॥ यहाँ एक दृष्टान्त कहते हैं

आशा हि प्ररमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्॥ यथा संछिद्य कांताशां सुखं सुष्वाप पिंगला॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महा०एकाद० अष्टमोऽध्यायः॥८॥ ब्राह्मण उवाच॥ परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्॥ अनंतं सुखमाप्नोति तद्विद्वान्यस्त्वकिंचनः॥१॥ सामिषं कुररं जघ्नुर्बलिनो ये निरामिषाः॥ तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत॥२॥ न मे मानावमानौ स्तो न चिंता गेहपुत्रिणाम्॥ आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवत्॥३॥

एक कुरर पक्षीने माॅस पाया, तब उससे बलवंत माॅसरहित और पक्षी आये, सो उसको मारनेलगे, तब इसने वह मॉस डाल दिया, तब यह उसे छोड़ मॉसको चिपट गये यह छूटकर अत्यन्त सुखी हुआ, मुनिजनोंको चाहिये कि, संसारके व्यवहारोंको मॉसकी नाई परित्याग करदें (१८)॥२॥ अब बालककी सीख कहते हैं कि, हे राजन्! न तो मुझे मान अपमानका सुख दुःख है, न घरकी चिंता है, न पुत्रोंकी चिन्ता है, एक

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* दृष्टान्त—

एक बाबाजीने महाकष्टसे पचीस अशरफी संग्रह करीं, जब तब निकाल चुटियोंमें धरा करते थे, एक दिन किसीने देखलीं, सो बाबाजीसे आनकर वोला महाराज! आपका आज मेरे यहाँ निमंत्रण है, बाबाजी बोले अच्छा, तब वह घर लिया लेगया और इतना हलुया पूरी खिलाया कि, बाबाजीसे उठा न गया, तब उसने खाट विछादी और अपनी स्त्रीसे कहा कि, इनके चरण खूब दावना और मैंजाताहू, यह तो सेवा करने लगी और वह पुरुष थोडी देरमें व्याकुलतासे घरमें आय आलेमे ढूढने लगा, स्त्रीने कहा कि, क्या ढूढते हो? तव उसने कहा कि, यहाँ पचीस अशरफी रक्खी थीसो कहां गई? अब बाबाजी संकुचाये, वह स्त्रीको मारनेलगा कि, तैंने बाबाजीको देदीहोंगी बाबाजी बोले हमारे कपडे देखलो, दो चार आदमी इकट्ठे होगये, तब इसने बाबाजीकी चुटिया देखी उसमेंसे अशरफी निकली बाबाजी वडे लज्जित हुये, धनका धन गँवाया, चोरके चोर हुये, जब बाबाजी चले तो इसने हाथ जोडकर कहा कि, महाराज! फिर भी दर्शन देना, तब बाबाजी बोले कि, पचीश और करलूंगा तब आऊँगा।

आत्माहीके संग क्रीड़ा करता यहाँ फिरता हूं जैसे बालक चिन्तासे छूटकर आनन्दमें मग्न होते हैं॥३॥ हे राजन्! दो मनुष्यही चिन्तारहित हो परमानन्दमें मग्न होते हैं एक तो उद्यमसे रहित अज्ञ बालक दूसरा गुणरहित ईश्वरको प्राप्त होनेवाला * (१९)॥४॥ कुमारीसे जो विद्या सीखी है, सो कहते हैं, कहीं एक कन्या थी उसके भाई बन्धु पिता कहीं गयेथे इसके पीछे कन्याको बिदा करानेके लिये घर पाहुने आये, तब उनका आतिथ्यभाव उसने आपही किया॥५॥ हे राजन्! कन्या उनके भोजन करानेके लिये एकान्तमें बैठकर धान कूटनेलगी, तब

द्वावेव चिंतयामुक्तौ परमानंद आप्लुतौ॥ यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः॥४॥ क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान्गृहमागतान्॥ स्वयं तानर्हयामास क्वापि यातेषु बंधुषु॥५॥ तेषामभ्यवहारार्थं शालीन्रहसि पार्थिव॥ अवघ्नंत्याः प्रकोष्ठस्थाश्चक्रुः शंखाः स्वनं महत्॥६॥ सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः॥ बभंजैकैकशः शंखान्द्वौद्वौपाण्योरशेषयत्॥७॥ उभयोरप्यभूद्घोषो ह्यवघ्नंत्याः स्म शंखयोः॥ तत्राप्येकं निरभिददेकस्मान्ना भवद्ध्वनिः॥८॥ अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिंदम्॥ लोकाननुचरन्नेताँल्लोकतत्त्वविवित्सया॥९॥ वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्वयोरपि॥ एक एव चरेत्तस्मात्कुमार्या इव कंकणः॥१०॥

उसकी चूडियोंका बडा शब्द होनेलगा॥६॥ वह कन्या आप धान कूटना निंदित दरिद्रका कर्म जान क्रमसे एक एक चूड़ी उतारने लगी केवल हाथमें दो दो चूड़ी रक्खीं॥७॥ परन्तु धान कूटनेमें दो दो चूडियोंका भी शब्द होनेलगा जब उसने उनमेंसे भी एक एक उतारदी तब एक एकमेंसे शब्द न हुआ॥८॥ हे शत्रुनाशक! लोकोंको तत्त्व जाननेकी इच्छासे सर्वत्र फिरते मैंने एकदिन कुमारी इसप्रकार धान कूटती देखी तब यह उपदेश उससे सीखा॥९॥ बहुतोंका जहाँ वास होय वहाँ अवश्य कलह होता है, जो दो होयँ तो आपसमें बातें तो भी करें इसलिये अकेला ही

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*शंका—

उद्धवजीसे श्रीकृष्णने कहा था कि बालकोंके मनमें चिन्ता नहीं रहतीं इसमें हमको यह शंका है कि, जो बालकोंको चिन्ता न होती तो जन्महीसे क्यों रोते हैं, जिससमय माताके उदरसे पृथ्वीपर गिरते हैं उसी कालसे राति दिन रोते हैं, जो प्राणी चिन्तासे रहित है उनको रोनेसे क्या प्रयोजन? और बालकका तो जबतक बालपन रहता है, तबतक रोते हैं?

*उतर—

ज्ञानकी वार्त्तामें सज्जन लोग बालकको बालक नहीं कहते पंडित लोग बालक उसको कहते हैं कि, जो प्राणी संसारकी तथा अपने कुलकी लाजको तथा भयको त्यागदे इसप्रकार पण्डितोंके वचनके प्रमाणसे कृष्णचन्द्र मी उसी बालकको कहते हैं कि, चिन्ता नहीं रहती, जन्मलिये बालकको नहीं कहते।

विचरण करे, जैसे कुमारीका कंकण (२०)॥१०॥ अब बाण बनानेवालेसे जो सीखा है सो कहते हैं, मनको ईश्वरमें स्थिरकर प्राणोंको वशकर आसन जीते, वैराग्यके अभ्याससे मन स्थिरकर सावधान रहे॥११॥ गुण और तिनके कार्य रहित यह मन परमानन्दरूप भगवान् विषे जब स्थान पावे, तब शनैःशनैः कर्मवासना छोडेजब इसको सत्तोगुण बढे, तब रजोगुण, तमोगुणको दूर करके ब्रह्ममें लीन होय,तब ब्रह्मविना और कुछ दृष्टिमें नहीं आता॥१२॥इस प्रकार जब आत्मासे चित्त मिलजाय, तब बाहर भीतरका भेद नहीं रहता, सब एकरूपसे दीखते हैं, जैसे बाण बनानेवालेका चित्त बाण बनानेमें ऐसा लगाथा कि, निकट होकर सेनासमेत राजा चलागया परन्तु उसने न जाना, ऐसेही साधुओंको चाहिये

मन एकत्र संयुंज्याज्जितश्वासो जितासनः॥ वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतंद्रितः॥११॥ यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेतच्छनैःशनैर्मुंचति कर्मरेणून्॥ सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च विधूय निर्वाणमुपैत्यनिधनम्॥१२॥ तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो न वेद किंचिद्बहिरंतरं वा॥ यथेषुकारो नृपतिं व्रजंतमिषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे॥१३॥ एक चार्यनिकेतः स्यादप्रमत्तो गुहाशयः॥ अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरेकोऽल्पभाषणः॥१४॥ गृहारंभोहि दुःखाय विफलश्च ध्रुवात्मनः॥ सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते॥१५॥ एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया॥ संहृत्य कालकलया कल्पांत इदमीश्वरः॥१६॥

कि, ईश्वरमें ऐसा मन लगावें जो और कुछ सुधि न रहे (२१)॥१३॥ अब सर्पसे जो सीखा है सो कहते हैं जैसा सर्प सब लोकोंसे डरताहुआ इकलाही रहता है, एकही ठौर घर बनाकर नहीं रहता सदा सावधान रहता है, एकान्तहीमें रहता है, दूसरेकी सहायता न चाहे अपनी गति दूसरेसे छिपाये रक्खे है, और विष निर्विष जाननेमें नहीं आता ऐसा रहता है, थोड़ा बोलता है, इसीप्रकार मुनियोंको रहना चाहिये॥१४॥ यह देह अनित्य है इसके लिये घर न कीजे घर दुःखका रूप है और फल कुछ नहीं है, जैसे साँप परायेघरमें प्रविष्ट होकर सुखसे बैठे वैसे, परन्तु आप घर न करे॥१५॥ एक नारायण देव ईश्वर आप इस विश्वको अपनी मायासे सृजते हैं, फिर प्रलयमें कालशक्तिसे संहार करके आपहीरखते हैं॥१६॥

तब एक अद्वितीय आत्मा आधार सबोंका आश्रयहो आपही एक रहता है, वे अपने इस समतारूप कालसे सत्तोगुण आदि शक्ति मायामें लीन करता है वही आदिपुरुष माया और पुरुषके ईश्वर हैं॥१७॥ ब्रह्मादिक और मुक्त पुरुषोंके पाने योग्य हैं, मोक्षके रूप केवल अनुभव आनंदके पात्र निरुपाधि अनन्त हैं॥१८॥ हे शत्रुनाशक! जब सृष्टि उत्पन्न करते हैं, तब केवल अपने प्रभावसे त्रिगुण अपनी मायाको क्षोभ उपजाय उस मायासे पहले सूत्ररूप महत्तत्त्व उपजाते हैं॥१९॥ उससे त्रिगुणरूप विश्व अहंकार द्वारा होता है, जिस महत्तत्त्वमें यह विश्व बँधा है, जिस प्राणसूत्रसे पुरुष संसारको प्राप्त होते हैं(२२)॥२०॥ अब मकरीकी शिक्षाका दृष्टान्त कहते हैं, जैसे मकरी अपने हृदयसे उगलकर

एक एवाद्वितीयोऽभूदात्माधारोऽखिलाश्रयः॥ कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु॥ सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः॥१७॥ परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः॥ केवलानुभवानंदसंदोहो निरुपाधिकः॥१८॥ केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम्॥ संक्षोभयन्सृजत्यादौ तथा सूत्रमरिंदम्॥१९॥ तामाहुस्त्रिगुणव्यक्तिं सृजंतीं विश्वतोमुखम्॥ यस्मिन्प्रोतमिदं विश्वं येन संसरते पुमान्॥२०॥ यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णांं संतत्य वक्त्रतः॥ तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः॥२१॥ यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया॥ स्नेहाद्द्वेषाद्भयाद्वापि याति तत्तत्सरूपताम्॥२२॥ कीटः पेशस्कृतं ध्यायन्कुड्यांतेन प्रवेशितः॥ याति तत्सात्मतां राजन्पूर्वरूपमसंत्यजन्॥२३॥ एवं गुरुभ्य एतेभ्य ऐषा मे शिक्षिता मतिः॥ स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं शृणु मे वदतः प्रभो॥२४॥

तागा मुखसे निकाल फैलाय उससे क्रीड़ाकर फिर निगलजाती है, इसीप्रकार ईश्वर स्वयं इस जगत्को बनाय फिर संहार करते हैं॥२१॥ यह जीव स्नेहसे द्वेषसे अथवा भयसे बुद्धि कर जहाँ जहाँ एकाग्र मन धारण करता है और उसी उसी रूपको प्राप्त होता है, इसलिये जो ईश्वरका ध्यान करें तो ईश्वररूप होवे इसमें क्या आश्चर्य है (२३)॥२२॥ हे राजन्! जैसे भृंगीने भींतमें रक्खा कीट भृंगीका ध्यान करते २ उसी देहसे उस रूपको प्राप्त करता है (२४)॥२३॥ इसप्रकार इतने गुरुओसे मैंने यह मति सीखी परन्तु हे राजन्!एक बुद्धि अपनी

देहसे सीखी है, सो मैं कहताहूं तुम सुनो॥२४॥ देह मेरा गुरु है, क्योंकि इस देहसे मुझे वैराग्य और विवेक उत्पन्न हुआ है, यह देह पीड़ा सहित सदा जन्म मरणको धारण करता है, इस देहसे यथार्थ तत्त्वोंका विचार करनेसे मुझे वैराग्य हुआ है, तो भी मैं इसपर प्रीति नहीं करता, क्योंकि यह कुत्ते और स्यारका भक्ष्य है यह निश्चय कर सर्व संग रहित हो विचरताहूं॥२५॥ जिस देहको प्रसन्न करनेकी इच्छासे स्त्री, पुत्र, धन, पशु, दास, गृह, बंधुके समूहोंका पोषण करते हैं और बहुत कष्टसे धन संचय करते हैं; इतनेपर भी अंतमें यह देह आपही नाश होजाता है, फिर देहके जानेपर भी दुःख नहीं जाता, दूसरे देहका कर्मबीज उपजाये जाता है, उस कर्मसे फिर दुःखरूप देह इसप्रकार उत्पन्न होजाता है, जिस

देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुर्बिभ्रत्स्म सत्त्वनिधनं सततात्युदर्कम्॥ तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसंगः॥२५॥ जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षिषया वितन्वन्॥ स्वांते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः सदेहः सृष्ट्वाऽस्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा॥२६॥ जिह्वैकतोमुमपकर्षति कर्हि तर्षा शिश्नोन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्॥ घ्राणोन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनंति॥२७॥ सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्॥ तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥ लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवांते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः॥ तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यवान्निःश्रेयसायविषयः खलु सर्वतः स्यात्॥२९॥

प्रकार रूख अपना बीज छोड़ता है, उससे फिर रूख उत्पन्न होजाता है॥२६॥ और इस देहको एक ओरसे जिह्वा रसके लिये खैंचती है, शिश्न स्त्रीसंगके लिये खैंचता है, त्वगिन्द्रिय एक ओरसे स्पर्शके लिये खैंचेहै, श्रवण शब्दके लिये खैंचते हैं और प्राण गंधके लिये खैंचते हैं चंचलदृष्टि रूपके लिये खैंचती है, कहीं कहीं कर्मशक्ति अपने विषयके लिये खैंचती हैं, जैसे बहुत सौत गृहस्थको लूटती हैं, इसीप्रकार यह सब इन्द्रियें देहको लूटती है॥२७॥हे देव!अपनी शक्ति मायासे वृक्ष, सर्प, पशु, पक्षी, डांस, मछरी अनेक प्रकारके शरीरोंको उपजाकर ब्रह्मा संतुष्टहृदय न हुए परंतु ब्रह्मज्ञानकी बुद्धि रखनेवाले मनुष्योंकी देह रचकर आनन्दको प्राप्त हुए॥२८॥ उससे यह अतिदुर्लभ मनुष्यदेह अनेक जन्मों पीछे पाया है

पुरुषार्थका दाता है, पर अनित्य है, यह जानकर शीघ्र मोक्षके लिये जबलों मृत्यु न हो शीघ्र यत्न करे क्योंकि विषय तो इसको सब योनिमेंहोंगे॥२९॥ इसप्रकार जब मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ और ज्ञानका प्रकाश हुआ, तब आत्मनिष्ठ हुआ, इसलिये संग और अहंकार छोडकर मैं पृथ्वीपर फिरताहूं॥३०॥ यदि कहो कि, तुमने बहुत गुरु क्यों किये? गुरु तो एक करना चाहिये तो कहते हैं कि एक गुरुसे अति निश्चल ज्ञान विस्तारको प्राप्त नहीं होता है, इसलिये अद्वितीय ब्रह्मको ऋषि निश्चल बहुत भाँतिसे कहते हैं, कोई कहते हैं वह प्रपंचरहित है, कोई कहते हैं सप्रपंच है, जिससे भ्रम उत्पन्न होता है, सो भ्रम इन गुरुओंसे निवृत्त होजाता है, परमगुरु, मुख्य ज्ञानका देनेवाला एकही है, परन्तु ज्ञानके लिये पीछे

एवं संजातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि॥ विचरामि महीमेतां मुक्तसंगोऽनहंकृतिः॥३०॥ न ह्यकस्माद्गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम्॥ ब्रह्मैतदद्वितीयं हि गीयते बहुधर्षिभिः॥३१॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्युक्त्वा स यढुंविप्रस्तमामंत्र्य गभीरधीः॥ वंदितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम्॥३२॥ अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः॥ सर्वसंगविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे नवमोऽध्यायः॥९॥

अपनी बुद्धिसे उपदेशके अनुकूल दृष्टान्त लेनेसे वह ज्ञान दृढ़ होजाता है॥३१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! इतना वृत्तान्त कह यदुकी आज्ञाले और गंभीर बुद्धिवाले राजासे प्रणामको प्राप्त हो उसको स्वीकार कर प्रसन्न हो अवधूत अपनी इच्छासे जैसे आये थे वैसेही चलेगये॥३२॥ यह अवधूत दत्तात्रेय हैं, इनकेही वचन सुन हमारे बडोंके भी बडे राजा यदु सब संग छोड समचित्त होगये, यह सब श्रीभगवान्नेउद्धवजीसे कहा और कपोत, मत्स्य, मृग, कुमारी, हाथी, सर्प, पतंग, कुरर, यह आठ तो त्यागके लिये गुरु किये, भ्रमर, मधुहा, पिंगला यह तीनों त्याज्य और ग्राह्य अर्थके लिये गुरु किये॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां अवधूतोपाख्याने नवमोऽध्यायः॥९॥

दोहा—दशवें तनु सम्बन्धसे, है सिगरो संसार॥ तत्त्वज्ञानसे होत है, साधन और विचार॥१॥ श्रीभगवान्बोले कि हे उद्धव! मेरे कहे स्वधर्मोंमें सावधान होकर मेरा आश्रय करेऔर वर्ण आश्रम कुलका आचरण निष्काम होकर करे॥१॥ जब अंतःकरण शुद्ध होजाय तब पुरुषको उचित हैकि, विषयोंमें लगेहुए प्राणी जो विषयोंको निश्चल मानकर उद्योग करते हैं, उनके कार्योंके फल विपरीत होते हैं, उनको विचारता रहेइससे निष्कामता प्राप्त होती है॥२॥ जो विषय इन्द्रियोंसे जाने जाते हैं, वह सदा नहीं रहते इसीसे वह अनेक प्रकारके प्रतीत होते हैं और जो अनेक प्रकारके हैं, वह अध्रुव हैं, जिसप्रकार मनसे उत्पन्न हुए स्वप्न और मनोरथ अनेक होनेसे चल हैं, ऐसा अनुमान करनेसे निष्कामता प्राप्त होती है॥३॥ निष्काम कर्म करे सकामका त्याग करे मुझमें तत्पर हों, आत्माके विचारमें रहे, कर्मकी विधिमें

श्रीभगवानुवाच॥मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः॥ वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्॥१॥ अन्वीक्षत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्॥ गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारंभविपर्ययम्॥२॥ सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः॥ नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः॥३॥ निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्॥ जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम्॥४॥ यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परः क्वचित्॥ मदभिज्ञं गुरुं शांतमुपासीत मदात्मकम्॥५॥ अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः॥ असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्॥६॥ जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु॥ उदासीनः समं पश्यन्त्सवष्वर्थमिवात्मनः॥७॥

आदर करे॥४॥ जो मेरे विषे तत्पर होकर आदरपूर्वक संयमोंको सेवे और जब सामर्थ्य होय तो शौचादिक नियमका सेवन करेइससे भी विशेष धर्म यह है कि, सहनशील हो, मेरे स्वरूपको जानता हो शांत हो सो मेराही रूप है ऐसे गुरुकी सेवा करे॥५॥अभिमान न रक्खे आलस्य न करेअसहनता न करे, स्त्रीपुत्रादिकमें ममता न करे, गुरुओं सुहृदता रक्खे, कर्ममें व्यग्रचित्त न करे, परमार्थ जाननेकी इच्छा करे, किसीकी निन्दा न करे, व्यर्थ बातें न करे॥६॥ स्त्री, सम्पत्ति, घर, खेत, स्वजन, धन इत्यादि सबसे उदासीन रहै, क्योंकि सबमें एकही आत्मा है इससे अपनीही भाँति सबोंमें सुखादिक समान देखे॥७॥

यह आत्मा स्थूल सूक्ष्म देहसे भिन्न है, सबका द्रष्टा है, व्यापक है, स्वयं ज्ञानवान् है, आकाशवत् है, जैसे अग्नि दाह्य काष्ठके मध्यही रहता है, परन्तु काष्ठसे भिन्न है, प्रकाशक है और काष्ठको दाह कर्ता है॥८॥ जैसे काष्ठमें प्रविष्ट अग्निकाष्ठके संगसे उत्पत्ति, नाश, अल्पता, महत्त्व, नानात्व गुणको धारण करती है और जैसे यह आत्मा भी इस देहके संगसे देहके गुणोंको धारण करता है, पर देहसे आत्मा भिन्न और अमर है॥९॥ यदि कोई कहै कि जो देहसे आत्मा भिन्न है, तो देहके गुण क्यों धारण करता है? तो उत्तरमें इसके कहते हैं कि, ईश्वरके अधीन मायाके गुणसे पुरुषकाय सूक्ष्म स्थूल शरीर उपजायाहुआ है, जिस देहमें अहं यह अभिमान करनेसे संसारमें गिरता है, जिस देहको मेरा यह संसार काटनेको आत्मविद्या उपाय है॥१०॥ इसलिये आपहीमें स्थित देहके भिन्न आत्मा ज्ञानकी इच्छासे आत्मामें चित्त मिलाय क्रमसे स्थूल सूक्ष्म

विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक्॥ यथाग्निर्दारुणो दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः॥८॥ निरोधोत्पत्त्यणु बृहन्नानात्वं तत्कृतान्गणान्॥ अंतःप्रविष्ट आधत्ते एव देहगुणान्परः॥९॥ योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरषस्य हि॥ संसारस्तन्निबंधोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः॥१०॥ तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवलं परम्॥ संगम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम्॥११॥ आचार्योऽरणिराद्यः स्यादंतेवास्युत्तरारणिः॥ तत्संधानं प्रवचनं विद्यासंधिः सुखावहः॥१२॥ वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धिर्धुनोति मायां गुणसंप्रसूताम्॥ गुणांश्च संदह्ययदात्ममेतत्स्वयं च शाम्यत्यसमिद्यथाग्निः॥१३॥

देहादिकोंमें आत्मबुद्धिको छोडे॥११॥ यह ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है? सो कहते हैं, आचार्य रूप नीचेकी अरणी शिष्यरूप ऊपर की अरणी तथा उपदेशरूप मंथनका काष्ठ इनसे ब्रह्मविद्यारूप परमसुखदायक अग्नि उत्पन्न होती है॥१२॥ जिस समय बुद्धिमान् गुरुसे चतुर बुद्धिवाला शिष्य यह विद्या पाता है, तब यह विद्या गुणोंका कार्यरूप संसारकी ओर जिनसे निर्मित होकर यह जगत् जीवके संसारका निमित्तरूप होता है, उन गुणोंको भस्मकर काष्ठरहित अग्निके समान आप भी शांत होजाता है, इसीप्रकार कार्य, कारण और विद्याकी एकता होनेसे जीव परमानन्दरूप होता है॥१३॥

श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! आत्मा स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप नित्य और एक है इसमें कर्त्ता भोक्ता धर्म देहकी उपाधिसे प्राप्त होते हैं, आत्माके अतिरिक्त और पदार्थ मायारचित हैं, इससे विरक्त हो पुरुष मुक्तिको प्राप्त होता है, परन्तु मीमांसक कहते हैं कि, मैं हूँ ऐसा प्रतीत करनेवाला आत्मा प्रत्येक शरीरमें भिन्न है वही कर्म कर्त्ता और सुख दुःखका भोक्ता है इसका स्वरूपभूत कोई दूसरा निर्विकार परमात्मा नहीं है, भोगके स्थान रूप लोक, भोगका काल भोगरूप कर्मोंका बतानेवाला वेद भोगके साधन और भोग भोगनेवाला आत्मा यह अनित्य होवें तो वैराग्य होना संभव है परन्तु वह सब नित्य हैं, इससे वैराग्य होना संभव नहीं, भोग्य पदार्थबीचमें नष्ट होजाते हैं अथवा मायामय होवें, तोभी वैराग्य होना संभव है॥१४॥ माला, चन्दन, आदि भोगोंकी स्थिति प्रवाहरूपसे नित्य है और यथार्थ है, इससे वैराग्य होना असंभव है, क्योंकि जिस दशामें यह संसार देखा जाता है, उस दशामें पहले भी था इसकारण जगत्का कर्त्ता कोई ईश्वर नहीं आत्मा स्वयं नित्य ज्ञानमय नहीं है,

अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः॥ नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम्॥१४॥ मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा॥ तत्तदाकृतिभेदेन जायते विद्यते च धीः॥१५॥ एवमप्यंग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः॥ कालावयवतः संति भांवा जन्मादयोऽसकृत्॥१६॥ अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातंत्र्यं च लक्ष्यते॥ भोक्तुश्च दुःखसुखयोः कोन्वर्थो विवशे भजेत्॥१७॥

उसमें अनेक ज्ञानका विपर्यास होता है, एक क्षणमें घटका ज्ञान नष्ट होकर पटका ज्ञान होता है, इस प्रकार अनेक ज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं, पूर्व ज्ञानसे पृथक् होजाता है, इससे आत्मा नित्य ज्ञानमय नहीं सो कहते हैं कि, ज्ञानका विपर्यास होनेसे क्या आत्मा अनित्य होजाता है? नहीं आशय यह है कि ज्ञानरूप विकार आत्मामें कुछ बाधा नहीं करसक्ता, मुक्तिमें आत्मा इंद्रियरहित है, इससे उसमें ज्ञानका परिणाम न होनेके कारण जड़ता होजायगी इसमें मुक्तिकी प्राप्ति होना पुरुषार्थ रूप नहीं प्रवृत्ति मार्गही इससे श्रेयस्कर है निवृत्ति नहीं॥१५॥ हे उद्धव!सत्य प्रवृत्तिमार्ग ऐसाही है, परन्तु आगे अनर्थका हेतु है, इन देहियोंको देहके संयोगसे संवत्सररूप कालसे जन्ममरणादि भाव बारम्बार होते हैं॥१६॥ तुम्हारे मतहीमें कर्मोंके कर्त्ताओंको और सुखदुःखके भोक्ताओंको पराधीनता देखी जाती है, इसलिये ऐसे परवशका जो भजन करता है,

वह क्या सिद्ध है? और जीव स्वतंत्र हो तो उसे दुष्टकर्म वा दुःखकी प्राप्ति संभव नहीं हो सकती॥१७॥ इस प्रकार इसलोकमें तो सुख कहीं नहीं और लोकोमें भी सुख नहीं सो कहते हैं, ईर्षा, निंदा, नाश होनेसे स्वर्गादिकमें भी कर्मोकी विधिके जाननेवाले विद्वान् अभिमानीको किंचित् सुख प्राप्त नहीं होता, उसीप्रकार मूर्खोको दुःख देखनेमें नहीं आता, जो कहते हैं कि, हम कर्ममें निपुण हैं, इससे सुखी हैं, यह उनका वृथा अहंकार है, इससे श्रेष्ठ कर्म करनेसे सुख मिलता है, यह नियम भी न रहा॥१८॥ और जो कदाचित् सुखदुःखकी प्राप्ति और विघात अर्थात् नाशको जानते हैं परन्तु इस उपायको वह भी नहीं जानते, जिससे साक्षात् मृत्यु न हो॥१९॥ क्योंकि जब मृत्यु अपने निकट है, तो अर्थ अथवा कामके प्राप्त होनेसे कौन सुखी होसक्ता है? जैसे अपराधीको मारनेको लेजाते हैं, उससमय उस पुरुषको अर्थ कामादि सुख नहीं देते॥२०॥

न देहिनां सुखं किंचिद्विद्यते विदुषामपि॥ तथा च दुःखं मूढानां वृथाहंकरणं परम्॥१८॥ यदि प्राप्तिं विघातं च जानंति सुखदुःखयोः॥ तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा॥१९॥ कोन्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरंतिके॥ आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः॥२०॥ श्रुतं च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः॥ बह्वंतरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम्॥२१॥ अंतरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः॥ तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु॥२२॥ इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः॥ भुंजीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान्॥२३॥ स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते॥ गंधर्वैर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक्॥२४॥

इस प्रकार जैसे यहाँ सुख नहीं ऐसेही परलोकमें भी नहीं है, स्वर्गादिकमें भी पराये सुखकी असहनता और ईर्षादिक रहती हैं, इससे यहाँके समान वहाँ भी दोष है, जैसे कृषीके सफल होनेमें अनेक विघ्न होते हैं ऐसेही यजनसे मिलनेवाले स्वर्गमें भी भूल चूकके अनेक विघ्न होते हैं॥२१॥ इतने पर विघ्नको निवारणकर जो धर्म अच्छी भांति करे, उन धर्मोंसे प्राप्त होनेवाले स्थानोंमें जैसे यह प्राणी जाते हैं, सो सुनो॥२२॥ इसलोकमें देवताओंको यज्ञसे संतुष्टकर यज्ञके कर्त्ता स्वर्गमें जाते हैं और देवताओंके समान अपने उपार्जन किये हुए दिव्यभोग करते हैं॥२३॥ और वहाँअपने पुण्यसे प्राप्तहुए उत्तम विमानमें बैठ सुन्दर वेष धरे, अप्सराओंके विषे विहार करते फिरते हैं, गंधर्व उनकी बडाई करते हैं॥२४॥

किंकिणि अर्थात् घुँघुँरुओंके समूहसे शोभित और मनकी रुचिके अनुसार चलनेवाले विमानमें बैठ सुखको प्राप्त हो देवताओंके बागोंमें देवस्त्रियोंके संग विहार करते फिरते हैं, परन्तु आत्मपातको नहीं जानते हैं *॥२५॥ स्वर्गमें वहाँतक सुख करते हैं, जहाँतक पुण्य पूर्ण हो जब पुण्य क्षीण होजाता है, तब कालसे अनचाहत नीचे डालदिये जाते हैं॥२६॥ यह फल जो सकाम कर्म करता है, उसको है, तहाँ भी जो निषिद्ध प्रकार न करे जब हो, और जो असत् संग करेतो अधर्मी हो, जितेन्द्रिय न हो, स्त्री लंपट हो, कामहीमें चित्त हो, प्राणियोंको दुःख देताहो

स्त्रीभिः कामगयानेन किंकिणीजालमालिना॥ क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः॥२५॥ तावत्प्रमोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते॥ क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कालचालितः॥२६॥ यद्यधर्मरतः संगादसतां वाऽजितेंद्रियः॥ कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥२७॥ पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्॥ नरकानवशो जंतुर्गत्वा यात्युल्वणं तमः॥२८॥ कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः॥ देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः॥२९॥ लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्॥ ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः॥३०॥

लोभीहो, कृपण हो॥२७॥ और जो अविधिसे पशुओंको मारकर भूत प्रेतगणको पूजते हैं, ऐसे जीव परवश हो नरकमें पडे स्थावरके भावको प्राप्त होते हैं॥२८॥ उन कर्मोंमें दुःखही फल है, ऐसे कर्मोंको देहसे करते मरे पीछे फिर उन कर्मोंसे दुःख भोगकर वैसाही देह धरते हैं, इसलिये जो मरेगा उसको क्या सुख है॥२९॥ यद्यपि लोकपाल कल्पपर्यन्त जीते हैं, परन्तु तो भी उनको मुझ कालरूपसे भय रहता है

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** शंका—**श्रीकृष्ण भगवान्ने उद्धवसे कहा था कि, ईर्षा, निन्दा आदि लेकर जो खोटे कर्म हैं, उन खोटे कर्मोंसे वेदोंके वचन नष्ट होगये, इसमें यह शंका होती है कि, ईर्षाआदि जो बुरे कर्म सो सत्ययुग त्रेता, द्वापरमें भी थे?

उत्तर— शास्त्रमें लिखा है कि, भगवान्की देहमें धर्म और अधर्म दोनों रहते हैं, सत्ययुगमें अथवा और युगोंमें थोडा बुराकर्म भगवान्की देहमें रहता है और किसी युगमें अधिक रहता है, क्योंकि युगोंकी मर्यादा पालन करनेके लिये दूसरी वात मत जानना, इसलिये कृष्णचन्द्रने उद्धवजीसे कहा था।

और कल्पपर्यंत जीनेवाले लोकपालोंको भी वह भय रहता है, और मेरे भयसे यह सब देवता अपना अपना काम करते हैं, ब्रह्माकी आयु दोही परार्द्ध है, परन्तु उसे भी मौतका डर है॥३०॥ कर्म कुछ ईश्वर नहीं, ईश्वर नियंता फलका दाता मैं हूं परन्तु मुझसे और उन कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं कर्मका सम्बन्ध इस देहसे है, सो प्रकार बताते हैं,प्रथम इन्द्रियें कर्मोंसे सृजी हैं, गुण-सत्तोगुण, राजोगुण, तमोगुण, यह इन्द्रियोंको सृजते हैं, आत्मा कुछ नहीं करता है, पर यह जीव तो इन्द्रियोंके संगसे अहंकर्त्ताअभिमान धारण करता है, इसलिये कर्मोंके फल भोगता है॥३१॥ यदि कहो कि, यह आत्मा अनेक क्यों दिखाई देते हैं, आत्मा तो एकही सुना है, तो कहते हैं कि, इन गुणोंके धर्मसे जबतक अहंभाव है तबतक अनेक प्रतीत होते है और जब यह मायाके गुण छूट जायँगे, तब आत्मा एकही दिखाई देगा और जहांतक उसे आत्मा अनेक

गुणाः सृजंति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्॥ जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुंक्ते कर्मफलान्यसौ॥३१॥ यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः॥ नानात्वमात्मनो यावत्पारतंत्र्यं तदैव हि॥३२॥ यावदस्याऽस्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतोभयम्॥ य एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यंति शुचार्पिताः॥३३॥ काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च॥ इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति॥३४॥ उद्धव उवाच॥ गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः॥ गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो॥३५॥

लगते हैं, तभी लों पराधीन भी हैं॥३२॥ जबलों इसे पराधीनता है, तबलों ईश्वरका भय है, इसप्रकार प्रवृत्ति मार्गमें दोष है, इसका जो सेवन करते हैं, सो मोहमें पड़े शोकही युक्त हैं॥३३॥ काल, आत्मा, शास्त्र, लोक, स्वभाव, धर्म, यह नाम गुण तो सम्बन्धसे कहे, परन्तु गुणसम्बन्ध छूटनेपर यह मेरेही स्वरूप हैं सब मैंही हूं, मायाके सम्बन्धसे अनेक रूप दीखते हैं, इससे निवृत्तिमार्गही उत्तम मुक्तिका कारण है॥३४॥ उद्धवजी बोले कि, हे भगवन्! यद्यपि यह आत्मा गुणोंसे मिला हुआ है, परन्तु तोभी गुणका कार्य सुख दुःख कर्मसे बद्ध नहीं है, इसलिये आकाशकी भाँति सर्वत्र व्यापक है और निर्लेप है, आवरणरहित तुम्हारे मतमें आत्मा एकही है, तो वह कैसे बंधनमें आता है? कि, जिससे उसे मुक्तिकी अपेक्षा होती है

सो कहिये॥३५॥ और बँधनके पीछे किस प्रकारसे रहे, जब मुक्ति होजाय तब किस प्रकार रहे! सो कहो किस भाँति रहे कैसे आहारविहार करे, किस लक्षणसे जाना जाय? क्या भोजन करे? क्या छोड़े? कहां सोवे? कैसे बैठे? कहां जाय? यह दोनों किन लक्षणोंसे दूसरोंके जाननेमें आवे सो कहो,॥३६॥ हे अच्युत! हे विदाम्बर!इसके उपरान्त मेरे मनमें एक और संदेह है कि, एकही आत्मा शरीरादिकोंके अनादि संबंधके कारण अनादिकालसे बद्ध है, इस प्रकार निश्चय करना पड़ता है और इसभाँति निश्चयकर फिर उसको मोक्ष होजाता है इसप्रकार निश्चय करे तो मुक्ति उत्पन्न हुई मुक्ति होनेके कारण मुक्तिमें अनित्यता आजाती है, इसलिये वह आत्मा निरंतर मुक्तही है ऐसा भी मानता पड़ता है तब एकके समयमेंही बद्धत्व और मुक्तत्व यह दोनो एक संग होने कैसे संभव होसक्ते हैं इस प्रश्नका उत्तर कृपापूर्वक दीजिये॥३७॥ इति श्रीभागवतेमहापुराणे एका

कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः॥ किं भुंजीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा॥३६॥ एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर॥ नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रमः॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः॥१०॥ श्रीभगवानुवाच॥ बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः॥ गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बंधनम्॥१॥ शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया॥ स्वप्नो यथात्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी॥२॥ विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्॥ मोक्षबंधकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते॥३॥ एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते॥ बंधोऽस्याविद्ययाऽनादिर्विद्यया च तथेतरः॥४॥

दशस्कंधे भाषाटीकायांभगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः॥१०॥ दोहा— इस ग्यारह अध्यायमें, बद्ध मुक्तका ज्ञान। साधु संत अरु भक्तिके, लक्षण कहोंबखान॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धवजी! आत्मा बद्धमुक्त है यह कथन मेरे गुणसंबंधसे है सत्य नहीं गुणका मूल माया है, मैं तो मायाका नियंता हूं इसलिये मुझे न बन्ध है न मोक्ष है॥१॥ हे उद्धव!मुझे मोह सुख दुःख देहको प्राप्त यह सब संसारके धर्म मायासे होते हैं, जैसे स्वप्नसे बुद्धिका विवर्त्त है इसीप्रकार संसार है सत्य नहीं है॥२॥ हे उद्धव! एक विद्या दूसरी अविद्या यह दोनो मेरी मायासे रची हैं मेरी देहरूप शक्ति है अनादि देहधारियोंको मोक्ष और बंधन करती हैं॥३॥ हे महाबुद्धिमान् उद्धव! यह सब मेराही

एक अंश जीव है उसे अविद्यासे अनादि बंध है विद्यासे मोक्ष है मुझे तो न बंधन है न मोक्ष है॥४॥ अब इसका भेद बताते हैं परस्पर आत्मा और परमात्मा विरुद्ध धर्म होकर एकही देहमें स्थित हैं, इनमें एक तो जीव ईश्वरका भेद, दूसरे जीवसे जीवका भेद यह दो भेद हैं एक शरीरमें स्थित जीव ईश्वरमें ईश्वरका धर्म आनंद और जीवका धर्म दुःख है एक नियंता ईश्वर एक जीव है देहाभिमान धरे बद्ध हैं इन दोनोंका भेद दृष्टान्तसे कहते हैं॥५॥ दोनों पक्षी हैं चैतन्यरूपसे समान हैं दोनों मित्र हैं, अपनी इच्छासे एक देहरूप वृक्षके ऊपर आन बैठे हैं, इनमें एक तो इस देहके फलको भोग करता है, दूसरा साक्षी हुआ देखता है,भोग नहीं करता, तो भी ज्ञानशक्तिसे अतिबलिष्ठ है, इस भाँति एकही रूपके दोनों विरुद्ध कर्म करते हैं॥६॥ जो परमात्मा ईश्वर साक्षी ज्ञाता है वह अपने स्वरूपको और जीवके स्वरूपको भी जानता है और जो जीवात्मा है

अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते॥ विरुद्धधर्मिणोस्तान् स्थितयोरेकधर्मिणि॥५॥ सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे॥ एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नमन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान्॥६॥ आत्मानमन्यं च स वेद विद्वानपिप्पलादो न तु पिप्पलादः॥ योऽविद्यया युक्स तु नित्यबद्धोविद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः॥७॥ देहस्थोपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थितः॥ अदेहस्थोपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग्यथा॥८॥ इंद्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च॥ गृह्यमाणेष्वहं कुर्यान्न विद्वान्यस्त्वविक्रियः॥९॥

सो न आपको जानते हैं न ईश्वरको जानते हैं वह अज्ञ हैं, इसलिये जो अविद्यासे मिला हैं, सो नित्य बद्ध है, जो विद्यासे संयुक्त है, सो नित्यमुक्त है॥७॥ ज्ञानकी विलक्षणता कहकर स्थितिकी विलक्षणता कहते हैं वही पण्डित हैं जो अपने स्वरूप और परमात्माको जानते हैं, सो यद्यपि देहहीमें हैं परन्तु देहसे न्यारे हैं देहके धर्म उसे व्याप्त नहीं जैसे स्वप्नसे उठेको स्वप्नको देहके धर्म नहीं लगते जो अज्ञानी हैं सो यद्यपि वस्तुसे और देहसेअलगही हैं परन्तु देहके अभिमानसे देहमें स्थित हैं सुख दुःखको भोग करते हैं, जैसे स्वप्नके देहमें स्थित स्वप्नके सुख दुःख भोगते हैं॥८॥ और भी विलक्षणता कहते हैं यद्यपि इन्द्रिय अपने विषयोंको ग्रहण करती हैं परन्तु तोभी रागद्वेषादि रहित मुक्तपुरुषमें इन विषयोंको भोगता हूं ऐसे नहीं मानते हैं इसका कारण यही है कि विषयोंको जो इन्द्रिय स्वीकार करती हैं वह गुणोंके कार्यको गुणही ग्रहण करते हैं ज्ञानी

उससे आपको निर्लेप मानते हैं॥९॥ यह देह पूर्वकर्मके अधीन है, उस देहमें स्थित इन्द्रिय अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं तहाँ मैंकर्त्ताहूं, इस अभिमानसे यह आत्मा बँधजाता है, यह अज्ञ है, शयन, आसन, गमन, स्नान, दर्शन, स्पर्शन, आघ्राण, भोजन, श्रवण यह सब इन्द्रियोंके धर्म हैं, मेरे धर्म नहीं वृथा अभिमान करनेसे बँध जाते है॥१०॥ इसप्रकार वैराग्य और विवेक जिसे हो सो वह बद्ध नहीं हो सक्ता, क्योंकि वह तो इन्द्रियोंको विषयभोग कराता है, कुछ आप नहीं करता, इसीलिये बंधनमें नहीं पडता॥११॥ यहाँदृष्टान्त देते हैं कि जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त है, पर सबसे निर्लेप है जैसे सूर्य जलादिकोंमें प्रतिबिम्बित है परन्तु तोभी कम्परूप जलके धर्मसे भिन्न है, जैसे वायु सर्वत्र फिरती है पर तोभी

दैवाधीने शरीरेऽस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा॥ वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते॥१०॥ एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने॥ दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु॥११॥ न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान्॥ प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः॥१२॥ वैशारद्येक्षयाऽसंगशितया छिन्नसंशयः॥ प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते॥१३॥ यस्य स्युर्वीतसंकल्पाः प्राणेंद्रियमनोधियाम्॥ वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोपि हि तद्गुणैः॥१४॥ यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किंचिद्यदृच्छया॥ अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः॥१५॥ न स्तुवीत न निंदेत कुर्वतः साध्वसाधु वा॥ वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः॥१६॥

निर्लेप है, इसीप्रकार आत्मा इस देहमें स्थित है और इन्द्रियोंके स्वभावसे उन उन विषयोंको ग्रहण करता है परन्तु तो भी उनसे भिन्न है॥१२॥ वैराग्यद्वारा तीक्ष्ण निर्मल ज्ञानसे सब संशय काट अनेक विधिके इस प्रपंचसे निवृत्त होवें जैसे स्वप्नसे जाग स्वप्नके धर्मोसे निवृत्त होजाते हैं॥१३॥ जिसके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी वृत्ति संकल्प विकल्प रहित होगई हैं सो देहमें स्थित है तो भी देहके धर्मोंसे मुक्त है॥१४॥ जिसका देह स्वेच्छासे दुर्जनसे पीडित हो वा किसीसे पूजित हो तो जिसको इसमें सुख दुःख न हो और कुछ विकार उत्पन्न न हो वही ज्ञानवान् है॥१५॥

रेअथवा बुरा, अच्छा कहेवा खोटा, परन्तु आप कीसीकी निन्दा स्तुति न करेलौकिक व्यवहारसे अलग रहे, और

समान दृष्टि होकर रहै, वही मुनि और मुक्त है॥१६॥ कर्मादिकोंमें उदासीन रहे, न कुछ करेन कुछ विचारे, भला बुरा मनमें न धरे, एक आत्माहीसे रमता रहे, इस वृत्तिसे जडकीसी नांई मुनि लोग फिरा करते हैं॥१७॥ मुक्त पुरुषके जो लक्षण हैं, वही मुमुक्षुके साधन हैं जो पुरुष वेदार्थमें निपुण होवह प्रथम कहे साधनोंसे वेदमें निष्ठा रखकर ईश्वरका ध्यानादिक करें तो उनका शास्त्र पढा हुआ जैसे बहुत

न कुर्यान्न वदेत्किंचिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा॥ आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः॥१७॥
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि॥ श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः॥१८॥

दिनोंकी प्रसूता गौसे फिर दूध मिलना संभव न हो तो उसके दूधकी आशावाले पुरुषके श्रमका फल केवल श्रमही होता है, इसीप्रकार क्रिया न करनेसे शास्त्राभ्यास व्यर्थ हैं *॥१८॥

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*** शंका—**शास्त्रमें और वेदोंमें ऐसा लिखा है कि, गाय चाहे, व्याती हो चाहे न व्यती हो चाहे व्यानेपरभी दूध न देती हो, चाहे, लात मारती हो परन्तु गायको तो चारा, मोदक, जल, अन्न औरअनेक प्रकारकी वस्तु खिलाकर उसकी सेवा करे और दश, मच्छर, मक्खी आदि अनेक कष्टोंसे उसकी रक्षा करना, दूध देय चाहेदूध न देय, गाय सदा कामधेनु और धर्मकी मूल है, इसका तो सेवनही करना उचित है, तो फिर उद्धवसे श्रीकृष्णने क्यों कहा कि, जो गाय दूध देना बंदकर दे अथवा वाँझ हो, जो मनुष्य ऐसी गायका पालन पोषण करेगा वह दुखसे वडा जो महादुःख है, उसको भोगेगा श्रीकृष्णके मुखका ऐसा वचन सुनके हमको अत्यन्त शंका होती है।

** उत्तर— “**गांदुग्धदोहा यो ज्ञात्वा तामरक्षति कुर्वति। स नरो दुःखदुःख वै भुनक्तीति विनिश्चितम्” इस श्लोकमें भगवान्ने नीति वर्णन की है सो सुनिये हम कहते हैं श्रीकृष्णभगवान्ने कहा था कि, जो प्राणी गायको ऐसा जानकर कि, यह गाय अब दूध नहीं देती अथवा वाँझ है, व्यायगी नहीं, ऐसा समझकर उस गायकी रक्षा करना छोडदेगा अथवा उसको खाने पीनेको नहीं देगा भूखी प्यासी रक्खेगा, तब इस लोकमें तो गायका मूल्य डूब जायगा क्योंकि पालन करता तो फिर व्याती अथवा वाँझ होती तो भी गोवर करती और अन्त समय रौरवनरकका वास होगा, इसी प्रकार जो स्त्री दुष्टा होजाय तो उसका भी पालन करना अवश्य चाहिये क्योंकि जो उसने खोटा कर्म किया तो संसारमें उस प्राणीकी निन्दा होगी और परलोकमें नरक भोगना पडेगा और जो उसका पालन करेगा तो धीरे धीरे चाहैं, ज्ञान उपदेश होनेसे सुधर भी जाय और सन्तान भी उत्पन्न होजाय फिर न जानिये कि, सन्तानमें कैसा महापुरुष निकलेऐसेही पराधीन देह समझकर हानि मानकर देहका पालन करना नहीं छोडे, क्योंकि उसका पालन न करनेसे उसका नाश होजायगा और जो शरीरका पालन करेगा तो कभी न कभी सुख होहीगा, ऐसेही धनको मानलेवे कि इस धनमेंसे मैंपुण्य नहीं करताहू यह धन किस काम आवेगा, ऐसा जानकर धनकी रक्षा करनी छोडदेगा तो चोर चोरी करके लेजायँगे, और जो धनकी रक्षा करता रहेगा तो कभी न कभी तो पुण्यही होगा ऐसेही वचनसे भगवान्का नाम नहीं लिया, ऐसे खोटे वचनको जानकर सत्संग छोडदिया तो भ्रष्ट हो जायगा और जो बिगडे वचनसे सत्संग करेगा और अच्छा प्रबन्ध करेगा तो कभी भगवान्कानाम वचनसे निकलेहीगा ऐसा नीतियुक्त अर्थ भक्त उद्धवके सामने भगवान्ने किया है यह नहीं किया कि, गायका दूध देना बन्दकरदे तो उसकी पालना नहीं करना।

हे उद्धव! जिसके दूध दुही गौ, दुष्टा स्त्री, पराधीन देह और दुष्ट प्रजा, पात्र विषे न दिया धन, मेरा नामरहित वचन इतनी बातोंवाले सदा दुःखीही रहते हैं और आगे भी दुःख पावेंगे॥१९॥ मेरा जिस वाणीमें नाम न हो वह बात न कहे, इस विश्वकी मर्यादा, जन्म, पालन, माशरूप, पावन मेरे कर्म और लीला अवतारोंके विषे जगत्का प्रिय श्रीरामकृष्णादिक जन्म जिस वाणीमें नाम न हो, उस वाणीको बुद्धिमान् पुरुष धारण न करे॥२०॥ इसप्रकार निश्चय कर आत्माविषे नानाप्रकारका भ्रम दूर कर विचारसे निर्मल मन मुझ अंतर्यामी विषे स्थिर होकर निवृत्त हो॥२१॥ जो मुझमें मन निश्चल करनेको समर्थ न होय तो सब कर्म मुझमें अर्पण करेनिरपेक्ष हो कर्म करे॥२२॥ ज्ञानमार्ग कठिन है, भक्तिमार्गहीसे कृतार्थ होगा, यह कहते हैं कि

गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यांदेहं पराधीनमसत्प्रजां च॥ वित्तं त्वतीर्थीकृतमंग वाचं हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी॥१९॥ यस्यां न मे पावनमंग कर्म स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य॥ लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्वंध्यां गिरं तां बिभृयान्न धीरः॥२०॥ एवं जिज्ञासयाऽपोह्य नानात्वभ्रममात्मनि॥ उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे॥२१॥यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्॥ मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर॥२२॥ श्रद्धालुर्मेकथाः शृण्वन्सुभद्रा लोकपावनीः॥ गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहुः॥२३॥ मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपाश्रयः॥ लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने॥२४॥ सत्संगलब्धया भक्त्या मयि मां समुपासिता॥ स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विंदते पदम्॥२५॥ उद्धव उवाच॥ साधुस्तवोत्तमश्लोकमतः कीदृग्विधः प्रभो॥ भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिरादृता॥२६॥

प्रथम तो श्रद्धासंयुक्त हो, पीछे अतिसुन्दर लोकोंके पवित्र करनेको समर्थ मेरी कथा श्रवण करे, मेरे जन्मकर्म गावे, स्मरण करे, बारम्बार वैसाही लीला करे॥२३॥धर्म, अर्थ, काम मेरे लिये करे, विषयभोगार्थ न करे मेराही आश्रय करे, हे उद्धव! तब सनातन स्वरूप मेरे विषे निश्चल भक्तिको प्राप्त हो॥२४॥इसप्रकार सत्संगकर प्राप्त हुई भक्तिसे मेरा सेवन करे तो मेरे स्थानको निश्चय प्राप्त होगा, यह मेरे पानेका मार्ग साधन करि दिखाया है॥२५॥ तब उद्धवजी साधुके और भक्तिके लक्षण पूँछने लगे कि, हे उत्तमश्लोक! हे प्रभो! साधुपुरुष कैसे होते हैं,

उनके चिह्न, क्या होते हैं और उनकी कीहुई भक्ति कैसी होती है? जिस भक्तिको आप मानते हैं और साधु आदर करते हैं॥२६॥ हे पुरुषके नियंता हे जगत्पते!मैं आपको प्रणाम करता हूँ, अनुरक्त हूँ, आपकी शरण आया हूँ, इसलिये यह सब मुझसे कहिये॥२७॥ हे भगवन्! तुम साक्षात् परब्रह्म प्रगट हुये हो, प्रकृतिसेभी परेहो;पुरुष हो अकाशकी भाँति निर्लेप हो भक्तोंकी इच्छासे रूप धारण करते हो॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव!जो पराया दुःख न देखसके और किसीसे द्रोह न करे,क्षमावंत हो, सत्यही बोले, निंदा आदि दोष रहित हो, समदृष्टि हो, सुखदुःखमें समान हो, यथाशक्ति सबका उपकार करे, सब प्राणियोंका अपराध सहे॥२९॥ काम करके बुद्धि चंचल न होय, बाहरकी इन्द्रिय जीती होय

एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो॥ प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम्॥२७॥ त्वं ब्रह्म परमं व्योमपुरुषः प्रकृतेः परः॥ अवतीर्णोसि भगवन्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्॥ सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥२९॥ कामैरहतधीर्दांतो मृदुः शुचिरकिंचनः॥ अनीहो मितभुक् शांतः स्थिरो मच्छरणो मुनिः॥३०॥ अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः॥ अमानीमानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः॥३१॥ आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान्॥ धर्मान्सत्यज्ययः सर्वान्मां भजेत स सत्तमः॥३२॥

कोमल शुद्ध चित्त होय, परिग्रही न होय, व्यर्थ कार्य न करे,भोजन थोडा करेशांत होय, स्वधर्ममें स्थित हो, मेराही एक आश्रय करे, मेराही स्मरण करे॥३०॥ सावधान रहे, निर्विकार रहे, धैर्यवन्त होवे, क्षुधा, प्यास, शोक, मोह, जरा, मृत्यु, यह सब जीते होय, अभिमानी न हो दूसरेको मान देनेवाला हो, औरके प्रबोधको समर्थ हो, सबका मित्र हो, सबका भला चाहे, दयावन्त हो, पूर्ण ज्ञानवान् हो॥३१॥ ऐसेही पुरुष साधु कहातेहैं, मेरे स्वरूपभूत वेदके धर्म करनेसे अंतःकारण शुद्ध होता है, नहीं करनेमें दोष है, यह जाननेपर भी यह धर्म स्वामीके ध्यानमें विक्षेप करने वाले हैं और जो यह धर्म मैंन करूं तो भक्तिसे ही सिद्ध दोजायँगे, इस प्रकार भक्तिकी दृढ़ताके लिये दृढ़ निश्चय कर अपने धर्मका

अधिकार रुद्ध हो जानेसे उन धर्मोंको छोडकर जो प्राणी मेरा भजन करेवह भी महात्मा है॥३२॥ तब जैसे मेरे चरित्र हैं; उसी प्रकार मुझे जान अथवा विना जाने भी जैसे होय तैसे जो कोई अनन्य भावसे मेरा भजन करते हैं, सो मेरे परमभक्त हैं॥३३॥ साधुओंके लक्षण कहकर अब भक्तिके लक्षण कहते हैं कि, मेरे चिह्न प्रतिमा आदि ले अनेक भांतिके और मेरे भक्त जनोंका दर्शन, स्पर्शन, पूजा, सेवा, स्तुति, प्रणाम, गुण, कर्म, कीर्त्तन॥३४॥ हे उद्धव! मेरी कथा श्रवण करनेमें श्रद्धा, मेरा ध्यान करे, जो कुछ मिले सो सब मुझे समर्पण करेदास्यभावसे अपनी आत्मा निवेदन करे॥३५॥ मेरे जन्म, कर्म, गावे, जन्माष्टमी आदि पर्वमें फूल नैवेद्य आदिसे

ज्ञात्वाऽज्ञात्वाऽथ ये वै मां यावान्यश्चास्मि यादृशः॥ भजंत्यनन्यभावेन ते मे भक्तातमा मताः॥३३॥ मल्लिंगमद्भक्तजनदर्शनस्पर्शनाचनम्॥ परिचर्या स्तुतिः प्रह्वगुणकर्मानुकीर्तनम्॥३४॥ मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव॥ सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम्॥३५॥ मज्जन्मकर्मकथनं मम पर्वानुमोदनम्॥ गीततांडववादित्रगोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः॥३६॥ यात्रा बलिर्विधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु॥ वैदिकी तांत्रिकी दीक्षा मदीयव्रतधारणम्॥३७॥ ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः॥ उद्यानोपवनाक्रीडपुरमंदिरकर्मणि॥३८॥ संमार्जनोपलेपाभ्यांसेकमंडलवर्तनैः॥ गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया॥३९॥ अमानित्वमदंभित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम्॥ अपि दीपावलोकं मे नोपयुंज्यान्निवेदितम्॥४०॥

मेरी पूजा करे, गीत, नृत्य, वादित्र, गोष्ठीसे मेरे मंदिरमें उत्सव करे॥३६॥ मेरेलिये यात्रा करे, पुष्पादिकोंसे पूजा करे, भेट समपर्ण करेवर्ष प्रति वर्ष उत्सव करे, वैदिक, तांत्रिक दीक्षा ले रेमे व्रत करे॥३७॥और प्रतिमामें श्रद्धा रक्खेआपसे अथवा औरसे मिलकर मेरे लिये फूलोंका बाग, मंदिर, क्रीडास्थल, नगर, गाँवके करनेमें उद्यम करे॥३८॥ मेरे मंदिरमें बुहारी देना, लीपना, छिड़काव करना, चौक पूरना और रंगवल्ली आदि चित्रांग करना, इस प्रकारमे हैंगृहकी शोभा करे, दासकी भाँति निष्कपट मेरी उपासना करे॥३९॥ आप अभिमान तथा दंभ

न करेजो करेसो कहेनहीं। मेरे निवेदित दीपादि वस्तुसे अपने घरका काम न करे॥४०॥ जो जो वस्तु इस लोकमें आपको अतिप्रिय हो, निषिद्ध न हो सो मुझे अर्पण करेतो वह वस्तु अनंत फलको करेगी॥४१॥ अब यह ग्यारह ठौर पूजाके कहते हैं कि, हे उद्धव! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, भूमि, आत्मा इत्यादि सब प्राणीमात्र मेरी पूजाके स्थल हैं॥४२॥ अब जिसकी पूजा जिस प्रकार करनी चाहिये सो कहते हैं वेदोक्त विद्यासे सूर्यकी पूजा करे, अग्निमें घृत होमकर मेरी पूजा करे, ब्राह्मणमें आतिथ्य अभ्यागतसे पूजे, गायमें अच्छे सुन्दर तृणादिकसे सेवा करे॥४३॥ वैष्णवोंमें अपने बंधुके समान आदरसे मेरी पूजा करे, हृदय आकाशमें ध्यान घरके पूजा

यद्यदिष्टतम लोके यच्चातिप्रियमात्मनः॥ तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानंत्याय कल्पते॥४१॥ सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्॥ भूरात्मा सर्वभूतानि भद्रपूजापदानि मे॥४२॥ सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम्॥अतिथ्येन तु विप्राग्र्येगोष्वंग यवासादिना॥४३॥ वैष्णवे बंधुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया॥ वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरस्कृतैः॥४४॥ स्थंडिले मंत्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि॥ क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम्॥४५॥ धिष्ण्येष्वेष्विति मद्रूपं शंखचक्रगदांबुजैः॥ युक्तं चतुर्भुजं शांतं ध्यायन्नर्चेत्समाहितः॥४६॥ इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः॥ लभते मयि सद्भक्ति मत्स्मृतिः साधुसेवया॥४७॥ प्रायेण भक्तियोगेन सत्संगेन विनोद्धव॥ नोपायो विद्यत सध्य्रङ् प्रायणं हि सतामहम्॥४८॥

करे, वायुमें प्राण बुद्धिसे पूजा करे, जलमें तर्पण आदि द्रव्यसे पूजा करे॥४४॥ भूमिमें गोप्य मंत्र न्यासकर मेरी पूजा करे, अपने आपमें आत्माकी पूजा भोग करके जो भोग करेसो सब आत्माको समर्पण करदे, सब प्राणीमात्रमें समान दृष्टि रखकर मेरी पूजा करे, मैंअंतर्य्यामी हूं॥४५॥ एकाग्र मन हो इन स्थलोंमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धरे चतुर्भुज शांतरूपका ध्यान कर मेरी पूजा करे॥४६॥ जो मनुष्य ऐसा करते हैं वे पुरुष निश्चयमन होकर यज्ञ, वापी, कूप, तडाग, बागसे मेरी पूजा कर साधुओंकी सेवासे मेरा स्मरण करते मुझमें परमभक्ति प्राप्त करते हैं॥४७॥ इस प्रकार ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग कहकर विशेषसे श्रेष्ठ भक्तिमार्गको कहते हैं कि, हे उद्धव! पहले सत्संग करे कि, जिससे भक्ति उत्पन्न हो संसार

सागरसे तरनेका इससे उत्तम उपाय और कोई दूसरा नहीं है, क्योंकि साधुओंका एक मैंही आश्रयहूं इसलिये अतिश्रेष्ठउत्तम वैष्णवोंका सत्संग अतिश्रेष्ठ है॥४८॥ हे उद्धव!तुम सर्व प्रकारसे मेरे उत्तम सुहृद् सखा हो इसलिये तुमसे कहा है कि, यह जो भक्तियोग गुप्त है सो तुमको सुनानेके लिये कहताहूं॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा— बारहमें सत्संगकी, महिमा कहीं बखान।कर्म करन अरु त्यागको बरणों आत्मज्ञान॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! योग और तत्त्वोंका विवेक और अहिंसा आदि धर्म विद्याका अध्ययन, तप, त्याग, अग्निहोत्रादिक, वापी, कूप, तड़ाग, दक्षिणा॥१॥ व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ, नेम, संयम

अथैतत्परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनंदन॥ सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते म० एकाद०भगवदुद्धवसंवादे एकादशोऽध्यायः॥११॥ श्रीभगवानुवाच॥ न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च॥ न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त्तंन दक्षिणा॥१॥ व्रतानि यज्ञछंदांसि तीर्थानि नियमा यमाः॥ यथावरुंधे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्॥२॥ सत्संगेन हि दतेया यातुधाना मृगाः खगाः॥ गंधर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः॥३॥ विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोंत्यजाः॥ रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन्युगेऽनघ॥४॥ बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः॥ वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः॥५॥ सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः॥ व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथा परे॥६॥

यह सब मुझे ऐसे वश नहीं कर सकते, जैसे श्रेष्ठ विष्णुभक्तिका सत्संग मुझे वश करता है, क्योंकि सत्संग सब कुसंगोंका छुड़ानेवाला है॥२॥ दैत्य, राक्षस, पक्षी, मृग, गंधर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक॥३॥ विद्याधर, मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री यह सब नीच जाति राजस तामस स्वभावयुक्त भी उन उन युगोंमें॥४॥ मेरे पदको प्राप्त हुये और भी बहुत हैं वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मय, विभीषण॥५॥ सुग्रीव, हनुमान्, जांबवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, व्याध, कुब्जा, गोपी, व्रजमें यज्ञपत्नी ऐसे और भी अनेक

मुझे प्राप्त हुये हैं॥६॥ यह दोनों वेदार्थ नहीं पढे थे महत्पुरुषोंकी उपासना नहीं करी थी, व्रत, दान, तप, कुछ नहीं करते थे, एक मेरे संगसेही मुझे प्राप्त हुये॥७॥ गोपी, गाय, यमलार्जुन, मृग और मूढबुद्धि कालीसे आदि ले नाग, सिद्ध अनायास मुझे प्राप्त होगये *॥८॥ सांख्य, योग, दान, व्रत, तप, यज्ञ, व्याख्यान, अध्ययन इतने यत्नसे भी जिन्होंने मुझे न पाया, उसे एक भाव मात्रसेही प्राप्त हुये॥९॥ अब

ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः॥ अव्रतातप्ततपसः सत्संगान्मामुपागताः॥७॥ केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः॥ येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरंजसा॥८॥ यं न योगेन सांख्येन दानव्रततपोध्वरैः॥ व्याख्यास्वाध्यायसंन्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि॥९॥ रामेण सार्धंमथुरां प्रणीते श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः॥ विगाढभावेन न मे वियोगतीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय॥१०॥ तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृंदावनगोचरेण॥ क्षणार्धवत्ताः पुनरंग तासां हीना मया कल्पसमा बभूवुः॥११॥

मुख्य उत्तमभाव गोपियोंका कहते हैं इसकारण पहले गोपियोंके भावकी स्तुति करते हैं हे उद्धव! जब अक्रूर आनकर बलदेव सहित हमको मथुरा लेगये, तब दृढप्रीतिसे मुझमें आसक्त चित्तवाली वियोगसे दुःसह चित्त गोपियोंने सुखके लिये मेरे अतिरिक्त और किसीकी ओरको न देखा॥१०॥ हे उद्धव!वृन्दावनमें फिरते उनको अतिप्रिय मेरे संग जो जो रात्रिय एक क्षणके समान बीतीं हैं सो सो रात्रि मुझ विना उन

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** शंका—**श्रीकृष्णभगवान्ने उद्धवसे कहा कि, हे उद्धव! पर्वत, पक्षी, मृग, यह सव सत्संगसे हमारे लोकको गये सो इस बातका हमको बडा सन्देह है कि, सत्संग तो बडे बडे महात्माओंको भी बडा दुर्लभ है सो इन तुच्छ जीवोंको क्योंकर हुआ?

** उत्तर—**महात्मा पुरुष तो पर्वतोंपर वसते हैं इसलिये उनको पर्वतोंका सत्संग हुआ और महात्माओंके सन्मुख नित्य राति दिन पक्षी और मृग वसते थे, महात्माओंका नित्य दर्शन करते थे कुछ सत्संगकी बात कानोंसे सुनली कुछ भगवान्के पूजन आदिककी सामाग्री नेत्रोंसे देखली इसप्रकार योगियोंसे दुर्लभ जो सत्संग सो पर्वतोंको, पशुओंको तथा मृगोंको प्राप्त हुवा ऐसा कृष्णने कहा था।

गोपियोंको कल्प समान बीतीं॥११॥ मुझमें गोपियोंकी बुद्धि अधिक आसक्त होगई थी, इसलिये उन्हें पति, पुत्रादि तथा देह और परलोकका भी कुछ ध्यान न रहाथा, जैसे समाधिमें मुनियोंको नाम स्वरूपका ध्यान नहीं रहता,अथवा जैसे नदी समुद्रमें मिलजाती हैं, उसी प्रकार गोपियें मेरे स्वरूपमें लीन होगई॥१२॥ इस प्रकार केवल मेरी इच्छावाली सहस्रों स्त्रियें यद्यपि मेरे स्वरूपको नहीं जानती थीपरन्तु तो भी जारबुद्धिसे जाने हुए मुझ परब्रह्मके सत्संगकी महिमासे मुक्त होगई॥१३॥ हे उद्धव! मेरे भजनका ऐसा प्रभाव है कि, गोपियें जारबुद्धिसे भजन करनेपर भी मुझे प्राप्त हुई, इसलिये तुम श्रुति स्मृतिके विधिनिषेध छोड़, प्रवृत्ति निवृत्ति धर्म छोड़ सुना सुनाया छोड़॥१४॥ सब देहधारियोंका आत्मा जो मैंहूं, इस कारण सबोंमें मेरा भाव रख केवल एक मेरी शरणको प्राप्त होकर तुम निभय होगे॥१५॥ यह सुनकर उद्धवजी बोले कि, हे योगे

ता नाविदन्मय्यनुषंगबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्॥ यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे॥१२॥ मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽबलाः॥ ब्रह्म मां परमं प्रापुः संगाच्छतसहस्रशः॥१३॥ तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्॥ प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च॥१४॥ मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्॥ याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः॥१५॥ उद्धव उवाच॥ संशयः शृण्वतो वाचं तव योगेश्वरेश्वर॥ न निवर्त्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मनः॥१६॥ श्रीभगवानुवाच॥ स एष जीवो विवरप्रसूतिः प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः॥ मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः॥१७॥

श्वरोंके ईश्वर!तुम्हारी बात सुनकर आत्मा विषयक मेरा संदेह निवृत्त नहीं होता क्योंकि प्रथम तो आपने कहा कि, मेरा भजन करो,अब कहते हो कि, सर्व धर्म छोड़कर हमारी शरण आओ इन दोनोंमें क्या करना उचित है? त्याग करना चाहिये, अथवा भजन करना चाहिये यह मुझे बड़ा भ्रम है, सो निवारण करो॥१६॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव!पहले तो यह जीव ईश्वर है, ब्रह्म है, परन्तु अविद्याके संगसे अपना धर्म भूल गया है, अविद्याके धर्महीको अपना धर्म समझ अहंकर्त्ता अभिमानसे बँधता है, जब अविद्याके धर्म दूर होजायँ तब शुद्ध चित्त हो उसके लिये निष्काम कर्म करना कहा है, जब चित्त शुद्ध हुआ, तब कर्मका त्याग कहा जब विवेक उसको उत्पन्न होगया, तब विवेकसे

सर्वत्र वह मेरा रूप जानता है, अब कर्म और ज्ञानका अधिकार हुआ, इसकारण सब कर्म त्यागकर मेरी शरण आवे, यह उपदेश दिया, अब ईश्वरसे वाणी इन्द्रिय द्वारा जीवके संसारका कारण भूत प्रपंचकी उत्पत्ति कहते हैं सो ईश्वर आधारादि चक्रोंमें प्रगट होते हैं उस प्रगटताको भी कहते हैं, सो ईश्वर नादवन्त परनाम प्राण सहित आधार चक्रोंमें प्रविष्ट होकर मनोमय सूक्ष्मरूप देखें और मध्यमा नाम मणिपूरक और विशुद्धचक्र विषे आनकर मुखमें हूं, स्वरादिक मात्रा, उदात्तादिक स्वर, अकारादिक अक्षर रूप वैखरी नाम अतिस्थूल नानाविध रूप होते हैं॥१७॥ जैसे आकाशमें गर्मीरूप अग्निरूप अप्रगट है, बलपूर्वक काष्ठके मथनेसे वायुकी सहायतासे पहले सूक्ष्मरूपसे निकलती है, पीछे हविष्यसे वृद्धिको प्राप्त होती है, इसी प्रकार यह प्राणी मेरे प्रगट होनेके स्थान हैं॥१८॥ हाथोंका धर्म क्रिया, चरणका धर्म तीर्थगमन करना और गुह्येन्द्रियका

यथाऽनलः खेनिलबंधुरूष्मा बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः॥ अणु प्रजातो हविषा समिध्यते तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी॥१८॥ एवं गदिः कर्मगतिर्विसर्गोघ्राणो रसो दृक्स्पर्शः श्रुतिश्च॥ संकल्पविज्ञानमथाभिमानः सूत्रं रजः सत्त्वतमोविकारः॥१९॥ अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनिरव्यक्त एको वयसा स आद्यः॥ विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव भाति बीजानि योनिं प्रतिपद्य यद्वत्॥२०॥ यस्मिन्निदं प्रोतमशेषमोतं पटो यथा तंतुवितानसंस्थः॥ य एष संसारतरुः पुराणः कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते॥२१॥

धर्म मलादि विसर्जन करना आघ्राण, रस, दर्शन, श्रवण यह सब ज्ञानेन्द्रियोंके धर्म, संकल्प मनका धर्म, विज्ञान और बुद्धि चित्तका धर्म, अभिमान अहंकारका धर्म, सूत्र मायाका धर्म, सत्त, रज, तम, इन तीन गुणोंका विकार अधिदैव अध्यात्म अधिभूत यह सब मेरे प्रगट होनेके स्थान हैं॥१९॥ यह आत्मा ब्रह्म है, एकही है, अप्रगट है, कालसे अलगकरि वाणीरूप इन्द्रियोंकी शक्तियोंको अनेक भाँतिसे प्रकाशो है, जिससे आदि है, तीन गुणोंका आश्रय है सृष्टि कमलका कारणभूत है, जैसे बीज खेतको पाकर अनेक भाँति प्रकाशमान होता है इसीप्रकार यह आदिकारण ईश्वर भी कालकी गतिसे मायाको अंगीकारकर प्रपंचरूप होजाते हैं॥२०॥ इसमें दृष्टान्त कहते हैं, तंतुके विस्तारमें स्थितिमान् पट जैसे

तंतुओंमें ओतप्रोत है और तंतुओंसे पृथक् नहीं है, इसीप्रकार यह सब जगत् ब्रह्ममें विद्यमान है उससे भिन्न नहीं है, ऐसेही समष्टि व्यष्टिरूप अविद्यासे आत्मामें अध्यासे कियाहुआ प्रपंचरूप वृक्षही जीवके कर्त्ता, भोक्ता आदि संसारका कारण है, इससे जब यथार्थरीतिसे आत्माकी सत्यता और प्रपंचकी अनित्यता जाननेमें आवे उस समय कामादि सबका त्याग करना कहा है यह अनादि कालसे प्रवृत्तिवाला प्रपंचरूप वृक्ष अपने भोगादि रूप पुष्पफलोंको उत्पन्न करता है॥२१॥ इसके पाप पुण्य दो बीज हैं, अनेकभाँतिकी वासना इसकी जड है तीनो गुण (रजोगुण, तमोगुण, सत्तोगुण) इसकी पीडि है,पांच रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द यह रस हैं, पांच महाभूत इसके स्कंध है, एकादश इंद्रिय शाखा हैं, दो पक्षी जीव और परमात्माका घर है, वात, पित्त, कफ, यह तीनों वल्कल हैं, फल दो दुःख सुख हैं, सूर्यमण्डल तक यह वृक्ष है इससे

द्वेअस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः पंचस्कंधः पंचरसप्रसूतिः। दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो द्विफलोऽर्कंप्रविष्टः॥२२॥ अदंति चैकं फलमस्य गृध्रा ग्रामेचरा एकमरण्यवासाः॥ हंसाय एकं बहुरूपमिज्यैर्मायामयं वेद स वेदवेदम्॥२३॥ एवं गुरूपासनयैव भक्त्या विद्याकुठारेण शितेन धीरः॥ विवृश्च्यजीवाशयमप्रमत्तः संपद्य चात्मानमथत्यजास्त्रम्॥२४॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कंधे भगवदुद्धवसंवादे द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ श्रीभगवानुवाच॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः॥ सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि॥१॥

आगे संसार नहीं॥२२॥ अब इसके फलके भोक्ताको कहते हैं इसके एकफल दुःखरूपका गृहस्थ ग्रामचारी कामीके समान गीदड भोग करते हैं, दूसरे फलका सुख अरण्यवासी परमहंस सन्यासी भोग करते हैं इसके यह एकही परमात्मा मायामय अनंतरूप है इतना तत्त्वार्थ गुरुद्वारा जिस पुरुषने जान लिया है, उसने सब देह जान लिया॥२३॥ इसप्रकार धीर सावधान होकर तुमभी गुरुकी सेवा कीजियो और एकान्त भक्तिसे तीक्ष्ण ज्ञानरूप कुठारसे त्रिगुणमय इस लिंगशरीरको काटि परमात्मासे मिले, पीछेसे सब साधन छोड़देना॥२४॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा— इस तेरह अध्यायमें, हंसरूप इतिहास॥बढे अधिक जब सत्तोगुण, प्रगटे बुद्धि विलास॥१३॥श्रीभागवान् बोले कि, हे उद्धव!सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण यह तीनों गुण प्रकृतिके है आत्माके नहीं

इसकारण सत्तोगुणकी वृद्धिसे रजोगुण तमोगुणकी वृद्धिका नाशकर सत्त्व दयादिरूप सत्त्वगुणका उपशमरूप सत्त्वगुणसे नाश करना॥१॥ रजोगुण, तमोगुणके सन्मुख सत्तोगुण कैसे बढेऔर जो सत्तोगुण बढ़े तो मेरी भक्ति लक्षण धर्महो उसीसे रज, तम भी दूर हो॥२॥ सत्त्वकी वृद्धि इसलिये होती है इसकारण भक्ति अतिश्रेष्ठ है रज, तमके दूर होनेपर रज, तम, मूलवाला अधर्म निश्चयसे शीघ्र दूर होता है॥३॥ शास्त्र, जल, प्रजा, देश, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्र, संस्कार, यह सब गुणके हेतु हैं॥४॥ यह भी दश सात्त्विक, राजस, तामस हैं इनके मध्य जिसकी, बडाई करते हैं सो सात्त्विक है; जिसकी निन्दा करते हैं, सो तामस है, और न जिसकी स्तुति करते हैं न निन्दा करते हैं सो राजस है॥५॥ सत्तोगुण बढ़ानेके लिये पुरुषको सात्त्विकवृत्ति शास्त्रका सेवन करना चाहिये प्रवृत्ति मार्गके पाखण्डियोंके शास्त्र न देखे, जल तीर्थहीका सेवन करे,

सत्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्भक्तिलक्षणः॥

सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते॥२॥ धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तमः॥ आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते॥३॥ आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च॥ ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः॥४॥ तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्यद्वृद्धाः प्रचक्षते॥ निंदंति तामसं यत्तद्राजसं तदुपेक्षितम्॥५॥ सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान्सत्त्वविवृद्धये॥ ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम्॥६॥ वेणुसंघर्षजो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनम्॥ एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति तत्क्रियः॥७॥

परन्तु सुगंधित जलका सेवन न करे, संग निवृत्ति मार्गवालोंकाही करे, दुराचारियोंका न करेे, देश एकान्तही सेवे चोर, ठग और जुआ खेलनेवालोंका संग न करे, ध्यानका सेवन काल ब्रह्म मुहूर्त्त आदिमें करे, आधीरातके समय प्रदोष कालका सेवन न करे, कर्म नित्यही करे काम्य और अभिचारादि कर्म न करे, वैदिक तांत्रिक दीक्षारूप जन्मलेना क्षुद्र देवताओंकी दीक्षा न ले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकोही गुरु करे, अस्त्रोंका और शत्रुओंका ध्यान न करे, जब प्रणव आदि उत्तम मंत्रको जपेउससमय काम्य मंत्र और क्षुद्र मंत्रको न जपे, जो संसारसे आत्माका शोधक होय सो करे, देह गृहको न करे,इसप्रकार सब सात्त्विक सेवे, तो सत्तोगुणकी वृद्धि हो और राजस, तामस छूटे, तब भक्तिरूपी तप धर्म होवे, उससे मेरे स्वरूपका ज्ञान हो॥६॥ जैसे बाँसोंके वनकी अग्नि आपसमें घिस और प्रज्वलित हो सब अरण्यको जलाय ईंधन घट जानेपर आपही शान्त

होजाती है उसीप्रकार गुणके क्षोभसे उत्पन्न दुवा देह आपही शान्त होजाता है॥७॥ उद्धवजी बोले कि, हे कृष्ण! बहुधा सब मनुष्य कहते हैं कि विषय दुःख रूप है उससे दुःख पाते तो फिर क्यों इसीको यह पुरुष कुकर, गर्दभ, बकरेके समान निर्लज्ज हो उसीमें प्रवृत्त होते हैं॥८॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! जब यह विवेकसे रहित होते हैं, तब इसके हृदयमें अहंभाव बुद्धि सत्यसी होती है, तब सात्त्विक भी मन दुःखरूप राजस धर्मसे व्याप्त होते हैं॥९॥ यह पुरुष जब रजोगुणसे व्याप्त होता है तब मनमें संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हैं और संकल्पसे विषयका जो ध्यान करता है, इससे इस दुष्ट बुद्धि पुरुषको काम उत्पन्न होता है॥१०॥ इसके उपरांत उनके वश हो रजोगुणके वेगसे मोहित हुवा यह अजितेन्द्रिय

उद्धव उवाच॥ विदंति मर्त्याः प्रायेण विषयान्पदमापदाम्॥ तथापि भुंजते कृष्ण तत्कथं श्वखराजवत्॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहमित्यन्यथा बुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि॥ उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः॥९॥ रजोयुक्तस्य मनसः संकल्पः सविकल्पकः॥ ततः कामो गुणध्यानाद्दुःसहः स्याद्धि दुर्मतेः॥१०॥ करोति कामवशगः कर्माण्यविजितेंद्रियः॥ दुःखोदर्काणि संपश्यन्रजोवेगविमोहितः॥११॥ रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान्विक्षिप्तधीः पुनः॥ अतंद्रितो मनो युंजन्दोषदृष्टिर्न सज्जते॥१२॥ अप्रमत्तोऽनुयुंजीत मनो मय्यर्पयञ्छनैः॥ अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः॥१३॥ एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः॥ सर्वतो मन आकृष्य मय्याद्धाऽऽवेश्यते यथा॥१४॥ उद्धव उवाच॥ यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव॥ योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम्॥१५॥

दुःखही फलवाले कर्मोंको करता है॥११॥ इसमें भी जो विवेकी होय सो यद्यपि रजोगुण तमोगुणसे विक्षिप्त मन है सावधान है, परन्तु तो भी मनको खैंच खैंचकर रक्खे, तब वह दोष जानकर विषयमें आसक्त न होगा॥१२॥ जो विवेकी स्नेहसे मुझमें मन लगाता है और आलस्य छोड़ श्वास रोक आसन दृढकर मुझमें मन स्थिर करता है॥१३॥ सो हे उद्धव! मेरे शिष्य सनकादिकोंने इतनाही योग बताया है कि, यह जीव सब ओरसे मन खैंच प्रत्यक्ष मुझमें रक्खे॥१४॥ उद्धवजी बोले कि, हे केशव! सनकादिकोंके रूपसे जिससमय तुमने यह योग कहा था सो तुम्हारा रूप और वह समय

जाननेकी इच्छा है सो कहिये॥१५॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! एक समय ब्रह्माके मानसीपुत्र सनकादिक योगकी सूक्ष्म गति ब्रह्मदेवसे पूँछनेलगे॥१६॥ सनकादिक बोले कि, हे प्रभो ब्रह्माजी! चित्त अपने स्वभावसेही रागादिकोंके हेतु विषय धर्ममें प्रविष्ट होता है और अनुभूत विषयवासनारूपसे चित्तमें प्रवेश करते हैं; अब विषयोंका त्याग करनेकी इच्छावाला मुमुक्षु पुरुष परस्पर इनदोनोंको किसप्रकार भिन्न भिन्न करे?॥१७॥ इसप्रकार पुत्रोंके पूँछनेपर ब्रह्माजीने जो कुछ कहा था, वही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धवजीसे कहते हैं कि, इस भाँति जब सनकादिकोंने कहा, तब स्वयंभू ब्रह्मा बड़ेदेव विश्वके पालक विचारने लगे परन्तु प्रश्नका पार न पाया, इससे कर्मसे विक्षिप्त बुद्धि हुई॥१८॥

श्रीभगवानुवाच॥ पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः सनकादयः॥ पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकांतिकीं गतिम्॥१६॥ सनकादय ऊचुः॥ गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो॥ कथमन्योन्यसंत्यागो मुमुक्षोरतितिर्षिर्षोः॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवं पृष्टो महादेवः स्वयंभूर्भूतभवानः॥ ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधीः॥१८॥ स मामचिंतयद्देवः प्रश्नपारतितीर्षया॥ तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा॥१९॥ दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवंदनम्॥ ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को भवानिति॥२०॥ इत्यहं मुनिभिः पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा॥यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे॥२१॥ वस्तुनो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः॥ कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रयः॥२२॥

तब प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ब्रह्माने मेरा चिंतवन किया, तब मैंहंसरूप हो ब्रह्माके निकट आया॥१९॥ तब मुझे देखतेही सब प्रणामकर ब्रह्माके आगेसे मेरे निकट आये तुम कौन हो? इसप्रकार पूँछने लगे॥२०॥ हे उद्धव! तत्त्वके जाननेकी इच्छासे मुनीने जब इसप्रकार मुझसे पूँछा तब मैंने जो उनसे कहा वह तुम सुनो॥२१॥ यह सुनकर हंसरूप भगवान् सनकादिकोंसे बोले कि, तुम आत्माको आगेकर प्रश्न करते हो वा आत्माके उपाधिस्वरूप भूतसमूहको लेकर प्रश्न करते हो? जो आत्माका अधिकार प्रश्न करते हो तो परमार्थसे आत्मामें अभेद होनेके कारण तुम कौन हो? यह प्रश्न करना कि, जो अनेकोंमें एकका निश्चय करनेके लिये है संभव नहीं हो सकता और मैं तुम्हें क्या विषय लेकर उत्तर दूं,

आत्मा कोई जाति वा गुणादिरूप हो तो उत्तर दिया जाय कि, मेरी यह जाति और मुझमें यहगुण है, परन्तु आत्मामें कोई बात नहीं इससे तुम्हारा प्रश्न ठीक नहीं बनसकता॥२२॥ और जो पंचभूत संधानका प्रश्न है वह अनर्थरूप है देवमनुष्यादि देह सब पंचभूतात्मक हैवस्तुसे सब समान हैं अपने कारणसे न्यारे नहीं, वे सब कारणरूप एकही है ब्रह्मरूपही है यह नाम रूप अलग अलग कर लिये हैं, सो अज्ञान है इस कारण इसका मैं क्या उत्तर दूं॥२३॥ मन, वचन, दृष्टि और इन्द्रियोंसे जो ग्रहण किये जाते हैं, सो मैंहूं मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है,यह तत्त्वका विचार करके जानलो॥२४॥ इसप्रकार उनके प्रश्नका खण्डन करनेके बहाने आत्माका स्वरूप कहा, अब ब्रह्माकोभी जो अशक्य उत्तर है, सो देते हैं कि, यह विषय और चित्त दोनों गुँथे हैं, ब्रह्मरूप जीवका देह हैं, सो उपाधि है कुछ सत्य नहीं है जो पुरुष अपने आपको ब्रह्मरूपसे

पंचात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः॥ को भवानिति वः प्रश्नो वाचारंभो ह्यनर्थकः॥२३॥ मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपींद्रियैः॥ अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुद्ध्यध्वमंजसा॥२४॥ गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः॥ जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः॥२५॥ गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया॥ गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्रूप उभयं त्यजेत्॥२६॥ जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तयः॥ तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः॥२७॥ यर्हि संसृतिबंधोऽयमात्मनो गुणवृत्तिदः॥ मयि तुर्येस्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम्॥२८॥

विषयोंको मिथ्या करके जानते हैं और वैराग्यसे भगवान्‌काभजन करते हैं वह पुरुष उपाधि छोडकर मुक्त होजाते हैं॥२५॥ क्योंकि विषयोंकीही सेवा करनेसे और उनकी वासनासे विषयोंमें चित्त प्रविष्ट होता है, इसलिये विषय और चित्त यह दोनों जब मेरा रूप जानें, तब छूटें॥२६॥ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थोंसे रहित जीव शुद्ध आत्मरूप कैसे हो? सो कहते हैं कि, यह अवस्था तीन गुणसे होती है सो बुद्धिहीकी वृत्ति अवस्था है, जीव इन अवस्थाओंसे भिन्न है, ऐसा निश्चय किया गया है, इसलिये जीव इन सबका साक्षी है॥२७॥जो यह साक्षी हुआ तो भिन्न क्यों है? और “मैंसोया” “मैंजागा"ऐसे क्यों कहता है? क्योंकि, जब अहंकारके धर्मसे संसारका बन्धन है, तब मैं जागता हूं सोता हूं,

यह बुद्धि है, जब अहंकार देहसे छूटे और आत्माके मध्यमें दृष्टि हो तब यह अवस्था भी सब जाती रहे और विषय तथा चित्तका परस्पर त्याग होय॥२८॥ यह बन्धन देहके अभिमानसे है, इसीसे आत्माको भी अनर्थ लगता है, इसप्रकार निश्चयकर वैराग्यसे आत्मामें चित्त लगाय संसारकी सब चिन्ताको त्यागन करे॥२९॥ जबतक इसकी भेद बुद्धि युक्तियोंसे निवृत्त नहीं हैं, तबतक यह अज्ञानी पुरुष कर्मादिकोंमें जागता अर्थात् जानकर भी स्वप्नमें अपनेको जाग्रत् मानतेहुये मनुष्यके समान स्वप्नकोही देखते हैं, क्योंकि उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है॥३०॥ यह सब देह और देहका किया सबसे भेद, वर्ण, आश्रम, स्वर्ग, आदि फल कर्म आत्माके धर्म नहीं हैं, यह देहके धर्म हैं, अविद्यासे उत्पन्न होते हैं, इसकारण मिथ्या हैं,

अहंकारकृतं बंधमात्मनोऽर्थविपर्ययम्॥ विद्वान्निर्विद्य संसारचिंतां तुर्येस्थितस्त्यजेत्॥२९॥ यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्त्तेत युक्तिभिः॥ जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा॥३०॥ असत्त्वादात्मनोऽन्येषां भावानां तत्कृता भिदा॥ गतयोहेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो यथा॥३१॥ यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्भुंक्ते समस्तकरणैर्हृदि तत्सदृक्षान्॥ स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः स्मृत्यन्वयात्त्रिगुणवृत्तिदृगिंद्रियेशः॥३२॥ एवं विमृश्य गुणतो मनसख्यवस्था मन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्थाः॥ संच्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तितीक्ष्णज्ञानासिना भजत माऽखिलसंशयाधिम्॥३३॥

उत्तम नहीं, जैसे स्वप्न देखनेवालेके सब मनोरथ मिथ्या हैं॥३१॥ यह जीव जागतेमें जो विषय भोग करता है, सो वह भोग एक क्षणभरका है, कुछ नित्य नहीं, जैसे बाल्यावस्था और तरुणापन आये और गये जाग्रत्के समान भोग करते हैं और सुषुप्तिमें यह सब धर्म लीन होजाते हैं केवल एक आत्मा ही रहता है, मैंने पहले तो स्वप्न देखा फिर सुखसे सोया, कुछ ज्ञान न रहा, इस अनुभवके स्मरणसे तीनों अवस्था बुद्धिकी हैं, इनका साक्षी एक आत्माही रहता है और सब लीन होजाते हैं, इसकारण आत्मा सब इन्द्रियोंका ईश्वर है॥३२॥ इसप्रकार यह तीनों अवस्था मनके वशमें हैं आत्माके वशमें नहीं, सो मेरी शक्ति अविद्यासे आपको मान लेती है, ऐसा निश्चय कर सब संदेहका स्थान अहंकार है, तिसको विवेकसे

अनुमानसे प्रमाण वचनसे उपजा जो ज्ञानरूपी खड्ग उससे काटकर हृदयमें स्थित मेरा भजन करे॥३३॥ अनुमान किसप्रकारका है, सो कहते हैं कि, यह जो जगत् दीखता है, सो सब मनका विलास है, भ्रम और मिथ्या विलास है, यह द्वैत भी भ्रान्तिरूप है क्योंकि यह अति चंचल है और जो चंचल हो, वह अलातचक्रके समान भ्रान्तिरूप है, ब्रह्ममें द्वैतकी अनेक भ्रान्ति होती हैं, इसलिये भ्रान्तिका अधिष्ठान रूप एकब्रह्मही अनेक प्रकारसा दीखता है और जो यथार्थ विचारसे देखते हैं, तो यह त्रिगुणात्मक मायाका भ्रम स्वप्नके समान है॥३४॥ इससे है उद्धव! ऐसे प्रपंचसे दृष्टि फेर तृष्णा छोड़, आत्मसुखके विचारमें तत्पर हो इन्द्रियोंके सब धर्म छोड़ दे यदि कहो कि, देहवंतसे देहकी चेष्टा कैसे छूट

ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम्॥ विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्पः॥३४॥ दृष्टिं ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्णस्तूष्णीं भवेन्निजसुखानुभवो निरीहः॥ संदृश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्ध्या त्यक्तं भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिपातात्॥३५॥ देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम्॥ दैवादपेतमुत दैववशादुपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदांधः॥३६॥ देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्स्वारंभकं प्रति समीक्षत एवसासुः॥ तं सप्रपंचमधिरूढसमाधियोगः स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः॥३७॥

सकती है और न छूटनेसे द्वैतही होजायगा तो कहते हैं कि, कहीं ऐसे भी देहकी चेष्टा देखी जाती है, परन्तु वह चेष्टा अलंकाररहित है, सत्य नहीं जिससे प्रपंचमें उनकी मिथ्याबुद्धि है, जो मिथ्या जानकर छोड़ दिया जाता है, वह फिर मोह उत्पन्न नहीं करता, यह निश्चय है। देहतक कर्मोंका संस्कार है॥३५॥ जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष इस विनाशीदेहको दैवगतिसे वा आसन उठा, आसनमें स्थित उठकर खडा हुआ, बाहरको गया अथवा दैवगतिसे फिर आया हुआ नहीं देखते जैसे मदिरापानसे मत्त हुआ पुरुष पहने वस्त्रको नहीं जानता, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ब्रह्मको प्राप्त हो चुके हैं॥३६॥ यहाँ तर्क करते हैं कि, देहको न जाने तो देह क्यों नहीं गिरे तो कहते हैं कि, देह भी दैवके आधीन है और जबतक

इसका प्रारब्ध कर्म है तबतक प्राण इंद्रियोंसहित देह रहता है, इसलिये जो समाधियोगमें आरूढ़ है, परमार्थ वस्तु और आत्मस्वरूपको जानते हैं, वह पुरुष प्रपंचसहित स्वप्नसमान इस देहको नहीं भजते॥३७॥ हे ब्राह्मणो! सांख्य और योगमार्गका जो रहस्य था, वह मैंने आपसे वर्णन किया, तुम्हें धर्म और ज्ञानका उपदेश देनेके लिये मैं यज्ञरूप विष्णु आया हूं, ऐसा जानो॥३८॥ हे द्विजश्रेष्ठ! योगसांख्य, सत्यऋत, अर्थात् शास्त्रोक्त धर्म, तेज, प्रभाव, श्री, कीर्ति और इन्द्रियपन इन सब धर्मोंका मैं ही परमार्थ स्थान हूँ यह सब मुझीमें रहते हैं॥३९॥ सब गुण मेरेहीमें आश्रय हैं मैं निरपेक्ष हूं, सुहद्परमप्रिय हूं, सबका आत्मा और सब मुझे समान हैं संग किसीका नहीं, ऐसे गुण

मयैतदुक्तं वो विप्रा गुह्यं यत्सांख्ययोगयोः॥ जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया॥३८॥ अहं योगस्य सांख्यस्य सत्यस्यर्तस्य तेजसः॥ परायणं द्विजश्रेष्ठाः श्रियः कीर्तेर्दमस्य च॥३९॥ मां जयंति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम्॥ सुहृदं प्रियमात्मानं साम्याऽसंगादयो गुणाः॥४०॥ इति मे छिन्नसंदेहा मुनयः सनकादयः॥ सभाजयित्वा परया भक्त्याऽगृणत संस्तवैः॥४१॥ तैरहं पूजितः सम्यक्संस्तुतः परमर्षिभिः॥ प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे चित्तगुणविश्लेषवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ उद्धव उवाच॥ वदंति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः॥ तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता॥१॥

मुझीमें हैं॥४०॥ इसप्रकार मेरे वचन सुन सन्देह निवृत्ति कर सनकादिक मुनियोंने अतिभक्तिसे मेरी पूजा और स्तुति की॥४१॥ जब उन ऋषियोंने भलीभाँति स्तुति और पूजा की तब ब्रह्माके देखते २ मैं भी अपने धामको चला आया॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे भाषाटीकायां त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ दोहा— इस चौदह अध्यायमें सबका यही विचार॥सब साधनमें मुख्यहै भक्ति मुक्ति दातार॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण! जो पुरुष ब्रह्मका विचार करते हैं, वह तो ब्रह्माका साधन बहुत बताते हैं, इन सबोंमें जो एक मुख्य साधन है सो कहो॥१॥

हे ईश्वर! तुम निरपेक्ष भक्तिही एक मुख्य साधन कहते हो कि, सब संग छोड भक्तियोगसे मुझमें चित्त रक्खे॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव। भक्तिही सबसे श्रेष्ठ साधन हैं और जो अनेक साधन हैं, वह अपनी इच्छानुसार संसारके लोगोंने मूर्खपनसे मुख्य मान रक्खे हैं, वह सब तुच्छ फलके देनेवाले हैं और मुख्य तो यह मेरी वेदरूप वाणी है जो प्रलयकालमें नष्ट हो गईथी, यह वह वाणी है कि, जिससे प्राणीका मन मुझमें लगजाय यह पहले मैंने ब्रह्माजी से कहा था॥३॥ ब्रह्माने अपने बड़े पुत्र मनुसे वह वाणी कही मनुने महर्षि भृगु, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, इन सात ब्रह्मा के पुत्रों से वह वाणी कही॥४॥ उनसे उनके पुत्र दैत्य, देवता, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर॥५॥ चारण, किंदेव, (मनुष्य जातिमें देव

भवतोदाहृतः स्वामिन्भक्तियोगोऽनपेक्षितः॥ निरस्य सर्वतः संगं येन त्वय्याविशेन्मनः॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥ कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ॥ मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मोयस्यां मदात्मकः ॥३॥ तेन प्रोक्ता च पुत्राय मन वे पूर्वजाय सा॥ ततो भृग्वादयोऽगृह्णन्सप्त ब्रह्ममहर्षयः॥४॥ तेभ्यः पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः॥ मनुष्याः सिद्धगंधर्वाः सविद्याधरचारणाः॥ ५॥ किंदेवाः किन्नरा नागा रक्षः किंपुरुषादयः॥ वह्नयस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वत भोभुवः॥६॥ याभिर्भूतानि भिद्यंते भूतानां मतयस्तथा॥ यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवंति हि॥७॥ एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्भिद्यंते मतयो नृणाम्॥ पारंपर्येण केषांचित्पाखंडमतयोऽपरे॥८॥ मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ॥ श्रेयो वदंत्यनेकांतं यथाकर्म यथारुचि॥९॥

तुल्य) किन्नर, नाग, राक्षस, किंपुरुषादिक इन सबोंने वह वाणी ग्रहण की, जिनकी वासना रजोगुण, तमोगुण अदिसे अनेक प्रकारकी हैं॥६॥ जिन वासनाओंसे देवतुल्य मनुष्यादिक प्राणियोंके शरीर भिन्न भिन्न होते हैं और उनकी बुद्धियोंमें भी भेद पडता है, इन सबोंने अपनी वासना के अनुसार भिन्न भिन्न वेदका व्याख्यान किया है॥७॥ इस प्रकार प्रकृतिकी विचित्रता से मनुष्यों की बुद्धि विचित्र होगई और शास्त्रोंमें भी भेद पड़गये किसी प्राणीके उपदेशकी परंपरासे वेदविरुद्ध पाखण्डबुद्धि हुई॥८॥ हे पुरुषों में श्रेष्ठ! मेरी मायासे मोहितबुद्धि पुरुष अनेक प्रकारसे इच्छानुसार कल्याणके

साधन कहते हैं॥९॥ कोई धर्महीको मुख्य कहता है, कोई यशको, कोई कामको, कोई सत्यको, कोई शम दमको कोई ऐश्वर्यको और कोई स्वार्थ हीको मुख्य कहते हैं, कोई दान करो, भोग करो यही कहते हैं कोई यज्ञ, तप, दान, व्रत, नेम, संयम, यह सब साधना कहते हैं॥१०॥ इन प्राणियोंको अपने कर्मानुसार लोक कर्म फलसे मिलते हैं, वह सब परिणाममें दुःखसे पूर्ण किंचित् आनन्दयुक्त शोकसे व्याप्त आदि अंतवाले हैं॥११॥ हे सौम्य! मुझमें जिन्होंने आत्मसमर्पण किया है, और जो सबसे निरपेक्ष हैं, उनको मेरे परमानन्दस्वरूपकी प्राप्ति से सुख मिल रहा है, वह सुख विषयों में लगे पुरुषोंको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि जो भक्तोको सुख है वह विषयी पुरुषों को कहाँ ?॥१२॥ जो अकिंचन

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम्॥ अन्ये वदंति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम्॥१०॥ केचिद्यज्ञतपोदानं व्रतानि नियमान्यमान्॥ आद्यंतवंत एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः॥ दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानंदाः शुचार्पिताः॥॥११॥ मय्यर्पितात्मनः सौम्य निरपेक्षस्य सर्वतः॥ मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत्कुतः स्याद्विषयात्मनाम् ॥१२॥ अकिंचनस्य दांतस्य शांतस्य समचेतसः॥ मया संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः॥१३॥ न पारमेष्ठयं न महेंद्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्॥ न योगसिद्धीर पुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति महिनान्यत् ॥१४॥ न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकरः॥ न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥१५॥ निरपेक्षं मुनिं शांतं निर्वैरं समदर्शनम्॥ अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभिः॥१६॥ निष्किंचना मय्यनुरक्तचेतसः शांता महांतोऽखिलजीववत्सलाः॥ कामैरनालब्धधियो जुषंति यत्तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम॥ १७ ॥

दांत समचित्त वैसेही संतुष्ट मन हैं, उनको सब दिशायें भी सुखरूप हैं॥१३॥ जिन्होंने मुझमें आत्मा समर्पण कर दिया है, उनको मेरे अतिरिक्त और किसी वस्तुकी चाहना नहीं है एक मैंहीं उन्हैं प्रिय हूं, अधिक क्या कहैं ब्रह्मलोक, इन्द्रका संपूर्ण राज्य, भूमिका राज्य, पातालका राज्य, अणिमा महिमादिक योग सिद्धि मोक्षतककी भी उनको चाहना नहीं है॥१४॥ इसलिये भक्तोंके समान मुझे कोई प्यारा नहीं, हे उद्धव ! अब मैं तेरे आगे अधिक क्या कहूं मेरा आत्मा भी मुझे प्रिय नहीं. हे उद्धव! जैसे तुम मुझे प्यारे हो, वैसे मेरा पुत्र, ब्रह्मा, महादेव, संकर्षण और लक्ष्मीजी भी मुझे प्यारी नहीं हैं, यह अतिसंतोषसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा॥१५॥१६॥ उत्तम भक्तोंकी तो कथाही क्या है, जो समान्य भी मेरे

भक्त हैं वह भी कृतार्थ हैं और जो मेरे भक्त विषयोंसे पीडित अजितेन्द्रिय हैं, उनको भी दृढभक्ति होनेके कारण विषय पराभव नहीं कर सक्ते॥ ॥१७॥१८॥ हे उद्धव! जिसप्रकार प्रचण्ड अग्नि काष्ठको भस्म कर देती है, इसीप्रकार मेरी दृढभक्ति सब पापों का नाश करदेती है॥१९॥ इससे भक्तिविना और कोई उपाय नहीं है, हे उद्धव! योग, सांख्य, धर्म, पाठ, तप, त्याग, यह कोई मुझे ऐसे वश नहीं कर सकते हैं जैसी एक दृढ़ भक्ति मुझे वश कर लेती है ॥२०॥ भक्तोंको प्रिय आत्मा रूपमें श्रद्धासे उत्पन्न हुई भक्तिसेही महात्माओंके वश होजाता हूं, यदि मेरी भक्ति, चाण्डाल

बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेंद्रियः॥ प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते॥१८॥ यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्॥ तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः॥१९॥ न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव॥ न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥ २० ॥ भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्॥ भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि संभवात्॥२१॥ धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता॥ मद्भक्त्याऽपेतमात्मानं न सम्यक्प्रपुनाति हि॥ २२॥ कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना॥ विनानंदाश्रुकलया शुध्येद्भक्त्या विनाऽऽशयः॥ २३॥ वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च॥ विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥ २४ ॥

भी करै तो उसके जाति दोष पवित्र होजाते हैं *॥२१॥ इसपर एक दृष्टान्त है सत्य और दयासंयुक्त धर्म और तपसे संयुक्त विद्या भी उस पुरुषको पवित्र नहीं कर सक्ती, जिसके चित्तमें मेरी भक्ति नहीं ॥ २२॥ जिसके रोमांच न हो, द्रवीभूत चित्त न हो, आनंदके आंशू न चलें, उसकी भक्ति कैसे जान जाय और भक्ति विना हृदय कैसे शुद्ध हो?॥२३॥ अब भक्तिका लक्षण कहते हैं, जिसकी वाणी गद्गद हो चित्त द्रवीभूत कोमल हो नेत्रोंसे

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*** दृष्टान्त—**एक तिलोक सुनार बढे साधुसेवी थे जो कुछ वस्तु प्राप्त होती, सब साधुओंमें व्यय करदेते थे, एक समय राजाके यहाँसे कुछ आभूषण बनानेको आये, सो इनके यहाँ बहुत साधू आगये, इन्होंने उस राजाके द्रव्यकी भोजनसामग्री मँगाकर साधुओंको खिलादी और आप टालबाल करते रहे, जब राजाके यहाँ व्याहका दिन आया तो यह जंगलको भाग गये, भगवान्ने भक्तकी रक्षा करी और तिलोकका रूप बना गहना लेकर राजाके घर गये वहाँसे अच्छे आभूषण बनानेके कारण पुरस्कार पाया और गहना लिया भगवान् वह पुरस्कारका द्रव्य तिलोक के घर दे जंगलमें जाकर उससे कहने लगे कि, घरको जा, राजाने वहुत द्रव्य दिया है, तिलोक सुनतेही घर आय अत्यन्त प्रसन्न हुए सो ईश्वरके भक्त कभी नष्ट नहीं होते।

वारंवार आंशु बहैं कभी हँसे, कभी लज्जा छोड़ उच्चस्वरसे गावे, नाचे इस प्रकार जो मेरी भक्तिसे युक्त हो, वही लोकोंको पवित्र करता है॥२४॥ जैसे सुवर्ण अग्निमें तपानेसे श्यामता छोड़ निर्मल हो अपने रूपको प्राप्त होता है, वैसेही यह आत्मा मेरे भक्तियोग से कर्म वासना त्यागकर मेरे ही स्वरूपको प्राप्त होता है॥२५॥ ज्ञान विना अविद्या नहीं जाती, अविद्याके गये विना तुम नहीं मिलते, इसप्रकार कहते हैं कि, यह पुरुष जैसे जैसे मेरी पुण्य कथा श्रावण कीर्त्तन करते हैं वैसेही वैसे शुद्ध चित्त होतेहैं, नेत्र जैसे जैसे अंजनसे सूक्ष्म होते हैं, वैसेही वैसे सूक्ष्म पदार्थ देखने में आते हैं॥॥२६॥ यद्यपि विषयके ध्यानमें मन विषयमें रहता है, परन्तु तो भी मेरा ध्यान करनेसे शुद्ध चित्त होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होजाता है, क्योंकि

यथाऽग्निना हेममलं जहातिध्यातं पुनः स्वं भजते स्वरूपम्॥ आत्मा च कर्मानुशयं विधूय मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम्॥२५॥ यथायथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानैः॥ तथातथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवांजनसंप्रयुक्तम्॥२६॥ विषयान्ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते॥ मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥२७॥ तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथान्॥ हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम्॥२८॥ स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्॥ क्षेमे विविक्त आसीनश्चिंतयेन्मामतंद्रितः॥२९॥ न तथाऽस्य भवेत्क्लेशो बंधश्चान्य प्रसंगतः॥ योषित्संगाद्यथा पुंसो यथा तत्संगिसंगतः॥३०॥ उद्धव उवाच॥ यथा त्वामरविंदाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्॥ ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं मे वक्तुमर्हसि॥३१॥

मेरी भक्ति विना ज्ञान नहीं होता और मेरे स्वरूपकी प्राप्ति होनी वही ज्ञान है ॥२७॥ हे उद्धव!इसलिये स्वप्न मनोरथके समान मिथ्यावस्तुका ध्यान छोड़ मेरी भावनासे चित्त शुद्ध कर मेरे स्वरूपमें रक्खै॥२८॥ स्त्रियोंका संग और स्त्रियोंके संगियोंका संग दूरसे छोड़ आत्माको जान, धीर हो, एकान्त में बैठे परमकल्याणरूप मेरा चिंतवन करै॥२९॥ क्योंकि जैसा स्त्रियों के संगसे और स्त्रियों के संगियों के संगसे इसे क्केश होता है, ऐसा और के संगसे नहीं होता है॥३०॥ उद्धवजी बोले कि, हे कमलनयन! जो मोक्ष चाहे, वह तुम्हारा ध्यान किसप्रकार करैकिस

स्वरूपका करे? यह मुझसे कहो क्योंकि मैं तो आपके दासभावके पुरुषार्थको प्राप्त होचुकाहूं *॥३१॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे उद्धव! समान आसनपर बैठ अपनी देह समरख जैसे सुखहो वैसेही बैठ, अपने दोनों हाथ गोदपर रक्खै नासिकाके अग्रपर दृष्टि रक्खै॥३२॥ इसप्रकार बैठ प्राणके मार्ग पूरक, कुंभक, रेचक, करके शुद्ध हो, जितेन्द्रिय हो शनैशनैः प्राणायामका अभ्यास कर रेचक, पूरक, कुंभक, क्रमसे अभ्यास करे ॥३३॥ प्राणायाम दो प्रकारका है, एक तो प्रणवसहित प्राणसे प्रगट करके ॐकारमें घंटेके शब्दके समान उदात्त नाद स्थित करे॥३४॥

श्रीभगवानुवाच॥ सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्॥ हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः॥३२॥ प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुंभकरेचकैः॥ विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेंद्रियः॥३३॥ हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घंटानादं बिसोर्णवत् ॥ प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम्॥३४॥ एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत्॥ दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग्जितानिलः॥३५॥ हृत्पुंडरीकमंतःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम्॥ ध्यात्वोर्ध्वमुखमु न्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम् ॥ ३६ ॥

इस प्रकार प्रणवसंयुक्त प्राणके अभ्याससे प्रगट करे और प्रणवमें घटाना, बढाना, साधनका, स्थित अभ्यास करै, दश प्राणायाम तीनों काल करै, इस प्रकार अभ्यास करने से एक महीने में प्रणवायु वशमें होजाता है॥३५॥ इसदेहके भीतर हृदयकमल अधोमुख है, उसकी दंडी ऊपर रहती है, जैसे केलेकी फली होती हैं, ऐसेही कमलकी कली होती है, उसका ध्यान ऐसा करे कि, वह नीचे नालवाला और ऊपर मुखवाला खिलाहुआ
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*** शंका—**श्रीकृष्णसे उद्धबने बूझा कि मुक्तिकी इच्छा करनेवाले योगीजन भगवानका ध्यान कैसे करते हैं तब श्रीकृष्णने उद्धबकी बातको त्यागकर सगुणरूपका वर्णन किया इसका क्या कारण

**उत्तर—**श्रीकृष्णचन्द्रने विचार किया कि, ब्रह्मका ध्यान मुक्तिकी इच्छा करनेवाले योगीराज करते हैं, सो ध्यान सुननेसे और कहने से प्राप्त नहीं होता वह ध्यान तो बहुत दिनोंतक सत्संग करने से प्राप्त होता और उद्धबका हृदय ज्ञानमें कच्चा है और हमारी इच्छा परमधामके जानेकी है, जो कुछ अधिक दिन हमको मर्त्यलोकमें रहना होता तो भी उद्धब ब्रह्मज्ञान जाननेमें पक्का होजाता, ऐसा विचार करकेसगुणका ध्यान वर्णन किया कि, धीरे धीरे सगुणका ध्यान करते करते ब्रह्मके ध्यानको उद्धव प्राप्त होजाँयगे, इसलिये ब्रह्मके ध्यानको त्यागकर सगुणका ध्यान श्रीकृष्णचन्द्रने वर्णन किया।

आठ पखुरीसे युक्त है कार्णिकासहित मनमें चिंतवन करे॥३६॥उस कमलकी कर्णिकामें सूर्य, चन्द्र और अग्नि हैं, उस अग्निमें मेरे इस रूपका क्रमसे ध्यान करै उसमें प्रथम अग्निके बीचमें वक्ष्यमाण ध्यानके मंगलरूप विषय मेरे स्वरूपका ध्यान करना चाहिये॥३७॥सम अति शान्त सुन्दर मुख दीर्घ सुन्दर चार भुजा धारण करे अतिसुन्दर ग्रीवा, उत्तम गोल कपोल, अति उज्वल मंद मुसकान युक्त॥३८॥ समान कानों में प्रकाशमान मकराकृत कुण्डल धारण किये पीताम्बर पहरे मेघकी भाँति श्याम सुन्दर श्रीवत्स संयुक्त लक्ष्मीको वक्षस्थलमें धरे॥३९॥ शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमालासे भूषित नूपुरोंसे शोभित चरण कमल कौस्तुभ मणिकी कांतिसे संयुक्त॥४०॥ प्रभावसे दीप्त मुकुट, कंकण,

कर्णिकायां न्यसेत्सूयसोमानीनुत्तरोत्तरम्॥ वह्निमध्ये स्मरेद्रूपं ममैतद्धयानमंगलम्॥३७॥ समं प्रशांतं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्॥ सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम्॥३८॥ समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुंडलम्॥ हेमांबरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम्॥३९॥ शंखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्॥ नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभ प्रभया युतम्॥४०॥ द्युमत्किरीट कटककटिसूत्रांगदाऽऽयुतम्॥ सर्वांगसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम् ॥४१॥ सुकुमारमभिध्यायेत्सर्वांगेषु मनो दधत्॥ इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः॥ बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः॥४२॥ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्॥ नान्यानि चिंतयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्॥४३॥ तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्॥ तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिंतयेत्॥४४॥

कटिमेखला, बाजुबंद घरे सर्वांगसुन्दर और मनोहर प्रसन्नता के कारण अतिसुन्दर शोभित मुख और नेत्र अति सुकुमार रूपका ध्यान करै, सब अंगोंमें मन दे॥४१॥ प्रथम इन्द्रियोंको विषयोंसे खैंच मनमें मिलावै, मनको बुद्धि सारथीसे विषयोंसे निकाल मेरे स्वरूप में मिलावै॥॥४२॥ यह चित्त सर्वत्र व्याप्त है, अंग अंगमें फिरता है, उसको उनअंगोंसे निकाल मेरे मुखकी भावनामें रक्खै, मंदहास्य संयुक्त मेरे मुखका बहुत काल तक चिंतन करे और कुछ मनमें न घरै॥४३॥ जब मुखमें मन स्थिर होजाय, तब मुखसे भी खैंचकर सबके मूलभूत साक्षात् मेरे

स्वरूपमें रक्खै, उसे वहाँसे छुडाय साक्षात शुद्ध ब्रह्मरूप मेरे संपूर्ण स्वरूपमें संलग्न होय, तब और कोई चिंतवन न करै॥४४॥ इसप्रकार समाधिमें दृढ़ मति हो, अपने आत्मामें आत्मरूप मुझे ही देखै, जैसे ज्योतिमें ज्योति मिलजाती है, उसी प्रकार सर्वात्मरूपमें अपने आत्माको मिला देखै॥४५॥ इसप्रकार सुदृढ़ तीक्ष्ण ध्यान से योगीजन मुझमें मन संयुक्त करें, तब वह द्रव्य ज्ञान क्रियारूप भ्रम शीघ्रही निवृत्त होनेसे शान्तिको प्राप्त होता है॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा-प्रथम धारणा अनुसरण, करत विष्णुपद प्रेम॥ विघ्नरूप सिद्धी सकल, समझ यही दृढ़ नेम॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव!जो जितेन्द्रिय हो और श्वास जीते चित्त मुझमें रखता हो, योगी हो, स्थिर चित्त हो, उसे यह सिद्धियें प्राप्त होती हैं॥१॥ तब उद्धवजी बोले कि हे श्रीकृष्ण ! कैसी धारणासे यह

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि॥ विचष्टे मयि सर्वात्मञ्ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम् ॥४५॥ ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युंजतो योगिनो मनः॥ संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः॥४६॥ इति श्रीमद्भागवते म० एकादश स्कंधे भक्तिध्या नयोर्वर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीभगवानुवाच॥ जितेंद्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः॥ मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठंति सिद्धयः॥१॥ उद्धव उवाच॥ कया धारणया कास्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत॥ कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान्॥२॥ श्रीभगवानुवाच॥ सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगैः॥ तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः॥३॥ अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिंद्रियैः॥ प्राकाश्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता॥४॥

सिद्धि प्राप्त होती है और सिद्धि कितनी हैं? इनका रूप क्या है? सो सब मुझसे कहो क्योंकि, तुम योगियों को भी सिद्धियोंके देनेवाले हो॥२॥ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! धारणा और योग के पारंगतों ने अठारह (१८) सिद्धि कही हैं, उनमें आठ मेरे आश्रय रहती हैं, वह मुझे ही प्राप्त होती हैं, अथवा जो मेरे सारूप्यको प्राप्त हैं उन्हें होती हैं, परन्तु कुछेक न्यून हो और दश सिद्धि गुणोंका कार्य हैं, सतोगुणका उत्कर्ष बढ़ाती हैं॥३॥ उनको कहते हैं, अणिमा, महिमा, लघिमा, यह तीनों देहकी सिद्धि हैं प्राप्ति सिद्धि इंद्रियकी हैं इंद्रियोंसे मिल इंद्रियोंके देवता ओंका संग होना, परलोक और इस लोक के विषयोंके भोग देखनेकी सामर्थ्य, तथा भूमिके गुप्त पदार्थका ज्ञान होना प्रकाश्य सिद्धि है ईश्वरमें मायाकी

और दूसरोंमें मायाके अंशोंकी प्रेरणा करनेकी सामर्थ्यको ईशिता सिद्धि कहते हैं ॥४॥ गुणमें असंग हो, विषय भोग करै और संग दोष न लगे; उसे वशिता सिद्धि कहते हैं और जिसकी कामना करें वही प्राप्त हो उसे प्राकाम्य सिद्धि कहते हैं, हे उद्धव! यह आठ सिद्धियें मेरे आश्रय रहती हैं॥५॥ क्षुधा पिपासादिक शरीरमें न व्यापै, उसको अनूर्मिमत्व सिद्धि कहते हैं (१) दूरकी सब बातें सुनने में भले प्रकार आवैं, इसका नाम दूरश्रवण सिद्धि है (२) दूरके सब पदार्थ और सर्वत्र स्थान घर बैठे दीखैं, उसका नाम दूर दर्शन सिद्धि है (३) जहाँ मन जाय वहाँ देह सहित पहुॅचना इसका नाम मनोजव सिद्धि है (४) जैसा रूप बनाना चाहै उसीप्रकारका रूप होजाय. इसका नाम कामरूप सिद्धि है (५) दूसरेके शरीर में प्रवेश करना इसका नाम परकाय प्रवेशन सिद्धि है (६)॥६॥ अपनी इच्छानुसार मरना, इसका नामस्वच्छन्द मृत्यु सिद्धि है (७)

गुणेष्वसंगो वशिता यत्कामस्तदवस्यति॥ एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः॥५॥ अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्॥ मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम्॥६॥ स्वच्छंद मृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्॥ यथासंकल्पसं सिद्धिराज्ञाऽप्रतिहताऽऽगतिः॥७॥ त्रिकालज्ञत्वमद्वंद्वं परचित्ताद्यभिज्ञता॥ अग्न्यर्कांबुविषादीनां प्रतिष्टंभोऽपराजयः॥८॥

देवता अप्पुराओंके साथ क्रीडा करतेहैं उनको देखनेकी सामर्थ्य इसका नाम देवानांसह क्रीडानुदर्शन सिद्धिहै (८) जो मनमें इच्छा हो, वही वस्तु तत्काल प्राप्तहो, इसका नाम यथासंकल्प से सिद्धिहै (९) किसी स्थल में आशाका भंग न हो इसका नाम अप्रतिहताज्ञा सिद्धि है (१०) यह दशसिद्धि सत्त्वगुणकी वृद्धिसे मिलती हैं॥७॥ पांच सिद्धि तुच्छ हैं सो कहते हैं, तीन कालका ज्ञान होना, इसका नाम त्रिकालज्ञ सिद्धि है (१) शीत उष्ण कुछ न लगना, इसका नाम अद्वन्द्व सिद्धिहै (२) पराये मनकी बात जानलेना इसका नाम प्रचिताद्यभिज्ञता सिद्धि (३) अग्नि, सूर्य, जल, विष आदिसे देहको किसी प्रकारकी हानि न हो, इसका नाम प्रतिष्टंभ सिद्धिहै (४) और कहीं पराजय न हो, इसका नाम अपराजय सिद्धिहै (५) यह पाॅच क्षुद्रसिद्धि हैं * ॥८॥

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शंका—अग्नि, सूर्य, विष, जल, इत्यादि और बडे २पदार्थोंका तेज रोकनेके लिये श्रीकृष्णने सिद्धियें वर्णनकी हैं, ऐसी सिद्धियोंसे योगीजन अग्नि, सूर्य, विष, जल, इन सबके सम्पूर्ण तेजको रोक लेते हैं. इसमें यह शकहै कि, भगवान् वासुदेवमें जिन योगीश्वरोंका मन लगा है उनको इन सब पदार्थोंके रोकनेसे क्या प्रयोजन ?

हे उद्भव ! यह सब योगधारणाकी सिद्धि मात्र कहीं अब ज्ञान धारणासे सिद्धि जो प्राप्त होती हैं, वह मैं आपके सामने वर्णन करता हूँ सो सुनो॥॥९॥ सूक्ष्म मेरे रूपमें सूक्ष्म भूत अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, सूक्ष्म तन्मात्राके आकार से इस भूत सूक्ष्म उपाधिमान मेरे स्वरूपमें धारण करने से सूक्ष्मरूपका उपासक पुरुष आणिमा सिद्धिको प्राप्त होता है॥१०॥ ज्ञानशक्ति महत्तत्त्वरूपमें महत्तत्त्वरूप मन में धारणकरै तो महिमा सिद्धिको प्राप्तहो और भिन्न २ आकाशादिक भूतोंहीके रूपमें मन लगावैं तो भूतोंकी महिमा सिद्धिको प्राप्तहो ॥११॥ पंचभूतोंके परमाणु

एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः॥ यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे॥९॥ भृतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः॥ अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम॥१०॥ महत्यात्मन्मयि परे यथासंस्थं मनो दधत्॥ महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक्पृथक्॥११॥ परमाणुमये चित्तं भृतानां मयि रंजयन्॥ कालसूक्ष्मार्थता योगी लघिमानमवाप्नुयात्॥१२॥ धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्॥ सर्वैन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्ति प्राप्नोति मन्मनाः॥१३॥ महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्॥ प्राकाश्यं पारमेष्ठ्यं मे विंदतेऽव्यक्तजन्मनः॥१४॥

अतिसूक्ष्म हैं, सो मेरा रूप है, उसमें चित्त अनुरक्त करै, तब योगी परमाणु कालके रूपको प्राप्त होता है; इसीका नाम लघिमा सिद्धि है॥१२॥ सात्त्विक अहंकार तत्त्वरूप मुझमें एकाग्रमन घरे तो सब इन्द्रियोंका अधिष्ठाता होवे, मुझमेंही मन लगानेके प्रभाव से यह प्राप्तिसिद्धि प्राप्त होती है॥१३॥ प्रकृति से क्रियाशक्ति रूप महत्त्व होय है; सो रूपहै, उसमें मन लगावै, तो सबसे उत्तम प्राकाम्य सिद्धिको प्राप्त हो॥१४॥

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**उत्तर—**योगशास्त्रके जाननेवाले मुनिजन दो प्रकारके योगी होते हैं, एक तो गृहस्य योगी जो घरमें बैठे २ योग करते हैं, जैसे राजा जनक दूसरे विरक्त योगी जो घर त्यागकर योग करते हैं, जैसे। भूतनाथ शिव। आठ सिद्धि भी आदिसे चली भाती हैं, श्रीकृष्णने गृहस्य योगियों के लिये इन सिद्धियों को कहाया अग्नि, सूर्य, विष, जलका तेज रोकनेके लिये नहीं कहा जो कोई कहे कि, ऐसा भेद नहीं कहा कि, गृहस्थ, योगियोंके लिये यह सिद्धि तो ठीक हैं, भगवान्‌को बैकुण्ठके जानेकी इच्छार्थी इसलिये आतुरतासे योगियोंका नेम नहीं किया॥

त्रिगुण मायाके नियंता अंतर्यामी कालरूपी व्यापक मेरे स्वरूपमें मन लगावै तौ सब जीव और चर अचर शरीरका नियंता होवे, सो ईशिता सिद्धिको प्राप्त होता है॥१५॥ विराद हिरण्यगर्भ और कारणसे चौथे तुरीय ब्रह्म भगवान् नारायणमें जो मन लगावै तो वह योगी मेरे धर्मको प्राप्त हो, तब वशिता सिद्धिको पावे॥१६॥ निर्गुण ब्रह्ममें निर्मलमन रखै तो परमानन्दको प्राप्तहो, जहाँ सब कामना समाप्त होती हैं ॥ १७॥ अब गुणहेतु सिद्धि कहते हैं-कि, श्वेतद्वीपके पति शुद्ध धर्ममय मेरे रूपमें मन लगावे तो मनुष्य शुद्धताको प्राप्त हो और उसे क्षुधा पिपासा आदि यह छः ऊर्मी-लहरी नहीं व्यापतीं॥१८॥ आकाश रूप प्राण है, सो मेरा स्वरूप है, उसमें मन लगाकर शब्दका चितवन करे तब वह आका

विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे॥ स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रक्षेत्रज्ञचोदनाम्॥१५॥ नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते ॥ मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् ॥१६॥ निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः॥ परमानंदमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते॥१७॥ श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि॥ धारयञ्छ्वे तत याति षडूर्मिरहितो नरः॥१८॥ मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्॥ तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ ॥१९॥ चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि॥ मां तत्र मनसा ध्यायन्विश्वं पश्यति सूक्ष्मदृक्॥२०॥ मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनु वायुना॥ मद्धारणाऽनुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः॥२१॥ यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति॥ तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः॥२२॥ परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्॥ पिंडं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडंघ्रिवत् ॥२३॥

शमें भूतोंकी वाणी प्रगट दूरहीसे सुनता है॥१९॥ यह नेत्र सूर्यमें मिलावे मनसे मेरा ध्यान करैं तब सूक्ष्म दृष्टि हो विश्वको दूरही से देखे॥२०॥ मन वायुके संग देहको मुझमें संयुक्त करके जो मेरी धारणा करै तो इस धारणाके प्रतापसे जहाँ मन करै वहाॅही देह चली जाय॥२१॥ जब मन मेरे विषे मनकी धारणा से धरै तब मेरे प्रभावसे जैसा रूप करना चाहै वैसाही रूप करै क्योंकि उन्हें मेरे योगबलका आश्रय है॥२२॥ जो सिद्धि पराई कायामें प्रवेश करना चाहै, सो आत्माका चिंतवन करै, तब अपनी देह छोड प्राणरूप हो बाहरकी वायुमें प्रविष्ट हो

वायुके संग परकायामें प्रविष्ट होते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पसे दूसरे पुष्पमें अनायास चले जाते हैं॥२३॥ अब स्वच्छंद मृत्युकी क्रिया कहते हैं, योगधारणा करते समय प्रथम ऍडीसे गुदाका द्वार दाबकर रोके, पीछे प्राणको हृदयमें ले आवै फिर हृदयमें वक्षःस्थलमें मिलावै इसके पीछे कण्ठमें ले आवै, माथेमें लावै तब ब्रह्मरंध्रद्वारा इस देहको छोडै और जिस स्थान में जाना चाहै वहां जाय॥२४॥ और जो देवताओंके क्रीडा स्थलमें विहार करना चाहै तो मेरी सतोगुणरूपी मूर्त्तिका ध्यान करे तब सतोगुणके अंश से वहांहीं विमान समेत देवांगना आनकर उपस्थित हो जाती हैं॥२५॥ पुरुष मुझमें विश्वासकर बुद्धिसे मनोरथ करै, तब सत्यसंकल्परूप मेरे रूपमें मन संयुक्त करै तब वैसेही मनोरथको प्राप्तहो यथासंकल्प नाम सिद्धिको पाता है॥२६॥मैं सबोंका ईश्वर और नियंताहूं, स्वतंत्र हूं मेरे भावको प्राप्त हुआ पुरुष कहीं प्रतिहत नहीं होता जैसे मेरी

पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकंठमूर्धसु॥ आरोप्य ब्रह्मरंध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम्॥२४॥ विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्॥ विमानेनोपतिष्ठंति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः॥ २५ ॥ यथा संकल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्॥ मयि सत्ये मनो युंजंस्तथा तत्समुपाश्नुते॥२६॥ यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्॥ कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम॥२७॥ मद्भक्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः॥ तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्म मृत्यूपबृंहिता॥२८॥ अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः॥ मद्योगश्रांतचित्तस्य यादसामुदकं यथा॥२९॥ मद्वि भूतीरभिध्यायञ्छ्रीवत्सादिविभूषिताः॥ ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः॥३०॥

आज्ञा सब मानते हैं, वैसेही उसकी आज्ञाभी सब मानते हैं, कोई उल्लंघन नहीं करसकता, यह पुरुष सब गुण हेतु अप्रतिहताज्ञानाम सिद्धिको प्राप्त होता है॥२७॥ अब तुच्छ सिद्धि कहते हैं, मेरी भक्तिसे शुद्ध सत्त्वरूपमय होकर, योगी और त्रिकालके ज्ञाता ईश्वर इसप्रकार मेरी धारणा करै, तब जन्म, मृत्यु सहित तीनों कालका ज्ञान होय और इसीसे दूसरेके चित्तकी सब बात जानी जाती है॥२८॥मेरे योगसे जिसका चित्त युक्त हो उसकी देह भोगमय होय सो अग्निसे और अनेक उपाधिसे उपहत नहीं होते हैं, जैसे जलजंतुको जलबाधा नहीं करता, ऐसेही इसको कोई बाधा नहीं कर सकता है॥२९॥ श्रीवत्स, अस्त्र, ध्वज, छत्र, चमरयुक्त मेरी विभूति अवतारका ध्यान करै, तो कभी इसकी पराजय न होय॥३०॥

इस प्रकार मेरी उपासना करै. तब मेरी योगधारणा करनेसे पहले कही हुई सब सिद्धि उसके आगे हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं॥३१॥ अनेक भाँतिकी धारणा में कष्ट बहुत हैं, इसकारण एकही धारण ऐसी करें कि, जिससे सब सिद्धि प्राप्तहों, सो कहते हैं, जितेन्द्रिय होय दांत जित होय, श्वासजित् होय मनजित होय, तुरीय ब्रह्म नारायणस्वरूप जो मैंहूं मेरी धारणा धरनेवाले पुरुषको कौन सिद्धि दुर्लभ है ?।॥३२॥ जो मेरे साक्षात् स्वरूपकी धारणा करते हैं, उनको मेरी प्रीति होनेके कारण यह सिद्धि विघ्नकरती हैं, इसलिये इन सिद्धियोंसे व्यर्थ काल न खोवै, अर्थात् इन सिद्धियोंकी चाहना न करै॥३३॥ एक सिद्धि जन्महीसे होती है जैसे देवताओं का सिद्धिसहितही जन्म होता है, सहितही सिद्धिहैं, एक मंत्रसे, औषधीसे तपसे जितनी सिद्धि होती हैं, यह सब योग से पाते हैं परन्तु इनसे सलोक्यादिक मुक्तिको नहीं प्राप्त होते हैं॥३४॥ इसलिये हे उद्भव! सब सिद्धियोंका

उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः॥ सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठंत्यशेषतः॥ ३१ ॥ जितेंद्रियस्य दांतस्य जितश्वासात्मनो मुनेः॥ महारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा॥३२॥ अंतरायान्वदंत्येता युंजतो योगमुत्तमम्॥ मया संपद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः॥३३॥ जन्मौषधितपोमंत्रैर्यावतीरिह सिद्धयः॥ योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैयोगगतिं व्रजेत्॥३४॥ सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः॥ अहं योगस्य सांख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम्॥३५॥ अहमात्मांतरो बह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्॥ यथा भूतानि भूतेषु बहिरंतः स्वयं तथा ॥२६॥ इति श्रीम० म० एकादशस्कंधेऽष्टादशसिद्धिवर्णनं नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ उद्धव उवाच त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यंतमपावृतम् ॥ सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः ॥१॥

एक मैंही प्रभु हूँ क्योंकि उनकी उत्पत्ति और पालन में हीं करता हॅू सिद्धियोंहीका प्रभु मैं नहीं हूं किन्तु में मोक्ष, सांख्य, ज्ञान, धर्म और ब्रह्मके जाननेवालोंका पालक हूँ इसलिये सिद्धियोंकी अपेक्षा नहीं रखकर मुझको प्राप्त होना यही योगका प्रधान फल है॥३५॥ मैं सब जीवोंका आत्मा हूं क्योंकि मैं सबका अंतर्यामी हॅू सर्वत्र व्यापक हूँ जैसे भूतों में महाभूत सर्वत्र व्याप्त है और आवरणरहित है॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा-इस सोलह अध्यामें, ज्ञान प्रभाव विचार॥ वह विभूति वर्णन करौं, देत सदा फल चार॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे कृष्ण। तुम साक्षात् परब्रह्म निरावरण तथा स्वतंत्र हो जिनमें सब भूतमात्रकी

उत्पत्ति, प्रलय, रक्षा और जीवन होता है ऐसे तुम सबके कारण हो; आदि अंतसे रहित हो॥१॥ हे भगवन्! जो वेदके तत्त्वको जानते हैं सो सर्वत्र ऊँचे नीचे पदार्थों में कारणरूप तुमको जान तुम्हारी उपासना करते हैं॥२॥ जो आत्मतत्त्वको नहीं जानते हैं, उनके जाननेमें तुम नहीं आते और जिन जिन भावनाविषे ऋषीश्वर भक्ति करके तुम्हारी उपासना करके सिद्धिको प्राप्त होते हैं, सो मुझसे उन पदार्थोंके नाम कहो॥३॥ सब प्राणियोंके मध्य में गुप्त तुम अंतर्यामी हो, प्राणियोंका कार्य कारण समर्थके दाता तुम्हैं सब भूत तुम्हारी मायासे मोहित होकर नहीं देखते हैं॥४॥

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः॥ उपासते त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणाः॥२॥ येषुयेषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः॥ उपासीनाः प्रपद्यंते संसिद्धिं तद्वदस्व मे॥३॥ गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन॥ न त्वां पश्यंति भूतानि पश्यंतं मोहितानि ते॥४॥ याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां विभूतयो दिक्षु महाविभूतेः॥ ता मह्य माख्याह्यनुभावितास्ते नमामि ते तीर्थपदांघ्रिपद्मम्॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदांवर॥ युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै॥६॥

जिनमें गुप्त रहतेहो, उन विभूतियोंको पूछते हैं, हे महाविभूतियों के पति! जो तुम्हारी विभूति भूमि से स्वर्ग, पाताल, दिशाओंमें निश्चय करी हैं और जो विभूति तुम्हारे प्रताप संयुक्त हैं, सो मुझसे कहो, तुम्हारे तीर्थरूप चरणारविन्दोंको मैं नमस्कार करताहूं॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, दे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्॥ इसीप्रकार उद्भवका प्रश्न सुन अति संतुष्ट हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे प्रश्नके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ। इसीभाँति शत्रुओंसे

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*** शंका—**भक्तोंके प्यारे भगवान्‌की पूजन करै, भजन करै ध्यान करे और भगवान्की सेवा है. सो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, सबको लिखा है, ऐसा नहीं लिखा है कि, ब्राह्मण अकेला भगवानकापूजन करै, हे ब्राह्मणों में उत्तम कुलभूषण! तो फिर श्रीकृष्णसे क्यों उद्धवजीने कही कि, हे भगवन् ! जिस विधिसे ब्राह्मण अपने आपको पूजन करते हैं सो विधि कहो हमको यह बडी मारी शका है क्योंकि वेदकी विधि पूजनमे तो एक विधि है, और शूद्रकी अलग है और भक्तिमार्गमें सबकी एक विधि है सो उद्धव परमभक्त थे भक्तिमार्ग की पूजाका वृत्तान्त बुझा था॥

**उत्तर—**उद्भवने त्राह्मणके शापसे यदुवशियोंकी क्षय देखकर ब्राह्मणोंने भगवान्‌को माना क्योंकि श्रीकृष्णके देखते ब्राह्मणोंके शापसे यादवका नाश होगया, श्रीकृष्णने कुछ सहाय नहीं की इस वास्ते उद्धव जीने जाना कि ब्राह्मणोंके ऊपर भगवान्का कुछ भी वश नहीं चलता।

सुद्धकरनेकी इच्छावाले अर्जुन ने युद्ध के समय कुरुक्षेत्र में प्रश्न कियाथा॥६॥ यदि कोई कहै कि, युद्धके समयमें इन प्रश्नका क्या प्रसंगथा, तो इसका उत्तर यह है कि, राज्यके लिये अपने जातिवालोका वध करना अनुचित अतिनिन्दित और अधर्मरूप जानकर कि, में इन्हें मारूंगा, यह मरैंगे इससे करुणा व्याप्त बुद्धि होनेसे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन युद्ध करने से निवृत्त हो स्थित हुआ॥७॥ तब मैंने युक्तिसे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुनको समझाया कि, कौन मारता है? और कौन मृत्युको प्राप्त होता है? उस उपदेशके प्रसंगमें उसने भी इसीप्रकार मुझसे पूछा था जैसे अभी तुमने पूँछा और उससे जो मैंने वर्णन किया है, वही मैं तुमसे कहता हूं ॥८॥ सो तुम सुनो हे उद्धव!इन सब प्राणीमात्रका आत्मा मैं हूं, सुहृद ईश्वर नियंता मैं हूं और सब

ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्॥ ततो निवृत्तो हंताऽहं हतोऽयमिति लौकिकः ॥ ७ ॥ स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या में प्रतिबोधितः॥ अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि॥८॥ अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः॥ अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः॥९॥ अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्॥ गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः॥१०॥ गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्॥ सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहंमनः॥११॥ हिरण्यगर्भो वेदानां मंत्राणां प्रणवस्त्रिवृत्॥ अक्षराणामकारोऽस्मि पदानि च्छंदसामहम्॥१२॥ इंद्रोऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्॥आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः॥१३॥ ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः॥ देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु॥१४॥

प्राणिमात्रमें भी मैं हूं, सबकी उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयकर्त्ता भी मैं ही हूं ॥९॥ गतिवालोंकी जो गति चलती फिरती है, उनका भी योग, मन और कर्म हीं हूं, जो सबको वशमें करते हैं, उनमें मेरा रूप है, अनंत गुण हैं, तिनमें समता गुण मेरा रूप है, गुण संयुक्त पुरुषका स्वाभाविक गुण मैं हूं॥१०॥ गुणवाले पदार्थोंमें क्रियाशक्ति प्रधान जो महत्तत्त्व है, वह मैंही हूं, सूक्ष्मों में प्रथम जीव मैं हूं दुर्जयों में मन में हूं ॥११॥ देवों का अध्यापक मैं हूं, मंत्रोंमें प्रणव मैं हूं, अक्षरोंमें अकार मैं हूं, छंदोंमें गायत्री मैं हूं॥१२॥ सब देवताओंमें इन्द्र में हूं, आदित्यों में विष्णु मैं हूँ। रुद्रोंमें नीललोहित मैं हूं॥१३॥ ब्रह्मर्षियों में भृगु मैं हूं देवर्षियोंमें नारद में हूं, राजऋषियों में मनु मैं हूं गायोंमें कामधेनु मैं हूं ॥१४॥

सिद्धेश्वरों में कपिलदेव मैं हूं पक्षियों में गरुड मैं हूं प्रजापतियोंमें दक्षप्रजापति हूं, पितरोंमें अर्यमा मैं हूं ॥१५॥ हे उद्धव! दैत्यों में दैत्योंका राजा प्रह्लाद मैं हूं, नक्षत्र ओषधियों का पति प्रभु चंद्रमा मैंहूँ यक्ष राक्षसोंका प्रभु कुबेर मैंहूं॥१६॥ गजेन्द्रों में ऐरावत मैंहूं, जलजंतुओंमें प्रभु वरुण मैंहूँ, प्रतापवानों में ओर दीप्तवंतोंमें सूर्य मैंहूँ, मनुष्यों में नराधिप मैंहूं॥१७॥ घोड़ोंमें उच्चैःश्रवा मैंहूं, धातुओंमें सुवर्ण मैंहूं दण्डकर्त्ता ओंमें यम मैं हूं, सर्पो में वासुकी मैंहुं॥१८॥ नागेन्द्रोंमें अनंत शेषनाग मेंहूं, सींग तथा दाढवालोंमें सिंह हूं, आश्रमोंमें संन्यास मैंहूं हे निष्पाप! वर्णोमें ब्राह्मण मैंहूं ॥१९॥ तीर्थ

सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्रिणाम्॥ प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा ॥५१॥ मां विद्धयुद्धव दैत्यानां प्रह्लादमसुरेश्वरम्॥ सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम्॥१६॥ ऐरावतं गजेंद्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्॥ तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम् ॥१७॥ उच्चैःश्रवास्तुरंगाणां धातूनामस्मि कांचनम्॥ यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः॥१८॥ नागेंद्राणामनंतोऽहं मृगेंद्रः शृंगिदंष्ट्रिणाम्॥ आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ ॥१९॥ तीर्थानां स्रोतसां गंगा समुद्रः सरसामहम्॥ आयुधानां धनुरहं त्रिपुरध्नो धनुष्मताम्॥२०॥ धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः॥ वनस्पतीनामश्वत्थ औषधीनामहं यवः॥२१॥ पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः॥ स्कंदोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः॥२२॥ यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्॥ वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः॥२३॥ योगानामात्मसंरोधो मंत्रोऽस्मि विजिगीषताम्॥ आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम्॥२४॥

और प्रवाहोंमें गंगारूप मैंहूँ. स्थिर जलोंमें समुद्र मैंहूं, आयुधों में धनुष मैंहूं, धनुषधारियों में त्रिपुरका घाती महारुद्र मैंहूँ निवासस्थान में सुमेरु मैं हूं, दुर्गमस्थलो में हिमालय मैंहूं वनस्पतियोंमें अश्वत्थ हूं, औषधियोंमें यव मेरा रूपहैं॥२०॥२१॥ पुरोहितों में वसिष्ठ मैं हूं वेदार्थज्ञाताओंमें बृहस्पति मैंहूं, सेनापतियों में स्वामिकार्त्तिक मैंहूं उत्तम मार्ग प्रवृत्तियों में ब्रह्मा मैंहूं॥२२॥ यज्ञमें ब्रह्मयज्ञमैंहूँ, व्रतमें हिंसारहित व्रत मैं हूं, शोधकोंमें वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी, रूप शोधक मैं हूं, यह सदा पवित्रकारी हैं॥२३॥ योगीजनोंमें समाधि में हूँ, विजयकी इच्छा वालोंका जो विचार है वह मैं हूं

विवेकियोंमें आत्मा, अनात्मा के विवेककारी विद्या मेरा रूप है, पांच प्रकारके जो व्याख्यादि वादी हैं, वह यह हैं, अख्याति, अन्यथाख्याति, शून्यथाख्याति असत ख्याति और अनीर्वचनीय ख्याति इनमें अनेक प्रकार वाद विवाद करनेवालोंका यह इसप्रकारके हैं, वह उस प्रकार के हैं, इस रीतिके जो अनेक विकल्प हैं, वह मैं हूं॥२४॥ स्त्रियों में शतरूपा मैं हूं, पुरुषोंमें स्वायंभुवमनु मैंहूं, मुनियोंमें नारायण मुनि मैं हूं ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार मैं हूं॥२५॥ धर्मोमें अभयदान मेराही रूप है, निर्भय स्थानों में आत्मनिष्ठा मैं हूं अति रहस्यो में प्रियवचन और मौन मैंहूं, मिथुन अर्थात् स्त्री पुरुषों में ब्रह्मा मैं हूँ, जिनके दो अर्द्धभागोंसे स्त्री और पुरुष प्रगट हुए हैं॥२६॥जो पुरुष धर्म में सावधान हैं, उनका संवत्सररूपी काल मैंहूँ, ऋतुओंमें वसंत मैंहूं, महीनों में मार्ग

स्त्रीणां तु शतरूपाऽहं पुंसां स्वायंभुवो मनुः॥ नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम्॥२५॥ धर्माणामस्मि संन्यासः क्षमाणामबहिर्मतिः॥ गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम् ॥ २६ ॥ संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ॥ मा सानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाऽभिजित्॥२७॥ अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः॥ द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान्॥२८॥ वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्॥ किंपुरुषाणां हनुमान्विद्याध्राणां सुदर्शनः॥२९॥ रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्॥ कुशोस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविष्ष्वहम्॥३०॥ व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः॥ तितिक्षाऽस्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥३१॥ ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्त्वताम् ॥ सात्त्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परः॥३२॥

शिर मैहूँ, और सम्पूर्ण नक्षत्रो में अभिजित मैहूं॥२७॥ युगो में सतयुग मैंहूं, धीरों में असित देवल मैहूं, वेदके विभाग कर्त्ताओंमें द्वैपायन व्यास मैहूं, कवियों में शुक्राचार्य मैं हूं॥२८॥ प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रलयगति अगति विद्या अविद्याका जाननेवाला वासुदेव मैंहूं हे उद्भव! वैष्णवों में तुम मेरे रूप हो, किंपुरुषों में हनुमान मैं हूं, विद्याधरोंमें सुदर्शन मैं हूं॥२९॥ रत्नों में पद्मराग मैं हूं, अति सुन्दर वस्तुओंमें पद्मकोश मैंहूँ, दर्भजातियोंमें कुश मैंहूं, घृतोंमें गौका घृत मैं हूं॥३०॥ उद्यमी पुरुषो में लक्ष्मी मेरा रूप है, धूर्त्तों में छल करके जो ग्रहण करना है, वह मेरा रूप है, क्षमावान् पुरुषोंमें क्षमा मैंहुं, सत्यवादियों में सत्य मैं हूं॥३१॥ बलवानों में इन्द्रियबल और उछाहबल मैं हूं; भक्तो में भक्तिरूप कर्म मैं हूं, नौमूर्त्तिभक्तोंकी पूजाको प्रगट हैं

उन वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वाराह, नृसिंह, ब्रह्मा आदि मूर्ति वासुदेव मैं हूं॥३२॥ गंधवों में विश्वावसु मैं हूं, अप्सराओंमें पूर्व चित्ति मैं हूं, पर्वतों में स्थैर्य हिमालय में हूँ॥३३॥ जलो में उत्तम माधुर्यरस मेराही रूपहै, तेजस्वियोंमें अग्नि में हूँ, सूर्य चन्द्र और तारोंमें कांति मैं हूँ, आकाश में परानाम शब्द मैं हूँ॥३४॥ ब्राह्मणके भक्तों में बलिराजा मैं हूँ, वीरो में अर्जुन में हूँ, हे उद्धव! निश्चय करके संपूर्ण भूतमात्र की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय मैं हूं॥ ३५॥ चरण, वाणी, गुदा, हस्त, लिंग इन पांच कर्मेन्द्रियोंका गमन, वचन, मलत्याग, आनंद लेना यह कर्म मैं हूं, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, श्रवण, नासिका ज्ञानेन्द्रियोंके स्पर्श, चितवन, आस्वाद, सुनना, आत्राण कर्म मैं हूं, उन उनके अर्थ ग्रहण करने की शक्ति भी मैं हूं॥३६॥ विशेष कहकर अब सामान्यसे सर्ब विभूति कहतेहैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, यह पांच सूक्ष्म मात्रा हैं, अहंकार महत्तत्त्व आदि यह सात प्रकृतिके विकार हैं पंच महाभूत और

विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गंधवाप्सरसामहम्॥ भृधराणामहं स्थैर्यं गंधमात्रमहं भुवः॥३३॥ अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः॥ प्रभा सूर्येंदुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः॥३४॥ ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः॥ भृतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसंक्रमः॥३५॥ गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानंदस्पर्शलक्षणम्॥ आस्वाद श्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेंद्रियम्॥३६॥ पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्॥ विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम् ॥३७॥ अहमेतत्प्रसंख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः॥ मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना॥ सर्वात्मनाऽपि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्॥३८॥ संख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया॥ न तथा मे विभूतीनां सृजतोंडानि कोटिशः॥३९॥

एकादश इन्द्रिय यह सोलह तत्त्व हुए एक पुरुष और प्रकृति, दो यह हुए, इसप्रकार सब पचीस (२५) तत्त्व हुए, रजोगुण सत्त्वगुण, तमोगुण यह तीन गुण, इनसे आगे परब्रह्म सो सब मैंही हूं, इनकी संख्या, इनका लक्षण सहित ज्ञान और उसका फल तत्त्वका निश्चय सब मैंही हूं॥३७॥ मैंही सबका ईश्वर हॅू सब जीवरूप हूं, मैंही गुणीरूप हूं, मैंही क्षेत्ररूप और क्षेत्रज्ञरूप हूं, इसलिये मुझविना जीव, ईश्वर, गुण, गुणी, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ इत्यादिक भाव कहीं नहीं॥३८॥ अहो! तुम ऐसे संक्षेपसे क्या कहते हो अच्छी भाँति विस्तार सहित समझाकर कहो, तो इसका उत्तर यह देते हैं कि, पृथ्वीके परमाणुकी संख्या कितनेही कालमें मैं करताहूं और करके कहने को भी समर्थ हूं परन्तु मेरी जो विभूतियें हैं उनकी

संख्या नहीं करीजाती, मैं अनेक कोटि ब्राह्मण्डों को सृजता हूं, जब ब्रह्माडोंकी ही संख्या नहीं तब उनमें स्थित मेरी विभूतियोंकी संख्या कौन करसक्ता है? ॥३९॥ परन्तु तौभी संक्षेपसे विशेष कर विभूति कहता हूं कि, जहाँ जहाँ तेज, श्री, कीर्त्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, दान, मान और नेत्रोंका आनंद, भाग्य, वीर्य, क्षमा, विज्ञान इत्यादि ये धर्म हैं, सो ये सब मेराही अंश हैं॥४०॥ ये विभूतियें संक्षेपसे मैंने इसलिये कहीं कि, ये मनका विकार हैं, परमार्थरूप नहीं जैसे आकाशके फूल, आदि वाणीमात्रसे कहीं हैं उनके तुल्य हैं ॥ ४१ ॥ पुरुषको उचित है कि, सतोगुणयुक्त बुद्धिसे वाणीको रोकै मनका नेम करै, प्राणोंको रोकै, इन्द्रियोंको निरोध करके बुद्धिको रोकै तब फिर संसारके मार्ग में न पडै ॥४२॥ यदि जो पुरुष इंद्रियोंका और बुद्धिका संयम नहीं करैं तो दोष उपजै, सो कहते हैं, जो बुद्धिसे भली भाँति वाणी और मनका संयम नहीं करै तो उसके व्रत और ज्ञान सब

तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः॥ वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्रयत्र स मेंशकः॥४०॥ एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः संक्षेपेण विभूतयः॥ मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ॥ ४१ ॥ वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छेंद्रियाणि च॥ आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने ॥ ४२ ॥ यो वै वाङ्मनसी सम्यगसंयच्छन्धिया यतिः॥ तस्य व्रतं तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटांबुवत्॥४३॥ तस्मान्मनोवचःप्राणान्नियच्छेन्मत्परायणः॥ मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते ॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० एकाद० विभूतिव० षोडशोऽध्यायः॥१६॥॥छ॥ उद्धव उवाच॥ यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः॥ वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥१॥

क्षीण होजाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेका जल क्षण क्षणमें क्षीण होताहै॥४३॥ इसलिये वचन, मन, प्राणको जीत मुझमें तत्पर हो, बुद्धि मेरे विषे युक्त करै, क्योंकि ऐसा करनेसे पुरुष कृत्यकृत्य होजाता है ॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा—इस सत्रह अध्याय में, साधन भक्ति उपाय ॥ हंसरूप धर जो कही, सो वरणी यदुराय॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे कमलदललोचन ! तुमने पहले कहदिया है कि, धर्मरूप कर्म भक्तिका और मोक्षका साधन है, परन्तु इसप्रकार कर्म करनेवालोंको अवश्य भक्ति मिलजाती है, ऐसा नियम देखने में नहीं आता, इसकारण वर्ण व आश्रमके आचारवालोंका तथा उस आचार के अधिकारसे रहित संपूर्ण

पुरुषोंका स्वधर्म वर्णन करो कि, वह धर्म जिस भाँति करनेसे पुरुषोंमें तुम्हारी भक्ति उत्पन्न हो जाय सो श्रवण करनेकी इच्छा है तुम्हैं अवश्य वर्णन करना चाहिये ॥१॥२॥ हे प्रभो ! हे महाभुज! हे श्रीमाधव ! पहले आपने हंसरूप धारणकर जो धर्म ब्रह्मजीसे कहा था वह परमसुखरूप निश्चय करके कहो ॥३॥ हे शत्रुनाशक ! बहुधा पहले सिखाया भी धर्म बहुत कालसे अब मनुष्यलोक में न होगा ॥४॥ इस धर्मका वक्ता, कर्त्ता, रक्षक, तुम्हारे अतिरिक्त और दूसरा भूमिपर नहीं है, हे अच्युत !हे प्रभो ! ब्रह्माजीकी सभामें भी तुम्हारे विना और नहीं जहाँ मूत्तिवंत वेदादिक हैं ॥५॥ हे मधुसूदन ! सब धर्म के कार्यकर्त्ता, सब धर्मके वक्ता, रक्षक जब तुम इस पृथ्वीको छोड़ोगे, तब नष्टहुए धर्मोंको कौन कहैगा?

यथाऽनुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत्॥ स्वधर्मेणारविंदाक्ष तत्समाख्यातुमर्हसि॥२॥ पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो॥ यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणेऽभ्यात्थ माधव॥३॥ स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन॥ न प्राय भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः॥४॥ वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि॥ सभायामपि वैरिंच्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः ॥५॥कर्त्राऽवित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन। त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति ॥६॥ तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः॥ यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो॥७॥ ( श्रीशुक उवाच॥ इत्थं सभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान्हरिः॥ प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान्)॥॥ श्रीभगवानुवाच ॥ धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम् ॥ वर्णाश्रमाचावतां तमुद्धव निबोध मे॥८॥ आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ॥ कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदुः॥९॥

॥६॥ सो सब धर्मके ज्ञाता तुम हो इससे हे प्रभो ! तुम्हारी भक्ति जिस प्रकार करै, सो सब धर्म जैसे जिसका कर्त्तव्य है, वैसेही मुझसे कहो॥७॥ श्रीशुकदेवजी मुनि बोले कि, हे कुरुकुलभूषण परीक्षित !इसप्रकार भक्त उद्धवजीके पूछनेसे भगवान् हरि अतिसंतुष्ट हो मनुष्योंका मरणधर्म दूर करनेवाला सनातन धर्म कहने लगे, श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव ! यह तुम्हारा प्रश्न धर्मरूप है और वर्णाश्रमोंके आचारवंत पुरुषों को भक्ति आनंदकारी है, उसको मैं कहता हूं तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥८॥ पहले सतयुगमें मनुष्योंका वर्ण हंसरूप था, तब सब प्रजा जन्महीसे कृत्यकृत्य

थी, इसीसे कृतयुग नाम हुआ, और कर्म भी कुछ कर्त्तव्य था, सो कहते हैं,॥९॥ उससमय प्रणव ओंकारही वेद था, चारों पाँवोंसे वृषभरूप धारण करे धर्मरूप मैं था, यह यज्ञादिक कर्म नहीं हैं, एक तपस्या सेही इन्द्रियों को स्थिरकर एकाग्रचित्त हो हंसरूप शुद्ध मेरा ध्यान करते थे॥१॥ हे महाभाग! जब त्रेतायुग हुआ तब विराट् मेरे प्राणसे और हृदयसे वेदत्रयीविद्या प्रगट हुई, उससे होता, अध्वर्यु, उद्गाता, सहित त्रिरूप यज्ञ प्रगट हुआ, सो यज्ञ मेरा रूप है॥१॥ त्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यह चारों वर्ण विराट् स्वरूपके मुख, बाहु, जंघा और चरणोंसे प्रगट हुए, और भी जो जिसका स्वधर्म था सो प्रगट हुआ॥१२॥ गृहस्थका तो आश्रम जंघासे प्रगट हुआ, ब्रह्मचर्य्यका धर्म हृदयसे हुआ, वानप्रस्थ वक्षस्थलसे हुआ, संन्यास

वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक्॥ उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः॥१०॥ त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्रयी॥विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥११॥ विप्रक्षत्रियविट्छूद्रा मुखबाहूरुपादजाः॥ वैराजात्पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥१२॥ गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम॥ वक्षःस्थानाद्वाने वासोन्यासः शीर्षणि संस्थितः॥१३॥ वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः॥ आसन्प्रकृतयो नणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः ॥१४॥ शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम्॥ मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः॥१५॥ तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः॥ स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्रप्रकृतयस्त्विमाः॥१६॥ आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम्॥ अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः॥१७॥ शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया॥ तत्र लब्धेन संतोषः शुद्रप्रकृतयस्त्विमाः ॥१८॥

मस्तकसे प्रगट हुआ॥१३॥और सब वर्ण आश्रमके स्वभाव भिन्न हुए, जिसने नीचयोनिमें जन्म धारण किया, उसका स्वभाव नीच हुआ, जिसने उत्तम योनिमें जन्म लिया, उसका स्वभाव उत्तम हुआ॥१४॥ शम, दम, तप, शौच, संतोष, क्षमा, शुद्ध भाव, मेरी भक्ति, दया, सत्य, यह सब ब्राह्मणका स्वभाव है॥१५॥ तेज, बल, धैर्य, शौर्य, क्षमा, उदारता, उद्यम, स्थैर्य, ब्रह्मण्यता, ऐश्वर्य यह क्षत्रियों का स्वभाव है॥१६॥ आस्तिकता, दान, निर्दम्भ त्राह्मणकी सेवा, द्रव्य संग्रह में अतृप्ति यह वैश्यका स्वभाव है॥१७॥ गायोंकी ब्राह्मणोंकी और देवताओंकी

निष्कपट सेवा करै जिससे जो पावै उसीमें संतोष रक्खै, यह शूद्रका स्वभाव है॥१८॥ अशौच, मिथ्या वाणी, चोरी, नास्तिकता, वृथा कलह, काम, क्रोध, तृष्णा, यह सब नीच जातिके स्वभाव हैं॥१९॥ हिंसा न करै, सत्य बोले, चोरी न करें, काम, क्रोध, लोभ, न हो, क्योंकि सबसे बडा जातिका धर्म है॥२०॥ अब चार आश्रमोंमें पहले ब्रह्मचारीका धर्म कहते हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके गर्भ से लेकर सब संस्कार हों अर्थात् जन्म धारण करने के उपरान्त दूसरा जन्म गायत्री उपदेश होनेके पीछे गुरुके घर जायर है इन्द्रियों का दम करै, जब गुरू बुलावै तब हुए वेद पढै॥२१॥ मेखला, मृगचर्म, दंड, रुद्राक्ष माला, यज्ञोपवीत, कमण्डलु, जटा इत्यादि सब धारण कियेर है तेलसे स्नान न करें, दाँत

अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्क विग्रहः॥ कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोंतेवसायिनाम्॥१९॥ अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता॥ भूतप्रियहितेहा च धर्मोयं सार्ववर्णिकः॥२०॥ द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयनंद्विजः॥ वसन्गुरुकुले दांतो ब्रह्माधीयीत चाऽऽहुतः॥२१॥ मेखलाजिनदंडाक्षब्रह्मसूत्र कमंडलून्॥ जटिलोऽधौतदद्वासोऽरक्तपीठः कुशान्दधत्॥२२॥ स्नानभोजन होमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः॥ न च्छिंद्यान्नखरोमाणि कक्षोप स्थगतान्यपि ॥२३॥ रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्॥ अवकीर्णेऽवगाह्याऽप्सु यतासुस्त्रिपदीं जपेत्॥२४॥अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुदृद्धसुराञ्छुचिः॥ समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग्जपन्॥२५॥ आचार्यं मां विजानी यान्नावमन्येत कर्हिचित्॥ न मर्त्यबुद्ध्याऽसूयेत सर्वदेवमयो गुरुः॥२६॥

घावन न करै; वस्त्र क्षारसे न धोवै आसनको न रंगै दर्भ धारण करें॥२२॥ स्नान, भोजन, होम, जप, मूत्र, पुरीष जब करे तो मौन रहे, नख, रोम और क्षौरकर्म न करावै, और कॉखके उपस्थके केश दूर न करावे॥२३॥ वीर्यस्खलन न करै, आप ब्रह्मचर्यको धारण करे रहे और जो प्रमादसे स्वप्न में वीर्य स्खलितहुआ होय तो जल में स्नान करके प्राणायाम करके गायत्रीका जप करें॥२४॥ अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, देवताओंकी पवित्र और एकाग्रचित्त से उपासना करे और यतवाक् होकर जप करै॥२५॥ गुरुओंका मनुष्यबुद्धिसे

सेवन न करै, किन्तु मेरा स्वरूप जानकर सेवन करै, कभी अवज्ञा न करै, क्योंकि संपूर्ण देवता गुरुओं में वास करते हैं॥२६॥ साँझ सबेरे भिक्षा आवै, सो गुरुके आगे धरै, और भी जो कुछ प्राप्त हो, सो सब गुरुके समर्पण करै और जब, गुरुजीकी आज्ञा होय तो संयमसे भोजन करे॥२७॥ जो गुरु कहींको जाय, तो उनके संग जायॅ, जब गुरु सोवैं तो उनके चरण दाबै, जब बैठें, तब सावधान हो हाथ जोड़ बहुत दूर न बैठे, आचार्यका आदर सन्मान करें, अच्छी भाँति सदा उपासना करें॥२८॥ इसप्रकार विषय भोग रहित होकर गुरुकुलमें वास करै और जबतक विद्या पूर्ण हो तबतक अखण्डित व्रत धारण करे रहै॥२९॥ यह तो ब्रह्मचारीके आश्रमका सामान्य धर्म कहा, अब जो ब्रह्मलोकके जाने की इच्छा करै, सो मेरी

सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत्॥ यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः॥२७॥ शुश्रूषमाण आचाय सदोपासीत नीचवत्॥ यानशय्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृतांजलिः ॥ २८ ॥ एवं वृत्तो गुरुकुले वसेद्भोगविवर्जितः॥ विद्या समाप्यते यावद्बिभ्रद्ग्रतमखंडितम्॥२९॥ यद्यसौ छंदसां लोकमारोक्ष्यन्ब्रह्मविष्टपम्॥ गुरखे विन्यसेद्देहं स्वाध्यायार्थं वृहद्रतः॥३०॥ अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम्॥ अपृथग्धीरुपासीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः॥३१॥ स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम्॥ प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोऽग्रतस्त्यजेत्॥३२॥ शौचमाचमनं स्नानं संध्योपासनमार्जवम्॥ तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्याभक्ष्याऽसंभाष्यवर्जनम्॥३३॥

निष्ठासे ब्रह्मचर्य्यव्रत करै सो कहते हैं कि, जो यह ब्रह्मचारी, जहॉ मूर्त्ति धारण करे वेद रहते हैं, ऐसे ब्रह्मलोक में जाना चाहे तो गुरुओंहीके पास रहै, वेदाध्ययन करै, निष्काम ब्रह्मचर्य व्रत करै, अधिक क्या कहैं? अपना देहतक भी गुरु के समर्पण कर दे॥३०॥ पूजाके स्थल कहते हैं, अग्नि, गुरु, आत्मा सब प्राणीमात्र में मेरी बुद्धि रक्खे मुझसे भिन्न न जाने, इसप्रकार ब्रह्मतेजयुक्त निष्पाप मेरी उपासना करै॥३१॥ स्त्रियोंका दर्शन,उनसे भाषण, परिहास न करै और जो कहीं कोई स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर बैठे होयँ तो उनको न देखे, आप गृहमें न रहे॥३२॥ यह धर्म सब आश्रमोंका कारण है, शौच मट्टीसे हाथ पाँव धोवै, आचमन करें, स्नान, संध्या, शुद्धभाव तीर्थ सेवन, तप, भिक्षा करे, परन्तु स्पर्श किसीका न

करै, जो असंभाष्य हैं, उन नीचोंका त्याग करे॥३३॥ हे कुलनंदन! सब प्राणीमात्रमें मेरा भाव रक्खै, मन वचन इन्द्रियोंको संयुक्त करै, यह नेम सब आश्रमोका है॥३४॥इस प्रकार जो व्रत रक्खे सो अनिके समान तेजस्वी होवै, सब कर्म जला, निर्मल हो, मेरी भक्तिको प्राप्त होवै॥३५॥ यह निष्काम ब्रह्मचारी के लिये मोक्षका प्रकार कहा जो सकाम होय सो वेदार्थ विचार, ब्रह्मचर्य छोड़ गृहस्थके आश्रममें आना चाहै, तो गुरुकोदक्षिणा दे, आज्ञा ले तब अभ्यंगादिक करके मेखला, दंड, मौंजी छोड़े (इस कर्मका नाम समावर्त्तन कहते हैं)॥३६॥ तहाँ दोनों पक्ष कहते हैं कि, जो विवाहकी इच्छा होय तो गृहस्थ होजाय, निष्काम होय तो वानप्रस्थ आश्रम ले अथवा संन्यास ले, आश्रमसे आश्रम में जाय, आश्रम विना न रहे, ब्राह्मण में श्रेष्ठ उस आश्रम में मेरी भक्ति करताहुआ विचरै और पिछले आश्रम से पूर्वमें न आवै, अर्थात् संन्यासी गृहस्थी

सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन॥ मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयमः॥३४॥ एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निरिवज्वलन्॥ मद्भक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः॥३५॥ अथानंतर मावेक्ष्यन्यथा जिज्ञासितागमः॥ गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः॥३६॥ गृहं वनं वोपविशेत्प्रव्रजेद्वा द्विजोत्तमः॥ आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत्॥३७॥ गृहार्थी सदृशीं भार्यामुद्वहेदजुगुप्सिताम्॥ यवीयसीं तु वयसा यां सवर्णामनुक्रमात्॥३८॥ इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम्॥ प्रतिग्रहोऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम्॥३९॥ प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्॥ अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक्तयोः॥४०॥

न हो॥३७॥ जो गृहस्थ होना चाहै सो समावर्तन कर्मसे विवाह करै, गृहस्थी होकर लक्षणवंत अपने कुल समान कुलकी कन्या विवाहै, प्रथम तो अपने वर्णकी व्याहै पीछे और भी करना चाहै तो अनुक्रमसे और व्याहै॥३८॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यह तीन धर्म समान हैं यज्ञ, अध्ययन, दान, यह तीनों वर्णोंको समान हैं, परन्तु प्रतिग्रह, अध्यापन, यज्ञ कराना यह तीनों कर्म त्राह्मणहीको करने उचित हैं॥३९॥ प्रतिग्रह लेनेमें जप,यज्ञमें कृपणता आदि दोष जब देखे तो स्वामीसे छोड़े खेत में पड़े कणसे आजीविका करै अथवा और किसी वस्तुसे आजीविका करै यज्ञ करै करावै अथवा पढ़ावै यह दो वृत्ति करै, जो इनमें भी हीनता दोष देखै तो उंछवृत्तिही करै॥४०॥

ब्राह्मणका यह देह निश्वयही तपस्याके कष्ट सहनेको उत्पन्न किया है, क्षुद्र कामको न करै, तो परलोकमें अनंत सुख ब्राह्मणको प्राप्त होता है॥४१॥ जो हाटमें अथवा क्षेत्रों में अन्न पड़ा रहै उसको बीन उसीसे निर्वाह करे और उसीसे संतोष रक्खै उत्तम निष्काम धर्म करै, मुझमें चित्त रक्खै घरमें तो रहे परन्तु बहुत आसक्त न हो, इसप्रकार शान्तिको प्राप्त हो॥४२॥ दरिद्रीके लिये इसप्रकार निर्वाह करने को कहा है, जो सद्रव्य है, उसका

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते॥ कृच्छाय तपसे चेह प्रेत्यानंतसुखाय च॥४१॥ शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचे ता धर्मं महांतं विरजं जुषाणः॥ मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्नातिप्रसक्तः समुपैति शांतिम्॥४२॥ समुद्धरंति ये विप्रंसीदंतं मत्परायणम्॥ तानुद्धरिष्ये न चिरादापद्भ्यो नौरिवार्णवात्॥४३॥ सर्वाः समुद्धरेद्राजा पितेव व्यसनात्प्रजाः॥ आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥४४॥

प्रकार कहते हैं जो ब्राह्मण दरिद्री होय और मेरी भक्ति करने में तत्पर होय उसको जो आपदा से उद्धार करते हैं, सो हे उद्भव ! उन मनुष्योंको मैं थोडेही कालमें उद्धार करूंगा, जैसे समुद्र में डूबते हुओंको नाव पार लगाती है, वैसेही जो मनुष्य अथवा ब्राह्मणका निर्वाह करते हैं, मैं संसाररूपी समुद्र से उन मनुष्योंको निश्चय पार करूंगा*****॥४३॥ राजा होय तो उसका आवश्यक धर्म यही है कि, जैसे पिता पुत्रको कष्टसे छुडाता है,

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**शंका—**श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा कि, हमारा भजन करनेवाले ब्राह्मणको दुःख्दारिद्र आदि लेके अनेक संकटसे जो कोई छुडाता है, तो उस छुडानेवाले मनुष्यको हम बहुत शीघ्र दुःख दारिद्रसे छुडा देते हैं, इस बात में यह शंका होती है कि, अपने भजन करनेना के ब्राह्मणको आप दुःख दारिद्रसे क्यों नहीं छुडाते, दूसरेको लोभ क्यों दिखाते हैं, जैसे बनिये आडती लोगोंसे काम करते हैं ऐसा वचन श्रीकृष्णचन्द्रने क्यों कहा

**उत्तर—**बडे बडे पाप ब्राह्मणलोग करते हैं, तो उन बडे पाप से दुःख दारिद्र ब्राह्मणोंको होता है और क्षत्रिय, वैश्य शुद्रको थोडेही पार्पोसे दुःख होता है, इस बातका भगवानने विचार किया कि, हम शीघ्र ब्राह्मणोंको अपना भजन करनेवाला जानकर दुःख दारिद्रसे लुटा सकैंगे तो ब्राह्मण और अभिमान करके पाप करैंगे और जान लेंगे कि, भजनके प्रतापसे दुःखनाश जल्दी होजाता है फिर संसारका सुख क्यों नहीं भोगे हमारा पाप क्या करैगा? ऐसा विचार कर ब्राह्मणोंका मान नाश करनेके लिये जब तक ब्राह्मण पापसे नहीं छूटता, तबतक उस ब्राह्मणके दुःख दारिद्रको दूसरे मनुष्यसे दूर कराते हैं कि, ब्राह्मणोंको विदित होजाय कि, हम भगवानका ऐसा बडा भजन करते हैं तो भी हमको पापी जानकर हमारे दुःख दारिद्रका नाश नहीं किया, जो हमारा पाप हमारे पास न होता तो शीघ्रही मजनके प्रभावसे हमारे दुःखका नाश करदेते, अव पाप कभी नहीं करेंगे ऐसा विचारके त्राह्मण पापबुद्धिको त्यागदेते इसलिये दूसरेसे ब्राह्मणका दुःख दारिद्रनाश करनेके लिये श्रीकृष्णने कहा।

तथा जैसे कीचडमें पडे हाथीको हाथी निकालता है, उसी प्रकार संपूर्ण प्रजाको दुःखसे उद्धार करै, इसीप्रकार धैर्यवान् राजाको विपत्तियोंसे अपनी आप रक्षा करनी उचित है ॥४४॥ इसप्रकार राजालोग इस लोक में सब पाप दूर कर सूर्यके समान प्रकाशित विमान में बैठ इन्द्रके संग आनन्द करते हैं ॥४५॥ यदि ब्राह्मण दरिद्र से दुःख पाता हो, तो उसको उचित है, कि वाणिज्य वृत्तिकर आपदासे छूटै, परन्तु मदिरा (शराब) और रसादिक न बेचे और इसमें भी जो निर्वाह न हो तो क्षत्रियवृत्ति करै, परन्तु नीच सेवाकी वृत्ति कभी न करै, यह ब्राह्मणका धर्म कहा॥४६॥ अब क्षत्रियका धर्म कहते हैं, जो आपदा आनकर पड़े तो वैश्यवृत्ति से जीविका करे, या मृगया करके जीवन धारण करें, वा ब्राह्मणका रूपधर अध्यापनसे जीविका करै परन्तु नीचकी सेवा न करे॥४७॥ वैश्यको यदि आपदा पडै तो शुद्रकी वृत्तिको करै, उसमें भी आपदा हो तो चतुर

एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा॥ विधूयेहाशुभं कृत्स्नर्मिद्रेण सह मोदते॥४५॥ सीदन्विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरे वापदं तरेत् ॥ खङ्गेन वाऽऽपदाक्रांतो न श्ववृत्त्या कथंचन ॥४६॥ वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मृगययाऽऽपदि॥ चरेद्वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथंचन॥४७॥ शूद्रवृत्तिं भजेद्वैश्यश्शूद्रः कारुकटक्रियाम्॥ कृच्छ्रान्मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा॥४८॥ वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यैर्यथोदयम्॥देवर्षिपितृभूतानि मद्रूपाण्यन्वहं यजेत्॥॥४९॥ यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा॥ धनेनाऽपीडयन्भृत्यान्न्यायेनैवाहरेत् क्रतून्॥५०॥ कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत्कुटुंब्यपि॥ विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥५१॥

ताकी क्रियासे जीविका करै, जब अपनी आपदा निवृत्त होजाय तो नीचवृत्ति छोड़दे॥४८॥ इसप्रकार सबों की वृत्ति कही, अब गृहस्थका आवश्यक पंचयज्ञ कत्तर्व्य कर्म कहते हैं कि, ब्रह्मयज्ञ करके तो ऋषियोंको संतुष्ट करे, श्राद्धमें स्वधासे पितृयज्ञ करे, होममें स्वाहा करके देवताओं का यज्ञ करै, बलिदानसे भूत यज्ञ करै, अन्न जलसे मनुष्यों को तृप्त करै, यथाशक्ति करै सबमें मेरी बुद्धि रक्खै यह कर्म सब अवश्य कर्तव्य हैं॥४९॥ शक्तिके अनुसार कर्त्तव्य कर्म कहते हैं, विनाही उद्यम अथवा उद्यमसे पाया हो और शुद्धहो, तो उस धनसे जिसमें कुटुम्बको पीड़ा न हो, वैसेही न्यायसे यज्ञोको करै॥५०॥ कुटुम्बमें आसक्त न हो, परन्तु मेरे भजन में सावधान रहे, इस संसार प्रपंचको मिथ्या जानै स्वर्गको भी मिथ्या

मानै, आत्माहीको केवल सत्य जानै ॥५१॥ पुत्र, स्त्री, कुटुम्बी, बन्धु इत्यादिकोंका संग यात्रा करनेवालोंके संगके समान है, जैसे निद्रामें स्वप्न देखते हैं और जागतेही नष्ट होजाते हैं, ऐसे ही देहके नष्ट होनेपर यह सब चले जाते हैं॥५२॥ इस प्रकार घरमें विचार करता अतिथिकी भाँति है, यह मेरा घर है, ऐसा अहंकार न रक्खै, क्योकि अहंता और ममता छोडनेसेही पुरुष नहीं बँधता ॥५३॥ गृहस्थके जो धर्म कहे हैं, उनसे ‘मेरी पूजा करे मुझमें भक्ति करे और गृहस्थाश्रम में रहने के उपरान्त वानप्रस्थ होकर जो संतान हो तो संन्यास ले॥५४॥ जो पुरुष केवल घरमें ही आसक्त हैं, पुत्र वित्त में प्रीतिकर स्त्रीके वशमें रहते हैं, वह महादीन हैं, मूर्ख हैं और अहंता ममता से बँधे हैं ॥५५॥ मेरी माता और मेरा पिता

पुत्रदाराप्तबंधूनां संगमः पांथसंगमः॥ अनुदेहं वियंत्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा॥५२॥ इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्व तिथिवद्वसन्॥ न ग्रहैरनुबध्येत निर्ममो निरहंकृतः॥५३॥ कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान्॥ तिष्ठेद्वनं वोप विशेत्प्रजावान्वा परिव्रजेत्॥५४॥ यस्त्वासक्तमतिर्गेहे पुत्रवित्तैषणातुरः॥ स्त्रैणः कृपणधीर्मुढो ममाहमिति बध्यते॥॥५५॥ अहो मे पितरौ वृद्ध भार्या बालात्मजात्मजाः॥ अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवंति दुःखिताः॥५६॥ एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम्॥ अतृप्तस्ताननुध्यायन्मृतोंधं विशते तमः॥५७॥ इति श्रीमद्भा० महा० एकाद० ब्रह्मचर्यादिसप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा॥ वन एव वसेच्छांतस्तृतीयं भागमायुषः॥१॥

वृद्ध है, स्त्री छोटी है, बालक छोटे हैं, यह मेरे बिना कैसे जीवन धारण करैंगे? हम विना यह दीन अनाथ दुःखी होजायँगे, इस प्रकार जो सोचते हैं॥५६॥ और गृहकी आशा करके विक्षिप्तमन हो मंति (बुद्धि) मूढ़ होने से स्त्री पुत्रादिकों का ध्यान करते हैं सो पुरुष कभी तृप्त न होकर मरनेके उपरान्त अत्यन्त तामसी योनिमें पडते हैं॥५७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा—अष्टादश अध्यायमें, वानप्रस्थ संन्यास॥कहूँ दोउनके धर्ममें, करहु यही अभ्यास॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, जब आयुका तीसरा भाग आवै, अर्थात सौ वर्ष की आयु के हिसाब से पिछत्तर (७५) वर्ष पूरे हों तो पुत्रोंको घर सौंपकर वनमें बसै और यदि स्त्री अपने संग आवै तो वनमें

रक्खै, नहीं तो वह पुत्रके पास रहै आप वन में शांत होकर रहै॥१॥ कंद, मूल, फलोंसे आत्माको तृप्त करे वल्कल वस्त्र पहरै तृण, पत्ते और मृगचर्म धारण करे यह सब वनकी वस्तु अतिपवित्र हैं॥२॥ केश, रोम, नख, दाढी, मूंछ दूर न करावै और इनको धोवै भी नहीं, जलमें तीन काल स्नान करै भूमिमें शयन करें॥३॥ ग्रीष्मऋतुमें पंचानि तपै, वर्षा में जलवृष्टि सहै जाड़े में कंठतक जल में मग्न रहे इस प्रकार तप करे॥४॥ अग्नि से पका हुआ पदार्थ खाय या समयके पक्व फलादि खाय, ओखली व पत्थरसे कुटी होय वह वस्तु खाय, दॉतसे कुटी वस्तुकोभी खाय॥५॥ अपनी सब आजीविकाकी वस्तु आपही ले आवे और देशकालका बल देखै दूसरेका लायाहुवा अन्नादिक पदार्थ न ले ॥६॥ वनकी

कंदमूलफलैर्वन्यैर्मेध्यैर्वृत्ति प्रकल्पयेत्॥ वसीत वल्कलं वासस्तृणपर्णाजिनानि च॥२॥ केशरोमनखश्मश्रुमलानि बिभृयाद्दतः॥ न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थंडिलेशयः॥३॥ ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन्वर्षास्वासारषाड्जले॥ आकंठमग्नः शिशिर एवंवृत्तस्तपश्चरेत्॥४॥ अग्निपक्वं समाश्नीयात्कालपक्कमताथापि वा॥ उलूखलाश्मकुट्टो वा दंतोलूखल एव वा॥५॥ स्वयं संचिनुयात्सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम्॥ देशकालवलाभिज्ञो नाददीताऽन्यदाऽऽहृतम् ॥६॥ वन्यैश्चरुपुरोडाशैर्निर्वपेत्कालचोदिन्॥ न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी॥७॥ अग्निहोत्रं च दर्शश्च पूर्णमासश्च पूर्ववत्॥ चातुर्मास्यानि च मुनेरास्नातानि च नैगमैः॥८॥ एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसंततः॥ मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकादुपैति माम्॥९॥ यस्त्वेतत्कृच्छ्रतचीर्णे तपो निःश्रेयसं महत्॥ कामायाल्पीयसेयुज्याद्बालिशः कोऽपरस्ततः॥१०॥

वस्तुके चरू पुरोडाशनसे देवताओका यज्ञ करै, वनमें आश्रम बनाकर रहै, परन्तु वेदोक्त पशुसे मेरा यजन न करै॥७॥ पूर्ववत् नाम गृहस्थाश्रम सरीखे अग्निहोत्र दर्श पूर्णम सेष्टि चातुर्माभ्य यज्ञ इतन ही वेदने गृहस्थाश्रमोंको अनुष्ठान कहा है॥८॥ इसप्रकार जीवन तक तपस्या करनेसे जिसका मॉस सूख जाने संपूर्ण देहमें नसैं दिखाई देने लगे, वह वानप्रस्थ जो कि मैं तपोमय हूं सो मेरा आराधन करनेसे प्रथम ऋषिलोकसे महलोंकमें जाय, इसके उपरान्त क्रमसे मुझे भी प्राप्त होगा॥९॥ इतने कष्टसे प्राप्त हुई मोक्ष फलदायक तपस्या तुच्छ काममें न लगावै, जो लगावै।

तो उससे मूर्ख कौन है?॥१०॥ इसप्रकार संपूर्ण धर्म निष्काम करै, तो निश्चय मोक्ष होजाय और जो आयुके तीसरे भाग में वैराग्य थोडासा उत्पन्न हो तो संन्यास ले, यदि शरीरकी सामर्थ्य पहले ही घट जाय तो विरक्त होकर रहै, संन्यास ले और जो विरक्त भी न होसकै उसे क्या करना चाहिये? तो कहते हैं कि, जब यह धर्मके नेम करनेमें असमर्थ हो वृद्धावस्था हो तो अग्रिहोत्रकी अग्नि आपमें रखकर चित्त मुझमें स्थिरकर अनिमें प्रविष्ट हो शरीरको छोड़ दे॥११॥ और जो विरक्त होय, सो कर्मों का फल तथा देवताओंके लोकको नरक के समान जानैं, ऐसा करने से यह सब

यदाऽसौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः॥ आत्मन्यग्नीन्समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं समाविशेत्॥११॥ यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु॥ विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः॥१२॥ इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे॥ अग्नीन्स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत्॥१३॥ विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः॥ विघ्नान्कुर्वंत्ययं ह्यस्मानाक्रम्य समियात्परम्॥१४॥ बिभृयाच्चेन्मुनिर्वासः कौपीनाच्छादनं परम्॥ त्यक्तं न दंडपात्राभ्यामन्यत्किचिदनापदि ॥१५॥

अग्निहोत्रादिक कर्म छोड़ अच्छी भाँति संन्यास लेय॥१२॥ संन्यास के आरंभके उपदेशके अनुसार मेरा पूजन करै, ऋत्विजोंको सर्वस्व दे, अग्निहोत्रको अपने प्राणोंमें प्रविष्ट कर, आप निरपेक्ष हो संन्यास लेय॥१३॥ जब ब्राह्मण संन्यास लेता है, तब देवता, स्त्री पुत्ररूप होकर उसको इसकारण विघ्न करते हैं कि, यह हमारी अवज्ञा करके आगे चलना चाहता है, परन्तु तोभी यह पुरुष उन विघ्नोंको लाँघ संन्यास ग्रहण
करे, उनके विघ्न न मानै *॥१४॥ यदि संन्यासी वस्त्र पहरना चाहै तो जितनेसे कौपीन ढकै उतना वस्त्र पहरे और कुछ धारण न करै,

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** * शंका—**जो ब्राह्मण घैराग्यमें मन लगाकर संन्यास लेनेकी इच्छा करते हैं उनके विघ्नको स्त्री आदि परिवार कैसे करेंगे! क्योंकि मन कच्चा हो तब तो जो चाहे सो विन्न करदेवे और जो मन पक्का होकर वैराग्यमें लग गया तो किसीका किया विघ्न नहीं होसक्ता।

**उत्तर—**भाई, स्त्री, पुत्र, कुटुम्बसे उत्पन्न हुई जो फाँसी हे उसको सब चर अचर जीवजन्तु काटा चाहें तो किसीकी काटी नहीं कटसक्ती, जो कोई महात्मा काटनेकी इच्छा करेंगे तो बडी कठिनता से वह फांसी फटसक्तीहै क्योंकि स्त्री पुत्रके मोहमें पशु पक्षी मी बँघगये हैं फिर मनुष्य बँधगया तो क्या आश्चर्यकी बात है? इसलिये श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा कि, ब्राह्मणका मन वैराग्यमें लगा है तो भी स्त्री पुत्र आदि परिवार सन्यासमें विघ्न करतेहैं।

एक दंड धारण करें; एक जल पात्र अर्थात् कमंडलु अपने पास रक्खे और कुछ नहीं रक्खे॥१५॥ पृथ्वी में देखकर पांव धरै, वस्त्रसे छना जलपान करें, वचन सत्य बोले और आचरण मनमें विचार जब शुद्ध मन न होय तब करें॥१६॥ हे उद्धव! वचनका दंड मौन रहना, देहका दंड सकाम कर्म नहीं करना, चित्तका दंड प्राणायाम में स्थिर करै, जिसके यह दंड नहीं वह बाँसके दंडका संन्यासी कहलाता है॥१७॥ ब्राह्मणों में ही प्रतिग्रह, यजन, अध्ययन, शिलोंच्छवृत्ति यह चार प्रकारके आचार रखते हैं, उनके घर भिक्षा करै और जो निन्दित हो उसके घर भिक्षा न करै यहाँ मुझे यह अलभ्य लाभ होगा इस उद्वेगसे रहित सात घर भिक्षा करें, जो कुछ प्राप्त हो उसीमें संतोष करे॥१८॥ भिक्षाले जहाँ जलाशय

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्॥ सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥१६॥मौनानीहानिलायामा दंडा वाग्देहचेतसाम्॥ न ह्येते यस्य संत्यंग वेणुभिर्न भवेद्यतिः॥१७॥ भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान्वर्जयंवरेत्॥ सप्ता गारान संतांस्तुष्येल्लब्धेन तावता॥१८॥ बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः॥ विभज्य पावितं शेषं भुंजी ताऽशेषमाहृतम्॥१९॥ एकश्चरेन्महीमेतां निःसंगः संयतेंद्रियः॥ आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान्समदर्शनः॥२०॥ विविक्तक्षमशरणो मद्भावविमलाशयः॥ आत्मानं चिंतयेदेकमभेदेन मया मुनिः॥२१॥ अन्वीक्षेतात्मनो बंध मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया॥ बंध इंद्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः॥२२॥ तस्मान्नियम्य षङ्घर्गं मद्भावेन चरन्मुनिः॥ विरक्तः क्षुल्लकामेभ्यो लब्ध्वात्मनि सुखं महत्॥२३॥

होय वहाँ जाय पाँव धोवै आचमन करै मौन होकर मार्जन करै, मार्ग के दोष की शुद्धि करै, पीछे विभाग कर विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, भूतोंको समर्पण करे थोडा २ अलग अलग करके रक्खै, बाकी सब भोजन करै॥१९॥ अब एक दूसरी क्रिया और भी है कि, संपूर्ण पृथ्वी में फिरे, परन्तु संग किसीका न करै, जितेन्द्रिय रहै, आत्माही में संतुष्ट धीर और समदृष्टि हो॥२०॥ एकांत निर्भयस्थल में रहै, मेरी भावनासे चित्त निर्मल रक्खै, आत्मामें और मुझमें भेद नहीं देखे, अभेदसे एक आत्मा विचारै ऐसा विचारशील हो॥२१॥ ज्ञाननिष्ठा से अपने बंध मोक्षका विचार करै। इन्द्रियोंके विक्षेपको बंध कहते हैं और इन्द्रियोंके संयमको मोक्ष कहतेहैं॥२२॥ इसलिये इन्द्रियोंको निग्रह करके मुझमें चित्त

रक्खै, तुच्छ कामनाओंसे विरक्त रहै, तब मुनि अतिउत्तम आत्मसुखको प्राप्त हो सर्वत्र स्वेच्छापूर्वक विचरै॥२३॥ नगर, ग्राम, व्रजमें भिक्षाको जाय, जहाँ कहीं बहुतसे मनुष्योंका संग आया हो, या यात्रियोंका संग हो तहाॅभिक्षाको जाय, जो पुण्य देश, नदी, पर्वत, वन, आश्रम है, वहाँ पृथ्वी में फिरै॥२४॥ वानप्रस्थके आश्रम में जाय नित्य भिक्षा करै, उसका अन्न शुद्ध है, उससे सत्त्व शुद्ध होता है, तब शीघ्रही सिद्धि मिलती है और मोह संपूर्ण घटजाता है॥२५॥ गृहस्थ के घर उत्तम सामग्री मिष्टान्न पावै, वहाँ भिक्षा छोड़ उंछवृत्तिके अनकी भिक्षाको मन कैसे चले?तो कहते हैं कि, इन मिष्टान्नादिकोंको वस्तु करके न देखे इससे नाशको प्राप्त होता है, इस लोक तथा परलोक में मन आसक्त न करै मिष्टान्नादिकके लिये उपाय न करै॥२६॥ जो यह जगत् और शरीर, मन, वचन प्राणसे युक्त हैं, अहंता, ममताके धर्म यह आत्मामें सब

पुरग्रामव्रजान्सार्थान्भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत्॥ पुण्यदेश सरिच्छैलवनाश्रमवतीं महीम्॥२४॥वानप्रस्थाश्रमपदेष्वभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत्॥ संसिध्यत्याश्वसंमोहः शुद्धसत्त्वः शिलांधसा॥२५॥ नैतद्वस्तुतया पश्येदृश्यमानं विनश्यति॥ असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्र चिकीर्षितात्॥२६॥ यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राणसंहतम्॥ सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थस्त्यक्त्वा न तत्स्मरेत्॥२७॥ ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वाऽनपेक्षकः॥ सलिंगानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः॥२८॥ बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत्॥ वदेदुन्मत्तवद्विद्वान्गोचर्या नैगमश्चरेत्॥२९॥ वेदवादरतो न स्यान्न पाखंडी न हैतुकः॥ शुष्कवादविवादेन कंचित्पक्षं समाश्रयेत्॥३०॥

मायामात्र हैं, यथार्थ नहीं, ऐसी युक्तियोंसे आत्मनिष्ठहो फिर देहादिक का स्मरण न करै, क्योंकि स्मरणसे वैराग्यमें प्रतिबंध होता है॥२७॥ अब परमहंसधर्म कहते हैं; एक वैराग्यसे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पूर्ण ज्ञानी अथवा मुक्तिभी न चाहनेवाले मेरी दृढभक्ति, करनेवाले भक्त दंडादिककी आवश्यकतावाले आश्रमधर्मोकी आसक्ति त्यागकर जितना अपनेसे होसके उतना आश्रमसम्बन्धी धर्म करै, परन्तु अत्यन्त उसमें लिप्त न हो॥२८॥ विवेकी होनेपर भी बालकके समान फिरते हैं, मान अपमानसे शून्य रहते हैं, अति चतुर हैं परन्तु तोभी जड़की भाॅति रहते हैं, अनुसंधान नहीं रखते हैं, सो बुद्धिमान हैं परन्तु उन्मत्तके समान वेदके धर्मों में निष्ठ हैं, परन्तु कुछ आचारका नेम नहीं है॥२९॥ कर्मही करना मुख्य

एसै वेदके वादमें आसक्त न हो, पाखण्डी न हो, केवल तर्कही सब जगह न करै और जहाँ प्रयोजन विना वाद होता हो वहाँ किसीका पक्ष नकरै॥३०॥ किसी मनुष्यसे उद्वेग न करै न मनुष्योंसे आप उद्विग्न हो, अपमान किसीका न करै, आप अपमान सहै, इस देहके लिये पशुके समान किसीसे वैर नहीं करै॥३१॥ क्योंकि सबमें आत्मा एकही है वैर किससे करै? ऐसे समझकर निवृत्तिहोवै, जैसे जलके पात्र अनेक होते हैं और उनमें अनेक चन्द्रमाके प्रतिबिम्ब दीखते हैं परन्तु चन्द्रमा एकही है इसीप्रकार आत्मा भी एकही है, और अनंतसे भासै है॥३२॥ और जो समय समय में भोजन न मिलै तो खेद न करै, पावै तो हर्ष न करै, धैर्य रक्खे क्योंकि प्राप्ति अप्राप्ति दोनों दैवाधीन हैं॥३३॥ आहार तो अवश्य

नोद्विजेत जनाद्धीरो जनं नोद्वेजयेन्न तु॥ अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन॥ देहमुद्दिश्य पशुवद्वैरं कुर्यान्न केनचित्॥३१॥ एक एव परो ह्यात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः ॥ यथेंदुरुदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च॥३२॥ अलब्ध्वा न विषीदेत काले कालेऽशनं क्वचित्॥ लब्ध्वा न हृष्येद्धृतिमानुभयं दैवतंत्रितम्॥३३॥ आहारार्थं समीहेत युक्तं तत्प्राणधारणम्॥ तत्त्वं विमृश्यते तेन तद्विज्ञाय विमुच्यते॥३४॥ यदृच्छयोपपन्नान्नमद्याच्छ्रेष्ठमुतापरम्॥ तथा वासस्तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन्मुनिः॥३५॥ शौचमाचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत्॥ अन्यांश्च नियमाञ्ज्ञानी यथाऽहं लीलयेश्वरः॥३६॥ न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता॥ आदेहांतात्क्वचित्ख्यातिस्ततः संपद्यते मया॥३७॥

चाहिये कि, जिससे जीवन हो, प्राण धारणका तो प्रयोजन यह है कि, जो तत्त्वको विचारै तो मुक्त हो॥३४॥ ईश्वरेच्छासे जो कुछ मिलै सो भक्षण करै, भला हो वा बुरा हो इसीप्रकार मुनि भी वस्त्र, शय्या जैसी पावै, उसेही ग्रहण करै॥३५॥ जैसे मुझे कुछ चाहना नहीं और जैसे में लीलापूर्वक धर्म करता हूं, उसीप्रकार ज्ञानीपुरुष भी आसक्ति छोड़ शौच, आचमन, स्नान और भी नेम करै, विधिके वश होकर न करै, ज्ञान दृष्टि रखकर क॥३६॥ ज्ञानीको भेदकी प्रतीति नहीं होती और जो होती है, वह पहलेही मेरे ज्ञानसे नष्ट होजाती है यद्यपि देह गिरनेतक कभी कभी आहारादिकमें भेद प्रतीति देखीजाती है, परन्तु तो भी वह अयथार्थ रूप जानीहुई है, देहके गिरनेपर मुक्ति होजाती है॥३७॥

अब केवल वैराग्ययुक्त हो ज्ञानकी इच्छा रखनेवालेका कर्त्तव्य कहते हैं कि, जो यह गृह पुत्र आदि सबको दुःखरूप जान वैराग्य युक्त हो और ज्ञानकी इच्छा करतेहो मेरे धर्म भी कुछ जानता हो, सो उत्तम गुरुका सेवन करै॥३८॥ जबतक ब्रह्मज्ञान मिलै तबतक श्रद्धा और भक्ति रखकर ईर्षा छोड़ गुरुको मेराही स्वरूप जान अत्यन्त आदरसत्कारसे उसकी सेवा करें॥३९॥ अब अधिकार विना जो संन्यास लेता है, उसकी निन्दा करते हैं जो इंद्रियोंका निग्रह न कियाहो, बुद्धि अति आसक्तहो, ज्ञान वैराग्यसे रहित हो, ऐसा जो संन्यास लेता है सो वह संन्यास जीविकाके अर्थ है, इसीकारण निंदित है॥४०॥ वह अधर्मी संन्यासी है जिन्होंने देवताओंकी वंचना करी है जो गृहस्थ धर्म में देवता अतिथि पूजन करता था सो छोड़ दिया संन्यास धर्म भी नहीं करते इससे सबकी अवज्ञादी करते हैं, उनकी वासना दग्ध

दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान्॥ अजिज्ञासितमद्धर्मो गुरुं मुनिमुपाव्रजेत्॥३८॥ तावत्परिचरेद्भक्तः श्रद्धावाननसूयकः॥ यावद्ब्रह्म विजानीयान्मामेव गुरुमादृतः॥३९॥ यस्त्वसंयतषङ्घर्गः प्रचंडेंद्रियसारथिः॥ ज्ञानवैराग्यरहितस्त्रिदंडमुपजीवति॥४०॥ सुरानात्मानमात्मस्थं निह्नुते मां च धर्महा॥ अविपक्ककषायोऽस्मादमुष्माच्च विहीयते॥४१ ॥ भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः॥ गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम्॥४२॥ ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भृतसौहृदम्॥ गृहस्थस्याप्यृतौ गंतुः सर्वेषां मदुपासनम्॥४३॥ इति मां यः स्वधर्मेण भजन्नित्यमनन्यभाक्॥ सर्वभूतेषु मद्भावो मद्भक्तिं विंदतेऽचिरात् ॥४४॥

नहीं और आत्मरूप हृदय में स्थित मेरी भी वंचना करते हैं इसीलिये इस लोक और परलोकसे नष्ट होजाते हैं॥४१॥ संन्यासीका मुख्य धर्म शम और अहिंसा है, वानप्रस्थका मुख्य धर्म तपस्या और विचार है, गृहस्थका मुख्य धर्म प्राणीमात्रकी दया, रक्षा और देवताओंका यज्ञ है और ब्रह्मचारीका धर्म यही है कि, गुरुओंकी सेवा करै॥४२॥ यहॉ गृहस्थका और भी धर्म कहते हैं ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष, प्राणी मात्र से सुहृदताई और ऋतुके दिन स्त्रीसंग करै यह गृहस्थके धर्म हैं, मेरी सेवा करनी तो सबकाही धर्म है ॥४३॥ हे उद्धव! इसप्रकार के स्वधर्मसे मेरा नित्य भजन करै और स्त्री पुत्रादिकोंमें प्रीति न रक्खै सब प्राणीमात्रमें मेरी भावना रक्खै उस पुरुषको शीघ्रदी मेरी भक्ति मिल

जाती है॥४४॥ हे उद्धव!ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति से सब लोकके महेश्वरको जो सबकी उत्पत्ति पालन और प्रलयका कारण ब्रह्मरूप मुझको प्राप्त होजाता है॥४५॥ इसप्रकार स्वधर्म से शुद्धचित्त होनेसे मेरा स्वरूप जाननेमें आता है, विज्ञान और वैराग्य युक्त होकर शीघ्र मुझे प्राप्त होगा॥४६॥ अब सबका निर्धार तात्पर्य कहते हैं कि, वर्णाश्रमवालों का यह आचाररूप धर्मका फल, पितृलोककी प्राप्ति कराने वाला है, यही धर्ममेंही भक्ति से मुझे समर्पण करे तो परमफल मोक्षानन्दको प्राप्त हो॥४७॥ हे साधो! यह सब धर्म मैंने तुमसे कहा, जो तुमने मुझसे पूॅछाथा जो भक्त स्वधर्म संयुक्त होकर इसे करै तो वह मेरे परब्रह्मरूपको प्राप्त होता है॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादश

भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम्॥ सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः॥४५॥ इति स्वधर्मनिर्णिक्तसत्त्वो निर्ज्ञातमद्गतिः॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नो न चिरात्समुपैति माम्॥४॥ वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचारलक्षणः॥ स एव मद्भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः॥४७॥ एतत्तेऽभिहितं साधो भवान्पृच्छति यच्च माम्॥ यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम्॥४८॥ इति श्रीमद्भा० महापु० एकदशस्कन्धे वनस्थयत्यादिधर्मनिरूपणं नामाऽष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ यो विद्याश्रुतसंपन्न आत्मवान्नानुमानिकः॥ मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि संन्यसेत् ॥१॥ ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थोहेतुश्च संमतः॥ स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो महते प्रियः॥२॥ ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्टं विदुर्मम ॥ ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ विभर्ति माम् ॥३॥

स्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धसंवादे अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा—उन्निसवें अध्यायमें, पूर्वधर्म निर्वाह॥सो सब वर्णन करतहूं, सुनोसहित उत्साह॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, जिसको विद्या करके श्रवण करके आत्मतत्त्वका अनुभव तक ज्ञान प्राप्त होगया है, सो प्रपंचकी निवृत्तिका साधन मुझमें मायामात्र जाने, और ज्ञान के साधन सब छोड़ै, उसको विद्वान् संन्यास कहते हैं ॥१॥ ज्ञानीपुरुषका आत्मरूप मैंहीं प्रिय हूं, उसको और स्वार्थका हेतु कुछ नहीं है, पर स्वार्थका हेतु मुझेही चाहते हैं, इससे स्वर्ग और मोक्ष तथा और भी अर्थ मुझ विना उन्हैं प्रिय नहीं, इसकारण उसका न कुछ कर्त्तव्य है और प्राप्त करना है॥२॥ यहाँ ज्ञानका अनुभव प्रमाण बताते हैं, ज्ञान विज्ञानसे जो सिद्धिको प्राप्त

हुए हैं, वह मेरे श्रेष्ठ स्थानोंको जानते हैं इसकारण मुझे ज्ञानी अतिप्रिय हैं, वह ज्ञानहीसे मुझे हृदयमें धारण करे रहते हैं॥३॥ तप, तीर्थ, जप, दान और पवित्र साधन उस सिद्धिको नहीं करते जो सिद्धि ज्ञान के लेशसे होती है *॥४॥ हे उद्भव! इसलिये तुम ज्ञानके रूपको जान, ज्ञान विज्ञान युक्त होकर भक्ति से मेरा भजन करो॥५॥ जो कि, मैं सब यज्ञोंका स्वामी और आत्मा हूं, उसका अपने आपमें ही ज्ञान वा विज्ञान रूप यज्ञसे यजन करके मुनिगण मेरेरूप सिद्धिको पाचुके हैं॥६॥ इस लिये तुम भी इसी ज्ञानसे धर्ममें प्रवृत्त हो. हे उद्धव!जो देह और

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च॥ नाऽलं कुर्वंति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता॥४॥ तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नो भज मां भक्तिभावितः॥५॥ ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वात्मानमात्मनि॥ सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन्॥६॥ त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो मायांतराऽऽपतति नाद्यपवर्गयो येत् ॥ जन्मादयोऽस्य यदमी तव यस्य किं स्युराद्यंतयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये॥७॥ उद्धव उवाच॥ ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैतद्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्॥ आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम्॥८॥

इन्द्रियोंका विकार है, यह सब मायाके हैं कुछ परमार्थ वस्तु नहीं हैं, यह विकार देहसे पहले भी आत्मा के नहीं हैं, पीछे भी नहीं, मध्य में हैं, सो भ्रम जानिये, आत्मा शुद्ध है, जन्मादिक भी जो देखे जाते हैं, यह देहही के हैं, कुछ आत्मा के नहीं हैं, देहको जन्म मरण नहीं देह भी मायारूपी है। देहके आदि अंत जो ब्रह्म हैं, सो मध्यमें रहते हैं, जब देहही नहीं तब सब ब्रह्म होते हैं तो फिर देहके जन्ममरण कहाँसे हो सकते हैं। जब यथार्थसे देहके भी जन्ममरणादिक नहीं, सब ब्रह्मरूप है तो ब्रह्म न जन्मै है न मरै है, निर्विकार ब्रह्मही है, इसमें क्या कहना ?॥७॥ उद्धवजी बोले कि,

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*** शंका—**तप, तीर्थ, जप, दान आदिक जो अनेक अनेक सुन्दर क्रिया हैं, उन सबको त्यागकर अकेले ज्ञानकोही श्रीकृष्णने बडा क्यों कहा ?

**उत्तर—**जितने ससारमें उत्तम क्रिया कर्म हैं तप तीर्थ आदि, यह सब बहुत जन्ममें फल देते है, क्योंकि जप शीघ्र फल नहीं देता, तीर्थ में स्नान करने मात्र से स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा और जिससमय शरीरमें ज्ञान उत्पन्न होजायगा तो उसीसमय अनेक जन्मोंका दुःख दूर होकर शीघ्र सुख प्राप्त होगा और लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण ने अपना और उद्धवका समागम थोडे दिनोंका समझा इसलिये उद्धव अपने परममित्रको सुख होनेके निमित्त ज्ञानकी उपासना बताई, क्योंकि श्रीकृष्ण के वियोगका दुःख जप, तप, तीर्थ करनेसे दूर नहीं हो सक्ता और उस दुःखको ज्ञान बहुत शीघ्र दूर करसक्ता है, इसलिये जप तपको त्यागकर श्रीकृष्णने ज्ञानको श्रेष्ठ कहा ॥

हेविश्वेश्वर! हे विश्वमूर्त्ते! जिसप्रकार मुझे निश्चय हो, वैसेही वैराग्ययुक्त और विज्ञानयुक्त पुरातन विशुद्ध ज्ञान तुम कहो और जिसको ब्रह्मादिक खोजते हैं, ऐसे भक्तियोगको कहो॥८॥ हे ईश्वर! इस घोर संसारमार्गमें तीन तापसे तपाहुआ मुझे तुम्हारे चरणद्वंद्वरूप छत्रके अतिरिक्त और शरण नहीं दीखती. यह छत्र केवल छायाही नहीं करता है, बरन् सब ओरसे अमृत बरसाता है॥९॥ हे महानुभाव!यह पुरुष इस संसार के कुएँ में गिरा हुआहै और वहाँ कालरूपी सर्प इसे काट गया है, तुच्छ सुखोंमें बहुत तृष्णा है; ऐसे इस जनको कृपापूर्वक उद्धार करो और मोक्षको कहो, ऐसे अपने वचनरूपी अमृतसे सींचो॥ १०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भरतवंशावतंस परीक्षित्!जब इसप्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्भव!

तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे संतप्यमानस्य भवाध्वनीश॥ पश्यामि नान्यच्छरणं तवांघ्रिद्वंद्वातपत्रादमृताभिवर्षात्॥॥९॥ दष्टं जनं संपतितं विलेऽस्मिन्कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम्॥ समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्वचोभिरासिञ्च महानु भाव॥१०॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्॥ अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम्॥११॥ निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः॥ श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत॥१२॥ तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्॥ ज्ञानवैराग्यविज्ञान श्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्॥१३॥ नवैकादश पञ्च त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै॥ ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्॥ १४ ॥

इसी भाँति पहले राजा युधिष्ठिरने हमारे सबके सामने धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्मपितामहसे पूँछा था॥११॥ भारतयुद्ध निवृत्त होनेके उपरान्त बंधुवधसे व्याकुल हो राजा युधिष्ठिरने पहले बहुत धर्म श्रवण करके फिर मोक्षधर्म सुननेके वास्ते पूँछा॥१२॥ वहाँ भीष्मने जो धर्म युधिष्ठिरसे वर्णन किया, वह हमने भी सुना, सोई हम तुमसे कहते हैं. जो ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य, श्रद्धा भक्तिसे संयुक्त है॥१३॥ यहाँ प्रथम तो ज्ञान कहते हैं, प्रकृति और महत्तत्त्व, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह नौ तत्त्व हुए और एकादश इन्द्रियें, पंचमहाभूत, तीन गुण, यह सब मिलकर अठ्ठाईस (२८) तत्त्व हुए, सो यह सब प्राणियों में व्याप्त हैं, ज्ञानसे देखे और इन तत्त्वोंमें भी एक परमात्माको जिस ज्ञानसे

व्याप्त देखै सो निश्वय मेरा ज्ञान है॥१४॥ जैसे ज्ञानके समय सब पदार्थ देखने में आते हैं, वैसे यह पदार्थ देखने में नहीं आते, केवल एक परब्रह्म देखने में आता है, वही ज्ञान विज्ञान कहा जाता है और उत्पत्ति, प्रलय, स्थिति होनेसे पदार्थ त्रिगुणात्मक नाशवान हैं ऐसा देखै॥१५॥ यदि कोई कहै कि, सब ब्रह्मरूपद्दी हैं तो जन्मादिक क्यों होता है? उत्पत्ति तथा दूसरे रूपकी प्राप्तिके मध्यमें सबका आश्रय कारण होनेसे जो कार्य और कार्यांतर में रहता है, जो उत्पत्तिमें व्याप्त होता है और इनके प्रलय में जो अवशेष रहता है, सो ब्रह्म है, इसेही देखै॥१६॥अब विज्ञान कहकर वैराग्य कहते हैं. वेद, प्रत्यक्ष, परंपराकी प्रसिद्धि और अनुमानसे यह प्रपंच मिथ्या है, अद्वैतही सत्य है, जैसे यह दृश्य ब्रह्मसे भिन्न नहीं है, क्योंकि ब्रह्मसे उत्पन्न है, जो जिससे उत्पन्न है, वह उससे भिन्न नहीं, जैसे मिट्टीके बने घट मृत्तिकासे भिन्न नहीं, इसप्रकार

एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्॥ स्थित्युत्पत्त्यप्ययान्पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥१५॥ आदावंते च मध्ये चं सृज्यात्सृज्यं यदन्वियात्॥ पुनस्तत्प्रतिसंक्रामे यच्छिष्येत तदेव सत्॥१६॥ श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्॥ प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते॥१७॥ कर्मणां परिणामित्वादाविरिंचादमंगलम्॥ विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥ १८॥ भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ॥ पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम्॥१९॥ श्रद्धाऽमृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्॥ परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम॥२०॥ आदरः परिचर्यायां सर्वांगैरभिवंदनम्॥ मद्भक्तपूजाऽभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः॥२१॥

भ्रमरूप द्वैत जानकर विकल्पसे विरक्त होना चाहिये॥१७॥ कदाचित स्वर्गादिकमें सुखभोग हैं, वहाँकी इच्छा हो तो विरक्त होना किस प्रकार संभव है? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि, ब्रह्मलोकतक स्वर्गादिकका भी सुख इस लोकके समान जो पण्डित हैं सो दुःखरूप मिथ्याही देखते हैं, क्योंकि यह विनाशी कर्मोंके फल हैं॥१८॥अब वैराग्य कहकर भक्ति कहते हैं, हे निष्पाप उद्धव! मैंने भक्तियोग पहले भी तुमसे कहाथा और अब फिर अपनी भक्तिके परमकारणसे प्रीतियुक्त तुमसे कहता हूं॥१९॥ हे उद्धव! प्रथम अमृतरूप मेरी कथा में श्रद्धा हो कथाके सुननेमें आदर हो, सुनने के उपरान्त निरंतर मेरा कीर्त्तन करै॥२०॥ मेरी पूजा में तत्पर हो, सर्वांगसे नमस्कार करें, आदरपूर्वक मेरे

भक्तकी अधिक पूजा करै, सब प्राणीमात्र में मेरी बुद्धि रक्खै॥२१॥ लौकिक कार्योंको मेरेलिये करै, वचनसे मेरे गुणानुवादको कहै, मन मेरे रूपमेंद्दी अर्पण करै, सब कामनाओंका त्याग करै॥२२॥मेरे लिये अर्थका त्याग करै, भोग और सुखका त्याग करै, विषय भोग न करै, यज्ञ, दान, होम, जप, तप, सब मेरे लिये करै॥२३॥ हे उद्धव! इसप्रकार धर्मसहित जो मनुष्य मुझमें आत्मा निवेदन करते हैं, उन मनुष्योंको प्रेम लक्षणा भक्ति उत्पन्न होती है, फिर उनको कुछ करना नहीं रहता॥२४॥ क्योंकि जब शांत सतोगुणसे बढ़ा चित्त मुझमें लगादिया, तब और सब ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आपहीसे प्रगट होजाते हैं॥२५॥ और यही चित्त जब गृह कुटुम्बादिमें आसक्त होता है, तब इन्द्रियोंके द्वारा विषयों में

मदर्थेष्वंगचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्॥ मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविर्जनम्॥२२॥ मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च॥ इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थे यद्ब्रतं तपः॥२३॥ एवं धर्मं मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्॥ मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्याऽवशिष्यते॥२४॥ यदात्मन्यर्पितं चित्तं शांतं सत्त्वोपहितम्॥ धर्मज्ञानं सवैराग्य मैश्वर्यं चाभिपद्यते॥२५॥ यदर्पितं तद्विकल्प इन्द्रियैः परिधावति॥ रजस्वलं चासनिष्टं चित्तं विद्धि विपर्ययम्॥॥२६॥ धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्॥ गुणेष्वसंगो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः॥२७॥ उद्धव उवाच॥ यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वाऽरिकर्शन ॥ कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो॥२८॥ किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते॥ कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा॥२९॥ पुंसः किंस्विद्बलं श्रीमन्भगो लाभश्च केशव॥ का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च ॥३०॥

भ्रमण करता है, जिससे अधर्म, अज्ञान अनुरक्तता और कुभाग्यता प्राप्त होती है॥२६॥ धर्म सोई है जो मेरी भक्ति करै, ज्ञान वही है, जिससे आत्माका रूप दीखै, इन्द्रियोंके धर्मोंमें आसक्त न होना वैराग्य और अणिमादिकका होना ऐश्वर्य हैं॥२७॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो!है शत्रु नाशक! हे कृष्ण! संयम नियम के प्रकारके है? शम दम किनको कहते हैं? क्षमा, धैर्य क्या है?॥२८॥ दान, तप, शैर्य, सत्य, ऋत, त्याग, धन,इष्ट, यज्ञ, दक्षिणा इत्यादि क्या हैं?॥२९॥ हे श्रीमन्! पुरुषका बहुत भाग्य क्या है? परमविद्या क्या है? लज्जा, श्री, दुःख, सुख क्या हैं?॥३०॥

पण्डित कौन है? मूर्ख कौन है? मार्ग उन्मार्ग कौन है।स्वर्ग नरक कौन है? बंधु गृह कौन है?॥३१॥ धनी दारीद्री कौन है? कृपण ईश्वर कौन है? हे साधुओंके पति! यह प्रश्न और इससे विरुद्धगुणवाले कौन हैं सो मुझसे समझाकर कहो॥३२॥ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि हे उद्धव!जीवमात्रकी हिंसा न करै, सत्य बोले, मनसे भी पराई वस्तुको न चुरावै, आसक्ति कहीं न रक्खै, लज्जा, असंचय,धर्म में विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थैर्य, क्षमा, यह बारह संयम हैं॥३३॥ शौच दो भाँतिके हैं अंतःकरणकी शुद्धि और बाह्यशुद्धि, शौच, तप,जप, होम, श्रद्धा, अतिथि और मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार, संतोष, आचार्यसेवा यह बारह नियम हैं॥३४॥ जो यह संयम, नियम

कः पंडितः कश्च मूर्खः कः पंथा उत्पथश्च कः॥ कः स्वर्गो नरकः कः स्वित्को बंधुस्त किं गृहम्॥३१॥ क आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः॥ एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते॥३२॥ श्रीभगवानुवाच॥ अहिंसा सत्यमस्तेयम संगो ह्रीरसंचयः॥ आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाऽभयम्॥३३॥ शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम्॥ तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्य सेवनम्॥३४॥ एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः॥ पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहंति हि॥३५॥ शमो मन्निष्टता बुद्धेर्दम इंद्रियसंयमः॥ तितिक्षा दुःखसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः॥ दंडन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्॥ स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम्॥३७॥ ऋतं च सूनृतावाणी कविभिः परिकीर्तिता॥ कर्मस्वसंगमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते॥३८॥

नित्य करे तो जो कुछ चाहे सो सब पूर्ण हो॥३५॥ अब शम, दम, कहते हैं कि, मुझमें बुद्धि स्थिर होय सो शम है, केवल शान्तिही शम नहीं कहाती, इन्द्रियों का संयम दम हैं, चोर दुष्टका मारना दम नहीं, दुःखका सहना क्षमा है, बहुत भार सहना क्षमा नहीं, जिह्वा और उपस्थवेग सह सो धैर्य, उद्वेग मनमें न उत्पन्नहो, इतनाही धैर्य नहीं॥३६॥ प्राणीमात्र से द्रोह त्यागनेको दान कहते हैं, धनका त्याग दान नहीं, कामका त्याग तप कहाता है, कृच्छ्रचान्द्रायण तप नहीं, स्वभावको जिसने जीत लिया सोही शूर, पराक्रम शौर्य नहीं, ब्रह्मका दर्शन सत्य है॥३७॥ पण्डितोंने सत्य और प्रियवाणीको ऋत कहाहै, कर्मोकी अनासक्तिको शौच और त्यागको संन्यास कहा है॥३८॥

मनुष्यों का श्रेष्ठ धन धर्म है, पशु पुत्रादिक धन नहीं, परमेश्वरही यज्ञ है, मेरी बुद्धिसे यज्ञ करें, कर्मबुद्धिसे न करै, मेरे ज्ञानका उपदेशही उस यज्ञकी दक्षिणा है, सुवर्णादि धन दक्षिणा नहीं, प्राणायामसे मनको वशमें करै, वही परमबल है॥३९॥ मेरा ऐश्वर्य सौभाग्यहै, कुछ लौकिक संपत्ति सौभाग्य नहीं. मेरी भक्ति पावै, सोई परमलाभ है, कुछ धनका लाभ नहीं. आत्मामें भेदबुद्धि दूर हो सो विद्या है केवल ज्ञानमात्र विद्या नहीं. कुत्सित कर्मका त्यागही लज्जा है, सो केवल लाज लज्जा नहीं॥४०॥ गुण अच्छे हों वहीं शोभा है कुछ आभूषण शोभा नहीं. दुःख, सुखका स्मरण करै, वही सुख है, भोग सुख नहीं, बंध मोक्षको जानै सो पण्डित है, केवल शास्त्र पढै पण्डित नहीं, भोग सुखकी इच्छा दुःख हैं,

धर्म इष्टं धनं नणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः॥ दक्षिणा ज्ञानसंदेशः प्राणायामः परं बलम्॥३९॥ भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः॥ विद्यात्मनि भिदा बाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु॥४०॥ श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्या सुख दुःखसुखात्ययः॥ दुःखं कामसुखापेक्षा पंडितो बंधमोक्षवित्॥४१॥ मुर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पंथा मन्निगमः स्मृतः॥ उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः॥४२॥ नरकस्तम उन्नाहो बंधुर्गुरुरहं सखे॥ गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढयो ह्याढ्य उच्यते॥४३॥ दरिद्रो यस्त्वसंतुष्टः कृपणो योऽजितेंद्रियः॥ गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसंगो विपर्ययः॥४४॥

अग्नि दाहादिक दुःख नहीं॥४१॥ देहादिकमें जिसके अहंकार हैं सो मूर्ख है, जिस मार्गमें मुझे पावे वही उत्तम मार्ग है; काँटोंसे रहित सन्मार्ग नहीं, जहाँ मन चंचलहो, संसारमें फिर प्रवृत्त होय सो ऐसे मार्गको कुत्सित मार्ग कहते हैं, चोरादिकोंसे व्याप्त उत्पथ मार्ग नहीं, सत्त्वगुण अधिकहो, राजस, तामस, गुण न हो, सोई स्वर्ग हैं, कुछ इन्द्रलोक स्वर्ग नहीं॥४२॥ तमोगुण अधिक होय सोई नरक है और नरक नहीं, और बंधु सब बंधु नहीं परमबंधु गुरु है, सो गुरु मैं हूं, मनुष्यका शरीर गृह है और गृह नहीं, जो गुणसे सम्पन्न है, वही धनी है और धनी नहीं॥४३॥ जो सदा असंतोष रक्खै, सो दरिद्री है, धनहीन दरिद्री नहीं, जो इन्द्रियोंको न जीतसकै सोई कृपण है, दीन कृपण नहीं, विषयों में

आसक्त न होकर जो स्वाधीन है, सो ईश्वर है, राजा स्वाधीन नहीं, जो गुणमें आसक्त है, वही परवश है॥४४॥ श्रीभगवान् बोले कि हे उद्धव ! यहतुम्हारे सब प्रश्न तुमको अच्छी प्रकार समझाये, अब बहुत क्या वर्णन करैं. गुण दोषका लक्षण इतनाही है, जो सबोंके गुण दोष विचारता रहै, वही दोष है और न गुण देखै न दोष देखै वही गुण है॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ दोहा—कहूं बीस अध्यायमें गुण अरु दोषके अर्थ ॥ भक्ति ज्ञान औ कर्म यह, तीनों योग समर्थ॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण!विधिनिषेध वेद कहते हैं सो वेद तुम्हारी आज्ञा है, तुम सबके ईश्वर हो आपकी आज्ञासे वेद कर्मोके पुण्य

एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः॥ किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः॥ गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधेऽज्ञानत्यागो नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ उद्धव उवाच॥ विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते॥ अवेक्षतेऽरविंदाक्ष गुणदोषं च कर्मणाम्॥१॥ वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम्॥ द्रव्यदेशवयः कालान्स्वर्ग नरकमेव च॥२॥ गुणदोषभिदा दृष्टिमंतरेण वचस्तव॥ निःश्रेयसं कथंनणां निषेधविधिलक्षणम्॥३॥ पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर॥ श्रेयस्त्वनुपलब्धेर्थे साध्यसाधनयोरपि॥४॥ गुणदोषभिदादृष्टिर्निंगमात्तेन हि स्वतः॥ निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया। ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित्॥६॥

पापोंको देखते हैं॥१॥ उन धर्मोके अधिकारी उत्तम, मध्यम, हीन तीन प्रकारके हैं सो वह वर्णाश्रम अलग हैं जिनका गुण दोष सब वेद देखते हैं॥२॥ अब आप कहते हो कि, गुण दोष छोड़कर धर्म में प्रवृत्त हो सो गुण दोष भेददृष्टि विना विधिनिषेध तुम्हारा वचन मनुष्योंको कैसे फलदायक होसकता है?॥३॥ हे ईश्वर! पितृदेवता तथा मनुष्यों को तुम्हारा वेदही मोक्ष और स्वर्गादिकोंमें श्रेष्ठ प्रमाण है और साध्य साधन विषे प्रमाण है॥४॥ और गुण दोषके भेदका ज्ञान तुम्हारे वेदही हैं, आपसे नहीं मानी है, गुण दोषोंपर दृष्टि न रक्खै, यह अब तुम्हीं कहते हो, इसलिये भ्रम होता है॥५॥ तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्भव! मनुष्यों के कल्याणार्थ वेदमें भेदसे तीन योग मैंने कहे हैं

ज्ञान, कर्म, भक्ति इनसे परे और उपाय कहीं नहीं॥६॥ इनके अधिकारी अलग अलग हैं, एकही नहीं सो कहते हैं इनमें जो कर्मोंसे विरक्त हैं फल कुछ नहीं चाहते उसे ज्ञानयोग कहा है॥७॥ यदृच्छा से मेरी कथा में जिसको श्रद्धा हुईहो अतिविरक्त भी न हो अतिआसक्त भी न हो उसे भक्तियोग सिद्धिका देनेवाला है॥८॥ प्रथम कर्मयोगको कहते हैं कर्म जहाॅतक करे वहाॅतक वैरग्य उत्पन्न न हो और मेरी कथा श्रवणादिकमें श्रद्धा न उपजै॥९॥ हे उद्धव! अपने स्वधर्ममें स्थित हो फलकी इच्छा छोड निष्काम यज्ञ करै तब उसे न नरक हो न स्वर्ग हो जो और आचरण न करे॥१०॥ इस लोकमें स्वधर्म में स्थित हो निषेधका त्याग करै ऐसा करनेसे जब मन शुद्धहो, तब विशुद्ध ज्ञानको प्राप्त करै या यदृच्छासे मेरी

निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु॥ तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्॥७॥ यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ॥ न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः॥८॥ तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता॥ मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते॥९॥ स्वधर्मस्थो यजन्यज्ञैरनाशीः काम उद्धव॥ न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्॥१०॥ अस्मिल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः॥ ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया॥११ ॥ स्वर्गिणोप्येनमिच्छंति लोकं निरयिणस्तथा॥ साधकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम्॥१२॥ न नरः स्वर्गतिं कांक्षेन्नारकीं वा विचक्षणः॥ नेमं लोकं च कांक्षेत देहाऽऽवेशात्प्रमाद्यति॥१३॥एतद्विद्वान्पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः॥ अप्रमत्त इदं ज्ञाखा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम्॥१४॥

भक्ति पावै॥११॥ ज्ञानभक्तिको यह मनुष्यदेह कर्त्ता है इससे मनुष्यदेह उत्तम है सो कहते हैं जो स्वर्ग में हैं और नरकमें हैं वह मनुष्यदेहकी बाधा कर तेहैं जिस देहकी ज्ञानभक्ति करने से मोक्ष होती है, स्वर्ग और नरकमें भी शरीर है सो मोक्षसाधक नहीं॥१२॥ चतुर मनुष्य होय सो स्वर्गकी गति न चाहे जैसे मनुष्य नरककी गति नहीं चाहते हैं और यह लोक भी नहीं चाहते, क्योकि देहके आवेश से प्रमाद होता है ॥१३॥ अर्थसिद्धिके दाता भी मनुष्यदेहको जानकर मृत्युसे पहले सावधान मनुष्य मोक्षका यत्न करै॥१४॥

जैसे पक्षीने एक रूखपर घर किया, उस वृक्षको कोई निर्दयी पुरुष आनकर काटै, उसे काटता जान अनासक्त होकर घर छोड़ दे तो जियै॥१५॥ जैसे अहोरात्र से काल आयुर्बलको काटे है, यह जान भयसे कॉपते इस देहकी आसक्ति छोड़ शांत चित्त होकर रहै॥१६॥ ऐसी देहको जानकर भी जो सावधान नहीं होता उसकी निंदा करते हैं यह मनुष्यदेह अत्यन्त दुर्लभ है, अनेक जन्मके पुण्यसे पाई है, साधन करनेको समर्थ है, संसारसमुद्रसे तरनेको नाव है गुरु नावके चलानेवाले हैं, मैंने अनुकूल पवनसे प्रेरित करी है, ऐसे साधनको पाय जो यह प्राणी संसारसमुद्रसे न तरै तो वह आत्मघाती है॥१७॥ यह कर्मयोग तो जो विरक्त न हो उनको कहा, अब जो विरक्त होंय उनको ज्ञान उपजै, पहले जो कुछ

छिद्यमानं यमैरेतैः कृतनीडं वनस्पतिम्॥ खगः स्वकेतमुत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलंपटः॥१५॥ अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्धाऽऽयुर्भयवेपथुः॥ मुक्तसंगःपरं बुद्ध्या निरीह उपशाम्यति॥१६॥ नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्॥ मयाऽनुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा॥१७॥ यदारंभेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेन्द्रियः॥ अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः॥१८॥ धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदाश्वनवस्थितम्॥ अतंद्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत्॥१९॥ मनोगर्ति न विसृजेज्जितप्राणो जितेंद्रियः॥ सत्त्वसंपन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशंनयेत्॥२०॥ एष वै परमो योगो मनसः संग्रहः स्मृतः॥ हृदयज्ञत्वमन्विच्छन्दम्यस्येवार्वतो मुहुः॥२१॥

कर्त्तव्य है सो प्रकार कहते हैं कि, जब कर्मों में उद्वेग हो वैराग्य उपजे तब इन्द्रियोंका निग्रह करै स्थिरता से आत्मा के अभ्यास से मनका निग्रह करै, तब यह योगी होय॥१८॥ मनका निग्रह करै परन्तु तो भी जब चंचल होय तब सावधान हो कुछ मनकी कांक्षा पूर्ण करके फिर मनको वश करै॥१९॥ मनकी धारणा नहीं छोडै प्राणवायु जीतै, इन्द्रियें जीते और सतोगुणी बुद्धिमें अपने मनको वशमें करें॥२०॥ यह मनको निग्रह निश्चय उत्तम योग है जैसे सवार दमन करने योग्य घोड़ेकी गतिको अपनी इच्छानुसार चाहताहुआ पहले उसे इच्छानुसार जाने

देता है, फिर लगामको थामकर चलाता है ऐसेही शनैः शनैः मनको वशमें करें॥२१॥ सब तत्त्वों के विवेकसे और प्रकृति से उत्पत्तिका क्रम विचारै, वह पृथ्वी आदि क्रम से अनुलोम प्रतिलोमसे लीन होते हैं, ऐसा ध्यान करता रहै, वह ध्यान उस समय तक करै जबतक चित्त प्रसन्न न हो॥२२॥ जब चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हो, तब गुरुके बताये धर्मका विचार करै, भ्रमसे यह चित्त देहका अभिमान छोड़ देता है ॥२३॥ संयम, नेम आदि योग धारण, आत्मविचार और मेरी प्रतिमाकी सेवा इन उपायोंसे योग्य परमात्माका मनसे स्मरण करै, क्योंकि मेरे स्मरणका इससे अधिक और उपाय नहीं है॥२४॥ जो प्रमादसे योगी कुछ निंदित कर्म करै, उस योगीको योगाभ्यासहीसे अपने पाप दूर करने

सांख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः॥ भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत्प्रसीदति॥२२॥ निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः॥ मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिंतितस्यानुचिंतया ॥२३ ॥ यमादिभिर्योगपथैरान्वीक्षिक्या च विद्यया॥ ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः॥२४॥ यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम्॥ योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन॥२५॥ स्वेस्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्त्तितः॥ कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियमः कृतः॥ गुणदोषविधानेन संगानां त्याजनेच्छया॥२६॥ जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु॥ वेद दुःखात्मकान्कामान्परित्यागेऽप्यनीश्वरः॥२७॥ ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः॥ जुषमाणश्च तान्कामान्दुःखोदर्कांश्च गर्हयन्॥२८॥

चाहिये, क्योंकि इसका और प्रायश्चित नहीं है॥२५॥अपने अधिकार में रहनाही गुण है, प्रवृत्तिमार्ग स्वभावहीसे अशुद्ध है तथापि जो सहस (एकाएकी) न छोड़ा जाय तो प्रवृत्ति संगके छुडानेकी इच्छासे गुण दोष कह इन कर्मोंके संकोचद्वारा निवृत्ति चाहिये, क्योंकि योगीको स्वाभाविक वृत्ति न होनेसे प्रायश्चित्तकी आवश्यकता नहीं॥२६॥ मेरी कथामें श्रद्धा कर्मोंम वैराग्य होनेपर और काम्य कर्मौको दुःखरूप जाननेपरभी उनका परित्याग न दोसकै॥२७॥ तो प्रीतिपूर्वक श्रद्धायुक्त हो दृढनिश्चयसे मेरा भजन करै विषय भोग करै तो आसक्त न हो, उनकी निंदा करता

रहै, अब भजनका प्रकार कहते हैं॥२८॥ पहले मैंने भक्तियोग तुमसे कहा है इसरीति से जब निरन्तर मुनि मेरा भजन करै तो उसके हृदयमें मेरा वास होनेसे उसकी सब कामना नष्ट होजायँगी॥२९॥ सबके आत्मा रूपसे जब मुझे देखे तब इसके हृदयकी गाँठि छूट जाती है और सब संदेह मिटकर संपूर्ण कर्म क्षीण होजाते हैं॥३०॥ इसलिये मेरी भक्ति संयुक्त मुझमें चित्तयुक्त करनेवाले योगीको न तो ज्ञान और न वैराग्य कल्याणका साधन है, किन्तु भक्तियोगही कल्याणका साधक है॥३१॥ जो फल कर्म, तप, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म और तीर्थ यात्रादिकके साधनसे

प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो माऽसकृन्मुनेः॥ कामा हृदय्या नश्यंति सर्वे मयि हृदि स्थिते॥२९॥ भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यंते सर्वसंशयाः॥ क्षीयंते चाऽस्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि॥३०॥ तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः॥ न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह॥३१॥ यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्॥ योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि॥३२॥ सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेंजसा॥ स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथंचिद्यदि वांछति॥३३॥ न किंचित्साधवो धीरा भक्ता ह्योकांतिनो मम॥ वांछंत्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्॥३४॥ नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्निःश्रेयसमनल्पकम्॥ तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत्॥३५॥

होता है॥३२॥ वही फल केवल मेरी भक्ति करनेसे प्राप्त होजाता है, मेरे भक्त सुखसे मेरा वैकुण्ठधाम पाते हैं, परन्तु मेरे भक्त कुछ चाहना नहीं करते हैं *॥३३॥ हे उद्धव ‘जो पुरुष बुद्धिमान हैं उनकी मुझमें अत्यन्त प्रीति है, वह परमसाधु हैं, यद्यपि मैं उनको अनेक विभव देता हूँ परन्तु, तो भी वह कुछ चाहना नहीं करते॥३४॥ मेरी निरपेक्ष भक्तिही परमकल्याणरूप है उसमेंभी मेरी निष्काम भक्ति

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* शंका— पहिले तो श्रीकृष्णने ज्ञानकी प्रशंसा की, फिर कुछ कालोपरान्त ज्ञान, वैराग्य, तप, जप, तीर्थ आदि लेकर और जो सुन्दर सुन्दर कर्म हैं उनको मी त्यागकर भक्तिकी प्रशंसा की कि सबसे भक्तिही बढी है, यह बडे सन्देह की बात है, किसको श्रेष्ठ माने और किसको मध्यम मानै भगवान् श्रीकृष्ण तो कभीकुछ कहते हैं कभी कुछ कहतेहैं, ऐसे वचन सुनकर हमको बढा भ्रम होता है।

**उत्तर—**श्रीकृष्णचन्द्रने विचारा कि थोडही दिनोंमें कलियुग आवेगा, जप, तप, तीर्थादिक सब सुन्दर सुन्दर कर्मोंका नाश करदेंगे, परन्तु भक्तिका नाश नहीं होसक्ता, इसलिये भगवानने भक्तिकी प्रशंसा की कि, कलियुगमें भक्तिके सिवाय मनुष्योंसे और कोई दूसरा काम नहीं होगा।

निष्कामभक्तकोही प्राप्त होती है॥३५॥ जो मेरे विषे एकान्त भक्त रागद्वेषादि रहित समचित्त हैं और बुद्धिसे परे ईश्वरको प्राप्त हैं उनको विधिनिषेधके गुणदोषसे उत्पन्न हुए पुण्य पाप नहीं लगते॥३६॥ इसप्रकार मेरे कहे मार्गों में जो पुरुष चलते हैं, वे परमकल्याणरूप मेरे धामको कि, जिसको परब्रह्म कहते हैं, प्राप्त होते हैं॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे विंशतितमोऽध्यायः॥२०॥ दोहा—इक्किसवें अध्यायमें कर्म भक्ति औ ज्ञान॥सबके गुण अरु दोष मैं, वरणौं सहित विधान॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचंद्रजी बोले कि, हे उद्भव! जो पुरुष मेरे बताये मार्ग, भक्ति, ज्ञान, निष्काम कर्मको छोड़कर इन चंचल

नं मय्येकांतभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः॥ साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्॥३६॥ एवमेतान्मयादिष्टाननु तिष्ठंति मे पथः॥ क्षेमं विंदंति मत्स्थानं यद्ब्रह्म परमं विदुः॥३७॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० योगत्रयभक्त्यादिनि० विंशतितमोऽध्यायः॥२०॥ श्रीभगवानुवाच॥य एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्॥ क्षुद्रान्कामांश्चलैः प्राणैर्जुषतः संसरंति ते॥१॥ स्वेस्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः॥ विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः॥२॥ शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु॥ द्रव्यस्य विचिकित्साऽर्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ॥३॥ धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चाऽनघ॥ दर्शितोऽयं मयाऽऽचारो धर्ममुद्वहतां धुरम्॥४॥

प्राणोंसे तुच्छ कामनाओं का सेवन करते हैं, वह संसार को फिर प्राप्त नहीं होते हैं॥१॥ जिसप्रकार अग्निका किसीको ताप होना और किसीको न होना संभव नहीं, इसीप्रकार उन्हीं कर्मोंसे किसीके गुण और किसीके दोष होना संभव नहीं, यह संदेह करनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि निज निज अधिकारमें निष्ठा रखनेको गुण और निष्ठा न रखनेको दोष कहते हैं, गुण दोषके विचारका यही निश्चय है॥२॥ यह शुद्ध है लीजिये यह अशुद्ध है न लीजिये ऐसे संदेहसे स्वाभाविक प्रवृत्तिको निवृत्त करने के लिये समान वस्तुओं में भी वेदमें शुद्धि और अशुद्धिका विधान किया है और इसके लिये उनमें गुण दोष माने हैं इसीसे पुण्य और पाप मानते हैं॥३॥ हे निष्पाप! धर्मका भार धारण करनेवाले पुरुषोंको मैंने ही

मनु आदिरूप से यह आचार दिखाया है, यह शुद्धि और अशुद्धि धर्मव्यवहार तथा निर्वाहके लिये गुण और दोषरूपसे प्रतिपादन किये हैं धर्मके लिये शुद्धिसे धर्म अशुद्धिसे अधर्म, व्यवहार में अशौचादिसे अशुद्ध भी राजव्यवहारमें न्याय करनेको शुद्ध और दूसरे कार्यों में अशुद्ध हैं, आपदा में निर्वाहमात्र पदार्थ लेनेसे शुद्धि और अधिक लेनेसे अशुद्धि होती है॥४॥ यद्यपि यह सब वस्तु समान हैं, क्योंकि पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, ब्रह्म आदि जड़तक सबकी देहके कारण पंचमहाभूत हैं और आत्मा भी सब एकही हैं॥५॥ परन्तु तो भी है उद्धव!समान भी देहविषे वेदने नाम, रूप, वर्ण, आश्रम संपूर्ण इन जीवोंके स्वार्थ सिद्धिके लिये पृथक पृथक किये हैं॥६॥केवल देहमेंही विभाग नहीं, किन्तु देशकाल आदि

भूम्यंब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्च धातवः॥ आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः॥५॥ वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि॥ धातुषूद्धव कल्प्यंत एतेषां स्वार्थसिद्धये॥६॥ देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम॥ गुण दोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम्॥७॥ अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्॥ कृष्णसारोप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्॥८॥ कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यतः स्वत एव वा॥ यतो निवर्त्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः॥९॥

संपूर्ण वस्तुओं में कर्मके संकोच के लिये गुण दोषका विधान किया है, अब शुद्धि अशुद्धिका विषय कहते हैं॥७॥ जिस देशमें काला मृग न हो, वह देश अशुद्ध है और सत्पात्र रहित देश, मार्जन रहित देश, ऊपरदेश, यह अशुद्ध हैं और जहॉ ब्राह्मणों में भक्ति न हो वह तो अत्यन्त ही अशुद्ध है, अंग वंग, कलिंगादिक भी देश अशुद्ध हैं, जहाँ काली मृगी और सत्पात्र हो सो अशुद्ध भी देश शुभ है, देशकी शुद्धि अशुद्धि कहकर अब काल समयकी शुद्धि कहते हैं *॥८॥ जो काल द्रव्यकी संपत्तिसे कर्मके योग्य है और जो स्वतःही प्रातः पूर्वाह्ण, मध्याह्न काल कर्मके योग्य है, सो काल उस

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***शंका—**श्रीकृष्ण ने कहा था कि, जिस देशमें काला मृग नहीं होता वह देश भ्रष्ट है यह बडे आश्वर्यकी बात है कि, जिस देशमें गंगा यमुना आदि नदी प्रयाग पुष्कर आदि तीर्थ वदरीनारायण आदि आश्रम हैं, वह भी देश काले मृग विना भ्रष्ट हैं,तो इस बातसे यह सिद्ध हुवा कि, काला हरिणही सर्वोपरि मुख्य ठहरा यह गंगा और प्रयागादितीर्थ किसीको शुद्ध नहीं करसक्ते।

**उत्तर—**श्रीकृष्णने उद्धवसे कहा सो सब सत्य है, परन्तु विना व्याकरण पढनेसे अर्थ करनेकी शक्ति नहीं होसक्ती वह पुरुष अर्थका अनर्थ कर देते हैं, क्योंकि भागगतमें अकृष्णसारका अर्थ है व्यासजीने—

कर्मको शुद्ध है, जो सूतकादिक काल कर्मके योग्य नहीं है, यद्यपि काल सब एक है, परन्तु तो भी यह भेद किया गया है कि, कर्मके अयोग्य काल अशुद्ध है॥९॥ अव द्रव्य की शुद्धि कहते हैं, द्रव्यकी शुद्धिअशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, बड़ेपन और छोटेपन से मानी जाती है, द्रव्यको शुद्धि जल करता है सूत्रादिक अशुद्ध करते हैं कि, ब्राह्मणका वचन प्रमाण हे वह कहै यह वस्तु शुद्ध है तो वह शुद्धही है, अशुद्ध कहें तो अशुद्धही है, पुरुष सूघं ले तो अशुद्ध हो जाय, प्रोक्षणादिक संस्कारसे शुद्ध होय, कालसे जलकी शुद्धता. दश दिन हो जानेसे नये जलकी शुद्धि, चातुर्मास्य में तीन दिनसे, शुद्धता बड़ेपन से, चाण्डालादिकके स्पर्शसे तालाबका जल बहुत भरा हो तो चाहै कोई भरो वह जल शुद्ध है, छोटेपन से घटादिका जल चाण्डालादिके स्पर्शसे अशुद्ध होजाता है॥१०॥ अव शक्ति अशक्तिसे शुद्धाशुद्धि कहते हैं, सूर्यग्रहण में जिसको शक्ति हो, उसे सुतक लगै; स्नान

द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च॥ संस्कारेणाथ कालेन महत्त्वाल्पतयाऽथ वा॥१०॥ शक्त्याऽशक्त्याऽथवा बुद्धया समृद्ध्या च यदात्मने॥ अघं कुर्वंति हि यथा देशावस्थानुसारतः॥११॥ धान्यदार्वस्थितंतूनांरसतैजसचर्मणाम्॥ कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः॥१२॥

दान से शुद्धि होती है और जो अशक्त हैं उन्हें नहीं, बुद्धिसे पुत्रजन्मादि आशौचकी दशदिन के भीतर जानेसे अशुद्धि उपरान्त शुद्धि समृद्धि होनेके कारण जीर्ण वस्त्र मलिन वस्त्र श्रीमंत को अशुद्ध हैं, दरिद्रीको शुद्ध हैं, सुतकका अन्न समर्थको तो अशुद्ध है, असमर्थको शुद्ध है, यह द्रव्य वचन आदि द्रव्यकी अशुद्धिसे आत्माको पातक लगाते हैं, सो देश काल अवस्थाके अनुसारही लगाते हैं, निर्भय देशमें यही पापदायक चौरादिके उपद्रव युक्त देशमें नहीं, युवावस्था में यही पापदायक और वृद्धावस्था तथा बालकपनमें शुद्ध है॥११॥ इसप्रकार द्रव्यकी शुद्धि द्रव्योंसे कही, वचन शुद्धि एक ही भाँति है, द्रव्यकी शुद्धि बहुत प्रकार है सो कहते हैं अन्न, काष्ठ, हाथीदांत, सूत्र, रस, तैल, घृतआदि सुवर्ण और मार्गकी कीच,

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—ऐसा कहा कि, जिस देशमें काला मृग नहीं होगा वह देह भ्रष्ट होगा जो कोई ऐसे मनुष्य हैं कि संसारको कुछभी नहीं मानते इससे कुछ भी सार नहीं है ऐसा जानकर के बडी निश्चयसे श्रीकृष्णको सार जान ते हैं कि, सब झूठा है श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारपिदका आश्रय सत्य है, ऐसे जाननेनाले पुरुप जिस देशमें नहीं है यह देश भ्रष्ट है सो श्रीकृष्णने ऐसा कहाया कुछ ऐसा नहीं कहाथा कि, जिस देशमें काला मृग नहीं है वह देश भ्रष्ट है॥

कलश, ईंट यह सब काल वायु अग्नि जलसे यथायोग्य शुद्ध हैं अर्थात् धान्यकी शुद्धि वायुसे, यज्ञ पात्र तथा काष्ठकी जलसे, हाथी दॉत आदिकी कालसे, तैल घृत सुवर्णादिकी अग्निसे, तंतुओंकी जलसे, चामकी काल और रंगसे, पार्थिव विकार ईंट आदिकी कालसे शुद्धि होती है, कहीं तो यह सब मिलकर शुद्धि करते हैं और कभी अकेले करते हैं तो भी जो काक और चाण्डालादिक नीच जातिका स्पर्शहुआ हो तो उसके देश अवस्था देखकर विचार करे तब शुद्ध हो॥१२॥ और भी शुद्धि कहते हैं, पीढ़ा पात्र वस्त्र आदिमें जो अपवित्र वस्तु लेपकी लगजाय तो काष्ठ छिलायेसे शुद्ध हो, द्रव्यकी शुद्धि राख और खटाईसे धोवे तब शुद्ध हो, वस्त्र खारसे गंध और लेप छूटनेतक धोवे तब शुद्ध हो, जब दुर्गंध न रहे स्वच्छ होजाय तब शुद्ध है॥१३॥ अव कर्त्ता की शुद्धि कहते हैं—स्नान, ध्यान, तप, अवस्था, बाल्य, कौमार, वीर्यसंस्कार, गायत्री उपदेश कर्म,

अमेध्यलिप्तं यद्येन गंधं लेपं व्यपोहति॥ भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते॥१३॥ स्नानदानतपोऽवस्था वीर्यसंस्कार कर्मभिः॥ मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्विजः॥१४॥ मंत्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्॥ धर्मः संपद्यते षड़भिरधर्मस्तु विपर्ययः॥१५॥ क्वचिद्गुणोपि दोषः स्याद्दोषोपि विधिना गुणः॥ गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते॥१६ ॥

संध्या दीक्षादिक कर्म से ब्राह्मण जब शुद्ध होय तब कर्म करे और आत्मा की शुद्धि मेरे स्मरण से होती है और प्रकारसे नहीं, ब्राह्मणादिके देहकी शुद्धि इन संस्कारों से होती है और प्रकार नहीं, देहकी शुद्धि इन संस्कारोंसे होती है, सो भी व्यवहार के लियेही है; उसके निमित्त विहित कर्म करै॥१४॥ अब मंत्र की शुद्धि कहते हैं, श्रेष्ठ गुरुके मुखसे सुने, इसके उपरान्त उस मंत्र का अच्छी प्रकार ज्ञान हो तो मंत्रकी शुद्धि हो, जो कुछ कर्म भले अथवा बुरे करै सो सब मुझे समर्पण करे, यह कर्म शुद्धि हैं, देश काल द्रव्य कर्त्ता मंत्र कर्म इन छःपदार्थों के शुद्ध होनेसे धर्मकी शुद्धि होती है, यही अशुद्ध हो तो अधर्म होता है॥१५॥ यह गुण दोषका विभाग यथार्थ नहीं है, कहीं आपदा में प्रतिग्रह लेनेसे दोष गुण होजाता है, धन होनेसे निषेध होनेका कारण कहीं दोष है और कहीं दोष भी विधिसे गुण होजाता है, जैसे कुटुम्बका त्यागना दोष है, परन्तु

विरक्तको कुटुम्ब त्यागना दोष नहीं, गुण दोषके कहनेवाले शास्त्र गुण दोषके बाधक हैं॥१६॥ दोष भी कहीं दोष नहीं होता, यहाँ एक दृष्टान्त कहते हैं, जो सुरापानसे पतित नहीं हैं, उन पतितोंको सुरापानसे दोष नहीं होता, क्योकि वह जातिकर्ममें पहलेही पतित हैं उनको सुरापान अधिक पातक क्या करेगा? और जो धर्मशील हैं, उन्हें उसका संगही पातक है, संन्यासी को संगही बंधन में डाल देता है, सोई गृहस्थका गुण है क्योंकि गृहस्थको संग करना होता है, जैसा कि वेदमें कहा है “ ऋतुके दिन स्त्री संग न करै, परन्तु जो पहलेही पृथ्वीपर सोया है, वह नीचे नहीं गिरता”॥१७॥ इसप्रकार गुण दोष का विचार प्रवृत्तिमार्ग में है निवृत्ति होनेके उपरान्त कुछ नहीं, सो कहते हैं, वेदका यही तात्पर्य नहीं है किं, जो सदा प्रवृत्तिमेंही रहै, वेद प्रवृत्ति छुटाकर निवृत्ति बताते हैं, इस कारण जिस जिस विषय से निवृत्त हुआ, उससे मुक्त होजाता है, यह

समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्॥ औत्पत्तिको गुणः संगो न शयानः पतत्यधः॥१७॥ यतोयतो निवर्त्तेत विमुच्येत ततस्ततः॥ एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः॥१८॥ विषयेषु गुणाध्यासात्पुंसः संगस्ततो भवेत्॥ संगात्तत्र भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम्॥१९॥ कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्त्तते॥ तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम्॥२०॥ तया विरहितः साधो जंतुः शून्याय कल्पते॥ ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्छितस्य मृतस्य च॥२१॥ विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्॥ वृक्षजीविकया जीवन्ध्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन्॥२२॥

धर्म मनुष्यों को अत्यन्त शुभकारी है और शोक, मोह तथा भयको दूर करनेवाला है॥१८॥ प्रवृत्तिमार्ग अनर्थरूप है सो कहते हैं कि, जब मनुष्योंको विषयमें इन्द्रियों का अध्यास होजाता है, तब आसक्ति उत्पन्न होती है आसक्तिसे काम और कामहीसे कलह उत्पन्न होता है॥१९॥ कलहसे अतिअसह्य क्रोध होता है, क्रोधसे तम और अज्ञान होता है, अज्ञानसे पुरुषकी चेतना जो सब देहमें व्यापरही हैं, सो शीघ्रही नष्ट हो जाती है॥२०॥ हे साधो! जब वह चेतनासे रहित हुआ, तब यह जीव आसाधुके तुल्य हो मूच्छित होता है, मूर्च्छा होतेही मृतक समान होने से इसकेपुरुषार्थकी हानि होती है॥२१॥ जो मृतक समान है उसका स्वरूप कहते हैं, जो विषयोंमें आसक्त होनेके कारण आत्माको तथा और को भी नहीं जानते, सो वृक्षोंकी जीविका की नाई वृथा जीते हैं, धौंकनीके समान श्वास लेते भी मृतक समान हैं ॥२२॥

यह जो प्रवृत्तिमार्गकी आज्ञाहै, सो वेदने यहाँ कर्मों के फल रुचि दिखानेके लिये वर्णन किये हैं, जैंसे रोगीको औषधी रुचि उपजाकर पिलाते हैं, तात्पर्य आरोग्यतासे है. सदा औषधी सेवनसे नहीं. इसी प्रकार जब तक ज्ञान न हो तब तक कर्म करनेकी वेद आज्ञा करता है, सब काल कर्म करने से तात्पर्य नहीं॥२३॥ मनुष्य स्वभावदीसे पशु आदिमें और इन्द्रिय, बल वीर्यमें, पुत्रादिको में आसक्तचित्त होजाता है सो सब अपने आपको अनर्थका हेतु है॥२४॥ इससे स्वार्थ अर्थात् मरमसुखको जो पुरुष नहीं जानते, वह अनेक पापरूप मार्गोंकी उन उन योनियों में भ्रमण करते हैं, इसके पीछे जड़रूप वृक्ष आदि योनियोंमें प्रविष्ट होते हैं, उनको फिर वेद भी धर्मोंमें नहीं प्रवृत्त करे, जिससे अनिष्ट हो उसीमें वेद वृत्त करै तो हितकारी हो॥२५॥कर्ममार्गी कैसे फल बताते हैं, सो कहते हैं, इसप्रकार वेदका अभिप्राय जाने विना कुबुद्धिद्दी लोग वेदमें

फलश्रुतिरियं नृणां न श्रेयो रोचनं परम्॥ श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम्॥२३॥ उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च॥आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु॥२४॥ न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि॥ कथं युंज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः॥२५॥ एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः॥ फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि ॥२६॥ कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः॥ अग्निमुग्धा धूमतांताःस्वं लोकं न विदंति ते॥२७॥ न ते मामंग जानंति हृदिस्थं य इदं यतः॥ उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः॥२८॥ ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः॥ हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना॥२९॥

कहे हुये सुन्दर फलश्रुतिको सत्य समझते हैं वह भ्रम है परन्तु जो वेदके तात्पयको जानते हैं, वह व्यास आदि ऋषि ऐसा नहीं कहते॥२६॥ कामीकृपण, लोभी, पुष्परूपी स्वर्गादि सुखरूप अवान्तर फल जो मुख्य माननेवाले अग्निहोत्रादिसे मुग्ध धूम्रयुक्त चित्तवाले अपने सुखदायक लोकको नहीं जानते॥२७॥ हे उद्धव!जिससे यह जगत् प्रगट है और जो जगतरूप है, ऐसे मुझ परमात्मा को वे हृदयमें स्थित नहीं जानते, कर्मरूप शस्त्रों से पशु हिंसाकर बकवत प्राण पुष्ट करते हैं जैसे कुहरेसे कुछ नहीं दीखता, वैसेही अज्ञानसे उनके नेत्र व्याप्त हैं, क्योंकि जो समीपमें स्थित मुझे नहीं जानते॥ ॥२८॥ इसी कारण से मेरे वाक्यरूप वेदके गूढ़ तात्पर्यको विषयी नहीं जानते, मेरा मत यह

है कि, यदि मांस भक्षणके लिये हिंसाकी विधि में वेदकी प्रीति होती तो वेद यज्ञमें ही मांस भक्षणकी विधि नहीं करता, किन्तु सदाके लिये आज्ञा देता मनुष्यों की मांसमें अधिक प्रवृत्ति देख उनको इससे छुड़ानेके लिये कि, एक संग तो छूट नहीं सकता, इस कारण छुडानेका उपाय प्रतिपादन करता है कि, पशुको यज्ञमेंही मारना और स्थलमें नहीं उसमें भी अमुक पशु मारना, इससे वेदका अभिप्राय पशुहिंसा से निवृत्तिही करनेका है॥२९॥ हिंसा में जिनके व्यवहार हैं, अपने विषय भोगोंके लिये पशुओंकी हिंसा करके देवता, पितृ, भूतपतियोंका जो पुरुष पूजन करते हैं वह अतिदुष्ट हैं॥३०॥ स्वप्नके समान कानों को सुख दायक परलोकको और इस लोककी कामनाओंका मनमें संकल्प करके अपने धनको सकामकर्मोमें व्यय करते हैं और दोनों लोकसे भ्रष्ट होजाते हैं, जैसे बनियाॅदुस्तर समुद्रके उल्लंघन करनेमें बहुत धन प्राप्तिकी इच्छाकर

हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया॥ यजंते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः॥३०॥ स्वप्नोपमममुं लोकमसंतं श्रवणप्रियम्॥ आशिषो हृदि संकल्प्य त्यजत्यर्थान्यथा वणिक्॥३१॥ रजः सत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः॥ उपासत इन्द्रमुख्यान्देवादीन्न तथैव माम्॥३२॥ इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि॥ तस्यांत इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः॥३३॥ एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्॥ मानिनां चातिस्तव्धानां मद्वार्तापि न रोचते॥३४॥ वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे॥ परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम्॥३५॥

अपने संचित किये धनको छोड़ दोनोंओरसे भ्रष्ट होजाता है॥३१॥ और जो रजो गुण, सतो गुण, तमोगुणसे युक्त होकर जैसे इन्द्रादिक देवताओंकी सेवा करते हैं, वैसे मेरी सेवा नहीं करते॥३२॥ मनमें अनेक मनोरथ करते हैं कि, “यहाँ यज्ञसे देवताओंको सन्तुष्टकर स्वर्गमें जाकर विहार करेंगे और फिर यह भोग भोगकर अंत में यहाँ आय बड़े बड़े गृह तथा बड़े कुलमें स्थित होंगे “॥३३॥ इस प्रकार फूली बातोंसे चंचल चित्त मनुष्य मान अहंकार भरे गृहमें रमे रहते हैं, उनको मेरी वार्त्ता अच्छी मालूम नहीं होती॥३४॥ इसकारण वेदका तात्पर्य ब्रह्म विषेहै, निवृत्तिही को बताते हैं, यद्यपि कर्मयोग, ज्ञानमार्ग, उपासनामार्ग, भिन्न भिन्न कहे हैं परन्तु तो भी तात्पर्य ब्रह्ममेंही है मंत्र और मत्रोंके द्रष्टा ऋषि परोक्ष रीतिसेही पदार्थका प्रतिपादन करते हैं, इससे ब्रह्म आत्मामें गूढ़ होनेके कारण प्रकाशित नहीं परोक्षरीतिसे कहने का कारण यह है कि, मुझे

परोक्ष प्रियहै जिनके अंतःकरण शुद्ध हैं वही उसको जान सकते हैं, दूसरे नहीं जान सकते दूसरोंके जाननेमें हित तो दूर रहे; किन्तु कर्मभ्रष्ट होनेकी आपत्ति आनपड़ती है॥३५॥ तो कहते हैं कि, जैमिनि आदिऋषि वेदके ज्ञाता थे इन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर यह हैं कि, वेदका तत्त्व मुझ विना कोई नहीं जानता है क्योंकि शब्दब्रह्म अति दुर्ज्ञेय है वही सूक्ष्म और स्थूल भेदसे दो प्रकारका है सूक्ष्मका तो स्वरूप जानना भी अतिकठिन है, क्योंकि प्रथम तो वह परानामक प्राणमय है, दूसरा पश्यंती नाम मनोमय है, तीसरा मध्यमानाम इन्द्रियमय है, देहमें यह तीनों स्वरूप सुक्ष्मरूप से रहते हैं, इसलिये इनका जानना कठिन है चौथा वैखरीस्वरूप है जिससे मनुष्यबोलते हैं, समष्टि प्राणमय वेदब्रह्मका देशकालसे परिच्छेद न होनेके कारण उसके पारका अंत नहीं है जिसप्रकारयह वेद ब्रह्मशब्दसे जानना कठिन है, उसी प्रकार अर्थसे भी महागंभीर समुद्रके

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेंद्रियमनोमयम्॥ अनंतपारं गंभीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्॥३६॥ मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणाऽनं तशक्तिना॥ भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते॥३७॥ यथोर्णनाभिर्हृदयाद्वर्णामुद्वमते मुखात्॥ आकाशाद्धोषवान्प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा॥३८॥ छंदोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः॥ ओंकाराद्व्यंजितस्पर्शस्वरोष्मांतःस्थभूषिताम्॥३९॥ विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः॥ अनंतपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम्॥४०॥

समान अवगाह करनेको दुःसाध्य है॥३६॥ अनन्तशक्ति व्यापकरूप अन्तर्यामी ब्रह्मसे यह नादवन्त वाणीरूप कमलनालमें तंतुके समान सब प्राणीमात्रमें प्रतीत होता है, इस स्वरूपका विद्वान् पुरुष विचार करते हैं॥३७॥ जैसे मकरी हृदयसे निकाल मुखद्वारसे जालको प्रगट करती है उसी प्रकार प्राणोपाधि हिरण्यगर्भ प्रभु भगवान् वेदमूर्त्ति अमृतमय नादवंत स्पर्शादिकोंका कर्त्ता और मन करके हृदयाकाशसे वैखरी नाम वाणीको उपजाकर जाते हैं, जो बृहती वा वैखरी नामक वाणी उपजाते हैं फिर आपही संहार करते हैं वह कैसी वाणी है? कि जिसके अनेक मार्ग हैं॥३८॥ हृदयमें प्राप्त अतिसूक्ष्म प्रणवसे प्रगटहुए जो स्पर्श, स्वर, ऊष्मा, अंतस्थसे शोभित॥३९॥ अनेक लौकिक भाषाओंसे फैली उत्तरोत्तर चार चार अक्षर जिनमें बढ़ैं ऐसे गायत्री आदिसे छंदोंसे युक्त पारावार रहित है, वह प्राण उसे आपही प्रगट

करके उपसंहार करते हैं॥४०॥ उनमें कितनेही छन्दोंको दिखाते हैं—गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अत्यष्टि, अतिजगती और अतिविराट् इत्यादि छन्द हैं, चार चार अक्षर बढानेसे बनते हैं जैसे चौबीस २४ अक्षरोंका गायत्री छन्द होता है, अट्ठाईश २८ अक्षरका उष्णिक् छन्द होता है, बत्तीस ३२ अक्षरका अनुष्टुप्छन्द होता है, इस प्रकार चार चार अक्षरोंको अधिक करके छन्दोंका लक्षण जानलेना॥४१॥ यह वेदवाणी कर्मकाण्डोंमें विधिवाक्योंसे क्या प्रतिपादन करती है और मंत्रवाक्योंसे देवताकाण्डमें किसका प्रकाश करती है ज्ञान काण्डमें यही वेदवाणी किसका अनुवाद करके विकल्प बताती है इसप्रकार वेदवाणीके तात्पर्यको मेरे अतिरिक्त जाननेकी किसीको सामर्थ्य नहीं॥४२॥ वेदवाणी देवतारूप मेराही प्रतिपादन करती है और (उस्सेआकाश उत्पन्न हुआ) इत्यादि वाक्योंसे विकल्प कथनकर पीछे

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पंक्तिरेव च॥ त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छंदो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट्॥४१॥ किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्॥ इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन॥४२॥ मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्॥ एतावान्सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्॥ मायामात्रमनूद्यांते प्रतिषिध्य प्रसीदति॥४३॥ इति श्रीमा० म० एका० गुणदोषव० एकविंशोध्यायः॥२१॥ उद्धव उवाच॥ कति तत्त्वानि विश्वेश संख्यातान्यृषिभिः प्रभो॥ नवैकादश पंच त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम॥१॥

निराकरण कहते हैं सोभी मेराही स्वरूप है सब वेदका तात्पर्य यही है कि, परमेश्वर परमार्थरूप है, भेद मायामात्र है, इसप्रकारजो ओंकारमें अर्थ है वही सब काण्डोंमें है, जैसे अंकुरका रस शाखा प्रशाखा फल पुष्पादि सब आजाता है॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ दोहा—बाइसवें अध्यायमें, प्रकृतीपुरुषविचार, तत्त्वोंकी संख्या सकल, अरु अविरोध प्रकार॥१॥ उद्धवजी बोले कि हे भगवन्! हे विश्वेश्वर! हे प्रभो! कितने एक महात्मा तत्त्वोंकी संख्यामें विवाद करते हैं, उन्होंने अपने शास्त्रोंमें तत्त्वोंकी संख्या पृथक् २ की है, आप सब मिलकर तत्त्वोंकी संख्या अट्ठाईस २८ कहते हैं यह आपकेही श्रीमुखसे सुना है॥१॥

कोई छब्बीस २६ कहता है, कोई पचीस कहता है, कोई सात७कहता है कोई नौ ९ कहताहै, कोई छः ६ कहता है, कोई चार ४ कहता है, कोई ग्यारह ११ कहता है, कोई सत्रह १७ कहता है, कोई सोलह १६ कहताहै कोई तेरह १३ कहताहै ऋषीश्वर जिस प्रयोजनके अर्थ इतनी संख्या भिन्न भिन्न कहते हैं, सो हे चिरंजीव! यह मुझे समझाकर कहो॥२॥३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जब इसप्रकार पूॅछा तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! ब्राह्मण जो कहते हैं, सो युक्त है, यह तत्त्व सर्वत्र हैं मेरी मायाको अंगीकार करके कहते हैं, जिस मायामें किसी प्रकारका कहना अशक्य नहीं है॥४॥ तुम जैसे कहते हो, यह ऐसे नहीं जो मैं कहता हूं सो सत्य है, इसप्रकार उन तत्त्वोंके मूल कार

केचित्षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिम्॥ सप्तैके नव षट् केचिच्चत्वार्येकादशापरे॥२॥ केचित्सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश॥ एतावत्त्वं हि संख्यानामृषयो यद्विवक्षया॥ गायंति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि॥३॥ श्रीभगवानुवाच॥ युक्तं च संति सर्वत्र भाषते ब्राह्मणा यथा॥ मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम्॥४॥ नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा॥ एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः॥५॥ यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम्॥ प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनु शाम्यति॥६॥ परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षभ॥ पौर्वापर्यप्रसंख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम्॥७॥ एकस्मिन्नपि दृश्यंते प्रविष्टानीतराणि च॥ पूर्वस्मिन्वाऽपरस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः॥८॥ पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसंख्यानमभीप्सताम्॥ यथा विविक्तं यद्वत्क्रं गृह्णीमो युक्तिसंभवात्॥९॥

णमें जो ब्राह्मणोंका विवाद है वह यथार्थरूपसे देखाजाय तो अपने अपने स्वभावके अनुसार परिणाम होनेवाले मायाके सत्त्वादि गुणही विवादका कारण है॥५॥ जिन शक्तियोंके क्षोभसे विवाद कर्त्ताओंका भेद आश्रय हुआ है, जब शम प्राप्त होनेसे भेद दूर हो तो भेद जानकर पीछे विवाद शान्त होजाता है॥६॥ हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ! तत्त्वोंके परस्पर अनुप्रवेशसे कार्य कारणरूप तत्त्वोंकी संख्या वक्ताकी इच्छानुसार होसकती है॥७॥ अब अनुप्रवेशको कहते हैं, एकही तत्त्वमें सब तत्त्व कारणमें अथवा कार्यमें प्रविष्ट दीखते हैं, जैसे मृत्तिकामें घट और घटमें मृत्तिका अन्योन्य प्रविष्ट हैं॥८॥ इन तत्त्वोंका कार्यकारणभाव और न्यून आदिक संख्याको वादियोंके मध्य जैसे कहनेकी इच्छासे जैसे कि

जिह्वा जिसप्रकार प्रवृत्त होती है, वह वैसीही सिद्धि करसकती है, हम इस सबको संभव जानते हैं॥९॥ जीव ईश्वर जो चैतन्यरूप है, उसके भेद अभेद माननेके कारणको कहताहूं कि, जो जीव अनादि कालसे अविद्यासे संयुक्त है, इसलिये उसे अपने स्वरूपका ज्ञान स्वयं नहीं होसक्ता, उसे ज्ञान दाता सर्वज्ञ ईश्वर पृथक् है, ऐसा जानकर जीव ईश्वरमें भेद माननेवालोंके मतमें चौबीस तत्त्व और पचीसवाँ जीव तथा छब्बीसवाॅ तत्त्व है॥१०॥ स्वयं संख्या विषे भेदकल्पना ब्यर्थ है, क्योंकि जीव ईश्वर दोनों चैतन्य होनेसे उनमें कुछ भेद नहीं और ऐसा माननेवाले पचीस तत्त्व कहते हैं ज्ञान प्रकृतिका गुण है, इसीसे प्रकृतिमें गिना है, यह एक पक्ष है॥११॥ अहो! ज्ञान तो जीवका धर्म है, प्रकृतिका गुण कैसे है? तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, तीनों गुणोंकी समान अवस्था प्रकृति है, गुण प्रकृतिहीके हैं, आत्माके नहीं, सत्व, रज, तम, गुण उत्पत्ति,

अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्॥ स्वतो न संभवेदन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत्॥१०॥ पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि॥ तदन्यकल्पनाऽपार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः॥११॥ प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः॥ सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यंतहेतवः॥१२॥ सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्मतमोऽज्ञानमिहोच्यते॥ गुणव्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च॥१३॥ पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहंकारो नभोऽनिलः॥ ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव॥१४॥ श्रोत्रं त्वद्गर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः॥ वाक्पाण्युपस्थपाय्वंघ्रिः कर्माण्यंगोभयं मनः॥१५॥ शब्दः स्पर्शो रसो गंधो रूपं चेत्यथजातयः॥ गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः॥१६॥

पालन और प्रलयके कारण हैं॥१२॥ सत्त्वमय ज्ञान प्रकृतिका गुण है, कर्म रजोगुणका गुण है, अज्ञान तमोगुणका गुण है और स्वभाव यह महत्तत्त्वका स्वरूप है; काल ईश्वरका स्वरूप है; इसलिये काल स्वभाव भिन्न तत्त्व नहीं हैं, मैंने जो अठ्ठाईस तत्त्व कहे हैं, उनमें पूर्वोक्त पचीस और तीनगुण यह सब मिलाकर अठ्ठाईस होते हैं॥१३॥ पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वीमें यह मैंने नौ तत्त्व कहे हैं॥१४॥ कर्ण, त्वचा, नेत्र, नासिका, जिह्वा; यह पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं। वाणी, हाथ, पाँव, उपस्थ, गुदा, यह पॉच कर्मेन्द्रिय हैं, हे उद्भव! ज्ञान और कर्म, रूप, मन यह ग्यारह॥१५॥ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पॉच जानेन्द्रियके

विषय हैं, गति, वचन, मलत्याग, ग्रहण, आनंद, यह पाँच कर्मेन्द्रियोंके फल हैं, यह सब इन्द्रियोंके फल हैं, भिन्न नहीं। इससे अट्ठाईसके भीतर हैं, तत्त्व नहीं है॥१६॥ इस विश्वकी आदिमें कार्य कारणरूपिणी प्रकृति सत्त्वादि गुणसे इस विश्वकी उत्पत्ति अंत, आदि अवस्था रखते हैं, निर्विकार पुरुष केवल साक्षी हुआ देखता है, इसकारण विकारयुक्त प्रकृतिसे पुरुष भिन्न है॥१७॥ प्रकृतिसे उत्पन्न हुए महत्तत्वादिक धातु विकारको पाकर पुरुषके चितवनसे बल पाय महत्तत्त्वादिक परस्पर मिल प्रकृतिके आश्रयसे ब्रह्माण्डरूप कार्यको उत्पन्न करते हैं इससे संघातको प्राप्त होकर उनके उत्पन्नकिये देहादिक पदार्थ उन्हींके अन्तर्भूत होजाते हैं, इससे देहादिक पृथक् तत्त्व नहीं हैं॥१८॥ किसीके मतमें आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, यह पॉच पदार्थ और द्रष्टा जीव आकाशादि पदार्थोका और जीवका आधार आत्मा; यह सात तत्त्व हैं,

सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी॥ सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते॥१७॥ व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया॥ लब्धवीर्याः सृजंत्यंडं संहताः प्रकृतेर्बलात्॥१८॥ सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पंच स्‍वादयः॥ ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेंद्रियासवः॥१९॥ षडित्यत्रापि भूतानि पंच षष्ठः परः पुमान्॥ तैर्युक्त आत्मसंभृतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत्॥२०॥ चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः॥ जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु॥२१॥ संख्याने सप्तदशके भूतमात्रेंद्रियाणि च॥ पंचपंचैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः॥२२॥ तद्वत्षोडशसंख्याने आत्मैव मन उच्यते॥ भूतेंद्रियाणि पंचैव मन आत्मा त्रयोदश॥२३॥

इस मतमें प्रकृति महत्तत्त्व और अहंकार इस कारण तत्त्वोंका आकाशादिमें अन्तर्भाव माना है, इन्हीं सातों देह इन्द्रियादिकी उत्पत्ति मानी है॥॥१९॥ जिनके मतमें छः तत्त्व हैं, वह पाॅच तो पंचमहाभूत और छठे परमात्माको मानते हैं, इस मतमें परमात्मा अपनेसे उत्पन्न हुए भूतोंसे जगत्को रचकर उसमें प्रविष्ट है इससे सब पदार्थोंका परमात्मामें अंतर्भाव है॥२०॥ जिनके मतमें चार तत्त्व हैं उनमें आत्मा और आत्मासे प्रादुर्भूत हुए तेज, जल, पृथ्वी, यही चारतत्त्व हैं इससे सब जगत् उत्पन्न हुआ है सब कार्यका उसमें अन्तर्भाव है॥२१॥ सत्रह तत्त्वके मतमें पंचमहाभूत पांच शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पांच ज्ञानेन्द्रिय एक मन सत्रहवाँ आत्मा॥२२॥ सोलह तत्त्वके मतमें आत्माही मन कहा है और

तेरहके मतमें पंचमहाभूत और पांच ज्ञानेन्द्रिय एक मन, जीवात्मा और परमात्मा यह तेरहहैं॥२३॥ ग्यारहके मतमें पंचमहाभूत और पांचज्ञानेन्द्रिय, एक आत्मा, नौके पक्षमें पांच महाभूत प्रकृति महत्तत्त्व अहंकार और पुरुषसे यह कहते हैं॥२४॥ इसप्रकार ऋषियोंने तत्त्वोंकी पृथक् पृथक्संख्या कही है यह सब प्रकृतिसे पुरुषके भिन्न जाननेको हैं, यह सब यथार्थ है क्योंकि विद्वानोंका कहां न्यायसिद्ध है विद्वान् क्या नहीं कह सकते?॥२५॥ उद्धवजी बोले कि, हे कृष्ण! प्रकृति और पुरुष जिनमें एक जड़ और एक चैतन्य है यद्यपि यह स्वभावसेही भिन्नहै परन्तु तो भी परस्परका त्याग करते उनकी प्रीति नहीं होती, इससे भेद नहीं देखा जाता॥२६॥ हे पंकजलोचन! आत्मा देहमें भासता है,

एकादशत्वमात्मासौ महाभूतेंद्रियाणि च॥ अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ॥२४॥ इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम्॥ सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम्॥२५॥ उद्धव उवाच॥ प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ॥ अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः॥२६॥ प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथात्मनि॥ एवं मे पुंडरीकाक्ष महांतं संशयं हृदि॥ छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः॥२७॥ त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः॥ त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिवेत्थ न चापरः॥२८॥ श्रीभगवानुवाच॥ प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ॥ एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः॥२९॥ ममांग माया गुणमय्यनेकधा विकल्पबुद्धिश्च गुणैर्विधत्ते॥ वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेकमथाधिदैवमधिभूतमन्यत्॥३०॥

देह आत्माको ग्रहण कर प्रतीत होता है “मैं हूॅ” इस प्रकार दोनोंका अभेद प्रकाशनेसे देहका आत्मासे भेद नहीं देखा जाता है हे सर्वज्ञ मेरे इस संदेहको युक्तिके वचनोंसे दूर करो॥२७॥ तुम्हारी कृपासेही संसारी जीवोंको ज्ञान प्राप्त होताहै, तुम्हारी मायासेही अज्ञान होता है, आपके अतिरिक्त आपकी मायाकी गति कोई नहीं जानता॥२८॥ श्रीभगवान् बोले कि, देह और आत्मामें बहुत बिलक्षणता है, गुणोंके क्षोभसे होनेवाला यह देह तो विकारी है, आत्मा विकाररहित है॥२९॥ हे उद्धव! मेरी गुणमयी मायाने अनेक भाँतिभेद और भेदके ज्ञान रचे हैं, यद्यपि इस

देहमें अनेक भेद हैं परन्तु तो भी तीन प्रकारके कहे हैं, एक अध्यात्मरूप, एक अधिदैवरूप, एक अधिभूत रूप॥३०॥ दृष्टि अध्यात्म है और अधिभूत नेत्रगोलकमें प्रविष्ट सूर्यका अंश अधिदैव है, नेत्रोंसे रूप जानिये, सो नेत्रोंकी प्रवृत्ति प्रेरणावाले देवता विना नहीं होती, इससे अधिष्ठात्रीदेवतासे नेत्रोंकी प्रवृत्ति इससे रूपज्ञान होता है, इसप्रकार तीनों परस्पर सिद्ध होते हैं, जो आकाशविषे सूर्य है तो आपसेही सिद्ध है इसलिये आत्मा अध्यात्मादिकोंका कारण है इससे भिन्न है अपने आपसे सिद्ध प्रकाश करकै परस्पर प्रकाश करनेवालोंका भी प्रकाशक है। जैसे नेत्रमें तीन प्रकार हैं ऐसेही त्वचा अध्यात्म, स्पर्श अधिभूत, वायु अधिदैव, श्रवण अध्यात्म, शब्द अधिभूत, दिशा अधिदैव, जिह्वा अध्यात्म, रस अधिभूत, वरुण अधिदैव, श्रवण अध्यात्म, गंध अधिभूत, अश्विनीकुमार अधिदैव, चित्त अध्यात्म, जिसके चित्तसे जानने ऐसा अधिभूत, वासुदेव अधिदैव,

दृग्रूषमार्कं वपुरत्र रंध्रे परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे॥ आत्मा यदेषामपरो य आद्यः स्वयाऽनुभूत्याऽखिलसिद्धसिद्धिः॥ एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षुर्जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम्॥३१॥ योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः प्रधानमूलान्महतः प्रसूतः॥ अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतुर्वैकारिकस्तामस ऐंद्रियश्च॥३२॥ आत्मापरिज्ञानमयो विवादो ह्यस्तीति नास्तीति भिदाऽर्थनिष्ठः॥ व्यर्थोपि नैवोपरमेत पुंसां मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात्॥३३॥ उद्धव उवाच॥ त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो॥ उच्चावचान्यथा देहान्गृह्णंति विसृजंति च॥३४॥

मन अध्यात्म, जिसको मन कीजै सो अधिभूत, चन्द्रमा अधिदैव, बुद्धि अध्यात्म, जो जानिये ऐसेही अधिभूत, ब्रह्मा अधिदैव, अहंकार अध्यात्म अहंकारसे जो कीजिये सो अधिभूत, रुद्र अधिदैव॥३१॥ अहंकार तीन प्रकारका है— सात्विक, राजस, तामस, गुणके क्षोभकर्त्ता कालसे और प्रकृतिसे मूल महत्तत्त्वसे उत्पन्न हुए विकार हैं, यही अधिदैव अध्यात्म अधिभूतरूपी मोहसे देहादिके विकल्पका कारण है, जब देहादि अहंकार मिटजाय तब आत्माकी प्रतीत होसकती है॥३२॥ आत्माका न जानना इसका रूप है, यह है यह नहीं ऐसा विवाद मेटके अधर्ममें निष्ठा और यह विवाद व्यर्थ ही है परन्तु तोभी स्वरूपभूत मुझसे विमुख जिनकी बुद्धि है उनको निवृत्ति नहीं होती है परन्तु विवादसे किये कर्मोंसे ऊंच नीच देहमें जन्म, मरणको प्राप्त होते हैं॥३३॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो! तुमसे जिनकी बुद्धि विमुख है वह अपने करे कर्मोंसे

आपही नीच देहोंको ग्रहण करते हैं, व्यापक आत्माको देहसे और देहमें जाना अकर्त्ताका कर्म और नित्यका जन्म, मरण कैसे संभव होसकता है?॥३४॥ हे गोविन्द! अजितेन्द्रियोंसे जो जाननेयोग्य है वह मुझसे कहो, क्योंकि लोकमें बहुधा इसके जाननेवाले नहीं हैं और हैं भी तो वह मायासे मोहित हैं *॥३५॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! कर्ममय मनुष्योंका मन पाॅच इन्द्रियोंके सहित इस लोकसे और लोकमेंजाता है और मनसे भिन्न आत्मा अहंता ममतासे मनके पीछे जाता है लिंगदेहसे यह सब बन सकता है॥३६॥ कर्मोंके अधीन मन इस

तन्ममाख्याहि गोविंद दुर्विभाव्यमनात्मभिः॥ न ह्येतत्प्रायशो लोके विद्वांसः संति वंचिताः॥३५॥ श्रीभगवानुवाच॥ मनः कर्ममयं नणामिंद्रियैः पंचभिर्युतम्॥ लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते॥३६॥ ध्यायन्मनोऽनु विषयान्दृष्टान्वाऽनुश्रुतानथ॥ उद्यत्सीदत्कर्मतंत्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति॥३७॥ विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत्स्मरेत्पुनः॥ जंतोर्वै कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यंतविस्मृतिः॥३८॥ जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद॥ विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथाः॥ ३९॥

लोक और परलोकके विषे ध्यान करता उन विषयोंमें प्रगट होता है और पहले विषयोंमें लीन होजाता है, इसके उपरान्त उसको पहले पिछलेका स्मरण जाता रहता है॥३७॥ कर्मोंके द्वारा दूसरे देहमें अत्यन्त अभिनिवेश होनेपर वह देवतादिकका देह हो तो हर्षसे अधम हो, तो शोकके भयसे जीवको प्रथम देहका विस्मरण होना, और उस देहका अहंकार नष्ट होना, यही आत्माका मरण है, कुछ देहके समान उसका मरण नहीं होता॥३८॥ हे दानी! मनका दूसरे देहके साथ सम्बन्ध होनेपर उसमें अत्यन्त अहंकार प्रादुर्भूत होताहै मनके अध्याससे आत्मामें देहका

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* शंका— श्रीकृष्णने उद्धवसे कहाकि, पृथ्वीमें विद्वान् नहीं हैं एक विद्वान् तो वे हैं जो व्याकरण आदि शास्त्रको पढते हैं ऐसे विद्वान् तो पृथ्वीपर बहुत हैं परन्तु उद्धव जिनको विद्वान् कहै यह विद्वान्कोन है?

** उत्तर**— शास्त्र पढनेवालेको विद्वान् योगीश्वर लोग नहीं कहते, विद्वान् उसका नाम है कि जो पुरुष मोक्ष विद्याको जानता हो मोक्ष विद्या कैसी है कि, जिस मोक्षविद्याकी प्राप्तिके लिये यहबढ चतुर योगीजन अनेक उपाय कर करके हारगये, परन्तु मोक्षविद्या प्राप्त नहीं हुई और जो किसी योगी पुरुषको हो भी गई तो बडि कठिनतासे, ऐसी विद्या जाननेवाले विद्वान् पृथ्वीपर नही हैं इसलिये उद्धवजींने कहा। शास्त्र पढनेवाले विद्वानोंके लिये नहीं कहा ।

ममत्व होताहै, यही आत्माका जन्म है॥३९॥ जैसे एक स्वप्न देखनेके उपरान्त दूसरा स्वप्न होता है तथा एक मनोरथके उपरान्त दूसरा होता है, तब पहला मनोरथ और स्वप्न विस्मृत होजाता है, इसीप्रकार आत्मा मनके आभ्याससे अपने आपको नवीन उत्पन्न मानता है, इस भाॅतिकी दशा होनेसे मनके अभ्यासके कारण एक देहका अभिमान नष्ट होनेपर दूसरे देहका तीव्र अभिमान होनेसे यह अपने पूर्व जन्मको नहीं जानता॥४०॥ इन्द्रियोंका आश्रय जो मन और देहके अभिनिवेश से उत्पत्ति द्वारा आत्मामें उत्तम, मध्यम, नीचता, मिथ्या होनेपर भी प्रकाशित होते हैं, उन्हींके द्वारा आत्मा बाह्य विषयोंको और अंतरमें सुखादिकोंको देखता है, जैसे जीव स्वप्नमें झूठे बहुत देहोंका कर्त्ता देखता बहुत रूप भासे है अथवा जैसे दुष्ट पुत्रका पिता पुत्रके प्रेमसे पुत्र के शत्रु मित्रोंको अपना शत्रु मित्र मान लेता है, इसीप्रकार आत्मा मनके अभिनिवेश से देहको अपना

स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ॥ तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति॥४०॥ इंद्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि॥ बहिरंतर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद्यथा॥४१॥ नित्यदा ह्यंग भूतानि भवंति न भवंति च॥ कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते॥४२॥ यथाऽर्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः॥ तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः॥४३॥

जानता है॥४१॥ जिसकी तीव्र गति जाननेमें नहीं आती, ऐसे कालके लिये यह शरीर क्षण क्षणमें उत्पन्न होते और मरते हैं परन्तु कालकी सूक्ष्मताके कारण अज्ञानी इस जन्म मरणको नहीं जानते॥४२॥ नित्य जन्म मरण होता है, यद्यपि इसका प्रमाण कहीं देखनेमें नहीं आता है परन्तु तो भी अनुमानसे जन्म बताते हैं, जैसे ज्योति पहले कोमल होती है, फिर कुछेक अधिक होती है, इसके उपरान्त अतिक्षीण होजाती है, जैसे वृक्षका फल पहले कच्चा हुआ, फिर कुछेक पीला पड़ा, इसके उपरान्त पकगया जिसप्रकार क्रमसे भिन्न अवस्था कालसे होती है, पर जानी नहीं जाती, ऐसेही इसी अनुमानसे शरीरको भी कालसे नित्य वय अवस्थादिक होती हैं, परन्तु जानी नहीं जाती हैं, प्रथम अवस्थाका त्याग दूसरेका ग्रहण यही जन्म मरण नित्य होता है यही जगत् अवस्थाका भेदवाला है, इसीसे क्षण क्षण में उत्पत्ति और नाशको प्राप्त होता है, अवस्थाके भेदवालोंकी

यही दशा है॥४३॥ यहां तर्क करते हैं कि, नित्य अवस्थाभेदसे जन्म मरण होनेवालेको ऐसा ज्ञान क्यों होता है! कि यही देह है, सो यहां दृष्टान्त दिखाकर कहते हैं कि जातियोंके सादृश्यसे यह वही दोष है, ऐसा ज्ञान होता है जिसप्रकार जल क्षण क्षणमें बदलता है परन्तु नया जल आने परभी उन्हैं वही जल है, यह भ्रांति होती है, इसीप्रकार शरीर क्षणक्षणमें परिवर्तित होता है, परन्तु यह वही शरीर है ऐसी वाणी अज्ञानी पुरुष भ्रांतिसे कहाकरते हैं॥४४॥ अहो! बड़ा आश्चर्यहै जिसको देहाभिमानहै, उसको कर्म जन्म मरण सबहै औरोंको नहीं, सो कैसे संभव होसकताहै? तो उत्तरमें कहतेहैं कि, वस्तुसे देहाध्यासवत्काभी जन्म मरण नहीं, अध्यासवत् पुरुष अपने कर्मबीजसे न उत्पन्न होता न जन्म लेता है भ्रांतिसे अजन्मा होनेपरभी जन्मतासा और अमर होनेपर भी मरतासा प्रतीत होता है॥४५॥ अब देहकी अवस्थाको कहतेहैं, देहका प्रथम तो उदरमें प्रवेश और फिर गर्भवास होत

सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्॥ सोयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम्॥४४॥ मा स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्यये पुमान्॥ म्रियते वाऽमरो भ्रांत्या यथाऽग्निर्दारुसंयुतः॥४५॥ निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम्॥ वयो मध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव॥४६॥ एता मनोरथमयीर्ह्यन्यस्योच्चावचास्तनूः॥ गुणसंगादुपादत्ते क्वचित्कश्चिज्जहाति च॥४७॥ आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ॥ न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः॥४८॥ तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ॥ तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक्॥४९॥

है, पीछे जन्म फिर बाल्य कौमार यौवन मध्यम वय, (पैंतालीस वर्षसे पीछे साठ वर्षतक) उपरान्त जरा, पीछे मृत्यु, यह तो देहकी नव अवस्था हैं॥४६॥ यह मनोरथमयी अवस्था ऊँच नीच देहको है. सत, रज, तम, गुणके संगसे आपको मान लेते हैं, इनमें कोई एक ईश्वरके अनुग्रहसे भक्त इन अवस्थाओंको बहुत विवेक ज्ञानसे छोड़ देते हैं॥४७॥ यदि कहो कि, देहके जन्म मरणमें तो वह मूर्छित रहता है, इसे इतना ज्ञान कैसे होसकै? तो सुनो, पिता मरता है, उसकी क्रिया करते हैं, तब देहका नाश देखते हैं, पुत्र जन्म होता है, तब जात कर्म करते हैं, तहाँ देहका जन्म देखते हैं, उस अनुमानसे अपने देहका जन्म मरण जानते हैं, परन्तु जन्म मरण खाली देहको है, द्रष्टाको जन्म मरण नहीं होता॥४८॥ जैसे धानादिके बीजसे जन्मका और पकानेसे मरणका जाननेवाला जो द्रष्टा है, वह वृक्ष और फलसे भिन्न है. इसीप्रकार देहके जन्म मरण जाननेवाला द्रष्टा

देहसे पृथक हैं॥४९॥ इस भाँति शरीरादिसे आत्माका यथार्थ विचार करना चाहिये. यदि यह विचार न किया जाय तो विषयमोहमें गिरनेके कारण यह मूढ़ प्राणी संसारमें गिरता है॥५०॥ गुणके भेदसे त्रिविध संसार कहते हैं, तहाॅ एक एकके दो दो भेद हैं सो कहते हैं कि, सतो गुणके संगसे ऋषि देवता होते हैं, रजोगुणसे असुर और मनुष्य होते हैं, तमोगुणसे भूत, पशु, पक्षी, इत्यादि सब उत्पन्न होते हैं सो वह अपने कर्मोंसे भ्रमण करतेहैं उनहीं उन योनियोंमें पड़े हैं॥५१॥ अहो! आत्मा तो कर्त्ता नहीं तो कर्मोंसे क्यों भ्रमण करता है? इसपर कहतेहैं कि, जैसे नाचते और गाते पुरुषोंको देखकर यह पुरुष उनमें स्थित गाने और तालको अपने मनमें अनुवर्त्तन करता है इसप्रकार बुद्धि और गुणोंके अवलोकनसे गुणोंकी सामर्थ्यसे अकर्त्ता पुरुष उन्हैं अपने आपमें मान लेताहै॥५२॥ जैसे जलके हिलनेसे तीरके वृक्ष हिलतेसे दीखते

प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान्॥ तत्त्वेन स्पर्शसंमूढः संसारं प्रतिपद्यते॥५०॥ सत्त्वसंगादृषीन्देवान्रज साऽसुरमानुषान्॥ तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः॥५१॥ नृत्यतो गायतः पश्यन्यथैवानुकरोति तान्॥ एवं बुद्धिगुणान्पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते॥५२॥ यथांभसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव॥ चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः॥५३॥ यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा॥ स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः॥॥५४॥ अर्थे ह्यविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्त्तते॥ ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥५५॥

हैं जैसे दृष्टिके भ्रमसे पृथ्वी भी भ्रमतीसी दिखाई देतीहै, तो यह धर्म वृक्षमें भूमिमें नहीं यह अपने व्यवधानसे दीखते हैं इसी प्रकार दृश्यका धर्म द्रष्टामें स्फुरण होता है और आनन्दादि आत्माके लक्षण होनेपर भी विषयोंके गुणसे प्रतीत होते हैं॥५३॥ यदि कोई कहै कि आत्मा भोग करता है सो भी मिथ्या है, जैसे मनोरथकी बुद्धि मिथ्या है और स्वप्नमें देखी बुद्धि सब मिथ्या है, इसीप्रकार आत्मामें प्रतीत होता हुआ विषयोंका अनुभवरूप संसार भी असत्य है॥५४॥ तो निवृत्तिके उपायका प्रयोजन क्या है? इसपर कहते हैं कि, यद्यपि स्वप्न असत्य है परन्तु तो भी उन विषयोंका ध्यान करनेवाले पुरुषके उन अवस्थामें स्वप्नके दुःख नहीं जाते, इसीप्रकार संसारके मिथ्या होनेपरभी विषयोंका ध्यान करनेवाले पुरुषके जन्म मरण नहीं जाते॥ ५५॥

हे उद्धव! इसीलिये तुम इन दुष्ट इन्द्रियोंसे विषय भोग मत करो आत्माके ज्ञान विना यह संसारका भ्रम हुआ है, ऐसा जानो॥५६॥ कोई निन्दा करो, कोई अपमान करो, कोई उपहास करो, कोई वंचना करो, कोई ताड़ना करो, कोई रोक रक्खो, वृत्ति छीनलो॥५७॥ कोई मूत्र डालो, जूॅठन डालो, ब्रह्मनिष्ठा बिगाड़ै परन्तु अपना कल्याण चाहनेवाला पुरुष इतने कष्ट सहै और आत्मासे आत्माका उद्धार करै, क्रोधित होकर अपने धर्मको न खोवै॥५८॥ उद्धवजी बोले कि, हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! जैसे तुम्हारा वचन हम अच्छीरीतिसे समझ सकैं उसीप्रकार समझाकर कहो कि, नीच अधम पुरुष इसप्रकार पांडित्य करै तो उसका सहन करना महाकठिन है॥५९॥ हे विश्वके आत्मरूप! जो तुम्हारे

तस्मादुद्धव मा भुंक्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः॥ आत्माऽग्रहणनिर्भातं पश्य वै कल्पितं भ्रमम्॥५६॥ क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा॥ ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः॥५७॥ निष्ठितो मूत्रितो वाऽज्ञैर्बहुधैवं प्रकंपितः॥ श्रेयस्कामः कृच्छ्गत आत्मनात्मानमुद्धरेत्॥५८॥ उद्धव उवाच॥ यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर॥ सुदुःसहमिमं मन्ये आत्मन्यसदतिक्रमम्॥५९॥ विदुषामपि विश्वात्मन्प्रकृतिर्हि बलीयसी॥ ऋते त्वद्धर्मनिरताञ्छांतांस्ते चरणालयान्॥६०॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० तत्त्वसंख्याऽविरोधादिव० द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ बादरायणिरुवाच॥ स एवमाशंसित उद्धवेन भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः॥ सुभाजयन्भृत्यवचो मुकुन्दस्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः॥१॥ श्रीभगवानुवाच॥ बार्हस्पत्य स वै नात्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः॥ दुरुक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः॥२॥

चरणके आश्रय हैं तुम्हारे धर्ममें तत्पर और शांत हैं उनको छोड़कर अति पंडितको भी ऐसे अपराधोंका सहन होना अतिकठिन है ऐसा मैं मानता हूं, क्योंकि स्वभाव बड़ा बली होता है॥६०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ दोहा—तेइसवें अध्यायमें, सहन भीख अपमान॥ बुद्धीसे मनको करै, निग्रह मुनि विद्वान॥१॥ व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम राजा परीक्षित्! इसप्रकार भक्तोंमें मुख्य यादवोंमें श्रेष्ठ उद्धवजीके पूॅछनेपर मुकुंद भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उत्तर देने लगे जिन भगवान् के चरित्र श्रवण करनेमें अत्यन्त सुखकारी हैं॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे बृहस्पतिके शिष्य उद्धव! इस लोकमें

वह साधु नहीं है जो दुष्ट वचनसे खेदयुक्त मनको समाधान न करसकै॥२॥ मर्मस्थानमें लगे बाणोंसे विद्ध पुरुष ऐसा ताप नहीं पाते जैसे मर्ममें लगे दुष्ट वचनसे व्यथा पाते हैं॥३॥ तथापि मेरे कहे उपाय करै तो उपाय कहताहूँ; हे उद्धव! इस विषयमें एक अतिपवित्र इतिहास है सो मैं आपसे वर्णन करताहूं तुम भले प्रकार सावधान होकर सुनो॥४॥ कोई एक भिक्षुक था सो दुर्जनसे पीडित हो धैर्य धारणकर अपने प्रारब्ध कर्मोंका भोग मानकर यह कहने लगा॥ परन्तु वह भिक्षुक पहिले बड़ा धनवान् और सज्ञान था अत्यन्त दुःखसे जो धन प्राप्त किया था उसके विनाश होजानेसे वह अत्यन्त पीड़ित और संतप्त हो गया फिर चित्तमें धैर्य बढाने और वैराग्य आनेसे संन्यास धारणकर भिक्षावृत्तिसे

न तथा तप्यते विद्धः पुमान्बाणैः सुमर्मगैः॥ यथा तुदंति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः॥३॥ कथयंति महत्पुण्यमिति हासमिहोद्धव॥ तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः॥४॥ केनचिद्भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः॥ स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम्॥५॥ अवंतिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया॥ वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः॥६॥ ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः॥ शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः॥७॥ दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यंते पुत्रबांधवाः॥ दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन्प्रियम्॥८॥

अपना निर्वाह करनेलगा परन्तु नगरनिवासी उसको पिछले वैरभावसे अनेक प्रकारके दुःख देनेलगे, तब उस भिक्षुकने एक कथा कही सो उसके चरित्र हम आपके आगे कहते हैं अवन्तिका (उज्जैन) देशमें एक ब्राह्मण लक्ष्मीसे अतिसंपन्न खेती और वाणिज्य करै कामी लोभी महाक्रोधी महाकदर्य था *5॥६॥ बांधव और अतिथिको वचनसे भी न पूजै धर्म काम करके हीन शून्य देहरूप घरमें भोगोंसे कभी आत्माकी पूजा नहीं की॥७॥ ऐसे दुःशील कदर्यके पुत्र, बांधव, स्त्री, बेटी, सेवक इत्यादि सब दुःख पावैं कोई उसे भला न कहै॥८॥

फिर वह इसप्रकार दोनों लोकोंसे भ्रष्ट हुआ कि, धर्म, अर्थ, कामसे दीन केवल भूतकी द्रव्यकी रक्षा करता रहै, ऐसे पुरुषपर नित्य कर्तव्य पांच महायज्ञोंके अंशके भागी देवता अत्यन्त क्रोधित हुए देवताओंके तिरस्कार करनेसे पुण्यका विस्तार सब क्षीण होगया, तब अनेक परिश्रमसे युक्त खेती आदि परिश्रमसे कमाया द्रव्य भी नष्ट होगया॥९॥१०॥ श्रीकृष्ण बोले कि, हे उद्धव! कुछेक द्रव्य उसके घरका बांधव लेगये, कितना ही द्रव्य चोर लेगये, कितना एक द्रव्य गृहदाहसे जाता रहा कितनाही जहाँ गाड़ दिया था वहाँसे गया, कुछ द्रव्य अधर्मी

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः॥ धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पंच भागिनः॥९॥ तदवध्यानविस्त्रस्तपुण्यस्कंधस्य भृरिद॥ अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः॥१०॥ ज्ञातयो जगृहः किंचित्किचिद्दस्यव उद्धव॥ दैवतः कालतः किंचिद्ब्रह्मबंधोर्नृपार्थिवात्॥११॥ स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः॥ उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिंतामाप दुरत्ययाम्॥१२॥ तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः॥ खिद्यतो वाष्पकंठस्य निर्वेदः सुमहानभूत्॥१३॥ स चाहेदमहो कष्टं वृथात्मा मेऽनुतापितः॥ न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः॥१४॥

ब्राह्मण और मनुष्य लेगये, कितनाही द्रव्य राजद्वारमें गया॥११॥ सो फिर इसप्रकार द्रव्य नष्ट होनेसे धर्म, अर्थ, काम से रहित हुआ, स्वजन कुटुम्बी इसका अनादर करने लगे, तब यह अपार चिंताको प्राप्त हुआ॥१२॥ द्रव्य जानेसे वह ब्राह्मण अतिचिन्ता करके उस धनका बहुत ध्यान करता संतप्त हुआ और गद्गद कंठ होकर उसको बहुत वैराग्य उत्पन्न हुआ *॥१३॥ तब यह कहनेलगा कि, अहो! यह देखो बडाही कष्ट है,

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* शंका— महादुष्ट, खोटी बुद्धि, अत्यन्त कृपण, भगवान्में प्रीति नहीं, ऐसा दुष्ट ब्राह्मण, मुनियों करके बडे दुःखसे प्राप्त होने योग्य जो ज्ञान, उस ज्ञानको क्यों प्राप्त हुवा? यह भ्रम है।

** उत्तर**— धनका नाश होगया तो ब्राह्मण दुःखी होकर वनमें भ्रमता भ्रमता सन्ध्या होगई तो क्या देखता है? कि एक गाय गारमें सँदी हुई पडी है और दलदलसे किसी प्रकार निकल नहीं सक्ती, उस गायको देखकर ब्राह्मणको बडी दया आई और यह विचार किया कि, किसी प्रकार यह गाय इस दलदलसे बाहर निकले, उसने हाय हाय शब्द करके बडे परिश्रमसे उस सँदीहुई गायको दलदलसे बाहर खैच खाँचकर निकाललिया, गाय प्रसन्न हो ब्राह्मणको आशीर्वाद देती हुई धीरे धीरे चली गई, गायकी कृपासे बहुत शीघ्र ब्राह्मणको ज्ञान प्राप्त होगया, वह ज्ञान जो ज्ञान मुनि लोगोंको महाकठिनतासे प्राप्त होताहै, गृहस्थीमें जो खोटे कर्म ब्राह्मणने किये थे उन कर्मोंसे धनका नाश हुवा, अनेक विघ्न हुए परन्तु ज्ञानको पाकर आनन्द होगया, इस उपायसे दुष्ट ब्राह्मणको ज्ञान प्राप्त हुआ था ।

इतना बडा भारी मेरा द्रव्यका परिश्रम वृथाही गया जो यह आत्मा संतप्त किया न तो धर्मके अर्थ और न कामार्थ हुआ, सब वृथाही गया॥१४॥ बहुधा जो कदर्य हैं उनको द्रव्यका सुख कभी नहीं होता, जीवित इस लोकमें आपको सन्ताप होता है और मरनेपर नरक मिलता है॥१५॥ जो यशस्वी हैं उनका यश अतिनिर्मल है और गुणियोंको गुण है, सो बड़ाईके योग्य है, परन्तु जो थोड़ा भी लोभ होय तो सब गुण यशको दूर करै जैसे उत्तम रूपको थोड़ा भी कोढ़ दूर कर देता है॥१६॥ इसलिये द्रव्य सब दुःखरूप है, प्रथम तो साधनमें कष्ट है, इसके उपरान्त सिद्ध होनेपर वह द्रव्य बढ़ाना चाहै, उसमें भी कष्टहै फिर उसकी रक्षा करनी चाहिये भोगमें व्यय होताहै, नाश होताहै, इसप्रकार आदिसे अन्ततक, श्रम, भय,

प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन॥ इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च॥१५॥ यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाध्या ये गुणिनां गुणाः॥ लोभः स्वल्पोऽपि तान्हंति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम्॥१६॥ अर्थस्य साधने सिद्ध उत्कर्षे रक्षणे व्यये॥ नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिंता भ्रमो नृणाम्॥१७॥ स्तेयं हिंसाऽनृतं दंभः कामः क्रोधः स्मयो मदः॥ भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥१८॥ एते पंचदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्॥ तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥१९॥ भिद्यंते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा॥ एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः॥२०॥ अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः॥ त्यजंत्याशुस्पृधो घ्‍नंति सहसोत्सृज्य सौहृदम्॥२१॥

चिन्ता, भ्रम, मनुष्योंको रहते हैं, इस कारण कभी अर्थ सुखकारी नहीं है॥१७॥ और भी दोष कहते हैं चोरी हिंसा दंभ, झूठ काम, क्रोध धनके साधनमें हैं गर्व, अहंकार, भेद, वैर, अविश्वास, अश्रद्धा, यह छः अनर्थ पाये पीछे होतेहैं और तीन व्यसन, स्त्री, मद्य, जुआ, इसी धनसे होते हैं॥॥१८॥ इसप्रकार पन्द्रह अनर्थ अर्थसे (द्रव्यसे) होते हैं, सुनो उद्धवजी! इसका नाम तो अर्थ है पर अनर्थरूप है इसलिये जो पुरुष अपना भला चाहै तो वह दूरहीसे अर्थका त्याग करै॥१९॥ दोष यह कि माता, पिता, भ्राता, स्त्री, संबंधी जो स्नेहकेकारण एक चित्त होकर मिले रहते हैं वह भी धनके लिये पृथक् होजाते हैं और काकिणी अर्थात बीस कौड़ीके ऊपर तत्काल वैरी होजाते हैं॥२०॥ यह प्राणी थोड़ेही द्रव्यके लिये

क्षेमको प्राप्त हो महाक्रोध कर श्रद्धासे एक साथ सुहृदता और स्नेह छोडकर परस्पर मारनेलगते हैं॥२१॥ इस लोकमें जो अनर्थ उठे हैं और जो परलोकमें भी अनर्थ होंगे सो कहते हैं देवताओंके प्रार्थनीय मनुष्य जन्मको पाकर उसमें भी उत्तम ब्राह्मण जन्मको पाय उस जन्मका अनादर कर अपना स्वार्थ खोदेते हैं, वह अधमगतिको प्राप्त होंगे॥२२॥ इसलिये स्वर्ग और मोक्षका द्वार यह देह पाय, इस अनर्थके घर द्रव्यमें कौन मरणधर्मा पुरुष आसक्त हो?॥२३॥ देवता, ऋषि, पितर, भूत, जाति बंधु और जो अंशके भागी हैं इनको और अपनी आत्माको जो न दे सो अधमगतिमें जाय इससे वे भूतकी नाईं द्रव्यके रक्षक हैं॥२४॥ अब अपनी अवस्था कहता हूँ, मैं व्यर्थ अर्थकी क्रियासे सदा असावधान

लब्ध्वा जन्माऽमरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद्द्विजाग्र्यताम्॥ तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नंति यंत्यशुभां गतिम्॥२२॥ स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्॥ द्रविणे कोनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि॥२३॥देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन्बंधूंश्च भागिनः॥ असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः॥२४॥ व्यर्थयाऽर्थेहया चित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्॥ कुशला येन सिध्यंति जरठः किं नु साधये॥२५॥ कस्मात्संक्लिश्यते विद्वान्व्यर्थयाऽर्थेहयाऽसकृत्॥ कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः॥२६॥ किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत॥ मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः॥२७॥ नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः॥ येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः॥२८॥

रहा, मेरा द्रव्य व्यर्थही गया और वय क्रम अवस्था भी व्यर्थ गई, जो विवेकी हैं; वह अर्थसे मोक्षके अधिकारी होते हैं, और मेरा बलभी ब्यर्थ गया अब मैं वृद्ध होगया हाय! मैं कुछ भी न कर सका॥२५॥ यह अर्थकी चेष्टा ब्यर्थ होनेपर भी जानबूझकर इसकी तृष्णासे ज्ञानी पुरुष भी क्यों क्लेश पाते हैं! इससे विदित होता है कि, किसीकी मायासे यह प्राणी अत्यन्त मोहित हो रहे हैं॥२६॥ यद्यपि धनसे संसारी भोगोंको भोगते हैं, परन्तु जब कि, इस प्राणीके निकट प्रतिदिन मृत्यु चली आती है, तब इसे धनसे, धनके देनेवालेसे, सुखसे, सुखके देने वालोंसे तथा बारबार जन्मदाता कर्मोंसे क्या सिद्ध है?॥२७॥ मेरे ऊपर निश्चयही सर्वदेवरूप भगवान् संतुष्ट हुए जो भगवान्से मैं इस दशाको

प्राप्त हुआ, मुझे वैराग्य उपजा, वैराग्य संसारसमुद्रसे तरनेको नौका है॥२८॥ अब मेरा जितना समय शेष रहा है, उस कालसे तपस्या करके मैं अपने अंगोंको क्षीण करूंगा, आत्माहीसे संतोष मान समस्त धर्मोंमें सावधान होकर रहूंगा॥२९॥ मुझपर त्रिलोकीके ईश्वर तथा देवता अनुग्रह करते हैं, कदाचित् कहो कि, देवताओंके अनुग्रह करनेसे वृद्धहुआ, सो समय थोडा रह गया; अब क्या कर सकूंगा? तो कहते हैं कि खट्वांग राजाने एक मुहूर्त्तमें ब्रह्मलोकको साध लिया था॥३०॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! जब अवंती नगरीका ब्राह्मण इसप्रकार मनमें निश्चय कर हृदयकी गाँठ अहंता ममताकी खोल शान्त मन हो संन्यासी होगया॥३१॥ इन्द्रिय, वायु, मनको निश्चय करके पृथ्वीपर फिरने लगा, इसके उप

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येंगमात्मनः॥ अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि॥२९॥ तत्र मामनुमो देरन्देवास्त्रिभुवनेश्वराः॥ मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वांगः समसाधयत्॥३०॥ श्रीभगवानुवाच॥ इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावंत्यो द्विजसत्तमः॥ उन्मुच्य हृदयग्रंथीञ्छांतो भिक्षुरभून्मुनिः॥३१॥ स चचार महीमेतां संयतात्मेंद्रियानिलः॥ भिक्षार्थं नगरग्रामानसंगोऽलक्षितोऽविशत्॥३२॥ तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः॥ दृष्ट्वा पर्यभवन्भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः॥३३॥ केचित्त्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमंडलुम्॥ पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कंथां चीराणि केचन॥३४॥ प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः॥ अन्नं च भैक्ष्यसंपन्नं भुंजानस्य सरित्तटे॥३५॥ मूत्रयंति च पापिष्ठाः ष्ठीवंत्यस्य च मूर्धनि॥ यतवाचं वाचयंति ताडयंति न वक्ति चेत्॥३६॥

रान्त भिक्षाके लिये एक नगरमें आया॥३२॥ वहाँ भी कहीं आसक्त नहीं और न किसीको अपनी श्रेष्ठता दिखावै, विचरता रहै कल्याणरूप वह ब्राह्मण अतिवृद्ध भिक्षुक अवधूत वेषसे रहै, इसको देखकर दुष्टजन अनेक प्रकारके तिरस्कारसे दुःख देनेलगे॥३३॥ अब सात श्लोकोंमें इसका उत्तर कहतेहैं, किसीने तो उसका त्रिदंड लेलिया और कोई पात्र, आसन, पीढ़ा, माला, कन्था, वस्त्र, लेलेकर चलेगये॥३४॥ हे महापुरुष! पहले इसप्रकार दिखाकर मुनिको देखकर फिर लेलिया और जब भिक्षा माँग अन्नले नदीके तीर भोजन करै॥३५॥ तब पापी इसके माथेपर मूत्र

करदें, फिर वह जो मौन रहैं तो बुलावै, यदि न बोले तो मारैं, कोई इसप्रकार डरावैं कि यह चोरहै, ऐसे वचन कहैं॥३६॥ कितने एक यह कहने लगे कि इसे बाॅधो, ऐसे कहकर उसको रस्सियोंसे बाँधतेथे, कितने एक कहने लगे कि मारोमारो क्योंकि यह धर्मका ढोंग बनानेवाला और लोगोंको ठगनेवाला है, यह पाखण्डीहै, धूर्त्तहै, अब द्रव्य तो सब गया स्वजन संबंधियोंने सबने छोड़ दिया अब यह वृत्ति ग्रहण कीहै॥३७॥३८॥ अहो! देखो यह बड़ा ढीठ और अतिबली है, क्योंकि पर्वतके समान धैर्यवान मौनसे बकध्यानी होकर अपना स्वार्थ साधरहा है, इसका दृढ़ निश्चय है॥३९॥ इसप्रकार एक तो हँसैं, कोई उसके ऊपर अधोवायु छोड़ै, कोई बाँधे, कोई रोक रक्खै जैसा बालकोंका खिलौना॥४०॥ इस भाँति

तर्जयंत्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः॥ बध्‍नंति रज्ज्वा तं केचिद्बध्यतांवध्यतामिति॥३७॥ क्षिपंत्येकेऽवजानंत एष धर्मध्वजः शठः॥ क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झितः॥३८॥ अहो एष महासारो धृतिमान्गिरिराडिव॥ मौनेन साधयत्यर्थे बकद्दृढनिश्चयः॥३९॥ इत्येके विहसंत्येनमेके दुर्वातयंति च॥ तं बबंधुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम्॥४०॥ एवं स भौतिकं दुःखं दैहिकं दैविकं च यत्॥ भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तंप्राप्तमबुध्यत॥४१॥ परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः॥ पातयद्भिः स्वधर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम्॥४२॥ द्विज उवाच॥ नायं जनो मे सुखदुःखहेतुर्न देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः॥ मनः परं कारणमामनंति संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत्॥॥४३॥ मनो गुणान्वै सृजते बलीयस्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि॥ शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवति॥४४॥

बहुत दुःख दुर्जनोंने दिया, देहका सुख ज्वरादिकोंने हरलिया, दैवके दुःख शीत, उष्ण, “यह सब अपना प्रारब्ध भोग है” दुःख पाकर उस ब्राह्मणने ऐसे समझलिया॥४१॥ यद्यपि यह ब्राह्मण नराधम दुर्जनोंसे तिरस्कृत हुआ, परन्तु तोभी सात्विक धैर्यसे अपने धर्ममें रहकर इस कथाको गाने लगा॥४२॥ ब्राह्मण बोला कि यह जन, देवता, आत्मा गृह और काल कोई भी मेरे सुख दुःखका कारण नहीं है, मनही केवल कारण है, जो यह संसार चक्रको फिराता है॥४३॥ सोई कारण कहते हैं, बलवान मनही गुणकी वृत्ति सृजताहै फिर उन गुणोंसेहीसात्त्विक, राजस, तामस भिन्न

भिन्न कर्म होते हैं और इन्हीं कर्मोंसे सात्विक, राजस, तामस देवता मनुष्य पक्षियोंकी जाति होती है॥४४॥ अब कहते हैं कि, मनहीका संसार होताहै आत्माका संसार कैसे होसक्ताहै, तो कहतेहैं कि, अविद्या और मनके अभ्याससे आत्माका संसार है, आपसे संसार नहीं इससे वासनासहित मन है उसके संग नियन्ता होकर रहतेहैं, तथापि आत्माके संग नहीं, कर्म भी नहीं क्योंकि वह ज्ञानरूप है, जीवका सखा है और यह जो जीवहै,सो मनके धर्मोंको ग्रहणकर अहंकार और गुणके संगसे विषयोंका सेवन करने से बॅधा है॥४५॥ मनका निग्रह किये विना सब ब्यर्थ है सो कहतेहैं, दान, स्वधर्म, नेम, आचार, विद्याध्ययन, कर्म, उत्तम व्रत आदि यह सब एक मनके निग्रह करनेके उपाय हैं इससे निश्चय करके परमयोग

अनीह आत्मा मनसा समीहता हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे॥ मनः स्वलिंगं परिगृह्य कामाञ्जुषन्निबद्धोगुणसंगतोऽसौ॥४५॥ दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च श्रुतानि कर्माणि च सद्व्रतानि॥ सर्वे मनोनिग्रहलक्षणांताः परो हि योगो मनसः समाधिः॥४६॥ समाहितं यस्य मनः प्रशांतं दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्॥ असंयतं यस्य मनो विनश्यद्दा नादिभिश्चेदपरं किमेभिः॥४७॥ मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा मनश्च नान्यस्य वशं समेति॥ भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्युंज्याद्वशे तं स हि देवदेवः॥४८॥ तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेगमरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्॥ कुर्वंत्य सद्विग्रहमत्र मर्त्यैर्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः॥४९॥

मनका निग्रहही है॥४६॥ जिसका मन स्थिर और शांत है उसे दान आदि करनेसे क्या प्रयोजन है? मन तो समाधिमें स्थिर हुआ है, और जिसका मन विक्षिप्त है, तथा आलस्ययुक्त है सो उसे दानादिकोंसे और जपसे क्या होगा?॥४७॥ यदि कहो कि, दान आदि धर्मसे और इंद्रियोंका तो जय होगा, वहाॅ उनको जय तो नहीं होता ऐसा कहते हैं और जो देवता, इन्द्रिय यह सब मनके वश हैं कुछ मन उनके वशमें नहीं है, यह मन आपही देव है, महाबलिष्ठ है योगीजनोंको भी महाभयंकर है, इसको जो पुरुष अपने वशमें करलेतेहैं, वह देवको भी देखलेतेहैं॥४८॥ अब मनरूप शत्रु दुर्जयहै इसका वेग नहीं सहाजाताहै, सबको पीड़ा करताहै, सबको जीते विना और मनुष्योंसे युद्ध करता है, इसमें

और भी अनुकूल प्रतिकूल मित्र उदासीन शत्रु करलेते हैं वे मूर्ख हैं॥४९॥ और इसीसे संसारमें भ्रमण करते हैं, यह देही एक मनकी वासनासे इस देहको ग्रहण करके यह मेरी देह है, इस ममतासे अहंकारसे अंधबुद्धि मनुष्य “यह मैं, यह तू” इस भ्रमसे अंतपारसे रहित संसारमें भ्रमण करते हैं॥५०॥ इससे सुख दुःखका कारण मन है और कोई नहीं है यह कहते हैं कि, सुख दुःखका कारण मन है तो आत्माका कारण क्या है? दोनों देह मट्टीके विकार हैं उनको सुख दुःखही कारणता है आत्माका कुछ नहीं लगता है जीव तो देहके अभिमानसे मानलेता है आत्माके मूर्ति नहीं, क्रिया नहीं किसको मारै? किसको सुख दे, परमात्मा दोनों जगह एक है, उसको कुछ नहीं लगता तो कहते हैं कि, जैसे अपनी जीभ अपनी दाॅतोंसे आप काटै तो क्रोध किसपर करैं, इसप्रकार देहसे देहका सुखदुःख मानले तो आत्मा क्या करै?॥५१॥ जो सुख दुःखके हेतु देवता हैं

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा ममाहमित्यंधधियो मनुष्याः॥ एषोहमन्योऽयमिति भ्रमेण दुरंतपारे तमसि भ्रमंति॥॥५०॥ जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत्॥ जिह्वां क्वचित्संदशति स्वदद्भिस्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्॥५१॥ दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्॥ यदंगमंगेन निहन्यते क्वचि‍त्क्रुध्‍येत्कस्मै पुरुषः स्वदेहे॥५२॥ आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः॥ न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्यात्क्रुध्‍येतकस्मै न सुखं न दुःखम्॥५३॥ ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै॥ ग्रहैर्ग्रहस्येव वदंति पीडां क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः॥५४॥

तो यह आत्माको क्या? दुःखका कारण तो देवताओंको है और देवता विकारी हैं जैसे अंगसे अंगको मारिये तो पुरुष अपनी देहमें किसपर क्रोध करै जैसे एकके मुखमें हाथ डाले वह काट खाय, तो मुखका देवता अग्नि है, हाथका देवता इन्द्र है उनका किया दुःख है, अविकारी अहंकार रहित आत्माको कुछ नहीं लगता॥५२॥ जो आत्माहीको सुख दुःखका कारण मानी तो औरसे क्या है? जिसके ऊपर कोप करै, इस पक्षमें भी औरसे दुःख हुआ, यह कहना संभव नहीं हो सकता, क्योंकि वह अपनाही स्वभाव है, आत्मा तो सर्वत्र एकही है आत्मासे और दूसरा नहीं कदाचित कहो कि, जो कुछ यह दीखता है सो मिथ्या है जब अपना आत्मा और दूसरेका आत्मा एकही है तो कोप किसपर करै इससे निमित्त नहीं दुःख भी नहीं॥५३॥ जो कहो कि, ग्रह सुख दुःखका निमित्त है तो भी आत्माको क्या? ग्रह तो लगेहैं जिसका जन्म है, जन्म तो देहका है

आत्माका नहीं, क्योंकि आत्मा तो अजन्मा है, जिस लग्नमें देह जन्म लेताहै उस लग्नमें जैसे ग्रह हों, उसीके अनुसार सुख दुःखका निमित्त है, जिसको देहाभिमान है उसको ग्रहहैं इससे ग्रह तो अंतरिक्षमें हैं ग्रह परस्पर दृष्टि पड़नेसे ग्रहको पीड़ा देते हैं, ऐसा ज्योतिषी कहते हैं, परन्तु आत्माको क्या? आत्मा ग्रह और देहसे भिन्न है, इसलिये पुरुष क्रोध किसपर करै?॥५४॥ जो कर्मही सुख दुःखका हेतु है, तो भी आत्माको क्या? आत्मा तो कर्मसे भिन्न है, सो कर्म हो तो दुःख होय और कर्मही नहीं तो दुःखका हेतु कहाॅसे हो? सो कहते हैं, कर्म तब होय, जब एक देहहीको जड़रूपता और अजड़रूपता हो, जड़रूपसे तो विकारी हो, अजड़रूपसे हितकारीपन, यह दोनों धर्म आने चाहिये उनमें विकारता जडतावालोंको हो और हितका अनुसंधान जड़तारहितोंको हो और जो कहैं कि, देह कर्म करता है; तो देह जड़ होनेसे उसमें अपने हितका अनुसंधान नहीं और आत्माको भी कम करना नहीं बन सकता क्योंकि वह शुद्ध ज्ञानस्वरूप है; जब सुख दुःखका कारणरूप कर्म सिद्ध

कर्माऽस्तु हेतुः सुखदुःखयोर्वै किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे॥ देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः क्रुध्येत कस्मै न हि कर्ममूलम्॥५५॥ कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ॥ नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्क्रुद्ध्येत कस्मै न परस्य द्वंद्वम्॥५६॥ न केनचित्क्वापि कथंचनास्य द्वंद्वोपरागः परतः परस्य॥ यथाऽहमः संसृतिरूपिणः स्यादेवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः॥५७॥

नहीं तो फिर पुरुष किसपर क्रोध करै?॥५५॥ जो काल सुख दुःखका हेतु है तो भी आत्माको क्या? क्योंकि आत्मा भी कालरूपही है, काल भी ब्रह्मका अंश आत्मा ब्रह्मही है, अपने अंशको आपसे भय उत्पन्न नहीं होता जिसप्रकार अग्निकी ज्वालाका ताप अग्निको नहीं व्यापता और हिमकण तुषारका शीत हिमको नहीं व्यापता, ऐसेही कालके किये सुख दुःखसे आत्माको सुख दुःख नहीं होता आत्मा असंग है इसकारण उसमें सुख दुःखका द्वंद्व नहीं व्यापता, दुःख सुखका कारण अज्ञान है, आत्मा नहीं॥५६॥ इन छः दुःख सुखके कारण विना जो कोई और हेतु कहै, सो ईश्वरकी महिमा जानकर संभव नहीं यह कहते है, जो प्रकृति से भी परे हैं, उसे किसी भाँति भी सुख दुःखका संबंध नहीं, जैसे अहंकार संसाररूपी है, उसीसे सुख दुःख होता है, जो इसप्रकार समझता है वह किसीसे नहीं डरता, उसको डरही

नहीं, इस भाॅति मैं परमात्मामें चित्त रखकर समुद्र तरूंगा॥५७॥ पूर्व महर्षियोंकी यह जो परमात्माकी निष्ठाहै उस निष्ठाको धारणकर साक्षात् मोक्षके देनेवाले भगवान् वासुदेवके चरणारविन्दोंकी सेवा करके पारसे रहित संसारसमुद्रके पार जाऊंगा॥५८॥ श्रीभगवान् वोले कि, हे उद्भव! इसप्रकार द्रव्य नष्ट होनेसे द्रव्यका लेश दूरकर संन्यास लेकर वह ब्राह्मण पृथ्वीपर फिरता रहा, यद्यपि दुष्टोंने उसका बहुत अपमान किया, परन्तु तोभी उसका चित्त अपने स्वधर्मसे चलायमान न हुआ, तब यह गाथा गाई॥५९॥ कि, पुरुषको सुख दुःख का दाता मनके भ्रम विना और दूसरा कोई नहीं है, मित्र उदासीन शत्रु यह जो संसार है, सो अज्ञानसे होताहै, तत्त्वविचारसे कुछ नहीं॥६०॥ हे उद्भव! इसलिये

एतां समास्थाय परात्मनिष्ठामध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः॥ अहं तरिष्यामि दुरंतपारं तमो मुकुन्दांघ्रिनिषेवयैव॥॥५८॥ श्रीभगवानुवाच॥ निर्विद्य नष्टद्रविणो गतक्लमः प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्॥ निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मादकंपितोऽमुं मुनिराह गाथाम्॥५९॥ सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः॥ मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः॥६०॥ तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया॥ मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसंग्रहः॥६१॥ य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः॥ धारयेंञ्छ्रावयेच्छृण्वन्द्वंद्वैर्नैवाभिभूयते॥६२॥ इति श्रीमद्भागवते महा पुराणे एकाद० भगवदुद्धवसंवादे भिक्षुगीता नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ श्रीभगवानुवाच॥ अथ ते संप्रवक्ष्यामि सांख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम्॥ यद्विज्ञाय पुमान्सद्यो जह्याद्वैकल्पिकं भ्रमम्॥१॥

तुम सब भावसे मुझमें बुद्धि रखकर मनको निग्रह करो इतनाही योगका तात्पर्य है॥६१॥ जो कोई यह भिक्षुककी गाई ब्रह्मनिष्ठाको सावधान होकर धारण करैंगे, सुनैंगे अथवा सुनावैंगे, वह सुख दुःख आदि द्वंद्व धर्मोंसे पराभव नहीं पावेंगे॥६२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे त्रयोविंशतितमोऽध्यायः॥२३॥ दोहा—चौबिसवें अध्यायकी, कथा कर्म आधीन॥ आत्मासे सब होताहै, आत्माहीमें लीन॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! अब मैं तुमसे कपिलदेव आदि पहले आचार्योंका निश्चय कियाहुआ सांख्य वर्णन करूंगा कि, जिस सांख्यके जाननेसे पुरुष शीघ्र भेदबुद्धिसे उत्पन्नहुई सुख दुःखादिकी भ्रान्तिको त्यागदेता है॥१॥

महाप्रलयमें द्रष्टा और दृश्य भेदरहित एक ब्रह्ममें लीन होगया, इसके उपरान्त प्रथम सतयुग में जब सब प्राणी विवेकसे निपुण थे तब भी कुछ भेद न होनेसे सब ईश्वररूपही जानाजाता था भेद नहीं था॥२॥ पीछे जब बहुत सृष्टिकी इच्छा हुई, तब वह अक्षर ब्रह्म भेदरहित केवल आनन्दमय एकरूप अपने रूपके द्रष्टा और दृश्य भेदरहित दोरूप कर दिये, एक मायाका फल रूप वाणी मनको गम्य प्रपंच रूप करदिये, एक सत्य रूप दो हुए॥३॥ ब्रह्मसे हुए, उनके मध्य एक कार्यकारणरूपिणी प्रकृति हुई, दूसरे भावसे ज्ञानरूप पुरुष हुआ जो प्रकृतिपुरुष कहाते हैं॥४॥ पुरुषरूप मेरे देखनेसे क्षोभित हुई, प्रकृति द्वारा सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण प्रगट हुए॥५॥ प्रथम इन तीनों गुणोंसे सूत्र क्रिया शक्तिरूप हुआ

आसीज्ज्ञानमथो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्॥ यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे॥२॥ तन्मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम्॥ वाङ्मनोऽगोचरं सत्यं द्विधा समभवद्बृहत्॥३॥ तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सोभयात्मिका॥ ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते॥४॥ तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन्गुणाः॥ मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च॥५॥ तेभ्यः समभवत्सूत्रं महान्सूत्रेण संयुतः॥ ततो विकुर्वतो जातोऽहंकारो यो विमोहनः॥६॥ वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत्॥ तन्मात्रेंद्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः॥७॥ अर्थस्तन्मात्रिकाज्जज्ञे तामसादिंद्रियाणि च॥ तैजसाद्देवता आसन्नेकादश च वैकृतात्॥८॥ मया संचोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः॥ अंडमुत्पादयामासुर्ममायतनमुत्तमम्॥९॥

पीछे वह सूत्र ज्ञानशक्ति रूप तत्त्व प्रगट हुआ, एकही तत्त्वज्ञानः क्रियाभेदसे दोनों रूपहुए, उस महत्तत्त्वसे अहंकार हुआ, जो सबको मोह उत्पन्न करता है और जीवको भ्रमण करा रहा है॥६॥ सो अहंकार तीन प्रकार का है, सात्त्विक अहंकार, राजस अहंकार, तामस अहंकार यही अहंकार शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इन्द्रिय, मन तथा देवताओंका कारण है, जीव और देहकी ग्रंथिरूप यही है॥७॥ अब इस त्रिविध अहंकारसे त्रिविध प्रपंचकी उत्पत्ति हुई है, सो दिखाते हैं इनमें तामस अहंकारसे पहले भूत प्रगट हुए राजसअहंकारसे दश इन्द्रियें और सात्त्विक अहंकारसे ग्यारह देवता उत्पन्नहुई॥८॥ इसके पीछे यह सब उत्पत्ति एकत्र होके कार्य कारणके विभागसे मेरे रहनेका उत्तम स्थान करके

एक अण्ड उत्पन्न करते भये॥९॥ पीछे उत्पन्न किये अण्ड में विराट् पुरुष के अन्तर्यामी मेरा उत्तम घर है, जलमें अण्ड हुआ उस अण्डमें श्रीनारायणरूप लीलाशरीरसे मैं स्थित हुआ, वहॉ मेरी नाभिसे कमल उत्पन्न हुवा सब पद्म जगद्रूप तत्त्वात्मक लोकोंका कारणभूत है कमलोंमेंसे ब्रह्म उत्पन्न हुऐ *॥१०॥ उन ब्रह्माजीने विश्वरूप तपस्या करके गुणसे युक्त मेरे अनुग्रहसे लोकपाल समेत तीन लोक भूमि अंतरीक्ष, स्वार्गादिको सृजा, उन लोकोंमेंही चौदह लोक समझलेना, सो भूमि कहनेसे पाताल लोक नीचेके आये, भुवः कहनेसे अंतरिक्ष कहा और स्वर्ग कहनेसे महलोंकसे लेकर सत्यलोक सब कहे॥११॥ लोक सृष्टि का प्रयोजन कहतेहैं, देवताओं का स्थान स्वर्ग हुआ, भूत प्राणियोंका स्थान अंतरिक्ष

तस्मिन्नहं समभवमंडे सलिलसंस्थितौ॥ मम नाभ्यामभूत्पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः॥१०॥ सोऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात्॥ लोकान्सपालान्विश्वात्मा भूर्भुवस्वारि‍ति त्रिधा॥११॥ देवानामोक आसीत्स्वर्भूतानां च भुवः पदम्॥ मर्त्यादीनां च भूर्लोकः सिद्धानां त्रितयात्परम्॥ अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत्प्रभुः॥१२॥ त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनाम्॥ योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः॥१३॥

हुआ. मनुष्योंका लोक भूमि हुई, जो सिद्ध हैं, और योगसाधना करते हैं, उनका स्थान महलोंकसे आदि लोक जानलेना महात्मा ब्रह्माजीने नाग तथा असुरोंका निवास स्थान पृथ्वीके नीचे अर्थात् पाताल बनाया है॥१२॥ त्रिगुणात्मक कर्म करनेसे जो गतियें होती हैं; वह सब त्रिलोकीके मध्यमें हैं, इसप्रकार लोक भिन्न भिन्न रचे हैं॥ महलोंक, जनलोक, तप लोक और सत्यलोकमें योग संन्यास ज्ञानसे निर्मल गति होती है वैकुण्ठकी गति मेरी भक्ति विना नहीं होती सो भक्तियोग करनेसे होती है तहाँ वैकुण्ठकी गति विना और सब स्थान चंचल हैं

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** * शंका**— श्रीकृष्णने बारम्बार"मम” ऐसा वचन क्यों कहा। क्योंकि, परमेश्वर होकर अभिमान युक्त वचन कहना यह बडे आश्चर्यकी बात है? ऐसी बात तो मूर्ख कहते हैं।

** उत्तर**— पहिलेही उद्धषने श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रार्थना की, थी हे महाराज! मेरे सामने आप किसी दूसरे देवताकी और अपने दूसरे अवतारकी कथा मत कहना और कहना भीतो अपनी एक कथा कहना क्योंकि आपके नामके रसके सुखमें मैंमग्न होगया हू दूसरेका चरित्र मुझको अच्छा नहीं जान पडता, ऐसी उद्धवकीप्रार्थनाको मानकर श्रीकृष्णचन्द्रने मम शब्द कहा था कुछ अभिमानसे नहीं कहा।

स्थिर नहीं, एक स्थिर तो मेरी गति है इससे और ठौर वैराग्य रखना उचित है, मैं कालरूप परमेश्वर हूं, यह सब जगत मैंनेही कर्मयुक्त किया है, सो मायाके गुणप्रवाहमें सब विश्व डूबता, उछलता है इस लोकसे और लोकमें जाकर फिर गिरता है, इसलिये इसमें चित्त न लगावै॥१३॥१४॥ इसको ब्रह्मरूप कहते हैं जो पदार्थ सूक्ष्म है जो बडाहै, जो स्थूलहै, दुर्बलहै सो प्रकृति और पुरुष इन दोनोंसे युक्त है॥१५॥ जिस कार्यका जो आदि कारण है और जो पीछे भी रहनेका स्थान है सोई इसके मध्यमें है, तो वह इसीका रूप है बीच व्यवहारमें और प्रकार भासै है, जो सुवर्णके भूषणहैं और मट्टीके घडे सरैये हैं, नाम अलग हैं, वस्तुसे सुवर्ण और मिट्टी है इसप्रकार सब समझकर नाम भेदसे जो व्यवहार है, सोई विकार है, सो मिथ्या है इतनाही समझना चाहिये॥१६॥ यहाँ तर्क करते हैं कि, जो तुम इसप्रकार कार्यको एक रूप कहकर सत्य रूप कहते हो, तो अपने अपने कार्यमें मह

महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः॥ मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत्॥ गुणप्रवाह एतस्मिन्नुन्मज्जति निमज्जति॥१४॥ अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो योयो भावः प्रसिद्ध्यति॥ सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च॥१५॥ यस्तु यस्यादिरंतश्च स वै मध्यं च तस्य सन्॥ विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवाः॥१६॥ यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेऽपरम्॥ आदिरंतो यदा यस्य तत्सत्यमभिधीयते॥१७॥ प्रकृतिर्ह्यस्योपादानमाधारः पुरुषः परः॥ सतोऽभिव्यंजकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम्॥१८॥ सर्गः प्रवर्तते तावत्पौर्वापर्येण नित्यशः॥ महान्गुणविसर्गाऽर्थः स्थित्यंतो यावदीक्षणम्॥१९॥

तत्त्व आदि लेके सब तत्त्व आदितत्त्व मध्यमें संयुक्त हैं, तो महत्तत्त्वोंको सत्यता हो सकतीहै, तो कहते हैं कि, वे कारणरूप ब्रह्मभाव रूपको अंगीकार करके कार्यको सृजते हैं जैसे मृत्तिकाके पिण्ड निमित्त कारण घटको सृजते हैं, आदि, अंतमें उसके मृत्तिकाही है जो जिसका आदि अन्त है, सो सत्यहै, इससे सबके आदिसे मृत्तिकाको लेकरही सृजते हैं, अंत ब्रह्मही है॥१७॥ प्रकृति इस जगत्का उपादान कारण है उत्पत्ति स्थान है पुरुष अधार अधिष्ठाता है और काल गुणोंके क्षोभसे उसको प्रगट करनेवाला है सो यह तीनों ब्रह्मरूप मैंहीं हूं, मुझसे यह भिन्न नहीं है, प्रकृति मेरी शक्ति है पुरुष और काल मेरी अवस्था है मेरा रूप होनेसे मैंहीअद्वितीय स्वरूप हॅू॥१८॥ अब इस सृष्टिकी अवधि कहतेहैं, जीवोंके भोग देनेके

लिये प्रगट हुई यह मेरी सृष्टि जबलों इसका अंत आवै तबतक पिता पुत्ररूपसे निरंतर चलतीहै और जबतक परमात्माका ईक्षण हो तबतक रहती है इसके उपरान्त प्रलय होजाती है सो कहते हैं॥१९॥ यह ब्रह्माण्ड विराट्रूप जिसमें लोकोंकी कल्पना है, जब इसके निकट मेरा स्वरूप भूतकाल पहुँचने लगताहै, तब मुझसे पीड्यमानहो, सब लोक नाशको प्राप्त होतेहैं जैसे उत्पन्न हुएहैं, उसी क्रमसे तत्त्व भिन्न भिन्न होकर अपने कारणसे मिलकर नष्ट होजाते हैं॥२०॥ यह शरीर अन्नसे हुआ है इसकारण शतवर्ष अनावृष्टिके होनेसे क्षीणहो उस अन्नमें लीन होताहै अन्न बीजमें लीन होताहै, बीज भूमिमें लीन होताहै, जब बोनेसे न उपजै भूमि गंधमें महाप्रलयकी अग्निसे दग्ध हो गंधमात्र रहता है॥२१॥ गंध जलमें लीन होता

विराण्मयाऽऽसाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः॥ पंचत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह॥२०॥ अन्ने प्रलीयते मर्त्य मन्नं धानासु लीयते॥ धाना भूमौ प्रलीयते भूमिर्गंधे प्रलीयते॥२१॥ अप्सु प्रलीयते गंध आपश्च स्वगुणे रसे॥ लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते॥२२॥ रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चांबरे॥ अंबरं शब्दतन्मात्रे इंद्रियाणि स्वयोनिषु॥२३॥ योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे॥ शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभुः॥२४॥ स लीयते महान्स्वेषु गुणेषु गुणवत्तमः॥ तेऽव्यक्ते संप्रलीयंते तत्काले लीयतेऽव्यये॥२५॥ कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे॥ आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः॥२६॥

है, जल अपने गुणमें लीन होताहै, रस ज्योतिमें लीन होताहै, ज्योति रूपमें लीन होतीहै॥२२॥ रूप वायुमें लीन होताहै वायुस्पर्शमें लीन होताहै, स्पर्श आकाशमें लीन होता है और आकाश शब्दमें लीन होजाता है, इन्द्रियें उत्पत्त्यनुसार उस उस देवतामें लीन होतीहैं॥२३॥ देवता और मन सात्विकाहंकार में और शब्द अहंकारमें लीन होजाता है त्रिविध अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होजाताहै॥२४॥ महत्तत्त्व अपने अपने उत्पत्तिके गुणानुसार उस उस गुणमें, त्रिविध गुण प्रकृतिमें और प्रकृति अव्यक्तमें एकत्र होके रहती है॥ २५॥ काल ज्ञानरूप महापुरुषमें लीन होताहै, पुरुष

आत्मारूप जन्मरहित मुझमें लीन होताहै, तब आत्मा एक शुद्ध विकल्प संकल्प रहित अपने ही आनंदमें स्थित होकर रहताहै, इस भाँति सब सृष्टिका प्रकार कहा, अब इसका प्रयोजन कहते हैं॥२६॥ जब इसप्रकार ज्ञानसे देखै, तब उसके मनका कल्पना कियाहुआ भ्रम क्यों हो? और हुआ भी भ्रम त्हृदयमें क्यों रहै? जैसे आकाशमें सूर्योदयके भय से अंधकार नहीं रहता है॥२७॥ श्रीभगवान्ने कहा कि, हे उद्धव! यह सांख्य ज्ञानकी विधि मैंने तुमसे वर्णन करी, इसके जानतेही हृदय की गाॅठ छूट जातीहै और इसीलिये उत्पत्ति तथा प्रलयके प्रकार तुमको समझाकर कहे, क्योंकि मुझे सब ज्ञान पूर्ण है॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ दोहा—पच्चिसमें कुछ निर्गुणता, अरु कुछ सत्य विवेक॥ मनमें प्रगटतहै सदा, सतरज वृत्ति अनेक॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्भव! जबतक प्रकृति

एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रमः॥ मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोदये तमः॥२७॥ एष सांख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रंथिभेदनः॥ प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया॥२८॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कंधे सांख्यनि रूपणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥४॥ श्रीभगवानुवाच॥ गुणानामसमिश्राणां पुमान्येन यथा भवेत्॥ तन्मे पुरुष वर्येदमुपधारय शंसतः॥१॥ शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः॥ तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः॥२॥ काम ईहा मदस्तृष्णा स्तंभ आशीर्भिदा सुखम्॥ मदोत्साहो यशः प्रीतिर्हास्यं वीर्य बलोद्यमः॥३॥

पुरुषका ज्ञान न हो, तबतक तीनों गुणों के स्वभाव न जीते हों, तबतक सुख दुःख आदि द्वंद्व धर्म नहीं जाने जाते, इससे जैसे गुणके स्वभावजाने जातेहैं उस उपाय करनेको प्रथम गुणके स्वभाव कहते हैं, हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ उद्धव! तीनों गुण भिन्न भिन्न होतेहैं, जब जिस गुणसे जैसा पुरुष होता है, सो आप मन लगाकर सुनिये मैं कहताहूं॥१॥ जिसका सतोगुणी स्वभाव होय, उसके यह धर्म होतेहैं. शम, दम, क्षमा, विवेक, तप, सत्य, दया, पहला और पिछला स्मरण, संतोष, त्याग, वैराग्य, आस्तिक्य बुद्धि, अनुचितकर्ममें लज्जा, दान, आत्मासे रति, यह सतोगुणकी वृत्ति कही॥२॥ अब रजोगुणकी वृत्ति कहते हैं, कामना, चेष्टा, दर्प, तृष्णा, गर्व, देवताओंसे सुखकी आकांक्षा, विषयभोग, बुद्ध्यादिकोंका उत्साह,

जगमें प्रीति, हास्य, वीर्य बलका उद्यम इत्यादि यह सब रजोगुणकी वृत्ति कही॥३॥ अब तमोगुणकी वृत्ति कहते हैं, क्रोध, लोभ, मिथ्या, हिंसा, याच्ञा, दंभ, अनुद्यम, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दुःख, हीनता, निद्रा, आशा, भय यह तमोगुणकी वृत्ति भिन्न भिन्न कही अब जो एक मिली है, वह वृत्ति सुनो॥४॥५॥ हे उद्धव!“अहं मम” यह जो बुद्धि है, इसमें मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इन्द्रिय और प्राण यह सात्विक, राजस, तामस हैं, इनसे जो कार्य है, उसे सन्निपात जनित कार्य कहना चाहिये, क्योंकि तीनों गुणोंके मिले कार्य हैं, मैं शान्तहूं, मैं कामीहूॅ मैं क्रोधीहूं, मुझे शांति है, काम है, क्रोध है इसप्रकार व्यवहार तीनों गुणों का सन्निपात कहाता है॥६॥ जब यह पुरुष धर्म, अर्थ, काममें स्थित हो, तब जान लीजिये कि, तीनों गुणोंकी एकता है, धर्म सात्त्विक, अर्थ राजस, काम तामस, धर्ममें

क्रोध लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा

दंभः क्लमः कलिः॥ शोकमोहौ विषादार्ती निद्राऽऽशा भीरनुद्यमः॥४॥ सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः॥ वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु॥५॥ सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः॥ व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेंद्रियासुभिः॥६॥ धर्मे चार्थे च कामे च यदाऽसौ परिनिष्ठितः॥ गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः॥७॥ प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान्यर्हिगृहाश्रमे॥ स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा॥८॥ पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः॥ कामादिभीः रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम्॥९॥ यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः॥ तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमेव च॥१०॥

श्रद्धाहो, अर्थसे प्रीति हो, काममें धनहो॥७॥ प्रवृत्ति सकाम धर्ममें निष्ठा रक्खै, गृहस्थाश्रम धर्ममें निष्ठा रक्खै यह भी गुणोंके सन्निपातसे होता है, क्योंकि सकाम धर्म रजोगुणमय है, घरमें आसक्ति तमोगुणमय है, नित्य नैमित्तिक धर्ममें निष्ठा है, सो सत्त्वगुणमय है॥८॥ इसप्रकार भिन्न भिन्न और मिले गुणोंकी अवस्था कहकर जिस गुणसे जैसा पुरुष होता है, सो कहते हैं कि, पुरुषके जो शम, दम, क्षमा, दया यह धर्म होते हैं, सो सात्विक जानना, काम अनुरागसे राजस समझ लेना क्रोधादिसे तामस जानना॥९॥ और जो भक्तिपूर्वक निरपेक्ष हो स्वकर्मसे मेरा भजन करै, सो पुरुष हो अथवा स्त्री हो, उसका सतोगुणरूपी स्वभाव जानना॥१०॥

जो स्वकर्मसे मेरा भजन करतेहैं और मुझसे कुछ चाहना करते हैं सो रजोगुण स्वभाव जानना और जो किसीके मारनेको मेरा भजन करे उसे तमोगुणी स्वभाववाला जानना॥११॥ अब कहते हैं कि, इन गुणोंके वश तो तुम भी देख पडते हो? और जो नहीं हो तो तुम सेव्य क्यों हुये? और जीव सेवक क्यों हुआ? सो कहो इसका उत्तर देते हैं कि, यह तीनों गुण जीवको हैं, कुछ मुझे नहीं हैं, यह सब चित्तके विकारसे होते हैं, जिसमें प्राणी आसक्त होकर बॅध जाता है, मैं तो आसक्त नहीं हूँ, नियंताहूं और द्रष्टा होरहा हॅू इससे बन्धनमें नहीं, इसलिये अपना भजन करनेके लिये वारंवार कहताहूं॥१२॥ जब एक गुणकी अधिकता होती है, उसका कार्य दिखाते हैं

यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः॥ तं रजःप्रकृतिं विद्याद्धिंसामाशास्य तामसम्॥११॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे॥ चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते॥१२॥ यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्॥ तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान्॥१३॥ यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः संगं भिदा बलम्॥ तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया॥१४॥ यदा जयेद्रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्॥ युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया॥१५॥ यदा चित्तं प्रसीदेत इंद्रियाणां च निर्वृतिः॥ देहेऽभयं मनोऽसंगं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम्॥१६॥

कि, जब प्रकाशरूप निर्मल शान्त सतोगुण बढ़कर रजोगुणको जीतै, तब पुरुष धर्म ज्ञानसे परमसुख युक्त होताहै जब रजोगुण सतोगुण तमोगुणको जीतै, तब पुरुष धर्म ज्ञानसे परमसुखयुक्त हो॥१३॥ जब रजोगुण सत्वगुण और तमोगुणको जीतै, तब रजोगुणसे संग हो उस संगसे भेदबुद्धि सर्वत्र हो, उससे प्रवृत्ति मार्गका स्वभाव हो कर्म, यश, श्री और दुःखसे युक्त होता है॥१४॥ जब तमोगुण सतोगुण और रजो गुणको जीतै, तब अज्ञानसे मोहको प्राप्तहो शोक, मोह, निद्रा, हिंसा, आशासे युक्तहो, विवेक तज अनुद्यम रूप जडता होकर रहता है और लय होजाता है॥१५॥ जब चित्त निर्मल होकर इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्तिहो, देहमें अभयहो, मनकी आसक्ति कहीं न हो, वह सतोगुण मेरी

प्राप्तिका स्थान जानना चहिये॥१६॥ जब क्रियासे विकारको प्राप्तहो बुद्धिका विक्षेपहो ज्ञानेन्द्रियोंको शान्ति न हो कर्मेंद्रियोंको निश्चलता न हो, मन भ्रमै तब जानलो कि, रजोगुण बहुत बढगया है॥१७॥ जब चित्त अन्तर्धान होकर लीन होजाय, ज्ञानसे पदार्थ ग्रहणको असमर्थहो।मनमें भी संकल्प विकल्प उपजते रहैं, नष्ट होकर शून्यसा रहे, अज्ञान ग्लानि दुःखहो तब जानिये कि, तमोगुण बढ़ाहैं॥३८॥ हे उद्धव! यदि सतोगुण बढे तो देवताओंका बल बढता है, रजोगुण बढै तो असुरोंका बल बढ़ता है और तमोगुण बढै तो सब राक्षसोंका बल बढ़जाता है॥१९॥ सतोगुणसे जाग्रत्, रजोगुणसे स्वप्न और तमोगुणसे सुषुप्तिकी अवस्था होती है, इन तीनों अवस्थामें व्याप्त एक चतुर्थ अवस्थारूप आत्मतत्त्व

विकुर्वन्क्रियया चाऽऽधीरनिर्वृत्तिश्च चेतसाम्॥ गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रांतं रज एतैर्न्निशामय॥१७॥ सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्॥ मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय॥१८॥ एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते॥ असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम्॥१९॥ सत्त्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत्॥ प्रस्वापं तमसा जंतोस्तुरीयं त्रिषु संततम्॥२०॥ उपर्युपरि गच्छंति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः॥ तमसाऽधोऽध आ मुख्याद्रजसांऽतरचारिणः॥२१॥ सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यांति नरलोकं रजोलयाः॥ तमोलयास्तु निरयं यांति मामेव निर्गुणाः॥२२॥ मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्॥ राजसं फलसंकल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्॥२३॥

है सो वह, तुरीय निर्गुण अवस्था है॥२०॥ गुणके उत्कर्षसे कर्म फलको दिखाते हैं, सतोगुणके उत्कर्षसे ब्राह्मण वेदोक्त कर्म कर्त्ता ऊपर ब्रह्मलोक तक जाते हैं, तमोगुणसे नीचेके लोकोंमें जाते हैं और रजोगुणसे मनुष्यदेहको प्राप्त होते हैं॥२१॥ अब जिस गुणकी अधिकतामें मरनेसे जो गति होती हैं, सो कहते हैं, सतोगुणमें मरै तो स्वर्गमें जाय रजोगुणमें मरै तो मनुष्यलोकमें जाय, तमोगुणमें मरै तो नरकमें जाताहै और निर्गुण हो तो मुझे ही प्राप्त होतेहैं॥२२॥ जो स्वकर्म करै और उनका फल न चाहै अथवा मुझे अर्पण करै, वह सात्त्विक कर्म है जिस कर्ममें फलकी

याचना है वह राजस है, जिसमें हिंसा आधिक है, सो तामस कर्म है॥२३॥ अब सब गुण निर्गुण भेदसे ज्ञान और भक्ति भी चार प्रकार की हैं, सो कहते हैं. केवल आत्मनिष्ठ ज्ञान सात्विक है जो ज्ञान देह इन्द्रियोंके सम्बन्धसे लीन होता है सो राजस और जो बालक गूंगेका ज्ञान है, यह तामस है, केवल शुद्ध पुरुषोत्तम निष्ठ ज्ञान हो सो निर्गुण कहलाता है॥२४॥ वनमें वास है, सो सात्त्विक है, ग्रामका वास राजस है, जऍके घरमें वास तामस है और भगवत् मंदिर में निर्गुण वास है॥२५॥ आसक्ति विना कर्मका कर्त्ता सात्विक कहलाता है आसक्तिसे अंधा होकर कर्म करना राजस है, स्मरणसे रहित कर्त्तातामस है और केवल एक मेरी शरणको प्राप्तहो, अहंकार छोड़कर कर्म करै सो निर्गुण है॥२६॥ आत्माकी श्रद्धा

कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्॥ प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम्॥२४॥ वने तु सात्त्विको वासोग्रामे राजस उच्यते॥ तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम्॥२५॥ सात्त्विकः कारकोऽसंगी रागांधोराजसः स्मृतः॥ तामसः स्मृतिविभ्रष्टौ निर्गुणो मदपाश्रयः॥२६॥ सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी॥ तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा॥२७॥ पथ्यं पूतमनायस्तमहार्यं सात्त्विकं स्मृतम्॥ राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठंतामसं चार्तिदाऽशुचि॥२८॥ सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्॥ तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम्॥२९॥ द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः॥ श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि॥३०॥

सात्त्विकी, कर्मकी श्रद्धा राजसी, अधर्ममें श्रद्धा तामसी और मेरी सेवामें श्रद्धा निर्गुण है॥२७॥ जो आहार भक्ष्य भोज्य वस्तुहो, पवित्रहो, विना श्रम प्राप्त हुईहो सो सात्त्विक कहलाती है और इन्द्रियोंका परमप्रिय मधुर, कटु, अम्ल, लवण, यह सब राजस हैं, जिससे पीड़ा हो अशुद्ध हो उसे तामस कहते हैं और जो वस्तु मुझे निवेदन की हो वह निर्गुण कहलाती है॥२८॥ आत्माके अनुभवसे हुआ सुख सतोगुण रूपी है, विषय अनुभवसे हुआ सुख राजस है, मोह दीनतासे सुख हो सो तमोगुणी है और केवल मेरे आश्रयका सुख निर्गुण है॥२९॥ यह जितने पदार्थ कह आये हैं, द्रव्य, पवित्र वस्तु, देश, वन, ग्राम, फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, श्रद्धा, अवस्था, आकृति, मरण यह सब त्रिगुणमय हैं॥३०॥

हे पुरुषश्रेष्ठ! यह सब प्रपंचरूप भाव गुणमय जानना, पुरुष और प्रकृतिसे अधिष्ठित है, जितना देखा है सुना है बुद्धिसे ध्यानमें रहता है सो सब गुणमय है॥३१॥ यह गुण कर्मसे बँधे पुरुषको संसारकी गति हैं है सौम्य!जो जीव चित्तसे उपजे गुण जीतै सो भक्तियोग करके नि‍ष्ठासे मेरे भावको प्राप्त होते हैं॥३२॥ इसलिये विवेकी पुरुष जीतनेहीका उपाय करते हैं, सो कहते हैं ज्ञान विज्ञानकी देनेवाली मनुष्य देह या गुण संगको दूरकर निपुण मेरा भजन करै॥३३॥ ज्ञानवान् सावधान जितेंद्रिय पुरुष सब संग छोडकर निस्संग हो मेरा भजन करै सतो गुणकी सेवासे रजो गुण तमो गुणको जीतै इसके उपरान्त निरपेक्ष और शान्त बुद्धि हो मुझमें चित्तरखकर सतोगुणको भी जीते॥३४॥ तब इस प्रकार मुझे प्राप्त

सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाऽव्यक्तधिष्ठिताः॥ दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्यावा पुरुषर्षभ॥३१॥ एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबंधनाः॥ येन मे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः॥ भक्तियोगेन मन्निष्ठोमद्भावाय प्रपद्यते॥३२॥ तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञान संभवम्॥ गुणसंगं विनिर्धूय मां भजंतु विचक्षणाः॥३३॥ निःसंगो मां भजेद्व‍िद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः॥ रजस्तमश्चाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया मुनिः॥ सत्त्वं चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शांतधीः॥॥३४॥ संपद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीव विहाय माम्॥ जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसंभवैः॥ मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नांतरश्चरेत्॥३५॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कन्धे वृत्तिभेदनि० पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥

हो सो कहते हैं कि जब यह जीव गुणोंसे छूटै तब अपने वासना देहको छोड मुझे प्राप्त हो और जब मुझे प्राप्तहुआ फिर उसे संसारका आवागमन नहीं रहता, लिंगशरीरसे और चित्तसे उत्पन्न हुए गुणसे मुक्त हुये अथवा मैंकि जो परब्रह्महूं उसीमें पूर्ण हुआ जीव विषयभोग नहीं करता और विषय भोगोंका स्मरणभी नहीं करता *॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे पंचविंशोऽध्यायः॥२५॥
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** * शंका**— जीव क्या वस्तु है जो जीव छूट जाताहै।

** उत्तर**— जीव ब्रह्मका रूप है. अजीव देह हैं जबतक देहके सुखकी इच्छा करता है तबतक दुःख भोगता है और देहसे बँधा भी रहता है और देहके सुखकी इन्छाको जब त्याग देता है, तबदेहको भीत्यागके ब्रह्मसुखको प्राप्त होजाता है यह अर्थ “जीवोऽजीवो विहाय माम्” इस श्लोकमें है॥

दोहा— छब्बिसमाहिं कुसंगते, होत योगमें भंग॥ योग भोग पूरण करै, सन्तनको सत्संग॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! जिससे मेरा स्वरूप जानाजाय, ऐसा मनुष्य देहको पाकर मेरे धर्ममें स्थित हो सो अपने आत्मामें स्थित आनंदरूप परमात्माको प्राप्त होता है॥१॥ ज्ञाननिष्ठाके प्रभावके कारण गुणमय लिंगशरीरसे मुक्त हुआ पुरुष गुणकी जो मायामात्र और वास्तविक रीति प्रतीत हो रही हैं उनमें निवास करनेपर भी इस मिथ्या गुणोंके संगको प्राप्त नहीं होता॥२॥ यद्यपि उसे सर्वत्र वस्तुकी इच्छा नहीं है, परन्तु तो भी दुष्ट संग न करै, जो केवल उपस्थ इन्द्रिय और उदरको तृप्त करनेवाले हैं, ऐसे दुष्टोंका कभी संग न करै, क्योंकि जो एक भी दुष्टजनका संग होय तो भी महाघोर अंधतम नरकमें पड़ता है, जिसप्रकार एक अंधेके पीछे दूसरा अंधा गिरता है और बहुतोंका संग बाधा करता है, इसमें तो कहनाही

श्रीभगवानुवाच॥ मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्मआस्थितः॥ आनंदं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम्॥१॥ गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया॥ गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः॥ वर्तमानोऽपि न पुमान्युज्यते वस्तुभिर्गुणैः॥२॥ संगं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृषां क्वचित्॥ तस्यानुगस्तमस्यंधे पतत्यंधानुगोंधवत्॥३॥ ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छ्रवाः॥ उर्वशीविरहान्मुह्यन्निर्विण्णः शोकसंयमे॥४॥ त्यक्त्वात्मानं व्रजंतीं तां नग्नउन्मत्तवन्नृपः॥ विलपन्नन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः॥५॥ कामानतृप्तोऽनुजुषन्क्षुल्लकान्वर्षयामिनीः॥ न वेद यांतीर्नायांतीरुर्वश्याऽऽकृष्टचेतनः॥६॥

क्या है?॥३॥ इलाका पुत्र बड़ा यशस्वी राजा पुरूरवा जब प्रथम उर्व्वशीके विरहसे मोहित हुआ था, तब अत्यन्त दुःखसे कातर हो कुरुक्षेत्रमें पहुॅचा और वहाॅ उर्व्वशीको देख प्रार्थना की तब उर्वसीने उपासना बताई, उसके द्वारा राजा गंधर्बलोकमें प्राप्तहुआ, जब वहाॅ उसका शोक निवृत्तहुआ तब उसने यह गाथा गाई॥४॥ पुरूरवा राजाको छोडकर जब उर्व्वशी चलीगई, तब उन्मत्तकी नाई नग्न उसके पीछे विलाप करता जाय कि, हे घोरे! तिष्ठ तिष्ठ, इस प्रकार विह्वल हो उठकर उसके पीछे चला॥५॥ पुरूरवा राजा अपनी पहली अवस्था कहता है कि, तुच्छ कामनाओंका सेवन करनेमें मैं अभी तृप्त न हुआ क्योंकि अनेक वर्षोंकी रात्रियें आनकर बीतगई, परन्तु मैंने नहीं जाना, चित्त उर्व्वशीसे हर रहाथा जब

ज्ञान हुआ, तब जैसे वचन कहे सोकहते हैं॥६॥ पहले आठ श्लोकोंमें राजा का पश्चात्ताप कहते हैं, अहो! देखो मेरे मोहका विस्तार कि, मैंने इतना विषय किया परन्तु तो भी कामसे मलीन चित्तमें उर्व्वशीने मेरे कंठका आलिंगन किया सो इसीमें मेरी इतनी आयु व्यर्थ गई, मैंने कुछ नहीं जानी॥७॥ अब अत्यन्त खेदित होकर कहता है कि, देखो! इस उर्वशीसे मैं वंचित हुआ, सूर्य उदय हुआ वा अस्त हुआ यह भी मैंने न जाना, बहुत वर्षोंके इतने दिन बीतगये, परन्तु मैंने कुछ न जाने॥८॥ हे उद्धव! वह फिर कहनेलगा अहो मेरे मनको देखो कि, मेरा आत्मा इन स्त्रियोंने खेलनेको हरिण किया मैं राजाओंका राजा हूं सो मैं इसप्रकार पराधीन हुआ॥९॥ राज्यादि सहित चक्रवर्ती मुझे देखो

ऐल उवाच॥ अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः॥ देव्या गृहीतकंठस्य नायुःखंडा इमे स्मृताः॥७॥ नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाऽभ्युदितोऽमुया॥ मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत॥८॥ अहो मे आत्मसंमोहो येनात्मा योषितां कृतः॥ क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः॥९॥ सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम्॥ यांतीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद्रुदन्॥१०॥ कुतस्तस्यानुभावः स्यात्तेज ईशत्वमेव वा॥ योऽन्वगच्छन्स्त्रियं यांतीं खरवत्पादताडितः॥११॥ किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा॥ किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम्॥॥१२॥ स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पंडितमानिनम्॥ योहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः॥१३॥

जो तृणके समान मुझे छोड उठकर चली गई, उस स्त्रीके पीछे नग्न उन्मत्तकी भाॅति मैं भी उठ चला॥१०॥ ऐसे मुझे प्रताप, तेज, ऐश्वर्य, कहाॅसे हों? कि, जो मैं चलीजाती हुई स्त्रीके पीछे लगाहीचला आया जैसे गधैयाके समान वह तो लातोंसे मारती जाती है और गधा उसके पीछे जैसे चलाजाता है, ऐसेही मैं चलागया॥११॥ जिसका मन स्त्रियोंसे हरगया है, उसको विद्या, तप, दान, अध्ययन, एकान्तवास मौन इन साधनोंसे क्या होता है॥१२॥ इससे मैंने अपना स्वार्थ न जाना और आपको पण्डित मानलिया,

इसलिये मैं अतिमूर्ख हूं मुझे धिक्कार है कि, जो मैं ऐश्वर्यको प्राप्त होकर भी स्त्रीसे बैल गधेकी भाॅति आधीन हुआ॥१३॥ यद्यपि अनेक वर्षोंके समूह से मैंने उर्वशीका अधरमधु पिया, परन्तु तोभी यह काम तृप्त नहीं होता है जैसे अहुतियोंसे अग्न‍ितृप्त नहीं होती॥१४॥ इसप्रकार आठ श्लोकोंमें वैराग्य कहा अब दश श्लोकोंमें विवेक कहते हैं कि, जिनके चित्त वेश्याओंने हरलिये हैं, उन्हैं छुड़ानेको आत्माराम ईश्वर अधोक्षज भगवान्के विना और कौन समर्थहै! इसलिये एक परमेश्वरका ही भजन करना उचित है क्योंकि बहुतेरोंने यज्ञोंसे देवता प्रसन्न किये, परन्तु अंतसमयमें दुःखही पाया॥१५॥ ईश्वर के प्रसादविना मोह निवृत्त नहीं होता, इसलिये उन्हींका भजन करना चाहिये देखो उर्व्वशीने मुझे उत्तम वाक्योंसे समझयाथा परन्तु तोभी मेरे मनका मोह न गया, मैं अजितेन्द्रिय महामूढ़ हूं॥१६॥ उर्व्वशी का अपराध नहीं, यह मेराही अपराध

सेवतो वर्षपूगान्मे उर्वश्या अधरासवम्॥ न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा॥१४॥ पुंश्चल्याऽपहृतं चित्तं कोन्वन्यो मोचितुं प्रभुः॥ आत्मारामेश्वरमृते भगवंतमधोक्षजम्॥१५॥ बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः॥ मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः॥१६॥ किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः॥ रज्जुस्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः॥१७॥ क्वायं मलीमसः कायो दौर्गंध्याद्यात्मकोऽशुचिः॥ क्वगुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः॥१८॥ पित्रोः किं स्वं तु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः॥ किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते॥१९॥ तस्मिन्कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते॥ अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियाः॥२०॥

है, क्योंकि मैं अपने अजितेन्द्रियपनसेही दुःखी हुआहूं, उसने मेरा क्या अपराध कियाहै? रस्सीको न जान जैसे रस्सीमें सर्प का भ्रम करै तो विद्यमान रस्सीका क्या अपराध है॥१७॥ यदि कहो कि, इसने अपने रूप गुणसे मोह उत्पन्न किया, यह दोष इसीका है, यह दोनों दोष मनमें रचे हैं, अज्ञानसे हैं सो कहते हैं, यह अतिमलीन दुर्गधादिसे भरी देह कहॉ और पुष्पकी सुगंधके तुल्य आत्माके गुण कहाॅ, सब ठौर ममत्व अविद्याका किया है, वस्तुतः विचारसे सब मिथ्या है॥१८॥यह देह माताकी है, अथवा स्त्रीकी है, वा स्वामीकी है, वा अग्निकी है, या कूकर गिद्धोंकी है वा आत्माकी है, वा मित्रकी है? किसकी कहनी चाहिये, इतना तो इसका निश्चय होताही नहीं और न होगा॥१९॥ जैसे अपवित्र तुच्छ देहमें आसक्त

होते हैं, सो कहते हैं कि, देखो तो कैसा सुन्दर मुख है, कैसी सुन्दर नासिका है, कैसा सुन्दर हँसना है, यो भूलेहै और यह तो तब कृमि विष्ठाभस्म रूप है॥२०॥ त्वचा, मांस, रुधिर, आँतें, मेद, मज्जा, हड्डी संघातरूप देहमें जो आसक्त हैं, उनमें और विष्ठा मूत्र पीबमें जो रमते हैं, उनमें क्या अंतर है कुछ नहीं. में जैसे कृमि, ऐसे वह मनुष्य हैं॥२१॥ यद्यपि इसप्रकार स्त्री कदर्यमयी जाने है परन्तु तो भी उनके गुरु स्त्री लंपटोंके निकट जो विवेकी हो तो न जाय, विषय असत् इन्द्रियोके संगसे मन सर्वथा विकारको प्राप्तहो, संग नहो तो न हो इससे दूर रहे॥२२॥ जो वस्तु देखी सुनी नहीं है, उसमें मनकी इच्छा नहीं होती, इसकारण जो पुरुष इन्द्रियोंको रोकता है, उस पुरुषका मन निश्चल होकर शान्त

त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ॥ विण्मूत्रपृये रमतां कृमीणां कियदंतरम्॥२१॥ अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित्॥ विषयेंद्रियसंयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा॥२२॥ अदृष्टादश्रुताद्भावान्न भाव उपजायते॥ असं प्रयुञ्जतः प्राणाञ्छाम्यति स्तिमितं मनः॥२३॥ तस्मात्संगो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः॥ विदुषां चाप्य विश्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम्॥२४॥ श्रीभगवानुवाच॥ एवं प्रगायन्नरदेवदेवः स उर्वशीलोकमथो विहाय॥ आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै उपारमज्ज्ञानविधूतमोहः॥२५॥ ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्॥ सन्त एतस्य छिंदंति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः॥२६॥ सन्तोऽनपेक्षा मच्च‍ित्ताः प्रणताः समदर्शनाः॥ निर्ममा निरहंकारा निर्द्वंद्वा निष्परिग्रहाः॥२७॥

होजाता है॥२३॥इससे इन्द्रियोंका, स्त्रियोंका और स्त्रीलंपटोंका संग न करै, जो ज्ञानवंत है, उनको भी इन इन्द्रियोंका विश्वास करना योग्य नहीं है, मुझ सरीखोंकी तो बातही क्या है?॥२४॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! इस प्रकार गाता हुआ वह राजाधिराज पुरूरवा उर्वशी लोकको छोड़ अपने आपमें आत्मारूपको जान ज्ञानसे मोह निवृत्ति कर निवृत्त होगया॥२५॥ इसलिये दुःखदायी संगको छोड़ बुद्धिमान् होकर साधुओंका संग करै, वह अपने वचनसे इसके मनकी गॉठि काट देते हैं॥२६॥ साधु पुरुष कुछ चाहना नहीं करते हैं, क्योंकि वह तो निरपेक्ष हैं, और उनके चित्त मुझमें लग रहे हैं, वह समदृष्टि और ममतारहित है, अहंकाररहित शान्त हैं, सुख दुःख परिग्रहहीन हैं।

इसकारण उनका संगही इन मनुष्योंको तारदेता है॥२७॥ हे महाभाग! वह बडे भाग्यवंत हैं जो निरंतर मेरी कथाओंको श्रवण करते हैं, वह कथा मनुष्यके मनके संपूर्ण पाप दूर करतीं हैं॥२८॥ जो कोई मेरी कथा सुनेंगे, गावेंगे स्तुति करेंगे, अथवा आदर करैंगे, वह मुझमें तात्परहो श्रद्धासहित मेरी भक्तिको प्राप्त होंगे॥२९॥ अनंत गुण पूर्ण आनन्द और अनुभवरूप मुझमें जिस साधुने भक्ति प्राप्त की, फिर उसे और क्या बाकी रहा॥३०॥ जैसे भगवान अग्न‍िकी सेवासे अंधकार शीत जाता रहताहै, इसी प्रकार साधु पुरुषोंकी सेवा करनेसे संसारका

तेषु नित्यं महाभागमहाभागेषु मत्कथाः॥ संभवंति हिता नृृणां जुषतां प्रपुनंत्यघम्॥२८॥ ता ये शृण्वंति गायंति ह्यनुमोदंति चादृताः॥ मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विंदंति ते मयि॥२९॥ भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते॥ मय्यनंतगुणे ब्रह्मण्यानंदानुभवात्मनि॥३०॥ यथोपश्रयमाणस्य भगवंतं विभावसुम्॥ शीतं भयं तमोऽप्येति साधून्संसेवतस्तथा॥३१॥ निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौपरमायनम्॥ संतो ब्रह्मविदः शांता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम्॥३२॥ अन्नं हि प्राणिनां प्राणा आर्तानां शरणं त्वहम्॥ धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य संतोऽर्वाग्विभ्यतोऽरणम्॥॥३३॥ संतो दिशंति चक्षुंषि बहिरर्कः समुत्थितः॥ देवता बांधवाः संतः संत आत्माहमेव च॥३४॥

भय जाता रहताहै॥३१॥ प्राणी घोर संसाररूपी समुद्रमें डूबते उछलतेहैं उनको ब्रह्मके ज्ञाता साधु शान्तही परमगति हैं जैसे जलमें डूबते पुरुषको दृढ़ नाव परमगति होती है॥३२॥ प्राणियोंका जैसे अन्न प्राणहैं, ऐसेही आर्त्त पुरुषोंकी शरण मैं हूं मनुष्योंको परलोकका धर्मही धन है ऐसेही संसारसे डरे पुरुषको शरण देनेवाले साधु हैं *॥३३॥ सूर्य तो भली भाँति उदय होनेपर भी बाहिरी एक चक्षु इन्द्रियकोही देताहै और साधुपुरुष तो सगुण तथा निर्गुण ज्ञानरूप आंतरीय अनेक चक्षुओंको देतेहैं, इस कारण देवता और बन्धुरूप साधु पुरुषही हैं और आत्मा हैं तथा तद्रूप
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** * शंका**— सबवेद और शास्त्रोंमें लिखाहै कि, भगवान् तीन लोक और १४ भवनके प्राणियोंके स्वामी हैं तो फिर श्रीकृष्णने अपने मुखसे क्यों कहा कि, दुःखी प्राणीकी शरण हम हैं, यह बढीशंका है?

** उत्तर**— तुम्हारी सबकी बात सत्य है, परन्तु अभिमानी कामी दुष्ट यह सब परमेश्वरको नहीं जानते और दीन रात दिन परमेश्वरको जानते हैं, इसलिये दीन लोग परमेश्वरको प्यारे हैं, अभिमानी द्रोही हैं– इसलिये श्रीकृष्णने कहा था कि, मैं दीनलोगोंका स्वामी हूँ।

भी साधुओंमें ही है॥३४॥ प्रथम इसका पिता शुद्ध मनसे स्त्रीरूप होकर पार्वतीके वनमें गया था, इसलिये उसके पुत्र पुरूरवाका नाम वैतसेन कहा सो उस उर्व्वशीलोकसे इसप्रकार निस्पृह होकर, संग छोड़ आत्मारामहो, इस पृथ्वीमें विचरण करने लगा॥३५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ दोहा—सत्ताइस अध्यायमें, स्वस्थचित्तकी मूल॥ सव फलदायक कहत हौं, पूजा हरिअनुकूल॥१॥ उद्धवजी बोले कि, हे यादवोंमें श्रेष्ठ! अपना आराधनरूप क्रियायोग मुझसे कहो और तुम्हारे भक्त जैसे तुम्हारी पूजा

वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिःस्पृहः॥ मुक्तसंगो महीमेतामात्मारामश्चचार ह॥३५॥ इति श्रीमद्भा० म० एकादशस्कन्धे ऐलगीतं नाम षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ उद्धव उवाच॥ क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो॥ यस्मात्त्वां ये यथार्चंति सात्त्वताः सात्त्वतर्षभ॥१॥ एतद्वदंति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम्॥ नारदो भगवान्व्यास आचार्योंगिरसः सुतः॥२॥ निस्सृतं ते मुखांभोजाद्यदाह भगवानजः॥ पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै भगवान्भवः॥३॥ एतद्वै सर्ववर्णानामाश्रमाणां च संमतम्॥ श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद॥४॥

करते हैं, सो सब कहो॥१॥ तुम्हारा यह पूजन मनुष्योंको परमंश्रेयदायकहै, नारद भगवान्, व्यास और अंगिराके पुत्र बृहस्पति यह सब मुनीश्वर बार बार कहते हैं॥२॥ जो वाणी तुम्हारे मुखकमलसे निकली वही भगवान् अजन्मा ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगुआदि सबसे कही जो महादेवजीने पार्वती जीसे कहाथा सोई तुमने हमसे कहा है॥३॥ हे मानके दाता! यह सब वर्ण आश्रमोंका सम्मत है और स्त्री शूद्रोंको परमकल्याणकारी है *॥४॥
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** * शंका**—छहोंशास्त्रोंका चारों वर्णोंका चारों आश्रमोंका मत यह है कि, स्नान, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नीरांजन और अनेक सामग्री करके ईश्वरका पूजन करना योग्य है परन्तु तीन आश्रम जैसे ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ यह तो तीनों भगवान् कापूजन करना मानते हैं, परन्तु इन तीनोंसे बढे जो सन्यासी लोग हैं, वह भगवान्का पूजन करना क्यों मानेंगे। उन्होंने तो सब कर्म त्यागदिये हैं तो फिर उद्धवजीने क्यों कहा कि भगवान्का पूजन करना चारों आश्रमों का मत है।

** उत्तर**— मुनिजन पहिले तो बढी २ विधियोंसे वैकुण्ठनाथका पूजन करते पीछे सन्यास लेते हैं, सन्यास लिये पर फिर उनका मत यह नहीं है कि अब भी पहलेकी नाई सामग्री संग्रहकरके भगवान्कापूजन करना, परन्तु जो कोई सज्जन भगवान् की पूजा करनेकी विधि उनसे बूझताहै तो वह उसको बतादेते हैं, इसलिये उद्धव ने कहा कि, संन्यासी देहसे पूजन नहीं करते परन्तु मनमें तो जानते हैं कि, पूजनको भूले नहीं जो भूल जाते तो दूसरेको कैसे बताते? इसलिये चारों आश्रमों का मत पूजन करनेको उद्धवने कहा॥

हे कमलदललोचन!हे विश्वेश्वरोंके ईश्वर! इस कर्मबंधनका छुडानेवाला पूजाविधान मुझसे कहो क्योंकि मैं तुम्हारा भक्त हूं और तुम्हींमें अनुरक्तहूं॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम परीक्षित्! जब इसप्रकार उद्धवजीने प्रार्थना करी तब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! यह कर्मकाण्ड अनंत है इसका पार नहीं इसलिये जैसे है वैसेही क्रमसे संक्षेपसे कहता हूं॥६॥ वैदिक, तांत्रिक, मिश्रित, तप यह तीन प्रकारका मेरा पूजन है, इन तीनोंमें जिसकी जो इच्छा हो, उस विधिसे भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करै॥ ७॥

जब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तीनों वर्ण अपनी विधिसे भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करना चाहैं, उसका प्रकार सुनो, प्रथम गर्भसे अष्टमके एकादशके द्वादशके वर्षमें अपने वेदमें कहा गायत्री उपदेश

एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबंधविमोचनम्॥ भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर॥५॥ श्रीभगवानुवाच॥ न ह्यंतोऽनंतपारस्य कर्मकांडस्य चोद्धव॥ संक्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥६॥ वैदिकस्तांत्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः॥ त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत्॥७॥ यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः॥ यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे॥८॥ अर्चायां स्थंडिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाऽप्सु हृदि द्विजे॥ द्रव्येण भक्ति युक्तोऽर्चेत्स्वगुरुं माममायया॥९॥ पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदंतोंगशुद्धये॥ उभयैरपि च स्नानं मंत्रैर्मुद्ग्रहणादिभिः॥१०॥ संध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाऽऽचोदितानि मे॥ पूजां तैः कल्पयेत्सम्यक्संकल्पः कर्मपावनीम्॥॥११॥ शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकनी॥ मनोमयी मणिमयी प्रतिमाऽष्टविधा स्मृता॥१२॥

पाकर पुरुषको जिसप्रकार भक्तिपूर्वक मेरा भजन करना चाहिये, सो तुम मुझसे श्रवणकरो॥८॥ प्रतिमामें पूजा, योग्य भूमिमें, अन्नमें, हृदयमें सूर्यमें, जलमें, ब्राह्मणमें, द्रव्य करके भक्तिसे निष्कपट होकर अपने गुरुजीकी पूजा करै॥९॥ आप प्रथम तो दंतधावन करे और फिर मट्टीले अंशुद्धिके लिये स्नान करै, इसके उपरान्त वैदिक तांत्रिक मत्रोंसे स्नान करै॥१०॥ इसके उपरान्त वेदविहित संध्योपासनादि कर्म सब करै, इसके पीछे उन कर्मों करके कर्मकी दूर करनेवाली मेरी पूजा करै, मनका संकल्प मुझमें रक्खै॥११॥ अब प्रतिमाके भेद कहते हैं, शिलाकी,

काष्ठकी, धातुकी, मट्टीकी, चंदनकी, चित्रकी, रेतकी, मानसी, मणिजटितहो यह आठ प्रकारकी प्रतिमा कही हैं॥१२॥ हे प्यारे उद्धव! भगवान् की मानसी पूजा करना हो तो हृदयमें मनोमयी मूर्तिकी पूजा करनी। प्रतिमा दो प्रकारकी है, एक तो चर, दूसरी अचर तहाॅ स्थिर मूर्तिकी पूजामें आवाहन विसर्जन नहीं है॥१३॥ शालिग्राममें आवाहन विसर्जन न करै और स्थानमें करै स्थिर प्रतिमामेंभी आवाहन विसर्जन है, कहीं नहीं भी है, मिट्टी और चंदनकी प्रतिमामें तथा चित्रकीमें मार्जन मात्र करै, स्नान नहीं करावै॥१४॥ अब सकाम निष्काम भेदसे विशेष कहते हैं, सकामका प्रसिद्ध द्रव्य पूजामें कहते हैं उनसे मेरी प्रतिमामें पूजा करै, जो भक्त निष्कामहो सो जो

चलाचलेति द्विविधा प्रविष्टा जीवमंदिरम्॥ उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने॥१३॥ अस्थिरायां विकल्पः स्यात्स्थंडिले तु भवेद्द्वयम्॥ स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम्॥१४॥ द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः॥ भक्तस्य च यथालब्धैर्हृदि भावेन चैव हि॥१५॥ स्नानालंकरणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव॥ स्थंडिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः॥१६॥ सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः॥ श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि॥१७॥ भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥ गंधो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः॥१८॥ शुचिः संभृतसंभारः प्राद्गर्भैः कल्पितासनः॥ आसीनः प्रागुदग्वार्चेदर्चायामथ संमुखः॥१९॥

सामग्री यथालाभ पावै सो सब मुझे समर्पण करै, न पावै तो वह हृदयमें भावना करके पूजा करै तो वह पूजा मैं उसके भावसेही स्वीकार करलेता हूं॥१५॥ स्नान अलंकार यह सब प्रतिमामेंही मुझे प्रिय हैं। हे उद्धव! स्थंडिलमें मंत्रहीसे अपने स्थानमें उन उन देवताओंका स्थापन है; अग्निमें घृतसंयुक्त हविसे होम करे॥१६॥ सूर्यमें अर्घ्य उपस्थान करै, जलमें तर्पणादि करै, भक्तोंका दिया श्रद्धासे जलमात्र भी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥१७॥ सुगंध, फूल, धूप, दीप, अन्नादिक समर्पण करै तो उसकी तो बातही क्या है? मेरा भक्त न हो, बहुत समर्पण करै तो मैं उससे संतुष्ट नहीं होता॥१८॥ अब पूजाका प्रकार कहते हैं कि, प्रथम तो आप स्नानादिक शौचसे शुद्ध हो, इसके उपरान्त पूजाकी

सब सामग्री शुद्ध करके रक्खै फिर पूर्वमुख वा उत्तरको मुख करके बैठे, पूर्वमुखको अग्र करके, दुर्भाेंसे आसन बनाये प्रतिमाके सन्मुख स्थिर होकर पूजा करै॥१९॥ प्रथम तो न्यास करै, फिर मूलमंत्रोंसे न्यासकृत मेरी प्रतिमाको हाथसे स्पर्श करै, रातके निर्माल्य फूल पत्र जो कुछ होय तो दूर करे, अपने आगे जल भरा कलश रक्खै और प्रोक्षणी पात्र रक्खै उसे चंदन, तुलसीपत्र तथा पुष्पसे शोधन करै॥२०॥ इसके उपरान्त प्रोक्षणीके जलसे पूजाका स्थान शुद्ध करै उसीसे द्रव्यका और अपने आपका प्रोक्षण करै, फिर पाद्यके लिये उस कलशके जलसे तीन पात्र भरकर रखै अनकों भी इन वस्‍तुओं सेशोधन करै, पाद्यके पात्रमें श्यामा, दूब, कमल और विष्णुक्रान्ता आदि पदार्थ डालना, गंध, पुष्प, अक्षत, यव, कुश, तिल, सरसों यह अर्घ्यके आठ द्रव्य चाहिये। जावित्री, लौंग, कंकोल यह आचमनको चाहिये॥२१॥ पाद्य, अर्घ्य और आचमनके तीन पात्रोंका हृदय, मस्तक, शिखा, मन्त्रोंसे तथा गायत्री से अभिमंत्रण करे॥२२॥ इसके उपरान्त देहको कोष्‍ठगत वायुसे शोधन करै

कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चांपाणिना मृजेत्॥ कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत्॥२०॥ तदद्भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च॥ प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत्॥२१॥ पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि देशिकः॥ हृदा शीर्ष्‍णाथशिखया गायत्र्या चाभिमंत्रयेत्॥२२॥ पिंडे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम॥ अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादांते सिद्धभाविताम्॥२३॥ तयात्मभूतया पिंडे व्याप्ते संपूज्य तन्मयः॥ आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्तागं मां प्रपूजयेत्॥२४॥ पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान्प्रकल्पयेत्॥ धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम॥२५॥

मूलाधारमें स्थित अग्न‍िमें जलावै फिर ललाटमें स्थित चन्द्रमण्डल है तहाँ अमृतप्रवाह करके अमृतमय करै, वहाँ हृदयकमलमें स्थित जीव कला श्रीनारायणजीकी मूर्ति है, उसका ध्यान करके प्रणव अक्षरके अकार उकार मकार कि, जिसका सिद्ध ध्यान करते हैं, ध्यान करैं॥२३॥ दीपकके प्रकाशसे घरके समान अपने स्वरूपकी भावनासे जब देह व्याप्तहो, तो प्रथम उस देहहीमें पूजा करके आप तन्मय होय, इसके उपरान्त आवाहन करके प्रतिमामें स्थापन करैं, फिर न्यास करनेके पीछे मेरी पूजा करै॥२४॥ फिर आवाहनसे प्रतिमामें पाद्य, आचमन, अर्घ्‍यादि सब

उपचार करै, धर्मादिक नव शक्ति हैं, उनसे मुझे आसन दे॥२५॥ अष्टदल कमल बनावै, केशरसे उज्ज्वल सुन्दर कर्णिकामें वेद आगममें कथित मुक्ति पाने और फलकी सिद्धिके लिये वैदिक तांत्रिक मार्गोंसे मेरी पूजा करै, वह आसन सुखशय्याहै, उसके चार कोनेहैं, चारपावहैं, वहां धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, आग्नेय, नर्ऋत्य, वायव्य, ईशान, इन चारों कोनोंमें रक्खै॥२६॥ इसके उपरान्त सुदर्शनचक्र, पांचजन्य शंख, गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूशल, कौस्तुभ, माला, श्रीवत्सादि आयुधोंकी पूजा करनी चाहिये, तहाँ सुदर्शन आदि आठ आयुधोंका आठ दिशाओंमें और कौस्तुभ आदि तीनकी वक्षस्थलमें पूजा करै॥२७॥ नंद, सुनंद, गरुड़, चण्ड, प्रचण्ड, महाबल, कुमुद, कुमुदेक्षण यह आठ पार्षद हैं, इनकी आठों

पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम्॥ उभाभ्यां वेदतंत्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये॥२६॥ सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान्॥ मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत्॥२७॥ नंदं सुनंदं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च॥ महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम्॥२८॥ दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून्सुरान्॥ स्वेस्वे स्थाने त्वभिमुखान्पूजयेत्प्रोक्षणादिभिः॥२९॥ चन्दनोशीरकर्पूरकुंकुमागुरुवासितैः॥ सलिलैः स्नापयेन्मंत्रैर्नित्यदा विभवे सति॥३०॥ स्वर्णधर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया॥ पौरुषेणापि सुक्तेन सामभी राजनादिभिः॥३१॥ वस्त्रोपवीता भरणपत्रस्रग्गंधलेपनैः॥ अलंकुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम्॥३२॥

दिशाओंमें पूजा करै॥२८॥ दुर्गा, विनायक, व्यास, विष्वक्सेनको कोनोंमें रक्खे, गुरुको वामभागमें रक्खै, देवता, इन्द्र आदि लोकपालोंको पूर्वसे लेकर अपनी अपनी दिशाओंमें ईश्वर के सम्मुख रक्खै, और अर्घ्य, पाद्य, देकर पूजा करैं॥२९॥ चंदन, उशीर, कर्पूर, कंकुम, अंगर, इन सुंगधियों करके रक्खै, मंत्रोंके जलसे स्नान करावै, जो वैभव हो तो यह सामग्रियें करै, न हो तो जो होय उससेही करै॥३०॥ सुवर्णधर्मानुवाक और महापुरुष विद्या, तथा सहस्रशीर्षा और सामवेदोक्त राजनादि सूक्तोंसे मेरी पूजा करै॥३१॥ स्नान करनेके उपरान्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, मकराकृत कुण्डल, माला, सुगन्ध लेपन आदि करके शृंगार करै, इस प्रकार प्रेमपूर्वक मेरे भक्तको मेरी पूजा करनी चाहिये॥३२॥

पाद्य, आचमन, गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, यह सब श्रद्धा सहित मेरे भक्तको मुझे देने चाहिये॥३३॥ यदि वैभव हो तो नैवेद्यसे अनेकप्रकारकी सामग्री बनाव, गुड़, मिश्री, खीर आदिक, घृत, पूरी, पूआ, लड्डू, गेहूंकी खीर, दहीको डालके करै॥३४॥ पर्वमें, उत्सवमें अथवा नित्य फुलेलसे अभ्यंग, उबटन, दर्पण, दंतधावन, स्नान, अन्नादि पाकसामग्री, गीत, नृत्य यह सब करने चाहिये, यदि सदा न होसके तो पर्वमें वा उत्सवमें तो अवश्यही करै॥३५॥ इसप्रकार प्रतिमामें पूजा कही है, अब अग्निमें पूजा कहते हैं, विधिपूर्वक कुंड बनावै, मेखला, गर्त्त और वेदीकर उसमें अनि रक्खै, प्रथम हाथमें जब एकत्र करले, तब कुण्डमें रक्खै॥३६॥ इसके उपरान्त कुशा बिछाकर चारों दिशा छिड़कै

पाद्यमाचमनीयं च गंधं सुमनसोऽक्षतान्॥ धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः॥३३॥ गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान्॥ संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत्॥३४॥ अभ्यंगोन्मर्दनादर्शदंतधावाभिषेचनम्॥ अन्नाद्यं गीतनृत्यानि पर्वणि स्युरुतान्वहम्॥३५॥ विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः॥ अग्निमाधाय परितः समूहेत्पाणिनोदितम्॥३६॥ परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्वाधाय यथाविधि॥ प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेतमाम्॥३७॥ तप्तजांबूनदप्रख्यं शंखचक्रगदांबुजैः॥ लसच्चतुर्भुजं शांतं पद्मकिंजल्कवाससम्॥३८॥ स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवरांगदम्॥ श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥३९॥ ध्याथन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाऽभिघृतानि च॥ प्रास्याऽऽज्यभागावाधारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः॥४०॥

अन्वाधान नाम कर्म समाधिसे होम करै, फिर जल छिड़ककर मेरा ध्यान करना चाहिये॥३७॥ इसप्रकार मेरे रूपका ध्यान करना चाहिये, सो कहते हैं कि जैसा तप्त सुवर्ण लाल होता है, उसी प्रकारका रूप पीताम्बर पहरे, शान्तरूप, शंख, चक्र, गदा, पद्मसे चारों भुजा शोभायमान॥३८॥ प्रकाशित मुकुट, कंकण, मेखला, बाजूबंद, श्रीवत्सका वक्षस्थलमें चिह्न, शोभायुक्त वनमाला धारण किये हुए॥३९॥ इसप्रकारके रूपका ध्यान करनेके उपरान्त, घृत, मिठाई, समिध इत्यादिसे होम करै, फिर आज्यभाग और अघोर नामक होम करै और घृतमें बूडी हविष्य ले॥४०॥

फिर मूलमंत्रके द्वारा सहस्रशीर्षाकी ऋचाओंसे धर्मादिक देवताओंके लिये यथायोग्य स्विष्टकृत् सहित होम करै॥४१॥ पार्षदोंको बलि दे, नारायणरूप ब्रह्मका स्मरण कर, देवताओंके समीप बैठ, मूलमंत्र जपै फिर नैवेद्य करके भोजनकी सामग्रियोंका ध्यान करै॥४२॥ इसके उपरान्त आचमन दे, और वह बचा हुआ उच्छिष्ट भाग विष्वक्सेनके आगे रख उनकी आज्ञासे आप ग्रहण करै, इसके पीछे मुखवासार्थ सुगंध तांबूल समर्पण करै॥४३॥ इसके उपरान्त मेरे चरित्रोंका गान करै, नृत्य, करै, मेरे कर्मोंका अभिनय दिखावै, मेरी कथा मुझे सुनावे और आप भी सुनै; एक मुहूर्त्त भर निश्चल चित्त होकर रहै॥४४॥ वेद पुराण तथा प्राकृत भाषाके स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करै “हे भगवन्! प्रसन्न होउ” इस

जुहुयान्मूलमंत्रेण षोडशर्चोऽवदानतः॥ धर्मादिभ्यो यथान्यायं मंत्रैः स्विष्टकृतं बुधः॥४१॥ अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलि हरेत्॥ मूलमंत्र जपेद्ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम्॥४२॥ दत्त्वाचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत्॥ मुखवासं सुरभिमत्तांबूलाद्यमथार्हयेत्॥४३॥ उपगायन्गृणन्नृत्यन्कर्माण्यभिनयन्मम॥ मत्कथाः श्रावयञ्छृण्वन्मुहूर्तं क्षणिको भवेत्॥४४॥ स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि॥ स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वंदेत दंडवत्॥॥४५॥ शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम्॥ प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात्॥४६॥ इति शेषं मया दत्तं शिरस्याधाय सादरम्॥ उद्वासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्येतिषि तत्पुनः॥४७॥ अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत्॥ सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः॥४८॥

प्रकार कहकर दण्डवत् प्रणाम करै॥४५॥ प्रणाम इस प्रकार करै कि मेरे चरणोंपर शिर रक्खै दोनों हाथ बॉधकर पीठपर रक्खै “अपराधीकी समान तुम्हारी शरणहूं” हे प्रभो! मुझे शरणमें रखलो, क्योंकि मृत्युरूप जहाॅ ग्राह है, ऐसे संसारसमुद्रसे भयभीत हूं॥४६॥ इसप्रकार पूजाकरके शेष प्रसाद पुष्प, तुलसीदल मुझे दे, ऐसा ध्यान करै उसको लेकर माथेपर धरे आदरपूर्वक विसर्जन कर ज्योति ज्योतिसे जाकर मिलावे॥४७॥ इतने स्थल तथा प्रतिमादिकोंमें कौन मुख्य हैं, इसपर कहते हैं कि, जिसकी जहाँ श्रद्धा हो वहाँ पूजा करै, क्योंकि सर्वभूतोंमें सर्वरूप मैं हीं स्थितहूं और सब भूत मुझमें निवास करते हैं॥४८॥

इसप्रकार क्रियायोगके मार्ग तथा वैदिक तांत्रिकके प्रकारसे पूजा करनेवाले पुरुष मुझसे इस लोक और परलोककी वांछित सिद्धिको प्राप्त होते हैं॥४९॥ मेरी प्रतिमाकी स्थापना करके दृढ़ मंदिर बनावै पीछे फूलोंका उत्तम बाग बनावै, जहॉ मेरी यात्राका उत्सव होता है॥५०॥ नित्य अथवा बड़े पर्वोंमें पूजा सदा चली जाय, उसके लिये क्षेत्र वा पुर ग्राम लगादें, तब मेरे समान ऐश्वर्यको प्राप्तहो॥५१॥ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करै तो सब पृथ्वीका राजा होय, मंदिर बनानेवाला त्रिलोकीका राज्य पावै, पूजा आदि यह सब कृत्य करै तो ब्रह्मलोकको प्राप्तहो और तीनों प्रकार करनेसे मनुष्य मेरी सायुज्यमुक्तिको प्राप्त होता है॥५२॥ इसप्रकार पूजाका फल मुक्ति तक कहा, अब जो निष्काम है उनकी भक्तिका फल कहते हैं, निरपेक्ष भक्तियोग करके मुझेही पावै सो भक्ति कैसे हो? तो कहते हैं, भक्ति तब हो जब इस भाॅति मेरी पूजा करै॥५३॥

एवं क्रियायोगपथैः पुमान्वैदिकतांत्रिकैः॥ अर्चन्नुभयतः सिद्धिं मत्तो विंदत्यभीप्सिताम्॥४९॥ मदर्चांसंप्रतिष्ठाप्य मंदिरं कारयेद्दृढम्॥ पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाऽऽश्रितान्॥५०॥ पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्व स्वथान्वहम्॥ क्षेत्रापणपुरग्रामान्दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात्॥५१॥ प्रतिष्ठया सार्वभौमं दानेन भुवनत्रयम्॥ पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्समतामियात्॥५२॥ मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विंदति॥ भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम्॥५३॥ यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः॥ वृत्तिं स जायते विडभुग् वर्षाणामयुतायुतम्॥॥५४॥ कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च॥ कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम्॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे प्रतिमापूजानि० सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥

यह दाताका फल कहा, अब जो देकर फिर छीन लेता है, उसका निंदित कर्म कहते हैं कि, जो अपनी दी तथा पराई दी ब्राह्मण देवताकी वृत्तिका हरण करलेता है, सो अयुत वर्षतक विष्ठा भोजन करता है॥५४॥ जो फल कर्त्ताको होता है, वही सहाय करनेवालेको भी होता है, प्रेरक अनुमोदनकर्त्ता इन सबको परलोकमें फल होता है, कारण यह है कि, यह सब कर्मके विभागी हैं जिसने जितना अधिक किया, उसे उतनाही अधिक फल मिलता है यदि सहाय आदि बहुत कर्म किया होय तो बहुत फल मिलता है॥५५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीभगवदुद्धवसंवादे पुरुषार्चनविधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥

दोहा—अट्ठाइस अध्यायमें, ज्ञान योग विस्तार॥ अब वरणौं संक्षेप सों, सज्जन लेहु विचार॥१॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे उद्धव! जो मेरी भक्ति में अथवा पूजामें रहे सो यह ज्ञान निष्ठा करै पराये स्वभाव कर्मोंकी स्तुति और निन्दा न करै संपूर्ण विश्वको प्रकृति पुरुष करके जाने मुक्तिसे भिन्न न जाने *॥१॥ जो पराये स्वभाव और कर्मकी निन्दा करता है, अथवा सराहना करता है, सो मिथ्या भूत प्रपंच दृष्टि होकर शीघ्रही ज्ञानसे भ्रष्ट हो जाताहै॥२॥ जब इन्द्रियगण निद्रासे व्याप्त होतीं हैं, तबमनसे यह जीव स्वप्न देखता है, मायारूप स्वप्नहै पीछे

श्रीभगवानुवाच॥ परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्॥ विश्वमेकात्मकं पश्यन्प्रकृत्या पुरुषेण च॥१॥ परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निंदति॥ स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्याभिनिवेशतः॥२॥ तैजसे निद्रयापन्ने पिंडस्थो नष्टचेतनः॥ मायां पाप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक्पुमान्॥३॥ किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत्॥ वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च॥४॥ छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसंतोऽप्यर्थकारिणः॥ एवं देहादयो भावायच्छंत्यामृत्युतो भयम्॥५॥

मन भी लीन होजाता है तब चेतना नष्ट होजाती है, तब मनुष्य मृतक समान सुषुप्ति दशाको प्राप्त होता है, इसलिये जिसकी बुद्धि इस विश्वको नाना प्रकारसे जानती है सो विक्षेप लयको प्राप्त होती है वह स्वप्‍नमें जो होताहै, सोई भ्रमरूप यह है॥३॥ और जो वस्तुही नहीं केवल भ्रम है, उसमें यह भला हुआ यह बुरा हुआ इतना भला, इतना बुरा इसका क्या कहना? इसका धरा हुआ नाम सब मिथ्या है, मनसे ध्यानकरते हैं और नेत्रोंसे जो देखते हैं, सो सब मिथ्या है तहाँ भला बुरा कहै तो सब अपनाही अज्ञान भ्रम है॥४॥ जैसे प्रतिबिम्बकी झांई
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** शंका**— श्रीकृष्णने कहा कि, कोई सुन्दर कर्म करै तो उसकी बडाई नहीं करना और जो कोई बुरा कर्म करै तो उसकी निंदा भीनहीं करना, क्योंकि जैसा स्वभाव जिस जीवका होता है, वह वैसाही कर्म करता है तो सुन्दर वचन श्रीकृष्णचन्द्रने किसके लिये कहा? गृहस्थ किसीकी निन्दा स्तुति न करै कि, विरक्त किसीकी निन्दा स्तुति न करै, यह बात बताओ?

** उत्तर—** यह वचन भगवान्ने विरक्तोंके लिये कहा है और विरक्तोंमें जो कोई सन्यासी हो तो उसके लिये भी कहा है और सन्यासियोंमें जो कोई परमहंस होजाते हैं उनके लिये तो निश्चयही कहा है यह अर्थ है कि, सबसाधु महात्माओंको किसी की निन्दा स्तुति नहीं करना चाहिये वह श्रीकृष्णके वचन गृहस्थ लोगोंके लिये नहीं है।

सीपीमें रूपकी बुद्धि मिथ्या है, कार्यको करते हुए उसी प्रकार यह देहादिक भाव मरनेतक भय देतेहैं॥५॥ वेदमें जो सृष्टि कहीहै सो आपही ब्रह्म विश्वरूप होकर प्रगट होतेहैं आपही उत्पत्ति हो आपही सृजते हैं और आपदी रक्षा करैं आपही ईश्वर संहार करते हैं, और जिसका संहार करते हैं वह आत्माही है॥६॥ आत्मा जो सबसे पृथक् निरूपण कियाहै उससे कोई पदार्थ पृथक् नहीं है यह अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत रूप जो प्रतीत होता है यह सब मायारचित होनेसे निर्मूल है, यह अध्यात्मादि तीन प्रकारका गुणयुक्त संसार आत्मामें माया के द्वारा भासता है॥७॥ जो पुरुष यह मेरी कही हुई ज्ञान विज्ञानकी चेष्टाको जानते हैं, वह किसीकी निंदा स्तुति नहीं करते, सूर्यकी भाँति, समान होकर लोकोंमें विचरण करतेहैं॥८॥ वह कैसे हो? सो प्रकार कहते हैं, जो वस्तु आदिअन्तयुक्त है, सो मिथ्याहै यह जानकर प्रत्यक्ष उपजे और नष्ट

आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः॥ त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः॥६॥ तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः॥ निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि॥ इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम्॥॥७॥ एतद्विद्वान्मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम्॥ न निंदति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत्॥८॥ प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा॥ आद्यंतवदसज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह॥९॥ उद्धव उवाच॥ नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्टृ दृश्ययोः॥ अनात्मसदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते॥१०॥ आत्माऽव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः॥ अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः॥११॥

हुए जगत्को अनुमान वेद और अपने अनुभवसे ऐसे जाने कि, जो यह दीखता है, सो सब मिथ्या है, यह ज्ञान जब दृढ़ हो जाय, तब निःसंगहोकर, विचरण करै॥९॥ उद्धवजी बोले कि, हे भगवन्! आत्मा स्वयंप्रकाश है, ज्ञानरूप हैं, देह तो जड़ है तो यह संसार किसको लगता है? हे प्रभो! यह संसार आत्माका है अथवा देहका है इन्हीका आत्मा द्रष्टा है वही देखता है देह तो जड़ है आत्मा जड नहीं, परन्तु देखनेवाला है॥२०॥ आत्मा अव्यय है, सगुण है, शुद्ध है, स्वयंज्योति है, आवरणरहित है और देह तो जड है; परंतु इसका संयोग काष्ठ और अग्निसे है,अग्नि और काष्ठ भिन्न नहीं है; इसीप्रकार आत्मामें एकता है, इन दोनोंमें संसार किसीको भी संभव नहीं और जो संभव है तोभी अग्नि प्रकाशकहै

काष्ठप्रकाशकहै॥११॥ यद्यपि सत्यहै, परन्तु तो भी संसारका अविवेक कारण है, तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जहाँतक देह इन्द्रिय और प्राणसे आत्माका सम्बंधहै, तहाँतक मिथ्या भी संसार भासताहै, यद्यपि आत्माका और इन्द्रियोंका संबंध नहीं परन्तु तोभी अविवेकसे मानलेते हैं॥१२॥ उद्धवजी बोले कि, देह तो असत्यहै इसको संसार क्यों भासता है? तो इसके उत्तरमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं कि, यद्यपि विषयभोगकी वस्तु पास नहीं परन्तु तो भी संसार नहीं जाता, क्योंकि इसका ध्यान विषयोंमें रहता है, इससे संसार होता है और स्वप्नमें अनर्थको देखता है॥१३॥ अब तर्क करते हैं कि, ध्यानसे जो विषयकी स्फूर्त्ति है, सो तो जीवन्मुक्तिसे भी निवारण नहीं होती है, तो मोक्ष किसीकी हो ही नहीं?

श्रीभगवानुवाच॥ यावद्देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः संनिकर्षणम्॥ संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः॥१२॥ अर्थेह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते॥ ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥१३॥ यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्॥ स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥१४॥ शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः॥ अहंकारस्य दृश्यंते जन्म मृत्युश्च नात्मनः॥१५॥ देहेन्द्रियप्राणमनोभिमानो जीवोंतरात्मा गुणकर्ममूर्तिः॥ सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः संसार आधावति कालतंत्रः॥१६॥ अमूलमेतद्बहुरूपरूपितं मनोवचःप्राणशरीरकर्म॥ ज्ञानासिनोपासन याशितेन च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः॥१७॥

इसके उत्तरमें कहते हैं कि, जैसे शोचनेवालेको स्वप्न भी अनर्थ देता है सोई जो जागता रहै; तो जागनेवालेको वह अनर्थ नहीं होते जीवन्मुक्त पुरुषोंको विषयकी स्फूर्ति अनर्थ नहीं करसकती॥१४॥ शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, काम, जन्म और मृत्यु यह सब अहंकारसे हैं, आत्माको कुछ यह नहीं लगती है॥१५॥ देह, इन्द्रिय, प्राण और मनका अभिमान कर यह आत्माही उनके मध्यमें स्थित जीव है, इसीसे गुणकर्ममय मूर्ति है और इन्हीं गुणकर्मसे पुरुष बँधरहा है, इसीकारण ईश्वरके आधीन होकर सब संसारमें दौड़ते फिरते हैं सूत्र और महत्त्व आदि नानारूपसे अनेक प्रकारका कहा है,॥१६॥ इसप्रकारके अहंकारसे जब यह जीव बॅधरहा है तब ज्ञानसे मुक्ति होती है सो कहते हैं

कि, वचन मन प्राणी में अहंकार निर्मूल है, अज्ञानमें बहुतरूप प्रकाशते हैं, इसलिये गुरुकी सेवा कर तीक्ष्ण ज्ञानरूप खड्गहाथमें ले, इस अहंकार बंधनको काट संग छोड, पृथ्वीमें फिरै, इसके कारणका यह उपाय है॥१७॥ अब वही ज्ञान कहते हैं, जो विवेक ज्ञान उस ज्ञानका साधन करनेवाला वेद है, सो वेदके कहे धर्म करै, तब विवेक उत्पन्न हो तब स्वधर्म अपना अनुभव उपदेश तर्क इतने साधनसे ज्ञान उत्पन्न हो उस ज्ञानका फल कहते हैं, कि, योग तप है और कारण है और जगत्के आदि अंत मध्यमें वही है॥१८॥ नानाभेद के व्यवहार भी एक ब्रह्म मध्यमेंही होते हैं सो कहते हैं, जैसे सुर्वणके अनेक आभूषण बनते हैं और उनकी उत्पत्ति प्रथम भी और पीछेभी सुवर्णही है, अनेक भाॅति होनेके

ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम्॥ आद्यंतयोरस्य यदेव केवलं कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये॥१८॥ यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य॥ तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं नानाऽपदेशैरहमस्य तद्वत्॥१९॥ विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमंग गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ॥ समन्वयेन व्यतिरेकतश्च येनैव तुर्येण तदेव सत्यम्॥२०॥ न यत्पुरस्तादुत यन्न पश्चान्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्॥ भूतं प्रसिद्धं च परेण यद्यत्तदेव तत्स्यादिति मे मनीषा॥२१॥

उपरान्तभी सुवर्णही रहता है, क्योंकि सुवर्णसे और कोई वस्तु तो नहीं, इसीप्रकार यह विश्व अनेकरूपसे दीखता है सो भी मैंही हूं ऐसा जानना चाहिये॥१९॥ इसप्रकार विश्वका रूप कहकर इस देह इंद्रियोंमें जिससे प्रकाश होता है, उसका तद्रूप कहते हैं, इस मनकी तीन अवस्था कारण हैं, सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण यह गुण हैं जो सब कार्य कारण कर्त्ता रूप हैं अध्यात्म कारण कार्य अधिभूत कर्त्ता अधिदैव इसप्रकार त्रिगुण रूप जगत् है, इसप्रकार भी जिससे होता है और जिसके अनुभवसे प्रकाश है, सो चतुर्थ स्थान ब्रह्म है, इंद्रियादिकके ज्ञान विना जो समाधि आदि विषे हैं, सोई सत्य है॥२०॥ इसप्रकार ज्योतियोंमें भी और भाँति न हो, सो सत्य है, यह कहा अब जो और प्रकार होता है सो

असत्य है; इसप्रकार कहते हैं कि जो वस्तु प्रथम नहीं और पीछे भी न होगी, मध्यमें भी नहीं केवल नाममात्रही कहनेको है जिससे प्रगट हुई और प्रकाशी सो वही है ऐसी मेरी बुद्धि है॥२१॥ प्रपंचका ब्रह्मसे अभेद कहते हैं कि, यद्यपि प्रथम मैंही हूं, यह रजोगुणसे उत्पत्ति हुआ विकारका समूह ब्रह्मका कार्य है, परन्तु तोभी ब्रह्मके प्रकाशसे भासता है ब्रह्म आप स्वयं ज्योति है, इससे इन्द्रिय, विषय, आत्मा, देवता, पंचभूत, यह सब तत्त्व ब्रह्मरूप होकर भासते हैं, यह विचित्रता ब्रह्महीका कार्य है॥२२॥ इस प्रकार ब्रह्म विवेकके हेतुसे और देहादिकमें, आत्मबुद्धिका त्यागकर गुरुद्वारा अपना संदेह काट, सब कामनाओंसे निवृत्तहो आत्माके आनंदसे संतुष्ट होकर रहै॥२३॥ जो छोडनी चाहिये उनका स्वरूप कहते हैं, यह देह आत्मा नहीं, यह पृथ्वीका विकार है, इंद्रियोंके अधिष्ठाता देवता, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह सब आत्मा

अविद्यमानोऽप्यवभासते यो वैकारिको राजससर्ग एषः॥ ब्रह्म स्वयं ज्योतिरतो विभाति ब्रह्मेंद्रियार्थात्मविकारचित्रम्॥२२॥ एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः परापवादेन विशारदेन॥ छित्त्वात्मसंदेहमुपारमेत स्वानंदतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः॥२३॥ नात्मा वपुः पार्थिवमिद्रियाणि देवा ह्यसुर्वायुजलं हुताशः॥ मनोऽन्नमात्रं धिषणां च सत्त्वमहंकृतिः स्वं क्षितिरर्थसाम्यम्॥२४॥ समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभिर्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः॥ विक्षिप्यमाणैरुत किन्नु दूषणं धनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम्॥२५॥ यथा नभो वाय्वनलांबुभूगुणैर्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते॥ तथाऽक्षरं सत्त्वरजस्तमो मलैरंहमतेः संसृतिहेतुभिः परम्॥२६॥

नहीं है, क्योंकि अन्नमात्रके आश्रयसे रहता है, इससे विकारयुक्त है और वायु, जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, यह पंचभूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध प्रकृति यह भी सब आत्मा नहीं, क्योंकि जड हैं॥२४॥ इसप्रकारके विवेक ज्ञानवंत, ज्ञानी मुक्तपुरुषको इन्द्रियोंका किया गुण दोष नहीं होता सो कहते हैं कि, जो विवेकी ज्ञानवत हैं जीवन्मुक्त दशाको प्राप्त हैं उन्होंने गुणरूप इन इंद्रियोंका निग्रह किया हो अथवा न किया हो तो भी उसे न तो गुण है, न दोष है जैसे मेघके आकाशमें आनेसे सूर्यको कुछ दोष नहीं लगता है और मेघ जाने के उपरान्त कुछ गुण भी नहीं लगता है॥२५॥ जो निःसंग हैं और ब्रह्मरूप होरहे हैं, उनको किसीसे गुण दोष नहीं लगता जैसे आकाश भूमिमें आते जाते ऋतुके गुण

शीत उष्णादिक और वायु, अग्नि, जलसे, बंध नहीं होते, इसप्रकार अक्षय ब्रह्म सत्त्व, रज, तम यह गुण अहंकारके हैं, संसारका हेतु कारणसे नहीं मिलता, उनसे भिन्न भिन्न है॥२६॥ तथापि तबतक मायाके गुणोंका संगम करै, जहाॅतक मेरी दृढ़भक्ति योग करके यह मनकी विषयोंमें आसक्ति न जाय॥२७॥ जैसे रोगको भले उपचारोंसे दूर न कियाहो तो वारंवार वह रोग उत्पन्न होकर दुःख देता है, इसीप्रकार रागादिक और कर्म जिसके दग्ध नहीं हुए तो और सब विषयोंमें आसक्त मनभी योगी पुरुषको फिर बध करता है॥२८॥ और जो योगसे भ्रष्ट होगयाहो तो फिर उसका क्या उपाय? तो कहते हैं कि, योगीको देवताओंके प्रेरेजो बंधुरूप भ्रष्ट करते हैं योगके भ्रष्ट होनेसे फिर पूर्व अभ्यास बलकरके

तथापि संगः परिवर्जनीयो गुणेषु मायारचितेषु तावत्॥ मद्भक्तियोगेन दृढेन यावद्रजो निरस्येत मनःकषायः॥२७॥ यथाऽऽमयोऽसाधु चिकित्सितो नृणां पुनःपुनः संतुदति प्ररोहन्॥ एवं मनोऽपक्वकषायकर्म कुयोगिनं विध्यति सर्वं संगम्॥२८॥ कुयोगिनो ये विहतांतरायैर्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः॥ ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो युंजंति योगं न तु कर्मतंत्रम्॥२९॥ करोति कर्म क्रियते च जन्तुः केनाप्यसौ चोदित आ निपातात्॥ न तत्र विद्वान्प्रकृतौ स्थितोऽपि निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या॥३०॥ तिष्ठंतमासीनमुत व्रजंतं शयानमुक्षंतमदंतमन्नम्॥ स्वभावमन्यत्किमपीहमानमात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद॥३१॥ यदि स्म पश्यत्यसदिंद्रियार्थं नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्॥ न मन्यते वस्तुतया मनीषी स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्॥३२॥

योग करै, परन्तु कर्ममार्गके धर्म न करे केवल धर्महीकी साधना करै॥२९॥ जो किसीसे प्रेरितहो तो मरनेतक कर्मोंसे सुख दुःख जाताहै, विकारको पावै, जो विवेकी होय सो देहमें स्थित भी आत्मसुखके अनुभव करके तृष्णासे निवृत्त हुए विकारको प्राप्त नहीं होगा॥३०॥ जिसकी मति बुद्धि आत्मामें स्थित है, सो खडेहोते, चलते, सोते, मूत्र करते, अन्न भोजन करते और भी स्वभावसे दर्शन आदिक करते देहको नहीं जानते हैं॥३१॥ जो इन्द्रियवंत हैं सो विना देखे क्यों रहैं? सो कहते हैं कि, जो विवेक युक्त हैं, सो यद्यपि इन इन्द्रियोके विषयोंको देखतेहैं,

परन्तु तो भी अनुमानसे विरुद्ध जान आत्मासे और वस्तुसे मानते हैं, वह स्वप्नकी भाँति सब मिथ्या जानते हैं, जैसे जागनेपर स्वप्नके विषय सब आपही अंतर्द्धान होजाते हैं॥३२॥ हे उद्धव! आत्मामें मुक्तावस्थादिमें भी विकार नहीं होता, क्योंकि वृद्धावस्थामें गुण और कर्मोंसे विचित्र अज्ञानके कार्यरूप करो, देहेन्द्रियादि अध्याससे अपने स्वरूपमें मिले हुए मानेगये हैं, वही देहेन्द्रियादि मुक्तावस्थामें ज्ञानसे निवृत्त होजाते हैं, यह आत्मा किसीसे त्याग और ग्रहण नहीं किया जाता, यदि मुक्तिको क्रियाका फल माने तो आत्मामें विकार होताहै इससे मायिक पदार्थोंकी निवृत्तिका होनाही मोक्ष है। बंध मोक्ष आत्माका स्पर्श नहीं करते, इसकारण आत्मा निर्विकार है॥३३॥

पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रमज्ञानमात्मन्यविविक्तमंग॥ निवर्तते तत्पुनरीक्षयैव न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा॥३३॥ यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां तमो निहन्यान्न तु सद्विधत्ते॥ एवं समीक्षा निपुणा सती मे हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धः॥३४॥ एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो महानुभूतिः सकलानुभूतिः॥ एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे येनेषिता वागसवश्चरंति॥३५॥ एतावानात्मसंमोहो यद्विकल्पस्तु केवले॥ आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलंबो न यस्य हि॥३६॥

परन्तु प्रथमसे ही विद्यमान घटादिक पदार्थोंमें कुछ विकार नहीं करता, इसी प्रकार मेरी अध्यात्मविद्या मनुष्योंके मनके अंधकारको दूर करती है। परन्तु आत्मामें कुछ विकार नहीं होता, आत्मा तो जिस स्थितिमें स्थित है, उसीमें रहता है॥३४॥ यह स्वयंप्रकाश जन्म रहित ज्ञान विज्ञानसे भी जाना नहीं जाता, महान् प्रतापयुक्त किसी विकारसे न बढ़ै न घटै, सदा एक रूप रहै और सबोंका प्रकाशक एक है, वह दूसरेसे रहित हैं, जिसमें वचनकी गति नहीं, श्रुति भी कहती है कि, जब आगे गम्य नहीं, वहाँसे मन समेत वाणी फिर आती है जिसके प्रेरे वाणी और प्राण कार्य करते हैं॥३५॥ केवल भेदरहित आत्माहै, उसमें भेद देखना इतनाही भ्रम मनका है, अपने आत्माके विना इस भेदका

आश्रय हैही नहीं॥३६॥ और जो भेद मानतेहैं उनका मन दूषित है क्योंकि रूप और नामसे जो वस्तु कही जाती है, सो पंचभूत रूप है, देह इन्द्रिय दूसरा पदार्थ यह मत पण्डित लोगोंका वाद है, तत्त्व जाननेवालोंके लेखे वस्तु विचार कर देखो तो सब मिथ्या है॥३७॥ जो कच्चा योगी योग साधै है, उसे उसकी देहसे उठे रागादिक उपद्रव करके योगभ्रष्ट करदेते हैं उनको मैंने यह आगे लिखी विधि कही है॥३८॥ सो कहते हैं कि, योगकी धारणासे चन्द्रमा तथा सूर्यके तापको जीतै आसनसे प्राणवायु और धारण वायुसे वात रोग जीतै। तप, ग्रह, औषधीसे पापग्रहकृत सर्व अशुभ उपसर्गोंको दूर करै॥३९॥ चित्तका दोष मेरा ध्यान करके दूर करै, मेरे नाम कीर्त्तन आदिसे कामक्रोधादिकोंको दूर करै और कितनेहीयोगीश्वरोंकी सेवा

यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पंचवर्णमबाधितम्॥ व्यर्थेनाऽप्यर्थवादोऽयं द्वयं पंडितमानिनाम्॥३७॥ योगिनोऽपक्वयोगस्य युंजतः काय उत्थितैः॥ उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः॥३८॥ योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः॥ तपो मंत्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान्विनिर्दहेत्॥३९॥ कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसंकीर्तनादिभिः॥ योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदाञ्छनैः॥४०॥ केचिद्देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम्॥ विधाय विविधोषायैरथ युंजंति सिद्धये॥४१॥ न हि तत्कुशलादृत्यं तदायासो ह्यषार्थकः॥ अंतवत्त्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः॥४२॥ योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत्कल्पतामियात्॥ तच्छद्दध्यान्न मतिमान्योगमुत्सृज्य मत्परः॥४३॥

करके सब दंभ अहंकारादिक अशुभोंको शनैः शनैः दूर करै॥४०॥ कितनेही योगीश्वर इस देहको समर्थ तरुणतामें अनेक उपायोंसे स्थिर करके परकायाप्रवेश की सिद्धिके लिये योग करते हैं, ज्ञानकी निष्ठा नहीं करते॥४१॥ और जो कुशल ज्ञाता हैं, सो उनका आदर नहीं करते, क्योंकि देह अनित्य है, इसकारण निश्चय मनसे योग करके इसके रखनेका श्रम निरर्थक है, जैसे वट वृक्षके फल मिथ्या हैं॥४२॥ यद्यपि योगसिद्धिका नित्य सेवन करते करते प्राणायामादिके प्रभाव से शरीरमें होही जाय, परन्तु तो भी बुद्धिमान् मेरे भक्त पुरुषको समाधि त्यागन कर इस

शरीरकी सिद्धिपर विश्वास करना योग्य नहीं है॥४३॥ इसलिये योगीजनोंको चाहिये कि, मेरे आश्रयसे यह योग करैं तब विघ्न न हो निस्पृह होकर आत्माका अनुभव प्राप्त हो, जब मेरे आश्रयसे सब विघ्न निवृत्त हों तो वह योगी आनन्दसे परिपूर्ण होता है॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भाषाटीकायां भगवदुद्धवसंवादे अष्टाविंशोध्यायः॥२८॥ दोहा—उनतिसवें अध्यायमें, भक्तियोग विस्तार॥ प्रथम निरूपण करचुके, अब संक्षेप विचार॥२९॥ उद्धवजी बोले कि, हे श्रीकृष्ण! यह तुमने योगकी क्रिया कही सो जिस पुरुषका मन वशमें नहीं उसको तो अति कठिन लगती और जिनका चित्त वशमें नहीं वे अज्ञानी हैं, इसलिये इसको जैसे शीघ्र सिद्ध हो सुगम हो सो उपाय मुझसे कहो॥१॥ हे

योगचर्यार्मिमां योगी विचरन्मद्व्यपाश्रयः॥ नांतरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० एका० ज्ञानयोगनि० नामाष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥ उद्धव उवाच॥ सुदुष्करामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः॥ यथांजसा पुमान्सिद्ध्येत्तन्मे ब्रूह्यंजसाऽच्युत॥१॥ प्रायशः पुंडरीकाक्ष युंजंतो योगिनो मनः॥ विषीदंत्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिताः॥२॥ अर्थात आनंददुघंपदांबुजं हंसाः श्रयेरन्नरविंदलोचन॥ सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभिस्त्वन्माययाऽमी विहता न मानिनः॥३॥ किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबंधो दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम्॥ योऽरोचयत्सह मृगैः स्वयमीश्वराणां श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः॥४॥

कमलनेत्र! बहुधा जो योग करते हैं वह मनका निग्रह करनेमें अत्यन्त क्लेशको प्राप्त होते हैं, परन्तु तोभी मननिग्रह नहीं होता तब थकित हो विषाद युक्त होते हैं॥२॥ योग में अतिक्लेश हैं, जो परमहंस हैं वह सार असारको जानते हैं, हे कमलदललोचन! जो तुम्हारे चरणारविन्दोंका आश्रय करते हैं तो यह चरणारविन्द उनके आनंदकोही पूर्ण करते हैं, हे कमलदललोचन! आप भक्तोंको सुखरूप हो और जो तुम्हारी मायासे मोहित योगीश्वर योगकर्म करके अभिमानको धारण करते हैं, वह सिद्ध नहीं॥३॥ हे श्रीकृष्ण! हे सबके बंधु! जो अनन्य शरण तुम्हारे दास हैं, उनके तुम्हीं पश हो यह क्या आश्चर्य है, जैसे नंद यशोदाके घर खेलते फिरे, रामरूप धारण कर बंदरोंसे मित्रताई करी, ब्रह्मा आदि देवताओंके शोभासंयुक्त

मुकुटोंके अग्रने तुम्हारे चरणारविन्दका सिंहासन पीड़ित किया है ऐसे तुम हो॥४॥ जो तुम भक्तोंकी सेवा जानतेहो, सबके आत्मा हो इसीकारण अतिप्रिय हो, ईश्वर हो, जो पुरुष केवल तुम्हारेही आश्रय रहते हैं, उनको सब अर्थ देतेहो, प्रह्लाद आदि भक्तोंमें किया उपकार जान कौन आपको छोड़सकता है तो किस फलके लिये मेरा सेवन करै, तो कहते नहीं और देवता अथवा धर्म ज्ञानादि साधन तो ऐश्वर्यके अर्थ है, फिर मोक्षके लिये कौन भजै?सो कहते हैं कि, साधन विना मोक्षका फल कैसे होता है? तो तुम्हारे चरणारविन्दकी रेणुका जो सेवन करते हैं, उनको क्या फल नहीं होता? जो चहते हैं सो फल होता है॥५॥ अब कहते हैं कि, और भजनकी बात तो दूर रहै, तुम्हारे किये उपकारको तुम्हारे विषे आत्मा निवेदन

तं त्वाऽखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां सर्वार्थदं स्वकृतविद्विसृजेत को नु॥ को वा भजेत्किमपि विस्मृतयेऽनुभूत्यै किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः॥५॥ नैवोपयंत्यषचितिं कवयस्तवेश ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरंतः॥ योंतर्बहि स्तनुभृतामशुभं विधुन्वन्नाचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति॥६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः॥ गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो जगाद सप्रेममनोहरस्मितः॥७॥ श्रीभगवानुवाच॥ हंत ते कथयिष्यामि मम धर्मान्सुमंगलान्॥ याञ्छ्रद्धयाचरन्मर्त्योमृत्युं जयति दुर्जयम्॥८॥

करै तभी प्रत्युपकार हो और प्रकारसे नहीं होता सो कहते हैं, आनंदबद्ध ब्रह्मके ज्ञाता तुम्हारे उपकारको स्मरण करके ब्रह्माकी आयुसे भी तुम्हारे उपकारसे उऋण नहीं हो सकते उपकारको कहते हैं कि, जो तुम बाहर गुरूरूप हो और मध्यमें अंतर्यामी रूपसे प्राणियोंकी वासना दूर करतेहो, अपना आनन्द रूप प्रगट करतेहो, हम इसका प्रत्युपकार क्या करें?॥६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित!जब अनुरक्तचित्त उद्धवने इसप्रकार पूॅछा, तब ईश्वरके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कहने लगे कि, जो भगवान् सत्त्व, रज, तम इन शक्तियोंसे ब्रह्मादि तीन मूर्ति धारण करते हैं और जगत् जिनका खिलौना है॥७॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे उद्धव! मैं सुमंगल अपने धर्म तुझसे कहूंगा, जिन धर्मोंको श्रद्धासहित करनेसे यह मनुष्य दुर्जय मृत्युको जीतलेताहै॥८॥

मेरा स्मरण करते करते शनैः शनैः सब कर्म करै, वह सब कर्म मेरे लिये करै मुझमें ही मन तथा बुद्धि अर्पण करै तथा धर्मोंही में आत्माकी और मनकी प्रीति रखै॥९॥ जहाॅ मेरे भक्त साधु पुरुष निवास करते हों उन्हीं पुण्य दर्शनोंमें जाकर वास करै, देव, असुर, मनुष्योंमें जो मेरे भक्त हैं उनके कर्मोंका आश्रय करै॥१०॥ उन भक्तोंसे मिलकर उत्सव करै, अथवा अलग आपही सबकी यात्रा उत्सव करै, नृत्य गीत सब करावै महाराजके छत्र चामरादि उपचारसे सब करावै॥११॥ निर्मल चित्त पुरुष सब भूतमात्रमें अपनेमें भी बाहर भीतर मुझेही देखै, मैं आकाशकी नाई असंग होनेके कारण सबमें स्थित होकरभी आवरण रहित और बाहर भीतर सदा पूर्ण हू॥१२॥ जो इस प्रकार ज्ञानमें स्थितहो सब प्राणीमात्रको

कुर्यात्सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्॥ मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥९॥ देशान्पुण्यान्संश्रयेत मद्भक्तैः साधुभिः श्रितान्॥ देवासुरमनुष्येषु मद्भक्ताचरितानि च॥१०॥ पृथक्सत्रेण वा मह्यंपर्वयात्रामहोत्सवान्॥ कारयेद्गीतनृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः॥११॥ मामेव सर्वभूतेषु बहिरंतरपावृतम्॥ ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः॥१२॥ इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते॥ सभाजयन्मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः॥॥१३॥ ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्यऽर्के स्फुलिंगके॥ अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक्पंडितो मतः॥१४॥ नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्॥ स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियंति हि॥१५॥ विसृज्य स्मयमानान्स्वान्दृशं व्रीडां च दैहिकीम्॥ प्रणमेद्दण्डवद्भूमावाश्वचांडालगोखरम्॥१६॥ यावत्सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते॥ तावदेवमुपासीत वाङ्मनःकायवृत्तिभिः॥१७॥

मेराही भाव जानकर पूजै, वही पण्डित है॥१३॥ ब्राह्मण, नीच जाति, चोर, ब्रह्मण्य, सूर्य, अग्निके कणिका यह क्रूरहों अथवा न हों इनमें जो समदृष्टि हो वही पण्डित है॥१४॥ मनुष्योंमें मेरे भावकी भावना रक्खै तो वेगही पुरुषके ईर्षा, निंदा, तिरस्कार, अहंकार यह सब निश्चयही नष्ट होजांय॥१५॥ इसलिये अन्तर्यामी ईश्वरकी दृष्टिसे सबको प्रणाम करै, हँसीकरते अपने मित्रोंको छोड़ और अपनी ऊंच नीच दृष्टि लज्जा छोड़ भूमिको दण्डवत् करै कूकर, चाण्डाल, बैल, खर ऐसे नीचोंको भी मेरी बुद्धिसे प्रणाम करै॥१६॥ जबतक सब भूतमात्रमें मेरा भाव

न उत्पन्न हो तब तक पुरुषको चाहिये कि, वाणी मन और देहकी प्रवृत्तिसे मेरी उपासना करै॥१७॥ इस प्रकार उपासना करके उसे सब विश्वरूपही भासता है, आत्मविद्यासे सर्वत्र ब्रह्मही देखते संदेह सब दूर होजाते हैं और आप सबसे विरक्त होजाता है॥१८॥ यह सब पक्षोंसे निश्चय किया हुआ मेरा उत्तमपक्ष है जो देह प्राण मनसे सब प्राणीमात्रमें मेरा भाव हो॥१९॥ हे उद्धवजी! यदि निष्काम मेरे धर्म करते करते कुछ भूल चूक होजाय तो भी हानि नहीं क्योंकि यह उत्तम धर्म निर्गुणपनके लिये मैंने निश्चय कियाहै॥२०॥ हे साधुश्रेष्ठ! जो जो व्यर्थ भी लौकिक परिश्रम करते हैं, सो भी जो मुझे समर्पण करै फल वॉछा विना मेरे लिये करै जैसे भय शोकादिकसे दौड़ना, रोना क्लेश व्यर्थ हैं सो भी मुझे समर्पण

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया॥ परिपश्यन्नुपरमेत्सर्वतो मुक्तसंशयः॥१८॥ अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम॥ मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः॥१९॥ न ह्यंगोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि॥ मया व्यवसितः सम्यङ् निर्गुणत्वादनाशिषः॥२०॥ योयो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत्॥ तदायासो निरर्थः स्याद्भयादेरिवसत्तम॥२१॥ एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्॥ यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति माऽमृतम्॥२२॥ एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य संग्रहः॥ समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः॥२३॥ अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत्॥ एतद्विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः॥२४॥ सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत्॥ सनातनं ब्रह्म गुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति॥२५॥

कर देनेसे धर्म होजाते हैं॥२१॥ वही बड़े बुद्धिमानोंकी बुद्धि और चतुरोंकी चतुरताहै जो असत्यरूप इस मनुष्य देहसे सत्यरूप मुझे इस जन्ममें प्राप्त होवै॥२२॥ हे उद्धव! यह ब्रह्मवादका संपूर्ण संग्रह मैंने तुझसे संक्षेप और विस्तारसहित वर्णन किया, जो कि देवताओंको भी दुर्लभथा॥२३॥ बारम्बार मैंने तुझसे प्रगट करके युक्तियोंसे यह ज्ञान कहा है, क्योंकि यह ब्रह्मवाद रीतिका ज्ञान जानकर पुरुष संदेहसे रहित और मुक्त होजाता है॥२४॥ जो इसका स्मरण रक्खै, कहै, सुनै, पढे तो भी इसका फल होता है सो कहते हैं, हे उद्धव! मैंने यह तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दियाहै इसे जो कोई चित्तमें धारण करैगा वह नित्य वेदमें भी गोप्य परब्रह्मको प्राप्त होजायगा॥२५॥

जो पुरुष मेरे भक्तोंसे विस्तार सहित यह ज्ञान कहता है उसे मैं अपनी आत्मा तक देदेता हूं, क्योंकि वह भक्तोंका दाता है॥२६॥ जो कोई परममित्र साधकको इस ज्ञानरूपी दीपकसे मेरा दर्शन करावै सो दिन प्रति दिन शुद्ध होता है॥२७॥ जो मनुष्य इसको श्रद्धा सहित नित्य सावधान होकर श्रवण करते हैं, सो मुझमें परमभक्तिको प्राप्त होकर कर्मोंसे बद्ध नहीं होते॥२८॥ हे उद्धव! हे मित्र! तैंने यह ज्ञान अच्छी प्रकार मनमें धर लिया है इसलिये क्या तेरे मनका मोह शोक गया?॥२९॥ बुद्धिमान्को चाहिये कि यह ज्ञान दंभी नास्तिक, धूर्त्त इत्यादि और जिसके सुननेकी इच्छा न हो उसे कभी न सुनावै॥३०॥ हे उद्धव! जो इन दोषोंसे रहित हो, ब्रह्मण्य हो, अतिप्रिय साधु हो, शुद्धहो उससे

य एतन्मम भक्तेषु संप्रदद्यात्सुपुष्कलम्॥ तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना॥२६॥ य एतत्समधीयीत पवित्रं परमं शुचि॥ स पूयेताहरहर्मांज्ञानदीपेन दर्शयन्॥२७॥ य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः शृणुयान्नरः॥ मयि भक्तिं परां कुर्वन्कर्मभिर्न स बध्यते॥२८॥ अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम्॥ अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः॥२९॥ नैतत्त्वया दांभिकाय नास्तिकाय शठाय च॥ अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम्॥३०॥ एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च॥ साधवे शुचये ब्रूयाद्भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम्॥३१॥ नैतद्विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते॥३२॥ ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दंडधारणे॥ यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः॥३३॥

यह ज्ञान कहना चाहिये। जो भक्ति होय तो स्त्री शूद्रसे भी कहै॥३१॥ जाननेवालेको इसके जाननेके उपरान्त फिर कुछ जाननेकी आवश्यकता नहीं, जैसे सुस्वाद अमृत पीनेके पीछे और पीनेके योग्य नहीं रहता॥३२॥ भक्तोंको और साधना कुछ नहीं चाहिये, क्योंकि भक्तोंका तो केवल सब मैंही हूं, ज्ञानसे मोक्ष होती है, विहित कर्म करनेसे धर्म होता है योग करै, अणिमादि सिद्धि हो, सहजके कर्म करनेसे काम होय, खेती करै, अर्थ होय दण्ड नीति करै, ऐश्वर्य होय और इन साधनाओंसे चारों पुरुषार्थ सिद्धि होते हैं, हे उद्भव! इस पुरुषार्थरूप तुमको मैंहूं इसलिये

तुमको और कुछ नहीं करना चाहिये, केवल एक मेरी शरण रहो॥३३॥ जब यह मनुष्य सब कर्मोंको छोडकर मुझे आत्मा निवेदन करै, तब मेरे श्रेष्ठ करनेके योग्य होता है, उसीसे फिर मोक्षको प्राप्त होता है और निश्चयही मेरे समान ऐश्वर्यके योग्य होजाता है॥३४॥ जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने सफल योगमार्गका स्वरूप दिखाया, तब उत्तमयश श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन, हाथ जोड प्रीतिपूर्वक गद्गद कंठ हो नेत्रोंसे अश्रुपात करते, गला रुकजानेके कारण उद्धवजी कुछ भी न बोलसके॥३५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाभागवत राजा परीक्षित!

मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मा निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे॥ तदा मृतत्वं प्रतिपद्यमानो मयात्मभूयाय च कल्पतेवै॥३४॥ श्रीशुक उवाच॥ स एवमादर्शितयोगमार्गस्तदोत्तमश्लोकवचो निशम्य॥ बद्धांजलिः प्रीत्युपरुद्धकंठो किंचिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः॥३५॥ विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं धैर्येण राजन्बहु मन्यमानः॥ कृतांजलिः प्राह यदुप्रवीरं शीर्ष्‍णास्पृशंस्तच्चरणारविंदम्॥३६॥ उद्धव उवाच॥ विद्रावितो मोहमहांधकारो य आश्रितो मे तव सन्निधानात्॥ विभावसोः किं नु समीपगस्य शीतं तमो भीः प्रभवंत्यजाद्य॥३७॥

अति स्नेहसे विह्वल चित्तको “धैर्यकर” थामकर, अपनेको कृतार्थ मानने लगे। इसके उपरान्त हाथ जोड माथेसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दका स्पर्शकर उद्धवजी बोले॥३६॥ कि हे ब्रह्मादिकोंके उत्पन्नकर्त्ता! मैंने जो मोहरूपी अंधकारका आश्रय कियाथा सो तुम्हारे समीपसे जातारहा, जैसे सूर्यके समीप अंधकार, शीत, भय, कहाँ होसकते हैं? *॥३७॥
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शंका— श्रीकृष्णसे उद्धवने कहा कि, महाराज! मेरा मोह अब मेरे शरीरको छोडकर भागगया, मोहसे अबमैंछूटगया, तो फिर यमुनाके तटपर विदुरजीने उद्धवसे श्रीकृष्णका वृत्तान्त बूझा तो क्यों मोहग्रसित होगये? श्रीकृष्णका वृत्तान्त भी पूरा नहीं कहसके, हालमी कुछ देर पीछे कहा जो कोई कहै कि, ज्ञान पानेके पीछे फिर मोहने घेरलिया होगा तो सत्य है जो बहुत दिन होगये होंगे होते तो आश्चर्य नहीं था परन्तु ज्ञान पाकर कृष्णके पाससे दो अथवा तीनही दिन बीतेथे जब विदुरजीका और उद्धवका समागम हुआथा, यह शंका है।

** उत्तर**—निस्सन्देह उद्धवजीका मोह नाश होगया थापरन्तु मनुष्य के स्वभाव करके क्षणक्षणमें मोहके वश होकर श्रीकृष्णका स्मरणकर फिर मोहको त्याग दिया और श्रीकृष्णका मोह भी इसलिये किया कि, श्रीकृष्णही भक्ति और मुक्तिके देनेवाले हैं, इसलिये यमुनाके निकट उद्धवको मोह प्राप्त हुआ कुछ अज्ञानपनसे मोह उत्पन्न नहीं हुआ।

तुमने अति दयाकरके मुझे सेवकको विज्ञानदीपक दिया, इसकारण कौन तुम्हारे उपकारका ज्ञाता है, अब तुम्हारे चरणारविन्द मूलको छोड़कर और मैं किसकी शरण जाऊं?॥३८॥ उद्धवजी बोले कि, हे प्रभो! जो सृष्टिकी बृद्धिके लिये तुमने अपनी मायासे मेरा स्नेहरूप पाश दाशार्ह, वृष्णि, अंधक, सात्वतनमें बढ़ाया था, सो आत्मज्ञान शस्त्रसे मनेही काटकर दूर करदिया॥३९॥ हे महायोगिन्! तुमको प्रणाम है, मैं शरणहूं, इतनी शिक्षा दो कि, मेरी तुम्हारे चरणारविन्दों में दृढ़ प्रीति हो॥४०॥ यह बात उद्धवजीकी अंगीकार करके लोकसंग्रहके लिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने आज्ञा दी कि, हे उद्धव! मेरी यह आज्ञा है कि, तुम बदरिकाश्रम को जाओ, क्योंकि वहाँ मेरे चरणतीर्थ गंगाजलसे स्नान आचमन करके

प्रत्यर्पितो मे भवताऽनुकंपिना भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः॥ हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं कोऽन्यत्समीयाच्छरणं त्वदीयम्॥३८॥ वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो दाशार्हवृष्ण्यंधकसात्त्वतेषु॥ प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना॥३९॥ नमोऽस्तु ते महायोगिन्प्रपन्नमनुशाधि माम्॥ यया त्वच्चरणांभोजे रतिः स्यादनपायिनी॥४०॥ श्रीभगवानुवाच॥ गच्छोद्धव मयादिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम्॥ तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः॥४१॥ ईक्षयालकनंदाया विधूताशेषकल्मषः॥ वसानो वल्कलान्यंग वन्यभुक्सुखनिःस्पृहः॥४२॥ तितिक्षुर्द्वंद्वमात्राणां सुशीलः संयतेंद्रियः॥ शांतः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः॥४३॥ मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन्॥ मय्यावे शितवाक्चि‍त्तो मद्धर्मनिरतो भव॥ अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम्॥४४॥ श्रीशुक उवाच॥ स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः॥ शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधीर्न्यषिंचदद्वंद्वपरोऽप्यपक्रमे॥४५॥

शुद्ध होंगे॥४१॥ हे उद्धव! अलकनंदाके दर्शनसे सफल हो पाप दूरकर वल्कल वस्त्र पहर वनके फल खाय सुखमें निष्ठ होओ॥४२॥ वहाँ सब इन्द्रियोके निग्रहसे शीत, उष्ण, सह सुशील शान्त हो, ज्ञान विज्ञानसे संयुक्त समाधिमें बुद्धि स्थिर करो॥४३॥ और मुझसे तुमने जो जो सीखा है, तथा अच्छी भाँति विचारा है उसकी भावना करते आवेशयुक्त वचन चित्तसे मेरे धर्ममें तत्पर हो, इन तीन गुणोंकी गतिका अतिक्रम करके आगे मुझे प्राप्त होगे॥४४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके कहनेसे उद्धवजी प्रदक्षिणा

कर माथा भगवान्केचरणोंमें रख अश्रुपातके जलसे भगवानके चरणको अभिषेक करने लगे, यद्यपि सुखदुःख रहित हुए हैं, परन्तु तोभी चलनेके कारण स्नेहसे कोमल बुद्धि होगये॥४५॥ अत्यन्त दुस्त्यज स्नेहके वियोगसे अतिअधीरहो अपने प्रभु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके छोडनेको समर्थ न हुए और इसके उपरान्त अतिकष्ट पाय फिर अपने स्वामीकी पादुका माथेपर धर प्रणाम करके चले, इस प्रकार बारंबार प्रणाम करके चले॥४६॥ इसके उपरान्त अपने अंतः करणमें श्रीकृष्णको धारणकर परम भागवत उद्धव बदरिकाश्रमको चले गये और जगद्बंधु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे इस भाॅति उपदेश पाय, उसी भाॅति तपस्याको साथ हरिकी गतिको प्राप्त हुए॥४७॥ जिनके चरणकमलोंका योगीश्वर सेवन करते

सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः॥ कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके बिभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः॥४६॥ ततस्तमंतर्हृदि संनिवेश्य गतो महाभागवतो विशालाम्॥ यथोपदिष्टां जगदेकबंधुना तपः समास्थाय हरेरगाद्गतिम्॥४७॥ य एतदानंदसमुद्रसंभृतं ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम्॥ कृष्णेन योगेश्वरसेवितांघ्रिणा सच्छ्रद्धयाऽऽसेव्यजगद्विमुच्यते॥४८॥ भवभयमपहंतुं ज्ञानविज्ञानसारं निगमकृदुपजह्ने भृङ्गवद्वेदसारम्॥ अमृतमुदधितश्चापाययद्भृत्यवर्गान्पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भक्तियोगसंग्रहो नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥

हैं। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने यह ज्ञानरूप अमृत आनंद समुद्र परम भागवत उद्धवजीसे कहा, जो पुरुष श्रद्धापूर्वक इसका सेवन करते हैं, सो संसारसे मुक्त होजातेहैं॥४८॥ जिन वेदकर्त्ता भगवान्नेसंसारका भय दूर करनेके लिये एक ज्ञानरूप वेदसार अमृतका भ्रमरकी भाँति उद्धार किया, एक अमृत तो समुद्रमेंसे निकाला था सो तो देवताओंको पिलाया अब दूसरा यह वाणीरूप अमृत अपने सेवक तथा भक्तोंको पिलाया ऐसे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको मैं प्रणाम करताहूं॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायामेकोनत्रिंशोध्यायः॥२९॥

दोहा—तीसमाहिं वैकुण्ठकी, सुरति करी करतार॥ मुशलयुद्धमिस सबनको, क्षणमें कियो सँहार॥१॥ राजापरिक्षित बोले कि, हे ब्रह्मन्! परम भागवत उद्धवजीके वन चलेजानेपर विश्वके रक्षक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने क्या किया?॥१॥ अपने कुलको ब्रह्मशापसे व्याप्त देख सबके नेत्रोंके परमप्रिय शरीरको यादवोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रने कैसे छोड़दिया?॥२॥ जिस रूपमें लगे हुए नेत्रोंको स्त्रियें खैंचनेको समर्थ न हुईं, जो स्वरूप कर्णद्वारा त्हृदय में प्रविष्ट हुआ और साधु पुरुषोंके मनमें तो लिखासा रहता है, जिस रूपकी शोभा वर्णन करनेसे पण्डितोंकी वाणी से प्रीति उत्पन्न होती है अर्जुनके रथपर स्थित जिस स्वरूपको देखकर भारतमें मरे युद्ध विषे जो योद्धाहैं, वह सारूप्य मुक्तिको प्राप्त हुए॥३॥ यह सुनकर श्रीशुकदेवजी

॥राजोवाच॥ ततो महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्॥ द्वारवत्यां किमकरोद्भगवान्भूतभावनः॥१॥ ब्रह्मशापोपसं सृष्टे स्वकुले यादवर्षभः॥ प्रेयसीं सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत्॥२॥ प्रत्याक्रष्टुं नयनमबला यत्र लग्नं न शेकुः कर्णाविष्टं न सरति ततो यत्सतामात्मलग्नम्॥ यच्छ्रीर्वाचां जनयति रतिं किं न मानं कवीनां दृष्ट्वा जिष्णोर्युधि रथगतं यच्च तत्साम्यमीयुः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ दिवि भुव्यंतरिक्षे च महोत्पातान्समुत्थितान्॥ दृष्ट्वासीनान्सुधर्मायां कृष्णः प्राह यदूनिदम्॥४॥ श्रीभगवानुवाच॥ एते घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः॥ मुहूर्तमपि न स्थेयमत्र नो यदुपुंगवाः॥५॥ स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च शंखोद्धारं व्रजंत्वितः॥ वयं प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक्सरस्वती॥६॥ तत्राभिषिच्य शुचय उपोष्य सुसमाहिताः॥ देवताः पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः॥७॥

बोले कि, हे राजन्! श्रीकृष्णचन्द्र स्वर्गमें सूर्यके मण्डल आदि भूमिमेंकंपादि, अंतरिक्षकी दिशामें दाहादिक उठे बड़े बड़े उत्पातोंको देख सुधर्मा सभामें बैठे यादवोंसे यह कहने लगे॥४॥ श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे यादवोंमें श्रेष्ठ! यह घोर मृत्युको बतानेवाले उत्पात उठ रहे हैं, इसलिये अब हमको दो घड़ी भी द्वारकामें वास करना योग्य नहीं है॥५॥ इसकारण सब स्त्री, बालक और वृद्ध शंखोद्धारको जाओ और हम प्रभासक्षेत्रको जायेंगे, जहाॅ पश्चिमवाहिनी सरस्वती है॥६॥ वहाँ स्नानसे पवित्र हो, उपवासकर भलीभाँति सावधानतासे स्नान कराय चंदन और पूजाकी सामग्रियोंसे देवताओंका पूजन करैंगे॥७॥

बड़े भाग्यवान् ब्राह्मणोंको गौ, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र और हाथी घोड़े रथोंसे पूजैगे॥८॥ निश्चय करके यह विधि अरिष्टकी नाशकहै और उत्तम मंगलकी आश्रय है प्राणियोंमें देवता, ब्राह्मण, गौकी पूजा कल्याणका हेतुहै॥९॥ यादवोंमें सब वृद्ध इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वचन सुन “ऐसेही हैं” इस भाँति स्तुतिकर, नावों द्वारा समुद्र उतर सब प्रभास क्षेत्रको चलेगये॥१०॥ यादवोंके देव भगवान्के उपदेशको सब यादव मंगलोंसहित परमभक्तिसे प्रभासक्षेत्रमें करनेलगे॥११॥ इसके उपरान्त प्रभासक्षेत्रमें दैवसे हतबुद्धि यादवोंने सुरस मदिराका महापान किया, जिस मदिराके रससे बुद्धि भ्रष्ट होजाती है॥१२॥ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मायासे मोहित मद्यपानसे अतिगर्व

ब्राह्मणांस्तु महाभागान्कृतस्वस्त्ययना वयम्॥ गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः॥८॥ विधिरेष ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम्॥ देवद्विजगवां पूजा भूतेषु परमो भवः॥९॥ इति सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः॥ तथेति नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः॥१०॥ तस्मिन्भगवतादिष्टं यदुदेवेन यादवाः॥ चक्रुः परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम्॥११॥ ततस्तस्मिन्महापानं पपुर्मैरेयकं मधु॥ दिष्टविभ्रंशितधियो यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः॥१२॥ महापानाभिमत्तानां वीराणां दृप्तचेतसाम्॥ कृष्णमायाविमूढानां संघर्षः सुमहानभूत्॥१३॥ युयुधुः क्रोधसंरब्धा वेलायां माततायिनः॥ धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः॥१४॥ पतत्पताकै रथकुञ्जरादिभिः खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि॥ मिथः समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा न्यहञ्छरैर्दद्भिरिव द्विपा वने॥१५॥ प्रद्युम्नसांबौ युधि रूढमत्सरावक्रूरभोजा वनिरुद्धसात्यकी॥ सुभद्रसंग्रामजितौ सुदारुणौ गदौ सुमित्रासुरथौ समीयतुः॥१६॥

युक्तचित्त यादवोंका अतिबड़ा कोलाहल हुआ॥१३॥ इसके उपरान्त अत्यन्त क्रोधितहो बधको उद्यत यादव समुद्रके तटपर धनुष, खड्ग, गदा, तोमर और रिष्टियोंसे युद्ध करने लगे॥१४॥ दुर्मद यादव चलायमान ध्वजावाले रथ, हाथी, खच्चर, ऊंट, बैल और भैंसोंसे परस्पर मिलकर बाणोंसे मारनेलगे जैसे वनमें हाथी दाँतोंसे परस्पर हाथियोंको मारते हैं॥१५॥ असहनताको प्राप्तदो प्रद्युम्न और साम्ब, अक्रूर तथा भोज, अनिरुद्ध और सात्यकी, सुभद्र और संग्रामजित् अतिदारुण होकर गद श्रीकृष्णका भाई, एक श्रीकृष्णका पुत्र सुमित्र और सुरथ यह अति

क्रूर स्वभाववाले मत्सरसे व्याप्त होकर परस्पर घोर युद्ध करनेलगे॥१६॥ इसीप्रकार और भी निशठ, उल्मुक, सहस्रजित् शतजित, भानु आदि यादव जो भगवान्की इच्छासे मोहित होगयेथे, वह वारुणीके पानसे मत्त और अन्धप्राय हो परस्पर युद्ध करकरके लड़ने लगे॥१७॥ दाशार्ह, वृष्णि, अंधक, भोज, सात्त्वत्, मधुके वंशके और अर्बुद मथुरा शूरसेन देशके विसर्जन, कुकुर, कुंति देशके स्नेहको तोड़ परस्पर मारने लगे॥१८॥ पुत्र पितासे और भाई भानजेसे, धेवतोंसे काकाओंसे, मित्रोंसे, सुत्हृदोंसे युद्ध करनेलगे, मूर्ख जाति जातियोंहीको

अन्ये च ये वै निशठोल्मुकादयः सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः॥ अन्योऽन्यमासाद्य मदांधकारिता जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम्॥१७॥ दाशार्हवृष्ण्यंधकभोजसात्त्वता मध्वर्बुदा माथुरशूरसेनाः॥ विसर्जनाः कुकुराः कुंतयश्च मिथ स्ततस्तेऽथ विसृज्य सौहृदम्॥१८॥ पुत्रा अयुध्यन्पितृभिर्भ्रातृभिश्च स्वस्त्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः॥ मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भिर्ज्ञातींस्त्वहञ्ज्ञातय एव मूढाः॥१९॥ शरेषु क्षीयमाणेषु भज्यमानेषु धन्वसु॥ शस्त्रेषु क्षीयमाणेषु मुष्टि भिर्जघ्नुरेरकाः॥२०॥ ता वज्रकल्पा ह्यभवन्परिघा मुष्टिना भृताः॥ जघ्नुर्द्विषस्ते कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते॥॥२१॥ प्रत्यनीकं मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः॥ हंतुं कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः॥२२॥ अथ तावपि संक्रुद्धावुद्यम्य कुरुनंदन॥ एरकामुष्टिपरिघौ चरंतौ जघ्नतुर्युधि॥२३॥ ब्रह्मशापोपसृष्टानां कृष्णमायावृतात्मनाम्॥ स्पर्द्धा क्रोधक्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम्॥२४॥

मारने लगे॥१९॥ बाणोंसे हीन होनेके उपरान्त धनुषके टूटनेसे, शस्त्रोंके छिन जानेसे पटेरोंको ग्रहण करनेलगे॥२०॥ वह पटेरे यादवोंके हाथमें लेतेही वज्रके समान दुधार खाँड़े होगये, उससे यादव वैरियोंको मारने लगे॥२१॥ और जब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हैं वर्जा, तब हे परीक्षित! वह श्रीकृष्ण और बलदेवजीको वैरी मान मारनेकी बुद्धिसे यादव मोहितही शस्त्र ले सन्मुख आये॥२२॥ हे कुरुनंद! इसके उपरान्त दोनों भाई अत्यन्त कुपित हो खड्गरूप पटेरोंको हाथमें लेकर युद्धमें विचरते मारने लगे॥२३॥ ब्रह्मशापसे व्याप्त श्रीकृष्णकी मायासे

मोहित आत्मा यादवोंको स्पर्द्धासे उत्पन्न हुए क्रोधने क्षय कर दिया, जैसे बॉसकी अनि वनका क्षय कर डालती है॥२४॥ इसप्रकार अपना सब कुल नाश होजाने के पीछे एक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रही केवल अवशेष रहगये तब श्रीकृष्णने जाना कि अब भूमिका भार उतरगया॥२५॥ महात्मा बलदेवजीने समुद्रके तटपर परमपुरुषके ध्यानरूप योगसे आपको आपमें युक्तकर मनुष्यलोक छोड़ दिया॥२६॥ इसके उपरान्त श्रीदेवकीजीके पुत्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र, बलरामजीका चलना देख पीपलका आश्रय ले मौन होकर भूमितलमें बैठगये॥२७॥ शोभायमान चतुर्भुजरूप धारण किये अपनी कांतिसे दिशाओंका अन्धकार दूर करते निर्मल अग्निसे दिखाई देने लगे॥२८॥ अब

एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः॥ अवतारितो भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः॥२५॥ रामः समुद्रवेलायां योगमास्थाय पौरुषम्॥ तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि॥२६॥ रामनिर्याणमालोक्य भगवान्दे वकीसुतः॥ निषसाद धरोपस्थे तूष्णीमासाद्य पिप्पलम्॥२७॥ बिभ्रच्चर्तुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया॥ दिशो वितिमिराः कुर्वन्विधूम इव पावकः॥२८॥ श्रीवत्सांकं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्॥ कौशेयांबरयुग्मेन परिवीतं सुमंगलम्॥२९॥ सुंदरस्मितवत्क्राब्जं नीलकुंतलमंडितम्॥ पुंडरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुंडलम्॥॥३०॥ कटिसूत्रब्रह्मसूत्रकिरीटकटकांगदैः॥ हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम्॥३१॥ बनमालापरीतांगं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः॥ कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पंकजारुणम्॥३२॥ मुसलावशेषायःखंडकृतेषुलुब्धको जरा॥ मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशंकथा॥३३॥

चतुर्भुज रूपका वर्णन करते हैं, श्रीवत्सका चिह्न, मेघके समान श्याम सुवर्णके समान कांतिवाले, पीताम्बर पहरे, परममंगल॥२९॥ सुन्दर हास्ययुक्त मुखकमल, नील केशसे शोभित, कमलसे सुन्दर नेत्र, देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल॥३०॥ कटिसूत्र, जनेऊ, मुकुट, कंकण, विराजमान हार, नूपुर, मुद्रिका, कौस्तुभसे शोभित॥३३॥ वनमालासे व्याप्त अंग मूर्तिवत् अपने आयुधोंसे युक्त, लाल कमलकीसी शोभावाला वामचरण दाहिनी जॉघपर धरकर बैठे॥३२॥ मूशलके अवशेष लोहेके खण्डसे जिसने बाण बनायाथा उस

जरा नाम वधिकने मृगके आकारवाले उस चरणको मृगकी शंकासे बींध डाला “यह व्याधा कुछ बहुत समयका नहीं था, यह उसीसमय स्वर्गसे भगवान्की इच्छानुसार अंगद व्याधके रूपमें आया और मोहित हो बाण मार पिताके ऋणसे मुक्त हुआ” *॥३३॥ फिर भगवान्के समीप आया चतुर्भुज श्रीभगवान्को देखकर अत्यन्त भयभीत हुआ इसके उपरान्त वह अपराधी वधिक माथेसे दैत्योंके शत्रु श्रीकृष्णचन्द्रके

चतुर्भुजं तं पुरषं दृष्ट्वा स कृतकिल्विषः॥ भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः॥३४॥ अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन॥ क्षंतुमर्हसि पापस्य उत्तमश्लोकमेऽनघ॥३५॥ यस्यानुस्मरणं नणामज्ञानध्वांतनाशनम्॥ वदंति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो॥३६॥ तन्माशु जहि वैकुंठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्॥ यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रम्॥३७॥

चरणोंमें गिरपड़ा॥३४॥ हे मधुसूदन! पाप बुद्धि मैंने यह अपराध अज्ञानसे किया है, हे उत्तमयश! मुझ निष्पाप पापीको क्षमा करो॥॥३५॥ हे प्रभो! जिसका स्मरण मनुष्योंके अज्ञान तमका नाश करता है, उन्हीं तुम विष्णुका मैं अपराधी हूं॥३६॥ हे वैकुण्ठनाथ! इसलिये

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***शंका—**वधिकको मनुष्यके और मृगके पहँचाननेमें भेद क्यों हुआ? जिस भ्रमसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके चरणारविंदको मृग समझकर महाराजके चरणमें बाण क्यों मारा? निशाना लगानेवाले मनुष्य कभी नहीं चूकते छोटी वस्तु होती है तोभी देख दृष्टि से खेलते हैं और त्रिलोकीनाथकी देह तो बडीथी वह वधिक कैसा मूर्ख होगया? मृग और मनुष्य उसको नहीं जान पढे? बढे सन्देहकी बात है?

**उत्तर—**अगद बालिका पुत्र श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंकी सेवा करके स्वर्गको जाने लगा तो रघुनाथजीने अंगदसे कहा कि, जो वरदान तुझको चाहिये सो माग, तब अंगदने कहा कि, हे रघुनन्दन! हे दीनबन्धु! मेरे पिताको आपने विना अपराध मारडाला सो उसका बदला आपसे लियाचाहता हू तब रघुनाथजी बोले कि, हम कुछ युग बीते द्वापरमें कृष्णावतार धारण करेंगे तब तुम्हारे पिताका ऋण तुमको चुकावेंगे और तुम्हारे हाथके बाणसे हम प्राण तजकर परमधामको जायँगे, जिससमयको श्रीरघुनाथजी कहगयेथे वही समय देखकर वीर अंगदने स्वर्गलोकसे उसी वनमें आनकर बधिकका रूप धारणकर लक्ष्मीपति भगवान्के चरणमें बाण मारा इसलिये व्याधेको मनुष्यकी और मृगकी पँहचान नहीं हुई, क्योंकि बहुत दिनका व्याध नहीं था वह तो नया बधिक था केवल पिताका बदला लेनको आयाया।

मुझ मृगलोभी पापीको शीघ्र मारो, जिससे फिर कभी साधुओंका ऐसा अपराध न करूं॥३७॥ जब तुम्हारी स्वाधीन मायाकी रचनाको ब्रह्मा और ब्रह्माके पुत्र रुद्रादिक तथा वेदके द्रष्टा भी नहीं जानते उन्हैं ब्राह्मणोंके शापका लगना मायासे अंधे हुए पुरुषोसे किसप्रकार कहा जासकता है? इससे यह बात चाहै कुछ भी हो, परन्तु आप मुझे मारडालिये॥३८॥ तब श्रीभगवान् बोले कि, हे जरा! तू भय मत करै, उठकर खडा हो, तैंने तो यह मेरी इच्छानुसारही कार्य किया है, इसलिये तू मेरी आज्ञासे पुण्यवानोंके स्थान स्वर्गकी जा॥३९॥ इच्छा करके शरीरधारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे आज्ञा पाय, वह वधिक श्रीकृष्णकी तीन परिक्रमा दे नमस्कारकर विमानमें बैठ स्वर्गको चलागया॥४०॥ इसके उपरान्त दारुक

यस्याऽऽत्मयोगरचितं न विदुर्विरिंचो रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये॥ त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदंजः किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः॥३८॥ श्रीभगवानुवाच॥ मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृपो हि मे॥ याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम्॥३९॥ इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा॥ त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ॥४०॥ दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्॥ वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ॥४१॥ तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्॥ स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः॥४२॥ अपश्यतस्त्वच्चरणांबुजं प्रभो दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा॥ दिशो न जाने न लभे च शांतिं यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे॥४३॥ इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः॥ स्वमुत्पपात राजेंद्र साश्वध्वज उदीक्षतः॥४४॥

मार्गमें भगवान्को विनापाये तुलसी चन्दनकी गंध मिली वायुको सूँघता श्रीकृष्णचन्द्रके सन्मुख आया॥४१॥ उस पीपलके वृक्षके नीचे तीक्ष्ण कांतियुक्त आयुधोंसे व्याप्त अपने पति श्रीकृष्णचन्द्रको बैठा देख स्नेहसे मग्न आत्मा, नेत्रोंमें जलभर दारुक रथसे उतर उनके चरणोंमें गिरा॥४२॥ हे प्रभो! तुम्हारे चरणारविन्द विना देखे मेरा सब ज्ञान नाशको प्राप्त होगया और मोहमें प्रविष्ट हुआ मैं दिशाओंको भी नहीं जानताहूं, तथा शान्ति भी मुझे नहीं है. जैसे रात्रिमें चंद्रमाके गये पीछे दिशा नहीं जानी जाती हैं॥४३॥ हे राजन्! जब इसप्रकार दारुक सारथीने कहा तब सारथीके देखतेही गरुड चिंह्नयुक्त रथ घोड़े ध्वजा सहित आकाशको उडगया॥४४॥

इसके उपरान्त विष्णुके दिव्य आयुध चलेगये। इससे विस्मित सारथीसे भगवान् जनार्दन कहने लगे॥४५॥ कि, हे सूत! तू द्वारकाको जा, बांधवोंसे परस्पर जातिका मरण, योगमार्गसे बलदेवजीका प्रस्थान और मेरी दशा जो कुछ तैंने देखी है सो कहना॥४६॥ तुम बांधवोंसहित द्वारकामें मत रहना, क्योंकि मुझसे छोड़ीहुई द्वारकाको अब समुद्र बोरेगा॥४७॥ इसलिये अपनी सब सामग्री तुम हमारे मातापिताको लेकरके अर्जुनसे रक्षित हो इन्द्रप्रस्थ जाओ, इसप्रकार बांधवोंसे कहो॥४८॥ तुम ज्ञाननिष्ठ निस्पृहदो मेरे धर्मसे और यह मेरी मायाकी रचन

तमन्वगच्छन्दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च॥ तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः॥४५॥ गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः॥ संकर्षणस्य निर्याणं बंधुभ्यो याहि मद्दशाम्॥४६॥ द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिः स्वस्व बंधुभिः॥ मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति॥४७॥ स्वस्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः॥ अर्जुनेनावि ताः सर्व इंद्रप्रस्थं गमिष्यथ॥४८॥ त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः॥ मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज॥४९॥ इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनःपुनः॥ तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम्॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे यदुकुलसंक्षयो नाम त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ अथ तत्रा गमद्ब्रह्मा भवान्या च समं भवः॥ महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः॥१॥

जान शान्तिको प्राप्त होओ॥४९॥ जब इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने कहा तब दारुक श्रीकृष्णचन्द्रकी बारम्बार परिक्रमा दे माथा नवाय कुलके नाश होनेसे मलीन चित्त हो द्वारकापुरीको चलागया॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे भाषाटीकायां यादव निर्याणं नाम त्रिंशोध्यायः॥३०॥ दोहा—इकतिसमें नरलोकते, कृष्ण गये निजधाम॥ गये देव निज निज भवन, तज द्वारका ललाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! दारुकसारथीके जाने उपरान्त वहाँ ब्रह्मा, पार्वतीसहित महादेव, इन्द्रादिक देवता, सनकादिक मुनि,

मरीचि आदि प्रजापति॥१॥ पितर, गंधर्व, विद्याधर, महानाग, चारण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, अप्सरा, पक्षी॥२॥ भगवान्का प्रस्थान देखनेकी इच्छासे, परमउत्कंठित श्रीकृष्णके जन्म कर्म गाते और कहते वहाॅ आये॥३॥ हे राजन्! फूलोंकी वर्षा करते, परमभक्तिसे युक्त, विमानोंकी पंक्तिसे आकाशको संकुल करनेलगे॥४॥ इसके उपरान्त प्रभु सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने, ब्रह्मा इन्द्रादिक अपनी विभूतिको देख अपने आपको अपने आपमें संयुक्त कर, अपने लोक लेजानेके लिये आये हुए बहुतसे देवताओंको देख, समाधि लगाकर अपने नेत्रकमल मूँदलिये॥५॥ जैसे स्वेच्छा मृत्युवाले योगी अपने शरीरको योगधारणासे जलाय लोकोंमें प्रवेश करतेहैं. परन्तु श्रीकृष्णने वैसे नहीं किया. किन्तु उसी शरीरसे अपने

पितरः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः॥ चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसोः द्विजाः॥२॥ द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः॥ गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च॥३॥ ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानाबलिभिर्नभः॥ कुर्वंतः संकुलं राजन्भक्त्या परमया युताः॥४॥ भगवान्पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः॥ संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत्॥५॥ लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम्॥ योगधारणयाऽऽग्नेय्याऽदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम्॥६॥ दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात्॥ सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः॥७॥ देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि॥ अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः॥८॥ सौदामन्या यथाकाशे यांत्या हित्वाऽभ्रमंडलम्॥ गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैस्तथा कृष्णस्य दैवतैः॥९॥

परमधामरूप वैकुण्ठको चलेगये, कारण यह था कि, यदि इस शरीरको योगधारणसे जला देते तो उसमेंका संपूर्ण जगत् भी भस्म होजाता और उस शरीरका ध्यान व धारणा करनेवाले उपासक लोगोंको पीछे उस देहका साक्षात्कार और फलकी प्राप्ति नहीं होती॥६॥ जिससमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र स्वधाम पधारे, उस समय देवलोकमें नगाडे बाजनेलगे आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी और श्रीकृष्णचन्द्रके पीछे भूमिसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्त्ति, लक्ष्मी यह सब चले गये॥७॥ परन्तु ब्रह्मादिक देवताओंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको स्वधाममें प्रवेश करते न देखा, इस कारण यह अति आश्चर्यकी प्राप्त हुए, क्योंकि श्रीकृष्णकी गति किसीने न जानी॥८॥ जैसे मेघमण्डलीको छोडकर आकाशमें जाती बिजलीकी गति

मनुष्योंसे नहीं देखी जाती, उसीप्रकार देवताओंमेंसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी गति नहीं देखी गई, उनकी गति उनके पार्षदही जानतेहैं॥९॥ सो ब्रह्मा रुद्रादिक देवता श्रीकृष्णचन्द्रकी योगगति देखकर अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्त हुए और उस गतिकी स्तुति करते अपने अपने लोकोंको चलेगये॥१०॥ हे राजा परीक्षित्! यादवोंमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका जन्म धारण करना मायासे अनुकरण मात्र जानना, जैसे नट निर्विकार है परन्तु नानारूपोंसे अनुकरण करता है, इसप्रकार आपही इस जगत्को उत्पन्न कर, और अंतर्यामीभावसे उसमें आवेशकर अंतकाल में संहार करते हैं, परन्तु आप अपनी महिमासे निर्विकार हैं॥११॥ तुम और मूर्त्ति मत जानो इसी अवतारमें श्रीकृष्णचन्द्रका प्रताप बहुत बड़ा देखा है, जिन्होंने परलोकसे सांदीपनका पुत्र प्राप्त किया और उसे उसी शरीरसे शरणागतरक्षक श्रीकृष्ण ले आये.

ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः॥ विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वंस्वं लोकं ययुस्तदा॥१०॥ राजन्परस्य तनुभृज्ज ननाप्ययेहा माया विडंबनमवेहि यथा नटस्य॥ सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते संहृत्य चात्ममहिमोपरतः स आस्ते॥११॥ मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम्॥ जिग्येंतकांतकमपीशमसावनीशः किं स्वावने स्वरनयन्मृगयुं सदेहम्॥१२॥ तथाऽप्यशेषस्थितिसंभवाप्ययेष्वनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक्॥ नैच्छत्प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन्॥१३॥

ब्रह्मास्त्रसे दग्ध तुम्हारी रक्षा करी, फिर कालोंके महाकाल रुद्र भगवान् महादेवजीको बाणसुरके संग्राममें जीतलिया और जरानाम वधिकको देहसहित स्वर्गको भेजदिया, तो वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र क्या अपनी रक्षा करनेमें असमर्थ थे?॥१२॥ अहो! जो श्रीकृष्णचन्द्र समर्थ थे तो कुछ काल अभी यहाॅही क्यों न रहे? तो इसके उत्तरमें कहते हैं कि, संपूर्ण जगत्के सृष्टि प्रतिपालन और संहारमें आपही कारण हैं औरकी आकांक्षा वह नहीं रखतेहैं अनेक शक्तियोंको धारण करते हैं, यद्यपि ऐसे हैं परन्तु तो भी यादवोंका संहार होजानेसे अपने देहको इसलोकमें रखनेकी इच्छा न की, आपही निजधाममें अपने देहको प्राप्त किया, यहाॅ हेतु कहतेहैं, भगवान्ने विचारा कि, अब इस देहका यहाँ क्या

कामहै? स्वधर्मी आत्मनिष्ठोंकी जो रीतिथी सो दिखाई और भाँति वह आत्मनिष्ठ दिव्य गतिके अनादरसे, योगबलसे देहकी सिद्धि कर कहीं यहाँ हीं क्रीड़ा करनेको मन करै, इसकारण भगवान् आप भी चले गये॥१३॥ जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर, सावधान मनसे, अत्यन्त भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णचन्द्रकी परमगतिको कहैगा, सो परम उत्तमगतिको प्राप्त होगा॥१४॥ अब वसुदेवादिककी गति कहते हैं, इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रसे बिछुडाहुवा दारुक नाम सारथी द्वारकामें आय, वसुदेव व उग्रसेनके चरणोंमें पड़, अपने अश्रुजलसे उनके चरणों को सींचने

य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम्॥ प्रयतः कीर्त्तयेद्भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम्॥१४॥ दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः॥ पतित्वा चरणावस्रैर्न्यषिंचत्कृष्णविच्युतः॥१५॥ कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप॥ तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविमूर्च्छिताः॥१६॥ तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः॥ व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम्॥१७॥ देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ॥ कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम्॥१८॥ प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद्विरहातुराः॥ उपगुह्य पतींस्तात चितामारुरुहुः स्त्रियः॥१९॥

लगा॥१५॥ हे राजा परीक्षित्! इसके पीछे उस सारथीने सब यादवोंके नाश होनेका वृत्तान्त कहा वह सुनकर वसुदेवादिकोंके हृदयमें अत्यन्त उद्वेग हुआ और शोकसे मूर्च्छितहो॥१६॥ मुख काटते श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल उतावले वहीं आये, जहॉ बांधव प्राणरहित शयन कररहेथे॥१७॥ देवकी रोहिणी और वसुदेव, श्रीकृष्ण और बलदेव अपने पुत्रोंके विना देखे शोकसे आतुर हो बेसुध होगये॥१८॥ और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके वियोगसे अत्यन्त आतुरहो, वहाॅही प्राण छोड़दिये और अपने अपने पतियोंसे मिलकर स्त्रियें चितामें प्रवेश करगई॥१९॥

बलदेवजीकी स्त्री बलदेवजीके देहको आलिंगनकर चितामें प्रवेशकरगईं और वसुदेवकी स्त्री वसुदेवसे, श्रीकृष्णकी पुत्रवधू प्रद्युम्न आदि अपने अपने पतियोंसे मिलकर रुक्मिणी आदि श्रीकृष्णकी स्त्री श्रीकृष्णमय हो अग्निमें प्रवेश करगईं॥२०॥ अर्जुनने अपने परमप्रिय सखा श्रीकृष्णचन्द्रके विरहसे आतुर होनेपर भी सच्ची मुक्ति देनेवाले भगवान्के वचनोंको स्मरण करके उसने अपने आत्माको सांत्वना दी॥२१॥ जिनकी संपत्ति नाशको प्राप्त हुई और आपभी नाशको प्राप्त हुए, उन बांधवोंका अर्जुनने पिंडदान, तर्पण आदि कार्य विधिपूर्वक क्रमसे किया॥२२॥ हे महाराज परीक्षित्! इसके उपरान्त श्रीयुत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके मंदिरको छोड़कर श्रीकृष्णसे त्यागी संपूर्ण द्वारकाको समुद्रने क्षणभरमें डुबा

रामपत्न्यश्च तद्देहमुपगुह्याग्निमाविशन्॥ वसुदेवपत्न्यस्तद्गात्र प्रद्युम्नादीन्हरेः स्नुषाः॥ कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्यास्तदात्मिकाः॥२०॥ अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः॥ आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः॥२१॥ बंधूनां नष्टगोत्राणामर्जुनः सांपरायिकम्॥ हतानां कारयामास यथावदनुपूर्वशः॥२२॥ द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत्क्षणात्॥ वर्जयित्वा महाराज श्रीमद्भगवदालयम्॥२३॥ नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान्मधुसूदनः॥ स्मृत्याऽशेषाशुभहरं सर्वमंगलमंगलम्॥२४॥ स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान्धनञ्जयः॥ इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राऽभ्यषेचयत्॥२५॥ श्रुत्वा सुहृद्वधं राजन्नर्जुनात्ते पितामहाः॥ त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम्॥२६॥ य एतद्देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च॥ कीर्त्तयेच्छ्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥२७॥

दिया॥२३॥ मंदिर बचानेका कारण यह है कि, भगवान् मधुसूदन वहाँ नित्य विराजाते हैं और वह मंदिर कैसा है कि, जिसका स्मरणमात्र करनेसेही संपूर्ण अमंगल नाशको प्राप्त होजाते हैं॥२४॥ मरनेसे बचे हुए स्त्री, बालक वृद्धको अर्जुनने लेकर इन्द्रप्रस्थमें प्रवेश कराय वहाँ वज्रनाभको अभिषेक किया॥२५॥ इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परमभागवत परिक्षित्! तुम्हारे पितामह पांडव अर्जुनके मुखसे सुहृदोंका वध सुनकर तुमको वंशधारी समझ महाप्रस्थानको चलेगये॥२६॥ जो मनुष्य श्रद्धासहित देवदेव भगवान् विष्णुके जन्म और

कर्मोंको सुनैंगे अथवा कहैंगे, वह संपूर्ण पापोंसे छूट जायॅगे॥२७॥ इसप्रकार इस ग्रन्थमें और दूसरे ग्रन्थोंमें वर्णन कियेहुए परममंगल भगवान् वासुदेवके सुन्दर अवतारोंके चरित्र जो मनुष्य कहैंगे सो परमहंसोंके शरणदायक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें परमभक्तिको प्राप्त होंगे *॥२८॥

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतारवीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि॥ अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन्मनुष्यो भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धे भगवदन्तर्द्धानं नामैकत्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३१॥ समाप्तोऽयं श्रीमद्भागवतस्यैकादशः स्कन्धः॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कंधे अष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां भाषाटीकायां श्रीकृष्णपरिवारनिर्यापणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥

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** *भजन—**जनप्रतिपाल दयाल दयानिधि क्यों चितवत नहिं ओर हमारी। कीजै कृपा जन जान हमपर हे व्रजेश गोपाल मुरारी। जबसे सतशिक्षा हम त्यागी। बुधिबल और सुख सम्पति भागी। पीछे विपति अविद्या लागी। निशिदिन देत रहत दुखभारी॥१॥ कुमति कलह घटघटमें छाई। शुभगुण सुमति समूल नशाई। करत परस्पर द्वेष बुराई। हानिलाम नहिं तनक विचारी॥२॥ हम सब तुम्हरी ओर निहारैं। त्राहि त्राहि दिन रात पुकारै। तुम विन जाको जाय जुहारै। एसो को भक्तन हितकारी॥३॥ वेग जननकी ओर निहरो। कलह कुमतिकी मूल उखारो। दारिद दुर्गुण दुर्ग विदारो। दुष्टदलन दीनन दुखहारी॥४॥ नाथ विनय मम स्वीकृत कीजै। विद्यादान दयाकर दीजै। चरण शरणमें हमको लीजै। लागरही दृढ आश तुंहारी।

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इदं पुस्तकं क्षेमराज —श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना मुम्बय्यां (खेतवाडी ७वीं गली खम्बाटालैन) स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम) मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.

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श्रीगणेशाय नमः॥ दोहा—आदि ब्रह्म अद्वैत अज, अविनाशी अविकार। श्रीमुकुन्द गोविन्दपद भज मन बारम्बार॥१॥ कवित्त—काहूको सहारोहै भवानी राज रानीको, काहूको सहारो है गिरिजाके प्यारेको। काहूको सहारो है काल विकरालीको, काहूको सहारो भूतनाथ बैलवारेको॥ काहूको सहारो है भैरों हनुमान्जीको, काहूको सहारो है पूरण नाथद्वारेको। जानै गिरधारो औ उबारो व्रज शालिग्राम, मोहिं तो सहारो वा नन्दके दुलारेको॥१॥ काहूकी उमा रमा शारदामें बड़ी प्रीति, काहूको भवानी और लक्ष्मीमें मन है। काहूको गणेश औ महेश माहिं लागो चित्त, काहूको इष्ट देव पानी अरु पवन है॥ काहूको ध्यान हानुमान और भैरवको, काहूको पूज्य शम्भु पुत्र गजानन है। काहूके शालिग्राम रामनाम अमर मूल, मेरे तो केवल एक राधाही धन है॥२॥ सोरठा—जय व्रजचन्द मुकुन्द, आनँदनिधि ऋधि सिधि भवन॥ जय वृन्दावन चन्द, नन्दसुवन

श्रीकृष्णाय नमः॥ राजोवाच॥ स्वधामानुगते कृष्णे यदुवंशविभूषणे॥ कस्य वंशोऽभवत्पृथ्व्यामेतदाचक्ष्व मे मुने॥॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ योंत्यः पुरंजयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप॥ तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम्॥ प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः॥२॥ विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः॥ नंदिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे॥३॥ अष्टत्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यंति पृथिवीं नृपाः॥ शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः॥ क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः॥४॥

त्रिभुवनपती॥१॥ दोहा—अहै प्रथम अध्यायमें, भावी मागध वंश। धरा भोग कार है सविधि, सो वर्णब विनशंस॥१॥ राजा परीक्षित्ने बूझा कि हे मुने! यदुकुलके भूषणरूप श्रीकृष्णचन्द आनन्दकन्द जब अपने परमधामको चलेगये, तब पृथ्वीपर आगेको किसका वंश चला? यह मुझको समझाकर कहो॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! बृहद्रथके कुलके अन्तमें पुरंजय नाम राजा होगा, जिसका वर्णन प्रथम नवमस्कन्धमें आपको सुनाचुकाहूं, उसका मंत्री शुनक पुरंजयको मारकर प्रद्योतनाम अपने पुत्रको राजसिंहासन पर बिठावेगा, उसके पालक नाम पुत्र होगा॥२॥ उसके विशाखयूप नाम पुत्र होगा, उसके राजक नाम एक पुत्र होगा, राजकके नन्दिवर्द्धन नाम पुत्र होगा, यह पॉच राजा प्रद्योतन नामसे प्रसिद्ध होंगे॥३॥ और एकसौ अड़तीस (१३८) वर्षतक पृथ्वीकी रक्षा करैंगे, उनके पीछे शिशुनाग नाम राजा होगा, उसके काकवर्ण

नाम राजा होगा, काकवणके क्षेमधर्मा नाम पुत्र होगा, उसके क्षेत्रज्ञ नाम पुत्र होगा॥४॥ क्षेत्रज्ञके विधिसार नाम पुत्र उत्पन्न होगा, उसके अजातशत्रु नाम पुत्र होगा, उसके दर्भकनाम पुत्रं होगा, उसके अजय नाम पुत्र होगा॥५॥ अजयके नन्दिवर्द्धन नाम पुत्र होगा, उसके महानन्द नाम पुत्र होगा, हे कुरुवंशभूषण! यह शिशुनागादिवंशी दश राजा तीनसौ साठ (३६०) वर्षतक कलियुगमें राज्यभोग करैंगे॥६॥ हे महाराज! महानन्दका पुत्र शूद्रीके गर्भसे बड़ा तेजस्वी और पराक्रमी॥७॥ महापद्म सेनाका पति, नन्दनाम क्षत्रियवंशका विध्वंस करनेवाला होगा, इस नन्दराजासे लेकर आगेको शुद्रके तुल्य अधर्मी राजा होंगे॥८॥ सो यह नन्द पृथ्वीपर एक महाछत्रधारी राजा होगा और कोई संसारमें उसकी

विधिसारः सुतस्तस्याजातशत्रुर्भविष्यति॥ दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः॥५॥ नंदिवर्धन आजेयो महानंदिः सुतस्ततः॥ शिशुनागो दशैवते षष्ट्युत्तरशतत्रयम्॥६॥ समा भोक्ष्यंति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः॥ महानंदिसुतो राजञ्छूद्रीगर्भोद्भवो बली॥७॥ महापद्मपतिः कश्चिन्नंदः क्षत्त्रविनाशकृत्॥ ततो नृपा भविष्यंति शूद्रप्रा यास्त्वधार्मिकाः॥८॥ एकच्छत्रां स पृथिवीमनुल्लंघितशासनः॥ शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः॥९॥ तस्य चाष्टौ भविष्यंति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः॥ य इमां भोक्ष्यंति महीं राजानः स्म शतं समाः॥१०॥ नव नंदान्द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति॥ तेषामभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यंति वै कलौ॥११॥ स एव चंद्रगुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति॥ तत्पुत्रो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः॥१२॥ सुयशा भविता तस्य संगतः सुयशः सुताः॥ शालिशूक स्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति॥१३॥

आज्ञाको उल्लंघन न करैगा, मानो क्षत्त्रियोंका मानभंग करनेमें दूसरा परशुराम होगा॥९॥ उस नन्दराजाके सुमाल्यादिक आठ पुत्र होंगे, वह सब राजा होकर सौ (१००) वर्षतक पृथ्वीकी रक्षा करैंगे॥१०॥ अपने अनुगत उन नवो नन्दराजाओंको कोई एक चाणक्य नाम त्राह्मण मारेगा, तिनके मरणोपरान्त कलियुगमें मौर्य नाम राजा पृथ्वीका राज्य करैगा॥११॥ फिर वही नवनंदका मारनेवाला चाणक्य नाम ब्राह्मण चन्द्रगुप्तमौर्यको राज्यसिंहासनपर बैठावेगा, उस चन्द्रगुप्तके वारिसार नाम पुत्र होगा, उसके अशोकवर्धन नाम पुत्र होगा॥१२॥ अशोकवर्धनके सुयशा

नाम पुत्र होगा, उसके संगतनाम पुत्र उत्पन्न होगा, संगतके शालिशुकनाम पुत्र होगा, उसके सोमशर्मानाम पुत्र होगा॥१३॥ सोमशर्माके शतधन्वा पुत्र होगा, उसके दूसरा बृहद्रथ पुत्र होगा, यह दश मौर्यवंशी राजा कलियुगमें एकसौ तेत्तीस (१३३) वर्षतक पृथ्वीपर आनन्द भोगेंगे, हे कौरवकुलमार्त्तण्ड! इन सब मौर्योंमें पहले एकादश रथा नाम मौर्य होगा, यह जाननेयोग्य बात है॥१४॥ फिर मौर्यवंशका राजा बृहद्रथका सेनापति पुष्पमित्र अपने स्वामीको मारकर राज्य करैगा पौष्पमित्रका पुत्र अग्निमित्र राजा होगा उसका सुज्येष्ठ नाम पुत्र होगा, सुज्येष्ठक पुत्र वसुमित्र होगा, वसुमित्रका भद्रक नाम पुत्र होगा, भद्रकका पुत्र पुलिन्द होगा, पुलिन्दका पुत्र घोष होगा, घोषका पुत्र वज्रमित्र होगा वज्रमित्रका

शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्बृहद्रथः॥ मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम्॥ समा भोक्ष्यंति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्वह्॥१४॥ अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठोऽथ भविष्यति॥ वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिंदो भविता सुतः॥॥१५॥ ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति॥ ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिरिति श्रुतः॥१६॥ शुंगा दशैते भोक्ष्यंति भूमिं वर्षशताधिकम्॥ ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्नृप॥१७॥ शुंगं हत्वा देवभूतिं कण्वोऽमात्यस्तु कामिनम्॥ स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः॥१८॥ तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः॥ काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च॥ शतानि त्रीणि भोक्ष्यंति वर्षाणां च कलौ युगे॥१९॥ हत्वा कण्वं सुशर्माणं तद्भृत्यो वृषलो बली॥ गां भोक्ष्यत्यंध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः॥२०॥

पुत्र भागवत होगा; भागवतका पुत्र देवभूति होगा॥१५॥१६॥ यह दश शुंगराजा कहे जायँगे और दशों राजा एकसौबारह (११२) वर्षतक पृथ्वीका राज्य करैंगे, हे कुरुकुलभूषण! इन सबमें शुंगा नाम राजा पहिले होगा, हे नरेन्द्र! फिर यह भूमि अल्पगुणवाले कण्व नाम राजाओंके अधीन रहैगी॥१७॥ देवभूति नाम शुँगाका मंत्री बडा बुद्धिवान वसुदेवनामा होगा सो परस्त्रीगामी देवभूति शुंगको मारकर आपही राज्य करैगा, उसके भूमित्र पुत्र होगा॥१८॥ भूमित्रके नारायण नाम पुत्र होगा। नारायणके सुशर्मा नाम पुत्र होगा यह कण्ववंशी चार राजा कलि युगमें तीनसै पैंतालीस (३४५) वर्षतक पृथ्वीका राज्य करैंगे॥१९॥ सुशर्माका कोई चाकर महानीच शूद्र जाति अस

त्तम बली नाम कण्ववंशी सुशर्माको मारकर कुछ वर्षतक आप पृथ्वीका राज्य करैगा॥२०॥ फिर उसके पीछे उस बली नाम राजाका भ्राता कृष्ण नाम पृथ्वीका पति होगा, उसके श्रीशान्तकर्ण नाम पुत्र होगा, श्रीशान्तकर्णके पौर्णमास नाम पुत्र होगा॥२१॥ उसके लम्बोदर नाम पुत्र होगा, लम्बोदरका पुत्र चिविलक होगा, चिविलकके मेघस्वाति नाम पुत्र होगा, उसके अटमान नाम पुत्र होगा॥२२॥ अटमानके अनिष्टकर्मा नाम पुत्र होगा, उसके हालेय नाम पुत्र होगा, हालेयके तलक नाम पुत्र होगा, तलकके पुरीषभीरु नाम पुत्र होगा उसका सुनन्दन नाम पुत्र होगा॥२३॥ सुनन्दनके चकोर नाम तनय होगा, चकोरके नवभाशिवस्वाति नाम पुत्र होगा, हे रिपुदमन! उसके गोमती नाम पुत्र होगा, गोमतीके पुरीमान् नाम

कृष्णनामाऽथ तद्भाता भविता पृथिवीपतिः॥ श्रीशांतकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः॥२१॥ लंबोदरस्तु तत्पुत्र स्तस्माच्चिविकलो नृपः॥ मेघस्वातिश्च विकलादटमानस्तु तस्य च॥२२॥ अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः॥ पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः॥२३॥ चकोरो नवमो यत्र शिवस्वातिररिंदम॥ तस्यापि गोमती पुत्रः पुरीमान्भविता ततः॥२४॥ मेदःशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः॥ विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्रविज्ञः सलोमधिः॥२५॥ एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च॥ षट्पञ्चाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यंति कुरुनन्दन॥२६॥ सप्ताभीरा आवभृत्या दशगर्दभिनो नृपाः॥ कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यंति च लोलुपाः॥२७॥ ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः॥ भूयो दश गुरुण्डाश्च मौना एकादशैव तु॥२८॥

पुत्र होगा॥२४॥ उसके मेदशिरा नाम पुत्र होगा मेदशिराके शिवस्कन्द नाम पुत्र होगा, ताके यज्ञश्रीनाम पुत्र होगा, यज्ञश्रीके विजय नाम पुत्र होगा, उसके चन्द्रविज्ञ नाम पुत्र होगा, और उसके सलोमधिनाम पुत्र होगा॥२५॥ हे कुरुनन्दन! यह तीस राजा चारसौ छप्पन ४५६ वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करैंगे॥२६॥ इनके उपरान्त आवभृत्य नामनगरीमें सात आभीर जातिके राजा होंगे, उनके पीछे फिर दश गर्दभ नाम राजा होंगे, उनके उपरान्त कंकजातिके सोलह राजा महालोभी होंगे॥२७॥ उनके पीछे आठ यवन राजा होंगे, उनके पीछे चौदह तरुष्क (तुरक, तुरकिस्तानके वासी) राजा होंगे, फिर दश गुरुण्ड (अंगेरज, इंगलिस्तान निवासी) राजा होंगे, उनके पीछे ग्यारह मौन राजा होंगे॥ २८॥

यह ग्यारह मौन राजाके विना सब राजा एक सहस्र निन्यानवे (१०९९) वर्षतक पृथ्वी पर राज्य करैंगे॥२९॥ हे राजन्! ग्यारह मौन राजा तीनसो ३०० वर्षतक पृथ्वीका भोग करैंगे, उनके मरनेके पीछे किलकिला नगरमें भूतनन्दनाम राजा होगा, उसके पीछे वंगिर नाम राजा होगा॥३०॥ फिर उसके पीछे उसका भाई शिशुनंदि और शिशुनन्दिके पीछे यशोनंदि यशोनन्दिके पीछे प्रवीरक, यह सब राजा एकसौ छः (१०६) वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करैंगे॥३१॥ उस शिशुनंदिके तेरह पुत्र होंगे और वह सब बाह्लीकही कहलावेंगे और आनन्दपूर्वक पृथ्वीका राज्य करैंगे, फिर और एक दूसरा पुष्पमित्र नाम राजा होगा, उसके दुर्मित्र नाम पुत्र होगा॥३२॥ फिर सात तो

एते भक्ष्यंति पृथिवीं दशवर्षशतानि च॥ नवाधिकां च नवतिं मौना एकादश क्षितिम्॥२९॥ भोक्ष्यंत्यब्दशतान्यंग त्रीणि तैः संस्थिते ततः॥ किलिकिलायां नृपतयो भूतनंदोऽथ वंगिरिः॥३०॥ शिशुनंदिश्च तद्भ्रातायशोनंदिः प्रवीरकः॥ इत्येते वै वर्षशतं भविष्यंत्यधिकानि षट्॥३१॥ तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाणिकाः॥ पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च॥३२॥ एककाला इमे भूपाः सप्तांध्राः सप्त कौशलाः॥ विदूरपतयो भाव्या नैषधास्तत एव हि॥ ३३॥ मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः॥ करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिंदयदुमद्रकान्॥३४॥ प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः॥ वीर्यवान्क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि॥ अनुगंगामाप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यंति मेदिनीम्॥३५॥ सौराष्टावंत्याभीराश्च शूद्रा अर्बुदमालवाः॥ व्रात्या द्विजा भविष्यंति शूद्रप्राया जनाधिपाः॥३६॥

अंध, सात कौशल और एक वैदूर्य नगरका नरेश नैषध यह सब खण्ड मण्डलेश्वर राजा एकही समयमें होंगे ॥३३॥ फिर मगध देशमें विश्वस्फूर्जित पुरंजय नाम राजा होगा, सो बडा पराक्रमी विदुर्मति होगा और ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंको धर्मसे भ्रष्ट करके पुलिन्द, यदु और मद्रक म्लेच्छकी तुल्य कर देगा॥३४॥ और जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, न हों ऐसी नीच प्रजाको स्थापन करैगा, यह वीर्यवान पुरंजय क्षत्रियोंका विध्वंस करके पद्मावती नाम पुरीमें बसकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागतक राज्य करैगा॥३५॥ सौराष्ट्रदेश, उज्जैन, अभीर, शुद्र, अर्बुद, मालवादेशनिवासी द्बिज अर्थात् तीनों वर्ण यज्ञोपवीत क्रिया न करके संस्कार हीन होजायँगे और राजा भी शुद्रके समान

काम करने लगैंगे॥३६॥ सिन्धुनदीसे लेकर चन्द्रभागानदीके किनारेतक और कौंतीपुरी काश्मीर आदि सब देशोंमें शूद्र क्रियाहीन म्लेच्छप्राय वेदमर्यादारहित, तेजहीन राजा होंगे॥३७॥ हे राजन्! यह सब एकही कालमें म्लेच्छप्राय अधर्मी, असत्यपरायण, अल्पदाता, महाक्रोधी॥३८॥ स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मणको मारनेवाले, परनारी, पराये द्रव्यके, हरनेवाले उत्पन्न होंगे और मारैंगे, अल्पपराक्रम, अल्प आयुर्बलवाले होंगे॥३९॥ गर्भाधानआदिक संस्कारोंसे रहित, सन्ध्या तर्पणादि क्रियाओसे हीन, रजोगुण, तमोगुणसे आवृत म्लेच्छ राजा ओंका रूप धारण किये प्रजाको अनेक अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले होंगे॥४०॥ इन पालनेवाले राजाओंके सब देश उन राजाओंके भाव और

सिंधोस्तटं चंद्रभागां कौंतीं काश्मीरमंडलम्॥ भोक्ष्यंति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः॥३७॥ तुल्यकाला इमे राजन्म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः॥ एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः॥३८॥ स्त्रीवालगोद्विजघ्नाश्च परदार धनादृताः॥ उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः॥३९॥ असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृताः॥ प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः॥४०॥ तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः॥ अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यंति पीडिताः॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वाद० कलौ भाविनृपान्वय० प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया॥ कालेन बलिना राजन्नंक्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतीः॥१॥ वित्तमेव कलौ नणां जन्माचारगुणोदयः॥ धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥२॥

आचरणको और अपवाद करनेवाले लोगोंको परस्पर क्लेशोंसे और राजाओके लिये किये हुए दुष्ट कर्मोंसे दुःखी होकर क्षयको प्राप्त होंगे॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां राजवंशवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा—दुसरे जब कलिकालको, बढै दोष अत्यन्त॥ तब हरि कल्की रूपधर, मारहिं दुष्ट असन्त॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसके उपरान्त फिर महाबलवान् कालके प्रभावसे दिनपर दिन धर्म, सत्य, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल, स्मरण आदि घटता चलाजायगा॥१॥ कलियुगके विषे जिस पुरुषके पास धन होगा, वही बलवान, गुणनिधान, आचारवान् और बुद्धिवान् कहलावेगा और जो महाबलवान् होगा, वही धर्माध्यक्ष और न्यायशाली हो

सबको जीतैगा॥२॥ रीति प्रीति केवल एक स्त्री और पुत्रहीमें रहेगी और सहृद, मित्र, कुल, गोत्रादिकमें कपट व्यवहार रह जायगा स्त्री पुरुष होनेमें कुछ श्रेष्ठ कुल, आचार विचार न होगा केवल रति करनेमें कुशल देखलेंगे और ब्राह्मणपनमें केवल जनेऊ मात्रही रहजायगा॥३॥ आश्रम चिह्नमात्रही करके पहिचाने जायॅगे, परस्पर स्नेह कहीं नहीं रहैगा, धनहीन न्यायमें नित्य प्रति हारतेही रहा करैंगे; क्योंकि न्यायाध्यक्ष जबतक धनपात्रोसे द्रव्य पाते रहैंगे तबतक धनहीनको हरातेही रहा करैंगे, और अधिक बोलनेवालेहीको लोग पण्डित कहैंगे॥४॥ निर्धनोंका नाम लोग असाधु रक्खैंगे। दम्भवान् और कपटीहीको लोग साधु कहैंगे; विवाह स्वीकार मात्रही समझा जायगा, और स्नानही सब शृंगार मात्र होगा॥५॥

दांपत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव ब्यावहारिके॥ स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि॥३॥ लिंगमेवाश्रमख्याताव न्योऽन्यापत्तिकारणम्॥ अवृत्त्यां न्यायदौर्बल्यं पांडित्ये चापलं वचः॥४॥ अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु॥ स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्॥५॥ दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्ये केशधारणम्॥ उदरंभरिता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥६॥ दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोर्थं धर्मसेवनम्॥ एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिराकीर्णे क्षितिमंडले॥७॥ ब्रह्मविट्क्षत्त्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः॥ प्रजा हि लुब्धै राजन्यैर्निर्घृणैर्दस्युधर्मभिः॥८॥ आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यंति गिरिकाननम्॥ शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजनाः॥९॥

जो ताल वा सरोवर दूर होगा, वही तीर्थ माना जायगा, माता पिता और गुरुको कोई तीर्थ नहीं मानेंगे, सब शिरपर बाल रखना यही सुन्दरता कहावेगी, जैसे तैसे पेट भरलेना परम चतुरता और पराक्रम गिना जायगा, और ढीठ पुरुषही सत्यवादी कहलावेंगे॥६॥ कुटुम्बका उदरपूर्ण करनाही स्थानपन और चतुराईका मूल समझा जायगा धर्मका सेवन केवल इसीलिये किया जायगा जिससे संसारमें यश हो, इसप्रकार जब सर्वत्र भूमण्डल प्रजाओंसे व्याप्त होजायगा॥७॥ तत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इनमें जो बली होगा वही भूपाल कहा जायगा लोभी, निर्दयी, लुटेरोसे और राजाओसे॥८॥ अपना स्त्री, धन छीन लेनेके भयसे सब प्रजा भागकर पर्वतोंमें, वनोंमें जा छिपैगी और वहाँ शाक, कन्दमूल,

फल, मधु, मांस, पुष्प, बीज, इनसे अपना उदर पूर्ण करैगी॥९॥ अकाल और राजाओंके दण्डसे कष्टपाकर अनावृष्टि, शीत, वायु, धूप, वर्षा और हिमसे परस्पर अत्यन्त पीड़ित हो क्लेशपाकर सम्पूर्ण नष्ट होजायगा॥१०॥ भूख, प्यास, रोग, संताप और चिन्तासे प्रजा अत्यन्त पीड़ितहो जायगी और मनुष्योंकी पूर्ण अवस्था कलियुगमें बीश २० अथवा तीस ३० वर्षकी हुआ करैगी॥११॥ जब कलियुगका महादोष बढैगा तब प्राणी तनु क्षीण और महामलीन होजायँगे॥१२॥ धर्मके बदलेमें पाखण्डही पाखण्ड रहजायगा, राजा लुटेरे होंगे, वृथा हिंसा और बात बातमें झूठ बोलकर नाना प्रकारकी वृत्तियोंको करैंगे और सदा बुरे कामोंमें निष्ठा रहैगी॥१३॥ सब वर्णाश्रम शूद्रके सदृश होजायँगे और गायें

अनावृष्ट्या विनंक्ष्यंति दुर्भिक्षकरपीडिताः॥ शीतवातातपप्रावृड्ढिमैरन्योऽन्यतः प्रजाः॥१०॥ क्षुत्तृड्भ्यां व्याधि भिश्चैव संतापेन च चिंतया॥ त्रिंशद्विंशतिवर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम्॥११॥ क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः॥ वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम्॥१२॥ पाषंडप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु॥ चौर्यानृतवृथाहिंसानानावृत्तिषु वै नृषु॥१३॥ शूद्रप्रायेषु वर्णेषु छागप्रायासु धेनुषु॥ गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बंधुषु॥१४॥ अणुप्राया स्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु॥ विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु॥१५॥ इत्थं कलौ गतप्राये जने तु खर धर्मणि॥ धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति॥१६॥ चराचरगुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः॥ धर्मत्राणाय साधूनां जन्मकर्मापनुत्तये॥१७॥

बकरीके समान छोटी छोटी होंगी, चारों आश्रम गृहस्थप्राय होजायँगे और स्त्रीके भैयोंसे लोग प्यार करैंगे और घरको सम्बन्ध मात्र मानैंगे॥१४॥ अन्न और औषधियें सब क्षीण होजायँगी, केवल वृक्षोंमें प्रायः शमी के वृक्षही रहजायँगे, वर्षाकालमें बिजली अधिक चमकेगी वर्षा बहुत थोड़ी हुआ करैगी, गृहस्थियोंके घर धर्मकर्मसे शून्य होजायँगे॥१५॥ इसप्रकार कलियुगमें सब मनुष्य अधर्मी हो गधेके समान होजायँगे और महाभयंकर कलियुगके अंतका समय आवेगा, तब धर्मकी रक्षा करनेके लिये आदि पुरुष भगवान् शुद्ध सतोगुणमूर्ति धारण करके निष्कलंक रूपसे प्रगट होंगे॥१६॥ चराचरके गुरु सबके आत्मा ईश्वर विष्णुका अवतार महात्मा पुरुषोंके धर्मकी रक्षा और उनके कर्मोंके

प्रचारके लिये होगा॥१७॥ शंभग्राममें रहनेवाले विष्णुयशा ब्राह्मणके घरमें (चैत्रशुक्ला द्वादशीको) विष्णु भगवान् कल्किअवतार धारण करैंगे शीघ्रगामी देवदत्त नाम घोड़ेपर चढ़कर खड्ग हाथमें ले दुष्टोके दमनकर्त्ता अणिमादिक अष्टसिद्धियोंसे संयुक्त॥१८॥१९॥ जगदीश्वर भगवान् अनुपम कान्तिवाले महातेजस्वी कल्किरूपसे राजाओंकेसा वेष धारण किये उस घोडेपर चढ़ करोडों चोरोंका विध्वंस करैंगे॥२०॥ जब सब चोरोंका संहार होजायगा, तब देश, देशान्तरके मनुष्योंके अतिपुण्यरूप सुगन्धयुक्त पवनके लगनेसे उन मनुष्योंके मन उज्ज्वल होजायँगे॥

शंभलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः॥ भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥१८॥ अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः॥ असिनाऽसाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥१९॥ विचरन्नाशुना क्षोण्यां हये नाप्रतिभद्युतिः॥ नृपलिंगच्छदो दस्यून्कोटिशो निहनिष्यति॥२०॥ अथ तेषां भविष्यंति मनांसि विशदानि वै॥ वासुदेवांगरागातिपुण्यगंधानिलस्पृशाम्॥ पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु॥२१॥ तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः संभविष्यति॥ वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते॥२२॥ यदाऽवतीर्णो भगवान्कल्किर्धर्मपतिर्हरिः॥ कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी॥२३॥ यदा चंद्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती॥ एकाराशौ समेष्यंति तदा भवति तत्कृतम्॥२४॥ येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यंति च पार्थिवाः॥ ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः॥२५॥ आरभ्य भवतो जन्म यावन्नंदाऽभिषेचनम्॥ एतद्वर्षसहस्रं तु शतं पंचदशोत्तरम्॥२६॥

॥२१॥ और उन नगरनिवासियोंके हृदयमें शुद्ध चैन्य सत्त्वमूर्त्ति भगवान् वासुदेव स्थित होंगे, तब उन प्रजानके पुत्रादिक उत्तम और पुष्ट होंगे॥२२॥ जब धर्मके पालनेवाले कल्किभगवान् प्रगट होंगे तब सतयुग वर्त्तनेलगेगा और प्रजाकी सन्तान सत्विकी होगी॥२३॥ जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति यह सब पुष्यनक्षत्रके योग करके एक राशिमें आवैंगे तब सत्ययुग होगा॥२४॥ जो चन्द्रवंशी और सूर्यवंशी राजा होचुके हैं और जो ससमय विद्यमान हैं और जो आगेको होंगे, उन सबके नाम संक्षेपसे भिन्न भिन्न मैंने आपको सुनाये॥२५॥ तुम्हारे जन्मसे लेकर नन्दके

राज्यतक पन्द्रहसौ दश (१५१०) वर्ष बीतगये॥२६॥ आकाशमें सप्त ऋषियोंके मध्य जो दो तारे पुलह और ऋतु, उदयकालके पहिले दीखते हैं, उन दोनोके मध्यमें रात्रिके समय उन दोनोंके समान एक नक्षत्र देखनेमें आता है॥२७॥ वह अरुंधतीके नक्षत्रसहित सप्तऋषि मनुष्योंके सौ (१००) वर्षतक प्रत्येक नक्षत्रपर रहा करते हैं, अर्थात् जैसे चन्द्रमा एक नक्षत्रपर एक दिवस रहता है, इसी प्रकार सप्तऋषि मनुष्योंके सौ १०० वर्षके अनुमान एक नक्षत्रपर रहते हैं, सो यह सप्तऋषि तुम्हारे जन्मके समय मघा नक्षत्रपर थे और इससमय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं॥२८॥ कलियुगके आनेका समय ठीक ठीक इस प्रकार निश्चय किया है कि, जब महातेजस्वी शुद्ध सत्यमूर्ति श्रीकृष्ण

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि॥ तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि॥२७॥ तेनैव ऋषयो युक्ता स्तिष्ठंत्यब्दशतानि च॥ ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः॥२८॥ विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः॥ तदाऽविशत्कलिर्लोकं पापे यद्रमते जनः॥२९॥ यावत्स पादपद्माभ्यां स्पृशन्नास्ते रमापतिः॥ तावत्कलिर्वै पृथिवीं पराक्रांतुं न चाशकत्॥३०॥ यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरंति हि॥ तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वाद शाब्दशतात्मकः॥३१॥ यदा मघाभ्यो यास्यंति पूर्वाषाढां महर्षयः॥ तदा नंदात्प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति॥॥३२॥ यस्मिन्कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि॥ प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥३३॥

भगवान् अपने परमधामको सिधारे, उसीसमय कलियुगने इसलोकमें अपना प्रवेश किया, जिस कलियुगके आतेही मनुष्योंके मनकी पापमें रुचिहुई॥२९॥ हे राजन्! जबतक रमापति भगवान् अपने चरणारविन्दोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते और इसपर विराजमान रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना कुछ कर्तव्य न करसका॥३०॥ जबसे मघा नक्षत्रमें सप्तऋषि वर्ते हैं, तबहींमे कलियुग प्रवृत्त होकर देवताओंके बारह सौ १२०० वर्षतक कलियुग रहता है॥३१॥ जब सप्तऋषि मघानक्षत्रसे निकले पूर्वाषाढा नक्षत्रपर जायँगे, तब नन्दका राज्य वर्त्तेगा और उसी नन्दके राज्यसे कलियुगका अत्यन्त प्रताप बढैगा॥३२॥ जिसदिनसे जिस मुहूर्त्तसे जिस क्षणसे श्रीकृष्ण भगवान् अपने परम

धामको सिधारे उसी दिन और उसी समय कलियुगने इस लोकमें अपना प्रवेश किया, ऐसे भूतकालके जाननेवाले ऋषि लोग कहतेहैं॥३३॥ जब देवताओंके एक सहस्र १००० वर्ष व्यतीत होजायॅगे जो कलियुगका प्रमाण है, फिर पीछे सतयुगका प्रवेश होगा और सतयुगके आनेका यही लक्षण दिखाई देगा कि, मनुष्योंके मनमें आपसे आप आत्माका प्रकाश होजायगा॥३४॥ हे राजन्! जिसप्रकार पृथ्वीपर मनुका वंश हुआ और आपसे कहा, उसीप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रोंका वंश युग युगमें जाननेको योग्य है॥३५॥ जो आजतक नाममात्रसेही जानेजाते हैं, उन जाननेवालोंकी केवल कथामात्रही कहनेको रहगई है; ऐसे महात्मा पुरुषोंकी कीर्त्तिही संसार में आजतक चली जाती है, वह लोग पृथ्वी

दिव्याब्दानां सहस्रांते चतुर्थे तु पुनः कृतम्॥ भविष्यति यदा नृृणां मन आत्मप्रकाशकम्॥३४॥ इत्येष मानवो वंशो यथा संख्यायते भुवि॥ तथा विट्छूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगेयुगे॥३५॥ एतेषां नामलिंगानां पुरुषाणां महात्मनाम्॥ कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरेव स्थिता भुवि॥३६॥ देवापिः शंतनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः॥ कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ॥३७॥ ताविहैत्य कलेरंते वासुदेवानुशिक्षितौ॥ वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत्प्रथयिष्यतः॥३८॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्॥ अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्त्तते॥३९॥ राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथाऽपरे॥ भूमौ ममत्वं कृत्वांते हित्वेमां निधनं गताः॥४०॥

पर न रहे इसलिये प्राणियोंको चाहिये कि, राज्य और पुत्रादिककी मोह ममताको त्यागकर अपने धर्म कर्ममें तत्पर रहैं॥३६॥ चन्द्रवंशी शन्तनुका भ्राता, देवापी और इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुआ सूर्यवंशी राजा मरु यह दोनों राजा अत्यन्त योगबलके प्रतापसे कलापग्राममें वास करते हैं॥३७॥ यह दोनों राजा कलियुगके अन्तमें भगवान्की शिक्षा पाकर पहिलेके समान सब वर्णाश्रमके धर्मोंका विस्तार करैंगे॥३८॥ सत युग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, यह चारों युग इस क्रमसे पृथ्वीपर मनुष्योंके विषे वर्त्तते रहते हैं॥३९॥ हे राजन्! यह जो राजा मैंने आपके आगे वर्णन किये, और इनके सिवाय और भी जो हुए, सो सब इस भूमिमें ममता करके और भूमिको यहीं छोडकर आप रीते हाथों नाशको प्राप्त हुए॥४०॥

जिस देहका नाम राजाथा उस देहको अन्त समय कृमि, विष्ठा, राख, यह नाम होते हैं, ऐसे शरीरसे जो कोई शरीरधारी दूसरेसे द्रोह करते हैं, उनका कौनसा स्वार्थ सिद्ध होता है? नरकमें वास करनेके सिवाय कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता॥४१॥ किसप्रकार इस महाअखण्ड भूमिके हमारे पुरुषा ओंने पालीथी और अब किसप्रकार हमारे पुत्र पौत्रके पास और हमारे वंशजोंके पास स्थिर रहेंगी?॥४२॥ वह मूर्खलोग पंचभूतमय इस देहको अपना मानकर भूमिसे ममता करके अन्तसमय दोनोंको छोडकर आप अकेले चलेगये॥४३॥ हे राजन्!जो जो भूपति हुए वे सब अपने पराक्रमसे भूमिका भोग करते रहे, इस महाविकराल कालने उन सबकी कथामात्रही कहनेको रक्खी॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे

कृमिविड्भस्मसंज्ञाऽन्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च॥ भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥४१॥ कथं सेयमखंडा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता॥ मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य च॥४२॥ तेजोऽवन्नमयं कार्यं गृहीत्वात्मतयाऽबुधाः॥ महीं ममतया चोभौ हित्वांतेऽदर्शनं गताः॥४३॥ येये भूपतयो राजन्भुंजंति भुवमोजसा॥ कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च॥४४॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वा० कल्क्यवतारादि० द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान्नृपान्हसति भूरियम्॥ अहो मां विजिगीपंति मृत्योः क्रीडनका नृपाः॥१॥ काम एष नरेन्द्राणां मोहः स्याद्विदुषामपि॥ येन फेनोपमे पिंडे येऽतिविश्रंभिता नृपाः॥२॥ पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमंत्रिणः॥ ततः सचिवपौराप्तकरींद्रानस्य कंटकान्॥३॥

भाषाटीकायां कल्क्यवतारवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा—तिसरेमें वसुधा वचन, राज्यदोष गुणग्राम॥ कुल कलंक कलिकालके, मेटन हरिका नाम॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्!यह पृथ्वी अपने जीतनेका परिश्रम करते हुए राजाओंको देखकर अपने मनही मनमें ठट्ठे मार मारकर हँसती है कि, अहो! यह सब मृत्युके खिलौने राजा मुझको जीतना चाहते हैं, यह नहीं जानते कि, हमसे अनन्त राजा मरमरकर खपगये॥१॥ जिस कामनाने बुद्धुदेके समान इस देहके विषे जिन राजाओंको विश्वास उपजाया, उन राजाओंकीभी कामना निष्फल है॥२॥ मुख्य तो राजाओंका यह विचार है कि, पहले तो पाॅचो इंद्रिय और छटे मनको जीतकर, पीछे मंत्री, प्रधान, सचिव, पुरवासी और कुटुम्बादिक

अपने वशमें करके शत्रुओंकी जडको उखाडे, महाव्रत और कटककी ओर से बेखटकहो राज्य करैंगे॥३॥ और इस रीतिसे समुद्रतककी भूमिको जीतैंगे। इसप्रकार आशावेष्टित हृदयवाले सब अपने २ निकट रात दिन डंका बजानेवाले कालका कुछ ध्यान नहीं करते॥४॥ अनेक राजा तो समुद्रके पारतक मुझको अपने पुरुषार्थसे जीतकर अत्यन्त तृष्णासे समुद्रके देशोंमें (द्वीपोंमें)भी प्रवेश करते हैं, इन्द्रिय और मनके जीतनेपर राज्य साधनेकी इच्छा करनी मूर्खता है और आत्मजयका फल तो एक मुक्तिही है॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित! वसुधा कहती है कि, देखो! जो मुझको छोड़कर मनु और मनुकी सन्तान मेरे ऊपर जैसे आये वैसेही हाथ पसारे चलेगये, ऐसी मुझ

एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम्॥ इत्याशाबद्धहृदया न पश्यंत्यंतिकेंतकम्॥४॥ समुद्रावरणां जित्वा मां विशंत्यब्धिमोजसा॥ कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम्॥५॥ यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च कुरूद्वह॥ गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यंत्यबुद्धयः॥६॥ मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातॄणां चापि विग्रहः॥ जायते ह्यसतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम्॥७॥ ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः॥ स्पर्धमाना मिथो घ्नंतिम्रियंते मत्कृते नृपाः॥॥८॥ पृथुः पुरूरवा गाधिर्नहुषो भरतोऽर्जुनः॥ मांधाता सगरो रामः खट्वांगो धुंधुहा रघुः॥९॥ तृणविंदुर्ययातिश्च शर्यातिः शंतनुर्गयः॥ भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः॥१०॥ हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरा वणः॥ नमुचिः शंबरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः॥११॥

अचलाको यह कुबुद्धी राजा युद्धमें जीतना चाहते हैं॥६॥ देखो! राज्य की ममता में बँधे हुए असत् राजा मेरेलिये पिता, पुत्र, भ्राता यह सब परस्परभी क्लेश करते हैं॥७॥ हे मूढ! यह वसुधा मेरी है, इसमें तेरी किंचिन्मात्र भी नहीं है, यह कहते कहते और परस्पर स्पर्द्धा करते २ मेरे लिये अनेक राजा युद्धही करते करते मरगये॥८॥ पृथु, पुरुवा, गाधि, नहुष, भरत, अर्जुन, मांधाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु॥९॥ तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलायाश्व, ककुत्स्थ, नैषध, नृग॥१०॥ हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, रावण, नमुचि, शम्बर, नरकासुर,

हिरण्याक्ष, तारक॥११॥ ऐसे ऐसे अनेक दैत्य और राजा जो कि, बड़ेबडे बलवान और सर्वगुण निधान, योद्धाओंके पराजय करनेवाले, जिन्होंने कहीं भी हार नहीं मानी, सबही अजीत होगये॥१२॥ सो सब मरणधर्मा मेरे विषे अत्यन्त ममता करके वर्त्ततेथे सो सब विनाही मनोरथ पूर्ण किये कालके गालमें चले गये॥१३॥ और सबकी एक कथाही मात्र रहगई। हे समर्थ! इसप्रकार पृथ्वीने हँसकर कहा कि, हे विभो! लोकोंमें यश विस्तार करके आपतो परलोकको चलेगये। ऐसे बडे बडे राजाओंकी कथा मैंने तुमसे कही, सो केवल विषयोंकी असारता और विज्ञान और वैराग्यका निरूपणकरनेके लिये सो इसमें केवल वाणीका विलास है, कुछ परमार्थ नहीं॥१४॥ जिस अमंगलके दूर करनेवाले उत्तमश्लोक भगवान्केगुणोंको कवीश्वर लोग सदा

अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः॥ सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः॥१२॥ ममतां मय्यवर्त्तंत कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः॥ कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो॥१३॥ कथा इमास्ते कथिता महीयसां विताय लोकेषु यशः परेयुषाम्॥ विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम्॥१४॥ यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः संगीयतेऽभीक्ष्णममंगलघ्नः॥ तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः॥१५॥ राजोवाच॥ केनोपायेन भगवन्कलेर्दोषान्कलौ जनाः॥ विधमिष्यंत्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने॥१६॥ युगानि युगधर्मांश्चमानं प्रलयकल्पयोः॥ कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ कृते प्रवर्त्तते धर्मश्चतुष्पात्तैर्जनैर्धृतः॥ सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप॥१८॥ संतुष्टाः करुणा मैत्राः शांता दांतास्तितिक्षवः॥ आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः॥१९॥

गाते हैं, जो कोई श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकी निर्मल भक्तिको चाहै सो निरन्तर उन गुणोंको सुनै॥१५॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे भगवन्! हे महामुने! कलियुगके बडे बडे दोषोंको कलियुगके मनुष्य कौनसे उपायसे दूरकरसक्ते हैं? सो तुम हमसे कहो॥१६॥ पहले तो युगोंके धर्मका और प्रलयकल्पका प्रमाण कहो? फिर महात्मा कालरूप विष्णुभगवान्की गति कहो?॥१७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नरेंद्र! सतयुगमें मनुष्योंका धर्म चार चरण करके वर्तेहै, एक तो सत्य, दूसरी दया, तीसरा तप, चौथा दान यह धर्मके चार चरण हैं॥१८॥ सतयुगके मनुष्य सन्तोषी करुणावान् सब प्रेम प्रीति

रखनेवाले, शांतचित्त, जितेन्द्रिय, सहनशील, आत्माराम, समदृष्टि और परमार्थमें निरालस्य युक्त और परिश्रमी होतेहैं॥१९॥ त्रेतायुगके विषे झुठ, हिंसा, तृष्णा, विग्रह इन चार अधर्मके चरणोंसे सत्य, दया, तप, दान, यह धर्मके चरण हैं, इनमेंसे धीरे धीरे चौथा भाग क्षीण होता जाता है॥२०॥ हे राजन्! क्रिया तपमें निपुण न तो अतिहिंसक और न अत्यन्त लम्पट, धर्म, अर्थ, काममें निष्ठा वेदत्रयी, धर्मपरायण ब्राह्मण वर्ण जिनमें मुख्य त्रेतायुगकी प्रजा होती है॥२१॥ द्वापरयुगमें अधैर्य, हिंसा, झूंठ बोलना और द्रोह इन धर्मके चार चरणोंसे दया, तप, सत्य, दान यह धर्म पाँय आधे २ घटगये॥२२॥ इससे द्वापरयुगमें यशस्वी, बडे शीलवान्, वेदाध्ययनमें निपुण, अतिऐश्वर्यवाले कुटुंबी, प्रसन्नमुख, ब्राह्मण और क्षत्त्रिय चारों

त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः॥ अधर्मपादैरनृतहिंसाऽसंतोषविग्रहैः॥२०॥ तदा क्रियातपोनिष्ठा नाति हिंसा न लंपटाः॥ त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप॥२१॥ तपःसत्यदयादानेष्वर्धं ह्रसति द्वापरे॥ हिंसातुष्ट्यनृतद्वैषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणैः॥२२॥ यशस्विनो महाशीलाः स्वाध्यायाध्ययने रताः॥ आढ्याः कुटुंबिनो हृष्टाः वर्णाः क्षत्त्रद्विजोत्तराः॥२३॥ कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः॥ एधमानैः क्षीयमाणो ह्यंते सोपि विनंक्ष्यति॥२४॥ तस्मिल्लुॅब्धा दुराचारा निदयाः शुष्कवैरिणः॥ दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तराः प्रजाः॥२५॥ सत्त्वंरजस्तम इति दृश्यंते पुरुषे गुणाः॥ कालसंचोदितास्ते वै परिवर्त्तंत आत्मनि॥२६॥ प्रभवंति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीं द्रियाणि च॥ तदा कृतयुगं विद्याज्ज्ञाने तपसि यद्रुचिः॥२७॥ यदा कार्मसु काम्येषु भक्तिर्भवति देहिनाम्॥ तदा त्रेता रजोवृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन्॥२८॥

वर्णोंमें मुख्य मानेजायँगे॥२३॥ कलियुगमें जब अधर्मकी वृद्धि होगी तब धर्मका एक चरण रहजायगा सोभी शनैः शनैः करके अंतमें नष्ट होजा यगा॥२४॥ कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी, निर्दयी, झूठी लडाई करनेवाले, दुर्भागी, अत्यन्त तृष्णावाले, शूद्र और दास जिनमें मुख्य माने जायॅगे॥२५॥ सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण यह तीनों गुण ईश्वरके आधीन हैं, काल करके प्रेरित हैं प्राणियोंमें सदा फिरते दिखाई देते हैं॥२६॥ जब मन, बुद्धि और इंद्रिय सतोगुणमें स्थित होयॅ तब सतयुग समझना चाहिये कि, जिस सतयुगके प्रभावसे ज्ञानमें रुचि होती है॥२७॥ हे बुद्धिमान्

नृप! जब प्राणियोंकी रुचि सकाम कर्मोंमें होय तब रजोगुणयुक्त त्रेतायुग जानिये॥२८॥ जब लोभ, तृष्णा, अभिमान, दम्भ, मत्सरता और काम्य कर्ममें प्रवृत्ति होय तब रजोगुण उत्पन्न करनेवाला मुख्य द्वापर युग समझना चाहिये॥२९॥ जब मनुष्योंके मनमें कपट, झूंठ, आलस्य, निद्रा हिंसा, दुःख, शोक, मोह, भय, दीनता होय, तब तमोगुणका प्रगट करनेवाला मुख्य कलियुग जानिये॥३०॥ सो प्राणी कलियुगके हेतुको पाकर मन्दबुद्धि भाग्यहीन बहुत भोजन करनेवाले कामी और निर्धन होंगे और स्त्री असाध्वी और व्यभिचारिणी होंगी॥३१॥ देश देशान्तरोमें चोरोंका बडा भय होगा वेद पाखण्डसे अत्यन्त दूषित होंगे। राजा प्रजाके लूटनेवाले होंगे, ब्राह्मण स्त्रीलम्पट उदरपरायण होंगे॥३२॥ ब्रह्म

यदा लोभस्त्वसंतोषो मानो दंभोऽथ मत्सरः॥ कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद्रजस्तमः॥२९॥ यदा मायानृतं तंद्रा निद्रा हिंसा विषादनम्॥ शोको मोहो भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥३०॥ यस्मात्क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः॥ कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥३१॥ दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषंडदूषिताः॥ राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥३२॥ अव्रता बटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुंबिनः॥ तपस्विनो ग्रामवासान्यासिनो ह्यर्थलोलुपाः॥३३॥ ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः॥ शश्वत्कटुकभाषिण्यश्चौर्यमायोरुसाहसाः॥३४॥ पणयिष्यंति वै क्षुद्राः किरीटाः कूटकारिणः॥ अनापद्यपि मंस्यंते वार्तां साधु जुगुप्सिताम्॥३५॥ पतिं त्यक्ष्यंति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम्॥ भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥३६॥

चारी व्रत आचार भ्रष्ट होंगे, गृहस्थ भिखारी होंगे, तपस्वी ग्रामवासी होंगे संन्यासी द्रव्यके लोभी होंगे॥३३॥ कलियुगकी नारी अत्यन्त ठिंगनी और बहुत भोजन करनेवाली काली काली, बहुत सन्तान उपजानेवाली, महानिर्लज्ज, सदा कटुक वचन बोलनेवाली चोर, ढीठ, कपटकी भरी हुई अनेक प्रकारकी मायादिखानेवाली होंगी॥३४॥ तुच्छ किरातादि कपटी, दुराचारी, म्लेच्छ व्यापारी होंगे, आपदा विनाही सब लोक निन्दित जीविकाको श्रेष्ठ समझेंगे जिस वृत्तिको सत्पुरुष स्वप्नमें भी धिक्कार करते थे॥३५॥ धनहीन उत्तम पतिको भी स्त्री त्यागदेगी, और अपने

स्वामियोंकी नौकरी छोडकर भृत्य औरोंकी नौकरी करैंगे और नौकर रोगी होजायँगे तो स्वामी लोभके मारे नौकरीसे छुटा देंगे, विनादूधकी गायोंको लोग म्लेच्छोंके हाथ बेंचडालेंगे॥३६॥ पिता, भ्राता, सुहृद और जातिबालोंको छोडकर स्त्रीके सम्बन्धियोंसे प्यार करैंगे और स्त्रीकी बहिन

पितृभ्रातृसुहृज्ज्ञातीन्हित्वा सौरतसौहृदाः॥ ननांदृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥३७॥

(साली) स्त्रीका भ्राता (शाला) और उसकी स्त्री (सलेहज) के साथ गुप्त मतिकी बातैं करैंगे, दीन स्त्री और लम्पट नर कलिमें होंगे; *॥३७॥

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* लावनी— धनि कलियुग महाराज आपने लीला अजब दिखाई है। उलटा चलन चला दुनियामें सबकी मति बौराई है॥ नीति पंथ उठगया कचहरी पापन आन लगाई है। धर्म गया पाताल सबके मनमें बेधरमी छाई है॥ गुप्त हुए सच्चे बकील झुठोंकी बात सवाई है। सच्चोंकी परतीति नहीं झूठोंने सनद बनाई है॥ न्याय छोड अन्याय करैं राजोंने नीति गँवाई है। हकदारोंका इकमेट बेहक पर कलम उठाई है॥ जो जाली फरेबवाले उनकीही बनिआई है। उलटा चलन चला दुनियामे सबकी मति बौराई है॥१॥ गूजर जाट बने संन्यासी पोथी बगल दवाई है। मूँड मुँडाकर इक घेलेमें कफनी लाल रँगाई है॥ पन्थचले लाखों पाखण्डी अद्भुत कथा बनाई है॥ मुँह काला कर लिया किसीने शिरपर जटा रखाई है॥ हुए नीच कुरसी नसनि ऊँचोंको नहीं तिपाई है। जुगुनू पहुँचे आसमान पर जाकर दुम चमकाई है॥ फाके करते सत मिलैं भडुओंको दूध मलाई है। उलटा चलन चला दुनियांमें सबकी मति बौराई है॥२॥ सास बहूसे लडै बहू भी आँख फेर झुंझलाई है। लेकर भूसल हाथ कोस्ती दाँत पीस उठधाई है॥ खालेको छोड स्त्री कुलकी लाज गँवाई है। निजपतिकी सेवा तजकर परपतिसे प्रीति लगाई है॥ पुरुष हुए ऐसे व्यभिचारी विषय वासना छाई है। वेश्याओंके फन्देमें पड घरकी तजी लुगाई है। मात पिताकी करैं बुराई नारि परमसुखदाई है॥ उलटा चलन चला दुनियामें सबकी मति बौराई है॥३॥ व्याह बुढापेमें जो करते उनपर गजन खुदाई है। साठ बरसके आप करी कन्याके सग सगाई है॥ कुछ दिन पीछे आप मरगये करके राँड बिठाई है। लगी करने व्यभिचार स्त्री घर घर लोग हँसाई है॥ पण्डित पाधा करैं दलाली मंत्री जिनका नाई है। शर्म रही नहि वेशर्मैको बैटी बेचकर खाई है॥ बहन भानजी त्यागन करके साली न्योति जिमाई है। उलटा चलन चला दुनियाँका सबकी मति बौराई है॥४॥ गंगाजल गोरसको छोडकर गाढी भाँग छनाई है। भक्ष्य अभक्ष्य लगे खाने मदिराकी होति छकाई है॥ श्वशुर बहूको कुदृष्टि देखै अपनी नियत डुलाई है। ठहा अरु मसखरी करै सासुसे ज्वान जमाई है॥ कहै भतीजा चचासे अपने तू मूरख सौदाई है। हमैं चैन करनेसे मतलब किसकी चाची ताई है॥ बहिन बहिनसे लडै और लड़ता भाईसे भाई है। उलटा चलन चला दुनियांमें सबकी मात बौराई है॥५॥ जामा अंगा दिया त्याग अरु पगडी फाड बहाई है। पहन कोट पतलून शीशपर टापी गोल जमाई है। तोड तख्त अरु सिंहासनको लाके वञ्च बिछाई है। खीर खाँडको त्यागन करके रोटी डबल पकाई है॥ तोडके ठाकुरद्वारा मसजित सबकी करी सफाई है। गिरजाघरमें जाकरके ईसाकी करी बडाई है। बात करै सभ अंगरेजी में निज भाषा बिसराई है। उलटा चलन चला दुनियाँका सबकी मति बौराई है॥६॥ मित्र शत्रुसम हुए प्रीति की डालीतोड जलाई है। विद्याहीन होगये विप्र गायत्री तलक भुलाई है। क्षत्रिय बैठे नारी बनकर ले तरवार छिपाई है॥ बन आई ना कुछ बनियासे

शूद्र तपस्वियोंका वेष धारण करके जीविका करैंगे और प्रतिग्रह लेंगे और अधर्मी लोग ऊँचे आसनोंपर बैठकर अपने धर्मका उपदेश करैंगे॥३८॥ हे राजन्! जब पृथ्वी अन्नहीन होजायगी तब प्राणी अनावृष्टिके भयसे अत्यन्त पीडित और सदा दुर्भिक्ष और राजाओंके करसे क्लेशवान् और अत्यन्त व्याकुल होजायँगे॥३९॥ और वसन, भूषण, खान, पान, स्नान, शयन, मैथुन आदिसुखोंसे हीन पिशाचसे दिखाई देंगे, सब प्रजा

शूद्राः प्रतिग्रहीष्यंति तपोवेषोपजीविनः॥ धर्मं वक्ष्यंत्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥३८॥ नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरपीडिताः॥ निरन्ने भूतले राजन्ननावृष्टिभयातुराः॥३९॥ वासोन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः॥ हीनाः पिशाचसं दर्शा भविष्यंति कलौ प्रजाः॥४०॥ कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः॥ त्यक्ष्यंति च प्रियान्प्राणान्हनिष्यंति स्वकानपि॥४१॥ न रक्षिष्यंति मनुजाः स्थविरौ पितरावपि॥ पुत्रान्सर्वार्थकुशलान्क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः॥॥४२॥ कलौ न राजञ्जगतां परं गुरुं त्रैलोक्यनाथानतपादपंकजम्॥ प्रायेण मर्त्या भगवंतमच्युतं यक्ष्यंति पाषंडविभिन्नचेतसः॥४३॥

कलियुगमें इस प्रकार हो जायगी॥४०॥ कलियुगमें बीसकौड़ियोंके लिये मित्रता छोडकर परस्पर लड़ैंगे और उसीको धन समझकर मरने मारनेको उपस्थित होंगे॥४१॥ और अपने माता पिताका पालन नहीं करैंगे, सब अर्थोंसे निपुण पुत्रकी भी रक्षा न करैंगे, केवल स्त्रीसंग और उदर पूर्ण करके, सब प्रजा क्षुद्र होजायगी॥४२॥ हे महाराज! सब सृष्टिके परमगुरु और त्रिभुवनके पति जिनके चरणकमलको ब्रह्मादिक देवता नित्य

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माया मुफ्त लुटाई है॥ शूद्र हुए धनवान ब्राह्मणोंने कीन्ही स्योकाई है। गयावाल और मथुराके चौबोंकी बात बन आई है॥ चारों युगोंसे कलिने अपनी नई रीति दिखलाई है। उलटा चलन चला दुनियाँमें सबकी मति बौराई है॥७॥ अपूज पुजने लगे कहैं सब शिरपर देवी आई है।घर घरमें गुल गुले शेख सद्दोंकी चढी कढाई है॥ परब्रह्मको छोड भूत प्रेतोंकी दई दुहाई है। मूँड हिलाती कहीं मलनियां कहै कुसुम्भी माईहै। बालभोग ठाकुरको नहीं सय्यदके लिये मिठाई है। सन्तको कम्मल नहीं पतुरियाको कुरती सिलवाई है। गुरु हरै चेलोंका धन चेला करता चतुराई है। उलटा चलन चला दुनियांमें सबकी मति बौराई है॥८॥ विधवा लग गइँ पान चबाने दें सुर्मा मुसकाई है। नित करती शृंगार देखकर अहिवाती शरमाई है॥ बैठे ज्वारी और अगामी हुआ जगत अन्यायी है। सब लक्षण विपरीत और घरघरमें होत लडाई है॥ गायजायँ लाखों मारी करता नहि कोइ सुनाई है। इससे पडता काल सृष्टिमें संपति सकल बिलाई है। हो दयालु हे नाथ आज कलियुगकी महिमा गाई है। उलटा चलन चला दुनियाँमें सबकी मति बौराई है॥९॥

प्रति नमस्कार करते हैं; ऐसे जगदीश्वर भगवान् अच्युतको कलियुगमें मनुष्य पाखण्डोंसे दूषित हो बहुधा पूजन न करैंगे, कभी रामनवमी, नृसिंह चौदश, जन्माष्टमीको भगवान्की पूजा करलिया करैंगे॥४३॥ वा जब मरण समय आतुर होकर अथवा ऊँचेसे गिरकर वा मार्गमें रपटनेके समय विवश होकर कहेंगे कि, हे भगवन्! परन्तु नाम लेतेही वह मनुष्य कर्मबन्धसे छूटकर परम गतिको प्राप्त होंगे, परन्तु तो भी उन भगवान्का कलियुगमें लोग पूजन नहीं करैंगे॥४४॥ हे राजन्! अब कलिकालके सम्पूर्ण दोषोके दूर करनेका उपाय आपके सामने वर्णन करता हूं, आप अवधान होकर सुनिये, द्रव्य देश शरीरसे उत्पन्न हुए कलियुगके सब दोषोंको पुरुषोत्तम भगवान् मनुष्यके चित्तमें स्थित होकर हरलेते हैं॥४५॥ जो प्राणी परमेश्वरका श्रवण, कीर्तन, ध्यान और सत्कार करते हैं, भगवान् उन पुरुषोके हृदयमें स्थित होकर

यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः पतन्स्खलन्वा विवशो गृणन्पुमान्॥ विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं प्राप्नोति यक्ष्यंति न तं कलौ जनाः॥४४॥ पुंसां कलिवृतान्दोषान्द्रव्यदेशात्मसंभवान्॥ सर्वान्हरति चित्तस्थो भगवान्पुरुषोत्तमः॥॥४५॥ श्रुतः संकीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोपि वा॥ नृणां धुनोति भगवान्हृत्स्थो जन्मायुताशुभम्॥४६॥ यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हंति धातुजम् ॥ एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशुभम् ॥४७॥ विद्यातपः प्राणनिरोधमै त्रीतीर्थाभिषेकव्रतदानजप्यैः॥ नात्यंतशुद्धिं लभतेन्तरात्मा यथा हृदिस्थे भगवत्यनंते॥४८॥ तस्मात्सर्वात्मना राजन्हृदिस्थं कुरु केशवम्॥ म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम्॥४९॥

दशसहस्र जन्मके पापोंको दूर करदेते हैं॥४६॥ जैसे सुवर्ण अग्निसे तप्त होकर और सब धातुओंके मिलेहुए मलिनपनको दूर करदेता है, ऐसेही विष्णु भगवान् हृदय में स्थित होकर सब अशुभवासनाओंको कलियुगमें दूर करैंगे॥४७॥ विद्या अर्थात् आनदेवकी उपासना, तप, प्राणायाम, मित्रता, तीर्थस्नान, व्रत, दान, जप आदिकके करनेसे जैसा मन शुद्ध होता है वैसाही अत्यन्त भगवन् जब हृदय में वास करैं तब शुद्ध होता है॥४८॥ इस लिये हे राजन्! आपका मरणसमय निकट आगया है अब तुम सब प्रकारसे सावधान हो वासुदेव भगवान्का त्हृदयमें ध्यान धरो, तब तुम परमग

तिको प्राप्त होओगे॥४९॥ हे राजन्! मनुष्यको चाहिये कि, जिसकी मृत्यु निकट आजाय, वह सर्वाश्रय सर्वात्मा, सर्वेश्वर भगवान्का ध्यान करनेसे आदिपुरुष अविनाशी परमत्माके विषे लय होजाताहै॥५०॥ हे राजन्! यह महाघोर कलियुग अनेक दोषोंकी खानि है परन्तु इसमेंभी एक गुण बड़ा भारी है कि, इस युगमें केवल परमेश्वरके कीर्त्तन करनेहीसे मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनोंसे छूटकर कृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके परमधामको चलाजाता है॥५१॥ सतयुगमें विष्णु भगवान्के ध्यान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, त्रेतामें यज्ञोंके करनेसे जो फल होता है, द्वापरमें परिचर्या करनेसे जो फल होता है वह सब फल कलियुगमें केवल हरिके कीर्तनही करनेसे प्राप्त होजाते हैं,॥५२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कंधे भाषाटीकायां कलियुगदोषगुणवर्णनो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा—नैमित्तिक प्राकृतिक अरु, आत्यन्तिक औ नित्य। चौथे चार प्रकारके,

म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान्परमेश्वरः॥ आत्मभावं नयत्यंग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः॥५०॥ कलेर्दोषनिधे राजन्नस्तिह्येको महान्गुणः॥ कीर्त्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥५१॥ कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः॥ द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्त्तनात्॥५२॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादश० कलिदोषादिव० तृतीयोऽध्यायः॥३॥ श्रीशुक उवाच॥ कालस्ते परमाण्वादिर्द्विपरार्द्धावधिर्नृप॥ कथितो युगमानं च शृणु कल्पलयावपि॥१॥ चतुर्युग सहस्रं च ब्रह्मणो दिनमुच्यते॥ स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशांपते॥२॥ तदंते प्रलयस्तावान्ब्राह्मी रात्रिरुदा हृता॥ त्रयो लोका इमे तत्र कल्पंते प्रलयाय हि॥३॥

प्रलय कहॅू हरिवित्य॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्! जो कि, आपने दो प्रश्न किये थे कि, कलियुगका दोष किस उपायसे निवारण हो सक्ता है? और कलियुगमें कौनसा धर्म मुख्य है जो पालना चाहिये इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर तो मैंने आपसे वर्णन किया, अब प्रलय कालका निरूपण करताहूं, परमाणुसे लेकर द्विपरार्द्धतक काल और युगोंके प्रमाण मैं तुमसे पहिले कहचुकाहूं, अब कल्प और प्रलय (सृष्टिका अन्त) का प्रमाण सुनो॥ हे प्रजापालक! युगोंकी सहस्र चौकड़ीका ब्रह्माका एक दिन होता है उसीको कल्प कहते हैं जिसमें चौदह मनु राज्य करते हैं॥२॥ फिर अन्तमें चार सहस्र युगवाली ब्रह्माकी रात्रि होती है, उस रातमें इस त्रिलोकीकी प्रलय होजाती है॥३॥

इस प्रलयको विद्वान् लोग नैमित्तिक प्रलय कहते हैं, इस प्रलयमें विश्वास्रष्टा श्रीनारायण ब्रह्मा सहित त्रिलोकीको अपने उदरमें धारण करके अनन्त भगवान् शेषशय्यापर शयन करते हैं॥४॥ अब प्राकृतिक प्रलयका वृत्तान्त सुनिये, परमेष्ठी ब्रह्माजीके द्विपरार्द्धका जब अन्त होता है तब महत्तत्त्व अहंकार और पॉच तन्मात्रा इन सातों प्रकृतियोंकी प्रलय होती है॥५॥ हे राजन्! इसलिये इस प्रलयको पण्डितलोग प्राकृतिक प्रलय कहते हैं, जिस प्रलयमें नाशका कारण प्राप्त होनेसे सातों प्रकृतियाॅ और उनके कार्यरूप सब ब्रह्माण्ड भी लय होजाते हैं॥६॥ हे राजन्! जब प्रलय होगा उससमय सौ १०० वर्षतक मेघ नहीं वर्षेगा, तब सब पृथ्वी अन्नरहित होजागी, उस समय सब प्रज

एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक्॥ शेतेऽनंतासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभूः॥४॥ द्विपरार्द्धे त्वति क्रांते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः॥ तदा प्रकृतयः सप्त कल्पंते प्रलयाय वै॥५॥ एष प्राकृतिको राजन्प्रलयो यत्र लीयते॥ आंडकोशस्तु संघातो विघात उपसादिते॥६॥ पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति॥ तदा निरन्ने हान्योन्यं भक्ष्यमाणाः क्षुधार्दिताः॥ क्षयं यास्यंति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः॥७॥ सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्त्तको रविः॥ रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति॥८॥ ततः संवर्त्तको वह्निः संकर्षणमुखोत्थितः॥ दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान्भूविवरानथ॥९॥ उपर्यधः समंताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः॥ दह्यमानं विभात्यंडं दग्धगोमयपिंडवत्॥॥१०॥ ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम्॥ परः संवर्तको वाति धूम्रं खं रजसा वृतम्॥११॥

क्षुधासे पीड़ितहो एक एकका भक्षण करनेलगेगी, इसप्रकार कालाधीन हो सहज सहजमें सब नाशको प्रप्त होजायगी॥७॥ फिर प्रलय कालका मार्त्तण्ड अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रके और सब शरीरोंके रसोंको खैंचलेगा किंचिन्मात्र भी नहीं छोड़ेगा॥८॥ फिर संकर्षण भगवान्के मुखमें जो स्थित प्रलयका अग्नि वायुके वेगसे भड़ककर इस शून्य मण्डलकको सातों पाताल सहित जलादेगा॥९॥ फिर ऊपरनीचे सब ओर सूर्यकी मित्राग्निसे जलकर ऐसा शोभित होगा जैसे जलताडुवा उपला (सुखाहुवा गोबर) शोभित होता है॥१०॥ फिर इसके पीछे प्रल

यकालकी महाप्रचण्ड पवन सौ १०० वर्षतक चलेगी, उससमय आकाश धूरीसे आवृत होकर धूम्रवर्ण होजायगा॥११॥ हे अंग! फिर पीछे विचित्र वर्णवाले अनेक प्रकारके मेघोंके समूह गम्भीर गर्जन शब्द करते सौ १०० वर्षतक बरसेंगे, फिर पीछे यह ब्रह्माण्डटूट फूटकर सब विश्व जलमय होजायगा॥१२॥ उस समय भूमिका गन्ध गुण जलग्रस्त हुआ सो पृथ्वी गन्धहीन होकर प्रलयको प्राप्त होगी॥१३॥ जलके रसको तेजने ग्रस लिया, सो जल निरस होकर प्रलयको प्राप्त होगा, तेजका रूपगुण वायुने ग्रसलिया सो तेज रूप हीन हो पवनमें लीन होगा॥१४॥ पवनका स्पर्श गुण आकाशने लिया, सो वायु आकाशमें लीन होगा॥१५॥ हे राजन्! फिर आकाशका शब्द गुण उसका तामस अहंकारने ग्रसलिया, सो आकाश गुणहीन होकर अहंकारमें लीन होगा राजस अहंकारने वृत्तियोंसहित इन्द्रियोंको ग्रसलिया सात्विक अहंकारने इन्द्रियोंके देवताओंको ग्रस

ततो मेघकुलान्यंग चित्रवर्णान्यनेकशः॥ शतं वर्षाणि वर्षंति नदंति रभसस्वनैः॥१२॥ तदा भूमेर्गंधगुणं ग्रसंत्याप उदप्लवे॥ ग्रस्तगंधा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते॥१३॥ अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेऽथ नीरसः॥ ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा॥१४॥ लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम्॥ स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम्॥१५॥ शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनु लीयते॥ तैजसश्चेन्द्रियाण्यंग देवान्वैकारिको गुणैः॥१६॥ महान्ग्रसत्यहंकारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम्॥ ग्रसतेऽव्याकृतं राजन्गुणान्कालेन चोदितम्॥१७॥ न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः॥ अनाद्यनंतमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम्॥१८॥ न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं तमो रजो वा महदादयोऽमी॥ न प्राणबुद्धींद्रियदेवता वा न सन्निवेशः खलु लोककल्पः॥१९॥

लिया तब देवता सात्त्विक अहंकारमें लीन होजायँगे॥१६॥ हे राजन्! तीनों प्रकारके अहंकारको महत्तत्त्वने ग्रसलिया, तब अहंकार महत्तत्त्वमें लीन होजायगा और महत्तत्त्वको सत्त्वादि गुणोने ग्रसलिया, तब सत्त्वादिक गुणोंको कालकी प्रेरित माया ग्रसलेगी॥१७॥ इस मायाका कालके वेगसे राति दिन घट बढ़ नहीं होता और यह माया आदि अन्त करके अव्यक्त नित्य है, एकरस है, न स्पष्ट देखन में आती है सर्वत्र जगत् की कारणरूप है॥१८॥ जहां वाणी मन सत्त्व रज तम तीनों गुण महत्तत्त्वादिक नहीं हैं और प्राण, बुद्धि इन्द्रियोके देवता विश्वकी रचना भी

नहीं है॥१९॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, आकाश, पवन, अग्नि, जल, भूमि और सूर्य भी वहाँ नहीं हैं सुषुप्ति शून्यकी समान है उसको कविलोग अतर्क्य मूलपद कहते हैं॥२०॥ प्राकृतिक प्रलय यह आपसे कही, जिस प्रलयके पुरुष प्रकृतिकी शक्ति सब कालसे प्रेरित होकर लीन होजाती है यह माया ईश्वरकी शक्ति है, इससे सबके कारणरूप एक परब्रह्म परमेश्वही हैं,॥२१॥ हे राजन्! अब आपसे आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं बुद्धि इन्द्रिय विषयरूप इन सबका आश्रय ज्ञानही भासैहै जिससे अन्वय व्यतिरेक करके जो आदि अन्तवान् हैं, सो सब वस्तुहैं विचार करके देखो तो यही मोक्ष, आत्यन्तिक प्रलय है, क्योंकि यह मोक्ष आत्मज्ञानसे सब प्रपंचका लयरूप है यहाँपर प्रलय अर्थात् मृत्तिकाके ज्ञानसे जैसे घट वारुणी आदिका प्रतिरोध होता है इसीप्रकार ब्रह्मज्ञानसे और दूसरे सबका प्रतिरोध समझना, जो आत्माकी सदृश प्रपंच यथार्थ होय तो उसका प्रतिरोध होना

न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः॥ संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यं तन्मूलभूतं पदमामनंति॥२०॥ लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा॥ शक्तयः संप्रलीयते विवशाः कालविद्रुताः॥२१॥ बुद्धींद्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम्॥ दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामाद्यंतवदवस्तु यत्॥२२॥ दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत्॥ एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात्॥२३॥ बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते॥ मायामात्रमिदं राजन्नानात्वं प्रत्यगात्मनि॥२४॥ यथा जलधरा व्योम्नि भवंति न भवन्ति च॥ ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात्॥२५॥

ठीक नहीं इससे ज्ञात होता है कि, प्रपंच, परब्रह्मसे किसी प्रकार भिन्न नहीं है यह ब्रह्मसे भिन्न सत्ताको नहीं रखते, इस लिये यह बुद्धि आदि प्रपंच भी दृश्यपनके हेतु और आदि अन्तवान् होनेके कारण और अपने कारणभूत परब्रह्म से भिन्न नहीं है इसलिये वास्तविक भी नहीं हैं॥२२॥ जैसे दीपक, नेत्र, रूप यह सब ज्योतिसे भिन्न नहीं हैं ऐसेही बुद्धि, इंद्रिय तन्मात्रा ब्रह्मसे भिन्न नहीं है॥२३॥ हे राजन्! जब यह बुद्धि परमात्मासे विलग नहीं है, तब उसकी अवस्थारूप जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति यह तीनों परमात्मासे किसप्रकार विलग होसकती हैं क्योंकि यह तीनों अवस्था बुद्धिहीकी हैं सब विद्वान् लोग यही कहते हैं कि, तीनों अवस्थाओंके मानके लिये जगत् तैजस और प्राज्ञपन जो आत्मामें मानाजाता है वह केवल मायामात्रही है॥२४॥ जैसे किसी समय मेघ आकाशमें नहीं होते और कभी होते हैं, ऐसेही ब्रह्ममें यह जगत् कभी दीखता है कभी नहीं

दीखता॥२५॥ हे राजन्! सब अवयवी जगत्में कारणभूत जो एक अवयव है वही मुख्य है, क्योंकि अवयवी विना भी अयवयकी प्रतीति होती है, इसी प्रकार जगत् विना ब्रह्म भी प्रतीत होता है इसलिये जगत्का कारण रूप ब्रह्मही है देखो! तंतु विना वस्त्रका ज्ञान नहीं होता, परन्तु वस्त्र तंतुओंसे भिन्न नहीं है, क्योंकि वस्त्र तन्तुरूपही है, इसप्रकार ब्रह्मविना जगत्की प्रतीति नहीं होती, इसलिये जगत् ब्रह्मसे भिन्न नहीं है॥२६॥ कार्यकारण मिलके जो कुछ होय सो सब भ्रमसे है, इसलिये आश्रयसे आदि लेकर अन्ततक जो कुछ है सो सब अवस्तु है॥२७॥ यद्यपि विकारमय यह सब जगत् प्रकाशवान् भी है परन्तु ब्रह्म विना उसका किंचिन्मात्र भी प्रकाश नहीं होसक्ता और जो ब्रह्म विना प्रकाश होय तो उस आत्मासे ब्रह्मरूपही होगा, किसी प्रकार भिन्न होही नहीं सक्ता॥२८॥ सत्य वस्तुमें अनेक रीति नहीं होसक्तीं और जिसमें अनेक रीति हैं उसमें सत्यता नहीं होसक्ती,

सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह॥ विनार्थे न प्रतीयेरन्पटस्येवांग तंतवः॥२६॥ यत्सामान्यविशेषाभ्यामुपलभ्येत स भ्रमः॥ अन्योन्यापाश्रयात्सर्वमाद्यंतवदवस्तु यत्॥२७॥ विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमंतरा॥ न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत्॥२८॥ न हि सत्यस्य नानात्वमविद्वान्यदि मन्यते॥ नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्ज्योतिषोर्वातयोखि॥२९॥ यथा हिरण्यं बहुधा समीयते नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु॥ एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः॥३०॥

यद्यपि आत्मामें और जीव ब्रह्ममें भेद दृष्टि आता है, परन्तु यह जीव और ब्रह्मका भेद घटाकाश और महाकाशकी समान है, घटाकाश परिच्छिन्न है और महाकाश अपरिच्छिन्न होने पर भी जैसे दोनों के मध्यमें भेद नहीं है इसीप्रकार जीव परिच्छिन्न और जीव अपरिच्छिन्न होनेपर भी जीव ब्रह्ममें कुछ भेद नहीं जैसे जलके बीचमें सूर्य कम्पायमान विकार सहित और आकाशमें निर्विकार सूर्य होनेपर कुछ भेद नहीं, इसी प्रकार ब्रह्मकी सृष्टि आदि और जीवकी सृष्टि आदि क्रियामें अलग अलग होनेपर कुछ भेद नहीं जान पड़ता, यह सब उपाधिही मात्र भेदहै जीव ब्रह्ममें भेद मानना मुर्खोंका कामहै॥२९॥ जैसे सुवर्ण मनुष्योंके व्यवहारादिकोंमें मुकुट कुण्डलादि रूपोंसे अनेक प्रकारका दृष्टि आता है इसीप्रकार अहंकाररूप उपाधिवाले मनुष्य ऐसेही भगवान् अधोक्षजकी लौकिक वैदिक वाणियोंसे अनेक अनेक प्रकारकी महिमा वर्णन करतेहैं॥३०॥

जैसे बादल सूर्यसेही प्रगट हुए और सूर्यहीसे प्रकाशित हुए सूर्यके अंशरूप नेत्रोंकी आवरण करता है, ऐसेही ब्रह्मसे प्रगटहुवा और ब्रह्महीसे प्रकाशित अहंकार ब्रह्मके अंश जीवको उस ब्रह्मके दर्शनका आवरण करता है॥३१॥ सूर्यसे उत्पन्न हुवा बादल जब विदीर्ण होजाता है, तब चक्षु सूर्यको देखैहै ऐसेही अहंकाररूप उपाधि जब तत्त्व विचार करके विनष्ट होय, तब यह जीव अपने ब्रह्मस्वरूपको पहचानता है॥३२॥ हे राजन! इसप्रकार अविवेक रूप खड्गसे मायामय अहंकाररूप आत्माके बन्धनको काटकर जब शुद्ध ब्रह्मका अनुभव करके स्थित होयतब उसको कविलोग आत्यन्तिक प्रलय (मोक्ष) कहते हैं॥३३॥ हे शत्रुओंके ताप देनेवाले!सूक्ष्मवेत्ता विद्वान् लोग कहते हैं कि, ब्रह्मा

यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो हार्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः॥ एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मवस्तुनः॥३१॥ घनो यदाऽर्कप्रभवो विदीर्यते चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा॥ यदा ह्यहंकार उपाधिरात्मनो जिज्ञासा नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत्॥३२॥ यदैवमेतेन विवेकहेतिना मायामयाहंकरणात्मबंधनम्॥ छित्त्वाऽच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते तमाहुरात्यंतिकमंगसंप्लवम्॥३३॥ नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परंतप॥ उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञाः संप्रचक्षते॥३४॥ कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा॥परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः॥३५॥ अनाद्यंतवताऽनेन कालेनेश्वरमूर्तिना। अवस्था नैव दृश्यंते वियति ज्योतिषामिव॥३६॥ नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः॥ आत्यंतिकश्च कथितः कालस्य गतिरिदृशी॥३७॥

दिक सब प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रलय क्षण क्षणमें होती रहती है॥३४॥ नदीका प्रवाह और दीपककी ज्वाला आदि परिणामी पदार्थोंकी जैसी क्षण क्षणमें लोट पोट होनेसे जो अवस्थायें हैं, वैसीही अवस्थायें कालरूप नदीके वेगसे नित्य आयुर्बल हरे जानेसे देहादिकनकी अवस्था नित्य जन्म मरणके कारणको प्राप्त होती हैं॥३५॥ आदि अन्तसे हीन ईश्वरकी मूर्त्तिकालसे प्राणियोंकी सूक्ष्म अवस्था नहीं जानी जाती जैसे आकाशमें नक्षत्रादिकी क्षण क्षणकी चालें दिखाई नहीं देतीं इसीप्रकार कालसे झपटी हुईं शरीरादिकोंकी क्षण क्षणकी अवस्थायेंभी दिखाई नहीं देतीं॥ ॥३६॥नित्य, नैमित्तिक प्राकृतिक और आत्यन्तिक यह चार प्रकारकी प्रलय आपसे कही और कालकी गति भी आपसे कही॥३७॥

हे कौरवकुलभूषण!जगतके कर्त्ता और सब प्राणियोंके जीवन आधार श्रीमन्नारायणकी लीला और कथा आपसे संक्षेपमात्र कही और सम्पूर्ण चरित्र कहनेकी तो ब्रह्माको सामर्थ्य नही॥३८॥जो प्राणी अनेक भॉतिके दुःखरूपी दावाग्निसे कष्ट पाकर इस महादुस्तर संसाररूपी समुद्रके पार

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुर्नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः॥ लीलाकथास्ते कथिताः समासतः कार्त्स्न्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः॥३८॥ संसारसिंधुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोर्नाऽन्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य॥ लीलाकथारसनिषेवणमंतरेण पुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य॥३९॥ पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोऽव्ययः॥ नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः॥४०॥

उतरना चाहैंउनको भगवान् पुरुषोत्तमकी लीला और चरित्रोंकी कथारूपी रसपानके सिवाय इस संसारसागरसे पार होने से दूसरा उपाय नहीं विश्वासरूप नौकापर चढ़कर संसाररूपी समुद्रसे तर सक्ता है

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॥३९॥ अव्ययरूप श्रीनारायण ऋषिने यह पुराणसंहिता पहिले नारद मुनिसे
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**दृष्टान्त —**एक गूजरी कहीं पण्डितजी की कथा सुननेकौ गई, पण्डितजी उस समय यह कथा कहरहे थे कि, परमेश्वरके नाम लेनेसे प्राणी ससाररूपी समुद्रके पार होजाता है, गूजरी इस बातको सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई, क्योंकि उसे प्रतिदिन यमुनाजीके उतरनेमें नाववालेको पैसा देना पडता था, वह विचारनेलगी कि, जब श्रीकृष्णके नामसे समुद्रको तर जायँ हैं, तो क्या यमुनाजी नहीं तरी जायँगी? बस वह उसी समय श्रीकृष्णका नामले यमुनामें घुसपढी और क्षणमात्रमें पार उतर गई, इसी प्रकार प्रतिदिन यमुना उतर जाने लगी, तब एकदिन गूजरीने अपने मनमें विचार किया कि, पंडितजीने मेरे सग बढा उपकार किया जो विनाही नौका यमुनापार हो जाती हूँ, उनको निमंत्रण देना चाहिये, सो उसने पडितजीको निमत्रण दिया और भोजन करानेके लिये पण्डितजीको अपने साथ लेकर पंडित घरको चली पंडितजी उसको यमुनाजीमें घुसती देख आप भी उसके पीछे पीछे हो लिये और समझा कि, घाट बहुत गहरा न होगा, जब कण्ठतक पानी आगया और पाँवोंके नीचका रेता निकलने लगा, परन्तु उस गुजरीके घुटनेतक न मीजे, तब तो पंडितजीने घबराकर पुकारा कि, अरी! तू किधरको ले जाई में तो डुवा’ मुझे किसी प्रकार बचा गूजरी बोली क्या तुमने श्रीकृष्णका नाम नहीं लिया? श्रीकृष्णका नाम लेलो क्या तुम उसदिनकी कथाके वृत्तान्तको भूलगये, आपने कहाया एक श्रीकृष्णके नामसे प्राणी महादुस्तर समुद्रके पार होजाता है, पडितजी बोले क्या यह नदी भी श्रीकृष्णका नाम लेनेसे तरी जाती है? गूजरीने कहा कि, क्या आप इतना भी नहीं जानते कि, जब समुद्रहीके पार होगये तो क्षुद्र नदी कहाँ रही?गुजरीने पंडितजीका हाथ पकड़कर कहा कि, श्रीकृष्णका नाम लो और संग सग चले चलो, देखो! विश्वासवालीं गूजरी इसप्रकार पंडितजीको पार उतार अपने घर लेगई और अत्यन्त प्रेम प्रीतिसे पंडितजीको भोजन कराया, इसीसे कहते हैं कि, विश्वास करके भक्ति करे तो।ससाररूप सागरके पार होय।

कहीथी और नारदमुनिने श्रीवेदव्यासजी से कही॥४०॥ हे महाराज! उनआत्मज्ञानी भगवान् वेदव्यासदेवजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह सब वेदों के समान श्रीमद्भागवतसंहिता मुझको पढ़ाई॥४१॥ हे कुरुकुलभूषण! नैमिषारण्यमें बड़े यज्ञके करनेवाले शौनकादि ऋषि जब पूँछेंगे तब सूतजी उन ऋषियोंको यह श्रीद्भागवत पुराण कहेंगे॥४२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादस्कंधे भाषाटीकायां प्रलयवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा - पञ्चममें संक्षेप सों, परब्रह्म उपदेश॥सर्प डसन भय नृपतिको, काटो शुकदेवेश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इस भागवतमें निरन्तर विश्व आत्महीका वर्णन है जिन भगवान् के रजोगुणसे ब्रह्मा और तमोगुणसे रुद्र हुए ऐसे ब्रह्मा रुद्रादि सब सृष्टि कर्त्ता भगवान्का गुणानुवाद

स वै मह्यं महाराज भगवान्बादरायणः॥ इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसंमिताम्॥४१॥ एतां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये॥ दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ संपृष्टः शौनकादिभिः॥४२॥ इति श्रीमद्भा०म० द्वादशस्कन्धे प्रलयनि० चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान्हरिः॥ यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः॥१॥ त्वं तु राजन्मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि॥ न जातः प्रागभृतोऽद्य देहवत्त्वं न नंक्ष्यसि॥२॥ न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान्॥ बीजांकुरवद्देहादेर्व्यतिरिक्तो यथाऽनलः॥३॥ स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पंचत्वाद्यात्मनः स्वयम्॥ यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः॥४॥ घटे भिन्ने यथाऽऽकाश आकाशः स्याद्यथा पुरा ॥ एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म संपद्यते पुनः॥५॥

जो हितचित्तसे सुनता है उसको किसी प्रकारका भय नहीं॥१॥ हे राजन्! हम मरेंगे इस पशुबुद्धिको छोड़ दो, इस देहसे न तो तुम पहिले उत्पन्न हुए और न नष्ट होओगे यह आत्मा तो अजर अमर अनादि है, यह तो न कभी मरता है न जीता है॥२॥ यह शरीर बीज और अंकुरकी नाई पुत्र पौत्रादिरूप होकर जन्मता मरता रहता है, कभी बीजसे अकुंर होता है, कभी अंकुरसे बीज होता है, ऐसे तुम बीज अंकुरवत् देहादिकोंसे भिन्न हो, जैसे अनि काष्ठसे भिन्न है॥३॥ जैसे कोई प्राणी स्वप्नमें अपना शिर कंटाहुवा देखे, ऐसे ही जाग्रत् अवस्थामें देहके मरणको आप देखता है, उससे मैं मरूंगा, यह केवल भ्रान्ति है क्योंकि आत्मा तो अजन्मा है॥४॥ आत्माका जन्म मरणादिक जगत्की भ्रान्ति देहरूप उपाधिके

साथ है, इसलिये उपाधिकी निवृत्ति होनेसे इस जीवकी मुक्ति होजाती है, जैसे घट फूटजानेसे घटाकाशमें जामिलता है, जैसा प्रथम महाकाशरूप था वैसाही फिर हो जाता है जब जीवको आत्मज्ञान होजाता है तो फिर वह ब्रह्मका ब्रह्म होजाता है॥५॥आत्मा के देह, गुण और कर्मोंको मनही उत्पन्न करता है और मनको माया उत्पन्न करती है और इसी करके जीवका जन्म मरण होता है और विचार करके देखो तो आत्मा निर्लेप है॥६॥ जबतक तेल सखा बत्ती और अग्निका संयोग बनारहता है तबहीतक दीपक कहलाता है, ऐसेही जबतक कर्म मन चैतन्य संसारादिक और इस देहको संयोग है, तबही तक संसार है और जब इन समुदायोंकी निवृत्ति होजाती है, तब यह संसार भी नहीं रहता यह देहही सत्त्वगुण

मनः सृजति वै देहान्गुणान्कर्माणि चात्मनः॥ तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः॥६॥ स्नेहाधिष्ठानवत्यग्निसंयोगो यावदीयते॥ ततो दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भवः॥ रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति॥७॥ न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्योव्यक्ताव्यक्तयोः परः॥ आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनंतोपमस्ततः॥८॥ एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृशप्रभो॥ बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिंतया॥९॥ चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः॥ मृत्यवो नोपधक्ष्यंति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम्॥१०॥ अहं ब्रह्म परं ब्रह्म ब्रह्माहं परमं पदम्॥ एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले॥११॥ दर्शतं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः॥ न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः॥१२॥

रजोगुण, तमोगुणसे जन्मता मरता है आत्मा जन्मैं न मरै, इससे स्थूल सूक्ष्म दोनों देहोंसे मरैहै और स्वयंप्रकाश देहादिकोंका आश्रय है नित्य है,निर्विकार है, अनन्त है, अनादि है निरुपम है, वह कभी नष्ट नहीं होता॥७॥८॥ हे प्रभो!अनुमानयुक्त बुद्धिसे भगवान् वासुदेवका चिन्तवनकरते शरीरमें स्थित शुद्ध आत्माको मनसे विचारकरो॥९॥ इसप्रकारका विचार करोंगे तो ब्राह्मणके वाक्योंसे प्रेषित कियाहुवा तक्षक सर्प तुमको नहीं जलासकेगा, क्योंकि परब्रह्मको मृत्यु भी नहीं जला सक्ती॥१०॥ जो मैं हूँ सो परमधाम रूप ब्रह्म है और जो परमधाम रूप ब्रह्म है, वह मैं हूँ, यह विचार करके निरुपाधि ब्रह्ममें तुम अपने आपको रक्खोगे तो॥११॥ विषयुक्त मुखसे अपने चरणमें काटतेहुए तक्षक नागको किसी प्रकार

न देखोगे, न इस देहको देखोगे और न आत्मासे भिन्न विश्वको देखोगे॥१२॥ हे तात! हे नृपेन्द्र! विश्वके आत्मा भगवान्का चरित्र जो कुछ तुमने पूँछा वह सब मैंने आपसे कहा। अब आप क्या सुनना चाहते हो सो कहो? १३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कंधे भाषाटीकायां ब्रह्मोपदेशो नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ दोहा-इस छठवें अध्यायमें, भये परीक्षित् मुक्त॥ सुनते अहि होमे सकल, इन्द्रासन संयुक्त॥१॥ सूतजी बोले कि हे शौनकऋषि! सबकी बुद्धिको जाननेवाले निवृत्तिपरायण व्यासके पुत्र शुकदेवजीके गूढ़ वचन सुनकर, विष्णुरात परीक्षित् शिर झुकाय, चरणारविन्दोंकी वन्दना कर हाथ जोड़कर बोले॥१॥ हे सुने करुणानिधान!आपने परम अनुग्रह करके मुझको कृतार्थ किया, जिससे आदि अन्तसे

एतत्ते कथितं तात यथात्मा पृष्टवान्नृप॥ हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥१३॥ इति श्रीमद्भा०महा०द्वा०तत्त्वोपदेशेन मृत्युभीतिनिवारणं नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ सूत उवाच॥ एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन॥ तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना बद्धांजलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः॥१॥ राजोवाच॥ सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना॥ श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः॥२॥ नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्॥ अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः॥३॥ पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्॥ यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते॥४॥ भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न विभेम्यहम्॥ प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया॥५॥

हीन साक्षात् भगवान् परब्रह्मका चरित्र मुझको सुनाया, जिसको सुनकर में सिद्ध हुआ॥२॥ आपसे मुक्तरूप सज्जन, इस संसाराग्निके तापोंसे तपेहुए अधम लोगोंका अच्युत भगवान्में मन लगानेवाले और उनपर अनुग्रह करना मैं इसबातको कुछ अद्भुत नहीं समझता॥३॥ यहपुराणसंहिता आपके मुखारविन्दसे मैंने सुनी, इस श्रीमद्भागवत संहिता में उत्तम यशवाले भगवान्का निरन्तर वर्णन है॥४॥ हे भगवन्! तक्षकादिक मृत्युओंसे अब मुझे किसी प्रकारका भय नहीं रहा क्योंकि आपने जो परमानन्द ब्रह्मरूप मुझे दिखा दिया मैं उसीमें लय

होंगया॥५॥ हे ब्रह्मन्! जो मुझको आज्ञा हो तो वाणीको रोककर निष्काम चित्तको भगवान् अधोक्षजमें रखकर प्राणोंका त्यागकर दूं?॥ ॥६॥ ज्ञान विज्ञानकी निष्ठा से मेरा सब अज्ञान निवृत्त होगया, जबसे आपने मंगलरूप भगवान्का परमपद मुझको दिखाया॥७॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक! राजा परीक्षित् नेइसप्रकार प्रार्थनाकर श्रीशुकदेवजीका पूजन किया तब भगवान् बादरायणि परीक्षित्की पूजा स्वीकार करबिदा मॉग, मुनियोंसहित वहाँसे पधारे॥८॥ पीछे राजऋषि परीक्षित् बुद्धिसे मनको रोक, परब्रह्ममें मन लगा, श्रीकृष्णचन्द्रके ध्यानमें मग्न

अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाचं यच्छाम्यधोक्षजे॥ मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून्॥६॥ अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया॥ भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम्॥७॥ सूत उवाच॥ इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः॥ जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः॥८॥ परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना॥ समाधाय परं दध्यावस्पंदासुर्यथा तरुः॥९॥ प्राकूले बर्हिष्यासीनो गंगाकूल उदङ्मुखः॥ ब्रह्मभूतो महायोगी निःसंगश्छिन्नसंशयः॥१०॥ तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना॥ हंतुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम्॥११॥ तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम्॥ द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम्॥१२॥

हो, इन्द्रियोंको निश्चलकर, सूखे वृक्षकी नाईं अचल होगया॥९॥ गंगाके किनारेपर पूर्व अग्र कुशासनपर बैठ, उत्तर दिशाकी ओरको मुख करके संशयछिन्न निस्संग महायोगी परब्रह्ममें तदाकर होगया॥१०॥ हे ब्राह्मणो!क्रोधी ब्राह्मणके पुत्रका भेजाहुवा तक्षक राजाके काटनेकी इच्छा करके चला, तब मार्गमें कश्यपजीको देखा॥११॥ कि, कश्यपजी6 राजा परीक्षित्के पासको जातेहैं और यह विषके उतारनेमें चतुर हैं

तब तक्षक

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ने उस विषके दूर करनेवाले कश्यपजीको धनसे तृप्तकर जानेसे रोक लिया, तब इच्छारूपी तक्षकने ब्राह्मणका रूप धरके अपने आपको छिपाकर राजा परीक्षितको जाकर काटा॥१२॥ ब्रह्मस्वरूप राजऋषि परीक्षित्की देह विषाग्निसे सबके देखते उसी समय जलकर क्षार

ब्रह्मभूतस्य राजर्षर्देहोऽहिगरलाग्निना॥ बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम्॥१३॥
हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः॥ विस्मिता ह्यभवन्सर्वे देवासुरनरादयः॥१४॥

होगई॥१३॥ उस समय पृथ्वी, आकाश, सब दिशाओंमें बडा हाहाकार शब्द होनेलगा, सब नगरमें कुलाहल मचगया,देवता, असुर,
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—लकडी तोडनेके लिये एक लकडहारा चढा था बहभीउस वृक्षके सग जलकर भस्म होगया, तव कश्यपजीने संजीवनी मंत्र पढकर दो घडीमें लकडहारेसहित उस वृक्षको यथावत् करदिया, तब तक्षक आश्चर्यमय होकर कहने लगा कि, आप कुछ ज्योतिष विद्या भी जानत हैं? कश्यपजी वोले हाँ। तब तक्षकने कहा कि, विचारो तो राजाकी अवस्था कितनी और रही है, कश्यपजी बोले कि, हमारे विचारमें ऐसा आता है। राजाकी आयुर्बल दो घडी शेष है, तब तक्षकने कहा कि, मंत्र अकालमृत्युवालेको जीवित करसक्ता है परन्तु जिसकी मृत्युही निकट आगई होय उसको कोई नहीं वचासक्ता फिर वृथो उपाय करनेसे मानहानि होती है और जो आपको धनकी इच्छा है तो इसी वृक्षके नीचे बहुत गडा है, जितना चाहिये उतना लेजाओ, कश्यपजीको और किसी बातसे प्रयोजन नहीं था अपनी इच्छानुसार धन लेकर अपने आश्रमको लौटगये, तब तक्षक राजाके पास जाकर एक पुष्पमें कीडेका रूप धारणकर घुस बैठा और तक्षकके पुत्रने ब्राह्मणका रूप धरकर वह फूल राजाको दिया राजा फूलको देखकर कहनेलगे कि, संध्या होगई और तक्षक अभीतक नहीं आया कहीं ब्राह्मणका वचन झूठा न होजाये इस कारण इस कीडेहीसे मस्तकमें कटवालें, ज्यों राजाने कीडेसे कंटवाया त्यहि तक्षकने अपना रूपधर राजाको डसा कि, वह तुरत भस्म होगया और तक्षक उसी समय उडगया, उस लकडहारेने जब सब वृत्तान्त कहा तब जन्मेजयने तक्षकका अपराध विचार सर्पसत्र यज्ञ किया ।

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**शंका —**द्वादशके पाँचवें अध्यायमें शुकदेवजीने कहा कि, हे राजन्! ब्राह्मणके शापकी आज्ञाको जिस सर्पने पाया वह सर्प तुमको नहीं डसेगा, भगवतके श्लोकमें “त्वां” शब्द लिखा है सो शुकदेवजीने"त्वा” किसको कहा था परीक्षितकी देहको कहा था कि, जीवको कहाथा? जो जीवको त्वां कहा तोभी अयोग्य है, क्योंकि जीव किसीके जलानेसे जलनहीं सक्ता, जो कदापि ऐसा देखकर कि, संसारमें शरीरहीकी प्रशंसा है जीवको कोई नहीं जानता, शरीरहीको त्वां कहाथा तो फिर सर्पके काटनेसे शरीर क्यों भस्म होगया!मुनिने तो कहाथा कि भस्म नहीं होगा! यह शका होती है?

**उत्तर —**जो प्रश्न तुम लोगोंने किया सो सत्य है, संसारमें शरीरकी प्रशंसा देखकर कि देहके सिवाय जीवको कोई भी नहीं जाता इसलिये शुकदेवजीने देहको त्वां कहाया, अव देह भस्म होनेका कारण सुनो शुकदेवजी का वचन सत्य था कि, राजाका देह सर्पके काटनेसे भस्म नहीं होता परन्तु परीक्षित्ने मरनेके समयमें भगवान्का विचार शुकदेवजीसे भागवत सुनी सात दिनसे पहिले जो मरते हैं, उन प्राणियोंको

मनुष्यादिक सब आश्चर्यमय होगये॥१४॥ आकाशमें देवताओंके दुन्दुभी बजनेलगे, गन्धर्व गानेलगे, अप्सरा नृत्य करने लगीं और पुष्पोंकी वर्षा होनेलगीं और महात्मा पुरुष वारम्वार धन्यवाद देनेलगे॥१५॥राजा जन्मेजय अपने पिता परीक्षित्को तक्षकसे डसा सुन कर महाक्रोधित हुआ और ब्राह्मणोंको बुला सर्पसत्र यज्ञमें सर्पोका होम करानेलगा॥१६॥ उस यज्ञकी महाप्रचण्ड अग्रिमें बड़े बड़े सर्पोंको जलता हुआ देखकर तक्षक डरका मारा अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रकी शरण गया॥१७॥ परीक्षित्के पुत्र राजा जन्मेजयने जब तक्षकको

देवदुंदुभयो नेदुर्गंधर्वाप्सरसो जगुः॥ ववर्षुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः॥१५॥ जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्॥ तथा जुहाव संक्रुद्धो नागान्सत्रे सहद्विजैः॥१६॥ सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान्महोरगान्॥ दृष्ट्वेंद्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ॥१७॥ अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्॥ उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः॥१८॥ तं गोपायति राजेंद्र शक्रः शरणमागतम्॥ तेन संस्तंभितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ॥१९॥ पारीक्षितइति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः॥ सहेंद्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते॥२०॥

यज्ञमें न देखा तो ब्राह्मणोसे बूझा कि, सर्पोंमें अधम तक्षक यहाँ आनकर क्यों नहीं भस्म हुआ?॥१८॥तब ब्राह्मण बोले कि, हे नरेन्द्र! अपनी शरण गये तक्षककी इन्द्र रक्षा करता है और इन्द्रनेही उसको अपने समीप बैठाल रक्खा है, इसीलिये वह अग्निमें आनकर नहीं पड़ा॥१९॥ ब्राह्मणोंका यह वचन सुनकर उदार बुद्धिवाला राजा जन्मेजय ब्राह्मणोंसे बोला कि, हे ब्राह्मणो!इन्द्र सहित उस तक्षकको अग्निमें क्यों नहीं डाल देते, क्या इतनी सामर्थ्य आपको नहीं है॥२०॥

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नरक होता है भागवतके प्रभावसे अब इसको नरक नहीं होना चाहिये, जो ऐसा करेंगे तो सर्पकी मर्यादा नाश होजायगी, इसलिये भागवतकी, सर्पकी, शुकदेवजीकी इन तीनोंकी मर्यादा रखनेके लिये भगवान्ने परीक्षित्को तीन कर्म करके तीनोंकी मर्यादा रक्खी, सर्पके काटनेसे मृत्यु होती है तो उस प्राणिको नरकमें जाना पडताहै सो श्रीमद्भागवत सुननेके प्रतापसे राजा परीक्षित्‌को भगवान्‌ने नरक वाससे छुटाया और शुकदेवजी का राजा शिष्य था इसलिये बैकुण्ठमें राजाको भेजा सर्पकी मर्यादा रखनेके लिये राजाका देह भस्म किया, इसलिये राजाकी देह मस्म होगई कुछ शुकदेवजीका वाक्य झूठा नहीं था, जो सर्पकी मर्यादा भगवान्। न रखते तो कभीराजाकी देह भस्म न होती।

जन्मेजयका यह वचन सुनकर सब ब्राह्मण इन्द्रसहित उस तक्षकको आहुतिमंत्र पढ़कर आवाहन करने लगे “हे तक्षक!मरुद्गणाधीश इन्द्रके संग तू शीघ्र यज्ञाग्निमें आनकर पड़" इसप्रकार आहुतिमंत्रोंसे इन्द्र सहित तक्षकको बुलाया॥२१॥ ब्राह्मणोंके कठोर वचनोंसे और मंत्रोंके आकर्षणसे तक्षक सहित इन्द्र अपने स्थानसे चलायमान हो विमान और तक्षक सहित अपने मन में घबरागया॥२२॥ इन्द्रको विमान और तक्षक सहित आकाशसे गिरता हुआ देखकर, अंगिराके पुत्र बृहस्पतिजीने जन्मेजयसे कहा॥२३॥ हे नरेन्द्र! यह सर्पराज आपके हाथसे वधकरनेयोग्य नहीं है, क्योंकि इसने अमृतपान किया है, इसलिये यह अमर अजर है॥२४॥ हे राजन्!तक्षक के डसने से पिताका मरण सुनकर आपको इतना क्रोध तक्षकपर

तच्छ्रुत्वा जुहुवुर्विप्राः सहेंद्रं तक्षकं मखे॥ तक्षकाशु पतस्वेह सहेंद्रेण मरुत्त्वता॥२१॥ इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिंद्रः प्रचालितः॥ बभूव संभ्रांतमतिः सविमानः सतक्षकः॥२२॥ तं पतंतं विमानेन सहतक्षकमंबरात्॥ विलोक्यां गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः॥२३॥ नैष त्वया मनुष्येंद्र वधमर्हति सर्पराट्॥ अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः॥२४॥ जीवितं मरणं जंतोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा॥ राजंस्ततोऽन्यो नान्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः॥२५॥ सर्प चोराग्निविद्युद्भ्यःक्षुत्तृङ्व्याध्यादिभिर्नृप॥ पंचत्वमृच्छते जंतुर्भुक्त आरब्धकर्म तत्॥२६॥ तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम्॥ सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते॥२७॥ इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन्वचः॥ सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम्॥२८॥

करना नहीं चाहिये, क्योंकि जीवोंका जीवन मरण और परलोक अपने कर्मोहीसे होता है, इसे सुख दुःखका दाता और कोई दूसरा नहीं जान पड़ता॥२५॥ हे नरेश! सर्प, चोर, अग्नि, बिजली, क्षुधा, तृषा, रोगादिकोंसे प्राणी मृत्युको प्राप्त होताहै, सो वह अपने प्रारब्ध और कर्मोंहीके भोगसे भोगताहै कुछ सर्पादिक स्वतंत्र नहीं हैं, उनको भी प्रारब्ध और कर्मही प्रेरणा करता है॥२६॥ हे राजन्!यह प्राणी अपने अदृष्टहीका भोग करे है, इसलिये इस अभिचार हिंसक यज्ञको समाप्तकरो देखो! इस यज्ञमें अनेक निरपराधी सर्प भस्म होगये, परन्तु उसमें आपकाभी कुछ दोष नहीं, क्योंकि प्राणी सदा अपने प्रारब्ध और कर्मोंका भोग भोगते रहते हैं॥२७॥ जब बृहस्पतिजीने इसप्रकार से वचन कहे तब

राजाने उसीसमय बृहस्पतिजीके वचनोंको सन्मान दे, अभिचार यज्ञसे निवृत्त हो, देवगुरु बृहस्पतिजीका पूजन किया॥२८॥ देखिये! ब्राह्मणके क्रोधसे परीक्षितका मरण हुवा और परीक्षित्के पुत्र जन्मेजयने कोप करके करोडों सर्पोंको जलाडाला, सो यह क्रोधरूप मोह ऐसे ऐसे महात्मा पुरुषोंको भी हुवा, इसमें कोई आश्चर्य माननेकी बात नहीं है, क्योंकि विष्णुभगवान्की अलक्षित माया किसीप्रकार किसीसे निवारण न होसकी देखो! उनहीं विष्णु भगवान्की मायासे विष्णु भगवान्हीके अंशरूप जीव दूसरे जीवोंपर अपनी देहमें तीनों गुणोंकी वृत्ति क्रोधादिकोंसे मोहित हो संसारमें भ्रमते हैं॥२९॥ यह माया तत्त्ववादी ब्रह्मविचार करनेवालोके सिवाय और सब स्थानोंमें यह माया निर्भय वास करती है और ब्रह्मवादी लोग जब तत्त्वविचार करते हैं तो वह लोग भलीभाँति जानते हैं कि, यह माया बड़ी कपटकारिणी है और लोकोंकी वचना

सैषा विष्णोर्महामायाऽबाध्ययाऽलक्षणा यया॥ मुह्यंत्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः॥२९॥ न यत्र दंभीत्यभया विराजिता मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः॥ न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो मनश्च संकल्पविकल्पवृत्तिमत्॥३०॥ न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम् ॥ तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं निषिध्य चोर्मीन्विरमेत्स्व॒यं मुनिः॥३१॥ परं पदं वैष्णवमामनंति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः॥ विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः॥३२॥

करनेवाली है, जिन महात्मापुरुषोंने ऐसा समझ रक्खा है उनके सन्मुख निर्भय होकर माया अपना प्रकाश नहीं करसक्ती, क्योंकि उनसे भय मानती है और मोह ममतादिक कार्योंको नहीं करती, अपने दिन पूरे करती है और जहाँ तत्त्वविचार है माया कारणके अनेक वाद विवाद नहीं है और संकल्प विकल्प वृत्तियोंके युक्त मन भी जहाँ नहीं है॥३०॥ सृष्टिके करनेवाले सब कारण और कर्मसे सिद्ध हुए फल, इन तीनों सहित अहंकारयुक्त जीव जिस विष्णुमें विघ्न डालनेवाला विघ्नभी जहाँ नहीं रहता, अहंकारादि ऊर्मियोंके त्यागनेवाले मुनिलोग उसी विष्णुपदमें रमण करते हैं॥३१॥ और स्थान, सौहृद, दुष्टता और अनात्मपदार्थों को त्याग नेति नेति कह अहंभावकी निवृत्तिकर सिवाय

परमात्माके और किसीसे स्नेहन रखनेवाले विवेकी पुरुष परमतत्त्व रूपहीको विष्णुका परमपद कहतेहैं, उसीका ध्यानादिक सावधानतासे विज्ञानीलोग हृदयमें धारण करते हैं॥३२॥ विष्णुके परमपदको वही आत्मतत्त्ववेत्ता जानते हैं जिनके देह गेहमें अहंता, ममता, दुर्जनताका मिथ्या अभिमान नहीं है॥३३॥ मनुष्यको उचित तो यह है कि, अज्ञानियोंके दुर्वाक्योको सहन करें किसीकी अवज्ञा न करैऔर इस देहके कारण किसीसे शत्रुता न करें॥३४॥ अकुण्ठित बुद्धिवाले भगवान् व्यासदेवजीको मैं वारम्वार नमस्कार करता हूं कि, जिनके चरणकमलके ध्यानसे मैंने यह “श्रीमद्भागवत–सहिता” पढ़ी है॥३५॥ शौनकऋषि बोले, हे सौम्य!व्यासदेवजी के शिष्य!वेदोंके अचार्य पैलादि महात्मा ऋषियोंने वेदोंका

त एतदधिगच्छंति विष्णोर्यत्परमं पदम्॥ अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम्॥३३॥ अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन॥ न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥३४॥ नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुंठमेधसे॥ यत्पादांबुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम्॥३५॥ शौनक उवाच॥ पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः॥ वेदाश्च कतिधा व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः॥३६॥ सूत उवाच॥ समाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मणः परमेष्ठिनः॥ हृदाकाशादभृन्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते॥३७॥ यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मनः॥ द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यांत्यपुनर्भवम्॥३८॥ ततोऽभूत्रिवृदोंकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्॥ यत्तल्लिंगं भगवतो ब्राह्मणः परमात्मनः॥३९॥ शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्॥ येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः॥४०॥

कितनी रीतिसे विभाग किया सो यह वृन्तांत हम बूझतेहैं और पुराणोंकी संहिताओंके विभाग किसप्रकारसे किये गयेहैं सो जाननेकी हमारी अभिलाषाहै॥३६॥ श्रीसूतजी बोले कि, ब्रह्मन्!एकाग्रमन परमेष्ठी ब्रह्माके हृदय आकाशसे प्रथम एक नाद शब्द उत्पन्न हुवा जो कि, कानोंपर हाथ रखनेसे सुनाई आता है॥३७॥ हे ब्रह्मन! जिस नादकी उपासना करके योगी पुरुष अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, इन तीनों मनके मलोंको दूर करके मुक्तिको प्राप्त होते हैं॥३८॥ उस नादशब्दसे स्वयंप्रकाश हुवा जिसकी उत्पत्ति स्पष्टरीति से किसीप्रकार जाननेमें न आवै, ऐसा अव्यक्त तीन अक्षर युक्त ॐकार हुवा जो कि, भगवान् परमात्मा परब्रह्मका जतानेवाला है॥३९॥ इन्द्रिय मनविनाही जो भगवान् है सब शून्य होजानेपर भी आप ज्ञाता होनेसे

कानोंके बन्द करनेपरभी इस अव्यक्त ओंकारको सुनते हैं जीव इन्द्रियांके अधीन है, इसलिये कान बन्द किये जानेपर भी कुछ नहीं सुनता, हृदयरूप आकाशमें आत्मा से उत्पन्नहुए ओंकारसे वैखरी विस्तृत वाणी प्रगट होती है॥४०॥ अपने आश्रयरूप सर्वव्यापक साक्षात् परमात्मा परब्रह्मका बतानेवाला सब मंत्रोंका रहस्य, वेदोंका बीज, सनातन ओंकार है॥४१॥ हे भृगुवंशियों में श्रेष्ठ! उस ओंकारसे अकार, उकार, मकार यह तीन वर्ण हुए तीन वर्णसे सत्त्व, रज और तम तीन गुण ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद यह तीन वेद, भूलोंक भुवर्लोक और स्वर्लोक यह तोनों लोक, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति यह तीनों अवस्था हुईं॥४२॥ भगवान ब्रह्माजीने इन्ही वर्णोंसे अक्षरोंके समूह रचे सोलह॥१६॥ तो स्वर पचीस २५ स्पर्श चार ४ अन्तस्थ, चार ४ ऊष्मा, यह सब ह्रस्व दीर्घ जिह्वामूलीय करके युक्त हैं॥४३॥ भगवान् ब्रह्माजीने उन्हीं अक्षरोंसे चारों मुखोंसे

स्वधाम्नो ब्रह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः॥ स सर्वमंत्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम्॥४१॥ तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह। धार्यते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः॥४२॥ ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः॥ अंतःस्थोष्मस्वरस्पर्शह्रस्वदीर्घादिलक्षणम्॥४३॥ तेनासौ चतुरो वेदाश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः॥ सव्याहृतिकान्सोंकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया॥४४॥ पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्ब्रह्मकोविदान्॥ ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन्॥ ॥४५॥ ते परंपरया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः॥ चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः॥४६॥ क्षीणायुषः क्षीण सत्त्वान्दुर्मेधान्वीक्ष्य कालतः॥ वेदान्ब्रह्मर्षयो व्यस्यन्हृदिस्थाच्युतचोदिताः॥४७॥

ओंकारसहित चारों वेदोंको रचा चातुहोत्र कर्मोंके लिये अथर्वण, यजुर्वेदी उद्गाथा, सामवेदी होता, ऋग्वेदी ब्रह्मा, आहुतिदेनेवाले रचे॥४४॥ फिर भगवान् ब्रह्माजीने वेदोंके उच्चारणादिकों में चतुर ब्रह्मर्षि अपने पुत्रोंको वह वेद पढाये और धर्मोंके उपदेष्टा होकर अपने पुत्रादिकोंके पढाने लगे॥४९॥ उन सब वेदोंके हृदयमें धारण करनेवाले व्रतधारी शिष्योंकी परंपरा चारों युगों में चली आई है, द्वापरके अन्तमें महाऋषियोंनेवेदोंके विभाग किये॥४६॥ इसका कारण यह है कि भगवान्ने जाना कि, कलियुगमें सब ब्रह्मऋषि कालसे क्षीण, अल्प आयु, वीर्यहीन, अशक्ति और मन्दमति होंगे, यह विचारकर अच्युत भगवान्ने उनके हृदयमें विराजमान होकर प्रेरणा की तब उन ऋषियोंने वेदका विभाग किया॥४७॥

हे ब्रह्मन्! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें लोकोंके पालन करनेवाले भगवान् धर्मकी रक्षाके लिये ब्रह्मा, शिवादिक लोकपालोंकी स्तुति करनेसे॥४८॥ विभु भगवान्ने अपने अंशकलाओंसे पराशरमुनिके वीर्य करके सत्यवतीके गर्भमें वेदव्यासरूपसे अवतीर्ण होकर वेदके चार विभाग किये॥४९॥ जैसे रत्नपारखी अनेक मणियोंकी राशियोंसे पद्मरागादि मणियोंको छाँटछाँटकर अलग कर लेता है, ऐसेही मंत्रोंके समुदाय एक वेदमेंसे ऋग, यजुर्, साम और अथर्वण नामके मंत्रोंको उद्धारके उन मंत्रोंसे चार संहिता श्रीवेदव्यासजीने रची॥५०॥ हे शौनक!फिर पीछे महामति व्यासजीने

अस्मिन्नप्यंतरे ब्रह्मन्भगवाँल्लोकभावनः॥ ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये॥४८॥ पराशरात्सत्यवत्यामंशां शकलया विभुः॥ अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम्॥४९॥ ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीनुद्धृत्य वर्गशः॥ चतस्रः संहिताश्चक्रेमंत्रैर्मणिगणा इव॥५०॥ तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः॥ एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः॥५१॥ पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यामुवाच ह। वैशंपायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम्॥ ॥५२॥ साम्नां जैमिनये प्राह तथा छंदोगसंहिताम्॥ अथर्वांगिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमंतवे॥५३॥ पैलः स्वां संहितामूच इंद्रप्रमितये मुनिः॥ बाष्कलाय च सोप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम्॥५४॥ चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव॥ पराशरायाग्निमित्रे इंद्रप्रमितिरात्मवान्॥५५॥

अपने चार शिष्योंको बुलाकर एक एक संहिता देदी॥५१॥ पैलनाम शिष्यको बहुत ऋचा होनेसे बह्वृचानाम ऋग्वेदकी संहिता दी, निगदानाम यजुर्वेदकी संहिता वैशंपायनको दी॥५२॥ छन्दोगनाम सामवेदकी संहिता जैमिनीको पढाई और अंगिरसनाम अथर्वण वेदकी संहिता अपने शिष्य सुमंतुको पढाई॥५३॥ पैलमुनिने अपनी पढीहुई संहिता इन्द्रप्रमित और बाष्कलनाम अपने दोनों शिष्योंको दी॥५४॥ हे ब्रह्मन्!बाष्कलने अपनी संहिताके चार विभाग करके बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र, इन चारों अपने शिष्यों को पढ़ाई महात्मा

इन्द्रप्रमितने अपनी संहिता कवि मंडूक ऋषिको पढ़ाई मंडूकने देवमित्रको पढ़ाई देवमित्रने सौभर्यादि ऋषियोंको पढाई॥५५॥५६॥ मंडूकके पुत्र शाकल्यने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके वत्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य, शिशिरनाम अपने पाँचो शिष्योंको दी॥५७॥ शाकल्यके छठे जातूकर्ण्य नाम शिष्यने अपनी संहिताके तीन भाग किये और वैदिक पदार्थोंका व्याख्यानरूप निरुक्त नाम ग्रन्थ रचकर, बलाक, पैज, वेताल और विरज नाम अपने चार शिष्योंको पढाया॥५८॥ बाष्कलि, बाष्कलके पुत्रने सब संहिताओंकी शााओंमेंसे बालखिल्यानाम् संहिता बनाकर वह संहिता बालायनि, भज्य और कासारनाम अपने तीनों शिष्योंको दीं॥५९॥ यह सब ब्रह्मऋषि ऋग्वेदकी वहृचानाम संहिताके

अध्यापयत्संहितां स्वां मांडूकेयमृषिं कविम्॥ तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान्॥५६॥ शाकल्यस्तत्सुतस्तां तु पंचधा व्यस्य संहिताम्॥ वात्स्यमुद्गलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात्॥५७॥ जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्॥ बलाकपैजवैतालविरजेभ्यो ददौ मुनिः॥५८॥ बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम्॥ चक्रे बालायनिर्भज्य कांशारश्चैव तां दधुः॥५९॥ बहृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः॥ श्रुत्वैनं छंदसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥६०॥ वैशंपायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्॥ यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहःक्षपणं स्वगुरोर्व्रतम्॥६१॥ याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत्॥ चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सृदुश्चरम्॥६२॥ इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया॥ विप्रावमंत्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति॥६३॥

धारण करनेवाले हुए जो पुरुष इस वेदके विस्तारको सुनेगा वह सब पापोंसे निवृत्त होजायगा॥६०॥ वैशंपायनके शिष्यने यजुर्वेदसंहिता पढ़ी, इसलिये उन्होंने यज्ञमें अध्वर्युकी पदवी पाई, जब उनके गुरु वैशंपायनको ब्रह्महत्या का पाप लगा तब उस पापके निवारणके लिये अपने गुरुके बदले उन्होंने अपने आप प्रायश्चित्त किया उस दिनसे उनका नाम चरकाध्वर्यु हुआ॥६१॥ याज्ञवल्क्यने ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त करानेके समय वैशंपायन अपने गुरुसे कहा कि, हे स्वाचिन्!अल्प दृढतावाले जो और पापके शिष्य हैं, जो आपके पापका प्रायश्चित्त करें तो क्योंकर होगा? यह महाकठिन प्रायश्चित्त मैं इकलाही करूंगा॥६२॥ याज्ञवल्क्यका यह वचन सुनकर वैशंपायन अत्यन्त कुपित होकर बोले कि, तू मेरे सामनेसे

चलाजा, तू दूसरे ब्राह्मणकी अवज्ञा करनेवाला शिष्य है, इसलिये मुझसे तुझसे कुछ प्रयोजन नहीं तैंने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, उसको इसी समय त्यागदे॥६३॥ गुरुके मुखसे इस प्रकारके कठोर वचन सुनकर देवरातके पुत्र याज्ञवल्क्यने अभिमानमें आनकर यजुर्वेदके मंत्रोंको उगल वहाँसे चलदिया उस समय मुनिगणोंने यजुर्वेदके अमूल्य मंत्रोंको पड़ा देखा॥६४॥ जिन मंत्रोंमें उन मुनियोंकी परम इच्छाथी, उन मंत्रोंको उन मुनियोने तीतर पक्षीका रूप धारण करके याज्ञवल्क्यके वमन कियेहुए यजुर्वेदके मंत्रोंको ग्रहण करलिया, उसी दिनसे उस यजुर्वेदकी तैत्तिरीय नाम शाखा हुई॥६५॥ हे ब्राह्मन्! याज्ञवल्क्यजीने गुरुसे भी अधिक वेदविद्या प्राप्त करनेके लिये श्रीसूर्यनारायणकी उपासना करनी आरम्भ की॥६६॥

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम्॥ ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान्यजुर्गणान्॥६४॥ यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः॥ तैत्तिरीया इति यजुःशाखा आसन्सुपेशलाः॥६५॥ याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मञ्छन्दांस्यधि गवेषयन्॥ गुरोरविद्यमानानि सुपतस्थेऽर्कमीश्वरम्॥६६॥ याज्ञवल्क्य उवाच॥ ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तंबपर्यंतानामंतर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाऽव्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादानविसर्गाभ्यामिमां लोकयावामनुवहति॥६७॥ यदु ह वा व विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवमहरहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिनबीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम्॥६८॥

याज्ञवल्क्य बोले कि, हे सूर्यनारायण भगवान्!आदित्यस्वरूप आपको वारम्बार नमस्कार है, आप ब्रह्मासे लेकर तृण पर्यन्त जरायुज आदि चार प्रकारके जीवोंके समुदाय रूपसहित इस विश्वके हृदयमें निरुपाधि अन्तर्यामीरूप हो और बाहर लव निमेष क्षणके अनेक अवयववाले वर्षोंके समुदायवाले कालरूपसे आकाशकी सदृश उपाधिसे आच्छादित नहीं होते और प्रत्येक वर्षमें पानीकें सोखने और वर्षानेसे एकही आप इस जगत्की दिन रात यात्रा करते रहतेहो ऐसे जो आप त्रिलोकीनाथ हो आपको वारम्वार प्रणाम करता हूं॥६७॥ हे त्रिभुवनपते! हे त्रयतापके नशानेवाले! हे नित्य त्रिकाल वेदविधिसे पूजन करनेवाले! भक्त जनोंके अखिल पापोंके फल दूषण और बीज अज्ञानके जलानेवाले!

हे सर्व देवताओंमें श्रेष्ठ! हे सविता भगवन्! आपका जो यह मण्डल त्रिलोकीमें प्रकाश करता है, ऐसे जो आप निशिवासर जगत्के तपानेवाले हैं सोमैं एकाग्रचित्तसे आपका ध्यान करताहूं॥६८॥ हे भास्कर! आपके रहनेके स्थान स्थावर जंगम अनंत समुदाय के जडरूप मन इन्द्रिय प्राणोंके समूहोंको आपही अन्तर्यामी आत्मारूप होकर प्रेरणा करतेहो ऐसे तेजरूपको मैं वारम्वार नमस्कार करताहूं॥६९॥ हे विश्वतमनाशक!हे कृपानिधे! महाभयानक मुखवाले अन्धकाररूपअजगरसे ग्रसेहुये मृतकके समान संज्ञारहित अचेतन लोकोँको देखकर परमकरुणानिधान आप दयादृष्टिसे उनको उठाकर नित्य समयसमयपर कल्याणरूप स्वधर्मनिष्ठांमें प्रवृत्त करते हो और भूपतिकी तुल्य असाधु लोगोंको

य इह वा व स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनइंद्रियासुगणाननात्मनः स्वयमात्मांतर्यामी प्रचोदयति॥६९॥ य एवेमं लोकमतिकरालवदनांधकारसंज्ञाजगरग्रहगिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकंपया परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्त्तयत्यवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति॥७०॥ परित आशापालैस्तत्रतत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः॥७१॥ अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिर्वेदितमहमयातयामयजुष्काम उपसरामीति॥७२॥ सूत उवाच॥ एवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो हरिः॥ यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः॥७३॥

भयदेतेहुये सब और घूमते रहते हो, ऐसे जो आप दयालु हो सो आपको वारम्वार प्रणाम करताहूं॥७०॥ हे सूर्य! जहाँ तहाँ दिक्पाल देवता कमलकोशयुक्त अंजलियोंसे आपको अर्घ्य देदेकर आराधना करते हैं, ऐसे जो सर्वान्तर्यामी आप हो आपको मैं नमस्कार करता हूं॥७१॥ हे भगवन्! आप ऐसे दीनदयालु हो, त्रिलोकीके अधीश्वरोंसे पूजित आपके चरणारविन्दकी उत्तम यजुर्वेदकी कामनाके लिये मैं शरण आयाहूं॥ ७२ ॥ सूतजी बोले कि, हे शौनकादि ऋषियों!याज्ञवल्क्यने जब इस प्रकार सूर्यनारायणकी प्रार्थना की, तब उस प्रार्थनाको सुन, सूर्यनारायणने प्रसन्न होकर अश्वका रूप धारण किया+ इच्छानुसार सहित यजुर्वेदके मंत्र दिये॥७३॥

तब याज्ञवल्क्य मुनिने उस यजुर्वेदकी पन्द्रह १५ शाखा करी, सूर्यनारायणने अपनी केशावलीसे जो मंत्र निकाले इसलिये यह शाखा बाजसनेयी नामसे प्रसिद्ध हुईं, उन शाखाओंको कण्व और मध्यंदिनादि ऋषियोने ग्रहण किया॥७४॥ सामवेदके वेत्ता जैमिनिने सुमन्तु नाम अपने पुत्रको और सुन्वान् नाम अपने नातीको एक एक संहिता पढ़ादी॥७५॥फिर जैमिनिजीका दूसरा शिष्य सुकर्मा नाम द्विज बड़ा चतुरथा उसने सामवेदवृक्षकी सहस्र संहिता बनाकर अलग अलग शाखा रचीं॥७६॥ हिरण्यनाभ, कौशल्य, पौष्यंजि और वेदपाठी आवंत्य यह तीन शिष्य सुकर्माके हुये, उन्होंने सहस्रों संहिताओको ग्रहण किया॥७७॥ हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और आवंत्यके महाचतुर पांचसौ ५०० शिष्य साम

यजुर्भिरकरोच्छाखा दशपंच शतैर्विभुः॥ जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यंदिनादयः॥७४॥ जैमिनेः सामगस्यासीत्सुमंतुस्तनयो मुनिः॥ सुन्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम्॥७५॥ सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्॥ सहस्रं संहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विजः॥७६॥ हिरण्यनाभः कौशल्यः पौष्यंजिश्च सुकर्मणः शिष्यौजगृहतुश्चान्य आवंत्योब्रह्मवित्तमः॥७७॥ उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन्पंचशतानि च॥ पौष्यंज्यावत्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान्प्रचक्षते॥७८॥ लौगाक्षिर्मांगलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च॥ पौष्यंजिशिष्या जागृहुःसंहितास्ते शतंशतम्॥७९॥ कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशतिसंहिताः॥ शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवंत्य अत्मवान्॥ ॥८०॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादशस्कंधे वेदशाखाविभागनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ सूत उवाच॥ अथर्ववित्सुमंतुश्च शिष्यमध्यापयत्स्वकम्॥ संहिता सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान्॥१॥

वेदके गानेवाले उदीच्या नाम (उत्तर दिशानिवासी) हुए, उनमें कोई कोई पूर्वदिशाकेवासी कहलाये॥७८॥ पौष्यंजिके शिष्य लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद, कुक्षी यह पांच शिष्य और थे, उन्होंने सौ सौ संहिताओंको ग्रहण किया॥७९॥ हिरण्यनाभका कृत्तनाम दूसरा और शिष्य था, उसने अपने शिष्यों को चौबीस संहिता पढ़ाई और जो संहितायें अवशेष रहगईंथीं वह ज्ञानवान् आवत्यने अपने शिष्योंको पढ़ादीं॥ ॥८०॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषांटीकायां वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा—सप्तममाहिं अथर्वको, कहों सहित विस्तार॥ फेर पुराणोंके कहौं, लक्षण सकल विचार॥१॥ सूतजी बोले कि, अथर्ववेदपाठी सुमन्तुने अपनी संहिता अपने कबन्ध नाम शिष्यको पढ़ाई

कबन्धने अपनी संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्श नामको पढ़ाई॥१॥हे ब्राह्मणो! वेददर्शने अपनी संहिताके चार भाग किये और शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि नाम अपने चार शिष्योंको पढ़ाई, और पथ्यने अपनी संहिताके तीन भाग करके कुमुद, शुनक और जाजलि नाम तीन शिष्योंको पढ़ाई॥२॥ शुनकके बभ्रु और सैन्धवायन नाम दो शिष्योंको अपनी संहिताके दो विभाग करके पढ़ाया सैन्धवायन आदिके सावर्णि आदि शिष्य हुए॥३॥ नक्षत्रकल्प, शान्तिकल्प, कश्यप और आंगिरस आदि शिष्य हुए हे मुनिराज! यह तो मैंने आपसे अथर्ववेदके आचार्य्य कहे अब मैं आपके सामने पुराणोंके आचार्योंका वर्णन करता हूँ,सो आप सावधान होकर सुनिये॥४॥ त्रय्यारुणि,

शौल्कायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः॥ वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो शृणु॥ कुमुदः शुनको ब्रह्मञ्जाजलिश्चाप्यथर्ववित्॥२॥ बभ्रुः शिष्योऽथांगिरसः सैंधवायन एव च॥ अधीयेतां संहिते द्वे सावर्ण्याद्यास्तथाऽपरे॥३॥ नक्षत्रकल्पः शांतिश्च कश्यपांगिरसादयः॥ एते आथर्वणाचार्याः शृणु पौराणिकान्मुने॥४॥ त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः॥ वैशंपायनहारीतौ षड्वैपौरणिका इमे॥५॥ अधीयंत व्यासशिष्यात्संहितां मत्पितुर्मुखात्॥ एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥६॥ कश्यपोऽहं च सावर्णीरामशिष्योकृतव्रणः॥ अधीमहि व्यासशिष्याच्चतस्रो मूलसंहिताः॥७॥ पुराणलक्षणं ब्रह्मन्ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम्॥ शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः॥८॥

कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशंपायन और हारीत यह छः पुराणोंके आचार्य्य हुए॥५॥ वेदव्यासजीने पहिले पुराणांकी छः संहिता रचकर मेरे पिता रोमहर्षणको पढ़ाईथी, फिर रोमहर्षणके मुखसे इन छहों जनोंने छहों संहिताओंको पढ़ा, मैं इन छहों महात्मा जनोंका शिष्य हुवा और सबसे एक एक संहिता पढी॥६॥ इनमें जो पुराणोंकी चार संहितायें मूल थीं उनको कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीका शिष्य अकृतव्रण और चौथा में इन चारों जनोंने व्यासजीके शिष्य मेरे पितासे चारों मूलसंहिताओं को पढ़ा॥७॥ हे शौनक! ब्रह्मऋषियोंने जो पुराणोंके लक्षण वर्णन किये हैं, वेद शास्त्रके

अनुसार उसे हम कहते हैं आप सावधानहो ध्यान लगाकर सुनिये॥८॥ सर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, राजाओंके वंश, उन वंशवाले राजाओंके चरित्र, निरोध, मुक्ति, हेतु और अपाश्रय॥९॥जिसमें यह दश लक्षण होंय विद्वान् लोग उसको महापुराण कहते हैं और कोई कोई आचार्य लोग पॉच लक्षण (सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित्र) वाले ग्रन्थको भी पुराण कहते हैं, यह केवल छोटे बडेकी व्यवस्था है॥१०॥इस मायाके गुण क्षोभसे महत्तत्त्व, तीन प्रकारका अहंकार, पंचमहाभूत और इन्द्रियगणकी उत्पत्तिको सर्ग कहते हैं॥११॥ ईश्वरके अनुग्रहसे महत्तत्त्व आदिसे प्रगट होता हुवा और बीजमेंसे बीजकी सदृश प्रवाहरूपसे चलतेहुए स्थावर जंगमरूप प्रपंचको विसर्ग कहतेहैं॥१२॥ जंगम

**सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षांतराणि च॥ वंशो वंश्यानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥९॥ दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः॥ केचित्पंचविधं ब्रह्मन्महदल्पव्यवस्थया॥१०॥ अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः॥ भृतसूक्ष्मेंद्रियार्थानां संभवः सर्ग उच्यते॥११॥ पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः॥ विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्वीजं चराचरम्॥१२॥ वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च॥ कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा॥१३॥ रक्षाऽच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगेयुगे॥ तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यंते यैस्त्रयीद्विषः॥१४॥ मन्वंतरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वरः॥ ऋषयोंशावतारश्च हरेः षड्विधमुच्यते॥१५॥ राज्ञां ब्रह्मप्रभूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः॥ वंश्यानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्चये॥१६॥**१६॥

प्राणियोंके स्थावर आहार है और जंगमोंकी मांसमें भी साधारण प्रीति है, उनमें मनुष्योंके निमित्त रागसे अथवा शास्त्रवचनोंसे जो आजीविकाका विधान है, वह वृत्ति कहाती है॥१३॥ पशु, पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवताओंमें भगवान् अवतीर्ण होकर युगयुगमें जो लीला करके विश्वकी रक्षा करते हैं, वही विश्वकी रक्षा कहलाती है और वही अनेक प्रकारके अवतार धारण करके वेदके द्रोही दुष्ट और पाखण्डियोंको मार पृथ्वीकी रक्षा करते हैं वही रक्षा कहलाती है॥१४॥ मनु, देवता, मनुके पुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और हरिके अंशावतार, यह छः मिलकर मन्वन्तर कहलाता है॥१५॥ ब्रह्मासे उत्पन्न हुए शुद्ध राजाओंकी भूत, भविष्य, वर्त्तमान कालकी सन्तानको वंश कहते हैं, उन राजाओंके वंशको और

उन वंशोंमें हुए चरित्रोंको वंशानुचरित्र कहते हैं॥१६॥ नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत, आत्यन्तिक, चार प्रकारकी प्रलयको कविजन संस्था (निरोध) कहते हैं॥१७॥ अविद्या के कारण कर्म कर्ता जीव जिसे मुख्यवेत्ता अनुशयी और उपाधिवेत्ता अव्याकृत कहते हैं, उसकी वासना इस जगत्की सृष्टि होने में निमित्त है, वह मुक्ति हेतु (ऊति ) कहलाती है॥१८॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिमें जीवरूपसे वर्तनेवाले ईश्वर मायामें विश्व, तैजस और प्राज्ञमें प्रविष्ट हैं और समाधिमें उनसे पृथक् हैं, इसलिये वह अपाश्रय कहलाते हैं॥१९॥ जैसे घटादिक पदार्थमें मृत्तिकादि प्रविष्ट उनके नाम रूप में सत्तामात्रही हैं, ऐसेही जन्मसें लेकर मरणतक उन सब अवस्थामें ब्रह्मयुक्तभी है और अलग भी है॥२०॥ जब सत्त्व, रज,

नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यंतिको लयः॥ संस्थेति कविभिः प्रोक्ता चतुर्धाऽस्य स्वभावतः॥१७॥ हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेरविद्याकर्मकारकः॥ यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे॥१८॥ व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्सप्नसुषुप्तिषु॥ मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः॥१९॥ पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु॥ बीजादिपंचतां तासु ह्यवस्था सुयुतायुतम्॥२०॥ विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम्॥ योगेन वा तदात्मानं वेदेहा या निवर्त्तते॥२१॥ एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः॥ मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महांति च॥२२॥ ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं चं शैवं लैंगं सगारुडम्॥ नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कांदसंज्ञितम्॥२३॥ भविष्यं ब्रह्मवैवर्त्तं मार्केडेयं सवामनम्॥ वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्मांडाख्यमिति त्रिषट्॥२४॥

तमतीनों गुणोंकी वृत्तियोंको त्यागकर पुरुषका चित्त शान्त होय, अथवा योगाभ्यास करके शान्त होय तब यह पुरुष अपने शुद्धरूपको जानकर संसार चेष्टाओंसे छूट जाता है॥२१॥ इन छोटे बड़े लक्षणोंसे पुराण पहुँचाने जाते हैं, अठारह १८ महापुराण हैं और अठारह १८ लघु पुराण हैं, इसप्रकार बड़े बड़े प्राचीन कविवर कहते हैं॥२२॥ ब्रह्मपुराण^(१), पद्मपुराण^(२), विष्णुपुराण^(३), शिवपुराण^(४), लिंग^(५)पुराण, गरुडपुरण^(६), नारदीयपुराण^(७), भागवतपुराण^(८), अग्निपुराण^(९), स्कन्दपुराणं^(१०)॥२३॥ भविष्यपुराण^(११), ब्रह्मवैवर्त्तपुराण^(१२), मार्कण्डेयपुराण^(१३), वामनपुराण^(१४), वाराहपुराण^(१५), मत्स्यपुराण^(१६)’

कूर्म्मपुराण^(१७), ब्रह्माण्ड

पुराण^(१८), यह अठारह पुराण कहे

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॥२४॥ हे ब्रह्मन्! वेदव्यासजीने और उनके शिष्योंने और उनके शिष्योंके शिष्योंने जो वेदकी शाखाओंका विस्तार किया है, वह वृत्तान्त मैंने आपको सुनाया क्योंकि वह ब्रह्मतेज और भक्तिका बढ़ानेवाला है॥२५॥ इति श्रीमद्भा॰महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां पुराणलक्षणवर्णनो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा— मोह मार्कण्डेयको, तपचर्य्या अरु काम॥

ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः॥ शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम्॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धेऽथर्ववेदपुराणलक्षणादिनि० सप्तमोऽध्यायः॥७॥ शौनक उवाच॥ सूत जीव चिरं साधो वदनो वदतां वर॥ तमस्यपारे भ्रमतां नृणां त्वं पारदर्शनः॥१॥ आहुश्चिरायुषमृषिं मृकंडतनयं जनाः॥ यः कल्पांते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत्॥२॥

इस अष्टम अध्यायमें हरिस्तुति सुखधाम॥१॥ शौनकादि मुनि बोले कि, हे साधो!हे श्रीसूतजी महाराज—वक्ताओंमें श्रेष्ठ! इस अपार संसारमें भ्रमनेवाले मनुष्योंको पार लगानेवाले तुम चिरंजीवित रहो॥१॥ मृकण्डके पुत्र मार्कण्डेयजीको लोग चिरजीवी कहते हैं।
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**शंका—**राजा जन्मेजयकी यज्ञमें बृहस्पतिजीने राजा जन्मेजयसे कहा कि, हे राजन्!तक्षकने अमृत पीलिया है अब आपके मारनेसे वह नहीं मरेगा क्योकि अमृतको जो प्राणी पीलेता है वह किसीके मारनेसे नहीं भरता, इस वातमें यह सन्देह है कि, अमृतका स्वामी इन्द्र, जिसने रातदिन अमृत पिया, वरन् अमृत पीते पीते अनेक युग बीत गये ऐसे इन्द्रको ब्राह्मणोंने तप और मन्त्रोंके प्रभावसे राजा जन्मेजयके यज्ञवाले कुण्डमें भस्म करनेके लिये स्वर्गसे गिराकर भस्म करनेकी सामर्थ्य तो ब्राह्मणोमें थी और जिस तक्षकने राईभर अमृत पीलिया क्या वह ब्राह्मणोंके मंत्र और तपके प्रभावसे भस्म नहीं होसक्ता?

** उत्तर—**जो प्राणी बहुत दुःखी होकर भगवान्‌का नाम एकवार भी लेताहै उसको असख्यनामके जपनेका फल प्राप्त होता है ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है,ऐसा तक्षकने जाना कि, में बडे बडे देवताओंके पास गया किसीने भी मेरी सहायता नहीं की ऐसा विचार कर इन्द्रलोकमें गया, महादुःखी हो रहाथा। नेत्रोंसे आँसू चले जाते थे, तब अत्यन्त आतुर होकर हे भगवन्! हे नारायण! इसप्रकार बढे आदर सत्कारसे वारम्वार भगवान्का नाम जपा, तब वही भगवान्का नाम अमृत होगया उसी भगवन्नाम अमृतको तक्षकने पान किया, इसलिये गुप्त करके बृहस्पतिजीने कहाथा कि, तक्षकने अमृत पीलिया है तुम्हारे मारनेसे नहीं मरेगा, कुछ इन्द्रवाले अमृतको नहीं कहा था॥

क्योंकि जिस प्रलयमें सब जगत् ग्रस्त हुवा तो उस कल्पांतमें मार्कण्डेयजी किसप्रकार बचरहे?॥२॥ जो भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ इसी कल्पमें हमारे वंशमें उत्पन्न हुए, उस दिनसे लेकर आजतक प्राणियोंका प्राकृतिक अथवा नैमित्तिक कोई भी प्रलय नहीं हुवा, फिर उनका प्रलयमें अवशेष रहना क्योंकर संभव हो सका है?॥३॥ कोई कोई महात्माजन ऐसा भी कहते हैं कि, मार्कण्डेय ऋषि इकलेही प्रलके समुद्रमें घूम रहेथे और वहाँ उन्होंने वटवृक्षके पत्रके दुप्पेमें एक अद्भुत बालकको सोता हुवा देखा “सो प्रलयकाल में वटका वृक्ष कैसे रहगया”॥४॥ हे सूत!

स वा अस्मत्कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन्भार्गवर्षभः॥ न वाऽधुनापि भूतानां संप्लवः कोऽपि जायते॥३॥ एक एवार्णवे भ्राम्यन्ददर्श पुरुषं किल॥ वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्भुतम्॥४॥ एष नः संशयो भूयान्सूतकौतूहलं यतः॥ तं नश्छिन्द्धिमहायोगिन्पुराणेष्वपि संमतः॥५॥ सूत उवाच॥ प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः॥ नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा॥६॥ प्राप्तद्विजातिसंस्कारो मार्कंडेयः पितुः क्रमात्॥ छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः॥७॥

हे महायोगिन्!हमको बड़ा सन्देह है और उसका उत्तर सुननेकी अभिलाषा है, सो आप सब पुराणोंके ज्ञाता और परमज्ञानी हो, आप हमारे इस संशयको निवारण करो॥५॥ सूतजी बोले कि, हे महापुरुषो! आपका यह प्रश्न सम्पूर्ण लोकोंके पापोंका दूर करनेवाला है क्योकि इस प्रश्नमें श्रीनारायणकी कथा कलियुग के दोषोंकी मिटानेवाली है

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॥६॥ क्रम करके पितासे द्विजन्म संस्कार पाय मार्कण्डेयने

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शंका — श्रीमद्भागवतके द्वादशस्कन्धके अष्टम अध्यायमें लिखा है कि, सूतके मुखसे ब्राह्मणोंने विद्या पढी, तो इसमें यह शंका है कि, क्या उस समय ब्राह्मणोंको विद्या पढानेके लिये ब्राह्मण वश नहीं था क्या सब ब्राह्मण नष्ट होगयेथे?जो ब्राह्मणोंने सूतके मुखसे विद्या पढ़ीं यह वढा आश्चर्य है?

** उत्तर —** सूतने व्यासदेवजीकी सेवा बहुतवर्षतक की, तत्र व्यासजीने सूतको अपना पुत्र मानकर शास्त्र और पुराण पढाये और यज्ञोपवीत कर्म भी सूतका किया क्योंकि व्यासजी साक्षात् भगवान्का अवतार थे, संस्कारकरके सूतको वरदान दिया कि, हे पुत्र सूत! तुम्हारे मुखसे भगवान्की कथाको जो ब्राह्मण अभिमान त्यागकर सुनेंगे अथवा पढेंगे तब उन सुननेवाले पढनेवाले ब्राह्मणोंको सहस्रगुणा कथाका फल होगा और सहस्र गुणाही विद्या पढनेका फल होगा,इसलिये सव ब्राह्मण और सनकादिकोंने अभिमानको तजकर सूतसे कथा सुनी और विद्या पढी ब्राह्मणोंका वंशनष्ट नहीं हुवा था, पुण्यके लोभसे सब ब्राह्मणोंने पढा सुना॥

विद्याध्ययनयुक्त धर्मपूर्वक वेदों को पढ़ा॥७॥ नैष्ठिक बालब्रह्मचारी, शान्त, वल्कलवस्त्र धारण किये, जटा, दण्ड, कमण्डलु, उपवीत (जनेऊ) पहिरे॥८॥ कष्णमृगचर्म, कमलाक्षकी माला, नित्य नैमित्तिक सिद्धिके लिये कुशाओंको धारण किये, अग्नि, सूर्य, गुरु, ब्राह्मण और आत्मामें दोनों सन्ध्या करके भगवत् आराधना करनेलगे॥९॥ साँझ सबेरे भिक्षा लाकर गुरुके सन्मुख रखदेते और जब गुरु आज्ञा देते तब मौन साध एकबार भोजन करलेते और जो गुरु कभी आज्ञा न देते तो उसदिन निराहारही रहजाते॥१०॥ इसप्रकार मार्कण्डेयजीने विद्याध्ययन परायण होकर दश करोड़ (१००००००००) वर्षतक हृषीकेशका आराधन करके तप किया और अतिदुर्जय मृत्युको जीत लिया॥३१॥ तब तो ब्रह्मा, महादेव, भृगु, दक्ष

बृहद्व्रतधरः शांतो जटिलो वल्कलांवरः॥ बिभ्रत्कमण्डलुं दंडमुपवीतं समेखलम्॥८॥ कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये॥ अग्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन्सन्ध्ययोर्हरिम्॥९॥ सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यमाहृत्य वाग्यतः॥ बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः॥१०॥ एवं तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम्॥ आराधयन्हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुजर्यम्॥११॥ ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे॥ नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिताः॥१२॥ इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपःस्वाध्यायसंयमैः॥ दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशांतरात्मना॥१३॥ तस्यैवं युंजतश्चित्तं महायोगेन योगिनः॥ व्यतीयाय महान्कालो मन्वंतरषडात्मकः॥१४॥ एतत्पुरंदरोज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन्किलान्तरे॥ तपोविशंकितो ब्रह्मन्नारेभे तद्विघातनम्॥१५॥ गंधर्वाप्सरसः कामं वसंतमलयानिलौ॥ मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तदा॥ ॥१६॥ ते वै तदाश्रमं जग्मुर्हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे॥ पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो॥१७॥

और भी ब्रह्माके अनेक पुत्र, मनुष्य, देवता, पितर, भूत और सम्पूर्ण देहधारियों को बड़ा आश्चर्य हुवा॥१२॥ इसप्रकार नैष्ठिकब्रह्मचारी व्रत धारणकर मार्कण्डेययोगी तप अध्ययन संयमों करके क्लेशरहित मनसे अधोक्षज भगवान्का ध्यान करनेलगे॥१३॥ इसप्रकार भगवान्में मन लगाये उस महायोगी मार्कण्डेयको छः मन्वन्तर बीतगये॥१४॥ हे ब्रह्मन्! तब सातवें मन्वन्तरमें मार्कण्डेयके तपको देखकर इन्द्र शंकायुक्त हुवा और उनके तपमें विघ्न डालना चाहा॥३५॥ तब इन्द्रने उनका तपभंग करनेके लिये गन्धर्व, अप्सरा, मनोभव, वसन्तऋतु, मलयपवन, रजोगुणके मित्र लोभ व मदको मार्कण्डेयमुनिके पास भेजा॥१६॥ हे विभो! वह सब मिलकर हिमालयकी उत्तर ओर उन मुनिके आश्रम में गये, जहाँ पुष्प

भद्रानदी और चित्रानाम शिला है॥१७॥ वह परमपवित्र मार्कंडेयजीका आश्रम जहाँ सुन्दर सुन्दर वृक्ष और लतायें शोभायमान थीं अनेकप्रकारके पक्षियोंके शब्दसे व्याप्त हो रहा था, जहाँ परमविद्वान् ब्राह्मणोंके कुल निवास करतेथे और सरोवरोंमें जहाँ तहाँ निर्मल जल झकोल रहेथे॥१८॥ मतवाले भ्रमर गुंजार रहे थे, मदोन्मत्त कोकिला कुहू कुहूपुकार रहीथीं, मदमाते मोर जहाँ तहाँ नटोंकी नाच नाचरहेथे और मत्त पक्षियोंके समुदाय अपनी अपनी वाणी बोलरहेथे॥१९॥ शीतल जलके झरनोंके कनकाओंको लेकर वनपवन पुष्पोंको स्पर्श करती परम सुगन्धवाली कामदेवको बढानेवाली कामदेवको देखकर सबके चित्तको प्रफुल्लित करनेलगी॥२०॥ चन्द्रमा के उदय होनेसे सन्ध्या समयके सुन्दर नवीन पल्लव और

तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलतांचितम्॥ पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम्॥१८॥ मत्तभ्रमरसंगीतं मत्तकोकिलकूजितम्॥ मत्तवर्हिनटाटोप मत्तद्विजकुलाकुलम्॥१९॥ वायुः प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान्॥ सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तंभयन्स्मरम्॥२०॥ उद्यच्चन्द्रनिशावक्रः प्रवालस्तबकालिभिः॥ गोपद्रुमलताजालस्तत्रासीत्कुसुमाकरः॥२१॥ अन्वीयमानो गन्धर्वैर्गीतवादित्रयूथकैः॥ अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः॥ ॥२२॥ हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिंकराः॥ मीलिताक्षं दुराधर्षंमूर्तिमंतमिवानलम्॥२३॥ ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः॥ मृदंगवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम्॥२४॥ संदधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा॥ मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकंपयन्॥२५॥

फूलोंके गुच्छोंके समूह अनेक शांखा और वृक्ष लताओंसे युक्त वसन्तऋतु वहॉ आनकर प्रगट हुई॥२१॥ गीत और वादित्रवाले गन्धर्व और अप्सराओंके समूहोंसे युक्त कामदेव हाथमें धनुषबाण लिये दिखाई दिया॥२२॥ अग्निहोत्रसे निश्चिंत हो उस आश्रममें ध्यानसे नेत्र मूँदकर ऐसे बैठे थे जैसे मूर्त्तिमान अग्निके समान अनन्ततेजस्वी मार्कण्डेयजीको आसनपर विराजमान देखा॥२३॥ उस समय मार्कण्डेयजीके सामने अप्सरायें नाचने लगीं, गन्धर्व गानेलगे, मृदंग, वीणा, ढोलकादि अनेक प्रकारके सुंदर सुन्दर बाजे बजानेलगे॥२४॥ ऐसा सुन्दर समय पाकर कामदेवने शोषण, दीपन, संमोहन, संतापन, उन्मादन नाम यह पाँच मुखवाले बाण अपने धनुषपर धारण किये और वसन्त लोभादिसे सब इन्द्रके अनुचर

मार्कण्डेयजीके मनको कम्पायमान करनेलगे॥२५॥गेंदको उछालती अनेक प्रकारकी क्रीड़ा करती पुंजिकस्थली नाम अप्सरा स्तनोंके भारसे जिसकी लंक लचक रहीथी कि, जिसके केशपाशसे शिथिल होनेके कारण पुष्प गिररहे थे॥२६॥ गेंदको उछालती तिरछी चितवनसे चारोंओर को देखती भालती जब वह चंचलचित्तवाली चली तब कटिमेखला टूटजानेसे उसका वस्त्र भी छूटगया, पीछे समीरने उस वीरबालाका सूक्ष्म वस्त्र हरण करलिया॥२७॥ उससमय पंचशरने मार्कण्डेयजीको अपने वशमें जानकर अपना महातीक्ष्ण शर चलाया, परन्तु उस अवसरमें कामदेवके सब शर उद्यम व्यर्थ होगये, जैसे भाग्यहीनके सब उद्यम निष्फल होजाते हैं॥२८॥ हे मुने!इसप्रकार मुनिके तिरस्कार करनेवाले

क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कंदुकैः स्तनगौरवात्॥ भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः॥२६॥ इतस्ततो भ्रम दृष्टेश्वलंया अनुकन्दुकम्॥ वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम्॥२७॥ विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः॥ सर्वं तत्राभवन्मोघमनीशस्य यथोद्यमः॥२८॥ त इत्थमपकुर्वंतो मुनेस्तत्तेजसा मुने॥ दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः॥२९॥ इतीद्रानुचरैर्ब्रह्मन्धर्षितोऽपि महामुनिः॥ यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि॥ ॥३०॥ दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान्स्वराट्॥ श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेर्विस्मयं समगात्परम्॥३१॥ तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः॥ अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरिः॥३२॥ तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ चतुर्भुजौरौरववल्कलांबरौ॥ पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्कमण्डलुं दण्डमृजुंच वैणवम्॥३३॥

मन्मथादिक मार्कण्डेयके तेजसे भस्म होनेलगे, तब तो भयभीत होकर वह अभागे भागनेलगे, जैसे बालक सर्पको जगाकर भागता है॥२९॥ हे ब्रह्मन्! इसप्रकार पुरन्दर के अनुचारोके कियेहुए कर्त्तव्यको वृथा देखकर मार्कण्डेयजीके मनमें किसी प्रकारका अहंकार और विकार नहीं उपजा, सो इस बातका महात्मा पुरुषोमें कुछ आश्चर्य नहीं॥३०॥ गणों समेत कामदेवको निस्तेज देखकर और ब्रह्मर्षिका प्रभाव सुनकर इन्द्र अपने मनमें अत्यन्त विस्मित हुवा॥३१॥ इसप्रकार तप, अध्ययन और संयमोसे मनको वशमें रखनेवाले भगवान्में जिनका चित्त लगरहा ऐसे मार्कण्डेयजी पर अनुग्रह करनेके लिये नर नारायण भगवान् वहॉ आनकर प्रगट हुए॥३२॥ शुक्ल, श्याम, नवीन कमलसे

सुंदर नेत्र, चतुर्भुज मृगचर्मवल्कलके वस्त्र, हाथमें कमण्डलु, जनेऊ सूबाँसके दण्डको धारण किये॥३३॥ कमलकी माला, जीव जन्तु न मरजायँ उनको हटानेके लिये वस्त्रकी झाडू वेदको धरे,गौरवर्ण तेजधारी, बिजलीके समान प्रकाशवान्, साक्षात् मूर्त्तिमान, तपरूप शरीर, परम श्रेष्ठ, देवताओंके पूज्य दोनों ऋषीश्वर आये॥३४॥ भगवतरूप नर नरायण ऋषीश्वरोंको देखकर, मार्कण्डेयजीने बहुत आदरपूर्वक उठकर दण्डके समान गिरकर दोनोंको दण्डवत् साष्टांग किया॥३५॥ नर नारायणके दर्शनके आनंदसे बुद्धि, इंद्रिय, मनसे शांत हो और अंगमें प्रफुल्लित होनेसे और नेत्रोंमें जलभर आनेसे मार्कण्डेयजी भगवान्की ओर देखनेको समर्थ न हुए॥३६॥ फिर सँभलकर खड़े हो, हाथ जोड नम्रता

पद्माक्षमालामुत जंतुमार्जनं वेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ॥ तपत्तडिद्वर्णपिशंगरोचिषा प्रांशु दधानौ विबुधर्षभार्चितौ॥३४॥ ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी। दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैर्ननामांगेन दंडवत्॥३५॥ स तत्संदर्शनानंदनिर्वृतात्मेन्द्रियाशयः॥ हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम्॥३६॥ उत्थाय प्रांजलिः प्रह्णऔत्सुक्यादाश्लिषन्निव॥ नमोनम इतीशानो बभाषेगद्गदाक्षरः॥३७॥ तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च॥ अर्हणेनानुलेपेन धूप माल्यैरपूजयत्॥३८॥ सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी॥ पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत्॥३९॥ मार्कंडेय उवाच॥ किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः संस्पंदते तमनु वाङ्मनइन्द्रियाणि॥ स्पंदंति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च स्वस्याप्यथापि भजता मसि भावबन्धुः॥४०॥

और उत्कण्ठासे अलिंगन कर गद्गद वाणीसे केवल नमो नमो शब्द नरनारायणकी ओरको देखकर कहा॥३७॥फिर उन दोनोंको आसनपर बैठार, चरण पखार, अर्घ्यदे, चन्दन, धूप, मालासे पूजन किया॥३८॥ सुखपूर्वक आसनपर बैठे प्रसन्नमुख, ऐसे दीनदयालु नर नारायणके चरणारविन्दोंमें मार्कण्डेयजीने फिर दण्डवत् करके यह वचन कहा॥३९॥ मार्कण्डेयजी बोले कि, हे प्रभो! मैं आपकी क्या स्तुति करूं? जिस आपकी प्रेरणासे ब्रह्मा, शिवके, सब प्राणीमात्रके और मेरेभी प्राण चेष्टा करतेहैं, उन प्राणोंके पीछे मन, वाणी, इन्द्रियें चेष्टा करतीहैं, तोभी आप अपने भजन करने वालोंपरअधिक दया करते हो, क्योंकि आप दयाके सागर हैं; पिता आदिक तो इस शरीरकेही बन्धु हैं परन्तु आप सदैव इस आत्माके बन्धु हो॥४०॥

हे भगवन्! सदासे जैसे इस विश्वकी रक्षाके लिये आप अनेक प्रकारके स्वरूप धारण करते हो इसीप्रकार यह दो स्वरूप भी त्रिलोकीके मंगल करने के निमित्त, सांसारिक तापोंके दूर करनेके अर्थ और मृत्युको जीतनेके लिये आपने धारण किये हैं, जैसे आप सृष्टिकी रक्षा करनेमें प्रसिद्ध हैं, ऐसेही विश्वके संहार करने में भी आप विख्यात हैं जैसे मकरी जालेको रचकर पीछे आपही निगल जाती है॥४१॥ स्थावर जंगमके रक्षा करनेवाले ईश्वर, आपके चरणारविंदोंका में भजन करता हूं जिन चरणारविंदके आश्रयसे मनुष्यों को कालकर्म गुणों के मान्य तपादिकों को कोई स्पर्श भी नहीं करसक्ते और बड़े बड़े वेदपाठी महात्मालोग जिन चरणारविंदोंकी प्राप्तिके लिये नित्य ध्यान करते हैं यजन करते हैं और दिन रात स्तुति करते हैं ।॥४२॥ हे ईश अपवर्गमूर्त्ति। जिन प्राणियोंको चोरोंसे भय है उन प्राणियोके लिये आपके चरणकमलकी प्राप्ति से अधिक मंगल और निर्भय

मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्याः क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै॥ नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः॥४१॥ तस्यावितुः स्थिरचरे जितुरंघ्रिमूलं यत्स्थं न कर्मगुणकालरजः स्पृशंति॥ यद्वै स्तुवंति निनमंति यजंत्यभीक्ष्णं ध्यायंति वेदहृदया मुनयस्तदास्यै॥४२॥ नान्यं तवांघ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः क्षेमं जनस्य परितो भिय ईश विद्मः॥ ब्रह्मा विभेत्यलमतो द्विपरार्ध्यधिष्ण्यः कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम्॥४३॥ तद्वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य॥ देहाद्यपार्थमसदंत्यमभिज्ञमात्रं विंदेत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम्॥४४॥ सत्त्वं रजस्तमइतीश तवात्मबंधो मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य॥ लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशांत्यै नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम्॥४५॥

स्थान हम और कोई दूसरा नहीं समझते, दो परार्द्धकी आयुर्बलवाला ब्रह्मा भी आपकी भ्रुकुटीबंकरूप कालसे अतिशय भयभीत रहता है, उसके सृजेहुए प्राणी भयभीत हों तो इसमें, क्या आश्चर्य है ?॥४३॥ आत्माके आवरण करनेवाले तुच्छ, नश्वर निष्फल भी हैं, परन्तु सत्यसे दृष्टि आते हैं, ऐसे देहादिकोके भजनको छोड़कर सत्य ज्ञान स्वरूप सब जीवोंके नियंता सबसे परे आपके उन चरणारविन्दोंको में भजता हूं, जो आपके चरणकमलके भजनेवाले हैं, उनको आपसेही सब अभिलाषा पूर्ण होती हैं॥४४॥ हे ईश!सत्तोगुण, रजोगुण, तमोगुण, यह तीनों गुण आपकी मायाहीसे उत्पन्न हुए हैं और पालन, उत्पत्ति, संहारका कारण विष्णु आदि सब आपहीकी लीलामूर्त्तिहैं,

परन्तु उनमें जो सत्त्वगुणकी मूर्त्तिहै वह मनुष्योंके मनको शान्त करनेवाली है और रजो तमो गुणवाली मूर्त्तिं मनको शान्त नहीं करती बरन् दुःख, मोह और भय उपजानेवाली है॥४५॥ हे भगवन्! ब्रह्मादिक देवता और भक्तलोग शुद्ध सत्त्व मूर्त्तिकाही भजन करते हैं और सत्त्व गुणकोही ईश्वर मानते हैं, रजोगुण तमोगुणमें प्रवृत्त नहीं होते और ज्ञानीलोग इसीलिये आपकी इस नरनारायण नाम सत्त्वमूर्त्तिका भजन करते हैं कि, जिस सत्त्वगुणके प्रभावसे पुरुष निर्भय और सुखी होकर तुम्हारे लोककी प्राप्ति होती है॥४६॥ विश्वका गुरु, विश्वरूप सर्वोत्तम पुरुष देव शुद्धस्वरूप, वाणीके नियंता, वेदके प्रवर्त्तक भगवान् नरनारायण ऋषि आपको में वारम्वार नमस्कार करता हूं॥४७॥ कपटरूप इन्द्रियोंके मार्गसे

तस्मात्तवेह भगेवन्नथ तावकानां शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजंति॥ यत्सात्त्वताः पुरुषरूपमुशंति सत्त्वं लोको यतोऽभयसुतात्मसुखं न चाऽन्यत्॥४६॥ तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने विश्वाय विश्वगुरवेपरदेवतायै॥ नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय॥४७॥ यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीःसंतं स्वखेष्वमुषु हृद्यपि दृक्पथेषु॥ तन्माययाऽऽवृतमतिः स उ एव साक्षादाद्यश्च तेऽखिलगुरोरुपसाद्य वेदम्॥४८॥ यद्दर्शनं निगम आत्मरहः प्रकाशं मुह्यंति यत्र कवयोऽजपरा यतंतः॥ तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं वंदे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम्॥४९॥ इति श्रीमद्भा० महा० द्वादश० मार्कण्डेयोपाख्याने नरनारायणस्तुतिर्नामाऽष्टमोऽध्यायः॥८॥

विक्षिप्त बुद्धिवाले और आपकी मायासे आवृत मतिवाले प्राणी, अपने हृदय आकाशमें, प्राणोंमें नेत्रोंमें, निरंतर विराजमान हों तोभी आपको नहीं जानते हे भगवन्!आदि पुरुष अखिलके गुरु ब्रह्माको भी जब आपने अपने प्रकाशे वेद दिये, तब ब्रह्माको भी आपके साक्षात् रूपका ज्ञानहुआ॥४८॥ रहस्यतत्त्वका प्रकाश करनेवाला आपके दर्शनका ज्ञान एक वेदहीके जाननेसे होता है, इसीसे सांख्ययोगादिकोंकी रीतिसे यत्नके करनेवाले ब्रह्मादिक कवि सब आपके दर्शनको पाते हैं, निर्गुण, सगुणादिक सबके वचनके अनुकूलस्वभाव और देहादिकके अभिनिवेशसे गूढ़ तत्त्वज्ञानवाले महापुरुष आपको मैं वारम्वार नमस्कार करताहूं॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां मार्कण्डेयतपोवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥

दोहा —नववेंमें भगवान्की, माया परम अनूप ॥ बूड़त प्रलय समुद्रमें, देखेउ मुनि हरिरूप॥१॥ सूतजी बोले कि, बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीके इस प्रकार स्तुति करनेसे नरके मित्र भगवान् नारायण अत्यन्त प्रसन्न होकर मार्कण्डेय मुनिसे कहने लगे॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्रह्मऋषियोंमें श्रेष्ठ! मनकी एकाग्रतासे और तप अध्ययन संयमोंसे और अनपायिनी हमारी भक्तिसे तुम सिद्ध हुएहो॥२॥हे मुने!तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य कर्मसे हम बहुत संतुष्ट हुए, वरदान देनेवालोंके ईश्वर हम तुमको वरदान देनेके लिये आये हैं, तुम मनवांछित वर मांगो, जो तुम्हारी इच्छा हो!॥३॥ मार्कण्डेयजी बोले कि, हे देव!हे ईश! हे भक्तभयभंजन! हे

सूत उवाच॥ संस्तुतो भगवानित्थं मार्कंडेयेन धीमता॥ नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम्॥१॥ श्रीभगवानुवाच॥ भोभो ब्रह्मर्षिवर्योऽसि सिद्ध आत्मसमाधिना॥ मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः॥२॥ वयं ते परितुष्टाः स्म तद्बृहद्ब्रतचर्यया॥ वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम्॥३॥ ऋषिरुवाच॥ जितं ते देव देवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत॥ वरेणैतावताऽलं नो यद्भवान्समदृश्यत॥४॥ गृहीत्वाऽजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम्॥ मनसा योगपक्वेन स भवान्मेऽक्षिगोचरः॥५॥ अथाप्यंबुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे॥ द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद्भिदाम्॥६॥

अच्युत! आप जो वारम्वार वर देनेके लिये मुझसे कहते हो यह आप अपनी उत्कृष्टता (बड़ाई) प्रगट करतेहो। परन्तु मुझको किसी प्रकारके वरदानकी अभिलाषा नहीं, आपने जो मुझको दर्शन दिया यही महावरदान है, इससे अधिक और क्या वरदान होगा?॥४॥ योगकरके परिपक्क हुए मनसे, आपके स्वभावयुक्त चरणारविन्दके दर्शन पाकर प्राकृत पुरुष भी ब्रह्मादिक देवताओंके सदृश होकर कृतार्थ होतेहैं, सो आप साक्षात् मेरे नेत्रोंके आगे विरजमान हो, क्या इससे भी बढकर कोई और वरदान दोगे?॥५॥ हे कमलदललोचन!हे पुण्यशिखामणी!जो आपकी वरदेनेहीकी इच्छा है तो यह वर दीजिये कि, जिस आपकी मायासे लोकोंसहित लोकपाल मोहित होजाते हैं, उस अपनी मायाको

मुझे दिखाओ॥६॥सूतजी बोले कि, हे ऋषियो! इसप्रकार मार्कण्डेयसे स्तुति और वरदानका माँगना सुन भगवान् ईश्वर उन मुनिसे पूजित हो, मुसकाकर वही वर दे बद्रिकाश्रमको चलेगये

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॥७॥ तब मार्कण्डेयजी उस मायाके वरदानका चिन्तवन करनेलगे और अपने आश्रममें बैठकर अग्नि, सूर्य, जल, चन्द्रमा, पृथ्वी, पवन, आकाश और मनमें भगवान्‌का ध्यान करनेलगे॥८॥ भावनारूपी द्रव्यसे नित्यप्रति भगवान्का पूजन किया करें, कभी एक भक्तिके आवेशसे पूजाको भी भूलजाते॥९॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक! हे भृगुवंशियोमें श्रेष्ठ! हे मुने!

सूत उवाच॥ इतीडितोऽर्चितः काममृषिणा भगवान्मुने॥ तथेति स स्मयन्प्रागाद्बदर्याश्रममीश्वरः॥७॥ तमेव चितयन्नर्थमृषिः स्वाश्रम एव सः॥ वसन्नग्न्यर्कसोमांबुभूवायुवियदात्मसु॥८॥ ध्यायन्सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत् ॥ क्वचित्पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसंप्लुतः॥९॥ तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पमद्रातटे मुने॥ उपासीनस्य संध्यायां ब्रह्मन्वायुरभून्महान्॥१०॥ तं चण्डशब्दं समुदीरयंतं बलाहका अन्वभवन्करालाः॥ अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद्भिः स्वनंत उच्चैरभिवर्षधाराः॥११॥ ततो व्यदृश्यंत चतुःसमुद्राः समंततः क्ष्मातलमाग्रसंतः॥ समीरखेगोर्मिभिरुग्रनक महाभयावर्त्तगभीरघोषाः॥१२॥

हे ब्रह्मन्! एक दिन सन्ध्यासमय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेयजी बैठे थे, वहाँ बड़ी भयंकर पवन चलने लगी॥१०॥ महावेगसे प्रचण्ड शब्द होनेलगा, उस पवनके पीछे महाविकराल कालरूप प्रलयकीसी काली काली घटा चारो ओरसे उमड़ने लगीं, बड़े गम्भीर शब्दसे बिजली कड़कड़ाने लगीं, वज्रपात होने लगा, गजशुण्डके समान मोटी जलधारा वर्षने लगी॥५१॥ पवनके वेगसे पानीमें तरंगें उठने लगीं, पृथ्वी
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शंका— दुष्टलोगोंका लक्षण यह है कि, बात करते करते मुसका देते हैं और जो कोई मनुष्य उन दुष्टोंके स्थानपर जाय तो उनको आतादेखकर हँसते हैं और चलते समय भीवह दुष्ट मनुष्य उनके ठट्ठे उढाते हैं, वह दुष्ट उनके घर जाँय तो भी हँसी करै, चलते समयभी हसी करते हैं, यह दुष्ट लोगों की पहिचान के लक्षण हैं, मार्कण्डेय मुनिके आश्रम से नारायण जब अपने आश्रमको चले तब मुसकातेहुये क्यों चले? बडे मुनीश्वर होकर ऐसा बुरा कर्म क्यों किया ?

उत्तर — नारायणमुनिने विचार किया कि, मार्कण्डेयजी मायाका प्रभाव देखना चाहते हैं इनके मनमें ऐसा अभिमान है कि, मैंने मायाको तप करके जीत लिया है, ऐसा माया करके इनको मोह उपजाऊगा, जो यह युगानयुग भूलेंगे नहीं, ऐसा विचारके अपने मनमें नारायणमुनि मुसकाये, कुछ दुष्टकर्मसे नहीं मुसकाये।

डूबने लगी, उम्र ग्राह जहाँ तहाँ दिखाई देने लगे, महाभयानक भ्रमर जलमें पड़नेलगे, चारों ओर समुद्रकेसा अरअराहट होनेलगा॥१२॥ आकाशके अतिक्रम करनेवाल जलसे और महातीक्ष्ण पवनसे और अत्यंत दमकती हुई दामिनीसे चार प्रकारके जगत्को बाहर भीतरसे व्याकुल देख और पृथ्वीको पानीमें डूबी हुई निहारकर मुनि अपने मनमें घबराने लगे और विस्मय होकर त्रासको प्राप्त हुए॥१३॥ मार्कण्डेयजीके दखतेदेखते तरंगें उठनेसे भयानक पवनसं चलायमान वर्षतेहुए मेघोंसे पूर्ण हो समुद्र सब ओरसे द्वीप, खण्ड, पर्वतोंसहित पृथ्वीको डुबाने लगा॥१४॥ भूमि, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, नक्षत्र, दिशाओं सहित त्रिलोकी जलमय, होगई, उस समय केवल एक मार्कण्डेयजी अवशेष रहे, सो वह

अंतर्बहिश्चाद्भिरतिद्युभिः स्वरैः शतह्रदाभीरुपतापितं जगत्॥ चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनिर्जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत्॥१३॥ तस्यैवमुदीक्षत ऊर्मिभीषणः प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः॥ आपूर्यमाणो वरषद्भिरंबुदैः क्ष्मामप्यधाद्द्वीपवर्षाद्रिभिः समम्॥१४॥ सक्ष्मांतरिक्षं सदिवं सभागणं त्रैलोक्यमासीत्सहदिग्भिराप्लुतम्॥ स एक एवोर्वरितो महामुनिर्बभ्राम विक्षिप्य जटाजडांधवत्॥१५॥क्षुत्तृट्परीतैर्मकरैस्तिमिंगिलैरुपद्रुतो वीचिनभस्वता हतः॥ तमस्यपारे पतितो भ्रमन्दिशो न वेद खं गां च परिश्रमेषितः॥१६॥ क्वचिद्गतो महावर्त्ते तरंगैस्ताडितः क्वचित्॥ यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योऽन्यघातिभिः॥१७॥ क्वाचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वाचिद्दुःखं सुखं भयम्॥ क्वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः॥१८॥

इकलेही अपनी बड़ी बड़ी जटाओंको फैलाये, जड़ अन्धकी सदृश जलमें भ्रमने लगे॥१५॥ भूख और प्याससे पीडित, मकर और तिमिंगिलोंसे भयभीत, महाप्रचण्ड पवनके झकोरोसे और जलकी तीव्र तरंगोके प्रहारसे व्याकुल, अपार अन्धकारमें दिशाओंमें भ्रमण करते हुए, आकाश और पृथ्वीको नहीं जानते भये॥१६॥ कभी महागम्भीर भँवरोंमें उछलते डूबतेथे; कभी तरंगोंमें आनकर इधर उधर चलेजाते थे, कभी भूखे जल जन्तु उनको खानेके लिये परस्पर लड़ रहेथे॥१७॥ कभी शोक, कभी मोह, कभी दुखः, कभी सुख, कभी मरण, कभी जीवन, कभी रोगादिकोंसे ग्रस्तिहो अनेक प्रकारके क्लेश पातेथे॥१८॥

नारायणकी मायासे आवृत चित्तवाले मार्कण्डेयजीको उस जलमें भ्रमते भ्रमते अयुतायुत सहस्रों सैकडों अर्थात् एक शंख १००००००००००००००० वर्ष बीत गये॥१९॥ तब उस महाप्रलयके समुद्रमें भ्रमते भ्रमते एक टापू दिखाई दिया, उस टापूमें फल फूलोंसे अत्यन्त शोभायमान एक वटका वृक्ष दृष्टि आया॥२०॥ उस वृक्षके पूर्व उत्तर (ईशान) की कोणकी शाखा के पत्रके जोड़ेमें सोता अपनी कान्तिसे अन्धकारको दूर करनेवाला एक बालक देखा॥२१॥ महामरकत मणिके सदृश श्यामवर्ण, अत्यन्त शोभायमान मुखारविन्द, शंखके तुल्य तीन रेखा ओंसे युक्त ग्रीवा, परमविशाल वक्षस्थल, सुन्दर नासिका और सुन्दर भौहें हैं॥२२॥ श्वाससे काँपतीहुई अलकोंकी मनोहर छवि,

अयुतायुतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च॥ व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन्विष्णुमायावृतात्मनः॥१९॥ स कदाचिद्भ्रमंस्तस्मिन्पृथिव्याः ककुदि द्विजः॥ न्यग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लवशोभितम्॥२०॥ प्रागुत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम्॥ शयानं पर्णपुटके ग्रसंतं प्रभया तमः॥२१॥ महामरकतश्यामं श्रीमद्वनपंकजम्॥ कंबुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुंदरभ्रुवम्॥२२॥ श्वासैजदलकाभातं कंबुश्रीकर्णदाडिमम्॥ विद्रुभाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम्॥२३॥ पद्मगर्भारुणापांगं हृद्यहासावलोकनम्॥ श्वासैजद्विलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम्॥२४॥ चार्वंगुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणांबुजम्॥ मुखे निधाय विप्रेंद्रो धयंतं वीक्ष्य विस्मितः॥२५॥ तद्दर्शनाद्वीतपरिश्रमो मुदा प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनांबुजः॥ प्रहृष्टरोमाद्भुतभावशंकितः प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम्॥२६॥

भीतर की ओरको शंखकी तुल्य आटी खाये हुए शोभित, कानोंमें दाडिमके फूलोंकी कली धरीं, विद्रुमसे अरुण अधरोंकी कान्ति सुधा सरस मन्दमुसकान॥२३॥ कमलकोशकेसे अरुण नेत्रोंके कोये, सुन्दर हास्ययुक्त चितवन, श्वास लेनेमें चलायमान, त्रिवलीसे शोभित, गम्भीर नाभि अत्यन्त शोभा देरही, पीपल के पत्रके समान सुन्दर उदर॥२४॥अपने दोनों हाथोंकी उँगलियोंसे दाहिन चरणके अँगूठेको थाँमेंहुए मुखसे पीरहाथा, उस बालकको देखकर मार्कण्डेयजी अत्यन्त विस्मित हुए॥२५॥उसके दर्शन के आनन्दसे सब श्रम दूर होगया, हृदयकमल खिलगया, शरीर पुलकायमान होनेलगा इस अद्भुत प्रभावको देख मुनि अति सशंकित होकर बूझनेके लिये उस बालक के समीप गये॥२६॥

उस समय वह भृगुवंशी मार्कण्डेय मुनि उस बालकके मुखके समीप बूझनेको झुके, इतनेमें बालकने श्वास जो लिया उसके श्वासके संगही मच्छरकी नाईं बालकके मुखके मार्ग होकर उसके उदरमें पहुँच गये, वहाँभी यह विश्व प्रलयसे पहिलेकी नाईं देखा उसको देखकर अत्यन्त विस्मित हो मोहित होगये॥२७॥ और वैसाही आकाश, भूमि, स्वर्ग, वृक्ष, पृथ्वी, नक्षत्र, पर्वत, समुद्र, द्वीप, खण्ड, दिशा, देवता, असुर, वन, देश, नदी, पुर, खान, किसानोंके ग्राम, गायोंके खरक, वर्ण, आश्रम और इन सबकी जीविकाको देखा॥२८॥ पंच महाभूतोंके रचे प्राणी, युग, अनेक पदार्थ और कल्पों की कल्पनाकरानेवाला काल और भी जो जो व्यवहारोंके कारण वह सब उस बालककी सत्तासे सत्यसे प्रतीत होते मार्कण्डेयजी ने देखे॥२९॥ घूमते

तावच्छशोर्वै श्वसितेन भार्गवः सोंतःशरीरं मशको यथाऽविशत्॥ तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो यथा पुराऽमुह्यदतीव विस्मितः॥२७॥ खं रोदसी भगणानद्रिसागरान्द्वीपान्सवर्षान्ककुभः सुरासुरान्॥ वनानि देशान्त्सरितः पुराकरान्खेटान्व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः॥२८॥ महांति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ कालं च नानायुगकल्पकल्पनम्॥ यत्किंचिदन्यद्व्यवहारकारणं ददर्श विश्वं स दिवावभासितम्॥२९॥ हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं निजाश्रमं तत्र ऋषीनपश्यत॥ विश्वं विपश्यञ्श्वसिताच्छिशोर्वै बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ॥३०॥ तस्मिन्पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं वटं च तत्पर्णपुटे शयानम् ॥ तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन निरीक्षितोऽपांगनिरीक्षणेन॥३१॥ अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि॥ अभ्ययादतिसंक्लिष्टः परिष्वक्तुमधोक्षजम्॥३२॥

घूमते हिमालय में पहुँचगये, वहाँ पुष्पभद्रा नाम नदी और अपना आश्रम और उसमें रहनेवाले ऋषि और मुनियोंकोभी देखा तब “मार्कण्डेयजीने अपना स्थान जानकर रहनेका विचार किया, परन्तु मनमें यही सन्देह कि, यह क्या मायाहै” मार्कण्डेयजी यह विचार करही रहेथे इतनेमें बालकने ऊर्ध्व श्वास जो लिया तो फिर मुखसे बाहर निकलकर उसी प्रलयरूप समुद्रके जलमें आन पड़े॥३०॥ फिर वहाँ वही पृथ्वीका टापू और वही वटका वृक्ष और वही बालक उस वटके पत्तेपर सोताहुवा देखा और उस बालकनेभी प्रेमरूप सुधासरस मन्द मुसकानसहित बाँकीचितवनसे मुनिकी ओरकोदेखा॥३१॥ तब तो मनको मोहित करनेवाले बालकको दोनों नेत्रोंसे देखकर लज्जितहो अत्यन्त क्लेश मान मार्कण्डेयजी उन अधोक्षज भगवान्के

आलिंगन करने के लिये उनके सन्मुख धाये॥३२॥ इतनेमें वह बालरूप साक्षात् योगके ईश्वर सर्वान्तर्यामी भगवान् मार्कण्डेयजीके देखते २ अंतर्धान होगये जैसे हरिविमुखोंकी क्रिया लोप होजाती है॥३३॥ हे ब्रह्मन्!तब तो उस वटवृक्ष और प्रलयके जलसे लोकोंके डूबनेका चिह्न भी न रहा क्षणमात्रमेंही सब अन्तर्हित होगये और मार्कण्डेयजी पहिलेकी नाई अपने आश्रममें बैठगये॥३४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकार्या मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा—कह दशम अध्यायमें, शिवागमन मुनिधाम॥ अति प्रसन्न हो वरदिये, शिव अरुशिवकी वाम॥१॥ सूतजी बोले कि, मार्कण्डेयजी नारायणसे निर्मित योगमायाके वैभवका ऐसा अद्भुत चरित्र देखकर भगवान्की शरणमें आये॥१॥ मार्कण्डेयजी बोले हे ईश्वर! शरणागतोंके अभयदान देनेवाले, आपके चरणारविन्दकी मैं शरण आया हूँ देखो!ज्ञानसी प्रकाशमान आपकी मायासे

तावत्स भगवान्साक्षाद्योगाधीशो गुहाशयः॥ अंतर्दध ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता॥३३॥ तमन्वथ वटो ब्रह्मन्सलिलं लोकसंप्लवः॥ तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववस्थितः॥३४॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वादश० वटपत्रे शिशुदर्शनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ सूत उवाच॥ स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम्॥ वैभवं योगमायायास्तमेव शरणं ययौ॥१॥ मार्कंडेय उवाच॥ प्रपन्नोऽस्म्यंघ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे॥यन्माययाऽपि विबुधा मुह्यंति ज्ञानकाशया॥२॥ सूत उवाच॥ तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन्॥ रुद्राण्या भगवानुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः॥३॥ अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत॥ पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेंद्रियाशयम्॥४॥ निभृतोदझषव्रातं वा तापाये यथार्णवम्॥ कुर्वस्य तपसः साक्षात्संसिद्धिं सिद्धिदो भवान्॥५॥

बड़े बड़े पंडित ज्ञानीभी मोहित होजाते हैं, क्योंकि अपने तप और पुरुषार्थके घमण्डमें आपका भजन नहीं करते वह मेरी समाने मायारूप समुद्रमें उछलते डूबते रहते हैं॥२॥ सूतजी बोले कि, एक दिन बेलपर चढे भवानीको संगलिये भगवान् महादेवजी आकाशमें गणोंमे वेष्टित पर्यटन करतेफिरते थे कि, पुष्पभद्रानदीके निकट एकाग्रचित्तवाले मार्कण्डेय मुनिको बैठा देखा॥३॥ शैलनन्दिनी भवानी मार्कण्डेयजीको देखकर शिव जीसे बोली कि, हे भगवन्! जैसे पवन न चली होय उससमय समुद्रका जल और जलजन्तु आदि निश्चलरहतेहैं, ऐसेही इसके अंग, इन्द्रिये और मन निश्चल होगये हैं, ऐसे इस विप्रको देखो और इसके तपका फल इसको दो, क्योंकि तुम सब सिद्धियाके दाता हो॥४॥५॥

श्रीमहादेवजी बोले कि, हे पार्वती! अव्यय अविनाशी आदिपुरुष भगवान्में प्रेमलक्षणा भक्ति होनेसे यह ब्रह्मऋषि मोक्षपर्यन्त कामनाको भी नहीं चाहता॥६॥ तो भी हे भवानी! इस साधु पुरुषसें कुछ सुख संवाद करेंगे, क्योंकि मनुष्योंमें साधुपुरुषोंका समागम होना परमलाभदायक है॥७॥ सूतजी बोले कि, हे ब्रह्मन्! सर्व मुनि और साधुओंकी गति जाननेवाले, सर्वविद्याओंके और सम्पूर्ण जीवोंके ईश्वर भगवान् शिवजी पार्वतीसे यह बात कहकर मार्कण्डेयजीके सन्निकट गये॥८॥ अन्तःकरणकी वृत्तियोंके रोकनेके कारण मार्कण्डेयजीको अपने आत्मा और विश्वकी ओर कुछ ध्यान नहीं था, इसलिये साक्षात् ईश्वर और विश्वात्मा विश्वनाथ महादेव और पार्वतीके शुभागमनकोभी

श्रीभगवानुवाच॥ नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत॥ भक्तिं परां भगवति लब्धवान्पुरुषेऽव्यये॥६॥ अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना॥ अयं हि परमोलाभो नृणां साधुसमागमः॥७॥ सूत उवाच॥ इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान्सात्त्वतां पतिः॥ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्॥८॥ तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः॥ न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च॥९॥ भगवांस्तदभिज्ञाय गिरीशो योगमायया॥ अविशत्तद्वहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः॥१०॥ आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिंगजटाधरम्॥ त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यतमिव भास्करम्॥ ॥११॥ व्याघ्रचर्मांबरं शूलधनुरिष्वसिचर्मभिः॥ अक्षमालाडमरुककपालपरशुं सह॥ बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः॥१२॥ किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः॥ नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम्॥१३॥

उन्होंने नहीं जाना॥९॥ मार्कण्डेय ऋषिको समाधिनिष्ठ जानकर पवन जैसे छिद्रमें घुस जाता है, ऐसेही कैलासपति भगवान् महादेवजीने योगमाया करके मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश किया॥१०॥ तीन नेत्र, दश भुजा, ऊँचा शरीर, विजुली सदृश पीत जटाओंको धारण किये, प्रातःकालके सूर्यके समान शोभायमान तेजस्वी॥११॥ व्याघ्रचर्मके वस्त्र पहिने, त्रिशूल, धनुष, बाण, खड्ग, ढाल, डमरू, रुद्राक्ष, कपालमाला और परशुहाथमें लिये, शिवजीको अकस्मातही हृदयमें प्रकाशमान देख अत्यन्त विस्मित होकर बोले॥१२॥ क्या आश्चर्य है? यह कौन हैं! कहाँसे आये! इस विचारही विचारमें मुनिकी समाधि निवृत्त होगई, तब नेत्र खोलकर देखा तो पार्वती और गणोंसहित शिवजी सन्मुख खड़े हैं॥१३॥

त्रिभुवनका प्रधानगुरु शिवजीको समझकर मार्कण्डेयजीने मस्तक नवाकर नमस्कार किया, भले आये महाराज, यह कह आसन दे, चरणामृतले, अर्घ्य, चन्दन, माला, धूप, दीपादिसे गण और गिरिजासहित शिवजीका पूजन किया॥१४॥ और फिर कहा कि, हे विभो! हे ईश! हे नाथ! आप तो अपने प्रभावहीसे पूर्णकाम और विश्वके आनन्ददाता हो मैं अपका क्या पूजन करूं?॥१६॥ आप निर्गुण शान्त, सत्त्वके अधिष्ठाता सबके परमसुखदाता और रजोगुण तमोगुणके धारण करनेवाले होकर भी अघोर हो, सो मैं आपको वारम्वार नमस्कार करूं हूं॥१६॥ सूतजी बोले कि, इस प्रकार जब मुनिने स्तुति की, तब संतुष्ट हृदयवाले, महात्मा पुरुषोंके शरणरूप आदिदेव

रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः॥ तस्मै सपर्यांव्यदधात्सगणाय सहोमया॥ स्वागतासनपाद्यार्घगंधस्रग्धूपदीपकैः॥१४॥ आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो॥ करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत्॥१५॥ नमः शिवाय शांताय सत्त्वाय प्रमृडाय च॥ रजोजुषेऽप्यघोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे॥१६॥ सूत उवाच॥ एवं स्तुतः स भगवानादिदेवः सतां गतिः॥ परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत॥१७॥ श्रीभगवानुवाच॥ वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः॥ अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद्विदतेऽमृतम्॥१८॥ ब्राह्मणाः साधवः शांता निःसंगा भूतवत्सलाः॥ एकांतभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः॥१९॥ सलोका लोकपालास्तान्व॑दंत्यचैत्युपासते॥अहं च भगवान्ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः॥२०॥ न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते॥ नात्मनश्च जनस्यापि तद्युष्मान्वयमीमहि॥२१॥

विश्वनाथ प्रसन्न होकर हास्यपूर्वक मुनिसे कहनेलगे॥१७॥ श्रीमहादेवजी बोले कि, हे मुने! तुम हमसे मन वांछित वर माँगो? क्योंकि हम तीनों वरदेनेवालोंके ईश्वर हैं, हमारा दर्शन तीनों देवताओंको अमोघ है, जो जिस कार्यके लिये भजता है उसका कार्य सफल होता है और मरणधर्माओंको मोक्षदायक है॥१८॥ जो ब्राह्मण, साधु, सन्त, शान्तचित्त, रागरहित सब प्राणियोंपर दया रखनेवाले हमारे पूर्ण भक्त, वैरभावरहित, समदर्शी हैं॥१९॥ उनका लोकोंसहित लोकपाल और देवता वन्दन करते हैं, पूजते हैं और दिनरात सेवन करते हैं बस इतनाही न समझना,जो सबके अधिष्ठाता विष्णु, ब्रह्मा और हम उनका सेवन करते हैं॥२०॥ आपकी समान ब्राह्मण हममें, विष्णुमें, ब्रह्मामें अपने आत्मा और लोकोंमें किंचि

न्मात्र भी भेददृष्टि नहीं रखते, इसीलिये हम आपका निरन्तर भजन करते हैं

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॥२१॥ जलमें क्या तीर्थ नहीं हैं? क्या मूर्तियोंमें देवता नहीं हैं? निश्चय हैं परन्तु वह तत्काल फल नहीं देते, बहुतकाल करके पवित्र करते हैं और हे महाराज! आपसरीखे महात्मा तो दर्शनहीसे पवित्र करते हैं॥२२॥ चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम, वेदत्रयी, यम, हमारे रूपको जो ब्राह्मण धारण करते हैं, उनको हम भी नमस्कार करते हैं॥२३॥ जब कि, आपके श्रवण अथवा दर्शनसे महापातकी और चाण्डाल भी शुद्ध और पवित्र होजाते हैं, तब आपके संभाषणसे शुद्ध हो तो उसमें कहना ही क्या है?

न ह्यम्मयानि तिर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः॥ ते पुनंत्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः॥२२॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येस्मद्रूपं त्रयीमयम्॥ बिभ्रत्यात्मसमाधानतपःस्वाध्यायसंयमैः॥२३॥ श्रवणाद्दर्शनाद्वापि महापातकिनोपि वः॥ शुध्येरन्नत्यजाश्चापि किमु संभाषणादिभिः॥२४॥ सूत उवाच॥ इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम्॥ वचोऽमृतायनमृषिर्नातृप्यत्कर्णयोः पिबन्॥२५॥ स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामितः कर्शितो भृशम्॥ शिववागमृतध्वस्तक्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत्॥२६॥ ऋषिरुवाच॥ अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम्॥ यन्नमंतीशितव्यानि स्तुवंति जगदीश्वराः॥२७॥ ॥

२४॥ सूतजी बोले कि, इसप्रकार चन्द्रभाल शिवजीके गूढ धर्ममय अमृतरूप वचनोंको श्रवणद्वारा पान करके मार्कण्डेयजी तृप्त न हुए॥२५॥ नारायणकी मायासे बहुत दिनतक भ्रमण करते और केशपाते मार्कण्डेयजीने शिवजीकी सुधारूप मधुरवाणीसे सम्पूर्ण क्लेशोंके समुदायसे निवृत्त होकर भवानीपतिसे यह वचन कहा॥२६॥ मार्कण्डेयजी बोले अहो! यह विष्णु भगवान्के चरित्र प्राणियों के जाननेमें आने बहुत कठिन हैं,
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शंका— मार्कण्डेय मुनिने ब्रह्मा, विष्णु और महादेवसे बूझा नहीं कि, तुम तीनों देवताओंमें कौन बढा कौन छोटा है। कि तुम तीनों एकसे हो, फिर बिना बूझे शिवजीने क्यों कहा कि, हे मार्कण्डेय! ब्रह्मामें विष्णुमें और मुझमें कुछ भेद नहीं हम तीनों देव एक ही है, यह हमको सन्देह है?

**उत्तर—**मार्कण्डेयजीके मनमें यह सन्देह था कि, तीनों देवोंमें कौन बडा है और कौन छोटा है,परन्तु लज्जाके मारे बूझ नहीं सके थे, तब महादेवजी मार्कण्डेयके हृदयकी शान्ति होनेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी एक स्वरूपकी कथा कहने लगे।

क्योंकि आप त्रिलोकीके ईश्वर होकर अपनी शरणागत रहनेवाली प्रजागणकी स्तुति करके उनको नमस्कार करते हो॥२७॥ मुझको तो ऐसा जान पड़ती है कि, ईश्वर भी धर्मके उपदेष्टा होकर धर्मके ग्रहण करानेके लियेप्राणियोंके आचरणोंकी स्तुति और अनुमोदन करते हैं और आपभी उनहीं आचरणोंकों करते हैं॥२८॥ आप अपनी मायामय वृत्तियोंसे और लोकोंको नमस्कारादि किया करते हैं, इससे आपकी महिमामें किसी प्रकारका दोष नहीं लगता, क्योंकि जैसे नट नाटकके विषे दूसरा रूप धारण करनेके अपने पुत्र, पौत्र और दास दासियोंको दण्डवत प्रणाम करताहै, और दीन वचन कहताहै, उस दीनता और दण्डवत् करनेसे उसकी महत्तामें किसी प्रकारका लांछन नहीं लगसक्ता ऐसेही आपको भी किसी प्रकारका दोष नहीं लगता॥२९॥ जो ईश्वर आपहीअपने मनसे गुणोंके द्वारा इस सृष्टिको रचकर उसमें आप प्रवेश होकर कर्त्ताके

धर्मे ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम्॥आचरंत्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवंति च॥२८॥ नैतावता भगवतः स्व मायामयवृत्तिभिः॥ न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिनः कुहकं यथा॥२९॥ सृष्ट्वेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः॥ गुणैः कुर्वद्भिराभाति कर्तृवत्स्वप्नदृग्यथा॥३०॥ तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने॥ केवलायाऽद्वितीयाय गुरवेब्रह्ममूर्तये॥३१॥ कं वृणे तु परं भूमन्वरं त्वद्वरदर्शनात्॥ यद्दर्शनात्पूर्णकामः सत्यकामः पुमान्भवेत्॥३२॥ वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात्कामाभिवर्षणात्॥ भगवत्यच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि॥३३॥ सूत उवाच॥ इत्य चिंतोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा। तमाह भगवाञ्शर्वः शर्बया चाभिनंदितः॥३४॥

समान जान पड़ताहै, जैसे स्वप्नमें कोई पुरुष नया नगर बनाकर उसमें आप प्रवेश होकर कर्त्ताहीके सदृश प्रतीत होता है॥३०॥ ऐसे त्रिगुणोंके नियन्ता शुद्धरूप अद्वितीय सबके गुरु ब्रह्ममूर्त्ति आपको मैं नमस्कार करताहूं॥३१॥ हे सर्वोत्तम! हे भगवन्! आपका दर्शन मुझको हो। गया, अब इससे अधिक और क्या वर है? जो मैं आपसे माँगृजिस मनुष्यपर आपकी कृपादृष्टि होती है, उस पुरुषके सब काम सत्य और पूर्ण होजाते हैं॥३२॥ तोभी जो आप पूर्णकाम और भक्तोंकी कामनाओंको वर्षानेवाले हो तो मैं आपसे इतना वरदान मांगूहूं, सो वह वरदान यह हैं कि, अच्युत भगवान्में और उनके भक्तोंमें और उसीप्रकार आपके चरणकमलमें मेरी निश्चल भक्ति रहै॥३३॥ सूतजी बोले

कि, जब इस प्रकार शिवजीकी स्तुति और पूजा मार्कण्डेयजीने की तब भगवान् महादेव और गिरिराजकुमारी अतिप्रसन्न हो मुनिसे कहने लगे॥३४॥ हे महर्षि! आपके सब मनोरथ पूर्ण होंगे क्योंकि आप तो पहिलेहीसे अधोक्षज भगवान्के भक्तहो, आपका यश और पुण्य कल्प कल्पान्तर अखंड हो और सदा आप अजर अगर रहें॥३५॥हे ब्रह्मन्! तुम त्रिकालज्ञ होहु और विज्ञान सहित पूर्ण वैराग्य होय, ब्रह्मतेजमें पूर्ण और पुराणाचार्य भी होहुगे॥३६॥ सूतजी बोले कि, इसप्रकार मुनिको वर देकर मुनिके पिछले चरित्र जो कुछ भगवान्की मायाके वैभव देखेथे सो सब वृत्तान्त त्रिलोचन महादेवजी भवानीसे कहते हुए चले गये॥३७॥ परमयोगकी महिमाको पाकर विष्णु भगवान्की एकान्त भक्तिसे

कामस्तेऽयं महर्षेऽस्तु भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे॥ आकल्पांताद्यशः पुण्यमजरामरता तथा॥३५॥ ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन्विज्ञानं च विरक्तिमत् ॥ ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात्पुराणाचार्यताऽस्तु ते॥३६॥ सूत उवाच॥ एवं वरान्स मुनये दत्त्वाऽगात्त्र्यक्ष ईश्वरः॥ ॥ देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना॥३७॥ सोप्यवाप्तमहायागमहिमा भार्गवोत्तमः॥ विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकांततां गतः॥३८॥ अनुवर्णितमेतत्ते मार्कंडेयस्य धीमतः। अनुभूतं भगवतो मायावै भवमद्भुतम्॥३९॥ एतत्केचिदविद्वांसो मायासंसृतिमात्मनः॥ अनाद्यावर्तितं नृणां कादाचित्कं प्रचक्षते॥४०॥

भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अबतक पृथ्वीपर विचरते हैं॥३८॥ बुद्धिमान मार्कण्डेयजीने भगवान् वासुदेवकी अद्भुत माया वैभव आदि जो देखी सो मार्कण्डेयजीका पवित्र चरित्र आपके सन्मुख वर्णन किया॥३९॥ सृष्टिके जो उत्पत्ति प्रलय आदिक होते रहते हैं, वह सब आदि पुरुष भगवान्कीही माया है कोई कोई मूर्ख लोग इस बातको नहीं जानते मार्कण्डेयजीने जो यह मायाका वैभव देखा सो केवल भगवदिच्छासे देखनेमें आया, कुछ प्राकृतिक वा नैमित्तिकमेंका यह कोई प्रलय नहीं था और अज्ञानीलोग अबतक उसे अनादि कालके समान सातवारका हुवा नैमित्तिक प्रलयही समझ रहेहैं इसीसे मार्कण्डेयजीकी सात कल्पकी अवस्था संसारमें विख्यात है, परन्तु यह सम्पूर्ण भ्रान्तिहै और जो मायाकेवेत्ता है

वह उसकालको निमेषमात्र कहते हैं, अर्थात् मायाका कौतुक देखाथा वह सब एक क्षणमात्रका था॥४०॥ हे भृगुवंशियों में उत्तम! भगवान्के प्रभाव युक्त मार्कंडेयका यह चरित्र जो कोई प्रेम प्रीति एकाग्र चित्त हो सुने सुनावेगा उन दोनोंको कर्मवासनायुक्त संसारकी माया न व्यापैगी॥४१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां शिववरदान नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥ इस ग्यारह अध्यायमें, महापुरुषका ध्यान॥ भिन्न भिन्न प्रतिमासमें, व्यूह सूर्य भगवान्॥१॥ शौनकादिक बोले कि, हे भागवतोंमें श्रेष्ठ महामुनि सूतजी! आप सर्व तंत्र शास्त्रोंके तत्त्ववेत्ता हो इसलिये हे बहुज्ञाता!महात्माओं में मुकुटमणि हम आपसे यह प्रश्न करतेहैं॥१॥ हे ब्रह्मन्! सर्वतंत्रोंके उपासक

य एवमेतद्भृगुवर्य वर्णितं रथांगपाणेरनुभावभावितम्॥ संश्रावयेत्संशृणुयादुताप्युभौ तयोर्न कर्माशयसं सृतिर्भवेत्॥४१॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वा० मार्कंडेशिवदत्तवरदानं ० दशमोऽध्यायः ॥१०॥ शौनक उवाच॥ अथे ममर्थं पृच्छामो भवतं बहुवित्तमम्॥ समस्ततंत्रराद्धांते भवान्भागवततत्त्ववित्॥१॥ तांत्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः॥ अंगोपांगायुधाकल्पं कल्पयंति यथैव यैः॥२॥ तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्॥ येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम्॥३॥ सूत उवाच॥ नमस्कृत्वा गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वेष्णवीरपि॥ याः प्रोक्ता वेदतंत्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः॥४॥

केवल हरि भगवान्की परिचर्या विषे अंग अर्थात् पादादिक, उपांग, गरुडादिक, आकल्प चक्रादिक, अलंकार कौस्तुभादिक, आभूषणोंकी रचना जिस जिस भाँति कल्पना करते॥२॥ उस क्रियायोगके जाननेकी हमारी इच्छा है, जिसकी निपुणतासे मरणधर्मा पुरुष अमरत्वको प्राप्त होजॉय, हे सुतजी! आप उस विद्याके जाननेवाले हैं, सो अनुग्रह करके हमको बतलाइये? आपका कल्याण होगा॥३॥ सूतजी बोले कि, गुरुओंको नमस्कार करके विष्णुभगवान्की विभूतियोंका वर्णन करूंगा, जिन विभूतियोंका वर्णन ब्रह्मादिक देवताओंनेभी

वेद और तंत्रोंमें वर्णन कियाहै

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॥४॥ मायारूप महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रा इन नौ तत्त्वोंसे ग्यारह इन्द्रिय पंचमहाभूतरूप यह विराट् शरीर ब्रह्माण्ड उत्पन्नहुवा कि, जिस चैतन्यसे अधिष्ठित ब्रह्माण्डमें पृथ्वीआदि सब लोक देखनेमें आते हैं, इन्ही पृथ्वीआदि लोकोंसे भगवान्के अंगोंकी पूजा करनेमें आती है॥५॥ इस ब्रह्माण्डको भगवान्में कल्पित होनेके कारण भगवान्का देहरूप मानकर उसमें पृथ्वीको चरण रूप, स्वर्गको मस्तकरूप, अन्तरिक्षको नाभिरूप, सूर्यकी नेत्ररूप, पवनको नासिकारूप, दिशाओंको कानरूप॥६॥ प्रजापतिको शिश्नेन्द्रियरूप, मृत्युकोगुदेन्द्रियरूप लोकपालोंको भुजारूप, चन्द्रमाको मनरूप, यमको भ्रुकुटीरूप॥७॥ लज्जाको ऊपरके ओष्ठरूप, लोभको नीचेके ओष्ठरूप,

मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्॥ निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम्॥५॥ एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः॥ नाभिः सूर्योक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः॥६॥ प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः॥ तद्बाहवो लोकपाला मनश्चंद्रो भ्रुवौ यमः॥७॥ लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दंता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः॥ रोमाणिभूरुहा भृम्नोमेघाः पुरुषमूर्द्धजाः॥८॥ यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः॥ तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया॥९॥ कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः॥ तत्प्रभाव्यापिनी साक्षाच्छ्रीवत्समुरसा विभुः॥१०॥

चॉदनीको दॉतरूप, भ्रान्तिको हास्यरूप, वृक्षोंको रोमरूप और मेघोंको केशरूप कल्पना करते हैं॥८॥ ऐसे ब्रह्माण्डरूपका धूप, दीप, चन्दनादिसे पूजन और ध्यान एकबारमें नहीं बनसक्ता; इसलिये पाषाण, धातु आदिकी प्रतिमामें उस विराट् देहकी और अवयवोंकी कल्पना कर उसका पूजन और ध्यान ठीक ठीक करनेमें आता है, इस ब्राह्मण्डरूप पुरुषका जो प्रमाण है जैसी स्थिति है, वह प्रमाण और वह स्थिति भगवान्की छोटी मूर्त्तिमें भी जानी जाती है, इसलिये मूर्त्तिमें भगवान्का पूजन करते हैं॥९॥ मूर्त्तिमें जो प्रभुने कौस्तुभमणि धारण की है, यही शुद्ध चैतन्य धारण
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शंका— बडे आश्चर्यकी बातहै कि, सूतजी कहते हैं कि, अब अपने गुरूको दण्डवत् करके विष्णुकी विभूति ऐश्वर्य मैं घर्णन करता हू यह मुझको सशय है कि, पहिले स्कन्धसे बारहवें स्कन्धके ग्यारह अध्यायतक विष्णुकी विभूतिका वर्णन नहीं हुवा? फिर किसकी विभूतिका वर्णन पहिले हुवा?यह सन्देह मेरे मनको स्थिर नहीं होने देता?

**उत्तर—**पहिले ऐसा वर्णन हुवा है तीन लोक चौदह भुवन चराचर यह सब ईश्वरका स्वरूपहै, इसलिये विष्णुरूप जो सम्पूर्ण संसार है उनकी विभूतिका वर्णन हुआ है और अब अकेले भगवान्‌की महिमा और चरित्रोंका वर्णन होगा, इसलिये सूतने कहाथाकि, अब हम भगवान्‌की विभूतिका वर्णन करतेहैं।

किया है, ऐसा मान रक्खा है और प्रतिमाके वक्षस्थलमें श्रीका चिह्न है, उनकी प्रभासे व्याप्त जीव है॥१०॥ उनकी मायाही अनेक गुणमयी वनमाला है, और वेदही साक्षात् पीताम्बर है और अकार, उकार मकाररूप त्रिमात्रावाला ओंकारही यज्ञोपवीत है॥११॥ सांख्ययोग और योग यह दोनों मकराकृत कुण्डल हैं, सब लोकोंसे नमस्कृत और अभयदायक ब्रह्मलोक मुकुटमणि है॥१२॥ वसुधाके आधाररूप शेष भगवान् हैं, वह अनंत नामसे प्रसिद्ध हैं, वही नारायणके विराजनेका कमलासन है और कोई कोई विद्वान् लोग ऐसा भी कहतेहैं, अनेक रंगकी जो परमेश्वरकी माया है, वह मायाही अनंत आसन है, कोई कहते हैं, धर्मज्ञानादिसहित सत्तोगुण कमलासन है॥१३॥ इन्द्रियोंकी निपुणता, मनका उत्साह,

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्॥ वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम्॥११॥ बिभर्ति सांख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले। मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयंकरम्॥१२॥ अव्याकृतमनंताख्यमासनं यदधिष्ठितः॥ धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते॥१३॥ ओजः सहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्॥ अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम्॥१४॥ नमोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्॥ कालरूपं धनुः शार्ङ्गंतथा कर्ममयेषुधिम्॥१५॥ इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यंदनम्॥ तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम्॥१६॥ मंडलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः॥ परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः॥१७॥ भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्॥ धर्मे यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत्॥१८॥

शरीरके बल सहित प्राणही विराटस्वरूपकी गदा है, जलका तत्त्वही शंख है तेजका तत्त्वही सुदर्शनचक्र है॥१४॥ आकाशही नीलवर्ण बिजली युक्त झमझमाताहुवा खड्ग है आकाशरूप तत्त्व जो अन्धकार है वही ढाल है कालही शर्गिधनुष है और कर्मही बाणोंसे भराहुवा तूणीर (तरकस) है॥१५॥ इन्द्रियेंही भालवाले बाण हैं, मनही रथ है, तन्मात्राही इस रथकी चाल है, अभयवरदानकी देनेवाली क्रियाही विराटपुरुषकी मुद्रा है॥१६॥ सूर्य, अग्नि, चन्द्रमण्डलपर पुरुष भगवान्की पूजा करनेका स्थान है गुरुकी दी हुई जो मंत्रदीक्षा है, वही पूजन करनेवालोंका संस्कार है, भगवान्की परिचर्याही आत्माके पापोंको नाश करनेवाली है॥१७॥ छःप्रकार भगवत् शब्दका अर्थ लीलाकमल है,धर्म, यश, दोनों

चामर और वीजना हैं॥१८॥ हे द्विजो! छत्र धारण करनेका निर्भय धाम वैकुण्ठ है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदही यज्ञपुरुष भगवान्का वाहन गरुड़ है॥१९॥ साक्षात् भगवती लक्ष्मी जो भगवान्के पार्श्वमें विराजमान हैं, वह हरिकी अनपायिनी शक्ति हैं, पार्षदोंमें अधीश्वर जो मुख्य विष्वक्सेन है वही तंत्रशास्त्रकी मूर्ति है, अणिमादिक अष्टसिद्धियां जो हैं, वह नंदादिक भगवान् वैकुण्ठविहारीके द्वारपाल हैं॥२०॥ हे ब्रह्मन्!वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध यही श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी चार मूर्ति परमपवित्र हैं॥२१॥ जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय, चार अवस्थाओंसे और इनके कारण विषय, मन, अज्ञान और ज्ञानसे भगवान् जाने जाते हैं, यही भावना ईश्वरसम्बन्धी है॥२२॥ अंग, उपांग, चरणादिक

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाऽकुतोभयम्॥ त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम्॥१९॥ अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः॥ विष्वक्सेनस्तंत्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः॥२०॥ नन्दादयोऽष्टौ द्वास्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः॥ वासुदेवः संकर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्॥ अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोभिधीयते॥२१॥ स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः॥ अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते॥२२॥ अंगोपांगायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्॥ बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः॥२३॥ द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक् स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्॥ सृजति हरति पातीत्याख्ययाऽनावृताक्षो विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलक्ष्यः॥२४॥ श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य॥ गोविंद गोपवनिताव्रजभृत्यगीत तीर्थश्रवः श्रवणमंगल पाहि भृत्यान्॥२५॥

चार भुजावाली मनोहर मूर्त्ति, गरुड़ादिक, आयुध, आकल्प, अलंकार इन चारोंसे संयुक्त, चतुर्मूर्त्ति भगवान् हरि ईश्वर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय इन चारो अवस्थाओंको धारण करते हैं, जो पुरुष इन चारों मूर्तियोंका ध्यान धरते हैं, उनको भगवान् वासुदेव चार फल देतेहैं॥२३॥ हे द्विजोत्तम! भगवान् वेदके कारण स्वयंद्रष्टा स्वमहिमासे परिपूर्ण, अपनी मायाहीसे सब जगत् उत्पन्न करते हैं, सँभारते हैं और नष्ट करते हैं, क्योंकि ईश्वर सबके अंतर्यामी हैं॥२४॥ जिन मनोहर मूर्तियोंकी उपासना कही अब उनकी सूतजी स्तुति करते हैं। हे श्रीकृष्णचन्द्र! हे अर्जुनके प्रिय सखा! हे यदुकुल

भूषण! वसुधाके द्रोही राजाओंके वंशके विध्वंस करनेवाले हे अग्निरूप! एकरस पराक्रमी हे गोविंद!हे श्रवणमंगल! हे गोपवनिताओंके समुदाय और नारद भृत्यादिकोंसे पवित्र यश गायेहुये!तीर्थोंके समान पवित्र कीर्तिवाले! हे हरि! हे विश्वभगवान्! हे वैकुण्ठविहारी! हमारी इस कालरूप संसारसे रक्षा करो॥२५॥ जो पुरुष प्रातःकाल उठकर एकाग्रचित्त हो महापुरुष भगवान्के इन लक्षणोंको चित्तमें रखकर ध्यान करेगा वह पुरुष सर्व घटवासी वासुदेवभगवान् को अपने हृदयमें विराजमान देखेगा॥२६॥ शौनकादिक बोले कि, हे सूतजी!मूर्त्तियोंके विषयमें जो व्यूह आपने कहा उनको सुनकर हमको सूर्यके व्यूह सुननेकी अभिलाषा हुई, और राजा परीक्षित्से श्रीशुकदेवजीने (पंचमस्कन्धमें) वर्णन किया था कि “गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, दैत्य, ऋषि और देवता, इन सात सातका सूर्यसम्बन्धी गण मास मासप्रति कहा है” इन गणोंके नाम

य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्॥ तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम्॥२६॥ शौनक उवाच॥ शुको यदाह भगवान्विष्णुराताय शृण्वते॥ सौरो गणो मासिमासि नाना वसति सप्तकः॥२७॥ तेषां नामानि कर्माणि संयुक्तानामधीश्वरैः॥ ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः॥२८॥ सूत उवाच॥ अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्॥ निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्त्तते॥२९॥ एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मादिकृद्धरिः॥ सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः॥३०॥ कालो देशः क्रिया कर्ता कारणं कार्यमागमः॥ द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः॥३१॥

और इनके स्वामी सूर्योके नाम और कर्म हमको सुनाओ। क्योंकि सूर्यनारायणभी नारायणहीका स्वरूप है, इसलिये उनका व्यूह श्रवण करनेकी हमारी श्रद्धा है॥२७॥२८॥ सूतजी बोले कि, सर्वत्र जीवमात्रकी आत्मा विष्णु भगवान्की माया है, उस अनादि मायासे रचत सब लोकोंकी सीमामें प्रवृत्त करानेवाले यह सूर्यनारायण लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं॥२९॥ सब लोकोंके आत्मा और आदि कर्त्ता जो विष्णु भगवान् हैं वही प्रगटरूपसे सूर्यनारायण हैं, और यह भगवान्ही सब वेदोंकी क्रियाओंका कारण हैं इसीसे ऋषि लोग उन उन क्रियाओंसे नाना प्रकारका कहते हैं॥३०॥ हे शौनक! भगवान्ही सब कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये मायाके संग, काल, देश, क्रिया, कर्त्ता, अनुष्ठान, यजमान, साधन,

यज्ञादिक, मंत्र, हविष्य यह नौ प्रकार हरिकी मायासे इसप्रकार कविलोग कहते हैं॥३१॥ कालरूप सूर्यभगवान्‌ चैत्रादिक, बारहों मास लोकोंके कर्मोंके विषेप्रवृत्त करनेको अपने गणोंकीसाथ लिये अलग अलग द्वादशरूप धारण किये घूमते रहते हैं॥३२॥ चैत्रके महीनेमेंकृतस्थली नाम अप्सरा, हेतिनाम राक्षस, वासुकी नाग, तुम्बुरू गन्धर्व, रथकृत्‌ यक्ष, पुलस्त्य नाम ऋषि, इनके साथ घातानाम सूर्यविचरण करताहै॥३३॥ वैशाखमें पुञ्जिकस्थली नाम अप्सरा, प्रहेति नामराक्षस, कच्छनीर नाम नाग, नारदनाम गन्धर्व, अथौजा यक्षः, पुलह ऋषि, इनकेसाथ अर्यमा नाम सूर्यविचरण करता है॥३४॥ ज्येष्ठ मासमें मेनका नाम अप्सरा, पौरुषेय नाम राक्षस, तक्षक नाम नाग, हाहा नाम गन्धर्व

मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपधृक्‌॥ लोकतंत्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः२२॥ धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने॥ पुलस्त्यस्तुंबुरुरिति मधुमासं नयंत्यमी॥ ३३॥ अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुंजिकस्थली॥ नारदः कच्छनीरश्च नयंत्येते स्म माधवम्॥३४॥ मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः॥ रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयंत्यमी॥३५॥ वसिष्ठो वरुणो रंभा सहजन्यस्तथा हुहूः॥ शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयंत्यमी॥३६॥ इंद्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथांगिराः॥ प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयंत्यमी॥३७॥ विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः॥ अनुम्लोचा शंखपालो नभस्याख्यं नयंत्यमी॥३८॥ पूषा धनंजयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा॥ घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी॥३९॥

रथस्वन यक्ष, अत्रि ऋषि, इनके साथ मित्र नाम सूर्य प्रकाश करता है॥३५॥आषाढ़ मासमें रम्भा नाम अप्सरा, मित्रस्वन नाम राक्षस, शुक्र नाम नाग, हूहू नाम गन्धर्व, सहजन्य यक्ष, वसिष्ठऋषि इनके साथ वरुण नाम सूर्य प्रकाश करता है॥३६॥श्रावण मासमें प्रम्लोचा नाम अप्सरावर्य नाम राक्षस, एलापत्र नाम नाग, विश्वावसु नाम गन्धर्व, श्रोता यक्ष, अंगिरा नाम ऋषि, इनके साथ इन्द्रनाम सूर्य प्रकाश करता है॥३७॥ भाद्रपद महीनेमें अनुम्लोचा नाम अप्सरा, व्याघ्र नाम राक्षस, शंखमाल नाम नाग, उग्रसेन नाम गन्धर्व, आसारण यक्ष, भृगु नाम ऋषि, इनके साथ विवस्वान् नाम सूर्य विचरण करताहै॥३८॥ आश्विनमासमें घृताची नाम अप्सरा, वात नाम राक्षस, धनंजय नाम नाग, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष

गौतम नाम ऋषि, इनके साथ पूषा नाम सूर्य विचरण करताहै॥३९॥ कार्त्तिकके महीनेमें सेनजित् नाम अप्सरा, वर्चा नाम राक्षस, ऐरावत नाम नाग, विश्व नाम गन्धर्व, ऋतु यक्ष, भरद्वाज नाम ऋषि इनके साथ पर्जन्य नाम सूर्य भ्रमण करताहै॥४०॥ अगहनके महीनेमें उर्वशी नाम अप्सरा विद्युत्शत्रु नाम राक्षस, महाशंख नाम नाग, ऋतुसेन नाम गन्धर्व, तार्क्ष यक्ष, कश्यप ऋषि, इनके साथ अंशुनाम सूर्य प्रकाश करताहै॥४१॥ पौषके महीनेमें पूर्वचित्ती नाम अप्सरा, स्फूर्जरा नाम राक्षस, कर्कोटक नाम नाग, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्णयक्ष, आयु ऋषि, इनके साथ भग नाम सूर्य विचरण करताहै॥४२॥ माघमासमें तिलोत्तमा नाम अप्सरा, ब्रह्मपेत नाम राक्षस, कंबल नाम नाग, धृतराष्ट्र नाम गन्धर्व, शतजित् यक्ष, जमदग्नि

ऋतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा॥ विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयंत्यमी॥४०॥ अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसे नस्तथोर्वशी॥ विद्युच्छत्रुर्महाशंखः सहोमासं नयंत्यमी॥४१॥भगः स्फूर्जोरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पंचमः॥ कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयंत्यमी॥४२॥ त्वष्टा ऋचीकतनयः कंबलश्च तिलोत्तमा॥ ब्रह्मापेतोथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषंभराः॥४३॥ विष्णुरश्वतरो रंभा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्॥ विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयंत्यमी॥४४॥ एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः॥ स्मरतां संध्ययोर्नृणां हरंत्यंहो दिनेदिने॥४५॥ द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै॥ चरन्समंतात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम्॥४६॥ सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिंगैर्ऋषयः संस्तुवंत्यमुम्॥ गंधर्वास्तं प्रगायंति नृत्यं त्यप्सरसोऽग्रतः॥४७॥ उन्नह्यंति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः॥ चोदयंति रथं पृष्ठे नैर्ऋता बलशालिनः॥४८॥

ऋषि, इनके साथ त्वष्टा नाम सूर्य विचरण करता है॥४३॥ फाल्गुनमें रम्भा नाम अप्सरा मखापेत नाम राक्षस, अश्वतर नाम नाग, सूर्यवर्चा गधर्व,सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि, इनके साथ विष्णुनाम सूर्य विचारण करता है॥४४॥ यह सब सूर्यरूप विष्णु भगवान्की विभूतियोंका जो पुरुष दोनों संध्याकालमें स्मरण करते हैं, उनके सम्पूर्ण पाप विनष्ट होजाते हैं॥४५॥ यह सूर्यनारायण इन छहोंगण सहित बारहमहीनेमें सब ओर घूमते हैं और लोकोंको इसलोकमें और परलोकमें उत्तम बुद्धि देतेहैं॥४६॥ अप्सरायें सुन्दर शृंगार कर करके सूर्यनारायणके सन्मुख नृत्य करती हैं, बलवान् राक्षस रथको पीछेसे ढकेलते हैं, यक्ष रथको जोडते हैं, नाग रथको बाँधते हैं, गन्धर्व सूर्यके आगे यशगान करतेहैं और ऋषीश्वर, मुनीश्वर,

ऋग, यजु,सामवेदके मंत्रोंसे श्रीसूर्यनारायणकी स्तुति करते हैं॥४७॥४८॥ साठसहस्र (६००००) निर्मल वालखिल्य ब्रह्मऋषि अंगुष्ठप्रमाणमात्र स्वरूप सब मिलके स्तोत्रोंसे विभुके सन्मुख होकर पिछले पावोंसे चलते श्रीनारायणकी स्तुति करते हैं॥४९॥ आदि अंत रहित अजन्म भगवान् हरि ईश्वर इसप्रकार कल्प कल्पमें आपका सूर्यरूप विभाग करके सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करते हैं॥५०॥ इति श्रीमद्भागवतें महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायामादित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा— इस द्वादश अध्याय में, श्रीभागवत पुराण॥ वरणो सब

वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः॥ पुरतोभिमुखं यांति स्तुवंति स्तुतिभिर्विभुम्॥४९॥ एवं ह्यनादिनि धनो भगवान्हरिरीश्वरः॥ कल्पेकल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः॥५०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कधे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ सूत उवाच॥ नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे॥ ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान्वक्ष्ये सनातनान्॥१॥ एतद्वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्भुतम्॥ भवद्भिर्यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम्॥२॥

संक्षेपसों, जो शुक किय निर्माण॥१॥ सूतजी बोले कि, श्रेष्ठधर्मको नमस्कार करके और सृष्टिकर्त्ता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करके अब सब ब्राह्मणोंके चरणोंमें शिरधर इस श्रीमद्भागवत पुराणमें जो जो सनातनधर्म और सब कथाओंकी अनुक्रमणिका है वह मैं आपसे कहताहूं

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॥१॥ हे ब्राह्मणो!सम्पूर्ण प्राणियोंके सुनने योग्य यह विष्णु भगवान्का अद्भुत चरित्र इसमें जो जो प्रश्न आपने किये उन उनके उत्तर मैंने
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शंका - सूतजीने मुनियोंसे कहा कि, अब हम सनातनधर्म कहते हैं, आप सावधान होकर सुनो, इसमें हमको यह शंका है कि, पहिले जो धर्म वर्णन हुवा सो सनातनधर्म नहीं है, क्या ‘ये शीघ्रताके बनाये हैं?

उत्तर - भागवतमें जो धर्म वर्णन कियेहैं, सो सब सनातन धर्म हैं शीघ्रतासे बनाये हुए कोई भी नहीं हैं परन्तु एक कारण हैं सो वह भी कहते हैं, मुनियोंने प्रथम इस धर्मको बहुत सक्षेपकेसाथ वर्णन कियाथावारम्वार वर्णन हुवा परन्तु जब दुषा तव सक्षेपसेही दुवा और धर्मका विस्तार बहुत श्लोकोंमें कविलोग वर्णन करतेहैं, इस अध्यायमें बारहस्कन्धोंकी कथाको व्यासजीनं थोडेहीमें वर्णन की हैं, जैसे पहिले मुनिजनोंने थोडे थोडे लोकोंमें सम्पूर्ण धर्म वर्णन किये थे, इसलिये सूतजीने कहाया कि, अब में सनातनधर्म वर्णन करताहू, क्योंकि सनातनधर्म-

आपको दिये॥२॥इस पुराणमें सब पापोंके विध्वंस करनेवाले भक्तवत्सल हृषीकेश भगवान् हरि नारायणकी साक्षात् महिमा वर्णन की है॥३॥ अब यहाँसे आगे पहले कही हुई “बारहों स्कन्ध” की कथाको सूतजी शौनकादिकोंको फिर स्मरण करातेहैं, जिसमें जगत्की उत्पत्ति, पालन, संहार, ऐसे परमगुह्य परब्रह्मके यशका गान, और उस परब्रह्मका प्रकाशक विज्ञान और ज्ञानके साधन, इस महापुराणमें कहेहैं॥४॥ भक्तियोग और भक्तियोगसे प्रगट होनेवाला वैराग्य भी कहा, नारदजीका आख्यान और परीक्षित्का उपाख्यान॥५॥ ब्राह्मणके शापसे राजऋषि परीक्षितका अनशन व्रत धारण करना, उन राजर्षि सहित ब्रह्मर्षि श्रीशुकदेवजी महाराजका सम्वाद यह सब प्रथमस्कन्धमें वर्णन किया

अत्र संकीर्तितः साक्षात्सर्वपापहरो हरिः॥ नारायणो हृषीकेशो भगवान्त्सात्त्वतां पतिः॥३॥ अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम्॥ ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम्॥४॥ भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम्॥ पारीक्षितमुपाख्यानं नारदाख्यानमेव च॥५॥ प्रायोपवेश राजर्षेर्विप्रशापात्परीक्षितः॥ शुकस्यैव च ब्रह्मर्षेः संवादश्च परीक्षितः॥६॥ योगधारणयोत्क्रांतिः संवादो नारदाजयोः॥ अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः॥॥७॥ विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः॥ पुराणसंहिताप्रश्नोमहापुरुषसंस्थितिः॥८॥ ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये॥ ततो ब्रह्मांडसंभूतिवैराजः पुरुषो यतः॥९॥ कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्भवः॥ भुव उद्धरणेभोधौहिरण्याक्षवधो यथा॥१०॥

॥६॥ योगधारणा से प्राणका छोड़ना, ब्रह्मा नारदका सम्वाद और अवतारोंका वर्णन, विराट् पुरुषकी उत्पत्ति, यह सब द्वितीयस्कन्धमें वर्णन किया॥७॥ विदुर और उद्धवका सम्वाद, फिर विदुर और मैत्रेयका सम्भाषण, पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्न, विराट् पुरुषकी रचना॥८॥ पहिले मायाके गुणोंसे महत्तत्त्वादिक सातप्रकारकी सृष्टि रची गई, उससे फिर इस ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति, जो कि वैराज पुरुषके रहनेका स्थान है॥९॥ स्थूल सूक्ष्म कालकी गति, नाभिसे कमलकी उत्पत्ति, समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार, हिरण्याक्ष
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तो दोही हैं, जो मुनि लोग थोडे श्लोक करके वर्णन किये थे, बहुत विस्तार तो पीछेसे कविलोगोंने किया है, सूतने ऐसे विचारके नहीं कहाथा कि, अबतक सनातन धर्म वर्णन नहीं हुआ, सनातन धर्म अब वर्णन करताहू॥

का वध॥१॥ वृक्ष, पशु, पक्षी, मनुष्य, इन तीनोंकी सृष्टि, रुद्रकी सृष्टि, ब्रह्माके आधे अंगसे पुरुष और आधे अंगसे नारी (स्त्री) हुई, उनमें पुरुष तो स्वायंभुव मनु और स्त्री शतरूपा हुई, कर्दम प्रजापतिसे धर्मपत्नियोंकी सन्तान कही॥ ११॥१२॥ जिन प्रजापति कर्दमजी से महात्मा भगवान् कपिलदेवजीका अवतार, और उन बुद्धिमान् कपिलदेवजीसे देवहूतीका सम्भाषण, यह तीसरे स्कन्धकी कथा है॥१३॥ मरीच्यादिक ब्राह्मणोकी सन्तानकी उत्पत्ति, दक्षके यज्ञका विध्वंस, ध्रुवजीका चरित्र, पृथु और प्राचीनबर्हि राजाके चरित्रका वर्णन, यह चौथे स्कन्धकी कथा हैं॥१४॥ हे द्विजोत्तम!नारद प्रियव्रतका सम्वाद, फिर राजा प्रियव्रतका चरित्र, नाभिराजाका आख्यान, ऋषभदेवजीका चरित्र,

ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथैव च॥ अर्धनारीनरस्याथ यतः स्वायंभुवो मनुः॥११॥ शतरूपा च या स्त्रीणामाद्या प्रकृतिरुत्तमा॥ संतानो धर्मपत्नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः॥१२॥ अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः॥ देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता॥१३॥ नवब्रह्मसमुत्पत्तिर्दक्षयज्ञविनाशनम्॥ ध्रुवस्य चरितं पश्चात्पृथोः प्राचीनवर्हिषः॥१४॥ नारदस्य च संवादस्ततः प्रैयव्रतं द्विजाः॥ नाभेस्ततोऽनुचरितमृषभस्य भरतस्य च॥१५॥ ततो द्वीपसमुद्राद्रिवर्षनद्युपवर्णनम्॥ ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः॥१६॥ दक्षजन्म प्रचेतोभ्यस्तत्पुत्रीणां च संततिः॥ यतो देवासुरनरास्तिर्यङ्नगखगादयः॥१७॥ त्वाष्ट्रस्य जन्म निधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः॥ दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्लादस्यमहात्मनः॥१८॥ मन्वंतरानुचरितं गजेंद्रस्य विमोक्षणम्॥ मन्वंतरावतारश्च विष्णोर्हयशिरादयः॥१९॥ कौर्मं मात्स्यं नारसिंहं वामनं च जगत्पतेः॥ क्षीरोदमथनं तद्वदमृतार्थे दिवौकसाम्॥२०॥

राजा भरतका इतिहास॥१५॥ द्वीप, समुद्र, पर्वत, खण्ड और नदियोंका वर्णन, ज्योतिश्चक्रका स्थापन, पातालकी रचना, नरकोंका वर्णन, यह पञ्चमस्कन्धकी कथा हैं॥१६॥ प्रचेताओंसे दक्षका जन्म फिर उस दक्षकी पुत्रियोंका वृत्तान्त, जिस सन्तानसे देवता, असुर, नर, पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी आदिकी उत्पत्ति॥१७॥ हे ब्राह्मणो!वृत्रासुरका जन्म और दितिके दोनों पुत्रोकी उत्पत्ति, हिरण्यकशिपुका और महात्मा प्रह्लादका चरित्र, यह षष्ठ और सप्तम स्कन्धकी कथा हैं॥१८॥ मन्वन्तरोंका वर्णन, गजेंद्रका छुटाना, मन्वन्तरोंमें विष्णु भगवान् के हयग्रीवादिक अवतारोका वर्णन॥१९॥ उन विष्णुभगवान् के अवतार कूर्म, मत्स्य, नृसिंह, वामनका उपाख्यान, देवताओंका समुद्रका मथना॥२०॥

देवता, और असुरोंका महाभयकर संग्राम, यह अष्टमस्कन्धकी कथा हैं, राजाओंके वंशोंका वर्णन, राजा इक्ष्वाकुका जन्म और उनके वंशका वर्णन और महात्मा सुद्युम्नका इतिहास॥ २१॥ इला और ताराका आख्यान, शशादादि, नृगादि सूर्यवंशी राजाओंका वर्णन॥२२॥ सुकन्याका चरित्र, शर्यातिका चरित्र, बुद्धिमान् कुकुत्स्थका उपाख्यान, खाट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगरका चरित्र॥२३॥ कोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रकी कथा, सब पापोंका नाशक निमिके शरीरका त्यागन, जनकवंशियोंकी उत्पत्ति॥२४॥ भृगुवंशी परशुरामजीका पृथ्वीको निःक्षत्रिय करना, चन्द्रवंशी ऐलादि ययाति राजा नहुषका वृत्तान्त॥२५॥ दुष्यन्तका पुत्र राजा भरत, शन्तनु और शन्तनुके पुत्रका चरित्र और राजा ययातिके ज्येष्ठ पुत्र

देवासुरं महायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम्॥ इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः॥२१॥ इलोपाख्यानमत्रोक्तं तासेपाख्यानमेव च॥ सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः॥२२॥ सौकन्यं चाथ शार्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः॥ खदवांगस्य च मांधातुः सौभारेः सगरस्य च॥२३॥ रामस्य कोसलेंद्रस्य चरितं किल्विषापहम्॥ निमेरंगपरित्यागो जनकानां च संभवः॥२४॥ रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षत्रकरणं भुवः ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नाहुषस्य च॥२५॥ दौष्यंतेर्भरतस्यापि शंतनोस्तत्सुतस्य च॥ ययातेज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोनुकीर्तितः॥२६॥ यत्रावतीर्णो भगवान्कृष्णाख्यो जगदीश्वरः॥ वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले॥२७॥ तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः॥ पूतनाऽसुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः॥२८॥ तृणावर्तस्य निष्पेषस्तथैव बकवत्सयोः॥ धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलंबस्य च संक्षयः॥२९॥ गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः॥ दमनं कालियस्याहेर्महाहेर्नदमोक्षणम्॥३०॥

राजा यदुके वंशका वर्णन, ये नवमस्कन्धकी कथा हैं॥२६॥ जिस यदुके वंशमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द जगदीश्वरने अवतार लेकर भूमिका भार उतारा था, वह वृत्तान्त इस भाँति है कि, वसुदेवके घर अवतीर्ण होकर गोकुल गये और वहाँ वृद्धि पाई॥२७॥ असुरोंके शत्रु श्रीकृष्णजीके अपार चरित्र हमने कहे, बाल अवस्थामें पूतनाके प्राणसहित स्तनोंका पान, लात मारकर शकटका तोडना, तृणावर्त्त और वत्सासुरका मारना, अघासुरका वध, ब्रह्माका वत्स और बालकोंका हरना, धेनुक प्रलम्बासुरका वध॥२८॥२९॥ सब ओर फैलीहुई दावानलसे गोप गायोंको बचाना,

कालिय सर्पका दमन और महाअजगर सर्पसे नन्दजीको छुटाना॥३०॥ व्रजकन्याओंका व्रत करना और उस व्रतसे अच्युत भगवान्का प्रसन्न होना, द्विजपत्नियोंपर संतुष्ट होकर ब्राह्मणोंको पश्चात्ताप करना॥३१॥ गोवर्द्धन पर्वतका करपर धरना, सुरभिसहित इन्द्रका किया श्रीकृष्णका अभिषेक और रात्रिके समय व्रजबालाओं सहित श्रीकृष्णकी रासक्रीड़ा॥३२॥ दुर्बुद्धि शंखचूड़का वध और केशी, अरिष्टका संहार, अक्र का व्रजमें आना, फिर रामकृष्णका मथुराको प्रस्थान॥३३॥उस समय व्रजयुवतियोंका विलाप, उसके पीछे मथुराका देखना, और मुष्टिक, चाणूर, कंसादिक

व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः॥ प्रसादो यज्ञपत्नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम्॥३१॥ गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ॥ यज्ञाभिषेकः कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च सत्रिषु॥३२॥ शंखचूडस्य दुर्बुद्धेर्वधोऽरिष्टस्य केशिनः॥ अक्रूरागमनं पश्चात्प्रस्थानं रामकृष्णयोः॥३३॥ व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः॥ गजमुष्टिकचाणूरकंसादीनां च यो वधः॥३४॥ मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सांदीपनेर्गुरोः॥ मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम्॥३५॥ कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः॥ जरासंधसमानीतसैन्यस्य बहुशो वधः॥ घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम्॥३६॥ आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात्॥ रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः॥३७॥ हरस्य जृंभणं युद्धे बाणस्य भुजकृंतनम्॥ प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत्॥३८॥

दैत्योंका वध॥३४॥ सान्दीपन गुरुके मरेहुए पुत्रको फेरकर लादेना, मथुरामें वसकर उद्धव बलदेव सहित मिलकर यादवोंसे स्नेह करना हे!विप्रो जरासन्धकी लाई दुई सेनाका बारम्बार वध करना और मुचुकुन्द द्वारा कालयवनका मारना और समुद्रके टापूपें द्वारकापुरीका बसाना॥३५॥३६॥ इन्द्रलोकसे पारिजात और सुधर्मासभाका ले आना और युद्धमें शत्रुओं को जीतकर रुक्मिणिको हरलाना॥३७॥ युद्धमें जृंभास्त्र करके शिवको जँभाई लेना, बाणासुरकी भुजाओंका काटना, नरकासुरका मारना, सोलह सहस्र एकसोआठ कन्याओंका उद्धार॥३८॥

शिशुपालका वध, मिथ्यावासुदेवका मारना, शाल्वका संहार, दुर्मति दन्तवक्रका हनन, द्विविदका हनन, पीठासुरका प्राणहरण, मुरका मारण, पंचजनको मारकर कृतार्थ करना॥ काशीका जलाना, दैत्योंका प्रभाव प्रगट करना, पाण्डवोंको निमित्त मात्र बनाकर पृथ्वीका भार उतारना, यह दशमस्कन्धकी कथा हैं॥३९॥४०॥ ब्राह्मणके शापका बहाना रखकर अपने कुलका संहार करना, वासुदेव और उद्भवका उत्तम सम्वाद॥४१॥ जिस संवादमें आत्मतत्त्वका निर्णय और धर्मका निर्णय, फिर अपनी माया के प्रभावसे मनुष्यलोकका छोड़ना, यह एकादशस्कन्धकी कथा हैं॥४२॥ युगोंके लक्षण, उन युगोंमें जीविकाका वर्णन, कलियुगमें मनुष्योंका उपद्रव और चार प्रकारकी प्रलय, मायासे और ब्रह्मासे उत्पन्न होनेवाली तीन प्रकारकी

चैद्यपौंड्रकशाल्वानां दंतवक्रस्य दुर्मतेः॥ शंबरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः॥३९॥ माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम्॥ भारावतरणं भूमेर्निमित्तीकृत्य पांडवान्॥४०॥ विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च॥ उद्धवस्य च संवादो वासुदेवस्य चाद्भुतः॥४१॥ यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः॥ ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः॥४२॥ युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नॄणामुपप्लवः॥ चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा॥४३॥ देहत्यागश्च राजर्षेर्विष्णुरातस्य धीमतः॥ शाखाप्रणयनमृषेर्मार्कंडेयस्य सत्कथा॥४४॥ महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः॥ इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोहमिहास्मि वः॥ लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः॥४५॥ पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन्॥ हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात्॥४६॥ संकीर्त्यमानोभगवाननंतः श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम्॥ प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवाऽतिवातः॥४७

उत्पत्ति॥४३॥ बुद्धिमान् राजर्षि विष्णुरातकी देहका त्यागना, व्यासजीसे वेदकी शाखाओंका विस्तार, मार्कण्डेय ऋषिकी सुन्दर कथा॥४४॥ हे द्विजोत्तम! जगत्के आत्मा सूर्यनारायणका मास मासका वर्णन, तुमने जो कुछ हमसे बूझा सो सब कहा, इस भागवत पुराणमें भगवान्की लीलाअवतार सम्बन्धी कर्मोंका यश गायाहै॥४५॥ गिरते, पड़ते, उठते, बैठते, विपत्तिके समय, छींकके, विवशतासे ऊंचे स्वरसे ‘हरये नमः’ जो पुरुष इसप्रकार कहताहै, वह सब पापोंसे मुक्त होजाता है॥४६॥ जो पुरुष भगवान्का कीर्त्तन करता है, अथवा उनके गुणोंको गाता है, तो अनन्त भगवान् उनके चित्तमें प्रवेश

करके सब पापोंको दूर करदेतेहैं, जैसे सूर्यनारायण अन्धकारको, पवन मेघोंको दूर करताहै॥४७॥ जिस वाणीसे भगवान् अधोक्षजकी सत्कथा नहीं गाई जाती उस वाणीको मिथ्या और विषयवाली समझनी चाहिये, जिसमें भगवान्के नामका गुणानुवादहो, वही वाणी सत्य मंगलरूप और पवित्र करनेवाली है॥४८॥ वही वाणी रमणीक और रुचिर नित्य नये २ मनको महाउत्सवरूप मनुष्योंके शोकसमुद्रकी सुखानेवाली है, जिस वाणीसे उत्तमश्लोक भगवान्का यश गाया जाता है॥४९॥ जिस वाणीमें चित्र विचित्र पदभी हों और उत्तम रचना भी हो, परन्तु जगत्के पवित्र करनेवाले हरिका यश कुछ नहीं, तो उस वाणीमें काककी तुल्य विषयी रमण करतेहैं, हंसके समान साधुजन उस वाणीसे संतुष्ट नहीं होते, साधुजन उसी

मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा न कथ्यते यद्भगवानधोऽक्षजः॥ तदेव सत्यं तदु हैव मंगलं तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम्॥४८॥ तदेव रम्यं रुचिरं नवंनवं तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम्॥ तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां यदुत्तमश्लोकोऽनुगीयते॥४९॥ न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित्॥ तद्धांक्षतीर्थं न तु हंससेवितं यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः॥५०॥ स वाग्विसर्गो जनताऽघसंप्लवो यस्मिन्प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि॥ नामान्यनंतस्य यशोंकितानि यच्छृण्वंति गायंति गृणंति साधवः॥५१॥ नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरंजनम्॥ कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम्॥५२॥ यशः श्रियामेव परिश्रमः परो वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु॥ अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयोर्गुणानुवादश्रवणादिभिर्हरेः॥५३॥

पवित्र वाणीमें रमणकरते हैं, जिस वाणीमें अच्युत भगवान्का वर्णन है॥५०॥ जिस वाणीमें श्लोक श्लोक विषे उत्तम पदरचना नहीं, केवल हरियश और हरिनामहीका वर्णन है वह वाणी प्राणियोंके पापोंके समूहोंको नाश करनेवाली है, उस वाणीको निर्मल चित्तवाले सब सुनते हैं, गाते हैं और कहतेहैं॥५१॥ ब्रह्मका प्रकाश करनेवाला निर्मल ज्ञान भी जो अच्युत भगवान्के भावसे रहित है वह किसी प्रकार शोभित नहीं होता, उत्तम कर्म भी ईश्वरके अर्थ विना अमंगल रूप है सो किसी प्रकार शोभित नहीं होक्ता॥५२॥ वर्णाश्रमके आचार, तप, वेदाध्ययन आदिमें बडे परिश्रमसे केवल यश और ऐश्वर्य प्राप्त होताहै, परन्तु हरिके गुणका कथन और श्रवणादि करनेसे श्रीधर भगवान्के चरणकमलका नित्यप्रति

स्मरण होता है॥५३॥ श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दका स्मरण सदा अमंगलका हरनेवाला, मंगलका विस्तार करनेवाला और अंतःकरणको शुद्ध करताहै, परमात्मामें स्नेह बढाता है और ज्ञान विज्ञान सहित वैराग्यको उपजाताहै॥५४॥ हे द्विजोत्तम! आप बडे भाग्यवान् हो, जो अखिल लोकोंके आत्मा भगवान् सर्वोत्तम, सर्वान्तर्यामी सर्वहितकारी नारायणदेवको निरन्तर हृदयमें धारण करके सदा अखण्ड भावसे भजते रहतेहो॥५५॥ जब कि, राजा परीक्षित अन्न पानी त्यागकर गंगाके किनारे जा बैठे, उससमय बडे २ ऋषीश्वर मुनीश्वर श्रीमद्भागवत सुननेको उस सभामें

अविस्मृतिः कृष्णपदारविंदयोः क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च॥ सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम्॥५४॥ यूयं द्विजाग्र्याबत भूरिभागा यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम्॥ नारायणं देवमदेवमीशमजस्रभावाभजताऽऽविवेश्य॥५५॥ अहं च संस्मारित आत्मतत्त्वं श्रुतं पुरा मे परमर्षिवत्क्रात्॥ प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः सदस्यृषीणां महतां च शृण्वताम्॥५६॥ एतद्वःकथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः॥ माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम्॥५७॥ य एवं श्रावयेन्नित्यं यामं क्षणमनन्यधीः॥ श्रद्धावान्योऽनुशृणुयात्पुनात्यात्मानमेव सः॥५८॥

विद्यमान थे, वहॉ श्रीशुकदेवजीके मुखसे पहिले मैंने जो कुछ सुनाथा वह आत्मतत्त्वका ज्ञान मुझको आपने स्मरण कराया, यह आपने बडी कृपादृष्टि की॥५६॥ हे विप्रो! जिनके सब कर्म और चरित्र वर्णन करनेके योग्य हैं उन वासुदेव भगवान्का कीर्त्तन और माहात्म्य सब अशुभोंका विनाश करनेवाला है सो मैंने आप लोगोंके सन्मुख वर्णन किया *॥५७॥ जो कोई पुरुष अनन्यबुद्धि होकर नित्य

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* **दृष्टान्त—**परन्तु ऐसी कया नहीं सुननी चाहिये, जसी कथा एक पण्डितजीने कही और बुढिया स्त्रीने सुनी एक पण्डित किसी ठाकुरद्वारेमें कथा कहते थे और एक बुढियामी कथा सुननेको जाया करती थी और वहाँ बैठकर बहुत रोती, पण्डितजीने समझा कि, यह बुढिया बडी प्रेमिन है, कुछ अधिक दक्षिणा चढावेगी, जब कथा सम्पूर्ण होनेका दिन आया तो बुढिया नहीं आई पण्डितजीने कथामें कुछ बिलम्बभी किया बुढिया तोभी न आई अब कथा पूरी हो चुकी, पण्डीतजीने जाना कि बुढियाको कुछ होगया नहीं तो बुढिया अवश्य आती, दूसरे दिन पण्डितजीने कहा कि, बुढियाके घरको चलैं कुछ दक्षिणा प्राप्त हो जायगी, यह विचार उसके द्वारेपर पहुँचे और जाकर पुकारा, बुढिया चरखा कातरहीथी बोली पण्डितजी! आओ बैठ जाओ कैसे कृपा करी? पण्डितजी बोले बुढिया कैसे हो रही है? कल कथाभी समाप्त होगई और तू न आई तू तो बडी प्रेमिनथी फिर न आनेका क्या कारण? तू तो घटोंतक कथामें बैठी रोये करैथी? बुढिया वोली क्या कथाको सुनकर थोडेही रोतीथी, पण्डितजी बोले कि, फिर क्यों रोतीथी? बुढिया बोली कि जसा तुम्हारी पोथी बांधनेका वस्त्र है ऐसाही मेरी लल्ली मोहिनीके लालाका पाजामाथा सो उसको देखतेही मोहिनीके लाला मुझको याद आ जाते थे इसलिये रोतीथी, पण्डितजी सुनतेही सुन्न होगये और उठकर सीधे अपने घरको चले गये।

एकपहर, वा एकक्षण इस माहात्म्यको सुनै अथवा जो कोई श्रद्धापूर्वक इसको सुनावै, वह प्राणी अपने आपको पवित्र करताहै॥५८॥ जो कोई पुरुष एकादशी वा द्वादशीके दिन इस महापुराण भागवतको सुने उसकी आयुर्बल अधिक होतीहै और जो कोई निर्जलव्रत धारण करके एकाग्रचित्त हो इसका पाठ करै वह सब पापोंसे छूटकर निष्पाप होजाता है॥५९॥ पुष्कर, मथुरा, द्वारकामें वास करके एकाग्रचित्त हो जो इस संहिताको पढैगा वह सब भयादिकोंसे छूट जायगा॥६०॥ जो कोई इस महापुराण संहिताको सुनता है, कीर्त्तन करता है, उसको देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनुष्य और राजालोग, यह सब मनोवाँछित मनोरथको देतेहैं॥६१॥ द्विजवर्णींको, ऋग्वेद, यजुर्वेद,

द्वादश्यामेकादश्यां वा शृण्वन्नायुष्यवान्भवेत्॥ पठत्यनश्नन्प्रयतस्ततो भवत्यपातकी॥५९॥ पुष्करे मथुरायां च द्वारवत्यां यतात्मवान्॥ उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात्॥६०॥ देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः॥ यच्छंति कामान्गृणतः शृण्वतो यत्र कीर्तनात्॥६१॥ ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोधीत्यानुविंदते॥ मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम्॥६२॥ पुराणसंहितामेतामधीत्य प्रयतो द्विजाः॥ प्रोक्तं भगवतो यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत्॥६३॥ विप्रोऽधीत्याप्नुयात्प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम्॥ वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात्॥६४॥ कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम्॥ इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसंगैः॥६५॥

सामवेदके पढ़नेसे जो शहतकी नदी, घृतकी नदी, दूधकी नदीके पानरूपी फल प्राप्त होता है, सो सब फल इस महापुराण संहिताके पढ़नेसे होता है॥६२॥ हे द्विजोत्तम!जो पुरुष पवित्र होकर इस महापुराण संहिताको पढ़ते हैं, वह भगवान् वासुदेवके परमपदको प्राप्त होते हैं॥६३॥ इस महापुराणसंहिताको ब्राह्मण पढ़कर उत्तम बुद्धिको प्राप्त होते हैं, क्षत्रिय पढे तो उदय अस्ततक सर्वत्र भूमण्डलका राजा हो, वैश्य पढै तो निधिपति हो और शूद्र पढै तो सब पापोंसे छूटजाय॥६४॥ कलिकालके मलके समूहोंका विध्वंस करनेवाले अखिलैश्वर्य वासुदेव भगवान् इसप्रकार और दूसरे शास्त्रों में बारम्बार नहीं गायेगये और इस पुराणमें तो कथाओंके प्रसंग

प्रसंगमें पद पदके विषेअशेष मूर्ति भगवान्हीके चरित्र गायेगये हैं, इसीसे इस पुराणका नाम महापुराण है॥६५॥ जगत् की उत्पत्ति, पालन, संहार करनेवाली जिनकी शक्ति है और ब्रह्मा इन्द्र शिवादिक देवताओंको जिनकी स्तुति दुर्लभ है, ऐसे अजन्मा अनंत आत्मतत्त्व अच्युत भगवान्को नमस्कार है॥६६॥ वृद्धिको प्राप्ति हुई प्रकृति आदि शक्तियोंसे जिसने अपने स्वरूप स्थावर जंगम उत्पन्न कियेहैं ऐसे सबमें व्यापक देवता ओमें श्रेष्ठ, अनादि ज्ञानमात्र स्वरूप भगवान्को में बारम्बार प्रणाम करता हूं॥६७॥ अपने आत्मसुखसेही सम्पूर्ण चित्त होनेसे अन्य पदार्थोंमें भाव न रखनेवाले कि, जिन्होंने अपना मन नारायणकी सुन्दर लीलाओंमें आकर्षित होजानेसे नारायणके तत्त्वका प्रकाशक यह पुराण संसारके उपकारके

तमहमजमनंतमात्मतत्त्वं जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम्॥द्युपतिभिरजशक्रशंकराद्यैर्दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि॥६६॥ उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मन्युपरचितस्थिरजंगमालयाय॥ भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने सुरऋषभाय नमः सनातनाय॥६७॥ स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तन्यभावोऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम्॥ व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि॥६८॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वादश० द्वादशस्कन्धार्थ संग्रहो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ सूत उवाच॥ यं ब्रह्मा वरुणेंद्ररुद्रमरुतः स्तुन्वंति दिव्यैः स्तवैर्वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायंति यं सामगाः॥ ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यंति यं योगिनो यस्यांतं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥१॥

लिये अनुग्रह करके प्रगट किया है, उन सब जगत्के पाप दूर करनेवाले व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी महाराजको प्रणाम करता हूं॥६८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे भाषाटीकायां द्वादशस्कंधार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा—इस तेरह अध्यायमें, पूरण होत पुराण। संख्या सकल पुराणकी, वरणौ सहित प्रणाम॥१॥ सूतजी बोले कि, ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र और मरुतदेवता दिव्य स्तोत्रोंसे जिन भगवान्की स्तुति करते हैं और सांगोपांग पदक्रम उपनिषद् सहित वेदोंसे सामवेदके गानेवाले जिनका गान किया करतेहैं और ध्यानमें स्थित होकर मन लगाय योगी जन जिनको देखा करते हैं, देवता, असुरगण जिनका आदि अन्त नहीं जानसक्ते ऐसे परमदेवको बारम्बार मेरा नमस्कार है॥१॥

पीठपर भ्रमते श्रेष्ठ मन्दराचलकी शिलाओंके अग्रसे गात्र खुजानेके समान निद्राका अनुभव करते कच्छपरूप भगवान के श्वासोंकी पवन तुम सबोंकी रक्षा करो, जिस पवन संस्कारके लेश अनुवर्तनके वशसे समुद्रके क्षोभके मिसकरके निरंतर आना जाना बन्द नहीं होता, नित्य घटता बढता रहताहै। आजतक विश्राम नहीं लेता, वह तुम्हारी रक्षा करो *॥२॥ पुराणोंकी संख्याका निरूपण और श्रीभागवतका आश्रय प्रयोजन, दान और दानका माहात्म्य और पाठादिकोंका माहात्म्य अब सावधान होकर हमसे सुनिये॥३॥ ब्रह्मपुराणके श्लोकोंकी संख्या दशसहस्र १०००० है पद्मपु^(२)राणके श्लोकोंकी संख्या पचपनसहस्र ५५००० हैं, विष्णुपुराणके श्लोकोंकी संख्या तेईस सहस्र २३००० है, शिव^(४)पुराणके श्लोकोंकी संख्या चौवीस

पृष्ठे भ्राम्यदमंदमंदरगिरिग्रावाग्रकंडूयनान्निद्रालोः कमठाकृतेर्भगवतः श्वासानिलाः पांतु वः॥ यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद्वेलानिभेनांभसां यातायातमतंद्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति॥२॥ पुराणसंख्यासंभूतिमस्य वाच्यप्रयोजने॥ दानं दानस्य माहात्म्यं पाठादेश्च निबोधत॥३॥ ब्राह्मं दशसहस्राणि पाद्मं पंचोनषष्टि च॥ श्रीवैष्णवं त्रयोविंशच्चतुर्विशति शैवकम्॥४॥ दशाष्टौ श्रीभागवतं नारदं पंचविंशति॥ मार्कंडं नव वाह्नं तु दशपंचचतुःशतम्॥५॥ चतुर्दश भविष्यं स्यात्तथा पंचशतानि च॥ दशाष्टौ ब्रह्मवैवर्तं लिंगमेकादशैव तु॥६॥

सहस्र २४००० है॥४॥ श्रीमद्भा^(५)गवतके श्लोकोंकी संख्या अठारह सहस्र १८००० है, नार^(६)दपुराणके श्लोकोंकी संख्या पचीस सहस्र २५००० ० है, मा^(७)र्कण्डेयपुराणके श्लोकोंकी संख्या नव सहस्र ९००० है, अग्निपु^(८)राणके श्लोकोंकी संख्या पन्द्रह सहस्र चरसौ १५४०० है,॥५॥ भविष्य^(९)पुराणके श्लोकोंकी संख्या चौदह सहस्र पॉचसौ १४५०० है, ब्रह्म^(१०)वैवर्त्तपुराणके श्लोकोंकी संख्या अठारहसहस्र १८००० है, ^(११)लिंगपुराणके श्लोकोंकी संख्या ग्यारहसहस्र ११००० है,

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* **शंका—**श्रीमद्भागवतकी समाप्तिमें सूतजीने अपने गुरुको और सब देवताओंको, ब्रह्मा, विष्णु भगवान्के सब अवतारोंको, इन सबको त्यागकर कच्छप भगवान्को नमस्कार क्यों किया?

उत्तर— कच्छप भगवान्की कृपासे समुद्रको मंथकर देवतालोगोंने अमृत पाया अमृत पाकर देवताओंका मनोरथ सिद्ध हुवा तैसे सूतजी कूर्मका स्मरण करके समुद्ररूप भागवत्के पार उतरगये, इसलिये सूतजीने अपने नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहाय सबको त्यागकर कूर्ममगधान्को नमस्कार किया और भगवान्के अवतारोंमें कुछ भेद नहीं समझा।

^(१२)वाराहपुराणके श्लोकोंकी संख्या चौवीससहस्र २४००० है, ^(१३)स्कन्दपुराणके श्लोकोंकी संख्या इक्यासी सहस्र एकसौ ८११०० है, ^(१४)वामनपुराणके श्लोकोंकी संख्या दशसहस्र १००००है॥७॥ ^(१५)कूर्मपुराणके श्लोकोंकी संख्या सत्रहसहस्र १७०० है, मत्स्य^(१६)पुराणके श्लोकोंकी संख्याचौदहसहस्र १४००० है, गरुड़^(१७)पुराणके श्लोकोंकी संख्या उन्नीससहस्र १९००० है ब्रह्माण्ड^(१८)पुराणके श्लोकोंकी संख्या बारहसहस्र १२००० है॥८॥ इसप्रकारअठारहपुराणके श्लोकोंकी संख्याका प्रमाण-समाहार चारलाख ४००००० श्लोकका है, यह प्रमाण कवीश्वरोंने कहाहै, जिसमें भागवत अठारह सहस्र १८००० है॥९॥ अपनी नाभिकमलमें विराजेहुए संसारमें भयभीत ब्रह्माजीको यह भगवत पुराण भगवान्ने सुनायाथा॥१०॥ इस श्रीमद्भागवत महापुराणके आदि मध्य और

चतुर्विंशति वाराहमेकाशीतिसहस्रकम्॥ स्कांदं शतं तथा चैकं वामनं दश कीर्तितम्॥७॥ कौर्मंसप्तदशाख्यातं मात्स्यं तत्तु चतुर्दश॥ एकोनविंशत्सौपर्णं ब्रह्मांडं द्वादशैव तु॥८॥ एवं पुराणसंदोहश्चतुर्लक्ष उदाहृतः॥ तत्राष्टादशसाहस्रं श्रीभागवतमिष्यते॥९॥ इदं भगवता पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपंकजे॥ स्थिताय भवभीताय कारुण्यात्संप्रकाशितम्॥१०॥ आदिमध्यावसानेषु वैराग्याख्यानसंयुतम्॥ हरिलीलाकथाव्रातामृतानंदितसत्सुरम्॥११॥ सर्ववेदांतसारं यद्ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणम्॥ वस्त्वद्वितीयं तन्निष्ठं कैवल्यैकप्रयोजनम्॥१२॥ प्रौष्ठपद्यां पौर्णमास्यां हेमसिंहसमन्वितम्॥ ददाति यो भागवतं स याति परमां गतिम्॥१३॥ राजंते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे॥ यावद्भागवतं नैव श्रूयतेऽमृतसागरः॥१४॥

अन्तमें संपूर्ण वैराग्यकेही उपाख्यान कहेहैं इसपुराणने हरिकी लीला और कथाओंके समूह अमृतसे साधुओंको और देवताओंको आनन्द कर रक्खाहै, ऐसा आनंददायक और अघ ओघ घायक यह श्रीमद्भागवत पुराणही है॥११॥ सम्पूर्ण वेदान्तका सारभूत, ईश्वर जीवकी एकताको दर्शानेवाला जो यह अद्वितीय पदार्थ (परब्रह्म) है सो इस महापुराणका विषय है और मुख्य प्रयोजन इस महापुराणका केवल कैवल्य अर्थात् मोक्ष है॥१२॥ भादोंसुदी पूर्णमासीके दिन सोनेके सिंहासन सहित जो मनुष्य इस महापुराण श्रीमद्भागवतका दान करै वह परमोत्तम गतिको पाताहै॥१३॥उसी समयतक और दूसरे पुराण महात्मा पुरुषोंकी मण्डलीमें शोभा पातेहैं, जिस समयतक अमृतके समुद्ररूप यह श्रीमद्भागवत महापुराण सुननेमें नहीं आता॥१४॥

सब उपनिषद् और वेदान्तका सार श्रीमद्भागवको माना है इसलिये इस पुराणके अमृतरससे जो प्राणी तृप्त होरहेहैं उनकी प्रीति कभी और ठौर नहीं होती॥१५॥ जैसे नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ मानी हैं देवताओंमें अच्युत भगवान् सर्व सुखदानी हैं वैष्णवोंमें महादेव परमज्ञानी हैं ऐसे पुराणोंमें श्रीमद्भागवत बखानी है॥१६॥ हे ब्राह्मणो!जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें परमोत्तम काशी है ऐसेही सब पुराणोंमें अत्युत्तम “श्रीमद्भागवत” पुराण है॥१७॥ परमहंसोंका परमप्रिय निर्मल और श्रेष्ठ ज्ञान जिसमें गायाहै और निर्दोष परब्रह्मका निरूपण करके दरशायाहै, भक्ति, ज्ञान, वैराग्यको एकत्र करके भगवत्तत्त्वको जिसमें झलकायाहै ऐसे श्रीमद्भागवत पुराणको जो कोई भक्तजन भक्तिसे सुने, वा पढै और हित

सर्ववेदांतसारं हि श्रीभागवतमिष्यते॥ तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित्॥१५॥ निम्नगानां यथा गंगा देवानामच्युतो यथा॥ वैष्णवानां यथा शंभुः पुराणानामिदं तथा॥१६॥ क्षेत्राणां चैव सर्वेषां यथा काशी ह्यनुत्तमा॥ तथा पुराणव्रातानां श्रीमद्भागवतं द्विजाः॥१७॥ श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन्पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते॥ तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं तच्छृण्वन्विपठन्विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः॥१८॥ कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रूपिणा॥ योगींद्राय तदात्मनाऽथ भगवद्राताय कारुण्यतस्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि॥१९॥

चित्तसे विचारे, वह इस संसारसागरसे पार उतरकर परमधामको जाताहै॥१८॥ प्रथम विष्णु भगवान्ने इस अतुल श्रीमद्भागवतरूप ज्ञान दीपकको करुणा करके ब्रह्माजीके सन्मुख प्रकाशित किया, ब्रह्माजीने ब्रह्मरूप धारण करके नारदजीके आगे प्रकाशित किया, फिर नारदरूप होकर व्यासजीके निकट प्रकाशित किया, फिर वेदव्यासरूपसे परमयोगेश्वर श्रीशुकदेवजीके समीप प्रकाशित किया; अन्तमें श्रीशुकदेव रूप धरकर करुणानिधान भगवान्ने करुणा करके विष्णुरात राजा परीक्षित्के सामने प्रकाशित किया। उन शुद्ध सत्त्व निर्मल, सदा आनन्दमय निरुपाधि

नमस्कार किया॥३७॥३८॥३९॥४०॥ और उत्तर कोशलके सव रहनेवाले बहुत कालके पीछे अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको आया हुआ देखकर आनन्दके समुद्रमें स्नान करने लगे और अपने अपने दुपट्टे कॅपातेहुये हर्षित हो फूलोंकी मालायें वर्षाय कर नाचे॥हे महाराज परीक्षित्! जब महाराजाधिराज श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यापुरीमें आये उसकालमें भरतजीने उनकी खडाऊॅ धारण करलीथीं. विभीषण, सुग्रीवने चामर और व्यजन लिया था पवनकुमार हनुमानजी श्वेत छत्र धारण कियेहुए थे शत्रुहनजीने धनुषऔर तरकश लिया, और जगज्जननी जानकीजीने तीर्थोंके जलसे भराहुआ कमण्डलु ग्रहण कियाथा और युवराज अंगदजी खड्ग और ऋक्षराज जाम्बवान् सुर्वणमय बख्तर ले आये पुष्पकविमानमें जब

तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः॥ धुन्वंतमुत्तरासंगान्पतिं वीक्ष्य चिरागतम्॥४१॥ उत्तराः कोशला माल्यैः किरंतो ननृतृर्मुदा॥ पादुके भरतोऽगृह्णाच्चामरव्यजनोत्तमे॥४२॥ विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः॥ धनुर्निषंगाञ्छत्रुघ्नःसीता तीर्थकमंडलुम्॥४३॥ अविभ्रदंगदः खङ्गं हैमं चर्मर्क्षराण् नृप॥ पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च बंदिभिः॥४४॥ विरेजे भगवान्राजन्ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः॥ भ्रातृभिनंदितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत्पुरीम्॥४५॥ प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नीः स्वमातरम्॥ गुरून्वयस्यावरजान्पूजितः प्रत्यपूजयत्॥४६॥

वीर्यवान श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हुए, तब नारियोंने उनकी प्रशंसा की, बन्दीजनोंने यश बखाना॥४१॥४२॥४३॥४४॥ उस समय महाराज श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार शोभायमान होरहेथे कि, जैसे तारागणोंके साथ निशानाथ चन्द्रमाकी शोभा होती है। अपने भ्राताओंसेसन्मानित होकर श्रीरामचन्द्रजीने उत्सवयुक्त पुरीमें प्रवेश किया॥४५॥ तिसके उपरान्त राजभवनके भीतर जाय कैकेयी आदि गुरुपत्नी, अपनी माता और गुरुजनोंकी पूजा श्रीरामचन्द्रजीने की फिर अपने सखा और छोटे जनोंसे पूजित हो सबका यथोचित सन्मान किया॥४६॥

इसके पीछे सीता और लक्ष्मणजी भी जायकर यथानियम इन सब गुरुजनोंसे मिले प्राणोंको पायकर जिस प्रकार देह उठ खड़ी होती हैंउसी प्रकार अपने अपने पुत्रोंको पाय सब मातायें सहसा उठ खडी हुईं। और उनको गोदीमें बिठाय नेत्रजलसे उनका अभिषेक कर अपना शोकसन्ताप दूर करने लगीं॥४७॥ इसके उपरान्त ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीने श्रीरामचन्द्रजीकी जटा छुडवाय कुलवृद्ध पुरुषोंके साथ मिलकर समुद्रके व और सब तीर्थोके जलसे उनका अभिषेक किया॥४८॥ हे महराज परीक्षित्!श्रीरामचन्द्रजीने इसप्रकार शिरसे स्नानकर प्रथम शोभायमान वस्त्र धारण किये। फिर हार और अलंकारोंसे सजकर वसन भूषण पहरे, भाइयों और सीताजीके साथ दीप्तिमान् हो विराजमान होने लगे॥४९॥

वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत्समुपेयतुः॥ पुत्रान्स्वमातरस्तांस्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः॥ आरोप्यांकेऽभिषिंचंत्यो बाष्पौघैर्विजहुः शुचः॥४७॥ जटा निर्मुच्य विधिवत्कुलवृद्वैः समं गुरुः॥ अभ्यषिंचद्यथैवेन्द्रं चतुस्सिंधुजलादिभिः॥४८॥ एवं कृतशिरस्त्रानः सुवासाः स्रग्व्यलंकृतः॥ स्वलंकृतैः सुवासोभिर्भ्रातृभिर्भार्यया बभौ॥४९॥ अग्रहीदासनं भ्राता प्रणिपत्य प्रसादितः॥ प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः॥५०॥ जुगोप पितृवद्रामो मेनिरे पितरं च तम्॥ त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत्॥५१॥ रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे॥ वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिंधवः॥५२॥ सर्वे कामदुघा आसन्प्रजानां भरतर्षभ॥ नाधिव्याधिजराग्लानिदुःखशोकभयक्लमाः॥५३॥

तिसके पीछे महात्मा भरतजीने प्रमाण कर जब श्रीरामचन्द्रजीको प्रसन्न किया, तब उन्होने राज्यसिंहासन ग्रहण किया स्वधर्मनिरत और वर्णाश्रम गुणोंसेयुक्त प्रजापुंजको पिताकी समान पालन करने लगे। हे राजा परीक्षित्! सब प्राणियोंको सुखके देनेवाले धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी जब राजा हुए उस समय यद्यपि त्रेतायुग वर्तमान था, तो भी वह काल सत्ययुगकी समान जान पड़नेलगा। समुद्र, नद, नदी, पर्वत, वन, द्वीप, खण्ड सबही प्रजाका मनोरथ पूर्ण करनेवाले हुए। कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीके राजत्वमें राज्यके बीच आधि, व्याधि, जरा, शोक, दुःख, भय, ग्लानि,

अथवा थकावट कुछभी न रही॥५०॥५१॥५२॥५३॥ जबतक इच्छा न होती, तबतक मृत्यु किसीको नहीं दबासकती थी श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! श्रीरामचन्द्रजी पवित्र और एकपत्नीव्रतधारी होकर सब लोगोंको राजर्षियोंका अनुष्ठान किये हुए गृहमें धैर्य उपदेश करके उसका स्वयंभी पालन करनेलगे * और भावकी जाननेवाली देवी सीताजी अपने स्वामीका आश्रय ले प्रेम, सेवा, शीलता, भय और लाजसे उनके चित्तको हरे लेतीथीं॥५४॥५५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायां रामचरिते दशमोऽध्यायः॥१०॥ दोहा—ग्यारहमें

मृत्युश्चानिच्छतां नासीद्रामे राजन्यधोक्षजे॥ एकपत्नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः॥५४॥ स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्षयन्स्वयमाचरन्॥ प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती॥ धिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताऽहरन्मनः॥५५॥ इति श्रीभाग० म० नवमस्कंधे इक्ष्वा० सगरोपाख्याने श्रीरामचरितं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ भगवानात्मनात्मानं राम उत्तमकल्पकैः॥ सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान्मखैः॥१॥ होत्रेऽददाद् दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः॥ अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः॥२॥ आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदंतरा॥ मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोर्हति निस्स्पृहः॥३॥

श्रीरामने, अवधपुरीमें आन॥ यज्ञ किये भाइन सहित, सो सब कहौ बखान॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज! तिसके, पीछे भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने आचार्य लोगोंके साथ उत्तमोत्तम यज्ञ करके सर्व देवमय परमदेव जो आपहैं, सो अपनीही पूजा करनेलगे॥१॥ यज्ञके अन्तमें पश्चिमदिशा, होताको और ब्रह्माजीको दक्षिणदिशा, अध्वर्युको पूर्वदिशा, और सामगान करने बालोंको उत्तरदिशा, श्रीरामचन्द्रजीने देदी इन दिशाओंके बीचकी जितनी भूमि थी, “इसको ब्राह्मणही पानेके योग्य हैं” यह विचार निःस्पृह श्रीरामचन्द्रजीने अवशेष पृथ्वी आचार्यको देदी॥२॥३॥

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* **शंका—**रामचन्द्रके राज्यमें जो प्राणी मरनेकी इच्छा आप करता था उसीका मरण होता था और जो अपना मरना नहीं चाहता था, उसका मरण कभी नहीं होता था क्योंकि मृत्युतो सब लोकमें है किसी लोकमें जलदी, किसी लोकमें देरसे परन्तु ऐसा लोक कोईभी नहीं है कि जिसलोकमें मृत्यु न होवे?॥

उत्तर—“अनिच्छता” इस शब्दका अर्थ मरणकी इच्छा करना नहीं होगा इसका यह अर्थ है कि, जो प्राणी रामचन्द्रके चरणारविन्दके त्यागनेकी इच्छा नहीं करते थे दिन रात उन्हीके चरणोंमें उन्मत्त रहते थे उन प्राणियों की मृत्यु नहीं होती थी॥॥३५॥

इस प्रकारसे दानशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीने जब सब दान करदिया तब केवल उनके पास वसन भूषण बचरहे और राजराजेश्वरी श्रीमती जानकीजीके पास भी केवल वसन भूषणही रहे अर्थात् इसके अतिरिक्त श्रीरामचन्द्रजीने सब कुछ दान कर दिया *॥४॥ परन्तु ब्राह्मण देवता श्रीरामचन्द्रजीकी ऐसी वत्सलता देख अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनकी स्तुति करके सब वस्तु श्रीरामचन्द्रजीको लौटायदी और बोले॥५॥ हे भगवन्! हे भुवनेश्वर! आपने हमको क्या नहीं दिया है? अर्थात् आपने हमको सब कुछ दिया क्योंकि आपने हम लोगोंके हृदयमें प्रवेश करके अपनी प्रभा

इत्ययं तदलंकारवासोभ्यामवशेषितः॥ तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमंगल्यावशेषिता॥४॥

ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम्॥ प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्येदं बभाषिरे॥५॥

अप्रत्तं नस्त्वया किन्नुभगवन्भुवनेश्वर॥ यन्नोंतर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा॥६॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुंठमेधसे॥ उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदंडार्पितांघ्रये॥७॥

कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः॥ चरन्वाचोऽशृणोद्रामो भार्यामुद्दिश्य कस्यचित्॥८॥

विस्तार कर हमारे अन्धकारको दूर किया है॥६॥ हे प्रभो!आप ब्राह्मणदेव अकुण्ठ बुद्धिमान् हैं, सो हम आपको नमस्कार करते हैं। हे भगवन्! आप उत्तम श्लोकोंमें आगे गिने जाने योग्य हैं, मुनिलोगभी अपने अपने चित्तमें आपके दोनों चरणकमलकी सदा चिन्ता करते हैं॥७॥ बहुत दिन गये पीछे किसी समय श्रीरामचन्द्रजी गूढ़ वेष धारण कर यह जाननेके लिये कि, हमारे राज्यमें लोग हमारी निन्दा करते हैं वा स्तुति, रात्रि

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* **शंका—**जो कुछ वस्तु रामचन्द्रजीने ब्राह्मणोंको दान करके दी थी, वह वस्तु ब्राह्मणोंने दान लेकर कुछ घडी अथवा कुछ दिन पीछे वही दानवाली वस्तु ब्राह्मणोंने फिर पीछे प्रीतिसहित रामचन्द्रको देदी तब रामचन्द्रने अपनी दान की हुई वस्तु ब्राह्मणोंसे क्यों ली? क्या कारण यह बडे सन्देहकी बात है।

**उत्तर—**ब्राह्मणलोग प्रसन्न होकर अपना प्रसाद तुलसीदल पत्र आदि लेकर तथा तीन लोकका सुखपर्यंत जब क्षत्त्रियोंको देते हैं तब उसीसमय क्षत्त्रियलोग ब्राह्मणोंका दिया हुआ प्रसाद प्रीतिपूर्वक ले लेते हैं जब कोई राजा नहीं ले तो शीघ्रही ब्राह्मणलोग उस राजाको शाप दे देते हैं, ऐसा रामचन्द्रने मनमें विचारकर अपनी दी हुई वस्तु प्रसाद समझकर ग्रहण की थी, कुछ लोभ समझकर नहीं ली थी॥

कालमें गुप्तभावसे घूमने लगे, एकदिन अकेले घूमरहेथे कि, एक पुरुषने अपनी स्त्रीसे कुछ कटुवचन कहे कि, जिनको वीर्यवान् श्रीरामचन्द्रजीने सुना॥८॥ वह पुरुष अपनी स्त्रीसे कहरहा था कि, तू पराये घर जाया करती है, तू अतिदुष्टा असती है, मैं अब तुझे खाने पहरनेको नहीं दूंगा, राम चन्द्रजीकाही स्त्रियोंपर अनुराग है कि, पराये घरमें बहुत दिनोंतक रही सीताको फिर अपने घर रखेपालन कररहे हैं। मैं रामचन्द्र नही हूं; चली जा तेरा मुख नहीं देखनेका॥॥९॥ अज्ञान, अबाध्य, बहुमुख पुरुषके मुॅहसे यह वचन सुनतेही श्रीरामचन्द्रजीको अत्यन्त भय हुआ और उन्होंने स्थानपर आय अपनी प्रियतमा जनकनन्दिनी जानकीजीको त्यागदिया। भीत पतिसे त्यागी हुई जानकीजी गर्भावस्था में महर्षि वाल्मीकि

नाहं बिभार्मि त्वां दुष्टामशतीं परवेश्मगाम्॥ स्त्रीलोभी बिभृयात्सीतां रामो नाहं भजे पुनः॥९॥ इति लोकाद्बहुमुखाद्दुराराध्यादसंविदः॥ पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्॥१०॥ अंतर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ॥ कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः॥११॥ अंगदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ॥ तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते॥१२॥ सुबाहुश्श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः॥ गंधर्वान्कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम्॥१३॥ तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत्॥ शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम्॥॥१४॥ हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम्॥ मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता॥१५॥

जीके आश्रममें आई॥१०॥ कुछ दिनोंमें जानकीजीके समय पूर्ण होनेपर दो पुत्र उत्पन्न हुये। यह दोनों कुश, लव नामसे विख्यात हुये. महर्षि वाल्मीकिजीने उन दोनों पुत्रोंका जातकर्म और संस्कार किया॥११॥ हे परीक्षित! इधर अयोध्यापुरीमें वीर्यवान् लक्ष्मणजीके दो पुत्र उत्पन्न हुये। उनका नाम अंगद और चित्रकेतु हुआ। महात्मा भरतजीके भी तक्ष और पुष्कल नामक दो पुत्र हुये॥१२॥ और शत्रुहनजीके पुत्रोंका नाम सुबाहु और श्रुतसेन हुआ। उसी समय भरतजी दिग्विजय करनेके लिये गये और करोड़ों गन्धर्वोंका संहार किया\।\।१३\।\। और उनका सब धनं लाकर राजाको देदिया। शत्रुहनजीने मधुके पुत्र लवणासुरका प्राणसंहार करके मधुवनमें मथुरापुरी बसाई। जनकनंदिनी जानकीजीका

जब रामचन्द्रजीने त्याग करदिया॥१४॥१५॥ तब कुछ दिन पीछे अपने पुत्र महर्षि वाल्मीकिजीको सौप अपने पति श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करती हुई पृथ्वीके विवरमें समाय गईं यह बात श्रीरामचन्द्रजीने भी सुनी। यद्यपि इन महाराज स्वयं ईश्वरने अपनी बुद्धिके बलसे शोक निवारण किया॥१६॥ तोभी प्राणप्यारीके गुणगण बारम्बार याद आनेलगे कि, जिनके याद आनेको यह किसी प्रकार न रोकसके हे राजा परीक्षित! स्त्री पुरुषोंका अनुराग सब कालमें इसीप्रकार भयका देनेवाला है॥१७॥ जब कि, यह अनुराग अवतारोंकोभी भयदाई हुआ तब गृहस्थीमें चित्त लगाये ग्राम्य पुरुषोंकी तो क्या बात है? तिसके उपरान्त श्रीरामचन्द्रजी अखण्डित ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अग्निहोत्र करते रहे॥१८॥

घ्यायंती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह॥ तच्छ्रुत्वा भगवान्रामो रुंधन्नपि धिया शुचः॥१६॥ स्मरंस्तस्या गुणां स्तांस्तान्नाशक्नोद्रोद्धुमीश्वरः॥ स्त्रीपुंप्रसंग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः॥१७॥ अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः॥ तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत् प्रभुः॥ त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखंडितम्॥१८॥ स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दंडककंटकैः॥ स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात्ततः॥१९॥ नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः॥ रक्षो वधो जलधिबंधनमस्त्रपूगैः किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः॥२०॥ यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि गायंत्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्॥ तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादांबुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥२१॥

तिसके पीछे दण्डक वनके कॉटोंसे जिनके चरणकमल वीधगये थे उन्हीं चरणोंके स्मरणकारी भक्तजनोंके हृदयमें स्थापित करके अपने धामको चले गये॥१९॥ हे राजन्!भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका समुद्रमें पुलबाँधना और अस्त्रमूहसे राक्षसादिका वधकार्य यद्यपि कवि लोगोंने आश्चर्यमय वर्णन किया है तो भी इन कार्योंसे उनका कुछ यश नहीं हो सक्ता, क्योंकि उनका यश बहुत साम्यसे छुटा हुआ है, सो वैरीको मारनेके समय बन्दर बिचारे क्या उनकी सहायता करसक्ते हैं, इसलिये जिस प्रकार सुग्रीवादिके निकट इन श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय लेना केवल लीला मात्र है। वैसही राक्षसोंका वधादि कार्यमी लीलाही है हे महाराज!आप ऐसा न समझ लेना कि, हमारे यह वचन अयुक्त हैं। देवतालोगोंकी

प्रार्थनासे लीला करनेके लियेही भगवान्ने, यह अवतार धारण किया था। अहो! जिनका निर्मल यश दिग् दिगन्तरमें व्याप्त होकर दिक्पाल हस्तियोंका आच्छादनपुटस्वरूप हुआ है, इसलिये अबतक जिसको युधिष्ठिरादि नृपतियोंकी सभामें ऋषिलोग निरन्तर गान करतेहैं और जिनके चरणकमल देवता और नृपति लोगोंसे सेवित हैं। हम उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीकी शरणमें जातेहैं॥२०॥२१॥ अयोध्या निवासियोंने जिन पुण्यात्मा श्रीरामचन्द्रजीको स्पर्श किया, वा दर्शन किया, अथवा जिन्होंने उनको बैठाला था, किंवा जो लोग उनके अनुमत हुये थे, वह सब पुण्यात्मा लोग उस स्थानमें गये जहाँ कि, योगीलोग जाया करते हैं॥२२॥ हे परीक्षित्!जो पुरुष श्रवणोंके द्वारा श्रीरामचन्द्रजीके इस आख्यानको धारण करेंगे; वह उपशमनिष्ठ हो निःसंदेह कर्मबंधनसे छूट जायॅगे॥२३॥ तिसके उपरान्त राजा परीक्षित् श्रीशुकदेवजीसे कहने लगे

स यैःस्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोपि वा॥ कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छंति योगिनः॥२२॥ पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन्॥ आनृशंस्यपरो राजन्कर्मबंधैर्विमुच्यते॥२३॥ राजोवाच॥ कथं स भगवान्रामो भ्रातॄन्वा स्वयमात्मनः॥ तस्मिन्वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे॥२४॥ श्रीशुक उवाच॥ अथादिश द्दिग्विजये भ्रातॄस्त्रिभुवनेश्वरः॥ आत्मानं दर्शयन्स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः॥२५॥ आसिक्तमार्गांगंधोदैः करिणां मदशीकरैः॥ स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव॥२६॥

कि, हें ब्रह्मन्! भगवान् श्रीरामचन्द्रजी स्वयं किस प्रकार वर्तमान थे? उन्होंने अपने भ्राताओंसे जो कि, उनके अंशरूपही थे कैसा व्यवहार किया था और साक्षात् परमेश्वरस्वरूप जो श्रीरामचन्द्रजी थे, उनसे उनके भ्राता और प्रजाके लोग कैसा व्यवहार करते थे॥२४॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक!इस प्रकार राजा परीक्षितका प्रश्न सुनकर व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजापरीक्षित्!त्रिभुवनके ईश्वर श्रीरामचन्द्रजीने अयोध्यामें आय राजसिंहासन पर बैठनेके पीछे अपने भ्राताओंको दिग्विजय करनेके लिये आज्ञादी, फिर अपनी जातिवाले लोगोंके साथ बन्धुत्व, प्रकाशितकर अपने मित्रोंके साथ निरन्तर पुरीकी देखभाल करनेलगे॥२५॥ जबसे श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक हुआ, तबसे अयोध्यापुरीके सब मार्गोपर बराबर सुगन्धिका जल और हाथियोंके मदका जल छिड़का जाता था, यह अयोध्यापुरी अपने स्वामीको

प्राप्त होकर सब प्रकारसे समृद्धिसंपन्न हुई थी॥२६॥ वहाँके महल, पुरके द्वार, पत्थरसे बने हुये थे और द्वार द्वारपर जलसे भरे हुए सुवर्णके कलश सदा रक्खे रहते थे, सर्व स्थानोंमें सदाही पताका फहराती थीं, गुच्छोंके साथ, सुपारियें, केला और शोभायमान वसन, पाट और कौतुक बनानेके योग्य वस्त्र, माला इत्यादिसे स्थान स्थानमें मंगलके तोरण बनाये गये थे॥२७॥२८॥ और जहाॅ जहॉपर श्रीरामचन्द्रजी गमन करते थे उसी उसी स्थानमें पुरवासी लोग भेंट साथ लेकर आते थे और यह कहकर आशीर्वाद देते थे कि, हे देव!आपने प्रथम वराहरूप धारण करके इस पृथ्वी का उद्धार किया था, अब इसका आप प्रतिपालन कीजिये॥२९॥ राज्यकी प्रजा बहुत समयके पीछे अपने राजाके आनेका समाचार पाकर उनके दर्शन करनेकी वासनासे स्त्री पुरुष सबही अपने अपने घर छोड़कर महलोंकी छत्तपर चढे हुए थें और अपरितृप्तलोचनसे

प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु॥ विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मंडिताम्॥२॥ पूगैः सवृंदै रंभाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम्॥ आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम्॥२८॥ तमुपेयुस्तत्रतत्र पौरा अर्हणपाणयः॥ आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्धृताम्॥२९॥ ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः॥ आरुह्य हर्म्याण्यरविंदलोचनमतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन्॥३०॥ अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वजादिभिः॥ अनंताखिल कोशाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम्॥३१॥ विद्रुमौदुंबरद्वारैर्वैडूर्यस्तंभपंक्तिभिः॥ स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातंस्फटिकभित्तिभिः॥३२॥ चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः॥ मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कांतकामोपपत्तिभिः॥३३॥

राजीवलोचन श्रीरामचन्द्रजीको अवलोकन करके उनके ऊपर फूल वर्षाय रहे थे॥३०॥ जिस समय श्रीरामचन्द्रजीने अपने गृहमें प्रवेश किया उस समय श्रीरामचन्द्रजीका धनागार अत्यन्त अखिल रत्नादिसे परिपूर्ण और अनेकानेक महामोलकी सामग्रियोंसे सुशोभित था. यद्यपि इस धनागारको पहले श्रीरामचन्द्रजीके सम्बन्धीलोग भोग करचुके थे॥३१॥ परन्तु तोभी यह पूर्ण था वहाॅके द्वारोंकी देहलियें मूंगोंकी बनी हुई थीं थम्भ वैदूर्य्यमणिके बने हुए थे, गृहोंके आंगन मरकतमय होनेके कारण अतिस्वच्छ थे और स्फटिकमणिकी बनी हुई भीतें अत्यन्त दीप्तिमान् होरही थीं॥३२॥ विचित्र पुष्पोंके हारोंसे, श्रेष्ठ पट्टिकाओंसे और वस्त्र व रत्नोंकी किरणोंसे यह भवन दीप्तिमान्

होरहा था और चैतन्यतुल्य उज्ज्वल मुक्ताफलोंसे व कमनीय भोग साधनद्रव्य समूहोंसे यह भवन सबप्रकार सुसज्जित था. सुगन्धित धूपसे सुगन्धित पुष्पमण्डलसे मण्डित और सब अलंकारोंके अलंकारस्वरूप देवताओंकी समान स्त्री पुरुषोंसे यह भवन सेवित हो रहा था॥३३॥३४॥ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी यद्यपि अत्माराम मुनिलोगोंके अग्रगण्य थे, तोभी उस भवनमें अपनी प्राणप्यारी श्रीजानकीजीके साथ विहार करते थे. इन रामचन्द्रजीने बहुत वर्षोंतक यथाकालमें सब अभिलषित भोगोंका भोग किया था सब मनुष्य उन श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका ध्यान करते थे उन आत्माराम और धैर्यवान में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने कालानुसार धर्मको विना पीड़ादिये रमण किया था॥३५॥३६॥

धूपदीपैः सुरभिभिर्मंडितं पुष्पमण्डितैः॥ स्त्रीपुंभिः सुरसंकाशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः॥३४॥ तस्मिन्स भगवान्रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया॥ रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल॥३५॥ बुभुजे च यथाकामं कामान्धर्ममपीडयन्॥ वर्षपूगान्बहून्नॄणामभिध्यातांघ्रिपल्लवः॥३६॥ इति श्रीभा० म० नव० इक्ष्वा० सगरर्चरिते श्रीरामोपाख्यानं नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥ श्रीशुक उवाच॥कुशस्य चातिथिस्तस्मान्निषधस्तत्सुतो नभः॥ पुण्डरीकोऽथ तत्पुत्रः क्षेमधन्वाऽभवत् ततः॥१॥ देवानीकस्ततोऽनीहः पारियात्रोऽथ तत्सुतः॥ ततो बलः स्थलस्तस्माद्वज्रनाभोऽर्कसं भवः॥२॥ खगणस्तत्सुतस्तस्माद्विधृतिश्चाभवत्सुतः॥ ततो हिरण्यनाभोऽभूद्योगाचार्यस्तु जैमिनेः॥३॥

इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीरामचरितवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा—द्वादशमें कुशवंशकी, कहूँ कथा समझाय।पुनि इक्ष्वाकुसुत वंशकी, सकल कथा कहौं गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!श्रीरामचन्द्रजीके पुत्र कुशजीके अतिथि नामक जो पुत्र उत्पन्न हुए थे, उनसे निषध उत्पन्न हुए। निषधका पुत्र नभ, तिसका पुत्र पुंडरीक और तिसका सुत क्षेमधन्वा हुआ॥१॥ क्षेमधन्वाका पुत्र देवानीक, तिसका पुत्र अनीह, अनीहके पारियात्र, पारियात्रका पुत्र बल हुआ, बलका पुत्र स्थल हुआ, स्थलके अर्क हुआ, अर्कके वज्रनाभ उत्पन्न हुआ॥२॥ वज्रनाभका बेटा खगण और तिसका पुत्र विधृति जन्मा, विधृतिसे हिरण्यनाभकी उत्पत्ति हुई।

यह हिरण्यनाभ महर्षि जैमिनिका शिष्य और योगाचार्य था॥३॥ इसकेही निकट याज्ञवल्क्य ऋषिने उस अध्यात्मयोगको सीखा जिस्से महान् सिद्ध होकर हृदयकी गाँठ खुलजाती है॥४॥ इस हिरण्यनाभका पुत्र पुष्य और इस पुष्यसे ध्रुवसंधिकी उत्पत्ति हुई. तिसका पुत्र सुदर्शन, तिसका सुत अग्निवर्ण और अग्निवर्णका पुत्र शीघ्र उत्पन्न हुआ। इस शीघ्रसे राजा मरु जन्मे॥५॥ यह मरु योगमें सिद्धि प्राप्त करके कलापनामक ग्राममें विराजमान हैं।जब यह कलियुगके अंतमें सूर्यवंशका नाश होता हुआ देखेंगे तब यह अपने फिर वंशको उत्पन्न करेंगे *॥६॥ इनके पुत्र

शिष्यः कौसल्य अध्यात्मं याज्ञवल्क्योऽध्यगाद्यतः॥ योगं महोदयमृषिर्हृदयग्रंथिभेदकम्॥४॥ पुष्यो हिरण्यनाभस्य ध्रुवसंधिस्ततोऽभवत्। सुदर्शनोऽग्निवर्णश्च शीघ्ररतस्य मरुः सुतः॥५॥ योऽसावास्ते योगसिद्धः कलापग्राममाश्रितः॥ कलेरंते सूर्यवंशं नष्टं भावयिता पुनः॥६॥ तस्मात्प्रसुश्रुतस्तस्य संधिस्तस्याप्यमर्षणः॥ सहस्वांस्तत्सुतस्तस्माद्विश्वसाह्वोऽन्वजायत॥ ततः प्रसेनजित् तस्मात्तक्षको भविता पुनः॥७॥ ततो बृहद्बलो यस्तु पित्रा ते समरे हतः॥ एते हीक्ष्वाकुभूपाला अतीताः शृण्वनागतान्॥८॥ बृहद्बलस्य भविता पुत्रो नाम बृहद्रणः॥ उरुक्रियस्ततस्तस्य वत्सवृद्धो भविष्यति॥९॥

प्रसुश्रुत, तिनके संतानसंधि, तिनका पुत्र अमर्षण, अमर्षणका पुत्र सहस्वान् और सहस्वानके विश्वसाह्व हुआ विश्वसाह्वके प्रसेनजित्। प्रसेनजित्से तक्षक॥७॥ तक्षकसे बृहद्बल उत्पन्न हुआ कि, जिसका तुम्हारे पिता अभिमन्युने संग्राममें संहार किया था है परीक्षित! ऊपर कहेहुये राजा इक्ष्वाकुवंशमें होगये हैं अब उनका वृत्तान्त सुनो जो कि, आगेको होंगे॥८॥ इसके पीछे बृहद्बलके बृहद्रणनामक पुत्र होगा तिसका

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* शंका— त्रिटोकीमें जो प्राणी जन्म लेता है उस प्राणीको काल खा लेता है परन्तु राजा मरुको कालने क्यों नहीं खाया? जो राजा मरुकलियुगके नाश हुए पीछे सूर्यदेशको फिर उत्पन्न करेना?

**उत्तर—**राजा मरु बाल्यावस्थासे परमेश्वरका भजन करनेलगा था और भजन करते करते बड़ा योगी होगया और योगियोंको काल किसी प्रकार नहीं खा सक्ता। क्योंकि काल तो योगियोंका रूप देखकर दूरसेही डरता है इसलिये राजा मरुको फालने नहीं खाया॥

पुत्र उरुक्रिय होगा उरुक्रियका पुत्र वत्सवृद्ध॥९॥ इस वत्सवृद्धसे प्रतिव्योम, तिसके भानु और इस भानुसे सेनापति दिवाकका जन्म होगा। तिसका पुत्र सहदेव, तिसका पुत्र वीरबृहदश्व तिसका पुत्र भानुमान् होगा॥१०॥ इस भानुमान्का पुत्र प्रतीकाश्व, तिससे सुप्रतीक जन्मग्रहण करेंगे। तिसके मरुदेव, तिसके सुनक्षत्र और सुनक्षत्रसे पुष्करनामक पुत्र उत्पन्न होगा॥११॥ तिसके अन्तरिक्ष, तिसका पुत्र सुतपा, तिसके पुत्र अमित्रजित् तिसका पुत्र बृहद्राज, बृहद्राजके बर्हि और बर्हिसे कृतञ्जयका जन्म होगा॥१२॥ कृतञ्जयका पुत्र रणञ्जय और तिससे संजय की उत्पत्ति होगी। सञ्जयका पुत्र शाक्य, तिसका पुत्र शुद्धोद और तिसका पुत्र लांगल होगा॥१३॥ लांगलसे प्रसेनजित्, तिससे क्षुद्रक और क्षुद्रकसे रणक और

प्रतिव्योमस्ततो भानुर्दिवाको वाहिनीपतिः॥ सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्वोऽथ भानुमान्॥१०॥ प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोऽथ तत्सुतः॥ भविता मरुदेवोऽथ सुनक्षत्रोऽथ पुष्करः॥११॥ तस्यांतरिक्षस्तत्पुत्रः सुतपास्तदमित्रजित्॥ बृहद्राजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात्कृतंजयः॥१२॥ रणंजयस्तस्य सुतः संजयो भविता ततः॥ तस्माच्छाक्योऽथ शुद्धोदो लांगलस्तत्सुतः स्मृतः॥१३॥ ततः प्रसेनजित्तस्मात्क्षुद्रको भविता ततः॥ रणको भविता तस्मात्सुरथस्तं नयस्ततः॥१४॥ सुमित्रो नाम निष्ठांत एते वार्हद्बलान्वयाः॥ इक्ष्वाकूणामयं वंशस्सुमित्रांतो भविष्यति॥ यतस्तं प्राप्य राजानं संस्था प्राप्स्यति वै कलौ॥१५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे इक्ष्वाकुचरिते कुशान्वयवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥॥ श्रीशुक उवाच॥ निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम्॥ आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः॥१॥

रणकसे सुरथ जन्म लेगा॥१४॥ हे महाराज परीक्षित्!तिसके यहाॅ सुमित्र जन्मग्रहण करेगा और यह सब राजा बृहद्बलके वंशमें उत्पन्न होंगे, हे राजन्! इक्ष्वाकुके वंशमें सुमित्र तक यह सब राजा होंगे। और सबसे पीछे सुमित्रके राजा होनेपर कलियुगमें यह वंश ध्वस्त हो जायगा॥१५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां कुशान्वयवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा—तेरहमें इक्ष्वाकु सुत, निमिकावंश बखान। तिसमें प्रगटे जनकसे, ज्ञानी परम सुजान॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इक्ष्वाकुके पुत्र निमिने यज्ञ आरम्भ करके वसिष्ठ महर्षिजीको अपना ऋत्विज वरण किया, तब वसिष्ठजी बोले कि, यज्ञ करनेके लिये देवराज इन्द्र हमको वरण कर चुके हैं॥१॥

इस कारण बिना इन्द्रका यज्ञ समाप्त कियेहुये हम तुमसे यज्ञ नहीं करा सक्ते हैं जबतक इन्द्रका यज्ञ समाप्त हो तबतक ठहरे रहो। यह सुनकर महाराज, निमि कुछ न बोले चुपचाप रहे। और महर्षि वसिष्ठजी देवराज इन्द्रका यज्ञ करने लगे॥२॥ वसिष्ठजीके जानेपर महाराज निमिने विचारा कि, इस जीवनका क्या ठिकाना है? यदि इन्द्रका यज्ञ समाप्त होनेके प्रथमही हमारी मृत्यु होजाय, तो फिर यज्ञ न हुआ, इसलिये जबतक

तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय॥ तूष्णीमासीद्गृहपतिः सोपींद्रस्याकरोन्मखम्॥२॥

निमिश्चलमिदं विद्वान्सत्त्रमारभतात्मवान्॥ ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद्यावता गुरुः॥३॥

शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः॥ अशपत्पतताद्देहो निमेः पंडितमानिनः॥४॥

निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने॥ तवापि पतताद्देहो लोभाद्धर्ममजानतः॥६॥

कुलगुरु वसिष्ठजी न आवैं तबतक किसी औरही ऋत्विकसे यज्ञ आरम्भ कराऊं। यह विचार निमिराजाने यज्ञारम्भ किया॥३॥ इसके उपरान्त महर्षि वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ समाप्त कराय, राजा निमिके स्थानपर आये, शिष्यका अन्याय देखकर मुनिको क्रोध उत्पन्न हुआ और क्रोधकरके यह शाप दिया कि, पण्डिताभिमानी इस निमिका देह शीघ्र छूट जाय *॥४॥ जब कुलगुरु वसिष्ठजीने इस प्रकार अधर्मवर्ती

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* शंका—राजा निमि बडा, ज्ञानी और ध्यानी या वसिष्ठमुनि आदिक मुनियोंमें पूजन करने योग्य बडा महात्मा पुरुषथा, उन दोनोंने फिर मूर्खोकी समान काम क्यों किया? राजाने मुनिको शाप दिया, मुनिने राजाको शापदिया, यह क्या कारण?

उत्तर—जब नारदमुनि, स्त्रीके लिये मोहित होगये और विवाह करनेकी इच्छा की, बडे कामियोंकी समान ससारमें भ्रमण करते फिरे, तब राजा निमि और वसिष्ठ, वह दोनों उनको देखकर बहुत हँसे, तब दोनों जनोंको नारद मुनिने शापदिया कि, हे वसिष्ठमुनि! हे राजा निमि!हम स्त्रीके लिये दुखी हो रहे हैं, हमारे मनमें विवाह करनेकी इच्छा नहीं है परन्तु भगवान्की मायाने हमको मोहित करलिया है, इसपर भी तुम दोनोंजन हमारी हँसी करते हो, इसलिये तुम दोनोजने बहुत शीघ्र मायाके फन्दमें फँसकर हमारी समान बडी दुर्गतिको प्राप्त होओगे, इसलिये दोनों जनोंकी बुद्धि भ्रष्ट होगई थी॥

होकर शाप दिया, तब राजा निमिभी उनको यह शाप देने लगा कि, “तुमने लोभके वश होकर धर्मकी ओरको नहीं देखा इसलिये तुम्हारा देहभी छूटजाय”॥५॥ यह कहकर राजा निमिने अपनी देहको छोड़दिया। उसी समय वसिष्ठ ऋत्विक्का भी देह छूटगया, परन्तु कुछ कालके पीछे मित्रावरुणके यज्ञमें उर्वशीके गर्भसे वसिष्ठजीने फिर जन्म लिया, अर्थात् यज्ञ करते करते उर्वशीको देखकर मित्रावरुणजीका जो वीर्य गिरा, उस वीर्यको उन्होंने कलशमें रक्खा था, तिससेही फिर वसिष्ठजी उत्पन्न हुये॥६॥ इधर जब यज्ञ करते करते राजा निमिका देह छूटगया, तब मुनि लोगोंने सुगंधित वस्तुमें (उत्तम तेलमें) उनके शरीर को रखदिया; इसके उपरान्त जब यज्ञ समाप्त होगया तो आयेहुये देवता लोगोंसे बोले कि “आप लोग यदि प्रसन्न हो और सामर्थ्य रखते हो तो राजाका यह देह सजीव हो उठे” देवतालोगोंने

इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः॥ मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः॥६॥ गंधवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः॥ समाप्ते सत्त्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान्॥७॥ राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि॥ तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबंधनम्॥८॥ यस्य योगं न वांछंति वियोगभयकातराः॥ भजंति चरणांभोजं मुनयो हरिमेधसः॥९॥ देहं नावरुरुत्सेहं दुःखशोकभयावहम्॥ सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा॥१०॥ देवा ऊचुः॥ विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम्॥ उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः॥११॥

कहा ऐसाही हो। तब राजा निमिका शरीर गंध वस्तुमेंसे ही बोला कि, हे प्रिय! हमें कभी देहका बन्धन न होवे॥७॥८॥ हरिसेवक मुनिलोग वियोगके भयसे कातर हो कदापि देह धारण करनेकी वाञ्छा नहीं करते। वह केवल मुक्तिके लिये भगवान्के चरणकमलकी सदा वन्दना किया करते हैं॥९॥ और दुःख, शोक, भयके देनेवाले मनुष्य के शरीरकी मैं इच्छा नहीं करता, क्योंकि इस देहकी सर्वत्र मृत्यु है, जैसे मछलियोंकी जलमें सर्वत्र मृत्यु है॥१०॥ तब देवतालोगोंने कहा कि, यह निमि विनाही देहके सब प्राणियोंके नेत्रोंपर इच्छानुसार वास करै॥ इसका तात्पर्य यह है कि, ऐसा होनेसे मुनिलोग जिसलिये राजाके जीवनकी प्रार्थना करते हैं, वह प्रार्थना सिद्ध होजायगी और राजाको देहका संबंधभी नहीं होगा. हे राजन्! इसी वाक्यके अनुसार निमि जीवित हुए थे, नेत्रोंपर पलकका उघड़ना और

पडना इन्हीं राजा निमिके कियेसे होता है॥१३॥ परन्तु तिसके पीछे महर्षियोंने विचारा कि, विना राजाके राज्य सदा प्रजाका भय दिलाने वाला है। इसलिये सबने राजकुमारकी कामना करके इन निमिके देहको मथा, मथन करनेसे राजा निमिके मृतक देहसे एक कुमार उत्पन्न हुआ॥१२॥ उस निमिके पुत्रका असामान्य जन्म होनेके कारण जनक नाम हुआ। इस शब्दका अर्थ उत्पादक है। और विदेहसे जन्म ग्रहण करनेके कारण इनका एक नाम विदेह हुआ और मथनेसे जन्म होनेके कारण एक नाम मिथिल हुआ अथवा मिथिलापुरीके निर्माण कर्ता होनेके कारण मिथिलाधिपति कहलाते थे॥१३॥ इन जनकके पुत्र उदावसु, इनके पुत्र नन्दिवर्द्धन हुए. नंदिवर्द्धनका पुत्र सुकेत और सुकेतका पुत्र देवरात हुआ॥१४॥ देवरातसे बृहद्रथका जन्म हुआ, तिसका पुत्र महावीर्य, महावीर्यका पुत्र सुधृति, तिसका सुत धृष्टकेतु,

अराजकभयं नृृणां मन्यमाना महर्षयः॥ देहं ममंथुः स्म निमेः कुमारस्समजायत॥१२॥ जन्मना जनकः सोऽभूद्वैदेहस्तु विदेहजः॥ मिथिलो मनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता॥१३॥ तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नंदिवर्धनः॥ ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते॥१४॥ तस्माद् बृहद्रथस्तस्य महावीर्यस्सुधृत्पिता॥ सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः॥१५॥ मरोः प्रदीपकस्तस्माज्जातः कृतिरथो यतः॥ देवमीढस्तस्य सुतो विश्रुतोथ महाधृतिः॥१६॥ कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथ तत्सुतः॥ स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत॥१७॥ ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम्॥ सीता सीराग्रतो जाता तस्मात्सीरध्वजः स्मृतः॥१८॥ कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो, नृपः॥ धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमित्तध्वजौ॥१९॥

तिसका पुत्र हर्यश्व और तिससे मरुकी उत्पत्ति हुई॥११॥ मरुका बेटा प्रदीकप, तिससे कृतरथने जन्म लिया. तिसका पुत्र देवमीढ और तिससे विश्रुत उत्पन्न हुआ और उससे महाधृतिने जन्म लिया॥१६॥ महाधृतिका पुत्र कृतरात, तिसका पुत्र महारोमा और महारोमाका बेटा स्वर्णरोमा हुआ तिससे ह्रस्वरोमाने जन्म ग्रहण किया॥१७॥ तिसके सीरध्वज जन्मा, ह्रस्वरोमा राजा यज्ञके लिये भूमि जोतरहे थे, उसी समय उसकी सीर अर्थात् हलके अग्र भागसे इस पुरुषका जन्म हुआ, इस कारणसे यह सीरध्वज कहलाता था॥१८॥ सीरध्वजका पुत्र कुशध्वज तिसका पुत्र धर्मध्वज धर्मध्वजके कृतध्वज और मितध्वज नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए॥१९॥

अनेकवार चन्द्रमांके निकट गये और उनसे अपनी भार्याको माँगा, परन्तु मदमत्तताके कारण चन्द्रमाने अपनी गुरुभार्याको नहीं त्यागा। बस इसीलिये दैत्य व सुरोंमें महा संग्राम हुआ था॥५॥ बृहस्पतिजीसे दैत्यगुरु शुक्राचार्य डाह रखते थे इसीलिये उन्होंने अपने शिष्य असुर लोगोंके साथ चन्द्रमाको ग्रहण किया अर्थात् चन्द्रमाका पक्ष लिया और भूतेश्वर (महादेव) अंगिराजीके निकट विद्या पानेसे सब भूतोंको साथ ले अपने गुरुपुत्र बृहस्पतिजीकी ओर हुए॥६॥ देवराज इन्द्रभी अपने सब देवताओंके संग मिल अपने गुरु बृहस्पतिजीकी ओर गये। तिसके पीछे ताराके लिये सुर और असुरोंका नाशकारी महाघोर संग्राम होनेलगा॥७॥ हे राजन्! जब कुछ दिनोंतक युद्ध हुआ। तब देवगुरु बृहस्पतिजीने ब्रह्माजीसे जाकर यह सब वृत्तान्त कहा। यह सुन महात्मा ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बुलाकर बहुत डाँटा। और तारा बृहस्पतिजीको

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषादग्रहीत्सासुरोडुपम्॥ हरो गुरुसुतं स्नेहात्सर्वभूतगणावृतः॥६॥ सर्वदेवगणोपेतो महेंद्रो गुरुमन्वयात्॥ सुरासुरविनाशोऽभूत्समरस्तारकामयः॥७॥ निवेदितोऽथांगिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत्॥ तारों स्वभर्त्रे प्रायच्छदंतर्वत्नीमवैत्पतिः॥८॥ त्यजत्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रादाहितं परैः॥ नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सांतानिकः सति॥९॥ तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम्॥ स्पृहामांगिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च॥१०॥

दिला दी॥८॥ बृहस्पतिजी अपनी भार्या ताराको पायकर जानगये कि, यह अवला अन्तर्वत्नी अर्थात् गर्भवती हुई है। इसलिये ताराके ऊपर घृणा प्रकाश करके कहनेलगे। अरे दुर्म्मति रमणि!! हमारे क्षेत्रमें औरका गर्भ धारण किया। इसे शीघ्र गिरादे। अरे असति! तू ऐसा समझकर न डरना कि, गर्भगिरानेके पीछे हम तुझे मार डालेंगे यद्यपि हमारे क्रोधकी अग्नि बहुत भड़क रही है तो भी तुझे स्त्री जातिको हम क्या भस्म करेंगे? और अधिक करके हम सन्तानकी इच्छा करते हैं॥९॥ पतिके यह वचन सुनकर तारा अतिलज्जित हुई और अपने गर्भसे तत्कालही कनक प्रभासम सुकुमारको छोड़ दिया। हे राजन्! इस परम कुमारको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनोंने लेना चाहा॥१०॥

और दोनों परस्पर कहनेलगे कि, यह बालक तुम्हारा नहीं है हमारा है इसलिये इन दोनों जनोंमें बहुत झगडा हुआ, पुत्रके लिये इन दोनोंमें झगड़ा होताहुआ देखकर ऋषि और देवता लोगोने तारासे पूंछा कि, यह वास्तवमें किसका पुत्र है, परन्तु तारा लाजके मारे कुछ भी न कहसकी और चुप होरही॥११॥ इसलिये वह बालक अलीक लाजसे कोपायमान हो अपनी मातासे बोला “अरी अशुभे!बोलती क्यों नहीं? शीघ्र मेरे सामने अपना दोष वर्णन कर”॥१२॥ तिसके पीछे ब्रह्माजीने एकान्तमें ताराको बुलाय समझाया बुझाया और कहा हे वत्से! बतलाओ यह किसका पुत्र है? तब तारा नीचेको शिर झुकाय लाजसहित धीरेसे बोली कि “पुत्र तो यह चन्द्रमाजीका है” ताराके मुखसे यह वचन निकलतेही चन्द्रमाने उस पुत्रको लेलिया॥१३॥ भगवान् ब्रह्माजीने इस बालककी गंभीर बुद्धि देखकर इसका नाम “बुध” रक्खा है. हे राजन्! चन्द्रमा इस पुत्रको पाकर

ममायं न तवेत्युच्चैस्तस्मिन्विवदमानयोः॥ प्रपच्छुर्ऋषयो देवा नैवोचे ब्रीडिता तु सा॥११॥ कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया॥ किं नावोचस्यसद्वृत्ते आत्मावद्यं वदाऽऽशु मे॥१२॥ ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सांत्वयन्॥ सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत्॥१३॥ तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप॥बुद्ध्या गंभीरयायेन पुत्रेणऽऽपोडुराण्मुदम्॥१४॥ ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः॥ तस्य रूपगुणौदार्यशीलंद्रविणविक्रमान्॥॥१५॥ श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान्सुरर्षिणा॥ तदंतिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता॥१६॥ मित्रावरुणयोः शापादापन्ना नरलोकताम्॥ निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कंदर्पमिव रूपिणम्॥१७॥ धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदंतिके॥ स तां विलोक्य नृपतिर्हर्षेणोत्फुल्ललोचनः॥ उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः॥१८॥

परम हर्षित हुआ॥१४॥ इस बुधसे इलाके गर्भमें पुरूरवाका जन्म हुआ यह पुरूरवा अत्यन्त विख्यात हुआ॥१५॥ एक समय देवर्षि नारदजी देवराज इन्द्रकी सभामें पुरूरवाके रूप, गुण, धन, उदारता, शीलता और विक्रमका गान कररहेथे। देववेश्या उर्वशी यह गुण सुनकर कामके वश होगई और राजाके निकट स्वयंही आई॥१६॥ हे परीक्षित!तुम ऐसी शंका मत करना कि, उर्वशी स्वर्गकी अप्सरा होकर मनुष्यके निकट क्यों गई? यह अप्सरा मित्रावरुणके शापसे इस समय मनुष्यभावको प्राप्त हुई थी इसलिये पुरुषश्रेष्ठपुरूरवाको कामदेवकी समान रूपवान् सुनकर यह अधीर हो उनके निकट जाकर खड़ी होगई॥१७॥ हे राजन्!उस उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र आनन्दके मारे खिल

गये। राजाने पुलकित हो मधुर वचनसे कहा॥१८॥ हे सुन्दरी! हमारे साथ विहार करो। बहुत वर्षोंतक हमारा दोनोंका परमसुखसे स्मण होगा और मैं यही चाहताहूं कि, मेरा तुम्हारा स्नेह ऐसाही बनारहे॥१९॥ उर्वशी बोली कि. हे सुन्दर! तुम्हारे प्रति किसके नेत्र और मन अनुरागी न होंगे? तुम्हारे हृदयको प्राप्त हो रमण करनेकी इच्छासे कोई इस हृदयसे दूर होनेकी इच्छा न करेगी॥२०॥ तिसके उपरान्त शापके अंतमें प्रतिज्ञाभंग करनेके छलसे जानेके लिये कहनेलगी कि, हे प्रियवर! मैं प्रथमहीआपसे यह वचन माँगे लेतीहूं कि, मेरे यह दोनों भेड़ोंके बच्चे तुमको धरोहरकी समान रखनेपडेंगे और हमारे साथ तुम रमण करो। क्योंकि जो पुरुष बडाईके योग्य है उसकोही स्त्रियें वरण करती हैं। इसलिये विजातीय होनेपरभी तुम्हारे वरण करनेमें हमें कोई दोष नहीं है॥२१॥ हे वीर! परन्तु मैं तुम्हारे निकट रहकर घृतभक्षण करूंगी

राजोवाच॥ स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम्॥ संरमस्व मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः॥१९॥ उर्वश्युवाच॥ कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुंदर॥ यदंगांतरमासाद्य च्यवते न रिरंसया॥२०॥ एतावुरणकौ राजन्न्यासौ रक्षस्व मानद। संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः॥२१॥ घृतं मे वीर भक्ष्यं स्यान्नेक्षेत्वाऽन्यत्र मैथुनात्॥ विवाससं तत्तथेति प्रतिपेदे महामनाः॥२२॥ अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम्॥ को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम्॥२३॥ तया स पुरुषश्रेष्टो रमयंत्या यथार्हतः॥ रेमे सुरविहारेषु कामं चैत्ररथादिषु॥२४॥ रममाणस्तया देव्या पद्मकिंजल्कगंधया॥ तन्मुखामोदमुषितो मुमुदेऽहर्गणान्बहून्॥२५॥

और मैथुनके अतिरिक्त किसी समय तुमको वस्त्ररहित न देखूं। जबतक इतनी बातें आप मेरी स्वीकार न करलेंगे तबतक में आपके संग कदापि प्रसंग न करूंगी. राजा पुरूरवाने उसकी सुन्दरताईपर मोहित होकर यह सब बातें अंगीकार करली॥२२॥ और कहा कि, हे सुन्दरि! तुम्हारा आश्चर्यमय रूप और आश्चर्यमय भाव देखतेही मनुष्य का हृदय मोहित होजाताहै। तुम स्वर्गवासी देवी अपने आप यहाँ आई हो। फिर कौन मनुष्य तुम्हारी सेवा न करेगा?॥२३ ॥ हे राजन्!यह कहकर पुरुषप्रधान पुरूरवा उर्वशीके साथ देवतालोगोंके विहार स्थल चैत्ररथादि वनोंमें विहार करनेलगे।और उर्वशीभी यथायोग्य उस नृपालको आनन्द देनेलगी॥२४॥ इस देवी उर्वशीके शरीरमें कमलके परागकी समान सुगंधि

निकलती थी। उव्वशीके साथ विहार करके राजा इसके वदनकी सुगन्धिसे बहुत दिनतक हर्ष पातेरहे॥२५॥ इस ओर पुरमें देवराज इन्द्रने उर्वशीका दर्शन न पायकर गन्धर्वोंको अज्ञा दी कि, वह उर्व्वशी जहाँपर हो वहाँसे शीघ्र लेआओ! क्योंकि विना उर्व्वशीके हमारे स्थानकी शोभा नहीं होती॥२६॥ आधीरातके समय जब महाअन्धकार हुआ उस समय वह इन्द्रके भेजे गन्धर्व मृत्युलोकमें आये और उन मेढोंको हरण करके चलदिये जिनको धरोहर की भाँति उर्वशीने पुरूरवाके निकट सौंपाथा॥२७॥ उन दोनों मेढोंको उर्व्वशी पुत्रके समान मानती थी; जब उन मेढोंको गन्धर्व गण हरण करके लेजानेलगे तब वह अति आर्त्त वाणी से चिल्लाये। उस चिल्लानेके शब्दको सुन उर्व्वशी देवलोकमें जानेकी वासनासे खेदसहित राजा पुरूरवा से कहने लगी हा! मैं इस कुत्सित स्वामीसे मारी पड़ी, इस नपुंसकमें कुछ भी पुरुषार्थता नहीं है। बरन् यह अपने आपको वृथाही वीर

अपश्यन्नुर्वशीमिन्द्रो गन्धर्वान्समचोदयत्॥ उर्वशीरहितं मह्यमास्थानं नातिशोभते॥२६॥ त उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते॥ उर्वश्या उरणौ जह्नुर्न्यस्तौ राजनि जायया॥२७॥ निशम्याक्रंदितं देवी पुत्रयोर्नीयमानयोः॥ हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना॥२८॥ यद्विस्रंभादहं नष्टा हृतापत्या च दस्युभिः॥ यः शेते निशि संत्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान्॥२९॥ इति वाक्सायकैर्विद्धः प्रतोत्रैरिव कुंजरः॥ निशि निस्त्रिंशमादाय विवस्त्रोऽभ्यद्रवद्रु

षा॥३०॥ ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतंत स्म विद्युतः॥ आदाय मेषावायांतं नग्नमैक्षत सा पतिम्॥३१॥

जानकर अभिमान करता है। इसके ऊपर विश्वास करने से मेरा नाश होगया। हाय! मेरे पुत्रसमान मेढ़ोंको चोर हरण करके लिये चलेजातेहैं। अरे! यह पुरुष कैसा? कि, जो नारीकी समान भीत रहकर दिन रात घरमें पड़ा रहता है, हे राजन्!जिसप्रकार हाथी अंकुशसे विद्ध होता है, उसीप्रकार उर्व्वशीके वचन बाणके समान राजा के हृदयमें बिंधगये और उसी समय खड्ग ग्रहण करके क्रोधके मारे वस्त्र रहित मेढोंको हरनेवालोंपर झपटा॥२८॥२९॥३०॥ गंन्धर्वोंने देखा कि, राजा हमारे पीछे आता है तब गन्धर्वगणोंने मेढोंको छोड़दिया। और विशेष द्युतिमान होकर वहाँ प्रकाश करनेलगे। तब राजा उन मेढोके बच्चोंको लेकर वहाँ आया, परन्तु उस समय उर्वशीने उनको नग्न देखलिया। हे कुरुश्रेष्ठ!“मैथुनके

अतिरिक्त नंगा न देख सकूँगी” इस बातको विचार वह अप्सरा वहाँसे चलीगई। इसके उपरान्त राजा पुरूरवा सेजपर उर्व्वशीको न पायकर अत्यन्त विमन हुआ। और उसीमें चित्त लगाय कातरता प्रकट करके शोकके वेगसे उन्मत्तकी नाई पृथ्वीपर भ्रमण करनेलगा॥३१॥३२॥ कुछ दिनों पीछे कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तीर वह अप्सरा पाँच सखियो के साथ राजा पुरूरवाको दिखाई दी, तब राजाने सिटपिटायकर हर्षित हो यह वचन कहे॥३३॥ हे प्यारी! हे निर्दयी बाला! रहो रहो। हे सुमुखि! मैं अबतक सावधान नहींहूं प्राणेश्वरि! आओ तो दोनों एक स्थानपर बैठकर बात चीत करैं॥३४॥ हे देवि! हमारा यह कमनीय शरीर तुमसे दूर कियाहुआ जो यहाॅ आया है अभी यहाँ गिरता है और देखो तुम्हारी

ऐलोपि शयने जायामपश्यन्विमना इव॥ तच्चित्तो विह्वलः शोचन्बभ्रामोन्मत्तवन्महीम्॥३२॥ स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः॥ पंच प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः॥३३॥ अहो जाये तिष्ठतिष्ठघोरे न त्यक्तुमर्हसि॥ मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै॥३४॥ सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया॥ खादंत्येनं वृका गृधास्त्वत्प्रसादस्य नास्पदम्॥३५॥ उर्वश्युवाच॥ मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाऽद्युर्वृका इमे॥ क्वापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा॥३६॥ स्त्रियो ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः॥घ्नंत्यल्पार्थेऽपि विस्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत॥॥३७॥ विधायालीकविस्रंभमज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः॥ नवंनवमभीप्संत्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः॥३८॥

प्रसन्नताका पात्र न होनेसे भेडिये और गिद्ध इसको भक्षण कर जायॅगे॥३५॥ राजाके यह वचन सुनकर उर्व्वशी बोली कि, हे राजन्!मरो नहीं तुम पुरुष हो धैर्य धारण करो। यह भेडिये अथवा प्रसिद्ध इन्द्रियें तुमको भक्षण न करैं अर्थात् तुम इंद्रियोंके वश मत होओ। हे राजन्! कहींभी स्त्रियोंकी मित्रता नहीं स्थिर होती क्योंकि इनका हृदय भेडियेकी समान होताहै॥३६॥ स्त्रियोंको स्वभावसेही करुणा नहीं होती, यह क्रूर और शान्तिरहित कहलाती हैं। अपने प्रीतमके लिये साहस करती हैं। थोडीसी बातके लिये यह विश्वासघातिनी पति अथवा भ्राताको प्राणोंसे मार डालती है॥३७॥ अधिक करके जो पुॅश्चली अर्थात् व्यभिचारिणी हैं। इच्छानुसार घूमती हैं वह तो सौहार्दको एक साथ ही छोड़ देती हैं। वह अज्ञानी पुरुषके

सामने बाहरी और अलीक प्रेम प्रकट करती हैं॥३८॥ जब राजाने बहुत विनती की, तब उर्वशी बोली कि, वर्षके अन्तमें तुम मेरे साथ एकदिन विहार कर सकोगे। और उससे ही तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होगे॥३९॥ उसके उपरान्त राजा पुरूरवा देवी उर्वशीको गर्भवती देख उसके वचन मान अपने नगरको चला आया परंतु वर्षके व्यतीत होनेपर फिर वहॉपर आया जहाँ कि, पहले उर्वशी से भेंट हुई थी. वीर प्रसविनी उर्वशीको देखकर राजाको परम हर्ष हुआ। और प्रमुदितचित्तसे उर्वशीके पास एक रात बासकिया॥४०॥ फिर वियोगके भयसे राजाका चित्त व्याकुल हुआ।उर्वशी दीन राजाको विरहातुर देखकर कृपा करके बोली हे राजन्! हमारे लिये शोक क्यों करते हो? गंधर्वलोगोको विनय करों। वह गन्धर्वगण प्रसन्न होकर हमको सदाके लिये तुम्हैं देदेंगे॥४१॥ हे परीक्षित! उर्वशीके यह वचन

संवत्सरांते हि भवानेकरात्रं मयेश्वर॥ वत्स्यत्यपत्यानि च ते भविष्यत्यपराणि भोः॥३९॥ श्रीशुक उवाच॥ अंतर्वत्नीमुपालभ्य देवींप्रययौ पुरम्॥ पुनरतत्र गतोऽब्दांतेउर्वशीं वीरमातरम्॥४०॥ उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तयाऽनिशम्॥ अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम्॥४१॥ गंधर्वानुपधावेमांरतुभ्यं दास्यंति मामिति॥ तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप॥उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन्वने॥४२॥ स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि॥ त्रेतायां संप्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत॥४३॥ स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः॥ तेन द्वेअरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया॥४४॥

सुनकर राजा पुरूरवाने गन्धर्वोंकी बड़ी स्तुति की कि, जिससे गन्धर्वगण बहुत ही शीघ्र प्रसन्न होगये उन्होने प्रसन्न होकर राजाको अग्नि स्थाली (टोकनी) दी। उसके देनेका तात्पर्य यह था कि, जब इससे अग्निकर्म किया जायगा, तबहीं उर्वशी प्राप्त हो जायगी। परंतु राजा पुरूरवाने उस अग्निस्थालीकोही उर्वशी समझा और उसको काँखमें दबाये वन वनमें घूमता फिरा। परन्तु फिर राजाका भ्रम दूर हो गया, अर्थात् यह समझलिया कि, यह उर्वशी नहीं किन्तु अग्निस्थाली है॥४२॥ उसके उपरान्त इस अग्निस्थालीको वनमें डालकर घर आया और घरमें आय नित्य रात्रिके समय उर्वशीका ध्यान करने लगे। तिससे त्रेतायुगके आरंभके समय राजाके हृदयमें कर्मबोधक तीन वेद उत्पन्न हुये॥४३॥ उसके पीछे राजा फिर वहींपर गया कि, जहॉ अग्निस्थाली पड़ी थी। और देखा कि, शमीवृक्षके गर्भमें एक चलद्रोणीका पेड

जमा है उसमें अग्निका होना भली भाँतिसे देख उर्वशीलोककी कामनासे उस राजाने उस चलद्रोणीके पेड़से दो अरणी बनाई। और उस अग्निको मथा; हे राजन्! राजा पुरूरवाने किस प्रकारसे अरणियोंसे अग्नि निकाली, सो तुम सुनो। मंत्रके अनुसार नीचेकी अरणीको उवशी और उत्तरकी अरणीको आत्मा समझकर और इन दोनोंमें जो काठका टुकड़ा था, उसका यह राजा पुत्रकी भांति ध्यान करने लगे॥४४॥४५॥ जैसेही वह अरणी मथीगई कि, उनमेंसे अग्नि निकली यह अग्नि साधारण नहीं। इससेही भोज्यधन जन्म लेता है उसके पीछे वह अग्नित्रयीविद्याकी विधिके अनुसार कहे हुये संस्कारसे त्रिवृत अर्थात् आहवनीयादि त्रिरूप हुई। फिर राजाने उस त्रिवृत अग्निको अपना पुत्र कहकर मान॥४६॥ और उर्वशीलोककी कामना करके उस अग्निसे सर्वदेवमय यज्ञेश भगवान् वासुदेवका यज्ञ इस राजाने किया॥४७॥ हे राजन्!पहले सत्ययुगमें सब प्रकारके वाक्योका बीजभूत

उर्वशीं मंत्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम्॥ आत्मानमुभयोर्मध्ये यत्तत्प्रजननं प्रभुः॥४५॥ तस्य निर्मंथनाज्जातो जातवेदा विभावसुः॥ त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत्॥४६॥ तेनायजत यज्ञेशं भगवंतमधोक्षजम्॥ उर्वशीलोकमन्विच्छन्सर्वदेवमयं हरिम्॥४७॥ एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः॥ देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च॥४८॥ पुरूरवस एवासीत्त्रयी त्रेतामुखे नृप॥ अग्निना प्रजया राजा लोकं गांधर्वमेयिवान्॥॥४९॥ इति श्रीमद्भागवते महा० नवमस्कंधे सोमवंशचरिते ऐलोपाख्याने चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ श्रीशुक उवाच॥ ऐलस्य चोर्वशीगर्भात्षडासन्नात्मजा नृप॥ आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः॥१॥

ओंकारही एक मात्र वेद था, नारायणही अकेले देवता थे। अग्निही अकेला लौकिक था वर्णभी एकही था और अग्निभी एकही था॥४८॥ फिर त्रेतायुगके आरम्भमें पुरूरवासे तीन वेद उत्पन्न हुये।इसलिये इस युगमें यह राजा अग्रिरूप प्रजाद्वारा गंधर्वलोकको प्राप्त होकर उर्वशीके साथ विहार करने लगा। सत्ययुगमें सब ही पुरुष सत्त्वगुणप्रधान थे. इसलिये सबही ध्याननिष्ठ हुआ करते थे. उसके पीछे रजोगुणप्रधान त्रेतायुगमें वैदादिके विभागसे कर्ममार्ग प्रकाशित हुआ है॥४९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायाम् ऐलोपाख्यानवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा—पुरूवाके वंशमें, भये गाधि गम्भीर॥ ता दौहित्रके पुत्र भे, परशुराम रणधीर॥१॥ इसके उपरांत श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे परीक्षित्!राजा पुरूरवाके उर्वशीके गर्भसे ६ पुत्र उत्पन्न हुये जिनके नाम यह हैं। आयु, श्रुतायु, सत्यायु, स्य, विजय और जय॥१॥

इनमें श्रुतायुके वसुमान्, सत्यायुके श्रुतञ्जय हुआ, रयका पुत्र एकनामा हुआ। जयकी संतान अमित हुई॥२॥ विजयका पुत्र भीम हुआ भीमका पुत्रकाञ्चन और काञ्चनके होत्रक जन्मा। इस होत्रकके उन जह्नुका जन्म हुआ कि जिन्होने एकही घूंटमें सब गंगाजीका जल पान कर लियाथा जह्नुके पुरु जन्मा उसका बलाक तिसका बेटा अजक॥३॥ अजकके यहाॅ कुशने जन्म लिया। कुशके कुशाम्बु, मूर्तय, वसु और कुशनाभ यह चार पुत्र

श्रुतायोर्वसुमान्पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतंजयः॥ रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः॥२॥ भीमस्तु विजयस्याथ कांचनो होत्रकस्ततः॥ तस्य जह्नुसुतो गंगां गंडूषीकृत्य योऽपिबत्॥ जह्नोस्तु पूरुस्तत्पुत्रो बलाकश्चात्मजोऽजकः॥॥३॥ ततः कुशः कुशस्यापि कुशांबुर्मूर्तयो वसुः॥ कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत्कुशांबुजः॥४॥ तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीकोऽयाचत द्विजः॥ वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत्॥५॥ एकतः श्यामकर्णानां हयानां चंद्रवर्चसाम्॥ सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम्॥॥६॥

हुए उनमेंसे कुशाम्बुके गाधिने जन्म ग्रहण किया *॥४॥ इन गाधिके सत्यवती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। ब्राह्मण ऋचीकने राजा गाधिसे उसकन्याको माँग लियाथा। तब राजा गाधिने कन्याके योग्य यह वर न विचार कर निवेदन किया॥५॥ हे महाराज! जिनका दाॅयाँ अथवा बाँयाँ एक ओरका कान श्यामवर्ण हो और जिनके सब अंगोंमें चन्द्रमाकी समान ज्योति हो ऐसे एक सहस्र घोड़े तुम हमें इस कन्याके मूल्यमें दो

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* शंका—पुत्र होनेके लिये सब राजा लोग यज्ञ किया करते थे परन्तु राजा गाधिने पुत्र होनेके लिये यज्ञ क्यों नहीं किया? क्योंकि राजा गाधिकी स्त्रीने पुत्र होनेके लिये अपने जामातृसे याचना की थी, यह सन्देह हमारा निवारण करो?॥

उत्तर—राजा गाधि नित्यप्रति यही चिन्ता करते थे कि, किसीसमय पुत्र होनेके लिये यज्ञ करैंगे, यही विचार करते करते बहुत दिन बीतगये, तबतक ऋचीक नाम भृगुवंशमें तपस्वी था. उसके संग राजा गाधिने अपनी सत्यवती कन्याका विवाह करदिया, तब रानी अपने जामातृ (जमाई) को सिद्ध समझकर, और अधिक अवस्था समझकर, पुत्रकी याचना करनेलगी, रानीने अपने मनमें विचारा कि, राजा यज्ञ करनेके लिये अभी विचारही रहाहै परंतु अभी यज्ञ करता नहीं, इसलिये रानीने जामातृसे पुत्र होनेकी याचना की, कि राजा यज्ञ करैवा न करै॥

तब हम तुम्हें यह कन्या दें।कुछ इन हजार घोड़ोंको आप अधिक न समझें, क्योंकि हम कुशिकके वंशमें उत्पन्न हुए हैं॥६॥ हे राजन्! ऋचीक मुनि राजाके ऐसे वचन सुनकर सब अभिप्राय जान वरुणजीके निकट उसीसमय चलेगये और वहॉसे एक हजार घोड़ोंको लाकर उस श्रेष्ठ मुखवाली कन्यासे विवाह किया॥७॥ कुछ कालके पीछे ऋचीक मुनिकी भार्या और सासने पुत्रकी कामना करके इन ऋचीकसे प्रार्थना की तब इस ऋषिने अपनी भार्याके लिये ब्रह्ममन्त्रसे और सासके लिये क्षत्त्रिय मन्त्रसे चरु पकाय स्नान करनेको गये॥८॥ उसी सत्यवतीकी माताने मनमें विचारा कि, भार्याके ऊपर पतिका अधिक स्नेह हुआ करताहै जामाता मेरी कन्याके लिये जो चरु बनायकर गयेहैं वह अवश्यही हमारे

इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणांतिकम्॥ आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम्॥७॥ स ऋषिः प्रार्थितः पत्न्या श्वश्र्वाचापत्यकाम्यया॥ श्रपयित्वोभयैर्मत्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः॥८॥ तावत्सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती॥ श्रेष्ठं मत्वा तयाऽयच्छन्मात्रे मातुरदत्स्वयम्॥९॥ तद्विज्ञाय मुनिः प्राह पत्नी कष्टमकारषीः॥ घोरो दंडधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः॥१०॥ प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूदिति भार्गवः॥ अथ तर्हि भवेत्पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत्॥११॥ सा चाभूत्सुमहापुण्या कौशिकी लोकपावनी॥ रेणोः सुतां रेणुकां वै जमग्निरुवाह याम्॥१२॥

चरुसे श्रेष्ठ होगा। यह सोच विचार इसने अपनी कन्यासे वह चरु माॅगा जो कि, ऋषि इस अपनी भार्याके लिये बनागये थे। सत्यवतीने माताकी प्रार्थनासे ब्रह्ममन्त्रयुक्त अपना चरु उसको देदिया और आपने क्षत्त्रिय मंत्रका पढ़ा हुआ चरु भक्षणकिया॥९॥ इसके उपरान्त जब मुनिनेआकर यहबात जानली तब अपनी स्त्रीसे बोले! “बडा नीचकर्म किया, चरुका अदल बदल करनेसे तुम्हारा पुत्र घोर दण्डधारी होगा।और तुम्हारा भ्राता ब्रह्मचारी होगा”॥१०॥ यह सुन सत्यवती अत्यन्तभीत हो अनेक भाॅतिकी अनुनय विनय कर ऋषिसे बोली कि, महाराज! “ऐसा न हो” तब भार्गव प्रसन्न होकर बोले कि, तुम्हारा पौत्र भयंकर होगा! हे राजन्! तिसके पीछे सत्यवतीके जमदग्नि नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥११॥ हे राजन्! उसके वह सत्यवती अबला लोकपावनी महा पुण्यमय कौशिकी नदी होकर बही हैं हे परीक्षित्! इन महर्षि जमदग्निने रेणुकी कन्या रेणुकासे विवाह किया॥१२॥

उस रेणुकाके गर्भसे इन ऋषिके वसुमानादि बहुत पुत्र उत्पन्न हुये इनके सब पुत्रोंमें छोटे परशुराम हुए॥१३॥ प्राचीन कविलोग इनको भगवान् वासुदेवका अंश और हैहय नामक्षत्त्रिय कुलका अन्त करनेवाला कहते हैं। इन परशुरामजीने पृथ्वीको इक्कीसवार क्षत्त्रियहीन किया था॥१४॥ पहले क्षत्त्रियजातिके लोग रजोगुणसे व तमोगुणसे परिपूर्ण हो गर्वकारी और वेदविरुद्धाचारी हुए। इसलिये यह पृथ्वीपर भारकी नाई होगये थे, यद्यपि अपराध इनका थोड़ा था, तौभी परशुरामजीने इनको मारही डाला॥१५॥ यह सुनकर राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! अजितेन्द्रिय क्षत्त्रिय जातिने भगवान् परशुरामजीका ऐसा क्या अपराध किया था कि, जिससे उनका क्रोधानल बारम्बार

तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः॥ यवीयाञ्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः॥१३॥ यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलांतकम्॥ त्रिस्सप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्त्रियां महीम्॥१४॥ दुष्टं क्षत्त्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्॥ रजस्तमोवृतमहन्फल्गुन्यपि कृतेंहसि॥१५॥ राजोवाच॥॥ किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः॥ कृतं येन कुलं नष्ट क्षत्त्रियाणामभीक्ष्णशः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ हैहयानामधिपतिरर्जुनः क्षत्त्रियर्षभः॥ दत्तं नारायणस्यांशमाराध्य परिकर्मभिः॥१७॥ बाहून्दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु॥ अव्याहतेंद्रियौजश्श्रीस्तेजो वीर्यं यशो बलम्॥१८॥ योगेश्वरत्वमैश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः॥ चचाराव्याहतगतिर्लोकेषु पवनो यथा॥१९॥ स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडन्रेवांभसि मदोत्कटः॥ वैजयंतीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः॥२०॥

क्षत्त्रियकुलके ऊपर पडा था॥१६॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक!इस प्रकार राजा परीक्षित्का प्रश्न सुनकर सहर्ष श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! हैहयोके अधिपति क्षत्त्रियश्रेष्ठ कार्त्तवीर्यार्जुनने सेवाके कर्म्मसे नारायणके अंशके अंश भगवान् दत्तात्रेयकी पूजा करके सहस्र भुजा प्राप्त कीं और इनकेही बलसे यह शत्रुओंपर दुर्द्धर्ष हुए थे। दत्तात्रेयकी सेवासे राजाको अव्याहत इन्द्रियसामर्थ्य, सम्पदा, प्रभाव, वीर्य, बल॥१७॥१८॥ योगेश्वरत्व और जिससे अणिमादिगुण विराजमान रहैंऐसा ऐश्वर्य भी उन्होंने पाया था इसलिये यह राजा पवनकी समान अव्यर्थगतिवाला हो सब लोकोमें विना बाधाके भ्रमण करनेलगा॥१९॥ एक समय यह सहस्रार्ज्जुन वैजयन्ती माला धारणकर बहुतसी

स्त्रियोंके साथ नर्मदानदीके जलमें क्रीडा करने लगा।मदोन्मत्तताके कारण केलि करते करते इसकी हजार बाँहोंसे अचानक नर्मदाकी धार रुकगई॥२०॥ उसी समय राक्षसराज रावण दिग्विजय करनेके लिये बाहर हो माहिष्मतीपुरीके समीप डेरा डाल शिवलिंग स्थापित कर, इस नदीके किनारे उनकी पूजा करता था, जब कार्तवीर्यार्जुनकी भुजाओंसे जलकी धार रुक गई। तब नदीकी धार प्रतिकूल हो नदीके किनारेको डुबाती हुई दूसरी ओरको लौटी। नदीकी धारके जलसे अपने डेरेको डूबता हुआ देखकर अर्जुनके वीर्यको वीर्याभिमानी रावण नहीं सहसका। तब रावणने विहार करतेहुए सहस्रार्जुनको पराजित करनेका उद्योग किया। हे राजन्!जब स्त्रियोंके सामने रावणने इस प्रकारका ढीठपन किया तब सहस्रार्जुनने क्रोधित हो उसको पकड़ लिया और अपने नगरमें बाँधकर ले आया और बंदरकी समान कुछ दिन अपने

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतस्सरिज्जलैः॥ नामृष्यत्तस्य तद्वीर्यं वीरमानी दशाननः॥२१॥ गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः॥ माहिष्मत्यां सन्निरुद्धोमुक्तो येन कपिर्यथा॥२२॥ स एकदा तु मृगयां विचरन्विपिने वने॥ यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत्॥२३॥ तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत्॥ ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः॥२४॥ स वीरस्तत्र तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम्॥ तन्नाऽऽद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः॥२५॥ हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान्हर्तुमचोदयत्॥ ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रंदतीं बलात्॥२६॥

घरमें बाँधा और फिर अवज्ञा कर छोड़ दिया॥२१॥२२॥ जिस प्रकार कार्त्तवीर्यार्जुन अपराधी होकर परशुरामजीके हाथसे मारागया। उसकाभी वर्णन हम करते हैं तुम सुनो। एक समय सहस्रार्ज्जुन मृगयाके लिये विजन वनमें घूमता घूमता अकस्मात् जमदग्निजीके आश्रममें आय पहुँचा॥॥२३॥ मंत्री, सेना, सामन्त और अश्वादि वाहनसहित इस राजाको अपने आश्रममें आया हुआ देखकर जमदग्निऋषिने अपनी कामधेनु गायके द्वारा भलीभाँति इनका अतिथिसत्कार किया॥२४॥ मुनिकी इस धेनुरत्नको अपने ऐश्वर्यमें श्रेष्ठदेखकर इस पहुनईसे सहस्रार्जुनको सन्तोष न हुआ। उसने हैहय लोगोंके साथ परामर्श करके इस गायके ले जानेका अभिलाष किया॥२५॥ इसलिये दर्प करके अपने पुरुषोंको

आज्ञा दी कि, ऋषिके अग्निहोत्रकी गाय लेलो।यह आज्ञा पाय सहस्रार्जुनके सेवक रोती और डकरातीहुई बच्चे सहित उस गायको बलात्कार (जबरदस्ती) पकडकर माहिष्मती नगरीको लेगये॥२६॥ जब राजा गायको लेकर माहिष्मती पुरीको चला आया तब जमदग्निजीके पुत्र परशुरामजी आश्रममें आये। वह इस राजाकी यह दुष्टता सुनकर चोट खायेहुए सर्पकी समान क्रोधाग्निसे जल उठे॥२७॥ उसी समय परशुरामजी घोर परशा हाथमें ले तूणसहित धनुष बाण ले बख्तर पहरकर महाक्रोधित हो उस राजाके पीछे दौडे जैसे सिंह यूथपति हाथीके ऊपर झपटता है॥२८॥ हे राजन्!कार्तवीर्यार्जुन जब अग्निहोत्रकी गाय लेकर अपनी माहिष्मती पुरीमें प्रवेश करनाही चाहता था कि, इतनेहीमें उसने देखा कि, भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी मृगचर्म पहरे बाणादि आयुधसहित धनुष धारण किये महावेगसे आयरहे हैं और

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः॥ श्रुत्वा तत्तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाऽऽहतः॥२७॥ घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम्॥ अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेंद्र इव यूथपम्॥२८॥ तमापततं भृगुवर्यमोजसा धनुर्धरं बाण परश्वधायुधम्॥ ऐणेयचर्मांबरकर्मधामभिर्युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन्॥२९॥ अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभिर्गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः॥ अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणास्ता राम एको भगवानसूदयत्॥३०॥ यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो मनोनिलौजाः परचक्रसूदनः॥ ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकंधरा निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः॥३१॥

सूर्यकी समान प्रकाशमान इनकी जटा इधर उधर छिटकरही हैं॥२९॥ यह देखकर सहस्रार्जुनने भीतहो अपने बचनेके लिये हाथी, घोडे, रथ, पैदल और गदा, असि, बाण, ऋष्टि (अस्त्रविशेष) शतघ्नी और शक्तिसहित सत्रह अक्षौहिणी भयंकर सेना भेजदी।परन्तु परशुरामजीने अकेलेही उस सब सेनाका संहार करडाला॥३०॥ महात्मा परशुरामजीका वीर्य और मन पवनकी तुल्य, इस कारण शत्रुसेनाको नाश करनेके लिये वह अग्निकी समान थे वह अपना परशा चलातेहुए जहाँ जहाँ गये उसी उसी स्थानमें शत्रुसेनाके वीरगण छिन्नबाहु, छिन्नजंघ और छिन्नमुण्ड होकर पृथ्वीपर गिरनेलगे। और उनके अश्व सारथि सबही मारेगये॥३१॥

हैहयपति अर्जुन रणभूमिमें रुधिरकी धारासे कीच उठी देख और परशुरामजीके कुठार व बाण प्रहारसे बर्म, ध्वजा, धनुष, बाण और शरीर छिन्न भिन्न होनेसे प्रायः सबही सेना युद्धमें गिरपड़ी है यह देख क्रोधित हो सहस्रबाहु आपही संग्राममें चलाआया॥३२॥ और परशुरामजीका संहार करनेको अपनी सब भुजाओंसे एकवारही पॉचसौ (५००) धनुषग्रहण कर पॉचसौ पर पॉचसौ तीक्ष्ण बाण चढाकर चलाने लगा। हे राजन्! महा. तेजस्वी परशुरामजी अस्त्रधारियोंमें आगे गिनने योग्य हैं यद्यपि वह एक धनुष चढा रहेथे, तोभी उसी धनुषसे अगणित बाण चलाकर एक साथ अर्ज्जुनके पांचसौ धनुप काट डाले॥३३॥ धनुषोके कटजानेपर अपनी भुजाओसे समर करनेके योग्य अनेक अनेक पर्वत और वृक्ष लेकर

दृष्ट्वा स सैन्यं रुधिरौघकर्दमे रणाजिरे रामकुठारसायकैः॥ विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं निपातितं हैहयमापतद्रुषा॥३२॥ अथार्जुनः पंचशतेषु बाहुभिर्धनुष्षु वाणान्युगपत्स संदधे॥ रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणीस्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत्समम्॥३३॥ पुनः स्वहस्तैरचलान्मृधेंघ्रिपानुंत्क्षिप्य वेगादभिधावतो युधि॥ भुजान्कुठारेण कठोरनेमिना चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव॥३४॥ कृत्तवाहोः शिरस्तस्य गिरेः शृंगमिवाहरत्॥ हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात्॥३५॥ अग्निहोत्रीमुपावत्य सवत्सां परवीरहा। समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत्॥३६॥ स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च॥ वर्णयामास तच्छ्रुत्वा जमदग्निरभाषत॥३७॥ रामराम महाबाहो भवान्पापमकारषीत्॥ अवधीन्नरदेवं यत्सर्वदेवमयं वृथा॥३८॥

महावेगसे रणभूमिमें खड़े हुए परशुरामजीके ऊपर दौड़ा यह देख परशुरामजीने अति पैनी धारवाले कुठारसे सर्पके फणोंकी समान उसकी सब भुजायें काटडालीं॥३४॥ और पीछेसे पर्वतके शिखरकी समान सहस्रबाहुका मस्तकभी काट दिया। हे राजन!सहस्रबाहुके मारेजाने पर उसके दश सहस्र पुत्र भयके मारे भाग गये॥३५॥ इसके उपरान्त परशुरामजी बच्चेसहित उस गायको लेकर आश्रममें आये और शत्रुके हाथमें जानेसे क्लेशित हुई उस गायको लाकर अपने पिताजीको सौपदिया॥३६॥ परन्तु जिस समय परशुरामजीने अपना कियाहुआ कर्म पिता और भ्राताओंसे वर्णन किया, तब मुनिश्रेष्ठ जमदग्निको संतोष नहीं हुआ, और संमोहित विराग दिखाकर बोले॥३७॥ हे राम! हे महाबाहो!

तुम पापकर आये। कैसी खेदकी बात है? नरदेव राजा सर्वदेवमय स्वरूप है उसको तुमने वृथाही मारडाला॥३८॥ हे तात! हम ब्राह्मण क्षमागुणसेही पूजित हुये हैं। यह गुण साधारण नहीं है। इसी गुणसे ब्रह्माजी लोकगुरु हो परमेष्ठी पदको प्राप्त हुयेहैं॥३९॥ हे महाराज!जमदग्नि फिर बोले कि, हे वत्स! क्षमासेही सूर्यसम्बन्धिनी प्रभाकी समान ब्रह्मसम्बन्धिनी श्री शोभायमान होतीहै।और क्षमाशील पुरुषके ऊपर भगवान् वासुदेव शीघ्र ही प्रसन्न होजाते हैं॥४०॥ हे अंग! चक्रवर्ती राजाका वध ब्रह्मवधसे भी भारी है। इसलिये तुम भगवान हरिमें मन लगाय तीर्थसेवा और यम नियमादि द्वारा अपने पापोंका नाश करो॥४१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां परशुरामचरिते हैहयार्ज्जुनवधो नाम

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः॥ यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात्पदम्॥३९॥ क्षमया रोचते लक्ष्मीर्ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा॥ क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वरः॥४०॥ राज्ञो मूर्धाऽवसिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद्गुरुः॥ तीर्थसंसेवया चांहो जह्यंगाऽच्युतचेतनः॥४१॥ इति श्रीमद्भागवते महा० नवमस्कंधे सोमवंशचरिते कार्त्तवीर्यार्जुनवधो नाम पंचदशोऽध्यायः॥१५॥ श्रीशुक उवाच॥ पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनंदन॥ संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत्॥१॥ कदाचिद्रेणुका याता गंगायां पद्ममालिनम्॥ गन्धर्वराजं क्रीडंतमप्सरोभिरपश्यत॥२॥ विलोकयंती क्रीडंतमुदकार्थं नदीं गता॥ होमवेलां न सस्मार किंचिच्चित्ररथस्पृहा॥३॥

पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥ दोहा—सोलहमें जमदग्नि वध, युत सुत कियो हजार॥ परशुराम तासों करत, क्षत्त्रिनको संहार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरुवंशावतंस परीक्षित्!पिताके उपदेशसे परशुरामजी “बहुत अच्छा” कह वनको चलेगये और एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके आश्रममें लौटआये॥१॥ किसी समय जमदग्ननिकी स्त्री रेणुकाने गंगाजीपर जाय वहॉ पद्ममाली गन्धर्वराजाको अप्सराओंके साथ विहार करता हुआ देखा॥२॥ रेणुका जल लानेके लिये गंगाजीपर गई थी, विहार करतेहुये गन्धर्वराजाके देखनेसे रेणुकाने उनकी चाहना की और होमका

समय व्यतीत होगया इसको भी रेणुकाने न जाना*॥३॥ इसके उपरान्त कालको बीतजाताहुआ देख; मुनिसे शापकी आशंक कर वह अत्यन्त भीत हुई। और शीघ्र आय जलकलशको मुनिके आगे रख खड़ी हो गई॥४॥ इधर अपनी भार्याके मानसिक व्यभिचारको जान महर्षि जमदग्निको अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ उन्होंने प्रज्वलित अग्निके समान तीक्ष्ण हो अपने पुत्रोंको पुकारकर यह आज्ञा दी कि, तुम इसी समय अपनी पापिनी माताको मारडालो परन्तु इन पुत्रोंने पिताका वचन नहीं सुना॥५॥ परंतु परशुराम अपने पिताकी समाधि और तपस्या के प्रभावको

कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशंकिता॥ आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृतांजलिः॥४॥

व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत्॥घ्नतैनां पुत्रकाः पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे॥५॥

रामः संबोधितः पित्रा भावन्मात्रा सहावधीत्॥ प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक्समाधेस्तपसश्च यः॥६॥

वरेण च्छंदयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः॥ वव्रेहतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे॥७॥

जानते थे, जब इनसे मुनिने कहा कि, तुम अपने इन भाइयोंको और अपनी माताको मारडालो। तब उन्होने विचारा कि, जो पिताकी आज्ञा उल्लंघन कर इनको नहीं मारता, तो पिताजी क्रोधित होकर हमको शाप देदेंगे और जो हम इनको मारडालेंगे तो कदाचित् हमारे ऊपर प्रसन्न हो यह हमारी माता और भ्राताओंको जिलाभी सक्तेहैं। इसलिये जैसेही पिताने आज्ञा दी वैसेही महात्मा परशुरामजीने माताके सहित अपने भ्राताओंका संहार किया॥६॥ यह देखकर सत्यवतीके पुत्र जमदग्निमुनि परशुरामजीपर अत्यन्त प्रसन्न हुये। और परशुरामजीसे बोले कि, इच्छानुसार वर

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* शंका—रेणुकाकी वृद्धावस्था थी तोभी स्त्रीपुरुषके रतिका आनन्द देखती थी यह बात सन्देह योग्य है? वृद्धावस्थामें विषयकर्मका आनद क्यों देखा?

उत्तर—बाल्यावस्थामें रेणुका अत्यन्त चञ्चल थी और अपने पिता के भवनमें रहती थी तोभी प्रत्येक कार्य चचलपनेके साथ करतीथी, एक दिन बहुतसी सखियोंको सग लेकर स्नान करनेके लिये एक नदीपर गई, एक वृद्ध चिडिया अपने प्रिय पति पक्षीके संग विहार कररही थी उसको देखकर रेणुका बहुत हँसी तब चिडियाने अत्यन्त कुपित होकर शाप दिया कि, हे दुष्टिनी! मैं तो अपने पति के साथ रमण करती हूँ परतु तू वृद्धावस्थामें और दूसरे पुरुषके संग क्रीडा करेगी, सब क्रीडाओंका मूल आँखोंसे देखना है सो क्रीडा तू करेगी इसलिये रेणुकाने वृद्धवस्यामें पाप किया और कुछ दूसरा अन्याय नहीं किया

मॉगो। तब परशुरामजीने यह वरदान चाहा कि, हमारे भ्राता और माता फिर जी जाय? और यह इस बातको भी भूलजायॅ कि, हमने इनको मारा है॥७॥ वैसेही जमदग्निमुनिने वर देकर कहा कि “ऐसाही हो” वैसेही इन मरे हुओंमें प्राण आगया और जैसे सोयाहुआ पुरुष नींदसे उठ बैठता है? वैसे ही यह सब उठ बैठे॥ हे राजन्! यह शंका मत करना कि, परशुरामने ऐसा निन्दित कर्म क्यों किया? यह परशुरामजी अपने पिताके तपबलको भलीभाॅति जानते थे! इसीलिये उन्होंने अपने सुहृदोंको मारड़ा

ला था॥८॥ हे महाराज! इधर कार्त्तवीर्यार्जुनके दश हजार पुत्र परशुरामजीके वीर्यसे पराभव पाय अपने पिताके वधको याद करके कहींभी सुख स्वच्छन्दता पानेकेलिये समर्थ नहीं हुए॥९॥ एक समय

उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवांजसा॥ पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम्॥८॥ येऽर्जुनस्य सुता राजन्स्मरंतः स्वपितुर्वधम्॥ रामवीर्यपराभूता लेभिरे न शमं क्वचित्॥९॥ एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते॥ वैरंसिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन्॥१०॥ दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं मुनिम्॥ भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः॥११॥ याच्यमानाः कृपणया राममात्राऽतिदारुणाः॥ प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्त्रबधवः॥१२॥ रेणुका शोकदुःखार्ता निघ्नंत्यात्मानमात्मना॥ रामरामैहि तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती॥१३॥

परशुरामजी भ्राताओंसहित वनको गये थे। तब कार्तवीयार्ज्जुनके यह सब पुत्र अवसर पाय पिछला वैर लेनेकी इच्छासे परशुरामजीके आश्रममें आये॥१०॥ इन सबने वहाँ आकर देखा कि, परशुरामजीके पिता जमदग्निमुनि भगवान्में चित्त लगाये हुए अग्निशाला में बैठे हुए हैं। यह अवसर पाय इन पापात्माओंने उसी समय इन मुनिको मार डाला॥११॥ परशुरामजीकी माता रेणुका अपने पतिको मरा हुआ देख अतिदीन हो अपने पतिके प्राणोंकी भिक्षा चाहने लगी परन्तु तोभी इन निठुर क्षत्रियोंको दया न आई और बलपूर्वक रेणुकाके केश पकड़कर ले गये॥॥१२॥ तब परशुरामजीकी माता पतिशोकसे आर्त हो अपनी छाती पीटती हुई “हा राम! हा राम!! हा तात! हा तात!!” कह बड़े जोरसे रोनें और

विलाप करने लगी॥१३॥ दूरसे “हा राम!” की पुकार और आर्त वाणी सुनकर वीर्यवान् परशुरामजी भ्राताओंसहित अति शीघ्र अपने आश्रममें आये और वहां देखा कि, पिता मृतक हुए पडे हैं॥१४॥ पिताको मृतक देख सब भाइयोंको ऐसा दुःख, शोक, क्रोध, झुंझलाहट और पीडा, उत्पन्न हुइ कि, सबके वेगसे सब मोहितसे होगये इसके उपरान्त महात्मा परशुरामजी “हा तात! हा साधो!हा धार्मिक!” हमको छोड़कर आप स्वर्गको चलेगये॥१५॥ इस प्रकार विलाप करनेलगे। और पिताके मृतक देहको अपने भाइयोंके निकट रखकर भयंकर परशा लिये मनमें विचारने लगे कि, अब हम क्षत्रियोंके वंशको ध्वंस करदेंगे॥१६॥ हे राजन्!परशुरामजीने अतिशीघ्र माहिष्मती पुरीमें जाय उसके बीचमें

तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा रामेत्यार्तवत्स्वनम्॥ त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं हतम्॥१४॥ तद्दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः॥ हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वाऽस्मान्स्वर्गतो भवान्॥१५॥ विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम्॥ प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्त्रांताय मनो दधे॥१६॥ गत्वा माहिष्मतींरामो ब्रह्मघ्नं विहतश्रियम्॥ तेषां स शीर्षभी राजन्मध्ये चक्रे महागिरिम्॥१७॥ तद्रक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहम्॥ हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्त्रे मंगलकारिणि॥१८॥ त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्त्रियां प्रभुः॥ स्यमंतपंचके चक्रे शोणितोदान्ह्रदान्नव॥१९॥ पितुः कायेन संधाय शिर आदाय बर्हिषि॥ सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः॥२०॥

अर्ज्जुनपुत्रोंके मस्तक काट काटकर एक बडा भारी पर्वत बनाया॥१७॥ जब वह सहस्रार्ज्जुनके पुत्र ब्रह्महत्या कर आये थे। तबहीं इस माहिष्मती पुरीकी शोभा जाती रही थी। मध्यस्थानमें मुण्डमय पर्वतके होनेसे वह पुरी औरभी भयानक हो गई। फिर तेजस्वी परशुरामजीने उस कार्तवीर्यार्ज्जुनके पुत्रोंके रुधिरसे एक नदी उत्पन्न की, वह नदी ब्रह्मद्वेषियोंको अत्यन्त भयकी देनेवाली हुई॥१८॥ इसके उपरान्त क्षत्त्रियजातिको अन्यायके वश हुआ देख पिताके वधका हेतु कर परशुरामजीने* इक्कीसवार पृथ्वीको क्षत्त्रियहीन किया और स्यमन्तपञ्चकस्थानमें रुधिरके नौ कुण्ड भरदिये॥१९॥ उसके पीछे परशुरामजीने अपने पिताका शिर उनकी देहसे लगाय, कुशोंके ऊपर रख विविध

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* प्रश्न—परशुरामजीने इक्कीसवार क्षत्रियोंको क्यों मारा था.।

उत्तर— रेणुकाने सहस्रार्ज्जुनके पुत्रोंकी दुष्टता देख दुःखके मारे इक्कीस बार अपनी छातीको कूटा था इसलिये महात्मा परशुरामजीने इक्कीस बार क्षत्रियोंका नाश किया॥

यज्ञोंसे सर्व देवमय आत्मा ईश्वर की पूजा की॥२०॥ उस यज्ञमें होताको पूर्वदिशा, ब्रह्माको दक्षिणदिशा, अध्वर्य्युको पश्चिमदिशा और उद्गाताको उत्तरदिशा दक्षिणामें देदी।अवान्तर दिशायें और दूसरे ऋत्विक् लोकोंको देदीं मध्यस्थल कश्यपजीको दान करदिया। फिर उपद्रष्टाको आर्यावर्त देश दक्षिणामें देकर सभासदोंकोभी यथायोग्य भूमि दक्षिणामें देदी॥२१॥२२॥ उसके पीछे महानदी सरस्वतीमें जाकर यज्ञान्त स्नान कर अनन्तपापोंको दूरकर बादल रहित सूर्यके समान आकाशमें विराजमान होने लगे॥२३॥ इस ओर महामुनि जमदग्नि परशुरामजीसे पूजित होनेके कारण स्मृतिही जिसका शरीर है ऐसे अपने शरीरको प्राप्तकर सप्तर्षि मण्डलमें जाय सप्तऋषि हुये॥२४॥ हे राजन्! कमललोचन जमदग्निके

ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्॥ अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम्॥२१॥ अन्येभ्योऽवांतरदिशः कश्यपाय च मध्यमाम्॥ आर्यावर्तमुपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम्॥२२॥ ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः॥ सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यांरेजे व्यभ्र इवांशुमान्॥२३॥ स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम्॥ ऋषीणां मंडले सोऽभूत्सप्तमो रामपूजितः॥२४॥ जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः॥ आगामिन्यंतरे राजन्वर्तयिष्यति वै बृहत्॥२५॥ आस्तेऽद्यापि महेंद्राद्रौ न्यस्तदंडः प्रशांतधीः॥ उपगीयमानचरितः सिद्धगंधर्वचारणैः॥२६॥ एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान्हरिरीश्वरः॥ अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन्बहुशो नृपान्॥२७॥ गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः॥ तपसा क्षात्त्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम्॥२८॥

सुत भगवान् परशुरामजीभी आगामी मन्वन्तरमें वेदका प्रचार करेंगे अर्थात् वहभी वेदका प्रचार करनेवाले सप्तर्षियोंमेंसे एक होंगे॥२५॥ वह परशुरामजी दण्ड छोड शान्त चित्तसे अबतक महेन्द्र पर्वतपर विराजमान हैं। सिद्ध चारण और गंधर्वगण सदा उनके विचित्र चरित्रको गाया करते हैं॥२६॥ हे राजन्! इस प्रकारसे भगवान् विश्वात्मा ईश्वर हरिने भृगुकुलमें अवतार ले अनेकवार क्षत्रियोंका संहार कर भूमिका भार उतार दिया॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!अब आगे सुनो। गाधिके प्रकाशमान अग्नितुल्य महातेजस्वी विश्वामित्रजी उत्पन्न हुए।

हे राजन्!यह तपके प्रभावसे क्षत्रीपन छोड़ ब्राह्मण होगये॥२८॥ हे महाराज! इन तेजस्वी विश्वामित्रजीके एक शत पुत्र उत्पन्न हुए तिनमें यद्यपि केवल मध्यमपुत्रका नाम मधुच्छन्द था, तोभी सब पुत्रही मधुच्छन्दस कहे जाते थे॥२९॥ महर्षि विश्वामित्रजीने अजीगर्त्तके पुत्र शुनःशेपको भृगुवंशीय देवरात नामक पुत्र करके अपने सब पुत्रोंसे कहा था कि, तुम सब इनको अपना बड़ा भाई समझना॥३०॥ हे राजन्! इस शुनःशेपके पिता अजीगर्त्तने महाराजा हरिश्चन्द्रके यज्ञमें पशु बनानेके लिये मध्यम समझ, ममता छोड़ बेचदिया था परन्तु यह पुरुषपशु (शुनःशेप) प्रजेशादि वरुणादि देवता लोगोकी स्तुति करके पाशबंधनसे छूट गया॥३१॥ वह देवतालोगोंको रात (प्रदत्त) होनेसे गाधिवंशमें

विश्वामित्रस्य चैवासन्पुत्रा एकशतं नृप॥ मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छंदस एव ते॥२९॥ पुत्रं कृत्वा शुनश्शेपं देवरातं च भार्गवम्॥ आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम्॥३०॥ यो वै हरिश्चंद्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः॥ स्तुत्वा देवान्प्रजेशादीन्मुमुचे पाशबंधनात्॥३१॥ यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः॥ देवरात इति ख्यातः शुनश्शेपःस भार्गवः॥३२॥ ये मधुच्छंदसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत्॥ अशपत्तान्मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः॥३३॥ स होवाच मधुच्छंदाः सार्धं पंचाशता ततः॥ यन्नो भवान्संजानीते तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम्॥३४॥ ज्येष्टं मंत्रदृशं चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि॥ विश्वामित्रः सुतानाह वीरवंतो भविष्यथ॥ ये मानं मेऽनुग्रह्णंतो वीरवंतमकर्त माम्॥३५॥

देवरात नामसे प्रसिद्ध हुआ। परन्तु भृगुवंशमें उसका नाम शुनःशेपथा॥३२॥ विश्वामित्रके मधुच्छन्द नामक जो पचास पुत्र बड़ेथे, उन्होंने शुनःशेपको बड़ा माननेमें अपना भला न समझा, इसलिये क्रोधित होकर विश्वामित्रजीने अपने पुत्रोको यह शाप दिया कि, तुम अतिदुर्जन हो आजसे म्लेच्छ होजाओगे॥३३॥ इसके उपरान्त मध्यमपुत्र मधुच्छन्दने अपने पचास छोटे भाइयो के साथ पिताके पास आनकर कहा कि “आप हमारे पिता हैं” हमको बडाई अथवा छुटाई जिसकी भी आज्ञा देंगे हम वही स्वीकार करैंगे॥३४॥ कहकर इन्होंने मंत्रदर्शी शुनःशेपको अपना बड़ा भ्राता बनाया और सब एकवचन होकर बोले कि “हम सबही तुम्हारे अनुगामी अर्थात् छोटे भाई हुए” यह सुनकर

विश्वामित्रजी प्रसन्न हो अपने इन पुत्रोंसे बोले कि, तुमने हमारे मानको रखकर हमको पुत्रवान् किया इससे हमको बहुत सन्तोष हुआ और हम सन्तुष्ट होकर तुमको यह वर देते हैं कि, तुम लोग पुत्रवान होगे॥३५॥ हे कुशिकगण! यह देवरात भी तुम्हारा कौशिक गोत्री है, क्योंकि यह हमारा पुत्र हुआ है। इसलिये तुम इसके अनुगामी होओ। हे राजन्!इन पुत्रोंके अतिरिक्त विश्वामित्रजीके अष्टक, हारीत, जय, क्रतुमदादि औरभी अनेक पुत्र हुए थे॥३६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन! इस प्रकार अनुगृहीत हुए और एक पुरुषको पुत्र मानलेनेसे विश्वामित्रके पुत्रोंसे कौशिक अनेक प्रकारका होगया अर्थात् कुछ अभिशप्त और कुछेक प्रवरान्त प्राप्त हुए। वस देवरातको सबसे बड़ा माननेहीका यह

एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित॥ अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः॥३६॥ एवं कौशिकगोत्रं तु वैश्वामित्रः पृथग्विधम्॥ प्रवरांतरमापन्नंतद्धिचैवं प्रकल्पितम्॥३७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे परशुरामकृतक्षत्त्रवधविश्वामित्रान्वययोर्वर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ यः पुरूरवसः पुत्र आयुस्तस्या भवन्सुताः॥ नहुषः क्षत्त्रवृद्धश्चरजी रंभश्च वीर्यवान्॥१॥ अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्त्रवृधोऽन्वयम्॥ क्षत्त्रवृद्धसु तस्यासन्सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः॥२॥ काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत्॥ शुनकश्शौनको यस्य बृह्वचप्रवरो मुनिः॥३॥ काश्यस्य काशिस्तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमाः पिता॥ धन्वंतरिर्दैर्घ्यतम आयुर्वेदप्रवर्तकः॥४॥

बीज हुआ॥३७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां परशुरामचरितवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा—सत्रहमें पुरूरवाको, ज्येष्ठ पुत्र भयो आय। ताके पाॅचो सुतनको, सकल वंश कहो गाय॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोलेकि, हे नृपश्रेष्ठ परीक्षित्!पुरूरवाके * आयु नामक जो पुत्र हुआथा उसके पाॅच पुत्र हुए नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, रम्भ और अनेना इनके नाम थे। उनमें क्षत्रवृद्धके वंशका वृत्तान्त अब कहताहूं तुम श्रवण करो॥१॥२॥ क्षत्रवृद्धके पुत्र सुहोत्र, सुहोत्रके काश्य, कुश और गृत्समद यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए तिनमेंसे गृत्समदके शुनक उत्पन्न हुआ। उस शुनकसे ऋग्वेदियोमें श्रेष्ठ शौनक मुनि हुए॥३॥ काश्यका पुत्र काशी, उसका पुत्र राष्ट्र और बेटा तिसका दीर्घतमा, दीर्घतमाके पुत्र धन्वन्तरी

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* इस स्थानमें श्रीकृष्णावतारका प्रस्ताव करनेके लिये सक्षेपसे वंशका वर्णन किया जाता है। जिसके वंशमें स्वय भगवान् अवतार लेंगे। इस वंशका वर्णन पीछेसे विस्तार सहित किया जायगा। इसलिये पुरूरवाके पाँच पुत्रोंमेंसे छोटे पुत्रका वर्णन करके अब ज्येष्ठके वंशका वर्णन करते हैं॥

हुए कि, जिन्होंने आयुर्वेदका प्रचार किया यह धन्वन्तरि यज्ञभोगी भगवान्के अंश स्मरण करतेही रोग क्लेशका भय नाश करते हैं इन धन्वन्तरिजीका पुत्र केतुमान, केतुमानका पुत्र भीमरथ॥४॥५॥ उससे दिवोदासकी उत्पत्ति हुई इनके पुत्र द्युमान जो कि, प्रतर्दन भी कहाये जाते थे। और शत्रुजित, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्व भी यही कहाते थे इस द्युमानके अलर्कादि अनेक पुत्र उत्पन्न हुए॥६॥ उनमेंसे अलर्कने साठ सहस्र साठसौ अर्थात् छासठ (६६०००) सहस्रवर्षतक युवा अवस्था रखकर राज्यभोग किया था। हे राजन्! अलर्कके अतिरिक्त किसी युवाने इतने कालतक पृथ्वीका भोग नहीं किया॥७॥ इस अलर्कसे संतति नामवाले राजाकी उत्पत्ति हुई, उसका पुत्र सुनीथ,

यज्ञभुग्वासुदेवांशस्स्मृतमात्रार्तिनाशनः॥ तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः॥५॥ दिवोदासो द्युमांस्तस्मात्प्रतर्दन इति स्मृतः॥ स एव शत्रुजिद्वत्स कृतध्वज इतीरितः॥ तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः॥६॥ षष्टिवर्षसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च॥ नालर्कादपरो राजन्मेदिनीं बुभुजे युवा॥७॥ अलर्कात्संततिस्तस्मात्सुनीथोऽथ सुकेतनः॥ धर्मकेतुः सुतस्तस्मात्सत्यकेतुरजायत॥८॥ धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात्सुकुमारः क्षितीश्वरः॥ वीतिहोत्रस्य भर्गोऽतो भार्गभूमिरभून्नृपः॥९॥ इतीमे काशयो भूपाः क्षत्त्रवृद्धान्वयाऽयिनः॥ रंभस्य रभसः पुत्रो गंभीरश्चा क्रियस्ततः॥१०॥ तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे शृणु वंशमनेनसः॥ शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात्त्रिककुद्धर्मसारथिः॥११॥

सुनीथका पुत्र निकेतन, निकेतनका पुत्र धर्मकेतु और धर्मकेतुसे सत्यकेतुने जन्मग्रहण किया॥८॥ सत्यकेतुके पुत्र धृष्टकेतु, उसके कुमार उत्पन्न हुए। उनका पुत्र वीतहोत्र, इनके सुतभर्ग और इनके पुत्र भार्गभूमि॥९॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित्!यह सब नरेश काशिवंशीय हुये यह काशिके परदादा क्षत्त्रवृद्ध वंशके अनुगामी थे हे परीक्षित! अब रम्भके वंशका वर्णन करते हैं आप सावधान हो चित्त लगाय सुनिये। रम्भका पुत्र रभत, उसका पुत्र गम्भीर उससे अक्रियकी उत्पत्ति हुई॥१०॥ अक्रियका पुत्र ब्रह्मवित् हुआ। अब अनेनाके

वंशका वर्णन करते हैं अनेनाका पुत्र शुद्ध हुआ उसके शुचि उत्पन्न हुआ। शुचिके त्रिककुद, उनसे धर्मसारथि॥११॥ इसके पुत्र शान्तरय जो कि, बड़े जितेन्द्रिय और ज्ञानी थे। इसलिये उन्होंने कोई पुत्रभी उत्पन्न नहीं किया हे महाराज! रजिके अत्यन्त बलशाली पांच सौ (५००) पुत्र हुए॥१२॥ एक समय जब देवतालोगोंने प्रार्थना की तब इस रजिने दैत्योंका संहार करके इन्द्रपुरी देवतालोगोंको देदी देवताओंने राजा रजिको पुनः लौटाकर देदी॥१३॥ राजा रजिकी मृत्यु होनेपर देवराज इन्द्रने जब उनके पुत्रोसे स्वर्गपुरी मांगी, तब उनके पुत्रोंने नहीं दी। और

ततश्शांतरयो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान्॥ रजेः पंचशतान्यासन्पुत्राणाममितौजसाम्॥१२॥ देवैरभ्यर्थितो दैत्यान्हत्वेंद्रायाददाद्दिवम्॥ इंद्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः॥१३॥ आत्मानमर्पयामास प्रह्रादाद्यरिशंकितः॥पितर्युपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः॥१४॥ त्रिविष्टपं महेंद्राय यज्ञभागान्समाददुः॥ गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित्तनयान्रजेः॥१५॥ अवधीद् भ्रंशितान्मार्गान्न कश्चिदवशेषितः॥ कुशात्प्रतिः क्षात्त्रवृद्धात्संजयस्तत्सुतो जयः॥१६॥ ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः॥ सहदेवस्ततोऽहीनो जयसेनस्तु तत्सुतः॥१७॥

आपही स्वर्गपति होकर यज्ञका भाग लेनेलगे इसीलिये देवगुरु बृहस्पतिजीने रजिके पुत्रोंकी बुद्धिका नाश करनेके लिये अभिचार विधानसे अग्निमें होम किया॥१४॥१५॥ उससे शीघ्रही रजिके सब पुत्र नीतिमार्गसे भ्रष्ट होगये। और फिर देवराज इन्द्रने सरलतासे उन सबको मारडाला, कोई शेष न रहा * हे राजन्! क्षत्रवृद्धका पोता कुश, उसका पुत्र प्रति, प्रतिका पुत्र संजय, संजयका पुत्र जय॥१६॥ जयका पुत्र कृत और उसका पुत्र हर्यवन राजा हुआ हर्यवन राजाका पुत्र सहदेव उसका पुत्र अहीन और अहीनका पुत्र जयसेन हुआ॥१७॥

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* शंका—बृहस्पतिजी अग्निमें किस वस्तुका होम करते थे? जिस बीजके होमके प्रतापसे रजिराजाके पुत्रोंको इन्द्रने मारडाला?

उत्तर—रक्षा करनेवाले जो परमरक्षक बृहस्पतिजी थे, सो राजा रजिके पुत्रोंको तेज मन्त्रसे अग्निमें होम करते थे, इसीकारण राजा रजिके तेजहीन होगये, तब राजा रजिके पुत्रोंको इन्द्रने मारडाला॥

जयसेनका पुत्र संस्कृति उनका पुत्र जय, जयके क्षत्रधर्म और क्षत्रधर्मके महारथ हुआ यह सब भूपाल क्षत्रवृद्धके वंशमें उत्पन्न हुये थे। अब आगे नहुषसे वंशका वृत्तान्त हम तुमसे वर्णन करते हैं तुम चित्त लगाय सावधान होकर श्रवण करो॥१८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां क्षत्त्रवृद्धवंशानुवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ दोहा—अट्ठारहमें नहुष सुत, भयो ययाति जुझार। षट पुत्र तिनके भये, तिनमें छोट उदार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!जैसे शरीरके छः इन्द्रियें होती हैं, इसी प्रकारसे नहुष राजाके य^(१)ति-यया^(२)ति-संया^(३)ति-आय^(४)ति-विय^(५)ति और कृ^(६)ति नामक छः (६) पुत्र उत्पन्न हुए॥१॥ इनमेंसे यति राजाका परिणाम अर्थात् राज्यको अनर्थका हेतु जान गया था। इसलिये पिताके राज्य

संस्कृतिस्तस्य च जयः क्षत्त्रधर्मा महारथः॥ क्षत्त्रवृद्धान्वया भूपाः शृणु वंशं च नाहुषात्॥१८॥ इति श्रीमद्भा० म० नव० चंद्रवं० क्षत्त्रवृद्धवंशा० सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः॥ षडिमे नहुषस्यासन्निंद्रियाणीव देहिनाम्॥१॥ राज्यं नैच्छद्यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्॥ यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते॥२॥ पितरि भ्रंशिते स्थानाद्रिंद्राण्या धर्षणाद्द्विजैः॥ प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥३॥ चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातन्भ्राता यवीयसः॥ कृतदारो जगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥४॥ राजोवाच॥ ब्रह्मर्षिर्भगवान्काव्यः क्षत्त्रबधुश्च नाहुषः॥ राजन्यविप्रयोः कस्माद्विवाहः प्रतिलोमकः॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ एकदा दानवेंद्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका॥ सखी सहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी॥६॥

देनेपर इसने राज्यग्रहण नहीं किया, क्योंकि राज्यकार्यमें लगा हुआ पुरुष अपने आत्माको नहीं जानता है॥२॥ इससे इन्द्राणीके ऊपर ढ़िठाईका व्यवहार करने हेतु पिता (नहुष) के स्वर्गभ्रष्ट और अगस्त्यादि विप्रोंके शापसे अजगर होने पर मध्यम पुत्र ययातिही राजा हुआ था॥३॥ राजा ययातिने राजगद्दीपर बैठ अपने चार छोटे भाइयोंको चारों दिशाओंमें राज्य करनेकी आज्ञा देदी व आप शुक्राचार्य और वृषपर्वाकी दो कन्याओंसे विवाह कर पृथ्वी की रक्षा करने लगा॥४॥ राजा परीक्षित् बोले कि, हे ब्रह्मन्! भगवान् शुक्राचार्यजी ब्रह्मर्षि और नहुषपुत्र ययाति क्षत्त्रिय था। सो यह ब्राह्मण क्षत्रियका प्रतिलोम विवाह कैसे हुआ था?॥५॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्!ईश्वरकी इच्छासे प्रतिलोम विवाह दोषदायी

नहीं है। एकसमय दानवराज वृषपर्वाकी शर्मिष्ठा नामक कन्या सहस्र सखी और गुरुकी कन्या देवयानीके साथ पुरके समीपही एक उद्यानमें विहार करनेको गई। यह उपवन अत्यन्त मनोहर था। वृक्ष फूलोंके भारसे झुकेहुए थे। और वहाँ निकटही एक नलिनीकी रेतीमें भ्रमरगण कलवाणीसे गान कर रहे थे॥६॥७॥ शर्मिष्ठाने सखियोंके साथ घूमते घूमते बागमें एक सरोवर देखा। यह सब कन्यायें किनारेपर अपने वस्त्र उतार परस्पर जलको उड़ाकर एक दूसरेके ऊपर जल डाल खेल करनेलगीं॥८॥ उसी समय अचानक देवताओंमें श्रेष्ठ श्रीमहादेवजी पार्वतीके साथ नंदीश्वर पर चढे इस ओरको आये। यह इनको देखकर सब कन्यायें अत्यन्त लज्जित हो झटपट सरोवरसे बाहर निकलकर अपने वस्त्र पहरने लगीं॥९॥

देवायान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले॥ व्यचरत्कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला॥७॥ ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः॥ तीरे न्यस्यदुकूलानि विजुः सिंचतीर्मिथः॥८॥ वीक्ष्य व्रजतं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्॥ सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः॥९॥ शर्मिष्ठाऽजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्॥ स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्॥१०॥ अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसांप्रतम्॥ अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे॥११॥ यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये॥ धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पंथाश्च दर्शितः॥१२॥ यान्वदंत्युपतिष्ठंते लोकनाथाः सुरेश्वराः॥ भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः॥ १३॥ वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पिताऽसुरः॥ अस्मद्धार्यंधृतवती शूद्रो वेदमिवासती॥१४॥

घबडाहटके मारे भूलमें गुरुकन्याके वस्त्र शर्मिष्ठाने अपने समझकर पहर लिये। यह देख देवयानी अति क्रोधित होकर बोली॥१०॥ अरे इस दासीका अन्याय कर्म तो देखो जिस प्रकार कुतिया यज्ञके हविको खाजातीहै। वैसेही इस दुष्टाने मेरे पहरनेके कपड़े पहर लिये॥११॥ देखो जिन ब्राह्मणोंने तपस्या करके इस जगत्की उत्पत्ति की है, जो लोग परमपुरुषके मुख अर्थात् ब्रह्ममुखसे उत्पत्तिके हेतु सर्व श्रेष्ठ हैं। जो कि, ब्रह्मको धारण कियेहुये हैं जिन्होंने वेदका शुभ मार्ग बताया है। और सब लोकोंके नाथ सुरेश्वरगणभी और भगवान् विश्वात्मा पावन श्रीनिवासभी जिनकी पूजा किया करते हैं॥१२॥१३॥ वह ब्राह्मणजाति सहजसेही माननीय है। और उनमें फिर हम महाप्रभावशाली भृगुवंशमें उत्पन्न हुई हैं। इस दासीका पिता

जो असुर है। वह भी हमारे पिताका शिष्य है। इस असत्यनकी चाल तो देखो कि, इसने हमारे पहरनेके वस्त्र पहर लिये हैं। जैसे शूद्रजाति वेदोंको धारण करै॥१४॥ हे राजन्! जब गुरुकन्या देवयानींने इस प्रकार तिरस्कार किया। तब शर्मिष्ठा धर्शित हुई सर्पिणीकी समान बारम्बार लम्बे लम्बे श्वास लेने लगी। और क्रोधके मारे होठ चबाय चबायकर कहने लगी कि॥१५॥ अरी भिखमंगी!अपने आचरणको विना जानेही कटुवचन कहने लगी। काककी समान क्या तुम हमारे गृहका सुख नहीं देखती रहती हो?॥१६॥ हे महाराज परीक्षित!इस प्रकारसे कठोर वचनभी गुरुकन्या देवायानीको कहकर शर्मिष्ठाका क्रोध शान्त नहीं हुआ, बरन् इसके वस्त्र उतार नङ्गीकर एक कुएमें धक्का देदिया॥१७॥ देवयानीको

एवं शपंतीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत॥ रुषा श्वसंत्युरगीव धर्षिता दष्टदच्छदा॥१५॥ आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि॥ किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान्बलिभुजो यथा॥१६॥ एवंविधैः सुपरुषैः शप्त्वाचार्यसुतां सतीम्॥ शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे वास आदाय मन्युना॥१७॥ तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्॥ प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥१८॥ दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे॥ गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः॥१९॥ तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा॥ राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरंजय॥२०॥ हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे॥ एष ईशकृतो वीर संबंधो नौ न पौरुषः॥२१॥

कुएमें ढ़केलकर शर्मिष्ठा अपने घरपर चली आई।भाग्यसे शिकार खेलकर घूमते घूमते राजा ययातिभी उस वनमें आय पहुॅचे और प्यासके मारे जल भरनेके लिये जैसेही इस कुएँके समीप गये कि, वैसेही उन्होंने देवयानीको कुए में देखा॥१८॥ शुक्राचार्यकी कन्याको कुऍमें नङ्गी गिरी हुई देखकर राजाको अत्यन्त दया आई और तत्काल अपना दुपट्टा राजाने उसे पहरनेको देदिया और अपने हाथसे उसका हाथ पकडकर उस दयावान् राजाने उसको कुऍसे बाहर निकाल लिया॥१९॥ देवयानी कुऍसे निकलकर प्रेम भरे वचन राजा ययातिसे बोली हे महाराज!आपने अनुग्रह करके हमारा हाथ पकड़ा है॥२०॥ अब यही प्रार्थना है कि, जिस हाथको एकबार आपने मेरा पाणिग्रहण किया।

उसको कोई दूसरा ग्रहण न करने पावे॥२१॥ हे वीर! यद्यपि प्रतिलोम विवाह ठीक नहीं तोभी मैं कुएमें डूबकर मरती थी इसी अवसरपर आपका दर्शन हुआ तब हमारा दोनों जनोंका यह बानक परमेश्वरने बनाया है। यह किसी पुरुषका बनाया नहीं हैं और हे नरेश! ब्राह्मणके साथ मेरा विवाह नही होगा। क्योंकि पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दिया था। तब उन्होंने भी हमको शाप दिया था^(१)॥२२॥ शास्त्रके प्रतिकूल और इच्छानुसार न होनेपरभी भाग्यसे प्राप्त हुआ जान और अपने अन्तःकरणको भी उसके प्रति सकाम देख यह निश्चय करके कि, मेरा मन अधर्ममें नहीं प्रवेश करता देवयानीके वाक्यको राजा ययातिने अंगीकार किया॥२३॥ इसके उपरान्त जब राजा ययाति चलेगये। तब देवयानी

यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम॥ न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज॥ कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद्यमशपं पुरा॥२२॥ ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः॥ मनस्तु तद्गतं बुद्धा प्रतिजग्राह तद्वचः॥२३॥ गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः॥ न्यवेदयत्ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम्॥२४॥ दुर्मना भगवान्काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन्॥ स्तुवन्वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रास ययौ पुरात्॥२५॥ वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्॥ गुरुं प्रसादयन्मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥२६॥

उस स्थानसे रोती रोती पिताके निकट गई और सब वृत्तान्त निवेदन कर दिया। अर्थात् शर्मिष्ठाने जो भिखमंगी कहा था। और कुएमें डालकर जो कुकर्म किया था, यह सब विस्तारपूर्वक इसने अपने पितासे कहा॥२४॥ यह सुनकर शुक्राचार्यके मनमें बडा दुःख हुआ पुरोहिताईकी निन्दा करते और भिक्षावृत्तिकी प्रशंसा करते यह दैत्यराजकी पुरीसे अपनी कन्यासहित बाहर चले\।\।२५\।\। यह सुनकर राजा वृषपर्वाने जाना कि, गुरुजी अप्रसन्न होकर देवताओंकी जीतकरेंगे। इसलिये शीघ्रही मार्गमें जायकर उनके चरणोंमें गिर पड़ा। और शिर नवायकर प्रसन्न

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१ इसमें यह दृष्टान्त है कि बृहस्पतिके पुत्र कच जब शुक्राचार्य मुनिके निकट मृतसजीवनी विद्या ग्रहण करतेथे उस समय एक दिन शुक्रकी पुत्री देवयानीने उनके साथ विवाह करना चाहाथा, तब कच बोले कि “तुम हमारी गुरुकन्या होनेसे पूजने योग्य हो” फिर हम किसप्रकारसे तुम्हारा पाणि ग्रहण करैं! तब देवयानीने कुपित हो यह शाप दिया कि, तुम्हारी विद्या प्रभाहीन होगी, तव कचनेभी यह शाप दियाकि “तुम्हारा ब्राह्मणके साथ विवाह नहीं होगा” इसलिये ब्राह्मण हमसे विवाह नहीं कर सकेगा॥

करने लगा॥२६॥ एक क्षणभरमें शुक्राचार्यका आधा क्रोध शान्त होगया और वह शिष्यसे बोले कि, हे राजन्! हमारी कन्या जो कुछ कहै सो इस की अभिलाषको तुम पूर्ण करो। क्योंकि हम इस अपनी कन्याको छोड़कर रह नहीं सक्ते॥२७॥ गुरुजीके यह वचन सुनकर गुरुकन्याकी प्रसन्नता चाहताहुआ राजा वृषपर्व्वा खड़ा रहा। तब देवयानी अपने मनकी बात प्रकाशित करके बोली कि, हमारे पिता जहाँ हमारा विवाह करैं, यह शर्मिष्ठा तुम्हारी कन्या उसी स्थानमें अपनी सब सखियोंके साथ जायकर हमारी दासी होवे॥२८॥ वृषपर्व्वाने विचारा कि, गुरुजीके चलेजानेसे हमारे ऊपर घोर संकट आन पड़ेगा। और यहाॅ रहनेसे हमारे कार्य सिद्ध होंगे। यह सोच विचार राजा वृषपर्व्वाने गुरुकन्या देवयानीके हाथमें सखियों सहित शर्मिष्ठाको सौंपदिया। जब पिताने शर्मिष्ठाको देदिया, तब यह हजार सखियोंके साथ देवयानीकी सेवा करनेलगी॥२९॥ इसके पीछे दैत्यगुरु शुक्रा

क्षणार्धमन्युर्भगवाञ्शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः॥ कामोऽस्याः क्रियतां राजन्नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे॥२७॥ तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्॥ पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥२८॥ स्वानां तत्संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्॥ देवयानीं पर्यचरत्स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥२९॥ नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशनाः॥ तमाह राजञ्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित्॥३०॥ विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्॥ तमेव वव्रेरहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥३१॥ राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्॥ स्मरञ्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्य पद्यत॥३२॥ यदुंच तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत॥द्रुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥३३॥

चार्यजीने शर्मिष्ठासहित देवयानीका राजा ययातिके साथ विवाह करदिया और भली भाॅतिसे कहदिया कि, यद्यपि हम अपनी कन्याके साथ शर्मिष्ठाभी तुमको देते हैं तो भी तुम किसी समय इसको अपनी शय्यापर न ग्रहण कर सकोगे॥३०॥ हे महाराज परीक्षित्!किसी समय शर्मिष्ठाने देखा कि देवयानीने स्वामीके सहवाससे परम सुन्दर पुत्र उत्पन्न कियाहै। इसलिये ऋतुकाल आन पहुॅचनेपर अपनी सखीके पति ययाति राजाको एकान्तमें बुलाय पुत्र उत्पन्न करनेके लिये प्रार्थना की॥३१॥ राजा ययाति अत्यन्त धर्मात्माथे ऋतुकालमें राजकुमारी शर्मिष्ठासे संतानके लिये प्रार्थित होकर विचारने लगे कि, इसकी कामना पूरी करनेसे धर्म है। इसलिये शुक्राचार्यजीका वचन स्मरण आनेपरभी उन्होंने दैवप्राप्त पिता ज्ञानसे

शर्मिष्ठाके साथ विहार किया राजा ययातिने धर्म समझकरही शर्मिष्ठाकी प्रार्थना पूर्ण की थी. कुछ कामके वश होकर नहीं की, उसके उपरान्त देवयानीने यदु और तुर्व्वसु, दो पुत्र उत्पन्न किये और शर्मिष्ठाके गर्भसे द्रुह्यु, अनु और पुरु; इन तीन पुत्रोंने जन्म ग्रहण किया॥३२॥३३॥ अरे महाराज! अपने स्वामीसे शर्मिष्ठाके गर्भकी उत्पत्ति जानकर देवयानी अभिमानसे परिपूर्ण होगई और क्रोधके मारे मूर्च्छितसी हो तत्काल पिताके घरको चलीगई॥३४॥ हे राजन्! राजा ययाति अत्यन्त कामीथे वह प्यारीका क्रोध देखकर विनती करके प्रसन्न करते करते अपनी प्रियभार्याके पीछे पीछे चले गये परन्तु चरण दाबनेसे भी तो वह देवयानीको प्रसन्न न करसके॥३५॥ महाराज! इस ओरका कन्याके मुखसे सब वृत्तान्त जानकर दैत्यगुरु शुक्राचार्यजी महा क्रोधित हो घृणायुक्त वचनोंसे जामाताको पुकारने लगे। तू स्त्रीकामी होकर अन्यायके कर्म करता है अरे

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी॥देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्च्छिता॥३४॥ प्रियामनुगतः कामी वचो भिरुपमंत्रयन्॥ न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥३५॥ शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामाऽनृतपुरुष॥ त्वां जरा विशतां मंद विरूपकरणी नृणाम्॥३६॥ ययातिरुवाच॥ अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन्दुहितरि स्म ते॥ व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योभिधास्यति॥३७॥ इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत॥यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः॥३८॥ मातामहकृतं वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्॥ वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः॥३९॥

मतिमन्द! इस अपराधसे मनुष्योंको विरूप करनेवाली जरा (बुढापा) तेरे शरीरमें प्रवेश करे॥३६॥ यह शाप सुनकर राजा ययातिका चित्त अत्यंत दुःखित हुआ। और निवेदन किया कि, ब्रह्मन्! आपकी बेटीके काम भोगसे हम अबतक भी सब प्रकारसे तृप्त नहीं हुए हैं। तब शुक्राचार्यजी बोले कि, हाँ जो कोई पुरुष तुम्हारी जरा ग्रहण करले तो उसकी वयस अवस्थासे तुम इच्छानुसार काम भोग करसकोगे॥३७॥ हे राजन्! इस प्रकार राजा ययाति जराके उतरने की व्यवस्था पाकर पहले अपने बड़े पुत्र यदुको बुलाकर बोले। हे तात यदो! हमारी यह जरा अवस्था ग्रहण करके अपनी वयस हमको दो। बेटा! तुम्हारे नाना शुक्राचार्यने हमको जराग्रस्त किया है। परन्तु हम अबतक विषय भोगसे तृप्त नहीं हुए हैं। इसलिये यह जरा तुम लो। और तुम्हारी युवा अवस्था लेकर कुछ वर्षोंतक मैं विहार करूंगा॥३८॥ क्योंकि तेरे नानाकी दीहुई

इस वृद्धावस्थाकोमैं सह नहीं सकता इसलिये तुम्हारी दी हुई अवस्थासे मैं विषयोंको भोगकर तृप्त होजाऊँगा॥३९॥ यह सुनकर यदु बोले कि, हे पिता! आप मध्यम समयमें जराको प्राप्त हुये हैं आपको इस जराके लेने को हमारा चित्त नहीं चाहता। क्योंकि बिना ग्राम्य सुखोंके भोगे कौन पुरुष उससे (काम भोगसे) तृष्णारहित होजाता है॥४०॥ हे भारत!तिसके पीछे तुर्वसु और दुह्यु इन दो पुत्रोंसे राजाने युवा अवस्था मांगी परन्तु उन्होंनेभी कोरा जवाब दिया। हे राजन! इन लोगोंको धर्मज्ञान नहींथा। यह अनित्य पदार्थकोही नित्य मानतेथे। फिर भला इन लोगोंसे पिताकी आज्ञा मानी जानेकी क्या सम्भावना?॥४१॥ परन्तु राजा ययातिका सबसे छोटा पुत्र यद्यपि वयसमें छोटा, तथापि गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था सबसे पीछे उसको बुलाकर राजा ययातिने जरालेनेके लिये बोले कि, हे वत्स! तुम अपने बड़े भ्राताओंकी समान “नहीं” हमसे कहनेयोग्य

यदुरुवाच॥ नोत्सहे जरसा स्थातुमंतरा प्राप्तया तव॥ अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पुरुषः॥४०॥ तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत॥ प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यानित्ये नित्यबुद्धयः॥४१॥ अपृच्छत्तनयं पुरुं वयसोनं गुणाधिकम्॥ न त्वमग्रजवद्वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥४२॥ पूरुरुवाच॥ को नु लोके मनुष्येंद्र पितुरात्मकृतः पुमान्॥ प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद्विंदते परम्॥४३॥ उत्तमश्चिंतितं कुर्यात्प्रोक्तकारी तु मध्यमः॥ अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चारितं पितुः॥४४॥ इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः॥ सोऽपि तद्वयसा कामान्यथावज्जुजुषे नृप॥४५॥ सप्तद्वीपपतिः सम्यक्पितृवत्पालयन्प्रजाः॥ यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेंद्रियः॥४६॥

नहीं हो॥४२॥ जब इसप्रकार राजा ययाति कहा; तब पुरुने कहा कि, हे मनुष्येंद्र!इस लोकमें कोई पुरुषभी पिताका प्रत्युपकार नहीं करसक्ता है। पिता क्या साधारण पुरुष हैं? क्योंकि उनसे देहका सम्बन्ध है। और उनकी प्रसन्नतासे पुरुष परम गतिको प्राप्त होजाता है॥४३॥ जो पुत्र पिताका विचारा हुआ कार्य अपने आपही करदेता है, वह उत्तम कहलाता है। और जो आज्ञापाकर कार्य करता है, वह मध्यम है और जो आज्ञा पाकरभी उस कार्यको नही करता है, वह पुत्र नहीं किन्तु पिताका विष्ठामात्र है। और नीच कहलाता है॥४४॥ इस प्रकार कह हर्ष प्रकाश करके उसने पिताकी जरा अवस्था ग्रहण करली। राजा ययातिभी अपने पुत्रकी युवा अवस्था पाकर भली भांति सुख भोगनेलगा॥४५॥ हे महाराज!राजा ययाति सप्तद्वीपका राजा था। वह भली भांति पुत्रकी समान प्रजाका पालन करने लगा। और इच्छानुसार

विषय भोग भोगने लगा। पुत्रकी युवा अवस्था पानेसे इस राजा ययातिकी सब इन्द्रियें प्रबल और अनिवारित होगई*॥४६॥और देवयानी भी मन, वचन कायसे व और भी सब भाँति एकान्तमें दिनपर दिन अपने प्राणेश्वरको अत्यन्त प्रसन्न करती रहती थी॥४७॥हे राजन्! राजा ययाति भी अनेक अनेक दक्षिणा देकर अनेक यज्ञकर सर्ववेदमय सर्वदेवस्वरूप, यज्ञपुरुष भगवान् वासुदेवका भजन करने लगे॥४८॥

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः॥ प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः॥४७॥
अयजद्यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः॥ सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्॥४८॥
यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः॥ नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥४९॥
तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्॥ नारायणमणीयांसं निराशीरयजत्प्रभुम्॥५०॥

अर्थात् आकाशमण्डलमें जलदावलि (बादरोंकी पंक्ति) की समान जिससे प्रत्यक्ष परिदृश्यमान जगत् विरचित होकर यावत् इन्द्रियवृत्ति,तावत् विचित्ररूपसे प्रकाश पाताहै और इसी इन्द्रियवृत्तिके उपरममें स्वप्न और मायासहित मनोरथ पाय प्रकाशहीन होतेहैं॥४९॥ राजा ययातिने विरागी

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*शंका— राजा ययाति छोटे पुत्रकी अवस्था लेकरके उसी छोटे पुत्रकी माताके संग विहार करताया, इस बातसे जानपडताहै कि पुत्रनेही अपनी माताके संग रमण किया, क्योंकि राजामें रमणकरनेकी सामर्थ्य होती तो पुत्रकी युवावस्था क्यों लेता? इसने यह दो महापाप क्यों किये? जो कोई ऐसा कहे कि, पुत्रको पिताकी आज्ञा करनी चाहिये यह भगवान्की बनाई मर्यादा है और धर्मशास्त्रकामी यही वाक्य है, सो सत्य है, निःसन्देह वह मर्यादा पूरी करनी चाहिये परन्तु न्याय अन्याय विचारकर कार्य करना चाहिये? क्योंकि जो पिताकी बुद्धि मलिन होजाय और पिता आज्ञा करे कि, मेरे लिये वेश्या अथवा वारुणी अथवा बुरी वस्तुको लादे और वह अनेक प्रकारकी कुत्सित वस्तुपर दृष्टि करे तो पुत्रको ऐसे पिताकी आज्ञा कभी नहीं माननी चाहिये, फिर पुत्रने ऐसे पिताका वचन क्यों माना

उत्तर— शर्मिष्ठाके ओष्ठपान करके ययातिकी बुद्धि भ्रष्ट होगई और दैत्यकी कन्याका पुत्र राजा है इसलिये वह दोनों पापी मिलगये इस कारण महापाप किया॥

होकर उन्हीं अन्तर्य्यामी परमसूक्ष्मरूप भगवान् वासुदेवके अनेक यज्ञ किये॥५०॥ श्रीशुकदेवजी वोले कि, हे राजन्!इस प्रकार सहस्र वर्ष तक अपराङ्मुख पञ्चइन्द्रिय और छठे मनसे सदा विषयभोग करकेभी सर्वभूमीश्वर राजा ययाति सव भॉतिसे तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ॥५१॥इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायामष्टादशोऽध्यायः॥१८॥दोहा— नृप ययाति निज प्रियाको, अज सम चरित सुनाय। बहुरि मोक्षभागी भया, उन्निसवें अध्याय॥१॥श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजा परीक्षित्! राजा ययाति इस प्रकार विषयभोग करते करते अकस्मात् एक दिन अपने आपको स्त्रैण समझकर अपनी आत्माका विकार जान, वैराग्ययुक्त हो, अपनी परमप्यारी देवयानीसे यह वर्णन करने

एवं वर्षसहस्राणि मनष्षष्ठैर्मनःसुखम्॥॥विदधानोऽपि नातृप्यत्सार्वभौमः कदिंद्रियैः॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते म० नवमस्कंधे ययातिचरितं नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥श्रीशुक उवाच॥ स इत्थमाचरन्कामांस्त्रेणोपह्नवमात्मनः॥बुद्ध्याप्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत॥१॥शृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि॥धीरा यस्यानुशोचंति वने ग्रामनिवासिनः॥२॥ वस्त एको वने कश्चिद्विचिन्वन्प्रियमात्मनः॥ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम॥३॥ तस्या उद्धरणोपायं वस्तः कामी विचिंतयन्॥व्यधत्त तीर्थमुद्धत्य विषाणाग्रेण रोधसी॥४॥सोत्तीर्य कपात्सुश्रोणी तमेव चकमे किल॥ तया वृतं समुद्वीक्ष्य वह्वयोऽजाः कांतकामिनीः॥पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढांसं याभकोविदम्॥५॥

लगे॥१॥कि, है भार्गवि!हमारी समान कोई काभीएक गाँवमें रहाता था। वनवासी वीरगण उसके आचरणोंपर अबतक कभी कभी शोक किया करते हैं। सो उस पुरुषकी अनुष्ठान कीहुई गाथा मैंतुमसे वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥२॥ “एक छागनी (पुरुष) वन (संसार) अपने प्रिय विषय को ढूंढते ढूँढते अचानक एक छागीको कर्मके वशसे कुएमें गिरी हुई देखी॥३॥ इस अत्यन्तकामी छागने उस बकरीके निकालनेका उपाय सोचा और कुएके किनारे, अपने सींगोंसे मट्टी खोदकर उसके निकलनेका मार्ग कर दिया॥४॥ इस मार्गसे वह कान्तियुक्त छागी कुएसे निकल उसी छागका अभिलाष करनेलगी. जब उस बकरीने इस बकरेको वरण करलिया तो और बहुत सारी छागी भी मोटे, ताजे रति करनेमें समर्थ, वीर्यके

सींचनेवाले और मैथुन करनेमें चतुर समझकर इस छागको चाहने लगीं॥५॥ इसलिये वह एकही बकरा इन बहुतसी बकरियोंकी रति बढ़ाताहुआ इनके साथ केलि करने लगा वह छाग कामरूप गृहमें ऐसा फँसगया कि, अपनी आत्माको भी न जान सका॥६॥ परन्तु जो छागी कुएमें गिरी थी, वह और छागियोंको अपनेसे अधिक प्यारी और उनके साथ अपने प्रियतमको सदा रमण करताहुआ देख अत्यन्त क्रोधित हुई और उस छागका यह कर्म बहुत नहीं सहसकी॥७॥ इसलिये वह सुत्हृदयरूपी, वास्तवमें सुहृदक्षण सौहृद इन्द्रियासक्त और कामुक उस छागको छोड़ दुःखित हो अपने स्वामीके पास चली गई॥८॥ यह छाग तो बहुतही स्त्रैण था, इसलिये कातर हो शब्द करता हुआ उसको मनानेके लिये

स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः॥ रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत॥६॥ तमेव प्रेष्ठतमया रममाणम जाऽन्यया॥विलोक्य कूपसंलग्ना नामृष्यद्बस्तकर्म तत्॥७॥ तं दुर्हृदं सुहृद्रूपं कामिनं क्षणसौहृदम्॥ इंद्रियाराममुत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययो॥८॥ सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम्॥ कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत्पथि संधितुम्॥९॥ तस्य तत्र द्विजः कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद्रुषा॥ लंबंतं वृषणं भूयः संदधेर्थाय योगवित्॥१०॥ संबद्धवृषणः सोऽपि ह्यजयाकूपलब्धया॥ कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति॥११॥ तथाहं कृपणः सुख भवत्या प्रेमयंत्रितः॥ आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया॥१२॥

उसके पीछे २ जानेलगा, परन्तु मार्गमें वह उस बकरीको किसी प्रकारसे भी प्रसन्न न करसका॥९॥ उस स्थानमें इस छागीके स्वामी एक ब्राह्मणनेक्रोध करके इस छागके दोनों लम्बायमान अण्डकोश काटडाले। अर्थात् उसको भोग करने योग्य न रक्खा। परन्तु वह ब्राह्मण उपायभी जानता था, इसलिये अपनी बकरीके काम भोगार्थ फिर इस छागके अण्ड जोड़ दिये अर्थात् फिर उस छागको मैथुन करनेकी सामर्थ्य देदी॥१०॥ हे भद्रे! इस प्रकारसे यह छाग संवृद्ध वृषण अर्थात् रतिशक्ति युक्त हो कुएसे निकाली उस छागीके साथ बहुत कालतक विषयभोग करता रहा। परन्तु कामकी सेवासे अबतक उस बकरेको सन्तोष नहीं हुआ”॥११॥ हे सुभ्रु! इस छागकी समान हमभी तुम्हारे प्रेममें

बँधकर अत्यन्त दीन होगये हैं। तुम्हारी मायासे मोहित होनेके कारण हम अपने आपको भी तो भूल गये हैं॥१२॥ हे भद्रे!पृथ्वीमें जितना धान्य, सुवर्ण, जितने पशु, जितनी स्त्री और जो जो वस्तु हैं सो यह सब भी कामसे हते हुये पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सक्ती हैं॥१३॥ भोग विलासके, द्वारा कामकी किसीप्रकार शान्ति नहीं होती। वरन् घृतद्वारा अग्निकी समान विषय भोग बढ़ताही जाता है। जैसे घृत डालनेसे अग्नि॥१४॥ परन्तु जिस समय पुरुषसब प्राणियोंसे अमंगलभाव अर्थात् राग द्वेषादिकी विषमताका त्याग कर देता है और सबमें समदृष्टि कर लेता है, तब उसको सब दिशा सुखदाई हो जाती हैं॥१५॥ इसलिये दुर्म्मति पुरुष जिसको नहीं छोड़ सक्ते और प्राचीन पुरुषके

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः॥ न दुह्यंति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥१३॥ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति॥ हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥१४॥ यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम्॥ सम दृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः॥१५॥ या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते॥ तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत्॥१६॥ मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्॥ बलवानिंद्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥१७॥ पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान्सेवतोऽसकृत्॥ तथाऽपि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते॥१८॥ तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्॥ निर्द्वंद्वो निरहंकारश्चरिष्यामि मृगैः सह॥१९॥ दृष्टश्रुतमसद्बुद्ध्वानानुध्यायेन्न संविशेत्॥ संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान्स आत्मदृक्॥२०॥

पासभी जो पुरानी नही होती और जो दुःखकी राशिके लिये रहती है सुख चाहनेवाले पुरुषको चाहिये कि, उस तृष्णाको शीघ्र छोड़दे॥१६॥ और स्त्रीका संग तो सब प्रकारसे त्यागना आवश्यकहै. क्योंकि माता, बहन अथवा कन्याके संग इकलेमें एकासन पर बैठना ठीक नहीं। क्योंकि इन्द्रियें अतिशय बलवान् हैं विद्वान् पुरुषको भी खैंच लेती हैं॥१७॥ हे भद्रे!विचार करके देखो वारम्वार विषयकी सेवा करते हुये इसको पूरे एक सहस्र वर्ष बीतगये तोभी दिन दिन तृष्णा बढ़तीही जातीहै॥१८॥ इसलिये मैंपहले तृष्णाको छोडकर फिर ब्रह्ममें मन लगा जाऊंगा।फिर सुख दुःखादि द्वन्द्वरहित और निरहंकार हो मृगगणोंके साथ घूमूँगा॥१९॥ हे प्रिये! जो पुरुष देखे सुने संसारको भी आत्मनाशक

और असत् जानकर उसका अनुध्यान वा भोग छोड देते हैं। वही देखे सुने विषयके अनुध्यानादिमें पण्डित आत्मदर्शी हैं॥२०॥ श्रीशुक देवजी बोले कि, हे परीक्षित्!राजा ययातिने इसप्रकार अपनी स्त्रीको समझाय छोटे पुत्र पुरुको उसकी युवा अवस्था लौटाय उससे अपनी जरा अवस्था ग्रहण करली। फिर पीछे राजा ययातिको कुछ चाहना न रही॥२१॥ पूर्व दिशा द्रुह्युको, दक्षिण दिशा यदुको, पश्चिम दिशा तुर्व्वसुको और उत्तर दिशा अनुको राजा बनायदी॥२२॥फिर सब भूमण्डलका राज्य क्षत्रियोत्तम प्यारे पुत्र पुरुको देकर और बड़े बेटोंको इस पुरुकी

इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः॥ दत्त्वा स्वां जरसं तस्मादाददे विगतस्पृहः॥२१॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युंदक्षिणतो यदुम॥ प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम्॥२२॥ भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम्॥ अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ॥२३॥ आसेवितं वर्षपूगान्षड्वर्गं विषयेषु सः॥ क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः॥२४॥ स तत्र निर्मुक्तसमस्तसंग आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिंगः॥ परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे लेभेगति भागवतीं प्रतीतः॥२५॥

आज्ञामें रखकर आप वनको चलेगये*॥२३॥ हे राजन्!राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक शब्दादि विषय समूहमें छैइंद्रियोंके द्वारका सुख भोगा था। परन्तु उसने स्पृहा छोड़ एक क्षणभरमें इंद्रियोंके सुखको छोड़दिया जैसे पंख जम आनेपर पक्षियोंके बच्चे घोंसलेको छोड़ जाते हैं॥२४॥ राजा ययाति संगको छोड़कर आत्मानुभावसे त्रिगुणात्मक रूप लिंग निस्तर होगया और भली भाँति विख्यात हो निर्मल परब्रह्म

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* शंका— राजा ययाति बडे बुद्धिमान् और गुणनिधान थे, तोभी ऐसा बडा अन्याय क्योंकिया? कि, बडे पुत्रको छोडकर छोटे पुत्रको राज्य दिया, क्या कारण?

उत्तर— कामी लोभी क्रोधी ऐसे ऐसे जीव पृथ्वीपर हैं परन्तु न्याय अन्यायका विचार नहीं करते, नित्य अपने शरीरका सुख चाहते हैं, न्यायमें दुःख देखेंगे, तब न्यायको त्याग देंगे अन्यायमें सुख देखेंगे तब अन्याय करेंगे, जिसमें शरीरको सुखहो, उसीको पुण्य जानते है, और जिसमें शरीरके कष्टहो उसको पाप समझते हैं, सुकर्म कुकर्म कुछ नहीं देखते इस पापके प्रतापसे ययाति राजाने छोटे बडेका विचार नहीं किया जिसकी देहसे सुखपाया उसीको राज्य दिया॥

वासुदेवमें शीघ्रही भगवत् गतिको प्राप्त होगया॥२५॥ स्त्री पुरुषका परस्पर स्नेह हेतु परिहासकी समान जो इतिहास कहागया देवयानी इसको सुनकर अपने प्रस्तोभ अर्थात् निवृत्तिमार्गमें उत्साहित हुई॥२६॥और वह अबला प्याऊ पर जानेवालोंकी समान ईश्वरपरतंत्र सुहृदगणोंका वास मायाविरचित समझी और स्वप्नकी समान उपमा देकर सबको मिथ्या जान सर्वत्र संग छोड़कर भगवान्में मन लगाय अपने शरीरको भी छोड़दिया॥ २७॥२८॥ हे राजन्!अब यह बतलाते हैं कि, देवयानीने किस प्रकारसे भगवान् वासुदेवमें अपना मन लगाया था, सो तुम सुनो। भगवन्! आप विधाता, वासुदेव, सर्वभूतोंके निवासस्थान, परमशान्त और अतिबृहत् हो इसलिये मैंआपको नमस्कार करतीहुँ॥२९॥

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः॥ स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात्परिहासमिवेरितम्॥२६॥ सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम्॥ विज्ञायेश्वरतंत्राणां मायाविरचितं प्रभोः॥२७॥ सर्वत्र संगमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी॥ कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिंगमात्मनः॥२८॥ नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे॥ सर्वभृताधि वासाय शांताय बृहते नमः॥२९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नव० ययातिविरक्तिवर्णनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत॥यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे॥१॥ जन्मेजयो ह्यभूत्पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः॥ प्रवीरोऽथ नमस्युर्वैतस्माच्चारुपदोऽभवत्॥२॥ तस्य सुद्युरभूत्पुत्रस्तस्माद्बहुगवस्ततः॥ संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः॥३॥

इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां ययात्युपाख्याने एकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥ दोहा— ययाति सुत पुरुवंशमें, भये नृपति दुष्यंत। भरत पुत्र तिनके भये, भक्त शिरोमणि संत॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे भारत!अबपुरुके वंशका वर्णन करते हैं, सो तुम सुनों। इसी वंशमें तुमने जन्म लिया है। अनेक राजर्षि इस पुरुवंशमें उत्पन्न हुये हैं॥१॥ पुरुसे जन्मेजय उत्पन्न हुये। जन्मेजयका पुत्र प्राचिन्वान् और उससे प्रवीरने जन्म ग्रहण किया, प्रवीरका पुत्र नमस्यु और उससे चारुपदका जन्म हुआ, चारुपदके यहाँ सुद्युने जन्म लिया, उससे बहुगव उत्पन्न हुआ

उसका पुत्र संयाति, संयातिका पुत्र अहंयाति और अहंयातिके यहाँ रौद्राश्व जन्मा॥२॥३॥ इस रौद्राश्वने घृताची अप्सरासे, दश पुत्र उत्पन्न किये, इनके नाम यह हैं—ऋतेयु, कक्षेयु, स्थंडलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयुव्रतेयुऔर सबसे छोटा अवनेयु, हुआ। हे राजन्!जिस प्रकार इन्द्रियगण जगत्के आत्मभूत मुख्य प्राणके वश रहते हैं, वैसेही यह दशपुत्र रौद्राश्वके वशमें रहते थे॥४॥५॥ इन रौद्राश्वके दश पुत्रों मेंसे ऋतेयुका रन्तिभार नामक एक पुत्र हुआ। उसके तीन पुत्र हुये. यथा सुमति, ध्रुव और अप्रतिरथ इन तीनोंमेंसे अप्रतिरथके पुत्र कण्व हुये॥६॥ कण्वके मेधातिथि और तिनसे प्रस्कण्वादि द्विजातिगण उत्पन्न हुये। हे राजन्! रन्तिभार नामका बडा बेटा सुमति और उसका

ऋतेयुस्तस्य कुक्षेयुः स्थंडिलेयुः कृतेयुकः॥ जलेयुः संततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः॥४॥दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः॥ घृताच्यामिंद्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः॥५॥ ऋतेयो रंतिभारोऽभूत्त्रयस्तस्यात्मजा नृप॥ सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः॥६॥ तस्य मेधातिथिस्तस्मात्प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः॥ पुत्रोऽभूत्सुमते रैभ्यो दुष्यंतस्तत्सुतो मतः॥७॥ दुष्यंतो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः॥ तत्रासीनां स्वप्रभया मंडयंतीं रमामिव॥ विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम्॥८॥ बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः॥ तद्दर्शनप्रमुदितः सन्निवृत्तपरिश्रमः॥९॥ पप्रच्छ कामसंतप्तः प्रहसञ्छ्ल्क्ष्णया गिरा॥ का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे॥१०॥

पुत्र रैभ्य और इन रैभ्यकेही पुत्र राजा दुष्यन्त हुये॥७॥ एक समय यह राजा दुष्यन्त आखेट करते करते वनमें प्रवेशकर महर्षि कण्वके आश्रममें आय पहुँचे, वहांपर एक स्त्री बैठी हुई लक्ष्मीकी समान अपने शरीरकी प्रभासे आश्रमको शोभायमान कररही थी॥ देवमायाकी समान उस तरुणीको देखतेही राजा दुष्यन्त मोहित होगया॥८॥ इसके उपरान्त कुछ सेनाके सिपाही लेकर निकट जाय उस वरारोहाके साथ राजाने सम्भाषण किया. हे राजा परीक्षित्! उस सुन्दरीको देखतेही राजा दुष्यन्तको अनिर्व्वचनीय आनन्द प्राप्त हुआ था। और मानो उसको देखकर जंगलमें घूमनेसे जो थकावट हुई थी वह भी सब जातीरही॥९॥ कामपीडित हो हँसते हँसते मधुर वचनसे राजाने

पूँछा कि, हे कमलपत्राक्षि!तुम कौन हो? किसकी कन्या हो?॥१०॥ और इस निर्जन वनमें क्या करनेकी वासना किये हुयेहो? हे सुमध्यमे! पुरुवंशीय लोगोंका चित्त कभी अधर्ममें नहीं लगता है. इसलिये स्पष्ट जान पड़ता है कि, तुम किसी क्षत्रिय वंशकी बेटी हो॥११॥ यह सुनकर शकुन्तलाने उत्तर दिया कि, हे राजन्! मैं विश्वामित्रकी पुत्री हूं मेनका नामक अप्सरा मेरी माता है । स्वर्गमें जानेके समय माता मुझको इस निर्जन वनमें अकेली छोड़कर चली गई। इसलिये वास्तवमें मैं क्षत्रियकी कन्या हूं इस बातको भगवान् कण्वऋषि भलीभांति जानते हैं. हे वीर! हम आपका कौनसा कार्य करें? सो आज्ञा कीजिये॥१२॥ हे महाराज!आसन ग्रहण कीजिये और हमारी

किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने॥ व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्यहं त्वां सुमध्यमे॥ न हि चेतः पौरवाणाम धर्मे रमते क्ववित्॥११॥ शकुंतलोवाच॥ विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने॥ वेदैतद्भगवान्कण्वो वीर किं करवाम ते॥१२॥ आस्यतां ह्यरविंदाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः॥ भुज्यतां संति नीवारा उष्यतां यदि रोचते॥१३॥ दुष्यंत उवाच॥ उपपन्नमिदं सुख जातायाः कुशिकान्वये॥ स्वयं हि वृण्वते राज्ञां कन्यकास्सदृशं वरम्॥१४॥ ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुंतलाम्॥ गांधर्वविधिना राजा देशकालविभागवित्॥१५॥ अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे॥ श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम्॥१६॥

पूजा भी आप अंगीकार करें यहाॅ निवारीके चावल हैं भोजन कीजिये और यदि रुचि हो तो रात्रि को भी यहांही रहिये॥१३॥ राजा दुष्यन्त बोले कि, हे सुन्दरि ! तुमने कुशिकके वंशमें जन्म लिया है वास्तवमें तुम्हारा आचरण ठीक है, क्योंकि राजकन्यायें समान स्वयम् वरको वरण करलेती हैं॥१४॥ शकुन्तलाने राजाकी यह बात सुनकर कहा कि, ‘हां’ तब देशकालके जाननेवाले इस राजाने शकुन्तलासे गन्धर्व विवाह किया॥१९॥ हे भारत! अमोघवीर्यवान् राजा दुष्यन्त भार्या शकुन्तलामें वीर्याधान करके दूसरेदिन इसके

उपरान्त राजा अपने नगर हस्तिनापुर को चलेगये। तब यथायोग्य समयमें शकुन्तलाके एक कुमार उत्पन्न हुआ॥१६॥महर्षि कण्वऋषीश्वरने वन मेंही यथायोग्य उस बालककी संस्कारादि क्रिया करदी। हे राजन्!यह कुमार बालकपनसेही अपने बलसे सिंह पकड़ करके उनके साथ खेला करता था॥१७॥ इसलिये महाविक्रमशाली देखकर प्रमदोत्तमा शकुन्तला भगवान् हरिके अंशसे उत्पन्न उस पुत्रको ले अपने स्वामीके निकट गई॥१८॥ परन्तु राजा दुष्यन्तने अनिन्दित इस स्त्री और पुत्रको ग्रहण नहीं किया। परन्तु जिस समय राजा दुष्यन्तने शकुन्तलाका निरादर किया तब श्रवण कारी सब प्राणियोंके सन्मुख आकाशसे अशरीरिणी वाणी प्रकट हो राजाको पुकारकर बोली कि॥१९॥ हे राजा दुष्यन्त! माता भस्त्रा अर्थात्

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुदिताः क्रियाः॥ बद्धा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म सबालकः॥१७॥ तं दुरत्ययविक्रांतमादाय प्रमदोत्तमा॥ हरेरंशांशसंभूतं भर्तुरंतिकमागमत्॥१८॥ यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिंदितौ॥ शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी॥१९॥ माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः॥ भरस्व पुत्रं दुष्यन्त माऽवमंस्थाः शकुंतलाम्॥२०॥ रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्। त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुंतला॥ २१॥ पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः॥ महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि॥ २२॥

चर्मपात्रवत् आधार मात्र पिताकाही पुत्र है। क्योंकि आत्माही पुत्ररूपसे उत्पन्न होता है। इसलिये अपने पुत्रको ग्रहण करके पालो और शकुन्तलाका अपमान न करो*

॥२०॥ हे नरदेव! जो पुरुष वीर्य डालता है पुत्र उसकाही यमालयसे निस्तार करता है। और शकुन्तला यह सत्य कहती है तुमनेही इस पुत्रको गर्भमें धारण किया था॥२१॥ हे भारत! आकाशवाणीको सुनतेही राजा दुष्यन्तने पुत्रसहित शकुन्तलाको अंगीकार किया। कुछ कालके पीछे महाराज दुष्यन्त स्वर्गवासी होनेपर राजाके महायशस्वी यही भरतजी सिंहासनपर बैठकर चक्रवर्ती राजा हुए थे. महाराज

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* शंका— थोडे ही दिनमें राजा दुष्यन्त अपने चरितको भूल गया, और शकुन्तलाको और अपने पुत्रको भी भूलगया, यह बडे आश्चर्यकी बात हैं? क्या पहले पुरुष भोले होते थे?

उत्तर— बडा बुद्धिमान् राजा दुष्यन्त था और यह भली प्रकार जानता था कि यह हमाराही पुत्र है और यह शकुन्तला हमारी स्त्री है, परन्तु लोकापवादसे डरकर उसको ग्रहण नहीं करता था, आकाशवाणीसे सबको विदित होगया तो राजाने ग्रहण किया।

भरत श्रीभगवान् हरिके अंशसे उत्पन्न हुए थे इसलिये उनकी महिमा समस्त भूमण्डलमें गाई जाती है॥२२॥ उनके दाहिने हाथमें चक्र और दोनों चरणोंमें पद्मकोषका चिह्न विराजमान था। उन्होंने महाभिषेक कराय राजाधिराज हो गंगाजीके किनारे पर पचपन (५५) अश्वमेध यज्ञ करके भगवान् वासुदेवजी की पूजा की॥२३॥ यह राजा भरत ममताके पुत्र मामतेय ऋषिको अपना पुरोहित बनाकर यमुनाके तीर पर अश्वमेध यज्ञके अठत्तर (७८) पवित्र अश्व (घोड़े) यथाक्रमसे बाँधे। इन यज्ञोंके समय राजर्षि भरतजीने बहुतसा धन ब्राह्मणोंको दक्षिणामें दिया था॥२४॥ हे राजन्! श्रेष्ठगुणवाले देशमें महाराज भरतजीकी अग्नि प्रणीत थी। उस अग्निप्रचयन कालमें हजारों ब्राह्मणलोग उन महाराज भरतजीकी दी हुई

चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः॥ ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराडिभुः॥२३॥ पंचपंचाशत मेध्यैर्गंगायामनु वाजिभिः॥ सामंतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः॥२४॥ अष्टसप्ततिमेध्याश्वान्बंबंध प्रददद्वसु॥ भरतस्य हि दौष्यंतेरग्निः साचीगुणे चितः॥ सहस्रं वद्वशो यस्मिन्ब्राह्मणा गा विभेजिरे॥२५॥ त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान्बद्धा विस्मापयन्नृपान्॥ दौष्यंतिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ॥२६॥ मृगाञ्छुक्लदतः कृष्णान्हिरण्येन परीवृतान्॥ अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश॥ २७॥ भरतस्य महत्कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः नैवापुर्नैव प्राप्स्यंति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा॥ २८॥

गायोंको एक एक वद्वमें भाग करके लेगये थे एक वृद्व तेरह सहस्र चौरासी १३०८४ का होता है॥२५॥ और महाराज भरतजीने एक बारहीमें एक सौ तैंतीस १३३ यज्ञीय घोड़े बाँध राजा लोगोंको विस्मितकर देवता लोगोंके विभवकोभी आक्रमण किया था उनका ऐसा कर्म करना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि वह भगवान् हरिको प्राप्त हुए थे॥२६॥ इन महाराज भरतने मष्णार नामक कर्ममें श्वेतदन्त और कृष्ण रंगके चौदह लाख १४००००० हाथी सुवर्णसे सजे हुए दान किये॥२७॥ महाराज भरतजीने जो कर्म किये, उन कर्मोंको पहिले हुए नृपति गणभी प्राप्त नहीं करसके और आगेको जो राजा होंगे वह भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। जैसे भुजाओंके बलसे स्वर्ग प्राप्त नहीं होसक्ता॥२८॥

इन महाराज भरतजीने दिग्विजय करनेको जाकर किरात, हूण, यवन, पौण्ड्र, कङ्क, खश, शक और दूसरे अब्रह्मण्य राजाओंको और सब म्लेच्छजातिका संहार कर डाला॥२९॥ पूर्वसमयमें जिन दानवोंने देवतालोगोंको जीतकर जिन रसातलादि स्थानोंमें वास किया था और यह बली दानव लोग देवता लोगोंकी स्त्रियोंको भी पातालमें लेगये थे। महात्मा भरतजीने उन सब देवाङ्गनाओंका उद्धार किया था॥३०॥ हे महाराज! महाराज भरतजीके समयमें स्वर्ग और पृथ्वीसे प्रजालोगोंकी सब अभिलाषा पूरी होती थी। इस राजा भरतने सत्ताईस हजार वर्ष तक राज्य करके सब दिशाओंमें अपनी सेना भेजी थी॥३१॥ इसप्रकार राज्य भोग करनेके पीछे महाराज भरतजीने लोकपालोंका विभव

किरातहूणान्यवनानंध्रान्कंकान्खशञ्छकान्॥ अब्रह्मण्यान्नृपांश्चाहन्म्लेच्छान्दिग्विजयेऽखिलान्॥२९॥ जित्वा पुराऽसुरा देवान्ये रसोकांसि भेजिरे॥ देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत्॥३०॥ सर्वकामान्दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी॥समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत्॥३१॥ स सम्राड्लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट् च्छ्रियम्॥ चक्रं चास्खलितं प्राणान्मृपेत्युपरराम ह॥३२॥ तस्यासन्नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसंमताः॥ जघ्नुस्त्यागभयात्पुत्रान्नानुरूपा इतीरिते॥३३॥ तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम्॥ मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः॥३४॥

अधिराज्यकी सम्पत्ति, अस्खलित सेना और आत्मप्राणादि सबहीको मिथ्या विचार कर विषयसे मुँह मोडा॥३२॥ इन भरतजीके विदर्भ देशके राजाकी बेटी सुसम्मत तीन स्त्रियें थी। एकसमय राजाने कहा कि “यह पुत्र हमारे अनुसार नहीं हैं” इसलिये यह तीनों ऐसी शंका करने लगीं कि, बारंबार अनुहारका विचार कर कहीं यह राजा हमपर व्यभिचारकी शंका न कर बैठे और हमको त्यागदे। इसलिये अपनी अपनी संतानको मारडाला॥३३॥ इस प्रकार वंशके व्यर्थ होनेसे महाराज भरतजीने पुत्रार्थ वायु और सोमका यज्ञ किया। इस यज्ञके मरुद्गुणोंने प्रसन्न हो राजाके

हाथमें भरद्वाज नामक एक पुत्र समर्पण किया॥३४॥ हे परीक्षित!अब भरद्वाजके जन्मका वृत्तान्त और समर्पणकी कथा कहते हैं।अपने भ्राता उतथ्यकी स्त्री ममतासे एक दिन छिपकर बृहस्पतिजीने भोग करना चाहा था। परन्तु उस समय गर्भके बीच एक और वालक था, फिर उस समय गर्भके मध्य दूसरे गर्भका स्थान कैसे हो? इसलिये, गर्भके बालकने बृहस्पतिजीको वीर्य डालनेके अर्थ निवारण किया परन्तु बृहस्पतिजी कामान्ध हो रहे थे। उन्होंने क्रोधित होकर बालकको यह शाप दिया कि, “तू अंधा होजा” और अपना वीर्य ममताके पेटमें डाला॥३५॥बृह स्पतिजीके शापसे उतथ्य नयनहीन दीर्घतमा हुयेथे परन्तु उन्होंने अपनी एडीके प्रहारसे बृहस्पतिजीके वीर्यको योनिके बाहर निकाल दिया। परन्तु उस भूमिपर गिरेहुये वीर्यसे उसी समय एक कुमार उत्पन्न हुआ। पीछे स्वामी हमको व्यभिचारिणी जानकर छोड़ न दें इस भय से भीत होकर जब उतथ्यकी स्त्री ममताने उस कुमारको त्याग करनेकी इच्छा की, तब उस समय देवतालोगोंने बृहस्पति और ममता के विवाद रूप इस

अंतर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः॥ प्रवृत्तो वारितो गर्भं शध्वा वीर्यमवासृजत्॥३५ ॥
तं त्यक्तुकामां समतां भर्तृत्यागविशंकिताम्॥ नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः॥३६ ॥
मूढे भरद्वाजमिमं भरद्वाजं वृहस्पते॥यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम्॥३७ ॥

कुमारका नाम धरनेके लिये यह वचन कहे॥३६॥ यथा— पुत्रको त्याग करके जाती हुई देख बृहस्पतिजीने ममता से कहा। अरी मूढ स्त्री! यह बालक एकके क्षेत्रमें दूसरेके वीर्यसे होनेके कारण इसका दो जनोंसे जन्म हुआ। इसलिये यह तुम्हारे स्वामीका भी पुत्रहै। स्वामीसे कुछ भयकी शंका नहीं तुम इस बालकको पालो तब ममताने उत्तर दिया कि, तुमभी इसका पालन पोषण करो। हम दोनों जनोंसे अन्यायके द्वारा यह बालक उत्पन्न हुआ है। सो मैं इकली क्यो इसका पालन पोषण करूंगी। पिता माता अर्थात् बृहस्पति और ममता इस प्रकार कह झगडा करते करते इस बालकको छोड़कर चले गये इसीलिये इसका नाम भरद्वाज हुआ क्योंकि भर (पोषण) और द्वाज (दोनोंसे उत्पन्न) इन दोनों शब्दोंके मिलानेसे भरद्वाज नाम हुआ॥३७॥

हे राजा परीक्षित्!देवता लोगोंके इस प्रकार कहते कहते पर भी व्यभिचारसे उत्पन्न हुये उस बालकको व्यर्थ समझकर उतथ्यकी भार्याने त्याग दिया। तब उस बालकको मरुद्गणोंने लेकर पालन किया था। जब भरत वंशके वितथ होनेका उपक्रम हुआ तब उस समय मरुद्गणोंने इस पुत्रको लेकर महाराजाधिराज भरतजीको देदिया॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां शकुन्तलोपाख्यानं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ दोहा— भरत वंश इक्कीसमें, रंतिदेव अजमीढ। तिनके कुलकी कीर्ति सब, वरणों सहित सपीढ॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे महाराज परीक्षित!वंशके वितथ होनेपर भरतजीको मरुद्गणोंने यह बालक दिया इसलिये इन भरद्वाजका नाम वितथ हुआ। इन वितथका पुत्र मन्यु उनसे बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग ये पॉच पुत्र उत्पन्न हुये॥१॥ उनमें नरका पुत्र संकृति हुआ। तिसका पुत्र गुरु और

चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्॥ व्यसृजन्मरुतोऽबिभ्रन्दत्तोऽयं वितथेऽन्वये॥३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे शकुन्तलोपाख्याने विंशोऽध्यायः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ वितथस्य सुतो मन्युर्ब्रहत्क्षत्रो जयस्ततः॥ महावीर्यो नरो गर्गस्संकृतिस्तु नरात्मजः॥१॥ गुरुश्च रंतिदेवश्च संकृतेः पांडुनंदन॥ रंतिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते॥२॥ वियद्वित्तस्य ददतो लब्धंलब्धं बुभुक्षतः॥ निष्किंचनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः॥३॥ व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपि गतः किल॥ घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम्॥४॥ कृच्छप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः॥ अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत्॥५॥

रन्तिदेव हुआ। हे राजन्! इन रन्तिदेवकी महिमा इस लोक और परलोक दोनोमें गाई जाती है॥२॥इस राजाका चित्त निरन्तर व्ययमें नियुक्त था। वह आप भूखे रहकर भी जो कुछ मिलता तत्काल दान कर देते? यह धीर नरपति सब कुछ दान करके निष्किञ्चन हो सपरिवार क्षुधाके मारे अत्यन्त व्याकुल होगया॥३॥ और विना जल पानकिये राजाको अडतालीस दिन व्यतीत होगये। सब परिवार विना आहारके कष्ट पारहा था और आप भी भूख प्यासके मारे कम्पायमान होरहे थे। उसी समय घृत, खीर और थूली भोजन करनेके लिये राजाको प्राप्त हुई॥४॥ उसको पाय राजा प्रातःकाल भोजन करनेको चले जाते थे। उसी समय कोई ब्राह्मण अतिथि आगया॥५॥

तो राजा श्रद्धापूर्वक सर्वदेवमय भगवान् हरिको देखते हुए आदर पूर्वक उस ब्राह्मणको भी उस सब अन्नमेंसे विभाग करके देते हुए। और वह ब्राह्मण भोजन करके चला गया॥६॥ तिसके पीछे उस बचे हुये अन्नादिको अपने सब परिवारको बाँट चूंट आप स्वयं भोजन करना चाहते थे कि उस अवसरपर और कोई शूद्र अपनेको अतिथि बताकर आया तो यह रन्तिदेव भगवान् हरिका स्मरण करके उस बचेहुए अन्नमेंसे उस शूद्रकोभी भाग देते हुए॥७॥ जब वह एक शूद्र अतिथि आयकर बिदा हो चला गया कि, इतनेहीमें और एक जन बहुत सारे कुत्तोंको साथ लिये अतिथि बनकर वहाँ आयाऔर आनकर बोला कि “मैं इन सब कुत्तोंके साथ बहुतही भूखा हूँ” सो इस यूथके सहित मुझको तुम आहार दो

तस्मै संव्यभजत्सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः॥ हरिं सर्वत्र संपश्यन्स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः॥६॥ अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते॥ विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन्॥७॥ याते शुद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः॥ राजन्मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते॥८॥ स आदृत्यावशिष्टं यद्बहुमानपुरस्कृतम्॥ तच्च दत्त्वा नमश्चक्रेश्वभ्यः श्वपतये विभुः॥९॥ पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम्। पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपोदेह्यशुभस्य मे॥॥१०॥ तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम्॥ कृपया भृशसंतप्त इदमाहामृतं वचः॥११॥ न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा॥ आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामंतःस्थितो येन भवंत्यदुःखाः॥ १२॥

॥८॥ राजाने उसका बहुतही आदर किया और सन्मान करके वह बचा हुआ अन्न कुत्तोंके यूथको और उनके स्वामिको खानेके लिये देकर उनको नमस्कार किया॥९॥ उसके पीछे सब कुछ देकर एक जनकी तृप्तिके योग्य जो जल वहाँ बचा था। उसकेही पीनेका राजाने उद्योग किया कि, इतनेहीमें एक पुल्कस (चाण्डाल) आया और करुणा सहित यह वचन बोला कि, हे महाराज! मैं बहुत थक गया हूँ। सो मुझ अशुभ पुरुषको कुछ जल दीजिये॥१०॥ इस चाण्डालके ऐसे करुणायुक्त वचन सुनकर राजा रन्तिदेवको अत्यन्त दया हुई और दुःखित हो यह अमृतमय वचन बोले कि॥११॥ हम परमेश्वरसे अणिमादि अष्टसिद्धियुक्त गति अथवा मुक्तिकी भी कामना नहीं

करते। हमारी यही प्रार्थना है कि, हम सम्पूर्ण देहधारियोंके दुःखको भोक्तारूपसे भीतर स्थिर होकर प्राप्त हों। और हमसे सब प्राणियोंका दुःख दूर होजावे॥१२॥ यह दीन जन जीवन धारण करनेकी वासना करता है। इसके जीवनके लिये जल अर्पणकरतेही हमारी क्षुधा, तृषा, थकावट, अंगोंका घूमना कातरता, क्रान्ति, खेद, विषाद, मोह सबही निवृत्त होगये॥१३॥ इसप्रकार कहकर स्वभावसेही दयालु महाराज रन्तिदेवने स्वयं प्यासके मारे म्रियमाण होनेपरभी उस चाण्डालको अपने पीनेका जल देदिया॥१४॥ हे राजन्!त्रिभुवनाधीश जो ब्रह्मादि देवता फलाकांक्षी पुरुषोंको फल दान किया करते हैं यह सब महाराज रन्तिदेवके धैर्य और धर्मकी परीक्षा करनेके लिये विष्णुकी बनाई हुई मायासे

क्षुत्तृट्च्छमो गात्रपरिश्रमश्च दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः॥ सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तोर्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे॥१३॥ एवं प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया॥ पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नृपः॥१४॥ तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम्॥ आत्मानं दर्शयांचक्रर्मायाविष्णुविनिर्मिताः॥१५॥ स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निस्संगो विगतस्पृहः॥ वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे नमः परम्॥१६॥ ईश्वरालंबनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यरा धसः॥ माया गुणमयी राजस्वप्नवत्प्रत्यलीयत॥१७॥ तत्प्रसंगानुभावेन रंतिदेवानुवर्तिनः॥ अभवन्योगिनः सर्वे नारायण- परायणाः॥१८॥

अपने अपने स्वरूपको दिखाते हुए॥१५॥ परन्तु महाराज रन्तिदेवने इन सब देवताओंको नमस्कार किया। और निःसङ्ग व स्पृहा रहित होकर केवल भगवान् वासुदेवको अर्पण कर दिया॥ १६॥ इसलिये उन्होंने ब्रह्मादि देवताओंसे कुछभी नहीं चाहा। हे राजन् !रन्तिदेवके ईश्वरातिरिक्त और किसी फलकी इच्छा न करनेपर अपने चित्तको ईश्वरावलम्बित करनेसे उनके निकट गुणमयी माया स्वप्नकी समान आत्मामेंही विलीन हुई थी॥१७॥ उनके अनुगामी जनगण इन राजा रन्तिदेवके संसर्गप्रभावसे सबही नारायणपरायण योगी होगये॥१८॥

हे कुरुश्रेष्ठ! मन्युके पुत्र नरका वंश कहा गया। अब गर्गके वंशका वृत्तान्त कहते हैं सो तुम सुनो। गर्गसे शिनि उत्पन्न हुए। शिनिसे गार्ग्य यह ब्रह्मकुलके प्रवर्तक हुए॥१९॥ अब महावीर्यके वंशका विवरण सुनो। महावीर्यसे दुरितक्षय उत्पन्न हुआ। उनका पुत्र त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करा रुणि, यह तीनोंजने क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न होकर ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुये थे। अब मन्युके पॉच पुत्रोंमेंसे सबसे बड़ेका वंश सुनों। बृहत्क्षेत्रका पुत्र हस्ती हुआ कि, जिसने हस्तिनापुर बसाया॥२०॥इस7 हस्तीके अजमीढ8, द्विमीढ और पुरुमीढ, यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए. इनमें अजमीढके वंशसे

गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्त्राद्ब्रह्म ह्यवर्तत॥ दुरितक्षयो महावीर्यात्तस्य त्रय्यारुणिः कविः॥१९॥ पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः॥ बृहत्क्षत्त्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम्॥२०॥ अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः॥ अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः॥२१॥ अजमीढाद् बृहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः॥ बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्जयद्रथः॥२२॥ तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित्समजायत॥ रुचिराश्वो हृदहनुः काश्यो वत्सश्च तत्सुताः॥२३॥ रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनस्तदात्मजः॥ पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत॥२४॥ स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत्॥ स योगी गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात्सुतम्॥२५॥

प्रियमेधादि ब्राह्मणगण उत्पन्न हुए॥२१॥ और इस अजमीढसे वृहदिषु नाम और एक पुत्र जन्मा, उसका पुत्र बृहद्धनु हुआ। बृहद्धनुकी सन्तान वृहत्काय इसका पुत्र जयद्रथ हुआ॥२२॥ जयद्रथका पुत्र विशद उसका पुत्र सेनजित्, सेनजितके रुचिराश्व, दृढ, हनुकाश्य और वत्सल यह चार पुत्र हुए॥२३॥उनमें रुचिराश्वका पुत्र पार हुआ। उसका पुत्र पृथुसेन हुआ। हे राजन्! पारका दूसरा पुत्र नीप और नीपके सौ (१००) पुत्र हुए॥२४॥ और इसी नीपने शुक्रकी कन्या कृत्वीके गर्भसे ब्रह्मदत्तको उत्पन्न किया इस योगी ब्रह्मदत्त ने अपनी भार्या सरस्वतीके गर्भसे

विष्वक्सेन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया*

॥२५॥ जिसने जैगीषव्यके उपदेशसे योगशास्त्र प्रणयन किया था। इस विष्वक्सेनसे उदक्स्वनने जन्म लिया। इनसे भल्लाद नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥२६॥द्विमीढका पुत्र यवीनर, यवीनरका पुत्र कृतमान उसके यहां सत्यधृति नामक पुत्र जन्मा सत्यधृतिका पुत्र दृढनेमि और दृढनेमिका पुत्र सुपार्श्व हुआ॥२७॥सुपार्श्वसे सुमतिने जन्म लिया उसका पुत्र सन्नति नाम, उसका पुत्र कृति, जिसने हिरण्य नामसे योग विद्या सीखकर॥ २८॥ प्राच्य सामकी छः संहिताओंका विभाग करके उनको पढ़ाया इस कृतिके नीप हुआ और नीपसे उग्रायुधकी

जैगीषव्योपदेशेन योगतंत्रं चकार ह॥ उदक्स्वनस्ततस्तस्माद्भल्लादो वार्हदीषवः॥२६॥ यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः॥ नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत्॥२७॥ सुपार्श्वात्सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमां स्वतः॥ कृती हिरण्यनाभाद्यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट्॥२८॥ संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युग्रायुधस्ततः॥ तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुंजयः॥२९॥ ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोऽप्रजोऽभवत्॥ नलिन्यामजमीढस्य नीलः शांतिस्सुतस्ततः॥३०॥ शांतेः सुशांतिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत्॥ भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पंचाऽऽसन्मुद्गलादयः॥॥३१॥ यवीनरो बृहदिषुः कांपिल्यः संजयः सुताः॥ भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पंचानां रक्षणाय हि॥३२॥

उत्पत्ति हुई. उग्रायुधके क्षेम्य, उसका पुत्र सुवीर, सुवीरका पुत्र रिपुञ्जय॥२९॥ उसका पुत्र बहुरथ हुआ हस्तीका पुत्र पुरुमीढ निःसन्तान रहा नलिनी नाम जो भार्या थी उससे नीलनाम एक पुत्र उत्पन्न हुआ॥और नीलका पुत्र शान्तिजन्मा॥३०॥ शान्तिका बेटा सुशान्ति, सुशान्तिका पुत्र पुरुज और उससे अर्कने जन्म ग्रहण किया। अर्कका पुत्र भर्म्याश्व और उसके मुद्गलादि पाँच पुत्र उत्पन्न हुए॥३१॥ अर्थात् मुद्गल, यवीनर, वृहदिषु

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शंका— राजा नीपने क्षत्रिय होकर शुकदेवजी ब्राह्मणकी कन्याके साथ अपना विवाह क्यों किया? क्षत्रियकी पुत्रीको तो ब्राह्मण सदेव विवाहते रहे परन्तु ब्राह्मणकी कन्याके साथ क्षत्रियका विवाह हमने आजही सुनाहै, कभी देवयानीकी बात तो शापसे होगई, परन्तु यह अबकी हमको वढी शंका है।

उत्तर— तीन लोकमें शुकदेबजीकी कन्या सब ब्रह्मज्ञानियोंमें परम ब्रह्मज्ञानी थी और ब्रह्मज्ञानीही पुरुषको अपना पतिकरना चाहती थी और किसी दूसरे पुरुषको नहीं चाहती थी और राजा नीप वडा ब्रह्मज्ञानी या ऐसा विचारके अपनी इच्छासे राजा नींपको उसने अपना पति बनाया, कुछ संसारकी रीतिसे वह विवाह नहीं हुवा था॥

काम्पिल्य और संजय यह पांच पुत्र जन्मे। भर्म्याश्वने इन पुत्रोंको देखकर एक समय कहा था कि, हमारे यह पांच पुत्र पांच विषयके रक्षा करनेमें समर्थ हैं॥३२॥ वह पांच देशका पालन कर सक्ते हैं। इसी कारण इन पुत्रोंकी पाञ्चाल संज्ञा हुई। और पाञ्चाल देश इनहींके नामसे प्रसिद्ध हुया और मुद्गलसे मौद्गल्य गोत्री ब्रह्मकुल हुआ॥३३॥भर्म्याश्वके पुत्र मुद्गलसे शुभनरा मिथुनने जन्मलिया। इनमें दिवोदास नर और अहल्या नाम नारी थी। उसी अहल्यामें गौतमजीसे शतानन्दकी उत्पत्ति हुई॥३४॥ शतानन्दका पुत्र सत्यधृति हुआ। यह धनुर्वेदको भलीभाँतिसे जानता था। उसका पुत्र शरद्वान् कि, जिसका वीर्य उर्वशीके दर्शनसे शरकण्डोंके समूहमें गिराथा। और फिर इसी वीर्यसे एक शुभ जोड़ा उत्पन्न हुआ॥३५॥

विषयाणामलमिमे इति पांचालसंज्ञिताः॥ मुद्गलाद्ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं मौद्गल्यसंज्ञितम्॥३३॥ मिथुनं मुद्गलाद्भार्म्या द्दिवोदासः पुमानभूत्॥ अहल्या कन्यका यस्यां शतानंदस्तु गौतमात्॥३४॥ तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः॥ शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात्किल॥३५॥ शरस्तंवेऽपतद्रेतो मिथुनं तदभृच्छुभम्॥ तद्दृष्ट्वा कृपयाऽगृह्णाच्छंतनुर्मृगयां चरन्॥ कृपः कुमारः कन्या च द्रौणपत्न्यभवत्कृपी॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महा० न० भरतरन्तिदेवाजमीढादिचरितं नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ मित्रायुश्च दिवोदासाच्च्यवन स्तत्सुतो नृप॥ सुदासः सहदेवोऽथ सोमको जंतुजन्मकृत्॥१॥ तस्य पुत्रशतं तेषां यवीयान्पृषतः सुतः॥ द्रुपदो द्रौपदी तस्य धृष्टद्युम्नादयः सुताः॥२॥

जब शन्तनु राजा मृगया करनेको गया तब उसने दैवात् इस जोड़ेको देखा। और दयाके वश हो अपने घरपर ले आया उस नर मिथुनमेंसे बालकका नाम कृप और बालिकाका नाम कृपी हुआ जो कि, द्रोणाचार्यकी स्त्री हुई॥३५॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कंधे भाषाटीकायां वंशानुकीर्त्तनं नाम एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ दोहा— दिवोदासको वंश कह, ऋक्ष वंश बाईस। जरासन्ध और धर्मसुत, दुर्योधन धनईस॥१॥ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षितसे बोले कि, हे नृपश्रेष्ठ! दिवोदासका पुत्र मित्रायु, उसका पुत्र च्यवन, च्यवनका पुत्र सुदास, सुदासका सुत सहदेव और उसकी सन्तान सोमक हुआ. इस सोमकके सौ (१००) पुत्र थे। उनमें जन्तु बड़ा था॥१॥ और पृषत छोटा हुआ। इस

पृषतके सर्व सम्पद्-युक्त राजा द्रुपदने जन्म लिया। इन्ही राजा द्रुपदसे द्रौपदीका जन्म हुआ और इनके पुत्र धृष्टद्युम्नादि हुए॥२॥ धृष्टद्युम्नका पुत्र धृष्टकेतु हुआ। यह सब धर्म्याश्वके पाञ्चाल वंशमे हुए और पंजाबके राजा थे। हे राजा परीक्षित्!अब अजमीढका दूसरा पुत्र जो ऋक्ष था, उसका पुत्र संवरण हुआ॥३॥इस संवरणसे सूर्यकी कन्या तपतीके गर्भसे कुरुक्षेत्रपति कुरुने जन्म ग्रहण किया, इन कुरुके परीक्षित, सुधनु, ज, और निषधाश्व यह चार पुत्र उत्पन्न हुए॥४॥ इनमें सुधनुका पुत्र सुहोत्र, सुहोत्रका पुत्र च्यवन और इनके कृती हुआ। कृतीका उपरिचरवसु नाम पुत्र हुआ। उससे बृहद्रथ प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए॥५॥और पुत्रोंके यह नाम हैं यथा—कुशांब, मत्स्य, प्रत्यय और चेदिप इत्यादि।

धृष्टद्युम्नाद्धृष्टकेतुर्भार्म्यापांचालका इमे॥ योऽजमीढसुतो ह्यन्य ऋक्षः संवरणस्ततः॥३॥ तपत्यां सूर्यकन्यायां कुरुक्षेत्रपतिः कुरुः॥ परीक्षित्सु- धनुर्जह्नर्निषधाश्वः कुरोस्सुताः॥४॥ सुहोत्रोऽभूत्सुधनुषश्च्यवनोऽथ ततः कृती॥ वसुस्तस्योपरिचरो बृहद्रथमुखास्ततः॥५॥ कुशांबमत्स्यप्रत्ययग्र- चेदिपाद्याश्च चेदिपाः॥ वृहद्रथात्कुशाग्रोऽभूदृषभ स्वस्य तत्सुतः॥६॥ जज्ञे सत्यहितोऽपत्यं पुष्पवांस्तत्सुतो जहुः॥ अन्यस्यां चापि भार्यायां शकले द्वेबृहद्रथात्॥७॥ ते मात्रा बहिरुत्सृष्टे जरया चाभिसंधिते॥ जीवजीवेति क्रीडंत्या जरासंधोऽभवत्सुतः॥८॥ ततश्च सहदेवोऽभूत्सोमापिर्यच्छ्रुतश्रवाः॥ परीक्षिदनपत्योऽभूत्सुरथो नाम जाह्नवः॥९॥ ततो विद्वरथस्तस्मात्सार्वभौमस्ततोऽभवत्॥ जयसेनस्तत्तनयो राधिकोऽतोऽयुतो ह्यभूत्॥ १०॥

यह सबही चेदिप अर्थात् चंदेलीके राजा थे बृहद्रथसे कुशाग्रका जन्म हुआ उसका पुत्र ऋषभ, उसका सुत॥६॥ सत्यहित सत्यहितका पुत्र पुष्यवान्, तिसका बेटा जह्नुहुआ। हे राजन्!बृहद्रथकी दूसरी भार्यासे एक पुत्र दो खण्ड होकर जन्मा था॥ ७॥ उसकी माताने उस बालकको ऐसा देखकर बाहर फेंकवादिया। फिर जरा राक्षसीने उसको देख “जीवितहो जीवितहो” यह वाक्य उच्चारणपूर्वक क्रीडा करते करते उन दोनों खण्ड़ोंको जोड दिया था उससेही यह बालक सर्वावयव सम्पन्न हो जरासंध नाम हुआ॥८॥ इस जरासन्धका पुत्र सहदेव, उसका पुत्र सोमापि, उससे श्रुतश्रवाकी उत्पत्ति हुई। हे राजन् !कुरुपुत्र परीक्षित्के सन्तान नहीं थीजह्नुकापुत्र सुरथ॥९॥ इस सुरथसे विदूरथका जम््म

हुआ। उसका पुत्र सार्वभौम, उसका पुत्र जयसेन, जयसेनका पुत्र राधिक, राधिकसे अयुतायुने जन्म लिया॥१०॥ अयुतायुके क्रोधन, क्रोधनके देवातिथि उनके ऋक्ष और ऋक्षसे दिलीपने जन्म ग्रहण किया। और दिलीपके प्रतीप नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ११॥ इन प्रतीपके देवापि, शन्तनु और बाह्लीक नामक तीन पुत्र हुए। तिनमें बडा पुत्र देवापि पितृराज्यको छोडकर वनमें चला गया था॥१२॥इसलिये मध्यम पुत्र शन्तनु राजा हुए। पूर्व जन्ममें इनका नाम महाभिषक था। यह शन्तनु अपने हाथसे जिस किसी वृद्ध पुरुषको स्पर्श करते वही युवा होजाता॥१३॥ और शान्ति प्राप्त करलेता था. इस कर्मकेही करनेसे इनका शन्तनु नाम हुआ। इन शन्तनुजीके राजा होनेपर देवराज इन्द्रने जब बारह वर्षतक पानी न वर्षाया॥१४॥ तब राजाने उद्विग्न होकर ब्राह्मणोंसे इसका कारण पूँछा तब ब्राह्मणोंने इस विषयमें केवल इतनाही कहा कि, महाराज! बड़े भाईके

ततश्च क्रोधनस्तस्माद्देवातिथिरमुष्य च॥ ऋष्यस्तस्य दिलीपोऽभूत्प्रतीपस्तस्य चात्मजः॥११॥ देवापिश्शंतनुस्तस्य वाह्लीक इति चात्मजाः॥ पितृराज्यं परित्यज्य देवापिस्तु वनं गतः॥१२॥ अभवच्छंतनू राजा प्राङ्महाभिषसंज्ञितः॥ यंयं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं यौवनमेति सः॥१३॥ शांतिमाप्नोति चैवाग्र्यां कर्मणा तेन शंतनुः॥ समा द्वादश तद्राज्ये नववर्ष यदा विभुः॥१४॥ शंतनुर्ब्राह्मणैरुक्तः परिवेत्ताऽयमग्रभुक्॥ राज्यं देह्यग्रजायाशु पुरराष्ट्रविवृद्धये॥१५॥ एवमुक्तो द्विजैर्ज्येष्टं छंदयामास सोऽब्रवीत्॥ तन्मंत्रिप्रहितैर्विप्रैर्वेदाद्विभ्रंशितो गिरा॥१६॥ वेदवादातिवादान्वै तदा देवो ववर्ष ह॥ देवापिर्योगमास्थाय कलापग्राममाश्रितः॥१७॥

रहते जो पुरुष राजसिंहासन पर बैठता है वह अपनी समान पुरुष होनेपर भी परिवेत्ताही होजाताहै आप परिवेदन दोषसे दूषित हुये हैं. सो इस दोषको दूर करनेके लिये शीघ्र अपने बडे भाईको बुलाकर उनको राज्यभार देदो। तब देवता जल वर्षावेंगे। और पुरराष्ट्रोंकी वृद्धि होगी॥ १५॥ ब्राह्मणोंके यह वचन सुनकर राजा शन्तनु उसीसमय वनको चलेगये। और “प्रजापालन करनाही राजाका परम धर्म है। आप राज्यको स्वीकार कीजिये” यह कहकर अपने बड़े भ्रातासे राज्य ग्रहण करनेके लिये विनय करने लगे। परन्तु इससे पहले शन्तनुके मंत्री अश्ववारने देवापिको पाखण्ड करके राज्यके अयोग्य करनेके लिये उनके पास कुछेक ब्राह्मणोंको भेज दिया था. पाखण्डमतानुयायी ब्राह्मणलोगोंकी कथाके द्वारा जब देवापि वेदमार्गसे

परिभ्रष्ट हुये तब इन्होंने शन्तनुकी प्रार्थना न मानी और वेद शास्त्रकी निन्दा करने लगे तब वेदोंकी निन्दा करनेसे नीचता पानेके कारण राज्यके योग्य देवापि न रहे। फिर उसके उपरान्त शन्तनुके राज्य भोग करनेमें और कोई दोष नहीं रहा। फिर यथाकालमें वर्षा होने लगी तबसे देवापि योगमार्गका अवलम्बनकर कलाप ग्राममें रहते हैं॥१६॥१७॥ जब कलियुगमें चन्द्र वंशका नाश होजायगा तब सत्ययुगके पहले यह देवापि फिर चन्द्रवंशको स्थापित करेंगे शन्तनुके पुत्र बाह्लीकसे सोमदत्तकी उत्पत्ति हुई। इस सोमदत्तके भूरि भूरिश्रवा और शल यह तीन पुत्र उत्पन्न हुये॥ १८॥

सोमवंशे कलौ नष्टे कृतादौ स्थापयिष्यति॥ वाह्लीकात्सोमदत्तोऽभूद्भूरिर्भूरिश्रवास्ततः॥१८॥ शलश्च शंतनोरासीद्गं गायां भीष्म आत्मवान्॥ सर्वधर्मविदां श्रेष्ठो महाभागवतः कविः॥१९॥ वीरयूथाग्रणीर्येन रामोऽपि युधि तोषितः॥ शंतनोर्दशकन्यायां जज्ञे चित्रांगदः सुतः॥२०॥ विचित्रवीर्यश्चावरजो नाम्ना चित्रांगदो हतः॥ यस्यां पराशरात्साक्षादवतीर्णो हरेः कला॥२१॥

हे परीक्षित्! इन शन्तनुके गंगाजीके गर्भसे भीष्मजीका जन्म हुवाथा। यह भीष्मजी धर्मके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ महाभागवत विद्वान और वीरगणोंके अगुए थे, उन्होने संग्राममें परशुरामजीको भी प्रसन्न किया था। हे राजन्!इन शन्तनुसे दाशकान्यामें चित्रांग और विचित्रवीर्य^(१)नामक दो पुत्रजन्में9॥१९॥२०॥ उनमें छोटा विचित्रवीर्य हुआ बडा पुत्र चित्राङ्गत जिसको चित्रांगद नामक किसी गन्धर्वने मारडाला। शंतनुराजाके ग्रहण करनेसे पहले इस दाशकन्या (सत्यवती) में महर्षि पराशरसे साक्षात् भगवान् हरिके अंशसे कृष्णद्वैपायन मुनि (श्रीव्यासजी) का अवतार हुआ॥२१॥

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१ शंका— रामचन्द्रके सामने त्रेतायुगमें परशुरामजी अपना धनुष बाण रखके उत्तर दिशामें तप करनेको चले गयेथे, रामायणमें ऐसा लिखा है, फिर द्वापर युगमें भीष्मजीके संग युद्ध कैसे किया उस समय परशुरामजीके पास धनुष बाण कहा से आया?

उत्तर—जब परशुरामजीने रामचन्द्रजीके सामने अस्त्रोंका त्याग किया, उस समय कुछ उन्होंने ऐसी शपथ नहीं कीथी कि, आजसे हम कभी अस्त्र प्रहण न करेंगे, इसलिये अम्बिकाको अत्यन्त दुखी देख कर और अपनी शरण आई जानकर तपके प्रभावसे दूसरा धनुपबाण बनाकर भीष्मके संग युद्ध करने लगे॥

हे परीक्षित्! उनके जन्म होनेसे पहिले समस्त वेद गुप्त होगये थे और उनसेही हमनेभी श्रीमद्भागवत शास्त्र प था जो कि, इस समय आपको सुना रहे हैं। इन भगवान् बादरायणके पैलादि अनेक शिष्य थे परन्तु इन्होंने उनका स्वभाव जानकर सब शिष्योंको छोडकर हमारे प्रति परमगुह्य श्रीमद्भागवत शास्त्रकी व्याख्या की क्योंकि मैं उनका शान्त पुत्रथा॥२२॥ इन विचित्रवीर्यने काशीराजकी दो कन्या अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया, इन दोनों कन्याओंको महाबलवान् भीष्म स्वयंवरमेंसे लडकर छीन लाये थे। इन दोनों स्त्रियोंमें विचित्रवीर्य अत्यन्त अनुराग करतेथे इसलिये अल्प कालमेंही यक्ष्मारोगसे ग्रसित हो मृत्युको प्राप्त हुये॥२३॥ २४॥ इनके कोई सन्तान नहीं हुई तब इनके सहोदर भगवान्

वेदगुप्तो मुनिः कृष्णो यतोऽहमिदमध्यगाम्॥ हित्वा स्वशिष्यान्पैलादीन्भगवान्बादरायणः॥२२॥ मह्यं पुत्राय शांताय परं गुह्यमिदं जगौ॥ विचित्रवीर्योऽथोवाह काशिराजसुते बलात्॥२३॥ स्वयंवरादुपानीते अंबिकां बालिके उभे॥ तयोरासक्तहृदयो गृहीतो यक्ष्मणा मृतः॥२४॥ क्षेत्रेऽप्रजस्य वै भ्रातुर्मात्रोक्तो बादरायणः॥ धृतराष्ट च पांडुं च विदुरं चाप्यजीजनत्॥२५॥ गांधार्यां धृतराष्ट्रस्य जज्ञे पुत्रशतं नृप॥ तत्र दुर्योधनो ज्येष्ठो दुःशला चापि कन्यका॥२६॥ शापान्मैथुनरुद्धस्य पांडोः कुंत्यां महारथाः॥ जाता धर्मानिलेंद्रेभ्यो युधिष्ठिरमुखास्त्रयः॥२७॥

वेदव्यासजीने अपनी सत्यवती माताके कहनेसे अपने भाई विचित्र वीर्यके क्षेत्रमें धृतराष्ट्र पाण्डु और विदुर यह तीन पुत्र उत्पन्न किये॥२५॥ इनमें धृतराष्ट्रकी स्त्री गान्धारी हुई इस धृतराष्ट्रके गान्धारीसे सौ (१००) पुत्र जन्मे इन पुत्रोंमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और दुःशला नाम एक कन्या हुई॥२६॥ हे राजन्! पाण्डु राजा एक समय वनमें शिकार खेलनेको गये थे, वहॉ इन्होंने मैथुन करते हुये एक मृगका वध किया, तब मृगने इनको शाप दिया कि जब तुम मैथुन करोगे तबही तुम्हारी मृत्यु होजायगी। इन राजा पाण्डुकी स्त्री कुन्तीमें धर्म, पवन और इन्द्रके

वीर्यसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन, यह तीन पुत्र महारथी उत्पन्न हुये। और इन्हीं राजाकी माद्री नामक दूसरी भार्यामें अश्विनीकुमारसे नकुल और सहदेवका जन्म हुआ इन पाँचों पाण्डवोंकी भार्या द्रौपदी हुई। द्रौपदीके गर्भमें युधिष्ठिरादि पॉच पांडवोंसे पॉच पुत्र उत्पन्न हुये, जोकि तुम्हारे पितृव्य थे॥२७॥२८॥ अर्थात् युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसे श्रुतसेन और अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक और सहदेवसे श्रुतकर्मा उत्पन्न हुआ॥हे राजन्! इन पॉच पांडवोंसे इनकी दूसरी भार्याओंमें इन पुत्रोंके अतिरिक्त (सिवाय) और भी पुत्र उत्पन्न हुयेथे युधिष्ठिरकी पौरवो नामक जो दूसरी भार्याथी। उससे देवक नाम एक पुत्र उत्पन्न हुआ। भीमसेनकी हिडिम्बा नामक वनितामें घटोत्कचने जम््म नकुलः सहदेवश्च माद्र्यां नासत्यदस्रयोः॥ द्रौपद्यां पंच पंचभ्यः पुत्रास्ते पितरोऽभवन्॥२८॥ युधिष्ठिरात्प्रति विंध्यः श्रुतसेनो वृकोदरात्॥ अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः॥२९॥ सहदेवसुतो राजच्छ्रुतकर्मा तथाऽपरे॥ युधिष्ठिरात्तु पौरव्यां देवकोथ घटोत्कचः॥३०॥ भीमसेनाद्धिडिंबायां काल्यां सर्वगतस्ततः॥ सहदेवात्सुहोत्रं तु विजयाऽसुत पार्वती॥३१॥ करेणुमत्यां नकुलो निरमित्रं तथार्जुनः॥ इरावतमुलुप्यां वै सुतायां बभ्रुवाहनम्॥ मणिपुरपतेः सोऽपि तत्पुत्रः पुत्रिकासुतः॥३२॥ तव तातः सुभद्रायामभिमन्युरजायत॥ सर्वातिरथ जिद्धीर उत्तरायां ततो भवान्॥३३॥

ग्रहण किया॥२९॥३०॥ इन भीमसेनके कालीनामक एक और भी भार्याथी, जिससे सर्वगत नामक एक सन्तानने जन्मलिया सहदेवकी विजयानामकदुसरी भर्या पर्वतकी बेटीने सुहोत्र नामएक पुत्र उत्पन्न किया। नकुलकी करेणुमती नामक वनितामें तिरमित्र नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ. हे राजन्! अर्जुनने नागराजकी कन्या उलुपीके गर्भसे इरावन्त नामक एक पुत्र उत्पन्न कियाऔर मणिपुराधीशकी बेटीमें बभ्रुवाहन नाम पुत्र उत्पन्न कियाथा। यद्यपि यह अर्जुनका बेटाथा। पर नानाके गोद लेनेसे मणिपुरपतिका पुत्र कहायाथा॥३१॥३२॥ इन अर्जुनके सुभद्रा नामक और एक भर्याथी, उससे तुम्हारे पिता अभिमन्युने जन्म लिया। यह अभिमन्यु समस्त अतिरथी वीरोंके जयकारी और

महावीरथे। हे महाराज परीक्षित्!उनकेही औरससे उत्तराके गर्भमें आपने जन्म लिया॥३३॥हे राजन्! अश्वत्थामाके छोड़े हुए ब्रह्मास्त्रके तेजसे कुरुवंशका जब नाश होरहाथा, तब तुमभी उससे नष्ट होते। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मुरलीमनोहरके प्रभावसे मृत्युके हाथसे तुम छूट गये॥३४॥ हे तात! तुम्हारे इस समय जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन, और उग्रसेन यह चार पुत्रहैं॥३५॥हे परीक्षित्!तुम्हारे इन पुत्रोंमेंसे जनमेजय तक्षक (सर्प) से तुम्हारी मृत्युका होना सुनकर रोषके मारे सर्पसत्र यज्ञका अनुष्ठान करके यज्ञाग्निमें सब सर्पोंको होम देगा॥३६॥और तुम्हारे यह पुत्र समस्त पृथ्वीको जीत अश्वमेध यज्ञ करेंगे और कावषेयवंशके “तुर"नामक ऋषिको पुरोहित बनाकर और भी बहुतसे

परिक्षीणेषु कुरुषु द्रौणेर्ब्रह्मास्त्रतेजसा॥ त्वं च कृष्णानुभावेन सजीवो मोचितोंतकात्॥३४॥ तवमे तनयास्तात जनमे जयपूर्वकाः॥ श्रुतसेनो भीमसेन उग्रसेनश्च वीर्यवान्॥३५॥ जनमेजयस्त्वां विदित्वा तक्षकान्निधनं गतम्॥ सर्पान्वै सर्पयागाग्नौ स होष्यति रुषाऽन्वितः॥३६॥ कावषेयं पुरोधाय तुरं तुरगमेधयाट्॥ समंतात्पृथिवीं सर्वां जित्वा यक्ष्यति चाध्वरैः॥३७॥ तस्य पुत्रश्शतानीको याज्ञवल्क्यात्त्रयींपठन्॥ अस्त्रज्ञानं क्रियाज्ञानं शौनकात्परमेष्यति॥॥३८॥ सहस्रानीकस्तत्पुत्रस्ततश्चैवाश्वमेधकः॥ असीमकृष्णस्तस्यापि निमिचक्रस्तुतत्सुतः॥३९॥ गजाह्वये हृते नद्या कौशांब्यां साधु वत्स्यति॥ उक्तस्ततश्चित्ररथस्तस्मात्कविरथः सुतः॥४०॥

अश्वमेध यज्ञ करेंगे॥३७॥ हे परीक्षित्!तुम्हारे पुत्र जनमेजयके शतानीक नामक एक पुत्र होगा यह शतानीक याज्ञवल्क्य मुनिसे तीन वेद पढेगा और शौनक मुनिसे ब्रह्मविद्या और आत्मज्ञान सीखेगा और कृपाचार्यसे अस्त्रज्ञान प्राप्त करेगा॥३८॥ शतानीकका पुत्र सहस्रानीक होगा, उससे अश्वध्वजकी उत्पत्ति होगी। उनका पुत्र असीम कृष्ण और उनका पुत्र निमिचक्र होगा॥ ३९॥ इस निमिचक्रके राजकालमें हस्तिनापुर गंगाजीमें डूबेगा। तब यह राजा कौशांबी नगरीमें वास करेगा। इस निमिचक्रके सन्तान चित्ररथ और

उसके कविरथ जन्मेगा॥४०॥ कविरथका पुत्र वृष्टिमान् और उनका पुत्र सुषेण नामक राजा होगा। सुषेणके सुनीथ नामक पुत्र जन्मेगा उसका पुत्र नृचक्षु होगा और उससे सुखीनल जन्म लेगा॥४१॥ सुखीनलका पुत्र परिप्लव होगा उससे सुनय जन्म धारण करेगा उसका पुत्र मेधावी, मेधावीका पुत्र नृपञ्जय और उससे दुर्व्व जन्म लेगा और उसका पुत्र तिमि होगा तिमिसे बृहद्रथकी उत्पत्ति होगी। इसका पुत्र सुदास और सुदाससे शतानीक जन्म धारण करेगा॥ ४२॥ शतानीकका पुत्र दुर्दमन, इसका पुत्र बहीनर, बहीनरका पुत्र दंडपाणि इस दंडपाणिका पुत्र नेमि और इस नेमिसे क्षेमक नाम पुत्र उत्पन्न होगा॥४३॥हे महाराज परीक्षित्!देवर्षि सत्कृत ब्रह्म क्षत्रियवंश इस क्षेमकको राजा पाकर कलियुगमें

तस्माच्च दृष्टिमांस्तस्य सुषेणोऽथ महीपतिः। सुनीथस्तस्य भविता नृचक्षुर्यत्सुखीनलः॥४१॥ परिप्लवः सुतस्तस्मान्मेधावी सुनयात्मजः॥ नृपंजयस्ततो दुर्वस्तिमिस्तस्माज्जनिष्यति॥ तिमेर्बृहद्रथस्तस्माच्छतानीकः सुदासजः॥॥४२॥ शतानीकाद्दुर्दमनस्तस्यापत्यं बहीनरः॥ दंडपाणिर्निमिस्तस्य क्षेमको भविता नृपः॥४३॥ ब्रह्मक्ष त्त्रस्य वै प्रोक्तो वंशो देवर्षिसत्कृतः॥ क्षेमकं प्राप्य राजनं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ॥४४॥ अथ मागधराजानो भवितारो वदामि ते॥ भविता सहदेवस्य मार्जारियच्छतश्रवाः॥४५॥ ततोऽयुतायुस्तस्यापि निरमित्रोऽथ तत्सुतः॥ सुनक्षत्रः सुनक्षवाद् बृहत्सेनोऽथ कर्मजित॥४६॥ ततः सृतंजयाद्विप्रः शुचिस्तस्य भविष्यति॥ क्षेमोऽथ सुव्रतस्त स्माद्धर्मसूत्रः शमस्ततः॥४७॥

समाप्तिको प्राप्त होजायगा॥४४॥ श्रीशुकदेवजी इतनी कथा सुनाय कर नृपश्रेष्ठ परीक्षित्से बोले कि, हे कुरुवंशावतंस! अब मगध वंशमें जो राजा होंगे उनका वृत्तान्त कहता हूं। आप सचेत हो मन लगायकर सुनिये। बृहद्रथके पुत्र जरासन्धके सहदेव नामक पुत्र होगा सहदेवके मार्ज्जारि और इस मार्जारिसे श्रुतश्रवा जन्म ग्रहण करेगा॥४५॥ इसका पुत्र अयुतायु उसकी सन्तान निरमित्र इसका पुत्र सुनक्षत्र, इस सुनक्षत्रसे बृहत्सेनकी उत्पत्ति होगी इस बृहत्सेनका पुत्र कर्मजित् उसके सृतञ्जय और उससे विप्रनाम एक नरेश उत्पन्न होगा। उसका पुत्र शुचि शुचिका

पुत्र क्षेम, उससे सुव्रत जन्मेगा। सुव्रतका पुत्र धर्मसूत्र और इस धर्मसूत्रके शम नाम पुत्र उत्पन्न होगा॥४६॥४७॥ इस समसे द्युमत्सेनकी उत्पत्ति होगी द्युमत्सेनका पुत्र सुमति होगा। इस सुमतिका पुत्र सुबल उत्पन्न होगा, सुबलका पुत्र सुनीथ, सुनीथका पुत्र सत्यजित्, सत्यजितका पुत्र विश्वजित् और विश्वजित्का पुत्र रिपुञ्जय उत्पन्न होगा। हे राजा परीक्षित्!हजार वर्षतक यह सब राजा उत्पन्न होंगे और इनके उपरान्त जो समस्त राजा होंगे वह पीछे (द्वादशस्कन्धमें) कहे जायँगे॥४८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ दोहा— ययाति सुत अनुद्रुह्युपुनि, वरणों तुर्वसु वंश॥ पीछे ज्यामघ राज्य तक, यदुकुल कहौं प्रशंश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे कुरु

द्युमत्सेनोऽथ सुमतिः सुबलो जनिता ततः॥ सुनीथः सत्यजिदथ विश्वजिद्यद्रिपुंजयः॥ बार्हद्रथाश्च भूपाला भाव्याः साहस्रवत्सरम्॥४८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे दिवोदासर्क्षयोर्वंशवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ श्रीशुक उवाच॥ अनोः सभानरश्चक्षुः परोक्षश्च सुतास्त्रयः॥ सभानरात्कालनरः संजयस्तत्सुतस्ततः॥१॥ जनमेजय स्तस्य पुत्रो महाशीलो महामनाः॥ उशीनरस्तितिक्षुश्च महामनस आत्मजौ॥ शिबिर्वेनः शनिर्दक्षश्चत्वारोशीनरात्मजाः॥२॥ वृषादर्भः सुवीरश्च भद्रः कैकेय आत्मजाः॥शिवेश्चत्वार एवासंस्तितिक्षोश्च रुशद्रथः॥३॥ ततो हेमोऽथ सुतपा बलिः सुतपसोऽभवत्॥ अंगवंगकलिंगाद्याः सुह्मपुंड्रांभ्रसंज्ञिताः॥४॥ जज्ञिरे दीर्घतमसो बलेः क्षेत्रे महीक्षितः॥ चक्रुः स्वनाम्ना विषयान्षडिमान्प्राच्यकांश्च ते॥५॥

कुलभूषण! पुरुका वंशतो आपसे कहा, अब राजा ययातिके चौथे पुत्र अनुके वंशका वर्णन करते हैं अनुके सभानर, चक्षु और परोक्ष यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सुभानरका पुत्र कालनर, उसका पुत्र सृंजय॥१॥ और उसका पुत्र जनमेजय हुआ जनमेजयका पुत्र महाशील महामना नाम हुआ, महामनाके उशीनर और तितिक्षु यह दो पुत्र उत्पन्न हुए, इन दोनोंमें उशीनरके शिबि, वेन, शमि और दक्ष यह चार पुत्र उत्पन्न हुए॥२॥ इनमें शिविसे वृषादर्भ, वीर, भद्र, कैकय यह चार पुत्र जन्मे। तितिक्षुका पुत्र रुशद्रथ॥३॥ इसका पुत्र हेम, उसका पुत्र सुतपा

और सुपासे बलि नाम पुत्र हुआ, इस बलिके क्षेत्रमें दीर्घतमासे अंग, वंग, कलिङ्गादि और सुह्म, पुंड्र और अन्ध्र नामक छः पुत्र उत्पन्न हुए इन सबोंने अपने अपने नामोंसे छः जनपद प्राच्य देशमें अंग, वंग, कलिंग, सुह्मऔर पुण्डरीक और अन्ध्र आदि वसाये॥४॥५॥ अंगसे खनपान नामक जो पुत्र जन्मा उसका पुत्र दिविरथ, उसकी सन्तान धर्मरथ और उससे चित्ररथ जन्मा चित्ररथके कोई सन्तान नहीं हुई॥६॥ रोमपाद नाम करके यह राजा विख्यात था, उसके सखा दशरथ राजाने उसको पुत्रार्थ शान्तानामक अपनी कन्या दान करदी थी, इस कन्याका पाणिग्रहण ऋष्यशृंग मुनिने किया॥७॥ हे राजन्!रोमपाद राजाके राज्यमें किसी कारणसे कुछ कालतक देवता इंद्रने जल नहीं वर्षाया

खनपानोंगतो जज्ञे तस्माद्दिविरथस्ततः॥ सुतो धर्मरथो यस्य जज्ञे चित्ररथोऽप्रजाः॥६॥ रोमपाद इति ख्यातस्तस्मै दशरथः सखा॥ शांतां स्वकन्यां प्रायच्छदृष्यशृंग उवाह ताम्॥७॥ देवेऽवर्षति यं रामा आनिन्युर्हरिणीसुतम्॥ नाट्यसंगीतवादित्रैर्विभ्रमालिंगनार्हणैः॥८॥ स तु राज्ञोऽनपत्यस्य निरूप्येष्टिं मरुत्वतः॥ प्रजामदाद्दशरथो येन लेभेऽप्रजाः प्रजाः॥९॥ चतुरंगो रोमपादात्पृथुलाक्षस्तु तत्सुतः॥ वृहद्रथो बृहत्कर्मा वृहद्भानुश्च तत्सुतः॥१०॥ आद्याद् बृहन्मनास्तस्माज्जयद्रथ उदाहृतः॥ विजयस्तस्य संभूत्यां ततो धृतिरजायत॥११॥

तब राजाकी अनुमतिसे वारांगनागण तपोवनमें जाय गीत गाय बाजे बजाय बजाय नाचने लगीं। और हाव भाव कटाक्ष आलिंगन और अर्हण योगसे इन ऋष्यशृंगको ले आई॥८॥ ऋष्यश्रृंगके आतेही जल वर्षा। इसके उपरान्त इन मुनिने राजाको निःसन्तान देख यज्ञ कराय पुत्रका मुख दिखाया॥९॥ इन रोमपादसे चतुरंग उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तान पृथुलाक्ष पृथुलाक्षसे बृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्भानु यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए॥१०॥ इनमें बृहद्रथसे बृहन्मना जन्मा, उसका पुत्र जयद्रथ, जयद्रथका पुत्र विजय हुआ। इस विजयकी सम्भूति नामक भार्यासे धृतिने जम््म

ग्रहण किया॥११॥ धृतिका पुत्र धृतव्रत, उसका पुत्र सत्कर्मा, उससे अधिरथ उत्पन्न हुआ, इस अधिरथने श्रीगंगाजीके किनारेपर क्रीडा करते हुये कुन्तीजीका बहाया सुन्दूकमें एक बालक पाया पर यह अधिरथ सन्तानहीनथा। इसीलिये इसने संदूकसे पाये हुये बालकको अपना पुत्र बनालिया। हे राजन्! इस बालकका नाम कर्ण था और इससेही वृषसेनकी उत्पत्ति हुई॥१२॥१३॥ ययाति सुत द्रुह्युकापुत्र बभ्रु हुआ, बभ्रुका पुत्र सेतु, सेतुका पुत्र आरब्ध उसका पुत्र गान्धार, उसका बेटा धर्म और उससे धृत जन्मा॥१४॥ धृतका पुत्र दुर्मना और उससे प्रचेताकी उत्पत्ति हुई। इस प्रचेताके सौ

ततो धृतव्रतस्तस्य सत्कर्माऽधिरथस्ततः॥ योऽसौ गंगातटे क्रीडन्मंजूषांतर्गतं शिशुम्॥१२॥ कुंत्यापविद्धं कानी नमनपत्योऽकरोत्सुतम्॥ वृषसेनः सुतस्तस्य कर्णस्य जगतीपतेः॥१३॥ द्रुह्योश्च तनयो बभ्रुःसेतुस्तस्यात्मज स्वतः॥ आरब्धस्तस्य गांधारस्तस्य धर्मसुतो धृतः॥१४॥ धृतस्य दुर्मनास्तस्मात्प्रचेताः प्राचेतसं शतम्॥ म्लेच्छाधिपतयोऽभूवन्नुदीचीं दिशमाश्रिताः॥१५॥ तुर्वसोश्च सुतो वह्निर्वह्नेर्भर्गोऽथ भानुमान्॥ त्रिभानुस्तत्सुतो ऽस्यापि करंधम उदारधीः॥१६॥ मरुतस्तत्सुतोऽपुत्रः पुत्रं पौरवमन्वभृत्॥ दुष्यंतः स पुनर्भेजे स्ववंशं राज्यका मुकः॥१७॥ ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ॥ वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम्॥१८॥ यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ यत्रावतीर्णो भगवान्परमात्मा नराकृतिः॥१९॥

(१००) पुत्र हुये जो कि, उत्तरदिशामें विराजमान होकर म्लेच्छाधिपति हुये हैं॥१५॥ तुर्व्वसुका पुत्रवह्नि उसका सुत भर्ग, उससे भानुमान्का जन्म हुवा भानुमान्का पुत्र त्रिभानु उसका पुत्र उदारमति करन्धम जन्म॥१६॥ करन्धमका पुत्र मरुत् इन्होंने पुत्ररहित होनेसे कुरुवंशीय राजा दुष्यन्तको गोद लिया, यह दुष्यन्त राज्याभिलाषीहोकर फिर अपने कुरुवंशको प्राप्त हुये थे॥१७॥हे नरश्रेष्ठ! अब राजा ययातिके बड़े पुत्र यदुके वंशका वर्णन करते हैं। यह अतिपवित्र वंश मानवमण्डलीके अनन्त पापोंका नाश करनेवाला है॥१८॥ इस यदुवंशका वृत्तान्त सुननेसे मनुष्यमात्र

पापोंसे छुटकारा पाते हैं। क्योंकि इसी वंशमें भगवान् वासुदेव नराकारसे अवतीर्ण हुये थे॥ १९॥ यदुके सहस्रजित्, क्रोष्टा, नल और रिपु यह चार पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें सहस्रजित्का पुत्र शतजित हुआ॥२०॥ इसके महाहय, रेणुहय और हैहय यह तीन पुत्र हुये इनमें हैहयका पुत्र धर्म, उनका पुत्र नेत्र और नेत्रका पुत्र कुन्ति हुआ। कुन्तिसे सोहंजि जन्मा, इसका पुत्र महिष्मान् और महिष्मानका पुत्र भद्रसेन हुआ॥२१॥ भद्रसेनके दुर्मद और धनक दो पुत्र हुये। इनमें धनकके कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा, यह चार पुत्र उत्पन्न हुये॥२२॥ इनमें कृतवीर्यका पुत्र

यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः॥ चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित्प्रथमात्मजः॥२०॥ महाहयो वेणुहयो हैह यश्चेति तत्सुताः॥ धर्मस्तु हैहयस्तो नेत्रः कुंतेः पिता ततः॥ सोहंजिरभवत्कुंतेर्महिष्मान्भद्रसेनकः॥२१॥ दुर्मदो भद्रसेनस्य धनकः कृतवीर्यसूः॥ कृताग्निः कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजाः॥२२॥ अर्जुनः कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपे श्वरोऽभवत्॥ दत्तात्रेयाद्धरेरंशात्प्राप्तयोगमहागुणः॥२३॥ न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यंति पार्थिवाः॥ यज्ञदान तपोयोगश्रुतवीर्यजयादिभिः॥२४॥ पंचाशीतिसहस्राणि ह्यव्याहतबलः समाः॥ अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्य- षङ्वसु॥ २५॥ तस्य पुत्रसहस्रेषु पंचैवोर्वरिता मृधे॥ जयध्वजः शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जितः॥२६॥

अर्जुन हुआ। जो कि, सप्तद्वीपका अधीश्वर था। और जिसने श्रीभगवान्के अंश दत्तात्रेयजीसे योग गुण प्राप्त किया था॥२३॥ ऐसा जान पड़ता है कि, कोई राजा यज्ञ, दान, तप, योग, वेदाध्ययन और शूरता, वीरता व दयादिसे इन महात्मा अर्जुनकी गतिको नहीं प्राप्त होसकता॥ २४॥ इस राजाने अव्याहत पराक्रमसे पचासी हजार (८५०००) वर्षतक अक्षय छः इन्द्रियोंके सुखको भोगा था। इस राजाकी स्मरणशक्ति आश्चर्यमय थी कि, जिससे कदापि वित्तका नाश नहीं होता था॥२५॥ इन अर्जुनके हजार पुत्र थे, इनमेंसे केवल पॉच परशुरामके संग्राममें मर

नेसे शेष बचे थे। जिनके नाम यह हैं। जयध्वज १ शूरसेन २ वृषभ ३ मधु और ऊर्जित ५ ॥ २६॥ इनमें जयध्वजका पुत्र तालजंघ और इस तालजंघके शत पुत्र हुये तालजंघनामवाले इन सबका क्षत्रियोंके संग्राममें सगरने संहार किया था॥२७॥ जो कुछ भी हो—तालजंघके इन सब पुत्रोंमें बड़ा वीतिहोत्र था। हे राजन् ! महात्मा वृष्णि तो मधुका पुत्र था। इस मधुके शत (१००) पुत्र उत्पन्न हुये थे। यद्यपि वृष्णि और यदुके कारणसे मधुका कुल माधव, वृष्णि और यादव इन तीन नामोंको प्राप्त हुआ था तो भी वृष्णि ही इस कुलमें श्रेष्ठ था। यदुका पुत्र क्रोष्टु उसका

जयध्वजात्तालजंघस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्॥ क्षत्त्रंयत्तालजंघाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम्॥२७॥ तेषां ज्येष्ठो वीति होत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः॥ तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम्॥२८॥ माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः॥ यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥२९॥ श्वाहिस्ततो रुशेकुर्वै तस्य चित्ररथस्ततः॥ शशबिंदुर्महायोगी महाभोजो महानभूत्॥३०॥ चतुर्दशमहारत्नश्चक्रवर्त्यपराजितः॥ तस्य पत्नीसहस्राणां दशानां सुमहायशाः॥३१॥ दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत्॥ तेषां तु षट्प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मजः॥३२॥

पुत्र वृजिनवान्॥२८॥२९॥ वृजिनवान्का पुत्र श्वाहि, उसका पुत्र रुशेकु, उसका सुत चित्ररथ, उससे महायोगी महाभाग शशबिन्दु की उत्पत्ति हुई॥३०॥ यह प्रत्येक जातिके श्रेष्ठ चौदह महारत्नोंका ( हाथी, घोडे, रथ, स्त्री, बाण, निधि, माला, वस्त्र, वृक्ष, शक्ति, झाल्य, मणि, छत्र और विमानादिका) स्वामी और अपराजित चक्रवर्ती था। हे परीक्षित !इसके दश हजार (१०००० ) स्त्रियें थीं॥३१॥ इनमेंसे प्रत्येक स्त्रीके लक्षलक्ष (१०००००) पुत्र उत्पन्न हुये। जिससे सब मिलकर दशलाख हजार पुत्र जन्मे अर्थात् एक अर्ब (१०००००००००) इन सब

पुत्रोंमें पृथुश्रवा, पृथुकीर्ति, पृथुयशा इत्यादि छः पुत्र विख्यात हुये*

॥३२॥ इन छः पुत्रोंमें पृथुश्रवाका पुत्र धर्म हुआ कि, जिस धर्मके उशना पुत्रने सौ (१००) अश्वमेध यज्ञ किये उशनाका पुत्र रुचक हुआ। इस रुचकके पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ यह पाँच पुत्र उत्पन्न हुए॥३३॥ इनमें ज्यामोघकी भार्या शैव्या थी। इस ज्यामघके कोई सन्तान नहीं थी भार्याके डरसे और विवाह नहीं किया यह एक समय इन्द्र भवनसे भोज्या नामक कन्याको हरण करके लारहाथा॥३४॥ कि, इस कन्याको रथपर बैठे देखकर शैव्या अत्यन्त क्रोधित हुई और अपने

धर्मो नामोशनास्तस्य हयमेधशतस्य याट्॥ तत्सुतो रुचकस्तस्य पंचाशन्नात्मजाः शृणु॥ पुरुजिद्रुक्मरुक्मेषुपृथुज्या मघसंज्ञिताः॥३३॥ ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात्॥ नाविंदच्छत्रुभवनाद्भोज्यां कन्याम हारषीत्॥३४॥ रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्यापतिममर्षिता॥ केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै॥३५॥ स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयंती पतिमब्रवीत्॥ अहं वंध्याऽसपत्नी च स्नुषा मे युज्यते कथम्॥३६॥

पतिसे बोली कि, यह कौनहै? जिसको मेरे बैठनेके रथपर चढ़ाकर लारहेहो॥३५॥ तब ज्यामघने भयके मारे उत्तर दिया कि, यह तेरी पतोहूहै शैव्या विस्मित होकर बोली कि, मैं तो बॉझहूं और मेरे कोई सौत भी नहीं कि, यह कन्या जिसके बेटेकी बहू होवे फिर यह हमारी पतोहू कैसे हुई?॥ ३६॥

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शंका— राजा शशबिन्दुके दशसहस्र (१००००) स्त्रियोंमें, एक अर्ब (१०००००००००) पुत्र हुए, यह कैसे कौतूहलकी बात है कहनेवाले तो महात्मा हैं परन्तु सुननेवालोंको भी लज्जा आतीहै, भला यह बात सत्य हो सक्ती है

उत्तर— शशबिन्दुके दशसहस्र (१००००) स्त्रीर्थी, सो मनुष्यका स्वरूप धारण करनेवाली नहींथीं वह तो राजा बडा योगीथा सो दश इन्द्रियोंकी प्रकृति, सहस्र कहिये गिन्तींसे रहित सोई राजाकी स्त्रीथीं उन स्त्रियोंसे सौ कोटि पुत्र हुए सो बह भी मनुष्य नहीं हुए, बह तो योगमें प्रेम सुख आदि असग्य गुणमान यह पुत्र हुए, व्यामजीने वर्णन तो किया परन्तु गुप्तरीतिसे किया क्योंकि संसारके प्राणियोंकी समझमें ऐसी बात नहीं आती और आती भी है तो देरसे आती है शीघ्र नहीं आती. इसलिये संसारपर घटाकर यह बही किया है।

ज्यामघने कहा कि, प्राणेश्वरी!तुम जो पुत्र उत्पन्न करोगी यह उसकी ही वहूहोगी. हे राजन्! विश्वेदेव और पितृ लोगोंने ज्यामघके इस दीन वचनपर आनन्द प्रकाश किया, क्योंकि, ज्यामघने पहिले उनकी बहुत दिनोंतक पूजा की थी। तो उन्होंने कृपा करके वरदान दिया॥ ३७॥ इसके उपरान्त शैब्याके गर्भाधान हुआ और यथायोग्य कालमें इस रानीने एक श्रेष्ट कुमार उत्पन्न किया, इस कुमारका नाम विदर्भ हुआ फिर कुमार विदर्भने इस पतिव्रता कन्याका पाणिग्रहण किया कि, जिसको पिता हरण करलाये थे। और इसी राजा विदर्भने अपने नामसे विदर्भ देश

जनयिष्यसि यं राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते॥ अन्वमोदंत तद्विश्वेदेवाः पितर एव च॥३७॥ शैब्यागर्भमधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम्॥ स विदर्भ इति प्रोक्तमुपयेमे स्नुषां सतीम्॥ ३८॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवम स्कंधेऽनुद्रुह्युतुर्वसुयदुवंशानुवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ श्रीशुक उवाच॥ तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ॥ तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनंदनम्॥१॥ रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोःकृतिरजायत॥ कुशिक स्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप॥२॥ क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः॥ ततो दशार्होनाम्ना ऽभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः॥ ३॥

बसाया॥३८॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषाटीकायां यदुवंशानुकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ दोहा— चौविस माहिं विदर्भके, भये तीन सुत वीर।राम कृष्ण तक वंश सब, कहौसहित विस्तीर॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन! कुमार विदर्भने अपनी स्त्रीके गर्भसे कुश और क्रथ नामक दो पुत्र उत्पन्न किये, इनका तीसरा पुत्र रोमपाद हुआ॥ १॥ इस रोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुसे कृतिने जन्म ग्रहण किया। कृतिका पुत्र उशिक, उससे चेदि और चेदिसे दमघोप राजाकी उत्पत्ति हुई॥२॥ हे राजन्!विदर्भात्मज क्रथका पुत्र कुंति

हुआ। उसका धृष्टि, धृष्टिका पुत्र निर्वृति उससे दर्शाह नाम पुत्र हुआ दशार्हके व्योम॥३॥ व्योमका पुत्र जीमूत जीमूतके भीमरथ. इनसे नवरथने जन्म ग्रहण किया इनके पुत्र दशरथ हुए॥४॥इनके शकुनि, शकुनिके करम्भि, करम्भिके देवरात देवरातके देवक्षेत्र, उनके मधु, मधुसे कुरुवंश उत्पन्न हुआ और कुरुवंशका पुत्र अनु॥५॥ उसका पुत्र कुरुहोत्र, उसका पुत्र आयु और उससे सात्वतकी उत्पत्ति हुई। हे आर्य! सात्वतके भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज यह सात पुत्र उत्पन्न हुये॥६॥इनमें भजमान के दो स्त्रियें हुई। एक स्त्रीसे

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः॥ ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्तुतः॥४॥करंभिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः॥ देवक्षत्रस्त- तस्तस्य मधुः कुरुवंशादनुः॥५॥ पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः॥ भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोंधकः॥६॥ सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष॥ भजमानस्य निम्लोचिः किंकिणो धृष्टिरेव च॥७॥ एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः॥शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो॥८॥ बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठंत्यम्॥ यथैव शृणुमो दूरात्संपश्यामस्तथांतिकात्॥९॥ बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः पुरुषाः पंचषष्टिश्च षट्सहस्राणि चाष्ट च॥१०॥ येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्दे वावृधादपि॥महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये॥११ ॥

निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि, यह तीन और दूसरी स्त्रीमें भी शताजित्, सहस्राजित्, और अयुताजित् यह तीन पुत्र उत्पन्न हुए॥७॥८॥हे राजन्10!देवावृधकी सन्तान बभ्रु हुआ, इन पिता पुत्रके प्रसंगमें कवि लोग दो श्लोक गाया करते हैं। तिन श्लोकोंका अर्थ यह हैं। “हम दूरसे जैसा सुनते हैं। निकटसे वैसा देखते भी हैं॥९॥ महात्मा बभ्रु मनुष्योंमें श्रेष्ठ और देवावृध राजा देवताकी समान है। इस वंशमें पॉच

षष्टि षट्सहस्र और आठजो यह ६०७३ पुरुष हुये यह सब बभ्रु और देवावृधके उपदेशसे मोक्षको प्राप्त हुये थे” सात्वतके पुत्र महाभोज अति धर्मात्मा थे। इनके वंशमें भोजगणोंकी उत्पत्ति हुई॥१०॥११॥हे परन्तप!सात्वतके चौथे पुत्र वृष्णिके सुमित्र और युधाजित् नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें युधाजित्के पुत्र शिनि और अनमित्र हुये। उनमें अनमित्रका पुत्र निम्न हुआ॥१२॥ इस निम्नके सत्राजित और प्रसेन दो पुत्र हुये। हे राजन्! अनमित्रके शिनि नामक एक दूसरा पुत्र जो था उसके यहाॅ सत्यक जन्मा॥१३॥ सत्यकका पुत्र युयुधान (सात्यकि) युयुधानका पुत्र जय, जयका पुत्र कुणि इस कुणिसे युगंधरका जन्म हुआ। हे कुरुश्रेष्ठ! अनमित्रके वृष्णि नामक दूसरे पुत्रसे॥१४॥

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परंतप॥ शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः॥१२॥ सत्राजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ॥ अनमित्रसुतो योन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः॥१३॥ युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणि स्ततः॥ युगंधरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः॥१४॥ श्वफल्कश्चित्ररथश्च गांदिन्यां च श्वफल्कतः॥ अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः॥१५॥ आसंगः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः॥ धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षो ऽरिमर्दनः॥१६॥ शत्रुघ्नो गंधमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश॥ तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि॥१७॥ देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः॥ पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनंदनाः॥१८॥ कुकुरो भजमानश्च शुचिः कंबलबर्हिषः॥ कुकुरस्यसुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः॥१९॥

श्वफल्क और चित्ररथने जन्म लिया, श्वफल्कसे गांदिनीके गर्भमें अक्रूरजीके सिवाय और भी बारह पुत्र जन्मे जो कि बड़े विख्यात हुये॥१५॥ यथा— आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुवित्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकमा, क्षेत्रोपेक्ष अरिमर्दन॥१६॥ शत्रुघ्न गन्धमाद और प्रतिबाहु यह बारह और अकूर मिलकर तेहर पुत्र हुये और इनके सुचीरा नामक एक बहन भी हुई थी॥ १७॥ अकूरजीके देववान् और उपदेव दो पुत्र हुये। चित्ररथका पुत्र पृथु इसके अतिरिक्त विदूरथादि बहुतसे पुत्र हुये॥१८॥ दूसरे कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बल बर्हिष यह चार अन्धकके पुत्र हुये, उनमें कुकुरका

पुत्र वह्नि और वह्निका पुत्र विलोमा॥१९॥ उसका पुत्र कपोतरोमा। उसकी सन्तान वह अनु हुआ कि, जिसका सखा तुम्बुरु गन्धर्व था, इस अनुका पुत्र अन्धक उससे दुन्दुभि उत्पन्न हुआ, उसका पुत्र अरिद्योत और तिसका पुत्र पुनर्वसु हुआ॥२०॥ पुनर्वसुके आहुक पुत्र और आहुकी कन्या हुई आहुकके देवक और उग्रसेन दो पुत्र हुये। देवकके देववान्, उपदेव, सुदेवदेववर्द्धनयह चार पुत्र उत्पन्न हुये। इन चार पुत्रोंके धृतदेवादि सात बहनैंथीं॥२१॥२२॥ यथा धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवाश्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी इन सात कन्याओंके साथ वसुदेवजीने विवाह

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुंबुरुः॥ अंधको दुन्दुभिस्तस्मादरिद्योतः पुनर्वसुः॥२०॥ तस्याहुकश्चाऽऽहुकी च कन्या चैवाऽऽहुकात्मजौ॥ देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः॥२१॥ देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः॥ तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप॥२२॥ शांतिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता॥ सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः॥२३॥ कंसः सुनामा न्यग्रोधः कंकः शंकुः सुहस्तथा॥ राष्टपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः॥२४॥ कंसा कंसवती कंका शुरभृराष्टपालिका॥उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः॥२५॥ शूरो विदूरथादासीद् भजमानः सुतस्ततः॥ शिनिस्तस्मात्स्वयंभोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः॥२६॥ देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः॥ देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत्॥ २७॥ तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्॥ वसुदेवं भागं देवश्रवसमानकम्॥२८॥

॥२३॥ हे परीक्षित्!उग्रसेनके पुत्र कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शकु सुहु, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान्, यह नव पुत्र उत्पन्न हुये॥२४॥ कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू, राष्ट्रपालिकायह पांच कन्यायें वसुदेवजीके छोटे भाई जो देवभागादि थे इनकी भार्या हुई॥२५॥हे राजन्! ले चित्ररथके बेटे विदूरथका जो वर्णन कर आये हैं, उन विदूरथसे शूर उत्पन्न हुये उसका पुत्र भजमान, उससे शिनिका जन्म हुआ, निका पुत्र भोज और उसका हृदीक नाम पुत्र उत्पन्न हुआ॥२६॥ उससे देवबाहु शतधनु और कृतवर्मा देवमीढ यह चार पुत्र उत्पन्न

हुये। उनमें देवमीढका पुत्र शूर हुआ, उसके मारिषा नामक एक पत्नी थी। मारिषाके गर्भसे शूरने दश पुत्र उत्पन्न किये! उनके नाम यह हैं, यथा— वसुदेव, देवभाग, देवश्रवस, आनक॥२७॥२८॥ शृञ्जय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृकहे राजन्! जिस समय वसुदेवजीका जन्म हुआ उससमय स्वर्गसे देवतालोगोंने नगाड़े और ढोल बजायेथे*

॥२९॥ इसीलिये इन वसुदेवजीका एक नाम आनकदुन्दुभि हैं क्योंकि

सृजयं श्यामकं कंकं शमीकं वत्सकं वृकम्॥ देवद्रुंदुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि॥२९॥ वसुदेवं हरेः स्थानं वदं त्यानकदुंदुभिम्॥ पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः॥३०॥ राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पंच कन्यकाः॥ कुंतेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात्॥३१॥ साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतिं प्रतोषितात्॥ तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम्॥३२॥

यह भगवान् हरिकी उत्पत्तिके स्थान थे। शूरसेनके इन पुत्रोंके अतिरिक्त पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा॥३०॥ और राजाधिदेवी नामक पांच कन्या हुईयह इन दश पुत्रोंकी बहने थीं, राजा शूरसेनने अपने सखा कुन्तिराजको निःसन्तान देखकर अपनी पृथा कन्या उसको देदी॥ ३१॥ किसी समय हे परीक्षित्! दुर्वासा ऋषिके गृहमें आनेपर पृथाने भलीभाँति सेवाकर उनको संतुष्ट किया और दुर्वासा मुनिने प्रसन्न होकर पृथाको

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शंका— मृत्युलोकमें मनुष्य जन्म तो लेते हैं परन्तु किसीके जन्म होनेपर देवता दुन्दुभि नहीं बजाते और हमने आजतक कभी सुनाभी नहीं कि, मनुष्योंके जन्म लेनेपर देवता दुन्दुभि बजाते है परंतु वसुदेवके जन्म होनेपर देवताओंने दुन्दुभि क्यों बजाया? जो कोई कहै कि, भगवान् वसुदेवके घर जन्मलेंगे इसलिये देवताओंने आगेही हर्ष मानकर बजाये हैं तो दशरथ आदि लेकर बहुत जनोंके भगवान् पुत्र हुए तो दशरथ आदिके जन्म समय देवताओंने दुंदुभि क्यों नहीं बजाये।

उत्तर—जो मथुरामें वसुदेवने जन्म लिया तब उससमय दुंदुभिके निकट चन्द्रमा खडा था, चन्द्रमाने जानलिया कि इस लडकेके पुत्र भगवान् होंगे मेरे वंशका प्रकाश करनेवाला यह बालक होगा, ऐसा जानकर चन्द्रमाने दुंदुभि बजाया कुछ देवताओंने दुंदुभि नहीं बजाया, और दशरथके जन्मके समय सूर्य दुंदुभिके समीप नहीं थे और जो होते तो सूर्य भी निश्चय दुंदुभि बजाते अपने अपने वंशकी वृद्धि देखकर सबको हर्ष होता है॥

देवाह्वान विद्या शिखा दी। इसके उपरान्त पृथाने उस विद्याके बलकी परीक्षा करनेके लिये सूर्य भगवान्को बुलाया॥३२॥ परन्तु इन सूर्य भगवान्को तत्काल आता हुआ देखकर पृथा अति विस्मित हुई और विनयसहित यह वचन कहने लगी। हे देव ! हमने केवल परीक्षाके लिये मन्त्र पढ़ा था इस समय आपसे कोई विशेष काम नहीं है इसलिये आप क्षमा करें॥३३॥ यह सुनकर सूर्य भगवान् बोले कि, देव दर्शन व्यर्थ नहीं होता हम तुममें गर्भाधान करेंगे, पृथा बोली कि, मैं कन्या हूं संसारमें दूषित हूंगी, सूर्यनारायणने कहा कि, तुम कन्या समझकर अपने मनमें कुछ संकोच मत करो हम ऐसा करेंगे कि, जिस प्रकारसे तुम्हारी योनि दुष्ट नहीं होगी॥३४॥ हे महाराज परीक्षित्!इस प्रकार गर्भाधान करके सूर्य भगवान् स्वर्गको चलेगये,

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मयमानसा॥ प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे॥३३॥ अमोघं दर्शनं देवि आधत्से त्वयि चात्मजम्॥ योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताऽहं ते सुमध्यमे॥३४॥ इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः॥ सद्यः कुमारः संजज्ञे द्वितीय इव भास्करः॥३५॥ तं सात्यजन्न- दीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती॥ प्रपितामहस्तामुवाह पांडुर्वै सत्यविक्रमः॥३६॥ श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्॥ यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः॥३७॥ कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविंदत॥ संतर्दनादयस्तस्यां पंचासन्कैकयाः सुताः॥३८॥ राजाधिदेव्यामावंत्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह॥ दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत्॥३९॥

उसी समय, दूसरे दिवाकरकी समान पृथाके एक कुमार उत्पन्न हुआ॥३५॥ तो पृथाने लोकापवादसे डरकर उस पुत्रको सन्दूकमें रखकर नदीमें बहा दिया, इसके उपरान्त पृथाको देखकर तुम्हारे परदादा महाराज सत्यविक्रम पाण्डु विवाह कर लेगये॥३६॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजा परीक्षित् !शूरसेन की कन्या श्रुतदेवा करूषवंशीय वृद्धशर्माकी भार्या हुई। उसमें दितिसुत दन्तवक्रने सनकादि ऋषियोंके शापसे जन्म लिया और कैकय वंशीय धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिका पाणिग्रहण किया, उससे सन्तर्द्दनादि पांच पुत्र उत्पन्न हुये॥३७॥३८॥ और अवन्तीके राजा

जयसेनने राजाधिदेवीका पाणिग्रहण करके उससे बिन्द, अनुबिंद नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। हे राजा! चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणि ग्रहण किया॥३९॥ इसका पुत्र शिशुपाल उत्पन्न हुआ कि, जिसका वृत्तान्त पहले वर्णन करचुके हैं। अब वसुवदेजीके भ्राताओंका वृत्तान्त कहते हैं।देवभागकी भार्या केसाके चित्रकेतु और बृहद्बल यह दो पुत्र उत्पन्न हुये॥४०॥ देवश्रवसकी भार्या कंसवतीके गर्भसे सुवीर और इषुमान्ने जन्म ग्रहण किया। आनककी वनिता कंकासे सत्यजित् और पुरजित् यह पुत्र उत्पन्न हुये॥४१॥ सृञ्जयकी भार्या राष्ट्रपालीके गर्भसे वृषदुर्मर्षणादि

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य संभवः॥ देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुवृहद्बलौ॥४०॥ कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा॥ कंकायामानकाज्जातः सत्यजित्पुरुजित्तथा॥४१॥ सृंजयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्॥ हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः॥४२॥ मिश्र- केश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्स कस्तथा॥ तक्षपुष्करशालादीन्द्वर्वाक्ष्यां वृक आदधे॥४३॥ सुमित्राऽर्जुनपालादीन् शमीकात्तु सुदामिनी॥ कंकश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि॥४४॥

उत्पन्न हुये। श्यामककी वनिता शूरभूमिसे हरिकेश और हिरण्याक्षने जन्म लिया॥ ४२॥ वत्सकने मिश्रकेशीनामक अप्सरामें वृकादि पुत्र उत्पन्न किये। वृककी पत्नी दूर्व्वाक्षीसे तक्ष, पुष्करशाल, प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए॥४३॥ शमीक वनिता सुदामिनीने शमीकसे सुमित्र, अर्जुन और पाल इत्यादि पुत्र उत्पन्न किये। आनकने अपनी स्त्री कर्णिकाके गर्भसे ऋतुधामा और जयनामक दो पुत्र उत्पन्न किये॥४४॥

हे महाराज परीक्षित्! वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि अनेक पत्निये थीं॥४५॥ इन स्त्रियोंमें रोहिणीके गर्भसे बलदेव, गद सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृतादि पुत्र उत्पन्न हुए॥४६॥ पौरवी से सुभद्र, भद्रबाहु, दुर्मद, भद्र और भूतादि बारह पुत्र जन्मे। मदिराके गर्भसे नन्द, उपनन्द, कृतक और शूरादि पुत्र उत्पन्न हुए। भद्राने कुलका आनन्द देनेवाला केवल केशी

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला॥देवकीप्रमुखा आसन्पत्न्य आनदुंदुभेः॥४५॥ बलं गदं सारणं च दुर्मदं विमलं ध्रुवम्॥ वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत्॥४६॥ सुभद्रो भद्रबाहुश्च दुर्मदो भद्र एव च॥ पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाऽभवन्॥४७॥ नंदोपनंदकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः॥ कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनंदनम्॥४८॥ रोचनायामतो जाता हस्तहेमांगदादयः॥ इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत्॥४९॥ विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुंदुभेः॥ शांतिदेवात्मजा राजञ्छमप्रतिश्रुतादयः॥५०॥ राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश॥ वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः॥५१॥

नामक एकही पुत्र उत्पन्न किया॥४७॥४८॥ रोचनाके गर्भ से हस्त, हेमांगद, प्रभृति जन्मे और इलामें उरुवल्कसे आदि लेके यदु जिनमें मुख्य ऐसे पुत्र हुए॥४९॥ धृतदेवाके वसुदेवसे विपृष्ठने जन्म ग्रहण किया शान्तिदेवामें शम प्रतिश्रुत प्रभृति पुत्र उत्पन्न किये॥५०॥ इसीप्रकार उपदेवासे कल्प वर्षादि दशपुत्र उत्पन्न हुए। श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंशादि छः पुत्र उत्पन्न हुए॥५१॥

देवरक्षिताके गद प्रभृति नव पुत्र उत्पन्न हुए जसे साक्षात् धमने आठ वसु उपजाये वैसेही वसुदेवजीने सहदेवासे पुरुविश्रुतप्रभृति आठ पुत्र उत्पन्न किये। इस प्रकार उनके देवकीमें आठ पुत्र उत्पन्न हुये। यथा कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्रऔर अहीश्वर संकर्षण, यह सात पुत्र और॥५२॥५३॥५४॥ हे परीक्षित्!वसुदेव देवकीके अष्टम पुत्र स्वयं विष्णुभगवान् (श्रीकृष्ण) हुए। और तुम्हारी दादी महाभागा सुभद्राजी भी उनसेही उत्पन्न हुई॥५५॥ अधिक क्या कहें? जिस जिस समय धर्मका क्षय और अधर्मकी वृद्धि होती है उसी समयमें भगवान् वासुदेव अपना अवतार

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः॥ वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया॥५२॥ पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद्धर्मो वसूनिव॥ वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्॥५३॥ कीर्तिमंतं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः॥ ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं संकर्षणमहीश्वरम्॥५४॥ अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल॥ सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही॥॥५५॥ यदायदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः॥ तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः॥५६॥ न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते॥ आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः॥५७॥ यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि॥ अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते॥५८॥

लिया करते हैं॥५६॥ नहीं तो जो मायाके नियन्ता, संगविहीन, सर्वसाक्षी और सर्वगत ईश्वर हैं उनका मायाविनोदके अतिरिक्त (सिवाय) जन्म अथवा कर्मका और क्या हेतु होसक्ता है?॥ ५७॥ जिसकी माया चेष्ठा जीवकेलिये अनुग्रह स्वरूप है, क्योंकि यह मायाही सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी निदान है. इसलिये जो सर्व जीवोंके अनुग्राहक हैं। फिर उनको कर्मादिके वश पडकर जन्मादि संबंधकी क्या सम्भावना? इनके मायाचेष्टित श्रूयमाण होनेपर उसके द्वारा सृष्टि प्रभृतिकी निवृत्ति होनेपर वही जीवके मोक्ष होनेका कारण होते हैं॥५८॥

हे परीक्षित्! बहुतसी अक्षौहिणीके राजा नृपरूपी असुरगण जब पृथ्वीका आक्रमण करते हैं और अपने बोझसे पृथ्वीको दवालेते हैं। तब भूमिका भार उतारनेके लिये भगवान्का यह अवतार होता है। क्योंकि जिन कर्मोंको सुरेश्वर लोग मनके द्वारा तर्क करके भी नहीं करसक्ते भगवान् मधुसूदन संकर्षणके साथ उन सब कर्मोंको लीलाहीसे कर डालते हैं॥५९॥६०॥ हे राजन्! भगवान् सर्वशक्तिमान हैं यद्यपि वह संकल्पही करके पृथ्वीके भारको हरण करनेमें समर्थ थे, परन्तु तो भी कलियुगमें जो भक्त होंगे, उनके प्रति अनुग्रह प्रगट करनेके लिये दुःख, शोक और तमोगु

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलांछनैः॥ भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः॥५९॥ कर्माण्यपरिमेयानि मनसाऽपि सुरेश्वरैः॥ सह संकर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः॥६०॥ कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्॥ अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद् यशः॥६१॥ यस्मिन्सत्कर्णपीयूषे यशस्तीर्थवरे सकृत्॥ श्रोत्रांजलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम्॥६२॥ भोजवृष्ण्यंधकमधुशूरसेनदशार्हकैः॥ श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृंजयपांडुभिः॥६३॥ स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया॥ नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वांगरम्यया॥६४॥

णका नाशक यह पुण्य यश भगवान्ने विस्तारित किया है यह श्रेष्ठयश साधुपुरुषोंके लिये कर्णामृत और श्रेष्ठ तीर्थस्वरूप है केवल एकबार कर्णरूप अञ्जलिसे पान करनेपर पुरुष कर्मवासना त्याग देनेको समर्थ होता है॥६१॥६२॥ इसलिये भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय और पाण्डुवंशीय सब मनुष्यगण भगवान्के चरित्रकी बड़ाई किया करते हैं॥६३॥ उन्हीं भगवान्ने सुन्दर मनोहर मुसकानके दर्शन, उदार वचन, विक्रमलीला, समस्त रमणीक मूर्तिके द्वारा सब मनुष्य लोकको प्रमुदित किया था॥६४॥

मकराकार कुण्डल, मनोहर कर्ण, चमकते दमकते हुए कपोल, इन सबसे श्रीभगवान्‌का वदन अनुपम शोभायमान था, विलासयुक्त मुसकान मानों उसमें लगी हुई थीं, इसलिये मानो सदाही उत्सव होता. उस वदनको दृष्टिके द्वारा पान करके नर नारी परितृप्त नहीं हुए। वह सब आनन्दित तो हुए थे परन्तु नेत्रोंके बारंबार पलक मारनेको न सहकर निमेषके बनानेवाले राजा निमिके ऊपर बारंवार कोप करते थे॥६५॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रआनन्दकन्दने अपने रूपसे जन्म ग्रहण किया, उसके पीछे मनुष्याकार हो पिताजीके घरसे व्रजको चले गये। वहॉपर शत्रुओंका नाश कर व्रजवासियोंकी अभिलाषपूर्ण कर धन संपत्तिको बढ़ाया। फिर बहुतसी

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्णभ्राजत्कपोलसुभगं मुविलासहासम्॥ नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिवंत्यो नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमश्च॥६५॥ जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थौ हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः॥ उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीज आत्मानमात्मनिगमं प्रथयञ्जनेषु॥६६॥ पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामंतस्समुत्थकलिना युधि भूपचम्वः॥ दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम॥६७॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे नवमस्कंधे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशविदर्भान्वयानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥

॥समाप्तोऽयं नवमस्कन्धः॥

सुन्दरियोंसे विवाह कर उनसे सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। फिर लोकसमाजमें स्वकृत वेदमार्गका विस्तार करके अनेक यज्ञोंको कर, आपने अपनीही पूजा की॥६६॥ फिर उन्होंने कौरव और पाण्डवोंमें द्वेष उपजाय पृथ्वीका भारी भार उतार दिया। और दृष्टिसेही युद्धभूमिमें खड़े हुए राजाओंको कम्पायमान कर दिया, फिर जब अर्जुनने रणमें जय पाई तब उसकी कीर्तिका विकास कर उद्धवजीको परमतत्त्वका उपदेश किया। और अन्त समय अपने उसी स्वरूपसे परमधामको चले गये॥६७॥ इति श्रीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे भाषा टीकायां विदर्भवंशवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥

[TABLE]

॥ इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते नवमस्कंध समाप्तिः ॥

  1. “अरत्नि-समुष्टिहस्त अर्थात् कोहनीसे बीचकी अंगुलीतक ।” ↩︎

  2. “शंका—जिस समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रगटहुये उसी समय वसुदेव देवकीको ज्ञान दिया और वसुदेव देवकी श्रीकृष्णके समुद्र सरीखे चरित्र और कर्मोको जानते थे और सुन भी रखा था, फिर वसुदेव देवकी जानबूझकर क्यों अज्ञानी होगये ? उत्तर—श्रीकृष्ण के माता पिता अज्ञानी नहीं हुए, पुत्रके मोहमें व्याकुल होगये, पुत्रकी मोहरूप अग्निसे भस्म होगये, इसलिये अज्ञानियोंकी नाई होगये, क्योंकि संसारमें पुत्रका मोह वडा भारी है पुत्रके मोहमेंबुद्धि ठिकाने नहीं रहती॥” ↩︎

  3. “अक्षौहिणीका प्रमाण। इक्कीससहस्र आठसौ सत्तर २१८७० रथ, इक्कीसहस्र आठसौ सत्तर २१८७० गजपति, पैसठ सहस्र छ सौदश ६५६१० अश्वपति, एक लाख नौसहस्र तीनसौ पचास १०९३५० पैदल, इसका नाम एक " ↩︎

  4. “अत्र मनु— मांसभक्षयितामुत्र यस्य मांमिहान्म्यहम्॥ एतन्मांसस्य मांसत्व प्रवदन्ति मनीषिणः।” ↩︎

  5. “कदर्यका लक्षण स्मृतिमें कहा है आत्माका धर्म कार्य न करना पुत्र स्त्री देवता अतिथि और सेवकोंको दुःख दे सो कदर्य है॥” ↩︎

  6. " जिसमय तक्षक ब्राह्मणका वेष धारण करके राजा परीक्षित्को काटनेके लिये चला तो मार्गमें उसको कश्यपजी मिले, तक्षकने कश्यपजीसे बूझा कि, आज आप कहाँको चलदिये?कश्यपजी बोले कि, राजा परीक्षित्को आज सर्प काटेगा, हम उसको अच्छा करनेके लिये जातेहैं तव तक्षकने कहा कि, तक्षकके काटेको आरोग्य करनेकी किसीकी सामर्थ्य नहीं आप तो क्या वस्तु है! कश्यपजी बोले कि यदि नह होता तो हम उसको अपना कर्त्तव्य दिखाते तक्षक बोला कि, मैंहीतक्षकहूं, और इस वृक्षको काटता हू अब तुम इसको अच्छा करो ज्योंही वृक्षको डसा त्योंही वह जलकर भस्महोगया, बरन् उस वृक्षपर सूखी-” ↩︎

  7. " इसा राजा हस्तीने हस्तिनापुर’ बसाया था जो अबतक गंगा भागीरथीके किनारे पर उपस्थित है ॥” ↩︎

  8. “इसी अजमीढने ‘अजमेर’ वसाया जो आजकल पुष्करजीके निकट वर्तमान है और वास्तवमें इसका नाम ‘अजमेढ’ था जो आजकल अजमेर नामसे विख्यात है.” ↩︎

  9. “उपरिवसुके वीर्यद्वारा मत्स्यगर्भसे एक कन्या उत्पन्न हुई थी और केवट लोगोंने उसका पालन पोषण किया था । इसीलिये यह दाश कन्याके नामसे विख्यात हुई वास्तवमें इसका नाम सत्यवती था ॥” ↩︎

  10. “बभ्रुर्देवावृधसुतस्तपोश्लोकौ पठत्यमू॥यथैव शृणुमो दूरात्सपश्यामस्तथाऽतिकात्तु॥१॥बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणा देवैर्देवावृधः समः। पुरुषा. पच ९ पष्टिश्च ६० षट्सहस्राणि ६००० चाष्ट च ८॥ २ ॥ अर्थात् ६०७३ छ सहस्र तिहत्तर ॥” ↩︎