॥अथ श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते तृतीयस्कंधप्रारम्भः॥ |
सोरठा– जय गजवदन गणेश, विघ्न कदनप्रद सुखसदन॥ एकरदन सम वेश, मदनकदनके वर नँदन॥१॥ जय श्रीनन्दकुमार, ब्रह्मभूषण दूषणहरण॥ अपनो दास निहार, दयासिंधु कीजे दया॥२॥दोहा—कह्यो द्वितीय स्कन्ध शुक, पुनि प्रभुपदं धर ध्यान॥ कथा तृतीयस्कंधकी, लागे करन बखान॥३॥ इस तृतीय स्कन्धके, तेतीसों अध्याय॥ कहे परीक्षितनृपतिसों, शुकाचार्य समुझाय॥४॥ तीसरे स्कन्धमें तेतीस अध्यायहैं, जिनमें सर्गका वर्णन हैं। ईश्वरकी इच्छासे गुणोंके चलायमान होनेसे ब्रह्माण्डका होना इसका नाम सर्ग है; प्रथम अध्यायमें क्षीणआयु बान्धवोंको त्याग विदुरजी जैसे घरसे चलेगये उनका संवाद आदिसे वर्णन करते हैं। पहिले भगवानका और ब्रह्माका संवाद संक्षेपसे कहाहै, अब फिर शेषजीकी कही भागवत सुन्दर विस्तारसे कहतेहैं। दो प्रकारसे श्रीमद्भागवतके संप्रदायकी प्रवृत्ति है; एक संक्षेपसे श्रीनारायण ब्रह्माके द्वारा, और विस्तारसे शेषजी सनत्कुमार, सांख्यायनादि द्वारा हुई।तहां द्वितीयस्कन्धमें श्रीनारायण ब्रह्माके संवादमें संक्षेपसे “अहमेवासमेवाग्रे” इत्यादि करके चतुःश्लोकी
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान्किल॥ क्षत्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्धिमत्॥१॥ यद्वाअयं मंत्रकृद्वोभगवानखिलेश्वरः॥ पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम्॥२॥ राजोवाच॥ कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणाऽऽस संगमः॥ कदा वा सह संवाद एतद्वर्णय नः प्रभो॥३॥
भागवत कही।सोई ब्रह्मा नारदके संवादसे दशलक्षणसे कुछ विस्तारसहित कही, सोई शेषजीकी कहीहुईको अब अतिविस्तारसे कहनेके कारण तृतीयस्कंधका प्रारम्भ हैं। पहिले चार अध्यायमें विदुर मैत्रेयका संगम, फिर आठ अध्यायमें विसर्गसहित सब प्रपंच कहा, विसर्गके प्रस्तावसे सात अध्यायमें वाराह अवतारका वर्णन किया है, एक अध्यायमें विसर्गकी संपूर्णता कहीहै, फिर चार अध्यायमें कपिलदेवजीके अवतार की कथा कहीहैं, इसके पीछे नव अध्यायमें, कपिलदेवजीका आख्यान किया। इस प्रकार तृतीयस्कन्धकी तेंतीस अध्यायमें प्रवृत्तिहै।इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि हे कुरुकुलभूषण! सर्व सम्पदासे पूर्ण गृहको त्याग बनमें जा विदुरजीने निश्चयकर भगवान् मैत्रेयजीसे पहले यह चरित्र इसप्रकार बूझा॥१॥ सर्वके ईश्वर, षड्गुणऐश्वर्यवान् यह जगन्नाथ श्रीकृष्ण तुम्हारे पांडवोंके मंत्री हुए।और दुर्योधनके गृहको त्याग विदुरजीको अपना जान उनके घरपर गये॥२॥ इतनी कथा सुन राजा परीक्षितने कहा कि हे समर्थ शुकाचार्य! भगवान् मैत्रेय और विदुरजीका सत्संग कहां हुआ? और
किस समय हुआ? सो विस्तारसे कहिये॥३॥हे मुने! उन शुद्धात्मा विदुरजीका प्रश्न ऐसे महात्मा मैत्रेयजीसे कुछ थोडे प्रयोजनका देनेवाला तौ न हुआ होगा, बरन अधिकही प्रयोजनका साधक होगा; क्योंकि जिसके प्रश्नकी सराहना महात्मा पुरुष करतेहैं॥४॥ सूतजी बोले कि, “राजा परीक्षितका अत्युत्तम प्रश्न सुनकर आत्मज्ञानी प्रसन्न मन श्रीशुकदेवजी बोले” कि हे नरपाल!सुनो— जिस समय दुष्ट राजा धृतराष्ट्रने अपने पुत्रोंको पुष्टकियाथा; इसलिये अधर्मसे विनष्टदृष्टि हुई, सो बड़े भाई पाण्डुके अनाथपुत्रोंको लाक्षाभवनमें प्रवेश करवाकर उनको जलानेकी इच्छा की॥५॥६॥ जिस समय सभामें अपनी पुत्रवधू राजा युधिष्ठिरकी पत्नी द्रौपदी अपने अश्रुजलसे पयोधरोंकी कुंकुमको धोरहीथी; उसके केशोंको
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्याऽमलात्मनः॥ तस्मिन्वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपवृंहितः॥४॥ सूत उवाच॥ स एवमृषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता॥ प्रत्याह तं स बहुवित्प्रीतात्मा श्रूयतामिति॥५॥ श्रीशुक उवाच॥ यदा तु राजा स्वसुतानसाधून् पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः॥ भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान्विवन्धून्प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह॥६॥ यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम्॥ न वारयामास नृपः स्नुषायाः स्वास्त्रैर्हरंत्याः कुचकुंकुमानि॥७॥ द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः सत्यावलंबस्य वनागतस्य॥ न याचतोऽदात्समयेन दायं तमोजुषाणो यदजातशत्रोः॥८॥ यदा च पार्थप्रहितः सभायां जगद्गुरुर्यानि जगाद कृष्णः॥ न तानि पुंसाममृतायनानि राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः॥९॥ यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो मन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन॥ अथाह तन्मंत्रदृशां वरीयान्यन्मंत्रिणो वैदुरिकं वदंति॥१०॥
पकड खैंच रहाथा, यह पुत्रका कुकर्म देखकरभी धृतराष्ट्रने उसको नहीं निवारण किया॥७॥ अधर्मसे जुएमें हारे हुए, सीधे सत्यवादी बारहवर्ष बनमें बस जब घर आये तब पुरोहितको भेजा और अपना राज्य मांगा; और महाप्रतापी राजा युधिष्ठिर जिनका कोई शत्रु नहीं उनको अधर्मी दुर्योधनसेवी, धृतराष्ट्रने भागदेना नहीं स्वीकार किया॥८॥ जिस समय युधिष्ठिरके भेजेहुए जगद्गुरु श्रीकृष्णचन्द्रजीने सब पुरुषोंको अमृततुल्य वचन सभामें सुनाये तब नष्टपुण्य धृतराष्ट्रने उन वचनोंका बहुत मान न किया॥९॥ जिस कालमें धृतराष्ट्रका बुलाया हुवा विदुर भवनमें प्रविष्ट होनेपर बडे भ्राता धृतराष्ट्रने मंत्र (सलाह) के वास्ते पूछा और इसके अनंतर मंत्रके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ विदुरने जो जो मंत्र कहे
उनको मंत्री सभामें अबतक भी यह विदुरनीति हैं ऐसे दृष्टांत देते हैं॥१०॥ “जो जो विपत्ति युधिष्ठिरके सहने योग्य न थी, वह भी उसने सही; उस असह्य अपराधके सहनेहारे युधिष्ठिरका अंश तुम देदो। सब भ्राताओं सहित सर्परूपी भीमसेन क्रोधसे श्वास ले रहा हैं, जिस्से तुम सदा भयभीत रहतेहो”॥११॥ विदुरजी फिर कहने लगे हे धृतराष्ट्र! तुम भीमसेन और अर्जुन समान बलवान् नहीं हो, और अपने मनमें यह अभिमान मत करो कि मेरे बहुतसे पुत्र हैं क्योकि तुम यह नहीं जानते कि पाण्डवोंके पृष्ठरक्षक श्रीयदुनायकका हाथ और उनको श्रीमुकुन्दने निजभावसे ग्रहण किया हैं, और वह मुकुन्द स्वयं भगवान् हैं। जिनके साथ सब देवता और मुनीश्वर हैं, सो अपनी द्वारकापुरीमें विद्यमान हैं, कहीं चले नहीं गए हैं; फिर वह द्वारकानाथ यदुवंशीय राजाओंके पूज्य हैं और उनके संग यदुवंशीभी बलवान् और एकसे एक
अजातशत्रोः प्रतियच्छ दायं तितिक्षतो दुर्विंषहं तवाऽऽगः॥ सहानुजो यत्र वृकोदराहिः श्वसन्मृषा यत् त्वमलं बिभेषि॥११॥ पार्थांस्तु देवो भगवान्मुकुंदो गृहीतवान्स क्षितिदेवदेवः॥ आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो विनिर्जिताशेषनृदेवदेवः॥१२॥ स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते गृहान्प्रविष्टोऽयमपत्यमत्या॥ पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीस्त्यजाश्वशैवं कुल कोशलाय॥१३॥ इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेन प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण॥ असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः क्षत्ता सकर्णाबृजमो…..॥१४॥
गूणनिधान है, ओर जिन वसुदेवकुमार वासुदेव भगवानने बड़े २ राजाओंको जानकर स्वाधीन किया, इसलिये सब राजालोगभी उनके पक्षमें सहायक है, ………….. पुत्रोंकी धीरता और वीरताका जो अभिमान है, उसको छोड़कर पांडवोंका उनका भाग देदो॥१२॥ सो यह श्रीकृष्णसे …………….. होकर दोपरूपवारी तुम्हारे घरमें घुसा हैं। जिसको तुम पुत्रबुद्धिसे पुष्ट करतेहो। कृष्णविमुख श्रीनष्ट एक दुर्योधनको कुलकी कुशलताके आगे ……. त्याग करे, जिस्से कुल विनाश न हो वही अपत्य है॥१३॥ अत्यन्त शीलवान् विदुरजी उस सभामें ऐसे कह ….थे इसको दुर्योधनको अत्यन्त कोप आयाम होंठ फडकने लगे, और वह लाल २ नेत्र कर बोले,– “इस दुष्टको यहांसे निकालो” इसी प्रकार कर्ण,……,…………………। उन्होंने कहा था- “इस कपटीको यहां किसने बुलाया हैं? यह दासी पुत्र होकर हमसे
पाला जाकर हमारेही प्रतिकूल शत्रुओंकी कुशल चाहता है; इसलिये इस जीतेहुए अमांगलिकको शीघ्र नगरसे निकालो॥१४॥ अपने भाई धृतराष्ट्रके सन्मुख दुर्योधनके वचनबाणसे विद्ध हो कहा कि, ईश्वरकी मायाका माहात्म्य ऐसाही है।ऐसे मनमें विचार विदुरजी अपने धनुषको द्वारपर रखकर तीर्थयात्राको चलदिये॥१५॥१६॥ कौरवोंके पुण्यकर्मसे प्राप्त विदुरजी हस्तिनापुरसे निकल अपने चरणोंसे हरिके क्षेत्रोंको पवित्र करने
क एनमत्रोपजुहाव जिह्मंदास्याः सुतं यद्वलिनैव पुष्टः॥ तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते निर्वास्यतामाशुपुराच्छ्वसानः॥१५॥ स इत्थमत्युल्वणकर्णबाणैर्भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि॥ स्वयं धनुर्द्धारि निधाय मायां गतव्यथोऽयादुरु मानयानः॥१६॥ स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो गजाह्वयात्तीर्थपदः पदानि॥ अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः॥१७॥ पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुंजेष्वपंकतोयेषु सरित्सरस्सु॥ अनंतलिंगैः समलंकृतेषु चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः॥१८॥ गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्तिः सदाप्लुतोऽधश्शयनोऽवधूतः॥ अलक्षितः स्वैरवधूतवेपो व्रतानि चेरे हरितोषणानि॥१९॥
चले गये।पृथ्वीपर जहां २ ब्रह्म, रुद्र, आदि अनेक रूप हो आप निवास करते हैं तहां २ सब क्षेत्रोंमें गये
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॥७७॥ पुरोंमें पुण्यदाता जो उपवन उनमें, पर्वतोमें, कुंजोंमें, सरोवरोंमें, अपङ्कनदियोंमें, ईश्वरके चिह्नोंसे सुंदर अलंकृतोंमें, और जो जो तीर्थोंके स्थान क्षेत्र हैं उन सबमें अकेले विदुरजी विचरते फिरे॥१८॥ एकांत वृत्ति, शांतस्वभाव, पवित्र आत्मा सदा सब तीर्थोंमें स्नान करैं, पृथ्वीपर शयन करें, शरीरके संस्कार न करें, अवधूत रहैं, वल्कल
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**शंका—**यमराजके हृदयमें सदाअपने राज्यकी प्रीति और अनरीति बनी रहती है सो यमराज विदुरजी होते हुए तो विदुरजीने यमराज बनकर तीर्थसेवन आदि लेके उत्तम किया क्यों करी? यमराजका वश चले तो दूसरा जीवभी उत्तम कर्म नहीं करने पाता, फिर विदुरने यमराज बनकर यह शुभकर्म क्यों किया? और मनुष्य जिस योनिमें जन्म लेता है उस योनिकी प्रकृति महाकठिनतासे छूटती है, फिर विदुरजीसे यमकी प्रकृति क्यों छूटगई? जो तीर्थयात्रा करने लगे॥
** उत्तर—**यह तुम्हारा वचन बहुत सत्य है कि, सब प्राणियोंकी प्रकृति महाकठिनतासे छूटती है परंतु उसी महादुःखसे छूटनेवाली प्रकृतिको महात्मापुरूषोंकी संगति नीच प्रकृतिकोभी उच्च प्रकृति कर देती है।दुष्ट जीवोंके त्रास देनेवाले यमराज हैं, महात्मापुरूषोंसे वेभी डरते हैं।और विदुरजीने तो व्यासजीके अंशसे जन्म लिया था। इसलिये यमराज विदुररूप होकर दुष्ट कर्मोंको त्याग उत्तम क्रिया करने लगे, और व्यासजी महाराजकी कृपासे विदुरजी भगवान् के भक्त हुए॥
वसन पहिनैं, रूपको छिपाये अवधुत वेषबनाए वह व्रत करने लगे जिस्से परमात्मा प्रसन्न हो॥१९॥ इस भाँति भारतवर्षमें विचरते २ बहुत दिन हो गए, उस समय राजा युधिष्ठिर श्रीपुण्डरीकाक्ष कृष्णचन्द्रकी सहायतासे पृथ्वीपर एकछत्र राज करतेथे॥२०॥ जैसे बाँसोंके बनमें बांसोंके रगड़नेसे अग्नि निकल बॉसोंको जलाकर निवृत्त होजाती है, उसीप्रकार प्रभासक्षेत्रमें अपने सुहृद कौरवपाण्डवोंका विनाश सुना कि, परस्पर ईर्षाकरके भस्म हो गये; उनका अत्यन्त शोक किया फिर चुप होकर पूर्ववाहिनी सरस्वतीके निकट गये॥२१॥ उस सरस्वतीके निकट एकादश तीर्थ हैं, ब्रह्मविष्णु शिवतीर्थ १, शुक्राचार्यका मन्दिर २, मनुका स्थान ३, पृथुका भवन ४, अग्निकुण्ड ५, शनैश्चरका चित्र ६, वायुका वासस्थान ७, सुदास राजाकी प्रतिमा ८,
इत्थं व्रजन्भारतमेव वर्षंकालेन यावद्गतवान्प्रभासम्॥ तावच्छशास क्षितिमेकचक्रामेकातपत्रामजितेन पार्थः॥२०॥ तत्राथ शुश्राव सुहृद्विनष्टिं वनं यथा वेणुजवह्निसंश्रयम्॥ संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्सरस्वतीं प्रत्यगिया य तूष्णीम्॥२१॥ तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः॥ तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य यच्छ्राद्ध देवस्य स आसिषेवे॥२२॥ अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः कृतानि नानायतनानि विष्णोः॥ प्रत्यंगमुख्यांकितमंदिराणि यद्दर्शनात्कृष्णमनुस्मरंति॥२३॥ ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्टमृद्धं सौवीरमत्स्यान्कुरुजांगलांश्च॥ कालेन तावद्यमुना मुपेत्य तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श॥२४॥ स वासुदेवानुचरं प्रशांतं बृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम्॥ आलिंग्य गाढं प्रणयेन भद्रं स्वानामपृच्छद्भगवत्प्रजानाम्॥२५॥
गोशाला ९, स्वामिकार्तिकका मंदिर १०, श्राद्धदेवमनुकी सभा ११ इन सबका विदुरजीने सेवन किया॥२२॥औरभी ऋषियोंके, देवताओंके, बनाएहुये, विष्णुके स्थान वहांपर हैं।जिनमें विष्णुके संपूर्ण अंगकी शोभा करनेवाले आयुधोंमें मुख्य जो सुदर्शनायुधसे चिह्नित शोभायमान अनेकानेक प्रकारके मंदिर हैं उनके दर्शनसे श्रीकृष्णका स्मरण होता था तहॉ २मज्जन वंदन करते फिरते थे॥२३॥ सुराष्ट्र, ऋद्ध, सौवीर, मत्स्य, कुरु, जांगल इन सब देशोंको यथाक्रम उल्लंघन करके यमुना पुलिनपर आये तहाँ परम भागवत उद्धवको देखा॥२४॥ श्रीकुंजविहारीके अनुचर प्रशांत, बृहस्पतिके नीतिशास्त्रमें पहिले विख्यात शिष्य उद्धवको हृदयसे लगा विदुरजी मिले और भगवत्की प्रजा और अपने इष्ट मित्रोंके कुशलकी विदुरजीने जिज्ञासा की॥२५॥
और फिर बूझा कि श्रीरामकृष्ण कुशल हैं, जो पुराणपुरुष अपनी नाभिमेंसे पैदा हुये ब्रह्माजीकी सेवासे प्रसन्न हो यहां अवतार लिया; और पृथ्वीको कुशल विधानकर अब इस समय अवकाशसे शूरसेनके गृहमें विराजते हैं॥२६॥ कुरुके परमसुहृद हमारे भगिनीपति परमपूज्य वसुदेवजी कुशल हैं? जो अति उदार वसुदेवजी अपनी बहिनोंको बहुत धन दे तृप्त कर शूरसेनकी समान सदा धन देते रहे हैं॥२७॥ सब सेनाके सेनापति, यादवाधीश, महावीर प्रद्युम्न कुशल हैं? जिन मदनके अवतारको रुक्मिणीने पूर्वजन्ममें अनेकप्रकारकी आराधना कर पायाहैं॥२८॥ सात्वत, वृष्णि, भोज, दाशार्ह इनके स्वामी उग्रसेन महाराज सुखी हैं? नृपासनाशात्यागी उग्रसेनको कमलनयन भगवानने स्वयं नृपासन त्याग
कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्यपाद्मानुवृत्त्येह किलाऽवतीर्णौ॥ आसात उर्व्याः कुशलं विधाय कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे॥२६॥ कच्चित्कुरूणां परमः सुहृन्नो भामः स आस्ते सुखमंग शौरिः॥ यो वै स्वसणां पितृवद्ददाति वरान्वदान्यो वंर तर्पणेन॥२७॥ कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनां प्रद्युम्न आस्ते सुखमंग वीरः॥ यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे आराध्य विप्रान्स्मरमादिसर्गे॥२८॥ कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोजदाशार्हकाणामधिपः स आस्ते॥ यमभ्यर्षिचच्छतपत्रनेत्रो नृपास नाशां परिहृत्य दूरात्॥२९॥ कच्चिद्धरेः सौम्य सुतः सदृक्ष आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु सांवः॥ असूत यं जांबवती व्रताढ्या देवं गुहं योंऽबिकया धृतोऽग्रे॥३०॥ क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्ते यः फाल्गुनाल्लब्धधनूरहस्यः॥ लेभेंज साऽधोक्षजसेवयैव गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम्॥३१॥ कच्चिद्बुधः स्वस्त्यनमीव आस्ते श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः॥ यः कृष्णपादांकितमार्गपांसुष्वचेष्टतं प्रेमविभिन्नधैर्यः॥३२॥
अभिषेक किया॥२९॥ हे सौम्य उद्धव! महारथियोंमें अग्रगण्य वृन्दावनविहारीकी समान शीलवान् जैसे पूर्वजन्ममें शैलसुता भवानीने स्वामि कार्तिकको उत्पन्न किया; इसीप्रकार व्रतकरके जाम्बवतीने जिन्हें उत्पन्न किया सो श्रीकृष्णतनय साम्ब अच्छे हैं॥३०॥ जो गति यतियोंको महादुर्लभ हैं सो श्रीयदुनायककी सेवासे सहजमें प्राप्त हुई और जिनको अर्जुनसे धनुरहस्य प्राप्त हुवा ऐसे शान्तरूप सात्यकी सुखी हैं?॥३१॥ अत्यन्त बुद्धिमान्, निष्पाप, भगवत् के शरणागत, आठों याम श्रीकृष्णके प्रेमरसमें जो मग्न, सब लज्जाको तज व्रजकी रजमें लोटनेहारे श्वफल्कसुत
अक्रूर तो आनंदमें हैं?॥३२॥ देवकीनाम भोजकी कन्या, अदितिकी समान सब जगत्के स्वामी, आदि ब्रह्मा, अविनाशी त्रिलोकीनाथ जिनके पुत्र, श्रीकृष्णचन्द्र आनंदकन्दको जिन्होंने गर्भमें इसप्रकार धारण किया जैसे वेदत्रयी यज्ञके विस्तृत अर्थको धारण करती है सो देवकी प्रसन्न हैं?॥३३॥ भगवान् उपासकोंकी कामनाके दाता आपके अनिरुद्धजी तौ कुशल हैं जिनको वेद शब्दशास्त्रके कारण मनोमय अंतःकरणके चतुर्थतत्त्ववेद मानतेहैं॥३४॥ हे विद्वज्जन! अपने आत्मदेव अनन्य वृत्तिसे जो भगवत्परायण हैं वे सुखी हैं? हृदीकादि सत्यभामाके पुत्र, चारुदेष्ण, गद आदिमें जिनके सो भगवान् के पुत्र प्रसन्न हैं॥३५॥ अर्जुन श्रीकृष्ण अपनी भुजाओंसे धर्मसमेत धर्मके सेतुकी धर्मावतार युधिष्ठिर क्या रक्षाकरते हैं?जिनकी
कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या विष्णुप्रजाया इव देवमातुः॥ या वै स्वगर्भेण दधार देवं त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम्॥३३॥ अपिस्विदास्ते भगवान्सुखं वो यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः॥ यमामनंति स्म ह शब्दयोनिं मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्वम्॥३४॥ अपिस्विदन्ये च निजात्मदैवमनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये॥ हृदीकसत्यात्मजचारुदेष्णगदादयः स्वस्ति चरंति सौम्य॥३५॥ अपि स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम्॥ दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या॥३६॥ किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुंचत्॥ यस्यांघ्रिपातं रणभूर्न सेहे मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम्॥३७॥ कश्चिद्यशोधा रथयूथपानां गांडीवधन्वोपरतारिरास्ते॥ अलक्षितो यच्छरकूटगूढो मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष॥३८॥ यमावुतस्वित्तनयौपृथायाः पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव॥ रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात्॥ ३९॥
सभामें विशेष जयकी अनुवृत्ति और सम्राट्पनकी लक्ष्मीसे दुर्योधन तपता हुआ॥३६॥ अपराधकारी कुरुओंमें क्रोधी भीमसेन सर्पकी सदृश महाघोर श्वास लेनेवाला गदा ग्रहणकर विचित्र मार्गोंमें विचरते समय जिस भीमसेनके चरणकी धमक धरती नहीं सहन करसकी सो पवनपुत्र भीमसेन प्रसन्न हैं॥३७॥ महारथी यूथपोंमें यशस्वी शत्रुनाशक अलक्षित जिनके बाणोंसे मायासे ठगे हुए भीलरूप धारण किये हुए भूतनाथ प्रसन्नहुए सो गाण्डीवधनुषधारी इन्द्रसुत अर्जुन अच्छीतरह हैं?॥३८॥ और माद्रीके पुत्रोंकोभी तुमने देखा जिनका कुन्ती पुत्रसमान पालन करती है, और जिसप्रकार
पलक नेत्रोंकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार रक्षा की, शत्रु इन्द्रके मुखसे जैसे गरुड अमृत लावैउनकी सदृश युद्ध करके बरजोरी अपना लेकरबिहार करतेहैं वे प्रसन्न हैं॥३९॥ बंडे आश्चर्यकी बात हैं कि, पाण्डु राजर्षिके विना केवल पुत्रोंकी रक्षाके अर्थ कुन्ती जीवन धारण करती हैं। एकही वीर जिन पाण्डुने एक धनुष लेकर अकेले चारों दिशाओंको जीतकर शत्रुओंका विनाश किया॥४०॥ हे सौम्य उद्रव!हमारा ज्येष्ठ बंधु जो अभिमानके मदमें अंधा होरहाथा उसका मैं सोच करता हूं कि, वह नरकमें पड़ेगा क्योंकि उनके आश्रित होकर जिससे परलोकमें गये पांडुभ्राताके साथ द्रोह करा अर्थात् पांडुके पुत्रोंको दुःख दिया और में जीवता हुआ सुहृद् भ्राता पुरसे निकाला गया इसलिये वह नरकमें कैसे नहीं पडेगा अवश्य पडेगा॥४१॥ मनुष्योंमें अवतार धर नरलीला कर मनुष्योंके बुद्धिको चलायमान कर्ता, सब संसारके धारक श्रीवृन्दावन
अहोपृथाऽपि ध्रियतेऽर्भकार्थेराजर्षिवर्येण विनाऽपि तेन॥ यस्त्येकवीरोऽधिरथो विजिग्ये धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः॥४०॥ सौम्यानुशोचे तमधः पतंतं भ्रात्रे परेताय विदुदुहे यः॥ निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या अहं स्वपुत्रान्समनुव्रतेन॥४१॥ सोऽहं हरेर्मर्त्यविडंबनेन दृशो नृणां चालयतो विधातुः॥ नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादाच्चरामि पश्यन्गतवि स्मयोऽत्र॥४२॥ नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः॥ वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशो व्युपैक्षताघं भगवान्कुरूणाम्॥४३॥ अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम्॥ नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं परो गुणानामुत कर्मतंत्रम्॥४४॥
विहारीके प्रसादसे में परमपदवीको प्राप्त कर विषादरहित हो सब पृथ्वीपर विचरता फिरा और मैंने अपने रूपको ऐसा छिपाया कि किसीने मुझको नहीं पहिचाना॥४२॥ इन तीनों मदसे1 युक्त हो, सेनासे सब धरतीको चलायमान करैंउनका हठ हटानेके अर्थ वध करने और शरणागतोंका कष्ट हरनेको देवकीनन्दनने कौरवोंका अपराध क्षमाकिया॥४३॥ अजन्मा ईश्वरके जन्म पाखण्डी और दुष्टोंके नाश करने और अकर्ताके कर्म पुरुषोंके ग्रहण करनेके अर्थ हैं इनके विना गुणोसे परे जो ईश्वर है उनके विना कर्मके वश होना और ब्रह्मनिष्ठाका धारण और देहके योग्य नहीं है॥४४॥
हे सखे!शरणागत सब लोकपालोंके और अपनी आज्ञामें जो स्थित हैं उनके कारण यादवोमें जन्म लिया, ऐसे तीर्थरूप वसुदेवकुमार बॉकेविहारी, कृष्णमुरारीकी मनोहर कथा सुनाओ॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे तृतीयस्कन्धे भाषाटीकायां विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा—कहौद्वितीय अध्यायमें, उद्धव विरह विलाप। जैसे वरणो विदुरसे, सकल शोक सन्ताप॥२॥ श्रीशुकदेवजी बोले, श्रीकृष्णका स्मरण करानेहारी ऐसी बातें भागवत विदुरजीने उद्धवसे पूछीं।तब श्रीवृन्दावनविहारीके विरहमें उद्भव सब सुधि बुधि बिसराय खडे होगये और मुखसे कुछ
तस्य प्रपन्नाखिललोकपानामवस्थितानामनुशासने स्वे॥ अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे तृतीयस्कंधे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ इति भागवतः पृष्टः क्षत्रा वार्तां प्रियाश्रयाम्॥ प्रतिवक्तुं न चोत्सेहे औत्कंठ्यात्स्मारितेश्वरः॥१॥ यः पंचहाय नो मात्रा प्रातराशाय याचितः॥ तन्नैच्छद्रचयन्यस्य सपर्यां बाललीलया॥२॥ स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः॥ पृष्टो वार्तां प्रतिब्रूयाद्भर्तुः पादावनुस्मरन्॥३॥
न कहसके*॥१॥ जिस समय उद्धव पांच वर्षके थे तब बाललीलामेंभी श्रीगोविन्दके चरणारविंदकी पूजा करते रहे थे और जब प्रातःकाल मैया भोजनको बुलाती तबभी न जाते॥२॥ सो उद्धवजी उनकी सेवा करते २ अब वृद्ध होगये थे, श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलका स्मरणकर जो कुछ
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***शका—**सब विष्णुके भक्तोंमें सब ज्ञानियोंमें सब शास्त्रोंमें उद्धवजी बडे ज्ञानी बडे भक्त, कृपाके सागर श्रीकृष्णने जिनको अपना परमप्रियतम जानकर ज्ञानदिया, सो ऐसे बडे ज्ञानी होकर उद्धवजी विदुरजीके मुखसे श्रीकृष्ण बलराम आदिक सब यदुवंशियोंका विनाश सुनकर मूर्खोकी समान शोक क्यो करने लगे।
** उत्तर—**उद्धवजीने विचार किया कि जो मैं श्रीकृष्णजीके विरहको सुनकर शोक सताप न करूगा तौ मेरा चरित्र सुनके कलियुगमें सब प्राणी भगवान्का विरह सुनकर कोईभी शोक न करेगा तौसब प्राणियोंको श्रीवैकुण्ठनाथका वैकुण्ठधाम नहीं मिलेगा इसलिये उद्धवजी परमज्ञानी भी थे।और विष्णुभक्त भी थे तौभी भक्तजनोंके प्रीति बढानेके लिये शोक किया कि कलिकालके लोगोंको प्रेमसेही परमधाम प्राप्त होगा॥
जिज्ञासा किया सो वर्णन करने लगे॥३॥ श्रीकृष्णके चरणामृत और पूर्णभक्तिमें अत्यन्त मग्न हो अतिसुख पाय मुहूर्तमात्रको मौन होगये॥४॥ और पुलकायमान हो नेत्र मूँद शोक तज प्रेमप्रवाहमें निमग्न सब अर्थ परिपूर्णसी दशा होगई॥५॥ धीरे २ मैं भगवान् के ध्यानसे फिर संदेहानुसन्धानमें आन अश्रु निवारण कर उद्धवजी फिर विदुरजीसे बोले॥६॥ “हे विदुरजी! हमारे नेत्रोंके तारेश्रीकृष्णरूप सूर्य अस्त होगये” और कालरूप अजगरने सब शोभित ग्रहोंको डसलिया अब मैं किसकी कुशल और प्रसन्नता कहूं॥७॥ यह सब लोक भाग्यहीन हैं।और यादव तौ सभी महा अभागे हैं प्रारब्धके मंद हैं।जो आदिपुरुष अविनाशीके निकट वास करते रहे और तौभी लोकनाथ विश्वात्माको नहीं पहिचाना जैसे
स मुहूर्तमभूत्तूष्णीं कृष्णांघ्रिसुधया भृशम्॥ तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधुनिर्वृतः॥४॥ पुलकोद्भिन्नसर्वांगो मुंचन्मीलदृशाशुचः॥ पूर्णार्थोलक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसंप्लुतः॥५॥ शनकैर्भगवल्लोकान्नृलोकं पुनरागतः॥ विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रत्याहोद्धव उत्स्मयन्॥६॥ उद्धव उवाच॥ कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह॥ किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम्॥७॥ दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि॥ ये संवसंतो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम्॥८॥ इंगितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः॥ सात्वतामृषभं सर्वे भूतावासममंसत॥९॥ देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यदसदाश्रिताः॥ भ्राम्यते धीर्नतद्वाक्यैरात्मन्युप्तात्मनो हरौ॥१०॥ प्रदर्श्यातप्ततपसामवितृप्तदृशां नृणाम्॥ आदायांतरधाद्यस्तु स्वबिंबं लोकलोचनम्॥११॥
एक समय सुधाकर किसी शापसे जलनिधिमें मीन होकर रहा परन्तु किसी जलचरने नहीं जाना कि, यह अमृतकी खानि है।अथवा जैसे मीन अवतारको जलेचरोंने संसारतारक नहीं समझा। और कहीं ऐसाभी लिखा है कि समुद्रमथनसे पहले चंद्ररूप हरिको संसारतापहारक नहीं माना इसी प्रकार हमारी गति जानो॥८॥ भगवत् चित्तके ज्ञाता;अतिनिपुण एक स्थानमें सदा रहनेहारे, यादवोंने यदुनाथ, यादवश्रेष्ठ जगन्निवास ईश्वरको अपना मित्र करके माना॥९॥ असत्पदार्थके अधीन असुरादिक ईश्वरकी मायासे फँसे हुए थे उनके वाक्योंसे आत्मा हरिमें जिनका चित्त लगा ऐसी हमारी बुद्धि भ्रमी॥१०॥ तप नहीं किया दृष्टि तृप्त नहीं हुई ऐसे मनुष्योंको संसारके नेत्र अपने मनमोहन स्वरूपका दर्शन दिखाय आप
अंतर्धान होगये॥११॥ जिन्होने नरलीलाके योग्य अपनी योगमायाका बल दिखानेको शरीर ग्रहण किया, सो अपनेको विस्मय करानेवाले, अत्यन्तसौभाग्य, ऋद्धिके भण्डार, भूषणके भूषण श्रीभगवान् वासुदेवहैं॥१२॥ धर्मपुत्र युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें दृष्टिके आनन्ददायक मदनमोहनकी मनोहर छबि देख तीनों लोकोंने यह माना कि, ब्रह्माकी सृष्टिमें आज श्रीकृष्णचंद्रजीके श्रीअंगमें सब चतुराई बिसरगई, क्योंकि सब अवतारोंके अंग चतुराननके रचे हुए नहीं हैं आप स्वयंभू हैं॥१३॥ जिनकी परमसुखदायक प्रेमयुक्त अनुरागरसभरी मुसकान तिरछी चितवन देख, सुधासम मधुरबाणी सुन, सुन्दर रासविलास देख, दृष्टिसे वह बुद्धिसे न जाने जायँ; अपूर्णमनोरथसी, मानवती, व्रजबाला ऐसी होगईं कि ब्रजविहारीको, जाता
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोगमायाबलं दर्शयता गृहीतम्॥ विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेःपरं पदं भूषणभूषणांगम्॥१२॥ यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये निरीक्ष्यदृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः॥ कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातुरर्वाक्सृतौ कौशलमित्य मन्यत॥१३॥ यस्यानुरागप्लुतहासरासलीलावलोकप्रतिलब्धमानाः॥ व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्तधियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः॥१४॥ स्वशांतरूपेष्वितरैः स्वरूपैरभ्यर्द्यमानेष्वनुकंपितात्मा॥ परावरेशो महदंशयुक्तो ह्यजोऽपि जातो भगवान्यथाऽग्निः॥१५॥ मा खेदयत्येतदजस्य जन्मविडंबनं यद्वसुदेवगेहे॥ व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं पुराद्व्यऽवात्सीद्यदनंतवीर्यः॥१६॥ दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्यदाह पादावभिवंद्य पित्रोः॥ तातांब कंसादुरुशंकितानां प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम्॥१७॥
देख उनके संग अपने नेत्रोंको भी भेज दिया कि, हमारे प्यारे अकेले जातेहैं और आप अपनी सुधि बुधि बिसार ठगीसी रह गईं॥१४॥भगवान् अपने शांत अशांत रूपोंमें और स्वरूपोंसे, दुखारी दासोंपर दयालु देह धार पर अवरके ईश महाअंशसे युक्त अजन्मा ईश्वरने जन्म लिया।जैसे महाभूतरूपमें नित्य वसनेहारी अग्निकाष्टमेंसे प्रगट हुई।इसीप्रकार अवतार घर सब दुष्टोंको मार भूमिका भार उतारा॥१५॥ उद्धवजी बोले अतर्क्य अगम्यके यह चरित्र समझकर मुझकोभी खेद होताहैं अजन्माभी वसुदेवदेवकीके घरमें जन्म ले और व्रजमें सब घर २ घूमे।शत्रुओंके भयसे भयभीत रहे जिनमें अनंत बल और जरासन्धके भयसे द्वारका बसाई, और मथुरा तजकर वहां रहे॥१६॥हे विदुर! इन बातोंको स्मरण कर २ के मेरे चित्तमें
व्यथा और हंसी दोनो आती हैं जब मातापिताके चरणारविन्दकी वन्दनाकर यह बोले कि, हे तात! हे जननी! मेरा अपराध क्षमा करो मुझपर प्रसन्नहो।कंसकी शंकासे आपकी सेवा मुझसे कुछ बन नहीं पड़ी॥१७॥ जिन्होने, चलायमान भ्रूविटपरूप यमधर्मराजसे पृथ्वीका भार उतारा, उनके चरणारविंदकी रजको कौन ऐसा मूर्ख है जो भूल सक्ता हैं॥१८॥ धर्मराजके राजसूययज्ञमें श्रीकृष्णकी निन्दा कर शिशुपालको जो सिद्धि प्राप्त हुई सो आपने देखी जिस सिद्धिके सुन्दरयोगसे योगीजन मोक्षको प्राप्त होते हैं ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दका वियोग कौन सहसक्ता है?॥१९॥ इसीप्रकार भारतके युद्धमें वीर मनुष्य नेत्रोंके आनन्ददायक श्रीकृष्णके मुखारविन्दका रस नेत्रोंसे पान करने लगे, अर्जुनके अस्त्रसे पवित्र होकर
को वा अमुष्यांघ्रिसरोजरेणुं विस्मर्तुमीशीत पुमान्विजिघ्रन्॥ यो विस्फुरद्भ्रूविटपेन भूमेर्भारं कृतांतेन तिरश्चकार॥१८॥ दृष्टा भवद्भिर्ननु राजसूये चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः॥ यां योगिनः संस्पृहयंति सम्यग्योगेन कस्तद्विरहं सहेत॥१९॥ तथैव चान्ये नरलोकवीरा य आहवे कृष्णमुखारविंदम्॥ नेत्रैः पिबंतो नयनाभिरामं पार्थास्त्रपूताः पदमापुरस्य॥२०॥ स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्र्यधीशः स्वाराज्यलक्ष्म्याऽऽप्तसमस्तकामः॥ वलिं हरद्भिश्चिरलोकपालैः किरीटकोट्येडितपादपीठः॥२१॥ तत्तस्य कैंकर्यमलं भृतान्नो विग्लापयत्यंग यदुग्रसेनम्॥ तिष्ठन्निषण्णं परमेष्टिधिष्ण्ये न्यबोधयद्देव निधारयेति॥२२॥ अहो वकीयं स्तनकालकूटं जिघांसयाऽपाययदप्यसाध्वी॥ लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम॥२३॥
भीष्मादिक वीर लोग बेखटक वैकुण्ठको चलेगये॥२०॥ आज श्रीकृष्णके समान कोई बलवान् और उनसे अधिक नहीं है, अपनी राज्यलक्ष्मीसे सब भोग जिनको प्राप्त हैं, और चिरलोकपाल ब्रह्मादिक शक्रादिक बलिदानपूर्वक जिनके चरणारविंदकी चौकीको अपने किरीटके अग्रभागसे स्तुति करतेहैं॥२१॥ सो प्रभु सुधर्मासभामें राज्यसिंहासनपर बैठे और उग्रसेनसे कहते रहे थे; “हे देव! आप हमको निरन्तर धारण करो” उनकी यह बात सुनकर हम दासोंको बड़ा विस्मय होता हैं॥२२॥ आश्चर्यकी बात हैं कि, महादुष्ट पूतना राक्षसीने स्तनोंमें कालकूट लगा मारनेकी इच्छाकर
दूध पिलानेके बहाने यशोदानंदको गोदमें लिया, और उसको यशोदा माताकी समान मान परमगति दी।ऐसे दीनदयालु, परमकृपालु, श्रीकृष्ण प्यारेके विना किसकी शरण जायँ॥२३॥देखो महाक्रोधसे असुरोने श्रीकृष्णमें मन लगाया हम उनको परमभागवत मानतेहैं जो संग्राममें गरुड़ जीके ऊपर चढ़ अपने सम्मुख आयेहुए श्रीकृष्णके दर्शन कर वैकुंठको गये॥२४॥ कंसके बंधनमें वसुदेवदेवकीके घर पृथ्वीका भार उतारनेको ब्रह्माकी प्रार्थना करनेपर अवतार धारण किया॥२५॥दुष्ट कंसके भयसे वसुदेवजीने नंदके घर व्रजमें पहुँचाया, तहाँएकादशवर्ष अपने तेजको गुप्त करके व्रजमें वास किया और अनेक प्रकारके चरित्र दिखलाये॥२६॥ ग्वालबालसमेत गोपाललालने गाय वत्स चराये, कालिंदीके कूलपर
मन्येऽसुरान्भागवतांस्त्र्यधीशे संरंभमार्गाभिनिविष्टचित्तान्॥ ये संयुगेऽचक्षत तार्क्ष्यपुत्रमंसे सुनाभायुधमापतंतम्॥२४॥ वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेंद्रबंधने॥ चिकीर्षुर्भगवानस्याः शमजेनाभियाचितः॥२५॥ ततो नंदव्रजमितः पित्रा कंसाद्धिबिभ्यता॥ एकादश समास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत्॥२६॥ परीतो वत्सपैर्वत्सांश्चारयन्व्याहर द्विभुः॥ यमुनोपवने कूजद्द्विजसंकुलितांघ्रिपे॥२७॥ कौमारीं दर्शयंश्चेष्टां प्रेक्षणीयां व्रजौकसाम्॥ रुदन्निव हसन्मुग्धबालसिंहावलोकनः॥२८॥ स एव गोधनं लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम्॥ चारयन्ननुगान्गोपान्रणद्वेणुररीरमत्॥२९॥ प्रयुक्तान्भोजराजेन मायिनः कामरूपिणः॥ लीलया व्यनुदत्तांस्तान्बालः क्रीडनकानिव॥३०॥
कुंजोंमें वृक्षोंमें कोकिलादिक पक्षियोंके समूह मनोहरशब्द करते, और नवललितलतिका जहाँ लहलहारहीं थीं उन उपवनोंमें नित्यप्रति विहार करते थे॥२७॥ मुग्ध तथा बालसिंहकी तरह है देखना जिनका ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र रोते हुएकी तरह और हॅसते हुएकी तरह देखेने योग्य बालअवस्थाके सुख ब्रजवासियोंको दिखाते भये॥२८॥ जब बॉकेविहारी अधिक बड़े होगये तब लक्ष्मीका स्थान गोवर्द्धनके निकट गाय बैलोंको चराय बांसुरी बजाय २ ग्वालबालोंके संग अनेक २ ढंगके रास रंग इत्यादिक खेल किया करते थे॥२९॥ उस समय महाबली कंसके भेजे बड़े २ बलशाली दैत्य नानाप्रकारके रूप धरकर व्रजमें आये उनको भक्तहितकारी बांके विहारीने बालक्रीड़ासे विनष्ट कर वैकुंठको भेजदिया॥३०॥
जिसप्रकार बालक घरोंदा बनाके बिगाड़ देतेहैं फिर भगवान्ने विष जलपान करनेसे मरेहुए गोप और गायोंको जिलाय कालीदहमें कूद काली अहिको नाथकर निकाल अपना चरणचिह्न उसके मस्तकपर लगाय रमणक द्वीपको पहुँचाया, और कालिन्दीका जल निर्मल करके वही जल गोप गायोंकोपान कराया॥३१॥ फिर ब्राह्मणोंके द्वारा समर्थ भगवान्ने नन्दजीसे गौओंकी पूजाके अर्थ यज्ञ कराया॥३२॥अपनी प्रतिष्ठा भंग समझकर इन्द्रने क्रोधयुक्त हो व्रजपर मूसलधार जल बरसाया तब गोप ग्वाल बछड़ोंको दुःखी देख मंगलकी इच्छाकर श्रीव्रजनाथने कंदुक इव गोवर्द्धनको उठाय बायें करकी कनअंगुलीपर धारणकर व्रजमण्डलकी रक्षा की॥३३॥ शरद शशधरकी विमलकिरणोंसे प्रकाशित रजनीमुखको मान मनमोह
विपन्नान्विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम्॥ उत्थाप्यापाययद्गावस्तत्तोयं प्रकृतिस्थितम्॥३१॥ अयाजयद्गोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमैः॥ वित्तस्य चोरुभारस्य चिकीर्षन्सद्व्ययं विभुः॥३२॥ वर्षतींद्रे व्रजः कोपाद्भग्नमानेऽतिविह्वलः॥ गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्रानुगृह्णता॥३३॥ शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन्रजनीमुखम्॥ गायन्कलपदं रेमे स्त्रीणां मंडलमंडनः॥३४॥ इति श्रीमद्भा० म० तृतीयस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ उद्धव उवाच॥ ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रोश्चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः॥ निपात्य तुंगाद्रिपुयूथनाथं हतं व्यकर्षद्व्यसुमोजसोर्व्याम्॥१॥ सांदीपनेः सकृत्प्रोक्तं ब्रह्माधीत्य सविस्तरम्॥ तस्मै प्रादाद्वरं पुत्रं मृतं पंचजनोदरात्॥२॥
नने मनमोहिनी मुरलीमें मनोहर गीत गाय, ब्रजबालाओंको बुलाय उनके संग विहार किया॥३४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे तृतीयस्कन्धे भाषाटीकायां विदुरोद्धवसंवादे श्रीकृष्णचरित्रवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा— कहोंतृतीय अध्यायमें व्रजको सबवृत्तान्त॥ फेर द्वारकाके चरित, वरणों आद्योपान्त॥३॥ उद्धवजी बोले कि, फिर श्रीकृष्णचन्द्र सुखधाम बलराम समेत अक्रूरके संग मधुपुरीमें आये और अपने पिताके कल्याणकी इच्छा कर संकर्षणसहित रंगभूमिमें जाय ऊँचे मंचपरसे असुरनाथ कंसके केश पकड़ पृथ्वीपर घर पटका, प्राण निकलने उपरान्त उसकी शवको घसीटते फिरे॥१॥ फिर सान्दीपनि गुरुके घर जाय उनके मुखसे कहे हुये चारों वेद एक बारमें विस्तारसहित पढ़ चौंसठ कला स्मरण कीं.
फिर गुरुके मरेहुए पुत्र पंचजनके उदरसे लाकर गुरुदक्षिणामें गुरुजीको देदिये
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॥२॥ फिर श्रीमहालक्ष्मीके सदृश रूपवती रुक्मिणीजीके विवाहकी इच्छा कर अनेक भूपालोंको साथ ले राजाशिशुपाल व्याहने आयाथा उसकाल भगवान् वासुदेव सबके देखते बडे नरेशोंके मध्यसे उन लोगोंके शिरपर पग धरकर रुक्मिणीको इस प्रकार हरलाये, जिस प्रकार पक्षिराजने अमृतहरण किया था॥३॥ फिर यदुवीरने अवधनगरमें जा सात बेनथे बैलोंको नाथकर स्वयंवरमें सत्या; नाग्नजितकी पुत्रीके संग विवाह किया; और बैलोंने जिनका मानभंग किया सो अत्याचारी नाग्नजितीके अभिलाषी,
समाहुता भीष्मककन्यया ये श्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम्॥ गांधर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं जह्रेपदं मूर्ध्नि दधत्सु पर्णः॥३॥ ककुद्मतोऽविद्धनसो दमित्वा स्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह॥ तद्भग्नमानानपि गृध्यतोऽज्ञाञ्जघ्नेऽक्षतः शस्त्रभृतः स्वशस्त्रैः॥४॥ प्रियं प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया विधित्सुरार्च्छद्द्युतरुं यदर्थे॥ वज्य्राद्रवत्तं सगणो रुषांधः क्रीडामृगो नून मयं वधूनाम्॥५॥ सुतं मृधे खं वपुषा ग्रसंतं दृष्ट्वा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या॥ आमंत्रितस्तत्तनयाय शेषं दत्त्वा तदंतः पुरमाविवेश॥६॥
अज्ञानी शस्त्रधारी दुष्टोंका अपने शस्त्रमे विध्वंस किया॥४॥ जिस सत्यभामा प्रियाके प्रेमनिमित्त संसारी मनुष्योंकी सदृश पारिजात समूल उखाड लाये और जब दलसमेत क्रोधसे अन्धा स्त्रियोंके मध्यमें विषयी इन्द्र, श्रीकृष्णचन्द्रसे लडनेको आया तौ क्षणमात्रमें गर्वप्रहारी बाँके विहारीने उसका गर्व दूर किया॥५॥ फिर श्रीवैकुण्ठनाथने संग्राममें बड़े लम्बे भौमासुरका चक्रसे वध किया। उसे गिरा देख उसकी माता
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***शंका—**उद्धवजीने विदुरजीसे कहा कि, सान्दीपनि नाम गुरुके पास रहकर श्रीकृष्णजीने मोक्षप्राप्ति होनेकी विद्या सीखी सो मोक्षविद्या प्राप्तहोनेपर फिर राग द्वेष जीवोंसे क्यों किया?
** उत्तर—**सान्दीपनि गुरुसे श्रीकृष्णजीने चौसठ कलाओंको प्राप्त किया, परन्तु तीन लोक चौदह भुवन ब्रह्माके अंशसे प्रकाशमान हो रहे हैं और चौसठ कलाभी उसके अंशसे प्रकाशित हो रही हैं, ऐसी कोई वस्तु संसारमें नहीं है जो कि ब्रह्माके अंशसे शून्य हो, ऐसा श्रेष्ठ ज्ञान चौसठ कलाके मिससे श्रीकृष्णजीने सीखा, तब जिस जीवको जैसी अभिलाषारही उसके संग वैसी ही लीला करी, फिरू राग, द्वेष कहा रहा इस लिये उद्धवजीने ब्रह्मविद्या प्राप्त होनेको कहा था।
पृथ्वीने अत्यन्त व्याकुल होकर प्रभुसे प्रार्थना की भूमिकी विनय सुन उसके पौत्र भगदत्तको राजतिलक दे उसके भवनमें गये॥६॥ तहाँ भौमासुरकी हरीहुई सोलह हजार भूपालोंकी कन्याओंने श्रीवृन्दावनविहारीकी बाँकी छवि निहार शीघ्र उठ अतिहर्षित हो लाज अनुरागकी चितवनसे मनहीमन विवाहकी अभिलाषा की॥७॥ और उन स्त्रियोंके मन्दिरोंमें एक मुहूर्तमात्रमें अपनी मायासे उनके चित्तानुसार हो विवाहयोग्य प्रकारसहित पाणिग्रहण किया॥८॥ और फिर उन सोलहसहस्र युवतियोंको द्वारकामें लेजाय षोडशसहस्रसदनोंमें एक संग बसे।तब उन सब रानियोंके गुणोंमें अपने समान दश २ पुत्रोंको एक२ स्त्रियोंमें मायाको अनेकप्रकारकरनेकी इच्छासे उत्पन्न किया॥९॥ फिर कालयवन जरासन्ध शाल्वादिकोंकी
तत्राहृतास्ता नरदेवकन्या कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबंधुम्॥ उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्षव्रीडाऽनुरागप्रहितावलोकैः॥७॥ आसां मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु योषिताम्॥ सविधं जगृहे पाणीननुरूपः स्वमायया॥८॥ तास्वऽपत्यान्यजनयदात्मतुल्यानि सर्वतः॥ एकैकस्यां दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया॥९॥ कालमागधशाल्वादीननीकै रुंधतः पुरम्॥ अजी घनत्स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत्॥१०॥ शंबरं द्विविदं बाणं मुरं बल्वलमेव च॥ अन्यांश्च दंतवक्रादीनवधीत्कांश्च घातयत्॥११॥ अथ ते भ्रातृपुत्राणां पक्षयोः पतितान्नृपान्॥ चचाल भूः कुरुक्षेत्रंं येषामापततां बलैः॥१२॥ स कर्ण दुश्शासनसौबलानां कुमंत्रपाकेन हतश्रियायुषाम्॥ सुयोधनं सानुचरं शयानं भग्नोरुमुर्व्यां न ननंद पश्यन्॥१३॥
सेनाने जब द्वारकाको रोका तब उनका विध्वंस किया, और अपने पूर्वजोंके दिव्य तेजको जागृत किया॥१०॥ फिर शंबरासुर, द्विविद वानर, बाणासुर, मुर, निकुंभ, बल्वल, और दंतवक्रादिक जो बडे २ बलवान् असुर थे उनमेंसे किसीको आपने मारा और किसीको औरके हाथोंसे कालकवलित कराया॥११॥ इनके पीछे तुम्हारे भ्राताके पुत्रोंकी ओर जो नरेश थे उनकी सेना आनेसे कुरुक्षेत्रकी भूमि कंपित हुई थी॥१२॥ कर्ण, दुःशासन, सौबलके कुपरामर्शसे जिनकी राजलक्ष्मी आयु नष्ट हुई पवनकुमार भीमसेनने घोर युद्ध करके जिसकी जंघा तोड़ी उसको पृथ्वी
पर अचेत पडा देख श्रीकृष्ण कुछ प्रसन्न नहीं हुए॥१३॥ द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, फाल्गुन, भीमसेन जिसमें मूल थे उन अठारह अक्षौहिणियोंके न होनेसे क्या लाभ हुआ? मेरे अंश प्रद्युम्न आदि असह्य यादवरूप अभी हैं, भूमिपर बडा भारी भार तौ इनहींका है॥१४॥ जब मीठी वारुणीके मदमें मतवाले हो, यादवलोग परस्पर विवाद करें, यही इनके संहार करनेका सहज उपाय हैं।और इनके मरनेका दूसरा उपाय नहीं और जब हम इस काजके करनेका प्रारंभ करेंगे तौएक चित्तवालेभी ये यादव आपही नष्ट हो सब अन्तर्धान हो जावेंगे॥१५॥ ऐसे विचार कर भगवान् ने अपने राज्यको स्थापित कर श्रेष्ठ रीति दरशाय सुहृदोंसहित आनंदित होते हुये॥१६॥ साधु अभिमन्युने विराट्पुत्री उत्तरामें गर्भ धारण किया, उसको द्रोणपुत्र
कियान्भुवोऽयं क्षपितोरुभारो यद्द्रोणभीष्मार्जुनभीममूलैः॥ अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशैरास्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम्॥१४॥ मिथो यदैषां भविता विवादो मध्वामदाताम्रविलोचनानाम्॥ नैषां वधोपाय इयानतोऽन्यो मय्युद्यतेंऽतर्दधते स्वयं स्म॥१५॥ एवं संचिंत्य भगवान्स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम्॥ नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन्॥१६॥ उत्तरायां धृतः पूरोर्वंशः साध्वभिमन्युना॥ स वै द्रौण्यस्त्रसंछिन्नः पुनर्भगवता धृतः॥१७॥ अयाजयद्धर्मसुतमश्वमेधै स्त्रिभिर्विभुः॥ सोऽपि क्ष्मामनुजैरक्षत्रेमे कृष्णमनुव्रतः॥१८॥ भगवानपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुगः॥ कामान्सिषेवे द्वार्वत्यामसक्तः सांख्यमास्थितः॥१९॥ स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया॥ चरित्रेणाऽनवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना॥२०॥ इमं लोकममुं चैव रमयन्सुतरां यद्वन्॥ रेमे क्षणदया दत्तक्षणस्त्रीक्षणसौहृदः॥२१॥
अश्वत्थामाने ब्रह्मास्त्रसे नष्ट करना चाहा था, तब उस गर्भस्थित बालककी प्रणतपाल दीनदयालु त्रिलोकीनाथने रक्षा की फिर सामर्थ्यवान् जगत्पतिने तीन अश्वमेध यज्ञ राजा युधिष्ठिरसे करवाये और महाराज युधिष्ठिर श्रीवासुदेवकी कृपासे भ्राताओंसमेत पृथ्वीपर विहार करते रहे॥१७॥१८॥ तदनन्तर भगवान् विश्वआत्माने लोकवेद मार्गानुसार द्वारावतीमें वास कर सांख्यशास्त्रमें मन लगाय सब प्रजाकी शिक्षाके कारण धर्म कर्म किये॥१९॥ मनोहर मुसकानकी दृष्टिसे और सुधा विनिन्दित मधुरवाणीसे लक्ष्मीनिवास शरीरसे सबको आनंद देते रहे॥२०॥ इस लोक और उस
लोकमें निरन्तर यादवोंको रमण कराया और सोलह सहस्र रमणियोंसे आप रमण करते रहे॥२१॥ बहुत वर्षतक रमण करते २ श्रीकृष्णको गृहस्था श्रममें वैराग्य उत्पन्न हुआ॥२२॥ जो हरि किसीके आधीन नहीं, अपने कार्योंमें स्वतंत्र हैं उन परमात्माको विराग हुआ; तौ जिनके काम पराये आधीन हैं और आप भी वे पराधीन हैं, उनमें कौन ऐसा योगेश्वर है जो भगवतका भजन करता हुआ दैवाधीन कार्योंमें प्रीति करेगा॥२३॥एक समय द्वारकापुरीमें यदुवंशियोंके बालकों द्वारा खेलमें मुनिकी हँसी कराई, तब भगवदिच्छाके अनुकूल मुनिने उनको महाघोर शाप दिया॥२४॥ फिर कुछ मास पश्चात् वृष्णि, भोज, अंधक आदिक प्रसन्न हो रथपर बैठ दैवसे विमोहित हो प्रभासक्षेत्रमें गये॥२५॥वहां स्नान कर उसी वारिसे पितृ,
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान्बहून्॥ गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत॥२२॥ दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान्॥ को विस्रंभेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः॥२३॥ पुर्यां कदाचित्क्रीडद्भिर्यदुभोजकुमारकैः॥ कोपिता मुनयः शेपुर्भगवन्मतकोविदाः॥२४॥ ततः कतिपयैर्मासैर्वृष्णिभोजांधकादयः॥ ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः॥२५॥ तत्र स्नात्वा पितॄन्देवानृषींश्चैव तदंभसा॥ तर्पयित्वाऽथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः॥२६॥ हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकंबलान्॥ यानं स्थानिभान्कन्या धरां वृत्तिकरीमपि॥२७॥ अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम्॥ गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः॥२८॥ इति श्रीमद्भागवते म० तृतीय०तृतीयोऽध्यायः॥३॥ उद्धव उवाच॥ अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वापीत्वा च वारुणीम्॥ तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः॥१॥
देव, ऋषियोंका तर्पण कर बहुत दूधवाली गायें अलंकारयुक्त, ब्राह्मणोंको दान करीं॥२६॥ और सुवर्ण, चांदी और अनेक प्रकारके रत्न आभूषण, शय्या, वस्त्र, दुशाले, पीतांबर, मृगचर्म, सवारी, रथ, हाथी, घोड़े, कन्या, पृथ्वी जिससे सब वृत्ति चले ऐसा दान विप्रोंको दिया॥२७॥ फिर जिसमें अनेक रस पूर्ण ऐसा अन्न महीसुरोंको दे भगवत् के समर्पण किया; फिर उन गो ब्राह्मण हितकारी यादवोंने श्रीकृष्णजीके प्रसन्नतार्थ भूमिमें मस्तक नवाकर प्रणाम किया॥२८॥ इति श्रीमद्भा०महा० तृ० भाषाटीकायां प्रभासक्षेत्रागमनवर्णनं नाम तृतीयोध्यायः॥३॥ दोहा— इस चतुर्थ अध्यायमें, बन्धुनिधन सुन कान। उद्धवशिक्षासे विदुर, गये मित्रसुत जान॥४॥ उद्धवजी बोले कि, ब्राह्मणोंसे आज्ञा ले भोजन करा, फिर वारुणीपान करनेसे सब
यादववीर ज्ञानशून्य होगये।और परस्पर बुरी २ बातें कर, मर्मस्थानमें वचनबाण एक दूसरेके मारने लगा॥१॥ उस मदके दोषसे उनके चित्त विषम होगये।सूर्य अस्त होनेके समय जिसप्रकार बांस घिसकर अग्निके उत्पन्न होनेसे नष्ट होजातेहैं; ऐसे ही परस्पर वे लड़कर शापाग्निसे नष्ट होगये॥२॥ भगवान् अपनी मायाके इस प्रभावको देख सरस्वती नदीमें आचमन कर एक वृक्षकी जड़में बैठगये॥३॥उस समय शरणागतके पीड़ानाशक, अपने वंशके विध्वंस करनेवाले भगवान्ने मुझसे कहा कि, तुम बदरिकाश्रमको जाओ॥४॥ यद्यपि उनके अभिप्रायोंको मैं भलीप्रकार जानताथा, तौ भी मैं शत्रुविनाशकारी, दैत्यारी श्रीवासुदेवजीके पश्चात् २ गया क्योंकि श्रीयदुनाथके कोमल चरणोंका वियोग मैं सहन नहीं करसका॥५॥ तब मैं
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम्॥ निम्लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम्॥२॥ भगवान्स्वात्ममायाया गतिं तामवलोक्य सः॥ सरस्वतीमुपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत्॥३॥ अहं प्रोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह॥ बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं संजिहीर्षुणा॥४॥ अथाऽपि तदभिप्रेतं जानन्नहमरिंदम॥ पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेणाक्षमः॥५॥ अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन्दयितं पतिम्॥ श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम्॥६॥ श्यामावदातं विरजं प्रशांतारुणलोचनम्॥ दोर्भिश्चतुर्भिर्विदितं पीतकौशांबरेण च॥७॥ वाम ऊरावधिश्रित्य दक्षिणांघ्रिसरोरुहम्॥ अपाश्रितार्भकाश्वत्थमकृशं त्यक्तपिप्पलम्॥८॥ तस्मिन्महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखः॥ लोकाननुचरन्सिद्ध आससाद यदृच्छया॥९॥ तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुंदः प्रमोदभावाऽऽनतकंधरस्य॥ आशृण्वतो मामनुरागहाससमी क्षया विश्रमयन्नुवाच॥१०॥
वृन्दावनविहारीके चरणचिह्न खोजता हुआ सरस्वतीके तटपर पहुँचा देखा तो राधाचित्तचोर श्रीनिवास स्वतंत्र अकेले वहाँ बैठेहैं॥६॥ श्यामसुन्दर शुद्ध सत्वमय शांत लाल नेत्रोंवाले चारभुजाधारी आनन्दस्वरूप पीतांबर धारण किये॥७॥ दहिना चरण बायें चरणपर स्थापित किये, पीपलके पेड़के निकट बैठे, पुष्टशरीर, जिन्होंने सम्पूर्ण विषयोंका त्याग करदिया॥८॥ तहाँ दैव इच्छासे महाभागवत व्यासजीके सुहृद्सखामैत्रेयजी भी विचरण करते हुए उधर आ निकले॥९॥ तब भक्त अनुरागी आनन्दभावसे नीची ग्रीवा करे मेरे सम्मुख प्रेम हास्यकी दृष्टिसे विश्राम दे आनंदित होकर मुनीश्वरसे
श्रीव्रजनाथजी बोले हे वसुरूप उद्भव! तुम्हारे मनकी जो गति है वह मैं भली प्रकार जानता हूं और तुम्हारी अभिलषित वस्तु तुमको दूंगा, जो औरोंको प्राप्त नहीं होती, प्रथम विश्वके रचयिता वसुओंके यज्ञमें मेरी सिद्धिकी कामनासे तुमने मेरा यजन किया था॥१०॥११॥ सो हे तात! मेरी कृपासे यह आपका अन्तिम जन्म है, इसी जन्ममें तुम मेरे अनुग्रहका फल भोग लो, अब मैं मृत्युलोक त्याग वैकुण्ठधामको जाता हूं, इस समय मेरा एकान्तमें एकान्तभक्तिसे दर्शन करो, यही परमानंद हैं॥१२॥ पहिले पाद्मकल्पकी आदिसृष्टिमें कमलासन ब्रह्माजीसे मैंने अपनी लीलाका प्रकाशक परमश्रेष्ठ ज्ञान कहा था जिसको महाज्ञानी परमचतुर विद्वान् लोग “भागवत्” कहते हैं सोई ज्ञान प्रथम मैंने तुमको दिया अब तुम उस विमलज्ञानको विचार
श्रीभगवानुवाच॥ वेदाऽहमंतर्मनसीप्सितं ते ददामि यत्तद्दुरवापमन्यैः॥ सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः॥११॥ स एष भावश्चरमो भवानामासादितस्ते मदनुग्रहो यत्॥ यन्मां नृलोकान्रह उत्सृजंतं दिष्ट्या ददृश्वान्विशदानुवृत्त्या॥१२॥ पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे॥ ज्ञानं परं मन्महिमाव भासं यत्सूरयो भागवतं वदंति॥१३॥ इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः प्रतीक्षणानुग्रहभाजनोऽहम्॥ स्नेहोत्थरोमास्खलिताक्षरस्तं मुंचञ्छुचःप्रांजलिराबभाषे॥१४॥ कोन्वीश ते पादसरोजभाजां सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह॥ तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्भवत्पदांभोजनिषेवणोत्सुकः॥१५॥ कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम्॥ कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रयः स्वात्मन्रतेः खिद्यति धीर्विदामिह॥१६॥
संसारी माया मोह तज मेरा भजन करो॥१३॥ऐसे आदरभावसे जब कृपानिधानने मुझे समझाया तब परमपुरुषके क्षण २ के प्रति अनुग्रहका पात्र स्नेहसे मेरे रोमांच खड़े होकर गद्गद कंठ होगेया, मुखसे शब्द न निकला, शोकाश्रुनेत्रोंमें आगये तब मैं बड़े कष्टसे हाथ जोड़कर बोला॥१४॥ हे ईश! हे प्रभु!यद्यपि इस संसारमें तुम्हारे पदपंकज सेवन करनेवालोंको चारों पदार्थोंमें सब पदार्थ प्राप्त होते हैं तथापि मैं भी आपके चरणकमलका सेवक हूँ परन्तु मुझको उन पदार्थोंमेंसे किसीकी इच्छा नहीं॥१५॥ जो अघटमान हैं सो कहते हैं कि, जो चेष्टा न करै अकर्ताके कर्म,
अजन्माके जन्म, शत्रुओंके भयसे भागना, कालकी आत्मा असंख्यात रमणियोंसे विहार करना, अपनी आत्मामें सदा रमण करना, ऐसे तुम्हारे अद्भुतचरित्र देखकर इस संसारमें सब विवेकियोंकी बुद्धि खेदको प्राप्त होती हैं॥१६॥ हे प्रभो!हे देव! सब कालमें अखंड, अंतर्यामी जगत्के कारण अजानकी नाईं मुझे निकट बुलाकर मंत्र बूझतेथे और मुझको बड़ाई देतेथे, इसकारण मेरा मन आपके चरणकमलको नहीं छोड़ा चाहता॥१७॥ अपने आत्माका एकान्तमें प्रकाश करनेवाला ज्ञान संपूर्ण ब्रह्मासे तुमने कहा।हे स्वामिन्!जो मेरे जानने योग्य हो सो कहो जिससे अनायास संसा
मंत्रेषु मां वा उपहूय यत्त्वमकुंठिताखंडसदात्मबोधः॥ पृच्छेः प्रभो मुग्ध इवाऽप्रमत्तस्तन्नो मनो मोहयतीव देव॥१७॥ ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं प्रोवाच कस्मै भगवान्समग्रम्॥ अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तर्वदांऽजसा यद्वृजिनं तरेम॥१८॥ इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान्परः॥ आदिदेशाऽरविंदाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम्॥१९॥ स एवमाराधितपादतीर्थादधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः॥ प्रणम्य पादौ परिवृत्य देवमिहागतोऽहं विरहातुरात्मा॥२०॥ सोऽहं तद्दर्शनाह्लादवि योगार्तियुतः प्रभो॥ गमिष्ये दयितं तस्य वदर्याश्रममंडलम्॥२१॥ यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवानृषिः॥ मृदु तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ॥२२॥
रके दुःखसे हम सब तरें॥१८॥ ऐसे मेरे हृदयकी प्रीति जान श्रीवासुदेव भगवान् कमलनयनसे आत्माकी परम स्थितिका ज्ञान कहा
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॥१९॥ तब मैंने उसीप्रकार भगवान् वासुदेवका आराधन किया, उनके चरणामृतके प्रतापसे आपसे आप तत्त्व आत्माके ज्ञानका मार्ग मुझको प्राप्त होगया तब मैं उनके चरणोंको प्रणाम कर परिक्रमा दे विरहमें आतुर हो यहाँआया हूँ॥२०॥उनके दर्शनकी प्राप्तिके हर्ष और वियोगकी पीडासे खेदित हो प्रभुके प्रिय बदरिकाश्रम मंडलको जाऊंगा॥२१॥ जहां नारायणदेव और नर ऋषिसब उपद्रवरहित दुश्चर तप कल्पपर्यंत सब लोकके अनुग्रहके
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***शंका—**उद्धवजीने विदुरजीसे कहा कि, हे विदुर! भगवान् मुझको बडी सुन्दर अपनी स्थिति बतलाते थे सो भगवान्की बडी सुन्दर स्थितिका ठिकाना कहां है?
** उत्तर—**भगवान्की बडीसुन्दरस्थिति भक्तिमें है वा भक्तजनोंके हृदयमें है, वहीं सदा भगवान् वास करतेहैं, भगवान्की बडी स्थिति दोही स्थानोंमें है उनही अपनी बडी स्थिति के स्थानोंको भगवान् ने उद्धवसे कहाथा।
दि लक्षणोंको देखकर जान पड़ताहै कि, तुम्हारा अंतःकरण सावधान नहीं हैं।बतावो तो सही ऐसी अनमनी किसलिये होरही हो?॥१०॥ यह सुनकर अदितिने कहा कि, हे स्वामिन्! गो, ब्राह्मण, धर्मादि सबकाही मंगलहै। हे गृहमेधिन्!जो गृह, धर्म, अर्थ, काम इन तीनोंका उद्भवस्थान है वहभी कुशल से है अर्थात् धर्मादि त्रिवर्गभी यथारीतिसे निर्वाह होतेहैं॥११॥ और मैं जो आपका ध्यान करती हूं, उसके प्रभावसे अग्नि, अतिथि, भिक्षुक प्रभृति जो कोईभीहै, वह सबही बलि (भोजन) की वासना करतेहैं और अघाये हुयेहैं॥१२॥ आप हमारे प्रजाध्यक्षहैं और ऐसाही धर्मोपदेश करतेहैं; फिर भला हमारे मनकी कामना पूर्ण क्यों नहीं होगी?॥१३॥हे प्रजेश!सब प्रजा आपकेही मन और शरीरसे उत्पन्न हो सत्त्व, रज अथवा तमोगुणका
अदितिरुवाच॥ भद्रं द्विजगवां ब्रह्मन्धर्मस्यास्य जनस्य च॥ त्रिवर्गस्य परं क्षेत्रं गृहमेधिन्गृहा इमे॥११॥ अग्नयोऽतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः॥ सर्वंभगवतो ब्रह्मन्ननुध्यानान्न रिष्यति॥१२॥ को नु मे भगवन्कामो न संपद्येत मानसः॥ यस्या भवान्प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान्प्रभाषते॥१३॥ तवैव मारीच मनश्शरीरजाः प्रजा इमाः सत्त्वरजस्तमोजुषः॥ समो भवांस्तास्वसुरादिषु प्रभो तथापि भक्तं भजते महेश्वरः॥१४॥ तस्मादीश भजंत्या मे श्रेयश्चितय सुव्रत। हृतश्रियो हृतस्थानान्सपत्नैःपाहि नः प्रभो॥१५॥ परैर्विवासिता साऽहं मग्ना व्यसनसागरे॥ ऐश्वर्यं श्रीर्यशः स्थानं हृतानि प्रबलैर्मम॥१६॥ यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन्ममात्मजाः॥ तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमभ्यर्थितोऽदित्या कस्तामाह स्मयन्निव॥ अहो मायाबलं विष्णोः स्नेहबद्धमिदं जगत्॥१८॥
अवलम्बन करती हैं।सुरादि सब प्रजाओंमें यद्यपि समान भावहैं तो भी महेश्वरगण भक्त पुरुषके प्रति विशेष अनुग्रह करते हैं॥१४॥ इसलिये मैं भक्ति करके आपको भजतीहूँ, सो आप मेरी भलाईका विचारकरें।हे प्रभो!मेरी सौतके पुत्र दैत्य लोगोंने हमारे पुत्रकी लक्ष्मीको हरण किया और स्थानभी छीन लिया सो आप मेरे पुत्रोंकी रक्षा करैंऔर दितिके पुत्रोंने हमको निकाल दियाहै, इसीकारण मैं दुःखके समुद्रमें डूब रही हूं। हे ब्रह्मन्!दानवोंने प्रबल होकर हमारे पुत्रोका ऐश्वर्य, यश, लक्ष्मी और स्थान जो जो वस्तु थी वह सब हरण करलीहैं॥१५॥१६॥ सो हे कल्याणकारिन्!हमारे पुत्र उन सबको जिस प्रकार फिर प्राप्त हों, वैसाही कल्याण आप अपनी बुद्धिसे विचारें॥१७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि,
हे राजन्! जब अदितिने इस प्रकारसे कश्यपजीकी प्रार्थना की, तब महर्षि कश्यपजी विस्मित होकर बोले कि, अहो! भगवान् विष्णुकी माया कैसी बलवान है! कैसा आश्चर्य है, यह जगत् स्नेहकी फॉसीमें बंध रहा है॥१८॥ हे भद्रे!कहाँ तो पंचभूतका बना हुआ देह और कहाँ प्रकृतिसे परवर्ती आत्मा कौन किसका पतिहै और कौन किसका पुत्र है? केवल मोहही इन सबका कारण है॥१९॥ हे राजन्!महर्षि कश्यपजीने जब इस प्रकारसे तत्त्वज्ञानका उपदेशकर देखा कि, इससे अदितिको संतोष न हुआ तब फिर बोले कि, हे भद्रे! सब प्राणियोंके अन्तर्यामी, जगत्के गुरु, आदिपुरुष, वासुदेव भगवान् की तुम पूजा करो॥२०॥ वह दीनदयालु दीनपर दया करनेवाले अवश्यही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करैंगे।हम भलीभाँति जानते हैं कि, भगवत्सेवाही अमोघ है; इसके सिवाय और कुछ अमोघ नहीं है॥२१॥ यह सुन अदिति प्रसन्नमन हो कहने लगी
क्व देहो भौतिकोऽनात्मा क्व चात्मा प्रकृतेः परः॥ कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम्॥१९॥ उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवंतं जनार्दनम्॥ सर्वभूतगुहावासं वासुदेवं जगद्गुरुम्॥२०॥ स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकंपनः॥ अमो घा भगवद्भक्तिर्नेतरेति मतिर्मम॥२१॥ अदितिरुवाच॥ केनाहं विधिना ब्रह्मन्नुपस्थास्ये जगत्पतिम्॥ यथा मे सत्य संकल्पो विदध्याच्च मनोरथम्॥२२॥ आदिश त्वं द्विजश्रेष्ठ विधिं तदुपधावनम्॥ आशु तुष्यति मे देवः सीदंत्याः सह पुत्रकैः॥२३॥ कश्यप उवाच॥ एतन्मे भगवान् पृष्टः प्रजाकामस्य पद्मजः॥ यथाह ते प्रवक्ष्यामि व्रतं केशवतोषणम्॥२४॥ फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः॥ अर्चयेदरविंदाक्षं भक्त्या परमयान्वितः॥२५॥ सिनीवाल्यां मृदाऽऽलिप्य स्नायात्क्रोडविदीर्णया॥ यदि लभ्येत वै स्रोतस्येतं मंत्रमुदीरयेत्॥२६॥
कि, हे ब्रह्मन्! मैं किसविधानसे जगद्गुरु भगवान्की उपासना करूं, जिस प्रकारसे वह सत्यसंकल्प हमारा मनोरथ पूर्ण करै॥२२॥ और पुत्रों सहित दुःखी हुई मेरे ऊपर शीघ्र प्रसन्न होजावें, सो आप मुझको वैसेही पूजा करनेकी विधि बतला दीजिये॥२३॥यह सुनकर कश्यपजीने कहा कि, हे भद्रे! हमने पहले पुत्रकी इच्छाकरके पद्मयोनि ब्रह्माजीसे यह बात पूँछी थी, तो उन्होंने मुझको केशवतोषणनामक जिस व्रतका उपदेश किया था वही व्रत हम तुमसे कहते हैं सो तुम सचेतहो मन लगाय सुनो॥२४॥ फाल्गुन मासके शुक्लपक्षमें बारह दिनका पयोव्रत करै, तिस व्रतमें भक्तियुक्त होकर कमललोचन भगवान्की पूजा करें॥२५॥ हे सति!जो मिलसके तो सूकरकी खोदी मट्टीशरीरमें लगायकर नदीके
जलमें स्नान करैऔर स्नान करनेके समय इस मंत्रको पढ़े॥२६॥ हे देवि! स्थानकी इच्छा करके आदिवराहजीने तुमको रसातलसे उद्धार कियाथा, सो हे पृथ्वी! तुमको नमस्कार है। तुम हमारा पाप दूर करो॥२७॥ तिसके पीछे नित्य नैमित्तिक नियमोंका पालनकर सावधान चित्तसे मूर्त्तिमें, पृथ्वीमें, सूर्यमें, जलमें अथवा अग्निमें वा गुरुमें, जहाँ इच्छा हो वहां भगवानकी पूजा करै॥२८॥ पूजाके समय नव मंत्रोंको पढ़कर भगवान् का आवाहनादि करना होता है, वे नव मंत्र यहहैं—हे भगवन् वासुदेव! आप बड़ेसे बड़े पुरुषहैं।सर्व प्राणियोंके निवासस्थान हैं, सबके साक्षी हैं सो आपको नमस्कार है॥२९॥ आप चौबीस तत्त्वोंके जाननेवाले हैं सांख्ययोगका विस्तार करनेवाले हैं सो ऐसे अव्यक्त सूक्ष्म प्रधान पुरुषको
त्वं देव्यादिवराहेण रसायाः स्थानमिच्छता।उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय॥२७॥ निर्वर्तितात्मनियमो देवमर्चेत्समाहितः॥ अर्चायां स्थंडिले सूर्ये जले वह्नौ गुरावपि॥२८॥ नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे॥ सर्व भूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे॥२९॥ नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च॥ चतुर्विंशद्गुणज्ञाय गुणसंख्यान हेतवे॥३०॥ नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुरशृंगाय तंतवे॥ सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः॥३१॥ नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च॥ सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः॥३२॥ नमोहिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने॥ योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे॥३३॥ नमस्ते आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः॥ नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः॥३४॥ नमो मरकतश्यामवपुषेधिगतश्रिये॥ केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे॥३५॥
नमस्कार है॥३०॥ वह विष्णुभगवान् यज्ञके फलका विस्तार करनेवाले हैं और यज्ञरूपी हैं उनके दो शिर (प्रायणीय और उदयनीय) हैं तीन चरण (सवनत्रय) हैं चार शृंग (चारों वेद) हैं, सात हस्त (सात छंद) हैं त्रयी विद्या आत्मा है उनको हम नमस्कार करते हैं॥३१॥ शिव और रुद्ररूपी उन भगवान्को नमस्कार है, वह शक्तिधर हैं, सर्वविद्याओंके पति हैं।और प्राणियोंके अधिपति हैं उनको नमस्कार हैं॥३२॥ उन हिरण्यगर्भको नमस्कार है, वह जगत् के आत्मा योगेश्वर हैं जिनका शरीरही योगके कारण है उनको नमस्कार है॥३३॥ हे भगवन्! आप आदिदेव हैं, सबके साक्षीरूप हैं, तथा नारायण नर और हरि हैं सो आपको नमस्कार है॥३४॥ हे भगवन्!आप केशव हैं, आपका शरीर
मरकत मणिके समान श्यामवर्णहै, आप पीताम्बर धारण किये हुये हैं आप श्रीको प्राप्त हुए हैं सो आपको नमस्कारहै॥३५॥ हे वरेण्य! हे वरदश्रेष्ठ! आप पुरुषोंको सब वर देते हैं, इस कारण वीरलोग कल्याणके लिये आपकी चरण रजको पूजते हैं॥३६॥ अहो! देवता लोग और लक्ष्मीजी जिनके चरणकमलके सौरभकी चाहना करते हैं, वह भगवान हमारे ऊपर प्रसन्नहों॥३७॥ इन मंत्रोंसे आवाहन कर सन्मान करै, इन्द्रियोंके ईश्वर भगवान्को श्रद्धायुक्त हो पाद्य व आचमनादिकसे गंध मालादिकसे पूजकर स्नान करावे और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस बारह अक्षरके मंत्रसे विद्याद्वारा पूजन करे॥३८॥ गंध, पुष्प आदिसे पूजनकर भगवान्को दूधसे स्नान करावे फिर वस्त्र, यज्ञोपवीत,
त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ॥ अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुमुपासते॥३६॥ अन्ववर्तंत यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः॥ स्पृहयंत इवामोदं भगवन् मे प्रसीदताम्॥३७॥ एतैर्मंत्रैर्हृषीकेशमावाहनपुरस्कृतम्॥ अर्चये च्छ्रद्धया युक्तः पाद्योपस्पर्शनादिभिः॥३८॥ अर्चित्वा गंधमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद्विभुम्॥ वस्त्रोपवीताभरणपाद्यो पस्पर्शनैस्ततः॥ गंधधूपादिभिश्चार्चेद्द्वादशाक्षरविद्यया॥३९॥ शृतं पयसि नैवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति॥ समर्पिः सगुडं दत्त्वा जुहुयान्मूलविद्यया॥४०॥ निवेदितं तद्भक्ताय दद्याद्भुंजीत वा स्वयम्॥ दत्त्वाचमनमर्चित्वा तांबूलं च निवेदयेत्॥४१॥ जपेदष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभिः प्रभुम्॥ कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेद्दंडवन्मुदा॥४२॥
आभूषण, पाद्य, आचमन, गंध, धूप, नैवेद्यादि उपचारोंसे द्वादशाक्षर मंत्रको पढ़ पढ़कर हितचित्तसे पूजन करे॥३९॥ हे सति! जो आपसे बसाय तो दूधमें खीर बनाय उसका श्रीनारायणके भोग लगावै फिर घृत और गुड़के सहित उस खीरको निवेदन करके मूल विद्या अर्थात् बारह अक्षरके मंत्रसे होम करे॥४०॥ फिर निवेदन किये हुएको भगवद्भक्तों को भोजन करावैअथवा स्वयं भोजन करले। हे भद्रे! पूजा करनेके पीछे आचमन कराय फिर ताम्बूल निवेदन करै॥४१॥ फिर एकशत आठ (१०८) वार द्वादशाक्षर मंत्र जप करके पहले कहे व और दूसरे मंत्रोंसे भगवान् की स्तुति करै। उसके पीछे परिक्रमा करके भूमिपर गिर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करैऔर निर्माल्य ग्रहण करके फिर
देवताको विसर्जन करै॥४२॥ फिर खीरसे ब्राह्मणोंको भोजन करावैकि, जिनकी गिनती दोसे कम न हो॥४३॥ फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञाले बंधु बांधवों सहित अपने आपभी भोजन करै, फिर रात्रिमें ब्रह्मचारी रहकर प्रभातको प्रथमदिन॥४४॥ प्रातःकाल स्नान कर पवित्र होजाय; फिर गायके दूधसे भगवान् को स्नान करावे और पूजा करे, जबतक व्रत समाप्त न हो तबतक ऐसेही करना चाहिये॥४५॥ हे देवि! केवल दूधही पान करके विष्णु भगवान्का पूजन करनेसे आदर पाता हुआ इस प्रकारसे व्रत करै और पहलेहीकी समान अग्रिमें होम करै और ब्राह्मण भोजन करावै॥४६॥ इसप्रकार बारह दिनका पयोव्रत करैअर्थात् पड़वा तिथिसे शुक्लात्रयोदशीतक होम, पूजन और ब्राह्मण भोजनादिसे भगवान्
कृत्वा शिरसि तच्छेषं देवमुद्वासयेत्ततः॥ द्व्यवरान्भोजयेद्विप्रान्पायसेन यथोचितम्॥४३॥ भुंजीत तैरनुज्ञातः शेषं सेष्टः सभाजितैः॥ ब्रह्मचार्यथ तद्रात्र्यां श्वोभूते प्रथमेऽहनि॥४४॥ स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः॥ पयसा स्नापयित्वार्चेद्यावद्व्रतसमापनम्॥४५॥ पयोभक्षो व्रतमिदं चरेद्विष्ण्वर्चनादृतः॥ पूर्ववज्जुहुयादग्निं ब्राह्मणां श्चापि भोजयेत्॥४६॥ एवं त्वहरहः कुर्याद्द्वादशाहं पयोव्रतः॥ हरेराराधनं होममर्हणं द्विजतर्पणम्॥४७॥ प्रतिपद्दिनमारभ्य यावच्छुक्लत्रयोदशी॥ ब्रह्मचर्यमधः स्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत्॥४८॥ वर्जयेदसदालापं भोगानुच्चावचांस्तथा॥ अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः॥४९॥ त्रयोदश्यामथो विष्णोः स्नपनं पंचकैर्विभोः॥ कारये च्छास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः॥५०॥ पूजां च महतीं कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जितः॥ चरुं निरूप्य पयसिशिपिविष्टाय विष्णवे॥५१॥
वासुदेवकी आराधना करै॥४७॥ इन बारह दिन तक ब्रह्मचर्यका पालन करना, पृथ्वीमें शयन करना और तीनों संध्याओंमें स्नान करना आवश्यक है॥४८॥ असाधु लोगोंसे संभाषण न करें, सर्व प्राणियोंमें हिंसा हिर्ष न करै, सबको वासुदेवपरायण देखे, त्रयोदशीके दिनपंचामृतसे विष्णु भगवान् कोविधिके जाननेवाले ब्राह्मणोंकी बताई विधिसे शास्त्रानुसार स्नान करावे॥४९॥ इसके अनन्तर त्रयोदशीमें विधिके जाननेवाले विद्वानोंसे शास्त्रदृष्ट विधि करके विष्णुभगवान्का पंचामृतसे स्नान करावे॥५०॥ और धनादिकी कांक्षा छोड़कर बडीभारी पूजा करै, फिर दूधसे चरु तैयार
कर भगवान् विष्णुको निवेदन करै॥५१॥और अच्छी प्रकार पवित्र व सावधानहो पिछले कहे हुए मंत्रोंसे पूजा करे, जिससे परमपुरुष प्रसन्न होजायँ वैसी गुणयुक्त नैवेद्यका भोग लगावै॥५२॥ फिर वस्त्र, भूषण और गोदान करके ज्ञान संपन्न आचार्य और पुरोहित लोगोंको संतुष्ट करै। हे सति! इन सबके प्रसन्न करनेसे भगवान्की आराधना अपने आप होजाती हैं॥५३॥ इन सब पुरुषोंको व और जो ब्राह्मण वहाँपर उस समय आजॉय, उन सबको अपनी सामर्थ्य के अनुसार उत्तम भोजन भक्षण करावे, फिर ऋत्विक् और गुरुको यथायोग्य देकर और जो पुरुष आगये हों उनको अन्ना दि देकर तृप्त करै॥५४॥५५॥ दीन, अंधे, कृपण; इन लोगोंको भोजन करानेसे भगवान् हरिका प्रसन्न होना जानकर इनको भोजन करावै और फिर
शृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः॥ नैवेद्यं चातिगुणवद्दद्यात्पुरुषतुष्टिदम्॥५२॥ आचार्यं ज्ञानसंपन्नं वस्त्रा भरणधेनुभिः॥ तोषयेदृत्विजश्चैव तद्विद्ध्याराधनं हरेः॥५३॥ भोजयेत्तान्गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते॥ अन्यांश्च ब्राह्मणाञ्छक्त्या ये च तत्र समागताः॥५४॥ दक्षिणां गुरवे दद्यादृत्विग्भ्यश्च यथाऽर्हतः॥ अन्नाद्येनाऽऽश्वपाकांश्च प्रीणयेत्समुपागतान्॥५५॥ भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनांधकृपणेषु च॥ विष्णोस्तत्प्रीणनं विद्वान्भुंजीत सह बंधुभिः॥५६॥ नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः॥ कारयेत्तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम्॥५७॥ एतत्पयोव्रतं नाम पुरुषाराधनं परम्॥ पितामहेनाभिहितं मया ते समुपाहृतम्॥५८॥ त्वं चानेन महाभागे सम्यक्चीर्णेन केशवम्॥ आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम्॥५९॥ अयं वै सर्वयज्ञाख्यः सर्वव्रतमिति स्मृतम्॥ तपस्सारमिदं भद्रे दानं चेश्वरतर्पणम्॥६०॥
आप जाति भाइयों सहित भोजन करैं॥५६॥ हे भद्रे! व्रतके समय प्रतिदिन गाना, बजाना, नाचना, स्तुतिपठन, स्वस्तिवाचन और भगवत् कथा इत्यादिसे भगवान् की पूजा करें॥५७॥ हे महाभाग! इसका नाम पयोव्रत हैं, इससेही परमपुरुषका आराधन होताहैं, पितामह ब्रह्माजीने हमको यह व्रत बताया था, सो हमने प्रीतिके वशहो तुम्हारे आगे वर्णन किया॥५८॥ श्रीकश्यपजी बोले कि, हे महाभागे! तुम इस व्रतको भली भाँति करके इससे जितेन्द्रिय होकर भजने के योग्य अव्यय भगवान्की आराधना करो॥५९॥ इस व्रतका नाम सर्वज्ञ, यही सर्वव्रत,
यहाँ तपका सार हैं, यही बडाभारी दान और यही इश्वरका तर्पण हैं॥६०॥ हे भद्रे! जिससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं, वही नियम, वही उत्तम संयम, वही तप, वही दान, वही व्रत और वही यज्ञ हैं॥६१॥ इसलिये तुम नियमसहित और श्रद्धापूर्वक इस व्रतको करो इससे भगवान् शीघ्रही प्रसन्न होकर तुमको मनोवांछित वरदान देंगे॥६२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां पयोव्रतवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा—व्रत करनेसे अदिति पर, ह्वैप्रसन्न भगवान॥ सो सत्रह अध्यायमें, धारो तन सुखदान॥१॥ श्रीशुकदेवजी कहने लगे कि, हेपरीक्षित्! अपने स्वामी महर्षि कश्यपजीके इस प्रकार कहनेपर अदितिने श्रद्धापूर्वक आलस्य त्याग इस बारह दिनके व्रतको आरम्भ किया
त एव नियमाः साक्षात्त एव च यमोत्तमाः॥ तपो दानं व्रतं यज्ञो येन तुष्यत्यधोक्षजः॥६१॥ तस्मादेतद्व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धया चर॥ भगवान्परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति॥६२॥ इति श्रीमद्भागवते म० अष्टमस्कन्धेऽदित्यै पयोव्रतोपदेशो नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्ता साऽदिती राजन्स्वभर्त्रा कश्यपेन वै॥ अन्वतिष्ठद्व्रतमिदं द्वादशाहमतंद्रिता॥१॥ चितयंत्येकया बुद्ध्यामहापुरुषमीश्वरम्॥ प्रगृह्येंद्रियदुष्टाश्वान्मनसा बुद्धिसारथिः॥२॥ मनश्चैकाग्रया बुद्ध्या भगवत्यखिलात्मनि॥ वासुदेवे समाधाय चचार ह पयोव्रतम्॥३॥ तस्मात्प्रादुरभूत्तात भगवानादिपुरुषः॥ पीतवासाश्चतुर्बाहुः शंखचक्रगदाधरः॥४॥ तं नेत्रगोचरं वीक्ष्य सह सोत्थाय सादरम्॥ ननाम भुवि कायेन दंडवत्प्रीतिविह्वला॥५॥ सोत्थाय बद्धांजलिरीडितुं स्थिता नोत्सेह आनंदजलाकुलेक्षणा॥ बभूव तूष्णीं पुलकाकुलाकृतिस्तद्दर्शनात्युत्सवगात्रवेपथुः॥६॥
॥१॥ वह अपनी बुद्धिको सारथि बनाय इन्द्रियरूप दुष्ट घोडोंकों वशमें कर एकाग्रचित्तसे परमपुरुष ईश्वर चिन्तामें मग्न हुई॥२॥ और एकाग्र बुद्धिसे अखिलात्मा वासुदेव भगवान्में मन लगाय बराबर पयोव्रतको करनेलगी॥३॥ हे राजन्! व्रतके करनेसे भगवान् आदिपुरुष शीघ्रही पीताम्बर धारण किये हुये हाथमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये अदितिके सामने आनकर प्रगट हुये॥४॥ उनको निहारतेही अदिति आदरपूर्वक शीघ्रतासे उठी और प्रीतिसे विह्वल हो पृथ्वीमें गिरकर दण्डकीसी नाई प्रणाम करती हुई॥५॥ हे राजन! फिर प्रीतिसे विह्वल होनेके कारण अदिति हाथ जोड़े हुये उठी और केवल स्तुति करनेहीको असमर्थन हुई बरन उनके मुखसे बाततक न निकली,
उनके दोनों नेत्रोंमें आनन्दके आंसू भरआये, शरीर पुलकायमान होगया और उत्सवरूपी भगवान्का दर्शन पाय सब शरीर कम्पायमान होने लगा॥६॥हे कुरुश्रेष्ठ! उन यज्ञपति, जगत्पति, रमापतिको देखकर कश्यपजीकी स्त्री अदिति नेत्रोंसे मानो पान करती बहुत देरके पीछे प्रीतिके भरे गद्गद वचनोंसे श्रीभगवान्की स्तुति करने लगी॥७॥अदितिने कहा कि, हे यज्ञेश! हे यज्ञ पुरुष! हे अद्भुत! हे तीर्थपाद!हे तीर्थ कीर्ति! आपका नाम श्रवण होतेही मंगलकारी है. आपका उदय शरणमें आये भक्तलोगोंके पापोंका नाश करनेवाला है. हे आद्य! हे भगवन्! आप हमारा कल्याण करनेमें मन लगावैं। हे प्रभो आप दीनानाथ हैं॥८॥ हे भगवन्! यद्यपि आप विश्वस्वरूप हैं और विश्वके सृष्टि
प्रीत्या शनैर्गद्गदया गिरा हरिं तुष्टाव सा देव्यदितिः कुरूद्वह॥ उद्वीक्षती सा पिबतीव चक्षुषा रमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम्॥७॥ अदितिरुवाच॥ यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद तीर्थश्रवः श्रवणमंगलनामधेय॥ आपन्नलोकवृजिनो पशमोदयाद्य शं नः कृधीश भगवन्नसि दीननाथः॥८॥ विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय स्वैरं गृहीतपुरुशक्तिगुणायभूम्ने॥ स्वस्थाय शश्वदुपबृंहितपूर्णबोधव्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते॥९॥ आयुः परं वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मीर्द्यौर्भूरसाः सकलयोगगुणास्त्रिवर्गः॥ ज्ञानं च केवलमनंत भवंति तुष्टात्त्वत्तो नृणां किमु सपत्नजयादिराशीः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ अदित्यैवं स्तुतो राजन्भगवान्पुष्करेक्षणः॥ क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानामिति होवाच भारत॥११॥ श्रीभगवानुवाच॥ देवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकांक्षितम्॥ यत्सपत्नैर्हृतश्रीणां च्यावितानां स्वधामतः॥१२॥
स्थिति और प्रलयके कारण हैं, इच्छानुसार मायाके गुणको ग्रहण करते हैं, तथापि आप स्वस्थ हैं, अर्थात् आपका स्वरूप अप्रच्युत हैं, नित्य बढता हुआ जो पूर्णबोध हैं तिससे आपने परमात्मामें मायारूप तम नित्य निरस्त कियाहैं, सो मैं आपको नमस्कार करती हूॅ॥९॥ तुम्हारे प्रसन्न होनेसे मनुष्योंको ब्रह्माकीसी आयु, सुन्दर रूप, अतुल लक्ष्मी, स्वर्ग, पृथ्वी, सर्वयोगके गुण, धर्म, अर्थ, काम, ज्ञान, यह सब प्राप्त होजातेहैं।फिर वैरियोंपर विजय पानेका आशीर्वाद जो आपसे मिलेगा, इसमें कुछ बडी बात थोडीही हैं॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हेराजन्! जब अदितिने इस प्रकारसे स्तुति की तब सब प्राणियोंके अंतर्यामी कमललोचन भगवान् उनसे यह वचन कहने लगे॥११॥ श्रीभगवान् बोले कि,
हे देवजननि! तुम्हारी सौतके पुत्रोंने जो तुम्हारे पुत्रोंकी सम्पत्ति हरण करली हैं और स्थानभी छीन लिया हैं, उन अपने पुत्रोंके लिये अनेक दिनसे तुम जो चिन्ता करती हो, वह हम जानते हैं॥१२॥तुम्हारी वासना यह हैं कि दुर्मद दानव लोगोंको समरमें पराजित कर तुम्हारे पुत्रगण विजयको प्राप्त होवें और तुम उनके सहित एक जगह रहो॥१३॥ और इन्द्रादि तुम्हारे पुत्रगण विद्वेषियोंको जब संग्राममें मारडालै तब उन शत्रुओंकी स्त्रियें जो दुःखसे रोदन करें उन्हें तुम देखो॥१४॥और तुम्हारा अभिलाष यहभी हैं कि, तुम्हारे पुत्रगण अपनी जय लक्ष्मीको पाकर भली भाॅति वृद्धिको प्राप्त होवें और पहलेकी समान स्वर्गमें विहार करें कि, जिनको देखकर तुम प्रसन्न हो ओ॥१५॥परन्तु हे देवि! हमको जान पडता हैं कि, असुर यूथप लोगोंके ऊपर सहसा आक्रमण नहीं किया जासकेगा, क्योंकि सामर्थ्यवान् ब्राह्मणलोग
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदानसुरर्षभान्॥ प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैरिच्छस्युपासितुम्॥१३॥ इंद्रज्येष्ठैः स्वतनयैर्ह तानां युधि विद्विषाम्॥ स्त्रियोरुदंतीरासाद्य द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः॥१४॥ आत्मजान्सुसमृद्धांस्त्वं प्रत्याहृतयशश्रियः॥ नाकपृष्ठमधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः॥१५॥ प्रायोऽधुना तेऽसुरयूथनाथा अपारणीया इति देवि मे मतिः॥ यत्तेऽनुकूलेश्वरविप्रगुप्तान विक्रमस्तत्र सुखं ददाति॥१६॥ अथाप्युपायो मम देवि चिंत्यः संतोषितस्य व्रतचर्यया ते॥ ममार्चनं नार्हति गंतुमन्यथा श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात्॥१७॥ त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तये पयोव्रतेनानुगुणं समीडितः॥ स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्गोप्ताऽस्मि मारीचतपस्यधिष्ठितः॥१८॥ उपधाव पतिं भद्रे प्रजापतिमकल्मषम्॥ मां च भावयती पत्यावेवंरूपमवस्थितम्॥१९॥
अनुकूल होकर उनकी रक्षा करते हैं, फिर जहाँपर ऐसी बात हैं वहाँपर विक्रम प्रकाश करनेसे सुख नहीं मिलेगा॥१६॥ किन्तु देवि! तुमने पयोव्रत करके हमको बहुत संतोपित किया हैं, सो अब हम अवश्य इस विषयका उपाय करेंगे हमारी पूजा करनेसे निश्वय इच्छानुसार फल मिलता हैं, हमारी पूजाका विफल होना उचित नहीं हैं॥१७॥ हे देवि! तुमने सन्तानकी रक्षा करनेके लिये जो पूजा की और पयोव्रत करके हमारी स्तुति की इससे हम परम प्रसन्न हुये हैं मैं स्वयं अपने अंशसे तुम्हारा पुत्र होकर कश्यपजीके तपमें स्थित हो तुम्हारे पुत्रोंका पालन करूंगा॥१८॥ इसलिये तुम इस समय अपने पापरहित पति प्रजापति कश्यपजीके समीप जा उनकी सेवा करो और हमकोभी इसी
प्रकारसे अपने पतिमें अवस्थित हुआ चिन्ता करना॥१९॥ हे देवि ! यह बात किसी औरके निकट किसी प्रकारसे भी प्रकाश मत करना,क्योंकि देवता लोगोंका रहस्य भली भाँति छिपाये रहनेहीसे सिद्ध होता है॥२०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् !अदितिसे यह सब वचनकहकर भगवान् वासुदेव उसी स्थानमें अंतर्धान होगये, उसके पीछे अदिति अपने गर्भमें दुर्लभ भगवान्का वास होना सुन, मनमें कृतार्थ होगईऔर परमभक्तिके साथ पतिके निकट गई॥२१॥ महर्षि कश्यपजीकी अव्यर्थ दृष्टि थी, उन्होंनेभी योगकी समाधिमें देख लिया कि भगवान्
नैतत्परस्मा आख्येयं पृष्टयाऽपि कथंचन॥ सर्वं संपद्यते देवि देवगुह्यं सुसंवृतम्॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ एतावदुक्त्वा भगवांस्तत्रैवांतरधीयत॥ अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरेर्जन्मात्मनि प्रभोः॥२१॥ उपाधावत् पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत्॥ स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुद्ध्यत॥२२॥ प्रविष्टमात्मनि हरेरंशं ह्यवितथेक्षणः॥ सोदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसंभृतम्॥ समाहितमना राजन् दारुण्यग्निं यथानिलः॥२३॥ अदितेर्धिष्टितं गर्भे भगवंतं सनातनम्॥हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्यनामभिः॥२४॥
हरिका अंश हममें प्रविष्ट हैं॥२२॥ सावधान मनवाले वह मुनि यद्यपि सब पुत्रोंको समान देखते थे, तोभी जैसे सब कहीं रहनेवाला वायुकाकी रगडसे वनकी जलानेवाली अग्रिको उत्पन्न करता हैं वैसेही अदितिजीके गर्भमें दैत्योंको क्षय करनेवाला, बहुत कालसे संचय किया हुआवीर्य धारण किया*॥२३॥ हे राजन् ! भगवान् सनातन विष्णुको अदितिके गर्भमें विराजमान हुआ जानतेही हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी गुह्यनामसे
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* **शंका—**भगवान्के जन्म होनेके लिये कश्यपजीने अदितिके शरीरमें वीर्य स्थापन किया, यह बढी भारी शंका हैंकि विना वीर्य स्थापन किये क्या भगवान्का जन्म नहीं होगा ? क्योंकि वीर्य्यकाजन्म तो चौरासी लक्ष योनिका होता है ? और भगवान् तो सर्वव्यापी हैं, उनके जन्म होनेके लिये वीर्य्य स्थापनका क्या काम था ?
** उत्तर—**भगवान् अनेक प्रकारका दुः ख सहकर अपनी बनाई मर्यादाकी रक्षा करते हैं यह बात शास्त्रमें और लोकमें सबको प्रगट हैं, कि विना वीर्य्य ससारकी उत्पत्ति किसी प्रकार नहीं हो सक्ती इसलियेबीकी मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये वीर्य्यसे आप प्रगट होते हैं, जो वीर्यकी मर्यादा तथा अपनी बनाई लोककी मर्यादा तथा अपनी बनाई और भी मर्यादा न रक्वें तो परमेश्वर सब वस्तुमें विराजमान हैं फिरजन्म लेनेकी अवश्यकता थी परमेसरको सब बातका अधिकार है वैकुण्ठमें बैठे बैठे जो चाहे सो करें इसलिये कश्यपजीने अदितिमें वीर्य्य स्थापन किया.
उनकी स्तुति करने लगे॥२४॥ब्रह्माजीने कहा कि, हे उरुगाय भगवन्! आपकी जय हो! हे उरुकम! आपको नमस्कार है। प्रभो! आप ब्रह्मण्यदेव हैं आपको नमस्कार हैं। हे त्रियुग! आपको बारम्बार नमस्कार हैं नमस्कार हैं॥२५॥ हे भगवन्! पूर्व जन्ममें इन अदितिका नाम पृश्नि था, आप उनके गर्भमेंभी अर्भक होकर जन्मे थे, सो आपको नमस्कार हैं। हे प्रभो! आप विधाता हैं, सब देवताओंमें प्रकाशमान हैं, सो आपको नमस्कार हैं। हे भगवन्! स्वर्ग, मृत्यु, पाताल, यह तीनों लोक आपकी नाभिमें वर्तमान हैं और आप त्रिलोकीके ऊपर स्थित हैं, सब जीवोंमें अन्तर्यामीरूपसे प्रविशे हुए हैं।सो हे सर्वव्यापिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूं॥२६॥ हे ईश! आप इस भुवनके आदि अन्त और
ब्रह्मोवाच॥जयोरुगाय भगवन्नुरुक्रम नमोऽस्तु ते॥नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः॥२५॥नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे॥ त्रिनाभाय त्रिष्पृष्टाय शिपिविष्टाय विष्णवे॥२६॥त्वमादिरंतो भुवनस्य मध्यमनंतशक्तिं पुरुषं यमाहुः॥ कालो भवानाक्षिपतीश विश्व स्रोतो यथांतः पतितं गभीरम्॥२७॥त्वं वै प्रजानां स्थिरजंगमानां प्रजापतीनामसि संभविष्णुः॥ दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु॥२८॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धेऽदितिगर्भे भगवदंशप्रवेशो नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
मध्यहो, आपही अनन्तशक्ति पुरुष कहे जाते हैं, जैसे गंभीर प्रवाह जलमें गिरेहुए तृणादिको आकर्षण करता हैं, वैसेही कालरूपी जो आप हैं सो प्रलयकालमें इस विश्वको आकर्षण किया करते हैं॥२७॥ हे भगवन्! आप स्थावर जंगम सब प्रजा और प्रजापति लोगोके उत्पन्न करनेवाले हैं आपके जन्मादि नहीं हैं।हे देव! जलमें डूबते हुए मनुष्यके लिये जैसे नाव प्राण बचानेका अवलम्बन हैं, वैसेही आप स्वर्गसे निकाले हुए देवतालोगोंके परमआश्रय हैं, इसलिये निःसन्देह आपका यह अवतार देवतालोगोंका कार्य साधन करनेके कारण हुआ हैं। सो आप बहुत शीघ्र स्वर्गसे निकालेहुए देवतालोगोंको फिर स्वर्गमें स्थापित कीजिये॥२८॥ इति श्रीभागवते महापुराणे अष्टमस्कंधे भाषाटीकायां भगवदंशप्रवेशो नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
दोहा—अष्टादश अध्यायमें, बलिके यज्ञ मँझार॥ श्रीवामनजी जिमि गये, सो सम्वाद उदार॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! जब ब्रह्माजीने इसप्रकार भगवानके कार्य और वीर्यकी स्तुति की तब जन्ममृत्युहीन वह भगवान् अदितिके गर्भसे उत्पन्न हुए, उनके नेत्र कमलदलके समान बड़े बड़े थे, चार भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा, पद्म, आयुध देदीप्यमान हो रहे थे और कमरमें पीताम्बर पडा हुआ था॥१॥ उनका शरीर श्याम और गौरवर्ण था, मकराकार कुण्डलोंकी श्री उनके वदनारविन्दको प्रकाशमान कर रही थी वक्षस्थलमें श्रीवत्स विराजमान था और वलय व अंगद (बाजू) सहित उनका किरीट और काञ्ची व मनोहर नूपुर यथास्थानमें शोभायमान होरहे थे॥२॥ और अत्यन्त सुन्दर वनमाला जो कि बहुतसे भ्रमरगणोंकी गुंजारसे शब्दायमान होरही थी, श्रीनारायण इससे विराजमान हो अपने शरीर की कांतिसे प्रजापतिजी (कश्यपजी) के गृहके अंधकारको दूर कररहे थे;
श्रीशुक उवाच॥ इत्थं विरिंचस्तुतकर्मवीर्यः प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम्॥ चतुर्भुजः शंखगदाब्जचक्रः पिशंगवासा न लिनायतेक्षणः॥१॥ श्यामावदातो झषराजकुंडलत्विषोल्लसच्छ्रीवदनांबुजः पुमान्॥ श्रीवत्सवक्षा वलयांगदोल्लसत्किरीटकांचीगुणचारुनूपुरः॥२॥ मधुव्रतव्रातविधुष्ट्या स्वया विराजितश्रीवनमालया हरिः॥ प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा विनाशयन्कंठनिविष्टकौस्तुभः॥३॥ दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः॥ द्यौरंतरिक्षं क्षितिरग्निजिह्वा गावो द्विजाः संजहृषुर्नगाश्च॥४॥ श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः॥ सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम्॥५॥
और उनकी गर्दनमें प्रसिद्ध कौस्तुभमणि पड़ी हुई थी॥ ३॥ जैसेही श्रीभगवान् इस प्रकारसे उत्पन्न हुये कि, वैसेही सब दिशायें और जलाशयोंने निर्मल रूप धारण किया, प्रजा हर्षित हुई और समस्त ऋतु अपने अपने गुणसे (फल पुष्पादिसे) शोभायमान हुईं। स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी और सब पर्वतोंपर मनोहर शोभा हुई। देव, द्विज, गायें, इन सबहीके मनमें परमहर्ष हुआ॥४॥ हे राजन्! भगवान् किस समयमें उत्पन्न हुये सो तुम सुनो। भादोंमहीनेकी शुक्लाद्वादशी जो कि श्रवणद्वादशीके नामसे प्रसिद्ध हैं, उसी तिथिको श्रवण नक्षत्रमें प्रथमांशके मध्य अभिजित् मुहूर्त्तमें श्रीभगवान्ने जन्म लिया, उस कालमें अश्विनी आदि सब नक्षत्र और गुरु शुक्रादिक सब ग्रहोंने अनुकूल रहकर उनका जन्म उदार
किया था, अर्थात् उनके जन्मनक्षत्रमें ग्रह नक्षत्रादि सबही शुभ पड़े थे॥५॥ हे महाराज! जिस द्वादशीमें भगवान् वामनजीने जन्म लिया सो प्राचीन कविलोग कहते हैं कि, उस द्वादशीके दिवाभागमें ही श्रीनारायणका जन्म हुआ था, उस समय सूर्यभगवान् मध्याह्नमें स्थित थे, अर्थात् भली भाॅति दुपहर होगया था, इस द्वादशीका नाम विजया हैं॥६॥ जिस समय श्रीभगवान्ने जन्म लिया, उस समय शंख, नगाड़े, भेरी, ढोल आनक, तुरही व और अनेक बाजोंका बड़ा भारी शब्द होने लगा॥७॥ अप्सरायें प्रसन्न होकर नाचने लगीं और गन्धर्वलोग गाना आरंभ करने लगे, मुनि लोगोंने स्तुति करनी आरंभ की, फिर देववृन्द, मुनिवर्ग, पितृगण, सब अग्नियें॥८॥ सिद्ध, विद्याधर, किंपुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, देवतालोगोंके सेवक व आदित्यगण नाच नाच कर गुण गानेलगे॥९॥ और प्रशंसा कर कर फूल वर्षाय वर्षाय कश्यपजीके आश्रमको छाय
द्वादश्यां सविता तिष्ठन्मध्यंदिनगतो नृप॥ विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरेः॥६॥ शंखदुंदुभयो नेदुर्मृदंगपणवानकाः॥ चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत्॥७॥ प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यगंधर्वप्रवरा जगुः॥ तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः॥८॥ सिद्धविद्याधरगणाः सकिंपुरुषकिन्नराः॥ चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः॥९॥ गायंतोऽतिप्रशंसंतो नृत्यंतो विबुधानुगाः॥ अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन्॥१०॥ दृष्ट्वाऽदितिस्तं निजगर्भसंभवं परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता॥ गृहीतदेहं निजयोगमायया प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः॥११॥ यत्तद्वपुर्भाति विभूषणायुधैरव्यक्तचिद्व्यक्तमधारयद्धरिः॥ बभूव तेनैव स वामनो बटुः संपश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः॥१२॥ तं बटुंवामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः॥ कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम्॥१३॥
लिया॥१०॥ हे राजन्! अपने गर्भसे उन परमपुरुषको उत्पन्न हुआ देखकर अदितिको विस्मय और हर्ष एक साथ हुआ। प्रजापति कश्यपजी योगमायासे अवतार लिये हुये उन श्रीभगवान् हारको देखकर विस्मययुक्त हो यही वचन बोले कि, हे भगवन्! तुम्हारी जय हो॥११॥ हे राजन्! भगवान् हरिने जो यह अवतार मनुष्यका धारण किया कि; जिससे चित्त अव्यक्त था।अपनी द्युति, भूषण व आयुध सहित उस शरीरमें नटकी नाई दर्शनकारी माता पिताके सामनेही वामन बटुकरूप होगये, उनकी गति दिव्य थी, ऐसा होना कुछ विचित्र नहीं हैं॥१२॥ इन वामनजीका दर्शन करके महर्षि लोग आनंदप्रकाश करते करते कश्यपजीके स्थानपर गये॥ और उनको आगेकर नारायणका जातकर्म संस्कार
कराने लगे॥१३॥ तिसके उपरान्त जब इन वामनजीका यज्ञोपवीत हुआ, तब सूर्यनारायणने स्वयं इनको गायत्री सिखाई, बृहस्पतिजीने यज्ञ सूत्र (जनेऊ) दिया और कश्यपजीने मेखला पहराई॥१४॥ भूमिने मृगचर्म दिया, सब वनोंके पति चन्द्रमाने दण्ड दिया, माताने कौपीन दी और उन जगत्पतिको स्वर्गने छत्र दान किया॥१५॥ अधिक करके वेदगर्भ ब्रह्माजीने कमण्डलु, सप्तर्षियोंने कुशा और सरस्वतीने अक्षमाला लेकर उन अविनाशीको उपहार दी॥१६॥ हे राजन्! जब वामनजीका जनेऊ होगया, तब वेदोंने उनको भिक्षापात्र दिया और साक्षात् सती अम्बिकाजीने उनको भिक्षा दी॥१७॥ यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचारी वामनजी इस प्रकार आदर सत्कार पा अपने तेजसे ब्रह्मर्षियोंकी सभाकोभी अतिक्रमण
तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताऽब्रवीत्॥ बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात्॥१४॥ ददौ कृष्णाजिनं भृमिर्दंडं सोमो वनस्पतिः॥ कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः॥१५॥ कमंडलुं वेदगर्भः कुशान्सप्तर्षयो ददुः॥ अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः॥१६॥ तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट् पात्रिकामदात्॥ भिक्षां भगवती साक्षादुमाऽदादंविका सती॥१७॥ स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां संभावितो बटुः॥ ब्रह्मर्षिगणसंजुष्टामत्यरोचत मारिषः॥१८॥ समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम्॥ परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद्भिरजुहोद्द्विजः॥१९॥ श्रुत्वाऽश्वमेधैर्यजमान मूर्जितं बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः॥ जगाम तत्राखिलसारसंभृतो भारेण गां सन्नमयन्पदेपदे॥२०॥ तं नर्मदा यास्तट उत्तरे बलेर्ये ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके॥ प्रवर्तयंतो भृगवः क्रतुत्तमं व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम्॥२१॥
करके शोभायमान होने लगे॥१८॥ अग्निके परिसमूहके द्वारा कुशोंको बराबर कर समाधान करके होम करने लगे॥१९॥ तिसके उपरान्त वामनजीने सुना कि, भृगुवंशियोंके प्रवर्तन किये हुये अनेक अश्वमेध यज्ञोंसे राजा बलि यज्ञ कर रहा हैं, इसलिये अखिल बलसे पूर्ण हो अपने भारसे पग पगपर पृथ्वी मण्डलको कम्पायमान करते हुये वामनजीने राजा बलिके यज्ञस्थानमें गमन किया॥२०॥ हे राजन्! नर्मदाके उत्तर किनारेपर भृगुकच्छ नामक क्षेत्रमें बलिके श्रेष्ठ ऋत्विजोंने जो इन यज्ञोंको करा रहे थे, उन्होंने अपने उदय हुये सूर्यनारायणकी समान इन
वामनजीको देखा॥२१॥श्रीवामनजीके तेजसे सबऋत्विक् सभासद्गण और यजमान असुरश्रेष्ठ राजावलि यह सब तेज रहित होगये और यह कहकर परस्पर तर्क वितर्क करने लगे कि, “क्या यज्ञ देखनेकी इच्छासे सूर्य भगवान् आरहे हैं? वा अग्नि हैं वा सनकादि ऋषियोंका आगमन हुआ”?॥२२॥ शिष्योंके सहित भृगुगण करके इसप्रकार विविध भॉतिसे वितर्कित हो भगवान् वामनजी दण्डवाला छत्र, जलसे भरा कमण्डलु लिये हुए राजा बलिके अश्वमेघ मण्डपमें आये॥२३॥ मूंजकी मेखला पहिरे मृगके चर्मकी उत्तरीय जो जनेऊकी समान बॉये कन्धेपर पड़ी थी, ऐसे जटिल विप्र मायारूपी वामन उन हरिको॥२४॥ यज्ञशालमें प्रवेश करता हुआ देखतेही उनके तेजसे व्याकुल हो
ते ऋत्विजो यजमानः सदस्या हतत्विषो वामनतेजसा नृप॥ सूर्यः किलाऽऽयात्युत वा विभावसुः सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया ऋतोः॥२२॥ इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा वितर्क्यमाणो भगवान्स वामनः॥ सदंडछत्रं सजलं कमंडलुं विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम्॥२३॥ मौंज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम्॥ जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम्॥२४॥ प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः॥ प्रत्यगृह्णन्समुत्थाय संक्षिप्तास्तस्य तेजसा॥२५॥ यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम्॥ रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत्॥२६॥ स्वागतेनाभिनंद्याथ पादौ भगवतो बलिः॥ अवनिज्यार्चयामास मुक्तसंगं मनोरमम्॥२७॥ तत्पादशौचं जनकल्मषापहं स धर्मविद् मूर्ध्न्यद धात्सुमंगलम्॥ यद्देवदेवो गिरिशश्चंद्रमौलिर्दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या॥२८॥
शिष्योंके सहित भृगुलोग उठ खड़ेहुए और उनका आदर सन्मान करने लगे॥२५॥ दर्शन करने योग्य मनोहर रूपवाले अनुकूल अंगयुक्त श्रीवामनजी महाराजको देख कर प्रसन्न हो राजा बलिने अपने हाथसे आसन दिया॥२६॥ और कहा कि “भले आये महाराज विराजिये” यह कह कोमल अमल चरणकमलको पखार उन सुकुमार मनोहर हरिकी पूजा करनेलगा॥२७॥ हे राजन्! भगवान्के मंगलकारी चरणोदकको जो कि, कलिमल नाश करनेवाला हैं, राजा बलिने अपने मस्तकपर चढाया।हे महाराज! आप इस बातको कुछ विचित्र न समझें; क्योकि चन्द्रमौलि देवदेव गिरीश भूतेश्वर महादेवजीनेभी परमभक्तिसे इस चरणामृतको अपने मस्तकपर चढाया था॥२८॥
तब राजा बलि भक्तिके प्रकाशित होनेसे कुतूहलके मारे कहनेलगा कि; हे ब्रह्मन्! आप सुखसे तो आये? मैं आपको नमस्कार करताहूं, आपका कौनसा कार्य करूं सो आज्ञा कीजिये। हें श्रेष्ठ! हमको जान पड़ता है कि, आप ब्रह्मर्षिलोगोंके मूर्तिमान् तप हैं. आज मैं कृतार्थ हुआ॥२९॥ आप जो मेरे स्थानपर आनकर सुशोभित हुए इस कारण आज हमारे पितृगण तृप्त हुए। आज मेरा कुल पवित्र हुआ। और आज मेरा यह यज्ञ भली भातिसे पूर्ण हुआ॥३०॥ आज हमारा अग्रियोंमें भली भाँति होम करना सफल हुआ हे ब्राह्मणकुमार! आपके चरणोदकसे हमारा सब पाप धुल गया और आपके छोटे छोटे चरणों के पडनेसे यह भूमि पवित्र होगई॥३१॥ हे विप्रनन्दन। हम अनुमान करते हैं कि, आप
बलिरुवाच॥ स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन् किं करवाम ते॥ ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वार्यवपुर्धरम्॥२९॥ अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम्॥ अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद्भवानागतो गृहान्॥३०॥ अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः॥ हतांहसो वार्मिरियं च भृरहो तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव॥३१॥ यद्यद्वटोवांछसि तत्प्रतीच्छ मे त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये॥ गां कांचनं गुणवद्धम मृष्टं तथान्नपेयमुत वा विप्र कन्याम्॥ ग्रामान्समृद्धान् तुरगान् गजान् वा स्थांस्तथाऽर्हत्तम संप्रतीच्छ॥३२॥ इति श्रीमद्भागवते म० अष्टम० बलिवामनसंवादेऽष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ श्रीशुक उवाच॥ इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सून्नृतम्॥ निशम्य भगवान् प्रीतः प्रतिनंद्येदमब्रवीत्॥१॥
कुछ माँगनेके लिये आये हैं, सो जो इच्छा हो आप मुझसे लीजिये। हे पूज्यतम! गौ, सुवर्ण, श्रेष्ठ गृह, मीठा अन्न, कन्या, ऋद्धि सिद्धिसे भरेहुए ग्राम, अश्व, हाथी वा रथ जिसकी आपको आवश्यकता हो सो मुझसे माॅगो मैं प्रस्तुत हूॅ <MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1736613441Screenshot2024-12-31235044.png”/>॥३२॥ इति श्रीभागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां बलि मनसंवादे अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा- ऊनविंशमें तीन पग, धरणी माँगी ईश॥ कियो शुक्रने मनै जिमि, कहीं सुमिरि जगदीश॥१॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! ऐसे धर्मयुक्त सुन्दर राजा बलिके वचन सुन श्रीभगवान् प्रसन्न होकर और सन्मान करके
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*** शका—**सत्ययुग, त्रेता, द्वापरमें ब्राह्मण राजाओंसे दान माँगते थे तब राजालोग गुरुसे अनेकवार बूझकर सुपात्र कुपात्र विचारके दान देतेथे, जब ऐसे विचारके दान देते थे तब वामन भगवान्ने तो बलिसे दान माॅगा नहीं विना माँगे दान देनेको बलि क्यों उपस्थित हुआ?
राजा बलिसे यह वचन कहनेलगे॥१॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे नरदेव! तुम्हारे यह वचन अत्यन्त सुन्दर धर्मयुक्त यशके देनेवाले और कुलके योग्य हैं, क्यों न हो भृगुगण और अपने दादा कुलके बढानेवाले प्रशान्त प्रह्लादजीको तुमने पारलौकिक धर्ममें प्रमाण पाया हैं॥२॥ हे राजन! तुम्हारे इस कुलमें ऐसा निस्सत्त्व अथवा कृपण पुरुष कोई नहीं हुआ कि, जिसने प्रतिज्ञा करके ब्राह्मणोंका कार्य न किया हो, अथवा कुछ देनेको कहकर न दिया हो॥३॥ हे नृप! दान के अवसरमें, वा युद्धके कालमें याचकके मांगनेपर न देनेवाला अमनस्वी पुरुष तुम्हारे कुलमें नहीं हैं इसका प्रमाण देखो आकाशमें जिस प्रकार नक्षत्रनाथ चन्द्रमा दीप्तिमान् होते हैं वैसेही तुम्हारे कुलमें निर्मल यशसे युक्त होकर प्रह्लादजी प्रकाशमान
श्रीभगवानुवाच॥ वचस्तवैतज्जनदेव सूनृतं कुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम्॥ यस्य प्रमाणं भृगवः सांपराये पितामहः कुलवृद्धः प्रशांतः॥२॥ न ह्येतस्मिन्कुले कश्चिन्निस्सत्त्वः कृपणः पुमान्॥ प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वाऽदाता द्विजातये॥३॥ न संति तीर्थे युधि चार्थिनाऽर्थिताः पराङ्मुखा ये त्वमनस्विनो नृप॥ युष्मत्कुले यद्यशसाऽमलेन प्रह्लाद उद्भाति यथोडुपः खे॥४॥ यतो जातो हिरण्याक्षश्चरन्रेक इमां महीम्॥ प्रतिवीरं दिग्विजये नाविंदत गदायुधः॥५॥ यं विनिर्जित्य कृच्छ्रेण विष्णुः क्ष्मोद्धार आगतम्॥ नात्मानं जयिनं मेने तद्वीर्यं भूर्यनुस्मरन्॥६॥ निशम्य तद्वधं भ्राता हिरण्यकशिपुः पुरा॥ हंतुं भ्रातृहणं क्रुद्धो जगाम निलयं हरेः॥७॥
हैं॥४॥ और तुम्हारे इस विख्यात वंशसे महावीर हिरण्याक्षने जन्म ग्रहण किया जो कि गदा धारणकिये दिग्विजय करनेको अकेलेही समस्त पृथ्वीमें घूमें, परन्तु उन्हैंकहींभी कोई युद्ध करनेवाला बली न मिला॥५॥ श्रीभगवान् विष्णुने जब पृथ्वीका उद्धार किया था, उस समय यह महावीर हिरण्याक्ष वहाँ आया था अतिकठिनाईसे उस हिरण्याक्षको हराय व उसके पुरुषार्थको दमनकर भगवान्ने अपने आपको विजयी नहीं माना॥६॥ और इस हिरण्याक्षके सगे भाई हिरण्यकशिपुने जब उसके (हिरण्याक्षके) वधका वृत्तान्त सुना, तब यह भ्राताके मारनेवालेका प्राणसंहार करनेको
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**उत्तर—**धर्मशास्त्रका यह मत हैं कि, गृहस्थ ब्राह्मण दान मांगे तब राजा दान दे, अथवा विरक्त ब्राह्मण दान न मागे तोभी राजा दान दे ऐसा धर्मशास्त्रके मतको जानकर राजा बलि, वामन विरक्त थे कुछ माँगामी नहीं तोभी दान देनेको उपस्थित हुआ।
क्रोधकर भगवान विष्णुके स्थानको गया॥७॥माया जाननेवालोंमें श्रेष्ठ व कालको पहँचाननेवाले इस दानवको शूल धारण किये कालके समान आता हुवा देखकर भगवान् विष्णुने यह चिन्ता की॥८॥कि, जहॉ जहॉपर हम जाते हैं, वहीं वहींपर प्राणियोंकी मृत्युके समान हम इस दानवको अपने साथही देखतेहैं, इसकी दृष्टिके बहिर्भागमें रहाहैं, ऐसा जो इसका हृदयहैं मैं उसमें प्रवेश करताहूं॥९॥हे राजन्! भगवान् वासुदेव इसप्रकारसे विचार करके दौडते हुये उस शत्रुकी नासिकाके छेदसे उसके हृदयमें घुस गये, तथापि उनका चित्त विशेष उद्विग्न और श्वासकी अग्निसे अन्तर्हित होरहाथा॥१०॥हे राजा बलि! जब हिरण्यकशिपुने विष्णु भगवान्को न देखा, तब उनके सुने स्थानमें घूम घामकर सिंहनाद करने लगा और पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, विवर, समुद्र सबमें उसने खोज किया, परंतु विष्णु भगवान् तो उसके अंतरमेंही पैठगयेथे, इससे कहीं नहीं दीखपड़े॥११॥
तमायांतं समालोक्य शूलपाणिं कृतांतवत्॥चिंतयामास कालज्ञो विष्णुर्मायाविनां वरः॥८॥यतोयतोऽहं तत्रासौ मृत्युः प्राणभृतामिव॥ अतोऽहमस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराग्दृशः॥९॥एवं स निश्चत्य रिपोः शरीरमाधावतो निर्विविशेऽसुरेंद्र \।\। श्वासानिलांतर्हितसूक्ष्मदेहस्तत्प्राणरंध्रेण विविग्नचेताः॥१०॥स तन्निकेतं परिमृश्य शून्यमपश्यमानः कुपितो ननाद॥क्ष्मां द्यां दिशः खं विवरान्समुद्रान्विष्णुं विचिन्वन्न ददर्श वीरः॥११॥अपश्यन्निति होवाच मयाऽन्विष्टमिदं जगत्॥भ्रातृहा मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान्॥१२॥वैरानुबंध एतावानामृत्योरिह देहिनाम्॥ अज्ञानप्रभवो मन्युरहंमानोपबृंहितः॥१३॥पिता प्रह्लादपुत्रस्ते तद्विद्वान्द्विजवत्सलः॥स्वमायुर्द्विजलिंगेभ्यो देवेभ्योऽदात्स याचितः॥१४॥
विष्णुके दर्शन न पाकर हिरण्यकशिपुने यह कहा था कि, मैंने सब संसारको ढूँढा, परन्तु अपने भाईके मारनेवालेका कहीं पता न पाया, हमको जान पडता हैं कि हमारा भ्रातृघाती उस स्थानमें चला गया हैं कि, जहाॅसे पुरुष फिर नहीं लौटता॥१२॥हे राजन! देहाभिमानी पुरुषोंका मरनेतक वैरभाव और अहंकार अभिमानसे बढ़ा हुआ क्रोध इसी प्रकार से हुआ करताहैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति अज्ञानसे हैं बस अज्ञानसे निवृत्ति होनेके पहिले पौरुषका छोडना केवल मूर्खता हैं इसीलिये हिरण्यकशिपुने अपने शत्रुकी खोज नहीं छोडी॥१३॥हे असुरराज! तुम्हारे पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन ऐसे ब्राह्मणवत्सल थे कि, अपना वैरी जानलेनेपरभी माँगनेपर द्विजवेषधारी देवतालोगोंको उन्होंने अपनी परमायु देदी थी॥१४॥
तुमने गृहमेधी ब्राह्मण और पूर्वज शूरगण और उद्यम युक्त यशवान् महात्माओंके धर्मका आचरण किया हैं॥१५॥इसलिये हम तुमसे कुछ भूमिकी भिक्षा माॅगते हैं। हे दैत्येन्द्र! हम इस अपने चरणके प्रमाणकी तीन पग पृथ्वी चाहते हैं <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736616213Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१६॥हे राजन्! तुम वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ हो और इस जगत्के सत्य सत्य ईश्वरभी हो परन्तु हम आपसे इसके अतिरिक्त और अधिक कुछ नहीं माँगते, क्योंकि विद्वान् पुरुष उतनाही लेते हैं जितना कि, उनको प्रयोजन होता हैं और इतनेके ग्रहण करनेसे किसी प्रकारका पापभी नहीं होता॥१७॥ राजा बलि यह सुनकर
भवानाचरितान्धर्मानास्थितो गृहमेधिभिः॥ब्राह्मणैः पूर्वजैः शूरैरन्यैश्चोद्दामकीर्तिभिः॥१५॥तस्मात्त्वत्तो महीमीषद् वृणेऽहं वरदर्षभात्॥ पदानि त्रीणि दैत्येंद्र संमितानि पदा मम॥१६॥नान्यत्ते कामये राजन्वदान्या ज्जगदीश्वरात्॥नैनः प्राप्नोति वै विद्वान्यावदर्थपरिग्रहः॥१७॥ बलिरुवाच॥अहो ब्राह्मणदायाद वाचस्ते वृद्धसंमताः॥ त्वं बालो बालिशमतिः स्वार्थंप्रत्यबुधो यथा॥१८॥
अति विस्मित होकर बोले कि, बड़ा आश्चर्य हैं अजी विप्रकुमार! तुम्हारी यह बातें वृद्ध लोगोंकी समान हैं, तुम बालक हो। तुम्हारी बुद्धि अनजानकी समान हैं, तुम अपने स्वार्थको कुछ नहीं जानते “राजा बलिकी इस वातका यह तात्पर्य हैं कि तुम बालककी समान हो, वास्तवमें बालक नहीं हो। तुम्हारी बुद्धि पण्डितोंकी बुद्धिके समान हैं, तुम अपना स्वार्थ नहीं जानते अर्थात् भक्तोंके अर्थकोही समझते हो, क्योंकि स्वयं
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***शंका—**वामनजी भगवान् होकर और ब्रह्मचारी होकर थोडेसे कामके लिये इतना झूठ क्यों बोले? क्या वलिको दण्ड देनेका कोई दूसरा उपाय नहीं था?
** उत्तर—**धर्मशास्त्रमें ऐसा लिखा हैं कि, दुष्टके सग जो दुष्टता करते हैं उनको किसी प्रकारका दोष नहीं होता, राजा बलि कैसा दुष्ट था कि वह अपने मनमें जानता था कि, इन्द्रका पुण्य अभी हैं हम किसी प्रभावसे राज्यलेलेंगे तब भगवान्को दुःख भोगना पडेगा ऐसा जानता था तोभीशुक्राचार्य का पूजन करके इन्द्रका राज्य लेलिया, तब राज्यसे भ्रष्ट इन्द्रभगवान्से कहने लगा कि, महारज ! मैंने (१००) सौ अश्वमेध यज्ञ किये हैं तब आपने मुझको इन्द्र बनाया हैं, कुछ ले देकर इन्द्र नहीं बना दिया है सौ (१००) यज्ञोंमें मैंने जो राज्य किया सो तो भोग लिया अब जो मेरा शेप पुण्य हो, उस पुण्यसे मेरा राज्य दो और राज्य न दो तो मेरा पुण्य दो, इस प्रकार इन्द्रके वचन सुनकर भगवान् लज्जित हुये और दुःखको प्राप्त होकर विचार किया कि, विनाछल किये हुये बलिसे इन्द्रको राज्य नहीं मिलेगा, ऐसा विचारकर झूठ बोलकर भगवान्ने इन्द्रको इन्द्रासन दिया॥
परिपूर्ण हो, भक्तका अर्थ पूर्ण करनेके अतिरिक्त स्वयं आपका स्वार्थ अप्रसिद्ध हैं”॥१८॥ कैसे खेदकी बात हैं? हम सब लोकोंके ईश्वर हैं, एक द्वीपकोभी दान कर सक्ते हैं, बहुत वचनोंसे आराधना करके फिर तुम हमारे पाससे अज्ञानकी समान केवल तीन पग भूमिका दान माँगते हो॥१९॥ हमसे प्रार्थना करके फिर किसी दूसरेका याचक नहीं बनना चाहिये इसलिये आप हमसे बहुतसी भूमि लेलीजिये। राजा बलिके वचन सुनकर श्रीभगवान् वामनजी कहनेलगे कि॥२०॥ जो पुरुष अजितेन्द्रय हैं, जिसने अपनी तृष्णाको नहीं जीता हैं उसको त्रिलोकीमें जो कुछभी श्रेष्ठ वस्तुयें हैं वह सबभी तृप्त नहीं कर सक्तीं॥२१॥ जो पुरुष तीन चरण भूमिसे असंतुष्ट हैं, उसकी तृष्णा एक द्वीप पानेपरभी नहीं
मां वचोभिः समाराध्य लोकानामेकमीश्वरम्॥ पदत्रयं वृणीते योऽबुद्धिमान् द्वीपदाशुषम्॥१९॥ न पुमान्मामुपव्रज्य भूयो याचितुमर्हति॥ तस्माद् वृत्तिकरीं भुमिं बटो कामं प्रतीच्छ मे॥२०॥ श्रीभगवानुवाच॥ यावंतो विषयाः प्रेष्ठास्त्रिलोक्यामजितेंद्रियम्॥ न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप॥२१॥ त्रिभिः क्रमैरसंतुष्टो द्वीपे नापि न पूर्यते॥ नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया॥२२॥ सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैन्यगयादयः॥ अर्थैः कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम्॥२३॥ यदृच्छयोपपन्नेन संतुष्टो वर्तते सुखम्॥ नासंतुष्टस्त्रिभिर्लोकैरजितात्मोपसादितैः॥२४॥ पुंसोऽयं संसृतेर्हेतुरसंतोषोऽर्थकामयोः॥ यदृच्छयोपपन्नेन संतोषो मुक्तये स्मृतः॥२५॥ यदृच्छा लाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्द्धते॥ तत्प्रशाम्यत्यसतोषादंभसेवाशुशुक्षणिः॥२६॥
छूटेगी, जब ऐसे पुरुषको एक द्वीप मिलजायगा तब वह सात द्वीपोके पानेका अभिलाप करेगा॥२२॥ और ऐसा सुनाभी हैं कि, राजा वेणु और गयादि नृपगणने सप्त द्वीपोंके अधिपति होकरभी अर्थ और कामके द्वारा तृष्णाका अंत नहीं पाया॥२३॥ यदृच्छा करके मिलेहुए द्रव्यसे जो संतुष्ट हैं वही सुखीहैं, असंतुष्ट और जिसने अपनी आत्माको नहीं जीताहैं, वह तीनों लोक पाकरभी सुखी नही होसक्ता॥२४॥ इसलिये कविलोगोंने कहा हैं कि, अर्थ और कामकेलिये जो असन्तोष हैं यही पुरुषके संसारका कारण हैं और इच्छानुसार पाये हुएसे संतोष करनाही मुक्तिका हेतु हैं॥२५॥ हे राजन्! इच्छानुसार वस्तुको पाकर संतोष करलेनेसे ब्राह्मणोंका तेज बढ जाता हैं, नहीं तो जलके पड़नेसे जिस प्रकार अग्नि बुझ जाती हैं
वैसेही असन्तोषी ब्राह्मणका तेज शान्त होकर नाशको प्राप्त होजाता हैं॥२६॥ इसलिये हे वरदश्रेष्ठ! हम तुमसे केवल तीन चरण भूमिकीही प्रार्थना करते हैं और इससेही हमारा कार्य सिद्ध होजायगा, क्योंकि प्रयोजनानुसार वित्तही सुखका देनेवाला हैं, शेष धन क्लेशका कारण होता हैं॥२७॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे पाण्डुनन्दन! जब वामनजीने इस प्रकार कहा, तब राजाबलि हॅसकर बोला कि, “तब जो आपकी इच्छा सो ग्रहण कीजिये” यह कहकर भूमिदान करनेके लिये राजाबलिने जलका पात्र हाथमें लिया॥२८॥ कि, इतनेहीमें दैत्योंके गुरु शुक्राचार्यजी विष्णुके कपटको जानगये। इस कारण उनको भूमिदान करनेकी सम्मति देख अपने शिष्य राजाबलि पर क्रुद्ध होकर शुक्राचार्यजी यह वचन कहने
तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद्वरदर्षभात्॥ एतावतैव सिद्धोऽहं वित्तं यावत्प्रयोजनम्॥२७॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तः स हसन्नाह वांछातः प्रतिगृह्यताम्॥ वामनाय महीं दातुं जग्राह जलभाजनम्॥२८॥ विष्णवे क्ष्म प्रदास्यंतमुशना त्वसुरेश्वरम्॥ जानंश्चिकीर्षितं विष्णोः शिष्यं प्राह विदांवरः॥२९॥ शुक्राचार्य उवाच॥ एष वैरोचने साक्षाद्भगवान् विष्णुरव्ययः॥ कश्यपाददितेर्जातो देवानां कार्यसाधकः॥३०॥ प्रतिश्रुतं त्वयैतस्मै यदनर्थ मजानता॥ न साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोऽनयः॥३१॥ एष ते स्थानमैश्वर्यं श्रियं तेजो यशः श्रुतम्॥ दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरिः॥३२॥ त्रिभिः क्रमैरिमाँल्लोकान् विश्वकायः क्रमिष्यति॥ सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम्॥३३॥
लगे॥२९॥ शुक्राचार्य बोले कि, हे विरोचननन्दन! यह साक्षात् सनातन विष्णु भगवान् हैं, कश्यपजीके औरससे अदितिके गर्भसे उत्पन्न हुये हैं और यह अवश्यही देवतालोगोंका कार्य सिद्ध करेंगे॥३०॥ यह तुमने किया क्या? कि विना अनर्थके विचारे इनको भूमिदान देनेकी प्रतिज्ञा करली। हम जानगये कि अब मंगल नहीं, दैत्यलोगों के लिये बड़ा अनर्थ आपहुँचा॥३१॥ हे राजन्! यह तुम्हारा स्थान, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, तेज, यश और विद्या सब छीनकर इन्द्रको देदेंगे यह मनुष्य नहीं यह भगवान् विष्णु मायाके योगसे वामनरूप हुए हैं॥३२॥ तुमने वास्तवमें तीन चरण भूमिका देना स्वीकार तो कर लिया हैं, परन्तु यह तीन चरणमें हीं सब लोकोंको नापलेंगे क्योंकि यह विश्वमूर्ति हैं,
फिर क्रोध करके कहने लगे कि अरे मूढ! विष्णुको सर्वस्व देकर फिर तू कहाँ रहेगा?॥३३॥ यह एक पैरसे सब पृथ्वीको नाप लेंगे, दूसरे चरणसे स्वर्गको नाप लेंगे, इनका विशाल शरीर आकाशमण्डलमें व्याप्त होजायगा, फिर तीसरे चरणकी गति कहाँसे होगी, सो बतावो॥३४॥ जब तू वचन देकर फिर न देगा तब हमको जान पडता हैं कि, तेरा नरकमें वास होगा क्योंकि तू अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं कर सकेगा॥३५॥ अरे मूढ़! जिससे अपनी जीविका जाती रहे, वह दान प्रशंसाके योग्य नहीं होता, क्योंकि संसारमें जीविकावाले पुरुषके यहाँही यज्ञ, दान, तप और पुत्रादि कर्म हुआ करते हैं॥३६॥ जो पुरुष धर्म यश, अर्थ, काम और सुजन इन पांचोंके लिये अपने धनका विभाग
क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभोः॥ खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः॥३४॥ निष्ठां ते नरके मन्ये ह्यप्रदातुः प्रतिश्रुतम्॥ प्रतिश्रुतस्य योऽनीशः प्रतिपादयितुं भवान्॥३५॥ न तद्दानं प्रशंसंति येन वृत्तिर्विपद्यते॥ दानं यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यतः॥३६॥ धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च॥ पंचधा विभजन्वित्त मिहामुत्र च मोदते॥३७॥ अत्रापि बह्वृचैर्गीतं शृणु मेऽसुरसत्तम॥ सत्यमोमिति यत्प्रोक्तं यन्नेत्याहानृतं हि तत्॥३८॥ सत्यं पुष्पफलं विद्यादात्मवृक्षस्य गीयते॥ वृक्षेऽजीवति तन्न स्यादनृतं मूलमात्मनः॥३९॥ तद्यथा वृक्ष उन्मूलश्शुष्यत्युद्वर्ततेऽचिरात्॥ एवं नष्टानृतः सद्य आत्मा शुष्येन्न संशयः॥४०॥
करदेताहैं, वह इस लोक और परलोक दोनोंमें सुखी होताहैं॥३७॥ अरे! अब तू इस विचारको छोडदे कि “वचन देकर अब किस प्रकारसे मिथ्या बोलूं” सत्य मिथ्याकी व्यवस्थाके लिये बहुच श्रुतिमें जो कहा हैं, उसको तू हमसे सुन, “हां” बोल स्वीकार करके जो कहा जाता हैं, उसका नाम सत्य हैं और “ना” जो वचन हैं, यह मिथ्या हैं॥३८॥ यह सत्य देहरूप वृक्षका पुष्पफल हैं, क्योंकि श्रुतिमें भी ऐसादी कहा हैं। परन्तु जब यह देहरूप वृक्षही जीवित न रहेगा, तब यह पुष्प फल कैसे होंगे? इसलिये अमृत देहका मूल हैं, बस अनृतसेही देहकी रक्षा होती हैं॥३९॥ अतएव जिस प्रकार जड़के उखड़नेसे वृक्ष सूख जाता हैं और शीघ्र गिरजाता हैं, वैसेही झुंठके नष्ट होनेसे देह शीघ्रही नष्ट होजाता हैं॥४०॥
और सदा सत्य कहनेसे देहकी यात्राका निर्वाह होना असंभव हैं इस कारण सत्यके दोष और मिथ्याके गुण तुम हमसे श्रवण करो। “हां” अक्षर जो हैं, यह सम्पत्तिको दूर लेजाता हैं और पुरुषको धन शून्य कर देता हैं, अथवा अपूर्ण किये रहता हैं अर्थात याचककी आशाका अंत नहीं हैं, क्योंकि किसीने कहाभी हैं कि, “याचक कहा न मांगही, दाता कहा न दे” इसलिये वह पूर्ण नहीं होसक्ता। बस याचकसे “हां” कह स्वीकार करलेना अच्छा नहीं। देनेसे पुरुष धनमें न्यून होजाता हैं, अधिक करके जो पुरुष याचकसे “सब दूंगा” अंगीकार कर उसको देभी देता हैं, उस दाताका अपना कार्यभी सिद्ध नहीं होता, अर्थात् उसको अपने भोगकाभी उपाय नष्ट होजाता हैं परन्तु “ना” यह जो अमृत वाक्य हैं धनका व्यय न करानेके हेतु पूर्णस्वरूप हैं और अपनी ओरको दूसरेका रौंचनेवाला हैं, क्योकि जो पुरुष नित्य कहता हैं कि हमारे पास कुछ नहीं हैं, वह अपने अनृतसे दूसरेके धनको खैंच सक्ताहैं। हे दैत्यराज! हमारी इस बातसे तुम यह न समझ लेना कि
पराग्रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत्तदोमिति॥ यत्किंचिदोमिति ब्रूयात्तेन रिच्येत वै पुमान्॥४१॥ भिक्षवे सर्वमों कुर्वन्नालंकामेन चात्मने॥ अथैतत्पूर्णमध्यात्मं यच्च नेत्यनृतं वचः॥४२॥ सर्वं नेत्यनृतं ब्रूयात्स दुष्कीर्तिः श्वसन्मृतः॥ स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसंकटे॥ गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम्॥४३॥ इति श्रीमद्भा० म० अष्टम० वामनावतारे बलियाचनं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ श्रीशुक उवाच॥ बलिरेवं गृहपतिः कुलाचार्येण भाषितः॥ तूष्णीं भूत्वा क्षणं राजन्नुवाचावहितो गुरुम्॥१॥
अमृतकी समान सदाही अनृत सेवन करनेके योग्य हैं, क्योकि जो सबही समय “ना” कहकर जो झूठ बोलता हैं वह अत्यन्त अकीर्तिका भागी होता हैं और जीवित रहतेभी मृत्युकी समान रहता हैं॥४१॥४२॥ केवल इन सब बातोंमें अर्थात् स्त्रियोंके वश करनेमें, परिहासमें विवाहके समय वरादिकी प्रशंसा करनेमें, जीविकाकी रक्षा करनेमें, प्राणके संकटमें इन अवसरोंमें और गौ, ब्राह्मणके लिये अर्थात् गौ, ब्राह्मणके हितार्थ, किसीकी हिंसा उपस्थित होनेपर झूंठ कभी दोपका देनेवाला नहीं हैं॥४३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कंधेभाषाटीकायां वामनचरित्रे एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ दोहा—बलिसे जिमि संकल्पले, बडे भये भगवान। कथा विंश अध्याय की, सो वरणों सुखदान॥१॥ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित्से कहने लगे कि, हे श्रेष्ठ! दैत्यगुरु शुक्राचार्यके इस प्रकारसे कहनेपर
गृहपति राजाबलि कुछ देरतक चुपचाप रहे। और फिर सावधान होकर अपने गुरुजीसे यह वचन कहने लगे कि <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736622327Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥१॥ राजाबलिने कहा कि, हे गुरो! आपने जो कुछभी आज्ञाकी, वह सब सत्य हैं, जिससे किसी कालमें भी अर्थ, काम, यश और जीविकाका व्याघात न हो गृहस्थोंका वही धर्म हैं॥२॥ परन्तु मैं महात्मा प्रह्लादका पोता “दूंगा” कह सब अंगीकार कर फिर साधारण बनियेकी समान धनके लोभसे ब्राह्मणसे किसप्रकार कहूॅकि “अब मैं नहीं दूंगा”॥३॥ असत्यकी समान बडा अधर्म और कोई नहीं है क्योंकि इस पृथ्वीने कहा हैं कि जान पड़ता हैं कि झूठ कहनेवाले के सिवाय और सबका भार मैंअपने ऊपर सम्हार सक्ती हूं॥४॥ हे गुरुजी महाराज! जितना मैं ब्राह्मणोंके वचनोंसे डरता हूं
बलिरुवाच॥ सत्यं भगवता प्रोक्तं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम्॥ अर्थं कामं यशो वृत्तिं यो न बाधेत कर्हिचित्॥२॥ स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथं द्विजम्॥ प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्लादिः कितवो यथा॥३॥ न ह्यसत्यात्परोऽधर्म इति होवाच भूरियम्॥ सर्वंसोढुमलं मन्ये ऋतेऽलीकपरं नरम्॥४॥ नाहं बिभेमि निरयान्नाधन्यादसुखार्णवात्॥ न स्थानच्यवनान्मृत्योर्यथा विप्रप्रलंभनात्॥५॥ यद्यद्धास्यति लोकेऽस्मिन्संपरेतं धनादिकम्॥ तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत्॥६॥
उतना नर्कसे, दुःखके समुद्रसे, दरिद्रसे, स्थानके भ्रष्टहोनेसे और मृत्युसेभी उतना नहीं डरता॥५॥ और इस लोकमें पृथ्वी आदि जो कुछ वस्तुयें दिखाई देती हैं; यह सब मृत पुरुषको अवश्यही त्याग करेंगी। फिर जीतेही क्यों न दान किया जाय? यदि कहो कि, सर्वस्व दान करनेसे जीविकाके विषयमें संकट होगा तब जीविका क्या? संकट दूर करनेके लिये आधा दो, पर इसमें यह कहना है कि, जो आध घड़ीमें उस दानसे ब्राह्मणको संतोष न हो, तो फिर उस दानके देनेका फलही क्या हुआ? बस इसी कारणसे जितना माॅगा हैं, उससे थोड़ा देनेपर इन ब्राह्मण
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*** शंका—**राजाबलिको श्रीशुकदेवजीने घरका पति करके वर्णन किया हैं सो घर किसका नामहैं? राजा बलि इन्द्रकी गद्दीपर बैठकर त्रिलोकीका राजा बनकर फिर घरका पति कहाया ऐसा उत्तम घर क्या पदार्थहै?॥
**उत्तर—**जो प्राणी भगवान्का नाम अत्यन्त आदर सत्कार और प्रेम प्रीतिसे जपते हैं, जप करनेका, ग्रहण करनामी नाम हैं, उन प्राणियोंका गृह नाम हैं, उनका पति वलि हैं क्योंकि रात दिन राजा बलिकी समान भगवान्का भजन करनेवाला ससारमें कोईभी नहीं हैं, इसलिये श्रीशुकदेवजीने राजा बलिको गृहपति कहा॥
कुमारको सन्तोष न होगा, जिससे हमारा दान व्यर्थ जायगा, इसलिये जो कुछभी इन्होंने माँगा हैं, हम वही सब देंगे॥६॥हे गुरो! दधीचिशिबि, आदि साधु पुरुषोंने त्यागके अयोग्य प्राण देकर भी साधु लोगोंका उपकार किया हैं, फिर भला भूमि आदि साधारण वस्तुका क्या विचार किया जाय?॥७॥युद्धमें विमुख न होकर जिन दैत्येन्द्रोंने इस पृथ्वीको भोग किया था, सो कराल कालने इनका इसलोक व परलोक दोनोमें संहार किया, परन्तु जो कुछ यश वे इस पृथ्वीपर इकट्ठा करगये हैं, उसको कालभी नहीं संहार करसक्ता। इसलिये यशका इकट्ठा करनाही ठीक हैं॥८॥ हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! देहत्याग करनेसे धनके त्याग करनेमें अधिक यश मिल सक्ता हैं। क्योंकि युद्धमें जिस प्रकार देहत्यागी अनेक पुरुष साधारणही देखेजातेहैं, परन्तु ऐसे पुरुष बहुत थोड़े देखनेमें आते हैं कि, जो सत्पात्रके आनेपर उसको श्रद्धा सहित धन देवें॥९॥
श्रेयः कुर्वंति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभिः॥ दध्यङ्शिबिप्रभृतयः को विकल्पो धरादिषु॥७॥ यैरियं बुभुजे ब्रह्मन्दैत्येंद्रैरनिवर्तिभिः॥ तेषां कालोऽग्रसील्लोकान्न यशोऽधिगतं भुवि॥८॥ सुलभा युधि विप्रर्षे ह्यनुवृत्तास्तनुत्यजः॥ न तथा तीर्थ आयाते श्रद्धया ये धनत्यजः॥९॥ मनस्विनः कारुणिकस्य शोभनं यदर्थिकामोपनयेन दुर्गतिः॥ कुतः पुनर्ब्रह्मविदां भवादृशां ततो बटोरस्य ददामि वांछितम्॥१०॥ यजंति यज्ञक्रतुभिर्यमादृता भवंत आम्नायविधान कोविदाः॥ स एष विष्णुर्वरदोऽस्तु वा परो दास्याम्यमुष्मै क्षितिमीप्सितां मुने॥११॥ तदप्यसावधर्मेण मां बध्नीया दनागसम्॥ तथाप्येनं न हिंसिष्ये भीतं ब्रह्मतनुं रिपुम्॥१२॥ एष वा उत्तमश्लोको न जिहासति यद्यशः॥ हत्वा मैनां हरेद्युद्धे शयीत निहतो मया॥१३॥
हे महाराज! साधारण याचककी अभिलाषा पूर्ण करनेमें जो दरिद्रता आजाय; तो मनस्वी दयावान् पुरुषका इसमेंभी कल्याण हैं। इससे आपकी समान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणका अभिलाष पूर्ण करनेमें जो हमें दरिद्रता आजाय तो यह दरिद्रता भलाई क्यों नहीं गिनी जायगी? अतएव जो कुछ इन ब्राह्मणने माँगा हैं, वह हम अवश्य इसको दान देंगे॥१०॥ हे मुने! आपलोग वेद विद्यामें चतुर हैं, आप आदरपूर्वक योगयज्ञ द्वारा जिनकी पूजा किया करते हैं, यह ब्राह्मण वही वरदानी विष्णुजी हों, या हमारे शत्रुही हों, हम इनकी मॉगीहुई भूमि अवश्य इनको दान करेंगे॥११॥ हम निरपराध हैं, जो यह अधर्म करके हमको बाँधभी ले, तोभी हम इन भीत ब्राह्मणरूपी शत्रुकी हिंसा न करेंगे॥१२॥ जो यह उत्तम श्लोक विष्णु
भगवान् हैं और अपने यशको त्यागनेकी इच्छा नहीं करते हैं, तब तो यह युद्धमें हमारा नाशकर इस सब भूमिको लेलेंगे, अथवा हम करके मारे जायॅतो पृथ्वीमें शयन करेंगे॥१३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परिक्षित्! अपना शिष्य राजाबलिको श्रद्धारहित हो अपनी आज्ञाके प्रतिपालन करनेसे विमुख देखकर भाग्यके भेजे हुएकी समान दैत्यगुरु श्रीशुक्राचार्यने क्रोध करके सत्यप्रतिज्ञ इस असुरश्रेष्ठ राजा बलिको यह शाप दिया॥१४॥ श्रीशुक्राचार्यजी बोले कि, अरे अज्ञानी! तू अपनेको पण्डित मानताहै, हमारी उपेक्षा करके तैने मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया इसलिये तू शीघ्रही श्रीभ्रष्ट होजायगा॥१५॥ हे महाराज! महात्मा बलि अपने गुरुजीसे इस प्रकार शापित होकरभी अपने सत्यसे विचलित
श्रीशुक उवाच॥ एवमश्रद्धितं शिष्यमनादेशकरं गुरुः॥ शशाप दैवप्रहितः सत्यसंधं मनस्विनम्॥१४॥ दृढं पंडितमान्यज्ञः स्तब्धोऽस्यस्मदुपेक्षया॥ मच्छासनातिगो यस्त्वमचिराद् भ्रश्यसे श्रियः॥१५॥ एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान्॥ वामनाय ददावेनामर्चित्वोदकपूर्वकम्॥१६॥ विंध्यावलिस्तदाऽऽगत्य पत्नी जालकमालिनी॥ आनिन्ये कलशं हैममवनेजन्यपांभृतम्॥१७॥ यजमानस्स्वयं तस्य श्रीमत्पादयुगं मुदा॥ अवनिज्या वहन्मूर्ध्नि तदपो विश्वपावनीः॥१८॥ तदासुरेद्रं दिवि देवतागणा गंधर्वविद्याधरसिद्धचारणाः॥ तत्कर्म सर्वेऽपि गृणंत आर्जवं प्रसूनवर्षैर्ववृषुर्मुदाऽन्विताः॥१९॥ नेदुर्मुहुर्दुंदुभयः सहस्रशो गंधर्वकिंपुरुषकिन्नरा जगुः॥ मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करं विद्वानदाद्यद्रिपवे जगत्त्रयम्॥२०॥
नहीं हुआ। उसने वामनजीको पूज, कुशको स्पर्श कर पृथ्वी दान दी॥१६॥ तिसके पीछे राजा बलिकी रानी विंध्यावली मोती जड़ेहुये आभूषण पहर और मालायें धारणकर एक जलसे भरा हुआ कलश लाकर अपने स्वामीके निकट स्थापित किया॥१७॥ यज्ञ करनेवाले राजा बलिने स्वयं इस जलसे परमहर्षके साथ श्रीवामनजीके दोनों चरण पखारे। फिर संसारके पवित्र करनेवाले उस जलको अपने मस्तक पर धारणकिया॥१८॥ हे राजन्! इस समय स्वर्गमें देवतालोग और गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर व चारणादि सबही राजा बलिके इस कर्मकी प्रशंसाकर परमहर्षके साथ उसके ऊपर फूलोंकी वर्षा करनेलगे॥१९॥ और बारम्बार हजारों नगाडे बजनेलगे और गन्धर्व, किन्नर, किंपुरुषगण यह
कहकर गानेलगे कि, राजा बलिने अति दुष्कर कर्म किया कि, सब जानबूझकर भी अपने शत्रुको त्रिभुवनदान करदिया॥ हे परीक्षित्! राजा बलिने पहले “जो इच्छा हो सो ग्रहण कीजिये” यह जो कहा था, तब भगवान्का वह वामनरूप आश्चर्यरूपसे बढा। इस मूर्तिकी आत्मामें त्रिगुणके रहनेसे पृथ्वीपर आकाश, दिक्, स्वर्ग, विवर, समुद्र, पशु, पक्षी, देव और ऋषि सम्पूर्ण उसमें अवस्थित थे॥२०॥२१॥ ऋत्विक् आचार्य और सभासदोंके सहित असुरराज बलि महाऐश्वर्यशाली हरिके त्रिगुणात्मक कलेवरमें पञ्चभूत, सब इन्द्रियें, गन्धादि आशय चित्त और जीवोंके सहित त्रिगुण विश्व देखनेलगे॥२२॥ अर्थात् इन्द्रकी सेनाही जिसकी सेना थी। वह राजा बलि इन विश्वमूर्ति हरिके चरणोंके नीचे
तं वामनं रूपमवर्धताद्भुतं हरेरनन्तस्य गुणत्रयात्मकम्॥ भूःखं दिशो द्यौर्विवराः पयोधयस्तिर्यङ्नृदेवा ऋषयो यदा सत॥२१॥ काये बलिस्तस्य महाविभूतेः सहर्त्विगाचार्यसदस्य एतत्॥ ददर्श विश्वं त्रिगुणं गुणात्मके भूतेंद्रियार्था शयजीवयुक्तम्॥२२॥ रसामचष्टांघ्रितलेऽथ पादयोर्महीं महीघ्रान्पुरुषस्य जंघयोः॥ पतत्रिणो जानुनि विश्वमूर्ते रूर्वोर्गणं मारुतमिंद्रसेनः॥२३॥ संध्यां विभोर्वाससि गुह्य ऐक्षत्प्रजापतीञ्जघने आत्ममुख्यान्॥ नाभ्यां नभः कुक्षिषु सप्त सिन्धूनुरुक्रमस्योरसि चर्क्षमालाम्॥२४॥ हृद्यंग धर्मं स्तनयोर्मुरारेर्ऋतं च सत्यं च मनस्यर्थेदुम्॥ श्रियं च वक्षस्यरविंदहस्तां कंठे च सामानि समस्तरेफान्॥२५॥ इंद्रप्रधानानमरान्भुजेषु तत्कर्णयोः ककुभो द्यौश्च मूर्ध्नि॥ केशेषु मेघाञ्छ्वसनं नासिकायामक्ष्णोश्च सूर्यं वदने च वह्निम्॥२६॥
रसातल, दोनों चरणोंमें धरणी, दोनों जंघाओंमें पर्वत घुंटुओंमें सब पक्षी, और दोनों ऊरुमें मरुद्गणोंको देखा॥२३॥ भगवान् विभुके नेत्रोंमें सन्ध्या, गुह्यमें प्रजापति, जघनोंमें आप जिनमें मुख्य हैं ऐसे प्रजापति हैं, नाभिमें आकाश, कोखमें सातों समुद्र और छातीमें नक्षत्रमाला विराजमान देखी॥२४॥ और धीरजवानोमें श्रेष्ट राजा बलिने उन सुरारिके हृदयमें धर्म, दोनों स्तनोमे ऋत और सत्य, मनमें चंद्रमा, वक्षस्थलमें कमलका फूल हाथमें लिये कमला (लक्ष्मी), कण्ठमें सामवेद और समस्तवेद॥२५॥ चारों भुजाओंमें इन्द्रादि देवता लोग, दोनों कानोंमें सब
दिशायें, मस्तकमें स्वर्ग, केशोंमें मेघ, नाकमें पवन, दोनों नेत्रोंमें सूर्य, शरीरमें अग्नि॥२६॥वाणीमें चारों वेद, रसनामें वरुण, दोनों भौंवोंमें विधि और निषेध, दोनों नेत्रोंके पलकोंमें दिन और रात्रि, माथेमें क्रोध, अधरोंमें लोभ॥२७॥स्पर्शमें काम, वीर्यमें जल, पीठमें अधर्म, चरण धरनेमें यज्ञ, छायामें मृत्यु, हँसनेमें माया, सब रोमावलीमें औषधियें॥२८॥सब नाड़ियोंमें नदियें, नखोंमें शिला, बुद्धिमें ब्रह्मा, सब इन्द्रियोंमें देवता और ऋषिगण और गातमें स्थावर, जंगम, सब प्राणि राजा बलिने देखे॥२९॥हे राजन्! सर्वात्मा वामनजीके शरीरमें इस प्रकारसे त्रिभुवनको देखकर सारे असुरलोग विस्मयको प्राप्त हुए। परन्तु असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, मेघकी समान गंभीर ध्वनिसे युक्त
वाण्यां च छन्दांसि रसे जलेशं भ्रुवोर्निषेधं च विधिं च पक्ष्मसु॥अहश्च रात्रिं च परस्य पुंसो मन्युं ललाटेऽधर एव लोभम्॥२७॥स्पर्शे च कामं नृप रेतसोंभः पृष्ठे त्वधर्मं क्रमणेषु यज्ञम्॥छायासु मृत्युं हसिते च मायां तनूरुहेष्वौ षधिजातयश्च॥२८॥नदीश्चनाडीषु शिला नखेषु बुद्धावजं देवगणानृषींश्च॥प्राणेषु गात्रे स्थिरजंगमानि सर्वाणि भूतानि ददर्श वीरः॥२९॥ सर्वात्मनीदं भुवनं निरीक्ष्य सर्वेऽसुराः कश्मलमापुरंग॥ सुदर्शनं चक्रमसह्यतेजो धनुश्च शार्ङ्गंस्तनयित्नुघोषम्॥३०॥पर्जन्यघोषो जलजः पाञ्चजन्यः कौमोदकी विष्णुगदा तरस्विनी॥विद्याधरोऽसिः शतचंद्रयुक्तस्तृणोत्तमावक्षयसायकौ च॥सुनंदमुख्या उपतस्थुरीशं पार्षदमुख्याः सह लोकपालाः॥३१॥स्फुरत्किरीटांगदमीनकुंडलः श्रीवत्सरत्नोत्तममेखलांबरैः॥ मधुव्रतस्रग्वनमालया तो रराज राजन्भगवानुरुक्रमः॥३२॥
शार्ङ्ग धनुष॥३०॥ बादलकी समान शब्दायमान पाञ्चजन्य शंख, कौमोदकी गदा, विद्याधर नामक शतचन्द्रयुक्त असि; उत्तम दो तरकस कि, जिनमें अक्षय सायक थे॥३१॥ इन सबके ईश्वर उन ईश्वरको घेरकर सुनन्दादि बड़े बड़े पार्षदगण लोकपालोंके सहित इस विराट् रूपकी स्तुति करने लगे। और श्रीभगवान् किरीट, बाजु व मकराकार कुण्डलोंसे अलंकृत और रत्नोत्तम श्रीवत्स, मेखला और वस्त्रोंसे शोभित हो भॅवर जिसपर गुंजार करें ऐसी वनमालासे व्याप्त हो अत्यन्त दीप्तिमान् हुये॥३२॥
तिसके उपरान्त वामनजीने एक चरणसे राजा बलिकी समस्त भूमि शरीरसे आकाश और दोनों भुजाओंसे सब दिशाओंको रोक लिया। श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! उन वामनरूपी भगवान्ने जब दूसरा चरण धरा तब स्वर्ग उनके लिये कुछ थोडासा स्थान हुआ, परन्तु उस तीसरे चरणके लिये कुछ भी शेष न बचा। इसलिये यह चरण स्वर्गके ऊपर गमन करता हुआ, महर्लोक, जनलोक, तपलोकके ऊपर सत्य लोकमें जापहुँचा॥३३॥ इति श्रीमद्भा० महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां विश्वरूपदर्शनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥ दोहा—जिमि बाँधो प्रभु नृपतिको, एक चरणके काज। सो इक्किस अध्यायमें, कहौं सुमरि यदुराज॥१॥ इसके अनन्तर योगिवर श्रीशुकदेवजी; राजा परीक्षित्से कहें हैं कि, हे नरदेव! वामनजीका तीसरा चरण
क्षितिं पदैकेन बलेर्विचक्रमे नभश्शरीरेण दिशश्च बाहुभिः॥ पदं द्वितीयं क्रमतस्त्रिविष्टपं न वै तृतीयाय तदीयमण्वपि॥ उरुक्रमस्यांघ्रिरुपर्युपर्यथो महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते म० अष्टम० विश्वरूपदर्शनं नाम विंशतितमोऽध्यायः॥२०॥ श्रीशुक उवाच॥ सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेंदुभिर्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात्॥ मरीचिमिश्रा ऋषयो वृहद्व्रताः सनंदनाद्या नरदेव योगिनः॥१॥ वेदोपवेदा नियमान्विता यमास्तर्केतिहासांगपुराणसंहिताः॥ ये चापरे योगसमीरदीपितज्ञानाग्निना रंधितकर्मकल्मषाः॥ ववंदिरे यत्स्मरणानुभावतः स्वायंभुवं धाम गता अकर्मकम्॥२॥ अथांघ्रये प्रोन्नमिताय विष्णोरुपाहरत्पद्मभवोऽर्हणोदकम्॥ समर्च्य भक्त्याऽभ्यगृणाच्छुचिश्रवा यन्नाभिपंकेरुहसंभवः स्वयम्॥३॥
सत्यलोकमें पहुँचाहुआ देख पद्मयोनि ब्रह्माजी व मरीचि प्रभृति व्रतधारी बड़े बड़े ऋषि और सनन्दनादि योगीगण उस चरणके निकट गये।हे राजन्! उनके नखरूप निशाकरकी किरणोंसे ब्रह्माजीकी द्युतिभी क्षीण होगई और वह उस तेजसे ढकगये॥१॥ तिसके उपरान्त वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, शिक्षादि, वेदाङ्ग, पुराण संहिताके जाननेवाले आये कि, जिनकी योगरूपी पवनमें ज्ञानाग्नि उद्दीप्त और उससे कर्मके मल भस्म होगये थे, वहभी वहाँ आये। हे कुरुश्रेष्ठ! यह सब भगवान्के चरणारविन्दोंका स्मरण करनेके लिये ब्रह्माजीके स्थानपर आये थे इसलिये
सबही इस चरण कमलकी वंदना करने लगे। यह चरण अत्यन्त दुर्लभ हैं, समस्त कर्मोंके द्वाराभी प्राप्त नहीं होता॥२॥३॥तिसके उपरान्त पद्मयोनि ब्रह्माजी जो कि, स्वयं नारायणकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलसे जन्मे थे, उन्होंने हर्षित होकर उन वामनजीके चरणको धोया और भक्ति पूर्वक पूजा करके उनकी स्तुति करनेलगे। हे नरेन्द्र!ब्रह्माजीके कमण्डलुका जल इन वामनजीके चरण धोनेसे पवित्र स्वर्गकी नदी हुई, वह नदी अबतक भगवान्की अमलकीर्तिस्वरूप होकर आकाशसे गिरती हुई त्रिभुवनको पवित्र करती हैं॥४॥तिसके पीछे ब्रह्माजीसे आदि लेकर समस्त लोकपाल अपने अपने सेवकगणोंके साथ आदरपूर्वक अपने स्वामी उन विष्णुभगवान्के लिये जिन्होंने अपने विस्तारको सकोड़ वामनरूप
धातुः कमंडलुजलं तदुरुक्रमस्य पादावनेजनपवित्रतया नरेंद्र॥स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः॥४॥ ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः॥सानुगा बलिमाजह्रःसंक्षिप्तात्मविभूतये॥५॥ तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगंधानुलेपनैः॥ धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलांकुरैः॥६॥ स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्य महिमांकितैः॥ नृत्यवादित्रगीतैश्च शंखदुंदुभिनिस्स्वनैः॥७॥ जांबवानृक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः॥ विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत्॥८॥ महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाच्ञया॥ ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्य मर्षिताः॥९॥ न वा अयं ब्रह्मबंधुर्विष्णुर्मायाविनां वरः॥ द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति॥१०॥
धारण किया था, भेंट देने लगे॥५॥ अर्थात् सुशीतल जल, सुन्दर माला, सुगंधित चंदन व उबटन, सुवासित धूप, दीप, खीलैं, अक्षत, फल, अंकुर, इनसे भगवान्की पूजा करने लगे॥६॥ और स्तुति, भगवान्के पुरुषार्थकी महिमा, जयध्वनि, अधिक करके नृत्य, गीत, वाद्य और शंख दुन्दुभीका शब्द इन सबसे वह देवतालोग स्तुति करने लगे॥७॥ हे राजन्! फिर ऋक्षराज जाम्बवान् भेरी बजायकर सब दिशाओंमें इस विजयमहोत्सवको पुकारने लगा॥८॥ हे राजन्! इस ओर असुरलोग तीन चरण भूमि माँगनेके मिषसे अपने प्रभु यज्ञदीक्षित राजा बलिकी समस्त पृथ्वी हरीहुई देख महाक्रोधसे कहने लगे॥९॥ कि, अरे! यह ब्रह्मबन्धु विष्णु नहीं हैं, यह कोई बड़ी भारी मायाका जाननेवाला हैं,
यह दुष्ट अपनेको ब्राह्मणरूप करके ठग देवताओंका कार्य करनेको आया हैं॥१०॥ वटुकरूपी इस शत्रुने भिक्षुक होकर हम लोगोंका सर्वस्व हरण कर लिया, हमारे स्वामी सदा सत्यव्रतवाले हैं, विशेष करके इस समय यज्ञमें दीक्षित हुये हैं॥११॥ सदा सत्यं बोलते हैं, ब्राह्मणहितैषी हैं, दयावानहैं और कभी मिथ्या नहीं बोल सक्ते हैं॥१२॥ और इसको हम लोग यदि मारडालैं, ऐसा करनेसे हमें धर्म होगा और स्वामीकी सेवाभी होजायगी, इस प्रकारसे कह राजाबलिके अनुचर लोगोंने अस्त्र शस्त्र ग्रहण किये॥१३॥ यह लोग शूल पटा हाथमें लेकर श्रीभगवान् वामनजीके मारडालनेको क्रोध सहित दौड़े, परन्तु राजाबलिकी ऐसी इच्छा नहीं थी॥१४॥ हे महाराज! इन दानवसेनापतिलोगोको आता हुआ देखकर
अनेन याचमाननेन शत्रुणा बहुरूपिणा॥ सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदंडस्य बर्हिषि॥११॥ सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः॥ नानृतं भवितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः॥१२॥ तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः॥ इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचराऽसुराः॥१३॥ ते सर्वे वामनं हेतुं शूलपट्टिशपाणयः॥ अनिच्छतो बले राजन्प्राद्रवञ्जातमन्यवः॥१४॥ तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान्नृपान्॥ प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः॥१५॥ नन्दः सुनंदोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः॥ कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट्॥१६॥ जयंतः श्रुतदेवश्च पुष्पदंतोऽथ सात्वतः॥ सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम्॥१७॥ हन्यमानान्स्वकान्दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः॥ वारयामास संरब्धान्काव्यशापमनुस्मरन्॥१८॥ हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः॥ मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत्॥१९॥
विष्णु भगवान्के सेवक हॅसे और अपने अपने शस्त्र उठाय उन लोगोंको रोकने लगे॥१५॥ हे राजन्! नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन और गरुड़॥१६॥ जयंत, श्रुतदेव, पुष्पदंत, सात्वत, यह विष्णुके अनुचर जिनमें एक एकका बल दश हजार हाथियोंकी समान था यह लोग अति वेगसे असुरकी सेनाका नाश करने लगे राजाबलिने देखा कि, इन महापुरुषके सेवक हमारी सब सेनाका नाश किये डालते हैं, इसलिये शुक्राचार्यके शापकी बात स्मरणकर अपने सव सेनापतियोंको रोका॥१७॥१८॥ और यह कहा, हे विप्रचित्ति! हे राहु ! ! हे नेमि !!!
हमारी बात सुनो और युद्ध मत करो इसमें प्रवृत्त न हो क्योंकि यह समय हम लोगोंके लिये अनुकूल नहीं हैं॥१९॥ जो सब प्राणियोंको सुख देनेके स्वामी हैं। हे दैत्यगण! पौरुषसे उसको अतिक्रमण करनेकी किसीमें सामर्थ्य नहीं हैं॥२०॥हे भाइयो! जो भगवान् पहले हमारा मंगल और देवता लोगोंका अमंगल करतेथे, वही भगवान् इस समय हमसे प्रतिकूल होगये हैं॥२१॥और सुनो। मंत्री, सेना, बुद्धि, दुर्ग, मंत्र, औषधादि और शमादि उपायसे कैसेभी कोई कालको उल्लंघन नहीं करसक्ता॥२२॥ इन हरिके सेवक देवतालोगोंको तुमने बारंबार रणभूमिमें पराजित किया हैं, परन्तु इस समय यह भाग्यके बलसे बलवान होगये हैं, इसलिये हमको युद्ध में जीतकर गर्जरहे हैं॥२३॥ हम लोगोके ऊपर जब
यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये॥ तं नातिवर्तितुं दत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान्॥२०॥ यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम्॥ स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम्॥२१॥ बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गेर्मंत्रोषधादिभिः॥ सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः॥२२॥ भवद्भिर्निर्जिता ह्यते बहुशोऽनुचरा हरेः॥ दैवेनर्द्धैस्त एवाद्ययुधि जित्वा नदंति नः॥२३॥ एतान्वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति॥ तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वा य कल्पते॥२४॥ श्रीशुक उवाच॥ पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः॥ रसां निविविशुराजन्विष्णुपार्षदताडिताः॥२५॥ अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट्प्रभुचिकीर्षितम्॥ बबंध वारुणैः पाशैर्बलिं सौत्येऽहनि ऋतौ॥२६॥ हाहाकारी महानासीद्रोदस्योः सर्वतो दिशम्॥ गृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना॥२७॥ तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः॥ नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप॥२८॥
काल फिर प्रसन्न होगा, तब फिर हम इन लोगोंको जीत लेंगे, इससे जो काल हमको जितावेगा, अब तुम लोग उसी समय की राह देखो॥२४॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! अपने स्वामीकी यह बात सुनकर दैत्य दानव लोग विष्णुजीके सेवकोसे मार खानेके डरसे पातालमें घुसनेको प्रस्तुत हुये॥२५॥ तिसके पीछे पक्षिराज गरुडजी श्रीभगवान्के अभिप्रायको जान यज्ञमें सोमाभिषेकके दिन वरुणकी फॉसीसे राजाबलिको बाॅधने लगे॥२६॥ हे राजन्! श्री भगवान् श्रीविष्णुजीने जब इस प्रकारसे राजा बलिको बॅधवाया, तब पृथ्वीकी सब दिशाओंमें महा हाहाकार मचने लगा॥२७॥ इसप्रकार वरुणपाशमें बँधनेसे जब राजा बलि श्रीभ्रष्ट हुआ, तब स्थिरबुद्धि और महा यशस्वी उस महात्मा
राजाबलिसे विष्णु भगवान् यह वचन कहने लगे कि॥२८॥ हे असुरश्रेष्ठ! तैंने हमको तीन चरण पृथ्वी दान दी हैं सो हमारे दोही चरणमें सब पृथ्वी नप गई, अब तीसरे चरणकी भूमि कहाँ हैं? सो शीघ्र बता॥२९॥ हे राजन्! सूर्यनारायणकी किरणें जहाँतक पड़ती हैं, जहाँतक निशानाथ चंद्रमा तारागणोंके सहित अपनी चांदनी फैलाते हैं और जहाॅतक मेघ जल वर्षाते हैं, तहॉतक तुम्हारी सम्पूर्ण पृथ्वी हैं॥३०॥ हमने एक चरणसे समस्त भूलोकको नाप लिया, मेरे शरीरसे आकाश और सब दिशायें व्याप्त होगई। देखता नहीं कि, तेरे सामनेही
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयाऽसुर। द्वाभ्यां क्रांता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय॥२९॥ यावत्तपत्यसौ गोभिर्या वर्दिदुः सहोडुभिः॥यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव॥३०॥ पदैकेन मया क्रांतो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः॥ स्वर्लोकस्तु द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना॥३१॥ प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते॥ विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः॥३२॥ वृथा मनोरथस्तस्य दूरे स्वर्गः पतत्यधः॥ प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलंभते॥३३॥
दूसरे चरणसे स्वर्गलोकको नाप लिया, इस प्रकारसे हमने तेरा सर्वस्व नापा॥३१॥ परन्तु यह सब लेनेसेभी तेरी प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई। इसलिये तुमको नरकमें वास करना चाहिये। अब तुम अपने गुरु शुक्राचार्यजीकी आज्ञा लेकर नरकमें प्रवेश करो <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736706671Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥३२॥ जो ब्राह्मणसे यह कहकर कि “दूंगा” और फिर नहीं देता, उस याचकके संग ठगाई करता हैं, उसका मनोरथ वृथा, उसको स्वर्ग अति दूर हैं और वह नीचे नरकमें
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*** शंका—**वामन भगवान्ने प्रथम तो बलिसे कहा था कि, तू नरकमें वास कर तू बडा महापापी हैं फिर पीछे सुतल लोक बलिको दिया नरकको क्यों नहीं भेजा? पामर जीवकी समान यह कौतुक किया, जैसे कोई क्रोधी मनुष्य क्रोध आनेपर जो चाहे सो मुखसे बकदे?
**उत्तर—**वामन भगवान्ने जो लोक बलिको देनेके लिये कहाथा वही लोक उसको दिया, क्योंकि निरयका अर्थ नरक नहीं हैं, तथा जो लोक अयस जो लोहा तिस करके ‘नि’ कहिये रहित होय अर्थात् जिस लोकमें लोहा न हो, उस लोकको भी मुनिलोक निरय कहते हैं, भगवान्नेभी निरयका अर्थ ऐसा करके बलिसे कहा था कि, निरयमें वास करोगे, इसलिये निरय जो सुतल है तहाँ बलिको भेजदिया, क्योंकि, सुतल लोकपे मणियोंके सिवाय दूसरी धातु कोई नहीं हैं।और लोहकी कौन गिनती हे निरयका अर्थ विचारके वामनजीने कहा था, नरकमें जानेको वलिको नहीं कहा॥
गिरता है॥३३॥तैंने देने को कहकर फिर हमको नहीं दिया और कपट किया, इसलिये इस झूठका फल यही हैं कि आप कुछ दिन नरकमें भोग कीजिये॥३४॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां बलिनिग्रहणं नाम एकविंशोऽध्यायः॥२१॥दोहा—सुतल लोक पठयो बलिहि, प्रभु दीनो वरदान। सो बाइस अध्याय की, कथा सकल जगजान॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन्! इसप्रकार अंगीकार किये हुये राजाबलिको इस प्रकार भगवान्ने चलायमानभी किया, तथापि अविचलित चित्तसे यह राजाबलि वक्ष्यमाण अविक्लव वचन बोला॥१॥राजा बलिने कहा, कि, हे उत्तमश्लोक भगवन्! मेरी कहीहुई प्रतिज्ञा असत्य नहीं हैं, आपनेही पहले कपटका आश्रय ले वामनरूप बनाय मुझसे भिक्षा माँगी और इस समय दूसरा रूप धारण किया, अच्छा जो इस प्रकारसे भी आप मेरी (प्रतिज्ञा) बातको झूठ मानै, तोभी मैं अपना वचन
विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना॥तद्व्यलीकफलं भुंक्ष्व निरयं कतिचित्समाः॥३४॥इति श्रीमद्भागवते म० अष्टम० बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं विप्रकृतो राजन्बलिर्भगवताऽसुरः॥ भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः॥१॥ बलिरुवाच॥ यद्युत्तमश्लोक भवान्ममेरितं वचोऽव्यलीकं सुरवर्य मन्यते॥ करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलंभनं पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम्॥२॥ विभेमि नाहं निरयात्पदच्युतो न पाशबंधाद्व्यसनाद्दुरत्ययात्॥ नवार्थकृच्छाद्भवतो विनिग्रहादसाधुवादाद्भृशमुद्विजे यथा॥३॥ पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दंडमर्हत्तमार्पितम्॥ यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशंति हि॥४॥
पूर्ण करता हूँ हमारा वचन ठगाईका नहीं हो सक्ता, आपने दो चरण तो नापही लिये तिसरे चरणका स्थान नहीं पाया सो मैं अपना मस्तक झुकाता हूं, इसपर यह अपना चरणकमल रखिये, क्योंकि मैं सब लोकोंका राजा हूं, तब क्या मेरा शरीर एक चरण की बराबर भी न होगा॥२॥ हे महाराज! जिस प्रकार मैं अपकीर्तिसे डरताहूं, वैसा नरकसे, वरुणकी फाँसीसे अत्यन्त भयंकर विपत्तिसे नहीं डरता और धनके कष्टसे अथवा राज्यभ्रष्ट होनेसेभी मैं वैसा नहीं डरता॥३॥ हे भगवन्! आपका किया हुआ यह दण्ड अपकीर्तिका कारण नहीं हैं, क्योंकि माननीय पुरुष जो दण्ड देते हैं, वह तो वाञ्छनीय हैं, क्योंकि माता अथवा पिता वा भ्राता किम्वा सुहृद् लोग ऐसा दण्ड नहीं देसकते इस
कारण आप हमारे हितैषी हैं, सो यहदण्ड जो दिया, इससे तो में बडाईकेही योग्य हुआ॥8॥ हे भगवन्! आप वास्तवमें शत्रुके रूपसे प्रगटे हैं परन्तु यथार्थमें आप शत्रु नहीं हैं, नहीं तो हम असुरलोगोकेभी आपही परम गुरु हैं क्योंकि हम लोग महामदसे अंधे होरहे थे, सो आपने हमारी ममताका नाश करनेके लिये हमारे ज्ञानके नेत्र खोलदिये॥५॥ अहो! जिनसे वैर वॉकर अनेक असुरगण सिद्धिको प्राप्त होगये और जिनको केवल एकान्त योगी लोगही प्राप्त होते हैं॥६॥ अनेक कर्मकारी उन्हीं परमगुरु करके हमको दंड मिला। और वरुणकी फॉसीसे वे फिर इससे हमको लाज अथवा दुःख क्या हो सक्ता हैं? बस इस बंधनसे न में दुःखी हूं न लज्जित हूं॥७॥ हे भगवन्! मेरे ऊपर जो आपने दण्डरूप यह अनुग्रह किया, सो मैं इसका अधिकारी नही था, आपने अपने भक्तका पोता जानकर मुझपर यह अनुग्रह किया, हमारे पितामह प्रह्लादजी आपके परम
त्वं नूनमसुराणां नः पारोक्ष्यः परमो गुरुः॥ यो नोऽनेकमदांधानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत्॥५॥ यस्मिन्वैरानुबंधेन रूढेन विबुधेतराः॥ बहवो लेभिरे सिद्धिं यामुहैकांतयोगिनः॥६॥ तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा॥ वद्धश्च वारुणैः पाशैर्नातिव्रीडे न च व्यथे॥७॥ पितामहो मे भवदीयसंमतः प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवादः॥ भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं संप्राषितस्त्वत्परमः स्वपित्रा॥८॥ किमात्मनाऽनेन जहाति योंऽततः किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः॥ किं जायया संसृतिहेतुभृतया मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुपो व्ययः॥९॥ इत्थं स निश्चित्य पितामहो महानगाधवोधो भवतः पादपद्मम्॥ ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम॥१०॥
प्रीतिपात्र हैं उनके साधुपनको सबही जानते हैं आप उन के परमाश्रय थे यद्यपि वह आपके शत्रु अपने पिता हिरण्यकशिपुकरके आश्चर्य हिंसाको प्राप्त हुये थे॥८॥ तो भी यह विचार करके कि, आयुके शेषमें आत्मीयनामधारी चोररूपी जो पुत्रादि हैं, वह जो देहको छोड़कर आजाॅयगे, सो उस देहसे क्या फल और स्त्री संसारकी हेतुभूत हैं, इससेभी कुछ फल नहीं। और घरसेभी क्या प्रयोजन हैं? इससे केवल आयुका क्षय होता हैं। सुख कुछ नही हैं॥९॥ हे सत्तम! अगाध बोधसम्पन्न हमारे पितामह प्रह्लादजी ऐसा निश्चय करके, यद्यपि आप उनके पक्ष (पितादि निशिचरों) के क्षयकारी थे, तथापि स्वजनसे भीत होतेहुए जहॉपर कि, किसी ओरसे भयकी सम्भावना नहीं और जो ध्रुव हैं, ऐसे आपके चरण
कमलकी शरणको प्राप्त हुये थे॥१०॥हे भगवन्! इस समय दैव करके मैंभी अपने शत्रु आपकी शरण आया हूं, यह दैव हमसे अति अनुकूल हैं, क्योंकि बलात्कार इसने हमसे उस सम्पत्तिका त्यागकराया हैं जिससम्पत्तिसे पुरुष स्तब्धमति हो मृत्युके निकटहुए इस जीवनको अनित्य नहीं समझताहैं॥११॥श्रीशुकदेवजी बोले कि; हे कुरुश्रेष्ठ! असुरश्रेष्ठ राजाबलि इस प्रकार कहरहा था कि, इतनेहीमें भगवद्भक्त प्रह्लादजी पूर्ण चन्द्रमाके समान आकाशसे उदय हो दैत्यराज बलिके निकट आनकर उपस्थित हुए॥१२॥ श्रीप्रह्लादजीके दोनों नेत्र कमलदलके समान बडे बडे थे, श्यामवस्त्र धारण किये हुए थे, दोनों भुजायें अत्यन्त लम्बायमान थीं, वह अति ऊंचे थे, रंग श्याम था, अपनीकांतिसे विराजमान
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवांतिकं दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः॥ इदं कृतांतांतिकवर्ति जीवितं ययाऽध्रुवं स्तब्धम तिर्न बुध्यते॥११॥ श्रीशुक उवाच॥ तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्लादो भगवत्प्रियः॥ आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरि वोत्थितः॥१२॥ तमिंद्रसेनः स्वपितामहं श्रिया विराजमानं नलिनायतेक्षणम्॥ प्रांशुं पिशंगांबरमंजनत्विषं प्रलंब बाहुं सुभगं समैक्षत॥१३॥ तस्मै बलिर्वारुणपाशयंत्रितः समर्हणं नोपजहार पूर्ववत्॥ ननाम मूर्ध्नाऽश्रुविलोललो चनः सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह॥१४॥ स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं सुनंदनन्दाद्यनुगैरुपासितम्॥ उपेत्य भूमौ शिरसा महामना ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविह्वलः॥१५॥
होरहे थे, इस प्रकारसे पितामह महात्मा प्रह्लादजीको राजा बलिने देखा॥१३॥ परन्तु वरुणजीकी फाँसीमें बँधनेके कारण पहलेकी समान भेंट देकर राजा बलि उनकी पूजा नहीं कर सका आँखोंमें आँसू भरकर और शिर झुंका केवल प्रणाम करने लगा।हे राजन्! उस समय ऐसा जानपड़ा कि, राजा बलिको अपने कियेहुए अहंकारादि अपराधका स्मरण हुआ कि, जिससे वह लाजके मारे चुप चाप मस्तक नवाकर रहगया॥१४॥ हे राजन्! सुनन्दादि पार्षदोंसे पूजित जगत्पति भगवान् हरिको राजा बलिके निकट वैठा हुआ देखकर प्रह्लादजीने विचारा कि, इसके ऊपर निःसन्देह भगवान्का अनुग्रह हुआ हैं।इसलिये यह महात्मा पुलकावलीसे पूर्ण व अश्रुजलसे पूर्ण हो मस्तक झुकाकर बारम्बार नमस्कार
करते करते भगवान्के निकट गये और निकट जाय शिर झुकाय प्रणामकर बैठगये॥१५॥ श्रीप्रह्लादजी बोले कि, हे भगवन्! आपनेही बलिको इन्द्रपदवी दी और आपनेही लेली, सो आपने इसके इन्द्रपदको हरण नहीं किया।वरन् अपना पद फिर ग्रहण कर लिया, सो यह अच्छा नहीं हुआ, मैं अनुमान करताहूं कि, इसपर आपका वडाही अनुग्रह हुआ हैं, क्योंकि ऐश्वर्य और सम्पत्ति आत्माको मोह करनेवाली हैं, सो यह इनसे छूटगया॥१६॥ हे भगवन्! ऐश्वर्य व सम्पत्तिके मोहकी वार्ता क्या कहूं? इससे विद्यावान् पुरुषभी मोहित होजाते हैं, इसलिये सम्पत्ति रहते कोई पुरुष भलीभाॅति आत्मतत्त्वको नहीं देख सक्ता, सो आपने बलिकी सम्पत्ति लेकर इसपर वडा अनुग्रह प्रकाश किया, आप महाकरुणाकर हैं, जगदीश्वर अखिल लोकके साक्षी नारायण हैं, सो में आपको बारम्बार नमस्कार करता हूं श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित!
प्रह्लाद उवाच॥ त्वयैव दत्तं पदमैंद्रमूर्जितं हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम्॥ मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात्॥१६॥ यया हि विद्वानपि मुह्यते यतस्तत्को विचष्टे गतिमात्मनो यथा॥ तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै नारायणायाखिललोकसाक्षिणे॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ तस्यानुशृण्वतो राजन्प्रह्लादस्य कृतांजलेः॥ हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम्॥१८॥ वद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्नी भयविह्वला॥ प्रांजलिः प्रणतोपेंद्रं बभाषेऽवाङ्मुखी नृप॥१९॥ विंध्यावलिरुवाच॥ क्रीडाऽर्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः॥ कर्त्तुःप्रभोस्तव किमस्य त आवहंति त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः॥२०॥
इसके पीछे हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी हाथ जोडकर खडेहुये उन प्रह्लादजीके सामनेही उन वामनरूपी मधुसूदनसे कुछ कहनेकी इच्छा करने लगे॥१७॥१८॥ हे राजन्! उसी समय राजा बलिकी स्त्री विंध्यावली भगवान्से कुछ कहनेके लिये आई।इस कारण ब्रह्माजी उसका सन्मान करनेके लिये कुछ देर चुपचाप रहे बलिकी स्त्री विंध्यावली पतिको वॅधाहुआ देखकर भयके मारे व्याकुल होगई, फिर हाथ जोड नीचेको मुखकर यह वचन कहनेलगी॥१९॥ विंध्यावली बोली कि, हे ईश! आपने अपनी क्रीडाके लिये यह त्रिजगत् बनायाहैं, परन्तु दुर्बुद्धि लोग इसमें अपना अपना स्वामीपन कल्पित किया करते हैं।हे भगवन्! आप त्रिजगत्की सृष्टि, स्थिति और संहारके करनेवाले हैं, सो कोई दूसरा आपको इस
जगत् में क्या देगा? जो लोग कहते हैं कि “हमने आपको समर्पण किया” उनको लज्जा नहीं हैं, “हम स्वतंत्र हैं” उनमें केवल यही वाद आपने अवरोपित किया॥२०॥ हे राजन्! विंध्यावलीके इन वचनोंका तात्पर्य यह हैं कि इस हमारे स्वामीने आपसे जो यह कहा कि, हमने आपको तीनों लोक अर्पण करदिये हैं और तीसरे चरणके पूरा करनेको अपनी देहका देनाकहा, सो इन्होंने देहादिमें अपना स्वामीपन जानकर जो कुछ कहा, तिससे निर्लज्जताही प्रकाशित होती हैं क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, इसलिये मन्दबुद्धिवाले इस राजाको आप कृपा करके छोड़ दीजिये॥२१॥यद्यपि भगवानजी प्रह्लाद और रानी विंध्यावलीके दीन वचनोंसे प्रसन्न होगये, तथापि ब्रह्माजीने लोग दिखाबेके लिये बहुत सारी विनती और प्रार्थना करके कहा कि, हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगन्मय! आपने राजा बलिका सर्वस्व हरण कर लिया अब इसको दण्ड न देकर छोड़ दीजिये॥२२॥ हे भगवन्! यह असुरवर श्रेष्ठ बुद्धिवाला हैं और इसने अपने कर्मसे प्राप्त किये सब लोकोंको दान करदिया हैं, जिसने
ब्रह्मोवाच॥ भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय॥ मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम्॥२१॥ कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये॥ निवेदितं च सर्वस्वमात्माऽविक्लवया धिया॥२२॥ यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय दूर्वांकुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्॥ अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं दाश्वानविक्लवमनाः कथमातिंमृच्छेत्॥२३॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मन्यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम्॥ यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते॥२४॥ यदा कदाचिज्जीवात्मा संसरन्निजकर्मभिः॥ नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत्॥२५॥
अकातर होकर प्रथम सर्वस्व और पीछे अपना देहतक अर्पण कर दिया, वह फिर दण्ड पानेके योग्य नहीं हो सक्ता। हे भगवन्! लोकोंमें शठताई को छोड़ जो आपके चरणामृतको पान करता हैं और दूबके अंकुरोंके दान करनेसे भी उत्तमगतिको पाता हैं, फिर यह राजा बलि कि, जिसने कातर रहित होकर आपको त्रिलोकीका दान कर दिया। फिरभी क्या यह दण्ड पानेके योग्य हो सकता हैं?॥२३॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे ब्रह्मन्! हम जिसके ऊपर अनुग्रह करते हैं, प्रथम उसके धनका नाश कर देते हैं क्योंकि धनसे ममता उत्पन्न होती हैं, तिससे पुरुष नम्रतारहित हो सब लोकोंको और मुझकोभी कुछ नहीं समझता, इसकारण मदके दूर करनेके लिये सब धनका हरण करनाही अनुग्रह हैं॥२४॥ और जीवात्मा सदा परवश होकर अपने कर्मों करके कृमि कीटादि अनेक योनियोंमें भ्रमण करता हुआ फिर पौरुषीगतिको
प्राप्त होताहैं अर्थात् पुरुषहोकर जन्मताहैं॥२५॥जो उस पुरुष जन्ममें जन्म, कर्म, वयस, सत्य, विद्या, ऐश्वर्य और धनादिसे उसको स्तंभ (ममता) न हुआ तो मेरा वड़ाही अनुग्रह हैं॥२६॥हमने ध्रुवादिकोंको जो सम्पत्ति दान की हैं, उसमें एक कारण हैं, जो हमारे भक्त हैं वह अनम्रतादिके लिये भूत और सर्वप्रकार भलाईके प्रतिकूल जन्मादिके होनेपरभी कभी मोहित नहीं होते, इसलिये हम भक्तकी इच्छासे सम्पदा देते हैं, अभक्त सम्पदासे मोहित होजाताहैं, इसलिये हम सब सम्पदा हरण करके उसपर अनुग्रह करते हैं॥२७॥हे ब्रह्मन्! यह दानव (बलि) दैत्यलोगोंका अगुआ और कीर्तिका वढानेवाला हैं, इसने दुर्जय मायाको जीत लिया हैं, इसलिये यह खेदको प्राप्त होकरभी मोहित नहीं
जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः॥ यद्यस्य न भवेत्स्तंभस्तत्रायं मदनुग्रहः॥२६॥ मानस्तंभनिमित्तानां जन्मादीनां समंततः॥ सर्वश्रेयःप्रतीपानां हंत मुह्येन्न मत्परः॥२७॥ एष दानवदैत्यानामग्रणीः कीर्तिवर्धनः॥ अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति॥२८॥ क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो वद्धश्च शत्रुभिः॥ ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः॥२९॥ गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौसत्यं न सुव्रतः॥ छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक्॥३०॥ एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापंममरैरपि॥ सावर्णेरंतरस्यायं भवितेंद्रो मदाश्रयः॥३१॥ तावत्सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम्॥ यन्नाधयो व्याधयश्च क्लमस्तंद्रा पराभवः॥ नोपसर्गा निवसतां संभवंति ममेक्षया॥३२॥
होताहैं॥२८॥ यह निर्धन होगया स्थानसे भ्रष्ट होगया, शत्रुसे वॉधागया, झिझकारागया और इसके जातिवालोंने इसको छोड़दिया, व इसने अनेक प्रकारकी यातनाभी पाई, अधिक करके इसके गुरु शुक्राचायजीनेभी इसको बहुत धमकाया, शापभी दिया, तोभी इसने अपने संकल्पको नहीं छोडा॥२९॥ मैंने छलकरके जो धर्म उसको बताया उसकोभी यह नहीं छोड़ता इससे यह पुरुष अतिशय भक्तिमान् और सत्यवादी हैं॥३०॥ ऐसी निष्ठा रखनेके लिये मैंनेभी इसको ऐसा स्थान दिया हैं कि, जो देवतालोगोंकोभी नहीं मिलसक्ता, अब हमने इस बलिका आश्रय लिया, यह बलि सावर्णि मन्वन्तरमें इन्द्र होगा॥३१॥ जबतक यह सावर्णि मन्वन्तर न आवै, तबतक तुम विश्वकर्मा
जीके बनाये सुतल लोकमें जाकर वास करो। यह स्थान साधारण नहीं हैं, जो लोग यहॉपर वास करते हैं, हमारी दृष्टिके पड़नेसे उनको आधिव्याधि और न कभी थकावटकी अवाई होती हैं॥३२॥हे राजन्! ब्रह्माजीको इस प्रकारसे उत्तर देकर भगवान् फिर करुणापरायण होकर राजा बलिसे बोले कि, हे इन्द्रसेन! हे महाराज! तुम्हारा मंगल हो! तुम अपने सब जातिवालोंके साथ सुतललोकको चलेजाओ किं, जिसे स्वर्गके रहनेवालेभी चाहते हैं॥३३॥इस स्थानमें लोकपालगणभी तुमको पराभव नहीं कर सकेंगे। फिर दूसरेकी तो बातही क्या हैं? जो दैत्यलोग तुम्हारी आज्ञाको न मानेंगे, उनका संहार हमारे चक्रसे होजायगा॥३४॥सब सामग्रीके साथ और सब सेवकोंके साथ तुम्हारी रक्षा
इंद्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते॥सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः॥३३॥न त्वामभिभविष्यंति लोकेशाः किमुतापरे॥ त्वच्छासनातिगान्दैत्यांश्चक्रं मे सूदयिष्यति॥३४॥रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम्॥सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान्॥३५॥ तत्र दानवदैत्यानां संगात्तेभाव आसुरः॥दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुंठो विनंक्ष्यति॥३६॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कंधे बलिवामनसंवादो नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥श्रीशुक उवाच॥इत्युक्तवंतं पुरुषं पुरातनं महानुभावोऽखिलसाधुसंमतः॥ बद्धांजलिर्बाष्पकलाकुले क्षणो भत्त्युद्गलो गद्गदया गिराऽब्रवीत्॥१॥
करेंगे हे वीर! क्या हमारे वियोगके मारे तुम वहाँ नहीं जानेकी इच्छा करते? हम सत्यही सत्य कहते हैं कि, हमको तुम सदा उस स्थानमें देखोगे॥३५॥वहाॅदैत्य दानवोंके संग रहनेसे असुरभाव मेरे प्रभावको देखकर उसीसमय नष्ट हो जायगा <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736763282Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥३६॥इति श्रीभागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां बलिमोक्षणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥दोहा—सुतललोकको बलिगये, इन्द्र मिल्यो सुरलोक॥ताते इस अध्यायमें, पढ़कर होहु विशोक॥१॥श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे नृपोत्तम!पुरातनपुरुष भगवान्ने जब इसप्रकारसे कहा, तब समस्त
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*** शंका—**ऐसा कौनसा लोक हैं कि, जिसमें देवताभी वडे क्लेशसे जासक्तेहैं? और उसी लोकको एक क्षणमें राजा बलि चलागया, जो कभी स्वर्गलोकको बलि गया तो स्वर्गलोक देवताओंका हैं और जो सुतल लोकको गया तो सुतल लोक नागका हैं?
साधुसम्मत महानुभाव राजा बलिके दोनों नेत्र आँसुओंकी कलाओंसे आकुल होगये। वह भक्तिसे उत्कंठित हो हाथ जोड गद्गद स्वरसे श्रीभगवान्से कहनेलगा॥१॥राजा बलि बोला कि, अहो! आपके प्रति नमस्कार करनेकी कैसी आश्चर्यमय महिमा हैं। इसके लिये उद्यम करतेही भक्तजनोंके कार्य सिद्ध होजाते हैं, आपको नमस्कार करनेके उद्यमने इस अधम असुरकोभी उस अनुग्रहका दान किया कि, जो लोकपालोंकोभी नहीं मिलसक्ता।हे भगवन्! आप परमेश्वर हैं, मैं अति अवस्तु हूं, सो मैं भला क्या आपको त्रिलोकीका दान दूॅगा? बरन् मैंने तो आपको भलीभाँति प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेको उद्यम किया हैं, सो इतनेही उद्यमका ऐसा माहात्म्य हैं कि, करोडों तप और दान करनेसे जो अनुग्रह प्राप्त नहीं होसक्ता, वह मुझको मिलगया। हे महाराज! आपके प्रणाम करनेका माहात्म्य अति आश्चर्यमय हैं॥२॥श्रीशुकदेवजी
बलिरुवाच॥ अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः॥यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरैरलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः॥२॥श्रीशुक उवाच॥इत्युक्ता हरिमानम्य ब्रह्माणं सभवं ततः॥ विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः॥३॥एवमिंद्राय भगवान्प्रत्यानीय त्रिविष्टपम्॥पूरयित्वाऽदितेः काममशासत्सकलं जगत्॥४॥ लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम्॥निशम्य भक्तिप्रवणः प्रह्लाद इदमब्रवीत्॥५॥प्रह्लाद उवाच॥नेमं विरिंचो लभते प्रसादं न श्रीर्न शर्वः किमुतापरे ते॥यन्नो सुराणामसि दुर्गपालो विश्वाभिवंद्यैरपि वंदिताघ्रिः॥६॥
कहैं हैं कि हे परीक्षित! असुरश्रेष्ठ राजा बलिने इसप्रकार कहकर भगवान् वामनजीको और महेश्वरके साथ ब्रह्माजीको प्रणाम किया, तिसके पीछे प्रीतिमें भर प्रफुल्लित चित्त हो असुरसमूहके साथ सुतललोकको चलागया॥३॥इस प्रकारसे भगवान् हरिने इन्द्रको फिर त्रिलोकी समर्पण कर अदितिकी कामनाको साथ स्वयं इन्द्र व सब जगत्का पालन कियाथा॥४॥इधर अपने वंशधर पोते बलिको छूटते हुए और भगवान्की प्रसन्नता प्राप्त करता हुआ देख प्रह्लादजीने भक्तिसे गद्गद हो यह वचन कहे॥५॥प्रह्लादजीने कहा कि, हे भगवन्! जिन लोगोंकी वन्दना सम्पूर्ण विश्व करता हैं, वह समस्त लोग आपके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, आप “सर्वप्रकारसे रक्षा करेंगे” यह कहकर जो हमारे दुर्गपाल
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**उत्तर—**वामन भगवान्ने जिस समय राजा बलिसे दान लिया उसी समय बलि जीताथा तोमी संसारसे मोक्ष करदिया या चाहे तो ससारमें रहे चाहे योगियोंके लोकको जाय, ऐसे लोकको देवता लोग बढे दुःखसेभी नहीं जासके, इसलिये शुकदेवजी ने कहा कि, जिस लोकको बलि गया वह लोक देवताओंकोभी प्राप्त नहीं होता॥
हुएको आपका यह प्रसाद अति दुर्लभ हैं ब्रह्मा, महेश्वर और लक्ष्मी कोईभी इस प्रसादको प्राप्त नहीं हुए; फिर दूसरेकी तो बातही क्या हैं?॥६॥ हे आश्रयपद! आपके पदारविन्द मकरन्दका सेवन करके ब्रह्मादि देववृन्द विभूतियोंको भोग करते हैं, सो हम खलयोनि किस प्रकारसे आपकी कृपादृष्टिकी पदवीको प्राप्त होवें?॥७॥ हे भगवन्! आपकी चेष्टा अतिशय आश्चर्यकी हैं, यह तो कुछ बातही नहीं हैं? आप अचिन्त्ययोग मायासे लीलापूर्वक त्रिभुवनकी रक्षा करते हैं और सर्वात्मा व सर्वज्ञ होनेके कारण आप सबको समभागसे देखते हैं; आपका ऐसा विषमस्वभाव हैं परन्तु भक्तके ऊपर स्नेह वश हो आपका ऐसा कल्पतरु स्वभाव हुआ हैं॥८॥तब श्रीभगवान् बोले कि, हे प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण
यत्पादपद्ममकरंदनिषेवणेन ब्रह्मादयः शरणदाऽश्नुवते विभूतीः॥ कस्माद्वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः॥७॥ चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमायालीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य॥ सर्वात्मनस्समदृशो विषमः स्वभावो भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः॥८॥ श्रीभगवानुवाच॥ वत्स प्रह्लाद भद्रं ते प्रयाहि सुतलालयम्॥ मोदमानस्स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखमावह॥९॥ नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम्॥ मद्दर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबंधनः॥१०॥ श्रीशुक उवाच॥ आज्ञां भगवतो राजन्प्रह्लादो बलिना सह॥ बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय कृतांजलिः॥११॥ परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः॥ प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम्॥१२॥ अथाहोशनसं राजन्हरिर्नारायणोंऽतिके॥ आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम्॥१३॥
हो। तुमभी सुतललोकमें चलेजाओ। और अपने पोते बलिके साथ आनन्द करते हुए अपने जातिवालोंको सुख दो॥९॥ हम वहॉपर गदा हाथमें लिये खडे रहेंगे। और वहां तुम नित्य हमको देखोगे, हमारे दर्शन करनेसे आनन्द पावोगे। और तुम्हारा ज्ञानभी नष्ट नहीं होगा॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे राजन् ! निर्मलमतिवाला प्रह्लाद अपने पोते राजा बलि के साथ, “यही करता हूं” कह भगवान्की आज्ञाको स्वीकार करताहुआ। फिर सब असुर और सेनापति॥११॥ हाथ जोडकर महात्मा आदि पुरुषकी परिक्रमा दे और प्रणामकर उनकी आज्ञा ले उसी समय सुतललोकको चले गये कि, जो बडाभारी पाताल था॥१२॥ इसके पीछे भगवान् वामनजी अति धोरे ब्रह्मवादियोंकी सभामें
ऋत्विक् लोगोंके बीच आसीन महर्षि शुक्राचार्यजीसे बोले॥१३॥कि, हे ब्रह्मन्! आपके शिष्य राजा बलिके यज्ञमें जो कुछ त्रुटि रहगई हैं, उसको आप स्वयं पूर्ण कीजिये।यदि तुम कहो कि, यजमानके विना यज्ञ किसप्रकार पूरा होसक्ता हैं? सो बात नहीं। क्योंकि ब्राह्मण करके देखे जातेही सब कर्मोंकी विषमता समताको प्राप्त होती हैं, सो आपके करनेसे इस यज्ञके पूर्णहोजानेमें क्या संदेह हैं?॥१४॥ श्रीभगवान् वामनजीके ऐसे वचन सुनकर शुक्राचार्यजी बोले कि, हे भगवन्! आप कर्मके प्रवर्तक यज्ञफल दाता और यज्ञपुरुष हैं, आप जिस करके सर्व प्रकार पूजित हुए उसको फिर कर्मोंकी वैषम्यता कहाॅरही?॥१५॥ मंत्रसे स्वरादिभ्रंशद्वारा तंत्रसे क्रमकी विपरीतता द्वारा और देश, काल, पात्र, वस्तुसे दक्षि
ब्रह्मन् सतनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः॥ यत्तत्कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं समं भवेत्॥१४॥ शुक्र उवाच॥ कुतस्तत्कर्मवैषम्य यस्य कर्मेश्वरो भवान्॥ यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः॥१५॥ मंत्रतस्तंत्रत श्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः॥ सर्वं करोति निश्छिद्र नामसंकीर्तन तव॥१६॥ तथाऽपि वदतो भ्रमन्करिष्याम्यनुशा सनम्॥ एतच्छेयः परं पुंसां यत्तवाज्ञाऽनुपालनम्॥१७॥ श्रीशुक उवाच॥ अभिनंद्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति॥ यज्ञच्छिद्रं समाधत्त बलेर्विप्रर्षिभिः सह॥१८॥ एवं बलेर्महीं राजन्भिक्षित्वा वामनो हरिः॥ ददौ भ्रात्रे महेंद्राय त्रिदिवं यत्परैर्हृतम्॥१९॥ प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः॥ दक्षभृग्वंगिरोमुख्यैः कुमारेण भवेन च॥२०॥ कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै सर्वभूतभवाय च॥ लोकानां लोकपालानामकरोद्वामनं पतिम्॥२१॥
णादि द्वारा जो जो न्यूनता होती हैं, आपका नाम; लेतेही उन सब छिद्रोंको दूर करता हैं॥१६॥ तथापि आप जो कुछ आज्ञा करतेहैं, उसको मैं अवश्य पालन करूंगा, क्योंकि, आपकी आज्ञा पालन करनेसेही पुरुषोंका कल्याण होता हैं॥१७॥ हे राजन! शुक्राचार्यजीने इस प्रकारसे भगवान्की आज्ञापर हर्ष प्रगटकर सब ब्राह्मणों सहित राजा बलिके छिद्रको अच्छिद्र किया अर्थात् यज्ञ पूर्ण करदिया॥१८॥ हे महाराज परीक्षित्! श्रीभगवान् वासुदेवने वामन अवतार ले इस प्रकार राजा बलिके सन्मुख भूमिकी भिक्षा मॉग, दानव लोगोंने जिसको हरण कर लिया था वह स्वर्ग फिर अपने भ्राता इन्द्रको देदिया॥१९॥ तिसके उपरान्त कश्यप अदितिजीको प्रसन्न करनेके लिये और सर्व प्राणियोंके हितार्थ देवऋषि,
पितृगण,मनुवर्ग, दक्ष, भृगु, अंगिरादि मुनिगण और कुमार व भोलानाथ (शिव) के साथ प्रजापति ब्रह्माजीनें उन वामनजीको लोक व लोकपालोंका अधीश्वर किया <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736766383Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥२०॥२१॥यद्यपि इन्द्र सब लोकों के पति हैं, तो भी समस्त वेद, धर्म, यश और सब प्रकारसे मंगल व्रतादिके पालन करनेमें निपुण वह वामनजी सर्वप्राणियोंका ऐश्वर्य बढानेको इन्द्रके ऊपर उपेन्द्र बनाये गये इसलिये उस समय सब प्राणियोंको बहुतही आनंद प्राप्तहुआ॥२२॥२३॥ तिसके पीछे इन्द्र विमानपर चढाय आगेकर उनेवामनजीको स्वर्गमें लेगये यह देखकर लोकपालोंके और ब्रह्माजीके मनमें परमानन्द
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः॥मंगलानां व्रतानांच कल्पं स्वर्गापवर्गयोः॥२२॥उपेन्द्रं कल्पयांचक्रेपतिं सर्वविभूतये॥ तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप॥२३॥ततस्त्विंद्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम्॥ लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः॥२४॥प्राप्य त्रिभुवनं चेंद्र उपेंद्रभुजपालितः॥श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः॥२५॥ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप॥ पितरः सर्वभृतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये॥२६॥ सुमहत्कर्म तद्विष्णोर्गायंतः परमाद्भुतम्॥धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च शशंसिरे॥२७॥
हुआ॥२४॥ हे महाराज! इसप्रकार इन्द्र त्रिलोकीको प्राप्त हो उपेन्द्रजीके बाहुबलसे उसको पालन करने लगा और परमश्रीसम्पन्न व निर्भय होकर सुख सम्भोगमें निमग्नहुआ॥२५॥ इस ओर ब्रह्मा, महेश्वर कुमार, भृगुआदि मुनि पितृलोग और सर्व प्राणी, सिद्ध व वैमानिक सबही भगवानके इस अद्भुत कर्मकी प्रशंसा करते करते अपने अपने स्थानोंको चलेगये। और सब स्थानोंमें कश्यपजीकी स्त्री अदितिजीकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई॥२६॥२७॥
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* **शंका—**जगत्के उत्पन्न करनेवाले, जगत्के स्वामी, जगत्का पालन करनेवाले, जो भगवान् हैं उन भगवान्को इन्द्रके हाथके नीचे व्रह्माजीने राज्य दिया, अधीश तो इन्द्रको और भगवान् उपेंद्र ब्रह्माने किया यह बडी शंका हैं?
**उत्तर—**भगवान्की आज्ञा मानकर ब्रह्माने बहुत प्रकारसे विचार किया और इन्द्रको त्रास देनेकेलिये भगवान्को इन्द्रके हायके नीचे ब्रह्माने अधीश्वर किया क्योंकि लोकमेंमी अपनी बराबर पुत्रको भाईको देखकर लोक कुकर्म नहीं करते इस प्रकारसे भगवान् इन्द्रका छोटा भाई हैं वामनके सन्मुख इन्द्र खोटा फर्म नहीं करेगा, इसलिये त्रिलोकीके नायको इन्द्रके हाथके नीचे ब्रह्माने स्वामी किया॥
हे कुरुनन्दन परीक्षित्! श्रीभगवान् के यह पवित्र चरित्र श्रोता लोगोंके पापोंका नाशकरनेवाले हैं, सो हमने आपके सन्मुख सबवर्णन किये॥२८॥ जिसपुरुषने बलसे, अनेक भाँतिके विक्रम करनेवाले भगवान् विष्णुकी महिमाका पार देखलिया हैं, वह पृथ्वीके रजःकणों की संख्या भी करसक्ताहै, अर्थात् जिसप्रकार पृथ्वीके रजःकणोंकी संख्या नहीं होसक्ती, वैसेही भगवान्के चरित्रोंको गाते गाते कोई पार नहीं पा सक्ता। इसलिये मंत्र और मंत्रदर्शी पुरुष लोगोंने स्पष्ट कहा हैं कि, उत्पन्न हुये और उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंकी जातिमें कोई पुरुष पूर्णस्वरूप पुरुषकी महिमाको प्राप्त हुआ हैं? अर्थात् कोई नहीं हुआ और न आगेको होगा॥२९॥हे राजन्! अद्भुत कर्मकारी देवदेव भगवान् वासुदेवके वामनावतार विषयक
सर्वमेतन्मयाख्यातं भवतः कुलनंदन॥ उरुक्रमस्य चरितं श्रोतणामघमोचनम्॥२८॥ पारं महिम्न उरुविक्रमतो गृणानो यः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्यः॥ किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य इत्याह मंत्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य॥२९॥ य इदं देवदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः॥ अवतारानुचरितं शृण्वन्याति परां गतिम्॥३०॥ क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे॥ यत्रयत्रानुकीर्त्येत तत्तेषां सुकृतं विदुः॥३१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टमस्कंधे वामनावतारचरिते त्रयोविंशतितमोऽध्यायः॥२३॥ राजोवाच॥ भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुतकर्मणः॥ अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडंबनम्॥१॥
चरित्र जो मनुष्य गावेंगे, वा सुनेंगे अथवा सुनावेंगे वा लिखेंगे, उनको परमश्रेष्टगति प्राप्त हो जायगी, इसमें कुछ सन्देह नहीं हैं॥३०॥ श्रीशुकदेवजी कहैं हैं कि, हे परीक्षित् ! देवता अथवा पितरोंमें अथवा लौकिककर्म करनेके समय जिस जिस कार्यमें इस चरित्रका गान होगा, वह समस्त कार्य यथावत् पूर्ण होंगे, इस बातको पंडित गण भुलीप्रकार जानते हैं॥३१॥ इति श्रीभागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे भाषाटीकायां वामनावतारानुचरित्रवर्णनं नाम त्रयोविंशोध्यायः॥२३॥ दोहा—कथा मत्स्य अवतारकी, चौविसवें अध्याय। रक्षा सत्यव्रतकी करी, सो कहिहौं समुझाय॥१॥ राजापरीक्षित् व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजीसे बोले कि, हे भगवन्! आपने जो अनुग्रह करके वामन अवतारकी कथा मुझे सुनाई सो मुझे अत्यन्त प्रिय लगी, अब कृपापूर्वक मुझे वह कथा सुनाइये कि, जिस्में अद्भुत कर्मकारी भगवान्के प्रथमावतारकी माया
जिसमें उन्होंने मायाके द्वारा मत्स्यरूप धारण किया था, मैं श्रवण करनेकी इच्छा करताहूं॥१॥क्योंकि मत्स्यरूप लोकमें निन्दित हैं और तमोगुणी स्वभाववाला होनेके कारण सहनेके अयोग्य हैं, सो ईश्वरने कर्मग्रसितकी समान होकर इस रूपको किस कारण धारण किया था?॥२॥ वह सब वृत्तान्त आप मुझसे यथार्थ २ कहिये। हे योगिन्! भगवान् उत्तमश्लोकके चरित्र सबकोही सुखके देनेवाले हैं॥३॥ सूतजी बोले कि, जब राजापरीक्षित्ने इस प्रकारसे प्रार्थना की, तब व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी वह सब लीला कहनेलगे, जो कि विष्णुभगवान्ने मत्स्यरूप धारण करके की थी॥४॥ श्रीशुकदेवजी प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे कि, हे कुरुवंशावतंस परीक्षित्! गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद, साधु, धर्म और
यदर्थमदधाद्रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम्॥ तमःप्रकृति दुर्मर्षं कर्मग्रस्तमिवेश्वरः॥२॥ एतन्नो भगवन् सर्वं यथावद्वक्तुमर्हसि॥ उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम्॥३॥ सूत उवाच॥ इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बादरायणिः॥ उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत्कृतम्॥४॥ श्रीशुक उवाच॥ गोविप्रसुरसाधूनां छंदसामपि चेश्वरः॥ रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि॥५॥ उच्चावचेषु भूतेषु चरन्वायुरिवेश्वरः॥ नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः॥६॥ आसीदतीतकल्पांते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः॥ समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भृरादयो नृप॥७॥ कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली॥ मुखतो निस्सृतान्वेदान्हयग्रीवोंऽतिकेऽहरत्॥८॥ ज्ञात्वा तद्दानवेंद्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम्॥ दधार शफरीरूपं भगवान्हरिरीश्वरः॥९॥
अर्थकी रक्षा करनेको समय समयपर विष्णुभगवान् अवतार लिया करते हैं॥५॥ बुद्धिके गुण करके ऊंचे नीचे प्राणियोंमें पवनके समान आदिपुरुष भगवान् विचरण करते हैं। परन्तु निर्गुण होनेके कारण ऊंच नीचको नहीं भजते और मत्स्यावतारका जो प्रयोजन हैं वह भी सुनो॥६॥ अतीत कल्पके अन्तमें जब ब्रह्माजीकी निद्राके लिये प्रलय हुई; तब भूरादि सब लोक समुद्रके जलमें डूबगये॥७॥ तब समयके वश होकर ब्रह्माजी सो रहे थे, तब उस समय उनके वदनमेंसे सब वेद निकले कि, जिनको दानवेंद्र हयग्रीवने हरण कर लिया॥८॥ हे राजन्! जब दानवश्रेष्ठ हयग्रीवका यह कर्म भगवान् वासुदेवने जाना, तब वह इस दैत्यको दमन करनेके लिये शफरीरूप (मत्स्यरूप)
जब उस मीनने दीनभावसे राजर्षिके प्रति कहा कि, हे राजन् ! यहाँपर अति बलवान् मकरादि जन्तु हैं, सो वह हमको भक्षण करलेंगे। इसलिये आप हमको इस स्थानमें न छोडिये॥२४॥जब उस मत्स्यके ऐसे वचन सुनकर राजर्षि सत्यव्रत अतिशय मोहित होगये और मत्स्यसे बोले कि “आप कौन हैं?” और मत्स्यके रूपसे हमको क्यों मोहित करते हैं॥२५॥ हमने कभी इस प्रकारका जलचर देखा न सुना आपने एक दिनमें अपना शरीर बढ़ायकर शत योजनके विस्तारवाले सरोवरको ढकलिया॥२६॥ हम निश्चय जानते हैं कि, आप नारायण अथवा हरि हैं प्राणियोंपर अनुग्रह करनेकेलिये आपने जलचर रूप धारण किया हैं॥२७॥ हे पुरुषश्रेष्ठ! आपको नमस्कारहैं। आप
क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः॥ अदंत्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि॥२४॥ एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम्॥ तमाह को भवानस्मान्मत्स्यरूपेण मोहयन्॥२५॥ नैवंवीयों जलचरो दृष्टोऽस्माभिश्श्रुतोऽपि च॥ यो भवान्योजनशतमह्नाऽभिर्व्यानशे सरः॥२६॥ नूनं त्वं भगवान्साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः॥ अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम्॥२७॥ नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर॥ भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो॥२८॥ सर्वे लीलाऽवतारास्ते भूतानां भृतिहेतवः॥ ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम्॥२९॥ न तेऽरविंदाक्ष पदोपसर्पणं मृषा भवेत्सर्वसुहृत्प्रियात्मनः॥ यथेतरेषां पृथगात्मनां सतामदीदृशो यद्वपुरद्भुतं हि नः॥३०॥ श्रीशुक उवाच॥ इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये॥ विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवीच्चिकीर्षुरेकांतजनप्रियः प्रियम्॥३१॥
सृष्टि स्थिति और प्रलयके अधीश्वर हैं। हे प्रभो! हम आपके भक्त हैं और शरणागत हैं, आप हमारे आत्मा और आश्रय हैं॥२८॥ आपके समस्त लीला अवतार प्राणियोंकी विभूतिके अर्थ हैं तो सही पर इस रूपके धारण करनेका क्या कारण है? सो में जानना चाहताहूं॥२९॥ हे अरविन्दलोचन! देहाभिमानी पुरुषोंकी उपासना जिस प्रकार व्यर्थ होती हैं, वैसेही सर्वसुहृद् और प्रिय आत्मा आपके चरणोंकी जैसा करना वैसे व्यर्थ नहीं होसक्ता।क्योंकि हम लोग केवल आपके भक्त हैं तो भी आपने ऐसी अनिर्वचनीय दयाप्रकाश करके हमको यह अद्भुत मूर्ति दर्शन कराई॥३०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, जब राजा सत्यव्रतने इसप्रकारसे
कहा, तब जगत्पालक मत्स्यरूपी भगवान् प्रलयके समुद्रमें विहार करनेकी इच्छासे अपने मनकी बात उस राजासे कहने लगे, क्योंकि भक्तजन उनको अत्यन्त प्यारे होतेहैं॥३१॥मत्स्यरूपी भगवान् बोले कि, हे अरिन्दम! आजसे सातवेंदिन प्रलय होगी और उस प्रलयके जलमें त्रिलोकी डूबजायगी॥३२॥ हे राजन्! जब प्रलयके जलमें त्रिलोकी डूबने लगेगी, तब उससमय हमारी भेजी हुई एक बड़ीनाव तुम्हारे निकट आवेगी॥३३॥ तुम उसको देखतेही सब प्रकारकी औषधियें और छोटे बडे समस्त बीज ग्रहण करके सप्तऋषियोंको लेकर सब प्राणियोंके साथ॥३४॥ उस नावपर अति शीघ्रताके साथ चढ़जाना। उस नावमें चढ़कर विना खेदके तुम सब जगह घूमसकोगे। हे राजन्! जब सब जलही जल होगा, तब
श्रीभगवानुवाच॥ सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिंदम॥ निमंक्ष्यत्यप्ययांभोधौत्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम्॥३१॥३२॥ त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्तांभसि वै तदा॥ उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता॥३३॥ त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्चावचानि च॥ सप्तर्षिभिः परिवृतस्सर्वसत्त्वोपबृंहितः॥३४॥ आरुह्य महतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः॥ एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा॥३५॥ दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा॥ उपस्थितस्य मे शृंगे निबध्नीहि महाहिना॥३६॥ अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति॥ विकर्षन्विचरिष्यामि यावद्ब्राह्मी निशा प्रभो॥३७॥ मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम्॥ वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि॥३८॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्थमादिश्य राजानं हरिरंतरधीयत॥ सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत्॥३९॥
उजेला नहीं रहेगा, परन्तु तुम ऋषिलोगोंके तेजसे सब कुछ देखनेको समर्थ होगे॥३५॥ फिर प्रलयपवनके लगनेसे जब वह नाव कम्पायमान होने लगेगी; तब हम भी तुम्हारे समीप आजायॅगे, तब तुम बृहत् सर्परूप रस्सीसे हमारे सींगमें नावको बाँध देना॥३६॥ जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी; तबतक हम उस नावको ऋषि लोगोंके सहित प्रलयके समुद्रमें खैंचते फिरेंगे॥३७॥ हे राजन्! परब्रह्मपदवाच्य जो हमारी महिमा हैं वह हम उसीसमय तुम्हारे प्रश्न करनेपर कहेंगे। तुम हमारी प्रसन्नतासे उस महिमाको अपने हृदयमें जान सकोगे॥३८॥ श्रीभगवान् इसप्रकार सत्यव्रतको आज्ञा दे उसी स्थानमें अंतर्धान होगये इसके उपरान्त यह राजर्षि सावधान हो भगवान्के आज्ञा दियेहुए कालकी राह देखनेलगे॥३९॥
अर्थात् सत्यव्रत राजा मत्स्यरूपी भगवान्के चरित्रका स्मरण करताहुआ पूर्वकी ओरको हैं अग्रभाग जिनके ऐसे कुशोंकों बिछाय कर उत्तरकी ओरको मुखकर बैठगया॥४०॥कुछ कालके पीछे दिखाई दिया कि, समुद्रका नीर तीरको तोड़ सर्व प्रकारसे पृथ्वीको डुबाता हुआ बढने लगा और भयंकर मेघ अनिवारित जलधारा वर्षाने लगे॥४१॥राजा सत्यव्रतने भगवान्की आज्ञाका विचार करते करते देखा कि, एक नाव निकट आपहुँची। मत्स्यमूर्ति भगवान्की आज्ञाका स्मरण कर वह सत्यव्रत सब प्रकारकी औषधिव लतादि लेके सप्तऋषियोंके साथ उस नावपर आरूढ होगया॥४२॥जब यह सत्यव्रत राजर्षि नौकापर चढे तब मुनिलोग बोले कि, हे राजन्! भगवान् केशवका ध्यान करो।
आस्तीर्य दर्भान्प्राक्कूलान्राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः॥निषसाद हरेः पादौ चिंतयन्मत्स्यरूपिणः॥४०॥ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन्महीम्॥वर्धमानो महामेघैर्वर्षद्भिः समदृश्यत॥४१॥ ध्यायन्भगवदादेशं ददृशे नावमागताम्॥ तामारुरोह विप्रेन्द्रैरादायौषधिवीरुधः॥४२॥ तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन्ध्यायस्व केशवम्॥स वै नः संकटादस्मादविताशं विधास्यति॥४३॥ सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे॥एकशृंगधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः॥४४॥ निबद्ध्य नावं तच्छृंगे यथोक्तो हरिणा पुरा॥ वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव मधुसूदनम्॥४५॥राजोवाच॥अनाद्यविद्योपहतात्मसंविदस्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः॥यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयुर्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान्॥४६॥
वही हम लोगोंको इस संकटसे बचाय मंगल करेंगे <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1736778806Screenshot2024-12-31235044.png"/>॥४३॥हे राजन! जब राजा सत्यव्रतने ध्यान किया तब एक शृंग धारण किये मत्स्य भगवान् साक्षात् समुद्रमें प्रगट हुये। इनका यह शृंग सुवर्णका था और देहकी लम्बाई एक लाख योजनकी थी॥४४॥राजर्षि सत्यव्रत भगवान्की आज्ञानुसार अहिडोरसे इस मत्स्यके शृंगमें नौका बाँध प्रसन्नचित्त हो भगवान् मधुसूदनकी स्तुति करनेलगे॥४५॥ राजर्षिसत्यव्रतने
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*** शंका—**मुनियोंने भगवान् का ध्यान करनेके लिये राजासे कहा था कि, महाराज! भगवान्का ध्यान करो परन्तु मुनियोंने भगवान्का ध्यान क्यों नहीं किया?
**उत्तर—**मुनिलोग शरीरके सुख होनेके लिये भगवान्का ध्यान नहीं करते, मोक्षके लिये भगवान्का ध्यान करते हैं। उस समय शरीरकी रक्षाका काम था, इसलिये मुनियोंने भगवान्का ध्यान नहीं किया॥
कहा कि, हे भगवन्! जिनपुरुषोंका अंतःकरण अनादि अविद्यासे ढका हुआ हैं, इसकारण जो अविद्यारूप संसारके परिश्रमसे आतुर हैं वह लोगभी इस संसारमें जिसके अनुग्रहके लिये आश्रित हो जिसको प्राप्त होते हैं आप वहीं पुरुष हैं। हम लोगोंको मुक्तिके देनेवाले आप परमगुरु हैं॥४६॥ हे भगवन! यह जन अत्यन्त अबोध हैं, अपने कर्मोंसेही इसका बंधन हुआ हैं, यह सुखकी इच्छासे असुरोंकेसे कर्म करनेकी चेष्टा करता फिरता हैं। परन्तु जिनकी सेवा करनेसे वह सुखकी इच्छा छूटजाती हैं वह हमारे हृदयकी गॉठको खोलदें, वही भगवान् हमारे परमगुरु हैं॥४७॥ अहो! चॉदी जिस प्रकार अग्निकी सेवा करके अपनी मलीनताको छोड़ अपने पहले रूपको प्राप्त होजाती हैं और हीनबल हो अपने रंग अर्थात् स्वरूपकी भजना करती हैं, वही अव्यय ईश हमारे गुरु होवें, क्योंकि वही गुरुकेभी परमगुरु हैं॥४८॥ अहो! देवता, गुरु व सब श्रेष्ठजन एकत्र होकर
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबंधनः सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम्॥ यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं ग्रंथिं से भिंद्याद्भृदयं स नो गुरुः॥४७॥ यत्सेवयाऽग्नेरिव रुद्ररोदनं पुमान्विजद्यान्मलमात्मनस्तमः॥ भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो भूयात्स ईशः परमो गुरोर्गुरुः॥४८॥ न यत्प्रसादायुतभागलेशमन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम्॥ कर्तुं समेताः प्रभवंति पुंसस्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये॥४९॥ अचक्षुरंधस्य यथाग्रणीः कृतस्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः॥ त्वमर्कदृक्सर्वदृशां समीक्षणो वृतो गुरुर्नस्स्वगतिं बुभुत्सताम्॥५०॥ जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः॥ त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमंजसा प्रपद्यते येन जनो निजं पदम्॥५१॥
भी जिसके प्रसादके दश हजार भागकेभी एक किनकेको प्राप्त करनेके लिये समर्थ नहीं होते। हे भगवन्! आप वही ईश्वर हैं, हम आपकी शरण हैं॥४९॥ हे प्रभो!अंधा जिस प्रकार अंधेको आगे करके चलै, वैसेही अविद्वान् पुरुष अबोधको अपना गुरु बनाता हैं। हम वैसे नहीं हैं। आपके जानने की इच्छा करते हैं। इसलिये आपकोही गुरु बनाते हैं, आपका ज्ञान सूर्यके प्रकाशकी समान स्वयंसिद्ध हैं और आपही सब इन्द्रियों प्रकाशक हैं॥५०॥ हे भगवन्! प्राकृत गुरु केवल अनर्थके हेतु हैं, वह पुरुषको कामादिककी मतिका उपदेश करते हैं। तिससे मनुष्य तरनेके अयोग्य संसारको प्राप्त होजाता हैं, सो आप इस प्रकारके नहीं हैं, आप यथार्थमें अव्यय और अव्ययार्थ ज्ञानका उपदेश दिया करते हैं तिससे सर्व
साधारण अर्थात् सब कोई आपके पदको प्राप्त होजाते हैं॥५१॥हे देव! यद्यपि आप सब पुरुषोंके सुहृद, प्रिय, ईश्वर, आत्मा, गुरु, ज्ञान और अष्टसिद्धिस्वरूप हैं, तोभी अनेक दूसरी बुद्धि और कामके वश होकर अपने हृदयमें स्थित हुये आपको नहीं जानसक्ते॥५२॥ परन्तु हम ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आये हैं। आप देवताओंमें श्रेष्ठ, वरेण्य और ईश्वर हैं। हे भगवन्! आप परमार्थप्रकाशक वचनोंसे हमारे हृदयमें उत्पन्नहुई अहंकारादिकी गाँठ खोलिये और आज्ञा स्वरूप प्रकाश करनेकी आज्ञा हो॥५३॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, हे परीक्षित्! जब राजर्षि सत्यव्रतने इस प्रकारसे स्तुति की तब मत्स्यरूपी भगवान् आदिपुरुषने प्रलयके महासमुद्रमें विहार करते करते
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः॥तथापि लोको न भवंतमंधधीर्जानाति संतं हृदि बद्धकामः॥५२॥तं त्वामहं देववरं वरेण्यं प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय॥छिंध्यर्थदीपर्भगवन्वचोभिर्ग्रंथीन् हृदय्यान्विवृणु स्वमोकः॥५३॥ श्रीशुक उवाच॥ इत्युक्तवंतं नृपतिं भगवानादिपूरुषः॥मत्स्यरूपी महांभोधौ विहरंस्तत्त्वम ब्रवीत्॥५४॥पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम्॥सत्यव्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः॥५५॥अश्रौषीदृषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम्॥नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम्॥५६॥ अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे॥हत्वाऽसुरं हयग्रीवं वेदान्प्रत्याहरद्धरिः॥५७॥ स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः॥विष्णोः प्रसादात्कल्पेऽस्मिन्नासीद्वैवस्वतो मनुः॥५८॥
उस राजर्षिको तत्त्वज्ञानका उपदेश किया था॥५४॥और सांख्ययोग व क्रियाविशिष्ट दिव्यपुराण संहिता, अर्थात् मत्स्यपुराण और अतिगुप्त करने योग्य आत्मतत्त्वकोभी बड़ी भारी व्याख्याके सहित कहा था॥५५॥ऋषिगणोंके सहित सत्यव्रत राजर्षि नावमें बैठकर ब्रह्मा और श्रीभगवान्के कहेहुए उस समस्त आत्मतत्त्वको विशेष करके सनातन धर्मकी कथा श्रवण करनेलगा और कुछ संदेहभी कथाके श्रवण करनेमें नहीं हुआ॥५६॥श्रीशुकदेवजी मुनि राजा परीक्षित्से कहने लगे कि, हे भारत! पहले प्रलयके अंतमें जब ब्रह्माजी सोकर उठे तो उन मत्स्यरूपी भगवान्ने हयग्रीव असुरका संहार कर फिर सब वेद ब्रह्माजीको देदिये॥५७॥और यह सत्यव्रत राजा भगवान्के प्रसादसे ज्ञान विज्ञान
सम्पन्न हो इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुआ हैं॥५८॥ हे राजन् परीक्षित्! सत्यव्रत राजर्षिके और मायामत्स्यरूपी भगवान् विष्णुके इस अवतारका बड़ा पवित्र आख्यान श्रवण करनेसे सब पाप छूट जाते हैं,॥५९॥ श्रीभगवान् वासुदेवके इस अवतारको जो मनुष्य दिन प्रतिदिन कहें सुनेंगे उनके सब कार्य सिद्ध होजाते हैं और अंतमें परमगतिको प्राप्त होजाते हैं॥६०॥ अहो! प्रलयसमुद्रके जलमें शयन करते हुए और शक्ति
सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य शार्ङ्गिणः॥ संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात्॥५९॥ अवतारो हरे योंऽयं कीर्तयेदन्वहं नरः॥ संकल्पास्तस्य सिध्यंति स याति परमां गतिम्॥६०॥ प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः श्रुतिगणमुपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा॥ दितिजमकथयद्यो ब्रह्म सत्यव्रतानां तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि॥६१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
॥समाप्तोयमष्टमस्स्कन्धः॥
रहित विधाताके वदनसे निकले हुए सब वेदोंको जिस दानवने हरण कर लिया और जिन्होंने मत्स्यरूपी होकर उस हयग्रीव राक्षसको मार सब वेद सत्यव्रत और सप्तर्षियोंसे कहे थे, उन अखिल कारण मायामत्स्यरूपी भ2गवान् को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं॥६१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कंधे भाषाटीकायां मत्स्यावतारवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
इदं पुस्तकं क्षेमराज श्रीकृष्णदास श्रेष्ठिना स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम्- मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०. शके १८३५,
॥ इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुतेऽष्टमस्कन्धसमाप्तिः॥ |
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“विद्यामदो धनमदस्तथैवाभिजनो मद। एते मदा मदाधानां त एव हि सता दमा।” ↩︎
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“छप्पय- जय जय नटवर वेप तरणि तनया तट लम्पट। जय जय भट पट लटक चटक भूषित वंशीवट। जय जय मणिगण जटित सुहाटक घटित मुकुट धर॥ जय जय उत्कट शकट विपाटक वेणुलकुट कर॥ जय जयति चटुल तर पीतपट घर अघटित घटना चरण॥ जय जयति निपट पटु करण प्रभु मम इच्छा पूरण करण॥१॥” ↩︎