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॥अथ श्रीमद्भगवते भाषाटीकायुते द्वितीयस्कंधप्रारंभः॥

सोरठा— जय वृन्दावनचन्द, श्रीमुकुन्द गोविन्द हरि॥ नँदनंदन सुखकन्द, कृपा करहु जन जान निज॥१॥ अतिसुन्दर कमनीय, जो छबिश्यामाश्यामकी॥ बसहि सदा मम हीय, यह वर देहु गणेश मुहिं॥२॥ गुरु पद रज धर शीश, कहोंद्वितीयस्कन्ध अब॥ सब मिलि देहु अशीश, शीघ्र भागवत पूर्ण हो॥३॥दोहा—कहत प्रथम अध्यायमें, नृपसों श्रीशुकदेव। आदि विराट स्वरूपको, वर्णत हैं सब भेव॥१॥ श्रीवासुदेवाय नमः॥ “जैसे द्वितीय स्कन्धके प्रथमाध्यायमें श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षित् केप्रश्नकी प्रशंसा करके भगवत्के विराट्स्वरूपका वर्णन कियाहै, सोसब कथा वर्णन करैंगे” श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! जगत् हितकारी, भक्तजनोंका सम्मत श्रवणयोग्य, और अत्यन्त श्रेष्ट ऐसा यह अच्छा प्रश्न किया॥१॥ हे राजेन्द्र ! जो आत्मतत्त्वको नहीं विचारते हैं, और घरमें जहां पांच हत्या नित्य होती हैं***1** ऐसे मनुष्योंकी श्रवण योग्य

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीशुक उवाच॥ वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप॥ आत्मवित्संमतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः॥१॥ श्रोतव्यादीनि राजेंद्र नृणां संति सहस्रशः॥ अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम्॥२॥ निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः॥ दिवा चार्थेहया राजन्कुटुंबभरणेन वा॥३॥ देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसै न्येष्वसत्स्वपि॥ तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति॥४॥ तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवान्हरिरीश्वरः॥ श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताऽभयम्॥५॥ एतावान्सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्टया॥ जन्मलाभः परः पुंसामंते नारायणस्मृतिः॥६॥

बातें सहस्रों हैं हे राजन्! रात्रिमें निद्रा और मैथुनमें आयुको नष्ट करते हैं, दिनमें धनके प्राप्त करने, व कुटुम्बके पालन पोषणकी चिन्तामें सब अवस्थाको क्षय करते हैं॥२॥३॥ अपनी आत्माकी अत्यन्त खोटी सेना, देह, पुत्र, स्त्री इनके मोहमें आसक्त होकर इनका नाश देखते हैं, तथापि परमात्माकी ओर नहीं देखते॥४॥ हे भारत! इसलिये सबके अन्तर्यामी, सुन्दर भगवान् वासुदेव, कष्टहर्ता ईश्वरकी कथा श्रवण करने व कीर्तन करने योग्य है, मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको उन्हींका नाम स्मरण करना चाहिये॥५॥ तत्त्वोंका विचार, सांख्य, अष्टांग योग, स्वधर्ममें अत्यन्त

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**शंका—**शुकदेवजीने राजा परीक्षित् सेकहा कि श्रीमद्भागवत जो यह महापुराण है सो ब्रह्मके गुणसे मिलाहुआ है परन्तु भागवतमें ब्रह्मके लक्षणका वर्णन एकभी कहीं नहीं देख पडता—

निष्ठा करनी, यही संसारमें जन्म लेनेका परमलाभ है कि अन्तसमयमें नारायणमें स्मृति होय॥६॥प्रायः विधिनिषेध रहित मुनिलोग श्रीकृष्णके गुण कथनमें और निर्गुण बृहत्त्वादि गुणविशिष्ट चैतन्य ब्रह्ममें रमण करतेहैं॥७॥ श्रीभगवत्प्रोक्त यह भागवत नामक पुराण वेदके समान, ब्रह्मका सुन्दर ज्ञान करानेवाला है। सो द्वापरके आदिमें वेदव्यास पितासे हमने पढ़ाथा॥८॥ हे राजर्षे!उत्तम यशस्वीकी लीलासे निर्गुणमें हमारी अत्यन्त निष्ठाथी श्रीकृष्णके चरित्रोंने मन ग्रहण कर लिया इस कारण यह आख्यान पढ़ा॥९॥ महापुरुष श्रीविष्णुके गुणग्राहक आपहो, सो हम आपसे कहैंगे इसमें श्रद्धा करनेवालोंको मुक्तिदायक माधव मुकुंदमें प्रीतियुक्त मति होती है॥१०॥ हे नृप!अत्यन्त वैराग्यवान्

प्रायेण मुनयो राजन्निवृत्ता विधिषेधतः॥ नैर्गुण्यस्था रमंते स्म गुणानुकथने हरेः॥७॥ इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसंमितम्॥ अधीतवान्द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम्॥८॥ परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया॥ गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान्॥९॥ तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान्॥ यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुंदे मतिः सती॥१०॥ एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम्॥ योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम्॥११॥ किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह॥ वरं मुहूर्तं विदितं घटेत श्रेयसे यतः॥१२॥ खट्वांगो नाम राजर्षिर्ज्ञात्वेयत्ता मिहायुषः॥ मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्यं गतवानभयं हरिम्॥१३॥

मुमुक्षु जनोको और योगियोंको निर्भय श्रीकृष्णका नाम सदा कीर्तन करना, सबने यही निर्णय किया है॥११॥ जो मदान्ध हैं उनको कुछ नहीं देख पड़ता, और बरसोंमें भी उनसे कुछ नहीं होता; और जो शुभ कार्यमें यत्न करैउसकी वह दो घड़ी भी श्रेष्ठ हैं॥१२॥ खट्वांग नाम राजर्षि दो घड़ी अपनी आयु जान एक मुहूर्तमें सबको त्यागकर अभयदायक परमेश्वरको प्राप्त हुए, जब राजाने इन्द्रकी सहायता कर दैत्योंको जीता तब देवता प्रसन्न होकर बोले, वर माँगो।यह सुन राजाने कहा कि प्रथम मेरी अवस्थाका वृत्तान्त कहिये कि मैं कितने दिन और जीऊँगा? तब देवताओंने कहा तुम दो घड़ी और जियोगे, यह सुन राजा खट्वांग शीघ्र विमानपर बैठ भूमिमें आ श्रीकृष्णकी

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**उत्तर—**व्यासदेवजीने पहले श्रीमद्भागवतमें अनेक प्रकारके इतिहास तथा राजाओंके चरित्र वर्णन किये हैं ब्रह्मज्ञानी मनुष्य सब भले बुरे जो संसारी जीवोंको ब्रह्मरूप जानतेहैं तथा जो पुरुष ब्रह्मज्ञानसे हीन हैं हम लोग अभिमानयुक्त नेत्रोंसे बहुत प्रकार संसारको देखते हैं भलेको भला बुरेको बुरा और श्रीशुकदेवजी महाराज ब्रह्मज्ञानी थे, चर अचर सबको ब्रह्मरूप जानतेथे इतिहास, पुराण, राजाओंके चरित्रोंकोभी ब्रह्मरूप जानके श्रीमद्भागवतको ब्रह्मसम्मत कहतेहैं॥

शरणागति कर मुक्त होगया॥१३॥ सो हे राजन्! तुम तौ सातदिन जियोगे, जो जो परलोक साधनकी क्रिया हैं सो सावधानीसे करो॥१४॥ जब अंतमें काल आवै तब यह पुरुष मृत्युके भयसे रहित होकर असंग रूप शस्त्रसे इस देह और इसके पीछे जो पुत्र कलत्रादिकसे सुखकी इच्छा है उसको काटै॥१५॥ घरसे निकलकर धीर पुरुष पुण्यतीर्थों के जलमें तो स्नान करै, एकान्तमें विधिवत् पवित्र आसन पर बैठे॥१६॥ शुद्ध ‘अ उ म्’ यह तीन अक्षर युक्त परब्रह्म स्वरूप ओंकारका मनमें अभ्यास करे, मनको व श्वासको जीते, ब्रह्मका जो बीज मंत्र प्रणव उसको कभी भूलै नहीं॥ १७॥ बुद्धि सारथीसे मन इन्द्रियोंको विषयोंसे जीतै, अनेक कर्मोंसे मनको खेंचकर भगवत् के रूपमें बुद्धिसे धारण करे॥१८॥

तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः॥ उपकल्पय तत्सर्वं तावद्यत्सांपरांयिकम्॥१४॥ अंतकाले तु पुरुष आगतेगतसाध्वसः॥ छिंद्यादसंगशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम्॥१५॥ गृहात्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः॥ शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत्कल्पितासने॥१६॥ अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृद्ब्रह्माक्षरं पदम्॥ मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन्॥१७॥ नियच्छेद्विषयेभ्योऽक्षान्मनसा बुद्धिसारथिः॥ मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया॥१८॥ तत्रैकावयवं ध्यायेदव्युच्छिन्नेन चेतसा॥ मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किंचन न स्मरेत्॥ पदं तत्परमं विष्णोर्मनो यत्र प्रसीदति॥१९॥ रजस्तमोभ्यामाक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः॥ यच्छेद्धारणया धीरो हंति या तत्कृतं मलम्॥२०॥ यतः संधार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः॥ आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः॥२१॥

और एक मुहूर्तकोभी परमात्माके चरणकमलोंका ध्यान न भूलै सब रूपका ऐसे चित्तसे ध्यान करे मनको सब विषयोंसे हटाय परमानंदके साक्षात्कार विना कुछ भी स्मरण न करैवही विष्णुका परमपद हैं जिससे मन प्रसन्न होय; जो मानसी पूजामें लवलीन हैं, उनको वैकुण्ठवास॥१९॥ मिलताहैं अपना मन रजोगुणसे प्रेरा हुआ तमोगुणसे विमूढ धारणा करके; रज तमके करे हुए मलका नाश करै॥२०॥ जिस धारणाके करते २ अपने कल्याणके करनेवाले आश्रयको, देखते हुए प्राणीको उसी कल्याणसे भगवत् के रूपमें भक्तिरूपयोग प्रीति शीघ्र होती है॥२१॥

राजा परीक्षित् बोले कि हे ब्रह्मन्! जैसी सम्मत धारणा सुन्दर होती हैं! जिस धारणासे शीघ्र पुरुषका मन निर्मल होय सो कहो॥२२॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि, अतिस्थूल विराट् रूप हम कहते हैं सो तुम सावधान चित्त करके सुनो; आसन और श्वासको जीतो, संग सुसंग करो, सब इन्द्रियोंको जीतो, स्थूल भगवत् के रूपमें मनको और बुद्धिको लगाओ॥२३॥ जितने रूप हैं उनके मध्यमें विराट्देह यह हैं कि जहाँ भूत, भविष्यत, वर्तमान सत्विश्व ईश्वरमें ही दीखता हैं॥२४॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, यह सप्त आवरण सहित इस ब्रह्मांड, अथवा शरीरमें जो विराट् पुरुष हैं सो भगवान् इस धारणाके आश्रय हैं॥२५॥अब विराट् रूपका वर्णन करते हैं सर्वव्यापक ईश्वरके पादमूलमें

राजोवाच॥ यथा संधार्यते ब्रह्मन्धारणा यत्र संमता॥ यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम्॥२२॥ श्रीशुक उवाच॥ जितासनो जितश्वासो जितसंगो जितेंद्रियः॥ स्थूलं भगवतो रूपे मनः संधारयेद्धिया॥२३॥ विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्टश्च स्थवीयसाम्॥ यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत्॥२४॥ आंडकोशे शरीरेऽस्मिन्सप्तावरणसंयुते॥ वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान्धारणाश्रयः॥२५॥ पातालमेतस्य हि पादमूलं पठंति पार्ष्णि प्रपदे रसातलम्॥ महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ तलातलं वै पुरुषस्य जंघे॥२६॥ द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेरूरु द्वयं वितलं चातलं च॥ महीतलं तज्जघनं महीपते नभस्तलं नाभिसरो गृणंति॥२७॥ उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य॥ तपो रराटीं विदुरादिपुंसः सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः॥२८॥ इंद्रादयो बाहव आहुरुस्राः कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः॥ नासत्यदस्रौपरमस्य नासे घ्राणोऽस्य गंधो मुखमग्निरिङः॥२९॥

पाताल हैं, एँड़ीमें रसातल हैं, विश्व रचनेहारेकी ऍडीके ऊपरकी गाँठोके भागमें महातल हैं; और तलातल विराट् पुरुषकी जंघामें हैं॥२६॥ विश्वमूर्तिके दोनों जानुओंमें सुतल लोक हैं, दोनों उरूमें वितल अतल लोकहैं, महीतल जंघनमें हैंं, नभस्थल नाभिमें हैं॥२७॥ ज्योतियोंका समूह जहाँ सूर्य चन्द्रमा रहतेहैं वह स्वर्ग ईश्वरके हृदयमें हैं। ग्रीवामें महलोंक, वदनमें जनलोक और आदिपुरुषके ललाटमें तपलोक हैं। और सहस्रशिरधारीके शिरमें सत्यलोक हैं॥२८॥ तेजोमय इन्द्रादिक बाहुओंमें, सब दिशा कर्णों में, शब्द श्रोत्रोंमें, अश्विनीकुमार नासिकामें, गन्ध

घ्राण इन्द्रियमें, देदीप्यमान अग्नि मुखमें है॥२९॥ अन्तरिक्ष नेत्रगोलक हैं; चक्षु इन्द्रिय सूर्य है, विष्णुके दोनों पलक दिन रात हैं; भ्रुकुटियोंका चलना ब्रह्मपद है; जल इनका तालु है, रस इनकी जीभ है॥३०॥अनन्तके वेद शिर हैं, यमराज डाढ़, स्नेह दाँत, सब जनोंको उन्माद करानेवाली हँसी, अपार विस्तार स्वर्ग अर्थात् विश्वरचना उनका कटाक्ष हैं॥३१॥ लज्जा ऊपरका होंठ, लोभ नीचेका होंठ, धर्म उनके स्तन, अधर्मका मार्ग पीठ है, प्रजापति शिश्न इन्द्रियहैं, मित्रावरुण अंडकोश है, कोखमें सातों समुद्रहैं; और सब पहाड़ उनके हाड़ हैं॥३२॥सब नदी इनकी नाड़ी हैं, सब वृक्ष शरीरके रोम हैं; हे नृपेंद्र! श्रीभगवान् विश्वरूप हैं; अनन्तवीर्य हरिका श्वास पवन है, गति अवस्था है, गुण प्रवाह संसार भगवान्का कर्म

द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतंगः पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च॥ तद्भ्रूविजृंभः परमेष्ठिधिष्ण्यमापोऽस्य तालू रस एव जिह्वा

॥३०॥ छंदांस्यनंतस्य शिरो गृणंति दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि॥ हासो जनोन्मादकरी च माया दुरंत सर्गोयदपांगमोक्षः॥३१॥ व्रीडोत्तरोष्ठोधर एव लोभो धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठः॥ कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ कुक्षि समुद्रा गिरयोऽस्थिसंघाः॥३२॥ नद्योऽस्य नाड्योथ तनूरुहाणि महीरुहा विश्वतनोर्नृपेंद्र॥ अनंतवीर्यः …… मातरिश्वा पतिर्वयः कर्मगुणप्रवाहः॥३३॥ ईशस्य केशान्विदुरंबुवाहान्वासस्तु संध्यां कुरुवर्य भूम्नः॥ अव्य ………. मनश्च स चंद्रमाः सर्वविकारकोशः॥३४॥ विज्ञानशक्तिं महिमामनंति सर्वात्मनोंतःकरणं गिरित्रम्॥ …………… नखानि सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशः॥३५॥ वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रं मनुर्मनीषा मनुजो …………………………. चारणाप्सरःस्वरस्मृतीरसुरानीकवीर्यः॥३६॥

हे कुरुनन्दन! व्यापक ईश्वरके वस्त्र संध्या है, प्रभात छाती है, सब विकारोंका कोष चन्द्रमा भगवान्का और अन्न भोजनको अंजली बहुत सर्वात्मा श्रीहरिके अंतःकरण शिवजी हैं, हाथी, घोड़े, ऊंट और खिच्चर परमेश्वरके नख हैं, सब मृग उनकी कंथा बनावै, वृक्षोंसे फलादिक। । ……… शब्दशास्त्र सब पक्षी हैं, सब मनुष्योंके निवास मनु, भगवान्की बुद्धि है। गंधर्व, विद्याधर, कन्दराओंमें वास करै, उन्हीं में शरणागतोंका ………… अप्सरा भगवान्‌की स्मृति हैं, और असुरोंकी सब सेना उनका पराक्रम है॥३६॥ अपने आपही सिद्ध होय, तब ईश्वरको……

ब्राह्मण मुख, क्षत्त्रिय भुजा, वैश्य ऊरु, और चरणके आश्रित श्यामवर्ण शूद्र उनके पद हैं, नाना प्रकारके जिनके नाम, सब प्रकारसे पूजनीय, देवगण सहित जिस्में अनेक द्रव्योंसे प्रयोग विस्तारयज्ञ जो होताहैं, वह यज्ञ भगवान्का वीर्य हैं॥३७॥ ईश्वरके विग्रहकी यह अवयवोंकी स्थिति हैं, सो मैंने तुमसे कहीइस स्थूल शरीरमें मन अपनी बुद्धिसे मुमुक्षु जनोंकरकै भले प्रकार धारण किया जाताहैं।इससे परे और कुछ नहीं हैं॥३८॥ सब बुद्धिकी वृत्तिसे अनुभव करके स्वप्नके समय एक आत्माकोही जो जन सब ओरसे देखते हैं, और मन लगाय सत्य स्वरूप आनन्दसागर ईश्वरको, और वस्तुओंमें आसक्त रहित होकर भजन करै, क्योंकि आसक्त होनेसे संसारबन्धनमें स्थिति होतीहैं, ईश्वर विद्या शक्तिके आश्रय हैं, इसकारण

ब्रह्माऽऽननं क्षत्त्रभुजो महात्मा विडूरुरंघ्रिश्रितकृष्णवर्णः॥ नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो द्रव्यात्मकः कर्मवितानयोगः॥३७॥ इयानसावीश्वरविग्रहस्य यः सन्निवेशः कथितो मया ते॥ संधार्यतेऽस्मिन्वपुषि स्थविष्ठे मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किंचित्॥३८॥ स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः॥ तं सत्यमानंदनिधिं भजेतनान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः॥३९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे महापुरुषसंस्थावर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीशुक उवाच॥ एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिर्नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात्॥ तथा ससर्जेदममो घदृष्टिर्यथाप्ययात्प्राग्व्यवसायबुद्धिः॥१॥

बन्धनमें नहीं आता और जीव अविद्या शक्तिके आश्रय हैंं, इस कारण संसारके बन्धनसे मुक्त नहीं होता॥३९॥ इति श्रीभा० म० द्वि० भाषाटी० विराट् रूपवर्णनो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा—कहूं द्वितियअध्यायमें, हरिको सूक्षम रूप।पुनि कछु वरणों पुरुषकी, आकृति परम अनूप॥१॥

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श्रीशुकदेवजी बोले कि ऐसे पहिले प्रलयके समयमें इस धारणासे ईश्वर प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी उनसे सृष्टि रचनेकी स्मृतिको प्राप्त होकर महाप्रलयके

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* **शंका—**व्यासदेवजीने यह शंका उत्पन्न करनेवाला वचन किसलिये वर्णन किया हैं ? दूसरे अध्यायकी आदिमें पहिले तो ब्रह्मका वर्णन किया हैं फिर पीछे भगवान्‌की भक्तिका वर्णन किया हैं, उसके पीछे भगवान्की कथाकी प्रीति वर्णन करी हैं इसमें शंका यह हैं कि पहिले कथाकी प्रीति फिर भक्ति तबब्रह्मका चिन्तवन होना चाहिये॥

** उत्तर—**कथाके सुननेसे भक्तोंके हृदयमें भक्ति उत्पन्न होती हैं, भक्तिसे ज्ञान उत्पन्न होता हैं, ज्ञानसे ब्रह्मका चिन्तवन होता हैं, इसलिये ज्ञानमें जो चतुर व्यासदेवजी हैंउन्होंने मुक्ति होनेके लिये तीन धर्म वर्णन किये, तथा ब्रह्मके ध्यानमे जो मतवाले योगी हैंउनको ऐसा विचार नहीं रहता कि यह बात पहिले वर्णन करनी चाहिये, यह बात पीछे वर्णन करनी चाहिये वह सबको समान समझते हैंइसलिये उन महात्मा पुरुषोंके कुछ आगे पीछेका विचार नहीं

पहले जैसा यह विश्व था उसी प्रकारका फिर रचा।उनकी निश्चयकारी बुद्धि और अमोघ दृष्टि थी, इस धारणासे विश्व रचनेकी सामर्थ्य होती हैं॥१॥ उपासना फलसेवी विरक्तको शुद्ध आत्मधारणामें अधिकार हैं। इसलिये वैराग्यके अर्थ सब कर्म फलकी निन्दा करते हैं। शब्द ब्रह्म जो वेदका मार्ग यह हैं, कि जिसमें कुछ प्रयोजन नहीं, ऐसे स्वर्गादिक नामसे साधककी बुद्धि ध्यान करैहैं। सो उन २ लोकोंमें घूमताभीहैं।परन्तु अपने अभिप्रायको नहीं पहुँचता,क्योंकि मायामय वासनामें यह सो रहा हैं। इस कारण अखण्डितसुख इसको नहीं मिलता॥२॥ इसलिये पण्डित लोग नाममात्र भोगके योग्य पदार्थोंमें, जितनेमें देहका निर्वाह हो; उतनेहीमें आसक्त होकर यह निश्चय करनेवाली बुद्धि हैं। विना परिश्रम जब प्रयोजन सिद्ध होजाय तौ उनमें परिश्रम समझकर यत्न न करै॥३॥ विना परिश्रम यह पदार्थ हैं, फिर इनके लिये ज्ञानी पुरुष परिश्रम नही करै। शयनके लिये जब पृथ्वी

शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पंथा यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः॥ परिभ्रमंस्तत्र न विंदतेऽर्थान्मायामये वासनया शयानः॥२॥ अतः कविर्नामसु यावदर्थः स्यादप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः॥ सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः॥३॥ सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैर्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपवर्हणैः किम्॥ सत्यंजलौ किं पुरुधाऽन्नपात्र्या दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः॥४॥ चीराणि किं पथि न संति दिशंति भिक्षां नैवांघ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन्॥ रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्कस्माद्भजंति कवयो धनदुर्मदांधान्॥५॥ एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध आत्मा प्रियार्थो भगवाननंतः॥ तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत संसारहेतुपरमश्च यत्र॥६॥

हैं, तौ शय्याके कारण परिश्रम करना वृथा हैं; स्वतःसिद्ध तकियेके लिये भुजा हैं, फिर तकिया बनानेकी क्या आवश्यकता हैं? जल पीनेको और अन्न भोजनको अंजली बहुत हैं फिर पात्रका रखना वृथा हैं। दिगम्बर रहैं, वल्कल पहिरै, वस्त्रसे कुछ प्रयोजन न रक्खै॥४॥ मार्गमेंसे चीर लाकर उनकी कंथा बनावै, वृक्षोंसे फलादिक भिक्षा मांग पेट भरै, सबका भरण पोषण करनेवाली नदियोंसे जल पिये, वह कभी शुष्क नहीं होतीं। पर्वतकी कन्दराओंमें वास करै; उनहींमें शरणागतोंकी रक्षा परमेश्वर करताहैं। फिर क्यों विद्वान् महात्मा, धनमें अंधे भये अज्ञानियोंका सेवन करें॥५॥ ऐसे चित्त जब अपने आपही सिद्ध होय, तब ईश्वरको अपना प्रिय जान, भगवान् अनंतके महाआनंदसे निश्चितं स्वरूपको भजै॥ तब संसारके

हेतुओंका नाश होताहै॥६॥ऐसा कौनहै जो परमेश्वरके ध्यानकी चिन्ताको त्याग विषयोंका ध्यान करै? पशुबुद्धिवाले तौ विषयकाही सेवन करते हैं; अपने करे हुए कर्मोंके क्लेशोंका सहन करनेवाले जीव वैतरणी नदीमें पड़तेहैं, यह देख सदा परमात्माका स्मरण करै। उसे एक पलको न भूले॥७॥ अब मानसी पूजाका वर्णन करते हैं। कोई अपने देहके भीतर हृदयके भीतर अवकाशमें जहां तर्जनी अंगुष्ठ फैलावे एक बिलस्त भरमें पुरुष बसतेहैं। चारभुजा, कमल, चक्र, शंख, गदा, धारे, प्रसन्नमुख ईश्वरकी धारणा करके स्मरण करतेहैं*****॥८॥ प्रसन्नमुखपद्मदलवत् लोचन,

कस्तां त्वनादृत्य परानुचिंतामृते पशूनसतीं नाम युञ्ज्यात्॥ पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां स्वकर्मजान्परितापाञ्जुषाणम्॥७॥ केचित्स्वदेहांतर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसंतम्॥ चतुर्भुजं कंजरथांगशंखगदाधरं धारणया स्मरंति॥८॥ प्रसन्नवक्रं नलिनायतेक्षणं कदंबकिंजल्कपिशंगवाससम्॥ लसन्महारत्नहिरण्मयांगदं स्फुरन्महारत्नकिरीट कुंडलम्॥९॥ उन्निद्रहृत्पंकजकर्णिकालये योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम्॥ श्रीलक्ष्मणं कौस्तुभरत्नकंधरमम्ला नलक्ष्म्या वनमालयाऽऽचितम्॥१०॥ विभूषितं मेखलयांऽगुलीयकैर्महाधनैर्नूपुरकंकणादिभिः॥ स्निग्धामलाकुं चितनीलकुंतलैर्विरोचमानाननहासपेशलम्॥११॥

कदंब प्रसूनकी समान पीतांबर धारण किये, सुवर्णके भुजबन्दोंमें शोभायमान महारत्न दमक रहे, और महामणियोंके जड़े हुये किरीट कुण्डल धारे हैं॥९॥ प्रसन्न हृदयकमलके पत्ररूप स्थानपर, जिनके चरणकमल योगीश्वरोंसे स्थापन किये जातेहैं, महालक्ष्मी भृगुलता हृदयमें दीखैहैं, कौस्तुभ रत्न कण्ठमें धारण किये हैं, जिसकी कांति कभी मलीन नहीं होती ऐसी प्रसूनमाल ग्रीवामें शोभायमान हैं॥१०॥ कोंधनी, अँगूठियें

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* **शंका—**द्वितीय स्कन्धकी आदिमें शुकदेवजीने परीक्षित् से कहा कि, राजा यह तुम्हारा प्रश्न बहुत श्रेष्ठहैपरन्तु भगवान्‌को नमस्कार क्यों नहीं किया? भगवान्‌को नमस्कार करना अवश्य चाहिये था, तीन अध्याय वितायके तथा तीनों अध्यायोंमें अनेक प्रकारकी कथा कहके पीछेसे बहुत श्लोकोंसे चौथेअध्यायमेभगवान्‌को नमस्कार शुकदेवजीने क्यों किया?

**उत्तर—**शुकदेवजीने राजाकी नवीन सगत देखके प्रशंसाभाव कियाहै कि, राजा तुम्हारा प्रश्न बहुत अच्छाहै, नई रीति प्रीतिमे तुरन्त मन प्रसन्न नहीं होता, पीछेसे भगवान् वासुदेवमें परीक्षित् कीप्रीति देखके शुकदेवजी बहुत आनन्दित हुए, शापका भय नाश करनेको ब्रह्मका लेख उलट देनेमें परीक्षित्को बैकुण्ठकी प्राप्ति करनेमें शुकदेवजी समर्थ हैं इसलिये बहुत श्लोकोंसे भगवान् केचरणोंका नमस्कार किया॥

कड़े, कंकण, नूपुर इत्यादिकोंसे भूषित हैं॥ चिकनी, निर्मल, घूँघरवाली श्यामअलकोंसे शोभित, मनहरण मुस्कानयुक्त॥११॥ उदारलीलासे हास्य, नेत्रोंपर अत्यन्त शोभित भ्रुकुटीका चलाना, उससे बड़ा अनुग्रह सूचित होता हैं।चिंतवन करके प्रगट होताहैउनका दर्शन करै, जब तक मन धारणा करके उनमें स्थित रहै॥१२॥ गदाधरके चरणोंसे लेकर हॉसीपर्यन्त एक २ अंगको बुद्धिसे अनुभव करै, जो जो स्थान विना यत्न प्रकट होजाय, उसको त्यागकर और और जंघा आदिको ध्यान करै तैसेही बुद्धि शुद्धि होती जायगी॥१३॥ पर अवर द्रष्टा विश्वेश्वरमें भक्तियोग जबतक न होय, तबतक स्थूल विराट् पुरुषका रूप आवश्यक कर्मके अनुष्ठानके उपरान्त नियमोंमें तत्परहो स्मरण करै, यह तो समीप मृत्युवा

अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्भ्रूभंगसंसूचितभूर्यनुग्रहम्॥ ईक्षेत चिंतामयमेनमीश्वरं यावन्मनोधारणाऽवतिष्ठते॥१२॥ एकैकशोंऽगानि धियाऽनुभावयेत्पादादि यावद्धसितं गदाभृतः॥ जितंजितं स्थानमपोह्य धारयेत्परंपरं शुध्यति धीर्य थायथा॥१३॥ यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः॥ तावत्स्थवीयः पुरुषस्य रूपं क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत॥१४॥ स्थिरं सुखं चासनमाश्रितो यतिर्यदा जिहासुरिममंग लोकम्॥ काले च देशे च मनो न सज्जयेत्प्राणं नियच्छेन्मनसा जितासुः॥१५॥ मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत्तमात्मनि॥ आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो लब्धोपशांतिर्विरमेत कृत्यात्॥१६॥ न यत्र कालोऽनिमिषो परः प्रभुः कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे॥ न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च न वै विकारो न महान्प्रधानम्॥१७॥

लेको कर्तव्यहैं॥१४॥ और अपने आप देह त्यागै उसको कर्तव्यहैं। हे नरनाथ! जो इसलोकके त्यागनेकी इच्छा करै वह स्थिर सुखद एक आसन बैठ शुभ कालमें पुण्यदेशमें मनको आसक्त न करै, प्राणको जीतै, मनसे योगाभ्यासही योगीको मोक्षदायक हैं॥१५॥ अपनी निर्मल बुद्धिसे बुद्ध्यादिकोंके द्रष्टा जीवमें मन लगावै। जीवात्माको शुद्ध चैतन्य ब्रह्ममें एक करके आनंदको प्राप्त होकर सब कृत्यसे विराम करै, उससे परे कोई कार्य कर्तव्य नहीं हैं॥१६॥ जिस आत्मस्वरूपमें देवनका परम प्रभु, काल भी समर्थ नहीं हो सकैहैं, वहां जगत्के ईश्वर देवताओंकी क्या सामर्थ्य हैं?वहां न सतोगुणकी चलै, न तमोगुणकी; न रजोगुण, न अहंकार, न महत्तत्त्व, न माया, इन सबकी कुछ सामर्थ्य नहीं, फिर जगत्की

तौ क्या सामर्थ्य है?॥१७॥ यह भी “नहीं नहीं” कहनेवाले उसको विष्णुका परमपद कहते हैं।आत्माको त्यागकर औरमें मित्रता नहीं करते;पूजनीय ईश्वरको क्षण २ में हृदयसे मिलते हैं॥१८॥ईश्वरका चिंतवन करके इस प्रकार मुनि स्थित होकर सबसे उपराम करै, ब्रह्मज्ञानकी दृष्टिके बलसे विषयवासना त्यागकर, अपनी एँड़ीसे गुदाको बन्दकर, सब परिश्रम जीत, नाभि, आदि छःस्थानोंमें पवनको प्राप्त करै॥१९॥ वह पवन जो नाभिके मणिपूरक चक्र में स्थित है उसको, हृदयमें अनाहत चक्रमें रोककर, उदानगतिसे कण्ठके विशुद्धि चक्रमें उस पवनको प्राप्त करैवह मुनि है।पीछे बुद्धिसे अनुसंधानकर चित्तको जीतनेवाला अपने तालुके मूलमें धीरेसे उस वायुको प्राप्त करै॥ २०॥ दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नाक,

परं पदं वैष्णवमामनंति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः॥ विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा हृदोपगुह्याऽर्हपदं पदे पदे॥१८॥ इत्थं मुनिस्तूपरमेद्व्यवस्थितो विज्ञानदृग्वीर्यसुरंधिताशयः॥ स्वपार्ष्णिनाऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः॥१९॥ नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्मादुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः॥ ततोऽनुसंधाय धिया मनस्वी स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत॥२०॥ तस्माद्भुवोरंतरमुन्नयेत निरुद्धसप्ताऽऽयतनोऽनपेक्षः॥ स्थित्वा मूहूर्ता र्धमकुंठदृष्टिर्निर्भिद्य मूर्धन्विसृजेत्परं गतः॥२१॥ यदि प्रयास्यन्नृप पारमेष्ठ्यं वैहायसानामुत यद्विहारम्॥ अष्टा धिपत्यं गुणसन्निवाये सहैव गच्छेन्मनसेंद्रियैश्च॥२२॥ योगेश्वराणां गतिमाहुरंतर्बहिस्त्रिलोक्याः पवनांतरात्मनाम्॥ न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवंति विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम्॥२३॥

एक मुख, इन सातोंको रोककर चाहना न करै, किसी वस्तुकी वो मुनि वहांसे उस भ्रुकुटी भीतर आज्ञाचक्र हैं उसमें प्राप्त करै, एक घडी स्थित होकर, शुद्ध दृष्टिकर, परब्रह्मको प्राप्तहो, ब्रह्मरंध्रको भेदकर देह इन्द्रियें सबको त्याग करे॥२१॥ यह पूर्वोक्त सद्योमुक्ति कही, अब क्रममुक्ति कहते हैं। हे नृपेंद्र!जो ब्रह्माके स्थानमें होकर जाता है, जहाँ गगनचारी सिद्धोंका विहारस्थान हैं; और अणिमादिक अष्ट सिद्धि मिलती हैं इस ब्रह्माण्डमें मन इन्द्रियोंके साथही चला जाता है, क्योंकि मृत्युके समय जो वासना प्राणके हृदयमें रहती हैं कि सब लोकोंके भोग भोगता हुआ जाऊं; तौमन इन्द्रियसहित जीव जाता हैं॥२२॥ पवनरूप जिनकी देह, उपासना, भगवद्धर्म, अष्टांगयोग, समाधि, इनके करनेवाले योगीश्वरोंको त्रिलोकीके

बाहर भीतर सब स्थानोंमें जानेकी गति होतीहै, जो ऐसे कहते हैं वह उस गतिके कर्मोंसे नहीं प्राप्त होतेहैं॥२३॥हे भूपाल! आकाशमें होकर, ब्रह्मलोकके मार्गमें ज्योतिर्मय सुषुम्णा नाड़ीसे अग्नि अभिमानी देवताको प्राप्त होताहैं पीछे सब मलरहित हो, सो ऊपर वर्तमान हरिसंबंधी तारारूप शिशुमारचक्रको प्राप्त होता हैं, शिशुमारचक्रका वर्णन पंचमस्कन्धमें करैंगे॥२४॥ श्रीविष्णुभगवान्, और सूर्यादिकोंका आश्रय, भूत विश्वकी नाभिरूप चक्रको उल्लंघन करते हैं। क्योंकि उस्से परे फिर स्वार्गियोंकी गति नहीं हैं, इसकारण एकही निर्मल लिंग शरीर अणुरूप होकर औरोंसे नमस्कृत ब्रह्मवेत्ताओंके स्थान, महर्लोकको प्राप्ता होताहैं। महाकल्पकी आयुवाले पंडित भृगु आदिक जहां रमण करतेहैं॥२५॥ इसके उपरान्त कल्पांतमें श्रीशेषजीके

वैश्वानरं याति विहायसा गतः सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा॥ विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम्॥२४॥ तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोरणीयसा विरजेनात्मनैकः॥ नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति कल्पायुषो यद्विबुधा रमंते॥२५॥ अथो अनंतस्य मुखानलेन दंदह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम्॥ निर्याति सिद्धेश्वरजुष्टधिष्ण्यं यद्वै परार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम्॥२६॥ न यत्र शोको न जरा न मृत्युर्नार्तिर्न चोद्वेग ऋते कुतश्चित्॥ यच्चित्ततोदः कृपयानिदंविदां दुरंतदुःखप्रभवानुदर्शनात्॥२७॥ ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयस्तेनात्मनाऽपोनलमूर्तिरत्वरन्॥ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिंगम्॥२८॥

मुखकी अग्निसे संसारको भस्म देखकर सिद्धेश्वरोसे सेवित स्थान जो द्विपरार्द्धमे स्थित रहैहैं, उस ब्रह्मलोकको जाते हैं॥२६॥ उस ब्रह्मलोकमें शोक, वृद्धापन, मृत्यु, दुःख, भय कहींसे कभी नहीं होता हैं।जो भगवत् केध्यानको नहीं जानते हैं उनको भगवत् की कृपाविना, दुःखकारी चित्तको व्यथा उपजानेवाला जन्म मरण होता रहता हैं; परन्तु वहां शोकादिक कभी नही होताहैं जो ब्रह्मलोकमें जाते हैं उनकी गति तीन प्रकारकी हैं, जो बहुत पुण्य बहुत दान कर गये हैं, वह कल्पान्तरमें पुण्यकी न्यूनाधिकतासे अधिकारी होतेहैं, जो हिरण्यगर्भादिककी उपासनाके बलसे गयेहैंवह ब्रह्माके संग मुक्ति पावेंगे, जो भगवत् के उपासक हैं, वह अपनी इच्छासे ब्रह्माण्डको भेदकर श्रीवैकुण्ठमें वैष्णवपदको जातेहैं॥२७॥ पीछे लिंगदेहसे पृथ्वीरूपको

प्राप्त होकर, भय त्याग पृथ्वीरूप हो, जलको प्राप्तहो शीघ्रता न करके ज्योतिर्मयहो, वायुको प्राप्तहो, पवनरूप होकर, बड़े भारी ब्रह्मके स्वरूप आकाशको प्राप्त होताहैं॥२८॥ भगवद्भक्तको ब्रह्माण्ड भेदनेका जो प्रकारहैं सो कहते हैं॥ईश्वररचित प्रकृतिके किसी अंशसे महत्तत्त्व होताहैं, उसके अंशसे अहंकार, और उसके अंशसे शब्द बनताहैं, उसकी मात्राके द्वारा आकाश, आकाशके अंशसे स्पर्श, उसकी मात्राके द्वारा वायु, वायुके अंशसे रूप, तन्मात्राके द्वारा तेज, तेजके अंशसे रस, उसकी मात्रासे जल, जलसे गंध और जलकी मात्रासे पृथ्वी होतीहैं।यह सब मिलकर चतुर्दश भुवनात्मक विराट् शरीर ब्रह्माण्ड होताहैं, उस ब्रह्माण्डका पंचशतकोटि योजन विस्तार हैं।पृथ्वी शब्द वाच्य विशेष अंड कटाह शतकोटि योजन विस्तार वाला हैं। कोई २ पंचाशत कोटि योजन कहते हैंफिर वायु आदिकोंके अनगिन्त अंश हैंसो वह उत्तरोत्तर शतगुणे अधिक हैं। आठ पृथ्वीके आवरण

घ्राणेन गंधं रसनेन वै रसं रूपं तु दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव॥ श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी॥॥२९॥ स भूतसूक्ष्मेंद्रियसन्निकर्षंमनोमयं देवमयं विकार्यम्॥ संसाद्य गत्या सह तेन याति विज्ञानतत्त्वं गुणसन्निरोधम्॥३०॥ तेनाऽऽत्मनाऽऽत्मानमुपैति शांतमानंदमानंदमयोऽवसाने॥ एतां गतिं भागवतीं गतो यः स वै पुनर्नेह विषज्जतेंऽग॥३१॥ एते सृती ते नृप वेदगीते त्वयाऽभिपृष्टे ह सनातने च॥ ये वै पुरा ब्रह्मण आह पृष्ट आराधितो भगवान्वासुदेवः॥ ३२॥

व्यापक हैं॥ घ्राणसे गंध, रसनासे रस, दृष्टिसे रूप, त्वचासे स्पर्श, श्रोत्रसे आकाशके गुणको प्राप्त होकर योगी प्राणसे उन २ क्रियाओंको प्राप्त होतेहैं॥२९॥ अहंकार तीन प्रकारका हैं, तामस, राजस, सात्त्विक, तामससे जड़भूत सूक्ष्म उत्पन्न होतेहैं, राजससे बहिर्मुख दश इन्द्रियें सात्त्विकसे मन इन्द्रिय देवता, उनका लय उस अहंकारसे होताहैं। सो योगी भूत सूक्ष्म इन्द्रियोंका लय, मनोमय, देवमय, अहंकारको गतिसे प्राप्त होकर, गुणोंका जिसमें लय ऐसे महत्तत्त्वको प्राप्त होताहैं॥३०॥ हे नरेश! आनन्दमय जीव उपाधियोंके अंतमें प्रधानरूपसे उस आत्माको प्राप्त होता हैं, भगवत् की गतिको जो गयाहैं सो फिर इस संसारमें आसक्त नहीं होता॥३१॥ हे राजेन्द्र!यह दोनों मार्ग वेदने गायेहैंसनातन मार्ग आपने

जाना हैं पहिले भगवान्की ब्रह्माने आराधना करीथी, तब भगवान् वासुदेवने यह गति ब्रह्माजीसे कहीथी॥३२॥ जो जीव संसारमें फॅसरहेहैं, उनको इससे अधिक और कल्याणदायक मार्ग नहीं हैं, जिससे कि, भगवान् वासुदेवमें भक्तियोग हो॥३३॥ भगवान् चतुरानन निर्विकारी एकाग्र चित्त करके वेदको तीनबार, बुद्धिसे विचारकर आत्मामें प्रीतिहोय जिस्से वही निश्चय करते हुए॥३४॥ भगवान् सब जीवोंमें अपने आत्मा करके श्रीहरि दीखे हैं, बुद्धि आदि जो ईश्वरके देखनेके उपायहैं और अनुमान करनेके जो लक्षण हैं उनसे दीखतेहैं॥३५॥ हे नृपेन्द्र! इसकारण सर्वात्मा हरि सर्वत्र सब कालमें श्रवण करनेके योग्यहै। और वही मधुसूदन सब जीवोंके स्मरण करने योग्यहैं॥३६॥ जो कोई भगवान् सर्वव्यापककी

न ह्यतोऽन्यः शिवः पंथा विशतः संसृताविह॥ वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत्॥३३॥ भगवान्ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया॥ तदध्यवस्यत्कूटस्थो रतिरात्मन्यतो भवेत्॥३४॥ भगवान्सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः॥ दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैरनुमापकैः॥३५॥ तस्मात्सर्वात्मना राजन्हरिः सर्वत्र सर्वदा॥ श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम्॥३६॥ पिबंति ये भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु संभृतम्॥ पुनंति ते विषयविदूषिताशयं व्रजंति तच्चरणसरोरुहांतिकम्॥३७॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वितीयस्कंधे पुरुषसंस्थानुवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ श्रीशुक उवाच॥ एवमेतन्निगदितं पृष्टवान्यद्भवान्मम॥ नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम्॥१॥ ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणस्पतिम्॥ इंद्रमिंद्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन्॥२॥

अथवा ब्राह्मणोंकी कथामृतको श्रवणोंसे भली प्रकार भर २ के पीतेहैं, वह विषयोंसे अतिदूषित अंतःकरणको पवित्र कर श्रीहरिके चरणकमलोंके समीप जातेहैं॥३७॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां सूक्ष्मरूपध्यानवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा— कहोंतृतीय अध्यायमें, देवार्चनको हेत।जौन जौनसे देवता, जेहि २ फलको देत॥१॥ शुकदेवजी बोले जो बात आपने हमसे पूँछी सो हमने कही।आसन्नमृत्यु बुद्धिमान् मनुष्योंको यह श्रीहरिकी कथा श्रवणादिकही श्रेष्ठ हैं॥१॥ परन्तु अनेक कामोंकी फल प्राप्तिके लिये अन्य अन्य देवताओंका भी भजन करना योग्य हैं, ब्रह्मतेज बढानेकी इच्छावाले वेदपति ब्रह्माका पूजन करैं, इन्द्रियोंकी पुष्टता चाहनेवाले इन्द्रकी

पूजा करैं, सन्तानवृद्धि चाहनेवाला दक्षप्रजापतिकी पूजा करै

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॥२॥ लक्ष्मीकी इच्छावाला दुर्गादेवीकी पूजा करै, तेजकी अभिलाषावाला अग्निकी पूजा करै, धनकी कामनावाला श्रेष्ट वसुका पूजन करै। जो वीर्यवान् होनाचाहैं वह वीर्यदाता महादेवका पूजन करै॥३॥ अन्नादिक भोगकी इच्छावाला अदितिकी सेवामें अनुरक्त हो, स्वर्गकी कामनावाला द्वादश आदित्योंकी पूजा करै, राज्यकी कामनावाला विश्वेदेवाओंका भजन करै, जो देश देशान्तरकी प्रजाको अपने अधीन करना चाहैवह साध्यानामक देवताओंका पूजन करे॥४॥ आयुका प्रार्थी अश्विनीकुमारको और पुष्टिकी कामनावाला पृथ्वीको स्वच्छकर पूजन करै। जिसको अपनी प्रतिष्ठाकी वाञ्छा हो वह लोकप्राप्त

देवीं मायां तु श्रीकामस्तेजस्कामो विभावसुम्॥ वसुकामो वसून्रुद्रान्वीर्यकामोऽथ वीर्यवान्॥३॥ अन्नाद्यकामस्त्वदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान्॥ विश्वान्देवान्राज्यकामः साध्यान्संसाधको विशाम्॥४॥ आयुःकामोऽश्विनौ देवौ पुष्टि काम इलां यजेत्॥ प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ॥५॥ रूपाभिकामो गंधर्वान्स्त्रीकामोप्सर उर्वशीम्॥ आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम्॥६॥ यज्ञं यजेद्यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम्॥ विद्याकामस्तु गिरिशं दांपत्यार्थ उमां सतीम्॥७॥ धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तंतुं तन्वन्पितॄन्यजेत्॥ रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरुद्गणान्॥८॥

द्यावापृथ्वीकी पूजा करै॥५॥ रूपका चाहनेवाला गन्धर्वोंकी, सुन्दर स्त्री चाहनेवाला उर्वशी अप्सराकी, और सब देशके राज्यकी कामनावाला परमेष्टी नामक ईश्वरका पूजन करै॥६॥यशकी इच्छावाला यज्ञपुरुषकी, और कोपकी इच्छावाला प्रचेता वरुणकी, विद्या चाहनेवाला महादेवजीकी, दंपतिमें प्रीत्यर्थ पार्वतीजीकी॥७॥ धर्मका चाहनेवाला विष्णुकी, संतानकी वृद्धि चाहनेवाला अर्यमा नामक

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* **शंका—**शुकदेवजीसे राजा परीक्षित् नेबूझा कि, हे मुनिराज!मरनेवाले मनुष्यको क्या काम करना चाहिये? सो शुकदेवजीने इसका उत्तर तो पीछे दिया, और जो राजाने सब देवताओंका पूजन नहीं बूझा था सो शुकदेवजीने देवताओंका पूजन क्यों वर्णन किया।

** उत्तर—**शुकदेवजीने अपने मनमें विचारा कि, सबकामना सिद्ध होनेके लिये पृथक् पृथक् देवताओंके पूजनकी विधि हम वर्णन करैंगे तो सब जीवोंको सुख उत्पन्न होगा।ऐसा विचारके राजाने नहींभी बूझा था तौभीसबकामोंकी प्राप्ति होनेके लिये सब देवताओंका पृथक् पृथक् पूजन वर्णन किया, शुकदेवजीने विचार किया कि, सबमनुष्य अपने अपने हृदयमें अपने अपने कामोंको देखके हमारी कही हुई विधिसे देवताओंका पूजन करके सुखको प्राप्त होंगे॥

पितरोंकी, जो सदा बाधा विपत्तिसे अपनी रक्षा चाहे वह यक्षोंकी, बलकी कामनावाला मरुद्गणोंकी॥८॥ जिसको राजगद्दीकी इच्छा होय वह मनु महाराजकी, और शत्रुका नाश चाहनेवाला निर्ऋति मृत्युकी, भोगकी इच्छा हो तौ चन्द्रमाकी, किसी कामकी इच्छा न हो केवल वैराग्यकी चाहना हो वह परमपुरुष भगवानकी॥९॥ जिसको किसी वस्तुकी चाहना न हो अथवा सब वस्तुकी इच्छाके संग मोक्षकी भी कामना हो तौ उदार भक्ति और तीव्र बुद्धिसे परम पुरुष विष्णुभगवानकी पूजा करै॥१०॥ ईश्वरमें अचल भाव हो, ब्राह्मण भगवत् भक्तोंकी संगति करना यही सब कर्म करनेवालेको परमपुरुषार्थका लाभ है॥११॥सब ओरसे रागादिकका समूह जिस्से दूर होजावे, ऐसा ज्ञान जिस कथामें होताहै तब

राज्यकामो मनून्देवान्निर्ऋतिं त्वभिचरन्यजेत्॥ कामकामो यजेत्सोममकामः पुरुषं परम्॥९॥ अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः॥ तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्॥१०॥ एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः॥ भगवत्यचलो भावो यद्भागवतसंगतः॥११॥ ज्ञानं यदा प्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्रमात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसंगः॥ कैवल्यसंमतपथस्त्वथ भक्तियोगः को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात्॥१२॥ शौनक उवाच॥ इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभः॥ किमन्यत्पृष्टवान्भूयो वैयासकिमृषिं कविम्॥१३॥ एतच्छुश्रूषतां विद्वन्सूत नोऽर्हसि भाषितुम्॥ कथा हरिकथोदर्काःसतां स्युः सदसि ध्रुवम्॥१४॥ स वै भागवतो राजा पांडवेयों महारथः॥ बालक्रीडनकैः क्रीडन्कृष्णक्रीडां य आददे॥१५॥

आत्मा मन प्रसन्न होताहै, जब सब विषयोंसे मन हटै है तब कैवल्यसम्मत मार्गमें भक्तियोग होताहैं, तब सब सुख होते हैं। और तब वह हरिकथामें प्रीति करते हैं॥१२॥ शौनकजी बोले—कि, भरतवंशियोंमें श्रेष्ट राजा परीक्षित् ने यह कथा सुनकर, फिर व्यासपुत्र, शब्दब्रह्मके ज्ञाता, परब्रह्मदर्शी शुकदेवजीसे क्या बूझा?॥३३॥ हे विद्वज्जन!सुननेकी इच्छावाले मुझसे आप कहनेके योग्यहो, संतोंकी सभामें श्रीभगवानकी कथाही फलहै, सो निश्चय करनेसे होताहै॥१४॥ सो भागवत पाण्डुनन्दन महारथी परीक्षित् बालक्रीडामें खेलनेके समय श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी

क्रीडा किया करतेथे॥१५॥और व्यासपुत्र भगवान् वासुदेवमें परायण, कथनयोग्य श्रीवृन्दावनविहारीके उदार चरित्र संतोंकी सभामें सदा कहा करते हैं॥१६॥ सूर्यनारायण उदय अस्त होकर नित्य पुरुषकी आयुका हरण करते हैं। उत्तम यशस्वी परमेश्वरकी चिंतनाके विना जो क्षण व्यतीत होते हैं, वहआयु वृथा जाती हैं॥१७॥ वृक्ष क्या जीते नहीं हैं? धौंकनी क्या श्वास नहीं लेतीहैं? और ग्रामके पशु क्या नहीं खातेहैं? वा विष्ठादिक नहीं करते हैं? इनकी आयु व्यर्थही हैं॥१८॥ श्वान, ग्रामसूकर, ऊँट, गधा यह जिसकी स्तुति करें वह व्यक्तिभी पशु हैं। जिसके श्रवणमें कभी भगवच्चरित्र न सुनाया गया है वह पुरुष पशुतुल्य हैं॥१९॥ परमेश्वरके चरित्र जो मनुष्य कानसे न सुने वह कान साँपके बिल

वैयासकिश्च भगवान्वासुदेवपरायणः॥ उरुगायगुणोदाराः सतां स्युर्हि समागमे॥१६॥ आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ॥ तस्यर्ते यत्क्षणो नीतः उत्तमश्लोकवार्तया॥१७॥ तरवः किं न जीवंति भस्त्राः किं न श्वसंत्युत॥ न खादंति न मेहंति किं ग्रामपशवोऽपरे॥१८॥ श्वविड्वराहोष्टखरैः संरतुतः पुरुषः पशुः॥ न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः॥१९॥ बिले बतोरुक्रमविक्रमान्ये न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य॥ जिह्वाऽसती दार्दुरिकेव सूत न चो पगायत्युरुगायगाथाः॥२०॥ भारः परं पट्टकिरीटजुष्टमप्युत्तमांगं न नमेन्मुकुंदम्॥ शावौ करौ नो कुरुतः सपर्यां हरेर्लसत्कांचनकंकणौ वा॥२१॥ बर्हायिते ते नयने नराणां लिंगानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये॥पादौ नृणां तौ द्रमजन्मभाजौ क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यौ॥२२॥

समान हैं। और हे सूत!जिनकी जीभसे परमात्माका नाम नहीं निकलता और भगवत्कथा नहीं होती वह खोटी जीभ मेंडककी जिह्वावत् हैं।और वृथा बकवाद करती हैं॥२०॥ रेशमी वस्त्रवेष्टित, शोभायमान किरीटयुक्त शिर, जो भक्तवत्सलको प्रणाम नहीं करता, वह मस्तक केवल शरीरपर भार है। यदि हाथोंमें सुन्दर २ कंकणादि शोभितहों, परंतु वह भुजा हरिकी सेवा करै नहीं तो वह भी काष्टंकी करछीके तुल्य हैं॥२१॥ जिननेत्रोंने बाँकेबिहारीकी मनोहर झाँकी न निहारी, और महात्मा पुरुषोंका न दर्शन किया वह आँखें मोरंपखकी सदृश हैं, और जिन पैरोंसे

मधुसूदनके क्षेत्रोमें न फिरा, और तीर्थयात्रा न करी वह पद वृक्षोंकी समान हैं॥२२॥जिसके शरीरमें ब्राह्मणों और नारायणके चरणकी रजका न स्पर्श हुआ वह प्राणी जीताहुआ मृतकतुल्य हैं। जिसने विष्णुभगवान् और शालिग्रामके ऊपर चढीहुई तुलसी पत्रकी सुगन्ध न ली वह श्वास लेता हुआ मृतक हैं॥२३॥ बडे खेदका विषयहैं कि, ग्रहण करनेयोग्य जो भगवत् के नाम हृदयसे नहीं लेते वह हृदय प्रस्तरकी नाईंहैं। जिन्हें हरियश श्रवण करनेसे हृदयमें विकार न हो और आंखोमें जलन आवै; शरीरके रोम खड़े न हों वह हृदय पाषाणनिर्मित समझो॥२४॥ जो अभक्त हैंउनका किया कर्म सब व्यर्थ हैं। हे अंग!हमारे मनके अनुकूल तुम कहो, भक्तोंमें प्रधान व्यासनन्दन आत्मविद्याके ज्ञातासे जो राजाने वूझा

जीवञ्छवो भागवतांघ्रिरेणुं न जातु मर्त्योऽभिलभेत यस्तु॥ श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गंधम्॥२३॥ तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः॥ न विक्रियेताऽथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः॥२४॥ अथाभिधेह्यंग मनोनुकूलं प्रभाषसे भागवतप्रधानः॥ यदाह वैयासकिरात्मविद्याविशारदो नृपति साधु पृष्टः॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे श्रोतृश्रद्धानिरूपणं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ सूत उवाच॥ वैयासकेरिति वचस्तत्त्वनिश्चयमात्मनः॥ उपधार्य मतिं कृष्ण औत्तरेयः सतीं व्यधात्॥१॥ आत्मजा यासुतागारपशुद्रविणवंधुषु॥ राज्ये चाविकले नित्यं निरूढां ममतां जहौ॥२॥ पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमाः॥ कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामनाः॥३॥

और उन्होंने कहा सो आपभी कहिये॥२५॥इति श्रीमद्भा० महा० द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां ब्रह्मादिदेवपूजनवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥ दोहा—अब कछु वर्णन सृष्टिको, वर्णतमतिअनुसार॥ रचना पालन लय करन, भगवत कौन प्रकार॥१॥ सूतजी बोले कि, शुकाचार्यकी आत्माके तत्त्व निश्चय करनेवाले वचन सुनकर भली भांति राजेंद्र परीक्षित् ने कृष्णचन्द्रके चरणोंमें अपना मन लगाया॥१॥ शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, भ्राता, बन्धु, राज्य, पशु और धन इन सबकी ममता संपूर्ण त्यागदी॥२॥ हे श्रेष्ठजनो! जो तुमने मुझसे पूछा, इसीको श्रीकृष्णके अनुभव सुननेमें श्रद्धावाले

पुरुष बूझतेहैं॥३॥अपनी मृत्यु निकट जान धर्म, अर्थ, काम इनको सम्यक् प्रकार ईश्वरमें समर्पणकर पतितपावन गोवर्द्धनधारी नारायणमें अपनी आत्माको लगाया॥४॥ परीक्षित् बोले कि हे ब्रह्मन्!हे पापरहित! श्रीवासुदेव भगवान् कीकथा कहनेवाले वचन बहुत सुन्दर हैं, जिस्से मेरा सब अंधकार दूर होगया॥५॥जिसकी चिंता ब्रह्मादिक करते हैं ऐसे इस विश्वको भगवान् अपनी मायासे जिसप्रकार आप रचना करतेहैं वह मैं सुनना चाहताहूं॥६॥ जैसे इस विश्वको रचकर पालन व फिर संहार करते हैं; जिस शक्तिका आश्रय लेकर परमपुरुष बहुत शक्ति धारण करते हैं? सो कहो॥७॥ हे ब्रह्मन!

संस्थां विज्ञाय संन्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत्॥ वासुदेवे भगवति आत्मभावं दृढं गतः॥४॥ राजोवाच॥ समीचीनं वचो ब्रह्मन्सर्वज्ञस्य तवाऽनघ॥ तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम्॥५॥ भूय एव विवित्सामि भगवानात्ममा यया॥ यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरैः॥६॥ यथा गोपायति विश्वं यथा संयच्छते पुनः॥ यांयां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुशक्तिः परः पुमान्॥ आत्मानं क्रीडयन्क्रीडन्करोति विकरोति च॥७॥ नूनं भगवतो ब्रह्मन्हरेरद्भुतकर्मणः॥ दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम्॥८॥ यथा गुणांस्तु प्रकृतेर्युगपत्क्रमशोऽपि वा॥ विभर्ति भूरिशस्त्वेकः कुर्वन्कर्माणि जन्मभिः॥९॥ विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान्यथा॥ शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिश्च भवान्खलु॥१०॥ सूत उवाच॥ इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः॥ हृषीकेशमनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे॥११॥

अद्भुतकर्म करनेवाले लोकनाथ हरिकी चेष्टा यथार्थ बड़े २ कवियोंसेभी निश्चय नहीं करी गई हैं, ऐसा विदित होता हैं॥८॥ जन्म धारण कर कर्मकर्ता एक ईश्वर एक कालमें अथवा क्रम २ से प्रकृतिके गुणोंको धारण करते हैं॥९॥ यह श्रवण करनेकी मेरी इच्छाहै सो आप कृपाकर कहिये?॥ क्योंकि आप परमेश्वर और शब्द परब्रह्मके भली प्रकार पारंगत हैं॥१०॥ सूतजी बोले कि, श्रीहरिके गुणानुवाद कहनेको नरनाथ परीक्षित् ने ऐसे प्रार्थना की, तब व्यासनंदन श्रीशुकदेवजीने श्रीवृन्दावनचन्द्रका स्मरणकर श्रीमद्भागवतके कहनेका प्रारम्भ किया॥११॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि हरिकी महिमाका प्रमाण नहीं, इस विश्वकी उत्पत्ति, पालन, संहार इन चरित्रोंसे ब्रह्मादिक तीन शक्ति धारण करनेवाले घट २ वासी, किसीको जिनका मार्ग नहीं दीखै ऐसे परमपुरुष ईश्वरको मेरा नमस्कार हैं॥१२॥ धर्मवर्ती संतोंके कष्टनाशक, अधर्मी असंतोंके विना शक, सब जीवमात्रमें जिनकी मूर्ति परमहंस आश्रममें स्थित पुरुषोंको बारंबार ढूँढनेकी योग्यता देनेवाले परमेश्वरको फिर नमस्कार हैं॥१३॥ भक्तपालक, कुत्सित योगियोंसे दूर, अपने समान वा अधिकतासे रहित, ऐश्वर्यसे अपने स्वरूपमें रमण करनेहारे परब्रह्मको बारंबार नमस्कार हैं॥

श्रीशुक उवाच॥ नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे समुद्भवस्थाननिरोधलीलया॥ गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनामंतर्भवाया नुपलक्ष्यवर्त्मने॥१२॥ भूयो नमः सद्वृजिनच्छिदेऽसतामसंभवायाऽखिलसत्त्वमूर्तये॥ पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे॥१३॥ नमोनमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां विद्बरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम्॥ निरस्त साम्यातिशयेन राधसा स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः॥१४॥ यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं यद्वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम्॥ लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमोनमः॥१५॥ विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्संगं व्युदस्योभयतोंतरात्मनः॥ विंदंति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमास्तस्मै सुभद्रश्रवसे नमोनमः॥१६॥ तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मंत्रविदः सुमंगलाः॥ क्षेमं न विंदंति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमोनमः॥१७॥

॥१४॥ जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन कथाश्रवण, पूजन सब लोकोंके पापको शीघ्र नाश करता हैं। उन सुन्दर मंगलरूप यशस्वी परमात्माको नमस्कार हैं। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वरको सब ओरसे नमस्कार मात्रही श्रेष्ठ हैं॥१५॥ विवेकी लोग जिनके चरणकी सेवासे आत्माका दोनों ओरसे संग त्याग परिश्रमरहित परब्रह्मकी गतिको प्राप्त होतेहैं ऐसे मंगलरूप यशस्वीके अर्थ नमस्कार हैं॥१६॥ तपस्वी, महादानी, यशस्वी, मनस्वी, मंत्रवेत्ता, मंगलकारी अपने २ करेहुए जिन कर्मोंको परमेश्वरमें समर्प्पण किये विना क्षेमको प्राप्त नहीं होते हैं,

ऐसे सुंदर मंगलरूप यशस्वीको नमस्कार हैं॥१७॥ किरात, हूण, आंध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खशादिक और और पापी भी जिसके आश्रयसे शुद्ध होजाते हैं उस सर्वव्यापक शीलयुक्त ईश्वरके अर्थ नमस्कार हैं॥१८॥ आत्मज्ञानियोंके आत्मा, सबके ईश्वर, वेदत्रयीमय, धर्ममय, तपोमय, निष्कपटी, ब्रह्मा, शंकर आदियोंसे अति आश्चर्यद्वारा जिनकी मूर्ति देखने योग्य हैं सो भगवान् मुझपर प्रसन्न होवें॥१९॥ श्रीभू लीलानायक, यज्ञपति, प्रजापति, बुद्धिपति, लोकपति, धरापति, अन्धक, वृष्णि सात्वतोंके पति, गति, संतोंके पति मुझपर प्रसन्न होवें॥२०॥ जिनके

किरातहूणांध्रपुलिंदपुल्कसा आभीरकंका यवनाः खशादयः॥ येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुध्यंति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥१८॥ स एष आत्माऽऽत्मवतामधीश्वरस्त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः॥ गतव्यलीकैरजशंकरादिभिर्वितर्क्स लिंगो भगवान्प्रसीदताम्॥१९॥ श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिर्धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः॥ पतिर्गतिश्चांधकवृष्णिसात्वतां प्रसीदतां मे भगवान्सतां पतिः॥२०॥ यदंघ्य्रनुध्यानसमाधिधौतया धियाऽनुपश्यंति हि तत्त्वमात्मनः॥ वदंति चैतत्कवयो यथारुचं स मे मुकुंदो भगवान्प्रसीदताम्॥२१॥ प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि॥ स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलाऽऽस्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम्॥२२॥ भूतैर्महद्भिर्य इमाः पुरो विभुर्निर्माय शेते यदमूषु पुरुषः॥ भुंक्ते गुणान्षोडशषोडशात्मकः सोऽलंकृषीष्ट भगवान्वचांसि मे॥२३॥

दोनों चरणोंके निरन्तर ध्यानरूप समाधिसे धुई हुई बुद्धिसे सगुण, निर्गुण, उपासना करके ईश्वरके तत्त्वका दर्शन करते हैं और पंडित लोंग अपनी बुद्धिके अनुसार इस तत्त्वका वर्णन करते हैं, सो मुकुन्द भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न होवें॥२१॥ कल्पके आदिमें ब्रह्माके हृदयमें सृष्टिके रचने वाली स्मृतिको विस्तार करनेवालेसे प्रेरित सरस्वती ब्रह्माके मुखसे प्रगट हुई, वह असाधारण लक्षण ऋषियोंके भी बड़े श्रेष्ठ ईश्वर मुझपर प्रसन्न होवें॥२२॥जो ईश्वर पंचभूतोंसे इन सबको निर्माणकर इनके भीतर बसतेहैं, वे षोड़शकलाधारी समर्थ सोलह गुणोंके भोक्ता भगवान् मेरे वचनोंको

अलं कृतकरें॥२३॥ब्रह्माके अन्तर्यामी भक्तजन जिनके मुखकमलके मादक ज्ञानमय रसको पीते हैं, उन ब्रह्माके अन्तर्यामी भगवान् वासुदेवके अर्थ नमस्कार हैं॥२४॥ हे नृपाल!वेदगर्भ साक्षात् हरि व्यापक ईश्वरने जो ब्रह्माजीसे कहा, ब्रह्माने नारदजीसे कहा वह यही बात हैं जो तुमने प्रश्न किया॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां वक्तृश्रद्धानिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा—इस पंचम अध्यायमें, विराटलीलारूप। विराटकी सब सृष्टिको वरणों परम अनूप॥५॥ श्रीनारदजी बोले कि, हे देवाधिदेव! हे सर्व जीववत्सल! हे पूर्वज! आपके अर्थ नमस्कार हैं।आत्माके तत्त्वका निरन्तर दर्शन देनेवाला ज्ञान आप कहिये॥१॥ हे प्रभो!जो रूप हैं,

नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे॥पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखांबुरुहासवम्॥२४॥ एतदेवात्मभू राजन्नारदा य विपृच्छते॥ वेदगर्भोऽभ्यधात्साक्षाद्यदाह हरिरात्मनः॥२५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे वक्तृ श्रद्धानिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ नारद उवाच॥॥ देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावनपूर्वज॥ तद्विजानी हि यज्ज्ञानमात्मतत्त्वनिदर्शनम्॥१॥ यद्रूपं यदधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो॥ यत्संस्थं यत्परं यच्च तत्तत्त्वं वद तत्त्वतः॥२॥ सर्वं ह्येतद्भवान्वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः॥ करामलकवद्विश्वं विज्ञानावसितं तव॥३॥ यद्विज्ञानो यदाधारो यत्परस्त्वं यदात्मकः॥ एकः सृजति भूतानि भूतैरेवात्ममायया॥४॥ आत्मन्भावयसे तानि न पराभा वयन्स्वयम्॥ आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः॥५॥

जिसके आश्रय यह सब हैं, और जिस्से यह सब रचागया हैं, जिसमें यह लीन और जिसके अधीन हैं, जो कुछ हैं वह तत्त्व सिद्धान्तसे आप कहो॥२॥ हे प्रभो! तुम भूत भविष्यत् वर्तमान यह सब जानते हो, हाथमें जैसे निर्मल जलकी बूँद अथवा आमला होय ऐसे अत्यन्त ज्ञानकर निश्चिन्त हो, इस विश्वको तुम जानते हो॥३॥ जो विशेष ज्ञान हैं, जो आधार हैं, जिसमें तुम परायण हो; जो स्वरूप हैंअपनी मायासे सब जीवोंको एक तुम रचो हो मुझको तो तुम ही ईश्वर जान पड़ते हो॥४॥ उन सबका आपही पालन करते हो तुम्हारा

तिरस्कार कोई नहीं करसकता जैसे श्रमरहित मकड़ी अपनी शक्तिका आश्रय लेकर घर रचती हैं तद्वत् तुम हो॥५॥ हे विभो!इस विश्वमें उत्तम अधम समान मनुष्यादि नामरूप द्विपदत्वादिगुण शुक्तादिसे साध्य सूक्ष्म स्थूल और तुमसे परे कोई नहीं हैं यह सब तुमसे ही होताहैं॥६॥ सावधान अच्छी प्रकार होकर आपभी घोर तप करते हो इसलिये हमको बड़ी चिन्ता व खेद उत्पन्न होता है॥७॥ हे सर्वज्ञ! हे सकलेश्वर! मैं जो जिज्ञासा करता हूं सो आपसे शिक्षित जैसे मैं जानसकूं तैसे विशेषकर मुझसे तुम कहो॥८॥ श्रीब्रह्माजी बोले कि, हे पुत्र!

नाहं वेद परं ह्यस्मिन्नापरं न समं विभो॥नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत्किंचिदन्यतः॥६॥ स भवानचरद्घोरं यत्तपः सुसमाहितः॥ तेन खेदयसे नस्त्वं पराऽऽशंकां प्रयच्छसि॥७॥ एतन्मे पृच्छतः सर्वंसर्वज्ञ सकलेश्वर॥ विजानीहि यथैवेदमहं बुध्येऽनुशासितः॥८॥ ब्रह्मोवाच॥ सम्यक्कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम्॥ यदहं चोदितो धर्मे भगवद्वीर्यदर्शने॥९॥ नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः॥ अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे॥१०॥ येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम्॥ यथाऽर्कोऽग्निर्यथा सोमो यथर्क्षग्रहतारकाः॥११॥ तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि॥ यन्मायया दुर्जयया मां ब्रुवंति जगद्गुरुम्॥१२॥ विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया॥ विमोहिता विकत्थंते ममाहमिति दुर्धियः॥१३॥

दयावंत तुम्हारा संदेह ठीक हैं। हे सौम्य!भगवतके वीर्यके प्रकाशमें जो तुमने मुझसे प्रेरणा की॥९॥ हे नारद! जैसे आप मुझसे कहते हैं यह ऐसे ही हैं, तुम्हारा कहना मिथ्या नहीं हैं। मुझसे परे और कौन हैं? यह ऐसेही हैं॥१०॥ जिनके प्रकाशित प्रकाशसे विश्वको मैं प्रकाश करूंहूँ, जैसे सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, तारे यह ईश्वरकी सत्तासे सब प्रकाश करते हैं॥११॥ तिन भगवान् कोनमस्कार हैं।वासुदेवका ध्यान करते हैं जिनकी दुर्जय मायासे मुझको सब जीव जगद्गुरु कहते हैं॥१२॥ उस ईश्वरके सम्मुख खड़े होनेसे जिसको लाज

आवे ऐसी मायासे मोहित दुर्बुद्धिवाले हमसरीखे ब्रह्मादिक ‘यह मेरा है, यह हम हैं’ ऐसी श्लाघा करते हैं॥१३॥ सबका उत्तर ब्रह्मदेव कहते हैं कि—द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव, जीव यह सिद्धान्तसे विचारे हैं तो हे ब्रह्मन्! वासुदेवसे परे कुछ नहीं हैं॥१४॥ वेद नारायणको कहते हैं, सब देवता नारायणके अंशसे जन्मे हैं, सब लोक नारायणका वर्णन करते हैं, सब यज्ञ नारायणका वर्णन करते हैं॥१५॥ योगशास्त्र नारायणका वर्णन करते हैं, तप नारायणको कहता हैं। ज्ञान नारायणको कहता हैं, सबकी गति नारायण ही हैं॥१६॥ जीवके द्रष्टा ईश्वर, सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापी, उनके रचेहुये पदार्थ मैं रचूहूं। उन्होंने मुझको रचाहै, उनके कटाक्षसे मैं प्रेरित हूं॥१७॥ आपके निर्गुण ईश्वरमें सत्त्व, रज, तम,

द्रव्य कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च॥ वासुदेवात्परो ब्रह्मन्न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः॥१४॥ नारायणपरा वेदा देवा नारायणांगजाः॥ नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः॥१५॥ नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः॥ नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः॥१६॥ तस्यापि द्रष्टुरीशस्य कूटस्थस्याखिलात्मनः॥ सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहमी क्षयैवाभिचोदितः॥१७॥ सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः॥ स्थितिसर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभोः॥१८॥ कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः॥ बध्नंति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः॥१९॥ स एष भगवाँल्लिं गैस्त्रिभिरेभिरधोक्षजः॥ स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन्सर्वेषां मम चेश्वरः॥२०॥ कालं कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया॥ आत्मन्यदृच्छयाप्राप्तं विबुभूषुरुपाददे॥२१॥ कालाद्गुणव्यतिकरः परिणामस्स्वभावतः॥ कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितादभूत्॥२२॥

यह तीन गुण उत्पत्ति, पालन, संहारमें मायासे ग्रहण करते हैं॥१८॥ कार्य कारण कर्ता अपनेमें द्रव्य ज्ञान क्रियाके आश्रयी गुण नित्य मायावी पुरुषको बंधन करते हैं॥१९॥ हे ब्रह्मन्!सो ये भगवान् तीन गुणोंसे सबके और मेरे ईश्वर हैं, उनके ब्राह्मणोंकोही उनकी गति देखनेमें आती है॥२०॥ काल कर्म स्वभाव अपनी मायासे मायाके स्वामी आत्मामें अपनी इच्छासे प्राप्त विविध प्रकारसे होनेकी इच्छासे ग्रहण करते हैं॥२१॥ कालसे गुणोंका उलट पलट होताहैं। स्वभावसे औरका और रूप होजाता है; पुरुष जिसके स्वामी ऐसे कर्मसे महत्तत्त्व होय हैं॥२२॥

रज सत्त्वसे बढेहुए महत्तत्त्वसे, द्रव्य ज्ञान क्रियात्मक तम प्रधान होता हैं॥२३॥उसीको अहंकार कहते हैं, उसमें तीन प्रकारके विकार होते हैं। वैकारिक, तैजस, तामस, यह तीन भेद होते हैं। हे प्रभो!द्रव्यशक्ति, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति हुई॥२४॥ सब भूतोंका आदि तामस जब विकारको प्राप्त हुआ तब आकाश हुआ उसकी मात्रा शब्द गुण हैं। जो द्रष्टा और दृश्य इनका जतानेवाला हैं॥२५॥ जब आकाश विकारको प्राप्त हुआ तब स्पर्शगुणवाला पवन हुआ वह आकाशका शब्दगुणवाला होनेसे शब्दवान् और ओज, सह, बल, प्राण इनका कारण हुआ॥२६॥

महतस्तु विकुर्वाणाद्रजःसत्त्वोपबृंहितात्॥ तमःप्रधानस्त्वभवद्द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः॥२३॥ सोऽहंकार इति प्रोक्तो विकुर्वन्समभूत्त्रिधा॥ वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेति यद्भिदा॥ द्रव्यशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिरिति प्रभो॥२४॥ तामसा दपि भूतादेर्विकुर्वाणादभून्नभः॥ तस्य मात्रा गुणः शब्दो लिंगं यद्द्रष्ट्टदृश्ययोः॥२५॥ नभसोऽथ विकुर्वाणाद भूत्स्पर्शगुणोऽनिलः॥ परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम्॥२६॥ वायोरपि विकुर्वाणात्कालकर्मस्वभावतः॥ उदपद्यत तेजो वै रूपवत्स्पर्शशब्दवत्॥२७॥ तेजसस्तु विकुर्वाणादासीदंभो रसात्मकम्॥ रूपवत्स्पर्श वच्चांभो घोषवच्च परान्वयात्॥२८॥ विशेषस्तु विकुर्वाणादंभसो गन्धवानभूत्॥ परान्वयाद्रसस्पर्शशब्दरूपगुणान्वितः॥२९॥ वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश॥ दिग्वातार्कप्रचेतोश्विवह्नींद्रोपेंद्रमित्रकाः॥३०॥ तैजसात्तु विकुर्वाणादिं द्रियाणि दशाभवन्॥ ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिर्बुद्धिः प्राणस्तु तैजसौ॥ श्रोत्रं त्वग्घ्राणदृग्जिह्वावाग्दोमेंढ्रांघ्रिपायवः॥३१॥

काल कर्मके स्वभावसे जब विकारी वायु हुआ तबरूपकी सदृश स्पर्श, शब्दकी सदृश तेज, उत्पन्न हुआ॥२७॥ तेज जब विकारी हुआ, तब रस आत्मा जल हुआ रूपकी सदृश, स्पर्शकी सदृश, जल शब्दवत् हुआ, जल जब विकारको प्राप्त हुआ, तब जलसे पृथ्वी हुई, सबमें व्याप्त रस स्पर्श रूप गुण हुये॥२८॥२९॥ विकारी आत्मासे विकारी दश देव हुये। दिशा, पवन, सूर्य, प्रचेता, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, मित्र, ब्रह्मा ये दश हुये॥३०॥ तैजस अहंकार जब विकारी हुआ तब दश इन्द्रियें हुईं।ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति,

बुद्धि, प्राण, तैजस, अहंकारसे हुये। कान, त्वचा, नाक, नेत्र, जीभ, वाणी, भुजा, लिंग, गुदा, चरण ये हुए॥३१॥ हे ब्रह्मवित्तम!जब यह भूत, इन्द्रिय, भुजा, मन गुण न मिले तब शरीर रचनेमें समर्थ न हुये॥३२॥ तब भगवत्की शक्तिसे प्रेरित सब परस्पर मिलकर सत् असत्को ले समष्टि (सब ब्रह्मांड) व्यष्टि (एक २ शरीर) युक्तविश्व रचा॥३३॥ जब असंख्यवर्प होगये तब यह अंड जलमें पड़ारहा, फिर काल कर्म स्वभावमें स्थित होकर सदा जीनेवाले परमात्मा अचेतन जीवको जिवाते भये॥३४॥ सो यह पुरुष सहस्र ऊरु, चरण, भुजा, नेत्र और

यदैतेऽसंगता भावा भूतेंद्रियमनोगुणाः॥ यदाऽऽयतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम॥३२॥ तदा संहत्य चान्योऽन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः॥ सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः॥३३॥ वर्षपूगसहस्रांते तदंडमुदकेशयम्॥ कालकर्म स्वभावस्थो जीवो जीवमजीवयत्॥३४॥ स एष पुरुषस्तस्मादंडं निर्भिद्य निर्गतः॥ सहस्रोर्वंघ्रिबाह्वक्षः सहस्रानन शीर्षवान्॥३५॥ यस्येहावयवैर्लोकान्कल्पयंति मनीषिणः॥ कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः॥३६॥ पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्त्रमेतस्य बाहवः॥ ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत॥३७॥ भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः॥ हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः॥३८॥ ग्रीवायां जनलोकश्च तपोलोकः स्तन द्वयात्॥ मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः॥३९॥ तत्कट्यां चातलं क्लृप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः॥ जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जंघाभ्यां तु तलातलम्॥४०॥

सहस्र शिरवाले हुये॥३५॥जिसकी लेशमात्र चेष्टासे बुद्धिमान् लोकोंकी कल्पना करतेहैं, कमरसे नीचे सात लोक हैं और सात लोक जंघा दिकके ऊपर हैं॥३६॥ परब्रह्म पुरुषका मुख ब्राह्मण, क्षत्त्रिय भुजा, ऊरु वैश्य, और पांवसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं॥३७॥ भूलोक पगमें, भुवर्लोक नाभिमें, स्वर्ग लोक हृदयमें, और उरमें महर्लोक हैं॥३८॥ ग्रीवामें जनलोक, स्तनोंमें तपलोक, मस्तकमें सत्यलोक हैं। ब्रह्मलोक वैकुण्ठ सनातन हैं, इस ब्रह्माण्डमें नहीं हैं॥३९॥ उनकी कमरमें अतल लोक, विभुके ऊरुमें वितललोक, जानुमें शुद्ध सुतल लोक, जंघामें तलातल लोक॥४०॥

गुल्फोंमें महातल लोक, ऍंड़ियोंमें रसातल, और पादके तले पाताललोक हैं। ऐसे लोकमय पुरुष ईश्वर हैं॥४१॥ पांवमें भूर्लोक, नाभिमें भुवर्लोक, और स्वर्गलोक मस्तकमें है॥ ऐसे भी, लोकोंकी कल्पना हैं॥४२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीविराट् सृष्टिहरिलीलाविराट् रूपवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ दोहा— इस छठवें अध्यायमें, कहौ विराट् विभूति॥ नरसूक्तार्थ बखानिहों, सकल विश्व करतूति॥६॥ ब्रह्माजी बोले कि, विराट्पुरुषकी विभूति वर्णन करते हैं। अस्मदादिकोंकी वाणीके स्वामी वह्नि उन ईश्वरका मुख उत्पत्ति स्थान हैं। इनमें चार बातें हैं। वाणी तो इन्द्रिय हैं, वरुण देवता, मुख उत्पत्तिस्थान हैं, रसका स्वाद लेना यह उसका विषय हैं। यह बात सब स्थानोंमें जानलेना। ग्रन्थविस्तारके कारण अधिक नहीं लिखा हैं। गायत्री आदि सात छन्द जो हैं सो अपने लोगोंकी सप्त त्वचाहैं। जो देवताओंके

महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम्॥ पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान्॥४१॥ भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः॥ स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना॥४२॥ इति श्रीमद्भा० म० द्विती०जनननिरूपणं नाम पंचमोऽध्यायः॥५॥ ब्रह्मोवाच॥ वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छंदसां सप्तधातवः॥ हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च॥१॥ सर्वासूनां च वायोश्च तन्नासे परमायने॥ अश्विनोरोषधीनां च घ्राणो मोदप्रमोदयोः॥२॥ रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी॥ कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयोः॥३॥ तद्गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम्॥ त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि॥४॥ रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु संभृतः॥ केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम्॥५॥

निमित्त दियाजाय वह अन्न हव्य है जो पितरोंके लिये दियाजाय वह अन्न कव्य हैं, इस अन्नकी सब रस और अमृतकी जिह्वा कारण हैं॥१॥ हमारे सबके प्राण वायु उत्तम क्षेत्र उनकी नाक हैं जिसमें मोद प्रमोद जाननेवाली घ्राणेन्द्रिय हैं। अश्विनीकुमार देवताहै सब औषधी विषय हैं॥२॥ रूप और रूपप्रकाशक तेज इनपरमेश्वरके चक्षु इन्द्रिय स्थानहै। स्वर्ग और सूर्य इनका स्थान परमेश्वरके नेत्रगोलकहैं। दिशा और तीर्थ इनका स्थान परमात्माके कर्ण अर्थात् श्रोत्र इन्द्रियके अधिष्ठानहैं और आकाश और उसका सुक्ष्मरूप शब्द इन दोनोंका स्थान ईश्वरका श्रोत्र इन्द्रिय हैं॥३॥ वस्तुके सारांश, स्थान ईश्वरका शरीरहै, स्पर्श गुणवाला वायु ईश्वरकी त्वचा हैं॥४॥ सबवृक्ष ईश्वरके रोमहैं जिनसे यज्ञपूर्ण होतेहैं। शिला, लोह, मेघ, बिजुली,

केश मूछ नख हैं॥५॥ क्षेमकारी लोकपाल हरिकी बाहुहैं। क्षेमी ईश्वरका पाद रखना भूर्भुवः स्वर्ग लोक हैं॥६॥ सबकाम व वर हरिके चरण स्थानमें हैं, ब्रह्मा जिसका देवता ऐसे विश्वके मेघ शुक्र हैं॥७॥ईश्वरका शिश्न उपस्थ वह हैं जो संतानार्थं भोग करते हैंजिससे आनंद सुख और नहीं हैं। हेनारद! मलत्यागका यम मित्र इनका पायु इन्द्रिय गुदा हैं तिरस्कार अधर्म अज्ञान यह भगवान्की पीठ हैं॥८॥९॥ सरोवर व नदी ईश्वरकी नाड़ियें हैंसमस्त पर्वत ईश्वरके हाथ हैंप्रधान रस समुद्र हैं जिसमें जीवोंका नाश हैं॥१०॥ वह उस महापुरुषका पेट हैं हृदय मनका स्थान

बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम्॥ विक्रमो भूर्भुवस्स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च॥६॥ सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम्॥ अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः॥७॥ पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानंदनिर्वृतेः॥ पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद॥८॥ हिंसाया निर्ऋतेर्मृत्योर्निरयस्य गुदः स्मृतः॥ पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः॥९॥ नाड्यो नदनदीनां तु गोत्राणामस्थिसंहतिः॥ अव्यक्तरससिंधूनां भूतानां निधनस्य च॥१०॥ उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम्॥ धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च॥११॥ विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्यात्मा परायणम्॥ अहं भवान्भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः॥१२॥ सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः॥ गंधर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः॥१३॥ पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः॥ अन्ये च विविधा जीवा जलस्थलनभौकसः॥१४॥ ग्रहर्क्षकेतवस्तारास्तडितः स्तनयित्नवः॥ सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत्॥१५॥

है, धर्मका मेरे तुम्हारे, सनकादिकोंका महादेवजीका॥११॥ शेष ज्ञानका और सतोगुणका जो परमेश्वरका चित्त है सो स्थान है। हम तुम शिव ये सब मुनिलोग जो तुमसे पहले जन्मे हैं॥१२॥ देवता, असुर, नर, नाग, पक्षी, मृग, सर्प, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, भूतगण, उरग॥१३॥ पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और अनेक प्रकारके जितने जीव जल, थल और आकाशके॥१४॥ नवग्रह, अश्विनीआदि नक्षत्र, प्रलयके समय जो पूँछल तारे होते हैंवह और बिजली गर्जनशब्द भूत भविष्यत् वर्तमान और जो कुछ हैं यह सब पुरुष परमेश्वरस्वरूपही है जो सब

जीवमात्रके शरीररूप पुरियोंमें सोबेवह पुरुष ईश्वर है॥१५॥ उन ईश्वरसे व्याप्य यह विश्वहै कि, वितस्तिभरमें विराजते हैं। सूर्य अपने मंडलकोप्रकाशित करता हुआ जैसे बाहर भीतर प्रकाश करता है ऐसेही विराट्देहको प्रकाश करता हुआ ब्रह्मांडको ईश्वर प्रकाशित करता है॥१६॥ ऐसे इस विराट्रुपमें बाहर भीतर पुरुष तपते हैं भयरहित मोक्षके ईश्वरने मरणधर्मक अन्न कर्म फलको प्रगट किया॥१७॥ हे ब्रह्मन्! पुरुषकी महिमा बड़ी कठिन है ईश्वरके पुरुषके पादमें सब जीवोंकी स्थिति है ऐसा जानो॥१८॥ क्षेमदायक, अभयदायक अमृत, त्रिलोकीके शिरपर रक्खा। अथवा क्षेमी, अभयी, मरण जहां नहीं ऐसी त्रिपाद विभूति त्रिलोकी शिरपर रक्खी। त्रिपाद विभूति बाहर है,

तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति॥ स्वधिष्ण्यं प्रतपन्प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ॥१६॥ एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यं तर्बहिः पुमान्॥ सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यमन्नं यदत्यगात्॥१७॥ महिमैष ततो ब्रह्मन्पुरुषस्य दुरत्ययः॥ पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः॥१८॥ अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु॥ पादास्त्रयो बहिश्चासन्न प्रजानां य आश्रमाः॥ अंतस्त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्ग्रतः॥१९॥ सृती विचक्रमे विष्वङ् साशनानशने उभे॥ यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तूभयाश्रयः॥२०॥ यस्मादंडं विराड् जज्ञे भूतेंद्रियगुणात्मकः॥ तद्द्रव्यमत्यगाद्विश्वं गोभिः सूर्य इवातपन्॥२१॥ यदाऽस्य नाभ्यां नलिनादहमासं महात्मनः॥ नाविदं यज्ञसंभारान्पुरुषावयवादृते॥२२॥ तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः॥ इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वितः॥२३॥

जो नैष्ठिक ब्रह्मचारियोंके स्थान हैं आश्रम हैं॥इस त्रिलोकीके भीतर गृहस्थी ब्रह्मचर्य नहीं करते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंका घरमेंही सदा मोक्ष होताहै अनेक प्रकारसे सब ओरसे जिनकी पूजा होय वह ईश्वर शिक्षाशास्त्र और एक विना शिक्षाका शास्त्र जिसमें दो मार्ग प्रगट किये विद्या अविद्या रची। परन्तु ईश्वर दोनोके आश्रित हैं, अविद्या बंधनकी करनेवाली है और विद्या मुक्तिकी दाता है॥१९॥२०॥ भूत इन्द्रियसे गुणात्मक विराट्ब्रह्माण्ड हुआ। जिससे अनेक द्रव्य हुए। इस विश्वको सूर्यकी नाईं ईश्वरने तपाया॥२१॥ जिससमय व्यापक ईश्वरकी नाभिके कमलसे मैं उत्पन्न हुआ, तब पुरुषके अवयवके विना यज्ञकी कुछ सामग्री न देखी॥२२॥ तिनके यज्ञके

पशु, वनस्पति, कुशा और देवताओंके यजनयोग्य स्थान रचे, और जिसमें बहुत गुण ऐसा समय रचा॥२३॥ सब पात्रादि रचे, ओषधी, घृतादिक, मधुरादिक, सुवर्णादिक धातु, मृत्तिका, जल, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, चार ब्राह्मण, और जिसमें हवन करै वह कर्म रचा, हे सत्तम! ॥२४॥ ज्योतिष्टोमादिनाम सुवर्णादि दक्षिणा, एकादश्यादि सब व्रत, देवताओंके नाम सबके निमित्त बौधायनादि कर्मपद्धति संकल्प अनुष्ठानका क्रियातंत्र॥२५॥ विष्णुक्रमादि गति देवताओंका ध्यानादि मति प्रायश्चित्त जो करना उनको भगवान् में समर्पण करना। पुरुषके अवयवोंसे मैंने सब सामग्री रची॥२६॥पुरुषके अवयोंकी ऐसे सब सामग्रीसे पूजनीय परमात्माने पुरुषका यज्ञ किया॥२७॥ उनके पीछे प्रजापति

वस्तून्योषधयः स्नेहा रसलोहमृदो जलम्॥ ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम॥२४॥ नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च॥ देवतानुक्रमः कल्पः संकल्पस्तंत्रमेव च॥२५॥ गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम्॥ पुरुषावयवैरेते संभाराः संभृता मया॥२६॥ इति संभृतसंभारः पुरुषावयवैरहम्॥ तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम्॥२७॥ ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव॥ अयजन्व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः॥२८॥ ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे॥ पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम्॥२९॥ नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम्॥ गृहीतमायोरुगुणः सर्गादावगुणः स्वतः॥३०॥ सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः॥विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक्॥३१॥ इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि॥ नान्यद्भगवतः किंचिद्भाव्यं सदसदात्मकम्॥३२॥

नौ, यह तुम्हारे भ्राता सावधान होकर इन्द्रादिरूपसे अपने आपही पुरुषका पूजन करने लगे॥२८॥ उसके पीछे अपने समयमें सब मनुष्य, सब ऋषि और सब पितर विबुध दैत्य मनुष्य, यज्ञोंसे समर्थ जनार्दनका यज्ञ किया॥२९॥ यह सब विश्व भगवान् नारायणमें स्थित है इस सृष्टिके रचनेकी आदिमें बहुत मायाके गुण ग्रहण किये, आप सब गुणोंसे पृथक रहे॥३०॥ उसी परमात्माकी आज्ञासे संसारको मैं रचताहूं, और ईश्वरके वश होकर शिव संहार करैहैं, पुरुष विष्णुरूप होकर विश्वकी रक्षा करते हैं। तीनशक्तिधारी मायाधारी ईश्वर है॥३१॥ हे नारद! जैसे हमसे तैंने बूझा उसी प्रकार मैंने कहा। भगवान् के विना सत् असत् आत्मक इस विश्वमें कुछ भी नहीं है॥३२॥

हे नारद! मेरी वाणी कभी मिथ्या नहीं होती, और मनकी गति कभी मिथ्या नहीं होती। मेरी इन्द्रियें कभी खोटे मार्गमें नहीं जातीं, क्योंकि निश्चय करके अत्यन्त भक्तिसे हृदयमें हरिको धारण किया है॥३३॥ सो हम वेदमय, तपोमय, प्रजापतियोंके पति सबसे वन्दित सुन्दर योगमें स्थित होकर तप करते हैं। परन्तु मैं अपने सृजन करनेहारेको अबतक नहीं जानता॥३४॥ शरणागतके रक्षक, संसारके नाशक, स्वस्तिदाता, मंगलदायक नारायणके चरणके हम आश्रित हैं जो भगवान् अपनी मायाका विस्तार आपभी नहीं जानते, जिस प्रकार आकाशका अंत आकाश नहीं जानसक्ता इसी प्रकार औरोंकी तो क्या सामर्थ्य है? जैसे आकाशके पुष्पको न देखना कुछ सर्वज्ञताका नाश नहीं करता॥

न भारती मेंऽग मृषोपलक्ष्यते न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः। न मे हृषीकाणि पतंत्यसत्पथे यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरिः॥३३॥ सोऽहं समाम्नायमयस्तपोमयः प्रजापतीनामभिवंदितः पतिः॥ आस्थाय योगं निपुणं समाहितस्त न्नाध्यगच्छं यत आत्मसंभवः॥३४॥ नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम्॥ यो ह्यात्ममा याविभवं स्म पर्यगाद्यथा नभः स्वांतमथापरे कुतः॥३५॥ नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुर्न वामदेवः किमुताऽपरे सुराः॥ तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे॥३६॥ यस्यावतारकर्माणि गायंति ह्यस्मदादयः॥ न यं विदंति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः॥३७॥ स एष आद्यः पुरुषः कल्पेकल्पे सृजत्यजः॥ आत्माऽऽत्मन्यात्मनाऽऽत्मानं संयच्छति च पाति च॥३८॥ विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक्सम्यगवस्थितम्॥ सत्यं पूर्णमनाद्यंतं निर्गुणं नित्यमद्वयम्॥३९॥

॥३५॥ जिसकी गतिको न हम, न तुम सब, न शिव जानें। फिर देवताओंकी तौ क्या सामर्थ्य है? उनकी मायासे मोहित बुद्धिवाले सब इस मायाके रचेहुए विश्वको अपने ज्ञानके अनुसार वर्णन करते हैं॥३६॥ जिन ईश्वरके अवतारोंके कर्म (अस्मदादिक) अर्थात् हम सब गाते हैं परन्तु सिद्धान्तसे उनको नहीं जानते, उन त्रिलोकनाथके अर्थ बारंबार नमस्कार है॥३७॥ सो अजन्मा पुरुष ईश्वर सबसे प्रथम है। वही कल्प २ में विश्वरचना कर्ता अधिकरण साधन कर्म सब रूप आपही है, वही संहार करताहै वही रक्षा करताहै॥३८॥ विषय आकार रहित है जलशायी है ज्ञानस्वरूप है सबका अन्तर्यामी है, संदेहादिरहित है, स्थिर है, सत्यरूप है।

सबमें पूर्ण है। आदिअंतरहित है, मायाकृत गुण जिसमें नहीं हैं, सदा रहे है। ईश्वरके विना और कोई नहीं है॥३९॥ प्रसन्न आत्मा मन इन्द्रियें अंतःकरण होते हैं। तब मुनिगण ईश्वरको जानते हैं। हे नारद!जब खोटेलोग खोटीतर्क करतेहैं तब सब ईश्वरका ज्ञान नष्ट होकर आदिपुरुष अन्तर्धान हो जातेहैं॥४०॥ परब्रह्मका प्रथम अवतार पुरुष है। काल स्वभाव सत् असत् मन महाभूत अहंकार गुण आदि इन्द्रियें विराट् स्वरूप स्थावर जंगम यह सब परमेश्वरके अवतार हैं॥४१॥ हम महादेव यज्ञ प्रजेश्वर दक्षादिक तुम सब स्वर्लोकपालक, खगलो कपालक, मनुष्यलोकपालक, तललोकपालक, सब ईश्वरकी विभूति हैं॥४२॥ गन्धर्व, विद्याधर, चारण, ईश यक्ष, राक्षस उरग, सर्पोंके

ऋषे विदंति मुनयः प्रशांतात्मेंद्रियाशयाः॥ यदा तदैवासत्तर्कैस्तिरोधीयेत विप्लुतम्॥४०॥ आद्योवतारः पुरुषः परस्य कालः स्वभावः सदसन्मनश्च॥ द्रव्यं विकारो गुण इंद्रियाणि विराट् स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः॥४१॥ अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा दक्षादयो ये भवदादयश्च॥ स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला नृलोकपालास्तललोकपालाः॥४२॥ गंधर्व विद्याधरचारणेशा ये यक्षरक्षोरगनागनाथाः॥ ये वा ऋषीणामृषभाः पितॄणां दैत्येंद्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः॥ अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूतकूष्मांडयादोमृगपक्ष्यधीशाः॥४३॥ यत्किंच लोके भगवन्महस्वदोजस्सहस्वद्बलवत्क्षमावत्॥ श्रीह्री विभूत्यात्मवदद्भुतार्णं तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम्॥४४॥ प्राधान्यतो यानृषआमनंति लीलावतारान्पुरुषस्य भूम्नः॥ आपीयतां कर्णकषायशोषाननुक्रमिष्ये त इमान्सुपेशान्॥४५॥ इति श्रीमद्भा० म० द्वि० विराड्विभूतिपुरुषसूक्तार्थ वर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥

स्वामी जो ऋषियोंसे बड़े हैं, पित्रीश्वर, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवेन्द्र और प्रेत, पिशाच, भूत, कूष्माण्ड, जल जन्तु, मृग, पक्षियोंके ईश इस ब्रह्माण्डकटाहमें जो कुछ है सो स्वरूप सब परमेश्वरका है जो कुछ इस लोकमें है सो भगवान् के महापराक्रम बलकी नाईं क्षमावत् श्री लज्जा संपदा और ईश्वरके समान जो है वह जो रूपवान् है जो विनारूपवान् हैं यह सब परमतत्त्व हैं॥४३॥४४॥ प्रधानतासे जिन्हैंऋषिलोग नमस्कार करतेहैं, वह लीलावतार पुरुष ब्रह्मके हैं।वह कानोंका मल दूरकरनेवाले हैं वह सुन्दर अब हम तुमसे कहैंगे॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां विराड्विभूतिपुरुषसूक्तार्थवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥

दोहा—इस सप्तम अध्यायमें, जो हरि किये विहार॥ भिन्न भिन्न वर्णन करों, चौबीसों अवतार॥७॥ ब्रह्माजी बोले—कि, अब वाराह अवतार कहतेहैं। पृथ्वीतल उद्धारके कारण श्रीवाराहजी अनंत भगवान् ने वाराहरूप धारण किया। जब हिरण्याक्षदैत्य महासमुद्रमें आया तब उसको मार धरतीको डाढ़पर रखलाये। जिसप्रकार पाकशासनने पर्वतोंको विदारडाला था, इसीरीति भगवान् वाराहजीने हिरण्याक्षका उदर दॉतोंसे फाड़डाला॥१॥ अब यज्ञावतार कहतेहैं। रुचि प्रजापतिकी आकूतिनाम स्त्रीसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका सुयज्ञ नाम प्रसिद्ध हुआ।वह सुयज्ञ अपनी सुदक्षिणानाम स्त्रीसे सुयमनामक देवताओंको उत्पन्न करताहुआ। उसीने इन्द्र होकर तीनों लोकोंकी महापीडाका नाश किया जो पहले सुयज्ञ नामक था

ब्रह्मोवाच॥ यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत्क्रौडीं तनुं सकलयज्ञमयीमनंतः॥ अंतर्महाऽर्णव उपागतमादिदैत्यं तं दंष्ट्याऽद्रिमिव वज्रधरो ददार॥१॥ जातो रुचेरजनयत्सुयमान्सुयज्ञ आकूतिसूनुरमरानथ दक्षिणायाम्॥ लोकत्रयस्य महतीमहरद्यदार्तिं स्वायंभुवेन मनुना हरिरित्यनूक्तः॥२॥ जज्ञे च कर्दमगृहे द्विज देवहूत्यां स्त्रीभिः समं नवभिरात्म गतिं स्वमात्रे॥ ऊचे ययाऽऽत्मशमलं गुणसंगपंकमस्मिन्विधूय कपिलस्य गतिं प्रपेदे॥३॥ अत्रेरपत्यमभिकांक्षत आह तुष्टो दत्तो मयाहमिति यद्भगवान्स दत्तः॥ यत्पादपंकजपरागपवित्रदेहा योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्याः॥४॥

परन्तु मातामहने हरिनाम रक्खा।देवोंकी उत्पत्ति लोकत्रयकी पीड़ा हरना उनका काम है यह सब अवतारमें और अवतारका कर्म सब स्थानोंमें जान लेना॥२॥ अब कपिल अवतार कहतेहैं। हे नारद! कर्दमजीके घर देवहूतीसे नौ भगिनी सहित कपिलदेवजीने अवतार लिया और अपनी माताको सांख्यशास्त्र–अर्थात् ब्रह्मविद्याका उपदेश किया। जिस ब्रह्मविद्यासे जीव जो मलिन करनेवाले संसारकीचको इसी जन्ममें धोकर महात्मा कपिलदेवजीकी गतिको प्राप्त हुये॥३॥ अब दत्तात्रेय अवतारका वर्णन करते हैं।जब अत्रिऋषिने पुत्रकी चाहना की तब परमेश्वरने प्रसन्न होकर कहा “मैं स्वयंही तुम्हारे घर जन्म लूँगा” इसकारण दत्तात्रेय नामसे हृषीकेशने अवतार लिया, जिनके चरणपंकजकी रजसे

निर्मल आत्मावाले यदु, हैहयादिक, ऐहिक, आमुष्मिक, भुक्ति मुक्तिरूपा योगसिद्धिको प्राप्तहुये॥४॥ अब सनकादिक अवतारका वर्णन करतेहैं। पहिले अनेक लोक रचनेकी इच्छामें बहुत तप किया, तपके प्रभावसे परमेश्वरने सनकादिकका अवतार लिया। पहिले कल्पके प्रलयमें नष्ट आत्मतत्त्वको सुंदरतासे वर्णन किया। जिनके कहनेमात्रसे मुनिलोगोंने अपने आपमें साक्षात् परमात्माको देखा॥५॥ अब नर–नारायण अवतारकी कथा कहतेहैं। धर्मकी स्त्री दक्षसुता, मूर्तिनामसे प्रसिद्ध थी। उसमें अपने तपके प्रभावसे नर–नारायण हुये। उनका तप भंग करनेको कामसेना नाम अप्सरायें उनके पास गईं, परन्तु नर–नारायणके निकट अपनी समान उर्वशी आदि स्त्रियोंको देख अपने रूपका अभिमान

तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे आदौ सनात्स्वतपसः स चतुस्सनोऽभूत्॥ प्राक्कल्पसंप्लवविनष्टमिहात्मतत्त्वं सम्यग्जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्॥५॥ धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां नारायणो नर इति स्वतपःप्रभावः॥ दृष्ट्वात्मनो भगवतो नियमावलोपं देव्यस्त्वनंगपृतना घटितुं न शेकुः॥६॥ कामं दहंति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या रोषं दहंतमपि ते न दहंत्यसह्यम्॥ सोऽयं यदंतरमलं निविशन्बिभेति कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत॥७॥ विद्धः सपत्न्युदितपत्रिभिरंति राज्ञो बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि॥ तस्मा अदाद्ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो दिव्याः स्तुवंति मुनयो यदुपर्यधस्तात्॥८॥

भूलगईं और ईश्वर नर–नारायणका व्रतभंग न करसकी॥६॥ महासुकर्मकारी त्रिपुरारीने, क्रोधदृष्टिसे कामदेवको भस्म किया, परन्तु देहके जलानेवाले क्रोधको भस्म न करसके सो यह रोष नर–नारायणके हृदयमें प्रवेश करनेसे बहुत डरा, फिर कुसुमायुध उनके हृदयमें कैसे प्रवेश करसके?॥७॥ अब ध्रुव अवतार कहते हैं। उत्तानपाद नरनाथके गृहमें ध्रुवजीने जन्म लिया, एक समय ध्रुवने पिताके अंकमें बैठनेको मन किया तब निकट बैठीहुई सुरुचिविमाताके कहे कटुवाक्य बाणोंसे विद्ध होकर बालक ध्रुवजी तपके अर्थ काननमें चलेगये और स्तुति करनेसे प्रसन्न हो हरिने ध्रुवको ध्रुवपद दिया। स्वर्गवासी औत्तानपादि राजर्षिके समीप, भृगुआदिक ऊपरसे, और नीचेसे सप्तर्षि जिनकी स्तुति करतेहैं॥८॥

अब पृथु अवतार कहतेहैं। एक समय राजा वेनके पाखण्ड अवलम्बनसे धर्म नष्ट होगया, तब ब्राह्मणके वाक्यरूप वज्रसे उसका पुरुषार्थ और सब ऐश्वर्य नष्ट होगया और नरकमें गिरा, तब मुनियोंकी प्रार्थनासे भगवान् नेपृथु होकर रक्षा करी।जगत् में

पुत्र नाम विख्यात किया।महात्मा पृथुने पृथ्वीको दुहा और सब वस्तु निकाली॥९॥ अब ऋषभ अवतारका वृत्तान्त सुनो, यह नाभिके पुत्र सुदेवीपुत्र ऋषभदेवजी हुए। समानद्रष्टा जड़की नांई बन योगाभ्यास किया, जिनके पारमहंस्यपदको ऋषियोंने नमस्कार किया।स्वस्थ इन्द्रियें जिनकी शांत सबका संग त्याग ऐसे ऋषभदेवजी हुए, जिनसे जैनमत प्रगट हुआ॥१०॥ अब हयग्रीव अवतारका वर्णन सुनो

यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्रविप्लुष्टपौरुषभगं निरये पतंतम्॥ त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन॥९॥ नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्यो वै चचार समदृग्जडयोगचर्याम्॥ यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनंति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्तसंगः॥१०॥ सत्रे ममास भगवान्हयशीरषाऽथो साक्षात्स यज्ञपुरुषस्तपनीयवर्णः॥ छंदोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः॥११॥ मत्स्यो युगांतसमये मनुनोपलब्धः क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः॥ विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान्॥१२॥ क्षीरोदधावमरदानवयूथपानामुन्मथ्नताममृतलब्धय आदिदेवः॥ पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं निद्राक्षणोऽद्विपरिवर्तकषाणकंडूः॥१३॥

मेरे यज्ञमें हयग्रीव अवतार भगवान् हुए। साक्षात् यज्ञपुरुष, सुवर्णसदृश वर्ण, वेदमय, यज्ञमय, सर्व देवतामय, वेदरूप सुन्दरबाणीसे अर्थात् वेदरूप नामके श्वाससे हुए॥११॥ अब मत्स्यावतार कहते हैं। प्रलयकालके समयमें वैवस्वत मनुने पृथ्वीमय सब जीवोंका आश्रयरूप मत्स्यभगवान् को देखा।महाभयानक जलमें मेरे मुखसे गलित वेदमार्गोंको लाकर हर्षसे प्रलयके जलमें विहार किया॥१२॥ अब कच्छपावतार कहतेहैं। सत्ययुगमें क्षीरसमुद्रमें अमृतके लिये देवता और दानवयूथ मथन करने लगे, तब आदिदेव भगवान् नेकच्छ्परूप धारणकर मन्दराचल पर्वतको पीठपर धर ज्यों २ घुमातेथे त्यों २ कूर्म महाराजका खुजाहट जाता था और सुख प्राप्त होता था। जब निद्राके वशहो बहुतसे

श्वास छोड़े उस दिनसे आजतक समुद्रमें विलास करते हैं॥१३॥ अब नृसिंह अवतारका वर्णन सुनो। सुरगणोंको महाभयभीत देख नरसिंह रूप अतिघोर धारण किया कि, महाभयंकर रूप; टेढ़ी २ भ्रुकुटि, महाकालकी समान भयानक डाढ़ें, नेत्र लाल २ अग्निवत्प्रदीपमान, शीघ्र गदा लेकर निकट आये हिरण्यकशिपुके हृदयको महाकराल नखोंसे फाड़डाला। अब हरि अवतारका वर्णन करते हैं– त्रिकूट पर्वतके सरोवरमें महाबलवान् ग्राहने गजेंद्रका पांव पकड़कर जलमेंको खेंचा। तब यूथपति गजनाथ व्याकुल हो कमलफूल झुण्डमें ले यह कहनेलगा। हे आदिपुरुष! हे दीनबन्धु! हे त्रिलोकीनाथ!हे पुण्ययश! हे श्रवणमंगलनामधेय!रक्षा करो॥१४॥१५॥ श्रीहरि शरणागतवत्सल, गजेंद्रकी पुकार सुनकर महाबली

त्रैविष्टपोरुभयहा स नृसिंहरूपं कृत्वा भ्रमद्भ्रुकुटिदंष्टकरालवक्रम्॥ दैत्येंद्रमाशु गदयाऽभिपतंतमाराद्वरौ निपात्य विददार नखैः स्फुरंतम्॥१४॥ अंतःसरस्युरुबलेन पदे गृहीतो ग्राहेण यूथपतिरंबुजहस्त आर्तः॥ आहेदमादिपुरुषा खिललोकनाथ तीर्थश्रवः श्रवणमंगलनामधेय॥१५॥ श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेयश्चक्रायुधः पतगराजभुजा धिरूढः॥ चक्रेण नक्रवदनं विनिपाट्य तस्माद्धस्ते प्रगृह्य भगवान्कृपयोज्जहार॥१६॥ ज्यायान्गुणैरवरजोऽप्यदितेः सुतानां लोकान्विचक्रम इमान्यदथाधियज्ञः॥ क्ष्मां वामनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन याच्ञामृते पथि चरन्प्रभुभिर्न चाल्यः॥१७॥ नार्थो बलेरयमुरुक्रमपादशौचमापः शिखां धृतवतो विबुधाधिपत्यम्॥ यो वै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्य दात्मानमंग शिरसा हरयेऽभिमेने॥१८॥

चक्रायुध लिये गरुड़पर बैठ तत्काल आन चक्रसे मगरकामुख काट शुण्ड पकड़ कृपा करके गजका उद्धार किया॥ १६॥ आपसे अब वामन अवतार कहतेहैं। गुणोंमें सबसे बड़े, अदितिके द्वादशपुत्रोंमेंसे छोटे वामनजी हुए, जिन्होंने तीनों लोकोंको दोनों पगोंसे नाप लिया। यज्ञ भगवान् नेपृथ्वी वामनरूप धारणकर बलिसे तीन पदके मिससे लेली क्योंकि धर्ममार्गमें वर्तमान समर्थको ईश्वर मांगनेकी वृत्तिके विना चलायमान न करसके॥१७॥ हे नारदजी! श्रीभगवान् केचरणोंका धोवन गंगाजल बलिने शिरपर धारण किया, राज्यप्राप्तिके लिये नहीं, क्योंकि राजा

बलिने जो प्रतिज्ञा की थी, उस्से अधिक करनेकी इच्छा कर अपनी देह और शिरमें हरिका तीसरा चरण पूरा किया॥१८॥ ह अवतार कहतेहैं। हे नारद हंस भगवान्ने अत्यन्त भक्तिभावसे प्रसन्न हो ज्ञानयोग भागवत आत्मज्ञानका प्रकाशक तुमसे कहा जिसवासुदेवके शरणागत भक्त विना परिश्रम प्राप्त होतेहैं॥१९॥ अब मन्वन्तर अवतार कहतेहैं। दशों दिशाओंमें जिसकी अग्रतिबन्ध वर्तनेसे सुदर्शनचक्र मन्वन्तरोंमें मनुवंशधारी भगवान्ने धारण किया और दुष्ट राजाओंको दंड दिया, और त्रिलोकीमे अपने चरित्र प्रकाशकर अपनी सुन्दर कीर्तिका विस्तार किया॥२०॥ अब धन्वन्तरेिका वर्णन सुनो। धन्वन्तरि भगवान्ने अपनी कीर्ति

तुभ्यं च नारद भृशं भगवान्विवृद्धभावेन साधु परितुष्ट उवाच योगम्॥ ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं। यद्वासुदे वशरणा विदुरंजसैव॥१९॥ चक्रं च दिक्ष्वविहतं दशसु स्वतेजो मन्वंतरेषु मनुवंशधरो विभर्ति॥ दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्स्वकीर्तिं सत्ये त्रिपृष्ट उशतीं प्रथयंश्चरित्रैः॥२०॥ धन्वंतरिश्च भगवान्स्वयमेव कीर्तिर्नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हंति॥ यज्ञे च भागममृतायुरवावरुन्ध आयुश्च वेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके॥२१॥ क्षत्रं क्षयाय विधिनो पभृतं महात्मा ब्रह्मध्रुगुज्झितपथं नरकार्तिलिप्सु॥ उद्धंत्यसाववनिकंटकमुग्रवीर्यस्त्रिस्सप्तकृत्व उरुधारपाकवधेन॥२२॥ अस्मत्प्रसादसुमुखः कलया कुलेश इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशे॥ तिष्ठन्वनं सदयिताभुज आविवेश यस्मिन्विरुध्य दशकंधर आर्तिमाच्छेत्॥२३॥

अपने नामसे महारोगियोंका रोग दूर किया और यज्ञमें अमृत असुरोंसे लाये। लोकमें वैद्यकशास्त्र आयुर्वेद, अवतार सहित मनुष्योंको सिखाया॥२१॥ अब परशुराम अवतार कहते हैं। दैवसे प्राप्त ब्राह्मणद्रोही, वेदमार्गत्यागी, न अवतार तीपर कंटक, क्षत्रियोंके क्षयके अर्थ उग्रवीर्य धार तीक्ष्णधारके परशेसे इक्कीस बार क्षत्रियोको मार २ कर पृथ्वीब्राह्मणोंको॥२२॥ अब श्रीरामचन्द्र अवतार वर्णन करते हैं। हमारे ब्रह्मादिकोंके ऊपर प्रसन्नहो पन्द्रह कलाका अवतार धार कलाके योंमें श्रेष्ठ वंशमें उत्पन्नहो राजादशरथकी आज्ञामान सीता लक्ष्मण सहित वनको गमन किया जिनसे विरोधकर लंकानाथ

प्राप्त हुआ॥२३॥ सीताके विरहमें क्रोधसे लाल २ नेत्र करके समुद्र तीक्ष्णतेजके ताप और भयके मारे थर २ काँपने लगा*॥२४॥ युद्धमें रावणके स्थलके स्पर्शसे इन्द्रका ऐरावत हाथी घबड़ागया और उसके दांतोंके टुकड़े २ होगयेथे इसी गर्वसे राक्षसाधिपति दशशीश दशों दिशाओंमें निर्भय रता फिरता था। उस सीताहारी राक्षसेन्द्रके वर्द्धित महागर्वको शीघ्र प्राणसहित मर्य्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्रजीने नाश किया॥२५॥ अबश्री अवतारका वर्णन करतेहैं। असुरोंके अंशी राजाओंके समूहसे दुःखित भूमि क्लेश नाशकर, बलदाऊ सहित कृष्ण जिनके केश, किसी मनुष्यसे-

यस्मा अदादुदधिरूढभयांगवेषोमार्गं सपद्यरिपुरं हरवद्दिधक्षोः॥ दूरे सुहृन्मथितरोषसुशोणदृष्ट्या तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्रः॥२४॥ वक्षस्स्थलस्पर्शरुग्णमहेंद्रवाहदंतैर्विडंबितककुब्जुष ऊढहासम्॥ सद्योऽसुभिः सह विनेष्यति दार हर्तुर्विस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोऽधिसैन्ये॥२५॥ भूमेः सुरेतरवरूथविमर्दितायाः क्लेशव्ययाय कलया सितकृष्णकेशः॥ जातः करिष्यति जनानुपलक्ष्यमार्गः कर्माणि चात्ममहिमोपनिबंधनानि॥२६॥ तोकेन जीवहरणं यदुलूकिकायास्त्रेमासिकस्य च पदा शकटोऽपवृत्तः॥ यद्रिंगतांतरगतेन दिविस्पृशोर्वा उन्मूलनं त्वितरथाऽर्जुनयोर्न भाव्यम्॥२७॥

मार्ग नहीं जानाजाय, वह परब्रह्म श्रीकृष्णावतार धारणकर अपनी महिमाके प्रकट करनेवाले कर्म करेंगे। कोई यह तर्क न करैकि, केशमात्र अवतार हैं क्योंकि भारका उतारना क्या बड़ा कार्य है? हमारे केशहैं। यह प्रगट करनेके लिये और राम कृष्ण वर्ण सूचनाके लिये ऐसा लिखाहै

*

॥२६॥२७॥

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* **शंका—**किसी शास्त्र पुराणमें यह नहीं सुना कि, त्रिपुरासुरके पुरको जलानेकी इच्छा शिवजीने की तबशिवको पुरके सन्मुख जानेके लिये समुद्रने मार्ग दिया इसी प्रकार नारदसे ब्रह्माने कहा कि रामचन्द्रको लंकामें जानेके लिये सागरने मार्ग दिया, जो तीनों पुरके जलानेकी इच्छा की और महादेवको समुद्रने मार्ग दिया यह वडीभारी शंका है॥

** उत्तर**— शंकरके चरणोंमें शंकरके भक्तोंका अधिक जो प्रेम हैं वही समुद्र हैं उसी प्रेमसमुद्रमें शिव सर्वदा मतवाले रहतेहैं। जब कभी भक्तोंके ऊपर शिवजी क्रोध करतेहैं तबप्रेमरूपी समुद्र शिवके भक्तोंके जानेके लिये क्रोधको पन्य नहीं देता, जबतीन पुर जलानेके लिये विष्णुआदि सब देवताओंने शिवजीकी प्रार्थना की तब भोलेनाथ अपने हृदयमें त्रिपुरको थोडा भक्त समझ उसके ऊपर क्रुद्ध हुए, उस होनेके कारणसे प्रेम के समुद्रने मार्ग दिया, मार्ग देना यह है कि, त्रिपुरको जलानेके लिये शिवजीने सम्पूर्ण निश्चय करलिया. इसीलिये ब्रह्माने यह कहा कि-

*“स चापि केशौ हरिरुच्च जह्नैशुक्लमेकमपर चापि कृष्णम्। तौ चापि केशावविशेतायदूनां कुले स्त्रियौ रोहिणीं देवकीं च॥१॥ तयोरेको बलभद्रो बभूव योसौ श्वेतस्तस्य देवस्य केश*॥ कृष्णो द्वितीय केशवं सबभूव केशो योसो वर्णत कृष्ण उक्त”॥महाभारतमें लिखाहै कि, ईश्वरने दो बाल काले सफेद उखाडे, वह दोनों बाल यादवोंके कुलमें रोहिणी और देवकी स्त्रीमें प्रवेश करगये। जो उन देवका श्वेत केश था, उससे संकर्षण उत्पन्न हुये दूसरे श्यामवर्णकेशसे केशीवधकारी गोपी आनदकारी विहारी श्रीकृष्णचन्द्र हुए। जिन्होंने बालकपनमें पूतनाको मारा और जब तीन मासके हुए तबशकटासुर, वकासुर संहार किया, जब घुटनों चलने लगे तब अति उन्नत यमलार्जुन वृक्षोंको मूलसे उखाडा, भला यह कार्य विना ईश्वरके कौन साधन करसकताहैं ?॥

जिन श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दनने ब्रजमें ब्रजके गाय वत्स जब कालीदहका जल पीकर अचेत होगयेथे, उनपर अनुग्रह कर अमृत दृष्टिकी वृष्टि कर उनको जिलाया, और यमुनाकी शुद्धिके लिये उसमें विहारकर और अति चंचल जिह्वावाले कालीनागको नाथ और उसे जलसे निकाल लाये॥२८॥ उन भक्तवत्सल यशोदानन्दनके अलौकिक कर्म हैं। क्योंकि जब दावाग्निसे पवित्र वन जला तौ आप उसमें सोतेथे। उस भीषणाग्निसे निश्चय सबका काल आया था यह जान भक्तवत्सलने सबसे कहा कि नेत्र बंद करो। नेत्रोंके बंद करतेही ब्रजको उबारा और अग्निका पान करगये॥२९॥ जब यशोदा मैया श्रीकृष्णके बांधनेको रस्सी लाई और वह रज्जु पूरी न हुई तब वह दूसरी और लाई

यद्वै व्रजे व्रजपशून्विषतोयपीथान्पालांस्त्वजीवयदनुग्रहदृष्टिवृष्ट्या॥ तच्छुद्धयेऽतिविषवीर्यविलोलजिह्वमुच्चाटयिष्यदुरगं विहरन्ह्रदिन्याम्॥२८॥ तत्कर्म दिव्यमिव यन्निशि निश्शयानं दावाग्निना शुचि वने परिदह्यमाने॥ उन्नेष्यति व्रजम तोऽवसितांतकालं नेत्रे पिधाय्य सबलोऽनधिगम्यवीर्यः॥२९॥ गृह्णीत यद्यदुपवंधममुष्य माता शुल्वं सुतस्य न तु तत्त दमुष्य माति॥ यज्जृंभतोऽस्य वदने भुवनानि गोपी संवीक्ष्य शंकितमनाः प्रतिबोधिताऽऽसीत्॥३०॥ नंदं च मोक्ष्यति भयाद्वरुणस्य पाशाद्गोपान्बिलेषु पिहितान्मयसूनुना च॥ अह्न्यापृतं निशि शयानमतिश्रमेण लोके विकुंठ उपनेष्यति गोकुलं स्म॥३१॥ गोपैर्मखे प्रतिहते व्रजविप्लवाय देवेऽभिवर्षति पशून्कृपया रिरक्षुः॥ धर्तोच्छिलींध्रमिव सप्त दिनानि सप्तवर्षो महीध्रमनघैककरे सलीलम्॥३२॥

जब वहभी ओछी हुई तब और लाई, इस भांति सब घर भरकी रस्सियें जोड़ीं परन्तु पूरी न हुई। जब श्रीकृष्णने कहा कि, मैया मैंने माटी नहीं खाई मेरा मुख देखले, श्रीकृष्णने यशोदाको मुख दिखलाया तो उसमें सब विश्व दृष्टि आया, यशोदा विश्वको देख शंकित हुई। परन्तु पश्चात् ज्ञान हुआ॥३०॥ वरुणकी फाँसीसे भयभीत नंदको बचावेंगे। व्योमासुरके पर्वतकी गुफामें गायोंको बंद करनेपर उन्हें छुटावेंगे। और दिनमें तौ सब काम करके रात्रिको अतिश्रमसे सोये हुए सब गोकुलवासियोंको वैकुंठ दिखलावेंगे॥३१॥ हे नारद! जब गोपोंके इन्द्रयज्ञ न करनेपर ब्रजका नाश करनेको क्रोधित हुआ इंद्र जब मूसलधाराओंसे वर्षा करेगा तब सात वर्षके श्रीकृष्णचंद्र गौ आदिकोंकी रक्षाके लिये छत्राककी तरह

सात दिनलोंगिरि गोवर्द्धनको बायें हाथकी कन उँगलीपर धारण करैंगे॥३२॥ चन्द्रमाकी किरणोंसे युक्त श्वेत रजनीमें रासकी इच्छा करके क्रीड़ाकरती मधुर पदसे नाच २ राग गाय २ व्रजयुवतियोंका कामदेव जगाया। गोपस्त्रियोंके हरनेवाले कुबेरके सेवक शंखचूडके शिरका रत्न हरेंगे॥३३॥ और प्रलंबासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर, मल्ल, कुवलियापीड, कंस, कालयवन, नरकासुर, पौंड्रकादिक, शाल्व, द्विविदबंदर, वल्वल, दंतवक्र, सप्त वृषभ, शंबर, विदूरथ, रुक्मैया आदिक और संग्राममें श्लाघनीय धनुषधारी, कांबोज, मत्स्य, कुरु, कैकय, संजय आदिक यह सब, बलदेव, भीमसेन,

क्रीडन्वने निशि निशाकररश्मिगौर्यांरासोन्मुखः कलपदायतमूर्च्छितेन॥ उद्दीपितस्मररुजां व्रजभृद्वधूनां हर्तुर्हरिष्यति शिरो धनदानुगस्य॥३३॥ ये च प्रलंबखरदर्दुरकेश्यरिष्टमल्लेभकंसयवनाः कुजपौंड्रकाद्याः॥ अन्ये च शाल्वकपि बल्वलदंतवक्रसप्तोक्षशंबरविदूरथरुक्मिमुख्याः॥३४॥ ये वा मृधे समितिशालिन आत्तचापाः कांबोजमत्स्यकुरुकैक यसृंजयाद्याः॥ यास्यंत्यदर्शनमलं बलभीमपार्थव्याजाह्वयेन हरिणा निलयं तदीयम्॥३५॥ कालेन मीलितधियाम वमृश्य नणां स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः॥ आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म॥३६॥ देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्टितानां पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतुर्भिः॥ लोकान्घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं वेषं विधाय बहु भाष्यत औषधर्म्यम्॥३७॥ यर्ह्यालयेष्वपि सतां न हरैः कथाः स्युः पाखंडिनो द्विजजना वृषला नृदेवाः॥ स्वाहा स्वधा वषडिति स्म गिरो न यत्र शास्ता भविष्यति कलेर्भगवान्युगांते॥३८॥

अर्जुन इनके मिससेःदुर्लभदर्शन श्रीहरि ऐसे दुष्टोंको वैकुंठ धाम पहुँचावेंगे॥३४॥३५॥ अबव्यासअवतार कहतेहैं। कालकरके मनुष्योंकी बुद्धि संकुचित हुईं और मनुष्योंकी आयु थोड़ी होनेलगी और वह वेदको भूलने लगे। तब युग २में सत्यवतीसे श्रीव्यासजी प्रकट हो वेदरूप वृक्षकी शाखा भेद करके उनका विस्तार करैंगे॥३६॥ अब बौद्ध अवतार कहतेहैं। देवताओंके द्रोही वेदमें निष्ठा करनेवालोंके मयदैत्यकी रचीहुई पुरियोंसे….. लोकोंकावामकारक बुद्धिके मोह करनेहारे, लोभ बढानेहारे पांखण्ड धर्मको बौद्धजी कहैंगे॥३७॥अब कल्कि अवतारका वर्णन करते हैं।

जिस समय कहीं हरिकी कथा न होगी, ब्राह्मण पाखण्डी होजायँगे, शूद्र राजा वन राज्य करैंगे। स्वाहा, स्वधा, वषट्;यह वेदबाणी जब न होगी, मनुष्य पशुकी समान होजायँगे उस समय कलियुगके अंतमें भगवान् कल्की अवतार धारणकर शिक्षा करैंगे॥३८॥माया गुणावतार भगवान की विभूति हैं सो इस संसारके रचनेमें तप हम सप्तऋषिनौप्रजाके ईश, स्थान, धर्म, यज्ञ, मनु, देवता राजालोग संसारमें अधर्महरनेवाले क्रोधी असुर आदिक बहुतशक्तिधारी ईश्वरकी मायाकी यह सब विभूतियें हैं॥३९॥ यह अवतारोंकी कथा मैंने संक्षेपसे कहीहैं, विस्तारसहित कहनेको किसका सामर्थ्य है? अर्थात् किसीका भी नहीं, विष्णुके चरित्र कोई नहीं कहसक्ता चाहे पृथ्वीके रजके कण गिनले।जो ईश्वरने अत्यन्त वेगसे

सर्गे तपोऽहमृषयो नव ये प्रजेशाः स्थाने च धर्ममखमन्वमरावनीशाः॥ अंते त्वधर्महरमन्युवशासुराद्या माया विभूतय इमाः पुरुशक्तिभाजः॥३९॥ विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि॥ चस्कंभ यः स्वरहसाऽस्खलता त्रिष्पृष्ठंयस्मात्त्रिसाम्यसदनादुरुकंषयानम्॥४०॥ नांतं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते मायाबलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये॥ गायन्गुणान्दशशतानन आदिदेवः शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम्॥४१॥ येषां स एव भगवान्दययेदनंतः सर्वात्मनाऽऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम्॥ ते दुस्तरामतितरंति च देवमायां नैषां ममाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये॥४२॥

मान सत्यलोक पर्यंत लोक धारण किया ऐसा अधिक जिनका वेग है॥४०॥ पुरुष ईश्वरके मायाबलके अंतको हम नहीं जानसक्ते। हे मुनि! इन तुम्हारे भाइयोंमेंसे भी कोई नहीं जान सक्ता। सहस्रमुखधारी आदिदेव शेषजी भी सदा ईश्वरके गुण गाते हैं, परन्तु अबतक पार नहीं पाया, और न पावेंगे। फिर औरोंकी तौ क्या गिनती हैं॥४१॥ कोई यह शंका करैकि, कोई हरिके गुणोंको न कहसक्ता हो तौमोक्ष कैसे होताहैं? उत्तर। मोक्ष हरिकी कृपासे होता हैं और किसीसे नहीं हो सक्ता।सो भी जब अनंत भगवान् कृपा करें और सब प्रकारसे निष्कपट होकर जो उनके चरणारविन्दोंका आश्रय लेकर अतिदुस्तर, देवताओंकी मायासे तरजाते हैं और श्वान शृगालोंके भोज्य देहमें आसक्तिमान् पुरुष

नहीं तर सकते॥४२॥ हे नारद! उनहीकी कृपासे परमात्माकी योगमायाको मैं जानताहूं और तुम जानोहो तथा शिव, भगवान्, प्रह्लाद, मनुकी स्त्री शतरूपा;स्वायंभुवमनु, उनके पुत्र प्राचीनबर्हि, ऋभु, ध्रुवजी॥४३॥ इक्ष्वाकु, नृपति ऐल, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, नृपेंद्र रघु, अंबरीष, सगर, नहुषादिक, मान्धाता, अलर्क, शतधनु, पश्चात् रंतिदेव, भीष्मपितामह, बलि, अमूर्तरय, दिलीप॥४४॥ सौभरि, उतंक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्भव, पराशर, भूरिपेण, विभीषण, हनुमान्, उपेंद्र, दत्तात्रेय, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर, श्रुतदेववर्य॥४५॥ यह सब

वेदाऽहमंग परमस्य हि योगमायां यूयं भवश्च भगवानथ दैत्यवर्यः॥ पत्नी मनोः स च मनुश्च तदात्मजाश्च प्राची नबर्हिर्ऋभुरंग उत ध्रुवश्च॥४३॥ इक्ष्वाकुरैलमुचुकुंदविदेहगाधिरघ्वंबरीषसगरा गयनाहुषाद्याः॥ मान्धात्रलर्कशत धन्वनुरंतिदेवा देवव्रतो बलिरमूर्तरयो दिलीपः॥४४॥ सौभर्युतंकशिबिदेवलपिप्पलादसारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः॥ येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेंद्रदत्तपार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेववर्याः॥४५॥ ते वै विदंत्यतितरंति च देवमायां स्त्री शूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः॥ यद्यद्भुतक्रमपरायणशीलशिक्षास्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये॥४६॥ शश्वत्प्रशांतमभयं प्रतिबोधमात्रं शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम्॥ शब्दो न यत्र पुरुकारकवान्क्रियार्थो माया परैत्य भिमुखे च विलज्जमाना॥४७॥ तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम्॥ सध्र्यङ्नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं जह्युःस्वराडिव निपानखनित्रमिंद्रः॥४८॥

जानते हैं, इससे तर गये।ईश्वरकी मायाको स्त्री, शूद्र, हूण, यवन, शबर और पापी जीव, जो जो अद्भुत चरित्रकारी, ईश्वरपरायण, जिन्होंने भली भाँति शिक्षा ली है वह और जिन्होंने ईश्वरधारणा की है वह यह सब जानतेहैं।और पशु पक्षियोंकी तौक्या चर्चा है? यह सब तर गये॥४६॥ अब भगवतका स्वरूप वर्णन करते हैं। सदा प्रशांतमन, भयरहित, ज्ञानघन, शुद्ध;समान, कार्य कारणसे परे, आत्माका तत्त्व है, जहां बहुतकार कवान्, क्रियाकारक शब्द नहीं कह सक्ते हैं। जिनके सम्मुख माया लज्जाके मारे मुख नहीं करती, दूरसे दूरही भागती हैं॥४७॥४८॥

सोई परमपुरुष ईश्वर वह स्थान है जिसको कोई ब्रह्म निरंतर, यतिलोग मनको जिसे प्राप्त होकर अकर्तापन और साधनोंको त्याग देते हैं। जैसे कुये खोदनेपर फावड़े आदिको छोड़ देते हैं, वा जैसे इन्द्र स्वयं बादलरूप होनेसे खनित्रादि वस्तुको नहीं ग्रहण करते॥४९॥ सो भगवान् सर्व कल्याणकारी कर्मके फलदायक हैं, इसलिये इस विश्वका भाव स्वभावविहित सत् पदार्थकी प्रसिद्धि हैं। जैसे सब धातुओंके वियोगसे देह नष्ट होती हैं परंतु देहके संग आकाशका नाश नहीं होता, ऐसे ही अजन्मा पुरुष देहके साथ जन्म लेते हैं परंतु सबके फलदाता आप हैं।हे नारद! सो यह भगवान् सब विश्वमें जिनकी भावना है उन राधारमणके चरित्र मैंने संक्षेपसे कहे हैं। इन ईश्वरसे पृथक् सत् असत् कुछ नहीं है॥५०॥ जो

स श्रेयसामपि विभुर्भगवान्यतोऽस्य भावस्वभावविहितस्य सतः प्रसिद्धिः॥ देहे स्वधातुविगमेऽनुविशीर्यमाणे व्योमेव तत्र पुरुषो न विशीर्यतेऽजः॥४९॥ सोऽयं तेऽभिहितस्तात भगवान्विश्वभावनः॥ समासेन हरेर्नान्यदन्य स्मात्सदसच्च यत्॥५०॥ इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम्॥ संग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद्विपुलीकुरु॥५१॥ यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति॥ सर्वात्मन्यखिलाधार इति संकल्प्य वर्णय॥५२॥ मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः॥ शृण्वतः श्रद्धया नित्यं माययाऽऽत्मा न मुह्यति॥५३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे सप्तमोऽध्यायः॥७॥ राजोवाच॥ ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन्गुणाख्यानेऽगुणस्य च॥ यस्मैयस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः॥१॥

मुझसे भगवान् ने कहा है सो यह भागवतपुराण महाआनंददायक है। हरिकी विभूतियोंका संग्रह हैं अब इसे तुम विख्यात करो॥५१॥ जिसे रीतिसे वृन्दावनविहारीमें मनुष्योंकी भक्ति हो सबके आधार ईश्वरका चिंतवन करके तुम वर्णन करो॥५२॥ जो परमेश्वरकी मायाका वर्णन करतेहैं और उनकी प्रशंसा करते हैं और जो श्रद्धासे नित्य परमात्मा के चरित्र सुनतेहैं वह मायाकरके कभी मोहको प्राप्त नहीं होते॥५३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां चतुर्विंशावतारवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ दोहा— ब्रह्मा नारदको सुनत, अति अनुपम संवाद। देवराज शुकदेवसों, पूछो अति आह्लाद॥८॥ राजा बोलताहैं है ब्रह्मन्! इसप्रकार ब्रह्माजीसे प्रेरित हो देवदर्शन नारदजी निर्गुण ईश्वरके गुण जिन २ के अर्थ कहते भये सो आप

वर्णन कीजिये?॥१॥ हे वेद विदांबर!मुझे उसके सुननेकी अभिलाषा हैं। अद्भुत पराक्रमी ईश्वरकी कथा लोकमें सुन्दर मंगल करनेवालीहैं॥२॥हे महाभाग! वह कथा वर्णन करो। सबसे मन हटाय वैराग्य ले सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णजीमें मन लगाऊं और इस दुःखदायी देहका त्याग करूं, सो कहो॥३॥ श्रद्धायुक्त हो हरिके गुण नित्य श्रवणकरनेसे श्रीकृष्णलीलाओंकों मुखसे कहैं। थोड़ेही दिनोंमें भगवान् हृदयमें प्रवेश करतेहैं॥४॥कानके छिद्रमें हो सदा मधुसूदन अपने जनोंके हृदयका जो कमल हैं और उसमें जो मल हैं उसका नाश करदेते है। जैसे जलका मल शरदऋतुके आनेसे दूर होजाताहैं॥५॥ पवित्र आत्मापुरुष श्रीवासुदेवके चरणमूलका त्याग नहीं करते वह सब क्लेशसे छूट जातेहैं। जैसे मार्ग चलनेवाले अपने घर

एतद्वेदितुमिच्छामि तत्त्वं वेदविदां वर॥ हरेरद्भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमंगलाः॥२॥ कथयस्व महाभाग यथाऽहमखिलात्मनि॥ कृष्णे निवेश्य निस्संगं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम्॥३॥ शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम्॥ कालेन नातिदीर्घेण भगवान्विशते हृदि॥४॥ प्रविष्टः कर्णरंध्रेण स्वानां भावसरोरुहम्॥ धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत्॥५॥ धौतात्मा पुरुषः कृष्णपादमूलं न मुंचति॥ मुक्तसर्वपरिक्लेशः पांथः स्वशरणं यथा॥६॥ यदधातुमतो ब्रह्मन्देहारंभोऽस्य धातुभिः॥ यदृच्छया हेतुना वा भवंतो जानते यथा॥७॥ आसीद्यदुदरात्पद्मं लोकसंस्थानलक्षणम्॥ यावानयं वै पुरुष इयत्ताऽवयवैः पृथक्॥ तावानसाविति प्रोक्तः संस्थाऽवयववानिव॥८॥ अजः सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात्॥ ददृशे येन तद्रूपं नाभिपद्मसमुद्भवः॥९॥

आय सब दुःखसे छूट जातेहैं॥६॥ हे ब्रह्मन्!त्वचा, रुधिर, मांस, स्नायु, मेद, मज्जा, हाड़ इन सात धातुओंसे रहित जिनकी देह ऐसे ईश्वरका पंचभूत देहधारना निजइच्छासे हैं या किसीकारणसे शरीर धारण करते हैं? जो आप यथार्थ जानते हो सो कहिये॥७॥ सब लोकोंकी रचनारूप कमल जिनकी नाभिमें यह पुरुष रचतेहैंजैसे अवयवोंसे अलग २ हैंऔर इतने हैंयह सब कहो? तितनेही यह ईश्वर कहेहैं।संख्या अवयवकी समान हैं।हे शुकाचार्य! जिसको हम न जानते हों सो आप सब कहैं॥८॥ अजन्मा ईश्वर सब जीवोंको रचते हैंउनकी कृपासे ब्रह्मा

रचते हैं, नाभिकमलसे जन्मे ब्रह्माजीने उनका रूप देखा॥९॥ वह ईश्वर पुरुष विश्वकी उत्पत्ति पालन संहार करता हैं। मायाके ईश, अपनी मायाको त्याग सबके अन्तर्यामी भी कहां सोते रहतेहैं?॥१०॥ पुरुषके अवयवोंसे पूर्वकल्पित लोकपालक इनके अवयवोंसे रचेगये यह सब श्रवण कराइये॥११॥ जैसा कल्प हैं जैसा विकल्प हैं जैसा कालका अनुमान किया जाताहैं, भूत भविष्यत् वर्तमान आयुका जो प्रमाण हैं सो कहो?॥१२॥ कालकी गति जो छोटी मोटी हैं जितनी कर्मकी गतियें हैं और जैसी गति होतीहैं सो हे द्विजसत्तम!शुकाचार्य! आप कहिये?॥१३॥ सत्त्वादि गुणोंका देवादिरूप परिणामकी इच्छा करनेवाले जीवोंके मध्यमें जिसपरिणाममें पुण्य पापके कर्मोंका स्वरूप समूह

स चापि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्ययः॥ मुक्ताऽऽत्ममायां मायेशः शेते सर्वगुहाशयः॥१०॥ पुरुषा वयवैर्लोकाः सपालाः पूर्वकल्पिताः॥ लोकैरमुष्यावयवाः सपालैरिति शुश्रुम॥११॥ यावान्कल्पो विकल्पो वा यथा कालोऽनुमीयते॥ भूतभव्यभवच्छब्द आयुर्मानं च यत्सतः॥१२॥ कालस्यानुगतिर्यातु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि॥ यावत्यः कर्मगतयो यादृशीर्द्विजसत्तम॥१३॥ यस्मिन्कर्मसमावायो यया येनोपगृह्यते॥ गुणानां गुणिनां चैव परिणाममभीप्सताम्॥१४॥ भूपातालककुब्व्योमग्रहनक्षत्रभूभृताम्॥ सरित्समुद्रद्वीपानां संभवश्चैतदो कसाम्॥१५॥ प्रमाणमंडकोशस्य बाह्याभ्यंतरभेदतः॥ महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चयः॥१६॥ अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरेः॥ युगानि युगमानं च धर्मो यश्च युगे युगे॥१७॥ नृणां साधारणो धर्मः सविशेषश्च यादृशः॥ श्रेणीनां राजर्षीणां च धर्मः कृच्छ्रेषु जीविनाम्॥१८॥

किस कर्मके समुदायसे कैसे करनेसे कौन अधिकारी देव आदिभावको प्राप्त होताहैं? सो कहो॥१४॥ भूमि, पाताल, सब दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप इनकी उत्पत्ति और जो इनके वासी हैंसो कहो॥१५॥ इस ब्रह्माण्डका प्रमाण, बाहर भीतरका भेद, महात्माओंका चरित्र, वर्णाश्रमका निर्णय,जिन २ स्वभावोंसे सब वर्ण आश्रमका निर्द्धार होय सो कहो?॥१६॥ अत्यन्त आश्चर्यदायक, श्रीहरिअवतारोंके चरित्र, और युगयुगोंके प्रमाण और युग २ में जो धर्म होयँ सो कहो?॥१७॥ मनुष्योंके साधारण धर्म होंय सो कहो; और जो जो व्यवहारियोंके

धर्म होंय सो कहो, और प्रजापालोंके अधिकारी राजर्षियोंके धर्म कहो। सब जीवमात्रका आपद्धर्म सो कहिये॥१८॥ तत्त्वोंकी संख्या; और उनके लक्षण अथवा किसी हेतुसे उनके लक्षण जैसे होंय सो कहो? परमेश्वरके पूजनकी विधि, अष्टांगयोगकी विधि, ब्रह्मविद्या; यह सब कहो॥१९॥ योगीश्वरोंके ऐश्वर्यकी गति, अर्चिआदि मार्गके योगियोंके लिंगदेहके भंगकी गति, ऋगादिवेद, आयुर्वेदादि, धर्म शास्त्रोंकी गति, इतिहास पुराणोंका सार यह सब कहो॥२०॥ सब जीवनका प्रलय स्थिति महाप्रलय वैदिक कर्म पूर्तकर्म कामना करके कर्म करना, अर्थ धर्म कामकी विधि यह सब

तत्त्वानां परिसंख्यानं लक्षणं हेतुलक्षणम्॥ पुरुषाराधनविधिर्योगस्याऽऽध्यात्मिकस्य च॥१९॥ योगेश्वरैश्वर्यगति र्लिंगभंगस्तु योगिनाम्॥ वेदोपवेदधर्माणामितिहासपुराणयोः॥२०॥ संप्लवः सर्वभूतानां विक्रमः प्रतिसंक्रमः॥ इष्टा पूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधिः॥२१॥ यश्चानुशायिनां सर्गः पाखंडस्य च संभवः॥ आत्मनो बंधमोक्षौ च व्यवस्थानं स्वरूपतः॥२२॥ यथात्मतंत्रो भगवान्विक्रीडत्यात्ममायया॥ विसृज्य वा यथा मायामुदास्ते सा क्षिवद्विभुः॥२३॥ सर्वमेतच्च भगवन्पृच्छते मेऽनुपूर्वशः॥ तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने॥२४॥ अत्र प्रमाणं हि भवान्परमेष्ठी यथात्मभूः॥ परे चेहानुतिष्ठंति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम्॥२५॥

कहिये॥२१॥ उपाधिरहित जीवोंके धर्म, उनकी रचना, पाखंडकी उत्पत्ति जीवोंका बंधमोक्ष स्वरूपमें स्थिति सो कहो॥२२॥ जैसे स्वाधीन भगवान् अपनी मायासे क्रीड़ा करतेहैं, कभी मायाको त्याग साक्षी समान विभु विराजतेहैं सो कहो॥२३॥ इन प्रश्नोंके उत्तर क्रमसे अपने सिद्धान्तसे आप कहने योग्यहो हे महामुनि! मैं तुम्हारे आश्रितहूँ॥२४॥ इसमें स्वयम्भू ब्रह्माजी प्रमाण हैंपहिलेसेपहिले हुए वह और सब इसी

मार्गमें स्थित रहैंगे॥२५॥ हे ब्रह्मन्! मेरे प्राण भूख प्याससे नहीं निकलेंगे भागवतकथामृत पानकरनेवाले मुझको कुपित द्विजके सर्पका भय किंचित भी नहींहै॥२६॥ सूतजी बोले संतोंके प्रति हरिकी कथामें इस प्रकार राजाने प्रार्थना की, तब सभामें राजा परीक्षित् से शुकदेवजी बहुत प्रसन्न हुए॥२७॥ वेदके समान भागवत नाम पुराण ब्रह्मकल्पमें ब्रह्मासे भगवान् ने कहाथा॥२८॥ पांडवोंमें श्रेष्ठ परीक्षित जो जो पूछतेहैं सो सब संक्षेपसे और विस्तारसे व्याख्या करनेको प्रारंभ किया॥२९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां राजकृतप्रश्नविधिर्नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥ दोहा— कथा नवम अध्यायकी, नॉशक सब सन्देह। चतुःश्लोकी भागवत, वरणों सहित सनेह॥९॥

न मेऽसवः परायंति ब्रह्मन्ननशनादमी॥ पिबतोऽच्युतपीयूषमन्यत्र कुपितद्विजात्॥२६॥ सूत उवाच॥ स उपामंत्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः॥ ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि॥२७॥ प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसंमितम्॥ ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते॥२८॥ यद्यत्परीक्षिदृषभः पांडूनामनुपृच्छति॥ आनुपूर्व्येण तत्सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥२९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे प्रश्नविधिर्नामाऽष्टमोऽध्यायः॥८॥ श्रीशुक उवाच॥ आत्ममायामृते राजन्परस्यानुभवात्मनः॥ न घटेतार्थसंबंधः स्वप्नद्रष्टुरिवांजसा॥१॥ बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया॥ रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते॥२॥ यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन्कालमाययोः॥ रमेत गतसंमोहस्त्य क्त्वोदास्ते तदोभयम्॥३॥ आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम्॥ ब्रह्मणे दर्शयन्रूपमव्यलीकव्रतादृतः॥४॥

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजन्! अनुभवात्मा परमेश्वरको देहका संबंध अपनी मायाके विना नहीं होता। जैसे अनायास करके स्वप्नके द्रष्टाको स्वप्नके समयका देहसंबंध नहीं होताहैं॥१॥ अनेक रूपवाली मायासे बाल युवादि रूप देव नरादि रूपकी नांई प्रकाश करती हैं। इस मायाके गुणमें रमण करके “मेरा हैं” “हम हैं” ऐसे आप माने हैं॥ २॥ जिस समय अपनी महिमामें रमण करताहैं उस काल मायासे परे ईश्वरमें सब मोह त्याग और अहंकार ममकार दोनोंको त्याग साक्षीकी सदृश रहताहैं॥३॥ जीवके तत्त्वशुद्धिके कारण जो भग

वान्ने सत्य कहाहैं सो निष्कपट तपके विना नहीं होता। ब्रह्माको अपना रूप दिखायाहैं॥४॥ सो आदिदेव ब्रह्माजी जगत्के परमगुरु अपने कमलमें बैठकर जगत्कोरचनेका विचार करने लगे, इस संसारके रचनेके योग्य दृष्टिको नहीं पहुँचे, जिससे यह विश्व रचनेकी विधि ठीक होय॥५॥ एक समय ब्रह्माजी यही चिंतवन कर रहेथे, तब उस जलमेंसे दोबार यह शब्द सुनाई आया कि ‘तप करो’ २ (क) से लेके (म) पर्यंत अक्षरोंकी स्पर्श संज्ञा हैं। इनमें १६ वॉ अक्षर (त) हैं और इक्कीसवाँ (प) हैं दोनों मिलकर तप हुआ॥हे राजेन्द्र! जिनको किसी वस्तुकी चाहना नहीं ऐसे मुनियोंका वह धन हैं। तपोधन मुनि प्रसिद्ध हैंं॥६॥ तपकरो यह सुन ब्रह्माजीने सब ओर देखा। और वक्ताके देखनेकी इच्छा

स आदिदेवो जगतां परो गुरुः स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत॥ तां नाध्यगच्छद्दृशमत्र संमतां प्रपंचनिर्माणविधिर्यया भवेत्॥५॥ स चिंतयन्द्व्यक्षरमेकदांभस्युपाशृणोद्द्विर्गदितं वचो विभुः॥ स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं निष्किंचनानां नृप यद्धनं विदुः॥६॥ निशम्य तद्वक्त्रदिदृक्षया दिशो विलोक्य तत्राऽऽन्यदपश्यमानः॥ स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं तपस्युपादिष्ट इवाऽऽदधे मनः॥७॥ दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो जितानिलात्मा विजितोभयेंद्रियः॥ अतप्य तस्माऽखिललोकतापनं तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः॥८॥ तस्मै स्वलोकं भगवान्सभाजितः संदर्शयामास परं न यत्परम्॥ व्यपेतसंक्लेशविमोहसाध्वसं स्वदृष्टवद्भिर्विबुधैरभिष्टुतम्॥९॥ प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः॥ न यत्र माया किमुतापरे हरेरनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः॥१०॥

करी। तब कमलपर बैठ अपना हित विचार तप करनेको मनमें धारणा की

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॥ ७॥ सफल दर्शन पवन, मन, जीत कर्म इंद्रियें और ज्ञान इंद्रियें जीत तप करनेवालोंमें अतितपस्वी ब्रह्माजीने सब लोकको प्रकाश करनेवाला दिव्य तप सहस्र वर्षतक किया॥८॥ जिससे श्रेष्ठ और कोई नहीं।क्लेश, मोह, संभ्रम जहां नहीं, सत्पुरुषवान् आत्मवेत्ता अपने दर्शन करनेवालोंसे श्रीवैकुण्ठ लोकको प्रसन्नहो भगवान्ने ब्रह्माके लिये दिखाया॥९॥ जिस वैकुण्ठमें राजस, तामस नहीं, शुद्ध सत्त्व जहाँ बर्तैहैं, रज तम मिला सत्त्व गुण जहाँनहीं। जहाँ कालका पराक्रम नहीं

चलता, मायाका नाम नहीं वहां रागादिककी क्या सामर्थ्यहैं? देव असुर जिनका दोनों पूजन करें ऐसे भगवत्के पार्षद जहां हैं॥१०॥ पार्षदोंका वर्णन करतेहैं। श्यामसुन्दर, उज्ज्वल स्वरूप, कमलनयन, पीतांबर प्रहिरे, परममनोहर, अतिसुकुमार, उत्तम २ रत्नमणि जटित॥११॥ सब आभूषण धारण किये अति तेजस्वी मूंगा वैडूर्य मणि कमलके तन्तुकेसी कांतिवाले और देदीप्यमान कुंडल मुकुट माला धारण किये और चार भुजा धारण किये ऐसे सब भगवान् के पार्षद हैं महात्माओंके प्रकाशमान शोभित विमानोंकी पंक्तियोंसे श्रीवैकुंठ लोक सब ओरसे विशेष करके प्रकाशमान होरहा हैं॥१२॥ उत्तम स्त्रियोंकी कांतिसे ऐसा प्रकाशित होरहा है, जैसे बिजुलीसहित मेघमालासे आकाश शोभित होताहैं। दामिनीसदृश तो स्त्रियें हैं।

श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः पिशंगवस्त्राः सुरूचः सुपेशसः॥ सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणिप्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः॥ प्रवालवैडूर्यमृणालवर्चसः परिस्फुरत्कुंडलमौलिमालिनः॥११॥ भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते लसद्विमानावलिभिर्महात्मना॥ विद्योतमानः प्रमदोत्तमादिभिः सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः॥१२॥ श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगाय पादयोः करोति मानं बहुधा विभूतिभिः॥ प्रेंखं श्रिता या कुसुमाकरानुगैर्विगीयमाना प्रियकर्म गायती॥१३॥ ददर्श तत्राऽखिलसात्वतां पतिं श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम्॥ सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः स्वपार्षदमुख्यैः परिसेवितं विभुम्॥१४॥ भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवप्रसन्नहासारुणलोचनाननम्॥ किरीटिनं कुंडलिनं चतुर्भुजं पीतांबरं वक्षसि लक्षितं श्रिया॥१५॥

मेघपंक्तिकी समान विमान हैं, आकाशकी तुल्य वैकुंठ लोक है॥१३॥ वहां वैकुंठमें रूपवती महालक्ष्मीजी श्रीनारायणके चरणोंमें अनेक विभूतियोंसे मानकरैहैं। और हिंडोलेमें झुलावें हैं। वसंतके अनुचर, भ्रमर अनेक २ प्रकारसेगुंजार करते हैं और अपने प्यारे प्रीतमके चरित्रोंको गाती जाती हैं और आनंदसे झूलतीहैं। उस वैकुंठमें सब भक्तोंके पति श्रीभूलीलानायक यज्ञपति जगत्पालक सुनंद, नंद, प्रबल, अर्हण आदि अपने मुख्य पार्षदसबओरसे जिनकी सेवा करें उन समर्थ त्रिलोकीनाथका ब्रह्माजीने दर्शन किया भृत्यजनोंके प्रसादमें जिनका मुख दर्शनकरने वालोंको प्रमदकी नांई हर्षदायक, प्रसन्ननयन, जिनकी मुसकानसे नेत्र मुख लाल हो रहे, शीशपर मुकुट, कानोंमें कुंडल, चार भुजा, पीतांबर धारण किये हृदयों श्रीजी

विराजमान हो रही हैं॥१४॥१५॥ अत्यन्त पूजने योग्य, सिंहासनपर विराजमान, परब्रह्म, प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व अहंकार चार तौ यह, और ग्यारह इन्द्रियें, पंचमहाभूत, सोलह पांच उनकी मात्रा इन शक्तियों और अपने सब स्वाभाविक जो ऐश्वर्य उनसे युक्त, योगियोंका ध्रुव आगामी ऐश्वर्य समेत अपने मंदिरमें सदा रमण करतेहैं॥१६॥ जिनके दर्शनके आनंदसे अंतःकरण प्रसन्न मन रोमाञ्चित देह प्रेमके भावसे नेत्रोंमें आंसूभर आनंदमें मग्नहो ब्रह्माने श्रीवासुदेवके चरणसरोरुहको नमस्कार किया।जिनका दर्शन परमहंसोंको ज्ञानमार्गसे होताहैं, उनका दर्शन ब्रह्माजीने किया॥१७॥ संसारके रचनेमें जो हरिकी आज्ञा उसकी सुन्दरतामें स्थित चित्त उन ब्रह्माजीसे मंद मुसकानकी वाणीसे चिदानंद घनश्याम, आप

अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं वृतं चतुष्षोडशपंचशक्तिभिः॥ युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः स्व एव धामन्रममाणमीश्वरम्॥१६॥ तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतांतरो हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः॥ ननाम पादांबुजमस्य विश्वसृग्यत्पारमहंस्येन पथाऽधिगम्यते॥१७॥ तं प्रीयमाणं समुपस्थितं तदा प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम्॥ बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन्॥१८॥ श्रीभगवानुवाच॥ त्वयाऽहं तोषितः सम्यग्वेदगर्भ सिसृक्षया॥ चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम्॥१९॥ वरं वरय भद्रं ते वरेशं माऽभिवाञ्छितम्॥ ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसो मद्दर्शनावधिः॥२०॥ मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम्॥ यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः॥२१॥

ब्रह्माका हाथसे हाथ पकड़कर॥१८॥ बोले कि, हे वेदगर्भ! विश्वके रचनेकी इच्छासे तुमने हमें बहुत प्रसन्न किया और सहस्र वर्षतक अत्यन्त तप किया, जो मूर्ख योगीजन हैं उनसे मैंबहुत प्रसन्न नहीं होताहूं॥१९॥ हे ब्रह्मा! आपका कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं जो इच्छा हो सो वर मांगो, कल्याणकी प्राप्तिमें पुरुषको जबतक भ्रम है तबतक मेरा दर्शन नहीं होता। अब तुम्हें मेरा दर्शन होगया अब तुमको कोई परिश्रम न होगा। जो इच्छा हो सो मांगो॥२०॥ मेरे मनकी इच्छाका यह प्रभाव है कि मेरे लोकका तुमको दर्शन हुआ।यह मनमें मत विचारना

कि मैंने तपके बलसे यह किया है। स्वतंत्र कभी न होना। मेरीही कृपासे तुमको यह दर्शन हुआ। जो श्रवण करके एकान्तमें तुमने सहस्रवर्ष तप किया॥२१॥ जब कर्मसे तुम विशेष मोहित हुए तब मैंने तुमसे कहा हे पापरहित! तप कर, तप मेरा हृदय है, तप साक्षात् मेरा देह है, तप मेरी भीतरकी शक्ति हैं॥२२॥ तपसेही इस विश्वको रचताहूं, और फिर तपसे ही संसारका पालन व संहार करताहूं। यह तपरूप बडा पराक्रम है, बड़ा दुस्तर हैं। तपका बडा प्रभाव है तप करना बडा कठिन है॥२३॥ ब्रह्माजी बोले कि हे लोकेश! सब जीवमात्रके अधिष्ठाता सबमें स्थित हो, दृढ ज्ञानमें जो करनेकी इच्छा है उसको तुम जानते ही हो॥२४॥ यद्यपि आप ऐसे हैं तौ भी हे नाथ! आपसे जो मांगे ऐसे

प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते॥ तपो मे हृदयं साक्षादात्माऽहं तपसोऽनघ॥२२॥ सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः॥ बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः॥२३॥ ब्रह्मोवाच॥ भगवन्सर्वभूतानामध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम्॥ वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम्॥२४॥ तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम्॥ परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः॥२५॥ यथाऽऽत्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम्॥ विलुंपन्विसृजन्गृह्णन्बिभ्रदात्मानमात्मना॥२६॥ क्रीडस्यमोघसंकल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते॥ तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव॥२७॥ भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतंद्रितः॥ नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं त्वदनुग्रहात्॥२८॥ यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः प्रजाविसर्गे विभजामि भोजनम्॥ अविक्लवस्ते परिकर्मणि स्थितो मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः॥२९॥

मनुष्यको जो याचित पदार्थ है सो तुम हो। निर्गुण तुम्हारे सूक्ष्म स्थूलको जैसे जानूं सो कहो॥२५॥ जैसे आप मायाके संयोगसे अनेक प्रकारकी शक्तियोंसे वर्द्धित विश्वका संहार रचना पालन आपही चतुरानन आदिरूप धारणकर क्रीड़ा करतेहो॥२६॥ हे अमोघसंकल्प! जैसे मकड़ी अपने तन्तुओंके जालसे आप फैल जाती है ऐसे ही आप क्रीडा करते हैं। हे माधव! अब आप दयाकरके सृष्टिके रचनेकी बुद्धि मेरे हृदयमें धारणकरो॥२७॥ जो आपसे शिक्षित होकर मैं निरालस्य हो तुम्हारे अनुग्रहसे प्रजासर्गकी चेष्टा करूंगा; परंतु अहंकारका बंधन न हो॥२८॥ हे ईश! तुमने लौकिक सखाकी समान जान, स्वर्गादिकमें मेरा सन्मान किया। सो प्रजाके रचनेरूप कर्ममें अव्याकुल

होकर उत्तम मध्यमादिक भेदसे जीवका विभाग करूं तब “अजमानी” मुझको यह महामद न होय सो कीजे॥२९॥ श्रीभगवान्जी बोले कि मेरा शास्त्रोक्तज्ञान अत्यन्त छिपाहुआ है वह अनुभव, भक्ति, सब साधन सहित है सो कहताहूं तुम श्रवण करो॥३०॥ स्वरूपसे जैसे हम हैं, और जैसे सत्तावान् हैं; जो रूप कर्म गुण हमारे हैं, इसी प्रकार तत्त्वोंका ज्ञान विशेष करके मेरी कृपासे तुमको होय॥३१॥ इस सृष्टिसे पहले मैं ही था अतिरिक्त मेरे और दूसरा कोई नहीं था, अरु स्थूल सूक्ष्म इनका परम कारण कुछ भी नहीं था। पीछे सृष्टिका कारण मैं ही हूं, पीछे सृष्टिके उपरान्त भी मैंही हूं॥३२॥ जो यह विश्व है सो भी मैंहीं हूं, जो कुछ शेष रहेगा सो भी मैंहीं हूं। जो कुछ सब सृष्टिका मूल हैं सोभी मैंहीं हूं। जिस प्रकार सुवर्णके अलंकार नाक, कान, हाथ पांवके भिन्न २ होतेहैं। जैसे कंकण, कुण्डल, कर्णफूल, मालादिक पृथक २ होतेहैं,

श्रीभगवानुवाच॥ ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्॥ सरहस्यं तदंगं च गृहाण गदितं मया॥३०॥ यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः॥ तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्॥३१॥ अहमेऽऽवासमेवाऽग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्॥ पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥३२॥ ऋतेऽर्थे यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि॥ तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥३३॥ यथा महांति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु॥ प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥३४॥ एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा॥३५॥

जब सबको गलादिया तो फिर केवल कंचनका कंचन, इसी भाँति मुझको समझना कि अनादि अनन्त अद्वितीय परिपूर्ण मैंही हूं अर्थके बीच जो प्रतीत होता है और आत्मामें प्रतीत नहीं होता है उसको मेरी माया जानो। जैसे दो चन्द्रमा प्रतीत होते हैं। जैसे राहु ग्रहमंडलमें स्थित हैं परन्तु दीखता नहीं। ग्रहणके द्वारा दीखता है। इसप्रकार यह माया कार्योंके द्वारा दीखती है। साक्षात् प्रगट नहीं होती॥३३॥ जैसे पंचमहाभूतसे संसारीके छोटे बड़े जीवमात्रमें प्रविष्ट, अप्रविष्टकी समान विदित होते हैं ऐसेही प्रकारमैं उनमें ज्ञात नहीं होताहूं॥३४॥ आत्मतत्त्वके जाननेवालेको इतनाही जानना योग्य है। अन्वय, व्यतिरेकसे जो सब ठौर सदा ही ईश्वर हैं। कार्यमें कारण भावसे जो सदा वर्ते उसका नाम

अन्वय है।कारण अवस्थामें उनसे अलग रहे वह व्यतिरेक॥३५॥ हे ब्रह्मा! एकाग्रचित्त करके परम समाधिसे तुम इस मतमें स्थिर रहोगे तौ तुम कल्पों विकल्पोंमें जो अनेक प्रकारकी सृष्टि हैं उसका तुमको कभी भी यह अभिमान न होगा कि इस संसारका कर्त्ता मैं हूं॥३६॥ इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि मनुष्योंमें श्रेष्ठ जो ब्रह्माजी हैं उनसे अजन्मा ईश्वर यह कहकर अंतर्धान होगये॥३७॥ आदिरूप अविनाशी जगदीश्वरके अन्तर्धान होने उपरान्त सब जीवमय ब्रह्मा श्रीविश्वनाथको हाथ जोड़कर विश्वको पहलेकी रीतिसे रचना आरम्भ करनेलगे॥३८॥ प्रजापति धर्मपतिने एक समय यम नियमको प्रजाके कल्याणके लिये और अपने स्वार्थकी कामनाके लिये रचना की और यम नियमा

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना॥ भवान्कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्॥३६॥ श्रीशुक उवाच॥ संप्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम्॥ पश्यतस्तस्य तद्रूपमात्मनो न्यरुणद्धरिः॥३७॥ अंतर्हितेंद्रियार्थाय हरये विहितांजलिः॥ सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत्॥३८॥ प्रजापतिर्धर्मपतिरेकदा नियमान्यमान्॥ भद्रं प्रजानाम न्विच्छन्नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया॥३९॥ तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः॥ शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च॥४०॥ मायां विविदिषन्विष्णोर्मायेशस्य महामुनिः॥ महाभागवतो राजन्पितरं पर्यतोषयत्॥४१॥ तुष्टं निशम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम्॥ देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान्यन्माऽनुपृच्छति॥४२॥ तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम्॥ प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत्॥४३॥

कमें आप स्थितहुये॥३९॥ अतिप्रिय भागलेनेवालोंमें पुत्रोंमें पिता ब्रह्मामें अनुरक्त शील नम्रतादि शुश्रूषा करनेहारे नारदजी ब्रह्माजीकी ……वा करने लगे॥४०॥ हे राजन्! मायाके ईश्वर व्यापक विष्णुकी मायाको जाननेकी इच्छाकर महामुनि महाभागवत नारदजीने पिताको प्रसन्न “वेवेष्टीति विष्णुः” सबमें व्यापै उसका नाम विष्णु है; व्याकरणमें विष्ऌ व्याप्तौ धातु हैं उससे विष्णुशब्द व्युत्पादित होताहैं॥४१॥ सब ……मह ब्रह्माको प्रसन्न जानकर नारदने बूझाथा, जो आप हमसे पूछतेहैं॥४२॥ दश लक्षणयुक्त, अत्यन्त शोभायमान, श्रीभागवत पुराण जो

भगवान् ने ब्रह्माजीसे कहा और उन्होंने अपने प्रियपुत्र नारदसे कहा॥४३॥ हे पृथ्वीनाथ! सरस्वतीके तटपर नारदजीने परब्रह्मके ध्यानी, परमज्ञानी, महातेजस्वी, व्यास मुनिको सुनाया॥४४॥ जो हमसे तुमने जिज्ञासा किया कि विराट् पुरुषसे यह विश्व कैसे होता है? वह, और तुम्हारे कहे हुए सब प्रश्न, और और भी बातें जैसी हैं तैसेही कहैंगे॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां चतुःश्लोकीभागवतवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ दोहा— तहँ शुकदेव प्रमोदभर, लक्षण दशहु पुरान। भूप परीक्षितसे कहत, संयुत अर्थ महान॥१०॥ श्रीशुकदेवजी बोले कि अब सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति, आश्रय॥१॥

नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप॥ ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासायाऽमिततेजसे॥४४॥ यदुताऽहं त्वया पृष्टो वैरा जात्पुरुषादिदम्॥ यथाऽऽसीत्तदुपाख्यास्ये प्रश्नानन्यांश्च कृत्स्नशः॥४५॥ इति श्रीमद्भागवते म० द्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः॥९॥ श्रीशुक उवाच॥ अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः॥ मन्वंतरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः॥१॥ दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम्॥ वर्णयंति महात्मानः श्रुतेनाऽर्थेन चांजसा॥२॥ भूतमात्रेंद्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृतः॥ ब्रह्मणो गुणवैषम्याद्विसर्गः पौरुषः स्मृतः॥३॥ स्थितिर्वैकुंठविजयः पोषणं तदनुग्रहः॥ मन्वंतराणि सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः॥४॥

दशवें आश्रयलक्षणकी विशेष शुद्धिके लिये नौ लक्षण महात्मा लोग सुने अर्थसे अनायाससे वर्णन करते हैं अथवा श्रुतियोंसे कहतेहैं॥२॥ अब दशों लक्षणोंका वर्णन करते हैं। नभ, मही, जल, तेज, वायु, गंध, शब्द, स्पर्श, रूप, रस।पायु, उपस्थ, पद, कर, वाक्, यह पांचों कर्मेन्द्रिय हैं। नाक, कान, रसना, त्वचा, नेत्र, यह पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। अहंकार, मन, बुद्धि, अंतःकरण, इन पंच भूतमात्रा इंद्रियोंकी उत्पत्तिको सर्ग कहते हैं।ब्रह्मासे गुणकी विषमता होनेसे विराट् पुरुषसे जो उत्पन्न हुआ उसका नाम विसर्ग है॥३॥वैकुंठका विजय यह है कि परमात्माकी रचीहुई मर्य्यादाओंका पालन करना, इसका नाम स्थान है, अपने भक्तोंपर कृपा करना इसका नाम पोषण हैं। मन्वन्तरोंके

अधिपतियोंका जो धर्म वा सद्धर्मका नाम मन्वन्तर है। कर्मकी वासनाका नाम ऊति हैं॥४॥ श्रीआदिपुरुष नारायणके अवतारोंका चरित्र और इनके पीछे महात्मा पुरुषोंके नाना प्रकारके आख्यानोंकी अधिक वार्ताका नाम ईशकथा हैं॥ ५॥ इस ईश्वरकी योगनिद्राके पश्चात् शक्ति और उपाधियोंसहित लय होजानेका नाम निरोधहैं।अन्यथा रूपको त्याग करके अपने स्वरूपमें स्थिति होनेका नाम मुक्ति है॥६॥ जो सृष्टिको उत्पन्न पालन और लय करता है; जिसको परब्रह्म कहते हैं उसीका नाम आश्रय है॥७॥ यो यह आध्यात्मिक पुरुष है, सोई

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम्॥ पुंसामीशकथाः प्रोक्ता नानाख्यानोपवृंहिताः॥५॥ निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः॥ मुक्तिर्हित्वाऽन्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः॥६॥ आभासश्च निरोधश्च यतश्चाऽध्यवसी यते॥ स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते॥७॥ योऽऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसावेवाधिदैविकः॥ यस्तत्रो भयविच्छेदः पुरुषो ह्याधिभौतिकः॥८॥ एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे॥ त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः॥९॥ पुरुषोंडं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गतः॥ आत्मनोऽयनमन्विच्छन्नपोऽस्राक्षीच्छुचिः शुचीः॥९॥१०॥ तास्ववात्सीत्स्वसृष्टासु सहस्रपरिवत्सरान्॥ तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः॥११॥ द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च॥ यदनुग्रहतः संति न संति यदुपेक्षया॥१२॥ एको नानात्वमन्विच्छन्योगतल्पात्समुत्थितः॥ वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत्त्रिधा॥१३॥

यह आधिदैविक हैं; जो इनमें विभक्त है सोई आधिभौतिक हे॥८॥ एकको एकके अभावमें जब नहीं प्राप्त होता हैं उसमें जो दृक्, रूप, सूर्य, वपु, इस त्रितयको जो जानताहैं सो आत्मा अपने आश्रय है, उसकोभी आश्रय कहते हैं॥ ९॥ जब विराट्पुरुष अंडको भेदकर बाहर निकले, तब अपने रहनेके अर्थ स्थानकी इच्छा करी, तब आप ईश्वर पवित्र हैं इस कारण पवित्र जलकी रचना की॥१०॥ अपने रचेहुये जलमें सहस्र वर्षतक वास किया, तदनन्तर परब्रह्म सच्चिदानंदने नररूप धारण किया, इस कारण नारायण नाम हुआ॥११॥ द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव, जीव, जिनकी कृपासे होता हैं और जिनकी इच्छा नहीं होय तो नहीं होय॥१२॥ एक परमात्माने जब नानाप्रकार होनेकी इच्छा की तबयोग

शय्यासे उठ सुवर्णमय अपने वीर्यके तीन भाग किये॥१३॥ अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत, इनको ईश्वरने रचा, एक पुरुषका वीर्य तीन प्रकारके भेदोंको प्राप्त हुआ सो तुम ध्यान धरके सुनो॥१४॥जब विशेष चेष्टा की तब पुरुषमेंसे इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति, देहशक्ति यह हुईं और सबमें मुख्य प्राण हुए॥१५॥ सब जीवोंमें ईश्वर प्राणरूप चेष्टा करता है, सो सब इन्द्रियें चेष्टा करती हैं, जो चेष्टाका त्याग करताहै तौ प्राणभी चेष्टा त्याग करते हैं।जैसे राजाके पीछे राजाका भृत्य, राजा चलै तौ भृत्य भी चलै, राजा खड़ा होजाय तौ भृत्यभी खड़े होजाते हैं॥१६॥एक देह जो परमात्माने रची, तब उसमें प्राणने प्रेरणा की, तब भूँख प्यास हुई, तब जल पीने और भोजन करनेको प्रथम मुख निकला, यहां यह

अधिदैवमथाऽध्यात्ममधिभूतमिति प्रभुः॥ यथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधाभिद्यत तच्छृणु॥१४॥ अंतश्शरीर आकाशात्पुरूषस्य विचेष्टतः॥ ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महानसुः॥१५॥ अनुप्राणंति यं प्राणाः प्राणंतं सर्वजंतुषु॥ अपानंतमपानंति नरदेवमिवानुगाः॥१६॥ प्राणेन क्षिपता क्षुत्तृडंतरा जायते प्रभोः॥ पिपासतो जक्षतश्च प्राङ्मुखं निरभिद्यत॥१७॥ मुखतस्तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्रोपजायते॥ ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते॥१८॥ विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग्व्याहृतं तयोः॥ जले वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत॥१९॥ नासिके निरभिद्येतांदोधूयति नभस्वति॥ तत्र वायुर्गंधवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः॥२०॥ यदात्मनि निरालोकमात्मानं च दिदृक्षतः॥ निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिश्चक्षुर्गुणग्रहः॥२१॥

बात जाननी उचित हैं कि तालु अधिष्ठान है, जिह्वा इन्द्रिय है, नाना प्रकारके रस विषय हैं, वरुण देवता हैं यह सर्वत्र जान लेना॥१७॥ मुखसे तालु हुआ तहां जिह्वा हुई जीभसेअनेक प्रकारके स्वादोंका ज्ञान हुआ॥१८॥ फिर कुछ बोलनेकी इच्छा हुई उस समय जीवकी अग्निदेवता।वाणी इन्द्रिय सुन्दर शब्द निकला, परन्तु जलमें वचनकी रुकावट होतीहै; नासिकाका पवन जब अत्यन्त चलायमान हुआ; तब नासिका हुई, वायु जिसका देवता है।सो सुगन्धदाता घ्राण इन्द्रिय सूंघनेको हुई॥१९॥ २०॥ जब देखनेकी इच्छा हुई कुछ न

देखा, देवतात्मक रूपगुण करनेहारी चक्षु इन्द्रिय हुई॥२१॥ जब वेदवचन सुननेकी इच्छा हुई तबदिशादेवता वारिदेवता श्रोत्र श्रवण इन्द्रिय गुणके ग्रहण करनेहारे कान निकले॥२२॥ वस्तुओंकी कोमलता, कठिनता, लघु, गुरु, उष्ण, शीतके ज्ञानकी इच्छा हुई।तब केश रोम जिसमें वृक्ष समान ऐसी त्वचा उत्पन्न हुई बाहर भीतर पवनके प्रवेश गुणवारी त्वचासे स्पर्शका ज्ञान हुआ। उसमें सर्व लोकोंके पालन करनेवाले पवन देवने प्रवेश किया॥२३॥ जब अनेक प्रकारके कर्म करनेकी इच्छा हुई तबवल इन्द्रिय इन्द्र देवतात्मक सबपदार्थोंको धरने उठानेके कर्म योग्य दो हाथ बने॥२४॥ जब इसकी इच्छा हुई कि जहां मेरा मन होय तहां जाऊं, तब विष्णु भगवान् जिनके देवता, यज्ञादिकके समिधादिक लाना

बोध्यमानस्य ऋषिभिरात्मनस्तज्जिघृक्षतः॥ कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः॥२२॥ वस्तुनो मृदुकाठिन्यलघुगुर्वोष्णशीतताः॥ जिघृक्षतस्त्वङ्निर्भिन्ना तस्यां रोममहीरुहाः॥ तत्र चांतर्बहिर्वातस्त्वचा लब्धगुणो वृतः॥२३॥ हस्तौ रुरुहतुस्तस्य नानाकर्मचिकीर्षया॥ तयोस्तु वलमिंद्रश्च आदानमुभयाश्रयम्॥२४॥ गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम्॥ पद्भ्यां यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः॥२५॥ निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानंदामृतार्थिनः॥ उपस्थ आसीत्कामानां प्रियं तदुभयाश्रयम्॥२६॥ उत्सिसृक्षोर्धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम्॥ ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः॥२७॥ आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारमपानतः॥ तत्रापानस्ततो मृत्युः पृथक्त्वमुभया श्रयम्॥२८॥ आदित्सोरन्नपानानामासन्कुक्ष्यंत्रनाडयः॥ नद्यः समुद्राश्च तयोस्तुष्टिः पुष्टिस्तदाश्रये॥२९॥

और अनेक कर्म करने तथा तीर्थगमन योग्य चरण प्रगट हुये॥२५॥ जब यह इच्छा हुई कि पुत्र होवें; विषय आनन्द अमृत सुख हो तब शिश्न इन्द्रिय प्रजापति जिसके देवता, कामप्रिय लिंग बनाया, जो दोनों कार्य करे॥२६॥ भोजन करने उपरांत जब उसके मल त्यागनेकी इच्छा तब पायु इन्द्रिय मल त्याग कर्मयुक्त मित्र देवतात्मक उभयकार्यसाधक गुदा हुई॥२७॥ जब इस देहरूप पुरीसे देहरूप पुरोंमें जानेकी अभिलाषा हुई तब नाभिद्वारकी अपान वायुसे अपानद्वारा मृत्यु होना, पृथक् होना दोनों कार्यसाधक नाभि उत्पन्न हुई॥२८॥ जब अन्न पानी ग्रहण करनेवाली इच्छा हुई।तब कोप, कुक्षि, आँतें, नाड़ियें हुईं, नदियें समुद्र कोप पानीके देवता हुए। पुष्टि तिनके

आश्रयरूप हुई॥२९॥ ईश्वरकी मायाके अत्यन्त चिन्तवनकी इच्छा हुई तब हृदय हुआ। उस हृदयमें मन चन्द्रमा देवता समेत संकल्प काम इत्यादिक हुए॥३०॥ त्वक्, चर्म, मांस, रुधिर, मेदा, मज्जा, हाड़ यह सप्तधातु हुईं, सप्तप्राण और सप्तधातुयें; भूमि, जल, तेज, वायु, आकाशसे होतेहैं॥३१॥ सब इन्द्रियें गुणोंसे होती हैं, और गुण अहंकारसे होतेहैं, मन सब विकारका स्वरूप है; बुद्धि विशेष ज्ञानकी रूपिणी हैं॥३२॥ यह नारायणका स्थूलरूप मैंने तुमसे कहा, जो पृथ्वीसे आदि आठ आवरणसे बाहर व्यापते हैं॥३३॥ मायासे परे सूक्ष्मतम अव्यक्त, विशेषण रहित अनादिमध्य अनंत सदा एकरूप वाणी मनसे परे वह परमात्मा है॥३४॥ यह दोषगुण निर्गुणरूप आदिपुरुष नारायणके मैंने तुमसे

निदिध्यासोरात्ममायां हृदयं निरभिद्यत॥ ततो मनस्ततश्चंद्रः संकल्पः काम एव च॥३०॥ त्वक्चर्ममांसरुधिरमे दोमज्जास्थिधातवः॥ भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमांबुवायुभिः॥३१॥ गुणात्मकानींद्रियाणि भूतादिप्रभवा गुणाः॥ मनः सर्वविकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी॥३२॥ एतद्भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया॥ मह्यादिभिश्चावरणै रष्टभिर्बहिरावृतम्॥३३॥ अतः परं सूक्ष्मतममव्यक्तं निर्विशेषणम्॥ अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ्मनसः परम्॥३४॥ अमुनी भगवद्रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते॥ उभे अपि न गृह्णंति मायासृष्टे विपश्चितः॥३५॥ स वाच्यवाचकतया भगवान्ब्रह्मरूपधृक्॥ नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माऽकर्मकः परः॥३६॥ प्रजापतीन्मनून्देवानृषीन्पितृगणान्पृथक्॥ सिद्धचारणगंधर्वान्विद्याध्रासुरगुह्यकान्॥३७॥ किन्नराप्सरसो नागान्सर्पान्किंपुरुषोरगान्॥ मातृरक्षः पिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान्॥३८॥ कूष्मांडोन्मादवेतालान्यातुधानान्ग्रहानपि॥ खगान्मृगान्पशून्वृक्षान्गिरीन्नृप सरीसृपान्॥३९॥

वर्णन किये, परन्तु इस मायाके रचे विद्वान् लोग दोनोंको ग्रहण नहीं करते॥३५॥ सो भक्तवत्सल ब्रह्मरूपधारी कुछ कर्म नहीं करते। वह परमेश्वर कर्मकारक वाच्यरूपसे नाम धारण करते, और वाच्यरूपसे रूप क्रिया धारण करते हैं॥३६॥ जो जो रूप यशोदानंदन जगत्कार्यके अर्थ धरते हैं सो हम आपसे कहतेहैं, कि प्रजापति, मनुदेवता, पित्रोंके गण पृथक् २ सिद्ध, चारण, गंधर्व, विद्याधर, सुर, गुह्यक॥३७॥ किन्नर, अप्सरा, सर्प, वानर, उरग, सप्तमातृका, राक्षस, पिशाच, भूत, प्रेत, विनायक॥३८॥ कूष्माण्ड, उन्मादकारी ग्रह, वेताल, यातुधान,

पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, रेंगनेवाले जीव, सरीसृप॥३९॥ स्थावर, जंगमरूप दो प्रकारके जीव, और जल, स्थल, आकाशवासी जीव, उत्तम नीच कुछ २ दोनों मिलेहुए यह कर्मकी गतियें हैं।यह सब रूप भगवान्ने धारण किये॥ ४०॥ हे राजन्! सत्त्व, रज, तम इन तीनोंसे देवता मनुष्य नारकी जीव होतेहैं। उनमें भी एक २ गति तीन तीन प्रकारसे भेदको प्राप्त होती है जब एक और गुणसे और प्रकारका होजाता है, तब स्वभाव नष्ट होताहै। जिसका जैसा स्वभाव होताहै उसकी गतिभी उसी प्रकार होजाती है॥४१॥ वही भगवान् वासुदेव धर्मरूपधारी जगत्के धारण करनेवाले इस विश्वमें तिर्यक् पशु पक्षियोंमें अवतार लेकर इसका स्थापन कर पुष्ट करते हैं॥४२॥ इसके उपरान्त काल अग्नि

द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जलस्थलनभौकसः॥ कुशलाऽकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः॥४०॥ सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुरनृनारकाः॥ तत्राप्येकैकशो राजन्भिद्यंते गतयस्त्रिधा॥ यदैकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते॥४१॥ स एवेदं जगद्धाता भगवान्धर्मरूपधृक्॥ पुष्णाति स्थापयन्विश्वं तिर्यङ्नरसुरात्मभिः॥४२॥ ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टमिदमात्मनः॥ संनियच्छति कालेन घनानीकमिवानिलः॥४३॥ इत्थंभावेन कथितो भगवान्भगवत्तमः॥ नेत्थं भावेन हि परं द्रष्टुमर्हंति सूरयः॥४४॥ नास्य कर्माणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते॥ कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययाऽऽरोपितं हितत्॥४५॥ अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः॥ विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः॥४६॥ परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षणविग्रहम्॥ यथा पुरस्ताद्व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो शृणु॥४७॥

रूप, रुद्रान्तर्यामी ईश्वर जिस्में यह सब रचा हुआ है। इस संसारका कालसे संहार किया करते हैं। जैसे मेघके समूहको पवन उड़ा देताहै॥४३॥ इस प्रकारसे भगवान् भक्तवश्यका वर्णन किया इस भावके विना और प्रकारसे बड़े २ विवेकी लोग भी उन्हें नहीं देख सक्ते॥४४॥ इन परमेश्वरके जन्मादिक और कर्मकर्तापनेके भाव मायासे होते हैं॥४५॥ यह ब्रह्माका कल्प विकल्पसहित कहा। जहां साधारण विधि है जिसमें प्राकृत वैकृत सर्ग होते हैं॥४६॥ परिमाण, कल्प, लक्षण, विग्रह, स्थूल, सूक्ष्म कालको तृतीयस्कंधमें कहैंगे, अब

पाद्मकल्प सम्पूर्णतासे कहते हैं सो सुनो॥४७॥ शौनकजी बोले कि हे सूतजी!जो तुमने कहा कि हमने भागवतोत्तम विदुरजीको समझा है जो त्यागने रहित बांधोंवोंका त्याग कर पृथ्वीके सब तीर्थोंमें विचरते फिरे॥४८॥ मैत्रेय और विदुरजीका कहा संवाद जिसमें ब्रह्मविद्याका वर्णन था।अथवा मैत्रेयजीने उनसे बूझा तौविदुरजीने उनसे क्या तत्त्वज्ञान कहा?॥४९॥ हे सौम्य!उन विदुरजीकी कथाका वर्णन करो;

शौनक उवाच॥ यदाह नो भवान्सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः॥ चचार तीर्थानि भुवस्त्यक्त्वा बंधून्मुदुस्त्यजान्॥४८॥ कुत्र कौषारवेस्तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः॥ यद्वा स भगवांस्तस्मै पृष्टस्तत्त्वमुवाच ह॥४९॥ ब्रूहि नस्तदिदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम्॥ बंधुत्यागनिमित्तं च तथैवागतवान्पुनः॥५०॥ सूत उवाच॥ राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यदवोचन्महामुनिः॥ तद्वोऽभिधास्ये शृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे पुरुष संस्थानुवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥ इति द्वितीयस्कंधः समाप्तः॥२॥

बांधवोके त्यागनेका कारण, और फिर किस प्रकार प्रत्यावर्तन किया सो सब विस्तारसहित वर्णन कीजे॥५०॥ सूतजी बोले कि, जो राजा परीक्षित्ने व्यासनन्दन शुकदेवजीसे बूझाथा, और भूपालसे जो कुछ भगवान् महामुनि शुकदेवजीने कहा सो राजेन्द्रके ही प्रश्न अनुसार हम तुमसे कहतेहैं ध्यान लगायकर सुनो॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वितीयस्कन्धे भाषाटीकायां पुरुषसंस्थानुवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

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इदं पुस्तकं मुम्बय्यां श्रीकृष्णदासात्मजेन क्षेमराजेन स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणयन्त्रालयेऽङ्कयित्वा प्रकाशितम्। संवत् १९७०, शके १८३५.

इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते द्वितीयस्कन्धः समाप्तः॥

  1. “वह पांच हत्या यह हैं १ ऊखल, २ चक्की, ३ चूल्हा, ४ पलहडी, ५ बुहारी इन स्थानोंमें सदा जीव मरते हैं।” ↩︎

  2. " शंका—भगवान् की आज्ञाको पाकर ब्रह्मा कमलके फूलपर बैठकर तपस्या करनेलगे, परन्तु उस तपका क्या नाम हैं तप तो अनत हैंब्रह्माने कौनसा तप किया ?॥ उत्तर—ब्रह्मा नारायणकी आज्ञा पाकर अपने मनको हृदयमें स्थिर करके बडे प्रेमसे नारायणके नामका जप करने लगे सो परम तप हैं॥" ↩︎