॥ अथ श्रीमद्भागवतं भाषाटीकायुतं सदृष्टान्तं प्रारभ्यते ॥ |
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श्रीगणेशाय नमः॥॥ सोरठा–ऋद्धिसिद्धिदातार, सिद्धिसदन वारणवदन॥सुमिरौं बारंबार, मदनकदनके लालको॥१॥ गणपति कृपानिधान, देहु हर्षि वरदान म्वहिं॥ भाषातिलक प्रमान, वरणहुँ श्रीभागवतको॥२॥ जयशिवआनँदकन्द, भूतनाथ भवभयहरण॥ भक्तिविषयनिर्द्वन्द, गौरवर्ण मंगलकरण॥३॥ हे व्रजचन्द मुकुन्द, व्रजभूषण दूषणहरण॥ काटहु भवभयफन्द, चरणशरणलीआनकर॥४॥ जयजयजयजगदेव, सेवत शेषमहेश अज॥ महिमाअमितअभेव, वेदभेदजानतनहीं॥५॥ देहु मोहिं वरदान, राधावर यह वर सदा॥ प्रेमभरीमुसकान, नित चितमें खटकरहै॥६॥ मुहिचाहियेकछुनाहिं, और वस्तुप्रभुजगतकी॥ वसीरहैमनमाहिं, यहबांकी झांकी सदा॥७॥ लिये लकुटियाहाथ, गायनकेपाछे फिरत॥ ग्वालबाल लियेसाथ, मोरमुकुटशिरपरधरे॥८॥ करमुरली उरमाल, शीशमुकुट कटिपीतपट॥ याछबिसोंनँदलाल, बसहुहृदयममनिशिदिवस॥९॥ गुरुपदरजधरिशीश, तिलकभागवतकोरचहुॅ॥ जोशुकदेवमुनीश, कह्योपरीक्षितनृपतिसों॥१०॥ श्रीभगवत्कलावतार
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श्रीवेदव्यासजीने अनेकपुराण और अनेकशास्त्र तथा महाभारतादिक प्रबन्ध किये, परन्तु चित्तको शान्ति न हुई और उन उन शास्त्रोंके कहेहुए सिद्धान्तोंमें अप्रसन्न हुए, भगवत् केअवतार श्रीनारदमुनिके उपदेशसे श्रीमद्भागवतशास्त्र रचा, जिसमें श्रीभगवत् ही के गुण वर्णन किये, उसके प्रारम्भमें विघ्नकी निवृत्ति और आनन्दकी सिद्धिके लिये श्रीभागवतके इष्टदेवका स्मरणरूप मंगलाचरण करते हैं। श्रीभगवान् व्यासजी, ग्रन्थके मंगलाचरणमें परमेश्वरका स्वरूपलक्षण और तटस्थलक्षणसे वर्णन करते हैं – प्रथम स्वरूपलक्षणको कहते हैं, जो परमेश्वर त्रिकालमें एकरस सत्यस्वरूप हैं, जिसमें मायाके सत, रज, तम, तीन गुण अपने (पंचभूत इन्द्रिय देवतारूप प्रपंच) कार्य सहित सर्वत्र मिथ्या भासते हैं, जिस अधिष्ठान ब्रह्मकी सत्यतासे
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प्रश्न- कवियोंने छोटेसे छोटे ग्रन्थ बनाये और बडे बडे ग्रन्थभी बनाये परन्तु मगलाचरणके दश दश पांच पांच श्लोक सबने कहे और व्यासजीनेभी छोटे २ ग्रन्थोमें मगलाचरणके श्लोक बनाये और बडे ग्रन्थोंमे तो देवी देवता सबही मनाये परन्तु श्रीमद्भागवत पुराणकी आदिमें गणेशकी वा गुरुकी वंदनामें एक श्लोकभी नहीं लिखा केवल विना प्रीति ब्रह्मका ध्यान व्यासने दोश्लोकोंमें किया जो ब्रह्मका ध्यानभीदश बीस श्लोकोंमें प्रीतिसहित करते तो हमारे मनमे ऐसी शंकाभी न होती, अब इस हमारी भारी शंकाको निवारण करो कि मंगलाचरण न होनेका क्या कारण है?।
उत्तर- जबबडे बुद्धिमान् व्यासजीने अठारह पुराण अनेक शास्त्र और इतिहास बनाये परन्तु उनके मनको संतोषन हुआ तब भगवान् के चरित्र गानेके लिये नारदमुनिने व्यासजीको उपदेश किया, उस समय हर्षरूप समुद्रमे व्यासजी मग्न होगये, जैसे कामी पुरुष सुंदर स्त्रीको पाकर सुखी होताहै, वैसेही नारदमुनिकी आज्ञा पाकर व्यासजी सुखीहुए और श्रीमद्भागवतके बनानेकी इतनी शीघ्रता की कि, मंगलाचरणका बनानाही भूल्गये, आतुरतामे एक श्लोक अकेले ब्रह्मके ध्यानमें लिखदिया।
असत्य प्रपंच सत्यकी समान दृष्टि आता है इस कारण वह सब सत्य है जैसे किसीको रात्रिके समय ऊपरभूमिमें जलका भ्रम और थलका भ्रम होता है और दिनमें मरु मरीचिकामें जल दृष्टि आता है जैसे कांचमें जलका भ्रम होताहै यह सब भ्रम अधिष्ठानकी सत्यतासे सत्यही दिखाई देते हैं ऐसेही अधिष्ठान ब्रह्मकी सत्यतासे मिथ्या भी प्रपंच सत्यसम दीखता है अथवा ब्रह्मकी ही पारमार्थिकी सत्यता कथन करनेके हेतु प्रपंचको मिथ्याभाव वर्णन कियाहै"जिस ब्रह्म में यह प्रपंच सर्व कालमें असत्य है कभी सत् नहीं है" इसके कहने से ब्रह्ममें प्रपंचरूपी उपाधिका सम्बन्ध कहाहै उसकी निवृत्ति करते हैं, जिसने अपने तेजसे सर्व कालमें मायाके लक्षण कपट दूर किये हैं अन्धकारमें जो रस्सी पड़ी हो और उसमें किसीको सर्प प्रतीत हुआ सो वास्तवमें उस सर्प और रस्सीका कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसेही अधिष्ठान ब्रह्ममें अज्ञान अवस्थामें जो प्रपंच प्रतीत होता है उसका ज्ञान अवस्थामें कुछभी सम्बन्ध नहीं, उस परमेश्वरका हम ध्यान करते हैं। अबतटस्थ लक्षणसे कहते हैं जो इस विश्वका, उत्पत्ति, पालन, प्रलय करताहै जो घट
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ अथ श्रीमद्भागवतं प्रारभ्यते॥जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यंति यत्सूरयः॥ तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषाधाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥१॥
पटादिक पदार्थोंमें सत्य रूपसे व्यापक और अकार्य अथवा प्रपंचका सत्तारूप कारण है जैसे घटका कारण मृत्तिका और कुण्डलादिक आभूषणका कारण सुवर्ण है अथवा ब्रह्मका विश्व, मृत्तिकाका घट, सुवर्णका कुण्डल कार्य है, जो जिसका कार्य है वह उससे भिन्न नहीं। श्रुतिमें लिखा है “यतो वेति”जिससे सम्पूर्ण जीव उत्पन्न होतेहैं और उत्पन्न हुएहैं, जिसके जिवाये जीतेहैं और प्रलयकालमें जिसमें समातेहैं और मुक्तिकालमें जिसमें प्रविष्ट होतेहैं और स्मृतिमें भी लिखाहै “यतः सर्वाणीति” युगकी आदिमें जिस ब्रह्मसे सब जीव उत्पन्न होते हैं और युगके अन्तमें सब उसीमें लय हो जातेहैं इत्यादिक।यदि कोई कहै कि, जगत् काकारण तौ जड माया है उसका ध्यान करते हैं? सो कहते हैं, हम सर्वज्ञ स्वतः सिद्ध ज्ञानवान् जिसने सबसे पूर्व ब्रह्माको उत्पन्न किया उसके हृदयमें वेदोंका प्रकाश किया जो सत्यस्वरूप है जिसकी सत्यता से असत्य प्रपंच सत्यसा दीखता है जो मायारूपी कपटजालसे दूर है उस परमेश्वरका ध्यान करते हैं॥१॥
इस श्रीमद्भागवतमें ईश्वराराधनाके वह धर्म वर्णन करते हैं जिसमें मोक्ष पर्यंत फलचाहनारूप कपटका लेश नहीं इस कारण यह कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्डविषयक शास्त्रोंसे श्रेष्ठ है अब अधिकारियोकी श्रेष्ठता कहते हैं, जो मत्सर रहित कृपालु संत हैं, यहां कर्मकाण्डकी श्रेष्ठता कही, उनको परमार्थरूप वस्तु (यहां द्रव्य गुणादिक वास्तव परमार्थ वस्तु नहीं कहे हैं) जानने योग्य है, अथवा वस्तु जो ब्रह्म उसका अंश जीवहै और वस्तुकी शक्ति मायाहै यह तीनों ब्रह्मरूपहैं भिन्न नहीं हैं यह विना यत्नही जाननेके योग्य है क्योंकि परम सुखदायक और अध्यात्म, अधिदैव, अधिभूत इन तीनों तापोंको जडसे उखाडनेहारा है! ज्ञानकाण्डकी श्रेष्ठता दिखाकर अब कर्त्ताकी श्रेष्ठता दिखातेहैं, महामुनि नारायणने यह प्रथम संक्षेपसे रचा है (देवताकाण्डसे श्रेष्ठता दिखाते हैं) और शास्त्रोंके साधनसे ईश्वरकी स्थिति शीघ्र हृदयमें नहीं होती और इसके श्रवण मात्रसेही ईश्वरकी स्थिति हृदयमें होती है इसलिये परमादर कर सेवनीय है॥२॥जब परमादर सत्कार से सेवन योग्य है तौ यह कहते हैं कि
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्॥ श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्॥२॥ निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्॥ पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः॥३॥
‘पान करो’ अखिलकामनादायक वेदरूपी कल्पवृक्षका फल श्रीभागवत है (जो मुझे स्वर्गसे नारदजीके द्वारा प्राप्त हुआ)। मैंने अपने पुत्र शुकदेवजीके मुखमे धरा, शुकदेवजीके मुखसे निर्गत होनेसे अमृतके समान मीठे रससे युक्त होगया “लोकमें यह बात प्रसिद्धहै कि, जिस फलमें तोतेकी चोंच लगे है सो फल मीठा होवेहै”
यहां शुकरूप श्रीव्यासनंदन शुकदेवकी चोंच लगनेसे उनके शिष्यरूप पत्तोंपर लुडकता हुवा धीरे धीरे पृथ्वी प्राप्त हुवा, आशय यह है कि, इतने ऊंचेसे गिरा और फूटा नहीं, रस वही है कि जिस रसके प्राप्त होनेसे जीवको परमानन्द प्राप्त हो, हे रसिकजनो!रसजाननेवालो! धन्य भाग्यहै तुम लोगोंका जो ऐसा अमृतरूपी फल पृथ्वीपर प्राप्त हुवा, यह अलभ्य लाभकी उक्ति है, इसकारण इस भागवत फलको बारंबार पियो यह फल रसरूपी है इसमें छिलका और गुठली किंचिन्मात्रभी नहीं है केवल रसही रस भराहै, इसलिये पीनेको कहा, इसकारण श्रीमद्भागवत अमृतरूपी रसका पान जीवन्मुक्ति अवस्थामेंभी करना उचित है, स्वर्गादिक सुखके समान त्यागना नहीं है
सेवनही करने योग्यहै॥३॥ इन तीन श्लोकोंमें श्रीमद्भागवतकी उत्तमता और श्रेष्ठता और गौरव दिखाकर अब सब शास्त्रशिरोमणि श्रीमद्भागवतके इष्टदेवताको स्मरण कर इस ग्रन्थका प्रारंभ करूंहूं। ब्रह्माजीका मनोमय चक्र कुंठितधार होकर गिरा उसी तीर्थका नाम नैमिष है यह कथा वायुपुराणमें है “एक समय बहुत से ऋषि लोग ब्रह्माजीके पास गये और यह कहा कि, हे ब्रह्मन्! हमको तपके योग्य कोई उत्तम तीर्थ बताओ कौनसा तीर्थ अत्यन्तपावन और पवित्रहै, ऋषि लोगोंका यह वचन सुन ब्रह्माजी बोले कि, हे ऋषिगण!मैं मनोमय चक्र बनाकर छोड़ता हूं तुम सब इसके पीछे पीछे चले जाओ, जिस स्थानपर इस चक्रकी धार कुंठित होकर गिरपडे वह भूमि तपके योग्य जानलेना यह कह ब्रह्माजीने मनोमय चक्र छोडा। उसका प्रकाश मार्तण्डकी सदृश सम्पूर्ण ब्रह्मांडमें फैलगया, वह चक्र जिस स्थानपर गिरा उस स्थानका नाम उस दिनसे नैमिषारण्य विख्यात हुवा”और वाराहपुराणमें ऐसा लिखा है कि, “किसी समय गौरवमुख ऋषिसे भगवानने कहाथा कि, हे गौरखमुख!इस
नैमिशेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः॥ सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥४॥ त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः॥ सत्कृतं सुतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात्॥५॥ ऋषय ऊचुः॥ त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ॥ आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत॥६॥ यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान्बादरायणः॥ अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदुः॥७॥
वनमें मैंने निमिषमात्र कालमें अनेक दानवोंकी सेनाका संहार किया है इसलिये इस वनका नाम नैमिषारण्य हुवा” ब्राह्मणोंको तपस्या के लिये यह भूमि परमोत्तम है। एक समय शौनकादि ८८००० अट्ठाशीसहस्र ऋषियोंने स्वर्गकी प्राप्तिके हेतु नैमिषारण्य क्षेत्रमें १०००० दशसहस्र वर्षतक यज्ञ करनेका संकल्प किया॥४॥ एक दिन वह मुनि प्रातः काल उठ नित्यक्रिया कर जब नैमित्तिक अग्निहोत्र करचुके उसी समय व्यासजीके परम कृपापात्र सूतजी आपहुॅचे, तब ऋषियोंने सूतजीको देख ब्रह्मासन बिछादिया, सुतजी सब ऋषिगणको प्रणाम कर उनकी आज्ञासे आसनपर बैठे और परस्पर कुशल क्षेम वूझचुके तब ऋषिलोग सूतजीसे बोले॥५॥ कि, हे सूतजी!हे निष्पाप! सर्व शास्त्र पुराण इतिहास तुमने व्यासजी महाराजसे पढेहैं और देखेहैं॥६॥ और ज्ञानियोंमें शिरोमणि श्रीव्यासजी महाराज जिन जिन शास्त्रोंको जानते हैं और सगुण
निर्गुण ब्रह्मके उपासक और भी जिन जिन शास्त्रोंको जानते हैं॥७॥ हे सौम्य! हे सूतजी! उन सब शास्त्रोंको गुरुकी कृपासे तुम यथार्थ जानतेहो क्योंकि निष्कपटप्रेमी शिष्यको गुरु गुप्तपदार्थको भी प्रगट कर देते हैं॥८॥ हे आयुष्मन्! उन सब शास्त्रोंका सिद्धान्त निश्चय कर सरल रीतिसे हमको उपदेश करो, जिस सिद्धान्तको जानिकै मुमुक्षु जीव सुगमसे साधन कर मोक्षके भागी हों॥९॥ इस कलियुगमें प्रथम तो जीवोंकी आयुही अल्प है, दूसरे आलसी, तीसरे मन्दबुद्धि और मन्दभागी, चौथे विघ्नोंसे व्याकुल, पांचवें रोगग्रसित हैं॥१०॥ हे सूतजी!बहुतसे शास्त्रोंके सुननेसेही फलकी सिद्धि नहीं होती क्योंकि विभागपूर्वक सुननेके योग्य सैकडों शास्त्र हैं, इस कारण हे साधो!सब साधनोंमें सारभूत जो सिद्धान्त
वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतस्तदनुग्रहात्॥ ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत॥८॥ तत्रतत्रांजसाऽऽयुष्मन्भवता यद्विनिश्चितम्॥ पुंसामेकांततःश्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि॥९॥ प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन्युगे जनाः॥ मंदाः सुमंदमतयो मंदभाग्या ह्युपद्रुताः॥१०॥ भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः॥ अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया॥ ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनाऽऽत्मा संप्रसीदति॥११॥ सूत जानासि भद्रं ते भगवान्सात्वतां पतिः॥ देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया॥१२॥ तन्नः शुश्रूषमाणानामर्हस्यंगाऽनुवर्णितुम्॥ यस्याऽवतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च॥१३॥ आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन्॥ ततः सद्यो विमुच्येत यद्बिभेति स्वयं भयम्॥१४॥ यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः॥ सद्यः पुनंत्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया॥१५॥
होय उसे अपनी बुद्धिसे निश्चय करके हम लोगोको उपदेश करो जिससे हम श्रद्धालुओंकी बुद्धि शांत होय (यह शौनकका पहिला प्रश्न हुवा)॥११॥ हे सूतजी!तुम्हारा कल्याण हो, यह तुम जानते हो भगवान् वसुदेवजीकी स्त्री देवकीके पुत्र किस कार्य करनेके लिये हुए थे॥१२॥ हे अंग सूतजी!जिनका साधारण अवतार प्राणियोंके कल्याण और समृद्धिके हेतु होता है उनके चरित्र वर्णन कीजिये॥१३॥ पराधीन जीवभी जिसके नाम स्मरण कर संसारके बन्धन से छूट तुरन्त मुक्ति पाते हैं और जिनसे भय भी भयभीत है॥१४॥ उन भगवान् केचरणारविंदोंके आश्रयी
शान्त मार्ग में निपुण मुनि संगतिमात्रसे ही जीवको पवित्र कर देते हैं और गंगाजीका जल तौ बहुत दिनों सेवा करो तब पवित्र करता है॥१५॥साधारण भी जिनके कर्मों को गाकर पुण्यश्लोक कहाये उन भगवान् केकलिमलनाशक यशको अंतःकरणकी शुद्धि चाहनेवाला कौन नहीं सुनैगा (यह दूसरा प्रश्न समाप्त हुवा)॥१६॥नारदादि मुनियोंने जो भगवान् के उदारकर्म गाए उन गुणोंके सुननेके श्रद्धावान् हम हैं सो कृपा करकैहमैंसुनाओ, जो लीलासे ब्रह्मा रुद्रादिक मूर्तिधारण करतेहैं (यह तीसरा प्रश्न समाप्त हुवा)॥१७॥हे बुद्धिमन्!जो परमेश्वर अपनी माया करके यथेष्ट लीला अवतारोंको धारण करैंहैं, उनकी मनोहर कथा कृपाकरकैहमैं सुनाओ॥१८॥हे सूतजी!उस परमेश्वरकी महिमा और उनके
को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः॥ शुद्धिकामो न शृणुयाद्यशः कलिमलापहम्॥१६॥ तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः॥ ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः॥१७॥ अथाऽऽख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथाः शुभाः॥ लीला विदधतः स्वैरमीश्वरस्याऽऽत्ममायया॥१८॥ वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे॥ यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादुस्वादु पदेपदे॥१९॥ कृतवान्किल वीर्याणि सह रामेण केशवः॥ अतिमर्त्यानि भगवान्गूढः कपटमानुषः॥२०॥ कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन्वैष्णवेवयम्॥ आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः॥२१॥ त्वं नः संदर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम्॥ कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम्॥२२॥
पराक्रमोंको सुनते सुनते हमारी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि रसिकोंको भगवान् कायश पद पदपै स्वादसे अधिक स्वादिष्ट लगता है, भगवत् कायश अनेक प्रकार स्वादसे पूरित है (यह चौथा प्रश्न हुआ )॥१९॥श्रीबलरामके साथ श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दन गोवर्द्धनोद्धारणादिक जो मनुष्योंसे दुःसाध्य कर्म कपटसे मनुष्य रूप धरकै किये सो कहो॥२०॥महाघोर कलियुगको आता जान इसके डरसे वैकुण्ठके जानेकी इच्छा करकैहम इस नैमिषारण्य वैष्णव क्षेत्रमें एक सहस्र वर्षका संकल्प कर श्रीभगवान् के गुणानुवाद सुननेको बैठे हैं॥२१॥हे सूतजी! इस समय आपका दर्शन भगवत् कीकृपासेही हमको हुआ है, क्योंकि अति धैर्यवानोंके धैर्यरूपी सेतुके तोड़नेवाले महा कराल
कलिकाल रूप समुद्रके तरनेकी इच्छा जैसे हमको हुई उसी समय आपका दर्शन हुवा, जैसे समुद्र पार करनेको जहाज सहित मल्लाह आजाय (यह पांचवां प्रश्न समाप्त हुवा)॥२२॥ धर्मके कवचवत् रक्षक ब्रह्मण्य योगेश्वरोंके ईश्वर श्रीकृष्ण भगवान् अपने निज परमधामको सिधाये तब धर्म किसकी शरणमें रहा? (यह छठा प्रश्न समाप्त हुवा)॥२३॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे पापाटीकायां नैमिषारण्योपाख्यानवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ दोहा - इसद्वितीयअध्यायमें, शुकवनकीन्हप्रवेश॥ जैसे आये निजभवन, नारदके उपदेश॥१॥
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श्रीवेदव्यासजी बोले कि शौनकादिक ऋषियोका प्रश्न सुनकर, रोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवा उसके वचनकी प्रशंसा करके उत्तर देनेको प्रस्तुत हुए॥१॥सूतजी बोले कि, जो
ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि॥ स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः॥२३॥ इति श्रीभागवते प्रथमस्कंधे प्रथमोऽध्यायः॥१॥छ॥ व्यास उवाच॥ इतिसंप्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः॥ प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे॥१॥ सूत उवाच॥ यं प्रव्रजंतमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव॥ पुत्रेतितन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥२॥ यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेकमध्यात्मदीपमतितितीर्षतां तमोंधम्॥ संसारिणां करुणयाऽह पुराणगुह्यं तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम्॥३॥
जन्मलेतेही कर्ममार्गको त्याग संन्यास लेकर वनको चले और व्यासजी उन शुकदेवके विरहमें व्याकुल हो पुत्र!पुत्र!पुकारते उनके पीछे हुए, तब पिताके मोह दूर करनेको वृक्षरूप बनके उत्तर दिया और उनका स्नेह दूर किया, जो सब जीवोंके हृदयमें योग बलसे प्रवेश किये हैं, ऐसे शुकदेवजीको बारम्बार नमस्कार करूंहूं॥२॥ जिसमें अपना प्रभाव और सब श्रुतियोंका सार, एक अध्यात्म विद्याका साक्षात् दीपक संसारको तरनेकी इच्छा करनेवाले जीवों पर कृपा करकै जो शुकदेवजीने गोप्य पुराण कहाहै, उन व्यास पुत्रकी हम शरण हैं॥३॥
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शंका
—प्रथम स्कन्ध पहिले अध्यायके आरम्भमे “व्यास उवाच” क्यों नहीं लिखा? फिर दूसरे अध्यायके प्रारम्भमें व्यास उवाच क्यों लिखा?
उत्तर—व्यासजीने बढे हर्षसे श्रीमद्भागवतके बनानेका प्रारम्भ किया परन्तु शीघ्रतामें अपने नामके लिखनेका ध्यान नहीं रहा, पीछे जब व्यासको ध्यान आया तो दूसरे अध्यायके आदिमें अपना नाम लिखा कि, व्यास उवाच॥
नारायण नर नरोत्तम देवी सरस्वती और व्यासजीको नमस्कार करके जयरूप ग्रन्थका वर्णन करता हूं॥४॥ हे मुनियो! आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया सब लोकका मंगलदायक श्रीकृष्णचन्द्र व्रजनायकका जो वृत्तान्त बूझा यह सब शास्त्रोंका सार है और इस असार संसारसे उद्धार करने वालाहै और आत्माको प्रसन्न करताहै। धर्म दोप्रकारका है, प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग, स्वर्गादिकके लिये जो किया जाय वह धर्म प्रवृत्तिमार्ग है और श्रवण, आदर आदिक जो लक्षणा भक्तिहै, सो निवृत्तिमार्ग है, वह मुक्तिदायक है सोई पुरुषोंका परमधर्महै॥५॥ जिससे नारायणमें फलरहित, विघ्न रहित, भक्ति होय उससे
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्॥देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥४॥ मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमंगलम्॥ यत्कृतः कृष्णसंप्रश्नो येनाऽऽत्मा संप्रसीदति॥५॥ स वै पुंसां परो धर्मोयतो भक्तिरधोक्षजे॥ अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा संप्रसीदति॥६॥ वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः॥ जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यत्तदहैतुकम्॥७॥ धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः॥ नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम्॥८॥ धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते॥ नार्थस्य धर्मैकांतस्य कामो लाभाय हि स्मृतः॥९॥ कामस्य नेंद्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता॥ जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः॥१०॥ वदंति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्॥ ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥११॥
जीवात्मा अत्यन्त प्रसन्न होताहै॥६॥वासुदेव भगवान् मेंभक्तियोग करैतो शीघ्र ज्ञान और वैराग्य उपनिषद् काउत्पन्नहोता है॥७॥ अच्छा अनुष्ठान करा हुवा धर्म मनुष्योंको विष्वक्सेन भगवान् की कथामें जो प्रीति न करावैतो वह केवल श्रमहीहै॥८॥ मोक्षपर्यन्त धर्म फलप्राप्त होनेसे प्रयोजन नहीं है और धर्मके योग्य धन व्ययकरना उसका फल कामलाभके लिये नहीं है, धन धर्मका फल मोक्ष है॥९॥ कामको विषय भोगकर इन्द्रियोंसे प्रीति लाभ नहीं होती इससे जबतक जीवितरहै तबतक यह जीवतत्त्वके जाननेकी इच्छा करताहै, कर्म का फल स्वर्गादि नहीं है मोक्षप्राप्ति फल है॥१०॥ तत्त्ववेत्ता जो अद्वितीय
ज्ञान कहते हैं उसीको उपनिषद् ब्रह्म कहैं हैं परमात्मा कहैं हैं, भगवान् कहें हैं॥११॥ मुनिजन उस ब्रह्ममें ज्ञान वैराग्य युक्त भक्ति श्रद्धासे वेदान्त सुनकर आत्मामें आत्माका दर्शन करते हैं॥१२॥ हे ऋषियो!इससे वर्णाश्रमके विभागसे सुन्दर अनुष्ठित धर्मकी यही सिद्धि है कि परमेश्वरका प्रसन्नकरना यही मनुष्योंके योग्य है॥१३॥इस कारण एकाग्रमनसे भगवान् सात्त्वतपतिका श्रवण, कीर्तन, ध्यान, पूजन करना योग्य है॥१४॥जिस भगवान् काध्यानरूप खड्ग लेकर कर्मरूप ग्रन्थिके बन्धनका विद्वान् (पण्डित) खण्डन करते हैं, उनकी कथामें कौन प्रीति नहीं करैगा॥१५॥
तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया॥ पश्यंत्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया॥१२॥ अतः पुंभिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः॥ स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम्॥१३॥ तस्मादेकेन मनसा भगवान्सात्वतां पतिः॥ श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा॥१४॥ यदनुध्याऽसिना युक्ताः कर्मग्रंथिनिबंधनम्॥ छिंदंति कोविदास्तस्य को न कुर्यात्कथारतिम्॥१५॥ शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचिः॥ स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात्॥१६॥ शृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥ हृद्यंतःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥१७॥ नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया॥ भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥१८॥ तदा रजस्ततमोभावाः कामलोभादयश्च ये॥ चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वेप्रसीदति॥१९॥ एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः॥ भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसंगस्य जायते॥२०॥
हे द्विजो! वासुदेव भगवान् कीकथामें सुननेवाले श्रद्धालुकी रुचि महात्मा लोगोंकी सेवा करनेसे और पुण्यतीर्थ की सेवासे होती है॥१६॥ सत्य पुरुषोंके मित्र पुण्यरूप श्रवण, कीर्तन करनेयोग्य श्रीकृष्ण अपनी कथा सुननेवाले सज्जनोंके हृदयमें वास कर सब अमंगल नाश करतेहैं॥१७॥ जब नित्यप्रति भगवान्की सेवा करनेसे अमंगल नष्ट होगये तब भगवान् वासुदेवमें फलानुसन्धान रहित निष्काम भक्ति उत्पन्न होती है॥१८॥जब रज, तम, भाव कामादि लोभादिकसे जिनका मन बींधा नहीं उनका मन सतोगुणमें स्थित होकर प्रसन्न होताहै॥१९॥भगवान् केभक्तियोगसे जिसका मन प्रसन्न है उसको भगवान् केतत्त्वका ज्ञान मुक्तसंग होनेसे होता है॥२०॥
जीव जब अपनेही रूपमें परमात्माका दर्शन करता है तब उसके हृदयकी ग्रन्थि खुल जाती है और सब संशय मिट जाते हैं, सब कर्मोंका क्षय होजाता है॥२१॥ इस कारण सज्जन पुरुष मनको शुद्धकरनेवाली भक्ति नित्य वासुदेव भगवान्में करते हैं॥२२॥ सत्त्व, रज, तम यह तीनों माया के गुण हैं उन तीनों गुणोंसे मिलाहुवा परम पुरुष एक इस विश्वकी उत्पत्ति, पालन, नाशके लिये, ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह संज्ञा धारण करते हैं परन्तु इन तीनों में कल्याणके और शुभ फलके दाता वासुदेव ही हैं॥२३॥पृथ्वी के विकारसे काठमें धुआँ होता है, जिससे वेदत्रयीप्रतिपाद्य कर्मसाधक अग्नि होता है इसी प्रकार तमसे रज रजसे सत्त्वगुण बढके ब्रह्मका दर्शन होता है॥२४॥इस कारणसे पहिले विशुद्ध सत्त्वमूर्ति इन्द्रियोंसे परे भगवान्को
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यंते सर्वसंशयाः॥ क्षीयंते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे॥२१॥ अतो वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा॥ वासुदेवे भगवति कुर्वंत्याऽऽत्मप्रसादिनीम्॥२२॥ सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तैर्युक्तः परः पुरुष एक इहाऽस्य धत्ते॥ स्थित्यादये हरिविरिंचिहरेति संज्ञाः श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नृणां स्युः॥२३॥ पार्थिवाद्दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः॥ तमसस्तु रजस्तस्मात्सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम्॥२४॥ भेजिरे मुनयोऽथाग्रे भगवंतमधोक्षजम्॥ सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पंते येऽनु तानिह॥२५॥ मुमुक्षवो घोररूपान्हित्वा भूतपतीनथ॥ नारायणकलाः शांता भजंति ह्यनसूयवः॥२६॥ रजस्तमः प्रकृतयः समशीला भजंति वै॥ पितृभूतप्रजेशादीञ्छ्रियैश्वर्य प्रजेप्सवः॥२७॥ वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः॥ वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः॥२८॥
कल्याणके हेतु मुनीश्वर लोग भजतेथे, अबभी जो उनके पीछे इसप्रकार भजैं हैं वह जीव इस संसार मे परमानन्द पाते हैं॥२५॥इसकारण मुक्तिके चाहनेवाले घोररूप भूतपतियों को त्याग कर निन्दाको छोड़ शान्तरूप नारायणकी कलाको भजैंहैं॥२६॥राजसी तामसी स्वभाववाले और सामान्य शीलवाले, पितर, भूत, प्रेत, प्रजाके अधीश्वरोंको लक्ष्मी, ऐश्वर्य, पुत्रके लिये पूजते हैं ॥२७॥ सब शास्त्रोंका सार यही है कि, मोक्षके लिये मोक्षदाता वासुदेवका भजन करै, वेदभी वासुदेवकाही वर्णन करते हैं और यज्ञभी वासुदेवको कहैं हैं, योगभी वासुदेवको
कहैं हैं सब क्रिया वासुदेवका प्रतिपादन करैंहैं॥२८॥ज्ञानभी वासुदेवको कहैंहैं, तपभी वासुदेवको कहैंहैं, सब धर्म वासुदेवहीका वर्णन करैं हैं, गति सब वासुदेवहीको कहैं हैं॥२९॥उस भगवान् नेअपनी मायासे पहिले इस विश्वको रचा, सत् असत्रूप गुणमयी मायासे आप समर्थ हैं॥३०॥उस मायाके गुणों में गुणवान् कीभांति विज्ञानसे अधिक बढकर भीतर प्रवेश कर प्रकाश करैं हैं॥३१॥जैसे अपने उत्पत्तिस्थान काष्ठ में ही अग्नि अनेक भांतिसे प्रकाश करैहैऐसेही विश्वात्मा पुरुष सब भूतों में नाना रूपसे प्रकाश करता है॥३२॥वह परमेश्वर गुणमय भूत सूक्ष्म इन्द्रिय आत्माके भावसे अपने रचेहुए पंचभूतोंमें उन गुणों को भोगैहै॥३३॥वह वासुदेव भगवान् जगत्कर्ता संसारको सत्त्वगुणसे पालन करैहै, देव, पक्षी मनुष्यादिमें लीला
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः॥ वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः॥२९॥ स एवेदं ससर्जाग्रे भगवानात्ममायया॥ सदसदूपया चासौ गुणमय्याऽगुणो विभुः॥३०॥ तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव॥ अंतःप्रविष्ट आभाति विज्ञाने न विजृंभितः॥३१॥ यथा ह्यवहितो वह्निर्दारुष्येकः स्वयोनिषु॥ नानेव भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान्॥३२॥ असौ गुणमयैर्भावैर्भूतसूक्ष्मेंद्रियात्मभिः॥ स्वनिर्मितेषु निर्विष्टो भुंक्ते भूतेषु तद्गुणान्॥३३॥ भावयत्येष सत्त्वेन लोकान्वै लोकभावनः॥ लीलावतारानुरतो देवतिर्यङ्नरादिषु॥३४॥ इति श्रीभागवते प्रथमस्कंधे द्वितीयोऽध्यायः॥॥२॥ सूत उवाच॥॥ जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः॥ संभूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया॥१॥
वतार धारण करै है॥३४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां भगवद्गुणानुवादवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ दोहा - परब्रह्म अवतार जों, धरे चार अरु वीस॥ सो वरणौ अब चरित सब, सुनिये कथा ऋषीश॥१॥
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सूतजी बोले कि, हे शौनक ऋषि इस अध्यायमें चौवीस
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शंका- सनकादिकोंने सूतजीसे श्रीकृष्णके अवतारकी कथा बूझीथी सूतने श्रीकृष्णके अवतारकी कथाको छोडकर आदिसे भगवान् के सब अवतारोंकी कथा क्यों वर्णन की बडे सन्देहकी बात हैं!
उत्तर- श्रीकृष्णके चरित्र दो प्रकारके ससारमें देख पउतेहैं, सत्संग करनेवाले मनुष्य तो श्रीकृष्णके चरित्रको मोक्षरूप मानेंगे और मूर्खलोग श्रीकृष्णके चरित्रको विषयका समुद्ररूप मानेंगे और युगयुग में श्रीकृष्णका चरित्र बहुत विस्तारसे लिखाहै, यह विचार किया कि सनकादिक तो परमहंस है श्रीकृष्णके चरित्रोंको सुनके मोक्षरूप मानेंगे, परन्तु पहिले कृष्णचरित्रको मूर्खलोग सुनेंगे तो वह मूर्खलोग उसको मोक्षरूप नहीं समझेंगे, उसको जारसुख मानकर श्रीकृष्णकी नाई परस्त्रियोंसे क्रीडा करेंगे और रौरव नरकमें पडैंगे, पहिले श्रीकृष्णका अमृतरूप चरित्र जो वर्णन करेंगे तो मूर्खलोग कृष्णके चरित्ररूप अमृतको अमृत नहीं जानेंगे विषयरूपी समुद्र समझकर उसमें डूबमरेंगे और जो पहिले और और अवतारोंके चरित्र वर्णन करेंगे तो उन चरित्रोको धीरे धीरे सुनकर मूर्खभी ज्ञानी होजावेंगे और पीछेसे श्रीकृष्णके चरित्रोंको सुनेंगे तो भ्रम नहीं करेंगे, मोक्षरूप मानेंगे, इसलिय प्रथम कृष्णका चरित्र सूतजीने वर्णन नहीं किया।
अवतारोंकी कथा है, पुरुष अवतार हुआ, भगवान् नेमहत्तत्त्व आदिले पुरुषरूप धारण किया, संसार रचनेकी इच्छा कर सोलह कलाके रूपसे अवतार लिया॥१॥ जब जलशायी नारायणने योगनिद्रा विस्तारी, उस समय श्रीनारायणके नाभिरूप सरोवर के कमलमेंसे विश्वरचनेवालोंके पति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए॥२॥जिनके अंगसे जगत् काविस्तार हुआ है, वह भगवान् का विशुद्ध तत्त्व महा बलिष्ठरूप है॥३॥ जिनके असंख्यचरण, जंघा, भुजा, मुख, अद्भुत हैं और जिसमें असंख्य मस्तक, श्रवण, नेत्र, नासिका हैं, असंख्य शिर, भूषण, वस्त्र, कुण्डल, विराज रहे हैं ऐसे स्वरूपका ज्ञान नेत्रोंसे योगी जन दर्शन करते हैं॥४॥ यह आदिनारायण सब अवतारोंका बीज अव्यय है, सब कार्य अन्त समय इसीमें प्रवेश करैंहैं, जिसके अंश ब्रह्माजी हैं, जिसके
यस्यांभसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः॥ नाभिह्रदांबुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः॥२॥ यस्यावयवसंस्थानैः कल्पितो लोकविस्तरः॥ तद्वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम्॥३॥ पश्यंत्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम्॥ सहस्रमूर्द्धश्रवणाक्षिनासिकं सहस्रमौल्यंबरकुंडलोल्लसत्॥४॥ एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम्॥ यस्यांशांशेन सृज्यंते देवतिर्यङ्नरादयः॥५॥ स एव प्रथमो देवः कौमारं सर्गमास्थितः॥ चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखंडितम्॥६॥ द्वितीयं तु भवायाऽस्य रसातलगतां महीम्॥ उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः॥७॥ तृतीयमृषिसर्गं च देवर्षित्वमुपेत्य सः॥ तंत्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मिणां यतः॥८॥ तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी। भूत्वाऽऽत्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तपः॥९॥
अंशसे मरीचि आदिक देव, पशु, पक्षी मनुष्यादि रचेजाते हैं॥५॥ प्रथम सनत्कुमार अवतार श्रीनारायणने लिया उनका चरित्र वर्णन करते हैं, सो प्रथम देवकुमार हुए, ब्राह्मण होकर भी अति अखण्ड कठिन तप कर ब्रह्मचर्य व्रत करते रहे॥६॥ दूसरी बार वाराह अवतार धारण कर रसातल गई हुई पृथ्वीको उठालाये, इस विश्वकी उत्पत्तिके लिये यज्ञेश वाराहजी हुए॥७॥ तीसरी बार सो भगवान् नारदजी हुए, ऋषियोंमें देवऋषि होकर सब कर्मों के बन्धनसे छूटगये, जिन्होंने वैष्णवोंके लिये, पंचरात्र तंत्र कहा॥८॥ चौथी बार धर्मकी कला नाम स्त्रीके उदरसे नरनारायण नाम विख्यात ऋषि हुए
और संसारके जीवोंको दिखानेके लिये बदरीकेदारमें जाकर तप किया॥९॥ पांचवीं बार कपिलदेव अवतार धरकर सिद्धेश कपिल नाम होकर बहुत दिनोंसे जो तत्त्वसमूहोंका ज्ञान नष्ट होगया था उसके निश्चय करने को सांख्यशास्त्र बनाकर आसुरि ब्राह्मणको उपदेश किया और अपनी माताको ज्ञान दिया॥१०॥ छठा दत्तात्रेय अवतार ले अत्रिमुनिके पुत्र हुए और अनसूयाको प्रसन्न करा और राजा अलर्कअरु प्रह्लाद भक्तको आत्मविद्या पढ़ाई॥११॥ सातवाॅयज्ञ अवतार हुवा रुचि प्रजापतिकी आकूती नाम स्त्रीके उदरसे यज्ञ भगवान् ने जन्म लिया यामानाम देवगण समेत स्वायंभुव मन्वन्तरकी रक्षा करी॥१२॥ आठवीं बार ऋषभदेवजीका अवतार हुआ, नाभिनाम राजाकी मेरुदेवी नाम स्त्रीसे प्रगट हुए, सब आश्रम जिसको नमस्कार
पंचमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम्॥ प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥१०॥ षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया॥ आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥११॥ ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत॥ स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायंभुवांतरम्॥१२॥ अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः॥ दर्शयन्वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम्॥१३॥ ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः॥ दुग्धेमामौषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः॥१४॥ रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसंप्लवे॥ नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम्॥१५॥ सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मंदराचलम्॥ दध्रेकमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः॥१६॥ धान्वंतरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च॥ अपाययत् सुरानन्यान्मोहिन्या मोहयन्स्त्रिया॥१७॥
करतेथे, जिन्होंने धीर पुरुषोंको पारमहंस्य आश्रम दिखाया॥१३॥ नवमीं बार पृथु अवतार राजा वेनके शरीर मथनेसे हुआ, ऋषियोंकी चाहनासे पृथु अवतार धारण करके सब औषधी जिसने छिपालीं उस गऊ रूपी पृथ्वीको दुहकर सब वस्तुका सारांश निकाला, यह अवतार अत्यन्त श्रेष्ठ हुआ॥॥१४॥ दशवीं बार मत्स्यावतार धर चाक्षुष मन्वन्तर में सब समुद्र एक हुए, पृथ्वीमय नावमें बिठाकर वैवस्वत मनुकी रक्षा करी (और सत्यव्रतको सप्तऋषियों समेत नौका पर बैठालकर ज्ञान उपदेश किया और उसको अपनी माया कौतुक दिखाया)॥१५॥ ग्यारहवीं बार कच्छप रूप धरा जब सुर असुरोंने समुद्रको मथा, उस समय कच्छप अवतार धर मंदराचल पर्वतको भगवान् नेपीठपर धरा॥१६॥ बारहवीं बार धन्वन्तरि अवतार धारणकर
एक कलश अमृतका हाथमें लिये समुद्रसे उत्पन्न हुए। तेरहवीं बार मोहनी अवतार धारणकर दैत्योंको अपना सुन्दर स्वरूप दिखाकर मोहित किया और अमृतका कलश उनसे लेलिया और देवताओंको पिलाकर उनकी रक्षा करी॥१७॥ चौदहवीं बार नृसिंहरूप धर हिरण्यकशिपुदैत्यका नखोंसे उदर विदार अपने प्यारे भक्त प्रह्लादकी रक्षाकरी॥१८॥पन्द्रहवींबार वामनतनु धर राजा बलिके यज्ञ में गये और तीन पग पृथ्वी मांगकर इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया और बलिको पातालका राजा किया “परन्तु मांगना अत्यन्त बुरा काम है, मांगनेवालेको सबठौर छोटा बनना पडता है इसीकारण नारायणने छोटा रूप धारण किया”॥१९॥सोलहवां परशुराम अवतार धर क्षत्त्रियोंका क्षय किया और उनसे इक्कीसबार पृथ्वीको जीतकर ब्राह्मणोंको दान करदी॥२०॥सत्रहवीं बार पराशरजीकी पत्नी सत्यवतीके उदरसे व्यास अवतार ले पुरुषोंको निर्बुद्धि और अज्ञानी जानकर वेदका विभाग
चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद्दैत्येंद्रमूर्जितम्॥ ददार करजैर्वक्षस्येरकां कटकृद्यथा॥१८॥ पंचदशं वामनकं कृत्वाऽगादध्वरं वलेः॥ पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम्॥१९॥ अवतारे षोडशमे पश्यन्ब्रह्मद्रुहो नृपान्॥ त्रिस्सप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्त्रामकरोन्महीम्॥२०॥ ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात्॥ चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः॥२१॥ नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया॥ समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम्॥२२॥ एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी॥ रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भरम्॥२३॥ ततः कलौ संप्रवृत्ते संमोहाय सुरद्विषाम्॥ बुद्धो नाम्ना जिनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥२४॥
और वेदकी शाखाओंका विस्तार और अठारह पुराण महाभारतादिक ग्रन्थ रच संसारका उद्धार किया॥२१॥ अठारहवीं बार श्रीरामचन्द्र अवतार धारण कर भक्तोंके कार्य करनेके लिये समुद्रका पुल बांध रावण घननाद कुम्भकर्णादि राक्षसोंको मार पृथ्वीका भार उतारा और अनेकाश्चर्य युक्त कर्म करके देवताओंकी रक्षा करी॥२२॥उन्नीसवीं बार बलराम और श्रीकृष्णचन्द्र अवतारधरकर कालयवन, जरासन्ध, कंसादिक दुष्ट राक्षसों को मार पृथ्वीका भार उतार भक्तोंका संसारसे उद्धार करनेके लिये अद्भुत अद्भुत चरित्र दिखाये॥२३॥बीसवीं बार कलियुगकी प्रवृत्ति देख जिनसुत बुद्धने गयाके समीप कीकट देशमें अवतार लिया “जब कलियुग आया तब देवताओंने यज्ञ करकरके दैत्योंका बल नहीं चलने दिया
तो दैत्योंने अपने पुरोहित शुक्राचार्यसे बूझा कि हे भगवन्!देवतालोग सर्वथा इन्द्रपुरीका राज्य करना चाहते हैं कोई ऐसा उत्तम उपाय बताओ जिसमें दैत्यकुलका राज्य बना रहै, शुक्राचार्यने कहा हे दैत्यो! देवताओंका राज्य यज्ञादिक कर्म करनेसे निष्कण्टक बनरहा है तुमभी यज्ञ करो शुक्राचार्यका उपदेश मान दैत्योंनेभी यज्ञ करना आरंभ करदिया तब तो सब देवता भयभीत होकर विष्णुके पास गये और बहुत स्तुति कर हाथ जोड़कर बोले कि, हे वैकुण्ठनाथ! अब दैत्यलोगभी यज्ञ करनेको उपस्थित हैं। जो उनका यज्ञ पूर्ण होगया तो वह लोग हमसे बलवान् होजांयगे और हमारा बल उनके सन्मुख कुछ न चलैगा और फिर हम उनको कभी नहीं जीत सकैंगे अब हमको कोई ऐसा उपाय बताओ जिसमें हमारा कल्याण होय। देवताओंका यह वचन सुन श्रीनारायणजीने उसी समय बौद्ध अवतार धारण किया और सेवडेका रूप धर मैले कुचैले वस्त्र पहन चौंरी हाथमें लेकर वहां पहुँचे जहां दैत्यलोग यज्ञ कररहेथे, दैत्योंने उनका तेजस्वी स्वरूप देख और ज्ञानवान् जान बडा आदर सन्मान किया और उनसे बूझा कि, हे कृपानाथ!आपके हाथमें यह क्या वस्तु है? बौद्धजीने कहा यह चौंरी है, दैत्य बोले कि हे नाथ!इसके रखनेसे क्या
अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु॥ जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः॥२५॥
अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः॥ यथाऽविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः॥२६॥
लाभ है? बौद्धजीने उत्तर दिया कि जिस स्थानपर मनुष्य बैठता है उसके नीचे छोटे छोटे जीव जो पृथ्वीपर रहते हैं, वह दबकर मरजाते हैं, सो इस चौंरीसे भूमिको झाडकर बैठना चाहिये जिससे जीवोंकी रक्षा हो, फिर दैत्योंने बूझा कि हे स्वामिन्!आपके वस्त्र मैले कुचैले किस कारण हैं? बौद्धजीने कहा - कपडे धोने से भी जीवहिंसा होती है क्योकि वस्त्रों में अनेक जीव रहते हैं दैत्योंने जब इस प्रकारके वचन सुने, तब तो दैत्योंके मनमें दया उपजी और यज्ञ करनेसे उनका चित्त हटगया और परस्पर विचार करने लगे कि यज्ञ करनेमें तो अनेक जीवोंकी हिंसा होगी तो हमारा सब यज्ञ करना निष्फल है बरन् और दूना पापका भागी होना पडैगा ऐसे मनही मनमें सोच समझ दैत्योंने यज्ञ करना बंद करदिया तब तो उनका सब पुरुषार्थ ढीला होगया और सब धर्म कर्म नष्ट होगये और देवताओंका बल बढा॥२४॥ युगकी सन्धिमें जब राजा भी चोर होजांयगे, तब सम्भलग्राममें विष्णुयश नाम ब्राह्मण के यहां जगत्पति कल्किअवतार धारण करेंगे॥२५॥ उस सत्त्वगुणी परब्रह्म परमेश्वरके अनंत अवतार हैं, जैसे कभी जिस सरोवरसे जल नहीं घटे, उस सरोवरसे तुच्छ प्रवाहवाली अनेक नदी बहैं हैं॥२६॥
ऋषि, मुनि, देवता, मनुसुत, महाबली, प्रजापति, यह सब पर परमेश्वरकी कला हैं॥२७॥उस अविनाशी पुरुषके यह सब अंश और कला हैं, श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं भगवान् हैं, शत्रुओंसे जब जगत् व्याकुल होजाता है तब युग युगमें अवतार ले सबको सुखी करते हैं॥२८॥उस अविनाशी अव्यय पुरुषके छिपे हुए जन्मोंकी कथा जो नर पवित्र होकर संध्या समय और प्रातःकाल पढैहैं और सुने हैं, वह लोग अनेक २ कष्टोंके समूहोंसे छूट जातेहैं॥२९॥जिसका रूप नहीं और चित् एक रस व्यापक उसका वह रूप है, यह तत्त्वादि मायाके गुणोंसे जीवात्मा अन्तर्यामीमें प्रगट होते हैं॥३०॥जैसे पवनके आश्रय से मेघ आकाशमें रहते हैं, यह अज्ञानियोने मान रक्खा है, जैसे पृथ्वीके रेणुको धुन्धकारादिक
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः॥ कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा॥२७॥ एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भागवान् स्वयम्॥ इंद्रारिव्याकुलं लोकं मृडयंति युगेयुगे॥२८॥ जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः॥ सायं प्रातर्गृणन् भक्त्यादुःखग्रामाद्विमुच्यते॥२९॥ एतद्रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः॥ मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि॥३०॥ यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले॥ एवं द्रष्टरि दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभिः॥३१॥ अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणव्यूहितम्॥ अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात्स जीवो यत्पुनर्भवः॥३२॥ यत्रेमे सदसद्रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा॥ अविद्ययाऽऽत्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम्॥३३॥ यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः॥ संपन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते॥३४॥
पवनमें अज्ञानी समझते हैं तैसे द्रष्टा आत्मामें दृश्यत्वादि शरीरधर्म अज्ञानियोंने माना है॥३१॥इस कारण पर ईश्वर अति सूक्ष्म है, अनंत आकार, विशेष रहित है, अदृष्ट अश्रुतवस्तु है, इसलिये जीवांतर्यामी है, बारबार अपना ज्ञान होनेके हेतु जीवरूपसे होता है॥३२॥जिसमें अपने ज्ञानसे यह सत् असत् रूप अविद्यासे जीवात्माके अन्तर्यामीमें विचारे तौब्रह्मका दर्शन होता है॥३३॥जो यह क्रीडा करनेवाली परमेश्वरकी माया दूर होजाय तो श्रेष्ठमतवाले ब्रह्मरूपमें लय होतेहैं और अपनी महिमामें आपही पूजित होते हैं॥३४॥
ऐसे अकर्ताके कर्म और अजन्माके जन्म वेदमें छिपे हुए हैं, यह सब लक्षण अन्तर्यामीके हैं ऐसे कवीश्वर लोग वर्णन करते हैं॥३५॥अमोघ लीलाधारी ईश्वर इस विश्वको रचैहै, पालन करैं है, प्रलय करैंहै परन्तु इसमें आसक्त नहीं होता, सब जीवोंमें अन्तर्हित है स्वतंत्र है छैगुणोंको ईश्वर है परन्तु छहों इन्द्रियोंके विषय दूरसे ग्रहण करैहै, छहों इन्द्रियोंका स्वामी है॥३६॥मन वचनसे नाम रूपका विस्तार करैहैं ऐसे ईश्वरकी लीलाको कोई मनुष्य सम्पूर्णतासे नही जान सक्ता, जैसे नटकी लीलाको मूर्ख लोग नहीं जानते॥३७॥ जो मनुष्य कुटिलभाव त्याग सदा अनुकूलतासे परमेश्वरके चरणारविन्दोंकी सुगन्धको भजै हैं सो मनुष्य चक्रधारी महाप्रतापी दीर्घपराक्रमी धाता परमेश्वरकी पदवीको जानते हैं॥३८॥इससे
एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्तुरजनस्य च॥ वर्णयंति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः॥३५॥ स वा इदं विश्वममोघलीलः सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन्॥ भूतेषु चांतर्हित आत्मतंत्रः षाङ्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेशः॥३६॥ नचास्य कश्चिन्निपुणेन धातुरवैति जंतुः कुमनीष ऊतीः॥ नामानि रूपाणि मनोवचोभिः संतन्वतो नटचर्यामिवाऽज्ञः॥३७॥ सवेद धातुः पदवीं परस्य दुरंतवीर्यस्य रथांगपाणेः॥ योऽमायया संततयाऽनुवृत्त्या भजेत तत्पादसरोजगंधम्॥॥३८॥ अथेह धन्या भगवंत इत्थं यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे॥ कुर्वंति सर्वात्मकमात्मभावं न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः॥३९॥ इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसंमितम्॥ उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः॥४०॥ निश्श्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत्॥ तदिदं ग्राहयामास सुतमात्मवतां वरम्॥ सर्ववेदेतिहासानां सारंसारं समुद्धृतम्॥४१॥ स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम्॥ प्रायोपविष्टं गंगायां परीतं परमर्षिभिः॥४२॥
तुम लोग सब धन्य हो जो सब लोकके नाथ परमेश्वरमें सर्वात्मासे आत्मभावना करतेहो, अब तुम्हारा जन्म मरण संसारमें नहीं होगा॥३९॥सब वेदोंके समान, भगवान्के चरित्रोंसे परिपूर्ण ऐसा उत्तम यह श्रीमद्भागवत महापुराण व्यासजीने बनायाहै॥४०॥संसारके सुखके लिये धनदायक मंगलदायक महान् ज्ञानवान् आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ अपने पुत्र शुकदेवजीको सब वेदों और इतिहासोंका सार निकालकर पढाया॥४१॥वही श्रीमद्भागवत समस्त वेद इतिहासोंका तत्त्व निकालकर शुकदेवजीने राजा परीक्षित् को सुनाया, परम ऋषि समेत राजा
परीक्षित् गंगाकिनारे अन्तसमयतक बैठे रहे॥४२॥धर्म ज्ञानादिसहित जब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द द्वारकासे परमधामको गये, तब कलियुगका समय जान लोगोंकी बुद्धि भ्रष्ट देख श्रीवेदव्यासजी ने यह श्रीमद्भागवत महापुराण धर्मरूपी सूर्यका प्रकाश किया॥४३॥हे ऋषियो! श्रीशुकदेवजी तेजस्वीने राजा परीक्षित्से यह बात कही, वहांभी उनकी कथा संक्षेपसे हमने सुनी सो कथा जैसी हमने सुनी है और गुरुसे पढ़ी है, अपनी बुद्धिके अनुसार आप लोगोंको विस्तारसहित सुनावैंगे॥४४॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कंधे चतुर्विंशत्यवतारकथावर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥दोहा – सुनत प्रश्न सब ऋषिनके, हर्ष सूत मुसकाय॥जेहि विधि बने पुराण सब, कहौ कथा समझाय॥१॥ व्यासजी बोले
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह॥ कलौ नष्टदृशामेष पुराणाऽर्कोधुनोदितः॥४३॥ तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः॥ अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहात्॥ सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाऽधीतं यथामति॥४४॥ इति श्रीभा० म० प्रथमस्कं० तृतीयोऽध्यायः॥३॥ ॥ व्यास उवाच॥ इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम्॥ वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्वृचः शौनकोऽब्रवीत्॥१॥ शौनक उवाच॥ सूतसूत महाभाग वद नो वदतां वर॥ कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवाञ्छुकः॥२॥ कस्मिन्युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना॥ कुतः संचोदितः कृष्णः कृतवान्संहितां मुनिः॥३॥ तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ्निर्विकल्पकः॥ एकांतमतिरुन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते॥४॥
कि, पूर्ण यज्ञकर्त्ता मुनिमण्डलीके मध्य सूतजी जो विराजमान थे, उनसे वृद्ध कुलभूषण ऋग्वेद पारगामी शौनक मुनि बोले॥१॥कि, हे सूत! हे महाभाग! हे सत्यवक्ता! श्रीमद्भागवतकी पुण्यदायक कथा हमको सुनाओ, जो भगवान् श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षित् से कही थी॥२॥ कौनसे युगमें किस स्थानमें किस कारण से भागवतकी प्रवृत्ति हुई, व्यासजी के चित्तमें किसने प्रेरणा करी, जो मुनिवरने यह अमृतरूपी संहिता रची?॥३॥ उनके पुत्र महायोगी, दिगम्बर वेषधारी, समदर्शी, भेदभावरहित, सत्यवादी जितेन्द्रिय, भगवत् भजनमें लवलीन ऐसे शुकदेवजीने॥४॥
“जिस समय जन्म लिया उसी समय संन्यास ले, संसारकी माया तज, नार विवारसहित वनको चलदिये और मनमें यह विचार किया कि, यहाँ रहनेसे सैकड़ों आपत्ति हैं, इसलिये अभी वनमें जाकर परमेश्वरका भजन करना चाहिये, पुत्रकी यह दशा देख व्यासजी मनमें अत्यन्त सोच संकोच कर मोहवश पुत्रके विरहमें व्याकुल हो पुत्र पुत्र पुकारते पुत्रके पीछे दौड़े, हे पुत्र!हमको कहां छोड़े जातेहो, ठहरो ठहरो किंचिन्मात्र खड़े होकर हमारी एक बात तो सुनते जाओ, परन्तु शुकदेवजीने खडा होना उचित न समझा क्योंकि यह तो संसारसे पहिलेही विरक्त होकर परमेश्वरके चरणारविन्दोंमें अपने मनको लवलीन करचुके थे, शुकदेवजीने अपने मनमें कहा देखो हमारे पिताको इस अवस्थामें भी कुछ ज्ञान नहीं, संसारकी मायामें लिप्त होरहे हैं, उनको धैर्य देनेके लिये वनके वृक्षोंमें प्रवेश होकर कहा, हे व्यासजी! तुम किस मायामें भूलरहेहो? न कोई किसी का पुत्र है न कोई किसीका पिता है यह सब स्वप्नकासा व्यवहार है, संसारकी गति सदासे इसी भांति चली आती है और यह जीव बारबार संसार में
दृष्ट्वाऽनुयातमृषिमात्मजमप्यनग्नं देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम्॥ तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति स्त्रीपुं भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः॥५॥ कथमालक्षितः पौरैः संप्राप्तः कुरुजांगलान्॥ उन्मत्तमूकजडवद्विचरन्गजसाह्वये॥६॥
जन्म लेता है और मरता है, यह संसार आवागमनकी जड़ है, यह बात सुन व्यासजीको धैर्य हुआ” यह कह शुकदेवजी आगेको चले तो मार्ग में एक सरोवर दृष्टि आया उसमें देवस्त्रीनंगी स्नान कररही थीं उन्होंने शुकदेवजीको देख कुछ लज्जा नहीं करी उसी भांति नंगी खड़ीरहीं, पीछे व्यासजी वृद्ध बाबाभी वहां पहुॅचे, तव तो सब देवांगना लज्जितहो अपना अंग वस्त्रोंसे ढकने लगीं यह विचित्र भाव देख व्यासजी अपने मनमें विचार करने लगे कि, शुकदेव हमारे पुत्रको देख इन्होंने लज्जा नहीं करी और मुझ वृद्ध मनुष्यको देख वस्त्र पहन लिये, इसका क्या कारण है, उन देवांगनाओंने देवदृष्टिसे व्यासजीके मनका भ्रम जान कहा हे व्यासजी!आप स्त्री और पुरुषके भेद भावको भली भांति जानतेहो, इसलिये आपसे लज्जा की, और शुकदेवजीकी परमहंस गति है वह स्त्री और पुरुषमें कुछ भेद नहीं समझते वह समदर्शी हैं इस लिये हमने उनसे कुछ लज्जा नहीं करी। यह बात सुन व्यासजीके मनका सब सन्देह जाता रहा॥५॥ कुरु जांगल देशमें गये तो कैसे विदित हुआ कि, यह शुकदेवजी हैं, उन्मत्त गूँगे जडकी नाई हस्तिनापुरमें फिरतेथे॥६॥
सो परम भागवत शुकाचार्यसे राजऋषि परीक्षित्का संवाद कैसे हुआ?॥७॥ हे सूतजी! इस बातका हमको बड़ा सन्देह है, जो महाभाग्य शुकाचार्य गोदोहन मात्र से अधिक कहीं नहीं ठहर सक्ते थे, ऐसे विरक्त होकर सात दिन राजा परीक्षितके निकट कैसे ठहर कर कथा सुनाते रहे और उनके आश्रमको पवित्र किया ×॥८॥ हे सूत! अभिमन्युके पुत्र परीक्षित्को भागवतों में उत्तम कहते हैं, सो उनका जन्म कर्म महाआश्चर्य
** कथं वा पांडवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह॥ संवादः समभूत्तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः॥७॥ स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम्॥ अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्वैस्तदाश्रमम्॥८॥ अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम्॥ तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च गृणीहि नः॥९॥ स सम्राट् कस्य वा हेतोः पांडूनां मानवर्धनः॥ प्रायोपविष्टो गंगायामनादृत्याऽधिराट्श्रियम्॥१०॥नमंति यत्पादनिकेतमात्मनः शिवाय हाऽऽनीय धनानि शत्रवः॥ कथं स वीरः श्रियमंग दुस्त्यजां युवैषतोत्स्रष्टुमहो सहामुभिः॥११॥**
का है सो कहो॥९॥ पाण्डुकुलभूषण चक्रवर्ती महाराज परीक्षित् राज्यलक्ष्मीका अनादर कर किस हेतुसे गंगाके किनारे अन्न जल त्यागकर अन्तसमयतक बैठे सो कहो॥१०॥ हे मित्र सूत! शत्रुलोग धन लाकर जिनके चरणोंको प्रणाम करते हैं, अपनी देहकी रक्षाके लिये ऐसी लक्ष्मी को वीर तरुण राजा परीक्षितने प्राणसहित त्यागनेकी कैसे इच्छा करी?॥११॥
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x शंका—श्रीशुकदेवजी जिसके ऊपर अत्यन्त कृपा करते थे उसके स्थानपर इतनी देर ठहरते थे कि, जितनी देर गायके दुहनेमे लगती है, सो शुकदेवजी गंगाके किनारेपर सातदिन क्यों ठहरे और राजा परीक्षित्को श्रीमद्भागवत क्यों सुनाई?।
उत्तर—एक दिन अपनी इच्छासे श्रीशुकदेवजी गोलोकको गये, तब श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने विधिपूर्वक शुकदेवजीका पूजन किया, पूजन ग्रहण करके जब शुकदेवजी चलने लगे तब राजा परीक्षित्के मोक्ष होनेके लिये श्रीकृष्णने शुकदेवकी प्रार्थना की कि, हे मुने! पाण्डव मेरे बडे मित्र थे, उन अर्जुनका यह परीक्षित् पोताहै, शृगीऋषिके शापसे तक्षक सांप उसको काटेगा और सर्पसे काटा निःसन्देह नरकमें जाताहै, जब वह परीक्षित् नरक में गया तो त्रिलोकीमे मेरी बडी दुर्नामता होगी, लोग हँसी करेंगे कि, कृष्णके मित्रका पोता नरकमें जाताहै, देखो भाई! अब जैसी आपकी इच्छा हो उसी प्रकारसे परीक्षित्का नरकसे उद्धार करो और उसको मेरे लोकको भेजो, इस प्रकार श्रीकृष्ण जगदाधारकी प्रार्थनासे गंगाके निकट राजा परीक्षित् के पास सातदिन रहकर श्रीमद्भागवतकी कथा सुनाई, जिसके सुननेसे महादुस्तर संसारसे निस्तार हो जाता है क्योंकि, चार वेद, छह शास्त्र, अठारह पुराण, भारतादि अनेक ग्रन्थोंका सार निकालकर मुक्तिदायक वेदव्यासजीने श्रीमद्भागवतकोही हितचित्तसे रचा है।
संसारके कल्याणके लिये सब जीवों के ऐश्वर्यके अर्थ सुन्दर यशस्वी श्रीनारायणके परायण जन जीतेहैं कुछ अपनी देह आत्मा के कारण नही, जब ऐसा है तौ अनेक जीवोंको जीवदान देनेवाली देहको वैराग्य लेकर कैसे त्याग किया?॥१२॥ हे कृपासिन्धु!जो कुछ मैंने पूछा और जो कुछ मेरे बूझनेमे रह गया होय सो सब कृपा करके हमसे कहो क्योंकि, वेद विषय छोडकर वाणी से जानने योग्य अर्थ में तुम चतुर और पारगामी हो॥१३॥ सूतजी बोले कि हे शौनकमुनि!बहत्तर ७२ चतुरयुगियों में जब तीसरी वार द्वापरयुग आया तब पराशर मुनिसे उपरिचर वसुके वीर्यसे उत्पन्न सत्यवती में योगीश्वर श्रीव्यासजी महाराजने विष्णुकी कलासे अवतार लिया॥१४॥ सो व्यासजी एकसमय सरस्वती में स्नान कर
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः॥ जीवंति नात्मार्थमसौ पराश्रयं मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम्॥१२॥ तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किंचन॥ मन्ये त्वा विषये वाचां स्नातमन्यत्र च्छांदसात्॥१३॥ सूत उवाच॥ द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये॥ जातः पराशराद्योगी वासव्या कलया हरेः॥१४॥ स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचि॥विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले॥१५॥ परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा॥युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगेयुगे॥१६॥ भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम्॥अश्रद्दधानान्निस्सत्त्वान्दुर्मेधान्हसितायुषः॥१७॥ दुर्भगांश्च जनान्वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा॥सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममो घदृक्॥१८॥ चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम्॥व्यदधाद्यज्ञसंतत्यै वेदमेकं चतुर्विधम्॥१९॥
पवित्र हो सूर्योदय के समय एकांत स्थान बद्रिकाश्रममें बैठेथे॥१५॥ भूत भविष्यके ज्ञाता श्रीव्यासदेव कलियुगके कारणसे युग युगमें पृथ्वीपर सब वर्णाश्रम धर्म उलटेहुए जानकर॥१६॥ शरीरधारियोंको शक्तिहीन, श्रद्धाहीन, सत्त्वगुणहीन, बुद्धिहीन, आयुहीन॥१७॥ ऐसे दुर्भागी जीवोंको देख श्रीमुनिराज दिव्यज्ञानचक्षुसे सब वर्णोंका और सब आश्रमोंका हित विचारकर॥१८॥ ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु, आग्नीध्र इन चारोंसे अनुष्ठेय प्रजाओंके शुद्धकारक वैदिककर्मको जानकर यज्ञोंके अविच्छेदके लिये एक वेदके चार भाग किये॥१९॥
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, यह चार अलग अलग किये इतिहास पुराणोको पंचम वेद कहा है॥२०॥ पैलमुनिने ऋग्वेद पढा, जैमिनि पण्डितने सामवेद सीखा, वैशंपायनजी यजुर्वेदके पारंगत हुए॥२१॥ अंगिरा गोत्री, सुमन्तुमुनि, अथर्ववेदके ज्ञाता हुए, उस वेदके मारण उच्चाटनादिकर्म करनेसे उनका नाम दारुक हुआ और इतिहास पुराणोके पारगामी हमारे पिता रोमहर्पणजी हुए॥२२॥ वह सब ऋषि अपने अपने वेदका अनेक प्रकारसे विभाग करनेलगे, उनके शिष्य और प्रशिष्य और उनकेभी शिष्योंसे वेदोंकी शाखा हुई॥२३॥ पहिले बड़े बड़े चतुर और अतिविशालबुद्धि वेदका अर्थ जानतेथे, अब उन्हीं वेदोंको मूर्ख निर्बुद्धि लोग पढके उनके उलटे पुलटे अर्थ करने लगे तब व्यासजी
ऋग्यजुःसामाऽथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः॥ इतिहासः पुराणं च पंचमो वेद उच्यते॥२०॥ तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः॥ वैशंपायन एवैको निष्णातो यजुषामुत॥२१॥ अथगिरसामासीत्सुमंतुर्दारुणो मुनिः॥ इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः॥२२॥ त एव ऋषयो वेदं स्वस्वं व्यस्यन्ननेकधा॥ शिष्यैः प्रशिष्यैस्तच्छिष्यै र्वेदास्ते शाखिनोऽभवन्॥२३॥ त एव वेदा दुर्मेधैर्धार्यते पुरुपैर्यथा॥ एवं चकार भगवान्व्यासः कृपणवत्सलः॥२४॥स्त्रीशूद्रद्विजबंधूना त्रयी न श्रुतिगोचरा॥ कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह॥ इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम्॥२५॥ एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजाः॥सर्वात्मकेनापि यदा नाऽतुष्यहृदयं ततः॥२६॥ नातिप्रसीदद्धृदयः सरस्वत्यास्तटे शुचौ॥वितर्कयन्विविक्तस्थ इदं प्रोवाच धर्मवित्॥२७॥ धृतव्रतेन हि मया छंदांसि गुरवोग्नयः॥ मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम्॥२८॥
महाराजने यह बनाया॥२४॥ स्त्री शूद्र और मूर्ख इन तीनोंको वेदत्रयी पढनेका अधिकार नहीं, उनके कल्याण के लिये यह विचार कृपापूर्वक महाभारत बनाया॥२५॥ और व्यासजीने सब वेदोंका सार लेकर उसे बनाया, हे शौनकादिक मुनियो।सब जीवोंके हितके लिये अधिक परिश्रम करके महाभारतादिक ग्रन्थ रचे परन्तु मन तौभी प्रसन्न नहीं हुआ और बारबार यही विचार करते थे कि अब हम कौनसा ग्रन्थ रचें, जिसमें हमारे मनको धैर्य हो॥२६॥२७॥ इसी चिन्तामें व्यासजी पवित्र सरस्वतीके किनारे एकांतमे बैठे अनेक अनेक तर्क वितर्क करते करते
उदासीनचित्त होकर धर्मात्मा व्यासजी कहने लगे मैने व्रत करके अनेक शुद्ध कर्म करके गुरु, अग्नि, सबको निष्कपट भावसे माना और उनकी आज्ञा को अपने शिर धारण किया॥२८॥ भारत के बहाने से सब वेदका अर्थ कहा, जिस भारत में स्त्री शूद्रादिकका भी धर्म, अर्थ, काम जानपड़े॥२९॥ मैं ब्रह्मतेजवालोंमें श्रेष्ठभी हूं परन्तु बड़े खेदकी बात है कि, मेरा जीव समर्थ मनसे प्रसन्न नहीं॥३०॥अथवा वोह भागवत धर्म अनेक प्रकारसे नहीं कहे हैं जो भागवत धर्म परमहंसों को प्यारे हैं वह भगवत्को प्यारे हैं॥३१॥ अपने आपको छोटा समझ खेदित मन इसी सोचमें व्यासजी सरस्वतीके निकट बैठे विचारकर रहे थे कि, उसी अवसर पर श्रीनारदजी उस आश्रमपर आये॥३२॥
भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च दर्शितः॥ दृश्यते यत्र धर्मादिस्त्रीशूद्रादिभिरप्युत॥२९॥ अथापि वत मे दैह्यो ह्यात्मा चैवात्मना विभुः॥ असंपन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्यसत्तमः॥३०॥ किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः॥ प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः॥३१॥ तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यतः॥ कृष्णस्य नारदोऽभ्यागादाश्रमं प्रागुदाहृतम्॥३२॥तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिः॥ पूजयामास विधिवन्नारदं सुरपूजितम्॥३३॥ इति श्रीमद्भाम० प्रथ० चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ सूत उवाच॥ अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः॥देवर्षिः प्राह विप्रर्षि वीणापाणिः स्मयन्निव॥१॥
उनको देख व्यासजी अत्यन्त प्रफुल्लित हो शीघ्रता से उठे और विधिवत् पूजन कर बड़े आदर सत्कार से आसनपर बैठाला॥३३॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां नारदव्याससंगमो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ दोहा—इस पंचम अध्याय में, नारद व्यास मिलाप॥ कही कथा सब देवऋषि, जैसे मुनये आप॥१॥ इतनी कथा कह सूतजी बोले कि, सुखपूर्वक बैठे व्यासजीसे सर्व विद्यासागर जगत् उजागर वीणा हाथ में लिये देवऋषि नारदजी मुसकाके बोले॥१॥
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* शंका—त्रिलोकीमें किसी जीवको नारदजी दुखी देखके अत्यन्तदुःखी होते थे और मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिरपडतेथे और निडल होजातेथे भगवान्के भक्त नारदजी उस जीवके दुख दूर करनेके लिये अनेक उपाय करतेथे कि, कोई प्राणी दुखी न हो यह विचार सढा सबका उपकार करते, फिर ऐसे दयालु भगवान्के प्यारे वेदव्यासजीको दुखी देखकर नारदमुनि क्यों हँसे और यह अयोग्य काम क्यों किया, यह बढाभारी सन्देह है कि, अपना स्वभाव क्यों छोड़ा?॥
उत्तर—नारद मुनिने बडा स्नेह करके बडे आदरसे व्यासजीको निवारण किया कि, हे व्यास! संसारके ठगनेवाले ग्रन्थ मत बनाओ, जिसके नामका ग्रन्थ उसकी तो प्रशसा और दूसरेकी निन्दा, फिर दूसरे नामका—
हे पराशरपुत्र!हे महाभाग! आपके शरीरसे शरीरका अभिमानी प्रसन्न है और मनका अभिमानी मनसे प्रसन्न है कि नहीं॥२॥ जो जानने योग्य था सो भी आपने जाना अद्भुत अद्भुत सब अर्थोकी खानि महाभारत भी आपने रचा॥३॥ जो सनातन नित्य परब्रह्मको भी विचारसे आपने प्राप्त किया एक वेदके चार भाग किये और उनका सार निकाल और बहुतसे ग्रन्थ और पुराण रचे तौभी ऐसे शोचवश हो रहे हो जैसे किसीने अनेक यत्नकर अपना कार्य सिद्ध कियाहो और उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ हो जैसे वह सोच करे है, हे प्रभो!तुम सर्वज्ञ होकर ऐसे
नारद उवाच॥ पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना॥ परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा॥२॥ जिज्ञासितं सुसंपन्नमपि ते महदद्भुतम्॥ कृतवान्भारतं यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम्॥३॥जिज्ञासितमधीतं च यत्तद्ब्रह्म सनातनम्॥ अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो॥४॥ व्यास उवाच॥ अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं तथापि नात्मापरितुष्यते मे॥ तन्मूलमव्यक्तमगाधवोध पृच्छामहे त्वाऽऽत्मभवात्मभूतम्॥५॥ स वै भवान्वेद समस्तगुह्यमुपासितो यत्पुरुषः पुराणः॥ परावरेशो मनसैव विश्वं सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसंगः॥६॥
सोचवश किस कारण होरहेहो॥४॥ व्यासजी बोले जो तुमने कहा सो सब सत्य है परन्तु तौभी मेरा मन प्रसन्न नही है इसका कारण में नहीं जानता इसलिये आपको ब्रह्माजीका पुत्र ब्रह्मज्ञानी जान आपसे पूँछू हूं॥५॥ जो सबसे गुप्त बात सो आप भली भांति जानते हो क्योंकि, जो पुराणपुरुषहै उसकी तुमने उपासना करीहे, गुणरहीत कार्य कारणके नियंता जो अपने मनसेही सब विश्वको रचै पालै संहार करे है॥६॥
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ग्रन्थ उसीकी प्रशंसाऔर जिसकी प्रशंसा की थी दूसरे ग्रन्थमे उसकी निन्दा, ऐसे ग्रन्थ मत बनाओ कि, जिसमें मोक्षदायक यदुनायकका नाम न हो मुखका समुद्र और जिसमे भगवान्के अनेक प्रकारके चरित्रहो कोई ऐसा मोक्षदायक ग्रन्थ वर्णन करो, इसप्रकारकी शिक्षा बारबार नारदमुनिने व्यासजीको दी, व्यासजीको अपनी कविताका बडाभारी अभिमान था, उन्होंने नारदकी कही हुई एक बात भी नहीं मानी और अनेक प्रकारके ग्रन्थ बनाये, परन्तु उन ग्रंथोंके बनानेसे व्यासजीको किंचित् मात्रभी सुख नहीं हुआ, ग्रन्थ बनानेके पीछे वरन् व्यासजीको और अधिक दुःख प्राप्तहुआ तब फिर व्यासको नारदजीने दुखी देखा तव उनके ऊपर कृपाकरके और व्यासको त्रास देनेक लिये नारदमुनि हँसेथेकुछ अभिमान मे निर्दयी होकर नहीं हँसेथे, व्यासजीको तत्त्वज्ञानका उपदेश किया और उनके मनका सब संशय हरलिया।
सूर्यकी भांति त्रिलोकीमें तुम विचरते हो पवनकी नाई सबके अंतःकरणकी जानते हो, बुद्धिकी वृत्तिको भली भांति जानते हो परन्तु मैभी परब्रह्म और वेदमें धर्मसे और व्रतसे परायण हूं तौभी मेरे मनकी न्यूनता नही गई सो तुमको भली भांति प्रगट है॥७॥ श्रीनारदजी बोले कि, हे व्यासमुनि ‘आपने भगवानका निर्मल यश वर्णन नहीं किया, इसीलिये आपका मन प्रसन्न नहीं है यही न्यूनता समझो॥८॥हे मुनिश्रेष्ठ! जिस प्रधानतासे आपने धर्म अर्थादिक कहे हैं उस प्रधानता से श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी महिमा वर्णन नहीं किया॥९॥ जिसमें जगतके पवित्र करनेवाले परमात्माका यश नहीं कहा, चाहे उसमें कैसे ही चित्र विचित्र पद हों और वह काकतुल्य कामियोंको अच्छी लगेऐसी कविताईको
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीमंतश्चरो वायुरिवात्मसाक्षी॥ परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व॥७॥ नारद उवाच॥ भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम्॥ येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम्॥८॥ यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः॥ न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णितः॥९॥ न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित्॥ तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमत्युशिक्क्षयाः॥१०॥ तद्वाग्विसर्गे जनताऽघविप्लवो यस्मिन्प्रतिश्लोकमवद्धवत्यपि॥ नामान्यनंतस्य यशोकितानि यच्छृण्वंति गायंति गृणंति साधवः॥११॥
सत्त्वगुणप्रधान परब्रह्म में निवास करनेवाले मनस्वी सार असारके ज्ञानी ब्रह्मवादी काकतीर्थ कहैं हैं अत्यन्त करके उस कविताईको नहीं पढ़ते जैसे प्रसिद्ध है कि, मानससरोवरवासी हंस मानससरोवरही में विचरते हैं वह कमल वनको त्याग जहाँ जूठन डाली जाती और का काँव काँव करते हैं वहाँ हंस कभी नहीं जाते इसी भांति भगवद्भक्त भगवतहीके चरित्रोंके ग्रन्थ पढै हैं रसिक ग्रन्थोंमें ध्यान नहीं लगाते॥१०॥ एक एक श्लोक चाहे जिस ग्रन्थका अशुद्ध हो परन्तु परमेश्वरका विषय हो, जो संसारके जीवोंका पाप नाश करे है, और सुयशका प्रकाश करे ऐसी कविताई और कथाको साधु ब्राह्मण गावें हैं और सुनावें हैं और सुनें हैं॥११ ॥
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* कवित्त—
कहा भयो जौन काव्य भेट भाव द्वन्द्वविना, हरी यश जामें सोई कहत मुहाई है। सन्त जन गावैं सुनैं कहें जाप ताही कोरी, कविता बनाई देख गिरा पछिताई है॥ रामरस विना जैसे फीको लगे
स्वाद तिमि, रामरस विना स्वाद गन्धट्ट न आई है। भक्त मनभाई सुखदाई है सुहाई जामें, कृष्णकथा गाई सोई सांची कविताई है॥१ ॥
और जिसने ब्रह्मार्पण कर्म किया परन्तु भगवद्भक्तिसे रहित है, वह उपाधिरहित अत्यन्त ज्ञान शोभाको नहीं प्राप्त होता, फिर फलके समय भीदुःख होता है जिसने निष्काम कर्म ईश्वर में समर्पण नहीं किये उसकी ऐसीही गति होती है॥१२॥ इस कारण हे महाभाग!
आप यथार्थद्रष्टा हो, शुद्ध, यशस्वी, तेजस्वी, सत्यवादी सब व्रत करनेवाले हो अब आप चित्तको सावधान करकै परमेश्वरकी लीला वर्णन करो, जिसको पढकर संसारके बन्धनसे लोग छूटैं और॥१३॥ भगवान्के यशविना जो कुछ पृथक् दृष्टिसे वर्णन किया है उस नाम रूपमें पड़कर बुद्धि चंचल होजाती हैं जैसे वायुसे कम्पित नौका जलमें एक ठिकाने नहीं रहती॥१४॥ धर्मके लिये शिक्षा करनेवाले, तुम्हारी नैष्कर्मकी आज्ञाको देख दुष्टजन महा
नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरंजनम्॥ कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम्॥१२॥ अथ महाभाग भवानमोघट्टक् शुचिश्रवाः सत्यस्तो धृतव्रतः॥उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तयेसमाधिनाऽनुस्मर तद्विचेष्टितम्॥१३॥ ततोऽन्यथा किंचिन यद्विवक्षतः पृथग्दृशस्तत्कृत रूपनामभिः॥ न कुत्रचित्कापि च दुःस्थिता मतिर्लभेत वाताहत- नौरिवास्पदम्॥१४॥ जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः स्वभावरक्तस्य महान्व्यतिक्रमः॥ यद्वाक्यतो धर्म इतीतरः स्थितो न मन्यते तस्य निवारणं जनः॥१५॥ विचक्षणोऽस्यार्हति वेदितुं विभोर- नंतपारस्य निवृत्तितः सुखम्॥ प्रवर्तमानस्य गुणैरनात्मनस्ततो भवान्दर्शय चेष्टितं विभोः॥१६॥ त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणांबुजं हरेर्भजन्नपक्वोऽथ पतेत्ततो यदि॥ यत्र क्व वा भद्रमभूदमुष्य किं को वाऽर्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः॥१७॥
अन्याय करेंगे और तुम्हारे वाक्योंसे संसारके तुच्छ जीव यही मानेंगे कि, यह भी एक प्रकारका धर्म है, यह नहीं जानेंगे कि इसका व्यासजीनेनिवारण किया है॥१५॥ जो अति निपुण हैं वह स्वभावसे अनन्त अपार परमेश्वर के स्वरूपको जाने हैं गुणोसे प्रवर्त्तमान जीवों से भिन्न समर्थ ईश्वरलीला तुम वर्णन करो॥१६॥ अपने धर्मको त्यागकर वासुदेव के चरणारविन्दका भजन करते करते जो अधबीच में मरजाय तो उसको अपने धर्मके त्यागनेका दोष होता है परंतु स्वधर्मसे भजनेवाले इस जीवका जहाँ कहीं कुयोनिमें भी जन्महोय तौ भी भक्तही होता है भक्ति सदा
कल्याणकी दाता है भक्ति सब कार्यको सिद्ध करै है॥१७॥ विवेकी उस सुखके लिये यत्न करें और वह सुख ब्रह्मलोकतक होजाओ और नीचे स्थावरतक होजाओ परन्तु सब नहीं मिलता, विषयसुख प्राचीन कर्मसे सब ठौर नरकादिकमें भी विना यत्न किये दुःखकीसी भांति प्राप्त होता है ऐसे ही सुख भी प्राचीन कर्म से गम्भीर वेगवाले कालसे विनाही चाहे आनकर प्रगट हो जाता है॥१८॥ मुकुन्दसेवी जन, कभी भी संसार में नहीं आता है, हे मित्र! केवल कर्मनिष्ठावालोंकी भांति, क्योंकि भगवच्चरणारविन्दका स्पर्श फिर स्मरण करे है त्यागनेकी इच्छा नहीं करते वह रस
तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद्धमतामुपर्यधः॥ तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं कालेन सर्वत्र गभीररंहसा॥॥१८॥ न वै जनो जातु कथंचनाव्रजेन्मुकुन्दसेव्यन्यवदंग संसृतिम्॥स्मरन्मुकुंदांत्र्युपगूहनं पुनर्विहातुमिच्छेन्नरसग्रहो यतः॥१९॥ इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो यतो जगत्स्थाननिरोधसंभवाः॥ तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथाऽपिप्रादेशमात्रं भवतः प्रदर्शितम्॥२०॥ त्वमात्मनात्मानमवेद्य मोघट परस्य पुंसः परमात्मनः कलाम्॥ अजं प्रजातं जगतः शिवाय तन्महानुभावाभ्युदयोऽधिगण्यताम्॥२१॥ इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयोः॥ अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम्॥२२॥
मान कर उसको ग्रहण करते हैं॥१९॥ यह विश्व ईश्वररूप ही है और नहीं है, जिससे जगत् की उत्पत्ति, पालन, संहार होता है सो तुम सब भलीभांति जानोहो तौभी आपको एक देशमात्र दिखाया है॥२०॥ हे आमोघदृष्टिवाले! परपुरुषपरमात्माकी तुम साक्षात् कला हो सो मनसे परमात्माको जानो जिसे अजन्मा कहते हैं उसी परमात्माने जगत् के कल्याणके लिये जन्म लिया ऐसे महाप्रतापीकी लीला वर्णन करो॥२१॥ पुरुषके तप, श्रवण, दान, पुण्य करने और सुन्दर कूप, बावडी बनाने, श्रेष्ठयुक्तिका, बुद्धिका यही प्रयोजन कवियोंने कहा है कि, परमात्माका गुण गाना॥२२॥
हे व्यासदेव! मैं पहिले जन्म में एक वेदवादी ब्राह्मणकी दासीसे उत्पन्न हुआथा, मुझे बाल अवस्था में ही वर्षाकालमें ठहरे हुए साधुओं की सेवा करने को नियुक्त कर दियाथा, वह ब्राह्मण साधु संतोंकी सेवा में लवलीन था वर्षाके दिनोंमें उस ब्राह्मणके स्थानपर साधु संत आनकर उसके यहां विश्राम किया करते थे और उस ब्राह्मणने साधु लोगोंके चौका वर्तनकी टहलके लिये मेरी माताको नियतकर दियाथा, मैं भी अपनी माताके संग उन साधुओंके निकट रहकर आठों पहर उनका दर्शन करता रहताथा, जिस समय साधु लोग परस्पर बैठकर श्रीनारायणकी कथा वार्ता कहते थे, उस समय मैं भी उनके समीप बैठा सुनता रहता और उनकी सेवा करता रहताथा और वह ऋषिभी मेरे ऊपर दया करते थे ॥२३॥ मेरे चित्तकी सब
अहं पुराततभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम्॥ निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रादृषिनिर्विविक्षताम्॥२३॥ तेमय्यपेताखिलचापलेऽर्भके दांतेऽधृतक्रीडनकेऽनुवर्तिनि॥ चक्रुः कृपां यद्यपि तुल्यदर्शनाः शुश्रूषमाणे मुनयोऽल्पभाषिणि॥२४॥ उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः सकृत्स्म भुंजे तदपास्तकिल्बिषः॥ एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतसस्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते॥२५॥ तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायतामनुग्रहेणशृणवं मनो हराः॥ ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः प्रियश्रवस्यंग ममाभवदुचिः॥२६॥ तस्मिंस्तदा लब्धरुचेर्महामुने प्रियश्रवस्यस्खलिता मतिर्मम॥ ययाहमेतत्सदसत्स्वमायया पश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे॥२७॥
चंचलता दूर होगई, अपनी इन्द्रियोंको वश में रखता थोडा बोलता और वह समदशीं साधुभी मुझपर अनुग्रह करते थे॥२४॥ उस ब्राह्मणकी आज्ञानुसार उन साधुओंके पात्रोंमें उच्छिष्ट जो शेष रहजाताथा मैं नित्यप्रति वही भोजन पाताथा इससे मेरे सब पाप दूर होगये जब मैं ऐसे विशुद्ध चित्तसे रहने लगा तब तो उस धर्ममें मेरी अधिक रुचि होगई॥२५॥ हे मित्र! दिन रात कृष्णकथा उनके मुखसे सुननेसे प्रिय यशवाले भगवान्वासुदेव में मेरी रुचि दिन दिन अधिक होती गई॥२६॥ हे व्यास! श्रीनारायण के चरणारविन्दोंमें जब मेरी अधिक रुचि बढी तौ मेरी अखण्डित बुद्धि होगई, यह सब मुझको दीखने लगा सत् असत् अपनी मायासे ब्रह्ममें कल्पित मानने लगा॥२७॥
इस प्रकार शरद वर्षाऋतु दिनरात परमेश्वरका निर्मल यश सुनतारहूं जो महात्मा मुनियोंने गाया उससे आत्माके रज, तम, नाशकरनेवाली प्रवृत्ति होगई \।\।२८॥ वह अनुरागी, नम्र, श्रद्धालु, जितेन्द्रिय, मुझ सेवक बालकपर अत्यन्त कृपा करनेलगे॥२९॥ वह दीनवत्सल साधु चलते समय मुझे साक्षात् श्रीभगवान् के मुखसे निर्गत गुह्यतम ज्ञानका उपदेश करगये॥३०॥ उस ज्ञानसे सर्वव्यापक भगवान् वासुदेवकी मायाका प्रभाव जाना जिससे उस परम पदवीको सब जाते हैं॥३१॥ हे ब्रह्मन्! यह आध्यात्मादि तापत्रयीकी औषधि है जो बृहत्त्वादि गुणविशिष्ट, चैतन्य, पूर्णरूप, भगवान् ब्रह्म, ईश्वरमें सब कर्म समर्पण करना॥३२॥ हे सुव्रत! जो रोग जिस वस्तुसे जीवोंको होय वह रोग उस वस्तुसे
इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरेर्विशृण्वतो मेऽनुसवं यशोऽमलम्॥ संकीर्त्यमानं मुनिभिर्महात्मभिर्भक्तिः प्रवृत्ताऽऽत्मरजस्तमोपहा॥२८॥ तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य प्रश्रितस्य हतैनसः॥ श्रद्दधानस्य बालस्य दांतस्यानुचरस्य च॥२९॥ ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम्॥ अन्ववोचन्गमिष्यंतः कृपया दीनवत्सलाः॥३०॥ येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधसः॥ मायानुभावमविदं येन गच्छति तत्पदम्॥३१॥ एतत्संसूचितं ब्रह्मस्तापत्रयचिकित्सितम्॥ यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम्॥३२॥ आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत॥ तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम्॥३३॥ एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः॥ त एवात्मविनाशाय कल्पते कल्पिताः परे॥३४॥
उनका नहीं जाता चाहे कैसीही चिकित्सा करो॥३३॥ ऐसे मनुष्यो के सब कर्मकाण्ड अपने निमित्तसे करे तो सदा संसारमें जन्मता मरता रहता है और अपना विनाश होय है वही सब परमेश्वरमें समर्पण करे तो अपना मोक्ष होता है प्रथम तो महात्मा पुरुषोंकी सेवा उससे उनकी कृपा होय उस कृपासे उस धर्ममें श्रद्धा होय तब भगवत्कथा सुननेसे ईश्वर में प्रीति होय उस प्रीतिसे दोनों देहोंको विवेक होय ऐसा आत्मज्ञान होता है तब दृढ भक्ति उस भक्तिसे भगवान्का तत्त्वज्ञान उस तत्त्वज्ञानसे सर्वज्ञत्व सर्वात्मत्व अपहतपाप्मत्व इत्यादि भगवद्गुण प्रगट होने का यह क्रम है॥३४॥
जिस कर्म में भगवत्की प्रसन्नता है यह जानिकै जो कर्म करै है उस कर्मके अधीन भक्तियों समेत ज्ञान होता है॥३५॥ भगवान की आज्ञा है कि,सब शुभ कर्म करो यह जान जो कर्म करे हैं उनका मोक्ष होता है जो मनुष्य श्रीकृष्णके गुण अपने मुख से उच्चारण करे है वह निःसन्देह मोक्षका भागी है॥३६॥ भगवान्को नमस्कार और वासुदेवका ध्यान करे प्रद्युम्न, संकर्षण, अनिरुद्धको नमस्कार करे॥३७॥ इन मूर्तियोंके नामसे मंत्रोक्त मूर्ति बनाने वह मूर्तियोंके नामसे है और बाह्यकी यह मूर्ति नहीं है ऐसा जानकर जो पूजन करें तो वो पुरुष सुंदर दर्शन करने योग्य हो जाताहै॥३८॥ हे ब्रह्मन्!
यह अपना ज्ञान जो मैंने अनुष्ठान किया इससे परमात्माने मुझको ज्ञान ऐश्वर्य दिया॥३९॥ हे बहुश्रुत! विभुकी लीला
यदत्र क्रियते कर्म भगवत्परितोषणम्॥ ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम्॥३५॥ कुर्वाणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयाऽसकृत्॥ गृणंति गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरंति च॥३६॥ ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः संकर्षणाय च॥३७॥ इति मूर्त्यभिधानेन मंत्रमूर्तिममूर्तिकम्॥ यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः पुमान्॥३८॥ इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम्॥ अदान्मे ज्ञानमैश्वर्यं स्वस्मिन्भावं च केशवः॥३९॥ त्वमप्यदभ्रश्रुतविश्रुतं विभोः समाप्यते येन विदा बुभुत्सितम्॥ आख्याहि दुःखैर्मुहुरर्दितात्मनां संक्लेशनिर्वाणमुशंति नान्यथा॥४०॥ इति श्रीमद्भा० प्रथ० व्यासनारदसं० पंचमोऽध्यायः॥५॥
६॥ सूत उवाच॥ एवं निशम्य भगवान्देवर्षेर्जन्म कर्म च॥ भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन्व्यासः सत्यवतीसुतः॥१॥ व्यास उवाच॥ भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्ट्रभिस्तव॥ वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्भवान्॥२॥
तुमभी कहो जिससे ज्ञानियोंके सब जाननेकी इच्छा पुरी होजाय और दुःखसे पीड़ित जीवोंका सब क्लेश जिससे शान्त होगा और प्रकारसे नहीं॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कंधे भाषाटीकायां श्रीव्यास नारदसंवादे पंचमोऽध्यायः॥५॥ दोहा-मिले छठे अध्यायमें, ज्यों नारदको सिद्ध॥ जगत मांहि जाते भये, नारद परमप्रसिद्ध॥१॥ इतनी कथा सुनाय सूतजी बोले कि, हे शौनक ऋषि सत्यवतीसुत व्यासजी देवऋषि नारदके जन्म कर्म की कथा सुनकर फिर नारदजीसे बूझने लगे॥१॥कि, हे कृपासिंधु! वह ज्ञानदाता भिक्षु जब सब चलेगये तो आपने प्रथम
अवस्थामें क्या किया॥२॥ हे स्वायंभुव! आपने पिछली अवस्था कैसे व्यतीत करी जब काल आया तो वह शरीर कैसे त्यागन किया॥३॥ हे सुरसत्तम! प्रथम कल्पका स्मरण तुमको कैसे बनारहा सबको परलोकदाता यह काल खंडित न हुआ तुम्हारी स्मृतिभी खंडित नहीं हुई सो कहो॥४॥ श्रीनारदजी बोले कि, ज्ञानदाता भिक्षु जब चलेगये तब आयुकी आदिमें यह किया॥५॥ मेरी माता स्त्रीस्वभाव मूढ दासी कोई बात तक करनी जिसको न आवै एक मैंही उसके अकेला बेटा मुझसे अधिक स्नेह रक्खे॥६॥ और मेरे निर्वाहकी चिंता रात दिन करती रहे परन्तु
स्वायंभु कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः॥ कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम्॥३॥प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम॥ न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः॥४॥ नारद उवाच॥ भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टभिर्मम॥ वर्तमानो वयस्याऽऽद्ये तत एतदकारणम्॥५॥ एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किंकरी॥ मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबंधनम्॥६॥ सास्वतंत्रा न कल्पासीद्योगक्षेमं ममेच्छती॥ ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा॥७॥ अहं च तद्ब्रह्मकुल ऊपिवांस्तदवेक्षया॥ दिग्देशकालाऽव्युत्पन्नो बालकः पंचहायनः॥८॥ एकदा निर्गतां गेहाद्दुहंती निशि गां पथि॥ सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः॥९॥ तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्तः॥ अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्टं दिशमुत्तराम्॥१०॥
वहभी पराधीन और असमर्थ थी जैसे काठकी पुतली नटुवेके वशमें रहती है॥७॥ माताके स्नेहसे मै उस ब्राह्मणके पास रहता रहा परन्तु मनमें दिनरात यह विचार करता रहूं कि, इस मोहकी फांसीसे किस दिन छूटुंगा साधुलोगोंकी कृपासे मैं अपने आपको पांचवर्षका नहीं समझताथा॥८॥ एक दिन मेरी माता उस ब्राह्मण के लिये दूध दुहानेको जाती थी सो मार्गमें उस बिचारीको काले सर्पने डस लिया॥९॥ तब अत्यन्त आनन्दहो उस समय यही विचार किया कि, ईश्वर भक्तोका सदा कल्याण करते हैं और मुझे अपना दास जान मुझपर भी अनुग्रह किया
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*शंका—
नारदकी माताके ऊपर मुनि लोगोंकी बडी कृपाथी, क्योंकि जो कृपा नहीं करते तो मुनियोंके सकाशमें नारद और दासीकी स्थिति क्यों होती? ऐसी मुनियोंकी कृपामें नारदजीकी माता सर्प के काटनेसे क्यों मरगई, ऐसी खोटी मृत्यु नारदजीकी माताकी सुनके हमको बडी शका होती है॥
उत्तर—
नारदकी माताने मुनियोंको तीर्थयात्रा करनेके लिये जाता देखकर और अपने पुत्र नारदको ज्ञानमें रमण करता जानके और इन्द्रियोंको बडी वान् समझके भगवान् वासुदेवकी प्रार्थना करनेलगी-
यह बात निश्चय समझ में उसी समय उत्तर दिशा की ओरको चलदिया॥१०॥ समृद्ध देश, राजधानी, ग्राम, व्रज, रत्नादि उत्पत्ति स्थान किसानोंके गांव, सुपारी, पुष्पोंकी वाटिका, स्वतः सिद्ध वृक्षसमूहोंसे वन डट रहे और वृक्षसमूहोंके सुन्दर उपवन देखे॥११॥ चित्रधातु विचित्र पर्वत हाथी वृक्षोंकी शाखा तोड़रहे निर्मल जल भरे ताल झकोलरहे मार्गमं जहां तहां मनोहर, कूप, बावडी, ताल, नदी, वन, दृष्टि आतेथे॥१२॥ सुन्दर सुन्दर भ्रमर जहां तहां गुञ्जार रहेथे पक्षी चित्र विचित्र अपनी अपनी बोली बोल रहेथे नर्पल, वांस वीर्णमूलके समूह कुशा
स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामवजाकरान्॥ खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च॥११॥ चित्रधातुविचित्राद्री निभभग्नभुजद्रुमान्॥ जलाशयाञ्छिवजलान्नलिनीः सुरसेविताः॥१२॥ चित्रस्वनैः पत्ररथैर्विभ्रमद्भ्रमरश्रियः॥ नलवेणुशरस्तंबकुशकीचकगह्वरम्॥१३॥ एक एवातियातोऽहमद्राक्षं विपिनं महत्॥ घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूक शिवाऽजिरम्॥१४॥
बांसोंमें आपसे आप छिद्र हो रहे हैं उसमें पवन भरकर वांसुरीके समान सुरीले शब्द निकल रहे हैं वह कीचक कहते हैं, इनसेही महागम्भीर हो रहा॥१३॥ मैं अकेला ऐसे महा घोरभयंकर वनमें सर्प, विच्छू, शृगाल जहां भयानक बोली बोल रहे थे उनको देखता चला जाताथा॥३४॥
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और अपने मनमें यह विचारनेलगी कि, मुनिलोग तो मुझको छोडकर अपने अपने आश्रमको चलदिये और पुत्र मेरा ज्ञानमे मतवाला है, अब मेरी प्रतिपाल कौन करेगा, क्योकि इन्द्रिय तो अपनी अपनी ओर को मेरे प्राण खैंच खैंच मुझको कठिन दुःखदेगी, नारदकी माताने विचार किया कि कुलमें मेरा जन्महुआ, शूद्रोंकी मैने सगति को, किसी शुभकर्मके प्रभावसे मुझको मुनियोंकी सगति प्राप्तहुई है और ज्ञान व्यानमें हीनडू, मेरे हृदय में कुछभी ज्ञान नहीं, अब में निराधारढ, मेरा मरण शीन होना चाहिये इसप्रकार भगवान् विनय करने लगी, तत्र भगनाने उसकी विनय सीकार करके शीघ्र मृत्यु होनेके लिये सापसे कटवाया, जब वह मरगई तो उसको सुरपुरका वासदिया और उसको अपने सन्मुस राखा, इसलिये सर्पनाधासे नारदजीकी माताका मरणहुआ, इसलिये उसको अपने सम्मुख रखा कि, जिस प्राणीको साप उसले ताहै उसकी दुर्गति होती है इसकी कुगति न हो और नारदकी माताको मुनियोंकी कृपासे भगवानने अपने सन्मुग्व वासस्थान दिया।
चलते चलते सब शरीर शिथिल होगया तो एक सुन्दर सरोवर मुझको दृष्टि आया तब मै भूखा प्यासा उस तालके जलमें स्नान करके जल पिया तो मेरे शरीरका सब श्रम दूर हुआ॥१५॥ उस महागम्भीर सरोवरके तीर एक पीपलका वृक्ष था में उस पीपलके वृक्षके नीचे बैठकर परमेश्वरके स्वरूपका हृदयमें ध्यान करने लगा॥१६॥ भावसे मन जीतकर परमात्मा के अमल चरणकमलका ध्यान करने लगा प्रीतिवशहो नेत्रों से आंसू बहने लगे तब धीरे धीरे हृदय में भगवान् वासुदेवका दिव्यरूप ऐसा दिखाई दिया कि एक पुरुष सुन्दर स्वरूप जिसके मुखारविन्दका प्रकाश कोटि भास्करोंसे भी अधिक चतुर्भुजी मूर्ति, शंख चक्र गदा पद्म चारों हाथोंमें लिये पीताम्बर पहने वैजयंती माला कण्ठ में धारण किये किरीट मुकुट शिरधरे, त्रिभंगी छबिकरे मकराकृत कुण्डल कानोंमें पहने, श्यामस्वरूप कमलनयन, लंबी भुजा, तापहारिणी चितवन्
परिश्रांतेंद्रियात्माऽहं तृट्परीतो बुभुक्षितः॥ स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः॥१५॥ तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्येपिप्पलोपस्थ आस्थितः॥ आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिंतयम्॥१६॥ध्यायतश्चरणांभोजं भावनिर्जितचेतसा॥ औत्कंठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः॥१७॥ प्रेमातिभरनिर्भिन्नपुलकांगोतिनिर्वृतः॥ आनंदसंप्लवेलीनो नापश्यमुभयं मुने॥१८॥ रूपं भगवतो यत्तन्मनः कांतं शुचापहम्॥ अपश्यन्सहसोत्तस्थे वैक्लव्याडर्मना इव॥१९॥ दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि॥ वीक्षमाणोपि नापश्यमवितृप्त इवातुरः॥२०॥ एवं यतंतं विजने मामाहागोचरो गिराम्॥ गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव॥२१॥
मन्द मन्द मुसकाते बांकी झांकी दिखाते मेरे सम्मुख आये, उस मनमोहन स्वरूपको देखतेही मैंने परमानन्द होकर चाहा कि इसी सुन्दर स्वरूप को निहारता रहूं॥१७॥ प्रेम प्रीतिके भावसे हृदय पुलकायमान होगया मन महासुखीहो आनन्द के महाप्रवाहमें लीन होगया देहकी सब सुधि बिसरगई परमात्मा की भी सुधि नहीं रही॥१८॥ मनको सुखदायक शोकनाशक जो भगवानका रूप है सो एक संग हृदयमें दीखा और मैं आनंदसे देखतारहा विवशता से मेरा मन कुछ खेदित हुआ जब वह स्वरूप मेरे ध्यानसे अंतर्धान हुआ॥१९॥ उस रूपके देखनेको फिरहृदय में मन लगाया प्रथम जो रूप देखा था वह रूप फिर दिखाई नहीं दिया॥२०॥ उस एकान्त वनमें मुझ यत्नशीलको परमेश्वरने गम्भीर
आकाशवाणीसे मेरे मनका सब शोक दूरकिया॥२१॥ बडे खेदकी बात है कि, इस जन्ममें तू मेरा दर्शन करनेके योग्य नहीं था, क्योंकि कामका मल जिनके हृदय और मनके दग्ध नहीं हुए हैं उन कुयोगियोंको मेरा दर्शन नहीं होता॥२२॥ हे पापरहित! एक बार मैंने अपना स्वरूप तुझको इसलिये दिखाया है कि, तेरे मनमें अनुराग बढै और जो मेरे चाहनेवाले साधक लोग हैं वह सब कामादिक विषयका त्याग कर देते हैं॥२३॥ और थोडीही सी सज्जनों की सेवासे तेरी मति मुझमें अत्यन्त दृढ होगई अब इस निंदित देहको त्याग तू मेरा पार्षद होगा॥२४॥ और मुझसे तेरी प्रीति सृष्टिके आदि अंत में कभी नहीं छूटैगी और मेरी कृपासे तुझे इस जन्मका सब वृत्तान्त स्मरण रहेगा॥२५॥ इस श्लोक में
हंतास्मिञ्जन्मनि भवान्न मां द्रष्टुमिहार्हति॥ अविपक्ककषायाणां दुर्दर्शोहं कुयोगिनाम्॥२२॥सकृद्यद्दर्शितं रूपमेतत्कामाय तेऽनघ॥ मत्कामः शनकैः साधुः सर्वान्मुंचति हृच्छयान्॥२३॥सत्सेवया दीर्घया ते जाता मयि दृढामतिः॥ हित्वाऽवद्यमिमं लोकं गंता मज्जनतामसि॥२४॥ मतिर्मयि निवद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित्॥ प्रजासर्गनिरोघेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात्॥२५॥ एतावदुत्त्कोपरराम तन्महद्भूतं नभोलिंगमलिंगमीश्वरम्॥ अहं च तस्मै महतां महीयसे शीर्ष्णवनामं विदधेऽनुकंपितः॥२६॥ नामान्यनंतस्य हतत्रपः पठन्गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन्॥ गां पर्यटंस्तुष्टमना गतस्पृहः कालं प्रतीक्षन्विमदो विमत्सरः॥२७॥ एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन्नसक्तस्यामलात्मनः॥ कालः प्रादुरभूत्काले विद्युत्सौदामनी यथा॥२८॥
विलक्षण बात है कि, जिसकी देह नही, सबसे बडी जिसकी श्वास आकाशके भीतर जिसकी मूर्ति, ऐसे ईश्वर परमात्मा मुझसे कहकर चुप हो गये मैंने भी सब बडों की कृपासे उस परब्रह्म परमेश्वरको बारंबार प्रणाम किया॥२६॥ और सब लज्जा तजकर भगवान्का भजन करने लगा, जो मांगलिक छिपे हुए परमेश्वर के चरित्र थे उनका स्मरण करने लगा और सब पृथ्वी पर फिरूं और अपने मनको प्रसन्न रक्खूं किसी वस्तुकी चाहना नहीं करता मद, मत्सर ईर्षा, सब त्यागदी, कालकी वाट दिनरात देखता रहता॥२७॥ हे ब्रह्मन्! जैसे अकस्मात् सुदामा पर्वतसे बिजली निकलै और उसी में समाय उसकी समान कृष्ण में मेरी मति हुई और किसीमें आसक्त नहीं, निर्मल आत्मा मेरा होगया जब मृत्युका समय आया तो मृत्यु होगई॥२८॥
प्रारब्धकर्म समाप्त हुए तब पंचभूतका यह शरीर गिरपडा शुद्ध भगवत् पार्षदका देह जो शुद्ध सत्त्वमय है सो परमात्माने मुझको दिया॥२९॥ कल्पके अंत में इस त्रिलोकीका संहार कर श्रीनारायणने क्षीरसमुद्र में सोनेकी इच्छा करी और वह शेषशय्यापर सोये, तब उनके श्वासके संग में प्रविष्ट होगया॥३०॥ जब सहस्रयुग सोते सोते होगये तब उठे, तब ब्रह्मा अंतर्यामी ईश्वरने इसके रचनेकी इच्छा करी, तव मरीच्यादि ऋषि हुए और प्राणसे हम हुए॥३१॥ सब ठौर में मेरे जाने की गति होगई बाहर भीतर त्रिलोकीमें कहीं चलाजाऊँ अखण्डित ब्रह्मचर्य लेकर महाविष्णु के अनुग्रहसे सब संसार में पर्यटन करूं हूँ॥३२॥ श्री ईश्वरके दिये जो “सा, री, ग, म, प, ध, नी” यह सात स्वर हैं, ब्रह्मरूप इनके ग्राम, इस वीणामें बजाता
** प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम्॥ आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत्पाञ्चभौतिकः॥२९॥कल्पांत इदमादाय शयानेंभस्युदन्वतः॥ शिशयिषोरनुप्राणं विविशेंतरहं विभोः॥३०॥ सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः॥ मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे॥३१॥ अंतर्बहिश्च लोकांस्त्रीन्पर्येम्यस्कंदितव्रतः॥ अनुग्रहान्महाविष्णोरविघातगतिः क्वचित्॥३२॥ देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम्॥ मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम्॥३३॥प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः॥ आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि॥३४॥एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया॥ भवसिंधुवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम्॥३५॥यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः॥ मुकुन्द सेवया यद्वत्तथा मान शाम्यति॥३६॥ सर्वे तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयाऽनघ॥ जन्मकर्म रहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम्॥३७॥**
गरगण गावा, गग संसार में घूमता फिरूं हूँ॥३३॥ और भगवान् के चरित्र जब मैं गाऊं हूँ तो ऐसा मग्न हो जाऊं हूँ मानो श्रीकृष्णचन्द्र मानवकन्नशीप निगा दर्शन देते और मुझको बुलाते॥३४॥ आतुर चित्तवालोंको विषयस्पर्शकी इच्छा से वारंवार संसारसमुद्रके मनेकी नाम इरिक परितांका वर्णन करना॥२५॥ काम लोभ मोहसे ग्रसित जीवका मन योगके मार्गमें यम नियमादिसे शान्त नहीं होता जैसे की गंगागान मन शान्त होयानं॥३६॥ ते पापरहित व्यासजी! जो तुमने बूझा सो हमने सब जन्म कर्मका रहस्य आपसे कहा और
आपका मन प्रसन्न किया॥३७॥ सूतजी बोले कि, शौनकमुनि सत्यवतीके पुत्र श्रीव्यासजीसे भगवान् नारदमुनि ऐसे कहके उनसे आज्ञा ले वीणाबजाते हरिगुणगाते स्वप्रयोजन संकल्पशून्य होकर चलेगये॥३८॥ देवर्षि धन्य हैं जो भगवान् की कीर्ति गाते हैं और आनन्द होते हैं और नित्य प्रति वीणा बजाकर सब आतुर संसारका उद्धार करतेहैं॥३९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां व्यासं प्रति नारदपूर्वजन्मकथावर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥ दोहा-इस सप्तम अध्यायमें रची भागवत व्यास॥ पुनि पढाय निजपुत्रको पूरी मनकी आस॥७॥ शौनकमुनि बोले कि हे सूतजी! जब नारदमुनि चलेगये तब उनका सब अभिप्राय सुनकर सर्वसमर्थ विभु व्यासजीने क्या किया॥१॥
सूत उवाच॥ एवं संभाष्य भगवान्नारदो वासवीसुतम्॥ आमंत्र्य वीणां रणयन्ययौ यादृच्छिको मुनिः॥३८॥ अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्ति शार्ङ्गधन्वनः॥ गायन्माद्यन्निदं तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत्॥३९॥ इति श्रीभा० प्रथम—
व्यासनारदसंवादे षष्टोऽध्यायः॥६॥ शौनक उवाच॥ निर्गते नारदे सूत भगवान्बादरायणः॥ श्रुतवांस्तद्भि प्रेतमितः किमकरोद्विभुः॥१॥ सूत उवाच॥ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रमः पश्चिमे तटे॥ शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः॥२॥ तस्मिन्स्व आश्रमे व्यासो बदरीखण्ड मंडिते॥ आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम्॥३॥ भक्तियोगेन मनसि सम्यक्प्रणिहितेऽमले॥ अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम्॥४॥यया संमोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम्॥ परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते॥५॥अनर्थोपशमं साक्षाद्धक्तियोगमधोक्षजे॥ लोकस्याजानतो विद्वांश्च सात्वतसंहिताम्॥६॥
ब्रह्मनदी सरस्वती के किनारे ऋषियोंका यज्ञ बढानेवालापश्चिमकी ओर शम्याप्रासनामक एक आश्रम था॥२॥ उस आश्रम के चारों ओर बेरके वृक्ष शोभा देरहे थे उनकी शीतल छाया में व्यासजी बैठे आचमन कर मनसे परमेश्वरका ध्यान करने लगे॥३॥ भक्तियोग से अपने निर्मल मनको निश्चल किया तो पूर्ण पुरुपका दर्शन हुआ और उनके आधीन जो माया है उसको भी देखा॥४॥ जिस मायासे मोहित होने से जीव त्रिगुणसे परभी आत्मा को देहरूप मानता है और उस देहमें जो सुख दुःख होते हैं सो आत्मामें मानता है॥५॥ अनर्थनाशक साक्षात
भक्तियोग भगवान् में जब लोग न करनेलगे तो श्रीव्यासजीने श्रीमद्भागवतसंहिता बनाई॥६॥ जिस श्रीमद्भागवतसंहिता के हितचित्तसे सुनने से श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द परमपुरुषके चरणारविन्दोंमें मोह शोक जरानाशक सुखप्रकाशक भक्ति, पुरुषको उत्पन्न होती है॥७॥ सो व्यासदेव श्रीभागवतसंहिता रचकर और शोधकर अपने पुत्र श्रीशुकदेवजीको पढाने लगे वह शुकदेवजी सदा निवृत्ति मार्ग में लगे रहतेथे॥८॥ शौनक ऋषि बोले कि, हे सूतजी! जो सदा निवृत्तिमार्ग में लगे रहें सब संसारसे जिनका त्याग आत्मामें रमण करते रहें ऐसे शुकदेवजीनें किस कारण ऐसी भारी संहिताके पढनेका अभ्यास किया॥९॥ सूतजी बोले कि, हे ऋषियो!
आत्माराम क्रोध अहंकाररूपी गांठें जिनकी दूर होगई ऐसे मुनि
यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपुरुषे॥ भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोकमोहजरापहा॥७॥ स संहितां भगवतीं कृत्वाऽनुक्रम्य चात्मजम्॥ शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः॥८॥ शौनक उवाच॥ स वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षकोमुनिः॥ कस्य वा बृहतीमेतामात्मारामः समभ्यसत्॥९॥ सूत उवाच॥ आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रथा अप्युरुक्रमे॥ कुर्वत्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः॥१०॥ हरेर्गुणाऽऽक्षिप्तमतिर्भगवान्वादरायणिः॥ अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः॥११॥ परीक्षितोऽथ राजर्षेर्जन्म कर्म विलायनम्॥ संस्थां च पांडुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम्॥१२॥
लोग फलकी इच्छा नहीं करते विनाही फल परमेश्वरकी भक्ति करें हैं हरिके गुण ऐसेही हैं॥१०॥श्रीकृष्णचन्द्रके गुणोंमें जिनकी परम प्रीति ऐसे भगवान् शुकाचार्यंने यह महाव्याख्यान पढा उन शुकदेवजीको विष्णुके भक्त बड़े प्यारेहैं ॥११॥ अव हम तुमको परीक्षित् राजऋषिके, जन्म, कर्म,
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* शंका—सूतजीने ऐसे वचन क्यों कहे? कि, भागवत सुनेगा तो श्रीकृष्णमें भक्ति होगी, इस बातसे तो यह विदित होता है कि, भागवतके सुननेसे केवल अकेले कृष्णकी भक्ति होती है और जो अनन्त अवतार हैं उनमें भक्ति नहीं होगी यह बडे सन्देहकी बात हैं।
उत्तर—मुनिलोग आदर सत्कार करके व्यासजीकोभी कृष्ण कहतेहैं, क्योंकि भगवान्के अनन्त नाम हैं, कृष्ण, विष्णु जगन्नाथ इनको आदि लेके और अनेक नाम हैं, तोमी व्यासजी सूतके गुरु हैं कृष्ण नाम सूतजीके हृदयमें सदाप्यारा है इसलिये सूतने कहा कि, भागवतकं सुननेसे कृष्ण जो व्यास है उनमें भक्ति होगी कुछ निरुद्ध नहीं कहा क्योंकि सब ससार कृष्ण भगवान्का रूप है, भगवान्के एकरूपमें भक्ति हुई तो अनत रूपमें होवंगी, ईश्वरकं रूपमेंमी कुछ भेद नहीं है।
मुक्ति मृत्युकी और पाण्डुपुत्रोंके स्वर्ग जाने और श्रीकृष्णचन्द्रकी कथाओंका उदय सुनाते हैं॥१२॥ जैसे-जब परीक्षित् गर्भमें थे तव अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रसे श्रीकृष्णचन्द्रने रक्षा करी उस कथाका प्रारम्भ करते हैं।जिस समय युद्ध कौरव पाण्डव धृष्टद्युम्नप्रभृतियो समेत वीरलोग वीरगतियोको गयेभीमसेनकी फेंकी गदा के लगने से धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनकी जंवा टूटीथी॥१३॥ उस समय अश्वत्थामा दुर्योधनका प्रिय मित्र, उसकी जंघा टूटी देखकर द्रौपदीके सोते हुए पुत्रोका शिर काटलाया, यह बहुत बुरी बात है। इस निन्दित कर्मकी शास्त्रमे बड़ी निन्दा लिखी॥१४॥ द्रौपदी पुत्रोंका मरना सुनकर महादुःखी हो रोती पीटती आँखों से आंसू बहाती अर्जुनके पास आई, अर्जुनने उसको रोनेसे बंद किया और यह
यदा मृधे कौरवसृजयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु॥ वृकोदराविडगदाभिमर्शभनोरुदंडे धृतराष्टपुत्रे॥१३॥ भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन्कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि॥ उपाहरद्विप्रियमेव तस्य तज्जुगुप्सितं कर्म विगर्हयंति॥१४॥माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना॥ तदारुदद्वाष्पकलाकुलाक्षी तां सांत्वयन्नाह किरीटमाली॥१५॥ तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे यद्ब्रह्मबन्धोः शिर आततायिनः॥ गांडीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरे त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा॥१६॥ इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः स सांत्वयित्वाऽच्युतमित्रसृतः॥ अन्वाद्रवद्दंशित उग्रधन्वा कपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन॥१७॥ तमापततं स विलक्ष्य दूरात्कुमारहोद्विग्नमना रथेन॥ पराद्रवत्प्राणपरी प्सुरूर्व्यांयावद्गमं रुद्रभयाद्यथार्कः॥१८॥
कहा॥१५॥ हे भद्रे! आगका लगानेवाला १, विपका देनेवाला २, शस्त्रका बांधनेवाला ३, धनका चुरानेवाला ४, पराई भूमिका हरने वाला ५, स्त्री और बालकोंका मारनेवाला ६, यह छै आततायी कहलाते हैं सो ब्राह्मणो में अधम आततायी अश्वत्थामाका शिर गाण्डीव धनुषसे निकरे वाणोंसे काटकर तेरे सन्मुख लाऊ उसके ऊपर खड़ी होकर तुम स्नान करोगी तो तुम्हारा पुत्रोंके मरनेका शोक दूर होगा॥१६॥ ऐसे द्रौपदीको मन मनोहर विचित्र वाक्योसे प्रसन्न करके श्रीकृष्ण जिसके मित्र और सारथी कवच पहरे, गाण्डीव धनुप हाथमें लिये कपिध्वज अर्जुन गुरुपुत्र अश्वत्थामा के पीछे रथपर चढके दौड़ा॥१७॥ वालवाती कम्पितहृदय प्राणोका भय किये जी लिये अश्वत्थामा अर्जुनको दूरसे अपने
पीछे आता देख, रथपर बैठकर जहाँतक भागागया वहाँतक भागा। जैसे शिवके भयसे सूर्य भागेथे। वामनपुराण में ऐसे लिखा है “विद्युन्माली नाम एक शिवका भक्त राक्षस था उसको शिवजीने सोनेका एक विमान दिया, सो वह राक्षस विमानपर चढा सूर्यके पीछे २ फिरा करे विमानके प्रकाशसे रात होनी दूर होगई, तब सूर्य ने देखा कि, मेरा तेज तो नष्ट होगया यह जान उसका विमान पृथ्वीपर गिरादिया, यह सुन महादेवजी कोप करके सूर्यके मारनेको दौडे तब तौ सूर्य घबराकर भागे और रुद्रकी क्रूरदृष्टिसे जलकर काशीमें गिरे सो आजतक काशी में लोलार्क नाम तीर्थ विख्यात है”॥१८॥ जब अश्वत्थामाके रथके घोडे थक गये और अपने शरीरका कोई रक्षक नही दिखाई दिया तब विप्रपुत्रने अपनी रक्षाके लिये ब्रह्मास्त्र
यदाऽशरणमात्मानमैक्षत श्रांतवाजिनम्॥ अस्त्रं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः॥१९॥अथोपस्पृश्य सलिलं संदधे तत्समाहितः॥ अजानन्नुपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते॥२०॥ ततः प्रादुष्कृतं तेजः प्रचंडं सर्वतोदिशम्॥ प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुरुवाच ह॥२१॥ अर्जुन उवाच॥ कृष्णकृष्ण महाभाग भक्तानामभयङ्कर॥ त्वमेको दह्यमानानामपवर्गोऽसि संसृतेः॥२२॥ त्वमाद्यः पुरुषः साक्षादीश्वरः प्रकृतेः परः॥ मायां व्युदस्य चिच्छत्तया कैवल्ये स्थित आत्मनि॥२३॥ स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः॥ विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥२४॥ तथाऽयं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया॥ स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत्॥२५॥
चलाने की चेष्टा की॥१९॥ तब आचमन कर प्राण बचाने के लिये ब्रह्मास्त्र चलाया परन्तु ब्रह्मास्त्रका फेरना वह नहीं जानताथा॥२०॥ सब ओरसे प्रचण्ड तेज जब ब्रह्मास्त्रका प्रगटा तब प्राणोंपर आपत्ति आई जान, अर्जुन श्रीकृष्णसे बोले॥२१॥ हे कृष्ण! हे कृष्ण महाभाग! तुम भक्तों के अभयकारक और संसारके जीव जंतुओंके सुखदायक हो॥२२॥ तुम आदिपुरुषसाक्षात् केवल मायासे परे हो अपनी चिच्छक्तिसे मायाका तिरस्कार कर कैवल्य आत्मामें आप स्थित हो॥२३॥ मायामोहितचित्त ऐसे जीवलोकका अपने प्रभावसे धर्मादिक लक्षण कल्याण सो तुमही विधान करो हो॥२४॥ यह आपका अवतार भूमिका भार उतारने की इच्छा से है और अपने जातिके और एकान्तभक्तोंके ध्यानके लिये है ॥२५॥
हे देवदेव! यह क्या है? कहाँसे आया है? सव ओरसे परमदारुण तेज आवेहे हम नहीं जानते॥२६॥ श्रीभगवान् बोले कि, हे पार्थ!
प्राणोंपर आपत्ति आती देख द्रोणाचार्य के पुत्रने ब्रह्मास्त्र चलाया है सो यह चलाना तो जानता है परन्तु अपने पास बुलाना नहीं जानता॥२७॥ इस अस्त्रको दूर करनेवाला और कोई उपाय नहीं है तुम भी अपना ब्रह्मास्त्र चलाकरअपने तेजसे इसका नाश करो, क्योंकि, तुम दोनों बातें जानते हो॥२८॥ सूतजी बोले कि, हे ऋषियो! शत्रुनाशी अर्जुन भगवान्की वात सुनकर जलसे आचमनकर श्रीकृष्ण महाराजकी परिक्रमा करके उस ब्राह्मणपर ब्रह्मास्त्र चलाया॥२९॥ तब दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर लडने लगे उनका तेज महाप्रचण्ड पृथ्वी आकाशको ढ़ककर महाप्रलयकासा
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्मयहम्॥ सर्वतोमुखमायाति तेजः परमदारुणम्॥२६॥ श्रीभगवानुवाच॥ वेत्थेदंद्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम्॥ नैवासौ वेद संहारं प्राणवाध उपस्थिते॥२७॥ न ह्यस्यान्यतमं किंचिदस्त्रं प्रत्यवकर्शनम्॥ जाह्यत्रतेज उनद्धमस्त्रज्ञो ह्यस्रतेजसा॥२८॥ सूत उवाच॥ श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा। दृष्ट्वाऽऽपस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय संदधे॥२९॥ संहत्याऽन्योऽन्यमुभयोस्तेजसी शरसंवृते॥ आवृत्य रोदसी खं च वतृधातेऽर्कवह्निवत्॥३०॥ दृष्ट्वाऽस्त्रतेजस्तु तयोस्त्रीॅल्लोकान्प्रदहन्महत्॥ दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत॥३१॥ प्रजोपप्लवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम्॥ मतं च वासुदेवस्य संजहाराऽर्जुनो द्वयम्॥३२॥ तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम्॥वबंधाऽमर्पताम्राक्षः पशुं रशनया यथा॥३३॥
समय करदिया। जैसे महाप्रलय में संकर्षणके मुखकी अग्नि, ऊपरसे सूर्यका तेज यह दोनों मिलकर बढ़ें हैं उसी भाँति दोनों ब्रह्मास्त्रोंका तेज बढ़ा॥३०॥ उन दोनों ब्रह्मास्त्रोंका तेज महाघोर त्रिलोकीको फूँके डालता था और जलीहुई प्रजा कहतीथी कि, आज महाप्रलयका समय आगया॥३१॥ प्रजा और लोकका नाश होता देख वासुदेवका मत लेकर अर्जुनने दोनों को शान्तकर अपने पास बुलालिया॥३२॥ बडे वेगसे उनको पकड़कर गौतमवंशकी गौतमी कृपीके कठोर पुत्र अश्वत्थामाको कोसे लाललाल तांबेके रंगकेसे नेत्र किये यज्ञके पशुकी भाँति
बांधलिया॥३३॥ शोक रोप युक्त धनंजयकी धर्मनिष्ठा देख श्रीकृष्णजी सेना निवासस्थानमें बलसे रस्सीसे वैरीको बांधकर लेजाते अर्जुनसे क्रोधित हो बोले॥३४॥ हे पार्थ! यह अधम ब्राह्मण रक्षा करने योग्य नहीं, इसको अभी मारडालो इस पापीने सोते हुए निरपराधी बालकोंको मारा है॥३५॥ धर्मशास्त्रमें ऐसे लिखा है कि, जो कोई मद्यादिकसे मत्त हो १, याँ और किसी प्रकारसे प्रमत्त हो २, ग्रहवातादिसे उन्मत्त हो ३, सोताहुआ जीव ४, वालक ५, स्त्री ६, जो कोई उद्यम नहीं जानता ७, जो कोई अपनी शरण आयाहो ८, इन आठजीवोंकी धर्मवेत्ताओंको सदैव रक्षा करनी चाहिये चाहे अपने शत्रुभी हों तो भी इनका मारना योग्य नहीं॥३६॥ पराये प्राण लेकर जो निर्दयी दुष्ट अपने प्राण पुष्ट करता है, उसका
शिविराय निनीपतं दाम्ना बद्धा रिपुं बलात्॥ प्राहार्जुनं प्रकुपितो भगवानंबुजेक्षणः॥३४॥ मैनं पार्थाऽर्हसि त्रातुंब्रह्मबंधुमिमं जहि॥ योऽसावनागसः सुप्तान्नवधीन्निशि बालकान्॥३५॥ मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ॥ प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हंति धर्मवित्॥३६॥ स्वप्राणान्यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः॥ तद्वधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यधः पुमान्॥३७॥ प्रतिश्रुतं च भवता पांचाल्यै शृण्वतो मम॥ आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्तै मानिनि पुत्रहा॥३८॥ तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबंधुहा॥ भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान्कुलपांसनः॥३९॥ एवं परीक्षता धर्म पार्थः कृष्णेन चोदितः॥ नैच्छदंतुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान्॥४०॥ अथोपेत्य स्वशिविरं गोविंदप्रियसारथिः॥ न्यवेदयत्तं प्रियायै शोचंत्या आत्मजान्हतान्॥४१॥
मारनाही श्रेष्ठ है उस दुष्टके मारनेसे पुरुष नरकमें नही जाते॥३७॥ मेरे सन्मुख आपने द्रौपदीसे प्रतिज्ञा कीथी कि, हे प्राणप्रिये! जो तेरे पुत्रोंका मारनेवाला है उसका शिर काटकर तेरे आगे लाऊंगा॥३८॥ सो तुम अपने पुत्र के वध करनेवाले आततायीको अवश्य मारो। हे वीर! दुर्योधन भी इन बालकों को देख दुःखी हुआयह अपने कुलमें धूरि समान है॥३९॥ ऐसे श्रीकृष्णचंद्र आनंदकंद अर्जुनको समझाने लगे और अर्जुन यह जानताथा कि, यही मेरे पुत्रोंका मारनेवाला है तौभी गुरुपुत्र समझ मारने की इच्छा नहीं करी॥४०॥ ऐसे धर्मधारी अर्जुन जिनके श्रीकृष्ण सरीखे मित्र और सारथी सो अश्वत्थामाको पकड़कर अपने दल में लाया जहाँ द्रौपदी बैठी अपने मरे पुत्रोंका शोक कर
रहीथी, कहा हे द्रुपदनंदिनि! तुम्हारे पुत्रोंका मारनेवाला यह उपस्थित है॥४१॥ पशुके समान गलेमें फांसी पड़ी निंदित कर्मसे नीचेको मुखकरे अपराधी गुरुपुत्र अश्वत्थामाको देख कृपाकरकै शील स्वभाववाली द्रौपदीने नमस्कार किया॥४२॥ और अपने पति अर्जुनसे कहा हे स्वामी! इसका बांधना मुझको सहन नहीं हो सक्ता, छोडदो, छोडदो यह ब्राह्मण हमारा परम पूज्य है इसके मारनेसे हमारे पुत्र जी नहीं सक्ते यह हत्यारा अपने कर्मोंका फल आप भोगेगा जिस भाँति में अपने मरेहुए पुत्रोंका शोक करती हूं, इसी प्रकार कृपी इसकी माताभी पुत्रके मरनेका दुःख देखेगी॥४३॥और आपको इसके पिताने गोप्य मंत्र सहित धनुर्वेद और ब्रह्मास्त्र चलाना और बुलाना दोनों बातें
तथाऽऽहृतं पशुवत्पाशबद्धमवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन॥ निरीक्ष्य कृष्णापकृतं गुरोः सुतं वामस्वभावा कृपया ननाम च॥४२॥ उवाच चाऽसहंत्यस्य बंधनानयनं सती॥ मुच्यतामुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः॥४३॥ सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः॥ अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात्॥४४॥ स एष भगवान्द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते॥ तस्याऽऽत्मनोर्धं पत्न्यास्ते नान्वगाद्वीरसूः कृपी॥४५॥ तद्धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिर्गौरवं कुलम्॥ वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वंद्यमभीक्ष्णशः॥४६॥ मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता॥ यथाहं मृतवत्सार्ता रोदिम्य श्रुमुखी मुहुः॥४७॥
सिखाईं और इसको इसके पिताने ब्रह्मास्त्रचलाना सिखाया परंतु बुलाना नहीं सिखाया, इसलिये जिस द्रोणाचार्यकी कृपासे सब अस्त्र, शस्त्र, यंत्र, मंत्र, तंत्र, तुम सीखेहो इसलिये इसको गुरुपुत्र समझकर छोडदो॥४४॥ क्योंकि, उन भगवान् द्रोणाचार्यने तुमको पुत्र करके समझा, सो उन द्रोणाचार्यकी अर्द्धांगिनी कृपी इस पुत्र के रहनेसे सती नहीं हुई इस इकलौते अपने पुत्रका सुख देख देख जिये है, हाय! जैसे मैं अपने मरेहुये पुत्रोका शोक करूंहूं, ऐसेही वहभी सोच करैगी॥४५॥ इसलिये हे धर्मज्ञ! हे महाभाग! आप गुरु कुलको कष्ट नहीं दीजिये, बारंबार पूजन और वन्दन करने योग्य ब्राह्मण हैं॥४६॥ पतिव्रता गौतमी इसकी माताको सोच न हो, क्योंकि,
जैसे मेरे मुखपर आंसू बारंबार धारासे चले जाते हैं और मैं शिर पटक पटक रोरहीहूं ऐसे कहीं वह पुत्रके शोकमें न रोवें॥४७॥ ब्राह्मणकुल जिसपे कोप करे चाहे वह कैसाही राजाहो उसका वंश और परिवार क्षणमात्रमें ब्रह्मतेजसे भस्म होजाता है॥४८॥ सूतजी बोले कि, हे ब्राह्मणो! निष्कपट धर्मशीला शान्त स्वभाववाली द्रौपदीके वचन सुन धर्मपुत्र युधिष्ठिरने बड़ी प्रशंसा करी॥४९॥ नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, देवकी नन्दन भगवान् और जो स्त्रियें वहां प्रस्तुत थीं द्रौपदीकी यह बात सुन सबका मन प्रसन्न हुआ॥५०॥ उस समय भीमसेन द्रौपदीकी बात सुन कर बड़े क्रोधसे बोले कि, ऐसे दुष्टका मारनाही अच्छा है, क्योंकि, अपने मित्र दुर्योधनका और अपना दोनों का कुछ प्रयोजन न होते, सोतेहुए बालकोंको
यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरकृतात्मभिः॥ तत्कुलं प्रदहत्याशु सानुबंधं शुचाऽर्पितम्॥४८॥ सूत उवाच॥ धर्म्यंन्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत्॥ राजा धर्मसुतो राज्ञ्याः प्रत्यनंदद्वचो द्विजाः॥४९॥ नकुलः सहदेवश्च युयुधानो धनंजयः॥ भगवान्देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः॥५०॥ तत्राहामर्षितो भीमस्तस्य श्रेयान्वधः स्मृतः॥ न भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योहन्सुप्ताञ्छिशून्वृथा॥ ५१॥ निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः॥ आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव॥५२॥ श्रीभगवानुवाच॥ ब्रह्मबंधुर्न हंतव्य आततायी वधार्हणः॥ मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम्॥५३॥ कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सांत्वयता प्रियाम्॥ प्रियं च भीमसेनस्य पांचाल्या मह्यमेव च॥५४॥
मारडाला “तुमने अश्वत्थामा के शिर काटनेकी प्रतिज्ञा कीथी, सो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी चाहिये और जो तुम कहतेहो कि, हमको ब्रह्महत्याका कलंक लगेगा सो इसमें ब्रह्मअंश और ब्राह्मणका एक कर्मभी नहीं रहा, राजाओंका धर्म है कि, ऐसे मनुष्योंको अवश्य मारनाचाहिये”॥५१॥ भीमसेनकी यह बात सुन द्रौपदी और अर्जुनकी ओर देखकर॥५२॥ श्रीकृष्ण भगवान् वासुदेव बोले कि, आततायी वधके योग्य है और ब्राह्मण होय तो मारना नहीं चाहिये दोनों बातें हमने कही हैं परन्तु ब्राह्मणके लिये देहदण्ड देना उचित नहीं यह हमारी आज्ञा है कि, सदा ब्राह्मणोंकी रक्षा करो, उनको धन दो, पूजा करो, ब्राह्मण कैसाही अपराध करें परन्तु वह वधके योग्य नहीं॥५३॥ द्रौपदीके सन्मुख जो आपने
व्याकुल और भयभीत हो रोती डकराती श्रीकृष्णके पासको दौड़ी*॥८॥ और आनकर प्रार्थना की है महायोगिन्! हे दीनवत्सल! हे जगत्पते! मेरी रक्षाकरो मेरी रक्षाकरो। इस अग्निकी मृत्युसे इस विश्वमें आपके अतिरिक्त अभयदाता मुझको कोई दृष्ट नहीं होता॥९॥ हे ईश! तप्त लोहकी समान बाण सामनेसे चला आता है है समर्थ! हे दीनानाथ! चाहे मेरा दाह होजाय परन्तु मेरा गर्भ स्थितरहै॥१०॥ सूतजी बोले कि, भक्तवत्सल भगवान् उत्तराके दीन वचन सुन,कहनेलगे किं, हे उत्तरे! अश्वत्थामाने यह समझकर ब्रह्मास्त्र चलाया है कि, पाण्डवों के वंशमें कोई न रहै॥११॥
पाहिपाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते॥ नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम्॥९॥ अभिद्रवति मामीश शरस्तप्ताय विभो॥ कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम्॥१०॥ सूत उवाच॥ उपधार्य वचस्तस्या भगवान्भक्तवत्सलः॥ अपांडवमिदं कर्तु द्रौणेरस्त्रमवुध्यत॥११॥ तर्ह्येवाऽथ मुनिश्रेष्ठ पांडवाः पंच सायकान्॥ आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तानालक्ष्यास्त्राण्युपाददुः॥१२॥ व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषामनन्यविषयात्मनाम्॥ सुदर्शनेन स्वास्त्रेणस्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः॥१३॥ अंतःस्थः सर्वभूतानामात्मायोगेश्वरो हरिः॥ स्वमाययाऽवृणोद्गर्भं वैराट्याः कुरुतं तवे॥१४॥
देखा तो पांच बाण पांचो पाण्डवोंके भस्म करनेके लिये सामनेसे अग्निसम प्रकाश करते चले आते हैं यह देखकर पाण्डव अपने अस्त्र ग्रहण करने लगे॥१२॥ पांण्डवोंको अपना तकारी जान श्रीबाँकेबिहारी भक्तभयहारी मुनिमनरंजन कोटि कष्टभंजन देवकीनंदनने पांडवोंकी रक्षाके लिये चक्र सुदर्शन सँभाला॥१३॥ सब जीवमात्र के अंतर्यामी व्यापक सकल दुःखहर्ता श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् अपनी मायासे कौरवोंके संतानकी
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* शंका—
ब्रह्मास्त्रका ऐसा प्रताप शास्त्र में लिखा है कि, जिस समय योद्धालोग ब्रह्मास्त्रको वनुपपर रखकर छोटते है तो कभी तीन लोकके म्म करनेको छोडते हैं, वनुपसे छूटतेही त्रिलोकीको भस्म कर डालता है, परन्तु उत्तराकी देहमें ब्रह्मास्त्र लगने उसी समय उत्तराको भस्म क्यो नहीं किया
उत्तर—
पतिहीन उत्तरा रात दिन अत्यन्त भक्तिसे श्रीकृष्णचन्द्रके चरणाविन्दका स्मरण करतीथी, नेत्रोसे प्रेमके आसुओंकी बारा वहीचलीजाती और इस मत्रको निरन्तर बैठी जपती रहतीथी मत्र” हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृपालो भक्तरक्षक। नमस्तुभ्य नमस्तुभ्य नमस्तुभ्य नमोनमः॥१॥" अर्थ—हे हरि, हे कृष्ण, हे हरि, हे कृष्ण, हे हरि, हे कृष्ण, आपको नमस्कार है आप कृपालु हैं और भक्तोंके रक्षा करनेवाले हैं उसीसमय अश्वत्थामाका छोडाहुआ ब्रह्मास्त्र उत्तराकी देहमे लगके, श्रीकृष्णके स्मरणके प्रभावसे ठण्डा होगया तोभी उत्तरा व्याकुल होकर कृष्ण कृष्ण पुकारने लगी, जो ईश्वरका भजन उत्तरान करती तो उसी समय ब्रह्मास्त्र उसको भस्म करदेता, परन्तु भजनके प्रभावसे उसका शरीर नहीं जला॥
वृद्धिके लिये विराटकी बेटी उत्तराका दुःख देख चक्रसुदर्शनको आज्ञा दी कि, तुम उत्तराके उदरमें जाकर ब्रह्मास्त्रकी गर्मीको शान्तकरो और पीछेसे आपभी श्रीकृष्ण मुकुंद मधुसूदन भक्तहितकारी अंगुष्ठमात्र तनु धारणकर उत्तराके उदरमें घुसगये और ऐसी शीतलता फैलाई कि, उसके हृदयका सब कष्ट शमन होगया उस समय परीक्षितने मधुसूदनकी माधुरीमूर्तिको अपने हृदय में धारणकर लिया और कहा हे वैकुण्ठनाथ! इस दासपर आपने बडा अनुग्रह किया गर्भही में जो मुझे दर्शनदिया धन्य है मेरा भाग्य आपकी कृपाका कहाँतक उपकार वर्णन करूँ॥१४॥ शौनक ऋषि जो कभी निष्फल नहीं होता, जिसका संसार में कोई सामना नहीं करसकै और उसकी प्रबल प्रचण्ड ज्वालासे त्रिलोकीमें कोई जीवमात्र न बचसकै, सो ब्रह्मास्त्रभी विष्णुके चक्रसुदर्शनके सन्मुख क्षणमात्रमें शान्त होगया॥१५॥ सबको आश्चर्य दिखानेवाली भगवान्की
यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरस्त्वमोघं चाप्रतिक्रियम्॥ वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद्भृगूदह॥१५॥मासंस्था ह्येतदाश्चर्यसर्वाश्चर्यमयेऽच्युते॥ य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हंत्यजः॥१६॥ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैरात्मजैः सह कृष्णया॥ प्रयाणाभिमुखं कृष्णमिदमाह पृथा सती॥१७॥कुन्त्युवाच॥ नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्॥ अलक्ष्यं सर्वभूतानामंतर्बहिरवस्थितम्॥१८॥ मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाऽधोक्षजमव्ययम्॥ न लक्ष्यसे मूढदृशां नटोनाट्यधरो यथा॥१९॥
लीला में कुछ आश्चर्य मत मानो वह अपनी प्रकाशिनी मायासे इस विश्वको रचैहै, रक्षा करैहै, संहारक है और आप अजन्मा है॥१६॥ ब्रह्मास्त्र से छुटे पुत्रोंको देख कुन्ती द्रौपदी समेत श्रीकृष्णचन्द्रके द्वारका जानेका समाचार सुन हरिके समीप आनकर॥१७॥ कुन्ती बोली कि, हे आदि पुरुष! अविनाशी, प्रकृतिसे परे, जो किसीके देखनेमें न आवै, सब जीवोंके बाहर भीतरकी जाननेवाले तुम संसारमें व्यापकहो, तुमको वारंवार नमस्कार करूँ हूं॥१८॥ जो मायारूपी जवनिकासे दृष्ट और अदृष्ट हैं, जो इन्द्रियोंसे उत्पन्नहुए ज्ञानसे नहीं जानेजाते, अविनाशी आपको मैं मूढ अज्ञानी स्त्री क्या जानूँ मूढदृष्टियुक्त पुरुष तुमको नहीं देखसक्ते। जैसे नटकी मायाको नाटकीविद्याविहीन पुरुष नहीं जानसक्ते तैसेही आप हो॥१९॥
जीवात्मा के द्वारा जो परमात्माको देखनेवाले परमहंस मनन करनेवाले मुनि राग द्वेष शून्य निर्मल अन्तःकरण युक्त माहात्माओंकोभी जानने में नहीं आते भक्तियोग विधानके निमित्त आपने अवतार धारण किया है सो मैं स्त्री आपकी महिमाको कैसे जानूं॥२०॥ वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोपकुमार, गोविन्द, श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दको बारंबार नमस्कार है॥२१॥ जिनकी नाभिकमलमे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ, ऐसे कमल मालाधारी कमलदललोचन, कमलसमान कोमल अमल चरणवालेको बारंबार नमस्कार है॥२२॥ हे हृषीकेश! दुष्ट कंसके भय से देवकी बहुत दिनतक घरमें बन्द रहीथी तब अकेली देवकीकी आपहीने रक्षाकरी और मेरीभी आप समर्थने पुत्रोंसहित विपत्तिसे वारंवार रक्षाकरी और अपनी
तथा परमहंसानां सुनीनाममलात्मनाम्॥ भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः॥२०॥ कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च॥ नंदगोपकुमाराय गोविन्दाय नमोनमः॥२१॥ नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने॥ नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये॥२२॥ यथा हृषीकेश खलेन देवकी कंसेन रुद्धाऽतिचिरं शुचार्पिता॥ विमोचिताऽहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात्॥२३॥ विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रात्॥ मृधेमृधेऽनेकमहारथास्त्रतो द्रोण्यस्त्रतश्चास्मि हरेऽभिरक्षिता॥२४॥ विपदः संतु नः शश्वत्तत्रतत्र जगद्वरो॥ भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥२५॥ जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्॥ नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्॥२६॥
माता के समान आप सदा मुझपर दया करतेरहे॥२३॥ और जिन जिन विपत्तियोंसे रक्षा करी वह विपत्ति यहथीं, भीमसेनको विषके लड्डुओंसे लाक्षामन्दिरमें अग्निसे पुरुष खानेवाले हिडंबादि बकके दीखनेसे, खोटी सभासे, वनवासके कष्टसे, संग्रासमें अनेक महारथियोंके अस्त्रसे, अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे और सब ओरकी विपत्तियोंसे अनेकवार रक्षाकरी॥२४॥ हे जगद्गुरो! जहाँ तहाँ हमपै तो विपत्तियॉहीं रहें, क्योंकि, उन विपत्तियों में मोक्षदाता तुम्हारा दर्शन होता है, फिर संसारमें जन्म नहीं होता॥२५॥ सत्कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, शास्त्र, लक्ष्मी इनके होनेसे पुरुषको अभिमान होता जाता है, सो भक्तजन आठपहर जिनके नाम भजें, श्रीकृष्ण, गोविंद, नारायण, वासुदेव ऐसे उच्चारण करनेके योग्य नहीं होते॥२६॥
जिनको किसी वस्तुकी कांक्षा नहीं जो ऐसे भक्त हैं जिनके मनसे धन गुणोंकी वृत्ति दूर होगई, उन आत्माराम शांत मोक्षदाताको नमस्कार है॥२७॥ काल ईश्वर जिसका आदि अन्त नहीं ऐसे प्रभु समदर्शी सबको एक भाव वर्तें सब जीवोंमें किसी निमित्तसे परस्पर क्लेश होता है ऐसे तुमको मानूहूं॥२८॥ हे भगवन्! मनुष्योंको एक लीलामात्र चेष्टाकरो, ऐसी तुम्हारी करनेकी इच्छा है सो कोई भी नहीं जानता, जिसका कोई शत्रु मित्र नहीं यह ईश्वर में मनुष्योंको विपममति होती है कि, इसपै कृपा करें हैं, इसपै कृपा नहीं करते॥२९॥ हे विश्वात्मन्! सबमें तुम व्याप्त हो, ऐसे तुम्हारे अकर्त्ताके कर्म, अजन्माके जन्म, आश्चर्यमय हैं, कभी वाराहरूप, कभी रामचन्द्ररूप, कभी वामनरूप, कभी मत्स्यरूप धारण करते हो, यह सव
नमोऽकिंचनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये॥ आत्मारामाय शांताय कैवल्यपतये नमः॥२७॥ मन्ये त्वा कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्॥ समं चरंतं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः॥२८॥ न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं तवेहमानस्य नृणांविडंबनम्॥ न यस्य कश्चिदयितोऽस्ति कर्हिचिद्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम्॥२९॥ जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः॥ तिर्यङ् पिषु यादस्तु तदत्यंतविडंबनम्॥३०॥ गोप्याऽऽददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्याते दशाऽथुकलिलाञ्जनसंभ्रमाक्षम्॥ वक्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति॥३१॥ केचिदाहरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये॥ यदोः प्रियस्याऽन्ववाये मलयस्येव चन्दनम्॥३२॥ अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात्॥ अजस्त्वमस्य क्षेमाय बधाय च सुरद्विषाम्॥३३॥
कहनेमात्रको हैं॥३०॥ जिससमय यशोदाने तुम्हारे अपराधको देखकर बांधनेके लिये रस्सी ली तब तुम आंसुओंसे आखोंका अंजन बहाय व्याकुल हो, नीचेको मुखकर भयके भावसे अलग जा बैठे और जिस समय दधिके भाजन फोड़डाले उस समयकी जो आपकी दशा है, मुझको मोहकरावे है क्योंकि, जो भय आपके सन्मुख थरथर काँपै है सो तुम यशोदासे आप डरो यह बड़े आश्चर्य की बात है॥३१॥ पुण्यश्लोकोंके कीर्तनके लिये प्रिय यदुके वर्शमें आपने अजन्मा होकर जन्मलिया, जैसे मलयगिरिपर चन्दन उपजै है, उसीप्रकार अजन्माने जन्मलिया, कोई कोई ऐसे कहे हैं॥३२॥और कोई मुनीश्वर ऐसे कहे हैं कि, वसुदेव देवकीकी चाहनासे अवतार लिया, आप जन्म कभी नहीं लेते, तौभी इस विश्वके
कल्याणके लिये और देवद्रोहियोके वधके कारण अवतार धारण करते हैं॥३३॥ और कोई ऐसे कहे हैं कि, समुद्रमे जैसे नाव डूबती उसकी रक्षा इस प्रकार महाभारसे व्याकुल पृथ्वीको निहार भूभार हरनेको ब्रह्माकी प्रार्थनासे अवतारलेतें॥३४॥ कोई आचार्य ऐसे कहे हैं, अविद्या, कामकर्मसे दुःखी होकर विश्वके जीव पुनि श्रवण स्मरण करें हैं इस कारण अवतार धारण करते हैं॥३५॥ जो मनुष्य तुम्हारी लीलाको देखते हैं और चरित्रोंको सुनते हैं, और सुनाते हैं और वारंवार स्मरण करते हैं और यश गाते हैं मनहीं मनमें मग्न होते हैं, वह मनुष्य थोड़ेही दिनोमें संसारके प्रवाहनाशक तुम्हारे चरणारविन्दका दर्शन करतेहैं॥३६॥ हे भक्ताभीष्टदायक! हे प्रभो! निश्चय है कि, आपके दर्शनहीमे
भारावतरणायाऽन्ये भुवो नाव इवोदधौ॥ सीदंत्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवाऽर्थितः॥३४॥भवेऽस्मिन्क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः॥ श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन॥३५॥ शृण्वन्ति गायन्ति गृणंत्यभीक्ष्णशः स्मरंति नन्दन्ति तवेहितं जनाः॥ त एव पश्यत्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदांबुजम्॥३६॥ अप्यधनस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः॥ येषां न चान्यद्भवतः पदांबुजात्परायणं राजसु योजितांहसाम्॥३७॥ के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पांडवाः॥ भवतोऽदर्शनं यहि हृषीकाणामिवेशितुः॥३८॥ नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर॥ त्वत्पदैरंकिता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः॥३९॥ इमे जनपदाः स्वृद्धा सुपकौषधिवीरुधः॥ वनाद्रिनद्युदन्वंतो ह्येते तव वीक्षितैः॥४०॥
जीते हैं, आपके सुहृद् हैं उनको आप अब त्यागो हो, हम तो आपहीकी कृपासे शत्रुओके दुःखदायक हैं हमको आपके चरणकमलके अतिरिक्त कोई वस्तु सुखदायक नहीं है॥३७॥ यादवोंसहित हमारा विना आपके दर्शनके नामरूपसे क्या है, जैसे विना जीवके इन्द्रियोंके नाम रूपसे कुछ कार्य सिद्धि नहीं होती॥३८॥ हे गदाधर! जैसी अब पृथ्वी शोभायमान है फिर ऐसी शोभा नहीं देगी, क्योकि अब तो आपके वज्र, यव, अंकुश आदि चिह्नयुक्त चरणोंसे शोभित है, फिर इन चरणोंका अभाव हो जायगा॥३९॥ आपके होनेसे यह देश सुन्दर समृद्धिमान् है, सुन्दर सुन्दर रूपकी औषधी, लतायें जहाँ तहाँ उपस्थित हैं, वन, पर्वत, नदी यह सब आपके देखने से वृद्धिको प्राप्त हैं॥४०॥
इसलिये हे विश्वेश! हे विश्वात्मन्! हे विश्वमूर्ते! अपने जनोंमें, पाण्डवोंमें, यादवोंमें यह स्नेहकी जो फांसी है, इसको तुम काटो॥४१॥ हे मधु पते! तुम्हारे चरणोंमें मेरी यह बुद्धि सदा लगी रहै और कही नहीं लगे, जैसे गंगाका प्रवाह निरन्तर समुद्रमें मिला रहता है॥४२॥ हे श्रीकृष्ण! अर्जुनसख हे यादवकुलभूषण! हे पृथ्वीद्रोही क्षत्रिय वंश नाशक! हे अक्षीणप्रभाव! हे गोविन्द! हे गरुडध्वज! हे गोब्राह्मणदेवताक्लेशनाशक! हे योगीश्वर! हे अखिलगुरो! हे भगवन्! आपको बारंबार नमस्कार है॥४३॥ सूतजी बोले कि, हे ऋषिगण! सब महिमा जिसमें उदित है ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दन्कन्द यशोदानन्दनकी मधुर मधुर पदोंसे जब कुन्तीने स्तुतिकरी, तब भगवान् परमानन्द मन्द मन्द मुसकाये, मानो मायासे मोहकाजाल डाल रहे हैं हरिकी हॉसी सब जनोंको उन्माद करती है॥४४॥ हे कुन्ती! जो तुम्हारी इच्छा होय सो वरमाँगो मैं तुम्हारे
अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे॥ स्नेहपाशमिमं छिंधि दृढं पांडुषु वृष्णिषु॥४१॥ त्वयि मेऽनन्यविषयामतिर्मधुपतेऽसकृत्॥ रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेौघमुदन्वति॥४२॥ श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभाऽवनिधुग्राजन्यवंशदहनाऽनपवर्गवीर्य॥ गोविंद गोद्विजमुरार्तिहरावतार योगेश्वराऽखिलगुरो भगवन्नमस्ते॥४३॥ सूत उवाच॥ पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः॥ मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया॥४४॥ तां वाढमित्युपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम्॥ स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन्प्रेम्णा राज्ञा निवारितः॥४५॥ व्यासाद्यैरीश्वरेहाज्ञैः कृष्णेनाद्भुतकर्मणा॥प्रबोधितोऽपीतिहासैर्नाऽबुध्यत शुचार्पितः॥४६॥
सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करूंगा ऐसे कह हस्तिनापुर में आय सुभद्रादि स्त्रियोंसे बूझकर अपने नगरके चलनेको उपस्थित हुए, उससमय युधिष्ठिरने बहुत कहा कि आपको यहाँसे हमें छोड़कर जाना नहीं चाहिये, तुम्हारे जानेसे हम लोगों को बड़ा दुःख होगा, तुम विना हमारी सहायता कौन करेगा, जो सुख हमको तुम्हारे चरणकमल कोमल अमलके देखनेसे मिलता था, वह सुख हमको इस राज्य के पानेसे नहीं मिलता, तुम्हारे चरणारविन्दोंके विना देखे हमको धैर्य किसभाँति होगा और शत्रुओके हाथ से कौन बचावेगा, हे नाथ! अब हमको शत्रुओसे जीतनेका उपाय कौन बतावैगा अब हम क्या करें॥४५ ॥ ईश्वरकी चेष्टा जाननेवाले व्यासादिकोंने और अद्भुत कर्मवाले श्रीकृष्णजीने अनेक इतिहासोंसे ज्ञानभी दिया, तो भी शोकके मारे
युधिष्टिरका मन शान्त न हुआ॥४६॥ उस समय राजा युधिष्टिर अपने मरे सुहृद बांधवोंका चिंतवनकर वोले कि, हे ब्राह्मणो! मैं उस समय अज्ञान और मोहवश होगया था, हाय! मुझ दुरात्मा के हृदयमें ऐसा अज्ञानसमूह होगया कि, जिस देहको श्वान शृगालभी नहीं खाते, मैने उसी देहके पोषणके लिये बहुत अक्षौहिणीसेना मारी, (उस अक्षौहिणीकी संख्या इस प्रकार है २१८७० जिसमें हाथी, ६५६१० घोडे, २१८७० रथ, १०९३५० पैदल इसको अक्षौहिणी कहते हैं)॥४७॥४८॥ वालक, ब्राह्मण, सुहृद, मित्र, पिता, भ्राता, गुरु, इनका द्रोही जो मैं हूँ सो मेरा नरकसे करोड़ों वर्षतकभी उद्धार न होगा॥४९॥ आप जो कहते हैं धर्मयुद्धमें द्वेपियों के वध करनेसे प्रजापालक राजाओंको पाप नहीं होता इस शिक्षाके वचन मेरे मनको
आह राजा धर्मसुतश्चिंतयन्सुहृदां वधम्॥ प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः॥४७॥ अहो मे पश्यताज्ञानं हृदिरूढं दुरात्मनः॥ पारक्यस्यैव देहस्य वह्नयो मेऽक्षौहिणीर्हताः॥४८॥ वालद्विजसुहृन्मित्रपितृभ्रातृगुरुगुहः॥ न मे स्यान्निरयान्मोक्षो ह्यपि वर्षायुतायुतैः॥४९॥ नैनो राज्ञः प्रजाभतुर्धर्मयुद्धे वधो द्विषाम्॥ इति मे न तु वोधाय कल्पते शासनं वचः॥५०॥ स्त्रीणां मधूनां द्रोहो योऽसाविहोत्थितः॥ कर्मभिर्गृहमेधीयैर्नाहं कल्पो व्यपोहितुम्॥५१॥ यथा पैकेन पंकांभः सुरया वा सुराकृतम्॥ भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैर्मार्टुमर्हति॥५२॥ इति श्रीभा० प्र० अष्टमोऽध्यायः॥८॥ सूत उवाच॥ इति भीतः प्रजाद्रोहात्सर्वधर्मविवित्सया॥ ततो विनशनं प्रागाद्यत्र देवव्रतोऽपतत्॥१॥
बोध नहीं करते॥५०॥ मेरे हाथसे भ्रातृगण मारे गयेहैं, उनकी स्त्रियों के मनमें उठाहुआ तीव्र द्रोह दूर करनेको मैं कितनेही गृहस्थाश्रमके कर्म करूँ तौभी मैं उस पाप उद्धार नहीं होसक्ता॥५१॥ जैसे कीचका सना कीचसे नहीं धोयाजाता, मदिरासे मदिराका पात्र नहीं शुद्ध होता तैसेही हठसे एक जीवकीभी हिंसा यज्ञोंके करनेसे नहीं छूटती॥५२॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतियुधिष्ठिरानुतापोनामाऽष्टमोऽध्यायः॥८॥ दोहा—कहौं नवम अध्याय में, भीष्मकृष्णसंवाद॥ राज्य युधिष्ठिरको दियो, मेटो सकलविपाद॥९॥ सूतजी बोले कि, हे ऋपिराज! युधिष्ठिर प्रजा के द्रोहसे भयभीत हो, सब धर्मके जाननेकी इच्छा करके जहाँ भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र में बाणों की शय्यापर पड़ेथे इनके पास आये॥१॥
और सब भाई सुवर्णभूषणभूषित घोड़ोंके रथोंपर आरूढ हो भीष्मपितामहके निकट पहुँचे और उसी समय व्यास, धौम्य, कृपाचार्यादिकभी वहाँ आगये॥२॥ हे शौनक! अर्जुनको और द्रौपदीको अपने साथ लिये रथपर बैठे भगवान् इस प्रकार शोभित हुए जैसे यक्षोंसहित कुबेर शोभा पावैं॥३॥ स्वर्गसे मानों कोई देवता गिरपड़ा है इसप्रकार पृथ्वीपर पड़े भीष्मपितामहको सब सभृत्य पाण्डव और श्रीकृष्णचन्द्रसहित प्रणाम किया॥४॥ तहाँ हे सत्तम! देवर्षि, ब्रह्मर्षि, राजर्षि भीष्मपितामहके देखनेको आये॥५॥ पर्वतमुनि, नारदमुनि, धौम्य, भगवान् बादरायणजी, बृहदश्व, भर
तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः॥ अन्वगच्छन्रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा॥२॥भगवानपि विप्रर्षेरथेन सधनंजयः॥ स तैर्व्यरोचत नृपः कुबेर इव गुह्यकैः॥३॥ दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवच्युतमिवामरम्॥ प्रणेमुः पांडवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा॥४॥ तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम॥ राजर्षयश्च तत्रासन्द्रष्टुं भरतपुंगवम्॥५॥ पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान्बादरायणः॥ बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः॥६॥ वसिष्ट इन्द्रप्रमदस्त्रितो गृत्समदोऽसितः॥ कक्षीवान्गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः॥७॥ अन्ये च मुनयो ब्रह्मन्ब्रह्मरातादयोऽमलाः॥ शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपांगिरसादयः॥८॥तान्समेतान्महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः॥ पूजयामास धर्मज्ञो देश कालविभागवित् ॥९॥ कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम्॥ हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्तविग्रहम्॥१०॥पांडुपुत्रानुपासीनान्प्रश्रयप्रेमसंगतान्॥ अभ्याचष्टाऽनुरागासैरंधीभूतेन चक्षुषा॥११॥
द्वाज, सशिष्य परशुराम॥६॥ वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, असित, त्रित, गृत्समद, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, कौशिक, सुदर्शन॥७॥ और निर्मल शुकाचार्यादिकमुनि, शिष्योंको संग लेकर, कश्यप, अंगिरा आदि अनेक ऋषि मुनि आये॥८॥ सूतजी बोले, हे ब्रह्मन्! उस समय धर्मज्ञ पितामह उन सब महात्मा पुरुषोंको देख, देश काल विभाग जाननेवाले भीष्म पितामहने मानसीपूजन किया॥९॥ जगदीश्वर हृदयनिवासी, अपनी मायासे जिन्होंने विग्रह धारण किया, सिंहासनपर विराजमान श्रीकृष्णका, भगवत् के प्रभाव जाननेवाले भीष्मपितामहने पूजन किया॥१०॥ विनय स्नेहसे मन समीप बैठे
नेत्रों में जल भरकर पाण्डुपुत्रों से प्रेम प्रीतिसनी वाणीसे भीष्मपितामह बोले॥११॥ महा कष्ट है बड़ा अन्याय है हेधर्मपुत्रो!ब्राह्मण धर्म भगवान्के आश्रित होकर भी क्लेश से जीते हो ॐ॥१२॥ महारथी राजा पाण्डुके मरे पीछे बालक जिनकी सन्तान ऐसी, वधू कुन्तीने तुम्हारे लिये बड़ा केश भोगा॥१३॥जो आपको अप्रिय है सो सब यह समयकी करीहुई बात सो काल वह है कि. जिसके वशमें सब लोग हैं, जैसे मेवपकिपवनके वश में रहती है॥१४॥ जहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भीमसे गदाधारी, जहां अर्जुनने गाण्डीवधनुषधारी, श्रीकृष्णसे मित्र,
अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद्यूयं धर्मनंदवाः॥ जीवितुं नार्हय क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः॥१२॥संस्थितेऽतिरथे पांडपृथा वालप्रजा वधूः॥ युष्मत्कृते बहून्क्लेशान्प्राप्ता तोकवती मुहुः॥१३॥ सर्वे कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम्॥ सकलो यद्वशे लोको वायोरिव धनावलिः॥१४॥ यत्र धर्ममुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः॥ कृष्णोऽस्त्रीगांडिवं चापंहृत्कृष्णस्ततो विपत्॥१५॥ न ह्यस्य कर्हिचिद्राजन्पुमान्वेद विधित्मितम्॥ यद्विजिज्ञासया युक्ता मुह्यते कवयो हि॥१६॥ तस्मादिदं देवतंत्र व्यवस्य भरतभि॥ तयानुविहितोऽनाया नाथ पाहि प्रजाः प्रभो॥१७॥ एष वै भगवान्साक्षादाद्यो नारायणः पुमान्॥ मोहयन्मायया लोकं गूढचरति दृष्णिषु॥१८॥ अस्यानुभावं भगवान्नेद गुह्यतमं शिवः॥ देवपिनारदः साक्षाद्भगवान्कपिलो नृप॥१९॥
तहाँ भी विपत्ति पड़ी॥१५॥ हे युधिष्ठिर!
मुझको पूर्ण विश्वास है कि बिना परमात्माकी इच्छा कोई कार्य नहीं होता उसकी अपार महिमा कोई नहीं जानसक्का, जिनके जानने की इच्छा करके बड़े बड़े कविलोग भी मोहको प्राप्त होते हैं॥१६॥ हे युधिष्ठिर! यह संसारके दुःख सुख देव धीन हैं, हे नाथ हे प्रभो! उनके अनुवर्ती जो आप हो, सो तुम इस अनाथ प्रजाका पालन करो॥१७॥ यह साक्षात भगवान आद्य नारायण पुरुष, मायासे लोकको मोहित कर वृष्णियों में छिपकर विचरे॥१८॥ इनका प्रभाव जो छिपा हुआ है उसको महादेवजी जाने व देवऋषि नारदजी और
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* शका—
भीष्मजीको
वानिकी समानयोग ना करत यह भीना की नमान गोटेक्
उत्तर- भीष्मजी को भगानी जानके, उनके ऊपर करके उनको थे ।
साक्षात् भगवान् कपिलदेवजी जाने हैं॥१९॥ अज्ञान से जिनको तुम मामाका पुत्र, परममित्र, सुहृदोत्तम मानो हो, जिन्होंने तुम्हारा मंत्रीपना किया, दूत बने, और तुम्हारे प्यारे हितकारी व सारथी बने॥२०॥ सर्वात्मा, समदृष्टिवाला जिनके समान कोई नहीं, जिनको अहंकार नहीं, रागादिकका जिनमें लेश नहींऐसे ईश्वरको नीचे उच्च कर्म करना, यह हमारे योग्य है यह बात हमारे योग्य नहीं है यह बुद्धिकी विषमता परमेश्वरमें नहीं॥२१॥ हे राजा युधिष्ठिर! यद्यपि परमेश्वरमें यह बात है तौभी जो उनके एकान्तमें ध्यान करनेवाले भक्तहैं उनपर दया ही करे हैं" उनकी बड़ाई और अपने भाग्यकी बड़ाई कहाँतक करूं" देखो। जो मेरे प्राण त्यागने के समय श्रीकृष्णचन्द्रने आनकर दर्शन दिया॥२२॥भक्तिसे जिसमें मन लगाकर
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम्॥ अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम्॥२०॥ सर्वात्मनः समदृशो ह्यदयस्याऽनहंकृतेः॥ तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित्॥२१॥ तथाप्येकांतभक्तेषु पश्य भूपाऽनुकंपितम्॥ यन्मेऽसंस्त्यजतः साक्षात्कृष्णो दर्शनमागतः॥२२॥ भत्यावेश्य मनो यस्मिन्वाचा यन्नाम कीर्तयन्॥ त्यजन्कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः॥२३॥ स देवदेवो भगवान्प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम्॥प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्मुखांबुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः॥२४॥ सूत उवाच॥युधिष्ठिरस्तदाकर्ण्य शयानं शरपंजरे॥ अपृच्छद्विवि धान्धर्मान्नृषीणामनुशृण्वताम्॥२५॥ पुरुषस्वभाव विहितान्यथावर्णं यथाऽऽश्रमम्॥ वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातो भयलक्षणान्॥२६॥दानधर्मान्राजधर्मान्मोक्षधर्मान्विभागशः॥ स्त्रीधर्मान्भगवद्धर्मान्समासव्यासयोगतः॥२७॥
वाणीसे जिनका नाम आठ प्रहर कीर्त्तन करे और इसी ध्यानमें देहत्याग करे तो वह पुरुष कामकर्मसे छूट जाता है॥२३॥ जबतक मैं देह त्याग न करूँ, तबतक प्रसन्नवदन कमलनयन रुचिरमुखकमल चतुर्भुज देवदेव तुम्हारा मार्ग ध्यानयोग्य है मेरे सन्मुख दर्शन देते रहो॥२४॥ सूतजी बोले कि, बाणों की शय्या पर सोये भीष्मजीकी यह वाणी सुन युधिष्ठिर सब ऋषियोंके मध्य में अनेक धर्म बूझनेलगे॥२५॥ जो धर्म पुरुषके स्वभाव के योग्य हैं वर्णों के धर्म, आश्रमोके धर्म, वैराग्य राग उपाधियोंके धर्म, वेदोक्त प्रवृत्तिमार्ग, निवृत्तिमार्ग॥२६॥ दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म,
स्त्रियोंके धर्म भगवद्धर्म संक्षेप विस्तारसे अलग अलग कहे॥२७॥ धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके उपाय, हे मुने! अनेक अनेक प्रकारके इतिहास कथामें तत्त्ववेत्ता भीष्मजी ने वर्णन किये। उस समय द्रौपदीभी वहाँ भीष्मपितामहके निकट बैठी थी जब भीष्मपितामहने कहा कि, जो कोई धर्मात्मा इस धर्मका जाननेवाला मनुष्य बैठा हो; और उस सभा में कोई अधर्मी अधर्म करना चाहै, तो धर्मात्मा पुरुषको उचित है कि उस पापीको पापकर्मसे वर्जे। कदाचित् वह वर्जित करनेके योग्य नहीं होय और कुछ सामर्थ्य न रखता हो, तो उस सभासे उठकर चलाजाय, भीष्मपितामहका यह वचन सुन कर द्रौपदी राजा युधिष्ठिर और अर्जुनकी ओर देखकर हँसी, और फिर अत्यन्त लज्जित होकर कहा देखो! राजा दुर्योधनकी सभा में भीष्म पितामहके सन्मुख अधर्मसे मेरी दुर्दशा हुई, और दुःशासनने मुझको नग्न करनेके लिये मेरा वस्त्र खेंचा, और राजा दुर्योधनने मुझे अपनी जंघापर बैठनेका उद्योग किया और सब सभा मेरा उपहास करने को उस समय उपस्थित थी, उस समय ऐसी महादुर्दशा होनेपर मुझ पापिनीके पापी प्राण न निकले, और मैं इतने परभी अपना मुख तुमलोगोंको दिखाती हूँ, ऐसे जीवनसे तो मरना ही भला था, परन्तु क्या कीजै? परमेश्वरकी इच्छासे
धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान्यथा मुने॥ नानाख्यानेतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित्॥२८॥
किसीका वश नहीं चलता, मेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा था, जो उस विपत्तिमें द्वारकापति मेरी पति न रखते तो सब धर्म डूवजाते; तब भीष्मपितामहने द्रौपदीको उदास और मनमलीन देखतेही उसके अन्तःकरणकी बात अपने ज्ञानसे जानकर कहा, हे पुत्री! तुम अपने मनमें कुछ सोच संकोच मत करो, यह सब धिक्कार मेरे ऊपर है, क्योंकि जिस समय यह महा अन्याय तेरे ऊपर हुआथा, उस समय मैं वहांथा तौ परन्तु मेरे मनमें तब यह ज्ञान नहीं था। इस कारण हे बेटी। मेरा अपराध क्षमाकर, परमात्माकी इच्छा इसी भांति थी जो परमेश्वरको करना होता है; उसका उसी प्रकार बानक बनजाता है किसीकी चतुराई नहीं चलती, इसका एक कारण और है, सो मैं तुझसे कहूं हूँ कोई मनुष्य कैसाही चतुर और ज्ञानीहो, परन्तु अधर्मीकी संगतिसे उसका धर्म कर्म ज्ञान ध्यान सव नष्ट होजाता है, और समयपर काम नहीं आता। जो कोई अधर्मीका अन्न भोजन करता है उसकी बुद्धि उसीके समान हो जाती है; सो मैंने उन दिनों दुर्योधन अधर्मीका अन्न भोजन किया था, इस कारण मुझको उस समय धर्म अधर्मका कुछ ज्ञान नहीं रहा और मेरी बुद्धि भ्रष्ट होगई अब मुझको एक महीना छब्बीस दिन अन्न जल छोड़े और बाणोंकी शय्यापर पड़े होगया इसलिये अब मेरे शरीरसे दुर्योधन
दुराचारीके अन्नका विकार और उसके संगका प्रभाव निवृत्त होगया तो अब मुझे इसबातका विचार हुआ, कि मैंने भी अत्याचारियोंके संग रहकर अत्याचार किया॥ हे पुत्री! इस बातपर मुझको एक दृष्टान्त महाभारतका स्मरण हुआ. त्रेतायुगमें राजा शिबिके राज्य में, एक बड़े महात्मा परमहंस पुरुष रहते थे, बड़े धर्मात्मा और ज्ञानवान् थे राजा उनकी सेवा तन मनसे करता था उस राजाके नगर में एक ब्राह्मणने अपनी कन्याका आभूषण किसी सुनारको बनानेके लिये दिया सो उस सुनारने सुवर्ण तो बदल लिया और पीतलका गहना बनाकर और ऊपरसे सोना चढ़ाकर ब्राह्मणको दिया. उस ब्राह्मणने विना दिखाये भलाये वह गहना अपनी पुत्रीको पहना दिया. वह लड़की उस आभूषणको पहनकर अपनी ससुरालको चलीगई उसका पति चतुर था पीतलका गहना देखकर अत्यन्त क्रोधवन्त हुआ और उस लड़कीको पिताके घर पहुॅचा दिया. तब उस ब्राह्मणने बहुत दुःख मानकर राजा शिबिके समीप जाय निवेदनपत्र दे अपना सब वृत्तान्त कहा, तब राजा, शिबिने उस ब्राह्मणकी बात सुनकर सुनारको पकड़ मँगाया और उसको अपराधी समझकर सब उसका अन्न धन लुटवाकर भंडारमें मँगालिया और उसको कारागार में भिजवादिया, उसी अन्नका भोजन परमहंसने भी किया. उस सुनारका अन्न खाने से परमहंस की बुद्धि भ्रष्ट होगई और रानीका रत्नजडित हार चुरालिया और अलग किसी गुप्त स्थानमें जा छिपे और अन्न जलभी तीन दिनतक उनको नहीं प्राप्त हुआ तब तो उपास करनेसे सुनारके अन्नका विकार उनके उदरसे जाता रहा तो फिर ज्ञान हुआ तो समझा कि मैंने बड़ा अन्याय किया जो रानीका हार चुरालिया. यह समझ राजाके सन्मुख जाकर कहा. मैंने बडा पाप किया, इस पापके बदले मुझको नरक भोगना पड़ेगा, इसलिये अपने कर्मका दण्ड इसी देहसे भोगलेना उचित है, जिसमें परलोककी चिंता न रहै, इस\। कारण हे पृथ्वीनाथ इस पाप के बदले में मेरे दोनों हाथ कटवा दीजिये कि, मैं अपने अधर्मका दण्ड इसी जन्म में भोगलूं, न जानिये परलोकमें क्या
दशा होगी, यह बात सुनते ही राजाने उदास होकर पण्डित और ज्ञानियों को बुलाकर बूझा कि यह क्या कारण है जो परमहंसका चित्त उस दिन ऐसा बदलगया, कि इन्होंने हार चुराया और अब आपही उस हारको लेकर मेरे पास आये, और कहते हैं कि मेरे हाथ कटवादो, ब्राह्मणोंने अपनी विद्या विचारसे कहा कि, हे भूपाल मणि । जिस दिन परमहंसने चोरी करीथी उस दिन किसी पापीका अन्न खानेसे परमहंसकी यह गति होगई, सो राजाने बूझा तो विदित हुआ कि उसी सुनार अधर्मीका अन्न खानेसे परमहंसकी बुद्धि बदलगई थी, सुनारको बुलाकर बूझा कि तैंने पीतलपर सोना कैसे चढ़ाया ? उसने कहा कि एक घाती किसीके बालकको मारकर उसका गहना मेरे हाथ बेंचा, उस धान्यके खानेसे मैं मतिहीन होगया सो हे द्रौपदी!
एक दिन अधर्मीका अन्न खानेसे परमहंसका ज्ञान नष्ट होगया जो उसने चोरी करी, और मैं राजा दुर्योधन अधर्मीका सदा अन्न भोजन करताथा और उसके संग रहताथा, मुझे उस समय इतना ज्ञान नहीं हुआ. जो दुर्योधनके तेरे ऊपर अन्याय करनेसे उसे वर्जित करता और वह नहीं मानता, यह सब मेराही अपराध है. क्षमाकर, यह कह भगवान् वासुदेवकी मनोहर मूर्त्तिको हृदयमें धारणकर नेत्र बन्द कर लिये॥२८॥ उसी समय काल आनकर प्राप्त हुआ. जिसको अपनी इच्छासे मोक्ष जाना होय सो उत्तरायण काल है॥२९॥ युद्ध में सदा सबके समीप रहनेवाले, सहस्रों मनुष्योंकी रक्षा करनेवाले, सो भीष्मपितामह सहस्र अर्थ कहनेवाले वाणीसे, आदिपुरुष भगवान् पीताम्बरधारी चतुर्भुज सम्मुख स्थित श्रीकृष्णजी में सब संग
धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः॥ यो योगिनश्छंदमृत्योर्वाञ्छितस्तूत्तरायणः॥२९॥ तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीर्विमुक्तसंगं मन आदिपुरुषे॥ कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे पुरः स्थिते मीलितदृग्व्यधारयत्॥३०॥ विशुद्धया धारण्या हताशुभस्तदीक्षयैवाऽऽशु गतायुधश्रमः॥ निवृत्त सर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रमस्तुष्टाव जन्यं विसृजञ्जनार्दनम्॥३१॥ भीष्म उवाच॥ इति मतिरूपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुंगवे विभूनि॥ स्वसुखमुपगते कचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः॥३२॥ त्रिभुवनकमनं तमालवर्ण रविकरगौरवरांवरं दधाने॥वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या॥३३॥
छोड मन लगाया॥३०॥ बुद्धिको शुद्ध और मन स्थिर करनेसे जिनके पाप नष्ट होगये, और श्रीकृष्णजीके दर्शनसे आयुधोके लगनेकी व्यथा दूर होगई और सब इन्द्रियोंकी वृत्तियोंका भ्रम भी जिनका दूर हो गया, सो भीष्मजी देह त्यागने के समय जनार्दन भगवान्की स्तुति करके बोले॥३१॥ हे यादवकुलश्रेष्ठ! महामहिमायुक्त स्वरूपभूत परमानन्दको प्राप्त किसी समय विहार करनेके निमित्त योगमायाके आश्रित हो देहधारण करते हो, जिससे संसार कृतार्थ होयऐसे भगवान् षड्गुण ऐश्वर्यवान् श्रीकृष्णजीमें मैंने निष्काम बुद्धि समर्पण करी॥३२॥ त्रिलोकीमें सुन्दर तमालवंत् नीलवर्ण सूर्यकी किरणसम प्रकाशवान् तनुपर उज्वल वस्त्र धारण किये, मुखारविन्दपर सघन समूहवत् अलकें चारों
ओरको छिटकरहीं, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र यदुनायकमें निष्काम मेरी प्रीति हो॥३३॥ युद्धमें घोड़ोंके खुरोंकी धूरिसे अटी हुई अलकें इधर उधरको बिखरी हुईं, और अलकोंके श्रमसे जिस मुखपर पसीना ऐसे आरहाथा, जैसे श्यामकमलके फूलपर ओसके कण चमकते हैं, कठिन पैंने बाणोंसे जिनकी देह मैंने भेदन कर डाली, ऐसे शोभायमान कवचधारी श्रीकृष्णचन्द्र में मेरी बुद्धि लगे॥३४॥ अर्जुनका वचन सुन शीघ्र अपने रथको कौरवोंकी सेनामें खड़ा करके शत्रुओंके सेनापतियों की आयु छीनकर, यह भीष्म, यह द्रोण, यह कर्ण, ऐसे उंगली दिखाने के बहानेसे सबकी आयु खैचकर अर्जुनकी जय कराई ऐसे पार्थसखा श्रीकृष्णचन्द्र में मेरी प्रीति हो॥३५॥ दूर खड़ी सेनाका मुख देख, मोहित खिन्न अर्जुनकी कुमतिको अध्यात्मविद्या (गीताशास्त्र) के उपदेशसे दूर किया ऐसे श्रीकृष्णकी मनोहर मूर्ति मेरे नेत्रो में बसी रहै॥३६॥ हे नाथ! आप अपने भक्तोंका ऐसा
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये॥ मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा॥३४॥ सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य॥ स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णाहृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु॥३५॥ व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या॥ कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु॥३६॥ स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञामृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः॥ धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्वर्हरिरिव हंतुमिमं गतोत्तरीयः॥३७॥
वचन प्रतिपालन करते हैं कि, जब महाभारत भी नहीं हुआ था तो आपने प्रतिज्ञा करीथी, कि हम विना धारण किये केवल पाण्डवोंकी सहायता करेंगे, और इधर मैंने प्रण कियाथा, कि जो में भीष्म पितामह हूं तो आपको संग्राम में व्याकुल करके तुम्हारी प्रतिज्ञा छुड़ाकर एकवार आपको शस्त्रग्रहण करादूंगा, सो आपने भक्तभावकी रीति से सोचा कि, मेरी प्रतिज्ञा छूटजाय तो छूटजाय परन्तु मेरे भक्तकी प्रतिज्ञा नही छूटै, क्योंकि जब भक्ती प्रतिज्ञा छूटगई तो फिर कोई भक्त पूर्ण प्रतिज्ञा नही करेगा और भक्ति संसारसे उठ जायगी, यह समझकर अपनी प्रतिज्ञा छोड़दी और मैंने अपना प्रण पूरा करने के लिये अर्जुनके रथका चक्र तोड़कर घोडोंका घात किया, और उसके रथकी ध्वजा तोड़ धनुषको काटकर गिरादिया तब आप अत्यन्त क्रोधित होकर उसी रथका चक्र उठाकर मेरे मारनेके लिये मेरे पीछे दौड़े, उस समय दुपट्टेसे कैसे शोभायमान दिखाई देते थे
जैसे श्याम घटामें चपला चमक जाती है, जब आप दौड़ते दौड़ते व्याकुल होगये उस समय आपका पीताम्बर पृथ्वीपर गिरपड़ा उसके गिरनेका यह अभिप्राय था, कि जब आपने अपनी प्रतिज्ञा त्यागकर शस्त्रधारण किया, तब पृथ्वीका हृदय काँपने लगा, कि श्रीकृष्ण भगवान्ने भूमिका भार उतारनेके लिये संसार में अवतार लिया है कहीं वहभी अपनी प्रतिज्ञा न छोड़दें, मेदिनीके मनका भाव जानकर उसका संशय मिटानेके लिये अपना उपर्णा धरनीपर गिरादिया, और यह कहा कि हे वसुधे! धैर्य धारणकर धैर्य धारणकर, शोकाकुल मत हो! मैंने अपने भक्तकी प्रतिज्ञा रखनेके लिये अपना प्रण छोड़ा है परन्तु तेरा भार अवश्य उतारूंगा, तू किसी प्रकारका संदेह मतकर. हे वसुमति! जब तेरे मन में विस्मय हुआ मैंने उसी समय तुझको धैर्य देनेके लिये अपना पीतांबर तुझको सौंपा, कि जबतक तेरा भार न उतारूं तबलों मेरा उपर्णा अपने पास रक्खा रहनेंदे ऐसे पृथ्वीको धैर्य देनेवाले मदनमोहन में मेरी रुचि हो॥३७॥ मुझ आततायीके तीक्ष्ण बाणोंसे आपका कवच भग्नहो शरीरमेंसे रुधिर
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे॥प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान्गतिर्मुकुंदः॥३८॥ विजयरथकुटुंब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये॥ भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोर्यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम्॥३९॥ललितगतिविलासवल्गुहासप्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः॥ कृतमनुकृतवत्य उन्मदांधाः प्रकृतिमगन्किल यस्य गोपवध्वः॥
निकलने लगा, उस समय हठपूर्वक मेरे सन्मुख मुझे मारनेको आये “और मैं चाहता था कि पाण्डवोंकी सब सेनाको मारकर भगादूं तब तुम मेरे रथके चारों ओर आनकर अनेक अनेक प्रकारके रूप अपने मुझको दिखातेथे, जिन रूपोंको देख देखकर मेरे मन में भ्रांति होती थी कि इनमें कौनसा
रूप सत्य है कौनसा मायाका है? तब तुम मेरे बाणोंकी चोट सहकर मेरी सराहना करते थे अब मैं उन बातोंका स्मरण करताहूं तो आपके सन्मुख मेरा मुख नहीं होता; सो आपने मेरे अपराधपर कुछ ध्यान नहीं किया और मरती समय मुझको आनकर दर्शन दिया” हे घनश्याम! यही श्यामस्व रूप मेरे नेत्रोंमें बुसारहे॥३८॥ अर्जुन के रथरूप कुटुम्बमें कोड़ा लिये घोड़ों की पचरंगी बागडोर पकड़े सारथीपनकी शोभा धारण किये, दर्शनीय भगवानमें मुझ मरणशीलकी प्रीति होय, जो आपके दर्शन करते करते युद्धमें मरे, सो आपके स्वरूपको प्राप्त हुए॥३९॥ ललित गति विलास मनोहर हास्ययुक्त नम्र विलोकन श्रीकृष्ण के चरित्रोंका अनुष्ठान करनेवाली मदमत्त गोपवधूभी जिनके स्वरूपको प्राप्त होगईं॥४०॥
राजा युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें अनेक मुनिगण नृपतिसमूहके समक्ष जिनकी सबसे पहिले पूजाहुई, आज मेरा धन्य भाग्य है, सो श्रीकृष्णचन्द्र दर्शन योग्य मेरी दृष्टिके सन्मुख आनकर प्रगट हुए॥४१॥अपने रचे हुए शरीरधारियोंके हृदय में विराजमान, जन्मरहित, मोहरहित की मैं शरणागत हूं, जैसे सब प्राणियोंकी दृष्टियों में एक सूर्य अनेक घटों में दिखाई देता है ऐसे एक ईश्वर जीवोंके शरीरके भेदसे अनेक दृष्टि आते हैं॥४२॥ सूतजी बोले कि हे ऋषिगण ! भगवान् कृष्णमें मन वाणी दृष्टिकी वृत्तियोंसहित जीवात्माको लगाकर भीष्मजी अंतःश्वासी उपरामको प्राप्तहुए॥४३॥ भीष्मजीको उपाधि रहित ब्रह्ममें लीन जानकर, जैसे सन्ध्या समय सब पक्षी चुप हो जाते हैं ऐसे सब चुप होगये॥४४॥देवता मनुष्योंके बजाये हुए बाजे बजे, राजाओंमें साधु
मुनिगणनृपवर्यसंकुलेंतःसदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम्॥ अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशि गोचर एष आविरात्मा ॥४१॥ तमिममहमजं शरीरभाजां हृदिहृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्॥प्रतिदृशमिव नैकधाऽर्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः॥४२॥ सूत उवाच॥ कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः॥ आत्मन्यात्मानमावेश्य सतश्श्वास उपारमत्॥४३॥संपद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले॥ सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये॥४४॥ तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिताः॥ शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः॥४५॥ तस्य निर्हरणादीनि संपरेतस्य भार्गव॥ युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्ते दुःखितोऽभवत्॥४६॥
प्रशंसा करनेलगे, आकाशसे फूलोंकी वर्षा हुई॥४५॥ हे शौनक मुनि ! भीष्मजीकी दाह क्रियाकर युधिष्ठिर एक घड़ी शोकसे अपने मनमें बहुत दुःखी हुए “उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने पाण्डवोको बहुत समझाया कि जैसी मृत्यु संसार में भीष्मजीकी हुई है, ऐसी मृत्यु दूसरेकी होनी बहुत दुर्लभ है, सारमें जिसने शरीर धारण किया वह अवश्य एक दिन कालकौर होगा इसलिये मरनेका शोच करना वृथा है, जो कोई संसारमें नरतनु पाकर माया मोहमें लिप्तर है और परमात्मासे विमुख रहकर कलह क्लेशमें अपने दिन व्यतीत करे और वह अपना तनु त्याग करे उसके लिये शोक करना अवश्य चाहिये क्योंकि, वह नरकमें वासकर कष्ट भोगेगा, और भीष्मपितामहने तो संसार में भक्तिपूर्वक धर्म संयुक्त रहकर तनु त्याग किया, इसलिये इनके
मरनेका क्या शोक संताप है? आप तो चतुर और ज्ञानी हैं, अधिक समझाना तो मूर्खोंको चाहिये. यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने अपने मनको धैर्य दिया”॥४६॥ उस समय सब मुनियोंने प्रसन्न होकर छिपे नामोंसे श्रीकृष्णकी स्तुतिकरी, और श्रीकृष्णकी मनोहर मूर्ति हृदयमें बसाय सब अपने अपने आश्रमको गये॥४७॥ तब श्रीयदुनाथसमेत युधिष्ठिरने हस्तिनापुरमें जाकर धृतराष्ट्रसहित तपस्विनी गान्धारीको शान्त किया ॥४८॥ धृतराष्ट्रने और वासुदेव ने राजा युधिष्ठिरकी सराहना करी और समर्थ राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हो, धर्म कर्मसे अपने परदादाकी राजगद्दीपर बैठकर धर्मराज करने लगे॥४९॥इति श्रीभागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां भीष्मस्तुतियुधिष्ठिरराजप्रलंभो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तद्वद्यनामभिः॥ ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान्प्रययुः पुनः॥४७॥ ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम्॥ पितरं सांत्वयामास गांधारीं च तपस्विनीम् ॥४८॥ पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः॥ चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः॥४९॥ इति श्रीमद्भा० प्रथ० युधिष्ठिरराज्यप्रलंभनं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥ शौनक उवाच॥ हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः॥ सहानुजैः प्रत्यवरुद्ध भोजनः कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः॥१॥ सूत उवाच॥ वंशं कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं संरोहयित्वा भवभावनो हरिः॥निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह॥२॥ निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं प्रवृत्तविज्ञानविधूतविभ्रमः॥ शशास गामिन्द्र इवाऽजिताश्रयः परिध्युपांतामनुजानुवर्तितः॥३॥
दोहा—
कियो दशम अध्यायमें, धर्मराजसुत राज ! गमन द्वारकाको कियो, कृष्णचन्द्र महाराज॥१०॥इतनी कथा सुन शौनक मुनि बोले, कि हे सूतजी महाराज। जो अपनेसे अधिक राज्यकी इच्छा करतेथे, उन अन्यायी दुराचारियोंको मारकर, धर्मधारियों में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने अपने भाइयों समेत वैरागी होकर कैसे अपना समय व्यतीत किया, सो वर्णन कीजै?॥१॥ सूतजी बोले कि, हे शौनकमुनि! जो कुरुवंशरूप दावानलसे जले वंशको श्रीकृष्णचन्द्र फिर अपनी कृपादृष्टि से उत्पन्नकर हस्तिनापुर के राज्य में युधिष्ठिरको प्रवेश कराकर अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥२॥ और राजा युधिष्ठिर, भीष्मपितामह और श्रीयदुनाथ भगवान्का परमज्ञान सुनकर, सब भ्रम और भटकनाको छोड़ श्रीकृष्णाश्रयसे सब
भाइयों समेत समुद्रपर्यन्त पृथ्वी और प्रजाका इन्द्रकी समान पालन करने लगे॥३॥ जब इच्छा होती तब मेघ बरसता सब पृथ्वी कामधेनु हो रहीथी, गौओंसे बज पूरित हो रहाथा॥४॥ नदी, समुद्र, पर्वत, वन, वनस्पति, लतासमेत सब औषधियें, सब ऋतुमें इच्छापूर्वक फूलती फलती थीं॥५॥ और राजा युधिष्ठिरके राज्य में किसी जीवको किसी समय, मानसी व्यथा, रोग, शीत उष्णादिक, अध्यात्मिक, अधिदैव, अधिभूत, दुःख नहीं होतेथे॥६॥ श्रीद्वारकानाथ देवकीनंदन अपने मित्र पाण्डवोंका दुःख दूर करनेके लिये और भगिनीकी प्रीतिकी इच्छासे कुछ दिनों हस्तिनापुर में वास करके पश्चात् युधिष्ठिरसे सम्मतिकर और आज्ञा ले भेंट प्रणाम कर, और वहांके पुरुषोसे यथायोग्य मिल प्रणामको प्राप्तहो श्रीभगवान् वासुदेव
कामं ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही॥ सिषिचुः स्म ब्रजान्गावः पयसोधस्वतीर्मुदा॥४॥ नद्यः समुद्रागिरयः सवनस्पतिवीरुधः॥ फलंत्योषधयः सर्वाः काममन्वृतुतस्य वै॥५॥ नाधयो व्याधयः केशादैवभूतात्महेतवः॥ अजातशत्रावभवञ्जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित्॥६॥ उषित्वा हास्तिनपुरे मासान्कतिपयान्हरिः॥ सुहृदां च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया॥७॥ आमंत्र्य चाऽभ्यनुज्ञातः परिष्वज्याभिवाद्य तम्॥ आरुरोह रथं कैश्चित्परिष्वक्तोभिवादितः॥८॥ सुभद्रा द्रौपदी कुंती विराटतनया तथा॥ गांधारी धृतराष्ट्रश्च युयुत्सुर्गोतमो यमौ॥९॥ वृकोदरश्च धौम्यश्च स्त्रियो मत्स्यसुतादयः॥ न सेहिरे विमुह्यंतो विरहं शार्ङ्गधन्वनः॥१०॥ सत्संगान्मुक्तदुस्संगो हातुं नोत्सहते बुधः॥ कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृदाकर्ण्य रोचनम्॥११॥
रथपर बैठे॥७॥८॥ उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र युयुत्सु “जो धृतराष्ट्रके वीर्य से वेश्यासे जन्माथा’ कृपाचार्य, नकुल, सहदेव॥९॥ भीम, धौम्य ऋषि, और मत्स्यस्ता उत्तरा, आदि मोहके वशहो, मदनमोहन ब्रजनाथ बॉकेविहारीके वियोगको न सहसके, मत्स्यसुता सत्यवतीका भी नाम है॥१०॥ महात्मा पुरुषों के मुखसे जो बुद्धिमानने एकबार भी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दके यशको सुना, वह उसी समय सब लोभ मोह स्त्री पुत्रादिकोंकी प्रीति तज उस कृष्णगुणगानेवालेके सत्संगको नहीं त्यागसता॥११ ॥
जिन युधिष्ठिरादिकों की श्रीकृष्ण में अलौकिक प्रीति, नित्यप्रति (आना, जाना, हँसना), देखना, छूना, बोलना, (चलना), शयन, आसन, भोजन रहताथा उनसे उनका विरह किसप्रकार सहाजाय ॥१२॥ सव अतिस्नेहके मारे बँधे हुए श्रीकृष्णकी पूजा करनेके लिये जहां तहां चले ॥१३॥ देवकीसुतकी यात्रामें किसी प्रकारका अमंगल न हो इसलिये बांधवोंकी स्त्रियोंने उत्कंठा के मारे आँखोंके आँसु आँखोहीमें रोके ॥१४॥ और जहांतहां मृदंग, शंख, वीणा,
तस्मिन्न्यस्तधियः पार्थाः सहेरन्विरहंकथम्॥ दर्शनस्पर्शसंलापशयनासनभोजनैः॥१२॥ सर्वे तेऽनिमिषैरक्षैस्तमनुहृतचेतसः॥ वीक्षंतः स्नेहसंबद्धा विचेलुस्तत्रतत्र ह॥१३॥न्यरुंधन्नुद्गलद्वाष्पमौत्कंख्याद्देवकीसुते॥ निर्यात्यगारान्नोभद्रमिति स्याद्वांधवस्त्रियः॥१४॥मृदंगशंखभेर्यश्च वीणापणवगोमुखाः॥ धुंधुर्यानकघंटाद्या नेदुर्दुंदुभयस्तथा॥१५॥ प्रासादशिखरारूढाः कुरुनार्यो दिदृक्षया॥ ववृषुःकुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः॥१६॥सितातपत्रं जग्राह मुक्तादामविभूषितम्॥ रत्नदंडं गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह॥१७॥
भेरी, गोमुख, धुंधरी, घण्टा, दुंदुभी बाजे बड़े गम्भीर शब्दसे वजरहेथे॥१५॥और कौरवोंकी स्त्रिये छज्जोंपर बैठीहुईं श्रीमदनमोहन वॉके बिहारीकी प्रीतिके जाल में फॅसी, लज्जाके मारे मनहीमन मुसकाय तिरछी चितवनसे देखतीथीं, और जय जय शब्दकर श्रीकृष्णपर सुगंधित पुष्पोंकी वर्षा करती थीं ॥१६॥महाहर्षसे श्रीकृष्णजीके ऊपर श्वेतछत्र अर्जुन लगाये खडेथे, जिसमें सुन्दर रत्नोंकी डंडी और मोतियोंके गुच्छे लटक रहेथे॥१७॥
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शंका—विधवा जो कुरुवंशियोंकी स्त्रियें थीं सो उन्होंने प्रेम करके लज्जाकरके मुसकायके श्रीकृष्णको क्यों देखा? पतिव्रता स्त्री अपने पतिको प्रीतिसे वा लज्जासे अथवा मुसकानेसे देखती हैं, और जारिणी स्त्री व्यभिचारी पुरुपको विषयवासनासे देखती है, कौरवोंकी स्त्री सब बडे बडे कुलकी जन्मी हुई बड़ी पतिव्रता शुद्ध कर्म धर्म करनेवाली ऐसी स्त्री किसी जन्मके पापसे विधवा होगई तो कुछ चिन्ता नहीं परन्तु श्रीकृष्ण पर पुरुष हैं उनको उन्होंने प्रेमसे उजासे मृदुमुसकानसे क्यों देखा जो कभी कुम्नशियोंकी स्त्रियोंने श्रीकृष्णको भगवान् जानके प्रेमसे, उज्जासे, मृदुमुसकानसे देखा तोभी अयोग्य है, भगवानही जान लियाथा कृष्णको तोभी हाथजोडकर नमस्कार करना चाहिये था अपनी दीनता दिसाकर कृष्णके सन्मुख खडीहो नेत्रोंके जलसे उनके चरण कमलको धो उनका चरणामृत देतीं इस प्रकारसे नमस्कार करना योग्य था, फिर यह क्यों नहीं किया
उत्तर—कुरुवशियोंकी स्त्रियोने अपने २ मनमें विचार किया, कि हमारे सबके पतियोंको पाण्डवोंने युद्ध में मारा है अब हम सवअनाथ हो रही है इसलिये हमारी सबकी रक्षा करनेवाले एक भगवान् है
परम अद्भुत पंखा उद्धव और सात्यकी हाथ में लिये पवन कर रहेथे, और पुरुषोत्तमपर पुष्पोंकी वर्षा मार्गमें होती चली जातीथी, उस समयकी शोभाको कौन वर्णन करसकै ?॥१८॥निर्गुण सगुण परमेश्वरके जो अनेक अनेक रूपके योग्य सत्य आशीर्वाद जहां तहां ब्राह्मणों के मुखसे सुनाई आतेथे॥१९॥मन लगाये कौरवेंद्र युधिष्ठिरके पुरकी स्त्रियोंके परस्पर कहे मनोहर वचन मनको मोहे लेतेथे॥२०॥उत्तम आत्मामें निश्चय
उद्धवः सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्भुते॥ विकीर्यमाणः कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि॥१८॥अश्रूयंताऽऽशिषः सत्यास्तत्रतत्र द्विजेरिताः॥ नानुरूपानुरूपाश्च निर्गुणस्य गुणात्मनः॥१९॥अन्योन्यमासीत्संजल्प उत्तम श्लोकचेतसाम्॥ कौरवेंद्रपुरस्त्रीणां सर्वश्रुतिमनोहरः॥२०॥ स्त्रिय ऊचुः॥ स वै किलायं पुरुषः पुरातनो य एक आसीदविशेष आत्मनि॥ अग्रेगुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे निमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु॥२१॥ स एव भूयो निजवीर्यचोदितां स्वजीवमाया प्रकृतिं सिसृक्षतीम्॥ अनामरूपात्मनि रूपनामनी विधित्समानोनुससार शास्त्रकृत्॥२२॥
करके पुरातन एक पुरुष यह हुए, समस्त जगत् जिनकी देहमें गुणोंसे आगे जिनका जन्म, निशामें जो शक्ति सो उस समय आँखे न मीचें सो यह पूर्ण परमात्मा है॥२१॥अपने वीर्यसे प्रेरित सबकी जिवाने रचनेवाली प्रकृतिको नामरूप जिस आत्मा व्यापकमें नहीं होसकै, उसमें रूप, नाम,
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इसलिये कुरुवंशियोंकी स्त्रियोंने प्रेमसे श्रीकृष्णको देखा और कौरव पाण्डवोंका युद्ध जब नहीं हुआथा तत्र श्रीकृष्ण अनेकवार हस्तिनापुरको आये और हस्तिनापुर में जो जो कौरवोंकी तभायें थीं उनमें बैठे और कौरवोंने वारम्वार श्रीकृष्णका अनादर किया इस वातको कौरवोंकी स्त्रिये भली भांति जानतीथीकि, हमारे पतियोंने श्रीकृष्णका निरादर किया है ऐसा स्त्रियोंने जानभी लिया तोभी कामदेवसे उन्मत्त होरहीथीं स्त्री भगवान्का आदर सन्मान कभी न करतीं परन्तु विषयसुखके अभिमानसे मतवाली हो रहींथी, उन भगवान् के अनादरको कुरुवशियोंकी स्त्री स्मरण करके श्रीकृष्णके सग पहिले तो उन्मत्त होकर बुराई की फिर उसी कर्म करके बहुत लज्जाको प्राप्तहोकर मुख नीचेको करके अत्यन्त लज्जासे देखा, क्षत्रियोंके कुलमें जो स्त्रियें तथा पुरुष उत्पन्न होते हैं उनका स्वभाव महा कठिन होता है सहस्र वर्ष बीत जानेपरमी अपने शत्रुको नहीं भूलते, जिसने अपने आपको दु ख दिया है उससे बदला लेनेके लिये मरते समय अपनी सन्तानसे कह जाते हैं कि, शत्रुसे वदला अवश्य लेना, जब अपने प्राण छोडते हैं, इसलिये कौरवोंकी स्त्री अपने अपने स्त्रभावमें चतुरथीं, इस कठिन स्वभावसे कौरवोंकी स्त्रियोंने श्रीकृष्णको मुसकायकर देखा कौरवोंकी स्त्रियोंने विचार किया कि, जिस प्रकार हम सबको इन कृष्णने पतिहीन करके हमपर विपत्ति डालीहें ऐसे ही इनकीभी सब स्त्रिये इन करके थोडेही दिनों में हीन होजायेंगी इसलिये कौरवोंकी स्त्रियोंने मन्दहास्यसे कृष्णको देखतीथीं ॥
सब शिक्षा शास्त्र करनेवाले सो यह फिर माया में स्थितहुए ॥२२॥ निश्चय यह परमेश्वर हैं, जिनके पदको बड़े बड़े जितेन्द्री विवेकी देखे हैं, सो यह श्रीवजानन्द सब जीवात्माओंके शुद्ध करनेवालेहैं ॥ २३॥ सो यह ईश्वर वह हैं कि जिनकी सत्कथा सखाओंने और वेदमें गुह्यनामोंमें इनकी एकान्तकी बातें जानने वालोंने कही गाई हैं, कि यह एक परमात्मा अपनी लीलासे संसारकी उत्पत्ति पालन संहार करते हैं परन्तु इस विश्व में आसक्त नहीं होते ॥२४॥ जब तामसी बुद्धिवाले राजा पृथ्वीपर अधर्मसे राज्य करेहैं तब परब्रह्म परमात्मा सात्त्विक रूप धरकर निःसन्देह संसार स्थितिके लिये युग युगमें अपना रूप धारणकर ऐश्वर्य, सत्यप्रतिज्ञा, यथार्थ वार्ता, भक्तोंपर कृपा, यह अद्भुत कर्म करते हैं ॥२५॥
स वा अयं यत्पदमत्र सूरयो जितेंद्रिया निर्जितमातरिश्वनः॥ पश्यंति भक्त्युत्कलितामलात्मना नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुंमर्हति॥२३॥ स वा अयं सख्यनुगीतसत्कथो वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभिः॥य एक ईशो जगदात्मलीलया सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते॥२४॥ यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा जीवंति तत्रैष हि सत्त्वतः किल॥ धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो भवाय रूपाणि दधद्युगेयुगे॥२५॥ अहो अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलमहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम्॥यदेष पुंसामृषभः श्रियः पतिः स्वजन्मना चंक्रमणेन चांचति॥२६॥ अहो बत स्वर्यशसस्तिरस्करी कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः॥ पश्यंति नित्यं यदनुग्रहेषितस्मितावलोकं स्वपतिं हम यत्प्रजाः॥ २७॥ नूनं व्रतस्नानहुता दिनेश्वरः समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः॥ पिबंति याः सख्यधरामृतं मुहुर्व्रजस्त्रियः संमुमुहुर्यदाशयाः॥२८॥
यह यादवकुल अत्यन्त श्लाघा करने योग्य है, यह मधुवन अत्यन्त पुनीत स्थान है, जिसे सब जगत् के स्वामी श्रीपतिने जन्मले और चल फिरकर पूजनके योग्य किया॥२६॥यह द्वारकापुरी पुण्य यशकर्त्री और स्वर्गके उत्तम यशकी तिरस्कार करनेवाली है, जिसमें नित्य अनुग्रहीत दृष्टि और मधुर मुस्कानयुक्त श्रीकृष्णचन्द्रजीको उनकी प्रजा देखती है ॥२७॥ हे सखी! जिन स्त्रियोंका इन्होंने पाणिग्रहण किया है निश्चय उन स्त्रियोंने जन्मान्तरमें व्रत स्नान हवनसे ईश्वरका पूजन किया है. और जिनके अधरामृतमें अपने अंतःकरण लगाकर व्रजस्त्रियां बारंबार मोहित होतीथीं ॥२८॥
शिशुपालआदिक बड़े बड़े नामी राजाओंको जीतकर अपने पराक्रमरूप वीर्यसे स्वयंवरसे सुन्दरियोंको हरलाये, और प्रद्युम्न, साम्ब, अम्वादि पुत्र जिनने उत्पन्न किए और भौमासुरको मारकर जो कई सहस्र स्त्री लाये, उन सबके धन्य भाग्यहें॥२९॥यह परम स्त्रीभावको ही प्राप्तथीं, क्योंकि जिनमें चतुराई नहीं, शोक संताप नहीं, परन्तु देवी शोभित हुईं. यह सब व्रत पूजनका प्रभाव है कि, जिन्होंने हृदयग्रहणी मधुर वाणियोंसे व्रजराजको मोहित करलिया, कि कभी उनके घरसे बाहर नहीं निकलतेथे॥३०॥वह पुरकी स्त्रियें इसप्रकार से बातें करतीथी और ब्रजचंद्र उनकी ओर देख देख आनन्दितहोकर मुसकाते चलेजातेथे॥३१॥राजा युधिष्ठिरने भगवान्को
या वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे प्रमथ्य चैद्यप्रमुखान् हि शुष्मिणः॥ प्रद्युम्नसांवांवसुतादयोऽपरा याश्चाहृता भौमवधे सहस्रशः॥२९॥ एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं निरस्तशौचं वत साधु कुर्वते॥यासां गृहात्पुष्करलोचनः पतिर्नजात्वपैत्याहृतिभिर्हृदि स्पृशन्॥३०॥ एवंविधा गदंतीनां स गिरः पुरयोषिताम्॥ निरीक्षणेनाभिनंदन्सस्मितेन ययौ हरिः॥३१॥ अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः॥ परेभ्यः शंकितः स्नेहात्प्रायुंक्त चतुरंगिणीम्॥३२॥ अथ दूरागताञ्च्छौरिः कौरवान्विरहातुरान्॥ सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान्प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः॥३३॥ कुरुजांगल पांचालाञ्छरसेनान्सयामुनान्॥ ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान्सारस्वतानथ॥३४॥ मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान्॥ आनर्तान्भार्गवोपागाच्छांतवाहो मनाग्विभुः॥३५॥
अकेला जान शत्रुओंकी शंकासे अपने स्नेहसे रक्षाके लिये थोडीसी सेना उनके साथ भेजदी, जिसमे हाथी घोड़े रथ पालकी पैदलथे॥३२॥ और आप चारों भाई बहुत कुरुवंशियोंसमेत पहुँचानेको संगचले, प्रेमप्रीतिकी जब बातें करते करते बहुत दूर निकलगये, तब विरहातुर कौरवोंको श्रीकृष्णजीने हस्तिनापुर को लौटा दिया और आप द्वारकाजीको चल दिये॥३३॥कुरु, जांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना किनारेके देश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्यदेश, सरस्वतीतीरके देश॥३४॥मारवाडसे बड़े सौवीर, आभीरदेश और और देशों में होतेहुए, आनर्तदेशमें जो
द्वारका के समीप है पहुँचे और घोडे थकजानेके कारण वहीं विश्राम किया॥३५॥जहाँ जहाँ सूर्यास्त होनेपर श्रीकृष्णने विश्राम किया वहॉ वहांके वासी. श्रीकृष्णजीके निकट आनआनकर भेंट पूजन करते थे, और परस्पर कहते थे, कि यही आदिपुरुषअविनाशी भूमिका भार उतारनेके लिये संसारमें जन्मले अपने भक्तों को सुखदेते हैं, जिनका दर्शन शिव विरंचि नारदादि देवताओंके ध्यानमें नहीं आता, उनका दर्शन हम लोगोंको बड़े भाग्य से प्राप्त हुआ, और धन्यभाग्य उन वृन्दावनके ग्वाल ग्वालिनियोंके हैं, जिन्होंने व्रजमें रहकर दिन रात इनके साथ आहार व्यवहार रास विलास किया, और इन्होंने ही कौरव पाण्डवों में महाभारत कराके कुरुवंशविध्वंस करादिया, कोई यह कहते थे कि यदुवंशियोंने पूर्व जन्ममें बड़ा उग्रतप किया होगा, जिसके प्रतापसे इनको अपना हितू और सम्बन्धी समझ दिन रात संग रहकर आनन्द भोगा, और उनको अनेक अनेक प्रकारका सुखदिया । और उन नगरनिवासियोंकी नारी बाँकेविहारीकी बाँकी झांकी देख मतवाली हो परस्पर कहती थीं, आली ! इस सांवली सूरत मोहनीमूरतने तो हमारे ऊपर ऐसी मोहनी डाली, न खानेकी, नपीनेकी, नसोनेकी, न जागने की, क्या करे क्या नकरें। किसी प्रकार मनको धैर्य नहीं होता, दूसरी सखी बोली—
अरी ‘तेरीतो एकही दिनमे यह गति होगई वह ब्रजनारी बिचारी कैसे जीती होंगी, जिन्होंने जन्मभर इन्हीके संग रास विलास किया, और सारी
तत्रतत्र ह तत्रत्यैर्हरिः प्रत्युद्यतार्हणः॥ सायं भेजे दिशं पश्चाद्भविष्टो गां गतस्तदा॥३६॥ इति श्रीमद्भा० प्र० दशमोऽध्यायः॥१०॥ सूत उवाच॥ आनर्तान्स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान्स्वकान्॥दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥१॥
अवस्था इनहीके नेग लगादी, उनकी क्या गति होगी? हम तो एकही इनकी तिरछी चितवन देख तिरछी होगईं, और एक सखी बोली- आली ! जो यह वनमाली सदा यहां रहें तो हमारा मनोरथ पूर्णहो. एक बोली, अरी! हमारे ऐसे भाग्य कहा हैं. एक बोली—प्यारी ! अभीसे तो हारीहारी बातें मतकरै, अभी तो कुंजविहारी तुम्हारी आँखोंके आगेही फिर रहे हैं. एकबोली—अरी! कहीं इनके फंदे में अपना मन मत फँसादेना यह बड़ेकपटी हैं, जो राधाही अपनीप्यारीको वनमें अकेली छोड़कर चले गये तो और किसके होंगे ? सखी तू नहीं जानती यह सच्ची प्रीति के प्रेमी हैं, द्रौपदीकी कैसी लाज रक्खी, गजको ग्राहसे कैसा बचाया. रुक्मिणीके बुलानेसे कैसे पहुँचे, प्रह्लाद के हेतु खंभ फाडकर कैसे प्रकटे, भारत में भारती के अण्डे कैसे बचाये ? इस प्रकार सब स्त्री पुरुष हरिके गुण गाय गाय आनन्दित होते थे, हे शौनकऋषि ! ऐसे ही चलते चलते श्रीकृष्णचन्द्र आनर्तदेशमें पहुँचे जो द्वारकाके समीपही है, वहां घोडे थक गये और उसी स्थानपर द्वारकाधीश ने वास किया॥३६॥इति श्रीभागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां श्रीकृष्णस्थाना नर्तदेशागमनो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥दोहा-एकादश अध्याय में, कृष्ण द्वारकाचन्द । जाय द्वारकापुरीमें, दियो सबहिं आनन्द॥११॥श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने
समृद्ध आनर्तदेशसे चल द्वारकाके निकट जाम यदुवंशियोंका विपाद शान्त करने को पांचजन्य शंख बजाया॥१॥ जिसका श्वेत उदर श्रीभगवानके (अधरकी ललाईसे लाल होगया, कमलसदृश हस्तसम्पुट में धरा हुआ ऐसा शोभायमान दिखाई देताथा, जैसे लाल कमलके समूहमें राजहंस शोभित होता है॥२॥जगत् के भय नाश करनेवाले शंखकी धुनि सुन, कृष्णदर्शनाभिलाषी प्रजा कृष्णचन्द्रका आगमनजान सन्मुखचलें॥३॥और श्रीकृष्णचन्द्रको बड़े आदर सत्कारसे भेंटदी, जैसे कोई सूर्यनारायणको दीपदानदेता है, भगवान् तो आप आत्माराम पूर्णकाम हैं, निज लाभसे
स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽप्युरुक्रमस्याऽधरशोणशोणिमा॥ दाध्मायमानः करकंजसंपुढे यथाब्जखंडे कलहंस उत्स्वनः॥२॥ तमुपश्रुत्य निनदं जगद्भयभयावहम्॥ प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः॥३॥ तत्रोपनीतवलयो रवेर्दीपमिवाऽऽदृताः॥ आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा॥४॥ प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुर्हर्षगद्गदया गिरा। पितरं सर्वसुहृदमवितारमिवार्भकाः॥५॥ नताः स्म ते नाथ सदांघ्रिपंकजं विरिंचवैरिंचसुरेंद्रवंदितम्॥परायणं क्षेममिहेच्छतां परं न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः॥६॥ भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन त्वमेव माताऽथ सुहृत्पतिः पिता॥त्वं सद्गुरुर्नः परमं च दैवतं यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम॥७॥ अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम्॥ प्रेमस्मितस्निग्धनिरीक्षणाननं पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम्॥८॥
नित्य प्रसन्न हैं॥४॥ प्रसन्नवदनसे अत्यन्त हर्षित हो गद्गदकण्ठसे मधुर वचन बोले. जैसे सब सुहृद रक्षक पितासे बालक मीठे बोलै हैं॥५॥ हे नाथ ‘ब्रह्मा, शिव, सनकादिकदेवता इन्द्रसे नमस्कृत कुशलकी इच्छा वालों को परम आश्रयदायक जहां कालका सामर्थ्य नहीं ऐसे आपके चरणकमलको सदा नमस्कारक हैं ॥६॥हे विश्वभावन। हम सबकी उत्पत्ति आपहीसे है, तुमहीं माताहो तुमहीं मित्रहो, तुमही पतिहो, तुमहीं पिताहो, तुमहीं सद्गुरुहो, तुमही हमारे परमदेवता हो, जो हम सब तुम्हारी सेवा करके कृतार्थ होते हैं ॥७॥ स्वर्गवासी देवताओंका तो दूरसेही दर्शन होता है और जिसमें
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* शंका—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका गुरु एकही होताहै, चाहे दुष्ट हो, चाहे महात्मा हो, परन्तु गुरु नारायणकी समान हैं, तीन लोकमें ब्रह्माकी बनाई हुई सब वस्तु अनेक प्रकारकी देख पडती हैं, परन्तु गुरुओं का बहुत होना कभीभी कोई प्राणीं नहीं देखता, जो कोई सज्जन ऐसा कहे कि दत्तात्रेयने चौबीस २४ गुरु किये तो यह बात सत्य है, परन्तु दत्तात्रेयने चौवीसका लक्षण ग्रहण किया. चौबीस जनोंने दत्तात्रेयको मंत्र उपदेश नहीं किया, उपदेश देनेवालेको शास्त्र में गुरु कहतेहैं उपदेश देनेवाला दत्तात्रेयका एक गुरु दत्तात्रेयका मनया, ऋपियोंनेभी कहा है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको गुरु एक करना चाहिये-
सब प्रकारकी सुन्दरताई, और प्रेमभरी मुसकान, मनोहर वचन, बाँकी चितवन सहित आपके मुखको सदा देखे हैं, इस कारण हम ऐश्वर्यवान् हैं ॥८॥हे अंबुजाक्ष ! हे अच्युत ! जब आप हस्तिनापुरको अथवा मथुराको अपने इष्टमित्रों को देखने को पधारो हों, वह समय करोड वर्षके समान हमको व्यतीत होता है, जैसे सूर्यके विना नेत्रोंसे कुछ नहीं दीखता, ऐसे हमारी गति होजाती है ॥९ ॥प्रजाकी मधुर मधुर वाणी सुन सुनकर
यर्ह्यंबुजाक्षाऽपससार भो भवान्कुरून्मधून्वाऽथ सुहृद्दिदृक्षया ॥ तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाऽच्युत ॥९॥ इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः॥शृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन्प्राविशत्पुरीम्॥१०॥ मधुभोजदशार्हार्हकुकुरांधकवृष्णिभिः॥आत्मतुल्यबलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥११ ॥
श्रीकृष्ण भक्तवत्सलने आनन्दसहित सबको अनुग्रहकी दृष्टिसे देन कुशल क्षेम वूझते बूझते द्वारका पुरीमें प्रवेश किया ॥१० ॥अपने समान जिनमें बल ऐसे, मधु, भोज, दशाई, कुकुर, अंधक, वृष्णि वंशोत्पन्न यादव जैसे भोगवतीपुरीकी नाग रक्षा करते हैं उसी भाँति वह द्वारकापुरीकी
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–लोक, शास्त्र तो गुरु एकही होना कहता है तो फिर द्वारकावासी प्रजाने श्रीकृष्णको क्यों कहा कि आप हमारे सबके सद्गुरुहें । इस बात से ऐसाभी जानाजाता है कि असत् गुरुभी होतेहोंगे, जैसे पाप पुण्य, जन्म मरण, हानि लाभ, यश अपयश, झूठ सत्य, रात दिन आदिकी जोडी हैं, इसी प्रकार सत् असत्कीभी जोडी है ?
उत्तर—त्रिलोकीके चर अचरके लिये कृष्णभगवान् ने अवतार नहीं लियाथा, जब देवताओंको राक्षसोंने बहुतही दुःख दिया तब विष्णुभगवान् ने कुछ दिनोपरान्त श्रीकृष्ण अवतार धारकर चर अचरकी, रक्षाकी और यदुवशियोंकी रक्षा तो सब प्रकारसे निशि दिन करतेही रहे, और द्वारकावासी मनुष्योंको गर्गमुनि सदा यही शिक्षा करते रहे, कि तुम सब श्रीकृष्णचन्द्रको परब्रह्म जानो, इनसे अधिक और कोई दूसरा देवता त्रिलोकीमें नहीं है, इस प्रकार गर्गमुनिके कहे हुए वाक्योंको सब प्रजाने अपने अपने हृदयमें बसालिया, और त्रिलोकी के सब पढार्थीको हृदयसे त्याग दिया, और वेदशास्त्र के अनुसार चलनेलगे, यह कर्म करना योग्यहै यह कर्म करना अयोग्य है ऐसा विचारकर शुद्धचित्तको सब प्रजा गण अपने मनमें यह जानने लगे कि जो जो वस्तु समारमें ब्रह्माने रची है वह सब श्रीकृष्णमयहैं, उन सर्वोको कृष्णरूप जानतेथे, त्रिलोकीके चर अचरको कृष्णरूप जानके, आप हमारे सबके सद्गुरु हो, ऐसे वाक्य द्वारकावासी प्रजागण कहते थे \।
रक्षा कर रहे हैं॥११॥ जिस द्वारकापुरीमें सब दिन वसंत ऋतुही बनी रहे है सब प्रकार के जिसमें वन उपवन आराम शोभित हैं, जिसमें सब, ऋतुओके पुष्प खिले पुण्यदायक वृक्ष लतामंडप शोभित हैं, फल प्रधान होंय वह उद्यान कहावे हैं, और पुष्प प्रधान होय वह उपवन कहाता है, खेलनेके अर्थ जो वन है उसको आराम कहते हैं यह जहाँ शोभित हैं और तालों में कमलोंकी शोभा न्यारीही हो रही थी॥१२॥ गोपुर द्वारमार्ग में उत्सव होरहा है तोरण बन्दनवारे बॅधीहैं, चित्र विचित्र गरुडचिह्न अंकित ध्वजा लग रही हैं, जयदायक यंत्र जिसमें कढे ऐसे बड़े बडे झण्डे जहा तहाँ फहराय रहे हैं, जिनकी ओटसे धूम धोरे नहीं आती॥१३॥ महामार्ग, छोटेमार्ग, दूकानदारोंके मार्ग, चौराहे, सब झाडे बुहारे स्वच्छहैं
सर्वर्तुसर्वविभवपुण्यवृक्षलताश्रमैः॥ उद्यानोपवनारामर्वृतपद्माकरश्रियम्॥१२॥ गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुकतोरणाम्॥ चित्रध्वजपताकाद्यैरंतःप्रतिहतातपाम्॥१३॥ संमार्जित महामार्गरथ्यापणकचत्वरम्॥ सिक्तां गंधजलैरुप्तां फल पुष्पाक्षतांकुरैः॥१४॥ द्वारिहारि गृहाणां च दध्यक्षतफलेक्षुभिः॥ अलंकृतां पूर्णकुंभैर्वलिभिर्धूपदीपकैः॥१५॥ निशम्य प्रेष्टमायांतं वसुदेवो महामनाः॥ अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चाद्भुतविक्रमः॥१६॥ प्रद्युम्नश्चारुदेष्णश्च सांबो जाववतीसुतः॥ प्रहर्षवेगोच्छ्वसितशयनासनभोजनाः॥१७॥ वारणेंद्र पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः स सुमंगलैः॥ शंखतूर्यनिनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः॥ प्रत्युज्जग्मूरथैर्हृष्टाः प्रणयागतसाध्वसाः॥१८॥ वारमुख्याश्च शतशो यानैस्तद्दर्शनोत्सुकाः॥ लसत्कुंडल निर्भात कपोलवदनश्रियः॥१९॥
उनपर सुगन्धियों का जल छिडका हुआ है, फल, पुष्प, अक्षत, दूर्वा अंकुर, जहाँ तहाँ बिखर रहे हैं॥१४॥ मंदिरोके द्वारद्वारपर, दधि, अक्षत, चन्दन, पान, सुपारी, फल, फूल, कञ्चनके कलश, बलिदान, धूप, दीप, शोभा दे रहे हैं. ऐसी द्वारकाकी शोभा होरही है॥१५॥ उस समय देवकी नन्दनका आना सुनकर महाबुद्धिमान, वसुदेव, अक्कूर, उग्रसेन, बलराम अद्भुत पराक्रमी सब आये॥१६॥ प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, जाम्बवतीसुत, साम्ब, अत्यन्त हर्षके मारे शयन, आसन, भोजन त्याग चलदिये॥१७॥ एक गजेन्द्र आगे कर, ब्राह्मण मंगल गाते शंख बजाते आते हैं, त्राह्मणों के वेदपाठका गम्भीर शव्द हो रहा है॥१८॥ रथपर बैठे श्रीकृष्णको देख नमस्कार दंडवत् कर स्तुति करनेलगे और जो बड़े बड़े यादवथे
वे श्रीकृष्णसे भेंटकर अत्यन्त प्रसन्न हुये॥१९॥ सहस्रों वेश्या श्रीकृष्णके दर्शनके लिये रथोंमें बैठकर आईं, तिनके सुन्दर सुन्दर कपोलोंपर कुण्डल अद्भुत शोभा दे रहे हैं॥२०॥ नवरस जाननेवाले नट, तालके संग नाचें वह नर्तक, गानेवाले गन्धर्व, पुराणवक्ता सूत, वंशों के जाननेवाले मागध, जैसा देखें वैसा कहैं वह उनका बन्दीजन यह सव यदुनाथके अद्भुत चरित्र गावैहैं॥२१॥ श्रीकृष्णजीने उन गुणियों और पुरवासियोंको आते देख यथाविधि आदर सन्मान किया॥२२॥ कोई शिरसे नवें, कोई वाणीसे नवें, कोई मिलें, कोई हाथ से हाथ मिलावैं, किसीको मुसकाकर देखा, चाण्डालतकका हृदयशान्त कर सबको यथायोग्य वर दिया॥२३॥ सूतजी वोले, कि हे ऋषिराज! जब श्रीकृष्णजी राजमार्गमें आये तब द्वारका की सब
नटनर्तकगंधर्वाः सूतमागधवंदिनः॥ गायंति चोत्तमश्लोकचरितान्यद्भुतानि च॥२०॥ भगवांस्तत्र बंधूनां पौराणामनुवर्तिनाम्॥ यथाविध्युपसंगम्य सर्वेषां मानमादधे॥२१॥ प्रह्नाभिवादनाश्लेषकर स्पर्शस्मितेक्षणैः॥ आश्वास्य चाऽऽश्वपाकेभ्यो वरैश्चाभिमतैर्विभुः॥२२॥ स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि॥ आशीर्भिर्युज्यमानोन्यैवैदिभिश्चाविशत्पुरम्॥२३॥ राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः॥ हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्र तदीक्षणमहोत्सवाः॥२४॥ नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम्॥ न वितृप्यति हि दृशः श्रियो धामांगमच्युतम्॥२५॥ श्रियो निवासौ यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम्॥ बाहवो लोकपालानां सारंगाणां पदांबुजम्॥२६॥ सितातपत्रव्यजनैरुपस्कृतः प्रसूनवर्षैरभिवर्षितः पथि॥ पिशंगवासा वनमालया बभौ घना यथाकडुपचापवैद्युतैः॥२७॥
स्त्रिया उनका महाउत्सव देखनेको कोठोंपर जा बैठीं॥२४॥ श्रीजीका धाम जिनका अंग ऐसे अच्युतको नित्य देखनेवाले द्वारकावासियोंकी दृष्टि तृप्त नहीं हुई॥२५॥ लक्ष्मी जिनके हृदयमें निवास करें, जिनका मुख सब प्राणियोंकी दृष्टियोंकी सौंदर्यतामृतपानार्थ पात्र है जिनके बाहु लोकपालोंका निवासस्थान हैं॥२६॥ शुक्ल छत्र चमरकी शोभा निरालेही ढंगकी है, मार्ग में पुष्पोंकी वृष्टि औरही रंग दिखा रही है, श्याम अंगपर पीतांबर वनमालाकी छबि और ही प्रकारकथी, यह सब छबि मिलकर कैसी ज्ञात होतीथी, मानों सूर्य, तारागण, इन्द्रधनुष, बिजली, यह एक संग विराजमान हैं. शुक्लछत्रसे सूर्य की उपमादी, पुष्पवृष्टिसे नक्षत्रोंकी, चन्द्रमासे मण्डलाकार चमरकी, धनुषसे वनमालाकी, बिजलीसे पीतांबरकी यह अद्भुतोपमा कहावे हैं॥२७॥
राजभवनमें आनकर अपनी माता से मिले फिर पिताके मंदिर में जाकर पिताको दंडवत्कर शिरसे सातों देवकी आदि माताओंकी आनन्दित हो वन्दनाकरी॥२८॥ उन्होंने पुत्र को गोदी में बैठाया, स्नेहसे स्तनोंमेंसे दूध टपकने लगा, हर्षसे विह्वल होकर दहने नेत्रोंके जलसे सींचा, “पीछे हस्तिनापुरकी कुशल और महाभारतका वृत्तान्त और पाण्डवोंका विजय सब ब्योरेवार सुनाया, पाण्डवोंका विजय सुन वसुदेव देवकी प्रसन्न हुए परन्तु गान्धारीके पुत्रोंका अरु और और महारथियोंका मरण सुन शोक हुआ”॥२९॥ सब काम से निश्चित हो रनवासमें प्रवेश किया जहाँ सोलह सहस्र एकसौ आठ रानी छज्जोंपर बैठी देख रही थीं॥३०॥ श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन कर बहुत आनन्दहो जैसे नियमसे व्रती बैठीं थीं वैसेही बाँकेविहारीकी बाँकी छबि देख
प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः॥ ववंदे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा॥२८॥ ताः पुत्रमंकमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधराः॥ हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुर्नैत्रजैर्जलैः॥२९॥ अथाविशत्स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम्॥ प्रासादा यत्र पत्नीनां सहस्राणि च षोडश॥३०॥ पत्न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं विलोक्य संजातमनोमहोत्सवाः॥ उत्तस्थुरारात्सहसाऽऽसनाशयात्साकं व्रतैव्रीडितलोचनाननाः॥३१॥ तमात्मजैर्दृष्टिभिरंतरात्मना दुरंतभावाः परिरेभिरेपतिम्॥ निरुद्धमप्याऽस्रवदंबुनेत्रयोर्विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात्॥३२॥ यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतस्तथापितस्यांघ्रियुगं नवंनवम्॥ पदेपदे का विरमेत तत्पदाच्चलापि यच्छ्रीर्नजहाति कर्हिचित्॥३३॥ एवं नृपाणां क्षिति भारजन्मनामक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम्॥ विधाय वैरं श्वसनो यथाऽनलं मिथो वधेनोपरतो निरायुधः॥३४॥
लज्जितनेत्र किये सोलह शृंगारकर उठधाई “याज्ञवल्क्यस्मृति में लिखा है, क्रीडा करना, मलकै शिर धोना, समाजमें जाना, उत्सव देखना, हॅसी करनी, परायेघर जाना, जिसका पति परदेशमें होय उस स्त्रीको यह छःकाम नहीं करना चाहिये”॥३१॥सूतजी बोले कि हे शौनकमुनि! पुत्रोंसे दृष्टि अंतःकरण से, जिनका श्रीकृष्ण में अत्यन्तभाव है अपने पति से मिलीं, प्रेमकी विह्वलतासे लज्जित नेत्रोंका जल नहीं रुकसका, ऑसू बह निकले॥३२॥ यद्यपि श्रीकृष्ण उनके पास एकान्त में रहते हैं तौभी उनके दोनों चरणों का नवीन २ संगम क्षण क्षणमें कौन भूलेगा जिनके धोरेसे चञ्चल लक्ष्मीभी नहीं जाती॥३३॥ पृथ्वीपर भाररूप जिन राजाओंके जन्म जिनकी अक्षौहिणी सेनाका चारों ओर तेज फैलरहाथा
ऐसे राजाओंका परस्पर वैर कराकर वध करादिया और आप उपरामको प्राप्त हुये, जैसे बांसके वनमें आपस में बांससे बांस घिसने से अनि उत्पन्नहो, वनको जलाकर आपही शान्त होजाती है॥३४॥ सो यह अपनी मायासे मनुष्यलीला करनेको अवतार धारण करते हैं, स्त्रीरत्नसमूहमें स्थित भगवान् प्राकृत संसारी जीवोंकी नाई रमण करने लगे॥३५॥ जिन स्त्रियोंके गंभीर अभिप्राय, मनोहर वचन, सुन्दर लाज सहित हास्यसे ताडित महादेवजीने मोहित होकर अपना पिनाक धनुष त्यागन किया, ऐसी वह स्त्री श्रीकृष्णजीकी इन्द्रियोंको वश करनेको कपट भावसे समर्थ न हुईं॥३६॥ उन श्रीकृष्णजीको यह प्राकृत लोग अपने सदृश, अपना साथी, अपना मित्र मनुष्यही माने हैं, वह आदि पुरुष अविनाशी
स एष नरलोकेऽस्मिन्नवतीर्णः स्वमायया॥रेमे स्त्रीरत्नकूटस्थो भगवान्प्राकृतो यथा॥३५॥ उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहासव्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम्॥ संमुह्य चापमजहात्प्रमदोत्तमास्ता यस्येंद्रियं विमथितं कुहकैर्नशेकुः॥३६॥ तमयं मन्यते लोको ह्यसंगमपि संगिनम्॥ आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः॥३७॥ एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्वणैः॥ न युज्यतेऽसदात्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया॥३८॥ तं मेनिरेऽवला मूढाः स्त्रैणंचाऽनुव्रतं रहः॥ अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा॥३९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे प्रथमस्कंधे एकादशोऽध्यायः॥११॥ शौनक उवाच॥ अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीष्णस्तेजसा॥उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाऽऽजीवितः पुनः॥१॥
श्रीकृष्णचंद्र किसीका संग नहीं करते हैं, और जो उनको अज्ञानी व्यापारी विषयी माने हैं सो मूर्ख हैं॥३७॥ ईश्वरकी यही ईश्वरता है, कि मायामें स्थित होकर, असत् सुख दुःखादिक मायाके गुणोंसे लिप्त न होना. जैसे मायाश्रया बुद्धि मायाकी उपाधिमें लिप्त नहीं होती है॥३८॥ वह मूर्ख स्त्रियां श्रीकृष्णके प्रभावको न जानकर स्त्रियोंके प्रेमी एकान्तविहारशील अपने पतिको मानतीथीं, जैसे अहंकारवृत्तियुक्त बुद्धि ईश्वरको स्वाधीन मानती है॥३९॥ इति श्रीभागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां द्वारकाप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥ दोहा—
इस द्वादश अध्यायमें प्रगटे कुरुकुलचन्द॥ धर्मध्वज कलिमलदलन, पूरण आनंद कन्द॥१२॥ इतनी कथा सुन शौनक मुनि
बोले—हे सूतजी महाराज! अश्वत्थामाके छोड़े ब्रह्मास्त्रसे जो उत्तराका गर्भ नष्ट होगयाथा, उसे फिर ईश्वरने बचादिया॥१॥ उसका आश्चर्ययुक्त जन्म, कर्म, राज्यस्थिति और किसप्रकार शरीर त्यागन किया? सो कहो॥२॥ आप इसके कहने योग्य हैं. सो आप हम सुननेकी इच्छा करनेवाले श्रद्धालुओंको सुनाओ, जो कुछ शुकदेवजी ने वर्णन किया है॥३॥ सूतजी बोले कि, हे शौनकादिकमुनि! राजा युधिष्ठिर पिताके समान प्रजाको सुखदेते और राज्यका पालन करते थे, सब कामकी चाहना त्याग श्रीकृष्णके चरणकमलकी सेवा करतेथे॥४॥ सम्पत्ति यज्ञ, लोक, स्त्री, भाई, पृथ्वी, जम्बूद्वीपका राज्य, यश, स्वर्गतक पहुॅचा॥५॥ हे शौनकमुनि! जिनका मन परमेश्वरमें लगरहा है, उन्हें देवता
तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः॥ निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान्यथा॥२॥ तदिदं श्रोतुमिच्छामि गदितुं यदि मन्यसे॥ ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः॥३॥ सूत उवाच॥अपीपलद्धर्मराजः पितृवद्रंजयन्प्रजाः॥ निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादाब्जसेवया॥४॥ सम्पदः क्रतवो विप्रा महिषी भ्रातरो मही॥ जंबूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम्॥५॥ किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुंदमनसो द्विजाः॥ अधिजहुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे॥६॥ मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनंदन॥ ददर्श पुरुषं कंचिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा॥७॥ अंगुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम्॥ अपीच्यदर्शनं श्यामं तडिद्वाससमच्युतम्॥८॥ श्रीमद्दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकांचनकुंडलम्॥ क्षतजाक्षं गदापाणिमात्मनः सर्वतो दिशम्॥९॥ परिभ्रमंतमुल्काभ्यां भ्रामयतं गदां मुहुः॥ अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः॥ विधमंतं संनिकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ॥१०॥
ओंके प्रिय कामादिकभी आनन्द नहीं देते. जैसे भूखोंको पुष्पमाला चन्दन इत्यादि सुख नहीं देते, ऐसेही राजा युधिष्ठिरको जानो॥६॥ भृगुनन्दन! जब माताके गर्भ में भी अस्त्र के तेजसे उत्तरासुत तपितहुए, तब एक पुरुष दृष्टि आया॥७॥ अंगुष्टमात्र निर्मलकान्ति, सुवर्णसमान मस्तक, अति सुन्दर श्यामवर्ण बिजली सदृश पीताम्बर पहरे श्रीअच्युत भगवान को देखा॥८॥ शोभायमान लंबी लंबी चार भुजा, मकराकृतिकुण्डल, लाल लाल नेत्र, गदा हाथमें लिये चारों ओर घूमते फिरे हैं॥९॥ एक ओर उल्कासी घूमती दीखै, अत्यन्त श्रेष्ठ भक्तोंकी रक्षामें परायण ऐसी
कौमोदकी गदाको वारंवार घुमा रहेहैं अपनी गदासे ब्रह्मास्त्र के तेजका नाश करदिया, जैसे सूर्यके तेजको कुहर नाश करेंहैं, चारों ओरको नेत्र खोलकर देखा कि यह मेरे निकट कौन फिरैहे॥१०॥ धर्मरक्षक देह विभु भगवान् उस ब्रह्मास्त्रके तेजको दूरकर, दशमासके वालककोदेखते देखते तहां अन्तर्द्धान होगये॥११॥ तब सब गुण सम्पन्न अनुकूल ग्रहोंके उदय के समय, वंशधारी पाण्डुके वंशमें जन्म लिया मानो फिर पाण्डुराजा संसारमें जन्मे॥१२॥ प्रसन्नमन राजायुधिष्ठिर धौम्य कृपादिक ब्राह्मणों को बुलाकर बालकके जन्मसमयके सर्व कर्म कराये, स्वस्तिवाचन मंगलाचरण कराये॥१३॥ जबतक नालच्छेदन नहीं होता तबलों सूतक नही लगता, नालकटनेके पीछे सूतक लगे है, सो सुवर्ण, गो, धरती, ग्राम, हाथी,
विधूय तदमेयात्मा भगवान्धर्मगुग्विभुः॥ मिषतो दशमास्यस्य तत्रैवांतर्दधे हरिः॥११॥ ततः सर्वगुणोदकं सानुकूलग्रहोदये॥ जज्ञे वंशधरः पांडोर्भूयः पांडुरिवौजसा॥१२॥ तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धाम्यक्कृपादिभिः॥ जातकं कारयामास वाचयित्वा च मंगलम्॥१३॥ हिरण्यं गां महीं ग्रामान्हस्त्यश्वान्नृपतिर्वरान्॥ प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित्॥१४॥ तमूह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयानतम्॥ एप ह्यस्मिन्प्रजातंतौ कुरूणां पौरवर्षभ॥१५॥ दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुपि॥ रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना॥१६॥ तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः॥ भविष्यति न संदेहो महाभागवतो महान्॥१७॥ युधिष्ठिर उवाच॥ अप्येष वंश्यात्रा जर्षीन्पुण्यश्लोकान्महात्मनः॥ अनुवर्तिता सुयशसा साधुवादेन सत्तमाः॥१८॥
घोड़े, श्रेष्ठ समय जानकर याचकोंको देनेलगे, सुन्दर सुन्दर भोजन ब्राह्मणो को जिमाये, पुत्र के उत्पन्न होने के समय तीर्थमें दान करने के समान दान किया॥१४॥ उससमय प्रसन्नब्राह्मण नम्रीभूत राजा युधिष्ठिरसे बोले हे पुरुकुलमुकुटमणि। यह पुत्रभी प्रजापालनमें आपकी समान होगा॥१५॥ कोई राजा इसके सन्मुख स्थित न होगा, यह बालक ऐसे समय में और शुद्ध दिन में उत्पन्न हुआ है, तुम्हारे सबके ऊपर अनुग्रहके लिये सर्वव्यापक, सबके उत्पत्तिकर्ता, प्रभु विष्णुभगवान् ने इसकी रक्षा करी है॥१६॥ इसलिये इसका नाम लोकमें विष्णुरात होगा, वडा यशस्वी अरु महाभागवत होगा इसमें सन्देह नहीं है॥१७॥ श्रीयुधिष्टिरजी बोले कि हे सत्तमो! पुण्यश्लोक महात्मा राजा ऋषियोंके वंशके अनुसार
साधुवादसे उनका अनुवर्ती होगा कि नहीं होगा सो कहो?॥१८॥ ब्राह्मण वोले, कि हे पार्थ! यह पुरुषप्रजारक्षक साक्षात् इक्ष्वाकुकी सदृश, ब्रह्मण्य सत्यवादी दाशरथि रामचंद्र के समान होगा॥१९॥ यह बड़ा दानी शरणागतका प्रतिपालक राजा शिवि उशीनरदेशवासीकी नाई होगा, उशीनरदेशवासी राजाशिविने अपना मांस सिकरे को देकर शरणागत कपोत की रक्षाकरी। अपनोंका यश संसारमें विस्तारित करेगा, भरत समान याज्ञिकोंमें यश
ब्राह्मणा ऊचुः॥ पार्थं प्रजाऽविता साक्षादिक्ष्वाकुरिव मानवः॥ ब्रह्मण्यः सत्यसंधश्च रामो दाशरथिर्यथा॥१९॥ एषदाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिविः॥ यशो वितनिता स्वानां दौष्यंतिरिव यज्वनाम्॥२०॥ धन्विनामग्रणीरेप तुल्यश्चाऽर्जुनयोर्द्वयोः॥ हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः॥२१॥ मृगेंद्र इव विक्रांतो निषेव्यो हिमवानिव॥ तितिक्षुर्वसुधेवाऽसौ सहिष्णुः पितराविव॥२२॥ पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः॥ आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः॥२३॥
विस्तारी होगा॥२०॥ धनुषधारियों में अग्रणी सहस्रार्जुन अर्जुनकी नाई, अनिके समान दुर्द्धर्ष, सागरके समान गम्भीर होगा॥२१॥ सिंहकी समान विकराल, धैर्यमें हिमाचलकी सदृश, वसुधाकी नाईं सहनशील, अरु माता पिताकी नाई सहने वाला होगा॥२२॥ साम्यभावमें ब्रह्मा के समान
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* शंका—
परीक्षितका जन्महुआ तव परीक्षित कैसा होगा, एसी भविष्य कालकी बात युधिष्ठिरने ज्योतिषी ब्राह्मणोंसे पुछी, तव ज्योतिषी बोले कि हे राजा युधिष्ठिर! यह बालक वराबुद्धिमान् होगा और सव संसारको ब्रह्माके समान दृष्टिसे देखेगा, दानदेनेमें शिव महादेव के समान उदारचित्त होगा रमापति विष्णु भगवानके समान सब प्राणियोंका स्वामी होगा, संसारके उत्पत्ति, पालन, संहारके करनेवाले जो तीन देवता हैं, उनकी समताकी उपमा कभी भी किसीने नहीं दी, ब्राह्मणोने तीनों देवताओकी उपमा परीक्षितको दी, परन्तु ऐसी उपमा संसारमें आजतक किसीको भी नही दीगई, और ऐसी उपमा हमने कभी सुनी भी नहीं फिर ऐसी उपमा क्योंदी?
उत्तर—“पितामहसमरसाम्ये” इस श्लोक में ब्राह्मणोंने ब्रह्माको पितामह नहीं कहाथा, शिवजीको गिरीश नहीं कहाथा, विष्णुको रमाश्रय नहीं कहाथा पाच पाण्डव धर्मराज, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, इनका बालक जो परीक्षित अपने दादा के समान संसारको एक दृष्टिसे देखेगा ऐसा मुनियोंनें कहाहै, ब्रह्मा के समान नहीं कहा है जैसा भूमिमें सुन्दरकर्म करनेवाला गिरीश है, हिमवानपर्वतकी नाई चलायमान सहदेव नहीं होता जैसे दूसरेको चर देने में बड़ा उदारहे, वैसे परीक्षितको भी गिरीश कहा, हिमवानके समान देनेमें उदार होवेगा, रमानाम प्रकाशका है, उस प्रकाशका स्वामी सूर्यहै, इसीलिये सब प्राणियोंका स्वामी सूर्यहै, सूर्य विना प्राणीका निर्वाह नहीं होता, मुनियोंने कहाथा कि जैसे सूर्य उदय होकर संसारको आनन्द देता है, वैसेही परीक्षितभी राजा होकर अपनी प्रजाको आनन्द देगा, ऐसा मुनियोंने कहा था कुछ ईश्वरके तुल्य परीक्षितको नहीं कहाथा॥
होगा, शीघ्र प्रसन्न होने में महादेवकी सदृश, समस्त जीवोंके आश्रय भगवानकी नाई रहेगा॥२३॥ सव सद्गुणों का माहात्म्य यह कृष्णभक्त होगा, उदारतामें रंतिदेव और धर्मात्माओंमें ययातिके समान होगा॥२४॥ धैर्यमें वलिसमान, समतामें श्रीकृष्णचन्द्रजीकी नाई, प्रह्लादकी नाई सब सत्पदार्थग्राही होगा और अश्वमेध करके वृद्धजनोंकी उपासना करैगा॥२५॥ राजर्षियोंका उत्पन्न कर्त्ता, पाखण्डियोंका शिक्षक, भूमिके व धर्मके कारण से यह कलियुगको पकडैगा॥२६॥ ब्राह्मणके पुत्रके शापसे तक्षक सर्पके काटने से मृत्यु होगी, सबका संग त्यागकर श्रीमद्भागवत सुन, श्रीवैकुण्ठनाथके वैकुण्ठको प्राप्त होगा॥२७॥ आत्माकी यथार्थता जानकर व्यासपुत्र शुकदेव से ज्ञानसुन, श्रीगंगाजी में देहत्याग अभयपदवीको
सर्वसद्वणमाहात्म्य एष कृष्णमनुव्रतः॥ रंतिदेव इवोदारो ययातिरिख धार्मिकः॥२४॥ धृत्या बलिसमः कृष्णे प्रह्लाद इव सद्ग्रहः॥ आहर्तेषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः॥२५॥ राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम्॥ निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात्॥२६॥ तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात्॥ प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसंगः पदं हरेः॥२७॥ जिज्ञासितात्मयाथात्म्यो मुनेर्व्याससुतादसौ॥ हित्वेदं नृप गंगायां यास्यत्यद्धाऽकुतोभयम्॥२८॥ इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः॥ लब्धोपचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान्गृहान्॥२९॥ स एष लोकविख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः॥ गर्भदृष्टमनुध्यायन्परीक्षेत नरेष्विह॥३०॥ स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्लइवोडपः॥ आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम्॥३१॥ यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया॥ राजाऽलब्धधनो दध्यावन्यंत्र करदंडयोः॥३२॥तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः॥ धनं प्रहीणमाजहुरुदीच्यां दिशि भूरिशः॥३३॥
प्राप्त होगा॥२८॥ ज्योतिषी ब्राह्मण पण्डित लोग यह वचन राजासे कहकर पूजा दक्षिणा लेकर अपने अपने स्थानोंको चलेगये॥२९॥ और संसारमें नाम परीक्षित विख्यात हुआ, क्योंकि गर्भ में श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन किया, और उनहीके ध्यानमें रहकर सब जनोंकी परीक्षा कर॥ सो राजकुमार दिन दिन ऐसे बढने लगे जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रमा बढता हैं, उसी समान पूर्ण हुए॥३१॥ सजातियोंके द्रोहछासे अश्वमेधयज्ञ करनेके लिये, राजाको कर दण्डके विना धन प्राप्तहुआ॥३२॥ यह प्रयोजन जानकर भगवान्के भेजे, सब भाई
उत्तरकी दिशा से बहुत धन लाये॥३३॥ उस धनसे सब सामग्री उपस्थितकर धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने तीन अश्वमेवयज्ञ किये, जातिके द्रोहसे डरकर यज्ञोंसे भगवान् वासुदेवका पूजन किया॥३४॥ राजा युधिष्ठिरने श्रीकृष्णचन्द्रको बुलाय ब्राह्मणोंसे यज्ञकराय अपने सुहृद जनोंके प्यारकी इच्छा से कुछ मास वहां निवास किया॥३५॥ इतनी कथा सुनाय सूतजी बोले कि हे ब्रह्मन्! कुछ दिन पीछे राजा युधिष्ठिरसे आज्ञा ले, द्रौपदीसे वृझ, भाई बंधु मित्रोंसे बिदा हो, नौकर चाकर यादवों समेत श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द द्वारकापुरीको चलेगये॥३६॥ इति श्रीभागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे परीक्षिजन्मोत्सवो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ दोहा - त्रयोदशम अध्याय में, बिदुरकथाउ
तेन संभृतसंभारो लब्धकामो युधिष्ठिरः॥ वाजिमेधैस्त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजद्धरिम्॥३४॥ आदृतो भगवान्राज्ञा याज यित्वा द्विजैर्नृप॥ उवास कतिचिन्मासान्सुहृदः प्रियकाम्यया॥३५॥ ततो राज्ञाऽभ्यनुज्ञातः कृष्णया सह बंधुभिः॥ ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन्सार्जुनो यदुभिर्वृतः॥३६॥ इति श्रीमद्भा० प्रथम० द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ सूत उवाच॥ विदु रस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम्॥ ज्ञात्वाऽगाडास्तिनपुरं तयाऽवाप्तविवित्सितः॥१॥ यावतः कृतवान्प्रश्नान्क्षत्ता कौषारवाग्रतः॥ जातैकभक्तिर्गोविदे तेभ्यश्चोपरराम ह॥२॥ तं बंधुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः॥ धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा॥३॥ गांधारी द्रौपदी ब्रह्मन्सुभद्रा चोत्तरा कृपी॥ अन्याश्च जामयः पांडोर्ज्ञातयः संसुताः स्त्रियः॥४॥ प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम्॥ अभिसंगम्य विधिवत्परिष्वंगाभिवादनैः॥५॥
परान्त। धृतराष्ट्र के मोक्षको, वरणों सब वृत्तान्त॥१३॥ सूतजी बोले, कि हे ऋषियो! विदुरजी तीर्थयात्रामें मैत्रेयजीसे श्रीकृष्णचन्द्रकी गति सुनके हस्तिनापुर में आये, अरु जिस बात जानने की इच्छा थी सो सब पूरी हुई॥१॥ और विदुरजीने मैत्रेयजीके आगे जितने प्रश्न करे उनमें तीन चार प्रश्नसेही विदुरजीकी श्रीगोविन्दमें पूर्ण भक्ति हुई, सो उन प्रश्नोंसे उपराम हुआ॥२॥ हे ब्रह्मन्! अपने भाई विदुरजीको आता देख सब भाइयों समेत धर्मपुत्र, धूतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती॥३॥ गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी (द्रोणाचार्यकी स्त्री), जातिकी स्त्रियें, पुत्रसहित और स्त्रिये॥४॥ अत्यन्त हर्षसे जैसे देह में प्राण आवैं ऐसे आयेको सब बड़े आदर सत्कार से मिले॥५॥
विरहकी उत्कण्ठासे प्रेमके विवश होकर नेत्रोंसे जलधारा (प्रवाह) बहने लगी युधिष्टिरने हाथजोड़कर पूजनकर आसनपर बैठाला॥६॥ जब भोजनसे निश्चिंत हो आसनपर विश्राम किया, उस समय नम्रता से प्रणामकर उनके चरण दाबनेलगे, और यह बोले कि आपने हमारे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया जो इस समय आनकर दर्शन दिया॥७॥ हम पांचों भाई आपके पक्षरूपी छाया में पले, आप हमको कभी स्मरण करतेथे वा नहीं, जैसे पक्षी अपने पुत्रोंको अतिस्नेहसे पंखोंकी छाया में बढावैहैं, उसीरीति से आपने हमको बढ़ाया अरु हमारी माता सहित सब विपत्तियों से बचाया, विषसे, अग्निसे और अनेककठौर विघ्नोंसे रक्षा करी" जिस समय दुर्योधनादिक कौरवोंने हमको लोहके कोटमें बन्द करके यह विचार किया कि इनको भस्मकर डालें उस समय आपने कृपाकरकै पहिलेही सुरंग खुदवाकर हमको बचाया, हम कहांलों आपकी बड़ाई करें आप तो सदा हमारी सहाय
मुमुचुः प्रेमवाष्पौघं विरहौत्कंठ्यकातराः॥ राजा तमर्हयांचक्रे कृतासनपरिग्रहम्॥६॥ तं भुक्तवंतमासीनं विश्रांतं सुखमासने॥ प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च शृण्वताम्॥७॥ युधिष्ठिर उवाच॥ अपि स्मरथ नो युष्मत्पक्षच्छा यासमेधितान्॥ विपद्गणाद्विषाग्न्यादेर्मोचिता यत्समातृकाः॥८॥ कया वृत्त्या वर्तितं वश्चरद्भिः क्षितिमण्डलम्॥ तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले॥९॥ भवद्विधा भागवतास्तीर्थीभूताः स्वयं विभो॥ तीर्थीकुर्वेति तीर्थानि स्वांतःस्थेन गदाभृता॥१०॥ अपि नः सुहृदस्तात बांधवाः कृष्णदेवताः॥ दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते॥११॥
करते रहे”॥८॥ इस क्षितिमण्डलमें आपने कौन वृत्तिसे शरीरका निर्वाह किया, इस भारतवर्ष में पृथ्वीपर जितने तीर्थक्षेत्र मुख्य हैं, सो सब आपने किये॥९॥ आपसरीखे महात्माओंकी तीर्थयात्रा तीर्थोंपर कृपाकरनेके लिये है, कुछ अपने अर्थ नहीं। आप सरीखे भागवत तो आपही तीर्थरूप हैं, आपके दर्शन से तीर्थ भी पवित्र होजाते हैं। अपने अंतःकरणके निवासी गदाधारी भगवानसे, मलिन जनोंके कुसंगसे तीर्थभी मलिन होजाते हैं, उनको फिर सत्कर्म अनुष्ठानी, वेदान्ती, ज्ञानी, भगवद्भक्त, पवित्र, सत्त्वादि गुणयुक्त ब्राह्मण पवित्र करे हैं, भगवद्भक्तोंके सत्संगसे तीर्थभी पवित्र होजाते हैं॥१०॥ हे पितः! आपने बहुत तीर्थ किये, परन्तु द्वारकापुरीमें भी गयेथे वा नहीं क्योंकि हमारे सुहृद बान्धव श्रीकृष्णादिक यादवोंको आप भली भांति जानते हैं. हमको जबसे राज्यदेकर गये हैं तबसे उनका कुछ समाचार नहीं मिला, न जाने वह अपनी
पुरीमें कैसे हैं कैसे नहीं? सो कृपा करके कहो॥११॥ धर्मराजने जब यह बूझा तब विदुरजीने सब तीर्थोका वृत्तान्त कहा जैसा कुछ देखा था वैसा परन्तु यदुकुलके क्षय होनेका वर्णन नहीं किया॥१२॥ यह भलीभाँति निश्चय है कि जो बात अप्रिय है सहने योग्य नहीं है वह मनुष्यों को आपही प्रगट होजाती है. दयालु विदुरजीने अपने सामने उनका दुःखी देखना उचित न जानकर नहीं कहा॥१३॥ “जब रनवासमें स्त्रियोंने विदुरजीके आनेका वृत्तान्त सुना तब द्रौपदी आदिने अपने पास बुलाया अरु परमेश्वरका परम भक्त जानकर विदुरजीको दंडवत किया और उनके आनेसे बहुत प्रसन्न हुई. फिर विदुरजी धृतराष्ट्रके भवनमें जाय उन्हें और गान्धारीको दण्डवत करी तब धृतराष्ट्रने उन्हें उठाय हृदयसे लगाय नेत्रों में जल भरकर कहा—
हे भ्रातः! तुम्हारे जानेके पीछे मेरे ऊपर बड़ा कष्टपडा अरु हमारे सब पुत्र मारे गये, राज्य नष्ट होगया, यह बात सुनकर विदुरजीने
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत्समवर्णयत्॥ यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम्॥१२॥ नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम्॥ नावेदयत्सकरुणो दुःखितान्द्रष्टुमक्षमः॥१३॥ कंचित्कालमथावात्सीत्सत्कृतो देववत्सुखम्॥ भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत्सर्वेषां प्रीतिमावहन्॥१४॥
कहा हे भ्रातः! हरि इच्छा बलवान् है उसकी गति से किसीकी पार नहीं वसाती, परमेश्वरकी इच्छा इसी प्रकारथी. उन्होंने पृथ्वीका भार उतारनेके कारण संसार में अवतार लियाथा. दैवगति किसीसे जानी नहीं जाती अब धैर्य धारण करनेका समय है यह तो कहो कि राजा युधिष्ठिर तुम्हारा आदर सत्कार किसप्रकार करते हैं, धृतराष्ट्रने उत्तर दिया कि, युधिष्ठिरतो हमसे बड़ास्नेह रखता है मुझको अपने पिता और गान्धारीको महतारीकी समान मानता है और सब भाई भी हमसे अधिक रीति प्रीति रखते हैं परन्तु भीमसेन, युधिष्ठिर के पीछे हमको दुर्वाक्य कहता है, यह दुःख नहीं देखाजाता, धृतराष्ट्रकीबातें सुन कुछ काल विदुरजीने वहां वास किया, और देवताओंकी समान सुखीहो, बडे भ्राताके कल्याणके कारण सबसे रीतिप्रीति करते रहे॥१४॥*
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* इसकी कथा इसप्रकार है—किसी देशमें चोर किसीका धन चुराकर भागे, और राजाके दूत उनके पीछे दौडे, वह चोर भागते भागते वहाँ पहुँचे जहाँ माडव्य ऋषितप कर रहेथे, उनके निकटही चोर जाकर छिपरहे, राजा के दूतोंने उनके समीप जानकर ऋषि समेत चोरोंको पकडकर राजाके पास गये, राजाने आज्ञा दी कि सबको शूली देदो, राजाकी आज्ञासे चोरोंको शूलीपर चढाना आरम्भ किया, माडव्यऋषिकी ओरको जो देखा तो उनको ऋषिजान शूलीसे उतारलिया अरु दण्डवत् प्रणामकर अपना अपराध क्षमा करा उनको प्रसन्न किया, पीछे माण्डव्यऋपि धर्मराजके निकट जाकर बडे क्रोधसे वोला कि, अरे यम तेंने मुझे किस अपराधसे शूलीपर चढाया? तब यमराज बोले कि महाराज! आपने बालकपनमे टीडीको कुशाके अग्रभागसे छेदकर खेलेथे, उसके बदलेमें शूलीपर आप चढाये गये, यमराजका यह वचन सुन माण्डव्य ऋषिने यमराजको शापदिया कि मैंने बाल अवस्थामें अज्ञानसे यह काम किया उसका तैंने मुझे ऐसा भारी दंढ दिया, अब तू शूद्र हो, यह वही विदुरजी हैं।
यमराज मांडव्यके शापसे शुद्धयोनि में विदुरं हुए थे, तबतक यमराजके स्थानमें अर्यमा काम करते रहे॥१५॥ युधिष्ठिर राज्यपाय पोतेको कुलोद्धारक देख लोकपालसमान भ्राताओं सहित परम लक्ष्मीले आनन्दित हुए॥१६॥ गृहके व्यापार में ऐसे आसक्त होगये उन्हें विदित न हुवा कि परम दुस्तर कालका समय आनपहुँचा॥१७॥ यह अभिप्राय जानकर विदुरजी धृतराष्ट्रसे बोले हे राजन्! शीघ्र निकलो यह भयंकर भय आता है, सो देखो॥१८॥ हे प्रभो! जिसकालके लौटानेका कोई उपाय नहीं है जो कहीं से कभी भी नहीं जासकै है सो यह भगवान् काल हम सबको ऐसेही आवै॥१९॥ जिस काल से ग्रसा हुवा जीव अधिक प्रियप्राणोंसे तत्काल वियोग पाता है, और धन पुत्रादिककी तो बात ही क्या है॥२०॥ जब पिता, भ्राता, सुहृद,
अविभ्रदर्यमा दंडं यथावदघकारिषु॥ यावद्दधार शुद्रत्वं शापाद्वर्षशतं यमः॥१५॥ युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलंधरम्॥ भ्रातृभिर्लोकपालाभैर्मुमुदे परया श्रिया॥१६॥ एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीया॥ अत्यक्रामदविज्ञातः कालः परमदुस्तरः॥१७॥ विदुरस्तदभिप्रेत्य धृतराष्टमभाषत॥ राजन्निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम्॥१८॥ प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित्कर्हिचित्प्रभो॥ स एव भगवान्कालः सर्वेषां नः समागतः॥१९॥ येन चैवाऽभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि॥ जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैर्धनादिभिः॥२०॥ पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः॥ आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे॥२१॥ अहो महीयसी जंतोर्जीविताशा यया भवान्॥ भीमेनावर्जितं पिंडमादत्ते गृहपालवत्॥२२॥ अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः॥हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत्॥२३॥ तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः॥ परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव॥२४॥
पुत्र सब तुम्हारे मारेगये, सब आयु तुम्हारी हो चुकी, देहको बुढापेने घेर लिया तौभी पराये घर में रहतेहो॥२१॥बड़े आश्चर्य की बात है कि, इस जीवको जीवन की बड़ी आशा लग रही है, सो तुमको भी है, भीमसेन के दिये हुए टुकड़े श्वानकी नाई तुम खाओहो॥२२॥ तुमने भी तो अपनी चलतीमें उनके साथ कुछ कसर नहीं करी, लाहेके कोटमें बन्दकरकै आग लगाई, लड्डुओंमें विपदिया, उनकी स्त्री द्रौपदीकी सभा में अवज्ञा करी, पृथ्वी उनकी छीनी, धन धाम उनका लिया, अब उनका दिया अन्न खाकर शरीर पुष्ट करनेसे कुछ प्रयोजन नहीं निकलेगा॥२३॥ कृपणपनसे जीनेकी
इच्छा अच्छी नही, और जो इच्छाभी है तौभी यह तुम्हारा जराजीर्ण शरीर सब प्रकार क्षीण हो गया है जैसे पुराने वस्त्र त्यागने योग्य होते हैं ऐसी तुम्हारी देहकी गति है सो अब धैर्य धरो॥२४॥ विरक्त, सब बन्धनोंसे मुक्तहो, इस देहको त्यागे सो अज्ञातगति स्वार्थरहित धीर कहाताहे॥॥२५॥ जो कोई अपने आप अथवा पराये उपदेशसे आत्माको पहिचानकर हृदय में परमेश्वर के चरणारविन्दोको धारण कर घर त्याग संन्यास
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबंधनः॥ अविज्ञातगतिर्जह्यात्स वै धीर उदाहृतः॥२५॥ यः स्वकात्परतो वह जात निर्वेद आत्मवान्॥ हृदि कृत्वा हरिं गेहात्प्रव्रजेत्स नरोत्तमः॥२६॥ अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञातगतिर्भवान्॥ इतोऽर्वाक्प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः॥२७॥ एवं राजा विदुरेणानुजेन प्रज्ञाचक्षुधितो ह्याजमीढः॥ छित्त्वास्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो निश्चक्राम भ्रातृसंदर्शिताध्वा॥२८॥
धारण करते हैं वही मनुष्य मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं॥२६॥ अपने सम्बन्धियोसे छिपकर तुम उत्तराखण्डको चलो, इससे पीछे पुरुषोंका गुणनाशक बहुत बुरा समय आवैगा*॥२७॥ आजमीढवंशी जन्मान्धको इसभाँति विदुरजीने सब समझाया तब तो धृतराष्ट्र अपना
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*शका—धृतराष्ट्र पाण्डुका छोटा भाई विदुर कैसे था, तब शास्त्रोंमें और भारत इत्यादि इतिहामों में ऐसा लिखा कि अपने जन्म होनेके पीछे अपनी माताके उदर में जो बालक उत्पन्न होता है, उसको शास्त्रमें और लोकमे छोटा भाई कहते है, दूसरी माताका जन्मा बालक लोकमें और शास्त्रमें छोटा भाई नहीं कहाता, धृतराष्ट्र और पाण्डु यह क्षत्रियाणीके पुत्र, और विदुर गढीका पुत्र, फिर धृतराष्ट्रका छोटा भाई विदुर क्यों कर हुवा
उत्तर—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, गृद्र इन चारोणोंके विवाह होनेकी विधि शास्त्रमें अथवा लोकमें कही है वही विधि श्रेष्ठ है, और प्रथम है और शास्त्रसे और ठोकसे जो निवाहकी विधि, उसको अनु कहतेहैं, शास्त्र में उस अनुकी निधि माने और अन्याय से जो जन्मले उसको मुनीश्वरलोग अनुज कहते हैं इसीलिये विदुर लोगोंका नाम अनुज है। विदुर वर्णसकरकोभी कहते हैं, अथना अपने जन्मके पीछे अपनी मातामें जो जन्म देता है, उमकोभी शास्त्रमें और लोकमें अनुज कहते हैं, शब्द के अर्थ अनेक प्रकारके है, परन्तु जो अर्थ जिस स्थानमें जैसा घट जाय अथवा अयोग्य न जानपडे वही अर्थ उस पदका लगाना चाहिये, जैसे पय पानीको कहते हैं, और पय दूधकोभी कहते हैं, गो चेनुका नामभी है, गो पृथ्वीका नामभी है, गो जलका नामभी है, गो इन्द्रियोका नामभी है, गो वाकस्थानका नामभी है, देखिये गो अन् कितने अर्थ हुये इसलिये, “विदुरेणानुजेन” ऐसा वचन व्यासजी ने कहा, धृतराष्ट्रको छोटा भाई नहीं कहा॥
चित्त दृढ कर कुटुम्बके लोगोंसे स्नेह त्याग विदुरजीने जो मुक्तमार्ग बताया उसपर आरूढ़ होकर वहांसे चले॥२८॥और पतिके जानेका समाचार सुन, सुबलदुहिता, पतिव्रता, साध्वी गान्धारी भी उनके संग चलनेको उपस्थित हुई संन्यस्त दण्डले अतिहर्पसे हिमालयको गये, मनस्वी शूरोंको जैसे युद्ध में सुन्दर प्रहार प्यारे लगे हैं तैसे जानो॥२९॥ राजा युधिष्ठिर सन्ध्यावन्दनसे निश्चित हो, अग्निहोत्रकर, तिल, गौ, भूमि, सुवर्ण दानदे, ब्राह्मणोंको नमस्कारकर माता पिताकी वन्दना करनेके लिये उनके मन्दिरमें गये, वहां विदुर, धृतराष्ट्र, गान्धारीको न देखा॥३०॥ उद्विग्न मनसे वहां बैठगये और संजयसे वृझा कि, हे संजय! हमारे चाचा वृद्ध नेत्रहीन सो कहांचले गये।
पतिं प्रयातं सुबलस्य पुत्री पतिव्रता चानुजगाम साध्वी॥हिमालयं न्यस्तदंड प्रहर्षे मनस्विनामिव सत्संप्रहारः॥२९॥ अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुतानिर्विप्रान्नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः॥ गृहं प्रविष्टो गुरुवंदनाय न चापश्यत्पितरौ सौबलीं च॥३०॥ तत्र संजयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः॥ गावल्गणे व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः॥ अंबा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृद्॥३१॥ अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबंधुः सभार्यया॥ आशंसमानः शमलं गंगायां दुःखितोऽपतत्॥३२॥ पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून्॥ अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क गतावितः॥३३॥ सूत उवाच॥ कृपया स्नेहवैक्लव्यात्सुतो विरहकर्शितः॥ आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः॥३४॥ विसृज्याऽश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना॥ अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन्॥३५॥
पुत्रोंके शोकसे महाव्याकुल हमारी चाची भी नहीं दिखाई देती. जो आपको विदित हो तो कहो क्योंकि व्यासजी महाराज की कृपासे तुम सब जानते हो॥३१॥ मुझ बुद्धिहीनमें अपराध विचार बन्धुओंके मरनेसे दुःखी होकर सीसहित गंगामें तौ नहीं डूबमरे॥३२॥ जब हमारे पिता परमधामको चलेगये तो हम सबको बालक जानकर अनेक कष्टोंसे हमारी रक्षा करी अरु पाला वह हमारी चाची चाचा यहांसे कहां चलेगये॥३३॥ सूतजी बोले,कि हे शौनकमुनि! संजय अपने ईश्वर युधिष्ठिरको महादुःखी देख अतिपीड़ित हुआ और मुखसे कुछ नहीं कहसका॥३४॥ दोनों हाथोंसे आंसू
पोंछ बुद्धिको सावधानकर मनको धैर्यदे प्रभुके चरणोंका स्मरण करते अजातशत्रु से बोले और प्रभुके चरणोंका स्मरण किया॥३५॥ संजय बोले, कि हे कुरुनन्दन! तुम्हारे पिताके समाचार, मैं कुछ नहीं जानता. और गान्धारी तुम्हारी चाचीके जाने की भी मुझको कुछ सुधि नहीं. मैं इन महात्माओंसे वंचित हुआ हूँ॥३६॥ उसी समय कहींसे घूमतेघामते नारदजी भी तुम्बुरु गन्धर्वको संगलिये आगये, उनको देख भाइयों समेत उठ पूजा सत्कार प्रणामकर बोले॥३७॥ कि हे भगवन्! हमारे चाचा चाची न जानिये कहां चले गये, पुत्रोंके निधन होने से महादुःखी हो, तप स्विनी गांधारी कहाँ गई॥३८॥ अपार शोकसागर में डूबे हुएको धैर्यरूपी केवट बनकर नारदजी आप आन पहुँचे. “हे अज्ञाननाशक।महाबु
संजय उवाच॥ नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनंदन॥ गांधार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः॥३६॥ अथाजग्राम भगवान्नारदः सहतुंबुरुः॥ प्रत्युत्थायाभिवाद्याऽऽह सानुजोऽभ्यर्चयन्निव॥३७॥ युधिष्ठिर उवाच॥ नाहं वेद गतिं पित्रोर्भगवन्क्व गतावितः॥ अंबा वा हतपुत्राऽऽर्ता व गता च तपस्विनी॥३८॥ कर्णधार इवापारे भगवान्पारदर्शकः॥ अथावभाषे भगवान्नारदो मुनिसत्तमः॥३९॥ मा कंचन शुचो राजन्यदीश्वरवशं जगत्॥ लोकाः सपाला यस्येमे वर्हति बलिमीशितुः॥४०॥ स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च॥ यथा गावो नसि प्रोतास्तत्यां वद्धाः स्वदामभिः॥ वाक्तंत्यां नामभिर्वद्धा वहंति बलिमीशितुः॥४१॥ यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह॥ इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम्॥४२॥
द्धिमान, सर्वज्ञानी, विघ्नहर्ता, सबकी विपत्तिमें आनकर सहायक होतेहो, जो उनको कहीं सिंह व्याघ्रने खालिया, अथवा कहीं कुयेंमें डूबकर मरगये तो मेरी बड़ी दुर्नामता होगी, किसीके सम्मुख मुख दिखाने को भी न रहूंगा आप दिव्यदृष्टि हैं, दया करके बतादीजै हम उनकी विनतीकर उनको यहां लौटार लावेंगे क्योंकि भोजन छाजनमें अत्यन्त दुःखी होंगे” युधिष्ठिर के वचन सुनकर, सुनिसत्तम भगवान् नारदजी बोले कि हे राजन्! शोक संताप मत करो. यह सब संसार ईश्वरके वश में है॥॥३९॥४०॥ जो सबका ईश्वर है उसको अपने पालकसहित सब लोग भेटते हैं वोही परमात्मा सब जीवों का संयोग वियोग करें हैं। जैसे बलवान् बैल नाथके वशमें होकर अपने स्वामीका सब कार्यकर बलिदेता है, ऐसे यह करना यह
न करना ऐसी वेदकी वाणीरूप डोरेमें वर्णाश्रम धर्मरूप नाथसे बँधे सवजीव परमेश्वरको बलि देते हैं जैसे खेलनेवालेकी इच्छासे खेलकी सब सामग्रियोंका संयोग वियोग हो जाता है, इसी प्रकार ईश्वरकी इच्छामे सब जीवों का संयोग वियोग समझना चाहिये॥४१॥४२॥ जो लोकको ध्रुव मानो, अथवा अध्रुव मानो वा दोनोंको मत मानो, मोहसे, स्नेहसे, सब प्रकारसे, शोक करना नहीं चाहिये॥४३॥ हे युधिष्ठिर! यह जो अज्ञानपनकी तुम्हारी व्याकुलता है इसको त्यागो, क्योकि तुम कहो हो, कि अज्ञान, अनाथ, कृपण, अन्धे, मुझ विन वनमें कैसे रहेंगे और उनके खाने पीनेकी सुधि कौन लेगा यह शोच करना तुम्हारा सव वृथा हे॥४४॥ कालकर्मगुण इनके आधीन यह पञ्चतत्त्वका बना हुआ देह है, सो यह किसकी रक्षा करसक्ता है. जैसे अजगर
यन्मन्यसे ध्रुवं लोकमध्रुवं वा न चोभयम्॥ सर्वथा हि न शोच्यास्ते स्नेहादन्यत्र मोहजात्॥४३॥ तस्माज्जहांग वैक्लव्यमज्ञानकृतमात्मनः॥ कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरन्वनमाश्रिताः॥४४॥ कालकर्मगुणाधीनो देहोऽयं पांचभौतिकः॥ कथमन्यांस्तु गोपायेत्सर्पग्रस्तो यथा परम्॥४५॥ अहप्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम्॥ फल्गुनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम्॥४६॥ तदिदं भगवान्राजन्नेक आत्माऽऽत्मनां स्वदृक्॥ अंतरोऽनंतरो भाति पश्य तं माययोरुधा॥४७॥ सोयमद्य महाराज भगवान्भूतभावनः॥ कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यामभवाय सुरद्विपाम॥४८॥ निष्पादितं देवकृत्यमवशेपं प्रतीक्षते॥ तावद्ययमवेक्षध्वं भवेद्यावदिहेश्वरः॥४९॥ धृतराष्टः सह भ्रात्रा गांधार्या च स्वभार्यया॥ दक्षिणेन हिमवत ऋषीणामाश्रमं गतः॥५०॥
सर्प ग्रसित जीव औरको कैसे बचा सकेगा॥४५॥ चार पगवाले पशुआदि तृणादिकको खाते हैं हाथ जिनके है वह जीव और भी सूक्ष्म वस्तुका भक्षण करेहैं, ऐसे ही सब जीवमात्र जीवोंका जीव बचाने हैं परन्तु सव कालग्रसित हैं॥४६॥ हे राजन्! सर्वद्रष्टा एक सब आत्माओ में एक भीतर बाहर जामे नही मायासे बहुत दीखैहैं, सजातीय, विजातीय, स्वगतभेद शून्य, यह भगवान् प्रकाश करे हैं॥४७॥ हे महाराज! सो यह भगवान् भूतभावन कालरूपने सुरद्रोहियोके मारणके कारण पृथ्वीपर मनुज अवतार धारण किया है॥४८॥ देवताओंका तो सब कार्य करचुके हैं केवल यदुकुलकी और वाट देख रहे हैं, तवलों तुम भी यहां रहो जवलों ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यहां रहें, पीछे तुमभी चलेजाना॥४९॥ हे राजन्! धृतराष्ट्र,
विदुर सहित गान्धारीको लिये हिमाचलकी दक्षिण ओर ऋषियों के आश्रम में गये॥५०॥ जहां गंगाजी सात ओर बहकर, आप सात रूप हुईहैं, सातों ऋपियोंकी प्रीतिके अर्थ सप्तस्रोत ऐसे विख्यात॥५१॥ वहां सदा स्नानकर यथाविधि अग्निहोत्रकर. वायुभक्षणके आश्रय रहकर अति शान्त मनसे परमात्माके चरणों में चित्त लगा, सब कुटुम्बसे स्नेह तज वहां वास करेंगे॥५२॥ आसन जीत श्वास जीत इन्द्रियों का प्रत्याहार करके हरिभावना से दूर होकर राजस, तामस, सात्त्विक सब मल जिनके भस्म होगये॥५३॥ विशेष ज्ञानकी व्यापक जिनकी देह, जीवान्तर्यामी, सर्वाधार, बृहत्त्वादि गुणविशिष्ट चैतन्य ब्रह्म में जीवात्माका संयोगकर तद्रूप होकर परमात्मामें लीन होंगे, जैसे घट फूटने से घटाकाश महाकाशमें
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात्॥ सप्तानां प्रीतये नाम्ना सप्तस्रोतः प्रचक्षते॥५१॥ स्नात्वाऽनुसवनं तस्मिन्हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि॥ अब्भक्ष उपशांतात्मा स आस्ते विगतैषणः॥५२॥ जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतपडिंद्रियः॥ हरिभावनया ध्वस्तरजःसत्त्वतमोऽमलः॥५३॥ विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम्॥ ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटांवर मिवांबरे॥५४॥ ध्वस्तमायागुणोदकों निरुद्धकरणाशयः॥ निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः॥५५॥तस्यांतरायो मैवाभूः संन्यस्ताखिलकर्मणः॥ स वा अद्यतनाद्राजन्परतः पंचमेऽहनि॥ कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति॥५६॥ दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्नी सहोटजे॥ बहिः स्थिता पति साध्वी तम निमनुवेक्ष्यति॥५७॥ विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनंदन॥हर्षशोकयुतस्तस्माद्वंता तीर्थनिषेवकः॥५८॥
लीन हो जाता है॥५४॥ मायागुणोंकी वासना जिनसे सर्वत्र दूर होगई, इन्द्रियें अंतःकरण जिनका शुद्ध होगया, सब प्रकारके आहार जिन्होंने त्याग दिये; सो खम्भकी सदृश अचल होगये॥५५॥ सब कर्मसे संन्यस्त हैं उसमें कोई विघ्न मत करना, हे राजन्! सो वह आजसे पांच दिन उपरान्त अपना शरीर त्यागन करेंगे, और देह आपही भस्म होजायगी. विदुरजीके ज्ञानसे धृतराष्ट्रको मोक्ष प्राप्त हो॥५६॥ अभिसे जब देह भस्म होजायगी, तो गान्धारी उनकी स्त्रीभी उसी अग्निमें प्रवेश करके सती होजायगी॥५७॥ हे कुरुनन्दन! विदुरजी यह
आश्चर्य देखकर अति हर्ष शोकयुक्त तीर्थयात्राको चलेजायँगे॥५८॥ ऐसे कह तुंबुरु गन्धर्वसमेत नारदजी स्वर्ग लोकको चलेगये, और युधिष्ठिर उनका वचन मान हृदयसे सब शोक संताप त्यागकर वासुदेव भगवान्के ध्यानमें लवलीन हुए॥५९॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां विदुरोक्त्या धृतराष्ट्रमोक्षवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ दोहा-पार्थ द्वारकाकी कथा, जैसे बरणी आय। भयो दुखी सुन धर्म सुत, कहों सकल समझाय॥१४॥ जब द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द देवकीनन्दनका समाचार बहुत दिनोंसे न मिला तो युधिष्ठिरने अर्जुनसे कहा, कि भाई तुम द्वारकाको जाओ और द्वारकानाथकी सुधि लाओ, धर्मराजकी यह बात सुनकर बन्धुके देखनेकी इच्छासे पार्थने द्वारकाको
इत्युक्त्वाऽथारुहत्स्वर्गं नारदः सहतुंबुरुः॥ युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाऽजहाच्छुः॥५९॥ इति श्रीमद्भा० प्रथ० त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ सूत उवाच॥ संप्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बंधुदिदृक्षया॥ ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम्॥१॥ व्यतीताः कतिचिन्मासास्तदा नाझ्यात्ततोऽर्जुनः॥ ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरु॥॥२॥ कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः॥ पापीयसीं नृणां वार्तां कोधलोभानृतात्मनाम्॥३॥ जिहाप्रायं व्यवहृतं शाख्यमिश्रं च सौहृदम्॥ पितृमातृसुहृदभ्रातृदंपतीनां च कल्कनम्॥४॥ निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले त्वनुगतेनृणाम्॥ लोभाद्यधर्मप्रकृति दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः॥५॥ युधिष्ठिर उवाच॥ संप्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्वधुदिदृक्षया॥ ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम्॥६॥
गमन किया पुण्ययशस्वी श्रीकृष्णचंद्रकी सुधिके लिये॥१॥ हे शौनकमुनि! जब कई मास व्यतीत होगये और अर्जुन द्वारकासे न लौटे, उस समय युधिष्ठिर घोर उत्पात देखने लगे॥२॥ कालकी घोरगति, धर्मका उलटापन, दिखाई देने लगा, मनुष्योंके मनमें, क्रोध, लोभ, मोह, मिथ्यावाद बसगया. सब जीवोंकी पापयुक्त बातें दीखने लगीं॥३॥ सब लोग व्योहारमें कपट करनेलगे, सुहृदतामें ठगपना, पिता, पुत्र, स्त्री, पुरुष, भाई बन्धुओंमें क्लेश होनेलगा॥४॥ अत्यन्त अरिष्टकारी शकुन होनेलगे, ऐसा समय आगया कि, लोभसे आदिलेकर अधर्मकी प्रकृति देखकर युधिष्टिर शोचवश हो भीमसेनसे बोले॥५॥ हे भ्रातः! अर्जुनको श्रीकृष्णजीकी सुधि लेनेको द्वारकाको भेजा है, न जानिये पुण्य यशवाले श्रीयदुनाथकी
क्या करनेकी इच्छा है?॥६॥ सो हे भइया भीम! सात महीने अर्जुनको गये बीते, सो अबतक आया नहीं, न जानिये क्या कारण है यह भेद हम कुछ नहीं जानसक्ते॥७॥ ऐसा निश्चय होता है कि नारदजी जो कहगये थे वह समय आगया; क्योंकि जिस समय सब क्रीडाके साधन श्रीभगवान् शरीरको त्यागेंगे वह समय सब अमांगलिक होगा॥८॥ जिन श्रीकृष्णजीकी कृपासे सब हमारी सम्पदा, राज्य, प्राण, कुल, स्त्री, प्रजा, वैरियोंसे विजय, सब लोकका धन हुआ॥९॥ हे नरव्यात्र! स्वर्गके, भूमिके, शरीरके, दारुण बुद्धिके मोहके करानेवाले भयानक उत्पातको देखो॥१०॥ छातीका वामभाग, वामनेत्र, वामभुजा, बारंबार फड़कती हैं और हृदय बारंबार कांपता है इन लक्षणोंसे यह विदित होता है, कि शीघ्र कुछ अप्रिय बात
गताः सप्ताऽधुना मासा भीमसेन तवानुजः॥ नायाति कस्य वा हेतोनहिं वेदेदमंजसा॥७॥ अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोयमुपस्थितः॥ यदात्मनोंगमाक्रीडं भगवानुत्सिसृक्षति॥८॥ यस्मान्नः संपदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः॥ आसन्सपत्नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात्॥९॥ पश्योत्पातान्नरव्याघ्र दिव्यान्भौमान्सदैहिकान्॥ दारुणाशंसतो दूराद्भयं नो बुद्धिमोहनम्॥१०॥ ऊर्वक्षिवाहवो मह्यं स्फुरंत्यंग पुनःपुनः॥ वेपथुश्चापि हृदये आराद्दास्यंति विप्रियम्॥११॥ शिवषोद्यंत मादित्यमभिरौत्यनलानना॥ मामंग सारमेयोऽयमभिरौति भीरुवत्॥१२॥ शस्ताः कुवैत मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे॥ वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम॥१३॥ मृत्युद्भूतः कपोतोऽयमुलूकः कंपयन्मनः॥ प्रत्युलूकश्च कुङ्खानैरनिद्रौ शून्यमिच्छतः॥१४॥ धूम्रा दिशः परिधयः कंपते भूः सहाद्रिभिः॥ निर्घातश्च महानासीत्साकं च स्तनयित्नुभिः॥१५॥
सुनाई देगी॥११॥ सूर्यके सन्मुख खड़ी होकर शृगालिनी रोती हैं और मुखसे आग उगलती हैं, हे भइया भीम! मेरे सन्मुख निःशंक खड़े होकर श्वान रोते हैं॥१२॥ अच्छे पशु गौ आदिक तौ मेरे बांये ओर होकर निकलते हैं और गर्दभ आदि दुष्ट पशु मेरी परिक्रमा कर हैं. हे पुरुषसिंह भीम! मेरे रथके घोडे जब सवार होता हूं तब रोते से दीखें हैं॥१३॥ मुत्युका दूत यह कपोत, उलूक व काक रातको बोलते हैं, उनका बोलना विश्वका शून्य करना चाहता है ऐसे कुलक्षणोंको देख देख मेरा हृदय कांपता है॥१४॥ सब दिशाओंमें धुन्ध छा रहा है (सूर्य चन्द्रमा के
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* दोहा—
जानै हरि इच्छा कहा, कछु नहिं जानीजात। हे भइया मोहिं होत नये नये उत्पात॥१॥
मण्डल बँधे हैं) पर्वतों सहित भूचाल हो रहा है, विना बादल आकाशसे गर्जनेका शब्द सुनाई आता है॥१५॥ पवन धूरि लेकर आकाशको चढै है; सब नभमण्डलमें रेतसे अन्धकार छारहाहै, सब ओरसे भयानक मेघ रुधिर बरसाते हैं॥१६॥ स्वर्ग में सब ग्रह परस्पर लड़ते हैं. सूर्य कान्तिहीन दृष्टि आता है, यह देखो भूतगणों से व्याकुल होकर सब पृथ्वी मानो अग्निसम उत्तप्त हो रही है॥१७॥ नदी और नद ताल और सरोवर क्षोभको प्राप्तहैं, अग्नि घृत डालनेसे प्रज्वलित नहीं होती, न जानिये यह कुसमय क्या करैगा॥१८॥ बछडे गायों का दूध प्रसन्न होकर नहीं पीते, माता स्तनोंसे दूध नहीं छोड़ती धेनु सूर्यनारायण के सन्मुख खडीहोकर नेत्रोंसे जलधारा बहाती है, खरको में वृषभ प्रसन्न चित्तसे शब्द नहीं करते॥१९॥
वायुवति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः॥ असृग्वर्षैति जलदा बीभत्समिव सर्वतः॥१६॥ सूर्य हतप्रभं पश्य ग्रहमदै मिथो दिवि॥ ससंकुलैर्भूतगणैर्ज्वलिते इव रोदसी॥१७॥ नद्यो नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च॥ न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति॥१८॥ न पिबंति स्तनं वत्सा न दुांति च मातरः॥ रुदंत्यश्रुमुखा गावो न हृष्यंत्यृषभा व्रजे॥१९॥ दैवतानि रुदंतीय स्विद्यंति चलंति च॥ इमे जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः॥भ्रष्टश्रियो निरानंदाः किमघं दर्शयंति नः॥२०॥ मन्य एतैर्महोत्पातैर्नूनं भगवतः पदैः॥ अनन्यपुरुष श्रीभिर्हीींना भूर्हत सौभगा॥॥२१॥ इति चिंतयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा॥ राज्ञः प्रत्यागमद्ब्रह्मन्यदुपुर्याः कपिध्वजः॥२२॥ तं पादयोर्नि पतितमयथापूर्वमातुरम्॥ अधोवदनमब्बिन्द्वन्मुचंतं नयनाब्जयोः॥२३॥
मन्दिरों में देवताओंकी प्रतिमा रुदन कर रहीहैं, पसीना आता है, कम्पायमान हो रही हैं, देश, ग्राम, पुर, नगर, कूप, वाटिका, आश्रम इन सबकी शोभा मलीन होगई, आनन्दका नाम नहीं, न जानिये यह हमको क्या दुःखदेंगे?॥२०॥ निश्चय है कि इन उत्पातोसे अनन्य पुरुष श्रीकृष्ण की शोभासे और भगवत् के चरणारविन्दसे जिसका सौभाग्य हीन होगया, इसलिये भूमिकी शोभा नष्ट होगई॥२१॥ हे ब्रह्मन्! जिस समय राजा युधिष्टिरजी बैठे यह विचार कररहे थे कि यह अरिष्ट क्या करेंगे? उसी समय राजा युधिष्ठिरके समीप यदुपुरीसे अर्जुन आये॥२२॥आतेही नीचको
मुखकर धर्मराजके चरणोंमें गिरपडे अत्यन्त व्याकुल आंसुओं से पूर्णनेत्र॥२३॥ कान्तिहीन सुहृद अर्जुनके सन्मुख नारदजीके वचन स्मरणकर कम्पित हृदय हो राजा युधिष्ठिर बूझनेलगे॥२४॥ हे भ्रातः! मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, सात्वत, अन्धक, वृष्णि यह सब राजा आनन्दित हैं॥२५॥ मान्यवर शूर नाना वसुदेव तो प्रसन्न हैं. भाई सहित मामा कुशल हैं॥२६॥सातों बहिनें उनकी स्त्रियें, हमारी मामी, पुत्रसहित, पुत्रवधू
विलोकयोडिग्नहृदयो विच्छायमनुजं नृपः॥ पृच्छति स्म सुहृन्मध्ये संस्मरन्नारदेरितम्॥२४॥ युधिष्ठिर उवाच॥ कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते॥ मधुभोजदशा हर्हिसात्वतांधकवृष्णयः॥२५॥ शूरो मातामहः कच्चित्स्वस्त्यास्तै वाऽथ मारिषः॥ मातुलः सानुजः कच्चित्कुशल्यानकदुंदुभिः॥२६॥ सप्त स्वसारस्तत्पत्त्यो मातुलान्यः सहात्मजाः॥ आसते सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम्॥२७॥ कच्चिद्राजाऽऽहुको जीवत्यसत्पुत्रोऽस्य चानुजः॥ हृदीकः ससुतोऽकूरो जयंतगदसारणाः॥२८॥ आसते कुशलं कच्चिद्ये च शत्रुजिदादयः॥ कच्चिदास्ते मुखं रामो भगवान्सात्वतां प्रभुः॥२९॥ प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः॥ गम्भीररयोनिरुद्धो वर्धते भगवानुत॥३०॥
सहित, देवकी आदिकी क्षेम है॥२७॥ राजा आहुक, देवक भाई सहित, जिसका पुत्र महाखोटा है वह जीव है? हृदीक, पुत्रसहित अक्रूर, जयन्त, गद, सारण॥२८॥ शत्रुजित आदिक कुशल हैं? भगवान् सात्वतों के प्रभु बलदेवजी अच्छे हैं?॥२९॥ सब वृष्णियोमें महारथी प्रद्युम्न तो सुखी
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शंका—
सातद्वीप पृथ्वीके राजा युधिष्टिर थे उनको चिट्ठी अथना दूतसे यह बात क्यों नहीं जानपडी कि सब यदुवंशी परम्पर लटकर मरगये, यह बडे आश्चर्यकी बातहे और बडी शका होती है कोई छोटा राजाभी होता है वहभी अपने राज्यका सब समाचार पाता रहताहै, और धर्मराज सात द्वीपके राजाथे तोभी उनको यह समाचार नहीं मिला कि यदुवंशका विध्वंस होगया यदुवंशीभी कुछ ऐसे पैसे नहीं बडे नामी और पुरुषार्थी पुरुषथे, फिर क्या कारण जो उनके मरनेका समाचार नहीं मिला?
उत्तर—
जिस दिन द्वारकासे अर्जुन, युधिष्टिर के पास आया उसके दश दिन पहिले दूतोंसे धर्मराजने सुनाया कि सब यदुवंशी कुशलक्षेमसे हैं, काल्की गति महाकठिन है, ब्राह्मण के शापसे एक क्षण मात्रमें सब यदुवंशका नाश होगया, तब सबका मृतक कर्म करके सातवें दिन अर्जुन राजा युधिष्टिर के पास आया, बीच में भाइयोंका चित्त दुखी होनेके लिये समाचार किसी दूतके द्वारा नहीं भेजा॥
भगवान्की समान महागम्भीर वेगवाले अनिरुद्धजी कुछ बड़े हुए हैं कि अभी छोटे हैं?॥३०॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीपुत्र साम्ब और सब श्रीकृष्णसुत पुत्रसहित ऋषभादिक॥३१॥ श्रीकृष्णजीके अनुचर श्रुतदेव उद्भवादिक सुनन्द, नन्द यादवों में मुख्य श्रेष्ठ हैं॥३२॥ राम कृष्णकी भुजासे पालित वह सब प्रसन्न हैं, जिन्होंने हमसे सौहृद किया है वह सब कुशल हैं?॥३३॥ ब्राह्मणों के पालनेवाले भक्तवत्सल गोरक्षक भगवान् भाई बन्धुसमेत द्वारकामें सुधर्मा सभा में सुखी हैं॥३४॥ सब लोगों के मंगलके लिये सबकी कुशलके अर्थ सबकी वृद्धि के कारण शेषजीके सखा आदिपुरुष श्रीकृष्ण
सुषेणश्चारुदेष्णश्च सांवो जांबवतीसुतः॥ अन्ये च काष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः॥३१॥ तथैवानुचराः शौरैः श्रुतदेवोडवादयः॥ सुनंदनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः॥३२॥ अपि स्वस्त्यास ते सर्वे रामकृष्णभुजाश्रयाः॥ अपि स्मरंति कुशलमस्माकं बद्धसौहृदाः॥३३॥ भगवानपि गोविंदो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः॥ कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः॥३४॥ मंगलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च॥ आस्ते यदुकुलांभोधावाद्योऽनंतसखः पुमान्॥३५॥ यद्बाहुदंडगुप्तायां स्वपुर्या यदवोऽचिताः॥ क्रीडति परमानंद महापौरुपिका इव॥३६॥ यत्पादशुश्रूषण मुख्यकर्मणा सत्यादयो इष्टसहस्रयोषितः॥ निर्जित्य संख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो हरंति वज्रायुधवल्लभोचिताः॥३७॥ यद्वाहुदंडाभ्युदयाऽनुजीविनो यदुप्रवीरा कुतोभया मुहुः॥ अधिक्रमंत्यंघ्रिभिराहृतां बलात्सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम्॥३८॥ कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे॥ अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः॥३९॥ यदुकुलमें प्रसन्नहैं?॥३५॥
यदुकुलमें प्रसन्नहेृै?॥३५॥ जिनकी भुजारूपी दण्डसे रहित द्वारकामें पूजित होकर, यादव परमानन्दसे वैकुंठनाथ के पार्षदकीनाई क्रीडा करते हैं॥३६॥ जिनके चरणारविन्दकी सेवारूप मुख्य कर्मसे सत्यभामादिक सोलहसहस्र स्त्रियों संग्राम में देवताओंके उन देवभोग्य पारिजातादिकोंको भगवान् लातेभये कि, जो इंद्राणी के उचित॥३७॥ यादवलोग जिनकी भुजाओंके प्रतापसे निर्भय उत्साहित सुरसत्तम योग्य सुधर्मा सभा अपने बलसे लाये और बारंबार उसमें चरण धरते हैं॥३८॥ हे तात! हे भैया! तुम तो प्रसन्नहो! मुझको ऐसा विदित होता है कि तुझारा तेज नष्ट होगया,
अथवा बहुत दिनोंके रहनेसे भाइयोंने तुम्हारा आदर सत्कार नही किया? क्या तुम्हारी अवज्ञा करी। किसीने अमंगल शब्द प्रेम रहित वाणीसे तौ तुमको नहीं पुकारा? पहिले किसीको आशाका भरोसादे पीछे क्या वस्तु उसे नहीदी? ऐसा तो नहीं हुआ॥३९॥४०॥ कोई, भयभीत, ब्राह्मण, वालक, गौ, वृद्ध, रोगी, स्त्री तुम्हारी शरण आये होंय उनको तो तुमने कहीं नहीं त्याग दिया॥४१॥ अगत्या स्त्रीसे तुमने रमण तो नहीं किया? अथवा विना शृंगारवाली नीच स्त्रीसे तो तुम नहीं बोले? अथवा उत्तम वा सामान्य पुरुषने मार्ग में तुमको पराजय तो नहीं किया॥४२॥ अथवा भोजनके समय किसी ब्राह्मण वा वृद्ध, वा बालक, वा और किसी पुरुषको त्यागकर पहिले तुमने भोजन तो नहीं करलिया? अथवा कोई असह्य महानिषिद्ध कर्म तो
कच्चिन्नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमंगलैः॥ न दत्तमुत्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम्॥४०॥ कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम्॥ शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः॥४१॥ कच्चित् त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वाऽसत्कृतांस्त्रियम्॥ पराजितो वाऽथ भवान् नोत्तमैर्नाऽसमैः पथि॥४२॥ अपि स्वित्पर्यभुङ्क्थास्त्वं संभोज्यान्डवालकान्॥ जुगुप्सितं कर्म किंचित्कृतवान्न यदक्षमम्॥४३॥ कच्चित्प्रष्टतमेनाऽथ हृदयेनात्मबंधुना॥ शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक्॥४४॥ इति श्रीमद्भा० प्र० युधिष्ठिरदर्शनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ सूत उवाच॥ एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञाऽऽविकल्पितः॥ नाना शंकास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः॥१॥
तुमने नहीं किया?॥४३॥ अथवा हमारे प्यारे नेत्रोके तारे हृदयरूप बन्धु श्रीकृष्णचंद्र आनन्दकन्द सर्व सुख देनेहारे तो कही परधामको नहीं सिधारे? जिनके मारे तुम अत्यन्त व्याकुल होरहे हो. और कोई रोग तो मुझे विदित नहीं होता यह कारण क्या है. वर्णन तो करो? क्यों ऐसे तनु छीन मनमलीन कांतिहीन होरहेहो? जो बात हो सो सत्य सत्य कहो जो मेरे मनको धैर्य हो॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां युधिष्ठिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥ दोहा—
पञ्चदशम अध्याय में, गुन यदुवंश विनास। धर्मराजसवराजतज, कियोहिमालयवास॥१५॥ सूतजी बोले, कि हे शौनक ऋषि!श्रीकृष्ण के सखा अर्जुनसे राजा युधिष्टिरने अनेक अनेक प्रकारसे वृझा, परन्तु यदुनाथके वियोग में ऐसे कृशित होगये ॥१॥
कि, उत्तर न दिया गया, शोकके मारे मुख हृदयकमल सूखगया, शरीरकी कान्ति जातीरही, श्रीकृष्ण सर्व समर्थका ध्यान करनेलगे, परन्तु मुखसे बोलने की सामर्थ्य नहीं रही॥२॥ बड़े कष्टसे शोकको रोक नेत्रोंके आंसू पोंछ श्रीकृष्णके अंतर्धान होजानेके कारण प्रेमवश व्याकुलहो॥३॥ उनका सारथीपनका समय, सखाभाव, मित्रता, सुहृदताको स्मरणकर, भाई युधिष्ठिरके आगे शोकको रोक रुके गदगद कण्ठसे बोले॥४॥ हे महाराज! बन्धुरूप श्रीहरिने मुझको ठगलिया, देवताओंको विस्मयदायक मेरा तेजभी जाता रहा “में क्या करूँ? और क्या आप बारंबार मुझसे वृझतेहो? हमारे प्राणप्यारे द्वारकानाथ हमारी पीठपर हाथ धरनेवाले हमको धोखा देकर परमधामको चलेगये, और हम अपने मूर्खपनसे उनको अपना ममेरा भाई ही समझते रहे, उनको आदि पुरुष अविनाशी नहीं जाना, जो परमात्मा समझकर हम उनके चरणारविन्दोंकी सेवा करते तो भवसागर से पार उतर मोक्षको प्राप्त होते, उनकी माया ऐसी प्रवल है कि, उसके फंदमें फँसकर हमने जगदीश्वरको नही पहिचाना जैसे एक समय
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः॥ विभुं तमेवाऽनुध्यायन्त्राऽशक्नोत्प्रतिभाषितुम्॥२॥ कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽसृज्य नेत्रयोः॥ परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयोत्कंट्यकातरः॥३॥ सख्यं मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन्॥ नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा॥४॥ अर्जुन उवाच॥ वंचितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा॥ येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत्॥५॥
चन्द्रमा दक्ष प्रजापतिके शापसे बहुत कालतक क्षीरसमुद्र में रहा, यह बात सबको विदित है कि चन्द्रमासेअमृत रहता है और कच्छ मच्छ आदि अनेक जलचर उसमें रहतेथे और उसी समुद्र में चन्द्रमा वसताथा, और संसार में ऐसा कोई जीव नहीं जो अपना अमर होना न चाहे सब यही इच्छा रखते हैं कि अमृत मिले तो हम पीकर अमरहो संसारमें रहकर आनन्द भोगैं, परन्तु मच्छ कच्छ सहस्रों वर्पतक चन्द्रमाके संग रहे और अमृतका कुछ ध्यान नहीं किया, जिस प्रकार उन समुद्र के जीवोंने चन्द्रमाका भेद नहीं जाना और उसको भी समुद्रका एकजीव माना, इसी प्रकार हम लोगोंने भी पर ब्रह्म परमात्मा को नहीं पहिचाना यदुवंशीही जाना. अब वह बात समझकर हमको बड़ा पश्चात्ताप आता है कि हाय। हम भाईकेही धोखे में रहे और परमेश्वर हमारे हाथ से निकल गये, हाय। हमने आदि पुरुष अविनाशीको अपना सारथी समझा हे भ्रातः जो समस्त भूमंडल मेरे तेजके सन्मुख थरथर
काँपताथा आज वह मेरा सब तेज नष्ट होगया”॥५॥ जिस प्राणके क्षणमात्रके वियोग होनेसे यह लोग नहीं रहते मृतक कहावे हैं सो प्राणरूप श्रीभगवान् के अन्तर्धान होनेसे हमभी मृतककी समान होगये ॥६॥ जिन श्रीकृष्णचन्द्र के आश्रयसे द्रुपदके यहाॅ आये कामसे उन्मत्त राजाओंका तेज स्वयंवर में मैंने हरा और धनुषसुधाकर मत्स्यवेधन किया और द्रौपदीको हम ले आये॥७॥ जिन श्रीविपिनविहारीके समीप रहकर खाण्डव वन अग्निको भोजन करने के लिये दिया और देवगणसहित सुरेशको जीतकर मयनाम दैत्यकी बनाई हुई अद्भुतसभा जिसमें अनेक अनेक प्रकारकी शिल्पकारी विद्याकी कारीगरी थी सो सभा हमको मिली और आपके यज्ञमें सब देशोके राजाओंने आन आनकर भेटें दीं. यह सब उन्हीं
यस्य क्षणवियोगेन लोको प्रियदर्शनः॥ उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा॥६॥ यत्संश्रयापदगेहमुपागतानां राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम्॥ तेजो हृतं खलु मयाऽभिहतश्च मत्स्यः सज्जीकृतेन धनुषाऽधिगता च कृष्णा॥७॥ यत्संनिधावहम् खांडवमग्नयेऽदामिंद्रं च साऽमरगणं तरसा विजित्य॥ लब्धा सभा मयकृताडतशिल्पमाया दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते॥८॥ यत्तेजसा नृपशिरोंघ्रिमहन्मखार्थे आर्योनुजस्तव गजायुतसत्त्ववीर्यः॥ तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा यन्मोचितास्तदनयन्वलिमध्वरे ते॥९॥पत्न्यास्तवाधिमखप्तमहाभिषेकलाघिष्टचारुकवरं कितवैः सभायाम्॥स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या यस्तत्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः॥१०॥
यदुनन्दनकी दया थी॥८॥ जिन श्रीकृष्णके तेजसे राजाओंके शिरपर चरण धरनेवाला जरासन्ध जिसमें दशसहस्र हाथीका बल था ऐसे बड़े भारी बलवान्को भीमसेनने यज्ञके लिये मारा, और भैरवजीके यज्ञके कारण उसने जिन राजाओंको रोक रक्खाथा उनको छुटाया और वह सब नरेश आपके यज्ञमें भेंट लाये॥९॥ आँखों से आँसू बहाती श्रीकृष्णजीके चरणोंमें पड़ी तुम्हारी द्रौपदीका राजसूययज्ञमें रचित गुँथाहुआ अभिषेक होनेसे श्लाघनीय श्रेष्ट रमणीका जूडा जिन कपटी दुर्योधनादिकोंने सभा में छूकर बखेरा यह देख भीमसेनने प्रतिज्ञा करी, कि इस जूड़ेके खोलनेवालोंको मारकर उनकी स्त्रियोंका जूडा खुलवाया क्योंकि वैधव्य कालमें माथेका जूडा खोलाजाताहै और फिर नहीं बँधता है
इसीप्रकार भगवान्ने विचारा कि मेरे भक्तोंकी स्त्रियोंका जूडा तो थोडेही दिनों खुला रहेगा परन्तु तुम्हारी विधवाओंका जूडा जबतक जियेंगी तबतक खुला रहेगा. यह सब उन्हीं पूर्ण प्रतापीका प्रतापथा॥१०॥* हे नरेद्र! जिन कृष्णजीने वनमें आये दश सहस्र शिष्योंको संगलिये दुर्यो
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरंतकृच्छ्राडर्वाससोऽरिविहितादयुताग्रभुग्यः॥ शाकान्नशिष्टमुपयुज्य यतस्त्रिलोकीं तृप्ता ममंस्त सलिले विनिमग्नसंघः॥११॥ यत्तेजसाऽथ भगवान्युधि शूलपाणिर्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे॥ अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण प्राप्तो महेंद्रभवने महदासनार्धम्॥१२॥
धनके भेजे अत्यन्त दुरन्तकष्टसे दुर्वासा ऋषिसे हमारी रक्षाकरी और शाकपत्रको पाय त्रिलोकी तृप्तकरी, कि जलमें स्नान करते सब चेले भागगये॥१३॥ जिन श्रीकृष्णके तेजसे मैंने पार्वती सहित महादेव शूलपाणिको भुला दिया उन्होंने मुझको अपना पाशुपत अस्त्र दिया फिर औरोंनेभी अनेक
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भारतमें यह इतिहास इस भाँति लिखा है—किसीसमय दुर्योधनने दुर्वासा ऋषिको भोजन करवायाथा. दुर्योधनसे प्रसन्न हो दुर्वासा ऋषि बोले, कि कुछ मागो, तब दुर्योधनने मनमें विचार किया कि दुर्वासाके शापसे पाण्डवकुल नष्ट होजाय तो अच्छा है, तब दुर्योधनने कहा कि युधिष्टिर हमारे कुल्में मुख्यहैं, जब द्रौपदी प्रसाद पायले उस समय तुम दशसहस्र शिष्यों को साथले उसके घरको भोजनको जाना, यह वचन सुन दुर्वासाने वैसाही किया, युधिष्ठिरने दुर्वासाको देख अत्यन्त आदर सन्मान से मध्याह्नकृत्य कर दण्डवत् प्रणाम किया, दुर्वासाने कहा मुनिसमूह जलमें स्नान करनेको गयेहें भोजन करेंगे, युधिष्टिरने कहा बहुत अच्छा यह बात सुन द्रौपदीने चिन्तासे आतुर होकर श्रीकृष्ण विश्वभरका स्मरण किया कि हे दीनानाथ! आज धर्मराजकी और मेरी लाज आपके हाथहे, हे यदुपति! जो मेरी अपति हुई तो आपहीकी अपति है, श्रीकृष्णचन्द्र बनवारी भक्तहितकारी तत्क्षण आन उपस्थित हुए और द्रौपदीसे बूझा क्यों? द्रौपदी बोली, कि हेदीनबंधु! हे भक्तवत्सल! हे भगवन्! आज दुर्वासाऋषिशिष्यों सहित हमारे घर आयेंहैं और यहा भोजनकी कुछ सामग्री उपस्थित नहीं क्या कियाजाय? इस कारण आपका स्मरण किया है यह बात सुन श्रीविश्वनाथ बोले, कि हमभी भूखेहें, पहिले हमको भोजन करादो पीछे दुर्वासाको देखा जायगा, तब द्रौपदी अत्यन्त लज्जित हुई अरु हाथ जोडकर वोली-कि हे स्वामी! मेरे भोजन पर्यन्त अक्षय अन्न बटलोईसे निकलता है, जब में इसमेंका भोजन कर हूँ’ फिर इसमे भोजन नहीं रहता, सो हे नाथ! अब मैं भोजन करचुकी इसमें॥४९॥ अत्र कुछ भोजन नहीं रहा फिर भगवान् बोले कि उस बटलोईको यहातो लाओ यह सुन वह वटलोई लाई उसके किनारेमे कोई शाकान लगा रहगयाथा सो पायकर भगवान् बोले कि इस शाकान्नसे विश्वात्मा भगवान् प्रसन्न होंय यह कह युधिष्टिर से कहा कि, अत्र मुनि समूहको भोजनके लिये बुलाओ सो यह स्नान करके सब भागगये क्योंकि भगवान्ने तो उनके पेट पहलेही भर दियेये, दुर्वासा ऋषिने कहा कि हमने वृथा पाक बनवाया यह भयमान सत्र चलोसमेत दुर्वासा ऋषि वहाँसे भागगये अरु यह वरदान दिया कि वासुदेव भगवान् सदा तुम्हारी जय करे॥
अस्त्र दिये. इसी शरीरसे इन्द्रलोंकमें आधा आसन इन्द्रका हमको मिला॥१२॥ तहाँ स्वर्गमें हम विहार करतेथे तब इन्द्रसहित देवताओंने निवात कवच वैरियोंके मारनेके लिये मेरा गाण्डीव धनुष मेरे भुजदण्डका आश्रय किया था. हे युधिष्ठिर! ऐसा मेरा प्रभाव बढाया ऐसे श्रीद्वारकानाथने अपनी माया दिखाकर मुझको ठग लिया॥१३॥ जिन श्रीकृष्णरूप बन्धुके आश्रितहो अपार भीष्मादि महारथी रूप ग्राहोंसे दुस्तर कुरुसे नारूप सागरको अकेला रथसे पार होगया और मोहास्त्र से मोहितकर उत्तर गोग्रहमें शत्रुओं के शिरोंसे तेजवन्त मणिमय मुकुट कुण्डल पाग बहुत
तत्रैव मे विहरतो भुजदंडयुग्मं गांडीवलक्षणमरातिवधाय देवाः॥ सेंद्राः श्रिता यदनुभावितमाजमीढ तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्ना॥१३॥ यद्वांधवः कुरुबलान्धिमनंतपारमेको रथेन ततरेऽहमतीर्यसत्त्वम्॥ प्रत्याहृतं बहुधनं च मया परेषां तेजास्पदं मणिमयं च हृतं शिरोभ्यः॥१४॥ यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्रराजन्यवर्यरथमंडल मंडितासु॥ अग्रे चरो मम विभो रथयूथपानामायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आच्छेत्॥१५॥यद्दोष्षु मा प्रणिहितं गुरुभीष्म कर्णद्रौणित्रिगर्तशल सैंधवबाहिकाद्यैः॥ अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि नोपस्पृशुर्नृहरिदासमिवाऽऽसुराणि॥१६॥
धन लाया. हाय!सो श्रीकृष्ण हमारे प्यारे अन्तर्धान होगये॥१४॥ हे युधिष्ठिर! बड़े राजेन्द्रों के रथोंसे शोभित भीष्मपितामह, गुरु, कर्ण, शल्य, इनकी सेना में सारथी होकर मेरे आगे चले और उन रथी यूथपालोंकी आयु, मन, बल, सब शस्त्रादिकुशलता दृष्टिसे क्षीण करते चले जातेथे॥१५॥ उन्होंने मुझे अपनी भुजाओंमें रखलिया फिर गुरु, भीष्म, कर्ण, द्रोण, त्रिगर्त, शल्य, सैंधव, बाह्रीक इनके अमोघ महिमावाले तीव्र
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* शंका—कुरुक्षेत्र में जो क्षत्रिय आयेये वह सब मरगये, कौरवो में तीन बचे और पाण्डवोंमें सात बचे, फिर अर्जुनने युधिष्ठिरसे क्यों कहा कि, जिन भगवान् के कृपासे कौरवोंकी समुद्ररूप सेनाको मारकर मैं अकेला पार गया।
उत्तर—युधिष्ठिरसे अर्जुनने निस्सन्देह यह कहा कि, जिन भगवान्की कृपासे कौरवोंकी समुद्ररूप सेनाको मार कर पार हो गया, परन्तु यह बात कुरुक्षेत्रकी नहीं है, जब कौरवोंने विराटकी गायोंको हरना चाहा यह वहाँकी बात है, मीष्मकी आज्ञा पाकर जब कौरवोंने विराटकी गायोंको बलात्कार लेनेकी इच्छा की तब अर्जुनने सव कौरवोंको मूति करके और जो सेनाके बडे बडे नामी योद्धा और बलवान् थे उनके। मुकुट उतार कर बहुत शीघ्रता के साथ विराट नगरको चलागया, और सभामें जाकर उन मुकुटोंको राजा विराटकी भेंटमे रख दिया उस समयकी बात राजा युधिष्ठिरसे अर्जुनने कहीथी॥
अस्त्र मेरे शरीरको स्पर्श न करसके जैसे भगवत्के दासको नीच लोग नहीं छूसते॥१६॥ जिनके चरणकमलका श्रेष्ठजन मोक्षके लिये दिनरात भजन करते हैं जब मेरे घोड़े थकजानेसे में रथसे नीचे उतरकर खडा होगया तब मुझको श्रीकृष्णके प्रभावसे परास्त रथी वैरी न मारसके. ऐसे त्रिलोकीके नाथको मैंने अपना सारथी बनाया, हाय। मुझसे बड़ी भारी भूल हुई॥१७॥ हे नरदेव! श्रीकृष्ण जब उदार रुचिर शोभित मधुर मुसकान युक्त मृदुल मनमोहिनी वाणीसे, हे अर्जुन! हे पार्थ! हे धनंजय! हे सखे! हे कुरुनन्दन! कहते थे वह बातें जब मुझको स्मरण होती हैं तो हृदय में शूलसा खटक जाता है॥१८॥ शय्या, आसन, अटन चाहे जैसे मैं बोलता भोजन इत्यादिमें हे बन्धो! हे सखे! सत्य है जो तुम कहोहो सब सत्य है,
सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मद ईश्वरो मे यत्पादपद्ममभवाय भजंति भव्याः॥ मां श्रांतवाहमरयो रथिनो भुविष्टं न प्राहरन्यदनुभावनिरस्तचित्ताः॥१७॥ नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनंदनेति॥ संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि स्मर्तुलुठति हृदयं मम माधवस्य॥१८॥ शय्यासनादनविकत्थनभोजनादिष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः॥ सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वे सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे॥१९॥ सोहं नृपेंद्र रहितः पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शुन्यः॥ अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन्गो पैर सद्भिरवलेव विनिर्जितोऽस्मि॥२०॥ तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोहं रथी नृपतयो यत आनमंति॥सर्वे क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं भस्मन्हुतं कुहक राद्धमिवोप्तमूष्याम्॥२१॥
ऐसे बोलते जैसे सखाका अपराध सखा सह पिता पुत्रके अवगुण सह श्रीकृष्णजी अपने बडप्पनसे मुझसे कुमतिके अपराध सहतेथे॥१९॥ हे राजन्! अंग, सखा, प्रीतम, हृदयवल्लभ, पुरुषोत्तमके विना में ऐसा शून्य होगया हूँ कि, श्रीकृष्णके परिवारकी रक्षा करते हुए मुझे मार्ग में भीलों ने लूट लिया॥२०॥ देखो भाई! जो पृथ्वी के राजा मेरे नामसे थरथर कांपते थे में वही धनंजय हूँ, और वही रथहै, वही घोडेहें वही धनुपहै, वही बाण हैं वही मेरी भुजा हैं जिन भुजाओंके वलसे मैंने महेश, सुरेश, गन्धर्व और मयनाम राक्षसको परास्त करदिया, और भीष्मपितामह, कर्ण, जयद्रथ आदि बड़े बड़े बलशाली योद्धाओंका विध्वंस किया, और यज्ञके घोड़ेके संग गया अरु बड़े बड़े नामी नरेशोंका मानभंग करके उनको अपने संग
लिया, और सब पृथ्वीपर यज्ञके घोड़ेको फिराकर हस्तिनापुर में लाया, अश्वत्थामाका मस्तक चीरकर मणि निकाली, परन्तु विना द्वारकानाथ के यह सब निष्फल होगये, जैसे भस्ममें कियाहुआ हवन, कपटीसे मिला धन, ऊपरमें बोया अन्न निष्फल होता है॥२१॥ हेनरेन्द्र! सुहृदपुरके सुहृद जो आपने बूझे वह सब दुर्वासा ऋपिके शापसे परस्पर कटकटकर मरगये॥२२॥ “आदिपुरुष अविनाशी त्रिलोकीनाथने चित्तमें विचारा कि, यह यदुवंशी हमारे वंश में बड़े नामी और बलवान् हैं, न जानिये मेरे पीछे संसारमें क्या क्या उपद्रव मचावैं और लोगोंको कैसे कैसे दुःख दें? इसलिये अपने आगेही इन लोगोका कुछ उपाय करना चाहिये, परन्तु अपने हाथसे उनका मारना भी उचित नहीं समझा, इसलिये दुर्वासा ऋपिसे उनको शापदिलवा दिया.” तब वह वारुणी मदिरा पीपीकर ऐसे उन्मत्त हुए कि तनमनकी सुधि बुधि कुछ न रही अजानकी भांति सब परस्पर कटरे, चार पांच
राजंस्त्वयाऽनुपृष्टानां सुहृदां नः सुहृत्पुरे॥ विप्रशापविमूढानां निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः॥२२॥ वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम्॥ अजानतामिवान्योन्यं चतुष्पं चाऽवशेषिताः॥२३॥ प्रायेणैतद्भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम्॥ मिथो निघ्नंति भूतानि भावयंति च यन्मिथः॥२४॥ जलौकसां जले यद्वन्महांतोऽदत्यणीयसः॥ दुर्बलान्बलिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथः॥२५॥ एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान्विभुः॥ यदून्यदुभिरन्योन्यं भृभारान्संजहारह॥२६॥ देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च॥ हरंति स्मरतश्चित्तं गोविंदाभिहितानि मे॥२७॥
शेष रहगये हैं॥२३॥ हे भ्रातः! प्रायः यह ईश्वरकी चेष्टा है कभी परस्पर विध्वंस कराते हैं कभी पालन करते हैं जैसे समुद्रके वासी बडे जीव छोटे जीवों को खाजाते हैं ऐसे बली राजा निर्बलको परस्पर जीत लेते हैं॥२४॥२५॥ ऐसे बली महान् यादवोंसे छोटे छोटे यादवोंका विध्वंस करवाकर भूमिका भार उतारा॥२६॥ देश, काल, योग्य, अर्थ, हृदय तापके नाशक श्रीकृष्ण के वचन जब मैं स्मरण करताहूं तो मेरा चित्त व्याकुल होजाता है, उसी समय मेरे प्राण देहसे निकल जाते; परन्तु इस कारण यह पापी प्राण देहमें पाप भोगनेको रह गये, जब यदुनाथ परमधामको सिधारे तब दारुक सारथी से मुझे यह बात कहलाभेजी थी कि, स्त्री और बालकोंको द्वारकासे हस्तिनापुरको अपने साथ ले जाना, और मेरे वियोगका कुछ शोच मत करना जो कुछ ज्ञान गीता में हमने तुमसे कहा है उसीके अनुसार इस शरीरको
झूठा समझना और चैतन्य आत्माको सत्य जानकर अपने मनको धैर्य देना, हे भ्रातः! वही ज्ञान समझकर मैंने संतोष किया है॥२७॥ ऐसे सोचते सोचते अर्जुनने श्रीकृष्ण के चरणकमलको हृदयमें धारणकर अपने चित्तको धैर्य दिया॥२८॥ और भगवान् वासुदेवके चरणों में प्रीति बढाई, जिस भक्तिके प्रभावसे सब कामादिक अरु मल नष्ट होगये॥२९॥ जिस गीताका ज्ञान संग्रामके आदिमें भगवान् ने मुझको सुनाया था, वह ज्ञान काल कर्म अन्धकारसे मैं भूल गयाथा, अब फिर श्रीकृष्णकी कृपासे प्राप्त हुआ॥३०॥ ब्रह्मज्ञानसे जब अविद्या लीन होगइ तो फिर निर्गुणहो, स्थूलशरीरहीन सुन्दर भोग भोग्य होकर, द्वैतभ्रम सव नष्ट होगया तव विशोक होता है॥३१॥ भगवन्मार्गकी बात सुनकर यदुकुलका विध्वंस सुनकर युधिष्ठिरने निश्चल चित्त करके स्वर्गके जानेका विचार किया. “भीमसेन सहदेवादि अपने भाइयोंसे कहा—अब हम
एवं चिंतयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम्॥ सौहार्देनातिगाढेन शांताऽऽ सीद्दिमला मतिः॥२८॥ वासुदेवांत्र्यभिध्यापरिबृंहितरंहसा॥ भक्त्या निर्मथिताशेषकषायधिषणोऽर्जुनः॥२९॥ गीतं भगवता ज्ञानं यत्तत्संग्राममूर्धनि॥ कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद्विभुः॥३०॥ विशोको ब्रह्मसंपत्त्या संच्छिन्नद्वैतसंशयः॥ लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसंभवः॥३१॥ निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च॥ स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः॥३२॥ पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम्॥ एकांतभक्त्या भगवत्यधोक्षजे निवेशितात्मोपररामसंसृतेः॥३३॥ ययाऽहरडवो भारं तां तनुं विजहावजः॥ कंटकं कंटकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्॥३४॥
जीकर क्या करेंगे? और यह राज्य हमारे किस कामका है ? जब हमारी बातका बूझनेवाला और पतिका रखनेवाला नहीं है. जब २ हमपर भीड पडतीथी उसीसमय आयके सहाय किया करते थे, हाय! अव कौन हमारी रक्षा करेगा?”॥३२॥ अर्जुनके मुखसे द्वारकानाथ परमवामके जानेका समाचार कुन्तीने सुनकर एकान्तभक्ति कर भगवान् वासुदेव में मन लगाय हाय करके अपना शरीर त्यागकर जीवन्मुक्त हुई, “और द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा आदिने रोरोकर इतना विलाप किया कि जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता”॥३३॥ युधिष्ठिर बोले, क्यों वृथाविलाप करो हो? जन्मरहित भगवान् ने जिस शरीरसे भूमिका भार दूर किया उस शरीरको भी त्याग दिया. जैसे कांटको कांटेसे निकालें हैं ऐसेही समझो
क्योंकि परमेश्वरको तो दोनों शरीर समान हैं॥३४॥ जैसे मत्स्यादिक रूपको अजन्मा ईश्वर धारण करें, त्यागन करे है; जैसे नट अनेक रूप धरता है फिर त्यागन करता हैं जिस देहसे जैसे भूभारका नाश किया, ऐसेही वह तनुभी त्याग दिया॥३५॥ जब श्रीकृष्णचन्द्र इस संसारको त्यागकर परमधामको गये उसी दिन से अज्ञानियोंके चित्तमें अधर्मका हेतु कलियुग आनकर वर्तने लगा॥३६॥ बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरने अपने घर, राज्य, नगरमें कलियुगका आगमन जान, लोभ, झूठ, कपट, हिंसा, अधर्मका चक्र आता देख वनगमनकी इच्छा करी॥३७॥ राजा युधिष्ठिरने अपने पोतेको गुणमें अपने समान विनयी गुणग्राही जान समुद्रपर्यन्त भूमिका राज्यतिलक हस्तिनापुर में करदिया
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद्यथा नटः॥ भूभारः क्षपितो येन जहाँ तच्च कलेवरम्॥३५॥ यदा मुकुंदो भगवानिमां महीं जहाँ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथः॥ तदा हरे वाऽप्रतिबुद्धचेतसामधर्महेतुः कलिरन्ववर्तत्॥३६॥ युधिष्ठिरस्तत्परि सर्पणं बुधः पुरे च राष्ट्रे च गृहे तदात्मनि॥ विभाव्य लोभान्नतजिह्महिंसनाद्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात्॥३७॥ स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः॥ तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिंच जाये॥३८॥ मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः॥ प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमनीनपिवदीश्वरः॥३९॥ विस्सृज्य तत्र तत्सर्वं दुकूलवलया दिकम्॥ निर्ममो निरहंकारः संच्छिन्नाशेषबंधनः॥४०॥ वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम्॥ मृत्यावपानं सोत्सर्ग तं पंचत्वे, जोहवीत्॥४१॥ त्रित्वे हुत्वाऽथ पंचत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः॥ सर्वमात्मन्यजुहवीद्ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥४२॥ चीरवासा निराहारो बडवाङ मुक्तमूर्धजः॥ दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत्॥४३॥
॥३८॥ और शूरसेनदेशके पति वज्रनाभको मथुराका राज्याभिषेक कर प्राजापत्य इष्टिकर अग्रिको परमेश्वरने पीलिया॥३९॥ तहां सब वस्त्र कंकण आदिकोंको त्याग, ममता छोड़, अहंकार तज, सब उपाधिको अलग किया॥४०॥ वाणीको मनमें लगाय, मनको प्राणमें लीनकर, प्राणको अपान में और अपानको मृत्युमें लीनकर उत्सर्ग वायु के सहित मृत्युको पंचत्वमें होम दिया॥४१॥ पंचभूतों को त्रिगुणमें, त्रिगुणको अविद्यामें अविद्याको जीवमें, जीवको अव्यय ब्रह्म में लीन करदिया॥४२॥ चीर वस्त्रपहन, भोजनत्याग, मौन बन, सिरके बाल खोल अपना रूप
पांचों भाइयोंने जड़ उन्मत्त पिशाचकी सदृश बनालिया॥४३॥ सबकी ओरसे दृष्टि फेरली, कान बन्द करलिये, वाहिरेसे वन उत्तर दिशाको चल दिये उस दिशाको बड़े बड़े महात्मापुरुष पहिले भी गये हैं॥४४॥ हृदयमें परब्रह्मका ध्यान करें हैं, जहांके गये फिर नहीं आते हैं, का वेत्ता ब्रह्मही होता है पीछे ब्रह्मलोकको जाता है सब भैया निश्वयकर युधिष्ठिरके पीछे चलदिये॥४५॥ अधर्मके मित्र कलियुगने सव प्रजा भूमिमें स्पर्श कर लिया यह देखा॥४६॥ सब कृत्योंको साधकर, आत्माकी अत्यन्त क्षेम जान वैकुण्ठनाथ भगवान्के चरणारविन्दोंका मनसे ध्यान करने लगे॥४७॥ उनके ध्यान और बढ़ी हुई भक्ति से सब इन्द्रियें विशुद्धकर परात्पर नारायणमें एकान्त मतिकर परमगतिको प्राप्तहुए विपयी असत् पुरुषोंको वह नहीं प्राप्त होती
अनवेक्षमाणो निरगादशृण्वन्वधिरो यथा॥ उदीचीं प्रविवेशाऽऽशां गतपूर्वी महात्मभिः॥४४॥ हृदि ब्रह्म परं ध्यायन्नाऽऽवर्तेत यतो गतः॥ सर्वे तमनु निर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः॥४५॥ कलिनाऽधर्ममित्रेण दृष्ट्वा स्पृष्टाः प्रजा भुवि॥ ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वाऽऽत्यंतिकमात्मनः॥४६॥ मनसा धारयामासुर्वैकुंठचरणांबुजम्॥ तद्ध्यानोद्रिक्तया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे॥४७॥ तस्मिन्नारायण पदे एकांतमतयो गतिम्॥ अवापुरखापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः॥ विधूतक ल्मषाः स्थानं विरजेनात्मनैव हि॥४८॥ विदुरोपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान्॥ कृष्णात्रेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ॥४९॥ द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम्॥ वासुदेवे भगवति कांतमतिराप तम्॥५०॥ यः श्रद्धयैतद्भगवत्प्रियाणां पाण्डोः सुतानामिति सम्प्रयाणम्॥शृणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रं लब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम्॥५१॥ इति श्रीमद्धा० महा० प्रथ० पञ्चदशोध्यायः॥१५॥
सब कल्मष धोयकर निर्मल शरीर हो, वैकुण्ठस्थानको गये॥४८॥ आत्मज्ञानी विदुरजी भी प्रभासक्षेत्र में देह त्यागकर श्रीकृष्ण में चित्त लगाय युधि ष्ठिरादिसहित अपने अधिकारस्थानको गये॥४९॥ अपनी ओर न देखें ऐसे पतियोको जान द्रौपदी भगवान् वासुदेवमें एकान्तमन लगाय परम पदको प्राप्त हुई॥५०॥ भगवत् के प्यारे पाण्डुके पुत्रोंका यह स्वर्गारोहण श्रद्धासे जो सुने हैं वह पवित्र होते हैं सदा मंगल होते हैं, श्रीनारायणमें भक्ति होकर सिद्धिको प्राप्त होते हैं॥५१॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कंधे भाषाटीकायां पाण्डवस्वर्गारोहणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
दोहा—पाय परीक्षित राज जिमि, देखे सब निज देश॥ सो सब वरणों हितसहित, जो कुछ लखेउ नरेश॥१५॥ सूतजी बोले कि, हे शौनक ऋषि! महाभागवत परीक्षित जब ब्राह्मणोंकी शिक्षासे पृथ्वीकी रक्षा करनेलगे, जन्मके समय सब विद्वान् आनकर जैसे जैसे गुण कह गयेथे, वैसेही सब महागुण उनमें सम्पन्न थे॥१॥ राजा परीक्षितने राजा उत्तरकी पुत्री इरावतीके साथ विवाह किया उससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए॥२॥ ब्राह्मणों को अनेक प्रकारके दान दक्षिणा देकर तीन अश्वमेध यज्ञ किये. गंगातीरपर कृपाचार्यको गुरु कर, जिस यज्ञमें देवता सन्मुख आन आन कर अपना अपना भाग लेगये॥३॥ किसी समय राजाओंकेसा वेष धारण किये शूद्र गौको और बैलको पॉवसे मारता
सूत उवाच॥ ततः परीक्षिद्द्विजवर्यशिक्षया महीं महाभागवतः शशास ह॥ यथा हि सत्यामभिजातकोविदाः समादिश विप्र महद्वणस्तथा॥१॥ स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम्॥जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत्सुतान्॥२॥ आजहाराश्वमेधांस्त्रीन्गंगायां भूरिदक्षिणान्॥ शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षगोचराः॥३॥ निजग्राहौजसा वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित्॥ नृपलिंगधरं शूद्रं नतं गोमिथुनं पदा॥४॥ शौनक उवाच॥ कस्य हेतोर्निजग्राह कलिदिग्विजये नृपः॥ नृदेवचिह्नधृद्रः कोसौ गा यः पदाऽहनत्॥५॥ तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम्॥ अथ वास्य पदांभोजमकरंद लिहा सताम्॥ किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्ययः॥६॥ क्षुद्रायुषां नृणामंग मर्त्यानामृतमिच्छताम्॥ इहोपहूतो भगवान्मृत्युः शामित्रकर्मणि॥७॥ न कश्चिन्प्रियते तावद्यावदास्त इहान्तकः॥ एतदर्थं हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः॥ अहो नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः॥८॥
कलियुगको दिग्विजय में अपने पराक्रमसे राजाने पकड़ा॥४॥ शौनक ऋषि बोले, कि राजा परीक्षितने दिग्विजयमें किसलिये कलियुगको पकड़ा? राजाओं के चिह्न धारनेवाला वह शूद्र कौन था, जो पाँवसे गौको मारताथा?॥५॥ हे महाभाग! जो कृष्णकथा अधीन बात होय सो अथवा श्रीकृष्णके पदकमलके मकरन्दके स्वाद लेनेवाले संतोंकी कथा होय सो कहो। खोटी कथाओंसे क्या प्रयोजन है जो वृथा आयुको क्षय करें, जो लोग वृथा अपनी आयको खोते हैं वही नरक वास करते हैं॥६॥ मुने! थोड़ी आयु मरणवाले मोक्षकी इच्छावाले मनुष्योंको मृत्यु है, उसको सब कर्म बन्धनका शमन करनेवालेने यज्ञमें बुलाया॥७॥ जबतक यह मृत्यु यहां रहेंगी तबतक कोई नहीं मरेगा. इसलिये भगवान्,
मृत्युको और परम ऋषियोंको बुलाया और कहा तुमभी यहां बैठकर कथा सुनाकरी. अहो मनुष्यो! नरलोकमें हारलीला कथा अमृत पियो॥८॥ कलियुग में हरिचरित्र श्रवण करनेसे इष्टापूर्त आदि कराये सदृश फल होता है। मंद, मंद बुद्धिवाले, थोड़ी आयुवाले जीव रात तो सोनेमें गमावे हैं और दिन व्यर्थ कर्मों में खोवे हैं॥९॥ सूतजी बोले, कि जब परीक्षित् कुरु जांगल देशमें बसतेथे तब अपने चक्रसे रक्षित राज्य में कलियुग आता जानकर बहुत अमांगलिक बातें सुन परीक्षितने धनुष बाण हाथमें लिया॥१०॥ सेनापतिको बुलाकर कहा शीघ्र सेना
“यस्मिन्पीते कृतं सर्वमिष्टापूर्वादिकं भवेत्”॥ मंदस्य मंदप्रज्ञस्य वयो मंदायुषश्च वै॥निद्रया हियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः॥९॥ सूत उवाच॥ यदा परीक्षित्कुरुजांगले वसन्कलिं प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते॥निशम्य वार्तामनतिप्रियां ततः शरासनं संयुगशौडिराददे॥१०॥ स्वलंकृतं श्यामतुरंगयोजितं रथं मृगेंद्रध्वजमास्थितः पुरात्॥वृतो रथाश्वद्विपपत्तियुक्तया स्वसेनया दिग्विजयाय निर्गतः॥११॥ भद्राश्वं केतुमालं च भारतं चोत्तरान्कुरून्॥ किंपुरुषादीनि सर्वाणिविजित्य जगृहे बलिम्॥१२॥ तत्रतत्रोपशृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम्॥प्रगीयमानं च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम्॥१३॥ आत्मानं च परित्रातमश्वत्थाम्नोऽस्त्रतेजसः॥स्नेहं च वृष्णिपार्थानां तेषां भक्तिं च केशवे॥१४॥
सजाओ सुन्दर शृंगार किये श्यामकर्ण घोड़े जिसमें जुतेहुए सिंहध्वज रथमें बैठे रथ घोड़े हाथी सिपाहियोंकी चतुरंगिनी सेना संग लिये दिग्विजयको निकले॥११॥ भद्राश्व, केतुमाल, भारतवर्ष, उत्तरकुरु, किंपुरुष, हरिवर्ष, रम्यक, हिरण्मय, इत्यादि खंडोंको जीतकर बलि लिया॥१२॥ और उन खण्डोंमें अपने पूर्वके महात्मा पुरुषोंका और कृष्णका माहात्म्य जतानेवाला गायाहुआ यश सुना॥१३॥ अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे
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*शंका—जब राजा परीक्षित् दिग्विजयको गये तब पाण्डर्वोका यश सब दिशान्तरोंमें सुना, वह पाण्डवोंका यश और बडाई करनेवाले कौन थे ? क्योंकि जिनको पाण्डवोंने दण्ड दिया उन्होंने पाण्डवोंका यश क्यों गाया?
उत्तर—जुआरी, चोर, व्यभिचारी, ठग, बटमार, लम्पट और लबारी आदि लेकर जो अनेक दुष्ट हैं, जिनसे भयभीत और डरे हुए जो मुनिजन थे वह सव वारवार अनेक अनेक प्रकारसे पाण्डवोंका यश गान करकर के राजा परीक्षित को सुनातेथे, कि हे राजन्! तुम्हारे दादा परदादा ऐसे वर्मात्मा और बलवान् थे कि जिनके राज्यमें हम सब आनन्दसे तप करतेथे, और अब तुम्हारे राज्यमें दुष्ट और अत्याचारी हमारी तपस्या में मग डालतेहैं, और दुःख देतेहैं ऐसे दुख भरे मुनियोंके वचन सुनकर राजा परीक्षित्ने उसी समय दुष्टोंको मारकर मुनियोंको निर्भय रूप धन प्रदान किया॥
अपनी रक्षा, यादवोका और पाण्डवोका स्नेह, उनकी केशव में भक्ति यह सुनी॥१४॥ उनपर अति सन्तुष्ट हो, प्रीति से प्रफुल्लित नयन करमहामना परीक्षितने महाधन वस्त्र हार दिये॥१५॥ अपने प्यारे पाण्डवों का सारथीपन, पारषद बनना, सेवा करनी, सख्यभाव, दूत बनना, वीरासन बैठकर रक्षा करनी, उनके पीछे चलना, प्रणाम करना, विष्णुकी जगत्कर्तृता सुन राजा परीक्षितने विष्णुके चरणारविन्दोंमें मन लगादियां॥१६॥ ऐसे राजा थे दिन रात उनकी ऐसी वृत्ति थी पूर्वपुरुषोंकी भाँति राज्य करतेथे थोड़ी देर पीछे एक ऐसा आश्चर्य हुआ सो सुनो॥१७॥ वृषरूपधारी धर्म एक पदसे चलता है और उसके तीन पद टूटरहे हैं आँखोंसे आंसू चलेजातेहैं, कान्तिहीन, बछडे जिसके
तेभ्यः परमसंतुष्टः प्रीत्युज्जृंभितलोचनः॥ महाधनानि वासांसि ददौ हारान्महामनाः॥१५॥सारथ्यपारषद सेवन सख्यदौत्यवीरासनानुगमनस्तवनप्रणामम्॥ स्निग्धेषु पांडुषु जगत्प्रणतिं च विष्णोर्भक्तिं करोति नृपतिश्चरणारविंदे॥१६॥ तस्यैवं वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम्॥ नातिदूरे किलाश्चर्ये यदासीत्तन्निबोध मे॥१७॥ धर्मः पदैकेन चरन्विच्छायामुपलभ्यगाम्॥ पृच्छति स्माऽश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम्॥१८॥कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते विच्छायाऽसि म्लायतेषन्मुखेन॥ आलक्षये भवतीमंतराधिं दूरे बंधुं शोचसि कंचनांव॥१९॥ पादैर्धूनं शोचसि नैकपादमात्मानं वा वृषलैर्भीक्ष्यमाणाम्॥अथ सुरादीन्हृतयज्ञभागान्प्रजा उतस्विन्मघवत्यवर्षति॥२०॥
नष्ट होगये हैं, सबकी माता पृथ्वी गोरूप धारण किये उसके समीप खड़ी है दोनों परस्पर कुछ वार्तालाप कर रहे हैं. धर्मने पूछा॥१८॥ हे भद्रे! हे अम्ब! तुम अच्छी तो हो? मुख मलीनसा होरहा है तनु छीन दिखाई देती है आपके हृदय में कुछ पीडा तो नहीं है? अथवा तुझारे बन्धु कहीं दूर तो नहीं चलेगये जिस कारण तुम्हारी यह दशा है?॥१९॥ क्या तुमको मेरे पैर टूटे देखकर शोच होगया जो तुम रोतीहो? कदाचित् तुमको मेरे तीन पांव टूटजानेका दुःखहै? तुमपर शूद्र राज्य करें हैं यह कष्ट है? अथवा यज्ञमें जिनको भाग नहीं मिलता उन देवताओंका शोक है? वा प्रजाका
दुःख है क्या मेघ जो नहीं बरसता यह संशय है॥२०॥ हे पृथ्वी! पत्यादि स्त्रीकी, माता पिता पुत्रकी रक्षा नही करते हैं क्या यह सतापहै? वा पुरुष खानेवाले निर्दयिओंसे महाक्लेशित सबहैं यह विषाद है? कुकर्मियोंमें सरस्वती जाय बसी अथवा जो ब्राह्मणोंको न मानें उनके घर लक्ष्मीदेवी गई, राजा लोग त्राह्मणोंको न मानने लगे, कुलीन ब्राह्मण सेवकाई करने लगे क्या यह सन्देह है?॥२१॥ अथवा कलियुगग्रसित क्षत्रिय होगये, उनके राज्य सब कलियुगी होगये सब जीव इधर उधर भोजनके लिये, जल पीनेके अर्थ ज्ञानके कारण मैथुन करनेको ऊपरको मुख उठाये फिरें॥२२॥ हे अम्ब! हे धरणि! अथवा तुम्हारे ऊपर जो बडाभारी भार है इसके उतारनेवाले ईश्वर अवतारधारी अन्तर्धान होगये यह शोक तो नहीं है? वा मोक्षदायक
अरक्ष्यमाणाः स्त्रिय उर्विं बालाञ्छोचस्यथो पुरुपादैरिवार्तान्॥ वाचं देवीं ब्रह्मकुले कुकर्मण्यब्रह्मण्ये राजकुले कुलाग्र्यान्॥२१॥ किंक्षत्रबंधून्कलिनोपस्पृष्टान्राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि॥ इतस्ततो वाऽशनपानवासः स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम्॥२२॥ यद्वांब ते भूरिभरावतारकृतावतारस्य हरेर्धरित्रि॥ अंतर्हितस्य स्मरती विसृष्टा कर्माणि निर्वाणविलंबितानि॥२३॥ इदं ममाचक्ष्व बताऽऽधिमूलं वसुंधरे येन विकर्शितासि॥ कालेन वा ते वलिना वलीयंसा मुरार्चितं किं हृतमद्य सौभगम्॥२४॥ धरण्युवाच॥ भवान्हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि॥ चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः॥२५॥ सत्यं शौचं दया क्षांतिस्त्यागः संतोष आर्जवम्॥ शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम्॥२६॥
उनके करेहुए कर्मोको स्मरण करोहो?॥२३॥ हे वसुन्धरे! जिसलिये तुम अतिकृशितहो, सो अपने दुःखका कारण कहो। अथवा बलियोंके बली काल सहित देवताओंका पूजनीय सौभाग्य अब हरा गया है क्या यह अप्रसन्नता है?॥२४॥ पृथ्वी बोली—हे धर्म! आप तो सब जानो हो! तो भी तुम मुझसे बूझोहो, अच्छा में ही कहती हूं, लोकके सुखदाता चारपादसे आप वर्तते हैं॥२५॥ यथार्थ बोलना १ शुद्ध रहना २ पराया दुःख न सहना ३ क्रोध आवै उस समय मनको रोकना ४ धन मांगे उसको सदा धन देना ५ सदा मग्न रहना ६ किसीसे टेढा न होना ७ मनको निश्चल रखना ८ बाह्य इन्द्रियों का निश्चल करना ९ अपने धर्मका त्याग न करना १० शत्रु मित्रका दुर्भाव न रखना ११ औरके अपराध सहना १२
लाभ प्राप्तिमें उदासीन रहना १३ सत्शास्त्रका विचार करते रहना १४॥२६॥ परमेश्वर है यह ज्ञान मानना १५ तृष्णाका त्याग करना १६ हमारा नियन्ता है यह मानना १७ संग्राम में उत्साह करना १८ प्रभाव रखना १९ चतुराई रखना २० जो काम करना हो उसका स्मरण रखना २१ पराधीन न रहना २२ सब क्रिया कर्म में निपुण रहना २३ सदा शोभायमान रहना २४ कभी व्याकुल न होना २५ कठोर चित्त न रखना २६॥२७॥ बुद्धिको प्रकाशित रखना २७ विजयी रहना २८ सुन्दर स्वभाव रखना २९ सहनशक्ति रखना ३० पराक्रम रखना ३१ देहमें बल रखना ३२ सब भोग भोगना ३३ गम्भीरचित्त रहना ३४ चञ्चल न रहना ३५ सबमें श्रद्धा रखना ३६ जिसमें यश होय सो काम करना ३७ पूजा होय सो
ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्य शौर्य तेजो वलं स्मृतिः॥ स्वातंत्र्यं कौशलं कांतिधैर्यं मार्दवमेव च॥२७॥ प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः॥ गांभीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः॥२८॥ एते चान्यं च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः॥ प्रार्थ्या महत्त्वमिच्छद्भिर्न वियंति स्म कर्हिचित॥२९॥ तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन सांप्रतम्॥ शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम्॥३०॥ आत्मानं चानुशोचामि भवतं चाऽमरोत्तमम्॥ देवान्पितृन्नृषीन् साधून्सर्वान्वर्णास्तथाऽऽश्रमान्॥३१॥ ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपांगमोक्षकामास्तपः समचरन्भगवत्प्रपन्नाः॥ सा श्रीः स्ववासमरविंदवनं विहाय यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता॥३२॥
कर्म करना ३८ अभिमान न करना ३९॥२८॥ हे भगवन्! यह उन्तालीस गुण भागवानमें हैं और भी महागुण हैं, महत्त्वकी इच्छावालोंको यह करना योग्य है हरिमेंसे यह गुण कभी भी नहीं जाते॥२९॥ सव गुणपात्र श्रीनिवास सदा हितकारी अब इस पृथ्वीपर नही हैं इसलिये शोच करूंहूं कि पापी कलियुगने सब लोग ग्रसलिये हैं यही शोच है॥३०॥ मेरे तो वत्स न रहे, केवल आप एक पदसे रहे हैं, देवश्रेष्ठको, देवताओंको, पित्रोंको, ऋषियोंको, साधुवों को, सब ब्राह्मण आदि वर्णोंको, सब आश्रमों को मैं शोचती हूं॥३१॥ लक्ष्मीका कटाक्ष हमपर होय यह कामना कर बहुत दिनतक भगवत्प्रपन्न ब्रह्मादिकने तप किया. सो लक्ष्मी अपने वासस्थान कमलको त्यागकर जिनके चरणारविन्दकी सुन्दरताको अपने हृदय में
ध्यान करती है॥३२॥ भगवान्के कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा इत्यादि चिह्न अंकित श्रीमच्चरणकमलमें अलंकृत थी, और भगवत् विभूतिको प्राप्त होकर त्रिलोकी में शोभायमान हुई, यह गर्व जब मुझको हुआ तो सब लोकसमेत मुझे त्यागदिया यह शोच है॥३३॥ मेरे ऊपर अति भारकारी असुरवंशी राजाओंकी सैकड़ो अक्षौहिणी आपने अपने अधीन होकर मारडालीं स्थित होनेमें असमर्थ आप धर्मको अपने पुरुषार्थसे स्थापन कर यादवों में शरीर धारणकर कार्य किया॥३४॥ प्रेमका अवलोकन, मनोहर मुसकान, कोमल वचनोंसे सत्यभामादिकका मान धीरता मथन करतेहुए उनके शोभायमान चरणस्पर्शसे मुझे रोमांच हो आताथा। ऐसे मनमोहनका विरह कौन सहन कर सक्ता है?॥३५॥ धरणी और
तस्याऽहमब्जकुलिशांकुशकेतुकेतुः श्रीमत्पदैर्भगवतः समलंकृतांगी॥ त्रीनऽत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं लोकान्स मां व्यसृजदुत्स्मयतीं तदंते॥३३॥ यो वै ममातिभर मासुरवंशराज्ञामक्षौहिणी शतमपानुददात्मतंत्रः॥ त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण संपादयन्यदुषु रम्यमविभ्रदंगम्॥३४॥ का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य प्रेमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्यैः॥ स्थैर्ये समानमहरन्मधुमानिनीनां रोमोत्सवो मम यदंघ्रिविटंकितायाः॥३५॥ तयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा॥परीक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम्॥३६॥ इति श्रीमद्भा० महा० प्रथम० षोडशोध्यायः॥१६॥
६॥ सूत उवाच॥ तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत्॥ दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलांछनम्॥१॥ वृषं मृणालधवलं मेहतमिव विभ्यतम्॥ वेपमानं पर्देकेन सीदंतं शूद्रताडितम्॥२॥
धर्ममें परस्पर यह वार्ता होरहीथी, उसी समय पूर्ववाहनी सरस्वती युक्त कुरुक्षेत्र में परीक्षित् नामक राजऋपि पहुँचे॥३६॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां धरणीधर्मसंवादे षोडशोऽध्यायः॥१६॥ दोहा-सप्तदशम अध्याय में, धर्मनृपतिसंवाद। जेहिप्रकार मेटो सकल, धरणीधर्मविपाद॥१७॥ सूतजी बोले कि हे शौनकऋषि! तहां राजापरीक्षितने देखा कि दण्ड हाथमें लिये शूद्र राजाओंकासा वेप किये, एक पुरुष गाय बैलको मार रहा है॥१॥ कमलनालकी समान श्वेतवर्ण भयभीत एक पदसे स्थित चलने में असमर्थ होने के कारण कम्पायमान गोबर
करते हुए दुःखित शूद्रसे ताडित बैलको देखा॥२॥ धर्मको पूर्ण करनेवाली, दीन, शूद्रके चरणप्रहारसे तिरस्कृत, वत्सहीन, कृशित, भोजनमें इच्छाहीन नेत्रों से आंसू बहाती, गोरूपधारिणी पृथ्वी देखी॥३॥ राजा परीक्षित् सुवर्णखचित रथमें बैठे, धनुपबाण चढाये मेघसमान गम्भीरवाणीसे बूझने लगे॥४॥ अरे नीच! तू कौन है? सब पृथ्वीका राजा तो मैं हूं और मेरे सन्मुख अपने बलसे निर्बलोंको मारता है, प्रगटमें तैंने राजाका वेष धारण कर रक्खा है. परन्तु नटकी नाई है, तेरा कर्म शूद्रों के समान है॥५॥तू कौन है? क्या गांडीव धनुपधारी अर्जुनको तैंने दूर गया जाना है, और श्रीकृष्णचन्द्र महाराज त्रिलोकीनाथको तू भूलगया अरु उनको वैकुंठ गया समझा? क्या तैंने पृथ्वीको अभीसे वीरहीन
गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम्॥ विवत्सामश्रवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम्॥३॥ पप्रच्छ रथमारूढः कार्तस्वरपरिच्छदम्॥ मेघगंभीरया वाचा समारोपितकार्मुकः॥४॥ कस्त्वं मच्छरणे लोके बलार्द्धस्यवलान्बली॥ नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाऽद्विजः॥५॥ कस्त्वं कृष्णे गते दूरं सह गांडीवधन्वना॥ शोच्योऽस्यशोच्यानहसि प्रहरन्वधमर्हसि॥६॥ त्वं वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन्॥ वृषरूपेण किं कश्चिद्देवो नः परिखेदयन्॥७॥ न जातु कौरवेंद्राणां दोर्दडपरिरंभिते॥ भूतले नुपतंत्यस्मिन्विना ते प्राणिनां शुचः॥८॥ मा सौरभेयाऽनुशुचो व्येतु ते वृषलाद्भयम्॥ मा रोदीरंब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि॥९॥ यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यंते साध्वसाधुभिः॥ तस्य मत्तस्य नश्यति कीर्तिरायुभगो गतिः॥१०॥
समझ लिया?” जो गायको और बैलको एकान्तमें सताता है. इस कारण तू महा अपराधी है अरु वध करने योग्य है॥६॥ तब राजाने बैलसे बूझा हे कमलनालसदृशधवलेकाय। तुम कौन हो? अरु तीन पांवरहित हो? एकचरणसे चलना चाहते हो, बैलरूप धारण किये कोई देवता तो तुम नहीं हो जो मुझे भ्रम कराते हो?॥७॥ कौरवो के भुजदण्डों से रक्षित पृथ्वीपर तुम्हारे विना किसी प्राणीमात्रके दुःखसे आंसू नहीं निकलते॥८॥ हे सुरभिनंदन! इस शूद्धसे अब तुमको कुछ भय नहीं होगा, हे गोमाता। तुम्हाराभी कल्याण होगा मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूं॥९॥ जिंग गजाके देशमें साधुप्रजा दुष्टोंसे दुःखित होती है. उस मदान्ध राजाके चार गुण, कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य, परलोक, नष्ट हो जाते हैं॥१०॥
राजाओंका यही परम धर्म है कि आतोंकी पीड़ा दूर करनी इसलिये मैं इस दुष्टको जीता नहीं छोडूंगा॥११॥ हे सुरभिनन्दन! तुम्हारे तीन चरणों को।किसने तोडा तुम तो चार चरणवाले हो “तुम शीघ्र बताओ? मैं अभी उसके हाथ काटूंगा, मैं श्रीकृष्णचन्द्रके सेवक अर्जुनका पोताहूं, जो तुम्हारा दुःख दूर नहीं करूंगा तो पाण्डवोंके कुलको दोष लगेगा, मनुष्य की तो क्या सामर्थ्य है जो देवताभी मेरे राज्यमें आन किसी दीनको सतादेगा, निःसन्देह उसी समय उसका शिर काट डालूंगा” श्रीकृष्ण के सेवक राजाओ के राज्य में तुमसरीखा कोई न होय॥१२॥ हे वृप! तुम्हारा कल्याण हो निरपराधी
एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः॥ अत एवं वधिष्यामि भूतगुहमसत्तमम्॥११॥ कोऽदृश्चत्तव पादांस्त्री सौरभेय चतुष्पद॥ मा भूवंस्त्वादृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम्॥१२॥ आख्याहि दृष भद्रं वः साधूनामकृतागसाम्॥ आत्मवैरूप्यकर्तारं पार्थानां कीर्तिदूषणम्॥ जनेऽनागस्यवं युंजन्सर्वतोऽस्य च मद्भयम्॥१३॥ अनागस्स्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरंकुशः॥ आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि सांगदम्॥१४॥ राज्ञो हि परमो धर्मः स्वधर्मस्थानुपालनम्॥ शासतोऽन्यान्यथाशास्त्रमनापद्युत्पथानिह॥१५॥ धर्म उवाच॥ एतद्वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ता भयं वचः॥ येषां गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान्कृतः॥१६॥
साधु सन्तोंको विरूप करना यह राजाओं की कीर्ति को दूषण लगानेवाला है॥१३॥ निरपराधी पुरुषको अपराध लगानेवालेको सब ओरसे मेरा भय रहता है, ब्राह्मण, बालक, गौ इनको जो दोष निरंकुश होकर लगावै वह देवता भी होय तो उसकी बाजू समेत भुजा काटडालूं॥१४॥ परम धर्म राजाओंका यही है कि स्वधर्म में जो स्थित हो उसका पालन करना और विना विपत्तिके समय पाखण्डियों को शास्त्र के अनुसार शिक्षा करना॥१५॥ धर्म बोला, कि पाण्डुवंशियोंको यही अभयदान वचन कहना युक्त है जिनके गुणोंसे वशीभूत भगवान्ने दूतादिक कर्म स्वीकार कियेथे॥१६॥
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*शंका—वेलरूप धर्मसे राजा परीक्षितने पूछा कि हे धर्मरूप वृष! तुमको कौनसा दुष्ट प्राणी दुःख देताहै, उसको मुझे बताओ, में अभी तुम्हारे दुखदेनेवाले दुष्टको मारडालूंगा, तब धर्म अपने दुःख देनेवाले शत्रुको नहीं बताया कि कलियुग मुझको बढा दुःख देता है, यह बडे आश्चर्य की बात है कि क्यों नहीं बताया, और क्यों झूठ बोला कि मैं अपने दुःखदेनेवालेको नहीं जानता? झूठ बोलना धर्मका काम नहीं।
उत्तर—धर्मने ऐसा विचार कर राजा परीक्षितके सन्मुख अपने वैरीको नहीं बताया, कि यह राजा परीक्षित् पाण्डवोंका पोताहै, और बढा बुद्धिमान है, अपने मनसेही सब ससारके चरित्रोंको जानले़गा, और ऐसाभी लिखाहै कि अपना प्राण नष्ट होताहो, और दूसरेका प्राण अपने झूठ बोलनेसे बचजाय तो वह झूठ बोलनाभी सत्यकी समान है, धर्मने अपने मनमें निचारा कि जो मैं अपने शत्रुको बताऊगा तो उसी समय राजा उसको मार डालेगा, मुझको पाप होगा अपने मनसे मेरे शत्रुको जैसा चाहेगा वैसा करेगा इसलिये धर्मने झूठ कहा॥
हे पुरुषश्रेष्ठ! जहां केशका बीज होता है वहभी मैं नहीं जानता, जिनके वचनोंके मदसे जीव विमोहित होता है॥१७॥ कोई विकल्पवादी आत्मामें आत्माको मानते हैं, कोई भाग्यको ईश्वर कहे हैं, कोई कर्मको, कोई स्वभावको प्रभु मानते हैं॥१८॥ किसीने तर्क अनिर्देशनिश्चय किया है, जिस परमेश्वरकी इच्छा से सब जीव उत्पन्न होते हैं वही परमात्मा है इसमें जो आपको जान पड़े सो अपनी बुद्धिसे विचारलो “मैं किसीका नाम नहीं बता सक्ता कि, किसने मुझे सताया”॥१९॥ हे द्विजसत्तम! धर्मने जब ऐसे वचन कहे तब तो राजा परीक्षित चित्त सावधान करके बड़ा दुःखी हुआ “और मनमें विचारा कि यह वृषरूप धारण किये धर्म है. और गोरूपी धरणी है और यह शूद्ररूपधारी कलियुग है. इसी दुष्टने धर्मके पांव तोड़कर धरणीको दुःख दियाहै, और इस वसुन्धराके स्वामी परमेश्वर परमधामको चलेगये इसीलिये यह आंखो मे आंसू भरे चिन्ता कर रही है धर्मात्माका नाम लेने से
न वयं क्लेशबीजानि युतः स्युः पुरुषर्षभ॥ पुरुषं तं विजानीमो वाक्यभेदविमोहिताः॥१७॥ केचिद्विकल्पवासना आहुरात्मानमात्मनः॥ दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम्॥१८॥ अप्रतयदनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः॥ अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश्य स्वमनीषया॥१९॥ एवं धर्मे प्रवदति स सम्राट्द्विजसत्तम॥ समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्टतम्॥२०॥ धर्मं ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक्॥ यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तदेत्॥२१॥ अथ वा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा॥ चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः॥२२॥ तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः प्रकीर्तिताः॥ अधर्मीशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव॥२३॥ इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः॥ तं जिघृक्षत्यऽधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः॥२४॥
धर्म और पापीका नाम लेनेसे पाप होता है इसी कारण वृषरूपी धर्मने कलियुगको पापी जानकर उसका नाम नहीं लिया, यह विचार परीक्षित बोला”॥२०॥ हे धर्मज्ञ! क्या तुम धर्म हो? वृषरूप धारण किये बोलतेहो, जो कोई अधर्मकी बात करताहै और जो उसकी सूचना करताहै उनदोनों को इकसार पाप होताहे॥२१॥ अथवा देवताओंकी मायाको कोई नहीं जानसक्ता, मन वचनसे जो जीवों को निश्चय होय वही श्रेष्ठ॥२२॥ धर्मके चार चरण, तप, सत्य, शौच, दया, है और अधर्मके अंशसे विस्मय, परस्त्रीप्रसंग, मद यह तीन हैं,इनके प्रवृत्त होनेसे तीन चरण टूटकर एक चरण शेष रहगया॥२३॥ अब हे धर्म! सत्य एकचरण तुम्हारा रहगया है उसको भी यह कलियुग तोड़ना चाहता है, क्योंकि झूठ बोलनेसे
यह कलियुग बढ़ता है॥२४॥ भगवानने सब भार जिसका दूर किया ऐसी सती वसुन्धरा श्रीमानपदोंके स्पर्शसे सब ओरसे मंगलरूप होरहीथी॥२५॥ सो आज कृष्ण महाराजके विरहसे व्याकुलहो आंखों से आंसू बहा रही है, साध्वी जैसे दुर्भागिनीहो शोक करैहे ब्राह्मण निन्दक राजा रूपधारी शूद्र मेरे ऊपर राज्य करें यह कठिन दुःखहै॥२६॥ महारथी राजाने इस प्रकार धर्म और पृथ्वीको शान्तकर, तीक्ष्णखन अधर्मी कलियुगके वधके निमित्त उठाया॥२७॥ जब कलियुगने देखा कि यह बलवान् राजा इससमय क्रोधमें भररहाहै और मुझको मारनेके लिये उपस्थित है, और मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं जो इससे युद्धकरूं, यह विचार कर नृपके सब चिह्न त्याग भयभीत हो राजाके चरणों में
इयं च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती॥ श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका॥२५॥शोचत्य कला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताऽधुना॥ अब्रह्मण्या नृपव्याजाः शूद्रा भोक्ष्यंति मामिति॥२६॥ इति धर्मं महीं चैव सांत्वयित्वामहारथः॥ निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्मतः॥२७॥ तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम्॥ तत्पादमूलं शिरसा समगाद्भयविह्वलः॥२८॥ पतितं पादयोर्वीक्ष्य कृपया दीनवत्सलः॥ शरण्यो नावधीच्छ्रोक्यः आह चेदं हसन्निव॥२९॥ राजोवाच॥ न ते गुडाकेशयशोधराणां बद्धाअलेवै भयमस्ति किंचित्॥ न वर्तितव्यं भवता कथंचन क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३०॥ त्वां वर्तमानं नरदेवदेहेष्वनुप्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः॥ लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमहोज्येष्ठा च माया कलहश्च दंभः॥३१॥
गिरपड़ा और अपने प्राण बचानेके लिये राजाकी विनती करनेलगा॥२८॥ राजा उस शूद्रको अपने पैरोंमें पड़ा देख दीनवत्सल कृपालु हँसकर बोले, कि शरणागतको नामी नरेश नहीं मारते॥२९॥ राजा बोले—
कि अर्जुन सरीखे यशस्वियोंके हाथजोड़, जो शरण आया है उसको किसी प्रकारका भय नहीं है परन्तु तू अधर्मका रूप है जहां तक हमारा राज्य है तुझे रहना उचित नहीं शीघ्र यहांसे चलाजा॥३०॥ नरदेह धारणकर जो तू रहेंगा तो अधर्मका समूह बढेगा, लोभ, अनृत, चौर्य, मूर्खता, अहंकार, पाप, माया, क्लेश, दम्भ यह अधिक बढ़ेंगे॥३१॥
हे अधर्मके मित्र! तू यहाँ मत रह, और जो सत्य, धर्म, व्रत, करे तो रह, यज्ञके विस्तार में चतुर ज्ञानी लोग इस ब्रह्मावर्त में यज्ञेश्वरका यज्ञसे यजन करे हैं॥३२॥ इस यज्ञमें भगवान् वासुदेवका पूजन होता है. यज्ञमूर्ति ईश्वर यज्ञ करनेवालोको कल्याण करते हैं अमोघ सब कामना पूर्ण होती हैं. जैसे स्थावर जंगमों के बाहर भीतर वायु रहे तैसे ईश्वर रहे है॥३३॥ सूतजी बोले कि हे ऋषियो! जब राजा परीक्षितने यह वचन कहे तब तो कलियुग थरथर कांपने लगा. खड्ग हाथमें लिये यमराजकी नाई राजा परीक्षित् को देखकर बोला॥३४॥ हे महाराज! तुम्हारी आज्ञासे जहां कहीं रहूंगा तो वहां भी आप धनुषबाण लिये मेरे पीछे फिरोगे; इसकारण मैं यहां नहीं रहूंगा॥३५॥ हे धर्मवानोंमें श्रेष्ठ! ब्रह्माने चार युग रचे, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर अपना अपना राज्य भोगचुके, अब मेरे राज्य करनेका समय आया और ४३२००० (चारलाख बत्तीस सहस्र वर्षकी मेरी अवस्था है,
न वर्तितव्यं तदधर्मबंधो धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये॥ब्रह्मावर्ते यत्र यजति यज्ञैर्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः॥३२॥ यस्मिन्हरिर्भगवानिज्यमानः इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति॥ कामानमोघान्स्थिर जंगमानामंतर्वहिर्वायुरिवैष आत्मा॥३३॥ सूत उवाच॥ परीक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जात पथुः॥ तमुद्यतासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम्॥३४॥ यत्र वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया॥ लक्षये तत्रतत्रापि त्यामात्तेषुशरासनम्॥३५॥ तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निदेंष्टमर्हसि॥यत्रैव नियतो वत्स्ये आतिष्ठस्तेऽनुशासनम्॥३६॥
सो मुझको भोगनी पड़ेगी और मुझे आप आज्ञा देते हैं कि, तू हमारे राज्यसे निकलजा सो सात द्वीप नौखण्ड में तो आपका राज्य है फिर मैं कहां जाकर बसूं? और जो विधाताका लेख हैं वह किसी प्रकार मिट नहीं सक्ता, फिर मैं क्या करूं? कहां जाऊं? हे दीनदयालु! आप मेरे अवगुणोंका विचार तो करते हैं परन्तु मेरे गुणोंकी ओर ध्यान नहीं करते सो मुझमें एक गुण अत्यन्त उत्तम है वह आपसे निवेदन करता हूं सत्ययुग में जिस राजाके राज्यमें एक मनुष्य अपराध करताथा और समस्त राज्यभरके मनुष्य दण्ड पातेथे, त्रेतामें एक मनुष्यके पाप करनेसे सब ग्रामका ग्राम दण्डका भागी होताथा और द्वापर में जो कोई कुकर्म करताथा तो उसके सब कुटुम्बको शासना दीजातीथी और कलियुगों जो पुरुष अन्याय करता है वही अपने शरीरसे भोगता है दूसरेसे मुझको कुछ प्रयोजन नहीं, और युगोंमें मनुष्योंको मनसा पाप
लगताथा और उसका दण्ड भोगना पड़ताथा, सो मेरे राज्य में मनसा पाप नहीं लगता, बरन् मनसा पुण्यका फल मिलताहै. जब इस बातपर राजा परीक्षित् संतुष्ट न हुये और उनके मनमें दया नहीं आई तो फिर कलियुगने कहा हे दीनानाथ। मुझमें एक गुण और बड़ा लाभदायक है सतयुगमें जो कोई वैकुण्ठके जानेके लिये दशसहस्र वर्ष जप तप संयम होती थी, त्रेतामें जब मनुष्य बहुत साधन लगाकर सहस्र वर्षतक अश्वमेघ यज्ञ करते थे तब उनका मनोरथ सिद्ध होताथा, द्वापर में करताथा तब उसकी मनोकामना सफल सौवर्षतक दान, व्रत, पूजा, ध्यान भगवान् वासुदेवका करनेसे पूर्ण इच्छा होतीथी. और मेरे राज्य में जो मनुष्य एक पल मात्रकोभी। एकाग्रचित्त करके सच्चे मन से परमेश्वरका भजनकरै, वा सच्चे मनसे हृदयमें ध्यान करे, और उनकी कथा वार्ता सुनै वह अपने सर्वत्र कार्य को साध अनेक जन्मके पापोंसे छूट मोक्षका भागी होता है जब कलियुग में यह पूरा गुण सुना, तव तो राजा परीक्षित् कलियुगपर बहुत प्रसन्न हुए;
सूत उवाच॥ अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ॥ द्यूतं पानं स्त्रियस्सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः॥३७॥ पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः॥ ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पंचमम्॥३८॥ अमूनि पञ्च स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः॥ औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत्तन्निदेशकृत्॥३९॥ अथैतानि न सेवेत बुभूषः पुरुषः क्वचित्॥ विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः॥४०॥
तौ कलियुग हाथ जोड़कर बोला, कि हे पृथ्वीनाथ। हे दयानिधि! हे दीनदयालु! जो आप मुझपर प्रसन्न हो तो कृपा करके मुझको प्राणदान दीजै. और जिस स्थानपर आपकी आज्ञा मेरे रहने की हो में वहां निश्चिन्त होकर रहूं, और सदा आपका आज्ञाकारी रहूंगा॥३६॥ जब इस प्रकार कलियुगने प्रार्थना करी तब राजा कलियुगके लिये स्थान बताने लगे, जहाँ जुआ होता हो, जहाँ मदिरा बिकता हो, जहां वेश्या रहतीहों और जहां जीवहिंसा होतीहो, यह चार स्थान तुमको दिये तुम इन चारो स्थानों में वास करो॥३७॥ फिर विनती करके कलियुग बोला हे कृपासिन्धो! मेरा कुटुम्ब बहुत इन स्थानों में कैसे समायगा, तब राजा ने कहा- सोनेमेंभी तुम रहो, इसी प्रकार, झूठ, मद, काम, रजोगुण, वैर यह पांच स्थान के तुम को और दिय राजापरीक्षित के दिये हुए उन्हीं पांचों स्थानोंपर अधर्मी कलिने अपना वास किया॥३८॥३९॥ जो पुरुष संसार में अपनी
वृद्धि चाहे तो इन पांचोंके निकट न जाय, धर्मात्मा राजा, लोकपति, विशेष करके इनका सेवन नहीं करे॥४०॥ धर्मरूपी वृषके तीन पद, तप शौच दया यह नष्ट होगयेथे इनको अपने धर्मसे अच्छा किया, और पृथ्वीकोभी धैर्य देकर शान्तकिया॥४१॥ सो यह राजा परीक्षित राजाओंके योग्य आसन पर बैठे. जो राजसिंहासन राजा युधिष्ठिर और अर्जुन वनको जाते समय इनको देगयेथे॥४२॥ अब वह राजऋषि कौरवोंकी शोभा बढानेवाले महाभागवत चक्रवर्ती, महायशस्वी, हस्तिनापुर में हैं॥४३॥ राजा अभिमन्युके पुत्र राजा परीक्षितका ऐसा प्रतापहै कि, वह समस्त पृथ्वीका पालन करते हैं, तबही तुम यज्ञ करतेहो॥४४॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां कलिनिग्रहोनाम सप्तदशोऽध्यायः
वृषस्य नष्टांस्त्रीन्पादांस्तपः शौचं दयामिति॥प्रतिसंदध आश्वास्य महीं च समवर्धयत्॥४१॥ स एष एतर्ह्यध्यास्ते आसनं पार्थिवोचितम्॥पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञाऽरण्यं विविक्षता॥४२॥ आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेंद्रः श्रियो सन्॥गजाह्वये महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः॥४३॥ इत्थंभूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः॥यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः॥४४॥ इति श्रीमद्भा० महा० प्रथमस्कंधे सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
६॥ सूत उवाच॥ यो वै द्रोण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः॥ अनुग्रहाद्भगवतः कृष्णस्याद्भुतकर्मणः॥१॥ ब्रह्मकोपोत्थिताद्यस्तु तक्षकात्प्राणविप्लवात्॥ न संमुमोहोरुभयाद्भगवत्यर्पिताशयः॥२॥ उत्सृज्य सर्वतः संगं विज्ञाताजित संस्थितिः॥ वैयासकेर्जहौशिष्यो गंगायां स्वं कलेवरम्॥३॥ नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम्॥ स्यात्संभ्रमोंतकालेऽपि स्मरतां तत्पदांबुजम्॥४॥
॥१७॥ दोहा—
अष्टादशअध्यायमें कियोनृपतिअतिपाप। ताकेबदलेमेंदियो, शृंगीऋषिने शाप॥१८॥ जो राजा परीक्षित अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से दग्ध होकर माताके पेटमें नहीं मरे. यह अद्भुतकर्मवाले श्रीकृष्णजीकी ही कृपाथी॥१॥ ब्राह्मणने क्रोध करके यह शाप दिया कि तुझको तक्षक सांप काटैगा तौभी इस प्राण नाशक महाभयसे मोहित न हुए, और भगवान् वासुदेव के चरण कमलमें ही लवलीन रहे॥२॥ सबका संग त्याग वैरागले, भगवत्तत्त्व जान व्यासपुत्र श्रीशुकदेव मुनिके समीप श्रीगंगाजीके तटपर तनुत्याग किया॥३॥ ऐसे श्रीमद्भागवतकी वार्ता सेवन
करनेवाले, उनकी कथा अमृतपान करनेवालोंको श्रीकृष्णचन्द्र के चरण कमल स्मरण करनेवालोंको अन्तकालमें भी संभ्रम नहीं होता है॥४॥ कलियुग प्रविष्ट तो हुआ परन्तु सब स्थानों में अभीतक प्रवेश नहीं किया जबतक पृथ्वीनरेश परीक्षित् राज्य करते रहे॥५॥ जिस दिनसे जिस समयसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने पृथ्वीको त्यागा, उसी दिनसे यहां अधर्मवर्द्धक कलियुगने सब पृथ्वीपर प्रवेश किया॥६॥ राजा परीक्षितने कलियुगसे शत्रुता नहीं की भ्रमरवत् सारग्राही हुए, क्योंकि जिस कलियुग में मानसी पुण्य तो संकल्प मात्र करने से सिद्ध होता है, और संकल्प करनेसे पाप नहीं होता. कदाचित् करोभी तो उसका फल तत्काल नहीं होता॥७॥ जो प्राणी धैर्य से कार्य करनेवाले हैं उनका
तावत्कलिर्न प्रभवेत्प्रविष्टोपीह सर्वतः॥ यावदीशो महानुर्व्यामाभिमन्यव एकराट्॥५॥यस्मिन्नहनि यो भगवाढत्ससर्ज गाम्॥ तदैवेहानुवृत्तोऽसावधर्मप्रभवः कलिः॥६॥ नानुद्वेष्टि कलि सम्राट् सारंग इव सारभुक्॥ कुशलान्याशु सिध्यंति नेतराणि कृतानि यत्॥७॥ किं नु बालेषु शरेण कलिना धीरभीरुणा॥ अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृकोनृषु वर्तते॥८॥ उपवर्णितमेतद्वः पुण्यं पारीक्षितं मया॥ वासुदेवकथोपेतमाख्यानं यदपृच्छत॥९॥ यायाः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः॥ गुणकर्माश्रयाः पुंभिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः॥१०॥ ऋषय ऊचुः॥ सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः॥ यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानाममृतं हि नः॥११॥कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान्॥ आपाययति गोविंदपादपद्मासवं मधु॥१२॥
अधर्मी कलियुग क्या कर सक्ता है, मदान्ध मनुष्यों में कलियुग शीघ्र प्रदेश करे है जैसे बालकों में भेडिया आता है और शूरमाओंके निकट नहीं आता॥८॥ पुण्यरूप परीक्षितका आख्यान हमने आपके सामने वर्णन किया. भगवान् वासुदेवकी कथा वार्ता जिसमें होय ऐसा आख्यान कोई और बूझो॥९॥ कथनयोग्य श्रीकृष्णचन्द्र के कर्म हैं उन भगवान् वासुदेवकी जो जो कथा गुण कर्म आश्रय हैं वह मनुष्य संसारमें सुखकी इच्छा करनेवालोको सदा सेवने योग्य हैं॥१०॥ सब ऋषि बोले कि हे सूत! हे सौम्य! सहस्र वर्षकी तुम्हारी आयु हो, बहुत दिनोंतक संसार में तुम्हारा यश रहे, जो तुम श्रीकृष्णचन्द्रके चरित्र मनुष्योंको अमृतके तुल्य पान करातेहो॥११॥ अविश्वासवाले इस कर्मरूपी
धुयेंसे धुंधरी आत्मा हमारी होगई, सो आप मनुष्यों को अमृतरूपी श्रीकृष्ण के चरणारविन्दोंका मधुपान कराओ॥१२॥ भगवत् के भक्तोंके संग करनेवालोंको एक लव मात्रके सत्संगकी समता स्वर्ग नहीं कर सक्ता, न मुक्तिका आशीर्वाद उन्हें देखते हैं॥१३॥ महात्माओंके एकान्त ध्यान उनकी कथामें कौन रसवेत्ता तृप्त होता है? कोई नहीं. निर्गुणी ईश्वरके गुणोंका अन्त योगेश्वर, शिव, ब्रह्मादिक नहीं जान सक्ते॥१४॥ हे विद्वज्जन! हरिके उदार विशुद्ध चरित्र सुननेवाले लोगों से भगवत्प्रधान आप विस्तारपूर्वक वर्णन करो॥१५॥ महाभागवत मोक्षके जाननेमें चतुर बुद्धिमान्
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्॥ भगवत्संगिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः॥१३॥ को नाम तृप्येद्रसवित्कथायामहत्तमैकांतपरायणस्य॥ नांतं गुणानामगुणस्य जग्मुर्योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः॥१४॥ तन्नो भवान्वै भगवत्प्रधानो महत्तमै कांत परायणस्य॥हरेरुदाराचरितं विशुद्धं शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन्॥१५॥ स वै महाभागवतः परीक्षिद्येनाऽपवर्गाख्यमदबुद्धिः॥ज्ञानेन वैय्यासकिशब्दितेन भेजे खगेंद्रध्वजपादमूलम्॥१६॥ तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थमाख्यानमत्यद्भुत योगनिष्ठम्॥ आख्याद्यनंताचरितोपपन्नं पारीक्षितं भागवताभिरामम्॥१७॥ सूत उवाच॥ अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्मद्वृद्धानुवृत्त्याऽपि विलोमजाताः॥ दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं महत्तमानामभिधानयोगः॥१८॥कुतः पुनर्गुणतो नाम तस्य महत्तमैकांतपरायणस्य॥ योऽनंतशक्तिर्भगवाननंतो महद्वणत्वाद्यमनंतमाहुः॥१९॥
राजा परीक्षित, व्यासपुत्र शुकाचार्य के कहे हुए ज्ञानसे गरुडध्वज श्रीहरिके चरणोंके समीपको प्राप्तहुए॥१६॥ अतिश्रेष्ठ, पुण्यदायक, जिसमें सुगम अर्थ, अति अद्भुत, योगागम्य, अनन्त चरित्र युक्त, परीक्षितकी जिसमें कथानक, भागवतों को आनन्ददायक बहुत बड़ा आख्यान हमसे कहो॥१७॥ सुतजी बोले, कि हे ऋपियो! बड़े आनन्दकी बात है कि विलोम में हमारा जन्म है तो भी वृद्धोंकी सेवासे हमारा जन्म सफल हुआ और महात्माओंका सत्संग कुलके जन्मकी जो मानसी पीड़ा है उसको शीघ्र नाश करता है॥१८॥ महात्माओंका एकान्त में चिन्तवन योग्य
श्रीनारायणका नाम लेना सब पापोंसे छुड़ाता है, अनन्तशक्ति भगवान् अनंत महागुणवान् होनेसे अनंत कहाते हैं॥१९॥ बस इतनाही कहना पूर्ण है कि, गुणों में जिनकी समान कोई नहीं, लक्ष्मीकी जिनको इच्छा नहीं, ऐसे परमात्माके चरणोंकी रेणुओंको लक्ष्मी दिन राति सेवन करती है और ब्रह्मादिककी प्रार्थना को भी त्याग देती है॥२०॥ जिनके चरणनखका प्रक्षालन गंगाजी ब्रह्माजीसे धोयाहुआ जल सबको पवित्र करता है ऐसे सर्वसामर्थ्यवान् भगवन् वासुदेवसे अधिक और भगवत्पदार्थ लोकमें कौन है अर्थात् कोई नहीं॥२१॥ जहां अनुरागी धीर देहादि कोंमें सबका संग त्यागकर परमहंसोंका आश्रम जो सबके पीछे का है उसको जाते हैं. जिसमें कोई हिंसा नहीं है उपशांति आदि अपना धर्म उसमें हैं
एतावताऽलं ननु सूचितेन गुणैर साम्यान तिशायनस्य॥ हित्येतरान्प्रार्थयतो विभूतिर्यस्यांघ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः॥२०॥ अथापि यत्पादनखावसृष्टं जगद्विरिंचोपहृतार्हणांभः॥ सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुंदात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः॥२१॥ यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा व्यपोहा देहादिषु संगमूढम्॥ व्रजंति यत्पारमहंस्यमत्यं यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः॥२२॥ अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्भिराचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान्॥ नभः पतंत्यात्मसमं पतत्रिणस्तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः॥२३॥ एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां बने॥ मृगाननुगतः श्रांतः क्षुधितस्तृषितो भृशम्॥२४॥ जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम्॥ ददर्श मुनिमासीनं शातं मीलितलोचनम्॥२५॥ प्रतिरुडेंद्रियप्राणमनोबुद्धिमुपारतम्॥ स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम्॥२६॥
॥२२॥ हे सूर्यसमान! हे त्रयीमूर्ति! आपने जो हमसे वृझा है सो जितना मुझको ज्ञान है उतना हम आपसे कहेंगे जैसे पक्षी लोग अपनी शक्तिके अनुसार आकाश में उड़ें हैं, उसीभाँति विष्णु नारायणकी लीलाको अपनी बुद्धिके अनुसार विद्वान् लोक कहतेहैं॥२३॥ एक दिन राजा परीक्षित् धनुषबाण लेकर वनमें आखेट खेलनेको गये, मृगोंके पीछे दौड़ने से भूख प्यासके मारे अत्यन्त व्याकुल हो॥२४॥ जलाशय ढूँढ़ते ढूँढ़ते एक आश्रममें प्रवेश किया, वहां एक ऋषीश्वर शान्तस्वरूप नेत्र मूँदे बैठे देखे॥२५॥ प्राण, मन, बुद्धि, इन्द्रियें, सब जीते, सबसे उपराम हुए, तीनों अवस्था से
तुरीया अवस्थाको प्राप्त हुए, क्रियारहित, ब्रह्मभूत, ब्रह्मरूप हो रहेथे॥२६॥ जटा सब शरीरपर बिखर रहीं रुरुनामक मृगके चर्मके ऊपर बैठे. जिनको देहका कुछ अनुसंधान नहीं, उन शमीक मुनिसे भूख प्यासका मारा शुष्ककण्ठ राजा वोला॥२७॥ “मैं पियासाहूं" जब ऋपिने, तृण, भूमि, अर्घ्य, मीठे वचनोसे राजाका सत्कार नहीं किया, तब राजाने अपने मनमें समझा कि इसको अपने तपका घमण्ड है. इसलिये इसने मेरी अवज्ञा करी, यह समझ राजाके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ॥२८॥ हे ब्रह्मन्! ऐसा कभी नहीं हुआ जो राजा भूख प्यास से व्याकुल हो ब्राह्मणों
विप्रकीर्णजटाच्छन्न रौरवेणाजिनेन च॥ विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत॥२७॥ अलब्धतृणभूम्यादिरसंप्राप्ताऽर्घसून्नृतः॥ अवज्ञातमिवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह॥२८॥ अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृभ्यामर्दितात्मनः॥ ब्राह्मणं प्रत्यभून्मत्सरो मन्युरेव च॥२९॥ स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा॥ विनिर्गच्छन्धनुष्कोट्या निधाय पुरमागमत्॥३०॥ एष किं निभृताशेषकरणो मीलितेक्षणः॥ मृषा समाधिराहोस्वित् किं नः स्यात्क्षत्र बंधुभिः॥३१॥ तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन्बालकोऽर्भकैः॥ राज्ञाऽघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत्॥३२॥
पर क्रोध और मत्सरता की हो॥२९॥ यह विचारकर राजा परीक्षित उस ब्रह्मऋपिके कण्ठ में मरा हुआ सर्प क्रोध करके धनुपके अग्रभागसे डाल दिया और अपने नगरको चला आया “अरु मार्गमे मनही मन यह कहता जाताथा”*॥३०॥ सब इन्द्रियो को रोके नेत्र मूँदे झूठी समाधि लगाये इसने अपने मनमें यह समझा होगा कि क्षत्रिय लोग हमारा क्या करेंगे?॥३१॥ उनका अतितेजस्वी बालकपुत्र बालकों के
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*शंका—राजा परीक्षित तो बडा बुद्धिमान्था फिर उसकी बुद्धि भ्रष्ट क्यो होगई? जो नीचपन से राजा परीक्षितने मगहुआ साँप उठाकर मुनिके गले में डाल दिया, यह क्या कौतुक किया ऐसा काम तो कोई उन्मत्तभी नहीं करता जो कदापि ऐसा मान लियाजाय कि परीक्षितकी बुद्धि कलियुगने भ्रष्ट करदी तोभी शोभा नहीं होती, क्योंकि कलियुगको राजा परीक्षितने रहने के लिये स्थान दिया, तब कलियुग से राजा परीक्षितने कहा कि हमारे राज्य में तू अपना पराक्रम मत करना, इसप्रकार राजाका और कलियुगका वचन हुआ था, सो कलियुगने तुरन्तही अपने वचन को छोड दिया?
उत्तर—राजा परीक्षित सात वर्षका बालक था, तब बालकोका खेल खेलते खेलते पाण्डवों की सभा में गया, वहाँ पावक मुनि बैठेथे उनको सूतके सर्पसे डरादिया, तब सभामें पावक मुनि जो विराजमानथे उन्होंने परीक्षितको शाप देदिया और कहा कि, पाण्डवोके देखते देखते है दुष्ट बालक! हमको सर्प से डराता है इसलिये तेरी मृत्युभी सर्प से होगी, उस मुनिके शाप से राजाकी बुद्धि भ्रष्ट होगईथी, तब ऐसा बडा पाप राजा परीक्षितने किया॥
संग खेलता था, वहां किसी लडकेने आकर कहा, हे बन्धो! आज तुम्हारे पिताके गलेमें राजा परीक्षित मरा हुआ साँप डाल गये हैं. यह बात सुन शृंगीऋपि कहने लगा॥३२॥ बडा अधर्म है, कि बालक, पुष्ट, दास, द्वारपालक, राजाओं को अपने स्वामी में अपराध करना नहीं चाहिये, जैसे काक, श्वान करते हैं॥३३॥ क्षत्रियोंको ब्राह्मणोंने द्वारपालक किया है. सो द्वारवासी घरमें जाकर उसी पात्र में कैसे भोजन करने योग्य है॥३४॥ पाखण्डियोंके शिक्षक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पृथ्वीसे चले गये, सो मैं धर्मके सेतु तोड़नेवालोंको आज भली भांति शिक्षा करता हूं, तुम सब मेरा पुरुषार्थ देखो॥३५॥ यह कह शृंगीऋषिक्रोधसे लाल नेत्रकर अपने समान बालकोंके सन्मुख कौशिकी नदीका जल हाथमें लेकर राजाके ऊपर
अहो अधर्मः पालानां पीव्नां वलिभुजामिव॥ स्वामिन्यद्यं यद्दासानां द्वारपानां शुनामिव॥३३॥ ब्राह्मणैः क्षत्रबंधु हिं द्वारपालो निरूपितः॥ स कथं तव द्वाःस्थः सभांडं भोक्तुमर्हति॥३४॥ कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम्॥ तद्भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे वलम्॥३५॥ इत्युक्त्वा रोपताम्राक्षो वयस्यानृपिवालकान्॥ कौशिक्याऽप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह॥३६॥ इति लंघितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि॥ दंक्ष्यति स्म कुलांगार चोदितो मे ततद्रुहम्॥३७॥ ततोऽभ्येत्याऽऽश्रमं वालो गले सर्पकलेवरम्॥ पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकंठो रुरोद ह॥३८॥ स वा आंगिरसो ब्रह्मत्वा सुतविलापनम्॥ उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा स्वांसे मृतोरगम्॥३९॥ विसृज्य पुत्रं पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि॥ केन वा ते प्रतिकृतमित्युक्तः स न्यवेदयत्॥४०॥ निशम्य शप्तमतदर्हं नरेंद्रं स ब्राह्मणो नाऽऽत्मजमभ्यनंदत्॥ अहो वतांहो महदज्ञ ते कृतं स्वल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः॥४१॥
वाग्वत्र छोड़ा॥३६॥ आज से सातवें दिन मर्यादानाशक कुलमें अंगाररूप मेरा भेजा तक्षकसर्प मेरे द्रोहीको काटै॥३७॥ पीछे आश्रमपर आनकर अपने पिताके गलेमें सर्प पड़ा देख बहुत दुःखी हुआ और बाड़े मार मारकर रोने लगा॥३८॥ हे ब्रह्मन्! उस अंगिरागोत्री शमीकऋपिने पुत्रका विलाप सुन, साधारणसे नेत्र खोलकर अपने कण्ठ में मरा सांप देखा॥३९॥ उसको निकाल पुत्रसे बोले, हे पुत्र! क्यों रोता है? किसने तेरा अनादर किया ? यह बात पिताके मुखसे सुन, उसने सब वृत्तान्त कह सुनाया॥४०॥ यह बात सुन शमीकऋपि घबराकर बोले. “अरे बेटा! तैंने
यह क्या किया? जो राजा परीक्षित शापके योग्य नहीं थे उनको तैंने विना समझे शाप दिया, अरे पुत्र! यह अच्छा नहीं हुआ" बडे खेदकी बात है। कि थोडे अपराध करनेपर द्रोहसे ऐसा कठिन दण्ड दिया॥४१॥ हे मूर्ख!राजा परीक्षित मनुष्योंके समान नहीं हैं, उनका पराजय करना योग्य नहीं है. जिनके महातेजसे प्रजा रक्षित हो भयरहित सदा सुख भोगती है॥४२॥ श्रीभगवतका स्वरूप राजा प्रजाकी रक्षा न करैतो यह लोक चोरोंके बढ़नेसे नष्ट होजाय. मेढ़ोंके समूहकी भाँति॥४३॥ जब राजा नष्ट हो जायगा तो उनका धनभी लूट जायगा. इस पापसे हमारा सब वंश पाप भोगेगा, परस्पर मरैंगे, मारैंगे, शापदेंगे, बहुत चोर लुटेरे बढ़कर, पशु, स्त्री, इत्यादि अनेक पदार्थ हरे जायँगे॥४४॥ तब सदाचार, धर्म, वदोक्त
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं संमातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे॥ यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता विंदंति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः॥४२॥ अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि रथांगपाणावयमंग लोकः॥ तदा हि चौरप्रचुरो विनंक्ष्यत्यरक्ष्यमाणोऽविवरूथवत्क्षणात्॥४३॥ तदद्य नः पापमुपेत्य नन्वयं यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुंपकात्॥ परस्परं घ्नंति शपंति वृंजते पशून्स्त्रियोऽर्थान्पुरु दस्यवो जनाः॥४४॥ तदार्यधर्मश्च विलीयते नृणां वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः॥ ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां शुनां कपीनामिव वर्णसंकरः॥४५॥ धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः॥ साक्षान्महाभागवतो राजर्षिर्ह यमेधयाट्॥ क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवाऽस्मच्छापमर्हति॥४६॥ अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनाऽपक्वबुद्धिना॥ पापं कृतं तद्भगवान्सर्वात्मा क्षंतुमर्हति॥४७॥
वर्णाश्रम, आचार, सब मनुष्योंके लीन हो जायँगे अर्थ कामकी अभिलाषाकरनेवाले, वानर, श्वान पशुओंकी नाईं सव वर्णसंकर होजायँगे॥४५॥ हे पुत्र!धर्मकी रक्षा करनेवाला नरपति साक्षात् महायशस्वी, राजर्षि, अश्वमेधकारी, राजा परीक्षित है॥ क्षुधा, तृषा, परिश्रमसहित, अपने स्थानपर आया और हमारे यहां आकर उलटा शापित हुआ, क्या वह शापके योग्य था?॥४६॥ यह बात शमीक ऋषिने अपने पुत्र शृंगीऋषिसे कही फिर परमात्माका ध्यान करके यह प्रार्थना की कि हे नाथ!मेरे पापरहित अज्ञान बालक सेवकसे बड़ा अपराध हुआ।इस अज्ञान बालकका
दोषक्षमा करो॥४७॥ तिरस्कृत, वंचित, शापित, अवमानित, ताड़ित, भगवानके भक्त अपने अपराध करनेवालेको शाप नहीं देते॥४८॥ पुत्रके अपराधसे महामुनि अत्यन्त दुःखी हुए।परन्तु राजाने जो अपराध किया उसपर कुछ ध्यान नहीं दिया॥४९॥ वाहुल्य करके लोकमें परकार्यके साधक ब्राह्मणोंको दुःख सुख कुछ नहीं व्यापता न उनको कोई व्यथा होय, न वह प्रसन्न होंय।क्योंकि वह गुणोंसे सर्व व्यापक ईश्वरके समान आप हो जाते हैं
॥५०॥ इति श्रीभा.महा. प्रथमस्कन्धे भा.टी. यां विप्रशापवर्णनो नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ दोहा— वरणों कथाविशेषसव, यथा शाप इतिहास॥
तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि॥ नास्य तत्प्रतिकुर्वंति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि॥४८॥ इति पुत्रकृताघे न सोऽनुतप्तो महामुनिः॥ स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाऽघंतदचिंतयत्॥४९॥ प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वंद्वेषु योजिताः॥ न व्यथंति न हृष्यंति यत आत्माऽगुणाश्रयः॥५०॥ इति श्रीमद्भा॰महापुराणे प्रथमस्कंधेऽष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ सूत उवाच॥ महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं विचिंतयन्नात्मकृतं सुदुर्मनाः॥ अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि॥१॥
राजकाज तज नृपतिज्यो, कीन्ह गंगातटवास॥१९॥ सूतजी बोले कि हे शौनक मुनि!राजा परीक्षितने अपने आप जो निंदित कर्म किया उसका चिन्तव नकर अपने मनमें बहुत दुःखी होकर कहने लगे, कि मैंने बिना अपराध ब्राह्मणको सताया जिनका तेज छिपाहुआ निरपराधी ब्राह्मणपर महानीच
कर्म अपनी मूर्खतासे मैंने किया॥१॥निश्चयहै कि मैंने ईश्वरके भक्त महात्माकी
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[]1 अवज्ञा करीहै इसलिये थोड़े दिनोंमें अत्यन्त दुःख शीघ्र इस पापके प्रायश्चित्तके लिये मुझकोहो, मेरी यह इच्छाहै, क्योंकि अपने आप फिर ऐसा पाप मैं न करूं॥२॥ राज्य, सेना, ऋद्धि, कोप, अत्यन्त कुपित ब्राह्मणके कुलसे उठी आग क्षणमात्रमें सबको भस्म करदे।जो मुझ अमंगलीककी ऐसी पापी बुद्धि, ब्राह्मण, गो, देवतामें फिर कभी न होय॥३॥ ऐसे चिंतवन करही रहेथे, उसी समय शमीकमुनिके भेजेहुए एक शिष्यने आकर कहा, कि हे राजन्, शमीकमुनिके पुत्र शृंगीऋषिने आपको यह शाप दियाहै; कि आजसे सातवें दिन तक्षक सांप राजाको डसैगा जिससे मृत्यु होजायगी, यह सुन राजाने तक्षकाग्निको बहुत उत्तम माना, क्योंकि
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्॥ तदस्तु कामं त्वघनिष्कृताय मे यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा॥२॥ अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे॥ दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः॥३॥ स चिंतयन्नित्थमथाशृणोद्यथा मुनेः सुतोक्तोनिर्ऋतिरस्तक्षकाख्यः॥ स साधु मेने न चिरेण तक्षकानलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम्॥४॥ अथो विहायेमममुं च लोकं विमर्शितो हेयतया पुरस्तात्॥ कृष्णांघ्रिसेवामधिमन्यमान उपाविशत्प्रायममर्त्यनद्याम्॥५॥ या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्रकृष्णांघ्रिरेण्वभ्यधिकांवुनेत्री॥ पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः॥६॥
विषयासक्तोंको यह विरक्तताका कारण है॥४॥ राज्य और देह दोनों पहिलेही त्यागनेके योग्य हैं, और यह अधिकता है कि श्रीकृष्णचंद्रके चरणारविन्दोंकी सेवा करूंगा यह विचार श्रीगंगाजीके तट जानेकी इच्छा करी॥५॥ तुलसीमिश्रित श्रीकृष्णके चरणोंकी रेणुसे अत्यन्त शोभित, अधिक पवित्र निर्मल जल बहानेवाली गंगाजी दोनों लोकोंको ईशसहित सबको पवित्र करैहैं, ऐसी गंगाको जिसकी मृत्यु निकट आईही अवश्य सेवन करे।“परन्तु राजा के मनमें इस बातका बड़ा खेदथा कि इस अन्यायके बदले ऋषिने मुझको तुरन्त दंड नहीं दिया जो तुरन्त प्राण छूट जाते तौ सात दिनतक
इस पापी शरीरके रखनेका क्या अभिप्रायथा।अब मुझको उचित है कि सात दिन तो मेरे मरनेकेहैं इस अन्यायी शरीरको यही दण्डहै कि अन्नपानी नदूं क्योंकि जिस देहसे परमेश्वरका भजन और भक्ति नहो वह देह किसी कामका नहीं, अब सब माया, मोह, स्त्री, पुत्र, धन, धाम त्याग परमात्माके ध्यानमें लय होना चाहिये।इतनी अवस्था हमारी संसारके माया मोहमें वृथा नष्ट हुई और तौभी यह पापी मन विरक्त न हुआ और जब मैं सातवें दिन मरजाऊंगा तब यह राज्य और धन धराही रहेगा। इसलिये मुझको उचित है कि मैं पहिलेही इन सबका माया मोह त्यागदूं और श्रीगंगाजीके निकट जाऊं जो तीनोंलोकोंका निस्तारा करतीहै सातदिन वहीं बैठकर वैकुण्ठनाथका भजन करूं तो मोक्षहो। क्योंकि संसारीमें जो जन्मलेगा वह अवश्य मरैगा ब्रह्मादिक देवताभी अमर नहीं रहते। इस संसारमें जो कोई जैसा कर्म करता है वैसा फल भोगता है और चौरासी लक्ष योनिमें भ्रमता फिरता है सो इस सात दिनमें अब कोई ऐसा उपाय करूं जिसमें आवागमनके फन्देसे मुक्ति पाऊं, यह बात विचार सर्व नगर
इति व्यवच्छिद्य स पांडवेयः प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम्॥ दध्यौ मुकुंदांघ्रिमनन्यभावो मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसंगः॥७॥ तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना महानुभावा मुनयः सशिष्याः॥ प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः स्वयं हि तीर्थानि पुनंति संतः॥८॥ अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वानरिष्टनेमिर्भृगुरंगिराश्च॥ पराशरो गाधिसुतोऽथ राम उतथ्य इंद्रप्रमदेध्मबाहौ॥९॥
निवासियोंको बुलाय जनमेजय नामक अपने बड़े पुत्रको जिसकी चौदह वर्षकी अवस्थाथी राज्यसिंहासनका अधिकारी किया और सब राजकाजका भार मंत्री और प्रधानोंको सौपकर जनमेजयसे कहा—हे पुत्र! गो, ब्राह्मण, साधु, संतकी रक्षा करना, और प्रजाको पुत्रकी समान पालना, किसीपर अन्याय न करना, यह कह राजाने अपना मन विरक्तकर भूषण वस्त्र तनुसे उतार रानियोंको समझाया कि, स्त्रियोंका धर्म यही है कि जिस बातमें उसके पतिकी पति रहैवह काम करना चाहिये। पतिके धर्ममें विघ्न नहीं डाले। परमेश्वर जनमेजयादि पुत्रोंको जीता रक्खें, तुमको सर्व प्रकारका सुख है, इस भांति सबको धैर्य दिया। हे शौनकमुनि! सो पाण्डुनन्दन यह निश्चय कर अनशनव्रत ले गंगातीर जाय सब भाव हरिमें कर मौनव्रतधार सव संग त्याग भगवानके चरणोंका ध्यान करने लगे॥ ६॥७॥ सर्वत्र भुवनके पवित्रकर्त्ता महा अनुभव ज्ञानी शिष्यों सहित बहुतसे तीर्थयात्राके मिषसे आप सर्व तीर्थोंको पवित्र करनेवाले ब्राह्मण मनन शील मुनि आने लगे॥८॥ अत्रि, वसिष्ट, च्यवन, शरद्वान, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर,
विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मबाहु,॥९॥ मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भरद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवप, अगस्त्य, द्वैपायन, भगवत अवतार श्रीनारद॥१०॥ और देवर्षि, ब्रह्मऋषियोंमें श्रेष्ठ, राजर्षिवर्य, अरुणादिक नाना ऋषिवर्य आये॥११॥ जब आनन्दपूर्वक सब बैठगये तब राजाने सबको प्रणाम किया। एकान्तचित्त कुशासनपर बैठे, हात जोड़कर जो अपनी करनेकी इच्छाथी सो कही॥१२॥ फिर बोले, कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि शीलवान् महात्माओंने मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया, इसकारण मैं राजाओंमें धन्य हूं, क्योंकि ब्राह्मणोंके चरणामृतने
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः॥ मैत्रेय और्वः कवषः कुंभयोनिर्द्वैपायनो भगवान्नारदश्च॥१०॥ अन्ये च देवर्षिर्ब्रह्मर्षिवर्या राजर्षिवर्या अरुणादयश्च॥ नानार्षेयप्रवरान्समेतानभ्यर्च्य राजा शिरसा ववंदे॥११॥ सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत्॥ विज्ञापयामास विविक्तचेता उपस्थितोऽग्रेऽभिगृही तपाणिः॥१२॥ परीक्षिदुवाच॥ अहो वयं धन्यतमा नृपाणां महत्तमानुग्रहणीयशीलाः॥ राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौ चाद्दूराद्विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म॥१३॥ तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम्॥ निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते॥१४॥ तं मोपयातं प्रतियंतु विप्रा गंगा च देवी धृतचित्तमीशे॥ द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः॥१५॥ पुनश्च भूयाद्भगवत्यनंते रतिः प्रसंगश्च तदाश्रयेषु॥ महत्सु यां यामुपयामि सृष्टि मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः॥१६॥
राजाओंका कुल दूरसे त्यागाहै और एक मुझसे यह निंदित कर्म होगया॥१३॥घरमें बारंबार आसक्तचित्त मुझ पापीको ज्ञानदायक पर अवरोंमें ईश्वरही ब्राह्मण शाप रूप होगये जिसमें मुझे शीघ्र भय होताहै॥१४॥ हे मुनीश्वरो! मैं आपकी शरणागत हूं यह जानो कि परमेश्वरको और गंगाजीको चित्तमें धारण करलिया, विप्रके शापसे कपटी तक्षकके काटनेका मुझे भय नहीं; आप श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दकी कथा गाइये॥१५॥ जिससे अनन्त भगवान्में मेरी प्रीति अधिक होय, और उनके आश्रयी महात्मा ब्राह्मणोंमें मेरी मैत्री होय और जहां जहां मेरा जन्म होय, तहां
तहाँ सबको नमस्कार होय, और ब्राह्मणोंकी शरणमें रहूँ॥१६॥ राजा परीक्षित् ऐसे निश्चयकर पूर्वके मूल कुशाके आसनपर महाधीर उत्तरकी ओरको मुखकर समुद्रकी स्त्री गंगाजीके दक्षिणकी ओर बैठे, और जनमेजयको सब राज्यका भार पहिले ही सौप गयेथे॥१७॥ जब वह नरदेव अन्न जल त्याग एकाग्रचित्त बैठे तब देवताओंके समूहके समूह स्वर्गमें प्रशंसा करकर दुन्दुभी बजाय बजाय बारंबार भूमिमें पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥१८॥ जो महाऋषिआये थे वह सब प्रशंसा और बडाई करने लगे जिनका प्रजाके अनुग्रहके अर्थ शील सार है वह मुनि उत्तमश्लोकके सुन्दर गुण वर्णन करनेलगे॥१९॥ हे राजर्षिवर्य!श्रीकृष्णके अनुवर्ती आपमें यह कुछ विचित्र बात नहीं है, क्योंकि भगवत्के समीपकी चाहनावाले
इति स्म राजाऽध्यवसाययुक्तः प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः॥ उदङ्मुखो दक्षिणकूल आस्ते समुद्रपत्न्याः स्वसुत न्यस्तभारः॥१७॥ एवं च तस्मिन्नरदेवदेवे प्रायोपविष्टे दिवि देवसंघाः॥ प्रशस्य भूमौ व्यकिरन्प्रसूनैर्मुदा मुहुर्दुंदुभयश्च नेदुः॥१८॥ महर्षयो वै समुपागता ये प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः॥ ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम्॥१९॥ न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु॥ येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः॥२०॥ सर्वे वयं तावदिहास्महेऽद्य कलेवरं यावदसौ विहाय॥ लोकं परं विरजस्कं विशोकं यास्यत्ययं भागवतप्रधानः॥२१॥ आश्रुत्य तदृषिगणवचः परीक्षित्समं मधुच्युद्गुरु चाव्यलीकम्॥ आभाष तैतानभिवंद्य युक्तं शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः॥२२॥ समागताः सर्वत एव सर्वे वेदा यथा मूर्तिधरास्त्रिपृष्ठे॥ नेहाथ वाऽमुत्र च कश्चनाऽर्थमृते परानुग्रहमात्मशीलम्॥२३॥
राजाने किरीटोंसे सेवित राज्य त्याग दिया॥२०॥ जबतक यह शरीरको नहीं त्यागैंगे तबतक हम इनहीके निकट बैठे रहैंगे, क्योंकि यह भाग वतोंमें प्रधान पवित्र विशोक वैकुण्ठको जायँगे॥२१॥ सब ऋषिगणोंका पक्षपात शून्य अमृतरूपी गम्भीर अर्थ सत्य वचन राजा परीक्षित् सुनकर विष्णुके चरित्र सुननेकी इच्छासे सब ऋषीश्वरोंको प्रणाम करके यह बोला॥२२॥ त्रिलोकसे ऊपर सत्यलोकमें जैसे वेदमूर्ति धारकर बैठेहैं ऐसे ही सब आनकर मेरे निकट विराजमान हुएहो, पराये अनुग्रहके लिये परिश्रम करनेका आपका स्वभाव है, इस लोकमें जो कर्तव्य होय अथवा
परलोकके लिये जो कुछ होय सो सब कृपाकरके वर्णन कीजिये॥२३॥हे मुनिगणों!आपपर विश्वास कर जो कुछ बूझने योग्यहै सो वूझताहूं। कि इस समय क्या करना चाहिये! सब प्रकारसे जिसकी मृत्यु आई होय उसको शुद्ध कृत्य होनेका कृपापूर्वक सम्मतिकर कोई उपाय बताइये॥२४॥ यह सुन कोई बोले कि यज्ञकरो, किसीने कहा योगकरो, कोई बोले तपकरो, किसीने कहा दान करो, यह विवाद होरहाथा, उसी समय व्यासनन्दन भगवान् शुकदेवजी अपनी इच्छासे विचरते विचरते इच्छारहित, आश्रमचिह्न रहित, यथालाभसंतुष्ट, स्त्री बालक पीछे कौतूहलसे लगे अवधूत वेष किये, शुकदेवजी आये॥२५॥ षोडश वर्षकी अवस्था, मृदुचरण, हाथ, हृदय, वाहु, कन्धा, कपोल, शरीर सुन्दर, विशालनेत्र, उठे
ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे विश्रभ्य विप्रा इतिकृत्यतायाम्॥ सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः॥२४॥ तत्राभवद्भगवान्व्यासपुत्रो यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः॥ अलक्ष्यलिंगो निजलाभतुष्टो वृतः स्त्रि बालैरवधूतवेषः॥२५॥ तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपादकरोरुबाह्वंसकपोलगात्रम्॥ चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्णसुभ्व्राननं कंबु सुजातकंठम्॥२६॥ निगूढजत्रुंपृथुतुंगवक्षसमावर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च॥ दिगंबरं वक्त्रविकीर्णकेशं प्रलंबबाहुं स्वमरोत्तमाभम्॥२७॥ श्यामं सदाऽपीच्यवयोंऽगलक्ष्म्या स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन॥ प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्य स्तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम्॥२८॥ स विष्णुरातोऽतिथय आगताय तस्मै सपर्यां शिरसाऽऽजहार॥ ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका महासने सोपविवेश पूजितः॥२९॥
हुए दोनो तुल्य कर्ण, सुन्दर भौं, मुख, शंखसमान कण्ठ शोभायमान॥२६॥ मांससे छिपी हुई कण्ठसे नीचेकी दोनों हड्डी, चौडा ऊँचा बक्षस्थल कुण्डके समान गोल गम्भीर नाभिस्थल तिरछी झुकी हुई रेखाओंसे मनोहर उदर, दिगम्बर अर्थात् नग्न, फैलेहुए केश, लम्बे भुजदण्ड यह शोभा सुरोत्तम कीसी शुकदेवजीकी हो रही॥२७॥ सुन्दर, श्याम शरीर, श्रीयुक्त अंग, मनोहर मुसकान, गुप्ततेज ऐसे लक्षणोंसे पहिचानकर मुनि आसनोंसेउठ खडेहुए॥२८॥ राजापरीक्षित् नेअतिथि शुकदेवजीको देख दण्डवत् प्रणाम कर पूजन किया, अज्ञानी स्त्री बालक सब चले गये। यह पूजितहो
महासिंहासनपर बैठे॥२९॥ तहां महापूज्योंमें ब्रह्मऋषि, राजर्षि, देवर्षियोंके समूहमें भगवान् शुकदेवजी अत्यन्त शोभित हुए जैसे ग्रह नक्षत्र तारागणोंके समूहमें चन्द्रमा शोभा देता है॥३०॥ सव अर्थमें जिनकी बुद्धि अति शान्त वैठे ऐसे शुकदेव मुनिको भागवत नृप प्राप्त होकर मस्तकसे प्रणामकर सावधानी से हाथ जोड़ नमस्कार कर कोमल वाणीसे बूझने लगे॥३१॥ हे ब्रह्मन्! आज ब्राह्मणोंकी सेवा करके क्षत्त्रिय लोग सफल जन्म हुए अतिथि रूप आपने कृपा करके मुझे दर्शन दिया॥३२॥ जिनब्राह्मणोंके स्मरणसे पुरुषोंके ग्रहादिक शीघ्र शुद्ध होजातेहैं, और दर्शन स्पर्शन
स संवृतस्तत्र महान्महीयसां ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसंघैः॥ व्यरोचताऽलं भगवान्यथेंदुर्ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः॥३०॥ प्रशांतमासीनमकुंठमेधसं मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य॥ प्रणम्य मूर्ध्नाऽवहितः कृतांजलिर्नत्वा गिरा सूनृतयाऽन्वपृच्छत्॥३१॥ अहो अद्य वयं ब्रह्मन्सत्सेव्या क्षत्त्रवंधवः॥ कृपयाऽतिथिरूपेण भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः॥३२॥ येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्यंति वै गृहाः॥ किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः॥३३॥ सान्निंध्यात्ते महायोगिन्पातकानि महांत्यपि॥ सद्यो नश्यंति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः॥३४॥ अपि मे भगवान्प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः॥ पैतृष्वस्रेयप्रीत्यर्थं तद्गोत्रस्यात्तबांधवः॥३५॥ अन्यथा तेऽव्यक्तगतेर्दर्शनं नः कथं नृणाम्॥ नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः॥३६॥ अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम्॥ पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा॥३७॥
पाद धोनेसे मिष्टान्न भोजन करानेसे तो अत्यन्तही शुद्ध और पवित्र होतेहैं, सवपाप ताप कांप जाते हैं॥३३॥ हे महायोगिन्! आपकी समीपतासे पुरुषोंके महापातक नष्ट होजातेहैं, जैसे विष्णुकी समीपतासे गयादिक असुर नष्ट होगये॥३४॥ यद्यपि ऐसा है तथापि श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्रपर प्रसन्न हुए जो आप रूप धारण कर फूफीके कुलवालोंकी प्रीतिके अर्थ उस गोत्रके कारण भाई बन्धु होकर रहे॥३५॥ अत्यन्त मृतक संसिद्ध याचक, मनुष्योंको अप्रगटगति वालोंका दर्शन होना कठिनहै॥३६॥ इस्से योगियोंके परम गुरु आपसे सिद्धिका उपाय पूछताहूं, इस संसारमें मरणधर्मी पुरुषको सर्वथा जो कर्तव्य होय
सो कहो
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॥३७॥ हे प्रभो! मनुष्यसे जो श्रवण, जप, स्मरण, भजनके योग्य होय अथवा कुछ और प्रकारसे जो होय सो कहो॥३८॥ हे ब्रह्मन्! गृहस्थीके घरमें गोदोहन कालसे अधिक स्थिति होना आपका बहुत कठिन है॥३९॥ सूतजी बोले कि हे शौनकमुनि!राजाने कोमल वाक्योंसे जब यह बूझा
यच्छ्रोतव्यमथो जाप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो॥ स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम्॥३८॥ नूनं भगवतो ब्रह्मन्गृहेषु गृहमेधिनाम्॥ न लक्ष्यते ह्यवस्थानमपि गोदोहनं क्वचित्॥३९॥ सूत उवाच॥ एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा॥ प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान्बादरायणिः॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कंधे शुकागमनं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ छ॥ समाप्तोऽयं प्रथमस्कन्धः॥१॥
तो धर्मज्ञ शुकाचार्य कहनेलगे॥४०॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे प्रथमस्कन्धे भाषाटीकायां शुकागमनं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
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* **शंका—**मुनिने राजा परीक्षित्को शापदिया कि आजसे सातबेंदिन सर्पके काटनेसे राजाकी मृत्यु होगी तब सात दिनमें राजा परीक्षित्ने सब काम कार्यका प्रबन्ध कैसे किया। मुनिका शाप सुनकर पुत्रको राज्य तिलकदे गंगाके तटपर गया फिर सात दिनमें मुनियोंका आना और बडे बडे मुक्तिमार्गके जाननेवाले महात्मा पुरुषोंका बुलाना, और श्रीशुकदेव मुनिका कथाप्रसंग सुनाना और अनेक प्रकारके काम जैसे गंगाके किनारे आये जो देव, मुनि, राजर्षि, औरभी बहुतसे साधु सत उनका पूजन करना, आदर सत्कार सहित सबको आसन देकर बैठना, और बारंबार कथामें प्रश्न करना यह सब काम सात दिनमें कैसे किये?
**उत्तर—**शृगीऋषिके मुखसे अपने शापको मुनिसे सुनके व्याकुलहो, फिर धैर्य धारण कर स्थित चित्तसे श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दका ध्यान करने लगे, और आखोंसे आसू बहन लगे, कि अब क्या किया जाय? जिस दिनसे मुनिने मुझको शाप दिया वह दिन आजहै, क्योंकि कल मैंने मुनिका अपराध किया था, आज मुझको शापदिया आजसे सातबेंदिन मेरी मृत्यु होगी, और अभी काम मुझको बहुत करने हैं, ऐसा विचार फिर व्रजचन्द्रके चरणारविन्दका ध्यान करनेलगा, उसी समय वृन्दावनविहारी भक्तहितकारी कृष्ण भगवान् ने सात दिन सातयुगकी समान कर दिये, तब राजा परीक्षित् केसात दिनमें सब काम बन गये।
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इदं पुस्तकं मुम्बय्यां क्षेमराज– श्रीकृष्णदासश्रेष्ठिना स्वकीये “श्रीवेङ्कटेश्वर” (स्टीम्) मुद्रणालयेऽङ्कयित्वा प्रकाशितम्। संत्व १९७०, शके १८३५.
इति श्रीमद्भागवते भाषाटीकायुते प्रथमस्कन्धः समाप्तः॥ |
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“कवित्त—सर्व अगभग होत, गुरकी जो निन्दाकरे, नरकमाहिं वासहोत, नारीके चुरायेसे। अन्धे और लूलेहोत, जीवन के हिंसकजे, ज्ञान बुद्धि नष्ट होत, नीचधान्यखायेसे॥ कुष्ठी और मूकहोत, मुनिनको सतावैंजो, नरकमाहिंवासहोत, परनिंद्रा गायेसे। विप्रके पूजनसे, यशहोतशालि ग्राम, वशको विनाशहोत, विप्रके सतायेसे॥१॥” ↩︎