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परिशिष्ट,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२२ द्वादशस्कन्ध आश्रयलीला वामहस्त- अध्याय१३ श्रीकृष्णाश्रय जगदाश्रय वेदाश्रय भक्तियोगाश्रय भागवताश्रय अ.१-३ अ.४-५॥ अ.५॥-७ अ.८-१० अ.११-१३ लोकाश्रय वेदाश्रय भगवदाश्रय शब्दाश्रय अर्थाश्रय अ.१,२ अ.३,४ अ.५-७ अ.८-१० अ.११-१३ द्वादश स्कन्धमां तेर अध्यायथी भगवान्‌ना आश्रयरूप लीलानुं वर्णन करे छे. तेमां पहेला अध्यायमां कलिना दोषथी दुष्ट थयेल मगधदेशना राजाओनुं वर्णन वैराग्य थवामाटे कहेवामां आवे छे जेनाथी आश्रय दृढ थाय. द्वादश स्कन्धना पूर्वस्कन्ध साथे सङ्गति मेळववामाटे ‘‘दशमस्य विशुद्ध्‌्यर्थं नवानामिह लक्षणम्‌’’ एने याद करीने ए कहे छे के एकत्रीस अध्यायथी साधन सहित नवमी लीला कही तेनाथी शुद्ध आश्रय तेर अध्यायथी बारमां स्कन्धमां कहे छे तेथी कार्य- कारण अथवा बोध्य-बोधक भाव सङ्गति छे. एमां आश्रयनुं लक्षण सामान्य रीते ‘‘व्यतिरेकान्वयौ यस्य जाग्रत्स्वपन-सुषुप्तिषु’’ १२.७.१९ थी कह्युं एटले जेना भावथी जाग्रत्‌ आदिनो भाव अने जेना अभावथी ए त्रण अवस्थानो अभाव ए आश्रय कह्यो. द्वितीय लक्षण ‘‘पदार्थेषु यथा द्रव्यं’’ १२.७.२० थी कह्युं तेथी जगतनुं विवर्त उपादान ब्रह्म ए ज आश्रय छे. ए आश्रय आ स्कन्धमां पाञ्च प्रकारे कह्यो छे. एमां अन्वय-व्यतिरेकथी पाञ्च अने बीजी रीते बे प्रकारे कह्यो छे. अर्ही तो तेथी पण कंईक विशेष छे. सर्गादि नव लक्षणथी लक्ष्य एक आश्रय. ‘‘आभासश्च निरोधश्च’’ एमां कहेलो -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२३ जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने लय जेनाथी थाय छे ते बीजो ब्रह्ममीमांसामां जन्माद्यधिकरणमां जे आश्रय कह्यो छे ते ज अर्ही ‘‘जन्माधस्य यतोन्वयात्‌’’ थी कह्यो छे. तेथी भगवान्‌ उपादान अने कर्ता छे एम सिद्ध कर्युं. ‘‘आध्यात्मिकादि त्रितयद्रष्टा’’ ए त्रीजुं लक्षण छे. एनुं अर्ही अत्यन्त विविक्तपणुं बताववामाटे एने ‘सर्वान्तर’ कह्यो. लोकासन चरणरूप चतुर्थ अक्षरब्रह्म ए पुरुषोत्तमनो आश्रय छे अने तेनो पण आश्रय आ छे ए तेनुं अपूर्वपणुं (उत्तमता) बताववामाटे श्रीभागवत्‌ २.१०.९ मां ‘‘स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः’’ मां आश्रयनो पण आश्रय कह्यो छे. एम न कहेवुं होत तो ‘‘स आत्मा’’ शब्दोथी ज चतुर्थ परमात्मानो अर्थ आवी जतो होवाथी ‘स्वाश्रयाश्रय’ शब्द प्रयोग करवामां न आवत. तेथी वेत्तृत्व जीवमां छे, अन्तरात्मामां छे. ते बधानी निवृत्तिमाटे ‘स्वाश्रयाश्रयः’ एवुं विशेषण आप्युं छे. ए सर्वान्तर छे. एनुं वर्णन आनन्दमयाधिकरणमां श्रुतिथी सिद्ध कर्युं छे तेथी पाञ्च प्रकारनो आश्रय कह्यो छे. तेथी द्वितीयस्कन्ध श्रीसुबोधिनीजीमां ‘‘इदं भगवतो रूपं भगवानेव वा’’ ‘‘ब्रह्मविद्‌ आप्नोति परम्‌’’ एम श्रुति कहे छे. ‘‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’’ एम गीता कहे छे. ए ञ्चढथी भगवान्‌ने आश्रय कहे छे. लोकमां रक्षक ‘आश्रय’ कहेवाय छे. ते प्रसिद्धिने लईने मुख्य उपजीव्य अर्थात्‌ रक्षक के आश्रय श्रीकृष्ण छे एम आ स्कन्धमां कह्युं छे. ए श्रीकृष्ण शब्दरस रूप अने अर्थरस रूप ५ण छे ए आगळ छ अध्यायमां स्पष्ट थशे. त्यां शङ्का थाय के पूर्वे बे लक्षण कह्यां तेथी आश्रय समजाशे तो लोकसिद्ध कहेवानी शी जरूर छे? एना उत्तरमां कहेवानुं के लोकमां शब्द अने अर्थ साथे ज होय छे, तेथी लोकसिद्धने आगळ करीने एनो निर्णय कर्यो छे. केटलाक लोकसिद्धने आगळ करीने निर्णय करे छे ज््यारे केटलाक केवळ भगवान्‌ने भावथी भजे छे. एमां वेदसिद्धरूप अर्ही कहे छे के जेनां नव लक्षण छे तेवो आश्रय छे. ए आश्रय बार प्रकारनो छे. एनाथी अधिक पुरुषोत्तम छे. ते सर्वाश्रय श्रीकृष्ण छे एम समजवामाटे आश्रयलीलानां तेर अध्याय छे. एमां अर्ही त्रण अध्यायथी प्रथम प्रकरण कहे छे, तेमां श्रीकृष्णने आश्रय कह्या छे. तेथी ज ‘‘वचोविभूतिर्न तु पारमार्थ्यम्‌’’ ए श्लोकमां श्रीकृष्ण विना कांई आश्रय नथी एम कह्युं छे. लोकमां यशने विस्तारीने भगवान्‌ने प्राप्त थयेल राजाओनी आ कथाओ विज्ञान अने वैराग्य ने माटे कहेवामां आवी छे. ए परमार्थ वस्तु नथी एटले एवानी कथा साम्भळतां भगवाननो महिमा जाणवामां आवे त्यारे संसारनी असारता जणातां वैराग्य थाय त्यारे भगवान्‌ आश्रयरूप थाय छे एटलामाटे एम कहेवामां -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२४ आव्युं छे. तेथी श्रीकृष्ण सिवाय कोई आश्रय नथी एम नक्की थयुं. तेथी सर्वोपजीव्य सर्वाधार श्रीकृष्ण आश्रय छे ए वात सिद्ध थई. ए आश्रयनुं स्वरूप शुं? ए प्रश्नना उत्तरमां ‘‘यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः’’ त्यान्थी लई ‘‘कृष्णे अमलां भक्तिमभीप्समानः’’ सुधीमां श्रीकृष्ण कह्या छे. ए धर्मविशिष्ट छे ते ज सर्वाश्रय छे ए वात त्रणे अध्यायमां अनुस्यूत छे. ए बतावे छे के प्राकृत जनने तो जे अवलम्बन आपे ते एनो आश्रय गणाय छे. एनाथी उत्तमने धर्म आश्रय रूप होय छे. ए लोक अने धर्म नाश पाम्यानी वात बे अध्यायथी कही छे एटले लोक के धर्म न रह्या त्यारे श्रीकृष्ण ज आश्रयरूप रह्या. कलिमां केवळ शूद्र वर्ण रह्यो छे ते शोकथी द्रवित छे. असूर्य वर्ण होईने ए दुष्ट छे तेथी ए तत्कृत धर्म आश्रयरूप थई शके नहि. वळी धर्ममां दम्भ, लोभ, काम आदिनो प्रवेश थतां ए धर्म पण आश्रित-रक्षक रह्यो नथी. वळी ‘‘कथा इमास्ते कथिताः’’ इत्यादिमां विभूति कही ते निरङ्कुश आधाररूप थई शके नहि त्यारे राजाए ‘‘कलिना दोषो केम दूर थाय?’’ एम श्रीशुकदेवजीने पूछ्‌युं त्यारे एमणे ‘‘पुंसां कलिकृतान्‌ दोषान्‌’’ इत्यादिथी उत्तर आपतां श्रीकृष्णने ज आश्रयरूप कह्या छे. एमना आश्रयमां (सेवा) पूजा वगेरे कह्यां छे. कलियुगना पूर्वार्धमां एमनो आश्रय करवो अने उत्तरार्धमां कल्कि अवतार थशे ते आश्रयरूप थशे. एमां कृपा करवामां भगवान्‌ विलम्ब करे तो एमां जीवना दोष बाधक छे एम समजवुं, भगवान्‌नी दया नथी एम समजवानुं नथी. तेथी नव सर्गादि लक्षणथी दशमो आश्रय करवो ए त्रण अध्यायनो तात्पर्य छे. एम पहेलुं प्रकरण कह्युं. हवे बीजा प्रकरणमां जगदाश्रय कहे छे. जेम पृथ्वीमान्थी घडा वगेरे थाय छे तेम भगवान्‌मान्थी जगत्‌ थाय छे. ते एमां ज लीन थाय छे. मायिक पदार्थ पण एने लीधे ज देखाय छे. एमां अर्ही सृष्टि भगवद्रूप अने मायिकी एम बे प्रकारनी थाय छे. ‘‘आभासश्च निरोधश्च’’ जेनाथी थाय छे एम कह्युं छे. कालनी गति अने युगनुं मान तृतीय स्कन्धमां कह्युं छे. कल्प अने लय नुं स्वरूप अर्ही कहे छे. पछी भगवान्‌नी क्रियाशक्ति केवी छे तेनुं ज्ञान कराववा प्राकृतिक, आत्यन्तिक, नैमित्तिक अने नित्य प्रलयनां स्वरूपो कहे छे. क्रियाशक्ति त्रण प्रकारनी छे ते अगियारमा स्कन्धमां योगीश्वर अन्तरिक्षना मुखे कहेवामां आवी छे. पण पूरी रीते प्रलयनो प्रकार त्यां कह्यो नथी. तेथी ए क्रियाशक्तिने सारी रीते अर्ही कहे छे. एमां प्रथम आत्यन्तिक प्रलयने बार श्लोकथी कहे छे. त्यां पहेलां साङ्ख्यवादीनो मत खोटो छे एम सिद्ध करवा बुद्धि वगेरे अहन्ताथी प्रतीत थाय छे ते अवस्तुरूप छे एमां अनुमान कहे छे ः आत्मरूपे ज्ञान थाय छे ए अहं-ममत्वथी प्रतीत थतां बुद्धि, इन्द्रियो अने विषयो ने लईने -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२५ थायछे, केमके ए बुद्धि इन्द्रियार्थनी वृत्तिरूप छे, शुक्ति-रजतवृत्तिक तदाश्रय ज्ञाननी जेम, जे आवुं ना होय ते तेवुं न होय, जेम घडो. वळी बीजी रीते एनुं अवस्तुत्व सिद्ध करे छे - बुद्धि तेमज इन्द्रियार्थो आदि अने अन्त वाळा तथा दृश्य होवाथी पोताना स्वरूपथी अवस्तुरूप छे, आत्मरूप ज्ञानथी देखाय छे तेनी साथे होय त्यारे ए एनी साथे रहे त्यां सुधी वस्तुभूत रहे, पोतानी मेळे ए वस्तुरूप थई न शके, ज््योतिथी देखाता ज््योतिथी जुदा न पडता दीपचक्षुनी जेम. एक दीवानी सामे बेसी आङ्खनां उपलां पोपचान्ने आङ्गळीथी चोक्कस रीते दबाववामां आवे तो बे दीवा देखाय छे. खरी रीते दीवो एक ज छे. बीजो दीवो अवस्तु छे, बीजो दीवो छे ज नहि, पण अमुक परिस्थितिमां देखाय छे. एवी ज रीते बुद्धि, इन्द्रियो अने तेना विषयो बीजा दीवानी जेम स्वरूपथी अवस्तु रूप ज छे. ए ज कहे छे के ‘‘न स्युरन्यतमादृतात्‌’’ एम आध्यात्मिक बुद्धि आदिनुं जुदुं असत्त्व सिद्ध कर्युं. बुद्धिनुं असत्त्व ठर्युं त्यारे एनी अवस्थारूप जाग्रत आदि भूमिकानुं असत्त्व साधे छे के जाग्रत आदि अवस्था अने एनो आत्मामां हुं जागुं छुं एवो अध्यास तो मात्र आत्मामां थाय छे. अर्ही शङ्का करे छे के तमे पण आत्मामां अध्यासने स्वीकारो छो तो कोई जग्याए जे वस्तु स्वरूपथी सिद्ध होय तेनो अन्यत्र अध्यास थाय तो तमे बुद्धि आदिनो आत्ममां अध्यास क्ह्यो ते बुद्धि आदि आत्मामां अध्यस्त थयां ते पहेलां होवां जोईए; प्रथम तो भगवान्‌ सिवाय बीजुं कांई पण नहोतुं तेथी एनो अध्यास अर्ही केम सम्भवे? आ शङ्काने निर्मूळ करवा बुद्धि आदिनी सत्ता सिद्ध करवा विश्वनी उत्पत्तिने कहे छे. ‘‘यथेति…’’ विश्वनां उत्पत्ति अने नाश देखातां नथी तेथी ए कदाचित थाय छे एम कही शकाय? त्यां कहे छे - ‘‘अवयव्युदयाप्ययात्‌’’. अर्ही अवयव एटले अंश लेवो, अवयवनो अर्थ कारण न करवो. तेथी विश्व क्यारेक आदि-अन्तवाळुं होय छे केम के ए अवयव (कारण) सहित छे, जेम आकाशमां मेघ छे. जे अवयव सहित होय ते अनित्य होय एवी व्याप्ति छे. आंशिक नाश देखाय छे तेथी विश्व पण अनित्य छे तेथी प्राकृतप्रलयमां पण युक्ति कही. तेथी जलधरनी पेठे अनित्य छे तो पण सत्य छे अने ए ब्रह्ममां रहे छे. तेथी बुद्धि वगेरे पण प्रपञ्चनी साथे भगवान्‌मां रहे छे. एनो अनुभव थया पछी एनो अन्यत्र आरोप करवो सुशक््य छे. बुद्धि आदि अहन्ता-ममताथी आत्मामां अध्यस्त थाय ते माया मात्र छे एम कहेवामां कांई बाध नथी. त्यारे तो हवे तमारा मतमां विश्व ब्रह्ममां रहे छे ते -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२६ जुदुं ज सिद्ध थयुं; बुद्धि आदि अनित्य छे, नित्य आत्माथी अभिन्न छे, त्यारे तमारो मत साङ्ख्य मतथी कयां जुदो पडे छे? एना उत्तरमां कहे छे के ‘‘सत्यं हि अवयवः प्रोक्तः’’ अर्ही ‘अवयव’ शब्द कारणना अर्थमां लेवो. सत्य ए सर्व अवयवीना कारणरूप छे, तेथी प्रकृति-पुरुषनुं पण ए कारण छे. श्रुति ब्रह्मने सर्वनुं कारण कहे छे. एनी पछीना पदार्थो बीजा जुदा होय तो पण ए जुदा नथी तेथी साङ्ख्यथी अमारुं ब्रह्म सर्वकारण होवाथी जुदुं छे. साङ्ख्यमां तो प्रकृति-पुरुष सर्व कारण छे. तो ते ‘‘न परं किचिन्त्‌ सा काष्ठा सा परा गतिः’’ छे. अमारे एवुं ब्रह्म छे. प्रकृतिपुरुष एनुं प्रथम कार्य छे. श्रुति ब्रह्मने कारण भले कहे पण ए ब्रह्मथी विश्व थाय ए बुद्धिमां ऊतरतुं नथी एम कहे तो त्यां तर्क कहे छे के जो प्रकृति-पुरुष सर्वकारण अने मूल्यरूपे होय तो योगीओने ब्रह्मभाव थाय छे त्यारे एने प्रकृति-पुरुष पण ब्रह्मनी जेम अनुभवमां आववा जोईए, पण ए तो ब्रह्मनो अनुभव करे छे, प्रकृति पुरुषने जोता नथी, तेथी प्रकृति पुरुष पर नथी पण सत्य ज पर छे. आजे ए पण ब्रह्मना अन्वय-व्यतिरेक जणाय छे. सत्‌ सर्वनुं कारण छे तेथी सर्वत्र प्रतीत थाय छे. माटे जेम सूतरनो तार वस्त्र बन्या पहेलां पण हतो, वस्त्रनी अवस्थामां पण छे अने वस्त्र फाटी जवा छतां पण रहेशे तेम सर्वना अभावमां पण ए ज प्रतीत छे, माटे जे तेवुं होय ते सत्य होय. जे एवुं न होय ते सत्य न होय. अर्ही ‘सत्‌’पदथी सत्य ब्रह्म ज लेवुं, प्रधान न लेवुं. एनो ईक्षत्यधिकरणमां विचार कर्यो छे. ए जड होईने जगतनुं कारण न थई शके ए वात त्यां सिद्ध थई चूकी छे. ब्रह्मज्ञानीने एवी प्रतीति भले थाय, साङ्ख्यवेत्ताने एवी प्रतीति थती नथी तेथी ‘‘यतो वा इमानि’’ ए श्रुतिनो अर्थ बीजी रीते करवो जोईए? एवी शङ्काना उत्तरमां कहे छे के साङ्ख्यनो ए भ्रम छे. ए ज बतावे छे - ‘‘यत्‌ सामान्यविशेषाभ्याम्‌’’ साङ्ख्यनुं प्रधान सर्वनुं कारण अने महतत्त्व एनुं कार्य तेथी कार्य-कारणभाववाळुं छे ते भ्रम छे. केमके ए अन्योन्याश्रय रूप छे. साङ्ख्यमां प्रधानने केवळ कारणपणुं छे. एनुं स्वरूप कार्यथी जणाय छे, प्रत्यक्ष के श्रुतिथी एनुं स्वरूप जणातुं नथी. ‘‘स्थूलात्‌ पञ्चतन्मात्रस्य बाह्याभ्यन्तराभ्यां तैः अहङ्कारस्य तेन अन्तःकरणस्य ततः प्रकृतेः’’ ए सूत्रथी एम सिद्ध थाय छे. एना मतमां ‘‘प्रत्यक्षानुमानशब्दाः प्रमाणानि’’ ए सूत्रथी त्रण ज प्रमाण -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२७ छे. एमां अप्रत्यक्ष अने अशाब्द एवा महत्तत्त्वरूप कार्यथी प्रधाननुं स्वरूप अने कारणता सिद्ध थाय छे. ए प्रत्यक्ष अने शब्दथी अन्योन्य आश्रयवाळुं एनुं अनुमान नकामुं छे. तेथी प्रधाननी प्रतीति भ्रमरूप छे. एम ज श्रीधरस्वामीए पण मायावादी मतने अनुसरीने ब्रह्मनुं कारणपणुं अत्यन्त सत्य नथी एम कही अवधित्व, व्यापकत्व, गुण-गुणिभाव अने विशेषण-विशेष्यभाव पण अन्योन्य आश्रयनी पकडमान्थी मुक्त नथी. तेमनामां पण अन्योन्य आश्रय छे तेथी ब्रह्मकारणता अवास्तव कही ए बराबर नथी. कार्यने कारण सापेक्षता छे पण कारण तो निरपेक्ष छे. तेथी कारणस्वरूपमां कांई बाध नथी. कार्यस्वरूपने कारण सापेक्षता छे. पण ए पाछळथी थाय छे तेथी अन्योन्य आश्रय दोष एमां नथी, तेथी ए पण निर्बाध छे. काळविशेषना स्वरूपने लईने थता कारण-कार्य भावनी प्रतीति अन्योन्य आश्रय दोषग्रस्त होवाथी असिद्ध छे एम न कहेवुं केमके ए असिद्धि पण त्रण स्वरूपसापेक्ष होवाथी एमने अन्योन्य आश्रयत्व नथी. ए ज कहे छे के ‘‘सर्वमाद्यन्तवद्‌वस्तु यत्‌’’ अर्ही एटलुं समजवुं के साङ्ख्यना मतमां ‘‘दिक्कालावाकाशादिभ्यः’’ ए सूत्रथी एना मतमां सूर्यादिपरिस्पन्दोपाधिरूप कालजन्य छे. ए गुणोनो क्षोभ न करी शके तेथी एना मतमां महत्त्वोत्त्पत्ति ज दुर्घट छे. सर्वना अङ्कुरभूत महतत्त्व ते पण आदिअन्तवाळुं होवाथी एनी पछी थनारो काळ पण ए वखते क्यान्थी होय? ए न होय तो एनुं प्रधानपणुं भ्रमरूप ज थशे. ६.भले प्रधान सिद्ध न थयो, पण स्वभावमान्थी ज नीपजता प्रधान (प्रकृति) ने पुरुष जुए छे एम स्वीकारवामां आवे तो ते प्रत्यक्षमान्थी ज परिणम्युं छे एम सिद्ध थई गयुं अने अनुमान तेने दृढ करे छे. एम कहे एना उत्तरमां कहेवानुं के ‘‘विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा’’ एम विकारने (महत्तत्त्वने) प्रत्यगात्मा (जीवात्मा) प्रत्यक्ष करे, पण एमना मतमां प्रत्यगात्मा ज नथी तो एने कोण प्रयत्क्ष करे? अर्ही समजवानुं छे के जो स्वभावथी ज परिणाम पामे तो सदा एम थाय, तो पछी महत्तत्त्व अने प्रधानने कार्यकारणभाव न थाय. प्रधान पण सर्वाशे स्वभावनुं परिणाम थाय तो एनुं प्रकृतिपणुं ज न रहे. तेथी परिणाम आंशिक अनित्य थवुं जोईए. एम थाय तो ए केवळ स्वभावथी एम न थाय. त्यारे बीजुं तो कोई ए वखते नथी तेथी प्रधान (प्रकृति) ने प्रत्यगात्मा ईक्ष्ण करे तो ज एम थाय. तेथी पत्यगात्माथी ज एम थाय छे एम -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२८ कहेवुं जोईए. त्यारे पोतानाथी जुदुं प्रधान प्रत्यगात्मा जुए छे एम तो कोई कहेतुं नथी, तेथी भगवान्‌ एवी ईक्षा करे छे एम मानवुं जोईए. त्यारे तो विकार स्वरूपथी अवस्तुभूत प्रत्यगात्मदृश्य छे त्यारे ए देखाय छे, नहि तो दीवानी पेठे नहि, एवा अनुमानथी विकारमात्र भ्रमरूप ठरे छे. जो भ्रमरूप विकार होय तो ख्याल नहि थाय केमके यथार्थ अनुभव विना ख्याति थती नथी. त्यां कहे छे ‘‘अणुरपि स्याच्चेच्चित्समः चित्सर्व’’ मूळ चिदात्मक होय तो ज श्रुतिमां क्ह्यां प्रमाणे एनी ख्याति थाय, केवळ जडनी ख्याति न थाय. अर्ही मूळमां समः सर्वशब्दनो पर्याय छे, तेथी मूळ चैतन्यरूपमां ए विकार छे, तेथी एनी ख्यातिमां बाधक नथी. एनेमाटे दृष्टान्त आपे छे - आत्मवत्‌ जेम बहु स्यां एवी इच्छा करी त्यारे अग्नि विस्फूलिङ्गनी जेम विभाग थतां अनेक आत्मा (जीव) थया तेमज प्रजायेय एम इच्छा करी तेथी करोळियाना मुखमान्थी तन्तु नीकळे छे तेम भगवान्‌मान्थी तन्तुनी पेठे प्रपञ्च थयो. ७.त्यारे तो ब्रह्ममान्थी विभाग थतां अनेकत्व थयुं एम कहो! त्यां कहे छेः ‘‘न हि सत्यस्य नानात्वम्‌’’ एम विभाग थतां पण ब्रह्ममां नानात्व थतुं नथी. शुद्ध ब्रह्मज्ञान रहित साङ्ख्यवादी नानात्व एमां माने तो ए छिद्रना जेवुं छे, जेवी रीते निरवयव आकाशना घडा वगेरेनी उपाधिथी विभाग पड्या एवुं मात्र देखाय छे, खरेखर विभाग पडता होता नथी, एवी रीते पोतानी इच्छाथी अनेकरूप धारण करतुं ब्रह्म, ब्रह्मना स्वरूपने नहि जाणनाराओने अनेक रूपे देखाय छे, खरेखर एम थतुं नथी, केमके विभाजक क्रियानो त्यां अभाव छे. विभाजकना अभावमां स्वरूपमां कोई भेदक पदार्थ नथी. कदाच व्युचारण श्रुतिथी उपाधिनी पहेलां विभाजक क्रिया हती एम मानो तो एना उत्तरमां कहेवानुं के ‘‘ज्योतिषोर्वातयोरिव,’’ हो. जेम विभाजक स्वक्रियाना भेदथी दीपक चक्षुना भेदथी जुदो देखाय छतां ए जुदो नथी, जेम वायु अनेक देशमां वाय छे छतां ते स्वरूपथी जुदो पडतो नथी, तेम ब्रह्म स्वक्रियावडे विभक्त थाय छे तो पण एमां अनेकता नथी एम अभेद मात्रमां ए दृष्टान्त छे. ८. उपरनां बन्ने दृष्टान्तमां अंशना भेदथी स्वरूपनो भेद थाय छे एम ज सिद्ध थाय छे तेथी बीजुं दृष्टान्त आपे छे. ‘‘यथा हिरण्यमिति’’ सुवर्ण अनेक वखते अनेक आकृति स्वीकारी अनेक रीते व्यवहारमां आवे छे छतां एमां भेद गणातो नथी, तेवुं ज ब्रह्मनुं समजवुं. एमां आटलो फरक समजवो के सुवर्णमां बीजानी कृतिवडे विभाग -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५२९ थाय छे त्यारे ब्रह्ममां स्वेच्छाथी थाय छे. मूल वस्तु तो अनेक नथी पण एक ज छे ए सिद्धान्त तो सुवर्ण तथा ब्रह्ममां सरखो ज छे ए ज वात एकादशस्कन्धमां भगवाने ‘‘यथा सुवर्णं सुकृतं पुरस्तात्‌’’ ए श्लोकथी उद्धवजीने कही छे. तेथी पहेलां कहेलां दृष्टान्तो उपाधिवाद, भेदवाद, विशिष्टा द्वैतवादना एकदेशित्वनां बोधक छे अर्थात्‌ ते वादोमां सत्यनो अंश ज छे, पूरुं सत्य नथी एवो निश्चय थाय छे. तेथी ज ते वादो भगवाने कह्या नथी. ९. एम आश्रयनां निरधारमां ब्रह्मवादनो निर्णय करीने आत्यन्तिक लय समजाववामाटे बन्ध अने मोक्षनो प्रकार ‘‘यथा धनोर्क प्रभवो’’ इत्यादिथी कहे छे. आत्यन्तिकनुं स्वरूप कहेतां ‘‘यदैवमेतेन विवेकहेतिना’’ एम कहेवाथी शुद्ध ब्रह्मवादरूपी हथियारथी मायानो नाश करवानुं कह्युं तेथी साङ्ख्योक्त मोक्ष नित्यानित्य विवेक जन्य बन्ध छेद करीने ब्रह्मभावमां पर्यवसान पामतो न होवाथी ए आत्यन्तिक प्रलयवाच्य थई शकतो नथी एम पण स्पष्ट बताव्युं छे. आगळ नित्य प्रलय कालनी अवस्थाना भेदथी कह्यो छे. ए स्पष्ट होवाथी एनो अर्ही विस्तार कर्यो नथी. हवे नैमित्तिक अने प्राकृतिक प्रलय प्रतिसङ्क्रम रूप छे. आत्यन्तिक प्रलयमां सुवर्णनुं दृष्टान्त बताव्युं छे तेथी नानात्वनुं निवारण कर्युं छे. ‘‘अच्युतात्मानुभवोवतिष्ठते’’ एम कहेवाथी रूपान्तरनी एमां कांई जरूर नथी एम पण बताव्युं. नित्यप्रलयमां काल भगवत्‌ चेष्टारूप छे तेमां चेष्टारूपकृति छे. एम चार प्रकारनी क्रिया शक्ति ते क्रियानो आश्रय समजाववा कही छे. ए ज वात ‘‘लीलाकथास्ते कथिताः’’ इत्यादिथी श्रीशुकदेवजीए निरूपण करी छे. अर्ही १२.४.२३ थी ३४ सुधीना बार श्लोकोनो शुद्ध अद्वैतरूपार्थ कही बताव्यो छे. प्राकृतिक प्रलयमां पुरुष अने अव्यक्तनी स्थिति कहीने आत्यन्तिकमां नानात्वनी निवृत्ति कही छे. तेथी सुबालोपनिषद्‌मां कहेली प्रलय क्रियाने दृढ करी छे. ए उपनिषदमां पृथ्वीथी प्रकृति सुधीनो लय कहीने अव्यक्त अक्षरमां, अक्षर तममां लय पामे छे, तम परदेमां एकरूप थाय छे, पछी ‘‘दिव्यो देव एको नारायणः’’ एम कह्युं छे त्यां अक्षर सुधीमां लय शब्द वापर्यो छे. तमसथी परमां एकी भाव कह्यो छे. एमां लय अने एकी भाव एम बे शब्द जुदा वापर्या छे. तेथी विभागाभाव-एकी भाव रूप स्वरूपभेद कह्यो तेथी पण ब्रह्मवाद सिद्ध थाय छे. तेथी आत्यन्तिक प्रलयने सृष्टयादित्रितय क्रिया विलक्षण ए त्रण क्रिया रूपगणुं बताव्युं छे. तेथी ब्रह्मना लक्षणमां पण न्यूनता नथी. वळी ए आश्रयने कहेनार -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३० छे तेथी आश्रय पण एक भगवद्‌लीला छे. तेथी एमां शङ्काने अवकाश नथी एम चोथो अध्याय कह्यो. पाञ्चमानो विचार करे छे. श्रीशुकदेवजी स्वयं ब्रह्मभूत छे, पुराणोक्त भगवान्‌नुं अर्ही वारंवार वर्णन करे छे. एमां आगळ अभेदबोधक ज्ञाननो उपदेश करे छे तेथी भगवान्‌नी ज्ञान शक्ति आ प्रकरणना बीजा अध्यायमां कही छे. अर्ही तो आश्रय कहेवो ए प्रकरण प्राप्त छे त्यां ज्ञान कहेवानी शी जरूर छे? ए शङ्का थाय, त्यां कहे छे के वैदिक आश्रय ए ज कहेवाय, केमके वेदमां ‘‘ज्ञानादेव तु कैवल्यम्‌’’ ज्ञानथी ज मोक्ष मळे छे एम कह्युं छे. तेथी आत्यन्तिक्नी प्राप्तिने माटे ज्ञान कह्युं छे. त्यां शङ्का करे छे के ज्ञानथी ज कैवल्य (मोक्ष) सिद्ध थाय तो आश्रयनी शी जरूर छे? भगवाने एकादश स्कन्धमां पूजा प्रकार वैदिक अने तान्त्रिक रीते भगवद्‌ आराधनमाटे कह्यो छे. ‘‘उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये’’ त्यां बन्ने रीते भगवत्प्राप्तिनुं कथन छे. ए बन्नेवडे आश्रय थयो अने वाणीनो एमां लय थयो त्यारे राजाने फळ प्राप्त थयुं एम समजवामाटे ज्ञान अने आश्रय ए बे कह्यां छे, एमां पण ज्ञान प्रथम कह्युं तेथी ए ज्ञान ज श्रीशुकदेवजीने अभिप्रेत छे. एम न होय तो क्षमाप्तिमां ‘‘एतत्तेभिहित कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः’’ एम उपसंहार न करत. तेथी क्रियाश्रयना विचारमां पण पूर्वोक्त रीते ज्ञान मुख्य छे. ‘‘भवद्‌भिः अमृतं प्राप्तं नारायण भुजाश्रयैः’’ त्यां आश्रय शब्द साधनरूप कह्यो छे, अर्ही आश्रय फलरूप कह्यो छे. तेथी आश्रय बे प्रकारनो छे साधनरूप अने फलरूप. ज्ञानात्मक साधन पण वैदिक अने तान्त्रिकना भेदथी बे प्रकारनुं छे तेथी जे सिद्धान्त समजाववानो छे तेनो विचार करी आ बे प्रकरणमां त्रण बाबत कहेवामां आवी छे. हवे छठ्ठा अध्यायमां ज्ञानाश्रय कहे छे एमां ज ‘‘व्रितयं तत्र यो वेद स साधनपरो भवेत्‌’’ (का.२४) एम कह्युं छे. आध्यात्मिकादि त्रणने जाणे ते श्रीशुकदेवजी वगेरेनी तुल्य साधन परायण थाय. ‘‘वाक्यान्वयाधिकरण’’ मां कहेली रीति प्रमाणे भक्ति थतां मुख्य अधिकारी थाय छे. तेथी ए थईने श्रवण वगेरे साधनो करे छे. एवाने माटे विभूतिना आश्रयनो पक्ष छे. एवो भाव बधा मुक्तोने थतो नथी, पण ‘‘अक्षरधियाम्‌’’ सूत्रमां कहेला, औपसद न्यायथी भगवान्‌ जेने एवा भावनुं दान करे तेने ज एवो भाव थाय छे. ‘‘भगवान्‌ भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित्‌ स्म न भक्तियोगम्‌’’ एम श्रीभागवत्‌ ५.६.१८ मां कहेवानुं तात्पर्य -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३१ पण ए ज छे. ‘‘गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्‌दर्शनात्‌’’ व्याससूत्रमां ईश्वर अने जीव नी स्थिति एक ज हृदयगुहामां बतावी छे तेनो अर्थ पण ए ज छे. भगवान्‌नी जेमना उपर कृपा नथी तेवा ज्ञानमार्गीओ माटे ज्ञान ए साधन छे. एम अर्धो अध्याय पूर्व प्रकरणशेष छे ते आ प्रकरणमां छे, पछी दोढ अध्यायथी शौनकना प्रश्न उपरथी वेद शाखा कही छे. पहेला अध्यायथी ऋक्‌ शाखा कह्या पछी ‘‘श्रुत्वैवं छन्दसां व्यासं सर्व पापैः प्रमुच्यते’’ एम फल कह्युं छे तेवुं यजुःसामनुं पण समजवुं, केमके वेदत्व सर्वमां समान छे एम दोढ अध्यायथी त्रीजुं प्रकरण क्ह्युं. हवे छ अध्यायथी बे प्रकरणमां प्रथम भक्तिमां त्रण अध्यायथी कर्मादियुक्त त्रण प्रकारनी भक्ति कही छे, तेमां मार्कण्डेयनी उपासनामार्गानुसारिणी भक्ति छे. भगवाने एने तप करवानुं कह्युं. ते प्रमाणे मार्कण्डेये कर्युं, परन्तु भक्तिथी ए भगवान्‌ पधार्या न होता तेथी त्यां पधारीने तिरोहित थया. ज्ञानमार्ग क्लेशथी सिद्ध थाय छे, एम बीजा अध्यायथी कह्युं. अर्ही शिवजीनो संवाद वगेरे शामाटे कह्यो? महादेवजी भक्तिवाळा छे तेणे एने माया बतावी छे. भक्तने क्लेश थाय ए ज अर्ही माया छे. तेथी प्रति सङ्क्रमने केटलाक मायिक कहे छे. ते अविद्वान छे एम कह्युं छे. ए बोध न करवामाटे शिवसंवाद कह्यो छे. एथी एम कह्युं के माहात्म्यज्ञान पूर्वक भगवद्‌ शरणागति करवा सर्व अपेक्षा छोडीने भक्ति करवी. एकान्त भक्तिमां पर्यटन करवुं, ए कर्ममार्ग अनुसार भक्तिनुं स्वरूप कह्युं. आश्रयरूप भक्ति आ त्रणथी जुदी छे, ते स्वतन्त्र भक्ति कहेवाय छे. हवे पाञ्चमुं त्रण अध्यायनुं भागवताश्रय नामनुं प्रकरण छे. सूर्यथी कालनी अपेक्षा राखीने पुरुषनुं आराधन करवुं, ए कथानुं आधिदैविक रूप छे. अर्ही बे एनां अङ्ग छे ए ‘‘अथेममर्थ पृच्छामः’’ इत्यादि वाक्यथी प्राप्त थाय छे. बीजा अध्यायमां केवळ कथा ज कही छे, त्रीजामां ‘श्रीमद्‌ भागवत्‌’ पुस्तकनुं दान, दाननुं तथा पाठनुं माहात्म्य कह्युं छे तेथी प्रथम आधिदैविक भागवत्‌ उत्तम फल आपनार, बीजुं आध्यात्मिक भागवत्‌ सत्‌ कीर्ति आपनार, त्रीजुं आधिभौतिक भागवत्‌ कामित फल आपनार कह्युं छे. तेथी अर्ही एकमात्र श्रीभागवत्‌ नो ज दृढ आश्रय करवामां आवे तो ते गङ्गाजीनी जेम पाठ करनारनी शुद्धि सम्पादन करी आपे छे, श्रीहरिनी जेम सायुज्य मुक्तिनुं दान करी दे छे अने शम्भुनी जेम भक्तिनुं दान करी पुनः स्वयं फल प्राप्ति करावी देशे; कारण के आ श्रीभागवत्‌ पुराणोमां श्रेष्ठ अने वैष्णवोनुं धन छे. आमां -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३२ परमहंसोना प्राप्य विशुद्ध ज्ञाननुं ज वर्णन करवामां आव्युं छे तेमज ज्ञान, वैराग्य अने भक्ति सहित निवृत्तिमार्गने प्रकाशित करवामां आव्यो छे. जे पुरुष भक्तिपूर्वक तेना श्रवण, पठन, अने मननमां तत्पर रहे छे ते मुक्त थई जाय छे. आ रस स्वर्ग अथवा सत्यलोकमां नथी, कैलास के वैकुण्ठमां पण नथी. (श्रीभागवत्‌ माहात्म्य पद्म पुराण अध्याय ६.८१,८२) आ ज सिद्धान्त ‘‘निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा। वैष्णवनां यथा शम्भुः पुराणानाम्‌ इदं तथा॥’’ श्रीभागवत्‌ १२.१३.१६ जेम नदीओमां गङ्गाजी, देवताओमां विष्णु अने वैष्णवोमां महादेवजी सर्वश्रेष्ठ छे तेवी ज रीते पुराणोमां श्रीमद्‌ भागवत्‌ सर्वश्रेष्ठ छे’’. मां दृष्टान्तद्वारा दृढ कर्यो छे. तेथी आ प्रकारनुं ‘‘बर्हापीडं’’ श्लोकमां ‘‘गीतकीर्तिः’’ शब्दथी विवरण करवामां आव्युं छे. आवुं श्रीमद्‌ भागवत्‌नुं स्वरूप छे. श्रीकृष्णनुं ज बीजुं शब्दात्मक स्वरूप, समस्त वेदोनो पण वेद, सूत्रोनुं पण सूत्र, गीतानी पण गीता छे, पण तेने अनेक प्रकारनी भ्रान्ति अने तमसरूपी कपाटनी पाछळ पूराई गयेलुं जोई प्रभुने बिलकुल सन्तोष थयो नहि. सती स्त्री जेम पोतानुं हार्द पति आगळ ज प्रकट करे तेवी ज रीते सरस्वती पोताना निगूढ रहस्यो श्रीकृष्ण भगवान्‌ना साक्षात्‌ मुखारविन्द वाक्‌पति श्रीमद्‌ वल्लभाचार्यजीद्वारा प्रगट करे. ओरडामां बधी वस्तुओ होय पण राते दीवो न होय तो कोई वस्तु मळे नहि तेवी रीते श्रीमद्‌ भागवत्‌रूपी दिव्य महालयमान्ना रत्नो स्पष्ट देखाय तेटलामाटे श्रीकृष्ण भगवान्‌नी आज्ञा अनुसार अने आपने अभीष्ट, श्रीमहाप्रभुजीए आ तत्त्वार्थदीप (निबन्ध) प्रकट कर्यो अर्ही पाञ्चमुं प्रकरण समाप्त थाय छे. एनी साथे श्रीमद्‌भागवत्‌ पण आश्रय बतावीने सम्पूर्ण थाय छे. प्रकरण१ लोकाश्रय - अध्याय१ मागध राजाओनो वंश स्वधामानुगते कृष्णे यदुवंशविभूषणे ॥ कस्य वंशोऽभवत्‌ पृथ्व्यामेतदाचक्ष्व मे मुने ॥१॥

परीक्षित राजा बोल्या - हे श्रीशुकदेव मुनि! यदुकुलना भूषणरूप श्रीकृष्ण स्वधाम पधार्या पछी कोनो वंश पृथ्वी उपर प्रवर्त्यो तथा हवे कोनुं राज्य थशे ते आप कृपा करीने मने कहो ॥१॥

-१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३३ श्रीशुकदेवजी बोल्या - बृहद्रथ राजाना वंशमां जे छेल्लो पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय नामनो राजा थशे एम नवमा स्कन्धमां कह्युं छे, तेनो शुनक नामनो मन्त्री थशे. ते राजाने मारीने प्रद्योत नामना पोताना पुत्रने राज्य आपशे. प्रद्योतनो पालक नामनो पुत्र थशे ॥२॥

एनो पुत्र विशाखयूप थशे. एनो राजक नामनो पुत्र थशे. एनो पुत्र नन्दिवर्धन थशे. एम आ वंशना पाञ्च राजाओ प्रद्योतन नामथी ओळखाशे ॥३॥

प्रद्योतना वंशना ए पाञ्च राजाओ एकसो आडत्रीस वर्ष सुधी आ पृथ्वीनुं राज्य करशे. त्यारपछी शिशुनाग नामनो राजा थशे. एनो काकवर्ण नामनो पुत्र थशे. एनो पुत्र क्षेमधर्मा थशे. एनो पुत्र क्षेत्रज्ञ नामनो राजा थशे ॥४॥

एनो पुत्र विधिसार तथा विधिसारनो अजातशत्रु नामनो पुत्र राजा थशे. पछी दर्भक थशे. दर्भकनो अजय नामनो पुत्र थशे ॥५॥

अजयनो पुत्र नन्दिवर्धन थशे, एनो पुत्र महानन्दि थशे. शिशुनागना वंशमां आ दश राजाओ थशे ॥६॥

हे कुरुश्रेष्ठ! ए उपर गणावेला दश राजाओ कलियुगमां त्रणसो अने साठ वर्ष पृथ्वीनुं राज्य करशे ॥७॥

हे प्रिय परीक्षित! महानन्दिनी शूद्र पत्नीना गर्भथी नन्द नामनो पुत्र थशे. ते बहु बलवान थशे. महानन्दि ‘महापद्म’ नामनी निधिनो अथवा महापद्म (सो अबज) सैनिकोनो स्वामी होवाथी तेने लोको ‘महापद्म’ पण कहेशे. ते क्षत्रिय राजाओना विनाशने नोतरशे. त्यारथी ज राजाओ घणुं करीने शूद्र अने अधार्मिक थई जशे ॥८-९॥

ते महापद्म पृथ्वीनो एक छत्र शासक थशे. तेना शासननुं उल्लङ्घन कोईपण करी शकशे नहि. क्षत्रियोना विनाशनुं ते कारण होवाथी दृष्टिथी तो तेने बीजा परशुरामजी ज समजवा जोईए ॥१०॥

तेना क्षुमाल्य वगेरे आठ पुत्रो थशे. तेओ बधा राजा थशे अने सो वर्ष सुधी आ पृथ्वीनो उपभोग करशे ॥११॥

कौटिल्य, चाणक््य तथा वात्स्यायन नामथी प्रसिद्ध एक विश्वासघाती ब्राह्मण नवनन्द (नन्द तथा तेना आठ पुत्रो) ने मारी नाखशे. तेमना नाश पछी कलियुगमां मौर्यवंशी राजाओ पृथ्वी उपर राज्य करशे * ॥१२॥

-१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३४

विशेष - विश्वासघात ए महापाप छे ते दर्शावती नीचेनी कथा रसप्रद थशे- एक वखत भोजराजानी आज्ञाथी तेनी पट्टराणी भानुमतीनुं चित्र कालिदासे बनावी राजाने आप्युं. चित्रमां राजाए जोयुं के जाङ्घ उपर तल बताववामां आव्यो छे. राजाए नक्की कर्युं के सदाये ढङ्कायेल रहेता अङ्ग उपर तल छे ए कालिदासने केम खबर पडे? चोक्कस कालिदासने मारी राणी भानुमति साथे अनुचित परिचय होवो जोईए. भोजे कालिदासने तत्काल देशवटो आप्यो. हवे एक वखत एवुं बन्युं के राजा शिकारे गयो. विषम वनमां डरनो मार्यो ते एक वृक्ष उपर चढी गयो ते वृक्ष उपर एक वानर पहेलेथी हतो ज. वानरे राजाने आवकार आपी तेनी साथे मैत्री करी. तेमां विश्वास मूकी राजा त्यां ज सूई रह्यो. पछी कपिविरोधी सिंहे त्यां आवी वानरने कह्युं, ‘‘आ राजा मने सोम्पी दे जेथी हुं तेनी साथेनो मारो जूनो हिसाब (जूनुं वेर) पतावी दउं’’. वानरे कह्युं, ‘‘राजाए मारुं शरण लीधुं छे. शरणागतनो त्याग ए महान दोष छे माटे हुं नहि सोपुं’’. ते ज सिंहे फरी आवी राजाने कह्युं, ‘‘आ वानर मने सोम्पी दे, नहि तो तुं झाड उपरथी ऊतरीश के तरत हुं तने खाई जईश’’. राजाए आ साम्भळीने वानरने वृक्ष उपरथी धक्को मार्यो. वानरे पडतां-पडतां वचमां आवती एक डाळ पकडी लीधी अने राजाने शाप आप्यो, ‘‘तने कोढ नीकळशे’’ राजा रडी पड्यो, माफी मागी. वानरे प्रसन्न थई कह्युं के ‘‘वि-से-मे-रा’’ आ चार अक्षरोनो अर्थ तुं साम्भळीश त्यारे तुं नीरोगी थई जईश. राजाए घेर आवी मन्त्रीमण्डळ बोलाव्युं अने तेने वनमां बनेलुं वृत्तान्त कही सम्भळाव्युं अने चार अक्षरोनो अर्थ पूछ्‌यो. कोईपण मन्त्री, पडिन्त के विद्वान आनो अर्थ करी शक््यो नहि. हवे कालिदास त्यां धारानगरीमां ज एक पडिन्तने त्यां स्त्रीवेशमां रह्या हतां. तेमना जाणवामां आ वात आवी. कालिदासे पोताना पिताना करेला पडिन्तने कह्युं के तमे दरबारमां कहेजो के आनो अर्थ मारी पुत्री कही आपशे. तेने बोलावी आप नामदार पूछो.तेथी राजाए तेनी पुत्री (स्त्री वेषधारी कालिदास) ने राजाना दरबारमां बोलावडावी. तेणे दरेक अक्षरनो अलग-अलग अर्थ नीचे प्रमाणे कही सम्भळाव्यो ः ‘‘१.विश्वासप्रति पन्नेषु ये च विश्वास घातकाः। ते यान्ति नरकं घोरं ताडिता यमकिङ्करैः ॥ विश्वास मूकी शरणे आवेलानी साथे जे विश्वास घात करे छे तेमने यमना दूतो मार मारे छे अने तेओ घोर नरकमां पडे छे.
२. सेतुबन्धे समुद्रे च गङ्गासागर सङ्गमे। स्नात्वा पापविमुक्तः स्यान्मित्रद्रोहकरं विना॥ सेतुबन्ध, समुद्र तथा गङ्गासागरना सङ्गममां मित्र द्रोही सिवायनो गमे तेवो पापी पुरुष पण पापमान्थी छूटी जाय छे. -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३५
३. मेरुतुल्यान्‌ महापापान्‌ कृत्वा सङ्गे सतां नरः। मुच्यते न हि सन्देहो मित्रद्रोही न मुच्यते॥ मेरु पर्वत जेवडां महापाप करीने पुरुष भगवदीयोना सङ्गथी मुक्त थई जाय छे एमां कोई शङ्का नथी पण मित्रद्रोही पापमुक्त थतो नथी.
४. राजन्‌ भोः शृणु मद्‌वाक््यं यदि कल्याणम्‌ इच्छसि। देहि दानम्‌ सुविप्रेभ्यस्ततः श्रेयो भविष्यति॥ राजन्‌! कल्याणनी कामना होय तो मारुं वचन साम्भळो, (अने) सुपात्र ब्राह्मणोने दान आपो. तेथी आपनुं श्रेय थशे’’. आ साम्भळी भोज राजा साजा-ताजा थई गया. तेमणे पूछ्‌युं, ‘‘गृहे वससि भो देवि वनं क्वापि न गच्छसि। पञ्चास्यकपिमद्‌वृत्तं कथं जानासि सुन्दरि’’ हे देवी! तमे घरमां रहो छो, वनमां क््यांय जतां नथी, छतां हे सुन्दरी! सिंह, वानर अने मारी वच्चे बनेली घटना तमे केवी रीते जाणी?’’ तेणे कह्युं. ‘‘देवद्विज प्रसादेन कण्ठे वसति शारदा। सर्व जानामि भो राजन्‌ भानुमत्यास्तिलं यथा’’ हे राजन्‌! देवो अने ब्राह्मणोनी कृपाथी मारा कण्ठमां साक्षात्‌ शारदा (सरस्वती) वास करे छे. तेथी जेवी रीते भानुमती राणीना अङ्ग उपरना तलनी मने जाण थई तेवी रीते हुं बधुं जाणुं छुं’’. राजाए कालिदासने ओळखी लीधा अने तेने प्रसन्न करी धामधूमथी राजनगरीमां पधरावी गया. द्ग बृहत्‌ भोज प्रबन्ध. ए ज कौटिल्य नामनो ब्राह्मण चन्द्रगुप्त मौर्यने राजगादी उपर स्थापन करशे. ए मौर्यवंशनो पहेलो राजा थशे. एनो पुत्र वारिसार (बिम्बिसार) अने तेनो पुत्र अशोकवर्धन थशे ॥१३॥

ए अशोकवर्धननो पुत्र सुयशा थशे. ए सुयशानो पुत्र सङ्गत अने तेनो पुत्र शालिशूक थशे. शालिशूकनो पुत्र सोमशर्मा थशे ॥१४॥

सोमशर्मानो पुत्र शतधन्वा अने शतधन्वानो पुत्र बृहद्रथ थशे. हे कुरुवंश विभूषण परीक्षित! ए दश राजाओ मौर्यवंशमां थशे. ए दश राजाओ एकसो साडत्रीस वर्ष पृथ्वीनुं राज्य करशे ॥१५॥

पुष्पमित्र शृङ्ग ए बृहद्रथनो सेनापति थशे. ते पोताना स्वामीने मारी नाखीने स्वयं राजा बनी बेसशे. पुष्पमित्रनो पुत्र अग्निमित्र अने तेनो पुत्र सुज्येष्ठ थशे ॥१६॥

सुज्येष्ठनो पुत्र वसुमित्र, एनो पुत्र भद्रक, भद्रकनो पुलिन्द, एनो पुत्र घोष अने घोषनो पुत्र वज्‌मित्र थशे ॥१७॥

-१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३६ एनो पुत्र भागवत्‌ अने भागवत्‌नो पुत्र देवभूति थशे. हे नृप! शृङ्गवंशना ए दस राजाओ एकसो बार वर्ष सुधी पृथ्वीने भोगवशे ॥१८॥

हे परीक्षित! शृङ्गवंशी नर पतिओनो राज्यकाल समाप्त थतां आ पृथ्वी कण्ववंशी नरपतिओना हाथमां चाली जशे. कण्ववंशी राजाओ तेमना पहेलान्ना राजाओ करतां ओछा गुणवाळा थशे. शृङ्गवंशनो छेल्लो राजा देवभूति बहु ज कामी थशे. तेने तेनो मन्त्री कण्ववंशी वसुदेव मारी नाखशे अने पोताना बुद्धि बलथी पोते राज्य करशे. वसुदेवनो पुत्र भूमित्र, भूमित्रनो नारायण अने तेनो पुत्र सुशर्मा थशे. सुशर्मा बहु ज यशस्वी थशे ॥१९-२०॥

कण्ववंशना आ चार राजाओ कण्वायन नामे ओळखाशे अने कलियुगमां त्रणसो पीस्ताळीश वर्ष सुधी तेओ पृथ्वीने भोगवशे ॥२१॥

कण्ववंशी सुशर्मानो एक बली नामनो शूद्र सेवक थशे. ते अन्ध्र जातनो अने महादुष्ट थशे. ते शुशर्माने मारी नाखी केटलोक समय पोते पृथ्वी उपर राज्य करशे ॥२२॥

त्यार पछी तेनो भाई कृष्ण राजा थशे. कृष्णनो पुत्र श्रीशान्तकर्ण अने तेनो पुत्र पौर्णमास थशे ॥२३॥

पौर्षमासनो लम्बोदर अने लम्बोदरनो पुत्र चिबिलक थशे. चिबिलकनो मेघस्वाति, तेनो अटमान, अटमाननो अनिष्टकर्मा, तेनो हालेय, हालेयनो तलक, तलकनो पुरीषभीरु अने तेनो पुत्र सुनन्दन थशे ॥२४-२५॥

हे परीक्षित! सुनन्दननो पुत्र चकोर थशे. चकोरने आठ पुत्रो थशे जे बधा ‘बहु’ कहेवाशे. एमां सौथी नानानुं नाम शिवस्वाति हशे. ते बहु बहादुर थशे अने शत्रुओनुं दमन करशे. शिवस्वातिनो गोमतीपुत्र अने तेनो पुत्र पुरीमान थशे ॥२६॥

एनो पुत्र मेदाशिरा, एनो पुत्र शिवस्कन्द, एनो यज्ञश्री, यज्ञश्रीनो विजय अने विजयनो पुत्र चन्द्रविज्ञ थशे ॥२७॥

चन्द्रविज्ञनो पुत्र लोमधि बहु ज प्रसिद्ध थशे. हे कुरुनन्दन! आ त्रीस राजाओ चारसो छप्पन वर्ष पृथ्वीनुं राज्य भोगवशे ॥२८॥

हे परीक्षित! त्यार पछी अवभूति नामनी नगरीना सात अहीर जातना, दस गर्दभी नामना अने सोळ कङ्ग जातिना राजाओ पृथ्वीनुं राज्य करशे. आ बधाय -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३७ खूब लोभी हशे ॥२९॥

त्यार पछी आठ यवन अने चौद तुर्को राज्य करशे. त्यार पछी दक्ष गुरुण्ड अने अगियार मौन राजाओ थशे ॥३०॥

मौन राजाओ सिवायना आ बधा एक हजार नवाणुं वर्षो सुधी पृथ्वीनो उपभोग करशे अने अगियार मौन राजाओ पृथ्वीनुं शासन त्रणसो वर्ष सुधी करशे. ज््यारे तेमनो राज्यकाल समाप्त थशे त्यारे किलकिला नामनी नगरीमां भूतनन्द नामनो राजा थशे. भूतनन्दनो वङ्गिरि, वङ्गिरिनो भाई शिशुनन्दि राजा थशे. एनो यशोनन्दि अने तेना पछी प्रवीरक राजा थशे. ए बधा राजाओ एकसो छ वर्ष सुधी राज्य करशे ॥३१-३३॥

ए नन्दादिना तेर पुत्र बाह्‌लिक कहेवाशे. ए पछी एक पुष्पमित्र नामनो राजा थशे. तेनो पुत्र दुर्मित्र थशे ॥३४॥

सात आन्ध्र, सात कौसल, विदूर अने निषध ते-ते देशना नामथी प्रख्यात राजाओ एक ज वखते जुदा-जुदा खण्डना राजाओ थशे. ते बाह्‌लिक तेर राजाओना ज वंश ज थशे ॥३५॥

मगध देशना मागध राजाना वंशमां विश्वस्फूर्जि नामनो राजा थशे. प्रतापमां श्रेष्ठ होवाथी ते आगळ आवी गयेला पुरुञ्जयथी जुदो बीजो पुरुञ्जय कहेवाशे. ए ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य वर्णोने दूर करीने पुलिन्द, यदु अने मद्रक नामना नवा वर्णो करशे ॥३६॥

ए ब्राह्मण वगेरे वर्णोने नष्ट करी प्रजाने शूद्र जेवी बनावी देशे. ए पराक्रमवाळो थशे अने क्षत्रियोनो नाश करी पद्मावती नामनी नगरीमां रही गङ्गाद्वारथी लईने प्रयाग सुधीना देशनुं पालन करशे ॥३७॥

जेम-जेम घोर कलियुग आवतो जशे तेम-तेम सौराष्ट्र, अवन्तीदेश मालवदेश, शूरसेन देश, आबु पर्वतनी आसपासना देशोमां रहेता ब्राह्मणो संस्कार वगरना व्रात्यो थशे अने त्यान्ना राजाओ शूद्रप्राय थई जशे ॥३८॥

सिन्धु नदीना किनारानो देश चन्द्रभागानो तटवर्ती प्रदेश, कुन्ती नामनो देश अने काश्मीर देशने ब्रह्मतेजथी रहित शूद्र, व्रात्य अने म्लेच्छो भोगवशे ॥३९॥

ए बधा ज राजाओ आचार विचारमां म्लेच्छो जेवा हशे. तेओ बधा एकी साथे जुदा-जुदा प्रदेशोमां राज्य करशे. ते बधा ज जुठ्ठा, अधार्मिक, प्रजानुं शोषण -१,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३८ करनारा अने थोडुं आपनारा थशे. तेओ नानी-नानी वातोमां पण गुस्से थई जनारा हशे ॥४०॥

ते दुष्ट लोको स्त्री, बाळको, गायो अने ब्राह्मणोने मारतां पण अचकाशे नहि. बीजानी स्त्री अने धन पडावी लेवा सदा तत्पर रहेशे. तेमने वधतां के घटतां समय लागशे नहि. तेओ क्षणमां रुष्ट अने क्षणमां तुष्ट थशे. तेमनी शक्ति अने उमर ओछी हशे ॥४१॥

तेमनामां परम्परागत संस्कार नहि होय. तेओ पोताना कर्तव्य कर्मनुं पालन नहि करे. रजोगुण अने तमोगुणथी तेओ अन्ध बनी जशे. राजाना वेषमां तेओ मलेच्छ ज हशे. तेओ लूटफाट करी पोतानी प्रजानुं लोही चूसशे ॥४२॥

तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः ॥ अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिताः ॥४३॥

ज््यारे तेवा लोकोनुं शासन थशे त्यारे देशनी प्रजामां पण एवा ज स्वभाव, आचरण अने भाषणनी वृद्धि थई जशे. राजाओ तो तेमनुं शोषण करशे ज, तेओ एकबीजाने पण त्रास आपशे अने छेवटे बधा ज नष्ट थई जशे ॥४३॥

इति श्रीभागवत्‌ द्वादशस्कन्धमां (प्रथम लोकाश्रय प्रकरणनो पहेलो अध्याय तथा चालु) ‘‘मागध राजाओनो वंश’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत भणीने शुं कीधुं? ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं! मारे जन्तु अहि(नाग=कथाकार) मणि(=भागवत) अजवाळे, तेम तें उदर पोषी लीधुं!’’ (दयाराम)

अध्याय २

भगवान्‌ कल्कि अवतार धरीने अधर्मीओनो नाश करशे ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौञ्च दया क्षमा। कालेन बलिना राजन्‌ नङ्क्ष्‌यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥१॥

ईं उं ईं उं

-२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५३९ श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजा! समय बहु बळवान छे. जेम-जेम घोर कलियुग आवतो हशे तेम-तेम उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयुष्य, बल अने स्मरण शक्तिनो लोप थतो जशे ॥१॥

कलियुगमां पैसावडे ज कुळनो उत्कर्ष अने आचारनो उत्कर्ष गणाशे. उत्तमकुळ अने उत्तम आचरणवाळा पासे धन नहि होय तो एने कोई उत्तम गणशे नहि. तेमज धर्म न्यायनी व्यवस्थामां बळ ज श्रेष्ठ गणाशे. जेने पीठ बळ नहि होय तेनो धर्ममां तेमज न्यायालयमां पराजय थशे ॥२॥

विवाह सम्बन्धने माटे कुल, शील, योग्यता वगेरेनी ओळखाण जेवुं कंई रहेशे ज नहि. मात्र युवक-युवतीनी परस्पर रुचिथी ज सम्बन्ध थई जशे. व्यवहारनी निपुणता सच्चाई अने ईमानदारी मां नहि रहे. जे जेटलुं वधारे छल-कपट करी शकशे ते तेटलो ज व्यवहार कुशळ गणाशे. स्त्री अने पुरुष नी उत्तमतानो आधार शील-संयम न रहेतां मात्र रतिकौशल ज रहेशे. ब्राह्मणनी ओळख तेना गुण स्वभावथी नहि परन्तु यज्ञोपवीतथी ज थशे ॥३॥

वस्त्र, दण्ड, कमण्डलु वगेरेथी ज ब्रह्मचारी, सन्न्यासी वगेरे आश्रमीओनी ओळखाण थशे अने एक बीजाना चिह्‌न स्वीकारी लेवां ए ज एक आश्रममान्थी बीजा आश्रममां प्रवेश करवानुं स्वरूप रहेशे. जे लाञ्च रुशवत आपवामां के धन खर्चवामां पाछो पडशे तेने अदालतोमां बराबर न्याय नहि मळी शके. बोलवा चालवामां जे जेटलो वधारे चालाक हशे ते तेटलो ज मोटो पडिन्त मनाशे ॥४॥

दरिद्र ज नीच गणाशे. जे जेटलो वधारे दम्भ अने पाखण्ड करी शकशे ते तेटलो ज मोटो साधु गणाशे. विवाह-लग्नने माटे एक बीजानी सम्मति ज पूरती गणाशे, शास्त्रीय विधि विधान, संस्कार आदिनी कोई जरूर जणाशे नहि. साबु वगेरेथी देहनो मेल दूर करवो एने ज स्नान कहेवामां आवशे, तीर्थादिमां नाहवुं ए स्नान नहि कहेवाय ॥५॥

लोको दूरनां जळाशयने तीर्थ मानशे अने घर आङ्गणानां तीर्थ-गङ्गाजी, गोमतीजी, माता, पिता वगेरेनी उपेक्षा करशे. माथा उपर मोटा वाळ राखवा ए ज शारीरिक सौन्दर्यनुं चिह्‌न गणाशे कारण के घरेणां तो रहेशे नहि. पोतानुं पेट भरवुं ए ज जीवननो सौथी मोटो पुरुषार्थ हशे. जे जेटली अकडाईथी वात करी शकशे ते तेटलो ज सत्यवादी गणाशे. साचुं बोलनारने कोई सत्य वक्ता कहेशे नहि ॥६॥

-२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४० कुटुम्बने पोषशे ते ज डाह्यो गणाशे. यशने माटे लोको धर्म करशे ॥७॥

एवी दुष्ट प्रजाथी आ पृथ्वी व्याप्त थई जशे त्यारे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र मान्थी जे बळवाळो थशे ते ज राजा बनी बेसशे ॥८॥

राजाओ लोभिया, निर्दय अने चोर थशे. ए प्रजानां द्रव्य अने स्त्रीओने उठावी जशे त्यारे ए प्रजाओ पर्वत अने वनोमां भागी जशे. शाक, मूल, मांस, मध, फल, पुष्प, बीज, गोटली वगेरेनो आहार करी लोको जीवन निर्वाह करशे ॥९॥

क्यारेक दुकाळ पडशे तो क्यारेक राज्यना भारे करवेरा आवशे, क्यारेक असह्य ठण्डी पडशे तो क्यारेक वळी हिम पडशे, क्यारेक आन्धी तोफानो थशे, क्यारेक सखत गरमी पडशे अने क्यारेक नदीओमां घोडा पुर आवशे. आ उत्पादो अने आपसना सङ्घर्षथी प्रजा बचावो! बचावो! (त्राहि, त्राहि) एवा पोकारो करती नष्ट थई जशे ॥१०॥

लोको भूख, तरस अने अनेक प्रकारनी चिन्ताओथी घेराई जशे. रोगोथी तो एमनो छुटकारो ज नहि थाय. मनुष्योनुं कलियुगमां आयुष्य वधारेमां वधारे वीसथी त्रीस वर्षनुं रहेशे ॥११॥

हे परीक्षित! कलिकालना दोषोने लीधे प्राणीओनां अने मनुष्योनां शरीर र्ठीगणां, क्षीण अने रोगोनां घर थवा माण्डशे. वर्णो अने आश्रमोना धर्मो बतावनार वेदमार्ग नष्ट प्राय थई जशे ॥१२॥

धर्ममां पाखण्डनी प्रधानता थई जशे. राजाओ डाकु लूण्टारा जेवा थई जशे. मनुष्यो चोरी, जूठ अने निरपराध हिंसा वगेरे अनेक प्रकारनां कुकर्मोथी पेट भरता थई जशे ॥१३॥

चारेय वर्णना लोको शूद्र जेवा थई जशे. गायो बकरी जेवडी नानी-नानी तथा ओछुं दूध आपनारी थई जशे. वानप्रस्थी अने सन्न्यासी वगेरे विरक्त आश्रमवाळा पण घरगृहस्थीनो जमेलो जमावी गृहस्थोना जेवो व्यवहार करवा लागशे. जेमनी साथे विवाहनो सम्बन्ध छे (सासु, ससरा, साळा, साळी) तेमने ज साचां सगां मानवामां आवशे ॥१४॥

धान्य, जव, घउं वगेरे अनाजनां डूण्डां नानां-नानां थई जशे. वृक्षोमां अधिकांश खीजडाना जेवां नानां अने काण्टाळां वृक्षो ज रही जशे. वादळोमां वीजळी -२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४१ तो बहु चमकशे परन्तु वरसाद ओछो थशे. गृहस्थोनां घर अतिथि सत्कार या वेदध्वनि विहोणां थई जवाथी अथवा जनसङ्ख्या घटी जवाथी सूनां-सूनां थई जशे ॥१५॥

हे परीक्षित! वधारे शुं कहुं? अतिथि सत्कार विहोणो, खळ धर्मवाळो अने दुःसह चेष्टावाळो कलियुग आवशे. लोको प्रायः गृहस्थीनो भार वेण्ढारनारा अने विषयी थई जशे. आ स्थितिमां धर्मनी रक्षा करवामाटे सत्त्वगुणनो स्वीकार करी स्वयं भगवान्‌ अवतार लेशे ॥१६॥

हे प्रिय परीक्षित! सर्व व्यापक भगवान्‌ विष्णु सर्व शक्तिमान छे. ते सर्व स्वरूप होवा छतां चराचर जगतना साचा शिक्षक-सद्‌गुरु छे. ते सज्जन पुरुषोना धर्मनी रक्षामाटे तेमनां कर्मना बन्धन कापी नाखी तेमने जन्ममरणना चक्करमान्थी छोडाववामाटे अवतार ग्रहण करे छे ॥१७॥

ते दिवसोमां शम्भल नामना गाममां विष्णुयश नामना एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थशे. तेमनुं हृदय घणुं उदार अने भगवद्‌ भक्तिथी पूर्ण हशे. तेमने ज घेर कल्कि भगवान्‌ अवतार ग्रहण करशे ॥१८॥

श्रीभगवान्‌ ज अष्टसिद्धिओ तथा समस्त सद्‌गुणोना एक मात्र आश्रय छे. समस्त चराचर जगतना ते ज रक्षक अने स्वामी छे. आप देवदत्त नामना पवनवेगी घोडा उपर सवार थई दुष्टोने तलवारथी मारी नाखशे ॥१९॥

आपनां रोमे रोममान्थी अतुलनीय तेजनां किरणो नीकळतां हशे. आप पोताना शीघ्रगामी घोडा उपर सवार थई पृथ्वी उपर सर्वत्र विचरण करशे अने राजाना वेशमां छुपायेला करोडो डाकुओनो संहार करशे ॥२०॥

हे राजन्‌! ज्यारे बधा डाकुओनो संहार थई जशे त्यारे नगरोनी तथा देशनी समस्त प्रजानुं हृदय पवित्रता पूर्ण थई जशे कारण के भगवान्‌ कल्किना शरीरमां लागेल अङ्गरागना स्पर्शथी अत्यन्त पवित्र थई गयेल वायु तेमनो स्पर्श करशे अने आ प्रमाणे ते भगवान्‌ना श्रीविग्रहनी दिव्य सुगन्ध प्राप्त करी शकशे ॥२१॥

तेमनां पवित्र हृदयोमां सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेव बिराजमान थशे अने पछी तेमनां सन्तान पहेलान्नी जेम हृष्ट-पुष्ट अने बळवान थवा लागशे ॥२२॥

प्रजाना नयनमनोहारी हरि भगवान्‌ ज धर्मना रक्षक अने स्वामी छे. ते ज भगवान्‌ ज्यारे कल्किना रूपे अवतार ग्रहण करशे ते ज वखते सत्ययुगनो प्रारम्भ -२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४२ थई जशे अने सन्ताननी परम्परा स्वयं ज सत्त्वगुणयुक्त थई जशे ॥२३॥

जे वखते चन्द्रमा, सूर्य अने बृहस्पति एक ज समये एकी साथे पुष्य नक्षत्रना प्रथम पलमां प्रवेश करे छे, एक राशिमां आवे छे ते ज वखते सत्ययुगनो प्रारम्भ थाय छे ॥२४॥

हे परीक्षित! चन्द्रवंशमां अने सूर्यवंशमां जेटला राजाओ थई गया छे अने थशे ते बधानुं क्रमपूर्वक सङ्क्षेपथी वर्णन में करी दीधुम् ॥२५॥

तमारा जन्मथी गणतां नन्दनो अभिषेक थयो त्यां सुधी एक हजार एक सो पन्दर वर्ष थाय छे ॥२६॥

सप्तर्षिना उदय वखते प्रथम जे बे ताराऊगे छे ते बन्नेनी दक्षिणोत्तर रेखा उपर वचमां अश्विनी वगेरे नक्षत्रोमान्थी राते एक नक्षत्र देखाय छे ॥२७॥

सप्तर्षि एक-एक नक्षत्रथी साथे मनुष्यनां सो-सो वर्ष सुधी रहे छे. तेओ तमारा काळमां एटले हालमां पण मघा नक्षत्रमां छे ॥२८॥

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ज शुद्ध सत्त्वमय विग्रह (शरीर) नी साथे श्रीकृष्णना रूपमां प्रकट थया हता. आपे जे वखते पोतानी लीला संवरण करी स्वयं परम धाम पधारी गया ते ज वखते कलियुगे संसारमां प्रवेश कर्यो. तेथी ज लोको पाप कर्मोमां रुचि वाळा थया ॥२९॥

ज्यां सुधी लक्ष्मी पति भगवान्‌ श्रीकृष्ण पोतानां चरण कमलोथी पृथ्वीनो स्पर्श करता रह्या त्यां सुधी कलियुग लोकोमां पोतानुं पराक्रम बतावी शक्यो न हतो ॥३०॥

हे परीक्षित! जे वखते सप्तर्षि मघा नक्षत्र उपर विचरण करता रहे छे ते ज वखते कलियुगनो आरम्भ थाय छे. कलियुगनुं आयुष्य देवताओनां बारसो वर्षनुं अर्थात्‌ मनुष्योनां चार लाख बत्रीस हजार वर्षनुं छे ॥३१॥

जे वखते सप्तर्षि मघा नक्षत्रथी आगळ वधी पूर्वाषाढा नक्षत्रमां पहोञ्ची गया हशे ते वखते राजा नन्दनुं राज्य हशे. त्यारथी ज कलियुगनी वृद्धि शरू थशे ॥३२॥

पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोनुं कहेवुं छे के जे दिवसे भगवान्‌ श्रीकृष्णे पोताना परम धाम प्रत्ये प्रयाण कर्यु, ते ज दिवसे ते ज समये कलियुगनो प्रारम्भ थई गयो ॥३३॥

हे परीक्षित! ज्यारे देवताओनी वर्ष गणना अनुसार एक हजार वर्ष वीती -२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४३ जशे, त्यार बाद कलियुगना छेल्ला दिवसोमां फरीथी कल्कि भगवान्‌नी कृपाथी मनुष्योना मनमां सात्त्विकतानो सञ्चार थशे लोको पोताना वास्तविक स्वरूपने जाणी शकशे अने त्यारथी ज सत्ययुगनो प्रारम्भ पण थशे ॥३४॥

हे परीक्षित! में तमने वैवस्त मनु (क्षत्रिय) नो राजवंश सङ्क्षेपमां कही सम्भळाव्यो. (ते वंशमां वैवस्वत मनु उत्तम, ईक्ष्वाकु वगेरे मध्यम अने पुरूरवा वगेरे अधम एवी जेम अवस्थाओ छे). तेवी ज रीते प्रत्येक युगमां ब्राह्मण, वैश्य अने शूद्रोनी पण वंश परम्परा समजी लेवी. (आ श्लोकमां ‘तास्ताः’ ‘ते-ते’ ने स्थाने ‘वंशाः’ ‘वंशो’ एवो पण पाठ छे) ॥३५॥

हे राजन्‌! जे पुरुषो अने महात्माओनुं वर्णन में तमारी पासे कर्युं छे तेमनी ओळखाण अत्यारे तेमना नाम मात्रथी ज थाय छे. अत्यारे तेओ हयात नथी. उदार कीर्तिवाळा तेमनो मात्र इतिहास ज सचवायो छे. अत्यारे तेमनी कीर्ति ज पृथ्वी उपर ज्यां-त्यां साम्भळवा मळे छे ॥३६॥

भीष्म पितामहना पिता (चन्द्रवंशी) शन्तनुं राजानो भाई देवापि तथा (सूर्यवंशी) इक्ष्वाकु वंशनो राजा मरुं ए बन्ने अत्यारे कलाप नामना गाममां योगना बळथी रहेला छे ॥३७॥

कलियुगना अन्तमां एने कल्किरूप धारी वासुदेव भगवान्‌ आज्ञा करशे तेथी ए अर्ही आवी वर्णाश्रम धर्मनी पुनःस्थापनां करशे अने एनो विस्तार करशे ॥३८॥

सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग अने कलियुग ए चार युग अनुक्रमे पृथ्वी उपरना प्राणीओमां प्रवर्त्या करे छे ॥३९॥

हे राजन्‌! में तमने कहेला राजाओ तथा नहि कहेला बीजाओ ‘‘आ पृथ्वी मारी छे, आ पृथ्वी मारी छे’’ एम करतां-करतां अन्ते पोते तो पृथ्वी (धूळ)मां मळी गया अने पृथ्वी तो अर्ही ने अर्ही ज रही ॥४०॥

आ शरीरने कोई राजा कही भले राजी थाय; परन्तु अन्ते तो ए क्रीडा, विष्टा के राखना रूपमां ज परिणत थई जवानुं छे. (मृतदेहनो अग्नि संस्कार करतां राख थाय, तेने दाटी देतां तेमां क्रीडा पडे अने तेने जलमां फेङ्की देवामां आवे तो जलचर खाई जतां तेनी विष्टा थई जाय) ते ज शरीरमाटे अथवा तेना सम्बन्धीओने माटे जे मनुष्य कोई पण प्राणीने सतावे छे, ते पोतानो स्वार्थ के परमार्थ जाणतो नथी, कारण के प्राणीओनी सतामणी करवी ए तो नरकनुं द्वार छे ॥४१॥

-२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४४ जे लोको एम ज विचार कर्या करे छे के मारा दादा-परदादा आ अखण्ड भूमण्डल उपर राज करता हता, हवे ते मारे अधीन रहे अने मारा पछी मारा पुत्रो, पौत्रो अने मारा वंशजो ज तेनो उपभोग केवी रीते करे, ते मूरखाओ अग्नि, जळ अने माटी ना आ शरीरने पोतानो आत्मा मानी बेसे छे अने अभिमानपूर्वक पृथ्वीमां ममता राखे छे अन्ते तेओ शरीर अने पृथ्वी बन्नेने छोडी पोते ज चाल्या जाय छे ॥४२-४३॥

ये-ये भूपतयो राजन्‌ भुञ्जन्ति भुवमोजसा ॥ कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च ॥४४॥

हे प्रिय परीक्षित! जे-जे राजाओ भारे उत्साह अने बल-पौरुषपूर्वक आ पृथ्वीना उपभोगमां लागी रह्या ते बधानो विकराल काल कोळियो करी गयो. अत्यारे मात्र इतिहासमां तेमनी वार्ता ज रही गई छे. (आम तेओ आ लोक अने परलोक बन्नेना फलथी भ्रष्ट थया, माटे अनासक्तिपूर्वक श्रीकृष्णनी भक्ति करवी ए ज फलितार्थ थयो) ॥४४॥

इति श्रीभागवत द्वादशस्कन्धमां (प्रथम लोकाश्रय प्रकरणनो बीजो अध्याय तथा चालु) ‘‘भगवान्‌ कल्कि अवतार धरीने अधर्मीओनो नाश करशे’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ब्रह्मसम्बन्ध लेनाराओ! सावधना!!! समर्पित जीवन जीववानी दीक्षा लीधा बाद असमर्पित खान-पान वगेरेनो त्याग न करनारनुं ब्रह्मसम्बन्ध फोक थई जाय छे (सिद्धान्तरहस्य) अने ते ‘असिपत्र’ नामना नरकमां जाय छे. (श्रीहरिरायचरण) अध्याय३ भगवान्‌नुं कीर्तन कलिदोष निवृत्तिनो एकज उपाय छे प्रकरण २-वेदाश्रय

विशेष - कलिना दोषनी निवृत्तिना उपायोमां सन्देह थाय तो एनेमाटे चोक्कस उपाय ए ज छे के भगवान्‌नुं सारी रीते कीर्तन करवाथी बधा कलिदोष निवृत्त थाय छे ए वात आ त्रीजा

ईं उं ईं उं

-३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४५ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान्‌ नृपान्‌ हसति भूरियम्‌ ॥ अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ पृथ्वी पोताने माटे आकुल-व्याकुल थता राजाओने जोईने हसे छे अने कहे छे के राजाओ पोते तो मृत्युनां रमकडां छे अने मने जीतवानी इच्छा करे छे तेथी मने बहु आश्चर्य थाय छे ॥१॥

जेना पिता, पितामह वगेरे आ पृथ्वी छोडी चाल्या गया ए वात ते राजाओ जाणे छे छतां जलना परपोटा जेवा आ देहथी मने भोगववा इच्छे छे तेओनो काम वृथा छे केमके जेमां एमणे विश्वास कर्यो छे ते ज तेमनो देह क्यारे जशे एनो निश्चय नथी तो ए भोगने लायक केम गणाय? ॥२॥

तेओ विचार करे छे के,‘‘पहेलां अमे मन सहित पाञ्चे इन्द्रियो उपर विजय मेळवीशुं अन्दरना शत्रुओने पहेलां जीती लईंशुं कारण के तेमने जीत्या विना बहारना शत्रुओने जीतवा कठिन छे. त्यार पछी अमारा दुश्मनना मन्त्रीओ, अमात्यो, नागरिको, नेताओ अने समस्त सेनाने पण वश करी लईशुं. जे कोई अमारा विजयमार्गमां काण्टारूप हशे तेने अमे चोक्कस उखेडीने फेङ्की दईशुं-जीती लईशुम् ॥३॥

आ प्रमाणे धीरे-धीरे क्रमथी आखी पृथ्वी अमने अधीन थई जशे अने पछी तो समुद्र ज अमारा राज्यनी खाईनुं काम करशे’’. आ प्रमाणे तेओ पोताना मनमां अनेक आशाओ बान्धी ले छे पण तेमने ए वात तो बिलकुल तो सूझती ज नथी के तेमने माथे काल भमी रह्यो छे ॥४॥

एटलुं ज नहि ज्यारे एक द्वीप तेनी सत्ता नीचे आवी जाय छे त्यारे ते बीजा द्वीप उपर विजय प्राप्त करवामाटे भारे शक्ति अने उत्साह साथे समुद्रयात्रा करे छे. इन्द्रियो सहित मनने वश करी लोको मुक्ति प्राप्त करे छे पण आ लोको तेमने वश करीने पण जमीननो नानकडो टुकडो ज मेळवे छे. आटला परिश्रम अने इन्द्रियसंयमनुं आ केटलुं तुच्छ फल छे? ॥५॥

हे परीक्षित! पृथ्वी कहे छे के मोटा-मोटा मनुओ अने तेमना वीर पुत्रो मने जेमनी तेम अकबन्ध छोडी दई ज्यान्थी आव्या हता त्यां ज खाली हाथे पाछा गया, मने पोतानी साथे लई जई न शक्या. हवे आ मूर्ख राजाओ युद्धमां जीती -३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४६ मने वश करवा मागे छे! ॥६॥

जे दुष्ट राजाओ मारामां ममता बान्धे छे तेमने मारेमाटे पिता, पुत्र के भाईओ साथे पण क्लेश (लडाई) थाय छे ॥७॥

‘‘हे मूढ! आ समग्र पृथ्वी मारी छे तारुं आमां कांई नथी’’ एम एक बीजानी स्पर्धा करतां तेओ मारेमाटे एक बीजाने मारीने ते राजाओ पोते पण मरे छे ॥८॥

पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, कार्तवीर्य, सहस्त्रबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्‌वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्र, लोकोने रडावनार रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष, तारकासुर तथा बीजा घणा दैत्यो अने शक्तिशाळी राजाओ थई गया. आ बधा लोको बधुं समजता हता, शूरवीर हता, बधाए दिग्विजयमां बीजाओने हरावी दीधा पण बीजा लोको तेमने जीती न शक्या, छतां ते बधाय काळनो कोळियो बनी मृत्युने शरण थया. हे राजा! तेमणे पोताना पूरा अन्तःकरणथी मारामां घणी ममता बान्धी अने समज्या के ‘‘आ पृथ्वी मारी छे’’. परन्तु विकराल काले तेमनी लालसा पूरी न थवा दीधी. अत्यारे तेमना बल-पराक्रम अने शरीर वगेरेनो कंई पत्तो ज नथी. मात्र तेमनो इतिहास लोकोमां सचवायो छे ॥९-१३॥

हे परीक्षित! आ पृथ्वी उपर मोटा-मोटा प्रतापी अने महान पुरुषो थई गया छे. लोकोमां पोताना यशनो विस्तार करी तेओ अर्हीथी कायमने माटे चाल्या गया. तमने विषयोनी असारतानुं ज्ञान अने वैराग्य थाय तेमाटे ज तेमनी कथाओ श्रवण करावी छे. ए बधो वाणीनो विलास छे. तेमां पारमार्थिक सत्य कंई नथी. (तेथी तेमनी कथाओ साम्भळवानो आग्रह न राखवो) ॥१४॥

(तो पछी पारमार्थिक सत्य शुं अने कई कथाओ साम्भळवानो आग्रह राखवो जोईए? तेनो उत्तर आपे छे) भगवान्‌ श्रीकृष्णनो गुणानुवाद समस्त अमङ्गलोनो नाश करी देनारो छे, मोटा-मोटा महात्माओ तेनुं ज गान करता रहे छे, भगवान्‌ श्रीकृष्णना चरणोमां अनन्य प्रेममयी भक्तिनी लालसा जेने होय तेणे नित्य निरन्तर भगवान्‌ना दिव्य गुणानुवादनुं ज श्रवण करता रहेवुं जोईए ॥१५॥

राजा परीक्षिते पूछ्‌युं - हे भगवान्‌! मने तो कलियुग दोषोनो भण्डार देखाय छे. ते वखते लोको कया उपायथी ते दोषोनो नाश करशे. ए उपरान्त युगोनुं स्वरूप, -३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४७ तेमना धर्मो, कल्पनी स्थिति अने प्रलयकालनी मुदत तथा सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान्‌ भगवान्‌ना कालस्वरूपनुं पण यथायोग्य वर्णन करवानी आप कृपा करो ॥१६-
१७॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - सत्ययुगमां धर्मनां चार चरण होय छे; ते चरण सत्य, दया, तप अने दान छे. ते समयना लोको पूरी निष्ठाथी पोतपोताना धर्मनुं पालन करे छे. धर्म स्वयं भगवान्‌नुं स्वरूप छे. (राग-द्वेष विना अभयनुं दान करवुं ए दाननी शास्त्रीय व्याख्या छे. वळी ‘‘द्वैप्‌ शोधने’’ तेथी प्रथम स्कन्धमां दानने बदले शौच कहेल छे) ॥१८॥

सत्ययुगना लोको अत्यन्त सन्तोषी अने दयाळु होय छे. तेओ बधान्नी साथे मित्रतानो व्यवहार करे छे अने शान्त रहे छे. इन्द्रियो अने मन उपर तेओ काबू राखे छे अने सुख-दुःख वगेरे द्वन्द्वो तेओ समान भावथी सहन करे छे. मोटा भागना लोको तो समदर्शी अने आत्माराम होय छे अने बाकीना लोको भगवद्‌ध्यान, तप वगेरेमां तत्पर रहे छे. विषयोमां तत्पर रहेता नथी ॥१९॥

हे राजन्‌! धर्मनी जेम अधर्मने पण चार चरण छे असत्य, हिंसा, असन्तोष अने कलह त्रेता वगेरे युगोमां आना प्रभावथी धीमे-धीमे धर्मना सत्य वगेरे चरणोनो चतुर्थांश क्षीण थतो जाय छे ॥२०॥

हे राजन्‌! ते वखते वर्णोमां ब्राह्मणोनी प्रधानता अक्षुण्ण-अकबन्ध रहे छे. लोकोमां हिंसा अने विषयासक्ति बहु होती नथी. बधा लोको कर्मकाण्ड अने तपस्यामां निष्ठा राखे छे अने अर्थ, धर्म अने कामरूप त्रिवर्गनुं सेवन करे छे. घणा खरा लोको वेदोना पारदर्शी विद्वान होय छे ॥२१॥

द्वापर युगमां हिंसा, असन्तोष, असत्य अने द्वेष अधर्मनां आ चरणो वधी जाय छे अने तेने लीधे धर्मनां चार चरण-तप, सत्य, दया अने दान-अडधा क्षीण थई जाय छे. (असत्यथी सत्यनो, हिंसाथी दयानो, असन्तोषथी तपनो अने कलहथी दाननो क्षय थई जाय छे) ॥२२॥

ते समयना लोको बहु यशस्वी, कर्मकाण्डी अने वेदो ना अध्ययन अध्यापनमां बहु तत्पर होय छे. कुटुम्बो मोटां होय छे. घणुं करीने लोको धनाढ्‌य अने सुखी होय छे. द्वापरयुगमां वर्णोमां क्षत्रिय अने ब्राह्मण बे वर्णोनी प्रधानता होय छे ॥२३॥

-३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४८ कलियुगमां तो अधर्मनां चारेय चरणोनुं जोर बहु वधी जाय छे; तेने लीधे धर्मनां चारेय चरण क्षीण थवा लागे छे अने तेमनो चोथो भागज रहे छे. अन्तमां तो तेनो पण लोप थई जाय छे ॥२४॥

कलियुगमां लोको लोभी, दुराचारी अने निर्दय (कठोर हृदयवाळा) होय छे. वगर कारणे तेओ वेर बान्धे छे. दुर्भाग्यवाळा तेमज बहु लालसा-तृष्णावाळा होय छे. द्विजनी प्रधानता रहेती नथी परन्तु शूद्र अने दासो वगेरेनीज प्रधानता रहेछे ॥२५॥

(युगोनी विषमतानुं कारण कहे छे) बधा प्राणीओमां त्रण गुण होय छे- सत्त्व, रज अने तम कालनी प्रेरणाथी समये-समये शरीर, प्राण अने मनमां तेमना ह्रास अने विकास (घटाडो अने वधारो) पण थता रहे छे ॥२६॥

जे वखते मन, बुद्धि अने इन्द्रियो सत्त्वगुणमां स्थिर थई पोतपोतानुं काम करवा लागे छे ते वखते सत्ययुग समजवो जोईए. सत्त्वगुणनी प्रधानता होय त्यारे मनुष्य ज्ञान अने तपस्यामां विशेष रुचि राखे छे ॥२७॥

हे बुद्धिमान परीक्षित! जे वखते मनुष्योनी प्रवृत्ति अने रुचि धर्म, अर्थ अने लौकिक-पारलौकिक सुख भोगववा तरफ वळे छे अने शरीर, मन अने इन्द्रियो रजोगुणमां स्थिर थई काम करवा लागे छे त्यारे समजी लेवुं के अत्यारे त्रेतायुग पोतानुं काम करी रह्यो छे ॥२८॥

ज्यारे लोभ असन्तोष अभिमान दम्भ मत्सर वगेरे दोषोनो वधारो थाय छे अने मनुष्य भारे उत्साह अने रुचिपूर्वक सकाम कर्मोमां प्रवृत्त थाय ते वखते द्वापरयुग समजवो. रजस्‌ अने तमो गुणनी मिश्रित प्रधानतानुं नामज द्वापरयुग छे ॥२९॥

ज्यारे माया, खोटुं बोलवुं, कपट, आळस, निद्रा, हिंसा, झेर खावुं, दुःख, शोक, मोह, रोवुं, भय अने दीनतानीप्रधानता होय त्यारे तेने तमोगुणप्रधान कलियुग समजवो जोईए ॥३०॥

ज्यारे कलियुगनुं राज्य होय छे त्यारे लोकोनी दृष्टि क्षुद्र थई जाय छे; मोटा भागना लोको मन्दबुद्धिवाळा, मन्दभाग्यवाळा, बहु खानारा अने चित्तमां अनेक कामनाओथी भरेला होय छे. स्त्रीओ स्वैरविहार करवावाळी, खराब आचरण वाळी, दुष्ट,कठोरबोलनारी, उग्रस्वभाववाळी अने कलह करनारी थाय छे ॥३१॥

-३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५४९ समस्त देशमां (गाम-गाममां) लुटाराओनी प्रधानता अने प्रचुरता थई जाय छे. पाखण्डी लोको पोताना नवा-नवा मत चलावी मन पसन्द वेदोमां तात्पर्य काढे छे अने वेदोने कलङ्कित करे छे. प्रजानुं भक्षण करनार राजाओ होय छे. ब्राह्मणो पेट भरवामां अने विषयासक्तिमां डूबेला रहे छे ॥३२॥

ब्रह्मचारी लोको ब्रह्मचर्यव्रतरहित अने अपवित्र रहेवा लागे छे. गृहस्थ बीजाने भिक्षा आपवाने बदले पोते ज भीख मागवा लागे छे. वानप्रस्थी गामोमां वसवा लागे छे अने सन्न्यासी धनना अत्यन्त लोभी थई जाय छे ॥३३॥

स्त्रीओ नाजुक बान्धावाळी, बहु आहार करनारी अनेक बाळकोवाळी, निर्लज्ज, नित्य कडवुं बोलनारी, चोरी, कपट अने साहस करनारी थाय छे ॥३४॥

धर्म-अधर्मनो विचार नहि करनार वेपारीओ छळकपट करी ग्राहकोने छेतरे छे. पोते धनवान होय, आपत्ति काल न होय छतां सत्पुरुषो जेनी निन्दा करे छे तेवो न करवानो धन्धो वेपारीओ करे छे. (दा.त. व्याजवटुं, भेळसेळ, तोलमां वधारे लई लेवुं अने ओछुं आपवुं वगेरे) ॥३५॥

सर्वोत्तम पण मालिक द्रव्यरहित बनतां नोकर तेने छोडी दे छे. नोकर गमे तेटलो विश्वासु अने जूनो होय तो पण ते मान्दो के कार्यमां अशक्त जणातां शेठ तेने छूटो करे छे. कलियुगमां दूध आपतां बन्ध थती गायोने छोडी देनार माणसो उत्तम कुळमां पण होय छे ॥३६॥

हे परीक्षित! कलियुगना मनुष्यो बहु ज विषयासक्त थई जाय छे. तेओ पोतानी कामवासना तृप्त करवामाटे ज कोईनी साथे प्रेम करे छे. विषयवासनाना कीडा बनी स्त्रीओने वश थाय छे अने एटला दीन थई जाय छे के माता, पिता, भाई, मित्र, ज्ञाति वगेरेने छोडी दईने साळी अने साळाओनी ज सलाह अने मार्गदर्शन ले छे ॥३७॥

शूद्रो तपस्वीओनो वेष लई पोतानुं पेट भरवा तथा दान लेवा लागे छे. जेमने धर्मनुं कंई पण ज्ञान नथी तेओ ऊञ्चा सिंहासन उपर बिराजी धर्मनो उपदेश करवा लागे छे ॥३८॥

हे राजन्‌! कलियुगनी प्रजा दुकाळ पडवाथी अत्यन्त भयभीत अने चिन्तातुर थई जाय छे. एक बाजु दुकाळ अने बीजी बाजु राज्यना भारे करवेराथी प्रजाना शरीरमां मात्र हाडपिञ्जर अने मनमां मात्र उद्‌वेग शेष रही जाय छे. प्राणरक्षाने -३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५० माटे अन्न पण दुष्प्राप्य (मळवुं मुश्केल) बने छे ॥३९॥

कलियुगमां प्रजाने शरीर ढाङ्कवामाटे कपडां, पेटनी भूख मटाडवामाटे अन्न, पीवाने माटे पाणी अने सूवाने माटे बे हाथ जमीननी पण मुश्केली पडे छे तो पछी दाम्पत्यसुख, स्नान अने आभूषण नी वातज कयां रही? आवा लोकोनी आकृति प्रकृति अने कृति पिशाचोना जेवीज थई जाय छे ॥४०॥

कलियुगमां लोको एक कोडीने माटे सगा समबन्धी, भाई, बहेन के मित्रो नो स्नेह तोडीने पण परस्पर लडाई करे छे, एकबीजानी हत्या करे छे अने पोताना प्रिय प्राणने पण खोई बेसे छे ॥४१॥

हे परीक्षित! कलियुगना लोको तुच्छ प्राणीओनी जेम केवळ कामवासनानी तृप्ति अने पेट भरवामां रच्या-पच्या (जिह्‌वोपस्थ परायण) रहे छे. पुत्र पोताना वृद्ध मा-बापनी पण रक्षा के पालन-पोषण करता नथी तेमनी उपेक्षा करी दे छे तो माता-पिता पोताना सर्व रीते कुशळ अने सद्‌गुणी, योग्य पुत्रोनी पण परवा नहि करतां तेमने जुदा काढी मूकेछे ॥४२॥

हे राजन्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ज चर-अचर (स्थावर-जङ्गम) जगतना परम पिता अने परम गुरु छे. इन्द्र, ब्रह्मा वगेरे त्रिलोकना अधिपतिओ आपनां चरणकमलोमां मस्तक नमावी आपने सर्वस्व समर्पण करता रहे छे. परन्तु कलियुगना लोकोमां एटली बधी मूढता फेलाई जाय छे अने वेदविरुद्ध मार्गोथी लोकोनां चित्त एटलां बधां भ्रमित थई जाय छे के प्रायः लोको सर्वतः भक्तोना रक्षक भगवान्‌ अच्युतनी भक्ति करतानथी ॥४३॥

मनुष्य मान्दगीमां, पडतां, ठेस खातां, मृत्यु पथारीए के गमे तेवी लाचार (पराधीन)स्थितिमां पण जो भगवान्‌ना कोईपण एक नामनो उच्चार करी ले तो पण तेनां बधां ज कर्मोनी भोगळो-बन्धन छिन्न-भिन्न थई जाय छे अने तेने वैकुण्ठलोक वगेरेनी प्राप्ति थाय छे. परन्तु कलियुगथी प्रभावित थई जई लोको आवा भगवान्‌नी आराधनाथी पण विमुख थई जाय छे ॥४४॥

हे परीक्षित! कलियुगमां अनेक दोष छे. बधी ज वस्तुओ दूषित थई जाय छे, स्थानोमां पण दोषोनी प्रधानता थई जाय छे. बधा दोषोनो मूल स्त्रोत तो अन्तःकरण छे ज पण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हृदयमां बिराजमान थई जाय छे त्यारे आपना सान्निध्य मात्रथीज समस्त दोषोनो नाश थई जाय छे ॥४५॥

-३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५१ ए भगवान्‌नां रूप, गुण, लीला, धाम अने नाम नां कानथी श्रवण, मुखथी कीर्तन, हृदयमां ध्यान, तनथी सेवा अने मनथी आदर करनारना हृदयमां आप पधारी हजारो जन्मोनां ढगलाबन्ध पापोना समूहने पण क्षण मात्रमां भस्म करी देछे ॥४६॥

जेवी रीते सुवर्णमां प्रवेश करी अग्नि तेना धातु सम्बन्धी मलिनता वगेरे दोषोनो नाश करी दे छे तेवी ज रीते साधकोना हृदयमां बिराजी भगवान्‌ तेना अशुभ संस्कारोने सदाने माटे भस्म करी दे छे ॥४७॥

हे परीक्षित! भगवान्‌ पुरुषोत्तम हृदयमां बिराजमान थवाथी अन्तःकरणनी जेवी वास्तविक शुद्धि थाय छे तेवी शुद्धि विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणीओ प्रत्ये मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान के जप वगेरे कोईपण साधनथी थती नथी ॥४८॥

हे परीक्षित! हवे तमारा मृत्युनो समय नजीक आवी रह्यो छे तेथी सावधान थई जाओ. एकाग्र चित्तथी अने हृदयनी समस्त वृत्तिओथी भगवान्‌ श्रीकृष्णने तमारा हृदय सिंहासन उपर पधरावी लो. ब्रह्माजी अने महादेवजी ने पण मुक्ति केशव आपे तो ज मळे छे एवुं आपनुं माहात्म्य छे तो तमने पण एम करवाथी परम गतिनी प्राप्ति थशे ॥४९॥

जे लोकोनुं मृत्यु निकट आवी रह्युं छे तेमणे सदा-सर्वदा सर्व प्रकारे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌नुं ज ध्यान धरवुं जोईए. हे प्रिय परीक्षित! बधाना परम आश्रय अने सर्वात्मा भगवान्‌ पोतानुं ध्यान करनाराओने पोतानुं स्वरूप प्राप्त करावी आपेछे ॥५०॥

हे राजा! आम तो कलियुग दोषोनो भण्डार छे, परन्तु तेमां एक बहु मोटो गुण ए छे के मात्र श्रीकृष्णनुं कीर्तन करवाथी संसारनी सर्व आसक्तिओ छूटी जाय छे अने परमात्मानी प्राप्ति थाय छे ॥५१॥

कृते यद्‌ ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ॥ द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्‌ हरिकीर्तनात्‌ ॥५२॥

सत्ययुगमां भगवान्‌नुं ध्यान करवाथी, त्रेतामां मोटा-मोटा यज्ञोद्वारा एमनी आराधना करवाथी अने द्वापरमां विधिपूर्वक तेमनी सेवा-पूजाथी जे फल मळे छे ते कलियुगमां मात्र भगवद्‌ नामनुं कीर्तन करवाथी ज प्राप्त थई जाय छे ॥५२॥

-३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५२ इति श्रीभावगत्‌ द्वादश स्कन्धमां (बीजा वेदाश्रय प्रकरणनो पहेलो अध्याय तथा चालु) ‘‘भगवान्‌नुं कीर्तन कलिदोष निवृत्तिनो एक ज उपाय छे’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवामनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने धन्धो बनावी बेठेला गुरु-कथाकारकीर्तनीयाओ खरेखर तो ‘भक्ति’ब्दनो उच्चार करवाने पण लायक नथी.

अध्याय ४

चार जातना प्रलयनी कथा

विशेष - वैराग्यने माटे काळनुं प्राबल्य कहेता आ चोथा अध्यायमां नैमित्तिक वगेरे चार प्रलय कहेवामां आवे छे. कालस्ते परमाण्वादि-र्द्विपरार्धावधिर्नृप ॥ कथितो युगमानं च शृणु कल्पलयावपि ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्‌! परमाणुथी लई बे परार्ध सुधीना कालनुं स्वरूप अने एक-एक युगमां केटलां वर्षो होय छे ए हुं तमने (त्रीजा स्कन्धमां) कही चूक्यो छुं. हवे तमे कल्पनी स्थिति अने तेना प्रलयनुं वर्णन पण साम्भळो ॥१॥

सत्य, त्रेता, द्वापर अने कलि ए चार युग एक हजार वार जाय त्यारे ब्रह्माजीनो एक दिवस पूरो थाय. ब्रह्माजीना आ दिवसने ज कल्प पण कहेवाय छे. एक कल्पमां चौद मनुओ थाय छे ॥२॥

कल्पना अन्ते एटला ज समय सुधी प्रलय पण रहे छे. प्रलयने ब्रह्माजीनी रात्रि पण कहे छे. ते वखते आ त्रणेय लोक लीन थई जाय छेतेमनो प्रलय थई जाय छे ॥३॥

ईं उं ईं उं

-४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५३ तेनुं नाम ‘नैमित्तिक प्रलय’ छे. आ प्रलय वखते समस्त विश्वने पोतानी अन्दर समेटी लई शेषशायी भगवान्‌ नारायण शयन करे छे. ब्रह्माजी पण ए भगवान्‌ना उदरमां सूई जायछे ॥४॥

आ प्रमाणे रात पछी दिवस अने दिवस पछी रात्रि थतां-थतां ब्रह्माजीनां सो वर्ष (एटले २०० कल्प) के मनुष्योनां बे परार्ध वर्षनुं ब्रह्माजीनुं आयुष्य समाप्त थई जाय छे त्यारे महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पञ्चतन्मात्रा (शब्द स्पर्श रूप रस अने गन्ध) पोताना कारण मूल प्रकृतिमां लीन थई जाय छे ॥५॥

आनुं ज नाम प्राकृतिक प्रलय छे. आ प्रलयमां प्रलयनुं कारण उपस्थित थतां पञ्चभूतोना मिश्रणथी बनेलुं आ ब्रह्माण्ड पोतानुं स्थूलरूप छोडी दई कारणरूपमां स्थित थई जाय छे, भळी जाय छे ॥६॥

हे परीक्षित! प्रलयनो समय आवे त्यारे सो वर्ष सुधी मेघ पृथ्वी उपर वर्षा करता नथी. कोईने अन्न मळतुं नथी त्यारे भूख-तरसथी व्याकुल बनेली प्रजा एक बीजाने खावा लागे छे ॥७॥

आ प्रमाणे कालना उपद्रवथी त्रासी गयेली प्रजा धीमे-धीमे नाश पामे छे. प्रलयकाळ वखतनो सांवर्तक सूर्य पोतानां प्रञ्चड किरणोथी समुद्र प्राणीओनां शरीर अने पृथ्वी नो बधो रस खेञ्ची ले छे अने कायमनी जेम पृथ्वी उपर फरी ते वरसावतो नथी. ते वखते सङ्कर्षण भगवान्‌ना मुखमान्थी प्रलय समयनो सांवर्तक अग्नि प्रकट थाय छे ॥८-९॥

वायुना वेगथी ते बहु ज वधी जाय छे अने तल, अतल वगेरे नीचेना सातेय लोकोने भस्म करी दे छे. त्यान्नां प्राणीओ तो पहेलेथी ज मरी गयां होय छे. नीचेथी आगनी भयानक जवालाओ अने उपरथी सूर्यनी प्रञ्चड गरमी! ते वखते उपर- नीचे चारे तरफ आ ब्रह्माण्ड भडके बळे छे अने एवुं लागे छे के जाणे गोबरनुं छाणुं बळी जई अङ्गाराना रूपमां झगमगी रह्युं होय. त्यार पछी प्रलय समयनो अत्यन्त प्रञ्चड सांवर्तक वायु सेङ्कडो वर्षो सुधी फूङ्कातो रहे छे. ते समयनुं आकाश धुमाडा अने धूळ थी तो भरायेलुं रहे ज छे. त्यार पछी असङ्ख्य रङ्गबेरङ्गी वादळ आकाशमां घूमरावा लागे छे अने भयङ्कर गर्जनाओ साथे सेङ्कडो वर्षो सुधी वरस्या करे छे. ते वखते ब्रह्माण्डनी अन्दरनो समस्त संसार एक समुद्र बनी जाय छे, बहु जलबम्बाकार थई जाय छे ॥१०-१३॥

-४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५४ आ प्रमाणे ज्यारे जल प्रलय थई जाय छे त्यारे जल पृथ्वी विशेष गुण गन्धने ग्रसी ले छे, पोतानामां लीन करी दे छे. गन्ध जलमां लीन थई जवाथी पृथ्वीनो प्रलय थई जाय छेते जलरूप थई जाय छे ॥१४॥

हे राजन्‌! त्यार पछी जलना गुणरसने तेजस्तत्त्व ग्रसी ले छे अने जल नीरस थई जई तेजमां समाई जाय छे. त्यार बाद वायु तेजना गुणरूपने ग्रसी ले छे अने तेज रूपरहित थई जई वायुमां लीन थई जाय छे हवे आकाश वायुना गुण स्पर्शने पोतानामां मिलावी ले छे अने वायु स्पर्शहीन थई जई आकाशमां शान्त थई जाय छे त्यार पछी तामस अहङ्कार आकाशना गुण शब्द (अवाज) ने ग्रसी ले छे अने आकाश शब्दहीन थई जई तामस अहङ्कारमां लीन थई जाय छे. ते ज प्रमाणे तैजस अहङ्कार इन्द्रियोने तथा वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार इन्द्रियोना अधिष्ठाता देवता अने इन्द्रियोनी वृत्तिओने पोतानामां लीन करी दे छे ॥१५-
१७॥

त्यार पछी महत्तत्त्व अहङ्कारने अने सत्त्वादि गुणो महत्तत्त्वने ग्रसी ले छे. हे परीक्षित! आ बधो कालनो महिमा छे कालथी प्रेरायेल अव्यक्त प्रकृति गुणोने ग्रसी ले छे अने प्रकृति परमात्मामां लय पामे छे ॥१८॥

ते परब्रह्म ज चराचर जगत्‌नुं मूल कारण छे. ते अव्यक्त (इन्द्रियोथी अगोचर) जन्ममृत्युरहित, ह्रासवृद्धिरहित, सर्वदा एकरूप अने अविनाशी छे. ‘‘परब्रह्मनो जन्म थाय छे. वधे छे’’. एम वाणी जेने विषे कही शक्ती नथी, ‘‘ब्रह्म आवुं छे के आवडुं मोटुं छे’’ एम मन नक्की करी शक्तुं नथी. परब्रह्मना स्वरूपमां सत्त्व, तमो अने रजो गुण, महद्‌ आदि नथी. तेमां प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय, देवता नथी. तेने लोक जेवो प्राकृत देह पण नथी ॥१९-२०॥

तेने स्वपन, जागृति के सुषुप्ति ए त्रण अवस्थाओ नथी. आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि अने सूर्य पण होतां नथी कारण के पोते स्वप्रकाश अने बीजा सूर्योने प्रकाशित करनार छे. ते कंईक सुप्त होय तेवा शून्य जेवा रहे छे. तेनुं तर्कद्वारा अनुमान करवुं असम्भव छे. ते परमात्माने ज जगत्‌नुं मूलभूत तत्त्व कहेवामां आवे छे ॥२१॥

पुरुष अने प्रकृति नी सत्त्वादि शक्तिओने उपर्युक्त क्रमथी लय थाय छे अने कालना प्रभावथी विवश थई मूल स्वरूपमां तेओ लीन थई जाय छे. आ ज -४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५५ अवस्थाने ‘प्राकृतिक प्रलय’ कहे छे ॥२२॥

हे परीक्षित! (हवे बार *श्लोकथी आत्यन्तिक प्रलयनुं स्वरूप कहे छे. आत्यन्तिक प्रलय, ज्ञानथी थतो भगवान्‌मां लय एटले मोक्ष; ए मोक्ष तो वास्तविक भेदनो अङ्गीकार करो तो सम्भवी शके तेथी प्रपञ्च ब्रह्मथी जुदो नथी एम बतावे छे). बुद्धि, इन्द्रिय अने अर्थ (इन्द्रियोना विषयो) ए त्रण पदार्थमां बुद्धि ग्रहण करनार छे, इन्द्रियो ग्रहणमां साधन छे अने अर्थो ग्राह्य पदार्थ छे ए त्रणनो आश्रय ज्ञानात्मक ब्रह्म छे. ब्रह्मथी जुदी कोई वस्तु ज नथी कारण के आदि अने अन्तवाळी वस्तु ते अवस्तु ज छे. ए तो कार्य कारणना व्यतिरेक रहित ज देखाय छे कार्य कारणने लईने ज देखाय छेतेथी ए जुदुं न गणाय ॥२३॥

विशेष - आ बार श्लोकने श्रीपुरुषोत्तमजीए निबन्धनी योजनामां शुद्धाद्वैत सिद्धान्त प्रमाणे टीकावडे भूषित कर्या छे जेनो यथामति सार कौंसमां लख्यो छे, विशेष जिज्ञासुने द्वादशनिबन्ध योजनामां ए व्याख्या जोवा विनन्तिछे. (एने दृष्टान्तथी बतावे छे) दीवो, नेत्र अने रूप ए तेजथी जुदां नथीतेम बुद्धि, इन्द्रियो अने विषयो ए त्रणे ब्रह्मथी जुदां नथी कमेके ए ब्रह्मना कार्यरूप छे. (एम कार्य अने कारण नो अभेद मानो तो कार्यमां रहेलो दोष तेना कारण ब्रह्ममां पण छे एम मानवुं पडशे एवी कांई शङ्का करे तेना उत्तरमां कहे छे के) कार्यथी अत्यन्त जुदा एवा ब्रह्ममां ए दोषोनो सम्भव नथी केमके ब्रह्म कार्यथी अत्यन्त जुदु छे. पण प्रपञ्च जुदो न कही शकाय तेथी कार्यदोषो कारणमां जई शकशे नहि केमके कारण एनाथी अत्यन्त भिन्न छे ॥२४॥

जाग्रत, स्वपन अने सुषुप्ति ए त्रण बुद्धिनी वृत्तिओ छे एम विवेकी लोकोनुं कहेवुं छे. हे राजन्‌! प्रत्यगात्मामां आ अवस्थाकृत भेद विश्व तेजस अने प्राज्ञरूप ए मायामात्र छे एटले के केवळ अविद्याथी ए भेदोनी कल्पना थाय छे ॥२५॥

आकाशमां क्यारेक मेघ होय छे क्यारेक नथी होतातेथी आकाशने कांई लाभ हानि थतां नथी केमके वादळो उदय अने (अस्त) नाशवाळां छेतेम ब्रह्मना कार्यरूप विश्व पण उदय-अस्तवाळुं छेतेथी क्यारेक होय छे क्यारेक होतुं नथी. एनाथी नित्य ब्रह्मने कांई गुण दोषनो सम्बन्ध नथी ॥२६॥

(हवे कारण तो कार्यथी भिन्न छे एम कह्युं ए बतावे छे) आ व्यवहारमां सर्व अवयवीओनो अवयव जे कारण ते ज सत्य छे. हे अङ्ग! जेम अवयवी-वस्त्रनो -४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५६ अवयव सूतर छे केमके अवयवी विना पण अवयव जुदो देखी शकाय छे पण अवयव विना अवयवी जुदो देखाशे नहितेथी अवयव सत्य छे अने एनुं कार्य अवयवी कदाचित्‌ छे, अनित्य छे. जेम वस्त्रना अभावमां सूतर होय छे पण सूतर न होय तो वस्त्र कदी पण न होय. तेवी ज रीते कार्यरूप जगतना अभावमां पण आ जगतना कारणरूप अवयवनी स्थिति होई शके छे ॥२७॥

(हवे ज्यारे कार्य कारणमां भेद तमे मानता नथी त्यारे तमारा मतमां भेदनो व्यवहार केम थई शकशे? एना उत्तरमां कहे छे के) सामान्य एटले कार्य मात्रमां अनुस्यूत रहेनार कारण अने विशेष एटले कारणरूपथी जुदुं देखातुं कार्यते कारण अने कार्य थी जेनी उपलब्धि थाय ते बधो भ्रम छे कारण के कारण अने कार्य नो अन्योन्य आश्रय छे एक बीजा वगर ए देखातां नथीतेथी आदि अने अन्तवाळुं बधुं अवस्तु छे ॥२८॥

(ए बाबतने फरी दृढ करे छे के) व्यवहारमां चालतो विकार एटले कार्यरूप प्रपञ्च परमात्मा विना जरा पण कही शकाय ज नहि. जो ए परमात्मा विना व्यवहारमां आवी शकतो होय तो ए पण परमात्मारूप ज गणाय. ए स्वप्रकाशरूप ज गणाय तो द्वैत जेवी कोई वस्तु ज न रहे ॥२९॥

(आत्मामां पण जीव अने ब्रह्म एवा भेद तो जोवामां आवे छे एनुं शुं? एवी कोई शङ्का करे त्यां कहे छे के) परमार्थ भूत सत्य-ब्रह्ममां अनेकपणुं छे ज नहि. (त्यारे जीव ब्रह्म एवो व्यवहार केम थाय छे? त्यां कहे छे के) ए भेद व्यवहाररूप उपाधिने लीधे छे, वस्तुतः नथी. जो अज्ञानी जीव ब्रह्मनो भेद मानतो होय तो आकाशनो उपाधिवडे घटाकाश अने महाकाश ना जेवो भेद सम्भवे.(जेम आकाशमां सूर्य छे तेनो जुदा-जुदा जळमां उपाधिथी भेद सम्भवे छे तेम क्रियाभेदमां दृष्टान्त कहे छे के) आकाशमां चालता वायु अने देह मां चालता वायु भेद जेम उपाधिकृत छे तेम जीव अने परमात्मामां देहरूप उपाधिने लीधे अज्ञानी जीव भेद माने पण देह सिवाय आत्माने जोनार आत्माने एक अद्वितीय ज माने छे ॥३०॥

(हवे जड अने चेतन बधुं जगत्‌ ब्रह्मरूप छे एम दृष्टान्तथी समजावे छे के) सुवर्णने लोको कडां, कुण्डळ, हार, र्वीटी ना रूपमां अनेक रूपे उपयोगमां ले छेतेम लौकिक-वैदिक वचनोवडे भगवान्‌ अनेक रीते व्यवहार गोचर थाय छे. मात्र एमां -४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५७ तफावत एटलो ज छे के सोनुं आङ्खथी देखाय छे अने भगवान्‌ *अधोक्षज होवाथी कोई इन्द्रियना अनुभवमां आवता नथी ॥३१॥

विशेष - ‘अधोक्षज’= अधः+ज. ‘अधः’=नीचुं (हलकुं) छे, ‘अक्ष’=इन्द्रिय, ‘ज’=जन्य ज्ञान के सुख. इन्द्रियद्वारा उत्पन्न थनारा सुखथी पर एवा भगवान्‌. (अर्ही जो भगवान्‌ अधोक्षज छे तो ए ब्रह्मने अधोक्षज पणुं केम थयुं? ए शङ्का छे. जो ‘‘नायं वेद स्वमात्मानं्‌यय’’ ए न्यायथी अहङ्कारने लईने भगवान्‌नुं ज्ञान थई शकतुं नथी एम कहो तो त्यां पण ए शङ्का रहे छे के अहङ्कार ब्रह्मनो आवरक केम थई शके? कारण के एनुं कारण पण ब्रह्म छे ते तो एनी पहेलान्थी ज सिद्ध छे तेने पाछळथी उत्पन्न थयेल अहङ्कार केम गुप्त करी शके? जो एने आवरण थाय तो ए स्वप्रकाश केम सम्भवे? आवी शङ्का अत्रे थाय तेनो उत्तर दृष्टान्त पूर्वक आपे छे के) जुओने सूर्यनां किरणो पृथ्वीमान्थी जलने खेञ्चे छे ते मेघरूप आकाशमां रहे छे. ए ज मेघ जेनो सूर्य अधिदेवता छे तेवी आङ्खने सूर्यना दर्शनमां प्रतिबन्धक थाय छे ए वातनो तो बधाने अनुभव छे. एमां अहङ्कार पण ब्रह्मनो गुण छे एटले एना कार्यभूत छे छता ए ब्रह्म पण प्रकाशित एवा जीवने ब्रह्मदर्शनमां प्रतिबन्धक थाय छे ॥३२॥

(तेथी जेम मेघनुं आवरण दूर थतां सूर्यनां दर्शन थाय छे तेम अहङ्कारनो नाश थतां स्वरूपनुं दर्शन थशे ए ज दृष्टान्त सहित कहे छे के) जेम सूर्यथी उत्पन्न थतो मेघ दूर थतां नेत्र स्वरूप भूत सूर्यने जोई शके छे. तेम ब्रह्मने जाणवानी इच्छा थतां एनो आवरक अहङ्कार दूर थशे त्यारे ए पोते ज हुं ब्रह्म छुं एम पोते पोताने ब्रह्मरूपे जोई शकशे ॥३३॥

(आ ज आत्यन्तिक प्रलय एम कही आ बाबतनो उपसंहार करे छे). उपर कह्या प्रकारना विवेकरूपी हथियारवडे आत्माने बन्धन करता अने ढाङ्कनार मायामय अहङ्कारने छेदीने परिपूर्ण एवा भगवान्‌ने पामीने भगवद्‌रूप थईने रहे त्यारे, हे प्रिय राजा! ए अवस्थाने ‘आत्यन्तिक प्रलय’ कहेवामां आवे छे ॥३४॥

(हवे नित्य प्रलयनुं निरूपण करे छे के) हे शत्रुदमन राजा! ब्रह्माथी लई तणखलां सुधीनां जेटलां प्राणीओ के पदार्थो छे ते बधान्नो उत्पत्ति अने प्रलय प्रतिक्षण थाय छे. आ वस्तु सूक्ष्मबुद्धिवाळाओने ज देखाय छे, जाडी बुद्धिवाळाओने देखाती नथी ॥३५॥

-४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५८ नदीना प्रवाहना वेगथी तणाता तृण अने काष्ठनी ऊञ्ची-नीची अवस्थाओ थाय छे. संसारना परिणामी पदार्थो, नदीप्रवाह, दीपनी ज्योत वगेरे पळे-पळे बदलातां रहे छे. तेमनी बदलती अवस्थाओ जोईने ए निश्चय थाय छे के देह वगेरे पण अन्ननुं भक्षण करीने नित्य थती उपचयापचयनी क्रियाओ (नवा कोषोनुं सर्जन अने जूना कोषोना नाश)द्वारा कालरूप प्रवाहनां वेगमां नित्य नवीन (उत्पत्ति) थाय छे अने जूनो नाश (प्रलय) पामे छे ॥३६॥

(त्यां शङ्का थाय के जो प्रतिक्षण अवस्था बदले छे तो आपणे तेने केम जोई शकता नथी? तेथी तमे कहो छो ए मानी शकातुं नथी. ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के) आदि अन्तरहित अने ईश्वररूप एवा कालथी ए अवस्थाओ थाय छे तेने कोई जाणी शकतो नथी. आकाशमां सूर्य, चन्द्र वगेरे चाले छे तेने चालतां आपणे जोई शकता नथी, परन्तु एक स्थानमान्थी एने बीजा स्थानमां जता जोईने ए बीजा स्थानमां जवुं चाल्या विना सम्भवे नहि तेथी ए चाले छे एम आपणे कल्पना करीए छीएतेम आ देहना बाल्य, यौवन वगेरे विलक्षण भावोने जोईने एनी वच्चेनी अवस्थाओने जती जोईने नित्य फेरफार थाय छे एवा अनुमान उपर आवी शकाय छे ॥३७॥

नित्य नैमित्तिक आन्त्यन्तिक अने प्राकृतिक एम चार प्रकारनो प्रलय में कह्यो. वास्तवमां कालनी गति आवी सूक्ष्मछे ॥३८॥

हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान्‌ नारायण ज समस्त प्राणीओ अने शक्तिओना आश्रय छे. में जे कंई तमने सङ्क्षेपथी क्ह्युं छे ते बधुं तेमनी ज लीलाकथा छे. भगवान्‌नी लीलाओनुं पूरुं वर्णन तो साक्षात्‌ ब्रह्माजी पण करी शके नहि ॥३९॥

जे लोको अत्यन्त दूस्तर संसार सागरने तरी जवा मागे छे अथवा जे लोको अनेक प्रकारना दुःख दावानळमां बळी रह्या छे तेमने माटे पुरुषोत्तम भगवान्‌नी लीला-कथारूप रसना सेवन सिवाय बीजुं कोई साधन, बीजी कोई नौका नथी. तेओ मात्र लीला रसायननुं सेवन करीने ज पोतानो मनोरथ सिद्ध करी शके छे. (बीजुं कोई ज साधन न होवाथी, ‘‘तस्मात्‌ सर्वात्मना राजन्‌…’’ ए द्वितीय स्कन्धनी शरूआतमां कह्युं ते मुजब श्रवण, कीर्तन वगेरेथी भगवत्कथानुं ज यथाशक्ति सेवन करवुं) ॥४०॥

-४,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५५९ में तमने आ जे कांई सम्भळाव्युं छे ते ज श्रीमद्‌ भागवत्‌ पुराण छे. सनातन ऋषि नरनारायणे पहेलां देवर्षि नारदजीने ते सम्भळाव्युं हतुं अने तेमणे मारा पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यासजीने सम्भळाव्युम् ॥४१॥

हे महाराज! ते ज बदरीवन विहारी भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायने प्रसन्न थई मने आ वेदतुल्य श्रीभागवत्‌ संहितानो उपदेश कर्यो ॥४२॥

एतां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये ॥ दीर्घसत्रे कुरुक्षेत्र सम्पृष्टः शौनकादिभिः ॥४३॥

हे कुरुश्रेष्ठ! ज्यारे शौनक वगेरे ऋषिओ नैमिषारण्य क्षेत्रमां महान सत्र करशे त्यारे तेमना पूछवाथी पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी तेमने आ संहिता श्रवण करावशे ॥४३॥

इति श्रीभावगत्‌ द्वादशस्कन्धमां (बीजा वेदाश्रय प्रकरणनो बीजो तथा चालु ‘‘चार जातना प्रलयनी कथा’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय ५

परीक्षितने मृत्युनो भय दूर थयो प्रकरण ३-भगवद्‌ आश्रय अत्रानुवर्ण्यतेभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान्‌ हरिः ॥ यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोध समुद्‌भवः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ श्रीमद्‌भागवत महापुराणमां वारंवार अने सर्वत्र विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरिनुं ज सङ्कीर्तन करवामां आव्युं छे. ब्रह्माजी श्रीहरि

ईं उं ईं उं

-५,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६० भगवान्‌ना प्रसाद (कृपा)नी अभिव्यक्ति छे अने रुद्र आपना क्रोधनी अभिव्यक्ति छे; तेथी ब्रह्माजी अने शङ्कर स्वतन्त्र नथी पण भगवान्‌ने अधीन छे.* ॥१॥

विशेष - वास्तवमां तो भगवान्‌नुं स्वरूप निर्गुण छे पण पोताना भक्तोने प्रेम करनार उपर भगवान्‌ कृपा करे छे अने भक्तोनो द्रोह करनार उपर क्रोध करे छे तेथी बन्ने कृपा अने क्रोध पण भक्तवत्सल भगवान्‌ना शुद्ध सत्त्व स्वरूप ज छे. तेथी जेनी कृपाथी उत्पन्न थयेल ब्रह्माजी अर्ही कहेलां समस्त साध्य-साधन उत्पत्तिना हेतु छे माटे भक्तोए भगवत्कृपा ज प्राप्त करवा प्रयत्नशील रहेवुं; तेवी ज रीते रुद्रस्वरूप भगवान्‌नो क्रोध ज समस्त साध्य साधनोनां नाशनो हेतु छे माटे कोई पण सञ्जोगोमां भक्तोने दूभववा नहि अने तो ज भगवत्क्रोधथी बची शकाशे. आ १२.५.१ उपर श्रीभागवतजीनी टीकाओ श्रीबंसीधर कृत भावार्थ दीपिका प्रकाश तथा श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीकृत सारार्थ दर्शिनीमां दर्शावेल भावो अभ्यासीमाटे आपवामां आवे छेःशास्त्रार्थनो उपसंहार करीने श्रीशुकदेवजी मनोमन कंईक आवुं विचारे छे, ‘‘ओहो! आ तो भारे गजब थई गयो! जेनाथी अधिक के जेथी बराबर कोई के कंई नथी ते महारहस्यमय तत्त्वरत्न, राजा परीक्षित उपरनी कृपाने लीधे मारा हृदयसम्पुटमान्थी सरकी गयुं अने जगत्‌ आखाने तेनी जाण थई गई. आ माराथी अनुचित थई गयुं. मारा प्रभुए जेने ‘‘राजविद्या राजगुह्यम्‌’’ विद्याओनो राजा अने सौथी वधारे गुप्त राखवा जेवी वात’’ कही छे ते में प्रायः प्रगट करी दीधी! जेमके, ‘‘अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्‌॥’’ निष्काम होय, सर्वकाम होय के मोक्षकाम होय उदार बुद्धिमान्‌ सहुए पूर्ण पुरुषोत्तमनुं अनन्य भक्तियोगथी यजन करवुं’’ (श्रीभागवत २.३.१०) मां अन्वयथी अने ‘‘न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्‌ भ्रष्टाः पतन्त्यधः’’ जेओ भगवान्‌नुं भजन नहि करतां आपनो अनादर करे छे तेओ मनुष्ययोनिथी पण च्युत थई जाय छे तेनुं अधःपतन थई जाय छे. (श्रीभागवत ११.५.३ योगीश्वर चम) मां भक्ति ज सर्वफल साधी आपनारी छे अने भक्ति सिवायनां साधनो करवां फीफां खाण्डवा जेवुं छे ते व्यतिरेकथी कह्युं. स्वर्ग सम्पादन करी आपनारां कर्मो तो दूर रह्यां, मोक्षना अति प्रसिद्ध साधन ज्ञानने पण परास्त करी दीधुं. ज्ञान विना एक मात्र भक्तिथी ज मोक्ष मळे छे. ज्ञानथी मोक्ष मळे छे एवी जे प्रसिद्धि छे ते ज्ञानमां पण भक्ति होवी ज जोईए. ज्ञाननी कहेवा पूरती ज, नाम मात्रनी कारणता छे. -५,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६१ ‘‘भक्त्याहमेक्या ग्राह्यः।’’ हुं एक मात्र भक्तिथी ज मळुं छुं. श्रीभागवत
११.१४.२१’थ वगेरे अनेक वाक्योमां योग, साङ्ख्य, तप, वेदाभ्यास, यज्ञो, जप वगेरे साधनोने स्वल्प बतावी भक्तिनी सर्वोपरितानुं स्पष्टीकरण करी दीधुं छे. हवे तो पुराण समाप्तप्राय थयुं. हवे बगडेली बाजी केम सुधारवी?’’ एवो विचार श्रीशुकदेवजीने आवतां भक्तिनां सार्वभौमत्वनुं अवमूल्यन करवा प्रयत्न करे छे. उतावळ अने आवेशमां जेम कोई अति मूल्यवान पण अति गोप्य रत्न लोकोने बतावी दे पण बीजी ज पळे भूल समजातां परिस्थितिने सुधारी लेवा बहु ज चालाकी अने सफाईथी तेने सम्पुटमां सरकावी दई, महाकोशमां मूकी दई बीजुं ज ओछी किम्मतनुं रत्न बतावीने कही दे के आपणां बधां काम आ रत्नथी ज पती जशे. तेवी ज रीते हुं राजा परीक्षितने ज्ञाननो उपदेश आपीश जेथी भगवान्‌नी मायाना प्रभावथी लोको एम मानता थाय के में प्रयाण करतां पहेलां तो राजाने ज्ञाननो ज उपदेश आप्यो हतो. वळी, सिद्ध भक्तो समक्ष भगवान्‌ प्रगट थई जेम तेनी परीक्षा करवा मोक्ष वगेरे लई लेवा तेमने ललचावे छे तेम श्रीशुकदेवजी राजाने भक्ति थई छे के नहि तेनी परीक्षा पण करी रह्या छे. आम तो श्रीशुकदेवजी सर्वज्ञ छे छतां परीक्षा लेवानो अभिनय करे छे ते आ जगतमां परीक्षितनी भक्तिनिष्ठा प्रसिद्ध करवामाटे समजवी. वळी ज्ञान अने भक्ति बन्नेनुं फळ अन्ते तो मुक्ति ज छे एवो अज्ञानीओनो मत मने मञ्जूर नथी कारण के में ज ‘‘भगवान्‌ भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित्‌ स्म न भक्तियोगम्‌।’’ भगवान्‌ भक्तोनां बीजां कार्यो करवा उपरान्त तेमने मुक्ति पण आपी दे छे पण मुक्तिथी य मोङ्घेरी अने अदकेरी भक्ति तेमने सहजमां आपता नथी. श्रीभागवत
५.६.१८मां मुक्ति करतां भक्ति अधिक छे तेम प्रतिपादन कर्युं छे. परीक्षितनी मुक्ति हवे आपवामां आवनार ज्ञानना उपदेशथी ज थाय छे एम समजवानुं नथी कारण के शौनक वगेरे ऋषिओए श्रीभागवत १.१८.१६मां कह्युं छे के भगवाने पण जेने भक्त तरीके मान्यता आपी छे तेवा महाबुद्धिशाळी अने महान भगवद्‌ भक्त परीक्षितने श्रीशुकदेवजीए उपदेश जे नित्य ज्ञानथी मोक्ष स्वरूप श्रीभगवान्‌नां चरणकमल प्राप्त कर्या ते ज नित्य ज्ञान आप अमने कहो. भगवान्‌ अत्यन्त प्रिय भक्तोने भक्तियोगनुं दान करे छे तेथी परीक्षितने प्रेमभक्तिनी प्राप्ति करावी छे. वळी भक्तने मोक्षनी इच्छा होय तो पण तेने ज्ञाननुं कंई प्रयोजन होतुं नथी. ‘‘भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्‌भावाय प्रपद्यते’’ मारामां निष्ठावाळो भक्तियोगथी मारा वास्तविक स्वरूपने के जेने मोक्ष पण कहे छे, प्राप्त करीले छे. श्रीभगवान्‌ उद्धवजीने श्रीभागवत ११.२९.३३ ‘‘ज्ञाने कर्मणि योगे च।’’ मां कहे -५,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६२ छे के मनुष्योने ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य अने राजदण्ड वगेरेथी क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम अने अर्थ रूप फल प्राप्त थाय छे परन्तु तमारा जेवा अनन्य भक्तोने माटे तो ए चारेय प्रकारनुं फल मात्र हुं ज छुं’’ तेथी सर्वने अन्ते ज्ञाननो जे उपदेश करवामां आव्यो छे ते भगवान्‌ना मोहिनी स्वरूपना कार्य जेवुं छे जेथी असुरो प्रेमरूपी सुधाथी वञ्चित रही जाय. श्रीशुकदेवजीए श्रीभागवत पुराण अर्ही ज पूरुं कर्युं छे तो पछी प्रथम स्कन्ध अने हवे पछीनो बारमो स्कन्ध भागवत केम कही शकाय? तेनुं समाधान एम छे के यज्ञनो प्रारम्भ थतां पहेलां अने तेनी पूर्णाहुति पछी थती बधी क्रियाओ यज्ञ ज गणाय छे. नाटक शरू थतां पहेलां प्रस्तावना अने पूरुं थया पछीना आर्शीवाद नाटक ज गणाय छे. वळी श्रीगीताजीमां आवता बधा श्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्णे श्रीमुखथी उच्चार्या नथी छतां ‘‘या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मात्‌ विनिसृता।’’ गीताजी आखां श्रीकृष्ण भगवान्‌ना साक्षात्‌ श्रीमुखमान्थी ज प्रकट थयां छे एम गणाय छे तेवी ज रीते प्रथम स्कन्ध तथा हवे पछीनो बारमो स्कन्ध श्रीशुकदेवजीए कहेल न होवा छतां श्रीशुकदेवजीए कह्या बरोबर ज छे. मङ्गलाचरणना प्रारम्भना श्लोकमां कह्युं छे के ‘‘आ श्रीमद्भागवत निगम कल्पतरुनुं पाकेलुं अमृत जेवुं मिष्ट एवुं फल छे के जेमां गोटली, छाल, रेसा के र्डीटां काढी नाखवा जेवुं कंई ज नथी. नर्यो रस ज रस छे’’ ए तो याद हशे ज. हे राजा! हवे तमे आ पशुओनी धारणा जेवी अविवेकमूलक धारणा छोडी दो के हुं मरी जईश. जेवी रीते पहेलां शरीर नहोतुं, हवे पेदा थयुं अने हवे नाश पामशे तेवी ज रीते तमे पहेलां न हता एम नथी तमारो जन्म थयो अने तमे मरी जशो एम नथी ॥२॥

जेवी रीते बीजमान्थी अङ्कुर अने अङ्कुरमान्थी बीजनी उत्पति थाय छे तेवी ज रीते एक देहथी बीजा देहनी अने बीजाथी त्रीजानी उत्पत्ति थाय छे. परन्तु तमे न तो कोईथी उत्पन्न थया छो के न तो भविष्यमां पुत्र पौत्र वगेरेना शरीरना रूपमां उत्पन्न थशो. जेवी रीते अग्नि लाकडान्थी सर्वथा अलग रहे छे, लाकडान्नी उत्पत्ति तथा विनाश नी साथे तेने कंई लेवा देवा नथी तेवी ज रीते तमे शरीर वगेरेथी सर्वथा अलग छो ॥३॥

(जन्म वगेरे देहनां धर्मो छे ए वात दृष्टान्तथी स्पष्ट करे छे). माणस स्वपनमां पोतानुं माथुं कपायुं छे अने मरी गयो छे एम पोते जुए छे छतां ए -५,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६३ मात्र भ्रमज छे तेवी ज रीते आ जगतमां पण ते देहना नाशने जुए छे. परन्तु आ बधी शरीरनी ज अवस्थाओ देखाय छे, आत्मानी नहि. जोनारो तो ते अवस्थाओथी सर्वथा अलग, जन्म अने मृत्युथी रहित, शुद्ध बुद्ध परम तत्त्वस्वरूप छे ॥४॥

जेवी रीते घडो फूटी जतां आकाश पहेलान्नी जेम ज अखण्ड रहे छे परन्तु घटाकाश (घडानी अन्दर रहेल आकाश) नी निवृत्ति थई जवाथी लोकोने एम लागे छे के ते महाआकाशमां मळी गयुं छे वास्तवमां तो ते मळी गयेलुं हतुं ज तेवी ज रीते देहपात थई जतां एम जणाय छे के जाणे जीव ब्रह्म थई गयो. वास्तवमां तो ते ब्रह्म हतो ज. तेनी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र-देखाव पूरती ज हती ॥५॥

मन ज आत्माने माटे शरीर, विषय अने कर्मो उत्पन्न करे छे अने ते ज मन मायाने उत्पन्न करे छे. हकीकतमां माया (अविद्या) ज जीवना संसारचक्रमां पडवानुं कारण छे ॥६॥

ज्यां सुधी तेल, तेल राखवानुं पात्र, दिवेट अने अग्नि नो संयोग रहे छे त्यां सुधी ज दीपमां दीपकपणुं छे तेवी ज रीते ज्यां सुधी आत्मानो कर्म, मन, शरीर अने तेमनामां रहेल चैतन्य अध्यासनी साथे सम्बन्ध रहे छे त्यां सुधी ज तेने जन्म-मृत्युना चक्ररूप संसारमां भटकवुं पडे छे अने रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण नी वृत्तिओथी तेने उत्पन्न, स्थित अने विनष्ट थवुं पडे छे ॥७॥

परन्तु दीपक ओलवाई जतां तत्त्वरूप तेजनो विनाश थतो नथी तेवी ज रीते संसारनो नाश थई जवा छतां स्वयम्प्रकाश आत्मानो नाश थतो नथी कारण के ते कार्य अने कारण, व्यक्त अने अव्यक्त, स्थूल अने सूक्ष्म देहथी पर छे ते आकाशनी जेम बधानो आधार छे, नित्य अने निश्चल छे ते अनन्त छे. खरेखर आत्मानी उपमा आत्माने ज आपी शकाय ॥८॥

हे राजा! तमे तमारी विशुद्ध अने विवेकयुक्त बुद्धिने परमात्माना चिन्तनथी भरी दो अने स्वयं तमारा हृदयमां बिराजेल परमात्मानो साक्षात्कार करो ॥९॥

आम तमारो आत्मा (मन) ईश्वर साथे एक रूप थई जशे तेथी तमे ईश्वर (समर्थ) बनी जशो तेथी ब्राह्मणना शापथी प्रेरायेलो तक्षक तमने भस्म करी शकशे नहि. अरे! तक्षकनी तो वात जवा दो, स्वयं मृत्यु अने मृत्युओनो काफलो पण तमने मारी शकशे नहि ॥१०॥

-५,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६४ तमे ए प्रमाणे चिन्तन करो के ‘‘हुं ज सर्वाधिष्ठान परब्रह्म छुं, सर्वाधिष्ठान ब्रह्म हुं ज छुं’’. आ प्रमाणे तमे तमारी जातने पोताना वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमां स्थित करी लो ॥११॥

ए वखते भले तक्षक आवीने पोतानां विषपूर्ण मुखोथी तमारा पगमां डसी ले तेनी कंई परवा नथी. तमे तो तमारा आत्मस्वरूपमां स्थित थई जई आ शरीरने, तक्षकने के आखा विश्वने तमारा (आत्मा) थी जुदां जोई शकशो नहि ॥१२॥

एतत्‌ ते कथितं तात! यथाऽऽत्मा पृष्टवान्‌ नृप ॥ हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥१३॥

हे परीक्षित! तमे विश्वात्मा भगवान्‌नी लीला विशे जे प्रश्न पूछ्‌यो हतो तेनो उत्तर में आपी दीधो. हवे बीजुं शुं श्रवण करवानी इच्छा छे? ॥१३॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (त्रीजा भगवद्‌ आश्रय प्रकरणनो पहेलो अध्याय तथा चालु) ‘‘परीक्षितने मृत्युनो भय दूर थयो’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए

अध्याय ६

परीक्षितनी परम गति जनमेजयनो सर्पसत्र अने वेदोनो शाखाभेद

विशेषः परीक्षित राजानुं सर्पदंशथी मृत्यु थयुं ए वात एना पुत्रना जाणवामां आवतां तेणे सर्पोने मारवाने माटे यज्ञ कर्यो एटले ए विधिथी सर्पोने अग्निमां बाळ्या ए वात तथा वेदशास्त्रना विभागने कहेता त्रण वेद व्यासजीए कर्या ए वात आ छठ्ठा अध्यायमां कहेवाशे. एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्‌ व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन ॥

ईं उं ईं उं

-६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६५ तत्पादपद्ममुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगतने पोताना आत्माना रूपमां अनुभव करे छे अने व्यवहारमां बधा प्रत्ये समान दृष्टि राखे छे. भगवान्‌ना शरणागत अने आपद्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षिते तेमनो सम्पूर्ण उपदेश खूब ध्यानथी श्रवण कर्यो. हवे तेमनां चरणकमलोमां पोतानुं मस्तक नमावी हाथ जोडीने परीक्षित राजा आ प्रमाणे बोल्या ॥१॥

राजा परीक्षिते कह्युं - हे भगवन्‌! जे भगवान्‌ श्रीकृष्णनां साक्षात्‌ दर्शन अने अनुभव मने गर्भमां तथा बाल्यकालमां थयेलां ते ज अनादि, अनन्त अने एक रस श्रीहरिना स्वरूप अने लीलाओनुं वर्णन आपे कर्युं छे. तेथीय आगळ वधीने ते स्वरूपने प्राप्त करी लेवानुं साधन पण आपे बतावी दीधुं छे. आपनी स्वाभाविक दयालुताने कारणे ज आपे आ कृपानुं कार्य कर्युं छे मारामां तो कोई साधन के योग्यता नथी ॥२॥

संसारनां प्राणीओ पोताना स्वार्थ अने परमार्थ ना ज्ञानविहोणां छे अने अनेक प्रकारनां दुःखोना-दावानलथी प्रजळी रह्यां छे. तेमना उपर भगवन्मय महात्माओनो अनुग्रह थाय ए कोई नवी घटना के आश्चर्यनी वात नथी. ए तो एमनेमाटे स्वाभाविक छे ॥३॥

में तथा बीजा घणा लोकोए आपना मुखारविन्दथी आ श्रीमद्‌ भागवत महापुराणनुं श्रवण कर्युं छे. आ पुराणमां शब्दे-शब्दे भगवान्‌ श्रीहरिना ते स्वरूप अने लीला ओनुं वर्णन करवामां आव्युं छे जेनुं गान करवामां मोटा-मोटा आत्माराम पुरुषो खोवाई जाय छे ॥४॥

हे भगवन्‌! आपे मने अभयपदनो, ब्रह्म अने आत्मा नी एकतानो साक्षात्कार करावी दीधो छे हवे हुं परम शान्ति स्वरूप ब्रह्ममां स्थित छुं. हवे मने तक्षक आदि कोई पण मृत्युना निमित्तथी अथवा कोटीबन्ध मृत्युओथी पण भय नथी. हुं अभय थई गयो छुम् ॥५॥

हे ब्रह्मन्‌! हवे आप मने मौन थई जवानी तथा कामनाओना संस्कारथी पण रहित चित्तने इन्द्रियातीत परमात्माना स्वरूपमां विलीन करी दई मारा प्राणोनो त्याग करी देवानी आज्ञा आपो ॥६॥

-६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६६ आपे मने आपेल ज्ञान (श्रीकृष्णानुभव) अने विज्ञान (श्रीकृष्णना ऐश्वर्यना अनुभव) मां मारी निष्ठा (स्थिति) थई जवाथी मारुं अज्ञान कायमने माटे नाश पाम्युं छे. आपे भगवान्‌ना परम कल्याणमय स्वरूपनो मने साक्षात्कार करावी दीधो छे ॥७॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! राजा परीक्षिते श्रीशुकदेवजीने आ प्रमाणे कही तेमनी प्रेमपूर्वक पूजा करी. हवे श्रीशुकदेवजीए राजा परीक्षितने भगवान्‌मां सर्वइन्द्रियो जोडवानी आज्ञा आपी तेमनी विदाय लई समागत त्यागी महात्माओ, भिक्षुओ साथे त्यान्थी चाल्या गया ॥८॥

राजर्षि परीक्षिते पण स्वयं पोताना मनने परमात्माना चिन्तनमां लीन करी दीधुं अने ध्यानमग्न थई गया. ते वखते तेमना श्वास-प्रश्वास पण चालता न होता अने वृक्षना ठूण्ठानी जेम अक्कड थई गया ॥९॥

गङ्गाजीना तट उपर तेमणे आगळनो भाग पूर्व तरफ होय तेवी रीते दर्भो बिछावी राख्या हता. उत्तर तरफ मों राखी पोते तेना उपर बेसी गया हता. तेमनी आसक्ति अने संशय तो पहेलेथी ज मटी गया हता. हवे ते ब्रह्म अने आत्मा नी एकतारूप महायोगमां स्थित थई जई ब्रह्मस्वरूप थई गया ॥१०॥

हे ब्राह्मणो! मुनिकुमार शृङ्गीने गुस्से थई परीक्षितने शाप आपी दीधो हतो एटले तेनो मोकलेलो तक्षक नाग राजा परीक्षितने करडवामाटे तेनी पासे जवा नीकळ्यो. रस्तामां तेणे कश्यप नामना एक ब्राह्मणने जोयो* ॥११॥

विशेष - अर्ही एक श्लोक आ प्रमाणे छे जेने मोटा भागना टीकाकारो क्षेपक गणे छेः तत्रालीढं वटं दृष्ट्‌वा तक्षकेण महात्मना।चकार निर्विषं विप्रो मन्त्रपूतेन वारिणा॥ कश्यप ब्राह्मणनी विष उतारवानी विद्यानी परीक्षा करवा तक्षके एक वडलाना वृक्षने दंश दीधो. वडलानुं वृक्ष बळी गयुं. कश्यपे मन्त्रेलुं जल ते वृक्ष उपर छाण्टतां वडलो तो लीलोछम थई गयो एटलुं ज नहि ए वडलाना वृक्ष उपर पहेलेथी ज लाकडां लेवा चढेलो एक ब्राह्मण पण सजीवन थई गयो. तक्षक अने कश्यप त्यान्थी चाल्या गया पछी आ ब्राह्मण राजा परीक्षितना मन्त्रीओनी पासे गयो अने तेमने आ वृत्तान्त कही सम्भळाव्युं. मन्त्रीओए राजा जनमेजय वगेरेने आ वात करी (अ.५०,आदिपर्व, महाभारत). कश्यप ब्राह्मण सर्पविषनी चिकित्सा करवामां निष्णात हतो. तक्षके घणुं बधुं धन आपी कश्यपने त्यान्थी ज पाछो मोकली दीधो तेने राजा सुधी पहोञ्चवा ज दीधो -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६७ नहि अने पोते इच्छानुसार रूप धारण करी शकतो होवाथी ब्राह्मणनुं रूप लई, राजा परीक्षितनी पासे गयो अने तेने दंश मार्यो ॥१२॥

राजर्षि परीक्षित तक्षकना करडतां पहेलां ज ब्रह्ममां स्थित थई गया हता. हवे तक्षकना विषनी आगथी तेमनुं शरीर सर्वना देखतां ज बळीने भस्म थई गयुं ॥१३॥

पृथ्वी, आकाश अने सर्व दिशाओमां हाहाकार थई गयो. देवता, असुरो, मनुष्यो वगेरे बधाय परीक्षितनी आ परम गति जोई विस्मय पाम्या ॥१४॥

देवोनां दुन्दुभि वागवा लाग्यां. गन्धर्वो अने अप्सराओ गान करवा लाग्यां. देवो राजाने धन्यवाद आपता पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या ॥१५॥

ज्यारे जनमेजयने खबर पडी के तक्षके मारा पिताजीने दंश दीधो छे त्यारे तेने अत्यन्त क्रोध थयो. ब्राह्मणोनी साथे रहीने तेणे सर्पसत्रद्वारा विधिपूर्वक अग्निकुण्डमां सर्पोने होमवानुं आवाहन कर्युम् ॥१६॥

सर्पसत्रमां अग्नि ज्यारे सळग्यो त्यारे एमां मोटा सर्पो बळवा लाग्या. एने जोईने भयथी उद्‌वेग पामेलो तक्षक. इन्द्रने शरणे गयो ॥१७॥

परीक्षितना पुत्र जनमेजये ज्यारे तक्षकने न जोयो त्यारे ए ब्राह्मणोने पूछवा लाग्यो के ‘‘सर्पमां अधम तक्षक हजु केम आ आहुतिमां बळतो नथी. तमे बीजाने बाळो छो त्यारे तक्षकने हजु केम होमी देता नथी?’’ ॥१८॥

ब्राह्मणोए कह्युं - हे राजेन्द्र! तक्षक इन्द्रने शरणे गयो छे तेथी इन्द्र एनी रक्षा करी रह्या छे. एमणे सर्पने पकडी राख्यो छे तेथी ए अधम सर्प अत्यार सुधी अग्निमान्थी बची रह्यो छे ॥१९॥

परीक्षित नन्दन जनमेजय महान बुद्धिमान अने वीर हतो. तेणे ब्राह्मणोनी वात साम्भळी ऋत्विजोने कह्युं, ‘‘हे ब्राह्मणो! आप लोको इन्द्रनी साथे तक्षकने अग्निमां केम होमी देता नथी?’’ ॥२०॥

जनमेजयनी वात साम्भळी ब्राह्मणोए ते यज्ञमां इन्द्रनी साथे तक्षकनुं अग्निकुण्डमां आवाहन कर्युं. तेमणे कह्युं, ‘‘अरे तक्षक! तुं मरुद्‌गणना सहचर इन्द्रनी साथे आ अग्निकुण्डमां हमणां ने हमणां आवीने पड’’ ॥२१॥

ज्यारे ब्राह्मणोए आ प्रमाणे आकर्षण मन्त्रनो पाठ कर्यो त्यारे तो इन्द्र पोताना स्थान स्वर्गथी विचलित थई गया. विमानमां बेठेला इन्द्र तक्षक साथे बहु -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६८ गभराई गया अने तेमनुं विमान पण चक्कर-चक्कर फरवा लाग्युम् ॥२२॥

अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजीए जोयुं के देवराज इन्द्र विमान अने तक्षक साथे आकाशमान्थी अग्निकुण्डमां पडी रह्या छे त्यारे तेमणे राजा जनमेजयने कह्युम् ॥२३॥

‘‘हे नरेन्द्र! सर्पराज तक्षकने मारी नाखवो आपने शोभतुं नथी. तेणे अमृत पी लीधुं छे तेथी ते अजर अने अमर छे ॥२४॥

हे राजन्‌! जगतनां प्राणीओ पोतपोतानां कर्मो प्रमाणे ज जीवन, मरण अने मरणोत्तर गति प्राप्त करे छे. कर्म सिवाय बीजुं कंई कोईने पण सुख-दुःख आपी शकतुं नथी ॥२५॥

हे जनमेजय! आम तो घणा लोकोनां मृत्यु सर्प, चोर, आग, वीजळी आदिथी तथा भूख, तरस, रोग वगेरे निमित्तोथी थाय छे पण ए तो बधी कहेवानी वातो छे. वास्तवमां तो बधां प्राणी प्रारब्ध कर्मनो ज भोग भोगवे छे ॥२६॥

हे राजा! तमे घणा निरपराध सर्पोने बाळी नाख्या छे. आ अभिचार यज्ञनुं फल केवल प्राणीओनी हिंसा ज छे. तेथी ते बन्ध करी देवो जोईए. कारण के जगतनां बधां प्राणीओ पोतपोतानां प्रारब्ध कर्मोनो ज भोग भोगवतां होय छे. (एटले सर्पोना प्रारब्धे ज तमने आ यज्ञ करवानी प्रेरणा करी तेथी तमारो पण कंई वाङ्क नथी)’’* ॥२७॥

विशेष - महाभारतनी नीचेनी कथानुं अर्ही अनुसन्धान करवुंः एक वखत कश्यप प्रजापतिनी पत्नीओ (सर्पोनी माता) कद्रु अने (गरुडजीनी माता) विनता वच्चे उच्चैःश्रवा (इन्द्रना अश्व) ना पुच्छना रङ्ग विषे विवाद थयो. कद्रुए कह्युं के ‘‘ते श्याम छे’’ अने विनताए कह्युं के ‘‘ते श्वेत छे आवती काले एनी खातरी करीशुं अने जे खोटी पडे ते दासी बनीने रहे’’. एवी शरत लागी. कद्रुए तेना पुत्रो सर्पोने कह्युं के ‘‘तमे श्याम रोम बनीने अश्वना पुच्छे र्वीटाई जाओ. मारुं कह्युं नहि माने ते जनमेजयना सर्पसत्रमां बळीने भस्म थई जशे’’. आम जे सर्पोए मातानी आज्ञा नहोती मानी ते सर्पो जनमेजयना आ सर्पसत्रमां बळ्या छे. श्रीसूतजी बोल्याः हे शौनकादि ऋषिओ! महर्षिबृहस्पतिजीनी वातनुं सन्मान करीने जन्मेजये कह्युं, ‘‘आपनी आज्ञा शिरोधार्य छे’’ आम तेणे सर्पसत्र बन्ध करी दई बृहस्पतिजीनी विधि पूर्वक पूजा करी ॥२८॥

हे ऋषिओ! (जेनाथी विद्वान ब्राह्मण शृङ्गीने पण क्रोध आवी गयो, राजाने -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५६९ शाप थयो, तेनुं मृत्युं थयुं, जनमेजयने पाछो क्रोध आव्यो, सर्पो मार्या गया) आ ते ज भगवान्‌ विष्णुनी महामाया छे. ते कल्पनातीत छे. तेथी ज भगवान्‌ना अंशरूप जीवो क्रोध वगेरे गुण वृत्तिओद्वारा शरीरोमां मोहित थई जाय छे एक बीजाने दुःख आपे छे अने पोते पण भोगवे छे. भगवान्‌१ ज तेने निवृत्त करी शके छे जीवो पोताना प्रयत्नोथी नहि ज.२ ॥२९॥

विशेष - १. ‘अबाध्यया’ - १. जेने निवृत्त न करी शकाय तेवी मायाथी २.‘‘अकारो वासुदेवः स्यात्‌’’ (एकाक्षरकोश) जेनी निवृत्ति भगवान्‌ वासुदेव(नी शरणागति) थीज थाय तेवी(माया)थी. ‘अः’=वासुदेव. २.आ श्लोकना पूर्वार्धना बीजा चरणमां १.‘‘अबाध्यया लक्षणा यया २. मुह्यत्यस्यैवात्मभूता’’ एम बेपाठ छे. (विष्णु भगवान्‌ना स्वरूपनो निश्चय करी एमनी भक्ति करवाथी ज मायानी निवृत्ति थाय छे तेथी आपना स्वरूपनुं निरूपण करे छे) आ दम्भी छे, कपटी छे ए जातनी बुद्धिमां वारंवार जे दम्भ-कपटनी स्फूरणा थाय छे ते ज माया छे. ज्यारे आत्मवादी पुरुषो ब्रह्मनो विचार करे छे त्यारे ते परमात्माना स्वरूपमां निर्भय रूपथी प्रकाशित थती नथी, परन्तु डरनी मारी, मोह वगेरे उत्पन्न करवानां पोतानां कार्य नहि करती जेम-तेम गुजारो करी ले छे. आ रूपमां तेनुं प्रतिपादन करवामां आव्युं छे. मायाना आश्रित नाना (विविध) प्रकारना विवाद मतवाद पण परमात्माना स्वरूपमां नथी; वाद-विवादनी तो वात जवा दो, लोक-परलोकना विषयोना सम्बन्धमां सङ्कल्प-विकल्प करवावाळुं मन पण शान्त थई जाय छे ॥३०॥

जेने इन्द्रियोनो समूह नथी के इन्द्रियोथी थतां पुण्यपापरूप कर्म नथी; जेमां आ बन्नेनुं सुख-दुःख वगेरे फल नथी, सत्त्वादि गुणोथी रचायेलो जीव नथी के जीवनी उपाधिरूपी अहङ्कार नथी अने तेथी ज ते कोईनाद्वारा बाधित थता नथी के कोईना विरोधी नथी अर्थात्‌ जेमां मायानां मोह वगेरे कार्यो छे ज नहि. विवेकी पुरुष तेवा परमात्माना स्वरूपनो विचार करी, पोते अहङ्कार वगेरे ऊर्मिओनो त्याग करी दई ते परमात्माना स्वरूपमां विराम पामे. (आम करवाथी ज जीवमां रहेला मोहनी निवृत्ति थाय छे) ॥३१॥

भगवान्‌ सिवाय बीजामां जेमने प्रेम नथी अने तेथी ज वेदो जेना स्वरूपने ‘‘नेति-नेति’’ भगवान्‌नुं स्वरूप आवुं नथी, आवुं नथी एम कही वर्णन करे छे ते -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७० भगवान्‌ सिवाय तमाम वस्तुओ अने आसक्तिओने छोडी देवा इच्छनारा भगवद्‌ भक्तो आगळ जेनुं निरूपण करवामां आव्युं छे ते परम उत्कृष्ट, वैष्णवोने प्राप्त थतुं विष्णुना पदस्वरूपनुं वर्णन करे छे तथा ते मुमुक्षुओ देह, इन्द्रियो अने अन्तःकरणने वश करी, देह, गेह वगेरेमां अहन्ता-ममता तथा राग-द्वैष वगेरेनो त्याग करी, हृदयमां ध्यानद्वारा परम पदनुं आलिङ्गन करे छे निरन्तर ध्यान करता रहे छे ॥३२॥

विष्णु भगवान्‌नुं आ ज वास्तविक स्वरूप छे, आ ज आपनुं परम पद छे. जेमनां अन्तःकरणमां शरीर प्रत्ये अहम्भाव नथी के तेना सम्बन्धी गृह वगेरे पदार्थोमां ममता पण नथी तेवा लोकोने ते परम पद प्राप्त थाय छे. (खरेखर जगतनी वस्तुओमां हुं पणु अने मारापणुं राखवुं ए ज दुर्जनता छे) ॥३३॥

हे शौनकजी! जेने आ परमपदनी प्राप्तिनी इच्छा होय ते बीजाओनी कटु (तीखी) वाणी सहन करी ले अने तेना बदलामां कोईनुं अपमान न करे. आ क्षणभङ्गुर शरीरमां अहन्ता-ममता करी कोईपण प्राणी साथे क्यारेय वेर न करे ॥३४॥

(शास्त्र समाप्ति करतां पहेलां पोताना विद्यागुरु व्यास भगवान्‌ने नमन करे छे) भगवान्‌ कृष्ण द्वैपायन व्यासजीनुं ज्ञान अनन्त छे. तेमनां ज चरणकमलोना ध्यानथी में आ श्रीमद्‌ भागवत महापुराणनुं अध्ययन कर्युं छे. हुं हवे तेमने ज नमस्कार करी आ पुराण समाप्त करुं छुं. (कृष्ण पञ्चात्मक छे. १. नन्दनन्दन यशोदोत्सङ्ग लालित व्रजविहारी २. कृष्ण द्वैपायन व्यास भगवान्‌ ३. अर्जुन
४.कृष्णा=द्रोपदी अने ५. तुरीय (तुर्य) प्रिया श्रीयमुनाजी ॥३५॥

शौनकजीए पूछ्‌युं - हे सौम्य* सूतजी! वेद व्यासजीना शिष्यो पैल वगेरे महर्षि महात्माओ तथा वेदोना आचार्य हता. तेमणे वेदोनुं विभाजन केटली रीते कर्युं ते आप कृपा करीने अमने सम्भळावो ॥३६॥

विशेष - सौम्य-सोम एटले चन्द्र. चन्द्रनी जेम जे मननो सन्ताप हरी ले ते सौम्य. सूतजीए कह्युं - हे ब्रह्मन्‌! जे वखते परमेष्ठी ब्रह्माजीए पूर्वसृष्टिनुं ज्ञान सम्पादन करवा चित्तने एकाग्र कर्युं ते वखते तेमना हृदयरूपी आकाशमान्थी कण्ठ, तालु वगेरे स्थानोना सङ्घर्षथी रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रगट थयो. ज्यारे जीव पोताना कान बन्ध करी दे छे त्यारे तेने पण ते अनाहत नादनो अनुभव -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७१ थाय छे ॥३७॥

मोटा-मोटा योगीओ ते ज अनाहत नादनी उपासना करे छे अने तेना प्रभावथी अन्तःकरणना द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) अने कारक (अधिदैव) रूप मलनो नाश करी ते परम गतिरूप मोक्ष प्राप्त करे छे जेमां जन्ममरणरूप संसारचक्र नथी.* ॥३८॥

विशेष - द्रव्य=शरीर. क्रिया=पुण्य पापरूप कर्म. कारक=इन्द्रिय गण. ते घण्टनाद जेवा अनाहत नादमान्थी ‘अ’कार, ‘उ’ कार, अने ‘म’ काररूप त्रण मात्राओ वळो ‘ॐ’ कार प्रगट थयो. योगीओ सिवायना पुरुषो तेने जाणी शकता नथी. ‘ॐ’ कार स्वयं पण अव्यक्त अने अनादि छे अने परमात्मस्वरूप होवाथी स्वयम्प्रकाश पण छे. जे परम वस्तुने भगवान्‌, ब्रह्म के परमात्माना नामथी कहेवामां आवे छे तेना स्वरूपनुं ज्ञान पण ‘ॐ’ कारद्वारा थाय छे ॥३९॥

(ते परमात्मा कोण छे तेवी जिज्ञासा थतां कहे छे के) जे आ अव्यक्त ॐकारना नादने साम्भळे छे ते ज परमात्मा छे. जीवोनुं ज्ञान तो इन्द्रियोने अधीन छे. (एम न होय तो अन्धजनोने पण रूप वगेरेनुं ज्ञान थई जाय) ज्यारे परमात्मा तो शून्यदृग छे. (नेत्रो बन्ध राखीने पण भगवान्‌ जोई शके छे कर्णो बन्ध राखीने पण साम्भळी शके छे वगेरे) कान बन्ध करी देवामां आव्या होय अथवा जीव ऊङ्घमां होय अने अवाज थतां जीवने जे जगाडी दे छे ते परमात्मा छे. ऊङ्घमां जीवने नादनी उपलब्धि परमात्माद्वारा ज थाय छे. ते ज ॐकार परमात्माना हृदयाकाशमां प्रगट थई वेदरूप वाणीने प्रगट करे छे ॥४०॥

ॐकार पोताना आश्रय परमात्मा परब्रह्मनो साक्षात्‌ वाचक छे अने ॐकार ज सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद अने वेदोनुं सनातन बीज छे ॥४१॥

हे शौनकजी! ॐकारना त्रण वर्ण छे-‘अ’,‘उ’ अने ‘म्‌’ आ ज त्रणेय वर्ण सत्त्व, रज अने तम आ त्रण गुणो; ऋक, यजुः अने साम आ त्रण नामो, भूः, भुवः, स्वः आ त्रण अर्थो अने जाग्रत-स्वपन-सुषुप्ति आ त्रण वृत्तिओना रूपमां त्रण-त्रणनी सङ्ख्यावाळा भावोने धारण करे छे ॥४२॥

त्यार पछी सर्वशक्तिमान ब्रह्माजीए ‘ॐ’ कारमान्थी ज अन्तःस्थ (य,र,ल,व), उष्माक्षर (श,ष,श,ह) स्वर (नअथ थीस्त्रऔथ सुधी) स्पर्श व्यजन्न (नकथ थी नमथ सुधी) तथा ह्रस्व अने दीर्घ वगेरे लक्षणोयुक्त अक्षर-सामाम्नाय -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७२ (वर्णमाला) नी रचना करी ॥४३॥

ते ज वर्णमालाद्वारा तेमणे पोतानां चार मुखोथी होता, अध्वर्यु, उद्‌गाता अने ब्रह्मा आ चार ऋत्विजोनां कर्म बताववामाटे ॐकार अने व्याहृतिओ (भूः, भुवः, स्वः) सहित चार वेद प्रगट कर्या अने पोताना पुत्र ब्रह्मर्षि, मरीचि वगेरेने वेदोना अध्ययनमां कुशळ जोई तेमने वेदोनुं शिक्षण आप्युं. तेओ बधा ज्यारे धर्मनो उपदेश करवामां निपुण थई गया त्यारे तेमणे पोताना पुत्रो कश्यप वगेरेने तेमनुं अध्ययन कराव्युम् ॥४४-४५॥

त्यार पछी ते ज लोकोना नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योद्वारा चारेय युगोमां सम्प्रदायना रूपमां वेदोनी रक्षा थती रही. द्वापरना अन्तमां महर्षिओए तेमनुं विभाजन पण कर्यु ॥४६॥

ज्यारे ब्रह्मवेता ऋषिओए जोयुं के समयना प्रभावथी लोकोनुं आयुष्य, शक्ति अने बुद्धि क्षीण थई गयां छे त्यारे तेमणे पोताना हृदय प्रदेशमां बिराजमान परमात्मानी प्रेरणाथी वेदोना अनेक विभाग करी दीधा ॥४७॥

हे शौनकजी! आ वैवस्वत मन्वन्तरमां पण ब्रह्मा, शङ्कर वगेरे लोकपालोनी प्रार्थनाथी अखिल विश्वना जीवनदाता भगवाने धर्मनी रक्षामाटे महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीना गर्भथी पोताना अशांश कला स्वरूप१ व्यासजीना रूपमां अवतार लीधो छे. हे परम भाग्यवान शौनकजी! तेमणे ज आ अठ्ठावीसमी चतुर्युगीना२ द्वापरयुगना सन्धि समये वेदना चार विभाग कर्या छे ॥४८-४९॥

विशेष - १. अंशांशकला=अंश एटले प्रकृति के माया; तेनो अंश सत्त्वगुण; तेनी कला अथवा अंश ते व्यासजी रूपे प्रगट थया.
२. चतुर्युगी=सत्य, त्रेता, द्वापर अने कलि ए चार युगोनो समूह-चोकडी. अत्यारे अठ्ठावीसमी चतुर्युगीनो कलियुग चाली रह्यो छे. जेवी रीते मणिओना समूहमान्थी विभिन्न जातिना मणिओ अलग-अलग करी देवामां आवे छे तेवी ज रीते महामति भगवान्‌ व्यासदेवे मन्त्र समुदायमान्थी भिन्न-भिन्न प्रकरणो प्रमाणे मन्त्रोनो सङ्ग्रह करी तेमान्थी ऋक, यजुः, साम अने अथर्व चार संहिताओ बनावी अने पोताना चार शिष्योने बोलावी प्रत्येकने एक- एक संहितानुं शिक्षण आप्युम् ॥५०-५१॥

एमां प्रथम ऋग्वेद संहिता पोताना शिष्य पैलने भणावी. ए संहितामां -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७३ ऋचाओ घणी छे तेथी एनुं बह्‌वृच एवुं बीजुं नाम छे. पोताना वैशम्पायन नामना शिष्यने निगद नामनो यर्जुवेद भणाव्यो ॥५२॥

छन्दमां गवाती एवी छन्दोग नामनी संहिता जैमिनी नामना पोताना शिष्यने व्यासजीए कही सम्भळावी, अथर्वाङ्गिरस नामनी चोथी संहिता सुमन्तु नामना शिष्यने व्यासजीए आपी ॥५३॥

(एम वेदनी चार संहिताओनी वात कहीने हवे ए वेदना विभाग थया एनो इतिहास कहे छे के) जे ऋकसंहिता व्यासजीए पैल नामना शिष्यने भणावी ते पैल मुनिए एना बे विभाग करी इन्द्रिप्रमिति अने बाष्कल नामना बे शिष्योने ए संहिता भणावी ॥५४॥

हे भार्गव! ए बाष्कले पण पोताने मळेली शाखाना चार भाग कर्या अने ए भागो पोताना बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर अने अग्निमित्र नामना शिष्योने भणाव्या ॥५५॥

परम संयमी इन्द्रप्रमितिए पोताने मळेली संहिता पोताना विद्वान पुत्र माण्डूकेयने आपी. एनो शिष्य देवमित्र थयो. तेणे ए संहिता सौभरी वगेरे ऋषिओने भणावी ॥५६॥

ए माण्डूकेयनो पुत्र शाकल्य थयो तेणे पिता तरफथी पोताने मळेली संहिताना पाञ्च भाग कर्या अने ए वात्स्य, मुद्‌गल, शालीय, गोखल्य अने शिशिर नामना मुनिओने भणावी ॥५७॥

शाकल्यनो एक बीजो शिष्य जातूकर्ण्य हतो. तेणे निरुक्त साथे पोताने मळेली संहिताना त्रण भाग कर्या अने तेना सम्बन्धी निरुक्त साथे पोताना शिष्यो बलाक, पैज, वैताळ अने विरज नामना मुनिओने भणाव्या ॥५८॥

बाष्कलनो पुत्र बाष्कलि थयो. तेणे बधी शाखाओमान्थी एक वालखिल्य नामनी शाखा रची अने एने बालायनि, भज्य अने कासार वगेरे भण्या ॥५९॥

आटली बह्‌वृच संहिता उपर कहेला मुनिओए धारण करी. आ वेदना विस्तारने साम्भळनार मनुष्य सर्व पापथी मुक्त थाय छे ॥६०॥

(यजुर्वेदनी तैत्तिरीय शाखानी उत्पत्ति कहे छे) हे शौनकजी! वैशम्पायनना केटलाक शिष्योनुं नाम चरकाध्वर्यु१ हतुं. ते लोकोए पोताना गुरुदेवने लागेली ब्रह्महत्याना २ पापनुं प्रायश्चित्त करवामाटे एक व्रतनुं अनुष्ठान कर्युं तेथी ज तेमनुं -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७४ नाम चरकाध्वर्यु पड्युम् ॥६१॥

विशेष - १. ‘चरकाध्वर्यु’ - ‘अध्वर्यु’ नामनी शाखानुं अध्ययन कर्युं माटे अध्वर्यु. ‘‘चरक-गुरोरनुष्ठेयं व्रतं स्वयं चेरुस्तस्माच्चरका अभवन्‌।’’ गुरुए (आ) चरवानुं व्रत पोते आचर्युं तेथी तेओ चरक कहेवाया.
२. वैशम्पायने लागेली ब्रह्महत्या एक वखते गङ्गानदीने तीरे ऋषिओनी सभामां तेमणे ठराव कर्यो के आजे महामेरु पर्वतनी तळेटीमां बधा ऋषिओए सत्सङ्गमाटे चोक्कस आववुं अने जे न आवे तेने ब्रह्महत्यानुं पाप. सात रात सत्सङ्ग चालशे. अनिवार्य संयोगवशात्‌ वैशम्पायन तेमां जई शक्या नहि. बनवा काळ ते एवुं बन्युं के वैशम्पायननो पग अजाणतां तेना भाणेजने अडी गयो. भाणेज तत्काल मरी गयो. मामा वैशम्पायनने अत्यन्त क्लेश थयो (विष्णुपुराण) वैशम्पायनना एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि पण हता. तेमणे पोताना गुरुदेवने कह्युं, ‘‘अहो भगवन्‌! आ चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहु ज अल्प शक्तिवाळा छे. एमना व्रतपालनथी शुं लाभ थवानो छे? हुं आपना प्रायश्चित्तने माटे घणी ज कठोर तपश्चर्या करीश’’ ॥६२॥

याज्ञवल्क्य मुनिनी आ वात साम्भळी वैशम्पायन मुनिने क्रोध आवी गयो. तेमणे कह्युं, ‘‘ब्राह्मणोनुं अपमान करनार तारा जेवा शिष्यनी मारे कोई जरूर नथी. अत्यार सुधीमां मारी पासेथी भणेल विद्याने छोडीने तुं जलदी अर्हीथी चाल्यो जा’’ ॥६३॥

देवरातना पुत्र याज्ञवल्क्यजीए गुरुजीनी आज्ञा मळतां ज भणावेल यजुर्वेदनुं वमन करी दीधुं अने ते त्यान्थी चाल्या गया. ज्यारे मुनिओए जोयुं के ज्यारे मुनिओए जोयुं के याज्ञवल्क्ये तो यर्जुर्वेदनुं वमन करी दीधुं त्यारे तेमना मनमां तेने कोईपण रीते ग्रहण करी लेवानी लालच थई आवी. परन्तु ब्राह्मण थईने ओकी काढेला मन्त्रो ग्रहण करवा अनुचित छे एम विचारी तेओ तेतर बनी गया अने ते संहिताने अनाजना दाणाने चणे तेम चणी गया. तेथी ज यजुर्वेदनी ते परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ नामथी प्रसिद्ध थई (तित्तिरि=तेतर) ॥६४-६५॥

हे शौनकजी! हवे याज्ञवल्क्ये विचार कर्यो के हुं हवे एवी श्रुतिओ प्राप्त करुं के जे मारा गुरुनी पासे पण न होय. तेमाटे ते सूर्य भगवाननुं उपस्थान करवा लाग्या ॥६६॥

-६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७५ ‘‘याज्ञवल्क्य आ प्रमाणे उपस्थान करे छे’’ - (पहेलां गायत्रीना प्रथम पादनो अर्थ कहे छे के) हुं ‘ॐ’ कार स्वरूप भगवान्‌ सूर्यने नमस्कार करुं छुं. ब्रह्माजीथी लईने तृणपर्यन्त जेटलां जरायुज (ओरथी र्वीटायेल अवस्थामां जन्मतां), अण्डज (इण्डामान्थी जन्मतां), स्वेदज (पसीनाथी थतां) अने उद्विज्ज (वनस्पति) (अथवा देव, मनुष्य, पशु, वनस्पति) चार प्रकारनां प्राणीओ छे ते बधान्ना हृदयमां अने बहार आकाशनी जेम समान रीते व्याप्त रहीने पण आप उपाधिना धर्मोथी अलिप्त रहेनारा अद्वितीय भगवान्‌ज छो. आपज क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोथी सङ्घठित संवत्सरोद्वारा अने जलना आकर्षण वितरणआदान-प्रदानद्वारा समस्त लोकोनी जीवनयात्रा चलावो छो ॥६७॥

(गायत्रीना बीजा पादनो अर्थ कहे छे के) हे प्रभो! आप समस्त देवताओमां श्रेष्ठ छो. जे लोको प्रतिदिन त्रणेय समय वेदविधिपूर्वक आपनी उपासना करे छे तेमनां तमाम पाप अने दुःखोनां बीजोने आप भस्म करी दो छो. हे सूर्यदेव! आप समस्त सृष्टिना मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्योना स्वामी छो. तेथी अमे आपना आ तेजोमय मण्डलनुं पूरी एकाग्रतापूर्वक ध्यान धरीए छीए ॥६८॥

(हवे गायत्रीना त्रीजा पादना अर्थनुं अनुसन्धान करी स्तुति करे छे के) आप बधाना आत्मा अने अन्तर्यामी छो. जगतमां जेटलां चराचर प्राणीओ छे ते बधां आपनां ज आश्रित छे. आप ज तेमना अचेतन मन, इन्द्रिय अने प्राणोना प्रेरक छो ॥६९॥

(गायत्रीना तृतीय पादमां पण सूर्यमण्डलनी श्रेष्ठतानुं निरूपण करे छे के) आ लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरना मोमां पडी अचेत अने मडदां जेवो थई जाय छे. आप परम करुणा स्वरूप छो तेथी कृपा करीने आपनी दृष्टिमात्रथी ज तेने सचेत करी दो छो अने परम क्ल्याणनां साधन त्रणे सन्ध्यामां लगाडी आत्माभिमुख- परमात्मानी उपासना (भक्ति) करवामां प्रवृत्त करो छो. जेवी रीते राजा दुष्टोने भयभीत करतो पोताना राज्यमां फरे छे तेवी ज रीते आप चोर, जार वगेरे दुष्टोने भयभीत करता विचरता रहो छो ॥७०॥

चारे दिशाओमां बधा दिक्‌पाल ठेक-ठेकाणे कमलनी कळी जेवी पोतानी अञ्जलिओथी आपने उपहार समर्पित करे छे ॥७१॥

हे भगवन्‌! आपनां बन्ने चरणकमलोने त्रणेय लोकना गुरुसमान महानुभावो -६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७६ वन्दन करे छे. में आपना युगल चरण कमलोनुं शरण एटलामाटे लीधुं छे के मने एवा यजुर्वेदनी प्राप्ति थाय के जे कदी न भुलाय अने आज सुधी कोईने न मळ्यो होय ॥७२॥

सूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! ज्यारे याज्ञवल्क्य मुनिए भगवान्‌ *सूर्यनी आ प्रमाणे स्तुति करी त्यारे ते प्रसन्न थई अश्वनुं रूप धारण करी तेनी सामे प्रगट थया अने अत्यार सुधी कोईने प्राप्त न थयेला यजुर्वेदना मन्त्रोनो उपदेश तेने कर्यो ॥७३॥

विशेष - ‘रवि’ ने स्थाने ‘हरिः’ पण पाठान्तर छे. ‘हरि’= उपासकोना तमाम तापसन्ताप दूर करनार. त्यार पछी याज्ञवल्क्य मुनिए यजुर्वेदना *असङ्ख्य मन्त्रोथी तेनी पन्दर शाखाओनी रचना करी. ते ज नवाजसनेयथ शाखाना नामथी प्रसिद्ध छे. कण्व, माध्यन्दिन वगेरे ऋषिओए तेमनुं अध्ययन कर्यु ॥७४॥

विशेष - ‘‘शतैर्विभुः’’ ‘‘स तैः प्रभुः’’ ‘‘स तैर्विभुः’’ आ त्रण पाठ छे. ए वात तो हुं पहेलां ज कही गयो छुं के महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायने जैमिनि मुनिने सामसंहितानुं अध्ययन कराव्युं. तेना पुत्र सुमन्तु मुनि अने पौत्र सुन्वान हता. जैमिनि मुनिए पुत्र अने पौत्रने एक-एक संहिता भणावी ॥७५॥

जैमिनि मुनिना एक शिष्यनुं नाम सुकर्मा हतुं. ते एक महान बुद्धिशाळी पुरुष हतो. जेवी रीते एक वृक्षमां घणी शाखाओ होय छे तेवी ज रीते सुकर्माए सामवेदनी एक हजार संहिताओ बनावी दीधी ॥७६॥

सुकर्माना कोसलदेशना वासी शिष्य हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि अने ब्रह्मवेता ओमां श्रेष्ठ आवन्त्य ते शाखाओ भण्या ॥७७॥

पौष्यञ्जि अने आवन्त्य ना पाञ्चसो शिष्यो हता. तेओ उत्तरदिशाना निवासी होवाथी औदीच्य सामवेदी कहेवाता हता. तेमने ज प्राच्य सामवेदी पण कहे छे. तेमणे एक-एक संहितानुं अध्ययन कर्यु ॥७८॥

पौष्यञ्जिना बीजा पण शिष्यो हता लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद अने कुक्षि. आमान्ना दरेके सो-सो संहिताओनुं अध्ययन कर्यु ॥७९॥

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशतिसंहिताः ॥ शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान्‌ ॥८०॥

-६,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७७ हिरण्यनाभनो शिष्य कृत हतो. तेणे पोताना शिष्योने चोवीस संहिताओनुं अध्ययन कराव्युं. बाकीनी संहिताओनुं अध्ययन परम संयमी आवन्त्ये पोताना शिष्योने कराव्युं. आ प्रमाणे सामवेदनो विस्तार थयो ॥८०॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (त्रीजा भगवदाश्रय प्रकरणनो बीजो तथा चालु) ‘‘परीक्षितनी परमगति, जनमेजयनो सर्पसत्र अने वेदोनो शाखाभेद’’ नामनो छठ्ठो अध्याय पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूरख बीजो कोण? ‘‘पारसमणिने वाटके, भटजी मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ सेथज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!!

अध्याय ७

अथर्ववेदनी शाखाओ अने पुराणोनां लक्षण

विशेष - आ सातमा अध्यायमां अथर्ववेदनो विस्तार तथा पुराणना विभाग एना लक्षण तेमज श्रीभागवत साम्भळवानुं फळ कहेवामां आवे छे. अथर्ववित्‌ सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत्‌ स्वकाम्‌ ॥ संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान्‌ ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! अथर्ववेदना ज्ञाता सुमन्तु मुनिए पोतानी संहिता पोताना प्रिय शिष्य कबन्धने भणावी. कबन्धे तेना बे भाग करी पथ्य अने वेददर्श ने तेनुं अध्ययन कराव्युम् ॥१॥

वेददर्शे पोतानी संहिताना चार भाग करीने पोताना चार शिष्यो शौक्लायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष अने पिप्पलायनि ने भणाव्या. पथ्ये पोतानी संहिताना त्रण भाग करीने पोताना त्रण शिष्यो कुमुद, शुनक अने जाजलि ने भणाव्या ॥२॥

अङ्गिरायोगमां जन्मेला शुनके ‘‘ब्रभु अने सैन्धवायन’’ नामना बे शिष्योने पोतानी संहिताना बे भाग करीने भणाव्या ॥३॥

अथर्ववेदना आचार्योमां आ सिवाय सैन्धवायनादिना शिष्य सावर्ण्य वगेरे

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-७,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७८ तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस वगेरे अनेक बीजा विद्वानो पण थया. हवे हुं तमने पौराणिको विशे सम्भळावुं छुम् ॥४॥

हे शौनकजी! पुराणोना छ आचार्य प्रसिद्ध छे त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन अने हारीत ॥५॥

भगवान्‌ व्यासजीना शिष्य अने मारा पिता रोमहर्षण पासेथी तेओ एक- एक पुराण संहिता भण्या हता. में आ छये आचार्यो पासेथी बधी संहिताओनुं अध्ययन कर्यु हतुम् ॥६॥

आ छ संहिताओ उपरान्त बीजी पण चार मूल संहिताओ हती. तेमनुं पण मे कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीना शिष्य अकृतव्रण अने ए बधानी साथे व्यासजीना शिष्य श्रीरोमहर्षणजी (मारा पिता) नी पासे अध्ययन कर्युं हतुम् ॥७॥

हे शौनकजी! महर्षिओए वेद अने शास्त्र अनुसार पुराणोनां लक्षण बताव्यां छे. हवे तमे स्वस्थ थई सावधानताथी तेमनुं वर्णन साम्भळो ॥८॥

पुराणोना पारदर्शी विद्वानो पुराणोनां दस लक्षण बतावे छे विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति (स्थान), रक्षा (पोषण), अन्तर (मन्वन्तर), वंश अने वंशानुचरित (ईशानुकथा), संस्था (निरोध अथवा मुक्ति), हेतु (ऊति) अने अपाश्रय (आश्रय) कोई-कोई आचार्य पुराणोनां पाञ्च ज लक्षण माने छे. बन्नेनां दृष्टिबिन्दु बराबर छे कारण के महापुराणोमां दस लक्षण अने नानां पुराणो (उपपुराणो) मां पाञ्च लक्षण होय छे. विस्तार करीने दस अने सङ्क्षेप करीने पाञ्च लक्षण बतावे छे ॥९-१०॥

(हवे तेनां लक्षणो साम्भळो). भगवान्‌नी दृष्टिथी प्रकृतिना गुण क्षुब्ध थतां महतत्त्वनी उत्पत्ति थाय छे. महत्तत्वमान्थी तामस, राजस अने वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार बने छे. त्रिविध अहङ्कारथी ज पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय अने विषयो नी उत्पत्ति थाय छे. आ उत्पत्तिक्रमने सर्गलीला कहे छे. (सात्त्विक अहङ्कारथी देवो, राजसथी इन्द्रियो अने तामस अहङ्कारथी पृथ्वी वगेरे पञ्चमहाभूतो तथा शब्दादि विषयोनो उद्‌भव थाय छे) ॥११॥

भगवान्‌ना अनुग्रहवडे ए महदादि भेगां थाय छे अने पूर्व कर्मनी वासनावडे एमां सृष्टि सामर्थ्य उत्पन्न थतां बीजाङ्कुर न्यायथी उत्पत्ति थाय छे ए लीलानुं नाम ‘विसर्ग’ छे ॥१२॥

-७,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५७९ हालतां-चालतां प्राणीओनी आजीविका (देहनिर्वाहनुं साधन) साधारण रीते जड पदार्थो जेवां के अनाज, वनस्पति वगेरे छे. (श्लोकमां चकार छे तेथी हालतां- चालतां पाडा, बकरां वगेरे पण देहनिर्वाहनां साधन गणाय छे ते ‘वृत्ति’ शब्दथी कहेवाय छे. ए वृत्ति माणसोने कामथी प्राप्त थाय छे तेमज वेदना विधिथी पण प्राप्त थाय छे) ए भगवान्‌नी ‘स्थान लीला’ गणाय छे ॥१३॥

भगवान्‌ युगे-युगे पशु, पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता वगेरेना रूपमां अवतार ग्रहण करी अनेक लीलाओ करे छे. आ ज अवतारोमां आप वेदधर्मनां विरोधीओनो संहार पण करे छे आपनी आ अवतार लीला विश्वनी रक्षामाटे ज होय छे तेथी ज तेने ‘रक्षा’ (पोषण लीला) कहे छे ॥१४॥

मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि अने भगवान्‌ना अंशावतारो आ ज छ बाबतोना विशेषता युक्त समयने ‘मन्वन्तर’ कहे छे ॥१५॥

ब्रह्माजीथी जेटला शुद्ध राजाओनी सृष्टि थई छे तेमनी भूत, भविष्य अने वर्तमान समयनी सन्तान परम्पराने ‘वंश’ कहे छे. ते राजाओ तथा तेमना वंशधरो जेमके प्रियव्रत, ध्रुव, पृथु वगेरेनां चरित्रो ‘वंशानुचरित’ (‘ईशानुकथा’ नामनी भगवद्‌ लीला) कहेवाय छे ॥१६॥

आ विश्व ब्रह्माण्डनो स्वभावथी ज प्रलय थई जाय छे. तेना चार भेद छे नैमित्तिक, प्राकृत्तिक, नित्य अने आत्यन्तिक, तत्त्वज्ञ विद्वानोए आने ज ‘संस्था’ (निरोध अथवा मुक्ति) नाम आप्युं छे ॥१७॥

अविद्याथी कर्म करनार जीव ज आ सृष्टिनुं कारण छे एने केटलाक अनुशयी अने केटलाक अव्याकृत नामथी पण कहे छे. एमां अनुशय शब्दनो अर्थ थाय छे ‘‘ते कर्म जेनुं फल भोगवायुं नथी’’. एवा कर्मवाळा जीव ‘अनुशयी’ कहेवाय छे. आ जीवसृष्टिनी पूर्वे नाम, रूप अने आकृति रहित हतो. तेथी एने ‘अव्याकृत’ पण कहे छे. आ रीते ‘ऊति लीला’ कहेवामां आवी छे ॥१८॥

अविद्याथी जीवोमां कल्पी लीधेली (पण खरेखर तो बुद्धिनी) जाग्रत, स्वपन अने सुषुप्त आ त्रण अवस्थाओमां जेनो अनुस्यूत सम्बन्ध छे छतां ए अवस्थाना अभावमां पण जे छे. अवस्थाना अभावमां तेनो अभाव नथी पण भगवान्‌ना व्यतिरेकमां अवस्थानो अभाव छे ए ब्रह्म सर्वना आश्रयरूप छे. ए ब्रह्म ‘अपाश्रय’ छे ॥१९॥

-७,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८० (ए अन्वय व्यतिरेकने दृष्टान्तथी सिद्ध करे छे). नाम अने रूपवाळा घटपटादि पदार्थोमां कारणरूपे सन्मात्र द्रव्य छे अने एनाथी जुदा पण महदादि पदार्थो छे. एम गर्भाधानथी लईने मरण पर्यन्तनी देहनी अवस्थामां ए अवस्थाना साक्षी तरीके अन्तर्यामी पणे रहे छे. ए देहना नाश पछी पण जे रहे छे ते ब्रह्म ज आश्रय छे. तेने बीजा कोईनो आश्रय लेवो पडतो नथी तेथी तेने ‘अपाश्रय’ शब्दथी मूळमां कहेवामां आव्यो छे ॥२०॥

(एम पुराणनां दस लक्षण बताव्यां तेनुं प्रयोजन बतावे छे के) ज्यारे आ भगवान्‌नी सर्गादि दस लीलाना श्रवणथी भक्तियोग थाय अने भक्तिवडे चित्त विषयाशक्तिथी विराम पामे अने ए परमात्माने जाणे त्यारे ए जाग्रदादि त्रण वृत्तिने छोडे त्यारे ए संसाररूप चेष्टाथी मुक्त थाय छे ॥२१॥

एवां लक्षणोथी ओळखातां पुराणो अढार छे एम मुनिओ कहे छे. एमां महापुराण अने अल्पपुराण एम बे भेद छे एम पण ए मुनिओज कहे छे ॥२२॥

(एने अर्ही नामथी गणावे छे). ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त- पुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण अने ब्रह्माण्डपुराण एम अढार पुराणो छे ॥२३-२४॥

ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ॥ शिष्य-शिष्य प्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम्‌ ॥२५॥

हे शौनकजी! व्यासजीनी शिष्य परम्पराए जे रीते वेदसंहिता अने पुराणसंहिताओनां अध्ययन, अध्यापन, विभाजन वगेरे कर्या ते में तमने कही दीधुं. आ प्रसङ्ग वक्ता, श्रोता अने पाठक ना ब्रह्मतेजनी वृद्धि करे छे ॥२५॥

इति श्रीभागवत द्वादशस्कन्धमां (त्रीजा भगवद्‌ आश्रय प्रकरणनो त्रीजो अध्याय तथा चालु) ‘‘अथर्ववेदनी शाखाओ अने पुराणोनां लक्षण’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. -७,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८१

अध्याय ८

मार्कण्डेयजीनी तपस्या तथा वरदान नी प्राप्ति प्रकरण ४-शब्दाश्रय

विशेष - आ आठमा अध्यायमां मार्कण्डेयनी तपश्चर्या, मोहक कामादि दोषोथी मार्कण्डेयनुं अलिप्त रहेवुं तथा एमणे करेली भगवान्‌नी स्तुति वगेरे कथा कहेवामां आवे छे. सूत जीव चिरं साधो वदनो वदतां वर ॥ तमस्यपारे भ्रमतां नृणां त्वं पारदर्शनः ॥१॥

(आगळना अध्यायमां पुराणोनी गणना करी तेमां मार्कण्डेय पुराणनो निर्देश साम्भळी मार्कण्डेय ऋषिनुं चरित्र पूछे छे) शौनकजीए कह्युं - हे सन्तशिरोमणि सूतजी! आप आयुष्यमान हो. खरेखर आप वक्ताओना शिरोमणि छो. जे लोको संसारना अपार अन्धकाररूप समुद्रमां अटवाई पड्या छे तेमने आप तेमान्थी तरवानो मार्ग बतावी प्रकाशस्वरूप परमात्मानो साक्षात्कार करावो छो. आप कृपा करी अमारा एक प्रश्ननो उत्तर आपो ॥१॥

लोको कहे छे के मृकण्ड ऋषिना पुत्र मार्कण्डेय ऋषि दीर्घ जीवी छे अने जे समये आखा जगतनो प्रलय थई गयो हतो ते वखते पण ते बची गया ॥२॥

परन्तु हे सूतजी! ते तो आ ज कल्पमां अने अमारा (भृगुना) ज कुलमां जन्मेला एक श्रेष्ठ भृगुवंशी छे अने अमने खबर छे त्यां सुधी आ कल्पमां अत्यार सुधी कोई प्रलय थयो ज नथी ॥३॥

वळी लोको कहे छे जलमय जगत्‌ थयुं त्यारे समुद्रमां फरतां एमणे एक वडनुं वृक्ष अने एना पत्रमां एक अद्‌भुत बाळकने शयन करतुं जोयुं हतुं. ए वात पण प्रलय वगर केम सम्भवे? ॥४॥

हे सूतजी! ए मोटो सन्देह अमने छे. हे महायोगिन्‌!ए वात साम्भळवानी उत्कण्ठा पण छे, वळी आप पुराणने जाणनारमां मुख्य छो तो आप अमारा ए संशयने दूर करो ॥५॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे महर्षे! लोकोना भ्रमने दूर करनार तमारो आ प्रश्न बहु ज सुन्दर छे, जे प्रश्नना उत्तरमां कलिना दोषने दूर करनार नारायणनी कथानुं गान -८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८२ थाय छे ॥६॥

(मार्कण्डेय मुनिए तपश्चर्या करी भगवान्‌ने प्रसन्न कर्या. प्रभु प्रसन्न थया त्यारे एमणे भगवान्‌नी माया जोवानी इच्छाथी ए ज वरदान माग्युं अने भगवान्‌नी मायावडे सात कल्प जोया. ए कल्पो भगवाने पोतानी मायावडे मार्कण्डेयने ज बताव्या एटले बीजा कोईए ए कल्पो जोया नहि ए शौनकनी शङ्कामां उत्तररूपे कहेवामाटे मार्कण्डेय मुनिनुं चरित्र ज आ अध्यायनी शरूआतथी समाप्ति सुधी कहे छे. प्रथम एमनी योग्यता कहे छे) मृकण्ड ऋषिए पोताना पुत्र मार्कण्डेयना बधा संस्कार यथासमय कर्या. मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोनुं अध्ययन करी तप अने स्वाध्यायथी सम्पन्न थई गया ॥७॥

तेमणे आजीवन ब्रह्मचर्यनुं व्रत धारण कर्यु अने शान्त भावथी रहेता हता. मस्तक पर जटा वधारी वृक्षोनी छालनां ज वस्त्रो तेओ धारण करता हता अने एक हाथमां कमण्डलु तथा बीजा हाथमां दण्ड राखता. तेमना शरीर पर यज्ञोपवीत अने मेखला शोभायमान रहेताम् ॥८॥

काळा मृगनुं चर्म, रुद्राक्षनी माळा अने कुश आ ज एमनी पूञ्जी हती. आ बधुं तेमणे पोतानुं आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत नभाववा ज ग्रहण कर्यु हतुं. तेओ सवारे अने साञ्जे अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दना, ब्राह्मणसत्कार, मानसीपूजा अने ‘‘हुं परमात्मानुं स्वरूप ज छुं’’ आ प्रकारनी भावना वगेरेद्वारा भगवान्‌नी आराधना करता, सवार-साञ्ज भिक्षा लावी गुरुदेवनां चरणोमां निवेदन करी देता अने मौन थई जता, गुरुजीनी आज्ञा थाय तो एक वार भोजन करता, नहि तो उपवास करता ॥९-१०॥

मार्कण्डेयजीए आ प्रमाणे तपस्या अने स्वाध्यायमां तत्पर रही करोडो वरसो सुधी भगवान्‌नी आराधना करी अने आ रीते मोटा-मोटा योगीओ माटे पण कठिन एवो मृत्यु उपरनो विजय तेमणे प्राप्त कर्यो ॥११॥

मार्कण्डेयजीनो मृत्युउपरनो विजय जोई ब्रह्माजी, भृगु, शङ्कर, दक्षप्रजापति, ब्रह्माजीना पुत्रो सनक वगेरे तथा मनुष्य, देवता, पितर अने बीजां बधां प्राणीओने अत्यन्त आश्चर्यथयुम् ॥१२॥

आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतधारी अने योगी मार्कण्डेयजी आ प्रकारे तपस्या, स्वाध्याय अने संयम वगेरे द्वारा (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अने आसक्ति -८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८३ ए पाञ्चेय) क्लेशो मिटावी दई शुद्ध अन्तःकरणथी इन्द्रियातीत परमात्मानुं ध्यान करवा लाग्या ॥१३॥

योगी मार्कण्डेयजीए चित्तने एकाग्र करी परमात्मामां जोडी दीधुं. आ महायोग द्वारा साधन करतां छ मन्वन्तर जेटलो लाम्बो समय पसार थई गयो ॥१४॥

हे ब्रह्मन्‌! आ सातमा मन्वन्तरमां इन्द्रने ज्यारे आ वातनी जाण थई त्यारे ते तेमनी तपस्याथी शङ्क्ति अने भयभीत थई गया के ते पोतानुं स्थान लई लेशे तेथी तेणे तेमनी तपस्यामां विघ्न नाखवानुं शरू कर्युम् ॥१५॥

हे शौनकजी! मार्कण्डेयजीनी तपस्यामां विघ्न नाखवामाटे इन्द्रे तेमना आश्रमे गन्धर्वो, अप्सराओ, काम, वसन्त, मलयानिल अने रजोगुण ना अति प्रिय पुत्रो लोभ अने मद ने मोकल्या. (आ बधां मूर्तिमान स्वरूपे त्यां गयां हतां) ॥१६॥

हे भगवन्‌! ते बधां इन्द्रनी आज्ञा प्रमाणे तेमना आश्रमे गयां. मार्कण्डेयजीनो आश्रम हिमालयनी उत्तरमां पुष्प भद्रा नदीना तट पर चित्रा नामनी शिला पासे छे ॥१७॥

हे शौनकजी! मार्कण्डेयजीनो आश्रम अत्यन्त पवित्र छे. चारे तरफ लीलाञ्छम पवित्र वृक्षोनी पङ्क्तिओ छे अने तेमनी उपर पवित्र लताओ लहराई रही छे. वृक्षोनां झुण्डमां पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करे छे अने अत्यन्त पवित्र अने निर्मल जलथी भरेलां जळाशय बधी ऋतुओमां एक रस रहे छे ॥१८॥

क्याङ्क मतवाला भमरा पोताना सङ्गीतमय गुञ्जारवथी लोकोना मननुं आकर्षण करता रहे छे तो क्याङ्क वळी मतवाली कोकिलाओ पञ्चम स्वरमां कुहू-कुहूनुं कूजन करती रहे छे. क्याङ्क मतवाला मोर कळा करी कलापूर्ण नृत्य करता रहे छे तो क्याङ्क वळी बीजा मस्त पङ्खीओनुं झुण्ड खेलतुं रहे छे ॥१९॥

मार्कण्डेय मुनिना आवा पवित्र आश्रममां इन्द्रे मोकलेल वायुए प्रवेश कर्यो. त्यां तेणे पहेलां शीतळ झरणोनी नानी-नानी फर-फर (सीकर) नो सङ्ग्रह कर्यो. त्यार पछी सुगन्धी पुष्पोने आलिङ्गन कर्युं अने पछी काम भावने उत्तेजित करवा धीमे- धीमे वावा लाग्यो ॥२०॥

कामदेवना प्रिय मित्र वसन्ते पण पोतानी माया फेलावी. सन्ध्यानो समय हतो. चन्द्रमा उदित थई पोतानां मनोहर किरणो फेलावी रह्यो हतो. हजारो डाळीओवाळां वृक्षो लताओनुं आलिङ्गन प्राप्त करी धरती सुधी झूकी रह्यां हतां. -८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८४ नवी-नवी कूम्पळो, फलो अने फूलो ना गुच्छाओ अलगज शोभी रह्याहता ॥२१॥

वसन्तनुं साम्राज्य जोई कामदेवे पण त्यां प्रवेश कर्यो. तेनी साथे गावाबजाववावाळा गन्धर्वोनां झुण्डनां झुण्ड चाली रह्यां हतां. चारे तरफ स्वर्गनी केटलीक अप्सराओ चाली रही हती अने एकलो कामदेवज बधान्नो नायक हतो. तेना हाथमां पुष्पोनुं धनुष हतुं अने तेना उपर सम्मोहन वगेरे बाण चडावेल हताम् ॥२२॥

ते वखते मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करी भगवान्‌नी उपासना करी रह्या हता. तेमनां नेत्रो बन्ध हतां. ते एटला तेजस्वी हता के जाणे अग्निदेव ज मूर्तिमान थई बेठा होय! तेमने जोईने ज एम थई जतुं हतुं के तेमने पराजित करवा बहु ज कठिन छे. इन्द्रना आज्ञाकारी सेवकोए मार्कण्डेयने आ अवस्थामां जोया ॥२३॥

हवे तो अप्सराओ तेमनी सामे नाचवा लागी. केटलाक गन्धर्वो मधुर गान करवा लाग्या तो केटलाक मृदङ्ग, वीणा, ढोल वगेरे वाजिन्त्रो अनोखा बाजमां अने मनोहर स्वर तथा शैली मां बजाववा लाग्या ॥२४॥

हे शौनकजी! हवे तो कामदेवे पोताना पुष्पनिर्मित धनुष उपर पञ्चमुख बाण चडाव्युं. तेना बाणनां पाञ्च मुख छे शोषण, सम्मोहन, सन्दीपन, तापन अने उनमादन. जे वखते बाण छोडवानुं हतुं ते ज वखते इन्द्रना सेवको वसन्त अने लोभ मार्कण्डेय मुनिनुं मन चलायमान करवा प्रयत्न करता हता ॥२५॥

तेमनी सामे ज पुञ्जिकस्थली नामनी सुन्दर अप्सरा दडाथी खेली रही हती. स्तनोना भारथी वारंवार तेनी कमर लचकी जती हती. साथे-साथे तेना केशपाशमां गून्थेलां पुष्पो अने मालाओ विखराई जई पृथ्वीपर पडती जती हती ॥२६॥

क्यारेक-क्यारेक तीरछी नजरथी ते आम तेम जोई लेती हती. तेनां नेत्रो क्यारेक गेन्दनी साथे आकाश तरफ जतां क्यारेक धरती तरफ तो क्यारेक हथेलीओ तरफ. ते गेन्दनी पाछळ हावभाव (लटक-मटक) करती दोडती हती ते ज वखते तेनी कटिमेखला (कन्दोरो) तूटी गई अने वायुए तेनी बारीक साडी शरीरथी अलग करी दीधी ॥२७॥

कामदेवे समय सरनी तक झडपी मार्कण्डेय मुनि उपर पोतानुं बाण एम समजीने चलाव्युं के हवे तो मुनि माराथी जीताई ज जशे, परन्तु तेनुं कंई ज चाल्युं नहि. असमर्थ अने अभागिया पुरुषो (दरिद्री) ना मनोरथ व्यर्थ थाय तेम इन्द्रना सेवकोना तमाम प्रयत्नो निष्फळ गया ॥२८॥

-८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८५ हे शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि अत्यन्त तेजस्वी हता. काम, वसन्त वगेरे इन्द्रना सेवको मुनिनी तपस्यामां भङ्ग पडाववा आव्या हता, परन्तु ज्यारे तेओ तेमना तेजथी बळवा लाग्या त्यारे, जेवी रीते नानां बाळको सर्पने जगाडी डरीने भागी जाय छे तेवी ज रीते तेओ त्यान्थी जीव बचाववानी इच्छाथी नासी गया ॥२९॥

हे शौनकजी! इन्द्रना सेवकोनी इच्छा आ प्रमाणे मार्कण्डेयजीने पराजित करवानी हती परन्तु ते कचिन्त्‌ पण विचलित न थया एटलुं ज नहि आ प्रसङ्गने लईने तेमना मनमां अणुमात्र पण अहङ्कार के क्रोध न आव्यो. महापुरुषोने माटे आमां आश्चर्य जेवुं शुं छे? ॥३०॥

ज्यारे देवराज इन्द्रे जोयुं के पोतानी सेनानी साथे कामदेव पोते पछडाट खाई-निस्तेज थई पाछो आव्यो छे अने साम्भळ्यु के ब्रह्मर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली छे त्यारे तेने खूब ज आश्चर्य थयुम् ॥३१॥

हे शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान अने समाधिद्वारा भगवान्‌मां चित्तने एकाग्र करता हता. हवे तेमना उपर कृपा प्रसादनी वर्षा करवा भक्तोना नयन-मनोहारी नरोत्तम नर अने नारायण भगवान्‌ प्रगट थया ॥३२॥

बेमान्थी एकना शरीरनो वर्ण गौर अने बीजानो श्याम हतो. बन्नेनां नेत्रो ताजां ज खीलेलां कमलना जेवां कोमल अने विशाळ हतां. चार-चार भुजाओ हती. एके मृग चर्म पहेर्युं हतुं तो बीजाए वृक्षनी छाल पहेरी हती, बन्ने हाथोनी अनामिकामां पवित्री (दर्भनी र्वीटी) पहेरी हती अने गळामां त्रण-त्रण दोरानां यज्ञोपवीत (जनोई) हतां. तेमना एक हाथमां कमण्डलु हतुं अने बीजामां वांसनो सीधो दण्ड हतो ॥३३॥

कमळ काकडीनी माला पहेरी हती, जीवजन्तुओने दूर करवानुं वस्त्र अने दर्भ नी पूडी धारण करी हती. ब्रह्मा, इन्द्र वगेरेना पण पूज्य भगवान्‌ नर-नारायण कांईक ऊञ्चा कदना हता अने तेमणे वेदो धारण कर्या हता. तेमनां शरीरमान्थी दमकती वीजळीना जेवी पीळा रङ्गनी कान्ति नीकळी रही हती. तेओ एवा जणाता हता के स्वयं तप बे स्वरूप धारण करी आव्युं होय ॥३४॥

ज्यारे मार्कण्डेय मुनिए जोयुं के साक्षात्‌ भगवत्स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधार्या छे त्यारे ते अत्यन्त आदर भावथी ऊभा थई गया अने साष्टाङ्ग दण्डवत -८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८६ प्रणाम कर्या ॥३५॥

भगवान्‌नां दिव्य दर्शनथी तेमने एटलो बधो आनन्द थयो के तेमनुं रोम-रोम तेमनी बधी इन्द्रियो अने अन्तःकरण परम सन्तुष्ट थयां. शरीर पुलकित थई गयुं. आङ्खोमां एटलां बधां हर्षाश्रु ऊभराया के जेने लीधे ते तेमनां दर्शन पण पूरां करी शकता नहोता ॥३६॥

त्यार पछी हाथ जोडी ऊभा थया. तेमनुं एक-एक अङ्ग प्रभुने नमस्कार करतुं हतुं. तेमना हृदयमां उत्सुकता तो एटली हती के जाणे ते भगवान्‌ने आलिङ्गन करशे. तेमनाथी बीजुं तो कंई बोली शकायुं नहि, गद्‌गद्‌ वाणीथी मात्र एटलुं ज कही शकायुं, ‘‘नमस्कार! नमस्कार!’’ ॥३७॥

बन्ने स्वरूपोने त्यार बाद आसन उपर बिराजमान कर्या, प्रेमथी तेमनां चरण पखाळ्यां अने अर्ध्य, चन्दन, धूप अने माला वगेरेथी तेमनी पूजा करी ॥३८॥

भगवान्‌ नर-नारायण सुखपूर्वक आसन उपर बिराजमान हता अने मार्कण्डेयजी उपर कृपा प्रसादनी वर्षा करी रह्या हता. पूजा कर्या पछी मार्कण्डेय मुनिए ते सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायणनां चरणोमां प्रणाम कर्या अने आ प्रमाणे स्तुति करी ॥३९॥

मार्कण्डेय मुनिए कह्युं - हे भगवन्‌! हुं अल्पज्ञ जीव आपना अनन्त महिमानुं केवी रीते वर्णन करुं? आपनी प्रेरणाथी ज समस्त प्राणीओ, ब्रह्मा, शङ्कर तथा मारा शरीरमां पण प्राणशक्तिनो सञ्चार थाय छे अने पछी तेने ज कारणे वाणी, मन तथा इन्द्रियोमां पण बोलवा, विचारवा, कार्य करवा के जाणवानी शक्ति आवे छे. आ प्रमाणे बधाना प्रेरक अने परम स्वतन्त्र होवा छतां आप आपनी भक्ति करनारा भक्तोना प्रेमबन्धनथी बन्धायेला छो ॥४०॥

हे प्रभो! आपे मात्र विश्वनी रक्षाने माटे ज जेवी रीते मत्स्य, कुर्म वगेरे अनेक अवतार ग्रहण कर्या छे. एवी ज रीते आपे आ बन्ने रूप पण त्रिलोकीना कल्याण तेना दुःखनी निवृत्ति अने विश्वनां प्राणीओने मृत्यु उपर विजय प्राप्त कराववामाटे ग्रहण कर्या छे. आप रक्षा तो करो ज छो एटलुं ज नहि पण करोळियानी जेम पोताना स्वरूपमान्थी ज आ विश्वने प्रगट करो छो अने पछी स्वयं स्वरूपमां ज लीन करो छो ॥४१॥

-८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८७ आप चराचरनुं पालन अने नियमन करनार छो. हुं आपनां चरणकमलोमां प्रणाम करुं छुं. जेओ आपनां चरणकमलनुं शरण लई ले छे तेमने कर्म, गुण अने काल जनित क्लेश स्पर्श पण करी शकता नथी. वेदना मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपनी प्राप्तिने माटे निरन्तर आपनी स्तुति, वन्दन, पूजन अने ध्यान करता रहे छे. (अर्ही ‘‘कर्मगुण कालरजः अने कर्मगुण कालरुजः’’ एम बे पाठ छे) ॥४२॥

हे प्रभो! जीव चारे तरफ भयथी ज घेरायेलो छे. बीजानी तो वात ज शी, आपना कालस्वरूपथी स्वयं ब्रह्माजी पण भयभीत रहे छे कारण के तेमनुं आयुष्य पण सीमितमात्र बे परार्ध वर्षोनुं ज छे. तो पछी तेमनां घडेलां भौतिक शरीरवाळां प्राणीओने विशे तो कहेवुं शुं? एवी अवस्थामां आपना चरणकमलोनुं शरण लीधा सिवाय बीजो कोईपण परम कल्याण तथा सुख-शान्ति प्राप्त करवानो उपाय अमारी समजमां आवतो नथी कारण के आप स्वयं मोक्षस्वरूप छो ॥४३॥

हे भगवन्‌! आप समस्त जीवोना परम गुरु, सर्वथी श्रेष्ठ अने सत्यज्ञानस्वरूप छो. तेथी आत्माना स्वरूपने ज ढाङ्की देवावाळा देह, गेह, कलत्र (पत्नी), पुत्र, धन वगेरे निष्फल, असत्य, नाशवान पदार्थोनुं भजन छोडी दई केवल आपनां चरणकमलोनुं ज हुं शरण ग्रहण करुं छुं. कोईपण प्राणी जो आपनुं शरण लई ले छे तो ते तेथी पोताना बधा अभीष्ट पदार्थो प्राप्त करी ले छे ॥४४॥

जीवोना हितचिन्तक हे प्रभो! जो के आ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने लय ना कारण रूप रज, सत्त्व अने तमोगुण ए प्रकृतिथी विभक्त थया छे तेने आपे ते- ते लीलामाटे धारण कर्या छे तेथी ए ब्रह्म वगेरे त्रिमूर्ति आपनी ज छे, छतां मनुष्यनां मोक्ष अने शान्तिने माटे तो आपनी सत्त्वमूर्ति ज उत्तम छे, ब्रह्मा, रुद्र वगेरे मूर्ति प्रायः मोक्ष के शान्ति आपनार नथी, परन्तु एनाथी तो तेने बदले दुःख, मोह, भय वगेरे थाय छे ॥४५॥

हे भगवन्‌! तेथी ज बुद्धिमान पुरुष आपनी अने आपना भक्तोनी परम प्रिय अने शुद्ध मूर्ति नर-नारायणनी ज उपासना करे छे. तेओ विशुद्ध सत्त्वने ज आपनो श्रीविग्रह (श्रीअङ्ग) माने छे. तेनी ज उपासनाथी आपना नित्यधाम वैकुण्ठनी प्राप्ति थाय छे. ते धामनी ए विशेषता छे के ते लोक होवा छतां सर्वथा भयरहित अने भोगयुक्त होवा छतां पण आत्मानन्दथी परिपूर्ण छे. तेओ रजोगुण अने तमोगुण ने आपनी मूर्ति स्वीकार करता नथी ॥४६॥

-८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८८ (तेथी आनन्दथी परिपूर्ण विग्रहवाळा आपनो हुं कंईपण उपकार करी शकुं तेम न होवाथी नमन मात्र करुं छुं) हे भगवन्‌! आप सर्वसाक्षी, सर्व व्यापक, सर्व स्वरूप, जगद्‌गुरु, परम आराध्य अने शुद्ध स्वरूप छो. समस्त लौकिक अने वैदिक वाणी आपने अधीन छे. आप ज वेदमार्गना प्रवर्तक छो. हुं आपना आ युगल स्वरूप नरोत्तम नर अने ऋषिवर नारायणने नमस्कार करुं छुम् ॥४७॥

(हुं एवो छुं तो बधा मने तेवो केम जाणता नथी एम भगवान्‌ कहे तो एना उत्तरमां कहेवानुं के) हे अखिलगुरो! आपनी मायावडे जेमनी बुद्धि ढङ्काई गई छे तेवा पुरुषो पोतानी इन्द्रियोमां, हृदयमां अने विषयोमां एना नियामक तरीके रहेला आपने जोई शकता नथी. आपनी मायाथी आपनां स्वरूपने ए जाणी शकता नथी पण जे आपनो मुख्य भक्त होय छे ते वेदोद्वारा आपनुं यथार्थ स्वरूप जाणी शके छे ॥४८॥

यद्‌दर्शनं निगमआत्मरहःप्रकाशं मुह्यन्ति यत्र कवयोजपरा यतन्तः ॥ तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं वन्दे महापुरुषमात्मनि गूढबोधम्‌॥ (आपना स्वरूपनुं ज्ञान वेदवडे ज थाय छे एम प्रतिपादन करता मुनि नमस्कार करे छे) ब्रह्माजी जेमां मुख्य छे तेवा मुनिओ पण साङ्ख्ययोग वगेरे शास्त्रोद्वारा प्रयत्न करवा छतां आपना स्वतः प्रकाशरूप गुप्त ज्ञानमां मोह पामे छे. आप एवा सर्ववादने अनुसरता स्वभाववाळा छो, देहादि सङ्घातवडे अत्यन्त गुप्त प्रकाशवाळा आप महापुरुषने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥४९॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (चोथा शब्दाश्रय प्रकरणनो पहेलो अध्याय तथा चालु) ‘‘मार्कण्डेयजीनी तपस्या तथा वरदाननी प्राप्ति’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

ईं उं ईं उं

-८,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५८९

अध्याय ९

भगवाने मार्कण्डेयजीने प्रलयजळमां देखाडेली पोतानी माया

विशेष - भगवान्‌नी माया जोवानी इच्छा करनार मार्कण्डेय मुनिने प्रलयना जळमां हरि भगवाने वटपत्रमां दर्शन आप्यां. एमने उदरमां लीधा अने बहार काढ्‌या एम करी पोतानी माया बतावी ए वात आ नवमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. संस्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता ॥ नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम्‌ ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - ज्यारे ज्ञान सम्पन्न मार्कण्डेय मुनिए आ प्रमाणे स्तुति करी त्यारे भगवान्‌ नरना सखा नारायणे प्रसन्न थई भृगुकुल श्रेष्ठ मार्कण्डेयजीने कह्युं ॥१॥

भगवान्‌ नारायणे कह्युं - हे सन्मान्य ब्रह्मर्षि शिरोमणि! चित्तनी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम अने मारी अविच्छिन्न अनन्य भक्तिथी तमे कृतार्थ थई गया छो ॥२॥

आ तमारा आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतनी निष्ठा जोई अमे तमारा उपर बहु ज प्रसन्न थया छीए. तमारुं कल्याण थाओ. समस्त वरदान आपनाराओनो हुं स्वामी छुं; तेथी तमारी इच्छा प्रमाणे वरदान तमे मारी पासे मागी लो ॥३॥

मार्कण्डेय मुनिए क्ह्युं - हे देवदेवेश१ शरणागत भयहारी, हे अच्युत!२ आपनो सदा जय हो! जय हो! आपे कृपा करी आपना मनोहर स्वरूपनां दर्शन कराव्यां ते ज अमारेमाटे पूरतुं वरदान छे ॥४॥

विशेष - १.‘देवदेवेश’ः इन्द्र वगेरे देवो छे तेमना पण देव होय ते देवदेव अर्थात्‌ ब्रह्माजी. देवदेव(ब्रह्माजी)ना पण ईश ते देवदेवेश. (अर्ही नारायण भगवान्‌) २.‘अच्युत’ः जेना आश्रित भक्तोनुं पतन थतुं नथी ते अच्युत. ब्रह्मा, शङ्कर वगेरे देवगण योगसाधनाद्वारा मनने एकाग्र करी आपनां परम सुन्दर श्रीचरणकमलोनां दर्शन करी कृतार्थ थई गया छे. ते ज दुर्लभ दर्शनवाळा आपे आजे मारां नेत्रोनी सामे प्रकट थई मने धन्य बनाव्यो छे ॥५॥

हे पवित्र कीर्तिवाळा महानुभावोना शिरोमणि कमलनयन! छतां पण आपनी आज्ञा प्रमाणे हुं आपनी पासे वरदान मागुं छुं. आपनी जे मायाथी मोहित थई, -९,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९० बधा लोको अने लोकपालो ‘सत्‌’ शब्दथी ओळखाता अद्वितीय ब्रह्ममां अनेक प्रकारना भेदविभेद जोवा लागे छे ते आपनी माया जोवा हुं इच्छुं छुम् ॥६॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकजी! ज्यारे आ प्रमाणे इच्छा प्रमाणे मार्कण्डेय मुनिए भगवान्‌ नर-नारायणनी स्तुति अने पूजा करी लीधी अने वरदान मागी लीधुं त्यारे तेमणे हसतां-हसतां कह्युं, ‘‘भले तमने मारी मायानां दर्शन थशे’’. त्यार पछी समर्थ भगवान्‌ पोताना बदरीवनना आश्रममां पधारी गया ॥७॥

मार्कण्डेय मुनि पोताना आश्रममां ज रही निरन्तर ए ज वातनुं चिन्तन करता रहेता के मने मायानां दर्शन क्यारे थशे. ते अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश तथा अन्तःकरणमां वधु तो शुं, सर्वत्र भगवान्‌नां ज दर्शन करतां-करतां मानसिक वस्तुओथी तेमनुं पूजन करता रहेता. क्यारेक-क्यारेक तो तेमनां हृदयमां प्रेमनी एवी भरती आवी जती के तेओ तेना प्रवाहमां डूबकां खावा लागता तेमने ए वातनी पण सूधबूध न रहेती के क्यारे, क्यां, कई रीते भगवान्‌नी पूजा करवी जोईए ॥८-९॥

हे शौनकजी! एक दिवस सन्ध्या वखते पुष्पभद्रा नदीने काण्ठे मार्कण्डेय मुनि भगवान्‌नी उपासनामां तन्मय हता त्यारे, हे ब्रह्मन्‌! एकाएक भारे मोटी आन्धी आवी ॥१०॥

ते वखते आन्धीने लीधे भयङ्कर कडाका अने भडाका थवा लाग्या अने विकराल वादळो आकाशमां चडी आव्यां. वीजळी चमकवा लागी अने पृथ्वी उपर रथनी धरी जेवी मुसळ धार वर्षा पडवा लागी ॥११॥

एटलुं ज नहि, मार्कण्डेय मुनिने एवुं जणावा लाग्युं के चारेय तरफथी चारेय दिशाओमां आवेला समुद्रो समग्र पृथ्वीने गळी जवा उछाळा मारता घसी रह्या छे. आन्धीना वेगथी समुद्रमां लोढे लोढ ऊछळी रह्या छे. बहु ज भयङ्कर भमरीओ पडी रही छे अने भयङ्कर ध्वनि कान फाडी नाखे छे.ठेक- ठेकाणे भयङ्कर मगरो अने माछलां कूदी रह्यां छे ॥१२॥

ए वखते बहार, अन्दर, चारे तरफ जल ज जल देखातुं हतुं. एवुं लागतुं हतुं के ते जलराशिमां पृथ्वी ज नहि, स्वर्ग पण डूबी रह्युं छे, उपरथी जोरदार आन्धी ऊतरी रही छे अने वीजळी चमकी रही छे जेथी सम्पूर्ण जगत्‌ सन्तप्त थई रह्युं छे. ज्यारे मार्कण्डेय मुनिए जोयुं के आ जलप्रलयमां पृथ्वी पूरेपूरी डूबी गई छे, -९,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९१ उद्भिज्‌, स्वेदज, अण्डज अने जरायुज चारेय प्रकारनां प्राणीओ तथा पोते पण अत्यन्त व्याकुल थई रह्या छे त्यारे ते उदास अने अत्यन्त भयभीत बनी गया ॥१३॥

तेमनी सामे ज प्रलय समुद्रमां भयङ्कर मोजाओ उछाळा मारी रह्यां छे, आन्धीना वेगथी जलराशि ऊछळी रह्या हता अने प्रलयना समयनां वादळो वरसीवरसी समुद्रना पाणीमां वधारो कर्ये जतां हतां. तेमणे जोयुं के समुद्रे द्वीप, पृथ्वीना खण्डो अने पर्वतोनी साथे समग्र पृथ्वीने डूबाडी दीधी छे ॥१४॥

पृथ्वी अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रहो, नक्षत्रो अने ताराओ) अने दिशाओनी साथे त्रणेय लोक जळमां डूबी गया. बस ते वखते एक मात्र महामुनि मार्कण्डेयजी ज बचवा पाम्या हता. ते वखते तेओ जड अने आन्धळानी जेम जटाओ छूटी मूकी आम-तेम भागी-भागीने पोताना प्राण बचाववा प्रयत्न करी रह्या हता ॥१५॥

तेओ भूख अने तरसथी व्याकुल थई रह्या हता. कोई तरफ मोटा मगर तो कोई तरफ *‘तिमिङ्गल’ नामना मगरमच्छ तेमना उपर तूटी पडता हता. कोई तरफथी पवननो सुसवाटो आवतो हतो तो कोई तरफथी मोजांओनी थप्पडो तेमने घायल करी देती हती. आ प्रमाणे आम-तेम भटकता-भटकता तेओ अपार अज्ञानरूपी अन्धकारमां अटवाई पड्या, बेहोश थई गया अने एटला बधा थाकी गया के आ पृथ्वी छे के आकाश तेनुं पण तेमने भान रह्युं नर्ही ॥१६॥

विशेष - ‘तिमि’ एटले एक सो योजन-आठसो माईल-लाम्बु मत्स्य. ‘तिमि’ ने पण जे गळी जाय ते ‘तिमिङ्गल’, जे तिमि करतां एक हजार गणुं मोटुं होय. (श्रीभागवत
१०.१.५ जोवा विनन्ति). तेओ क्यारेक मोटा वमळमां फसाई जता, क्यारेक तरल तरङ्गोनी चोटथी दूर फेङ्काई जता, क्यारेक जलचर प्राणीओ एकबीजा उपर आक्रमण करतां त्यारे तेओ अचानक ज तेमनो शिकार बनी जता ॥१७॥

तेओ क्यारेक शोक, सन्ताप करता तो क्यारेक मोह, क्यारेक नर्या दुःखनां निमित्त आवतां तो क्यारेक वळी सहेज साज सुख पण मळी जतुं. तेओ क्यारेक भयभीत थता, क्यारेक मरी जता तो क्यारेक वळी जातजातना रोगो तेमने सताववा लागता ॥१८॥

-९,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९२ आ प्रमाणे मार्कण्डेय मुनि विष्णु भगवान्‌नी मायाना चक्करमां मोहित थई रह्या हता. ते प्रलयकालना समुद्रमां भटकतां-भटकतां तेमने लाखो करोडो वर्षो वीती गयां.* ॥१९॥

विशेष - अर्ही विष्णुमायावृतात्मनः एवुं मुनिने एक विशेषण आप्युं छे. तेथी ए बधुं एमणे एकलाए भगवान्‌नी इच्छाथी जोयुं एटले भगवान्‌ जेने वरदानथी माया देखाडे छे ते ज ए जोई शके तेथी बीजाने माटे आ दर्शन नथी एटले बीजाने हिसाबे आ प्रलय नथी पण ए एकने माटे ज मायाकृत प्रलय छे तेथी कोई प्रलय थयो छे एम कहे तो ए वात खोटी छे. तेथी प्रथम करेला प्रश्नोत्तरनी सङ्गति मायादर्शनथी ठीक थाय छे. हे शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि आ प्रमाणे प्रलयना जलमां घणो समय भटकता रह्या. एक वार तेमणे पृथ्वीना एक टेकरा उपर एक नानुं शुं वडनुं झाड जोयुं. ते लीलाञ्छम पान्दडांओ अने लाल-लाल फलोथी शोभी रह्युं हतुम् ॥२०॥

ते झाडना ईशान खूणानी एक डाळीना एक पडियाना जेवा आकारवाळा पानउपर सूतेला अने पोतानी कान्तिवडे एटला भागना अन्धकारने दूर करता एक बाळकने मुनिए जोया ॥२१॥

ते बाळक मरकतमणिना जेवुं श्याम हतुं. मुखकमल अत्यन्त सुन्दर हतुं. गरदनमां शङ्खना जेवी त्रण रेखाओ हती. छाती पहोळी हती, नासिका घाटीली हती अने भ्रुकुटि बहु ज मनोहर हती ॥२२॥

श्याम वाङ्कडिया केशनी अलको कपोल उपर आवी रही हती अने श्वास लेवाथी क्यारेक-क्यारेक हाली पण ऊठती हती. शङ्खना जेवा अन्तर्वलययुक्त कर्णोमां दाडमनां लाल पुष्पना *आकारनां कर्णफूल धारण कर्या हतां. विद्रुम (परवाळा) जेवा लाल होठोनी कान्तिथी शिशुना सुधामय श्वेत मलकाटमां लालिमा (लालाश) भळती हती ॥२३॥

विशेष - कर्णे पुष्पं कटौ सूत्रं वेर्णी शिरसि धारयन्‌। तावद्‌भवति चाण्डालो यावद्‌ गङ्गां न मज्जति। ए स्मृतिनो विरोध थतो होवाथी ‘‘कर्णोमां दाडमनां पुष्प’’ नहि पण पुष्पना आकारनां कर्णफूल, कर्णाभरण धर्या छे एम भाषान्तरमां स्वीकार्युं छे. नेत्रोना खूणाओ कमलना अन्दरना भाग जेवा थोडा-थोडा लाल हता. हास्य अने दृष्टि हठात्‌ हृदयने हरी लेती हती. नाभि ऊण्डी हती. नानुंशुं उदर पीपळना पान जेवुं जणातुं हतुं अने श्वास लेती वखते तेना उपर पडती त्रिवली (त्रण -९,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९३ करचलीओ) तथा नाभि पण चलायमान थई जती हती ॥२४॥

नाना-नाना हाथमां घणी ज सुन्दर आङ्गळीओ हती. ते बाळक पोताना बन्ने करकमलोथी एक चरण कमलने मुखमां मूकी चूसी रह्युं हतुं. मार्कण्डेय मुनि आ दिव्य दृश्य निहाळी अत्यन्त विस्मय पाम्या ॥२५॥

हे शौनकजी! ते दिव्य शिशुने जोतां ज मार्कण्डेय मुनिनो थाक दूर थयो. तेमनां हृदयकमल अने नेत्रकमल आनन्दथी खीली ऊठ्यां. शरीर पुलकित थई गयुं. ते नानकडा शिशुना आ अद्‌भुत भावने जोईने तेमना मनमां ‘‘आ कोण हशे? वगेरे’’ अनेक शङ्काओ थवा लागी अने तेओ आ बाबतो ते शिशुने पूछवामाटे तेनी पासे गया ॥२६॥

त्यां तो ते शिशुना श्वासनी साथे जेम कोई मच्छर पेटमां चाल्यो जाय तेम ते मुनि तेना उदरमां चाल्या गया. त्यां तेमणे प्रलय पहेलां जे सृष्टि जोई हती तेवी ज सम्पूर्ण सृष्टि उदरमां जोईने तेओ विस्मय पाम्या. मोहने लीधे तेओ कंई विचारी पण न शक्या ॥२७॥

तेमणे ते शिशुना उदरमां आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिमण्डल, पृथ्वी, पर्वतो, समुद्रो, द्वीपो, खण्डो, दिशाओ, देवो, दैत्यो, वनो, देशो, नदीओ, नगरो, खाणो, किसानोनां गाम, अहीरोना वास, आश्रमो, वर्णो तेमना आचार-व्यवहार, पञ्चमहाभूत, तेमनाथी बनेलां प्राणीओनां शरीर तथा पदार्थ अनेकयुग अने कल्पोना भेदथी युक्त काल वगेरे बहु-बहु जोयुं. एटलुं ज नहि; जे देशो, वस्तुओ अने काळद्वारा जगतनो व्यवहार सम्पन्न थाय छे ते बधुं ज त्यां यथार्थ (साचा) स्वरूपमां प्रतीत थतुं तेमणे जोयुम् ॥२८-२९॥

हिमालय पर्वत ते ज पुष्पभद्रा नदी, तेना काण्ठा उपर पोतानो आश्रम अने त्यां रहेनारा ऋषिओने पण मार्कण्डेयजीए प्रत्यक्ष ज जोया. आ प्रमाणे सम्पूर्ण विश्वने जोतां-जोतां ज ते दिव्य शिशुना उच्छ्‌वासद्वारा ज तेओ बहार आवी गया अने पाछा प्रलयकाळना समुद्रमां जई पड्या ॥३०॥

हवे फरीथी तेमणे जोयुं के समुद्रनी वच्चे पृथ्वीना टेकरा उपर ए ज वडनुं वृक्ष यथावत्‌ विद्यमान छे अने तेना पत्ताना पुट (पडिया) मां ते ज शिशु शयन करी रह्युं छे, तेना अधरो उपर प्रेमामृतथी परिपूर्ण मन्दहास्य छे अने पोतानी प्रेमपूर्ण दृष्टिथी ते मार्कण्डेयजी तरफ जोई रह्युं छे ॥३१॥

-९,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९४ शिशुना रूपमां क्रीडा करता इन्द्रियातीत भगवान्‌ने मार्कण्डेयजीए नेत्रोना मार्गद्वारा हृदयमां पहेलेथी ज बिराजमान करी दीधा हता पण बहारना स्वरूपने आलिङ्गन करवा महा मुश्केलीए आगळ वध्या ॥३२॥

परन्तु हे शौनकजी! भगवान्‌ केवळ योगीओना ज नहि, स्वयं योगना पण स्वामी अने सर्वना हृदयाकाशमां छुपाईने रहेनारा छे. हजु तो मार्कण्डेय मुनि शिशुनी पासे पहोञ्ची पण नहोता शक्या तेटलामां तो अभागिया अने असमर्थ पुरुषोनो परिश्रम निष्फळ जाय तेम तत्काल ते शिशु अन्तर्धान थतां मुनिनो प्रयत्न निष्फळ थयो ॥३३॥

तमन्वथ वटो ब्रह्मन्‌ सलिलं लोक सम्प्लवः ॥ तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत्‌ स्थितः ॥३४॥

हे शौनकजी! ते शिशुना अन्तर्धान थतां ज ते वडनुं वृक्ष, प्रलयकालीन दृश्य अने जल पण तत्काल अदृश्य थई गयुं अने मार्कण्डेय मुनिए पोताने पहेलान्नी जेम पोताना ज आश्रममां बेठेला जोया ॥३४॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (चोथो शब्दाश्रय प्रकरणनो बीजो अध्याय तथा चालु) ‘‘भगवाने मार्कण्डेयजीने प्रलय जळमां देखाडेली पोतानी माया’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!

अध्याय १०

मार्कण्डेयजीने शिवजीए भक्ति आपी

विशेष - शिवजी मुनि उपर प्रसन्न थया अने मार्कण्डेयजीना आश्रममां आव्या. तेमने भक्ति आपी प्रसन्न कर्या, आ वात दसमा अध्यायमां आवेछे. स एवमनुभूयेदं नारायण विनिर्मितम्‌ ॥

ईं उं ईं उं

-१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९५ वैभवं योगमायाया-स्तमेव शरणं ययौ ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! मार्कण्डेय मुनिए आ प्रमाणे नारायण-निर्मित योग मायाना वैभवनो अनुभव कर्यो. आ मायाथी मुक्त थवामाटे मायापति भगवान्‌नुं शरण ज एक मात्र उपाय छे एम निश्चय करी ते भगवान्‌ने शरणे गया ॥१॥

मार्कण्डेयजीए स्वगत कह्युं - हे हरि! आपनी माया प्रतीतिमात्र होवा छतां सत्य ज्ञाननी समान प्रकाशित थाय छे. मोटा-मोटा विद्वानो पण आपनी भक्ति विना एम मानवा लागे छे के ‘‘अमे विद्वान छीए’’. आपना चरणकमलनुं शरण ज अभय संसार भयमान्थी मुक्ति आपनार छे. आपनी जे माया विद्वानोने पण मोह पमाडे छे ते मायाने तरी जवामाटे हुं आपना चरणकमलने शरणे आव्यो छुं ॥२॥

श्रीसूतजी बोल्या - मार्कण्डेयजी आ प्रमाणे शरणागतिनी भावनामां तन्मय थई रह्या हता ते ज वखते भगवान्‌ शङ्कर भगवती पार्वतीजीनी साथे नन्दी उपर सवार थई आकाशमार्गे विचरण करता त्यां आवी चड्या अने मार्कण्डेयजीने ते ज अवस्थामां जोया. तेमनी साथे तेमना गण पण हता ॥३॥

ज्यारे भगवती पार्वतीजीए मार्कण्डेय मुनिने ध्याननी अवस्थामां जोया त्यारे तेमनुं हृदय वात्सल्य स्नेहथी भराई गयुं. तेमणे भगवान्‌ शङ्करने कह्युं ‘‘हे भगवन्‌! आ ब्राह्मणने आप जुओ. तोफान शान्त थई जतां जेवी रीते समुद्रनां मोजांओ अने माछलीओ शान्त थई जाय छे अने समुद्र धीर गम्भीर थई जाय छे तेवी ज रीते आ ब्राह्मणनां शरीर, इन्द्रियो अने अन्तःकरण शान्त थई रह्यां छे. समस्त सिद्धिओना दाता आप ज छो. तेथी आप कृपा करीने आ ब्राह्मणनी तपस्यानुं प्रत्यक्ष फल आपो ॥४-५॥

भगवान्‌ शङ्करे कह्युं - हे देवी! आ ब्रह्मर्षि आ लोक अथवा परलोकनी कोई पण वस्तुनी इच्छा राखता नथी. तेमना मनमां क्यारेय मोक्षनी पण आकाङ्क्षा थती नथी तेनुं कारण ए छे के घट-घटवासी अविनाशी भगवान्‌नी परम भक्ति तेमने प्राप्त थई चूकी छे ॥६॥

हे प्रिये! तेमने आपणी कोई जरूर नथी छतां पण आपणे तेमनी साथे सत्सङ्ग करीशुं केमके ए महात्मा छे. जीव मात्रने माटे सन्तपुरुषोनो समागम प्राप्त -१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९६ थाय ए परम लाभनी वात छे ॥७॥

श्रीसूतजी बोल्या - भगवान्‌ शङ्कर भगवद्‌ भक्तोना परम उपकारक, सर्व विद्याओना प्रवर्तक अने सर्व प्राणीओनां हृदयमां बिराजमान अन्तर्यामी प्रभु छे. तेओ ‘‘भगवती पार्वतीजी’’ ने आम कही मार्कण्डेयजी पासे आव्या ॥८॥

ते वखते मार्कण्डेय मुनिनी समस्त मनोवृत्तिओ भगवद्‌भावमां तन्मय हती. तेमने पोताना शरीर अने जगतनुं बिलकुल भान न हतुं. तेथी विश्वना आत्मा एवा शिव-पार्वतीजी स्वयं पोताना आश्रममां पधार्या छे ते पण तेओ जाणी न शक्या ॥९॥

हे शौनकजी! सर्व शक्तिमान भगवान्‌ कैलास पतिथी ए वात छूपी नहोती रही के मार्कण्डेय मुनि आ वखते कई अवस्थामां छे. तेथी जेवी रीते वायु अवकाशना स्थानमां अनायासे ज प्रवेश करे छे तेवी ज रीते तेमणे पण पोतानी योगमायाथी मार्कण्डेय मुनिना हृदयावकाशमां प्रवेश करी दीधो ॥१०॥

मार्कण्डेय मुनिए जोयुं के तेमना हृदयमां तो भगवान्‌ शङ्करनां दर्शन थई रह्यां छे जेमना मस्तक पर वीजळीना जेवी चमकती पीळी-पीळी जटाओ शोभायमान छे, त्रण नेत्रो अने दस भुजाओ छे. तेमनुं ऊञ्चु अने हृष्ट-पुष्ट शरीर उदय थता सूर्यना जेवुं तेजस्वी छे ॥११॥

शरीर उपर वाघना चर्मने धारण कर्युं छे अने हाथमां शूल, खट्‌वाङ्ग (दण्डने एक छेडे खोपरीनो मूठो लगाडेल होय तेवुं शिवजीनुं शस्त्र) ढाल, रुद्राक्षनी माळा, डमरू, खप्पर, तलवार अने धनुष लीधां छे ॥१२॥

मार्कण्डेय मुनि पोताना हृदयमां अकस्मात भगवान्‌ शङ्करनुं आ रूप जोई विस्मय पाम्या.‘‘आ शुं छे? क्यान्थी आव्युं?’’ आ प्रकारनी वृत्तिओनो उदय थतां तेओए समाधिथी निवृत्ति लई पोतानी आङ्ख खोली ॥१३॥

ज्यारे तेमणे आङ्खो खोली त्यारे जोयुं के त्रणेय लोकोना एक मात्र गुरु भगवान्‌ शङ्कर पार्वतीजी तथा पोताना गणोनी साथे पधारेल छे. तेमणे तेमनां चरणोमां माथुं टेकवी प्रणामकर्या ॥१४॥

त्यार बाद मार्कण्डेय मुनिए स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप अने दीप आदि उपचारोथी भगवान्‌ शङ्कर, भगवती पार्वती अने तेमना गणोनी पूजा करी ॥१५॥

-१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९७ त्यार पछी मार्कण्डेय मुनि तेमने कहेवा लाग्या ‘‘हे सर्वव्यापक अने सर्व शक्तिमान प्रभो! आप आपनी आत्मानुभूति अने महिमान्थी ज पूर्णकाम छो. आपनी शान्ति अने सुखथी ज समस्त जगतमां सुखशान्तिनो विस्तार थई रह्यो छे एवी अवस्थामां हुं निष्किञ्चन आपनी शी सेवा करी शकुं? ॥१६॥

हुं आपना त्रिगुणातीत सदाशिव (कल्याणरूप) स्वरूपने अने सत्त्वगुणथी युक्त शान्त विष्णुस्वरूपने नमस्कार करुं छुं. हुं आपना रजोगुणयुक्त ब्रह्मारूप अने तमोगुणथी युक्त अघोर रुद्ररूपने नमस्कार करुं छुम् ॥१७॥

श्रीसूतजी बोल्या - ज्यारे मार्कण्डेय मुनिए सन्तोनी गति आदि देव भगवान्‌ शङ्करनी आ प्रमाणे स्तुति करी त्यारे तेओ तेनाथी अत्यन्त सन्तुष्ट थया अने प्रसन्न चित्तथी हसता-हसता कहेवा लाग्या ॥१८॥

भगवान्‌ शङ्करे कह्युं - हे मार्कण्डेयजी! ब्रह्मा, विष्णु अने हुं अमे त्रणेय वर दाताओना स्वामी छीए. अमारां दर्शननुं फळ न मळे एवुं बने ज नहि ते कदी व्यर्थ जतां नथी. अमाराद्वारा ज मरणशील मनुष्य पण अमरत्व (मोक्ष) मेळवी ले छे तेथी तमारी इच्छामां आवे ते वरदान मारी पासे मागी लो ॥१९॥

(वरदान आपीने अमे तमारा उपर कोई अनुग्रह करता नथी तमारी सेवा ज करीए छीए. तमे तो समग्र जगतना वन्दनीय छो एम कहेवा ब्राह्मणोनी स्तुति करे छे). ब्राह्मणो स्वभावथी ज सदाचारी, मत्सर आदि दोषरहित शान्त अने अनासक्त होय छे. तेओ कोईनी साथे वेरभाव राखता नथी अर्थात्‌ समदर्शी होवा छतां प्राणीओनां दुःख देखी तेनुं निवारण करवा पूरेपूरी शक्तिथी प्रयत्न करे छे. तेमनी सौथी मोटी विशेषता ए होय छे के तेओ अमारा अनन्य प्रेमी अने भक्तो होय छे ॥२०॥

देवो मनुष्य आदि बधा लोको, इन्द्र वगेरे लोकपालो आवा ब्राह्मणोनी वन्दना, पूजा अने उपासना कर्या करे छे. तेमज हुं, भगवान्‌ ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात्‌ ईश्वर विष्णु पण तेमनी सेवामां तत्पर रहीए छीए ॥२१॥

एवा शान्त महापुरुषो मारामां, विष्णु भगवान्‌मां, ब्रह्मामां, पोतानामां अने बधा जीवोमां अणुमात्र पण भेद जोता नथी. सदासर्वदा, सर्वत्र अने सर्वथा एकरस आत्मानुं ज तेओ दर्शन करे छे. तेथी अमे तमारा जेवा महात्माओनी स्तुति अने सेवा करीए छीए ॥२२॥

-१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९८ हे मार्कण्डेयजी! केवल जलमय तीर्थ ज तीर्थ नथी होतां अने केवल अचेतन मूर्तिओ ज देवता नथी होती. सौथी मोटां तीर्थ अने देवता तो तमारा जेवा सन्तो छे कारण के ते तीर्थो अने देवताओ दर्शन मात्रथी ज नर्ही पण घणो समय सेवन करवाथी ज पवित्र करे छे परन्तु तमे सन्तो तो दर्शन मात्रथी ज पवित्र करी दो छो ॥२३॥

अमे तो ब्राह्मणोने ज नमस्कार करीए छीए कारण के तेओ चित्तनी एकाग्रता, तप (कामनाओना त्याग), स्वाध्याय (शास्त्रोनुं अध्ययन अने अध्यापन) अने वाणी वगेरे इन्द्रियो उपरना संयमद्वारा अमारा वेदमय शरीरने हृदयमां धारण करे छे ॥२४॥

हे मार्कण्डेयजी! ब्रह्महत्या वगेरे करनारा महापातकीओ अने अन्त्यजो पण तमारा जेवा महापुरुषोना चरित्रश्रवण अने दर्शन थी ज शुद्ध थई जाय छे तो पछी तमारी साथे वातचीत, सङ्ग वगेरेथी शुद्ध थई जाय तेमां तो कहेवुं ज शुं? ॥२५॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकजी आदि ऋषिओ! चन्द्रभूषण भगवान्‌ शङ्करनी एक-एक वात धर्मना गुप्ततम रहस्यथी परिपूर्ण हती. तेना एक-एक अक्षरमां अमृतनो समुद्र भरेलो हतो. मार्कण्डेय मुनि पूरी तन्मयताथी पोताना कर्णोद्वारा तेनुं पान करता रह्या पण तेमने तृप्ति न थई ॥२६॥

तेओ लाम्बा समय सुधी विष्णु भगवान्‌नी मायाथी भटकी चूक्या हता अने खूब थाकी पण गया हता. भगवान्‌ शिवजीनी कल्याणकारक वाणीनुं अमृतपान करवाथी तेमनो बधो क्लेश दूर थई गयो. तेमणे भगवान्‌ शङ्करने आ प्रमाणे कह्युं ॥२७॥

मार्कण्डेयजीए कह्युं - सर्वशक्तिमान ईश्वरनी आ लीला बधां प्राणीओनी समजथी पर छे कारण के तेओ समस्त जगतना स्वामी होवा छतां पण पोताने अधीन रहेवावाळा मारा जेवा जीवोनी वन्दना अने स्तुति करे छे ॥२८॥

धर्मनो उपदेश करनार प्रायः प्राणीओने धर्मनुं रहस्य अने स्वरूप समजाववामाटे तेनुं आचरण अने अनुमोदन करे छे तथा कोई धर्मनुं आचरण करे छे तो तेनी प्रशंसा पण करे छे ॥२९॥

(महान पुरुष सामान्य पुरुषनी स्तुति वगेरे करे तो तेथी तेना प्रभावने कंई आञ्च आवती नथी ए समजावे छे). जेवी रीते जादुगर मालिक होय छतां एना -१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ५९९ नोकरोनो नोकर थाय एमां एनो प्रभाव ओछो थतो नथी पण ए पोताना कार्यमां कुशळ गणाय छे तेवी ज रीते आप पोतानी स्वजनमोहिनी मायानी वृत्तिओनो स्वीकार करी कोईनी वन्दना, स्तुति आदि करो छो तो केवल ते कामथी आपना महिमामां कोई त्रुटि आवती नथी ॥३०॥

स्वपनमां पोतानां अनेक स्वरूपोने पोते मनोरथथी जोनार ए शरीरमां प्रविष्ट थई इन्द्रियोने क्रिया पोते ज करता होय एम माने छे तेम आपे पोताना मनथी ज सम्पूर्ण विश्वनी सृष्टि करी छे अने तेमां जीव रूपे स्वयं प्रवेश करी, कर्ता न होवा छतां कर्म करवावाळा गुणोद्वारा कर्ता हो तेवा प्रतीत थाओ छो तेवा आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥३१॥

हे भगवन्‌! आप त्रिगुणस्वरूप होवा छतां आप तेमना नियामक छो, आपनामां जेटलुं सामर्थ्य छे तेटलुं ज सामर्थ्य आपना गुणोमां छे, आप ज समस्त ज्ञाननुं मूल केवल (शुद्ध), अद्वितीय, गुरुरूप अने ब्रह्म स्वरूप छो. हुं आपने नमस्कार करुं छुम् ॥३२॥

हे अनन्त! आपनां श्रेष्ठ दर्शनथी चडियाती एवी बीजी कई वस्तु छे के जे हुं वरदानना रूपमां मागुं? आपनां दर्शनथी ज मनुष्य पूर्णकाम अने सत्यसङ्कल्प थई जाय छे ॥३३॥

आप स्वयं तो पूर्ण छो ज, पोताना भक्तोनी पण समस्त कामनाओ आप पूर्ण करनारा छो. तेथी आपनां दर्शन कर्या छतां एक वरदान वधारे मागुं छुं अने ते ए के भगवान्‌मां तेमना शरणागत भक्तोमां अने आपमां मारी अविचल भक्ति सदासर्वदा रहे ॥३४॥

श्रीसूतजी बोल्या - हे शौनकजी! ज्यारे मार्कण्डेय मुनिए मधुर वाणीथी आ प्रमाणे भगवान्‌ शङ्करनी स्तुति अने पूजा करी त्यारे तेमणे भगवती पार्वतीजीनी प्रेरणाथी आ प्रमाणे कह्युम् ॥३५॥

भगवान्‌ शङ्कर बोल्या - ‘‘हे महर्षि! तमारी बधी कामनाओ पूर्ण हो. इन्द्रियातीत परमात्मामां तमारी अनन्य भक्ति सदासर्वदा टकी रहे. तमारो पवित्र यश कल्प पर्यन्त फेलातो रहे अने तमे अजर अने अमर थई जाओ ॥३६॥

हे ब्रह्मन्‌! तमारुं ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण (अकबन्ध) रहेशे ज. तमने भूत, भविष्य अने वर्तमानना समस्त विशेष ज्ञानोना एक अधिष्ठान रूप ज्ञान -१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०० अने वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिनी प्राप्ति थई जशे. ब्रह्मवर्चस्वी अने पुराणना आचार्य पण तमे थशो’’ ॥३७॥

श्रीसूतजी बोल्या - आ प्रमाणे त्रिलोचन भगवान्‌ शङ्कर मार्कण्डेय मुनिने वरदान आपी भगवती पार्वतीजीनी समक्ष मार्कण्डेय मुनिनी तपस्या अने तेमणे करेला माया दर्शननां अनुभवोनुं वर्णन करता-करतां त्यान्थी चाल्या गया ॥३८॥

भृगुवंश शिरोमणि *मार्कण्डेय मुनिने तेमना महायोगनुं परमफल प्राप्त थई गयुं. ते भगवान्‌ना अनन्य प्रेमी थई गया. आजे पण तेओ भक्ति भावपूर्ण हृदयथी पृथ्वी उपर विचरण कर्या करे छे ॥३९॥

विशेष - प्रभुनी मायाने प्रत्यक्ष जोनार आ मार्कण्डेयमुनि आजे पण चिरञ्जीव छे. राजा- महाराजाओ अने प्रसिद्ध धर्माचार्यो एमनी पूजा करीने दीर्घायुषनी प्राप्तिमाटे आजेपण पोताना जन्मदिवसे मार्कण्डेय पूजानो शास्त्रीयविधि करे छे. (मार्कण्डेय पुराण) तमने में परम ज्ञान सम्पन्न मार्कण्डेय मुनिए भगवान्‌नी योगमायाथी जे अद्‌भुत लीलानो अनुभव कर्यो हतो ते कही सम्भळाव्यो ॥४०॥

मार्कण्डेयजीए जे आ अनेक कल्पोनो सृष्टि-प्रलयोनो अनुभव कर्यो ते भगवान्‌नी मायानो ज वैभव हतो तात्कालिक हतो अने तेमने जमाटे हतो, सामान्य माणसोमाटे नहि. आ मायानी रचनाने न जाणनारा कोई-कोई अनादि कालथी वारं-वार थता सृष्टि-प्रलय ज आने पण बतावे छे. (तेथी तमारे ए शङ्का न करवी जोईए के आ ज कल्पना अमारा पूर्वज मार्कण्डेयजीनुं आयुष्य आटलुं लाम्बुं केवी रीते थई गयुं?) ॥४१॥

य एवमेतद्‌ भृगुवर्य वर्णितं रथाङ्गपाणेरनुभावभावितम्‌। संश्रावयेत्‌ संशृणुयादु तावुभौ तयोर्न क्रर्माशय संसृतिर्भवेत्‌ ॥४२॥

हे शौनकजी तमने में जे मार्कण्डेय मुनिनुं चरित्र सम्भळाव्युं छे ते भगवान्‌ चक्रपाणिना प्रभाव अने महिमाथी भरपूर छे. एनुं जे श्रवण अथवा कीर्तन करे छे ते बन्नेय कर्मवासनाओने लईने प्राप्त थता जन्म मरणना चक्करमान्थी कायमने माटे छूटी जाय छे ॥४२॥

इति श्रीभागवत द्वादशस्कन्धमां (चोथा शब्दाश्रय प्रकरणनो त्रीजो अध्याय तथा चालु) ‘‘मार्कण्डेयजीने शिवजीए भक्ति आपी’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. -१०,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०१

अध्याय ११

भगवाननां अङ्ग, उपाङ्ग अने ओयुधोनुं रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणोनुं वर्णन (बार सूर्यनी कथा) प्रकरण - ५ अर्थाश्रय

विशेष - पूजाने माटे महापुरुष भगवान्‌नुं वर्णन अने प्रतिमास जुदा-जुदा सूर्योना व्यूहनुं वर्णन एटली वात आ अगियारमा अध्यायमां छे. अथेममर्थ पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्‌ ॥ समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान्‌ भागवततत्त्ववित्‌ ॥१॥

शौनक मुनि बोल्या - हे सूतजी! आप भगवान्‌ना परम भक्त अने बहुज्ञोमां शिरोमणि छो, शास्त्रोना सिद्धान्त विशे अमे आपने एक विशेष प्रश्न पूछवा मागीए छीए केमके आप एना मर्मज्ञ छो ॥१॥

अमे क्रिया-योगनुं यथार्थ ज्ञान मेळववा मागीए छीए, कारण के तेनुं कुशळता पूर्वक बराबर आचरण करवाथी मृत्युग्रस्त मानव अमरता प्राप्त करी ले छे. तेथी आप अमने ए बताववानी कृपा करो के *पञ्चरात्र आदि तन्त्रोनी विधि जाणवावाळा लोको केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्‌नी आराधना करती वखते कयां- कयां तत्त्वोथी तेमनां चरण आदि अङ्ग, गरुड आदि उपाङ्ग, सुदर्शन चक्र वगेरे आयुध अने कौस्तुभ वगेरे आभूषणोनी कल्पना करे छे? ॥२-३॥

विशेषः ‘पञ्चरात्र’-पाञ्च छे रात्र(प्रकरण) जेमां ते, नारदजीए रचेल एक पाञ्च प्रकरणवाळो ग्रन्थ. ‘पञ्चानन’ - पञ्च (उघाडेलुं-विस्तृत) छे आनन (मुख) जेनुं ते सिंह. श्रीसूतजीए कह्युं - हे शौनकजी! श्रीगुरुदेवना चरणोमां नमस्कार करीने हुं, ब्रह्मा आदि आचार्योए, वेदोए अने पञ्चरात्र आदि तन्त्र ग्रन्थोए विष्णु भगवान्‌नी जे विभूतिओनुं वर्णन कर्युं छे ते ज आप लोकोने सम्भळावुं छुम् ॥४॥

भगवान्‌ना जे चेतनाधिष्ठित विराट रूपमां आ त्रणेय लोक देखाय छे ते प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पञ्चतन्मात्रा आ नव तत्त्वो सहित अगियार इन्द्रिय तथा पञ्चमहाभूत आ सोळ विकारोमान्थी बनेल छे ॥५॥

ए भगवान्‌नुं ज पुरुषरूप छे. पृथ्वी तेनां चरण छे, स्वर्ग मस्तके, अन्तरिक्ष नाभि, सूर्य-चन्द्र नेत्र, वायु नासिका अने दिशाओ कान छे ॥६॥

-११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०२ प्रजापति लिङ्ग छे, मृत्यु गुदा छे, लोकपालगण भुजाओ छे, चन्द्रमा मन छे अने यमराज भृकुटि छे ॥७॥

लज्जा उपरनो होठ, लोभ नीचेनो होठ, चन्द्रमानी चान्दनी दन्तावलि, भ्रम मलकाट, वृक्ष रोम अने वादळां ज विराट पुरुषना शिर उपर ऊगेला वाळ छे ॥८॥

हे शौनकजी! जेवी रीते आ व्यष्टि पुरुष पोताना परिमाणथी सात वेन्तनो छे ते ज रीते ते समष्टि पुरुष पण पोताना मापथी सात वेन्तना छे* ॥९॥

विशेष - समष्टि पुरुष-भगवान्‌ना स्वरूपनुं माप आराधकनी भावना अनुसार होय छे पण ते साक्षात्कृत प्रभुनुं माप पण ते ज स्वरूपनी सात वेन्त जेवडुं होय छे. स्वयं भगवान्‌ अजन्मां छे. ते कौस्तुभमणिने बहाने शुद्ध जीवचैतन्य रूप आत्मज्योतिने ज अने तेनी सर्वव्यापक प्रभाने ज वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनां रूपथी धारण करे छे ॥१०॥

ते पोतानी सत्त्व, रज आदि गुणोवाळी मायाने वनमालाना रूपमां, वेदोने पीताम्बरना रूपमां तथा ‘अ+उ+म्‌’ आ त्रण मात्रावाळा प्रणव ‘ॐ’ने यज्ञोपवीतना रूपमां धारण करे छे ॥११॥

देवाधिदेव भगवान्‌ साङ्ख्य अने योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा बधा लोकोने अभय करी देनार ब्रह्मलोकने ज मुगटना रूपमां धारण करे छे ॥१२॥

मूल प्रकृति ज आपनी शेष शय्या छे जेना उपर आप बिराजमान रहे छे अने धर्म, ज्ञान आदि युक्त सत्त्व गुणनुं ज आपना नाभि कमलना रूपमां वर्णन करवामां आव्युं छे ॥१३॥

आप मन, इन्द्रिय अने शरीर सम्बन्धी शक्तिओथी युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख अने तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शन चक्रने धारण करे छे ॥१४॥

आकाशना जेवुं निर्मल आकाश स्वरूप ‘नन्दक’ नामनी तलवार, तमोगुण समान स्वरूपने ढाङ्की देनार अज्ञानरूप ढाल, कामरूप शांर्गधनुष अने कर्मनुं ज भाथुं धारण करे छे ॥१५॥

इन्द्रियोने ज भगवान्‌नां बाणो कहेवामां आव्यां छे. क्रियाशक्तिरूप मन ज रथ छे. तन्मात्राओ रथना बहारना भाग छे अने वर, अभय आदि मुद्राओथी आपनी वरदान, अभयदान आदिना रूपमां क्रियाशीलता प्रगट थाय छे ॥१६॥

-११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०३ सूर्यमण्डळ अथवा अग्निमण्डळ ज भगवान्‌नी पूजानुं स्थान छे, अन्तःकरणनी शुद्धि ज मन्त्रनी दीक्षा छे अने पोताना बधां पापोनो नाश करी देवो ए ज भगवान्‌नी पूजा छे ॥१७॥

हे ब्राह्मणो! ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य आ छ पदार्थोनुं नाम ज लीलाकमल छे जे भगवान्‌ पोताना करकमलमां धारण करे छे. धर्मने चामर अने यशने व्यजन (पङ्खा) ना रूपमां तथा पोताना निर्भय धाम वैकुण्ठने छत्रना रूपमां धारण करे छे, त्रणेय वेदो (ऋग्वेद, यजुर्वेद अने सामवेद) नुं ज नाम गरुड छे. ते ज यज्ञरूप विष्णुने वहन करे छे ॥१८-१९॥

आत्मस्वरूप भगवान्‌नी अने एमनाथी कदी अलग न थनारी आत्मशक्तिनुं ज नाम लक्ष्मीजी छे. भगवान्‌ना पार्षदोना नायक विश्वविख्यात विश्वक्‌सेन पाञ्च रात्रादि आगम रूप छे. भगवान्‌ना स्वाभाविक गुण अने अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धिओने नन्द, सुनन्द आदि आठ द्वारपाल कहे छे ॥२०॥

हे ब्रह्मन्‌! स्वयं भगवान्‌ ज वासुदेव सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध आ चार मूर्तिओना रूपमां अवस्थित छे; तेथी तेमने ज चतुर्व्यूहना रूपमां कहेवामां आवे छे ॥२१॥

ते ज जाग्रत-अवस्थाना अभिमानी ‘विश्व’ बनी शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोने ग्रहण करे छे अने ते ज स्वपन अवस्थाना अभिमानी ‘तैजस’ बनी बाह्य विषयो विना ज मनोमन अनेक विषयोने जुए छे अने ग्रहण करे छे. ते ज सुषुप्ति अवस्थाना अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनी विषय अने मनना संस्कारोथी युक्त अज्ञानथी ढङ्काई जाय छे अने ते ज बधाना साक्षी ‘तुरीय’ रही समस्त ज्ञानोना अधिष्ठान रहे छे ॥२२॥

आ प्रमाणे अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध अने आभूषणो थी युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध एम चार मूर्तिओना रूपमां प्रगट सर्व शक्तिमान भगवान्‌ श्रीहरि ज क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ अने तुरीय रूपथी प्रकाशित थाय छे ॥२३॥

(ब्रह्मा आदि त्रण मूर्ति धारण करीने जगतनी सृष्टि आदि ते ज करे छे एम निरूपण करे छे). हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! ए ज पोतानी त्रिगुणात्मक शक्ति मायाथी ब्रह्मा, विष्णु अने रुद्ररूप धारण करी जगतने उत्पन्न करे छे तेनुं पोषण (रक्षण) -११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०४ करे छे अने तेनो संहार करे छे. वेदोनी प्रवृत्ति करनार पण ते ज छे. सर्ग वगेरे लीला करवामाटे गुणोनो स्वीकार करे छे छतां आप परवश थता नथी केमके ए स्वप्रकाश छे, निजानन्दथी ज परिपूर्ण छे. आ बधां कर्मो अने नामोथी आपनुं ज्ञान कदापि ढङ्काई जतुं नथी. सर्वना आत्मा होवाथी भेदरहित होवा छतां शास्त्रमां आप भिन्न होय तेवुं निरूपण करवामां आव्युं छे अवश्य; छतां भगवत्परायण भक्तो, आ ज सर्वात्मा भगवान्‌ने अन्तःकरणमां प्रत्यक्ष करी ले छे, बीजा नहि (श्लोकमां ‘शौनकजी’ माटे ‘द्विजऋषभ्‌’ ब्राह्मणोमां श्रेष्ठ, ना, ना, ब्राह्मणोथी पण श्रेष्ठ ए सम्बोधन श्रीभागवतजीना श्रोतानो उत्कर्ष बतावे छे) ॥२४॥

(जेनाथी उपासना करवानुं उपर कह्युं ते श्रीकृष्णने सम्बोधन करीने नमस्कार करतां कहे छे). हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनना सखा छो. आपे यदुवंश शिरोमणिनां रूपमां अवतार ग्रहण करी पृथ्वीना द्रोही भूपालोने भस्म करी दीधा छे. आपनुं पराक्रम सदा एक रस रहे छे. व्रजनां गोपीजनो तथा आपना नारद आदि प्रेमी भक्तो आपना पवित्र यशनुं निरन्तर गान कर्या करे छे. हे गोविन्द! आपना नाम, गुण अने लीला आदिनुं श्रवण करवाथी ज जीवनुं मङ्गल थई जाय छे. अमे बधा आपना सेवक छीए. आप कृपा करीने अमारी रक्षा करो ॥२५॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌ना लक्षण चिह्‌नभूत अङ्ग उपाङ्ग अने आयुध आदिना आ वर्णननुं जे मनुष्य भगवान्‌मां ज चित्त लगाडी पवित्र थई प्रातःकाल पाठ करशे तेने बधाना हृदयमां बिराज मान ब्रह्मस्वरूप परमात्मानुं ज्ञान थई जशे ॥२६॥

शौनकजीए कह्युं - हे सूतजी! भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीए श्रीमद्‌ भागवतजीनी कथा राजर्षि परीक्षितने श्रवण करावतां (पञ्चम स्कन्धमां) कह्युं हतुं के ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस अने देवताओनो एक सौरगण होय छे अने ए सातेय दरेक महिने बदलाता रहे छे. आ बारेय गण पोताना स्वामी बार आदित्यो साथे रहीने शुं काम करे छे अने तेमनी अन्तर्गत व्यक्तिओनां नाम शुं छे? सूर्यना रूपमां पण स्वयं भगवान्‌ ज छे तेथी तेमना विभागने अमे श्रद्धापूर्वक साम्भळवा इच्छीए छीए तो आप कृपा करीने ते कहो ॥२७-२८॥

श्रीसूतजीए कह्युं - समस्त प्राणीओना आत्मा भगवान्‌ विष्णु ज छे. अनादि अविद्याथी एटले के तेना वास्तविक स्वरूपना अज्ञानथी ज समस्त लोकोना व्यवहार चलावनार प्राकृत सूर्यमण्डलनुं निर्माण थयुं छे. ते ज लोकोमां भ्रमण कर्या करे -११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०५ छे ॥२९॥

असलमां समस्त लोकोनां आत्मा अने आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ज अन्तर्यामी रूपथी सूर्य बन्या छे. जो के तेओ एक ज छे तो पण ऋषिओए तेमनुं अनेक रूपोमां वर्णन कर्युं छे ते ज समस्त वैदिक क्रियाओनुं मूल छे ॥३०॥

एक भगवान्‌ ज मायाद्वारा (प्रातः आदि) काल, (समतल आदि) देश, (यज्ञ आदि) क्रिया, (ब्राह्मण आदि) कर्ता, (स्त्रुवा आदि) करण (साधन), (याग आदि) कर्म, (आगम या वेदरूपी) मन्त्रो, (व्रीहि-जव आदि) द्रव्य अने (स्वर्ग आदि) फलरूपथी नव प्रकारना कहेवाय छे ॥३१॥

कालरूपधारी भगवान्‌ सूर्य लोकोनो व्यवहार बराबर चलाववाने माटे चैत्र आदि बार महिनाओमां पोताना भिन्न-भिन्न बार गणोनी साथे चक्कर लगाव्या करे छे ॥३२॥

हे शौनकजी! धाता नामना सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत्‌ यक्ष, पुलस्त्य ऋषि अने तुम्बुरु गन्धर्व आ चैत्र मासमां पोतपोतानां कार्यो सम्पन्न करे छे ॥३३॥

अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व अने कच्छनीर सर्प ए सात वैशाख मासना कार्यनिर्वाहक छे ॥३४॥

मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हा हा गन्धर्व अने रथस्वन यक्ष आ जयेष्ठ मासना कार्यनिर्वाहक छे ॥३५॥

अषाढमां वरुण नामना सूर्यनी साथे वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग अने चित्रस्वन राक्षस पोताना कार्यनो निर्वाह करे छे ॥३६॥

श्रावण मास ‘इन्द्र’ नामना सूर्यनो कार्यकाल छे. तेनी साथे विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा अने वर्य नामना राक्षस पोताना कार्यनुं सम्पादन करे छे ॥३७॥

भाद्रपदना सूर्यनुं नाम विवस्वान्‌ छे. तेनी साथे उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा अने शङ्खपाल नाग रहे छे ॥३८॥

-११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०६ हे शौनकजी! माघ मासमां पूषा नामना सूर्य रहे छे. तेथी साथे धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा अने गौतम ऋषि रहे छे ॥३९॥

फागण मासनो कार्यकाल पर्जन्य नामना सूर्यनो छे. तेनी साथे क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित्‌ अप्सरा, विश्व गन्धर्व अने ऐरावत सर्प रहे छे ॥४०॥

मागशर मासमां सूर्यनुं नाम अंशु होय छे. तेनी साथे कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस अने महाशङ्ख नाग रहे छे ॥४१॥

पोष मासमां भग नामना सूर्यनी साथे स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा अने कर्कोटक नाग रहे छे ॥४२॥

आश्विन मास ए त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित्‌ यक्ष अने धृतराष्ट्र गन्धर्वनो कार्यकाल छे ॥४३॥

तथा कार्तिक मासमां ‘विष्णु’ नामना सूर्यनी साथे अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित्‌ यक्ष, विश्वामित्र ऋषि अने मखापेत राक्षस पोतपोतानुं कार्य सम्पन्न करे छे ॥४४॥

हे शौनकजी! आ बधी सूर्यरूप भगवान्‌नी विभूतिओ छे. जे मनुष्यो आनुं प्रतिदिन प्रातःकाल अने सायङ्काल स्मरण करे छे तेमनां तमाम पापनो नाश थई जाय छे ॥४५॥

आ सूर्यदेवो पोताना छ गणोनी साथे बारेय मासमां सर्वत्र विचरता रहे छे अने आ लोक तथा परलोक मां विवेक बुद्धिनो विस्तार करे छे ॥४६॥

सूर्य भगवान्‌नां गणोमां ऋषिलोको तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद अने सामवेदना मन्त्रोद्वारा तेमनी स्तुति करे छे अने गन्धर्वो एमना सुयशनुं गान करता रहे छे. अप्सराओ आगळ-आगळ नृत्य करती चाले छे ॥४७॥

नाग गण रस्सीनी जेम तेमना रथने बान्धी राखे छे, यक्षगण रथनो साज सजावे छे अने बलवान राक्षस तेने (रथने) पाछळथी धकेले छे ॥४८॥

आ सिवाय *‘वालखिल्य’ नामना साठ हजार निर्मल स्वभाववाळा ब्रह्मर्षि -११,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०७ सूर्यनी तरफ मों राखी तेमनी आगळ-आगळ स्तुतिनो पाठ करता चाले छे ॥४९॥

विशेष - अङ्गुष्ट पर्व जेटला आ साठ हजार वालखिल्य नामना ऋषिओ वेदना मन्त्रोनी ऋचाओनो उच्चार करता-करता सूर्यना रथनी आगळ-आगळ पाछा पगे चालता रहे छे अने मन्त्र पूरो थतां ‘अस्तु’ एवो उच्चार करे छे. हवे जो मृत्युलोकनो कोई मानव कोईने अप शब्द के शापना शब्दो कहे अने वालखिल्य ऋषिओ ए ज वखते ‘अस्तु’ शब्दनो उच्चार करे तो तेनुं (बोलनारनुं) अनिष्ट थाय छे. ते ज प्रमाणे जे मनुष्य श्रेष्ठ वाणीनो उच्चार करे अने जो ए ऋषिओ ‘अस्तु’ शब्दनो उच्चार करे तो तेने (बोलनारने) श्रेष्ठ फल मळे छे माटे मनुष्ये श्रेष्ठ वाणीनो ज उच्चार हमेशां करवो जोईए. (विष्णु पुराण) एवं ह्यनादिनिधनो भगवान्‌ हरिरीश्वरः ॥ क्ल्पे-कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः ॥५०॥

आ प्रमाणे अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान्‌ श्रीहरि ज कल्पे-कल्पे पोताना स्वरूपना विभाग करी लोकोनुं पालन-पोषण करता रहे छे ॥५०॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (पाञ्चमां अर्थाश्रय प्रकरणनो पहेलो अध्याय तथा चालु) ‘‘भगवान्‌नां अङ्ग, उपाङ्ग अने आयुधोनुं रहस्य तथा विभिन्न सूर्य गणोनुं वर्णन’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च। स्पृष्ट्‌वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद्‌ ॥ मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे पोताना सेव्यस्वरूपनी सेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं (द्रव्यशुद्धि, गो.श्रीपुरुषोत्तमजी)

अध्याय १२

श्रीभागवतनी सङ्क्षिप्त विषय सुची नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे। ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान्‌ वक्ष्ये सनातनान्‌ ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - भगवद्भक्तिरूप महान धर्मने नमस्कार करुं छुं.

ईं उं ईं उं

-१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०८ विश्वविधाता भगवान्‌ श्रीकृष्णने नमस्कार हो. हवे ब्राह्मणोने नमस्कार करी हुं श्रीमद्भागवतमां कहेला सनातन धर्मोनुं सङ्क्षिप्त विवरण कही सम्भळावुं छुम् ॥१॥

हे शौनक आदि ऋषिओ! आप लोकोए मने जे प्रश्न कर्यो हतो ते अनुसार में भगवान्‌ विष्णुनुं आ अद्‌भुत चरित्र श्रवण कराव्युं. ते सर्व मनुष्योए श्रवण करवा योग्य छे ॥२॥

आ श्रीमद्भागवत पुराणमां सर्व पापोनो नाश करनार स्वयं भगवान्‌ श्रीहरिनुं ज सङ्कीर्तन करवामां आव्युं छे. ते ज बधाना हृदयमां बिराजमान, बधानी इन्द्रियोना स्वामी अने प्रेमी भक्तोनुं जीवनधन छे ॥३॥

आ श्रीमद्भागवत पुराणमां परम रहस्यमय अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. ते ब्रह्ममां ज आ जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयनी प्रतीति थाय छे. आ पुराणमां ते ज परम तत्त्वनुं अनुभवात्मक ज्ञान अने तेनी प्राप्तिनां साधनोनो स्पष्ट निर्देश छे ॥४॥

हे शौनकजी! आ महापुराणना प्रथम स्कन्धमां भक्तियोगनुं सुन्दर रीते निरूपण करवामां आव्युं छे अने साथे-साथे भक्तियोगथी उत्पन्न अने तेने स्थिर राखनार वैराग्यनुं पण वर्णन करवामां आव्युं छे. परीक्षितनी कथा अने व्यासजी तथा नारदजीना संवादना प्रसङ्गमां नारद चरित्र पण कहेवायुं छे ॥५॥

राजर्षि परीक्षित ब्राह्मणनो शाप थतां कई रीते गङ्गातट पर अनशन व्रत लईने बेसी गया अने ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीनी साथे कई रीते तेमनो संवाद प्रारम्भ थयो ए कथा पण प्रथमस्कन्धमाञ्ज छे ॥६॥

योग धारणद्वारा शरीरत्यागनी विधि, ब्रह्माजी अने नारदजी नो संवाद, अवतारोनी सङ्क्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिना क्रमथी प्राकृतिक सृष्टिनी उत्पत्ति आदि विषयोनुं वर्णन द्वितीय स्कन्धमां थयुं छे ॥७॥

त्रीजा स्कन्धमां पहेलां विदुरजी अने उद्धवजी नो अने पछी विदुरजी तथा मैत्रेयजीनो समागम अने संवादनो प्रसङ्ग छे. त्यार बाद पुराण संहिताने विशे प्रश्न छे अने पछी प्रलयकालमां परमात्मा कई रीते स्थित रहे छे तेनुं निरूपणछे ॥८॥

गुणोना खळभळाटथी प्राकृतिक सृष्टि अने महत्तत्त्व आदि सात प्रकृतिविकृतिओद्वारा कार्य-सृष्टिनुं वर्णन छे. आना पछी ब्रह्माण्डनी उत्पत्ति अने तेमां -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६०९ विराट पुरुषनी स्थितिनुं स्वरूप समजाववामां आव्युं छे ॥९॥

त्यार बाद स्थूल अने सूक्ष्म कालनुं स्वरूप, लोक-पद्मनी उत्पत्ति, प्रलयसमुद्रमान्थी पृथ्वीनो उद्धार करती वखते वराह भगवान्‌द्वारा हिरण्याक्षनो वध; देवता, पशु, पक्षी अने मनुष्योनी सृष्टि तथा रुद्रोनी उत्पत्तिनो प्रसङ्ग छे. पछी ते अर्ध-नारी-नरना स्वरूपनुं विवेचन छे. जेनाथी स्वायम्भुव मनु अने स्त्रीओनी अत्यन्त उत्तम आद्य प्रकृति शतरूपानो जन्म थयो हतो. कर्दम प्रजापतिनुं चरित्र तेद्वारा मुनि पत्नीओनो जन्म, महात्मा भगवान्‌ कपिलजीनो अवतार अने कपिलदेव तथा तेमनी माता देवहूतिना संवादनो प्रसङ्ग आवे छे ॥१०-१३॥

एटली वात तृतीय स्कन्धमां कही. चोथा स्कन्धमां मरीचि आदि नव प्रजापतिओनी उत्पत्ति, दक्षयज्ञना विध्वंस, राजर्षि ध्रुव तेमज पृथुना चरित्र तथा प्राचीन बर्हिष अने नारदजी ना संवादनुं वर्णन छे. पाञ्चमा स्कन्धमां प्रियव्रतनुं उपाख्यान; नाभि राजा, ऋषभदेवजी अने भरत नां चरित्र कह्याम् ॥१४-१५॥

द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत अने नदी ओनां वर्णन; ज्योतिश्चक्रना विस्तार अने पाताल तथा नरकोनी स्थितिनुं निरूपण पण पाञ्चमा स्कन्धमां ज छे ॥१६॥

हे शौनकादि ऋषिओ! छठ्ठा स्कन्धमां आ विषयो आव्या छे-प्रचेताओथी दक्षनी उत्पत्ति; दक्षनी पुत्रीओनां सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत अने पक्षीओनां जन्मकर्म; वृत्रासुरनी उत्पत्ति अने तेनी परम गति. सातमां स्कन्धमां मुख्यत्वे दैत्यराज हिरण्यकशिपु अने हिरण्याक्षनां जन्म-कर्म अने दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्‌लादना उत्कृष्ट चरित्रनुं निरूपण छे ॥१७-१८॥

आठमा स्कन्धमां मन्वन्तरोनी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोमां थनारा जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णुना अवतार कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत प्राप्तिने माटे देवताओ अने दैत्योए करेल समुद्रमन्थन अने देवो तथा दैत्योनो सङ्ग्राम आदि विषयोनुं वर्णन छे ॥१९-२०॥

नवमा स्कन्धमां मुख्यत्वे राजवंशोनुं वर्णन छे; ईक्ष्वाकुनां जन्म-कर्म, वंशविस्तार; महात्मा सुद्युम्न, इला अने तारा नुं उपाख्यान आ बधान्नुं वर्णन करवामां आव्युं छे. सूर्यवंशनुं वृत्तान्त, शशाद अने नृग आदि राजाओनुं वर्णन, सुकन्यानुं चरित्र; शर्याति, खट्‌वाङ्ग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान ककुत्स्थ अने कोसलेन्द्र भगवान्‌ रामचन्द्रजीना सर्वपापनाशक चरित्रनुं वर्णन पण आ ज -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१० स्कन्धमां छे त्यार बाद निमिराजानो देहत्याग अने जनकोनी उत्पत्तिनुं वर्णन छे ॥२१-२४॥

भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीनो क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु अने तेना पुत्र भीष्म आदिनी सङ्क्षिप्त कथाओ पण नवमा स्कन्धमां ज छे. बधाना अन्ते ययातिना मोटा पुत्र यदुनो वंशविस्तार कहेवायो छे ॥२५-२६॥

हे शौनक आदि ऋषिओ! आ ज यदुवंशमां जगतना पति भगवान्‌ श्रीकृष्णे अवतार लीधो हतो. आपे अनेक असुरोनो संहार कर्यो. आपनी लीलाओ एटली बधी छे के कोई तेनो पार पामी शके नहि तो पण दशमा स्कन्धमां ते लीलाओनुं कंईक कीर्तन करवामां आव्युं छे. वसुदेवजीनी पत्नी देवकीजीथी आपनुं प्रागट्‌य थयुं. गोकुलमां नन्दरायजीने त्यां पधारी मोटा थया ॥२७॥

पूतनाना दूधनी साथे तेना प्राणोनुं पण आप पान करी गया. बाळभावमां ज गाडाने ऊन्धुं करी नाख्युम् ॥२८॥

तृणावर्त, बकासुर अने वत्सासुरने मार्या, धेनुकासुर अने प्रलम्बासुरने एना भाईओ साथे मार्या ॥२९॥

*दावानलमां सपडायेला गोपोनी रक्षा करी कालियनागनुं दमन कर्यु. अजगरथी नन्दरायजीने मुक्त कर्या ॥३०॥

विशेष - दसमा स्कन्धमां अध्याय अगियारमां वत्सासुर अने बकासुरना उद्धारनी, बारमामां अधासुरना उद्धारनी तेरमामां ब्रह्माजीनो मोह, चौदमामां ब्रह्माजीए करेली भगवान्‌नी स्तुति अने पन्दरमां अध्यायमां धेनुकासुरना उद्धारनी कथा आवे छे. ज्यारे अर्ही दशम स्कन्धनी अनुक्रमणिकामां वत्सासुर पछी सीधो धेनुकासुर आवे छे. श्रीमद्‌वल्लभाचार्यजीना मत प्रमाणे परम्पराथी चाल्या आवता उपला त्रण अध्याय प्रक्षिप्त छे तेने आथी पुष्टि मळे छे. काशीवाळा श्रीभागवतनी ‘बालप्रबोधिनी’ नामनी टीकाना विद्वान लेखक श्रीगिरिधरजी आनां एक सो आठ कारण आपे छे जेनेमाटे ‘‘तत्त्वार्थ दीप निबन्ध’’ भागवतार्थ प्रकरणनुं परिशिष्ट वाञ्चवा विनन्ति छे. त्यारबाद गोपीओए भगवान्‌ने पतिरूपे प्राप्त करवा व्रत कर्युं अने भगवान्‌ श्रीकृष्णे प्रसन्न थई तेमने इच्छित वरदान आप्युं. भगवाने यज्ञ पत्नीओ उपर कृपा करी तेमना पतिओ ब्राह्मणोने भारे पश्चात्ताप थयो ॥३१॥

-१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६११ गोवर्धन धारणनी लीला करी त्यारे इन्द्रे अने कामधेनुए आवी भगवान्‌नो यज्ञाभिषेक कर्यो शरद ऋतुनी रात्रिओमां श्रीकृष्णे गोपीजनोनी साथे रासक्रीडा करी ॥३२॥

दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट अने केशी दैत्यने भगवाने मार्या. त्यार पछी अक्रूरजी मथुराथी व्रजमां आव्या अने भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजी तेमनी साथे मथुरा पधार्या ॥३३॥

ए प्रसङ्गे गोपीजनोए जे विलाप कर्यो हतो तेनुं वर्णन छे. राम अने श्यामे मथुरा पधारी त्यान्नी सजावट जोई अने कुवलयापीड हाथी, मुष्टिक, चाणूर अने कंस आदिनो संहार कर्यो ॥३४॥

सान्दीपनि गुरुने त्यां विद्याध्यन करी तेमना मृत पुत्रने पाछो लाव्या. हे शौनकादि ऋषिओ! जे वखते भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरामां निवास करी रह्या हता ते वखते आपे उद्धवजी अने बलरामजीनी साथे यदु वंशीओनुं दरेक प्रकारे प्रिय अने हित कर्यु ॥३५॥

जरासन्ध केटलीयवार भारे सेना लईने आव्यो अने भगवाने तेनो उद्धार करी पृथ्वीनो भार हलको कर्यो. कालयवनने मुचुकुन्दद्वारा भस्म करी दीधो. द्वारकापुरी वसावी रातोरात बधाने त्यां पहोञ्चाडी दीधाम् ॥३६॥

स्वर्गथी कल्पवृक्ष तथा सुधर्मा सभा लई आव्या. भगवाने विरोधीओने युद्धमां हरावी रुक्‌मिणीजीनुं हरण कर्यु ॥३७॥

बाणासुर साथेना युद्धने प्रसङ्गे महादेवजी उपर एवुं बाण छोड्युं के तेओ बगासां खावा लाग्या अने बाणासुरना हजार हाथमान्थी चार हाथ राखी बाकीना कापी नाख्या. प्राग्ज्योतिषपुरना स्वामी भौमासुरने मारी नाखी सोळ हजार राजकन्याओने हरी लाव्यां. (अने तेमनुं पाणिग्रहण कर्युं) ॥३८॥

शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवकत्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन वगेरे दैत्योना बलपौरुषनुं वर्णन करीने ए वात बतावी के भगवाने तेमने केवी रीते मार्या. भगवान्‌ना सुदर्शन चक्रे काशीने बाळी नाखी अने पछी आपे महाभारतनां युद्धमां पाण्डवोने निमित्त बनावी पृथ्वीनो मोटा भागनो भार उतारी नाख्यो. (एटली वात दशम स्कन्धमां कही) ॥३९-४०॥

हे शौनकादि ऋषिओ! अगियारमा स्कन्धमां ए वातनुं वर्णन आवे छे के -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१२ भगवाने ब्राह्मणोना शापने बहाने केवी रीते यदुवंशनो उपसंहार कर्यो. आ स्कन्धमां भगवान्‌ श्रीकृष्ण अने उद्धवजी नो संवाद बहु ज अद्‌भुत छे ॥४१॥

तेमां सम्पूर्ण आत्मविद्या अने सर्व धर्म निर्णयनुं निरूपण थयुं छे. अन्ते ए वात बताववामां आवी छे के भगवान्‌ श्रीकृष्णे पोताना आत्म योगना प्रभावथी अन्तर्धान थई मृत्युलोकनो परित्याग केवी रीते करी दीधो ॥४२॥

बारमा स्कन्धमां जुदा-जुदा युगोनां लक्षण अने तेमां रहेनार लोकोना व्यवहारनुं वर्णन करवामां आव्युं छे तथा ए पण बताववामां आव्युं छे के कलियुगमां मनुष्योनी गति विपरीत होय छे. चार प्रकारना प्रलय (प्राकृतिक, नैमित्तिक, आत्यन्तिक अने नित्य) अने त्रण प्रकारनी उत्पत्ति (प्राकृतिकी, नित्या अने नैमित्तिकी) नुं वर्णन पण आ ज स्कन्धमां आवे छे ॥४३॥

त्यार बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षितना शरीर त्यागनी वात कहेवामां आवी छे. पछी वेदोना शाखा विभाजननो प्रसङ्ग आव्यो छे. मार्कण्डेयजीनी सुन्दर कथा, भगवान्‌नां अङ्ग-उपाङ्गोनुं स्वरूप-कथन अने सर्वने अन्ते विश्वात्मा भगवान्‌ सूर्यना गुणोनुं वर्णन छे ॥४४॥

हे शौनकादि ऋषिओ! आप लोकोए आ सत्सङ्गना प्रसङ्गे मने जे कंई पूछ्‌युं हतुं तेनुं वर्णन में करी दीधुं. आ प्रसङ्गे में भगवान्‌नी अनेक प्रकारनी लीलाओ अने आपनां अवतार चरित्रोनुं ज कीर्तन कर्युं छे एमां कोई सन्देह नथी ॥४५॥

(उपरथी कूवा वगेरेमां) पडी जतां, पग लपसतां, दुःख भोगवतां, छीङ्क खातां के विवशताथी पण ऊञ्चा अवाजथी ‘‘हरये नमः।’’ बोली ऊठे छे ते मनुष्य सर्व पापोथी मुक्त थई जाय छे ॥४६॥

जेवी रीते सूर्य अन्धकारने नाश करी दे छे जेवी रीते ववाझोडुं वादळोने वीखेरी नाखे छे तेवी ज रीते जो देश, काल अने वस्तुथी अपरिच्छिन्न भगवान्‌ श्रीकृष्णनां नाम, लीला, गुण वगेरेनुं सङ्कीर्तन करवामां आवे अथवा तेमना प्रभाव, महिमा वगेरेनुं श्रवण करवामां आवे तो आप स्वयं हृदयमां पधारी बिराजे छे अने श्रवण तथा कीर्तन करनार पुरुषनां तमाम दुःख दूर करी दे छे ॥४७॥

जे वाणीथी घटपटवासी अविनाशी भगवान्‌नां नाम, लीला, गुण वगेरेनो उच्चार थतो नथी ते वाणी भावपूर्ण होवा छतां पण निरर्थक छे सारहीन छे, सुन्दर होवा छतां पण असुन्दर छे अने उत्तमोत्तम विषयोनुं प्रतिपादन करनारी होवा -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१३ छतां पण असत्कथा छे. जे वाणी अने वचन भगवान्‌ना गुणोथी परिपूर्ण रहे छे ते ज परम पावन छे ते ज मङ्गलमय छे अने ते ज परम सत्य छे ॥४८॥

जे वाणीद्वारा भगवान्‌ना परम पवित्र यशनुं गान थाय छे ते ज परम रमणीय, रुचिकर तेमज क्षणे-क्षणे नवीन लागे छे तेथी अनन्त काल सुधी मनने परमानन्दनो अनुभव थतो रहे छे. मनुष्यना तमाम शोकने पछी भलेने ते समुद्रना जेटलो विस्तृत अने अगाध होय तो पण ते वाणी ज तेने सूकवी नाखे छे. (दूर करे छे) ॥४९॥

रस, भाव, अलङ्कार आदिथी युक्त वाणी पण जो जगतने पवित्र करवावाळा भगवान्‌ श्रीकृष्णनां यशोगान क्यारेय करती न होय तो ते कागडाओने माटे एठवाड फेङ्कवाना स्थान समान अत्यन्त अपवित्र छे. मानस सरोवरमां रहेनारा हंस अथवा ब्रह्मधाममां विहार करनारा परमहंस भक्तो तेनुं क्यारेय सेवन करता नथी. निर्मळ हृदयवाळा भक्तो तो ज्यां भगवान्‌ निरन्तर वसे छे एवा परम पवित्र सन्तोना सङ्गमां ज निवास करे छे ॥५०॥

तेथी ऊलटुं जेमां सुन्दर रचना पण नथी अने जे व्याकरण वगेरेनी दृष्टिए दूषित शब्दोवाळी छे, परन्तु जेना प्रत्येक श्लोकमां भगवान्‌ना सुयश सूचक नाम जडेलां छे ते वाणी लोकोनां तमाम पापोनो नाश करी दे छे कारण के सत्पुरुषो एवी ज वाणीनुं श्रवण, गान अने कीर्तन कर्या करे छे ॥५१॥

(ज्ञान अने कर्म करतां पण भगवान्‌नी भक्ति उत्तम छे ए वातने हवे कहे छे) मोक्षनी प्राप्तिनुं साक्षात्‌ साधन ते निर्मल ज्ञान पण जो भगवान्‌नी भक्ति विहोणुं होय तो तेनी एटली शोभा होती नथी तो पछी जे कर्म भगवान्‌ने अर्पण करवामां आवतुं नथी ते गमे तेटलुं श्रेष्ठ होय तो पण ते सर्वदा अमङ्गलरूप, दुःखदायक ज छे. तो ते शोभास्पद केवी रीते बनी शके? तेथी ज्ञान अने कर्म तो भक्तिनां सहायक छे, स्वतन्त्र रीते ते कदापि मुख्य फळसाधक थतां नथी ॥५२॥

वर्णाश्रम धर्मोनुं पालन, तपस्या अने अध्ययन आदिने माटे जे भारे परिश्रम करवामां आवे छे तेनुं फल मात्र यश के लक्ष्मीनी प्राप्ति ज छे, परन्तु भगवान्‌ना गुण, लीला, नाम आदिनुं स्मरण, कीर्तन वगेरे तो आपना श्रीचरणकमलोनी अविचल स्मृति प्रदान करे छे ॥५३॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणकमलोनी अविचल स्मृति तमाम पाप, ताप अने -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१४ अमङ्गलोने नष्ट करी दे छे अने परम शान्तिनो विस्तार करे छे. तेनाथी ज अन्तःकरण शुद्ध थई जाय छे, भगवान्‌नी प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त थाय छे तेमज परम वैराग्य सहित भगवान्‌ना स्वरूपनुं ज्ञान अने अनुभव प्राप्त थाय छे ॥५४॥

हे शौनकादि ऋषिओ! आप लोको प्रेमपूर्वक निरन्तर आपना हृदयमां बिराजमान सर्वना आत्मामां बिराजता अन्तर्यामीरूप, सर्व शक्तिमान आदिदेव, बधाना आराध्य देव तेमज स्वयं बीजा आराध्य देवथी रहित नारायण भगवान्‌ने तमारा हृदयमां स्थापित करीने अनन्यताथी भजो छो तेथीज आप लोको बहुज भाग्यवान छो. आपने धन्यवाद छे ॥५५॥

जे वखते राजर्षि परीक्षित अनशननुं व्रत लई महान ऋषिओनी भरी सभामां बधानी समक्ष श्रीशुकदेवजी महाराज पासे श्रीमद्भागवतनी कथा श्रवण करी रह्या हता ते वखते त्यां ज बेसी में पण ते ज परमऋषिना मुखथी आ आत्मतत्त्वनुं श्रवण कर्युं हतुं. आप लोकोए तेनुं स्मरण करावी मारा उपर महान अनुग्रह कर्यो छे. हुं एमाटे आपनो अत्यन्त ऋणी छुम् ॥५६॥

हे शौनकादि ऋषिओ! भगवान्‌ वासुदेवनी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण अने कीर्तन करवा जेवी छे में आ प्रसङ्गे तेमना ज महिमानुं वर्णन कर्यु छे जे अशेष अशुभ संस्कारोने मिटावी दे छे ॥५७॥

जे मनुष्य एकाग्र चित्तथी प्रतिदिन (समय होय तो) एक पहोर अथवा (समय ओछो होय तो) एक क्षण पण आनुं कीर्तन करे छे ते (भगवत्कथाना कथन के श्रवण रूपी स्नानथी मात्र देहज नहि परन्तु) शरीर सहित अन्तःकरणने पण पवित्र करी दे छे ॥५८॥

(श्रीमद्‌भागवतनो पाठ, श्रवण, कीर्तन दररोज करवा जोईए, परन्तु दररोज समय न ज मळतो होय तो) जे पुरुष द्वादशी के एकादशी (जे दिवसे व्रत होय ते तिथि) ना दिवसे आनुं श्रवण करे छे ते *दीर्घायु थई जाय छे अने जे संयमपूर्वक निराहार रही पाठ करे छे तेनां आगाउनां सर्व पापोनो तो नाश थई ज जाय छे, परन्तु पापनी प्रवृत्ति पण नष्ट थई जाय छे ॥५९॥

विशेष - ‘‘आयुष्यवान्‌ भवेत्‌। आयुर्वर्धतेनेनेति आयुष्यः धर्मः।’’ आयु जेनाथी वधे ते आयुष्य अर्थात्‌ धर्म. ‘‘धर्मेण वर्धते चायुः।’’ एवुं शास्त्र वचन छे. हा. तो धर्मथी -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१५ आयुष्य वधे छे एटले ‘आयुष्यवान्‌’ एटले ‘धर्मवान्‌।’ एटले फलित अर्थ ए थयो के पाठ आदि करनार ‘‘सर्व धर्म भाग्भवति।’’ अर्थात्‌ बधा धर्मो आचरणमां मूक्या होय अने जे फल मळे ते फल तेने मळे छे अथवा पाठ करनारनुं अकालमृत्यु अथवा अपमृत्यु थतुं नथी. वळी ग्रह आदि अरिष्ट (दुर्भाग्य, दुश्मन) थी थतो आयुष्यनो क्षय पण श्रीमद्भागवतना पाठ आदिना प्रभावथी थतो नथी. जे मनुष्य एकाग्र मनथी उपवास करीने पुष्कर, मथुरा के द्वारकामां आ पुराण संहितानो पाठ करे छे ते संसारना सर्व भयथी मुक्त थाय छे. तेने संसार सतावी शकतो नथी ॥६०॥

जे मनुष्य श्रीभागवतनी आ कथानुं उच्चारण के श्रवण करे छे तेना कीर्तनथी के श्रवणथी देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु अने राजा सन्तुष्ट थाय छे अने तेनी अभिलाषाओ पूर्ण करे छे ॥६१॥

ऋग्वेदनुं अध्ययन अने पाठ करनार ब्राह्मणने त्यां मधनी नदीओ, यर्जुवेदनुं अध्ययन अने पाठ करनार ब्राह्मणने त्यां घीनी नदीओ अने सामवेदनुं अध्ययन अने पाठ करनार ब्राह्मणने त्यां दूधनी नदीओ वहे छे. ते त्रणे फल एक मात्र श्रीभागवतजीनो पाठ करनारने प्राप्त थाय छे. (मध, घी अने दूधनी नदीओ वहे छे अर्थात्‌ दरेक प्रकारनी सुख समुद्धि मळे छे अथवा पुष्कळ मध, घी अने दूध साथे अन्ननुं दान करनारने जे फल मळे छे ते ज फळ श्रीभागवतजीनुं एकलुं पारायण करवाथी ज मळे छे) ॥६२॥

जे द्विज संयमपूर्वक आ पुराण संहितानुं अध्ययन करे छे. तेने जेनुं वर्णन स्वयं भगवाने कर्यु छे ते ज परमपदनी प्राप्ति थाय छे ॥६३॥

आना अध्ययनथी ब्राह्मणने ऋतम्भरा-प्रज्ञा(तत्त्वज्ञान प्राप्त करावनार बुद्धि)नी प्राप्ति थाय छे अने क्षत्रियने *भूमि प्राप्त थाय छे. वैश्य धनवान बने छे अने शूद्र आ पुराणनुं ब्राह्मण पासेथी श्रवण करे तो ते बधा पापोथी मुक्त थायछे ॥६४॥

विशेष - मूलमां ‘‘उदधिमेखलाम्‌’’ छे. जे ‘भूमि’ नुं एक नाम छे. जेवी रीते नाना गामडान्ना ठाकोर के भायात पण ‘नरेन्द्र’ कहेवाय छे; ठाकोर साहेबने माटे ‘नरेन्द्र’ शब्दनो प्रयोग थाय छे. तेथी ते पृथ्वी उपरना बधा मनुष्योनो इन्द्र (राजा) बनता नथी तेवी रीते अर्ही क्षत्रियने ‘‘उदधिमेखला’’ प्राप्त थई जाय छे. ‘उदधि’ एटले समुद्र छे -१२,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१६ ‘मेखला’-कन्दोरो जेनो ते आखी पृथ्वी मळी जती नथी पण तेने भूमिनी प्राप्ति थाय छे. तेवी ज रीते ‘‘वैश्योनिधिपतित्वम्‌।’’ निधि एटले पद्म वगेरे नव निधिनो पति कुबेर. वैश्य श्रीमद्भागवतनुं अध्ययन करे तो ते धनवान थाय. ‘भविष्य पुराण’मां शूद्रने पुराणोनुं श्रवण ब्राह्मण मुखथी करवानुं विधान छे, स्वअध्ययन करवानुं नहि तेथी शूद्रोए ब्राह्मण पासेथी ज श्रीमद्भागवतनुं श्रवण करवुं. (बीजां बधां पुराणो करतां आ श्रीमद्भागवतनुं माहात्म्य अधिक छे अने तेथी तेनुं फल पण अधिक छे अधिक महात्म्यनुं कारण कहे छे के) भगवान्‌ ज बधाना स्वामी छे जे कलिना दोषना समुदायनो नाश करनार अने सर्वना दुःखने हरनार छे. आम तो भगवान्‌नुं वर्णन करनारां घणां पुराणो छे परन्तु तेमां सर्वत्र अने निरन्तर भगवान्‌नुं वर्णन मळतुं नथी. श्रीमद्भागवतमां तो प्रत्येक कथा प्रसङ्गमां, शब्दे-शब्दे, सर्वस्वरूप भगवान्‌नुं ज वर्णन करवामां आव्युं छे ॥६५॥

आप जन्म-मृत्यु आदि विकारोथी रहित, देश, काल आदिकृत परिच्छेदोथी मुक्त अने स्वयं आत्मतत्त्व ज छे. जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय पण जेनी शक्तिओ (रजस्‌, सत्त्व अने तमस्‌) थी ज थाय छे; ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि लोकपाल पण जेमनी स्तुति करवानुं लेश मात्र जाणता नथी ते ज एक रस सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्माने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥६६॥

जेमणे पोताना स्वरूपमां ज प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पाञ्च तन्मात्रा ए नव शक्तिओनी वृद्धि करी आ चराचर जगतनी सृष्टि करी छे अने जे तेना अधिष्ठान रूपथी स्थित छे तथा जे ज्ञान स्वरूप देवताओना आराध्य देव छे तेवा सनातन भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोमां हुं नमस्कार करुं छुम् ॥६७॥

स्वसुखनिभृतचेतास्तद्‌ व्युदस्तान्यभावो ऽप्यजितरुचिर लीला कृष्टसारस्तदीयम्‌। व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥६८॥

(पोताना इष्टदेवने नमस्कार करी हवे पोताना गुरुदेव-श्रीशुकदेवजीने नमस्कार करे छे) श्रीशुकदेवजी महाराजनुं चित्त स्वरूपानन्दथी ज पूर्ण हतुं अने तेथी ज बीजे बधेयथी तेमनी मनोवृत्ति हटी गई होवा छतां पण मुरली मनोहर श्याम सुन्दरनी मधु मयी मङ्गलमयी, मनोहारिणी लीलाओए तेमनी वृत्तिओने पोतानी तरफ -१२-अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१७ आकर्षी लीधी अने तेमणे जगतनां प्राणीओ उपर कृपा करीने भगवत्तत्त्वने प्रकाशित करनार आ महापुराणनो विस्तार कर्यो. हुं ते ज सर्वपापहारी व्यास नन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीनां चरणोमां नमस्कार करुं छुम् ॥६८॥

इति श्रीभागवत द्वादश स्कन्धमां (पाञ्चमा अर्थाश्रय प्रकरणनो बीजो अध्याय तथा चालु) ‘‘श्रीभागवतनी सङ्क्षिप्त विषय सूची’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे

अध्याय १३

विभिन्न पुराणोनी श्लोक सङ्ख्या अने श्रीमद्‌ भागवतनो महिमा

विशेष - पुराणोना श्लोकनी सङ्ख्या क्रमवडे आ तेरमा अध्यायमां कही छे तथा श्रीमद्भागवतना दान वगेरेनुं फल पण अर्ही ज कहे छे. यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्‌-गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थित तद्‌गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥१॥

श्रीसूतजी बोल्या - ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र अने मरुद्‌गण दिव्य स्तुतिओद्वारा जेना गुणगानमां संलग्न रहे छे; साम सङ्गीतना मर्मज्ञ ऋषिमुनिओ अङ्ग, पद, क्रम अने उपनिषदो सहित वेदोद्वारा जेमनुं गान करता रहे छे; योगी लोको ध्यानद्वारा स्थिर अने तल्लीन मनथी जेमनो साक्षात्कार करे छे; परन्तु आ बधुं करवा छतां देवता, दैत्य, मनुष्य कोईपण जेमना वास्तविक स्वरूपने पूरेपूरुं न जाणी शक्या ते स्वयम्प्रकाश परमात्माने नमस्कार हो. (आथी

ईं उं ईं उं

-१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१८ श्रीसूतजी एम सूचवे छे के आ पुराणना पाठथी आवा भगवान्‌मां स्तुति, सङ्कीर्तन अने ध्यान अत्यन्त अल्प प्रमाणमां में कर्या छे. मने आपना स्वरूपनुं पूरेपुरुं ज्ञान नथी ज थयुं) ॥१॥

जे (समुद्रमन्थन) वखते भगवाने कूर्म (काचबानुं) रूप धारण कर्युं हतुं अने आपनी पीठ उपर गगन चुम्बी मन्दराचल पर्वत रवैयानी जेम घमर-घमर घूमी रह्यो हतो ते वखते तेना पथ्थरोनी धारो पीठ उपर घसाववाथी कूर्म भगवान्‌ने जाणे के खञ्जवाळवाथी थोडुं सुख थयुं. परिणामे आप निद्राळु थतां पोढी गया. तेथी श्वासनी गति थोडी वधी गई. ते श्वास वायुथी समुद्रना जलने धक्को लाग्यो हतो तेना संस्कारोनो थोडोक ज अंश आजे पण तेमां देखाय छे. आजे पण समुद्र ते ज श्वासवायुनी थप्पडना परिणामरूपे रात-दिवस भरती अने ओट रूपे चडतो ऊतरतो रहे छे तेने अत्यार सुधी आराम मळ्यो नथी. भगवान्‌नो ते ज परम प्रभावशाळी श्वासवायु आप लोको श्रीमद्भागवतनुं अध्ययन करनार, अध्ययन करावनार, श्रोता अने वक्ता नुं बल, ओज वगेरेना दानद्वारा रक्षण करो. (कारण के श्री भा. ११.४.४मां योगीश्वर द्रुमिलजी कहे छे के ‘‘यस्येन्द्रियैस्तनुभृताम्‌ उभयेन्द्रियाणि ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा’’ भगवान्‌नी इन्द्रियोथी ज समस्त देहधारीओनी इन्द्रियो बनी छे. तेमना स्वरूपथी ज स्वतःसिद्ध ज्ञाननो सञ्चार थाय छे. तेमना श्वास-प्रश्वासथी बधां शरीरोमां बळ आवे छे तथा इन्द्रियोमां ओजस्‌ (कार्य करवानी शक्ति) अने कर्म करवानी शक्ति आवे छे. पोताना स्वरूपने देव, दानव के मानव कोई पिछानी शकतुं नथी ते वात समुद्र मन्थन वखते कूर्म अने मोहिनी अवतार लईने भगवाने बतावी आपी हती. समुद्रमन्थन तो भगवाने पोते कूर्मरूपथी कर्यु हतुं, देवोनी तो नाममात्रनी निमित्तता हती. तेवी ज रीते आ अपार वेदोरूपी महासागरनुं मन्थन भगवाने पोते ज कर्युं छे, व्यासजी, शुकदेवजी, सूतजीनी तो मात्र निमित्तता छे. जे भगवाने समुद्रमन्थन कर्युं ते ज भगवाने मोहिनी स्वरूपथी असुरोने छेतरी पोताना भक्तो देवोने समुद्रमन्थननुं फल अमृत आप्युं. तेवी ज रीते वेदरूपी समुद्रना मन्थनमान्थी प्राप्त थयेलुं आ भक्तिरूपी अमृत श्रीमद्भागवतरूपे, अभक्तोरूपी असुरोने छेतरी तमने भक्तोने आप्युं छे. आम आ श्लोकमां भक्तोने आर्शीवाद आपवामां आव्या छे) ॥२॥

(जेवी रीते चक्रवर्ती सम्राट आगळ तेना खडिंया राजाओनी तेमनां नाम साथे -१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६१९ गणतरी करवामां आवे छे तेवी रीते महापुराण चक्रवर्ती श्रीमद्भागवतनी सन्निधिमां पुराणोनी गणना करवामां आवे छे). हे शौनकजी! हवे पुराणोनी अलग-अलग श्लोक सङ्ख्या तेमनो सरवाळो, श्रीमद्भागवतनो प्रतिपाद्य विषय अने तेनुं प्रयोजन पण साम्भळो; साथे-साथे तेना दाननी पद्धति तथा दान अने पाठ आदिनो महिमा पण आप साम्भळो ॥३॥

ब्रह्मपुराणमां दस हजार, पद्मपुराणमां पञ्चावन हजार, श्रीविष्णुपुराणमां त्रेवीस हजार अने शिवपुराणमां चोवीस हजार श्लोक छे ॥४॥

श्रीमद्भागवतमां अढार हजार, नारदपुराणमां पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराणमां नव हजार तथा अग्निपुराणमां पन्दर हजार चार सो श्लोक छे ॥५॥

भविष्य पुराणनी श्लोकसङ्ख्या चौद हजार पाञ्च सो, ब्रह्मवैवर्त पुराणनी अढार हजार अने लिङ्गपुराणनी अगियार हजार छे ॥६॥

वराहपुराणमां चोवीस हजार, स्कन्दपुराणमां एकाशीहजार एकसो अने वामन पुराणमां दस हजार श्लोको छे ॥७॥

कूर्मपुराण सत्तर हजार, मत्स्यपुराण चौद हजार, गरुडपुराण ओगणीस हजार अने ब्रह्माण्ड पुराण बार हजार श्लोकोनुं छे ॥८॥

आ प्रमाणे *बधां पुराणोनी श्लोक सङ्ख्या कुल चार लाख थाय छे तेमां पहेलां कहेवायुं तेम श्रीमद्भागवत अढार हजार श्लोकोनुं छे ॥९॥

विशेष - महाभारत तो इतिहास छे अने रामायण वाल्मीकि ऋषिए रचेलुं काव्य छे तेथी ते बन्नेनी गणना पुराणोमां नथी. हे शौनकजी! सौ प्रथम भगवान्‌ विष्णुए पोताना नाभिकमल पर स्थित अने सृष्टिनी रचना करीश तो (मोक्ष विरोधी) संसार थशे एवा भयथी डरी गयेला ब्रह्माजी उपर परम करुणा करीने आ पुराण प्रकाशित कर्युं हतुं. (भगवता प्रोक्तमिति भागवतनाम निरुक्तिः। आ पुराणनुं नाम ‘भागवत’ एटलामाटे पड्युं छे के ते साक्षात्‌ ‘भगवाने’ कह्युं छे. संसार निवृत्ति तेनुं फल छे अने करुणा करीने प्रकाशित कर्युं ते एनी दुर्लभता बतावे छे) ॥१०॥

तेना प्रारम्भ, मध्य अने अन्त मां वैराग्य उत्पन्न करनारी घणी कथाओ छे. आ महापुराणमां भगवान्‌ श्रीहरिनी जे लीलाकथाओ छे ते तो अमृतस्वरूप छे ज; तेमना सेवनथी सत्पुरुषो अने देवताओने अत्यन्त आनन्द मळे छे* ॥११॥

-१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६२०

विशेष - अर्ही कथाने अमृत कही छे. अमृतनुं पान देवोए कर्युं हतुं, कथानुं पान भक्तो करे छे. देवोने अमृतनुं पान मोहिनी भगवाने कराव्युं हतुं तेवी ज रीते आ कथारूपी अमृतनुं पान भक्तोने आ श्रीमद्भागवत करावे छे तेथी मोहिनी भगवाने जे कार्य कर्युं हतुं ते ज कार्य श्रीमद्भागवत करे छे एम फलित थाय छे. समुद्रमन्थन पछी अमृतनी वहेञ्चणी करती वखते बीजाओ (असुरो) ने खबर न पडे तेम देवोने भ्रूविभङ्ग (हावभाव) थी मोहिनी भगवान्‌ जणावे छे के आ मारा आविर्भावनुं प्रयोजन असुरोने छेतरीने तमने ज अमृतपान कराववानुं छे; ज्यारे पोताना स्वरूपने न जाणनार असुरोने भ्रूविलासथी एम जणावे छे के तमने विजय प्राप्त कराववो ए ज मारुं कर्तव्य छे. तमने अमृतनुं दान करवुं ए प्रयोजन तो गौण छे. मुख्य प्रयोजन तो तमारा गृहमां स्थिति करी तमने नित्य आनन्द चमत्कारनी प्राप्ति कराववी ते छे. ते दरमियान आ बिचारी अति दीन-हीन देवोने अमृतनो छाण्टो नाखी दउं. एवी ज रीते ‘‘परोक्षं च मम्‌ प्रियम्‌।’’ परोक्ष कथन मने प्रिय छे’’ एम भगवद्‌वाणी प्रमाणे. पोतानुं तत्त्व जाणनारा भक्तो प्रत्ये, अभक्तो न जाणी शके तेम ‘‘हरिलीला व्राता मृतानन्दित सत्सुरम्‌’’ एम अगियारमां श्लोकमां उत्तराधर्ममां व्यञ्जना वृत्तिथी श्रीभागवतनुं मुख्य प्रयोजन कहीने, पोताना स्वरूपने नहि समजनार पण पडिन्त मनायेला शुष्क ज्ञानीओ प्रत्ये श्रीभागवतना वाच्य अने प्रयोजन बीजी ज बे वस्तुओ कहे छे अने ते ए के समस्त उपनिषदो-वेदान्तनो सार ब्रह्म छे अने आत्माना एकत्वरूप अद्वितीय सद्‌वस्तु अने तेना निर्माणनुं प्रयोजन कैवल्य-मोक्ष छे. केटलाक आनो अर्थ आ प्रमाणे घटावे छे-आ श्रीभागवत शास्त्रना प्रारम्भ (१.१.२)मां ‘‘धर्मः प्रोज्झितकैतवोत्र परमो।’’ अर्ही (श्रीभागवतमां) निष्कपट परम धर्मनुं निरूपण करवामां आव्युं छे जे क्षणे परम भाग्यवान पुरुष आनुं श्रवण करवानी इच्छा करे छे ते ज क्षणे कर्तुं ‘‘अकर्तुं, अन्यथा कर्तुं समर्थ ईश्वर तेना हृदयमां पधारी तेना बन्दी बनी जाय छे’’, आथी भगवत्प्रेम ए ज आनुं प्रयोजन छे एम स्पष्ट थाय छे आ श्रीभागवतनो मोहिनी भगवान्‌ जेवा धर्म बतावनार प्रकट अर्थ थयो. अभ्यन्तर अर्थ आ पण छे- ‘‘ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणं यद्‌वस्तु तन्निष्ठं ततोपि निःसृत्य तिष्ठतीति तन्निष्ठम्‌।’’ ब्रह्म अने आत्मानी एकता तेमान्थी पण बहार नीकळी जईने ज्ञान, कर्म, मोक्ष वगेरेनी अभिलाषा रहित जे होय ते ‘केवल’ अनन्य भक्तो. तेमनो भाव ते ‘कैवल्य’ ते ज जेनुं प्रयोजन छे ते अर्थात्‌ भगवत्प्रेम ए ज परम पुरुषार्थ छे. ए जेना निर्माणनुं प्रयोजन छे तेवुं श्रीभागवत छे. -१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६२१ आप लोको जाणो ज छो के समस्त उपनिषदनो सार ब्रह्म छे अने आत्माना एक रूपत्व अद्वितीय सद्‌वस्तु ते ज श्रीमद्भागवतनो प्रतिपाद्य विषय छे. तेना निर्माणनुं प्रयोजन एकमात्र कैवल्य-मोक्ष छे ॥१२॥

जे पुरुष भाद्रपद मासनी पूर्णिमाने दिवसे श्रीमद्भागवतने सोनाना सिंहासन उपर बिराजमान करी तेनुं दान करे छे तेने परम गति प्राप्त थाय छे* ॥१३॥

सन्तोनी सभामां बीजां पुराणोनी शोभा त्यां सुधी ज थाय छे ज्यां सुधी अमृतना सागररूप सर्व श्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराणनुं दर्शन के श्रवण थतुं नथी. श्रीमद्भागवतरूपी अमृतनुं पान करतां ज सत्पुरुषोनी बीजां पुराणोमां रुचि थती नथी ॥१४॥

आ श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदोनो सार छे जे आ रससुधानुं पान करी मस्त बनी चूक्यो छे तेने बीजां कोई शास्त्र पुराणमां आनन्द न आवे ॥१५॥

जेवी रीते नदीओमां गङ्गाजी, देवताओमां विष्णु भगवान्‌ अने वैष्नवोमां श्रीशङ्करजी सर्वश्रेष्ठ छे तेवी ज रीते पुराणोमां श्रीमद्भागवत सर्वोत्तम छे ॥१६॥

हे शौनकादि ऋषिओ! जेवी रीते बधां क्षेत्रोमां काशी सर्वश्रेष्ठ छे तेवी ज रीते बधां पुराणोमां श्रीमद्भागवतनुं स्थान सौथी ऊञ्चुं छे ॥१७॥

आ श्रीमद्भागवत पुराण प्राकृतदोष रहित एटले परम पवित्र अने शुद्धि करनारुं छे, भगवान्‌ना प्रिय भक्तो (वैष्णवो) ने अतिप्रिय छे. आ पुराणमां जीवन्मुक्त परमहंसोना सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय अने मायाना लेशथी रहित ज्ञाननुं गान करवामां आव्युं छे. आ ग्रन्थनी सौथी मोटी विशेषता ए छे के आनुं नैष्कर्म्य, अर्थात्‌ कर्मोनी आत्यन्तिक निवृत्ति पण ज्ञान, वैराग्य अने भक्तियुक्त छे. जे श्रीमद्भागवतनुं श्रवण, पठन अने मनन करे छे तेने भगवान्‌नी उत्तम भक्ति प्राप्त थाय छे अने ते संसारथी मुक्त थई जाय छे ॥१८॥

(ग्रन्थना आदि, मध्य अने अन्तमां मङ्गलाचरण करवुं जोईए एवो शिष्टाचार छे तेथी श्रीमद्भागवतना पहेला ज श्लोकमां ‘‘सत्यं परं धीमहि’’थी मङ्गलाचरण कर्युं हतुं. ते ज रीते ग्रन्थनो उपसंहार करतां मङ्गलाचरण करे छे तेमां पण ‘‘सत्यं परं धीमहि’’अमे बधा ते ज परम सत्यस्वरूप परमेश्वरनुं ध्यान करीए छीए’’,-आरम्भना ए ज स्वरूपनुं ध्यान करवामां आवे छे. वळी गायत्रीमां पण ‘धीमहि’ शब्द प्रयोज्यो छे. तेथी आ श्रीमद्भागवत ब्रह्मविद्या छे एम कह्युं). आ -१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६२२ श्रीमद्भागवत भगवत्‌ त्तत्त्वज्ञाननो एक श्रेष्ठ प्रकाशक छे. बीजुं कोई पण पुराण तेनी तुलना करी शके एम नथी. कल्पना आरम्भमां सौथी पहेला स्वयं भगवान्‌ नारायणे आ ब्रह्माजीने माटे प्रगट कर्युं हतुं. पछी तेमणे ब्रह्माजीरूपे देवर्षि नारदजीने उपदेश कर्यो अने नादरजीना रूपमां भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजीने हृदयमां प्रकट कर्यो. त्यार पछी तेमणे (भगवाने) ज व्यासजीना रूपे योगीन्द्र श्रीशुकदेवजीने अने श्रीशुकदेवजीना रूपथी अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षितने उपदेश कर्यो. ते भगवान्‌ परम शुद्ध अने मायामलथी रहित छे शोक अने मृत्यु तेमनी पासे पण फरकी शकतां नथी. आपणे बधा ते ज परम सत्यस्वरूप परमेश्वरनुं ध्यान करीए छीए. (श्लोकमां ‘‘विभासितोयमतुलोज्ञानप्रदीपः पुरा।’’ शब्दो छे जेवी रीते भगवाने महावैकुण्ठनुं दर्शन कराव्युं हतुं तेम अर्ही आ प्रदीप ‘‘विभासितः प्रकाशितः’’ प्रकाशित कर्यो, ‘‘न तु विरचितं भागवतम्‌।’’ अर्थात्‌ श्रीमद्भागवतनी रचना करी नथी तेने ‘विभासित’ विभासित कर्युं छे. अर्ही ‘‘विमलं, विशोकं, अमृतम्‌’’ त्रण शब्दोनो तात्पर्यथी एक ज अर्थ छे ते पुनरुक्ति श्रीमद्भागवत सर्वथा संसारभयनो नाश करे ज छे एम भार मूकवामाटे ज छे ॥१९॥

(शास्त्रनी समाप्ति करतां पोताना इष्टदेवने प्रणाम करे छे). आपणे बधा ते सर्वसाक्षी भगवान्‌ वासुदेवने नमस्कार करीए छीए जेमणे कृपा करीने मोक्षना अभिलाषी ब्रह्माजीने आ श्रीमद्भागवत महापुराणनो उपदेश कर्यो.(भगवान्‌ने सर्व साक्षी कह्या छे तेनो भाव एवो छे के ‘‘हुं तेनो भक्त होउं के अभक्त, शिष्ट होउं के दुष्ट, भगवान्‌ना हृदयना अभिप्रेत अर्थनी व्याख्या करतां मने आवडती होय के न होय ते बधुं ते भगवान्‌ साक्षात्‌ जुए छे तेथी आपनी कृपा ए ज मारुं तो शरण छे. ब्रह्माजी पण जे श्रीभागवतनो अर्थ भगवत्कृपा विना पामी न शके त्यां मारा जेवा पामर प्राणीनी शी विसात छे? वळी सृष्टिनी रचना पहेलां ब्रह्माजीने मुमुक्षा (सृष्टिरचनाना कार्यथी हुं बन्धाउं नहि तेवी इच्छा) हती पण श्रीभागवतनो उपदेश श्रवण कर्या पछी तो तेमने भगवत्प्रेमनी आकाङ्क्षा थई अने मोक्ष प्रत्ये उदासीनता थई) ॥२०॥

आ साथे अमे ते योगीराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजीने पण नमस्कार करीए छीए जेमणे संसाररूपी सर्पे जेने दंश दीधो हतो तेवा राजर्षि परीक्षितने -१३,अध्याय द्वादशस्कन्ध ६२३ श्रीमद्भागवत पुराण श्रवण करावी मुक्त कर्या. (अर्जुननो मोह गीताजीनो उपदेश करी भगवान्‌ श्रीकृष्णे दूर कर्यो, उद्धवजीनो मोह एकादश स्कन्धमां भगवाने उपदेश आपी दूर कर्यो तेवी रीते परीक्षितनो संसार श्रीशुकदेवजीए दूर कर्यो. लोकप्रतीतिने लक्षमां राखीने ज आ कहेवामां आव्युं छे. वळी सर्पनुं विष हरी लेनार मन्त्रो लोकमां अर्थज्ञाननी पण अपेक्षा राखता नथी. विष उतारनार मनुष्य मन्त्रनो अर्थ जाणतो होय के न जाणतो होय पण मन्त्र बोलवाथी जेने सर्प करड्यो होय तेनुं विष उतरी ज जाय छे तेवुं तेनुं स्वरूप बल छे. एवी ज रीते, श्रीभागवतनो पाठ करनार अर्थ समजतो होय के न समजतो होय तो पण संसार-विषने ते निर्मूल करी दे छे ॥२१॥

हे देवताओना आराध्य देव सर्वेश्वर! आप ज अमारा एक मात्र स्वामी अने सर्वस्व छो. हवे आप एवी कृपा करो के वारंवार जन्म लेवा छतांय आपनां चरणकमलोमां अमारी अविचल दृढ भक्ति निरन्तर रहे ॥२२॥

नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपाप प्रणाशनम्‌ ॥ प्रणामो दुःखशमन-स्तं नमामि हरिं परम्‌ ॥२३॥

जे भगवान्‌नां नामोनुं सङ्कीर्तन तमाम पापोनो सर्वथा नाश करी दे छे तथा जे भगवान्‌ना चरणकमलने करेल एक ज प्रणाम सदाने माटे सर्व प्रकारनां दुःखोने नष्ट करी दे छे ते ज परम तत्त्वरूप श्रीहरिने हुं नमस्कर करुं छुम् ॥२३॥

इति श्रीभागवत द्वादशस्कन्धमां (पाञ्चमा अर्थाश्रय प्रकरणनो त्रीजो तथा चालु) ‘‘विभिन्न पुराणोनी श्लोक सङ्ख्या अने श्रीभागवतनो महिमा’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. द्वादशस्कन्ध सम्पूर्ण कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही

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