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ईं उं ईं उं

[[२५९]] एकादशस्कन्ध २५९ एकादशस्कन्ध मुक्तिलीला-श्रीमस्तक अध्याय३१ जीवमुक्ति ब्रह्ममुक्ति अविद्यानाशथी अने प्रकृतिना अध्याय३० अध्याय३१ विद्याप्राप्तिथी अतिक्रमणथी अहन्ताथी ममताथी अधिकारी - जनक अधिकारी - उद्धवजी अध्याय - १-५ अध्याय - ६-२९ ब्रह्मभावमुक्तिज्ञानथी सायुज्य मुक्ति भक्तिथी ब्रह्मे नाट्यवत्‌ ग्रहण करेल इच्छाशरीरनो त्याग अ.१ वैराग्य अ.२ साङ्ख्य अ.३ योग अ.४ तप अ.५ भक्ति अध्याय१ - प्रकरण - १ जीवमुक्ति यादवकुमारोने ब्राह्मणोए आपेलो शाप

विशेषः १.पूर्वे नेवुं अध्यायथी दशसमस्कन्ध क्ह्यो. तेमां तामसादि अधिभूत, अध्यात्म अने अधिदैव ना भेदथी निरोध पदार्थ स्पष्ट कर्यो. हवे एकत्रीस अध्यायथी मुक्तिनो विचार आ [[२६०]] स्कन्धमां करे छे. एमां जीवमुक्ति अने ईशमुक्ति, जीवना बद्ध-मुकत भेद अने ईश्वरनाट्य त्यागरूप भेदथी मुक्तिमां लोकनाट्योनो त्याग अने देह आदिनो त्याग एवा बे भेद छे. तेमां पहेलो ब्रह्मभाव पाञ्च अध्यायथी कहे छे. बीजी सायुज्यमुक्ति चोवीस अध्यायथी कहे छे. एकथी अहन्ता अने एकथी ममतानो त्याग एम बे अध्यायथी ईशमुक्ति मळी एकत्रीस अध्याय थाय छे. जीवमुक्तिमां ब्रह्मभावरूप प्रथम मुक्ति विद्याथी अने सायुज्यरूप बीजी मुक्ति प्रकृतिना त्यागथी कहेवामां आवी छे अथवा प्रथम मुक्ति ज्ञानथी अने बीजी मुक्ति भक्तिथी थाय छे. ज्ञानरूप प्रथम साधननो उपदेश करनारा दश=नव सगुण + एक निर्गुण वकताओ छे; अने बीजा भक्तिरूप साधननो उपदेश करनारा पुरुषोत्तम प्रभु छे. ब्राह्मण, हंस, भीष्म, भिक्षु, पुरूरवा तथा मूलरूप अने अवताररूप एम द्विरूप भगवान्‌ एम सात वक्ताओ छे. तेथी ऐश्वर्यादि पूर्णधर्मयुकत धर्मी बोधक छे. बीजा प्रकरणमां नारदजी निर्गुण छे. कवि वगेरे योगेश्वरो छे. वैराग्य भगवद्‌ धर्मो, सर्वं निर्णीत अर्थ, कथा श्रवण अने पूजा ए पाञ्च छे. ‘‘प्रथम अध्यायमां यदुकुलने शाप थयो तेनी ज कथा छे तेथी वैराग्यनो ज बोध थाय छे एम केम कहेवाय?’’ ए शङ्कानुं समाधान करे छे के तेनो अभिप्राय वैराग्यमां छे एटले के शापथी वैराग्य थाय छे. बीजी भक्तिरूप साधननी प्रक्रियामां मूळभूत भगवान्‌नी स्तुति छे. चतुर्मूर्तिमां त्रण स्वरूपनुं चरित्र पहेलां कही गया. अर्ही सङ्कर्षणनी लीला कहेवानी छे एमां ज्ञानशक्ति मुख्य छे. वासुदेव तो मोक्ष आपनार छे. प्रद्युम्नथी अर्थ अने काम सिद्ध थाय छे. अनिरुद्ध धर्मना रक्षक छे. अर्ही ज्ञान आदि कह्युं छे ते चतुर्मूर्तिनुं चरित्र बताववामाटे छे. भगवान्‌ अक्लिष्टकर्मा छे ते काल आदि द्वारा बधुं करावे छे ए बताववा अर्ही मौसलनो प्रसङ्ग कह्यो छे. ए प्रथम सङ्क्षेपथी कह्यो छे पण अर्ही एनो विस्तार छे. आथी स्कन्धार्थ अने प्रकरणार्थ कह्यो; हवे अध्यायार्थ कहे छे. यादवो तो ब्रह्मण्य छे. तेमने ब्राह्मणनो शाप न सम्भवे माटे भगवान्‌ ज एमां कर्ता छे, ब्राह्मणो निमित्त मात्र छे. ए पहेला अध्यायनो अर्थ छे. प्रथम भगवाने वसुदेवजीने ज्ञाननुं दान करेल पण ए काळे करीने भुलाई गयुं एनुं कारण ए ज के एमने भगवान्‌मां गुरु तरीकेनी भावना न हती पण पुत्र तरीकेनी भावना हती. वसुदेवजीमां भगवाने पितृत्व स्थाप्युं छे तेथी नारदजीद्वारा एमने पूर्वज्ञाननुं स्मरण कराव्युं. गोपीजनोनी जेम वसुदेवजी पण बहार दृष्टि करे छे त्यारे एमने दुःख थाय छे. सर्व संसारत्यागनी एमनी इच्छा छे. एमने सम्पूर्ण ज्ञाननो बोध नारदजीए र्क्यो. हवे ए निर्गुण थशे, बाह्यदृष्टि निवृत्त थशे ए [[२६१]] नारदजीना उपदेशनुं फल थशे. नारदजी पुष्टिमार्गीय होवाथी वसुदेवजीने एमनामां दृढ श्रद्धा न थाय तेथी नव योगेश्वरोनी कथा कही. एमां चार भूमिका कहेवामाटे चार अध्याय कह्या. तेनी कथा साम्भळतां वसुदेवजीने नारदजीए करेलो उपदेश प्रकाशशे. चार भूमिकामान्थी भगवद्‌भकते भगवद्धर्म करवो अथवा भगवद्‌भकतनो सङ्ग करवो ए ज कर्तव्य छे. उत्तम ए तो मायाने जाणवी, वैराग्य राखवुं, मायाने तरवा गुरुसेवा करवी, परब्रह्मने जाणीने एनी यज्ञादिथी अहर्निश आराधना करवी. एमां पण वैदिक अने तान्त्रिक एवी आराधनाना भेदथी आराधना करवी. तेटला माटे वेदनो पण निर्णय एमां बताव्यो छे. आ बधुं बीजा अध्यायमां कहेवामां आव्युं छे. ते करवा अशकत होय तेमणे सतत कथा श्रवण आदि करवां. प्रथम प्रकरणनो विचार करी बीजानो विचार करे छे. आ बीजा प्रकरणमां सायुज्य कहेवानुं छे. ए ब्रह्मभावथी पण श्रेष्ठ छे. सृष्टिना आरम्भमां भगवान्‌थी विभेद थतां जीवने प्रकृतिनो संसर्ग थाय छे एनुं कारण मूल इच्छा छे. तेथी एनो नाश तो हरिना हाथमां छे. स्वत्वथी स्वीकारेलने भगवान्‌ प्रकृतिथी छोडावशे. एमां गुरुत्वथी भगवान्‌ ए साधनरूप थाय छे. तेने माटे आगळना अध्यायमां उद्धवजीना प्रसङ्गमां साधन कह्यां छे ए त्रेवीस अध्यायथी कहेशे. केम के प्राकृत गुणना प्रकार तेटला छे. प्रकृति अने प्राकृत नो पोते करेल साधनथी नाश करी ब्रह्मभाव करवा करतां एनो भगवान्‌ नाश करे तो उत्तम तेथी ब्रह्मभावथी पण आ प्रकरणने उत्तम कह्युं. अर्ही छठ्ठो अध्याय पूरो थयो. प्रकृतिमान्थी प्रथम अङ्कुररूपे महत्तत्त्व थाय छे. ‘‘विश्वमात्मगतं व्यञ्जन्‌’’ ए श्लोकथी सङ्क्षेपथी एनुं वर्णन करी ‘‘एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः’’ त्यां उपसंहार करे छे. उपसंहारमां ब्रह्मवाद छे तेथी उपक्रममां पण ब्रह्मवाद होवो जोईए. एमां ‘‘यदात्थ …’’ इत्यादि त्रण श्लोकथी भगवाने उद्धवजीना प्रश्ननो अनुवाद करीने ‘‘न यस्तव्यं’’ इत्यादि वडे बाह्य साधन बतावीने ‘‘यदिदं मनसा वाचा’’ इत्यादिथी प्राकृत अङ्कुरनी जेम सर्व बताव्युं छे. ‘‘तस्माद्‌ युकतेन्द्रियग्रामः’’ इत्यादि चार श्लोकथी प्राकृत अङ्कुरना नाशनां साधन बतावीने ‘‘पश्यन्‌ मदात्मकं विश्वम्‌’’ इत्यादिथी भगवाने ब्रह्मवादनो निर्देश कर्यो छे. एथी ‘‘यद्‌ इदं मनसा’’ इत्यादिथी मायिकपणुं कह्युं छे. ते बुद्धिमां रहेल प्रपञ्चने मायिक कह्यो ए द्वितीयस्कन्धमां ‘‘ऋतेर्थं यत्‌ प्रतीयेत’’ इत्यादिमां जे विषयता बतावी छे ए मायिक समजवी, सत्य प्रपञ्च मायिक छे एम समजवानुं नथी. ए ज श्रुतिमां ‘‘न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्‌युष्माकमन्तरं बभूव’’ ए श्रुतिमां जे आन्तरालिक सृष्टि कही छे ते मायिक छे. अर्ही पण आगळ चालतां [[२६२]] ‘‘इन्द्रियायनसृष्ट्‌्येदं; ईक्षेत विभ्रममिदं, त्वय्युद्धवाश्रयति’’ इत्यादिथी ए ज आन्तरालिक सृष्टिनुं कथन थशे. प्राकृतता तो ‘‘द्वे अस्य बीजे’’ इत्यादिथी कहेवाशे. आन्तरालिक सर्ग साङ्ख्यस्मृति सिद्ध छे ते अर्ही वैराग्यार्थ कहेवायो छे. वैदिक सर्ग तो ‘‘स एष जीवः’’ (भाग.पुरा.११.१२.१७) इत्यादि साडाचार श्लोकथी कहेशे. ‘‘कालेन नष्टा प्रलये’’ (११.१४.३) इत्यादि एनो ज विस्तार छे. ज्ञान प्राकृत अङ्कुरनो नाश करी दे छे. तेथी अर्ही महत्तत्त्वरूपी अभिमान्‌नो नाश अध्यायनो अर्थ छे. आ प्रकरणमां तो भक्तिवडे ब्रह्मभाव थाय एमां ज्ञान कहेवानी शी आवश्यक्ता छे? एना उत्तरमां कहेवानुं के ज्ञान पण अर्ही भक्तिमाटे ज छे. मुख्य भक्ति अर्ही प्रकरणी छे ए वात समाप्तिमां स्पष्ट थशे. ‘‘वातरशना ये’’ (११.६.४७) इत्यादिथी ब्रह्मधाममां पहोञ्चवामाटे ए ज्ञान छे. भगवद्गीतामां ए ज्ञानने भक्तिमाटे कह्युं छे. आगळ तो भकितनो ज उपदेश करशे. जो उत्कृष्ट अधिकार होय तो एने ज्ञाननी इच्छा न थाय. पण एणे ते वखते पोतानो अधिकार न जोयो तेथी ज्ञानार्थ प्रश्न कर्यो छे. अर्ही त्रीजो अध्याय समाप्त थयो. आन्तर-बाह्यना त्यागमां मुक्ति कहे छे. बे मार्गनुं श्रवण करवाथी सन्देह थाय छे. एनी निवृत्ति केवळ वचनमात्रथी थती नथी एवो सन्देह न थवामाटे युक्ति कहे छे. एमां मूल, मध्य अने अन्तमां एनुं स्वरूप कहे छे. सत्त्वादिथी अन्तःकरणदोष निवृत्त थवानुं कह्युं ए शुद्धाद्वैतमां दोष पण भगवदात्मक होवाथी भगवान्‌ एने छोडावे नहि त्यांसुधी ए छूटता नथी तेथी पहेला गुरु कह्या छे तेनाथी उत्तम गुरु मळे तो ज ए दोष जाय. तेथी सनकादिक प्रश्न करे छे. त्यारे हंस एनो उत्तर आपे छे. त्रण गुण अने (चित्तनो त्याग तो कृष्ण कृपावडे थाय. श्रद्धा एमां फलमुख-अङ्ग छे. भक्ति गुणातीत थाय त्यारे एनुं फल मळे छे. ए वात ‘‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन’’ ए श्लोकथी कही छे. ‘‘इति मे च्छिन्न सन्देहः’’ एमां पण ए ज वात छे. भगवत्प्रवेश पण भक्ति विना न थाय. तेथी ज ‘परया’ एवुं भक्तिने विशेषण आप्युं छे. एवी पराभक्ति ब्रह्मभाव पछी थाय. ज्ञाननी पराकाष्ठा ए ब्रह्मभाव कहेवाय. एने माटे प्रथम बुद्धिनुं शोधन थवुं जोईए तेथी ‘‘बुद्ध्‌्या विशुद्धया’’ वगरेथी एनी प्रणाली बतावी एमां त्रण गुण अने चित्तनो त्याग कह्यो छे. ए बुद्धि गुणने त्यारे ज छोडे के ज्यारे बुद्धिमां भगवत्प्रवेश थाय. ज्यारे बुद्धिमां भगवत्प्रवेश थाय त्यारे भेदबुद्धि दूर थाय, सर्वत्र भगवत्स्फूर्ति थाय. एने अर्ही ‘‘मनथी, वाणीथी, दृष्टिथी तथा बीजी इन्द्रियोथी पण जे कंई ग्रहण करवामां आवे छे ते बधुं हुं ज छुं, मारा सिवाय बीजुं कंई छे ज नहि एवी अभेद बुद्धि राखो’’ एम हंसावतारे उपदेश आप्यो छे. एमां ‘अहं’ [[२६३]] शब्द कह्यो छे ते जीवने कहेनार छे के ब्रह्मने? ए सन्देहना उत्तरमां आगळ जीवने आत्मा कह्यो छे तेथी ‘अहं’ शब्द ब्रह्मने कहेनार छे एम सिद्ध करीने गुण अने चित्तना त्यागमाटे बुद्धिनी अवस्थाओ कही. एनाथी जीवने ब्रह्मथी जुदो बतावी वृत्तिना साक्षी पोते थई ‘‘त्यागः सगुणचेतसां’’ वगेरेथी त्याग बतावीने ‘‘यावन्नानार्थ धीः’’ इत्यादि वडे भेदबुद्धिनुं मिथ्यात्व अने एवी बुद्धिवाळानुं ‘अज्ञत्व’ देखाडीने ‘‘यो जागरे’’ इत्यादिथी ‘स्मृत्यन्वयात्‌’ सुधी युक्ति बतावी पोतानुं साक्षीपणुं कह्युं अने बधा सन्देह दूर करी पोताना भजननो रस्तो खुल्लो कर्यो. गुणसर्गादिना मिथ्यात्वमां मुक्ति कहे छे. अर्ही गुणने चित्तप्रभव कह्या, आगळ उपदेशमां साङ्ख्य-योगनुं ज्ञान कह्युं तेथी भेदवादनी सिद्धिमाटे ऐच्छिक भेद मिथ्या नथी एम पण कह्युं. अर्ही तेरमो अध्याय पूर्ण थयो. आ निर्णय श्रुतिने मान्य छे ए बतावनार चौदमो अध्याय छे. आ ज निश्चित अर्थ छे एम बताववा श्रेयनुं निरूपण कर्युं. बीजुं श्रेय मानीए तो श्रीकृष्ण फलरूप न ठरे तेम गुण अने चित्त नो त्याग साधनरूप न थई शके तेथी ‘आद्यन्तवदसत्‌’ थी लई ‘‘मद्विनान्यत्‌ (मद्‌ विना अन्यत्‌)’’ सुधीमां ए वात देखाडी छे. सेवक थवामां हीनता नथी एम मनाय त्यारे श्रद्धा सिद्ध थाय. भक्ति साधन अने फलरूप छे. भकितनुं साधन ध्यान छे. तेना अनेक भेद भगवान्‌नो चित्तमां आवेश थवा माटे कह्या. अर्ही ‘‘माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु’’ मां कहेलो द्वितीय खण्ड पूर्ण थयो. ‘‘द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः’’ एटले द्रव्यमां मारुं अने बीजा नुं ए द्रव्यभ्रम, विषय मायिक छे ए ज्ञानभ्रम अने भगवान्‌नी सेवा सिवाय बीजुं लौकिक करवुं ए क्रियाभ्रम ए त्रण भ्रमो दूर थया पछी सुदृढ अने सर्वतोधिक (सर्व करतां अधिक) स्नेह प्रभुमां थाय ए ज उपर कहेलो द्वितीय खण्ड थयो. अर्ही पन्दरमानो अर्थ कह्यो. एनी समाप्तिमां ‘‘सर्वासामपि सिद्धीनां’’ इत्यादि बे श्लोकथी सर्वनुं प्रभुपणुं अने प्रभुनुं सर्वपणुं कह्युं तेथी सिद्धिमां कोईने उत्कर्षनो भ्रम थाय तेने दूर करवा ए सिद्धिओ भगवान्‌मां अन्तरायरूप कही तेथी ए अध्याय भ्रमनिवृत्ति शेष थयो. चौदमा अध्यायमां मनस्तत्त्वनो नाश कह्यो त्यारे पन्दरमां अध्यायमां आकाश अने वायु-तत्त्वनो नाश कह्यो. सोळमा अध्यायमां ‘‘येषु येषु च भावेषु’’ इत्यादिथी विभूतिनो प्रश्न कर्यो तेनी अर्ही जरूर शी? एम कोई शङ्का करे तेनो उत्तर कहे छे के भगवद्‌गीतामां ‘‘भक्‌त्या मामभिजानाति’’ इत्यादि श्लोकथी ‘‘यच्च यावच्च’’ ज्ञानप्रवेशमां हेतुरूप कह्युं ते ज ‘‘ज्ञात्वा ज्ञात्वा’’ थी कह्युं छे. ए पण भक्तिनी पहेलां एवुं ज्ञान थवुं जोईए. [[२६४]] भगवत्प्रवेशमां ए ज्ञानने व्यापारता छे तेथी मूळमां ‘तत्त्वतः’ एम कह्युं छे. ‘अभिज्ञान’ तो भक्तिवडे ब्रह्मज्ञान थाय त्यारे ज थाय. एवुं ज्ञान ब्रह्मभाव पहेलां न थाय. पराभक्ति पण ब्रह्मभाव पछी ज थई शके छे. तेथी ‘‘येषु येषु च भावेषु’’ इत्यादिथी उद्धवजीए पूछ्‌युं त्यारे ‘‘अहमात्मोद्धवामीषाम्‌’’ इत्यादिथी पोते ज सर्वना आत्मा होवानुं भगवाने एने कह्युं छे ए सर्वताना ज्ञानमाटे ‘‘यच्च यावच्च’’ ज्ञानस्वरूप पोते होवाथी ‘‘यच्च यावच्च’’ ने विभूति कही ए सर्व हुं जाणुं छुं एम कही ‘‘मनोविकारह्येवैते यथा वाचाभिधीयते’’ ए बधा मनना विकाररूप छे एम जाणे त्यारे एने भगवान्‌ सर्वात्मा छे एवुं ज्ञान थाय. अर्ही सोळमो अध्याय पूरो थयो. सत्तरमो अध्याय अने अढारमो बन्ने अध्यायो भक्तिशेष छे. ‘‘यस्त्वयाभिहितः’’ एम सत्तरमां अध्यायना आरम्भमां उद्धवजीए प्रश्न कर्यो तेमां धर्म पूछ्‌यो ते भकितमां उपयुकत धर्म पूछयो. सद्धर्मथी दुर्वासना निवृत्त थवानुं सप्तमस्कन्धमां कहेवामां आव्युं छे. ‘‘इति मां यः स्वधर्मेण भजन्नित्यमनन्यभाक्‌, सर्व भूतेषु मद्भावो मद्भक्तिं विन्दतेऽचिरात्‌’’ ए श्लोकमां धर्मनो उपयोग भक्तिमां कह्यो छे तेथी बन्ने अध्यायने भजन शेष कह्या छे. भक्ति प्रेमलक्षणा अने साधनरूपा एम बे प्रकारनी छे ते बन्ने ‘भजत्‌’ अने ‘अनन्यभाक्‌’ ए बे शब्दथी कही. जो एम न कहे तो साधनभाव नष्ट थई जाय. एमां स्वधर्म-साधन भक्तिना अङ्गरूप छे पण ए स्वधर्म पण बाधक जणाय छे तेथी वर्णाश्रमधर्म भक्ति शेष छे. ओगणीसमा अध्यायना आरम्भमां ‘‘यो विद्याश्रुतसम्पन्नः’’ इत्यादि कही ‘तपस्तीर्थ’ इत्यादिथी ज्ञाननां वखाण करी ‘‘तस्माज्‌ ज्ञानेन सहितम्‌’’ इत्यादिथी ज्ञानने भकितनुं अङ्ग कही ‘ज्ञानविज्ञान’ इत्यादिथी ज्ञानयज्ञनी सिद्धिने बतावी ज्ञानीनी श्लाघामां ‘‘मायामात्रमिदं’’ ए श्लोकथी देखातुं बधुं ‘मायिक’ छे एम कही तारो देह पण मायिक छे एम कहेवामाटे भगवाने ‘‘त्वय्युद्धवाश्रयति’’ इत्यादिथी क्ह्युं. आना प्रथमना अध्यायमां पण ‘‘नैतद्‌वस्तुतया पश्येत्‌ यदेतदात्मनि जगत्‌’’ ए बे श्लोकथी देखातुं बधुं अवस्तु कह्युं. पोताना शरीरमां रहेल बधुं जगत मायिक कह्युं त्यारे उद्धवजीने सन्देह थयो के जगतने मायिक जाणवुं ए ज्ञान भक्तिना अङ्गरूप के जगतने ब्रह्म जाणवुं ते अङ्गरूप? एना उत्तरमां भगवान्‌ युधिष्ठिर अने भीष्म ना संवादरूप इतिहास कहे छे; एमां सर्वनो निर्णय आवे छे. एमां भीष्मे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार, मन, पञ्चभूत, पाञ्चविषय, दश इन्द्रियो अने त्रण गुणो एम अठ्ठावीस तत्त्वो कह्यां तेमां परमात्मतत्त्व एक सत्त्व छे एम जाणवुं. सद्‌रूप कैवल्य जेनाथी [[२६५]] देखाय ते ज्ञान छे. आ ‘‘सर्वभूतेषु येनैकं’’ इत्यादि श्लोकथी कह्युं छे. पच्चीसमा अध्यायमां ‘‘कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं’’ एम कहेशे. ‘‘एतदेव हि विज्ञानम्‌’’ इत्यादिथी विज्ञान बताव्युं. एकला ब्रह्मथी तृणस्तम्बथी ब्रह्मा सुधीना भावो उत्पन्न थाय छे ते जेनाथी उत्पन्न थाय ते विज्ञान छे. जे वस्तु आदि, मध्य अने अन्त मां अनुस्यूत रहे, कार्यनो कारणमां लय थतां जे बाकी रहे ते ‘सद्‌वस्तु’ कहेवाय. बीजुं आगन्तुक छे. आरोपित समजवुं. ए पण विज्ञान छे एम भीष्मे कह्युं छे तेमां बे प्रकार कह्या. एमां श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य अने अनुमान मां कांई निश्चयात्मक ज्ञान न थवाथी विचारकने वैराग्य थाय छे. विकल्प वैराग्यनो प्रयोजक छे तेथी अठ्ठावीस तत्त्वो वगेरे वैराग्यमाटे छे. बीजानुं प्रयोजन ए के ब्रह्मपर्यन्तना भावो नष्ट थवाथी अमङ्गळरूप छे एम जाणे त्यारे मूळ कारणमां श्रद्धा थाय. एम बे विभागनुं प्रयोजन कहीने महद्‌विमृग्य भक्तियोग पूछ्‌यो एटले अगियारथी ओगणीसमां अध्यायमां कहेल भक्तिथी उत्तम भक्तिनो प्रश्न कर्यो तेना उत्तरमां भीष्मे बधा ऋषिओनी सन्मुख कह्युं हतुं ते भगवाने उद्धवजीने कह्युं. एमां विकल्पने मायिक कह्यो ते वैराग्यार्थ छे एम पण कह्युं. वैराग्य पण गुणवैतृष्ण्य सुधी थवुं जोईए, तो ज ए परम भक्तिमां उपयोगी थाय. ब्रह्मात्मक ज्ञाननो भक्तिमां साक्षात्‌ उपयोग छे. त्यार पछी उद्धवजीए यम आदिनो प्रश्न कर्यो. भगवाने एनो उत्तर आप्यो. ए विज्ञानना अङ्गरूप अने सन्न्निपत्त्युपकारक छे. भक्तिमां ज्ञानने अङ्गरूप कह्युं तेथी ओगणीसमा अध्यायनो विचार पूरो कर्यो. वीसमो अध्याय पण परम्पराथी भक्ति शेष छे. वेदमां जे भेदो कह्या ते हीनाधिकारीओने वैराग्यमाटे कह्या छे. वेदनुं तात्पर्य एवा भेदमां नथी पण वैराग्यमां छे. तेथी ज पूर्वोत्तरकाण्डमां विरोध नथी. वेद पण परम्पराथी भक्तिनुं प्रतिपादन करे छे. एम वीसमो अध्याय तपास्यो. एकवीसमा अध्यायनो विचार करे छे. पूर्वाध्यायमां भेद मायिक कह्यो तेथी अभेदमां वेदनुं तात्पर्य छे एम सिद्ध थयुं. ओगणीसमा अध्यायमां अठ्ठावीस तत्त्व कह्यां ते सङ्ख्या पण मायिक ठरी तो एवां तत्त्वो शा माटे स्वीकारवां जोईए? भगवाने मतान्तरने ‘यौक्तिक’ कह्या पण स्वमतने एम नथी कह्यो. तेथी भेद सिद्ध थशे, अभेद सिद्ध नहि थाय. वैराग्य कह्युं. ते पण प्रकृति-पुरुषना विवेक पूरतुं ज गणाशे, भकतार्थ गणाशे नहि. एम ‘‘गुणेष्वाविशते चेतो’’ इत्यादिथी कही एनो अन्योन्य त्याग करवानुं कह्युं. तेम अर्ही जीव अने प्रकृति ना रूपमां वैलक्षण्य छतां परस्पर संश्लेषथी अभेदज्ञान थाय छे ए वात ‘‘प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ’’ इत्यादिथी भेदने वाचारम्भण कह्यो. माया बुद्धिमां एने उत्पन्न करे छे. ए [[२६६]] उपाधिवडे बधा सापेक्ष बने छे. तेथी अंशथी त्रिविध छतां अंशीवडे एकता बतावी, ‘‘आत्मा यथैषामपरो य आद्यः’’ ए अर्धश्लोकथी आकाशमां रहेल सूर्यनुं दृष्टान्त आपी प्रकृति आदिथी आत्माने जुदो कह्यो. एनुं स्वधर्म अने अनुभव थी सर्वानुभावक्त्व कही ‘‘एवं त्वगादि’’ इत्यादिथी इन्द्रियोनुं त्रैविध्य अने विकारने प्रधानजन्य बतावी प्रकृति- पुरुष जुदां नथी पण धर्मभेदथी ए वाचारम्भण मात्र छे. ए व्यवहारमां उपयोगी छे. पूर्वकाण्डमां भेद प्रवृत्ति अर्थे छे तेम अर्ही पण हीन अधिकारीने उद्‌देशी भेद कल्प्यो छे. ‘‘अपागादग्नेरग्नित्वम्‌’’ नी जेम अर्ही निर्णय समजवो. त्रिविध मायाथी बहिर्मुख जीवने ए भेदहीन अधिकारीथी देखाय छे, वस्तुतः अभेदमां तात्पर्य छे. ‘‘त्वत्तः परावृत्तधियः’’ इत्यादि श्लोकथी उद्धवजीए प्रश्न कर्यो त्यारे भगवाने ‘‘मनः कर्ममयं’’ इत्यादिथी एना संसारनी अनिवृत्ति कही. एनुं कारण के ए भगवद्विमुख होवाथी एने भेदभाव जतो नथी. ए भगवदअपराध करे छे तेथी एनो संसार छूटतो नथी. एथी ज ‘‘तत उद्धव मा भुङ्क्ष्व’’ इत्यादिथी भगवान्‌ एने मटवानो उपाय बतावे छे. तेथी मनोदण्ड कह्यो छे. अर्ही पण ए मायिकपणुं कह्युं ते वैराग्य अर्थे समजवुं. भक्तिने माटे वैराग्य छे एम तो प्रथम कह्युं. आगळ पण कहेशे. आम बावीसमो अध्याय कह्यो. भेद पारमार्थिक छे, आगन्तुक छे, आरोपित छे एवो सन्देह करीने एने चोवीसमा अध्यायमां दूर करे छे. त्रेवीसमा अध्यायमां तो मनोदण्ड अथवा दण्डितमनने जाणवानो प्रकार कहेवामां आवे छे. अतिक्रमने सहन करवानुं सामर्थ्य आवे त्यारे एने ज्ञान थाय छे एम समजाय. साधन ज्ञानमां भिक्षु गुरु छे. एना जेवी भावना करे तो मन दण्डित थाय. जो मननो त्याग थाय तो बीजां साधनोनी जरूर रहेती नथी. तेथी आ अध्याय पूर्वाध्याय शेष गणाय. एम त्रेवीसमो अध्याय विचारी चोवीसमा अध्यायनो विचार करे छे. ओगणीसमा अध्यायमां ‘‘तस्माज्‌ज्ञानेन सहितम्‌’’ एमां ज्ञान अने विज्ञानने भक्तिनां अङ्ग कह्यां, ‘‘नवैकादशपञ्चत्रीण्यात्थ’’ इत्यादिथी गौण-मुख्य भेदवडे ज्ञान- विज्ञानना स्वरूपनो विचार कर्यो. एमां ज्ञान-विज्ञान सम्पत्तिथी भजे तो सन्न्यासी थईने (अध्याय बावीस-त्रेवीसमां) कहेली रीतथी अठ्ठावीस तत्त्वना भेदने आगन्तुक जाणीने भजे. आधिदैविक वादनो आश्रय करी विज्ञानसम्पत्तिथी भजे तो चोवीसमा अने पच्चीसमा अध्यायमां कह्या प्रमाणे ‘‘येन मे निर्जिताः सौम्य’’ इत्यादि साडा चार श्लोकमां कहेल प्रकारथी भजे. तेमां वैराग्य अने श्रद्धा भक्तिनां अङ्गरूप छे. भजननो प्रकार अगियारमा [[२६७]] अध्यायमां ‘‘मल्लिङ्ग-मद्‌भक्तजन’’ इत्यादि श्लोकथी कहेल समजवो. ‘‘पुनश्च कथयिष्यामि’’ इत्यादिथी ओगणीसमा अध्यायमां कहेलो प्रकार पण लेवो. भक्तिनुं स्वरूप ‘‘न रोधयति मां योगः’’ इत्यादि बारमा अध्यायमां कहेलुं लेवुं. पछी मुख्य अधिकार थाय त्यारे बारमा अध्यायमां कहेली शरणागति साधनरूप जाणवी. ओगणीसमा अध्यायमां आत्मार्पणपूर्वक भजन करवानुं कह्युं छे ते पण करवुं. हीन अधिकारीए अगियारमा अध्यायनो प्रकार ग्रहण करवो. एम चोवीस अने पच्चीसमा अध्यायनो विचार थयो. छ ्व्वीसमो अध्याय पण वैराग्यने कहेनार होवाथी भक्तिशेष छे. ‘‘एवं जातोपि सङ्गेन पुनश्चेन्नाशमेति हि’’ इत्यादिथी भकित शेष कह्यो. सत्तावीसमो अध्यया पण भक्तिशेष छे. दैवीसम्पत्तिमां मोक्ष थाय तेवो होय छतां वासनाने वश थतां सङ्गदोष लागे तेमां ज देह पडे अने बीजा देह मळे त्यारे प्रारब्ध नाश थाय. पछी दैवीसम्पत्तिना धर्मो स्फुरतां एने मुक्तिनी इच्छा थाय त्यारे एनो निस्तार केम थाय ए वात उद्धवजीए श्रीकृष्ण भगवान्‌ने पूछी त्यारे एना उत्तरमां भगवाने सङ्क्षेपथी कर्मकाण्ड कह्यो, योगरूप साधन पण कह्युं. ए पण ज्ञाननी जेम भकतमां अङ्गरूपे रहे छे. ए दूरथी साधनरूप छे. एम सत्तावीस अध्यायनो विचार थयो. हवे अठ्ठावीसमा अध्यायनो विचार करे छे. एमां मायावादने कहे छे. भक्ति अर्थे ब्रह्मवादने पण कहे छे, पछी ‘‘निःसङ्गो विचरेत्‌ इह’’ एने माटे उद्धवजीने मायावाद अने ब्रह्मवाद पण कह्यो. ‘‘यावद्‌देहेन्द्रियप्राण’’ त्यान्थी लईने ‘‘द्वयं पण्डितमानिनाम्‌’’ सुधीमां ए बधुं आवी गयुं. ‘‘योगिनो-पक्वयोगस्य’’ इत्यादिनो अर्थ बतावी ‘‘तत्परं पुरुषख्यातेर्‌ गुणवैतृण्यम्‌’’ इत्यादि पाताञ्जलयोगसूत्रथी कहेलुं वैराग्य तो भेदवादीओने पण इष्ट छे. एने छोडी अर्ही मायावाद केम क्ह्यो? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के जीवविषयक वैराग्य पण अर्ही जरूरनो छे. ‘‘प्रकृतिः पुरुषश्चेति, अविद्यमानोप्य-वभासते’’ इत्यादि वाक्योथी ए वात सिद्ध थाय छे त्यारे भगवान्‌नुं तात्पर्य मायावादमां छे एम कहो. एना उत्तरमां कहेवानुं के ‘‘ज्ञानं विवेको निगमः’’ इत्यादिमां ‘‘यथा हिरण्यं सुकृतं’’ इत्यादिथी कार्यमात्रने ब्रह्मपणुं कह्युं छे एनो विरोध आवे माटे द्वैतप्रतिपन्नने मायिक कह्युं. पण ऐच्छिकभेदने मायिक कह्यो नथी तेथी भगवत्‌ तात्पर्य ब्रह्मवादमां छे, मायावादमां नथी एम स्पष्ट थाय छे. हवे ओगणत्रीसमा अध्यायनो विचार करे छे. एमां अनुकल्प क्ह्या छे तेथी ए अध्याय पण भक्तिशेष छे. आना आरम्भमां ‘‘विद्धि मायामनोमयम्‌’’ वळी ‘‘एष [[२६८]] तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः’’ तेथी आनुं तात्पर्य ज्ञानमां होवानुं जणाय छे. तेथी प्रकरणी ज्ञान छे. भक्ति तो ‘‘यद्यनीषो धारयितुं’’ इत्यादिथी अनुकल्प तरीके कही छे! एवी शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के अन्य लिङ्गोथी सर्वनुं भक्तिमां तात्पर्य छे. अगियारमा अध्यायमां ‘‘अथैतत्परमं गुह्यं’’ एथी ‘परमगुह्य’ अने ‘सुगोप्यता’ कहीने बारमा अध्यायमां भक्तिनो बोध कर्यो. ‘‘मत्कामा रमणं जारम्‌’’ इत्यादिथी ज्ञानना अभावमां केवळ भावथी पण स्वप्राप्ति बतावी छे. एमां पण ‘‘शतसहस्रशः’’ ते काकतालीय नहि पण ज्ञान वगर पण अनेकने केवळ भाव अने सत्सङ्गमात्र थी भगवत्प्राप्ति थवानो मार्ग मोटो छे एम कह्युं. अध्याय तेरमामां नानात्व भ्रमनिवर्तक ज्ञान कहीने ‘‘भजत माखिलसंशयाधिम्‌’’ इत्यादिथी भगवाने भक्तिनो बोध कर्यो छे. ओगणीसमा अध्यायमां ‘‘ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भकितभावतः’’ इत्यादिमां पण भजन कह्युं छे. आगळ पण श्रद्धा, वैराग्य वगेरे कही परम कारणतामां ‘‘श्रद्धामृतकथायाम्‌’’ वगेरे कही ‘‘मयि सञ्जायते भकितः’’ इत्यादिथी ए ज वात कहेवामां आवी छे. चौदमा अध्यायमां भक्तिनुं बळ अने एनुं फळ क्ह्युं. साङ्ग धर्म अने विद्याने ए भक्तिनां अङ्ग कह्यां तेथी ए बधां भकितथी न्यून छे एम कही सोळमा अध्यायमां भकितयुकत बुद्धिने तथा सत्तरमा अने अढारमा अध्यायमां भक्तिने माटे धर्मने कही आगळना अध्यायोने भक्तिशेष कह्या. तेथी सर्वत्र आ स्कन्धमां भक्ति ज प्रधान छे. उपक्रममां ज्ञान कह्युं ते तो मैत्रेयी ब्राह्मणमां जीवात्मानी पेठे सौलाभ्यार्थ. उपसंहारमां ब्रह्मवाद क्ह्यो ते पण परम्पराथी भक्तिना अङ्गरूप छे एम बताववामाटे छे. ‘‘यद्यनीशो धारयितुं’’ इत्यादि अनुक्रम तो उपासना शेषभूतना भक्तिना साधनभूत सिद्ध थाय छे. ‘‘अथैतत्परमं गुह्यम्‌’’ एम भेदथी क्ह्युं ए तो अर्ही विवादास्पद नथी. ‘‘मत्कामा रमणं जारमस्वरूप’’ वगेरेमां अज्ञान कह्युं ते तो अन्तर्गृहगताने उद्‌देशीने कह्युं छे एम ‘तमेव’ इत्यादि शुकोक्तिथी सिद्ध थाय छे. रासस्थाने तो कुरुक्षेत्रमां ज्ञानोपदेश कर्यो छे. ते ज्ञाननुं पण भक्तिमां पर्यवसान छे, ज्ञान भक्ति समुच्चयमां नहि. एम होत तो ‘रमणं’ पदनो उल्लेख न करत. ‘‘रामेण सार्धं’’ इत्यादिमां रासस्थ आलिङ्गननो पण विरोध आवे. ‘‘केवलेन हि भावेन गोप्यो गावः खगा मृगाः’’ इत्यादिनो पण विरोध आवे. ज्ञाननो उपदेश तो ‘‘ज्ञात्वा पाने महान्‌ रस’’ इत्यादि न्यायथी ‘‘स्रक्‌चन्दनादिवत्‌’’ उपकरणार्थ छे, फलार्थ नथी. ‘‘योगास्त्रयो मया प्रोक्ताः’’ एमां त्रण मार्गो फलार्थ कह्या एनुं शुं? एना उत्तरमां कहेवानुं के अधिकारीना भेदथी मार्गभेदो कह्या छे. ए ज मार्गो कहेवानुं तात्पर्य छे. एमां मुख्य भक्ति [[२६९]] कही नथी ए ज वात ‘‘जातश्रद्धो मत्कथासु’’ इत्यादिथी आरम्भीने ‘‘कथञ्चिद्यदि वाञ्छति’’ एथी फलान्तर कहीने ‘‘न मय्येकान्तभक्तानाम्‌’’ इत्यादि श्लोकथी अधिकारीनुं स्वरूप बतावीने मुख्य भक्ति प्रकरणो छे एम सिद्ध कर्यु छे. एम जीवप्रकरणने समाप्त करीने हवे ईश प्रकरणना बे अध्यायनो विचार करे छे. अहन्ता-ममता छोडवामाटे आ प्रकार छे. तेथी नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्तने मुक्ति सम्भवे नहि ए शङ्काने अर्ही अवकाश नथी. एकादश अध्यायमां ‘‘बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतः’’ इत्यादिथी जीवने बन्ध मायाथी कह्यो. केमके ए अहङ्कारथी थाय छे. ए भ्रान्तिजन्य छे. वास्तव बन्ध जीवने पण नथी. मायानी निवृत्ति विना जीवने बन्ध दूर थतो नथी. एने दूर करवामाटे भक्ति, ज्ञान, उपासना वगेरे कह्यां छे. भगवान्‌ने तो माया पोतानी शक्तिरूप होवाथी ए बाध करती नथी. तेथी तेने तत्कृत गुणबन्धन सम्भवतुं नथी पण एने तो ऐच्छिक छे; ए ज स्पष्ट करे छे. ब्रह्मवादमां सर्वात्मा भगवान्‌ छे एम प्रभुए अनेक स्थळ कह्युं छे. ममत्व तो देखाव मात्र छे. ए बन्नेनो नाश पण अभिनय मात्रमां ज समजवानो छे. अहं भावना क्षयनो अभिनय करवामां आव्यो छे. ‘‘अहं ब्रह्मास्मि, अहं सर्वस्य प्रभवः, अहं योगस्य साङ्ख्यस्य’’ इत्यादिमां ‘अहं’शब्दनो प्रयोग देखाय छे ते ‘आत्मविषयक’ छे तेथी नटनी जेम कपटमानुषवेशनो देवोनी प्रार्थनाथी भगवाने त्याग कर्यो छे. मानुषवेशमां पण प्रार्थना कारणरूप हती. तेने देवोना कहेवाथी भगवाने छोडी. ममताक्षयमां श्रीकृष्ण ब्रह्मरूप छे. यादवो तेमने स्वतुल्य माने छे. ते ब्रह्म यादवोथी जुदुं थाय त्यारे ममतानो क्षय थाय ए भाव भगवान्‌ एने छोडे त्यारे निवृत्त थाय. शरीरने स्वीकारवामां अने छोडवामां देवोनी प्रार्थना कारणरूप छे. छठ्ठा अध्यायमां ब्राह्मणोनो शाप कह्यो. तेने दुरत्यय कह्यो तेथी भगवान्‌नी तिरोधाननी इच्छा हती एम जणाय छे. नहि तो शापनो प्रतिकार करवाने प्रभु समर्थ हता. शङ्खोद्धारमां स्त्रीओने मोकली यादवोने प्रभास लई गया तेथी देशनी गौणता कही छे. काळ आवे तो स्त्री बाळकनो संहार करे एम न थवा माटे एमने अन्यत्र पहोञ्चाड्यां छे. तेमनी द्वारकामां मुक्ति थाय ए पण भगवान्‌ने इष्ट न हतुं तेथी पण बीजे मोकल्यां छे. तेथी ए बधां भगवान्‌नी पासे ज पहोञ्चशे ए ज भगवान्‌ने इष्ट होवुं जोईए. सरस्वती पण ब्रह्मरूप छे तेमां मुक्ति न थाय एम न कहेवाय. ‘‘विमुक्तः किल्बिषात्‌ सद्यः’’ इत्यादि वाकयोथी त्यां पण पापक्षय तो कह्यो छे. ‘‘क्षत्रियाणामयं धर्मः’’, ‘‘भ्रातापि भ्रातरं हन्यात्‌’’, ‘‘धर्म्याद्धि युद्धात्‌ श्रेयोन्यत्‌ क्षत्रियस्य न विद्यते’’, ‘‘द्वौ सम्मताविह मृत्यु दूरापौ’’ इत्यादि वाक्यथी युद्ध ए क्षत्रियनो धर्म छे [[२७०]] तेना वडे मुक्ति कही छे. युद्ध मुक्तिसाधन छे तेथी अर्ही भगवाने वैराग्य गुण प्रकट कर्यो छे. तेथी सर्व सम्बन्ध छोडी मुक्तिप्रतिबन्धक पापनो त्याग करावी एने भगवाने वैराग्य कराव्युं छे. जो भगवान्‌ने मुक्ति आपवी होय तो एमने शाप आपनार मुनिओने ‘भगवन्मतकोविदा’ एवुं विशेषण आप्युं छे. ए भगवान्‌ना अभिप्रायने जाणनार हता तेथी एमनी इच्छा प्रमाणे मुनिओ शाप आप्यो छे. एमने कायक्लेश न कराव्यो पण धर्मरूप युद्ध कराव्युं. एमां आसुरोने मोह पण कराव्यो. तेथी षष्ठ स्कन्धना निबन्धनी अन्तमां ‘‘सर्वा लीला पुष्टिमध्ये प्रविशन्तीति मे मतिः’’ एम श्रीआचार्यचरणनुं कथन छे ते अर्ही सार्थक थाय छे. एमां पण प्रभुनो यादवो उपर अनुग्रह थयो छे. प्रथम स्कन्धमां रामनो सत्त्वदेह छे एम कह्युं छे तेथी अर्ही जे देह छोड्यो छे ते सत्त्वदेह नर्ही पण लौकिक देह छे एम समजवुं. जरा तो अभिमानी देव शिकारीरूपे आव्यो ए एना कार्यथी जणाय छे. शाप ब्रह्मरूप छे, आधिभौतिक अक्षयरूप छे एणे शिकारीने भगवान्‌ साथे जोडी दीधो. शेषलोहनुं शिकारीए बाणनुं फल कर्युं हतुं ते भगवान्‌ना चरणमां वाग्युं ते पूर्ण ब्रह्ममां पहोञ्च्युं त्यारे आधिभौतिक हरिण जेवुं शिकारीने लाग्युं. वेदमां काळां मृगचर्मने ब्रह्मरूपे कह्युं छे तेथी बहार हतुं ते भगवाने आ लीलाथी पोताना स्वरूपमां लीधुं त्यारे देवोए भ्रमथी जाण्युं के भगवान्‌ स्वधाम पधारे छे. ‘‘आ भगवान्‌ सगुण छे एमने आपणे घेर लई जईशुं’’ एवी बुद्धिथी विमानमां बेसीने जोवा आव्या. ए पण एमां विस्मित ज थया. सारथि दारुक जयविजयनी पेठे वैकुण्ठथी आव्यो हतो. ते रथ लाव्यो अने पोते मुकत थई गयो. बळदेवजीनी पेठे रुक्मिणीजी पण स्त्रीओमां मुख्य छे. एम भगवान्‌नुं नाट्य समाप्त थयुं. अर्ही ‘नाश’शब्द नैयायिकना ध्वंस जेवो नथी पण कार्यनो कारणमां लयरूप छे, जेने पुराणमां ‘प्रतिसञ्चर’ कहे छे. श्रुतिमां ‘यत्प्रयन्ती’ इत्यादिथी प्रतियान कहे छे ते समजवो. ‘‘योगधारणयाग्नेया’’ इत्यादिनुं तात्पर्य कहे छे. ‘‘रविमध्ये स्थितः सोमः’’ इत्यादि श्रुतिमां ‘‘तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वं व्यवस्थिता’’ इत्यादि सन्दर्भमां ‘‘नीलतोयदमध्यस्था विद्युल्लेखेव भास्वरा’’ कही छे तेनुं अर्ही ‘‘सौदामिन्यायथाकाशे’’ इत्यादिथी स्मरण कराव्युं छे. ए अग्निमां भगवान्‌ छुपाई गया. थोडीवार पछी ‘‘बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं’’ इत्यादिथी एमनुं वर्णन करीने इच्छा शरीरथी रह्यानुं कह्युं छे. भगवाने ए समये नयननिमीलन कर्युं तेथी बधानी ज्ञान शक्तिनो सङ्कोच कर्यो छे. तेथी जेओ हता तेमने स्वरूपमां सगुणतानो भ्रम थयो. त्यारे एमणे ‘‘सलोकान्‌ लोकपालान्नः पाहि’’ एम प्रार्थना करी त्यारे भगवाने ‘‘यास्यामि भवनं ब्रह्मन्‌’’ [[२७१]] इत्यादि कह्युं त्यारे विमानथी पधारशे एम देवोए जाण्युं. भगवान्‌ तो गुणातीत छे; मायाने दूर करे त्यारे देखाय एने आच्छादन करे त्यारे न देखाय. एमने कयांय आववा-जवानुं होय नहि. ‘यास्यामि’ एम कह्युं ए तो ब्रह्मरूप सरस्वती उपर रह्या ए कह्युं छे. तेथी देवो ए वात न समजतां आश्चर्यचक्ति थया छे. स्त्रीओमां रुक्मिणीजी वगेरेनो देह सात्त्विक छे. बीजां राजस-तामस देहवाळां छे. अष्टावक्रना शापवाळां जुदां छे. तेमना वासनादेहोने छोडाव्या अने ब्राह्मदेहो आप्या. एम करी भगवाने ए नाट्यने पूरुं कर्यंु छे. एम चार प्रकरणथी निबन्धानुसार मुक्तिलीला कही.
२. अगियारमां स्कन्धमां एकत्रीस अध्यायोथी बे प्रकारनी मुक्ति कहेवामां आवी छे. आ बे प्रकारनी मुक्ति -
१. सत्‌, चित्‌ अने आनन्द अंशोमान्थी जे अंशो तिरोहित थयेला होय ते प्रगट थतां ब्रह्मभाव थाय छे एम तत्त्वदीप निबन्धमां कहेलुं छे.
२. श्रीकृष्णनी प्राप्ति एटले ‘सायुज्य’. ते पैकी ब्रह्मभाव हरिना गुणो प्राप्त करवाथी थाय छे. श्रीकृष्णनी प्राप्ति भगवान्‌नी आज्ञा प्रमाणे वर्तवाथी थायछे. अविद्या पाञ्च प्रकारनी छे. तेनो नाश थतां पहेली मुक्ति थाय अने प्रकृतिनुं उल्लङ्घन थाय त्यारे बीजी मुक्ति थाय. तेथी बे मुक्तिओमां अध्यायो ते प्रमाणे छे. एटले के मुक्तिमां प्रतिबन्धरूप होय तेने रोकवाथी पण मुक्ति थाय छे एम अध्यायनी सङ्ख्याना तात्पर्यथी जणावे छे. पहेला प्रकारनी मुक्ति पाञ्च अध्यायोथी अने बीजा प्रकारनी चोवीस (६.२९) अध्यायोथी जणावेली छे (कारण के अविद्याना पाञ्च पर्वो छे अने प्रकृतिना चोवीस तत्त्वो छे) सात्त्विक जनक अने राजस उद्धव ज ते मुक्ति प्राप्त करनारा छे. उद्धवजी राजस छे छतां ते उत्तम प्रकारनी मुक्तिना अधिकारी केम? जनक सात्त्विक छे छतां तेमनी उत्तम मुक्ति केम नहि? ए शङ्कानुं समाधान करे छे के फलनी प्राप्ति तो पुष्टि (भगवानना अनुग्रह) थी ज छे. ए अनुग्रह अधिक होय तो गुणो तो अकिञ्चित्कर (पाङ्गळां) छे एटलुं ज नहि पण ऊलटाना ते तो भगवान्‌मां आसक्ति दृढ करावी फल प्राप्त करावी देनारा थाय छे. तेथी अधिकारी (उद्धवजी) हीन छे एम मानवानुं कारण नथी. ‘‘मुक्तिना बे प्रकार भले होय तो पण बाकीना बे अध्यायो (३०.३१)नुं शुं प्रयोजन छे?’’ तेनुं समाधान करे छे के मुक्ति एटले अन्यथारूपनो त्याग करीने स्वरूपमां रहेवुं. मुक्ति [[२७२]] बे प्रकारनी - १. जीव अने २. ब्रह्मना विभागथी छे. तेथी आ बीजी ब्रह्मनी बे प्रकारनी मुक्ति जणाववा आ बे अध्यायो कहेला छे. ‘‘जे देहथी भूमिनो भार हर्यो’’ ‘‘जेवां मत्स्य वगेरे रूपो छे’’ ए बे वाक्यो प्रमाणे लीलामां उपयोगी व्यूह साथेनुं पोतानुं प्राकृत स्वरूप भगवाने दर्शावेल तेनो त्याग करी व्रजनो उद्धार करनारुं पोतानुं अप्राकृत स्वरूप भगवाने धारण कर्युं अने पोताना अंशो (यादवो) ए गुणोनां अभिमाननो त्याग करी तेमने जीवनी जेम बीजा साधननी जरूर न होवाथी मात्र भगवाननी इच्छाथी तेओ अवतारयोग्य रूपथी रह्या एम बे प्रकारनी ब्रह्मनी मुक्ति जणावी एवो भाव छे. आगळनो स्कन्ध पाछळना स्कन्धना कारणरूप होवाथी मुक्ति (अगियारमो स्कन्ध), निरोध (दशमा स्कन्ध) नुं परिणाम छे. तेथी जेमनो निरोध थयो तेमनी मुक्ति थवी ज जोईए. तेथी दशमा स्कन्धमां जणावेल तामस भकतोनो पण मुक्तिमां समावेश थवो जोईए एवी शङ्का थाय तेथी कहे छे के तामसो अने राजसो एक छे. एटले के तामसो अने राजसोनो एक विभागमां समावेश थतो होवाथी जीवनी मुक्तिना प्रकरणमां व्यासजीए ते बन्नेनो अधिकार कहेलो छे. अंशो अने भगवान्‌ एम बीजो विभाग पण बे प्रकारनो विचारेलो छे. अर्थात्‌ प्रद्युम्न, अनिरुद्ध अने सङ्कर्षण अंशो यादवोमां रहेल (तेमनी अने भगवान्‌ नी मुक्ति कहेवानी होवाथी बे अध्यायो छे) तेथी पाञ्च अध्यायोथी पहेली अने चोवीस अध्यायोथी बीजी कहेवाय. ब्रह्मनी मुक्तिमां पण बीजां रूपनो त्याग करवानो होवाथी तेमां पण तेटला ज ओगणत्रीस अध्यायो जोईए, छतां एक-एक ज केम? ए शङ्कानुं निवारण ए छे के ईश्वरनी मुकितमां तजवा योग्य अंश-अविद्या तथा प्रकृतिनो सम्बन्ध नथी. मात्र तेमनी स्वरूपमां स्थिति ज कहेवानी होवाथी ते एक-एक अध्यायथी ज कहेली छे. बन्ने मुक्तिमां बब्बे पेटा प्रकरण होवानुं बीजुं तात्पर्य ए छे के ‘मारुं’ अने ‘हुं’ (ममता अने अहन्ता) नो नाश थाय ते माटे ते बे प्रकारो कहेल छे अने पाछळथी भगवाने ते बेनो अभिनय करेलो छे एम कहेलुं छे. आथी, ईश्वरने ‘मारुं’ अने ‘हुं’ एवी बुद्धि न होवाथी तेमनी मुक्तिमां बे पेटा प्रकरण शा माटे? ए शङ्कानुं निराकरण कर्युं अने तेथी पहेला अध्यायमां मुक्तिना बे बीज (मूल) कहेला छे.
१. ब्रह्मनी मुक्ति पोतानी इच्छाथी अने २. जीवनी मुक्ति वैराग्यथी थाय छे. चार प्रकारनी मुक्ति होवानो विचार पण तेमनी (भगवाननी अथवा भकतोनी) इच्छाथी छे तेवी स्थिति छे. श्रीभागवत ३.२५.३६ मां कह्या प्रमाणे भकतोनी ए मुक्तिनी इच्छा न होय तो [[२७३]] पण भगवान्‌ आपे छे, त्यारे ब्रह्मभाव प्राप्त करी तेओ मुकत थाय छे. सेवाथी पूर्ण थयेल न होय तेवा भकतो पण तेनी इच्छा करी ते प्राप्त करे छे. तेथी पाञ्च अध्यायोथी पहेली अने चोवीस अध्यायोथी बीजी कहेवाय. ईश्वरनी मुक्तिमां तजवा योग्य अंश न होवाथी बीजी बे एक-एक अध्यायथी कहेली छे. कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः ॥ भुवोऽवतारयद्‌ भारं जविष्ठं जनयन्‌ कलिम्‌ ॥१॥

व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान्‌ श्रीकृष्णे बलरामजी तथा बीजा यदुवंशीओनी साथे मळी घणा दैत्योनो संहार कर्यो तथा पाण्डवो अने कौरवो मां पण अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करी पृथ्वीनो भार उतारी दीधो ॥१॥

कौरवोए कपटपूर्ण जुगारथी, जात-जातनां *अपमानोथी तथा द्रौपदीना केश खेञ्चवा वगेरे अत्याचारोथी पाण्डवोने खूब क्रोधित करी दीधा हता. ते ज पाण्डवोने निमित्त बनावी भगवान्‌ श्रीकृष्णे बन्ने पक्षोमां एकत्र थयेला (अधम)राजाओने मरावी नाख्या अने आ प्रमाणे पृथ्वीनो भार हळवो करीदीधो ॥२॥

विशेष - षण्ढतिलाः पाण्डवा जाताः। पाण्डवो तो तेल वगरना तल छे ए तलमां हवे तेल नथी-नामर्द, बायला, सम्पत्ति हीन थई गयां छे वगेरे वाचनिक अपराधो करवामां आवेला. पृथ्वीने भार करनार राजाओनी सेनाओने पोताना गुप्त हाथरूप यादवोथी नष्ट करावीने भगवाने विचार कर्यो के में पृथ्वीनो भार तो ओछो कर्यो पण ज्यां सुधी कोईथी सहन न थाय तेवुं यादवोनुं कुळ पृथ्वी उपर छे त्यां सुधी पृथ्वीनो भार उतर्यो छे एम मानवाने हुं तैयार नथी केमके ए यादवकुळने कोई पहोञ्ची शके तेवो नथी ॥३॥

ए यादवो मारा आश्रित होवाथी एमनो कोई बीजो माणस पराभव करी शके एम नथी. तेम एमनो वैभव बहु मोटो छे. तेथी एमनी सामे थवानी कोईनी हिम्मत थई शके एम न होवाथी एमने मांहो-मांहे कलेश करावुं जेथी वांसडा जेम परस्पर घसाय त्यारे एमान्थी अग्नि उत्पन्न थाय अने एने लीधे ज बळी जाय तेम यादवोनुं करीने हुं स्वधाम जवानो विचार करुम् ॥४॥

हे राजन्‌! भगवान्‌ सर्व शक्तिमान अने सत्य सङ्कल्प छे. पोताना मनमां आ प्रमाणे निश्चय करी ब्राह्मणना शापने बहाने पोताना कुलनो उपसंहार कर्यो* [[२७४]] ॥५॥

विशेष - बुद्ध्‌्यानी जग्याए राजन्‌ एवो पाठ पण छे. त्यारे ए आशय छे के हे राजा! तने पण ब्राह्मणना शापनो परचो मळी चूक्यो छे. ते टाळी शकाय नहि. श्रीकृष्ण विभुः सर्व शक्तिमान छे. उद्धवजी, वज्रनाभ वगेरेने विप्रशाप लाग्यो नहि तेथी भक्तिनो अप्रतीम प्रताप तो सिद्ध थयो ज, ब्राह्मणोनुं अभिमान पण रहेवा न दीधुं. ‘सञ्जहे्र’ एटले उपसंहार कर्यो, पोतानी पासे स्वधाममां लई लीधा, प्रलय (नाश) न कर्यो एवो भाव छे. आगळ १.७.३२ मां सञ्जहारार्जुनो द्वयम्‌ वगेरेमां पण आवो प्रयोग थयेल छे. अर्थ ए थाय के कार्यनो ज तिरोभाव थयो, स्वरूपनो नहि. ‘उपसंहार’ अने ‘प्रलय’ वच्चे आ ज तफावत छे. श्रीगुसांईजी विरचित ‘विद्वन्मण्डन’ ग्रन्थमां ‘सञ्जह्रेऽस्वकुलं विभुः। अस्वकुल-जे कुल पोतानुं नहोतुं एटले के मायिक हतुं तेनो ए प्रमाणे पदच्छेद करी मायिक कुलनो प्रलय कर्यो अने पोताना कुलने पोतानी पासे लई गया तेवो अर्थ करेल छे. ते ‘‘मन्मायारचितामेताम्‌’’नी साथे विरोध न आवे ते स्वारस्यथी करेल छे. हे परीक्षित! भगवाननुं ते स्वरूप त्रिलोकीना सौन्दर्यनुं तिरस्कार करनारुं हतुं. आपे पोतानी सौन्दर्यमाधुरीथी बधान्ना नेत्रो पोतानी तरफ आकर्षित करी लीधां हतां. आपनी वाणी, उपदेश परम मधुर दिव्यातिदिव्य हतां. ते द्वारा आपे स्मरण करनाराओना चित्तने हरी लीधां हतां. आपना चरणकमल त्रिलोक सुन्दर हतां. जेणे आपना चरणचिह्‌नना पण दर्शन करी लीधां तेनी बर्हिमुखता चाली गई. आपे अनायासे ज पृथ्वी उपर पोतानी कीर्तिनो विस्तार करी दीधो जेनुं वर्णन व्यासजी जेवा महाकविओए सुन्दर भाषामां कर्युं छे. ते एटलामाटे के आपना स्वधाम पधार्या पछी लोको आपनी आ कीर्तिनुं गान, श्रवण अने स्मरण करी आ अज्ञानरूप अन्धकारमय संसारसागरने सहेलाईथी तरी जाय. त्यारबाद परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ श्रीकृष्ण पोताना धाममां पधार्या ॥६-७॥

राजाए पूछ्‌युंः ब्राह्मणनुं हित करनार, उदार, कुलवृद्धोनी सेवा करनार अने श्रीकृष्णमां निरन्तर चित्तने स्थापन करनार यादवोने ब्राह्मणनो शाप केम थयो ए कहो ॥८॥

हे ज्ञानभक्ति सम्पन्न! ए शाप केवो अने ए थवानुं कारण शुं? वळी यादवोना तो शरीर ज जुदां हतां, आत्मा तो एक ज (श्रीकृष्णमय) हतो तो तेओमां फूट केम पडी ते आप मने कहो ॥९॥

[[२७५]] श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान्‌ श्रीकृष्णे सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोनो सन्निवेश जेमां छे तेवा श्रीअङ्गने धारण कर्युं हतुं. (नेत्रो मृगनयन, खभो सिंहनो, गति गजनी, चरणोमां कमल, मुखमां चन्द्र अथवा कमल वगेरे) पृथ्वी उपर मङ्गळमय कल्याणकारी कर्मो कर्यां ए पूर्णकाम प्रभुए द्वारकामां बिराजी क्रीडा करतां रहेतां पोतानी उदार कीर्तिनी स्थापना करी. अन्तमां श्रीहरिए पोताना कुलने सङ्केली लेवानी इच्छा करी. कारण के हवे पृथ्वीनो भार उतारवामां आटलुं ज कार्य बाकी हतुम् ॥१०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे एवा परम मङ्गलमय अने पुण्य प्राप्त करावी आपनारां कर्मो कर्यां के जेमनुं गान करवाथी लोकोना तमाम कळियुगना दोष नष्ट थई जाय छे. हवे भगवान्‌ श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेननी राजधानी द्वारकापुरी वसुदेवजीना गृहमां यादवोनो उपसंहार करवामाटे कालरूपथी ज निवास करी रह्या हता. ते वखते तेमना विदाय करी देवाथी विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ अने नारदजी वगेरे मोटा-मोटा ऋषिओ द्वारकानी पासे ज पिण्डारक क्षेत्रमां निवास करवा लाग्या हता ॥११-१२॥

यादवोना पुत्रो त्यां रमता हता ते बधा मळी मुनिओनी पासे गया अने ए अविनयवाळा हता छतां विनय बतावता होय एवो देखाव करी मुनिओने प्रणाम करी प्रश्न कर्यो ॥१३॥

ए बधाए जाम्बुवतीना पुत्र साम्बने स्त्रीनो वेश पहेराव्यो हतो. एने आगळ करी मुनिओ पासे आवीने बोल्या - ‘‘श्यामनेत्रवाळी आ बाईने गर्भ छे ॥१४॥

एटलुं ज नहि पण प्रसवनी तैयारी छे. ए आपने पूछतां शरमाय छे. एने पुत्रनी इच्छा छे तेथी अमोघ दृष्टिवाळा आपने अमारी मारफत पूछावे छे के एने पुत्र थशे के पुत्री ए आप कहो’’ ॥१५॥

हे राजन्‌! एम ज्यारे मुनिओने बनाव्या (छेतर्या) त्यारे मुनिओ गुस्से थया अने एना उत्तरमां कोप करीने बोल्या के ‘‘हे मुर्खो! तमारा कुळनो नाश करनार मुसळने ए बाई जन्म आपशे’’ ॥१६॥

एवा शापने साम्भळीने तेओ बहु ज गभराई गया. तेमणे साम्बना पेटने कपडान्थी मोटुं बनाव्युं हतुं. ते कपडां झटपट पेट उपरथी खसेड्यां त्यां तो एमान्थी लोढानुं मुशळ नीकळ्युं. तेने बधाए जोयुम् ॥१७॥

[[२७६]] हवे तो तेमना पस्तावानो पार रह्यो नहि. तेओ कहेवा लाग्या - ‘‘आपणे घणा अभागी छीए. जुओ, आपणे केवो अनर्थ करी बेठा? हवे दुनिया शुं कहेशे?’’. आम तेओ बहु ज गभराई गया अने मुशळ लई पोताना घेर गया ॥१८॥

ते वखते तेमनां मुख करमाई गयां हतां अने चहेरा फिक्का पडी गया हता. तेओए राजा उग्रसेननी सभामां सर्व यादवो समक्ष समग्र घटना कही साम्भळावी अने राजाने मुशळ आप्युम् ॥१९॥

हे राजन्‌! ज्यारे ते बधाए ब्रह्माणोना शापनी वात साम्भळी अने लोह मुशळ जोयुं त्यारे द्वारकाना बधा नागरिको विस्मित अने भयभीत थई गया कारण के तेओ जाणता हता के बाह्मणोनो शाप कदी खोटो पडतो नथी ॥२०॥

यदुराज उग्रसेने ते मुशळनो भूको करावी नाख्यो अने ते भूको तथा लोहना वधेला टुकडाने समुद्रमां फेङ्कावी दीधा. (आ बाबतमां कोईए भगवान्‌ श्रीकृष्णनी सलाह लीधी नहि; एवी ज आपनी प्रेरणा हती) ॥२१॥

हे परीक्षित! लोढाना ते टुकडाने एक माछलुं गळी गयुं अने भूको मोजांओथी धकेलातो-धकेलातो समुद्रने किनारे आवी पहोञ्च्यो. थोडा दिवसोमां तेमान्थी एरका (नामनुं घास) ऊगी आव्युम् ॥२२॥

मच्छीमारोए जाळमां माछलां पक्ड्यां. तेमां ए लोढाना टुकडाने गळनार माछलुं पण पकडाई गयुं. एने चीरतां एना पेटमान्थी ते लोढानो टुकडो नीकळ्यो. तेनुं ‘जरा’ नामना शिकारीए पोताना बाणनुं फळुं बनाव्युम् ॥२३॥

भगवान्‌ ज्ञातसर्वार्थः ईश्वरोऽपि तदन्यथा ॥ कर्तुं नैच्छद्‌ विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत ॥२४॥

भगवान्‌ तो कर्तुम्‌ अकुर्तम्‌ अन्यथाकर्तुम्‌ समर्थ छे. पोते सर्व वातने जाणे छे के मारा कुळने ब्राह्मणनो शाप थयो छे. एने मटाडवा धारे तो मटाडी शके छतां एमणे अनुमोदन आप्युं पण ए अत्यारे काळरूप थया छे तेथी एमने बचाववानो विचार न कर्यो ॥२४॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धना (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर ब्रह्मभाव प्रकरणनो) ‘‘यादवकुमारोने ब्राह्मणोए आपेलो शाप’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[२७७]]

अध्याय २

वसुदेवजीना पूछवाथी नारदजीए निमिराजा अने योगेश्वर नो संवाद क्ह्यो.

विशेष - वैराग्य थवानुं कारण ब्राह्मणनो शाप सारी रीते प्राप्त थयो होवाथी वैराग्य थवो जोईए. हृदयमां आसक्ति होवानी सम्भवती होवाथी अने अन्दरनी आसक्ति बळवान होवाथी वैराग्य फळतो नथी. मुक्ति जेणे मेळववी होय तेने पहेलां गुरु जोईए अने तेने शास्त्रोनो उपदेश जरूरी छे. उद्धवजीनी मुक्तिनी बाबतमां गुरु हरि छे. भक्तिमार्गनो सेवक (उद्धवजी) उत्तम अधिकारी छे. भगवाननां वचनो शास्त्र छे. सेवकोमां तो जे शास्त्रना मार्गे सेवकनो आश्रय करे ते ज अधिकारी छे. ‘‘व्रजवासीओनी पण मुक्ति थई छे. तेमनो उल्लेख अर्ही नहि करतां वसुदेवजी अने उद्धवजीनो ज उल्लेख केम छे?’’ एम शङ्का थाय तेनुं समाधान करे छे के ‘‘गोपीजनो, गायो, पक्षीओ अने पशुओ ने मात्र भावथी भगवत्प्राप्ति थई छे’’ ए वाक्य प्रमाणे तेमनो तो निरोध ज तेमनी मुक्तिमां समर्थ छे. तेथी तेओ तो सौथी मुख्य होवाथी अर्ही तेमनो निर्देश नथी. ‘‘वसुदेवजीने तो साक्षात्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्ण हाजराहजूर हता छतां भगवाने पोते उपदेश नहि करतां नारदजी द्वारा शा माटे कराव्यो?’’ एवी शङ्का थाय तेनुं समाधान करे छे के वसुदेवजीनी मुक्तिनुं बीज कृपा-तो छे. प्रपत्ति वगेरे रूप ज्ञान अने कर्म पण तेमने सिद्ध थयां छे पण तेमना उपरनो अनुग्रह शुद्धपुष्टि नहि पण मर्यादा मिश्रित होवाथी अने शास्त्रनी दृष्टिए वसुदेवजी आचार्यरहित होवाथी अर्थात्‌ भगवाने तेमना गुरु थवानुं स्वीकारेल न होवाथी वसुदेवजीने ज्ञान फळ्युं नहि. तेथी हवेनी कथा तेमने फल प्राप्त करावी आपवामाटे छे. ‘‘भगवाने उद्धवजीने ज्ञाननो सन्देशो लईने गोपीजनो पासे मोकल्या हता त्यारे ज्ञान आपेलुं ज हतुं. अर्ही फरीथी तेमने उपदेश शा माटे?’’ तेनुं समाधान करे छे के ए उपदेश बीजा (गोपीजनो) माटे हतो तेथी तेणे लौकिक थई जई प्रपत्तिनुं ज पोषण कर्युं. ते फल प्राप्त करावी आपवा समर्थ न हतो. तेथी फरी संवादथी ज्ञाननो उपदेश कर्यो. श्रुतिमां तो कह्युं छे के ज्ञानथी ज मुक्ति थाय छे. अर्ही वसुदेवजी अने उद्धवजी ने ते प्राप्त थई चूकेल छे. अकस्मातथी पण अग्निनो स्पर्श थाय तो पण ते बाळ्या विना न रहे ए नियम प्रमाणे [[२७८]] ज्ञानथी तेमनी मुक्ति थई जवी जोईती हती. ‘‘वसुदेवजी आचार्य रहित हता अने उद्धवजीने ज्ञान गोपीजनोमाटे आपेलुं तेथी तेमनी मुक्तिमां पण प्रतिबन्ध आवे?’’ ते शङ्कानुं समाधान करे छे के श्रीकृष्णमां ममता साथेनो वसुदेवजीनो बहु ज दृढ निरोध हतो तेथी ते ममताना नाशने माटे तथा उद्धवजीनी अहन्ताना नाशने माटे आ कथा कहेवामां आवी छे. गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ॥ अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे कुरु श्रेष्ठ परीक्षित! देवर्षि नारदजीना मनमां भगवान्‌ श्रीकृष्णनी वारंवार सेवा करवानी तीव्रलालसा रहेती हती. तेथी ते श्रीकृष्णनी भुजाओथी सुरक्षित द्वारकामां पुनः-पुनः आवी रह्या करता हता* ॥१॥

विशेष - श्रीकृष्णनी सेवा करवामां दैत्यो अने पापो बे मोटां विघ्नो छे. पाप तो नारदजीमां हतुं ज नहि पण बहारना अने अन्दरनां दैत्यो विक्षेप करनारा हतां. आध्यात्मिक वगेरे दैत्यो हृदयमां रहेता होवाथी भगवान्‌ प्रगट होवा छतां आपनी सेवा करी शकवानुं सम्भवतुं नथी. (श्री.भा.६.५.४३ मुजब) आम तो नारदजीने दक्षनो शाप हतो के तमे एक ठाम ठरीने रही शकशो नहि. पण द्वारकामां नादजी ठरीने रहेता कारण के द्वारकामां शापनो प्रभाव चाली शकतो नहि. यादवोए पण जो नारदजीनी माफक भगवत्सेवा करी होत तो शापनी असर कांई थात नहि. भगवत्सेवा देवो वगेरेने पण दुर्लभ छे. बधां अनिष्टोनो अन्त लावनारी छे. मुकत जीवोए पण इच्छेली छे अने मोक्ष समान छे. ब्रह्मभाव प्राप्त करी चुकेला नारदजीने सेवा करवानी केम इच्छा थाय? इन्द्रियो सार्थक करवा माटे ए एनुं समाधान छे. हे राजन्‌! जेनी इन्द्रियो पोताने वश छे तेवो कयो माणस ब्रह्माजी वगेरे मोटा-मोटा देवताओना पण सेव्य भगवानना चरणकमलोनी दिव्यगन्ध, मधुर मकरन्दरस अलौकिक रूप माधुरी, सुकुमार स्पर्श अने मङ्गलमय ध्वनिनुं सेवन करवानी चाहना न करे? कारण के ते बिचारो चारे तरफथी मृत्युथी घेरायेलो छे ॥२॥

ए वसुदेवजीए एक दिवस नारदजी घेर पधारतां एमनुं पूजन कर्युं अने सुखथी घरमां पधराव्या पछी एमने नमन करीने वसुदेवजी आ प्रमाणे पूछवा लाग्या ॥३॥

वसुदेवजीए कह्युं - संसारमां माता-पितानुं आगमन पुत्रोने माटे अने [[२७९]] भगवन्मार्गना पथिक साधु-सन्तोनुं पधारवुं संसारमां सपडायेला दीन-दुःखीओने माटे बहु ज सुखकर अने मङ्गलमय होय छे. परन्तु हे भगवन्‌! आप तो स्वयं भगवन्मय भगवत्स्वरूप छो. आपनुं हरवुं-फरवुं तो समस्त प्राणीओना क्ल्याणने माटे ज होय छे ॥४॥

देवोनुं चरित्र मनुष्यना सुखने माटे तेमज दुःखने माटे पण थाय छे. जेम के देव प्रसन्न थाय तो वृष्टि करे. योग्य वृष्टि थाय तो अन्न आदिनी उत्पत्ति थतां लोको सुखी थाय. पण अतिवृष्टि थाय तो एनाथी लोको दुःखी पण थाय. तेथी देवोना चरित्रमां दुःख पण होवाथी एना करतां पण भकतनुं चरित्र केवळ सुख आपनार होवाथी श्रेष्ठ छे केमके ए भकत तमारा सरखा अने अच्युत भगवान्‌मां मन राखनार होवाथी एना सङ्गीने पण ए भगवत्पर करे छे तेथी ए देवोथी श्रेष्ठ छे ॥५॥

वळी देवोने मनुष्य जे भावथी भजे छे, देवो पण एने एना कर्म अनुसार फळ आपे छे केमके ए कर्मथी वधारे आपी शकता नथी. ज्यारे भगवद्‌भकत तो दीननी उपर प्रीति राखनार होवाथी एना कर्मनी अपेक्षा राख्या वगर ज एने भगवद्रूप फळ आपे छे ॥६॥

हे ब्रह्मन्‌! आप अमारे त्यां पधार्या तेथी ज अमे कृतार्थ थई गया, तो पण अमे आपने भगवद्‌धर्मोने कहेवामाटे प्रार्थना करीए छीए के जे धर्मोने श्रद्धापूर्वक साम्भळवाथी ज मनुष्य चारे तरफथी भयरूप मृत्युथी बची मुकत थई जाय छे ॥७॥

में पण पहेलान्ना जन्ममां एनी मायामां मोहित थईने मुक्ति आपनार भगवानने प्रजाने माटे भज्या हता पण मोक्षने माटे प्रयत्न कर्यो न हतो, कारण के हुं देवोने पण मोह करनारी भगवाननी मायाथी मोहित थई गयो हतो ॥८॥

हे सुव्रत! आश्रितना सर्व पुरुषार्थो सिद्ध करी आपनारा नारदजी! हवे आप अमने एवो उपदेश करो के जेथी आ ज जन्ममां विचित्र विपत्तिवाळा सर्व तरफथी थता भयमान्थी अमे सहेलाईथी अने अनायासे ज छूटी जईए. (आ संसार एवो विचित्र छे के कोई दुःखने दूर करवा एक उपाय अजमावीए तो ते उपाय ज वळी नवी आफत ऊभी करे छे) ॥९॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्‌! बुद्धिमान वसुदेवजीए भगवानना स्वरूप अने गुण वगेरेना श्रवणना आशयथी ज आ प्रश्न कर्यो हतो. देवर्षि नारदजी प्रश्न [[२८०]] साम्भळी भगवानना अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणोना स्मरणमां तन्मय थई गया अने तेमणे प्रेम अने आनन्दपूर्वक वसुदेवजीने कह्युंः ॥१०॥

श्रीनारदजीए कह्युं - हे उत्तम भकत वसुदेवजी! तमारो आ निश्चय बहु ज सुन्दर छे कारण के समस्त विश्वमां जेमनो प्रभाव छे तेवा भगवदीयना धर्मो सम्बन्धी प्रश्न तमे पूछयो छे ॥११॥

हे वसुदेवजी! *भगवदीयनो धर्म एक एवी चीज छे के जे कानथी साम्भळवाथी, वाणीथी उच्चार करवाथी, चित्तमां स्मरण करवाथी, हृदयमां स्वीकार करवाथी के तेनुं पालन करनारने अनुमोदन आपवाथी ज मनुष्य ए ज क्षणे पवित्र बनी जाय छे, पछी भलेने ते समग्र जगत के देवनो द्रोही होय ॥१२॥

विशेष - सतः भगवानना भकतनो एक धर्म पण लोक-वेदना घात करनारा तेमनी बिलकुल दरकार न राखनारा, प्रायश्चित्त करवाने माटे पण अधिकारी नहि एवा घणाने मात्र श्रवण करवाथीज तरतज पवित्र करी दे छे. जेमनां गुण, लीला अने नाम वगेरेनुं श्रवण अने कीर्तन पापीओने पण पावन करनार छे ते ज परम कल्याणस्वरूप मारा आराध्य देव भगवान्‌ नारायणनुं आजे तमे मने स्मरण करावीने मारा उपर मोटो उपकार कर्यो छे ॥१३॥

हे वसुदेवजी! तमे मने जे प्रश्न पूछयो छे ते बाबतमां सन्तपुरुषो, ऋषभना पुत्रो, नव योगेश्वरो अने महात्मा विदेहनो शुभ संवादरूप एक प्राचीन इतिहास कहे छे* ॥१४॥

विशेष - ‘विदेह’ शब्द तेने देहनुं अभिमान न हतुं ते अने ‘महात्मा’ शब्दथी तेनुं चित्त भगवान्‌मां मस्त रहेतुं तेम सूचव्युं छे. विदेह ते ज ‘निमि’. पण आ निमि नवमा स्कन्धना त्रेवीसमा अध्यायमां आवेला निमिथी जुदा छे. आ निमिमां लोचनमां रहेनार तरीकनो दोष नथी. तमे जाणो ज छो के स्वायम्भुव मनुना एक प्रसिद्ध पुत्र प्रियव्रत हता. प्रियव्रतना आग्नीध्र, आग्नीध्रना नाभि अने नाभिना पुत्र ऋषभ थया ॥१५॥

शास्त्रोए एमने भगवान्‌ वासुदेवना अंश कह्या छे. मोक्षधर्मनो उपदेश करवामाटे तेमणे अवतार लीधो हतो. एमने सो पुत्रो हता अने बधाज वेदोना पारदर्शी विद्वान हता ॥१६॥

ए सो पुत्रोमां सौथी मोटा पुत्र भरतजी हता. ते भगवत्परायण हता; [[२८१]] जेमना नाम उपरथी आ अजनाभ नामनो खण्ड ‘भरतखण्ड’ना नामथी प्रसिद्ध थयो छे ॥१७॥

ए भरत राजा पृथ्वीने भोगवीने पछी एने छोडीने वनमां तप करवा गया, भगवाननुं भजन करवा लाग्या अने भगवानना स्वरूपने त्रण जन्मे प्राप्त थया ॥१८॥

भगवान्‌ ऋषभदेवजीना बाकीना नवाणु पुत्रोमान्थी नव पुत्रो तो आ भारतवर्षनी चारे बाजु आवेला नव द्वीपोना अधिपति थया अने एकासी पुत्रो कर्मकाण्डना रचयिता ब्राह्मण थई गया ॥१९॥

बाकीना नव मुनिओ (नवधा भक्तिरूप) महाभाग्यशाळी हता. तेमणे आत्माविद्याना सम्पादनमाटे भारे परिश्रम कर्यो हतो अने वास्तवमां तेओ तेमां बहु निपुण हता. तेओ मोटे भागे दिगम्बर (र्निवस्त्र) रहेता हता अने अधिकारीओने परमार्थ-वस्तुनो उपदेश कर्या करता हता. कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस अने करभाजन एवां एमनां नाम हताम् ॥२०-२१॥

तेओ आ कार्य-कारण भगवद्रूप विश्वने पोताना आत्माथी अभिन्न होवानो अनुभव करता-करता पृथ्वी उपर स्वच्छन्द विचरण कर्या करता हता ॥२२॥

तेमना मार्गने कयांय कोई रोकी शकतुं नहोतुं. ज्यां जवा मागता त्यां तेओ यथेच्छ चाल्या जता. देवता, सिद्ध, साध्य, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर अने नागो ना लोकोमां तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण अने गायो ना स्थानोमां तेओ यथेच्छ फरता हता. हे वसुदेवजी! तेओ बधा जीवनमुकत हता ॥२३॥

विदेहराज महात्मा निमि ऋषिओद्वारा एक महान यज्ञ करावी रह्या हता. ऋषभदेवना महाराणी जयन्तीना पूर्वोक्त आ नव ज योगेश्वर पुत्रो एक दिवस भगवदिच्छाथी फरता-फरता तेमना ते यज्ञमां जई पहोञ्च्या ॥२४॥

हे वसुदेवजी! ते योगेश्वरो भगवानना परम प्रेमी भकतो तथा सूर्यना जेवा तेजस्वी हता. तेमने जोईने राजा निमि, आहवनीय वगेरे मूर्तिमान अग्नि अने ऋत्विज वगेरे ब्राह्मणो बधा ज तेमनुं स्वागत करवा उभा थई गया ॥२५॥

विदेह राजाए, आ बधा नारायण परायण भकत छे एम जाणी, यथायोग्य [[२८२]] आसन आदिथी तेमनो सत्कार करी प्रसन्न थईने एमनी पूजा करी ॥२६॥

ब्रह्माजीना पुत्र सनकादिनी जेम पोताना तेजथी प्रकाशमान ए योगीओने जोईने राजाए प्रसन्न थई विनयथी नमस्कार करी प्रेमपूर्वक पूछयुम् ॥२७॥

राजा जनके कह्युं - हे भगवन्‌! हुं एम समजुं छुं के आप मधुसूदन भगवानना मुख्य पार्षदो ज छो कारण के भगवानना पार्षदो संसारी प्राणीओने पवित्र करवामाटे फर्या करता होय छे ॥२८॥

जीवोने माटे मनुष्यशरीर प्राप्त थवुं दुर्लभ छे. जो ते प्राप्त थई जाय तो पण प्रतिक्षण मृत्युनो भय सिर उपर सवार थईने रहेलो छे. कारण के क्षणभङ्गुर छे तेथी अस्थिर मनुष्य जीवनमां भगवानने प्रिय अने भगवान्‌ उपर ज प्रेम राखनारा भकतोनां दर्शन तो अति दुर्लभ छे. (मनुष्यनो दुर्लभ देह मळे अने भगवद्भकतनो सङ्ग न मळे तो मनुष्य देह मळ्यो ए न मळ्या बराबर छे अने दुःखदायक छे) ॥२९॥

तेथी हे निष्पाप मुनिओ! अमे आपने पूछीए छीए के परम कल्याणनुं स्वरूप शुं अने ते केम प्राप्त थाय? आ संसारमां अडधी क्षणमाटे पण उत्तम पुरुषोनो सङ्ग मनुष्योमाटे निधिरूप छे ॥३०॥

वळी अमे साम्भळवानी योग्यतावाळा होईए तो आप अमने भगवानना धर्मो सम्भळावो के जे धर्मो साम्भळवाथी प्रसन्न थयेल अजन्मा भगवान्‌ पोताना स्वरूपनुं दान करे छे ॥३१॥

देवर्षि नारदजी बोल्या - हे वसुदेवजी! राजा निमिए ए प्रमाणे प्रश्न पूछयो त्यारे (अधिकार रहितने पण अधिकार प्राप्त करावी आपवा समर्थ) ते भगवत्प्रेमी सन्तोए सभासदो अने ऋत्विजो साथे बेठेला ते निमि राजाना प्रश्ननुं सन्मान करतां परम प्रेमपूर्वक कह्युम् ॥३२॥

कविजी योगेश्वर बोल्या - हे राजन्‌! (पोताना स्थानथी कदी च्युत न थनार तथा भकतोना हृदयमान्थी कयारेय दूर न थनार तेमज पोताना भक्तोने पण अच्युत बनावी देनार) अच्युत भगवाननां चरणोनी नित्य-निरन्तर उपासना ज आ संसारमां परम कल्याण छे अने सर्व भयने निवृत्त करनार छे एवो मारो निश्चित मत छे. (हुं भगवाननो पार्षद छुं तेथी भकतनो निर्वाह करवारूपी भगवाननो स्वभाव हुं बराबर जाणुं छुं तेथी खातरी आपुं छुं) देह, घर वगेरे तुच्छ अने असत्‌ पदार्थोमां अहन्ता अने ममता थवाथी जे लोकोनी बुद्धिमां उद्वेग रहे छे तेमनो भय पण आ सेवा करवाथी [[२८३]] सदन्तर निवृत्त थई जाय छे. कारण के भकत सेवा करवानी शरूआत करे त्यारथी ज भगवान्‌ तेनी साथे रहे छे. (सेवा करवामां न आवे तो महामोलो मनुष्यदेह अने सत्सङ्ग पण निष्फल छे) ॥३३॥

भगवाने भला-भोळा अज्ञानी पुरुषोने पण साक्षात्‌ पोतानी प्राप्ति सुगमताथी थई जाय ते माटे खरेखर जे उपायो स्वयं श्रीमुखथी कहेला छे तेमने ज तमे ‘भागवत धर्मो’ समजो* ॥३४॥

विशेष - भगवाने भगवद्गीता (९.२७-२८) मां ‘यत्करोषि’ ‘तुं जे करे’ ए बे श्लोकमां एक प्रकारना अने ‘‘मन्मना भव’’ (भगवद्गीता १८-६५) ‘‘मारामां मन राखनार था’’ श्लोकथी बीजा प्रकारना उपायो कहेला छे ते बन्नेनुं फल भगवत्प्राप्ति छे. (सर्व मार्गोथी भगवानना धर्मो उत्तम छे एम कहेवा तेमने प्रवाह के मर्यादा विघ्न करतां नथी एम नीचेना श्लोकथी कहे छे ‘‘यानास्थाय नरो राजन्‌ न प्रमाद्येत कर्हिचित्‌, धावन्‌ निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्‌ न पतेदिह’’. हे राजन्‌! आ भागवतधर्मोनुं आचरण करवाथी मनुष्य कयारेय भूल करतो नथी तेम ज आङ्खो मीचीने दोडे तो पण ते ठोकर खातो नथी तेम ज पडी जतो नथी* ॥३५॥

विशेष - आस्थाय-आस्थितिः एटले काया, वाणी अने मनथी भगवानना दास थई जवुं. ‘धावन्‌’ एटले इच्छित स्थळे दोडता जवुं अथवा वच्चे-वच्चे उपदेशनुं उल्लङ्घन करवुं. शास्त्रो अने गुरु अथवा वेद अने स्मृति नेत्रो छे. ‘‘ठोकर खावी’’ एटले लथडियुं खावुं, ‘पडवुं’ एटले देहने अन्तराय थवो. ‘‘इह=अर्ही, आमां-एटले सपाट रेतीवाळी भूमि जेवा भगवानना धर्मोमां’’. उतावळमां साधन छूटी जाय अने शास्त्रो अने गुरुनुं उल्लङ्घन थई जाय तो पण फल न मळे एवुं बनतुं नथी तेमज फलप्राप्तिमां विलम्ब थतो नथी एवो अर्थ छे. ते शरीर, वाणी, मन, इन्द्रियो, बुद्धि, अहङ्कार थी अनेक जन्मो अथवा एक जन्मनी आदतोथी स्वाभाववश जे-जे करे ते बधुं परमपुरुष भगवान्‌ नारायण माटे ज छे एवा भावथी आपने समर्पण करी दे. (आत्मनिवेदन कर्युं त्यारे बधुं समर्पण करेलुं ज छे छतां पडी गयेला स्वभावनी आदतने लीधे भगवान्‌ अने आत्मनिवेदन विसराई गयां छे तेथी लौकिक-कर्ता तरीके करे छे तेनुं ज समर्पण छे एटलो फरक छे) ॥३६॥

[[२८४]] ईश्वरथी विमुख पुरुषने भगवन्मायाथी पोताना स्वरूपनी विस्मृति थाय छे अने तेथी आ देह ए ज हुं छुं एवुं मिथ्या ज्ञान थाय छे. वळी भोगमां आसक्ति थवाथी भय थाय छे. आत्माथी गुरु अने देवता ना अभेदना अनुसन्धान पूर्वक भगवान्‌मां अनन्य परम प्रेम करवो जेथी माया अने मोहनुं निवारण थई जाय ॥३७॥

स्वपन अने मनोरथ नी जेम द्वैतप्रपञ्च पण न होवा छतां, विचार करनारनी बुद्धिथी भासे छे तेथी डाह्या पुरुषे कर्मना सङ्कल्प अने विकल्प करनार मनने वश करी लेवुं. बस एटलुं करवाथी ज तेने अभय पद (भगवान्‌) नी प्राप्ति थई जशे ॥३८॥

आ संसारमां भगवानना जन्मनी अने लीलानी घणी मङ्गल कथाओ प्रसिद्ध छे ते साम्भळता रहेवुं. ते गुणो अने लीलाओ याद करावनारां भगवाननां घणां नाम पण प्रसिद्ध छे. शरम सङ्कोच छोडी दई तेमनुं गान करता रहेवुं. आ प्रमाणे कोईपण व्यक्ति, वस्तु के स्थान मां आसक्ति राख्या विना विचरण करता रहेवुं ॥३९॥

जे आवुं व्रत लई ले छे तेना हृदयमां पोताना परम प्रियतम प्रभुनां नामोनां कीर्तनथी अनुराग-प्रेमनो अङ्कूर फूटे छे तेनुं चित्त द्रवित थई जाय छे. हवे ते साधारण लोकोनी स्थितिथी, मान्यताओथी, धारणाओथी पर थई जाय छे अने दम्भथी नहि पण स्वभावथी ज जाणे के मतवालो थई जई कयारेक खडखडाट हसवा लागे छे तो कयारेक ध्रुसके-ध्रुसके रोवा लागे छे. कयारेक ऊञ्चा अवाजे पोकारी- पोकारी भगवानने बोलाववा लागे छे तो कयारेक मधुर स्वरथी आपना गुणोनुं गान करवा लागे छे. वळी (प्रभु जाणे के प्रत्यक्ष होय तेम) नृत्य पण करवा लागे छे. (अन्दरना त्रण भावो अने पाञ्च क्रियापदोथी कहेलां पाञ्च कार्योथी आठ प्रकारनी प्रकृतिनुं उल्लङ्घन करी दे छे) ॥४०॥

हे राजन्‌! आ आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाओ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-बधां भगवाननां शरीर छे. बधां रूपोमां स्वयं भगवान्‌ प्रगट छे एम समजी ते जे कंई उत्पन्न थयेल छे तेने अनन्य भावथी, भगवद्भावथी प्रणाम करे छे ॥४१॥

जेवी रीते (स्वादिष्ट अने घृतयुक्त) भोजन करनारने दरेक कोळिये तुष्टि [[२८५]] (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवन शकितनो सञ्चार) अने क्षुधानिवृत्तिद्गआ त्रणेय एकी साथे थतां जाय छे तेवी ज रीते जे मनुष्य भगवानने शरणे जई भगवाननुं भजन करवा लागे छे तेने भजनना प्रत्येक क्षणे भगवाननी प्रेमलक्षणा भक्ति, पोताना प्रेमास्पद प्रभुना स्वरूपनो अनुभव अने प्रभु सिवाय बीजी वस्तुओमां वैराग्य आ त्रणेयनी एकी साथे प्राप्ति थई जाय छे ॥४२॥

हे राजन्‌! आ प्रमाणे प्रतिपळे एके-एक वृत्तिद्वारा भगवाननां चरणकमलोनी ज जे भक्ति करे छे ते भकतने भक्ति, वैराग्य अने भगवत्स्वरूपनुं ज्ञान अवश्यमेव थाय छे. पछी ते साक्षात्‌ परम शान्ति प्राप्त करे छे ॥४३॥

राजा निमिए पूछ्‌युं - हे योगेश्वर! हवे आप कृपा करीने भगवद्भकतना लक्षणोनुं वर्णन करो. तेना धर्मो शुं छे, तेनो स्वभाव केवो होय छे, मनुष्यो साथे व्यवहार करती वखते ते केवुं आचरण करे छे, ते शुं बोले छे अने कया लक्षणोथी ते भगवाननो प्रिय बने छे ॥४४॥

बीजा योगेश्वर हरिजी बोल्या - हे राजन्‌! आत्मस्वरूप भगवान्‌ समस्त प्राणीओमां बिराजे छे तथा साथे-साथे समस्त प्राणी अने समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्‌मां ज आधेय रूपथी स्थित छे, अर्थात्‌ वास्तवमां भगवत्स्वरूप ज छे. आ प्रकारनो जेनो अनुभव छे, आवी जेनी सिद्ध दृष्टि छे तेने उत्तम भकत समजवो जोईए ॥४५॥

जे भगवान्‌ उपर प्रेम, आपना भकतोनी मित्रता, दुःखी अने अज्ञानीओ उपर कृपा अने भगवाननो द्वेष करनारनी उपेक्षा करे छे ते मध्यम कोटिनो भकत छे ॥४६॥

अने जे भगवाननी मूर्तिनी पूजा तो श्रद्धाथी करे छे, परन्तु भगवानना भकतो अथवा बीजा लोकोनी विशेष सेवाशुश्रूषा करतो नथी ते साधारण श्रेणीनो भकत छे ॥४७॥

जे श्रोत्र, नेत्र वगेरे इन्द्रियोद्वारा शब्द, रूप वगेरे विषयोने ग्रहण तो करे छे परन्तु पोतानी इच्छाथी प्रतिकूल विषयोनो द्वेष करतो नथी अने अनुकूल विषयो प्राप्त थवाथी हर्षित थतो नथी तेनी एवी दृष्टि रहेती आवे छे के आ बधी भगवाननी माया छे ते पुरुष उत्तम भकत छे ॥४८॥

संसारना धर्म, देहना धर्म - जन्म-मृत्यु, प्राणना धर्म - भूख-तरस, [[२८६]] इन्द्रियना धर्म - श्रम-कष्ट, मननो धर्म भय अने बुद्धिनो धर्म तृष्णा प्राप्त थतां ज रहे छे. जे पुरुष भगवानना स्मरणमां एटलो तन्मय रहे छे के आ बधां फरीफरी थतां रहेवा छतां तेमनाथी मोहित थतो नथी, तेमनाथी हारी जतो नथी ते प्रधान (प्राकृत) भकत छे. (भक्तिमार्ग ज उत्तम होवाथी आमां उत्तम, मध्यम वगेरे प्रकारो नथी. तेथी ‘प्रधान’ एटले ‘उत्तम’ नहि पण ‘प्राकृत’ एवो अर्थ कर्यो छे. हा, मर्यादापुष्टिना भेदथी बे प्रकारो छे अने तेथी ४८ मां श्लोकमां ‘उत्तम’ शब्द वापर्यो छे. आम
४८मा श्लोकमां पुष्टिभक्ति, ४९मां मर्यादाभक्ति अने ५०मां आश्रय कहेलां छे) ॥४९॥

जेना चित्तमां कामना (ज उत्पन्न) थती नथी, (कामना उत्पन्न थाय तो) कर्म थतां नथी अने कर्मो थाय तो वासनाओ होती नथी. अने जेने एक मात्र वासुदेव भगवाननो ज आश्रय छे ते खरेखर उत्तम भकत छे ॥५०॥

जेने उत्तम कुळमां जन्म थवाथी, तपस्या वगेर कर्मथी तथा वर्ण, आश्रम अने जाति थी आ शरीरमां अहम्भाव थतो नथी ते निश्चय भगवाननो प्रिय भकत छे ॥५१॥

जेने द्रव्यो के शरीर विशे पोतानुं के पारकुं एवो भेद नथी अने आत्मा विशे पारको एवो भेद नथी; समस्त प्राणीपदार्थमां समस्वरूप परमात्माने जुए छे, समभाव राखे छे अने कोई पण घटना के सङ्कल्पथी विक्षिप्त न थतां शान्त रहे छे ते भगवाननो उत्तम भकत छे ॥५२॥

हे राजन्‌! मोटा-मोटा देवता अने ऋषिमुनिओ पण पोताना अन्तःकरणने भगवन्मय बनाववामाटे जेमने शोधता रहे छे; भगवाननां एवां चरणकमलोनुं स्मरण अडधी क्षणद्गअडधी पलमाटे पण जे छोडतो नथी, निरन्तर ते चरणोना सान्निध्य अने सेवामाञ्ज संल्लग्न रहे छे ते त्यां सुधी के कोई स्वयं तेने त्रण लोकनी राज्यलक्ष्मी आपे तो पण ते भगवत्स्मरणनो तार तूटवा देतो नथी ते राज्यलक्ष्मीनी तरफ ध्यान ज आपतो नथी ते ज पुरुष वास्तवमां वैष्णवोमां अग्रगण्य छे ॥५३॥

जेवी रीते चन्द्रनो उदय थया पछी सूर्यनो ताप लागी शकतो नथी तेवी रीते ब्रह्माण्ड भेदीने भगवानना जे चरणकमले गङ्गाजीनो प्रवाह वहेवडाव्यो हतो तेवा अथाह पराक्रमशील परमात्माना चरणकमलनी शाखारूप नखमणिनी चन्द्रिकाथी जेना तापनो नाश थई चूकयो छे तेना हृदयमां सांसारिक कामनाओना तापनो [[२८७]] सम्भव ज केम होई शके? ॥५४॥

विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्‌ हरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः ॥ प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधान उकतः ॥५५॥

विवशताथी आपत्ति वखते पण जेना नामना उच्चार मात्रथी सम्पूर्ण पापना पर्वतनो पण नाश करनार स्वयं भगवान्‌ श्रीहरि जेना हृदयने एक क्षण पण छोडता नथी कारण के भकते प्रेमरूपी दोरडाथी पोतना हृदयमां आपनां चरणकमलोने बान्धी राख्यां छे वास्तवमां आवो पुरुषज भकतोमां मुख्य छे ॥५५॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धना (प्रथम जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर ब्रह्मभाव प्रकरणनो) ‘‘वसुदेवजीना पूछवाथी नारदजीए निमिराजा एने योगेश्वरनो संवाद कह्यो’’नामनो (भगवद्‌भकतनां लक्षणोनुं निरूपणवाळो) बीजा अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय ३

माया अने एने तरवानो उपाय, भगवत्स्वरूप तथा कर्मनो प्रश्न अने उत्तर

विशेष - गया अध्यायमां जे कहेवायुं तेमां अधिकार न होय तेवाना अनुकल्प अने अधिकार आ त्रीजा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. ते चार छे. १. दुष्ट प्रवाहना ज्ञान २. धीरे-धीरे साधनोथी ए प्रवाहने तरी जवानुं ज्ञान ३. ज्ञाननो परिचय अने ४. कर्मना ज्ञानथी थशे. आ चार विषयो त्रीजा अध्यायमां कहेवामां आव्या छे. बे पगवाळाने भोग प्राप्त थाय ते माटे चार पगवाळा नक्की करवामां आव्या छे. चार पगवाळा खीले बान्धेला स्थिर छे. ते खीलो बे पगवाळाओए दृढ करेलो होय छे. जेम भोगमाटे चार पगवाळा छे तेम मोक्षमाटे चार सनत्कुमारो छे. तेथी सनत्कुमार अने नारदजीनो वैदिक संवाद श्रुति गीता (सनन्दने कहेली स्कन्ध १०-अध्याय ८७-श्लोक १४.४१) अने सनद-सुजातीये धुतराष्ट्रने उपदेश आपेल छे. बे पगवाळाओना खीलाने स्थाने तेमने मोक्ष प्राप्त करावनार आ नव योगेश्वरो छे कारण के तेओ मतने स्थिर करनारा छे अने तेने स्थिर करावनार जनक छे. तेथी जनके स्थापन करेला योगेश्वरो स्थिर थई, चारेय तेना मतने स्थिर करतां आ जनकने मोक्ष प्राप्त करावशे एम जणाववा, चार रूपवाळा गणाय ते माटे तेटला (चार) उत्तर आपे छे एवुं कारण छे. [[२८८]] परस्य विष्णोरीशस्य मायिनामपि मोहिनीम्‌ ॥ मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥१॥

राजा निमिए पूछयुं - प्रकृतिथी पर अर्थात्‌ जगतना कर्ता, मोक्ष आपनार विष्णु अने सर्वने वश राखनार ईश्वरनी माया मोटा-मोटा मायावीओ (अधिकारीओ) ने पण मोहित करे छे तेने कोई जाणी शकतुं नथी; तेथी अमने *मायाना स्वरूपने जाणवानी इच्छा छे तो आप कृपा करीने तेनुं स्वरूप कहो ॥१॥

विशेष - ‘माया’ए भगवान्‌नी अनेक शक्तिओमान्नी एक शक्ति छे तेथी आ बाबतमां कंई शङ्काने अवकाश नथी, कारण के व्यासजीनी समाधिमां तेवुं दर्शन थयेल छे, परन्तु माया शब्दना प्रयोग सम्बन्धी विचार करवामां आवे छे. श्रीभगवद्‌गीता अध्याय ७ श्लोक १४मां ‘‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्ययामारी आ दैवी त्रिगुणमयी मायाने तरवी मुश्केल छे’’ श्रीकृष्ण भगवाने कहेलुं आ वाक्य मायाना स्वरूपनुं लक्षण जणावे छे. अधिष्ठान साथेना कार्यनुं भान थवुं अथवा न थवुं ए निश्चय कार्यमां जणातुं लक्षण छे. ‘‘ऋतेर्थं यत्प्रतीयेत’’ मायानां बे कार्यो छे. १. सुवर्णना जेवुं एटले विकार रहित छे.
२.जलना जेवुं एटले प्रतिबिम्ब वगेरे उत्पन्न करनारुं मोहरूप कार्य. आ व्यवस्था पुराणोनी छे. वेदोमां कयांय सृष्टि रचवामां मायाने कारण (साधन) तरीके कहेली नथी. कयाङ्क मायानी साथे रही कार्य अथवा सत्‌ (पदार्थ) ने पण छुपाववानुं थाय छे. एटले मायानां त्रण कार्य
१.प्रतिकृतिनुं निर्माण (असल करतां चडियातुं नकली बनाववुं) २. छुपाववुं ३. विक्षेप (गोटाळो ऊभो करवो). केटलेक स्थळे ‘माया’नी साथे ‘मात्र’ शब्दनो प्रयोग जोवा मळे छे, दा.त. ‘‘मायामात्रं तु क्रार्त्स्न्ये न’’ व्यास सूत्र तथा ‘‘मायामात्रमिदं ज्ञात्वा’’ भाग. स्कन्ध ११ मां. त्यां मायानुं एक ज कार्य जणावेलुं छे. हरिनां तो बन्ने कार्यो छे. बीजा कार्यमां तो माया करण (साधन) छे. मात्र बीजा कार्यमां करण होवामां कारकृत्स्ननो मत अनुकूळ छे. हे योगेश्वरो! हुं मृत्युनो शिकार एवो मनुष्य छुं. संसारना विविध तापो मने घणा वखतथी दझाडी रह्या छे. आप लोको जे भगवत्कथारूपी अमृतनुं पान करावी रह्या छो ते ते तापोने मटाडवानुं एक मात्र औषध छे; तेथी हुं आपनी आ वाणी साम्भळी तृप्त ज थतो नथी. आप कृपा करीने आगळ कहो ॥२॥

हवे त्रीजा योगेश्वर अन्तरिक्षजीए कह्युं - भगवान्‌नी मायाना स्वरूपनुं वर्णन थई शके एम नथी. तेथी तेनां कार्यद्वारा ज तेनुं निरूपण कराय छे. आदि पुरुष [[२८९]] परमात्मा जे शक्तिथी सम्पूर्ण भूतोनुं कारण बने छे अने तेमना विषय भोग तथा मोक्षनी सिद्धिने माटे अथवा पोताना उपासकोनी उत्कृष्ट सिद्धिने माटे स्वनिर्मित पञ्चभूतो द्वारा जुदी-जुदी जातना देव, मनुष्य वगेरे शरीरोनुं सर्जन करे छे तेने ज *‘माया’ कहे छे ॥३॥

विशेष - मायाना विविध अर्थो - १. जादुगीरी २. कपट ३. कृपा ४. बुद्धि आ प्रमाणे पञ्चमहाभूतोद्वारा बनेलां प्राणी शरीरोमां तेमणे अन्तर्यामी रूपथी प्रवेश कर्यो अने पोताने पहेलां एक अन्तःकरणना रूपमां अने त्यार पछी पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो अने पाञ्च कर्मेन्द्रियो-आ दस रूपोमां विभाजन करी दीधुं अने तेमना द्वारा विषयोनो भोग करे छे ॥४॥

पोते प्रकाशित करेला विषयोनो गुणोथी भोग करता ते प्रभु आ सर्व तरफ देखाता जगतने पोते होवानुं मानता आमां ज आसकत थाय छे. आ भगवाननी माया छे ॥५॥

कर्मेन्द्रियोथी वासना सहित कर्म करता अने जुदा-जुदा कर्मोनुं सुख तथा दुःखरूप फल ग्रहण करता ते देहधारीओ आ संसारमां भम्या करे छे. आ भगवाननी माया छे ॥६॥

आवी रीते दुःखदायी कर्मोना फल प्राप्त करतो-करतो पुरुष महाभूतोनो प्रलय थाय त्यां सुधी परवश थई जन्म-मरण पाम्या करे छे. आ भगवाननी माया छे ॥७॥

ज्यारे पञ्चभूतोना प्रलयनो समय आवे छे त्यारे अनादि अने अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप आ समस्त व्यकत सृष्टिने अव्यक्तनी तरफ तेना मूल कारण तरफ खेञ्चे छे. आ भगवाननी माया छे ॥८॥

ते वखते पृथ्वी उपर सतत सो वर्ष सुधी भयङ्कर दुकाळ पडे छे. वरसाद बिलकुल थतो नती; प्रलयकाळनी शक्तिथी सूर्यनो ताप बहु ज वधी जाय छे. तथा ते त्रणेय लोकने बाळवा लागे छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥९॥

ते वखते शेषनाग-सङ्कर्षण-ना मोम्मान्थी आगनी प्रञ्चड जवालाओ नीकळे छे अने वायुनी प्रेरणाथी ते जवालाओ पाताल लोकथी बाळी मूकवानुं शरू करे छे तथा त्यान्थी ऊञ्चे-ऊञ्चे चारे तरफ फेलाई जाय छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥१०॥

त्यार पछी प्रलय समयना सांवर्तक मेघगण हाथीनी सूण्ढ जेवी धाराओथी सो [[२९०]] वर्ष सुधी वरसतो रहे छे. तेथी आ विराट्‌ ब्रह्माण्ड (बळी गयेल छाणना पिण्डानी जेम) जलमां डूबी जाय छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥११॥

हे राजन्‌! ते वखते बळतण विना जेवी रीते आग बुझाई जाय छे तेवी ज रीते विराट्‌ पुरुष ब्रह्माजी पोताना ब्रह्माण्ड-शरीरने छोडी दई सूक्ष्म स्वरूप अव्यकतमां लीन थई जाय छे. ए भगवान्‌नी माया छे ॥१२॥

वायु पृथ्वीनी गन्ध खेञ्ची ले छे जेथी ते (पृथ्वी) जलना रूपमां फेरवाई जाय छे अने ते ज वायु जलना रसने खेञ्ची ले छे, त्यारे ते जल पोतानुं कारण अग्नि बनी जाय छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥१३॥

ज्यारे अन्धकार अग्निनुं रूप छीनवी ले छे त्यारे ते अग्नि वायुमां लीन थई जाय छे अने ज्यारे अवकाशरूप आकाश वायुनी स्पर्शशक्ति हरी ले छे त्यारे ते आकाशमां लीन थई जाय छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥१४॥

हे राजन्‌! त्यार पछी कालरूप अवकाश आकाशना शब्दगुणने हरी ले छे जेथी ते तामस अहङ्कारमां लीन थई जाय छे. इन्द्रियो अने बुद्धि राजस अहङ्कारमां लीन थई जाय छे. मन सात्त्विक अहङ्कारथी उत्पन्न देवताओनी साथे सात्त्विक अहङ्कारमां प्रवेश करी दे छे अने पोतानां त्रण प्रकारनां कार्योनी साथे अहङ्कार महत्तत्त्वमां लीन थई जाय छे. पछी तेनाथी ऊलटा क्रमथी सृष्टि थाय छे. आ भगवान्‌नी माया छे ॥१५१/२॥

सृष्टि, स्थिति अने संहार करनारी भगवान्‌नी आ त्रिगुणमयी *मायानुं अमे आपनी पासे वर्णन कर्युं. हवे आप बीजुं शुं साम्भळवा इच्छो छो? (मायानुं स्वरूप तो निरूपण थई शके एवुं छे ज नहि; तेथी मायानां कार्य जणावी तेनुं निरूपण कर्युं. आकृति तेनी स्त्रीरूप छे. स्त्री आनन्दरूप छे. माया सदा पोताना भोगमाटे अने दैत्योने मोह करवामाटे उपयोगी छे) ॥१६१/२॥

विशेष - माया एक तो व्यामोह करनारी छे; एक जगतना कारणरूप छे आ बे सेव्य नथी. देवतारूप सात्त्विक मोक्षदाता वासुदेवजीनी मोक्षमां उपयोगी साधन सम्पादन करवामाटे लक्ष्मीजीए भगवद्भार्याना रूपमां मायारूप धारण कर्युं ते. तेनुं नाम ‘माया’ एटला माटे छे के मया सह आगन्तव्यम्‌ इति नियोगकरणात्‌ ‘माया’ इत्यभिधानम्‌-(भाग.२.३.३) राजा निमिए पूछयुं - हे महर्षिजी! जे लोकोए पोताना मनने वश नथी कर्युं तेमने माटे भगवान्‌नी आ माया तरी जवी बहु ज कठिन छे, तो आप कृपा करी [[२९१]] एवो उपाय बतावो के जाडी बुद्धिवाळा (भक्ति अने ज्ञानरहित बर्हिमुख) जीवो पण सहेलाईथी तेने तरी जई शके ॥१७॥

चोथा योगेश्वर प्रबुद्धजीए कह्युं - हे राजन्‌! स्त्री-पुरुष सम्बन्ध वगेरे बन्धनोमां बन्धायेला संसारी मनुष्यो सुखनी प्राप्ति अने दुःखनी निवृत्तिने माटे कर्मो करतां रहे छे. जे पुरुष मायाने तरवा मागे छे तेणे विचार करवो जोईए के तेना कर्मोनुं फल केवी रीते उलटुं थतुं जाय छे. तेने सुखने बदले दुःख मळे छे अने दुःख दूर थवाने बदले दिवसे-दिवसे वधतुं ज जाय छे ॥१८॥

एक धननो ज दाखलो लो. तेनाथी दिवसे-दिवसे दुःख वधे ज छे; तेने मेळववुं पण मुश्केल छे अने जो कोई रीते मळी पण जाय तो पण आत्माने माटे तो ते मृत्युरूप ज छे. जे एनी झञ्झटमां पडी जाय छे ते पोतानी जातने भूली जाय छे. ते ज प्रमाणे घर, पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, पशुधन वगेरे पण अनित्य अने नाशवान्‌ छे. कदाच कोई ते मेळवी पण ले तो तेमनाथी सुख-शान्ति मळतां नथी ॥१९॥

ए ज प्रमाणे जे मनुष्य मायाने तरी जवा मागे छे तेणे समजी लेवुं जोईए के मृत्यु पछी प्राप्त थनार लोक-परलोक पण एवी रीते नाशवान्‌ छे, कारण के आ लोकनी वस्तुओनी जेम परलोक पण सीमित फलमात्र छे. त्यां पण पृथ्वी उपर नाना-नाना राजाओनी जेम ज समान साथे स्पर्धा, वधारे ऐश्वर्य अने सुखवाळाओप्रत्ये ईर्ष्या-द्वेषनी भावना अने ओछा सुख तथा ऐश्वर्यवाळाओ प्रत्ये घृणा रहे छे अने कर्मोनुं फल पूरुं थतां त्यान्थी पतन थाय छे. तेनो पण नाश निश्चित छे. नाशना भयमान्थी त्यां पण छुटकारो होतो नथी ॥२०॥

तेथी परम कल्याणना जे जिज्ञासु होय तेमणे गुरुने शरणे जवुं जोईए. गुरुदेव एवा होय के जे शब्दब्रह्म(वेदो)ना पारदर्शी विद्वान होय जेथी ते बराबर समजावी शके अने साथे-साथे परब्रह्ममां परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी पण होय जेथी पोताना अनुभवद्वारा प्राप्त थयेल रहस्यनी वातो समजावी शके. तेनुं चित्त शान्त होय, व्यवहारना प्रपञ्चमां बहु प्रवृत्त नहोय ॥२१॥

जिज्ञासु गुरुने ज पोताना परम प्रियतम आत्मा अने इष्टदेव माने. तेमनी निष्कपट भावथी सेवा करे अने तेमनी पासेथी भागवतधर्म भगवान्‌ने प्राप्त करावी देनार भक्तिभावनां साधनोनी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे. आ ज साधनोथी [[२९२]] सर्वात्मा अने भकत ने पोताना स्वरूपनुं दान देनारा भगवान्‌ प्रसन्न थाय छे. भकतना दुःखनी निवृत्ति तो आनुषङ्गिक (गौण) फल छे ॥२२॥

पहेलां तो शरीर, सन्तान वगेरेमान्थी आसक्ति काढी नाखे, पछी भगवान्‌ना भकतो उपर प्रेम करवानुं शीखे. त्यारबाद प्राणीओ उपर यथा योग्य दया, मैत्री अने विनय नी निष्कपट भावथी शिक्षा ग्रहण करे ॥२३॥

(कर्ममार्गमान्नो प्रवेश कहे छे). १. माटी, जल वगेरेथी ब्राह्य शरीरनी शुद्धि, छलकपट वगेरेना त्यागथी भीतरनी शुद्धि, २. सङ्कट सहन करवारूपी तप, ३. टाढ, ताप वगेरे सहन करवां, ४. मिथ्या वात-चीतना त्यागरूपी मौन, ५. वेदोनो अभ्यास, ६. सरलता (सत्य पण प्रिय भाषण), ७. काम उपर विजय, ८. क्रोध उपर विजय तथा ९. शीत-उष्ण, प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख वगेरे द्वन्द्वोमां हर्ष- विषादथी रहित थवानुं शीखे* ॥२४॥

विशेष - पहेलां त्रण (१.३) कायाथी थतां कर्म, बीजां त्रण (४.६) वाणीथी थतां कर्म अने त्रीजां त्रण (७.९) मनथी थतां कर्म छे. (ज्ञानमार्गमान्नो प्रवेश कहे छे). सर्वत्र अर्थात्‌ समस्त देश, काल अने वस्तुओमां चेतनरूपथी आत्मा अने नियन्तारूपथी ईश्वर होवानी दृष्टि एकान्त सेवन, ‘‘आ ज मारुं घर छे’’ एवो भाव न राखवो, गृहस्थ होय तो थोडां पवित्र वस्त्रो अने त्यागी होय तो पवित्र फाट्यां तूट्यां र्चीथरां पहेरवां अने जे कंई मळे तेनाथी सन्तोष राखवो ॥२५॥

(भक्तिमार्गमां प्रवेश थाय ते माटे साधनो कहे छे). भगवान्‌ने प्राप्त करावी आपनारां शास्त्रो (वेद, गीता, भागवत, व्याससूत्र, नारद भक्तिसूत्रो) मां श्रद्धा राखवी. बीजां शास्त्रोनी निन्दा न करवी. काया, वाणी अने मन उपर संयम राखवो. सत्य, शम (भगवान्‌मां स्थिर थयेली बुद्धि) अने इन्द्रियनिग्रह आचरवाम् ॥२६॥

(भक्तिमार्गनां मुख्य साधनो कहे छे). अद्‌भुत कर्म करनारा श्रीहरिनां अने तेमनां एवां ज अद्‌भुत जन्म, कर्म अने गुणो नुं श्रवण, कीर्तन अने ध्यान करवुं. (भगवान्‌ भक्तिथी प्रेमथी ज प्राप्त थाय छे अने भगवत्प्रेम प्राप्त करावी आपवामां श्रवण, कीर्तन अने ध्यान ए अचूक साधन छे तेथी) शरीरथी बीजी पण जे कंई चेष्टा थाय ते बधी श्रवण आदिनी सिद्धिमाटे ज करवी ॥२७॥

यज्ञ, दान, तप, जप, सदाचारनुं पालन अने स्त्री, पुत्र, घर, प्राण तथा जे कंई [[२९३]] पोताने प्रिय लागतुं होय ते बधुं ज भगवान्‌ना चरणोमां निवेदन करवुं आपने सोम्पी देवानुं शीखे ॥२८॥

(आवी रीते नियमपूर्वक आत्मनिवेदन करी तादृशी भगवदीयो साथे रहीने भगवत्सेवा करवी एम कहे छे). जे भगवदीयोने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णनो दृढ आश्रय होय-मारा स्वामी श्रीकृष्ण ज छे, बीजुं कोई नहि एवी अडग अनन्यता होय तेमना उपर प्रेम राखवो अने भगवान्‌ तथा उत्तम सदाचारी सन्त पुरुषोनी सेवा करवी ॥२९॥

एकबीजानी साथे वातचीत भगवान्‌ना परम *पावन यश विषे ज करवी. आवा एक भाववाळा साधकोए एकत्रित थई आपसमां अन्तःकरणनी साची प्रीति, परस्पर सन्तोष अने परस्परमां आत्मानो आनन्द मानतां शीखवुं॥३०॥

विशेष - ‘‘भगवान्‌नो यश ज परम पावन-पवित्र करनार छे’’ ते स्नान वगेरेमान्थी आसक्ति दूर करवामाटे कहेलुं छे. परस्पर श्रवण-कीर्तन थतां ज प्रीति अने सन्तोष थाय छे. आ श्रवण कीर्तन छे तो साधनरूप पण आनन्दरूप होवाथी फलरूप पण छे. हे राजन्‌! पापना ढगलानो नाश श्रीकृष्ण एक ज क्षणमां करी नाखे छे. बधा तेमनुं ज स्मरण करे अने एकबीजाने स्मरण करावे. आ प्रमाणे साधन भक्ति करतां-करतां प्रेमलक्षणा भक्तिनो उदय थई जाय छे अने तेमनां शरीर प्रेमनी अधिक्ताने लीधे पुलकित थई जाय छे ॥३१॥

(आवी रीते शरीरमां भक्तिरस छलोछल भराई जतां भगवत्प्राप्ति थई जाय त्यां सुधीनुं तेनुं कार्य कहे छे). कयारेक-कयारेक तेओ एवी चिन्ता करवा लागे छे के ‘‘आज सुधी भगवान्‌ न मळ्या, शुं करुं? कयां जाउं? कोने पूछुं? मने आपनी प्राप्ति कोण करावशे?’’ आ प्रमाणे विचार करता-करता तेओ रोवा लागे छे. तो कयारेक सामे ज प्रभु बिराजे छे एवी स्कूर्ति थतां विचारे छे के ‘‘ओहो! हुं व्यर्थ रडुं छुं, प्रभु तो आ रह्या’’ एम विचारी खडखडाट हसवा लागे छे. कयारेक प्रभु पोताने अधीन छे एवो अनुभव थतां आनन्दमग्न थई जाय छे तो क्यारेक लोकातीत भावमां स्थित थई जई भगवान्‌नी साथे वात-चीत करवा लागे छे. क्यारेक जाणे के भगवान्‌ने सम्भळावता होय तेम आपना गुणोनुं गान करवा लागे छे तो क्यारेक नाची-नाची आपने रीझववा लागे छे. क्यारेक आपनां दर्शन न थतां आपने आम-तेम शोधवा लागे छे तो कयारेक-कयारेक आपनी साथे एक थई जई [[२९४]] आपनी सन्निधिमां स्थित थई जई परम शान्तिनो अनुभव करी तेओ चुप थई जाय छे ॥३२॥

हे राजन्‌! आ प्रमाणे जे भागवत धर्मोनुं शिक्षण ग्रहण करे छे तेने ते धर्मोद्वारा प्रेमभक्तिनी प्राप्ति थई जाय छे अने ते भगवान्‌ नारायणने परायण थई जई, जेना सकञ्जामान्थी छूटवुं बहु मुश्केल छे ते मायाने ते अनायासज तरी जाय छे ॥३३॥

राजा निमिए पूछयुं - हे महर्षिओ! आप लोको परमात्माना वास्तविक स्वरूपने जाणनाराओमां श्रेष्ठ छो. तेथी मने जे परब्रह्म परमात्मानुं ननारायणथ नामथी वर्णन करवामां आवे छे तेनी निष्ठा (परकाष्ठा, उत्कृष्ट स्वरूप) समजावो ॥३४॥

पाञ्चमा योगेश्वर *पिप्पलायनजी कहे छे - हे राजन्‌! जे आ जगत्‌नी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय नुं निमित्त कारण तथा उपादान कारण बन्नेय छे, बनवावाळा पण छे अने बनाववावाळा पण छे परन्तु स्वयं कारण रहित छे; जे स्वप्न, जाग्रत अने सुषुप्ति अवस्थाओमां तेमना साक्षीना रूपमां विद्यमान होय छे अने जुदा जणाय छे. ते सिवाय समाधिमां पण जे जेमना तेम एकरस रहे छे; जेमनी सत्ताथी ज सत्तावान्‌ थई शरीर, इन्द्रिय, प्राण अने अन्तःकरण पोतपोतानां काम करवा समर्थ थाय छे ते ज परम सत्य वस्तुने आप ‘नारायण’ समजी लो ॥३५॥

विशेष - ‘‘पिप्पल वृक्ष छे अयन-स्थान जेनुं ते ‘पिप्पलायन’. वृक्ष (काष्ठ)मां अग्नि रहेतो होवाथी ‘पिप्पलायन’नो अर्थ अग्नि थतो होवाथी आ प्रश्ननो उत्तर आपनार अग्निरूप छे अने अग्नि वाणीना अधिपतिछे. जेवी रीते चिनगारीओ अग्निने प्रकाशित करी शकती नथी के तेने दझाडी शकती नथी तेवी ज रीते परमतत्त्व (परमात्मा) सुधी मननी के वाणीनी गति नथी; नेत्रो तेने जोई शकतां नथी अने बुद्धि तेने विशे विचार करी शकती नथी; प्राण अने इन्द्रियो तो तेनी पासे फरकी पण शकतां नथी. ‘‘नेति-नेति’’ वगेरे श्रुतिओना शब्द पण ते आ छे-एवी रीते तेनुं वर्णन नथी करता, परन्तु तेनुं ज्ञान करावनारां जेटलां साधन छे तेनो निषेध करी तात्पर्यरूपथी पोतानुं निषेधनुं मूल जणावी दे छे, कारण के निषेधना आधारनी, आत्मानी सत्ता (अस्तित्व) न होय तो निषेध कोण [[२९५]] करी रह्युं छे, निषेधनी वृत्ति शामां छे-आ प्रश्नोनो कोई उत्तर ज ना रहे, निषेधनो ज निषेध थई जाय, निषेधनी ज सिद्धि न थाय ॥३६॥

(हवे ज्ञानमार्ग प्रमाणे देश, काल अने स्वरूपनी हद विनाना स्वरूपनुं निरूपण करे छे). ज्यारे सृष्टि न हती त्यारे मात्र एक तेओ ज हता. सृष्टिनुं निरूपण करवामाटे तेने ज त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहीने तेनुं वर्णन करवामां आव्युं. पछी तेनुं ज ज्ञानप्रधान होवाथी महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होवाथी सूत्रात्मा अने जीवनी उपाधि होवाथी अहङ्कारना रूपमां वर्णन करवामां आव्युं. वास्तवमां जेटली शक्तिओ छे-पछी ते इन्द्रियोना अधिष्ठातृ देवताओना रूपमां होय के इन्द्रियोना विषयोना रूपमां होय के विषयोना प्रकाशना रूपमां होय-बधुं ब्रह्मज छे, कारण के ब्रह्मनी शक्ति अनन्त छे. क्यां सुधी कहुं? जे कंई उञ्चुं छे, नीचुं छे ते बन्नेने जे वश राखे छे ते ब्रह्मज छे ॥३७॥

ते ब्रह्म स्वरूप आत्मा कयारेय जन्म लेतो के मरतो नथी. ते वधतो के घटतो नथी. जेटला पण परिवर्तनशील पदार्थ छे-पछी ते क्रिया, सङ्कल्प अने तेमना अभावना रूपमां ज केम नथी होता-बधानी भूत, भविष्य अने वर्तमान सत्तानो ते साक्षी छे, बधामां छे. देश, काल अने वस्तु थी अपरिच्छिन्न छे, अविनाशी छे. ते उपलब्धि (ज्ञाननी प्राप्ति) करनार अथवा उपलब्धिनो विषय नथी. प्राणनी जेम मात्र उपलब्धिरूप अने इन्द्रियोनां बळथी विचारेला सत्‌ जेवो छे. (प्राण तो एक ज छे पण स्थान भेदथी प्राण, अपान, व्यान, उदान अने समान-एम तेनां जुदां-जुदां नाम छे. कडां, कुण्डल, बङ्गडी वगेरे नाम जुदां-जुदां होवा छतां ते सुवर्ण ज छे तेवी ज रीते ज्ञान एक होवा छतां इन्द्रियोना सहयोगथी तेमां अनेकताथी कल्पना थई जाय छे. वाणी वगेरेथी ब्रह्ममां विकारो ज प्रतीत थाय छे परन्तु तेनी उत्पत्ति थती नथी) ॥३८॥

जगतमां चार प्रकारना जीव होय छे. १. इण्डुं फोडी बहार नीकळनार-पक्षी, सर्प वगेरे २. जन्मती वखते जरायु (ओर) थी र्वीटायेल-मनुष्य, पशु वगेरे ३. धरती फाडी बहार नीकळनार वृक्ष, वनस्पति वगेरे अने ४. पसीनाथी उत्पन्न थनार-माङ्कड, जू वगेरे. आ बधां जीव-शरीरोमां प्राणशक्ति जीवनी पाछळ लागी रहेली होय छे. शरीरो जुदां-जुदां होवा छतां प्राण एक ज होय छे. सुषुप्ति (गाढनिद्रा) अवस्थामां ज्यारे इन्द्रियो निश्चेष्ट थई जाय छे, अहङ्कार पण सूई [[२९६]] जाय छे लीन थई जाय छे, अर्थात्‌ लिङ्ग शरीर रहेतुं नथी ते वखते जो कूटस्थ (निर्विकार सर्व दोषरहित) आत्मा पण न होय तो ए वातनी पाछळथी स्मृति ज केवी रीते होय के हुं सुखपूर्वक सूतो हतो? पाछळथी थतुं आ स्मरण ज ते आत्माना अस्तित्वनुं प्रमाण छे. (देह अने आत्मा अलग छे अने आत्माने देहना गुणोनो सम्बन्ध नथी) ॥३९॥

ज्यारे भगवान्‌ कमलनाभनां चरणकमलोने प्राप्त करवानी इच्छाथी तीव्र भक्ति करवामां आवे छे त्यारे ते भक्ति ज अग्निनी जेम गुण अने कर्मो थी उत्पन्न थयेल चित्तना बधा मलने बाळी नाखे छे. ज्यारे चित्त शुद्ध थई जाय त्यारे जेम नेत्रो स्वच्छ थई जतां सूर्यनो प्रकाश प्रत्यक्ष जणाय छे तेम आत्मतत्त्वनो साक्षात्कार थई जाय छे. (तीव्रभक्ति-उत्कटप्रेम-थी हृदय निर्मल बने छे) ॥४०॥

राजा निमिए कह्युं - हे योगेश्वरो! हवे आप अमने कर्मयोगनो उपदेश करो के जे द्वारा मनुष्य शुद्ध थई जई जलदीमां जलदी परम नैष्कर्म्य अर्थात्‌ कर्तृत्व, कर्म अने कर्मफल ने निवृत्त करनारुं ज्ञान प्राप्त करे छे ॥४१॥

मारा पिता इक्ष्वाकुनी हाजरीमां एकवार आ ज प्रश्न में ब्रह्माजीना मानसपुत्रो सनकादि ऋषिओने पूछयो हतो, परन्तु तेओ सर्वज्ञ होवा छतां मारा प्रश्ननो उत्तर तेमणे आप्यो नहि तेनुं शुं कारण हतुं? कृपा करी आप मने ते बतावो ॥४२॥

हवे छठ्ठा योगेश्वर आविर्होत्रजीए१ कह्युं - हे राजन्‌! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) अने विकर्म (विहितनुं उल्लङ्घन)२ आ त्रणेय एकमात्र वेदद्वारा जाणी शकाय छे तेमनी व्यवस्था लौकिक रीते होती नथी. वेद अपौरुषेय-ईश्वररूप छे. तेथी तेमना तात्पर्यनो निश्चय करवो बहु मुश्केल छे. तेथी ज मोटा-मोटा विद्वानो पण तेमना अभिप्रायनो निर्णय करवामां भूल करी बेसे छे.(तेथीज तमारी बाल्यावस्थानो विचार करी तमने अनधिकारी समजी सनकादि ऋषिओए तमारा प्रश्ननो उत्तर आप्यो नहतो) ॥४३॥

विशेष - १.आविर्होत्र-आविः प्रकटं हूयतेस्मिन्‌ इति होत्रं यस्मिन्‌ इति आविर्होत्रः ए प्रमाणेनी निरुक्तिथी तेनो अर्थ-आमनामां यज्ञो प्रकट थाय छे.
२.‘कर्म’ शास्त्रोए जे कर्म करवानी आज्ञा करी होय ते. दा.त. ‘‘सत्यं ब्रूयात्‌’’ दरेके सत्य [[२९७]] बोलवुं जोईए. ‘अकर्म’ जे कर्म करवानो निषेध करवामां होय. दा.त. वात करवी नहि’’ मां वृथा वातनो निषेध (मना) छे छतां वृथा वात करवी ते अकर्म. ‘विकर्म’ जे कर्मो शास्त्रनी आज्ञा प्रमाणे करवां जोईए ते न करवां. दा.त.‘‘कृष्ण सेवा सदा कार्या’’ ‘‘श्रीकृष्णनी सेवा सदा करवी जोईए’’ ए शास्त्रनी आज्ञा. ‘‘सेवा सदा न करवी’’ ए विकर्म थयुं. आ वेद *परोक्षवादात्मक छे. ते कर्मोनी निवृत्तिमाटे कर्म करवानी आज्ञा करे छे; जेवी रीते बालकने मीठाई वगेरेनी लालच आपीने दवा खवडाववामां आवे छे तेवीजरीते अज्ञानी लोकोने स्वर्गादिनुं प्रलोभन आपी श्रेष्ठ कर्ममां प्रवृत्त करे छे ॥४४॥

विशेष - परोक्षवाद-जेनो शब्दार्थ कंई होय अने तात्पर्यार्थ कंई बीजो ज होय ते. जेनुं अज्ञान गयुं नथी, जेनी इन्द्रियो वशमां नथी ते जो मनमानी रीते वेदोकत कर्मोनो त्याग करी दे तो ते विहित (जे कर्म करवानी आज्ञा करवामां आवी होय तेवां) कर्मोनुं आचरण न करवाथी विकर्मरूप अधर्म ज करे छे तेथी ते मृत्यु पछी फरी जन्ममरण वगेरे संसारने प्राप्त करतो रहेछे ॥४५॥

तेथी फलनी अभिलाषा छोडी दई अने ईश्वरने समर्पित करी जे वेदोकत कर्मो ज करे छे तेने कर्मोनी निवृत्तिथी प्राप्त थनारी ज्ञानरूप सिद्धि प्राप्त थई जाय छे. वेदोमां स्वर्ग वगेरे फलनुं वर्णन जोवा मळे छे तेनुं तात्पर्य फलनी सत्यतामां नथी ए तो कर्मोमां रुचि उत्पन्न कराववा माटे छे ॥४६॥

मारा ब्रह्मस्वरूप आत्मानी हृदयग्रन्थि-‘हुं’ अने ‘मारुं’ नी कल्पित गाण्ठ खुली जाय तेणे तन्त्रमां कहेली परमात्मानी विधि (मात्र पुष्टिमार्ग) प्रमाणे केशवदेवनी सेवा करवी. (‘‘लौकिक दोषने लौकिक साधनथी ज दूर करवो’’ एवा अभिप्रायथी साङ्ख्य, योग, पाशुपत अने वैष्णव सिद्धान्तोनी प्रवृत्ति थई छे. ते पैकी वैष्णव सिद्धान्त हृदयनी गाण्ठने तरत ज काढी नाखे छे माटे कह्युं छे के परमात्मानी विधि प्रमाणे केशव देवनुं भजन करवुन्द्गसेवा करवी) ॥४७॥

आचार्य पासेथी दीक्षा प्राप्त करी तेमनी सेवा करी तेमनी कृपा प्राप्त करवी. गुरुना मार्गदर्शन प्रमाणे नारदपञ्चरात्र वगेरे भक्तिशास्त्रनुं ज्ञान प्राप्त करवुं. पछी पोताना मनमां वसी जाय तेवी श्रीनवनीतप्रियजी, श्रीमदनमोहनजी, श्रीगिरिराजधरणजी वगेरेमान्थी एक स्वरूप पधरावीने महापुरुष (श्रीकृष्ण) नी [[२९८]] (पुष्टिमार्गीय वैष्णवोए सर्वभावथी-सर्वात्मभावथी श्रीजीना सुखना विचारपूर्वक पुष्टिमार्गनी रीत प्रमाणे) सेवा करवी. (हवे पूजामार्ग-मर्यादामार्गनी रीत कहेवामां आवे छे) ॥४८॥

पहेलां स्नान वगेरेथी शरीर अने सन्तोष वगेरेथी अन्तःकरणने शुद्ध करे. त्यार पछी मूर्तिनी सन्मुख बेसी प्राणायाम वगेरेथी महाभूत शुद्धि-नाडीशोधन करे. त्यारे पछी विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदिना *न्यासथी अङ्गरक्षा करी भगवान्‌नी पूजा करे ॥४९॥

विशेष - न्यास करवानां छ अङ्गःहृदय शिर शिखा कवच नेत्र अने अस्त्र. पहेलां पुष्प वगेरे पदार्थोमान्थी जन्तु वगेरे काढी नाखी, पृथ्वीनुं सम्मार्जन वगेरेथी, पोते अव्यग्र थई अने भगवान्‌नी मूर्तिने पहेलां करेली पूजाना लागी रहेला चन्दन तिलकनुं क्षालन करी पूजाने योग्य करी पछी आसन उपर मन्त्रोच्चारपूर्वक जल छाण्टी पाद्य, अर्ध्य वगेरे पात्रोनुं स्थापन करे. त्यारबाद एकाग्रचित्त थई हृदयमां भगवान्‌नुं ध्यान करी पछी तेनुं सामे बिराजती श्रीमूर्तिमां चिन्तन करे. त्यारबाद हृदय, सिर, शिखा, (हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रोथी न्यास करे अने पोताना इष्टदेवना मूलमन्त्रद्वारा देश, काल आदिने अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्रीथी प्रतिमा आदिमां तेमज हृदयमां भगवान्‌नी पूजा करे. (चरण वगेरे अङ्गो, चक्र वगेरे उपाङ्गो अने सुनन्द वगेरे पार्षदो साथेनी मूर्तिनी हृदयमां पूजा करवी) ॥५०-५१॥

अङ्गो साथेनी ते-ते मूर्तिनी पोताना मन्त्रथी विधि प्रमाणे चरण धोवानां जल, पूजा द्रव्यो, आचमनना जल वगेरेथी स्नान, वस्त्रो तथा भूषणोथी, सुगन्धी द्रव्यो, पुष्पो अने वगर तूटेली मालाओ थी (अथवा चोखाना आखा दाणाथी) धूप, दीप अने भेटो थी विधि प्रमाणे पूजन करी स्तोत्रोथी स्तुति करी श्रीहरिने नमस्कार करवा ॥५२-५३॥

पोतानी जातने भगवन्मय ध्यान करतां-करतां भगवान्‌नी मूर्तिनुं पूजन करवुं जोईए. निर्माल्यने पोताना मस्तक उपर चडावे अने आदरपूर्वक भगवद्‌विग्रहनुं पोताना धाममां अपसारण (विसर्जन) करी पूजा समाप्त करवी ॥५४॥

एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः ॥ यजतीश्वरमात्मानम्‌ अचिरान्‌ मुच्यते हि सः ॥५५॥

[[२९९]] आ प्रमाणे जे पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, (ब्राह्मण) अतिथि अने पोताना हृदय वगेरेमां आत्मारूप श्रीहरिनी पूजा करे छे (पुष्टिमार्गीय वैष्णवो सर्वभावथीसर्वात्मभावथी मार्गनी रीत प्रमाणे श्रीजीना सुखना विचारपूर्वक सेवा करे छे) ते थोडा ज समयमां संसारथी मुकत थई जाय छे ॥५५॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धना (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर ब्रह्मभाव प्रकरणनो)‘‘माया अने एने तरवानो उपाय; भगवत्स्वरूप तथा कर्मनो प्रश्नअनेउत्तर’’नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. माया परिशिष्ट श्रीभागवत अगियारमा स्कन्धना त्रीजा अध्यायमां राजा निमि ‘माया’ विशे प्रश्न करे छे. आ प्रसङ्गे ‘माया’ विशे श्रीमहाप्रभुजीए श्रीसुबोधिनीजीमां प्रगट करेला विधानोनुं सङ्कलन करी अर्ही प्रस्तुत करवामां आवे छेः माया भगवान्‌नी शक्ति छे. ते बे प्रकारनी छे - १. व्यामोह करनारी अने २. जगत रचनारी (२।प।१२). भगवान्‌ स्वरूपथी कृतार्थ करे छे अने मायाथी मोह करावे छे. (१.८.४३). जेम दर्पण पासे होय त्यारे तेमां प्रवेशेलुं मुख विपरीत रीते देखाय छे तेम माया समीप होय त्यारे आत्मा विमुख अने परिच्छिन्न देखाय छे तेथी अन्यथा (उलटुं) देखावानुं कारण माया ज छे. (३.७.९). माया बुद्धिनुं आवरण करी देनारी (बुद्धिने ढाङ्की देनारी) छे तेथी भगवान्‌ श्रीकृष्णमां पुरुषोत्तम बुद्धिने ढाङ्की मनुष्य बुद्धि करे छे. (१०.१.४). भगवान्‌ पोते परमानन्द छे. बीजाओ पोताने जाणे नहि ते माटे तेमनी ज्ञानशक्तिने मायाथी रोके छे. (१०.११.४९). भगवान्‌ने वस्तुतः इन्द्रियो वगेरेनो सम्बन्ध नथी, परन्तु तेमनामां इन्द्रियो वगेरेना सम्बन्धनी प्रतीति मायाथी ज थाय छे. (१०.३८.११). विष्णु रक्षक छे. तेमनी ज माया उपसंहार करनारी छे (३.१०.१२). माया श्रीरूप होवाथी तेणे धारण करेल रूप अने आकृति ‘स्त्री’ कहेवाय छे. ते सदा पोताना (भगवान्‌ना) भोगमाटे अने दैत्योने मोह करवामाटे छे (११.३.१६). [[३००]] भगवान्‌ महामायावाळा छे. तेमनी पासे बीजानी मायाने स्थान पण मळतुं नथी तो पछी ते कार्य तो कयान्थीज करी शके?(प्रक्षिप्त अ.२.४५) भगवान्‌नी समीप मायानो विलय थई जाय छे (१०.६.९). आ व्यामोहिका माया भगवान्‌ना चरणनी दासी छे, कारण के भगवान्‌ ज्ञानरूप छे. ते मोह करनारी छे. तेथी ज ते माणसोने व्यामोह करे छे एम भगवान्‌ जाणता होवाथी, जेओ भगवान्‌ने सन्मुख छे, तथा भगवान्‌ना जे सेवको छे एटले के जे ज्ञानी अने भकतो छे तेमनी पासे ते सर्वत्र घणी ज लाज पामे छे. घणी लज्जाथी ते जरा पण कार्य करी शकती नथी (२.७.४७). ते भगवान्‌नी भार्या छे. भगवान्‌नी साथे पोते निरन्तर रमण करी शके ते माटे बीजाओनी बुद्धिने मोह करे छे. ते आवी छे तेम भगवान्‌ जाणे छे तेथी तेमना दृष्टिपथमां रहेतां ते शरमाय छे. तेथी ज ते, जेओ भगवान्‌ने सन्मुख छे तेमने मोह करती नथी पण बहिर्मुख प्रवृत्तिओ करनाराने ज ते मोह करे छे (२.५.१३) तेथी भगवान्‌नी माया लोकोने ज मोह करे छे, परन्तु भगवदीयोने मोह करती नथी (१०.४५.१) ‘अविद्या’तो भगवान्‌नी शक्ति मायाए निर्माण करेली छे. ज्यारे माया पण भगवान्‌ना दृष्टिपथमां रहेतां शरमाय छे त्यारे तेनी निर्माण करेली अविद्या तो भगवान्‌ना सम्बन्धीओने केवी रीते मोह करी शके? आम होवाथी अविद्यानुं कार्य अज्ञान तो तेमनामां घटी शकतुं ज नथी (१०.२८.१३) ज्ञानरूप भगवान्‌ने वश रहेनारी माया नामनी कोई शक्ति छे ते जगत्कर्तानी मायाथी जुदी छे. आनुं फल व्यामोह ज छे ज्यारे ते भगवान्‌नी आज्ञाथी जगतनुं करण अथवा करनारी थाय छे (२.५.१२) आवी रीते भगवान्‌नी जे शक्ति जगतनुं कारण थाय छे ते नयोगमायाथ कहेवाय छे (१०.२.६) जेम प्रमाणमां अने रक्षा करवामां भगवान्‌मां बलभद्रजीनो उपयोग करे छे तेम कार्य करवामां योगमायानो उपयोग करे छे (१०.२९.१) ‘माया’ एटले भगवान्‌नी सर्व थवानी शक्ति अथवा कोईक नकामी (कार्य नहि करनारी) शक्ति. तेने भगवान्‌ ‘करण’ तरीके स्वीकारी आ सर्व जगतनां उत्पत्ति, पालन अने नाश करे छे. (१०.५७.१५). [[३०१]] आ योगमाया क्षणमात्रमां करोडो ब्रह्माण्डो रचवानी शक्तिवाळी छे पण तेनुं बल भगवान्‌ना गुणोथी ज छे (३.६.३५) जेम करोळियो जाळ रचवामाटे एक लाळ काढे छे तेम भगवान्‌ पण त्रण प्रकारनी सृष्टि रचवामाटे त्रण गुणोने काढे छे. सद्रूपथी बहार नीकळे छे ते ‘सत्त्वगुण’ कहेवाय छे, चिद्रूपथी बहार नीकळे छे तेनामां क्रियाशक्ति मुख्य छे अने सदानन्द नथी तेथी ते रजोगुण कहेवाय छे. आनन्दांशथी तमोगुण नीकळे छे. आ गुणो भगवाने भगवद्रूप ज रचेला छे. पहेलां ते भगवान्‌मां हता एम न मानवुं, कारण के पहेलां पण ते भगवान्‌मां होय तो ते भगवदात्मक न होय. जेम कपासमां पहेलेथी ज दोरो होतो नथी पण कपासना ज अवयवोने आगळ पाछळ गोठववाथी पछीथी तेमान्थी दोरो नीकळे छे तेम आ गुणो प्रथम भगवान्‌मां न हता अने भगवान्‌ बहार काढे त्यारे नीकळे छे तेथी ज भगवान्‌ निर्गुण छे (२.५.१९) भगवान्‌ ते गुणोनो पण मायाथी स्वीकार करे छे. आ माया जगत्‌ रचनारी छे, व्यामोहिका नहि. ते माया जगत्‌ रचनारनी शक्ति छे. सर्वरूप भगवान्‌ना सम्बन्धी सर्वनी प्रतिकृतिरूप छे. जगत्‌ रचवामां ते करण (साधन)रूप छे. तेथी करणांश तेनो होवाथी, गुणो करणरूपथी ज नीकळेला होवाथी मायाथी ज तेमनुं ग्रहण थयेलुं छे. तेओ मायाना पुत्रो होय तेम तेने वश रहे छे (२.५.१९). आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीए छीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए

अध्याय ४

भगवान्‌ना अवतारोनुं वर्णन

विशेष - अत्यार सुधीमां राजा निमिए माया, मायानो तरवानो उपाय, ज्ञान अने कर्म नो निर्णय साम्भळ्यां. आथी तेनुं चित्त शुद्ध थयुं. हवे मुक्तिनी प्राप्तिमाटे राजा निमि भगवान्‌ श्रीहरिनी शुद्धलीला सम्बन्धी प्रश्न करे छे. आ हरिकथानुं सदा श्रवण करवुं के जेथी करीने चित्त सम्पूर्ण रीते तेमां आसकत थाय. पहेलां कहेली कक्षाओथी कार्य सिद्ध थाय तेवुं होवाथी अध्याय-३,

ईं उं ईं उं

एकादशस्कन्ध ३०२ आनुं शुं प्रयोजन? तेवी शङ्काना समाधानमां कहेवानुं के आ त्रीजी कक्षा भगवत्कथानुं श्रवण बधां साधनोनो अनुकल्प (सर्वने बदले योजी शकाय तेवी) छे. (कारिका) यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः ॥ चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः ॥१॥

राजा निमिए पूछ्‌युं - हे योगेश्वरो! भगवान्‌ स्वेच्छाथी पोताना भक्तोनी भक्तिने वश थई अनेक प्रकारना अवतार ग्रहण करे छे अने अनेक लीलाओ करे छे. भगवाने अत्यारसुधीमां जे लीलाओ करी छे, अत्यारे जे लीलाओ करी रह्या छे के भविष्यमां जे लीलाओ करशे ते भगवद्‌ लीलाओनुं वर्णन आप कृपा करीने करो ॥१॥

हवे सातमा योगेश्वर द्रुमिलजीए कह्युं - हे राजन्‌! भगवान्‌ अनन्त छे. आपना गुणो पण अनन्त छे. जे एम धारे छे के हुं आपना गुणोनी गणतरी करी लईश ते बालबुद्धि के मूर्ख छे. पृथ्वीनी धूळनां रजकणो कदाच कोई केमेय करीने महाकष्टथी गणी शकेपरन्तु समस्त प्राणीओमां वसता अनन्त भगवान्‌ना अनन्त गुणोनो कोई केमेय करीने कयारेय पार पामी शकतो नथी* ॥२॥

विशेष - अनन्त-देश अने कालनी हद विनाना. असङ्ख्य बह्माण्डोमां अने असङ्ख्य ब्रह्माजीना दिवसोमां एक गाममां एक दिवसे करेलुं एक कर्म पण गणे तो करोडो जन्म चाल्या जाय. वळी गुणो तो वेद, शिल्प वगेरे विद्याओनी जेम जुदां-जुदां ज्ञान अने क्रियाओ नो प्रकाश करनारा छे. ते पैकीनी एक विद्याथी जो एक कार्य करे तो पण अनन्त कार्यो थाय. कर्मनी वात जवा दईए, कर्मना कारण बनेला गुणोनी पण गणतरी थई शके तेम नथी.
१ (रज) कण=१०० परमाणु. एक चणोठीमां एक करोड कण होय छे. चणोठीथी पचास करोड गणी सङ्ख्या थाय त्यारे पुरुषनो भार थाय. भगवाने ज पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश-आ पाञ्च भूतोनी पोते सृष्टि करी. ज्यारे ते पञ्चमहाभूतद्वारा विराट्‌ शरीर ब्रह्माण्डनुं निर्माण करी तेमां लीलाथी पोताना (आनन्द) अंशथी प्रवेश कर्यो. (भोकता रूपथी नहि, कारण के भोकता तो पोतानां पुण्योना फलस्वरूप जीव ज होय छे). त्यारे ते आदिदेव नारायणे ‘पुरुष’ नाम प्राप्त कर्युं. ते भगवान्‌नो पहेलो अवतार गणायो ॥३॥

एमना ज आ विराट्‌ ब्रह्माण्ड शरीरमां त्रणेय लोक रहेला छे. एमनी ज इन्द्रियोथी समस्त देहधारीओनी ज्ञानेन्द्रियो अने कर्मेन्द्रियो कार्य करे छे. एमना [[३०३]] स्वरूपथी ज स्वतः सिद्ध ज्ञाननो सञ्चार थाय छे. एमना श्वासोच्छ्‌वासथी बधां शरीरोमां बल आवे छे तथा इन्द्रियोमां ओज (इन्द्रियोनी शक्ति) अने कर्म करवानी शक्ति प्राप्त थाय छे. एमना सत्त्व आदि गुणोथी संसारनी उत्पत्ति स्थिति अने लय थाय छे. आ विराट्‌ शरीरना जे शरीरी छे ते ज आदि कर्ता नारायण छे ॥४॥

सौथी पहेलां जगतनी उत्पत्तिने माटे तेमना रजोगुणना अंशथी ब्रह्माजी थयापछी ते आदिपुरुष ज संसारनी स्थितिने माटे पोताना सत्त्वांशथी धर्म तथा ब्राह्मणो ना रक्षक यज्ञपति विष्णु बनी गया. पछी तेज तमोगुणना अंशथी जगतना संहारने माटे रुद्र बन्या. आ प्रमाणे निरन्तर एमनाथीज परिवर्तनशील प्रजानी उत्पत्ति, स्थिति अने संहार थतां रहे छे ॥५॥

दक्ष प्रजापतिनी एक कन््‌यानुं नाम मूर्ति हतुं. ते धर्मनी पत्नी हती. तेना गर्भथी भगवाने श्रेष्ठ अत्यन्त शान्त ‘नारायण’ अने ‘नर’ ऋषिना रूपमां अवतार लीधो. तेमणे आत्मतत्त्वनो साक्षात्कार करावी देनार ते भगवद्‌ आराधनरूप योगनी साधना करीजे कर्मबन्धनथी छोडावी दई नैष्कर्म्य स्थितिने प्राप्त करावी दे छे. आजे पण तेओ बदरिकाश्रममां बिराजी रह्या छे ज्यां मोटा-मोटा ऋषिमुनिओ तेमना चरणकमलोनी सेवा करी रह्या छे ॥६॥

‘‘पोतानी घोर तपस्याथी आ (नर-नारायण) मारुं स्थान पडावी लेवा इच्छे छे’’ एवी आशङ्का करी इन्द्रे कामदेवने तेना गण अप्सराओना समूह, वसन्तऋतु अने उत्तम मन्दवायु साथे तेमनी तपस्यामां विघ्न करवामाटे मोकल्यो. कामदेवने भगवान्‌ना महिमानुं ज्ञान नहोतुं तेथी ते अप्सरागण, वसन्त तथा मन्दसुगन्ध वायुनी साथे बदरिकाश्रममां जई स्त्रीओना कटाक्षबाणोथी तेमने घायल करवानी चेष्टा करवा लाग्यो ॥७॥

आदि देव नर-नारायण इन्द्रना आ अपकृत्यने जाणी गया. तेमणे भयथी ध्रूजता कामदेव वगेरेने कोई पण जातना गर्व विना कह्युुं - ‘‘हे कामदेव! मलयमारुत अने देवाङ्गनाओ! तमे डरो नहि. अमारा अतिथि सत्कारने ग्रहण करो. हमणां अर्ही ज रोकाई जाओ. अमारा आश्रमने सूनो न करो’’ ॥८॥

हे राजन्‌! ज्यारे नर-नारायण ऋषिए तेमने अभयदान दई आ प्रमाणे कह्युं त्यारे कामदेव वगेरेनां मस्तक लज्जाथी नमी पड्यां. तेमणे दयालु भगवान्‌ नरअध्याय-४,एकादशस्कन्ध ३०४ नारायणने कह्युं - ‘‘हे सर्वशक्तिमान प्रभो! आपने माटे आ कोई आश्चर्यनी वात नथी कारण के आप मायाथी पर अने निर्विकार छो. मोटा-मोटा आत्माराम अने धीरपुरुषो निरन्तर आपनां चरणकमलोमां प्रणाम करता रहे छे ॥९॥

आपना भकतो आपनी भक्तिना प्रभावथी देवताओनी राजधानी अमरावतीनुं ऊल्लङ्घन करी आपनां परम पदने प्राप्त करे छे. तेथी ज्यारे तेओ आपनी सेवारूपी भक्ति करवा लागे छे त्यारे देवताओ जात-जातनां विघ्नो तेमनी सेवामां ऊभां करे छे. पण जे लोको कर्मकाण्डमां लागी जई यज्ञादि द्वारा देवोने बलिना रूपमां तेमनो भाग आपता रहे छे तेमना मार्गमां तेओ विघ्न करता नथी. परन्तु हे प्रभो! आपना भकतजनो तेमना द्वारा ऊभी करवामां आवती विघ्न बाधाओथी पतित थता नथी. परन्तु आपना करकमलोनी छत्रछायामां रहीने तेओ विघ्न- बाधाओना मस्तक उपर पग मूकी आगळ नीकळी जाय छे, पोताना लक्ष्यथी चलित थता नथी ॥१०॥

हे प्रभो! घणा लोकोतो एवा होय छे के जे १. भूख २. तरस ३. त्रणऋतुना गुणो (टाढ, ताप अने वर्षा) ४. आन्धी ५. रसनेन्द्रिय (जिह्वा) अने ६. जननेन्द्रियना अपार समुद्रना जेवा अमारा (छ ना) वेगने तो सहन करी ले छे, पार करी जाय छे, परन्तु तेओ गायनी खरीथी बनेला खाडा जेवा क्रोधने वश थई जाय छे. जेनाथी लाभ तो कंई छेज नहि आत्मनाशक छे अने आम पोतानी तपस्या वृथा गुमावी बेसे छे ॥११॥

एम कामदेव, वसन्त वगेरे देवताओ नारायणनी स्तुति करे छे तेटलामां सुन्दर वेषभूषायुकत अने नारायणनी सेवा करती अद्‌भुतरूप सम्पत्तिवाळी स्त्रीओने भगवाने ए देवो समक्ष प्रगट करी बतावी ॥१२॥

(इन्द्र वेगरे देवोना अन्तःपुरनी स्त्रीओथी पण जेमने मोह न थतो तेवा) देवराज इन्द्रना सेवकोए लक्ष्मीजी समान रूपवती ते स्त्रीओने जोई त्यारे तेमनां महान सौन्दर्य अने उदारता आगळ तेमना चहेरा अने कान्ति फिक्कां पडी गयां तेओ श्रीहीन थई जई तेमनां शरीरमान्थी नीकळती दिव्य कमलना केसरनी सुगन्धथी ज मोहित थई गया. (श्रीना बे प्रकार छे. १. कान्ति अने २. धन. कान्तिना आधार स्त्रीओना रूपथी तेमनी कान्ति फिक्की पडी गई अने उदारताथी धन. उदारता न होय तो धन पथ्थर जेवुं छे अथवा तेमनां रूपथी समीप जवाथी ज [[३०५]] सर्वरूपवाळां थाय एवी तेमना रूपनी उदारता हती) ॥१३॥

देवोए ज्यारे देवना देव नर-नारायणने प्रणाम कर्या त्यारे भगवान्‌ नारायण हसीने तेओने कहेवा लाग्या ‘‘आ घणी स्त्रीओमान्थी तमारे लायक अने तमारा जेवी एकने तमे स्वर्गमां लई जाओ. ए तमारा स्वर्गना भूषणरूप थशे’’ ॥१४॥

देवराज इन्द्रना अनुचरोए ‘‘जेवी आज्ञा’’ कही भगवान्‌नी आज्ञानो स्वीकार करी आपने नमस्कार कर्या. पछी आपे बनावेली रमणीओमान्थी श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीने आगळ करीने तेओ स्वर्गमां गया ॥१५॥

त्यां जई तेमणे इन्द्रने नमस्कार कर्या तथा भरी सभामां देवताओ समक्ष भगवान्‌ नर-नारायणना बल, प्रभाव अने गौरव नुं वर्णन कर्युं. ते साम्भळी देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत अने चक्ति थई गया ॥१६॥

त्रणेय लोकोना कल्याणमाटे विष्णुए कलाथी अवतार लई अच्युत रही हंसनो अवतार लई ब्रह्माजीने आत्मस्वरूप बताव्युं. तेमज दत्तात्रेय अने अमारा पिता भगवान्‌ ऋषभदेवरूपे अवतार लई आत्मानां तत्त्वनो उपदेश कर्यो. हयग्रीव भगवान्‌नो अवतार लई मधु (अने कैटभ दैत्यो) नो नाश करी तेमना उदरमान्थी पोताना मुखमां मूकी वेदनी श्रुतिओने पाछी लई आव्या. (भगवान्‌ गमे ते देहे अवतार ले-वराह, हंस, हयग्रीव-छतां आपनो देह आनन्दस्वरूप ज होय छे ए ‘अच्युत’ शब्दनुं स्वारस्य छे. मूलमां ‘जगतां’ बहुवचन छे ते त्रणेय लोको- स्वर्ग, पृथ्वी, पाताळ-नुं क्ल्याण करवामाटे अवतार ले छे एवो भाव छे) ॥१७॥

प्रलय वखते मत्स्यनो अवतार लई आपे भावी मनु, सत्यव्रत, पृथ्वी अने ओषधिओ (धान्यादि) नी रक्षा करी. वराहनो अवतार ग्रहण करी पृथ्वीनो रसातलमान्थी उद्धार करती वखते हिरण्याक्षनो संहार कर्यो. कूर्मनो अवतार लई ए ज भगवाने अमृत मन्थननुं कार्य सम्पन्न करवामाटे पोतानी पीठ उपर मन्दराचल पर्वत धारण कर्यो अने ते ज भगवान्‌ विष्णुए पोताना शरणागत एवं आर्त भकत गजेन्द्रने हरि नामनो अवतार लई ग्राहथी छोडाव्यो ॥१८॥

(पाञ्चमा मन्वन्तरना त्रण अवतारो कहे छे). एक वखत वालखिल्य ऋषि तपस्या करतां-करतां अत्यन्त दुर्बल थई गया हता. तेओ ज्यारे कश्यप ऋषिमाटे समिध लावी रह्या हता त्यारे थाकी जई गायनी खरीथी बनेला एक खाडामां पडी गया१ (तेमना शरीरनुं कद अङ्गूठाना एक वेढा जेवडुं छे). तेमणे ज्यारे स्तुति करी [[३०६]] त्यारे भगवाने अवतार लई तेमनो उद्धार कर्यो हतो. वृत्रासुरनो वध करवाथी इन्द्रने ज्यारे ब्रह्महत्या लागी त्यारे ते तेना भयथी भागी जई छुपाई गया त्यारे भगवाने ते हत्याथी इन्द्रनी रक्षा करी. (छठ्ठा मन्वन्तरना अवतारो कहे छे). असुरोए ज्यारे देवाङ्गनाओने बन्दी बनावी दीधी त्यारे पण भगवाने तेमने छोडावी२ जयारे हिरण्यकशिपु प्रह्‌लादजी वगेरे सन्त पुरुषो उपर त्रास गुजारवा लाग्यो त्यारे तेमने निर्भय करवामाटे भगवाने नृसिंह अवतार ग्रहण करीने हिरण्यकशिपुने मारी नाख्यो ॥१९॥

विशेष - १. एक कथा एवी छे के एक वखत गरुडजी आ वालखिल्य ऋषिओने पोतानी पीठ उपर बेसाडी लई जता हता त्यारे रस्तामां समुद्र आवतां तेमने चककर आववाथी गरुडजीनी पीठ उपरथी समुद्रमां पडी गया. तेओ सूर्यना रथ आगळ सूर्य तरफ मोढुं राखी सूर्यदेवनी स्तुति करता सूर्यनी साथे फरे छे. (५.२१.१७)
२. समुद्र मन्थन प्रसङ्गे भगवान्‌ देवोने अमृतनुं पान करावी पधारी गया पछी, बलिराजाए इन्द्र उपर आक्रमण करी इन्द्रासन पडावी लीधुं. देवो नासी छूट्‌या ते वखते असुरोए देवाङ्गनाओने पोताने त्यां लई जई पोतानां घरोमां छुपावी राखी हती. आपे देवताओनी रक्षामाटे देवासुरसङ्ग्राममां दैत्यपतिओनो वध कर्यो. जुदाजुदा मन्वन्तरोमां आपे पोतानी शक्तिथी कलावतार धारण करी त्रिभुवननी रक्षा करी. पछी (सातमा मन्वन्तरमां) वामन अवतार ग्रहण करी आपे याचनाने बहाने आ पृथ्वी दैत्यराज बलि पासेथी मागी लईने अदितिपुत्रो एवा देवोने आपीदीधी ॥२०॥

हैहयना कुलनो नाश करवामाटे भृगुकुलमां अग्निरूपे परशुरामजी प्रकट थया. तेमणे एकवीस वार पृथ्वीने क्षत्रिय रहित करी. रामावतारमां भगवाने समुद्र उपर पाळ बान्धी अने दशमुख रावणने मारी सीताजीने लई आव्या. ते रामनी कीर्ति लोकोना पापने दूर करनारी छे. ए सीतापति रामचन्द्रजीनो सदा सर्वत्र जयजयकार ज होय छे ॥२१॥

अजन्मा भगवान्‌ पृथ्वीनो भार उतारवामाटे यादवोमां प्रकट थशे अने देवोथी पण न बनी शके तेवां कर्म करशे. वळी बुद्धनो अवतार धारण करी वैदिक कर्मने अयोग्य एवा लोकने वाद करी वेदमां मोह करावशे, यज्ञादि क्रियामां थती हिंसा अटकावशे. छेल्ले कल्कि अवतार धरीने भगवान्‌ म्लेच्छ थयेल शूद्र राजाओनो संहार [[३०७]] करशे ॥२२॥

एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः ॥ भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥२३॥

महा यशस्वी जगतना पति भगवान्‌नां कर्मो अने जन्मो घणां छे. तेने धारण करीने अनेक यश आपनार कर्मो ए करे छे. हे महाभुज! में तमारी पासे ए कर्मो वर्णवी बताव्याम् ॥२३॥

इति श्रीभागवत्‌ एकादश स्कन्धना (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर ब्रह्मभाव प्रकरणनो) ‘‘भगवान्‌ना अवतारोनुं वर्णन’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोईपण हेतु विना ज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)

अध्याय ५

भक्तिरहित लोकोनी दुर्गति तथा भगवत्पूजानो विधि

विशेष - विषयी जीवो भगवाननी भक्ति करता नथी. एमनी दुर्गति थाय छे एनुं निरूपण आ पाञ्चमा अध्यायमां आवे छे, तथा युगयुगमां लोको भगवानने केवा प्रकारभेदथी आराधे छे ए वात पण आ पाञ्चमा अध्यायमां कहेवामां आवेछे. भगवन्तं हरिं प्रायो, न भजन्त्यात्मवित्तमाः ॥ तेषामशान्तकामानं का निष्ठाविजितात्मनाम्‌ ॥१॥

राजा निमिए पूछयुं - हे योगेश्वरो! आप तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी अने *भगवान्‌ना परम भक्त छो. कृपा करी ए बतावो के जेमनी कामनाओ शान्त थई नथी, आ लोक परलोकना भोगोनी लालसा मटी नथी, मन अने इन्द्रियो वश नथी अने भगवाननुं भजन जे करता नथी तेवा लोकोनी शी गति थाय छे? ॥१॥

विशेष - भगवान्‌ - जेमनी पासे सर्व इच्छेला पदार्थ प्राप्त थाय ते. हरि-सर्व दुःखो अध्याय-५,

ईं उं ईं उं

एकादशस्कन्ध ३०८ हरनारा. जो के भजन न करताहोय ते सर्वने प्रवाहरूप फल ज प्राप्त थाय छे कारण के दोषवाळानो दोष जाय ए ज तेनो गुण छे छतां थोडा ज्ञानवाळो प्रवाही निन्दा कर्या विना रहेतो न होवाथी प्रश्न करेल छे. निन्दा करवाथी भजन करवानी योग्यता रहेती नथी. जेओए इन्द्रियोने वश करेली न होय अने जे कामनावाळा होय तेमने पण वेद तारे छे. बीजा मार्गमां रहेनारा तो स्वभावथी ज पतित होवाथी वेदमार्गे चालनारा सम्बन्धी ज आ प्रश्न छे. प्रवाहमां पडेला अने लोकमां चतुर होय तेमनी गति श्लोक बीजा तथा त्रीजामां कहे छे. हवे आठमा योगेश्वर चमसजीए कह्युं - हे राजन्‌! विराट पुरुषना मुखथी सत्त्व प्रधान ब्राह्मण, भुजाओथी सत्त्व-रज प्रधान क्षत्रिय, जङ्घाथी रज-तम प्रधान वैश्य अने चरणो थी तमःप्रधान शूद्रनी उत्पत्ति थई छे. तेमनी ज जाङ्घोथी गृहस्थाश्रम, हृदयथी ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थलथी वानप्रस्थाश्रम अने मस्तकथी सन्न्यासाश्रम आ चार आश्रम प्रगट थया छे. आ चारेय वर्णो अने आश्रमो ना जन्मदाता स्वयं भगवान ज छे* आप ज तेमना स्वामी, नियन्ता अने आत्मा पण छे. तेथी आ वर्ण अने आश्रम मां रहेनारो जे मनुष्य भगवान्‌नुं भजन करतो नथी, परन्तु तेमनो अनादर करे छे ते पोताना स्थान, वर्ण, आश्रम अने मनुष्य योनिथी पण च्युत थई जाय छे; तेनुं अधःपतन थाय छे ॥२-३॥

विशेष - श्रीवल्लभाचार्यजीनी श्रीसुबोधिनीजी टीका अर्ही सुधी उपलब्धछे. घणी स्त्रीओ तथा शूद्रो वगेरे भगवाननी कथा अने नामकीर्तन वगेरेथी दूर पडी गयां छे. तेओ आप जेवा भगवद्‌ भक्तोनी दयाने पात्र छे. आप तेमने कथा कीर्तननी अनुकूळता करी आपी तेमनो उद्धार करो ॥४॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य जन्मथी, वेदोना अभ्यासथी तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारोथी भगवान्‌ना चरणोनी पासे पहोञ्ची गया छे. छतां पण तेओ वेदोनुं असली तात्पर्य समज्या विना अर्थवादमां लागी जई मोहित थई जाय छे ॥५॥

तेमने कर्मना हार्दनी साची जाणकारी होती नथी. मूर्ख होवा छतां पोताने पण्डित माने छे अने अभिमानमां अक्कड ने अक्कड रहे छे. मीठी-मीठी वातोमां भूला पडे छे अने केवल वस्तु शून्य शब्द माधुरीना मोहमां पडी जई मोटी-मोटी वातो कह्या करे छे ॥६॥

[[३०९]] रजोगुणनी अधिकताने लीधे तेमनां सङ्कल्पो घोर होय छे, कामनाओनी कोई सीमा होती नथी तेमनो क्रोध सर्पना (क्रोध) जेवो होय छे. दम्भ अने अहङ्कार राखे छे. आवा पापी लोको भगवान्‌ना प्यारा भक्तोनी मश्करी करे छे ॥७॥

महापुरुषो, ज्ञानवृद्ध अने अनुभववृद्ध नी उपासना करवाने बदले ते मूरखाओ स्त्रीओनी उपासना करे छे. एटलुं ज नहि तेओ परस्पर एकठा थई एवा गृहस्थाश्रमना सम्बन्धमां मोटा-मोटा मनसूबा सेवे छे, ज्यान्नुं सौथी मोटुं सुख स्त्रीसहवासमां ज सीमित छे. क्यारेक वळी यज्ञ करे तो अन्नदान करता नथी, विधिनुं उल्लङ्घन करे छे अने दक्षिणा पण आपता नथी. कर्मनुं रहस्य न जाणनारा ए मूर्खो केवल पोतानी जीभने सन्तुष्ट करवा, पेटनी भूख मटाडवा अने शरीरने पुष्ट करवा निर्दोष बीचारां पशुओनी हत्या करे छे ॥८॥

लक्ष्मी विद्या कुल दान रूप बल अने कर्म नो एमने भारे घमण्ड होय छे. तेथी ए गर्वमां अन्ध बनीने भगवद्‌ भक्तने ज नहि पण भगवानने पण ए गणता नथी अने ए खल होवाथी भक्तसहित भगवाननुं अपमान करे छे ॥९॥

सर्व प्राणीमात्रमां आकाश रह्युं छे तेम व्यापकपणाथी रहेला नित्य साथे रहेनार होवाथी परम प्रेमास्पद अने आत्मारूप भगवान्‌, जेमनुं वेदो गान करे छे तेने कर्मठ लोको साम्भळता नथी अने मात्र पोताना मोटा-मोटा मनोरथनी वातो करे छे तेथी ज तेओ सत्य वस्तुने जाणनार न होवाथी मूर्खछे ॥१०॥

लोकमां मैथुन, मांस अने मद्य मां मनुष्योनी स्वाभाविक प्रवृत्ति थई जाय छे. हवे शास्त्र एम करवानुं विधान तो करी शके नहि केमके जे कोई रीते प्राप्त न होय तेने कहेवुं ए अपूर्व विधि कहेवाय. एवी अपूर्वता मैथुनादिमां नथी तेथी एनो विधि नथी. तेथी शास्त्रोमां मैथुनादि रूपी भोगोनी व्यवस्था विवाह-यज्ञादिमां बताववामां आवी छे. खरेखर तो शास्त्रनुं प्रयोजन मनुष्यने ते बाबतोमान्थी निवृत्त करवुं छे ॥११॥

विशेष - त्यां शङ्का थाय के ‘‘ऋतौ भार्यामुपेयात्‌, हुतशेषं भक्षयेत्‌’’ इत्यादि विधि तो शास्त्रमां प्राप्त छे एटलुं ज नहि पण ‘‘ऋतौ स्नातां तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति, घोरायां भ्रूणहत्यायां युज्यते नात्र संशयः’’ इत्यादि वाक्यथी ऋतुमां गमन न करनारने दोष प्राप्त थवानुं पण कह्युं छे. ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के राग (आसक्ति) पूर्वक प्राप्त ते वस्तुने माटे शास्त्रकारोए ए कर्म निरन्तर करवानो निषेध कर्यो छे. [[३१०]] ए कर्या वगर न रही शके तेवा पुरुषने ए करवाने माटे व्यवस्था कही बतावी छे के जो तेमां राग होय तो निरन्तर ए ज कार्य न करवुं पण एने माटे शास्त्रविधिथी लग्न करवुं; एमां शास्त्रमां निषिद्ध करेल पर्वादि दिवसोने छोडीने स्त्री-समागम करवो. ए पण दिवसे नहि पण राते ज, वारंवार नहि पण एक रातमां एक ज वखत; ए पण पितृऋणमान्थी छूटवाना हेतुथी उत्पन्न थता पुत्रनी इच्छाथी ज पण राग (आसक्ति) पूर्वक ए न करवुं; ए प्रमाणे एनी व्यवस्था छे. मांस भक्षणमां राग होय तो अविहित मांस खावुं नहि पण शास्त्रने अनुसरी यज्ञ करवो एमां होम करतां वधेलां मांसनो अंश विधि प्रमाणे ज करवो. सुरा (मद्य)ने माटे पण सौत्रामणि यागमां एना पाननो विधि कह्यो छे तेवो यज्ञ करीने सुरानो सूङ्घवा मात्र उपयोग करवो. ए प्रमाणे व्यवस्था कही छे. ते बधी व्यवस्थाओने रागी (आसक्तिवाळा) लोको साम्भळता नथी अने पोतानी इच्छाने तृप्त करवामाटे जिह्वा अने जननेन्द्रिय ना विषयने अधीन थाय छे तेथी कर्मठ लोको शास्त्रना अभिप्रायने जाणता नथी अने रागपूर्ति माटे वेदना एक वाक्यने पकडी एना पूर्वापरनो विचार कर्या विना मनमान्या मनोरथ करी विषयनी वासनाने पोषे छे. तेथी तेओ आ लोक परलोकथी भ्रष्ट थईने यातनाओने प्राप्त थाय छे माटे ए मूरखा छे. डाह्या पुरुषो शास्त्रना अनुशीलनथी वैराग्यवाळा थाय अने यज्ञ, स्त्री वगेरेनो त्याग करे तो एमने शास्त्र बाधक थतुं नथी पण ‘‘यदहरेव विरजेत्‌ तदहरेव प्रवजेत्‌’’ इत्यादि विधिथी साधक थाय छे. तेमना सेवननी शास्त्रोमां जे व्यवस्था करवामां आवी छे तेनो हेतु लोकोनी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिनुं नियन्त्रण अने एमनुं मर्यादामां स्थापन करवानो छे. वास्तवमां लोकोनी ते प्रवृत्तिओ छोडाववी ए ज श्रुतिओने अभीष्ट छे ॥११॥

स्त्री सुख वगेरेमां आसक्तिवाळा लोको भगवान (आत्मा)नुं श्रवण करता नथी ए वात कही हवे धननो धर्ममां उपयोग करे तो ए द्वारा मोक्ष मेळवी शके पण ए धननो पण ए सदुपयोग करता नथी ए वात कहे छे. धर्म करवो ए ज जेनुं फळ छे तेवा धनने ए लोको गृहकार्यमां (संसारमां भोगो भोगववामां) उपयोग करे छे. जो एनो धर्ममां विनियोग करे तो धर्मथी अधर्मनो नाश थाय त्यारे एनुं अन्तःकरण शुद्ध थाय. तेनाथी ज्ञान थाय अने ज्ञानथी ए आत्मानो उद्धार करे. पण एना घरमां, पुत्र, स्त्री वगेरेमां विनियोग करी सकाम कर्म करे तेनाथी एने संसार प्राप्त थाय छे. अत्यन्त पराक्रमवाळो काळ तेना शरीरने खाई जाय छे एने जोता नथी तेथी ए नेत्ररहित अन्धतुल्य छे ॥१२॥

[[३११]] वळी प्रथम रागीने मैथुन वगेरे करवुं तो परिणीतामां करवुं ए व्यवस्थामां यथेष्ट चेष्टा करवानुं शास्त्र कहेतुं नथी पण जो सुरानी इच्छा थाय तो मात्र ते सूङ्घवुं, पान न करवुं. वळी देवताना उद्‌देशथी पशु मारवुं ते आलभन कहेवाय ते यज्ञमां ज थाय. पोताने भक्षणनी इच्छाथी यज्ञ करनारने तो हिंसा प्राप्त थाय छे. देवने धरीने पण यथेष्ट उपयोग करवानी शास्त्रनी आज्ञा नथी. एम स्त्री सङ्ग करवो ते प्रजाने माटे कर्तव्य छे पण राग (आसक्ति) थी मैथुन स्वस्त्रीमां पण कर्तव्य नथी. आ शुद्ध धर्मने कर्मठ लोको जाणता नथी अने पोतानी इच्छाने यज्ञ वगेरे बहानाथी पोषे छे ते दोषभागी थाय छे ॥१३॥

उपरोक्त धर्मना स्वरूपने जाण्या वगर अमे श्रेष्ठ छीए एवा अभिमानवडे कोईने न गणनार कर्म जड लोको निःशङ्क रीते पशुनो द्रोह करे छे. ते ज्यारे मरे छे त्यारे ए पशुओ हिंसकना मांसने खाय छे. मांस शब्दनो अर्थ एवो छे के ‘‘मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहादम्यहम्‌, एतन्‌ मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः’’ मांस खानार जेनुं मांस खाय छे ते पशु ते हिंसकना मांसने खाय छे ते ज मांसनुं मांसपणुं छे एम डाह्या पुरुषोनुं कथन छे ॥१४॥

पारका शरीरमां रहेला आत्मारूपी ईश्वरनो ए द्वेष करे छे, स्त्री, पुत्र वगेरे सहित बधा नाश पामनार छे छतां एना देहमां अनुराग करे छे ते अधोगतिने प्राप्त थाय छे ॥१५॥

जे लोकोए आत्मज्ञान सम्पादन करी कैवल्य मोक्ष प्राप्त कर्यो नथी अने जे पूरेपूरा मूढ पण नथी ते अधकचरा लोको घरना के घाटना रहेता नथी. तेओ धर्म, अर्थ अने काम आ त्रणेय पुरुषार्थोमां फसायेला रहे छे. पळवार पण तेमने भगवान्‌ना गुणगाननो अवकाश मळतो नथी. तेओ पोताने हाथे पोताना पग उपर कुहाडो मारी रह्या छे. आवा लोको ज आत्मघाती कहेवाय छे ॥१६॥

अज्ञानने ज ज्ञान माननारा आ आत्मघातीओने क्यारेय शान्ति मळती नथी. तेमना कर्मोनी परम्परा क्यारेय शान्त थती नथी. तेमना कर्मोनी परम्परा कयारेय शान्त थती नथी. काल भगवान सदा सर्वदा तेमना मनोरथो अपूर्ण ज राखे छे. तेथी तेओ अकृतार्थ रहेतां तेमना हृदयनो ताप, विषाद क्यारेय मटतो ज नथी ॥१७॥

हे राजन्‌! जे लोको अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्णथी बहिर्मुख छे तेओ [[३१२]] अत्यन्त परिश्रम करीने घर, पुत्र, स्त्री, मित्र अने धनसम्पत्ति एकठी करे छे परन्तुं अन्ते तो तेमने बधुं ज छोडी देवुं पडे छे अने अनिच्छाए पण विवश थई घोर नरकमां जवुं पडे छे. (भगवाननी भक्ति न करनारा विषयी पुरुषोनी आ गति ज थाय छे) ॥१८॥

राजा निमि कहे छे - कया काळमां ए भगवान केवा आकारवाळा अने वर्णवाळा होय छे अने मनुष्यो एमने क्या प्रकारे कया नामथी पूजे छे ए वात आप मने कहो ॥१९॥

करभाजन नामना छेल्ला नवमा योगेश्वर आ प्रश्ननो उत्तर आपतां कहे छे - कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग अने कळियुग एवा एना चार युग छे. तेमां भगवान अनेक प्रकारना वर्णवाळा अनेक प्रकारनां नामवाळा अने अनेक प्रकारनी आकृतिवाळा थाय छे. तेमने लोको विभिन्न विधिओथी पूजे छे ॥२०॥

कृतयुगमां भगवाननो वर्ण श्वेत होय छे. आपने चार भुजाओ होय छे, मस्तक उपर जटा धरे छे, वृक्षनी छालनां वस्त्र धरावे छे, काळियार मृगनुं चर्म, जनोई, अक्षमाळा, दण्ड अने कमण्डळ ने धारण करे छे ॥२१॥

कृतयुगमां मनुष्यो शान्त होय छे, वैररहित होय छे, सर्वनी साथे मैत्री अने समानता राखे छे, मन अने इन्द्रियो उपर काबू राखीने ए लोको भगवाननी आराधना करे छे ॥२२॥

हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर अमल, ईश्वर पुरुष, अव्यक्त अने परमात्मा आदि नामथी लोको भगवाननां गुण, लीला आदिनुं गान करे छे ॥२३॥

त्रेतायुगमां भगवाननो वर्ण लाल होय छे, चार भुजा होय छे, त्रेवडी मेखला धर छे, सोना जेवा पीळा एमना केश होय छे, त्रण वेदमां प्रतिपाद्य स्वरूपवाळा होय छे, स्रुक्‌, स्रुवा वगेर यज्ञपात्रो धारण करेलां होय छे ॥२४॥

ते युगना लोको पोताना धर्ममां दृढ निष्ठा राखनारा अने वेदोना अध्ययन- अध्यापनमां बहु प्रवीण होय छे. ते लोको ऋग्वेद, यजुर्वेद अने सामवेदरूप वेदत्रयी द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान श्रीहरिनी आराधना करे छे ॥२५॥

त्रेतायुगमां अधिकांश लोको विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त अने उरुगाय वगेरे नामोथी तेमना गुण, लीला वगेरेनुं कीर्तन करे छे ॥२६॥

[[३१३]] हे राजन्‌! द्वापरयुगमां भगवानना श्रीअङ्गनो रङ्ग श्याम होय छे. ते पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा वगेरे पोतानां आयुधो धारण करे छे. वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनुं चिह्‌न, भृगुलता, कौस्तुभमणि वगेरे लक्षणोथी ते ओळखाय छे ॥२७॥

हे राजन्‌! ते वखते जिज्ञासु मनुष्यो महाराजाओनां चिह्‌न छत्र, चमर वगेरेथी युक्त परम पुरुष भगवाननी वैदिक अने तान्त्रिक विधिथी आराधना करे छे ॥२८॥

ते लोको आ प्रमाणे भगवाननी स्तुति करे छे ‘‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान वासुदेव! एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण! अमे आपने फरी-फरी नमस्कार करीए छीए. भगवान प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध ना रूपमां अमे आपने नमस्कार करीए छीए।२९-३०॥

हे राजन्‌! द्वापरयुगमां लोको आ प्रमाणे जगदीश्वर भगवाननी स्तुति करे छे. हवे कलियुगमां अनेक तन्त्रोना विधिविधानथी भगवाननी जेवी पूजा करवामां आवे छे ते साम्भळो ॥३१॥

कलियुगमां भगवान्‌नो श्रीअङ्गनो वर्ण श्याम होय छे. जेवी रीते नीलम मणिमान्थी उज्जवल कान्तिधारा नीकळती रहे छे तेवी ज रीते एमना अङ्गनी छटा पण उज्ज्वल होय छे. ते हृदय वगेरे अङ्ग, कौस्तुभ वगेरे उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र अने सुनन्दन वगेरे पार्षदोयुक्त होय छे. कलियुगमां सुबुद्धिमान पुरुषो एवा यज्ञोद्वारा एमनी आराधना करे छे के जेमां नाम गुण लीला वगेरेना कीर्तनथी प्रधानता होय छे’’ ॥३२॥

ते लोको भगवाननी स्तुति आ प्रमाणे करे छे, ‘‘हे प्रभो! आप शरणागत रक्षक छो. आपनां चरणारविन्द सदा सर्वदा ध्यान करवा योग्य, माया मोहने लीधे थता सांसारिक पराज्योनो अन्त करनार तथा भक्तोनी समस्त अभीष्ट वस्तुओनुं दान करनार कामधेनुं स्वरूप छे. ते तीर्थोने पण तीर्थ बनावनार स्वयं परम तीर्थस्वरूप छे. शिवजी, ब्रह्माजी वगेरे मोटा-मोटा देवताओ तेमने नमस्कार करे छे अने गमे ते व्यक्ति तेने शरणे आवी जाय तेनो स्वीकार करी ले छे. सेवकोनी समस्त आर्ति विपत्तिओनो नाश करनार तथा संसारसागर पार करवा माटे जहाज छे. हे महापुरुष! हुं आपनां ते ज चरणाविन्दोनी वन्दना करुं छुम् ॥३३॥

[[३१४]] हे भगवन्‌! आपनां चरणकमलोनो महिमा कोण कही शके? रामावतारमां पोताना पिता दशरथजीना वचनोथी देवताओ माटे पण वाञ्छनीय अने छोडी छोडाय नहि एवी राज्यलक्ष्मीने छोडीने आपनां चरणकमल वन-वन घूमतां रह्यां. खरेखर आप प्रेमनी परकाष्ठा छो. हे प्रभो! हुं आपनां ए ज चरणकमलोनी वन्दना करुं छुम् ॥३४॥

हे राजन्‌! आ प्रमाणे जुदाजुदा युगोना लोको पोतपोताना युगने अनुरूप नामरूपो द्वारा विभिन्न प्रकारथी भगवाननी आराधना करे छे. एमां सन्देह नथी के धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष बधा पुरुषार्थोना एक मात्र स्वामी भगवान श्रीहरि ज छे ॥३५॥

कलियुगमां मात्र भगवद्‌ नामना कीर्तनथी ज बधा स्वार्थ अने परमार्थ सिद्ध थई जाय छे तेथी आ युगना गुणने जाणनारा सारग्राही श्रेष्ठ पुरुषो कलियुगनी भारे प्रशंसा करे छे ॥३६॥

देहाभिमानी जीव अनादि कालथी संसारचक्रमां भटकी रह्या छे. तेमने माटे भगवाननी लीला, गुण अने नामना सङ्कीर्तनथी वधारे सारो बीजो कोई परम लाभ छे ज नहि, कारण के तेनाथी संसारमां भटकवानुं कायममाटे मटी जाय छे अने परम शान्तिनी प्राप्ति थाय छे ॥३७॥

हे राजा! सत्ययुग, त्रेतायुग अने द्वापरयुगनी प्रजा झङ्खे छे के अमारो जन्म कलियुगमां हो, कारण के क्याङ्क-क्याङ्क कलियुगमां खरेखर नारायण-परायण जेमने भगवान नारायणनो ज आश्रय होय तेवा अनन्य घणा लोको उत्पन्न थशे. हे महाराज विदेह! कलियुगमां ज्यां ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी अने प्रतीची नामनी नदीओ वहे छे ते द्रविड देशमां वधारे भक्तो मळी आवे छे. हे राजा! जे मनुष्यो आ नदीओनुं जल पीए छे, प्रायः तेमनुं अन्तःकरण शुद्ध थई जाय छे अने तेओ भगवान्‌ वासुदेवना भक्त थई जाय छे ॥३८-४०॥

हे राजा! जे मनुष्य ‘‘आ करवुं बाकी छे ते कर्या विना चाले तेम नथी’’ वगेरे कर्मवासनाओ अथवा भेदबुद्धिनो परित्याग करी सर्वात्मभावथी शरणागत वत्सल, प्रेमना पारखु भगवान मुकुन्दने शरणे आवी गयो छे ते देवताओ, ऋषिओ, पितरो, प्राणीओ, कुटुम्बीओ अने अतिथिओ ना ऋणथी उऋण ऋणमुक्त थई [[३१५]] जाय छे. ते कोईने अधीन, कोईनो सेवक, कोईना बन्धनमां रहेतो नथी ॥४१॥

(भगवद्‌ भक्तमाटे भक्ति सिवाय बीजुं कर्तव्य न होय ए वात ठीक छे. पण ए कदाच निषिद्ध कार्यनुं आचरण करे तो तेणे प्रायश्चित्त करवुं जोईए? एना समाधानमां कहे छे के) जे प्रेमी भक्त पोताना प्रियतम भगवानना चरणकमलोनुं अनन्य भावथी बीजी भावनाओ, आस्थाओ, वृत्तिओ अने प्रवृत्तिओ छोडी दई भजन करे छे तेनाथी, पापकर्म थतां ज नथी, परन्तु जो कयारेक कोई प्रकारे थई पण जाय तो परम पुरुष भगवान श्रीहरि तेना हृदयमां बिराजी ते बधाम्पाप धोई नाखे छे अने तेना हृदयने शुद्ध बनावे छे ॥४२॥

नारदजी बोल्या - मिथिलाना अधिपति निमि राजाए एम योगेश्वरो पासेथी भागवत धर्मो साम्भळ्या त्यारे पोताना उपाध्यायने साथे राखीने जयन्तीना पुत्रो योगेश्वरोनी एणे प्रसन्न थईने पूजा करी ॥४३॥

ज्यारे राजाए एमनो सत्कार करी लीधो त्यारे सर्व लोकोना देखतां ज ए सिद्ध योगेश्वरो अन्तर्धान थई गया. राजा ए साम्भळेला धर्मोने जीवनमां उतारी परम गतिने प्राप्त थया ॥४४॥

हे महाभाग वसुदेवजी! तमे पण ए भगवद्‌ धर्मो साम्भळ्या छे ते प्रमाणे एने आचरणमां मूकशो अने भगवानमां श्रद्धा राखशो तो अन्ते सर्व आसक्तिओथी छूटी जई परम गति प्राप्त करशो ॥४५॥

हे वसुदेवजी! तमारा अने देवकीजीना यशथी तो आखुं जगत्‌ छलोछल भराई गयुं छे कारण के भक्त दुःखहारी सर्व शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण तमारे त्यां पुत्ररूपे प्रकट थया छे ॥४६॥

तमे भगवाननां दर्शन, आलिङ्गन तथा तेमनी साथे वातचीत करवी अने तेमने उठाडवा, बेसाडवा अने पोढाडवा तथा सामग्री आरोगाववी वगेरे द्वारा वात्सल्य करी तमे पोतानां हृदय शुद्ध करी लीधां छे. तमे परम पवित्र थई चूक्या छो ॥४७॥

हे वसुदेवजी! शिशुपाल, पौण्ड्रक अने शाल्व वगेरे राजाओए तो वेरभावथी श्रीकृष्णनां हलन-चलन, लीला-विलास स्मरण, भाषण वगेरे स्मरण कर्युं हतुं. ते पण नियमानुसार नहि पण सूतां, बेसतां, हरतां-फरतां स्वाभाविक रूपथी ज छतां पण तेमनी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णमय थई गई अने ते सारूप्यमुक्तिना अधिकारी थई गया. तो पछी जे लोको प्रेमभाव अने अनुराग थी श्रीकृष्णनुं चिन्तन करे छे [[३१६]] तेमने माटे श्रीकृष्णनी प्राप्ति थवामां शङ्काने कोई स्थान खरुं? ॥४८॥

हे वसुदेवजी! तमे श्रीकृष्णने मात्र तमारा पुत्र ज न मानो. ए तो सर्वात्मा, सर्वेश्वर कारणातीत अने अविनाशी छे. आपे लीलाने माटे मनुष्यरूप प्रगट करी पोतानुं मूळ स्वरूप छुपावी राख्युं छे ॥४९॥

ते पृथ्वीने भाररूप थई रहेला राजवेषधारी असुरोना नाश अने सन्तपुरुषोना रक्षा करवामाटे तथा जीवोने परम शान्ति अने मुक्ति आपवाने माटे ज पृथ्वी उपर पधार्या छे अने एने ज माटे जगतमां आपनी कीर्तिनुं गान थई रह्युं छे ॥५०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे प्रिय परीक्षित! नारदजीना मुखथी आ बधुं साम्भळी परम भाग्यवान वसुदेवजी तथा परम भाग्यवती देवकीजीने खूब ज आश्चर्य थयुं. तेमणे तत्काल श्रीकृष्णमां पुत्र तरीके पोतानी सर्व माया-ममतानो त्याग कर्यो ॥५१॥

इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद्‌ यः समाहितः ॥ स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥५२॥

हे राजन्‌! आ परम पवित्र इतिहासने एकाग्र चित्तथी जे हृदयमां धारण करे छे ते पोताना समस्त शोक मोहने दूर करी ब्रह्मपदने प्राप्त करे छे ॥५२॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धना पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर प्रथम ब्रह्मभावप्रकरणनो ‘‘भक्तिरहित जीवोनीदुर्गति तथा भगवत्पूजानो विधि’’नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘हे श्रीवल्लभ! आपनी आज्ञाथी विपरीत (देवद्रव्यनो प्रसाद खाई शकाय, दक्षिणा लईने भागवत कथा करी शकाय, सेवा न करनार पण ब्रह्मसम्बन्ध लई शके वगेरे) उपदेश करनारा भान भूलेला छे. तेओ बधा अन्धन्तम घोर नरकमां पडनारा सहज आसुरी जीवो छे’’ (श्रीगुसांईजी)

अध्याय ६

ब्रह्मादि देवोए भगवान्‌ने करेली प्रार्थना

विशेष - आ छठ्ठा अध्यायमां ब्रह्मादि देवोए भगवान्‌नी स्तुति करी छे अने स्वधाम

ईं उं ईं उं

[[३१७]] पधारवानी प्रार्थना करी त्यारे उद्धवजीए पण पोताने साथे लई जवानी प्रार्थना करी एटली वात आवे छे. अथ ब्रह्माऽऽत्मजैर्देवैः प्रजेशैरावृतोऽभ्यगात्‌ ॥ भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृतः ॥१॥

श्रीशुकेदवजी बोल्या - हे परीक्षित! ज्यारे देवर्षि नारदजी वसुदेवजीने उपदेश आपी चाल्या गया, त्यारे पोताना पुत्रो सनकादि, देवताओ अने प्रजापतिओ नी साथे ब्रह्माजी, भूतगणोनी साथे सर्वेश्वर महादेवजी अने मरुद्‌गणो नी साथे देवराज इन्द्र द्वारकामां आव्या. साथे-साथे बधा आदित्य गण, आठेय वसुओ, अश्विनीकुमारो, ऋभुओ, अङ्गिराना वंशना ऋषिओ, अगियारेय रुद्र, विश्वदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराओ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर अने किन्नरो पण त्यां ज पहोञ्च्या. मनुष्यना जेवो मनोहर वेष धारण करनारा अने पोताना सांवरा-सलोणा श्रीअङ्गथी बधा लोकोनां मन उपर कामण करी मूकनार भगवान्‌ श्रीकृष्णनां दर्शन करवामाटे तेओ आव्या हता; कारण के आ वखते आपे पोतानो श्रीविग्रह प्रगट करी ते द्वारा त्रणेय लोकमां एवी पवित्र कीर्तिनो विस्तार कर्योछेजे समस्त पाप-तापने सदाने माटे मटाडी दे छे ॥१-४॥

द्वारकापुरी समस्त प्रकारनी सम्पत्ति अने ऐश्वर्यो थी समृद्ध तथा अलौकिक दीप्तिथी देदीप्यमान थई रही हती. त्यां आवी ते लोकोए श्रीकृष्णनी अनोखी छबीनां दर्शन कर्यां. भगवान्‌नी रूपमाधुरीनां निर्निमेष नयनोथी पान करवा छतां तेमनां नेत्रो तृप्त थतां नहोतां. तेओ घणी वार सुधी पलक पण पडे नहि तेवी आङ्खोथी नीरखतां ज रह्या ॥५॥

ते लोकोए स्वर्गना उद्यान नन्दनवन, चैत्ररथ आदिनां दिव्य पुष्पोथी जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने ढाङ्की दीधा अने चित्र-विचित्र शब्दो अने अर्थोवाळी वाणीथी तेओ आपनी स्तुति करवा लाग्या ॥६॥

देवो बोल्यां - हे स्वामी! कर्मोना विकट बन्धनमान्थी मुकत थवानी इच्छावाळा मुमुक्षुजन भक्तिभावथी पोताना हृदयमां जेनुं चिन्तन करता रहे छे (पण साक्षात्‌ दर्शन करी शकता नथी) ते ज आपनां चरणकमलने अमे बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन अने वाणी थी साक्षात्‌ नमस्कार करीए छीए ते केटला आश्चर्यनी वात छे!* ॥७॥

विशेष - दोर्भ्यां पादाभ्यां जानुभ्याम्‌ उरसा शिरसा दृशा। मनसा वचसा चेति [[३१८]] प्रणामोऽष्टाङ्ग ईरितः॥ हाथ पग, घूण्टण, छाती,शिर, नेत्रो, मन, वचन आ आठ अङ्गोथी प्रणाम ‘साष्टाङ्ग’ प्रणाम कहेवाय छे. हे अजित! आप मायिक रजोगुण वगेरेमां स्थित रही आ अचिन्त्य प्रपञ्चनी त्रिगुणमयी मायाद्वारा पोतानामां ज रचना करो छो, पालन करो छो अने संहार करो छो. आ बधुं करवा छतां पण आप आ कर्मोथी लिप्त थता नथी कारण के आप रागद्वेष वगेरे दोषोथी सर्वथा मुकत छो अने पोताना निरावरण अखण्ड स्वरूपात्मक परमानन्दमां मग्न रहो छो ॥८॥

हे स्तुति करवा योग्य परमात्मन्‌! जे मनुष्योनी चित्तवृत्ति रागद्वेष वगेरेथी खरडायेली छे ते उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या अने यज्ञ वगेरे कर्म कर्या करे तो पण जेवी शुद्धि श्रवणद्वारा सुपुष्ट शुद्ध अन्तःकरणवाळा सज्जन पुरुषोनी आपनी लीलाकथा, कीर्तिना विषयमां रोज-रोज वधती जती परिपूर्ण थती श्रद्धाथी थाय छे तेवी शुद्धि तेमनी थती नथी ॥९॥

मननशील मुमुक्षुजन मोक्षनी प्राप्तिने माटे पोताना प्रेमथी पीगळी गयेला हृदयमां जेने कायम धारण करी राखे छे, पाञ्चरात्र विधिथी उपासना करनारा भकतजनो समान ऐश्वर्यनी प्राप्तिने माटे वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध-आ चार व्यूहना रूपमां जेनुं पूजन करे छे अने जितेन्द्रिय धीर पुरुष स्वर्गलोकनुं अतिक्रमण करी भगवद्‌धामनी प्राप्तिने माटे त्रणेय समय जेमनी पूजा करता रहे छे, याज्ञिक लोको त्रणेय वेदोद्वारा बताववामां आवेली विधिथी पोताना संयमशील हाथमां हविष्य लई यज्ञकुण्डमां आहुति दे छे अने तेमनुं ज चिन्तन करे छे. आपनी आत्मस्वरूपिणी मायाना जिज्ञासु योगीओ हृदयना अन्तर्देशमां दहर विद्या वगेरे द्वारा आपनां चरणकमलनुं ज ध्यान करे छे अने आपना मोटा-मोटा प्रेमी भकतजन तेमने ज पोताना परम इष्ट आराध्य देवमाने छे. हे प्रभो! आपनां ते ज चरणकमल अमारी समस्त अशुभ वासनाओ, विषय वासनाओने भस्म करी देवोने माटे अग्निस्वरूप हो. ते अग्निनी जेम अमारा पाप-तापोने भस्म करी दे ॥१०-११॥

हे प्रभो! आ भगवती लक्ष्मी आपना वक्षःस्थल उपर करमाई गयेली वासी वनामालानी साथे पण शोक्य (सपत्नी) नी जेम स्पर्धा करे छे. छतां आप तेनी परवा न करतां भकतोए ए वासी मालाथी करेली पूजानो पण प्रेमथी स्वीकार करो [[३१९]] छो. आवा भकतवत्सल प्रभुनां चरणकमल सर्वदा आमारी विषय वासनाओने बाळी नाखनार अग्नि स्वरूप हो ॥१२॥

हे अनन्त! वामन अवतारमां दैत्यराज बलिए आपेल पृथ्वी मापवाने माटे आपे आपनुं चरण ऊञ्चुं कर्युं हतुं अने ते सत्यलोकमां पहोञ्ची गयुं हतुं त्यारे ते एवुं लागतुं हतुं के जाणे कोई मोटो विजयध्वज होय. ब्रह्माजीना पखारवा बाद तेमान्थी पडती गङ्गाजलनी त्रण धाराओ एवी लागती हती के जाणे तेमां लागी रहेली त्रण पताकाओ लहेराई रही होय. तेने जोई असुरोनी सेना फफडी ऊठी अने देवसेना निर्भय थई गई. आपनुं ते चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषोने माटे आपना धाम वैकुण्ठलोकनी प्राप्तिनुं अने दुष्टोने माटे अधोगतिनुं कारण छे. हे भगवन्‌! आपनुं ते ज पादपद्म अम भजन करनाराओना समस्त पाप-ताप धोई नाखो ॥१३॥

ब्रह्मा आदि जेटला-जेटला शरीरधारी छे ते सत्त्व, रज, तम-आ त्रण गुणोना परस्पर विरोधी त्रिविध भावोनी टक्करथी जनमता अने मरता रहे छे. तेओ सुख-दुःखना सकञ्जामां सपडायेला छे अने जेवी रीते नाथेलो बळद तेना मालिकने वश रहे छे तेम तेओ आपने वश छे. आप एमने माटे पण कालस्वरूप छो. एमना जीवनना आदि मध्य अने अन्त आपनेज अधीन छे. एटलुञ्जनहि आप प्रकृति-पुरुषथी पण पर स्वयं पुरुषोत्तम छो. आपनां चरणकमल अमारुं कल्याण करे ॥१४॥

हे प्रभो! आप जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना परम कारण छो, कारण के शास्त्रोए एम कह्युं छे के आप प्रकृति, पुरुष अने महत्तत्त्व नुं पण नियन्त्रण करनार काल छो. शीत, ग्रीष्म अने वर्षाकालरूप त्रण नाभिवाळा संवत्सरना रूपमां बधाने क्षयनी तरफ लई जनार काल आपज छो. आपनी गति अबाध अने गम्भीर छे. आप स्वयं पुरुषोत्तम छो ॥१५॥

आ पुरुष आपनी पासेथी शक्ति प्राप्त करी अमोघवीर्य थई जाय छे अने पछी मायानी साथे संयुक्त थई विश्वना महत्तत्त्वरूप गर्भनुं स्थापन करे छे. त्यारबाद ते महत्तत्त्व त्रिगुणमयी मायानुं अनुसरण करी पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, अहङ्कार अने मनरूप सात आवरणो (पडो) वाळा आ सुवर्णवर्ण (सोनेरी रङ्गना) ब्रह्माण्डनी रचना करे छे ॥१६॥

तेथी हे ऋषीकेश! आप समस्त चराचर जगतना अधीश्वर छो. ते ज कारणथी [[३२०]] मायानी गुण-विषमताने लीधे बनेला विभिन्न पदार्थोनो उपभोग करवा छतां आप तेमनाथी लेपाता नथी. आवा केवल आप ज छो. आप सिवाय बीजा तो स्वयं तेमनो त्याग करी दईने पण ते विषयोथी डरता रहे छे. (कारण के विषयोने भौतिक रीते स्वरूपथी छोडवाथी वासना निर्मूळ थती नथी) ॥१७॥

सोळ हजारथी पण वधारे राणीओ आपनी साथे रहे छे. ते बधां पोतानां मन्द-मन्द मलकाट अने तीरछी दृष्टियुकत मनोहर भमरोना सङ्केतथी अने सुरतालापोथी प्रौढ सम्मोहक कामबाण चलावे छे अने कामकलानी विविध रीतिओथी आपनुं मन आकर्षवा चाहे छे परन्तु छतां तेओ एक रत्तीभर पण आपनुं मन डगावी न शकयां तेओ असफल ज रह्याम् ॥१८॥

आपे त्रिलोकीना पापपुञ्जनो नाश करवामाटे बे प्रकारनी पवित्र नदीओ वहेवडावी राखी छे एक तो आपनी अमृतमयी लीलाथी भरेली कथा नदी अने बीजी आपना पाद-प्रक्षालनना जलथी भरेल गङ्गाजी. तेथी सत्सङ्ग सेवी विवेकीजन कानद्वारा आपनी कथा नदीमां अने शरीरद्वारा गङ्गाजीमां डूबकी मारी बन्नेय तीर्थोनुं सेवन करे छे अने पोताना पाप-ताप मिटावी दे छे ॥१९॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! समस्त देवताओ अने भगवान्‌ शङ्करनी साथे ब्रह्माजीए आ प्रमाणे भगवान्‌नी स्तुति करी. त्यारबाद तेओ प्रणाम करी पोताना धाममां जवामाटे आकाशमां स्थित रही भगवान्‌ने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२०॥

ब्रह्माजीए कह्युं - हे सर्वात्मा प्रभो! पहेलां अमे आपने अवतार लई पृथ्वीनो भार उतारवामाटे प्रार्थना करी हती, तो ते काम आपे अमारी प्रार्थना प्रमाणे यथोचित रूपथी पूरुं करी दीधुम् ॥२१॥

आपे सत्यपरायण सन्तपुरुषोना कल्याणने माटे धर्मनी स्थापना पण करी दीधी अने दशे दिशाओमां एवी कीर्ति फेलावी दीधी के जेने साम्भळी-सम्भळावी बधा लोको पोताना मननो मेल मिटावी दे छे ॥२२॥

आपे आ सर्वोत्तम रूप धारण करी यदुवंशमां अवतार लीधो अने जगतना हितने माटे उदार अने पराक्रमपूर्ण अनेक लीलाओ करी ॥२३॥

हे प्रभो! कलियुगमां जे साधुस्वभाव मनुष्यो आपनी आ लीलाओनुं श्रवणकीर्तन करशे तेओ सहेलाईथी ज आ अज्ञानरूप अन्धकारने तरी जशे ॥२४॥

[[३२१]] हे सर्वशक्तिमान पुरुषोत्तम प्रभो! आपने यदुकुलमां अवतार ग्रहण कर्ये १२५ वर्ष वीती गयां छे ॥२५॥

हे सर्वाधार! हवे अमारुं एवुं कोई काम बाकी नथी, जे पूर्ण करवामाटे आपने अर्ही रहेवानी आवश्यकता होय. ब्राह्मणोना शापने कारणे आपनुंआ कुल पण एक प्रकारथी तो नष्ट थई चूकयुं छे ॥२६॥

तेथी आपने जो उचित लागे तो हवे आप स्वधाम कृपा करीने पधारो अने आपना सेवक अम लोकपालो नुं तथा अमारा लोकोनुं पालन-पोषण अने रक्षण करो ॥२७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे ब्रह्माजी! आपना कहेवा प्रमाणे में पहेलेथी ज एवो निश्चय करी लीधो छे. में तमारां बधां काम पूरां करी पृथ्वीनो भार उतारी दीधो छे ॥२८॥

परन्तु हजु एक काम बाकी छे अने ते ए के यादवो बल-विक्रम, वीरता-शूरता अने धन-सम्पत्तिथी उन्मत्त थई रह्यां छे अने लोकनो नाश करवा थनगनी रह्या छे पण जेम समुद्र एनी मर्यादानुं उल्लङ्घन करी शक्तो नथी तेम माराथी आ यादवो नियमनमां रह्या छे ॥२९॥

आ यादवकुळनो संहार कर्या वगर ज जो हुं चाल्यो जाउं तो, जेम समुद्र मर्यादा ओळङ्गतां जगतने डूबाडी दे तेम ए गर्विष्ठ अने उच्छृङ्खल यादवो मर्यादानुं उल्लङ्घन करी तमाम लोकोनो संहार करी नाखे ॥३०॥

हे निष्पाप ब्रह्माजी! ब्राह्मणोना शापथी आ वंशना अन्तनो आरम्भ थई चूकयो छे. तेनो अन्त थई जशे त्यारे हुं आपना धाममां थईने जईश ॥३१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या ःज्यारे अखिल लोकाधिपति भगवाने ब्रह्माजीने ए प्रमाणे कह्युं त्यारे ब्रह्माजी देवगणोनी साथे भगवान्‌ने प्रणाम करी पोताना स्थानमां गया ॥३२॥

एमना जतां ज द्वारकामां बधे मोटा उत्पातो थवा लाग्या. ए उत्पातो जोईने यादवोमां वृद्ध हता ते भगवान्‌नी पासे आव्या तेमने भगवान्‌ आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥३३॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे गुरुजनो! आजकाल द्वारकामां ज्यां जुओ त्यां भारे अपशुकन अने उत्पात थई रह्या छे. आप लोको जाणो ज छो के ब्राह्मणोए [[३२२]] आपणा कुळने एवो शाप आपी दीधो छे के जेने टाळवो बहु ज कठिन छे. मारा मत प्रमाणे जो आपणे आपणा प्राणोनी रक्षा करवी होय तो आपणे अर्ही न रहेवुं जोईए. हवे विलम्ब कर्या वगर आजे ज आपणे परम पवित्र प्रभासक्षेत्रमां जवा रवाना थई जईए ॥३४-३५॥

प्रभासक्षेत्रनो महिमा बहु प्रसिद्ध छे. जे वखते दक्ष प्रजापतिना शापथी चन्द्रमाने क्षय रोगे ग्रसी लीधा हता त्यारे तेणे प्रभासक्षेत्रमां जई स्नान कर्युं अने ते तत्काळ ते पापजन्यरोगथीछूटीगया.साथे- साथे तेमने कलाओनी अभिवृद्धि पण प्राप्त थई गई ॥३६॥

आपणे पण प्रभासक्षेत्र जई स्नान करीशुं, देवता अने पितरो नुं तर्पण करीशुं अने साथे-साथे अनेक गुणवाळा पकवान तैयार करी श्रेष्ठ ब्राह्मणोने भोजन करावीशुं. त्यां आपणे ते सुपात्र ब्राह्मणोने पूरी श्रद्धाथी खूब (मोटां) दान- दक्षिणा आपीशुं. ए रीते जेम कोई जहाजद्वारा समुद्रने पार करी जाय तेम आपणे आपणा सङ्कटोमान्थी एमना द्वारा ऊगरी जईशुम् ॥३७-३८॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे कुलनन्दन! ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे आ प्रमाणे आज्ञा करी त्यारे यदुवंशीओए सर्वानुमतिथी प्रभास जवानो निश्चय करी लीधो अने बधा पोत-पोताना रथो सजाववा अने जोडवा लाग्या ॥३९॥

हे परीक्षित! उद्धवजी भगवान्‌ श्रीकृष्णनां अत्यन्त प्रेमी अने सेवक हता. तेमणे ज्यारे यदुवंशीओने यात्रानी तैयारी करता जोया, भगवान्‌नी आज्ञा साम्भळी अने अत्यन्त घोर अपशुकन जोया त्यारे तेओ जगतना एकमात्र अधिपति भगवान्‌ श्रीकृष्णनी पासे एकान्तमां गया, आपनां चरणो उपर पोतानुं मस्तक मूकी दई प्रणाम कर्या अने हाथ जोडी आपने प्रार्थना करवा लाग्या ॥४०-
४१॥

उद्धवजी बोल्या - हे योगेश्वर! आप देवाधिदेवोना पण अधीश्वर छो. आपनी लीलाओना श्रवणकीर्तनथी ज जीव पवित्र थई जाय छे. आप सर्व शक्तिमान परमेश्वर छो. जो आपनी इच्छा होत तो ब्राह्मणोनुं शापनुं निवारण थई शकत. पण आपे तेम कर्युं नहि. तेथी हवे आप यदुवंशनो उपसंहार करी तेने समेटी लई अवश्यमेव आ लोकनो परित्याग करशो एम हुं मानुं छुम् ॥४२॥

परन्तु हे केशव! हुं अडधी क्षणमाटे पण आपनां चरणकमलनो त्याग करवा [[३२३]] असमर्थ छुं. तेथी हे नाथ! आप मने पण आपनी साथे आपना धाममां लई चालो ॥४३॥

हे कृष्ण! आपनी एक-एक लीला मनुष्योमाटे परम मङ्गलमयी छे. ते कानमाटे अमृतस्वरूप छे. एकवार पण तेनो रसास्वाद लेनार माणसने पछी बीजा कोई लौकिक पदार्थनी स्पृहा रहेती नथी ॥४४॥

हे प्रभो! अमे आपना भकतो तो ऊठतां-बेसतां, सूतां-जागतां, घूमतां- फरतां आपनी साथे ज रह्या छीए. अमे आपनी साथे स्नान कर्युं, रमतो रम्यां, भोजन कर्यां. अमारी एक-एक प्रवृत्ति आपनी साथे ज थई छे. आप अमारा प्राणप्यारा अने आत्मा ज छो. एवी स्थितिमां अमे आपना प्रेमी भकत आपने क्षणवार पण केवी रीते छोडी शकीए? ॥४५॥

आपनी साथे अमे आपनी प्रसादी (आपना उपयोगमां आवेली) माळा, चन्दन, वस्त्र, अलङ्कार अने आभूषणो धारण कर्यां अने आपना उच्छिष्ट भोजन (जूठण) थी अमारा देहनो निर्वाह कर्यो. तेथी अमे आपनी माया उपर अवश्य विजय प्राप्त करी लईशुं. (तेथी हे प्रभो! अमने आपनी मायानो डर नथी, परन्तु आपना वियोगनो डर छे) ॥४६॥

आपनी मायाने तरवी बहु ज मुश्केल छे. मोटा-मोटा ऋषिमुनिओ दिगम्बर रही, आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्यनुं पालन करी, अध्यात्मविद्याने माटे अत्यन्त परिश्रम करे छे. आ प्रकारनी कठण साधनाथी ते सन्न्‌यासीओनां हृदय निर्मल थाय छे अने अत्यन्त मुश्केलीथी तेओ समस्त वृत्तिओनी शान्तिरूप नैष्कर्म्य अवस्थामां स्थित रही आपना ब्रह्म नामना धामने प्राप्त करे छे ॥४७॥

हे ब्रह्मन्‌! अमे तो अर्ही कर्ममार्गमां ज अथडाया-कुटाया करीए छीए, परन्तु एटली वात तो नक्की छे के अमे आपना भकतोना सङ्गमां आपना गुणो अने लीलाओ नी चर्चा करीशुं तथा मनुष्यना जेवी लीला करता आपे जे कांई कर्युं छे के कह्युं छे तेनुं स्मरण-कीर्तन करता रहीशुं. साथे-साथे आपनी गति-विलास, दृष्टि- हास्य, हास-परिहास अने उपदेश नी यादमां तल्लीन थई जईशुं. बस आटलाथी ज आपनी दुस्तर मायाने अमे तरी जईशुं. (तेथी मायाने तरवानी चिन्ता अमने नथी पण आपना विरहनी चिन्ता छे. आप अमारो त्याग न करतां अमने साथे लई लो) ॥४८-४९॥

[[३२४]] एवं विज्ञापितो राजन्‌ भगवान्‌ देवकीसुतः ॥ एकान्तिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ॥५०॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! ज्यारे उद्धवजीए देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने आ प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे एक निष्ठावाळा प्रिय अने दास एवा उद्धवजीनी साथे भगवाने एमना आत्माने सन्तोष थाय तेवी रीते बोलवानो उपक्रम कर्यो ॥५०॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुकित प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्यमुकित नामना प्रकरणनो पहेलो अने चालु) ‘‘ब्रह्मादि देवोए भगवान्‌ने करेली प्रार्थना’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ब्रह्मसम्बन्ध लेनाराओ! सावधना!!! सर्वस्वने समर्पित करवानी प्रतिज्ञा लीधा बाद असमर्पित खान-पान वगेरेनो त्याग न करनारनुं ब्रह्मसम्बन्ध फोक थई जाय छे (सिद्धान्तरहस्य) अने ते ‘असिपत्र’ नामना नरकमां जाय छे. (श्रीहरिरायचरण)

अध्याय ७

(अवधूत उपाख्यान) भगवाने उद्धवजीने कहेलो यदुराजा अने अवधूत नो संवाद

विशेष - उद्धवजीने आत्मज्ञान कराववामाटे भगवान्‌ अवधूत अने यदु नो इतिहास कहे छे. तेमां आ सातमा अध्यायमां चेचोवीसमान्थी आठ गुरु र्क्यानी वात आवे छे. यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ॥ ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासम्मेऽभिकाङ्क्षिणः ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युंःहे महाभाग्यवान्‌ उद्धव! तमे जे कंई मने कह्युं ते ज हुं करवा इच्छुं छुं. ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र वगेरे लोकपाल पण हवे एम ज इच्छे छे के हुं तेमना लोकमां थईने ज मारा धाममां जाउम् ॥१॥

ब्रह्मानी प्रार्थनाथी बलदेवजीनी साथे हुं आ लोकमां जे कार्य करवामाटे आव्यो हतो ते बधुं देवोनुं कार्य में पूरुं करी दीधुं छे ॥२॥

ईं उं ईं उं

[[३२५]] हवे आ यदुवंश जे ब्राह्मणोना शापथी भस्म थई चूकयो छे ते परस्पर कलह अने युद्ध थी नष्ट थई जशे. आजथी सातमे दिवसे समुद्र आ द्वारकापुरीने डुबाडी देशे ॥३॥

हे प्रिय उद्धव! जे क्षणे हुं आ मर्त्यलोकनो परित्याग करीदईश तेज क्षणे तेनां तमाम मङ्गल नष्ट थई जशे. त्यारथी लोकमां प्रवेश करी कलि लोकोने दुःख आपवानुं चालुराखशे ॥४॥

हे साधु उद्धव! ज्यारे हुं आ पृथ्वीनो त्याग करी दउं त्यारे तमे अर्ही रहेता नहि कारण के कलियुगमां लोकोनी रुचि अधर्ममां ज रहेशे ॥५॥

हवे तमे पोताना आत्मीय जनो अने बन्धु-बान्धवोमान्थी स्नेह छोडीने अनन्यप्रेमथी मारामां मन स्थिर करीने समदृष्टिथी पृथ्वीउपर फरता रहो ॥६॥

आ जगतमां जे कंई मनथी विचारवामां आवे छे, वाणीथी कहेवामां आवे छे, नेत्रोथी जोवामां आवे छे, कानथी साम्भळवामां आवे छे, इन्द्रियोथी अनुभवाय छे ते बधुं नाशवन्त छे, सपनानी जेम मननो विलास छे तेथी माया मात्र छे, मिथ्या छे-एम समजी लो. (अर्ही भगवाने उद्धवजीने वैराग्य थाय तेटला माटे आ जे देखाय छे ते माया मनोमय छे एम कह्युं छे) ॥७॥

जे पुरुषनुं मन अशान्त छे, असंयत छे तेने ज पागलनी जेम अनेक वस्तुओ जणाय छे, हकीकतमां ते चित्तनो भ्रम ज छे. नानात्वनो भ्रम थई जवाथी ज ‘‘आ गुण छे’’ अने ‘‘आ दोष छे’’ आवा प्रकारनी कल्पना करवी पडे छे. जेनी बुद्धिमां गुण अने दोष नो भेद दृढमूल थई गयो छे तेने ज माटे कर्म, अकर्म अने विकर्मरूप भेदनुं प्रतिपादन थयुं छे* ॥८॥

विशेष - कर्म - वेदमां कह्या प्रमाणे करवुं ते-विहित कर्म. अकर्म - वेदमां कह्या प्रमाणे न करवुं ते-विहित कर्मनो लोप. विकर्म - वेदमां निषिद्ध क्ह्युं होय ते करवुं तेनुं नाम विकर्म- निषिद्ध कर्म. तेथी हे उद्धव! तमे पहेलां तो पोतानी बधी इन्द्रियोने पोताने वश करीलो तेमनी लगाम तमारा हाथमां लई लो अने मात्र इन्द्रियोने ज नहि, चित्तनी तमाम वृत्तिओने पण रोकी दो अने पछी एवो अनुभव करो के आ आखुं जगत्‌ पोताना आत्मामां ज फेलायेलुं छे अने आत्मा मारा-सर्वात्मा इन्द्रयातीत ब्रह्ममां रहेलो छे, माराथी जुदो नथी ॥९॥

[[३२६]] ज्यारे वेदोनां मुख्य तात्पर्य-निश्चयरूप ज्ञान अने अनुभवरूप विज्ञानथी सारी रीते सम्पन्न थई तमे तमारा आत्माना अनुभवमां ज आनन्दमग्न रहेशो अने सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारीओना आत्मा थई जशो त्यारे कोई पण विघ्नथी तमने पीडा नहि थाय कारण के ते विघ्नो अने विघ्नो करवावाळाना आत्मा पण तमे ज हशो ॥१०॥

जे पुरुष गुण अने दोष-बुद्धिथी पर थई जाय छे ते बालकनी जेम निषिद्ध कर्मथी निवृत्त थई जाय छे, परन्तु दोष-बुद्धिथी नहि. ते विहित कर्म करे छे पण गुण-बुद्धिथी नहि ॥११॥

जेणे श्रुतिओना तात्पर्यनुं मात्र यथार्थ ज्ञान ज प्राप्त नथी र्क्युं परन्तु तेनो साक्षात्कार पण करी लीधो छे ते समस्त प्राणीओनो हितैषी सुहृद होय छे अने तेनी वृत्तिओ सर्वथा शान्त रहे छे. ते आ देखाता आखा विश्वने मारुं ज स्वरूप जुए छे तेथी तेने फरी कदी जन्म-मृत्युनां चक्करमां पडवुं पडतुं नथी ॥१२॥

श्रीशुकदेवजीबोल्या - हे परिक्षीत! ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णेआ प्रमाणे आज्ञा करी त्यारे भगवान्‌ना परम प्रेमी उद्धवजीए आपने प्रणाम करी तत्त्वज्ञाननी प्राप्तिनी इच्छाथी आ प्रश्नकर्यो ॥१३॥

उद्धवजीए कह्युं - हे भगवन्‌! आप ज समस्त योगीओनी गुप्त पूञ्जी, योगोना कारण अने योगेश्वर छो. आप ज समस्त योगोना आधार तेमना कारण अने योगस्वरूप पण छो. आपे मारा कल्याणमाटे सन्न्‌यासरूप त्यागनो उपदेश कर्यो ॥१४॥

परन्तु हे अनन्त! जे लोको विषयोना चिन्तन अने सेवनमां लागेला रहे छे, विषयात्मा थई गया छे तेमने माटे विषय-भोगो अने कामनाओनो त्याग अत्यन्त कठिन छे. हे सर्वस्वरूप! एमां पण जे लोको आपथी विमुख छे तेमने माटे तो आवी जातनो त्याग सर्वथा असम्भव ज छे एवो मारो निश्चय छे ॥१५॥

हे प्रभो! हुं पण एवो ज छुं. मारी मति एटली बधी मूढ थई गई छे के ‘‘आ हुं छुं’’, ‘‘आ मारुं छुं’’ आ भावथी हुं आपनी मायाना खेल देह अने देहनां सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदिमां डूबी रह्यो छुं. तेथी हे भगवन्‌! आपे जे त्यागनो उपदेश कर्यो छे तेनुं तत्त्व मने-आपना सेवकने कृपा करीने एवी रीते [[३२७]] समजावो के हुं सहेलाईथी तेनुं साधन करी शकुम् ॥१६॥

‘‘तारे जे करवानुं छे ते बाबत में तने टूङ्काणमां कही छे, विस्तारथी समजवुं होय तो कोई बीजानी पासेथी समजी लेजे’’ एम आप कहेता हो तो हे ईश! आप त्रिकालथी अबाध्य सत्यरूप परमात्मा छो तेथी ज्ञान ए आपनामां स्वतःसिद्ध छे. आपना जेवा देवोमां पण कोई नथी के जे मने समजावी शके केमके ब्रह्माजी सुधीना बधा देवो आपनी मायामां मोहित थईने अहन्ता-ममतात्मक स्त्रीपुत्र वगेरे बाह्य अर्थनेज जोनार छे ॥१७॥

हे भगवन्‌! तेथी ज दशे दिशाएथी (दुःखोना दावाग्निथी) दाझेलो हुं विरकत थई आपने शरणे आव्यो छुं. आप निर्दोष देशकालथी अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान अने अविनाशी वैकुण्ठलोकना निवासी तेम ज नरना नित्य सखा नारायण छो. (तेथी आप ज मने कृपा करीने उपदेश करो) ॥१८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धव! संसारमां जे मनुष्यो ‘‘आ जगत्‌ शुं छे? तेमां शुं थई रह्युं छे?’’ इत्यादि वातोनो विचार करवामां निपुण छे तेओ चित्तमां भरेली अशुभ वासनाओथी पोतानी जातने पोते ज पोतानी विवेकशक्तिथी प्रायः बचावी ले छे ॥१९॥

समस्त प्राणीओनो, खास करीने मनुष्यनो आत्मा पोताना हित अने अहितनो उपदेशक गुरु छे कारण के मनुष्य पोताना प्रत्यक्ष अनुभव अने अनुमान द्वारा पोताना हित अने अहित नो निर्णय करवामां समर्थ छे ॥२०॥

साङ्ख्ययोगना निष्णात धीरपुरुषो आ मनुष्ययोनिमां इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदिना आश्रयभूत मारो-आत्मतत्त्वनो पूर्णपणे प्रगटरूपथी साक्षात्कार करी ले छे ॥२१॥

में एक पगवाळा, बे पगवाळा, त्रण पगवाळा, चार पगवाळा, चारथी वधारे पगवाळा अने पग विनाना इत्यादि अनेक प्रकारनां शरीरनुं निर्माण कर्युं छे. ए बधामां मने सौथी वधारे प्रिय मनुष्यनुं ज शरीर छे ॥२२॥

आ मनुष्य शरीरमां एकाग्रचित्त, अप्रमत्त (सावधान) पुरुषो बुद्धि वगेरे ग्रहण कराता हेतुओथी, अनुमानथी अग्राह्य अर्थात्‌ अहङ्कार वगेरे विषयोथी भिन्न, मारो-सर्व प्रवर्तक ईश्वरनो साक्षात्‌ अनुभव करे छे* ॥२३॥

विशेष - मारा स्वरूपना अन्वेषणना बे प्रकार छे. -१. बुद्धि वगेरे जड पदार्थोनो प्रकाश कोई [[३२८]] एक स्वयम्प्रकाश तत्त्व विना होई शके नहि. एक प्रकारनी अर्थापत्ति द्वारा. अर्थापत्ति- ज्ञानप्राप्तिना पाञ्च प्रकारोमान्नो एक प्रकार. बीजी कोई रीते जे सम्भवी न शके तेवी परिस्थितिनी संयोगो उपरथी फलित थता अनुमान द्वारा थती साबिती-अर्थस्य अनुकतार्थस्य आपत्तिः सिद्धिः दा.त. ‘‘हृष्टपुष्ट देवदत्त दिवसे खातो नथी’’. देवदत्त हृष्ट-पुष्ट छे ते दिवसे खातो नथी. भोजन विना शरीर पुष्ट होई शके नहि तेथी ते दिवसे न खातो होय तो राते तो खातो होवो ज जोईए एवुं अनुमान.
२. वांसलो, करवत वगेरे करण छे तो तेने वापरनार सुथार वगेरे कर्ता होय ज ते करण कार्य करी शके. अर्ही बुद्धि वगेरे जड साधनो होय तेमने कार्यक्षम बनावनार कोई प्रेरक (भगवान्‌) होवा जोईए. जड होय ते परप्रेर्य (तेमने बीजो प्रेरणा आपनार) होय ज, तो ज तेओ काम आपे. बुद्धि वगेरे जड छे ते भगवान्‌थी ज प्रकाशित थाय छे. आम ज्यां-ज्यां करणत्व होय त्यां-त्यां कर्तृत्वप्रयोज्यत्व होय जेम के वांसलो, करवत. आ ‘अन्वय’ कहेवाय. ज्यां कर्तृत्वप्रयोज्यत्व नथी त्यां करणत्व पण नथी जेमके आत्मा. अर्ही आत्मा शब्द परमात्माना अर्थमां वपरायो छे जे स्वतन्त्र कर्ता छे. आ ‘व्यतिरेक’ कहेवाय. अन्वय व्यतिरेकनुं सरल दृष्टान्तः अन्वय=ज्यां-ज्यां धूमाडो होय त्यां-त्यां अग्नि होवो जोईए जेम के पर्वत. व्यतिरेक=ज्यां अग्नि न होय त्यां धूमाडो पण नज होय जेम के नदी. आ बाबतमां महात्मा लोको एक प्राचीन इतिहास कहेता होय छे. आ इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय अने राजा यदुना संवादना रूपमां छे ॥२४॥

एकवार धर्मना मर्मने जाणनार राजा यदुए जोयुं के एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय फरी रह्या छे. त्यारे राजाए तेमने प्रश्न कर्यो ॥२५॥

राजा यदुए पूछयुं - हे ब्रह्मन्‌! आप परम विद्वान होवा छतां जेनो आश्रय लई बालकनी जेम संसारमां फरो छो तेवी अत्यन्त निपुण बुद्धि आपने कयान्थी प्राप्त थई? आप कर्म तो कंई करता नथी ॥२६॥

एवुं जोवा मळे छे के मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति-नी अभिलाषाथी ज धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व जिज्ञासामां प्रवृत्त थाय छे. कोईनीय कोई कारण विना प्रवृत्ति जोवा मळती नथी ॥२७॥

[[३२९]] आप कर्म करवामां समर्थ, विद्वान अने निपुण छो. आपनुं भाग्य अने सौन्दर्य पण प्रशंसनीय छे. आप अमृत सरखी वाणी बोली रह्या छो, छतां आप जड, उन्मत्त अथवा पिशाचनी जेम रहो छो. आप कंई कर्म करता नथी के आपने कोई कामना नथी ॥२८॥

संसारना मोटा भागना लोको काम अने लोभ ना दावानळमां बळी रह्या छे. वनमां दावाग्नि लागतां जेम कोई हाथी तेमान्थी छूटी गङ्गाजलमां क्रीडा करतो शीतळताथी ऊभो होय तेम आप सुधी ए दावाग्निनी आञ्च पण पहोञ्ची शकती नथी. आप मुकत छो ॥२९॥

हे ब्रह्मन्‌! आप पुत्र, स्त्री, धन वगेरे संसारना स्पर्शथी पण रहित छो. आप सदा सर्वदा पोताना नकेवलथ स्वरूपमां ज स्थित रहो छो. अमे आपने ए पूछवा मागी छीए के आपने आपना आत्मामां ज एवा अनिर्वचनीय आनन्दनो अनुभव केवी रीते थाय छे? आप कृपा करी अवश्य बतावो ॥३०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धव! अमारा पूर्वज महाराज यदुनी बुद्धि शुद्ध हती अने तेमना हृदयमां ब्राह्मण भकित हती. तेमणे परम भाग्यवान्‌ दत्तात्रेयजीनो अत्यन्त सत्कार करी आ प्रश्न पूछयो अने नम्रताथी मस्तक नमावी तेमनी सामे ऊभा रही गया. हवे दत्तात्रेयजीए कह्युम् ॥३१॥

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीए कह्युं - हे राजन्‌! में मारी बुद्धिथी घणा गुरुओनो आश्रय लीधो छे. तेमनी पासेथी शिक्षा ग्रहण करी हुं आ जगतमां मुकतभावथी स्वच्छन्द फरुं छुं. तमे ते गुरुओनां नाम तथा तेमनी पासेथी हुं जे शीख्यो ते साम्भळो ॥३२॥

मारा गुरुओनां नाम आ प्रमाणे छे. पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्र, सूर्य, कपोत (कबूतर), अजगर, समुद्र, पतङ्ग, भमरो (केमधमाखी), हाथी, मध काढनार, हरण,माछलुं, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी (टिटोडी), बालक, कुंवारीकन्या, बाण बनाववावाळो, सर्प, करोळियो अने भृङ्गीकीट ॥३३-३४॥

हे राजन्‌! में आ चोवीस गुरुओनो आश्रय कर्यो छे अने एमनां ज आचरण उपरथी आ लोकमां मारे माटे उपदेश ग्रहण कर्यो छे ॥३५॥

हे वीरवर ययातिनन्दन! में जेनी पासेथी जे रीते जे कांई उपदेश ग्रहण कर्यो छे ते तमारी समक्ष कहुं छुं ते साम्भळो ॥३६॥

[[३३०]] में पृथ्वी पासेथी तेनां धैर्य अने क्षमा नी शिक्षा लीधी छे. लोको पृथ्वी उपर केटकेटला आघात अने उत्पात करे छे, परन्तु ते वेरनी वसुलात करती नथी के रोती ककळती नथी. संसारनां बधां प्राणी पोतपोताना प्रारब्ध प्रमाणे चेष्टा करी रह्यां छे तेओ अवार-नवार जाण्ये-अजाण्ये आक्रमण करी बेसे छे. धीर पुरुषे तेनी विवशता समजी धीरज न खोवी जोईए तेम ज क्रोध न करवो जोईए. पोताना मार्ग पर अडगताथी चालता रहेवुम् ॥३७॥

पृथ्वीना ज विकार पर्वत अने वृक्ष पासेथी हुं ए शीख्यो के जेवी रीते तेमनी बधी चेष्टाओ सदा सर्वदा बीजाना हितने माटे ज होय छे तेमनो जन्म ज बीजाओना हितमाटे ज थयो छे तेवी ज रीते साधु पुरुषे (सज्जने) तेमनुं शिष्यत्व स्वीकारी तेमनी पासेथी परोपकार करवानी शिक्षा ग्रहण करवी ॥३८॥

हुं शरीरनी अन्दरना वायु-प्राणवायु पासे ए शीख्यो के जेवी रीते ते मात्र आहारनी इच्छा राखे छे अने ते मळी रहेतां सन्तुष्ट थई जाय छे. तेवी ज रीते साधक जेटलाथी जीवन निर्वाह थई रहे तेटलुं ज भोजन करे. इन्द्रियोने लाड लडाववा घणा विषयोनी वाञ्छना न करे. एटला ज विषयोनो उपभोग करे जेनाथी बुद्धि बगडे नहि, मन ञ्चचल न थाय अने वाणी व्यर्थ वातोमां न वळगी जाय ॥३९॥

शरीरनी बहार रहेता वायु पासेथी हुं ए शीख्यो के जेवी रीते वायुने अनेक स्थानोमां जवुं पडे छे, तो पण ते कयांय आसकत थतो नथी, कोईना पण गुणदोष ते अपनावतो नथी. तेवी ज रीते साधक पुरुष पण जरूर पड्ये विभिन्न प्रकारना धर्म अने स्वभाववाळा विषयोमां जाय पण पोतानुं लक्ष्य चूके नहि. कोईना गुण के दोषथी लेपाई न जाय. कोईमां आसक्ति के द्वेष करे नहि ॥४०॥

गन्ध वायुनो गुण नथी, पृथ्वीनो गुण छे परन्तु वायुने गन्ध वहन करवी पडे छे. आम करवा छतां शुद्ध ज रहे छे, गन्धनी साथे एनो सम्पर्क थतो नथी. तेवी ज रीते साधकने ज्यां सुधी आ पार्थिव शरीरनो सम्बन्ध छे त्यां सुधी तेने तेनी व्याधि-पीडा, भूख-तरस वगेरे वहन करवां पडे छे; परन्तु पोताने शरीर नहि, आत्माना रूपमां जोनार साधक शरीर अने तेना गुणोनो आश्रय होवा छतां पण तेमनाथी सर्वथा निर्लिप्त रहे छे ॥४१॥

जेटला पण घट-मठ वगेरे पदार्थ छे ते चल हो के अचल तेमने लीधे जुदुं-जुदुं [[३३१]] जणातुं होवा छतां आकाश एक अने अपरिच्छिन्न (अखण्ड) छे. तेवी ज रीते चर-अचर जेटलां-जेटलां सूक्ष्म-स्थूल शरीर छे तेमां आत्मारूपथी सर्वत्र स्थित होवाने लीधे ब्रह्म बधाम्मां छे. दोरामां परोवेला मणिओमां जेम दोरो व्याप्त छे तेम आत्माने अखण्ड अने असङ्गरूपथी देखे. आत्मा एटलो बधो विस्तृत छे के तेनी तुलना कंईक-कंईक आकाशनी साथे ज करी शकाय. तेथी साधके आत्मानी आकाशरूपतानी भावना करवी जोईए ॥४२॥

आग लागे छे, पाणी वरसे छे, अन्न वगेरे उत्पन्न थाय छे अने नाश पामे छे, वायुनी प्रेरणाथी वादळ वगेरे आवे छे अने चाल्यां जाय छे. आकाशनी दृष्टिमां आमान्नुं कंई छे ज नहि. तेवी ज रीते भूत, वर्तमान अने भविष्य ना चक्करमां कोण जाणे केटकेटलां नाम-रूपोनी सृष्टि अने प्रलय थाय छे परन्तु आत्मानी साथे तेनो कोई पण संस्पर्श नथी ॥४३॥

जेवी रीते स्वभावथी ज जल स्वच्छ, स्निग्ध, मधुर अने पवित्र करनारुं होय छे तथा गङ्गा वगेरे तीर्थोनां दर्शन, स्पर्श अने नामना उच्चारथी पण लोको पवित्र थई जाय छे तेवी ज रीते साधके पण शुद्ध, स्निग्ध (स्नेहाळ), मधुरभाषी अने लोकपावन थवुं जोईए. जल पासेथी शिक्षा ग्रहण करनार पोताना दर्शन, स्पर्श अने कीर्तन थी लोकोने पवित्र करी दे छे ॥४४॥

हे राजन्‌! में अग्नि पासेथी ए शिक्षा लीधी के जेम ते तेजस्वी अने ज्योतिर्मय होय छे, जेम तेने कोई पोताना तेजथी दबावी शकतुं नथी, जेवी रीते तेनी पासे सङ्ग्रह-परिग्रहने माटे कोई पात्र नथी-बधुं ज पोताना पेटमां ज पधरावी दे छे अने सर्वनुं भक्षण करवा छतां विभिन्न वस्तुओना दोषोथी ते लिप्त थतो नथी. तेवी ज रीते साधक पण परम तेजस्वी, तपस्याथी देदीप्यमान, इन्द्रियोथी अपराजित, भोजनमात्रनो सङ्ग्रही अने यथा योग्य बधा विषयोने उपभोग करवा छतां पोताना मन अने इन्द्रियो ने वश राखे, कोईनो दोष पोतानामां न आववा दे ॥४५॥

जेवी रीते अग्नि क्याङ्क (लाकडां वगेरेमां) अप्रगट रहे छे अने क्याङ्क प्रगट तेवी ज रीते मुनि पण क्याङ्क गुप्त रहे अने क्याङ्क प्रगट थई जाय. ते क्याङ्क-क्याङ्क एवा रूपमां प्रगट थई जाय छे के जेथी कल्याण कामी पुरुष तेनी उपासना करी शके. ते अग्निनी जेम ज भिक्षारूप हवन करवावाळाना भूत अने भावी अशुभने भस्म [[३३२]] करी दे छे. अग्नि जेवी रीते बीजानी इच्छाथीज हविनो भोग करे छे तेवीज रीते मुनि सर्वत्र दाताओनी इच्छाने मान आपी भोजन करे छे ॥४६॥

साधक पुरुष ए वातनो विचार करे छे के अग्नि जाडां-पातळां, लाम्बां-टूङ्कां, सीधां-आडां लाकडाम्मां होय त्यारे ते जाडो-पातळो, लाम्बो-टुको, सीधो-आडो देखाय छे, खरेखर ते तेवो नथी; तेवी ज रीते सर्वव्यापी आत्मा पण पोतानी मायाथी रचवामां आवेला कार्य-कारणरूप जगतमां व्याप्त होवाने लीधे ते- ते वस्तुओनां नाम-रूप साथे कोई सम्बन्ध न होवा छतां तेमना रूपमां देखाय छे ॥४७॥

में चन्द्रमां पासेथी ए शिक्षा ग्रहण करी के, जेनी गति जाणी शकाती नथी ते कालना प्रभावथी चन्द्रमानी कलाओ घटती वधती रहे छे तो पण चन्द्रमा तो चन्द्रमा ज छे ते नथी घटतो के नथी वधतो. तेवी ज रीते जन्मथी मृत्यु पर्यन्त जेटली पण अवस्थाओ छे ते बधी शरीरनी छे; आत्मानी साथे तेमनो कोई पण सम्बन्ध नथी ॥४८॥

जेवी रीते अग्निनी ज्वाळाओ के दीपकनी जोत क्षणे-क्षणे उत्पन्न अने नष्ट थती रहे छे-तेमनो आ क्रम निरन्तर चालतो रहे छे परन्तु देखातो नथी-तेवी ज रीते जलप्रवाहना जेवा वेगवान्‌ कालद्वारा क्षणे-क्षणे प्राणीओना शरीरनी उत्पत्ति अने विनाश थतां रहे छे परन्तु अज्ञानने लीधे ते देखातां नथी ॥४९॥

हे राजन्‌! में सूर्य पासेथी ए शिक्षा ग्रहण करी के जेवी रीते ते पोतानां किरणोथी पृथ्वी उपरनुं जल खेञ्चे छे अने समय आव्ये ते वरसावी दे छे तेवी ज रीते योगी पुरुष इन्द्रियोद्वारा समय आव्ये विषयोने ग्रहण करे छे अने समय आव्ये तेमनो त्याग-तेमनुं दान-पण करी दे छे. तेने कदापि इन्द्रियोना कोई विषयमां आसक्ति होती नथी ॥५०॥

जाडी बुद्धिवाळा पुरुषोने जलनां जुदां-जुदां पात्रोमां सूर्यना जुदां-जुदां प्रतिबिम्ब पडेलां जोईने सूर्यो अनेक छे एवुं जणाय छे, परन्तु तेथी स्वरूपथी सूर्य घणा थई जता नथी. तेवी ज रीते चल-अचल उपाधिओना भेदथी एवुं लागे छे के प्रत्येक व्यक्तिमां आत्मा अलग-अलग छे, परन्तु जेमने एम लागे छे तेमनी बुद्धि स्थूल छे. असल वात तो ए छे के आत्मा सूर्यनी समान एक ज छे. स्वरूपथी एमां कोई भेद नथी ॥५१॥

[[३३३]] हे राजा! क्यांय कोईनाउपर अत्यन्त स्नेह के आसक्तिन राखवी जोईए, नहि तो तेनी बुद्धि पोतानी स्वतन्त्रता खोई बेसशे अने दीन थई जशे. तेने कपोतनी जेम अत्यन्त कलेश उठाववो पडशे. ए हुं कपोत (कबूतर-होलो)पासेथी शीख्यो ॥५२॥

कोई एक कपोत (कबूतर) अरण्यमां वृक्ष उपर माळो बान्धीने पोतानी स्त्रीनी साथे केटलाङ्क वर्षथी रहेतो हतो ॥५३॥

ते कपोत अने कपोतीए परस्पर प्रेमने लीधे दृष्टि साथे दृष्टि, अङ्ग साथे अङ्ग अने बुद्धि साथे बुद्धि मेळवी दीधां हताम् ॥५४॥

ए बन्ने दम्पती सूवामां साथे, बेसवामां साथे अने फरवामां साथे रहेतां हतां तथा वनमां फरतां हताम् ॥५५॥

हे राजन्‌! कपोती कपोतने प्रसन्न करती, कपोतनी एनी उपर कृपा हती तेथी जे-जे वस्तुनी ते इच्छा करती ते कपोत कष्ट वेठीने पण लावी आपतो हतो केमके ए कामुक हतो ॥५६॥

समय जतां कपोतीने प्रथम गर्भ रह्यो त्यारे पोताना माळामां पोताना पतिनी हाजरीमां एणे ईण्डां मूक्यां अने तेमने सेववा लागी ॥५७॥

समय उपर भगवान्‌नी अकळ अचिन्त्य अनन्त शक्तिथी ए ईण्डामान्थी अवयववाळां कोमळ रोमावलीवाळां बच्चां थयाम् ॥५८॥

ए बच्चानां अव्यकत शब्द अने मधुर भाषणने साम्भळतां दम्पती अत्यन्त सुख मानवा लाग्यां तेमनी उपर बहु हेत करतां तेमना पोषणमां ध्यान राखवा लाग्याम् ॥५९॥

तेमनी कोमळ पाङ्खोनो स्पर्श करतां तेमनुं कूजन साम्भळतां अने सुन्दर चेष्टाने जोतां हतां. बच्चां थोडां मोटां थयां त्यारे थोडुं-थोडुं ऊञ्चुं ऊडवानो आरम्भ करतां जोईने एमने अत्यन्त हर्ष थयो ॥६०॥

भगवान्‌नी मायाथी परस्पर स्नेहथी दम्पतीनां हृदय बन्धायेला होईने तेमना पोषण वगेरेमां बहु काळजी राखतां, मोहने लीधे दीन बनीने ते बन्ने बच्चानुं पोषण करतां हताम् ॥६१॥

तेओ पोतानां बन्ने बच्चान्नां चाराने माटे एक दिवस आगळ पाछळना वनमां फर्यां. पण मनमान्यो खोराक न मळतां त्यां एमने घणो काळ गयो ॥६२॥

[[३३४]] आ बाजु एक पारधी दैव इच्छाथी त्यां आवी चड्यो. पोताना माळानी नजीक फरतां ते बच्चान्ने संयोगवशात्‌ तेणे जोयां अने तेमनीउपर जाळ पाथरी ए बच्चान्ने तेणे पकडी लीधाम् ॥६३॥

कपोत अने कपोती तेमना पोषणमां हम्मेशां तत्पर हतां. एटलामां तेओ पोताना माळानी पासे चारो लईने आवी पहोञ्च्या ॥६४॥

कपोतीए पोतानां वहालां नानां-नानां बच्चान्ने जाळमां सपडायेला तथा आक्रन्द करतां जोयां. तेमनी आवी हालत जोई कपोतीना दुःखनी कोई सीमा न रही. रोती कक्ळती ते तेमनी पासे दोडी गई ॥६५॥

भगवान्‌नी मायामां मोहित बनेली तेनुं चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी थई रह्युं हतुं. ते ऊभराता स्नेहनी रस्सीथी जकडाई गई हती. पोतानां बच्चान्ने जाळमां फसायेलां जोईने तेने पोताना शरीरनुं पण भान न रह्युं (हुं मरी जईश एवुं स्मरण न रह्युं) अने पोते पण जाळमां जई पडी ॥६६॥

ज्यारे कपोते जोयुं के प्राणोथी पण प्यारां बच्चां अने पोतानी प्राणप्रिया पत्नी जाळमां फसाई गयां छे त्यारे ते अत्यन्तत दुःखी थई विलाप करवा लाग्यो. खरेखर ए वखते तेनी दशा अत्यन्त दयनीय हती ॥६७॥

‘‘अरे! मारां थोडां पुण्य के आ मारो नाश प्राप्त थयो. हुं कामादिथी तृप्त थयो नथी (मारी आशाओ सन्तोषाई नथी) पुत्रादि रमाडी कृतार्थ थयो नथी एटलामां तो जेमां धर्म, अर्थ अने काम सिद्ध थाय तेवो मारो गृहस्थाश्रम नाश पाम्यो ॥६८॥

अरर! मारी जे प्राणप्रिया मने ज पोतानो इष्टदेव समजती हती, मारी एकेएक वात मानती हती, दरेक रीते मने योग्य हती ते आजे मने सूना घरमां रझळतो मूकी अमारां भलाम्भोळा पवित्र बच्चान्नी साथे स्वर्गमां जई रही छे ॥६९॥

मारां प्यारां मरी परवार्यां, मारी प्राणप्रिया चाली गई. मारुं हवे आ संसारमां शुं काम छे? मारा रङ्कनुं विधुरजीवन-गृहिणी वगरनुं जीवन-व्यथामय जीवन छे. हवे हुं आ सूना घरमां कोने माटे जीवुं?’’ ॥७०॥

हे राजन्‌! कपोतनां बच्चां जाळमां फसाई जवाथी तरफडी रह्यां हतां, स्पष्ट देखातुं हतुं के तेओ मोतना पञ्जामां छे परन्तु ते मूरख कपोत आ बधुं जोवा छतां [[३३५]] पण एटलो दीन थई रह्यो हतो के स्वयं जाणीबूजीने जाळमां कूदी पड्यो ॥७१॥

हे राजन्‌! ते पारधी बहु क्रूर हतो. गृहस्थ कपोत, कपोती अने तेमनां बच्चां मळी जवाथी ते बहु राजी थयो. ते समज्यो के मारुं तो काम पूरुं थयुं. तेथी तेमने बधान्ने लईने ते त्यान्थी घर तरफ चालतो थयो ॥७२॥

जे कुटुम्बी छे, विषयो अने लोको ना सङ्ग साथमां ज जेने सुख मळे छे अने पोताना कुटुम्बना भरण-पोषणमां ज जे सुध-बुध खोई बेसे छे तेने कयारेय शान्ति मळती नथी. ते पेला कपोत (कबूतर-होला) नी जेम पोताना कुटुम्बनी साथे कष्ट पामे छे ॥७३॥

यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्‌ ॥ गृहेषु खगवत्‌ सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ॥७४॥

जेमां मुकितनां द्वार खुल्लां छे तेवा आ मनुष्य शरीरने मेळवीने पण जे उपर कहेला कपोतनी जेम घर-गृहस्थीमां ज आसकत रहे छे ते घणुं ऊञ्चे चडीने पण पडी रह्यो छे. शास्त्रनी भाषामां ते ‘आरूढच्युत’ छे ॥७४॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेलां जीवमुक्ति प्रकरणनो बीजो अने चालु)‘‘भगवाने उद्धवजीने कहेलो यदुराजा अने अवधूत नो संवाद’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘हे श्रीवल्लभ! आपनी आज्ञाथी विपरीत (देवद्रव्यनो प्रसाद खाई शकाय, दक्षिणा लईने भागवत कथा करी शकाय, सेवा न करनार पण ब्रह्मसम्बन्ध लई शके वगेरे) उपदेश करनारा भान भूलेला छे. तेओ बधा अन्धन्तम घोर नरकमां पडनारा सहज आसुरी जीवो छे’’ (श्रीगुसांईजी)

अध्याय ८

अवधूत अजगर आदि नव गुरु पासेथी शीख्या ए कहे छे

विशेष - अजगर वगेरे नव गुरुओ पासेथी सम्पादन करेल ज्ञाननो हरि भगवान्‌ अवधूतनां वचनोमां उद्धवजीने कहे छे. आटली वात आ आठमा अध्यायमां आवे छे. सुखमैन्द्रियकं राजन्‌ स्वर्गे नरक एव च ॥

ईं उं ईं उं

[[३३६]] देहिनां यद्‌ यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद्‌ बुधः ॥१॥

अवधूत दत्तात्रेयजी बोल्या - हे राजा! जेवी रीते प्राणीओने इच्छा विना, कोई पण प्रयत्न विना, रोकवामाटे प्रयत्न करवा छतां, पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त थाय छे तेवी ज रीते स्वर्गमां के नरकमां कयांय पण रहे तेमने इन्द्रिय सम्बन्धी सुख पण प्राप्त थाय ज छे. तेथी सुख अने दुःख नुं रहस्य जाणवावाळा बुद्धिमान्‌ पुरुषे सुखनी इच्छा के तेने माटे प्रयत्न करवो नहि ॥१॥

वगर माग्ये, वगर इच्छाए स्वयं अनायास जे कंई मळी आवे ते रूखुं-सूकुं होय, मधुर अने स्वादिष्ट होय, बहु होय के थोडुं होय, बुद्धिमान्‌ पुरुषे अजगरनी जेम ते ज खाईने जीवन निर्वाह करी लेवो अने उदासीन रहेवुम् ॥२॥

कदाच भोजन न पण मळे तो तेने प्रारब्ध-भोग समजी कोई जातनी प्रवृत्ति न करे, दिवसोना दिवसो भूख्यो ज पड्यो रहे. अजगरनी जेम केवल प्रारब्ध प्रमाणे प्राप्त थयेल भोजनथी ज ते सन्तुष्ट रहे ॥३॥

तेना शरीरमां मनोबळ, इन्द्रियबळ अने देहबळ त्रणेय होवां छतां ते निश्चेष्ट ज रहे. निद्रारहित होवा छतां सूतेलानी जेम रहे अने कर्मेन्द्रियो सशकत होवा छतां कोई चेष्टा न करे. हे राजन्‌! अजगर पासेथी हुं आटली वातो शीख्यो. (‘शयान’सूतेलो अर्थात्‌ वृत्ति-प्रवृत्ति शून्य. ‘वीतनिद्रः’ भगवच्चिन्तन, प्रभुप्राप्ति, विप्रयोग वगेरे भावोमां सर्वदा अत्यन्त सावधान) ॥४॥

समुद्र पासेथी हुं ए शीख्यो के साधके सर्वदा बहार प्रसन्न अने अन्दर गम्भीर रहेवुं जोईए. तेनो भाव अथाह, अपार अने असीम होवो जोईए तथा कोई पण कारणथी तेने क्षोभ (मानसिक के शारीरिक खळभळाट) न थवा जोईए एटले के भरती-ओट-तरङ्गो विनाना शान्त समुद्रना जेवा थवुं जोईए ॥५॥

समुद्र वर्षाऋतुमां नदीओनां पूरनां पाणीथी वधतो नथी के उनाळामां जळ सुकातां ए घटतो नथी; तेवी ज रीते भगवत्परायण साधके पण सांसारिक पदार्थोनी प्राप्तिथी न तो प्रफुल्लित थवुं जोईए अने न तो तेमना घटवाथी उदास थवुं जोईए ॥६॥

हे राजन्‌! *पतङ्गिया पासेथी में शिक्षा ग्रहण करी के जेवी रीते ते रूप उपर मोहित थई जई आगमां कूदी पडे छे तेवी ज रीते पोतानी इन्द्रियोने वश न राखनारो पुरुष परमात्मानी मायारूपी स्त्रीना रूप अने हावभावमां लोभाईने घोर [[३३७]] अन्धकारमां, नरकमां पडी पोतानुं अधःपतन नोतरे छे. खरेखर स्त्री एक एवी माया छे के जेनाथी जीव भगवत्‌ प्राप्ति के मोक्षप्राप्तिथी वञ्चित रही जाय छे ॥७॥

विशेष - कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्गमीनाहताः पञ्चभिरेव पञ्च। एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च॥ अर्थात्‌ मृग, हाथी, पतङ्गियुं, माछलुं अने भमरो ए पाञ्चेय प्राणीओ एक-एक ज्ञानेन्द्रियने वश थईने हणाई जाय छे, तो जेनी पाञ्चेय इन्द्रियो वशमां न होय तेना माटे शुं कहेवुं? ए तो हणायेलो ज छे. जे मूढ कामिनी, काञ्चन, घरेणां, कपडां आदि नाशवान्‌ मायिक पदार्थोमां फसायेलो होय छे अने जेनी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति तेमना उपभोगने माटे ज आसकत रहे छे ते पोतानी विवेकबुद्धि खोई नाखी पतङ्गियानी जेम नाश पामे छे ॥८॥

हे राजन्‌! जेम मधमाखी पुष्पनो नाश न करतां एनो थोडो सार लईने एमां आसक्ति छोडी पोतानुं काम चलावे छे तेम सन्न्यासी गृहस्थोने बोजारूप थया विना तेमने कोई पण प्रकारनुं कष्ट आप्या सिवाय मधमाखीनी जेम पोतानो जीवन-निर्वाह करे. देह निर्वाह थाय तेटलुं ज अनेक पासेथी लईने जीवन चलावे. (नहि तो एक ज कमलनी गन्धमां आसकत थई गयेलो भमरो जेवी रीते कमल बिडाई जतां तेमां पुराई नष्ट थई जाय छे ते ज रीते स्वादना लोभे एक ज गृहस्थनुं अन्न खावाथी तेना सांसर्गिक मोहमां फसाई जई सन्न्यासी पण नष्ट थई जाय) ॥९॥

जेवी रीते मधमाखी जुदां-जुदां अनेक फूलोमान्थी ते नानां होय के मोटां तेमना सारनो ज सङ्ग्रह करे छे तेवी ज रीते बुद्धिमान्‌ पुरुषे नानां-मोटां बधां शास्त्रोमान्थी तेमनो सार ज ग्रहण करवो ॥१०॥

हे राजन्‌! में मधमाखी पासेथी ए शिक्षा लीधी के सन्न्यासीए साञ्ज अथवा बीजा दिवसमाटे भिक्षानो सङ्ग्रह न करवो जोईए. तेनी पासे भिक्षा लेवाने माटे कोई पात्र होय तो हाथ अने राखवाने माटे कोई वासण होय तो पेट. ते कदी सङ्ग्रह न करी बेसे, नहि तो मधमाखीओनी जेम तेनो पण नाश थई जाय छे ॥११॥

आ वात बराबर समजी लेवी जोईए के सन्न्यासी सवार के साञ्ज माटे कोई प्रकारनो सङ्ग्रह न करे. जो करशे तो मधमाखीओनी जेम बधो सङ्ग्रह अने पोतानुं जीवन पण गुमावी बेसशे ॥१२॥

हे राजन्‌! हाथी पासेथी हुं ए शीख्यो के सन्न्यासी कयारेय पगथी पण काष्ठनी [[३३८]] पुतळीनो पण स्पर्श न करे. जो करशे तो जेवी रीते हाथणीना अङ्ग-सङ्गथी हाथी बन्धाई जाय छे तेवी ज रीते ते पण बन्धाई जशे. (हाथी पकडवामाटे मोटा खाडा खोदी उपर हलकां लाकडां अने घास ढाङ्की देवामां आवे छे. तेना उपर कागळनी हाथणी ऊभी करवामां आवे छे. तेमां मोहित थई हाथी हाथणीना स्पर्शना लोभथी त्यां आवे छे अने खाडामां पडे छे एने घणा दिवस भूखे मारी निर्बळ करीने पछी एने वश करे छे) ॥१३॥

विवेकी पुरुष कयारेय पण कोई पण स्त्रीनो भोग्यरूपे स्वीकार न करे, कारण के ते मूर्तिमान मृत्यु छे. जो ते स्वीकार करशे तो बीजा हाथीओ जेम ते हाथीने मारी नाखी हाथणीओनो भोग बळवाळो हाथी करे छे तेम बीजा वधारे बलवान पुरुषो तेने मारी नाखशे ॥१४॥

मध काढनार पासेथी लीधेल उपदेशनी वात कहुं छुं. जेम मधमाखीए भेगुं करेलुं मध ते मेळवनार लोको मधमाखीने मारी नाखीने लई जाय छे तेम आ संसारमां लोभी माणसो महा मुश्केलीए धननो सञ्चय करे छे ते मेळववामां अति क्लेशने सहन करे छे छतां ते सञ्चित धन नथी तो तेओ कोईने दान करता के नथी तेओ पोते तेनो उपभोग करता. आ धनने बीजो कोई माणस ज भोगवे छे ॥१५॥

मधमाखीओए एकठुं करेलुं मध तेओ खाय ते पहेलां ज मधुहारी (मध काढनार) तेनो स्वाद माणी ले छे. तेवी ज रीते गृहस्थो घणां कष्ट वेठीने सञ्चित करेला पदार्थोथी सुखभोगनी अभिलाषा राखे छे ते पदार्थो तेमनाथी पण पहेलां सन्न्यासी अने ब्रह्मचारी भोगवे छे, कारण के गृहस्थ तो पहेलां अतिथि अभ्यागतोने भोजन करावी पछी ज पोते भोजन करे छे ॥१६॥

वनमां फरनार हरिणने पारधी पकडवा आवे त्यारे ए गीत गाय छे. तेमां ए मोहित थई एनी पासे जाय छे, त्यारे पारधी एने बान्धी लईने मारी नाखे छे माटे वनवासी सन्न्यासीए कदी विषय सम्बन्धी गीत साम्भळवां न जोईए ॥१७॥

हरणीना गर्भथी जन्मेला (विभाण्ड ऋषिना पुत्र) ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रीओना नृत्य जोईने तथा गीत अने वाजिन्त्रने साम्भळीने स्त्रीओने वश थई गया हता तेमना हाथनी कठपूतळी बनी गया हता. ए तो तमे जाणो ज छो ॥१८॥

हवे हुं तमने माछलानी शीख सम्भळावुं छुं. जेवी रीते माछलुं काण्टामां लगाडेल मांसना टुकडाना लोभथी पोताना प्राण गुमावी बेसे छे तेवी ज रीते स्वादना लोभी [[३३९]] दुर्बुद्धि मनुष्य पण पोताना मनने मथी नाखी व्याकुल करी देनार जिह्‌वाने वश थई जाय छे अने मार्यो जाय छे ॥१९॥

विवेकी पुरुष भोजन लेवुं बन्ध करी बीजी इन्द्रियो उपर तो बहु जलदी विजय मेळवी ले छे परन्तु तेथी तेनी रसना इन्द्रिय (जीभ) वश थती नथी. ते तो भोजन बन्ध करवाथी तो वधारे प्रबल थई जाय छे ॥२०॥

मनुष्य बीजी बधी इन्द्रियो उपर विजय प्राप्त करी लेवा छतां ते ज्यां सुधी रसना इन्द्रियने पोताने वश नथी करी लेतो त्यां सुधी ते जितेन्द्रिय नथी थई शकतो अने रसना इन्द्रियने वश करी लीधी तेनी तो बधी ज इन्द्रियो वश थई गई मानवी ॥२१॥

हे नृपनन्दन! प्राचीन कालनी वात छे. विदेहनगरी मिथिलामां एक वेश्या रहेती हती. तेनुं नाम *पिङ्गला हतुं. हुं एनी पासेथी जे शीख्यो ते कहुं छुं. सावधान थईने साम्भळो ॥२२॥

विशेष - पिङ्गला १. पिङ्गं स्वर्णं लाति स्वीकरोति निजदेहार्पणेन-देह अर्पण करी दईने बदलामां जे सोनुं ले ते. २. पिङ्गं पिताम्बरं श्रीकृष्णं लाति इति वा-पिताम्बर श्रीकृष्णने स्वीकारे छे ते. ते स्वेच्छाचारिणी तो हती ज, रूपवती पण हती. एक दिवसे रात्रे कोई पुरुषने पोताना रमणस्थानमां लाववामाटे खूब उत्तम वस्त्राभूषणो धारण करी धणो वखत पोताना घरना बहारना दरवाजे ऊभी रही ॥२३॥

हे नररत्न! एने पुरुषनी कामना न हती परन्तु धननी कामना हती. एना मनमां ए कामना एटली बधी दृढमूल थई गई हती के ते कोई पण पुरुषने त्यान्थी आवतो जतो जोई एमज धारवा लागती के आ कोई धनिक छे अने मने धन आपीने मारो उपभोग करवामाटेज आवी रह्योछे ॥२४॥

ज्यारे आवता जता माणसो आगळ नीकळी जता त्यारे तो फरी ते सङ्केतजीविनी वेश्या एम ज विचारती के हवे तो कोई एवो धनवान अवश्य आवशे के जे मने घणुं धन आपशे ॥२५॥

तेना चित्तनी आ दुराशा वधती ज जती हती. ते घणा वखत सुधी द्वार पर बेसी रही. तेनी ऊङ्घ ऊडी गई. घडीक ते अन्दर जती तो घडीक बहार आवती. आ प्रमाणे मधरात थई गई ॥२६॥

[[३४०]] हे राजा! धननी आशा-लोभ भारे भूण्डी चीज छे. धनिकनी वाट जोतां-जोतां तेनुं मोढुं सुकाई गयुं, चित्त व्याकुल थई गयुं. हवे तो तेने आ वृत्तिथी कण्टाळो आव्यो अने तीव्र वैराग्य थई आव्यो. तेमां दुःख बुद्धि थई गई. ए वातमां तो शङ्का नथी के आ वैराग्यनुं कारण चिशताज हतुं. पण आवो वैराग्य पण सुख आपे छे ॥२७॥

ज्यारे पिङ्गलाना चित्तमां आ प्रमाणे वैराग्यनी भावना जागी त्यारे तेणे एक गीत गायुं. ए तमने सम्भळावुं छुं. हे राजा! मनुष्यने आशारूपी बन्धन छे तेने तलवारनी माफक कापी नाखनार कोई वस्तु होय तो ते केवल वैराग्य छे ॥२८॥

हे प्रिय राजन्‌! जेवी रीते अज्ञानी पुरुष ममता छोडवानी इच्छा पण करतो नथी तेवी रीते जे बखेडा (संसारनां दुःखो) थी कण्टाळ्यो नथी अने जेने वैराग्य थयो नथी ते शरीरने बन्धनमां राखनार विषयोनी आशाने छोडवा मागतो नथी ॥२९॥

पिङ्गला बोली - हाय! हाय! हुं इन्द्रियोने अधीन थई गई. भला, मारा मोहनो विस्तार तो जुओ. हुं आ दुष्ट पुरुषो के जेमनुं कोई अस्तित्वज नथी तेमनी पासेथी विषयसुखनी अने धननी लालसा राखुं छुं. केटला दुःखनी वात छे! हुं खरेखर मूर्ख छुम् ॥३०॥

जुओ तो खरा, मारी निकटमां निकट हृदयमां ज मारां साचा स्वामी भगवान्‌ बिराजमान छे. ते साचो प्रेम, सुख अने परमार्थ नुं नक्कर धन पण आपनारा छे. जगतना पुरुषो अनित्य छे अने भगवान्‌ नित्य छे. अरेरे! में एमने तो छोडी दीधा अने एवा तुच्छ मनुष्योनुं सेवन कर्युं जे मारी एक पण कामना पूरी न करी शके तेवा छे. उलटाना तेओ दुःख अने भय, आधि अने व्याधि, शोक अने मोह ज आपनारा छे. मारी मूर्खतानी ए हद छे के हुं एमनुं सेवन करुं छुम् ॥३१॥

घणा खेदनी वात छे के में अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्तिनो आश्रय लीधो अने व्यर्थ ज मारा शरीरने अने मनने पीडा पहोञ्चाडी. मारुं आ शरीर वेञ्चाई गयुं छे. लम्पट, लोभी अने निन्दनीय मनुष्योए ते खरीदी लीधुं छे अने हुं एटली बधी मूर्ख छुं के आ ज शरीरथी धन अने रतिसुख मेळववा मागुं छुं. मने धिक्कार छे! ॥३२॥

आ शरीर एक घर छे. तेमां हाडकांरूपी आडा-उभां वांस अने थाम्भला लागेला [[३४१]] छे. चाम, रूवां अने नखोथी छायेलुं छे. तेमां नव दरवाजा छे, जेमान्थी मळ नीकळता ज रहे छे. तेमां सञ्चित सम्पत्ति खाते मात्र मळ-मूत्र छे. मारा सिवाय एवी कई स्त्री हशे के जे आ स्थूल शरीरने वहालुं गणीने तेनुं सेवन करे? ॥३३॥

आम तो आ विदेहो-जीवन्मुक्तोनी नगरी छे, परन्तु तेमां हुं ज सौथी मूर्ख अने दुष्ट छुं कारण के एकली हुं ज आत्मानुं दान करनार, अविनाशी अने परम प्रियतम परमात्माने छोडी बीजा पुरुषनी अभिलाषा करुं छुम् ॥३४॥

मारा हृदयमां बिराजमान प्रभु समस्त प्राणीओना हितैषी, सुहृद, प्रियतम, स्वामी अने आत्मा छे. हवे हुं मारी जातने समर्पी एमने ज खरीदी लईश अने तेमनी साथे लक्ष्मीजीनी जेम विहार करीश ॥३५॥

ओ मारा मूर्ख चित्त! तुं बताव तो खरुं के जगतना विषयभोगोए अने ते आपनारा पुरुषोए तने केटलुं सुख आप्युं छे? अरे! तेओ पोते ज जनमता अने मरता रहे छे. हुं मात्र मारी ज वात नथी करती, मात्र मनुष्योनी पण नहि; देवताओए पण भोगोथी पोतानी पत्नीओने सन्तुष्ट करी छे? ते बीचारा पोते ज तो कालनी दाढो वच्चे कण कणी रह्या छे ॥३६॥

खरेखर मारा कोई शुभ कर्मथी भगवान्‌ विष्णु मारा उपर प्रसन्न छे त्यारे सुख आपनार, दुष्ट आशानो अन्त करनार, वैराग्य मने प्राप्त थयो अवश्य आ मारो वैराग्य सुख आपनार नीवडशे ॥३७॥

जे वैराग्यवडे मनुष्य देह, गेह वगेरेमान्नी अहन्ता-ममतानो त्याग करी शान्तिरूप मोक्ष अथवा भगवान्‌ना चरणने प्राप्त थाय छे ते वैराग्य उपजावनारा क्लेशो मारा जेवी मन्द भाग्यवाळीने प्राप्त थया ए केवल भगवत्कृपा ज छे ॥३८॥

हवे हुं भगवान्‌नो आ उपकार आदरपूर्वक मस्तक नमावी स्वीकारुं छुं अने विषयभोगोनी दुष्ट आशाओने छोडी दई ते ज जगदीश्वर (सर्वेश्वर)नुं शरण स्वीकारुं छुम् ॥३९॥

हवे मने मारा प्रारब्ध प्रमाणे जे कंई मळी रहेशे तेनाथी ज निर्वाह करी लईश अने अत्यन्त सन्तोष अने श्रद्धा नी साथे रहीश. हवे बीजा कोई पण पुरुष तरफ दृष्टि पण कर्या विना मारा हृदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभुनी साथे ज हुं विहार करीश ॥४०॥

[[३४२]] आ जीव संसाररूपी कूवामां पडेलो छे. विषयोए तेने अन्ध बनावी दीधो छे, कालरूपी अजगरे तेने मोम्मां दबावी राख्यो छे. आवा जीवनी रक्षा भगवान्‌ सिवाय बीजो कोण करी शकवाने शक्तिमान छे? ॥४१॥

जो मनुष्य सावधान रही काळरूपी अजगर आ जगतने गळी रह्यो छे एम जाणी आ संसारथी वैराग्य प्राप्त करे तो पोताना आत्माथी ज पोतानो उद्धार जीव करी शके छे. तेथी मारा आत्माना उद्धारमाटे पण हुं भगवान्‌ने भजवानी नथी. केवळ निर्हेतुक प्रेमथी एमने भजीश ॥४२॥

अवधूत दत्तात्रेयजी बोल्या - हे राजन्‌! आ प्रमाणे निश्चय करीने पोताना प्रिय धनवानोनी दुराशा तेमने मळवानी लालसा छोडी दईने पिङ्गला वेश्या शान्तिपूर्वक पोतानी शय्यामां सूई गई ॥४३॥

आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्‌ ॥ यथा सञ्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला ॥४४॥

(आख्याननो सार) आशा ज सौथी मोटुं (परम) दुःख छे. निराशा (कोईनी आशा ज न राखवी) ते ज सौथी मोटुं (परम) सुख छे. जेम पिङ्गला वेश्याए ज्यारे कान्तनी आशा छोडी दीधी त्यारे ज ते सुखपूर्वक सूई शकी तेम कोईनी आशा न राखे तो ज माणस सुखी थाय ॥४४॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो त्रीजो अने चालु) ‘‘अवधूत अजगर आदि नव गुरु पासेथी शीख्यो ए कहे छे’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय ९

अवधूतना बोधथी यदु कृतार्थ थया

विशेष - टिटोडी अने शरीर वगेरेथी शीख्या ते अवधूत दत्तात्रेयजीए कह्युं त्यारे यदुराजा कृतार्थ थया एम श्रीकृष्ण उद्धवजीने आ नवमां अध्यायमां कहे छे. परिग्रहो हि दुःखाय यद्‌ यत्‌ प्रियतमं नृणाम्‌ ॥ अनन्तं सुखमाप्नोति तद्‌ विद्वान्‌ यस्त्वकिञ्चनः ॥१॥

[[३४३]] अवधूत दत्तात्रेयजीए कह्युं - मनुष्यो जेने-जेने पोतानुं प्रिय गणीने सङ्ग्रह करे छे ते ज एने दुःख आपनार थाय छे. जे बुद्धिमान्‌ पुरुष आ वात समजी अकिञ्चन भावथी रहे छे तेने अनन्त सुख (स्वरूप परमात्मा)नी प्राप्ति थाय छे ॥१॥

एक टिटोडी (कुरर पक्षी) चाञ्चमां मांसनो टुकडो लईने जती हती. ते वखते बीजां बलवान्‌ पक्षीओ जेमनी पासे मांस न हतुं तेओ तेनी पासेथी ते पडावी लेवामाटे तेना उपर चाञ्चना प्रहार करवा लाग्या. ज्यारे ते टिटोडीए ते मांसनो टुकडो फेङ्की दीधो त्यारे बधां पक्षीओ मांस पाछळ पड्यां एटले टिटोडी सुखेथी जती रही. आ उपरथी हुं ए शीख्यो के कोई पदार्थने पासे न राखवो; राखवाथी टिटोडीनी जेम दुःख थाय; तेथी निष्किञ्चन रहेवुं श्रेष्ठ छे ॥२॥

मारे मान-अपमान जेवुं कंई छे ज नहि अने घर तथा परिवारवाळाओने जे चिन्ता थती होय छे ते मने नथी. मारा आत्मामां ज हुं रमुं छुं अने मारी साथे ज हुं क्रीडा करुं छुं. आ शिक्षा में बालक पासेथी ग्रहण करी छे ॥३॥

आ जगतमां बे ज प्रकारनां मनुष्यो निश्चिन्त अने परमानन्दमां मग्न रहे छे-एक तो भलुं-भोळुं निश्चेष्ट नानकडुं बालक अने बीजो ते पुरुष जे गुणातीत थई गयो होय ॥४॥

एकवार कोई कुंवारी कन्याने घेर तेनुं वरण करवामाटे केटलाक लोको आव्या हता. ते दिवसे तेना घरनां माणसो क्याङ्क बहार गयेलां हतां. तेथी तेणे पोते तेमनी आगता-स्वागता करी ॥५॥

हे राजन्‌! तेमने भोजन कराववामाटे घरनी अन्दरना भागमां ते कमोद खाण्डवा लागी. ते वखते तेणे पहेरेली चूडीओ जोरजोरथी खखडवा लागी ॥६॥

आ अवाजने निन्दित१ समजी कुमारीने भारे शरम आवी अने तेणे एक-एक करीने बधी चूडीओ वधावी२ लीधी अने बन्ने हाथमां मात्र बब्बे ज रहेवा दीधी ॥७॥

विशेष - १. कारण के ते वखते ते जाते खाण्डी रही छे ए वात छती थाय अने तेथी घर दरिद्र छे ए वात स्पष्ट थई जाय.
२.चूडी वधाववी=चूडी उतारवी, तोडी नाखवी. (‘उतारवी’ शब्द अमङ्गल छे तेथी) तेणे फरीथी खाण्डवानुं काम आगळ चलाव्युं, परन्तु ते बब्बे चूडीओ पण [[३४४]] खखडवा लागी त्यारे तेणे फरी बन्ने हाथमान्थी एक-एक चूडी वधावी लीधी अने बन्ने हाथमां एक-एक ज चूडी रहेवा दीधी, त्यारे कोई जातनो अवाज न थयो ॥८॥

हे अरिन्दम *राजा यदु! ते वखते लोकोनो आचार-विचार जोवाने माटे आमतेम फरतो हुं पण त्यां जई चड्यो. हुं एनी पासेथी ए शीख्यो के ज्यारे घणां माणसो साथे रहेतां होय छे त्यारे कलह थाय छे अने बे माणसो साथे रहे छे त्यारे पण वात-चीत तो थती ज होय छे; तेथी कुमारी कन्यानी चूडीनी जेम एकला ज फरवुं जोईए ॥९-१०॥

विशेषः जनसमुदायमां भळवुं ए आत्मनिष्ठा के भक्तिनुं दुश्मन छे. ते दुश्मनने तमे मारी नाखो अर्थात्‌ टोळुं टाळो एकान्तनुं सेवन करो. हे राजन्‌! बाण बनावनारनी पासेथी हुं ए शीख्यो के जेम बाण बनावनारनुं चित्त बाणमां एवुं लाग्युं हतुं के एनी पासेथी राजानी सवारी चाली गई छतां तेणे ते जोई के साम्भळी नहि तेम योगीए आसन अने श्वासने जीती लई वैराग्य अने अभ्यास द्वारा पोताना मननो निरोध करी (मनने सर्वमान्थी खेञ्ची) सावधानीपूर्वक तेने एक ज लक्ष (भगवद्‌चिन्तन) मां लगावी देवुम् ॥११॥

ज्यारे परमानन्दस्वरूप परमात्मामां मन स्थिर थई जाय छे त्यारे ते धीरे-धीरे कर्मवासनाओनी धूळने धोई नाखे छे. सत्त्वगुणनी वृद्धिथी रजोगुणी अने तमोगुणी वृत्तिओनो त्याग करी ईन्धन विनाना अग्निनी जेम ज मन शान्त थई जाय छे ॥१२॥

आ प्रमाणे जेनुं चित्त(बाण बनावनारनी जेम) पोताना आत्मामां ज स्थिर-निरुद्ध थई जाय छे तेने अन्दर-बहार कयांय कोई पण पदार्थनुं भान होतुं नथी ॥१३॥

हे राजन्‌! सापनी पासेथी हुं ए शीख्यो के सन्न्यासीए सर्पनी जेम एकला ज फरवुं जोईए तेणे मण्डळी के मठ रचवां न जोईए. ते एक ज ठेकाणे न रहे, प्रमाद न करे, गुफा वगेरेमां पड्यो रहे, बहारना आचारथी ओळखाय नहि. कोईनी पासेथी सहायता न ले अने बहु ज ओछुं बोले ॥१४॥

जेम साप पोताने माटे घर तैयार करतो नथी पण बीजाए बनावेला घरमां रही बहु ज आरामथी पोतानो समय पसार करी ले छे तेम सन्न्यासीए पण घर [[३४५]] बान्धीने रहेवुं नहि पण बीजाना घरमां रहीने निर्वाह करवो केमके देह कयारे पडशे ए नककी न होवाथी घरनो प्रयत्न करवो ए निष्फळछे ॥१५॥

हवे करोळिया पासेथी हुं जे शीख्यो ते साम्भळो. बधाना प्रकाशक अने अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान भगवाने पहेलान्ना कल्पमां, बीजा कोई सहायक विना पोतानी ज मायाथी रचेला जगतने कल्पना अन्तमां (प्रलयकाल आवतां) कालशक्तिद्वारा नष्ट करी दीधुं-तेने पोतानामां लीन करी दीधुं अने एकला ज शेष (बाकी) रह्या. ते बधाना अधिष्ठान छे, बधाना आश्रय छे, परन्तु स्वयं पोताना आश्रय छे एमनो आश्रय बीजो कोई नथी. ते प्रकृति अने पुरुष बन्नेना नियामक, कार्य अने कारणात्मक जगतना आदि कारण परमात्मा पोतानी शक्ति कालना प्रभावथी सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तिओने साम्यावस्थामां पहोञ्चाडी दे छे अने स्वयं कैवल्यरूपथी एक अने अद्वितीय रूपे बिराजमान रहे छे. ते केवल अनुभवस्वरूप अने आनन्दघन मात्र छे. कोई पण प्रकारनी उपाधिनो एमने सम्बन्ध नथी. ते ज प्रभु केवल पोतानी शक्ति कालद्वारा पोतानी त्रिगुणमयी मायाने क्षुब्ध करे छे अने ते पहेलां क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) नी रचना करे छे. आ सूत्ररूप महत्तत्त्व ज त्रणेय गुणोनी पहेली अभिव्यक्ति छे ते ज बधा प्रकारनी सृष्टिनुं मूल कारण छे. तेमां ज आ आखुं विश्व, सूतरमां ताणा-वाणानी जेम ओतप्रोत छे अने तेनेज लीधे जीवने जन्म-मृत्युना चक्करमां पडवुं पडे छे ॥१६-२०॥

जेवी रीते करोळियो पोताना हृदयमान्थी मों मारफत जाळ फेलावे छे तेमां ज विहार करे छे अने पाछो तेने गळी जाय छे तेवी ज रीते परमेश्वर पण आ जगतने पोतानामान्थी उत्पन्न करे छे तेमां विहार करे छे अने पछी तेने पोतानामां लीन करी ले छे ॥२१॥

हे राजा! हुं भमरी पासेथी ए शीख्यो के जो प्राणी स्नेहथी, द्वेषथी के भयथी पण जाणीबूजीने एकाग्ररूपथी पोतानुं मन कोईमां लगावी दे तो तेने ते ज वस्तुनुं स्वरूप प्राप्त थई जाय छे ॥२२॥

हे राजन्‌! भमरी क्रीडाने लईने पोताना घरमां पूरी दे छे. कीडो भयथी भमरीनुं ज चिन्तन करतां-करतां पोतानुं पहेलानुं शरीर छोड्या विना ज ते ज शरीरथी *तद्रूप थई जाय छे ॥२३॥

[[३४६]]

विशेष - ज्यारे ते ज शरीरथी, जेनुं चिन्तन करवामां आव्युं होय तेनुं रूप प्राप्त थई जाय, तो बीजा शरीरथी तो कहेवानुं ज शुं होय? तेथी मनुष्ये बीजी कोई वस्तुनुं चिन्तन न करतां श्रीकृष्णनुं ज चिन्तन करवुं जोईए. हे राजा! आ प्रमाणे में उपर जणावेला गुरुओ पासेथी आटलो उपदेश ग्रहण कर्यो. हवे हुं मारा शरीर पासेथी ज शीख्यो छुं ते तमने बतावुं छुं. तमे सावधान थईने साम्भळो ॥२४॥

आ शरीर पण मारो गुरु ज छे, कारण के ते मने विवेक अने वैराग्य शीखवे छे, मरवुं अने जीववुं ए तो एनी साथे ज जडायेल छे. आ शरीरने वळगी रहेवानुं फल ए छे के एक पछी एक दुःख भोगवता ज जाओ. जो के आ शरीरथी तत्त्वविचार करवामां सहायता मळे छे, तो पण हुं तेने पोतानुं क्यारेय समजतो नथी. हम्मेशां ए ज ख्यालमां हुं रहुं छुं के एक दिवस एने शियाळ, कूतरां के कागडा खाई जशे. तेथी ज तेमां आसक्ति राख्या विना हुं फर्या करुं छुम् ॥२५॥

जीव आ शरीरनुं प्रिय करवामाटे ज अनेक प्रकारनी कामनाओ अने कर्मो करे छे तथा स्त्री-पुत्र, धन-दोलत, हाथी-घोडा, नोकर-चाकर, घरबार, भाई-बधुंओनो विस्तार करतां-करतां तेमना पालन पोषणमां लागी रहे छे. भारे-भारे मुश्केलीओ वेठी धनसञ्चय करे छे. आयुष्य पूरुं थतां ते स्वयं तो नष्ट थाय ज छे, परन्तु वृक्षनी जेम बीजा शरीरने माटे पण बीज वावी दई तेने माटे पण दुःखनी व्यवस्था करतो जाय छे ॥२६॥

जेवी रीते एक ज पुरुषनी घणी पत्नीओ (शोक-सपत्नी) पोताना एक ज पतिने पोत-पोतानी तरफ खेञ्चे छे तेवी ज रीते आ देहने वासनारूपी स्त्रीओ पोत-पोताना विषयने माटे खेञ्चे छे. आ देहने जीभ स्वादिष्ट पदार्थो तरफ, तरस स्वादिष्ट पीणां तरफ, जननेन्द्रिय स्त्री सहवास (मैथुन) तरफ, त्वचा कोमल स्पर्श तरफ, पेट अन्न तरफ, कान मधुर शब्द तरफ, नाक सुन्दर सुगन्ध तरफ अने ञ्चचल नेत्रो सुन्दर रूप जोवाने माटे खेञ्चे छे. आ प्रमाणे कर्मेन्द्रियो अने ज्ञानेन्द्रियो बन्ने तेने सतावती रहे छे. एम देहमां अनेक कष्टो जोई मने एनामां वैराग्य उत्पन्न थयुं छे ॥२७॥

तो पण मनुष्य देह श्रेष्ठ छे केमके भगवाने पोतानी अचिन्त्य शक्ति मायावडे वृक्षो, सरिसृपो (पेटे चालनारां प्राणीओ), पशुओ, पक्षीओ, डांस, माछली वगेरे [[३४७]] अनेक प्रकारना देह उत्पन्न कर्या, परन्तु तेमनाथी तेमने सन्तोष न थयो. त्यारे मनुष्य-शरीरनुं निर्माण कर्युं. तेमां एवी बुद्धि छे के जे ब्रह्मनो साक्षात्कार करी शके छे. तेनी रचना करी भगवान्‌ने बहु आनन्द थयो ॥२८॥

जो के आ मनुष्य-शरीर अनित्य ज छे. मृत्यु सदा एनी पाछळ पड्युं ज छे, परन्तु तेनाथी परम पुरुषार्थनी प्राप्ति थई शके छे; तेथी अनेक जन्मो पछी आ अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करीने बुद्धिमान्‌ पुरुषे जलदीमां जलदी, मृत्यु पहेलां ज, मोक्ष प्राप्तिनो प्रयत्न करी लेवो. आ जीवननो मुख्य उद्‌देश मोक्ष ज छे. विषय भोग तो बाकीनी बधी योनिओमां पण प्राप्त थई शके छे तेथी तेमनो सङ्ग्रह करवामां आ अमूल्य जीवन वेडफी नाखवुं जोईए नर्ही ॥२९॥

हे राजा! आ बधुं विचारतां मने संसार उपरथी वैराग्य थई गयो. मारा हृदयमां ज्ञान-विज्ञाननी जोत झगमगती रहे छे तेथी आसक्ति अने अहङ्कार ने छोडीने हुं आ पृथ्वी उपर स्वच्छन्दरूपथी फर्या करुं छुम् ॥३०॥

हे राजा! एकला गुरु पासेथी ज यथेष्ट अने सुदृढ बोध थतो नथी तेने माटे पोतानी बुद्धिथी पण आगळ-पाछळ खूब विचारीने समजवानी जरूर छे. जुओ! ऋषिओए एक अद्वितीय ब्रह्मनुं अनेक प्रकारे गान कर्युं छे. (जो तमे जाते विचार करी निर्णय करो तो ब्रह्मना वास्तविक स्वरूपने केवी रीते समजी शक्शो?) ॥३१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! गम्भीर बुद्धिवाळा अवधूत दत्तात्रेय राजा यदुने आ प्रमाणे उपदेश आप्यो. राजा यदुए पूजा कर्या बाद तेमने प्रणाम कर्या. दत्तात्रेयजी एमनी अनुमति लई प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार पधारी गया ॥३२॥

अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ॥ सर्वसङ्गविनिर्मुकतः समचित्तो बभूव ह ॥३३॥

अमारा पूर्वजोना पण पूर्वज राजा यदुए अवधूतनी आ वात साम्भळी (धन, पुत्र, शीत, उष्ण, स्वर्ग, मोक्ष, नरक, शत्रु, मित्र वगेरेमां उदासीन) समचित्त थई, समस्त आसक्तिओनो परित्याग करी दीधो. (समचित्तनो एक भाव छे-समे भगवत्येव चित्तं यस्य ‘सम’ मां ‘सम’, सौथी ‘सम’ भगवान्‌ छे. तेमनामां जेनुं चित्त लागी गयुं छे ते ‘समचित्तः’ सत्सङ्गनुं केवुं अद्‌भुत माहात्म्य छे ते [[३४८]] जणाववा श्लोकमां छेल्लो आश्चर्यचसूचक शब्द ‘ह’ मूकयो छे) ॥३३॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुकित प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो चोथो अने चालु) ‘‘अवधुतना बोधथी यदु कृतार्थ थया’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ब्रह्मसम्बन्ध लेनाराओ! सावधना! पाळी शको तो ज लो! ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा लीधा बाद असमर्पित खान-पान वगेरेनो त्याग न करनारनुं ब्रह्मसम्बन्ध फोक थई जाय छे (सिद्धान्तरहस्य) असमर्पित खानारा ‘असिपत्र’ नामना नरकमां जाय छे. (श्रीहरिरायचरण)

अध्याय १०

जीवने देहादिना अध्यासथी संसार थाय छे

विशेष - चोवीस गुरुनी वात करवाथी उद्धवजीने आत्मतत्त्वने जाणवानी योग्यता थतां हवे एनां साधनोने कहेशे. तेमां देहसम्बन्धथी-देहाध्यासथी आत्माने संसार थाय छे ए वात आ दसमा अध्यायमां कहे छे. मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः ॥ वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्‌ ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! साधक हरेक प्रकारे मारे शरणे रही (गीता, पञ्चरात्र वगेरेमां) में उपदेश करेला पोताना धर्मोनुं सावधानीथी पालन करे. साथे-साथे एमनी साथे विरोध न आवे तेम निष्काम भावथी पोताना वर्ण, आश्रम अने कुल अनुसार सदाचारनुं पण पालन करे ॥१॥

विषयी पुरुषो देहादिना विषयोने सत्य मानी जे-जे कर्मो करे छे तेमां एमणे सुखादिनी धारणा राखी होय ते सिद्ध न थतां एने बदले दुःख थाय छे ए वातनो शुद्ध चित्त राखी विचार करे तो एनी कामना निवृत्त थाय छे ॥२॥

आ बाबतमां एवो विचार करवो जोईए के स्वप्न अवस्थामां अने मनोरथ करती वखते जागृत अवस्थामां पण मनुष्य मनोमन अनेक प्रकारना विषयोनो अनुभव करे छे, परन्तुं तेनी ते बधी ज कल्पना वस्तु शून्य होवाथी व्यर्थ छे. तेवी

ईं उं ईं उं

[[३४९]] ज रीते इन्द्रियोद्वारा थती भेदबुद्धि पण व्यर्थ ज छे, कारण के ए पण इन्द्रियजन्य अने विविध वस्तुविषयक होवाथी पूर्ववत्‌ असत्य ज छे ॥३॥

जे पुरुष मत्परायण छे, विषयोने परायण नर्ही विषयो भगवान्‌ने भुलावनारा छे एम समजी जे मारे ज शरणे आवेलो छे तेणे अन्तर्मुख करनारां निष्काम अथवा नित्यकर्म ज करवां जोईए. जे बहिर्मुख बनावनारां छे अने जे सकाम छे तेवां कर्मोनो बिलकुल त्याग करी देवो जोईए. ज्यारे आत्मज्ञाननी उत्कट इच्छा जागी उठे त्यारे तो कर्म सम्बन्धी विधि-विधानोनो पण आदर न करवो जोईए ॥४॥

अहिंसा, सत्य, अस्तेय वगेरे बार धर्मोनुं तो आदरपूर्वक सेवन करवुं जोईए परन्तु शौच, जप, तप वगेरे बार नियमोनुं पालन शक्ति प्रमाणे अने आत्मज्ञाननो विरोध न थाय ए रीते करवुं जोईए. जिज्ञासु पुरुषने माटे यम अने *नियम ना पालनथी पण वधारे अगत्यनी वात ए छे के मारा स्वरूपने जाणनारा, शान्त अने मारामां निष्ठावाळा पोताना गुरुने मारुं ज स्वरूप समजीने तेमनी सेवा करे ॥५॥

विशेष - बार यम अने बार नियम माटे श्रीभागवत स्कन्ध ११ अध्याय-१९-श्लोक ३३ अने ३४ वाञ्चवा विनन्ति छे. शिष्य अभिमान न करे, कोईनुं भूण्डुं न इच्छे, दरेक कार्यमां कुशळ होय-आळस न करे. क्यांय ममता न राखे, गुरुना चरणोमां दृढ अनुराग होय. दरेक काम अव्यग्रतापूर्वक सावधानीथी करे. परमार्थ सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करवानी इच्छा राख्या करे. कोईना गुणदोष न जुए अने व्यर्थ वातो न करे ॥६॥

जिज्ञासुनुं परम धन आत्मा छे तेथी ते स्त्री-पुत्र, घर-क्षेत्र-जमीन, स्वजन अने धन वगेरे सम्पूर्ण पदार्थोमां एक समान आत्माने देखे अने कोईमां कंई

विशेषतानो आरोप करी तेमां ममता न राखे, उदासीन रहे ॥७॥

हे उद्धव! जेवी रीते बळता काष्ठथी तेने बाळनार अने प्रकाशित करनार अग्नि सर्वथा अलग छे तेवी ज रीते विचार करतां जणाय छे के पञ्चभूतोनुं बनेलुं स्थूल शरीर अने मन-बुद्धि वगेरे सत्तर तत्त्वोनुं बनेलुं सूक्ष्म शरीर बन्नेय दृश्य अने जड छे. तेमने जाणनार अने प्रकाशित करनार आत्मा साक्षी अने स्वयं प्रकाश छे. शरीर अनित्य अनेक तेम ज जड छे. आत्मा नित्य एक एवं चेतन छे. आ [[३५०]] प्रमाणे देहथी आत्मामां महान विलक्षणता छे. तेथी देहथी आत्मा जुदो छे ॥८॥

ज्यारे अग्नि काष्ठमां प्रज्वलित थाय छे, त्यारे काष्ठनां उत्पत्ति, विनाश, मोटा के नानापणुं अने अनेकता वगेरे बधा गुण ते पोते ग्रहण करी ले छे. परन्तुं साचुं पूछो तो काष्ठना ते गुणोनी साथे अग्निनो कोई सम्बन्ध नथी. तेवी ज रीते आत्मा पोतानो शरीर मानी ले छे त्यारे ते देहनी जडता, अनित्यता, स्थूलता अनेकता वगेरे गुणोथी सर्वथा रहित होवा छतां ते गुणोवाळो जणाय छे ॥९॥

ईश्वरद्वारा नियन्त्रित मायाना गुणोए ज सूक्ष्म अने स्थूल शरीरनुं निर्माण कर्युं छे. जीवने शरीर अने शरीरने जीव समजी लेवाथी ज स्थूल शरीरनां जन्ममरण अने सूक्ष्म शरीरना आवागमननो आत्मामां आरोप करवामां आवे छे. जीवने जन्म-मृत्युरूप संसार आ ज भ्रम अथवा अध्यासने लीधे प्राप्त थाय छे. आत्माना स्वरूपनुं ज्ञान प्राप्त थतां तेनी जड कपाई जाय छे ॥१०॥

हे उद्धव! आ जन्म-मृत्युरूप संसारनुं बीजुं कोई कारण नथी, केवल अज्ञान ज मूल कारण छे. तेथी पोताना वास्तविक स्वरूपने, आत्माने जाणवानी इच्छा करवी जोईए. पोतानुं आ वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति अने प्राकृत जगतथी अतीत, द्वैतनी गन्धथी रहित एवं पोतानामां ज स्थित छे. तेनो बीजो कोई आधार नथी. तेने जाणी लई धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदिमां साचा होवानी बुद्धि थई रही छे ते क्रमे-क्रमे मटाडी देवी जोईए ॥११॥

(यज्ञमां ज्यारे अरणि-मन्थन करी अग्नि उत्पन्न करे छे त्यारे तेमां उपर- नीचे बे अरणिनां काष्ठ रहे छे अने वचमां मन्थन काष्ठ रहे छे. तेवी ज रीते) विद्यारूप अग्निनी उत्पत्तिने माटे शिष्य उपरनी अरणि अने आचार्य नीचेनी अरणि छे अने उपदेश मन्थन काष्ठ छे. आथी जे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित थाय छे ते विलक्षण सुख देनारो छे. आ यज्ञमां बुद्धिमान्‌ शिष्य सद्‌गुरुद्वारा जे अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करे छे ते गुणोथी बनेली विषयोनी मायाने भस्म करी दे छे. त्यारबाद जेनाथी आ संसार बन्यो छे ते गुणो पण भस्म थई जाय छे. आ प्रमाणे बधुं भस्म थई जतां ज्यारे आत्मा सिवाय कोई चीज ज बाकी रहेती नथी त्यारे ते ज्ञानरूपी अग्नि पण जेवी रीते इन्धन न रहेवाथी आग ओलवाई जाय छे तेवी ज रीते पोताना वास्तविक स्वरूपमां शान्त थई जाय छे ॥१२-१३॥

हे प्रिय उद्धव! जो तमे कदाच कर्मोना कर्ता सुख-दुःखोना भोक्ता जीवोने अनेक [[३५१]] मानता हो, तथा जगत, काल, वेद अने आत्माओने नित्य मानता हो, साथे-साथे समस्त पदार्थोनी स्थिति प्रवाहथी नित्य अने यथार्थ स्वीकार करता हो तथा एम समजता हो के घट-पट आदि बाह्य आकृतिओना भेदथी तेने अनुसार ज्ञान ज उत्पन्न थाय छे अने बदलातुं रहे छे तो एम मानवाथी भारे अनर्थ ऊभो थशे. (कारण के आ प्रमाणे जगतना कर्ता आत्मानी नित्य सत्ता अने जन्म-मृत्युना चक्करमान्थी मुक्ति पण सिद्ध नहि थई शके) जो कदाचित एवो स्वीकार पण करी लेवामां आवे तो देह अने संवत्सरादि कालना अवयवोना सम्बन्धथी थनारी जीवोनी जन्म-मरण वगेरे अवस्थाओ पण नित्य होवाने लीधे दूर नहि थई शके कारण के तमे देह वगेरे पदार्थ अने कालनी नित्यता स्वीकारो छो. ए सिवाय अर्ही पण कर्मोना कर्ता तथा सुख-दुःखना भोकता जीव परतन्त्र ज देखाय छे. जो ते स्वतन्त्र होय तो दुःखनुं फल भोगववानुं स्वीकारे ज शा माटे? आ प्रकारे सुखभोगनी समस्या उकली जवा छतां दुःखभोगनी समस्या तो अणऊकली ज रहेशे. तेथी आ मत प्रमाणे जीवने कयारेय मुक्ति के स्वतन्त्रता प्राप्त नहि थई शके. ज्यारे जीव स्वरूपथी परतन्त्र छे, विवश छे, त्यारे तो स्वार्थ या परमार्थ कोई पण तेनुं सेवन नहि करे, अर्थात्‌ स्वार्थ अने परमार्थ बन्नेथी ते वञ्चित ज रही जशे ॥१४-१७॥

(जो एम कहेवामां आवे के सारी रीते कर्म करवानुं जे जाणे छे ते सुखी रहे छे अने जे नथी जाणता तेमने दुःख भोगववुं पडे छे तो एम कहेवुं पण बराबर नथी; कारण के) एवुं जोवामां आवे छे के मोटा-मोटा कर्मकुशल विद्वानोने पण कंईक सुख मळतुं नथी अने मूढ लोकोने पण कयारेक दुःख पडतुं नथी. तेथी जे लोको पोतानी बुद्धि के कर्म थी सुख मेळववानो घमण्ड करे छे तेमनुं आ अभिमान व्यर्थ छे ॥१८॥

जो एम मानी लेवामां आवे के लोको सुखनी प्राप्ति अने दुःखना नाशनो साचो उपाय जाणे छे तो पण एम तो मानवुं ज पडशे के तेमने पण एवा उपायनी जाणकारी नथी जेथी मृत्यु तेमना उपर कोई प्रभाव न पाडी शके अने ते कदी मरे ज नहि ॥१९॥

ज्यारे मृत्यु तेमना माथा पर चडी बेठेलुं ज छे त्यारे एवी कई भोग-सामग्री के भोग-कामना छे जे तेमने सुखी करी शके? जे मनुष्यने फांसी पर लटकाववामाटे [[३५२]] फांसीने माञ्चडे लई जवामां आवी रह्यो होय तेने फूल, चन्दन, मिष्टान्न, स्त्री वगेरे पदार्थो गमे खरा? कदापि नहि. (तेथी उपरोक्त मत माननाराओनी दृष्टिथी न तो सुख सिद्ध थई शकशे अने न तो जीवे प्राप्त करवानो कोई पुरुषार्थ ज रहेशे) ॥२०॥

हे उद्धव! आ लोकना सुखनी जेम परलोक स्वर्ग वगेरेमां सुख पण दोष युक्त ज छे, कारण के त्यां पण समाननी साथे हरिफाई, वधारे सुखी प्रत्ये ईर्ष्या होय छे. तेथी तेमना गुणोमां दोष जोवामां आवे छे अने नानाओ प्रत्ये घृणा होय छे. दररोज पुण्य क्षीण थतुं रहेतुं होवाथी त्यान्नां सुखो पण क्षयनी निकट पहोञ्चतां रहे छे अने एक दिवस नष्ट थई जाय छे. त्यान्नी कामना पूर्ण थवामां पण यजमान, ऋत्त्विज अने कर्म आदिनी त्रुटिने लीधे विघ्नोनी सम्भावना रहेती होय छे. जेवी रीते लीलीछम खेती पण अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिम, तीड वगेरेने लीधे नष्ट थई जाय छे तेवी ज रीते स्वर्ग पण प्राप्त थतां-थतां विघ्नोने लीधे हाथमान्थी सरकी जाय छे ॥२१॥

जो कोई पण विघ्न विना यज्ञयागादि धर्म साङ्गो-पाङ्ग पूर्ण थई पण जाय तो ते द्वारा जे स्वर्गादि लोक मळे छे तेमनी प्राप्तिनो प्रकार हुं बतावुं छुं ते साम्भळो ॥२२॥

यज्ञ करनारो पुरुष यज्ञोद्वारा देवताओनी आराधना करी स्वर्गे जाय छे अने त्यां पोतानां पुण्य कर्मोद्वारा प्राप्त दिव्य भोगो देवताओनी जेम भोगवे छे ॥२३॥

तेने तेनां पुण्यो प्रमाणे एक सुन्दर चमक्तुं विमान मळे छे अने तेमां बेसी सुर सुन्दरीओनी साथे विहार करे छे. गन्धर्वगण तेना गुणोनुं गान करे छे अने तेनुं रूप-लावण्य जोई बीजाओनां मन लोभाई जाय छे ॥२४॥

तेनुं विमान ते ज्यां लई जवा धारे त्यां जाय छे अने तेना उपरनी घण्टडीओ दिशाओने गुञ्जारवथी भरी दे छे. ते अप्सराओनी साथे नन्दनवन वगेरे देवताओनां विहारस्थानोमां क्रीडा करतो-करतो एटलो बधो बेध्यान बनी जाय छे के तेने ए वातनुं स्मरण रहेतुं नथी के हवे मारां पुण्य पूर्ण थवानी तैयारी छे अने पछी मारुं अर्हीथी पतन थशे ॥२५॥

ज्यां सुधी तेना पुण्य बाकी होय छे त्यां सुधी तो ते स्वर्गमां आनन्द करे छे [[३५३]] परन्तु पुण्य पूरां थतां ज इच्छा न होवा छतां तेने नीचे पडवुं पडे छे, कारण के कालनी गति ज एवी छे ॥२६॥

जो कोई मनुष्य दुष्टोनी सोबतमां पडी जई अधर्म परायण थई जाय, इन्द्रियोनो गुलाम बनी जई मन मान्युं करवा लागे, लोभवश कृपणता करे, लम्पट थई जाय, प्राणीओने सताववा लागे अने विधि विरुद्ध पशुओनुं बलिदान आपी भूत अने प्रेतो नी उपासनामां लागी जाय, तो ते पशुओथी पण वधारे खराब बनी जाय छे अने अवश्य नरकमां जाय छे. तेने अन्तमां घोर अन्धकार, स्वार्थ अने परमार्थ रहित अज्ञानमां ज भटकवुं पडे छे ॥२७-२८॥

जेटलां-जेटलां सकाम अने बहिर्मुख करवावाळां कर्म छे तेमनुं फल दुःख ज छे. जे जीव शरीरमां अहन्ता-ममता करी तेमां ज लाग्यो रहे छे तेनां तो जन्म पछी मृत्यु अने मृत्यु पछी जन्म ज वारंवार थतां रहे छे. आ स्थितिमां मृत्युधर्मा जीवने शुं सुख मळी शके? ॥२९॥

बधा लोक अने लोकपालोनुं आयुष्य पण मात्र एक *क्ल्प छे तेथी तेओ माराथी भयभीत रहे छे. बीजानी तो वात ज शी, स्वयं ब्रह्माजी पण माराथी डरता रहे छे, कारण के तेमनुं आयुष्य पण कालथी सीमित-केवल बे परार्ध वर्ष छे ॥३०॥

विशेष - कल्प=एक हजार चतुर्युगी अथवा चोकडी. एक चोकडी=४३,२०,००० आपणा वर्ष. ब्रह्माजीनो एक दिवस ते ज ‘कल्प’. कल्प=४३२ करोड वर्षो. स्कन्ध ३ अध्याय ११ वाञ्चवा विनन्ति. (भाग-१) सत्त्व, रज अने तम आ त्रणेय गुण इन्द्रियोने तेमनां कर्मोमां प्रेरित करे छे अने इन्द्रियो कर्म करे छे. जीव अज्ञान वश सत्त्व, रज आदि गुणो अने इन्द्रियोने पोतानुं स्वरूप मानी बेसे छे अने तेमणे करेलां कर्मोनां फल सुख-दुःख भोगववा लागे छे ॥३१॥

ज्यां सुधी गुणोनी विषमता छे अर्थात्‌ शरीर वगेरेमां हुं अने मारापणानुं अभिमान छे त्यां सुधी ज आत्माना एक्त्वनी अनुभूति थती नथी ते अनेक जणाय छे अने ज्यां सुधी आत्मानी अनेक्ता छे त्यां सुधी तो तेणे काल अथवा कर्म कोईने अने कोईने अधीन रहेवुं ज पडशे ॥३२॥

ज्यां सुधी कर्माधीनपणारूपी परतन्त्रता छे त्यां सुधी कालरूप ईश्वरनो भय [[३५४]] ऊभो ज छे. ‘हुं’ अने ‘मारुं’ ना भावथी जकडायेला जीव आत्मानी अनेक्ता, परतन्त्रता वगेरे माने छे अने वैराग्य ग्रहण न करतां बहिर्मुख करनारां कर्मोनुं ज सेवन करतां रहे छे. तेमने शोक अने मोह ने लीधे क्लेश प्राप्त थाय छे ॥३३॥

हे प्रिय उद्धव! ज्यारे मायाना गुणोमां क्षोभ थाय छे त्यारे आत्मानुं ज काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव अने धर्म वगेरे अनेक नामोथी निरूपण करवामां आवे छे ॥३४॥

उद्धवजीए पूछयुं - हे भगवन्‌! आ जीव देह वगेरे रूप गुणोमां ज वसी रह्यो छे पछी देहथी थनारां कर्मो के सुख-दुःख वगेरे रूप फलोमां केम बन्धातो नथी? अथवा आ आत्मा गुणोथी निर्लिप्त छे, देह वगेरेना सम्पर्कथी सर्वथा रहित छे तो पछी तेने बन्धन केम थाय छे? ॥३५॥

बद्ध अथवा मुकत पुरुष केवो वर्ताव करे छे ते केवी रीते विहार करे छे अथवा ते कयां लक्षणोथी ओळखी शकाय छे? ते केवी रीते भोजन करे छे अने मलत्याग वगेरे केवी रीते करे छे? ते केवी रीते शयन करे छे, बेसे छे अने चाले छे? ॥३६॥

एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ॥ नित्यमुकतो नित्यबद्धः एक एवेति मे भ्रमः ॥३७॥

हे अच्युत! प्रश्ननो मर्म जाणनाराओमां आप श्रेष्ठ छो तेथी आप मारा आ प्रश्ननो कृपा करीने उत्तर आपो एक ज आत्मा अनादि गुणोना संसर्गथी नित्य बद्ध पण जणाय छे अने असङ्ग होवाने लीधे नित्य मुकत पण जणाय छे. आ विषयमां मने भ्रम थई रह्यो छे ॥३७॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो पाञ्चमो अने चालु) ‘‘जीवने देहादिना अध्यासथी संसार थाय छे’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय ११

बद्ध-मुक्त जीव, भक्त तथा भक्ति नां लक्षणो

विशेष - आ अध्यायमां बद्ध तथा मुक्त जीवोनां, भक्तनां अने भक्तिनां लक्षणो [[३५५]] कहेवामां आवे छे. बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ॥ गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम्‌ ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! आत्मा बद्ध छे के मुकत छे ए प्रकारनी व्याख्या या व्यवहार मारे अधीन रहेनारा सत्त्व वगेरे गुणोनी उपाधिथी ज थाय छे, खरेखर तत्त्व दृष्टिथी नहि. बधा गुण मायाथी उत्पन्न थयेल छे. हुं मायानो नियन्ता छुं. मारामां बद्ध मुकतपणुं सम्भवतुं नथी तेथी हुं बन्धातो नथी तेम हुं मुकत पण थतो नथी ॥१॥

जेवी रीते स्वप्न बुद्धिनो विवर्त छे-तेमां न होवा छतां भासे छे-मिथ्या छे तेवी ज रीते शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीरनी उत्पत्ति अने मृत्यु-आ बधो संसार माया(अविद्या) ने लीधे प्रतीत होवा छतां, अनुभवातो होवा छतां वास्तविक नथी ॥२॥

हे उद्धव! शरीरधारीओने मुक्तिनो अनुभव करावनारी आत्मविद्या अने बन्धननो अनुभव करावनारी अविद्या आ बन्नेय मारी अनादि शक्तिओ छे. मारी मायाथी ज एमनी रचना थई छे. एमनुं कोई वास्तविक अस्तित्व नथी ॥३॥

हे महाबुद्धिशाळी! तमे विचार तो करो-जीव तो एक ज छे. ते व्यवहारने माटे ज मारा अंशना रूपमां कल्पी लेवामां आव्यो छे, खरेखर तो ते मारुं स्वरूप ज छे. आत्मज्ञानथी सम्पन्न होय त्यारे तेने ‘मुकत’ कहे छे अने आत्मानुं ज्ञान न होवाथी तेने ‘बद्ध’ कहे छे. आ अज्ञान अनादि होवाथी बन्धन पण ‘अनादि’ कहेवाय छे ॥४॥

आ प्रमाणे मारा एक ज धर्मीमां रहेवा छतां जे शोक अने आनन्दरूप विरुद्ध धर्मवाळा जणाय छे ते बद्ध अने मुक्त जीवनो भेद हुं बतावुं छुम् ॥५॥

(ए वैलक्षण्य ‘‘द्वा सुपर्णा’’ श्रुतिमां वृक्ष उपर बेठेला पक्षीनी साथे सरखावतां कहे छे के ते भेद बे प्रकारनो छे एक तो नित्यमुकत ईश्वरथी जीवनो भेद अने बीजो मुकत बद्ध जीवनो भेद. पहेलो साम्भळो) जीव अने ईश्वर बद्ध अने मुक्त ना भेदथी भिन्न- भिन्न होवा छतां एक ज शरीरमां नियन्त्रित अने नियामक ना रूपथी रहे छे. एम समजो के शरीर एक वृक्ष छे तेमां हृदयनो माळो बनावी चेतन होवाने लीधे समान छे अने कयारेय छूटा न पडवाने कारणे सखा छे. तेमना निवास करवानुं कारण मात्र [[३५६]] लीला छे. आटली समानता होवा छतां जीव तो शरीररूप वृक्षनां फल सुख-दुःख आदि भोगवे छे, परन्तु ईश्वर ते नहि भोगवतां कर्मफल सुख-दुःख वगेरेथी असङ्ग (अनासकत) अने तेमना साक्षी मात्र रहे छे. भोकता न होवा छतां पण ईश्वरनी ए विलक्षणता छे के ते ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द अने सामर्थ्य वगेरेमां जीव करतां अधिक छे ॥६॥

साथे-साथे बीजी पण एक विलक्षणता छे के अभोक्ता ईश्वर तो पोताना वास्तविक स्वरूप अने ते सिवायना जगतने पण जाणे छे, परन्तुं भोक्ता जीव पोताना वास्तविक स्वरूप के पोताना सिवायना जगतने पण जाणतो नथी. आ बन्नेमां जीव तो अविद्यावाळो होवाथी नित्य बद्ध छे अने ईश्वर विद्यास्वरूप होवाथी नित्य मुकत छे ॥७॥

(हवे दश श्लोकथी बद्ध अने मुकत जीवोना परस्पर वैलक्षण्यने बतावे छे) जेम स्वप्नमान्थी जागेलो माणस देहमां रहे छे छतां ए देहमां नथी केमके ए जीवनमुकत छे ए संस्कारवशात्‌ देहमां रहे छे पण ए देहना अने आत्माना स्वरूपने जाणे छे माटे ए देहमां होवा छतां तेमां नथी. वळी जेम स्वपनावस्थावाळो ते-ते स्वपन देहमां नथी छतां हुं ते-ते रूपे छुं एम माने छे तेम अज्ञानी पुरुष देह वगेरेमां आत्माना भ्रमथी तन्निमित्त सुख-दुःख वगेरेनो भोक्ता थाय छे ॥८॥

(हवे त्रण श्लोकोथी, आगला अध्यायना छत्रीसमा (११.१०.३६) श्लोकमां ‘‘कथं वर्तेत?’’ बद्ध अथवा मुकत जीव केवो वर्ताव करे छे? एम प्रश्न करवामां आवेलो तेनो उत्तर भगवान्‌ आपे छे) व्यवहारमां इन्द्रियो शब्द-स्पर्श वगेरे विषयोने ग्रहण करे छे कारण के ए तो नियम ज छे के गुण ज गुणने ग्रहण करे छे, आत्मा नहि. तेथी जेणे पोताना निर्विकार-रागद्वेष, हर्षशोक वगेरेथी तेमज अस्वीकारमां कोई पण प्रकारनुं अभिमान करतो नथी. (आ वात गीतामां तत्त्ववित्तु इत्यादिथी कही छे) ॥९॥

आ शरीर प्रारब्धने अधीन छे. तेनाथी शारीरिक अने मानसिक जेटलां पण कर्म थाय छे ते बधां गुणोनी प्रेरणाथी ज थाय छे. अज्ञानी पुरुष खोटी रीते पोताने ते ग्रहण-त्याग वगेरे कर्मोनो कर्ता मानी बेसे छे अने आ ज अभिमानने लीधे ते बन्धाई जाय छे ॥१०॥

(आ वात भगवद्गीताजीमां ‘‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’’ इत्यादि श्लोकोथी स्पष्ट करी छे. केम [[३५७]] वर्ते छे? तेनो उत्तर आप्यो. हवे ‘‘किं भुजीत’’ केवी रीते खाय छे? तेनो उत्तर आपे छे) हे भाई उद्धव! उपर कह्या प्रमाणे विचार करी विवेकी पुरुष समस्त विषयोथी विरक्त थई जाय छे अने सूवुं-बेसवुं, फरवुं, नहावुं, जोवुं, स्पर्श करवो, सूङ्घवुं, खावुं अने साम्भळवुं वगेरे क्रियाओमां पोताने कर्ता मानतो नथी पण गुणोने ज कर्ता माने छे. गुण ज बधां कर्मोना कर्ता-भोक्ता छे एम समजी विद्वान पुरुष कर्मवासना अने फलोमां बन्धातो नथी. ते प्रकृति (देह) मां रहेवा छतां जेवी रीते आकाश स्पर्श वगेरेथी सूर्य जलनी भीनाशथी अने वायु गन्ध वगेरेथी असङ्ग रहे छे तेवी ज रीते ते असङ्ग (उदासीन, निर्विकार) रहे छे. तेनी विमल बुद्धिनी तलवार असङ्गभावनानी सराणथी वधारे धारदार थई जाय छे अने ते तेनाथी पोताना तमाम संशय-सन्देहोने छेदी नाखी फेङ्की दे छे. जेवी रीते कोई स्वपनमान्थी जागी ऊठ्यो होय तेम ते आ भेदबुद्धिना भ्रमथी मुकत थई जाय छे ॥११ थी १३॥

(केवां लक्षणोथी एने ओळखवो तेनो उत्तर त्रण श्लोकोथी कहे छे के) जेना प्राण, इन्द्रिय, मन अने बुद्धि नी बधी चेष्टाओ के व्यापारो सङ्कल्प विना ज थाय छे, आ खावुं छे, आ जोवुं छे, आ मेळववुं छे, आ नथी मेळववुं वगेरे सङ्कल्प रहित होय ते देहमां स्थित होय छतां (नाळियेरनी काचली अन्दरना टोपराथी अलग पडी जाय छे तेवी रीते) तेना गुणो (जन्म, नाश वगेरे) थी मुकत छे ॥१४॥

ते तत्त्वज्ञ मुकत पुरुषना देहने हिंसक लोको पीडा करेके कोई दैवयोगथी तेनी पूजा करवा लागे, ते कोईना सताववा के पीडवा थी दुःखी, के कोईना पूजवाथी प्रसन्न थतो नथी ॥१५॥

जे समदर्शी महात्मा पुरुष गुण अने दोष नी भेद दृष्टिथी पर थई गयो छे ते सारां काम करनारनी स्तुति के बूरां काम करनारनी निन्दा करतो नथी. कोईना गुण दोषने ग्रहण न करतां समता राखे छे ॥१६॥

जीवन्मुकत पुरुष कंई भलुं के बूरुं काम करतो नथी अथवा कंई भलुं के बूरुं कहेतो के विचारतो पण नथी. ते व्यवहारमां पोतानी वृत्ति समान राखी आत्मानन्दमां ज मग्न रहे छे अने जडनी जेम जाणे के कोई मूर्ख होय ते प्रमाणे फरतो रहे छे ॥१७॥

(आ बधां मुमुक्षुनां साधनो जाणवां. जे आचरणहीन पोतानी पण्डिताईना अभिमानवाळो छे तेनी निन्दा करे छे के) हे प्रिय उद्धव! जे पुरुष वेदोमां पारङ्गत [[३५८]] विद्वान होय परन्तु परब्रह्मना ध्यान, भक्ति वगेरे करवामां कुशल न होय तेना परिश्रमनुं कोई फल नथी. ते तो वसूकी गयेली अथवा वाञ्झणी गायने पाळनारना जेवो छे ॥१८॥

दूध न देनारी गाय, व्यभिचारिणी, स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र मळी आववा छतां दानमां नहि आपेलुं धन अने मारा गुणगान जेमां नथी तेवी वाणी व्यर्थ छे. आ वस्तुओनी रखवाळी करनारो एक पछी एक दुःख ज भोगवतो रहे छे ॥१९॥

तेथी हे उद्धव! जे वाणीमां जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयरूप मारी लोकपावन लीलानुं वर्णन न होय अने लीला-अवतारोमां पण लोकप्रिय राम-कृष्ण वगेरे अवतारोनुं यशोगान अने एमां करेलां पवित्र करनार कर्मो वगेर न होय तेवी वन्ध्या-वाञ्झणी वाणीनुं उच्चारण के श्रवण मारा धीर भकते करवुं जोईए नहि ॥२०॥

(ज्ञानमार्गनो उपसंहार करतां कहे छे) उपर कहेवामां आव्युं ते प्रमाणे आत्मजिज्ञासा अने विचार द्वारा आत्मामां अनेकताना भ्रम (देव, मनुष्य आदि देहाध्यास) ने दूर करी सर्वव्यापी परमात्मा एवा मारामां पोतानुं निर्मल मन लगावी दे अने संसारना व्यवहारोथी उपराम (निवृत्त) थई जाय. (संसारना व्यवहारोथी एटले कर्मोना अनुष्ठान, शास्त्रोनो अभ्यास वगेरेथी निवृत्त थाय पण ते भगवान्‌मां मन स्थिर थया पछीनी व्यवस्था छे ते पहेलान्नी नहि) ॥२१॥

(एनी ज स्पष्टता करे छे के) जो तमे तमारुं मन परब्रह्ममां स्थिर न करी शको तो फलनी कामना छोडी दई निरपेक्ष थई बधां (वर्णाश्रम-विहित) कर्मो मारे माटे ज करो ॥२२॥

(आम मारे निमित्ते ज कर्मो करवाथी तमारुं मन विशुद्ध थई जशे अने श्रवणादि भकितद्वारा परम पदनी प्राप्तिरूप फल प्राप्त थशे ते कहे छे) मारी कथाओ समस्त लोकोने पवित्र करनारी अने कल्याणस्वरूप छे. श्रद्धापूर्वक ते साम्भळवी जोईए. मारा अवतार अने लीलाओ नुं गान, स्मरण अने अभिनय फरी-फरीने करवां जोईए ॥२३॥

मारे आश्रित रही मारे ज माटे धर्म, काम अने अर्थ नुं सेवन करवुं जोईए. आम जे करे छे ते, हे प्रिय उद्धव! मारी प्रेममयी निश्चल भक्ति प्राप्त करे छे. [[३५९]] (‘काम’ नुं भगवदर्थे सेवन एटले भगवत्प्रसादी माळा, सुगन्ध, वस्त्रो, अलङ्कार वगेरेनो उपयोग. ‘अर्थ’ नुं भगवदर्थे सेवन एटले प्रभु सेवा सारी रीते थई शके एटला माटे धन कमावुं) ॥२४॥

भक्तिनी प्राप्ति सत्सङ्गथी थाय छे. जेने मारी भकित प्राप्त थई जाय छे ते (ध्यान परायण थई) मारी उपासना करे छे अने मारा सान्निध्यनो अनुभव करे छे. पछी सन्त पुरुषोना उपदेश अनुसार तेमणे बतावेल मारा परम पद (मारा स्थान अने स्वरूप) ने सहजमां प्राप्त थई जाय छे ॥२५॥

उद्धवजीए पूछयुं - हे प्रभो! मोटा-मोटा भक्तो आपनी कीर्तिनुं गान करे छे. कृपा करीने आप बतावो के आपनी दृष्टिथी भक्तनां लक्षण कयां छे? भक्तो जेनो आदर करे छे ते आपनी भक्ति केवी होय? ॥२६॥

हे भगवन्‌! आप ज ब्रह्माजी आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक अने चराचर जगतना स्वामी छो. हुं आपनो विनीत, प्रेमी अने शरणागत भकत छुं. आप मने भक्ति अने भकत नुं रहस्य बतावो ॥२७॥

हे भगवन्‌! हुं जाणुं छुं के आप प्रकृतिना पण नियामक पूर्ण पुरुषोत्तम छो, आकाशनी माफक असङ्ग छो, छतां भकतोनी इच्छाने मान आपी श्रीअङ्गने धारण करी अवतार लीधो छे तेथी वास्तवमां आप ज भक्ति अने भक्त नुं रहस्य बतावी शको तेम छो ॥२८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - (भक्तनां त्रीस लक्षण कहे छे) हे प्रिय उद्धव! मारो भक्त कृपानी मूर्ति होय छे. ते कोई पण प्राणी प्रत्ये वेरभाव राखतो नथी अने मोटामां मोटा दुःखो पण ते प्रसन्नतापूर्वक सहन करे छे. तेना जीवनना सार सत्य छे अने तेना मनमां कोई प्रकारनी पापवासना कदी पण आवती नथी. ते समदर्शी अने बधानुं भलुं करवावाळो होय छे ॥२९॥

तेनी बुद्धि कामनाओथी क्लुषित थती नथी. ते संयमी, कोमल चित्तवाळो अने (स्नान वगेरेथी बहारथी अने भगवत्स्मरण वगेरे द्वारा अन्दरथी) पवित्र होय छे. सङ्ग्रह परिग्रहथी दूर रहे छे. कोई पण वस्तुमाटे ते कोई चेष्टा करतो नथी. परिमित भोजन करे छे अने शान्त रहे छे. तेनी बुद्धि स्थिर होय छे. तेने एक मात्र मारो ज भरोसो-आश्रय होय छे अने आत्मतत्त्वना चिन्तनमां सदा संलग्न रहे छे ॥३०॥

[[३६०]] ते प्रमादरहित, गम्भीर स्वभाववाळो अने धैर्यवान्‌ होय छे. भूख-तरस, शोक-मोह अने जन्म-मृत्यु आ छ ऊर्मिओ तेने वश होय छे. ते पोते तो क्यारेय कोईनी पासे कोई प्रकारनी सन्माननी आशा राखतो नथी पण बीजाओने सन्मान आपतो रहे छे. मारा सम्बन्धी ज्ञान बीजाओने समजाववामां बहु निपुण होय छे अने बधानी साथे मित्रतानो व्यवहार करे छे. तेना हृदयमां करुणा भरी होय छे. मारा तत्त्वनुं तेने यथार्थ ज्ञान होय छे ॥३१॥

में वेदो तथा शास्त्रो द्वारा करणशुद्धि वगेरे उपदेश कर्यो छे तेना पालनथी अन्तः-करणशुद्धि वगेरे गुण अने उल्लङ्घन वगेरेथी चित्तनी मलिनता, नरक वगेरे दुःख प्राप्त थाय छे; परन्तु मारो जे भकत तेमने पण पोताना ध्यान वगेरेमां विक्षेप करनार समजी छोडी दे छे अने केवल मारी ज भक्तिमां लाग्यो रहे छे ते परम सन्त छे ॥३२॥

हुं केवो महान (देशकालथी अपरिच्छिन्न) छुं, कोण (सर्वनो आत्मा) छुं, केवो (सच्चिदानन्दस्वरूप) छुं ए वातोने ए जाणे के न जाणे; परन्तु अनन्य भावथी जे मारुं भजन (सेवा-स्मरण) करे छे ते मारी दृष्टिए मारो परम भक्त छे ॥३३॥

हे प्रिय उद्धव! मारो भक्त मारी मूर्ति (मारा स्वरूप) अने मारा भक्तजनोनां दर्शन, स्पर्श, पूजा सेवा-शुश्रूषा, स्तुति अने प्रणाम करे तथा मारा गुण अने कर्मो नुं कीर्तन करे ॥३४॥

हे उद्धव! मारो भकत मारी कथा साम्भळवामां श्रद्धा राखे अने निरन्तर मारुं ध्यान करतो रहे. जे कंई मळी आवे ते मने समर्पित करी दे अने दास्यभावथी मने आत्मनिवेदन करे ॥३५॥

मारा दिव्य जन्म अने कर्मो नी चर्चा करे. जन्माष्टमी, रामनवमी वगेरे पर्वो उपर आनन्द मनावे अने सङ्गीत, नृत्य, वाजां अने समाज द्वारा मारां मन्दिरोमां उत्सव ऊजवे अने उजवावे ॥३६॥

उत्सवना दिवसोमां मारां स्थानोनी यात्रा करे, वरघोडो काढे तथा विविध उपहारोथी मारां स्थानोनी पूजा करे. वैदिक अथवा तान्त्रिक पद्धतिथी दीक्षा ग्रहण करे. एकादशी वगेरे मारां व्रतो करे ॥३७॥

मन्दिरोमां मारी मूर्तिओनी प्रतिष्ठा कराववामां श्रद्धा राखे. आ कार्य जो पोते [[३६१]] एकलो न करी शके तो बीजाओना सहयोगथी करे. मारे माटे पुष्प वाटिका, बगीचा, क्रीडानां स्थान, नगर अने मन्दिर बनावडावे ॥३८॥

सेवकनी जेम श्रद्धा भक्ति सहित निष्कपट भावथी मारां मन्दिरोमां सेवा शुश्रूषा करे तेने स्वच्छ राखे, तेने र्लीपे, तेमां जल छाण्टे, तेमां चित्रो बनावे अने जात-जातना चोक पूरे ॥३९॥

अभिमान न करे, दम्भ न करे, पोतानी सेवा-शुश्रूषानां शुभ कर्मो कोईने कहे नहि केमके ‘‘धर्मः क्षरति कीर्तनात्‌’’ जाहेरात करवाथी धर्मनो क्षय थाय छे. मने चडावेली वस्तुनो पोताना कार्य माटे उपयोग करवानी वात तो दूर रही, मने समर्पित दीपकनो प्रकाश पण पोताना उपयोगमां न ले. कोई बीजा देवताने चडावेली वस्तु मने न चडावे* ॥४०॥

विशेष - भगवान्‌ने दीप समर्पित कर्यो होय तेना प्रकाशनो पण पोताना काममां उपयोग न करवो. एवी अर्ही श्लोक चालीसमामां भगवान्‌नी आज्ञा छे. अर्ही ए शङ्का थाय के भक्तिमार्गमां तो ‘‘निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः’’ ‘‘भगवान्‌ने समर्पित न करी होय तेवी वस्तुओनो त्याग करवो. निवेदन जेमणे कर्युं छे. तेमणे समर्पण करीने ज बधां कार्य करवां’’ एवी ‘सिद्धान्तरहस्य’मां श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञा छे. आ बे परस्पर विरोधी विचारधाराओनो समन्वय केम करवो? तेनुं समाधान श्रीमहाप्रभुजी सिद्धान्तरह्स्यमां ज करे छे के ‘‘न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्न मार्ग परं मतम्‌’’ निवेद तरीके अर्पण करेली वस्तुनो पोते उपयोग न करवो ए वाक्य बीजा मार्ग-कर्ममार्ग, पूजामार्गनुं वाक्य छे, भक्तिमार्गनुं नहि. भक्तिमार्गमां ब्रह्मसम्बन्ध थाय छे अने ब्रह्मसम्बन्ध थया पछी ‘‘त्वयोपभुक्तस्रग्गन्ध’’ श्लोकमां उद्धवजीए क्ह्या प्रमाणे अने ‘‘निवेदिभिः समर्प्यैव’’ मां श्रीमहाप्रभुजीए आज्ञा कर्या प्रमाणे बधी वस्तुओनुं भगवान्‌ने निवेदन करीने ज वैष्णवोए निर्वाह करवो. श्रीकृष्ण-अवतार समये स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णे वेणुनादशब्दब्रह्म द्वारा बधां व्रजवासीओनो ब्रह्मसम्बन्ध कराव्यो हतो तेम श्रीहरिरायजी सिद्धान्तरहस्यनी टीकामां जणावे छे. श्रीपुरुषोत्तमजी पोतानी टीकामां जणावे छे के महापाक वगेरे समर्पण करवा अशकय होय त्यारे मन अने वाणीथी समर्पण करवुं. जेवी रीते विज्ञापननो अर्थ विशेष रीते ज्ञापन-स्पष्टताथी अर्थ जणाववो थाय छे, ‘‘आ वाकय समर्पक छे, आ शब्द असमर्पक छे’’ एवा प्रयोगो विद्वानो करे छे तेवी रीते निवेदननुं पण समजवुं. आगळथी शक्य होय तेवा संयोगोमां आगळथी अने शक्य न होय तो पाछळथी [[३६२]] भगवान्‌ने समर्पण-निवेदन करवुं, जणाववुं. गङ्गाजीमां गमे ते जल मळे ते जल गङ्गाजी- स्वरूप ज थई जाय छे तेम ब्रह्मसम्बन्धथी बधानी ब्रह्मता-निर्दोषता अने समता थई जाय छे. वळी एक मार्गनुं वाक्य बीजा मार्गने लागु पडे नहि. दा.त. द्विजे शिखासूत्र-चोटी अने जनोई अवश्य धारण करवां जोईए ए न होय तो बधां सत्कर्म व्यर्थ छे पण ए ज द्विज सन्न्‌यास ग्रहण करे त्यारे शिखासूत्रनो त्याग करे छे गृहस्थाश्रमनो विधि सन्न्‌यास आश्रममां निषेध बने छे. आवुं ज पूजामार्ग अने भक्तिमार्ग नुं समजवुं. भक्तिमार्गमां ‘‘पत्रं पुष्पं’’ श्लोकमां कह्या प्रमाणे भगवान्‌ साक्षात्‌ आरोगे छे अने भगवत्प्रसादी वस्तुओथी निर्वाह करवो ए भगवान्‌ना दासनो धर्मछे. संसारमां जे-जे वस्तु पोताने प्रिय, अभीष्ट लागे ते-ते वस्तु मने समर्पित करी दे. एम करवाथी ते वस्तु अक्षय फल (मोक्ष) आपनारी तथा मारी अनन्त प्रीति सम्पादन करनारी थाय छे ॥४१॥

हे भद्र! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गाय, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा अने बधां प्राणी आ बधां मारी पूजानां स्थान छे ॥४२॥

हे प्रिय उद्धव! ऋग्वेद, यजुर्वेद अने सामवेद ना मन्त्रोद्वारा सूर्यमां मारी पूजा करवी जोईए. हवनद्वारा अग्निमां, आतिथ्यद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणमां, लीला घास वगेरे द्वारा गायमां मारी पूजा करे ॥४३॥

वैष्णवमां भाई-बन्धु जेटलो सत्कार करीने, हृदयाकाशमां निरन्तर ध्यान मग्न रहीने, वायुमां मुख्य प्राण समजीने अने जलमां जल, पुष्प वगेरे सामग्रीओ द्वारा मारी आराधना कराय छे ॥४४॥

गुप्तमन्त्रोद्वारा न्यास करी माटीनी वेदीमां, उपयोगी भोगद्वारा आत्मामां अने समदृष्टिद्वारा सम्पूर्ण प्राणीओमां मारी आराधना करवी जोईए, कारण के हुं बधामां क्षेत्रज्ञ आत्माना रूपमां स्थित छुम् ॥४५॥

आ बधां स्थानोमां शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज शान्तमूर्ति श्रीभगवान्‌ बिराजमान छे एवुं ध्यान करतां-करतां एकाग्रता पूर्वक मारी पूजा करवी जोईए ॥४६॥

आ प्रमाणे जे मनुष्य एकाग्रचित्तथी यज्ञयागादि इष्ट अने कूवा, वावडी, धर्मशाळा वगेरे बनावडाववा आदि पूर्त कर्मोद्वारा मारी पूजा करे छे तेने मारी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त थाय छे अने सन्त पुरुषोनी सेवा करवाथी मारी स्मृति सदा बनी रहे [[३६३]] छे. (योगमां समाधि यम नियम वगेरे क्लेशसाध्य साधन करवां पडे छे. साङ्ख्यमां वैराग्यनी जरूर पडे छे. धर्माचरणमां धन वगेरेनी जरूर पडे छे. आ बधां साधनो पण सव्यभिचारी छे एटले के ते साधनो करवामां आवे तो पण फळ मळे ज मळे एवुं नथी होतुं. फल न पण मळे. तेथी हवे एक स्वतन्त्र, वैराग्य वगेरेनी जेमां जरूर न पडे तेवुं अने कदी निष्फळ न जाय तेवुं अने तेथी परमगुह्य साधन कहे छे) ॥४७॥

हे प्रिय उद्धव! मारो एवो निश्चय छे के संसारसागरने तरी जवानो एक मात्र योग्य उपाय जो कोई होय तो ते मारी भक्तिज छे अने मारी भक्ति प्राप्त करावनारुं अमोघ साधन सत्सङ्ग-सत्पुरुषोनो सङ्गज छे; कारण के सन्त पुरुषो मने पोतानो आश्रय माने छे अने हुं सदा-सर्वदा तेमनी पासे हाजरज होउं छुं॥४८॥

अथैतत्‌ परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन। सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्‌ सखा ॥४९॥

हे प्रिय उद्धव! हवे हुं तमने एक अत्यन्त गोपनीय (गोप्य) परम रहस्यनी वात बतावीश कारण के तमे मारा प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद अने प्रेमी सखा छो; साथे-साथे ते जाणवानी तमारी जिज्ञासा पण छे ॥४९॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो छठ्ठो अने चालु) ‘‘बद्ध-मुकत जीवनां, भक्तनां तथा भक्तिनां लक्षणो’’ नामनो ११मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!

अध्याय १२

सत्सङ्गनो महिमा अने कर्मत्यागनी निष्ठा न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च ॥ न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ॥१॥

ईं उं ईं उं

[[३६४]] भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! जगतमां आसक्तिओ छे तेमने सत्सङ्ग नष्ट करी दे छे. तेथी ज सत्सङ्ग मने जेवी रीते वश करी ले छे तेवुं साधन योग के साङ्ख्य नथी, धर्म पालन के स्वाध्याय नथी. तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त अने मोटी दक्षिणाओथी पण हुं एवो प्रसन्न थतो नथी. कयां सुधी कहुं? व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ अने यम-नियम पण सत्सङ्गनी जेम मने वश करवा समर्थ नथी* ॥१-२॥

विशेष - योग - आसन, प्राणायाम वगेरे पूर्वक करेलो चित्तवृत्ति निरोध. साङ्ख्य - तत्त्वोनो विवेक, आत्मा-अनात्मानो विवेक. ‘धर्म’ - परोपकार वगेरे. ‘स्वाध्याय’ - वेदोनुं अध्ययन. ‘तप’ - कृच्छ्र, अनशन (उपवास). ‘त्याग’ - सन्न्यास. ‘इष्ट’ - वैदिक अग्निहोत्र यज्ञ इत्यादि कर्मो. ‘इष्टापूर्त’ - कूवा, धर्मशाळा वगेरे बन्धाववां. ‘दक्षिणा’ - दान. हे निष्पाप उद्धवजी! आ एक युगनी नहि, बधा ज युगनी एक ज वात छे. सत्सङ्गद्वारा ज दैत्य अने राक्षस, पशु अने पक्षी, गन्धर्व अने अप्सरा, नाग अने सिद्ध, चारण अने गुह्यक तेमज विद्याधरोने मारी प्राप्ति थई छे. मनुष्योमां वैश्य, शूद्र, स्त्री अने अन्त्यज वगेरे ज मारुं परम पद प्राप्त कर्युं छे ॥३-४॥

वृत्रासुर१ प्रह्‌लाद२ वृषपर्वा३ बलि४ बाणासुर५ मयदानव६ विभीषण७ सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान, गजेन्द्र८ जटायु९, तुलाधार वैश्य१० धर्मव्याध११ कुब्जा१२ व्रजनां गोपीजनो१३ यज्ञ (ऋषि) पत्नीओ१४ अने बीजा लोको१५ पण सत्सङ्गना ज प्रभावथी मने प्राप्त करी शक्यां छे ॥५-६॥

विशेष - १. ‘वृत्रासुर’ - ने पूर्व जन्ममां नारदजी, अङ्गिरा अने श्रीसङ्कर्षणजीनो सत्सङ्ग थयो हतो. (श्रीभाग. स्कन्ध ६, अ.९ थी १४)
२.‘‘कयाधुपुत्र प्रह्‌लादजी’’ - ने गर्भमां ज नारदजीनो सत्सङ्ग मळ्यो हतो. (श्रीभागवत स्कन्ध ७, अध्याय ७)
३.‘वृषपर्वा’ - ने जन्म थतां ज तेनी माता दनुए तेनो त्याग कर्यो. तेथी पिता कश्यपजीए तेने पाळी-पोषी मोटो कर्यो. मुनि कश्यपजीना सङ्गथी तेने विष्णु भक्ति प्राप्त थई हती.
४.‘बलि’ - प्रह्‌लादजीनो पौत्र अने विरोचननो पुत्र. प्रह्‌लादजीनो सत्सङ्ग थयो. वामन भगवान्‌नो साक्षात्कार थया पछी ज भक्तिनो विशेष उद्‌बोध थयो छे. (श्रीभागवत स्कन्ध ८ अध्याय १५.२३) बलिने बान्धवा जतां भगवान्‌ पोते बन्धाया अने आज सुधी बलिने बारणे सुतलमां पौरियागीरी करेछे.
५.‘बाणासुर’ - बलिनो पुत्र. तेने पिता बलिनो अने वैष्णव शिरोमणि शिवजीनो सत्सङ्ग [[३६५]] साम्पड्यो हतो. युद्धमां साक्षात्‌ भगवद्‌ दर्शन थयां हतां अने विष्णु माहात्म्य जाण्युं. तेने महाभागवत महेशजीनी प्राप्ति थई छे पण भगवाने भकत अने सत्सङ्ग नुं माहात्म्य प्रगट करवा तेने पोतानी प्राप्ति बराबर गणावी छे.
६.‘मयदानव’ - विश्वकर्मा जेम देवोना बान्धकाम खाताना अधिकारी छे तेम मय असुरोना इजनेर छे. खाण्डव वनदहन प्रसङ्गे अर्जुने एनुं रक्षण कर्युं हतुं. पाण्डवोमाटे सभा निर्माण करतां भगवान्‌ श्रीकृष्ण अने पाण्डवो नो सत्सङ्ग तेने थयो हतो.
७.‘विभीषण’ - विश्रवा ऋषिनी बीजी स्त्री कैकसीना त्रण पुत्रो हता, रावण, कुम्भकर्ण अने विभीषण. तेमणे पाञ्च हजार वर्ष सुधी ‘गोकर्ण’ क्षेत्रमां तप करी, बीजां पाञ्च हजार वर्ष एक पगे ऊभा रही तप करी ब्रह्माजीने प्रसन्न कर्या हता. ब्रह्माजीए प्रसन्न थई वरदान मागवानुं कहेतां तेमणे ‘‘मारी मति हम्मेशां सद्‌धर्ममां ज अचल रहे’’ एवुं वरदान माग्युं जे ब्रह्माजीए आप्युं. भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी अने हनुमाननो सत्सङ्ग मळी जवाथी तेओ भकत शिरोमणि तो बनी गया तेमने भगवत्प्राप्ति पण थई.
८.‘‘सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान अने गजेन्द्र पशुओ छे’’ - सुग्रीवने हनुमाननो अने जाम्बवानने भगवान्‌ श्रीकृष्णनो सत्सङ्ग लाध्यो हतो. सृष्टिना सर्जनमां गळाडूब रच्या-पच्या रहेवाथी भगवत्स्मरण न थई शकवाथी ब्रह्माजीए ज जाम्बवाननुं स्वरूप धारण करी भगवद्‌ स्मरण यथेच्छ करवा माण्डयुं. गजेन्द्रने पूर्वजन्मना सत्सङ्ग उपरान्त हरि भगवान्‌नो सङ्ग थयो हतो.
९.‘जटायु’ - कश्यप अने वनिता ना पुत्र अरुणनो पुत्र. ते गीधोनो राजा हतो. देशमां दुकाळ पडतां दुकाळना कारणनी तपास करतां शनि जवाबदार जणातां दशरथ राजाए शनि उपर चडाई करी. शनिए रथ साथे तेमने नीचे धकेली देतां पडता दशरथ राजाने जटायुए झीली लीधा अने तेमना प्राण बचाव्या. त्यारथी दशरथ अने जटायु वच्चे गाढ मैत्री थई. आथी जटायुने दशरथना सत्सङ्गनो लाभ मळ्यो अने प्रभुमां तेने प्रेम थयो. एक वखते तेणे आकाशमान्थी ‘‘दोडो, दोडो; बचावो, बचावो’’ नी चीसो साम्भळी. तेणे जोयुं के रावण सीताजीनुं हरण करी आकाशमार्गे जई रह्यो छे. समजावटथी न मानतां रावणनी साथे युद्ध कर्युं. रावणे तेनी बन्ने पाङ्खो कापी नाखी. साठ हजार वर्षनी वयना जटायुए प्राणने रोकी राख्या. राम-लक्ष्मण सीताजीने शोधता-शोधता त्यां आव्या. जटायुए बधा समाचार आप्या अने कह्युं के ‘‘आ समाचार आपवामाटे ज हुं मोत सामे झझूमी जीवी रह्यो हतो. हवे आप मारी नजर सामे बिराजता हो एनाथी वधारे मङ्गळमय मृत्यु मारुं बीजुं कयुं होई [[३६६]] शके?’’ एम कही प्राण छोड्या. श्रीरामचन्द्रजीए अश्रुभीनी आङ्खे जटायुनो अग्निसंस्कार कर्यो अने सन्तोष लीधो के ‘‘चालो! पिताश्रीनो अग्निसंस्कार करवानो लाभ तो न मळ्यो, पिताश्रीना मित्रनो तो अग्निसंस्कार करी सन्तोष लउं?’’
१०.‘‘तुलाधार वैश्य’’ - जाजलि नामना एक ऋषि समुद्र किनारे घोर तप करी रह्या हता. योगसाधनानी बहु ऊञ्ची भूमिका उपर तेओ पहोञ्ची गया हता. ध्यान करतां-करतां तेमना मनमां सृष्टिना ज्ञाननो उदय थयो. भूगोळ, खगोळ वगेरे विषय हस्तामलकवत्‌ प्रत्यक्ष थवा लाग्या. अभिमान थयुं के मारा जेवो बीजो कोई तपस्वी के ज्ञानी नथी. तरत ज आकाशवाणी थई, ‘‘हे महाशय आपनो आ विचार बराबर नथी. काशीमां रहेता तुलाधार वैश्य पण आवुं न विचारी शके’’ जाजलि काशी गया. जोयुं तो तुलाधार पोतानी दुकाने बेठा-बेठा वेपार करी रह्या छे. ऋषिने जोई तुलाधारे तेमने आवकार्या अने कह्युं के पक्षीओ, आपने एक सूकुं ठूठुं समजीने आपनी जटामां माळो बान्धतां, ईण्डां मूकतां तेनी आपने खबर रहेती नहि. आथी अभिमान थवाथी आकाशवाणी साम्भळीने आप अर्ही आव्या छो. कहो हुं आपनी शी सेवा करुं? चर्चा दरमियान वैश्ये कह्युं, ‘‘कोईनुं कदी अहित न करवुं. मनसा, वाचा, कर्मणा बधाना हितमां लाग्या रहेवुं. जगत्‌ भगवान्‌नुं स्वरूप छे. सोनुं ए पीळी माटी ज छे. श्रद्धा, सदाचार, वर्णाश्रम, धर्म, सत्य, समबुद्धि जीवनमां उतारवां जोईए’’ (महाभारतशान्तिपर्व)
११. ‘धर्मव्याध’ - कौशिक नामना एक विद्वान, तपस्वी, धर्मात्मा ब्राह्मण हता. एक वखत तेओ सूर्यने अर्घ्य आपता हता त्यारे एक बगली अञ्जलिमां चरकी गई. ऋषिए लाल आङ्ख करी ऊञ्चे जोतां बगली मरी गई. ऋषि एकवार भिक्षामाटे गया. बाई वासण माञ्जती हती एटले कह्युं, ‘‘महाराज! ऊभा रहो, आवुं छुं’’ त्यां तेना पति आव्या एटले थोडुं वधारे मोडुं थयुं. ब्राह्मणे कह्युं, ‘‘तुं जाणे छे के ब्राह्मण अग्निना जेवो तेजस्वी होय छे, धारे तो आखी पृथ्वीने बाळी नाखे’’ ते पतिव्रता स्त्रीए क्ह्युं, ‘‘हा, महाराज, मने खबर छे के ब्राह्मणना क्रोधने लीधे दरियानुं पाणी पीवा जेवुं रह्युं नथी. पति सेवामां रोकायेली होवाथी मोडुं थयुं पण मने बगली न समजता. तमारे मिथिला नगरीमां धर्मव्याध (शिकारी) पासे भणवा जवानी जरूर छे’’ कौशिक मिथिला गया. त्यां जोयुं तो धर्मव्याध मांस वेचवानो धमधोकार धन्धो करी रह्या छे. धर्मव्याधे तेमने जोई तेमनुं सन्मान करी तेओ शा माटे आव्या हता ते सर्व कही दीधुं. तेमने पोताने घेर लई गया. घर धणुं स्वच्छ अने सुघड हतुं. व्याधे वृद्ध माता-पिताने प्रणाम कर्या. धर्मनी चर्चा दरमियान व्याधे कह्युं, ‘‘आ धन्धो परम्परा प्राप्त बापदादानो [[३६७]] होवाथी हुं ते करुं छुं. हुं पोते मांस खातो नथी. मांसमाटे हुं जाते कोई पशुनी हिंसा करतो नथी. पाडा अने सूवर नुं ज मांस हुं वेचुं छुं. साक्षात्‌ भगवान्‌ मारी सेवा स्वीकारवा पधार्या छे एम समजीने दरेक घराक साथे वर्ताव करुं छुं. देवताओ, अतिथिओ, कुटुम्बीजनो अने सेवको ने जमाडीने ज जमुं छुं. लुहारनी धमणनी जेम पापी माणसो फूलेला देखाय खरा पण तेओ सत्त्वहीन होय छे. लोभ पापनुं मूळ छे. पूर्व जन्ममां हुं वेदज्ञ ब्राह्मण हतो. शिकारी राजाना सङ्गथी शिकारनी लत लागी. भूलमां एक ऋषिनी ह्त्या थई गई. तेनुं फल भोगवी रह्यो छुं’’ (महाभा.वनपर्वअ.२०६-२१६)
१२. ‘कुब्जा’ - त्रेतायुगमां आ शूर्पणखा हती. तेने मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीनां दर्शन तो थयां ज हतां. दर्शन मात्रथी हैयुं ओळघोळ (न्योछावर) पण करी नाख्युं हतुं. माथुर हरिवंशपुराण मुजब नारदजीना सत्सङ्गना संस्कार साथे कृष्णावतारमां कुब्जा बनी हती.
१३. ‘गोपीजनो’ - अनेक युगमां अनेक साधकोए करेल कठोर साधनाने साथे लईने ‘‘व्रजे गोप्यो भविष्यथ’’ तमारा मनोरथनी सिद्धि व्रजमां गोपीजनो थशो त्यारे थशे एवा भगवान्‌ना वरदाननी हूण्डी साथे व्रजमां गोपी स्वरूप प्राप्त करेलुं. तेमने सत्सङ्ग नित्य सिद्धा मुख्य स्वामिनीजी श्रीराधिकाजीनो थयो हतो.
१४. ‘ऋषि पत्नीओ’ - कृष्णकथामृतनी नदीओ वहेवडावनारा कथाकारो, कीर्तनकारो, माणभटोद्वारा तथा गोरस वेचवामाटे जतां गोपीजनोना सत्सङ्गथी श्रीकृष्णना स्वरूपमां दर्शन थतां पहेलां ज आसक्ति थई गई हती.
१५. ‘तथापरे’ - ‘‘अने बीजा लोको’’ थी मालाकार सुदामा वगेरे समजवा. आ नामी तथा बीजा असङ्ख्य अनामी महाभाग्यशाळी जीवोने सत्सङ्ग साम्पड्यो. सत्सङ्गथी भक्ति थई अने भगवत्प्राप्ति थई. आम सत्सङ्ग भगवत्‌ प्राप्तिमां असहायशूरद्गएकलवीर साधन छे. ते लोकोए वेदोनो अभ्यास कर्यो नहोतो के महापुरुषोनी विधिपूर्वक उपासना नहोती करी. तेमणे कृच्छ्र-चान्द्रायण वगेरे व्रत के कोई बीजी तपस्या पण नहोती करी. बस, मात्र सत्सङ्गना प्रभावथी ज मने प्राप्त करी लीधो हतो ॥७॥

गोपीजनो, गायो, पक्षीओ, पशुओ, सुदर्शन, कालीयनाग वगेरे तो साधन- साध्यनी बाबतमां बिलकुल मूढ बुद्धिवाळा हता. आटला ज नहि बीजा पण अनेक थई गया छे जेमणे मात्र प्रेमपूर्ण भाव (प्रेम, दर्शन, स्पर्श वगेरे) द्वारा ज विना प्रयासे मारी प्राप्ति करी लीधी अने कृतकृत्य थई गया ॥८॥

हे उद्धव! प्रयत्नशील साधन सम्पन्न साधक योग, साङ्ख्य, दान, व्रत, [[३६८]] तपस्या, यज्ञ, श्रुतिओनी व्याख्या, स्वाध्याय अने सन्न्यास वगेरे द्वारा मने प्राप्त करी शक्ता नथी, परन्तु सत्सङ्गथी हुं अत्यन्त सुलभ थई जाउं छुम् ॥९॥

हे उद्धव! जे वखते अक्रूरजी मने मोटाभाई बलदेवजीनी साथे मथुरा लई आव्या ते वखते गोपीजनोनां हृदय गाढ प्रेमने लीधे मारा अनुरागना रङ्गमां रङ्गाई गयां हतां. मारा वियोगनी तीव्र व्याधिथी तेओ व्याकुल थई रही हती अने मारा सिवाय जगतनी बीजी कोई वस्तु तेमने सुखकारक जणाती नहोती ॥१०॥

तमे जाणो छो के हुं ज तेमनो एक मात्र प्रियतम छुं. ज्यारे हुं वृन्दावनमां हतो त्यारे तेओए रासनी अनेक रात्रिओ मारी साथे अडधी क्षणनी जेम वितावी दीधी हती; परन्तु हे प्रिय उद्धव! मारा विना ते ज रात्रिओ तेमने माटे एक-एक कल्प समान थई पडी हती ॥११॥

जेवी रीते मोटा-मोटा ऋषिमुनिओ समाधिमां तथा गङ्गा वगेरे मोटी-मोटी नदीओ समुद्रमां मळी जई नामरूप-विहीन बनी जाय छे तेवी ज रीते ते गोपीजनो परम प्रेमद्वारा मारामां एटली बधी तन्मय थई गई हती के तेमने आ लोक-परलोक, शरीर अने पोताना सांसारिक पति, पुत्र वगेरेनी पण सूध-बूध रही नहोती ॥१२॥

हे उद्धव! ते गोपीजनो मारा वास्तविक स्वरूपने तो जाणती पण नहोती. तेओ मने प्रियतम जाणी जार भावथी मने मळवानी आकाङ्क्षा राख्या करती हती. ते निःसाधन हजारो *अबलाओए मात्र सत्सङ्गना प्रतापथी ज परब्रह्म एवा मने प्राप्त करी लीधो ॥१३॥

विशेष - अबलाः। १. ‘अः’ एटले पूर्ण ब्रह्म श्रीकृष्ण ते ज बळ छे जेनुं ते ‘अबलाः।’ २. कोई पण जातना साधननुं जेने बळ नथी ते निःसाधन - ‘अबलाः।’ तेथी हे उद्धव! तमे श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध (कार्य अकार्य), प्रवृत्ति- निवृत्ति अने श्रवण करवा योग्य अने श्रवण करेला विषयोनो पण परित्याग करी दई, सर्वत्र मारी ज भावना करता, समस्त प्राणीओनो आत्मा हुं ज छुं एम समजीने मारुं अनन्य शरण ग्रहण करी लो, कारण के मारे शरणे आवी जवाथी तमे सर्वथा (सर्वरीते) निर्भय थई जशो ॥१४-१५॥

उद्धवजीए कह्युं - सनकादि योगेश्वरोना पण परमेश्वर, हे प्रभो! आम तो हुं आपनो उपदेश साम्भळी रह्यो छुं परन्तु तेथी मारा मननो सन्देह हजु मटतो नथी. [[३६९]] हमणां ज आपे ‘‘निरपेक्ष थईने बधां कर्मो मने अर्पण करी सावधानीपूर्वक करवां’’ एम कही मने कर्मनो अधिकार आप्यो. वळी तेनी पहेलां ‘‘मन, वाणी, चक्षु वगेरेथी जे अनुभवाय छे ए बधो मायानो प्रभाव छे तेथी मारा अधीश्वरमां आ बधुं जगत्‌ रहेलुं छे एवी दृष्टि राखवी’’ एम कही मने ज्ञाननो अधिकार आप्यो. हवे आप कहो छो के बधुं ज छोडीने सर्वात्मभावथी मारे शरणे आवी जा, आम कही मने भक्तिनो अधिकार आप्यो. (हवे आप आगळ कोण जाणे कयो अधिकार आपशो एवी वक्र उक्ति समजवी) ॥१६॥

(एम उद्धवजीए पूछ्‌युं तेनो उत्तर आपवामाटे कहे छे के ईश्वर पोते लीलाने माटे प्रपञ्चरूप थाय छे. देहना अध्यासने लीधे जीवने अनादि अविद्याथी कर्तापणुं स्फुरे छे, त्यारे आ करवुं आ न करवुं एम विधि-निषेधनो एने अधिकार थाय छे. ते-ते कर्म करे तो सत्त्वशुद्धि थाय माटे एने कर्म करवानुं कहेवामां आव्युं छे. सत्त्व शुद्ध थया पछी कर्ममां जड न थवामाटे चित्त विक्षेपक कर्मोनो निषेध करी दृढ विश्वासथी भक्ति करवानुं कह्युं छे. भक्तिथी आत्म साक्षात्कार थाय तो पछी कांई कर्तव्य रहेतुं नथी एम बताववामाटे ईश्वरथी वाणीद्वारा जीवने संसारना कारणरूप प्रपञ्च थाय छे ए ज वात अर्ही भगवान्‌ कहे छे). भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! जे परमात्मानुं परोक्षरूपथी वर्णन करवामां आवे छे ते साक्षात्‌ अपरोक्ष-प्रत्यक्ष ज छे, कारण के ते आप ज तमाम वस्तुओने सत्ता-स्फूर्ति- जीवनदान करवावाळा छे; ते ज पहेलां अनाहत नाद स्वरूप परा वाणी नामना प्राणनी साथे मूलाधार चक्रमां प्रवेश करे छे. त्यारबाद मणिपूरक चक्र (नाभिस्थान) मां आवी पश्यन्ती वाणीनुं मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करे छे अने पछी कण्ठदेशमां स्थित विशुद्ध नामना चक्रमां आवे छे अने त्यां मध्यमां वाणीना रूपमां व्यकत थाय छे. पछी क्रमशः मुखमां आवी ह्रस्व, दीर्ध वगेरे मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि अक्षररूप स्थूल-वैखरी वाणीनुंरूप ग्रहण करी ले छे ॥१७॥

अग्नि आकाशमां उष्मा के विद्युत ना रूपमां अव्यकत रूपथी रहेलो छे. ज्यारे जोरथी काष्ठमन्थन करवामां आवे छे त्यारे वायुनी सहायथी ते पहेलां अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारीना रूपमां प्रगट थाय छे अने पछी आहुति आपवामां आवे त्यारे ते प्रञ्चडरूप धारण करी ले छे. तेवी ज रीते हुं पण शब्दब्रह्म स्वरूपथी क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा अने वैखरी वाणीना रूपमां प्रगट थाउं छुम् ॥१८॥

[[३७०]] तेवी ज रीते मोढेथी बोलवुं, हाथथी काम करवुं, पगथी चालवुं, स्पर्श करवो, साम्भळवुं, मनथी सङ्कल्प, विकल्प करवा, बुद्धिथी समजवुं, अहङ्कारद्वारा अभिमान करवुं, महत्तत्त्वना रूपमां बधाना ताणा-वाणा बनवुं तथा सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण ना बधा विकार कयां सुधी कहुं? समस्त कर्ता, करण अने कर्म मारी ज अभिव्यक्तिओ छे ॥१९॥

आ बधाने जीवित करनार परमेश्वर ज आ त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड कमलनुं कारण छे. आ आदि पुरुष पहेलां एक अने अव्यक्त हता. जेवी रीते उपजाउ-फळद्रूप खेतरमां वावेलुं बीज शाखा-पत्र-पुष्प वगेरे अनेक रूप धारण करी ले छे तेवी ज रीते कालगतिथी मायानो आश्रय लई शक्ति-विभाजन द्वारा परमेश्वर ज अनेक रूपोमां जणावा लागे छे ॥२०॥

जेवी रीते दोराना ताणा-वाणामां वस्त्र ओतप्रोत होय छे तेवी ज रीते सूतर विना वस्त्रनुं अस्तित्व होई शके नहि पण सूतर वस्त्र विना पण रही शके छे तेवी ज रीते आ जगत्‌ न रहेवा छतां पण परमात्मा रहे छे; किन्तु आ जगत्‌ परमात्म स्वरूप ज छे परमात्मा विना तेनुं कोई अस्तित्व ज नथी. आ संसारवृक्ष अनादि अने प्रवाहरूपथी नित्य छे. तेनुं स्वरूप ज कर्मनी परम्परा छे तथा मोक्ष अने भोग आ वृक्षनां फल-फूल छे ॥२१॥

आ संसार वृक्षनां बे बीज छे पाप अने पुण्य. असङ्ख्य वासनाओ तेनां मूळियां छे अने त्रण गुण (सत्त्व, रजः अने तमः) तेनां थड छे. पाञ्च महाभूत तेनी मोटी-मोटी शाखाओ छे अने शब्दादि पाञ्च विषयो रस छे, अगियार इन्द्रियो तेनी शाखाओ छे. जीव अने ईश्वर नामनां बे पक्षी तेमां माळो बनावीने रहे छे. आ वृक्षमां वात, पित्त अने कफरूप त्रण जातनी छाल छे. तेमां बे जातनां फल लागे छे सुख अने दुःख. आ विशाळ वृक्ष सूर्यमण्डळ सुधी फेलायेलुं छे. (आ सूर्यमण्डळने भेदीने पेली पार जनार माणसो फरी संसार चक्रमां पडतां नथी) ॥२२॥

जे गृहस्थो शब्द-रूप-रस वगेरे विषयोमां फसायेला छे तेओ कामनाओथी भरेला होवाने लीधे गीध जेवा छे. तेओ आ वृक्षनुं दुःखरूपी फल भोगवे छे कारण के तेओ अनेक प्रकारना कर्मोनां बन्धनमां फसायेला रहे छे. जे अरण्यवासी परमहंस विषयोथी विरक्त छे तेओ आ वृक्षमां राजहंस जेवा छे अने तेओ आनुं सुखरूपी फल भोगवे छे. हे प्रिय उद्धव! वास्तवमां हुं एक ज छुं. आ मारा जे अनेक [[३७१]] प्रकारनां रूपो छे ते तो केवल मायामय छे. जे आ वातने गुरुओ द्वारा समजी ले छे ते ज वास्तवमां समस्त वेदोनां रहस्य जाणे छे ॥२३॥

एवं गुरूपासनयैकभक्‌त्या विद्याकुठारेण शितेन धीरः ॥ विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्‌ ॥२४॥

तेथी हे उद्धव! तमे आ प्रमाणे गुरुदेवनी उपासना रूपी अनन्य भक्ति द्वारा तमारा ज्ञाननी कुहाडीनुं पानुं काढी लो अने ते द्वारा धैर्य अने सावधानीथी जीव भावने कापी नाखो. पछी परमात्म स्वरूप थई जई ते वृत्तिरूप अस्त्रोने पण छोडी दो अने पोताना अखण्ड रूपमां स्थित थई जाओ* ॥२४॥

विशेष - ईश्वर पोतानी मायाद्वारा प्रपञ्चरूपे प्रतीत थई रह्या छे. आ प्रपञ्चना अध्यासने लीधे ज जीवोने अनादि अविद्याथी कर्तापणा वगेरेनी भ्रान्ति थाय छे. पछी ‘‘आ करो, आ न करो’’ एवी जातना विधि-निषेधनो अधिकार थाय छे. त्यारे अन्तःकरणनी शुद्धिमाटे कर्म करो एम कहेवामां आवे छे. ज्यारे अन्तःकरण शुद्ध थई जाय छे त्यारे कर्मसम्बन्धी दुराग्रह मटाडवाने माटे एम कहेवामां आवे छे के भक्तिमां विक्षेप करनारां कर्मो प्रत्ये आदरभाव छोडी दई दृढ विश्वासथी भक्ति करो. तत्त्वज्ञान थई जतां कंई पण करवानुं बाकी रहेतुं नथी ए आ प्रसङ्गनो अभिप्राय जणाय छे. इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा नसायुज्यमुक्तिथप्रकरणनो सातमो अने चालु) ‘‘सत्सङ्गनो महिमा अने कर्मत्यागनी निष्ठा’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दीक्षा लेवा आवनार पुष्टि जीव छे के नर्ही ते चकास्या विना जे आवे तेने कण्ठीब्रह्मसम्बन्ध आपनार गुरु श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोही छे, पुष्टिमार्गनो शत्रु छे. आवा बेजवाबदारी भर्या आचरणथी ते पोतानुं ज सर्वनाश नोन्तरे छे.

अध्याय १३

सत्त्वगुणथी विद्यानो उदय कहीने भगवान्‌ हंसे चित्त अने गुण नो भेद बताव्यो सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः ॥

ईं उं ईं उं

[[३७२]] सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्‌ सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धव! सत्त्व, रज अने तम आ त्रणेय बुद्धिना गुण छे, आत्माना नहि. सत्त्वद्वारा रज अने तम आ बे गुणो उपर विजय मेळवी लेवो जोईए. त्यार पछी सत्त्वगुणनी शान्त वृत्तिद्वारा तेनी दया वगेरे वृत्तिओने पण शान्त करी देवी जोईए ॥१॥

ज्यारे सत्त्वगुणनी वृद्धि थाय छे, त्यारे ज जीवने मारी भक्तिरूप स्वधर्मनी प्राप्ति थाय छे. निरन्तर सात्त्विक वस्तुओनुं सेवन करवाथी ज सत्त्वगुणनी वृद्धि थाय छे अने त्यारे भक्तिरूप स्वधर्ममां प्रवृत्ति थवा लागे छे ॥२॥

जे धर्मना पालनथी सत्वगुणनी वृद्धि थाय छे ते ज सर्वथी श्रेष्ठ छे. ते धर्म रजोगुण अने तमोगुण ने नष्ट करी दे छे. ज्यारे ते बन्ने नष्ट थई अदृश्य थई जाय छे ॥३॥

शास्त्र, जल, प्रजा, देश, काळ (समय), कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र अने संस्कार आ दश *वस्तुओ जो सात्त्विक होय तो सत्त्वगुणनी, राजसिक होय तो रजोगुणनी अने तामसिक होय तो तमोगुणनी वृद्धि करे छे ॥४॥

विशेष - आ अध्यायना चोथा श्लोकमां दस पदार्थो गणाव्या छे तेनी स्पष्टता- १. आगमशास्त्र-भगवान्‌नुं माहात्म्य जणावनारां वेद, पञ्चरात्र, भागवत, गीता वगेरेनुं ज सेवन करवुं.
२. गङ्गाजी-यमुनाजी वगेरेनुं जलनुं सेवन करवुं; सुगन्धी जल, सुरापान वगेरेनुं नहि. ३. प्रजा-साधु-भगवदीयोनो सङ्ग करवो. ४. देश-अपेय पान, स्त्री, द्यूत वगेरे जोवा मळे तेवा देशथी दूर भागी एकान्त स्थळनुं सेवन करवुं. ५. काळ-ब्राह्म मुहूर्त (प्रभात काळ) उत्तम छे तेमां भगवद्‌ध्यान करवुं. मध्यरात्रि वगेरे उत्तम नथी. ६. निष्काम-फलनी आशा राख्या वगर करायेलुं कर्म उत्तम छे. ७. जन्म-शौकल, सावित्र अने याज्ञिक. ८. ध्यान-श्रीकृष्णनुं ज करवुं. ९. मन्त्र-श्रीकृष्णना ज करवा (श्रीकृष्णः शरणं मम) १०. संस्कार-देहगेहने शुद्ध करनार स्नान, मार्जन ए ज मात्र संस्कार नथी पण मनना मेलने धोनार भगवत्स्मरण वगेरे ज साचा संस्कार छे. (बालप्रबोधिनी) आमान्थी शास्त्रोना जाणकार महापुरुषो जेमनी प्रशंसा करे छे ते सात्त्विक छे, जेमनी निन्दा करे छे ते तामसिक छे अने जेमनी उपेक्षा करे छे ते वस्तुओ राजसिक छे ॥५॥

ज्यां सुधी पोताना आत्मानो साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर अने तेमनां [[३७३]] कारण आ त्रणेय गुणोनी निवृत्ति न थई जाय त्यां सुधी मनुष्ये सत्त्वगुणनी वृद्धिने माटे सात्त्विक शास्त्र वगेरेनुं ज सेवन करवुं जोईए कारण के तेथी धर्मनी वृद्धि थाय छे अने धर्मनी वृद्धि थवाथी अन्तःकरण शुद्ध थई आत्मतत्त्वनुं ज्ञान थाय छे ॥६॥

वांस वच्चे परस्पर घर्षण थवाथी आग उत्पन्न थाय छे अने ते आग वांसना आखा वनने बाळी नाखी शान्त थई जाय छे. तेवी ज रीते आ शरीर गुणोनी विषमतामान्थी ज पेदा थयुं छे. विचारद्वारा मन्थन करतां तेमान्थी ज्ञानरूपी अग्नि प्रज्वलित थाय छे अने ते समस्त शरीरो अने गुणोने भस्म करी दई स्वयं शान्त थई जाय छे ॥७॥

(कांईक सन्देह पडवाथी उद्धवजी पूछे छे). उद्धवजीए पूछयुं - हे भगवन्‌! प्रायः बधां माणसो ए वात जाणे छे के विषयो विपत्तिओनुं घर छे, छतां पण तेओ कूतरां, गधेडां अने बकरान्नी जेम अपमानित दशामां, दुःख सहन करीने पण ते विषयोने ज भोगवता रहे छे तेनुं शुं कारण? ॥८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! जीव ज्यारे अज्ञानने लीधे पोताना स्वरूपने भूली जई हृदयथी सूक्ष्म-स्थूल-आदि शरीरोमां अहम्भाव करी बेसे छे, जे बिलकुल भ्रम ज छे, त्यारे तेनुं सत्त्वप्रधान मन भयङ्कर रजोगुण तरफ झूकी जाय छे तेनाथी व्याप्त थई जाय छे ॥९॥

मनमां रजोगुणनी प्रधानता थतां ज तेमां सङ्कल्प-विकल्पो एक पछी एक थतां ज रहे छे. त्यारबाद ते विषयोनुं चिन्तन करवा लागे छे अने पोतानी अविद्यायुक्त दुर्बुद्धिथी कामने वश थाय छे जेमान्थी पछी छूटवुं बहु मुश्केल छे ॥१०॥

पछी ते अज्ञानी मनुष्य कामने लीधे अनेक प्रकारनां कामो करवा लागे छे अने इन्द्रियोने अधीन थई जई आ कर्मोनुं अन्तिम फल दुःख ज छे एम जाणवा छतां ते ज करे छे ते वखते ते रजोगुणना तीव्र वेगथी अत्यन्त मोहित थई गयेलो रहे छे ॥११॥

जो के विवेकी पुरुषनुं चित्त पण क्यारेक-क्यारेक रजोगुण अने तमोगुण ना वेगथी विक्षिप्त थाय छे तो पण तेनी विषयोमां दोषदृष्टि रहेती होवाथी ते घणी सावधानीथी पोताना चित्तने एकाग्र करवानी चेष्टा करतो रहे छे जेथी तेने विषयोमां आसक्ति थती नथी. (केसर कस्तुरीवाळुं कढेल मीठुं दूध जेने आपवामां आवे पण पीनारने [[३७४]] खबर पडी जाय के आमां तो झेर भेळववामां आव्युं छे तो ते दूध पीवानी मूर्खता करतो नथी. तेवी ज रीते विषयो विषरूप छे एवुं समजीने विषयो छोडवा) ॥१२॥

साधके आसन अने प्राणवायु उपर विजय प्राप्त करी शक्ति अने समय प्रमाणे घणी ज सावधानीथी धीरे-धीरे मारामां मन लगावीने आ प्रमाणे अभ्यास करतां-करतां विलम्ब थाय तो पण कण्टाळ्या वगर वधु उत्साहथी तेमां ज लागी जवुं जोईए ॥१३॥

हे प्रिय उद्धव! मारा शिष्यो सनक वगेरे मोटा-मोटा ऋषिओए योगनुं ए ज स्वरूप बताव्युं छे के साधके पोताना मनने चारेय तरफथी खेञ्ची मारां विराट वगेरे स्वरूपोमां नहि पण साक्षात्‌ मारामां ज पूर्ण रूपथी लगावी देवुं जोईए ॥१४॥

उद्धवजीए कह्युं - ब्रह्माजी अने महादेवजी ना पण सुखदाता हे केशव! आपे जे वखते जे रूपथी सनकादि परमर्षिओने योगनो आदेश आप्यो हतो ते रूपने जाणवानी मारी इच्छा छे ॥१५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजीना मानस पुत्रो छे. तेमणे एकवार पोताना पिताने योगनी सूक्ष्म अन्तिम सीमाना सम्बन्धमां आ प्रमाणे प्रश्न कर्यो हतो ॥१६॥

सनकादि परमर्षिओए पूछयुं - हे पिताजी! चित्त गुणो अर्थात्‌ विषयोमां घूसेलुं ज रहे छे अने गुणो पण चित्तनी एक-एक वृत्तिमां प्रविष्ट रहे ज छे. अर्थात्‌ चित्त अने गुण अरस-परस गूञ्चवायेलां ज रहे छे. एवी स्थितिमां जे पुरुष आ संसार-सागरने तरी जई मुक्त थवा मागे छे ते आ बन्नेने एकबीजाथी जुदा शी रीते पाडी शके? ॥१७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोल्या - हे प्रिय उद्धव! जो के ब्रह्माजी बधा देवताओना शिरोमणि, स्वयम्भू अने प्राणीओना जन्मदाता छे छतां सनकादि परमर्षिओए आ प्रमाणे पूछतां, ध्यान करीने पण ते आ प्रश्ननुं मूल कारण न समजी शक्या, कारण के तेमनी बुद्धि कर्मप्रवण-कर्मविक्षिप्त हती ॥१८॥

हे उद्धव! ते वखते ब्रह्माजीए आ प्रश्ननो उत्तर आपवामाटे भक्ति-भावथी मारुं चिन्तन कर्युं त्यारे हंसनुं रूप धारण करी हुं तेमनी समक्ष प्रगट थयो ॥१९॥

मने जोईने सनकादि ब्रह्माजीने आगळ करी मारी पासे आव्या अने तेमणे मारा चरणोमां वन्दना करी मने पूछयुं, ‘‘आप कोण छो?’’ ॥२०॥

[[३७५]] हे प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थ तत्त्वना जिज्ञासु हता तेथी तेना पूछवाथी में तेमने ते वखते ज कह्युं ते तमे मारी पासेथी साम्भळो ॥२१॥

तमारो आ प्रश्न आत्मा विषे छे के तेनी उपाधि देह विषे छे? जो आत्मा विषे होय तो हे ब्राह्मणो! परमार्थरूप वस्तु नानात्व (पृथकत्व) थी रहित अर्थात्‌ एक ज होवाथी आप लोकोनो आवो प्रश्न युक्ति सङ्गत केवी रीते होई शके? अथवा जो उत्तर आपवामाटे हुं बोलुं तो पण कई जाति, गुण, क्रिया अने सम्बन्ध वगेरेनो आश्रय लईने उत्तर आपुं? ॥२२॥

प्रश्न जो देह विषे होय तो देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी वगेरे बधां शरीर पञ्चमहाभूतनां बनेलां होवाथी अभिन्न एक ज छे अने परमार्थरूपथी पण अभिन्न छे. आवी स्थितिमां आप लोकोनो प्रश्न ‘‘आप कोण छो?’’ ए मात्र वाणीनो व्यवहार छे. विचारपूर्वकनो नथी तेथी अर्थ वगरनो छे ॥२३॥

मनथी, वाणीथी, दृष्टिथी तथा बीजी इन्द्रियोथी पण जे कंई ग्रहण करवामां आवे छे ते बधुं हुं ज छुं, मारा सिवाय बीजुं कंई छे ज नहि. आ सिद्धान्त आप लोको तत्त्वविचारथी समजीलो ॥२४॥

(एम सामान्यतः आत्मानुं स्वरूप बतावीने ब्रह्माजीथी पण जेनो उत्तर न आपी शकायो एवो जे प्रश्न सनकादिके करेलो तेनो उत्तर भगवान्‌ हंसनुं रूप धारण करीने कहे छे के) हे पुत्रो! आ चित्तमां चिन्तन करतां-करतां विषयाकार थई जाय छे अने विषयो चित्तमां प्रवेश करे छे ए वात साची, तो पण विषयो अने चित्त आ बन्नेय मारा स्वरूपभूत जीवना उपाधिरूप देहने कारणे छे एटले के आत्मानो चित्त अने विषयोनी साथे कोई सम्बन्ध ज नथी ॥२५॥

तेथी वारंवार विषयोनुं सेवन करता रहेवाथी जे चित्त विषयोमां आसक्त थई जाय छे अने विषयो पण चित्तमां प्रविष्ट थई गया छे एवा ए बन्नेने मारा स्वरूपनो साक्षात्कार करीने (एटले के मारा ज चिन्तन अने स्मरणद्वारा) छोडी देवा जोईए ॥२६॥

जाग्रत, स्वप्न अने सुषुप्ति ए त्रणेय अवस्थाओ अनुक्रमे सत्त्व, रज अने तमोगुण अनुसार थाय छे अने बुद्धिनी वृत्तिओ छे, सच्चिदानन्दनो स्वभाव नथी. जीव आ वृत्तिओनो साक्षी होवाथी तेमनाथी विलक्षण जुदो ज छे. श्रुति, युक्ति अने अनुभूतिद्वारा आ सिद्धान्त नककी थयेलो छे ॥२७॥

[[३७६]] कारण के बुद्धि-वृत्तिओ द्वारा थतुं आ बन्धन ज आत्मामां त्रिगुणमयी वृत्तिओनुं दान करे छे तेथी त्रणे अवस्थाओथी विलक्षण अने तेमनामां अनुगत मारा तुरीय (चोथा) तत्त्वमां स्थित थई जई आ बुद्धिना बन्धननो त्याग करी दे त्यारे विषय अने चित्त बन्नेनो एकी साथे त्याग थई जाय छे ॥२८॥

आ बन्धन अहङ्कारनी ज रचना छे अने ए ज आत्माना परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान अने परमानन्द स्वरूपने छुपावी दे छे ए वात जाणीने विरक्त थई जाय अने पोताना त्रण अवस्थाओमां अनुगत चोथा स्वरूपमां स्थित थई जई संसारनां बन्धन अने चिन्ताथी मुक्त थाय ॥२९॥

ज्यां सुधी पुरुषनी भिन्न-भिन्न पदार्थोमां सत्यपणानी बुद्धि, अहम्बुद्धि अने ममबुद्धि युक्तिओ द्वारा दूर थई जती नथी त्यां सुधी ते अज्ञानी जागतो होवा छतां सूतेला जेवो ज रहे छे. जेवी रीते स्वप्न अवस्थामां सूतेलो माणस एम ज समजे छे के हुं जागुं छुं तेम अज्ञान अवस्थामां आ देह ए ज आत्मा छे एम मानवामां आवे छे. जाग्या पछी ज खबर पडे छे के आ तो स्वपन हतुं. तेम ज्ञान थया पछी ज देह ए आत्मा नथी एवुं ज्ञान थाय छे ॥३०॥

आत्मा सिवाय देह वगेरे देखाता अने अनुभवाता नाम-रूपात्मक प्रपञ्चनुं कोई अस्तित्व ज नथी तेथी तेने लीधे नीपजेला वर्णाश्रम वगेरे भेद, स्वर्ग वगेरे फल अने तेमनां कारणरूप कर्म आ बधुं ज जेवी रीते स्वप्न जोनार पुरुषने माटे स्वप्नमां जोयेला बधा पदार्थो मिथ्या ज छे तेवी ज रीते आ आत्माने माटे तो मिथ्या ज छे ॥३१॥

जाग्रत्‌ अवस्थामां समस्त इन्द्रियो द्वारा बहार देखाता सम्पूर्ण क्षणभङ्गुर पदार्थोनो जे अनुभव करे छे अने स्वप्न अवस्थामां हृदयमां ज जाग्रत अवस्थामां देखेला पदार्थोनी जेम ज वासनामय विषयोनो जे अनुभव करे छे अने सुषुप्ति अवस्थामां ते बधां विषयोने समेटी लई तेमना लयनो पण अनुभव करे छे ते एक ज छे. जाग्रत अवस्थानी इन्द्रिय स्वपन अवस्थाना मन अने सुषुप्तिनी संस्कारवाळी बुद्धिनो पण ते ज स्वामी छे, कारण के ते त्रिगुणमय त्रणेय अवस्थाओनो साक्षी छे. ‘‘जे हुं ए स्वप्न जोयुं, जे हुं सूतो ते ज हुं जागी रह्यो छुं.थ आ स्मृतिना आधारे एक ज आत्मा समस्त अवस्थाओमां छे ते सिद्ध थई जाय छे ॥३२॥

[[३७७]] एवो विचार करी मननी आ त्रणेय अवस्थाओ गुणोद्वारा मारी मायाथी मारा अंशस्वरूप जीवमां कल्पी लेवामां आवी छे अने आत्मामां ए तद्‌दन असत्य छे एवो निश्चय करी तमे लोको अनुमान, सत्पुरुषोद्वारा करवामां आवेल उपनिषदोनो उपदेश अने तीक्ष्ण ज्ञानरूपी तलवारथी बधा संशयोना आधार अहङ्कारने छेदी नाखी हृदयमां रहेला मारुं परमात्मानुं भजन करो ॥३३॥

(अनुमान कहे छे) आ जगत्‌ मननो विलास छे. आत्मामां देवत्व, मनुष्यत्व, सुख, दुःख वगेरे देखाय छे छतां नष्टप्राय छे, अलातचक्र (ऊम्बाडिया) नी जेम अत्यन्त ञ्चचल छे अने भ्रम मात्र छे एम समजो. ज्ञाता अने ज्ञेयना भेद थी रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ज अनेक होय तेम प्रतीत थई रह्यो छे. आ स्थूल शरीर, इन्द्रिय अने अन्तःकरणरूप त्रण प्रकारनो विकल्प गुणोना परिणामनी रचना छे अने स्वपननी जेम मायानो खेल छे, अज्ञानथी कल्पित छे ॥३४॥

तेथी ए देह वगेरे रूप दृश्य उपरथी दृष्टि हटावी लई तृष्णारहित इन्द्रियोना व्यापार छोडी दई, निरीह थई (बधी चेष्टाओ छोडी दई) आत्मानन्दना अनुभवमां मग्न थई जाय. जो के क्यारेक-क्यारेक आहार आदि करती वखते आ देहादि प्रपञ्च जोवामां आवे छे तो पण तेनो तो पहेलेथी ज आत्मवस्तुथी अलग अने मिथ्या समजीने त्याग करी देवामां आव्यो छे तेथी ते फरीथी भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करी शक्तो नथी. देह पडी जाय त्यां सुधी तेनी तेनी प्रतीति संस्कार रूपे ज थाय छे ॥३५॥

मदिरापानथी उन्मत्त थई गयेल माणस जेवी रीते पोते पहेरेलुं वस्त्र शरीर उपर छे के खसी गयुं छे तो ते जोतो नथी तेवी ज रीते सिद्ध पुरुष जे देहथी तेणे पोताना स्वरूपनो साक्षात्कार कर्यो छे ते प्रारब्ध वश ऊभो छे, बेठो छे या दैववश कयांय गयो छे के कयांयथी आव्यो छे नाशवन्त शरीर सम्बन्धी आ वातो उपर ते ध्यान आपतो नथी ॥३६॥

प्राण अने इन्द्रियो नी साथे आ शरीर पण प्रारब्धने अधीन छे. तेथी तेनां आरम्भक (बनाववावाळां) कर्मो ज्यां सुधी छे त्यां सुधी तेमनी प्रतिक्षा करतो ज रहे छे, परन्तु जेवी रीते जागी गयेलो पुरुष स्वपन अवस्थाना देह वगेरेनो क्यारेय स्वीकार करतो नथी, पोताना मानतो नथी तेवी ज रीते आत्म तत्त्वनो साक्षात्कार करवावाळो तथा समाधिपर्यन्त योगमां आरूढ पुरुष स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपञ्च [[३७८]] सहित ते शरीरनो फरी कदी स्वीकार करतो नथी, पोतानां मानतोनथी ॥३७॥

हे सनकादि ऋषिओ! में तमने जे कंई क्ह्युं छे ते साङ्ख्य अने योग बन्नेनुं गोपनीय रहस्य छे. हुं स्वयं भगवान्‌ छुं. तमने सर्वने तत्त्वज्ञाननो उपदेश करवामाटेज हुं अर्ही आव्यो छुं एम समजो ॥३८॥

हे विप्रवरो! योग, साङ्ख्य, सत्य(समदर्शन), ऋत (मधुरवाणी), तेज, श्री, कीर्ति अने दम(इन्द्रियनिग्रह) आ बधानी परम गति-परम फलरूप प्राप्तव्य वस्तु हुञ्ज छुम् ॥३९॥

हुं समस्त गुणोथी रहित छुं अने कोईनीय अपेक्षा राखतो नथी. छतां साम्य, असङ्गता (अनासक्ति) वगेरे बधा गुणो मारुं ज सेवन करे छे, मारामां ज प्रतिष्ठित छे कारण के हुं बधानो हितैषी, सुहृद, प्रियतम अने आत्मा छुं. साचुं पूछो तो तेमने गुण कहेवा ए पण ठीक नथी कारण के तेओ सत्त्वादि गुणोनां परिणाम नथी अने नित्य छे ॥४०॥

हे प्रिय उद्धव! आ रीते में सनकादि मुनिओना संशयो दूर कर्या. तेमणे परम भक्तिपूर्वक मारी पूजा करी अने स्तुतिओ द्वारा मारा महिमानुं गान कर्युम् ॥४१॥

तैरहं पूजितः सम्यक्‌ संस्तुतः परमर्षिभिः ॥ प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः ॥४२॥

ज्यारे ते परम ऋषिओए सारी रीते मारी पूजा करी अने स्तुति करी लीधी त्यारे हुं (हंस स्वरूपे) ब्रह्माजीना देखतां ज अन्तर्धान थई स्वधाममां पाछो आव्यो ॥४२॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्यमुक्ति नामना प्रकरणनो आठमो अने चालु) ‘‘सत्त्वगुणथी विद्यानो उदय कहीने भगवान्‌ हंसे चित्त अने गुण नो भेद बताव्यो’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय १४

सर्व साधनोमां भक्तियोग श्रेष्ठ छे वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ॥ [[३७९]] तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥१॥

उद्धवजीए पूछ्‌युं - हे श्रीकृष्ण! वेदवादी माहात्माओ आत्मकल्याणनां अनेक साधनो बतावे छे. तेमां पोत-पोतानी दृष्टि अनुसार बधां साधन श्रेष्ठ छे के कोई एक साधन मुख्य छे? ॥१॥

हे स्वामी! हमणां ज आपे तो भक्तियोगने ज निरपेक्ष अने स्वतन्त्र साधन बताव्युं छे; कारण के तेनाथी ज बधामान्नी आसक्ति छोडी दई मन आपमां ज तन्मय थई जाय छे ॥२॥

(तेथी भक्ति महाफलरूप छे, बीजां साधन तो जीवे पोतानी प्रकृति अनुसार स्वर्गादि मेळववानी आसक्तिने लईने कल्पेलां छे ते थोडा फळवाळां छतां तेने ए लोकोए प्राधान्य आप्युं छे एम कहेवाने माटे स्वप्रकृतिने अनुकूळ लोकोए वेदना अर्थो कर्या छे एम कहे छे). भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! आ वेद वाणी समयनी उथल-पाथलथी प्रलय समये लुप्त थई गई हती. फरीथी ज्यारे सृष्टिनो समय आव्यो त्यारे में मारा सङ्कल्पथी ज तेनो ब्रह्माजीने उपदेश कर्यो जेमां मारा भागवत धर्मनुं ज वर्णन छे ॥३॥

ब्रह्माजीए पोतानां ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुने उपदेश कर्यो अने तेनी पासेथी भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य अने क्रतु आ सात प्रजापति-महर्षिओए ग्रहण कर्यो ॥४॥

त्यार पछी आ ब्रह्मर्षिओनां सन्तान देवो, दानवो, गुह्यको, मनुष्यो, सिद्धो, गन्धर्वो, विद्याधरो, चारणो, किन्देवो१, किन्नरो२, नागो, राक्षसो अने किम्पुरुषो३ वगेरेए तेने पोताना पूर्वज आ ज ब्रह्मर्षिओ पासेथी प्राप्त कर्यो. बधी जातिओ अने व्यक्तिओ ना स्वभाव-तेमनी वासनाओ सत्त्व, रज अने तमो गुणने लीधे भिन्न-भिन्न छे. तेथी तेमनामां अने तेमनी बुद्धि वृत्तिओमां पण अनेक भेद छे. तेथी ज तेओ बधा पोतपोतान प्रकृति प्रमाणे ते वेदवाणीना भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करे छे. ते वाणी ज एवी अलौकिक छे के तेमान्थी जुदा-जुदा अर्थ नीकळे ए स्वाभाविक ज छे ॥५-७॥

विशेषः १. किन्देव - श्रम, पसीनो अने दुर्गन्ध रहित होवाथी जेमने विषे ‘‘आ देवता छे के मनुष्य’’ एवो सन्देह थाय ते बीजा द्वीपमां रहेता मनुष्यो. २. ‘किन्नर’ - मुख अने शरीर नी आकृति उपरथी थोडां-थोडां मनुष्यना जेवां लागतां प्राणी. ३. ‘किम्पुरुष’ - आंशिक रीते [[३८०]] पुरुष जेवा लागता वानरवगेरे. ते ज प्रमाणे स्वभावनो भेद तथा परम्परागत उपदेशना भेदथी मनुष्योनी बुद्धिमां भिन्नता आवी जाय छे अने केटलाक तो कोई जातना विचार कर्या विना ज वेदविरुद्ध पाखण्ड मतनुं अवलम्बन करता थई जाय छे ॥८॥

हे प्रिय उद्धव! बधानी बुद्धि मारी मायाथी मोहित थई रही छे तेथी ज तेओ पोत-पोताना कर्म, संस्कार अने पोत-पोतानी रुचि प्रमाणे आत्मकल्याणनां साधन पण एक नहि अनेक बतावे छे ॥९॥

पूर्वमिमांसको धर्मने, साहित्याचार्य यशने, कामशास्त्री कामने, योगवेत्ता सत्य अने शमदमादिने, दण्डनीतिकार ऐश्वर्यने, त्यागी त्यागने अने *लोकायतवादीओ भोगने ज मनुष्य जीवननो स्वार्थ परम लाभ बतावे छे ॥१०॥

विशेष - लोकायतवादी (चार्वाकवादी)ओ परलोक जेवी कोई वस्तु ज नथी एम माननारा. कर्मयोगी लोक यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम वगेरेने पुरुषार्थ बतावे छे परन्तु ए बधां कर्म छे. एमनां फलरूपे जे लोकनी प्राप्ति थाय छे ते उत्पत्ति अने नाशवाळा छे. कर्मोनुं फल समाप्त थई जतां तेमनाथी दुःख ज मळे छे अने साचुं पूछो तो तेमनी अन्तिम गति घोर अज्ञानज छे. तेमान्थी सुख मळे छे ते तुच्छ छे, नगण्य छे अने ते लोक भोग दरमियान पण असूया वगेरे दोषोने लीधे शोकथी परिपूर्ण छे. (तेथी आ विभिन्न साधनोना चक्करमां पडवुं जोईएनहि) ॥११॥

हे (सभ्य) उद्धव! जे बधी ज रीते निरपेक्ष छे, कोईपण कर्म के फल नी जेने जरूर ज जणाती नथी अने जे पोताना अन्तःकरणने सर्व रीते मने ज समर्पित करी चूकयो छे तेने ज परमानन्द स्वरूप हुं एना आत्माना रूपमां स्फुरायमान थवा लागुं छुं तेथी ते जे सुखनो अनुभव करे छे ते सुख विषयलोलुप प्राणीओने सर्वथा मळी शक्तुं नथी ॥१२॥

जे दरेक प्रकारना सङ्ग्रह-परिग्रहथी रहित छे, अकिञ्चन छे, जे पोतानी इन्द्रियो उपर विजय मेळवी शान्त अने समदर्शी थई गयो छे, जे मारी प्राप्तिथी ज मारा सान्निध्यनो अनुभव करवाथी ज सदा सर्वदा पूर्ण सन्तोषनो अनुभव करे छे तेने माटे सर्व दिशाओ आनन्दमय होय छे ॥१३॥

जेणे पोतानी जातने मने समर्पित करी दीधी छे ते मने छोडीने ब्रह्माजीनुं पद, देवराज इन्द्रनुं स्थान, सार्वभौम सम्राटनुं पद, स्वर्गथी पण श्रेष्ठ रसातलनुं [[३८१]] आधिपत्य, योगनी मोटी-मोटी सिद्धिओ के मोक्ष नी सुद्धानी कामना (इच्छा) करतो नथी ॥१४॥

हे उद्धव! तमारा जेवा प्रेमी भक्तो मने जेटला वहाला छे तेटला वहाला मारा पुत्र ब्रह्मा, पौत्र शङ्कर, सगा भाई बलदेवजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी अने मारो पोतानो आत्मा पण नथी ॥१५॥

जेने कोईनी कंई ज अपेक्षा नथी, जे प्रपञ्चने सर्वथा भूली जई मारा ज मनन-चिन्तनमां तल्लीन रहे छे अने कोईना प्रत्ये राग द्वेष न राखतां बधाना प्रत्ये समान दृष्टि राखे छे ते भक्तनी पाछळ-पाछळ हुं फर्या करुं छुं के जेथी करीने तेना चरणोनी धूलि ऊडी मारा उपर पडी जाय तो हुं पवित्र थई जाउं. (भगवान्‌नुं विवशताथी लीधेलुं एक नाम महापापीने पण पवित्र करी दे छे ते भगवान्‌ पवित्र थवानी वात एटलामाटे करे छे के भक्तनी चरणरजथी भगवान्‌नी अन्दर रहेलां कोटानकोटि ब्रह्माण्डो पवित्र थई जाय. वळी भगवान्‌ भक्त भक्तिमान-भक्तोनी भक्ति करनारां सदा एम ज माने छे के मारा भक्तोनी भक्तिना बदलामां मारे जेटलुं आपवुं जोईए तेटलुं हुं आपी शक्तो नथी तेथी मारा भक्तोना चरण रज मारा उपर पडी जाय तो मारा ते अपराधनुं प्रायश्चित थई जाय अने हुं पवित्र थई जाउं) ॥१६॥

जे बधी जातना सङ्ग्रह-परिग्रहथी रहित छे, जेमनुं चित्त मारा ज प्रेमना रङ्गमां रङ्गाई गयुं छे, जे संसारनी वासनाओथी शान्त-उपरत थई चूकया छे अने जे पोतानी महत्ता-उदारदाने लीधे स्वभावथी ज समस्त प्राणीओ प्रत्ये दया अने प्रेमनो भाव राखे छे, कोई प्रकारनी कामना जेमनी बुद्धिनो स्पर्श करी शक्ती नथी तेमने मारा जे परमानन्द स्वरूपनो अनुभव थाय छे ते बीजो कोई जाणी शक्तो नथी, कारणके ते परमानन्द तो केवल निरपेक्षताथीज प्राप्त थायछे ॥१७॥

हे उद्धव! (मारा उत्तम भक्तनी वात जवा दो पण) मारो कोई पण भक्त जे मात्र मारे ज शरणे आव्यो छे पण हजु जितेन्द्रिय थई शकयो नथी अने जेने संसारना विषयो वारंवार हरक्त पहोञ्चाडया करे छे, पोतानी तरफ खेञ्ची लीधा करे छे ते पण मारी बहुधा क्षणे-क्षणे वधती जती भक्तिना प्रभावथी प्रायः विषयोथी पराजित थतो नथी. (जेवी रीते शत्रुए शस्त्रनो साधारण घा कर्यो होय छतां योद्धामां शौर्य होवाथी ते हारेलो न गणाय के जेवी रीते दरदीने ताव आव्यो होय अने ते दूर करवा जलद दवा आपवामां आवी होय अने दवा जे दिवसे आपवामां आवी होय ते दिवसे पण ताव आवे छतां [[३८२]] पण ते न आव्या बराबर छे, ताव बाधक होवा छतां बाधक नथी कारण के तेणे जवानुं छे ज अने बीजे दिवसे जाय पण छे. तेवी ज रीते मात्र मारे ज शरणे आवनारने विषयो बाधक बनी शक्ता नथी) ॥१८॥

(पोतानी भक्तिना महिमाथी भगवान्‌ने पोताने पण विस्मय थाय छे अने उद्धवजीने आनन्द मनाववानुं जाणे के कहेता होय एम कहे छे के) हे उद्धव (उत्सव)! जेवी रीते धधक्तो अग्नि काष्ठना मोटा ढगलाने पण बाळीने खाक करी नाखे छे तेवीज रीते मारी भक्ति पण समस्त पापराशिने सम्पूर्ण बाळी नाखेछे ॥१९॥

हे उद्धव! दररोज वधती जती मारी अनन्य प्रेममयी भक्ति मारी प्राप्ति करावी आपवा जेटली समर्थ छे तेटला समर्थ योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ के तप-त्याग पणनथी ॥२०॥

हुं भक्तोनो प्रियतम आत्मा छुं. हुं अनन्य श्रद्धा अने अनन्य भक्तिथी ज वश थाउं छुं. मने प्राप्त करवानो ते एक ज उपाय छे. जे जन्मथीज चाण्डाल छे ते लोकोने पण मारी अनन्य भक्तिपवित्र करी दे छे तेमना जाति दोषथी मुक्त करीदेछे ॥२१॥

मारी भक्ति विनाना पुरुषना चित्तने सत्य अने दया थी युक्त धर्म अने तपस्या सहितनी विद्या पण सारी रीते पवित्र करवा समर्थ नथी ॥२२॥

ज्यां सुधी आखा शरीरमां रोमाञ्च थई आवतो नथी, चित्त पीगळी जई गद्‌गद थई जतुं नथी, आनन्दनां आंसु आङ्खोमां ऊभरातां नथी तथा अन्तरङ्ग अने बहिरङ्ग भक्तिना पूरमां चित्त तरबोळ थई जतुं नथी त्यां सुधी तेना शुद्ध थवानी कोई शक्यता नथी ॥२३॥

हे उद्धव! जेनी वाणी प्रेमथी गद्‌गद थई रही छे, चित्त पीगळी जई भक्तिना प्रवाहमां वही रह्युं छे एक क्षणने माटे पण रुदन अटक्तुं नथी परन्तु जे क्यारेक- क्यारेक खडखडाट हसवा पण लागे छे तो क्यारेक वळी लाज शरम छोडी दई जोर- जोरथी गावा लागे छे तो क्यारेक वळी नाचवा लागे छे. मारो आवो भक्त, मात्र पोतानी जातने ज नहि, समग्र संसारने पण पवित्र करी दे छे ॥२४॥

जेवी रीते अग्निमां तपाववाथी सोनानो मेल बळी जाय अने सोनुं चोख्खुं थई जाय छे तेवी ज रीते मारी भक्तिद्वारा आत्मा कर्मवासनाओथी मुक्त थई जई मने ज प्राप्त थई जाय छे कारण के हुं ज तेनुं वास्तविक स्वरूप छुम् ॥२५॥

[[३८३]] हे उद्धव! जेवी रीते अञ्जन आञ्जवाथी नेत्रोना दोष मटी जई आङ्ख सूक्ष्मझीणी-झीणी वस्तुओ पण जोई शके छे तेवी ज रीते मारी परम पावन लीला कथाना श्रवण-कीर्तनथी जेम-जेम चित्तनो मेल दूर थाय छे तेम-तेम सूक्ष्म वस्तु वास्तविक तत्त्व मारा स्वरूपनुं दर्शन थवा लागे छे ॥२६॥

जे मनुष्य निरन्तर विषयोनुं चिन्तन कर्या करे छे तेनुं चित्त विषयोमां फसाई जाय छे अने जे निरन्तर मारुं ज स्मरण-चिन्तन करे छे तेनुं चित्त मारामां तल्लीन थई जाय छे ॥२७॥

तेथी तमे बीजां साधनो अने फलो नुं चिन्तन छोडी दो. अरे भाई! मारा सिवाय बीजुं कंई छे ज नहि, जे कंई जणाय छे ते स्वप्न के मनोरथना राज्य जेवुं ज छे. तेथी मारा चिन्तनथी तमे तमारुं चित्त शुद्ध करी लो अने तेने एकाग्रताथी मारामां ज लगाडी दो ॥२८॥

संयमी पुरुषे स्त्रीओ अने तेमना सङ्गीओनो (प्रेमीओनो)सङ्ग छोडीने पवित्र एकान्त स्थानमां बेसीने आळस त्यजीने खूबज सावधानीथी मारुञ्ज स्मरण अने चिन्तन एकाग्रतापूर्वककरवुम् ॥२९॥

हे प्रिय उद्धव! स्त्रीओनां सङ्गथी अने तेमनो सङ्ग करनार लम्पट पुरुषोना सङ्गथी पुरुष जेवा क्लेश अने बन्धन पामे छे तेवा क्लेश अने बन्धन बीजा कोईना पण सङ्गथी थतां नथी तेथी एवो दुष्टोनो सतत परित्याग करवो ॥३०॥

उद्धवजीए पूछ्‌युं - हे कमलनयन श्यामसुन्दर! मुमुक्षु (मोक्ष प्राप्त करवानी इच्छावाळा) पुरुषे आपना कया स्वरूपनुं केवी रीते अने केवा भावथी ध्यान करवुं जोईए तो ते बताववानी आप कृपा करो ॥३१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! जे बहुय उञ्चुं न होय तेमज बहुं नीचुं न होय एवा आसन उपर शरीर सीधुं राखी आरामथी बेसवुं, बे हाथ खोळामां राखवा अने नजर नाकना टेरवा स्थिर करवी ॥३२॥

त्यार पछी पूरक, कुम्भक अने रेचक तथा रेचक, कुम्भक अने पूरक आ प्राणायामोद्वारा नाडीओनुं शोधन करवुं. प्राणायामनो अभ्यास धीरे-धीरे वधारवो जोईए अने साथे-साथे इन्द्रियोने जीतवानो पण अभ्यास करवो जोईए॥३३॥

अ प्रमाणे कमलनी दाण्डीमान्ना पातळा तन्तु समान ‘ॐकार’नुं चिन्तन करवुं. प्राणायामद्वारा तेने उपर लई जवो अने तेमां घण्टानादनी जेम स्वर स्थिर करवो. ते [[३८४]] स्वरनो तन्तु तूटे नहि तेनुं ध्यान राखवुम् ॥३४॥

आ प्रमाणे दररोज त्रण वखत दस-दस वार ॐकार सहित प्राणायामनो अभ्यास करवो. आम करवाथी एक महीनामाञ्ज प्राणवायु वश थई जाय छे॥३५॥

त्यार पछी एवुं चिन्तन करे के हृदय एक कमल छे. ते शरीरनी अन्दर एवी रीते रहेलुं छे के तेनी दाण्डी तो उपर छे अने (केळना फूलनी जेम) मुख नीचेनी दिशामां छे. हवे एवुं ध्यान करवुं के तेनुं मुख उपर आवी जई खीली गयुं छे तेने आठ पाङ्खडीओ छे अने बराबर तेनी वच्चे पीळी अत्यन्त कोमळ कर्णिका (गादी) छे ॥३६॥

कर्णिका उपर क्रमशः सूर्य चन्द्रमा अने अग्नि नो न्यास करवो जोईए. त्यार पछी अग्निमां मारा आ स्वरूपनुं स्मरण करवुं जोईए. मारुं आ स्वरूप ध्यानने माटे अत्यन्त मङ्गलमयछे ॥३७॥

(केवा स्वरूपनुं ध्यान करवुं एनुं स्वरूप बतावे छे). मारा अवयवोनो घाट बहु सुडोल छे. रोम-रोमथी शान्ति टपके छे. मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित अने सुन्दर छे. घूण्टणो सुधी लाम्बी मनोहर चार भुजाओ छे. गरदन अत्यन्त सुन्दर अने मनोहर छे. मरक्तमणिना जेवा सुस्निग्ध कपोल छे. मुख उपर मन्द-मन्द मलकाटनी अनोखी छटा छे. बन्ने तरफना कान समान छे अने तेमां मकराकृत कुण्डल झगमग-झगमग करी रह्यां छे. वर्षाऋतुना मेघना जेवा श्यामल शरीर उपर पीताम्बर फरफरी रह्युं छे. श्रीवत्स अने लक्ष्मीजीनुं चिह्‌न वक्षःस्थल उपर जमणी अने डाबी बाजुए बिराजमान छे. चार हाथमां क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण करेलां छे. गळामां वनमाळा लटकी रही छे. चरणोमां नूपुर शोभी रह्यां छे. गळामां कौस्तुभमणि झगमगी रह्यो छे. पोत-पोताने स्थाने झळहळाट करतां किरीट, कङ्गन, करधनी अने बाजुबन्ध शोभी रह्यां छे. मारुं एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर अने हृदयहारी छे. सुन्दर मुख अने प्रेम भरी नजर कृपा प्रसादनी वर्षा करी रही छे. हे उद्धव! मारा आ सुकुमार रूपनुं ध्यान करवुं जोईए अने पोताना मनने एक-एक अङ्गमां लगाडवुं जोईए ॥३८-४१॥

बुद्धिमान पुरुषे मनद्वारा इन्द्रियोने तेमना विषयोमान्थी वाळी लई मनने बुद्धिरूप सारथिनी सहायथी मारा स्वरूपमां के स्वरूपना गमे ते अङ्गमां ज लगाडी देवी ॥४२॥

[[३८५]] ज्यारे समस्त शरीरनुं ध्यान थवा लागे त्यारे पोताना मनने खेञ्चीने एक ज स्थानमां स्थिर करे अने अन्य अङ्गोनुं चिन्तन न करतां सुन्दर स्मितवाळा मुखनुं ज ध्यान करवुम् ॥४३॥

ज्यारे चित्त मुखारविन्दमां स्थिर थई जाय त्यारे तेने त्यान्थी खेञ्चीने ब्रह्मरूप (आकाश) मां स्थिर करवुं. पछी तेनुं चिन्तन पण छोडी दई मारा स्वरूपमां आरूढ थई जईने मारा सिवाय बीजी कोई ज वस्तुनुं चिन्तन न करवुम् ॥४४॥

ज्यारे आ प्रमाणे चित्त स्थिर थई जाय छे त्यारे जेवी रीते एक ज्योत बीजी ज्योतमां मळी एक थई जाय छे तेवी ज रीते पोतानामां मने अने मारा सर्वात्मक स्वरूपमां पोतानो अनुभव करवा लागे छे ॥४५॥

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः ॥ संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यं ज्ञान क्रिया भ्रमः ॥४६॥

जे योगी आ प्रमाणे तीव्र ध्यान योगद्वारा मारामां ज पोताना चित्तने लगाडी दे छे तेना चित्तमान्थी वस्तुनी अनेक्ता ते सम्बन्धी ज्ञान अने तेनी प्राप्तिने माटे थतां कर्मोनो भ्रम तत्काळ निवृत्त थई जाय छे ॥४६॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्यमुक्ति नामना प्रकरणनो नवमो अने चालु) ‘‘सर्व साधनोमां भक्तियोग श्रेष्ठ छे’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ)हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो. दक्षिणा लईने कथा करनारना मनोभाव गटरना पाणी जेवा जाणवा. आवी कथानुं श्रवण न करवुं.

अध्याय १५

भगवत्प्राप्तिमां आडे आवनारी सिद्धिओ जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः ॥ मयि धारयतश्चेतः उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ॥१॥

ईं उं ईं उं

[[३८६]] भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - जेणे इन्द्रियोने अने प्राणने जीत्या छे अने जेणे धारणावडे मारामां मनने स्थिर कर्युं छे तेवा योगीने सिद्धिओ स्वतः प्राप्त थाय छे ॥१॥

उद्धवजी बोल्या - हे अच्युत! कई धारणावडे कई जातनी सिद्धि अने ए सिद्धि केवी रीते मळे छे, वळी सिद्धिओ केटली छे? आप ज योगीओने सिद्धिओनुं दान करनार होवाथी ए सिद्धिओनां स्वरूपने आप ज कहो ॥२॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! धारणा नामना योगना पारगामी विद्वानोए अढार प्रकारनी सिद्धिओ बतावी छे. तेमान्थी अणिमा वगेरे आठ सिद्धिओ पूर्णरूपथी मारामां ज रहे छे, बीजे तो मारा अनुग्रहथी अंशतः जाय छे. बाकीनी दस सिद्धिओथी तो मात्र विषयोनी प्राप्ति ज थई शके छे अने तेथी ते तुच्छ छे ॥३॥

तेमां ‘अणिमा’१ ‘महिमा’२ अने ‘लघिमा’३ नामनी त्रण सिद्धिओ तो शरीरनी छे. ‘प्राप्ति’४ ए इन्द्रियोनी एक सिद्धि छे. ‘प्राकाम्य’५ लौकिक अने पारलौकिक पदार्थोनो इच्छानुसार अनुभव करनारी सिद्धि छे. माया अने तेनां कार्योनुं इच्छानुसार सञ्चालन करनारी ‘ईशिता’६ नामनी सिद्धि छे ॥४॥

विशेष - १.अणिमा - मोटा रूपमान्थी नानुं रूप करवुं. २.महिमा - नाना रूपमान्थी मोटुं रूप करवुं. ३.लघिमा - भारे शरीरने हलकुं करवुं. ४.प्राप्ति - सर्व प्राणीओनी इन्द्रियाधिष्ठातृदेवरूपे सम्बन्धथवो. ५.प्राकाम्य - आ लोक परलोकना विषयभोग जोवानी शक्ति. ६. ईशिताः ईश्वरमां मायानी अने जीवमां मायाना अंशोनी प्रेरणा करवानी शक्ति. विषयोमां रहेवा छतां तेमां आसक्त न थवुं ‘वशिता’१ अने जे-जे सुखनी इच्छा करे तेनी छेल्ली सीमा सुधी पहोञ्ची जवुं ‘कामावसायिता’२ नामनी आठमी सिद्धि छे. आ आठेय सिद्धिओ मारामां स्वभावथी ज रहे छे अने जेमने हुं आपुं छुं तेमने ज अंशतः प्राप्त थाय छे ॥५॥

विशेष - १. वशिता - विषयना भोगमां सङ्ग न करवो. २. कामावसायिता (अवस्यती)ः जे- जे सुखनी इच्छा होय ते-ते सुखनी सीमाए पहोञ्चवुं. हवे बीजी दश सिद्धिओने कहे छे. शरीरमां अनुर्मिमत्व१, दूर श्रवण२, दूर दर्शन३, मनोजव४, कामरूप५. परकाय प्रवेश६ स्वच्छन्द मृत्यु७, देवोनी क्रीडा जोवी८, यथा सङ्कल्प संसिद्धि९ अने अज्ञानी अप्रतिहतसिद्धि१०-आ दश सिद्धिओ [[३८७]] विषयोनी प्राप्ति करावनार छे ॥६-७॥

विशेषः १. अनुमिमत्त्व - शरीरमां क्षुधा तृषानो अभाव.
२. दूर श्रवण - घणे दूरथी साम्भळवुं.
३. दूर दर्शन - घणे दूरना पदार्थो जोवा.
४. मनोजव - मननी साथेज शरीरनुं पण ते स्थाने पहोञ्चीजवुं.
५. कामरूप - इच्छामां आवे ते रूप धारण करी लेवुं.
६. परकाय प्रवेश - बीजाना शरीरमां प्रवेश करवो.
७. स्वच्छन्द मृत्यु - इच्छा थाय त्यारे देह त्याग करवो. (मरवुं).
८. देवोनी क्रीडा जोवी - अप्सराओनी साथे थती देवक्रीडा जोवी.
९. यथा सङ्कल्प संसिद्धि - सङ्कल्प प्रमाणे सिद्धि मेळववी.
१०.अज्ञानी अप्रतिहतसिद्धि - बधे स्थळे बधाद्वारा आनाकानी विना आज्ञापालन- कोई हुकमनो भङ्ग न करे. त्रिकालज्ञत्व१, अद्वन्द्व२, परचित्तने जाणवापणुं३ अग्नि, सूर्य, जल, झेरमां निर्विकार रहेवुं४, कोई थी पराभव न थई शके५-प्रथम गणावी तेनाथी विशेष आ पाञ्च सिद्धिओ पण योगीओने प्राप्त थाय छे ॥८॥

विशेष - १. त्रिकालज्ञत्व - भूत, भविष्य अने वर्तमान त्रणे काळनी वात जाणी लेवी.
२. अद्वन्द्व - ठण्डी-गरमी, सुख-दुःख अने राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोने वश न थवुं.
३. परिचित्तने जाणवापणुं - बीजाना मननी वात जाणी लेवी.
४. अग्नि सूर्य जल विष आदिनी शक्ति स्तम्भित करीदेवी.
५. अपराजिता - कोईथी पण पराजितन थवुं निश्चय जय मेळववो. हे प्रिय उद्धव! योगधारणा करवाथी जे सिद्धिओ प्राप्त थाय छे तेमनुं नाम साथे वर्णन करी दीधुं. हवे कई धारणाथी कई सिद्धि प्राप्त थाय छे ते बतावुं छुं ते साम्भळो ॥९॥

हे प्रिय उद्धव! पञ्चभूतोनी सौथी सूक्ष्म मात्राओ मारुं ज शरीर छे. जे साधक केवल मारा ते ज शरीरनी उपासना करे छे अने पोताना मनने तदाकार बनावी तेमां ज लगाडी दे छे; अर्थात्‌ मारा तन्मात्रात्मक शरीर सिवाय बीजी कोई चीजनुं चिन्तन करतो नथी तेने ‘अणिमा’ नामनी सिद्धि अर्थात्‌ पथ्थरनी चट्टाने वगेरेमा पण प्रवेश करवानी शक्ति-अणुता प्राप्त थई जाय छे ॥१०॥

[[३८८]] महत्तत्त्वना रूपमां पण हुं ज प्रकाशित थई रह्यो छुं अने ते रूपमां समस्त व्यावहारिक ज्ञानोनुं केन्द्र छुं. जे मारा ते-ते आकाश, पृथ्वी वगेरे रूपोमां पोताना मनने महत्तत्त्वाकार करीने तन्मय करी दे छे तेने ‘महिमा’ नामनी सिद्धि प्राप्त थाय छे अने ए ज प्रमाणे आकाश, पृथ्वी वगेरे पाञ्च महाभूतोमां जे मारां ज शरीर छे अलग-अलग मन लगाववाथी तेनी महत्ता प्राप्त थाय छे, आ पण ‘महिमा’ सिद्धिमां ज अन्तर्गत छे ॥११॥

जे योगी वायु वगेरे चार भूतोना परमाणुओने मारुं ज स्वरूप समजी चित्तने तदाकार करी दे छे तेने ‘लघिमा’ (वजनविहीनता, वजन बिलकुल न होवुं तेवी स्थिति) सिद्धि प्राप्त थई जाय छे. तेने परमाणु रूप *कालनी जेम सूक्ष्म वस्तु बनवानी शक्ति प्राप्त थई जाय छे ॥१२॥

विशेष - पृथ्वी वगेरेनां परमाणुओमां गुरुत्ववजन होय छे. तेथी तेनो पण निषेध करवामाटे कालना परमाणुनी समानता कही छे. जे सात्त्विक अहङ्कारने मारुं स्वरूप समजी मारा ते ज रूपमां चित्तनी धारणा करे छे ते बधी इन्द्रियोनो अधिष्ठाता थई जाय छे. मारुं चिन्तन करनारो भक्त आ प्रमाणे ‘प्राप्ति’नामनी सिद्धि प्राप्त करीलेछे ॥१३॥

जे पुरुष महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मा एवा मारामां पोतानुं चित्त स्थिर करे छे तेने मारा अव्यक्त जन्मा (सूत्रात्मा) नी सर्वोत्कृष्ट ‘प्राकाम्य’ नामनी सिद्धि प्राप्त थाय छे. (क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व ए ज सूत्र) ‘प्राकाम्य’ नामनी सिद्धिथी दृष्ट अदृष्ट बधा भोग इच्छानुसार प्राप्त थई जाय छे ॥१४॥

जे त्रिगुणमयी मायाना स्वामी मारा कालस्वरूप विश्वरूपनी धारणा करे छे ते शरीरो अने जीवोने पोतानी इच्छा प्रमाणे प्रेरित करवानुं सामर्थ्य प्राप्त करी ले छे. आ सिद्धिनुं नाम ‘ईशित्व’ छे ॥१५॥

जे योगी मारा नारायण स्वरूपमां जेने तुरीय अने भगवान्‌ पण कहे छे मनने लगावी दे छे तेनामां मारा स्वाभाविक गुण प्रगट थवा लागे छे अने तेने ‘वशिता’ नामनी सिद्धि प्राप्त थई जाय छे. (आथी गुणकार्यो-विषयोमां-अनासक्ति प्राप्त थई जाय छे) ॥१६॥

निर्गुण ब्रह्म पण हुं ज छुं. जे पोतानुं निर्मल मन मारा आ ब्रह्मस्वरूपमां स्थिर करी दे छे तेने परमानन्द स्वरूप ‘कामावसायिता’ नामनी सिद्धि प्राप्त थाय छे. [[३८९]] आ सिद्धि मळवाथी तेनी बधी कामनाओ पूर्ण थई जाय छे, समाप्त थई जाय छे ॥१७॥

श्वेतद्वीपना स्वामी तरीकेनुं मारुं स्वरूप अत्यन्त शुद्ध अने धर्ममय छे. जे स्वरूपनी धारणा करे छे ते भूख-तरस, जन्म-मृत्यु अने शोक-मोह आ छ ऊर्मिओथी मुक्त थई जाय छे अने तेने शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति थाय छे ॥१८॥

हुं ज समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा छुं. जे मारा आ स्वरूपमां मनद्वारा अनाहत नादनुं चिन्तन करे छे ते ‘दूर श्रवण’ नामनी सिद्धिथी सम्पन्न थई जाय छे अने आकाशमां के घणे दूर रहेलां विविध प्राणीओनी बोली साम्भळी अने समजी शके छे ॥१९॥

जे योगी नेत्रोने सूर्यमां अने सूर्यने नेत्रोमां संयुक्त करी दे छे अने बन्नेना संयोगमां मनमां मारुं ध्यान करे छे तेनी दृष्टि सूक्ष्म थई जाय छे. तेने ‘दूर दर्शन’ नामनी सिद्धि प्राप्त थाय छे अने ते समग्र विश्वने जोई शके छे ॥२०॥

मन अने शरीर ने प्राणवायु सहित मारी साथे संयुक्त करी दे अने मारी धारणा करे तो तेथी ‘मनोजव’ नामनी सिद्धि प्राप्त थई जाय छे. तेना प्रभावथी ते योगी ज्यां पण जवानो सङ्कल्प करे छे ते ज क्षणे तेनुं शरीर त्यां पहोञ्ची जाय छे ॥२१॥

जे वखते योगी मनने उपादान-कारण बनावी कोई देवता वगेरेनुं रूप धारण करवा इच्छे छे तो ते धार्या प्रमाणे तेवुं ज रूप धारण करी ले छे. आनुं कारण ए छे के तेणे पोताना मनने मारी साथे जोडी दीधुं छे ॥२२॥

जे योगी बीजा शरीरमां प्रवेश करवा मागतो होय ते एवी भावना करे के हुं ते ज शरीरमां छुं. एम करवाथी तेना प्राण वायुरूप धारण करी ले छे अने ते एक फूल उपरथी बीजा फूल उपर जनारा भमरानी जेम पोतानुं शरीर छोडी दई बीजा शरीरमां प्रवेश करे छे ॥२३॥

योगीने जो शरीर छोडी देवुं होय तो एडीथी गुदाद्वारने दबावी प्राणवायुने क्रमशः हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ अने मस्तक मां लई जाय; पछी ब्रह्मरन्ध्रद्वारा तेने ब्रह्ममां लीन करी दई शरीर छोडी दे ॥२४॥

जो तेने देवताओना विहारस्थलोमां क्रीडा करवानी इच्छा थाय तो मारा शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपनी भावना करे. आम करवाथी सत्त्वगुणनी अंशरूप सुर सुन्दरीओ विमान पर चडी तेनी पासे पहोञ्ची जाय छे ॥२५॥

[[३९०]] जे पुरुषे मारा सत्यसङ्कल्प स्वरूपमां पोतानुं चित्त स्थिर करी दीधुं छे तेना ज ध्यानमां सारी रीते लागेलो छे ते पोताना मनथी जे समये जेवो सङ्कल्प करे छे ते ज वखते तेनो ते सङ्कल्प सिद्ध थई जाय छे ॥२६॥

हुं ‘ईशत्व’ अने ‘वशित्व’ बन्ने सिद्धिओनो स्वामी छुं तेथी कदीय कोई मारी आज्ञा उथापी शक्तुं नथी. जे मारा ते रूपनुं चिन्तन करतो-करतो ते ज भावथी युक्त थई जाय छे तेनी आज्ञानो पण कोई, मारी आज्ञानी जेम ज, अनादर करी शक्तो नथी ॥२७॥

जे योगीनुं चित्त मारी धारणा करतां-करतां मारी भक्तिना प्रभावथी शुद्ध थई गयुं छे तेनी बुद्धि जन्म-मृत्यु वगेरे अदृष्ट विषयो पण जाणी ले छे. बीजुं तो शुं भूत, भविष्य अने वर्तमान त्रणेय कालनी बधी ज घटनाओ तेने प्रत्यक्षनी जेम देखाय छे ॥२८॥

जेवी रीते जलथी जलमां रहेनारां प्राणीओनो नाश थतो नथी तेवी ज रीते जे योगीए पोतानुं चित्त मारामां लगावी दई शिथिल करी दीधुं छे तेना योगमय शरीरने अग्नि, जल वगेरे कोईपण पदार्थ नष्ट करी शक्ता नथी ॥२९॥

जे पुरुष श्रीवत्स वगेरे चिह्‌न अने शङ्ख, गदा, चक्र, पद्म वगेरे आयुधोथी विभूषित तथा ध्वजा, छत्र, चमर वगेरे युक्त मारा अवतारोनुं ध्यान करे छे ते अजेय थई जाय छे ॥३०॥

आ प्रमाणे जे विचारवान पुरुष मारी उपासना करे छे अने योगधारणाद्वारा मारुं चिन्तन करे छे तेने में वर्णन करेली बधी सिद्धिओ प्राप्त थई जाय छे ॥३१॥

जेणे इन्द्रियो, श्वास अने मन ने जीती लीधां छे, मौन राखे छे, मारामां मनने स्थिर करे छे तेने कई सिद्धि दुर्लभ होई शके? कोई सिद्धि तेने दुर्लभ नथी ॥३२॥

छतां योगीए ए सिद्धिओनी इच्छा करवी नहि केमके मारी उपासना रूप उत्तम प्रकारनो योग साधता अने मने जल्दी मळवाने इच्छता योगीमाटे ए सिद्धिओ विघ्नरूप अने समयनो बगाड छे केमके ए भोगववामां घणो काळ जवाथी मारी प्राप्तिमां विलम्ब थाय छे ॥३३॥

आ जगतमां जन्म, ओषधि, तप तथा मन्त्रोथी जेटली सिद्धिओ प्राप्त थाय छे ते बधी केवळ मारामां मननो योग करवाथी मळे छे. परन्तु मारा योगनी [[३९१]] अन्तिम सीमा-मारुं सारूप्य, सालोक्य वगेरेनी प्राप्ति मारामां चित्त लगाव्या विना बीजा कोई पण साधनथी प्राप्त थई शक्ती नथी ॥३४॥

ब्रह्मवादीओए योग, साङ्ख्य, धर्म वगेरे घणां साधनो बताव्यां छे. तेमनो अने समस्त सिद्धिओनो एकमात्र लक्ष्य, स्वामी अने प्रभु हुं छुं तेथी मनेज प्राप्त करवानी इच्छा राखवी एज उत्तम छे ॥३५॥

अहमात्माऽऽन्तरो बाह्योनावृतःसर्वदेहिनाम्‌ ॥ यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ॥३६॥

सर्वप्राणीओनो आत्मा हुं छुं, हुं एमनी अन्दर अन्तर्यामीरूपे रहुं छुं पण एनाथी हुं एटलो ज छुं एम समजवानुं नथी. ए बधा मारा परिच्छेदक नथी केमके हुं एमनी अन्दर छुं तेम एमनाथी बहार पण छुं. जेम जरायुज, स्वेदज, अण्डज अने उद्‌भिज्ज नामना चतुर्विध प्राणीओमां पञ्चमहाभूतो रह्या छे छतां एनी बहार पण छे तेम हुं सर्वनी अन्दर बहार रहेनार व्यापक होवाथी सर्वनियामक छुं ॥३६॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो दशमो अने चालु) ‘‘भगवत्‌ प्राप्तिमां आडे आवनारी सिद्धिओ’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए

अध्याय १६

भगवद्‌ विभूतिनुं वर्णन

विशेष - १. आ सोळमां अध्यायमां उद्धवे पोताने चिन्ता थवाथी पूछ्‌युं त्यारे भगवाने पोतानी विभूतिओ एने कही एटली वात आवे छे.

ईं उं ईं उं

[[३९२]] त्वं ब्रह्म परमं साक्षा-दनाद्यन्तमपावृतम्‌ ॥ सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्‌भवः ॥१॥

उद्धवजीए कह्युं - हे भगवन्‌! आप स्वयं परब्रह्म छो. आपनो आदि के अन्त नथी, अर्थात्‌ आपनां उत्पत्ति के विनाश नथी. आप (कर्मरूप) आवरण रहित अद्वितीय तत्त्व छो. समस्त प्राणीओ अने पदार्थोनी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा अने प्रलय ना कारण पण आप ज छो. ऊञ्चा-नीचां बधां प्राणीओमां आप बिराजो छो, परन्तु श्रवण आदि साधनथी विमुख लोको जेमणे पोतानी इन्द्रियो अने मन ने वश कर्यां नथी तेओ आपने जाणी शकता नथी. आपनी यथोचित उपासना तो वेद-उपनिषदनाविद्वानो ज करे छे ॥१-२॥

मोटा-मोटा ऋषि महर्षिओ आपनां जे रूपो अने विभूतिओनी परम भक्ति सहित उपासना करीने प्राप्त करे छे ते आप मने कहो ॥३॥

समस्त प्राणीओना जीवनदाता हे प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशाविदिशाओमां आपना प्रभावथी युक्त जे-जे विभूतिओ छे तेनुं आप कृपा करीने वर्णन करो. हे प्रभो! समस्त तीर्थोने पण तीर्थ बनावनार आपनां चरण कमलोने हुं वन्दन करुं छुम् ॥५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! प्रश्ननो मर्म समजनाराओमां तमे शिरोमणि छो. जे वखते कुरुक्षेत्रमां कौरव-पाण्डवोनुं युद्ध थयुं हतुं ते वखते शत्रुओ साथे युद्ध करवा तत्पर अर्जुने मने आ ज प्रश्न पूछ्‌यो हतो ॥६॥

अर्जुनना मनमां एवो विचार आव्यो के कुटुम्बीओनी हत्या करवी अने ते पण राज्यने माटे ज ते घणो ज निन्दनीय अधर्म छे. साधारण पुरुषनी जेम ज ते विचारी रह्यो हतो के हुं मारनारो छुं अने आ बधा मरनारा छे. आम विचार करी तेणे शस्त्रो नीचे मूकी दीधाम् ॥७॥

तमे मने जे प्रश्न पूछ्‌यो छे ते ज प्रश्न अर्जुने रणभूमि उपर मने पूछ्‌यो हतो. ते वखते अनेक युक्तिओ सहित आ वात में अर्जुनने समजावी हती ॥८॥

हे उद्धवजी! हुं समस्त प्राणीओनो आत्मा, हितैषी, सुहृद अने ईश्वरनियामक छुं. हुं ज आ समस्त प्राणीओ अने पदार्थोना रूपमां छुं अने तेमनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय नुं कारण पण हुं ज छुम् ॥९॥

गतिमान पदार्थोमां हुं गति छुं. (ज्ञानी, कर्मी अने भक्तो नी गति प्राप्त [[३९३]] करवानुं फल हुं ज छुं). पोताने अधीन करनाराओमां हुं काल छुं. गुणोमां हुं तेमनी मूलस्वरूप साम्य अवस्था छुं अने जेटला पण गुणवान पदार्थो छे तेमनामां तेमनो स्वाभाविक गुण हुं ज छुम् ॥१०॥

गुणयुक्त वस्तुओमां हुं क्रियाशक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा छुं अने मोटाओमां ज्ञान शक्तिमान प्रथम कार्य महत्तत्त्व छुं. सूक्ष्म वस्तुओमां हुं जीव छुं अने कठिनाईथी वश थनाराओमां मन छुम् ॥११॥

वेदोना अध्यापकोमां ब्रह्मा छुं अने मन्त्रोमां त्रण मात्राओ (अ+उ+म) वाळो ॐकार हुं छुं. अक्षरोमां हुं ॐकार छुं अने छन्दोमां त्रिपदा गायत्री हुं छुं ॥१२॥

समस्त देवताओमां इन्द्र, आठ वसुओमां अग्नि, बार आदित्योमां विष्णु अने अगियार रुद्रोमां नीललोहित नामनो रुद्र छुम् ॥१३॥

हुं ब्रह्मर्षिओमां भृगु, राजर्षिओमां मनु, देवर्षिओमां नारद अने गायोमां कामधेनुं छुम् ॥१४॥

सिद्धोमां कपिल, पक्षीओमां गरुड, प्रजापतिओमां दक्ष अने पितरो मां अर्यमा हुं छुम् ॥१५॥

हे उद्धव! हुं दैत्योमां दैत्यराज प्रह्‌लाद, नक्षत्रोमां चन्द्रमा, ओषधिओमां सोमरस अने यक्ष तथा राक्षसोमां कुबेर छुं एम समजो ॥१६॥

हुं गजेन्द्रोमां ऐरावत, जल-निवासीओमां एमनो स्वामी वरुण, ताप करनार अने प्रकाश करनारमां सूर्य तथा मनुष्योमां राजा छुम् ॥१७॥

हुं घोडाओमां उच्चैःश्रवा नामनो घोडो, धातुओमां सोनुं, दण्डधारीओमां यम अने सर्पोमां वासुकि छुम् ॥१८॥

हे निष्पाप उद्धवजी! हुं नागराजोमां शेषनाग, शिङ्गडां अने दाढवाळां प्राणीओमां तेमनो राजा सिंह, आश्रमोमां सन्न्यास अने वर्णोमां ब्राह्मण छुं ॥१९॥

हुं तीर्थ अने नदीओमां गङ्गा, जलाशयोमां समुद्र, अस्त्र-शस्त्रोमां धनुष तथा धनुर्धरोमां शङ्कर छुम् ॥२०॥

हुं निवासस्थानोमां मेरु, दुर्गम स्थानोमां हिमालय, वनस्पतिओमां पीपळो अने धान्योमां जव छुम् ॥२१॥

[[३९४]] हुं पुरोहितोमां वसिष्ठ, वेदने जाणनाराओमां बृहस्पति, सर्व सेनापतिओमां स्कन्द कार्तिक स्वामी अने सन्मार्गना प्रवर्तकोमां ब्रह्मा छुम् ॥२२॥

पाञ्च महायज्ञो (देवयज्ञ, ब्रह्म यज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ अने भूतयज्ञ) मां ब्रह्म यज्ञ (स्वाध्याय यज्ञ) हुं छुं. व्रतोमां अहिंसा व्रत हुं छुं. शुद्ध करनारा पदार्थोमां नित्यशुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल अने वाणीनो आत्मा नियामक, शुद्ध करनार हुं ज छुम् ॥२३॥

आठ प्रकारना योगोमां मनना निरोधरूप समाधि हुं छुं. विजय इच्छनाराओमां रहेतुं मन्त्र (नीति) बल हुं छुं. कौशलोमां आत्मा अने अनात्माना विवेकरूप कौशल हुं छुं अने ख्यातिवादीओमां विकल्प हुं छुं* ॥२४॥

विशेष - योगनां आठ अङ्ग छे.-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान अने समाधि. ख्यातिवाद पाञ्च प्रकारना छे - १. वेदान्तीओ अनिर्वचनीय ख्यातिमां २. नैयायिको अन्यथा ख्यातिमां ३. विज्ञानवादीओ आत्मख्यातिमां ४. मीमांसको अख्यातिमां अने ५. शून्यवादीओ असत्ख्यातिमां माने छे. विकल्प-एवमिदमेवं वा। आ आम छे के आम? तुं आ प्रकारे कहे छे के तेथी उलटुं कहे छे? विकल्प भगवान्‌नी विभूति छे अने तेथी ते दुरन्त छे तेनो अन्त ज नथी. अथवा (श्लोक चोवीसना चतुर्थपादनो बीजो भावार्थ) ख्याति एटले प्रत्यक्ष-प्रमाणथी जगतनी प्रसिद्धि, आ निरीश्वरवाद छे. आ निरीश्वरवादीओ माटे हुं ‘‘विकल्पः विशेषतः कल्पः समर्थः’’ अत्यन्त समर्थ प्रतिभट समर्थ प्रतियोद्धो वेदना बलथी ईश्वर प्रतिपादक आचार्य हुं छुं. स्त्रीओमां मनु पत्नी शतरूपा, पुरुषोमां स्वायम्भुव मनु, मुनिओमां नारायण अने ब्रह्मचारीओमां सनत्कुमार हुं छुम् ॥२५॥

धर्मोमां सन्न्यास, क्षेममां अन्तर्निष्ठा, गुप्त राखवाना पदार्थोमां सूनृत अने मौन हुं ज छुं. स्त्री-पुरुषनां जोडाओमां हुं प्रजापति छुञ्जेना शरीरनाबे भागोमान्थी पुरुष अने स्त्री नुं पहेलुं जोडुं पेदा थयुम् ॥२६॥

सदा सावधान रही जागनारोओमां संवत्सररूप काल हुं छुं. ऋतुओमां वसन्त, महिनाओमां मागशर अने नक्षत्रोमां अभिजित हुं छुम् ॥२७॥

हुं युगोमां सत्ययुग, विवेकी पुरुषोमां महर्षि देवल अने असित्‌, वेदनो विभाग करनारा व्यासोमां श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास अने कविओ (तीक्ष्ण बुद्धिवाळा [[३९५]] पुरुषो)मां सूक्ष्म बुद्धिमान शुक्राचार्य छुम् ॥२८॥

सृष्टिनी उत्पति अने लय, प्राणीओमां जन्म अने मृत्यु तथा विद्या अने अविद्या जाणनारा भगवानो (विशिष्ट महापुरुषो)मां हुं (चित्तना अधिष्ठाता) वासुदेव छुं. मारा प्रेमी भक्तोमां तमे (उद्वव), किम्पुरुषोमां हनुमान, विद्याधरोमां सुदर्शन (जेणे अजगरना रूपमां नन्दरायजीने ग्रसी लीधा हता अने पछी भगवान्‌ना पाद स्पर्शथी मुक्त थई गया हता ते) हुं छुम् ॥२९॥

रत्नोमां पद्मराग (माणेक), सुन्दर वस्तुओमां कमळनी कळी, तृणोमां कुश अने हविष्योमां गायनुं घी हुं छुम् ॥३०॥

हुं व्यापारीओमां रहेवावाळी लक्ष्मी, छलकपट करनाराओमां जुगार, तितिक्षुओ (सहनशील पुरुषो)नी तितिक्षा (कष्ट सहिष्णुता) अने सात्त्विक पुरुषोमां रहेवावाळो सत्त्वगुण छुम् ॥३१॥

बलवानोमां हुं उत्साह अने पराक्रम तथा भगवद्‌भक्तोमां भक्ति युक्त निष्काम कर्म छुं. वैष्णवोनी पूज्य वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह अने वामन आ नव मूर्तिओमां हुं पहेली अने श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव छुं ॥३२॥

हुं गन्धर्वोमां विश्वावसु, अप्सराओमां ब्रह्माजीना दरबारनी अप्सरा पूर्वचित्ति, पर्वतोमां स्थिरता अने पृथ्वीमां शुद्ध अविकारी गन्ध छुम् ॥३३॥

हुं जलमां रस तेजस्वीओमां परम तेजस्वी अग्नि, सूर्य, चन्द्र अने ताराओमां प्रभा(कान्ति) तथा आकाशमां तेनो एक मात्र गुण शब्द छुम् ॥३४॥

हे उद्धवजी! ब्राह्मणोना भक्तोमां हुं बलि छुं, वीरोमां अर्जुन अने प्राणीओमां तेमनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय हुं ज छुम् ॥३५॥

हुं ज पगोमां चालवानी शक्ति, वाणीमां बोलवानी शक्ति, पायुमां मल त्यागनी शक्ति, हाथमां पकडवानी शक्ति अने जननेन्द्रियमां आनन्दनो उपभोग करवानी शक्ति छुं. त्वचामां स्पर्शनी, आङ्खोमां जोवानी, जीभमां स्वाद लेवानी, कानोमां साम्भळवानी अने नाकमां सूङ्घवानी शक्ति पण हुं ज छुं. समस्त इन्द्रियोनी इन्द्रियशक्ति हुं ज छुम् ॥३६॥

(आम विशेष विभूतिओ कहीने हवे सामान्य विभूतिओ कहे छे). पृथ्वी, वायु, आकाश, जल तेज, अहङ्कार, महत्तत्व, विकार (पञ्चमहाभूत+अगियार [[३९६]] इन्द्रियो), पुरुष (जीव), अव्यक्त (प्रकृति), सत्व, रज, तम अने आ बधान्थी पर रहेवावाळुं ब्रह्म आ बधुं हुं ज छुम् ॥३७॥

आ तत्त्वोनी गणना, लक्षणोद्वारा तेमनुं ज्ञान तथा तत्त्व-ज्ञानरूप तेनुं फल पण हुं ज छुं. हुं ज ईश्वर छुं, हुं ज जीव छुं, हुं ज गुण छुं अने हुं ज गुणी छुं, हुं ज बधानो आत्मा छुं अने हुं ज बधुं छुं. मारा सिवाय बीजो कोई पण पदार्थ क्यांय पण नथी ॥३८॥

जो हुं गणवा बेसुं तो लाम्बे समये क्यारेक पृथ्वी वगेरेनां परमाणुओनी गणतरी तो करी शकुं. परन्तु मारी विभूतिओनी गणतरी हुं पण न करी शकुं. ज्यारे में रचेलां करोडो ब्रह्माण्डोनी ज गणना न थई शके तो पछी मारी विभूतिओनी गणना तो थई ज शी रीते शके? ॥३९॥

एम समजी लो के जेमां पण तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य,पराक्रम, तितिक्षा अने विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण होय ए मारो ज अंश छे ॥४०॥

हे उद्धवजी! तमारा प्रश्न अनुसार मारी विभूतिओनुं सङ्क्षेपथी वर्णन कर्युं. आ बधा पदार्थो मारी विभूतिओ छे एम समजी चिन्तन करवा योग्य छे. भोग्यबुद्धिथी तेमनुं चिन्तन करवाथी तेओ मनमां विकार-मोह उत्पन्न करनारा नीवडशे. जेम शास्त्रमां घणां विषयासक्त पुरुषो अने स्त्रीओ नुं निरूपण करवामां आवे छे ए मनोविकारथी केवो अनर्थ थाय छे ते दर्शाववामाटे छे तेथी आ बधा पदार्थोने मनोविकार ज समजवा. मनथी विचारवामां आवेली अने वाणीथी उच्चारायेली कोईपण वस्तु परमार्थ (वास्तविक) होती नथी. तेनी एक कल्पना ज होय छे ॥४१॥

विषयासक्ति अनर्थ करनारी छे तेथी तमे वाणीने लगाम लगावी दो, मिथ्या भाषण बन्ध करो अने मनना सङ्कल्प-विकल्पने मिटावी दो. तेने माटे प्राणोने, इन्द्रियोने अने आत्माने मनवडे नियममां राखो. प्रपञ्चमां जती बुद्धिने निश्चयात्मक सात्त्विक बुद्धिद्वारा रोको, शान्त करो. आम करवाथी तमारे संसारना जन्म-मृत्युरूप भीषण मार्गमां भटकवुं नहि पडे ॥४२॥

जे साधक बुद्धिद्वारा वाणी अने मन ने पूरेपूरां वश करी लेतो नथी तेनां व्रत, तप अने दान काचा घडामां भरेल पाणीनी जेम (खबर पण न पडे तेम) क्षीण थई [[३९७]] जाय छे ॥४३॥

तस्मान्मनोवचःप्राणान्‌ नियच्छेन्मत्परायणः ॥ मद्‌भक्तियुक्तया बुद्धया ततः परिसमाप्यते ॥४४॥

(वाणी वगेरेनो निरोध करवामां न आवे तो बधां साधन व्यर्थ छे तेथी) मारो प्रेमी भक्त मत्परायण थई, मारुं एक मात्र शरण ग्रहण करी लई भक्तियुक्त बुद्धिथी वाणी, मन अने प्राणो ने संयममां राखे. एटलुं करी लेवाथी तेने माटे बीजुं कंई करवानुं बाकी रहेतुं नथी. ते कृतकृत्य मुक्त थई जाय छे ॥४४॥

इति श्रीभागवत एकादश स्कन्धमां (पहेला जीव मुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो अगियारमो अने चालु) ‘‘भगवद्‌विभूतिनुं वर्णन’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. … … श्रीभागवतमादरात्‌।पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकमदम्भतः॥ प्रयत्न पूर्वक, (फण्ड-फाळा,आजीविका)लौकिक के पारलौकिक (मृतकनोउद्धार) जेवा कोई पण हेतु के ढोङ्ग विना आदर पूर्वक श्रीभागवतनो जाते पाठ करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)

अध्याय १७

भगवाने उद्धवजीने ब्रह्मचारी अने गृहस्थ ना धर्म कह्या

विशेष - भक्तिने सिद्ध करनारा स्वधर्मोनो उद्धवजीए प्रश्न कर्यो त्यारे भगवाने ब्रह्मचारी अने गृहस्थ ना धर्मो कह्या ए वात आ सत्तरमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्‌भक्तिलक्षणः ॥ वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥१॥

उद्धवजीए कह्युं - हे कमलनयन श्रीकृष्ण! आपे पहेलां वर्णाश्रमधर्मनुं पालन करनाराओ माटे अने सामान्य रीते मनुष्य मात्रमाटे एवा धर्मनो उपदेश कर्यो हतो जेनाथी आपनी भक्ति प्राप्त थाय छे. हवे आप कृपा करीने ए बतावो के मनुष्य कई रीते पोताना धर्मनुं आचारण करे जेथी आपना चरणोमां तेने भक्ति प्राप्त थई

ईं उं ईं उं

[[३९८]] जाय ॥१-२॥

हे प्रभो! महाबाहु! माधव! पहेलां आपे हंसरूपे अवतार ग्रहण करी ब्रह्माजीने पोताना परम धर्मनो उपदेश कर्यो हतो ते धर्मो बीजा कही न ज शके; तेथी एने आप कृपा करीने कहो. (आ श्लोकमां त्रण सम्बोधनो छे. १. महाबाहो!
२. प्रभो! ३. माधव! ‘महाबाहो’ नो ए भाव छे के आ धर्मनुं निरूपण आपथी ज थई शके तेम छे, बीजा कोईनी गुञ्जाइश नथी. ‘प्रभो!’ सम्बोधननो एवो भाव छे के आप जगतना स्वामी छो तेथी धर्मनिरूपण आपने माटे आवश्यक छे. ‘माधव’ मायाना नाशक अथवा ‘मा’ एटले विद्या तेना ‘धव’ एटले पति) ॥३॥

हे रिपुदमन! आपे ते धर्मनो उपदेश कर्ये घणो समय वीती जवाथी ते अत्यारे मृत्युलोकमां प्रायः नहि जेवो ज रह्यो छे ॥४॥

हे अच्युत! पृथ्वीनी वात तो जवा दो पण ज्यां वेद वगेरे विद्याओ मूर्तिमान थई बिराजे छे ते ब्रह्माजीनी सभामां पण आपना सिवाय एवो कोई पण नथी जे आपना आ धर्मनो उपदेश, प्रचार अने रक्षण करी शके.* ॥५॥

विशेष - पाञ्चमा श्लोकमां मूलमां ‘‘मूर्तिधरा कलाः’’ प्रयोग छे. पुराणोमां कला विषे नीचे प्रमाणे उल्लेख मळे छे - ‘‘पुराणं धर्ममीमांसा वेदा उपवेदाश्च ते, अङ्गानि सेतिहासानि कथ्यन्ते श्रीहरेःकलाः, देवा ब्रह्मर्षयश्चैव क्षत्रिया रक्षणोत्सुकाः, कलाः सर्वे हरेरेव स प्रजापतयोऽपरे’’ पुराणो, धर्ममीमांसा, वेदो, उपवेदो अने इतिहास सहितनां अङ्गो श्रीहरिनी कलाओ कहेवाय छे. देवो, ब्रह्मर्षिओ, रक्षण करवा उत्सुक क्षत्रियो अने प्रजापतिओ श्रीहरिनी कलाओ कहेवाय छे. ‘कला’ एटले वेद वगेरे अढार विद्याओ आ प्रमाणे छे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्ववेद, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्रो, शिक्षा (उच्चार शास्त्र), कल्प (यज्ञ वगेरेमां करवी जोईती विधि निरूपण करतुं शास्त्र), व्याकरण, निरुकत (व्युत्पत्ति-शब्दनी मूळ उत्पत्ति बतावनार शास्त्र), ज्योतिष, छन्द-एक मत प्रमाणे आ चौद विद्याओ, अढार विद्या छे एम कहेनारा तेमां आ चार उमेरे छे-आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद अने अथर्ववेद. ‘‘वेदनां छ अङ्ग’’ शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुकत, छन्द अने जयोतिष. आ धर्मना प्रवर्तक, रक्षक अने उपदेशक आप ज छो. पहेलां मधु दैत्यने मारी, जेवी रीते आपे वेदोनी रक्षा करी हती तेवी ज रीते आपना धर्मनी पण रक्षा कृपा करीने करो. हे स्वयम्प्रकाश परमात्मन्‌! ज्यारे आप पृथ्वीपट उपरथी लीला संवरण [[३९९]] करी लेशो, त्यारे तो आ धर्मनो लोप ज थई जशे तो पछी ए कोण बतावशे? ॥६॥

आप समस्त धर्मोना मर्मज्ञ छो तेथी हे प्रभो! आपनी प्राप्ति करावनार ते धर्मनुं आप कृपा करीने वर्णन करो अने ए पण बतावो के कोने माटे तेनुं केवुं विधान छे ॥७॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भक्तशिरोमणि उद्धवजीए ज्यारे आ प्रमाणे प्रश्न कर्यो त्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे अत्यन्त प्रसन्न थई प्राणीओने माटे आप सनातन धर्मोनो उपदेश कर्यो ॥८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! तमारो प्रश्न धर्ममय छे, कारण के तेथी वर्णाश्रमधर्मी मनुष्यने परम कल्याण स्वरूप मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. तेथी हुं तमने ते धर्मोनो उपदेश करुं छुं. सावधान थईने तमे साम्भळो ॥९॥

जे वखते आ क्ल्पनो आरम्भ थयो हतो अने पहेलो सत्ययुग चाली रह्यो हतो ते वखते बधां मनुष्योनो ‘हंस’ नामनो एक ज वर्ण हतो. ते युगमां बधा लोको जन्मथी ज कृतकृत्य थता हता तेथी तेनुं एक नाम कृतयुग पण छे ॥१०॥

ते वखते केवल प्रणव ‘ॐ’ ज वेद हतो. (पण आ चार वेद न हता) तपस्या, शौच, दया अने सत्यरूप चार चरणोवाळो हुं वृषभरूपधारी धर्म हतो (यज्ञयागादि नहि). ते वखतना निष्पाप अने परम तपस्वी भक्तजन मारा हंसस्वरूप शुद्ध परमात्मानी उपासना करता हता. (हंस=विशुद्ध, कल्याणकारी गुणोना निधि; प्रणव=प्रकृष्टः नवः अथवा प्रकर्षेण नवः। संसारनां समस्त सौन्दर्यो समय जतां क्षीण थई जाय छे. भगवान्‌ सदा सर्वदा नव-नूतन ज रहे छे) ॥११॥

हे परम भाग्यवान उद्धव! सत्ययुग पछी त्रेतायुगनो आरम्भ थतां श्वास- प्रश्वास द्वारा मारा हृदयमान्थी ऋग्वेद, सामवेद अने यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रगट थई अने ते त्रयी विद्याथी होता, अध्वर्यु अने उद्‌गाताना कर्मरूप त्रण भेदोवाळा यज्ञना रूपमां हुं प्रगट थयो ॥१२॥

विराट पुरुषना मुखथी ब्राह्मण, भुजाथी क्षत्रिय, जङ्घाथी वैश्य अने चरणोथी शूद्रनी उत्पत्ति थई. तेमनी ओळखाण तेमना स्वभाव अने आचरणथी ज थाय छे ॥१३॥

हे उद्धवजी! विराट पुरुष पण हुं ज छुं. तेथी मारा ज ऊरुस्थलथी (जङ्घा) थी [[४००]] गृहस्थाश्रम, हृदयथी ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थलथी वानप्रस्थाश्रम अने मस्तकथी सन्न्यासाश्रमनी उत्पत्ति थई छे ॥१४॥

आ वर्णो अने आ आश्रमोना पुरुषोना स्वभाव पण एमनां जन्मस्थानो प्रमाणे उत्तम, मध्यम अने अधम थई गया. अर्थात्‌ उत्तम स्थानो (मुख अने मस्तक) थी उत्पन्न थयेला वर्ण (ब्राह्मण) अने आश्रम (सन्न्यास) ना स्वभाव उत्तम अने अधम स्थानो (पाद अने जाङ्घ) थी उत्पन्न थयेला (शूद्र अने गृहस्थाश्रम) अधम थया. (वास्तवमां भगवान्‌ना अवयवो बधा ज आनन्दमय रसरूप ज छे. आ मन्दमति लोकोनी मान्यता अनुसार कह्युं छे) ॥१५॥

(एम स्वभावना भेदो कहीने हवे ब्राह्मण आदि वर्णोने बतावनारा धर्मोने कहे छे). शम (अन्तकरण निग्रह), दम (इन्द्रियनिग्रह), तप (तत्त्वनिरीक्षण), पवित्रता, सन्तोष, क्षमा, सरळता, मारी भकित, दया अने सत्य ए ब्राह्मण वर्णना स्वभाव छे ॥१६॥

तेज, बळ, धीरज, शौर्य, गरीब अपराध करे तो एने सहन करवो, उदारता, उद्योग करवो, स्थिरता, ब्राह्मणनी भक्ति, ऐश्वर्य आ क्षत्रियनी प्रकृति समजवी ॥१७॥

आस्तिक्य बुद्धि, दान देवुं, दम्भ न करवो, ब्राह्मणनी सेवा करवी, पैसा मळवा छतां असन्तोष वगेरे वैश्यनी प्रकृति जाणवी ॥१८॥

ब्राह्मण, देव अने गाय नी कपटरहित थईने सेवा करवी एनाथी जे कंई मळे तेमां सन्तोष मानवो ए शूद्रनी प्रकृति अथवा स्वभाव छे ॥१९॥

अपवित्रता, खोटुं बोलवुं, चोरी करवी, इश्वर अने परलोक नी परवा न करवी; कारण वगर कजियो करवो, काम, क्रोध, तृष्णा ए बधां लक्षणो वर्णाश्रमरहित चाण्डाल आदिनां समजवा ॥२०॥

(एम वर्णने बतावनार धर्मो कहीने पुरुषार्थना साधनरूप धर्मो जे सर्व वर्णने लागु पडे छे तेने कहे छे) काया, वाणी अने मन थी अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी, काम, क्रोध अने लोभ थी बचवुं; प्राणी मात्रना भलानी चेष्टा करवी ए सर्ववर्णोनो साधारण धर्म छे ॥२१॥

(ब्रह्मचारीओ बे प्रकारना छे. १. उपकुर्वाणक-चोक्कस समयनी मुदतमाटे ब्रह्मचर्यव्रत धारण करनार दा.त. गुरुकुलमां विद्याभ्यासमाटे रहेता बटुको अने [[४०१]] २.नैष्ठिक-आजीवन दा.त. भीष्म पितामह. पहेलां प्रकारना धर्मो कहे छे) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोना क्रमथी यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करी गुरुकुलमां रहे अने इन्द्रियोने वश राखे. आचार्य बोलावे त्यारे वेदोनो अभ्यास करे अने तेमना अर्थनो पण विचार करे ॥२२॥

मेखला, मृगचर्म, वर्ण प्रमाणे दण्ड, *अक्षमाळा, यज्ञोपवीत अने कमण्डलु धारण करे. शिर उपर जटा वधारे, (शोखने माटे नहि पण स्वच्छता अने पवित्रता माटे) दान्त अने वस्त्र धुए, रङ्गीन आसन उपर न बेसे अने कुश धारण करे ॥२३॥

विशेष - ‘‘अक्ष (माला)-आदिक्षान्त गतैर्वर्णैर्जपमालाक्षमालिका’’ ‘अ’कारथी शरू करी ‘क्ष’कार सुधीनो क्रमबोध करनारी माला ते अक्षमाला. अक्षमालानो अर्थ केटलाक रुद्राक्षनी माळा पण करे छे. शिवपुराणमां रुद्राक्षनुं माहात्म्य कहेवायुं छे ते सकामपरक अने शैवपरक समजवुं. निष्काम भक्तिमार्गमां तुलसी अने तुलसी न मळे तो आम्बळानां फलनुं विधान छे. स्नान, भोजन, हवन, जप अने मळमूत्र त्याग करती वखते मौन रहे. काख (बगल) अने उपस्थ (गुप्तेन्द्रिय) ना वाळ अने नख कयारेय न कापे ॥२४॥

पूर्ण ब्रह्मचर्यनुं पालन करे. स्वयं तो कयारेय वीर्यपात करे ज नहि. जो स्वप्न आदिमां वीर्य स्खलित थाय तो जलमां स्नान करी प्राणायाम करे अने गायत्रीनो जप करे ॥२५॥

ब्रह्मचारीए पवित्रता सहित एकाग्र चित्त थई अग्नि, सूर्य, आचार्य, गाय, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन अने देवताओ नी उपासना करवी जोईए अने सायङ्काल तथा प्रातःकाल मौन रही सन्ध्योपासन एवं गायत्रीनो जप करवो जोईए ॥२६॥

आचार्यने१ मारुं ज स्वरूप समजे, कयारेय तेनो तिरस्कार न करे. तेमने साधारण मनुष्य समजी दोषदृष्टि न करे, कारण के गुरु२ सर्व देवमय होय छे ॥२७॥

विशेष - १. आचार्य - उपनयन संस्कारपूर्वक शास्त्रोनो उपदेश करे ते. २. गुरु - मात्र शास्त्रोनो उपदेश करे ते. साञ्जे अने सवारे बन्ने वखते जे कंई भिक्षामां मळे ते लावी सर्व गुरुदेवनी आगळ धरी दे. त्यार पछी तेमनी आज्ञा प्रमाणे संयमपूर्वक (स्वादमाटे नहि) भिक्षा आदिनो यथोचित उपयोग करे ॥२८॥

आचार्य जता होय तो तेमनी पाछळ-पाछळ चाले. तेमना सूई गया पछी घणी ज सावधानीथी तेमनाथी थोडे दूर सूए. थाकी गया होय तो पासे बेसी चरण [[४०२]] दबावे अने बेठा होय तो तेमनी आज्ञानी राह जोतो हाथ जोडी पासे ज ऊभो रहे. आ प्रमाणे अत्यन्त नाना माणसनी जेम सेवा-शुश्रूषा द्वारा सदासर्वदा आचार्यनी आज्ञामां तत्पर रहे ॥२९॥

ज्यां सुधी वेदाध्ययन समाप्त न थई जाय त्यां सुधी बधी जातना भोगोथी दूर रही आ ज प्रमाणे गुरुकुलमां निवास करे अने कयारेय पण पोतानुं ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न थवा दे ॥३०॥

(उपकुर्वाणक ब्रह्मचारीना धर्मो कहीने हवे छ श्लोकथी नैष्ठिक ब्रह्मचारीना धर्मो कहे छे). जो ब्रह्मचारीनो एवो विचार होय के हुं मूर्तिमान वेदोना निवासस्थान ब्रह्मलोकमां जाउं तो तेणे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करी लेवुं जोईए अने वेदोना स्वाध्यायने माटे पोतानुं समग्र जीवन आचार्यनी सेवामां ज समर्पित करी देवुं जोईए ॥३१॥

आवा ब्रह्मचारी खरेखर ब्रह्मतेजथी सम्पन्न थई जाय छे अने तेनां बधां पाप नष्ट थई जाय छे. तेणे अग्नि, गुरु, पोतानुं शरीर अने समस्त प्राणीओमां मारी ज उपासना करवी जोईए अने एवो भाव राखे के मारा तथा बधाना हृदयमां एक ज परमात्मा बिराजी रह्या छे ॥३२॥

ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ अने सन्न्यासीओए स्त्रीओ तरफ जोवुं नहि तेमनो स्पर्श करवो नहि तेमनी साथे वातचीत के तेमनी हांसी-मजाक वगेरे करवां नहि, मैथुन करतां प्राणीओ तरफ दृष्टि सरखीय करवी नहि ॥३३॥

हे प्रिय उद्धव! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणीओमां मने ज जोवो, मन, वाणी अने शरीरनो संयम आ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अने सन्न्यासी बधाने माटे एक सरखा नियम छे. अस्पृशयोनो स्पर्श न करवो, अभक्ष्य वस्तुओ न खावी अने असम्भाष्य (वातचीतने माटे अयोग्य) नी साथे बोलवुं जोईए नर्ही-आ नियमो पण बधाने माटे छे ॥३४-३५॥

नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण आ नियमोनुं पालन करवाथी अग्निना जेवो तेजस्वी थई जाय छे. तीव्र तपस्याने लीधे तेना कर्मसंस्कार भस्म थई जाय छे, अन्तःकरण शुद्ध थई जाय छे अने ते मारो भक्त थई मने प्राप्त करी ले छे ॥३६॥

हे प्रिय उद्धव! जो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करवानी इच्छा न होय, [[४०३]] गृहस्थाश्रममां प्रवेश करवा मागतो होय तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करी, आचार्यने दक्षिणा आपी तेमनी अनुमति (आज्ञा) लईने समावर्तन संस्कार करावे. स्नातक बनी ब्रह्मचर्याश्रम छोडी दे ॥३७॥

ब्रह्मचारीए ब्रह्मचर्य आश्रम पछी (वैराग्य मन्द होय तो) गृहस्थाश्रम स्वीकारवो, (वैराग्य होय तो) वानप्रस्थ आश्रमनो स्वीकार करवो अने अत्यन्त तीव्र वैराग्य होय तो उत्तम ब्राह्मण सीधो सन्न्यास पण स्वीकारी शके छे. मारो भक्त न होय (अमत्परः) तेणे क्रमशः एक पछी एक आश्रमनो स्वीकार करवो. मारा भक्त (मत्परः) ने माटे आ क्रमनुं बन्धन नथी. (सन्न्यास लेवानो अधिकार ब्राह्मणोने ज छे)* ॥३८॥

विशेष - मूळ श्लोक ‘‘गृहं वनं वोपविशेत्‌ प्रव्रजेद्‌ वा द्विजोत्तमः, आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथाऽमत्परश्चरेत्‌’’ आ शक्य छेद १‘‘आश्रमादाश्रमं गच्छेत्‌ नान्यथा मत्परश्चरेत्‌’’. २‘‘आश्रमादाश्रमं गच्छेत्‌ न अन्यथा मत्परश्चरेत्‌’’
३‘‘अन्यथाऽमत्परश्चरेत्‌’’. भकतने माटे आम ज कहेशे - ‘‘ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः, सलिङ्गान्‌ आश्रमान्‌ त्यक्त्वा चरेद्‌ अविधिगोचरः’’ (११.१८.२८). ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु अने मोक्षनी पण इच्छा न राखनारो मारो भक्त आश्रमोनी मर्यादाओमां बन्धायेल नथी. ते इच्छे तो आश्रमो अने तेनां चिह्‌नो छोडी दई विधि-निषेधोथी पर थई जई स्वच्छन्द फरे (११.१८.२८) हे प्रिय उद्धव! जो ब्रह्मचर्य आश्रम पछी गृहस्थाश्रमनो स्वीकार करवो होय तो पोताने लायक अने शास्त्रोक्त लक्षणोवाळी कुलीन कन्यानी साथे लग्न करे. ते उमरमां नानी अने पोताना ज वर्णनी होवी जोईए. जो कामवश अन्य वर्णनी कन्या साथे लग्न करवां होय तो क्रमशः पोतानाथी निम्न (उतरता) वर्णनी कन्या साथे करी शके छे ॥३९॥

यज्ञयागादि, अध्ययन अने दान करवानो अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्योनो समान छे. परन्तु दान लेवुं; भणाववुं अने यज्ञ कराववानो अधिकार मात्र ब्राह्मणोने ज छे ॥४०॥

आ त्रणेय वृत्तिओमां प्रतिग्रह-दान लेवानी वृत्तिने तपस्या तेज अने यश नो नाश करनारी समजीने भणाववुं अने यज्ञ कराववा द्वारा ज पोतानो जीवननिर्वाह करे अने आ बन्ने वृत्तिओमां पण दोष देखाय लाचारी, दीनता वगेरे देखाता होय [[४०४]] तो लणणी थई गया पछी (खेतरमान्थी खेडूत पाक लणीने घेर लई जाय पछी) खेतरोमां पडी रहेला दाणा वीणीनेज पोताना जीवननो निर्वाह करीले ॥४१॥

(आ तो अत्यन्त कष्टकारक वृत्ति कहेवाय तेना समाधानमां कहे छे के) ब्राह्मणनुं शरीर अत्यन्त दुर्लभ छे. ते तुच्छ विषय भोग ज भोगववामाटे नथी. ते तो जीवन पर्यन्त कष्ट भोगववा, तपस्या करवा अने अन्ते अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षनी प्राप्ति करी लेवामाटे छे ॥४२॥

जे ब्राह्मण घरमां रही पोताना महान धर्मनुं निष्काम भावथी पालन करे छे अने खेतरोमां तथा बजारोमां पडी गयेला दाणा वीणी सन्तोषपूर्वक पोतानो जीवननिर्वाह करे छे, साथे-साथे पोताना शरीर, प्राण, अन्तःकरण अने आत्मा मने समर्पित करी दे छे अने क्यांय पण अत्यन्त आसक्ति करतो नथी ते सन्न्यास लीधा विना ज परम शान्तिस्वरूप परम पद प्राप्त करी ले छे ॥४३॥

जे लोको विपत्तिमां सपडायेला अने कष्ट भोगवता मारा भक्त ब्राह्मणने विपत्तिओथी बचावी ले छे तेमने हुं, समुद्रमां डूबी रहेल प्राणीने जेम नौका बचावी ले छे तेम, शीघ्र समस्त सङ्कटोमान्थी बचावी लउं छुम् ॥४४॥

जेवी रीते गजराज बीजा हाथीओनी रक्षा करीने पोते पण बचे छे तेवी रीते राजाए पितानी जेम समस्त प्रजानी कष्टोथी रक्षा करीने धीर थई स्वयं पोतानी जाते पोतानो उद्धार करवो ॥४५॥

जे राजा आ प्रमाणे प्रजानी रक्षा करे छे ते बधां पापोथी मुकत थई अन्ते सूर्यना जेवा तेजस्वी विमानमां बेसीने स्वर्गलोकमां जाय छे अने इन्द्रनी साथे सुख भोगवे छे ॥४६॥

जो ब्राह्मण अध्यापन के यज्ञ-यागादिथी पोतानो निर्वाह न करी शके तो वैश्यवृत्तिनो आश्रय लई ले अने ज्यां सुधी विपत्ति दूर न थाय त्यां सुधी ज ते वृत्ति चलावे. जो बहु मोटी आपत्तिनो सामनो करवानो होय तो तलवार उठावी क्षत्रियोनी वृत्तिथी पण पोतानुं काम नभावी ले, परन्तु कोई पण अवस्थामां नीचनी सेवा जेने ‘श्वानवृत्ति’ कहे छे-ते न करे ॥४७॥

एवी ज रीते क्षत्रिय पण प्रजा पालन वगेरे द्वारा पोतानो जीवन निर्वाह न करी शके तो वैश्ववृत्ति व्यापार वगेरे करी ले. बहुं मोटी आफत आवी पडे तो शिकार करीने अथवा विद्यार्थीओने भणावी पोतानी आफतना दिवसो जेम-तेम करीने [[४०५]] वितावी ले, परन्तु नीचनी सेवा-श्वानवृत्ति कयारेय न करे ॥४८॥

वैश्य पण विपत्ति वखते शूद्रोनी वृत्ति सेवाथी पोतानो गुजारो करी ले अने शूद्र चटाई, टोपला, टोपली बनाववा वगेरे कारीगरनो धन्धो करी ले. परन्तु हे उद्धव! आ बधी वातो विपत्तिवेळानी छे, विपत्ति वीती जाय त्यारे निम्न (उतरता) वर्णनी वृत्तिथी आजीविका चलाववानो लोभ न करे ॥४९॥

गृहस्थ पुरुष वेदोना अध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि वगेरे भूतयज्ञ अने अन्नदानरूप अतिथियज्ञ वगेरे द्वारा मारां ज स्वरूप ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य अने अन्य समस्त प्राणीओनी यथा शक्ति प्रतिदिन पूजा करतो रहे ॥५०॥

(आवश्यक धर्म कहीने हवे शक्ति अनुसार आचरवाना धर्म कहे छे) गृहस्थ पुरुष उद्यम विना भगवद्‌ इच्छाथी प्राप्त थयेल अथवा शास्त्रोक्त रीते कमायेल पोताना शुद्ध धनथी पोताना भृत्य, आश्रित प्रजाजनने कोई पण प्रकारनुं कष्ट पहोञ्चाडया विना न्याय अने विधिपूर्वक ज यज्ञ करे. (भृत्य-जेना भरण पोषणनी जवाबदारी होय ते माता, पिता, गुरु, भार्या, आपणे आशरे आवेल कोई पण निःसहाय व्यक्ति, अभ्यागत, अतिथि अने अग्नि) ॥५१॥

हे उद्धव! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमां आसक्त न थाय. मोटुं कुटुम्ब होवा छतां मारी भक्तिमां प्रमाद न करे. बुद्धिमान पुरुषे समजी लेवुं जोईए के जेवी रीते आ लोकनी बधी वस्तुओ नाशवन्त छे तेवी ज रीते स्वर्ग वगेरे परलोकना भोग पण नाशवन्त ज छे ॥५२॥

आ जे स्त्रीपुत्र, भाईबन्धु अने गुरुजनोनो मेळाप थयेल छे ते जेवी रीते परब आगळ पाणी पीवा मुसाफरो भेगा थई गया होय तेवो छे. बधान्ने अलग-अलग रस्ते जवानुं छे. ऊङ्घ होय त्यां सुधी ज जेम स्वप्न रहे छे तेवी ज रीते आ शरीर सम्बन्धीओनो सम्बन्ध फक्त शरीर होय त्यां सुधी ज रहे छे. पछी तो कोण कोने पूछे छे? ॥५३॥

आ प्रमाणे विचार करनार मुक्त गृहस्थ, गृहमां अनासक्ति पूर्वक अतिथिनी पेठे रहे, शरीर वगेरेमां अहङ्कार अने घर वगेरेमां ममता राखे नर्ही, तो ए घरमां बन्धातो नथी ॥५४॥

भक्तिमान पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मोद्वारा मारी आराधना करतो घरमां [[४०६]] ज रहे अथवा जो पुत्रवान होय तो वानप्रस्थ आश्रममां चाल्यो जाय अथवा सन्न्यास आश्रम स्वीकारी ले ॥५५॥

हे प्रिय उद्धव! जे लोको आ प्रकारे गृहस्थ जीवन नर्ही जीवतां घर-गृहस्थीमां ज आसक्त थई जाय छे; तेओ स्त्री, पुत्र अने धननी कामनाओने वश थई जाय छे अने मूढतावश स्त्री लम्पट अने कृपण थई मूढ घरमां हुं अने मारुं एवा भावथी बन्धाय छे ॥५६॥

तेओ विचार कर्या ज करे छे. ‘‘मारां मा-बाप वृद्ध थई गयां छे, पत्नीनां बाळको हजु नानां-नानां छे, मारा विना एमनी रक्षा करनार कोई नथी. हुं नहि होउं त्यारे आ बधां दीन, अनाथ अने दुःखी-दुःखी थई जशे. पछी तेओ केवी रीते जीव शकशे?’’ ॥५७॥

एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम्‌ ॥ अतृप्तस्ताननुध्यायन्‌ मृतोऽन्धं विशते तमः ॥५८॥

आ प्रमाणे घर-गृहस्थीनी वासनाथी जेनुं चित्त आकुळ-व्याकुळ थई रह्युं छे ते मूढबुद्धि पुरुष विषयभोगोथी कयारेय तृप्त थतो नथी. तेमां ज अटवाई जई ते पोतानुं जीवन खोई बेसे छे अने मृत्यु पछी घोर तमोमय नरकमां जाय छे ॥५८॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेलो जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो बारमो अने चालु)‘‘भगवाने उद्धवजीने ब्रह्मचारी अने गृहस्थ ना धर्म कह्या’’ नामानो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण. कुल्याः पौराणिकाः प्रोक्ताः पारम्पर्ययुता भुवि, क्षेत्रप्रविष्टास्ते चापि संसारोत्पत्तिहेतवः पोताना कुटुम्बनुं पोषण, धन के यश नी कामनाथी जेओ पुराणनी कथा कहे छे तेओ खेतरमां पाणी पहोञ्चाडनारी नीक जेवा होय छे. नीक वाटे पाणी मळतां जेम खेतरमां अनाज उगतुं होय छे तेम रूपीआ स्वीकारीने कथा करनाराओना मुखे कथा साम्भळनार श्रोताओमां भक्तिभावने ठेकाणे अधोपात करनार अहन्ता-ममताज वधे छे. भक्तिमार्गीओए एवाना मुखे कथा न साम्भळवी. (श्रीवल्लभाचार्य)

ईं उं ईं उं

[[४०७]]

अध्याय १८

वानप्रस्थ (वनस्थ) अने यतिना धर्म वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा ॥ वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुषः ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - गृहस्थ ज्यारे गृहस्थाश्रम पूरो करी वनमां जवानी इच्छा करे त्यारे पोतानी स्त्री पुत्रोने सोम्पी दे अथवा पोतानी साथे वनमां लई जाय अने त्यां आयुष्यनो त्रीजो भाग शान्त रहीने निर्गमन करे ॥१॥

पवित्र कन्द, मूळ अने फलथी पोतानी आजीविका चलावे, झाडनी छालथी शरीर ढाङ्के, घास, पान्दडां अने मृगचर्म नो पथारी करवामां तथा ओढवामां उपयोग करे ॥२॥

केश, रोम, नख अने दाढी-मूछने दूर न करे, दातण न करे, दिवसमां त्रण वखत जलमां डूबकी मारी स्नान करे, पृथ्वी उपर पड्यो रहे ॥३॥

उष्णकालमां पञ्चाग्निवडे तप करे, वर्षामां बधो वरसाद शरीर उपर ले, शीतकालमां जलमां कण्ठ सुधी रहीने तपकरे ॥४॥

कन्दमूळने मात्र अग्निमां शेकी लई खाई ले अथवा समयानुसार पाकेलां फळो वगेरेथी ज काम चलावी ले. तेमने खाण्डवानी जरूर जणाय तो खाण्डणियामां अथवा छाट उपर खाण्डी ले अथवा दान्तोथी ज चावी चावीने खाई ले ॥५॥

वानप्रस्थाश्रमीए कयो पदार्थ कयान्थी लाववो जोईए, कये वखते लाववो जोईए, कया-कया पदार्थ पोताने माफक आवे तेवा छे आ बधुं समजीने पोताना जीवननिर्वाह माटे पोते ज बधी जातनां कन्द, मूळ, फळ वगेरे लई आवे. देश, काल वगेरे नहि जाणनारा लोकोए लावेल अथवा पहेलान्ना सञ्चित पदार्थो पोताना काममां न ले. मान्दगी वखते बीजाए लावेल पदार्थोनो उपयोग करवामां बाध नथी. कोई पदार्थनी अछतनी सम्भावना होय तो सञ्चय करवानो पण वान्धो नथी ॥६॥

नीवार (सामो) वगेरे जङ्गलमां ज उत्पन्न थयेल अन्नथी ज चरुपुरोडाश वगेरे तैयार करे अने तेनाथी ज ‘आग्रयण’ (वर्षाऋतुने अन्ते पहेला पाकनी आहुति) वगेरे वैदिक कर्मो करे. वानप्रस्थ थई गया पछी वेदविहित पशुओद्वारा मारुं यजन न करे ॥७॥

[[४०८]] वेदज्ञ लोकोए गृहस्थनी जेम वानप्रस्थने माटे पण अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य वगेरे कर्मो करवानुं विधान कर्युं छे ॥८॥

आ प्रमाणे घोर तपस्या करतां-करतां मांस सुकाई जवाथी वानप्रस्थीनी एके- एक नस देखावा लागे छे. ते आ तपस्याद्वारा मारी आराधना करी पहेलां तो ऋषिओना लोकमां जाय छे अने त्यान्थी पछी मारी पासे आवी जाय छे कारण के तप मारुं ज स्वरूप छे ॥९॥

हे प्रिय उद्धव! जे पुरुष महाकष्टथी थतुं अने मोक्ष आपनार आ महान तप स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि नाना-मोटा फळोनी प्राप्तिमाटे करे छे तेनाथी मोटो मूरख बीजो कोण होई शके? माटे तप निष्काम भावथी ज करवुं जोईए ॥१०॥

हे प्रिय उद्धव! वानप्रस्थी जयारे पोताना आश्रमोचित नियमोनुं पालन न करी शके, वृद्धावस्थाथी शरीर कम्पवा लागे त्यारे यज्ञना अग्निओने भावनाद्वारा पोताना अन्तःकरणमां आरोपित करी ले अने पोतानुं मन मारामां लगाडी दई, अग्निमां प्रवेश करी दे. (आ विधान जे विरक्त नथी तेमने माटे ज छे) ॥११॥

काम्य कर्मोना फलरूप जे लोक प्राप्त थाय छे ते नरकोना जेटला ज दुःख पूर्ण छे एम समजीने आ लोक अने परलोक प्रत्ये पूर्ण वैराग्य थई जाय तो विधिपूर्वक यज्ञना अग्निओनो परित्याग करी सन्न्यास लई ले ॥१२॥

जे वानप्रस्थी सन्न्यास आश्रम स्वीकारवा मागतो होय ते पहेलां वेद विधि प्रमाणे आठेय प्रकारना श्राद्ध अने प्राजापत्य यज्ञथी मारुं यजन करे. त्यारबाद पोतानुं सर्वस्व ऋत्विजने आपी दे. यज्ञना अग्निओने पोताना प्राणोमां लीन करी ले अने पछी कोई पण स्थान, वस्तु अने व्यक्तिओनी आशा-अपेक्षा राख्या विना स्वच्छन्द विचरण करे ॥१३॥

हे उद्धवजी! ज्यारे ब्राह्मण सन्न्यास लेवा लागे छे त्यारे देवो स्त्री पुत्रादि सगा सम्बन्धीओनां रूप धारण करी तेना सन्न्यास ग्रहणमां विघ्नो नाखे छे. तेओ विचार करे छे के आ तो अमाराथी आगळ वधीने, अमारी अवहेलना करीने (परमपदने) परमात्माने प्राप्त करवा जई रह्यो छे ॥१४॥

सन्न्यासी जो वस्त्र धारण करे तो मात्र लङ्गोटीज अने वधुमां वधु तेना उपर एक एवो नानकडो टुकडो लपेटी ले जेथी लङ्गोटी ढङ्काई जाय तथा आश्रमोचित दण्ड अने कमण्डलु सिवाय बीजी कोई पण वस्तु पोतानी पासे न राखे. आपत्तिकालने [[४०९]] बाद करतां आ नियम सदामाटेछे ॥१५॥

सारी रीते धरती जोईने पग मूके, कपडाथी गाळीने जल पीए, सत्यथी पवित्र थयेली वाणी ज बोले, मनथी जे पवित्र जणाय तेनुं ज आचरण करे तथा शरीरथी फक्त पवित्र कार्यो ज बुद्धिपूर्वक समजी विचारीने ज करे ॥१६॥

वाणीने माटे मौन, देहने माटे निश्चेष्ट स्थिति अने मनने माटे प्राणायाम दण्ड छे. हे उद्धवजी! जेनी पासे आ त्रणेय दण्ड नथी ते केवल वांसनो दण्ड धारण करवाथी दण्डीस्वामी (यति) न कहेवाय ॥१७॥

सन्न्यासीए जातिभ्रष्ट तथा गो हत्यारा वगेरे पापीओ सिवाय चारे वर्णने त्यान्थी भिक्षा लेवी. पहेलेथी ज नक्की नहि करेलां एवां सात घरेथी जेटलुं मळी आवे एटलाथी ज सन्तोष मानी ले. (‘‘सर्वान्नानुमतिश्च प्राणात्यये तद्‌दर्शनात्‌’’ (व्यास सूत्र सर्वापेक्षेत्यधिकरण ३.४.२८) सूत्र प्रमाणे सन्न्यासीए भिक्षा ब्राह्मणोने त्यान्थी ज लेवानी छे. प्राण-सङ्कट आवी पडे त्यारे ज ब्राह्मणोने त्यान्थी न मळे तो क्षत्रियोने त्यान्थी, क्षत्रियोने त्यान्थी न मळे तो वैश्योने त्यान्थी अने वैश्योने त्यान्थी न मळे तो शूद्रोने त्यान्थी भिक्षा लेवी एवो विवेक छे) ॥१८॥

आ प्रमाणे भिक्षा लई गामनी बहार जलाशय (नदी-सरोवर आदि) पासे जाय. त्यां हाथ-पग धोई जलथी भिक्षा पवित्र करी ले. पछी शास्त्रोक्त पद्धतिथी जेने-जेने भिक्षानो भाग आपवो जोईए तेने-तेने ते आपी, जे कंई वधे ते मौन रहीने खाई ले. बीजा वखतमाटे बचावीने कंई राखे नहि के मागीने वधारे लावे नर्ही ॥१९॥

सन्न्यासीए पृथ्वी पर एकला ज फरवुं. ते कयांय पण आसक्ति न करे अने बधी ईन्द्रियो तेने वश होय. ते प्रभुप्रेममां ज मस्त अने तन्मय रहे, प्रतिकूलमां प्रतिकूल परिस्थितिमां पण धैर्य राखे अने सर्वत्र समान रूपथी स्थित परमात्मानो अनुभव करतो रहे ॥२०॥

सन्न्यासीए निर्जन अने निर्भय एकान्त स्थानमां रहेवुं. तेनु हृदय निरन्तर मारी भक्तिथी विशुद्ध रहेवुं जोईए. ते पोताने माराथी अभिन्न अने अद्वितीय, अखण्डना रूपमां चिन्तन करे ॥२१॥

ते पोतानी ज्ञाननिष्ठाथी चित्तना बन्धन अने मोक्ष उपर विचार करे अने निश्चय करे के इन्द्रियोनुं विषयोमाटे विक्षिप्त थवुं-ञ्चचल थवुं एज बन्धन छे अने [[४१०]] तेमने संयममां राखवी एज मोक्षछे ॥२२॥

तेथी सन्न्यासीए मन अने पाञ्चेय ज्ञानेन्द्रियोने जीती लेवी जोईए, भोगोनी तुच्छता समजी लई तेमनो सर्वथा त्याग करी देवो जोईए अने पोतानामां ज परम आनन्दनो अनुभव करे. आ प्रमाणे ते मारी भावनाथी पूर्ण थई पृथ्वीमां फरतो रहे ॥२३॥

मात्र भिक्षाने माटे ज नगर, गामडां, आहीरोनी वस्ती के यात्रीओना समूहमां जाय. पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन अने आश्रमोथी पूर्ण पृथ्वीमां कयांय पण आसक्ति राख्या विना फरता रहेवुम् ॥२४॥

भिक्षा पण मोटे भागे वानप्रस्थीओना आश्रमेथी ज ग्रहण करे कारण के जे खेतरोमान्थी पाक उतारी लेवामां आव्यो छे ते खेतरोमां पडी रहेला अनाजना दाणानी बनेली भिक्षा चित्तने तरत शुद्ध करी दे छे अने तेथी रह्यो-सह्यो मोह पण दूर थई जई सिद्धि प्राप्त थई जाय छे ॥२५॥

विचारवान सन्न्यासी आ देखातां गृह, वित्त(धन), पुत्र, पत्नी, मिष्टान्न वगेरे जगतना पदार्थोने कयारेय सत्य वस्तु न समजे, कारण के ए बधां प्रत्यक्ष नाशवान छे. आ जगतमां कयांय पण पोताना चित्तने लगाडे नहि. आ लोक तथा परलोकमां जे कंई करवानी के मेळववानी इच्छा होय तेनाथी विरक्त थई जाय ॥२६॥

(त्यां शङ्का थाय के जगत्‌ नाश थवानुं ए वात साची, परन्तु नाश न थाय त्यां सुधी तो एना भोगथी सुख थाय तेने शा माटे छोडवा एम कोई कहे तो त्यां कहेवानुं के) जे मन, वाणी अने प्राण नी साथे रहेलुं आ शरीर अने एनाथी थतुं सुख मायावडे आपणे सुख तरीके मानेलुं छे ते अविद्याथी आपणने सुख जणाय छे. जेम स्वपनमां जणाय छे ते सुख निद्रा छोड्या पछी देखातुं नथी तेम आ लोकनुं सुख अविद्या गया पछी सुखरूप नथी एम निश्चय करी आत्मामां स्थिर चित्त थईने शरीरनो अध्यास छोडीने कयारेय लोक सुखनुं स्मरण पण न करे ॥२७॥

(एम सन्न्यासीना धर्मोने कहीने हवे साडादश श्लोकथी परमहंसना धर्मोने कहे छे) ज्ञानमां निष्ठावाळो, विरक्त, मुमुक्षु अने मोक्षनी पण परवा न करनारो मारोभक्त आश्रमोनी मर्यादामां बन्धायेलो नथी. ते इच्छेतो आश्रमो अने तेमना चिह्‌नोने ताबे न थायअने वेदशास्त्रना विधि निषेधथी पर थई जई स्वछन्दफरे ॥२८॥

[[४११]] ते बुद्धिमान होवा छतां बालकबुद्धिनो देखाव करे, निपुण होवा छतां जडनी जेम वर्ते, विद्वान होवा छतां पागलनी जेम वातचीत करे अने समस्त वेद विधिओनो जाणकार होवा छतां पण पशुवृत्तिथी (अनियत आचारवाळो थईने) रहे. (देहाध्यास, विषयानुसन्धान, बीजाओने खुश करवा, पोतानुं माहात्म्य जणाववुं-वगेरेनो त्याग करवो) ॥२९॥

वेदमां अक्षय्य फलनुं प्रतिपादन करनारा अर्थवादोमां आसक्त न थाय. पाखण्डी (श्रुतिस्मृति विरुद्ध आचरण करनारो) न थाय. तर्कवितर्कथी दूर रहे अने ज्यां निष्प्रयोजन अर्थ वगरनी चर्चाओ थती होय त्यां कोई पक्षने टेको आपी पक्षकार न थाय ॥३०॥

तेनुं धैर्य तो एवुं होय के तेना मनमां कोई पण प्राणीथी उद्वेग न थाय तेम ज ते पोते कोई पण प्राणीने उद्विग्न न करे. तेनी कोई निन्दा करे तो प्रसन्ताथी ते सहन करी ले. कोईनुं अपमान न करे. हे प्रिय उद्धव! सन्न्यासी आ शरीरने माटे कोईनी पण साथे वेर न करे, आवुं वेर तो पशुओ ज करे छे ॥३१॥

जेवी रीते एक ज चन्द्रमा जलथी भरेला जुदां-जुदां पात्रोमां अलग-अलग देखाय छे. तेवी ज रीते एक ज परमात्मा समस्त प्राणीओमां अने पोतानामां पण बिराजी रह्यो छे, बधानो आत्मा तो एक छे ज, पञ्चभूतोथी बनेलां शरीर पण बधानां एक ज छे, कारण के बधुं पाञ्चभौतिक ज छे. (आवी स्थितिमां कोईथी पण वेर करवुं पोतानो ज वेर विरोध करवा बराबर छे) ॥३२॥

सन्न्यासीने कोई दिवस समयसर भोजन न मळे तो तेणे दुःखी न थवुं जोईए अने समयसर नियमित रीते मळतुं रहे तो तेने हर्ष न थवो जोईए. तेणे धैर्य राखवुं जोईए. ते हर्ष अने विषाद बन्नेमान्थी एकेय प्रकारनो विकार मनमां न आववा दे, कारण के भोजन मळवुं के न मळवुं ते प्रारब्धने अधीन छे ॥३३॥

भिक्षा अवश्य मागवी जोईए एम करवुं उचित ज छे, कारण के भिक्षाथी ज प्राणोनी रक्षा थाय छे. प्राण रहेवाथी ज तत्त्वनो विचार थई शके छे अने तत्त्व विचारथी ज तत्त्वज्ञान थई मुक्ति मळे छे ॥३४॥

सन्न्यासीने प्रारब्ध प्रमाणे सारी के खराब जेवी भिक्षा मळी जाय तेनाथी ज पेट भरी ले. वस्त्र अने शय्या पण जेवां मळी जाय तेवान्थी ज काम चलावी ले तेमां सारा के खराबनी कल्पना न करे ॥३५॥

[[४१२]] जेवी रीते हुं परमेश्वर होवा छतां पण मारी लीलाथी ज शौच (पवित्रता) वगेरे शास्त्रोमां कहेवामां आवेला नियमोनुं पालन करुं छुं तेवी ज रीते ज्ञाननिष्ठ पुरुष पण शौच (पवित्रता), आचमन, स्नान अने बीजा नियमोनुं लीलाथी ज लोक शिक्षार्थ आचरण करे. ते शास्त्र विधिने अधीन थई जई मात्र विधिकिङ्कर बनी न करे ॥३६॥

कारण के ज्ञाननिष्ठ पुरुषने भेदनी प्रतीति ज होती नथी. पहेलां जे हती ते पण मारा सर्वात्माना साक्षात्कारथी नष्ट थई गई. जो क्यारेक-क्यारेक मरण पर्यन्त बाधित भेदनी प्रतीति पण थाय तो पण मृत्यु थतां ते मारामां एकरूप थई जाय छे ॥३७॥

हे उद्धवजी! (आ तो ज्ञाननिष्ठनी वात थई, हवे केवल वैराग्य निष्ठनी वात साम्भळो). जितेन्द्रिय पुरुषने ज्यारे निश्चय थई जाय के संसारना विषयोना भोगनुं फल नर्युं दुःख ज छे, त्यारे ते विरक्त थई जाय अने जो ते मारी प्राप्तिनां साधनो जाणतो न होय तो भगवच्चिन्तनमां तन्मय रहेनारा ब्रह्मनिष्ठ गुरुने शरणे जाय ॥३८॥

ते गुरुनी दृढ भक्ति करे. तेनां वचनोमां श्रद्धा राखे अने तेनां दोष न जुए. ज्यां सुधी ब्रह्मनुं ज्ञान न थाय त्यां सुधी अत्यन्त-आदरपूर्वक मने ज गुरुना रूपमां समजी मारी सेवा करे ॥३९॥

परन्तु पाञ्च इन्द्रियो अने मन-आ छ उपर जेणे विजय प्राप्त कर्यो नथी, जेना इन्द्रियोरूपी घोडाओ अने बुद्धिरूपी सारथि बगडी गयेला छे अने जेना हृदयमां ज्ञान के वैराग्य नथी ते जो त्रिदण्डी सन्न्यासीनो वेश धारण करी लई पेट भरे छे तो ते सन्न्यास धर्मनुं सत्यानाश वाळीए पोताना पूज्य देवताओने, पोतानी जातने अने पोताना हृदयमां रहेला मने पण ठगवानी चेष्टा करे छे. हजु ते वेषधारी सन्न्यासीनी वासनाओ क्षीण थई नथी तेथी तेनो आ लोक अने परलोक बन्ने बगडे छे ॥४०-४१॥

(चार आश्रमना प्रधान धर्मोने गणावे छे). इन्द्रिय अने मन नो निग्रह अने परपीडा नो त्याग ए बे सन्न्यासीना धर्मो छे. शास्त्रमां विधान करेल तपथी क्लेश सहन करवो तथा तत्त्वनो विचार करवो आ बे धर्मो वानप्रस्थना छे. प्राणीमात्रनी रक्षा करवी. पञ्चमहायज्ञ करवा ए गृहस्थनो मुख्य धर्म छे. गुरुनी पासे रहेता [[४१३]] ब्रह्मचारीनो मुख्य धर्मए गुरुनी सेवा छे ॥४२॥

(केटलाक आश्रमधर्मो गृहस्थोने पाळवाना छे तेनो अतिदेश करे छे) ब्रह्मचर्य, तप, बाह्याभ्यन्तर (बहारनी अने अन्दरनी) पवित्रता, सन्तोष, सर्वत्र मैत्री, गृहस्थे पण ब्रह्मचर्य पाळवुं जोईए. गृहस्थ जो ऋतुकालमाञ्ज स्त्री गमन करे तो ए ब्रह्मचारी गणाय छे. मारी उपासना करवी एतो प्राणीमात्रनो धर्मछे ॥४३॥

अनन्य चित्त थईने जे मने एवी रीते नित्य भजे छे अने सर्व प्राणीओमां मारो भाव राखे तेने तुरत ज मारी भक्ति प्राप्त थाय छे ॥४४॥

हे उद्धव! सर्व लोकनो एकमात्र स्वामी, बधान्नी उत्पत्ति अने प्रलय नुं परम कारण हुं ब्रह्म छुं. नित्य निरन्तर वधती जती मारी अखण्ड भक्तिद्वारा ते मने प्राप्त करी ले छे ॥४५॥

आ प्रमाणे ते गृहस्थ पोताना धर्मपालनद्वारा अन्तःकरणने शुद्ध करी मारा ऐश्वर्यने-स्वरूपने जाणी ले छे अने ज्ञान-विज्ञानथी सम्पन्न थई मने जलदी प्राप्त करी ले छे ॥४६॥

में तमने आ सदाचाररूप वर्णाश्रमीओनां धर्म बताव्या छे. ते धर्मनी साथे जो ए मारी भक्ति करे तो अनायासज परम कल्याणरूप मोक्ष प्राप्त थाय छे ॥४७॥

एतत्तेऽभिहितं साधो भवान्‌ पृच्छति यच्च माम्‌ ॥ यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम्‌ ॥४८॥

हे साधो! (उद्धवजी) तमे मने जे प्रश्न पूछयो हतो तेनो उत्तर में आपी दीधो अने ए बताव्युं के पोताना धर्मनुं पालन करनार भक्त मारा परब्रह्म स्वरूपने केवी रीते प्राप्त थाय छे ॥४८॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो तेरमो अने चालु) ‘‘वानप्रस्थ (वनस्थ) अने यतिना धर्म’’ नामानो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. मारे जन्तु (श्रोता) अहि(नाग=कथाकार) मणि(भागवत)अजवाळे, त्यम तें उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र(भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे

ईं उं ईं उं

[[४१४]]

अध्याय १९

ज्ञानादि साधनो छूटे त्यारे भक्ति थाय छे

विशेष - ज्ञानीए साधनो छोडी देवां जोईए तो एने शाश्वती भक्ति थाय छे. ए वात आ ओगणीसमां अध्यायमां कहे छे तथा यम आदिनां लक्षणो पण आ अध्यायमां भगवाने उद्धवजीना प्रश्नना उत्तररूपे कह्यां छे. यो विद्याश्रुतसम्पन्न आत्मवान्‌ नानुमानिकः ॥ मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत्‌ ॥१॥

श्रीभगवाने कह्युं - आत्मानो अनुभव थाय त्यां सुधी श्रुति वगेरे शास्त्रोथी सम्पन्न थईने आत्माना तत्त्वने जाणनार केवळ परोक्ष ज्ञानवाळो ज नहि एवो मारो भक्त हुं अने मारुं एवुं आ बधुं माया छे एम जाणी ज्ञान स्वरूप भूत मने जाणे ॥१॥

ज्ञानीने तो हुं ज अपेक्षित छुं, फलरूप पण हुं ज छुं, मारा सिवाय स्वर्ग, मोक्ष के बीजो कोई पदार्थ एने प्रिय नथी ॥२॥

ज्ञान अने अनुभव थी सम्पन्न सिद्ध पुरुष मारा श्रेष्ठ स्वरूपने जाणे छे माटे ज्ञानी मने विशेष प्रिय छे केमके ए ज्ञानवडे मने पोताना अन्तःकरणमां धारण करे छे ॥३॥

तत्त्वज्ञानना लेशमात्रना उदयथी जे सिद्धि प्राप्त थाय छे ते तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्तःकरण शुद्धिना बीजा कोई पण साधनथी पूरेपूरी प्राप्त थई शक्ती नथी ॥४॥

तेथी हे प्रिय उद्धव! तमे ज्ञान सहित पोताना आत्मस्वरूपने जाणीने पछी ज्ञान-विज्ञानथी सम्पन्न थई भक्ति भावथी मारुं भजन करो ॥५॥

मोटा-मोटा ऋषिमुनिओए ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञद्वारा पोतानां अन्तःकरणमां बधा यज्ञोना अधिपति आत्मानुं-मारुं यजन करी परम सिद्धि प्राप्त करी छे ॥६॥

हे उद्धव! आध्यात्मिक, आधिदैविक अने आधिभौतिक आ त्रण विकारोनो समुदाय ज शरीर छे अने ते सर्वथा तमारे आश्रित छे. ते पहेलां नहोतु अने अन्तमां नहि रहे; मात्र वचला समयमां ज देखाई रह्युं छे. ते ज माया छे एम तमे समजो. तेनो जन्म, अस्तित्व (रहेवुं), वृद्धि (वधवुं), फेरफार (बदलवुं), [[४१५]] क्षय (घटवुं) अने नष्ट थवुं आ छ भावविकार छे तेमनी साथे तमारो कोई सम्बन्ध नथी. एटलुं ज नहि ते विकार तेना पण नथी कारण के ते पोते असत्‌ छे. असत्‌ वस्तु तो पहेलां नहोती, पछी पण नहि रहे तेथी वचमां पण तेनुं अस्तित्व होतुं नथी ॥७॥

उद्धवजीए कह्युं - हे विश्वरूप परमात्मन्‌! आप ज विश्वना स्वामी छो. वैराग्य अने विज्ञानयुक्त आपनुं आ विशुद्ध ज्ञान जे रीते सुदृढ थई जाय ते ज रीते मने स्पष्ट करी समजाववानी कृपा करो अने आपना ते भक्तियोगनुं वर्णन करवानी कृपा करो के जे भक्तियोग ब्रह्माजी, शुकदेवजी अने सनत्कुमारो जेवा महापुरुषो पण शोध्या करे छे ॥८॥

हे मारा स्वामी! जे पुरुष आ संसारना विकट मार्गमां त्रणेय तापोनी थप्पडो खाई रह्यो छे अने अन्दर-बहार बळी रह्यो छे एने माटे आपना अमृतवर्षी युगल चरणारावन्दोनी छत्रछाया सिवाय बीजो कोई पण आश्रय देखातो नथी ॥९॥

हे महानुभाव! आपनो आ निजी सेवक अन्धारिया भवकूप (कूवा) मां पडेलो छे, कालरूपी सर्पे अने दंश दीधेलो छे छतां विषयोना क्षुद्र सुखभोगोनी तीव्र तृष्णा मटती तो नथी, वधती ज जई रही छे. आप कृपा करी तेनो उद्धार करो अने तेमान्थी उगारी लेनारी वाणीनी सुधा धाराथी तेने तरबोळ करी दो. जेनाथी आपना स्वरूपनुं साचुं ज्ञान थाय ॥१०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धवजी! तमे मने जे प्रश्न पूछ्‌्यो छे ते ज प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिरे धार्मिक शिरोमणि भीष्मपितामहने पूछ्‌्यो हतो. ते वखते अमे बधां त्यां हाजर हता ॥११॥

ज्यारे महाभारतनुं युद्ध पूरुं थई गयुं हतुं अने धर्मराज युधिष्ठिर पोताना स्वजन सम्बन्धीओना संहारथी शोक-विह्‌वल थई रह्या हता त्यारे तेमणे भीष्मपितामहने घणा धर्मोनुं विवरण साम्भळ्या पछी मोक्षनां साधनो सम्बन्धी प्रश्न पूछ्‌्यो हतो ॥१२॥

ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा अने भक्ति ना भावोथी परिपूर्ण ए मोक्षधर्मोने में देवना जेवा व्रतवाळा भीष्मपितामह पासेथी साम्भळ्या छे ते बधा धर्मो हुं तमने कहीश ॥१३॥

हे उद्धवजी! जे ज्ञानथी प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पञ्चतन्मात्रा [[४१६]] (शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध) आ नव, पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय (श्रोत्र-कान, त्वचाचामडी, चक्षु-आङ्ख, जिह्‌वा-जीभ अने घ्राण-नासिका-नाक), पाञ्च कर्मेन्द्रिय (वाचा, पाद, पाणि (हाथ), पायु, उपस्थ) अने एक मन आ अगियार, पाञ्च महाभूत (पृथ्वी, जल, आकाश, वायु अने अग्नि) अने त्रण गुण (सत्त्व, रजस्‌ अने तमस्‌) अर्थात्‌ आ अठ्ठावीस तत्त्वोने ब्रह्माथी माण्डीने तृण सुधी बधां कार्योमां देखी शकाय छे अने तेमनामां पण एक परमात्मतत्त्वने ओतप्रोत थयेल देखाय छे ते परोक्ष ज्ञान छे एवो मारो निश्चय छे ॥१४॥

जे एक तत्त्वानुगत एकात्मक तत्त्वोने पहेलां जोतो हतो तेमने पहेलान्नी जेम न जुए पण एक परम कारण ब्रह्मने ज जुए त्यारे ते ज निश्चित विज्ञान (अपरोक्ष ज्ञान) कहेवाय छे. (आ ज्ञान अने विज्ञान ने प्राप्त करवानी युक्ति ए छे के) आ शरीर वगेरे जेटला-जेटला त्रिगुणात्मक अवयवसहित पदार्थो छे तेमनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयनो विचार करे ॥१५॥

जे तत्त्ववस्तु सृष्टिना आरम्भमां अने अन्तमां कारणरूपे रहेली होय छे ते ज वचमां पण रहे छे अने ते ज प्रतीयमान कार्यथी प्रतीयमान बीजा कार्यमां अनुगत पण होय छे. (कार्य कारणमां प्रवेश करे) पछी ते कार्योनो प्रलय अथवा बाध थतां तेना साक्षी अने अधिष्ठान रूपथी बाकी रही जाय छे ते ज सत्य परमार्थ वस्तु छे एम समजवुम् ॥१६॥

श्रुति, प्रत्यक्ष, *ऐतिह्य अने अनुमान-प्रमाणोमां आ चार मुख्य छे. ए प्रमाणोनी कसोटी उपर कसवाथी देखातो अह्न्‌ता ममतात्मक संसार अस्थिर, नश्वर अने विकारी होवाथी सत्य सिद्ध थतो नथी तेथी विवेकी पुरुष तेनाथी विरक्त थई जाय छे ॥१७॥

विशेष - ऐतिह्य-ते-ते शास्त्रोना प्रवर्तक महापुरुषोमां प्रसिद्धि एटले ‘‘जगत कयारेय आवुं न हतुं एम नहि’’ कहेनारा महापुरुषो नथी. विवेकी पुरुष यज्ञादि कर्मोना फलरूपे मळनारां स्वर्ग वगेरे नाशवन्त होवाने लीधे ब्रह्मलोक सुधीनां स्वर्ग वगेरे सुख ने पण आ प्रत्यक्ष अनुभवाता विषय सुखनी जेम ज अमङ्गल, दुःखदायी अने नाशवन्त समजे ॥१८॥

हे निष्पाप उद्धवजी! भक्तियोगनुं वर्णन हुं तमारी आगळ पहेलां ज (बारमां अध्यायमां) करी चूकयो छुं; परन्तु तमारी तेमां बहु ज प्रीति छे तेथी [[४१७]] भक्ति प्राप्त करवानुं श्रेष्ठ साधन हुं तमने बतावुं छुम् ॥१९॥

मारी भक्ति प्राप्त करवा जे इच्छतो होय ते निरन्तर मारी अमृतमय कथामां श्रद्धा राखे, निरन्तर मारा गुण, लीला अने नामोनुं सङ्कीर्तन करे. मारी सेवापूजामां निरन्तर अत्यन्त निष्ठा राखे अने निरन्तर स्तोत्रोद्वारा मारी स्तुति करे ॥२०॥

मारी सेवा-पूजामां प्रेम अने आदर राखे, मने साष्टाङ्ग दण्डवत्‌ प्रणाम करे, मारी सेवा-पूजा करतां मारा भक्तोनी सेवा-पूजा वधारे करे अने बधां प्राणीओमां मने ज जुए ॥२१॥

पोताना सर्व अङ्गोनी चेष्टा केवळ मारे ज माटे करे, वाणीथी मारा ज गुणोनुं गान करे अने पोतानुं मन मने ज अर्पण करी दे तथा बधीज कामनाओनो त्याग करी दे ॥२२॥

मारामाटे धन, भोग अने आवी मळेल सुखनो पण परित्याग करी दे अने जे कंई यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत अने तप करवामां आवे ते बधुं मारेमाटे ज करे ॥२३॥

हे उद्धवजी! जे मनुष्यो आ धर्मोनुं पालन करे छे अने मने आत्मनिवेदन करी दे छे तेमना हृदयमां मारी प्रेममयी भक्तिनो उदय थाय छे अने जेने मारी भक्ति प्राप्त थई गई तेने बीजी कई वस्तु मळवानी बाकी रही जाय छे? (कोई पण पुरुषार्थ बाकी रहेतो नथी एना सर्व मनोरथो पूर्ण थाय छे) ॥२४॥

आ प्रकारना धर्मोनुं पालन करवाथी चित्तमां ज्यारे सत्त्वगुणनी वृद्धि थाय छे अने ते शान्त थई आत्मामां लागी जाय छे ते वखते साधकने धर्म, ज्ञान, वैराग्य अने ऐश्वर्य नी आपोआप प्राप्ति थई जाय छे ॥२५॥

ज्यारे चित्त देहगेह वगेरेमां आसक्त थाय छे, त्यारे ते इन्द्रियोनी साथे आम तेम भटकवा लागे छे. आ प्रमाणे चित्तमां रजोगुण वधी जाय छे ते असत्‌ वस्तुओ-निषिद्ध विषयोमां लागी जाय छे अने तेना धर्म ज्ञान आदिनो लोप थई जाय छे ते अधर्म अज्ञान अने मोहनुं पण घर बनी जायछे ॥२६॥

हे उद्धव! जेनाथी मारी भक्ति थाय ते ज धर्म छे. जेनाथी बधां प्राणीओमां परमात्मानां दर्शन थाय ते ज ज्ञान छे. विषयोथी निर्लेप रहेवुं तेमां आसक्त न थवुं ते ज वैराग्य छे अने अणिमा वगेरे सिद्धिओ ज ऐश्वर्य छे ॥२७॥

उद्धवजीए पूछयुं - हे रिपुसूदन (अरिकर्षण)! यम अने नियम केटला [[४१८]] प्रकारना छे? हे श्रीकृष्ण! शम शुं छे? दम शुं छे? हे प्रभो! तितिक्षा अने धैर्य शुं छे? ॥२८॥

आप मने दान, तपस्या, शूरता, सत्य अने ऋतनुं पण स्वरूप बतावो. त्याग शुं छे? अभीष्ट धन कयुं छे? यज्ञ शाने कहेवाय? अने दक्षिणा शी चीज छे? ॥२९॥

हे श्रीमान्‌ केशव! पुरुषनुं साचुं बल कयुं छे? भग अने लाभ एटले शुं? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख अने दुःख शुं छे? ॥३०॥

पण्डित अने मूर्ख नां लक्षण कयां छे? सन्मार्ग अने कुमार्ग नुं लक्षण शुं छे? स्वर्ग अने नरक शुं छे? भाई-बन्धु कोने मानवा जोईए? अने घर कोने कहेवुं? ॥३१॥

धनवान अने निर्धन कोने कहे छे? कृपण कोण छे? ईश्वर कोने कहेवाय? हे भक्तवत्सल प्रभो! आप मारा आ प्रश्नोना उत्तर कृपा करीने आपो अने साथे- साथे तेमना विरोधी भावोनी पण व्याख्या करवानी कृपा करो ॥३२॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - ‘यम’ बार छे अहिंसा (कोईने पीडा थाय तेम न करवुं), हितकारक प्रिय सत्य, अस्तेय (बीजानी मालिकीनी वस्तु हडप करी जवानो विचार पण न आववो), अनासक्ति, लज्जा, अपरिग्रह (कोई आपे तो न लेवुं- आवश्यक्ताथी वधारे धन वगेरेनो सङ्ग्रह न करवो), आस्तिक्ता (शास्त्रमां कह्युं होय तेमां विश्वास राखवो), ब्रह्मचर्य (आठ प्रकारे स्त्रीना सम्बन्धथी अलग रहेवुं), मौन (वृथा वात-चीतनो त्याग), स्थिरता (धर्मपालनमां मक्कमता), क्षमा (अपराधी उपर पण क्रोध न करवो) अने अभय. नियमोनी सङ्ख्या पण बार छे. शौच (बहारनी तेमज अन्दरनी शुद्धि पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, मारी पूजा, तीर्थ यात्रा, परोपकारी प्रवृत्ति, सन्तोष अने गुरुसेवा आ प्रमाणे ‘यम’ अने ‘नियम’ बन्नेनी सङ्ख्या बार-बार छे. सकाम अने निष्काम बन्ने प्रकारना साधकोमाटे आ उपयोगी छे. हे उद्धवजी! जे पुरुष आनुं पालन करे छे तेने आ यम नियमो तेनी इच्छा प्रमाणे सकामने भोग अने निष्कामने मोक्ष आपे छे ॥३३ थी ३५॥

केवळ शान्ति ए शम नथी पण बुद्धिनुं मारामां लागी जवुं ए ज ‘शम’ छे. चोर वगेरेनुं दमन करवुं ए ज मात्र दम नथी पण ‘दम’ एटले इन्द्रियोने तेमना [[४१९]] विषयो छोडावी तेमने वश राखवी ते छे, भार वगेरे उठाववा ते तितिक्षा नहि पण शास्त्रविहित ब्रह्मचर्य, धर्म वगेरेनुं पालन करवामां थतो क्लेश सहन करवो तेज तितिक्षा छे. उद्वेगन करवो ए ज मात्र धृति-धैर्य नथी पण जिह्‌वा अने जननेन्द्रिय नो वेग धारण करवो, बन्नेने जीती लेवी तेज धैर्य छे ॥३६॥

धन अर्पण करवुं ते ज मात्र दान नथी परन्तु कोई पण प्राणीनो द्रोह न करवो अने बधान्ने अभयदान आपवुं ते ज ‘दान’ छे. कृच्छ्रादि ए तप नथी पण ‘तप’ एटले कामनाओनो त्याग-भोगोनी अनपेक्षा. बहारना शत्रुओने जीती लेवा ए ज मात्र शूरवीरता नथी पण स्वभाव वासना, शास्त्र विरुद्ध प्रकृति उपर विजय मेळववो ते ‘शौर्य’ छे. मात्र साचुं बोलवुं ए सत्य नथी पण सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माने निहाळवा ए ‘सत्य’ छे ॥३७॥

ए ज प्रमाणे सत्य अने मधुर वाणीने ज महात्माओए ‘ऋत’ क्ह्युं छे, मात्र यथार्थ भाषणने नहि. केवळ पवित्रता के मात्र मलत्याग ज शौच नथी पण कर्मोमां आसक्त न थवुं ते ज ‘शौच’ छे. गृहत्याग ए ज सन्न्यास नथी, ‘सन्न्यास’ एटले आ लोक अने परलोक सम्बन्धी बधां कर्मोनां फलनो तथा स्त्री, पुत्र वगेरेमां ममतानो त्याग ॥३८॥

सोनुं, चान्दी, घर, पशु एज मनुष्योनुं इच्छित धन नथी पण ‘धर्म’ ए ज इष्ट धन छे. सोना वगेरेनुं दान दक्षिणा नथी, ज्ञाननो उपदेश आपवो एज ‘दक्षिणा’ छे, कारण के ज्ञानना उपदेशथीज यज्ञरूप हुं प्राप्त थाउं छुं. शारीरिक बळ ए बळ नथी पण प्राणायाम एज ‘बळ’ छे ॥३९॥

(उद्धवजीए ‘भग’ नी व्याख्या पूछी नथी छतां लोकोमां ‘भग’ अने ‘लाभ’ नो सरखो अर्थ थतो होवाथी आप स्पष्टता करे छे.) ‘भग’ (भाग्य) ते ज के जेनाथी मने ज कर्तुम्‌ अर्क्तुम्‌ अन्यथार्क्तुम्‌ समर्थ ईश्वर माने, कोई जीव, ब्रह्मा, इन्द्र वगेरेने नहि. पुत्र आदिनी प्राप्ति ए उत्तम ‘लाभ’ नहि पण मारी भक्तिनी ज प्राप्ति ए ज उत्तम ‘लाभ’ छे. ‘‘हुं युवान छुं’’, ‘‘बालक छुं’’, ‘‘देव छुं’’, ‘‘मनुष्य छुं’’ एवो आत्मामां जणातो भेद दूर थवो ए ‘विद्या’ मात्र ज्ञान ए विद्या नथी. पाप कर्म करतां घृणा थवी ए साची ‘लज्जा’ ॥४०॥

आभूषणो शरीरनुं साचुं सौन्दर्य-श्री नथी पण निरपेक्षता वगेरे गुणो ज साचो ‘श्री’ शणगार छे. भोग साचुं सुख नथी पण दुःख अने सुख बन्नेनी [[४२०]] भावनानो सदाने माटे नाश थई जवो ए ज साचुं ‘सुख’ छे. मार पडवो, अग्निथी दाझी जवुं ए दुःख नथी पण विषय भोगोनी कामना ज ‘दुःख’ छे. बन्ध अने मोक्ष ना तत्त्वने जे जाणे ते ज ‘पण्डित’ मात्र विद्वान ए पण्डित नथी ॥४१॥

शरीर ए ज हुं छुं अने स्त्री, पुत्र, वित्त, घर वगेरे मारां छे एम माननार ज ‘मूर्ख’ छे, मात्र अज्ञानी ज मूर्ख नथी. मात्र काण्टा, काङ्करा वगरनो मार्ग ज सारो मार्ग नथी पण संसारमान्थी निवृत्त करी मने जे मेळवी आपे ते ज सन्मार्ग छे. चोर वगेरे वाळो मार्ग ज (उत्पथ-उन्मार्ग) खराब मार्ग नथी पण चित्तनी बहिर्मुखता ए ज ‘कुमार्ग’ छे. इन्द्रलोक वगेरे स्वर्ग नथी पण सत्त्वगुणनी वृद्धि ए ज स्वर्ग छे ॥४२॥

रौरव, कुम्भीपाक वगेरे नरक नथी पण तमोगुणनी वृद्धि ए ज ‘नरक’ छे. भाई वगेरे बन्धु नथी पण गुरु ए ज साचा ‘बन्धु’ छे अने ते गुरु हुञ्ज छुं. रहेवानुं आलिशान मकान ए घर नथी पण शरीर ए ज ‘घर’ छे. जेनी पासे फक्त धनज होय ते धनवान नथी पण ए जेनी पासे विवेक, धैर्य, सत्य वगेरे गुणोनी सम्पत्ति होय ते ‘धनवान’ छे ॥४३॥

निर्धन पुरुष दरिद्र नथी पण जेने सन्तोष नथी ते ज ‘दरिद्र’ छे. दीन पुरुष कृपण नथी पण अजितेन्द्रिय पुरुष ‘कृपण’ (शौच्य) छे. राजा वगेरे ईश नथी पण जेनी चित्तवृत्ति विषयोमां आसक्त नथी ते ज ‘ईश्वर’ छे अर्थात्‌ समर्थ- स्वतन्त्र छे. एथी ऊलटुं जे विषयोमां आसक्त छे ते ज सर्वथा असमर्थ (पामर जीव) छे ॥४४॥

किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः ॥ गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः ॥४५॥

हे प्रिय उद्धव! तमे जेटला प्रश्नो पूछया हता तेमना उत्तर में आपी दीधा. गुण अने दोषो नां अलग-अलग लक्षणो हुं तमने कयां सुधी बतावुं? गुणो अने दोषो उपर दृष्टि जवी ए ज सौथी मोटो दोष छे अने गुण-दोषो उपर दृष्टि न जवी ए ज सौथी मोटो गुण छे ॥४५॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो चौदमो अने चालु) ‘‘ज्ञानादि साधनो छूटे त्यारे मुक्ति थाय छे’’ नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण. [[४२१]]

अध्याय २०

कर्म ज्ञान अने भक्ति योगोनुं वर्णन

विशेष - गुण-दोषनी व्यवस्थामाटे अधिकारीना भेदथी कर्म, ज्ञान अने भक्ति रूप उपायोने आ वीसमा अध्यायमां कहेछे. विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते ॥ अवेक्षतेऽरविन्दाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम्‌ ॥१॥

उद्धवजी बोल्या - हे कमलनयन! विधि अने निषेध ए ईश्वररूप आपनी आज्ञा ए ज वेद छे. कर्मनां विधानथी अने निषेधथी गुण अने दोष ने कहेनार ते वेद छे ॥१॥

वर्णोमां अने आश्रमोमां पण उच्च-नीच भेद छे, जातिमां पण अनुलोम अने प्रतिलोमथी प्रजा थाय तेमां उच्च-नीच भावो क्ह्या छे तेमज द्रव्य, देश, अवस्था अने काळ मां गुण-दोष गणावेला छे. स्वर्ग अने नरकमां पण पुण्यनां फल अने पापना फलरूप भेद जोवामां आवे छे ॥२॥

आपनी वाणीरूप वेदमां विधि-निषेध न होत तो गुण अने दोष एवा भेद ज उत्पन्न न थात; वळी विधि-निषेध न होय तो लोकक्ल्याण केम थाय? तेथी एनी जरूर पण जणाय छे ॥३॥

हे ईश्वर! जे अर्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोवडे जणातो नथी तेवा स्वर्ग, मोक्ष, आदि तथा आ वस्तु मेळववामां आ साधन छे ए जाणवामां आपना वचनरूपी वेद ज पितृ, देव अने मनुष्यो ने नेत्रनी जेम मार्गदर्शक छे ॥४॥

हे प्रभो! एमां सन्देह नथी के गुणो अने दोषोमां भेद दृष्टि आपनी वाणी वेद अनुसार ज छे, कोईनी पोतानी कल्पना नथी; परन्तु प्रश्न तो ए छे के आपनी वाणी ज भेदनो निषेध पण करे छे. आ विरोध जोई मने भ्रम थई रह्यो छे. आप कृपा करीने मारो ए भ्रम दूर करो ॥५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! में ज वेदो अने बीजां शास्त्रोमां मनुष्योनुं कल्याण करवामाटे अधिकारी भेदथी त्रण प्रकारना योगोनो उपदेश कर्यो छे. ते ज्ञान, कर्म अने भक्ति छे. मनुष्यना परम कल्याणमाटे आ सिवाय बीजो कोई उपाय कयांय पण छे ज नहि ॥६॥

[[४२२]] हे उद्धवजी! जे लोको कर्मो तथा तेमनां फलोथी विरक्त थई गया छे अने तेमनो त्याग करी चूकया छे तेओ ज्ञानयोगना अधिकारी छे. एथी ऊलटुं जेमनां चित्तमां कर्मो अने तेमनां फलो प्रत्ये वैराग्य थयो नथी तेमां दुःख बुद्धि थई नथी ते सकाम लोको कर्मयोगना अधिकारी छे ॥७॥

जे पुरुष अत्यन्त विरक्त के अत्यन्त आसक्त नथी तथा कोई पूर्व जन्मनां शुभ कर्मथी सौभाग्यवश मारी लीला कथा आदिमां तेनी श्रद्धा थई गई छे ते भक्तियोगनो अधिकारी छे. तेने भक्तियोगद्वारा ज सिद्धि मळी शके छे ॥८॥

कर्मनी बाबतमां जेटला-जेटला विधि-निषेध छे ते अनुसार कर्मो त्यां सुधी ज करवां जोईए के ज्यां सुधी कर्ममय जगत्‌ अने तेथी प्राप्त थनारा स्वर्ग वगेरेनां सुखोथी वैराग्य न थई जाय अथवा ज्यां सुधी मारी लीला कथाना श्रवण कीर्तन वगेरेमां श्रद्धा न थाय ॥९॥

(कर्मयोगवाळाने ज्ञानयोग तथा भक्तियोगमां आववानो प्रकार बतावे छे) हे उद्धव! फलनी कामनाने छोडीने पोताना वर्णाश्रम-धर्मनिष्ठ यज्ञथी देवनुं यजन करतो पुरुष जो निषिद्धाचरण न करे तो ए स्वर्ग के नरकमां जतो नथी. नरकमां बे रीते जायःएक तो विहित न करे ते अने बीजो निषिद्ध आचरे ते. एमां विहितनुं अनुष्ठान करे छे अने निषिद्धने छोडे छे तेथी नरकमां जतो नथी, वळी निष्कामबुद्धिथी करे छे तेथी क्षणिक स्वर्गादिमां पण जतो नथी ॥१०॥

स्वधर्म करतो रहे छे, शरीरथी कोई खराब कार्य करतो नथी, जेना रागादि मळ निवृत्त थया छे तेवो पुरुष प्रभुकृपाथी शुद्ध आत्मसाक्षात्कार करावनार ज्ञान अथवा मारी भक्तिने प्राप्त करे छे ॥११॥

(ज्ञान-भक्तिनो साधक मनुष्य देह छे तेनी स्तुति करे छे के)जेम नरकनी यातना भोगवनार मनुष्यदेहनी इच्छा करे छे, कारणके मनुष्यशरीरवाळो ज्ञान अथवा भक्ति वडे मुक्तिने सिद्ध करी शके छे, स्वर्गीय अने नारकीय शरीर ज्ञान के भक्ति मेळववा समर्थ थतां नथी तेथी मनुष्य देह सर्वथी उत्तम छे ॥१२॥

तेथी डाह्या माणस स्वर्ग के नरक न इच्छे एटले काम्य कर्मथी स्वर्ग थाय तेमज निषिद्ध कर्मना सेवनथी नरक थाय ते बन्ने प्रकारनां कर्मोने छोडे. वळी फरीने हुं मनुष्य थाउं एम आ लोकनी इच्छा पण न करे, कारण के देहमां पण अहं-ममनुं अभिमान थाय तो एने स्वरूपनुं अनुसन्धान छूटी जाय तेथी एनुं अक्ल्याण थाय [[४२३]] तेथी मनुष्य देहने पण इच्छेनहि ॥१३॥

आम जाणीने देह पडतां पहेलां मुक्ति मेळववानो यत्न करे, देहमां रह्या छतां प्रमाद न करे, आ शरीर नाशवान छे छतां ते पुरुषार्थने सिद्ध करवामां उपयोगी छे एम जाणे ॥१४॥

आ शरीर एक वृक्ष छे. जीवरूप पक्षी तेमां माळो बनावीने रहे छे. तेने यमराजाना दूत प्रतिक्षण कापता रहे छे. जेवी रीते कपाई रहेला वृक्षने छोडी दई पक्षी ऊडी जाय छे तेवी ज रीते अनासक्त जीव पण आ शरीरने छोडी दई मोक्ष मेळवी ले छे, परन्तुं आसक्त जीव दुःख ज भोगवे छे ॥१५॥

हे प्रिय उद्धव! काळना अवयव आ दिवस अने रात क्षणे-क्षणे शरीरना आयुष्यने क्षीण करी रह्यां छे एम जाणी भयथी जे व्यक्ति कम्पी ऊठे छे ते देहगेह वगेरेमान्थी आसक्ति काढी नाखे छे अने आत्मा तो देह-गेहथी भिन्न छे एम समजी भगवान्‌ने भुलावनारी अने संसारमां फसावनारी बधी प्रवृत्तिओ छोडी दे छे. आम तेना सर्व सन्तापोनो अन्त आवी जवाथी ते परमानन्दथी पूर्ण बने छे ॥१६॥

(प्रभुकृपा होय तो ज जीवने प्रभुनी शरणागति सिद्ध थाय. प्रभु सानुकूल छे के नहि ते जीव जाणी शके नहि अने ते जाणी न शके तो तेमां तेनो वाङ्क पण शो? एवी शङ्का थाय तेना उत्तरमां आप कहे छे के) आ मनुष्य शरीर समस्त शुभ फलोनी प्राप्तिनुं मूल छे. रोग वगेरे प्रतिबन्ध रहित अने बधी इन्द्रियोना सौष्ठव-कार्य-क्षमतावाळो आ अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यदेह मळ्यो ए ज मारी अनुकूळतानो पुरावो छे. संसार-सागर पार करवामाटे ते एक सुदृढ नौका छे. गुरुदेवने मात्र शरणे जवाथी ते सुकानी बनी जाय छे. होडीने हङ्कारवा पवन जोईए ते तो में प्राणवायुना रूपमां मनुष्योने आपेलो ज छे. आटली सुविधा होवा छतां पण जे आ शरीरद्वारा संसारसागरने पार करी जतो नथी ते आत्महत्या करी रह्यो छे* ॥१७॥

विशेष - ‘‘नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्‌, मयानुकूलेननभस्वतेरितम्पुमान्‌भवाब्धिन्नतरेत्‌सआत्महा’’. भगवान्‌नी कृपा विना मनुष्यदेह मळतो नथी माटे तेने अत्यन्त दुर्लभ-‘सुदुर्लभ’-कह्यो. भाग्ययोगथी मळी गयो छे अने तेनी तेने किम्मत नथी माटे सुलभ कह्यो. ‘‘अनुकूलेन मया नृदेहमासाद्य यः पुमान्‌ भवाब्धिं न तरेत्‌ [[४२४]] स आत्महा।’’ ‘‘मारा अनुकूल होवाथी मनुष्य देह मेळवीने जे पुरुष संसारसागर तरी जाय नर्ही ते पुरुष आत्महत्यारो छे’’ एवो अर्थ छे. ‘‘मयानुकूलेन नभस्वतेरितम्‌।’’ ‘‘हुं अनुकूळ वायुरूपे होडी चलावुं छुं’’ ए अर्थ बराबर नथी. भगवान्‌ अनुकूळ वायुने स्थाने होय तो जीव न तरे ते बने ज केम? माटे उपर प्रमाणे अर्थ कर्यो छे. अलबत्त आमां ‘दूरान्वय’ छे पण ‘‘परोक्षं च मम प्रियम्‌’’ मने तो परोक्ष कथन प्रिय छे. ए न्याये गुप्त रीते कह्युुं छे. में आटली अनुकूळता करी आपी छतां न तरी जाय तरवामाटे प्रयत्न न करे, प्रयत्न पण कष्ट साध्य नथी किन्तु ‘‘मारो उद्धार करो’’ एटली गुरुने प्रार्थना ज करवानी छे. आटलुं पण जीव न करे तो तेनुं संसारमां पतन थवाथी ते आत्महत्यारो बने छे (श्रीदेवकीनन्दनजीनो स्वतन्त्रलेख) (आम अविरक्तमाटे वैराग्यद्वारा ज्ञान अने भक्ति सिद्ध करावी आपनार कर्मयोग कहीने दृढ वैराग्यवाळाने ज्ञान प्राप्त थाय ते पहेलां तेणे शुं करवुं जोईए अने शुं छोडवुं जोईए ते कहे छेः) हे उद्धव! कर्मोमां दोष जोईने ज्यारे पुरुष कर्मोथी उद्विग्न अने तेनां फलोमां विरक्त थई जाय, त्यारे जितेन्द्रिय थई ते योगमां स्थित थई जाय अने अभ्यास द्वारा पोतानुं मन मारामां निश्चल रूपथी धारण करे ॥१८॥

स्थिर करती वखते ज्यारे मन ञ्चचल थई आम तेम भटकवा लागे त्यारे आळस छोडी अत्यन्त सावधानीथी तेने मनावी, समजावी, फोसलावी तेनी इच्छा थोडी घणी पूरी करीने पण पोताने वश करी ले ॥१९॥

इन्द्रियो अने प्राणोने वश राखे अने मनने एक क्षणमाटे पण स्वतन्त्र न छोडे. तेनी दरेक चाल जोतो रहे. आ प्रमाणे सत्त्वसम्पन्न बुद्धि द्वारा धीरे-धीरे मनने वश करी लेवुं जोईए ॥२०॥

घोडाने पलोटती वखते जेवी रीते सवार कांईक-कांईक एनी मरजी प्रमाणे चालवा दईने अन्ते पोतानी धारणा प्रमाणे एने चालतां शीखवे छे अने पोताने वश करी ले छे तेवी ज रीते मनने पण थोडुङ्क अनुकूळ वर्तीने पण अन्ते एने वश करवुं ए परम योग छे ॥२१॥

साङ्ख्यशास्त्रमां प्रकृतिथी माण्डी शरीर सुधी सृष्टिनो जेक्रम बताववामां आव्यो छे ते प्रमाणे सृष्टिनो विचार करवो जोईए अने जे क्रमथी शरीर वगेरेनो प्रकृतिमां लय बताव्यो छे ते प्रमाणे लयनो विचार करवो जोईए. ज्यां सुधी मन शान्त स्थिर न थई जाय त्यां सुधी आ क्रम चालु राखवो जोईए ॥२२॥

[[४२५]] जे पुरुष संसारथी विरक्त थई गयो छे अने जेने संसारना पदार्थोमां दुःख बुद्धि थई गई छे ते पोताना गुरुजनोना उपदेशने सारी रीते समजी लई पोताना स्वरूपना ज चिन्तनमां लागेलो रहे छे. आ अभ्यासथी बहु जलदी तेनुं मन तेनी अनात्मा शरीर वगेरेमां आत्मबुद्धि करवाथी जे ञ्चचलता थई गई छे तेने छोडी दे छे ॥२३॥

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि वगेरे योगमार्गोथी वस्तु-तत्त्वनुं निरीक्षण-परीक्षण करनारी आत्मविद्याथी तथा मारी प्रतिमानी उपासनाथी अर्थात्‌ कर्मयोग, ज्ञानयोग अने भक्तियोग थी मन परमात्मानुं चिन्तन करवा लागे छे, बीजो कोई उपाय नथी ॥२४॥

हे उद्धवजी! आम तो योगी कयारेय कोई निषिद्ध कर्म करतो नथी परन्तु क्यारेक प्रमादथी जो कोई अपराध थई जाय तो योग, मारा ध्यान-नामसङ्कीर्तन-ज्ञान, द्वाराज तेपापने बाळी नाखे, कृच्छ्रचान्द्रायण वगेरे बीजां प्रायश्चित्त कयारेय न करे ॥२५॥

पोतपोताना अधिकारमां जे निष्ठा छे तेनेज गुण कहेवामां आव्यो छे. आ गुण-दोष अने विधि-निषेधना विधानथी सार ए ज नीकळे छे के कोई पण रीते विषयासक्ति छूटी जाय. कारण के कर्म तो जन्मथीज अशुद्ध छे, अनर्थनुं मूल छे.शास्त्रनुं तात्पर्य तेमनुं नियन्त्रण करवामां छे.शक्य होय त्यां सुधी प्रवृत्तिनो सङ्कोचज करवो जोईए ॥२६॥

जे साधक समस्त कर्मोथी विरक्त थई गयेलो होय तेमां तेओ दुःखरूप छे एवी बुद्धि राखतो होय, मारी लीलाकथामां श्रद्धाळु होय अने ए पण जाणतो होय के बधा भोग अने भोग वासनाओ दुःखरूप छे पण ए बधुं जाणवा छतां ते छोडवा शक्तिमान न होय तेणे ए भोगो तो भोगवी लेवा परन्तु साचा हृदयथी तेमने दुःख जनक समजे, मनोमन तेमनी निन्दा करे तथा तेने पोतानुं दुर्भाग्य ज समजे. साथे-साथे आ दुविधानी स्थितिमान्थी छूटवामाटे श्रद्धा, दृढ निश्चय अने प्रेमथी मारुं भजन करे ॥२७-२८॥

आ प्रमाणे में बतावेला भक्तियोगद्वारा निरन्तर मारुं भजन करवाथी हुं ते साधकना हृदयमां बेसी जाउं छुं अने मारा बिराजताञ्ज तेनाहृदयनीतमाम वासनाओ तेमना संस्कारो सहित नष्ट थई जायछे ॥२९॥

[[४२६]] आ प्रमाणे ज्यारे तेने मारो सर्वात्मानो साक्षात्कार थई जाय छे त्यारे तो तेना हृदयनी गाण्ठो तूटी जाय छे तेना बधा सन्देहो छिन्न-भिन्न थई जाय छे अने कर्मवासनाओ सर्वथा क्षीण थई जाय छे ॥३०॥

(ज्ञान अने कर्म ने भक्तिनी जरूर छे पण भक्तिने ज्ञान अने कर्म नी जरूर नथी) तेथीज जे योगी मारी भक्तिथी युक्त होय अने मारा चिन्तनमां मग्न रहे तेने ज्ञान अथवा वैराग्य नी प्रायः आवश्यक्ता होती नथी. (प्रथम दशामां अथवा मर्यादा भक्तिने ज्ञान अने वैराग्यनी जरूर छे एम जणाववा ‘प्रायः’ कह्युं छे) ॥३१॥

कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म अने बीजां कल्याण करनारां साधनोथी ज कंई स्वर्ग, मोक्ष, मारुं परम धाम अथवा कोई पण वस्तु प्राप्त थाय छे ते बधी मारो भक्त मारा भक्तियोगना प्रभावथी ज, जो ते इच्छे तो, अनायास प्राप्त करी ले छे ॥३२-३३॥

मारा अनन्य अने धैर्यवान साधुभक्तो स्वयं तो कोई वस्तुनी इच्छा राखता ज नथी; जो हुं तेमने आपवा इच्छुं अने आपुं पण छुं तो पण, बीजी वस्तु तो शुं पण तेओ कैवल्य मोक्ष पण लेवा इच्छता होता नथी ॥३४॥

(पुष्टिमार्गमां व्रजभक्तोनी जेम ज्ञान अने वैराग्य नी अपेक्षा नथी एवा आशयथी कह्युं के न ज्ञानं न च वैराग्यम्‌। पण मर्यादामार्गमां तो भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः। एम कह्युं छे तेथी भरत वगेरेनी जेम वैराग्यनी अपेक्षा छे ज ए आशय जणाववा कहे छे के) हे उद्धवजी! सर्वथी श्रेष्ठ अने महान निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षतानुं ज बीजुं नाम छे. तेथी जे निष्काम अने निरपेक्ष होय छे तेनेज मारी भक्ति प्राप्त थाय छे ॥३५॥

(जेवी रीते जलमां रहेलुं कमळ जलथी र्भीजातुं नथी तेवी रीते) बुद्धिथी अतीत परमतत्त्वने जे मारा अनन्य प्रेमी भक्तो अने समदर्शी महात्माओ पामी चूक््या छे तेमने आ विधि अने निषेध थी थतां पुण्य तेमज पाप लागतां नथी ॥३६॥

एवमेतान्‌ मयाऽऽदिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथः ॥ क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्‌ ब्रह्म परमं विदुः ॥३७॥

आ प्रमाणे जे लोको मारा बतावेला आ ज्ञान, भक्ति अने कर्ममार्गो नो [[४२७]] आश्रय ले छे तेओ मारा परम क्ल्याण स्वरूप धामने प्राप्त थाय छे कारण के तेओ परब्रह्म तत्त्वने जाणी ले छे ॥३७॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्यमुक्ति नामना प्रकरणनो पन्दरमो अने चालु) ‘‘कर्म, ज्ञान अने भक्तियोग नुं वर्णन’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथा ए दिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही.

अध्याय २१

कामीओने द्रव्य अने देश थी थता गुणदोष

विशेष - कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग अने भक्तिमार्ग मां जेनो अधिकार नथी तेवा कामनाओवाळा लोकोने माटे द्रव्य, देश वगेरेथी थता गुण-दोषो आ एकवीसमा अध्यायमां बतावे छे. य एतान्‌ मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्‌ ॥ क्षुद्रान्‌ कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धव! मारी प्राप्तिना त्रण मार्ग छे- भक्तियोग, ज्ञानयोग अने कर्मयोग. जे लोको आ मार्गोने छोडी ञ्चचल इन्द्रियोद्वारा क्षुद्र भोग भोगवता रहे छे तेओ वारंवार जन्म मृत्यरूप संसारना चक्करमां भटकता रहे छे ॥१॥

पोत-पोताना अधिकार प्रमाणे धर्ममां दृढ निष्ठा राखवी एने ज गुण कहेवामां आव्यो छे अने तेथी ऊलटुं अधिकार वगरनी चेष्टा करवी ए दोष छे. तात्पर्य ए के गुण अने दोष नी व्यवस्था अधिकार अनुसार करवामां आवे छे, कोई वस्तु अनुसार नर्ही ॥२॥

समान वस्तुओमां शुद्धि-अशुद्धि, गुणदोष अने शुभ-अशुभ होवानुं जे कहेवामां आवे छे तेनो अभिप्राय ए छे के ते वडे वस्तुनुं बराबर निरीक्षण- परीक्षण थई शके ॥३॥

ईं उं ईं उं

[[४२८]] ते द्वारा धर्म-सम्पादन करी शके, समाजनो व्यवहार सारी रीते चलावी शके अने पोताना अङ्गत जीवनना निर्वाहमां पण सुविधा रहे. वासनाओ जेना मूळमां पडेली छे तेवी सहज प्रवृत्तिओ द्वारा तेमनी जाळमां न फसातां, मनुष्य पोताना जीवनने शास्त्रानुसार नियमित अने मनने वश करी ले छे ते पण आनो फायदो छे. हे निष्पाप उद्धवजी! मनु आदिनुं रूप धारण करीने में ज धर्मनो भार ऊञ्चकी फरनारा कर्मजडोने माटे उपदेश कर्यो छे. (शुद्ध वस्तुनो ज उपयोग करवो. क्रयविक्रय खरीद-वेचाण वगेरे व्यापार पण शुद्ध वस्तुओनो ज करवो. शुद्ध व्यवहारथी कमायेल शुद्ध द्रव्यथी ज देहनिर्वाह करवो. तेथी धर्म थाय छे. धर्मथी सुख मळे छे. अशुद्ध-निषिद्ध वस्तुनो उपयोग न करवो तेम करवाथी अधर्म थाय छे. अधर्मी दुःखी थायछे) ॥४॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आ पञ्चमहाभूत ज ब्रह्माथी लई पर्वत, वृक्ष सुधी बधां प्राणी पदार्थोना शरीरोनां मूल कारण छे. आ प्रमाणे ते बधां शरीरनी दृष्टिए तो समान छे ज, बधान्नो आत्मा पण एक ज छे ॥५॥

हे प्रिय उद्धव! जो के बधाना शरीरोनां पञ्चमहाभूत समान छे, तो पण वेदोए एमना वर्णाश्रम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ वगेरे अलग-अलग नाम अने रूप एटलामाटे बनाव्यां छे के पोतानी वासनामूलक प्रवृत्तिओने सङ्कुचित करी, नियममां राखी, धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष आ चारे पुरुषार्थो सिद्ध करी शके ॥६॥

हे साधु श्रेष्ठ उद्धवजी! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी अने धान्य वगेरे वस्तुओना गुण-दोषोनुं निरूपण पण में एटला माटे कर्युं छे के कर्मोमां लोकोनी उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न थाय, मर्यादानो भङ्ग न थवा पामे ॥७॥

जे देशमां काळियार मृग न होय अने ज्यां रहेनारा लोको ब्राह्मण भक्तो न होय ते देश अपवित्र छे. कृष्णसार मृग होवा छतां, ज्यां सन्तपुरुषो रहे छे ते प्रदेशो सिवायना कीकट (मगध, अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग वगेरे प्रदेशो) अपवित्र ज छे. संस्कार रहित अने उषर (उखर) खारवाळी बिन उपजाउ जमीन वगेरे स्थान पण अपवित्र होय छे ॥८॥

समयमां दिवसनो पहेलो अर्धोभाग (प्रातःकाळ) स्वतः शुद्ध छे. जे समये कर्ममाटेनी सामग्री मळी रहे तथा कर्म पण थई शके ते समय शुद्ध छे. जे समये कर्म करवानी समाग्री न मळी रहे ते समय, सूतकना दिवसो, मधरात अने राष्ट्रविप्लव [[४२९]] ना दिवसो अशुद्ध समजवा ॥९॥

पदार्थोनी शुद्धि अने अशुद्धि, द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्वथी पण थाय छे. (जेम के कोई पात्र जलथी शुद्ध अने मूत्र आदिथी अशुद्ध थई जाय छे. कोई वस्तुनी शुद्धि बाबतमां शङ्का थाय तो ब्राह्मण कहे छे के आ शुद्ध छे तो ते शुद्ध समजवी अने ते अशुद्ध कहे तो तेने अशुद्ध समजवी. पुष्प वगेरे उपर जल छाण्टवाथी ते पवित्र अने सूङ्घवाथी अपवित्र थाय छे. तत्काल पकावेल अन्न शुद्ध छे, वासी अन्न अशुद्ध छे. मोटां सरोवरो अने नदी वगेरेनुं जल शुद्ध अने नाना खाडाओमां भरायेलुं जल अशुद्ध छे) ॥१०॥

शक्ति, अशक्ति, बुद्धि अने वैभव अनुसार पण पवित्रता अने अपवित्रतानी व्यवस्था थाय छे. तेमां पण स्थान अने उपयोग करनारनी उम्मरनो विचार करीने ज अशुद्ध वस्तुओना व्यवहारनो दोष योग्य रीते आङ्कवामां आवे छे. (जेम के धनवान-दरिद्र, बलवान-निर्बल, बुद्धिमान-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण अने सुखद देश तथा तरुण अने वृद्धावस्थाना भेदथी शुद्धि अने अशुद्धि नी व्यवस्थामां फरक पडी जाय छे. दाखला तरीके ग्रहण वखते सशकत माणसो स्नानथी ज शुद्ध थाय छे पण बाळक, रोगी अने वृद्धने स्नान वगर पण शुद्ध *समजवां. पुत्र जन्मादि प्रसङ्गे दश दिवस पछी जाण थाय तो शुद्धि छे ते पहेलां जाण थाय तो वृद्धिसूतक लागे. फाटेलां अने मेलां वस्त्र दरिद्रने माटे पवित्र छे पण धनिकने माटे अपवित्र छे. निर्भय देशमाञ्ज स्नान वगेरेथी शुद्धि थाय छे पण चोरी थती होय, सञ्चारबन्धी वगेरे होय त्यारे ते अशक्यछे) ॥११॥

विशेषः ‘‘देशकालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम्‌। उपपत्तिमवस्थां च ज्ञात्वा शौञ्च प्रकल्पयेत्‌’’ (द्रव्यवडे द्रव्यनी शुद्धि कही. वचननी शुद्धि एक प्रकारनी छे. द्रव्यनी शुद्धि बहु प्रकारनी छे तेनो विस्तार करे छे) धान्य (अनाज), लाकडां, हाथीदान्त वगरे हाडकां, सूतर, मध, तेल, घी आदि रस, सोनुं, पारो वगेरे तेजस पदार्थ, चामडुं, घडो वगेरे माटीनी बनेली वस्तुओनी शुद्धि काल, वायु, अग्नि, माटी अने जल थी थाय छे. धान्यने वायु अने ताप लागतां शुद्धि थाय छे. लाकडां अने एनां पात्रो मृत्तिका अने जलथी शुद्ध थाय छे. वधारे अपवित्र थयां होय तो एने छोलवाथी शुद्ध थाय छे. हाथीदान्त वगेरे वायु ताप वगेरेथी शाृद्ध थाय छे. सूतरमान्थी बनेलां [[४३०]] वस्त्रोनी शुद्धि जलथी थाय छे. घी, दूध, मध वगेरे गाळवाथी गरम करवाथी शुद्ध थाय छे. सोनानां वासण जलथी धोवाथी तथा तपाववाथी शुद्ध थाय छे. चामडाने तेल लगाडवाथी शुद्ध थाय छे. बीजा पार्थिव (माटीना) पदार्थोने माटी जल वगेरेनो एकत्र संस्कार थवाथी एनी शुद्धि थाय छे. केटलाकनी केवळ जलथी शुद्धि थाय छे ॥१२॥

जो कोई वस्तुने कोई अशुद्ध वस्तु चोण्टी गई होय तो तेने छोली नाखवाथी अथवा लूण, खटाई, जळ, माटी वगेरे घसवाथी ज्यारे ते पदार्थनी गन्ध अने लेप जता रहे अने ते वस्तु पोताना असल रूपमां फरीथी आवी जाय त्यारे ते वस्तुने शुद्ध गणवी ॥१३॥

(आम द्रव्यशुद्धि कही. हवे कर्तानी शुद्धि कहे छे) स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार (उर्ध्वपुण्ड्र तिलक करवुं), कर्म अने मारा (भगवद्‌) स्मरणथी चित्तनी शुद्धि थाय छे. ते द्वारा शुद्ध थई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्ये विहित कर्मनुं आचरण करवुं जोईए ॥१४॥

गुरु मुखथी साम्भळी सारी रीते हृदयङ्गम करी लेवाथी मन्त्रनी अने मने समर्पित करी देवाथी कर्मनी शुद्धि थाय छे. हे उद्धवजी! आ प्रमाणे देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र अने कर्म आ छये शुद्ध होय तो धर्म अने अशुद्ध होय तो अधर्म थाय छे ॥१५॥

कयारेक-कयारेक शास्त्रविधिथी गुणदोष थई जाय छे अने दोष गुण थई जाय छे. जेम के स्नान ए शुद्धि करी आपनारुं होवाथी गुण छे पण रोगीने माटे स्नान करवुं ए दोष छे. गायत्रीजप, सन्ध्यावन्दन ए ब्राह्मणने माटे गुण छे परन्तु शुद्रने माटे दोष छे. आपत्ति न होय त्यारे ब्राह्मणने माटे प्रतिग्रह-दान लेवुं ते दोष छे पण आपत्तिना समयमां प्रतिग्रह गुण छे एक ज वस्तुनी बाबतमां कोईने माटे गुण अने कोईने माटे दोषनुं विधान गुण अने दोषोनी वास्तविकताने खोटी ठरावी दे छे अने तेथी ए नक्की थाय छे के गुण-दोषने आ भेद कल्पित छे ॥१६॥

(दोषने पण कवचित्‌ दोषपणुं नथी पण गुणपणुं छे ए बतावे छे) सुरापान वगेरे अपतितने पतित करनार छे छतां ए जातिथी भ्रष्ट थयेल पतितने पतित करी शकतुं नथी केमके ए पान कर्या पहेलान्नो ज पतित छे तेथी दोषने पण एकान्त दोषपणुं नथी. तेमज स्त्रीसङ्ग यतिने दोषरूप छतां गृहस्थने तो ए गुणरूप छे केमके [[४३१]] ‘‘ऋतौ भार्यामुपेयात्‌’’ एम वेद ज एने माटे विधान करे छे. हे उद्धवजी! जे नीचे ज सूतेलो छे ते पडशे कयां? तेवी ज रीते जे पहेलान्थी ज पतित छे तेनुं हवे वधारे पतन शुं थशे? ॥१७॥

(गुणदोषथी नियमन करवाना विधिओनुं तात्पर्य प्रवृत्तिना सङ्कोच द्वारा निवृत्तिमां छे ए ज कहे छे) जे-जे विषयथी पुरुष छूटे ते-ते विषयोथी ए बन्धातो मटे छे. आ विषयासक्तिरूप बन्धनी निवृत्तिरूप धर्म लोकनुं कल्याण करनार छे; शोक, मोह अने भय ने दूर करनार छे ॥१८॥

(वेद प्रवृत्तिमां तात्पर्यवाळो नथी एम कहेवामाटे प्रवृत्ति अनर्थनुं मूळ छे एम कहे छे) हे उद्धवजी! विषयोमां कयांय पण गुणोनो आरोप करवाथी ते वस्तुमां आसक्ति थई जाय छे. आसक्ति थवाथी ते तेने पोतानी पासे राखवानी कामना थई आवे छे अने आ कामनानी पूर्तिमां कोई पण प्रकारनुं विघ्न आववाथी लोकोमां परस्पर झघडो थवा लागे छे ॥१९॥

कलहमान्थी असह्य क्रोध उत्पन्न थाय छे अने क्रोध थाय त्यारे पोताना हितअहितनुं भान रहेतुं नथी, अज्ञान छवाई जाय छे. आ अज्ञानथी तरत ज मनुष्ये शुं करवुं जोईए अने शुं न करवुं जोईए तेनो निर्णय करनारी व्यापक चेतनाशक्तिनो लोप थई जाय छे ॥२०॥

हे साधो! चेतनाशक्ति एटले के स्मृतिनो लोप थई जतां मनुष्यमां मानवता रहेती नथी, पशुता आवी जाय छे अने ते शून्यनी जेम अस्तित्व विहोणो बनी जाय छे, त्यारे जाणे के तेने मूर्छा आवी गई होय अथवा ते मरी गयो होय तेवी तेनी अवस्था थई जाय छे. आवी स्थितिमां ते कोई पुरुषार्थ प्राप्त करी शकतो नथी ॥२१॥

विषयोनी आसक्तिथी ते आत्मा के परमात्माने ओळखी शकतो नथी. पुरुषार्थ प्राप्त करी लेवानुं अनुसन्धान नहि होवाथी अने आहार मात्र लेतो होवाथी तेनुं जीवन वृक्षना जीवन जेवुं जड छे. लुहारनी धमणमां जेम बीजाने तपाववामाटे ज हवानी अवरजवर होय छे तेम आवो मनुष्य पण बीजाने त्रास आपवा माटे व्यर्थ ज श्वास लेतो होय छे ॥२२॥

वेदमां ‘‘अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति’’ वगेरे वाकयोथी कर्मनां फळ क्ह्यां छे ते कांई पण कर्म न करनारने स्वर्गना भोगनी आशाए कर्म [[४३२]] कराववामाटे कह्यां छे पण ए कर्मोनुं तात्पर्य स्वर्गादिमां नथी. जेम बाळकना रोगने मटाडवामाटे पिता कडवां औषध आपतां एने लाडु बतावे छे ते लाडु एने खावामाटे आपवामां पितानुं तात्पर्य नथी परन्तु औषधनुं पान कराववामां अने एनाथी सिद्ध थता आरोग्यमां तात्पर्य छे तेम वेदमां कर्मो करवानुं कह्युं छे ते कर्मोथी छूटवामाटे ज छे. एने नहि समजनार कर्मी एवां कर्मो करी क्षुद्र भोग भोगवी पाछो जन्म-मरणवाळा संसारमां पडे छे ॥२३॥

(त्यां शङ्का करे छे के कर्मकाण्डमां मोक्षनुं नाम पण जोवामां आवतुं नथी, तमे तो कहो छो के मोक्षने कहेवानी इच्छाथी कर्म कह्यां छे ए केम समजवामां आवे? आना उत्तरमां कहेवानुं के) पशुओ, विषयो, प्राण, आयुष, बल, वीर्य, स्वजन, पुत्र तथा कलत्र ए बधां जीवना अनर्थना कारणरूप छे छतां प्राणीमात्र जन्मथी ज शास्त्रोपदेश विनाय एमां आसक्तिवाळां होय छे ॥२४॥

तेओ पोताना परम पुरुषार्थने जाणता होता नथी तेथी वेदमां स्वर्गना ललचावनारा भोगोनुं वर्णन मळे छे तेनो गूढार्थतात्पर्य न जाणवाथी उपर उपरनो अर्थ सत्य मानीने देवादि योनिओमां भटक्ता रहे छे अने पछी वृक्ष, सूकर वगेरे योनिओना घोर अन्धकारमां आवी पडे छे. आवी अवस्थामां कोई पण विद्वान के वेद फरी तेने ते ज विषयोमां केम प्रवृत्त करे? ॥२५॥

वेदोनुं तात्पर्य निवृत्तिमां छे एम समज्या विना भ्रान्त कर्ममार्गीओ कर्मासक्तिथी पुष्पोना जेवां स्वर्गादिनां वर्णन जुए छे अने तेमने ज परम फल मानी लई भुलाववामां पडे छे, परन्तु महर्षि वेदव्यास जेवा वेदवेत्ता श्रुतिओनुं तात्पर्य एवुं बतावता नथी ॥२६॥

विषय वासनाओमां फसायेला दीनहीन अने लोभी पुरुषो रङ्गबेरङ्गी पुष्पोना जेवा स्वर्ग वगेरे लोकोने ज सर्वश्रेष्ठ समजी बेसे छे, अग्निद्वारा सिद्ध थता यज्ञयागादि कर्मोमां ज मुग्ध थई जाय छे. बीजे मार्गे चडी जवाथी तेमने अन्ते देवलोक, पितृलोक वगेरेनी ज प्राप्ति थाय छे, तेमने निजधाम आत्मपदनो पत्तो लागतो नथी ॥२७॥

हे प्रिय उद्धव! तेमनी पासे मात्र कर्मनी ज साधना छे अने तेनुं फल केवळ इन्द्रिय तृप्ति ज छे. जेनाथी जगतनी उत्पत्ति थई छे अने जे स्वयं आ जगतना रूपमां छे तेवा तेमना हृदयमां ज रहेला मने परमात्माने तेओ जाणता नथी [[४३३]] ॥२८॥

जो हिंसा अने तेना फलरूप मांस भक्षणमां राग-आसक्ति-होय ज ते छोडी न ज शकातुं होय, तो ते यज्ञमां ज करे. सन्ध्यावन्दन वगेरे करवां ज जोईए ए विधि छे एम आ मांसभक्षण विधि नथी. आ मारा परोक्ष अभिप्रायने जाण्याविना विषय लोलुप क्रूर पुरुषो हिंसानो खेल खेले छे अने दुष्टतावश पोतानी इन्द्रियोनी तृप्तिमाटे वध करेला पशुओना मांसथी यज्ञ करी देवता पितर अने भूतपतिओनुं यजन करेछे ॥२९-३०॥

हे उद्धवजी! स्वर्ग वगेरे परलोक स्वपनमां देखातां दृश्यो जेवा नाशवन्त छे; वास्तवमां ते असत्‌ छे, मात्र तेनी वातो साम्भळवामां बहु मीठी लागे छे. सकाम पुरुष त्यान्ना भोगोने माटे मनमां ने मनमां अनेक प्रकारना सङ्कल्प करी ले छे. सागर खेडु पोतानी पासेनुं धन लई जई सागर खेडे पण नौका डूबतां पोतानी मूळ मूडी पण खोई बेसे छे तेवी ज रीते सकाम पुरुषो परलोकना भोगनां साधनो (यज्ञो वगेरे) करवामां पोतानुं सिद्धिरूप धन खर्चे छे ॥३१॥

तेओ पोते रजोगुण, सत्त्वगुण के तमोगुण मां स्थित रहे छे अने रजोगुणी, सत्त्वगुणी के तमोगुणी इन्द्रादि देवोनी उपासना करे छे. परन्तु तेओ ते ज सामग्रीओथी तेटला ज परिश्रमथी निर्गुण एवो जे हुं (परमात्मा) तेने भजता नथी केमके ए पोते गुणनी उपर जई शकता नथी ॥३२॥

तेओ ज्यारे आ प्रकारनी पुष्पिता वाणी रङ्गबेरङ्गी मीठी-मधुर वातो साम्भळे छे के अमे आ लोकमां यज्ञोद्वारा देवताओनुं यजन करी स्वर्गमां जईशुं अने त्यां दिव्य आनन्द भोगवीशुं, त्यार पछी फरी अमारो जन्म मोटा कुलीन परिवारमां ज थशे, अमे मोटा-मोटा महेलोना मालिक होईशुं, अमारुं कुटुम्ब बहु ज विशाळ अने समृद्ध हशे आवी वातोथी तेमनुं चित्त क्षुब्ध थई जाय छे. ते देह-गेह आदिमां अहन्ता-ममता राखनारा घमण्डीओने मारा सम्बन्धी तो वातचीत पण गमती होती नथी. (तेथी तेओ जन्म-मरण रूप संसारमां ज अथडाया करे छे) ॥३३-३४॥

(वेदोनुं तात्पर्य प्रवृत्तिपरक न होय तो शामां छे तेनुं समाधान करे छे के) हे उद्धवजी! वेदोमां त्रण काण्ड छे-कर्म, उपासना अने ज्ञान. आ त्रणेय काण्डोद्वारा ब्रह्म अने आत्मानी एकता प्रतिपादन करवामां आवी छे. बधा मन्त्रो अने मन्त्रद्रष्टा [[४३४]] ऋषिओ आ विषयने खुल्लो करीने नहि, गुप्तभावे बतावे छे अने मने पण आ वात गुप्त रीते कहेवाय ए ज गमे छे. (कारण के बधा लोको आना अधिकारी होता नथी. अन्तःकरण शुद्ध थाय त्यारे ज आ वात समजाय छे) ॥३५॥

वेदोनुं नाम शब्द ब्रह्म छे. ते मारी मूर्ति-मारुं स्वरूप छे तेथी ज तेमनुं रहस्य समजवुं अत्यन्त कठिन छे. ते शब्दब्रह्म-वेद-परा, पश्यन्ती अने मध्यमा वाणीना रूपमां प्राणमय, मनोमय अने इन्द्रियमय छे. ते समुद्रनी जेम सीमारहित अने गहन-दुर्गम छे. तेनो थाह (छेडो) पामवो अत्यन्त मुश्केल छे. (तेथी ज जैमिनी वगेरे मोटा-मोटा विद्वान पण तेना तात्पर्यनो बराबर निर्णय करी शकता नथी) ॥३६॥

हे उद्धवजी! हुं अनन्त शक्ति सम्पन्न तेम ज स्वयं अनन्त ब्रह्म छुं. वेदवाणीनो विस्तार में ज कर्यो छे. जेवी रीते कमलनी दाण्डीमां पातळो तन्तु होय छे ते ज रीते ते वेदवाणी प्राणीओना अन्तःकरणमां नादना रूपमां प्रगट थाय छे ॥३७॥

भगवान्‌ हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति अने अमृतमय छे. ते प्राणरूप छे अने स्वयं अनाहत शब्दद्वारा ज तेनी अभिव्यक्ति थई छे. जेवी रीते करोळियो पोताता हृदयमान्थी मुखद्वारा तन्तु बहार काढे छे अने पछी गळी जाय छे तेवी ज रीते ते स्पर्श वगेरे वर्णोना सङ्कल्प करनार मनरूप निमित्त कारण द्वारा ज हृदयरूपी आकाशमान्थी अनन्त अपार अनेक मार्गोवाळी वैखरीरूप वेदवाणीने पोते ज प्रगट करे छे अने पछी तेने पोतानामां ज लीन करी ले छे. ते वाणी हृदयमां रहेल सूक्ष्म ओङ्कारद्वारा अभिव्यकत स्पर्श व्यञ्जन (‘क’ थी ‘म’ सुधी-२५); ‘अ’ वगेरे सोळ स्वर; श, ष, स, ह आ चार उष्माक्षर; य, र, ल, व ए चार अन्तःस्थ आ (४९) वर्णोथी विभूषित छे. तेमां एवा छन्द छे जेमां उत्तरोउत्तर चार-चार वर्ण वधता जाय छे अने ते द्वारा विचित्र भाषाना रूपमां ते (वेदवाणी) विस्तृत थई छे ॥३८-४०॥

(चार-चार अधिक अक्षरोवाळा छन्दोमान्थी केटलाक आ छे) ‘गायत्री’ दरेक पाद छ अक्षरनो एवा चोवीस अक्षरवाळो. ‘उष्णिक’ अठ्ठावीस अक्षरनो. ‘अनुष्टुप्‌’ बत्रीस अक्षरनो. ‘बृहतो’ छत्रीस अक्षरनो. ‘पङ्क्‌ति’ चालीस अक्षरनो. ‘त्रिष्टुप्‌’ चुमालीस अक्षरनो. ‘जगती’ अडतालीस अक्षरनो. ‘अतिच्छन्द’ बावन अक्षरनो. ‘अत्यष्टि’ छप्पन अक्षरनो. ‘अतिजगती’ [[४३५]] साठ अक्षरनो अने ‘विराट्‌’ चोसठ अक्षरनो ॥४१॥

ते वेदवाणी कर्मकाण्डमां शुं विधान करे छे, उपासना काण्डमां कया देवताओनुं वर्णन करे छे अने ज्ञानकाण्डमां कई प्रतीतिओनो अनुवाद करी तेमां अनेक प्रकारना विकल्प करे छे आ बाबतो आ सम्बन्धमां श्रुतिओना रहस्यने मारा सिवाय बीजुं कोई जाणतुं नथी ॥४२॥

एतावान्‌ सर्ववेदार्थःशब्द आस्थाय मां भिदाम्‌। मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिद्ध्‌य प्रसीदति ॥४३॥

हुं तमने स्पष्ट कहुं छुं के कर्मकाण्डमां बधी श्रुतिओ मारुं ज विधान करे छे. उपासनाकाण्डमां उपास्य देवताओना रूपमां तेओ मारुं ज वर्णन करे छे अने ज्ञानकाण्डमां आकाश वगेरे रूपथी बीजी वस्तुओनो आरोप मारामां ज करी तेमनो निषेध करी दे छे. सम्पूर्ण श्रुतिओनुं बस ए ज तात्पर्य छे के तेओ मारो आश्रय लई मारामां भेदनो आरोप करे छे, माया मात्र कहीने तेनो अनुवाद करे छे अने अन्तमां बधानो निषेध करी मारामां ज शान्त थई जाय छे अने केवल अधिष्ठान रूपे हुं ज शेष रही जाउं छुम् ॥४३॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो सोळमो अने चालु) ‘‘कामीओने द्रव्य अने देश थी थता गुणदोष’’ नामनो एकवीसमो अध्याय सम्पूर्ण. ‘‘श्रीभागवतम्‌ आदरात्‌, पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकम्‌ अदम्भतः’’ (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ) हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो.

अध्याय २२

तत्त्वोनी सङ्ख्यानो विरोध परिहार

विशेष - उद्धवजीना पूछवाथी श्रीकृष्ण भगवान्‌ पुरुष अने प्रकृति ना भेदथी तत्त्वना विरोधनो परिहार आ बावीसमा अध्यायमां कहे छे. कतितत्त्वानि विश्वेश सङ्ख्यातान्यृषिभिः प्रभो ॥

ईं उं ईं उं

[[४३६]] नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिति शुश्रुमः ॥१॥

उद्धवजीए कह्युं - हे विश्वना ईश्वर! ऋषिओए तत्त्वोनी सङ्ख्या केटली बतावी छे? हे प्रभो! आपे तो हमणां (ओगणीसमा अध्यायमां) नव, अगियार, पाञ्च अने त्रण अर्थात्‌ कुल अठ्ठावीस तत्त्वो गणाव्यां छे ए तो अमे साम्भळी चूक्या ॥१॥

पण केटलाक लोको छव्वीस तत्त्वो बतावे छे तो कोई पचीस, कोई सात, नव अथवा छ तत्त्वो माने छे. कोई चार, तो कोई वळी अगियार बतावे छे ॥२॥

ते ज प्रमाणे कोई-कोई ऋषिमुनिओना मते तेमनी सङ्ख्या सत्तर छे; कोई सोळ अने कोई तेर बतावे छे. हे श्रीकृष्ण! आप सनातन नित्यमूर्ति अर्थात्‌ सर्वकालमां बिराजमान होवाथी आ बधा जुदा-जुदा मतोनो अभिप्राय आप ज जाणी शको तो ते कृपा करी अमने बतावो ॥३॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धवजी! वेदज्ञ ब्राह्मणो आ बाबतमां जे कंई कहे छे ते बधुं साचुं छे; कारण के बधां तत्त्वो बधाम्मां अन्तर्भूत छे. मारी मायानो स्वीकार करी शुं न कही शकाय? शुं कहेवुं अशक्य छे? ॥४॥

‘‘तमे जे कहो छो ते बराबर नथी. हुं जे कहुं छुं ते ज साचुं छे’’, आ प्रमाणे जगतना कारणना सम्बन्धमां विवाद एटलामाटे थाय छे के मारी शक्तिओ-सत्त्व, रज वगेरे गुणो अने तेमनी वृत्तिओनुं रह्स्य लोको समजी शकता नथी तेथी तेओ पोत-पोताना मतनो हठाग्रह पकडी राखे छे ॥५॥

सत्त्व वगेरे गुणोना क्षोभथी ज आ विविध कल्पनारूप प्रपञ्च जे वस्तु नथी मात्र नाम छे ऊभो थयो छे ए ज वाद-विवाद करनाराओना विवादनो विषय छे. ज्यारे इन्द्रियो पोताने वश थई जाय छे तथा चित्त शान्त थई जाय छे त्यारे आ प्रपञ्च पण निवृत्त थई जाय छे अने ते निवृत्त थतां ज बधा वादविवाद पण मटी जाय छे ॥६॥

हे पुरुष शिरोमणि! तत्त्वोनो एकबीजामां अन्तर्भाव थाय छे तेथी वकता तत्त्वोनी जेटली सङ्ख्या बताववा मागे छे ते प्रमाणे कारणने कार्यमां अथवा कार्यने कारणमां समावी दई पोते धारेली सङ्ख्या सिद्ध करी ले छे ॥७॥

एवुं जोवामां आवे छे के एकज तत्त्वमां बीजां घणां तत्त्वोनो अन्तर्भाव(समावेश)थई जाय छे. कयारेक घडो-वस्त्रवगेरे कार्य वस्तुओनो तेमना [[४३७]] कारण माटी-सूतर वगेरेमां तो कयारेक माटी-सूतर वगेरेनो घडो-वस्त्र वगेरे कार्यमां समावेश थई जाय छे ॥८॥

तेथी वादी-प्रतिवादीमान्थी जेनी वाणीए जे कार्यने जे कारण अथवा जे कारणने जे कार्यमां अन्तर्भूत करी तत्त्वोनी जेटली सङ्ख्या स्वीकार करी छे ते आपणे स्वीकार करीए ज छीए; कारण के तेमनुं ते उपपादन (सिद्ध करवानी क्रिया) युक्ति सङ्गत ज छे ॥९॥

हे उद्धवजी! जे लोकोए तत्त्वोनी सङ्ख्या छ्व्वीस स्वीकारी छे तेओ एम कहे छे के जीव अनादि कालथी अविद्याथी ग्रस्त थई रह्यो छे ते पोते पोताने जाणी न शके. तेने आत्म ज्ञान कराववामाटे कोई अन्य सर्वज्ञनी जरूर छे. (तेथी प्रकृतिना कार्यकारणरूप चोवीस तत्त्व, पचीसमो पुरुष अने छव्वीसमा ईश्वर-आ प्रमाणे कुल छव्वीस तत्त्वोनो स्वीकार करवो जोईए) ॥१०॥

पचीस तत्त्व मानवावाळा कहे छे के आ शरीरमां जीव अने ईश्वर मां अणु जेटलुं पण अन्तर या भेद नथी तेथी तेमनामां भेदनी कल्पना निरर्थक छे. ज्ञाननी वात विचारीए तो ए तो सत्वात्मक प्रकृतिनो गुण छे तेथी ते प्रकृतिमां आवी जाय तेथी ते जुदुं तत्त्व न गणाय ॥११॥

(त्यां शङ्का थाय के ज्ञान तो जीवनो धर्म छे तेथी तेनो प्रकृतिमां अन्तर्भाव केम सम्भवे? तो समाधान करे छे के) त्रण गुणनी साम्य अवस्थानुं नाम प्रकृति; अर्थात्‌ ए गुणो-सत्त्व, रजस्‌, तमस्‌ प्रकृतिना छे, चेतनना नहि. आ त्रण गुणोद्वारा जगतनी उत्पत्ति स्थिति अने लय थया करे छे तेथी ज्ञान आत्मानो गुण नहि, प्रकृतिनो ज गुण सिद्ध थाय छे ॥१२॥

आ प्रसङ्गमां सत्त्वगुण ज ज्ञान छे, रजोगुण ज कर्म छे अने तमोगुणने ज अज्ञान कहेवामां आव्युं छे. गुणोमां खळभळाट उत्पन्न करवावाळा ईश्वर ज काल छे अने सूत्र अर्थात्‌ महत्तत्त्व ज स्वभाव छे (तेथी पचीस अने छव्वीस तत्त्वोनी बन्नेय सङ्ख्या युक्तिसङ्गत छे. सूत्र ए महत्तत्त्वमां रहेली क्रिया शकित छे तेथी ते बधान्नो प्रकृतिमां समावेश थतां तत्त्वोनी सङ्ख्या वधवा पामती नथी) ॥१३॥

हे उद्धवजी! (जो त्रण गुणोने प्रकृतिथी जुदा मानी लेवामां आवे अने तेमनी उत्पत्ति अने प्रलय ने जोतां मानवा जईए तो तत्त्वोनी सङ्ख्या आपो आप अठ्ठावीस थई जाय छे. ए त्रण सिवायनां पचीस आ प्रमाणे छेः-) पुरुष, प्रकृति, [[४३८]] महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल अने पृथ्वी आ नव तत्त्व हुं पहेलां ज गणावी गयो छुम् ॥१४॥

श्रोत्र (कान), त्वचा, चक्षु, नासिका अने रसना (जीह्‌वा) आ पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो; वाणी, पाणि (हाथ), पाद (पग), पायु (गुदा) अने उपस्थ (गुह्येन्द्रिय) आ पाञ्च कर्मेन्द्रियो तथा मन जे कर्मेन्द्रिय अने ज्ञानेन्द्रिय बन्नेय छे. आ प्रमाणे कुल अगियार इन्द्रियो तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध आ ज्ञानेन्द्रियोना पाञ्च विषय. आ प्रमाणे त्रण, नव, अगियार अने पाञ्च बधां मळीने अठ्ठावीस तत्त्व थाय छे. कर्मेन्द्रियोद्वारा थतां पाञ्च कर्म चालवुं, बोलवुं, मलत्याग, पेशाब करवो अने काम करवुं आमनाथी तत्त्वोनी सङ्ख्या वधती नथी. आमने कर्मेन्द्रिय स्वरूप ज मानवां जोईए ॥१५-१६॥

सृष्टिना आरम्भमां कार्य (अगियार इन्द्रियो अने पञ्चभूत) अने कारण (महत्तत्त्व वगेरे सात) ना रूपमां प्रकृति ज रहे छे. ते ज सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण नी सहायताथी जगतनी स्थिति, उत्पत्ति अने संहार सम्बन्धी अवस्थाओ धारण करे छे. अव्यकत पुरुष तो प्रकृति अने तेनी अवस्थाओना केवल साक्षीरूपे ज रहे छे ॥१७॥

(तत्त्वोए आरम्भेला कार्यनो ए प्रकृतिमां अन्तर्भाव थाय छे ते कहे छे के) महत्तत्त्व वगेरे कारण धातुओ (तत्त्वो) विकारने प्राप्त थता पुरुषना ईक्षणथी शक्ति प्राप्त करी परस्पर भळी जाय छे अने प्रकृतिनो आश्रय लई तेना ज बलथी ब्रह्माण्डनी सृष्टि करे छे ॥१८॥

हे उद्धवजी! जे लोको तत्त्वोनी सङ्ख्या सात स्वीकारे छे तेमना विचारथी आकाश, वायु, तेज, जल अने पृथ्वी ए पाञ्च भूत छठ्ठो जीव अने सातमा परमात्मा जे साक्षी जीव अने साक्ष्य जगत्‌ बन्नेनुं अधिष्ठान छे एज तत्त्व छे. देह, इन्द्रिय अने प्राण आदिनी उत्पत्ति तो पञ्चभूतोथीज थई छे(तेथी तेओ तेमने अलग गणता नथी) ॥१९॥

जे लोको मात्र छ तत्त्वो स्वीकारे छे तेओ कहे छेके पाञ्च भूत छे अने छठ्ठा परमपुरुष परमात्मा छे. ते परमात्मा पोते बनावेल पञ्चभूतोथी युकत थई देह वगेरेनी सृष्टि करे छे अने तेमां जीवरूपथी प्रवेश करे छे. (आ मत प्रमाणे जीवनो परमात्मामां अने शरीर वगेरेनो पञ्चभूतोमां समावेश थई जाय छे) ॥२०॥

[[४३९]] जे लोको कारणना रूपमां चार ज तत्त्वोनो स्वीकार करे छे तेओ कहे छे के आत्मामान्थी तेज, जल अने पृथ्वी नी उत्पत्ति थई छे अने जगतमां जेटला पदार्थ छे ते बधां आमान्थी ज उत्पन्न थाय छे. तेओ बधां कार्योनो आमां ज समावेश करी ले छे ॥२१॥

जे लोको तत्त्वोनी सङ्ख्या सत्तर बतावे छे. तेओ आ प्रमाणे गणतरी करे छे पाञ्च भूत, पाञ्च तन्मात्रा, पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो एक मन अने एक आत्मा ॥२२॥

जे लोको तत्त्वोनी सङ्ख्या सोळ बतावे छे तेमनी गणतरी पण आ ज प्रमाणे छे. फरक मात्र एटलो ज छे के तेओ आत्मामां मननो पण समावेश करी ले छे अने आ प्रमाणे तेमनी तत्त्वसङ्ख्या सोळ थईने रहे छे. जे लोको तेर तत्त्वो माने छे तेओ कहे छे के आकाश वगेरे पाञ्च भूत, श्रोत्र आदि पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय, एक मन, एक जीवात्मा अने परमात्मा आ तेर तत्त्व छे ॥२३॥

अगियार तत्त्वो माननाराओए पाञ्च भूत, पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो अने ते उपरान्त एक आत्मानो स्वीकार कर्यो छे. जे लोको नव तत्त्व माने छे तेओ आकाश आदि पाञ्च भूत अने मन, बुद्धि, अहङ्कार आ आठ प्रकृतिओ अने नवमो पुरुष आमने ज तत्त्व माने छे ॥२४॥

हे उद्धवजी! आ प्रमाणे ऋषिमुनिओए भिन्न-भिन्न प्रकारथी तत्त्वोनी गणतरी करी छे. बधानुं कहेवुं उचित ज छे कारण के बधानी सङ्ख्या युक्तियुकत छे. जे लोको तत्त्वज्ञानी छे तेमने कोई पण मतमां खराब पणुं देखातुं नथी. एमनामाटे तो बधुं बराबर ज छे ॥२५॥

उद्धवजीए कह्युं - हे श्याम सुन्दर! जो के स्वरूपथी प्रकृति अने पुरुष बन्ने एकबीजाथी तद्‌दन जुदां छे, तो पण तेओ आपसमां एटलां बधां हळी-मळी गयां छे के साधारण रीते तेमनो भेद जणातो नथी. प्रकृतिमां पुरुष अने पुरुषमां प्रकृति अभिन्न जेवां-एकरूप. जेवां देखाय छे. तेओ जुदां छे एम स्पष्ट केवी रीते थाय? ॥२६॥

हे कमलनयन श्रीकृष्ण! एमनी भिन्नता अने अभिन्नतानी बाबतमां मारा मनमां बहु मोटो सन्देह छे. आप तो सर्वज्ञ छो, आपनी युक्तियुकत वाणीथी मारा सन्देह आप कृपा करीने दूर करो ॥२७॥

हे भगवन्‌! जीवोने आपनी कृपाथी ज ज्ञान थाय छे अने आपनी माया [[४४०]] शक्तिथी ज तेमना ज्ञाननो नाश पण थाय छे. आपनी आत्मस्वरूपिणी मायानी विचित्र गति आप ज जाणो छो, बीजुं कोई जाणतुं नथी. तेथी मारो सन्देह दूर करवा आप ज समर्थ छो ॥२८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे पुरुषश्रेष्ठ उद्धवजी! प्रकृति अने पुरुष शरीर अने आत्मा आ बन्नेमां घणो तफावत छे. आ प्राकृत जगतनी साथे जन्म अने मरण, वधवुं अने घटवुं वगेरे विकार जडायेला ज छे. तेनुं कारण ए छे के ते गुणोना क्षोभ-अन्योन्यना मिश्रणथी ज बनेल छे ॥२९॥

हे प्रिय मित्र! मारी माया त्रिगुणात्मिका छे. ते ज पोताना सत्त्व, रज अने तमोगुणो थी अनेक प्रकारनी भेदवृत्तिओ पेदा करी दे छे. जो के तेनो विस्तार अपार छे, छतां आ विकारात्मक सृष्टिने त्रण भागमां वहेञ्ची शकाय. ए त्रण भागअध्यात्म, अधिदैव अने अधिभूत छे ॥३०॥

दाखला तरीके ‘नेत्र इन्द्रिय’ अध्यात्म छे तेनो विषय ‘रूप’ अधिभूत छे अने नेत्रगोलकमां स्थित ‘सूर्य देवतानो अंश’ अधिदैव छे. आ त्रणेय परस्पर एकबीजाना आश्रयथी सिद्ध थाय छे अने तेथी अधिभूत अध्यात्म अने अधिदैव आ त्रणेय परस्पर सापेक्ष छे तेमने एकबीजानी अपेक्षा रहे छे, परन्तु आकाशमां स्थित सूर्यमण्डल आ त्रणेयनी अपेक्षाथी मुकत छे, कारण के ते स्वतः सिद्ध छे. ए ज प्रमाणे आत्मा पण उपर्युकत त्रणेय भेदोनुं मूल कारण तेमनो साक्षी अने तेमनाथी पर छे. ते ज पोताना स्वयं सिद्ध प्रकाशथी तमाम सिद्ध पदार्थोनी मूल सिद्धि छे. ते द्वारा ज बधानो प्रकाश थाय छे. जेवी रीते चक्षुना त्रण भेद बताववामां आव्या ते ज प्रमाणे त्वचा, श्रोत्र, जिह्‌वा, नासिका अने चित्त वगेरेना पण त्रण भेद छे. जेमके त्वचा, स्पर्श अने वायु; श्रवण, शब्द अने दिशा; जिह्‌वा रस अने वरुण; नासिका गन्ध अने अश्विनीकुमार; चित्त, चिन्तननो विषय (चैतन्य) अने वासुदेव; मन, मननो विषय अने चन्द्रमा; अहङ्कार, अहङ्कारनो विषय अने रुद्र; बुद्धि, समजवानो विषय अने ब्रह्मा आ बधा त्रिविध तत्त्वोनी साथे आत्मानो कोई सम्बन्धनथी ॥३१॥

प्रकृतिथी महत्तत्त्व बने छे अने महत्तत्त्वथी अहङ्कार बने छे. आ प्रमाणे आ अहङ्कार गुणोना क्षोभथी उत्पन्न थयेल प्रकृतिनो ज एक विकार छे. अहङ्कारना त्रण भेद छे-सात्त्विक, राजस अने तामस. आ अहङ्कार ज अज्ञान अने सृष्टिनी [[४४१]] विविधतानुं मूल कारण छे ॥३२॥

आत्मा ज्ञान स्वरूप छे; तेनो आ पदार्थो साथे कंई सम्बन्ध नथी ए निर्विवाद वात छे पण अस्ति-नास्ति (छे-नथी), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्यमिथ्या वगेरे जेटला वाद-विवाद छे ते बधानुं मूल कारण भेददृष्टि ज छे. आ विवादनुं कोई प्रयोजन नथी ए बाबतमां कोई शङ्का ज नथी ते तद्‌दन व्यर्थ छे; तो पण जे लोको माराथी-मारा वास्तविक स्वरूपथी विमुख छे तेओ आ विवादमान्थी मुकत थई शकता नथी ॥३३॥

उद्धवजीए पूछ्‌युं - हे भगवन्‌! आपथी विमुख जीव पोते करेल पुण्य- पापना फल स्वरूपे उञ्ची-नीची योनिओमां जन्मे छे अने मरे छे. अर्ही प्रश्न ए थाय छे के व्यापक आत्मानुं एक शरीरमान्थी बीजा शरीरमां जवुं, अकर्ता कर्म करे अने नित्य वस्तुनां जन्म मरण केवी रीते सम्भवे? ॥३४॥

हे गोविन्द! जे लोकोने आत्मज्ञान नथी तेओ तो आ विषय विषे बराबर विचार पण न करी शके अने आ विषयना विद्वान संसारमां प्रायः मळता नथी कारण के बधा लोको आपनी मायानी भुल-भुलामणीमां अटवायेला छे. तेथी कृपा करीने आप ज मने आनुं रहस्य समजावो ॥३५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धवजी! मनुष्योनुं मन कर्म-संस्कारोनो पुञ्ज छे. ते संस्कारो अनुसार भोग प्राप्त करवामाटे तेनी साथे पञ्चभूत, पाञ्च कर्मेन्द्रियो अने पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो पण लागेलां छे. तेनुं ज नाम लिङ्ग शरीर छे. ते ज कर्मो प्रमाणे एक शरीरमान्थी बीजा शरीरमां, एक लोकथी बीजा लोकमां आवतुं जतुं रहे छे. आत्मा आ लिङ्ग शरीरथी तद्‌दन पृथक्‌ छे. ते आवतो के जतो नथी; परन्तु ज्यारे ते पोताने लिङ्ग शरीर ज समजी बेसे छे. तेमां ज अहङ्कार करे छे, त्यारे तेने पण पोतानुं आववुं-जवुं प्रतीत थवा लागे छे ॥३६॥

मन कर्मोने अधीन छे. ते देखेला के साम्भळेला विषयोनुं चिन्तन करवा लागे छे अने क्षणवारमां ज तेमनी साथे तदाकार थई जाय छे तथा ते ज पूर्वे चीन्तवेला विषयोमां लीन थई जाय छे. धीरे-धीरे तेनी स्मृति, पूर्वापरनुं अनुसन्धान नष्ट थई जाय छे ॥३७॥

देवादि शरीरोमां तेनी एटली आसक्ति एटली तल्लीनता थई जाय छे के जीवने पोताना पहेलान्ना शरीरनुं स्मरण पण रहेतुं नथी. कोई पण कारणथी शरीरने सर्वथा [[४४२]] भूली जवुं ते ज मृत्यु छे ॥३८॥

हे उदार उद्धवजी! जेवी रीते स्वप्न समयना अने मनोरथ समयना शरीरमां अभिमान करवुं ए ज स्वपन के मनोरथ कहेवाय छे तेवी ज रीते आ जीव कोई पण शरीरने अभेद भावथी ‘हुं’ ना स्वरूपमां स्वीकार करी ले छे त्यारे ते ज ‘जन्म’ कहेवाय छे ॥३९॥

आ जीव स्वपनमां राजा थाय छे त्यारे हुं गरीब ब्राह्मण छुं एवुं पूर्व देहनुं स्मरण एने थतुं नथी पण हुं राजा छुं एवो ज एनो भाव थाय छे. एवी रीते कर्मना योगथी मनवडे याद करेल देहमां हुं आत्मा छुं एवो भाव थवाथी आत्मा पूर्वादि देहनुं स्मरण न करतां पोते स्वपन देहनी पेठे एमां ज अभिनिविष्ट रहे छे. तेथी स्वयं नित्य छतां पूर्ववृत्तने भूली पोते देहना जन्मने पोतानो जन्म माने छे ॥४०॥

जेम माणस स्वपनमां बहु दुष्ट छोकराओने उत्पन्न करे छे तेमां मारापणाना अभिमानथी बहार अने अन्दर विषयोनो अनुभव करे छे तेम इन्द्रियोना आश्रयरूप शरीरनी उत्पत्तिने लईने परमार्थ रूप आत्मामां पण देह, इन्द्रिय अने अन्तःकरण रूप त्रण प्रकारना भाव उत्पन्न थाय छे. ए शरीरना अभिमानवडे ज आत्मा अन्दर अने बहारना भेदवाळो थाय छे एने लीधे शब्दादि विषयोने अने आन्तर सुखादिने ए भोगवे छे ॥४१॥

हे प्रिय उद्धवजी! कालनी गति सूक्ष्म छे. साधारण रीते ते देखी शकाती नथी. ते द्वारा क्षणे-क्षणे शरीरोनी उत्पत्ति अने नाश थतां रहे छे. सूक्ष्म होवाथी ज पळे- पळे थतां जन्म-मरण देखातां नथी ॥४२॥

जेवी रीते कालना प्रभावथी दीवानी ज्योति, नदीओनो प्रवाह अथवा वृक्षना फलोनी खास-खास अवस्थाओ बदलाती रहे छे तेवी ज रीते तमाम प्राणीओनुं शरीरनुं आयुष्य, अवस्था वगेरे पण बदलातां रहे छे ॥४३॥

जेवी रीते आ ते ज ज्योतिओनो ते ज दीपक छे, प्रवाहनुं आ ते ज जल छे एम समजवुं अने कहेवुं खोटुं छे तेवी ज रीते विषय चिन्तनमां व्यर्थ आयुष्य विताववावाळा अविवेकी पुरुषोनुं आ ते ज पुरुष छे एम कहेवुं अने समजवुं बिलकुल खोटुं छे ॥४४॥

(तेथी जीवमां जन्म मरणनो व्यवहार भ्रान्तिथी छे, वस्तुताथी नथी. ए ज [[४४३]] बतावे छे) जेम महाभूतरूप अग्नि सृष्टिना आरम्भथी प्रलय सुधी छे छतां ए काष्ठना योगथी व्यवहार गोचर थाय छे, काष्ठना वियोगथी देखातो नथी तेमज आत्माने कर्मभूत बीजथी आ देह थाय छे एम नथी पण एने देहनो अध्यास थाय छे त्यारे ए अजन्मा छतां जन्म लेतो होय एम माने छे, मरतो नथी छतां मरण धर्मवाळो पोताने माने छे ॥४५॥

(एनी अवस्थाओने कहे छे). हे उद्धवजी! १. गर्भाधान २. गर्भवृद्धि ३. जन्म ४. बाल्यावस्था (पाञ्च वर्ष सुधी) ५. कुमार अवस्था (छ थी पन्दरवर्ष सुधी)
६. युवावस्था (सोळथी पिसतालीस वर्ष सुधी) ७. आधेड अवस्था (छेतालीसथी साठ वर्ष सुधी) ८. वृद्धावस्था (साठ वर्ष पछी) अने ९. मृत्यु आ नव अवस्था शरीरनीज छे ॥४६॥

आ शरीर जीवथी जुदुं छे अने आ ऊञ्ची-नीची अवस्थाओ तेना मनोरथ प्रमाणे ज छे, परन्तु ते अज्ञानथी गुणोना सङ्गथी तेमने पोतानी मानी लई भटकवा माण्डे छे अने क्यारेक-क्यारेक विवेक थई जतां तेमने छोडी पण दे छे ॥४७॥

पिताए पुत्रना जन्मथी अने पुत्रे पिताना मृत्युथी पोत-पोताना जन्ममरणनुं अनुमान करी लेवुं जोईए.(पितानो अग्नि संस्कार करती वखते पुत्र प्रत्यक्ष जुए छे के आ मारा पितानुं मृत्यु थयुं तेम मारुं पण थशे. पोताने त्यां पुत्रजन्म थाय त्यारे जातकर्म संस्कार करती वखते पिता जुए छे के आ पुत्रनो जन्म थयो एम मारो पण थयो हशे) जन्म-मृत्युवाळा देहोना द्रष्टा जन्ममृत्युयुकत शरीरनथी ॥४८॥

जेवी रीते जव, घं वगेरे खेतरमां वाववाथी ऊगी नीकळे छे अने पाकी जतां लणी लेवामां आवे छे परन्तु जे पुरुष तेमना ऊगवा अने लणवानुं जाणनारो साक्षी छे ते-ते बन्नेथी तद्‌दन पृथक्‌ छे तेवी ज रीते शरीर अने तेनी अवस्थाओनो जे साक्षी छे ते शरीरथी बिलकुल जुदो छे. आ समजनार बन्नेथी बन्धातो नथी ॥४९॥

अज्ञानी पुरुष आ प्रमाणे आत्मा ए प्रकृति अने शरीरथी जुदो छे एम समजतो नथी. ते तेमनाथी तात्विक दृष्टिथी जुदो छे एम ते अज्ञानी अनुभव करतो नथी अने विषयभोगोमां साचुं सुख मानीने तेमां ज मोहित थई जाय छे. तेथी ज तेने जन्म-मरणरूप संसारमां भटकवुं पडे छे ॥५०॥

[[४४४]] ज्यारे अविवेकी जीव पोतानां कर्मो प्रमाणे जन्ममृत्युना चक्करमां भटकवा लागे छे, त्यारे सात्त्विक कर्मोनी आसक्तिथी ते ऋषिलोक अने देवलोकमां, राजसिक कर्मोनी आसक्तिथी मनुष्य अने असुर योनिओमां तथा तामसिक कर्मोनी आसक्तिथी भूत-प्रेत अने पशु पक्षी वगेरे योनिओमां जाय छे ॥५१॥

(आत्मा तो चेष्टारहित छे एम आपे कह्युं एने भ्रमण केम थाय छे? एना त्तरमां कहेवानुं के) जेम कोईने नाचतां अने गातां जोनार पुरुषने नाचवा अने गान करवानुं मन थतां ए शृङ्गारादि रसनुं अनुकरण करे छे तेम आत्मा निष्क्रिय छे छतां बुद्धिए आपेला देहनी चेष्टाने जोईने एमां पोते पोतापणानो अध्यास करीने देहनुं अनुकरण करे छे ॥५२॥

(आथी दृश्यनो धर्म द्रष्टामां देखाय छे ए वात कही हवे पाधिना धर्मो पहितमां देखाय छे ए दृष्टान्तथी बतावे छे). जेवी रीते नदीना जलना ञ्चचल थवाथी तेमां प्रतिबिम्बित थयेलां वृक्षो पण चालतां होय एम देखाय छे तेम देह आदिमां आत्मानो अध्यास थवाथी तेना कर्तापणाना धर्म आत्मामां जोवामां आवे छे. फेरफूदडी फरनारने नेत्र फरवाथी पृथ्वी फरती होय एम जणाय छे तेम विषयग्राहक मनवडे कल्पित विषय स्त्री वगेरेमां लावण्य आदि गुणो देखाय छे. खरी रीते ए गुणो विषयना नथी पण भगवान्‌ना छे ॥५३॥

(भोग मिथ्या छे ए समजाववा बे दृष्टान्तो आपे छे). जेवी रीते मनमां विचारेला तथा स्वपनमां जोयेला भोग पदार्थ सर्वथा मिथ्या ज होय छे तेवी ज रीते हे दाशार्ह! आत्माए विषयोनो अनुभव करवारूपी संसार पण सर्वथा असत्य छे. आत्मा तो नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुकत ज छे ॥५४॥

जेवी रीते स्वपनमां देखायेला वाघनो डर, ज्यां सुधी स्वपन चालु होय त्यां सुधी साचो होय तेवुं लागे छे अने स्वपन तूटतां ज ते डर दूर थाय छे तेवी ज रीते विषयो सत्य न होवा छतां पण जे जीव विषयोनुं ज चिन्तन करतो रहे छे तेनो जन्म-मरणरूपी संसार क्यारेय निवृत्त थतो नथी ॥५५॥

(त्यां शङ्का थाय के भोग तो सुखना साधनरूप छे तेने केम छोडाय? एना त्तरमां कहेवानुं के) सुख-दुःख ए केवळ भ्रम छे केमके ए देहमां आत्माना अध्यासथी ज देखाय छे, वस्तुतः ए सुख-दुःख वगेरे अन्तःकरणना धर्म छे, आत्माना नथी ॥५६॥

[[४४५]] (संसारनिवृत्तिना हजारो पायोमां परमेश्वरमां चित्तने स्थिर करवारूप पाय श्रेष्ठ छे ते ज कहे छे के) दुष्ट पुरुषो अपमान करे, वाणीथी तिरस्कार करे, हांसी करे, निन्दा करे, मारपीट करे, बान्धे, आजीविका छीनवी ले, पर थूङ्के-पेशाब करे अथवा प्रभु प्रत्येनी निष्ठा डगावी देवा अनेक त्रास आपे; तेमना कोईपण जुलमथी क्षुब्ध न थवुं जोईए; कारण के तेओ तो बिचारा अज्ञानी छे तेमने परमार्थनो तो पत्तोज नथी. तेथी जेपोतानुं कल्याण करवा मागे छे तेणे पोतानी विवेकबुद्धिथी धीरज राखी कष्टने सहन करवुं, भगवान्‌मां स्थिर थयेल मनने एमान्थी ञ्चचल न करवुं अने पोतानी जातने बचावी लेवी. वस्तुतः आत्मादृष्टि ज समस्त विपत्तिओथी बचवानुं एकमात्र साधन छे ॥५७-५८॥

उद्धवजीए कह्युं - हे भगवन्‌! आप समस्त वकताओना शिरोमणि छो. आ दुर्जनोए करेल तिरस्कारने हुं मारा मनमां अत्यन्त असह्य समजुं छुं. तेथी हुं जेवी रीते ते समजी शकुं, आपनो पदेश जीवनमां तारी शकु तेवी रीते आप कृपा करीने मने समजावो ॥५९॥

विदुषामपि विश्वात्मन्‌ प्रकृतिर्हि बलीयसी ॥ ऋतेत्वद्धर्मनिरतान्‌ शान्तांस्ते चरणाश्रयान्‌ ॥६०॥

हे विश्वात्मा! जे आपना भागवत धर्मना आचरणमां प्रेमपूर्वक लागेला छे, जेओए आपना चरणकमलोनो ज आश्रय लई लीधो छे ते शान्त पुरुषो सिवाय मोटा-मोटा विद्वानोमाटे पण दुष्टोद्वारा करवामां आवेल तिरस्कार सहन करवो अत्यन्त मुश्केल छे, कारण के स्वभाव बहु ज बळवान होय छे ते बदलवो खूब ज मुश्केल छे ॥६०॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो सत्तरमो अने चालु) ‘‘तत्त्वोनी सङ्ख्यानो विरोध परिहार’’ नामनो २२मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्‌वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं.

ईं उं ईं उं

[[४४६]]

अध्याय २३

मनने जीतीने लोकोना तिरस्कारने सहन करवो

विशेष - तिरस्कार सहन करवो एमां मननो जय कारणरूप छे एना दृष्टान्तमां भिक्षुगीतने आ त्रेवीसमा अध्यायमां कहे छे. स एवमाशंसित उद्धवेन भागवतमुख्येन दाशार्हर्षभेण ॥ सभाजयन्‌ भृत्यवचो मुकुन्दः तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! वास्तवमां श्रवण करवा योग्य कंई होय तो ते भगवान्‌नी लीला-कथा ज छे. श्रीकृष्ण भगवान ज प्रेम अने मुक्ति ना दाता छे. ज्यारे आपना परमप्रेमी भकत उद्धवजीए आ प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे यदुवंश विभूषण श्रीभगवाने एमना प्रश्ननी प्रशंसा करी तेमने नीचे प्रमाणे कह्युं छे ॥१॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे बृहस्पतिना शिष्य! एवो कोई साधु पुरुष जगतमां उत्पन्न थयो नथी के जे दुष्ट पुरुषोए उच्चारेलां वाकयोथी र्वीधायेला मनने सम्भाळी शके अथवा र्वीधायेला मननुं समाधान करवाने समर्थ थई शके ॥२॥

ए तमारुं कथन साचुं छे. दुष्ट पुरुषोनां वाणीरूपी बाण मर्मस्थान सुधी पहोञ्ची जे दुःख आपे छे तेवुं दुःख मर्मने र्वीधनार तीक्ष्ण-बाणो शरीरमां लागवाथी शरीर भेदाय एनाथी पुरुषने थतुं नथी, कारण के बाणनो घा रुझाय छे पण वचनरूपी बाणनो घा सदा ताजो रहे छे ॥३॥

हे उद्धवजी! आ बाबतमां एक अत्यन्त पवित्र इतिहास महात्मा लोको कहे छे ते हुं तमने कहुं छुं जेने तमे स्थिर चित्तथी साम्भळो ॥४॥

दुष्ट लोकोनो तिरस्कार पामीने पोताना पूर्वजन्मनां कर्मना फलरूपनुं स्मरण करीने धीरज धरता कोई भिक्षुके ए इतिहास गायो छे ॥५॥

प्राचीन समयनी वात छे. उज्जैन शहेरमां एक ब्राह्मण रहेतो हतो. ते खेती, वेपार वगेरे द्वारा घणी धन-सम्पत्ति कमायो हतो. ते *कदर्य, अति क्रोधी, कामी, लोभी अने घणो ज कृपण हतो ॥६॥

विशेष - धर्मशास्त्रमां कदर्यनुं लक्षण आ प्रमाणे कह्युं छे - ‘‘आत्मानं धर्मकृत्यं च पुत्रदारांश्च पीडयन्‌, देवतातिथिभृत्यांश्च स कदर्य इति स्मृतः’’ पोताने, धर्मकृत्यने, पुत्र, स्त्रीने अने देव, अतिथि तथा नोकरोने पीडा करनारो ते ‘कदरी’ कहेवाय. [[४४७]] तेणे पोताना ज्ञातिभाईओ अने अतिथिओ ने कयारेय मीठी वात करीने पण प्रसन्न नहोता कर्या, पछी खान-पान (भोजन वगेरे) नी तो वातो ज कयां रही? तेना घरमां धर्म-कर्म तो कंई थतुं ज नहि. पोतानी धन-सम्पत्ति पोतानी जातने सुखी करवामां पण ते वापरवामां समजतो नहि ॥७॥

तेनी कृपणता अने खराब स्वभावने लीधे तेना पुत्र-पुत्रीओ, भाईबन्धुओ, नोकर-चाकर अने पत्नी वगेरे बधां दुःखी रहेतां हतां अने मनोमन तेनुं अनिष्ट इच्छया करतां हतां. तेने गमे तेवुं वर्तन कोई ज करतुं नहोतुम् ॥८॥

तेनुं आलोक-परलोक बन्नेथी पतन थई गयुं हतुं. बस, यक्षोनी जेम ते धननुं रक्षण कर्या करतो हतो. धनथी ते धर्म कमातो नहि के भोग पण भोगवतो नहि. घणो समय आ प्रमाणे जीवन विताववाथी पञ्चमहायज्ञना अधिकारी देवता तेना उपर गुस्से थया ॥९॥

हे उदार उद्धवजी! पञ्चमहायज्ञना अधिकारी देवोना तिरस्कारथी तेनां पूर्वनां पुण्योना बळथी अत्यार सुधी टकी रहेलुं धन जे तेणे भारे उद्योग अने सखत परिश्रमथी एकठुं कर्युं हतुं ते धननो खजानो पण नष्ट थई गयो ॥१०॥

ते नीच ब्राह्मणनुं केटलुङ्क धन तो तेना कुटुम्बीओए ज छीनवी लीधुं, केटलुङ्क चोर-चोरी गया, केटलुङ्क आग लागवा वगेरे दैवी कोपथी नष्ट थई गयुं, केटलुङ्क कालक्रमथी नाश पाम्युं, केटलुङ्क साधारण माणसोए हडप करी लीधुं अने बाकी रहेलुं सर्व कर अने दण्डना रूपमां राज कर्ताओए जप्त करी लीधुम् ॥११॥

हे उद्धवजी! आ प्रमाणे तेनी बधी ज सम्पत्ति नाश पामी. न तो तेणे धर्मनी कमाई करी के न तो तेणे भोग भोगव्या. बीजी बाजुए तेना सगांओए पण तेने छोडी दीधो तेथी तेने भयानक चिन्ताए घेरी लीधो ॥१२॥

धनना नाशथी तेना दिलमां भारे बळतराओ थई. तेनुं मन खेदथी भराई आव्युं. आंसुओने लीधे तेनुं गळुं रुन्धाई गयुं परन्तु आ प्रमाणे चिन्ता करतां- करताञ्ज तेना मनमां संसार प्रत्ये महान दुःखबुद्धि अने उत्कट वैराग्यनो उदय थईगयो ॥१३॥

हवे ते ब्राह्मण मनमां ने मनमां कहेवा लाग्यो, ‘‘हाय! हाय!! आटला दिवसो सुधी में पोतानी जातने आ रीते सतावी ते भारे खेदनी वात छे. जे धनने माटे आवुं कमरतोड कष्ट सहन कर्युं ते धन न तो धर्मकार्यमां काम आव्युं के न तो मारा [[४४८]] सुखभोगमां तेनो उपयोग थयो ॥१४॥

प्रायः एवुं जोवामां आवे छे के कृपण पुरुषोने धनथी कयारेय सुख मळतुं नथी. आ लोकमां तो तेओ धन कमावानी अने तेने साचववानी चिन्तामां बळ्या करे छे अने मर्या पछी धर्म न करवाने लीधे नरकमां जाय छे ॥१५॥

जेवी रीते जरा जेटलो कोढ सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूपने बगाडी दे छे तेवी ज रीते थोडो पण लोभ यशस्वीओना शुद्ध यश अने गुणीजनो ना प्रशंसनीय गुणोनो नाश करे छे ॥१६॥

धन कमाववामां, कमाया पछी तेने वधारवामां, साचववामां अने खर्च करवामां तथा तेना नाश अने उपभोगमां ज्यां जुओ त्यां निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता अने दुःख नो ज सामनो करवो पडे छे ॥१७॥

अतिशय धन कमावामां चोरी, हिंसा, जूठुं बोलवुं, दम्भ, काम अने क्रोध आ छ अनर्थो रहेला छे. कमाया पछी गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वेर, अविश्वास, स्पर्धा, व्यभिचार, जुगार अने शराब वगेरे व्यसनो आ नव अनर्थो प्राप्त थाय छे. आम कुल पन्दर अनर्थो मनुष्योमां धनने लीधे ज आवे छे. तेथी पोतानुं कल्याण इच्छनारा पुरुषे स्वार्थ अने परमार्थ ना विरोधी अनर्थने दूरथी ज नमस्कार करवा, भलेने ए अनर्थनुं नाम अर्थ (पैसो-धन) होय! ॥१८-१९॥

भाई-बन्धु, स्त्री पुत्र, माता-पिता अने सगां-सम्बन्धी जे स्नेहबन्धनथी बन्धाई बिलकुल हळी-मळीने एक थईने रहेतां होय छे ते बधां एक कोडीने माटे तत्काल एकबीजानां शत्रु बनी जाय छे ॥२०॥

ते लोको थोडाक पैसाने माटे पण क्षोभ पामे छे अने गुस्से थई जाय छे. वातवातमां स्नेहसम्बन्ध तोडी नाखे छे, चडसा-चडसी करे छे अने एकबीजानुं खून करतां पण खचकाता नथी, त्यां सुधी के एकबीजानो सर्वनाश करी नाखेछे ॥२१॥

देवो पण जे देहनी इच्छा करे छे ते मनुष्य-जन्मने अने तेमां पण श्रेष्ठ ब्राह्मण शरीर प्राप्त करी जे तेनो अनादर करे छे अने पोताना साचा स्वार्थ- परमार्थनो नाश करे छे तेओ अशुभ गतिने प्राप्त करे छे ॥२२॥

आ मनुष्य शरीर मोक्ष अने स्वर्ग नुं द्वार छे ते मेळवीने पण एवो कयो बुद्धिमान पुरुष होय जे अनर्थोना धाम एवा धनना चक्करमां फसायेलो रहे? ॥२३॥

[[४४९]] जे मनुष्य, देवता, ऋषि, पितृ, प्राणी, ज्ञातिबन्धु, कुटुम्बी अने धन ना बीजा भागीदारोने तेमनो भाग आपी सन्तुष्ट राखतो नथी तेम ज पोते पण तेनो उपभोग करतो नथी ते यक्षनी जेम धननी रखवाळी करनारो कृपण तो अवश्य अधोगतिने (नरकने) ज प्राप्त थाय छे ॥२४॥

प्रमादथी में मारुं आयुष्य, धन अने बल पौरष खोई नाख्यां. विवेकी पुरुषो जे साधनोथी मोक्ष सुधी मेळवी शके छे तेमने में धन भेगुं करवानी व्यर्थ चेष्टामां खोई नाख्यां. हवे बुढापामां हुं शुं साधन करी शकवानो हतो? ॥२५॥

आ पैसा (धन) मां अनर्थ छे एम जाणवा छतां मारा जेवा बीजा माणसो पैसा मेळववानो व्यर्थ श्रम शा माटे करी रह्या छे? साचुं कहीए तो आ सर्वलोक कोईनी मायामां मोह पाम्यां छे ॥२६॥

(धन होय तो भोग भोगवाय तेथी धनमाटे यत्न करनारने मोहित थयेला केम कहेवाय एम कहे, त्यां कहे छे के) धनने आपनार मळे, धन मळे, कामने आपनार मळे, काम मळे अथवा जन्मने आपनार कर्मो सम्पादन करे तो पण जेने मृत्यु गळी रह्युं छे तेने ए बधुं सुख आपनार थतुं नथी, कारण के कां तो ए भोगोनो नाश थाय कां तो पोतानुं मृत्यु थाय एटले ए बधुं स्थिर रहेवानुं नथी तेथी एने माटे यत्न करनार माणस मोहमां पडेलो छे एम सिद्ध थाय छे ॥२७॥

एमां लेश मात्र शङ्का नथी के सर्व देवमय अने सर्व ना दुःखने हरनार भगवान्‌ मने प्रसन्न थया जेमणे मने आवी दशामां मूकी घरमां वैराग्य कराव्युं; ए वैराग्य मने संसार तरवामां साधनरूप वहाण थई पडशे ॥२८॥

हुं हवे वैराग्यनी अवस्थाए पहोञ्ची गयो छुं. हवे जो मारुं आयुष्य बाकी हशे तो हुं मनमां सन्तोष राखी मारा परमार्थनी बाबतमां सावधान थई जईश अने जे समय बाकी छे ते दरमियान मारा शरीरने तपस्याद्वारा सूकवी नाखीश ॥२९॥

त्रणेय लोकना स्वामी देवगणो मारा आ सङ्कल्पमां विघ्न नहि नाखतां मारा आ सङ्कल्पनुं अनुमोदन करे. हजु निराश थवानी कोई जरूर नथी, कारण के राजा खट्‌वाङ्गे तो मात्र बे घडीमां ज वैकुण्ठनी प्राप्ति करी लीधी हती’’ ॥३०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोल्या - हे उद्धवजी! अवन्ति (उज्जयिनी) ना ते उत्तम ब्राह्मणे मनमां आ प्रमाणे निश्चय करी लई ‘हुं’ अने ‘मारा’ पणानी गाण्ठ खोली नाखी अहन्ता-ममतानो त्याग करी दीधो अने पोताना मनने मारामां लगावी दई [[४५०]] मनन परायण सन्न्यासी थई गयो. (दिवस आखानो भूलो पडेलो साञ्जे पण जो घेर आवी जाय तो ते भूली पडयो नथी. पूर्व जीवनमां पेट भरीने पाप कर्यां होय पण जीवनसन्ध्याए पण जो भक्तिमान थाय तो तेनो मोक्ष थई जाय छे ए कहेवामाटे आपे एने माटे श्लोकमां ‘द्विजसत्तमः’ ‘उत्तम ब्राह्मण’ एवो शब्दप्रयोग कर्यो छे) ॥३१॥

हवे तेणे तमाम स्थान, वस्तु के व्यक्तिओ प्रत्ये मनमान्थी आसक्ति छोडी दीधी; पोताना मन, इन्द्रियो अने प्राणो ने वश करी लीधां. हवे ते पृथ्वी उपर स्वच्छन्दरूपथी फरवा लाग्यो. ते भिक्षामाटे नगर अने गामडांओ मां एवी रीते जतो के कोई तेने ओळखी शके नहि ॥३२॥

हे उद्धवजी! ते भिक्षुक अवधूत बहु ज वृद्ध थई गयो हतो. दुष्ट लोको तेने जोताञ्ज तेना उपर तूटी पडता हता अने अनेक रीते तेनो तिरस्कार करी तेने तङ्ग करताहता ॥३३॥

कोई तेनो दण्ड आञ्चकी लेतुं तो कोई तेनुं भिक्षापात्र खूञ्चवी लेतुं. कोई कमण्डलु उठावी लई जतुं तो कोई आसन, रुद्राक्षनी माळा अने गोदडी उपाडीने भागी जतुं. कोई तो वळी तेनी लङ्गोटी अने वस्त्र ने पण ज्यां-त्यां फेङ्की देतुम् ॥३४॥

कोई-कोई ते वस्तुओ आपीने अने कोई बतावी-बतावीने पाछा आञ्चकी लेता. ज्यारे ते अवधूत मधुकरी मागी लावतो अने बहार नदी किनारे भोजन करवा बेसतो त्यारे पापी लोको कयारेक तेना माथा उपर पेशाब करता तो कयारेक थूङ्कता ते लोको ते मौनी अवधूतने बोलवाने माटे अनेक रीते विवश करता अने छतां ए ज्यारे न बोलतो त्यारे एने मारता ॥३५-३६॥

केटलाक ‘‘चोर-चोर’’ कही धमकाववा लागता, केटलाक ‘‘एने बान्धो-बान्धो’’ एम कही अने पछी दोरडाथी बान्धवा लागता ॥३७॥

कोई तेनो तिरस्कार करी मेणां मारता के ‘‘जुओ-जुओ, हवे आ कृपणे धर्मनो ढोङ्ग रच्यो छे. धन-सम्पत्ति जती रही, स्त्री-पुत्रोए घरमान्थी काढी मूकयो त्यारे ते पेट भरवामाटे सन्न्यासी बन्यो छे ॥३८॥

ओहो! जुओ तो खरा, आ तगडा जेवो भिखारी धैर्यमां तो मोटा पर्वत जेवो छे. ते चूपचाप पोतानुं काम काढी लेवा मागे छे. खरेखर तो ते बगलाथी पण मोटो ढोङ्गी अने दृढनिश्चयी छे ॥३९॥

[[४५१]] केटलाक ते अवधूतनी हांसी उडावता, तो कोई तेना उपर अधोवायु छोडता. जेवी रीते लोको वानर वगेरेने बान्धे छे अने पोपट वगेरेने पाञ्जरामां पूरे छे तेवी रीते केटलाक तेने बान्धी देता अने घरोमां पूरी देता’’ ॥४०॥

पण आ बधुं ते चूपचाप सहन करी लेतो. कयारेक तेने जवर वगेरेने कारणे दैहिक पीडा सहन करवी पडती, कयारेक ठण्डी-गरमी वगेरेने लीधे दैवी कष्ट उठाववुं पडतुं अने कयारेक दुर्जन लोको अपमान वगेरे द्वारा तेने भौतिक पीडा पहोञ्चाडता, परन्तु भिक्षुकना मनमां तेथी कोई विकार न थतो. ते समजतो के आ बधुं मारा पूर्वजन्मनां कर्मोनुं फल छे अने ते मारे भोगव्या विना छूटको नथी ॥४१॥

जो के नीच लोको अनेक रीते तेनो तिरस्कार करी तेने तेना धर्मथी डगाववाना प्रयत्नो कर्या करता छतां ते भारे मक्कमताथी पोताना धर्ममां स्थिर रहेतो अने सात्त्विक धैर्यनो आश्रय लई कयारेक-कयारेक आवा उद्‌गार प्रगट कर्या करतो ॥४२॥

(भीक्षु-गीत) ब्राह्मण कहेतो - मारा सुख के दुःख नुं कारण आ मनुष्य, देवता, शरीर, ग्रहो, कर्म के काल वगेरे नथी, श्रुतिओ अने महात्मालोक मनने ज आनुं परम कारण बतावे छे अने मन ज आ समग्र संसारचक्रने चलावी रह्युं छे ॥४३॥

तेने काबूमां राखवुं बहु ज कठण छे कारण के ते बहु बळवान छे. मन ज विषयोमां रागद्वेष वगेरे वृत्तिओ सर्जे छे. ए वृत्तिओ अनुसार ज शुकल-सात्त्विक पुण्यो, कृष्ण-तामस पापो अने लोहित (लाल)-राजस पुण्य पाप मिश्रित कर्मो थाय छे अने ते कर्मो प्रमाणे ज जीवनी विविध गतिओ थाय छे. (पुण्योथी देवताने त्यां, पापथी पशु योनिमां अने मिश्रकर्मथी मनुष्यमां जन्म थाय छे) ॥४४॥

(मन जो संसारनुं कारण होय तो सुख-दुःख पण मनने थवां जोईए, जीवने नहि. जीवने सुख-दुःख देहना सम्बन्धथी थाय छे एम समाधान करवामां आवे तो देहनो सम्बन्ध परमात्माने पण छे तो तेने ए सुख-दुःख थवा जोईए एवी शङ्काना उत्तरमां कहे छे के) देहनो जेने अध्यास होय तेने ते सुख-दुःख थाय. एवो अध्यास परमात्माने नथी तेथी तेने सुख-दुःख थतां नथी. मन सङ्कल्प- विकल्पात्मक छे. (मन सङ्कल्प-विकल्प करतुं ज रहे छे) भगवान्‌ तेनी साथे नियामक तरीके सदा अन्तर्यामीरूपे रहे छे अने जीवना ते सनातन सखाहितकर्ता-छे. ते अहं मम (हुं मारुं) ना अभिमानरहित छे, कारण के ते हिरण्मयअध्याय-२३,एकादशस्कन्ध ४५२ ज्ञानमय छे. तेथी ते तो पोताना अलुप्त ज्ञानथी बधुं साक्षीरूपे जोया करे छे, सुखदुःखना भागीदार बनता नथी. मनद्वाराज तेनी अभिव्यक्ति थाय छे. ज्यारे ते जीव मननो स्वीकार करी ते द्वारा विषयोनो भोकता बने छे त्यारे कर्मोमां आसक्ति होवाथी ते कर्मोथी बन्धाई जाय छे ॥४५॥

(तेथी मननो निग्रह करवो ए ज बधां साधनोनुं फल छे ए प्रतिपादन करतां कहे छे के) दान, स्वधर्म, नियम, यम, वेदोनुं अध्ययन, तीर्थयात्रा वगेरे सत्कर्मो, एकादशी, ब्रह्मचर्य वगेरे व्रतो आ बधान्नुं अन्तिम फल ए ज छे के मन एकाग्र थई जाय, प्रभुमां लागी जाय. मननो निग्रह ए ज परम योग छे ॥४६॥

जेनुं मन शान्त (भगवान्‌मां स्थिर) अने समाहित (वशीकृत) छे तेने दान वगेरे तमाम सत्कर्मोनुं फल प्राप्त थई चूकयुं. हवे तेने सत्कर्मो पासेथी कंई मेळववानुं बाकी रहेतुं नथी अने जेनुं मन ञ्चचल (विषयोथी क्षुब्ध) छे अथवा आळसनुं घर छे तेने आ दान वगेरे शुभ कर्मोथी हजु सुधी कंई फायदो थयो नथी ॥४७॥

बधी इन्द्रियो मनने वश छे. मन कोई पण इन्द्रियने वश नथी. आ मन बळवानथी पण बळवान, अत्यन्त भयङ्कर देव छे. जे मनने पोताने वश करी ले छे ते ज इन्द्रियोनो विजेता बने छे ए देवनो पण देव छे अने तेथी भगवान्‌ जेवो पूजन योग्य छे ॥४८॥

खरेखर मन बहु मोटो शत्रु छे. तेनुं आक्रमण असह्य छे. ते मात्र बहारना शरीरने ज नहि पण हृदय वगेरे मर्मस्थानोने पण र्वीधी नाखे छे. तेने जीतवुं बहु कठण छे. मनुष्ये सौथी पहेलां ते ज शत्रुने जीतवो जोईए, परन्तु मूर्ख मनुष्यो तेने जीतवाने बदले बीजां माणसोने मित्र, उदासीन के शत्रु मानीने तेमनी साथे खोटो कलेश करता रहे छे ॥४९॥

साधारण रीते मनुष्योनी बुद्धि अन्ध थई गई छे-अविद्यारूपी अन्धकारथी तेनो विवेक जतो रह्यो छे तेथी तो आ मनःकल्पित शरीरने ‘हु’ अने स्त्री पुत्र घर धन वगेरे ‘मारा’ मानी बेसे छे अने पछी ‘‘आ हुं छुं अने आ बीजो छे’’ एवा भ्रमना फन्दामां फसाई जाय छे. आनुं परिणाम ए आवे छे के तेओ अनन्त अज्ञानान्धकाररूपी संसारमां ज भटकता रहे छे ॥५०॥

मनुष्य ज सुख-दुःखनुं कारण छे एम मानी लईए तो पण तेनी साथे आत्मानो शुं सम्बन्ध? कारण के सुख-दुःख आपनार पण माटीनुं शरीर छे अने [[४५३]] ते भोगवनार पण माटीनुं शरीर ज छे. भोजन समये कयारेक पोतानी ज जीभ पोताना ज दान्तो वच्चे कचडाई जाय तो मनुष्य कोना उपर गुस्सो करशे? ॥५१॥

सुख-दुःखनुं कारण इन्द्रियोना देवताने मानीए तो पण आत्माने एनो सम्बन्ध नथी. जो सुख-दुःखनुं कारण देवता होय तो इन्द्रियोना अभिमानी देवताओना रूपमां भोकता पण तेओ ज छे अने देवता बधां शरीरोमां एक ज छे. जे देवता एक शरीरमां छे ते ज बीजा शरीरमां पण छे. आम होय तो पछी पोताना ज शरीरना एक अङ्गथी बीजा अङ्गने ईजा थई जाय तो भला क्रोध कोना उपर करवो? ॥५२॥

जो सुख-दुःखनुं कारण आत्माने ज मानीए तो ते तो तेनो पोतानो ज छे कोई बीजो नहि कारण के आत्माथी भिन्न कंई छे ज नहि. जो बीजुं कंई जणातुं होय तो ते मिथ्या छे. तेथी नथी सुख के नथी दुःख, पछी क्रोध शा माटे? क्रोधनुं कारण ज कयां रह्युं? ॥५३॥

सुख-दुःखनुं कारण ग्रहोने मानो तो एनी साथे पण आत्माने सम्बन्ध नथी पण जन्मवाळाथी ए आठमे, चोथे के बारमे स्थाने आवे तो ए जन्मधारी देहने दुःखनुं निमित्त थाय छे. आत्मानो जन्म नथी एने सुख-दुःख ए आपी शकता नथी. वळी ग्रहो वक्रादि दृष्टिवडे ग्रहोने ज पीडा करे छे ए धरना खूणामां बेठेलाने पीडा करवा आवता नथी तेथी ग्रहो पण सुख-दुःखनुं निमित्त नथी, केवळ मन ज देहमां अध्यस्त होवाथी सुख-दुःखनुं कारण बने छे. माटे एने ज वश करवुं जोईए ॥५४॥

सुख-दुःखना कारण तरीके कर्मने मानो तो कर्म तो जड अने चेतन बे वस्तुथी बने छे एमां देह जड छे ते एकलो कर्म करी शके नहि. आत्मा पण एकलो चेतन होईने ए पण कर्म करी शके नहि. कर्म करवामां विकारीपणुं अने स्वहितकर्तृत्व जोईए. जड विकारी अने चेतन हित- अहितनो जाणनार होय. देह विकारवाळो माटे कर्ता पण ए जड होवाथी ए स्वहितने जाणनार नथी तेथी ए कर्मनो कर्ता ठरतो नथी. आत्माहित जाणनार पण विकारी न होवाथी कर्ता नहि थाय तेथी कर्मो सुख-दुःखनुं कारण छे एम पण सिद्ध थतुं न होवाथी कोना उपर क्रोध करवो? ॥५५॥

काळ सुख-दुःखनुं कारण होय तेथी पण आत्माने कांई एनो भार रहेतो नथी. [[४५४]] काळ ए तो आत्मानो अंश छे. अग्निज्वालानो ताप अग्निने अने बरफनी ठण्डी बरफने लागे नहि तेम काळथी थतां सुख-दुःखो आत्माने असर करनार थाय नहि. आत्मा तो सुख-दुःखथी पर होवाथी कोनी उपर क्रोध करवो? ॥५६॥

आत्मा परथी पण पर छे एने कोईथी कोई देश के कोई काळमां सुख-दुःखनो सम्भव घटतो नथी. ए तो अहङ्कारवाळा संसारीने ज थाय छे एम जाणनार कोई प्राणीथी भय पामतो नथी ॥५७॥

आ प्रमाणे भूतकाळमां थयेल मुनिओए धारण करेली परमात्मनिष्ठानो आश्रय करीने मुकुन्द भगवान्‌ना चरणकमळने सेवतो हुं दुरन्त अज्ञानसागरने पार करी जईश एवो तेणे निश्चय कर्यो ॥५८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - द्रव्य नाश पामवाथी जेने लेवा, देवा (आपवा) के सम्भाळवानो परिश्रम दूर थयो छे तेवो ते ब्राह्मण सन्न्यास लईने फरतो हतो. उपर कह्या प्रमाणे दुष्ट लोको तेनो तिरस्कार करता हता, छतां ए स्वधर्मथी चलित न थयो अने मौन रह्यो तथा आ गीत गाया करतो हतो ॥५९॥

‘‘पुरुषने सुख-दुःख आपनार मनना विभ्रम वगर बीजो कोई नथी. मित्र, उदासीन, शत्रु वगेरे संसार मनना भ्रमने लईने अज्ञानथी थाय छे’’ ॥६०॥

हे भाई उद्धव! तमो मारा विशे सर्व भावथी बुद्धिने परोवीने मननो निग्रह करो. योग मात्रनो निष्कर्ष मनने रोकवामां ज छे ॥६१॥

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः ॥ धारयन्‌ श्रावयन्‌ श्रुण्वन्‌ द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते ॥६२॥

आ उपर कह्युं ते भिक्षुकनुं गीतमात्र नथीतेतो मूर्तिमान ब्रह्मज्ञान निष्ठाज छे. जे पुरुष एकाग्रमनथी ते साम्भळे छे, सम्भळावे छे अने धारण करे छे ते कयारेय सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोने वश थतो नथी. तेमनी वच्चे रहीनेपण निडर रहेछे ॥६२॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां(पहेलां जीवमुक्तिप्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो अढारमो अने चालु) ‘‘मनने जीतीने लोकोना तिरस्कारने सहन करवो’’ नामनो
२३मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४५५]]

अध्याय २४

साङ्ख्यना ज्ञानवडे मोहनी निवृत्ति थाय छे अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि साङ्ख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम्‌ ॥ यद्‌ विज्ञाय पुमान्‌ सद्यो जह्याद्‌ वैकल्पिकं भ्रमम्‌ ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धवजी! हवे हुं तमने साङ्ख्यशास्त्रनो निर्णय सम्भळावुं छुं. प्राचीन काळना मोटा-मोटा कपिल आदि ऋषि मुनिओए ते कहेलो छे. ज्यारे जीव ते सारी रीते समजी ले छे त्यारे तेनो भेदबुद्धि मूलक सुखदुःखादिरूप भ्रम तत्काल छूटी जाय छे ॥१॥

युगो पहेलां प्रलयकाळ वखते आदि सत्ययुगमां अने ज्यारे मनुष्यो विवेक निपुण होय छे त्यारे आ बधी अवस्थाओमां आ सम्पूर्ण दृश्य अने द्रष्टा, जगत्‌ अने जीव विकल्प शून्य, कोई पण प्रकारना भेदभावथी रहित, केवल ब्रह्मज होय छे ॥२॥

ब्रह्ममां कोई पण प्रकारनो विकल्प नथी एमां कोई शङ्का नथी ते केवल अद्वितीय सत्य छे अने मन तथा वाणी नी त्यां सुधी गति नथी. ते ब्रह्म ज माया अने तेमां प्रतिबिम्बित जीवना रूपमां दृश्य अने द्रष्टा ना रूपमां बे भागोमां जाणे के विभक्त थई गयुम् ॥३॥

तेमान्थी एक भागने ‘प्रकृति’ कहे छे. तेणे ज जगतमां कार्य-कारणनां रूप धारण करी लीधां छे. बीजा ज्ञानस्वरूप भागने ‘पुरुष’ कहे छे ॥४॥

हे उद्धवजी! जीवोना शुभ-अशुभ कर्मो अनुसार में ज प्रकृतिमां खळभळाट- क्षोभ-पेदा कर्यो, त्यारे तेमान्थी सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण प्रकट थया ॥५॥

तेमान्थी क्रियाशक्तिप्रधान सूत्र अने ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्त्वमां विकार थतां अहङ्कार व्यक्त थयो. आ अहङ्कार ज जीवोने मोहमां नाखनार छे ॥६॥

ते त्रण प्रकारनो छे-सात्त्विक, र ाजस अने तामस. अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय अने मन नुं कारण छे; तेथी ते जड-चेतन बन्ने रूप छे ॥७॥

तामस अहङ्कारथी क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल अने पृथ्वी नामनां पाञ्च भूत थयां. राजस अहङ्कार थी दश इन्द्रियो थई. सात्त्विक अहङ्कारथी मन अने दश इन्द्रियना दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमारो, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र, [[४५६]] ब्रह्मा अने चन्द्र एम अगियार देवो थया ॥८॥

में उत्पन्न करेला ए महदादि भावो एकठा थईने कार्य करवाने समर्थ थया. एमणे मारुं क्रीडा करवानुं स्थान उत्तम ब्रह्माण्ड उत्पन्न कर्युम् ॥९॥

ए अण्ड जलमां हतुं. तेमां हुं नारायणरूपे रह्यो. नाभिमान्थी विश्वकमळ थयुं. तेमां ब्रह्मा थया ॥१०॥

विश्वसमष्टिना अन्तःकरण ब्रह्माए पहेलां बहु तप कर्युं. त्यार पछी मारो कृपाप्रसाद प्राप्त करी रजोगुणद्वारा भूः, भुवः, स्वः अर्थात्‌ पृथ्वी, अन्तरिक्ष अने स्वर्ग आ त्रण लोकनी अने तेमना लोकपालोनी रचना करी ॥११॥

देवताओने रहेवामाटे स्वर्लोक, भूतप्रेत आदिने रहेवामाटे भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) अने मनुष्य वगेरेने माटे भूर्लोक (पृथ्वी) नुं निर्माण थयुं. आ त्रणेय लोकथी उपर महर्लोक, तपलोक वगेरे सिद्धोनां निवासस्थान थयाम् ॥१२॥

सृष्टिकार्यमां समर्थ ब्रह्माजीए असुर अने नागो ने माटे पृथ्वीनी नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताळ बनाव्यां. आ ज त्रणे लोकमां त्रिगुणात्मक कर्मो प्रमाणे विविध गतिओ प्राप्त थाय छे ॥१३॥

योगद्वारा महर्लोक, तपस्याद्वारा तपलोक, वानप्रस्थना फलरूप जनलोक अने सन्न्यासद्वारा सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त थाय छे. परन्तु मारा भक्तियोगथी तो मारुं उत्तम धाम मळे छे ॥१४॥

(वैराग्य थवामाटे कहे छे के मारी गति-मारी प्राप्ति-सिवायनी बधी गति ञ्चचल छे) आ समस्त जगत्‌ कर्मो अने तेमना संस्कारोथी युकत छे. कालरूपथी हुं ज कर्मो प्रमाणे तेमना फलनुं विधान करुं छुं. आ गुण प्रवाहमां पडेलो जीव कयारेक डूबी जाय छे अने कयारेक उपर आवी जाय छे-कयारेक पुण्यवशात्‌ सत्यलोक सुधीनी उच्च गति प्राप्त करे छे, तो कयारेक स्थावर सुधीनी नीच गति प्राप्त करे छे ॥१५॥

जगतमां नाना-मोटा, स्थूल-सूक्ष्म जेटला पदार्थ बने छे ते बधा प्रकृति अने पुरुष बन्नेना संयोगथी ज बने छे ॥१६॥

जे भावनुं जे आदिकारण छे अने जे एना लयनुं कारण छे ते ज एनी मध्यमां पण छे एने ज सत्य मानवुं, विकार सत्य नथी. (एमां दृष्टान्त कहे छे) हारनी पहेलां सोनुं हतुं अने हार गळावतां सोनुं ज रह्युं. मध्यमां हार, कडां, कुण्डल वगेरे आकृतिओ विकाररूप छे ते वाणीथी बोलवा मात्र छे, सुवर्ण सत्य छे. [[४५७]] पृथ्वीमान्थी घडो बने ते फूटे छे त्यारे पृथ्वी ज रहे छे. मध्यमां घडो, कोडियुं, कूञ्जो वगेरे विकारो व्यवहार मात्र छे तेम ब्रह्ममान्थी आ बधुं थाय छे, अन्तमां ब्रह्म अवशेष रहे छे तेथी व्यवहार मात्रमां उपयुकत विकार सत्य नथी पण ब्रह्म ज सत्य छे ॥१७॥

(जे भाव पदार्थ कार्यने उत्पन्न करे छे ते कार्यनो एमां लय थतां ए ज कारणरूपे रहे छे एम कहो तो महदादि अहङ्कारादि कार्योने उत्पन्न करे छे अने ए बधा विकारो प्रलयमां महदादिमां कार्योने उत्पन्न करे छे अने ए बधा विकालो महदादिमां लय पामे छे ते सत्य केम न कहेवाय? एना उत्तरमां कहेवानुं के) जेनाथी सर्वभावनी उत्पत्ति थाय तेम ज सर्व एमां ज लय थाय तेने सत्य कह्युं छे माटे महदादि सर्वनुं उपादान कारण नथी पण ए तो प्रकृतिनो विकार छे तेथी ए सत्य ठरतो नथी. (त्यां शङ्का थाय के त्यारे श्रुति ‘‘मृत्तिकेत्येव सत्यम्‌’’ एम केम मृतिकाने सत्य कहे छे? तो त्यां कहेवानुं के) ए दृष्टान्तने माटे छे. दृष्टान्त सर्वाङ्गसम्पूर्ण होतुं नथी. तेथी मृतिकानुं कारण पण बीजुं छे. तेथी ए पण परमार्थ सत्य नथी केमके एनो एना कारणमां लय थाय छे. तेथी जेनुं कोई कारण न होय अने जे सर्वनुं कारण होय, जे सर्वना अन्ते अवशिष्ट रहे तेवुं ब्रह्म एक ज छे अने ए ज सत्य छे ॥१८॥

(त्यां शङ्का थाय के काळ, प्रकृति, पुरुष ए तो नित्य छे तेने सत्य मानवां जोईए अने एम मानीए तो तमारुं अद्वय न रहे! त्यां कहे छे के) जे आ जगत्‌रूप कार्यना कारणरूप प्रकृति अने एनो आधार पुरुष अने काल ए त्रण पण ब्रह्मरूप छे ते ब्रह्म ज हुं छुं एटले अद्वैतमां बाध आवतो नथी ॥१९॥

केमके प्रकृति ए शक्ति छे, पुरुष अने काळब्रह्म नी अवस्था विशेषनां मात्र नामो छे. पितापुत्रनी परम्पराथी सर्ग प्रवृत्त थाय छे ते जीवना पुरुषार्थ सिद्ध करवाने माटे प्रवर्ते छे. ए ईश्वरनो सङ्कल्प छे त्यां सुधी परम्पराथी चाल्या करे छे ॥२०॥

आ विराट ज विविध लोकनी सृष्टि, स्थिति अने संहार नी लीलाभूमि छे. कालरूपथी ज्यारे हुं तेमां व्याप्त थाउं छुं, प्रलयनो सङ्कल्प करुं छुं त्यारे ते भुवनोनी साथे विनाशरूप विभागने माटे योग्य थई जाय छे ॥२१॥

(हवे एना प्रलयनो क्रम उत्पत्तिथी उलटा क्रमथी कहे छे के) जे अन्नथी मनुष्य शरीर उत्पन्न थाय छे ते अन्न सो वर्ष अनावृष्टि थवाथी उत्पन्न न थतां देह ए [[४५८]] अन्नमां लीन थाय छे, अन्न बीज मात्र बाकी रहे छे ते बीज पृथ्वीमां लीन थाय छे, पृथ्वी गन्धमां लीन थाय छे, कारण के सङ्कर्षणना मुखना अग्निथी ए भस्म थाय छे त्यारे ए गन्ध मात्र रही जाय छे ॥२२॥

पछी सो वर्ष वरसे छे. तेना जलमां गन्ध लीन थाय छे. अग्नि एनुं शोषण करे छे त्यारे जल रसरूपे रहे छे. ए रस अग्निमां लीन थाय छे. ए अग्निवायु साथे अथडावाथी रूपमात्र ज रहे छे ॥२३॥

ए रूप वायुमां लीन थाय छे. ए वायुने आकाशगळी जाय छे त्यारे स्पर्शमात्र रहे छे. ए आकाशमां मळे छे. आकाश अहङ्कारथी पराभूत थतां शब्दमात्र रहे छे, ज्यारे इन्द्रियो पोताना कारण देवताओमां अने छेवटे राजस अहङ्कारमां समाई जाय छे ॥२४॥

हे सौम्य! राजस अहङ्कार पोताना नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मनमां, शब्दतन्मात्रा पञ्चमहाभूतोना कारण तामस अहङ्कारमां अने समस्त जगतने मोहित करवामां समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्वमां लीन थई जाय छे एटले के ते जड अंशनो त्याग करी ज्ञानक्रियाशक्तिरूप थाय छे ॥२५॥

ज्ञान शक्ति अने क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व पोतानां कारण गुणोमां लीन थई जाय छे. गुण अव्यकत प्रकृतिमां अने प्रकृति पोताना प्रेरक अविनाशी कालमां लीन थई जायछे ॥२६॥

काल जीवमां लीन थाय छे. जीव अविद्या प्रधान छे त्यां सुधी ज कालनो वेग छे. जीव जन्मादि रहित मारा-परमात्मामां लीन थाय छे. आत्मा स्वस्वरूपे ज रहे छे; एने कोईमां लीन थवानुं होतुं नथी. ए कोईमान्थी थतो नथी, अजन्मा छे ए जगतनां उत्पत्ति अने प्रलय वडे जाणी शकाय छे. एनुं कोई कारण नथी. एनुं कारण मानतां अनवस्था दोष प्राप्त थाय तेथी ए सत्य वस्तु एक अद्वय नित्य छे ॥२७॥

जेम सूर्य उगतां आकाशमां अन्धकार रहेतो नथी तेम उपर प्रमाणे एक वस्तुमान्थी उत्पत्ति-लयने जोनारने द्वैतभ्रम स्थिर न थतां क्षणवारमां नाश पामे छे ॥२८॥

एष साङ्ख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रन्थिभेदनः ॥ प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया ॥२९॥

[[४५९]] हे उद्धवजी! हुं कार्य अने कारण बन्नेनोय यथार्थ द्रष्टा-सर्वज्ञ-छुं. में तमने सृष्टिथी प्रलय अने प्रलयथी सृष्टि सुधीनी साङ्ख्यविधि बतावी दीधी. आथी सन्देहनी गाण्ठ कपाई जाय छे अने पुरुष पोताना स्वरूपमां स्थित थई जाय छे ॥२९॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्तिप्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो ओगणीसमो अने चालु) ‘‘साङ्ख्यना ज्ञानवडे मोहनी निवृत्ति थाय छे’’ नामनो २४मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं.(श्रीहरिरायजी)

अध्याय २५

सत्त्वादि गुणनी वृत्तिओनुं वर्णन गुणानामसमिश्राणां पुमान्‌ येन यथा भवेत्‌ ॥ तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे पुरुषप्रवर उद्धवजी! प्रत्येक व्यक्तिमां अलगअलग गुणोनो प्रकाश थाय छे. तेने लीधे प्राणीओना स्वभावमां पण फरक पडी जाय छे. हवे हुं कया गुणथी केवो स्वभाव थाय छे ते बतावुं छुं, सावधानीथी साम्भळो ॥१॥

शम (मननो संयम), दम (इन्द्रियोनो निग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), तत्त्वविवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोनी अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करवामां स्वाभाविक सङ्कोच), आत्मरति, *दान, विनय अने सरलता वगेरे सत्त्वगुणनी वृत्तिओ छे ॥२॥

विशेष - सत्त्वगुणनी वृत्तिओमां ‘दया’ शब्द बे वखत आवे छे तेना बे अर्थ छे. १. बीजानुं

ईं उं ईं उं

[[४६०]] दुःख दूर करवानी इच्छा २. दान. (हवे रजोगुणनी वृत्तिओ कहे छे) विषयभोगनी अभिलाषा, व्यापार प्रवृत्तिपरायणता, दर्प, तृष्णा, अक्कडाई, देवताओनी धनादि वगेरे माटे प्रार्थना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्ध आदिने माटे मदजनित उत्साह, पोताना यशमां प्रेम, उपहास, वीर्य (पोताना प्रभावथी बीजाने आञ्जी नाखवानी वृत्ति), हठपूर्वक उद्योग करवो वगेरे रजोगुणनी वृत्तिओ छे ॥३॥

(हवे तमोगुणनी वृत्तिओ कहे छे) क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, खेद अथवा ग्लानि, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय अने अकर्मण्यता वगेरे तमोगुणनी वृत्तिओ छे ॥४॥

आ प्रमाणे क्रमथी सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण नी अधिकांश वृत्तिओनुं अलग-अलग वर्णन कर्युं. हवे तेमना मिश्रणथी थनारी वृत्तिओनुं वर्णन साम्भळो ॥५॥

हे उद्धवजी! ‘हुं’ अने ‘मारुं’ एवी वृत्तिथी व्यवहार जेनाथी थाय छे ते ‘मन’ विषयो, इन्द्रियो अने प्राण ना मळवाथी थाय छे तेने ‘सन्निपात’ कहे छे ॥६॥

पुरुष ज्यारे धर्म, अर्थ अने काम मां चित्त लगाडे छे त्यारे तेथी एने श्रद्धा, रति अने धन नी प्राप्ति थाय छे ए गुणोनुं मिश्रण ज छे ॥७॥

पुरुष प्रवृत्तिथी धर्ममां निष्ठा राखी घरनां अने धर्मनां कामो करे एनुं नाम गुणोनो सन्निपात (सन्निपात=मिश्रण.) ज कहेवाय ॥८॥

मानसिक शान्ति अने जितेन्द्रियता वगेरे गुणोथी सत्त्वगुणी पुरुषने, कामना आदिथी रजोगुणी पुरुषने अने क्रोध, हिंसा वगेरेथी तमोगुणी पुरुषने ओळखवा ॥९॥

पुरुष होय के स्त्री, ज्यारे ते निष्काम थई पोतानां नित्य नैमित्तिक कर्मोद्वारा मारी आराधना करे त्यारे तेने सत्त्वगुणी समजवा जोईए ॥१०॥

सकामभावथी पोतानां कर्मोद्वारा मारुं भजन-पूजन करनारो रजोगुणी छे अने जे पोतानो शत्रु मरी जाय अथवा एवा बीजा आशयथी मारुं भजन-पूजन करे तेने तमोगुणी समजवो ॥११॥

सत्त्व, रज अने तम आ त्रण गुणोनुं कारण जीवनुं चित्त छे. एमनी साथे मारे कंई सम्बन्ध नथी अथवा हुं बन्धातो नथी. आ ज गुणोद्वारा जीव शरीर अथवा [[४६१]] धन वगेरेमां आसक्त थई जई बन्धनमां पडी जाय छे ॥१२॥

सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल अने शान्त छे. ज्यारे ते रजोगुण अने तमोगुण ने दबावी दई वधे छे त्यारे मनुष्यने सुख, धर्म अने ज्ञान आदिनी प्राप्ति थाय छे ॥१३॥

रजोगुण भेदबुद्धिनुं कारण छे. आसक्ति अने प्रवृत्ति ए तेनो स्वभाव छे. ज्यारे तमोगुण अने सत्त्वगुण ने दबावी दई रजोगुण जोर पकडे छे त्यारे मनुष्य दुःख, कर्म, यश अने लक्ष्मी थी सम्पन्न थाय छे ॥१४॥

तमोगुणनुं स्वरूप अज्ञान छे. आळस अने बुद्धि नी मूढता तेनो स्वभाव छे. ज्यारे ते वधी जई सत्त्वगुण अने रजोगुण ने दबावी दे छे त्यारे प्राणी जातजातनी आशाओ करे छे, शोक-मोहमां पडी जाय छे, हिंसा करवा लागे छे अथवा निद्रा आळसने वश थई पड्यो रहे छे ॥१५॥

ज्यारे चित्त प्रसन्न होय, इन्द्रियो शान्त होय, देह रोगादिना भयथी रहित होय अने मनमां आसक्ति न होय त्यारे सत्त्वगुणनी वृद्धि समजवी. सत्त्वगुण मारी प्राप्तिनुं साधन छे ॥१६॥

ज्यारे काम करतां-करतां जीवनी बुद्धि ञ्चचल, ज्ञानेन्द्रियो, असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियो विकारवाळी, मन भ्रान्त अने शरीर अस्वस्थ थई जाय त्यारे समजी लेवुं के रजोगुण जोर पकडी रह्यो छे ॥१७॥

ज्यारे चित्त ज्ञानेन्द्रियो द्वारा शब्दादि विषयोने बराबर समजवामां असमर्थ थई जाय अने खिन्न थई जई लीन थवा लागे, मन सून-मून जेवुं थई जाय, अज्ञान अने विषाद वधी जाय त्यारे समजी लेवुं के तमोगुण जोर पकडी रह्यो छे ॥१८॥

हे उद्धवजी! सत्त्वगुण वधतां देवताओनुं, रजोगुण वधतां असुरोनुं अने तमोगुण वधतां राक्षसोनुं बळ वधी जाय छे. (वृत्तिओमां पण क्रमशः सत्त्वादि गुणोनी अधिक्ता थतां देवत्व, असुरत्व अने राक्षसत्व प्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोहनी प्रधानता थई जाय छे) ॥१९॥

सत्त्वगुणथी जाग्रत अवस्था, रजोगुणथी स्वपनावस्था अने तमोगुणथी सुषुप्ति अवस्था थाय छे, तुरीय (चोथुं) तत्त्व आत्मतत्त्व आ त्रणेय अवस्थाओमां सरखी रीते व्याप्त छे ते ज शुद्ध अने एक रस आत्मा छे ॥२०॥

[[४६२]] वेदोना अभ्यासमां तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुणद्वारा उत्तरोत्तर उपरना लोकमां जाय छे. तमोगुणथी जीवोने वृक्षादि पर्यन्त अधोगति प्राप्त थाय छे अने रजोगुणथी मनुष्य-शरीर मळेछे ॥२१॥

सत्त्वगुणनी वृद्धि थयेली होय तेवी अवस्थामां मृत्यु थतां स्वर्ग, रजोगुणनी वृद्धिने समये मृत्यु थतां मनुष्यलोक अने तमोगुण नी वृद्धि वखते मरे तेने नरक मळे छे, परन्तु अनन्य भक्तियोगथी जेओ मत्परायण छे तेवा निर्गुण भक्तो मने ज प्राप्त करे छे. (आ श्लोकमां सात्त्विक, राजस अने तामस जीवोने माटे लीन (मृत्यु पामेला) अथवा लय (मृत्यु) नो प्रयोग कर्यो छे ज्यारे ‘निर्गुण’नी साथे आवो कोई प्रयोग नथी ते एम बतावे छे के तेओ तो जीवनकाळ दरमियान पण मने प्राप्त करी शके छे) ॥२२॥

ज्यारे पोताना धर्मनुं आचरण मने समर्पित करी अथवा निष्काम भावथी करवामां आवे छे त्यारे ते सात्त्विक होय छे. जे कर्म करवामां कोई फलनी कामना होय छे ते राजसिक होय छे अने जे कर्ममां कोईनुं वेर लेवानो (सताववानो)के देखाव मात्र करवानो (दम्भनो) भाव होय छे ते तामसिक होय छे ॥२३॥

शुद्ध आत्मानुं ज्ञान सात्त्विक छे. तेने र्क्ता अने भोक्ता समजवो ते राजस ज्ञान छे अने तेने शरीर मानवुं ते सर्वथा तामसिक छे. आ त्रणे गुणथी विलक्षण परमेश्वर सम्बन्धी ज्ञान निर्गुण छे ॥२४॥

(तप, योग वगेरे माटे अनुकूळ होवाथी) वनमां रहेवुं ते सात्त्विक निवास छे. (प्रवृत्तिप्रधान होवाथी) गाममां रहेवुं ए राजस निवास छे अने (स्मृतिनो नाश करनार होवाथी) जुगारखानामां रहेवुं ते तामसिक छे. सर्वथी श्रेष्ठ मारा मन्दिरमां रहेवुं ते निर्गुण निवास छे ॥२५॥

फलासक्ति रहित कर्म करनार सात्त्विक, फलनी इच्छामां आन्धळो बनी कर्म करनार राजस, कर्तव्य-अकर्तव्य विचारथी शून्य थई कर्म करनार तामस अने मारामां निष्ठा राखी मारी प्रसन्नतामाटे ज कर्म करनार निर्गुण समजवो ॥२६॥

वेदान्तशास्त्रमां श्रद्धा सात्त्विक, कर्ममां श्रद्धा राजसी, अधर्ममां श्रद्धा तामसी अने मारी सेवामां श्रद्धा निर्गुणा समजवी ॥२७॥

शुद्ध, पथ्य अने वगर महेनते मेळवेल भोजन सात्त्विक, जीभने भावे तेवो अने स्वादनी दृष्टिथी युक्त खोराक राजस अने अपवित्र तथा दुःखदायी खोराक [[४६३]] तामस जाणवो ॥२८॥

आत्माथी मळतुं सुख सात्त्विक, विषयोथी मळतुं सुख राजस, मोह अने दीनता थी उत्पन्न थयेल सुख तामस, मारा ध्यान, सेवा, नमनथी मळेलुं सुख निर्गुण समजवुम् ॥२९॥

हे उद्धवजी! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काळ, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था (जागरण वगेरे), देव-मनुष्य-तिर्यगादि शरीर अने निष्ठा बधां त्रिगुणात्मक छे ॥३०॥

हे नररत्न! पुरुष अने प्रकृति ने आश्रित जेटला भावो छे ते बधा गुणमय छे पछी ते नेत्रादि इन्द्रियोथी अनुभवेला होय, शास्त्रोद्वारा लोकलोकान्तर सम्बन्धमां साम्भळवामां आव्या होय के बुद्धिद्वारा विचारवामां आव्या होय ॥३१॥

(उपर बतावेल त्रिगुणमय पदार्थ संसारनां कारणरूप छे ते जीती लेवाथी मोक्ष प्राप्त थाय छे ए दोढ श्लोकथी कहे छे) जीवने जेटली योनिओ अथवा गतिओ प्राप्त थाय छे ते बधी तेमना गुणो अने कर्मो प्रमाणे ज प्राप्त थाय छे. हे सौम्य! बधा ज गुणोनो सम्बन्ध चित्तनी साथे छे. (तेथी जीव तेमने अनायासे ज जीती शके छे) जे जीव तेमना उपर विजय मेळवी ले छे ते भक्तियोगद्वारा मारामां ज निष्ठावाळो थई जाय छे अने छेवटे मारा वास्तविक स्वरूपने जेने मोक्ष पण कहे छे तेने प्राप्त करे छे ॥३२॥

आ मनुष्य शरीर बहु ज दुर्लभ छे. आ ज शरीरथी तत्त्वज्ञान अने तेमां निष्ठारूप विज्ञाननी प्राप्ति शक्य छे तेथी ते मेळवीने बुद्धिमान पुरुषोए शब्दादि विषयोमान्नी आसक्तिने दूर करी मारी भक्ति करवी जोईए ॥३३॥

विचारशील पुरुषे खूब सावधानीथी सत्त्वगुणना सेवनथी रजोगुणने अने तमोगुणने जीती लेवा, इन्द्रियोने काबूमां करी लेवी अने मारा स्वरूपने समजी मारा भजनमां लागी जवुं जोईए. आसक्तिनो अंश मात्र कयांय रहेवा देवो नहि ॥३४॥

योग युक्तिथी चित्तनी वृत्तिओने शान्त करी निरपेक्षताद्वारा सत्त्वगुण उपर पण विजय प्राप्त करी ले. आ प्रमाणे गुणोथी मुक्त थई जई, जीव पोताना जीवभावनो त्याग करी दे छे अने मारी साथे एकरूप थई जाय छे ॥३५॥

जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः ॥ [[४६४]] मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत्‌ ॥३६॥

निरन्तर मारुं ध्यान करवाथी गुणना कार्यरूप संसारथी मुक्त थयेल जीव लिङ्ग शरीररूप उपाधिने छोडी दे छे; कारण के ए चित्तमान्थी उत्पन्न थती गुणोनी वृत्तिओने छोडी पूर्ण ब्रह्मना आनन्दथी स्वयं पूर्ण रहे छे. जे बहारना विषयभोग अने अन्तःकरण मां एना स्मरणने छोडीने पूर्ण थयो छे ते जीवतां ज मुक्त थाय एटले जीवन्मुक्त थाय छे ॥३६॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुक्ति’ प्रकरणनो वीसमो अने चालु) ‘‘सत्त्वादि गुणनी वृत्तिओनुं वर्णन’’ नामनो पचीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी पुष्टिमार्गी(?) मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय २६

दुष्टनो सङ्ग न करवो ए वात ऐलगीतथी कहे छे मल्लक्षणम्‌ ईमं कायं लब्ध्वा मद्‌धर्म आस्थितः ॥ आनन्दं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम्‌ ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - (पहेलां में कह्युं के विद्वान पुरुष सावधानीथी जितेन्द्रिय थई निःसङ्ग थई मारी भक्ति करे. एम न करे तो जीवन्मुक्तने पण सङ्ग दुर्वार (अनिवार्य) छे अने तो-तो अनर्थ थाय एवी आशङ्का करी समाधान करे छे के) आ मनुष्य देह ज मारी साक्षात्‌ प्राप्तिनुं एक मात्र साधन छे. ते प्राप्त करीने जे मनुष्य साचा प्रेमथी मारी श्रवणकीर्तन आदि भक्ति करे छे ते अन्तःकरणमां नियन्तारूपथी बिराजमान मने-आनन्दस्वरूप परमात्माने सारी रीते निःसाधन

ईं उं ईं उं

[[४६५]] होवा छतां प्राप्त करी ले छे ॥१॥

जीवोनी बधी योनिओ, बधी गतिओ त्रिगुणमयी छे. जीव ज्ञाननिष्ठाआत्म-साक्षात्कार-द्वारा तेमान्थी सदाने माटे मुक्त थई जाय छे. सत्त्व, रज वगेरे देखाता गुणो वास्तविक नथी, माया मात्र छे. ज्ञान थई गया पछी पुरुष एमनी वच्चे रहेवा छतां एमना द्वारा व्यवहार करतो होवा छतां ते तेमनाथी बन्धातो नथी तेमां आसक्त थतो नथी एनुं कारण ए छे के ते गुणोनी वास्तविक सत्ता ज नथी ॥२॥

साधारण लोकोए ए वातनुं ध्यान राखवुं जोईए के जे लोको विषयोना सेवन अने उदर पोषणमां ज रच्या-पच्या रहे छे ते असत्‌-दुष्ट पुरुषोनो सङ्ग कयारेय न करे, कारण के तेमने अनुसारनारा पुरुषनी दुर्दशा एक-एक अन्धने टेके-टेके चालनार बीजा अन्धना जेवी ज थाय छे. तेने तो घोर-अन्धकारक-नरक-मां जवुं पडे छे ॥३॥

हे उद्धवजी! पहेलां तो परम यशस्वी सम्राट इलानन्दन पुरूरवा उर्वशीना विरहथी अत्यन्त बेशुद्ध थई गयो हतो. पछी शोक दूर थतां तेने तीव्र वैराग्य थयो अने त्यारे तेणे आ गाथा गाई ॥४॥

(पुरूरवानी प्रथम मोह अवस्थाने बतावतां कहे छे) राजा पुरूरवा नग्न अवस्थामां पागलनी जेम पोतानो त्याग करी दई भागी जती उर्वशीनी पाछळ अत्यन्त विह्‌वळ थई जई दोडवा लाग्यो अने कहेवा लाग्यो, ‘‘हे देवी! निष्ठुर! थोडीवार थोभी जा, चाली न जा’’ ॥५॥

उर्वशीए तेनुं मनहरी लीधुं हतुं. तेने हजु तृप्ति थई नहोती. क्षुद्र विषयोना सेवनमां ए एटलो डूबी गयो हतो के अनेक वर्षोनी रात्रिओ कयारे आवी अने कयारे गई तेनुं पण तेने भान रह्युं नहि ॥६॥

ऐलगीत पुरूरवाए कह्युं - अरे! मारी मूढता तो जुओ. कामवासनाए मारा चित्तने केटलुं बधुं क्लुषित करी दीधुं! उर्वशीना कण्ठमां बाहु राखी बेसी रहेतां मारा आयुषनां केटला किम्मती वर्षो वेडफाई गयां! ओहो! विस्मृतिनी पण एक सीमा होय छे ॥७॥

अरेरे! उर्वशीमां लम्पट थई मोह पामेला एवा मारा आयुषनां घणा वर्षो तेणे लूण्टी लीधां. सूर्यना अस्त के उदय ने हुं जाणी न शकयो. घणा खेदनी वात छे के [[४६६]] घणां वर्षोना दिवसो उपर दिवसो वीतता गया अने मने खबर पण नपडी ॥८॥

मारा मनमां मोह एटलो बधो वधी गयो के जेणे नरदेव शिरोमणि चक्रवर्ती सम्राट एवा मने पुरूरवाने पण एक स्त्रीनुं रमकडुं बनावी दीधुं. ए पण एक आश्चर्य छे! ॥९॥

जुओ! हुं प्रजाने मर्यादामां राखनार सम्राट छुं. ते मने तथा मारा राजपाटने तणखलानी जेम तरछोडी दई जवा लागी अने हुं पागल थई नग्न निःसहाय रोतो ककळतो ते स्त्रीनी पाछळ दोडवा माण्ड्यो. अरर! आ पण कोई जीवन छे! ॥१०॥

हुं गधेडानी जेम लातो खाईने पण एक क्षुद्र स्त्रीनी पाछळ दोडतो रह्यो जेमां मारां ऐश्वर्य, प्रभाव, तेज, प्रताप सर्व नाश पाम्याम् ॥११॥

जेनुं मन स्त्रीए हरी लीधुं छे तेवा पुरुषने विद्या, तप, त्याग, शास्त्राभ्यास एकान्तसेवन अने मौन पण कांई श्रेयस्कर (लाभदायी) थई शक्तां नथी ॥१२॥

मने मारा ज हित-अहितनुं भान नथी छतां हुं मारी जातने घणो मोटो पण्डित मानुं छुं. मने मूर्खने धिक्कार छे के हुं चक्रवर्ती सम्राट होवा छतां गधेडा अने बेल नी जेम एक (तुच्छ) स्त्रीनी जाळमां फसायो ॥१३॥

वर्षो सुधी हुं उर्वशीना अधरनी मादक मदिरा पीतो रह्यो तो पण जेम घीनी गमे तेटली आहुतिओ आपवा छतां अग्नि तृप्त थतो नथी (पण वधे छे) तेम मारी कामवासना तृप्त न थई (पण वधती ज रही) ॥१४॥

(एम आठ श्लोकथी वैराग्य कहीने हवे दश श्लोकथी एनो विवेक कहे छे) पुरुषने जोईने जेनुं चित्त क्षुब्ध थाय छे तेवी पुंश्चली (व्यभिचारीणी स्त्री) ए जेनुं चित्त चोर्युं होय तेने बचावनार आत्मामां ज रमण करनार, जीवन्मुक्तोना स्वामी, इन्द्रियातीत, सर्वसमर्थ भगवान्‌ सिवाय बीजो कोई समर्थ नथी ॥१५॥

ते देवी उर्वशीए तो मने वैदिक सूक्तनां वचनोद्वारा समजाव्यो पण *हतो परन्तु मारी मति एटली मूढ बनी गई हती के मारा मननो ते भयङ्कर मोह तो पण मट्यो नहि. मारी इन्द्रियो मने वश नहोती पण हुं इन्द्रियोनो गुलाम बन्यो होवाथी ते समजवानुं मारे माटे अशकय हतुम् ॥१६॥

विशेष - उर्वशीए पुरूरवाने कह्युं हतुं के मारा विरहथी तमे दुःखी न थाओ. मोतने मळवा सामे न जाओ. अमङ्गल इन्द्रियोरूपी वरूओ तमारुं भक्षण करी जशे. स्त्रीओनी साथे सख्य होय ज नहि. तेमनां हृदय श्वानना हृदय जेवा होय छे. (श्रीभागवत प्रथम भाग नवम स्कन्ध [[४६७]] अध्याय १४ मां पुरूरवानी कथा आवे छे) (एम स्त्रीनो दोष बतावी हवे एमां तो मारो ज अपराध छे एनो अपराध नथी ए बतावे छे) मारा सरखा कामीपुरुषो उपर उर्वशीए महान उपकार कर्यो छे. जेम दोरडाने साप मानीने भय पामनारने दोरडुं एनुं कांई बूरुं करतुं नथी पण एनो मोह ज एने कलेश आपे छे तेम मारा मोहथी ज हुं दुःखी छुं एमां उर्वशीनो दोष नथी ॥१७॥

दुष्ट गन्धवाळो अपवित्र आ देह कयां अने प्रसन्नता वगेरे गुणो कयां! परन्तु अविद्याए मने स्त्रीदेहमां सुगन्ध वगेरे देखाड्यां. ए अध्यास मोहथी थयो एमां एनो दोष केम गणाय? ॥१८॥

वळी आ देहमां ममता पण मायाए करावेली छे. माता-पिताथी देह थाय छे तेथी एनी उपर सत्ता माता-पितानी गणाय. स्त्री आ देहनो उपभोग करे छे तेथी शुं ए स्त्रीनो गणाय? मालिक देहने पोषण आपे छे तेथी अन्न आपनारने देह गणाय, आ देह अग्निमां जाय छे तेथी ए एनो गणाय, अथवा बाळवामां न आवे तो गीध, कूतरां वगेरे एनो उपयोग करे तेथी ए शुं कूतरां, गीधडान्नो गणाय के? देह आत्मा के मित्रोने माटे गणीए तो एनो गणाय के शुं? एनो निश्चय करी शकातो नथी ॥१९॥

मळमूत्रथी भरेलुं आ शरीर अत्यन्त अपवित्र छे. एनो अन्त ए ज छे के पक्षीओ तेने खाई जई विष्टा करी दे ते सडी जतां तेमां कीडा पडी जाय अथवा बाळी नाखतां राखनो ढगलो थई जाय. आवा शरीर पर लोको मोहित थई जाय छे अने कहेवा लागे छे के ‘‘ओ हो! आ स्त्रीनुं मुखडुं केटलुं सुन्दर छे! नाक केटलुं सुघड छे अने मन्द-मन्द हास्य केटलुं मनोहर छे? ॥२०॥

आ शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेद, मज्जा अने हाडकांओनो ढगलो तथा मळमूत्र अने परुथी भरेलुं छे. आवा स्त्रीदेहमां राचनार अने विष्टाना कीडाओमां शो तफावत छे? ॥२१॥

तेथी पोतानुं हित समजनार विवेकी मनुष्ये स्त्रीओ अने स्त्रीलम्पट पुरुषोनो सङ्ग न करवो जोईए. विषय अने इन्द्रियो नो संयोग ज मनमां विकार उत्पन्न करे छे, नहि तो विकार माटे कोई अवकाश ज नथी ॥२२॥

जे वस्तु कयारेय देखी के साम्भळी नथी तेने माटे मनमां विकार थतो नथी. जे [[४६८]] लोको विषयोनी साथे इन्द्रियोनो संयोग थवा देता नथी तेमनुं मन पोतानी मेळे निश्चल थई शान्त थई जाय छे ॥२३॥

तेथी वाणी, कान, नेत्र, त्वचा, शिश्न अने मन वडे स्त्रीओ के स्त्रीलम्पटो नो सङ्ग कयारेय न करवो जोईए. मारा जेवा लोकोनी तो वात ज जवा दो, परन्तु मोटा-मोटा विद्वानोए पण पोतानी इन्द्रियो अने मन नो विश्वास न करवो जोईए ॥२४॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युंः राजराजेश्वर पुरूरवाना मनमां ज्यारे आ प्रमाणे उद्‌गार उठवा लाग्या, त्यारे तेणे उर्वशीना लोकनो त्याग करी दीधो. हवे ज्ञाननो उदय थई जवाथी तेनो मोह जतो रह्यो अने तेणे पोताना हृदयमां ज आत्मस्वरूपथी मारो साक्षात्कार करी लीधो अने ते शान्त भावमां स्थित थई गयो ॥२५॥

तेथी पुरूरवानी माफक बुद्धिमान पुरुषे कुसङ्ग छोडी दई सत्पुरुषोनो सङ्ग करवो जोईए. सन्तपुरुषो पोताना सदुपदेशथी संसारना मोहनो अने मननी आसक्तिनो नाश करे छे ॥२६॥

(सत्पुरुषोनां लक्षणो कहे छे) सन्तपुरुषोनां लक्षण ए छे के तेओ मारी प्राप्तिने ज परम पुरुषार्थ समजीने मारामां ज तेमनुं मन लगाडीने मारा सिवाय बीजी कोई वस्तुनी तेमने अपेक्षा ज होती नथी. तेमना चित्तमां शान्तिनो अगाध समुद्र लहेरातो होय छे तेथी रागद्वेषने तो तेमना जीवनमां स्थान ज नथी होतुं. तेओ सदा, सर्वदा सर्वत्र सर्वमां सर्वरूपे बिराजमान भगवान्‌नां ज दर्शन करे छे. तेमनामां अहङ्कारनो लेश पण होतो नथी तो पछी ममतानी तो वात ज कयां रही? तेओ ठण्डी-गरमी, सुख-दुःख वगेरे द्वन्द्वोमां एक रस रहे छे. तेओए सर्व विषयोनो त्याग करेलो होय छे ॥२७॥

हे परम भाग्यवान उद्धवजी! सन्तोना सौभाग्यनो महिमा कयां सुधी कहुं? तेमनी पासे सदा-सर्वदा मारी लीलाकथाओ थया करती होय छे. मनुष्योने माटे मारी लीला कथाओ परम हितकर छे; जे तेमनुं श्रवण करे छे तेमनां पापतापोने ते धोई नाखे छे ॥२८॥

जे लोको आदर अने श्रद्धा थी मारी लीलाकथाओनुं श्रवण, गान अने अनुमोदन करे छे तेओ मत्परायण थई जाय छे अने मारी अनन्य प्रेम मयी भक्ति [[४६९]] प्राप्त करे छे ॥२९॥

हे उद्धवजी! हुं अनन्त, अचिन्त्य, कल्याणमय गुण गणोनो आश्रय छुं. केवळ आनन्द, केवळ अनुभव अने विशुद्ध आत्मा ए ज मारुं स्वरूप छे. हुं साक्षात्‌ परब्रह्म छुं. जेने मारी भक्ति प्राप्त थई गई ते साधु-स्वकार्य साधकने माटे कंई पण मेळववुं बाकी रहेतुं नथी ॥३०॥

तेनी तो वात जवा दो जेणे ते सन्तपुरुषोनुं शरण ग्रहण करी लीधुं तेनी पण कर्मजडता, संसार-भय अने अज्ञान आदि सर्व निवृत्त थई जाय छे. जेणे अग्निदेवनो आश्रय लई लीधो तेने ठण्डी भय के अन्धकारनुं दुःख सतावी शकेखरुं? ॥३१॥

पाणीमां डूबता लोकोने माटे जेम मजबूत होडी बचावनार छे तेम आ घोर संसारसागरमां डूबता लोको माटे ब्रह्मने जाणनार अने शान्त सन्तपुरुषो एवा भगवान्‌ना भक्तो ज एक मात्र आश्रय छे ॥३२॥

जेवी रीते प्राणीओना प्राणनी रक्षा अन्नथी थाय छे, जेवी रीते दीन- दुःखियांओनो परम रक्षक हुं छुं, जेवी रीते मनुष्यने माटे परलोकमां धर्म ए ज एक मात्र पूञ्जी छे तेवी ज रीते संसारथी भयभीत लोकोमाटे सन्तजनो ज परम आश्रयछे ॥३३॥

जेवी रीते सूर्यनो आकाशमां उदय थाय छे त्यारे लोकोने ते जगत्‌ तथा पोताने जोवामाटे नेत्रदान करे छे तेवीज रीते सन्तपुरुषो पोताने तथा भगवान्‌ने जोवामाटे अन्तदृष्टि आपे छे. सन्त अनुग्रह शील देवता, हितैषी, सुहृद(मित्र) अने प्रियतम आत्मा छे. सन्तना रूपमां स्वयं हुञ्ज विद्यमान छुम् ॥३४॥

वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिस्पृहः ॥ मुक्तसङ्गो महीमेतामात्मारामश्चचार ह ॥३५॥

हे प्रिय उद्धवजी! आत्मसाक्षात्कार थतां ज सुद्युम्नना पुत्र (इलानन्दन) *पुरूरवाने उर्वशीना लोकनी इच्छा न रही. तेनी तमाम आसक्तिओ मटी गई अने ते आत्मामां रमण करतो सर्व सङ्ग छोडीने स्वच्छन्दरूपथी आ पृथ्वी पर फरवा लाग्यो ॥३५॥

विशेष - ‘वैतसेनः’ - (श्रीभागवत स्कन्ध ९, अध्याय-१)वैवस्वत मनुना पुत्र सुद्युम्ने उमा देवीना (श्रीपार्वतीजीना) वनमां प्रवेश करतां सेना सहित ते बधां स्त्री थई गयां. चन्द्रना [[४७०]] पुत्र बुधे तेनी साथे लग्न कर्यां. तेना पुत्र पुरूरवा. ‘‘वीता स्त्री भावं प्राप्ता सेना यस्य स वीतसेनः तस्य पुत्रः वैतसेनः’’ इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो एकवीसमो अने चालु) ‘‘दुष्टनो सङ्ग न करवो ए वाद ऐलगीतथी कहे छे’’ नामनो छव्वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु (श्रोता) अहि (नाग=कथाकार) मणि (भागवत)अजवाळे, त्यम तें उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे

अध्याय २७

चित्तने प्रसन्न करनार क्रियायोगनुं वर्णन

विशेष - तत्काल चित्तमां प्रसन्न करनार सर्व कामना पूर्ण करनार क्रियायोगने अङ्गसहित आ सत्तावीसमा अध्यायमां सङ्क्षेपथी कहे छे. क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो ॥ यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ ॥१॥

उद्धवजी बोल्या - हे भकतवत्सल प्रभो! आपना श्रेष्ठ भकतो जे साधन समुदायथी भकतना पालक एवा आपने आराधे छे ते आपना आराधनरूप क्रियायोगने सारी रीते समजाय एम आप कहो ॥१॥

भगवान्‌ नारदजी, व्यासजी अने देव ना आचार्य बृहस्पति आपनुं आराधन श्रेय करनार छे एम वारंवार कहे छे ॥२॥

केवळ मुनिओ ज कहे छे एम नथी पण आपना श्रीमुखथी साम्भळीने ब्रह्माजीए पोताना पुत्रो भृगु वगेरे महर्षिओने ए क्रियायोग कह्यो छे तेमज शिवजीए पार्वतीजीने ए क्रियायोग कह्यो छे ॥३॥

हे मर्यादारक्षक प्रभो! आ क्रियायोग ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णो अने

ईं उं ईं उं

[[४७१]] ब्रह्मचारी, गृहस्थ आदि आश्रमोने माटे पण परम कल्याणकारक छे. हुं तो एम समजुं छुं के स्त्री, शूद्र वगेरेने माटे पण ए ज सर्वश्रेष्ठ साधनापद्धति छे ॥४॥

हे कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरोना पण ईश्वर छो अने हुं आपना चरणोनो प्रेमी भकत छुं. आप कृपा करीने मने आ कर्मबन्धनथी मुकत करनारी विधि बतावो ॥५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धवजी! कर्मकाण्डनो विस्तार एटलो विशाळ छे के एनी कोई सीमा ज नथी तेथी हुं सङ्क्षेपमां ज पूर्वापर क्रमथी विधिपूर्वक वर्णन करुं छुं ॥६॥

मारी पूजानी विधि त्रण छे-वैदिक, तान्त्रिक अने मिश्रित. आ त्रणमान्थी मारा भकते जे पोताने अनुकूळ आवे ते ज विधिथी मारी आराधना करवी जोईए ॥७॥

पहेलां पोताना अधिकार प्रमाणे शास्त्रोकत विधिथी योग्य समये यज्ञोपवीत संस्कारद्वारा संस्कृत थई द्विजत्व प्राप्त करे. पछी श्रद्धा अने भक्तिसहित केवी रीते मारी पूजा करवी तेनी विधि मारी पासेथी साम्भळो ॥८॥

भकितपूर्वक निष्कपट भावथी (कोई पण फलनी आशा राख्या विना) पोताना पिता अने गुरुरूप मारी परमात्मानी पूजानी सामग्रीद्वारा मूर्तिमां, वेदीमां, अग्निमां, सूर्यमां, जलमां, हृदयमां के ब्राह्मणमां कोईमां पण मारी आराधना करे ॥९॥

उपासके प्रातःकाल दन्तधावन (दातण) करी शरीरशुद्धिने माटे स्नान करवुं जोईए अने पछी वैदिक तथा तान्त्रिक मन्त्रोना उच्चारपूर्वक माटी के गाय ना गोबरनो शरीरे लेप करी फरीथी स्नान करवुम् ॥१०॥

त्यारबाद वेदोकत सन्ध्यावन्दन आदि नित्यकर्म करवां जोईए. पछी मारी आराधनानो ज दृढ सङ्कल्प करी वैदिक अने तान्त्रिक विधिओथी कर्मबन्धनोथी छोडावनारी मारी पूजा करे ॥११॥

पथ्थरनी, काष्ठनी, धातुनी, माटी अने चन्दन आदिनी, चित्रमयी, वालुकामयी, मनोमयी अने मणिमयी एम आठ प्रकारनी मारी मूर्ति होय छे ॥१२॥

मनोमयी प्रतिमा सिवायनी सात प्रकारनी प्रतिमा चल अने अचल एम बे प्रकारनी छे. मनोमयी प्रतिमानुं मन्दिर हृदय छे. अचल प्रतिमाना पूजनमां [[४७२]] प्रतिदिन आवाहन अने विसर्जन न करवुं जोईए. (मूर्तिनी प्राण प्रतिष्ठानी विधि वखते नित्य स्थायी स्वरूपे ज तेमां प्रभु पधारे छे) ॥१३॥

चल प्रतिमाना सम्बन्धमां विकल्प छे. इच्छामां आवे तो करे अथवा न करे. परन्तु वालुकामयी प्रतिमामां तो आवाहन तथा विसर्जन प्रतिदिन करवुं ज जोईए. माटी अने चन्दन नी तथा चित्रमयी प्रतिमाओने स्नान न करावे, मात्र मार्जन करे; परन्तु बीजी बधी प्रतिमाओने स्नान कराववुं जोईए ॥१४॥

प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थोथी प्रतिमा आदिमा मारी पूजा करवामां आवे छे परन्तु जे निष्काम भकत छे ते अनायासे प्राप्त पदार्थोथी अने भावना मात्रथीज हृदयमां मारी पूजा करीले ॥१५॥

हे उद्धवजी! स्नान, वस्त्र,आभूषण आदि तो पाषाण के धातु नी प्रतिमाना पूजनमां ज उपयोगी छे. वालुकामयी मूर्ति के माटी नी वेदीमां पूजा करवी होय तो तेमां मन्त्रोद्वारा अङ्ग अने तेना प्रधान देवताओनी यथास्थान पूजा करवी जोईए. अग्निमां पूजा करवी होय तो घृतमिश्रित हवन सामग्रीओथी आहुति आपवी जोईए ॥१६॥

सूर्यने प्रतीक मानी कराती उपासनामां मुख्यत्वे अर्घ्यदान अने उपस्थानज प्रिय छे तथा जलमां तर्पण आदिथी मारी उपासना करवी जोईए. ज्यारे कोई भकत मने हार्दिक श्रद्धाथी मात्र जल चढावे छे त्यारे हुं ते अत्यन्त प्रेमथी स्वीकारुं छुम् ॥१७॥

जो कोई अभकत मारामां प्रीति वगर मने ढगलाबन्ध सामग्री निवेदन करे तो पण तेनाथी मने सन्तोष थतो नथी. भक्ति श्रद्धापूर्वक समर्पित मात्र जलथी ज ज्यारे हुं प्रसन्न थई जाउं छुं त्यारे गन्ध, पुष्प, धूप, दीप अने नैवेद्य आदि वस्तुओना समर्पणथी तो कहेवुं ज शुं? ॥१८॥

उपासक पहेलां पूजानी सामग्री एकठी करे, पछी कुश ए प्रमाणे बिछावे के तेमना आगला भाग पूर्वनी तरफ रहे. पछी पूर्व या उत्तर तरफ मुख राखी पवित्रताथी ते कुशोना आसन उपर बेसी जाय. प्रतिमा जो अचल होय तो तेनी सामे ज बेसवु जोईए. त्यारबाद पूजा कार्य प्रारम्भ करे ॥१९॥

पहेलां विधिपूर्वक अङ्गन्यास अने करन्यास करी ले. त्यारबाद मूर्तिमां मन्त्रन्यास करे अने हा’’ी प्रतिमा उपरथी पूर्वसमर्पित सामग्री दूर करी दई तेने [[४७३]] पोञ्छी दे. त्यारबाद जलथी भरेल कलश अने प्रोक्षण पात्र आदिनी पूजा गन्धपुष्प आदिथी करे ॥२०॥

प्रोक्षण पात्रना जलथी पूजा सामग्री अने पोताना शरीरनुं प्रोक्षण करी ले. त्यारबाद पाद्य, अर्घ्य अने आचमनने माटे त्रण पात्रोमां कलशमान्थी जल भरी राखी ले अने तेमां पूजापद्धति प्रमाणे सामग्री मूके* ॥२१॥

विशेष - पाद्ये श्यामाक-दूर्वाब्ज-विष्णुक्रान्तादिरिष्यते। गन्ध-पुष्पाक्षत-यवकुशाग्र-तिल-सर्षपाः। दुर्वा चेति क्रमाददृर्य-द्रव्याष्टकमुदीरितम्‌। जातो लवङ्गकङ्कोलैर्‌ मतमाचमनीयकम्‌।. पाद्यपात्रमां साम्बाना दाणा, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता अने चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्रमां सुगन्धी द्रव्यो, पुष्प, अक्षत, जव, कुश, तल, सरसव अने दूब तथा आचमनपात्रमां जायफळ, लविङ्ग, कङ्कोल वगेरे मूके. त्यार पछी पूजा करनाराए त्रणेय पात्रोमां क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र अने शिखामन्त्र थी अभिमन्त्रित करी अन्तमां गायत्रीमन्त्रथी त्रणेयने अभिमन्त्रित करे ॥२२॥

(देहनो संस्कार कहे छे के) पछी प्राणायामथी वायुना शोषणद्वारा, मूलाधारमां रहेला अग्निथी दहनद्वारा तथा ललाटमां रहेला चन्द्रमण्डलना अमृतथी देहने तरबोळ करवाथी शरीर अमृतमय करी दई हृदयकमलमां, जीव अंश छे जेनो एवी मारी सूक्ष्ममूर्तिनुं ध्यान करवुं. मोटा-मोटा सिद्ध ऋषिमुनिओ ॐकारना अकार, उकार, मकार, बिन्दु अने अनुकरणनात्मक नाद आ पाञ्च कलाओने अन्ते ते ज सूक्ष्ममूर्तिनुं ध्यान करे छे ॥२३॥

ते जीवकला आत्मस्वरूप छे. ज्यारे तेना तेजथी समग्र अन्तःकरण तथा शरीर पूर्ण थई जाय, त्यारे मानसिक उपचारोथी तेनी मानसी पूजा करवी जोईए. त्यारबाद तन्मय थई मारुं आवाहन करे अने प्रतिमा आदिमां स्थापना करे. पछी मन्त्रोद्वारा अङ्गन्यास करी तेमां मारी पूजा करे ॥२४॥

हे उद्धवजी! मारा आसनमां धर्म, ज्ञान, वैराग्य अने ऐश्वर्य रूपी चार धर्मोना पाया छे. अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य अने अनैश्वर्य आ चार दिशाओमां दण्डा छे. दिव्य सत्त्व, रज अने तमरूपी त्रण पाटियानुं आसन छे. तेना उपर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्‌वी, सत्या, ईशाना अने अनुग्रहा आ नव शक्तिओ बिराजमान छे. ए आसन उपर एक अष्टदल कमल छे तेनी कर्णिका [[४७४]] अत्यन्त प्रकाशमान छे अने पीळां-पीळां केसरोनी छटा अनोखी छे. आसनना सम्बन्धमां आवी भावना करी पाद्य, आचमनीय अने अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे. पछी भोग अने मोक्ष नी सिद्धिने माटे वैदिक अने तान्त्रिक विधिथी मारी पूजा करे ॥२५-२६॥

सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, नन्दक तलवार, बाण, शांर्ग धनुष, हल, सुनन्द मुसळ आ आठ आयुधोनी पूजा आठ दिशाओमां करे अने कौस्तुभमणि, वैजयन्ती माला तथा श्रीवत्सचिह्‌ननी वक्षःस्थल पर यथास्थान पूजा करे ॥२७॥

नन्द, सुनन्द, प्रञ्चड, ञ्चड, महाबल, बल, कुमुद अने कुमुदेक्षण-आ आठ पार्षदोनी आठ दिशाओमां, गरुडनी सामे; दुर्गा, विनायक, व्यास अने विश्वक्‌सेननी चारे खूणाओमां स्थापना करी पूजन करे. डाबी तरफ गुरुनी अने क्रम प्रमाणे पूर्वादि दिशाओमां इन्द्र वगेरे आठ लोकपालोनी स्थापना करी प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमथी पूजा करवी जोईए ॥२८-२९॥

शक्ति होय तो दररोज चन्दन, खस, कपूर , केसर अने अरगजा आदि सुगन्धी वस्तुओ द्वारा सुवासित जलथी मने स्नान करावे अने ते वखते ‘सुवर्ण धर्म’ इत्यादि स्वर्ण धर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुष’ इत्यादि पुरुषसूकत अने ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोकत राजनादि साम गायननो पाठ पण करतो रहे ॥३०-३१॥

मारो भकत वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध अने चन्दन आदिथी प्रेमपूर्वक यथावत्‌ मने शृङ्गार धरावे ॥३२॥

उपासक श्रद्धासहित मने पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप वगेरे सामग्री समर्पित करे ॥३३॥

शक्य होय तो गोळ, खीर (दूधपाक), घी, पूरी, मालपूआ, लाडु, हलवो, दर्ही अने दाळ वगेरे विविध व्यञ्जनो रूपे नैवेद धरे ॥३४॥

भगवान्‌ना विग्रह (श्रीअङ्ग) ने दातण करावे, उबटन लगावे, पञ्चामृत आदिथी स्नान करावे, सुगन्धी पदार्थोनो लेप करे, दर्पण देखाडे, भोग धरे अने शक्ति होय तो रोज, न होय तो पर्वना अवसरो पर, नृत्य-गीत आदिनुं पण आयोजन करे ॥३५॥

[[४७५]] वधारे फलनी आशावाळाए शास्त्रोकत विधिथी बनावेल कुण्डमां अग्निनी स्थापना करवी. ते कुण्ड मेखला, गर्त अने वेदीथी शोभायमान होय. तेमां हाथनी हवाथी अग्नि प्रज्वलित करी तेने सङ्कोरे ॥३६॥

वेदीनी चारे तरफ कुशकण्डिका करी अर्थात्‌ चारे तरफ वीस-वीस कुश बिछावी मन्त्र पढतां-पढतां तेना उपर जलनो छण्टकाव करे. त्यारबाद विधिपूर्वक समिधाओना आधान रूप अन्वाधान कर्म करी अग्निना उत्तर भागमां होमने उपयोगी सामग्री राखे अने प्रोक्षणी पात्रना जलथी प्रोक्षण करे. पछी अग्निमां आ प्रमाणे मारुं ध्यान करे ॥३७॥

‘‘मारी मूर्ति तपावेल सोना जेवी झळहळी रही छे, रोम-रोमथी शान्तिनी वर्षा थई रही छे. लाम्बी अने विशाळ चार भुजाओ शोभायमान छे. तेमां शङ्ख चक्र गदा पद्म बिराजमान छे. कमळना केसर जेवुं पीळुं वस्त्र फरफरी रह्युं छे ॥३८॥

माथा पर मुगट, काण्डाओमां कडां, कमरमां कन्दोरो, बांहोमां बाजुबन्ध झळहळी रह्यां छे. वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनुं चिह्‌न छे, गळामां कौस्तुभमणि शोभी रह्यो छे, घूण्टणो सुधी वनमाला लटकी रही छे’’ ॥३९॥

अग्निमां मारी आ मूर्तिनुं ध्यान करी पूजा करवी जोईए. त्यार पछी सूकी समिधाओने घीमां झबोळी आहुति दे अने आज्यभाग अने आधार नामनी बब्बे आहुतिओथी वधारानो हवन पण करे. पछी घीमां र्भीजवी बीजी हवन समाग्रीओथी आहुति आपे ॥४०॥

त्यार पछी पोताना इष्ट मन्त्रथी अथवा नारायणाष्टाक्षर मन्त्रथी तथा पुरुषसूकतना सोळ मन्त्रोथी हवन करे. बुद्धिमान पुरुष धर्मादिदेवोने माटे पण विधिपूर्वक मन्त्रोथी हवन करे अने स्विष्टकृत आहुति पण आपे ॥४१॥

आ प्रमाणे अग्निमां अन्तर्यामीरूपथी बिराजमान भगवान्‌नी पूजा करी मने नमस्कार करे अने नन्द, सुनन्द आदि पार्षदोने आठेय दिशाओमां हवनकर्माङ्ग बलि अर्पण करे. त्यार पछी प्रतिमानी सन्मुख बेसी, परब्रह्म स्वरूप भगवान्‌ नारायणनुं स्मरण करवुं ए भगवत्‌ स्वरूप मूलमन्त्रनो जप करे ॥४२॥

पछी भगवान्‌ने आचमन करावे अने प्रसाद विश्वक्‌सेन नामना पार्षदने निवेदन करे. पछी इष्टदेवनी सेवामां सुगन्धी ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥४३॥

[[४७६]] मारी लीलाओनुं गान करे तेमनुं वर्णन करे अने तेमनो ज अभिनय करे. आ बधुं करती वखते प्रेमोन्मत्त थई जई नाचवा लागे. मारी लीलाकथाओ पोते साम्भळे अने बीजाओने सम्भळावे. घडीभर संसार अने तेना तापोने भूली जई मारामां ज तन्मय थई जाय ॥४४॥

प्राचीन ऋषिओद्वारा वेदो पुराणोमां आवेल स्तवनो द्वारा के स्थानिक भाषामां भकतोद्वारा रचेला नाना-मोटा स्तवन अने स्तोत्रो थी मारी स्तुति करी प्रार्थना करे, ‘‘हे भगवन्‌! आप मारा उपर प्रसन्न थाओ. मने आपना कृपा प्रसादथी तरबोळ करी दो’’ पछी दण्डवत्‌ प्रणाम करे ॥४५॥

पोतानुं मस्तक मारा चरणो पर राखी दे अने पोताना बन्ने हाथोथी मारा बन्ने चरण (जमणा हाथथी जमणुं चरण अने डाबा हाथथी मारुं डाबुं चरण) पकडी विनन्ती करे, ‘‘हे भगवन्‌! आ संसारसागरमां हुं डूबी रह्यो छुं. मृत्युरूप मगरे मारो पीछो पकड्यो छे. भयभीत थई हुं आपने शरणे आव्यो छुं. हे प्रभो! आप मारी रक्षा करो’’ ॥४६॥

आ प्रमाणे स्तुति करी मने समर्पण करेली माला आदरपूर्वक पोताना मस्तक पर राखे अने तेने मारो आपेल प्रसाद समजे. जो विसर्जन करवुं होय तो एवी भावना करवी जोईए के प्रतिमामान्थी एक दिव्य ज्योति नीकळी छे अने ते मारा हृदयमां रहेल ज्योतिमां लीन थई गई छे. बस, आज विर्सजन छे ॥४७॥

हे उद्धवजी! प्रतिमा आदिमां ज्यारे ज्यां श्रद्धा होयत्यारे त्यां मारी पूजा करवी जोईए कारण के हुं सर्वात्म छुं अने समस्त प्राणीओमां तथा पोताना हृदयमां पण बिराजुं छुम् ॥४८॥

हे उद्धवजी! आ प्रमाणे जे मनुष्य वैदिक, तान्त्रिक क्रियायोग द्वारा मारी पूजा करे छे ते आ लोक अने परलोक मां मारी पासेथी इच्छित सिद्धि प्राप्त करे छे ॥४९॥

जो पैसाथी सम्पन्न होय तो भगवान्‌ने बिराजवाने माटे दृढ मन्दिर बन्धावे. एमां मारी मूर्तिनुं स्थापन करे. एने माटे पुष्पप्रधान बगीचा करावे. एमां प्रतिदिन पूजा करे तेमज उत्सव विशेषमां यात्रा वगेरेना प्रकारो सम्पादन करी महोत्सवो वगेरेनी व्यवस्था करे ॥५०॥

(एम करनारने फळ थाय छे ते बतावे छे) ए मन्दिरमां नित्य पूजा अने [[४७७]] पर्वोना उत्सवो, यात्राओ वगेरेना कायमना निर्वाहने माटे खेतर, दुकानो, गामो, शहेरो वगेरे आपनार मारा समान ऐश्वर्यने प्राप्त करे छे ॥५१॥

मन्दिरमां देवनी प्रतिष्ठा करनारो चक्रवर्ती राजा थाय छे. मन्दिर बन्धावनार त्रण लोकनो पति थाय छे. पूजा वगेरे करनारो ब्रह्मलोकमां जाय छे. मन्दिर करे, मूर्तिनी प्रतिष्ठा करे तेमज पूजा पण करे एम त्रणे सेवा एक ज साधक करे तो ए मारा समान वैभववाळो थाय छे ॥५२॥

फळनी आकाङ्क्षा छोडी मने एवी रीते भजे छे ते भक्तियोगने प्राप्त करे छे, ने भक्तियोगवडे मने ए प्राप्त करी शके छे ॥५३॥

(एम दान करनारना फळने कहीने हवे कोईए आपेली वृत्तिओने हरनारना फळने कहे छे) ब्राह्मण अने देवने पोते के बीजाए आपेली वृत्तिने जे पाछी लई ले छे ते करोडो वर्षो सुधी विष्ठानो कीडो थाय छे ॥५४॥

कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च ॥ कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम्‌ ॥५५॥

दान देनार अने पाछुं खेञ्चनारने ज फळ थाय छे एम नहि पण दान करनार, एमां एने सहाय आपनार, दान देवामां प्रेरणा आपनार तथा आपेला दानने अनुमोदन आपनारने पण ए कर्ताना जेवुं ज फळ एना मरण पछी मळे छे. दान पाछुं लेनारनी बाबतमां अनिष्ट फळ पण एटलाने ज थाय छे एम समजवुं. जो आवो हिस्सो अधिक होय तो फल पण अधिक मळे छे ॥५५॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेला जीवमुकित प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुकित’ प्रकरणनो बावीसमो अने चालु) ‘‘चित्तने प्रसन्न करनार क्रियायोगनुं वर्णन’’ नामनो २७मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)

ईं उं ईं उं

[[४७८]]

अध्याय २८

भगवाने टूङ्कमां कहेलो ज्ञानयोग

विशेष - जे ज्ञानयोग विस्तारथी कह्यो छे ते ज ज्ञानयोगने आ २८मा अध्यायमां सङ्क्षेपमां भगवान्‌ उद्धवजीने कहे छे. परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्‌ ॥ विश्वमेकात्मकं पश्यन्‌ प्रकृत्या पुरुषेण च ॥१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - (आगला अध्यायमां दाता, प्रेरक, अनुमोदन आपनार वगेरेनी प्रशंसा करवानी तथा ब्राह्मणनी आजीविका झूण्टवी लेनार वगेरेनी निन्दा करवानी, प्रबळ इच्छा थई आवे तेनी सामे भगवान्‌ चेतवणी आपे छे के) हे उद्धवजी! जो के व्यवहारमां पुरुष अने प्रकृति द्रष्टा अने दृश्यना भेदथी बे प्रकारनुं जगत्‌ देखाय छे तो पण परमार्थ दृष्टिथी एकात्मकभगवत्स्वरूप ज छे तेथी कोईनो शान्त, घोर अने मूढ स्वभाव तथा ते अनुसार करवामां आवता कर्मोनी स्तुति के निन्दा करवी जोईए नहि. सर्वदा अद्वैतदृष्टि राखवी जोईए ॥१॥

जे पुरुष बीजाना स्वभाव अने तेमनां कर्मोनी प्रशंसा के निन्दा करे छे ते तत्काल पोताना यथार्थ परमार्थ साधनथी भ्रष्ट थई जाय छे, कारण के साधन तो द्वैतना अभिनिवेश ते सत्य छे एवी बुद्धिनो निषेध करे छे अने प्रशंसा तथा निन्दा तेनी सत्यताना भ्रमने विशेष करीने दृढ करे छे ॥२॥

हे उद्धवजी! बधी इन्द्रियो राजस अहङ्कारनां कार्य छे. ज्यारे ते निद्रित थई जाय छे, त्यारे शरीरनो अभिमानी जीव चेतनाशून्य थई जाय छे एटले के तेने बहारना शरीरनी स्मृति रहेती नथी. ते वखते जो मन बची रह्युं होय तो ते सपनानां असत्य दृश्योमां भटकवा लागे छे अने ते पण जो लीन थई गयुं होय तो-तो जीवने मृत्यु समान गाढ निद्रा-सुषुप्तिमां लीन थई जाय छे. तेवी ज रीते ज्यारे जीव पोताना अद्वितीय आत्मा स्वरूपने भूली जई जुदी-जुदी वस्तुओ जोवा लागे छे त्यारे ते सपना समान असत्य दृश्योमां फसाई जाय छे के मृत्यु जेवा अज्ञानमां लीन थई जाय छे ॥३॥

(सर्व जगत भगवद्रूप होवाथी भगवान्‌ सिवाय बीजो कोई पदार्थ सत्य न होवाथी भगवत्स्वरूपमां आ सारुं अने आ खराब एम कही ज न शकाय ए छ [[४७९]] श्लोकोथी समजावे छे) हे उद्धवजी! ज्यारे द्वैत नामनी कोई वस्तु ज नथी, त्यारे तेमां अमुक खराब अथवा आटली सारी छे अने आटली खराब ए प्रश्न ज ऊभो थतो नथी. विश्वनी बधी वस्तुओ वाणीथी कही शकाय छे अथवा मनथी विचारी शकाय छे ते बधी आत्माने बाद करो तो असत्य ज छे ॥४॥

प्रतिबिम्ब, पडछायो, पडघो अने छीपमां देखाता रूपा वगेरेनो आभास तद्‌दन मिथ्या छे तो पण ते द्वारा मनुष्यना हृदयमां भय, कम्प वगेरेनो सञ्चार थई जाय छे तेवी ज रीते देहादि बधी वस्तुओ सर्वथा असत्य ज छे, परन्तु ज्यां सुधी ज्ञानद्वारा तेनी असत्यतानुं ज्ञान थई जतुं नथी त्यां सुधी ए पण अज्ञानीओने भयभीत करतां रहे छे ॥५॥

हे उद्धवजी! जे कंई प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु छे ते प्रभु ज छे. ‘प्रभुः’ एटले ‘‘प्रकर्षेण भवति’’ ते सर्वशक्तिमान होवाथी सर्वरूप थाय छे. जे कंई विश्वसृष्टि देखाय छे तेनुं ते निमित्त कारण तो छे ज. तेनुं उपादान कारण पण ते ज छे; एटले के ते ज विश्व बने छे अने ते ज बनावे पण छे; ते ज रक्षक छे अने रक्षित पण ते ज छे. सर्वात्मा भगवान्‌ ज आनो संहार करे छे अने जेनो संहार थाय छे ते पण ते ज छे ॥६॥

व्यवहार दृष्टिथी जोतां आत्मा अवश्य आ विश्वथी भिन्न छे, परन्तुं आत्मदृष्टिथी ते सिवाय बीजी कोई वस्तु छे ज नहि. ते सिवाय जे कंई प्रतीत थई रह्युं छे तेनुं कोई पण रीते निर्वचन करी शकातुं नथी अने अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ज छे तेथी आत्मामां देह-इन्द्रिय-अन्तःकरणरूप प्रतीति भ्रान्तिरूप ज छे, न होवा छतां एम ज जणाय छे एम विवेकी पुरुषोए निरूपण कर्युं छे. आ ‘‘सत्त्व, रज अने तम’’ ने लीधे जणाती द्रष्टा-दर्शन दृश्य वगेरेनी त्रिविधता भगवत्स्वरूपने ढाङ्की देनार अविद्यारूप मायानो खेल छे ॥७-८॥

हे उद्धवजी! में तमारी आगळ शास्त्रोत्थ ज्ञान अने अनुभवथी नीपजता विज्ञाननी उत्तम स्थितिनुं वर्णन करी बताव्युं. जे पुरुष मारां आ वचनोनुं रहस्य जाणी ले छे ते कोईनी प्रशंसा के निन्दा करतो नथी. सूर्य जेम पवित्र के अपवित्र वस्तुपर पडवाथी पवित्र के अपवित्र थई जतो नथी तेम ते पुरुष आ जगतमां समभावथी विचरतो रहे छे ॥९॥

(आ उत्तम स्थिति प्राप्त करवानो उपाय बतावे छे के) प्रत्यक्ष, अनुमान, [[४८०]] शास्त्र अने आत्माना अनुभववडे आ दृश्यमान पदार्थ आदि अने अन्तवाळो छे माटे अनित्य छे एम अनुमान, प्रत्यक्षथी पण आ विश्व आदि अन्तवाळुं छे, उत्पत्ति-विनाशवाळुं छे तेथी असत्‌ छे. देखवामां आवता देह वगेरे आदि अन्तवाळा प्रत्यक्ष छे. शब्द प्रमाणमां ‘‘यथा कर्मजितो लोकः क्षीयते एवमेव पुण्यजितो लोकः क्षीयते’’ ‘‘वाचारम्भणं विकारः’’ इत्यादि शास्त्र पण दृश्यमानने नश्वर कहे छे. (सर्वनुं उपादान कारण ब्रह्म छे एम कहे छे) तेथी ब्रह्म सिवायनी कोई सत्ताने वेद मानतो नथी. तेम आत्माना अनुभवथी पण ए ज सिद्ध थाय छे; माटे ए संसारमां आसक्ति रहित थईने फरवुम् ॥१०॥

उद्धवजीए पूछ्‌युं - हे ईश! आत्मा स्वयम्प्रकाश अने द्रष्टा छे. देह अनात्मा जड अने दृश्य छे. आ स्थितिमां सुखदुःखादिना अनुभवरूप अने जन्ममृत्युरूप संसार शरीरने के आत्माने होई शकतो नथी, परन्तु तेनुं होवुं पण उपलब्ध थाय छे तो पछी ए कोने थाय छे? (आनो खुलासो करवा आप ज समर्थ छो एम जणाववा ‘ईश’ सम्बोधन कर्युं छे) ॥११॥

आत्मा अव्यय (जन्म, विनाश वगेरे विकार विनानो) सत्त्व वगेरे प्रकृतिना गुणोथी रहित, स्वभावथी ज शुद्ध (कर्मकृत मलिनता विनानो), स्वयम्प्रकाश, अविद्याकृत आवरण विनानो छे; ज्यारे शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य अन अविद्याना आवरणवाळुं छे. आत्मा अग्निनी जेम प्रकाशमान छे अने शरीर काष्ठनी जेम जड छे, तो पछी आ संसार कोने थायछे? ॥१२॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धवजी! हकीकतमां संसारनुं अस्तित्व नथी तो पण ज्यां सुधी देह, इन्द्रिय अने प्राणोनी साथे आत्मानो सम्बन्ध छे त्यां सुधी अहन्ता-ममता जेमनी छूटी नथी तेवा अविवेकीओने ते साचो होय तेवुं स्फूरेछे ॥१३॥

जेवी रीते स्वपनमां अनेक विपत्तिओ आवे छे पण खरेखर ते होती नथी, छतां स्वपन न तूटे त्यां सुधी तेमनुं अस्तित्व मटतुं नथी तेवी ज रीते संसार न होवा छतां तेमां प्रतीत थता विषयोनुं चिन्तन जे लोको करता रहे छे तेमनासुखदुःख, जन्म-मरणरूप संसारनी निवृत्ति थतीनथी ॥१४॥

ज्यारे मनुष्य स्वपन जोतो होय छे त्यारे निन्द तूटतां पहेला तेने मोटी-मोटी विपत्तिओनो सामनो करवो पडतो होय छे. परन्तु ज्यारे तेनी ऊङ्घ ऊडी जाय छे [[४८१]] ते जागी जाय छे त्यारे तेने स्वपननी विपत्तिओ रहेती नथी के तेने कारणे थयेला भय, मोह वगेरे विकार पण रहेता नथी ॥१५॥

हे उद्धवजी! अहङ्कार ज शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा अने जन्म-मृत्युनो शिकार बने छे. आत्मानी साथे तो तेमने कंई सम्बन्ध ज नथी ॥१६॥

(संसार जो अहङ्कारने थतो होय तो मुक्ति पण अहङ्कारनी थवी जोईए अने एम थाय तो मुक्तिमां पण अहङ्कार तो बाकी रही ज गयो. ए शङ्कानुं समाधान करे छे के) हे उद्धवजी! देह, इन्द्रिय, प्राण अने मनमां स्थित आत्मा ज ज्यारे तेमनुं अभिमान करी बेसे छे एटले के देहाध्यास वगेरेथी देह वगेरेने ज पोतानुं स्वरूप मानी ले छे त्यारे तेनुं नाम ‘जीव’ थई जाय छे. ते सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मानी मूर्ति छे. गुण अने कर्मो थी बनेलुं लिङ्ग शरीर तेने ज कयाङ्क सूत्रात्मा अने कयाङ्क महत्तत्त्व कहेवामां आव्यो छे. तेनां बीजां पण घणां नाम छे. ते (जीव) ज कालरूप परमेश्वरने अधीन थई जन्म-मृत्युरूप संसारमां आम तेम भटकतो रहे छे ॥१७॥

(तो पछी आ संसारमान्थी छूटवानो उपाय शो? तेना उत्तरमां कहे छे के) मन, वाणी, प्राण अने शरीर वास्तवमां अहङ्कारनां ज कार्य छे. ते मूळ वगरनुं छे परन्तुं देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपोमां तेनी ज प्रतीति थाय छे. मनन शील पुरुष उपासनानी सराण उपर चडावी ज्ञाननी तलवारने अत्यन्त तीक्ष्ण बनावी तेनाथी देहाभिमान-अहङ्ककाने मूळमान्थी कापी नाखी पृथ्वीमां निर्द्वन्द्व थई मौन राखीने फर्या करे छे. पछी तेनामां कोई जातनी आशा-तृष्णा के विषयवासना रहेती नथी ॥१८॥

(ए ज्ञानना स्वरूप, साधन अने फल कहे छे). आत्मा अने अनात्माना स्वरूपने पृथक्‌-पृथक्‌ सारी रीते समजी लेवुं ए ज ज्ञान छे, कारण के विवेक थतां ज द्वैतनुं अस्तित्व मटी जाय छे. तेनुं साधन तपस्या छे. ते द्वारा हृदयने शुद्ध करी वेदादि शास्त्रोनुं श्रवण करवुं. ते उपरान्त श्रवणानुकूल युक्तिओ, महापुरुषोनो उपदेश अने ए बन्नेथी अविरुद्ध स्वानुभाव पण प्रमाण छे. बधान्नो सार ए नीकळे छे के आ संसारना आदिमां जे हता तथा अन्तमां जे रहेशे, जे तेनुं मूल कारण अने प्रकाशक छे ते ज अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा वचमां पण छे. ते सिवाय कोई वस्तु नथी ॥१९॥

[[४८२]] (अनेक प्रकारना व्यवहारने धारण करतुं आ जगत्‌ एक वस्तुरूप ब्रह्मथी थयुं छे ते दृष्टान्त आपीने समजावे छे के) जेम सोनामान्थी कुण्डल, कडां, हार वगेरे दागीना तैयार थाय छे ते दागीना रूप थया पहेलां ए बधुं सुवर्ण हतुं, ज्यारे दागीनाने गळावीए त्यारे पण सोनुं बाकी रहे छे माटे व्यवहार अवस्थामां जे हार, कडां, र्वीटी, पोञ्चीना समयमां पण ए सोनुं ज छे तेम आ जगतनी पहेलां हुं हतो, व्यवहारमां देव, मनुष्यरूपे पण हुं अने ज्यारे प्रलय थाय त्यारे पण हुं एक ज छुं. मारा सिवाय जुदी कोई वस्तु नथी ॥२०॥

हे भाई! जाग्रत, स्वपन अने सुषुप्ति ए त्रण अवस्थावाळुं मन, त्रण अवस्थाना कारण सत्त्वादि त्रण गुणो, कारण, कार्य अने कर्ता एटले ‘अध्यात्म’ (इन्द्रिय), अधिभूत (पृथ्वी वगेरे) अने अधिदैव (कर्ता) एम त्रण प्रकारनुं जगत्‌ छे. आ बधी त्रिविधताओ जेनी सत्ताथी सत्य जेवी लागे छे अने समाधि वगेरेमां आ त्रिविधता न होवा छतां जेनी सत्ता रहे छे तेनी तूरीय तत्त्व आ त्रणेयथी पर अने तेमां अनुगत ब्रह्मतत्व ज सत्य छे ॥२१॥

(त्रणे काळमां जेनो नाश थतो नथी ते सत्य वस्तु छे एम कह्युं. वचला समयमां काळथी नाश पामनार नाम मात्र छे ए समजावे छे) जे उत्पत्ति पहेलां नहोतुं अने प्रलय पछी पण जे नर्ही रहे ते वचला समयमां पण नथी एम समजवुं जोईए केवल कल्पनामात्र नाम मात्र ज छे. आ एक निश्चित सत्य छे के जे पदार्थ जेमान्थी बने छे अने जेनाद्वारा ते प्रकाशित थाय छे ते ज तेनुं साचुं स्वरूप छे तेज तेनी परमार्थ सत्ता छेते मारो दृढ निश्चय छे ॥२२॥

आ जे विकारमयी राजस सृष्टि छे ते न होवा छतां देखाई रही छे. ते स्वयं प्रकाश ब्रह्म ज छे. तेथी इन्द्रिय, विषय, मन अने पञ्चभूतादि जेटलां चित्र- विचित्र नाम अने रूप छे तेमना रूपमां ब्रह्म ज प्रतीत थई रह्युं छे ॥२३॥

ब्रह्मविचारनां साधन श्रवण, मनन, निदिध्यासन अने स्वानुभूति छे. तेमां आत्मज्ञानी गुरुदेव सहायक छे. आ साधनोद्वारा विचार करी देहादि अनात्म पदार्थोनो स्पष्टरूपथी निषेध करी देवो जोईए. आ प्रमाणे निषेधद्वारा आत्मविषयक सन्देहोने छिन्न-भिन्न करी पोताना आनन्दस्वरूप आत्मामाञ्ज मग्न थई जाय अनेबधीज जातनी विषयवासनाओने छोडीदे ॥२४॥

हवे देह वगेरे आत्मा नथी ते समजावे छे के) निषेध करवानी प्रक्रिया आ [[४८३]] प्रमाणे छे के पृथ्वीनो विकार होवाथी शरीर आत्मा नथी. इन्द्रियो तेमना अधिष्ठातृ देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि अने मन पण आत्मा नथी, कारण के एमनुं धारण-पोषण शरीरनी जेम ज अन्नथी थाय छे. बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय अने गुणो नी साम्यावस्था प्रकृति पण आत्मा नथी, कारण के ए बधां दृश्य अने जड छे ॥२५॥

(विवेक ज्ञानवाळा जीवन्मुकत पुरुषने इन्द्रियादि कृत गुण-दोष लागता नथी ए समजावे छे के) हे उद्धवजी! जेने मारा स्वरूपनुं ज्ञान सारी रीते थई गयुं छे तेनी वृत्तिओ अने इन्द्रियो निश्चल या अञ्चचल रहेती होय तो पण तेने तेमनाथी कंई लाभ थतो नथी अने जो ते ञ्चचल रहेती होय तो तेमनाथी तेने नुकसान पण थतुं नथी, कारण के अन्तःकरण अने बाह्यकरण गुणमय छे अने आत्मा साथे तेमनो कोई सम्बन्ध नथी. आकाश वादळोथी घनघोर छवाई जतां सूर्यना तेजनो पराभव थतो नथी के वादळो वेर विखेर थई जतां सूर्यना तेजमां वधारो थतो नथी ॥२६॥

(प्रकाशित थता पदार्थोना गुण-दोषो प्रकाश करनारने स्पर्शता नथी ए समजावी हवे अनासकत जीवन्मुकतने कोई पण गुण-दोष लागता नथी ते कहे छे) जेवी रीते पवन आकाशने सुकावी शकतो नथी, अग्नि बाळी शकतो नथी, जल र्भीजवी शकतुं नथी धूळधुमाडो मेलुं करी शकतां नथी अने ऋतुओनी शरदी-गरमी तेने प्रभावित करी शकती नथी, कारण के ते बधा आवन-जावन करनारा क्षणिक भावो छे अने आकाश आ बधानुं एकरस अधिष्ठान छे तेवी ज रीते सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण नी वृत्तिओ तथा कर्मो अविनाशी आत्मानो स्पर्श करी शकतां नथी. ते तो तेमनाथी सर्वथा पर छे. एमना द्वारा तो संसारमां ते भटकतो रहे छे के जे तेमनामां अहङ्कार करी बेसे छे ॥२७॥

हे प्रिय उद्धवजी! आम होवा छतां ज्यां सुधी मारा भक्तियोगद्वारा मननो रजोगुणरूप मेल *(कषाय) एकदम दूर न थई जाय त्यां सुधी आ मायानिर्मित प्रकृतिना कार्य शब्दादि विषयो अने तेमनां कार्योनो सङ्ग सर्वथा छोडी देवा जोईए ॥२८॥

विशेष - कषाय=अर्ही श्लोक २७, २८ तथा बीजा अनेक श्लोकोमां आ शब्द वपरायो छे. तेनो अर्थ भगवो रङ्ग थाय छे. एक वार भगवा रङ्गमां कपडुं रङ्गाया पछी ते जतो ज नथी. [[४८४]] सारी रीते निदान करवामां न आवे तो जेवी रीते रोगनो मूळमान्थी नाश थतो नथी अने ते वारंवार ऊथलो मारी रोगीने सताव्या करे छे तेवीज रीते जे मननी वासनाओ अने कर्मो ना संस्कार मटी गया नथी, जे स्त्री-पुत्रादिमां आसक्त छे ते मन अधूरा ज्ञानीने र्वीधतुं रहे छे अने तेने मार्गभ्रष्ट पण करीदे छे माटे एणे कोईनो सङ्ग नकरवो ॥२९॥

देवोए प्रेरणा करायेला पुत्र, पत्नी वगेरे तेवा कुयोगीने मुक्तिमां विघ्नरूप थाय छे. एवा विघ्नथी हणायेला कुयोगीओ पूर्व करेला योगाभ्यासना बळवडे बीजा जन्ममां पण ए भगवान्‌नो योग साधे छे पण कर्मथी अधीन थता नथी. तेथी अगाउ करेलो योगाभ्यास व्यर्थ जतो नथी, परन्तुं ए बीजा जन्ममां पण फल आपनार थाय छे ॥३०॥

(ज्यारे विद्वानने पण देह निर्वाहनी आवश्यकता छे तो कर्म तो करवुं ज पडशे अने कर्म करनारने संसार थवानो ज, तो पछी एने माटे उपाय व्यर्थ छे. एम शङ्का करे एना उत्तरमां कहेवानुं के) जीव कर्म करे छे तेने कोई देवनी प्रेरणा थाय छे त्यारे ए मरतां सुधी कर्म करे छे अने एमां ए आसक्त थतां बन्धाय छे, परन्तु देहमां रह्या छतां आत्माना स्वरूपने जाणनार मृत्यु सुधी देहनो निर्वाह करनार भोजन वगेरे कर्म करवा छतां ए निरहङ्कारी होवाथी संसारना बन्धनमां आवतो नथी ॥३१॥

(एने दैहिक कर्मथी विकार न थवानी वात जवा दो ए जे देहमां रहे छे ते देहने पण जाणतो नथी. ए ज कहे छे के) ऊभो रहेलो, बेठेलो, चालतो, सूतो, मळमूत्रनो त्याग करतो, भोजन करतो तेमज स्वभाव प्राप्त दर्शन, स्पर्श आदिनी चेष्टा करतां पोताना देहने पण जाणतो नथी केमके जाणवानुं साधन बुद्धि ते ब्रह्ममां स्थिर थई गई छे एटले देहने क्रियाओ थाय छे तेनो पण एने ख्याल नथी तेने जीवन्मुकत जाणवो ॥३२॥

जेम स्वपनावस्थामां देखेला-भोगवेला विषयोने जाग्रत अवस्थामां आव्या पछी ए विषयो एना स्मरणमां होय छतां एनुं एने अभिमान रहेतुं नथी तेथी ए पोते कर्युं एम मानतो नथी पण तेने भ्रान्तिरूप माने छे तेम ज्ञानी भकत इन्द्रियोना विषयोने भोगवतो छतां एने दुःखना कारणरूप माने छे तेम ज अज्ञानी जेने आत्मा माने छे तेवा देहने ए आत्माथी जुदो माने छे तेथी एने तत्कृत सुख-दुःखनो सम्बन्ध थतो नथी ॥३३॥

[[४८५]] (त्यां तो शङ्का थाय के संसार अवस्थामां आत्मा मलिन अने मुकत अवस्थामां आत्मा शुद्ध एम कहीए तो आत्मा विकारी ठरे एना उत्तरमां कहेवानुं के) पहेलां विषयोना सेवनवडे अनेक प्रकारनां देहादि अने अज्ञान वगेरे आत्माथी अभिन्न मानेल हतां ते ज ज्यारे आत्मानुं ज्ञान थयुं त्यारे ए देहादि आत्माथी जुदां छे आत्मा ज्ञानरूप स्वयम्प्रकाश छे एम जाणवामां आव्युं. तेथी कोई कर्मना फलरूप मुक्ति थाय तो ए विकारवाळी थाय पण ए तो शाश्वत छे. मात्र एना आवरणने दूर करवामां साधनोनो उपयोग होवाथी उपरनी शङ्का अस्थाने छे ॥३४॥

जेम सूर्यनो उदय थाय त्यारे एना प्रकाशथी आङ्खने नडतुं अन्धारुं दूर थाय छे पण ए प्रकाश घडा वगेरे पदार्थने पेदा करतो नथी, जेवी रीते निश्चयात्मक मारो यथार्थ अनुभव-साक्षात्कार पुरुषनी बुद्धिमां रहेला अज्ञानरूप अन्धकारने दूर करे छे, कोई नवीन पदार्थने उत्पन्न करतो नथी ॥३५॥

(त्यारे आ विमुकत जीव परमात्मामां लीन थई जई परमात्मस्वरूप बने छे ए अभिप्रायथी तेना स्वरूपनुं निरूपण करे छे के) आ आत्मास्वयम्प्रकाश छे (ज्यारे जीवने परमात्मा प्रकाशित करे छे); परमात्मा अज (जन्मरहित छतां पोतानी इच्छा थाय त्यारे आविर्भाव पामे तेवा) छे अने तेथी ज अप्रमेय (न जाणी शकाय तेवा) छे. तेनुं ज्ञान, ऐश्वर्य वगेरे देश अने काल थी अपरिच्छिन्न (असीम) छे (अने तेथी ज अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास अने विनाश तेनो स्पर्श पण करी शकतां नथी) ते सर्वसाक्षी छे. आत्मा (बीजा परमेश्वर न होवाथी सजातीय भेद रहित) एक छे (ज्यारे जीव अनेक छे) अने अद्वितीय (सर्वोत्तम, अनुपम) छे. मन अने वाणीथी ते अगोचर छे. व्यवहार दृष्टिथी प्राण, वाणी, चक्षु, मन वगेरेनी प्रवृत्ति तेने लीधे तेनी प्रेरणाथी थाय छे एम निरूपण करवामां आवे छे ॥३६॥

हे उद्धवजी! अद्वितीय आत्मतत्त्वमां अर्थहीन नामो द्वारा विविधता मानी लेवी ए ज मननो भ्रम छे, अज्ञान छे. खरेखर आ मोह छे कारण के पोताना आत्मा सिवाय ते भ्रमनो पण कोई आश्रय ज नथी. आश्रयनी सत्तामां आश्रितनी सत्ता छे ज नहि. तेथी बधुं आत्मा ज छे. (छीप होय तो तेमां चान्दी छे एवो भ्रम थाय. छीप ज न होय तो? दोरडुं ज न होय तो सर्पनो भ्रम शामां थवानो छे?) ॥३७॥

[[४८६]] (देह ए ज आत्मा छे एम माननाराओनी निन्दा करतां कहेछे)अमेज पण्डित छीए एम माननारा घणा लोको एम कहे छेकेआ पाञ्चभौतिक द्वैत भिन्न-भिन्न नामो अने रूपो ना रूपमां इन्द्रियोद्वारा ग्रहण कराय छे-अनुभवी शकाय छे माटे ते सत्य छे, परन्तु ए तो अर्थहीन वाणीनो आडम्बर मात्र छे कारण के तत्त्वतः इन्द्रियोनी पृथक्‌ सत्ता(अस्तित्व)ज सिद्ध थती नथी तो पछी तेओ वळी कोईने प्रमाणित(सिद्ध)केवी रीते करशे? ॥३८॥

(आ प्रमाणे सपरिकर ज्ञानयोगनुं निरूपण करी, साधना दरमियान रोग वगेरे उपद्रव थाय तो ते दूर करवाना उपाय बतावे छे)हे उद्धवजी! योग साधना पूर्ण थतां पहेलाञ्ज कोई साधकने शरीरमां रोगादि उपद्रवो थाय तो तेणे नीचेना उपायो योजवाजोईए ॥३९॥

गरमी-ठण्डी आदिने चन्द्रमा, सूर्य आदिनी धारणाद्वारा, वायु वगेरे रोगोने वायु धारणायुकत आसनो द्वारा अने ग्रहसर्पादिकृत विघ्नोनो तपस्या, मन्त्र अने ओषध द्वारा नाश करी नाखवो जोईअ ॥४०॥

काम, क्रोध वगेरे विघ्नोने मारा चिन्तन अने नामसङ्कीर्तन आदि द्वारा दूर करी देवां जोईए. पतननी तरफ लई जनारा दम्भ, मद वगेरे विघ्नोने धीरे-धीरे भगवद्‌ भक्तोनी सेवाथी दूर करी देवा जोईए ॥४१॥

कोई-कोई मनस्वी योगी विविध उपायोद्वारा आ शरीरने सुदृढ अने युवावस्थामां स्थिर करी अणिमा आदि सिद्धिओमाटे योगसाधन करे छे परन्तु बुद्धिमान पुरुषो आवा विचारनुं समर्थन करता नथी कारण के ए तो एक व्यर्थ प्रयास छे. वृक्षमां लागेला फलनी जेम आ शरीरनो नाश तो निश्चितछे ॥४२॥

जो कदाच घणा दिवसो सुधी निरन्तर अने आदरपूर्वक योगसाधना करवाथी शरीर सुदृढ पण थई जाय तो पण बुद्धिमान पुरुषे पोतानी साधना छोडी दई एटलाथी ज सन्तोष मानवो जोईए नहि. तेणे तो सदा सर्वदा मारी प्राप्तिने माटे ज संलग्न रहेवुं जोईए ॥४३॥

योगचर्यामिमां योगी विचरन्‌ मदपाश्रयः ॥ नान्तरायैर्विहन्येत निस्पृहः स्वसुखानुभूः ॥४४॥

जे साधक मारो दृढ आश्रय करी में कहेली योगसाधनामां संलग्न रहे छे तेने कोई पण विघ्न-बाधा डगावी शकती नथी. तेनी बधी कामनाओ नष्ट थई जाय छे [[४८७]] अने ते आत्मानन्दनी अनुभूतिमां मग्न थई जाय छे ॥४४॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (पहेलां जीवमुकित प्रकरणना अवान्तर बीजा ‘सायुज्यमुकित’ प्रकरणनो त्रेवीसमो अने चालु) ‘‘भगवाने टूङ्कमां कहेलो ज्ञानयोग’’ नामनो अठ्ठावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌, वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोई पण हेतु विना ज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए.(श्रीवल्लभाचार्य)

अध्याय २९

भक्तियोगनुं सङ्क्षेपमां वर्णन-उद्धवजीनुं बदरिकाश्रम गमन

विशेष - आ ओगणत्रीसमा अध्यायमां (प्रथम ओगणीसमा अध्यायमां विस्तारथी कहेला) भक्तियोगने सङ्क्षेपमां पोताना शिष्य उद्धवजीने कहे छे. सुदुष्करामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः ॥ यथाञ्जसा पुमान्‌ सिद्ध्‌्येत्‌ तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत ॥१॥

उद्धवजीए कह्युं - हे अच्युत! आपे बतावेल आ योगचर्या, जे पोताना मनने वश करी शक््यो नथी तेने माटे हुं बहु ज कठिन समजुं छुं तेथी आप कोई एवुं सरल अने सुगम साधन कृपा करीने बतावो के जेथी मनुष्य अनायासे ज सहेलाईथी आपनुं परम पद प्राप्त करी शके ॥१॥

हे कमलनयन श्रीकृष्ण! आप जाणो ज छो के अधिकांश योगीओ ज्यारे पोताना मनने एकाग्र करवा लागे छे त्यारे वारंवार प्रयत्न करवा छतां सफल न थवाने लीधे हारीजायछे अने ते वश न करी शकवाने कारणे दुःखी-दुःखी थईजायछे ॥२॥

हे पद्मलोचन प्रभु! आप विश्वेश्वर छो. आपनाद्वारा ज आ समग्र संसारनुं नियमन थाय छे तेथी ज सार-असार समजनारा चतुर मनुष्यो आपना

ईं उं ईं उं

[[४८८]] आनन्दवर्षी चरणकमलोनुं शरणुं ले छे अने अनायासे ज सिद्धि हांसल करी ले छे. आपनी माया तेमनुं कंई बगाडी शक्ती नथी, कारण के तेमने योगसाधन के कर्मकुशलतानुं अभिमान होतुं नथी, परन्तु जेओ आपना चरणकमलोनो आश्रय करता नथी ते योगीओ अने कर्मी लोको पोताना साधनना घमण्डथी फूलाई जाय छे, आपनी मायाए अवश्य तेमनी मति हरी लीधी होय छे ॥३॥

हे प्रभो! आप बधाना हितेच्छु मित्र छो. जो के ब्रह्मा वगेरे अनेक लोकेश्वरो पण पोताना झगझगता किरीटोनी कोरोथी आपना चरणकमल राखवानी चोकी घसता रहे छे छतां आपने अनन्य शरणे रहेला सेवको प्रह्‌लाद, बलि, नन्दरायजी, गोपीजनो वगेरेने आप अधीन थई जाओ ए आपने माटे कोई आश्चर्यनी वात नथी. जेना भक्तो पण कदी च्युत थता नथी तेवा आप अच्युत भगवाने रामावतारमां शबरी, केवट, र्रीछ अने वानरोनी साथे पण मित्रतानो निर्वाह कर्यो हतो ॥४॥

हे प्रभु! आप बधाना प्रियतम, स्वामी तथा आत्मा छो. आपना अनन्य शरणगतोने आप सर्वस्व आपी दो छो. आपे प्रह्‌लाद, बलि, सुदामा वगेरेने जे आप्युं छे ते जाणीने एवो क्यो पुरुष हशे जे आपने छोडी अन्य देवता के धर्म ज्ञानादि वगेरे साधननो आश्रय करे? कोई विचारवान्‌ पुरुष विस्मृतिना खाडामां धकेली देनार तुच्छ विषयोमां ज फसावी देनार ऐश्वर्य अने भोगो नी इच्छा करे ए वात मानी शकाय एम नथी. अमे आपना चरणकमलोनी रजना उपासक छीए. अमारे माटे दुर्लभ कंई ज नथी ॥५॥

हे ईश! आप समस्त प्राणीओनां अन्तःकरणमां अन्तर्यामीरूपथी अने बहार गुरुरूपथी बिराजी तेमना तमाम पाप-ताप मटाडी दो छो अने आपना स्वरूपने तेनी सामे प्रगट करी दो छो. मोटा-मोटा ब्रह्मज्ञानीओ ब्रह्माजीना जेटलुं लाम्बुं आयुष्य मेळवीने पण आपना उपकारोनो बदलो चूकवी शक्ता नथी. तेथी ज तो तेओ आपना उपकारोनुं स्मरण करी-करी पळे-पळे अधिकाधिक आनन्दनो अनुभव करता रहे छे ॥६॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा, शङ्कर वगेरे ईश्वरोना पण ईश्वर छे. आप ज सत्त्व, रज, तम आदि गुणोद्वारा विष्णु, ब्रह्मा अने रुद्रनुं रूप धारण करी जगतनी उत्पत्ति-स्थिति अने संहार आदि क्रीडाओ करे [[४८९]] छे. ज्यारे उद्धवजीए अनुरागभर्या चित्तथी आपने आ प्रश्न कर्यो त्यारे आपे मन्द हास्य करतां प्रेमपूर्वक कहेवानुं शरू कर्युम् ॥७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे प्रिय उद्धवजी! हवे हुं तमने मारा ते मङ्गलमय भागवत धर्मोनो उपदेश करुं छुं जेमनुं श्रद्धापूर्वक आचरण करवाथी मनुष्य संसाररूप दुर्जयमृत्युने अनायासे जीती ले छे ॥८॥

हे उद्धवजी! मारो भक्त मारा पोतानां बधा काम मारे माटे ज करे अने ते कर्मो करतां-करतां अव्यग्र रहीने मारा स्मरणनो अभ्यास वधारे. थोडा ज दिवसोमां तेनां मन अने चित्त मने समर्पित थई जशे. तेना मन अने आत्मा मारा ज धर्मोमां रमी रहेशे ॥९॥

विशेष - मन, बुद्धि, चित्त अने अहङ्कार मळीने अन्तःकरण थाय छे. तेमां चित्त स्वच्छ, अविकारी, शान्त (ज्ञानस्वरूप) छे. सर्व प्राणीओमां ते चेतनारूपे रहेलुं छे. मन विकारात्मक छे, सङ्कल्प-विकल्पात्मक छे. चित्त पण बुद्धि वगेरेद्वारा विषयोना ग्रहणथी क्लुषित थाय छे. तेम थतुं न होय तो तेनो निरोध करवानुं शास्त्रोमां कहेवामां न आवे एवी शङ्का थाय तो एनुं समाधान ए छे के पाणीमां फीण, मोजां वगेरे थाय छे ते पाणीनो स्वाभाविक गुण नथी पण वायु, पृथ्वी वगेरेने लीधे तेम थाय छे, स्वभावथी तो ते निर्मल ज छे. पृथ्वी कदी निर्मल न होय, वायु विकारहित न होय. मारा भक्तो जे पवित्र स्थानोमां रहेता होय ते स्थानोमां ज ते रहे. देवता, असुरो अने मनुष्योमां जे मारा अनन्य भक्त थई गया होय तेमना आचरणनुं अनुसरण करे. (दा.त. देवताओमां नारदजी वगेरे, असुरोमां प्रह्‌लाद, बलि वगेरे, मनुष्योमां राजा अम्बरीष वगेरे) ॥१०॥

पर्वना अवसरो उपर समूहमां अथवा एकला ज नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजाने छाजे तेवा ठाठ-माठथी मारी यात्रा वगेरेना उत्सव उजवे ॥११॥

आ प्रमाणे शुद्ध अन्तःकरणवाळो पुरुष आकाशनी जेम बहार अने अन्दर परिपूर्ण अने आवरण शून्य मने परमात्माने ज बधां प्राणीओ अने पोताना हृदयमां बिराजेल जुए ॥१२॥

हे निर्मल बुद्धि उद्धवजी! जे साधक आ विषमता रहित ज्ञानदृष्टिनो आश्रय करी समस्त प्राणीओ अने पदार्थो मां मारां दर्शन करे छे अने तेमने मारुं ज स्वरूप [[४९०]] समजी आवकारे छे तथा ब्राह्मण अने चाण्डाल (जातिथी विषम), चोर अने ब्राह्मणभक्त (कर्मथी विषम), सूर्य अने चिनगारी (गुणथी विषम) तेमज कृपालु अने क्रूर (स्वभावथी विषम) मां समान दृष्टि राखे छे तेने ज साचो पण्डित समजवो जोईए ॥१३-१४॥

ज्यारे निरन्तर बधां स्त्री पुरुषोमां मारीज भावना करवामां आवे छे त्यारे थोडाज दिवसोमां साधकना चित्तमान्थी (बराबरियानी साथे)स्पर्धा, (उत्तमनी)असूया अने (हीन प्रत्ये)तिरस्कार अने देहमां अहङ्कार वगेरे दोष दूर थई जाय छे ॥१५॥

‘‘हुं उत्तम छुं अने आ तो अधम छे’’ एवी देहदृष्टिने अने लोक लज्जाने छोडी दई कूतरां, चाण्डाल, गाय अने गधेडां ने पण ईश्वरना आवास रूप मानी, पृथ्वी पर पडी साष्टाङ्ग दण्डवत्‌ प्रणाम करे. आम करवाथी पोताना ज लोको जो हांसी करे तो करवा दे तेमनी परवा न करे ॥१६॥

ज्यां सुधी बधां प्राणीओमां मारी भावना-भगवद्‌ भावना, थवा न लागे त्यां सुधी आ प्रमाणे मन, वाणी अने शरीर थी बधा सङ्कल्पो अने कर्मोद्वारा मारी उपासना करतो रहे ॥१७॥

हे उद्धवजी! ज्यारे आ प्रमाणे सर्वत्र ब्रह्म बुद्धिनो अभ्यास करवामां आवे छे त्यारे थोडा ज दिवसोमां तेने ज्ञान थई जाय छे अने बधुं ब्रह्मरूप देखाय छे. आवी दृष्टि थई जतां बधां सन्देहो पोतानी मेळे टळी जाय छे अने ते बधेय स्थळे मारो साक्षात्कार अनुभवी क्रियामात्रथी निवृत्त थाय छे एटले के मुक्त थई जाय छे ॥१८॥

मारी प्राप्तिनां जेटलां साधनो छे ते बधाम्मां, समस्त प्राणीओ अने पदार्थोमां मन, वाणी अने शरीर नी बधीज वृत्तिओथी मारीज भावना करवामां आवे तेनेज हुं सर्वथी श्रेष्ठ साधन समजुं छुम् ॥१९॥

हे उद्धवजी! आ ज मारो निजी-पोतानो भागवत धर्म छे. तेनी एकवार शरूआत कर्या पछी कोई पण जातनुं विघ्न तेमां सहेज पण फेर पाडी शक्तुं नथी, कारण के ए धर्म निष्काम छे अने साक्षात्‌ में ज तेने निर्गुण होवाने लीधे सर्वोत्तम तरीके प्रमाणित कर्यो छे* ॥२०॥

विशेष - बीजा धर्मना आरम्भथी अन्त सुधी साङ्गोपाङ्ग आचरणथी ज फळ मळे छे, नहि [[४९१]] तो ते व्यर्थ जाय छे. भक्तिमां एवुं नथी. भक्तिनो तो मात्र आरम्भ ज करवामां आवे, अरे! तेना एक अङ्गनो पण आरम्भ करवामां आवे अने तेनी समाप्ति पण न थई शके तो पण लेशमात्र पण नाशनी सम्भावना नथी, फळ न मळे तेवी सम्भावना नथी. में ज गीतामां घोषणा करी छे, न हि कल्याणकृत्‌ कश्चित्‌ दुर्गतिं तात गच्छति। हे भाई अर्जुन! कोई पण कल्याण करनारानी दुर्गति थती ज नथी. नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। अर्ही (भक्तिमां) प्रारम्भ थतां ज नाश थवानी-मार्गभ्रष्ट थवानी शक््यता ज नथी तेमज विघ्न पण आवतुं नथी. अग्नि अने तेनी उष्णता जुदां पाडी शकाय ज नहि तेम मारी भक्ति अने भक्त नुं कल्याण परस्पर गाढ रीते सङ्कळायेलां छे. हे सज्जनशिरोमणि उद्धवजी! भागवत धर्ममां कोई पण प्रकारनी उणप रही जाय ए तो ठीक, परन्तु जो आ धर्मनो साधक भय, शोक वगेरे उपस्थित थतां प्रसङ्गे थती भावना अने रोवुं, ककळवुं, नासी जवुं जेवां निरर्थक कर्मो पण निष्काम भावथी मने समर्पित करी दे तो ते पण मारी प्रसन्नताने लीधे धर्म बनी जाय छे* ॥२१॥

विशेष - आम तो मृत्युना भयथी पलायन करी जवुं ए व्यर्थ छे कारण के मृत्यु टाळ्युं टाळी शकातुं नथी. कोई स्वजन मरी जाय तो तेनी पाछळ आक्रन्द करवुं व्यर्थ छे कारण के मरी गयेल माणस पुनर्जीवित थतो नथी. पण भगवन्निमित्ते भय पण थवाथी भगवत्प्राप्ति थई जाय छे, जेम के कंसने अहर्निश भयथी श्रीकृष्ण ज ज्यां त्यां देखाता हता, तो तेनो मोक्ष थई गयो. शिशुपालने द्वेषथी, व्रजवासीओने प्रेमथी, अर्जुनने सौहार्दथी अने ज्ञानीओने ऐक्यथी भगवत्सायुज्य प्राप्त थयुं. विवेकीओना विवेक अने चतुर पुरुषोनी चतुराईनी पराकाष्ठा एमां ज छे के तेओ आ विनाशी अने असत्य शरीरद्वारा मारा अविनाशी अने सत्य स्वरूपनी प्राप्ति करी ले* ॥२२॥

विशेष - आ संसारमां एक पैसो आपीने हजार पैसानी वस्तु मेळवी लेनार पुरुष परम बुद्धिमान्‌ गणाय छे. एक पैसाना बदलामां सोनामहोर प्राप्त करनार तेना करतां पण वधारे बुद्धिशाळी गणाय छे. हीरां जेवा रत्न मेळवी ले ते तो एना करतां पण वधारे चतुर गणाय. ते पण अति बुद्धिशाळी मनुष्य पासेथी जे आ प्रमाणे प्राप्त करी शके ते तो एना करतां पण वधारे चतुर, तो पछी एक ज पैसाना बदलामां चिन्तामणि, कामधेनु के कल्पवृक्ष कमाई ले तेनी चतुराईनुं तो वर्णन ज न थई शके. कुरूपता, जरा (घडपण) अने रोगना घर जेवा [[४९२]] ताम्बियाना सस्ता आ शरीरमान्थी एक ज इन्द्रिय-श्रवणने माटे कान अथवा कीर्तनने माटे जीभ अथवा सेवाने माटे हाथ वगेरेनुं भगवान्‌ने दान करी देवाय तो भगवान्‌ पोताना समग्र श्रीअङ्ग-स्वरूपानन्दनुं दान भक्तने करी दे छे. क्यो बुद्धिशाळी पुरुष आवो सस्तो सोदो न करे? हे उद्धवजी! आ सम्पूर्ण ब्रह्मविद्यानुं रहस्य में तमने सङ्क्षेपमां अने विस्तारथी कही सम्भळाव्युं. देवोने माटे पण आ रहस्य समजवुं कठिन छे तो मनुष्योने तो कयान्थी समजाय? ॥२३॥

जे सुस्पष्ट अने युक्तियुक्त ज्ञाननुं में वारंवार वर्णन कर्युं छे तेना मर्मने जे समजी ले छे तेना हृदयनी संशयग्रन्थिओ छेदाई जाय छे अने ते मुक्त थई जाय छे ॥२४॥

में तमारा प्रश्नोना शङ्का-समाधान साथे उत्तर सारी रीते आपी दीधा छे. जे पुरुष आपणा प्रश्नोत्तरने विचारपूर्वक धारण करशे ते वेदोना पण परम रहस्य सनातन परब्रह्मने-मने-प्राप्त करी लेशे ॥२५॥

जे पुरुष मारा भक्तोने आ सारी रीते स्पष्ट करी समजावशे ते ज्ञानदाताने हुं प्रसन्न मनथी मारुं स्वरूप सुद्धां आपी दईश तेने आत्मज्ञान करावी दईश ॥२६॥

हे उद्धवजी! आ तमारो अने मारो संवाद स्वयं तो परम पवित्र छेज, बीजाओने पण पवित्र करी देनारो छे. जे रोज आनो पाठ करशे अने बीजाओने सम्भळावशे ते आ ज्ञानदीपद्वारा बीजाओने मारां दर्शन कराववाने लीधे पवित्र थई जशे ॥२७॥

जे कोई एकाग्र चित्तथी आने श्रद्धापूर्वक नित्य साम्भळशे तेने मारी पराभक्ति प्राप्त थशे अने ते कर्म बन्धनथी मुक्त थई जशे ॥२८॥

हे प्रिय मित्र! तमे ब्रह्मनुं स्वरूप सारी रीते समजी लीधुं ने? अने तमारा चित्तना मोह अने शोक तो दूर थई गया ने? ॥२९॥

तमारे आनो उपदेश दाम्भिक, नास्तिक (वेदोमां जेने विश्वास न होय तेवा), वञ्चक, अश्रद्धाळु, भक्तिहीन अने उद्धत पुरुषने कदी न करवो ॥३०॥

जे मनुष्यमां आ दोषो न होय, जे ब्राह्मण-भक्त होय, प्रेमी होय, साधु स्वभाव होय अने जेनुं चरित्र पवित्र होय तेने ज आ प्रसङ्ग सम्भळाववो जोईए. जो शूद्र अने स्त्री पण मारामां प्रेमभक्तिवाळां होय तो तेमने पण आनो उपदेश [[४९३]] करवो जोईए ॥३१॥

जेवी रीते दिव्य स्वादिष्ट अमृतनुं पान करी लीधा पछी कंई पण पीवानुं बाकी रहेतुं नथी तेवी ज रीते आ जाणी लीधा पछी जिज्ञासुने माटे बीजुं कंई पण जाणवानुं बाकी रहेतुं नथी ॥३२॥

हे प्रिय उद्धवजी! मनुष्योने ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य अने राजदण्ड वगेरेथी क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम अने अर्थरूप फल प्राप्त थाय छे; परन्तु तमारा जेवा अनन्य भक्तोने माटे ते चारेय प्रकारनुं फल मात्र हुं ज छुम् ॥३३॥

जे वखते मनुष्य समस्त कर्मोनो परित्याग करी मने आत्म समर्पण करी दे छे ते वखते ते मारो विशेष माननीय थई जाय छे अने हुं तेनुं जीवत्व (जीवपणु) छोडावी दई अमृतस्वरूप मोक्षनी प्राप्ति करावी आपुं छुं अने ते मारामां मळी जई मद्रूप थई जाय छे ॥३४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हवे उद्धवजी योग मार्गनो पूरेपूरो उपदेश प्राप्त करी चूक्या हता. भगवान्‌ श्रीकृष्णनी वात साम्भळी तेमनी आङ्खो आंसुओथी छलकाई गई, प्रेमना पूरथी गळुं रून्धाई गयुं, हाथ जोडीने चुपचाप ऊभा रही गया अने वाणीथी कंई ज बोली शक््या नहि ॥३५॥

तेमनुं चित्त प्रेमावेशथी विह्‌वल थई रह्युं हतुं. तेमणे धीरजपूर्वक तेने रोक्युं अने पोताने अत्यन्त सौभाग्यशाळी मानी पोताना मस्तकथी यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोनो स्पर्श कर्यो अने हाथ जोडीने आपने प्रार्थना करी ॥३६॥

उद्धवजीए कह्युं - हे प्रभो! आप ब्रह्माजी, माया वगेरेना पण मूल कारण छो. हुं मोहना महान अन्धकारमां अटवाई रह्यो हतो. आपना सत्सङ्गथी ते सदाने माटे दूर थई गयो. जे अग्निनी पासे पहोञ्ची जाय तेनी सामे ठण्डी, अन्धकार के तेने लीधे उत्पन्न थता भय केम टकी शके? तेवी ज रीते आपने शरणे आवनारने जडता, अज्ञान, संसारभय वगेरे न ज सम्भवे ॥३७॥

हे भगवन्‌! आपनी मोहिनी मायाए मारो ज्ञानदीपक छीनवी लीधो हतो, परन्तु आपे कृपा करी आपना सेवकने ते पाछो आप्यो. आपे मारा उपर महान अनुग्रहनी वर्षा करी छे. एवो कोण हशे जे आपना आ कृपाप्रसादनो अनुभव करीने पण आपना चरणकमलोनुं शरणुं छोडीने बीजा कोईनो आश्रय करे? ॥३८॥

[[४९४]] आपे आपनी मायाथी सृष्टिनो विस्तार करवामाटे दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक अने सात्वत वंशी यादवोनी साथे मने मजबूत स्नेह पाशथी बान्धी दीधो हतो. आज आपे आत्मज्ञाननी तीखी तलवारथी ते बन्धनने अनायासे ज कापी नाख्युं॥३९॥

हे महायोगेश्वर! हुं आपने नमस्कार करुं छुं. हवे आप कृपा करी शरणागत एवा मने एवी आज्ञा आपो के आपनां चरणकमलोमां मारी अनन्य भक्ति अचल रहे ॥४०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धवजी! हवे तमे मारी आज्ञाथी बदरीवनमां जाओ. ते मारो ज आश्रम छे. त्यां मारां चरण जळरूप गङ्गा जलना स्नान-पान द्वारा सेवन करी तमे पवित्र थई जशो ॥४१॥

अलकनन्दा (गङ्गाजी) नां दर्शनमात्रथी तमारां बधां पाप अने ताप नष्ट थई जशे. हे प्रिय उद्धवजी! तमे त्यां वल्कल (वृक्षोनी छाल) पहेरजो, वननां कन्द, मूल, फल खाईने देहनो निर्वाह करजो अने कोई पण प्रकारना भोगनी इच्छा राख्या विना निःस्पृह वृत्ति रहेजो ॥४२॥

ठण्डी-गरमी, सुख-दुःख जे कंई आवी पडे ते समभावथी रही सहन करवां. स्वभाव सौम्य राखवो. इन्द्रियो काबूमां राखवी. चित्तने शान्त राखी, बुद्धिने स्थितप्रज्ञ राखी तमे स्वयं मारा स्वरूपना ज्ञान अने अनुभवमां मग्न रहेजो ॥४३॥

में तमने जे उपदेश कर्यो छे तेनो एकान्तमां विचारपूर्वक अनुभव करता रहेजो. तमारी वाणी अने चित्त मारामां ज लगाडेला राखजो अने में बतावेल भागवतधर्ममां प्रेमथी तत्पर रहेजो. अन्तमां तमे त्रिगुण अने तेमनी साथे सम्बन्ध राखनारी गतिओने पार करी जई तेमनाथी पर मारा परमार्थ स्वरूपमां मळी जशो ॥४४॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान्‌ श्रीकृष्णना स्वरूपनुं ज्ञान संसारना भेद भ्रमने छिन्न-भिन्न करी दे छे. ज्यारे आपे पोते उद्धवजीने आवो उपदेश आप्यो त्यारे तेमणे भगवान्‌ श्रीकृष्णनी परिक्रमा करी अने आपनां चरणकमलो उपर पोतानुं माथुं मूकी दीधुं. एमां कोई शङ्का नथी के उद्धवजी संयोग वियोगथी थतां सुखदुःखना द्वन्द्वथी पर हता कारण के ते भगवान्‌नां निर्द्वन्द्व चरणोनुं शरण लई चूकया हता, छतां त्यान्थी छूटा पडती वखते तेमनुं चित्त [[४९५]] प्रेमावेशथी भराई गयुं. पोतानां नेत्रोमान्थी वहेतां आंसुओनी धाराथी भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणकमलो र्भीजवी दीधाम् ॥४५॥

हे परीक्षित! भगवान्‌ उपर प्रेम कर्या पछी तेमनो त्याग करवो अशक््य छे. तेमना वियोगनी कल्पनाथी उद्धवजी अत्यन्त विह्‌वल थई गया. तेमनो त्याग करी शक््या नर्ही. वारंवार विह्‌वल थई जई मूर्छित थई जवा लाग्या. थोडा समय पछी तेमणे भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोनी पादुकाओ पोताना मस्तक उपर पधरावी दीधी अने भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोमां फरी-फरी प्रणाम करी त्यान्थी प्रस्थान कर्युं ॥४६॥

भगवान्‌ना परम प्रेमी भक्त उद्धवजी आपना-श्रीकृष्णना मधुर स्वरूपने हृदयमां पधरावी बदरिकाश्रम आव्या. त्यां तेमणे तपोमय जीवन व्यतीत करी जगतना एकमात्र बन्धुरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णना उपदेश अनुसार आपनी स्वरूप भूत परम गति प्राप्त करी ॥४७॥

भगवान्‌ शङ्कर आदि योगेश्वरो पण सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोनी सेवा कर्या करे छे. तेमणे स्वयं श्रीमुखथी पोताना परम प्रेमी भक्त उद्धवजीने आ ज्ञान रूपी अमृतनुं वितरण कर्युं. आ ज्ञानरूपी अमृत आनन्द महासागरनो (आ असार संसारने ससार-सारयुक्त बनावनार) सार छे. जे एनुं श्रद्धापूर्वक सेवन करे छे ते पोते तो मुक्त थईज जाय छे तेना सङ्गथी आखुं जगत मुक्त थई जाय छे ॥४८॥

भवभयमपहन्तुं ज्ञानविज्ञानसारं निगमकृदुपजह्रे भृङ्गवद्‌ वेदसारम्‌। अमृतमुदधितश्चापाययद्‌ भृत्यवर्गान्‌ पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसञ्ज्ञं नतोऽस्मि ॥४९॥

हे परीक्षित! जेवी रीते भ्रमर अनेक पुष्पोमान्थी तेना मात्र साररूप मधनो ज सङ्ग्रह करी ले छे तेवी ज रीते स्वयं वेदोने प्रकाशित करनार श्रीकृष्णे भक्तोने संसारथी मुक्त करवाने माटे आ ज्ञान अने विज्ञान नो सार काढयो छे. आपे ज जरा (वृद्धावस्था), रोग आदि भयनी निवृत्तिमाटे क्षीरसमुद्रमान्थी अमृत पण काढ्‌युं हतुं तथा ते क्रमशः पोताना निवृत्ति मार्गी अने प्रवृत्तिमार्गी भक्तोने पान कराव्युं. ते ज पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण समग्र जगतनुं मूल कारण छे. हुं आपनां चरणोमां नमस्कार करुं छुम् ॥४९॥

इति श्रीभागवत एकादश स्कन्धमां (पहेला जीवमुक्ति प्रकरणना अवान्तर [[४९६]] बीजा सायुज्य मुक्ति नामना प्रकरणनो चोवीसमो अने चालु) ‘‘भक्तियोगनुं सङ्क्षेपमां वर्णन अने उद्धवजीनुं बदरिकाश्रम गमन’’ नामनो ओगणत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. जीवमुक्ति प्रकरण (पहेलुं) सम्पूर्ण कंईक विचारो!!! ‘‘भागवत कथानी दक्षिणा स्वीकारीने गुजरान चलाववुं एना करतां तो भूख्या मरी जवुं बहेतर छे’’. भगवत्कथाना निमित्ते दक्षिणा लेवामां ज्यारे श्रीमहाप्रभुजीनो आटलो कठोर निषेध छे त्यारे साक्षात्‌ भगवत्सेवा-मनोरथना निमित्ते भेट-सामग्री पडाववानी बाबतमां श्रीमहाप्रभुजीने केवी सूग हशे!!! अध्याय ३० प्रकरण बीजुं-ईश मुकित यादवकुलनो उपसंहार

विशेष - जीवमुकित ओगणत्रीस अध्यायथी कही. हवे ईशमुक्ति बे अध्यायथी कहे छे. एमां प्रथममां भगवान्‌नी ममता यादवकुलमां सम्भवे ते यादव कुलने ब्राह्मणनो शाप थयो छे तेथी यादवो श्रीकृष्णना कहेवाथी बधा प्रभास गया. त्यां भगवान्‌नी इच्छा प्रमाणे ए परस्पर लडीने नाश पाम्या एटले भगवान्‌नी ममता नष्ट थई. ए वात आ त्रीसमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. ततो महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्‌ ॥ द्वारवत्यां क्रिमकरोद्‌ भगवान्‌ भूतभावनः ॥१॥

राजा परीक्षिते पूछयुं - ज्यारे महान्‌ भगवद्‌ भकत उद्धवजी बदरी वनमां चाल्या गया त्यारे प्राणीमात्रना पालक भगवान्‌ श्रीकृष्णे द्वारकामां कई लीला रची? ॥१॥

यदुवंश शिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णे पोताना कुलने ब्रह्मशाप थया पछी बधानां नेत्र वगेरे इन्द्रियोने परम प्रिय पोताना श्रीविग्रहनी लीलानुं संवरण केवी रीते कर्युं? ॥२॥

ईं उं ईं उं

[[४९७]] हे भगवन्‌! ज्यारे स्त्रीओनां नेत्रो आपना श्रीअङ्ग उपर लागी जतां हतां त्यारे तेओ तेमने त्यान्थी हटावी शकती नहोती. ज्यारे सन्तपुरुषो आपनी स्वरूप माधुरीनुं वर्णन साम्भळे छे त्यारे श्रीअङ्ग कानोने रस्ते प्रवेश करी तेमनां चित्तमां एवुं घूसी जाय छे के त्यान्थी हटवामां समजतुं ज नथी. आप (श्रीकृष्ण) नी शोभा कविओनी काव्यरचनामां अनुरागनो रङ्ग भरी दे छे अने कविओनुं सन्मान वधारी दे छे तेना सम्बन्धमां तो कहेवानुं ज शुं होय? महाभारतना युद्ध वखते ज्यारे आप अमारा दादा अर्जुनना रथ उपर बिराजता हता ते वखते जे योद्धाओए आपनां दर्शन करतां-करतां शरीरत्याग कर्यो तेमने सारूप्य मुक्ति मळी गई. आपे पोताना आवा अद्‌भुत श्रीअङ्गने केवी रीते अन्तर्धान कर्युं? ॥३॥

श्रीशुकदेवजीए क्ह्युं - हे परीक्षित! ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे जोयुं के आकाश, पृथ्वी अने अन्तरीक्ष मां भारे उत्पात-अपशुकन थई रह्या छे त्यारे आपे सुधर्मा सभामां बेठेला बधा यादवोने आ वात करी ॥४॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे श्रेष्ठ यदुवंशीओ! जुओ, आ द्वारकामां घणा भयङ्कर उत्पात थवा लाग्या छे. ए साक्षात्‌ यमराजनी ध्वजानी जेम आपणा महान अनिष्टना सूचक छे. हवे आपणे अर्ही घडी बे घडी पण रहेवुं न जोईए ॥५॥

स्त्रीओ, बाळको अने वृद्धो अर्हीथी शङ्खोद्धार क्षेत्रमां चाल्यां जाय अने आपणे प्रभासक्षेत्रमां जईए. आप बधा जाणो छो के त्यां सरस्वती पश्चिम तरफ वहेती समुद्रमां जईने मळी छे ॥६॥

त्यां आपणे स्नान करीने पवित्र थईशुं, उपवास करीशुं अने एकाग्रचित्तथी स्नान अने चन्दन वगेरे सामग्रीओथी देवताओनी पूजा करीशुम् ॥७॥

त्यां स्वस्तिवाचन करावी आपणे गायो, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोडा, रथ अने घर वगेरे आपीने महात्मा ब्राह्मणोनो सत्कार करीशुम् ॥८॥

आ विधि बधी जातनां अमङ्गलोनो नाश करनारी अने परम मङ्गलनी जननी छे. हे श्रेष्ठ यदुवंशीओ! देवता ब्राह्मणो अने गायो नी पूजाज प्राणीओना जन्मनो परम लाभ छे ॥९॥

हे परीक्षित! बधा वृद्ध यदुवंशीओए भगवान्‌ श्रीकृष्णना आ प्रस्तावने अनुमोदन आप्युं अने तरत ज यादवोए नौकाओथी समुद्र पार करी रथोमां प्रभास [[४९८]] क्षेत्र तरफ प्रयाण कर्युम् ॥१०॥

त्यां जई यादवोए यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आज्ञा प्रमाणे श्रद्धा अने भकितपूर्वक शान्तिपाठ वगेरे तथा बीजां पण घणी जातनां मङ्गल कृत्य कर्यां ॥११॥

(भगवान्‌नी आज्ञा प्रमाणे आ बधुं तो कर्युं पण पछी स्वच्छन्दताथी वर्तन करवा लाग्या) आ बधुं तो कर्युं परन्तु दैवे तेमनी बुद्धि हरी लीधी अने तेओ मैरेयक (कदम्बना रसमान्थी बनावेल) मदिरानुं पान करवा लाग्या, जेना नशाथी बुद्धि भ्रष्ट थई जाय छे. ते पीवामां तो अवश्य अत्यन्त स्वादिष्ट लागे छे पण तेनुं परिणाम सर्वनाशमां ज आवे छे ॥१२॥

ते जलद मदिराना पानथी बधा उन्मत्त थई गया अने ते घमण्डी वीर एकबीजा साथे लडवा-झघडवा लाग्या. तेओ महावीर हता अने श्रीकृष्णनी मायाथी मूढ थई रह्या हता ॥१३॥

ते वखते तेओ क्रोधे भराई एकबीजा उपर आक्रमण करवा लाग्या अने धनुषबाण, तलवार, भाला, गदा, तोमर अने ऋष्टि वगेरे अस्त्र-शस्त्रोथी त्यां समुद्र किनारे ज युद्ध करवा लाग्या ॥१४॥

नशामां चकचूर बनेला यदुवंशीओ रथ, हाथी, घोडा, गधेडा, ऊण्ट, खच्चर, बळद, पाडा वगेरे उपर सवार थई, जङ्गली हाथीओ एकबीजाने दन्तशूळ भोङ्की दे तेम एकबीजाने बाणोथी घायल करवा लाग्या. बधानी सवारी उपर धजाओ फरकती हती; पायदळ सैनिको पण परस्पर लडी रह्या हता ॥१५॥

प्रद्युम्न साम्बनी साथे, अक्रूर भोजनी साथे, अनिरुद्ध सात्यकि साथे, सुभद्र सङ्ग्रामजितनी साथे, भगवान्‌ श्रीकृष्णना नाना भाई गद आपना गद नामना ज पुत्र साथे अने सुमित्र सुरथनी साथे युद्ध करवा लाग्या. ते बधा भारे भयङ्कर योद्धाओ हता अने क्रोधे भराईने एकबीजानुं माथुं भाङ्गवा तैयार थई गया हता ॥१६॥

ते उपरान्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित्‌, शतजित्‌ अने भानु वगेरे यादवो पण परस्पर लडवा लाग्या. भगवान्‌ श्रीकृष्णनी मायाथी तेओ अत्यन्त मोहित बन्या हता अने शराबना नशाए तेमने मदमां अन्ध बनाव्या हता ॥१७॥

दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, [[४९९]] विसर्जन, कुकुर अने कुन्ति वगेरे वंशोना लोको सौहार्द अने प्रेमने भूली जई परस्पर लडवा लाग्या ॥१८॥

मूढताने लीधे पुत्र पितानुं, भाई भाईनुं, भाणेज मामानुं, दोहित्र नानानुं, मित्र मित्रनुं, सुहृद सुहृदनुं, काका भत्रीजानुं तथा एक गोत्रवाळा परस्पर एक बीजानुं खून करवा लाग्या ॥१९॥

अन्ते ज्यारे तेमनां बधां बाण खलास थई गयां, धनुष तूटी गयां अने शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट थई गयां त्यारे तेमणे पोताना हाथथी समुद्रना तट पर ऊगेलुं ‘एरका’ नामनुं घास उखाडवुं शरू कर्युं. आ ए ज घास हतुं जे ऋषिओना शापने लीधे लोढाना मुशळना चूरामान्थी ऊग्युं हतुम् ॥२०॥

हे राजन्‌! तेमना हाथमां आवतां ज ते घास वज्रना जेवा कठोर मुद्‌गरना रूपमां फेरवाई जतुं. हवे तेओ रोषे भराई ते ज घासथी विपक्षीओ उपर प्रहार करवा लाग्या. भगवान्‌ श्रीकृष्णे तेमने वार्या तो तेओए आपने अने बलदेवजी ने पण पोताना दुश्मन समजी लीधा. ते आततायीओनी बुद्धि एवी तो मूढ थई रही हती के तेओ तेमने मारवाने माटे तेमना तरफ धसी गया ॥२१-२२॥

हे कुरुनन्दन! हवे तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण अने बलरामजी पण क्रोधे भराईने युद्धभूमिमां आम-तेम विचरवा तथा मुठ्ठाना मुठ्ठा एरका घास ऊखेडी-उखेडी तेमने मारवा लाग्या. एरका घासनी मुठ्ठी ज मुद्‌गर (मगदळ) ना जेवी चोट करती हती ॥२३॥

जेवी रीते वांसोना घर्षणथी उत्पन्न थई दावानल वांसोने ज भस्म करी नाखे छे तेवी ज रीते ब्राह्मणोना शापथी ग्रस्त अने भगवान्‌ श्रीकृष्णनी मायाथी मोहित यदुवंशीओनी स्पर्धाथी उत्पन्न थयेल क्रोधे तेमनो ध्वंस करी नाख्यो ॥२४॥

ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे जोयुं के समस्त यदुवंशीओनो (उप) संहार थई चूकयो छे त्यारे आपे पृथ्वीनो रह्यो सह्यो भार पण ऊतरी गयो एम मानी सन्तोषनो श्वास लीधो ॥२५॥

हे परीक्षित! बलदेवजीए समुद्रतट उपर बिराजी एकाग्र चित्तथी परमात्मानुं चिन्तन करतां-करतां पोताना आत्माने आत्मस्वरूपमां ज स्थिर करी दीधो अने अन्तर्धान थई जई मनुष्यलोकनो त्याग कर्यो ॥२६॥

ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे जोयुं के मारा मोटाभाई बलदेवजी परम पदमां लीन [[५००]] थई गया त्यारे आप एक पीपळाना वृक्षनी नीचे जई मौन धारण करीने धरती उपर बिराज्या ॥२७॥

त्यारे भगवाने पोतानी कान्तिथी प्रकाशतुं चतुर्भुजस्वरूप धारण कर्युं हतुं जे धूमरहित अग्निनी जेम दिशाओना अन्धकारने दूर करतुं हतुम् ॥२८॥

ए स्वरूपमां श्रीवत्सनुं चिह्‌न हतुं, मेघ सरखुं श्याम हतुं, तपेला सुवर्ण जेवी एनी कान्ति हती, बे रेशमी वस्त्रोथी शोभतुं मङ्गळमय हतुं; सुन्दर मन्द मुसकानवाळुं मुखारविन्द श्याम कुन्तलथी शोभायमान लागतुं हतुं, कमलना जेवी सुन्दर आङ्खो शोभती हती, मकराकृत कुण्डळनो प्रकाश पडतो हतो ॥२९-३०॥

कटिमेखला, जनोई, किरीट, कडां, बाजूबन्ध, हार, नूपुर, र्वीटीओ अने कौस्तुभ मणिशोभी रह्यां हताम् ॥३१॥

घूण्टणो सुधी वनमाला लटकी रही हती. शङ्ख, चक्र, गदा वगेरे आयुध मूर्तिमान थई आपनी सेवा करी रह्यां हतां. ते वखते प्रभु पोतानी जमणी जाङ्घ उपर डाबुं चरण राखी बिराजमान हता. चरणारविन्दनुं लाल-लाल तळियुं रकत कमलनी जेम चमकी रह्युं हतुम् ॥३२॥

‘जरा’ नामनो एक पारधी हतो. तेणे मुसळमान्थी बचेला लोहना टुकडामान्थी पोताना बाणनुं पानुं बनावी लीधुं हतुं. भगवान्‌ना चरणनुं लाल-लाल तळियुं दूरथी तेने हरणना मुख जेवुं देखायुं तेणे तेने खरेखर हरण समजी पोताना ते ज बाणथी र्वीधी दीधुम् ॥३३॥

ज्यारे ते पासे आव्यो त्यारे तेणे जोयुं के ‘‘अरे! आ तो चतुर्भुज पुरुष छे’’ अपराध तो थई चूकयो हतो तेथी भयने लीधे ते ध्रूजवा लाग्यो अने दैत्यदलन भगवान्‌ श्रीकृष्णनां चरणोमां माथुं नमावी धरती उपर ढळी पड्यो ॥३४॥

तेणे कह्युं के ‘‘हे मधुसूदन! में आ पाप अजाणतां कर्युं छे. खरेखर हुं बहु ज महान पापी छुं, परन्तु आप परम यशस्वी अने निर्विकार छो. आप कृपा करी मारो अपराध क्षमा करो ॥३५॥

हे सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान प्रभो! महात्मा लोको कहे छे के आपना स्मरणमात्रथी मनुष्योनो अज्ञानरूपी अन्धकार नाश पामे छे. घणा ज खेदनी वात छे के में स्वयं आपनुं ज अनिष्ट करी नाख्युम् ॥३६॥

हे वैकुण्ठनाथ! हुं निरपराधी हरणोने मारी नाखनारो महापापी छुं, आप मने [[५०१]] आ ज क्षणे मारी नाखो कारण के हुं मरी जाउं एटले फरीथी आप जेवा महापुरुषोनो आवो अपराध न करुम् ॥३७॥

हे भगवन्‌! समस्त विद्याओना पारदर्शी विद्वान ब्रह्माजी, तेमना पुत्र रुद्र वगेरे तेमज वेदोना द्रष्टाओ पण आपनी योगमायानो विलास समजी शकता नथी, कारण के एमनी दृष्टि पण आपनी मायाथी आवृत(ढङ्कायेली) छे. एवी परिस्थितिमां अमारा जेवा पापयोनि लोको तेने विशे शुं कहीशके ॥३८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे कह्युं - हे जरा! तुं डर नहि, बेठो था. आ तो तें मारुं इच्छित काम कर्युं छे. माराज सङ्कल्पनुं सम्पादन करी मारी सेवाज करी छे. जा मारी आज्ञाथी तुं, मोटा-मोटा पुण्यशाळी लोकोनेज जेनी प्राप्ति थाय छे ते स्वर्गमां निवास कर ॥३९॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो पोतानी इच्छाथी शरीर धारण करे छे. ज्यारे आपे जरा पारधीने आ आज्ञा करी त्यारे तेणे आपनी त्रण वार परिक्रमा करी, नमस्कार कर्या अने विमानमां बेसी स्वर्गमां चाल्योगयो ॥४०॥

भगवाननो सारथि तेमने शोधवा नीकळ्यो हतो. भगवाने धारण करेल तुलसीनी सुगन्धवाळा वायुनी सुवासथी आप अर्ही बिराजता हशे एम धारी ते आपनी समक्ष हाजरथयो ॥४१॥

दारुके त्यां जई जोयुं के पोताना स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण पीपळना वृक्षनी नीचे आसन जमावी बिराजी रह्या छे. असह्य तेजवाळां आयुधो मूर्तिमान थई तेमनी सेवामां संलग्न छे. आपनां दर्शन करी दारुकना हृदयमां प्रेमनो ऊभरो आवी गयो. नेत्रोमान्थी आंसुओनी धारा वहेवा लागी. रथ उपरथी कूदी ते प्रभुना चरणोमां जई पडयो ॥४२॥

तेणे प्रभुने प्रार्थना करी, ‘‘हे नाथ! रात्रे चन्द्रमा एकाएक अस्त थई जतां रस्ते जता माणसोनी जेवी दशा थाय छे तेवी मारी दशा आपनां चरणकमलोनां दर्शन न थतां थई छे. मारी दृष्टि नष्ट थई गई छे, चारे तरफ अन्धारुं छवाई गयुं छे. मने दिशाओनुं ज्ञान के हृदयमां शान्ति नथी. आपना दर्शनथी मारी दृष्टि सफळ थई’’ ॥४३॥

हे परीक्षित! हजु दारुक आ प्रमाणे कही ज रह्यो हतो एटलामां तेनी सामे ज [[५०२]] भगवान्‌नो गरुडध्वज रथ, पताका अने घोडाओनी साथे आकाशमां उडी गयो ॥४४॥

तेनी पाछळ ज भगवान्‌नां दिव्य आयुध पण चाल्यां गयां. आ बधुं जोई दारुकना आश्चर्यनी सीमा न रही. त्यारे भगवाने तेने कह्युम् ॥४५॥

‘‘हे दारुक! हवे तमे द्वारका जईने त्यां यदुवंशीओनो पारस्परिक कलहथी थयेलो संहार, मोटा भाई बलरामजीनी परम गति अने मारा स्वधाम गमननी वात कहेजो ॥४६॥

तेमने ए पण कहेजो के मारी अनुपस्थिति (गेरहाजरी) मां समुद्र द्वारका नगरीने डुबाडी देशे माटे हवे तमारे अने तमारा परिवारे त्यां न रहेवुं जोईए ॥४७॥

बधा लोको पोतपोतानी धन-सम्पत्ति कुटुम्ब तथा मारां माता- पिताने लईने अर्जुनना संरक्षणमां इन्द्रप्रस्थ चाल्या जाय ॥४८॥

हे दारुक! मारा भकतोनो हुं सदा प्रतिपालक छुं एवो उपदेश में जे आप्यो छे तेनो आश्रय करो अने ज्ञाननिष्ठ थई सर्वमान्थी आसक्ति छोडी तेमनी उपेक्षा करजो तथा आ बधान्ने मारी मायानी रचना समजी शान्त अने शोक मुकत थई जाओ’’ ॥४९॥

इत्युकतस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः ॥ तत्पादौ शीर्ष्ण्युपादाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम्‌ ॥५०॥

भगवान्‌नी आ आज्ञा मळतां दारुके आपनी परिक्रमा करी अने आपनां चरणकमल पोतानां मस्तक उपर पधरावी आपने वारंवार प्रणाम कर्या. त्यारबाद (भगवान्‌नो वियोग थवाथी) उदास मने तेणे द्वारका जवा प्रस्थान कर्युम् ॥५०॥

इति श्रीभागवत एकादशस्कन्धमां (बीजा ईश (ब्रह्म)मुकित प्रकरणनो ममता त्याग नामनो पहेलो अने चालु) ‘‘यादवकुलनो उपसंहार’’ नामनो त्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी तेमज तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.

ईं उं ईं उं

[[५०३]]

अध्याय ३१

भगवान्‌ श्रीकृष्णना स्वरूपनुं तिरोधान

विशेष - १. भगवान्‌ श्रीकृष्ण भूतळ उपर पधार्या त्यारे देवोने पोताना कार्यमाटे यादवो बनाव्या हता, पोताने ज्यारे स्वधाममां पधारवाने विचार थयो त्यारे एमने पाछा देवो बनावी पोते स्वधाम पधार्या एटले अहन्ता गई. ए वात आ एकत्रीसमा अध्यायमां कहे छे.
२. भगवान्‌नुं श्रीअङ्ग जगतना आश्रयरूप छे एनो दाह थाय तो जगत्‌ बळी जाय एवी शङ्का न करवी. अर्ही अदग्ध्वा एम पदच्छेद न करतां पण पोताना श्रीअङ्ग सहित पधारवानुं न स्वीकारीए तो पण जगतनो विलय तो थवानो ज छे ते थशे ज. ए भगवान्‌ना श्रीअङ्गनो दाह मानीए तो ध्यान अने धारणा विषय रहित थई जशे एम पण मानवाने कांई कारण नथी. भगवान्‌ स्वरूपनो त्याग करे तो भकतोने भगवान्‌नो साक्षात्कार नहि थाय एम पण शङ्का न करवी केमके ए भगवान्‌नुं श्रीअङ्ग भौतिक नथी तेथी एने अग्नि पण दाह करवाने असमर्थ छे. ‘‘भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्‌। अने जे शरीरथी पृथ्वीनो भार आपे दूर कर्यो हतो ते शरीरनो (नट जेम कार्य पूरुं थतां पोताना स्त्री वगेरेना वेशनो त्याग करे छे ते) त्याग कर्यो’’ श्रीभागवत १.१५.३५ मां देहत्याग कह्यो छे. ए तो ब्रह्मा वगेरेने खबर न करवामाटे आग्नेय्यादि धारणावडे ए स्वरूपने अन्तर्हित करीने भगवान्‌ स्वधाम पधार्या छे, कारण के भगवान्‌नुं श्रीअङ्ग अलौकिक छे. एटले अर्ही विरोध जणातो नथी. (बाळप्रबोधिनी) श्रीपुरुषोत्तमजी महाराज विद्वन्मण्डननी टीकामां ए सम्बन्धे विस्तारथी लखे छे. ते प्रसङ्ग जिज्ञासुने आ अध्यायने अन्ते परिशिष्टमां आपेलो छे ते वाञ्चवा विनन्तिछे. अथ तत्रागमद्‌ ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ॥ महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! दारुकना गया पछी ब्रह्माजी, शिवजी, पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि वगेरे प्रजापतिओ, मोटा-मोटा ऋषिमुनिओ, पितरो, सिद्धो, गन्धर्वो, विद्याधरो, नाग, चारण, यक्षो अने राक्षसो, किन्नर अने अप्सराओ तथा गरुडलोकनां जुदां-जुदां पक्षीओ अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मणो भगवान्‌ श्रीकृष्णना परम धाम प्रस्थानने जोवामाटे भारे उत्सुकताथी त्यां आव्या. तेओ बधा भगवान्‌ श्रीकृष्णना प्राकट्‌य अने लीलाओनुं गान अथवा वर्णन करी [[५०४]] रह्या हता ॥१-३॥

एमनां विमानोनी (पङ्क्ति)हारोथी आखुं आकाश जाणे के छवाई गयुं हतुं अने तेओ भक्तिपूर्वक पुष्पोनी वर्षा करी रह्या हता ॥४॥

सर्वव्यापक देवताओने जोईने ब्रह्माजीने तथा पोतानी विभूतिरूप देवताओने जोईने मनथी स्वरूपनुं अनुसन्धान करी (जाणे के समाधि लगावता होय तेम) कमलना जेवां नेत्रो बन्ध करी दीधाम् ॥५॥

श्रीवागीश स्वीकृत पाठ दग्ध्वा छे, ऽदग्ध्वा (अदग्ध्वा) नहि. भगवान्‌नुं श्रीअङ्ग भकतोना ध्यान अने धारणा नो मङ्गलमय आधार अने समस्त लोकोमाटे मनोहर आश्रय छे. तेथी आपे नेत्रो मीची दई, देवोनी ज्ञानशक्तिनो तिरस्कार करी धीमे रहीने पोतापणामान्थी श्रीअङ्गने मुकत करी, साथे-साथे बहार रहेल सर्वने आ प्रमाणे पोताना स्वरूपमां ज प्रवेश करावी दई, आवरणाग्नि प्रगट करी अथवा उपनिषद्‌मां जणावेल परमात्मस्थानरूप अग्निशिखा प्रगट करी तेमां अन्तर्धान थई जई पोताना नित्यलीलाधाममां प्रवेश करी दीधो ॥६॥

(वैकुण्ठलोक सौथी ऊञ्चे होवाथी, पोत-पोतानो लोक मार्गमां आवे छे अने आपणे आपने पधारवानी विनन्ति करवा आव्या छीए. ए विनन्तिनो अङ्गीकार करी प्रभु आपणा लोकमां पधारीने तेने पावन करता जशे ए उत्सवना प्रतीकरूपे) ते समये नगारां गडगडवा लाग्यां अने आकाशमान्थी पाछळ-पाछळ ज आ पृथ्वी उपरथी सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति अने श्रीदेवी पण चाली गई ॥७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णनी गति मन अने वाणी थी पर छे; तेथी तो ज्यारे भगवान्‌ पोताना धाममां प्रवेश करवा लाग्या, त्यारे ब्रह्माजी वगेरे देवता पण आपने जोई न शकया. आ घटनाथी तेमने अत्यन्त आश्चर्य थयुम् ॥८॥

(भगवान्‌नी गति कोईना जाणवामां आवती नथी एम कह्युं एने दृष्टान्तथी दृढ करे छे) आकाशमां वादळाम्मां छोडी वीजळी कयां जाय छे एनी गति माणसो जाणता नथी पण देवो जाणे छे तेम आ लोकने छोडीने भगवान्‌ स्वधाम पधार्या तेमनी गतिने देवो जाणी न शकया पण भगवत्पार्षदो ज जाणी शकया ॥९॥

ब्रह्माजी अने शिवजी भगवान्‌नी योगगतिने जोईने विस्मय पाम्या अने तेओ भगवान्‌नी गतिनी प्रशंसा करता पोत-पोताना लोकमां गया ॥१०॥

(यदुकुलनो उपसंहार अने स्वरूपनो अन्यथाभाव-तिरोधान कहेवामां आव्या. [[५०५]] त्यां ‘‘योगधारणयाग्नेय्या दग्ध्वा धामाविशत्‌ स्वकम्‌’’ (भाग.११.३१.६)मां आग्नेय्यादग्ध्वा नो पदच्छेद अदग्ध्वा पण शकय छे. तेथी आपे स्वधाम प्रवेश, दाह कर्या विना सशरीर कर्यो के योगीनी जेम दाह करीने? ए सन्देह दूर करवा, लीला अने लीलाना परिकरनां स्वरूप विषेनी शङ्का आ श्लोकथी दूर करे छे. नहि तो तेरमा श्लोकथी ज पोताना स्वरूप विषेनी शङ्का निवृत्त थई जाय छे एटले अगियारमो अने बारमो श्लोक कहेवानी जरूर नथी. तेथी आ श्लोकमां परिकर यादवोनुं ज निरूपण छे). हे राजा! यादवो वगेरेनी उत्पत्ति, उपसंहार अने बीजी चेष्टाओने माया विडम्बन (मायानुकरण) समजो. नट-नाटकमां कोई स्वाङ्ग ले छे त्यारे तेनुं असल रूप केवुं छे तेनी प्रेक्षकोने खबर पडती नथी, तो पछी आ तो श्रीकृष्ण पर अक्षरब्रह्मथी पण उत्तम पूर्णपुरुषोत्तम छे जे स्वयं आ जगतनी उत्पत्ति करे छे तेमां प्रवेश करी विहार करे छे अने प्रलय वखते समग्र जगतने पोतानी अन्दर समावी लई शान्त थई तत्कालीन परिकर साथे पोताना अनन्त महिमामय स्वरूपमां स्थिति करे छे ते ज अत्यारे पण बिराजी रह्या छे. ते ज परपुरुषने ज्यारे पृथ्वी उपर लीला करवी होय त्यारे नित्यलीलाना परिकरने पण पृथ्वी उपर मोकले छे अने तेमनी उत्पत्ति अने नाश सामान्य मनुष्योनी जेम ज थया तेवी प्रतीति मनुष्योने पोतानी मायाथी करावे छे ॥११॥

(मूलरूपमां आ सम्भवी शके, अवताररूपमां पण आम ज छे ए केम समजाय? ते माटे सामर्थ्य कहे छे) सान्दीपनि गुरुना पुत्रने यमपुरी गया पछी केटलांय वर्षो पछी पण तेना मूळ मनुष्य शरीरनी साथे भगवान्‌ श्रीकृष्णे पाछो लावी आप्यो. माताना गर्भमां तमारुं ज शरीर अश्वत्थामाना ब्रह्मास्त्रथी बळी गयुं हतुं. परन्तु तमारी माताए शरणे आवी विनन्ति करतां श्रीकृष्णे एना गर्भमां तमारी रक्षा करीने तमने पुनर्जीवन आप्युं. वास्तवमां आपनी शरणागतवत्सलता एवी ज छे. वधारे तो शुं कहुं? कालना पण महाकाल शङ्करने (बाणासुर माटे थयेल युद्धमां) आपे जीती लीधा हता अने पोताना ज शरीर उपर प्रहार करनार अत्यन्त अपराधी शिकारीने पण सदेहे स्वर्गे मोकली आप्यो. हे प्रिय परीक्षित! तेथी आ श्रीकृष्ण ज मूलरूप छे, तो पछी आप पोताना तथा यादवो नां शरीरोने सदाने माटे अर्ही नहोता राखी शकता? अवश्य राखी शकया होत ॥१२॥

(तो पछी समर्थ होवा छतां पोतानी अने यादवो नी रक्षा केम न करी? तेनुं [[५०६]] समाधान) जो के भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने संहारनुं निरपेक्ष कारण छे तो पण पोते यादवोनां अने पोतानां शरीरने बचावी लेवानी इच्छा न करी. आथी आपे एम बताव्युं के आ मनुष्य शरीरनुं शुं प्रयोजन? भगवान्‌मां ज निष्ठावाळा पुरुषो भगवद्‌ इच्छा प्रमाणे ज वर्ते छे. तेओ समजी गया के भगवान्‌ हवे देहत्यागनो अभिनय करी आसुरी जीवोने मोह पमाडशे तेथी तेमणे पण तेमज यादवास्थलीनुं नाटक करी पृथ्वीनो त्याग कर्यो. आम तेमनी उत्तम गति बतावी. सामर्थ्य होवा छतां प्रभुए तेमनी रक्षा न करी* ॥१३॥

विशेष - जेवी रीते प्राकट्‌य प्रसङ्गे बभूव प्राकृतः शिशुः। पोते प्राकृत बाळक बनी जई लोकोमां जेम प्राकृत बुद्धि उत्पन्न करी हती तेम अर्ही प्रभासलीलामां स्वतः अग्नि प्रकट करी, योगीना जेवो अभिनय करी लोकोमां प्राकृत बुद्धि उत्पन्न करी स्थिर करी. लौकिक प्रकार अपनावे एटले के श्रीअङ्गनो अर्ही त्याग करे तो भकतोने पण मोह उत्पन्न थाय. श्रीरामचन्द्रजी जेम समस्त अयोध्याने पोतानी साथे स्वधाम लई गया हता तेवी रीते श्रीकृष्ण यादवोने सशरीर साथे लई पोते सशरीर स्वधाम पधारे तो असुरोनो मोह शिथिल थई जाय. तेथी सर्वतन्त्र स्वतन्त्र भगवान्‌ श्रीकृष्णे, बन्ने रीते औचित्य सचवाय तेम विदग्ध अभिनय करी मनुष्य नाटक उपर पडदो पाडी दीधो. (श्रीगुसांईजी विरचित विद्वन्मण्डन तेना उपरनी श्रीपुरुषोत्तमजी विरचित सुवर्णसूत्र, श्रीगिरिधरजी विरचित हरितोषिणी वगेरे टीकाओने आधारे आ अध्यायने अन्ते आ प्रसङ्ग विस्तारपूर्वक परिशिष्ट बीजामां आपेल छे ते वाञ्चवा जिज्ञासुने विनन्ति छे.) जे पुरुष प्रातःकाले ऊठी भगवान्‌ श्रीकृष्णना वैकुण्ठगमननी आ कथानुं एकाग्रता अने भक्तिभावपूर्वक कीर्तन करशे तेने भगवान्‌नुं ते ज सर्वश्रेष्ठ परमपद-वैकुण्ठ- प्राप्त थशे ॥१४॥

बीजी बाजु दारुक भगवान्‌ श्रीकृष्णना विरहथी व्याकुल थई जई द्वारका आव्यो अने वसुदेवजी तथा उग्रसेननां चरणोमां नमन करता ए चरणोने अश्रुप्रवाहथी र्भीजवी दीधाम् ॥१५॥

हे परीक्षित! तेणे यदुवंशीओना विनाशनुं पूरेपूरुं वृत्तान्त कही सम्भळाव्युं. ते साम्भळी लोकोनां हृदय अत्यन्त उद्‌वेगयुकत थई गयां अने तेओ शोकथी मूर्छावश थई गया ॥१६॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णना वियोगथी विह्‌वल बनेला तेओ जलदी प्रभास जई [[५०७]] पहोञ्च्या. एमने जोईने केटलाक यादवो तो त्यां ज प्राणरहित थईने पड्या, केटलाक माथुं कूटवा लाग्या ॥१७॥

देवकीजी, रोहिणीजी अने वसुदेवजी पोताना प्राणप्रिय पुत्रो श्रीकृष्ण अने बलदेवजीने न जोतां शोकनी पीडाथी बेहोश थई गयाम् ॥१८॥

तेमणे भगवद्‌ विरहथी व्याकुल थई जईने त्यां ने त्यां ज प्राण छोडी दीधा. स्त्रीओए पोत-पोताना पतिओनां शबने ओळखी लई तेने छाती सरसां लगावी लीधां अने तेमनी साथे तेओ चिता उपर बेसी जई भस्म थई गई ॥१९॥

बलदेवजीनी पत्नीओए तेमना शरीरने वसुदेवजीना पत्नीओए तेमना देहने अने भगवान्‌नी पुत्रवधूओ पोताना पतिओना शबने भेटीने चितामां प्रवेश कर्यो. भगवान्‌ श्रीकृष्णनी रुक्‌मिणीजी वगेरे राणीओ पतिना ध्यानमां तद्रूप थईने देहने अग्निमां शुद्ध करीने ए ब्राह्म देहथी भगवान्‌ना धाममां पहोञ्च्याम् ॥२०॥

हे परीक्षित! पोताना प्रियतम अने सखा भगवान्‌ श्रीकृष्णना विरहथी प्रथम तो अर्जुन अत्यन्त व्याकुल थई गया पण पछी तेने आपे ज आपेला गीताना उपदेशनुं स्मरण थतां तेणे पोताना मनने समजाव्युम् ॥२१॥

जेमने पिण्डदान करनार कोई न हतुं तेवी यदुवंशनी सद्‌गत व्यक्तिओनुं श्राद्ध अर्जुने क्रमशः विधिपूर्वक कराव्युम् ॥२२॥

हे महाराज! भगवान्‌ न रहेतां, समुद्रे मात्र भगवान्‌ श्रीकृष्णना निवासस्थान सिवाय आखी द्वारका नगरी एक ज क्षणमां डूबाडी दीधी ॥२३॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण अत्यारे पण त्यां सदा-सर्वदा निवास करी रह्या छे. ते स्थान स्मरण मात्रथी तमाम पाप-तपोनुं नाश करवावाळुं तथा बधां मङ्गलोने पण मङ्गल बतावी देनारुं छे ॥२४॥

पिण्डदान कर्या पछी बाकी रहेला वृद्धो, बाळको अने स्त्रीओने लईने अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आव्यां. त्यां ते बधान्नी यथायोग्य वसवाटनी व्यवस्था करी. त्यां इन्द्रप्रस्थनां राजा तरीके अनिरुद्धजीना पुत्र वज्रनाभनो राज्याभिषेक कर्यो ॥२५॥

हे राजन्‌! तमार दादा युधिष्ठिर वगेरे पाण्डवोए अर्जुन पासेथी यदुवंशीओना उपसंहारनी वात जाणीने तेमज वंशधर एवा तमने राज्यपद उपर अभिषिक्त कर्या अने तेमणे हिमालयनी वीरयात्रा करी ॥२६॥

[[५०८]] देवताओना पण आराध्य देव भगवान्‌ श्रीकृष्णनी जन्मलीला तथा कर्मलीला में तमने सम्भळावी. जे मनुष्य आनुं श्रद्धापूर्वक कीर्तन करे छे ते समस्त पापोथी मुकत थई जायछे ॥२७॥

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतारवीर्याणि बालचरितानि च शन्तमानि ॥ अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन्‌ मनुष्यो भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥२८॥

हे परीक्षित! जे मनुष्य आ प्रमाणे भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रना अवातर सम्बन्धी रुचिर पराक्रम आ श्रीमद्‌ भागवत महापुराणमां तथा बीजां पुराणोमां वर्णववामां आवेली बाळलीला, किशोरलीला आदिनुं सङ्कीर्तन करे छे ते परमहंस मुनीन्द्रोना अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णना चरणोमां प्रेमलक्षणा भकित प्राप्त करे छे ॥२८॥

इति श्रीभागवत एकदाश स्कन्धमां (बीजा ईश (ब्रह्म) भक्ति प्रकरणनो अहन्ता नाश नामनो बीजो अने चालु) ‘‘भगवान्‌ श्रीकृष्णना स्वरूपनुं तिरोधान’’ नामनो एकत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ईश (ब्रह्म) मुक्ति प्रकरण (बीजुं) सम्पूर्ण एकादशस्कन्ध सम्पूर्ण नोन्ध - अगियारमा स्कन्धमां आवेल प्रभासलीलाना सम्बन्धमां परिशिष्ट १ अने र आपेल छे. जिज्ञासुने ते वाञ्चवा विनन्ति छे. परिशिष्ट पहेलुं (प्रभासलीला उपर तत्त्वार्थदीप निबन्ध भागवतार्थ प्रकरण स्कन्ध अगियार, कारिका ९७ थी ११५ श्रीपुरुषोत्तमजीकृत टीका ‘योजना’ ने आधारे) हवे ममता अने अहन्ता ना अभिनयना त्यागरूप ब्रह्ममुक्तिनो विचार करवामां आवे छे. श्रुति कहे छे के ब्रह्म तो नित्य शुद्ध, बुद्ध अने मुक्त छे अने तेथी तेने बन्ध होई शके नहि. तेथी ब्रह्मनी मुक्तिनुं कथन अनुचित छे ए शङ्का आथी दूर थई. आपे आज्ञा करी छे के बद्धो मुकत इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः। गुणस्य मायामूलत्वान्‌ न मे मोक्षो न बन्धनम्‌॥ (श्रीभागवत ११.११.१) अर्थ - ‘‘मने अधीन रहेता सत्त्वादि गुणोनी उपाधिथी ज आत्मा बद्ध छे के परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५०९ मुक्त छे एवो व्यवहार थाय छे, वस्तुतः-तत्त्वदृष्टिथी नहि. सत्त्वादि गुणो मारे अधीन छे तेथी तेमना कार्योमान्ना अध्यासथी बन्ध थाय छे अने अध्यासनी निवृत्तिथी मोक्ष थाय छे. हकीकतमां वस्तुतः बन्ध पण नथी अने मोक्ष पण नथी. गुणोनुं मूल माया छे, मायानो हुं नियामक छुं. मारे अध्यास न होवाथी मारां बन्ध के मोक्ष नथी’’ आथी जीवनुं बन्धन पण मायाकृत अहङ्कारथी उद्‌भवती भ्रान्तिने लीधे छे, वास्तविक नथी. मायानी ज्यां सुधी निवृत्ति न थाय त्यां सुधी बन्धनी निवृत्ति न थाय. एटले ते मायानी निवृत्ति करवा अधिकार प्रमाणे भक्ति, ज्ञान या उपासना आवश्यक छे. माया तो भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आज्ञानी वाट जोती दास्य करती सदा ऊभी ज छे. तेथी आप (श्रीकृष्ण) ने मायाकृत बन्ध न ज होय पण स्वैच्छिक होय, कारण के ज्यां माया न होय त्यां बन्ध न होय. ब्रह्मवादमां बधुं भगवदात्मक छे, भगवान्‌ पोते ज सर्वरूप छे एम प्रभुए वारंवार कह्युं छे तेथी ममत्वनो अभिनय मात्र छे. हवे यादवोनो अभाव थई गयो-उपसंहार थई गयो- तेथी ममत्वनो नाश पण अभिनय मात्र छे. अहन्ताना अभिनयना त्यागनो प्रकार आ प्रमाणे छे के पृथ्वी उपर दुष्टोनो त्रास अने भार वधी गयो त्यारे देवोए आपने भूभार दूर करवा अवतार लेवा प्रार्थना करतां आपे अवतार लई भूभार दूर कर्यो. आपे श्रीगीताजीमां ‘‘अहं सर्वस्य प्रभवः। हुं बधान्नी उत्पत्तिनुं मूल छुं’’ अहं योगस्य साङ्ख्यस्य, सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। वगेरे अनेक श्लोकोमां श्रीकृष्ण भगवाने अहं, मे, मम, मत्तः (मारामान्थी) माम्‌ हुं, मारुं, मारामान्थी, मने-शब्दोनो प्रयोग वारंवार कर्यो छे ते अहङ्कारना अर्थमां नथी कर्यो पण ‘भगवान्‌’ ना अर्थमां कर्यो छे. ‘‘स आत्मानमेवावैदहं ब्रह्मास्मि’’ श्रुति पण एज सिद्धान्त कहे छे. तेथी नटनी माफक कपटथी लीधेल मनुष्यना शरीरमां अहन्ताना अभिनयनो देवोनी प्रार्थनाथी प्रभासमां त्याग भजवी बताव्यो छे. शङ्का - अर्ही देवोए प्रार्थना करवानुं कारण शुं? समाधान - भगवान्‌ ईश्वर छे एटले कर्तुम्‌ अकर्तुम्‌ अन्यथा कर्तुम्‌ समर्थ छे- प्रारब्ध, काल वगेरेए करेलां बाधको (विघ्नो) नो परिहार करवा समर्थ, प्रारब्ध वगेरेए करेलने दूर करवा समर्थ अने भ्रान्त भकतोमां पण अन्यथा करवा समर्थ छे. तेथी देवो वगेरेनां दुःख मनुष्यनो नाट्यवेष लीधा विना बीजी रीते दूर करवा पण प्रभु समर्थ छे पण मनुष्यवेषनो स्वीकार करवामां जेम देवोनी प्रार्थना ज कारण परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१० हती तेवी ज रीते आ लीधेल मनुष्यवेषनो त्याग करवामां पण देवोनी प्रार्थना ज कारण छे. श्रीशुकदेवजीनुं हार्द नहि समजी शकवाथी राजा परीक्षितने भगवान्‌ना स्वरूपमां जीव तुल्यतानो भ्रम थयो तेथी ते भगवान्‌ श्रीकृष्णे पोताना दिव्यातिदिव्य श्रीअङ्गनो त्याग केवी रीते कर्यो ते पूछे छे. उत्पातो अने अपशुकनो थयां छे ते जाणे के भगवान्‌नी तिरोधान थवानी इच्छाना छडीदार छे एटले के भगवद्‌ इच्छाथी ज थया छे. काल ए भगवान्‌नो एक सेवक छे अने भगवाने तेने चोक्कस सत्ताओ आपी छे. लीला संवरण करवानी भगवद्‌ इच्छा जाणीने ज काले उत्पातो अने अपशुकनो बताव्यां छे अने तेथी (भगवद्‌ इच्छाकृत होवाथी) ज तेमनो उपाय न थई शके तेवां बताव्यां छे. हवे द्वारका ए परम कल्याणरूप मुकितना क्षेत्ररूप छे, त्यां भगवाने सोम्पेली फरज बजाववा काल आवे तो द्वारकाक्षेत्रनी गौणता थई जाय. ते न थवा देवा माटे स्त्रीओ वगेरेने शङ्खोद्धार मोकली देवामां आव्या. वयं प्रभासं यास्यामः आपणे प्रभासक्षेत्रे जईशुं. (श्रीभागवत ११.३०.६) प्रमाणे यादवोने आप पोतानी साथे लई गया छे. तेमणे स्वामीनुं कार्य कर्युं छे तेथी तेमनी मुक्ति तो थवी जोईए. (भगवद्‌ इच्छाथी थयेल) ब्रह्मदण्ड-ब्राह्मणोए आपेल शाप-दुरत्यय छे तेथी ते प्रतिबन्ध न करे माटे त्यां जई अभिषेक वगेरे करवानुं कह्युं छे अने स्वयं कर्युं छे एटले दक्षप्रजापतिनां शापथी चन्द्रमाने क्षय रोग लागु पड्यो हतो. ते वखते तेणे प्रभासक्षेत्रमां जई स्नान कर्युं अने तत्काल ते पापजन्य रोगथी मुकत थई गया अने साथे-साथे कलाओनी अभिवृद्धि पण तेने प्राप्त थई गई. यत्र स्नात्वा दक्षशापात्‌ गृहीतो यक्ष्मणोडुराट्‌ । विमुकतः किल्बिषात्‌ सद्यो भैजे भूयो कलोदयम्‌ ॥ (श्रीभागवत ११.६.३६) आम सेवाफलना प्रतिबन्ध नाशने माटेज त्यां तेमने लई जवामां आव्याछे. वळी श्रीगीताजीमां आपे आज्ञा करी छे के ‘‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोन्यत्‌ क्षत्रियस्य न विद्यते। क्षत्रिय माटे धर्मयुद्ध सिवाय बीजुं कोई श्रेय नथी’’ क्षत्रियोने माटे युद्ध ए ज धर्म छे अने युद्धमां थयेल मृत्यु मुक्तिनुं साधन छे. तेथी भगवान्‌नो छठ्ठो गुण वैराग्य प्रगट थयो. तेमनामां मूढता उत्पन्न करवामां आवी, परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५११ स्वजनोने पण भुलावी दई वैराग्य दृढ कर्युं. मुक्तिमां प्रतिबन्धक दोषनी निवृत्तिने माटे आपे तेम कराव्युं छे. एम ब्रह्मशापनो आशय जे लोको जाणता नथी तेमने माटे ज आ शाप अन्यथाभान-विपरीत ज्ञाननुं कारण थाय छे तेवो भाव छे. तेथी ज मुनिओने भगवान्‌नो अभिप्राय जाणनारा कह्या छे. ते अभिप्रायमनुष्यलीलाना अभिनयनो उपसंहार. वळी भगवान्‌नी इच्छा ज्यारे कोईने मुक्तिनुं दान करवानी थाय छे त्यारे तेनी पासे मुक्ति प्राप्त करवामाटे उपाय कराववा पण आवश्यक छे. ते उपायो तो कायकलेशावहाः कायाने अत्यन्त कलेश आपनारा होय छे पण प्रभुनी पुष्टिथी ज कायाने कलेश आपवानो जेमने अभ्यास नथी तेवा यादवोने एवा ज साधनरूप युद्ध करवा तेमना चित्तने प्रेरणा करवी जोईए अने आपे तेम कर्युं पण खरुं. तेथी आ लीला पुष्टिथी ज करी छे पण तेथी असुर जीवोने व्यामोह थयो. तेथी ‘‘सर्वलीलाः पुष्टिमध्ये प्रविशन्तीति मे मतिः। (श्रीभा. त. नि, षष्ठ स्क. का.
९८) मां श्रीमदाचार्यचरणोए आज्ञा करी छे के भगवान्‌नी बधी ज लीलाओ पुष्टिमां प्रवेश करे छे एवो मारो अभिप्राय छे’’ आ त्यां षष्ठ स्कन्धमां जेटलुं साचुं छे तेटलुं ज अर्ही पण साचुं छे. एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः। अवतारितो भुवो भारः इति मेनेवशेषितः॥ (श्रीभागवत ११.३०.२५) ज्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्णे जोयुं के समस्त यदुवंशीओनो उपसंहार थई चूक्यो छे त्यारे आपे पृथ्वीनो रह्यो सह्यो भार पण ऊतरी गयो छे एम विचारी सन्तोषनो श्वास लीधो. आ श्लोकमां जे ‘नाश’ कहेवामां आव्यो छे ते नैयायिको जेने ध्वंस कहे छे ते ध्वंस नथी पण कपिल भगवाने प्रतिपादित करेला ‘‘कार्यनो कारणमां लय’’ समजवो तेथी धीमे रहीने पोताना आपोपामान्थी (?) पोताना श्रीअङ्गने मुकत करी, साथे-साथे बहार रहेल सर्वनो पोतानी अन्दर आ प्रकारे प्रवेश करावी दीधो. प्रवेश कराव्या बाद योगधारणयाग्नेय्यामां कहेवामां आवनार तथा जे ए नीचे श्रुतिमां कहेल आवरणाग्नि (रविमध्ये स्थितः सोमः सोममध्ये हुताशनः। वह्निमध्ये स्थितं सत्यं सत्यस्यान्तः स्थितोच्युतः॥) प्रगट करीने तेमां आप अन्तर्धान थई गया, दुनियाने आपनां दर्शन थतां बन्ध थई गयां. आ प्रसङ्गे बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं थी ११.३०.२८ थी ३२ सुधीमां आपना श्रीविग्रहनुं जे वर्णन करवामां आव्युं छे ते नित्य स्वरूपनुं तिरोधान थवा छतां आपनी स्थिति परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१२ कायम छे एम बोध करवामाटे छे. नहि तो ते वर्णननुं अर्ही प्रयोजन न होवाथी ते निरर्थक थाय. तेथी ज तो कह्युं छे के ‘‘इच्छाशरीरिणा।’’ पोतानी इच्छाथी ज जेम शरीर धारण करे छे तेम इच्छाथी ज तिरोधान पण करे छे. पछी ‘‘भगवान्‌ पितामहं वीक्ष्य भगवाने ब्रह्माजीने जोईने’’ ए (११.३१.५) श्लोकमां आपे नेत्रो मीची दीधां. तेनो भाव एवो छे के बधाने ज्ञानशक्तिनुं दान करनार श्रीकृष्ण भगवाने पोतानां नेत्रो मीची दई तेमनी ज्ञानशक्ति तिरोहित करी दीधी. तेथी देवोने श्रीकृष्ण भगवान्‌ सगुण छे एवो भ्रम थयो. देवोए आपने प्रार्थना करेली के सलोकान्‌ लोकपालान्नः पाहि वैकुण्ठकिङ्करान्‌। (श्री भा.११.६.२७) आपना सेवक अम लोकपालो तथा अमारा लोकोनुं पालन-पोषण करता रहेवानी कृपा करो. तेना जवाबमां आपे आज्ञा करेली के (भा.११.६.३१) हे निष्पाप ब्रह्माजी! हवे ब्राह्मणोना शापथी आ वंशना अन्तनो आरम्भ थई चूक्यो छे. एनो अन्त थई जतां हुं आपना धाममां थईने जईश. इदार्नी नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापतः । यास्यामिभवनं ब्रह्मन्‌ नेतदन्ते तवानध ॥ आ जवाबथी भगवान्‌ विमानमां बिराजी वैकुण्ठ लोकमां पधारशे एवो भ्रम ब्रह्माजीने थयो. भगवान्‌ तो सगुण नथी, गुणातीत ज छे. तेथी अक्षरब्रह्ममां विद्यमान छे ज, खाली मायानो पडदो उत्पन्न करी त्यां ज प्रगट थाय छे. आपना गमन जेवुं छे ज नहि. ‘‘यास्यामि हुं जईश’’ ए शब्द प्रयोग तो ब्रह्मरूप सरस्वती प्रभासनी अधिष्ठात्री छे तेथी तत्परक छे. ११.६.३१ मां एतदन्ते मां जे सप्तमी विभक्ति छे ते तो चर्मणि द्वीपिनं हन्ति। माणस चामडामाटे वाघने मारे छे मां सप्तमी विभक्ति निमित्त अथवा हेतु या कारण दर्शाववा चतुर्थीना अर्थमां वपराई छे तेवी रीते वपरायेली समजवी. अर्थात्‌ एतदन्ते एटले तेना अन्तने माटे पधारशे एम ब्रह्माजी वगेरे देवो समज्या ते तेमनो भ्रम ज हतो तेथी आप ब्रह्मलोकमां पधार्या नथी. भगवान्‌नी वाणीनुं हार्द समजवामां ब्रह्मादि पण भूला पडे छे तेथी ते देवो पण भगवाने तिरोधाननो आ प्रकार अपनाव्यो तेथी विस्मित थई गया एवो भावछे. भगवान्‌ना सारथि दारुके सालोक्य अने सामीप्य मुक्तिनो अनुभव अर्ही ज पृथ्वी उपर करी लीधो हतो कारण के ते अर्ही श्रीकृष्ण भगवान्‌ना लोकमां अने परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१३ आपनी समीप रह्यो हतो. हवे तेने सायुज्यरूप परम मुक्ति प्राप्त थई. ‘‘कृष्णपत्न्यो विशन्नग्निम्‌’’ (भाग.११.३१। २०) श्रीकृष्णनां पत्नीओए अग्निमां प्रवेश कर्यो. तेनो भाव आ प्रमाणे छेःजे राणीओने अष्टावक्र ऋषिनो शाप नथी थयो ते रुक्मिणी वगेरे मुख्य महाराणीओनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे. ‘‘मात्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं गुणातीत छे. परिकरमां मुख्य परिकर रुक्मिणीजी वगेरे सात्त्विक छे, बाकीनो परिकर राजस अने तामस छे. रुक्मिणीजी मूल प्रकृति होवाथी तेमनो देह सात्त्विक छे. बाकीना परिकरनो देह राजस अने तामस छे. ते सर्वनां सूक्ष्म शरीरनी, दशमस्कन्धमां कहेल प्रकारे, वासनाओनो त्याग करावी तेने गुणातीत ब्रह्मभूत बनावी, स्थूल सगुण शरीरनो अग्निमां प्रवेश करावी त्याग कराव्यो तेथी व्याससूत्रना चोथा फलाध्याय तथा विद्वन्मण्डनमां कहेल प्रकारे तेमनो ब्राह्मदेह (दिव्यदेह) विद्यमान ज होवाथी, आ बधुं नाट्य छे एम कहेवामां आव्युं छे एवो भाव छे’’ (श्रीभाग. त. दी. नि. का. आधारे) परिशिष्ट बीजुं (श्रीगुसांईजी विरचित ‘विद्वन्मण्डन’ ग्रन्थ ने तेना उपरनी श्रीपुरुषोत्तमजी विरचित ‘सुवर्णसूत्र’ श्रीगिरिधरजी विरचित ‘हरितोषिणी’ वगेरे टीकाओने आधारे भगवान्‌ श्रीकृष्णनी प्रभासमां करेली ‘‘आसुर व्यामोह’’ लीला उपर शङ्कासमाधान) शङ्का - भगवान्‌ श्रीकृष्णनी बधी ज लीलाओ नित्य छे तो पछी प्रभासक्षेत्रमां भगवाने देहत्यागनी करेली लीला पण नित्य छे शुं? समाधान - भगवान्‌नो देह मनुष्यदेहनी जेम पञ्चमहाभूतमान्थी बनेलो नथी पण ते पोताना स्वरूपथी अभिन्न सच्चिदानन्दमय छे, कारण के गीताजीमां ‘‘यस्यान्तः स्थानि भूतानि’’ (जेनी अन्दर समस्त प्राणीमात्र रहेलां छे, अर्थात्‌ जगत्‌ रहेलुं छे.) आ वचनथी भगवाने स्पष्ट कह्युं छे के जगतना आधाररूप होवुं ए ब्रह्मनुं लक्षण छे अने माटी भक्षणनां प्रसङ्गे पोताना मुखमां सम्पूर्ण जगत्‌ देखाडी पोतानो देह जगतनो आधार छे एम प्रमाणित कर्युं छे. ए उपरान्त दामोदरलीलामां अनेक दोरडां सान्धवामां आवतां छतां दरेक वखते बे ज आङ्गळ घटे छे तेनाथी श्रीकृष्णना शरीरनी अपरिच्छिन्नता-अनन्तता परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१४ सिद्ध थाय छे तेथी पण श्रीकृष्णनुं शरीर ब्रह्मस्वरूप छे ए प्रमाणित थाय छे कारण के सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म श्रुति अनन्त शब्दथी अपरिच्छन्नता-अनन्तताने ब्रह्मनो गुण कहे छे; तेथी आवा ब्रह्मात्मक शरीरनो त्याग होई शके नहि. वळी प्रभासलीलाना वर्णनमां श्रीकृष्णे शरीरत्याग कर्यो छे एवो क्यांय पण उल्लेख नथी तेथी आ शङ्का करवीज व्यर्थ छे. शङ्का - योगेधारणयाऽऽनेय्या दग्ध्वा धामाविशत्‌ स्वकम्‌ (श्रीभागवत
११.३१.६) आ श्लोकमां योगाग्निथी श्रीकृष्णना श्रीअङ्गनो दाह थयो एम स्पष्ट उल्लेख छे. तेथी मृद्‌भक्षण (माटी खावानी) लीला तथा दामोदरलीलाथी श्रीकृष्णनुं श्रीअङ्ग सच्चिदानन्दमय सिद्ध थतुं नथी. समाधान - श्रीधर स्वामी वगेरे मोटाभागना टीकाकारोए योगधारणयाऽऽनेय्या दग्ध्वा मां अदग्ध्वा पदच्छेद करी श्रीकृष्ण सस्वरूप (सदेह) स्वधाम पधार्या एम अर्थ कर्यो छे तेथी आपे देहत्याग कर्यो एम प्रमाणित थतुं नथी. शङ्का - पूर्वोकत श्लोकमां ते अदग्ध्वा पदच्छेद शकय छे अने केटलाक टीकाकारोए कर्यो पण छे. पण ‘‘ययाऽहरद्‌ भुवो भारं तां तनुं विजहावजः। (श्रीभागवत
१.१५.३४) जे शरीरथी अजन्मा प्रभुए पृथ्वीनो भार दूर कर्यो ते शरीरनो आपे त्याग कर्यो’’ एम शरीर त्याग करवानुं कह्युं छे तेनुं शुं? समाधान - श्रीसुबोधिनीजी अनुसार तेनो एवो भाव छे के पृथ्वीनो भार हरवा सहायने माटे जे शरीर आप लावेला ते शरीरनो, पृथ्वीनो भार दूर करीने त्याग कर्यो. आ ज श्लोकना उतरार्धमां कह्युं छे के कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्‌॥ जेम एक काण्टाथी बीजा काण्टाने दूर करवामां आवे छे अने पछी सहायमाटे लीधेल काण्टानो पण त्याग करी देवामां आवे छे तेम अजन्मा भगवाने जे सहायक यादवरूपवडे भूभार हरण कर्यो ते (सहायक) यादवरूपनो पण पोते त्याग कर्यो, कारण के सर्वनियामक भगवान्‌ने भाररूप अङ्ग अने सहायक अङ्ग बन्ने समान छे. अभिमानी जीवोने आवे प्रसङ्गे क्लेश थाय, भगवान्‌ने न थाय. अज्ञत्वं पारवश्यं च विधिभेदादिकं तथा। तथा प्राकृतदेहत्वं देहत्यागादिकं तथा। असुराणां विमोहाय दोषा विष्णोर्न हि क्वचित्‌॥ (ब्रह्मपुराण) अज्ञान, परवशता, वेद विरुद्ध आचरण, लौकिकदेह, देहत्याग वगेर असुरोने मोह परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१५ करवामाटेज भगवान्‌ देखाडे छे. विष्णुमां आ दोषो(अज्ञान वगेरे) कयांय नथी ज. उपरना श्रीभागवत १.१५.३४ मां श्लोकमां पण जे शरीरथी भगवाने भूभार दूर कर्यो ते ज शरीरनो त्याग क्ह्यो छे, जे शरीरथी बीजी लीलाओ करी छे तेनो नहि. आथी प्राकट्य प्रसङ्गे देवकीजीनी स्तुति पछी बभूव प्राकृतः शिशुः। भगवान्‌ प्राकृत बाळक बनी गया. तेवी ज रीते प्रभासमां तनुत्यागनो नटनी जेम अभिनय ज कर्यो छे. शङ्का - उपरनां वाकयोथी तो मात्र श्रीकृष्णनी शरीरत्यागलीला मायिक सिद्ध थाय छे. प्रभासलीलाना प्रसङ्गमां तो ‘‘सञ्जह्रे स्वकुलं विभुः। भगवाने पोताना (यादव) कुलनो संहार कर्यो’’ आ वचनथी लीला प्रविष्ट यादवोना नाशनुं पण वर्णन कर्युं छे तेथी लीलानी नित्यता कयां रही? समाधान - उपरना श्लोकमां सञ्जहे्रऽस्वकुलं विभुः। एम पदच्छेद छे. स्वकुल ते लीलास्थ यादव कुल; अस्वकुल ते मायिक यादवकुल. हा, तो संहार मायिक यादवकुलनो कर्यो. शङ्का - अर्ही अस्वकुल पदच्छेद शकय छे पण यदून्‌ यदुभिरन्योन्यं भूभारान्‌ सञ्जहार ह। (श्रीभागवत १.१५.२६) यादवोनो संहार यादवोद्वारा ज करावी भूभार दूर कर्यो.(विवाह अने उत्सव मां सगा-सम्बन्धीओ एक बीजाने भोजन पीरसे छे तेम एक बीजानी हत्या करी छे) संहर्तुमैच्छत्‌ कुलम्‌ कुलनो संहार करवानी इच्छा करी वगेरे अनेक वाक्योमां स्पष्ट संहार लख्यो छे तेनुं शुं? समाधान - राजन्‌ परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा। मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य॥ (११.३१.११) हे परीक्षित! जेवीरीते नट अनेक प्रकारना स्वाङ्ग ले छे परन्तु बधाथी निर्लेप रहे छे तेवी ज रीते यादवोनो जन्म, नाशनी चेष्टा वगेरेने मायानो विलास-अभिनय समजवो. आ नट तो अक्षरथी पण उत्तम, पूर्ण पुरुषोत्तम छे तेना अभिनयमां शी ऊणप होय? आ वचनोथी श्रीशुकदेवजीए यादवोनी उत्पत्ति तथा संहारने मायिक अभिनय कह्यो छे तेथी तेने वास्तविक न कही शकाय. संहर्तुमैच्छत कुलम्‌। मां स्वकुल के यादवकुल शब्दनो प्रयोग ज नथी, मात्र ‘कुल’ शब्दनो प्रयोग छे तेथी तेमां तो कंई वान्धाजनक नथी. मात्र यदून्‌ यदुभिरन्योऽन्यम्‌ शब्दोमां यदु शब्दनो स्पष्ट प्रयोग होवाथी जिज्ञासुने भ्रम थई शके. तेनी निवृत्ति राजन्‌ परस्य शब्दोथी थई जाय छे. परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१६ शङ्का - हा! पण ए वाकयमां तो ‘‘परस्य परमात्मानुं’’ शब्द छे एटले तेनो अर्थ, ‘‘यादवो वगेरे शरीर धारीओमां परमात्मानी आविर्भाव अने तिरोभावनी चेष्टा’’ श्रीधर स्वामीए कर्यो छे तेथी भगवान्‌ना आविर्भाव अने तिरोभाव प्रमाणित थाय छे, यादवोनां नहि. समाधान - ‘‘यादव आदि शरीर धारीओमां’’ कहेवानी कोई जरूर ज नथी. भगवान्‌ यदुकुलमां प्रगट थया छे ए वात तो अत्यार सुधी (११.३१.११ सुधी) मां अनेक वचनोथी सिद्ध थई चूकी छे तेथी तेवो अर्थ करवामां तनुभृत्‌ शब्द निरर्थक थई जाय छे अने मात्र भगवान्‌ना आविर्भाव-तिरोभावने मायिक कहेवां होत तो भगवज्जननाप्ययेहा नो प्रयोग कर्यो होत, तनुभृज्जननाप्ययेहा नो नहि, जेथी कोई जातनो सन्देह ज रहेवा न पामे. वळी जे यादवकुल प्रभासमां आपसमां लडी मर्युं ते यादवकुल मायिक छे तेना प्रमाणमां आ एक ज वचन छे एवुं नथी. भगवान्‌ श्रीकृष्ण पोताना सारथि दारुकने कहे छे के मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज। आ (यदुकुलना उपसंहार) ने मारी मायिक रचना समजी (शोक न करता) शान्ति धारण करजे. (भाग.
११.३०.४९) यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः। नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि माया नामनोमयम्‌॥ (श्रीभागवत ११.७.७) आ जगतमां जे कंई मनथी विचारवामां आवे छे, वाणीथी कहेवाय छे, नेत्रोथी देखाय छे अने श्रवण आदि इन्द्रियोथी अनुभवाय छे ते बधुं नाशवान्‌ छे. सपनानी जेम मननो विलास छे तेथी मात्र माया छे, मिथ्या छे एम समजी लो. आ वाक्य भगवान्‌ श्रीकृष्ण पोताना लीला मध्यपाती अन्तरङ्ग भकत उद्धवजीने कहे छे तेथी ‘‘कोई पण पदार्थ वास्तव-सत्य नथी एम कही शकाय’’ तेवी शङ्का दूर थई. आसुरी लोकोने व्यामोह करवामाटे देखाडवामां आवता पदार्थो ज उपरना श्रीभागवत ११.७.७ मां समजवाना छे. सर्व प्रपञ्च मिथ्या छे एम भगवान्‌ कहेवा मागता होत तो ‘नश्वर’ शब्द न वापर्यो होत. ‘नश्वर’ शब्दनो उपयोग कर्यो छे तेथी प्रभुनो आशय सर्व प्रपञ्चने ‘नश्वर’ कहेवानो नथी परन्तु प्रभासीय लीलाने ज ‘नश्वर’ कहेवानो छे. शङ्का - आ ज आशय भगवान्‌नो छे एनुं प्रमाण शुं? समाधान - भगवान्‌ हंस सनकादिने कहे छे के ‘‘मनसा वचसा दृष्ट्या परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१७ गृह्यतेन्यैरपीन्द्रियैः। अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा’’ (भाग.
११.१३.२४) मनथी, वाणीथी, दृष्टिथी तथा बीजी इन्द्रियोथी पण जे कंई ग्रहण करवामां आवे छे ते बधुं हुञ्ज छुं. माराथी भिन्न मारा सिवाय बीजुं कंई छेज नहि. आ विचार आप लोको तत्त्वविचार द्वारा समजीलो’’. शङ्का - भाग. ११.७.७ मां यदिदम्‌… नश्वरं गृह्यमाणं च शब्दोथी तो सम्पूर्ण जगत्‌ मायिक छे एम सिद्ध थाय छे, नहि के मात्र यदुकुल, कारण के आ ज श्लोकना पूर्वार्धमां यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः। मां ‘इदम्‌ आ’ सर्व साधारण वस्तुवाचक इदम्‌ नो प्रयोग छे, यदुकुल वाचक कोई खास शब्दनो प्रयोग नथी. समाधान - यदुकुल वाचक कोई खास शब्द तो नथी ए बराबर छे पण जगतने मायिक कहेवुं ते अनेक प्रमाणोथी विरुद्ध छे. अर्ही यदुकुलना वर्णननो ज प्रसङ्ग छे तेथी ‘इदम्‌ आ’ नो अर्थ यदुकुल ज मानवो योग्य छे. शङ्का - नित्यलीला स्थान द्वारकामां जे यादवो रहेता हता तेओ ज भगवान्‌नी आज्ञाथी प्रभासमां गया हता. परस्पर युद्ध करी समाप्त थई गया तो पछी वचमां ज आ मायिक कुल कयान्थी आवी पड्युं? तेनी कल्पना करवानुं कारण? समाधान - (श्रीभागवत ११.१.८) ‘‘ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम्‌। विप्रशापः कथमभूद्‌ वृष्णीनां कृष्णचेतसाम्‌’’ ब्राह्मण भकत, दानवीर, ज्ञानवृद्ध अन वयोवृद्ध नी नित्य सेवा करता रहेनारा श्रीकृष्णभक्त यादवोने ब्राह्मणनो शाप केवी रीते थयो? परीक्षितना आ प्रश्नमां यादवोने श्रीकृष्णमां चित्त राखनारा कह्या छे. तदुपरान्त गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः। ११ मा स्कन्धना आ वाकयमां यादवोने भगवान्‌नी भुजाओथी रक्षाएला कह्या छे, परन्तु स्वयं भगवाने ‘‘यदिदं यादवकुलं अने वीर्यशौर्य श्रियोद्धतम्‌ वीर्य अने शौर्य नी सम्पत्तिथी उद्धत यादवकुल छे’’ एम कह्युं छे अने तृतीय स्कन्धमां उद्धवजीए पण कह्युं छे के ‘‘दुर्भगो बत लोकोयं यदवो नितरामपि, ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम्‌’’ (श्रीभागवत ३.२.८) अरेरे! आ मनुष्यलोक दुर्भागी (कमनसीब) छे. सद्‌भागी होत तो भगवान्‌ पधारी जतां ते अर्ही रही शके ज नर्ही; ते अभागी (सम्पूर्ण भाग्य हीन) तो नथी कारण के केटलोक समय तो तेने भगवान्‌नो अनुभव परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१८ थयो छे एटले लग्न थया पछी थोडो समय पति सुख माण्या पछी स्त्री जेम दुर्भगा (विधवा) थाय तेवो आ मनुष्यलोक छे. तेमांय वळी यादवो खास कमनसीब छे कारण के जेम समुद्रमन्थन पहेलां चन्द्र अने माछलां एक ज साथे समुद्रमां रहेतां हतां. चन्द्र अमृतमय छे. चन्द्रने प्रार्थना करी होत तो ते माछलांओने अमृतपान करावी तेमनां जरा, रोग, मृत्यु कायमने माटे टाळी शकत. पण माछलां एम ज मानतां हतां के आ पण अमारा जेवुं एक जलचर प्राणी छे. ते गोरुं छे एटलुं ज. एम यादवो पण मानता के श्रीकृष्ण पण एक यादव ज छे अने तेथी छती आङ्खे कोई कूवामां पडे तेम अज्ञानवश लडी मर्या. चन्द्रमाना अमृतना एक लेशमात्रना सम्बन्धथी पण, चन्द्रमाना आकाशमां न होय त्यारे पण नक्षत्रो प्रकाशे छे तेवी रीते यादवो पण भगवान्‌ विशेना अज्ञानने लीधे मुकत न थया अने आपसमां लडी मर्या. (श्रीभागवत ३.२.८) उपर यादवोने उद्धत अने दुर्भग-कमनसीब कह्या छे. हवे जे व्यक्ति ब्राह्मण भकत, उदार, वृद्धोनी सेवा करनार होय ते उद्धत अने दुर्भग केवी रीते होई शके? आथी ए नक्की थाय छे के वृद्धोपसेवी यादवोने भगवाने पोतानी भुजाओथी रक्षायेला कह्या छे ते यादवो अने भगवान्‌ जेमने उद्धत अने उद्धवजी जेमने दुर्भग कहे छे ते जुदा छे. पहेला नित्यलीला सम्बन्धी वास्तविक यादव छे अने बीजा मायिक छे. एक व्यक्तिने भूत वळग्युं होय ते भूतनो आवेश न होय त्यारे सामान्य माणसनी जेम वर्ते छे अने भूतनो आवेश थाय त्यारे जुदी रीते वर्ते छे तेम प्रभासमां नष्ट थयेलुं यादवकुल मायिक अस्वकुल छे अने तेथी भगवान्‌ना देहत्यागनी जेम यादवोनो देहत्याग पण अभिनय नाट्य मात्र ज छे. शङ्का - प्रभासलीला (भाग. ११ थी ३१ श्लोक १५ थी २८) ना प्रसङ्गमां तो त्यां सुधी कह्युं छे के यादवोना देहत्याग पछी तेमनी पत्नीओ पोत-पोताना पतिना शबनी साथे चिता उपर चडी गई अने जेमने पिण्डदान करनार कोई न हतुं तेमनुं अर्जुने श्राद्ध पण कराव्युं! समाधान - चितारोहण अने मरणोत्तर क्रिया विना देहत्याग लीलानुं नाट्य पूरुं न कहेवाय, अधूरुं रही जाय. आम थाय तो असुरोनो पूरेपूरो मोह न थाय. जे नटराजानो अभिनय करवानो होय तेणे राजानो पोषाक नखथी शिख सुधी पहेरवो जोईए. ए फकत मस्तक उपर राजानो ताज पहेरी ले, बीजां कपडां सामान्य परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५१९ नागरिक जेवां होय तो ए अभिनय जेम बराबर न कहेवाय तेम अर्ही नाट्यनो पूरेपूरो निर्वाह करवा चितारोहण वगेरे अभिनय बताव्यो छे. शङ्का - तो पछी श्रीशुकदेवजीए स्पष्ट शब्दोमां आ लीलाने कयांय श्रीमद्‌ भागवतमां मायिक केम नथी कही? समाधान - ज्यारे स्वयं भगवान्‌ ज सर्व मनुष्योने पोताना स्वरूपनो परिचय कराववा इच्छता नथी पण विपरीत बुद्धि उत्पन्न करवामाटे प्रभासलीला जेवुं नाट्य देखाडे छे त्यारे भगवान्‌नुं हार्द जाणनार श्रीशुकदेवजी जेवा महात्मा आ विषयने स्पष्ट शब्दोमां केवी रीते कहे? छतां जो स्थिर पण सूक्ष्म दृष्टिथी जोईए तो आ लीलाने मायिक सिद्ध करनारां प्रमाण कंई ओछां नथी. दा.त. अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च (भाग. १०.१.७)मां भगवान्‌ पुरुषरूपथी मुक्ति अने कालरूप थी संसार आपे छे तेवुं निरूपण छे. कालात्मना निवसता वसुदेवगेहे। पिण्डारकं समगमन्‌ मुनयो निसृष्टाः॥ (श्रीभागवत ११.१.११) अर्थःहवे भगवान्‌ श्रीकृष्ण निजमन्दिर छोडी यादवोनो उपसंहार करवा वसुदेवजीने घेर कालरूपथी निवास करी रह्या हता. कालात्मा भगवाने मोकलेला मुनिओ पिण्डारक क्षेत्रमां गया. आथी सिद्ध थाय छे के यदुकुल शापथी लईने यदुकुल उपसंहारनी लीला कालात्मा भगवाने करी छे एटले के ते संसार आपनारी होवाथी मायिक छे, मिथ्या छे अने बीजाना ज्ञाननुं आवरण करती होय ते ज मोह उत्पन्न करी संसार आप नारी बनी शके छे. मोहनशक्ति-मोह करवानी शक्ति भगवन्मायानी छे तेथी तेने ‘मायिक’ पण कही शकाय. आटलुं ज कथन प्रभासलीलाने मायिक सिद्ध करवामाटे पूरतुं छे परन्तु छतां ‘‘राजन्‌ परस्य’’ वगेरे वधारामां कह्यां छे. हवे आ अप्रकाश्य विषयमाटे आथी वधारे शुं कहेवुं? शङ्का - काल स्वरूपथी भगवाने जे लीला करी छे ते बधी मायिक छे एम तो तमे कही शको एम नथी कारण के गोवर्धनलीला पण भगवाने कालरूपथी करी छे जेम के कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता। (भाग. १०.२४.३१ मां इन्द्रनो घमण्ड चूर करवानी इच्छाथी कालात्मा भगवाने कहेला शब्दो) अर्ही आ लीला कालात्मा भगवाने करी छे तो तेने तो तमे मायिक मानवाने बदले वास्तविक मानो छो एनुं शु? समाधान - भगवाने मात्र इन्द्रना घमण्डने दूर करवानी लीला कालस्वरूपथी करी परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५२० छे, समस्त लीला कालस्वरूपथी करी नथी. कालात्मना जिघांसता आ विशेषणो सहित भगवता शब्दनो सम्बन्ध प्रोकतं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्‌णन्त तद्‌वचः॥ (श्रीभागवत १०.२४.३१) मां आवता प्रोकतं शब्द साथे छे तेथी दर्पनाशक वचन भगवाने कालस्वरूपथी कह्यां छे एम ज आथी सिद्ध थाय छे, सम्पूर्ण गोवर्धनलीला कालस्वरूपथी करी छे एम नहि. तेथी कालस्वरूपथी भगवाने करेली बधी लीला मायिक छे एम कहेवामां कंई आपत्ति नथी. शङ्का - तमे कहेला सिद्धान्तो १. सर्व कल्याणगुणोथी परिपूर्ण ब्रह्म साकार छे, २. जगत्‌ सत्य छे, ३. जीव अणु छे, ४. परब्रह्म श्रीकृष्णनी भक्ति करवी ए ज जीवनो परम धर्म छे, ५.श्रीकृष्णना आत्यन्तिक अनुग्रहथी लीलाने उपयोगी देह प्राप्त करी गोकुल, वृन्दावन वगेरे नित्यलीला स्थानोमां श्रीकृष्णनी परमानन्दमयी लीलानो अनुभव करवो ए ज जीवोमाटे वाञ्छनीय उत्तमफल छे. श्रुति, स्मृति, पुराणो थी सर्वथा अविरुद्ध छे, शास्त्र सम्मत छे तो वेद आदि शास्त्रोने माननारा बधा आस्तिक लोको आ सिद्धान्तोनो स्वीकार केम करता नथी? अने जो स्वीकार न करे तो तमारा आ परिश्रमनुं फल शुं? कारण के जेओ तमारा सिद्धान्तो स्वीकारे छे तेओ तो आ सिद्धान्तोनो स्वीकार करवामां कोई जातनी उपपत्ति (युक्ति) नी अपेक्षा ज राखता नथी अने जे लोको स्वीकार करता नथी तेओ गमे तेटली युक्तिओ रजू करवामां आवे तो पण आ सिद्धान्तोनो स्वीकार करवाना नथी अने जो आ सिद्धान्त बधाने ज स्वीकार्य न होय तो सिद्धान्तना ज स्वरूपनी न्यूनता थई. समाधान - कोई पण सिद्धान्तनी उत्तमता या प्रामाणिकता प्रमाणोने अधीन छे, आदर करनाराओ तेनो स्वीकार करनाराओने अधीन नथी अने जगतमां एवो सिद्धान्त कोई ज नथी जेनो आदर बधाज करे. तेथी स्वीकार करनाराओनी न्यूनताथी सिद्धान्तना स्वरूपमां कोई पण प्रकारनी न्यूनता समजवी भूल छे. जे सिद्धान्त जे जीवना सात्त्विक, राजस के तामस प्रकृतिने अनुकूल होय छे ते तेने गमी जाय छे. आ अमारो सिद्धान्त सात्त्विक छे ते जे जीवो सात्त्विक छे तेमने ते रुचिक्र लागे छे, बीजा जीवोने नहि. परन्तु बीजा राजस, तामस जीवोने ते प्रीतिकर न लागता होय तो तेथी आ सिद्धान्तोमां कंई न्यूनता आवी जती नथी, कारण के तेनुं कारण जीवोनी ज अयोग्यता छे. जेवी रीते लोढाने सोनुं बनावी परिशिष्ट,एकादशस्कन्ध ५२१ देनार पारसमणि पथ्थरने सोनुं बनावतो नथी तो तेथी पारसमणिना स्वरूपमां कांई न्यूनता मानवामां आवती नथी. तेवी ज रीते दैवी-सात्त्विक जीवोने माटे उपयोगी आ अमारा सिद्धान्त जो असुर, राजस के तामस जीवोने प्रभावित न करता होय तेमने गळे न ऊतरता होय, तो तेथी सिद्धान्तमां कंई न्यूनता समजवी नहि. अमे (श्रीगुसांईजीए) तो आ प्रमाणो अने उपपत्तिओ (तर्को) रजू करवानो परिश्रम एटला माटे लीधो छे के भगवद्‌ भजनना अधिकारी सात्त्विक जीवो पण बीजा जीवोना दुःसङ्गथी मलिन हृदयवाळा न थई जाय, साचा सिद्धान्तो समजे अने आडे मार्गे न चडी जाय. एकादशस्कन्ध सम्पूर्ण भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी पुष्टिमार्गी(?) मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी) दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए