ईं उं ईं उं
[[१]] दशमस्कन्ध पूर्वार्ध निरोधलीला(हृदय) प्रथम जन्मप्रकरण
अध्याय १
श्रीकृष्णना प्राकट्यनुं कारण
विशेष - चोवीश अध्यायथी अत्यन्त दुर्लभ एवी भक्ति कही. आ दशमस्कन्धना त्रण क्षेपक
अध्याय बाद करतां ८७ अध्याय छे. त्रण क्षेपकने जो गणीए तो नेवुं अध्याय थाय. आ
दशम स्कन्धनो अर्थ निरोध थाय के आश्रय थाय ए विषयमां केटलाकने मोटो सन्देह छे. ए
निवृत्त करवामाटे दशमार्थ वगेरेनो अर्ही विचार थाय छे. द्वितीय स्कन्धमां नव लक्षणथी लक्ष्य
आश्रय छे एम कह्युं छे तेथी आ स्कन्धनो आश्रयरूप अर्थ थवो जोईए. पण ज्यारे
तृतीयस्कन्धथी सर्गादिना क्रमनो विचार करीए तो आ आठमी लीला एटले निरोधलीलारूप
स्कन्धार्थ थाय ए सन्देह छे. कोई एम कहे के शब्द क्रमथी अर्थक्रम बळवान छे ए न्यायथी
लीलानो क्रम अर्ही नहि लेतां आश्रय ज लेवो जोईए, केमके अर्ही श्रवण कर्तव्य छे ते तो
आश्रयार्थ लेवाथी सिद्ध थाय छे. एना उत्तरमां कहेवानुं के सापेक्ष रूपनुं पहेलेथी निरूपण
कराय नहि. आश्रय तो नवलक्षणसापेक्ष छे तेथी एने पहेलान्थी कही दो तो आगळ मुक्ति वगेरे
बे लीलाओनी जरूर नहि रहे, एटलुं ज नहि, पण पूर्वस्कन्ध कारण अने उत्तर स्क्न्ध एनुं
कार्य एम चाल्यो आवतो कार्यकारणभाव नष्ट थशे. अने कृष्णरूप अर्थने लईने तमे आ
स्कन्धने आश्रय मानशो तो श्रीकृष्णनुं वर्णन तो एकादशस्कन्धमां पण छे तेथी ते तमारुं
लक्षण अतिव्याप्त थशे. स्कन्धार्थ ‘निरोध’ मानो तो कार्यकारणक्रमनो निर्वाह थशे अने
अव्याप्ति-अतिव्याप्ति नहि आवे. हवे केटलाक वादीओ दशमार्थ ‘निरोध’ छे एम तो
स्वीकारे छे, पण ए प्रलयरूप निरोध माने छे. अने कहे छे के अर्ही पृथ्वीनो भार उतारवा
दुष्ट राजाओने मारवारूप प्रलय, ‘निरोध’शब्दथी कहेवानो नथी, केमके एम मानीए तो जन्म
प्रकरण अने गुण प्रकरण मां दुष्ट शासननुं वर्णन नथी तेमां लक्षणनी अव्याप्ति थाय अने
एकादशमां एनी अतिव्याप्ति थाय. आश्रयलीला एक अगियारमी लीला थई जाय, माटे एम
[[२]]
मानवुं वाजबी नथी. वळी पृथाए स्तुतिमां ‘‘तथा परमहंसानां’’ इत्यादिथी जे
भगवानने पधारवानुं कारण बताव्युं छे ते वाक्यनो विरोध आवे, कार्यकारणभावनो पण
विरोध आवे, तेथी प्रलयरूप निरोध अर्ही मन्तव्य नथी, पण द्वितीय स्कन्धमां
‘‘निरोधोस्यानुशयनम्’’ एमां शक्तिओना शयन पछी जे भगवान्नुं अनुशयन ते ज
‘निरोध’, आ दशमस्कन्धनो अर्थ छे एम मानवुं उचित अने सप्रमाण छे. निरोधनो यौगिक
अर्थ ज अर्ही भक्तोए स्वीकार्यो छे. पूर्वे जे भक्तो बताव्या छे तेनो निरोध कर्तव्य छे ए
भक्तोनो करणग्राम (इन्द्रियो) कृष्णमां रोकाय त्यारे ए मुक्त थाय. भक्तिने शोधवामाटे एनो
प्रपञ्च निवृत्त कराववो छे. ज्यारे प्रपञ्चविस्मृति थाय त्यारे कृष्णासक्ति थाय, ते निरोधथी ज
एम थई शके. आ बधी वात ‘‘शय्यासनाटनालाप’’ ए श्लोकमां स्फुट बतावी छे. तेथी
ज कृष्णे नटनी जेम रूपान्तरनो स्वीकार करी स्वीय त्रिविध भक्तनो प्रपञ्चथी उद्धार कर्यो छे.
अर्ही ‘जन्म’ शब्दथी क्रीडायुक्त हरिनी समुदायशक्तिथी लीला कहेवानी छे, तेथी
जन्मप्रकरणमां लक्षण अव्याप्त नथी थतुं. अर्ही स्कन्धार्थनो विचार पूरो करी हवे प्रकरणार्थ
कहेवानो आरम्भ करे छे.
आ दशमस्कन्धमां जन्म, तामस, राजस, सात्विक अने गुण ए नामनां पाञ्च प्रकरण
कहेवाय छे, तेमां जन्म प्रकरण चार अध्यायथी कहेवाय छे, तामस प्रकरण अठ्ठावीस
अध्यायथी, राजस पण एटला ज (अठ्ठावीस) अध्यायथी अने २१ अध्यायथी सात्विक
प्रकरण कहे छे, केमके सात्विकोने प्रमाणनी अपेक्षा होती नथी, तेथी एमां प्रमाणना सात
अध्याय ओछा छे, गुणप्रकरणना छ अध्याय छे, एटले दशमस्कन्धना ८७ अध्याय छे.
जन्म-प्रकरणमां चार अध्याय छे तेमां चतुर्मूर्ति भगवान्नो जन्म कह्यो छे.
प्रथम अध्यायमां वसुदेवजीना हृदयमां वासुदेव प्रकट थया अने देवकीजीनो कंसथी बचाव
कर्यो. काळथी भगवान् सिवाय कोई बचावी न शके. बीजा अध्यायमां दैत्यनो वध करवा
सङ्कर्षण पधार्या. तृतीय अध्यायमां देवकीजीमां प्रद्युम्नजी (व्यूहरूप) पधार्या. अने चोथामां
चतुर्थ अनिरुद्धनुं प्राकट्य छे ते धर्मनी रक्षा करनार छे. भगवान् कोईथी बन्धाता नथी, पण
ए सर्वने मुक्ति आपे छे. वसुदेवथी ध्यानद्वारा देवकीमां त्यां मथुरामां प्राकट्य अने त्यान्थी
श्रीगोकुल पधार्या एम प्रथम चार अध्यायथी चतुर्मूर्तिनुं प्राकट्य छे एमां अवान्तर प्रकरण बे
छे. रूपान्तरनो स्वीकार त्रीजा अध्यायमां अने नटभावनो स्वीकार चोथा अध्यायमां छे.
भक्तनुं दुःख भगवत्प्राकट्यमां हेतु छे ए प्रथमाध्यायार्थ छे. भूमि, माता तथा भगवान्ना
बीजा प्रिय भक्तोने कंसादिथी, कालादिथी अने (अनुसन्धान पृष्ठ सङ्ख्या ४……. अ)
[[३]]
१. जन्मप्रकरण अ. ४
व्यूहप्राकट्य -वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न अनिरुद्ध
विषय - हेतुता उद्यम रूपान्तरस्वीकार मायाथीनाट्य
अ.१ अ.२ अ.३ अ.४
२. तामस प्रकरण अ. २८
प्रमाण अ.७ प्रक्षिप्तअ.३ प्रमेयअ.७ साधनअ.७ फळअ.७
अ.५-११ अ.१२-१४ अ.१५-२१ अ.२२-२८ अ.२९-३५
श्रीवल्लभमतानुसारी अ.६धर्म+अ.१धर्मी
अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी
३. राजस प्रकरण अ. २८
प्रमाण अ.७ प्रमेय अ.७ साधन अ.७ फळ अ.७
अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी
अ.३६-४२ अ.४३-४९ अ.५०-५६ अ.५७-६३
४. सात्विक प्रकरण अ. २१
प्रमेय अ. ७ साधन अ. ७ फळ अ. ७
अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी अ.६धर्म+अ.१धर्मी
अ.४६-७० अ.७१-७७ अ.७८-८४
[[४]]
विशेष - १. सात्विक प्रकरणमां प्रमाण प्रकरण नथी. कारण के सात्त्विकोने प्रमाणज्ञान
स्वाभाविक ज होय छे. आथी सात्त्विकोनो निरोध प्रमेय, साधन अने फळ द्वारा थयो छे तेथी
सात्त्विक प्रकरणना २१ अध्याय छे.
२. तामस, राजस अने सात्त्विक ए त्रणेय प्रकरणना पेटा प्रमाण प्रमेय आदि प्रकरणोना
सात-सात अध्यायो छे. तेमान्ना प्रथमना ६ अध्यायो १. ऐश्वर्य २. वीर्य ३.यश ४. श्री
५. ज्ञान ६. वैराग्य ए भगवद्धर्मना अध्यायो छे अने दरेकमां सातमो अध्याय धर्मीरूपे स्वयं
भगवाननो छे.
५. श्रीकृष्णनुं स्वरूपद्योतक गुण प्रकरण अ. ६
ऐश्वर्य वीर्य यश श्री ज्ञान वैराग्य
अ.८५ अ.८६ अ.८७ अ.८८ अ.८९ अ.८९
विशेष - आ छेल्ला पाञ्चमा प्रकरणमां धर्मी पोते ज भगवान् होवाथी तेमना छ धर्मोरूप स्वयं श्रीकृष्ण परात्पर छे तेम दर्शाववा छ अध्यायो छे. आम ९० मान्थी १२-१३-१४ ए त्रण अध्यायो बाद करतां दशमस्कन्धना ८७ अध्याय पूर्ण थाय छे. (पृष्ठ २थी चालु) अज्ञानथी एम त्रण प्रकारे दुःख थयुं छे ते भगवान् विना कोईथी निवृत्त थाय एम न होवाथी भगवान्ना अवतारमां ए दुःख हेतुरूप छे. हवे तामस भक्तोनो निरोध करवामाटे २८ अध्यायथी तामस प्रकरण कहे छे. तेमां प्रमाण, प्रमेय साधन अने फल ए नामनां चार अवान्तर प्रकरण छे. ए दरेक प्रकरण सातसात अध्यायथी कहे छे. छ धर्म अने एक धर्मी मळीने सात थाय ए सात अध्यायना अर्थ छे. अर्ही व्यूहादिनी लीला नथी, केवळ पुरुषोत्तमनी लीला छे ए बताववामाटे सात अध्यायथी धर्मविशिष्ट धर्मी अध्यायार्थरूपे कहेवामां आवे छे. एमां पहेला सात अध्याय प्रमाणना छे, केमके भगवच्चरित्रमां प्रमाणनी अपेक्षा तामस भक्तोने इष्ट छे. एमां पण पुरुष भक्तोने प्रमाणनिष्ठा छे ज्यारे स्त्रीओने प्रमेयमां निष्ठा छे, तेथी बीजा सात अध्यायथी प्रमेयलीला [[५]] कही छे. साधन प्रक्रिया पण सात अध्यायथी कही छे तेनुं फल स्त्रीओमां प्रतिष्ठित छे. तेथी फल प्रकरण सात अध्यायथी कह्युं छे. भगवान् अन्यत्र पधारे त्यारे उत्सव त्यां थाय एम बताववामाटे प्रथम अध्यायमां उत्सव कह्यो छे एमां प्रथम भगवान्नो ऐश्वर्यभाव कह्यो छे, बीजा अध्यायमां पूतनामारणथी भगवाननुं वीर्य बताव्युं छे. शकटभञ्जनथी यश कह्यो. शकट तामस, तृणावर्त राजस, अने पुत्रभावथी लालन ए सात्विक छे. नामलीलामां श्री छे, बन्धन लीलामां ज्ञान, अने यमलार्जुनमुक्तिमां वैराग्य. छेल्लो अध्याय धर्मिवर्णन पर छे. आम सात अध्यायना अर्थ दरेक अवान्तर प्रकरणना समजवा. प्रथमथी भगवन्मार्गमां बाधक घणां छे; द्वितीयमां एमान्थी मुक्त भगवान् ज करी शके; भगवान् सर्व अर्थ सिद्ध करनार छे ए त्रीजाथी कह्युं; चोथामां भक्तिने आपनार भगवान् छे ए कह्युं; पाञ्चमान्थी भगवान्नी भक्तवश्यता बतावी; भगवाने सर्वनो उद्धार करवानो यत्न कर्यो ते ज सर्वदोषने दूर करनार छे ए वात छ्ठ्ठा अध्यायथी कही; अने सातमामां धर्मी परमानन्द आपनार छे एम कह्युं. त्यां आ प्रमाण प्रकरण पूरुं थयुं. प्रमाणबळना आश्रयथी गोकुलस्थ भक्तोने भगवान्मां आसक्ति अने प्रपञ्चविस्मृति थई ए वात कही भगवान्मां अज्ञान अने नन्दसूनुरूप अन्यथाज्ञान थवाथी ते-ते लीलाना कर्तापणानो भगवान्मां आरोप कर्यो छे, तेथी उत्सवाध्यायथी लईने कृष्णमां स्नेह करावनार सात अध्यायथी प्रमाणलीला कही. हवे प्रमेयथी कृष्णासक्तिनी वात कहे छे. पहेलामां स्नेह कह्यो, हवे आ प्रकरणमां आसक्ति कहे छे. आगामी प्रकरणमां व्यसन आवशे, ते पछी फल, एम चार प्रकारे निरोध सिद्ध थशे. भगवान्ना रूपना सौन्दर्यमां भक्तनी आसक्ति कालियमर्दनरूप क्रियावडे अने ‘‘कृष्ण ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं’’ इत्यादि छ श्लोकथी अभीष्ट दानवडे बतावी छे; एम स्त्रीओ, बाळको अने गायोनी भगवान्मां दृढासक्ति त्रण अध्यायथी कही. रूपनो अनुभव स्त्रीओ करी शके तेथी प्रथममां गोपीओनां मन ‘‘पीत्वा मुकुन्द’’ ए श्लोकथी भगवान्मां होवानुं कह्युं अने छेल्ला वेणुगीतना अध्यायमां एना नयननो विनियोग भगवान्मां कह्यो ते पण भगवाने कराव्यो त्यारे थयो. हवे पछी शारीर अनुभव भगवान् फल प्रकरणमां करावशे. बळदेवजीमां आवेश बताववामाटे भगवाने भगवदीयोना धर्मो कह्या अने बळदेवजीनी स्तुति पण करी पोताना धर्मो एमां बताव्या अने लोकने प्रतीति थाय माटे धेनुकनो वध पण एना हाथथी कराव्यो. भक्तोनी आसक्तिनी परीक्षा कालियना प्रसङ्गथी करी. केवळ स्नेहथी आटलुं भगवान्मां एमने हेत नथी, पण भगवाने एने अनेक प्रसङ्गे जीवदान कर्युं छे तेथी पण स्नेहाधिक्य छे एम बताववामाटे दावानलथी एओने छोडाव्यानो प्रसङ्ग कह्यो. जीवनदातामां आसक्ति थवी योग्य [[६]] छे. पन्दरमां अध्यायमां प्रलम्बनो वध कह्यो. वर्षा, शरद वगेरेना वर्णनथी कालादिकृत दुःखोनो अभाव कह्यो. आ प्रकरणमां पण ऐश्वर्य, वीर्य, वगेरे अध्यायार्थक्रम तो प्रथम प्रकरणवत् समजी लेवो. धर्मिरूपवडे वेणुनाद करी ए आसक्तिने दृढ करी. एम सात अध्यायथी तामस प्रकरणनुं बीजुं अवान्तर प्रमेय प्रकरण पूरुं थयुं. हवे सात अध्यायथी साधन प्रकरण कहे छे; तेथी भगवान्मां भक्तने व्यसन थाय छे. ‘व्यसन’ एटले जेना वगर जीवन न थई शके तेवुं व्यसन भक्तोने कायावडे थाय माटे आमां कायिक व्यापार होवाथी आ प्रकरणने ‘साधन प्रकरण’ कहे छे. दैहिक सकल भावो अने पोतानामां रहेली देहसम्बन्धी लाज वगेरेने छोडी भगवान्ने माटे जे करवामां आवे, ते पछी लौकिक के वैदिक होय, ते करनार ‘व्यसनी’ कहेवाय तेथी प्रथमाध्यायमां कुमारीओए व्रत कर्युं तेमां लौकिक भावने छोडीने भगवाने जे कांई कह्युं ते देहादि धर्मने प्रतिकूळ हतुं छतां कर्युं. सम्बन्धीने मत्सर न थवा माटे गोपोने त्यां भगवाने साथे लीधा अने सर्व वृक्षोनी प्रशंसा करी एनाथी बाळको सिद्ध थया. गोपबालको बधुं करवाने समर्थ हता छतां क्षुधानिवृत्तिने माटे प्रभु पासे प्रार्थना करी तेथी एने प्रभुमां व्यसन छे एम बताव्युं; कुमारीओ अने बाळको ए बन्नेना भोग भगवदधीन कह्या ए व्यसनना ख्यापक छे. प्रथम लौकिक छे, बीजा वैदिक छे. हरिनी प्रीतिने माटे लौकिक अथवा वैदिक उपाय करनार व्यसनी कह्या छे. आ गोकुलस्थ सर्व तामस छे एम बताववामाटे यज्ञपत्नीओ तथा एओना पतिओनी वात कही छे. आ साधन प्रकरण होवाथी यज्ञपत्नीओ घेर पाछी गई. एना पतिओ पण न आव्या. स्त्रीओनी साथे एना पतिओने पण फळनो भाग (वैदिक कर्ममां पतिने स्वर्ग मळे तेनी साथे एना पुत्रादिने पण स्वर्ग मळे छे, तेम पुष्टिमां स्त्रीने भजनानन्द मळे तो एना पतिने पण ए स्त्रीद्वारा एनो अनुभव थाय. ए न्यायथी ऋषि लोकोनी स्त्रीओए भगवान्नी सेवा करी तेना फळनो भाग) एना पतिओने पण मळशे एम सिद्ध थयुं. निर्दोष अन्ननुं भोजन करवुं. प्रेमपूर्वक आपे ते ज निर्दोष कहेवाय अथवा वनस्पतिओ वैष्णव छे ते आपे ते निर्दोष गणाय. आ बे अध्यायथी कुमारिकाओनुं व्रत कह्युं. भगवत्परायण जीवे पोतानी वृत्ति भगवान्नी इच्छाने अधीन रहीने करवी. प्रथमाध्यायमां कुमारीओने वरदान आप्युं. ए अध्यायमां ऐश्वर्य स्पष्ट छे. बीजा अध्यायमां माहात्म्यनो बोध छे तेमां वीर्य स्पष्ट छे. बाकीना चार अध्यायनो अर्थ कहे छे के कर्म वैदिक अने लौकिक भेदवडे बे प्रकारनुं छे. वैदिकमां स्त्रीओने श्रद्धा न होवाथी कामहेतुक लौकिक कर्मनुं वर्णन करी चूक््या; हवे फल आपनार होय छतां ए कर्मनुं फल भगवान् न आपे तो ए न लेवुं जोईए, ए बताववाने चार अध्याय कहे छे. एमां पहेला अध्यायमां [[७]] ‘‘कर्म करवानुं कारण शुं’’ ए भगवाने पूछ््युं. नन्दरायजीए उत्तर आप्यो. तेमां ‘‘इन्द्रादि फल देनार नथी’’ एम सिद्ध कर्युं. गोवर्धनने ऊठावी इन्द्रादिने निरभिमान कर्या, ए कर्मनुं तात्पर्य बतावी अन्याश्रय छोडावी भगवाने बधाने स्वपरायण कर्या. अवैष्णव व्रत पण भगवदिच्छा जाणीने करवां एम बताववा नन्दरायजीनी एकादशीनुं व्रत कह्युं. पछी एमने वैकुण्ठ बताव्युं ए एनुं फल गणाय; पण जेनो लीलामां प्रवेश कराववानो प्रभुनो विचार छे तेने तो वैकुण्ठदर्शन अवान्तर फल छे. अवान्तर फल मळतां विश्वास दृढ थाय अने तेथी मुख्य फलमां अश्रद्धा न थाय. अर्ही साधनप्रकरणनो सार कहे छे के कृष्णना वचन प्रमाणे चालवुं, मायानो मोह न राखवो. वृक्षनी जेम स्थिति करवी एटले सर्व परार्थ करवुं. शुद्ध अन्नथी निर्वाह करवो. भगवान्नी इच्छा होय तो माहात्म्यज्ञानपूर्वक दान करवुं. एनी इच्छा न होय तो याग व्रत वगेरे न करवां. इच्छा जणाय तो यागव्रतादि करवां. स्वेच्छापूर्तिमाटे पण एमनी इच्छा जणाय तो कर्म करवुं. भगवत्परायण थईने हम्मेशां रहेवुं. आ पुष्टिमार्गीय जीवने करवानां साधनोने सङ्ग्रह छे. अर्ही साधन प्रकरण पूरुं थयुं. साधन पछी फल प्रकरण सात अध्यायथी कहे छे. ए तामसोनुं फल समजवुं. सर्व फल कृष्णात्मक छे; ए सिवाय कांई फल नथी. एमां प्रथम अध्यायमां ऐश्वर्य छे. भगवाने प्रथम नाद करी बोलाव्यां तेने वाक्यवडे पाछां घेर जवानो उपदेश करे छे; पण फलमां वाक्य न करे तो चाले, तेथी ए भकतो पोताने घेर न गयां त्यारे भगवान् एनी साथे रम्या. एम करतां भकतोने गर्व थयो त्यारे भगवान् अन्तर्धान थया. आ ज भगवान्नो उत्तमोत्तम मार्ग कहेवाय के बहार के अन्दरथी भगवान्नो जो सम्बन्ध थाय तो एने भगवान् पोतानो करी ले, एने संसारमां पटके नहि. बीजा अध्यायमां परोक्ष रहीने एनी प्रीतिने वधारी तेथी एमां वीर्य कहेवायुं. भगवाने वचन क्ह्यां तेथी त्रीजामां यश कहेवायुं. चोथामां श्रीनुं निरूपण छे. तेमां भगवान्नुं प्राकट्य छे. पछी स्वरूपथी भगवाने ए भकतो साथे रासक्रीडा करी. शङ्खचूडनी कथामां ए भकतोने एटलो पण भेद हतो तेथी एओने रमणमां विघ्न आव्युं. भगवाने शङ्खचूडने मारी एना माथानो मणि लई बळदेवजीने आप्यो एमां वैराग्य छे. ज्ञानमां परोक्ष रीते गुणगान कह्युं. एम रात्रि अने दिवस, संयोग अने वियोग, ज्ञान अने भक्ति चक्रनी पेठे थया ज करे छे. अर्ही तामस प्रकरण सम्पूर्ण थयुं. (राजस प्रकरणनो प्रकरणार्थ आगळ अध्याय ३६ मां आवशे) [[८]] २. निरोधलीलानी व्याख्यानो आरम्भ करतां श्रीआचार्यचरण मङ्गलाचरण करे छे केः नमामि हृदये शेषे लीलाक्षीराब्धिशायिनम्। लक्ष्मी सहस्रलीलाभिः सेव्यमानं कलानिधिम्॥ लीलारूप क्षीरसागरमां हृदयरूप शेष उपर पोढता अने असङ्ख्य लक्ष्मीओ अनेक लीलाथी जेनी सेवा करी रही छे तेवा कृष्णचन्द्रने हुं नमन करुं छुं. आ निरोधलीलार्थक दशमस्कन्धमां चार अध्यायनुं प्रथम जन्म प्रकरण छे, बीजुं सातसात अध्यायना एकेक अवान्तर प्रकरणवाळुं एटले प्रमाण, प्रमेय, साधन, अने फल एवा चार भागमां वहेञ्चायेलुं तामस प्रकरण २८ अध्यायनुं, तेटला अध्याय अने उपर बताव्यां अवान्तर प्रकरणवाळुं राजस प्रकरण, तेम ज सात्विकोने प्रमाणनी अपेक्षा न होवाथी ए सात अध्यायनां त्रण प्रकरणवाळुं २१ अध्यायनुं सात्विक प्रकरण, तथा छेल्लुं भगवान्ना छ गुण एक-एक अध्यायथी कहेला तेथी ए छ अध्यायनुं गुण प्रकरण, ए पाञ्च प्रकरणवाळा दशमस्कन्धमां निरोधरूप भगवान् पञ्चात्मा छे तेने पोताना हृदयमां बिराजवानी विनन्ति करता आचार्यजी कहे छे केः चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च त्रिभिस्तथा । षड्भिर्विराजते यो सौ, पञ्चधा हृदये मम॥ ‘‘चारथी, चारथी, चारथी, त्रणथी अने छथी पाञ्च प्रकारे जे दशमस्कन्धमां विराजे छे ते मारा हृदयमां हो’’ एम बे श्लोकथी मङ्गलाचरण करीने प्रस्तुत ग्रन्थनो आरम्भ करतां कहे छे के दशमना स्कन्धार्थ, प्रकरणार्थ अने अध्यायार्थनो अर्ही विचार थाय छे. एमां भगवान् नव लक्षणोथी जणाय छे ते कृष्णनुं अर्ही निरूपण होवाथी आ दशमस्कन्धने आश्रयलीलाने कहेनार कहेवो के सर्गादिलीला क्रमथी चालती आवे छे ते प्रमाणे गणतां तेने निरोधलीलाने कहेनार गणवो एम अर्ही शङ्काने अवकाश छे. त्यां कोईनुं कहेवुं एम छे के जे लीलानो निर्धारक होय ते ‘अर्थ’ कहेवाय, क्रम तो दुर्बल गणाय छे. पूर्वमीमांसामां ‘‘अग्निहोत्रं जुहोति’’ एम कहीने पछी ‘‘यवागुुं पचति’’ एवो पाठक्रम छे. त्यां ‘यवागु’ सिद्ध थया पहेलां होम न थई शके तेथी पाठक्रम करतां ‘अर्थ’ क्रम बळवान छे एम सिद्ध कर्युं छे, तेम अर्ही पण सर्ग विसर्गादि क्रमनी विवक्षा न करतां आश्रयरूप स्कन्धार्थ लेवो, कारण के आपणे दश लीलानुं श्रवण कर्तव्य छे ते तो आगळ-पाछळ पण थई शके छे. जो आ स्कन्धनो अर्थ ‘निरोध’ करो तो ए तो प्रलय ए निरोध होवाथी एवी वात अर्ही नथी. ए निरोध तो (चार प्रकारनो प्रलय) द्वादश स्कन्धमां कह्यो छे, दशम स्क्न्धमां एनो निर्देश देखातो नथी. अर्ही तो कृष्णनी [[९]] शुद्धलीला छे तेथी ए प्रलय करतां मोटी लीला गणाय; तेथी अर्ही आश्रयलीला स्कन्धार्थरूप छे, एम कोई कहे तो एना उत्तरमां कहेवानुं के अर्ही आश्रयलीला सम्भवे नहि, केमके आश्रय तो नवलक्षण सापेक्ष छे अने अर्ही तो सात लक्षण थयां अने स्कन्धमां अष्टम ‘निरोध’ कहेवानो छे. आश्रय तो नव लक्षणसापेक्ष होवाथी अर्ही आश्रयलीला कही न शकाय. एनुं कारण ए ज के अर्ही जो तमे आश्रयलीला लो तो आश्रय सिद्ध थया पछी आगळ एकादश अने द्वादश स्क्न्धनी लीलानो कांई उपयोग न रह्यो, तेथी ए बे लीला व्यर्थ थशे, एटलुं ज नहि, पण अशरीर विष्णु पुरुष शरीर स्वीकारे ते सर्ग, पुरुषथी ब्रह्मादिनी उत्पत्ति विसर्ग, उत्पन्नने मर्यादामां स्थापन करवां ते स्थान, स्थितिनी अभिवृद्धि, पोषण, एम प्रथम लीला कारण अने उत्तर लीला एनुं कार्य एम कार्यकारणभाव जे अत्यार सुधी चाल्यो आवे छे तेनो लोप थशे. वळी तमे एम कहो के अर्ही कृष्णनुं वर्णन छे तेथी ए ज आश्रय छे; तो कृष्ण तो एकादशस्क्न्धमां पण छे तेथी तमारुं लक्षण त्यां अतिव्याप्त थशे. अने अमारा मत प्रमाणे अर्ही दशमस्कन्धने निरोधलीलारूपे स्वीकारो तो अधिकारथी लईने जे क्रम चाल्यो आवे छे ते क्रमने छोडवो पडतो नथी, केमके निरोधनो अर्थ ‘‘भगवान्नी प्रपञ्चरूपे क्रीडा’’ एटलो ज थाय छे, तेथी एनो केटलाक टीकाकारो भगवान् सूता पछी एमां जीवनो लय एने निरोध कहे छे अर्ही सम्भवतो नथी. अर्ही तो ‘‘भगवाननी स्वशक्तिओने लीलानुकूळ करी एनी साथे क्रीडा’’ एटलो ज अर्थ थाय छे; तेथी ज द्वितीयस्कन्धमां ‘‘शक्तिः शाययित्वा’’ एम कही शयनने जाग्रदादि भेदथी त्रण प्रकारनुं कही एनी ७२ नाडीरूप शक्तिओ अने भगवाननी बार शक्तिओ मळी ८७नी सङ्ख्या थाय ते दशमस्कन्धना अध्यायनी सङ्ख्या थाय एटले आ प्रमाणे अर्थ करवो ज योग्य छे. तमे जे धर्मग्लानि निमित्त दुष्ट राजाओने भगवाने मार्या एने ‘निरोध’ कहो छो ते निरोध दशमस्कन्धनो अर्थ नथी, पण ए तो दश लीलाथी जुदुं ज सङ्कर्षण व्यूहनुं कार्य छे, केमके दुष्ट राजाने मार्या एना प्रलयरूप निरोध कहो तो एवा निरोधनुं लक्षण दशमस्क्न्धना प्रथमना जन्मप्रकरणमां अव्याप्त थशे. वळी एकादश स्कन्धमां ए लक्षण अतिव्याप्त थशे. वळी एने निरोध कहेशो तो तमारा मत प्रमाणे एक लीला वधारे गणवी पडशे; नव लक्षणने बदले तमारे दश लक्षण करवा पडशे. वळी भगवान् दुष्टने मारवामाटे अर्ही पधारे छे एम कहेशो तो पृथानी स्तुतिमां तथा ‘‘परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम्। भक्तियोगविधानार्थ’’ एम कह्युं छे एनो विरोध थशे, पूर्वोत्तर स्कन्धनो कारणकार्यभाव नष्ट थशे, ‘नवलक्षणलक्ष्य’ एवी द्वितीयस्कन्धमां करेली प्रतिज्ञानो भङ्ग थशे. तमे अर्ही कदाच कहो के ‘भूमिर्दृप्तनृपव्याज’ ए श्लोकमां पृथ्वी दुष्ट [[१०]] राजाओथी त्रासीने ब्रह्माजीने शरणे गई. एनो जवाब एटलो ज के भूमि भक्त छे अने एनो भार भगवान्ना पधारवा विना उतरे नहि तेथी भगवान् परमानन्दरूपे प्रकटी पृथ्वीने राजाओए आपेलो क्लेश भगवाने निवृत्त कर्यो एटला माटे पृथ्वीने ब्रह्माजीनी मारफते भगवान्ने पधारवाने विनन्ति करवी पडी छे. एणे राजाने मारवामाटे प्रार्थना करी नथी, तेथी ज ब्रह्मा, रुद्र वगेरे देवोने पृथ्वी भक्त होवाथी एने आगळ करी भगवान् पासे जवुं पड्युं हतुं; तेथी ज भगवाने प्रकट थई भक्तोना प्रपञ्चने भुलाव्यो छे. ज्यां सुधी बहारनो अग्नि लाकडाने बहारथी तपावी अन्दरना अग्निने चेतावे नहि त्यां सुधी लाकडामां रहेलो अग्नि काष्ठने बाळवाने समर्थ थतो नथी, तेम सर्वभूतमां विराजमान भगवान् स्वयं बहार प्रकट थई ए मनुष्यना हृदयमां प्रवेश न करे त्यां सुधी अन्तर्यामीरूपे रहेल भगवान् ए जीवना देहेन्द्रिय प्राणान्तःकरणनो लय करी शके नहि; माटे भक्तना प्रपञ्चने भुलाववाने सारु भगवान्नुं प्राकट्य छे. अर्ही एवी पण शङ्का कोई करे के भगवाने वसुदेवने चतुर्भुजरूपथी दर्शन आप्यां अने कंसनी भीति देवकीजीने लागी तेथी भगवाने रूपान्तर कर्युं त्यारे पूर्वरूपे ज बधुं करी लेवानुं सामर्थ्य तो भगवान्मां होवुं जोईए छतां एम करवानुं कारण शुं? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के भगवान्ने तो भक्तमां लीला करवी छे; ए तो स्वयं प्राकृत जेवा देखाय तो एनी पासे जीव आवी शके, तेथी सात्विकादि त्रिविध जीवना समागममां आवी एनो प्रपञ्च भुलावी भगवाने एओनो उद्धार कर्यो तेथीज नटवल्लीला करी. आ दशमस्कन्धमां पाञ्च प्रकरण छे तेमां प्रथम चार अध्यायनुं जन्मप्रकरण छे. एमां भगवान्ने पधारवानो हेतु, एने माटे उद्योग, रूपान्तरस्वीकार, कपट मानुष भाव ए चार अध्यायार्थ छे. एटलाथी ए प्रकरण पूरुं थाय छे. बीजुं तामस प्रकरण छे तेना २८ अध्याय छे. तेमां प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फल ए चार सात-सात अध्यायनां अवान्तर प्रकरण छे. ए सात अध्याय होवाना कारणमां भगवान्ना छ धर्म अने धर्मीनो अध्याय एक ए मळी सात अध्याय थया. ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य ए छ धर्मो अने तद्विशिष्ट धर्मी ए सातमो ए प्रमाणरूपे, प्रमेयरूपे, साधनरूपे अने फळरूपे स्वयं थाय छे एम बताववाने माटे तामस प्रकरणना २८ अध्याय छे. ए लीलावडे व्रजमां रहेला तामस भाववाळा भक्तोनो उद्धार कर्यो. ए ज अवान्तर प्रकरणो अने ए ज अध्यायार्थो साथे २८ अध्यायनुं त्रीजुं राजस प्रकरण आवे छे. चोथुं २१ अध्यायनुं सात्विक प्रकरण छे तेमां सात्विकोने प्रमाणनी जरूर न होवाथी सात अध्याय ओछा छे. एना वडे मथुरास्थ तथा द्वारकास्थ भक्तोना प्रपञ्चनी निवृत्ति करी छे. छेल्ला प्रकरणमां षडैश्वर्य पूर्ण कृष्ण ज [[११]] प्रतिपाद्य छे एम बताववामाटे छ अध्यायनुं गुण प्रकरण छे. एमां भगवान्ना ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य ए छ गुणोनी लीला कही छे. प्रथम प्रकरणमां भगवान् चतुर्मूर्तिनो जन्म कह्यो छे, तेथी एना अध्याय पण चार ज कह्या छे. चाररूपे प्रकट थई शुं कर्युं ए वात तो ए लीला वखते कहेवामां आवशे. जन्मप्रकरणना चार अध्यायमां प्रथमाध्यायनो अर्थ भक्तदुःख ए भगवान्ना प्राक्ट्यमां कारण छे. द्वितीय अध्यायनो अर्थ भगवान्नो उद्यम छे. रूपान्तरनो स्वीकार ए त्रीजा अध्यायनो अर्थ छे. मायानुं कार्य कापट्य चोथा अध्यायनो अर्थ छे. चार अध्यायमां पहेला अध्यायमां प्रद्युम्न, द्वितीयाध्यायमां अनिरुद्ध, तृतीयाध्यायमां वासुदेव अने चोथा अध्यायमां सङ्कर्षणनुं प्राकट्य छे. (निबन्धमां क्रम वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध, एम छे, पण ए अर्ही ग्राह्य नथी.) भगवदवतारमां त्रण प्रकारनुं दुःख कारण छे तेनुं तात्पर्य कहे छे के सत्वादि त्रण गुणो ज भक्तने दुःख आपनार छे. कंसथी अने अज्ञानथी ए दुःख थाय छे. द्वापर अने कलियुग नी सन्धिरूप काल छे. तत्कृत दुःख भूमिने थयुं. कंसथी देवकीजीने दुःख थयुं. ए भगवान् दूर करे तो ज दूर थई शके एम छे. अर्ही ‘‘देहं मानुषमाश्रित्य’’ ए श्लोकथी प्रश्नो कर्या तेने दशम अने एकादशस्कन्ध ए बन्नेनी साथे सम्बन्ध छे, तेथी आ जन्मप्रकरणमां अवान्तर चार प्रकरण छेः प्रश्नप्रकरण, भूमिप्रकरण, मातृप्रकरण अने बीजुं (अन्य) प्रकरण ए ज वात निबन्धमां ‘‘प्रश्नेन सहिताः पूर्वं चतस्रः प्रक्रिया मताः’’ ए श्लोकथी कही छे. तेमां १० श्लोकथी भूमिनुं सान्त्वन वाणीथी, उपायवडे ३५ श्लोकथी देवकीजीनुं सान्त्वन अने ८ श्लोकथी बीजां बधानुं सान्त्वन छे. प्रश्नमां प्रथम नवमस्कन्धनो अनुवाद अने शुकदेवजीनी स्तुति करी ए परीक्षित भक्त छे एम बतावे छे. परीक्षितनुं भक्तत्व व्यक्त न थाय तो शुकदेवजी अतिगुप्त एवी लीला एने सम्भळावे नहि. प्रश्न कर्यो छे तेमां पोते भगवान्ना स्वरूपने जेवी रीते जाणवुं जोईए तेवी रीते जाणे छे. तेथी अज्ञान के अन्यथाज्ञान थवानो सम्भव नथी, एम कही पोतानो भगवल्लीला-श्रवणनो अधिकार सूचित कर्यो छे. वळी आ दुःसह भूख मने बाधा नथी करती, केमके तमारी कथारूप अमृतनुं हुं पान करुं छुं. तेनाथी मारुं जीवन चाले छे ए कहेवुं शुकदेवजीनी दया उत्पन्न करनारुं छे. एम बार श्लोकथी प्रश्न कर्यो छे तेनी सङ्ख्यानुं तात्पर्य भगवान्ना गुण छ छे तेम लोकना दोष पण छ छे ए बन्ने असाधारण छे तेथी बारथी प्रश्न कह्यो छे. कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ॥ राज्ञां चोभयवंश्यानां चरित्रं परमाद्भुतम् ॥१॥
[[१२]] परीक्षित राजाए पूछ््युं - आपे चन्द्र अने सूर्य ना वंश अने एमां उत्पन्न थयेल राजाओनां परम अद्भुत चरित्र ए बधुं कह्युम् ॥१॥
धर्मशील१ एवा यदुराजानुं चरित्र तो आपे नवमस्कन्धमां कह्युं छे. तेना वंशमां
२अंशवडे पधारेला विष्णुनुं चरित्र आप कहो ॥२॥
विशेषः १. पितानी आज्ञानुं उल्लङ्घन करनार यदुने ‘धर्मशील’ एवुं विशेषण केम आप्युं एना
उत्तरमां कहेवानुं के पितृशब्दनी शक्ति तो ईश्वरमां छे, लौकिक पितामां गौणीवृत्ति छे, ते यदु
जो पितानी आज्ञा मानी एनी वृद्धावस्थाने स्वीकारे अने पोतानुं यौवन पिताने आपे तो
जीवनुं सहज दास्य होय ने भगवान्नी सेवा करवी ए वृद्धावस्थामां बने नहि तो प्रभुनी
आज्ञानुं उल्लङ्घन करवुं पडे, तेथी मुख्य पितानी सेवामाटे गौण पितानी आज्ञानुं उल्लङ्घन
करनार यदुने ‘धर्मशील’ कह्यो छे. वळी पुत्रनी वयनो उपयोग एनी माताना भोगमां करवो
पण अनुचित गणाय, तेथी पण एनी आज्ञानो स्वीकार न कर्यो छतां ते धर्मशील छे एम
शुददेवजीए कह्युं.
२. ‘विष्णु‘ एटले व्यापक, सर्वमां व्यापीने रहेनार छतां मायावडे आच्छादित तेथी एने
कोई जाणी न शके. एमनुं वसुदेवजीना गृहकोणमां प्राकट्य एटले ए देशमान्थी एटली मायाने
दूर करवाथी एनुं दर्शन थाय. ए विचारथी अर्ही ‘अंश’ शब्द कह्यो छे; एनाथी कृष्ण
अंशावतार छे एम समजवानुं नथी. पूर्वे प्रथमस्कन्धमां कहेला ‘‘कृष्णस्तु भगवान्
स्वयम्’’ ए वाक्यनी एकवाक्यता पण उपर प्रमाणे अर्थ करवाथी थई शके.
प्राणिमात्रना हृदयमां भावनीयाकृति भगवान् यदुना वंशमां आव्या अने ए
विश्वात्माए ज चरित्र कर्यां ते सविस्तर अमने कहो ॥३॥
केमके भगवान्ना चरित्रने तो जेनी तृष्णा निवृत्त थई होय ते ज गाई शके छे. ए चरित्र संसारनिवृत्तिमां औषधरूप छे, छतां कान अने मन ने प्रीति करावनार छे. भगवान्ना गुण भक्तो गाय एना अनुवादरूप आवा चरित्रने साम्भळतां कोने अभावो थाय?* कोईने पण ए भगवान्ना गुण साम्भळतां अभावो (उदासीनता) आवे नहि, पण जे पशुघ्न होय एने एनाथी अभावो थाय ॥४॥
विशेष - भगवद्गुणो एना स्वरूपथी, फलथी, उत्तम विषयने लईने तेमज महापुरुषना सम्बन्धने लईने भगवान्ने प्राप्त करावनार छे ए गुण गावा ए मुक्तनुं कर्तव्य छे, मुमुक्षु लोकोना संसारने छोडावनार छे. आमां चरित्ररूप विषय निन्द्य नथी, पण स्तुत्य छे तेथी आवा गुणगान तरफ जेने अभावो देखाय ते भगवन्मार्गथी पडी जाय छे. अथवा विरक्त [[१३]] पुरुष आ गुणगान करवाने माटे यत्न करे एवो अर्थ ‘यतेत्’ एवो पाठ होय तो करवानो छे. ए लोकोने भगवद्गुणगानमां अरुचि केम थाय छे एवा सन्देहना उत्तरमां कहेवानुं के आत्मघाती, कर्मजड, निन्दित काम करनार ए त्रण सिवायनो बीजो ए गुणगानमां विरक्त थतो नथी. थाय छे तो ए त्रणमान्थी एक होवो जोईए. एमां पण पशु जीव अने स्त्री जीव सहज गुणगान विरोधी छे तेने बाद करवा. ए पशुत्व स्त्रीत्व जीवनिष्ठ समजवां, देहनिष्ठ नहि, ‘‘स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपि यान्ति परां गतिम्’’ वाक्यथी स्त्रीओ भगवान्नां भजनमां अधिकारी छे, पण स्त्रीजीव ज विमुख छे. जेम समुद्रमां तिमिङ्गल छे तेम देवोने जीतनार भीष्मादि अतिरथोरूप तिमिङ्गलवाळा कौरवना सैन्यरूप दुर्लङ्घ्य सागरने* अमारा पितामहो भगवान्ने नाव बनावीने एमनो आश्रय लईने एने वत्सपद जेटलो बनावी पोते तरी गया ॥५॥
विशेष - अर्ही कौरवसैन्यने सागर कह्यो, एटले समुद्रनो अन्त न होय ते, ते क्षणमां वत्सपद थई गयो ए संशय छे. वळी वत्सपद तरवानी जरूर न होय, पण एनुं तो उल्लङ्घन करी शकाय छतां तरी गया ए बाबत सन्देह थाय! एना उत्तरमां कहेवानुं के ए पितामहोए भगवान्रूपी नावनो आश्रय कर्यो, तेथी नानी होडी तो थोडाने बचाववामाटे होय, तेथी भगवाने पण पाण्डवोने ज बचाव्या. बीजाने बचाववानो अभिप्राय भगवान्नो होत तो त्यां नावने माटे बीजो शब्द शुकदेवजी कहेत. पाण्डवो भक्त हता छतां एमने पोताने स्वयं बचाव करवानुं सामर्थ्य छे एवुं अभिमान हतुं तेथी उत्तरानी तरफ अने पाण्डवो तरफ अश्वत्थामाए ब्रह्मास्त्र छोड्यां त्यारे भगवान्नी समक्ष पाण्डवो पोतानो बचाव करवामाटे शस्त्रो लई तैयार थई गया. एने स्वाभिमान न होत तो उत्तरानी जेम शरणे आवत अने भगवान्थी रक्षणनी प्रार्थना करत. पण एम एमणे नथी कर्युं. तेथी भक्त थई अभिमान करे ते नानामां नानो थई जाय, तेम एओ कीडी जेवा क्षुद्र थई गया. कीडी तो वत्सपदमां पण डूबी जाय, माटे भगवाने एनी वत्सपदथी पण रक्षा करी पार उतार्या. भगवान् कृपा करे तो समुद्र पण वत्सपद जेवो थई जाय, केमके एनी अचिन्त्य-अनन्त शक्ति छे तेथी एम थवामां कांई आश्चर्य जेवुं नथी. कौरव-पाण्डवोना वंशना बीजरूप मारुं अङ्ग मारी माताना उदरमां गर्भरूपे हतुं तेनो नाश करवा अश्वत्थामाए ब्रह्मास्त्र छोड्युं त्यारे मारी माता भगवान्ने शरण गई. भगवाने मारी माताना उदरमां प्रवेश करी हाथमां चक्र धरी मारी रक्षा करी ते समये भगवान् मारा जाणवामां आव्या; एम में भगवान्नुं माहात्म्य गर्भमां ज [[१४]] अनुभव्युं छे तेथी आपना कथनमां मने विश्वास छे ॥६॥
(आटली वात करी परीक्षिते पोतानो श्रवणाधिकार बताव्यो. हवे पाछा चरित्रने पूछे छे) पुरुष अने काळ रूपथी मनुष्यना हृदयमां अने बहार रहीने मृत्यु अने अमृत ने आपनार तेमज मायावडे मनुष्य जेवा भासता भगवान्ना चरित्रने हे विद्वन्! आप कहो ॥७॥
आपे रोहिणीनो पुत्र राम कह्यो, जेनुं ‘सङ्कर्षण’बीजुं नाम छे, तेने देहान्तर वगर देवकीना गर्भमां आववानो प्रसङ्ग केम बन्यो, एक ज गर्भ बे स्त्रीओना उदरमां एकी वखते केम रही शके, ए सन्देह थवाथी प्रश्न उत्पन्न थाय छे ॥८॥
मोक्ष आपनार भगवान् पिताना घरथी व्रजमां पधार्या त्यां नन्दरायजी वगेरेने पितारूप मानी वास केम कर्यो? भगवदवतार तो सत्पुरुषना रक्षणमाटे होय तेथी ए ‘सात्वतपति’ कहेवाय छे, एमने अन्यत्र जवानुं शुं प्रयोजन होई शके? ॥९॥
भगवाने व्रजमां रहीने अने मथुरामां रहीने शां कार्य कर्यां? वळी मामाने मार्यो ए पण अनुचित गणाय; एवुं कार्य भगवान्ने केम करवुं पड्युं? व्रज तथा मथुरा मां कोनो-कोनो उद्धार कर्यो? कंसनी पण शी व्यवस्था थई? (ए पण आ प्रश्नमां आवी जाय छे) ॥१०॥
मनुष्यदेहनो स्वीकार करी भगवान् यादवो साथे द्वारकामां केटला वर्ष बिराज्या? एमने केटली स्त्रीओ हती? केमके आप समर्थ होवाथी बहु स्त्रीओनो सम्भव होवाथी मारो प्रश्न छे ॥११॥
ए प्रश्नोमां पूछवामां आव्युं ए अने बीजुं पण कृष्णनुं चरित्र आप मने कहेवाने योग्य छे, केमके ए साम्भळवामां मारी श्रद्धा छे; तेथी श्रद्धाळुने विस्तारथी कहो ॥१२॥
जल पण छोडीने हुं बेठो छुं; अने भूख के तृषा बाधा करती नथी एनुं कारण हुं तो ए ज जाणुं छुं के आपना मुखकमळथी स्रवता कथारूप अमृतनुं हुं पान करुं ए ज मने भूख तरसथी मुक्त करे छे; तेथी आप मने कथामृतथी तृप्त करो ॥१३॥
सूतजीए कह्युं - हे भृगुनन्दन! आवा विष्णुए रक्षा करायेला परीक्षित राजाना सुन्दर संवादने साम्भळी भगवान्ने हृदयमां धारण करता महाभागवत व्यासजीना पुत्र शुकदेवजी कृष्णचरित्र वखाणीने भगवल्लीला कहेवाने तैयार थई गया ॥१४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजर्षि सत्तम! तारी वासुदेव भगवान्नी कथामां [[१५]] स्थिर रुचि आ वखते थई ए तारी बुद्धिनो निश्चय उत्तमोत्तम गणाय ॥१५॥
जेम गङ्गाजल त्रिलोकीने पवित्र करे छे तेम वासुदेवनी कथानो प्रश्न, कहेनार पूछनार अने साम्भळनार ए त्रणेने पवित्र करे छे ॥१६॥
(भगवाने *अवतार लेवानुं प्रयोजन जाणवामाटे पृथ्वीना दुःखनी वात कहे छे) दुष्ट राजाओनी हजारो सेनाथी भूमि भाराक्रान्त थतां ए ब्रह्माजीनी पासे पोताना दुःखने कहेवामाटे गई. ब्रह्माजी पासे जईने एणे रक्षणनी प्रार्थना करी ॥१७॥
विशेष - कृष्णने अवतार लेवानुं प्रयोजन भक्तना दुःखने दूर करवुं ए ज छे. भक्तिरूप भूमिने अत्यारे दुःख छे. माता देवकीजीने कंसे केद कर्यां छे तेथी ए दुःखी छे तेम ज बीजा भक्तो पण दुःखी छे. ए त्रण प्रकारना भक्तोने दुःखी जोई एनां दुःखने दूर करवामाटे भगवान्नुं अत्रे आगमन छे. मोटुं दुःख आवे ते भगवान् विना बीजाथी दूर न करी शकाय; त्यारे भगवान् पधारे छे, एवी भगवान्ने भूतल उपर पधारवानी मर्यादा छे. जे भक्तो शास्त्रना अधिकार रहित छे, स्त्रीओ, शूद्रो, अने स्वधर्मच्युत द्विजो जेमनो उद्धार करवाने शास्त्र समर्थ नथी तेना उद्धारक श्रीकृष्ण छे. एमां विशेष करीने स्त्रीना उद्धारक तो कृष्ण ज छे. जेनो योगादि शास्त्र निरोध करी शके छे तेवाओने तो कृष्णनो उपयोग उपासनादिमां ज्ञानीने चित्तशुद्धिमां ज होय छे. आनो मुख्य उद्धारक तो योग छे; कृष्ण तो एना छेडे रहेला छे माटे गौण छे. ए योगीओनो निरोध पण ज्ञानरूप छे अने संसार दुःखरूप छे. ज्ञानवडे ए दुःख दूर करवुं एटलो ज एमनो निरोध छे. भक्तनो एनाथी विलक्षण निरोध छे. भक्तनो संसार पण सुखरूप छे. ज्ञानीओने संसार अविद्यारूप छे. एओ साधनबळवाळा छे त्यारे भक्तो निःसाधन छे. ज्ञानीने संसारनिवृत्ति फल छे, भक्तने भगवत्प्राप्ति फल छे. ज्ञानीओने संसारनी निवृत्ति इष्ट छे तो भक्तोने संसारना दुःखनी निवृत्ति इष्ट छे एम कहीए तो बन्नेमां विरोध नथी. भगवाने स्वयं प्रकट थई भक्तनो निरोध कर्यो एटले दशमस्कन्ध निरोधलीलारूप छे एम पण कही शकाय. एम न करे अने अम्बरीषनी पेठे पृथ्वी उपर पधार्या वगर भक्तनुं दुःख मटाडे तो ए लीलानो ईशानुकथामां अन्तर्भाव थाय, नहि के निरोधमां; तेथी अर्ही भक्तनिरोधार्थ भगवत्प्राकट्य प्रथम प्रकरणमां छे. अवतार पण निरोधार्थ थयो अने अवतारनुं अङ्ग भक्तदुःख छे, तेथी पृथ्वी तथा माताने धैर्यने माटे सान्त्वन कर्युं छे. सान्त्वन न करे तो ए जीवे नहि अने ए न होय तो भगवान्नुं पधारवुं पण अत्रे न सम्भवे. नारदजी कंस पासे जईने ‘‘नन्दाद्या ये व्रजे गोपाः’’ ए बधुं कही आव्या त्यारे कंसे गायो, ब्राह्मणो वगेरेने मारवानो दूतोने हुकम कर्यो. ए भक्तदुःखथी [[१६]] भगवान्नो प्रादुर्भाव थयो छे. वळी आकाशवाणीरूप देवता ज्यारे एनो उद्धार करवा समर्थ न थई त्यारे एणे आकाशवाणीरूपे कंसने भयभीत कर्यो. ए पण भगवान् प्रकट थई सर्वने मुक्त करे एवा आशयथी आकाशवाणी थई छे. अत्रे सोळ श्लोक पूरा थया. दश श्लोकथी पृथ्वीनुं सान्त्वन छे. पछीना ३५ श्लोकमां देवकीना दुःखनो समावेश थाय छे. एमां पृथ्वीनुं वाणीथी सान्त्वन छे, ज्यारे देवकीना दुःखनुं उपायथी सान्त्वन कर्युं छे. पछीना आठ श्लोकथी नारदजीए भगवान् मथुरामां प्रकटी गोकुळ पधार्या छे अने यादवो बधा देवो छे एम कंसने कह्युं त्यारे देवकी वसुदेवने केद करीने एना बधा पुत्रोने ए मारे छे ए दुःख भगवत्प्राकट्यना हेतुरूप छे, तेथी आ अध्यायमां ६९ श्लोकोनो क्रम सिद्ध थई गयो तेमज आ अध्याय भगवत्प्राकट्यना हेतुरूप छे ते हेतुता पण आ प्रमाणे स्पष्ट थई गई. ए पृथ्वीए गायनुं स्वरूप धारण करी अत्यन्त दया आवे एवो देखाव करी रोती-रोती समर्थ एवा ब्रह्माजीनी पासे जईने पोतानुं दुःख ब्रह्माजीने कही सम्भळाव्युम् ॥१८॥
ब्रह्माजीए पृथ्वीनुं कहेवुं बराबर साम्भळ्युं, पछी पृथ्वीरूपी गायने आगळ करी शिवजी तथा देवो ने साथे लई ब्रह्माजी क्षीरसागरना तीर उपर गया ॥१९॥
त्यां जई समाधि करी यज्ञफलना भोक्ता, देवनादेव, जगतना नाथ भगवान्नुं उपस्थान पुरुषसूक्तवडे कर्युम् ॥२०॥
ब्रह्माजी समाधिमां भगवान्नुं कहेलुं साम्भळी गया अने देवोने उद्देशीने कहेवा लाग्या - ‘‘हे देवताओ! भगवाने जे कह्युं ते माराद्वारा तमे साम्भळी लो अने ए प्रमाणे तमे वर्तन करो; एमां विलम्ब न थवो जोईए ॥२१॥
भगवाने पृथ्वीनुं दुःख आपणी विनन्ति पहेलां ज जाणी लीधुं छे. ईश्वरना ईश्वर भगवान् पोतानी काळशक्तिवडे पृथ्वीनो भार दूर करे तेटला वखतने माटे तमे देवो बधा यादवकुलमां अवतार धारण करो ॥२२॥
साक्षात् परमपुरुष भगवान् वसुदेवने त्यां प्रकट थशे. सेवा करवामाटे समुद्रमान्थी जे अप्सराओ नीकळी छे अने हाल स्वर्गमां रहे छे ते योग्य स्थानमां अवतार धारण करो ॥२३॥
वासुदेवनी कलारूप *अनन्तशेष जे सहस्रमुखवाळा छे, जे पोताना स्वरूपवडे शोभनार छे ते भगवान्नुं प्रिय करवाने माटे प्रथमथी प्रकट थशे ॥२४॥
विशेष - सात्विक कल्पमां जे हरि भगवान् जळमां शयन करे छे ते वासुदेव भगवान् जाणवा. [[१७]] एनो अंश ए अनन्त कहेवाय छे. ए कालात्मा छे तेमज पृथ्वीनो भार उतारवाने समर्थ छे. ए अनन्त उपर शयन करनार भगवान्नो एमां आवेश थाय त्यारे ए पृथ्वीनो भार उतारी शके, तेथी भगवान्नुं अनुशयन बळभद्र व्यूहथी छे, साक्षात् भगवान्नुं ए कार्य नथी. बळदेव अने कृष्ण नुं स्वरूप आविष्ट अने आवेशीरूपे एक ज छे छतां लोको एने बे जुदां रूपवाळा गणे छे. देवकीजीमां सङ्कर्षणनी उत्पत्ति छे, वासुदेवनी नहि, तेथी गर्भनुं कर्षण थयुं तेथी भगवान्मां हीनता सम्भवती नथी. देवकीजीना गर्भमां सङ्कर्षणात्मक गर्भ रह्यो एनुं मायाए कर्षण कर्युं. अने रोहिणीजीना गर्भमां एने माया लई गई तेथी रोहिणीने गर्भ अकस्मात् क्यान्थी रह्यो ए शङ्काने पण अवकाश रहेतो नथी, केमके भगवान्नी माया एम करवाने समर्थ छे. विष्णुनी छ गुणवाळी जे माया छे, जेणे आखा जगत्ने मोहमां नाख्युं छे तेने भगवाने आज्ञा करी छे, ते पण स्वांशवडे उत्पन्न थशे’’ ॥२५॥
प्रजापतिना नियन्ता ब्रह्मा ए प्रमाणे देवने आज्ञा करी वाणीवडे पृथ्वीने आश्वासन आपी पोते पोताना उत्तम स्थानमां गया ॥२६॥
(अर्ही पृथ्वीनुं समाधान पूरुं थयुं, हवे देवकीना लग्ननी वात कहेतां एना दुःखनुं कारण कहे छे) ‘शूरसेन’नामनो यादवश्रेष्ठ *मथुरापुरीमां रही माथुरदेश तथा शूरसेनदेश ए बन्ने देशोनुं राज्य भोगवतो हतो; एनो मोटो भाई तो माहिष्मतीमां राज्य करतो हतो. (अर्ही शूरसेन राजानुं वर्णन करवानुं तात्पर्य व्यक्त पण कह्युं छे) ॥२७॥
विशेष - अर्ही तो देवकीजीने दुःख थयुं एटलुं कहेवानुं छे. त्यां शूरसेननी राजधानी मथुरा हती वगेरे वातो कही छे. ते कहेवानुं तात्पर्य एटलुं ज के जेम वसुदेवजी प्रकट्या त्यारे आनक अने दुन्दुभि वाग्यां तेथी एनो सर्वोत्कर्ष कहेवायुं तेम अर्ही देवकीजीनुं सर्वोत्कर्ष कहेवानो छे. सर्वोत्कर्ष छतां एमान्थी दुःख थाय तो ए दुःख भगवान् सिवाय कोई दूर न करी शके. भगवान् पण थोडुं निमित्त करी एने दूर करे एवो भक्तिमार्गनो सिद्धान्त छे. ए उत्कर्ष सात प्रकारे अर्ही कह्यो छे. ‘‘शूरसेनो यदुपतिः’’ ए श्लोकथी देशथी उत्कर्ष कह्यो. ‘राजधानी’ ए श्लोकथी कालथी उत्कर्ष कह्यो. ‘‘तस्यां तु’’ ए श्लोकथी अवस्थाथी उत्कर्ष कह्यो. ‘‘देवक्या सूर्यया’’ ए अर्धश्लोकथी स्वतः उत्कर्ष कह्यो. ‘चतुःशतं’ श्लोकथी द्रव्यनो उत्कर्ष कह्यो. ‘शङ्खतुर्य’ इत्यादिथी माननो उत्कर्ष कह्यो. ‘उग्रसेनसुतः’ श्लोकथी अन्यतः उत्कर्ष कह्यो. आम सर्वतः उत्कर्ष छतां आकाशवाणीने निमित्त करीने देवकीजीने दुःख थयुं त्यारे एना पति [[१८]] वसुदेवे ए दुःख दूर करवानो यत्न कर्यो ते नव श्लोकथी अत्रे कहेवाशे. सर्व यादवकुलना राजाओनी ए राजधानी हती ज्यां मथुरामां भगवान् नित्य *विराजे छे ॥२८॥
विशेष - सर्व तत्वमां भगवान् विराजे छे तेथी पृथ्वीमां पण भगवान् नित्य विराजे छे ते क्वचित् देखाय छे. ए नित्य विराजवानुं स्थान पृथ्वीमां मथुरा छे. त्यां रही भगवान् सर्वनुं हित करे छे, एटलुं ज नहि, पण सर्वना दुःखने दूर करे छे. त्यां मथुरामां ज ज्यारे देवकीने दुःख थयुं त्यारे तो मर्यादामार्गमां जे दुःख दूर करवाना उपाय कह्या छे ते व्यर्थ थया, एम बताववामाटे अर्ही मथुरामां ज आकाशवाणीवडे देवकीने दुःख थयानी वात कही छे. श्रीरङ्गादि क्षेत्रमां पण भगवान् नित्य सन्निहित छे, छतां अर्ही मथुरामां भगवाने पोताना नित्यसत्वने तिरोहित कर्युं तेथी देवकीने दुःख थयुं. भक्तना दुःखने दूर करवामाटे ज भगवान् प्रकटे. ए प्रसङ्ग न आवे तो भगवान् भूतळ उपर पधारे नहि तेथी त्यां स्वसान्निध्य दूर करी भक्तने दुःखनो मार्ग खुल्लो करी आप्यो अने ए निमित्ते स्वयं प्रकट्या. आथी देश, काळ, द्रव्य, कर्ता, मन्त्र अने कर्म ए छ धर्माङ्गोमान्थी पण स्वसत्ता भगवाने खेञ्ची लीधी. क्वचित्शालिग्रामादिमां स्वसत्ता स्थापी पण छे. ए मथुरामां एक समये वसुदेवनां लग्न थयां त्यारे नवोढा देवकीनी साथे वसुदेव पोताने घेर जवाने सारुं रथमां बेठा ॥२९॥
उग्रसेननो पुत्र कंस पोतानी बहेन देवकीने सारुं लागे एटलामाटे पोते एनो रथ हाङ्कवामाटे घोडानी लगाम हाथमां लई बीजा पण सोनाथी शणगारेला अनेक रथो साथे नीकळ्यो ॥३०॥
देवकीना पिता देवक राजाए देवकीने पतिने घेर मोकली त्यारे दीकरी उपर
वात्सल्य होवाथी करियावरमां सोनाथी शणगारेला ४०० हाथी, पन्दर हजार घोडा,
१८०० रथो, सुकुमार अङ्गवाळी २०० दासीओ एने आपी. राजाओनी
कन्याओने करियावरमां चतुरगिण्णी सेना आपवानो रिवाज हतो तेथी वधू-वरने
सन्तोष आपवामाटे ए बधुं आप्युम् ॥३१-३२॥
शङ्ख, मृदङ्ग, तुरी, नगारां वगेरे वाजिन्त्रो वरवधूना मङ्गळने माटे ए वखते वगडाव्याम् ॥३३॥
एम शकुन जोई चाल्या. रस्तामां कंस पोतानी बहेन देवकीनो रथ हाङ्कतो हतो तेटलामां आकाशवाणी थई - ‘‘हे मूर्ख! तुं जेने लईने चाल्यो छे ते बाईनो अष्टम [[१९]] गर्भ तने मारशे’’ ॥३४॥
ए वाणी साम्भळतां ज भोजना कुळना मळरूप ए कंस, कालनेमिना आवेशवाळो छे ते दुष्टता देखाडतो बहेनने मारवाने हाथमां तलवार उगामी, एटलुं ज नहि, पण देवकीने केशथी पकडीने मारवानी तैयारी करी. (अर्ही एने ‘सखल’ कह्यो छे ते कालनेमि नामनो दैत्य एने शरीरमां प्रकट्यो एटले बहेनने मारवानो तेनो विचार थयो, ए ‘सखल’ शब्दनो भावार्थ छे) ॥३५॥
आम लाज वगरनो तेमज घात करवामां दया वगरनो निर्दय कंस ज्यारे आवुं निन्द्य काम करवामां तत्पर थयो त्यारे वसुदेवजी स्वयं शूरवीर छे छतां सहाय वगरना छे अने कंसना बळने एजाणेछेतेथी एने समजाववाना प्रयत्न करतां कंसने कहेवा लाग्या ॥३६॥
वसुदेवजी बोल्या - शूरवीर लोकोमां तमारा गुणोनां वखाण थाय छे. भोजकुळना यशने तमे वधारनार छो. आप विवाहमां बहेनने, ते पण नानी बहेन अने स्त्री तेने केम मारी शको? शूरा लोको पोतानी बहेन-दीकरीने बचावतां पोताना प्राण आपी दे छे तो तमे तमारे हाथे बहेनने मारशो? ॥३७॥
तमे कहो छो केः‘‘आना गर्भथी मारुं मृत्यु थाय माटे मारे मारवी पडे छे’’ तो त्यां कहेवानुं के मृत्यु तो नित्य छे. हे वीर! जन्मवाळाने देहनी साथे ज मृत्यु पेदा थाय छे, ए आज थाय के सो वर्षे थाय, पण ए तो निश्चय थवानुं ज ॥३८॥
मनुष्यनो देह ज्यारे पञ्चत्वने पामे छे त्यारे ए देहमां रहेनार जीव पोतानां कर्मोने अनुसारे बीजा देहमां प्रवेश करीने वर्तमान देहने छोडे छे ॥३९॥
जेम खडमाकडी एक पगथी घासने पकडी बीजा पगने छोडे छे तेम जीव पण पोताना कर्मथी मळेला आगामी देहने पकडी चालता देहने छोडे छे. जेवां पोतानां कर्म तेने अनुकूळ देव, पशु, मनुष्य वगेरेनो ए देह मळे ज ॥४०॥
जेनी बुद्धि एम विषयमां परिनिष्ठित थई जाय छे त्यारे ए विषयने जीव स्वप्नमां जुए छे. तेम ज ‘दृष्ट’ एटले प्रत्यक्ष, ‘श्रुत’ एटले शास्त्रवडे राजादि के इन्द्रादि देहनुं मनथी चिन्तन करतो स्वप्नमां ‘‘हुं राजा छुं, इन्द्र छुं’’ एम माने छे ते वखते एने पोताना शरीरनी स्मृति रहेती नथी ॥४१॥
वळी उत्पत्ति अने मरण ए देहनो धर्म छे, आत्मानो धर्म नथी. आत्मा एओना अध्यासथी उत्पन्न थाय छे अने मरे छे. (ए वात कहे छे के) काळ, कर्म [[२०]] के स्वभाव नी प्रेरणाथी मन मोहवडे उत्तम विषयने जोतुं जाय छे तेने बीजो विषय मळतां पूर्वने छोडतुं जाय छे. जीव पण ए मननी पाछळ ते-ते रूप थतो ए मननी साथे ते-ते देहमां जाय छे तेथी मन जेनी भावना करे ते देह जीवने मळे, जेने मन छोडी दे ते देहने जीव छोडे छे. विषय तो सर्वत्र ए ज छे, पण मनने जेमां मोह थाय ते उत्तम अने जेनो मोह दूर थाय ते मनने त्याज्य, एटले अध्यासथी जीव पण ग्राह्य-अग्राह्य एने अनुसरीने करे, तेथी बीजा देहने माटे प्रयासनी जरूर नथी तेम आ देहने बचाववा आ तमारी बहेनने मारवानी जरूर नथी ॥४२॥
(मनने अनुसरीने देहने अनुसरवामां मोह ज कारण छे ए प्रतिबिम्ब न्यायथी बतावे छे) पाणीना भरेला कूण्डामां सूर्यनुं तेज पडे छे ते कूण्डाना जलने वायु चलावे त्यारे तेमां पडेल सूर्य प्रतिबिम्ब चलित थतुं देखाय छे, पण आकाशमां रहेल सूर्यबिम्बमां ए वायुनी क्रिया विकृति उत्पन्न करी शक्ती नथी, छतां अज्ञ लोक सूर्यने चलायमान जुए छे; तेम पोताना मोहथी बनेला अने आत्मपणे स्वीकार करेला देह, इन्द्रिय, अन्तःकरणमां आ जीव जो के स्वयं ब्रह्मांश छे छतां रागवश थईने अन्तःकरण देहादिरूपे पोताने समजीने एना करेला दोषने स्वीकारी मोहने पामे छे. जीवने देह सम्बन्ध तो भ्रमथी थयो छे तेथी देहने उद्देशीने आत्मानो अपकार न करवो जोईए ॥४३॥
(एम तत्वनुं निरूपण करी देहमां राग होवाथी आत्मानो अपकार न करवानुं कह्युं ते लोकमां पण एम ज मान्यता छे एम कही आने मारवाथी पण तमने भय थशे एम बतावतां कहे छे के) देह कांई आत्मा नथी, तेथी देहने माटे कोईनी साथे वैर न करवुं. आत्माना क्षेमनी इच्छावाळो कोईनो द्रोह न करे, केमके द्रोह करनारने बीजाथी भय थाय छे, आपणे बीजानुं शुभ थाय एम इच्छीए तो आपणा भलानुं कोई चिन्तन करे. आपणे कोईने मारवानो विचार करीए तो ए आपणे माटे एवो ज विचार करे ॥४४॥
(उपरनी वात तत्वविचारथी कही) हवे लोकदृष्टिथी जोईए तो पण आ तमारी बहेन तमारे हाथे न मरवी जोईए, केमके आ तमारी नानी बहेन छे. आठ वर्षनी उम्मरनी छे माटे लाड करवाने लायक छे. आ काष्ठपूतळी जेवी कोई जातना चातुर्य रहित छे, वळी एणे लग्ननो वेश पहेर्यो छे, तमे तो दीनवत्सल छो, तेथी बहेननुं [[२१]] दैन्य जोईने पण एने तमारे मारवी न जोईए ॥४५॥
(आ प्रमाणे शास्त्रना दृष्टान्तथी समजावतां छतां ए तो मारवाना निश्चयमान्थी खस्यो नहि ए कहे छे) ए प्रमाणे *सामादि उपायो वडे समजावतां छतां हे कौरव्य! निर्दय दैत्यरूप ए कंस राक्षसोने अनुसरनार होवाथी मारतां अटक्यो नहि ॥४६॥
विशेष - साम, दाम, दण्ड अने भेद आ चार प्रकारनी समजावट शास्त्रोमां दर्शावी छे. वसुदेवजीए जोयुं के कंसना आ देवकीने मारवानो ज निश्चय छे. त्यारे आ समये जे करवुं योग्य हतुं ते करवानो एणे निश्चय कर्यो ॥४७॥
बुद्धिशाळी पुरुषे ज्यां सुधी पोतानी बुद्धि चाले त्यां सुधी मृत्युने खसेडवुं जोईए. अने एम करतां पण जो मृत्यु न खसे तो एमां मनुष्यनो दोष गणातो नथी ॥४८॥
आकाशवाणीए देवकीनो अष्टम गर्भ मारशे एम कह्युं छे, देवकी मारशे, एम तो आकाशवाणी कहेती नथी; माटे आना पुत्रादि जे थाय ए कंसने आपवानी शरते आ बिचारीने हुं छोडावुं. ए जो छूटे ने एमां पुत्रो थाय त्यां तो आ काल नहि मरे ज ए कोण कही शके? ॥४९॥
(आना पुत्रथी ज एनुं मृत्यु होय तो आ देवकीने जीववुं ज जोईए अने ए कंसे अथवा आ प्राप्त थयेल मृत्युए मरवुं ज जोईए. अथवा सो मृत्यु छे एमां एक मृत्यु अप्रतिहत छे त्यारे बीजां मृत्युओ मरे छे. तेथी जो आ समये आवेलुं मृत्यु मरे तो कालान्तरमां आवनार मृत्युनो प्रतीकार पछी थई रहेशे. आकाशवाणीए आठमो गर्भ कह्यो ए वाक्य मिथ्या न थाय तो देवकीनुं मृत्यु न थवुं जोईए. एज कहे छे के) भगवान्ने शुं कर्तव्य छे ए कोई जाणी शक्तुं नथी. तेथी अत्यारे जेने माथे मोत आवीने ऊभुं छे ते न मरे अने जे मृत्यु करवानुं अभिमान करनार छे तेज मरे एवो विपर्यय पण सम्भवे छे ॥५०॥
(आ वात जो के ठीक छे, पण पुत्ररत्नो कालने मारवाने आपवां ए करतां पुत्रो न थाय ए ज ठीक कहेवाय अथवा आपणा हाथथी एवुं कार्य न थाय ए ज ठीक एम कहे, त्यां कहेवानुं के) अग्निने काष्ठनो योग थवो के वियोग थवो एमां अदृष्ट ज निमित्त छे तेम जीवने शरीरनो संयोग अने वियोग थवो एनुं कारण दुःखथी पण न जाणी शकाय एवुं छे तेथी आगळ उपर गमे ते थाय. पण अत्यारे तो आ देवकीनो बचाव थतो होय तो गमे ते शरते एनो प्राण बचाववो ए समयोचित वातछे ॥५१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - वसुदेवजीए पोतानी बुद्धि चाली त्यां सुधी खूब [[२२]] विचार करीने कंसनां बहु मानपूर्वक वखाण कर्यां, एनी प्रार्थना करी, हाथ जोड्या, वगेरे एनी पूजा पण वसुदेवजीए करी ॥५२॥
कंस तो घातक अने लाज वगरनो छे. वसुदेवजीए पोताना मनमां घणु दुःख छे ते दबावी एनी तरफ मन्दहास्य करी कहेवानो आरम्भ कर्योः ॥५३॥
‘‘हे सौम्य! जे आकाशवाणी साम्भळवाथी तमे आने मारवा तैयार थया छो ते आकाशवाणीए ‘‘आ देवकी तमने मारशे’’ एम तो कह्युं नथी एटले देवकीथी तमने भय न होवो जोईए. तमने भय छे ते तो आना आठमा गर्भथी छे, छतां एने जेटला *पुत्रो थाय ते थतान्नी साथे हुं तमने अर्पण करुं एटले तमने ए बाळको अनुकूळ ज रहेशे, केमके ए बाळक तमने ज पिता तरीके पूजनार थशे. एटले जो मारी विनन्ति ध्यानमां आवे तो तमारो भय दूर थाय तेम तमारी बहेन पण मृत्युथी बचे’’ ॥५४॥
विशेष - ‘‘पुत्रान् समर्पयिष्ये न तु भगवान्’’ एवा भावथी वसुदेवजीए कह्युं के आ देवकीथी ज जन्मेला पुत्रो तने सोम्पीश परन्तु भगवान् प्रकट थशे तो तने सोम्पीश नहि. (आ प्रमाणे वसुदेवजीनुं कथन कंसना ध्यानमां आव्यु त्यारे एम करवाने कंस कबूल थयो. ए कहे छे के) कंस वसुदेवजीना वचनना भावने जाणी गयो अने बहेनने मारतो बन्ध थयो. वसुदेवजीए त्यारे कंसनां घणां वखाण कर्यां अने बन्ने पोताना घर तरफ गया ॥५५॥
(आम देवकीजी मृत्युथी बचवा पाम्यां ए भगवाने ज बचाव्यां एम बतावतां छ श्लोकथी कहे छे के) घेर गया पछी देवकीजीने आठ वर्षमां आठ पुत्रो थया, केमके देवकीजी सर्व देवतारूप छे. एने एक कन्या थई ते पण प्रथम वर्षथी एक-एक प्रजाक्रमे थई ते आठ वर्षमां आठ पुत्र अने *एक कन्या थयाम् ॥५६॥
विशेष - देवकीजीने कन्या प्रकट थाय तेवी इच्छा थई. ते नवमी कन्या सुभद्रा हती. (प्रकाश. गो. श्रीपुरुषोत्तमजी) जेम देवकीए पुत्रोने जन्म आप्या तेम वसुदेवजीए पोते कंस साथे शरत करी छे ते प्रमाणे ए पुत्रो कंसने मारवाने आपवामाटे तैयार थया. वसुदेवजी पोते करार पाळ्यो छे एम बताववामाटे, पोताने कोई पोताना वचनथी खस्या एम न कहे एटलामाटे, मनमां अत्यन्त दुःखी थता ए कीर्तिमन्तने लईने कंसने आपवामाटे गया ॥५७॥
[[२३]] साधुपुरुषने कांई दुःसह न होय, तेमज विद्वानने कांई अपेक्षित न होय, कदर्यने कांई न कराय एवुं न होय अने धीरजवाळाने कांई दुःखथी छोडवानुं न होय ॥५८॥
ज्यारे कंसने खातरी थई के पुत्र जेवी वस्तु आपतां पण वसुदेवजीने दुःख न थयुं त्यारे तो वसुदेवजीने पुत्र अने हुं बन्ने बरोबर छीए, वळी पोते बोल्या एनुं पालन आवी रीते पुत्रने मारवामाटे पण आपीने कर्युं, ए बन्ने बाबतनो विचार करी कंस वसुदेवजी उपर प्रसन्न थयो. हे राजन्! कंस हसीने वसुदेवजीने कहेवा लाग्योः ॥५९॥
‘‘आ तमारो *कुमार भले घेर पाछो जाय, केमके आ तो तमारो प्रथम पुत्र छे. मारुं मृत्यु तो तमारा आठमा गर्भथी थवानो आकाशवाणीए विधि बताव्यो छे’’ ॥६०॥
विशेष - ‘‘अनेन पञ्चवार्षिको नीत इति ज्ञायते षष्ठश्चोदरस्थः’’ आ श्लोकमां आपेला ‘कुमार’ शब्दथी आ बालक पाञ्च वर्षनो हतो, एम जणाय छे. श्रीदेवकीजीना उदरमां छठ्ठो गर्भ हतो, त्यारे श्रीवसुदेवजी प्रथम बालकने कंस पासे लाव्या. (श्रीसुबोधिनीजी) ‘‘जो तमे प्रसन्न थईने मारी साथे आ कुमारने घेर मोकलता हो तो हुं लई जाउं’’ एम कही वसुदेवजी पुत्रने घेर लई आव्या, पण एना वाक्यमां वसुदेवजीने विश्वास न थयो के आ पुत्रने हवे ते नहि ज मारे, केमके ए कंस दुष्ट छे अने बीजा भमावे तो तुरतमां भमी जाय तेवो छे, एक निष्ठावाळो नथी ॥६१॥
बन्युं पण तेमज वसुदेवजीने कंसे कह्युं एमां देवनुंहित न होवाथी देवनुं गुप्त हित करनार नारदजी त्यां आवी कंसने कहेवा लाग्या के व्रजमां नन्दरायजी वगेरे गोपो तथा एओनी स्त्रीओ, यादवोमां वसुदेवजी वगेरे तथा एमनी स्त्रीओ, हे भारत! सर्व उभय पक्षमां जन्मेला देवो छे, एटलुञ्ज नहि, पण तमारा सगा अने सम्बन्धीओ पण बधा देवो छे ॥६२-६३॥
तमारी पासे नोकरी करनारमां पण अक्रूर वगेरे देवो ज छे’’ आ बधुं नारदजीए एकान्तमां कंसने कह्युं के ः‘‘देवो बधा मळीने दैत्योने मारवानो निश्चय करीने यादवोमां अने व्रजवासीओमां अवतर्या छे’’ ॥६४॥
ऋषि नारदजी एटली वात कहीने रवाना थया के कंसे ‘‘यादवो तो मारा शत्रु देवो छे’’ एम जाण्युं अने ‘‘देवकीजीना गर्भमां विष्णु मने मारवाने आवशे’’ ए पण [[२४]] जाणी लीधुम् ॥६५॥
त्यारे देवकीजी अने वसुदेवजी ने केदखानामां पूर्यां अने एना पुत्रोने उत्पत्तिना क्रमवडे ‘‘दरेक अङ्कने प्रथम मानी गणीए तो दरेक आठमो बालक थाय, ए आठमो विष्णु होय’’ एवी शङ्काथी बधाने मारी नाख्या ॥६६॥
पोताना प्राणने पोषण करनार राजाओ घणुं करीने माता, पिता, भाई, सर्व सगा-सम्बन्धी, मित्रो वगेरेने मारे छे, केमके एओने लाभ मोटो होय छे तेथी ज्यां मने मारशे एवी एने शङ्का थई ए गमे तो एनो नजीकनो सम्बन्धी होय एने ए मारतां वार लगाडता नथी ॥६७॥
पहेलां विष्णुए महा असुर कालनेमि नामना दैत्यने मारेलो ते कालनेमि अर्ही मारामां प्रविष्ट थयो छे एम कंस जाणे छे तेथी ए यादवोने देवरूप जाणी एनी साथे युद्ध करवा लाग्यो ॥६८॥
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजाऽन्धकाधिपम् ॥ स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान्महाबलः ॥६९॥
यदु तथा भोजकुळ नो पति उग्रसेन जे कंसनो बाप थाय तेने राजगादी उपरथी उतारी केद कर्यो अने महाबळवाळो होवाथी शूरसेन देशनो पोते राजा थईने ए देशने भोगववा लाग्यो ॥६९॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (पहेला जन्मप्रकरणमां भगवान्ना जन्मना हेतुरूप) ‘‘श्रीकृष्णना प्राकट्यनुं कारण’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही
अध्याय २
भूतळ उपर पधारवानो श्रीकृष्णे करेलो उद्यम
विशेष - आ बीजा अध्यायमां भूतळ उपर पधारतां श्रीकृष्णे जे पोताने पधारतां पहेलां
ईं उं ईं उं
[[२५]] करवुं जोईए ते करवाने माटे पोतानी मायाने आज्ञा करी छे. ए कृष्णनो ‘उद्यम‘ कहेवाय. ए अर्ही बीजा अध्यायनो अर्थ छे. कहेवानुं कारण एटलुं ज के साधारण भगवद् अवतारोनी अपेक्षाए आ अवतार मोटो एटले मुख्य छे. भक्तनुं दुःख मटाडवामां क्षण विलम्बने पण ए सहन करी शक्ता नथी. मायाने ब्रह्मादि पण आज्ञा न करी शके तेने आज्ञा करी तेथी वसुदेवजीना हृदयमां पधारतां ए कोई पासे न आवी शके एवा बन्या तेथी अने देवकीजीने जोतां ‘‘मने मारनार आना उदरमां आव्यो छे’’ एम कृष्णनुं ज्ञान कंसने थयुं छतां देवकीजीने ए कांई करी शक्यो नहि तेथी आ अवतारनी मोटाई सिद्ध थाय छे. भक्तने अत्यन्त दुःख थाय त्यारे ज भगवान् पधारे एवो नियम छे, ए बताववामाटे प्रथमथी दैत्योनी वात करी छे. भगवान्ने जलदी पधारवानुं छे ए बताववामाटे देवकीजीना गर्भने रोहिणीमां फेरव्यानी कथा छे. ‘‘आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां ध्रुवं श्रितः’’ एम कंसनुं कथन छे तेथी अने ब्रह्माजी वगेरेए भगवान्नी प्राकट्य समये स्तुति करी तेथी पण आ पुरुषोत्तम पधार्या छे एम सिद्ध थाय छे. ब्रह्मादि स्तुति न करे तो पुरुषोत्तम पधार्या एम लोकोने केम जाणवामां आवे? प्रलम्बबकचाणूरतृणावर्तमहाऽशनैः ॥ मुष्टिकाऽरिष्टद्विविदपूतनाकेशिधेनुकैः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - प्रलम्ब, बक, चाणूर, तृणावर्त, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी अने धेनुक ए बधा जुदां-जुदां रूप लई यादवोनो संहार करवा तैयार थया. एमां प्रलम्ब दैत्यना वेशमां छे, बक पक्षीरूप, चाणूर मल्लरूप, तृणावर्त वण्टोळियारूप, मुष्टिक मल्लरूप, अरिष्ट बळदरूप, द्विविद मर्कटरूप, पूतना राक्षसरूपिणी, केशी अश्वरूप अने धेनुक गधेडो छे. ए मोटी भूखवाळा झाझुं खावावाळा छे. (केटलाक ‘‘महाशन एटले अघासुर’’ एम पण कहे छे) ॥१॥
ए गणाव्या एना उपरान्त केटलाक आसुरावेशी राजाओ बाणासुर, भौमासुर, वगेरेने पोताना पक्षमां लई, जरासन्ध पोतानो श्वशुर छे तेनो आश्रय करी कंस यादवोनो नाश करवा लाग्यो ॥२॥
कुरुदेश (हस्तिनापुरनी पासेनो देश), पाञ्चाळदेश अने कैकय देश (चित्रकूटनी पासेनो देश), शाल्व (पश्चिमदेश), निषध (उत्तर प्रदेश), विदर्भ (तेनी दक्षिणनो देश), विदेह (उत्तर प्रदेश) अने कोशल (अयोध्यानी पासेनो देश), आ बधा देशोमां अत्यन्त पीडा पामता यादवो चाल्या गया ॥३॥
[[२६]] जे त्यान्थी बहार जई न शक्या ते कंसना सेवक बनीने अक्रूर वगेरे रह्या. ज्यारे देवकीजीना छ बाळकने बोलावीने उग्रसेनना पुत्र कंसे मारी नाख्या ॥४॥
त्यारे भगवान्नो आवेशावतार, जेने लोक ‘अनन्त’ कहे छे ते देवकीजीना गर्भमां पधार्या. ए देवकीजीने आनन्द अने दुःख आपनार थया. छ बाळक नष्ट थया पछी बाळकनुं गर्भमां पधारवुं जाणी हर्ष थयो अने एनी पण कंस प्रथमना पुत्रोनी करी तेवी दशा करशे एवो विचार आवतां ए दुःखनुं कारण थया ॥५॥
भगवान् जेना रक्षक छे तेवा यादवोने कंस ज्यारे बहु दुःख दे छे ए वात भगवाने जाणी त्यारे भगवाने पोतानी योगमायाने हुकम कर्यो केः‘‘हे कल्याणी देवी! गोप (गोपी) अने गायोथी शोभायमान व्रजमां तुं जा ॥६॥
त्यां नन्दरायजीना गोकुलमां वसुदेवजीनी स्त्री रोहिणी रहे छे, बीजा पण यादवो एनी स्त्रीओ वगेरे कंसना दुःखथी भागी छूटेलां गुप्त प्रदेशमां रहे छे ॥७॥
एमां देवकीजीना उदरमां जे शेष नामनुं मारुं तेजोरूप धाम (स्थान अक्षररूप) छे तेने त्यान्थी खेञ्ची रोहिणीना गर्भमां स्थापन कर. एम करतां एना नाशनी शङ्का तो नथीज, केमके ए गर्भ मारा धामरूप छे; तुं मारी योगरूप मायाछे ॥८॥
(हवे पुरुषोत्तम योगमायाने कहे छे के) हे शुभस्वरूपे! तुं गर्भनुं कर्षण करी रोहिणीमां दाखल करे त्यारे हुं मारा (पुरुषोत्तमना) *अंश(वासुदेवादि चार भाग) वडे चार प्रकारे कार्य करवाने देवकीनो पुत्र थईश अने तुं नन्दराणी यशोदाजीमां थशे ॥९॥
विशेष - भगवान्ने केवळ कंसने मारवामाटे पधारवानुं नथी, पण भक्तने सुख आपवामाटे छे. ए सुखना प्रकार अनेक छे. केवळ अंशरूपे तो एनाथी सर्व भक्तना सर्व फळने ए आपी न शके तेथी पुरुषोत्तमने तो पधारवुं जरूर जोईए. तेथी विभाग सहित पधारे छे. ए चार प्रकारना व्यूह चार जातनां कार्य करवा अवश्य जोईए, तेथी चार प्रकार छतां ‘भागेन’ एम एकवचन कह्युं छे ‘‘युवां वै’’ ए श्लोकथी पृष्णि सुतपाए पुत्रनी कामना करी छे एने माटे ‘प्रद्युम्न’नी जरूर छे, केमके ए वंश सम्पादक छे. पृथ्वी पोतानो भार उतारवाने माटे वीनवे छे तेथी ‘‘यदा यदा’’ श्लोकमां कह्या प्रमाणे धर्मरक्षामाटे ‘अनिरुद्धजीनी’ जरूर छे. अज्ञाननो लय करवामाटे ‘सङ्कर्षण’ तो जोईए ज, तो मोक्ष वासुदेवजी आपी शके तेथी एने पण पधारवुं जोईए, ए बधो विचार करी भगवाने ‘अंशभागेन’ एवा शब्दो स्व आज्ञामां कह्या छे. एमां वासुदेवादिने पुत्रपणुं नथी तेम पुरुषोत्तम पण कोईना पुत्र नथी, पण लोकने भ्रमथी भगवान् वसुदेवना पुत्र छे एवो भ्रम थाय छे ए भगवान्नी इच्छाथी थाय छे तेथी [[२७]] ज परशुराम ब्राह्मण हता छतां दुष्टने मारवामाटे क्षत्रियत्वने प्रकट करता तेम पुरुषोत्तम पण ते-ते कार्य ते-ते व्यूहद्वारा करी स्वयं पूर्ण केवळ निःसाधन भक्तोना मनोरथने पूर्ण करेछे. तुं सर्वनी कामना पूर्ण करनारी होवाथी मनुष्यो धूप, उपहार अने बलिवडे तारी पूजा करशे तुं तेना कामने पूर्ण करीश ॥१०॥
दुर्गा, भद्रकाली, विज्या, वैष्णवी, कुमुदा, चडिङ्का, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा अने अम्बिका एवां तारां नाम लोको पाडशे अने ते-ते स्थानमां तने स्थापन करी तारी पूजा करशे ॥११-१२॥
तुं देवकीजीना गर्भनुं कर्षण करीश तेथी ए ‘सङ्कर्षण’ एवा नामथी प्रसिद्धिने पामशे. लोकने रञ्जन करशे एथी एने लोको ‘राम’ कहेशे, अने अत्यन्त बळवाळा होवाथी एने ‘बलभद्र’ पण कहेशे’’ ॥१३॥
ज्यारे आ प्रमाणे भगवाने आज्ञा करी त्यारे योगमायाए स्वीकारी. ‘‘जेम आप कहेशो तेम करवाने हुं तैयार छुं’’ एम कही पृथ्वी उपर जई एणे आज्ञानुसार कार्य कर्युम् ॥१४॥
मायाए स्वकार्य कर्युं त्यारे लोको देवकीजीने गर्भपात थयो एवी वातो करवा लाग्या ॥१५॥
विश्वात्मा भगवान् भक्तने अभय आपनार अंशभागवडे वसुदेवजीना *मनमां पधार्या ॥१६॥
विशेष - अर्ही भगवान्ना पधारवामां निषेकनो सम्भव नथी त्यारे पहेलां वसुदेवजीना मनमां अने पछी देवकीजीमां पधारवानुं कहे छे एनो भावार्थ आ प्रमाणे छे. अर्ही नृसिंह के हंस ना जेवुं प्राकट्य भगवान्नुं नथी, परन्तु यदुवंशना सम्बन्धवाळुं शूरना पौत्र अने वसुदेवजीना पुत्ररूपे भगवान् प्रकट्यानुं कहेवुं छे. लोकमां शरीरने ज पुत्र कहे छे अने ए शरीर निषेकथी ज बन्धाय छे, तेथी उत्पन्न थयो एम कहेवाय छे. परन्तु अर्ही तो जीवनी उत्पत्ति नथी, पण भगवान्नुं प्राकट्य कहेवानुं छे. ए प्राकट्य भगवान् ज्यां दर्शन आपे त्यां थाय तेथी प्रथम वसुदेवजीना मनमां प्रकट थया ए अयोगोलकमां (लोखण्डना गोळामां) अग्निनी जेम थया. पछी वैधदीक्षा (वेद वाक्यमां जणावेल मन्त्रनो उपदेश करता गुरु देवतानुं पोतानामां आवाह्न करे छे अने पछी तेनुं शिष्यमां स्थापन करे छे ते) न्यायथी देवकीजीना हृदयमां भगवान्ने पधराव्या त्यारे कंस ‘‘न पुरेयमीदृशी’’ एम कह्युं. केटलाक ‘अंश’ एटले नारायण अने ‘भाग’ एटले ‘केशरूप’एम कहे छे. पुरुषोत्तम तो नन्दरायजीने घेर मायानी साथे पधार्या [[२८]] छे. जो एम त्यां प्रभुप्राकट्य न होय तो ‘देवकीजठरभूः’ कह्युं एम ‘‘तव सुतः’’ एम गोपीओ न कहे, वळी ‘‘तन्मातरौ निजसुतौ’’ एम शुकदेवजी न कहे, अने शुकदेवजीए कह्युं छे ए वाक्यनो विरोध आवे. मायावडे रूपान्तर थयुं छे ए मायाना निरूपण वखते चोथा अध्यायमां मायानी उत्पत्ति कही छे, तेथी ज नन्दरायजीना महोत्सवमां शुकदेवजी ‘‘नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने’’ एम कहे छे. आ बधां वाक्य चरितार्थ तो नन्दरायजी अने वसुदेवजी बन्नेने त्यां भगवत्प्राकट्य थवानुं कबूल करीए तो ज थई शके, माटे ‘श्रुतार्थापत्तिथी’ बन्ने स्थाने पुरुषोत्तम-प्राकट्य छे एम अवश्य मानवुं जोईए. परन्तु अर्ही तो वसुदेवजी आवी पोताना पुत्रने मूकी एने बदले मायाने लई गया एम वात छे. ए पण ठीक छे, केमके नन्दरायजीने त्यां जे पुरुषोत्तम मायानी साथे प्रकट्या ते ‘‘सर्वतः पाणिपादान्त’’ होईने वसुदेवजीना घरमां पण एनी स्थिति मानी शकाय. तेथी ज चतुर्भुजरूप जोईने देवकीजी उद्विग्न थयां त्यारे ‘‘बभूव प्राकृतः शिशुः’’ए वाक्यथी पुरुषोत्तम तो त्यां स्पष्ट थाय छे. एमां व्यूहनुं कार्य पण पूतनामोक्ष दैत्यमारणादि होवाथी ए स्वरूपमां व्यूहरूपने पण गुप्त राख्या छे. तेथी ज मुक्तिदान, भूभारहरण, वंशना सम्बन्धयुक्त प्राकट्य, पितादिने सुखदान, वेदमार्गरक्षा, नारदशापविमोचन, द्विजसन्मान वगेरे कार्यो जे व्यूहद्वारा ज थई शके एवां छे ते पण आगळ ते-ते प्रसङ्गे स्पष्ट थशे. आ उपर कह्या प्रमाणे भगवत्प्राकट्यने मानीए त्यारे ज बधी भगवल्लीला सम्भवे एम मानवामां प्रमाण जोईए तो श्रुतार्थापत्ति ज मुख्य छे. आ देवोनी स्तुतिमां कालात्मा भगवान् प्रकट्या छे तेमनी देवो स्तुति करे छे, केमके एओने दैत्योनो नाश इष्ट छे. एमां काळ मासात्मक त्रीश दिवसनो छे तेमां पन्दर दिवस देवोना अने पन्दर दैत्योना छे, तेथी देवोना पक्षपाती कालनी स्तुति अर्ही देवोए करी छे; तेथी ज आ स्तुतिना पन्दर श्लोक छे. ध्रुवा सोळमी छे. ए कला भक्तपक्षपातिनी छे, तेथी तिथिवृद्धिमां सोळ दिवस पण थई जाय. एक श्लोकथी ब्रह्माजीए देवकीजीनी स्तुति करी छे, तेथी देवोए पञ्चदशात्मा काल प्रकट्यो छे एम जाण्युं. ए बधानो हितकारी छे छतां देवोए स्वहितकारीनी स्तुति करी छे. ए हित चार प्रकारनुं छेःलोककृत, स्मृतिकृत, वेदकृत अने भगवन्मार्गकृत. ए दरेकना प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फळ एवा चार भेदथी सोळ थाय, ए सोळ श्लोकना अर्थ छे. एमां प्रथम चार श्लोकथी प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फळ थी लोककृत ‘देवपक्षपात’ कहेवामां आवे छे. लोकमां प्रमाण सत्य छे, देखातुं जगत् लोकमां प्रमेय छे, गुणाभिमानी देवो लोकमां साधन छे अने कुशळ ए लोकनुं फळ छे. एवुं ज दैत्यनुं पण [[२९]] चातुर्विध्य छे ते तो अत्रे कहेवानुं नथी, अर्ही तो पक्षपाती स्तुति छे तेथी देवहितकृत् चतुर्विध लोकपक्षपाती प्रमाणादि कहेवानो अभिप्राय छे. एमां लोकमां देवो सत्यना पक्षपाती छे, ज्यारे दैत्यो असत्यना पक्षपाती छे, तेथी स्तुतिमां देवोए कह्युं के आप अमारुं हित साधवा सत्यस्वरूपे प्रकट्या छो, ते सत्यरूप आपने अमे शरणे आव्या छीए ज्यारे वसुदेवजीमां भगवद् आवेश थयो त्यारे ए, कोई पण पासे न आवी शके तेवा तेजस्वी थया तो पछी कोई एमनुं अपमान तो क्यान्थी ज करी शके? लोकोने एनी पासे जतां पण मनमां डर लागे एवा थया. (लोको एमनी सामुं जोई न शके के पासे जई न शके एवा, लोकोने लाग्या) ॥१७॥
जेम पूर्व दिशा आनन्द आपनार चन्द्रने धारण करे तेम जगतनुं मङ्गळ करनार अच्युत भगवान्नुं सर्वात्मरूप छतां आत्मरूप तेज, वसुदेवजीना मनमां आव्युं हतुं तेने वैधदीक्षाथी वसुदेवजीए देवकीजीमां स्थापन कर्युं अने देवकीजीए हृदयमां धर्युं ॥१८॥
सर्व जगत् जेनामां रहे छे तेवा भगवान्ने देवकीजीए धारण कर्या छतां अग्निनी ज्योति जेम चारे कोरथी बन्ध करवाथी शोभती नथी, जेम ज्ञानी होवा छतां बीजो जाणशे तो मारा जेवो थई जशे एवी बीकथी विद्याने योग्य अधिकारीने न आपनार ‘ज्ञानखल’ कहेवाय छे अने तेनी ते विद्या शोभती नथी, तेम कंसना केदखानामां पुरायेलां देवकीजीनी भगवान्ना पधारवाथी पण जोईए तेवी शोभा थई नहि ॥१९॥
देवकीजीनुं तेज एवुं जणातुं हतुं के एमनी हृदयगुहामां भगवान् अजित पधार्या छे एम सर्व कोईने जणाई आवे. वळी पोतानी कान्तिथी जे घरमां बेठां छे तेने पवित्र स्मितवडे प्रकाशयुक्त करी आपतां देवकीजीने कंसे ज्यारे जोयां त्यारे कंस बोल्यो के ‘‘हुं देवकीने घणा दिवसथी जोतो आव्यो छुं, पण एनुं आवुं तेज में क्यारे पण जोयुं नथी, माटे मारा प्राणने हरनार हरि आ वखते जरूर एनी हृदयगुहामां आव्यो छे, केमके हुं एने प्रथम करतां जुदी रीते जाउं छुम् ॥२०॥
आ समये मारे बचवामाटे शुं करवुं जोईए? जो कांई न करुं तो-तो मारा प्राणने हरि भगवान् लई लेशे; माटे जलदी कांईक बचाव शोधवो जोईए. परन्तु भगवान् मने मारवामाटे ज आवतो होय तो कांई ए काम कर्या वगर रहे ज नहि, तेथी ए मने जरूर मारशे. (कोई एम कहे के तारुं जीवन विद्यमान हशे तो भगवान् [[३०]] आवशे तो पण तने नहि मारे जीवन ज खलास थवानुं हशे तो ए न पधारे तो पण तारे मरवुं प्राप्त थाय; माटे आ देवकीजीने मारवानो द्रोह तो तारे करवो न जोईए! एना उत्तरमां कहे छे के) जीववाने माटे बने तेटलो उपाय करवो ज जोईए, केमके दीवामां तेल वगेरे होय छतां पवनथी बचावीए तो दीवो प्रकाश आपी शके; माटे आ देवकीने मारुं तो मारो प्राण बचे. पण एम करुं तो एक तो नानी बहेन स्त्रीजाति छे जेनी रक्षानेमाटे शूरवीरो पोतानां माथां आपी एने बचावे छे, तेने मारवी ए शूराने अपकीर्ति करनार होईने योग्य न गणाय, वळी गर्भवती होवाथी ए प्राणीओना प्राणने अने आयुष्यनुं पोषण करनारी छे तेने मारवाथी आपणुं आयुष्य नाश पामे. बहेन तो लक्ष्मीनुं स्वरूप गणाय तेने मारुं लक्ष्मीनो नाश थाय. एम बहेनने मारवामां त्रण दोष होवाथी तेने मारवी उचितनथी ॥२१॥
जे अत्यन्त क्रूरताथी जीवे छे तेने जीवतो मरेलो समजवो. ज्यारे तेनो देह पडे त्यारे लोको एने शाप आपे छे के मरनार अत्यन्त क्रूर हतो. ते मर्यो पण घोर नरकमां जशे; एमां पण देहाभिमानीओने जे घोर नरक मळे छे तेमां अवश्य आ क्रूर जशे ॥२२॥
एवो विचार आवतां बहेनने मारवानो भयङ्कर विचार बन्ध पड्यो अने मनमां कहेवा लाग्योके आ बहेननो बाळक आवशे त्यारे एने मनमां आवे तेम करवाने हुं समर्थ छुं, तेथी भगवान्ने वैरभावथीयाद करतोकंस एने प्रकट थवानीप्रतीक्षा करवालाग्यो ॥२३॥
बेसतां, सूतां, ऊभो थतां, भोजन करतां, फरतां, जळ पीतां, इन्द्रियोना स्वामी भगवान्नुं चिन्तन करतो-करतो कंस समग्र जगतने पोते भगवन्मय जोवालाग्यो ॥२४॥
नारद आदि मुनिओ अने अनुचर सहित देवोनी साथे ब्रह्माजी अने शिवजी कंसना केदखानामां आव्या ने अनुकूळ वाणीवडे कामने पूर्ण करनार भगवान्नी तेओस्तुतिकरवा लाग्या ॥२५॥
देवो बोल्या - आप *सत्यव्रतवाळा छो, सत्य ज उत्कृष्ट जेने छे तेवा छो, त्रणे काळमां के त्रणे लोकमां त्रण अवस्थामां सत्य छो, सत्यना सत्यमां रहेनार छो, ऋत अने सत्य नेत्रवाळा एवा सत्यरूप आपने अमो शरणे आव्या छीए ॥२६॥
[[३१]]
विशेष - वेदमां ‘‘सत्यं परं परं सत्यं’’ ए मन्त्रमां पाञ्च प्रकारनुं सत्य कह्युं छे. ‘‘प्राजापत्यो हारुणिः’’ त्यां पण सत्यनी प्रशंसा छे. सर्वोत्कृष्ट ते सत्य अने सत्य ते पर एम परनी अने सत्यनी एक्ता कही छे. व्रत पण लोकमां उत्कृष्ट गणाय छे. भगवान्नुं व्रत सत्य छे. सत्य, तप, दम, शम, दान, धर्म, प्रजनन, अग्नि, अग्निहोत्र, यज्ञ, मौन अने सन्न्यास बार प्रकारनुं सत्यलोकमां छे ते पण भगवाननुं ज सत्य छे. भगवानने जो कोई नियमन करनार होय तो ए सत्य ज छे, तेथी सत्यने माटे पोते वचन पाळवाने पधार्या छे. सत्यनुं कारण भगवान् छे. ‘‘काले आपीश एम’’ कह्युं एनुं पालन पण आप ज करावे छे, सत्यना रक्षक पण भगवान् छे ते सत्यमां रही सत्यनुं पालन करे छे, तेथी ‘‘निहितं च सत्ये’’ एम कह्युं छे. सत्यनो अन्तर्भाव पण सत्यमां छे. ‘‘पुर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’’ नी जेम सत्य स्वाधिदैविक सत्य भगवान्मां लीन थाय छे. आवा सत्यना अनेक भेद श्रीसुबोधिनीजी, टिप्पणीजी, प्रकाश, लेख, योजना वगेरे ग्रन्थोमां लख्या छे ते बधाने अत्रे दर्शावतां विस्तार थई जाय माटे मूळमां जे निर्देश कर्यो छे तेमान्थी सार मात्र अत्रे आप्यो छे. विशेष जिज्ञासुए श्रीसुबोधिनीजीमां बधा लेख प्रकट थया छे तेमान्थी जोई लेवा विनन्ति छे. आ जगत् वृक्षात्मक छे तेनुं मूळ भगवान् छे. सुख अने दुःख ए एनां फळ छे. अथवा स्वर्ग-नरक ए बे फल लोकमां गणाय छे. त्रण गुण ए मूळ छे. धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष ए चार प्रपञ्चवृक्षना रस छे. पाञ्च कर्मेन्द्रियजन्य पाञ्च प्रकारनी कृति एना प्रकार छे. छ ज्ञानेन्द्रिय एनो आत्मा छे, केमके विज्ञानमयने आत्मा कह्यो छे. सात धातु छालरूप छे. अष्टधा प्रकृति ए एनी शाखाओ छे. नव छिद्रो एनां बीज छे. दश प्राण एनां पत्र छे. एनी उपर जीव अने अन्तर्यामी नामना बे पक्षीओ बेसे छे तेवुं प्रपञ्चात्मा आदिवृक्ष आपनुं कार्य स्वरूप छे॥२७॥
आ सत्यरूप जगतना आपज उत्पत्तिस्थान छो, आपज लयनुं स्थान छो, अने पालन करनार पण आपज छो. एनेविद्वानो जुदी-जुदी रीते नथी जोता, पण आपनी मायामां मोह पामेला भेदभावथी जुए छे ॥२८॥
(अर्हीलोक प्रमाणादिपूरुं थयुं, अर्हीथीस्मार्त प्रमाणादि कहे छे)चराचर लोकना कुशळने माटे आप ज्ञान स्वरूप छतां जुदा-जुदा अवतारोने धारण करो छो. आप सत्वथी रूपोने स्वीकारो छो तेथी ए सत्पुरुषोनुं हित करो छो अने वारंवार दुष्टोनो नाश करो छो ॥२९॥
[[३२]] हे कमल नयन! आप समग्र जीवना आधार छो तेनुं जे समाधि करी हृदयमां ध्यान करे छे ते मोटाओए करेला आपना चरणरूप वहाणनो आश्रय करी पोते संसाररूप समुद्रने गोवत्सपद जेवो करी तरी जाय छे ॥३०॥
(उपर स्मार्त प्रमाण कह्युं. हवे स्मार्त प्रमेय कहे छे. एमां सम्प्रदाय अने मोक्ष ए प्रमेय छे. एमां सम्प्रदाय साधन अने मोक्ष फल छे. ए बन्ने अर्ही योगथी सिद्ध थाय छे)हे परम प्रकाशस्वरूप प्रभु! संसारसमुद्र बहु भयङ्कर छे. तेने सम्प्रदायप्रवर्तको पोते तरीजाय छे अने ए सम्प्रदायरूप नावने अर्ही बीजाना तरणने माटे छोडी जाय छे, कारण के एमना हृदयमां अत्यन्त सौहार्द छे. आप सत्पुरुषनीउपर अनुग्रहवाळा छो तेथी जे जीवो सत्पुरुषद्वारा आपने शरणे आवे छे अने आपना शरणनो आश्रय करे छे तेमने आप संसार समुद्रने सामे पार पहोञ्चाडी दो छो ॥३१॥
(आ श्लोकथी प्रमेय कही हवे साधन कहे छे के, महापुरुषनो उपदेश साधन छे. ए कहे छे के) हे कमलनेत्र! केटलाक पोताना मनमां मुक्तपणानुं अभिमान राखनार छे, पण आपना स्वरूपमां भाव न होवाथी एनी बुद्धि शुद्ध होती नथी. ए कष्टथी परमपद सुधी पहोञ्चे छे, पण आपना चरणनो अनादर करवाथी ऊञ्चे चड्या छतां अवलम्बनना अभावे ए नीचे पडे छे ॥३२॥
हे माधव! आपनो आश्रय करनार एवी रीते पडता नथी एनुं कारण ए ज के तेमणे आपनी साथे सौहार्द कर्युं छे, एथी आप तेमना रक्षक बनो छो त्यारे बधेथी निर्भय थई विघ्न करनारना मस्तक उपर पग मूकी हे प्रभो! आपना सेवको फर्या करे छे ॥३३॥
(एम स्मृतिमार्गथी देवपक्षपातित्वनुं वर्णन करीने हवे वेदमार्गथी भगवान् देवनो पक्ष करनार छे एम चार श्लोकथी कहे छे. एम लोकमां अने स्मृतिमां प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फल थी भगवान् पक्षपाती होवानुं कह्युं छे ते ज क्रम अत्रे पण ग्राह्य छे तेम स्मार्तमार्गथी देवोना भगवान् पक्षपाती छे ए वात देवोए स्तुतिमां बतावी, हवे *वेदमार्गथी पण भगवान् अमारा पक्षमां छे एम देवो स्तुतिमां कहे छे के) मनुष्यना कल्याणने समीपमां लावी आपनार आप श्रीअङ्गने धारण करो छो, जे श्रीअङ्गनो आश्रय करी मनुष्यो वैदिक क्रिया, योग, तप अने समाधि वडे आपनी सेवा करे छे ॥३४॥
विशेष - वेदमां बे प्रकारना धर्मना मार्ग छेःएक प्रवृत्तिमार्ग अने बीजो निवृत्तिमार्ग. ए दरेक मार्ग अधिकारना भेदवडे बे प्रकारनो थाय छे. एमां प्रवृत्तिमार्गमां वेदनो अर्थ जाणो अने [[३३]] एमां कहेलां कर्म करवां, ब्रह्मचारी अर्थ जाणवानो अधिकारी छे ज्यारे गृहस्थ यज्ञानुष्ठाननो अधिकारी छे. आ वात प्रवृत्तिमार्गनी थई, हवे निवृत्ति मार्गमां संसारथी निवृत्त थईने तपश्चर्या करवी ए वानप्रस्थने अधिकार बतावे छे. आत्मामां स्थिति करवी ए सन्न्यासीना अधिकारनी वात छे. उपर कह्या प्रमाणे वैदिक रीते चार आश्रमनुं कर्तव्य छे, ते दैवांश जीवोने समान छे. सात्विकमूर्ति भगवान् स्वसत्व प्रकट करीने सात्विकोने ते-ते धर्ममां प्रवृत्त करे छे, एनाथी विपरीत राजस तामसने ए धर्मोथी निवृत्त करे छे एम मानवुं जोईए. एम न मानीए तो केटलाक शास्त्रानुसारे अध्ययन वगेरे करे छे ज्यारे बीजाओ शास्त्रानुसार ए करवाथी विमुख रहे छे एम थवुं न जोईए, पण एम जोवामां आवे छे, माटे एना प्रवर्तक निवर्तक भगवान् छे एम सिद्ध होय छे. जगतमां वैदिक धर्ममां भगवान् रक्षक होय तो ज ए धर्म लोकमां प्रवर्ती शके, तेथी भगवानने धर्मरक्षणार्थ सत्वावतारनी जरूर छे. ज्यारे भगवान् प्रकट थईने सत्वगुणने प्रवृत्त करे त्यारे आश्रमीओ वेदाध्ययन क्रियानुष्ठान तप समाधि वगेरे करे छे. ते-ते आश्रमधर्मोथी शुद्ध जीव ज भगवाननी सेवानो अधिकारी छे, नहि के अशुद्ध कर्म करनार. जो कोई फल आपनार न होय तो एके करेल कर्मनुं फल न जोतां बीजो ते कर्म करवाने ललचातो नथी. त्यां कोई कहे के अदृष्ट के भूतसंस्कारद्वारा फल मळी शके! त्यां कहेवानुं के ज्यारे प्रथम शरीरथी आत्माने जुदो जाणे त्यारे कर्तृसमानाधिकरण अदृष्ट उत्पन्न थाय, देहान्तर प्राप्य फलमां भूतसंस्कार कही शकाय; ए बन्ने तो अर्ही नहि होवाथी भगवान् फलदाता अवश्य अपेक्षणीय छे. ए भगवान् फलनुं उपायन करे छे एटले समीपमां लावी आपे छे. ए धर्म भगवद्भजनमां करण के सहायक न थाय तो ए फल क्षयिष्णु होय, तो प्रथम कह्या दोषनी निवृत्ति न होय. तेथी वैदिकमार्गमां पण सर्व धर्मना प्रवर्तक भगवान् छे ते देवोने वैदिक क्रियाद्वारा पोषण आपे छे. तेथी देवोना (अमारा) कार्यने सिद्ध करवा भगवान् भूतळ उपर पधारे छे एम धारी स्वपक्षपातित्वथी स्तुति करे छे. त्यां शङ्का होय के ब्रह्मचारी अने गृहस्थ ने ज्ञान न होवाथी एने माटे सत्वमूर्ति भले अपेक्षित होय, पण तपस्वी सन्न्यासीने आत्मज्ञान होवाथी एने साक्षात् भगवत्स्वरूपनी अपेक्षा नथी! आ शङ्काना उत्तरमां आगामी श्लोक कहेवामां आवे छे. हे धात! अज्ञानरूपी भेदने दूर करनार विज्ञान, आपना स्वरूपप्राकट्य सिवाय न ज थई शके. बुद्धि वगेरे गुणना प्रकाशवडे तो मात्र आपनुं अनुमान थई शके छे. पण जेना सम्बन्धी गुण प्रकाशे छे अथवा जेनावडे गुण प्रकाशे छे ते आपनुं स्वरूप छे, ए तो आप अर्ही पधारीने जीव उपरकृपा करो त्यारे ज बने. माटे [[३४]] प्रकाशने माटे शुद्ध सत्वने आपे धारणकरवुं ज जोईए ॥३५॥
आपनां नाम अने रूप; गुण, कर्म अने जन्म उपरथी पड्यां नथी, पण आप तो गुणादिना साक्षी अने मन अने वाणी थी जेना मार्गनुं मात्र अनुमान थई शके तेवा छो, तेमनामां गुण कर्म केम सम्भवे? तथापि१ वैदिक२ तान्त्रिक क्रियामां आपना नामनी प्रतीति थाय छे ॥३६॥
विशेष - १. हवे वैदिक मार्गना साधनमां पण भगवान् ज साधन छे एम स्तुति करता देवो
कहे छे के आपनां गुण कर्म अने जन्म वडे आपनां नाम-रूप थयां छे एम नथी पण आप
तो सर्वना साक्षी अने सर्व कर्मना अध्यक्ष छो. आपनां गुणकर्म छे ज नहि, परन्तु सत्तारूप
क्रियाशक्ति के जे सत्ता आपनो धर्म छे ते क्रियाशक्तिरूपे आपना आविर्भावने लोको ‘कर्म’ कहे
छे अने आनन्दरूपे आविर्भावने लोको ‘जन्म’ कहे छे. एनाथी ज आपनां नाम अने रूप
कहेवाय छे. जो एम न मानीए अने जीववत् प्राकृत नाम-रूप भगवाननां छे एम मानीए
तो ए नाम अने रूप थी कोई प्रकारनो पुरुषार्थ सिद्ध न थाय. शास्त्रमां साधनत्वथी एनुं
निरूपण न थवुं जोईए. जे कर्ममां नाम अने रूप फळ आपनार न होय ते कर्मना अध्यक्ष
भगवान् न थाय त्यां सुधी कर्मनुं फल कोण आपे? वळी सगुण तो मन अने वचन मां समाई
जाय तेथी ए फळ आपे तो पण मानसिक के वाचिक ज आपे, परन्तु आत्मरूप के भगवद्रूप
फळ ए न आपी शके, कारण के ए प्राकृत छे. ‘‘यतो वाचः’’ ‘‘पराचिं खानि’’ वगेरे
श्रुतिओ मन अने वाणी थी न जाणी शकाय तेवुं भगवत्तत्व छे एम कहे छे. त्यां कोई कहे के
भगवानने तो नाम-रूप नथी एम मानो! त्यां कहेवानुं के नाम-रूप क्रियामां प्रतीत थाय छे
तेथी नथी एम तो न कहेवाय, वळी फल साधक छे तेथी प्राकृतन कहेवाय. माटे ए
आनन्दमय छे एम अन्यथानुपपत्तिथीसिद्ध थाय छे.
२. तन्त्रशास्त्रमां पण नाम-रूप जोवामां आवे छे. वेदमां तो नाम-रूपनी प्रतीति स्पष्ट
जोवामां आवे छे. ‘‘विष्णोर्नु कं वीर्याणि’’, ‘‘तदस्य प्रियम्’’, ‘‘इदं विष्णुर्
विचक्रमे’’, ‘प्रतिद्विष्णु’ ए मन्त्रोमां नाम-रूप स्पष्टपणे कहे छे. ‘‘षडक्षरमन्त्र,
राममन्त्र’’ वगेरे पण स्पष्ट छे. ‘‘यस्यै देवतायै हविर्गृहीतं स्यात्तां मनसा ध्यायेत्
वषट् करिष्यन्’’ इत्यादि श्रुतिमां देवना ध्यान वगेरेनुं पण विधान जोवामां आवे छे. जो
नाम-रूप न होय तो ध्यान अने मन्त्र नुं विधान वेद न करे ए युक्ति बतावनार आ श्लोकमां
‘हि’ शब्द कह्यो छे. तेथी नाम-रूप प्राकृत नहि पण आनन्दमय छे. अने सर्व पुरुषार्थ साधी
आपनार छे ते ज वैदिकमार्गमां साधनरूप छे. एम देवोए साधनरूप भगवाननी
[[३५]]
स्वपक्षपातित्वथी स्तुति करी, हवे वैदिक सिद्धान्तथी फलरूप पण कृष्ण आपज छो एम देवो
स्वस्तुतिमां सिद्धवत् आगामी श्लोकथी कहे छे.
आपनां मङ्गळरूप नाम अने स्वरूप ने बीजो बोलतो होय त्यारे साम्भळे,
बीजो सम्भळावनार न मळतां पोते उच्चारण करे, अथवा कोई न होय त्यारे स्मरण
करे के मनथी चिन्तन करे अने लोक वेद सम्बन्धी कार्य करतां आपना स्वरूपमां चित्तने
परोवे ते आ संसारमां* फरी आवतो नथी ॥३७॥
विशेष - वैदिक साङ्ग सिद्ध थाय तेनुं फल अवश्य मळे छे. अच्युतना स्मरणथी क्रियानी न्यूनता पूर्ण थाय छे ते ‘फल’ एटले मोक्ष. आ वात निबन्धमां ‘स्वर्ग’ पदना विचारवडे कही छे. अर्ही स्मरण अने चिन्तन बे कह्या छे तेनुं लक्षण ए ज के सप्रयत्न चित्तनो व्यापार ते ‘चिन्तन’ अने अप्रयत्न चित्तनो व्यापार ते ‘स्मरण’ समजवुं. भगवत्स्मरण करवाथी क्रिया पूर्ण थाय छे, एटलुं ज नहि, पण चित्तमां भगवान् पधारे छे. त्यारे ‘क्रिया’ एटले कर्म करवाथी क्रियाविष्ट विष्णु थया अने स्मरणचिन्तनमां आवता ज्ञान अने विष्णुरूप थयुं. ज्यारे क्रिया अने ज्ञान बन्ने विष्णुरूप बन्यां त्यारे एनो मोक्ष निश्चय थाय ज. एमां कोई प्रकारे सन्देह न करवो. (एम वैदिक प्रकारथी भगवान् स्वपक्षपाती छे एम कहीने स्वसिद्धान्त अनुसार पण प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फळरूप भगवान् अमारा पक्षपाती छे एम देवो चार श्लोकथी कहे छे) हे हरि! आपना चरणरूप पृथ्वीनो भार आपे आ लोकमां पधारीने उतार्यो ए अमारुं मोटुं भाग्य एम अमे जाणीए छीए. वळी आपनां ध्वज, वज्र, अङ्कुशना चिह्नथी शोभतां एवा पृथ्वी उपर पडेला चरणारविन्दने अमे जोईशुं ए पण अमो अमारुं अहोभाग्य समजीए छीए. स्वर्गमां पण आप पधारी अदितिनां कुण्डळ वगेरे आपशो, इन्द्रना शत्रुने संहारी एने सुखी करशो, तेथी अमो बधा स्वर्गने पण आपनी कृपाथी अकिन्त जोईशुं, ए पण अमे अमारुं सौभाग्य ज समजीए छीए. (दर्शननी प्रार्थना ए प्रमाणरूप गणाय तेथी आ श्लोकमां स्वसिद्धान्तानुसारी प्रमाणरूप भगवाननी स्तुति करी) ॥३८॥
हे ईश! आपनो जन्म न होय तेथी आप अभव छो, छतां आपने अर्ही पधारवुं थयुं एनुं कारण तो अमे आपना विनोद सिवाय बीजुं कांई कही शक्ता नथी, केमके जन्म, स्थिति अने निरोध ए त्रण जीवने देहाध्यासथी थाय छे तेमां पण आपना आश्रयनी जरूर छे. (अथवा जीवने स्वतः जन्म सम्भवे नहि, माटे आप [[३६]] पधारो त्यारे आपना आधार अने समवायित्वथी जीवनां देहादि थाय छे, उत्पत्तिमां आधार अने समवाय नी अपेक्षा रहे छे. आप जो पधारो तो जगतनुं अनादित्व नष्ट थाय. तेथी भगवाननो लीलावडे प्रादुर्भाव थाय छे ए ज स्वसिद्धान्तमां प्रमेयरूपलीला प्राकट्य होवाथी आ श्लोकमां प्रमेयरूप भगवाननी देवोए स्तुति करी) ॥३९॥
(हवे साधनरूपनी स्तुति करतां कहे छे के) मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम अने वामन अवतार धारण करीने ज त्रण लोकने आप बचावो छो तो हालमां पण पृथ्वी उपर दुष्ट राजाओनो भार थयो छे तेथी आप *अवतार धरी पृथ्वी उपर पधारी एना भारने हे यदूत्तम! आप दूर करो, ए माटे अमे आपने नमन ज करीए छीए ॥४०॥
विशेष - भगवानना अनेक अवतार पृथ्वी उपर थाय छे. तेमां केटलाक २४ने मुख्य माने छे. ज्यारे बीजाओ दशावतारने प्राधान्य आपे छे; अर्ही तो श्रीकृष्ण सर्वावतारना अवतारी छे, तेमां दशावतारे जे कार्यो कर्यां ते बधां आ कृष्णे एक अवतारथी कर्यां छे. ए ज कहे छे के भगवाननां दश रूप जीवना सर्व पुरुषार्थने सिद्ध करनारां छे. पृथ्वीना भाररूप राजाने मारवामाटे भगवाननो अर्ही प्रादुर्भाव थाय छे त्यारे तो भगवानने ए राजाओ साथे युद्ध करवुं जोईए, पण भक्तने तो भगवान्मां स्नेहभाव विशेष होवाथी भगवानने दैत्य साथे लडतां ए भक्तो जोई न शके, तेथी ज देवकीजीए स्तुतिमां कह्युं के ‘‘आ रूप आप लोकमां प्रकट न करो, आप मारे त्यां प्रकट थया एम जो कंस जाणशे तो ए मारवा आवशे’’ एम कहेवामां देवकीजीना मनमां भगवाननुं माहात्म्यज्ञान नथी जणातुं, पण एने तो प्रभुमां स्नेहातिशय जणाय छे. तेमज ब्रह्माजी वगेरे माहात्म्य ज्ञानवाळा छे छतां एओने पण भगवान्मां स्नेह छे तेथी एओ विनन्ति करे छे के ज्यां सुधी मारपीट वगर पृथ्वीनुं दुःख मटे त्यां सुधी हिंसामां प्रवृत्ति न कराय तो ठीक. ऐश्वर्यादि प्रकट करवां न पडे, मोटां युद्धो उपस्थित न थाय, अने कार्य सिद्ध थाय, एवो रस्तो जडे त्यां सुधी रौद्र प्रयोगो उपस्थित न करवा. भगवानने प्रलयमान्थी सत्यव्रतादिनी रक्षा करवी हती, ए रक्षा जो पुरुषादि शरीरथी करे तो लोकरीतिथी मगर वगेरेनो जळमां भय थाय छे ए जाणी भक्तने स्नेहने लीधे दुःख थाय. ए दुःख भक्तने न थाय ते माटे भगवाने निन्द्य एवुं मत्स्यनुं शरीर स्वीकारी सत्यव्रतनी रक्षा करी, तेम आ अवतारमां स्वयं गोपात्मजपणुं स्वीकारीने पण भक्तरक्षा करी दुष्टदमन कर्युं छे. अर्ही पण ऐश्वर्य विरुद्ध ब्राह्मणनो वेश करी भीमादि साथे जरासन्ध पासे जईने प्रार्थना करी, द्वन्द्वयुद्धरूप भिक्षा मागी एने मार्यो, पण पोते समर्थ छतां एने मार्यो [[३७]] नहि. हयग्रीव भगवान् ब्रह्माजीना नेत्रथी प्रकट्या तेमणे असुरने मारी वेदनी रक्षा करी तेम अर्ही पण भगवाने राजसूय यज्ञमां ब्राह्मणोनी सेवा करी. ‘‘कृष्णः पादावनेजने’’ ए वाक्यथी मर्यादानुं स्थापन करी वेदथी विरुद्ध बोलता शिशुपालने मारशे. कच्छप भगवाने मन्दरने पीठ उपर उठाव्यो एमां एने आनन्द हतो, दुःख न हतुं, ए मूळमां ज कह्युं छे, तेम अर्ही भगवाने क्वचित् युद्ध कर्युं हशे तो वीर्यथी थता बाहुनी खञ्जवाळ शान्त करवामाटे ज, नहि के एने शत्रुने मारवानी जरूर छे; शत्रुओनो तो ‘बलभीमपार्थव्याजेन’ ए वाक्यथी बीजाओद्वारा ज पराजय कराव्यो छे. तेथी भगवाने ज्यां युद्ध कर्युं छे त्यां क्रीडाने माटे मृगयानी जेम युद्ध कर्युं छे. तेथी ज ‘‘विक्रीडितं तज्जगदीशयोः परम्’’ एम घोर युद्ध पण आपने मन क्रीडा ज छे. जेम अमृतदानमाटे मन्दरपर्वतने भगवाने धारण कर्यो तेम अर्ही पण अधरामृत आपवाने माटे गोवर्धनने आपे उठाव्यो छे; एम करीने भक्तनी रक्षा पण करी छे. नृसिंहजीए तो पोताना पूर्वजन्मना भक्त अने आ जन्ममां भक्त प्रह्लादजीना पिता हिरण्यकशिपुने पोताना भक्तने बचाववामाटे मार्यो, तेथी एम सूचव्युं के भगवान् लक्ष्मी वगेरेथी पण अगम्य छे ज्यारे भक्तमात्रथी गम्य छे. आ अवतारमां पण पाण्डवने बचाववामाटे आसुरावेशी भीष्मादिने तेम ज कंसादिने पण मार्या. पार्थोना वनवासमां दुर्वासा आव्या त्यारे ब्राह्मणना शापथी एओने बचाववामाटे भगवाने बचेला शाकपत्रनो उपभोग करीने बधानुं समाधान करी आप्युं. वराह भगवाने जेनी रक्षा करवी छे तेनी रक्षामां प्रवृत्त थतां एटलो पक्षपात कर्यो के नासिका इन्द्रियथी प्रकट थईने ए पृथ्वीनी रक्षा करी, पण नृसिंहजीनी जेम अकस्मात् प्रकट न थया, तेम पाण्डवनी रक्षाने माटे आवेला अने पाण्डवमात्रना गुणने ग्रहण करतां विदुरने त्यां भगवान् उतर्या, पण दुर्योधनने त्यां उतर्या नहि, तेम अर्ही व्रजभक्तोनो उद्धार करवामाटे केवल नन्दरायजीने त्यां पधारीने भक्तनो उद्धार कर्यो तेम ज रुक्मिनो उद्धार कर्यो त्यारे, जेम वराहे रस्तामां हिरण्याक्षने मार्यो तेम, रस्तामां विघ्न करवा आवेल रुक्मिना ‘वपन’रूप एनो घात कर्यो, नहि के देहघात कर्यो; देहघात तो बलदेवजीद्वारा आगळ थशे. हंस भगवाने ब्रह्माजीने तत्वोपदेश कर्यो, ब्रह्माजीनो खेद मटाड्यो, तेम गुरुवधथी विमुख थयेल अर्जुनने तत्वोपदेश आपी चिन्ता अने विषाद थी मुक्त कर्यो. आम जो भगवान् न करे तो पृथ्वीनो भार उतारवा भगवान् पधार्या छे ए कार्य थई न शके. रामचन्द्रजीए तो डूबवानुं साधन-पथ्थरोने जळ उपर तराव्या अने एक भक्तने माटे अनेक दैत्यने मार्या, तेम अर्ही एकली पृथ्वीने सुखी करवामाटे अनेक दैत्यांशोने मार्या. द्वेषादि भाव पण जो भगवान्मां होय तो ए तारक थाय छे, एवुं पण कंस, शिशुपाल वगेरेना प्रसङ्गथी [[३८]] जणाव्युं. परशुराम ब्राह्मण छतां घोर क्षात्रवृत्तिनो स्वीकार करी अनेक क्षत्रियोने मारनार थया, तेम अर्ही भगवान् सर्व सम छतां अनेक दैत्यघातक थया. वामनजीए मातानी प्रार्थनाथी प्रकट थई ब्रह्मादिथी न थई शके तेवुं त्रिभुवनहरणनुं कार्य वाणी मात्रथी करी आप्युं; अर्ही एवुं अद्भुत कार्य वृकासुरने मारी शिवजीनो बचाव करतां भगवाने करी बताव्युं छे. बलदेवजीनी लीला तो साथे ज छे. तेथी दशावतारनां कार्य पण आ अवतारी श्रीकृष्णे कर्यां छे. ए बधुं देवो जाणता होईने एमनी स्तुति एमणे करी छे. प्रथम नव भगवद् अवतार कह्या तेम आ दशमो अवतार छे, तेमां मत्स्य, अश्व अने कच्छप ए त्रण जलथी उत्पन्न थयेल छे; नृसिंह, वराह, अने हंस ए त्रण अवतार वनथी उत्पन्न थया छे; राजन्य, विप्र अने विबुध ए लोकज अवतारो छे; घोडानो अवतार हयग्रीव छे ते जलज, एटला माटे के ‘‘अप्सु योनिरश्वः’’ एम श्रुति कहे छे. वराह इन्द्रियोत्पन्न छतां बहार वायुना स्थानरूप होवाथी एने आरण्यक कह्यो छे; राजन्यावतार श्रीरामचन्द्रजी, ब्राह्मणावतार परशुराम, अने देवावतार अदितिना पुत्र वामनजी, त्रण भेद कहेवानुं कारण एमां भाव भेद छे. माछला करतां घोडो श्रेष्ठ, घोडाथी काचबो श्रेष्ठ छे, नृसिंहथी वराह श्रेष्ठ, तेनाथी ज्ञान देनार हंस श्रेष्ठ छे, क्षत्रियथी ब्राह्मण उत्तम, तेनाथी देव उत्तम, एम त्रण त्रिकथी दश भेद कह्या. राजसादि निर्गुण पर्यन्त दश भाव थाय छे. (श्रीसुबोधिनीजी) (देवकीजीने सम्बोधन करीने) हे माताजी! साक्षात् परम पुरुष भगवान् आपना उदरमां पधार्या ए पण अमारुं कल्याण करवाने माटे पधारे छे ए अमारुं भाग्य समजीए छीए. हवे कंस तो मरणोन्मुख छे एम तमारे समजवुं. अने ए भोजपति कंसथी भय राखवानुं तमारे हवे कंई कारण नथी, कारण के तमारो पुत्र तमारो एकलानो ज रक्षक नहि, किन्तु ए सर्व यादवोनो रक्षक थशे. विशेष कहीए तो निःसाधन मात्रनो ए रक्षक छे ॥४१॥
इत्यभिष्टूय पुरुषं, यद्रूपमनिदं यथा रू। ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुर्दिवम् ॥४२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जेवुं स्तुतिमां देवोए रूप कह्युं छे तेवुं भगवाननुं रूप छे, पण एटलुं ज छे एम तो न कहेवाय, केमके दैत्योने पण भगवान् मोक्षादि दान करे छे, तेथी देवोए पाक्षिक स्तुति करीने पुरुषनुं आराधन कर्युं, त्यान्थी ब्रह्मा अने शिवजी ने आगळ करीने देवो पोत-पोताना स्वर्गमां गया ॥४२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (पहेलां जन्म प्रकरणनो भगवानना [[३९]] जन्मनो उद्योग)‘‘भूतळउपर पधारवानो श्रीकृष्णे करेलो उद्यम’’ नामनो बीजो अध्यायसम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!
अध्याय ३
श्रीकृष्णे करेलो रूपान्तरनो स्वीकार
विशेषः भगवाननो आविर्भाव, वसुदेवजीए करेलुं स्वरूपनुं वर्णन, वसुदेवजीए करेल स्तवन, देवकीजीनी स्तुति, सान्त्वन, मथुराथी श्रीगोकुलमां भगवाननुं गमन, ए छ अर्थ आ तृतीयाध्यायमां कहेवाना छे तेथी आ अध्यायनो अर्थ ‘‘रूपान्तरनो स्वीकार’’ एवो करवामां आव्यो छे. अर्ही प्रकट थयेल षड्गुणयुक्त छे तेथी आ अध्यायमां जन्म वगेरे छ प्रकार बताववामां आव्या छे. एमां छ प्रकारमां श्लोकनी सङ्ख्या कहे छे के जन्मनुं वर्णन आठ श्लोकथी छे, स्वरूपवर्णनना श्लोक चार छे, वसुदेवस्तुतिना दश श्लोक छे, आठ श्लोकथी देवकीजीनी स्तुति छे, चौद श्लोकथी भगवाने वसुदेव-देवकीजीनुं सान्त्वन कर्युं अने आठ श्लोकथी मथुराथी गोकुल पधार्यानुं वर्णन छे; भगवद् ऐश्वर्य आठ प्रकारनुं छे अने अर्ध मात्राथी हरिनुं परत्व तथा ऐश्वर्यनुं बोधन कर्युं छे, तेथी साडा आठ श्लोकथी जन्मनुं वर्णन आप्युं छे. काळ ए भगवाननो अधिकारी छे. भगवाने एने अनन्त गुण आप्या छे. ज्यारे भगवान् भूतळ उपर पधारे त्यारे काळ सर्व गुणोने प्रकट करे छे. ए काळना गुण बीजाने तो खण्डशः फळ आपे छे. ज्यारे मूल स्वरूप पधारे छे त्यारे काळे पोताने आपेल गुणो ते प्रभुनी पासे बताववा जोईए, तेथी सर्वगुणयुक्त काळ अर्ही कह्यो छे. देश पण उपर, नीचे अने चोतरफ एम त्रण प्रकारनो छे. एणे पण स्वगुण प्रकट कर्या छे. ए देशमां रहेनारे पण पोताना गुण भगवत्प्रादुर्भाव समये प्रकट कर्या छे, केमके जेणे आप्युं छे ए आवे त्यारे ते वस्तु एने न बतावीए तो दोष प्राप्त थाय. ए दोष न लागे एटलामाटे स्वस्वगुण निवेदको [[४०]] ए थया छे. आ प्रमाणे साडा आठ श्लोकथी भगवान् प्रकट थया त्यारे देश, काळ वगेरेना गुणोनुं जे वर्णन आप्युं छे तेनुं तात्पर्य कहेवायुं. हवे रूपान्तर स्वीकारने कहे छे. एमां प्रथम रूपनुं वर्णन करे तो रूपान्तरनो बोध थाय, ते समये अधिकारी काळ वगेरे स्वगुण प्रकट न करे तो भगवाननुं पधारवुं साधारण मनुष्यना जन्म जेवुं गणाय; तेथी काळादि गुणोनुं वर्णन करे छे. अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः ॥ यर्ह्येवाऽजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ब्रह्माजी वगेरे देवो कृष्ण भगवाननी स्तुति करीने गया पछी परम शोभा आपनार समय आव्यो. ज्यारे भगवान् अजन्माना जन्मनुं नक्षत्र पण आव्युं त्यारे ग्रह, तारा, चान्दरडा, वगेरे शान्त थयां, एवो सर्व गुणप्रकाशक काळ प्रकट थयो ॥१॥
दिशाओ प्रसन्नतावाळी देखवामां आवी. निर्मळ नक्षत्रोदयवाळुं आकाश थयुं. शहेर, गामडां, गायोने रहेवाना व्रजो अने रत्ननी खाणोवाळा प्रदेशमां पृथ्वी उपर सर्वत्र मङ्गळ वर्ताव देखायो ॥२॥
नदीओ निर्मळ जळने वहन करनारी थई. मोटा जलना ह्रदोमां कमळनी शोभा प्रकट थई. जेमां पक्षीगणो गाजी रह्या छे तेवां वृक्षना स्तबकोवाळी वन पङ्क्तिओ थई ॥३॥
जेनो स्पर्श सुखकर जणाय तेवो, पवित्र सुगन्धवाळो अने अति पवित्र पवन चालवा लाग्यो. ब्राह्मणो अग्निने आराधे छे ते अग्निओ शान्त रीते प्रदीप्त थया ॥४॥
असुरो जेमनो द्वेष करे छे तेवा साधु पुरुषनां मन ए समये एटले ज्यारे अजन भगवानने पधारवानो समय थयो त्यारे प्रसन्न थयां. देवनां दुन्दुभि ए समये वागवा लाग्याम् ॥५॥
किन्नर अने गन्धर्वो गावा लाग्या. सिद्ध-चारणो ए समये भगवाननी स्तुति करवा लाग्या. विद्याधरो अप्सराओ साथे आनन्दमां आवीने नाचवा लाग्या ॥६॥
देवो अने मुनिओ आनन्द देखाडता पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या. सागरनी गर्जनानी पाछळ मेघोए पण मन्द-मन्द गर्जना भगवत्प्रादुर्भावसमये करी ॥७॥
ज्यारे अर्धरात्रिनो समय थयो, अन्धकार कांईक ओछो थयो, त्यारे सर्व देवमय [[४१]] देवकीजी जे विष्णुरूपिणी छे तेनामां सर्वना हृदयमां वास करता व्यापक विष्णु, *जेम पूर्वदिशामां पूर्ण चन्द्र प्रकटे तेम, प्रकट थया ॥८॥
विशेष - निशीथ समये अन्धकार चाल्यो गयो त्यारे अविद्याने दूर करनार भगवान् प्रकट थया. अर्ही काळना प्राकट्यमां निमित्त पण भगवान् छे. जो एम न होय तो बीजो पण ए समये जन्मे, ए भगवान् जेवो थाय. एम नथी थतुं तेथी भगवानना गुण अने भौतिक गुण ना प्राकट्यमां निमित्त भगवान् ज छे. अर्ही भगवानना त्रण अवतार कह्या छेःसर्व धर्मना रक्षक अनिरुद्ध, सर्वने अज्ञाननिवृत्तिद्वारा मुक्ति आपनार सङ्कर्षण, देवकीजीमां प्रद्युम्न अने नन्दरायजीने घेर वासुदेव एम सर्वरूपथी प्राकट्य छे. देवनो समुदाय ए देवकी. सम्पूर्ण सत्व सर्व देवनिष्ठ होय ए सर्व देवरूप देवकी एटले ‘सम्पूर्ण सत्व’ एमां भगवान् प्रकटे ए सम्पूर्ण सत्वने भगवान् आधारत्वे करीने निमित्त करे छे, जेम अग्निने आधारत्वे निमित्त अरणि थाय छे. एमां मथन स्थानीय कांईक जोईए तेथी देवकीने विष्णुरूपिणी कही छे. ए विष्णुरूप एमां रह्युं छे ए ज भगवान् पोते एमान्थी प्रकट थाय छे, एटले प्रसूतिवान् वगेरे कांई प्रयत्न एमां अपेक्षित नथी. भगवान् ज सर्वान्तर्यामी सर्वनियामक छे, जे सर्वना हृदयमां रहे छे तेमणे सर्व जीव कृतार्थ थाय एटलामाटे वेदने बनाव्या छे. ए पोते ज हालमां पधार्या छे, एटले अत्यारे भगवान् स्वरूपथी उद्धारक होवाथी वेदनो उपयोग विशेष नथी. सम्पूर्ण आनन्दमय प्रकट्या ए बताववामाटे पूर्व दिशामां चन्द्र प्रकटे छे एनुं दृष्टान्त आप्युं छे. तेथी जेम चन्द्रने पूर्व दिशा मार्गमां निमित्त छे, जन्ममां पूर्व दिशामां सम्बन्ध नथी, तेम अर्ही पण पूर्ण भगवद् अवतार कृष्ण छे. जेम पूर्णचन्द्रना प्राकट्यनुं स्थान पूर्व दिशा छे तेम वसुदेवजीने अढार स्त्रीओ छे छतां पूर्ण पुरुषोत्तमना प्राकट्यना आधाररूप देवकीजी छे. श्रुतिरूप अग्निकुमाररूप दासीओनी सर्व प्रकारे रक्षा करवाने माटे कांईक भक्तदुःख आदिने निमित्त करीने अमारा स्वामी पुरुषोत्तम प्रकट थया छे, तेथी उपनिषद्रूप वाणीमां भगवान् ‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’’, ‘‘अदृश्यमग्राह्यम्’’, ‘‘न तत्र सूर्यो भाति’’, ‘‘न चक्षुषा दृश्यने नोत वाचा’’ इत्यादि श्रुतिमां भगवान् इन्द्रियोथी अनुभव न थई शके तेवा छे एनो विरोध नथी, केमके ए ज श्रुति ‘‘कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत्’’ ‘‘ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः’’ इत्यादिमां कृपा करे तो दर्शन पण दे तेथी जीवसाधनथी गम्य नथी. आ मारुं रूप जोई शके एवी भगवान् इच्छा करे तो जीव जोई शके छे. (प्रकट्या तेवा भगवानना स्वरूपनुं वर्णन ऐश्वर्यथी कहेवामां आव्युं एटले आ श्लोकमां [[४२]] वीर्यथी एनुं वर्णन श्रीशुकदेवजी करे छे. भगवाननी मुख्य दश लीलाओ छे ते दश स्वरूपलक्षणो कहे छे.) ‘तं’ ए प्रसिद्ध ‘‘लोक वेदमां हुं प्रसिद्ध पुरुषोत्तम छुं’’ एम गीतामां कह्युं छे ते प्रकट्या. ए पोते प्रकट्या परन्तु ए ‘अद्भुत’ छे. लोक वेदमां आज सुधी आनन्द प्रकट्यानुं जाणवामां न हतुं तेनुं प्राकट्य थयुं ए ज ‘अद्भुत’ विशेषणथी कह्युं छे. ‘अद्भुत’ एटले एनां दर्शन करो तो ज ए अनुभवमां आवे. ए वाणीथी कही शकाय एम नथी, तेथी वीर्य कह्युं. वळी ए बालक छे. (गोप) बालकने पण जेनाथी सुख थाय तेवा अथवा ब्रह्मा जेना पुत्र छे तेवा अथवा बलना सम्बन्धीओमां मुख्य एवा बालक छे. तेथी यश कह्यो. ए ‘अम्बुजेक्षण’ एटले कमळ सरखा नेत्रवाळा छे. तेथी श्रीनुं निरूपण थयुं. एना अनेक अर्थ श्रीसुबोधिनीजीमां कह्या छे. ‘चतुर्भुज’ एटले बमणी क्रियाशक्तिवाळा भगवाननुं प्राकट्य थयुं छे. (चार प्रकारनां कार्य करवामाटे भगवान् भूतळ उपर पधारे छे. ए चार कार्य करवामाटे चार भूजा बतावे छे. अथवा भक्तने चार पुरुषार्थनुं दान करवा पधार्या छे एम बतावनार भगवाननी चार भुजा छे. भगवान् लौकिक अने अलौकिक एम बेवडा पुरुष छे एम *चार भुजाथी सिद्ध थाय छे. शङ्ख, पद्म, गदा, चक्र वगेरे आयुधो ऊञ्चां करीने श्रीहस्तमां धर्यां छे. एनाथी ज्ञान भक्ति वगेरे कह्यां. शङ्ख, गदा वगेरे आयुधथी वैराग्य कह्युं. आम षड्गुण विशिष्ट भगवान् प्रकट्या. उपर लौकिक ऐश्वर्यादि छ गुण कह्या, हवे वैदिक ऐश्वर्यादि छ गुणविशिष्टनुं वर्णन करे छे). ‘श्रीवत्स’ ना चिह्नवाळा छे. श्रीवत्स लक्ष्मीने रहेवानुं स्थान छे. ए लक्ष्मी ब्रह्मानन्दरूप छे. सर्व वेद प्रतिपाद्य छे. ए ज ब्रह्मनुं असाधारण लक्षण छे, तेथी ज सर्वाधारवाळा भृगुना पगनुं चिह्न भगवाने राख्युं छे. आ विशेषणथी ऐश्वर्य कह्युं. कोई एक अवस्थामां रहेल ब्रह्म ‘जीव’ कहेवाय छे. ए बधा जीवने पोते कण्ठमां कौस्तुभना मिषथी राखे छे. ‘कौस्तुभ’ ए सर्व जीवना तत्वनुं स्वरूप छे. ‘‘चैत्यस्य तत्वममलं मणिमस्य कण्ठे’’ ए मूळ श्लोकथी ज जीवात्मक कौस्तुभ कह्यो छे. एने कण्ठमां धारण करवाथी जीवने क्रियाशक्ति अने ज्ञानशक्ति ना स्थाननी वच्चे कण्ठ छे एमां एने धारण करे छे. तेथी वीर्य कह्युं. भगवान् अने जीव ए बन्नेनुं वर्णन आपीने हवे ए जीवने आवरण करनारी मायानुं वर्णन आपे छे, के भगवानने पीळुं अम्बर छे. ए मायारूप छे; तेथी यश कह्यो. जळथी भरेल मेघना जेवा सुन्दर छे. मेघ जेम सर्व तापनाशक छे तेम भगवान् पृथ्वी, स्वर्ग, धर्म, भक्त वगेरेनुं अनिष्ट निवृत्त करे छे. आ विशेषणथी श्रीगुण कह्यो ॥९॥
[[४३]]
विशेष - भगवानने चार भुजा छे तेमां अति सङ्कटमां पण भगवाननी बे भुजा दैत्यनी घातक छे के ज्यारे बे भुजा भक्तनी रक्षा करनारी छे. लोकमां मारती वखते रक्षण थतुं नथी, पण भगवान् मारती वखते पण रक्षण करी शके छे. परीक्षितना लौकिक बीजांशनो नाश कर्यो त्यारे एना भक्तत्वनी रक्षा करी ते एकी साथे करी, ते रीते ‘चतुर्भुज’ कहीने हवे कहे छे के वेदोक्त ज्ञान कर्मविषयक, ब्रह्मविषयक, आत्मविषयक, परमात्मविषयक; भक्ति पण सगुणा, निर्गुणा, साधनरूपा, फळरूपा, एम ज्ञानभक्तिना चार-चार भेदने अधिकार प्रमाणे आपनार ए चार भुजा छे. भगवान् आयुधने धारण करे छे एनाथी एना मधुसूदन, माधव, नारायण, एवा चोवीस भेद पडे छे. वैष्णवशास्त्रमां ए भेद प्रसिद्ध छे. एमां भगवत्प्राकट्य समये भगवान् चार भुजामां क्रमवडे शङ्ख, पद्म, गदा, चक्र, धारण करे तो मधुसूदन कहेवाय. जमणा श्रीहस्तमां गदा, चक्र अने डाबा श्रीहस्तमां कमळ, शङ्खने धारण करे तो माधव कहेवाय छे; इत्यादि भेद जाणवा. कमळनी सुगन्धथी लोभाईने भ्रमरो कमळ उपर आवे छे तेम भगवानना श्रीमुखने जोवाने माटे शास्त्रने जाणनार जीवो भगवानना मुखकमलने जोवामाटे आवे छे. ए मुनिओने वेद, साङ्ख्य अने योग ए शास्त्रो शोभा आपे छे. वेदरूप किरीट छे अने साङ्ख्ययोगरूप कुण्डळ छे. ए वेद बे काण्डवाळो छे. योग पण साधन अने फलरूपे बे प्रकारनो छे. साङ्ख्य सन्न्यास अने ज्ञान ना भेदथी बे प्रकारनुं छे. एम छ शास्त्रो कह्यां तेना हजारो भेद थया छे. ए छ शास्त्रथी षट्पद-भमरा अर्ही भगवानना मुखकमळ उपर आवीने एना सुगन्धने ले छे. आ कहेवानुं तात्पर्य ए ज के वेद, साङ्ख्य अने योग नुं तात्पर्य पण भगवन्मुखरूप भक्तिमां छे. तेथी एनी कान्तिनो परिष्वङ्ग करी कुन्तलरूप भक्तो मुखनिरीक्षणरूप भक्ति करे छे. ज्ञान कह्युं, हवे क्रिया कहे छे के कर्म अनन्त छे छतां काञ्ची, अङ्गद अने कङ्कण ए त्रण कह्यां छे. तेथी त्रिविध कर्म कह्यां छे. लोकमां काञ्ची (किकिण्णी-कन्दोरो) सदाम (दोरावाळो) होय त्यारे अर्ही ए उद्दाम (दोरा वगरनो) छे. हिंसाप्रचुर क्रिया वैदिक छे छतां ए लोकने अनुसरती नथी. पृथ्वी उपर अविद्यावाळानो ज कर्ममां अधिकार छे, तेथी मायारूप पीताम्बर उपर काञ्ची छे एम कह्युं छे. ए कर्मो लौकिक नथी तेथी एने उद्दाम कह्यां छे. अङ्गद (बाजुबन्ध) राजस, काञ्ची, तामस, कङ्कण सात्विक छे. आदि शब्दथी र्वीटी वगेरे समजवां. ए सर्व आभरणोवडे अर्थात् ए वैदिक त्रिविध कर्मवडे भगवान् शोभे छे. ‘‘वेद, रामायण, पुराण अने भारतना आदि, अन्त अने मध्यमां सर्वत्र हरि भगवाननुं गान [[४४]] सम्भळाय छे’’ आ पुष्कर प्रादुर्भावनी समाप्तिमां ‘हरिवंश पुराण’ मां श्लोक छे तेने श्रीआचार्यचरणे श्रीसुबोधिनीजीमां लीधो छे तेनो अर्थ लेखकार एवो करे छे के वेदादि चार शास्त्रना आदि, मध्य अने अन्त एम त्रण भेद गणतां बारनी सङ्ख्या थाय ते अर्ही बार श्लोक स्तुतिना छे, तेथी सर्वत्र गवाता भगवाननुं ज अर्ही वसुदेवजीए बार श्लोकथी गान कर्युं छे. अर्ही बार श्लोकथी वसुदेव-देवकीजीनी स्तुति छे तेनुं तात्पर्य कारिकावडे कहे छे. भगवान् द्वादशात्मा छे. एमां नव प्रकार वैदिक छे ज्यारे त्रण प्रकार लौकिक छे. नव प्रकारमां पाञ्च प्रकारना हरि छे ते प्रकारःअग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, पशु, चातुर्मास्य, अने सोम ए पाञ्च प्रकार यज्ञात्माना छे ते वेदे कहेला छे तेम ज चतुर्मूर्ति ए अर्ही प्रकट्या छे एम श्रीभागवत् कहे छे. भागवत् तन्त्र छे ते वेदरूप छे, वेदथी भिन्न नथी, माटे वैदिक रीते नवधा वैदिक प्रकारथी नव श्लोकथी वसुदेवजीए स्तुति करी छे. देवकीजीनी स्तुति त्रण श्लोकथी लौकिक स्तुति छे. लोकमां स्मृति मुख्य छे. लोके कहेल-भगवद्व्यतिरिक्ते कहेल ते लौकिक कहेवाय ते ऋषि प्रणीत स्मृति कहेवाय छे. एक श्लोकथी वसुदेवजीनी प्रार्थना छे ज्यारे बे श्लोकथी देवकीजीनी प्रार्थना छे तेने साथे गणतां वसुदेवजीनी दश श्लोकथी स्तुति अने देवकीजीनी पाञ्च श्लोकथी स्तुति छे. शास्त्रथी जे भगवान् जाण्या हता तेने प्रतीतिवडे दृढ कर्या छे. परब्रह्म भगवान् लौकिक चक्षुओथी जोई शकाता नथी, पण ‘‘जनो मां पश्यतु’’ एम इच्छा करे तो भगवाननां दर्शन भगवदिच्छाथी जीव करी शके छे. तेथी एमां अज्ञान के अन्यथा ज्ञानने अर्ही अवकाश नथी. तेम भगवच्चाक्षुष ज्ञानमां कांई बाधक पण नथी. तेथी ज वसुदेवजीए विदितोसि एम प्रत्यक्ष दर्शन करीने मध्यम पुरुषनो प्रयोग कर्यो छे. अर्ही भगवान् दर्शन दे छे छतां एनुं ब्रह्मत्व एवुं ने एवुं ज रहे छे. ‘‘कश्चिद् धीरः अदृश्यमग्राह्यम्’’ इत्यादि श्रुतिओनो विरोध नथी, पण विरुद्ध धर्माश्रयी भगवान्मां ए बधुं सम्भवे छे. (सुबोधिनीजी) हवे ज्ञान अने वैराग्य ए बे गुणना वर्णनथी सर्वशास्त्ररूप भगवद् आभरणनुं वर्णन करे छे. मोटा मूल्यवाळा वैडूर्यमणि खचित किरीट अने कुण्डल नी कान्ति कुन्तल (केश-वाळ) मां पडे छे तेथी हजारो कुन्तलो ए कान्तिथी मिश्रित थईने शोभे छे. एथी ज्ञान कह्युं. काञ्ची, अङ्गदअने कङ्कण वडे शोभता कह्या तेथी वैराग्य कह्युं. एम दश विशेषणवाळा भगवानने वसुदेवजीए जोया ॥१०॥
भगवान्नां दर्शन करतान्नी साथे, हरि भगवान् मारापुत्ररूपे पधार्या जाणी [[४५]] वसुदेवजी प्रफुल्लित नेत्रवाळा थयाअने विस्मित पण थया.एसमये गोदान आपवां जोईए तेथीकृष्णावतार थयो जाणी आनन्दमां आवी दश हजार गायो ब्राह्मणने आपवानो सङ्कल्प कर्यो ॥११॥
कृतार्थ बुद्धिवाळा वसुदेवजी हाथ जोडी शरीरने नमावीआपरमपुरुष भगवान् प्रकट्या छे जेनाप्रकाशथी सूतिकागृह प्रकाशयुक्त थयुं अने एना प्रभावने जाणी भय छोडी हे भारत!एनी स्तुति करवा लाग्या ॥१२॥
वसुदेवजी बोल्या - आप प्रकृतिथी पर पुरुष छो, केवळ आनन्दस्वरूप छो, सर्वनी बुद्धिना द्रष्टा छो, तेमने में साक्षात् कर्या छे ॥१३॥
जेनो में साक्षात्कार कर्यो ते ज आपना आधिदैविक स्वभाव वडे त्रिगुणात्मक जगतने उत्पन्न करी एमां प्रवेश करता नथी छतां एमां प्रविष्ट थता हो एम देखाओ छो, केमके बीजाने माटे जगत् करो तो एमां आप प्रवेश करो एम सम्भवे पण आप ज जगत्रूपे थाओ ते एमां आपने प्रवेशवानी जरूर न होय, तेथी प्रवेश करता हो एम देखाओ छो. (एम ‘ईव’ शब्दनो प्रयोग कर्यो छे.) ॥१४॥
जेम आ आपना स्वरूपमां अविकृत भावो छे ते भावो विकारवाळा भावथी जुदा छे, छतां साथे मळीने रूपरसादि कार्य करवामां समर्थ थईने विराटना देह स्वराजने उत्पन्न करे छे, केमके आधिदैविकनी सहायता विना केवळ आधिभौतिको कांई पण करवाने समर्थ थता नथी, तेथी भगवत्स्वरूपमां जे में जोयुं ते सर्व आधिदैविक जोयुं. तेथी ज श्रुति पण ‘‘चक्षुषः चक्षुः श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसः मनः’’ एम कहे छे ए पण युक्त छे ॥१५॥
ए बधां तत्व एकठां थई कार्यने उत्पन्न करे छे अने एमां ए कार्य थया पछी पेठा होय एम देखाय छे, केमके ए कार्यमां कारणरूपे रहे छे एटले ए एमां पेदा थया एम तो कही शकाय ज नहि ॥१६॥
एम बुद्धिथी अनुमित छे लक्षण जेनुं एवा ग्राह्य गुणोथी आप स्वरूपथी प्रतीत थाओ छो छतां ए इन्द्रियनां गुणोथी आप ग्रहण थई शक्ता नथी. वळी आपने कोई आवरक न होवाथी आनी बहार अने आनी अन्दर एवो व्यवहार आपने विशे थतो नथी, केमके आप सर्वरूप सर्वना आत्मा अने जगद्रूप छो ॥१७॥
जे माणस भगवान्नुं स्वरूप जे आत्मारूपे अनुभवाय छे तेने पोतानी आङ्खे [[४६]] जुए छे, एवा ज भगवान् छे एम माने छे, ते भगवान्ना खरा स्वरूपने जाणी शक्तो नथी, माटे ए अज्ञानी कहेवाय. आनन्दघन स्वरूपमां कराम्बुज, पादाम्बुज वगेरे भेद जोनार केवळ अनुवादक छे, केमके ‘‘स यथा सैन्धवघनोन्तरोबाह्यः कृत्स्नो रसघनः एवं वारेयमात्मानन्तरोबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघनः’’, ‘‘असङ्गोह्ययं पुरुषः’’ ए श्रुतिना विचार वखते छोडेल भेदने ए पाछो स्वीकारे छे तेथी ए अज्ञानी छे, केमके भगवद्रूपमां स्वगत भेदनो असम्भव छे ॥१८॥
आपने विशे विकार नथी, चेष्टा नथी छतां आपनाथी आ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने लय थाय छे, परन्तु आप ईश्वर होवाथी एम थाय तो एमां विरोध नथी. आपना आधारथी गुणोमां एनो आरोप थाय छे ॥१९॥
आ त्रण लोकना पालनमाटे पोतानी शक्तिरूप मायावडे आप श्वेतवर्ण धारण करो छो, उत्पत्तिमाटे रजोगुणथी लाल रङ्ग स्वीकारो छो, अने लोकना प्रलयमाटे तमोगुणवडे श्याम वर्ण अङ्कीकार करो छो ॥२०॥
हे अखिलेश्वर! हे विभो! आपे आ लोकनुं रक्षण करवानी इच्छाथी मारे घेर अवतार ग्रहण कर्यो छे तेथी, राजा एवुं तो नाममात्र छे; खरुं जोतां ए असुर सेनाओना नायको छे तेमने आप मारीने पृथ्वीनो भार उतारशो ॥२१॥
आ दुष्ट कंसे आपनुं पधारवुं अमारे त्यां थशे एम आकाशवाणीथी जाणीने आपना छ भाईओने मारी नाख्या छे. हे सुरना ईश्वर! ए कंसने एना नोकरो ज्यारे अमारे त्यां आपनो जन्म थयानुं कहेशे त्यारे ए साम्भळीने हथियार उगामीने ए अर्ही आवी पहोञ्चशे ॥२२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - पोताना पुत्रमां पुरुषोत्तम भगवान्नां लक्षण जोयां त्यारे देवकीजी सुन्दर स्मित करीने कंसथी डरतां-डरतां एनी स्तुति करवा लाग्या ॥२३॥
श्रीदेवकीजी बोल्यां - आ आपनुं रूप छे जेने अव्यक्त, आद्य, ब्रह्म, स्वयम्प्रकाश, निर्गुण, निर्विकार, सत्तामात्र, निर्विशेष अने चेष्टारहित एवा नव प्रकारथी कहे छे. ए आप मारा अन्तःकरणना प्रकाशक छो ॥२४॥
ब्रह्मानुं बे परार्ध आयुष्य छे ते पूरुं थतां लोक नाश थाय त्यारे महाभूत अहङ्कारमां लीन थाय छे अने काळना वेगथी व्यक्त देखाता पदार्थ अव्यक्त प्रधानमां प्रवेशे छे. त्यारे आप एक बाकी शेष रहो छो तेथी आपनुं ‘शेष’नाम छे ॥२५॥
[[४७]] प्रकृतिना एक मात्र सहायक प्रभो! निमेषथीवर्ष सुधीनो मोटो काळ ए आपनीचेष्टाछे. ए जगतनी चेष्टानुं कारण थाय छे तेवा सर्वशक्तिमान अने कल्याणना धामरूप आपना शरणने हुं प्राप्तथाउं छुम् ॥२६॥
मृत्युरूप सर्पथी भय पामेला मनुष्य सर्व लोकमां फरे छे, पण एना भयने दूर करनार कोई मळतो नथी, ते प्रभु इच्छाथी ज्यारे आपना चरणमां आवे छे त्यारे निर्भय थई स्वस्थ थाय छे, कारण के मृत्यु पण अर्ही आवी शक्तुं नथी, पण दूर ज रहे छे ॥२७॥
दासना त्रासने आप दूर करनार छो, तेथी उग्रसेनना पुत्र क्रूर कंसथी अमे भय पामी रह्यां छीए तेना भयथी अमने आप बचावो. भक्तना ध्यानना स्थानरूप आ आपनुं पुरुषरूप केवळ मांस मज्जा उपर ज दृष्टि राखनार देहाभिमानी सामे प्रकट न करो ॥२८॥
हे मधुसूदन! आ पापरूप कंस आपनो जन्म थयो छे एवुं न जाणे एम करो. मारी बुद्धि धीरज रहित थई छे अने कंसने लईने ए आपने शुं करशे एनी मने चिन्ता थाय छे ॥२९॥
हे विश्वात्मन्! आ अलौकिक आपनुं रूप के जे चार भुजामां शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म थी शोभित छे तेनुं साधारण लोक दर्शन न करी शके एवो बन्दोबस्त आप करो ॥३०॥
आप सृष्टिना आरम्भमां चौद लोकात्मक आ विश्वने आपना विराट शरीरवडे सावकाश धारण करो छो ए ज आप मारा गर्भमां पधार्या, आ आपे मनुष्यलोकनुं मोटुं अनुकरण करी बताव्युं तेथी मने आश्चर्य थाय छे ॥३१॥
श्रीभगवान् बोल्या - हे सति! तमे ब्रह्माना प्रथम कल्पमां पृश्नि हतां त्यारे आ (वसुदेवजी) सुतपा नामे प्रजापति हता. तेणे काम, क्रोध वगेरे छोड्या हता तेथी दोष रहित हता ॥३२॥
तमने बन्नेने ब्रह्माजीए प्रजानी सृष्टि करवाने योज्यां त्यारे तमे इन्द्रिय समूहने संयममां राखीने परम तप कर्युम् ॥३३॥
वृष्टि, वायु, ठण्डी, गरमी वगेरे कालगुणोने सहन करतां श्वास रोकीने मनना मेलने धोई नाख्या ॥३४॥
खरी पडेलां पान्दडां अने वायु नो आहार कर्यो. माराथी कामनी इच्छा राखीने [[४८]] मारुं आराधन तमे कर्युम् ॥३५॥
परम दुर्लभ तप करतां तमे देवोनां बार हजार वर्षो सुधी मारुं आराधन कर्युं अने एटलो वखत तमे मारामां मन राख्युम् ॥३६॥
त्यारे हुं मारा आ स्वरूपथी तमने प्रसन्न थयो. हे अनघे! तमे तप भक्ति अने श्रद्धा वडे आ स्वरूपने ज हृदयमां भावनाथी भावित कर्युं हतुम् ॥३७॥
वर आपनारमां राजारूप हुं तमारी पासे तमने वर आपवामाटे प्रकट थयो अने ‘वर माङ्गो’ एम में कह्युं त्यारे तमे ‘‘तमारा जेवो पुत्र थाय’’ एम वर माग्यो ॥३८॥
तमे स्त्री-पुरुष प्रजा विनानां हतां, ग्राम्य भोग भोगव्या न हता, तेथी मारी मायाथी मोहित थईने मारी पासेथी मोक्ष न माग्यो ॥३९॥
हुं ज्यारे तमारी पासेथी गयो त्यारे तमने मारा जेवो पुत्र थवानो वर में आपेलो हतो तेथी तमारो मनोरथ पूर्ण थतां तमे ग्राम्य भोगो भोगववा लाग्यां ॥४०॥
शील, औदार्य अने गुणोमां मारा जेवो बीजो कोई लोकमां न मळतां हुं ज तमारो पुत्र थयो त्यारे लोकमां मारुं ‘पृश्निगर्भ’ एवुं नाम थयुम् ॥४१॥
ए ज तमे बन्ने बीजे जन्मे अदिति अने कश्यप थयां त्यारे हुं ‘उपेन्द्र’ नाम धरीने तमारे त्यां प्रकट्यो. में मारुं स्वरूप नानुं देखाड्युं तेथी मारुं ‘वामन’ एवुं नाम पड्युम् ॥४२॥
त्रीजा तमारा वसुदेव देवकीरूप जन्ममां हे सती! में मारुं वचन सत्य करवामाटे आ स्वरूप तमने त्रीजीवार बताव्युम् ॥४३॥
पूर्व जन्मनुं स्मरण कराववाने माटे में आ रूप तमने बताव्युं. जो एम न करुं तो मर्त्य शरीरवाळाने मारा स्वरूपनुं ज्ञान न थई शके ॥४४॥
तमे बन्ने मारामां *पुत्रभाव अने वारंवार ब्रह्मभाव राखीने चिन्तन करशो. ज्यारे तमने मारामां स्नेह थशे त्यारे एनाथी तमे परम गतिने पामशो ॥४५॥
विशेष - वसुदेवजीने माहात्म्यज्ञानपूर्वक स्नेह थशे. जो ज्ञानने भक्तिनुं अङ्ग न कहे तो ज्ञानने स्वातन्त्र्य थाय अने तेथी वाक्यभेद थाय, माटे अर्ही ज्ञानने स्नेहनुं अङ्ग कहेवामां आव्युं छे. तेथी पूर्व स्कन्धमां उत्पत्तिथी ज भक्तोनां स्वरूप कह्यां तेम प्रेम, ज्ञान अने निरोध वगेरे आ स्कन्धमां कहेवामां आवे छे. तेथी गोपीजनोने पण ज्ञानोपदेश भक्तिना अङ्ग तरीके कह्यो छे. [[४९]] वसुदेव-देवकीजीने भगवद्अवतारनी पहेला दुःख थयुं एनुं कारण नीचे प्रमाणे छेःभगवाने कह्युं के ‘‘मत्तः कामनाभीप्सन्तौ’’ ए वाक्यथी एमणे प्रथमथी कामना करी भगवान्नुं आराधन कर्युं, पण भगवान्नुं आराधन वृथा न जाय माटे भगवाने दर्शन आप्यां, तेमना दर्शनथी एवा पुत्रनी इच्छा करी पण स्नेहार्तिथी भगवत्प्राकट्यनो वर न माग्यो, ए पण ‘‘वरं मत्सदृशं’’ इत्यादिथी कह्युं भगवत्प्राप्ति थयानो वर मळ्या पछी पण ग्राम्य भोग भोगव्या, तेमां पण भगवत्सदृश कोई न होईने एमनी इच्छा पूर्ण करवा भगवान्ने पधारवुं पड्युं तेथी कंसकृत क्लेश एमने थयो. पुत्रमां आग्रह राख्यो तेथी कीर्तिमान वगेरे पुत्रोनो नाश थयो. भगवत्सदृशनो आग्रह कर्यो तेथी छ गुणवाळा भगवान् होईने छ पुत्रोनो नाश थयो. आ बधुं मर्यादारक्षार्थ प्रभुए कर्युं. पुत्रपणाथी प्रकट थवानो हेतु तप छे. हवे भगवल्लीलारसनुं साधन शोधवुं जोईए माटे भगवाने एने पोताना वियोगनुं दान कर्युं, केमके ए भक्तिमार्गीय साधन छे. ज्यारे प्रभुए वियोग कराव्यो त्यारे एने भगवान्मां भावनो प्रवाह चालु थयो. मारा पुत्रने आटला दिवस थया, आम करता हशे, आटला मासना मारा पुत्र थया, आटला वर्षना थया, बन्ने भाईओ मळीने आवी लीला करता हशे, बलदेवजी सहित भगवान् आनन्दमां हशे, अमने क्यारे दर्शन देशे, एम एमने दर्शननी आर्ति थवा लागी; दर्शन थवा लाग्यां, वसुदेवजी अने देवकीजी आपसमां पोताना पुत्रो विषे चर्चा करतां तेथी सर्व इन्द्रियोनी वृत्तिओ भगवान्मां लागी गई; वियोग तापवाळा हृदयमां दर्शनादि थवाथी जीवन टकी रह्युं. ए अगियार इन्द्रियोनी वृत्तिओ पुत्ररूप प्रभुमां लागी तेथी भगवान् एकादश वर्ष सुधी गोकुलमां बिराज्या. तेथी ज भगवाने तमे मने पुत्रभावे अने ब्रह्मभावे भजशो एम वरदान आप्युं; तेथी ज वसुदेव-देवकीजीनो एवो भाव थयो. तेथी ज माहात्म्य ज्ञानयुक्त स्नेह थतां कंसने मार्या पछी भगवान् एमनी पासे आव्या त्यारे पुत्रभाव छतां एमने हृदयमां चाम्पीने मळी न शक्या; एनुं कारण ए ज छे के ए वखते लौकिक भाव करतां अलौकिकभाव विशेषांशमां प्रकट्यो तेथी स्नेह करतां माहात्म्य वधी जतां मळी शक्या नहिं. (श्रीसुबोधिनीजी) श्रीशुकदेवजी बोल्याः एटलुं कही *भगवान् मौन रह्या अने पोतानी आत्ममायावडे माता-पिताना देखतां तरत सामान्य बाळक बनी गया ॥४६॥
विशेष - अर्ही भगवाने बीजा रूपनो स्वीकार कर्यो छे ए ज आ अध्यायनो अर्थ छे. अर्ही रूपान्तर आत्ममायावडे आपे स्वीकार्युं छे. जेम रूप प्राकृत स्वीकार्युं तेम ज्ञान पण प्राकृत स्वीकार्युं छे. एम करे ज रूपान्तरस्वीकार शोभे. त्यारे तो भगवान् प्राकृत जेवा थई जशे एम [[५०]] शङ्का थाय, एना उत्तरमां कहे छे के ए भगवान् छे. सर्वभवन-सामर्थ्यरूप पोतानी मायावडे एवो देखाव मात्र भगवाने स्वेच्छाथी स्वीकार्यो छे. तेथी ज्यारे ज्ञाननो उपयोग हशे तेवा (भीष्ममुक्ति अने अर्जुन ने उपदेशना) प्रसङ्गे पोतानुं ज्ञान पण बतावशे. आत्ममायानो स्वीकार कर्यो के तरत ज लौकिक बाळकने जेम नाळ वगेरे लागेलुं होय अने जन्मे छे तेवुं रूप थई गयुं. माता-पिताना देखतां ज रूपान्तर थयुं ए नट करतां विशेष वात थई. नटने रूप बदलवा परोक्षतानी अपेक्षा रहे छे तेवुं अर्ही नथी. अर्ही मायाने ‘आत्ममाया’ कही तेथी एम समजवानुं छे के जेम आत्मा अविकृत, नित्य-शुद्ध छे तेम माया पण तेवी छे. ए नित्यादि गुणवाळी लीलानी बतावनारी छे, नहिं के न ज होय तेवा पदार्थने बतावे छे एवा संसारना कारणरूप माया तो जुदी ज छे. ए माया जीवने पोतानुं स्वरूप भुलावी प्रपञ्चमां विषयासक्तिने उत्पन्न करे छे, तेम आत्ममाया पण भक्तने स्व स्वरूपनुं विस्मरण करावी भगवान्मां आसक्ति करावे छे. एटलो धर्म समान होईने माया शब्दथी एनो व्यवहार थाय छे. खरी रीते तो जेम बीजा लीलोपयोगी गोपी-गोप वगेरे छे तेवी ज आ पण लीलापरिकररूप छे. आनन्दरूप छे तेथी एने श्रीशुकदेवजी ‘आत्ममाया’ एम विशिष्टताथी बतावे छे. आवुं जो आत्मशब्दथी तात्पर्य न नीकळे तो पूर्वमां भगवच्छब्द तो छे तेथी आत्मपद कहेवुं व्यर्थ थाय. तेथी ज अर्ही भगवाने वसुदेव-देवकीजीनो पितृत्वे लीलामां स्वीकार कर्यो छे तेथी एमने एवुं ज्ञान थयुं एम न मानीए तो निषेकादिना अभावमां पुत्रत्वादि ज्ञान न ज थवुं जोईए, तेथी ज मूळमां ‘‘आत्ममायया पित्रोः’’ एम कह्युं छे. हवे बीजी शङ्का एवी छे के भगवाने प्रथम कह्युं के ‘‘एतद् वां दर्शितं रूपं’’ तमने में आ रूप बताव्युं. वळी आगळ कहे छे के ‘‘नान्यथा मद्भवं ज्ञानं’’ तेथी भगवान्नुं दर्शन ते न करावे त्यां सुधी न थवुं जोईए तो एमने आ रूप केम देखावुं जोईए? ए शङ्काना उत्तरमां ‘‘आत्ममायया सम्पश्यतोः’’ एम मूळमां कह्युं छे. तेथी ज ए शङ्काने स्थान रहेतुं नथी. चक्षुःसामर्थ्यथी भगवान्नुं रूप जीव न जोई शके पण कृपाथी बतावे तो जोई शके, तेथी वसुदेव पुत्रत्वे भगवान्ने जाणी शक्या. केमके भगवान्ने पुत्रत्व बतावीने लीला करवी इष्ट छे. वस्तुतः भगवान् प्राकृत बाळक जेवा थया तो पण षड्गुणैश्चर्ययुक्त परम काष्ठापन्न शुद्धब्रह्मरूप आप छे. जेम ‘‘तत्राभवद्भगवान् व्यासपुत्रः’’ ए जग्याए ‘भू’ धातुनो अर्थ उत्पत्ति नथी तेम अर्ही ‘बभूव’ ए क्रियानो अर्थ उत्पत्तिरूप नथी, अलौकिकत्वे ज्ञान न होईने परोक्षता स्वीकारी परोक्ष भूतकाळनो प्रयोग कर्यो छे, इत्यादि अनेक शङ्का समाधाननो श्रीविट्ठलनाथ दीक्षितजी (श्रीगुंसाईजी) ए स्वकृत टिप्पणीमां विचार कर्यो छे. [[५१]]
विशेष जिज्ञासुए ए ग्रन्थ जोईने जिज्ञासा पूर्ण करवा विनन्ति छे. हवे भगवान्नी प्रेरणाथी वसुदेवजीए सूतिकाघरमान्थी पोताना पुत्रने पधरावी बहार नीकळवानी इच्छा करी, बराबर ते ज समये नन्दरायजीनां पत्नी यशोदाजीमां *योगमाया प्रकटी, जे भगवान्नी शक्ति होवाथी भगवान्नी जेमज जन्मरहितछे ॥४७॥
विशेष - योगमायानुं प्राकट्य भगवान्ना प्राकट्य पछी एक मुहूर्ते थयुं छे ए समये रोहिणी नक्षत्र हतुं एटले रोहिणी अष्टमीना अन्तमां दाखल थई नवमी समग्रमां रही छे. तेथी शुद्ध अष्टमीमां भगवत्प्राकट्य छे. शुद्ध नवमीमां माया जन्मी छे तेथी नन्दरायजीने त्यां उत्सव शुद्ध नवमीमां थयो छे. तेथी ज व्रतमां अष्टमी सप्तमीना वेधवाळी न लेवी, केमके प्रभुना जन्म वखते शुद्ध अष्टमी हती. अष्टमी नवमी युक्त लेवी, पण सप्तमीवाळी अष्टमी व्रतमां ग्रहण करवी नहिं. ‘‘नवम्यां योगनिद्राया जन्माष्टम्यां हरेरतः। नवमीसहितोपोष्या रोहिणी बुधसंयुता’’ एवुं भविष्योत्तरनुं वाक्य छे तेथी रोहिणीने कृत्तिकानो वेध होय तो ए नक्षत्रने कांई क्षति नथी. पण श्रीरामानुज सम्प्रदायमां कृत्तिकाना वेधवाळी रोहिणीनो स्वीकार करता नथी एनुं कारण तो एओ जाणे. सप्तमीनो वेध तो न ज लई शकाय, केमके ‘‘अष्टमी सप्तमीविद्धा हन्ति पुण्यं पुराकृतम्। ब्रह्महत्या फलं दद्याद्धरिवैमुख्यकारणात्’’ एवं गौतमीय तन्त्रनुं वचन छे. ‘‘सऋक्षापि न कर्तव्या सप्तमी संयुताष्टमी। अविद्धायां सऋक्षायां जातो देवकीनन्दनः’’ एवुं ब्रह्मवैवर्तपुराणनुं वाक्य छे. तेथी सप्तमीनो वेध व्रतमां त्याज्य ज छे. ते योगमायाए द्वारपाल अने पुरवासीओ नी समस्त इन्द्रियोनी वृत्तिओनी चेतना हरी लीधी. तेओ बधा ज अचेत थई ऊङ्घी गया, केदखानाना बधा दरवाजा बन्ध हता, एने मोटा-मोटा कमाड, लोखण्डनी साङ्कळो अने ताळां लागेलां हतां. बहार नीकळवुं बहु ज कठिन हतुं, परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णने गोदमां पधरावी जेवा एमनी पासे पहोञ्च्या के तरतज, जेम सूर्यनो उदय थताञ्ज अन्धकार दूर थई जाय छे तेम, बधा दरवाजा आपोआप खुली गया. ए वखते वादळो मन्दमन्द गर्जता झरमर-झरमर वरसी रह्यां हतां. तेथी शेषजी पोतानी फणाओथी जलने रोकता वसुदेवजीनी पाछळ-पाछळ चालवा लाग्या ॥४८-४९॥
ए दिवसोमां (इन्द्रनी प्रेरणाथी) वरसाद वारंवार वरसतो हतो, तेथी यमुनाजी भरपूर हता. तेमनो प्रवाह उण्डो अने तेज (गम्भीर)हतो. मोजांओनी [[५२]] भरमारने लीधे जल उपर पार वगरनां फीण थई गया हतां. सेङ्कडो भयानक घूमरीओ पडी रही हती. जेवी रीते सीतापति श्रीरामने समुद्रे मार्ग आपी दीधो हतो तेवी रीते यमुनाजीए भगवान्ने मार्ग आपीदीधो ॥५०॥
वसुदेवजी नन्दरायजीना गोकुलमां गया त्यां तो बधा गोपोने निद्रामां ऊङ्घता जोया. वसुदेवजी पोताना बाळकने यशोदाजीना शयनमां पधरावी, यशोदाजीने कन्या जन्मी हती तेने लईने फरी पोताना घर तरफ आव्या ॥५१॥
घरमां आवी देवकीजीना शयनमां यशोदाजीनी कन्याने मूकीने पोताना पगमां लोखण्डनी बेडीओ पहेरी लई प्रथम हता तेवी स्थितिमां वसुदेवजी थई गया॥५२॥
यशोदा नन्दपत्नी च जातं परमबुध्यत ॥ न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः ॥५३॥
नन्दरायजीनां पत्नी यशोदाजीए पोताने प्रसव थयो एम तो जाण्युं, पण पुत्र थयो के पुत्री थई ए तो निद्रामां हतां तेथी नक्की करी न शक्यां, केमके प्रसवनी प्रथम वेदना थई अने पछी प्रसव थयो त्यारे पीडा निवृत्त थतां निद्रा आवी गई तेथी पुत्र के पुत्रीनो ए ज वखते निर्णय करवो जोईए ए करी शक्यां नहि ॥५३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (पहेला जन्मप्रकरणमां भगवान्नुं मुनष्यनाट्य)‘‘श्रीकृष्णे करेलो रूपान्तरनो स्वीकार’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय ४
मायानुं कार्य, धर्मनो नाश, अने भक्तने दुःख
विशेष - आ चोथा अध्यायमां मायानुं कार्य कहेवामां आवे छे. भक्तने दुःख आपवुं ए मायानुं कार्य थयुं तेने निमित्त करी भगवान् एनी रक्षामाटे प्रयत्न करशे. मायाए रुदन कर्युं तेथी [[५३]] गृहपालो जाग्या अने तेओए कंसने चेताव्यो. ए बन्ने ज्ञापन वसुदेव आदिने दुःख आपनार ज्यारे कंस आदिने सुख आपनार थयां. ज्यारे मायाए कंसने कह्युं के तारो शत्रु कोई जग्याए प्रकट थई चूक्यो छे त्यारे कंसे मन्त्रीओने ए वात जणावी ते पण दुःख आपनार थई. माया ए रीते स्पष्ट न करे तो कंसे गाय, ब्राह्मण, बाळक वगेरेने मारवानी आज्ञा करी ते न करे. एटले धर्मने पीडा न करे तो अनिरुद्धनुं धर्मरक्षाने माटे चतुर्थ अध्यायमां प्राकट्य न थई शके. तामस राजाना राज्यमां करेलो धर्म पण तामस थाय छे, तेथी पूर्व धर्मनो नाश थवो जोईए. ए देशमां ब्राह्मणो, यज्ञ, पशु वगेरेपण कालानुकूल तामस होवाथी एनो नाश थया पछी जे धर्म थशे ते सात्विकथशे. उपर प्रमाणे कंसनुं ज्ञान नित्य-अनित्य वस्तु विवेकरूप छे. तेनो अनुवाद करी पोताना शुद्ध ब्रह्मरूप ज्ञाननो ए कंसने वसुदेव उपदेश करे छे एमां कृपा ज कारण छे. शोक ऐश्वर्यनो बाधक छे. भगवान् कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथाकर्तुम् समर्थ छे ते ज बधुं करे छे एवुं ज्ञान जीवने होय तो शोक न करे. भगवद्भक्तनुं अपेक्षित बीजो कोई बगाडी न शके तेथी शोक न थवो जोईए; पण ए भगवद्-ऐश्वर्यने भूल्यो तेथी शोकरूप दोष तेनामां आव्यो, तेम हर्ष पण न थवो जोईए, केमके भगवान्ना वीर्यरूप कालने जाणे तो मळ्युं तेमां हर्ष न थाय, कालग्रस्त मळे छे ते काळ भगवान्ना वीर्यरूप छे तेने नथी जाणतो. यशने जाणे तो जीव भय न करे. भय तो अयुक्तथी थाय. भगवद्-यश अयुक्त नहि करे एटले यशरूप भगवद् धर्ममां विश्वास होय तो भय न थाय. भगवान्ना श्रीगुणने जाणे तो जीवने लोभ न थाय, तेने न जाणे त्यारे ज लोभ थाय छे. स्त्रीमाटे थतो द्वेष पण श्रीना अज्ञानथी थाय छे. भगवान्ना ज्ञान- गुणने जाणे तो मोह न थाय. भगवान्ना वैराग्य-गुणने जाणे तो मद न थाय. ज्यारे वैराग्य न होय त्यारे तो मदमां उन्मत्त थाय छे. भगवान्ना छ गुणने भूलीने छ दोषने जीव लई बेठो छे तेथी एक बीजाने मारतां पण माणसो जोता नथी. जो मारनार तो एक ज छे एवुं ज्ञान होय तो परस्पर मारवानुं मन न थाय. ज्यारे बधुं भगवान् छे त्यारे वध्यघातकभाव केम सम्भवे? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के वध्य-घातकभाव धर्मोवडे एना बाधक धर्म प्रकट थाय छे त्यारे बाध्य धर्मो तिरोहित थाय छे. जेम एक वस्त्रमां धोळो रङ्ग छे, ज्यारे लाल रङ्गमां एने रङ्गशो त्यारे श्वेतरूप दूर थशे तेमां वस्त्रने कांई नथी, तेम धर्मथी बाध्यबाधकता थाय तेमां धर्मीमां कांई फेरफार थतो नथी, जे वस्तु उत्पन्न थाय छे तेनो बाध थाय छे. तेमां पण बलवत्तर नियामिका छे, जेनो नाश करवाने जे भावमां भगवान् प्रवेश करे छे ते भाव नाश पामे छे, तेमां तमे बधा करणरूप छो. कर्तुरूप नथी तेथी करणने [[५४]] ठपको देवाय नहि तेम एनी स्तुति पण कराय नहि. भगवान् करण सम्बन्ध थईने कर्ता थाय छे ते ज्यारे जुदो जणाय, करण एनाथी जुदुं जणाय तो भेदबुद्धि थाय छे, पण सर्वमां भगवान् प्रवेशीने कार्य करे छे एवो भाव थतो नथी. ते अज्ञानथी हुं मारुं छुं, ते मरे छे एम माने छे. मारा पुत्रोने तो भगवाने मार्या छे ते तने पण मारशे एनो मारे शोक न करवो. जेम मारा छोकरा मर्या तेम हुं मरीश. तेम तारे पण शोक न करवो, एम वसुदेवजीनुं कहेवानुं तात्पर्यछे. बहिरन्तः पुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः ॥ ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवत्कार्यथी विपरीत मायाकार्य होवाथी ज्यारे माया अन्दर आवी त्यारे जेम प्रथम हतां तेम ज दरवाजानां द्वार वगेरे बन्ध थई गयां, एटलामां बालक जन्म्यानो ध्वनि साम्भळी गृहरक्षको जागी गया ॥१॥
ए रक्षको तरत कंस पासे गया, जे उद्विग्न थईने देवकीजीने प्रसव थवानी प्रतीक्षा करतो हतो तेने देवकीजीने बाळक जन्म्यानी वात कही ॥२॥
‘‘ए तो मारो काळ आव्यो’’ एम बोली तरत शय्यामान्थी ऊठ्यो. ते जेना वाळ विखराई गया छे एवो रस्तामां ठोकर खातो-खातो जलदी सूतिकागृह तरफ आव्यो ॥३॥
एने दया उत्पन्न थाय एम देवकीजी दुःखी थतां होय तेम बोल्यांःहे कल्याण! आ तारा पुत्रनी वधू थशे, वळी आ स्त्री छे, एवां अनेक कारणोथी आ कन्याने तुं मारवाने योग्य नथी ॥४॥
हे भाई! अग्निना जेवा तेजस्वी मारा घणा बाळको तें मार्या छे. ते भगवदिच्छा एम हशे ने मार्या, पण आ एक छोकरी तो तुं मने पाछी आप ॥५॥
हे प्रभो! (समर्थ भाई) हुं तारी नानी बहेन छुं. मारा बधा छोकरा मरी गया छे. हे अङ्ग! हुं हवे मन्द थई गई छुं. आमारी छेल्ली प्रजा तो तुं मने आपी दे ॥६॥
छोकरीने आलिङ्गन करीने गरीब बनीने रडतां-रडतां छोकरीने जीवती राखवानी देवकीजीए प्रार्थना करी तो पण एनो तिरस्कार करीने ए दुष्टे एना हाथमान्थी बलात्कारे छोकरीने लई लीधी ॥७॥
तरतनी जन्मेली बाळाने पगथी पकडी बहेननी पुत्री छे छतां ए सम्बन्धदशमस्कन्ध ५५ एनो स्वार्थने लईने भुलाई गयो अने शिला उपर जेम कपडुं पछाडे तेम, एने पछाडी ॥८॥
ए विष्णुनी नानी बहेन, देवी एना हाथमान्थी उडीने आकाशमां चाली गई अने आयुध युक्त आठ मोटा-मोटा हाथवाळी आकाशमां देखावा लागी ॥९॥
दिव्यमाळा, वस्त्र, चन्दन आदि लेपन पदार्थोवडे रत्ननां आभरणोथी भूषित धनुष, शूळ, बाण, ढाल, तलवार, शङ्ख, चक्र अने गदा ए आठ हाथमां धारण करनारी देखाई ॥१०॥
सिद्ध, चारण, अप्सराओ, गन्धर्वो, किन्नर अने नागगण हाथमां बलि अने भेट लईने जेनी स्तुति करी रह्या छे तेवी ए देवी बोली ॥११॥
देवीए कह्युं - हे मूर्ख! पूर्व जन्मनो तारो शत्रु तने मारवाने माटे क्याङ्क जन्मी चूक््यो छे. हवे तुं व्यर्थ निर्दोष बाळकोने मारवानुं बन्ध कर ॥१२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवती देवी कंसने एम कहीने अन्तर्धान थई गई, पृथ्वीमां बहु नामवडे बहु स्थानमां प्रसिद्ध थई ॥१३॥
ज्यारे देवीए ‘‘तारो शत्रु प्रकट थयो छे’’ एम कह्युं त्यारे ए साम्भळीने कंस देवकी अने वसुदेव ने केदमान्थी छोडीने विनयथी कहेवा लाग्यो ॥१४॥
कंस बोल्यो - ‘‘हे बहेन! हे बनेवी! हुं पापी छुं केमके तमारां घणा बाळको, राक्षस आवी माणसने मारीने खाई जाय तेम, में मारी नाख्या ॥१५॥
में दया छोडी, नात-जात छोडी, बन्धुभाव छोड्यो, एवो हुं खळ (दुष्ट) थयो ते श्वास लेतो होवा छतां मरेल जेवो हुं जीवुं छुं ते मरीने केवा लोकमां जईश? ॥१६॥
हुं कहुं छुं के केवळ माणस ज खोटुं बोले छे एम नथी, पण दैव पण खोटुं बोले छे, जे दैववाणी उपर विश्वास राखी में पापीए बहेननां नानां बाळकोने मारी नाख्याम् ॥१७॥
हे महाभागो! पोताना कर्म भोगवतां ए तमारां बाळकोनो तमे शोक न करो. जीवो सदा एक जग्याए नथी रहेता. पण ए दैवने अधीन थईने रहे छे. त्यारे पण शत्रु, मित्र, उदासीन भावथी रहे छे ॥१८॥
पृथ्वी उपर प्राणीओ वगेरे उत्पन्न थईने एमां पाछा लीन थाय छे एमां पृथ्वीने कांई विकार थतो नथी, तेम शरीर थाय अने जाय एमां आत्माने कांई विकारदशमस्कन्ध ५६ थतो नथी ॥१९॥
जे एम जाणतो नथी तेने ज भेद देखाय छे त्यारे एनाथी एने देहने आत्मबुद्धि थाय छे. तेथी ज देहना योग अने वियोग थतां संसारनी निवृत्त थती नथी ॥२०॥
तेथी हे भद्रे! में तारा पुत्रो मार्या छे छतां एनो शोक तुं न कर, केमके सौ पोत- पोताना कर्मवडे सुख-दुःख भोगवे छे ॥२१॥
ज्यां सुधी ‘‘हुं मर्यो, में मार्यो’’ एम अज्ञानथी आत्माने माने छे त्यां सुधी एनो अभिमानी अज्ञ बाध्य-बाधक भावने पामे छे ॥२२॥
मारी दुष्टताने आप क्षमा करो, केमके भगवद्भक्त दीन उपर दया राखनार होय छे. एम बोली कंसे रुदन करतां-करतां बहेनना पग पकडी लीधा ॥२३॥
थाम्भलामां जडेली साङ्कळो वसुदेव-देवकीजीने पहेरावी हती ते साङ्कळो कंसे खोलावी नाखी. कन्यानी वाणी थई के तारो शत्रु प्रकट थई चूक््यो छे. ए वाक्यमां विश्वास राखी बहेन-बनेवी एने निर्दोष जणायां तेथी ए तेमना प्रत्ये अनेक प्रकारे स्नेह देखाडवा लाग्यो ॥२४॥
भाईने पश्चात्ताप करतो जोईने देवकीजीए पोतानो रोष छोडी दीधो. वसुदेवजी पण एनी तरफ प्रसन्नता देखाडता हसीने कंसने नीचे प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२५॥
वसुदेवजी बोल्या - हे महाराज! माणसने अज्ञानथी हुं पद आवे छे एम जे आपनुं कथन छे, वळी आ पोतानुं अने परायुं एवो भेद पण अहङ्कारथी थाय छे एम आपे कह्युं ए ठीक ज छे. जो अज्ञानने लईने अन्यथा ज्ञानरूप अहङ्कार न होय तो एने सर्व ब्रह्मरूप देखाय एटले भेददृष्टि थाय ज नहि ॥२६॥
आ भेददृष्टि थई जतान्तो ते शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह अने मदथी अन्ध बनी जाय छे. पछीतो एमने ए वातनुं पण भान ज नथी रहेतुं के बधाना प्रेरक भगवान् ज एक भावथी बीजा भावनो, एक वस्तुथी बीजी वस्तुनो नाश करावी रह्यां छे ॥२७॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एप्रमाणे वसुदेवजीए कंसने साचो उपदेश आप्यो. कंसे प्रसन्न थयेलांवसुदेव-देवकीजीनी रजा मागीअने ते पोताना महेलमां गयो ॥२८॥दशमस्कन्ध ५७ ए रात्रि गई अने बीजो दिवस थयो त्यारे कंसे पोताना मन्त्रीओने बोलावी रातना योगमायाए जे वात करी हती ते बधी हकीकत तेमने कही सम्भळावी ॥२९॥
पोताना स्वामीनुं कहेवुं साम्भळीने देवना शत्रुओ-कंसना मन्त्रीओए विचार्युं के आ देवोने दमन करवानो मोको ठीक मळ्यो छे. एम मनमां विचारी ‘‘दस दिवसनी अन्दरना अने एनी उपरनां जेटलां बाळक होय तेने मारी नाखीए. ते पण आजे ज मारी नाखीए’’ एवो मारवानो हुकम एओए कंस पासेथी मेळव्यो, पण कंसनुं मृत्यु केम दूर थाय, ए ख्याल एमना मनमां न आव्यो. केमके ए बधा तामस छे. एमणे बधां बाळकोने मारवानो विचार कर्यो एमां पोतानां बाळको मरशे एनो विचार पण एओए न कर्यो ॥३०-३१॥
वळी देवो आपणने शुं करी शकशे. केमके तेओ रणमां आवी शके तेवा नथी. तेओ तो भीरु छे. आपना धनुषना टङ्कारथी हम्मेशा चिन्तातुर रहे छे ॥३२॥
आप ज्यारे बाणनो समूह एमना पर फेङ्को छो त्यारे तेमने चारे बाजु बाणो वागतां रण छोडी जीववानी इच्छाथी आम-तेम भागी जाय छे ॥३३॥
केटलाक देवो भयथी हथियार छोडी दईने आपना शरणमां आवी जाय छे. केटलाक कच्छ शिखा वगेरे छोडीने ‘‘आपथी डरीए छीए’’ एम कही शरणे आवे छे ॥३४॥
शस्त्र-अस्त्रने भूली गयो होय, रथ वगरनो होय, भयथी पगमां पडतो होय, अन्यासक्त होय, विमुख होय, धनुष भाङ्गी गयुं होय अने युद्ध करवाने राजी न होय तेवाओने आप मारता नथी ॥३५॥
ज्यां सुधी लडाई न थई होय त्यां सुधी बडाई करनारा, शान्तिना वखतमां शूरता बतावनारा देवोथी शुं थई शकवानुं? वळी एकान्तवास करनार हरि अने वनमां रहेनार शिव पण आपणने शुं करी शके? ॥३६॥
इन्द्र तो अल्प पराक्रमवाळो छे. ब्रह्मा तो तपस्वी छे ते आपनी साथे लडी शके एवो नथी; तोपण देवो आपणा शत्रु होवाथी शत्रुनी उपेक्षा न करवी एम अमारुं मानवुं छे ॥३७॥
तेथी एनां मूळने उखेडी नाखवामां आपना अनुयायी अमो हाजर छीए तेओने आप आज्ञा करो. जेम माणसना शरीरमां रोग होय, तेनी उपेक्षा करे तो काळे करीने ए रोग वधी जाय अने शरीरमां मूळ दृढ करी बेसे त्यारे एने दवा पणदशमस्कन्ध ५८ लागु न पडे. वळी इन्द्रियोनो समुदाय पण एनी उपर दाब न राखीए तो स्वच्छन्द रीते फरी जीवने मार्गभ्रष्ट करे छे, तेम शत्रुनुं बळ पण वधी जाय तो ए जीती न शकाय ॥३८-३९॥
देवताओनुं मूळ विष्णु छे. ज्यां सनातन धर्म छे त्यां ते रहे छे. सनातन धर्मनां मूळ वेद, गाय, ब्राह्मण, तप अने दक्षिणासहित यज्ञो छे ॥४०॥
तेथी हे राजन्! वेदने जाणनार, तप करनार यज्ञशील ब्राह्मणो अने यज्ञनेमाटे हविषने आपनार गायोने अमे जडमूळथी मारी नाखीशुम् ॥४१॥
ब्राह्मण, गाय, वेद, *तप, सत्य, इन्द्रियनिग्रह, शम (मननो निग्रह), श्रद्धा, दया, तितिक्षा अने यज्ञ ए भगवान्नां शरीर छे ॥४२॥
विशेष - १. तप, २. सत्य, ३. दम अने ४. शम ए चार आश्रमना चार धर्म छे. तप शरीरनो धर्म, सत्य वाणीनो धर्म, दम इन्द्रिय धर्म अने शम (मननो निग्रह) अन्तःकरणनो धर्म छे. विप्र, गाय, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, तितिक्षा ए दशविध दशावतारना धर्म छे. ए दश प्रकारनुं भगवान्नुं शरीर छे. ए विष्णु बधा देवोनो अध्यक्ष छे, असुरोनो शत्रु छे, ए गुफामां के हृदयमां रहे छे, तेज ब्रह्मादि देवोनुं उत्पत्ति अने पोषण नुं स्थान छे, एटले बधाना मूळरूप एज छे ॥४३॥
ऋषिओने मारवा एटले के सर्व धर्मनो नाश करवो ए ज विष्णुना वधनो उपाय छे. एम दुष्ट बुद्धिवाळा कंसे दुष्ट मन्त्रीओ साथे विचार कर्यो. कालपाशथी बन्धायेला असुरावेशी कंसे ब्राह्मण आदिना अने धर्मना नाशने पोतानो हितावह मान्यो ॥४४॥
हिंसा प्रेमी इच्छितरूप धरनार दानवोने साधु, धर्म, ब्राह्मण आदिना नाशमां नियुक्त करीने कंसे पोताना महेलमां प्रवेश कर्यो ॥४५॥
ए असुरोनो स्वभाव रजोगुणी हतो. तेमांय तमोगुणने लीधे उचितअनुचितनो विवेक जतो रह्यो. एमनुं मृत्यु नजीकमां आवी रह्युं हतुं तेथी ज तेमणे सन्तोनो द्वेष कर्यो ॥४६॥
आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकनाशिष एव च ॥ हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः ॥४७॥
महान पुरुषो(भगवदीयो)नो अनादर जो पुरुष करे छे, तेनुं ए कुकर्म एनादशमस्कन्ध ५९ आयुष्य, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, आलोक, परलोक, विषय भोग अने बधां ज कल्याणनां साधनोनो नाश करी दे छे. (‘महत्’ एटले महान. महानपणुं अथवा महत्ता भगवान्ना सम्बन्धथी ज होय छे नहि तो वळी चोखानी अणी(आर) जेटला जीवनी मोटाई केवी?) ॥४७॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (पहेलां जन्म प्रकरणनो मायानां कार्य कपट रूप अर्थवाळो) ‘‘मायानुं कार्य, धर्मनो नाश अने भक्तने दुःख तेने बतावे छे’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो चार अध्यायनुं जन्म प्रकरण पूरुं थयुं. फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी तेमज तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय ५
नन्दरायजीए श्रीकृष्णप्राकट्य निमित्ते उत्सव कर्यो बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो पहेलो अध्याय अने सळङ्ग पाञ्चमो अध्याय
विशेषः एम चार अध्यायथी विष्णुनो जन्म कहेवामां आव्यो. हेतु, उद्यम, स्वीकार अने
कापट्य एवा राजसादि गुणोथी कह्यो. हवे तामस, राजस अने सात्विक एम त्रण प्रकरणना
२८+२८+२१=७७ (सीत्तोतेर) अध्यायथी भगवान्नी लीलानुं वर्णन कहेवाय छे.
भगवान्ना छ धर्म अने एक धर्मी एम सातरूप एकादश इन्द्रियथी लीला करे त्यारे एना
(११घ७) ७७ अध्याय थाय. एमां भगवान्नां त्रिविध कृत्य त्रण प्रकारना जीवोना
उद्धारनेमाटे छे. तत्वनो अतिक्रम करे त्यारे तामस अने राजस भक्तोनो निरोध थाय अने
कालातिक्रम करे त्यारे सात्विक भक्तनो निरोध थाय. तेथी २८ अध्याय तामस प्रकरणनां अने
२८ अध्याय राजस प्रकरणना छे. १२ मास, ५ ऋतु, ३ लोक, १ सूर्य एम २१ भेद
काळना होईने काळ २१ कहेवाय छे, तेथी २१ अध्याय सात्विक प्रकरणना छे. लौकिक भावमां
ज्यारे भगवान् प्रवेश करे छे त्यारे, जेम लाकडामां अग्निनो प्रवेश थवाथी लाकडुं निवृत्त थाय
[[६०]]
छे तेम, भगवान् जीवमां प्रवेश जे भावथी करे ते जीवमां ते भाव निवृत्त थाय छे. स्वभाव
बीजी कई रीते बदलावी शकातो नथी, माटे सात्विक, राजस, तामस त्रण प्रकारना जीवोमां
भगवाने त्रण प्रकारनी कृति करी. तामस जीवोमां लौकिक मुख्य छे. कामान्त एमनी कृति होय
छे. कामथी उत्पन्न थाय तेमां ज एनी प्रीति थाय छे, तेथी प्रथम तामस प्रकरणनुं निरूपण
कर्युं छे. बाल लीला, मध्य लीला, प्रौढ लीला, अने काम लीला ए चार लीला लोकमां सुख
आपनार छे. भगवान्नुं एक कार्य अनेक अर्थने सिद्ध करनार थाय छे, तेथी एक ज लीला
भक्तना प्रपञ्चने भुलावी प्रभुमां आसक्ति करावे छे ते अर्ही बतावे छे. जे लीलावडे त्रिविध
भक्तो प्रपञ्चने याद न करे अने कृष्णमां सारी रीते आसक्ति बतावे ए भगवत्कार्य छे. एमां
आ तामस प्रमाण प्रकरणमां बाललीला सात प्रकारनी कहेवामां आवे छे. जेओ बालभावमां
आसक्त होय तेमनो बाललीलामां निरोध थाय. जे उत्सवना आवेशवाळा होय तेमने ए
लीलाथी निरोध थाय. आश्चर्यरसमां आसक्तिवाळा होय, अलौकिक भावमां आसक्त होय,
(माखणचोरीमां जणाता) उपद्रवमां आसक्तिवाळा होय, स्त्री स्वभावमां आसक्त होय,
लौकिक तत्वमां रत होय अने सर्व उद्योगमां रत होय तेमनो आ प्रमाण प्रकरणमां ‘निरोध’
कहेवामां आवे छे. क्रमथी अध्यायमां ते-ते लीलामां आसक्तिवाळा भक्तो कह्या छे. एमां आ
पाञ्चमा अध्यायमां नन्दरायजीने त्यां कृष्णनो जन्म उत्सव थयो ते वात कहे छे. ए
उत्सवमां पोतानुं आवश्यक कर्तव्य राजाने कर आपवा जवानुं छे तेने छोडीने गोप-गोपी
वगेरे आव्यां छे अने उत्सवमां आनन्द प्राप्त कर्यो छे. त्यां तेओ भेट वगेरे लईने आव्यां
छे. वसुदेवजी पोतानो पुत्र अर्ही मूकी गया छे तेमां आ मारो पुत्र छे एवुं अन्यथा ज्ञान
नन्दरायजीने छे एनी एने खबर पडे तो उत्सवमां आनन्द न आवे एम कहेवुं छे. तेथी ज
उत्सव करीने ए मथुरा गया छे त्यां वसुदेवजीनी साथेनी वातमां पण ए भेद खुल्लो
थयो नथी.
नन्दस्त्वामज उत्पन्ने जाताऽऽह्लादो महामनाः ॥
आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नातः शुचिरलङ्कृतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - पोताने त्यां पुत्र उत्पन्न थयो छे एम नन्दरायजीए जाण्युं त्यारे एमने घणो आनन्द थयो अने मोटा मनवाळा थईने एमणे वेद जाणनार ब्राह्मणोने बोलावी स्वयं स्नान करी पवित्र थई अलङ्कार पहेरी ब्राह्मणो पासे ‘स्वस्तिवाचन’पूर्वक पुत्रनुं (पुरोहितनी शाखाने अनुकूल) जातकर्म करावी ब्राह्मणोद्वारा विधिवत् पितृ अने देव नुं पूजन कराव्युम् ॥१-२॥दशमस्कन्ध ६१ ए वखते वस्त्रो अने आभूषणो थी सज्जित बे *लाख गायोनुं ब्राह्मणोने दान कर्युं. रत्नो, सोना अने वस्त्रो थी ढाङ्केला तलना सात पर्वतो दानमां आप्या ॥३॥
विशेष - दानमां जे बे लाख गायो आपवामां आवी तेमान्नी दरेकनां शिङ्गडां सोनेथी अने खरीओ चान्दीथी मढवामां आवी हती. दरेकने रेशमी वस्त्र ओढाडवामां आव्युं हतुं अने दरेकनी साथे एक बोघरणुं अने एक नोझणुं पण खरुं. अर्ही शङ्का थाय के बे लाख गायोने आवी रीते सजाववामां समय केटलो थाय? सोनुं, चान्दी वगेरे केटलां जाईए? एनुं समाधान ए छे के एक गायने आ रीते शृङ्गारी एटले ते समय, द्रव्य अने क्रिया बधी गायोमां व्यापी गयां अर्थात् एक गायनो शृङ्गार करवामां जेटलो समय लागे तेटला ज समयमां बे लाख गायोनो शृङ्गार थई गयो. ए केवी रीते शक्य छे? तो तेनुं समाधान छे कोटिब्रह्माण्डना नायक लक्ष्मीपति भगवान्नुं सान्निध्य! घरमां एक स्वीच दबावीए तो एक दीवो थाय, पावर हाउसमां एक स्वीच दाबतां आखुं शहेर झळांहळां थई जाय अने लाख-लाख दीवा प्रकटे! अर्ही शङ्का थाय के आटलुं बधुं दान? एनुं समाधान ए छे के पुत्रना जन्म वखते पितानी पासे जे सम्पत्ति होय तेनो छत्रीसो (३,६००) मो भाग दानमां आपे त्यारे बाकीना द्रव्यनी शुद्धि थाय. आ हिसाबे नन्दरायजी पासे २,००,००० (बे लाख)घ३,६००= ७२,००,००,००० (बोतेर करोड) गायो हती. पुत्र जन्म वखते स्नानादिथी नहि पण समयथी वंशनी शुद्धि थाय छे; स्नानथी सम्पूर्ण देहनी, शौचथी देहना एक भागनी, जातकर्म वगेरे संस्कारोथी वैदिक कर्ममाटे देह शुद्ध थाय छे; यागथी प्रभु प्रसन्न थाय छे; दानथी द्रव्यो शुद्ध थाय छे (माटे ज गायोनी शुद्धि अर्थे बे लाख गायोनुं दान), द्रव्यनो सङ्कोच होय तो सन्तोषथी शुद्धि थाय छे अने जीवनी आत्मविद्याथी शुद्धि थाय छे ॥४॥
(विद्यावन्तोनो प्रथम सत्कार कर्यानुं कहे छे.) ब्राह्मणोए वेदो अने पुरोणोमान्थी सुमङ्गळ वाणीनो घोष कर्यो. सूत, मागध, बन्दीजनोए पण आशिष आपती वाणीनो उद्घोष कर्यो. गायकोए गान कर्युं. भेरीअने दुन्दुभि वगेरे मङ्गल वाद्य पण वारंवार वागवा लाग्याम् ॥५॥
व्रजमां सर्वत्र, घर, आङ्गणा, रस्ता वगेरे साफ करी एने जलथी छाण्टी दीधां अने विचित्र रङ्गनी ध्वजा, पताका, माला, पल्लवनां-वस्त्रोनां तोरण वगेरेथी गृहादिनो शणगार लोकोए कर्यो ॥६॥दशमस्कन्ध ६२ गायो, वृष (खूण्टिया-बैल) अने वाछरडान्ने हळदर अने तेल चोळी तेम ज गेरु वगेरे अनेक प्रकारनी धातुओथी रङ्गीने एने मोरपीछनां आभरण वस्त्रो तथा सोनानी साङ्कळोथी शणगार्या ॥७॥
घणां कीमती वस्त्रो, महामूल्य आभरणो, पाघडी अङ्गरखां वगेरे पहेरी हाथमां भेट लई हे राजन्! बधा गोपो नन्दरायजीने त्यां आव्या ॥८॥
यशोदाजीने त्यां पुत्रनुं प्राकट्य (भगवत्-प्राकट्य) थयुं छे ते जाणी गोपीओने पण खूब आनन्द थयो. तेमणे सुन्दर-सुन्दर वस्त्रो, आभूषणो, अञ्जन, आदिथी पोताना आत्मानो शृङ्गार कर्यो ॥९॥
नवीन केसरनां तन्तुने पीसीने तिलक वगेरेथी मुखकमलने शोभावी मोटा नितम्ब अने चलायमान कुचयुक्त चालवडे पण जलदी हाथमां भेट लई भगवत्सन्मुख आव्याम् ॥१०॥
कानोमां सुन्दर उज्जवल मणिवाळां कुण्डळ, सुवर्ण कण्ठाभरण अने जातजातनां सुन्दर रङ्गबेरङ्गी वस्त्र पहेरीने गोपीजनो आवे छे त्यारे तेमना केशपाशमां गून्थेलां पुष्प रस्तामां खरी पडतां, पुष्पोनी मार्गमां वृष्टि थती होय एम देखाय छे. हाथमां बङ्गडीओनी अने कानमां लटकतां कुण्डळ तथा हृदयमां सुवर्णना हारनी शोभावाळां श्रीगोपीजनो नन्दालयमां आव्यां त्यारे एमनी शोभा अने मार्ग नी शोभा विलक्षण देखाई ॥११॥
बालकनां दर्शन करी ‘‘लाम्बा समय सुधी अमारुं पालन अने रक्षण करो’’ एवी एने आशिष आपी गोपीजनो (हळदर-चूनो) हरिद्रा, तेल अने जल नुं मिश्रण करी एकबीजा उपर छाण्टी, अजन्मा भगवान्नुं उच्च स्वरे गान करवा लाग्या. *(हळदर अने चूनो मेळववाथी लालरङ्ग थाय छे अने तेमां तेल भळे त्यारे लालाश लाम्बो समय रहे छे; अने तेमां पाणी भळवाथी ते खूब फेलाय छे. भगवान् अने गोपी ना संयोगथी थयेलो प्रेम-लाल रङ्ग, तेल-स्नेहवाळो थवाथी कदापि तूटशे नहि तेथी ए प्रमाणे मेळवणी करी छे) ॥१२॥
विशेष - गन्ध, रूप, स्पर्श अने कटाक्ष तथा भ्रमर ना जेवां (वक्र) वचन ए चार विषय तो गोपीओना जणाववाथी भगवान् जाणशे. हवे रस विषय जे बाकी रह्यो ते भगवान् स्वयं जाणशे. (तेनुं पान करशे.) श्रीकृष्ण विश्वना ईश्वर छे ते व्रजमां नन्दरायजीने त्यां पधार्या त्यारेदशमस्कन्ध ६३ नन्दमहोत्सव थयो; महोत्सवमां विचित्र वाजिन्त्र वाग्याम् ॥१३॥
गोपो हर्षमां आवी जई दर्ही, दूध, घी अने जल एकबीजा उपर उडाडवा लाग्या तथा माखण एकबीजा उपर फेङ्कवा लाग्या ॥१४॥
उदार हृदयवाळा नन्दरायजीए तेमने तथा सूत, मागध, बन्दीजनो अने बीजा विद्यावन्तो (गवैया, वैद्यो, ज्योतिषीओ, शुकन जोनारा) ने वस्त्रो, अलङ्कारो अने गोधन आप्याम् ॥१५॥
जेणे-जेणे जे-जे माग्युं तेने-तेने अत्यन्त उदार नन्दरायजीए पोताना पुत्रना अभ्युदयने माटे तथा भगवान् विष्णुनी प्रीतिनेमाटे यथायोग्य आप्युं ॥१६॥
बडभागी रोहिणीजीने प्रसन्न थईने नन्दरायजीए वस्त्राभरण आप्यां त्यारे ए दिव्यवस्त्रो, आभरणो, माळाओ वडे शृङ्गार करी आम-तेम फरवा लाग्यां ॥१७॥
हे नृप! नन्दरायजीने त्यां भगवान् पधार्या त्यारथी आखुं व्रज सर्वसमृद्धिवाळुं थयुं, केमके भगवान्नो त्यां निवास थयो तेथी नन्दरायजीनुं व्रज लक्ष्मीजीनुं क्रीडास्थान बन्युं; माटे नन्दरायजीए एटलां अपार धन आप्यां तो पण एमनी समृद्धि ओछी न थतां वधवा ज लागी. (तुं पोते राजा छे एटले जाणे छे के राजानो ज्यां मुकाम होय ते स्थळ राजधानी बनी जाय छे. तेम भगवान् पधारवाथी व्रज वैकुण्ठ बनी गयुं) ॥१८॥
हे कुरूद्वह! कंसने वार्षिक कर आपवाने नन्दरायजीने मथुरा जवानुं थयुं त्यारे गोकुलनी रक्षानेमाटे गोपोने नियुक्त करीने नन्दबावा मथुरा गया ॥१९॥
वसुदेवजीए जाण्युं के नन्दरायजी अर्ही आव्या छे अने राजाने कर भरी पोताने उतारे गया छे त्यारे ए मळवामाटे एमने उतारे आव्या ॥२०॥
वसुदेवजीने आवता जोईने, प्राण आवतां देह उभो थाय तेम, नन्दरायजी उभा थई गया; प्रसन्न थई पोतना सौथी प्रिय (वसुदेवजी) ने प्रेममां विह्वल थईने बन्ने हाथथी भेट्या ॥२१॥
वसुदेवजीनी नन्दरायजीए पूजा करी; एकबीजाए कुशळ प्रश्न पूछ्या, आसन लीधुं. पछी पोताना बन्ने पुत्रो नन्दरायजीने त्यां छे तेमां वसुदेवजीनुं मन लागेलुं छे तेथी नन्दरायजीने आ प्रमाणे वसुदेवजी कहेवा लाग्या, हे वैश्योना पतिदशमस्कन्ध ६४ (राजा)! ॥२२॥
वसुदेवजीए कह्युं - ‘‘हे भाई! तमे प्रजा वगरना ज वृद्ध थई गया. प्रजा थवानी आशा पण तमे छोडी दीधी त्यारे तमारे त्यां हमणां प्रजा थई ए सौभाग्यनी वात छे ॥२३॥
आ संसार चक्रमां फरतां तमने आ बीजो जन्म थयो, केमके प्रियनुं दर्शन तो दुर्लभ छे. तमे मने मळ्या ए पण बहु सारुं थयुं केमके प्रियनो सङ्ग दुर्लभ कहेवाय छे. (कंसरूपी मृत्यु अमारी पासे छे तेथी प्रियनो सङ्ग दुर्लभ छे एवो एमना स्वागतनो भाव छे) ॥२४॥
नदीना प्रबल प्रवाहमां पडेला नाना वहाणने जेम प्रवाह एक ठेकाणे रहेवा देतो नथी तेम विचित्र कर्मवाळा सुहृदो एकत्र रही शक्ता नथी ॥२५॥
आज-काल जे महावनमां भाई, बन्धु अने स्वजनो साथे तमे रहो छो, त्यां जल, घास अने लता तो पूरता प्रमाणमां छे ने? ते वन पशुओमाटे अनुकूळ अने बधी जातना रोगोथी मुक्त छे ने? ॥२६॥
हे भाई! मारो पुत्र एनी माता (रोहिणी) साथे तमारे त्यां छे ते तो तमने पिता गणे छे; तमे स्त्री-पुरुष एने लाड लडावो छो. ए मारो पुत्र कुशळ छे ने? ॥२७॥
पुरुषने धर्म, अर्थ अने काम भोगववानुं शास्त्रमां कह्युं छे; पण ए त्रिवर्ग जो सुहृदो सुखी होय तो ठीक लागे छे, केमके एनाथी ज धर्म, अर्थ, काम नो अनुभव थाय छे; पण जो सुहृदो दुःखी होय तो ए त्रिवर्ग पुरुषार्थ रूप सिद्ध थतो नथी. एकलो माणस तो मोक्ष सिद्ध करी शके छे, त्रिवर्गनी सिद्धि तो सुहृदोनी सहायताथी मळे छे’’ ॥२८॥
नन्दरायजीए कह्युं - ‘‘अहो! तमारा देवकीजीथी उत्पन्न थयेला घणा पुत्रोने कंसे मारी नाख्या, छेवट एक कन्या बाकी रही हती ते सशरीरे आकाशमां चाली गई, तेथी भाग्यनो दोष पण खरो, केमके एने कंसे मारी नहि तो ए स्वयं देवता होवाथी चाली गई ॥२९॥
एमां तो कोई शङ्का ज नथी के प्राणीओनां सुख अने दुःख भाग्य उपर ज आधार राखे छे, भाग्य ज एक मात्र आश्रय छे. जीवनना सुख-दुखनुं कारण भाग्य ज छे एम जे जाणी ले छे, ते-ते (सुख-दुःख) ना प्राप्त थवाथी मोहितदशमस्कन्ध ६५ थतो नथी’’ ॥३०॥
वसुदेवजी बोल्या - आपणे मळ्या, तमे राजाने कर पण भरी दीधो छे, तेथी हवे तमारे झाझा दिवस अर्ही रहेवुं न जोईए, केमके गोकुलमां उत्पातो छे. (साम्भळवामां तो एम छे के कंसना आखा राज्यमां उत्पात छे, पण आपणे तो गोकुळनो विचार करवानो छे तेथी गोकुळमां उत्पात छे एम कह्युं छे) ॥३१॥
इति नन्दादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययुः ॥ अनोभिरनडुद्युक्तैस्तमनुज्ञाप्य गोकुलम् ॥३२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - वसुदेवजीए ए प्रमाणे नन्दरायजी वगेरे गोपोने कह्युं त्यारे ए वसुदेवजी पासेथी रजा लई बळदो जोडीने गाडाम्मां *गोकुल गया ॥३२॥
विशेष - तामसना प्रभु भगवान् ज्ञानवडे गोकुलना ईश्वर थया अने कर्मवडे गोप, गोपी अने गायोनुं हित करनार थया तेने हुं नमुं छुं. एम श्रीआचार्यचरण तामसना प्रभुने नमन करे छे. (कारिकार्थ) इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्यरूप नन्दमहोत्सव नामनो प्रथम अध्याय अने चालु) ‘‘नन्दरायजीए श्रीकृष्णप्राकट्य निमित्ते उत्सव कर्यो’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. साधनाने क्यारे पण धर्मप्रचार, प्रदर्शन के कमाई नुं साधन बनावी न शकाय. साधना हम्मेशा व्यक्तिगतपणे अने एकान्तमां ज थई शके. भगवत्सेवा ए गुरु अने शिष्य बन्नेनी भक्तिमयी साधना छे. पोताना घरना एकान्तमां ज भगवत्सेवा गुरु तेमज शिष्ये करवी जोईए. हवेली-मन्दिरमां दर्शन-मनोरथना माध्यमथी तेने सार्वजनिक बनावी न शकाय.
अध्याय ६
श्रीकृष्णे पूतनानो मोक्ष कर्यो बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो बीजो अने सळङ्ग छठो अध्याय
विशेष - तामस प्रकरणना अवान्तर प्रकरण चार छे तेनां नामःप्रमाण, प्रमेय, साधन अने [[६६]] फल छे, तेमां प्रथम प्रमाण प्रकरण सात अध्यायनुं छे. तेमां सात अध्यायना अर्थ क्रमे करीने ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य अने धर्मी छे. तेनो आ बीजो वीर्य-अध्याय छे. एमां भगवाने अवस्था अने साधन विपरीत पूतनानो नाश कर्यो ए वीर्य छे. शास्त्रमां भगवान्नुं अद्भुत चरित्र छे एम कहे छे तेवुं चरित्र भगवाने भूतळ उपर पधारी पूतनाना धावणरूप प्राणनुं पान करीने बताव्युं छे ते आ छठ्ठा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. भगवान् एक कर्म करे छे ते बहु अर्थने सिद्ध करनार थाय छे तेथी भगवाने पूतनारूप दुष्ट राक्षसीनो वध कर्यो तेनी साथे ज तेणे जे बाळको मार्या हता तेमनी रक्षा करी एटले के तेमने कृतार्थ कर्या अने बीजाओनुं रक्षण कर्युं कारण के तेने न मारी होत तो ते बीजां अनेक बाळकोने मारी नाखत. आ बीजो अध्याय भगवद् वीर्य निरूपक छे. भगवाने मायाद्वारा ए दुःख जेने कराव्युं छे ते दुःखथी भगवान् तेने छोडावे छे तेथी एमनो भगवान्मां निरोध थाय छे; माटे भगवाने दुःख आप्युं एवुं दूषण भगवान्ने लगाडी न शकाय. बाह्य अने आन्तर एम बे प्रकारनो भय भगवान् स्ववीर्यथी निवृत्त करशे. तेमां आन्तर भय शब्दथी (‘‘गोकुलमां उत्पातो छे’’ एम वसुदेवजीए कहेला शब्दोथी) उत्पन्न थयो छे, पूतनाकृत भय ए बहारनो भय छे. नन्दः पथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन् ॥ हरिं जगाम शरणमुत्पाताऽऽगमशकिन्तः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मार्गमां नन्दरायजीए विचारकर्यो केवसुदेवजीनुं वचन खोटुंहोयनहि;तेथीगोकुलमां उत्पातनो सम्भव जाणीनन्दरायजीभगवान्ने शरणे गया ॥१॥
बाळकोनो नाश करवामाटे कंसे पूतना नामनी घोर राक्षसीने मोकली. ते शहेरो, गामडां, व्रज वगेरेमां बाळकोने मारती फरे छे ॥२॥
स्वधर्ममां अथवा रक्षणना कर्ममां भक्तना पति भगवान्नी श्रवणादि नव अथवा छ भक्ति न थती होय त्यां राक्षसीओ आवे छे ॥३॥
आकाशमां इच्छा प्रमाणे फरनारी मायाथी पोतानुं स्त्रीनुं रूप करी पूतना एक *दिवस नन्दरायजीना गोकुलमां आवी ॥४॥
विशेष - पूतना आवी त्यारे नन्दरायजी, (जे विशुद्ध सत्वनुं स्वरूप छे) अने गायो बेउ हाजर न हतां. नन्दरायजी मथुरा गया हता अने गायो वनमां चरवा गई हती. भादरवा (गुजराती श्रावण) वदि १४, आश्लेषा नक्षत्रमां, भगवान्नी छठ्ठीने दिवसे पूतना आवी हती. पूतनाना आववाथी थयेल तथा त्यारबाद एक पछी एक उत्पात थतां, छठ्ठीनी विधिदशमस्कन्ध ६७ रही गयेली ते पाछळथी बीजे वर्षे श्रावण वदि सातमना दिवसे थई. जेना केशमां मोगरानां पुष्प गून्थ्या छे, नितम्ब अने स्तन मोटां होवाथी पातळी केडने कष्ट थाय छे. सुन्दर वस्त्र धारण कर्या छे. कर्णभूषणना झूलवाथी एनी क्रान्ति केश अने कपोल उपर पडवाथी तेना मुखनी शोभामां वधारो थाय छे ॥५॥
सुन्दर मन्द हास्यपूर्वक कटाक्षथी जुए छे. तेथी व्रजवासीओना मनने हरी लेती पूतना हाथमां कमळ फेरवती आवे छे तेथी साक्षात् लक्ष्मीजी पोतानां पतिनुं दर्शन करवा आवी छे एम ज बधा मानवा लाग्या ॥६॥
बाळकोने शोधती अने पकडती पूतना दैवेच्छाथी नन्दरायजीना घरमां आवी पहोञ्ची त्यां भस्म (राख) माम्भारेला अग्नि जेवा, दुष्टोना काळ, पोतानासहज तेजने ढाङ्कीने बिराजताबाळकने पलङ्ग उपर जोयो ॥७॥
स्थावर अने जङ्गम ना आत्मा भगवाने नेत्र बन्ध करी दीधां छे छतां आ पूतना बाळकने मारनार अने ग्रहरूप छे एम आप जाणी गया, त्यां तो जेम कोई, सर्पने दोरडुं मानी उपाडे तेम काळना पण काळ भगवान् अनन्तने, पूतनाए पोतानी गोदमां लीधा ॥८॥
मखमलना म्यानमां छुपायेली तीक्ष्ण धारवाळी तलवारनी माफक पूतनानुं हृदय बहु ज कुटिल-निर्दय हतुं एटलुं ज नहि पण तेनी चेष्टाओ पण अत्यन्त कुटिल हती. देखावमां परम सुन्दरी हती तेथी माताओ (रोहिणीजी तथा यशोदाजी) एनी प्रभा-कान्तिथी अञ्जाई गयां तेथी तेमणे पूतनाने रोकी नहि पण तेने जोतां ज रह्याम् ॥९॥
दुःखथी पण पाचन न थाय, एवुं ज नहि पण अत्यन्त क्रूर दूधवाळुं, जेनो शरीरने सम्बन्ध थाय तो पण अनिष्ट करे एवुं पोतानुं स्तन खोळामां लीधेला भगवान्ने मोढामां आप्युं. प्रभु बाळक छे छतां ए स्तनने बन्ने श्रीहस्तथी पकडी खूब पीडा थाय तेम दाबी, रोष करी एना प्राणनी साथे एना दूधनुं पान करी गया ॥१०॥
ए पूतना तो ‘‘छोड! छोड! घणुं थयुं’’ एम बोलवा लागी. एने जीवना बधा मर्मस्थानोमां पीडा ऊपडी एटलुं ज नहि पण आङ्खो फरी गई अने फाटी रही, हाथ- पग पछाडवा लागी, शरीरमां स्वेद थई गयो अने रुदन करवा लागी ॥११॥दशमस्कन्ध ६८ एनो अवाज एवो मोटो थयो के तेथी पर्वत सहित पृथ्वी, नक्षत्र आदि सहित आकाश, रसातळ वगेरे कम्पवा लाग्यां अने लोको तो वज्र पडवानी शङ्काथी पृथ्वीउपर पडीगया ॥१२॥
हे राजन्! आ प्रमाणे राक्षसी *पूतनानां स्तनोमां एटली पीडा थई के ते पोताने छुपावी न शकी, राक्षसी रूपमां प्रकट थई गई. एना प्राण नीकळी गया, मोढुं फाटी गयुं, वाळ विखराई गया, हाथ-पग पहोळा थई गया. जेवी रीते इन्द्रना वज्रथी घायल थई वृत्रासुर पडी गयो हतो तेम बहार व्रजमां जई पडी ॥१३॥
विशेष - पूतना व्रजनी अविद्या छे. अविद्या पाञ्च प्रकारनी छे - १. स्वरूपनुं अज्ञान
२.देहाध्यास ३. इन्द्रियाध्यास ४. प्राणाध्यास अने ५. अन्तःकरणाध्यास. पूतनाए
माताओने तेमना स्वरूपनुं विस्मरण कराव्युं. पूतना मरी त्यारे तेमने जणायुं के पूतनाने
अर्ही आववा दीधी ए ज आपणी मोटी भूल हती. रक्षण करवा गोपो राखेला तेमने पूतनाना
रूपमां मोह थवाथी पोतानुं स्वरूप भूली गया. स्त्रीरूपमां मोह थवाथी तेमणे पूतनाने रोकी
नहि ते देहाध्यास. एवी रीते मन सौन्दर्यथी अने नाक मोगराना फूलनी सुगन्धथी लोभायां ते
इन्द्रियाध्यास. पूतना पडतां बालकना प्राणना रक्षणनो विचार कर्या विना पोताना प्राण
बचाव्या पोते जमीन उपर सूई गया ते प्राणाध्यास. गोपीओना अन्तःकरणमां भगवान्नो
सम्बन्ध हतो तेनुं ज तेमने अर्ही (पूतनामां) पण स्फुरण थयुं (तेथी तेने लक्ष्मी मानी)
अने रोकी नहि तेनुं कारण तेमना अन्तःकरणाध्यास. पूतना मर्या पछी बधान्ने पस्तावो थयो
के आपणे प्रभुना रक्षणमां बहु गाफेल रह्यां. हवे बिलकुल गाफेल नहि रहेतां, भगवान्नां
रक्षणमां अत्यन्त सावधान रहेवुं एवुं ज्ञान तेमने थयुं तेथी श्रीमदाचार्य चरणे आज्ञा करी छेः
‘‘अविद्या पूतना नष्टा गन्धमात्रावशेषिता’’ पूतनाने मारी भगवाने व्रजनी
अविद्यानो नाश कर्यो पण तेनी गन्ध तो (सेवामां उपयोगी होय तेटलो संसार, तेटली
अहन्ता-ममता) रहेवा दीधी. श्लोक ४१मां आवे छे तेम, पूतनाने अग्निदाह कर्यो त्यारे
तेमान्थी अगरनी सुगन्ध नीकळी ते व्रजवासीओए लीधी. शबमान्थी सुगन्ध नीकळी ते
भगवान्ना सम्बन्धनो प्रभाव. बधा व्रजवासीओए ए सुगन्ध लीधी एटले तेमनामां
भगवान्नां प्रभावे प्रवेश कर्यो अने तेमनो प्रपञ्च मटाड्यो. भक्तोनी अविद्यानो नाश पण
भगवान् करे त्यारेज थाय छे.
हे राजेन्द्र! पडतां-पडतां पण एना देहे छ गाउनी अन्दरना वृक्षोने
जमीनदोस्त करी दीधां ए मोटुं आश्चर्य थयुम् ॥१४॥दशमस्कन्ध ६९
पूतनानुं शरीर अत्यन्त भयङ्कर हतुं. तेनुं मोढुं हळना जेवो धारदार अने
भयङ्कर हतुं. तेनां नसकोरां पहाडनी गुफा जेवां ऊण्डां हतां अने स्तनो पहाड उपरथी
पडेली मोटी शिलाओ जेवां हतां. लाम्बा लाल वाळ चारे तरफ विखरायेला हता
॥१५॥
आङ्खो जळ विनाना अन्धारा ऊण्डा कूवा जेवी हती, नितम्ब नदीना काण्ठा जेवा भयङ्कर हता, भुजा, जाङ्घ, अने पग नदी उपर बान्धेला पुल जेवा अने पेट सूकाई गयेल सरोवर जेवुं लागतुं हतुम् ॥१६॥
पूतनाना ए शरीरने जोई बधा गोप-गोपीओ त्रास पाम्यां. तेनी भयङ्कर चिचियारी साम्भळी तेमनां हृदय, कान अने मस्तक तो पहेलां ज जाणे के फाटी रह्या हताम् ॥१७॥
ए पूतनानी छाती उपर बाळक श्रीकृष्ण निर्भय थईने खेलता हता तेने गोपीओए ज्यारे जोया के तरत ज तेओ त्यां दोडीने पहोञ्च्या अने जलदीथी एमने ऊठावी लीधा ॥१८॥
पछी तो ए गोपीओ, यशोदाजी अने रोहिणीजी नी साथे मळी सर्व प्रकारे गायनी पूछ वगेरे फेरवी बाळकनी रक्षा करवा लाग्या ॥१९॥
प्रथम तो गो-मूत्रथी स्नान कराव्युं, पछी गायनी रज बाळकने आखे शरीरे लगावी अने ‘केशव’ वगेरे नाम लई बाळकनां द्वादश अङ्गमां गोबर लगावी रक्षा करी ॥२०॥
गोपीओए जळथी आचमन कर्युं अने बाळकनां अङ्गोमां तथा हाथमां बीजमन्त्रवडे न्यास करी देवताने पोताना स्वरूपमां धारण करी भगवान्मां स्थापन कर्युं जेथी आधिदैविक दोष निवृत्त थाय ॥२१॥
तेओ कहेवा लागीद्ग ‘अज’ चरणनी रक्षा करे, ‘अणिमान’ र्ढीचणोनी (घूण्टणनी नीचेना भागनी) रक्षा करो, ‘यज्ञ’ भगवान् साथळनी रक्षा करे, ‘अच्युत’ कमरनी रक्षा करे, ‘हयग्रीव’ पेटनी रक्षा करे, हृदयनी रक्षा ‘केशव’ भगवान् करे, ‘ईश’ वक्षःस्थळ (छाती)नी रक्षा करे, सूर्यमां बिराजता नारायणस्वरूप ‘इन’भगवान् कण्ठनी रक्षा करे, ‘विष्णु’ भुजानी रक्षा करे, शङ्खधारी ‘उरुक्रम’ मुखनी अने ‘ईश्वर’ मस्तकनी रक्षाकरे ॥२२॥
‘चक्री’ (चक्रधारी भगवान् सुदर्शन चक्र साथे) आगळना भागमां रक्षक हो,दशमस्कन्ध ७० गदाधारी ‘हरि’ पाछळना भागमां रक्षक हो, ए बाळकनां उत्तर दक्षिण बे पडखान्नी ‘मधुसूदन’ अने ‘अजन’ धनुष अने तलवार लईने रक्षा करे. चारे खूणामां ‘उरुगाय’ भगवान् रक्षक हो. ‘उपेन्द्र’ अने ‘गरुड’ उपर रक्षा करे, ‘हलधर’ पृथ्वीउपर रक्षा करो, परम ‘पुरुष’ सर्व तरफ रक्षाकरे ॥२३॥
‘हृषीकेश’ भगवान् इन्द्रियोनी रक्षा करे, ‘नारायण’ प्राणने बचावे, ‘श्वेतद्वीपना अधिपति’ चित्तनी रक्षा करे, ‘योगेश्वर’ मननी रक्षा करे ॥२४॥
‘पृश्निगर्भ’ आपनी बुद्धिनी, ‘पर भगवान्’ आत्मा (अहङ्कार)नी रक्षा करे, क्रीडा करतां ‘गोविन्द’ अने शयन करतां ‘माधव’ रक्षा करे ॥२५॥
चालतां ‘वैकुण्ठ’ भगवान् रक्षा करे, बेसतां ‘श्रीपति’ रक्षे, ‘यज्ञभुक्’ भोजन करती वखते रक्षा करे, केमके यज्ञभोक्ता सर्व ग्रहने भय करनार छे ते रक्षा करवामां समर्थ छे ॥२६॥
डाकणो, यातुधानी (राक्षसी) ओ, कूष्माण्डो अने बाळग्रहो, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, ‘विनायक’ एटले विघ्न करनार ॥२७॥
कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, सोळ, मातृका वगेरे स्त्रीओ, उन्माद, अपस्मार वगेरे रोग पण छे अने विघ्नकर व्यक्ति पण छे. तेओ देह, प्राण अने इन्द्रियो ने पीडा पहोञ्चाडेछे ॥२८॥
स्वप्नमां देखाता उत्पातो, वृद्ध अने बाळक थईने रहेता ग्रहो ए बधा आप विष्णुना नाममात्र उच्चारता भय पामे छे ते बधा नाश पामो ॥२९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम प्रेमथी बन्धायेली गोपीओए जेनी रक्षा करी छे तेवा पोताना पुत्रने स्तनपान करावी श्रीयशोदाजीए पलनामां पोढाड्या ॥३०॥
एटलामां नन्दरायजी वगेरे गोपो मथुरा गया हता ते त्यान्थी व्रजमां आव्या, त्यां पूतनाना देहने जोई अत्यन्त विस्मय पाम्या ॥३१॥
वसुदेवजी मथुरामां बोल्या हता के गोकुळमां उत्पात छे ते ज उत्पात अर्ही आपणे जोयो माटे वसुदेवजी जे पहेलां क्षत्रिय हता ते हवे ऋषि अथवा योगेश थया छे एम हुं तो मानुं छुम् ॥३२॥
ए व्रजवासीओए पूतनाना शरीरना टुकडा कर्या तेने दूर-दूर लई जई ते अवयवोने काष्टमां लपेटी बाळी मूक्या ॥३४॥
भगवान् श्रीकृष्णे पूतनानुं स्तनपान करतां तेना प्राण हर्या, जेथी एनां बधान्दशमस्कन्ध ७१ ज पाप तत्काल बळीने भस्म थई गयां हतां. तेनो देह ज्यारे बळवा लाग्यो त्यारे तेमान्थी अगरनी सुगन्धवाळो धुमाडो नीकळ्यो अने ऊञ्चे गयो ॥३४॥
लोकनां बाळकोनो नाश करनारी, लोहीने पीनारी राक्षसी पूतनाए भगवान्ने मारवामाटे स्तन आप्युं हतुं तो पण ए सद्गतिने पामी ॥३५॥*
विशेष - ३५ थी ४० श्लोकने श्रीआचार्यचरणे क्षेपक अने विगीत गण्या छे; एना उपर आपश्रीए टीका करी नथी. तो पछी जे परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णने श्रद्धा अने भक्ति थी मातानी जेम प्रेमपूर्वक पोतानी प्रियमां प्रिय वस्तु अने तेमने प्रिय लागती वस्तु समर्पे छे एमनी बाबतमां तो कहेवुं ज शुं? ॥३६॥
बधा लोको ब्रह्माजी, शङ्कर आदि देवताओना चरणकमलमां वन्दन करे छे. ए ज ब्रह्मा, शङ्कर वगेरे देवताओ भगवान्ना चरणकमलने वन्दन करे छे. ए चरणकमल भक्तोना हृदयमां बिराजे छे. ते ज चरणकमलोथी भगवाने पूतनानुं शरीर दबावी तेनुं स्तनपान कर्युं हतुम् ॥३७॥
ते यातुधानी पूतना जननीनी उत्तम गति स्वर्गने पामी, केमके एना स्तननुं पान श्रीकृष्ण भगवाने कर्युं हतुं, तो गायो अने माताओ जेनुं दूध भगवाने पीधुं छे तेमनी उत्तम गति थाय एमां शुं कहेवुं? ॥३८॥
पुत्रना स्नेहथी जेनां स्तनमान्थी दूध चाल्यां जाय छे ते दूध भगवाने जेना धराई-धराईने पीधां छे तेमने तो कृष्ण कैवल्यादि आशिषने आपनार थाय छे ॥३९॥
निरन्तर कृष्णमां पुत्रबुद्धि करनारी माताओने अज्ञानथी उत्पन्न थतो संसार, हे राजन्! न कल्पी शकाय ॥४०॥
नन्दरायजीनी साथे आवनारा तथा गायो चराववा गयेला व्रजवासीओना नाकमां ज्यारे चिताना धुमाडानी सुगन्ध गई त्यारे, ‘‘आ शु छे? क्यान्थी आ सुगन्ध आवे छे?’’ एम कहेता-कहेता व्रजमां आव्या ॥४१॥
त्यां गोपोए पूतना नन्दालयमां आवी त्यान्थी एना अग्निदाह पर्यन्तनी वात कही बतावी त्यारे पूतनानुं मरण अने एना हाथमान्थी बाळक कुशळतापूर्वक बची गया ए जाणी व्रजवासीओ अत्यन्त विस्मय पाम्या ॥४२॥
अत्यन्त उदार बुद्धिवाळा बहारथी आवेला नन्दरायजीए पोताना पुत्रनेदशमस्कन्ध ७२ पूतनाथी बच्या जाणी एने गोदमां तेडी लीधा अने वारंवार एना मस्तकने सूङ्घी, हे परीक्षित! तेओ परमानन्दने प्राप्त थया ॥४३॥
य एतत् पूतनामोक्षं कृष्णस्याऽऽर्भकमद्भुतम् ॥ शृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते गतिम् ॥४४॥
आ पूतना मोक्षरूप कृष्णनी अद्भुत बाळलीला श्रद्धाथी (सत्य जाणीने) जे साम्भळे ते माणसने गोविन्दमां गति अथवा रति प्राप्त थाय छे ॥४४॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो वीर्य नामनो बीजो अने चालु) ‘‘श्रीकृष्णे पूतनानो मोक्ष कर्यो’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय ७
शकटोत्क्षेप, तृणावर्त वध अने मुखमां विश्वदर्शनथी भगवद्यशनुं वर्णन बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत प्रथम प्रमाण प्रकरणनो त्रीजो अने सळङ्ग सातमो अध्याय
विशेष - पूतनाना प्राणनुं भगवाने पान कर्युं ते स्वयं सर्वैश्चर्यसम्पन्न छे एम बताववामाटे कर्युं. ए चरित्र लोकमां कोई जीवथी न थई शके तेथी ए चरित्र अलौकिक कर्युं तेनुं वर्णन गया छठ्ठा अध्यायमां करी गया. एनाथी पण अलौकिक अने भगवान्मां विशेष आसक्ति करावनार शकटोत्पाटनादि त्रण प्रकारनुं चरित्र आ सातमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. कर्म पाञ्च प्रकारनुं छे तेमान्थी ‘उत्क्षेपण’ एटले गाडाने ऊञ्चे फेङ्कवानुं, ‘अवक्षेपण’ एटले तृणावर्तने [[७३]] नीचे पछाडवानुं अने ‘प्रसारण’ एटले बगासुं खावानी लीलामां मुखने पहोळुं करवानुं छे. ए त्रण कर्म अर्ही कहे छे ते राजस्, तामस अने सात्विकना निरोधने माटे कह्युं छे. चित्त सूतेलुं हतुं तेने आ लीला करी जाग्रत कर्युं ते द्वारा भक्तना लौकिकने छोडाव्युं अने स्वरूपमां आसक्ति करवाने माटे भगवाने भक्तने दुःख उत्पन्न कर्युं छे. जो भगवद् यश सर्वत्र व्यापे तो ज ए यशवाळा प्रभुमां जीवनी आसक्ति थाय. आ अध्यायमां यशोदाजी अने नन्दरायजी नो प्रपञ्च दूर करवानुं वर्णन आवे छे. यशोदानन्दनो निरोध मुख्य अने बीजा गोपो तथा अन्य देहधारीओनो निरोध गौणरूपे थशे. एमां पण प्रथम गोपीनो निरोध कर्तव्य होवाथी यशोदाजीनी आसक्ति आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. भगवान्नुं बधुं चरित्र हितकर छे, एमां पण गुण करनारुं चरित्र एनाथी वधारे छे तेना करतां पण स्नेह उत्पन्न करनार चरित्र उत्तम छे, तेथी एवुं चरित्र कहेवुं, एम अर्ही कहेवानुं तात्पर्य छे येन येनाऽवतारेण भगवान् हरिरीश्वरः ॥ करोति कर्णरस्यानि चरितानि च नः प्रभो ॥१॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - हे प्रभो! सर्व शक्तिमान (छ गुणयुक्त) भगवान् भक्तनां दुःखने दूर करनार, कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथाकर्तुम् समर्थ एवा श्रीहरि अनेक अवतार धारण करी बहु सुन्दर अने साम्भळवामां मधुर लीलाओ करे छे. ते बधी अमारां हृदयने बहु प्रिय लागे छे ॥१॥
जे साम्भळतां भगवान्ना चरित्र सम्बन्धी अणगमो (अरति=प्रेम न होय ते) दूर थाय, तृष्णा मटे, पुरुषनुं अन्तःकरण जे साम्भळतां पवित्र थाय अने भगवद् भक्तमां सख्य थाय ते ज चरित्र आपने योग्य लागे तो मनोहर थाय तेम कहो ॥२॥
बीजुं पण कृष्णनुं बाळचरित्र जे मनुष्यरूप स्वीकारी ए जातनो (बाळकपणानो) अनुरोध करी कर्युं होय ते चरित्र पण कहो ॥३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक वखते भगवान्ना जन्मनुं नक्षत्र आव्युं त्यारे ‘औत्थानिक’ (बाळकने बहार पधराववानुं चार मास थाय त्यारे थाय छे ते) कर्म कर्युं. प्रस्तावमां घणी स्त्रीओनी हाजरीमां वाजां, गीत अने ब्राह्मणोद्वारा वेदमन्त्रोना उच्चार साथे सती यशोदाजीए पोताना पुत्रने प्रथम तो कलशस्थापन पूर्वक मन्त्रथी स्नान वगेरे कराव्युं. (ए पतिनी आज्ञाथी कर्युं छे एम कहेवामाटेदशमस्कन्ध ७४ एमने सती कह्यां छे) ॥४॥
भगवान्ने सुगन्धी जलथी स्नान करावी, वस्त्राभरण आदि धरावी, तिलक करी नन्दराणीए ब्राह्मणोद्वारा स्वस्तिवाचन करावी ए ब्राह्मणोनी पूजा करी एमने अन्न, घी, वस्त्रो, माळा अने बीजी इच्छित वस्तुनी साथे गायो आपी, त्यां बाळकनी आङ्खमां निद्रा देखातां एने धीमेथी शयन कराव्युम् ॥५॥
उत्सवना आवेशमां ते अभिमानी थयां अने केवळ लौकिक तत्पर थईने व्रजजनोनी पूजा करवा लाग्या. एमां श्यामसुन्दरने भूख लागवाथी रोवा लाग्या. तेमनुं रुदन साम्भळवामां न ज आव्युं त्यारे स्तनपाननी इच्छावाळा बाळक रोतां- रोतां पोताना चरण उछाळवा लाग्या ॥६॥
श्रीबालकृष्ण एक गाडानी नीचे पोढ्या छे. एमनां चरण हजु तो लाल-लाल कूम्पळो जेवा अत्यन्त कोमळ अने नानां हतां, परन्तु तेनाथी विशाळ गाडुं ऊन्धुं थई गयुं. तेना उपर राखेली दूध, दर्ही वगेरे अनेक रसथी भरेली मटकीओ तथा कूपो भाङ्गी गया. पैडां अने धरी अस्त-व्यस्त थई गया अने ऊङ्घ तूटी गई. (भगवान् जाणे के यशोदाजीने कहे छे के जो मारामां मन राखवामां न आवे, मने भूलीने तमे बीजां लौकिक कार्यो करो तो तमारो करेलो, छांयडो पण मारे नथी जोईतो) ॥७॥
औत्थानिक कर्ममां आवेलां गोपीजनो, यशोदाजी, रोहिणीजी, नन्दबाबा अने गोपो आ विचित्र घटना जोई गभराई गयां अने आपस-आपसमां कहेवा लाग्यां ‘‘अरे आ शुं थई गयुं? आ गाडुं पोतानी मेळे शी रीते ऊन्धुं थई गयुं?’’ ॥८॥
गोप-गोपी ज्यारे एनुं कारण जाणी न शक्यां त्यारे त्यां फरतां बाळकोए कह्युं के ‘‘रुदन करतां आ बाळके ज पोताना पगनी ठोकरथी गाडाने ऊन्धुं करी दीधुं छे, जे अमोए प्रत्यक्ष जोयुं छे. एमां कोई शङ्का नथी ॥९॥
परन्तु बाळकोना बोलवामां ए गोपोने विश्वास न आव्यो, केमके बाळकोनुं बोलवुं प्रामाणिक न गणाय एम एमने लाग्युं, वळी आ बाळकमां अतुल बळ छे ए वात पण गोपो जाणता न हता ॥१०॥
यशोदाजीने तो ग्रहनी शङ्का थई तेथी रोता बाळकने लईने ब्राह्मणो पासे स्वस्तिवाचन करावी, सूक्तनो पाठ करावी, बाळकने स्तनपान कराववा लाग्यां ॥११॥
गाडुं छिन्न-भिन्न थयुं हतुं तेने बळवान गोपोए फरी सीधुं करी दीधुं. तेनादशमस्कन्ध ७५ उपर पहेलान्नी जेम बधी सामग्री राखी दीधी. एनी पूजा करवामाटे एमां देवनुं आवाह्न करीने ब्राह्मणोए दर्ही, अक्षत, कुश अने जळवडे होमपूर्वक गाडानुं पूजन कर्युम् ॥१२॥
निर्दोष उपर दोष लगाववो ए ‘असूया’ दोष छे, मिथ्या बोलवुं ए ‘अनृत’
दोष कहेवाय, ‘दम्भ’ पोताने श्रेष्ठ बताववानी चेष्टा करवी, ए त्रण दोष थया.
हिंसा, मान अने ईर्ष्या ए त्रण बीजा दोषो मळी छ दोष जे ब्राह्मणमां न होय
तेनो आशीर्वाद निष्फळ जतो नथी, केमके सत्य तो एना स्वरूपमां रह्युं छे, तेथी ए
सफळ वाणीवाळा होवाथी बाळकने एमनी पासे लावीने साम, ऋक् अने यजुर्वेद ना
मन्त्रोवडे पवित्र औषधिवाळा जळथी उत्तम ब्राह्मणोए अभिषेक कर्यो ॥१३-
१४॥
नन्दजीए स्वस्तिवाचन करावी सावधान थई ब्राह्मणोने बहु गुणवाळुं अन्न आप्युम् ॥१५॥
नन्दजीए ब्राह्मणोने निरोगी, बहु दूध देनारी, वस्त्रो, पुष्पोनी माळाओ अने सुवर्णनी माळाथी सज्जित गायो पोताना पुत्रनी उन्नतिमाटे आपी. त्यार पछी ब्राह्मणोए बाळकने आशिष आप्या ॥१६॥
विशेष - मात्र मोढेथी ज आशिष आपी एम नहि पण आशिषमां उच्चारेलुं बधुं ज आप्युं. मन्त्रने जाणनारा अने सत्कर्म करनारा ब्राह्मणोए जे आशीर्वाद आप्या होय ते कोई दिवस निष्फळ थता नथी, ए तो प्रथम छ दोषरहित ब्राह्मण होय ए भगवान् जेवो छे तेनो आशीर्वाद खोटो नथी पडतो एम कह्युं छे तेथी ज सिद्ध थयुं छे ॥१७॥
*एक दिवस सती यशोदाजी पुत्रने गोदमां लई लाड करतां हतां त्यां तो, पर्वतनो समुदाय जेम शरीर उपर सहन न थाय तेम, बाळकमां भार वधी गयो तेने सहन करी शक्यां नहि ॥१८॥
विशेष - तृणावर्तनो प्रसङ्ग अर्हीथी आव्यो तेनी अवतरणिका करे छे. वाचिक अने कायिक निरोधनुं करण कह्युं, हवे मानसिक कहे छे. एम जो न कहे तो नन्दरायजी, यशोदाजी वगेरे सर्व अज्ञानथी करे छे एम सिद्ध थाय. लौकिक भावथी पण ज्यां सुधी कृष्णमां मन एकतान होय त्यां सुधी भगवान् पोते नवुं काम करता नथी. एक वर्ष थाय त्यारे पुनः जन्मादि धर्मो मानवामां आवे छे. तेथी एक वर्ष भगवान्ने थयुं त्यारे तृणावर्तना वधनी लीला भगवानेदशमस्कन्ध ७६ करी. भगवान्नो देह प्राकृत छे एवी बुद्धि न रहे तो ते भगवान्ना भक्तोनी देहमति (देह ज आत्मा छे एवी मति) पोतानी जातनी होवाथी मटाडे छे. अढार विद्याओमां पण भगवान्ने देह नथी एम बताववा एक ज समये भारे होवापणुं अने हलका होवापणुं (एवा बे परस्पर विरोधी धर्मो) आ तृणावर्तना वधनी लीलामां कहेवामां आवशे. पूतनाने भगवाने मारी त्यारथी कंस जाणे छे के मारो शत्रु जगद्वन्द्य भगवान् कृष्ण गोकुलमां छे अने ए मने मारनार छे. ए कृष्णने मथुरा लाववामाटे तृणावर्तने कंसे गोकुल मोकल्यो. तृणावर्त, बकासुर अने केशी ए त्रण मोटा बळवान छे. तेमां पण तृणावर्त वधारे मोटो छे. ए जगत् आखाने तृणनी जेम फेङ्की दे एवो छे तेथी कंसे पहेला तृणावर्तने गोकुल मोकल्यो छे यशोदाजीए बाळकने पृथ्वी उपर पधराव्या अने भार लागवाथी विस्मय पाम्यां; कोटि ब्रह्माण्डना नायक महापुरुषनुं ध्यान करी व्यवहारना कार्यमां लागी गया ॥१९॥
तृणावर्त नामना दैत्य कंसनो चाकर हतो. तेने कंसे गोकुल मोकल्यो. तेणे वण्टोळियानुं रूप लीधुं अने बेठेला बाळक श्रीकृष्णने वण्टोळियाना पवनमां ऊञ्चे आकाशमां उपाडी गयो ॥२०॥
तेणे आखा गोकुलने धूळथी ढाङ्की दीधुं अने लोकोनी जोवानी शक्ति हरी लीधी. *तेना अत्यन्त भयङ्कर अवाजथी दशे दिशाओ कम्पी उठी ॥२१॥
विशेष - १. भगवान्नां दर्शननी ए वखते अयोग्यता थई गई २. तेथी भगवान्ने कोई जोई शक्युं नहि ३. सर्वने भगवान्नुं अज्ञान थयुं ४. यशोदाजीनो स्नेह अने ५. गोपीओनो स्नेह द्ग ए पाञ्च पर्व अविद्याना छे तेथी लौकिक बुद्धिथी एम थयुं. बे घडी सुधी तो गायोने रहेवाना स्थानने रजवडे थयेला अन्धकारथी भरी दीधुं. घरनुं काम करीने यशोदाजी पुत्रने ज्यां पृथ्वी उपर पधराव्या हता त्यां आवीने जुए तो त्यां एमने जोया नहि ॥२२॥
कोई बीजाने तो न जोया, पण पोतानो देह पण ए वण्टोळियामां जोवामां न आव्यो, केमके तृणावर्ते एटली रेती उडाडी के बधानी आङ्खो बन्ध थई गई ॥२३॥
एम तीक्ष्ण पवनना वण्टोळियाए उडाडेल धूळना वरसादमां पोताना पुत्रना पगनां चिह्न पण माता यशोदाजीए पृथ्वी उपर न जोयां त्यारे अत्यन्त करुण रीते रोवा लाग्यां अने गूम थई गयेल छे वाछडुं जेनुं एवी गायनी जेम पृथ्वी उपर पडी गयां अने एनुं स्मरण करीने शोक करवा मण्ड्या ॥२४॥दशमस्कन्ध ७७ ज्यारे गोपीओए यशोदाजीने रोतां साम्भळ्यां त्यारे एमना पोताना देहने पण अत्यन्त ताप थयो अने आङ्खनां आंसुथी एमनां मोढां पण भराई गयां अने नन्दलाल न मळ्या तेथी रोवा लाग्यां. तेटलामां पवननो वेग ओछो थई गयो अने धूळ ऊडती बन्ध पडी ॥२५॥
वण्टोळियानुं रूप धरनार तृणावर्तनो वेग शान्त थयो एनुं कारण ए ज के ए कृष्णने आकाशमां लई गयो, पण कृष्णमां एटलुं वजन वध्युं के एमने उठावी न शक्यो ॥२६॥
एने कृष्ण बहु भारे लाग्या; त्यारे एने ए पथ्थर जेवा लाग्या, परन्तु आ अद्भुत बाळके तो तेनं गळुं एटला जोरथी पकड्युं के ते तेमने पोतानाथी अलग करी शक्यो नहि. अर्थात् छोडावी शक्यो नहि ॥२७॥
भगवाने तृणावर्तनुं गळुं एवुं पकड्युं के एनाथी एनी चेष्टा बन्ध थई गई, एनां नेत्र बहार नीकळी पड्यां, शब्द अस्पष्ट थई गयो अने प्राण ऊडी गया, एटले बाळकनी साथे पृथ्वी उपर पडी गयो ॥२८॥
ए आकाशमान्थी शिला उपर पड्यो तेथी एना सर्व अवयव छिन्न-भिन्न थई गया अने रुद्रना बाणथी र्वीधायेला त्रिपुरासुरना पुर जेवो भयङ्कर देखावा लाग्यो, त्यां तो रडती स्त्रीओ बधी भेगी थईने जोवा आवी ॥२९॥
गोपीजनोए कृष्ण तृणावर्तना हृदय उपर बिराजता हता तेमने लईने श्रीयशोदाजीने आप्या. राक्षस लई गयो एमान्थी कुशळ रह्या, वळी पुरुषने खानार तृणावर्त लई गयो तेना मुखमान्थी बचवा पाम्या अने आकाशमान्थी नीचे आवतां पण कांई ईजा न थई एनाथी बधां विस्मय पाम्याम् ॥३०॥
गोपीओ अने नन्दरायजी वगेरे मोटा गोपो बाळकने प्राप्त करीने अत्यन्त आनन्द पाम्या ॥३१॥
जेमणे आशिषो आपेली छे तेवा दोषरहित तेओए एक स्थळे भेगा थई आना उपायनो विचार करवा माण्ड्यो ॥३२॥
तेओ कहेवा लाग्याः‘‘ओहो! आ तो घणा आश्चर्यनी वात छे, जुओ तो खरा आ केवी अद्भुत घटना बनी गई. आ बाळकने राक्षसे मृत्युना मुखमां ज धकेली दीधो हतो परन्तु ते तो क्षेमकुशळ आवी गयो अने ते हत्यारो, पापी एना पापे ज मर्यो. साची वस्तु तो ए छे के साधुपुरुष पोतानी समताथी ज बधादशमस्कन्ध ७८ भयोथी बची जाय छे ॥३३॥
आपणे पूर्वजन्ममां शुं तप कर्युं हशे, भगवान्नुं पूजन कर्युं हशे, वाव, कूवा वगेरे पूर्त लोकोने माटे कराव्यां हशे. यज्ञादि कर्या हशे, दान आप्युं हशे अथवा प्राणिमात्र उपर सौहार्द राख्युं हशे के जेथी गयेलो बाळक फरीथी पोतानां स्वजनोने जगतमां प्रसिद्ध करतो आपणी वच्चे आवी पहोञ्च्यो ॥३४॥
नन्दरायजी महावनमां घणा अद्भुत बनाव बनता जोईने वसुदेवजीए गोकुलमां जे उत्पात थवानुं कह्युं हतुं तेने आश्चर्यपूर्वक मानवा लाग्या ॥३५॥
(पाञ्च उपाख्यानमां प्रथम एक तृणावर्तनुं उपाख्यान कह्युं, हवे *बीजुं कहे छे) एक दिवस स्नेहवडे र्भीजायेला स्तनवाळा यशोदाजी पोताना पुत्रने गोदमां लईने पोताना पुत्रने पीवडाववा लाग्याम् ॥३६॥
विशेष - यशोदाजीने लौकिक भाव दृढ होवाने कारणे प्रथम पूर्ण स्नेह थयो, पछी ज्ञान थयुं अने पछीथी विस्मय थयो. ज्यारे बाळके स्तनपान करी लीधुं त्यारे माताए पोताना बाळकना स्मितवाळा मुख तरफ जोयुं. हे राजन्! बाळकने लाड करतां मुख तरफ जोयुं त्यां बाळकने बगासुं आव्युं अने माताए बाळकना मुखमां नीचे प्रमाणे जोयुम् ॥३७॥
आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, ज्योतिश्चक्र, दिशाओ, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीपो, पर्वतो, नदीओ, वनो, भूतो अने बीजा स्थावर जङ्गम पदार्थ वगेरेने मुखमां जोया ॥३८॥
सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन् सञ्जातवेपथुः ॥ सम्मील्य मृगशावाऽक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥३९॥
यशोदाजीए आखा विश्वने एकाएक जोयुं त्यारे हे राजन्! ए यशोदाजीने कम्प थई आव्यो; ए वखते मृगना बच्चानां नेत्र जेवा नेत्रवाळां यशोदाजीए आङ्खो *र्मीची दीधी अने ते बहु विस्मय पाम्याम् ॥३९॥
विशेष - आ विषयमां श्रीआचार्यचरण लखे छे के श्रीयशोदाजीनो हजु अधिकार थयो नथी. ए लेखनी टिप्पणीमां कहे छे के माताने पुत्र उपर स्नेह पुत्रपणाथी होय छे. स्नेह तो लौकिक छे. परन्तु उत्कट स्नेह छे तेटलो अंश स्नेहमां अलौकिक छे. ज्यारे पोताना पुत्रमां माणसने अद्भुतपणुं देखाय त्यारे एने एमां स्नेह होवाथी आम केम देखाय छे ए विचारमां भय लागे छे, केमके एने भगवद्भाव तो नथी. भय जो विशेष होय तो प्राण पण बचे नहि तेथीदशमस्कन्ध ७९ क्रमे-क्रमे थोडो-थोडो पोतानो अलौकिक अंश बतावे तो भय पण ओछो लागे अने ए वडे प्राणनी स्थिति पण रही शके अने क्रमशः ज्ञान थाय, माटे हमणां एने पुत्रमां भगवद्ज्ञान थयुं नथी तेथी धैर्य पण नथी त्यारे एनो अधिकार नथी, तेथी श्रीमुखमां विश्वरूप दर्शन कराव्युं ते तरत बन्ध करी दीधुं अने विस्मयरस ज उत्पन्न कर्यो, तेथी ‘सुविस्मिता’ एवुं यशोदाजीनुं विशेषण छेल्ले कह्युं छे. इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो यश नामनो त्रीजो अने चालु) ‘‘शक्टोत्क्षेप, तृणावर्त वध अने मुखमां विश्वदर्शनथी भगवान्ना यशनुं वर्णन’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (हवेली-मन्दिर खोलीने ठाकोरजीना दर्शन-मनोरथ-भेट-सामग्रीना माध्यमथी) पैसा कमाववा माटे सेवा करनारनो आलोक-परलोक सहित सर्वनाश थयो समजवो. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)
अध्याय ८
गर्गाचार्ये नामकरण कर्युं एमां श्रीगुण कह्यो बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो चोथो अध्याय अने सळङ्ग आठमो अध्याय.
विशेष - अन्तःकरण सर्वना निरोधनुं मूळ छे. जेना श्रवणथी अन्तःकरण शुद्ध थाय तेनुं आठमा अध्यायमां वर्णन कराय छे. प्रथम भगवान्नां नाम शुद्ध करनार छे, पछी रूप अनेक प्रकारनां छे तेनाथी शुद्धि थाय छे. ज्ञान, भक्ति अने भाग्य ए पाञ्च पदार्थ सत्वने शुद्ध करनार छे. परन्तु ए नामनो संस्कार थया पछी ए शोधक थाय छे. तेथी आ अध्यायमां नामसंस्कार कहेवाय छे. आमां स्वेच्छाथी आनन्द-भाववाळुं रूप आपे स्वीकार्युं छे. अन्यनी इच्छाथी करेलां भगवान्नां चरित्रोने साम्भळवानुं फल जुदुं छे. भगवान्ना माहात्मय ज्ञानपूर्वक थयेलुं ज्ञान अर्ही प्रत्यक्ष शुद्ध करनारुं छे. प्रभुनुं अलौकिक स्वरूप जाणवामां आवतां एमां स्नेह थाय छे. ए स्नेह थवामां मोटा पुरुषोनी कृपा ज कारण छे. जो प्रथम नाम हृदयमां [[८०]] आवी जाय तो आगळ कह्युं ते बधुं (नाम, रूप, ज्ञान, भक्ति अने भाग्य) सिद्ध थाय छे, पण ए नामनां बे अङ्ग छेःएक तो ए नाम गुरुद्वारा मळवुं जोईए, बीजुं दुःसङ्गने छोडवो जोईए. ए बे होय तो ज नाम फलितथाय. गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः ॥ व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! सारी रीते महातप करनार गर्गाचार्य यादवोना पुरोहित हता तेमने वसुदेवजीए प्रेरणा करी तेथी ए नन्दरायजीना व्रजमां आव्या ॥१॥
एमनां दर्शन करी नन्दरायजी परम प्रसन्न थया अने आव्यात्यारे सामे उभारही हाथ जोडी दण्डवत् प्रणाम करी भगवदृबुद्धिथीएमनुं पूजनकर्युम् ॥२॥
सारी रीते ए बेठा, नन्दरायजीनी पूजानो स्वीकार कर्यो. मधुर वाणीथी नन्दरायजी मुनिने प्रसन्न करी बोल्या के ः‘‘हे ब्रह्मन्! आप तो पूर्ण काम छो तो आपनी सेवा अमे शुं करी शकीए? ॥३॥
महापुरुषनुं फरवुं ए गृहस्थाश्रमीओना श्रेयने माटे होय छे, नहि तो दीनचित्तवाळा माणसोनुं श्रेय थवुं अशक्य थाय, केमके ए पुरुषो ऐश्वर्यादि धर्मवाळा होय छे तेमने जो कृपान करवीहोय तो बीजामाटे क्यांय पण जवानी एमने जरूर रहेती नथी ॥४॥
आपे ज्योतिषशास्त्र रच्युं छे जेनावडे भूत अने भविष्य नुं ज्ञान पुरुषने थाय छे ॥५॥
आप ब्रह्मने जाणनाराओमां उत्तम छो तेथी मारा आ बे पुत्रोना नामकरण आदि संस्कार आप ज कृपा करीने करी आपो, केमके ब्राह्मण जन्मथी ज मनुष्यना गुरु छे ॥६॥
गर्गाचार्य बोल्या - हुं यदुओनो गुरु छुं, वळी एना गुरु तरीके पृथ्वीमां सर्वत्र हुं प्रसिद्ध छुं तेथी जो हुं तमारा पुत्रोना संस्कार करावुं तो कंस ए पुत्रो देवकीजीना छे एम जाणी जाय ॥७॥
वळी पापी कंस तमारे अने वसुदेवजी ने मित्रता छे एम जाणे छे, देवकीजीनो आठमो गर्भ स्त्री होई शके नहि ए वात पण ए जाणे छे ॥८॥
एम विचारतां देवकीजीनी पुत्रीए ज कह्युं के तारो शत्रु तो बीजे जन्मी चूक्योदशमस्कन्ध ८१ छे ते ध्यानमां लई आ पुत्र वसुदेवजीनो छे, तमारो नथी, ए बाबतमां कंसने पछी कंई ज शङ्का न रहे, परिणामे जो कंस एने मारे तो आपणे माटे महान अनर्थ थाय ॥९॥
श्रीनन्दरायजी बोल्या - मारी गायोना व्रजमां, मारा गोपो पण न जाणे एवी गुप्त जग्याए, स्वस्तिवाचनपूर्वक द्विजाति संस्कार आप करो ॥१०॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - गर्गाचार्यजी तो नामकरण संस्कार करवा इच्छता ज हता. ज्यारे नन्दबाबाए तेमने आ प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे तेमणे गुप्त रहीने एकान्तमां छानामाना बन्ने बाळकोना नामकरणनो संस्कार कराव्यो ॥११॥
गर्गाचार्य बोल्या - आ निश्चय रोहिणीजीना पुत्र पोताना गुणोथी सगां- सम्बन्धी, मित्रोने आनन्द आपशे तेथी एनुं ‘राम’ एवुं नाम थशे, वळी एमां बळ वधारे छे तेथी ‘बल’ एवानामथी पण लोको एनी साथे व्यवहार करशे ॥१२॥
यादवोथी ए जुदा नहि होवाथी ‘सङ्कर्षण’ एवुं एनुं नाम रहेशे ॥१३॥
आ तमारा नाना पुत्र दरेक युगमां जन्म ले छे तेमां सफेद, लाल अने पीळो ए त्रण वर्णवाळा थाय छे. आ वखते ते कृष्णवर्ण थया छे तेथी ए ‘कृष्ण’ कहेवाशे ॥१४॥
आ तमारा पुत्र प्रथम वसुदेवजीना पुत्र क्यारेक थया छे तेथी ए वातने जाणनारा एने ‘वासुदेव’ पण कहे छे ॥१५॥
गुण अने कर्म ने लईने तमारा पुत्रनां अनन्त नाम छे ए केवल हुं ज जाणुं छुं, पण संसारना साधारण *लोको एटलां नाम नथी जाणता ॥१६॥
विशेष - जन्म लेवाना स्वभाववाळा ए ‘जन’ कहेवाय. तेथी ज ए नामने जाणी शक्ता नथी. अर्ही विचार एवो छे के क्रिया तो अनित्य छे अने रूप पण कालवडे क्षण-क्षणमां बदलातुं जाय छे. ए क्रिया अने रूप ऊपरथी नाम पड्युं तेनो परमां सम्बन्ध थई शक्तो नथी तेथी ए नाम वाचक ज थतुं नथी. एनो वाच्य अर्थ पण एमां न होय तेवां निरर्थक नाम फळतां नथी. स्वरूपना ज्ञान वगर केवल मुखवडे उच्चारित नामरूपनां सम्बन्धनो अभाव होवाथी ‘अग्नि’शब्दनो उच्चार करतां मोढुं बळतुं नथी तेम एवां रूप क्रियाना अनुसन्धान विनानां केवळ नाम लेवाथी प्रपञ्चनिवृत्ति थती नथी. नामनो अर्थ उच्चारण करनारनी पासे बीजाने नमावे छे तेथी ‘नाम’ कहेवाय छे. ए नामनां पण रूप छे. जेम भगवद्रूप प्राकृतदशमस्कन्ध ८२ तुल्य देखाय छे तेम नाम पण ग्राहकदोषवशात् लौकिक वर्णयुक्त प्रतीत थाय छे. वस्तुतः ए अखण्ड छे तेने यथार्थ जाणी तत्वनो उद्बोध करी उच्चारेलां नाम सर्व पुरुषार्थने फलित करे छे. लोकवत् उच्चारनारने नथी फलतां एमां नामनो दोष नथी, पण उच्चारनारना भावमां दोष छे. गोपो अने गोकुल ने आनन्द आपनार आ तमारो पुत्र तमारुं श्रेय करशे. आ तमारा पुत्रवडे तमे बधी मुश्केलीओने सहेलाईथी तरी जशो ॥१७॥
हे व्रजपते! आ तमारा पुत्रे प्राचीन समयमां अराजक्ताना समयमां कोई रक्षक नहि होवाथी शत्रुथी पीडाता साधु लोकोनी रक्षा करी एमने बळवान बनाव्या तेथी ए साधुओ शत्रुने जीती गया हता ॥१८॥
विष्णुना पक्षवाळाने असुरो कांई न करी शके तेम आमां प्रीति करनार महाभाग्यवाळा भक्तोने (अन्दरना के बहारना) शत्रुओ पराभव नहि करी शके ॥१९॥
तेथी हे नन्दजी! तमारो पुत्र गुणोमां, सम्पत्तिमां, सौदर्यमां, कीर्ति अने प्रभाव मां साक्षात् भगवान् नारायण समान छे. खूब सावधान अने तत्पर थईने आनुं रक्षण करजो ॥२०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे आत्मारूप भगवान्नुं स्वरूप नन्दरायजीने बतावीने गर्गाचार्य पोताना घर तरफ गया त्यारे आनन्द पामेलानन्दरायजीए पोताना आत्माने आशिषवडे पूर्ण मान्यो ॥२१॥
(एम नामचरित्र कहेवुं समाप्त करी हवे रूपचरित्र कहेवामाटे प्रथम भगवद्गतिनुं१ वर्णन करे छे) थोडो काळ गयो त्यां राम अने कृष्ण बे हाथ अने बे घूण्टण२ वडे भाखोडियां भरता विहार करवा लाग्या ॥२२॥
विशेष - १. एक चालतुं अने बीजुं गति विशेषवाळुं एम भूमि उपर बे रूप छे. एक रूप
यशोदाजीमां रह्युं ते मळी उपविष्ट त्रण रूप थयां. एमां उत्थितता स्वतः, कथचिन्त् अने
सर्वथा एम त्रण भेद छे. त्यार पछी बाळकोनी साथे मुग्धलीला, धौर्त्य अने धाष्टर्य लीलानां
बे रूप बताव्यां. सात्विकादि भेदवाळी ए लीला ते-ते जीवोने निरोध करावनारी छे. ते-ते
जीवना धाष्टर्य, धौर्त्यादिभावने दूर करावनारी ए लीला छे, पण खरी रीते तो यशोदाजीने
माटे ए बधीलीलाओ छे तेना प्रसङ्गथी अन्यनो निरोध करनारी छे. ज्यारे गोपीओ
गृहकार्यमां व्यग्र होय त्यारे प्रभुनी दशधा लीला दश प्रकारना भाववाळाना निरोधमाटे करी प्रभुदशमस्कन्ध ८३
एना दोषने दूर करे छे.
२. भगवान्नुं घूण्टणथी गमन दैत्योना मर्दनने माटे छे. दैत्यनो पति बलि छे छतां ए
निवारण करतो नथी; स्वतः निवारण न करी शके.
बन्ने भाई पोताना नाना-नाना चरणोने गोकुलना कीचडमां घसडताघसडता चालता. ते वखते एमना नूपुर अने कन्दोरानी घूघरीओनो नानो-मोटो
अवाज थतो. आ मीठो झणकार क्यान्थी आवे छे ए नक्की करवा तेओ थम्भीजाय
छे. ए ध्वनि साम्भळी राजी थाय छे. क्यारेक कोई व्यक्तिने जती जुए तो विचारे के
आ भक्त मने शोधवा जई रह्यो छे एटले एनी पाछळ-पाछळ जता, पछी
ज्यारे आगळनीव्यक्ति पाछळ जुए त्यारे जाणे केआ तो कोई बीजुं छे ते समये
लोकनुं अनुकरण करी भय पामी कांई समजतान होय एवो देखाव करी
यशोदाजीअनेरोहिणीजी पासे चाल्या जायछे ॥२३॥
एनां माताजी यशोदाजी अने रोहिणीजीने पुत्रमां स्नेह विशेष होवाथी तेमनी उत्कण्ठायुक्त स्नेहथी स्तुति करे छे. तेमना स्तनमान्थी दूध स्रवे छे. ए कादवरूपी अङ्गरागथी शोभता पोताना पुत्रने बे हाथथी गोदमां लई आलिङ्गन करी स्तनदान करे छे; स्तनपान करताबाळकनुं मुख जुए छे; मुग्ध स्मित अने नाना-नाना सुन्दर दान्तवाळुं मुख जोईने अत्यन्त आनन्द पामे छे ॥२४॥
ज्यारे राम अने श्याम बन्ने थोडा वधारे मोटा थया त्यारे व्रजमां घरनी बहार एवी एवी बाललीलाओ करवा लाग्या जेने गोपीओ जोई ज रहेती. ज्यारे बन्ने बेठेलां वाछडान्नी पूञ्छडीओ पकडी लेता अने वाछडां डरीने आम-तेम भागतां त्यारे तेओ वळी वधारे जोरथी पूञ्छडी पकडी लेता अने वाछडां तेमने ढसडतां दोडवा लागतां. गोपीओ घरनुं कामकाज छोडी दई आ बधुं जोई रहेती अने हसतां- हसतां तेमने पकडी लेती ॥२५॥
शिङ्गडांवाळां प्राणी गायो, दाढवाळां वान्दरां, तलवार वगेरे हथियार, जल-कूवा वगेरे, पक्षीओ अने काण्टा वगेरेमां क्रीडा करता पोतना पुत्रोने अटकाववामाम्पोताना पुत्रो अति चपल होवाथी एनी माताओने घरनां काम करवानो वखत नथी मळतो तेथी तेमनुं मन व्यग्र रहेतुम् ॥२६॥
हे राजर्षि! थोडा समयमां राम अने कृष्ण गायोना व्रजमां र्ढीचणो घसड्या विना चरणथी फरवा लाग्या ॥२७॥दशमस्कन्ध ८४ त्यार पछी तो भगवान् कृष्ण पोतानामित्र व्रजबाळकोनी साथे बलदेवजी सहित व्रजस्त्रीओने आनन्द आपता क्रीडा करवा लाग्या ॥२८॥
गोपीओ कृष्णनी कुमारलीलानी चपलताने जोईने एमनां माताजी यशोदाजी पासे आवी एना पोताना साम्भळतां माताने आप्रमाणे कहेवा लाग्याम् ॥२८अ॥ श्रीगोपीजनो बोल्यांः यशोदाजी, आ तमारा कुमार समय वगर वाछडां छोडी मूके छे. जो एने ठपको आपीए तो ए खडखडाट हसवा लागे छे. पोतानी मेळे लईने सारी वस्तु आरोगी जाय छे. उञ्चे राखी होय तो एवी चीज मेळववाना उपाय करे छे. माङ्कडान्ने खवरावी दे छे. बाळकोने वहेञ्ची आपे छे. जो पात्रमां पदार्थ न होय तो ए पात्रने फोडीनाङ्खे छे. ए न आरोगे तो पण पात्रने तोडी दे छे. कांई न मळे तो घरधणी उपर गुस्से थई घरमां सूतेलां बालकोने रोवरावी चालता थाय छे. आम गोपीजनोए श्रीयशोदाजी पासे कृष्णना उपद्रवनी वात करी ॥२९॥
हाथ न पहोञ्चे त्यां पाटला, ऊखडी वगेरे उपर चडी ए पदार्थने मेळवे छे. शीकामां शुं छे एनुं एने ज्ञान होवाथी ए पात्रमां छेद करीने दूध वगेरे लई ले छे. प्रवाही न होय तेवी वस्तु मेळववाना उपाय जाणता होईने एवाने माटे बीजी युक्ति करी ए मेळवे छे. अन्धारामां राखेली वस्तु होय तेने पोताना स्वरूपना प्रकाशथी, पहेरेला आभरणोना मणिना प्रकाशथी अने पदार्थने ज प्रकाशक बनावीने ए लई ले छे. आ बाबत ज्यारे गोपीओ पोताना गृहकृत्यमां गून्थायेली होय ते जाणी न शके एवा समये चोरीनुं कार्य करे छे ॥३०॥
हे सुन्दरी! एवां-एवां अनेक धृष्टतानां काम तमारा कुमार करे छे. ज्यां देवनुं देहरीमां पूजन थाय त्यां अथवा गायोना दूध दोहवाना पात्रमां मूत्र वगेरे करी उपद्रव करे छे. आपणे एने एवां काम करतां जोई एनी पासे आवीए तो ते डाह्या थई सर्व अङ्ग अवयवने ठीक-ठीक राखी बेसी जाय छे. भगवान्नाम्भयवाळां नेत्रने जोवा आवेली गोपीओए ज्यारे यशोदाजी पासे एमना पुत्रना कृत्यने माटे फरियाद करी त्यारे यशोदाजी हसी पड्यां, पण पुत्रने *ठपको आपवा तैयार न थयां ॥३१॥
विशेष - आ भगवान्नी धौर्त्य, धाष्टर्य लीलाथी यशोदाजीने स्वविषयक अध्यास छूटी गयो तेथी भगवान्नी निन्दा सहन थई पण ए सम्बन्धे भगवान्ने ठपको आपी न शक्यां. हवे एने भगावान् अमारा जेवा छे ए समान विषयक अध्यास छोडाववाने माटे भगवान् बीजीदशमस्कन्ध ८५ लीला करे छे ते मृद्भक्षण लीलानो प्रसङ्ग हवे आवे छे. मतलबमां लौकिक छोडावी स्वरूपमां सर्वेन्द्रियने निरोध करवामाटे प्रभुनो प्रयत्न ए ज पुष्टि समजवी एक वखत राम वगेरे गोपना बाळको क्रीडा करता हता. तेमणे कृष्णे *माटी खाधी एवी वात यशोदाजीने कही ॥३२॥
विशेष - अर्ही अन्तःकरणनुं शोधक ज्ञान कहेवुं छे ते अन्तःकरण दश इन्द्रिय अने एक मनरूप होईने अर्ही अगियार श्लोक कह्या छे. १. बाळकोना अज्ञानथी भगवान्मां समजायेलो माटी खाधी छे ते दोष २. दोष निवृत्तिने माटे यत्न, ३. यशोदाजीनुं वाक्य ४. भगवान्नो उत्तर ५. दोष नथी एम प्रत्यक्ष कराववुं ६. पहेलान्ना (उत्पन्न थयेल भगवान्मां दोषदृष्टिना) ज्ञानने मटाडनार (खोटुं पाडनार) ज्ञान कराव्युं ७. आ उत्कृष्ट ज्ञान छे एम बताववामाटे विषयनुं वर्णन कर्युं ८. एनाथी यशोदाजीने भय थयो ९. तेनी निवृत्तिमाटे पूर्वपक्षनी युक्तिओ कही १०. पछी सिद्धान्त समजी तेमां स्थिरता थई ११. अने भय पामीने यशोदाजी भगवान्ने शरण थयां, ए क्रमथी (३२ थी ४२) अगियार श्लोक कहेवानुं तात्पर्य छे. ए लीलाथी यशोदाजीनां अन्तःकरणनी शुद्धि भगवाने करी छे. पुत्रनुं हित करनारां यशोदाजीए श्रीकृष्णनो हाथ पकडी लीधो. ए वखते बीकने लीधे श्रीकृष्णनां नेत्रो विह्वल (चकित) थई रह्यां हतां, ते समयमां यशोदाजी पुत्रने धमकावीने कहेवा लाग्याम् ॥३३॥
यशोदाजी बोल्या - हे असंयमी अन्तःकररवाळा! तें एकान्तमां माटी केम खाधी? तारी साथे रमनार गोपो अने तारो मोटोभाई पण कहे छे के तें माटी खाधी छे ॥३४॥
श्रीकृष्ण बोल्या - हे अम्ब (मां)! में माटी खाधी नथी अने माटी खावानुं कहेनार बधा खोटुं बोलनार छे. तमने मारा वचनमां विश्वास न होय तो मारा मोढामां जुओ ॥३५॥
‘‘जो एम ज छे तो मोढुं खोल’’ आम ज्यारे यशोदाजीए कह्युं त्यारे अनन्त ऐश्वर्ययुक्त अने मात्र लीलामाटे ज मनुष्य बाळक बनेला श्रीकृष्णे मुख खोल्युं ॥३६॥
यशोदाजीए कृष्णना मुखमां आखुं विश्व जोयुं जेमां स्थावर तथा जङ्गम जगत्, पर्वतो, द्वीपो, समुद्रो, सहित पृथ्वीना गोळो, वायु, अग्नि, चन्द्र, तारा सहित बधुं जोयुम् ॥३७॥दशमस्कन्ध ८६ ज्योतिश्चक्र, जल, तेज, पवन, आकाश, सात्विक इन्द्रियो, मन, विषयो अने सत्वादि त्रण गुणोने श्रीमुखमां यशोदाजीए जोयाम् ॥३८॥
जीव, काल, स्वभाव, कर्म, आशय अने लिङ्ग-शरीरना भेदनी साथे आ जगत्ने श्रीकृष्णना मुखमां यशोदाजीए विचित्र रीते जोयुं तेथी एमने भय लाग्यो तेम ज व्रजने अने पोताने जोईने एमने शङ्का थई ॥३९॥
‘‘शुं मने आ स्वप्न तो न होय के ए देवनी माया तो न होय! अथवा मने कांई मोह तो थयो न गणाय! अथवा मारा आ पुत्रनो जन्मसिद्ध आ आत्मयोग एटले एनुं एवी जातनुं ऐश्वर्य ज छे?’’ एम अनेक पक्षने अन्ते पुत्रना जन्मसिद्ध ऐश्वर्यने पूतना-शकटादिना मारणथी सिद्ध कर्युम् ॥४०॥
‘‘हवे जे यथार्थ रीते समजी के जोई शकातुं नथी, चित्त, मन, कर्म अने वाणी जेमां कांई नक्की करी शक्ती नथी, ए कोना आश्रयथी, कोनाथी प्रतीत थाय छे जे जाणी शकातुं नथी, माटे जे होय तेना चरणारविन्दने हुं प्रणाम करुं छुम् ॥४१॥
हुं यशोदा, मारा आ पति नन्दगोप, आ कृष्ण मारो कुमार, हुं व्रजना राजानी राणी, एना धननुं रक्षण करनारी सती छुं, गोप, गोपीओ अने गोधन मारां छे, जेमनी मायाथी मारी आवी कुमति थई ते भगवान् मारो आश्रय थाओ’’ ॥४२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम ज्यारे यशोदाजी भगवान्नुं तत्व जाणी गयां त्यारे समर्थ ईश्वरे पुत्रमां स्नेह करावनारी विष्णु सम्बन्धी मायानो विस्तार करी दीधो ॥४३॥
के तरत ज आजणातुं बन्ध थयुं अने यशोदाजी ए वातनी स्मृतिपण चूकी गयां. पुत्रने गोदमां लई स्नेहने लईने हृदय आर्द्र थई गयुं अने प्रथम हतां तेवाञ्ज थईगयाम् ॥४४॥
त्रण वेदो, उपनिषदो, साङ्ख्य अने योग तथा वैष्णव तन्त्रो जेमना माहात्म्यनुं गान करे छे तेवा ईश्वरने पोताना पुत्र छे एम यशोदाजी मानवा लाग्या ॥४५॥
परीक्षित राजाए कह्युं - हे ब्रह्मन्! नन्दरायजीए महान अभ्युदय करावनारुं एवुं शुं श्रेय कर्युं हतुं? यशोदाजीए पण शुं श्रेय करेलुं के जेनुं स्तनपान भगवाने कर्युं? ॥४६॥
(वसुदेव-देवकीजी) जे एमनां खरां माता-पिता छे तेमणे ए भगवान्नीदशमस्कन्ध ८७ बाललीलानो आनन्द न लीधो. एमां पण एमनी लीला श्रवण मात्रथीपण हितावह छे, जेनुं आज सुधी कविओ गान करे छे, जे लीला गानारना पापने दूर करनारी छे ॥४७॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! नन्दरायजी पूर्व जन्ममां एक श्रेष्ठ ‘वसु’ हता. एमनुं नाम ‘द्रोण’ अने एमनी पत्नीनुं नाम ‘धरा’ हतुं. तेमणे ब्रह्माजीनी आज्ञाओनुं पालन करवानी इच्छाथी एमने कह्युम् ॥४८॥
द्रोणे कह्युं - ज्यारे अमे पृथ्वी उपर जन्म लईए त्यारे जगदीश्वर श्रीकृष्ण भगवान्मां अमने भक्ति थाय ते भक्ति सर्वोत्कृष्ट थाय, जेनाथी मनुष्यो दुर्गतिने तरी जाय एवी कृपा करो ॥४९॥
एम विनन्ति करी त्यारे ब्रह्माजीए कह्युंः‘‘तेम ज थशे’’ त्यारे द्रोण हता ए व्रजमां मोटा यशवाळां नन्दरायजी थया अने धरा हतां ए यशोदाजी थयाम् ॥५०॥
ब्रह्माजीनी आज्ञा हती तेथी ज पुत्ररूप जनार्दन भगवान्मां एमनी दृढ भक्ति थई. हे भारत! गोप अने गोपी ने प्रीति हती छतां आ स्त्री-पुरुषने सत्सङ्ग विना ज ए पुत्ररूप भगवान्मां एवी प्रीति थई के तेवी बीजाने न थई ॥५१॥
कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः। सहरामो वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया ॥५२॥
श्रीकृष्ण पण ब्रह्माजीनी वात सत्य करवानेमाटे पोते समर्थ छे छतां व्रजमां बलदेवजीनीसाथे रहीने पोतानी बाललीलाथी व्रजवासीओने आनन्द आपवा लाग्या ॥५२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणने श्रीगुणने कहेनार चोथो अने चालु) ‘‘गर्गाचार्ये नामकरण कर्युं’’ एमां श्रीगुण कह्यो नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भगवत्कथा)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम) [[८८]]
अध्याय ९
यशोदाजीने भगवाने स्वरूप ज्ञान कराव्युं बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो पाञ्चमो अने सळङ्ग नवमो अध्याय.
विशेष - ‘‘शास्त्रोमां भगवान्नुं स्वरूप जणावेलुं छे’’ एम जाणीने भगवान्मां निश्चल भक्ति थाय एटलामाटे आ नवमा अध्यायमां प्रभुनुं परम अद्भुत चरित्र कहेवामां आवे छे. भगवान्नुं स्वरूप अने एमनुं कृपालुपणुं जरूर जाणवुं जोईए तेथी अर्ही दया साथे ज्ञान नुं निरूपण थाय छे. जो भक्तनो निरोध भगवान्मां थाय, भगवान्नो निरोध भक्तमां थायतो ए बन्नेनो मेळ मळवाथी निरोध दृढ थाय, अन्यथा न थाय. ज्ञान, वैराग्य अने रूप वडे भगवान् वश थाय छे. माटे त्रण अध्यायमां जीवने अधीन लीला कही छे. जीवने भगवान् अधीन थाय ए जीवनो मोटो पुरुषार्थ कहेवाय. द्वादश अङ्गनो अतिक्रम करीने एटले मर्यादानो त्याग करीने भगवान् छ गुणवडे वश थाय छे अने लोकनी पाञ्च पर्ववाळी अविद्यानो नाश करे छे. माटे भगवान्नो विचार अर्ही पाञ्च (श्लोक) थी कर्यो छे. प्रथम यशोदाजीनुं अति पौरुष कार्य सिद्ध थयुं एम कहेवाने माटे दश श्लोक कहे छे एनुं कारण दश प्रकारनी भक्ति करे त्यारे प्रभु मळी शके छे अथवा नवविध साधनभक्ति अने एक प्रकारनी प्रेमलक्षणाथी भगवान् मळे छे. बे श्लोकथी पुत्रने वश करवानो उद्यम करे छे. बे काण्ड वेदना छे तेथी बे श्लोक कह्या. तेनाथी वश नथी थता त्यारे छ श्लोकथी छ गुणरूप छे तेनाथी वश थाय छे. पाञ्च श्लोकथी अविद्यानोबाध करे छे. (कारिका) यशोदाजीनो संसार छोडावे छे तो पण ए मोहित थईने संसारने पकडे छे. फरी भगवद्गुणगानमां एनो काळ व्यतीत थाय छे. बे श्लोकथी एने श्रम थयानी वात छे. तेथी भगवाने रवाई पकडी मथननो निषेध कर्यो अने भक्तिना साररूप नवनीत आरोग्या एम तेनो निरोध कर्यो छतां ए समज्यां नहि त्यारे प्रभुए एनी उपर कोप कर्यो. लोकदृष्टिथी तेना धौर्त्यने जोईने प्रसन्न थयां. लोकदृष्टिथी जोयुं माटे प्रभुने त्यां जोया नहि. माताना दोष मटाडवा भगवान् नीकळ्या त्यारे माताने एनी पाछळ जतां श्रम थयो. पूर्ण तप थयुं त्यारे प्रभु यशोदाजीने मळ्या एम दश श्लोक थया. अर्ही परोक्षवाद भगवान्ने प्रिय छे ए माटे परोक्ष कथन छे. जीव स्वतः आसक्ति करे तो कृष्ण दूर जाय छे त्यारे ज जीवने निरोध दृढ थाय छे, बीजी रीते थतो नथी. आ एक निर्णीत वात छे. (कारिका)दशमस्कन्ध ८९ एकदा गृहदासीषु, यशोदा नन्दगेहिनी ॥ कर्मान्तरनियुक्तासु, निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक दिवस घरनी दासीओ बीजां आवश्यक काममां रोकायेली हती ते समये नन्दराणी पोते दधिमथननी क्रिया करवां लाग्याम् ॥१॥
दधिनुं मथन करतां पोताना बाळके चरित्रो जे-जे वखते जेवां-जेवां कर्यां छे तेनुं स्मरण करतां यशोदाजी गान करतां जाय छे ॥२॥
तेमणे स्थूल कटितट उपर दोरी (कन्दोरा) थी बान्धी रेशमी चणियो पहेर्यो हतो. एमनां कम्पता स्तनोमान्थी पुत्र स्नेहने लीधे दूध स्रवी रह्युं हतुं. नेतरुं खेञ्चतां रहेवाथी हाथ कंईक थाकी गया हता. हाथमां कङ्गन अने कानो नां कुण्डळ हाली रह्यां हतां. मोढा उपर पसीनानां बिन्दुओ झलकी रह्यां हतां. वेणीमां गून्थेलां मालतीनां फूलो नीचे पडी रह्यां हतां. सुन्दर भ्रूकुटिवाळां यशोदाजी आ प्रमाणे दधिमथन करी रह्यां हताम् ॥३॥
भगवान् भूख लागतां मथन करतां मातानी पासे स्तनपानमाटे आव्या अने मातानी प्रीति वधारता रवाईने पकडी ए कार्य छोडी देवानो सङ्केत कर्यो ॥४॥
स्नेहथी स्रवतां स्तननुं पान करावतां गोदमां बिराजता पुत्रना स्मितयुत मुखने माताए जोयुं. एटलामां अग्नि उपर मूकेलुं दूध उभरातुं जोई ए उतारवामाटे बाळकने अतृप्त मूकी माता एकदम चाल्यां गयाम् ॥५॥
त्यारे प्रभुने कोप थयो. लाल अधर फरकवा लाग्यो तेने दान्त नीचे दाबी (कूटवाना-वाटवाना) पथराथी गोळीने फोडी खोटुं-खोटुं रडवा लाग्या अने एकान्तमां जईने माखणनुं आपे भक्षणकर्युम् ॥६॥
उभरातुं दूध नीचे उतारी यशोदाजी मथनस्थानमां आवीने जुए छे तो गोळी भाङ्गेली जोई आ पुत्रनुं कर्म जाणी हस्यां अने जुए तो पोताना पुत्रने जोया नहि ॥७॥
आम-तेम नजर करतां जणायुं के श्रीकृष्ण एक ऊन्धा खाण्डणिया उपर उभा छे अने आगला दिवसनुं शीकामान्नुं माखण लई वान्दराओने खवरावी रह्या छे, एमने ए डर पण छे के क्याङ्क मारी चोरी पकडाई जशे, तेथी कान माण्डी ताकता जाय छे. आ जोई यशोदाजी धीरेथी तेनी पासेगयाम् ॥८॥
माताने हाथमां लाकडी लई आवतां जोई ऊखळी उपरथी भय पाम्या होयदशमस्कन्ध ९० तेम जलदी कूदीने दोड्या. जेने तपथी प्रेरित योगीओनां शुद्ध थयेलां मन पण पहोञ्ची शक्तां नथी ते भगवान्ने पकडवामाटे गोपी पाछळ दोड्याम् ॥९॥
माताजी पाछळ चालतां मोटा नितम्बना भारथी चाली शक्तां नथी, उतावळथी चाले छे त्यां केशमान्थी पुष्पो खरी पडे छे. एम चाली यशोदाजीए पोते एने पकडी लीधा(आलिङ्गन कर्युं) ॥१०॥
श्रीकृष्णनो हाथ पकडी ते तेमने डराववा-धमकाववा लाग्यां. ए वखते श्रीकृष्णनी झाङ्खी अत्यन्त विलक्षण थई रही हती. (ईश्वर अपराध करता ज नथी पण मातानी दृष्टिए) अपराध तो कर्यो ज हतो, तेथी रुदन करता अने हाथवडे आङ्खो चोळी रह्या हता, तेथी मुख उपर आञ्जण रेलाई गयुं हतुं. (यशोदाजीए नीचे चरणमां दृष्टि न करी, करी होत तो भक्ति उत्पन्न थात, पण उपर नजर करी तो) तेनां नेत्रो भयथी विह्वल थई रह्यां हताम् ॥११॥
बाळक उपर वात्सल्य भाव आवतां ‘‘मारो पुत्र लाकडीथी भय पामे छे’’ एम जाणी यशोदाजीए लाकडी छोडी दीधी अने एमना पराक्रमने नहि जाणतां माताए एमने दोरडावडे बान्धवानी इच्छा करी ॥१२॥
जेने अन्दर के बहार एवो भेद नथी, पूर्व के अपर भेद नथी, जगतनी पूर्व, अपर, बहार अने अन्दर छे एने जगद्रूप पण आप छे ॥१३॥
जे सर्वनी बहार छे तेने पोतानो पुत्र मानी इन्द्रियथी अगोचरने मनुष्यना जेवा मानी एमने ऊखळी साथे प्राकृतनी जेम बान्ध्या ॥१४॥
पोताना अपराधी पुत्रने बान्धवानो प्रयत्न कर्यो, परन्तु दोरडाना बे छेडा मेळवे त्यां बे आङ्गळ ओछुं पडे, त्यारे यशोदाजीए बीजुं दोरडुं सान्ध्युम् ॥१५॥
ए बन्ने जोडतां पण एटलुं ज अधूरुं रह्युं, त्यारे एने बीजुं दोरडुं जोड्युं ॥१६॥
एम जेटलां घरमां दोरडां हतां ते बधां जोडी दीधां, छतां बे आङ्गळ घट्युं. गोपीओ त्यां उभी-उभी जोईने हसवा लागी त्यारे यशोदाजी पण हसी पड्या अने विस्मय पाम्याम् ॥१७॥
माताजीने एटलो श्रम थयोके मुख उपर स्वेदनां बुन्द आवी गयां, केशपाशमान्थी माळा पडी गई, त्यारे कृष्णे माताने थाकी गयेलां जोईने एनी उपर कृपा करी अने स्वयं बन्धाई गया ॥१८॥दशमस्कन्ध ९१ हे राजा परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण परम स्वतन्त्र छे. ब्रह्मा, इन्द्र वगेरे साथे आ सम्पूर्ण जगत् एमने वश छे. छतां आ प्रमाणे बन्धाई जईने संसारने ए वात बतावी दीधी के हुं मारा प्रेमी भक्तोने वश छुम् ॥१९॥
गोपी यशोदाजीए मुक्तिदाता मुकुन्दनी जे असाधारण कृपा प्राप्त करी ते कृपा (भगवान्नां) पुत्र होवा छतां ब्रह्माजीए, पौत्र होवा छतां महादेवजीए अने जगज्जननी, ब्रह्मानन्द स्वरूप, निरन्तर चरणसेवा परायण लक्ष्मीजी भार्या होवा छतां पण प्राप्त करी शक्यां नहि ॥२०॥
आ गोपीकानन्द भगवान् अर्ही भक्तिवाळाओने माटे जेटला सुलभ छे तेटला देहाभिमानी कर्मकाण्डी अने तपस्वीओने तथा आत्मा (स्वरूप) रूपी नाववाळा ज्ञानीओने माटे सुलभ नथी. (मात्र बाह्य सेवा करता होय ते भक्त कही शकाय, भक्तिमान न कही शकाय. भक्ति होवी ए प्रभु प्राप्तिमां अनिवार्य छे) ॥२१॥
पछी तो नन्दराणी यशोदाजी तो घरकाममां गून्थायां. भगवान् श्रीकृष्णे ते बन्ने अर्जुन* वृक्षोने मुक्तिदान करवानुं विचार्युं जे पहेलां यक्षराज कुबेरना पुत्रो हता ॥२२॥
विशेष - ‘अर्जुन’ एटले ‘सखि’ नामनुं वृक्ष. अर्जुन भगवान्ना सखा हता एटले सखि वृक्ष अर्जुन तरीके ओळखातुं. तेने जोई अर्जुन याद आव्या एटले कृपा थई. पुरा नारदशापेन, वृक्षतां प्रापितौ मदात् ॥ नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियाऽन्वितौ ॥२३॥
एमनां नाम नलकूबेर अने मणिग्रीव हतां. एमनी पासे धन, ऐश्वर्य अने सौन्दर्यनी पूर्णता हती. एमनो घमण्ड जोईने देवर्षि नारदजीएतेमनेशाप आप्यो अने ते (व्रजमां) वृक्ष थई गया हता ॥२३॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो अध्याय अने चालु) ‘‘यशोदाजीने भगवाने स्वरूप ज्ञान कराव्युं’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे [[९२]]
अध्याय १०
नारदजीना शापरूप भगवद् वैराग्य निरूपण बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो छठ्ठो अने सळङ्ग दसमो अध्याय.
विशेष - एम नवमां आध्यायमां अति दुर्लभ एवी भक्ति कही, आ दशमा अध्यायमां कृष्णसेवकना सख्यनुं कारण कह्युं छे. आ अध्यायमां वैराग्य धर्मी वर्णवाय छे. ए छ गुणवाळो छे. एटले ए भगवद्रूप छे तेथी छ गुणवाळो कह्यो छे. अविनाशी वैराग्य तो भगवान्ना वाक्यथी ज थाय छे अने ए ज विशेष वाक्य कहेवाय छे के जे कोई रीते निवृत्त न थाय. ए वाक्य पण शापरूप होय ते पण भक्तनुं वाक्य होय. तेथी वैराग्य कहेवामाटे नारदजीनो शाप नलकूबेर मणिग्रीवने थयानुं कथन छे ए मोक्ष सुधी शाप कह्यो छे. एमां छ गुणनो ‘विभाग’ कहे छे. शापनो उद्यम, शापनुं कारण, कृपाथी थयेलो शाप, वाक्यनुं फल, जलदी करेली स्तुति अने अनुग्रह ते छ थी, बारथी, त्रण श्लोकथी, छथी दशथी, पाञ्च श्लोकथी एम छ अर्थ आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. आ अपूर्व वात होवाथी साम्भळवानी इच्छा थतां परीक्षिते प्रश्न कर्यो छे. ए पण धनमदथी शापित थयो छे तेथी एनी मुक्ति जाणवानुं एनुं मन छे. (कारिका) प्रथम छ श्लोकथी शापनो उद्यम छे तेमां दरेक श्लोकनो अर्थ कहे छे. उन्माद, प्रमाद, निन्दित आचरण, मोटाओनी पासे धृष्टतासिद्धिने माटे एम करवुं ए पण धाष्टर्य बे भाईनुं ज छे, समुदायनुं नथी एटलाथी शापनो उद्यम कह्यो छे. (कारिका) कथ्यतां भगवन्नेतत् तयोः शापस्य कारणम् ॥ यत् तद् विगर्हितं कर्म येन वा देवऋषेस्तमः ॥१॥
परीक्षित राजाए कह्युं - हे भगवान्! ए बन्ने भाईने नारदजीए शा माटे शाप आप्यो? वळी ए पण कहो के एवुं एनुं शुं निन्द्य कर्म हतुं के जेथी देवर्षि नारदजीने क्रोध थयो ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए रुद्रना अनुचर अत्यन्त गर्ववाळा हता, कारण के ए धनद (कुबेर) ना पुत्र हता. ए कैलासना सुन्दर उपवनमां ज्यां गङ्गा नदी छे तेमां मदान्ध थईने क्रीडा करता हता ॥२॥
वारुणी मदिरा पीवाथी मदमां लोचन घेराई गयां छे तेवा, जेनी पाछळदशमस्कन्ध ९३ स्त्रीओ गान करे छे तेवा पुष्पित वनमां फरवा लाग्या ॥३॥
कमळनी पक्तिन्थी शोभती गङ्गानी अन्दर पेसीने, हाथीओ हाथणीओ साथे क्रीडा करे तेम, स्त्रीओ साथे क्रीडा करवा लाग्या ॥४॥
हे कौरव! त्यां भगवान् देवर्षि नारदजी दैव इच्छाथी आवी पहोञ्च्या. कुबेरपुत्रोने नारदजीए जोया अने बन्नेने मदमां छकेला जाण्या ॥५॥
जे स्त्रीओ हती ते तो वस्त्र वगरनी जलविहार करती हती ते, ‘‘मुनि शाप आपशे’’ एवा भयथी नारदजीने जोईने शरमाई गई अने तेओए जलदी वस्त्रो पहेरी लीधां, पण नलकूबेर अने मणिग्रीव तो विवस्त्र (नग्न) हता. तो पण तेमणे नारदजी आव्या छतां कपडां पहेर्या नहि ॥६॥
मदिरामां मत्त बनेला, लक्ष्मीना मदथी अन्ध बनेला, कुबेरना पुत्रोने जोईने एमनी उपर अनुग्रह करी शाप आपता नारदजी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥७॥
श्रीनारदजी बोल्या - जे लोको पोताना प्रिय विषयोनुं सेवन करे छे, तेमनी बुद्धिनो सौथी वधारे नाश करनार (श्रीमद) धनसम्पत्तिनो नशो छे. हिंसा वगेरे रजोगुणी कर्म तथा कुलिनता वगेरेनुं अभिमान पण तेनाथी वधारे बुद्धि भ्रष्ट करनार नथी कारण के धनना मदनी साथे स्त्री, जुगार अने शराब पण होयज छे ॥८॥
मदवाळो माणस मनने वश राखी शक्तो नथी तेथी पशुनी हिंसा करे छे अने आ देह कोई दिवस वृद्ध नहि थाय के एनो पात पण नहि थाय एम धारी, बीजा जीवने मारी पोताना शरीरनुं पोषण करे छे ॥९॥
जे शरीरने ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ वगेरे नामथी ओळखवामां आवे छे ते शरीरनी कृमि, विष्ठा अने भस्म एवी सञ्ज्ञाओ थाय छे. एने माटे मनुष्य भूतनो द्रोह करी पोतानो शो स्वार्थ करे छे? भूत द्रोहथी तो नरकनी प्राप्ति थाय छे ॥१०॥
आ देह कोनी सम्पत्ति? अन्न आपीने पालन करनारनी छे? के गर्भाधान करावनार पितानी के नव मास पेटमां राखनार मातानी छे? अथवा माताने जन्म आपनार ‘नाना’ नी छे? आ देह, जे बळवान पुरुष एनी पासे जबरदस्तीथी काम करावी ले तेनो छे के पैसा आपी खरीदी लेनारनो छे? चितानी जे धधकती आगमां देह बळी जशे ते अग्निनो छे के कुतरा-शियाळ जेने चून्थी-र्पीखीने खाई जवानी राह जोईने बेठां छे तेमनो छे? ए वात विचारवा जेवी छे ॥११॥दशमस्कन्ध ९४ एवो सर्वसाधारण देह छे जेनां उत्पत्ति अने नाश ने कोई जाणी शक्तुं नथी, तेने पोताने अधीन मानी क्यो डाह्यो पुरुष एने माटे हिंसा करे? केवळ दुष्ट होय ते ज एवुं काम करे ॥१२॥
जे दुष्ट पुरुषो लक्ष्मीना मदथी अन्ध थई रह्या छे तेमनी आङ्खोमां प्रकाश लाववामाटे दरिद्रता ज सौथी उत्तम अञ्जन छे कारण के दरिद्र ए जोई शके छे के बीजा प्राणीओ पण मारा ज जेवां छे ॥१३॥
जे माणसने काण्टो वाग्यो होय ते जेम बीजाने एवी पीडा न थाय एम इच्छे छे, केमके ए पोताने दुःख थयुं तेवुं ज बीजाने दुःख थाय छे एम जाणी ए बीजाने दुःख थवानुं इच्छतो नथी, परन्तु जेने क्यारेय काण्टो वाग्यो ज नथी, ते तेनी पीडानुं अनुमान करी शक्तो नथी ॥१४॥
दरिद्रने गर्व तो थतो नथी, कोई जातनो मद पण होतो नथी, दैवइच्छाथी कष्ट पामे छे ते ज एनेमाटे परम तप रूप थाय छे ॥१५॥
नित्य भूख वेठे छे तेथी शरीरे दुर्बल रहे छे. दरिद्र अवस्थाथी नित्य अन्नने इच्छ्या करे छे. तेथी इन्द्रियो जलदी सुकाई जाय छे. एनाथी हिंसा थई ज शक्ती नथी ॥१६॥
समान भाववाळा भक्तो दरिद्रने ज मळे छे. सत्पुरुषथी एनी सर्व तृष्णा निवृत्त थाय छे तेथी ज ए जलदी शुद्ध थई जाय छे ॥१७॥
मुकुन्दना चरणनी इच्छावाळा साधुपुरुषो समान भाववाळा होय छे. ए धनना मदवाळानी उपेक्षा करे छे. केमके धनिको असत् अने असदाश्रयवाळा होय छे. एनाथी भक्तने कांई साधवानुं होतुं नथी तेथी ए एनी उपेक्षा करे छे. ज्यारे ए दरिद्रीने जईने मळे छे, त्यारे एनो उपदेशादिथी शान्त करे छे. केमके ए दीनवत्सल होय छे ॥१८॥
माटे हुं वारुणी मदिराथी गाण्डा बनेला, लक्ष्मीना मदमां अन्ध थयेला, स्त्रीमां आसक्तिवाळा अने इन्द्रियलोलुप, आ धनदना पुत्रोनुं अज्ञान मटाडी दईश ॥१९॥
आ लोकपालना (दोषनो अनुवाद, शाप अने प्रसाद ए क्रमथी त्रण अर्थ कह्या छे.) पुत्र थईने अज्ञानमां डूबी गया छे, जे अत्यन्त दुष्ट मदवाळा थई पोते वस्त्ररहित छे एटलुं पण ए जाणी शक्ता नथी ॥२०॥दशमस्कन्ध ९५ तेथी ए स्थावरताने प्राप्त थाओ, केमके फरी आवी दशा एनी न थाय एमां पण मारी प्रसन्नताथी एने पोताना आत्मानुं स्मरण रहे एवो एनी उपर मारो अनुग्रह छे ॥२१॥
देवोनां सो वर्ष जशे त्यारे एओने भगवान् वासुदेवनां दर्शन थशे, तेमनी कृपाथी ए पाछा पोताना लोकमां आवी भगवान्नी भक्तिवाळा थशे ॥२२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - नारदजी एम बोली नारायणना आश्रममां गया. नलकूबर अने मणिग्रीव व्रजमां यमलार्जुन (‘यमल’ एटले जोडकुं- बे; मूळ एक अने उपरथी बे जुदा अर्जुन नामना वृक्ष. साथे उत्पन्न थयेला माटे यमलार्जुन नामे प्रसिद्ध छे.) थया ॥२३॥
भगवद्भक्त नारदजीना वचनने सत्य करवामाटे धीमे-धीमे भगवान् ज्यां यमलार्जुन हता त्यां पधार्या ॥२४॥
‘‘देवर्षि मने घणा प्रिय छे तेथी ए महात्माए ज कह्युं छे ते हुं सिद्ध करीश. केमके, आ नलकूबर अने मणिग्रीव पण भक्त कुबेरना पुत्रो छे’’ ॥२५॥
एम विचार करी कृष्ण बन्ने वृक्षनी अन्दर गया. जेवा पोते वच्चे गया के ऊखळी हती ए आडी थई गई ॥२६॥
जेना उदर उपर दोरडुं बान्धेलुं छे तेवा बाळके अनुकूळ रीते ऊखळीने खेञ्चतां वृक्षना अन्दरना मूळना बन्धन छूटी गयां. एने भगवाने खेञ्च्यु त्यारे थड, पान अने शाखाओ (भीम के हनुमान जेवा) महान पराक्रमी पुरुषो हलावे अने जेवा कम्प थाय तेवा कम्पथी हचमची उठ्यां अने ते वृक्षो भयङ्कर शब्द साथे मूळमान्थी ऊखडी पड्याम् ॥२७॥
त्यां एमान्थी पोतानी शोभावडे दिशाने प्रकाशता, वृक्षमान्थी अग्नि नीकळ्यो होय तेम बे सिद्धो नीकळी भगवान्नी पासे हाजर थया. अखिल लोकना नाथ श्रीकृष्णने मस्तकथी प्रणामकरी रजोगुणरहित थई हाथ जोडी आ प्रमाणे स्तुति करवालाग्या ॥२८॥
*नलकुबर अने मणिग्रीव बोल्याः हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगिन्! आप आद्य छो, परम पुरुष छो. व्यक्त विश्वरूप अने अव्यक्त ब्रह्मरूप पण आपनुं ज रूप छे ॥२९॥
विशेष - प्राण दश छे तेथी दश श्लोकथी नलकूबर मणिग्रीवे भगवान्नी स्तुति करी छे. तेदशमस्कन्ध ९६ स्तुतिमां ज्ञान अने वैराग्य नो सारी रीते निर्णय कह्यो छे. आप प्रथम मूळरूप हता, पछी जगद्रूप अने मध्यरूप थया. ए त्रण प्रकारे ज्ञानरूप कह्या. माहात्म्य बताववामाटे दुर्ज्ञेयत्व पण कह्युं छे. सर्वरूप छतां सर्वनुं ग्रहण करतां आपनुं ग्रहण थतुं नथी, तेथी ए आध्यात्मिक के भौतिक नहि पण आधिदैविक छे. अने सर्वरूप थाय छे, तेनाथी बे (आधिभौतिक अने आध्यात्मिक) थाय छे. एक तो सर्वत्व अने बीजुं कर्तृत्व एनाथी ज्ञान अने भक्ति थाय छे. तेथी प्रथम ज्ञान कह्युं अने पछी उत्तम भक्ति कहे छे. आनाथी ज वैराग्यनुं निरूपण थाय छे. जो ए वैराग्य ज्ञान उत्पन्न न करे तो बधुं छोडी देवुं, नहि तो नाश थाय छे. भक्तिने माटे जे ज्ञान थाय ते छठ्ठा श्लोकमां कह्युं छे. अन्यथाभावनी शङ्का मटाडवामाटे भगवान्ने परम पुरुष कह्या छे. भगवान्ने नमन करी जवानी प्रार्थना करी, ते भक्तने अयोग्य गणाय, एम जो शङ्का थाय, तो एमनी भक्ति छ गुणवाळी छे ते भक्तनी साथे रहीने करवी. ते भक्ति परोक्षमां सिद्ध थाय छे. गुप्तरस त्यारे उद्बुद्ध थई रसरूप थाय छे. एकमां गुण प्रधान भाव विरुद्ध गणाय, तेथी भगवान् स्वयं एने माटे उद्युक्त थया. पोताना रसभागने माटे के बीजाना रसने माटे एनो निर्णय करवानो छे. तेओ भगवान्ने ऊखळीथी छोडे ते शक्य न हतुं. (कारिका) आप ज प्राणिमात्रना देह, प्राण, अन्तःकरण, इन्द्रिय अने ईश्वररूप छो. आप ज काळरूप छो. व्यापक छो. कोई दिवस विकृति न थाय तेवा नियामक पण आप ज छो ॥३०॥
(एम मूळरूप अने जगद्रूपनी स्तुति करी. हवे मध्यरूपनी स्तुति करे छे) आप महत्तत्व, सूक्ष्म प्रकृति अने रजोगुण, तमोगुण अने सत्वगुणनी समानावस्थारूप प्रकृति पण आपज छो. आपज पुरुषरूप, साक्षीरूप अने सर्व क्षेत्रना विकारने जाणनार छो ॥३१॥
वृत्तिओथी ग्रहण कराता प्रकृतिना गुणो अने विकारो द्वारा आप ग्रहण थई शकाता नथी. स्थूल अने सूक्ष्म शरीरना आवरणथी ढङ्कायेलो एवो क्यो पुरुष छे जे आपने जाणी शके? कारण के आप तो ए शरीरोनी पहेलां पण विद्यमान् हता ॥३२॥
ए भगवद्रूप शुद्धसत्वमां प्रकट थतां वासुदेव सर्वने करनार अने पोते प्रकाश करेला गुणोवडे जेनो प्रकाश ढङ्कायेलो छे तेवा ब्रह्मरूप आपने अमारा नमस्कार हो ॥३३॥दशमस्कन्ध ९७ आपने प्राकृत शरीर नथी, छतांय ज्यारे आप एवां पराक्रम प्रकट करो छो, जे साधारण शरीरधारीओमाटे शक्य नथी अने जेनाथी चडियाता तो शुं जेनी बराबरी पण कोई करी शके नहि त्यारे ते द्वारा ते शरीरोमां आपनां अवतारोनी जाण थाय छे ॥३४॥
उपर कह्या प्रमाणेना रूपवाळा आप, लोकनां उत्पत्ति अने अभ्युदय ने हमणां लोकमनोरथ पूर्ण करवामाटे अंश (जीवरूपे) अने भाग (तेना भोग्य पदार्थ) वडे आप प्रकट थया छो ॥३५॥
हे परमकल्याण, विश्वमङ्गळ, वासुदेव! शान्तअने यदुओ नापति! आपने अमारानमस्कारहो! ॥३६॥
हे भूमन्! आपना दासना दास अमोने जवानी आज्ञा आपो. आपनुं दर्शन अमोने नारदऋषिना अनुग्रहने लईने थयुम् ॥३७॥
(आ प्रमाणे जवानी रजा मागी. त्यां गया पछी आपनी भक्ति अमने थाय एवी प्रार्थना करता कहे छे के) अमारी वाणी१ आपना गुणानुवादमां उपयुक्त थाय, आपनी कथामां अमारा काननो विनियोग थाय, हाथनो तथा पगनो आपनी सेवामां उपयोग थाय, अमारा मननो आपना चरणारविन्दनी स्मृतिमां उपयोग थाय, हे जगतना निवास! आपने प्रणाम करवामां अमारा मस्तकनो अने आपना श्रीअङ्गरूप भक्तोनां२ दर्शनमां अमारां नेत्रनो उपयोग थाय, एवी आप कृपा करो ॥३८॥
विशेष - १. वाणी, बे कान, बे हाथ, चित्त, माथुं, बे आङ्खो, आ छ भगवत्कार्यमां आसक्त
थाय तो जीव कृतार्थ थाय.वाणी कीर्तनमां, कान कथा श्रवणमां,चित्त स्मरणमां, हाथ
सेवामां,मस्तक नमनमांअने नेत्र प्रकट थयेल भगवान्नां दर्शनमां उपयुक्त थाय तोकृतार्थ
थवाय, तेथीनलकूबरे एटली प्रार्थना उपरना श्लोकमां करी छे. माटे भगवाने एने वरदानद्वारा
भक्तिआपी.
२.भगवान्ना साक्षात् दर्शननी प्रार्थना करे तो उद्धताई (अविवेक) थाय माटे ते न करतां
भगवदीयोनां दर्शननी प्रार्थना करी छे
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम भगवान् गोकुलेश्वरनुं ए बन्नेए कीर्तन कर्युं
त्यारे माताए दोरडाथी ऊखडी साथे बान्ध्या छे तेवा भगवाने गुह्यकोने कह्युम् ॥३९॥
श्रीभगवाने कह्युं - लक्ष्मीना मदथी अन्ध बनेला तमो बन्ने उपर दयाळुदशमस्कन्ध ९८ नारदऋषिए शाप आपी तमारुं ऐश्वर्य नष्ट कर्युं अने अनुग्रह कर्यो ए वात मारा जाणवामां छे ॥४०॥
जेम सूर्योदय थतां मनुष्योनां नेत्रो आगळ अन्धकार टकी शक्तो नथी तेम ज, जेमनी बुद्धि समदर्शिनी छे अने हृदय मने समर्पण कर्युं छे तेवा भगवदीयोना दर्शनथी बन्धन रहेतुं नथी ॥४१॥
माटे हे नलकूबर! महाभाग्यशाळी! तमे घेर जाओ. मारामां तमने इच्छित प्रेम थयो छे. तमे श्रवण आदि माग्युं ते तो सहज बनशे, केमके आ तमारो छेल्लो जन्म छे ॥४२॥
इत्युक्तौ तं परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ॥ बद्धोलूखलमामन्त्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥४३॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम भगवाने कह्युं त्यारे ऊखळीए बान्धेला प्रभुनी परिक्रमा करी, तेमने वारंवार प्रणाम करी एमनी आज्ञा मागी बन्ने उत्तर दिशा तरफ गया ॥४३॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो वैराग्य नामनो छठ्ठो अध्याय तथा चालु) ‘‘नारदजीना शापरूप भगवद् वैराग्य निरूपण’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ११
धर्मिस्वरूपे श्रीनन्दरायजीना निरोधनुं निरूपण बीजा तामस प्रकरणना अन्तर्गत पहेला प्रमाण प्रकरणनो सातमो अने सळङ्ग अग्यारमो अध्याय.
विशेष - गोकुलमां सर्वभावथी निरोधनुं वर्णन करवानुं छे. स्त्रीओनो ते निरोध कहेलो छे. नन्दरायजीनी प्रधानताथी पुरुषोनो निरोध पण कह्यो. आ अगियारमा अध्यायमां नन्दरायजीनी पूर्वावस्था बधी छोडावीने तेमने श्रीकृष्णमां भाव थयो ए वात कहेवामां आवे छे. प्रथम तो भगवान्ने ऊखळीथी छूटा कर्या. एनी मुग्धलीला कही अने गोकुलथी वृन्दावनमान्दशमस्कन्ध ९९ पधराव्या. त्यां लीला करी. वत्स अने बक ने मार्या अने नन्दरायजी वगेरेने भगवत्वेन ज्ञान थयुं ते अनुक्रमे ६-३-१६-४-६-९-प श्लोकथी कहे छे. आ अध्यायमां सप्तार्थ कही धर्मी अने धर्मवडे भगवद्रूप अर्थ कह्यो छे. भगवान् पोताना रसभोगमाटे जे निरोध करे छे ते भगवान् ज छे, भगवद्रूप छे. बीजी बधी ए सिवायनी वस्तुमां वैराग्य राखवुं. वृन्दावनमां भगवान्नी प्रसन्नता सिवाय जवानुं कारण नथी. एम बताववामाटे लीलोपयोगी वृन्दावनस्थ पदार्थोमां भगवान्नी प्रीतिनुं कथन छे. वत्सासुरने मारी वत्सचारण दोषने मटाड्यो गोवाळियाना दोष मटाडवामाटे बकासुरने मार्यो छे. दुष्टना उपद्रवथी स्थान त्याग नथी कर्यो, पण एमां प्रभु इच्छा ज कारण छे. तेथी ज गोपोनी सभामां महावन छोडवानो अने वृन्दावन आववानो विचार अने आनन्दनुं निरूपण कर्युं छे. ए आनन्दमाटे ज भगवान्नो बालभाव सम्भवे छे. ते बालभावनुं कार्य सिद्ध थयुं एटले बृहद्वननो त्याग कर्यो छे. एनुं वर्णन अर्ही आप्युं छे. गोपा नन्दादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो रवम् ॥ तत्राजग्मुः कुरुश्रेष्ठ निर्धातभयशकिन्ताः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - नन्दरायजी वगेरे गोपोए पडतां बे वृक्षोनो शब्द साम्भळ्यो अने हे कुरुश्रेष्ठ! वीजळी पड्यानी शङ्काथी बधा त्यां आवी पहोञ्च्या ॥१॥
त्यां तो यमलार्जुनने भूमि उपर पडेलां जोयां. ए पडवानुं देखीतुं कारण एमना जाणवामां न आव्युं तेथी ए बधां भ्रममां पडी गया ॥२॥
ऊखळीने खेञ्चता अने दोरडाथी बन्धायेला बाळकने बे वृक्षोनी वच्चे जोया तो पण ‘‘आ कोनुं कर्म छे? कोई उत्पात न थयो होय! आ बाळक अर्ही क्यान्थी?’’ एम जाणीने बधा भय पामवा लाग्या ॥३॥
भगवान् सिवाय त्यां कोई नथी अने एमणे आ वृक्षो पाड्यां एम तो एने ज्ञान न थयुं केमके भगवान्ने ए बाळक माने छे, वळी ए बन्धायेल छे तेथी ए शङ्कानो अन्त न आवतां ए बधा विचारमां पडी गया. त्यां बाळको फरतां हतां तेमणे कह्युंः‘‘आ बाळक ऊखळी खेञ्चतां अर्ही आव्यो. बन्ने वृक्षनी वच्चे ए ऊखळी आडी थई गई. तेने कृष्णे खेञ्ची तेथी वृक्ष पडी गयां अने तरत अमे बे पुरुषोने जोया’’ ॥४॥
पण ए तो सम्भवे नहि एवुं अनुमान करी बाळकना वाक्यने मानवाने तैयारदशमस्कन्ध १०० न थया. केटलाक सन्देह लावीने बोल्या के ‘‘आवां मोटां वृक्षोने बाळक पाडी नाखे ए न मानवा जेवी वात छे’’ ॥५॥
दोरडे ऊखडी साथे बान्धेला पोताना बाळकने जोई, नन्दरायजी हसी पड्या अने एने बान्धेलां बधां दोरडाओ छोडी नाख्याम् ॥६॥
सर्वशक्तिमान् भगवान् क्यारेक-क्यारेक गोपीओना फोसलाववाथी साधारण बाळकोनी जेम नाचवा लागता, क्यारेक भोळाभाला अबुध बाळकनी जेम गावा लागता, जाणे के एमना हाथनी कठपूतळीनी जेम सर्वथा एमने अधीन बनी गया हता ॥७॥
क्यारेक एमनी आज्ञाथी बाजठ लई आवता, तो क्यारेक तोलवानां काटलां लावी आपता. क्यारेक खडाउ लई आवता, तो क्यारेक पोताना प्रेमी भक्तोने आनन्दित करवा पहेलवान्नी जेम बाहुक्षेप करवा लागता ॥८॥
आ प्रमाणे सर्वशक्तिमान् भगवान् पोतानी बाळलीलाओथी व्रजवासीओने आनन्दित करता अने संसारमां जे लोको एमनारहस्यना जाणकार छेतेमने एम बतावे छे के हुं मारा भक्तोने अधीन छुम् ॥९॥
*ए महावनमां घणा उत्पात थवा लाग्या ए जाणीने गोपोमां वृद्ध नन्दरायजी वगेरे भेगा मळीने ‘‘अर्ही उत्पात बहु थाय छे, तो आपणा व्रजनी रक्षानेमाटे शुं करवुं?’’ ए अङ्गे विचार करवा लाग्या ॥१०॥
विशेष - अर्हीथी दश श्लोको फल वेचनारीनी कथाने क्षेपक गणी श्रीआचार्यचरणे एनुं व्याख्यान कर्युं नथी तेथी अमे पण एनुं भाषान्तर कर्युं नथी तेथी आ अध्यायना क्षेपकने बाद करतां कुल ओगणपचास श्लोक छे. प्रथम विचारनेमाटे उद्योग१ कर्यो एमां उपनन्द नामना गोप उमरमां अने ज्ञानमां श्रेष्ठ हता. देश, काल अने अर्थ ना तत्वने जाणनार अने राम-कृष्णनुं प्रिय करनार हता. तेमणे पहेलां कह्युं के गोकुलनुं हित इच्छनार आपणे अर्हीथी बीजे स्थळे जवुं जोईए, केमके अर्ही प्रजानो नाश करनार उत्पातो२ थया ज करे छे ॥११-१२॥
विशेष - १. प्रथम जवानो उद्योग, मुख्य उपनन्दनी प्राप्ति थया पछी विचार कर्यो ए त्रण
श्लोकथी कहे छे. आ स्थानने छोडवामाटे वृन्दावनना गुण कह्या. श्रीकृष्णनी आज्ञाथी वृन्दावन
जवानो विचार कर्यो तेथी एने कालनी अपेक्षा न रही, नहि तो ब्राह्मणनी पासे मुहूर्तदशमस्कन्ध १०१
जोवरावत. पाञ्च श्लोकथी त्यां जवानुं थयुं. भगवान् वृन्दावन जोईने प्रसन्न थया. सोळ
श्लोकथी भगवान् वृन्दावनमां पधार्यानुं वर्णन छे तेथी ए सोळ कळायुक्त वृन्दावनमां बिराजे
छे एम समजवुं (कारिका)
२. अलौकिक अनिष्टनुं कारण अने सर्वनो नाश करे ते उत्पात कहेवाय. डाह्या पुरुषोए
महा उत्पात तेने जाणवो के जे थतां ते स्थान तजवा योग्य थाय छे. (कारिका)
बाळकने मारवाने राक्षसी आवी तेनाथी भगवाने बाळकने बचाव्यो. हरिनी
कृपाथी वळी गाडुं ऊन्धुं वळ्युं ए पण उपर न पड्युं ए बहु सारुं थयुम् ॥१३॥
वण्टोळियो आव्यो तेणे तो बाळकने घणे ऊञ्चे उडाव्यो एटलुं ज नहि, पण मोटा भयमां मूक्या, केमके ए दैत्य शिला उपर पड्यो त्यां बाळक नीचे न आवतां एनी उपर आवी गयो तेथी देवोना ईश्वरे (भगवान्ना भक्तोए) ज एने सर्व तरफथी बचाव्यो ॥१४॥
वळी आ बे वृक्ष पड्यां तेनी वच्चे बाळक हतो तो पण एने अथवा बीजा कोईने पण ईजा न थई, ए पण भगवाने बचाव्या एम ज गणाय ॥१५॥
देवोए त्रणवार रक्षण कर्युं. ज्यां सुधीमां उत्पातथी थतुं मृत्यु जेवुं अनिष्ट व्रजनो विनाश न करे ए पहेलां आपणे अर्हीथी बाळकोने अने अनुजीवीओने लईने अन्यत्र जतां रहेवुं जोईए ॥१६॥
अर्ही वृन्दावन नामनुं वन छे. ते पशुओमाटे हितावह छे. एमां पवित्र पर्वत छे. लताओ, घास वगेरे पण एमां पुष्कळ छे. गोप, गोपी अने गायो ने सेवन करवा लायक ए नवुं वन छे ॥१७॥
आजे ज आपणे त्यां जईए; माटे विलम्ब न करो अने गाडां जोडो. जो तमने ठीक लागे तो आपणा एक मात्र धन गायोने आगळ रवाना करीए ॥१८॥
ए साम्भळीने बधा गोपो एकमत थईने ‘सारुं, सारुं’ एम कहेवा लाग्या; पोत-पोतानी गायोना धणोने एकत्र करी गाडाम्मां बधो सरसामान नाखी रवाना थया ॥१९॥
वृद्धो, बाळको अने स्त्रीओ ने गाडाम्मां बेसाडी तेम ज बधो उपयुक्त गृहनो सामान गाडामां गोठवी गोपो तैयार थई कवच, धनुष वगेरेथी सज्ज थया ॥२०॥
गोधनने आगळ करी शिङ्ग अने तुरी जोर-जोरथी वगाडता पुरोहितो साथे आगळ चाल्या ॥२१॥दशमस्कन्ध १०२ गोपीजनो पोत-पोताना वक्षःस्थल उपर ताजुं केसर लगावी, सुन्दर-सुन्दर वस्त्रो पहेरी, गळामां सोनाना हार पहेरी रथोमां बेठां हतां अने अत्यन्त आनन्दथी भगवान् श्रीकृष्णनी लीलानां गीत गातां जतां हताम् ॥२२॥
यशोदाजी अने रोहिणीजी बन्ने एक गाडामां बिराज्यां, श्रीकृष्ण अने राम साथे बिराज्या तेथी ए शोभवा लाग्यां अने एमनी वात साम्भळवामां ए बन्ने उत्सुक हताम् ॥२३॥
सर्वकालमां सुख करनार वृन्दावनमां प्रवेश करीने त्याङ्गाडाने अर्धचन्द्राकारमां राखी एनी अन्दर पोताने रहेवानुंराख्युम् ॥२४॥
वृन्दावन, गोवर्धन अने यमुनाजी ना पुलिनोने जोईने हे राजन्! राम तथा कृष्ण ने एमां उत्तम प्रीति थई ॥२५॥
एम बालचेष्टावडे व्रजवासीओने सुन्दर बोबडी-तोतडी वाणीवडे प्रीति करावता राम-कृष्ण थोडा समयमां वाछडां चारवा लाग्या ॥२६॥
नजीकनी जमीनमां गोवाळना छोकराओनी साथे वाछडां चारवा नीकळे त्यारे अनेक प्रकारनां रमत-गमतना साधन (फेरववानुं चक्र, दाडिंयो, रमकडानो रथ, वाजिन्त्रो) साथे लई जता ॥२७॥
क्यारेक वेणु वगाडे छे, तो क्यारेक गोफणथी ढेफां वगेरे फेङ्के छे. क्वचित् घूघरीवाळा चरणोवडे नृत्य करे छे, क्याङ्क बनावटी गायो अने खूण्टियाथी रमे छे ॥२८॥
आखला बनी गर्जना करता परस्पर युद्ध करे छे. प्राकृतनी पेठे प्राणीओना अवाजनुं अनुकरण करता फरता हता ॥२९॥
एक वखत पोताना मित्रोनी साथे श्रीयुमनाजीना तीर उपर श्रीकृष्ण अने बलदेव वत्स चारता हता, त्यारे तेमने मारवाने माटे एक क्रूर दैत्य आव्यो ॥३०॥
तेणे वाछडानुं रूप धर्युं हतुं. वाछडानां यूथमां भगवान्ने जोईने ए यूथमां भळी गयो. तेने भगवाने बळदेवजीने बताव्यो अने धीमेथी जाणे कांई न जाणता होय एवो देखाव करी तेने पकड्यो ॥३१॥
पछी एने पूञ्छडा साथे पाछला बे पगथी पकडीने आकाशमां फेरवी कोठाना झाडना मूळमां फेङ्क्यो. त्यां ए अद्धरज मरीगयो ॥३२॥
महाकाय राक्षसे पडतां-पडतां कोठाना फळो सहित वृक्षने पण जमीनदोस्तदशमस्कन्ध १०३ कर्युं. एने जोई बाळकोने विस्मय थयुं अने भगवान्ना कर्मने बहु वखाणवा लाग्या, ‘‘सारुं थयुं, सारुं थयुं’’ एम कहेवा लाग्या ॥३३॥
देवो प्रसन्न थईने पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या. व्रजमां वत्सासुरना मृत्युने साम्भळी गोपीओ पण विस्मय पामी ॥३४॥
राम-कृष्ण सर्व लोकना एक मात्र पालक छतां वत्सना पालक थईने सवारमां घेरथी कलेवो (भोजन) करी नीकळे छे. ते गायोनां वाछडान्ने चारता वनमां फरे छे ॥३५॥
एक दिवस पोत-पोतानां वाछडान्ना झुण्डना झुण्डने चारता एने जळ पावानेमाटे जळाशय पासे गया. वाछडांओने जळ पाईने पोते पण जळपान कर्युं ॥३६॥
त्यां बाळकोए जळाशयमां एक मोटुं प्राणी उभेलुं जोयुं. वज्रथी पर्वतनो एक भाग जुदो पडी गयो होय तेम पर्वतना शिखर जेवा प्राणीने जोई गोवाळिया त्रास पाम्या ॥३७॥
बगलानुं रूप धारण करनार ए बकासुर हतो. ते बाळको जळ पीतां हतां त्यां एकदम आवी तीखी चाञ्चवडे श्रीकृष्णने गळी गयो. केमके ते घणो बलवाळो हतो ॥३८॥
श्रीकृष्णने बगलो गळी गयो त्यारे राम वगेरे बाळको प्राण वगरना देह जेवा बनी गया अथवा प्राण वगरनी इन्द्रियो जेम चेतन वगरनी देखाय तेवा बेभान थई गया ॥३९॥
भगवान्ने बकासुर गळी तो गयो पण एने ताळवामां जेम अग्नि लाग्यो होय तेवो दाह थयो, केमके भगवान् तो जगद्गुरु ब्रह्माजीना पण पिता एटले एनाथी केम गळी शकाय? एमने बकासुरे तरत मोढामान्थी बहार काढी नाख्या. भगवान् अक्षत बहार पधार्या अने तरत *बगलो पण एमने चाञ्चथी प्रहार करवाने तैयार थयो ॥४०॥
विशेष - बकासुर दम्भरूप छे. लोभ अने अनृत रूप एनी बे चाञ्च छे. ए बे चाञ्चने जुदी करी त्यारे दम्भनुं स्वरूप जे वस्तुथी बन्युं हतुं ते सामग्री जतां, ए दम्भ नष्ट थयो. ए जेवो चाञ्च मारवा आव्यो के तरत ज कंसना मित्र बकासुरने बे हाथथी बे चाञ्च पकडीने भक्तवत्सल भगवाने बाळकोनी सामे ज घासना तणखलान्ने चीरीदशमस्कन्ध १०४ नाङ्खे तेम चीरी नाख्यो. आथी देवताओने खूब आनन्द थयो ॥४१॥
देवलोकमां रहेनारा देवो नन्दनवननी अन्दर उत्पन्न थयेलीमल्लिका वगेरेनां पुष्पोवडे बकासुरना वेरी भगवानने ते वखते वधाववा लाग्या, नगारां,शङ्ख वगेरेना ध्वनि करवा लाग्या, भगवान्नी स्तुति करवा लाग्या त्यारे गोपना पुत्रो ए जोई विस्मयपाम्या ॥४२॥
ज्यारे बलराम वगेरे बाळकोए जोयुं के श्रीकृष्ण बगलाना मुखमान्थी मुक्त थईने तेमनी पासे आवी गया छे त्यारे तेमने एटलो बधो आनन्द थयो के जाणे प्राणोना आववाथी इन्द्रियो सचेत अने आनन्दित थई गई होय! बधाए भगवान्ने अलग-अलग आलिङ्गन कर्युं. पछी पोत-पोतानां वाछडां लई बधा व्रजमां आव्या अने त्यां तेमणे पोत-पोताना घरनां माणसो आगळ आ लीलानुं वर्णन कर्युम् ॥४३॥
ए साम्भळी गोपो अने गोपीओ विस्मय पाम्यां. पुनर्जीवन प्राप्त कर्युं होय तेवा श्रीकृष्णने अतृप्त नेत्रोवडे आदरपूर्वक प्रेमवडे जोवा लाग्या ॥४४॥
तेओ एक बीजाने कहेवा लाग्या ‘‘अहो! आ केटला आश्चर्यनी वात छे? आ बाळकने केटलीय वार मृत्युना मुखमां जवुं पड्युं परन्तु जेमणे एनुं अनिष्ट करवा विचार्युं, तेमनुं ज अनिष्ट थयुं कारण के तेमणे पहेलां ज बीजानुं अनिष्ट कर्युं हतुं ॥४५॥
छतां एवा भयङ्कर दैत्यो पण आ बाळकने कांई अनिष्ट करी शक्ता नथी. तेओ मारी नाखवानी इच्छाथी आवे छे पण पतङ्गियां अग्निमां पडी नाश पामे तेम अर्ही आवी बधा मरी जाय छे ॥४६॥
अहो! ब्रह्मने जाणनार गर्गाचार्यनी वाणी कोई दिवस खोटी न ज थाय. गर्गाचार्ये जे प्रमाणे कह्युं हतुं ते ज बधुं आपणे अनुभवीए छीए ॥४७॥
ए प्रमाणे नन्दरायजी वगेरे गोपो श्रीकृष्ण अने बलराम नी कथा कर्या करता. तेओ तेमां एटला तन्मय रहेता के तेमने संसारनी विटम्बणाओनी कंई खबर ज पडती नहि ॥४८॥
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे। निलायनैः सेतुबन्धैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥४९॥
आ प्रमाणे श्याम अने राम क्यारेक सन्ताकूकडी रमता, तो क्यारेक पूल बान्धता.दशमस्कन्ध १०५ क्यारेक वानरोनी माफक कूदाकूद करता तो क्यारेक देडका-दाव रमता. आ प्रमाणे कौमार अवस्थाना विहार करी पोतानी कुमार अवस्था व्रजमां तजी(स्थापी) ॥४९॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो धर्मीरूप सातमो अध्याय अने चालु) ‘‘धर्मिस्वरूपे श्रीनन्दरायजीना निरोधनुं निरूपण’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु (श्रोता) अहि (नाग=कथाकार) मणि (भागवत)अजवाळे, त्यम तें उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे
अध्याय १२
श्रीकृष्णे करेलो अघासुरनो वध प्रक्षिप्त अध्याय १ बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण प्रकरणना अन्तर्गत प्रक्षिप्त त्रण अध्यायमान्नो पहेलो अने सळङ्ग बारमो अध्याय
विशेष - भगवान्नी दरेक कथा श्रवण करवी अथवा कहेवी एवो केटलाकनो आग्रह होय छे तेथी भगवान्नी अलौकिक कथामां बीजा पुराणमां कहेली कथाने पण जोडी दीधी. आधुनिक लोको आ त्रण अध्याय भागवत्ना छे एम कहे छे. शब्द, अर्थ अने सङ्गति नो आमां स्पष्ट विरोध देखाय छे, पण लोकमां ए प्रसिद्धिने पामी गई छे तेथी अर्ही श्रीआचार्यचरणे एनो पण सक्षिम्प्त अर्थ कह्यो छे. ‘‘कौमारं जहतुः’’ अने ‘‘ततश्च पौगण्डवयः’’ ए सन्दर्भ छे तेनी वच्चे आ कथा छे. ‘‘एवं विहारैः पछी ततश्च पौगण्डवयः’’ एम वक्ताए कह्युं होय एम जणातुं नथी. जो एम कहेवानो विचार वक्तानो होय तो आ त्रण अध्यायनी समाप्ति पछी ज ‘कौमार’ त्यागनी वात ते ‘‘पौगण्डे परिकीर्तितम्’’ ए वाक्यथी पूर्वाध्यायमां ए प्राप्त छे. पछी ‘‘पौगण्डवयः श्रितौ’’ इत्यादि कथन पण पूर्वापर विरुद्ध छे, अर्थ वगरनुं [[१०६]] थाय छे. प्रक्षिप्त त्रीजा अध्यायना अन्तमां ‘‘एवं विहारैः कौमारैः’’ ए श्लोक आधुनिक कोई पुस्तकमां लख्यो जणाय छे. भगवत्प्रियाओए लीलानुं अनुकरण कर्युं तेमां आ लीलाओनुं अनुकरण कर्युं जणातुं नथी. तृतीय स्कन्धमां उद्धवजीए, द्वादश स्कन्धमां सूतजीए आ कथा कही नथी. ‘‘न भारती मेङ्ग मृषोपलभ्यते न वै क्वचिन्मे मनसो मृषागतिः। न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे’’ ए ब्रह्माजीना वाक्योनो आ कथाथी विरोध आवे छे. आ ईश्वर छे. एम जे जाणतो होय ते ज जो ईश्वरनी परीक्षा करवा जाय तो ते मोटा अनर्थ रूप थाय छे. वळी ‘‘भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्’’ ए भगवान्नां वाक्योनो पण आ कथाथी विरोध थाय छे. ‘‘तोकेन जीवहरणम्’’ इत्यादि कहेनारने सदा ईश्वरपणाथी जाणनारने भगवल्लीलामां एवुं धाष्टर्य न ज सम्भवे तेथी आ त्रण अध्याय बीजा पुराणना छे छतां कोईने ए कथा ठीक लागतां श्रीभागवत्मां लखी दीधी छे तेथी ए भागवत्मां वञ्चावा लागी, पण उपर बतावेलां कारणोनो विचार करतां ए प्रक्षिप्त छे एम विचारशीलने जणाया वगर नहि रहे. श्रीआचार्यचरणे तो आ अध्यायो प्रसिद्ध होवाथी ज एनुं व्याख्यान कर्युं छे, तेथी ए कथा श्रीभागवत्नी छे एम सिद्ध थतुं नथी. आ त्रण अध्यायमां आ प्रथम अध्यायमां विस्तारथी बाळलीला, अघासुरने मार्यो अने एनी मुक्ति करी एटली वात आवे छे. एटले युक्तिवडे गोपो अघासुरथी मुक्त थया ए वात छे (जीज्ञासुने प्रकाश, योजना वगेरे वाञ्चवा विनन्ति छे). क्वचिद् वनाशाय मनो दधद् व्रजात् प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान् ॥ प्रबोधयन् शृङ्गरवेण चारुणा विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - कोईक दिवस वनमां भोजन करवानुं मन करीने सवारमां ऊठी, मित्रो अने वाछडां ने शिङ्गडाना शब्दवडे जगाडी भगवान् वाछडान्ने आगळ करीने व्रजमान्थी वनमां जवाने नीकळ्या ॥१॥
स्नेहवाळा हजारो बाळको भगवान्नी साथे पोताना सारां शीकां, शृङ्ग, वेणु वगेरे साथे हजारो वाछडां लईने एओने आगळ करी आनन्दथी बहार नीकळ्या ॥२॥
कृष्णनां असङ्ख्य वाछडां छे. तेमनी साथे पोतानां वाछडान्ने भेगां करी तेने चारता जाय छे अने बाळलीलावडे ते-ते स्थळे बाळको गम्मत करता चाले छे ॥३॥
ए बधां घेरथी नीकळ्या त्यारे काच, गुञ्जा, मणि अने सोनाथी भूषित थयादशमस्कन्ध १०७ छे छतां वनमां चाल्या त्यारे फल, कोमलपत्र, फूलना गुच्छ, पुष्प, मोरपीछ अने गैरिक वगेरे धातुओ थी पोताने शणगार्या ॥४॥
कोई बाळक बीजा बाळकनुं शीकुं, तो कोई बीजानी लाकडी के वांसळी सन्ताडता. ज्यारे ए वस्तुना मालिकने खबर पडती त्यारे ते लेवावाळो कोई बीजानी पासे दूर फेङ्की देतो, बीजो त्रीजानी पासे, त्रीजो वळी चोथानी पासे. पछी तेओ हसता अने वस्तु मालिकने पाछी आपी देता ॥५॥
जो वननी शोभाने निरखता कृष्ण दूर नीकळी गया होय तो ‘‘हुं पहेलो पहोञ्चुं, हुं पहेलो पहोञ्चुं’’ एम कही बधा दोडे छे. एम भगवत्स्पर्श करवाने मिषे रमत करे छे ॥६॥
एमां केटलाक वेणु बजावे छे, केटलाक शिङ्गडां फूङ्के छे, केटलाक भ्रमरनी साथे गणगणे छे, त्यारे केटलाक कोकिलानी साथे कूञ्जन करे छे ॥७॥
केटलाक पक्षीनी छाया दोडे छे तेनी साथे दोडे छे. केटलाक हंसनी साथे चाले छे. केटलाक बगलानी पासे आङ्खो बन्ध करी बगलानी जेम बेसी जाय छे. केटलाक मयूरनी साथे-साथे पोते पण नाच करवा लागे छे ॥८॥
कोई-कोई वान्दरानां पूच्छ ताणे छे, तो केटलाक वान्दराओनां बच्चान्ने पकडी झाड उपर चडी जाय छे. एनी सामे दान्तिया करे छे अने वृक्षो उपर कूदका मारे छे ॥९॥
केटलाक देडकानी जेम कूदका मारी चाले छे. केटलाक नदी अने झरणाम्मां डूबकी मारे छे. केटलाक पोतानी छायाने काच, पाणी वगेरेमां जोई एने हसे छे, तो केटलाक पोते बोलेला शब्दोना पडघाने शाप आपे छे (अपशब्दो कहे छे) ॥१०॥
भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी सन्तोनेमाटे स्वयं ब्रह्मानन्दनो मूर्तिमान् अनुभव छे. दास्यभावयुक्त भक्तोनेमाटे एमना आराध्य (सेव्य) देव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर छे अने मायामोहित प्राकृत पुरुषोमाटे मात्र एक मनुष्य बाळक छे. ए ज भगवान्नी साथे ते महान पुण्यशाळी ग्वालबाल जात-जातनी रमतो रमी रह्यां छे ॥११॥
घणा जन्मो सुधी श्रम अने कष्ट सहन करी जेमणे पोतानी इन्द्रियो अने अन्तःकरणने वश करी लीधां छे, ते योगीओने माटे पण भगवान् श्रीकृष्णनां चरणकमलोनी रज अप्राप्य छे. ए ज भगवान् जाते जे व्रजवासी ग्वालबालोनीदशमस्कन्ध १०८ आङ्खोनी सामे बिराजी सदा खेल खेले छे एमना सौभाग्यना महिमानुं शुं वर्णन करवुं? ॥१२॥
बाळकोनी सुखरूप क्रीडाने जोई ए सहन न थतां अघासुर नामनो दैत्य त्यां विघ्न करवामाटे आव्यो. जीववानी इच्छावाळा अमृतपान करनारा देवो पण अघासुर अमने मारी नाखशे एवा भयथी आ अघासुर क्यारे मरे एनी राह जोया करताहता ॥१३॥
ए कंसनी आज्ञाथी आव्यो छे, ते पूतना अने बकासुरनो भाई थाय छे. एणे ज्यारे गोप बाळकोनी साथे कृष्णने जोया त्यारे तेणे विचार कर्यो ‘‘आतो मारा भाई अने बहेन ने मारनार छे, माटे हुं एने एना भाईनी साथेमारीश ॥१४॥
एणे ज्यारे मारा सुहृदोने तिलाञ्जलि (तिलाञ्जलि=तिलोदक=मृत्यु पामेलान्ने अर्पातां तल अने पाणी.) लेता करी दीधा त्यारे व्रजवासीना आ बाळकोने हुं मारीश त्यारे ए बधा व्रजवासी मरी गया समजवा, केमके प्राण गया पछी शरीर रहे ते कांई अपकार न करी शके. तो व्रजवासीओना प्राणरूप आ राम-कृष्णने हुं मारीश तो ए बधा मरी जशे’’ ॥१५॥
एम विचार करी मोटुं चार गाउ लाम्बा पर्वतना जेवुं स्थूल, पर्वतनी गुफा जेवा मोढावाळुं अजगरनुं शरीर धारण करी रस्तामां ए दुष्ट दैत्य एमने गळी जवाना विचारथी सूई गयो ॥१६॥
पृथ्वी उपर तो नीचेनो होठ रह्यो, उपरनो होठ आकाशमां मेघ साथे मेळवी दीधो छे. बे गुफा जेवा मोढानां बे जडबां देखाय छे. पर्वतना शिखर जेवी एना दान्तनी पक्तिं जणाय छे. मुखनी अन्दर घोर अन्धकार हतो. मोटो पहोळो रस्तो होय तेवी एनी जिह्वा देखाय छे. तीखा पवन जेवो श्वास छे, वनना अग्नि जेवां नेत्रो चमकी रह्यां छे ॥१७॥
बाळकोए एवा अघासुरने जोयो तो पण ए भय न पाम्या, पण एने वृन्दावननी शोभा गणवा लाग्या. एने अजगर मुख विकासीने बेठो होय एम रमत करता उत्प्रेक्षाथी वर्णववा लाग्या ॥१८॥
एक बाळके कह्युं - ‘‘हे मित्रो! बोलो, आ कपटी कोई प्राणी जेवुं आपणी आगळ बेसी रह्युं छे ते आपणने गळी जवामाटे, सर्प जेम मुख फाडीने बेसे तेम, बेठेलुं जणाय छे के नहि?’’ ॥१९॥दशमस्कन्ध १०९ बीजाए कह्युं, ‘‘खरी रीते एवुं ज देखाय छे. जुओ, उपरनां भागमां सूर्यनो प्रकाश पडतां मेघ लाल देखाय छे ते, प्राणीना उपला जडबा जेवो देखाय छे अने नीचेनी पृथ्वी नीचेना जडबा (दाढीनी बाजुनो भाग ‘हनु’ शब्दथी ओळखाय छे जेने ‘जडबुं’ पण कहे छे.) जेवी देखाय छे. उपरनो सूर्यनो प्रकाश नीचे जतां एनो अरुण वर्ण मुखनी अन्दरनो भाग होय तेम आपणे मानी शकीए’’ ॥२०॥
त्रीजाए कह्युं - ‘‘डाबी जमणी गुफाओ मुखना बे छेडानी हरिफाई करे छे. वस्तुतः पर्वतनी गुफा ज आपणने एना मुखना छेडा होय एम देखाय छे. मोटा पर्वतना शिखरनी हार जाणे ए प्राणीनी दाढो होय एवी देखाय छे’’ ॥२१॥
चोथाए कह्युं - ‘‘योजन पहोळो आ रस्तो छे ते आपणने ए प्राणीनी जीभ जेवो देखाय छे. ए पर्वतनां शिखरोनी वचमां जणातुं अन्धारुं, एना मोढानी अन्दरनो भाग होय एम देखाय छे’’ ॥२२॥
कोई बीजा ग्वालबाले कह्युं - ‘‘पर्वतमां दावाग्नि थाय त्यारे अनेक प्राणी एमां बळे एनो ऊनो पवन मांसनी गन्धवाळो आवे, तेम आना मुखमान्थी एणे खाधेलां प्राणी उदरमां पाकतां होय एवो मांसनी गन्धवाळो ऊनो पवन आवे छे ते, एनो श्वास आपणे ठरावीए तो खोटुं न गणाय ॥२३॥
आ प्राणी त्यारे आपणने गळी जशे शुं? जो एम करशे तो ए पण कृष्णवडे बक मर्यो तेम मरशे’’ एम वातो करता, भगवान्नुं सुन्दर मुख जोता एक बीजाना हाथमां तालीओ मारता चाल्या ॥२४॥
एम बाळको साची वातनुं खोटानी पेठे वर्णन करे छे. भगवान् तो सर्वना हृदयमां बिराजता होवाथी ‘‘आ राक्षस छे’’ एम जाणी गया. एम भगवान् विचार करे छे के आ खरी वातने खोटी रीते वर्णवे छे माटे ‘‘ए सर्प छे, ते तरफ न जशो’’ एम कहेवा तैयार थाय छे तेटलामां बधा गोवाळिया ए अघासुरना मुखमां दाखल थया, वाछडां पण दाखल थयां. एना मोढामां जतां ज वाछडां अने ग्वालो तो मरी गया ॥२५॥
पण बकना अरि भगवान् हजु बहार छे त्यां सुधी एणे मोढुं बन्ध कर्युं नथी अने मोढुं बन्ध न करे त्यां सुधी वाछडां अने गोवाळियाना शरीरनो उपमर्द न थाय. अने उपमर्द न थाय त्यां सुधी ए जठराग्निथी जीर्ण न थाय, तेथी बकने मारनारनी वाट जोई पोताना प्रिय मर्या छे तेने याद करतो ‘‘ए अन्दर आवे तोदशमस्कन्ध ११० मोढुं बन्ध करुं’’ एवा विचारथी एणे मुखमां गयां तेने कांई कर्युं नहि ॥२६॥
बधान्ने अभयदान करनार श्रीकृष्ण जेने पोताना सिवाय कोई रक्षक नथी तेवां गोप अने वत्सोने पोताना हाथथी दूर गयेल अने मृत्युरूप अघासुरना कोळियारूप थई गयेल जाणी अत्यन्त दया लावी, दैवनी आ विचित्र लीलाथी प्रभु विस्मय पाम्या ॥२७॥
भगवाने विचार कर्यो ‘‘हवे मारे शुं करवुं? आसत्पुरुषो मरे नहि अने आखल जीवे नहि एवुं केम थाय? एनो क्षणमांविचार करीसर्वज्ञ भगवान् पण ए सर्पना मुखमां पेठा ॥२८॥
त्यारे मेघमां छुपायेला देवो हाहाकार करवालाग्या, अघासुरना बान्धवो कंसना पक्षना दैत्यो राजीथया ॥२९॥
कृष्ण तो अन्दर जई, बाळको अने वाछडान्ने चूर्ण करवानो अघासुर प्रयत्न करे ए पहेलां पोते एना गळामां जई स्वरूपने वधारवा लाग्या ॥३०॥
भगवाने अघासुरना गळामां पोतानुं स्वरूप एटलुं मोटुं कर्युं के एनो श्वास लेवानो मार्ग बन्ध थई गयो, नेत्रना डोळा बहार नीकळी गया, आम-तेम आळोटवा लाग्यो. रोकायेलो श्वास आखा शरीरमां भराई गयो अने अन्ते एना प्राण ब्रह्मरन्ध्रने फोडी नीकळी गया ॥३१॥
ते ज मार्गथी प्राणोनी साथे तेनी बधी इन्द्रियो पण बहार नीकळी आवी. ए ज वखते भगवान् मुकुन्दे पोतानी अमृतमय दृष्टिथी मरी गयेला वाछडां अने ग्वाल बाळकोने जीवतां करी दीधां अने बधान्ने साथे लई भगवान् एना मुखमान्थी बहार पधार्या ॥३२॥
एना स्थूल शरीरमान्थी महान अद्भुत ज्योति नीकळी. ते दशे दिशामां प्रकाशती आकाशमां रही. जेवा भगवान् एना मुखमान्थी बहार नीकळ्या के तरत एमनामां बधा देवोना देखतां प्रवेश करी गई ॥३३॥
पोताने माटे भगवाने अघासुरने मार्यो जाणी देवोए भगवान्नी पूजा करी. देवोए पुष्पथी, अप्सराओए नृत्यथी, सारुं गानाराओए गानवडे, वाजां वगाडनाराओए वाद्यविशेषथी, ब्राह्मणोए स्तुतिवडे अने वैष्णव समुदाये जयजयकार बोलावीने भगवान्नी पूजा करी ॥३४॥
ते अद्भुत स्तुतिओ, सुन्दर वाजिन्त्रो, मङ्गलमय गीतो, जयजयकार अनेदशमस्कन्ध १११ आनन्द उत्सवोनो मङ्गलध्वनि ब्रह्मलोकनी पासे पहोञ्ची गयो. ब्रह्माजी आ ध्वनि साम्भळीने एकदम त्यां आव्या. अने भगवान् श्रीकृष्णनो आ महिमा जोई विस्मयपाम्या ॥३५॥
हे राजन्! ए अजगरनुं चामडुं त्यां ज सूकाई गयुं. ते वृन्दावनमां व्रजवासीओने घणा काळ सुधी क्रीडा करवानी (रमवानी) गुफा थई पडी ॥३६॥
भगवाने पोताना ग्वाल-बालोने मृत्युना मुखमान्थी बचाव्या हता अने अघासुरने मुक्तिनुं दान कर्युं हतुं ते लीला भगवाने कुमार अवस्थामां एटले पाञ्चमां वर्षमा करी हतीपरन्तु ग्वाल-बालोए आ लीला पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठ्ठा वर्षमां जोईअने अत्यन्त आश्चर्यचकित थई व्रजमां तेनुं वर्णन कर्युम् ॥३७॥
पापी अघासुर पण भगवान्ना स्पर्थथी पापथी मुक्त थईने असन्तने दुर्लभ भगवत्सारूप्यने प्राप्त थयो. मनुष्यना बाळकनुं नाट्य करवा छतां पर (ब्रह्मादि) अने अवर (आपणा जेवा) ना बनावनार, ब्रह्माजीना पण नियन्ता अने कर्ता भगवान्नुं अघासुरना मोक्षरूप चरित्र ते कांई आश्चर्य करनार नथी ॥३८॥
जेनी मानसी मूर्ति एकवार हृदयमां धारण करी तो ए धारण करनारने भगवद्भक्तना जेवी गतिने आपे छे तो ए नित्य आत्मसुखरूप अने मायाने छोडीने साक्षात् स्वरूप धारीने पधारे तेने हृदयमां धरनारने प्रभु उत्तम गति आपे एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥३९॥
सूतजी बोल्या - हे ब्राह्मणो! ए प्रकारे परीक्षित राजा पोताना रक्षक श्रीकृष्णनुं एवुं विचित्र चरित्र श्रवण करीने एमां एमनुं चित्त चोण्टवाथी ए ज चरित्र फरी शुकदेवजीने पूछवा लाग्या ॥४०॥
राजा बोल्या - हे ब्रह्मन्! कुमार अवस्थामां भगवाने करेल चरित्र बाळकोए पौगण्ड अवस्थामां जाण्युं, ए तो ज्यारे चरित्र थाय त्यारे जणावुं जोईए छतां कौमारचरित्र पौगण्डमां (एक वर्ष पछी) केम जणायुं? ॥४१॥
हे गुरु! महायोगी! मने ए वात जाणवानी बहु आतुरता छे तो आप ए कहो. एमां कांई भगवान्नी माया होवी जोईए; बीजी कोई रीते आ शक्य न बने ॥४२॥
हे गुरुदेव! जो के क्षत्रिय उचित धर्म ब्राह्मण-सेवाथी विमुख होवाथी हुं अपराधी नाममात्रथी क्षत्रिय छुं, तो पण मारुं अहोभाग्य छे के आपनादशमस्कन्ध ११२ मुखारविन्दथी निरन्तर स्रवता परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृतनुं वारंवार पान हुं करी रह्यो छुम् ॥४३॥
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणिः संस्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः ॥ कृच्छ्रात्पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तमम् ॥४४॥
सूतजी बोल्या - एम ज्यारे व्यासजीना पुत्र श्रीशुकदेवजीने पूछ्युं त्यारे एमने भगवान्नुं स्मरण थतां एमनी बधी इन्द्रियो भगवान्मां पहोञ्ची गई. महामहेनते एमने बहारनुं ज्ञान थतां भगवद् भक्तोमां श्रेष्ठमां पण श्रेष्ठ परीक्षितने धीमेथी एमणे कथा कहेवानो प्रारम्भ कर्यो ॥४४॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा-प्रकरणना अन्तमां क्षेपक-प्रक्षिप्त-अध्याय त्रणमान्थी प्रथम अध्याय अने चालु) ‘‘श्रीकृष्णे करेलो अघासुरनो वध’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी(भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट- सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं. (श्रीहरिरायजी)
अध्याय १३
ब्रह्माजीएवाछडांहर्यांअने श्रीकृष्णनी स्तुति करी प्रक्षिप्त अध्याय २ बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण प्रकरणामां प्रक्षिप्त त्रण अध्यायो मान्नो बीजो प्रक्षिप्त अध्याय अने सळङ्ग तेरमो अध्याय. साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ॥ यन्नूतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥१॥
[[११३]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे महाभाग! (महाभागद्गभगवान्ना चरित्रमां ज जेनी बुद्धि स्थिर होय ते.) तमे सारो प्रश्न कर्यो, केमके तमे भक्तोमां श्रेष्ठ छो. आम तो तमने वारंवार भगवान्नी लीला-कथाओ साम्भळवा मळे छे छतां ए विषयमां प्रश्न करीने तमे तेने वधारे सरस अने नवीन बनावी दो छो ॥१॥
भक्तिमान सत्पुरुषोनो आ स्वभाव होय छे के एमनां द्रव्य, वाणी, कान अने मन पण भगवत्परायण होय छे. ए भगवान्नी वातने नवी जेवी हम्मेशा साम्भळे छे. जेम लम्पट पुरुषोने स्त्रीओनी वार्ता क्षणे-क्षणे नवीन लागे छे, एने साम्भळे छे, बीजाने कहे छे, एनी भावना करे छे पण फरक एटलो छे के ए असाधुवार्ता छे ज्यारे आ साधुवार्ताछे ॥२॥
हे राजन्! सावधान थईने साम्भळ; हुं भगवान्नुं गुह्यचरित्र कहुं छुं. प्रिय शिष्यने गुरुओ रहस्यमय वातो पण कहे छे ॥३॥
भगवाने वाछडां अने एना पालक गोप बाळकोने अघासुरना मुखमान्थी बचाव्या पछी एमने श्रीयुमनाजीना काण्ठा उपर लावी भगवान् एमने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥४॥
श्रीभगवान् बोल्या - अहो!आ काण्ठो (पुलिन) बहु सुन्दर छे.आपणी क्रीडाने लायक सम्पत्तिरूप कोमळअने स्वच्छ रेती छे. विकसतां कमळोनी सुगन्धथी खेञ्चाईने आवता भमरा तेम ज बीजां पक्षीओनी ध्वनिना पडघाथी शोभायमान वृक्षोथीआ काण्ठो व्याप्त छे ॥५॥
दिवस घणो चडी गयो छे, भूखपण लागी छे, तो अर्हीज आपणे भोजन करीए. एटलो वखत वाछडां समीपमां जळ पीए अने घासमां धीरे-धीरे चरे ॥६॥
ग्वाल-बालोए एकी स्वरे कह्युं ‘‘बराबर छे, बराबर छे’’ पछी वाछडान्ने जळ पाईने लीला घास उपर एमने छोडी मूकी गोपबाळको पोत-पोतानां शीकां नीचे मूकी भगवान्नी साथे आनन्दथी भोजन करवा लाग्या ॥७॥
जेम कमलनी कर्णिकानी चारे तरफ कमळनी पाङ्खडीओ शोभे छे तेम भगवान्ने वचमां पधरावी बधा मण्डलोनी पक्तिंओ करी एमनी सन्मुखता रहे तेम, चोतरफ बेसी गया. बधां बाळकोनां मुख सुन्दर हतां अने नेत्रो आनन्दथी प्रफुल्लित हतां ॥८॥दशमस्कन्ध ११४ केटलाके पोतानी खावानी चीज पुष्प उपर लीधी, केटलाके कमळदळ उपर लीधी, केटलाके पल्लवने पात्र बनाव्युं, केटलाके फळोने, केटलाके झाडनी छालने, केटलाके शीकान्ने पात्र बनाव्युं, केटलाके पथ्थर उपर राख्युं, एम मनमां आवे तेने भोजनपात्रो कल्पी एना उपर खावानुं लई भोजन करवा लाग्या ॥९॥
परस्पर भोज्यमां पोत-पोतानी रुचि बतावता जाय छे, हसे छे अने हसावे छे; पहेलो भाग भगवान्नो तेमने आपी भगवान्नी कृपाथी अक्षय अन्नवाळा थई प्रभु साथे तेओ भोजन करता हता ॥१०॥
(साक्षात् छाक आरोगता भगवान्ना ध्यान करवा योग्य स्वरूपनुं हवे निरूपण करे छे) भगवान् जो के यज्ञभोक्ता छे, परन्तु हाल तो बाळकना जेवी केलि करे छे. तेथी पोते वेणुने कमरनी फेण्टमां खोसी छे, शिङ्गडुं अने लाकडी काखमां दाब्यां छे, डाबा हाथमां धृतमिश्रित दर्ही भातनो कोळियो राख्यो छे. सन्धाणाने आङ्गळीओ वच्चे राख्यां छे. बधा गोपबालकोनी वचमां रहीने चारे तरफ मण्डळाकारे रहेला बाळकोने विनोदयुक्त वचनोथी हसावता जाय छे. स्वर्गलोकना देवो विमानमान्थी जोई रह्या छे, एम भगवान् भोजन करे छे ॥११॥
हे भारत ! गोपबाळको भगवान्मां मन राखीने भोजन करवा लाग्या त्यां वाछडां घासना लोभमां पडी दूर वनमां चाल्यां गयाम् ॥१२॥
एमने न जोयां तेथी गोपबालकोने भय उत्पन्न थयो त्यारे भयने पण भयङ्कर श्रीकृष्णे एमने कह्युं के मित्रो, तमे जमवुं न छोडो; वाछडान्ने हुं हमणा अर्ही लावुं छुम् ॥१३॥
एम कही पर्वतोनी गुफा, कुञ्जो अने घाटा वनमां पोतानां वाछडान्ने शोधता भगवान् हाथमां भोजननो कोळियो लईने फर्या ॥१४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ बधुं चाले छे ते दरमियान ब्रह्माजी त्यां आव्या अने मनुष्य बाळक देखाता भगवान्नो सुन्दर महिमा (अघासुर चरणमां प्रवेश करी गयो ए) जोईने बीजी रीते भगवान्नो मनोहर महिमा जोवानी इच्छाथी, पहेलां तो वाछडान्ने अने भगवान् श्रीकृष्ण चाल्या गया त्यारे ग्वाल-बालोने पण, बीजे स्थाने लई जई त्यां राखी दीधां. अने पोते अन्तर्धान थई गया. अने भगवान् हवे शुं करे छे ते आकाशमां रहीने जोवा लाग्या. प्रथम अघासुरना मोक्षथी ब्रह्माजीने विस्मय तो थयो ज हतो तेथी एमणे श्रीकृष्णनो विशेष महिमा जोवामाटे आ कार्यदशमस्कन्ध ११५ कर्युम् ॥१५॥
श्रीकृष्णे त्यां वाछडान्ने ते क्यांय जोया नहि, त्यारे पाछा श्रीयमुनाजीना काण्ठा उपर पधार्या. त्यां गोपबाळकोने पण न जोया, त्यारे आपे विचार कर्यो के ए गोपकुमारो पण वाछडान्नी शोधमां गया हशे, एम धारी वनमां फरीफरीने भगवाने बन्नेने खूब शोध्या ॥१६॥
जङ्गलमां क्यांय पण वत्सो अने गोपबालो न जोया त्यारे सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण आ गोपबाल अने वाछडां ने छुपाववानुं काम ब्रह्माजीए कर्युं छे एम तत्काल जाणी गया ॥१७॥
पछी ए वत्सो अने गोपबालोनी माताओने अने ब्रह्माजीने राजी करवामाटे विश्वना कर्ता श्रीकृष्ण पोते ज वाछडां अने गोपबाळको बनी गया, केमके प्रभु कर्तुम्-अकर्तुम्-अन्यथाकर्तुम् समर्थ एवा ईश्वर छे ॥१८॥
ते बालको अने वाछडांओ नी जेटली सङ्ख्या हती, जेवां वाछडां नानां-मोटां शरीरवाळां हतां, जेवा एमना हाथ, पग वगेरे अवयवो हता, जेटलां अने जेवां एमनां लाकडी, शिङ्गडुं, वेणु दल अने शीकां हतां, जेटलां अने जेवां एमनां वस्त्र, घरेणां वगेरे हतां, जेवा एमना स्वभाव, गुणो, नाम, आकृति, उम्मर अने विहार हता ते रूप पोते स्वरूपथी ‘‘सर्वं विष्णुमयं जगत्’’ ए वाणीने सत्य करवामाटे पोते अजन्मा छे छतां सर्वरूप थई गया ॥१९॥
सर्वात्मा भगवान् गायना वाछडांरूप थई गया. गोवाळिया थई वाछडान्ने हाङ्की एमनी साथे आत्मारूपे क्रीडा करता सर्वात्मा भगवाने व्रजमां प्रवेश कर्यो ॥२०॥
हे राजन्! ते-ते वाछडान्ने जुदां लई, ते-ते गोष्ठमां दाखल करी, ते-ते रूप पोते थईने, ते-ते रूपे पोत-पोताना घरमां प्रवेश कर्यो ॥२१॥
ए बाळकोनी माताओ वेणुनो शब्द साम्भळतां ज उभां थई गयां अने पासे उभेला पोताना पुत्रोने बाहुथी आलिङ्गन करीने सुखी थयां. त्यारबाद स्नेहथी, सुधाथी पण मधुर अने आसवथी पण मादक दूधने स्रवतां स्तननुं परब्रह्मने पोताना पुत्र जाणीने पान कराव्युम् ॥२२॥
पछी एमने उबटनो लगावी नवराव्या. पछी चन्दन, अत्तर वगेरे लगावी अलङ्कार, रक्षा, तिलक, वगेरे करी भोजन आप्युं अने लाड कर्यां; बाळकोए पोताना आचरणथी खुश कर्यां. सायङ्काले पण माताओ ए प्रमाणे सेवा करे छे. एम करतान्दशमस्कन्ध ११६ जेटलो वखत लागे तेटलो काळ सूर्य स्थिर रहे छे तेथी ए लोकोना कार्यमां विलम्ब आदि थतो नथी, कारण के ए लक्ष्मीपति छे तेथी कालसम्पत्ति पण एमने वश छे ॥२३॥
गायो ज्यारे गोष्ठमां आवी त्यारे जलदीथी हुङ्कार घोष करी पोतानां वत्सने बोलाव्यां अने वत्सो आव्यां के पोत-पोताना वत्सने धवराववा लागी; वारंवार एने चाटती जाय छे. एना आउमान्थी दूध तो प्रवाहरूपे चाल्युं ज जाय छे ॥२४॥
गायो अने गोपीओ ना प्रथमना बाळकमां मातृभाव हतो तेवो ज रह्यो, पण आ भगवद्रूप बाळक अने तद्रूप वत्समां स्नेहनी वृद्धि जोवामां आवी. छोकराओने अने वाछडान्ने एमनी मातामां जेवो भाव हतो तेवो ज आमां पण थयो, पण प्रथमनामां खरो भाव हतो अने भगवान् बाळक थया त्यारे ए भाव मायाथी थयो छे, एटलो एमां फरक छे ॥२५॥
ए व्रजवासीओने पोताना पुत्रमां स्नेहनी वेल एक वर्ष सुधी वधती ज चाली. ए बेहद वधी गई. जेवी प्रीति पहेलां श्रीकृष्णमां हती तेवी हमणां पोताना पुत्रोमां थई गई अने श्रीकृष्णमां तो पूर्वे हती तेवी ज रही ॥२६॥
भगवान् पोताना आत्माने वत्सरूप अने पालकरूप बनावी वत्स अने पालक पोते बन्या; गोष्ठ अने वन मां एम बे जग्याए पोते स्वरूपथी ज एक वर्ष सुधी क्रीडा करी ॥२७॥
वर्षमां पाञ्च छ दिवस ओछा हता त्यारे एक दिवस वाछडान्ने चारता रामनी साथे श्रीकृष्ण वनमां पधार्या ॥२८॥
गायो गोवर्धन उपर दूर चरती हती. तेओए पोतानां वाछडान्ने घणे दूर व्रजनी पासे चरतां जोया ॥२९॥
वाछडांओने जोतां ज गायोना वात्सल्य-स्नेहमां उभरो आव्यो. तेओ सूध- बूध खोई बेठी अने ग्वालोना रोकवानी कंई परवा न करतां, जे मार्गथी गोवाळो न जई शके ते मार्गथी भाम्भरती खूब झडपथी दोडी. दोडी ए वखते एमना आउमान्थी दूध झरे जतुं हतुं अने एमनी गरदन सङ्कोचाईने शरीरने मळी गई हती. तेओ पूञ्छ अने माथां ऊञ्चा करी घणी झडपथी दोडती हती तेथी एम लागतुं हतुं के एमने बे ज पग छे ॥३०॥
वाछडान्ने मळीने जेमणे धाववानुं छोडी दीधुं हतुं तेवा वाछळान्ने पणदशमस्कन्ध ११७ धवराववा लागी. एनां अङ्गोने जाणे के गळीजतीन होय तेम चाटती पोताना आउमान्थी स्रवतुं दूध पावा लागी ॥३१॥
गोवाळियाओए ए गायोने रोकवानो प्रयास कर्यो. पण ते न रोकाई त्यारे हवे शुं करवुं ए कांई सूझ्झ्????युं नहि तेथी एमने लज्जा आवी. गायो उपर क्रोध पण थयो. तेओ वगर रस्ते चालतां रस्तामां घणो श्रम सहन करीने पण गायो पासे आव्यां, त्यां गायो अने वाछडां नी साथे पोताना बाळकोने गोवाळियाओए जोया ॥३२॥
क्लेश, कोप, लज्जा, मूढता अने महेनत ए पाञ्च क्लेशवाळा छतां पोतानी गायो चाली गई छतां पोताना पुत्रोने जोईने गोपो बधुं भूली गया अने बाळकोने हाथथी उठावी एमने आलिङ्गन करी एमनां मस्तक सूङ्घीने परम आनन्दने प्राप्तथया ॥३३॥
ए समये वृद्ध गोपो पण बाळकोने भेटीने घणा आनन्दमां आवी गया. बाळकोथी छूटा पडतां एमने घणुं दुःख थयुं अने ए याद करतां नेत्रमां आंसु आवी गयाम् ॥३४॥
जेमणे स्तनपान करवुं छोडी दीधुं छे तेवा बाळको उपर क्षण-क्षण प्रत्ये व्रजवासीओनो प्रेम वधतो जतो जोईने एनुं कोई कारण न समजातां बलदेवजी विचारमां पडी गया ॥३५॥
आ केवी अद्भुत वात छे के सर्वना आत्मा वासुदेव होवा छतां मारा सहित व्रजना बालको प्रत्ये प्रेम अपूर्व रीते वधी रह्यो छे ॥३६॥
जो ते कोई माया छे तो ए केवी अने क्यान्थी आवी? ए माया देवनी, मनुष्यनी के आसुर छे? अथवा तो मारा स्वामीनीज ए माया जणाय छे, बीजी न होय. केमके ए मने पण मोह करावे छे. बीजीनो मोह मने सम्भवे नहि ॥३७॥
एम बलभद्रे विचार कर्यो. वत्सो अने पोताना मित्र बाळको ज्ञानदृष्टिथी एमने वैकुण्ठरूप देखाया ॥३८॥
भगवान्ने कहे छे के आपनाथी जुदा आ बाळको देवो छे छतां अत्यारे एवा देखाता नथी. तेम ज आ वत्सो ऋषि रूपे वेदना अर्थरूप दूधने पीनार छे छतां एवा देखाता नथी, पण आप ज सर्वरूपे देखाओ छो तो ‘वेद’ एटले श्रुतिना अभावमां आ जुदाई क्यान्थी आवी? श्रुति तो ज्यारे अभेदभाव थाय छे त्यारे ब्रह्मरूप देखावानुं कहे छे, अने अर्ही तो ए भाव विना ज ब्रह्मभाव सर्वत्र देखायो, एनुन्दशमस्कन्ध ११८ कारण आप बतावो. त्यारे भगवाने पोते ज सर्वरूप थवानुं कारण कह्युं एटले बलदेवजी ए वात जाणी शक्या ॥३९॥
एक वर्ष सुधी सर्वरूप धरी भगवाने क्रीडा करी ते समय ब्रह्माजीने तो एक त्रुटि (चपटी वगाडवामां लागतो समय.) जेटलो थयो, तेटला वखतमां ब्रह्माजी त्यां आवीने जुए छे तो भगवान् सर्वरूप थईने, प्रथम क्रीडा करता हता तेम ज करता एमणे बधाने जोया ॥४०॥
एमणे विचार कर्यो के गोकुलमान्थी जेटलां वाछडां अने बाळको हुं लई गयो छुं तेओने तो में मायालोकमां सुवाडी दीधां छे ते हजु सूता ज छे अने हजु सुधी ते तो मारी मायामान्थी उठ्या ज नथी ॥४१॥
अर्ही आ बीजां देखाय छे ते क्यान्नां छे? आ तो मारी मायामां रहेनारथी जुदां ज जणाय छे. तेओ तो आखुं वर्ष विष्णुनी साथे क्रीडा करे छे, तेथी जुदां ज जणाय छे ॥४२॥
एम ब्रह्माजीए सारी रीते ध्यान कर्युं त्यां तो साचां क्यां अने पाछळथी बनावेलां क्यां एनो निर्णय एमनाथी थई शक्यो नहि ॥४३॥
विश्वने मोह करनार विष्णुने मोह करवा जतां ब्रह्माजी पोते ज मोहमां पडी गया, ए पण पोतानी मायाथी ज पोताने मोह थयो ॥४४॥
अन्धारी रातमां झाकळ देखाय नहि, सूर्यना तेजमां पतङ्गियुं देखाय नहि, तेम ज्यारे पामर पुरुष महापुरुषो उपर पोतानी मायानो प्रयोग करे छे त्यारे ते एमनुं तो कंई बगाडी शक्तो नथी, पोतानो ज प्रभाव खोई बेसे छे ॥४५॥
एम विचारमां पडेला ब्रह्माजीने भगवाने पोतानुं स्वरूप बताव्युं के जेटला बाळको हता ते बधाने ब्रह्माजी मेघ सरखा श्याम जोवा लाग्या. भगवद्रूपे बधा ब्रह्माजीना जोवामां आव्या; पीळां पीताम्बर पहेरेला देखाया ॥४६॥
बधाने चार भुजाओ, तेमां शङ्ख, चक्र, गदा अने पद्म धारण करेला देखाया. दरेकने मस्तक उपर किरीट, कानमां कुण्डळ, गळामां हार अने पुष्पनी माळावाळा ब्रह्माजीए जोया ॥४७॥
एटलुं ज नहि, पण श्रीवत्स जे भगवान्नुं असाधारण चिह्न कहेवाय छे ते पण सर्वना हृदयमां जोवामां आव्युं. बाजुबन्ध, हाथमां पहेरवानां रत्न, शङ्खना जेवा कङ्कण जेमणे हाथमां धारण कर्यां छे; नूपुर, कडां, कन्दोरा अने र्वीटीओथीदशमस्कन्ध ११९ बधा शृङ्गारेला छे तेओने ब्रह्माजीए जोया ॥४८॥
नखथी शिखा सुधीमां सम्पूर्ण शोभावाळा छे, नवी तुलसीनी माळाओ मोटा पुण्यशाळीओए कोमळ तुलसीमान्थी ताजी बनावेली सर्व शरीरमां धरावी छे ॥४९॥
रजोगुण अने सत्वगुण थी उत्पत्ति अने पालन भगवान् करे छे तेम अर्ही रजः अने सत्वरूप चान्दनी जेवा मन्दहासोवडे, अरुण जेवां कटाक्षविलोकनोवडे पोतानां भक्तना मनोरथोने उत्पन्न करता अने एनुं पालन करता जणाया ॥५०॥
पोताना ज जेवा ब्रह्माथी लईने घासना तणखला सुधी जे चराचर जगत् छे तेना आधिदैविक रूपथी ते स्वरूपो, सेवायेल देखाया छे. कोई नृत्यथी तो कोई गीतथी जुदी-जुदी रीते सेवा करी रह्या हता ॥५१॥
अणिमा१ वगेरे आठ ऐश्वर्य अने अजा२ वगेरे विभूति जेनी सेवामां हाजर रहे छे, महद् वगेरे चोवीश तत्वो जे स्वरूपोनी सेवा करी रह्यां छे ॥५२॥
विशेष - १. अणिमादि आठ सिद्धिओ माहात्म्यरूप गणाय छे, एटले सिद्धिवाळानो लोकमां
मोटो महिमा प्रसिद्ध थायछे.
२. अजा वगेरे विभूतिमां पोते गमे ते वखते गमे ते रूप लई शके, बीजानुं रूप बतावी
शके, एवी शक्ति ‘अजा’ कहेवाय छे.
एटलुं ज नहि पण काल स्वभाव कर्म काम गुण वगेरे पोताना महिमाथी
बीजाना माहात्म्यने दूर करीदे एवा छे ते पण प्रभुनी सेवामाटे मूर्ति धारण करीने
सेवा करता देखाया ॥५३॥
सत्य, ज्ञान, अनन्त अने आनन्दमात्र रसात्मक स्वरूप, उपनिषद्ना ज्ञानवाळा पण जेना महिमाने जाणी शक्ता नथी तेवा भगवद्रूप ब्रह्माजीए बधाने जोया ॥५४॥
एम जेनी कान्तिथी स्थावर-जङ्गम बधुं प्रकाशे छे ते एक छे एम ब्रह्माजी जाणे छे छतां अत्यारे इच्छाथी बधाने परमात्मारूपे ब्रह्माजीए एक वखत जोया ॥५५॥
अत्यन्त सन्तोषथी दृष्टि पाछी फेरवी त्यारे एमनी अगियारे इन्द्रियो स्तब्ध थई गई. जेम गामदेवीने बधा लोको पूजे छे, पण एनी पासे लाकडानीदशमस्कन्ध १२० एनी मूर्ति बनावीने मूकी होय तो एने कोई पूजे नहि तेम, भगवान्नी पासे काष्ठ-पूतळी जेवा ब्रह्माजी निष्प्रभ थई गया ॥५६॥
त्यारे भगवाने पोतानुं स्वरूप बताववानुं बन्ध कर्युं. (ए ज कहे छे के)ज्यारे ब्रह्माजी दर्शन करवामां अशक्त थया, एटलुं ज नहि, पण मोहमां पडी गया, त्यारे भगवाने पोतानी मायारूपी चादर एमनी उपर बिछावी दीधी जेनाथी ब्रह्माजीने दर्शन थतुं बन्ध थयुं. भगवान्नुं स्वरूप मायाथी पर होईने केवळ स्वसंवेद्य छे. श्रुति वगेरे माहात्म्यने ‘अतन्निरसन’ थी ‘‘आ नहि, आ नहि’’ एम निषेध मुखथी कहे छे, पण आवुञ्ज ब्रह्म छे एम कही शक्ती नथी. एवा भगवान्नी परीक्षा करवा जतां ब्रह्माजीने मोह अने क्लेश थयो ए योग्य ज थयुम् ॥५७॥
ब्रह्माजीने मूर्छा थई तेमान्थी केटलीक वारे, जेम मृत्युथी बची माणस उभो थाय तेम, ब्रह्माजी महामहेनते आङ्ख खोलीने जुए छे तो आ जगतने एमणे जोयुं ॥५८॥
जलदीथी चारे बाजु जोयुं तो बधी दिशाओ जोई. लोकोनुं जीवन चलावनार एनक वृक्षोथी शोभनार सर्वत्र समताथी प्रीति करतुं वृन्दावन ब्रह्माजीना जोवामां आव्युम् ॥५९॥
त्यां वैरभाव न होवाथी मनुष्यो, मृगो वगेरे साथे ज रहे छे. भगवान्नो निवास त्यां होवाथी जेने रोग (द्वेष), तृष्णा, काम, क्रोध वगेरे न होवाथी ए बधां मित्रताना सम्बन्धथी एक बीजाना भयने छोडीने सर्व साथे वसावावाळां ब्रह्माजीना जोवामां आव्याम् ॥६०॥
ए वृन्दावनमां स्वयं अद्वय ब्रह्म छतां, परमपुरुष छतां, फलआदिना नियामक छतां, गोपालना बालकनुं स्वरूप बतावता, पोताना मित्रो अने वाछडान्ने शोधता, एक वर्षथी पोताना श्रीहस्तमां दर्ही-भातनो कोळीयो रह्यो छे तेवा परमात्मानां ब्रह्माजीने दर्शन थयाम् ॥६१॥
ब्रह्माजी जलदी पोताना विमानमान्थी उतरी गया. सोनानी छडी जेम जमीन उपर पडे तेम भगवान्ने शरीरवडे दण्डवत्प्रणाम कर्या; चारे मुकुटना छेडाथी प्रभुना बे चरणनो स्पर्श करी हर्षना आंसुवडे भगवान्ना चरणनो अभिषेक कर्यो ॥६२॥
पहेलां भगवान्नुं माहात्म्य नजरे जोयुं छे तेनुं स्मरण करी वारंवार ऊठीऊठीने पाछा श्रीकृष्णना चरणमां पडवा लाग्या ॥६३॥दशमस्कन्ध १२१ शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः ॥ कृताञ्जलिः प्रश्रयवान् समाहितः सवेपथुर्गद्गदयैलतेलया ॥६४॥
धीमेथी चरणारविन्दमान्थी उठीने नेत्रने साफ करी डोकने नमावी प्रभुनां दर्शन करी हाथ जोडी विनय राखी चित्त एकाग्र करी ध्रूजता-ध्रूजता गद्गद वाणीवडे ब्रह्माजी स्तुति करवा लाग्या ॥६४॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणना अन्तमां क्षेपक-प्रक्षिप्त-अध्याय त्रणमान्थी बीजो अध्याय अने चालु) ‘‘ब्रह्माजीए वाछडां हर्या अने श्रीकृष्णनी स्तुति करी’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय १४
ब्रह्माजीए भगवान्नी करेली स्तुति प्रक्षिप्त अध्याय ३ बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण प्रकरणमां प्रक्षिप्त त्रण अध्यायोमान्नो त्रीजो प्रक्षिप्त अध्याय अने सळङ्ग चौदमो अध्याय
विशेष - लौकिक प्राकृतभावमां जेने भाव छे ते ज भक्तिवाळो कहेवाय. लौकिक प्राकृतने हीन जाणी अन्यथा वर्ते ते भक्तिमार्गमां अधम छे. तेथी ब्रह्माजीए नन्दरायजीना पुत्रने ईश्वरत्वथी दण्डवत्प्रणाम कर्या. ए भगवान् लोकमां आवी जे स्वीकारे तेनाथी ए पोताना स्वरूपमां निरोध करावे ते ज भक्तोने प्रमाणरूप छे, केमके भक्तोनो अधिकार ज्ञानीओथी जुदो छे(कारिकार्थ). नौमीड्य तेभ्रवपुषे तडिदम्बराय गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय ॥ वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणुलक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाङ्गजाय ॥१॥
[[१२२]] ब्रह्माजीए स्तुति करी - ‘‘हे प्रभो! एक मात्र आप ज स्तुति करवा योग्य छो, तेथी हुं आपनी स्तुति करुं छुं. आपनुं शरीर वर्षाऋतुना मेघना जेवुं श्यामल छे, तेना उपर वीजळी जेवुं पीताम्बर शोभी रह्युं छे, आपना गळामां गुञ्जा (लाल चणोठी) नी माला अने मस्तक उपर मोरनां र्पीछाओनो मुगट शोभी रह्यो छे. आ बधानी कान्तिथी आपना मुख उपर अनोखी छटानी झाङ्खी थाय छे. वक्षःस्थल उपर लटकती वनमाला अने नानकडी हथेली उपर दर्हीभातनो ग्रास (कोळियो), बगलमां छडी (वेत्र) अने शिङ्ग तथा कमर नी फेण्टमां आपनी ओळखाण आपनारी बंसी शोभी रही छे. कमलथी पण कोमळ आपना चरण छे. आवो गोपबालकनो सुमधुर वेष धारण कर्यो छे तेवा प्रभुनी हुं स्तुति करुं छुं अने नमस्कार करुं छुं (मारे माटे तो आ स्वरूप ज फलरूप छे. शास्त्रोमां वर्णवेलां ब्रह्मने हुं ओळखतो नथी. बस, हुं तो आ चरणो उपर ज न्योछावर छुं) ॥१॥
हे देव! ते स्वरूप पञ्चमहाभूतनुं बनेलुं नथी पण आपे आपनी इच्छाथी ज मारा उपर कृपा करवा ते धारण कर्युं छे. शरीरधारी देखाती आपनी मूर्तिनो महिमा हुं ज आन्तर मनवडे नथी जाणतो अने हुं न जाणुं तो बीजो अनुभवैकवेद्य स्वरूपना महिमाने क्यान्थी जाणी शके? ॥२॥
ज्ञानने माटे प्रयत्न करवानुं आप कहो तो ए ज्ञान जीव अने ईश्वर सम्बन्धी एम बे प्रकारनुं छे तेमां जीवस्वरूपनुं ज्ञान आप करावो त्यारे थाय अने ईश्वरसम्बन्धी ज्ञान तो कोईने थतुं नथी. भगवान्ने उपर उपरथी जाण्या तेथी एमने जाण्या छे एम न कही शकाय. भक्तिथी ज्ञान थाय ते पण एमनामां प्रवेशोपयोगी ज्ञान मात्र थाय छे. तेथी ज्ञाननेमाटे श्रम करवो छोडी दईने द्वारका वगेरे स्थान के ज्यां देश दोष लागतो नथी त्यां बेसीने सत्पुरुषोए कहेली आपनी कथा शरीर, वाणी अने मनने तेने अनुकूल करी जे श्रवण करे छे ते प्रथम तो प्रसिद्ध थाय छे अने पछी आप अजित छो छतां ए घणुं करीने *आपने जीती ले छे ॥३॥
विशेष - आ एक मार्ग एवो छे के जेमां एक ठेकाणे रहेवाथी जीविकामां खामी आवती नथी. सत्पुरुषो भगवान्नी आज्ञाथी सर्वत्र फर्या करे छे तेने ए ज कर्तव्य छे के ए ज्यां रहे त्यां भगवद्गुणगान करे ते अनायासे आपणा कान उपर आवे छे. परन्तु काया, वाणी अने मन थी ए वार्ता नमनीय होवी जोईए. ए वार्तामां कह्युं होय तेने अनुसरीने काया, वाणी अने मनने राखवा जोईए, पण एनाथी विरुद्ध वर्तवुं न जोईए; आटलुं ज आ मार्गमां कर्तव्यदशमस्कन्ध १२३ छे. साधनमां जीवन छे अर्थात् मात्र जीवता होवुं ए ज साधन छे, बीजुं कांई कर्तव्य नथी. आ प्रमाणे करे तो ब्रह्माजी कहे छे के हवे पछी थनार जीवोनो निस्तार थाय. मारे माटे तो जे स्वरूपनां दर्शन हुं करी रह्यो छुं ते ज स्वरूप निस्तारक छे. हे विभो! आपनी भक्ति बधी जातना कल्याणनुं मूळ छे. जे लोको तेने छोडी मात्र ज्ञाननी प्राप्तिमाटे महेनत करे छे अने दुःख भोगवे छे, तेमने तो फळरूपे केवळ क्लेश ज प्राप्त थाय छे. बीजुं कंई फळ (सुख) प्राप्त थतुं नथी. जेवी रीते चोखा काढी लीधा पछी बाकी रहेला जाडां फोतरां (भूसुं) खाण्डनारने महेनत-दुःख सिवाय बीजो कोई लाभ प्राप्त थतो नथी अर्थात् चोखा पण मळता नथी ॥४॥
हे व्यापक! हे अच्युत! पहेलां पण घणा योगीओ आपनामां सर्व कर्मोना फळने समर्पण करवारूप कर्मथी अथवा सेवा-कथाथी प्राप्त थयेलभक्तिथीआपना स्वरूपने जाणीने अनायासे परमगतिने पाम्या छे ॥५॥
छतां पण हे भूमन्! आप गुणातीतनो महिमा शुद्ध अन्तःकरणवाळा ज जाणी शके छे, केमके आप विकाररहित स्वानुभवरूप अनन्यबोध्य स्वरूपवाळा छो तेथी मलिन अन्तःकरणवाळा आपना महिमाने जाणी शक्ता नथी ॥६॥
आप लोकहितार्थ अवतार धरी सर्व गुणने स्वीकारो छो त्यारे आपना गुण अनन्त होई कोई ते गणी शक्तुं नथी. बहु समर्थ लोकोए काळे करीने पृथ्वीना परमाणु गण्या हशे, आकाशमां हिमवर्षाना कण गण्या हशे, ज्योतिश्चक्रमां ताराओ गण्या हशे पण आपना गुणोने कोई गणी शक्यो नथी ॥७॥
तेथी जे पुरुष क्षणे-क्षणे आतुरतापूर्वक आपनी कृपानी ज राह जोतो रहे छे अने प्रारब्ध प्रमाणे जे कांई सुख-दुःख आवे ते निर्विकार मनथी भोगवी ले छे तथा जे प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी अने पुलकित शरीरथी पोतानी जातने आपना चरणोमां समर्पित करतो रहे छे ते जेवी रीते पुत्र पितानी सम्पत्तिनो मालिक बने छे तेम मुक्तिनो अधिकारी बनी जाय छे ॥८॥
हे ईश! मारी दुष्टता तो आप जुओ के अनन्त अने अनादि, पूर्व-उत्तरअवधि रहित, मायावीमां पण माया फेलावनार एवा आपनो वैभव जोवाने माटे मारी माया में आपना उपर फेलावी, पण अग्निनी पासे एनी एक चिनगारीनो जेम हिसाब नथी तेम, आपने मारी माया शुं करी शके? हुं आपनी पासे शुं हिसाबमां? ॥९॥दशमस्कन्ध १२४ माटे हे अच्युत! रजोगुणथी जन्मेलो हुं आपने जाणतो न होत अने हुं ज ईश छुं एम में मानी लीधुं. ते मारो अपराध आप क्षमा करो. मारो जन्म नथी तेथी हुं ‘अज’ छुं एवो मने गर्व थयो. एनाथी मारुं ज्ञान मार्युं गयुं तेथी में अपराध कर्यो, पण ‘‘आ ब्रह्मा मारावडे नाथवाळो छे, माटे दया करवा लायक छे’’ एम जाणी आप मने मारा दोषनी माफी आपो ॥१०॥
प्रकृति, महत्तत्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि एवा आठ आवरणयुक्त आ ब्रह्माण्डरूप घडामां सातवेन्तना शरीरवाळो हुं क्यां अने जाळियाना तेजमां परमाणुं ऊडे छे तेवां अनेक ब्रह्माण्डो जेना रोमकूपमां ऊडे छे तेवा आपनी मोटाई क्यां? माटे मारो अपराध आपे ध्यानमां लेवा योग्य नथी ॥११॥
हे अधोक्षज! माताना गर्भमां बाळक होय ते पग ऊञ्चो करे अने माताने दुःख थाय तेथी माताए गर्भस्थ बाळक उपर कोप करती नथी के एनो अपराध मानती नथी, तो जेने भाव अने अभाव शब्दथी कहेवाय छे तेवुं जगत आपना उदरमां शुं नथी? तेथी ए सर्वमां हुं आव्यो अने मारो अपराध पण ए बाळकना जेवो ते आपे विचारवा योग्यनथी ॥१२॥
श्रुतिओ कहे छे के जे वखते त्रणेय लोक प्रलयकालीन जळमां डूबेला हता, ते वखते ते जळमां बिराजता श्रीनारायणना नाभिकमलमान्थी ब्रह्मानो जन्म थयो. एमनुं ए कहेवुं कोईरीते असत्य थई शक्तुं नथी. पण आपथी हुं थयो ए वात, हे ईश्वर! तेथी मिथ्या ठरती नथी ॥१३॥
आप सर्वलोकना अधीश्वर आत्मा अने साक्षी छो तेथी आप *नारायण छो. ‘‘नरथी उत्पन्न थयेल जळ जेनुं स्थान छे’’ एवी ‘नारायण’नी व्युत्पत्ति करे छे ते नारायण आपनो अवतार छे. ए जळनुं आधारपणुं सत्य नथी, पण आपनी माया छे ॥१४॥
विशेष - ‘‘नारं जीवसमूहः तद् अयनं यस्य’’ एवो अर्थ करीए तो सर्वना आत्मा छो तेथी नारायण छो. आत्मा सर्व भूतमां रहे छे. ‘‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’’ ए एमां प्रमाण छे. ‘‘नारमयते प्रेरयति इति नारायणः’’ आ पक्षमां ‘प्रेरक’ एटले ए जीवसमूह उपर सत्ता चलावनार होवाथी आप नारायण छो. ‘‘नराज् जातानि तत्वानि नाराणीति विदुर्बुधाः, तेषाम् अधीश्वरः साक्षात् नारायण इति स्मृतः’’ ए वाक्य अर्ही प्रमाणरूप छे. ‘‘नारं जीवसमूहम् अयतेदशमस्कन्ध १२५ जानातीति नारायणः’’ ए अर्थमां आप अखिल लोकना साक्षी होवाथी नारायण छो. अर्ही शङ्का करे के ए नारायण कहेवानुं अत्रे तात्पर्य नथी, पण ‘‘आपो नरा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः, अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः’’. ‘नर’ एटले जळथी उत्पन्न थयेल, जळमां स्थान होवाथी नारायण छे एवो अर्थ अर्ही इष्ट छे. एम कहे तो कहे छे के नरथी थयेल जळमां रहेनार नारायण ए आपनो अवतार छे, केमके आप पुरुषरूप छो. ‘‘पुरुषो ह वै नारायणः अकामयत’’ एम श्रुति कहे छे. ‘‘विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः, प्रथमं महतः स्रष्ट्ट द्वितीयं त्वण्डसंश्रितम्, तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते’’ एवुं वाक्य छे. खरी रीते नारायणनी आवी व्युत्पत्ति करवी योग्य नथी, केमके जळ स्थितिप्रदर्शनार्थ छे, तेथी जळप्रदर्शन ए आपनी माया छे. ए जळमां रहेलुं आपनुं रूप साचुं होय तो ए में केम जोयुं नहि अने ए ज वखते हृदयमां जळ न हतुं तो पण आपनुं स्वरूप त्यां में सारी रीते केम जोयुं? तेथी जळमां स्थिति नारायण शब्दनी प्रवृत्तिमां प्रयोजिका नथी. हुं जो जळमां रहेनारनो पुत्र होउं तो पितानुं रूप पुत्र प्रत्यक्ष जोई शके, माटे ए में जोयुं नहि, तेथी ए नारायण नहि, पण आपज नारायण छो. सर्व जगतना आधार आप छो ॥१५॥
हे मायानो नाश करनार प्रभु! आ अवतारमां बहार देखातो प्रपञ्च सर्व आपना उदरमां बतावीने एने मायिकपणुं छे एम तो आपे माता यशोदाजीने श्रीमुखमां ब्रह्माण्ड बतावी सिद्ध करी आप्युं छे. माताने बताव्यो ए प्रपञ्च आपना स्वरूपमां होवाथी साचो छे, एम पण सिद्ध थयुं; एटले भगवान्ना स्वरूपनी मायिक्ता पण एनाथी दूर थई गई. आप जेना आधार नथी ते मायिक छे ॥१६॥
नारायणना उदरमां आत्मासहित जे जगत् देखाय छे ते जगत् आपना आत्मामां आपे माताने बताव्युं तेथी पण आप ज नारायण छो. एमां जे भेद, उलटी प्रतीति, परिच्छेद वगेरे देखाय छे ते आपनी मायाथी देखाय छे ॥१७॥
आपना विना प्रपञ्चनी जुदी रीते सत्ता नथी एम बताववामाटे मने आजे आपे माया बतावी. भगवान् विनानुं जगत् छे एम कहेनारने भ्रान्ति छे एम आजे आपे बतावी आप्युं, कारण के सर्वरूप आजे आप ज थया छो. ज्यारे में वाछडां अने बाळकने हर्यां त्यारे ए वत्सरूप अने बाळकरूप आप थया. त्यार पछीदशमस्कन्ध १२६ सर्व ब्रह्माण्डरूप पण आप देखाया. पछी बधा चतुर्भुज रूपे देखाया ए पण ब्रह्मादितृणस्तम्बथी सेवाता देखाया; ते-ते जगतरूप आप थया; तेथी आप ज अद्वय ब्रह्मरूप छो. सर्वरूपे थाओ अने एकरूपे थाओ एमां बीजी कोई वस्तु नथी तेथी आप ज नारायण छो ॥१८॥
आप स्वामी अने हुं सेवक छुं, तेथी एकवार मारो अपराध क्षमा करो. (एम कहेवामाटे दश श्लोकथी तत्वनुं वर्णन करे छे के) आपना मार्गने न जाणे पण केवळ तत्वने जाणनार छे ए अनात्मा देहमां आत्मा छे एम कहे छे एम केम सम्भवे? (त्यां कहे छे के) जेम जगतनुं विधान करनार आप छो छतां विष्णुमां रक्षकत्वनो आरोप करे छे, आ शिवजीमां संहारनो आरोप मात्र छे; खरी रीते तो ‘‘जन्माद्यस्य यतः’’, ‘‘यतो वा इमानि’’ इत्यादि श्रुतिथी सर्व आप छो एम ए मायामां मोहित थईने तत्वमां आपनो आरोप करी तत्वमां कर्तृत्व माने छे एने पण आपना चरणनी कृपाथीज तत्वथी खरुं रूप जणाय छे ॥१९॥
देवोमां वामनरूपे, ऋषिमां परशुरामरूपे, मनुष्यमां रामरूपे, पशुमां वराहरूपे, जळ-जन्तुमां मत्स्य-कच्छप रूपे, आप अजन्मा छतां जन्म लो छो; ए सत्पुरुषना अनुग्रहमाटे अने दुष्टना दुर्मदनो नाश करवामाटे जन्म ग्रहण करो छो ॥२०॥
हे भूमन्! हे भगवन्! हे परमात्मन्! हे योगेश्वर! तत्व तो भगवान् अने भगवल्लीला छे. ए आपनी लीलाने त्रण लोकमां कोण जाणी शके एम छे के कई जग्याए, केवी रीते, क्या प्रकारे आप शुं करवाना छो? कारण के आप योगमायानो विस्तार करीने क्रीडा करो छो ॥२१॥
एम देहमां आत्मभावने आप दूर करावो तेम ज प्रपञ्चनुं मिथ्यापणुं अने आपनाथी ए जुदो छे छतां एनुं मिथ्यापणुं आप छोडावो त्यारे तेनी सत्यता स्फुरे छे. (ए वात कहे छे के) आ बधुं जगत् बहिर्मुखना स्वरूप जेवुं छे. बहिर्मुख सन्मार्गनो प्रतिबन्धक छे, एमां ममता राखे तो भगवान्थी विमुख करे, तेम आ प्रपञ्च स्वरूपथी पण उदय-अस्तमय छे. स्वप्न जेवो छे ए ज्ञाननो प्रतिबन्धक छे. स्वप्नमां बुद्धिनो अस्त थाय छे. वळी क्लेशरूप पण प्रपञ्च छे, तेथी बहु दुःखरूप कह्यो छे. परन्तु ए आपने माटे सत् जेवो देखाय छे. जेम सत् नारदादि छे, तेम घटादि पदार्थ पण आपनी सेवाने माटे सत् छे. आप नित्य सुखबोध तनुदशमस्कन्ध १२७ अने अनन्त छो तेथी दुःखरूप छतां आपना सम्बन्धथी सुखरूप, अस्तधीषण छतां आप बोधतनु होवाथी ज्ञानरूप, अनित्य छतां आप अनन्त होवाथी नित्यरूप छो, तेथी सर्व जगत् आपना सम्बन्धथी सारुं, नहि तो विपरीत छे ॥२२॥
(जगतनुं तत्व कही हवे भगवत्तत्व कहे छे के) आप एक छो, सजातीय विजातीय स्वगतभेद शून्य छो, पछी आप ‘आत्मा’ एटले जीवरूप, अन्तर्यामीरूप, विभूतिरूप एम त्रण प्रकारे थाओ छो. अथवा ब्रह्मवादमां एकरूपे, योगमां आत्मारूपे, साङ्ख्यमां पुरुषरूपे, वैष्णवशास्त्रमां पुराणरूपे, पाशुपातमां सत्यरूपे, ‘‘सच्च त्यच्च’’ ए भेद लईए तो जगतरूपे, एम पाञ्च मतमां पाञ्च प्रकारे जणाओ छो. आप सत्य, स्वप्रकाश, अनन्त, आद्य अने नित्य एम प्रपञ्चरूप छतां एना असत्य आद्यन्त अनित्यादि दोष आपनामां नथी. प्रपञ्च आपना रूपथी थाय माटे एमां पण नथी. (हवे भगवान्नां बीजां रूप कहे छे) शब्द ब्रह्मरूप अक्षरब्रह्मरूप प्रकृतिपुरुष कारणरूप तेथी ज्ञाननो विषय पण आप थई शको छो. मोक्षरूप आप छो, केमके अजस्रसुख छो. सुषुप्तिमां सुख अज्ञानयुक्त छे तेनी निवृत्तिमाटे आप निरन्जन छो, अविद्याना सम्बन्धरहित छो. (एम सोळ
विशेषणथी सोळ कळायुक्त नारायण आप छो, एम सिद्ध कर्युं) ॥२३॥
आ प्रकारनुं आपनुं स्वरूप जे सकळ आत्मानुं पण आत्मरूप छे. हुं ज भगवान् छुं एमां गुरु सूर्यरूप, ज्ञान साधनरूप अने उपनिषद् नेत्ररूप थईने ‘‘हुं ब्रह्म छुं’’ एम जाणे छे. भवरूप अनृतना सागरने तरे छे, पण सर्व ब्रह्म छे एम जाणे तो-तो सर्वने तरे; अने हुं ब्रह्म छुं एम जाणे एने तो जे पोताना मोहथी हुं अने मारुं एम कही जे खोटो संसार कर्यो ते तरवो भारे थई पडे छे. (तेथी मूळमां तरन्तीव एम त्यां ईव शब्द कह्यो छे) केमके दोषनो आधार देह ते एनाथी तरातो नथी. ‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’ कहेनारनो अन्तर्दोष निवृत्त थाय छे, पण देह, इन्द्रिय अने विषय ना दोषो निवृत्त थता नथी. तेथी ‘अनृताम्बुधि’ तर्यो तो पण न तर्या जेवो थाय छे ॥२४॥
उपर कह्या ते आत्माने ज आत्मरूपे माने छे एना भ्रमथी बीजुं बधुं एणे कल्पित कर्युं छे तेमां केवळ आत्माने जाणे एटला अंशमां एने एक्ता थाय, पण बीजुं पोते कृतिथी सिद्ध कर्युं छे तेनो लय थतो नथी. (एम दृष्टान्त कहे छे के) दोरडामां सर्प देखाय तेने कोई दोरडानुं ज्ञान करावे तो आ सर्पनुं शरीर नथी एम तोदशमस्कन्ध १२८ ज्ञान थाय, पण आ दोरडुं छे एनी निवृत्ति थती नथी, तेम स्वबुद्धिकल्पितनो नाश थाय पण जगतनो नाश न थाय. एम पोते करेलनो पण नाश न थाय. बुद्धिकल्पित दोरडामां सर्प हतो ए ‘‘नायं सर्पः’’ (आ सर्प नथी) तेम तो ज्ञान थयुं, पण सर्प खरो छे एनो तो भय एने जतो ज नथी. तेथी अज्ञानथी मान्युं होय ए निवृत्त थाय छे. बीजानो नाश थतो नथी. तेनाथी मात्र ‘हुं’, ‘मारुं’ अभिमान ज दूर थाय छे, बीजा कोई पदार्थनो नाश थतो नथी ॥२५॥
खरी रीते जोईए तो ‘‘हुं मुक्त छुं, ब्रह्म छुं’’ ए पण एक अज्ञाननुं ज कार्य छे, केमके सूतेलो माणस स्वप्नमां ऊठीने भोजन करतो होय ते कहे के ‘‘में ऊठीने भोजन कर्युं’’ ए अज्ञान ज छे; खरी रीते ते उठ्यो ज नथी; तेम भगवत् शक्तिरूप अज्ञाननी निवृत्ति न थाय त्यां सुधी एनो परमार्थथी मोक्ष पण सम्भवे नहि, केमके आप ऋतज्ञभाव (सत्यज्ञान) रूप छो. मोक्ष तो ऋतज्ञानरूप छे, अनृतज्ञानरूप नथी. (भगवान्नी ज्ञान शक्तिथी मोक्ष थाय छे एम एकादशमां भगवान् कहे छे) भगवान् नित्य चिदानन्दरूप छे; एमां अज्ञानकृत प्रपञ्च अने एना ज्ञाननो अभाव होवाथी जीवना अज्ञानकृत ज्ञानथी ए भगवान्मां एनुं सायुज्य केम सम्भवे? तेथी ज आप केवल छो एम कह्युं छे. वळी ए पर पण छे, नियामक छे, जीव नियम्य छे. नियम्य नियामकनी आज्ञा विना एमां दाखल थई शके नहि तेथी जीवने ब्रह्म कहेनारनो मोक्ष थतो नथी. (एमां दृष्टान्त कहे छे के) रात अने दिवस ए सूर्यनी अपेक्षाए कहेवाय छे. जो एम न मानो तो आङ्ख र्मीचो एटले रात अने आङ्ख खोलो त्यारे दिवस थई जाय. पण एम थतुं नथी. माटे खण्डाद्वैतज्ञानीओनी ‘‘अमे ब्रह्मरूप छीए’’ ए भ्रान्ति छे ॥२६॥
आप कृष्णरूप परमात्मा छो, तेमने तो ए आत्माथी जुदा माने छे अने भावनाथी हृदयमां स्फुरता साङ्ख्यादिमां कहेला आत्माने परमात्मा मानी सन्यास ग्रहण करी बहार शोधवा नीकळे छे ए अज्ञजनोनी अज्ञानता ज छे ॥२७॥
हे अनन्त! अन्तःकरणमां, हृदयाकाशमां जे आपने शोधे छे ते सारा छे, केमके ए एतत् ने छोडे छे. तत् भगवच्चिन्तन, ए जेमां न होय तेवां साधनने छोडनार ए ‘अतत्यज’ कहेवाय छे. भगवान्ना चिन्तनथी विरुद्ध होय तेने छोडनार सत्पुरुष कहेवाय. जो सर्प जगतमां होय ज नहि तो पासे पडेला दोरडान्ने कोई सर्प जाणे खरो? माटे भ्रमथी जणाता भावने छोडी हृदयमां विद्यमानदशमस्कन्ध १२९ भगवान्नी भावना करवी ए कहेवानो तात्पर्यनो अर्थ छे ॥२८॥
जो के भगवान्नी अन्तःकरणमां एम भावना करवी योग्य छे, पण भजनमार्ग अने भगवत् शास्त्र वगर केवळ चिन्तन भगवान्ना प्रादुर्भावमां समर्थ थतुं नथी (एथी कहे छे के) हे देव! तमारा बेउ चरणनी कृपाना लेशवडे अनुग्रहवाळो ज आपना महिमाने जाणी शके छे. ए कृपा सिवायनो एक जण घणा काळ सुधी चिन्तन करे तो पण आपना महिमाने जाणी शक्तो नथी ॥२९॥
तेथी भगवन्मार्गवडे भगवान् सेववा जोईए. तेथी ज मारो भगवद् भक्तोमां जन्म थाओ एवी ब्रह्माजी प्रार्थना करे छे. मारो जन्म आ गोकुळमां अथवा अन्यत्र केवळ माणसमां ज नहि पण पशुमां पण भले थाय, एने हुं मोटा भाग्यवाळो समजीश, जे जन्मवडे हुं पण आपनी सेवा करवामां एक थईने आपना चरणपल्लवने सेवुं. जो सजातीयमां जन्म थाय तो सेवा थई शके. भक्त विजातीयनी साथे बेसी भजन करता नथी ॥३०॥
(एम पोते प्रार्थना करी गोकुळवासीना भाग्यनुं अभिनन्दन करे छे) अहो! आ व्रजनी गायो अने रमणीओ ने धन्य छे के जेओनुं स्तनपान आपे वत्सरूपे अने गोपबालकरूपे कर्युं छे. आपने तृप्त करवाने आजसुधी यज्ञो पण समर्थ थई शक्या नथी एवा आपने गायो अने व्रज रमणीओए दूध आपी तृप्त कर्या ए माटे एमने धन्यवाद घटे छे ॥३१॥
नन्दरायजी, गोपो अने व्रजवासीओ ना भाग्यने धन्य छे. हकीकतमां तेओनुं अहोभाग्य छे कारण के परमानन्दस्वरूप, सनातन, पूर्ण ब्रह्म पोते एमना मित्र थया ॥३२॥
हे अच्युत! आ व्रजवासीओना सौभाग्यनो महिमा तो अलग रह्यो, मन वगेरे अगियार इन्द्रियोना अधिष्ठातृ देवताओना रूपमां रहेनारा महादेव आदि अमे देवो खूब ज भाग्यशाळी छीए, कारण के आ व्रजवासीओना मन वगेरे अगियार इन्द्रियोने प्याला बनावी अमे आपना चरणकमलोना अमृतथी पण मीठा, मदिराथी पण मादक मधुर मकरन्द रसनुं पान करता रहीए छीए. ज्यारे तेनुं एक-एक इन्द्रियथी पान करी अमे धन्य-धन्य थई रह्या छीए तो बधी ज इन्द्रियोथी तेनुं सेवन करनारा व्रजवासीओना सौभाग्यनी तो वातो ज शी करवी? ॥३३॥दशमस्कन्ध १३० आ गोकुलमां निरर्थक (कोई मामूली) जन्म थाय तो पण मोटुं भाग्य समजवुं, केमके आपना चरणनी रजनो एना उपर अभिषेक थाय. वळी आ गोकुलवासीओनुं जीवन समग्र भगवद्रूप छे, भगवदर्थ छे, साक्षात्परम्परावडे तात्पर्य भगवान्मां छे. एनां चरणरज पण भाग्यरूप ज छे. भगवान्ना चरणनी रज अनादिकालथी आज सुधी श्रुतिओ शोधती ज रही छे पण तेने प्राप्त करी शकी नथी. ‘‘ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा, तद्विष्णोः परमं पदम्’’ एम पदनी प्रशंसा करे छे. एने चरणरज प्राप्त थई गई होत तो एने लईने कृतार्थ थई जात, पछी ए प्रशंसा करवानुं प्रयोजन रहेतुं नथी ॥३४॥
आ व्रजवासीओने, हे देव! आप शुं फळ आपशो, एनो अमारा चित्तमां विचार आवतां आप विश्वना फलरूप छो तेमनाथी बीजे अमारुं चित्त जतां मूञ्झाय छे. जे पूतना यशोदाजीनो वेष मात्र लईने माता स्वरूपे आपने द्वेषभावथी आवीने मळी तेने अने बक, अघासुर, वगेरे एना भाई सुद्धान्ने आपे आपना स्वरूपनुं दान कर्युं, तो पछी जेमणे घर, पैसा, सुहृद, प्रिय पदार्थो, देह, पुत्र, इन्द्रियो, अन्तःकरण वगेरे आपने अर्पण कर्यां छे तेमने आप शुं फळ आपशो? ॥३५॥
(कदाच भगवान् कहे छे के पूतनाने मारीने मुक्त करी त्यारे भक्तोने जीवता मुक्त करीश, तो त्यां कहे छे के) हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्यामसुन्दर! ज्यां सुधी जीवो आपना सेवक थई जता नथी त्यां सुधी ज राग, द्वेष वगेरे चोर थई विवेक, धैर्यने चोरी जाय छे; त्यां सुधी ज घर केदखानुं थई बन्धनकारक बने छे; त्यां सुधी ज पुत्र वगेरेमां मोह पगमान्नी बेडीनी गरज सारे छे. (जे त्रणेय सेवोपयोगी अने शास्त्रोनी दृष्टिए पण अभिलाषा करवा जेवां थई जाय छे) ॥३६॥
हे प्रभो! शरणागत जनताना आनन्द समुदायने वधारवामाटे आप स्वयं निष्प्रपञ्च छो छतां प्रपञ्चनुं अनुकरण करो छो ॥३७॥
(आनन्दसन्दोहनी वृद्धि तो ज्ञानथी पण प्रभु करी शके तो प्रपञ्चनुं अनुकरण करवानी भगवान्ने शी जरूर होय एवी शङ्काना उत्तरमां कहे छे के) ज्ञाननी वात तो ज्ञानीओ जाणे. खरी रीते तो ज्ञान स्वप्नबोधकरूप छे माटे ए भ्रान्त छे. (वादी शङ्का करे के एम तमने लागतुं होय तो ज्ञानमतने तमारे दूषण आपवुं जोईए, पण वगर दूषणे एनी अवज्ञा न करवी जोईए. त्यां कहे छे के) मारे वधारे बोलीने अर्ही कांई करवानी जरूर नथी; थोडी वातमां ज कहुं छुं. आपनुं स्वरूप मन, वाणी अने शरीरथी न कहीदशमस्कन्ध १३१ शकाय तेम आपनो वैभव पण मन अने वाणी नो विषय नथी. अथवा वाणी, मन अने शरीर नो वैभव बीजे काम आपे छे पण आपने जाणवाने असमर्थ छे ॥३८॥
हे श्यामसुन्दर! आप ज जगतना नाथ छो पण आपे मने सोम्पेल जगतनो अधिकार सचवाय माटे मने (गोप बाळको वगेरेने लई आववानी) रजा आपो. आप बधुं जाणो छो केमके आप सर्वज्ञ छो ॥३९॥
हे कृष्ण! वृष्णिकुळरूप कमळना विकासक सूर्यरूप, पृथ्वी-देव-ब्राह्मण-पशुरूप, समुद्रने चन्द्रनी पेठे वधारनार, पाखण्डरूप अन्धकारने दूर करवामां अग्निरूप अने पृथ्वीमां राक्षसरूपे अवतरेला क्षत्रियोनो नाश करवामाटे अवतार धरनार, आप सूर्यथी लईने सर्वने पूज्य होवाथी हुं आपने मारा समग्र जीवन पर्यन्त, (महाकल्प पर्यन्त) नमस्कार करतो रहुं’’ ॥४०॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भूमा भगवान्नी ए प्रकारे स्तुति करी त्रण परिक्रमा करी, पोताने इच्छित भगवान्ने नमस्कार करी जगतना बनावनार ब्रह्माजी पोताना धाम तरफ गया ॥४१॥
ब्रह्माजी घेर जई गोपबाळको अने वाछडान्ने लावे ते पहेलां ज ए बाळक अने वाछडान्ने भगवान् पाछा काण्ठा उपर लाव्या, ए पण प्रथम जेम लाव्या हता अने जे स्थाने रहेला मित्रो बेठेला हता ते ज काण्ठा उपर पहोञ्चाड्या अने पहेलां जेम बेठा हता ते ज प्रमाणे गोठवी दीधा ॥४२॥
वत्सो अने बाळको ने पोताना प्राणेशनो वियोग एक वर्षथी थयो छे तेनो वियोग क्षणभरनो होय छतां कोटिकल्प जेवो थवो जोईए, छतां अर्ही तो बधा कृष्णनी मायामां मोहित थयेला होवाथी ते समय अडधी क्षण जेटलो ज लाग्यो ॥४३॥
जगतनां बधा जीवो ते ज मायाथी मोहित थई जई शास्त्र अने आचार्यो ना वारंवार समजाववा छतां पोताना आत्माने निरन्तर भूलेला छे, वास्तवमां ते मायानी शक्ति ज एवी छे जेनाथी मोहित थईने जीवो, अर्ही शुं शुं नथी भूली जतां? ॥४४॥
बाळकोए मित्र श्रीकृष्णने कह्युं के आप बहु जलदी आवी पहोञ्च्या ए घणुं सारुं थयुं. अमे आपना गया पछी एक कोळियो पण खाधो नथी. आप सारी रीतेदशमस्कन्ध १३२ आवी अमारी साथे बेसो एटले आपणे साथे ज आनन्दथी भोजन करीए ॥४५॥
त्यारे इन्द्रियोना नियामक भगवान् जरा हसीने बाळको साथे भोजन करी पेलुं अजगरनुं चर्म सुकाई गयुं हतुं ते गोपबाळकोने बतावता वनमान्थी व्रजमां पधार्या ॥४६॥
श्रीकृष्णना मस्तक उपर मोरर्पीछनो मनोहर मुगट शोभे छे, वाङ्कडिया केशमां सुन्दर-सुन्दर मघमघतां पुष्पो गून्थेलां छे. वननी रङ्गीन धातुओथी श्यामशरीर पर चित्रकारी करेली छे. खभे नोझणुं नाखेलुं छे. चालतां-चालतां रस्तामां क्यारेक वेणु, क्यारेक पिपूडी तो क्यारेक र्शीग वगाडी वाद्योत्सवमां मग्न थई रह्या छे. पाछळ ग्वालबालो एमनी लोकपावन कीर्तिनुं गान करता जई रह्या छे. क्यारेक वाछडांओने डचकारे छे, मार्गनी बन्ने बाजुए गोपीजनो ऊभां छे, ज्यारे ते क्यारेक तिरछी आङ्खोथी तेमनी नजरमां नजर मिलावी दे छे त्यारे गोपीओ आनन्दमुग्ध बनी जाय छे. आ प्रमाणे श्रीकृष्णे व्रजमां प्रवेश कर्यो ॥४७॥
‘‘आ यशोदानन्दजीना पुत्रे आजे गोचारण करतां वनमां मोटा अजगरने मार्यो अने अमारा बधानी रक्षा करी’’ आम बाळकोए व्रजमां कह्युम् ॥४८॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - हे ब्रह्मन्! कृष्ण तो पराया पुत्र हता तो ए कृष्णमां आटलो बधो प्रेम गोप-गोपीओने केम थयो के जेटलो प्रेम पोताना शरीरथी पेदा थयेल बाळको उपर पण पहेलां न हतो? ते कहो ॥४९॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजन्! सर्वप्राणीने स्नेह तो पोताना आत्मामां ज होय छे. आत्माथी जुदो, छोकरां, पैसा वगेरेमां स्नेह देखाय छे ते आत्माने लईने देखाय छे ॥५०॥
माटे हे राजेन्द्र! प्राणधारी मनुष्यने पोत-पोताना देह उपर स्नेह होय छे तेवो ममताना विषय पुत्र, धन, घर वगेरेमां नथी होतो ॥५१॥
हे नृपश्रेष्ठ! देहने ज आत्मा माननारने पण जेवो देह प्रिय लागे छे तेवा प्रिय, देहना सम्बन्धी जणाता नथी ॥५२॥
माणस आत्मानुं स्वरूप जुदुं जाणतो थाय अने देहने आत्मानो सम्बन्धी एटले ‘‘आ देह मारो छे’’ एम जाणतो होय तो अने देहमां प्रीति आत्मा जेटली नहि रही शके, कारण के देह तो जीर्ण थाय छे तो पण एने जीववानी घणी मोटीदशमस्कन्ध १३३ आशा रहे छे ॥५३॥
माटे बधा देहधारीओने पोतानो आत्मा ज सौथी वहालो छे एने माटे ज आ स्थावर अने जङ्गम बधुं जगत् प्रिय होय छे ॥५४॥
आ श्रीकृष्णने तुं सर्व आत्माओनो आत्मा जाण. ए जगतनुं हित करवामाटे देह धारण करनारना जेवा अर्ही अत्यारे मायाथी देखाय छे ॥५५॥
श्रीकृष्णने जाणनारने तो स्थावार-जङ्गम सर्व भगवद्रूप ज देखाय छे.भगवान् सिवाय बीजी कोई वस्तुज नथी. जगत् ए श्रीकृष्णनुं बीजुं रूप छे ॥५६॥
बधी वस्तुओनुं अन्तिम रूप पोताना कारणमां रहेलुं होय छे. ते कारणना पण परम कारण श्रीकृष्ण छे. पछी भगवान् जेमां न होय तेवी कई वस्तु कही शकाय? ॥५७॥
जेमणे पुण्यकीर्ति मुरारिना पाद-पल्लवनी नौकानो दृढ आश्रय लीधो छे जे महान पद (मोटुं स्थान) छे, एमने माटे आ भवसागर वाछडानी खरीथी पडता खाडा जेवडो छे. एमने परमपद (वैकुण्ठ)नी प्राप्ति थई जाय छे अन विपत्तिओनुं निवासस्थान (आ संसार) तेमने माटे रहेतो नथी ॥५८॥
हे राजा परीक्षित! तमे जे पूछ्युं हतुं के भगवाने कुमार अवस्थामां करेल चरित्र भक्तोए पौगण्डमां केम गायुं, एनुं रहस्य में तमने कही बताव्युम् ॥५९॥
भगवान्नुं पोताना सुहृदो साथे वनमां जवुं, त्यां अघासुरने मारवो, लीला तृण उपर बेसीने भोजन करवुं, अलौकिक रूप बताववुं अने ब्रह्माजीनी महान स्तुतिने जे साम्भळे अथवा कहे छे ते माणस सर्व पुरुषार्थने प्राप्त करे छे ॥६०॥
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे ॥ निलायनैः सेतुबन्धैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥६१॥
आ प्रमाणे श्याम अने राम क्यारेक सन्ताकूकडी रमता, तो क्यारेक पुल बान्धता. क्यारेक वानरो (माङ्कडां) नी माफक कूदा-कूद करता तो क्यारेक देडका-दाव रमता. आ प्रमाणे कौमार (कुमार अने कुमारीओनी) अवस्थाना विहार करी पोतानी कुमार अवस्था व्रजमां तजी (=स्थापी) ॥६१॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (बीजा तामस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणना अन्तमां प्रक्षिप्त त्रण अध्यायमान्नो छेल्लो त्रीजोदशमस्कन्ध १३४ अने चालु)* ‘‘ब्रह्माजीए भगवान्नी करेली स्तुति’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
विशेष - श्रीआचार्यचरणे दशमस्कन्धना ८७ अध्याय मान्या छे. तेथी आ त्रण वधाराना अध्यायना अङ्क क्षेपक तरीके जुदा पण लख्या छे. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोईपणहेतु विनाज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय १५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १२ श्रीबळदेवजीए धेनुकने मार्यो बीजा तामस प्रकरणना बीजा पेटा प्रकरणः प्रमेय प्रकरणनो अध्याय १
विशेषः पूर्व प्रमाण प्रकरणमां यशोदा नन्दनो निरोध सारी रीते कह्यो. आ बीजा प्रमेय
प्रकरणमां गोपाल अने एमनी स्त्रीओनो निरोध कहेवाय छे. आ निरोध ए मध्यम निरोध
छे. आथी सारी रीते तेमनो निरोध तामस साधन प्रकरण (क्षेपक गणतां अध्याय २२ थी
२८ अथवा क्षेपक न गणतां अध्याय १९ थी २५) मां कहेवामां आवशे. आ प्रकरणमां
भगवाने दुष्टनो निग्रह करता पाञ्च प्रकारे पोतानो प्रभाव बताव्यो छे. पूर्व प्रकरणमां
आधिभौतिकी अविद्या दूर करी, आ प्रकरणमां आध्यात्मिकी अविद्यानो नाश भगवान्ने
करवानो छे, तेथी आध्यात्मिक अविद्या जती रहे तेवी कृति भगवान् पहेला पाञ्च अध्यायमां
करे छे. पछीना बे अध्यायमां स्नेहनुं आधिक्य सिद्ध कर्युं छे. मध्यमनिरोध स्नेहपर्यन्त ज
गणाय छे. तेथी छेल्ले वेणुगीतमां स्नेहना अन्तमां आसक्ति कहेवामां आवी छे ते ज
मध्यमनिरोधनुं फळ एटले अवान्तर फळ छे. त्रण क्षेपकने न गणीए तो आ बारमो अध्याय
छे तेमां देहना अध्यासरूप ‘धेनुक’ नामनो दैत्य छे, तेनो भगवान् आ अध्यायमां वध करशे.
पछीना अध्यायमां कालियदमन आवशे. कालिय इन्द्रियाध्यासरूप छे अने विषयो एनुं विष
[[१३५]]
छे. ए विषथी सर्वनो नाश थाय तेथी गोपो, गायो वगेरे विष सम्बन्धथी मरी गयां एम कह्युं
छे. एमान्थी एमने भगवाने जीवतां कर्यां अने ज्ञानपूर्ण अलौकिक देहनी प्राप्ति करावी.
ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ ॥
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर्वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए बन्ने भाईओ कुमार अवस्थाने व्रजमां छोडीने वृन्दावनमां पधार्या त्यारे पौगण्ड वय (छ वर्षथी नव वर्ष सम्पूर्ण थाय त्यां सुधी ‘पौगण्ड वय’ कहेवाय.) आपे अङ्गीकार करी, ते समये गायोने चराववा योग्य थया. पोताना मित्रोनी साथे गायोने चारता वृन्दावनने पोताना चरणारविन्दथी अत्यन्त पवित्र करवा लाग्या ॥१॥
लक्ष्मीजीना पति श्रीकृष्ण पोताना यशनुं गान करता गोपोनी साथे बळदेवजीने लई पशुओने आगळ करी पशुने हितकारी अने कुसुमना भण्डाररूप वृन्दावनमां विहार करवानी इच्छाथी पधार्या ॥२॥
भ्रमरना मधुर गुञ्जारवथी, पक्षीओना मनोहर कलरवथी अने मृगोथी पूर्ण मोटाना मन जेवा स्वच्छ जळाशयवाळा, कमळना सुगन्धयुक्त वायुवाळा वृन्दावनने जोईने भगवाने रमण करवानी इच्छा करी ॥३॥
पुरुषोत्तम भगवाने जोयुं के मोटां-मोटां वृक्षो फल अने फूलो ना घणा भारथी झूकी पोतानी डाळीओ अने नूतन कूम्पणोनी लालिमाथी एमना चरणोनो स्पर्श करी रह्यां छे, त्यारे तेमणे घणा आनन्दपूर्वक मन्द-मन्द हसतां पोताना मोटाभाई बळदेवजीने कह्युम् ॥४॥
श्रीभगवान् बोल्या - हे देववर! आ वृक्षोने तामस भावे वृक्षनो जन्म मळ्यो छे ते पोताना तामस भाव (अज्ञान) ने दूर कराववा स्वमस्तकने नमावी फूल, फळ वगेरे भेट धरीने देवोए पूजेल आपना चरणारविन्दने नमन करे छे ॥५॥
आ भ्रमरो अखिल लोकने पवित्र करनार आदिपुरुष *आपनो यश गातां- गातां आपना मार्गने अनुसरे छे. घणुं करीने आ भ्रमरो आपना भक्तो मुनिओ छे ते पक्षीरूप स्वीकारी गूढ रीते वनमां पण पवित्र पोताना आत्मा अने देवरूप आपने छोडता नथी ॥६॥
विशेष - अर्हीथी दश श्लोकथी भगवान् वृन्दावन प्रवेश करी वृन्दावनना अने एमां रहेल वृक्ष, पशु, पक्षी वगेरेना गुणो बळदेवजीने बतावे छे. भगवान् एना गुणो जाणे छे अनेदशमस्कन्ध १३६ बळदेवजीमां ए समजवानुं सामर्थ्य छे एमां जो दोष होय तो एमां प्रभु क्रीडा करे नहि. तेथी एमना गुणो कहे छे. त्यार बाद धर्म, अर्थ, काम, अने मोक्ष ए चार पुरुषार्थ वृक्षना स्वरूपमां बतावी दश लीला भगवाने करी ए वात अर्ही कहेवामां आवे छे. एम ए लीला बतावीने गोपोने संस्कार कर्यो तेथी एमनो अधिकार भगवान्नी साथे खेलवानो थयो. (विशेषमाटे श्रीसुबोधिनीजी वाञ्चवा विनन्तिछे.) हे स्तुत्य! आप घरे पधार्या तेथी आ मयूरो आपने नृत्य बतावे छे. आ हरिणीओ गोपीओनी जेम स्नेहवाळी दृष्टिद्वारा आपने प्रियाओनी याद अपावी आपनी सेवा करे छे. आ कोकिलाओना गण मधुरवाणी बोली आदर आपे छे, तेथी आ वनमां रहेनार छतां आतिथ्य सत्कार करी सत्पुरुषना धर्मने बजावे छे. आव्यानुं*आतिथ्य करवुं ए सत्पुरुषनो स्वभाव होय छे ॥७॥
विशेष - अतिथि घेर पधारे त्यारे अत्यन्त सन्तोष थवो जोईए. पोतानी प्रिय वस्तु एने धरवी जोईए. सुन्दर वाणीवडे परम स्तुति करवी ए सत्पुरुषनो स्वभाव होय छे. ‘‘तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता। एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन’’ मनुस्मृति अध्याय ३ श्लोक १०१ (आसन, जमीन, पाणी अने सारी वाणी आ चार वस्तु सत्पुरुषोनां घरमां कदी खूटती नथी) ए सामान्य उपचार छे. आपना चरणना स्पर्शथी आ पृथ्वी, घास, लताओ वगेरे धन्य छे. वृक्षो अने लता ओ आपना श्रीहस्तना स्पर्शथी कृतार्थ छे. नदीओ, पर्वतो, पक्षीओ, पशुओ वगेरे आपना दयापूर्वक अवलोकन्थी धन्य छे. आपनी बे भुजाओनी अन्दर आववाथी गोपीओ पण धन्य छे के जे भुजाओनी स्पृहा लक्ष्मी करी रही छे ॥८॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - आवी शोभावाळा वृन्दावनमां प्रसन्न मनवडे पशुने चारतां, गोवर्धननां शिखरोमां, नदीओना किनाराओमां बलदेवजीनी साथे श्रीकृष्णे रमण कर्युम् ॥९॥
मदान्ध भ्रमरो क्वचित् गाय छे तेनी साथे भगवान् गावा लागे छे. गोपो भगवच्चरित्रनुं गान करे छे, मित्रो अने बळदेवजी भगवान्नी पाछळ-पाछळ जाय छे ॥१०॥
कोईक जग्याए अव्यक्त मधुर स्वरवाळा हंसना कूजितनुं अनुकरण करे छे. कोईक जग्याए मयूर नाचे छे तेने जोई पोते पण मयूरना नृत्य करतां सुन्दर नृत्य करीने मयूरने हांसीपात्र बनावे छे, (बधाने हसावे छे) ॥११॥दशमस्कन्ध १३७ गायो अने गोपालो ना मनने प्रिय लागे एवी रीते प्रीतिथी मेघना सरखी गम्भीर वाणीवडे दूर गयेलां पशुओने क्यारेक एमनां *नाम लईने बोलावे छे ॥१२॥
विशेष - आ श्लोक चोथा मोक्ष पुरुषार्थनुं वर्णन छे. भगवत्सायुज्य अने मुक्ति, भगवान् आपे तो ज मळी शके छे. सर्व शास्त्रमां कहेलां साधन भक्त करे त्यारे ए साधनो भगवान्मां सम्बद्ध थाय छे एटले ए भगवान्मां प्रतिफलित थाय छे; ए साधनने भगवान् करे छे त्यारे ए साधननुं साध्य सिद्ध करे छे आ वात सिद्धान्त रूप छे. ‘‘यदनुस्मर्यते काले स्वबुद्ध्याभद्ररन्धन। येनोपशान्तिर्भूतानां’’ ए श्लोकमां आ विषयनुं विशेष विवेचन छे. माटे भगवन्नामनुं कीर्तन भक्त करे ते भगवान्ने पोतानुं नाम लेवडाववामाटे करे. ज्यारे ए नाम भगवान् ले त्यारे ए नाम एनुं सिद्ध थाय छे. तेथी भगवान् दूर रहेल गायोने नाम लई बोलावे छे. तेथी एनां साध्योने भगवान् सिद्ध करे छे. क्यारेक चकोर, क्रौञ्च, चक्रवाक, भारद्वाज अने मोर ना अवाजनुं भगवान् अनुकरण करे छे तो क्यारेक वळी वाघअने सिंह थी जाणे भय पाम्या होय तेम भयनुं अनुकरण करे छे ॥१३॥
क्वचित् क्रीडा करतां बहु थाकी जाय छे त्यारे गोपना खोळामां माथुं राखी तेनी साथळनुं ओसीकुं करीने बळदेवजी पोढे छे त्यारे श्रीकृष्ण तेमना चरण वगेरे दबावे छे. एम करी तेमना श्रमने निवृत्त करे छे ॥१४॥
क्याङ्क श्रीकृष्ण अने बळदेवजी मळीने गाय छे, क्याङ्क युद्ध करे छे अने क्याङ्क बडाई करे छे. (एटले काया, वाणी अने मननुं युद्ध थयुं) गोपालोना हाथ पकडी हसे छे अने तेमनी प्रशंसा करे छे ॥१५॥
क्याङ्क बाहुयुद्धथी थाकी जाय छे त्यारे पल्लवनी शय्या बनावी गोपनी गोदमां श्रीमस्तक राखी एना ओसीकाथी वृक्षना मूळनो आश्रय लईने शयन करे छे ॥१६॥
केटलाक महात्मा श्रीकृष्णना चरणने चाम्पे छे. केटलाक जे (ग्वालो-गोपो) पापरहित छे ते तो पङ्खो लईने भगवान्ने पवन नाखे छे ॥१७॥
बीजा (ग्वालो-गोपो) ए महात्माना मनने सुन्दर लागे अने एमने लायक होय एवुं धीरे-धीरे गान करे छे. त्यारे स्नेहथी एमनी बुद्धि आर्द्र थई जाय छे. जेम र्भीजेलुं वस्त्र कोराने लागे तो एने पण भीनु करे छे तेम जेनी बुद्धि आर्द्र छे तेना गुणगानने श्रवण करनार पण आर्द्र थई जाय छे. (तेथी ‘शनैः’ पद कह्युं छे,दशमस्कन्ध १३८ अर्ही सुधी ज भगवान्मां भक्तोनो स्नेह उत्पन्न थाय त्यां सुधी ज भगवान्नी लीला कहेली छे) ॥१८॥
जेनुं ज्ञान निगूढ छे तेवा भगवान् पोतानी स्वाधीन मायावडे गोपात्मजपणुं बतावता अथवा गोपात्मज कहावीने एने हसता एवा श्रीकृष्ण साक्षात् लक्ष्मीजी जेना चरणनी सेवा करे छे तेवा ईश्वर थईने पण ग्राम्य रसानुभवार्थ चेष्टा करे छे. (‘‘लोकवत् तु लीलाकैवल्यम् ए न्यायने सिद्ध करे छे’’) ॥१९॥
(अर्ही सुधी गोपोनी अलौकिक भावनी सिद्धिमाटे लीला बतावीने एना दोष दूर करवाने माटे धेनुकना वधनी लीला कहेवानो आरम्भ करे छे के) राम-कृष्णनो मित्र एक श्रीदामा नामे गोपाल छे ते अग्रणी थयो अने सुबल, स्तोक, कृष्ण, स्तोककृष्ण वगेरे गोपो एने अनुसर्या. ए बधा भगवान् पासे आवी प्रेमथी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२०॥
‘‘हे राम! हे राम! हे बहु बळवाळा! हे दुष्टोनो नाश करनार कृष्ण! अर्हीथी नजीक ताडोनी हारोथी छलकातुं एक भारे मोटुं वन छे ॥२१॥
ए वनमां ताडनां फळ घणां पडेलां छे, घणां पडे छे. पडेला फळोने त्यान्थी कोई लई जतुं नथी तेथी फळो मोजूद छे. पण एक ‘धेनुक’ नामनो दुष्ट दैत्य छे तेणे एने रोकी राख्यां छे ॥२२॥
हे राम! हे कृष्ण! ए दैत्य बहु बळवाळो छे अने गधेडाना रूपमां रहे छे. पोतानी बरोबरी करे एवा बळवाळा एना घणा ज्ञातिभाईओ अने बीजाओथी ए र्वीटायेलो छे ॥२३॥
ए माणसनो ज आहार करे छे तेथी लोको बहु भय पामे छे, तेथी ए वन सहुए छोडी दीधुं छे. हे शत्रुनाशक! माणस तो शुं पण पशु के पक्षी पण एमां जई शक्तां नथी ॥२४॥
कोईए नहि खाधेलां एवां फळो एमां छे जेमान्थी बहु सारी सुगन्ध नीकळे छे. एने लीधे ज ए फळनी सुगन्धने चारे तरफ फेलावतो पवन आपणी पासे पण एनी सुगन्धने लावे छे ॥२५॥
एनी सुगन्धने लीधे ए फळमां अमारुं चित्त लोभाय छे, तो हे कृष्ण! ए फळो अमने आपो. हे राम! अमारी खूब इच्छा छे, जो आपने रुचे-योग्य लागे तो पधारो’’ ॥२६॥दशमस्कन्ध १३९ एवां मित्रोनां वचन साम्भळी सुहृदोनुं प्रिय करवानी इच्छाथी जरा हसीने बन्ने समर्थ पुरुषो तालवन तरफ मित्रोनी साथे गया ॥२७॥
तालवनमां जईने बळदेवजीए बे हाथवडे बळपूर्वक एक ताडना वृक्षने खूब हलाव्युं अने हाथीनी पेठे घणां फळ पृथ्वी पर पाड्याम् ॥२८॥
पडतां फळोनो शब्द साम्भळीने ए गधेडो (धेनुकासुर) पर्वत सहित पृथ्वीने ध्रूजावतो राम-कृष्णनी पासे दोडतो आवी पहोञ्च्यो ॥२९॥
जलदी पासे आवी मोढुं फेरवी पाछला बे पगनी लात बळदेवजीनी छातीमां मारी प्रदक्षिणा करतो भूङ्कवा लाग्यो. घेर आवेल अतिथिनो सत्कार करवो जोईए एने बदले आ गधेडाए तो लात मारी, एनुं कारण ए ज के ए दुष्ट हतो ॥३०॥
फरीने पाछो शियाळनी जेम आवीने पाछो फर्यो अने पाछला बे पगनी पाटु बळदेवजीने क्रोध करीने मारवा लाग्यो ॥३१॥
बळदेवजीए एना बन्ने पग एक ज श्रीहस्तथी पकडी लीधा अने एने फेरवीने ताडना मूळमां पछाड्यो, एने फेरव्यो ए दरमियान ज एनो जीव तो चाल्यो गयो हतो ॥३२॥
एना पडवाना धक्काथी ते मोटुं ताडनुं वृक्ष- जेना उपरनो भाग बहु विशाळ हतो, स्वयं कडडड भूस करतुं पडी गयुं, एनी पासेना झाडने पण तेणे पाडी नाख्युं. तेणे त्रीजाने, त्रीजाए चोथाने- आ प्रमाणे एकबीजाने पाडतां-पाडतां घणां ताडना वृक्षो जमीनदोस्त थई गया ॥३३॥
बळदेवजीमाटे तो आ एक रमत मात्र हती. परन्तु एमणे फेङ्केला गधेडाना शरीरनी साथे टकरावाथी त्यां बधां ज ताड एवां तो हाली ऊठ्यां के जाणे वावाझोडाए खेदान-मेदान करी नाख्यां होय ॥३४॥
अनन्तरूप भगवान् जगत्ना ईश्वर छे. जेम कपडुं ताणावाणाथी ओतप्रोत छे तेम आ विश्व जेनाथी ओतप्रोत छे तेने माटे आ कांई आश्चर्य जेवुं न गणाय ॥३५॥
धेनुकने मार्यो* साम्भळी एना सगा-सम्बन्धी बीजा गधेडा कृष्ण रामने मारवामाटे क्रोध करीने तेमनी सामे थया ॥३६॥
विशेष - गधेडानां चार लक्षणोः १. पवित्र जलमां स्नान कर्या पछी पण गधेडो राखमां
आळोटे छे. तेम पवित्र तीर्थोमां स्नान कर्या छतां मनुष्य दुराचारी बने छे. २. गधेडोदशमस्कन्ध १४०
चन्दनना भारने वहन करे छे छतां ए तेने भार मात्र समजे छे. चन्दनने ओळखतो नथी.
तेम मनुष्य पण संसारना भार वहन कर्या छतां तेना साररूप भगवान्ने ओळखतो नथी.
३.गधेडो काम कर्या छतां कचराना ढगलाओ चाटे छे, तेम मनुष्य संसारनां कार्यो करतां-करतां
विषयोरूप कचरानुं भक्षण करे छे. ४. गधेडो कोईने सन्मुखमां मारतो नथी, परन्तु पाछला
पगथी लात मारे छे, तेम मनुष्य पण प्रत्यक्षमां सारुं-सारुं बोले छे, परन्तु पाछळथी एनी
निन्दा करे छे. आवा लक्षणवाळा बहिर्मुख जीवने धेनुकासुर मानवो.
ए जेम-जेम आवता गया तेम-तेम हे राजन्! कृष्ण अने रामे एमना
पाछला पग पकडी-पकडी मोटा ताडना मूळमां रमत-रमतमां ज फेङ्क्या ॥३७॥
जेम मेघथी आकाश शोभे तेम मरेलां दैत्यो, भाङ्गेली ताडनी टोचो अने एनां फळोथी छवायेली पृथ्वीनी सपाटी शोभवा लागी ॥३८॥
राम-कृष्णनुं आ महान कर्म जोईने देवोए आकाशमान्थी पुष्पनी वृष्टि करी तेम ज तेओ वाद्य वगाडवा लाग्या अने स्तुति करवा लाग्या ॥३९॥
हवे माणसोने गधेडानो भय मटी गयो तेथी ताडनां फळ खावा लाग्या. ए धेनुकना वनमां पशुओ घास चरवा लाग्याम् ॥४०॥
कमळपत्र जेवां नेत्रवाळा, पवित्र करनार छे श्रवण अने कीर्तन जेनुं तेवा, जेमनुं भक्तो अने गोपो स्तवन करता आवे छे तेवा श्रीकृष्ण बळदेवजीनी साथे व्रजमां पधार्या ॥४१॥
वनमान्थी भगवान्१ पधारे छे त्यारे गायनी खरीथी उडती रज भगवान्नां कुन्तलमां२ लागे छे, शिर उपर मयूरपिच्छ बान्ध्यां छे, वनना पुष्पथी सुन्दर देखाय छे तेवा श्रीमुखथी हास्यपूर्वक नजर करता पधारे छे. व्रजमां आवतां वेणुं बजावता आवे छे. गोपो पाछळ चालता भगवत्कीर्तिनुं गान करता आवे छे, एवा श्रीकृष्णना दर्शन करवानी इच्छावाळी दृष्टिवाळी, भेगी थयेली गोपीओ भगवान्नी आसपास फरी वळी ॥४२॥
विशेष - १. वनमां विहार करता भगवाने ‘‘वृक्षा वै वैष्णवाः’’ इत्यादि वृक्षनुं स्वरूप
बळदेवजीने बतावतां गोपोनी संस्कृतिमाटे चार पुरुषार्थ अने दश रस बताव्या ते ज संस्कार
अने रस गोपीओने पण बताववा जोईए नहिं तो ए भगवल्लीलामां अधिकृत न थाय. तेथी
वनमान्थी गोष्ठमां आवतां आ श्लोकमां वर्णन करेला पोताना रूपमां ए चतुर्दश रस बतावी
एने पण संस्कृत कर्या छे. विस्तारभयथी अर्ही विशेष लख्युं नथी.दशमस्कन्ध १४१
२. केश सदा बान्धेला होय छे अने अलक (कुन्तल) सदा मुक्त (छूटा) होय छे, तेथी
कुन्तल मोक्षने स्थानेछे.
नेत्ररूप भ्रमरवडे गोपीओ मुकुन्दना मुखकमळना मधुनुं पान करे छे त्यारे
दिवसना भगवद्विरहनो ताप शान्त थई जाय छे. गोपीजनो भगवान्नो लज्जा,
हास अने विनयवाळा कटाक्षथी सत्कार करे छे ते स्वीकारी भगवान् गोष्ठमां पधार्या
॥४३॥
ए बन्ने भाईओने पुत्रवत्सला यशोदाजी अने रोहिणीजी इच्छानुरूप अने काळने अनुकूल आशिष आपवा लाग्या ॥४४॥
त्यां भगवाने अने बळदेवजीए रस्ताना श्रमथी मुक्त थवाने माटे मर्दन, स्नान वगेरे कर्यां तेथी एमनो श्रम जतो रह्यो. पछी सुन्दर वस्त्र धराव्यां; दिव्य माळाओ, दिव्य गन्ध वगेरेथी सुशोभित थया ॥४५॥
माताजीए लाड करतां सुन्दर अन्नादि भोजन आप्युं ते आरोग्या. सुन्दर शय्यामां सारी रीते प्रवेश करी व्रजमां सुख पूर्वक बन्ने भाई पोढ्या ॥४६॥
एम ए भगवान् श्रीकृष्ण कोई वखत वृन्दावनमां फरतां एक दिवस रामने साथे लीधा विना बीजा मित्रोनी साथे कालिन्दीजी उपर पधार्या ॥४७॥
बधा साथे गया पण भगवान् हजु कालिन्दीजी उपर पहोञ्च्या न हता एटलामां गायो अने गोवाळिया ग्रीष्म ऋतुना तापथी पीडायेलां तरस्या थतां जलदी कालिन्दीजी उपर गयां. त्यां जई कालियनागना झेरथी दूषित थयेल जळ ए गायो अने गोपोए पीधुम् ॥४८॥
ए जळनो स्पर्श थतां ज दैवथी एमने कांई खबर न रही अने हे कुरुद्वह! ए बधां जळना किनारा उपर प्राण वगरनां थईने पडी गयाम् ॥४९॥
कृष्णे आवीने जोयां त्यां तो मरेलां जणायां, त्यारे भगवाने विचार कर्यो के आनो नाथ तो हुं छुं तेथी ए मरवां न जोईए; एम धारी अमृतनी वर्षा करनार दृष्टिवडे गायो-गोपोने जीवतां कर्याम् ॥५०॥
ज्यारे तेमने भान आव्युं त्यारे पाणीने काण्ठे पड्यां हतां त्यान्थी उभा थई परस्पर जोतां विस्मय पाम्याम् ॥५१॥
अन्वमंसत तद् राजन् गोविन्दानुग्रहेक्षितम् ॥ पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः ॥५२॥दशमस्कन्ध १४२ हे राजन्! विष पीने मरण पामेलां छतां तेओ श्रीकृष्णना अनुग्रहवाळी दृष्टिथी जीवतां थयां एम तेओए पोते ज अनुमान कर्युम् ॥५२॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो ऐश्वर्यरूप पहेलो अने चालु) ‘‘श्रीबळदेवजीए धेनुकने मार्यो’’ नामनो पन्दरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां १२ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. दीक्षा लेवा आवनार पुष्टि जीव छे के नर्ही ते चकास्या विना जे आवे तेने कण्ठी-ब्रह्मसम्बन्ध आपनार गुरु श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोही छे, पुष्टिमार्गनो शत्रु छे. आवा बेजवाबदारी भर्या आचरणथी ते पोतानुं ज सर्वनाश नोन्तरे छे.
अध्याय १६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १३ कालिय नागनुं भगवाने दमन करी वीर्य प्रदर्शित कर्युं बीजा तामस प्रकरणना पेटा प्रकरणः प्रमेयप्रकरणनो अध्याय २
विशेष - सर्व गोपोनी इन्द्रियो मृत्युरूप छे, ते ज इन्द्रियो विषपूर्ण थईने कालियना मस्तकरूप थई छे. माटे आ सोळमां अध्यायमां कालियना मस्तकरूप विषवाळी इन्द्रियोनुं मर्दन कहेवानुं छे. ए इन्द्रियरूप विषपूर्ण कालियशिर उपर भगवान् भक्तिमार्गने अनुसारे लीला करे तो लोकोना इन्द्रियदोष नष्ट थाय. ए इन्द्रियोनो विस्तार तो कामिनीओ छे. ए जो श्रीकृष्णने सर्वथा आधीन थाय तो इन्द्रियो पण भगवद् आज्ञाने वश थाय. ए इन्द्रियो वश थाय तो विषय सर्वथा हरिरूप थाय. एटले ए सिवाय बीजामां ए इन्द्रिय विनियोग न थाय. एम परीक्षा करी भगवान् हरि इन्द्रियोनो निग्रह करे छे. ए परीक्षामाटे देवे कालने पण प्रेरणा करी. मध्यनिरोधमां भक्तोनी स्वस्वरूपमां आसक्ति पण भगवान्ने करवानी छे तेथी प्रथम भगवाने मुग्धभाव बताव्यो छे. आ कथामात्र नथी एम बताववा पूर्वाध्यायमां आ वात सङ्क्षेपथी कही छे. भगवान् अक्लिष्टकर्मा छे एम बताववामाटे कालियदमन पण एक लीला छे एम कह्युं छे. उद्यम, अपराध, परीक्षा, कार्य, स्तुति अने प्रसाद ए छ अर्थ अर्ही कह्या छे. [[१४३]] विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः ॥ तस्या विशुद्धिमन्विच्छन् सर्पं तमुदवासयत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्रीकृष्णे काळीनागे श्रीयमुनाजीने दूषित करेलां जोयां त्यारे ए श्रीयमुनाजीनी शुद्धि करवामाटे ए कालियनागने भगवाने त्यान्थी दूर कर्यो ॥१॥
राजाए पूछ्युं - अगाध जळमां कालियने भगवाने केवी रीते पकडी पाड्यो. हे विप्र! ए घणा युगथी त्यां केवी रीते निवास करी रह्यो हतो. ए बधी वात कहो ॥२॥
हे ब्रह्मन्! भगवान् व्यापक छे, स्वच्छन्द (मनमां आवे एम करनार) छे, गायने पाळनार छे, एमना उदार चरितने सेवतां अथवा साम्भळतां कोण तृप्त थाय? कोईने तृप्ति न थाय ॥३॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - श्रीयमुनाजीमां कालियनो एक धरो हतो. तेमां झेररूप अग्निथी जळ उकळ्या करतुं जेथी उपरथी उडनार पक्षीओ पण एमां पडी मरी जताम् ॥४॥
तेना झेरी जलनां ऊञ्चा मोजान्नो स्पर्श करी तथा नानां-नानां बुन्द साथे ज्यारे वायु बहार आवतो अने किनारा उपरनां घासपान, वृक्ष, पशु, पक्षी वगेरेने स्पर्श करतो त्यारे ते, ते ज क्षणे मरणने शरण थताम् ॥५॥
एवा उग्र झेरना वेगवाळा कालिये श्रीयुमुनाजीना जळने विषवाळुं करी दीधुं त्यारे एवा दुष्टोनुं दमन करवामाटे जेनो अवतार छे तेवा श्रीकृष्णे किनारा उपरना बहु ऊञ्चा कदम्बना वृक्ष उपर चडीने पहेलवाननी जेम हाथ बजावी कमर बान्धी त्यान्थी झेरवाळा जळमां घूनामां कूदको मार्यो ॥६॥
श्रीयमुनाजीनुं जल सर्पना झेरने लीधे पहेलेथी ज उकळतुं हतुं. तेमांय श्रीपुरुषोत्तम प्रभु कूद्या तेथी गुस्से थयेला सापना झेरी उच्छ्वासथी तेमां लाल- पीळां भयङ्कर मोजां उत्पन्न थयां अने धरानुं पाणी सो धनुष्य (चारसो हाथ) फेलाई गयुं. आखा जगतने दोडावनार कालने पण बलनो पुरवठो जेनी पासेथी मळे छे ते अनन्त बलशालीने माटे आ कंई आश्चर्य न कहेवाय ॥७॥
ए कालियना धरामां महान मतवाला हाथी जेवा पराक्रमवाळा विहार करनार भगवान्नी भुजाना प्रहारथी जलमां घूमरीओ उत्पन्न थई, तेथी थतो अवाजदशमस्कन्ध १४४ कालिये साम्भळ्यो. आ पोताना घर उपर आक्रमण जाणीने ते एनाथी सहन न थई शकवाथी ते रुआबभेर पासे आव्यो ॥८॥
कालिये जोवा लायक, सुकुमार अने मेघना जेवा सुन्दर श्याम, श्रीवत्सना चिह्नवाळा, पीताम्बर धारी, मन्दहास्यथी सुन्दर मुखवाळा, निर्भय थईने क्रीडा करतां, कमळना गर्भ(मध्यभाग)जेवा कोमळ चरणवाळा भगवान्ने मर्मस्थानमां दंश कर्यो अनेपोताना शरीरवडे भगवान्ने ढाङ्की दीधा-र्वीटळाई गयो ॥९॥
एमना मित्रो गोपोए भगवान्ने कालियना शरीरथी ढङ्कायेला (र्वीटायेला) अने चेष्टा वगरना जोया त्यारे ए पोताना प्रियने दुःखी जोई बहु दुःखी थया. जेमणे पोतानां देह, सुहृद, धन, स्त्री अने कामनाओ भगवान्ने अर्पण करेल छे तेवा ए मित्रो दुःख, शोक अने भय वडे मूर्छित बनी ढळी पड्या ॥१०॥
गायो, आखलाओ अने नाना वाछडांओ वगेरे भाम्भरवा लाग्यां अने श्रीकृष्ण तरफ दृष्टि अने प्राण ने राखीने रडतां होय तेम ऊभां रह्याम् ॥११॥
ए वखते व्रजमां पण त्रण प्रकारना मोटा उत्पात थवा लाग्या. स्वर्ग, पृथ्वी अने अन्तरिक्ष (ज्यां सूर्य वगेरे नक्षत्र फरे छे ते पृथ्वी अने स्वर्ग नी वच्चेनो भाग) मां तत्काल प्रलय थाय तेवां भयनां चिह्न देखावा लाग्याम् ॥१२॥
नन्दरायजी वगेरे गोपो आ उत्पातो जोईने अने श्रीकृष्ण, राम वगर गायो चराववा पधार्या छे ए जाणी भय पाम्या ॥१३॥
एवां दुर्निमित्त जोईने कोई श्रीकृष्णमां अतर्क्य अनिष्टनी शङ्का करवा लाग्यां, केमके ए भगवान्ने स्वपुत्र माने छे पण एमना खरा स्वरूपने जाणता नथी. एमां ज जेमना प्राण छे, एमां ज जेमनुं मन छे तेवा ए नन्दरायजी वगेरे दुःख, शोक अने भय थी आतुर थई गया ॥१४॥
हे प्रिय परीक्षित! बाळको, वृद्धो अने स्त्रीओ सुद्धां बधा पशुवृत्तिवाळा थई जवाथी एटले के शरीर, वस्त्रोनुं भान भूली घरबार जेम-तेम छोडी श्रीकृष्णनां दर्शन करवामाटे गोकुळमान्थी अति दैन्य युक्त थईने नीकळ्याम् ॥१५॥
पोताना वहालाने एमना चरणनां चिह्नोए सूचवेली केडीए शोधतां-शोधतां श्रीयमुनाजीना तट उपर आवी पहोञ्च्या ॥१६॥
ए बधां ज्यां त्यां यव, कमळ, अङ्कुश, वज्र, ध्वज वगेरे चिह्नवाळा श्रीगोकुलेशना चरणने गायोनां पगलानी वच्चे-वच्चे जोता-जोता जलदीथी चालवादशमस्कन्ध १४५ लाग्या ॥१७॥
बधां व्रजवासीओने गभरायेलां जोईने बळदेवजी हस्या, कारण के ए नाना भाईना प्रभावने जाणता हता, पण कांई बोल्या नहि ॥१८॥
आवीने जुए छे तो घूनानी वचमां सर्पना शरीरथी र्वीटायेला निश्चेष्ट (कांई पण चेष्टा न बतावता) श्रीकृष्णने जोया अने जळाशयने काण्ठे मूढ थईने उभेला गोपो अने गायो ने आक्रन्द करतां जोईने नन्दरायजी वगेरे अत्यन्त दुःखी थई मूर्छा खाई ढळी पड्याम् ॥१९॥
अनन्त भगवान्मां प्रेमवाळी गोपीओ श्रीकृष्णनो स्नेह, स्मित, दृष्टि अने वाणी याद करीने अत्यारे सर्पना पाशमां बन्धायेला जोईने बहु दुःखी थई तेम ज प्रिय विना त्रण लोकने शून्यवत् जोवा लाग्याम् ॥२०॥
माता यशोदाजी तो पोताना लाडकवाया पुत्रनी पाछळ कालिय कुण्डमां कूदी पडवा ज जतां हतां परन्तु गोपीओए एमने पकडी राख्यां. एमना हृदयमां पण एवी ज पीडा हती. एमनी आङ्खोमान्थी पण अश्रुधारा वही रही हती. बधान्नी आङ्खो श्रीकृष्णना मुखकमल उपर मण्डायेली हती. जेमना शरीरमां चेतना हती ते गोपीओ, व्रजमोहन श्रीकृष्णनी पूतना वध वगेरे प्रिय ऐश्वर्ययुक्त लीलाओ कहेती-कहेती यशोदाजीने धीरज आपवा लागी. परन्तु मोटा भागनी गोपीओ तो मरेलानी जेम पडी ज गई हती ॥२१॥
श्रीकृष्णमां जेमना प्राण छे तेवा नन्दरायजी वगेरे हृदमां पडवाने तैयार थया त्यारे श्रीकृष्णना प्रतापने जाणनारा बळदेवजीए तेमने एम करतां अटकाव्यां ॥२२॥
श्रीकृष्ण सिवाय बीजी कोई गति नथी अथवा श्रीकृष्ण सिवाय कोई पति नथी तेवा अने स्त्री, बाळक सहित बधां ज पोताने माटे अत्यन्त दुःख भोगवे छे तेवा पोताना गोकुळने जोईने मनुष्यनी माफक नाटक करतां श्रीकृष्ण मुहूर्तमात्र सर्पना बन्धनमां रही ए सर्पबन्धनथी मुक्त थया ॥२३॥
(मुक्तिनो प्रकार बतावे छे के) सर्प र्वीटायेलो हतो ए श्रीअङ्गने पोते मोटुं कर्युं त्यारे एनुं शरीर तूटवा लाग्युं तेथी दुःखी थतो सर्प भगवान्ने छोडी दई, गुस्से थई पोतानी फणाओ ऊञ्ची करी सामे थयो अने एना मुखमां पाञ्च छिद्र हता. (बे नासिकानां, बे नेत्रनां अने एक मुखनुं ए पाञ्च) एमान्थी बे नासिकामान्थी झेरीदशमस्कन्ध १४६ वायु छोडवा लाग्यो. भाडभूञ्जानी तपेली कडाईना जेवी एनी बे आङ्खो स्थिर हती अने एवी लालचोळ थई रही हती के जाणे भठ्ठी उपर तपावेल पेणा होय. मोढामान्थी आगनी ज्वाळाओ नीकळी रही हती. सर्वत्र अग्नि नीकळ्या छतां, सामे बिराजता भगवान्ना प्रतापथी ज ते बळ्यो नहि (मृत्यु पाम्यो नहि) अने सामे उभो रह्यो ॥२४॥
बे जीभने मुखना बन्ने छेडा उपर फेरवतो अत्यन्त भयङ्कर विषरूप अग्निवाळी आङ्खो काढतो भगवान्नी सामे उभो रह्यो त्यारे गरुड जेम पोतानुं भक्ष्य जाणी एनाथी भय राख्या वगर फरे तेम, भगवान् एना माथा उपर चडवानो अवसर जोता क्रीडा करता एनी चारे तरफ निर्भय थईने फरवा लाग्या. अग्नि जेम काष्टथी भय न पामे तेम कालियथी भगवान् भय न पाम्या, पण एना क्रोधने जोवा छतां पण क्रीडा करवा लाग्या ॥२५॥
कालिय पण लडवानो मोको जोतो फरवा लाग्यो. सर्प चक्करमां फरे त्यारे एनुं बळ क्षीण थाय छे. ज्यारे एनुं बळ ओछुं थयुं, केवळ फणा ऊञ्ची राखी उभो रह्यो त्यारे भगवान् एनी फणाने नमावीने तेनी उपर चडी गया. ए नानी फणा उपर चरण धरी मोटी फणा उपर चडतां एना मस्तकना रत्ननी कान्ति चरणारविन्द उपर पडतां, चरण अत्यन्त लाल देखाय छे एवा समग्र कलाना गुरु भगवान् कालियना मस्तक उपर नृत्य करवा तत्पर थया ॥२६॥
भगवान् नृत्य करवाने तैयार थया छे एम जाणीने ए वखते गन्धर्व, सिद्ध, मुनि, चारण अने देव स्त्रीओ प्रीतिथी मृदङ्ग, पणव, आनक, वगेरे जरूरी वाद्यो, गीतो, पुष्पोनी भेटो अने स्तुतिथी सेवा करवा तरत ज हाजर थयाम् ॥२७॥
हे प्रिय परीक्षित! कालिय नागने सो मुख्य माथांओ हतां. (फणा छे ते बधां एनां माथां कहेवाय) तेमान्थी जे-जे माथुं नहोतुं नमतुं तेने दुष्टोने दण्ड देनार भगवान्, चरणना प्रहारथी दबावी देवा लाग्या त्यारे कालियनागनी जीवनशक्ति क्षीण थई गई. ते चक्कर-चक्कर फरवा लाग्यो. तेना मुख तथा नसकोरां मान्थी लोही वहेवा लाग्युं अने घणो दुःखी थयो ॥२८॥
आङ्खोमान्थी झेर नीकळ्या करतुं हतुं अने क्रोधथी ते जोरजोरथी फूम्फाडा मारतो हतो. आ प्रमाणे पोतानां माथामान्थी जे माथुं ऊञ्चु करतो तेने नृत्य करता भगवान् श्रीकृष्ण पोतानां चरण धरी (मारी) ने दमन करता हता-नमावी देता हता. एदशमस्कन्ध १४७ वखते भगवान्ना (पुराण पुरुषोत्तमना) चरणो उपर लोहीनां बुन्द पडतां हतां, तेथी गन्धर्व आदि देवो लाल पुष्पोथी एमनी पूजा करी रह्या होय एम लागतुं हतुं ॥२९॥
भगवाने नागनी फणा उपर विचित्र *ताण्डव कर्युं एनाथी एनां फणारूपी छत्रो जर्जरित थई गयां. मोढामान्थी लोही पडवा लाग्युं. हे नृप! एनां गात्र भाङ्गी गयां त्यारे चराचरना गुरु पुराण पुरुषने याद करीने मनथी ए नारायणने शरणे गयो ॥३०॥
विशेष - नृत्यना बे भेद छेःलास्य अने ताण्डव. लास्य ए स्त्रीओनुं नृत्य छे अने ताण्डव ए पुरुषनुं नृत्य छे. प्रलयना समये शिवजी क्रोध करीने ताण्डव नृत्य करे छे त्यारे सर्वनो संहार थाय छे. एवुं भगवाने आ सर्पनी फणा उपर ताण्डव नृत्य कर्युं तेथी ए हतप्राय थयो. जेना उदरमां आखुं जगत् रहेलुं तेवा श्रीकृष्णना भारथी दुःखी थयेल अने पेनीना मारथी फणारूपी छत्र भाङ्गी गयां छे जेनां तेवा सर्पने जोईने, जेना केश छूटी गया छे अने वस्त्रो तथा आभूषणो पडतां आवे छे तेवी सर्पनी स्त्रीओ दुःखी थती भगवान्ने शरणे आवी ॥३१॥
ए मनथी दुःखी थईने बाळकोने आगळ करी भूमि उपर शरीरने राखी भूतपति भगवान्ने प्रणाम करवा लागी. ए बधी सतीओ छे ते हाथ जोडी पोताना अपराधी स्वामीनी मुक्तिनी इच्छाथी शरण आपनार (शरणे आवेला उपर दया करनार) भगवान्ने शरणे गई ॥३२॥
नागपत्नीओ बोली - १आपनो अपराध करनारने आपे दण्ड आप्यो ए योग्य छे केमके खलनो निग्रह करवाने माटे आपनो अवतार छे. शत्रु अने पोताना पुत्र तरफ आपनी समान दृष्टि छे; तेथी पिता जेम पुत्रने तेना भलामाटे मारे तेम आपे आने दण्ड आप्यो एनुं फळ सारुं ज थशे.२ ॥३३॥
विशेष - १. भगवाने दण्ड आप्यो तेने छ श्लोकथी नागपत्नीओए अनुमोदन आप्युं, दश
श्लोकथी प्रभुने नमन कर्युं अने पाञ्च श्लोकथी प्रार्थना करी, एम स्तुतिना त्रण भाग छे. स्तुति
बे प्रकारना अपराध सहित पापने दूर करनार छे. भगवान् छ गुणवाळा छे, दश लीलावाळा
छे अने पाञ्च प्रकारे भगवान् पति छे.
२. आपे आने दण्ड आप्यो ए योग्य छे. भगवान् कृपा करे तो ओछो दण्ड करे, मर्यादा
स्वीकारे तो योग्य दण्ड करे, ईश्वरत्व स्वीकारे तो वधारे दण्ड करे. एमां आ दण्ड मर्यादार्थ छे, केमकेदशमस्कन्ध १४८
ए सर्पे घणाने मार्या छे. त्यां कोई शङ्का करे के पाप करे तेने यम दण्ड आपे, भगवान्ने दण्ड
देवानी शी जरूर? त्यां कहे छे के पापी लोको घणुं जीवनार होय छे, ते निरन्तर पाप कर्या करे
छे, यम तो मर्या पछी एने दण्ड आपे छे, एटलो वखत भगवान् एनुं पाप सहन न करी शके
तेथी अवतार धारण करी एने दण्ड आपे छे. कोई शङ्का करे के ए कश्यपनो पुत्र अने शेषनो
भाई छे तेने वळी दण्ड होय? एना उत्तरमां कहे छे के भगवान् पुत्र अने शत्रु ने दण्ड देवामां भेद
जोता नथी. अवतार लेनार भगवान् सम्बन्धनी अपेक्षा करता नथी. तेथी भगवान् दण्ड दे तेने
फळ सारुं ज थाय, तेथी आना भाग्यनो उदय थवानो.
आपे आने जे दण्ड आप्यो ते योग्य कर्युं कारण के आप असत् (दुष्टो) ने दण्ड
आपो छो तेथी तेनां बधां पाप नष्ट थई जाय छे. आ शरीरधारीने जे सर्पपणुं ते
पण क्रोधनुं कारण छे तेनुं आपे अभिमान छोडाव्युं ए दण्ड नहि पण आपनो
अनुग्रह ज छे, एम अमे समजीए छीए* ॥३४॥
विशेष - आपे आने दण्ड आप्यो ए घणुं सारुं कर्युं. महाभारतमां दण्ड ज भगवान् छे एम सिद्ध कर्युं छे. तेथी दण्डमां क्लेश थाय छे तो पण, तप जेम सिद्धि आपनार छे तेम, दण्ड पण पापने दूर करनार होवाथी ए अनुग्रह ज गणाय, केमके दण्ड कर्यो न हतो त्यां सुधी ए असत् हतो. हवे ए सर्प थयो अने दण्ड थतां सर्पपणानुं अभिमान जतां ए सत् थशे. माटे दण्ड परिणामे अनुग्रहरूप थशे, तेथी आपे दण्ड कर्यो ते अनुग्रहने माटे ज कर्यो छे मारवाना हेतुथी कर्यो नथी. अवश्य पूर्वजन्ममां आणे स्वयं मानरहित थई, बीजाओने मान आपी कोई दिव्य *तप सारी रीते कर्युं छे अथवा बधा जीवो उपर दया राखी तेणे (भगवत्कथाना श्रवण अने कीर्तनरूप) भारे मोटा धर्मनुं आचरण कर्युं छे, त्यारे ज तो आप तेना उपर सन्तुष्ट थया छो, कारण के सर्व जीवरूप आपनी प्रसन्नतानो ए ज उपाय छे ॥३५॥
विशेष - दण्ड प्रसादनी वात जवा दो. आना मस्तक उपर नृत्य कर्युं ए अमने मोटुं आश्चर्य लागे छे. ए शा कारणथी कर्युं एनो हेतु अमे जाणी शक्तां नथी, केमके एना पूर्व धर्मथी एम कर्युं होय एम तो न कहेवाय, केमके धर्म बे प्रकारनो छेःएक धर्म तो दोष दूर करी विद्यमान फळने प्रकट करे छे, बीजो धर्म दोषनी चिन्ता छोडी आगन्तुक फळने सिद्ध करे छे. भगवान् तो आत्मा अने ईश्वर छे, ज्ञानप्रसाद अने भक्तिप्रसाद रूप छे. तेथी प्रथम पक्षमां जे दोषो मनुष्य यत्नथी दूर न थई शके तेवा होय तेने दूर कर्या वगर तपथी ए दोषो जाय नहि. जेदशमस्कन्ध १४९ दोष अहङ्काररूप छे ते दोष तप करवाथी जतो नथी, पण वधे छे. हुं तपस्वी छुं एम भाव पेदा करे छे तेथी कह्युं के आ अमारा पतिए शुं लोकोत्तर तप कर्युं जेनाथी आप परमात्मा प्रसन्न थया? आपना सन्तोषनी अन्यथा अनुपपत्तिथी एवुं तप पण छे एम सिद्ध थाय छे. ए तप पण सारी रीते कर्युं हशे, नहि तो छ गुणवाळा भगवान् प्रसन्न न थाय. बीजा दोषो दूर करवामां बे धर्मनी अपेक्षा छे. पोते निर्मान थई बीजाने मान आपवुं, तेथी बे अभिमान जाय छे. एक अभिमान स्वतः थाय छे, ज्यारे बीजुं अभिमान बीजाथी थाय छे, ते बन्ने आने नथी, केमके एणे स्वतः मान राख्युं नथी अने बीजो हीन होय छतां तेने मान आपे छे. आपणे धर्मशास्त्रना धर्मनो विचार करीए तो तदनुसारी धर्म तो आवुं फळ आपतो ज नथी, पण भगवत् शास्त्र अनुसारी धर्म आवुं फळ आपी शके. एमां पण एक दोष छोडवो जोईए. जो ए धर्म द्रव्यमय होय तो पर उपद्रवकारी थाय, जो क्रियामय होय तो स्व उपद्रवकारी थाय. ज्ञानमय होय ते पण एवो ज समजवो. आ ज दोष तपमां पण छे, ते दोष मटाडवामाटे एणे एवो धर्म कर्यो छे के जेमां पोताने अने बीजाने दुःख थतुं नथी, पण सर्व जन उपर दया रहे छे. एवो धर्म तो कीर्तन वगेरे छे, केमके ए श्रवण-कीर्तनथी सर्वने जीवाडनार अथवा सर्व जीवरूप भगवान् प्रसन्न थाय छे. तेथी सर्वनो उपकारक धर्म प्रभुने प्रसन्न करे छे ए योग्य ज छे, भगवान् सर्व जीव होवाथी सर्पे कोई अपराध कर्यो नथी कारण के तेना पण आत्मा आप ज छो, पण तेणे उत्तम धर्मनुं आचरण कर्युं छे जेनाथी आप प्रसन्न थया. मात्र आश्चर्य एटलुं ज के सर्पनी योनि, स्वभाव अने कर्म आपने प्रसन्न करनार नथी छतां आप प्रसन्नथया. आपना चरणारविन्दनी *रजने स्पर्श करवानो आपे एने अधिकार आप्यो. ललनारूप सत्वगुणना अधिष्ठाता विष्णुनां पत्नी लक्ष्मीजीए आपना चरणकमलनी रजनी प्राप्तिनी इच्छाथी कामनाओ त्यजी, व्रत धारण करी लाम्बा समय सुधी तप कर्युं तो पण तेमने आपना चरणनी रजनी प्राप्ति थई नहि तो ब्रह्मा, शिव आदिने तो एनी प्राप्ति केम सम्भवे? छतां आपे तो आ तामसने ए अधिकार आप्यो ए कोनो प्रताप छे ए अमे जाणी शक्तां नथी ॥३६॥
विशेष - भगवद् चरणरज भगवदीय देहने उत्पन्न करे छे एम प्रथम कहेवामां आव्युं छे. ए चरणरजनो सम्बन्ध आ सर्पने थयो छे तेथी एने भगवदीय देह मळशे. परन्तु मर्यादामां तो जेना कोटी जन्मना त्रिविध धर्मोथी भूतोने संस्कार थयो होय ते ज भगवदीय देहने सम्पादन करे छे. साधारण संस्कार पक्षमां युक्ति ठीक छे, पण एनुं कारण शोधवुं जोईए. ए क्रियारूपदशमस्कन्ध १५० तो न होवो जोईए. ए तो अधिकारीना ज भूतनो संस्कार करे छे, पण कांईक अलौकिक होवुं जोईए. ए अलौकिक प्रभावने अमे जाणता नथी के जेणे आपनी चरणरजनो स्पर्श करवानो अधिकार आप्यो छे. आपनी चरणरजना अधिकारीओ तो गुणातीत होवा जोईए, नहि के सगुण. ए सगुण मोटा होय तो पण एने ए अधिकार मळे नहि. एमां दृष्टान्त कहे छे के लक्ष्मीजी सात्विकी छे तेमनो पण अधिकार नथी तो ब्रह्मा, रुद्र आदिनो तो क्यान्थी होय? ब्रह्मानन्दरूपा लक्ष्मीजीनी आ वात नथी एम बताववामाटे ललना विशेषण आप्युं छे. तेथी ए लक्ष्मीजी भगवान्नी अन्तरङ्ग दासीरूप छे ते दास्य सिद्धिमाटे व्रत करे छे. ए पण सर्व कामनाने छोडीने व्रत धारण करीने तप करे छे तथापि एमने ए लाभ मळतो नथी. (विशेष जिज्ञासुने श्रीसुबोधिनीजी आदि ग्रन्थ जोवा विनन्तिछे). ए चरणरज केवी छे के जे (जीवो) ते चरणकमलनी रजने शरणे आवेला छे तेओ पण स्वर्गनी के पृथ्वीनी, सार्वभौम सत्तानी, ब्रह्माजीना पदनी के रसातलना आधिपत्यनी, योगिनी सिद्धिओनी के मोक्षनी पण इच्छा करता नथी तो पछी जेमने ते रज प्राप्त थई गई होय तेओ तो तेनी इच्छा न करे एमां कहेवुं शुं? ॥३७॥
हे नाथ!आ नागराज तमोगुणी योनिमां उत्पन्न थयो छे अने बहु ज क्रोधी छे, छतां तेने आपनी आ परम पवित्र चरणरज प्राप्त थई,जे बीजाने माटे सर्वथा दुर्लभ छे. संसारचक्रमां भटकतो जीव जो आपना चरणकमलनी रजनी इच्छा मात्र करे तो ते साधन विनानो होय तो पण तेने उत्तम फल प्राप्त थई जाय छे.(‘यदिच्छतः’ पाठ प्रमाणे अर्थ थयो. बीजोपाठ ‘यदृच्छतः’ छे. ते प्रमाणे अर्थ - अकस्मात के भगवान्नी इच्छाथी ते भगवान्ना चरणारविन्दनी रज प्राप्त थाय छे) ॥३८॥
(नागपत्नीओ पोताना पतिने भगवद् चरणस्पर्श थयो तेथी स्वभाग्यने अभिनन्दीने एने लीधे पोताने पण भगवद् नमन अधिकार प्राप्त थयो जाणी नमन करे छे. १दशविध लीलाविशिष्ट भगवान्नी ए दश श्लोकथी स्तुति करे छेः) आप पुरुष छो, महात्मा छो, प्राणीओना निवासस्थानरूप छो एवा परमात्मारूप भगवान्ने अमो नमन करीए छीए२ ॥३९॥
विशेष - १.भगवान्नां दशविध लीला करनार दशरूप छे. भगवद् शास्त्रमां भगवान्नुं एक
मूळरूप छे. वेदान्त वेद्यरूप ए बीजुं रूप छे. जगद्रूप ए त्रीजुं छे. सङ्घात अने जीवरूप पणदशमस्कन्ध १५१
एक रूप छे. शास्त्रमां एक भगवान् अनेकरूपे कह्या छे ते पण एकरूप गणाय छे. एम पाञ्च
प्रकारे भगवान्नां प्रमेयरूप कह्यां छे. वेदना अर्थरूप, तन्त्रना अर्थरूप, गुणार्थरूप,
अन्तर्यामीरूप तथा अवताररूप एम पाञ्च विभाग गणतां दशधा भगवद्रूपनुं आ स्तुतिमां
सर्गादि दश लीला बताववामाटे वर्णन छे. पाछलां पाञ्च रूप ते स्वरूपथी करेली लीलाना रूप छे.
(कारिका)
२. आ कोण छे, केटलो छे, केवा गुणवाळो छे एम जाण्या पछी एनी स्तुति करवी
जोईए. एमां भगवान् दश प्रकारना छे ते दशधा लीला करे छे तेथी एटला प्रकार छे. एम
लीलामां जेटला अवान्तर प्रकार छे ते बधा कहे छे. एमां आ श्लोकथी सर्ग लीला कहे छे. ए
करनार पुरुषोत्तम छे तेमनुं रूप प्रथम कहे छे अने तेमने नमन करे छे. नागपत्नीओ कहे
छेःजे मूलभूत छे ते ज आप छो. तेथी आप भगवान् छो तेमने अमे नमन करीए छीए.
आपनां प्रकट अने अप्रकट एम बे रूप छे तेथी पुरुष अने महात्मा ए बे पदथी एनुं निरूपण
करे छे के आप पुरुषरूप अने महात्मारूप छो. मोटा ‘आत्मा’ एटले आत्मा स्मृतिप्रतिपाद्य
छे. पुरुष साङ्ख्यमां कह्यो छे. महान वेद प्रतिपाद्य छे. त्रणेने एकत्र करीए तो मोटा पुरुषरूप
आत्मा एवो अर्थ थाय. आथी सच्चिदानन्दरूपता पण कहेवामां आवी. पुरुष सद्रूप छे,
महान आनन्दरूप, आत्मा चिद्रूप, ते मूळभूत छे पञ्चात्मक छे तेथी एने ‘भूतावास’ कह्या
छे. जे मूळभूत छे तेमां बधां भूत रहे छे. एटलामाटे ज भगवाने माताने पोताना मुखमां
जगत् बताव्युं ते जो भूतो भगवान्थी जुदां होय तो भगवान्नुं असङ्गत्व भाङ्गी जाय तेथी
भगवान् भूतरूप पण छे, पर पण छे. जे सर्वनुं प्रशासन करे ते पर कहेवाय. जे पराधीन
होय ते मूळरूप न कहेवाय तेथी ‘पर’ कह्या अने व्यापक न होय ते पण ‘पर’ न कहेवाय
तेथी ‘आत्मा’ कह्या. तेथी सर्ग लीलामां प्रथम भगवान्, पछी पुरुष, पछी महत्तत्व, पछी
अहङ्कार, पछी भूत अने पछी जगत्, ते पछी पर विराट नारायण, तेथी ब्रह्माण्डविग्रह. आ
श्लोकथी भगवान्नी सर्ग लीला कही.
ज्ञान अने विज्ञान ना निधिरूप आप ब्रह्म छो, अनन्त शक्तिवाळा छो, आप
गुण अने विकाररहित छो अने आप अप्राकृत स्वरूप छो एवा आपने अमो
*नमन करीए छीए ॥४०॥
विशेष - विसर्ग लीला सहित ब्रह्मरूपने नमन करे छे के आप शास्त्रीय ज्ञानरूप छो अने ‘विज्ञानरूप’ एटले अनुभवरूप पण छो; अथवा निर्विषयक सविषयकरूप छो. आत्माभूत गुणभूतना निधिरूप छो. जेटला ज्ञानार्थी छे ते बधा आपथी ज कृतार्थ थाय छे. एमदशमस्कन्ध १५२ साधनरूपता कहीने फळरूपता कहे छे के आप ब्रह्मरूप छो. त्यां शङ्का थाय के ब्रह्म फळरूप अने जगत् कर्तृ केम थई शके? एना उत्तरमां कहे छे के ए अनन्त शक्तिवाळुं छे, तेथी सर्वरूप थई शके छे. त्यां कहे छे के ते गुणथी एम करता हशे. एना उत्तरमां ए ‘अगुण’ छे, केमके ए ‘अविकार’ छे. विकार तो प्राकृतमां सम्भवे. आ तो अप्राकृत छे. प्राकृत होय ते जन्मादि विकार तथा दोषवाळो होय. विसर्गमां ज्ञान अधिकारी (ब्रह्माजी) नुं विशेषण छे तेथी ब्रह्माजी ज्ञानपूर्ण छे. एमने सृष्टि उपयोगी अनेक प्रकारनुं ज्ञान छे. एम बे विशेषण कहीने विसर्गरूपता कहे छे. अर्ही ब्रह्माजी चतुर्मुख लेवा तेथी कार्यात्मक जगत् उत्पत्तिने माटे अनन्त शक्तिरूप एमने कह्या. ते एमां बन्धाय नहि ए माटे एमने ‘अगुण’ कह्या. दोष एमने न लागवामाटे ‘अविकार’ कह्या. स्वेच्छाथी सृष्टि करता नथी एम बताववामाटे ‘अप्राकृत’ कह्या. आथी विसर्गमां छ गुण जोईए ते कह्या. त्रण गुणमां त्रण दोषनो अभाव कह्यो. ज्ञान, महत्व अने सामर्थ्य ए मळीने छ गुण कह्या. आप काळरूप, काळ जेनी नाभिमां छे तेवा काळनाभ, काळना अवयवोना साक्षी, विश्वरूप, ए विश्वने जोनार, एना कर्ता अने एना कारण पण *आप ज छो ॥४१॥
विशेष - हवे त्रीजी स्थान (नियमन) लीला आ श्लोकथी कहे छे. ए स्थान बे प्रकारनुं छेःशब्द मर्यादामां ‘काल’ नियामक छे, ज्यारे अर्थ मर्यादामां ‘भूमि’ नियामक छे. ए पण कहे छे. एमां जगतनुं मूळ कारण काळ छे. ए भगवान्नी चेष्टारूप छे. ‘‘काळ छे नाभिमां जेने’’ ए विशेषणथी सृष्टिनुं प्रयोजन कह्युं. मृत्युरूप काळ पोताना स्थानमां रहे छे. नाभि मृत्युनुं स्थान छे. मृत्यु जेने खाई जाय छे ते एने बहार काढी मूके छे अने मृत्यु अन्दर पेसी जाय छे. ‘‘मृत्यु नैवेदमावृतमासीत्’’ ए श्रुतिमां एनो विस्तार छे. ए काळथी क्रियाशक्ति कही अने काळनाभथी सृष्टिनुं प्रयोजन कह्युं. हवे सृष्टिनो प्रकार कहे छे के आप काळना अवयवोना साक्षी छो. काळना अवयव एटले सर्व उत्पत्तिनां निमित्त तेना आप साक्षी छो. आथी विश्वसृष्टिमां प्रभुने क्लेशनो अभाव कह्यो. शब्दमर्यादामां तो काल सूर्य छे. काळनाभ शब्दो एटले बधा वेदो, काल - अवयव साक्षीरूप बधां कर्मो, सूर्यनुं काळरूप तृतीयस्कन्ध अध्याय ११ थी १३ मां विस्तारथी कह्युं छे. शब्दो मात्रात्मक छे, तेथी काळ छे नाभिमां जेने, तेने सर्वथा कालनी अपेक्षा रहे छे. ‘‘काले कर्म हि चोद्यते’’ कर्म काळमां करवानुं कहेवाय छे, तेथी काल अवयवनां साक्षी कर्मो नित्य होवाथी काल अवयवने साक्षी कह्यो. अत्यार सुधी विश्वना कारणरूप आप छो एम कह्युं हवे आप विश्वरूप छो एम कहे छे. आपदशमस्कन्ध १५३ विश्वरूप छो ए विश्वने त्रण प्रकारनुं कहेवामाटे प्रथम आधिदैविक रूपने कहे छे. ए विश्वना आप द्रष्टा छो. आधिदैविक वगर एनुं स्वरूप सिद्ध न थई शके अने तेना कर्ता छो एम कहेवाथी आध्यात्मिकरूपता कही ए सर्व कर्ता छे. हवे आधिभौतिक कहे छे. ए विश्वना ‘हेतुरूप’ एटले भूत आदिरूपद्ग पण आप छो. आथी अर्थ मार्यादा पण बतावी. ए कहे छे के विश्व पोते ‘अर्थरूप’ छे. ते विश्वना उपद्रष्टा ‘मोक्षरूप’ छे. ए विश्वनो कर्ता ‘कामरूप’ छे, एनुं कारण ‘धर्मरूप’ छे एम चार पुरुषार्थरूप पण आप छो. पञ्चभूत, पाञ्च विषय, दश इन्द्रियो, पाञ्च प्राणो, मन, बुद्धि, चित्त अने अहङ्कार रूप (अन्तःकरण) ने अने जेनी पोताना आत्मानी अनुभूति त्रण गुणवाळा अभिमानथी गूढ छे तेवा आपने अमो नमस्कार करीए *छीए ॥४२॥
विशेष - एम विश्वरूपता कहीने विश्वना भोक्ता एटले सङ्घात अने जीवरूप पण आप छो एम कहे छे. एनाथी पुष्टिलीला कहेवाशे. एमां पहेलां सङ्घातनो निर्देश करे छे के महाभूत, मात्रा, इन्द्रियो, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार आनुं समुदित नाम सङ्घात छे ते सङ्घातरूप आप छो. जीवरूप पण आप छो एम कहेवाना माटे कहे छे के त्रण गुणना अभिमानथी गूढ छे आत्मानो अनुभव जेनो तेवा आप छो. आनुं नाम ज पुष्टि के जे मर्यादानी व्यवस्था कर्या वगर स्थिति करवी. आत्मानो अनुभव थाय तो जीवभाव न थई शके तेथी ए आत्मानी अनुभूतिने गुणोथी ढाङ्की दे छे. तेथी स्वरूप ढङ्कावाथी जीवभाव उपर आवे छे. एनाथी पुष्टिलीला कही छे. आप अनन्तरूप छो, सूक्ष्मरूप छो, अविकारी छो, अने ज्ञानस्वरूप छो. अनेक प्रकारनावादने आप अनुसरोछो. तेम जवाच्य (अर्थ)अने वाचक (शब्द) मां जेमनी शक्ति छेतेवा आप छो* ॥४३॥
विशेष - एम भगवान् अर्थसृष्टिरूप कह्या. हवे शब्दसृष्टिरूपे आप लीला करे छे ए कहे छेः रूपसृष्टि करतां नामसृष्टि विलक्षण छे. रूपसृष्टि अन्तवाळी छे. ज्यारे नामसृष्टि अनन्त छे. नामसृष्टि सूक्ष्म छे. रूपसृष्टि स्थूल छे. रूपसृष्टि विकृत छे त्यारे कूटस्थ अने अविकृत नामसृष्टि छे. रूपसृष्टि जडरूप छे. त्यारे नामसृष्टि बोधरूप छे. एम नाम अने रूप नुं चार प्रकारे वैलक्षण्य कह्युं. त्यां शङ्का करे छे के ज्यारे नामसृष्टि बोधरूप छे त्यारे एमां जगतनो लय थवानो प्रसङ्ग पण आवे! एना उत्तरमां कहे छे के एमां अनेक प्रकारना वादनो अनुरोध होवाथी ए प्रसङ्ग नहि आवे. सिद्धान्त, सिद्धान्ताभास अने पाखण्डरूप वादो छे, तेनो शब्द अनुरोध करे छे. ए वादो आपनुं जेवुं वर्णन करे छे तेवा भगवान् थई जाय छे. एम थवामान्दशमस्कन्ध १५४ युक्ति कहे छे के ए वाच्यवाचक शक्तिरूप छे. एटले शब्द अने अर्थ मां एणे पोतानी शक्तिओ स्थापी छे. वादी जेवो अर्थ करवा धारे तेवी शक्ति एमां छे तेने काढीने एवो अर्थ करे छे. तेथी ज ‘‘शक्तयो मे दुरत्यया, वदतां किं नु दुर्घटम्’’ इत्यादि कह्युं छे. आ कहीने ‘उति’ लीला आमां कही छे. जेमके जेवी वासना होय तेवा थवुं ए ज ‘‘ऊति ऊतयः कर्मवासनाः’’ ए एनुं लक्षण छे. आप प्रमाणरूप वेदोना मूळ छो. आप शास्त्रना कहेनार अने कवि एटले ए शास्त्रना रसने जाणनार छो. प्रवृत्ति अने निवृत्तिरूप अने वेदरूप पण आप छो. एवा आपना *स्वरूपने अमे वारंवार नमस्कार करीए छीए ॥४४॥
विशेष - एम सामान्य रीते नामसृष्टि लीला कहीने विशेष कहे छे के वेद वगेरे प्रमाण छे तेमां प्रमाणपणुं अने आदरणीयता छे ते आपना स्वरूपने कहेनार होवाथी अने आपनी वाणीरूप होवाथी छे. जो आपने कहेता न होय तो एने कोई गणे नहि. नित्य वेद होय छतां ए भगवान्थी जुदा होय तो ए प्रमाणरूप न गणाय अने नित्य पण न गणाय, तेथी वेदनी वेदता आपनाथी, एटले प्रमाणना मूळरूप आप छो. तेमज शब्दरचना जाणनार पण आप छो. तेथी शब्दने बोलनार, शब्दना रसने जाणनार अने शब्दरूप आप छो ए वात सिद्ध थई, शब्दना उपादान कारणरूप पण आप छो, केमके वेदना कारणरूप आप छो. एम कारणरूपता कहीने कहे छे के वेदना आन्तररूप पण आप छो. प्रवृत्ति कराववी अने निवृत्ति कराववी ए बे वेदनां कार्य छे. रागथी प्राप्त विषयथी निवृत्त करे छे त्यारे अप्राप्त विषयमां प्रेरे छे. एम करीने आज्ञारूप पोते थाय छे. वेदरूप कह्या. आ शब्दोथी मन्वन्तररूप सद्धर्मो (सारा पुरुषना धर्मो) कहेला छे. तेथी आ मन्वन्तर लीलानुं रूप थयुं. आप सदानन्द छो. सर्वना हृदयमां रमनार अथवा सर्वने रमाडनार छो. वसुदेवजीना आप पुत्र छो. प्रद्युम्नरूप आप छो. अनिरुद्धरूप अने भक्तोना पतिरूप आप होईने आपने अमो बधी नागपत्नीओ वारंवार नमन करीए छीए* ॥४५॥
विशेष - भगवान्नी प्रमाणरूपता अने प्रमेयरूपता वेदप्रतिपाद्य छे एम कहीने अनाविर्भूतरूप कह्युं. लोकमां आविर्भूत चतुमूर्ति भगवान्नुं तन्त्रना प्रकारथी निरूपण करे छे. कृष्ण शब्दथी सदानन्दस्वरूप कह्युं. रामथी सङ्कर्षणरूप कह्या. वसुदेव सुत शब्दथी वासुदेव कह्या. ‘च’कार छे तेथी एने ज प्रद्युम्नरूपता पण कही. वसुदेव शब्दना शुद्धसत्व अने वसुदेव एवा बे अर्थ थाय छे. प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध कहेवाथी चतुर्मूर्ति भगवान् कह्या. सदानन्द भगवान्दशमस्कन्ध १५५ चतुर्मूर्तिरूपे जे माटे प्रकट थया ते कहे छे के ए सर्व भक्तना पति छे. ए भक्तना पति अने भक्तिना फळरूप छे अने भक्तिने प्रवर्तावनार छे. आ बाबत कहेवाथी ‘ईशानुकथा’ एटले विष्णुभक्तिनुं निरूपण करेलुं छे. आप गुणोनो प्रकाश करो छो. गुणोवडे स्वस्वरूपने ढाङ्को छो. गुणोनी वृत्तिथी जणाओ छो गुणोना *द्रष्टा छो अने स्वयं वेद्य छो ॥४६॥
विशेष - लोको कहे छे के भगवान् सगुण छे, एनो अर्थ आवो छे के ए गुणनो प्रकाश करवामाटे गुणोने पोतानी पासे राखे छे अने एने उत्तेजित करे छे. गुणनुं माहात्म्य वधारवामाटे ए गुणोवडे पोतानुं स्वरूप गुप्त करी दे छे एटले पोतानुं तेज गुणने आपी पोते गुण पासे देखाता नथी. पछी कौतुकमाटे गुणनी वृत्तिथी चाक्षुष ज्ञानादिवडे आप देखाय छे. तेथी सत्व, रज अने तमो भाव कह्या. एम करवानुं कारण ए के ते गुणोना द्रष्टा छे. एने जोईने एनो उपकार छे एम करवा छतां गुण ए भगवान्नुं कांई अहित करी शक्ता नथी, कारण के भगवान् तो स्वयं प्रकाश छे. एनुं ज्ञान कोई पण करावी शक्तुं नथी. तेम कोई एना ज्ञानने छुपावी शक्तुं नथी. ए गुणो-सच्चित् अने आनन्दना धर्मो छे. भगवान् ज पोताना धर्मोरूपे प्रकट थईने सगुण कहेवाय छे. तेथी निरोध कह्यो. *आपना विहारने कोई जाणी शक्तुं नथी, सर्व तत्वनुं स्वरूप आपनाथी ज जाणी शकाय छे. इन्द्रियोना प्रेरक आप छो. मनन करनार छो. मौन स्वभाववाळा आप छो. अमे आपने नमन करीए छीए ॥४७॥
विशेष - एम सगुणरूप कहीने ज्ञेय (जाणवा योग्य) रूप कहे छेःप्रकृति पुरुषरूप जेनुं स्वरूप छे अथवा अज्ञात छे विहार जेनो तेवा अथवा छुपा रहेवाने माटे विहार करे छे. एवो कपट मानुषभाव करे छे के कोई एने जाणी न शके. एम करवानुं कारण ए ज के सर्व तत्वोनी उत्पत्ति अने ज्ञान एनाथी ज थाय छे. जो भगवान् स्वयं अव्याकृत न थाय तो व्याकृत उत्पन्न न थाय. कार्य कारण करतां जुदी रीते थवुं जोईए. एम उत्पत्तिपक्ष कहीने ज्ञप्ति (ज्ञान) पक्षने कहे छे के आप इन्द्रियोना ईश छो. एटले आप ज इन्द्रियोने प्रवर्तावो छो तेथी आपने नमीए छीए. आप इन्द्रियोने प्रवर्तावशो तो अव्याकृतनुं ज्ञान केम थशे? त्यां कहे छे के आप मुनि छो; मननथी ए ज्ञान थशे. भगवान्ने अव्याकृत जाणवानुं साधन पण छे के ए मौनशील छे. ‘‘उपरतायां वाचि किं ज्योतिर्ब्रह्म’’ ‘‘वचस्युपरते प्राप्य’’ ए पण एक भगवान्नुं अव्याकृतरूप छे के ज्यां ‘‘यस्यामतं तस्य मतं’’ इत्यादि वाक्योनो सम्बन्ध थाय छे. आथी मुक्ति लीला कहेवामां आवी.दशमस्कन्ध १५६ ब्रह्मादिथी लई अमो वगेरेनी गतिने जाणनार, *सर्वना साक्षी, विश्वरूप अने अविश्वरूप, एना द्रष्टा तथा एना कारणरूप आप ज छो, अमे आपने नमन करीए छीए ॥४८॥
विशेष - एक भगवान् शास्त्रार्थ रूप छे. जेनाथी पडिन्तो व्यवहार करे छे; ए कहे छेःब्रह्मादिथी आपणा सुधीना बधाना व्यवहारने जे जाणे छे. शास्त्रथी जे ज्ञान थाय ते आवुं थाय छे. एम बहारना ज्ञानरूप छो अने सर्वना अध्यक्ष एटले सर्वना साक्षी छो तेथी आपने (प्रत्यक्षने) नमे छे. ‘ते नमः’ ए शब्दथी ए ज आप विश्वरूप अने विश्वथी जुदा जेम वृक्ष डाळोरूपे होवा छतां फळरूप पण छे तेम; तेथी आपने केटलाक विश्वरूपे तो केटलाक एथी जुदा कहे छे, ज्यारे केटलाक बन्नेरूप अने बीजा बन्नेथी जुदा कहे छे. वळी केटलाक एना द्रष्टा कहे छे. तेथी अविश्वपक्षमां प्रमाण पण कह्युं. विश्वपक्षमां प्रमाण कहे छेःए विश्वना आप कारणरूप छो. कारणात्मक्ता कार्यने होय ए ज ‘प्रमाण’ कहेवाय. ए प्रमाणे आ श्लोकमां आश्रय लीलानुं स्वरूप कह्युं. कांई पण आप चेष्टा करता नथी तो पण आ जगतनां जन्म, रक्षण अने संहार ने गुणवडे करो छो. ए आप कालशक्तिथी करो छो. ज्यारे आ काळशक्तिने धरो छो त्यारे ए प्रकृतिना गुणमां क्षोभ करे छे. जेम वायु सिंहासननी पूतळीने चलावे छे, तेथी सर्व कार्य थाय छे. तेमां गुण उपादान, काळ निमित्त अने स्वभाव नियामक छे. ते-ते कार्यना स्वभाव एना नियामक थाय छे. तेनो प्रबोध काळ करे छे. आप ज एनाथी अमोघ विहार करो छो. आ बधुं करतां आप सन्मार्ग अने सज्जनोनी रक्षा करी, तेमनुं परिपालन करी तेमने सर्व पुरुषार्थो प्राप्त थाय तेनुं ध्यान तो राखो छोज ॥४९॥
आ त्रिलोकीमां शान्त, अशान्त अने मूढ योनिओ आपनां ज शरीर छे. अत्यारे सत्पुरुषना तथा धर्मना रक्षणनेमाटे आप पधार्या छो तेथी शान्त शरीरो आपने प्रिय छे. बीजां शरीर दुःख देनार होवाथी आपने प्रिय नथी ॥५०॥
अमे आपनी प्रजा छीए. आपे अमारो अपराध एक वखतने माटे क्षमा करवो जोईए केमके अपराध करनार मूढ छे अने आपना स्वरूपने जाणतो नथी.तेथी हे शान्तात्मन्! अपराध अज्ञानकृत होई क्षन्तव्य छे ॥५१॥
हे भगवन्! कृपा करो. ए सर्पमां तो कोई एवो गुण नथी जेथी एना उपर आपनी कृपा उतरे, पण आप भगवान् छो तेथी तेना उपर कृपा करो. ग्रहण वखतेदशमस्कन्ध १५७ सेवा न करतो होय तेने पण दान आपवामां आवे छे कारण के ए समय ज दान करवा माटेनो छे. एम सर्पमां भक्ति वगेरे आपनी कृपानां कारण न होय तो पण ते मरवानी अणी उपर छे, माटे कृपा करो. अमो स्त्रीओ छीए. साधु पुरुषो हमेशां स्त्रीओ उपर कूणी (दयावाळी) नजर राखे छे अने शोक करे छे के अरर! आ जीव, ज्यां सदा भय अने पराधीनता छे, जेने माटे मुक्तिनां द्वार ज बन्ध छे तेवा स्त्रीनां शरीरमां केम आव्यो? आप तो साधुओना रक्षक छो तो तेमने (साधुओने) शोक न थाय ए माटे पतिरूपी प्राणनुं अमने दान करो ॥५२॥
अमे आपनी दासीओ छीए. तेमनुं कर्तव्यतो आपनी आज्ञानुं पालन छे. आपनी आज्ञाने श्रद्धाथी पाळे ए सर्व प्रकारना भयथी मुक्त थायछे ॥५३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम नाग पत्नीओए भगवान्नी स्तुति करी त्यारे भगवान्ना पादप्रहारथी जेनां माथां भाङ्गी गया छे अने मूर्छित थयो छे तेवा नागने भगवाने चरणथी फेङ्क्यो ते एनी स्त्रीओ पासे पड्यो ॥५४॥
जेणे इन्द्रियो अने प्राण पाछा मेळवेला छे ते कालिये महामुश्केलीए श्वास लेतां देवरूप थई बेहाथ जोडी अभय आपनारनी धीरे-धीरे स्तुति करी ॥५५॥
कालिय बोल्योःअमे जन्मथी ज बीजाने दुःख दई राजी थनारा दुष्ट अने घणा क्रोधी छीए. लोकनो स्वभाव दुस्त्यज छे के एनो असद् वस्तुमां आग्रह बन्धाई जाय छे ते छूटतो नथी ॥५६॥
हे धाता! आपे ज आ जगत् बनाव्युं छे. एनो स्वभाव एटले प्रकृति धर्म जीवनो, ‘वीर्य’ इन्द्रियोनो धर्म, ‘ओज’ प्राणनो धर्म, ‘योनि’ मातृधर्म, ‘बीज’ पितृधर्म, ‘आशय’ अन्तःकरण धर्म अने ‘आकृति’ अनेक प्रकारना धर्म आपे ज करेला छे ॥५७॥
हे भगवन्! एमां पण अमे तो ‘सर्प’ एटले घणा क्रोधवाळा अने मोहवाळा ते दुस्त्यज आपनी मायाने केम छोडी शकीए? ॥५८॥
आप जगतना ईश्वर होवाथी अमारी योनिनुं कारण पण आप ज छो; तेथी आप निग्रह के अनुग्रहमान्थी जे योग्य लागे ते करो ॥५९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए वात साम्भळीने कार्यमाटे मनुष्य रूप धारण करनारा भगवाने कह्युं, ‘‘हे सर्प! तारे आ श्रीयमुनाजीमां न रहेवुं. तारा कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र वगेरे सहित अर्हीथी समुद्रमां जईने रहे अने आ श्रीयमुनाजी विष रहित थई,दशमस्कन्ध १५८ गायो अने मनुष्य ना उपयोगमां आवे ॥६०॥
में तने शिक्षा आपी तेनुं जे माणस स्मरण करशे अथवा साञ्जे-सवारे कीर्तन करशे तेने तमारा लोकोनो भय न थाय ॥६१॥
में जे हृदमां क्रीडा करी तेमां स्नान करी तेना जळथी जे देवादिनुं तर्पण करशे, उपवास करी मारुं स्मरण करतां पूजन-अर्चन करशे ते सर्व पापथी मुक्त थशे ॥६२॥
जे गरुडना भयथी ‘रमणक’ द्वीपने छोडीने तुं अर्ही आव्यो हतो ते गरुड में तारा माथा उपर मारा चरणनी महोर लगाडी छे तेथी तने खाई शकशे नहि ॥६३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः अद्भुत कर्मवाळा श्रीकृष्णे सर्पने त्यान्थी मुक्त कर्यो त्यारे एणे आनन्दथी अने नाग पत्नीओए आदरवडे एमनुं पूजन कर्युम् ॥६४॥
दिव्य वस्त्रो, माळाओ, मणिओ, बहु कीमती आभरणो, दिव्य गन्ध, बीजा अनुलेपो अने कमळनी मोटी माळाओथी पूजा करी ॥६५॥
गरुडने ध्वजमां चिह्नतरीके राखनार जगन्नाथ कृष्णने पूजाथी प्रसन्न करी एमनी परिक्रमा करी, एमनी आज्ञा लई पोतानी स्त्रीओ, मित्रो अने पुत्रो साथे समुद्रना द्वीपमां कालिय गयो ॥६६॥
तदैव सामृतजला यमुना निर्विषाभवत् ॥ अनुग्रहाद् भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः ॥६७॥
क्रीडाथी मनुष्यरूप धारण करनार भगवान्ना अनुग्रहथी एज वखते श्रीयमुनाजी विषरहित अने अमृतजेवा जळवाळां थया ॥६७॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो अने चालु) ‘‘कालिय नागनुं
भगवाने दमन करी वीर्य प्रदर्शित कर्युं’’ नामनो सोळमो (प्रक्षिप्त अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां १३ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
पुष्टिमार्गीओ! सावधान!!
जो तमे षोडशग्रन्थोनो अभ्यास नथी कर्यो तो एक वार बधुं
वाञ्चवुं-साम्भळवुं-भटकवुं छोडीने सहुथी पहेला षोडशग्रन्थो भणो.
[[१५९]]
अध्याय १७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १४ श्रीकृष्णे दावाग्निनुं पान करी गायो गोपोनुं रक्षण कर्युं बीजा तामसप्रकरणना बीजा पेटाप्रकरणः प्रमेयप्रकरणनो अ. ३
विशेष - आ सत्तरमा अध्यायमां कालियहृदथी भगवान् पधार्या त्यारे श्रीयमुनाजीना किनारा उपर जे व्रजवासीओ, गायो वगेरे हतां तेमने बहु आनन्द थयो. पछी अग्निथी एमनी रक्षा करी ए आ प्रसङ्गने लईने कहे छे. इन्द्रिय अने प्राण नो दोष साथे ज दूर करवो जोईए, तेथी इन्द्रियदोषरूप कालियनी कथा कही तो प्राणना दोषरूप अग्निथी दाह न थयो ते कहेवो ज जोईए. आ प्रासगिङ्क कथाथी भगवान्नुं अद्भुत कर्मपणु सिद्ध थाय छे ए कहेवाने माटे अर्ही सर्व दोषो कहेवामां आव्या छे. एम लीला न करे तो भक्तोना दोष बीजी रीते दूर थई शके नहि नागालयं रमणकं कस्मात् तत्याज कालियः ॥ कृतं किं वा सुपर्णस्य, तेनैकेनासमञ्जसम् ॥१॥
राजा बोल्यो - कालिये नागोना निवास रमणक द्वीपने शा माटे छोड्यो? वळी एणे एकलाए गरुडनुं शुं अनिष्ट कर्युं के एने ज गरुडनो भय थयो? ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे महाबाहो! बधा *सर्पोए मळी गरुडने अमुक सर्पो दरेक मासे आपवा अने एने निश्चित वनस्पतिनी नीचे अमुक जग्याए राखवानो निश्चय कर्यो ॥२॥
विशेष - विनता अने कद्रू ए बे कश्यपनी स्त्रीओमान्थी विनताना गरुड थया. त्यारे कद्रूमान्थी नाग थया. ए बन्ने माताओने परस्पर शत्रुता होवाथी गरुड बधा सर्पोने मातानी शत्रुताने याद करी मारी नाखता, केटलाकने पोतानी क्षुधा निवृत्तिने माटे मारता, त्यारे वधारे सर्प वृथा न मरे एवा विचारथी वासुकि वगेरेए गरुडने अमुक सर्पो खावाने माटे आपवा अने ए एक वनस्पतिनी नीचे हाजर करवा, समय उपर गरुड आवी एने खाई चाल्यो जाय, तेथी बीजा सर्पो वृथा न मरे; महिनामां एक वखत ए बलि आपता हता. आ ठराव ब्रह्माजीए गरुड पासे कबूल कराव्यो हतो एवी कथा छे. महात्मा सुपर्णथी पोतानुं रक्षण करवामाटे दरेक अमासे सर्पो पोतानो भाग त्यां धरी आवता हता. एम करवाथी बीजा सर्पो निर्भय रहेता हता ॥३॥दशमस्कन्ध १६० पण कालियने पोताना झेरना पराक्रमनो मद हतो. ए गरुडने कांई हिसाबमां गणतो नहोतो अने गरुडनो भाग सर्पो काढता हता एने पोते ज खाई जतो ॥४॥
हे राजन्! भगवान्ने प्रिय गरुड तो बहु बळवान छे. एना साम्भळवामां आव्युं के कालिय पोतानो भाग उडावी जाय छे त्यारे ए बहु गुस्से थया अने तेने मारी नाखवा तेना उपर गरुडजीए आक्रमण कर्युम् ॥५॥
नखना आयुधवाळा गरुडजी आव्या त्यारे अनेक माथावाळो कालिय पण फणा माण्डी सामो थयो. ए दान्तरूपी हथियारवाळो छे. विकराळ जिह्वा अने फाडेला उग्र डोळाथी गरुडजीने डरावतो हतो. तेणे दान्तथी तेमने दंश कर्यो ॥६॥
कश्यपनन्दन गरुडजी विष्णु भगवान्ना वाहन छे अने एमनो वेग तथा पराक्रम अजोड छे. कालिय नागनी आ अवळचण्डाई जोई एमनो क्रोध खूब वधी गयो अने तेमणे तेने पोताना शरीरथी झटको मारी दूर फेङ्की दीधो अने पोतानी सोनेरी डाबी पाङ्खथी कालिय उपर जोरथी प्रहार कर्यो ॥७॥
ज्यारे गरुडजीए पाङ्खथी मार्यो त्यारे कालिय विह्वल बनी गयो अने गरुडजी ज्यां न जई शके तेवा कालिन्दीजीना ऊण्डा हृदमां घूसी गयो ॥८॥
एक वखते एवुं बन्युं के गरुडजीए त्यां एक मत्स्यने जोयो अने ए मत्स्य एनुं खाद्य होवाथी उठाव्यो, एटलामां त्यां सौभरि मुनि तप करता हता तेमणे कह्युं के मारा आश्रमना जीवने तुं लई न जा; तो पण गरुडजीने भूख लागेली तेथी मुनिनुं कहेवुं न साम्भळतां ए खाई गया ॥९॥
जेने लई गया ए माछलानो राजा हतो. एना जवाथी बधां माछलां दुःखी थयां, केमके एमनो रक्षक कोई रह्यो नहि. त्यारे सौभरिने दया आवी अने एमनुं भलुं करवामाटे सौभरि आ प्रमाणे बोल्या ॥१०॥
‘‘जो गरुड अर्ही प्रवेश करशे अथवा माछलाङ्खाशे तो ए तत्काळ मरी जशे ए हुं साचुं कहुं छुं’’ ॥११॥
ए वात बीजा कोई सर्पना जाणवामां नहती पण कालियने ए खबर हती तेथी ए गरुडजीथीभय पामी अर्ही भराई बेठो हतो. तेने श्रीकृष्णे दूर कर्यो ॥१२॥
आ बाजु भगवान् श्रीकृष्ण दिव्यमाला, गन्ध, वस्त्र, अमूल्य मणी अने सुवर्णना आभूषणोथी विभूषित थई, ते हृदमान्थी बहार पधार्या ॥१३॥दशमस्कन्ध १६१ एमने जोईने बधा ज व्रजवासीओ, प्राण आवतां जेम इन्द्रियो सचेत थाय तेम उभा थई गया. बधा गोपोनां हृदय आनन्दथी नाची उठ्यां. तेओए घणा ज प्रेम अने प्रसन्नतापूर्वक श्रीकृष्णने आलिङ्गन कर्युम् ॥१४॥
हे कौरव (परीक्षित)! यशोदा राणी, रोहिणीजी, नन्दरायजी, गोपीओ, गोपो अने गायो बधां श्रीकृष्णने प्राप्त करीने सचेत थई गयां. तेमनो मनोरथ सफल थई गयो ॥१५॥
बळदेवजी पण श्रीकृष्णने भेट्या अने एमना प्रतापने जाणनार होवाथी हस्या. पुरुषो, स्त्रीओ, आखला अने वाछडां परम आनन्द पाम्या ॥१६॥
विप्रो नन्दरायजी पासे आव्या अने स्त्रीओ सहित ते गुरुओए कह्युं, ‘‘कालिये पकडेला तमारा बालक (अमारा) भाग्यथी छूट्या छे ॥१७॥
श्रीकृष्ण सर्पथी निर्विघ्न बची गया तेथी ब्राह्मणोने दान आपो’’ हे राजन्! नन्दरायजीए प्रसन्न थईने गायो, सोनुं वगेरेनां दान कर्याम् ॥१७अ.॥ परम सौभाग्यवती देवी यशोदाजीए पण कालना मुखमान्थी बची गयेला पोताना पुत्रने गोदमां लई हृदय सरसो चाम्प्यो. एमनी आङ्खोमान्थी आनन्दनां अश्रू टपकतां हताम् ॥१८॥
बधां व्रजवासीओ अने गायो भूख्यां, तरस्यां अने महेनतथी बहु थाक्यां हतां तेथी ए रात तोकालिन्दीजीनी पासेना काण्ठाना वनमां ज मुकाम करी पसार करी ॥१९॥
ते समये मध्यराते एकाएक जङ्गलमां लागेलो दावाग्नि सूतेला व्रजने चारे तरफथी घेरी लई बाळवा लाग्यो ॥२०॥
तेथी बळता व्रजवासीओ उठी बहु गभराईगया अनेकपटथी मनुष्यवेष धरनार श्रीकृष्णने शरणेगया ॥२१॥
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हेमहाभाग! हे अतुल पराक्रम राम! अमे आपनां छीए छतां आ भयङ्कर अग्नि अमने बाळे छे ॥२२॥
कोई रीते सामनोन थई शके तेवा काळरूप अग्निथी आपना भक्तो अने मित्रो नीरक्षा करो, हे प्रभो! अमे आपनान्निर्भय चरण छोडवाने इच्छता नथी ॥२३॥
इत्थं स्वजनवैकलव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः ॥ तमग्निमपिबच्छीघ्र मनन्तोनन्तशक्तिधृक् ॥२४॥दशमस्कन्ध १६२ एम पोताना भक्तोनो गभराट जोईने, अनन्त शक्तिने धारण करनार जगदीश्वर भगवान् ए अग्निने तरत ज पी गया ॥२४॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो भगवद् यश निरूपक त्रीजो अने चालु) ‘‘श्रीकृष्णे दावाग्निनुं पान करी गायो गोपोनुं रक्षण कर्युं’’ नामनो सत्तरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां १४ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘यस्तु स्वार्थं भगवन्तं सेवते सो अधमः इति’’ जे स्वार्थ (आजीविका,प्रतिष्ठावगरेमाटे)भगवत्सेवा करतो होय तेने अधम (अर्चक) जाणवो. (श्रीवल्लभाचार्य सुबो.२.९.१९)
अध्याय १८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १५ श्रीबळदेवजीए प्रलम्ब नामना दैत्यने मार्यो बीजा तामसप्रकरणना बीजा पेटाप्रकरणः प्रमेयप्रकरणनो अध्याय ४
विशेष - आ अध्यायमां प्रलम्बनो वध कह्यो छे. अर्ही एनो वध भगवाने आवेशद्वारा कर्यो छे. एटले बळभद्र चरित्र छे. व्रजमां अने वनमां एमनी क्रीडा छे. ए प्रलम्बने मारी व्रजवासीओनो मोटो अन्तःकरणनो दोष भगवाने दूर कर्योछे. अथ कृष्णः परिवृतो बन्धुभिर्मुदितात्मभिः ॥ अनुगीयमानो न्यविशद् व्रजं गोकुलमडिन्तम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - अत्यन्त आनन्दमां आवेला बन्धुजनो जेनी पाछळ लीलासम्बन्धी गीत गाता चाले छे तेवा श्रीकृष्ण गोकुळथी शोभायमान व्रजमां पधार्या ॥१॥
एम गोपाळनो कपट वेष करी क्रीडा करता राम-कृष्ण गोकुळने आनन्द आपे छे एटलामां माणसोने अत्यन्त प्रिय न लागे तेवी ग्रीष्म ऋतु आवी ॥२॥
ज्यां राम सहित श्रीकृष्ण साक्षात् बिराजे छे तेवा वृन्दावनमां तो ए ग्रीष्म [[१६३]] पण वसन्त जेवी लागी, केमके वृन्दावननी शीतलतामां एना उष्ण गुण प्रभाव पाडी न शक्या ॥३॥
तमरान्नो तीणो झङ्कार झरणांओना खळखळाटमां डूबी (लीन थई) गयो हतो. ते झरणांओमान्थी जलनी घणी ठण्डी फरफर उडी वृक्षोनी उपर छण्टकाव करी रही हती. आवां वृक्षोना समूहोथी वृन्दावन शोभी रह्युं हतुम् ॥४॥
नदी, तळाव अने जळ नां झरणानां वायुथी एमां सन्ध्या समये खीलनारां (कह्लार), रात्रे खीलनारा (उत्पल-कुमुद) अने दिवसे खीलनारां (कञ्ज) कमळनी रजने लावता वायुथी वनमां रहेनाराओने वनना अग्निनो ताप लागतो नथी. तेम ज वृन्दावननी जमीन हरियाळीवाळी छे तेथी ग्रीष्मना सूर्यनो ताप पण नथी लागतो ॥५॥
अगाध जळवाळी नदीना काण्ठानो पवन जळकणने लावे छे तेथी जमीन भीनी रहे छे ए हेतुथी पण विषथी पण तीव्र सूर्यकिरणो वृन्दावननी जमीनना रसने सूकवी शक्तां नथी ॥६॥
ते वनमां वृक्षोनी हारमाळा फूलोथी लची रही हती. ज्यां जुओ त्यां सुन्दरता छलकाती हती. क्याङ्क रङ्गबीरङ्गी पक्षीओ कलरव करी रह्यां हतां, तो क्याङ्क हरणो फाळ भरी रह्यां हतां, क्याङ्क मोर टहुका करी रह्या हता, तो क्याङ्क भमरा गुञ्जारव करी रह्या हता, क्याङ्क कोयल कूजन करी रही हती, तो क्याङ्क वळी सारस पोतानो आगवो आलाप छेडी रह्या हता ॥७॥
आवुं सुन्दर वन जोई श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण अने गौर सुन्दर बळरामजी ने तेमां विहार करवानुं मन थयुं. आगळ-आगळ गायो चाली, पाछळ-पाछळ ग्वालबाल अने वचमां पोताना मोटाभाई बलदेवजीनी साथे वेणु वगाडता श्रीकृष्ण ए वनमां पधार्या ॥८॥
एमां दाखल थई कोमळ पल्लव, मयूरपिच्छ, माळाओ अने गेरु वगेरे वन धातुओथी राम-कृष्ण वगेरे शृङ्गार करी कोई नाचवा लाग्या, कोई युद्ध करवा लाग्या अने कोई गान करवा लाग्या ॥९॥
श्रीकृष्ण नृत्य करता त्यारे केटलाक गान करता अने केटलाक वेणु, हाथनी ताळी अने शिङ्ग वगाडता हता, तो केटलाक वाह-वाह करता हता ॥१०॥
गोप जातिथी छूपायेला गोपालनुं रूप धारण करेला देवोए हे राजन्! जेम नटदशमस्कन्ध १६४ बीजा नटने वखाणे तेम भगवान्नी ए देवोए प्रशंसा करी ॥११॥
जेमणे *काकपक्ष धारण करेला छे तेवा रामश्याम कोई सखाना बे हाथ पकडी तेने चक्कर-चक्कर फेरवे छे; क्यारेक लाम्बो कूदको तो क्यारेक ऊञ्चो कूदको मारे छे, क्यारेक एक-बीजाने दूर फेङ्की दे छे, क्यारेक बाहुक्षेप करे छे, क्यारेक एकबीजाने खेञ्चे छे, तो क्यारेक मल्लकुस्ती करे छे ॥१२॥
विशेष - चूडाकरण (वाळ वडा कराववाना) संस्कार करती वखते बे कान पासे वाळनी लटो रहेवा देवामां आवे छे ते ‘काकपक्ष’ कहेवाय छे. क्यारेक बीजा नाचे छे त्यारे बन्ने भाई गाय छे अने वाजिन्त्र वगाडे छे. हे महाराज! पोते बीजाने पण सारुं-सारुं कही वखाणे छे ॥१३॥
कोई जग्याए बीलान्थी, कोई स्थाने कुम्भफळथी, कोई जग्याए आमळान्थी खेले छे. क्वचित् मूठी भमावी क्रीडा करे छे. कोई जग्याए आङ्खर्मीचामणी रमे छे. कपर्दिका, वरवर्तिका वगेरे अनेक क्रीडा करे छे. क्याङ्क हरणनी अने क्वचित् मोरनी लीला करीने क्रीडा करे छे ॥१४॥
कोईवार देडकान्नी जेम विविध रीते कूदका मारता अने ठेकी जता, तो कोई वार अनेक रीते मोढां मरडी, मचकोडी, चाळा पाडी, हास्यनी छोळो उछाळता. क्यारेक गोपोनी पालखी बनावी श्रीकृष्ण तेमां बिराजता, तो क्यारेक वळी राजा बनी श्रीकृष्ण बीजाओने हुकम करता, बान्धता अने सजा करता ॥१५॥
आ प्रमाणे श्रीकृष्ण अने बळदेवजी वनमां, नदीमां, पर्वत उपर, खीणोमां, कुञ्जोमां, गाढ जङ्गलोमां अने नानी नदीओमां बधी ज रमतो रमता, जे साधारण बाळको संसारमां रमता होय छे ॥१६॥
राम-कृष्ण ए वनमां गोपो साथे गायो चारे छे एटलामां गोपवेषधारी ‘प्रलम्ब’ नामनो दैत्य भगवान्ने मारवाना उद्देशथी आवी गोवाळियामां भळी गयो ॥१७॥
भगवान् सर्वने जोनार छे तेथी आ दैत्य आव्यो तेने जाणी तो गया अने एनावधनो विचार करी लीधो.ए मित्रता करवा आव्यो तेने आपे अनुमोदन आप्युं ॥१८॥
सर्व प्रकारना खेलोने जाणवावाळा श्रीकृष्णेगोवाळियाओने पोतानी पासे बोलाव्या अने कह्युं के आपणे बे टुकडी पाडीने योग्य रीते रमीए ॥१९॥दशमस्कन्ध १६५ आ रमतमां ग्वालबालोए बळराम अने श्रीकृष्ण ने नायक बनाव्या. केटलाक श्रीकृष्णना साथी अने केटलाक बळरामना साथी बनीगया ॥२०॥
पछी ते लोको अनेक रीते एवी घणी रमतोरम्या जेमां एक टुकडीना खेलाडीओ बीजी टुकडीना खेलाडीओने पोतानी पीठ उपर बेसाडी एक नक्कीकरेला स्थाने लई जता हता. जीतनारी टुकडीघोडेसवार थती अने हारनारी घोडो बनती ॥२१॥
एम वहन करे छे अने करावे छे, साथे गायोने पण चारता जाय छे, एम रमता-रमता कृष्णने नायक करीने बधा‘भाण्डीरक’नामना वडलानीपासे आव्या ॥२२॥
रामना पक्षमां श्रीदामा,*वृषभ वगेरे छे. ते जीत्यात्यारे कृष्ण वगेरेए एमने पोतानी उपर बेसाड्या हता ॥२३॥
विशेष - भगवान् अक्लिष्टकर्मा छे एम बताववा क्वचित् स्वहीन भावने पण स्वीकारे छे, केमके अत्यारे भगवान धर्मोने आगळ करीने क्रीडा करे छे. एम बताववामाटे हीनभाव पोतानी क्रीडामां बताव्यो छे.(बीजाने पोताना खभे बेसाड्या छे) एमां भगवान् श्रीकृष्णे श्रीदामाने पीठ उपर बेसाड्यो केमके पोते हार्या हता. भद्रसेने वृषभने अने प्रलम्बे बळदेवजीने पोतानी पीठ उपर बेसाड्या ॥२४॥
दानवश्रेष्ठ प्रलम्बे ‘‘आ रमतथी कृष्णने तो नहि उठावी शकाय, माटे बेमान्थी एकने आपणे उपाडी जईए तो आपणो श्रम सफळ थाय’’ एम विचारी रामने उठाव्या अने चालवा लाग्यो.ज्यां उतारवानो ठराव हतो त्यान्थी ए आगळ वध्यो ॥२५॥
बळदेवजी बहु मोटा पर्वतना जेवा भारे हता. तेमने उञ्चकीने प्रलम्बासुर दूर सुधी न जई शक्यो, तेनी चाल अटकी गई. त्यारे तेणे पोतानुं कुदरती दैत्यरूप धारण करी लीधुं. तेना काळा शरीर उपर सोनानां घरेणा चमकी रह्यां हतां अने गौरसुन्दर बळदेवजी तेना उपर सवार थया हता तेथी तेनी एवी शोभा थई रही हती के जाणे वीजळीवाळां काळां वादळे चन्द्रमाने धारण कर्यो होय ॥२६॥
तेनी आङ्खो झगमग करती हती, दाढो भवां सुधी पहोञ्चेली बहु भयङ्कर हती. एना लाल-लाल वाळ एवा वीखरायेला हता के जाणे आगना भडका नीकळी रह्या होय. एना हाथ अने पग मां कडा,माथा उपर मुगट अने कानो मां कुण्डल हतां. एमनी कान्तिथी ते अद्भुत लागतो हतो. ते भयानक दैत्यने झपाटाबन्ध आकाशमान्दशमस्कन्ध १६६ जतो जोई पहेलां तो बळदेवजी कंईक जाणे गभराई गया ॥२७॥
बळदेवजीने भगवाने कह्युं हतुं तेनी स्मृति आवी के ए निर्भय थया. आकाशमार्गे कोई वस्तुने लई जतो होय तेम पोतानुं हरण करता शत्रुने, जेम इन्द्र पर्वतने वज्र मारे तेम, गुस्से थई दृढ मूठीथी मस्तकमां घा कर्यो ॥२८॥
एने मूठी वागी के एना माथाना चूरा उडी गया, मोढामान्थी लोही पडवा लाग्युं. मूर्छा आववाथी मोटो शब्द करतो, इन्द्रना वज्रथी जेम पर्वत पडे तेम, पृथ्वी उपर पड्यो. तेना प्राण तो अध्धर-आकाशमां ज नीकळी गया हता ॥२९॥
प्रलम्बने बळदेवजीए मार्यो ए जाणीने गोवाळिया बहु विस्मय पामी ‘‘सारुं कर्युं, सारुं र्क्युं’’ एम कहेवा लाग्या ॥३०॥
बळदेवजीने आशिष आपवा लाग्या, एमनां वखाण करवा लाग्या. एमनुं पूजन करी नवो जन्म थयो होय तेम एमने प्रेममां विह्वल चित्तवाळा थईने भेट्या ॥३१॥
पापे प्रलम्बे निहते देवाः परम निर्वृताः ॥ अभ्यवर्षन् बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥३२॥
पापी प्रलम्ब मर्यो त्यारे देवोने बहु आनन्द थयो अने साधुवादपूर्वक बळदेवजीनी उपर तेमणे पुष्पोनी वृष्टि करी ॥३२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो श्रीवर्णनरूप चोथो अने चालु) ‘‘श्रीबळदेवजीए
प्रलम्ब नामना दैत्यने मार्यो’’ नामनो अढारमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां १५मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय १९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १६ भगवाने बीजीवार दावाग्निनुं पान कर्युं बीजा तामसप्रकरणना बीजा पेटाप्रकरणः प्रमेयप्रकरणनो अ. ५.
विशेष - अज्ञानरूप आत्मदोषने अग्निने मिषे आप पान करशे तेथी सारी रीते निरोध सिद्ध थशे. पछी दासो आनन्दथी स्वछन्दलीला करशे. स्त्रीओनी आसक्ति अने मननी प्रीतिदशमस्कन्ध १६७ एनाथी थशे. क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणीः ॥ स्वैरं चरन्त्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः गोपो क्रीडामां पडी गया त्यारे एमनी गायो घासना लोभथी पोतानी मेळे चालती-चालती गह्वर (सघन) वनमां पहोञ्ची गई ॥१॥
*अजा, गायो अने महिषी एक वनथी बीजा वनमां जतां ‘इशिका’ (मुञ्ज) ना वनमां गयां. त्यां दावाग्नि लागेलो हतो तेथी ताप लागतां बधां प्राणीओ तरस्यां थयां अने भाम्भरवा लाग्याम् ॥२॥
विशेष - अजा, गावः अने महिष्यः ए त्रणेय गायोना ज गुणवाचक नाम छे, ‘अजा’ एटले राजसी गायो, ‘गावः’ एटले सात्विकी गायो अने ‘महिष्यः‘ एटले तामसी गायो अथवा भगवान् व्रजनां तमाम पशु-पक्षी-मृगादिनुं कल्याण करनारा छे, एटले बकरी अने भेंसो नुं पण कल्याण करे; एमां आश्चर्य नथी. (श्री सुबोधिनीजी) कोई टीकाकारोए गायोना त्रण भेदो आ प्रमाणे बताव्या छेः अप्रसूता ह्यजा प्रोक्ता गाव एक प्रसूतिकाः । बहुप्रसूता महिषी गावस्तु त्रिविधा मताः ॥ अर्थात् वीयायेली न होय तेवी गायो ‘अजा’ कहेवाय छे, एकवार वीयायेली होय ते गाय कहेवाय अने घणीवार वीयायेली गाय महिषी कहेवाय छे. ज्यारे श्रीकृष्ण, बळराम अने ग्वालबाळकोए जोयुं के अमारां पशुओनो क्यांय पत्तो ज नथी त्यारे तेमने पोतानी खेलकूदउपर पस्तावो थयो, (रमतनो आनन्द बधो जतो रह्यो)अने बहु तपास कर्या छतां पोतानी गायोनो पत्तो न लगावीशक्या ॥३॥
व्रजवासीओनी आजीविकानुं साधन तो गायो ज हती. तेओ न मळवाथी गोपो गभराई गया. हवे तो गायोनी खरी अने दान्तोथी कपायेल घास तथा पृथ्वी उपर पडेला खरीना चिह्नोथी मार्ग शोधता आगळ वध्या ॥४॥
एमणे जोयुं के एमनी गायो मुञ्जना वनमां रस्तो भूली भाम्भरी रही छे. तेमने मेळवी, तेमने पाछी वाळी. ए वखते तेओ एकदम थाकी गया हता अने तरस पण तेमने बहु लागी हती ॥५॥
तेमनी आ दशा जोई भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी मेघना जेवी गम्भीर वाणीथीदशमस्कन्ध १६८ नाम लई-लईने गायोने बोलाववा लाग्या. गायो पोताना नामनो अवाज साम्भळी हर्षमां गाण्डी-गाण्डी थई गई. तेओ पण जवाबमां हुङ्कारो दई भाम्भरवा लागी ॥६॥
हे परीक्षित! आ प्रमाणे भगवान् ते गायोने बोलावी ज रह्या हता के त्यां ते वनमां चोतरफ अकस्मात् दावाग्नि लाग्यो जे वनवासी जीवोनो काळ ज होय छे. साथे ज जोरदार आन्धी पण ए अग्निने फेलावामां सहाय आपवा लागी. तेथी चोमेर फेलायेल ते प्रचण्ड अग्नि तेनी भयङ्कर ज्वाळाओथी समस्त चराचर जीवोने भस्मसात् करवा लाग्यो. (धूमकेतु=धूमाडो जेनी ध्वजा छे तेवो अग्नि) ॥७॥
चारे तरफथी आवता अग्निने जोईने गोपो अने गायो भय पाम्यां. मृत्युना भयवाळा माणसो (गजेन्द्रनी) जेम हरिने शरणे जाय तेम बधा गोपो रामकृष्णने शरणे जईने कहेवा लाग्याः ॥८॥
‘‘महान पराक्रमवाळा हे श्रीकृष्ण! हे कृष्ण! हे अनन्त पराक्रमवाळा राम! दावाग्निथी बळता अमे आपने शरणे आव्या छीए, अमारी आप रक्षा करो ॥९॥
हे कृष्ण! आपना बन्धुओ आवी रीते दुःखी थवा न जोईए (अर्ही न ‘अवसादितुम्’ एवो पण पाठ छे. तेनो अर्थ ‘‘दुःख पामवा योग्य नथी’’) हे सर्वधर्मज्ञ! अमे तो आपने ज नाथ मानी आपने भरोसे रहेनार छीए, आपना सिवाय बीजा कोईने रक्षक माननार नथी ॥१०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - बन्धुओनां दीन वचन साम्भळीने भगवान्हरिएकह्युंः भय न पामो, आङ्खो बन्धकरो ॥११॥
एम तेमणे आङ्खो र्मीची के तरत भगवान् योगेश्वरेते भयङ्कर अग्निने मुखथी पीजई बधान्ने आपत्तिथी उगारीलीधा ॥१२॥
एमणे आङ्ख उघाडी त्यां तो भाण्डीर वनमां पोताने जोया. पोताने अने गायोने अग्निथी बची गयेलां जोई गोपो विस्मय पाम्या ॥१३॥
श्रीकृष्णनी आ योग सिद्धि तथा योगमायाना प्रभावने अने दावानलमान्थी पोतानो बचाव थयो तेने जोई तेओ श्रीकृष्णने देव तरीके मानवा लाग्या ॥१४॥
गोपो जेमनी पाछळ स्तुति करता आवे छे तेवा, अविद्यानो नाश करनार श्रीकृष्ण भगवान् गायोने आगळ करी बळदेवजीनी साथे वेणु वगाडता सायङ्काळेदशमस्कन्ध १६९ व्रजमां पधार्या ॥१५॥
गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ॥ क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥१६॥
अर्ही व्रजमां गोपीओने श्रीकृष्ण विना एक-एक क्षण सो-सो युग जेवडी लागी रही हती. ज्यारे श्रीकृष्ण पाछा पधार्या त्यारे, तेमनां दर्शन करी तेओ परमानन्दमां मग्न थईगयाम् ॥१६॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो अने चालु) ‘‘भगवाने बीजीवार
दावाग्निनुं पान कर्युं’’ नामनो ओगणीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां १६ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
जेम मलीयागर पोठी लाध्यो ते सुगन्ध शुं जाणे!
ज्यां लगी सार ना समज्यो त्यां लगी, तुं पण ते ज प्रमाणे (दयाराम)
भागवत भणीने शुं कीधुं !
अध्याय २०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १७ वर्षा शरद् वर्णन (वैराग्य) बीजा तामसप्रकरणना बीजा पेटाप्रकरणः प्रमेयप्रकरणनो अ. ६
विशेषः गोपो घेर आवीने स्त्रीओ पासे भगवल्लीला कहे छे एनुं कारण ए भगवदीयो छे. तेथी एमनो सङ्ग करवाथी एमने बहिर्मुखता थती नथी; नहि तो ए विजातीय होय तो एनो भाव एमना सङ्गथी नाश पामे. ए स्त्रीओना प्रसङ्गथी वृद्धो पण भगवल्लीला जाणवा लाग्या. तयोस्तदद्भुतं कर्म, दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ॥ गोपाः स्त्रीभ्यः समाचक्षुः प्रलम्बवधमेव च ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - दावाग्निथी गोपो अने गायो ने बचाव्या ए सम्बन्धी [[१७०]] राम-कृष्णनुं ए अद्भुत कर्म तथा प्रलम्बनो बळदेवजीए वध कर्यो ए वात गोपोए स्त्रीओने कही ॥१॥
वृद्ध गोपो अने गोपीओ ए साम्भळी विस्मित थयां अने कृष्ण-राम व्रजमां पधारी आपणा जेवा देखाय छे पण ‘‘ए श्रेष्ठ देवो छे’’ एम मानवा लाग्यां ॥२॥
त्यां तो सर्व प्राणीओने उत्पन्न करनारी *वर्षाऋतु आवी, जेमां बधी दिशाओ खीले छे, प्रकाशमान थाय छे अने वादळांओनो गडगडाट होय छे ॥३॥
विशेष - महाराजा पधारे त्यारे एनो बधो परिकर पहेलां आवे, तेम अर्ही वर्षाऋतु प्रथम आवी. ते सर्वना शोकने मटाडी बधी वस्तुनुं पोषण करे छे. भगवत्क्रीडा सामग्री एकवीस प्रकारनी छे, तेने कहे छे. ‘‘एकविंशो वा इतः स्वर्गो लोकः’’ ‘‘एकविंशतिर्वा देवलोकाः’’ ‘‘द्वादश मासाः पञ्चर्तवः त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः’’ जेम अस्पष्ट प्रकाशवाळुं सगुण ब्रह्म देखाय तेम घाटो अने काळो मेघ आकाशमां देखायो तेथी वीजळी अने गडगडाट युक्त *आकाश थयुम् ॥४॥
विशेष - ‘कृष्ण’ अने ‘आकाश’नी एक्ता बतावी छे. कृष्ण श्याम छे, पीताम्बर धरे छे, वेणुनाद करे छे, तेम कृष्णमेघमां विद्युत अने स्तनयित्नु छे, तेथी ‘‘आकाश शरीरं ब्रह्म’’ ए श्रुतिनुं अनुसन्धान थाय छे. *सूर्ये आठ मास सुधी पृथ्वीनुं जळरूप धन चूस्यु हतुं. ते जळने समय आव्यो त्यारे पोतानां किरणोद्वारा सूर्य पाछुं आपवा लाग्यो ॥५॥
विशेष - ‘‘याभिरादित्यस्तपति रश्मिभिः ताभिः पर्जन्यो वर्षति’’ ए श्रुतिथी पर्जन्य अने सूर्य एक छे. सूर्यनुं आध्यात्मिकरूप पर्जन्य, आधिभौतिकरूप आदित्य अने आधिदैविकरूप संवत्सर छे. मोटा वीजळीवाळा मेघने प्रचण्डरूप *वायु ज्यारे हलावे छे त्यारे प्रीति करनार अने जिवाडनार जळरूप धनने दयाळु पुरुषनी माफक तेओए पाछुं आप्युम् ॥६॥
विशेष - मेघ वायुने अधीन छे. वायुनुं कार्य बलनुं छे. इन्द्र अधिदेव, वायु अध्यात्म, मेघ अधिभूत छे, एम त्रिदेवता पक्षमां निर्णय छे. तेथी मेघने इन्द्रादि शब्दथी बोलावे छे एनो विरोध नथी. जेम कोई कामनाथी तप करतो होय तेनो देह सूकाई जाय, पण ज्यारे एने इच्छा प्रमाणे फळ मळे त्यारे एनुं शरीर पाछुं पोषाय छे तेम, ग्रीष्म ऋतुनादशमस्कन्ध १७१ तापथी दुर्बळ थयेली पृथ्वी उपर वरसाद वरस्यो त्यारे ए पृथ्वी पुष्ट थई ॥७॥
जेम कळियुगमां *वेद देखाता नथी, पण पापथी पाखण्डो देखाय छे तेम, सायङ्काले आकाशमां ग्रहो तो वादळान्थी ढङ्काई गया अने आगिया अन्धाराने लीधे चमकवा लाग्या ॥८॥
विशेष - अर्थ, शब्द, अन्तः (अन्दरनुं) फल, बहारनुं फल अने अङ्गमां रहेलुं फल एवा भेदथी फल त्रण प्रकारनुं गणाय छे. ज्यारे भगवान् पुष्टि प्रकट करे छे त्यारे मर्यादा शोभती नथी, तेथी पाञ्च प्रकारना धर्म वर्षामां देखाता नथी एम कहे छे. जेओनुं कार्य वेदोथी अणुमात्र पण विरोधी होय तेमने पाखण्ड जाणवा. तेओ मात्र वेषथी वैदिक छे. तेथी चातुर्मास्यमां वेदनी प्रवृत्ति नथी होती, एनी प्रवृत्ति वसन्त आदिमां होय छे छतां ‘‘न हि वेदाः’’ एम कह्युं तो कहे छे के धर्म त्रियुग छे, तेने कहेनार वेद पण त्रण युग सुधी ज रहे छे. पहेलां शान्त सूतेला *ब्राह्मणो धार्मिक क्रियानो समय वही जतां (मर्यादा नष्ट थतां), (शेठ दान वगेरे आपे छे एम साम्भळतां) जे ते वाणी बोले छे तेम मेघनी गर्जना साम्भळतां देडकाओ ड्रांउं..ड्रांउं करवा लाग्या ॥९॥
विशेष - धर्म, यज्ञ वगेरे वर्षामां थतां नथी; एमां तो दान वगेरे थाय छे, तेथी वेदवाणीनो अनध्याय थाय त्यारे ब्राह्मणो पण दान लेवामाटे देडकाना जेवी वाणी काढे छे. ‘‘ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमकृत’’ (सोमपान करवाने तत्पर थयेला ब्राह्मणोए पोताने ठीक पडे तेम वाणी उच्चारी) इत्यादि श्रुतिओथी वात स्पष्ट छे. जेम मनने वश न राखतां एने आधीन थयेल पुरुषनां देह, शक्ति अने अर्थ नष्ट थाय छे तेम नानी नदीओमां जळ आवतां तेनां वहेण आडे रस्ते गयां अने पछी सूकाई गई ॥१०॥
मनुष्यने राज्य सम्पत्ति प्राप्त थाय त्यारे युद्ध सामग्री तेने प्राप्त थाय तेवी रीते भूमि श्याम रङ्गना घासथी श्याम, इन्द्रगोपथी लाल अने बिलाडाना टोपथी श्वेत थई. (इन्द्रगोप राजा, तेना उपर जाणे बिलाडाना टोपनां श्वेत छत्र होय अने घासनां तणखलांओ तेनी सेना होय तेवी शोभा थई) ॥११॥
धान्यनी सम्पत्तिथी खेतरो खेडूतोने आनन्द आपी रह्यां हतां. अभिमानवाळा आक्रमक राजाओ शत्रुओ उपर चडाई करवा जाय छे तेमने खेतरोमां सस्य प्रतिबन्धक थतां एने खेतरो दुःख आपनार थयां कारण के जय तो दैवाधीन छे ते तेओ जाणता नहोता ॥१२॥दशमस्कन्ध १७२ जेम भगवान्नी सेवा करवाथी भक्त सुन्दर रूप धरे छे तेम नवीन जळनुं सेवन करवाथी जळ अने स्थळ मां रहेनारा *प्राणीओए सुन्दर रूप धारण कर्युम् ॥१३॥
विशेष - ऋतुन्यायथी वर्णन करी लीधुं. हवे मासना हिसाबथी वर्षानुं वर्णन करे छे. एटले मास बार छे तेथी बार श्लोकथी वर्णवे छे. एमां जीवो, नदीओ, पर्वतो, मार्गो, कामिनीओ, विद्यावान् (भगवदीय), मयूर, चन्द्रमा, तापस गृहस्थ, वैदिकमार्गो अने राजाओ ए बार मास भोग्य छे. ए त्रण गुणवाळा होईने त्रण प्रकारना छे. ए बधा वर्षाऋतुमां सुख अने दुःख ने प्राप्त करे छे. एमां जेनी उपर प्रभु कृपा करे ते पुष्टिमार्गीओ ज वर्षामां सुखी थाय छे, बीजा बधा दुःखी थाय छे. ए वात बार श्लोकथी कहेवामां आवे छे. जेने योग परिपक्व न थयो होय ते गुणवाळो योगी काममां अञ्जाईने दुःखी थाय छे तेम नदीओ समुद्रने जईने मळी त्यारे तेमां तरङ्गो उछळवा लाग्यां अने पोते खळभळी ऊठ्यो ॥१४॥
जेम भगवान्माञ्चित्त राखनार भक्तोने दुःख आवे तो पण डरता नथी तेम पर्वतो उपर वरसादथी धाराओ पडी पण एणे एनुं दुःख न मान्युं अने सर्व धाराओने सहनकरी ॥१५॥
जेनो रोज अभ्यास करवामां न आवे तेवी श्रुतिओ (वेदो समय जतां) नष्ट थाय (भुलाई जाय) तेम वर्षामां घास ऊगवाथी मार्गो ढङ्काई गया अने संस्काररहित थई गया, तेथी ए उपर चालनारने सन्देह करनार थया ॥१६॥
जेम गुणी पुरुषोमां पण कामिनी स्थिर थती नथी तेम लोकबन्धु मेघमां वीजळी स्थिर थती नथी. स्त्रीनो स्वभाव छे के ते पोताने सर्वस्व आपे तो ते आपनारमां स्थिर थाय, पण जेने वसुधा कुटुम्ब छे तेवा मेघो, ते एकने आपीने बेसी न रहे तेथी वीजळी एमां चञ्चळ बने छे. स्त्रीनुं पण एम ज समजवानुं छे ॥१७॥
अगुणवान् (निर्गुण) पुरुष पण त्रण गुणवाळा लोकमां आवे त्यारे एना गुणोवडे ते शोभे छे, तेम आकाश गुणवाळुं छे तेमां *महेन्द्रनुं धनुष निर्गुण (दोरी वगरनुं) छे छतां शोभवा लाग्युं. संसार त्रण गुणवाळो छे तेमां पुरुष अगुण होवा छतां योनि, बीज अने वर्ण धर्म रूप गुणने लईने आवे छे त्यारे शोभे छे, केमके ए भगवद् भक्त होवाथी एमां सत्व, रज अने तम ए त्रण गुणनी सम्भावना न थई शके छतां ए ज संसारमां शोभे छे ॥१८॥दशमस्कन्ध १७३
विशेष - मूळ तो देवोना अधिपति इन्द्र. वृत्रासुर साथेना सङ्ग्राम वखते इन्द्रे प्रभुनी स्तुति करी त्यारे तेनामां प्रभुनो आवेश थयो तेथी ते इन्द्रमान्थी ‘महेन्द्र’ बन्या. भगवान्नो आवेश इन्द्रमां थयो एटले सुदर्शनचक्रनो आवेश इन्द्रना हथियार व्रजमां थयो अने त्यारे ज वृत्रासुरनो वध थई शक्यो. जेम अहङ्कारथी पुरुष शोभतो नथी तेम चन्द्रमा पोतानी चान्दनीथी मेघने शोभा आपवा छतां ए पोते मेघथी ढङ्काई जाय छे तेथी शोभतो नथी. अर्ही अहङ्कार पण आत्मप्रकाशथी प्रकट थयो छे छतां एनाथी पुरुषने शोभा मळती नथी ॥१९॥
घरमां तप्त थयेल होवाथी घरथी कण्टाळी गया होय तेवा लोको ज्यारे पोताने घेर भगवद्भक्त आवे त्यारे आनन्द पामे छे, तेम मेघ आव्यो त्यारे तेना आववाथी मयूरो घणा आनन्दमां आवीने नाचवा लाग्या. ए पण ग्रीष्मना तापथी कण्टाळी गया हता, ते तापने मेघ दूर करशे एम जाणी तेनुं स्वागत कर्युं ॥२०॥
तपस्वीओ कोई कामनाना उद्देशथी तप करे छे त्यारे पहेलां तो दूबळा थई जाय छे, तपथी थाकी जाय छे, पण ए तपश्चर्यानुं फळ मळतां यथेच्छकाम प्राप्त थतां सुन्दर देखाय छे, तेम वृक्षो पण मूळवडे पाणीने पोताना शरीरमां खेञ्चीने पोताना नवा रूपने देखाडवा लाग्याम् ॥२१॥
गृहस्थने काम पूरुं थतुं ज नथी केमके एने एक-एक व्यवसाय मरण सुधी रहे ज छे तेथी एमां न फावे तो पण एनो उद्योग छोडता नथी, तेम तळावमां पाणी वधारे आवतां काण्ठे रहेनार सारस पक्षी तळावने छेडे पोतानुं घर करे छे, त्यां पाणी पहोञ्चता बीजे करे छे, एम जेटलां घर करे तेटलां नाश पामे छे छतां एमां ए रसवाळां होवाथी बीजे जईने सुख लई शक्तां नथी ॥२२॥
पाखण्डी लोकोना खोटा वादथी जेम कलियुगमां कर्म, ज्ञान, भक्ति वगेरेनुं प्रतिपादन करनारा वेदमार्गो ऊखडी जाय छे तेम वर्षा वरसवा लागी त्यारे खेडूत लोकोए जे मर्यादामाटे पाळो बान्धी हती ते प्रवाहमां धोवाई गई ॥२३॥
ब्राह्मणोनी प्रेरणाथी राजाओ समये-समये गरीबोने दान करे छे. तेम वायुनी प्रेरणाथीमेघोए प्राणी मात्रने अमृतनुं दान कर्युं.(बीजा नक्षत्रमां जल पडे ते तो चाल्युं जाय छे, पण मघा के हस्त नक्षत्रमां जळ पडे छे ते‘स्थिर’कहे छे तेथी ‘काळ’दशमस्कन्ध १७४ पद बे वखत वापर्युं छे) ॥२४॥
(त्रण लोक, बार मास, पाञ्च ऋतु अने सूर्य एम एकवीस प्रकारे वर्षानुं वर्णन करी हवे भगवान् अने एमना छ गुणोनुं वर्णन सात श्लोकथी करे छे) जेमां खजूर अने जाम्बु पाकी गया छे तेवा उत्तम वनमां भगवाने बळदेवजी अने गोपो नी साथे रमण करवाने प्रवेश कर्यो ॥२५॥
मोटा आउ (स्तन) ना भारथी गायो मन्द गतिवाळी छे छतां भगवान् बोलावे छे त्यारे भगवान्मां प्रीति होवाथी जलदी दोडीने भगवान्नी पासे ए जई पहोञ्चे छे, त्यारे तेमना आउमान्थी दूध स्रवतुं जाय छे. ए पण स्नेहसूचक छे. आउना भारथी जलदी न चलाय छतां दोडीने पहोञ्चवुं ए पण प्रीति दर्शावनार छे ॥२६॥
भगवाने जोयुं के वनमां रहेनार शीतळता थवाथी खुश थया. वृक्षोनी पङ्क्तिओमान्थी मधुधारा स्रववा लागी, पर्वतमान्थी जलनी धाराओ पडती हती, नजीकमां गुफाओ हती, तेथी व्रजवासीओने खान-पान अने स्थान नी सर्व सम्पत्ति प्राप्त थई तेथी ए पण प्रसन्न थया ॥२७॥
क्वचित् वरसाद वर्षे छे त्यारे वनस्पतिनी पोल (बखोल) मां के गुफामां पेसीने भगवान् कन्दमूळ अने फळ आरोगी रमण करता ॥२८॥
घेरथी दर्हीभात छाकमां आवेल तेने जळनी पासे शिला उपर राखीने भक्त गोपो अने बळदेवजी नी साथे बेसी भगवान् आरोग्या ॥२९॥
वर्षाऋतुमां बळद, वाछडां अने आउना भारथी थाकी गयेली गायो थोडी ज वारमां पेट भरीने घास चरी लेती अने लीलाञ्छम घास उपर बेसीने जे आङ्खो बन्ध करी वागोळ्या करती. वर्षाऋतुनी सुन्दरता अपार हती. ते बधा प्राणीओने सुखी करी रही हती, पोतानी शक्तिथी खीली ऊठेली वर्षाऋतुने जोई भगवान् बहु प्रसन्न थता अने वारंवार तेनी प्रशंसा करता ॥३०-३१॥
आवी रीते राम अने श्याम ते वनमां अने व्रजमां निवास करी रह्या हता त्यां तो शरद ऋतु आवी गई. हवे आकाशमां वादळ न रह्यां, जल निर्मल थई गयुं अने वायु बहु धीमी गतिथी वावा लाग्यो ॥३२॥
जेम योगभ्रष्टोनां चित्त बगड्यां होय ते फरीने योगसिद्ध करे त्यारे पाछां निर्मळ थाय छे, तेम शरदमां कमळ थतां जळ सुन्दर (पहेलां हतां तेवां) *निर्मळ थयाम् ॥३३॥दशमस्कन्ध १७५
विशेष - भगवाने जलना दोष मटाड्या, ज्ञानीना दोष दूर कर्या, कुटुम्बीओना दोष छोडाव्या, दरिद्रीओना दोषो, विरक्तना दोषो, योगीओना दोषो अने गोपीओना दोषो शरदना सम्बन्धथी भगवाने छोडाव्या. ए दश दोषोने निवार्या अने मित्रना दोषोने दूर कर्या अने सर्वने शोभायुक्त कर्या. चन्द्र, मानव, गायो, पद्मो (कमळ), भूमि अने वर्णोने छ गुणथी शोभाव्या. शरदनुं कार्य एटलुं थयुं त्यारे भगवान् एमां रमवानेमाटे दाखल थया. (कारिका) श्रीकृष्ण प्रत्येनी *भक्ति जेम चारेय आश्रमवाळाओनां पापने दूर करे छे तेम शरद ऋतुए आकाशना (मल) वादळोने, महाभूतोना साङ्कर्य (अग्नि अने वायु ना मल) ने, भूमिना अने जलना कादव ना मलने दूर करी दीधो ॥३४॥
विशेष - भक्ति हृदयाकाशमां शोकरूप दोषने दूर करे छे. भक्तिवाळाने नेत्रमां जळ आवे छे ए जळना दोषने दूर करे छे. त्रण प्रकारना जीव एक बीजामां मळी जाय छे ते दोषने भक्ति दूर करे छे. एना प्रवर्तक प्राण अथवा अग्नि छे ते एक दूर करे अने बीजो बाळे छे. पृथ्वीनो मेल, प्रसाद पेटमां जवाथी दूर थाय छे. गृहस्थने भूतमां मळवुं पडे छे, पण भक्ति करे ते ए बधाथी जुदो पडेछे. जेम इच्छानो त्याग करनार मुनिओ पापथी छूटी शान्त थई शोभे छे, तेम मेघोए पोतानुं सर्वस्व *जल हतुं ते बधु लोकोने आपी दीधुं तेथी ए स्वच्छ तेजवाळा देखावा लाग्या अने एने लीधे एमनी शोभामां वधारो थयो ॥३५॥
विशेष - माणसनुं मृत्यु आवे त्यारे ए कांई साथे लई जई शक्तो नथी, तेम मेघो पण शरदऋतु आवी त्यारे जराय जळ राखी शक्या नहि. सर्वनो त्याग ए ज सर्व प्रायश्चित्त छे. पापनुं स्वरूप काळुं छे, पुण्यनुं रूप सफेद छे. मेघनुं नीलरूप गयुं अने श्वेतरूप आव्युं. केवळ श्वेतता पुण्यनुं फळ नथी. केश वगेरेमां श्वेतता आवे छे तेवुं एमां मनातुं नथी. तेथी आ मेघ तो श्वेत थतां एनुं तेज वध्युं अने रमण करवा लाग्या. श्वेत केशमां आ बे न होय. अन्तःकरण चार छे तेमान्थी चार दोष जाय त्यारे ए प्रकाशे छे. ए सिवाय प्रकाश सम्भवे नहि. एमां त्रण ईषणा दोष छे. लोकोषणा भुवन अने जन ना भेदथी बे प्रकारनी छे. वित्तेषणा सर्व विषयरूपा छे जेने ‘अर्थेषणा’ कहे छे. ‘दारेषणा’ पुत्रादि सहति कहेवाय छे. ए त्रण ईषणाथी धर्म, अर्थ अने काम कह्या. त्रिवर्ग छोडो एटले त्रण ईषणा छूटे, त्यारे चित्त शान्त थाय. शान्ति जो के सत्व आदिथी थाय छे, पण ए गुणनो उपमर्द थतां शान्तिनो नाश थाय छे. तेथी स्वरूपथी अथवा शुद्ध सत्वथी शान्ति थाय ते नित्य शान्ति छे. तेथी ‘मनसैवैतदाप्तव्यम्’ इत्यादि श्रुतिथी शान्त मनथी दर्शन थाय छे. जेनु मन आत्मप्रवणदशमस्कन्ध १७६ थयुं छे ते मुनिओ कहेवाय छे. ए मुक्तकिल्बिष त्यारे थाय छे ज्यारे ए अहङ्कारने छोडे छे. आ बधा गुणो मेघमां शरदथी आवे छे. तेथी ‘‘सर्वाः शरत्काव्यकथा रसाश्रयाः’’ इत्यादिथी आगळ कहेशे. ज्ञानी *पुरुषो ज्ञानरूप अमृतने क्यारेक आपे छे अने क्यारेक नथी पण आपता, तेम पर्वतो क्यारेक पोताना उपर वरसेलुं जल आपे छे, क्वचित् नथी आपता ॥३६॥
विशेष - शरदना गुणोने कहेता ज्ञानीओनुं दृष्टान्त आप्युं छे तेमां ज्ञान गुण छे. जेनामां सार होय तेमां ज्ञान होय छे. अर्ही अन्तःसारवाळा पर्वत छे. एमां ज्ञानने ठेकाणे जळ छे. ए जळ ज्ञाननी जेम सर्वदोष निवर्तक अने शुद्ध छे. ए पर्वतो क्वचित् ज्यां झरणां होय त्यां जळने आपे छे, क्याङ्क नीकळवानो रस्तो न होय त्यां आपता नथी. ए पण पोतानी अन्दर रहेल जळने छोडे छे. वरसादनुं जळ तो उपरथी ज चाल्युं जाय छे. तेथी एनी वात अर्ही नथी, माटे जळने ‘शिवम्’ विशेषण आप्युं छे. शान्त, शीतळ अने स्वादवाळुं पर्वतनुं जळ छे. मोटाने अन्दर ताप न होय तेथी सूर्यना किरण पण एने उकाळी शक्तां नथी. ए ज्ञान बुद्धिकृत अने स्वाभाविक एम बे प्रकारनुं होय छे. जो स्वाभाविक होय तो एमां शरदनुं कांई न कहेवाय, तेथी ए ज्ञानमां शरदनी प्रयोजक्ता छे. ज्ञानरूप अमृत काळे करीने आपे छे. एमां काळ अने पुरुष बन्नेना विचार करवो पडे छे. पोते ज्ञानपूर्ण होय छतां देशनी अनुकूळता न होय अथवा अधिकारी पुरुष न होय तो ए ज्ञान आपता नथी. ज्ञानमां पूर्ण होय, सम्प्रदायने चलावी शके एम होय, विमार्गमां चालनार न होय तेवाने ज्ञान आपे छे, नहि तो ज्ञान आपता नथी. विद्यया सहितो विद्वान् म्रियतेवाविचारयन्। न त्वयुक्ताय तद्द्यात् कथचिन्दिति निश्चयः॥ (विद्वान पुरुषे विचार कर्या विना विद्या सहित मरवुं ज, पण कोई रीते अयोग्य (पुरुष) ने ते आपवी जोईए नहि, एवो निश्चय छे) शरद शुद्धि करनार होवाथी शरदने प्रयोजक्ता छे. कुटुम्बमां फसायेला मूढ माणसो चाल्या जता आयुष्यने जाणता नथी तेम थोडा जलमां रहेनार जलचरो दर्रोज सूकाता जता पाणीने जाणता नथी* ॥३७॥
विशेष - ए प्रमाणे शरद ज्ञानोपयोगी छे एम कह्युं. हवे एनुं वैराग्यमां उपयोगीपणुं बतावे छे. जळने सूकवनारी शरद छे तेथी जळ ओछुं थाय छे. जळचरो क्रियाशक्तिवाळां छे, तेदशमस्कन्ध १७७ जळ सूकाय तो मरी जाय. पण ते जलनो प्रवाह चालतो होय तेमां चाल्या जाय तो अगाध जळमां पहोञ्ची जाय. एम करे तो अने मरणनो भय दूर थाय. पण ए जळमां रह्या-रह्या जळ घटतुं चाले छे तेने एमणे जाण्युं नहि एमां दृष्टान्त’ कहे छे. पुरुष आयुष्यथी पुरुषार्थ सिद्ध करे छे. थोडुं आयुष्य होय तो वृथा व्यवसायवाळुं घर छोडी भगवच्चरणमां पहोञ्चे तो काम सिद्ध थाय; पण एम ए करतो नथी, तेथी एनामां विशेष ज्ञान नथी. आयुष्य क्षीण थवानुं ज छे तेने ए जाणतो नथी. जो जाणे तो ए आयुष्यने नित्य करी शके. पण ए नथी जाणतो एनां त्रण कारण छे; नर छे, मूढ छे अने कुटुम्बी छे. शास्त्रथी, स्वभावथी अने सङ्गथी एटले स्वभावथी ते जन्मवाळो मरे एम जाणतो नथी. शास्त्रने जाणतो नथी तेथी मूढ छे. सङ्गथी कुटुम्बमां पड्यो छे एम ए जाणे छे तो पण कुटुम्बने छोडवा माटे राजी नथी. जेवी रीते पोतानी इन्द्रियोने वशमां रहेनार कृपण अने दरिद्र गृहस्थने जात- जातना ताप सतावता ज रहे छे तेम थोडा जलमां रहेनार प्राणीओने *शरद ऋतुना सूर्यनां प्रखर किरणोथी खूब पीडा थवा लागी ॥३८॥
विशेष - थोडा जलमां रहेनार जीवो शरदना तापथी दुःखी थाय छे. ज्यारे काल अने कर्म माणसने पीडे नहि त्यारे ज अज्ञान सुख आपनारुं थाय छे. शरदे मेघोने हटाव्या त्यारे सूर्यने व्यवधान रह्युं नहि तेथी एने सख्त ताप जळने सूकववा लाग्यो. जळ गरम थयुं. एमां जळजीवो दुःखी थया. एमां चार प्रकारना अन्तःकरण दोष न होय तो दुःख न थाय. पण ए दोष छे. प्रथम दोष दारिद्रय छे. ए सर्वविषयनाशक छे. ए अन्तर्मुखने सुखरूप छे, पण बहिर्मुखने ताप करे छे. ‘कार्पण्य’ एटले लोभ पण एने छे. दरिद्री पण लोभी न होय तो सुखी रहे; एमां पण एकलो होय तो सुखी रहे पण आ तो कुटुम्बी छे. ए पण जितेन्द्रिय होय तो दुःख न थाय, पण अविजितेन्द्रिय छे तेथी दुःखी थायछे. (अर्हीथी दश श्लोकमां शरदना गुणोनुं वर्णन करे छे) जेम धीर पुरुष अनात्म एवा शरीर वगेरेमां धीमे-धीमे हुं अने मारुं एवा भावने छोडे छे, तेम शरदमां भूमि उपरथी कादव धीमे-धीमे ओछो थवा लाग्यो *अने लता वगेरेमान्थी काचापणुं ओछुं थवा लाग्युं. (फळ-फूलवाळां थया) ॥३९॥
विशेष - धीमे-धीमे स्थळोए कीच (कादव) ने छोड्यो अने लता अने गुल्मोए अपकवता (काचापणु) छोडी. तेमां दृष्टान्तमां अहन्ता-ममता छे. एमां ममता कीचड जेवी छे. अहन्ता अपकवता जेवी छे. जो के अहन्ता-ममताने छोडावनार शास्त्र छे, परन्तु धीरजदशमस्कन्ध १७८ वगरना स्वाभाविक दोषथी दुःखी थनार जीव शास्त्रने नहि मानतां धैर्यने ज कारण मानीने कहे छे. मोटाओने ममता होय, बीजाने अहन्ता-ममता बन्ने होय छे. ब्रह्मवादमां अने नैयायिक सिद्धान्तमां अहङ्कार नथी. पण देह वगेरेमां आत्मबुद्धि छे. बीजाओ आत्माध्यास छे एम कहे छे, केटलाक तादात्म्यसम्बन्ध माने छे, पण ए वस्तु त्याज्य छे एम तो सर्व कहे छे. वैदिक पक्षमां, पुत्रमां अने स्त्रीमां ‘‘स आत्मानं द्वेधा’’ ‘‘आत्मा वै पुत्र’’ इत्यादि श्रुतिथी अहन्ता छे. जेम अन्तःकरण लय अने विक्षेप विनानुं निःसङ्कल्प (शान्त) थतां मनन परायण मुनिने वेदना अर्थनुं अनुसन्धान रहेतुं नथी तेम शरदऋतु आवतां *समुद्र स्थिर जलवाळो शान्त थई गयो ॥४०॥
विशेषः बहारना दोषने कही अन्तर्गत दोषनेमाटे समुद्रनुं वर्णन करे छे. पृथ्वी करतां जळ श्रेष्ठ छे. एमां समुद्र मुख्य. एमां चाञ्चल्य दोष छे. एमां बीजो सम्बन्ध नथी. चाञ्चल्यथी शब्द उत्पन्न थाय छे. ए बन्ने न होवाथी जल स्थिर छे. एमां दृष्टान्त’कहे छेःअन्तःकरण सारी रीते शान्त थाय त्यारे मुनि मनन करतां शास्त्रने छोडी दे छे, केमके पछी एने वेदनी अपेक्षा रहेती नथी, पण जे साम्भळ्युं छे तेनुं मनन-निदिध्यासन करे छे. आगम तो शब्दरूप छे, पण ‘‘चाञ्चल्य लय, विक्षेप न’’ होवाथी पदार्थनुं अनुसन्धान निवृत्त थई जाय छे. जेम प्राणनी साथे ज्ञान चाल्युं जाय छे तेने योगी प्राणनो संयम करी ज्ञानने जवा नथी देता तेम खेडूतोए दृढ पाळा बान्धीने क्यारामां आवेला जळने रोकी राख्युं* ॥४१॥
विशेष - क्यारामान्थी नीकळता जळने एना मार्ग बन्ध करी खेडूतो रोके छे. जळथी स्थळ भीनुं रहे छे. शरदमां वृष्टिनो सम्भव ओछो होय छे. तेथी जळ जोईए ते लोको जळने मोटी पाळो बान्धी रोके छे. जळ न होय तो पाक सिद्ध न थाय, तेथी जळनी रक्षामां पाळ मजबूत जोईए. प्राण वगेरे वायुओ ज्यारे बहार नीकळे त्यारे ज्ञान साथे ज नीकळे छे, तेम इन्द्रियो पण पोताना विषयने ज्ञाननी साथे ग्रहण करे छे. ज्ञान क्रिया खलास थतां तिरोहित थाय छे. ज्ञान शास्त्रथी थाय ए प्रकट कहेवाय छे. ‘‘स्रवतीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते’’ इत्यादि वाक्यो श्रवणमां प्रमाणभूत छे. ज्ञानने माटे योगशास्त्रनी प्रवृत्ति छे. ‘‘ऊर्ध्वेन्द्रियैस्तु विक्षेपो ज्ञानस्याधो विनाशनम्। निरोधे पुञ्जभावेन स्वकार्यं साधयेद् ध्रुवम्’’ एम कह्युं छे तेथी प्राणेन्द्रियनिरोध थतां योगी ज्ञानने अटकावे छे. साधनदशमस्कन्ध १७९ दशामां योग नित्य छे. आसन अने प्राणायाम नी स्थिरताथी ज्ञान स्थिर थाय छे. मुकुन्द भगवान् व्रजस्त्रीओना देहना अभिमानथी थयेल दुःखने दूर करे छे तेम शरदना सूर्यथी लोकोने थयेला *तापने चन्द्रनां किरणोए दूर कर्यो ॥४२॥
विशेष - शरदना सूर्यनो ताप तीक्ष्ण होय छे. ए ज्वर उत्पादक होय छे अने तापने मटाडे छे. ए आध्यात्मिक ताप देहाभिमानरूप छे. ए देह वगेरेना जेणे भगवान्मां विनियोग कर्यो तेने आध्यात्मिक ताप न रह्यो. जातिना अभिमानने छोडावे ते तापनाशक केम कहेवाय? त्यां कहे छेःभगवान् मुकुन्द छे. मोक्षदान वखते पूर्वावस्था छोडाववी जोईए एम ए व्रजवासीओनो ताप न गयो होय तो ए मरी गयां होत. भगवान्मां एने सर्वात्मभाव छे तेथी मोक्ष तो एनो थवा सम्भव नथी तेम एमने ताप पण नथी. शरदनो तो उद्दीप्त विभावमां उपयोग छे. क्याराना दृष्टान्तथी वायुनी अने सूर्यचन्द्रना दृष्टान्तथी तेजनी शुद्धि कही छे. वेदोना अर्थने स्पष्ट रीते जाणनारुं सत्वगुणी मन अत्यन्त शोभे छे तेम ज शरदऋतुमां राते वादळ विनानुं निर्मल आकाश *ताराओनी ज्योतिथी झगमगवा (शोभवा) लाग्युम् ॥४३॥
विशेष - शरदथी तारा चोख्खा थया तेथी आकाश शोभवा लाग्युं. ‘‘मासाष्टकं तथाकाशे तमस्तापैः कृतं रजः, मेघैरपोह्यते सम्यक् अतः शरदि निर्मलाः, सर्वं नभो दिशश्चैव तारकाश्चन्द्र एव च’’. मेघ गयो ते आधिभौतिक, विमल तारक ते आध्यात्मिक, शरद आधिदैविक एम बताववा ‘दृष्टान्त’ कहे छे. सत्वगुणयुक्त चित्त शब्दब्रह्म वेदनुं जेमां दर्शन छे एवुं शोभे छे. चित्तमां तमस्, रजस् दोष छे ते सत्वयुक्त थाय त्यारे जाय छे. गुण तो तत्वपदार्थनुं ज्ञान. ए पदार्थो वेद भावनाथी अन्तःकरणमां स्फुरे एमां शरदनो उपयोग छे. वादळनुं न होवुं ते सत्व छे, विमळ स्थानमां शब्दब्रह्म छे. एना अर्थना ज्ञानना स्थाने ताराओ छे. एनाथी दोषो टाळवाना छे. पृथ्वीमां यादवोना समूहथी र्वीटळायेला श्रीकृष्ण शोभे छे, तेम नक्षत्र गणथी र्वीटळायेलो पूर्ण (अखण्ड) मण्डळवाळो चन्द्र आकाशमां *शोभा आपवा लाग्यो ॥४४॥
विशेष - हृदयमां भगवान्नी शोभा कहेवामाटे आकाशमां चन्द्रनी शोभा कहे छे, महाभूत पछी मन ज क्रमपूर्वक आवे. अखण्ड (पूर्ण) मण्डळवाळो चन्द्र उडुगण (तारा) साथे शोभे छे. भगवदीय चन्द्रनिवृत्यर्थ ‘शशी’ शब्द कह्यो. ए भगवदीय चन्द्र पण गोपीओ जुए तो जदशमस्कन्ध १८० एवो शोभे. यदुपति श्रीकृष्ण पृथ्वीमां अखण्ड मण्डळथी शोभे छे.जो के यदुपति सर्वत्र शोभे छे, छतां वृष्णिवंशीओना समुदायथी र्वीटळायेला पूर्णज अर्ही शोभेछे. *समशीतोष्णवाळा वनना फूलनी सुगन्धवाळा वायुनो आश्लेष करीने लोकोए ताप छोड्या, पण जेनां चित्त श्रीकृष्णे हरी लीधां छे तेवी गोपीओना ताप गया नहि ॥४५॥
विशेष - शीत अने उष्ण समान छे तेने लईने ताप रह्यो नहि. वनना सम्बन्धथी मन्दता अने फूलोना सम्बन्धथी सुगन्ध पण छे. परन्तु गोपीओनो ताप न गयो एनुं कारण एनां चित्त श्रीकृष्णे हरेला हतां. चित्तमां सुख तो श्रीकृष्णना सम्बन्धमां होय तेटलो वखतो होय, तेथी ए गोपीओने आध्यात्मिकी शरद सुखरूप नथी, पण आधिदैविकी सुखरूप छे. जेवी रीते ईश्वर सम्बन्धी क्रियाओ (सेवा, स्मरण इत्यादि) पछी तेमनुं फल अवश्य थाय छे तेवी रीते शरदऋतुमां गायो, हरिणीओ, चकलीओ वगेरे पशु- पक्षिणीओ अने स्त्रीओ ऋतुमती (सन्तान उत्पत्तिनी कामनावाळी) थई गई तथा साण्ड, काळियार (नर-हरण), नर-पक्षीओ अने पुरुषो एमनुं अनुसरण करवा लाग्यां तेथी फळवती थई गई ॥४६॥
सूर्यना *ऊगतां जलमां थनार कमळोमां रात्रे खीलनारां कुमुद सिवायनां बधा कमळो खीली ऊठ्यां. राजाथी चोर सिवायना लोको निर्भय थाय, तेज प्रमाणे कुमुदनो विकास चन्द्रथी ज थाय, सूर्यथी न थाय. तेथी कुमुद सिवायनां बीजा कमळोनो विकास कह्यो ॥४७॥
विशेष - जङ्गमनी वात कहीने हवे स्थावरना उपर शरदनी जे असर थई ते कहे छे के सूर्य ऊगतां कमळो खीली गयां. कुमुद तो चन्द्र विना न खील्युं. ‘कुमुद् विना’ शब्दमां विभक्तिलोप छे, नहि तो ‘कुमुदं विना’ एवो प्रयोग करवो जोईए, तेथी एम कहेवामां आव्युं के सात्विकनो अधिपति आव्यो त्यारे बधां सात्विकोने सुख थयुं, बीजाने न थयुं, केमके एमनी मुद् कुत्सित (‘‘कुमुद्=कुत्सिता मुद्=दोषित-दोषयुक्त आनन्द’’) छे तेथी एनो विकास न थयो. राजाथी सर्व लोको निर्भय थाय, पण चोर निर्भय न थाय; एनाथी शरदमां चोरी पण न थाय एम कह्युं. ते वखते शहेरो अने गामडांओ मां नवान्नप्राशन अने इन्द्र सम्बन्धी *उत्सवो उजववा लाग्या. खेतरोमां अनाज पाकी गयुं अने पृथ्वी पुरुषोत्तमनी बे कलाओ (चित् अने आनन्द)थी शोभी ऊठी. (सत् कला तो पहेलेथी हती ज) ॥४८॥दशमस्कन्ध १८१
विशेष - लौकिकमां शरदनो प्रभाव कहीने वैदिक कर्ममां पण एना आगमथी जे थयुं ते वात कहे छे. पुर सात्विक छे ज्यारे ग्रामो राजस छे, आग्रयण (नवान्नप्राशन) वैदिक छे. इन्द्रसम्बन्धी छे. ते स्मार्त छे. महोत्सवो लौकिक छे. चकार कह्यो छे तेथी कुलधर्मो पण लेवा. पुर ग्रामने बहुवचन कह्युं छे तेथी लौकिक, स्मार्त अने वैदिक एवा त्रण धर्मो कह्या छे. ते बधा धर्मोथी पृथ्वी शोभायमान् थई. एनी आधिभौतिकी शोभा तो पाकेल धान्यथी समृद्धिवाळा कही तेथी ज कहेवामां आवी अने आधिदैविकी शोभा तो राम-कृष्णथी छे. ए पृथ्वीनो ज भार उतारवाने आव्या छे. वळी भगवान्ना सम्बन्धवाळी पृथ्वी छे तेथी एमना चरणथी, एमना प्रतापथी अने एमनी लीलाथी वधारे शोभे छे. आ वाक्यमां पृथ्वीनो प्रस्ताव छे अने हरि शब्द भगवद्वाचक कह्यो छे तेथी ए पृथ्वीना ज दुःखने हरनार एटले हरि छे. ए तो पुरुषोत्तम ज छे. पृथ्वीनो भार हरनार सङ्कर्षण छे तेथी ए कलारूपथी केशनो अवतार छे, अथवा हरिना केश एटले चित् अने आनन्दरूपे अने सत् तो छे ज तेथी हरि सच्चिदान्द समजवा. वणिम्मुनिनृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ॥ वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥४९॥
वर्षो सुधी संयम पाळनारा सिद्ध पुरुषो समय आवतां जेम देव वगेरेना देहो प्राप्त करे छे तेम वणिक, मुनि, राजाओ अने *स्नातको जेओ वर्षाने लीधे एक ज स्थाने रोकायेला हता, तेओ त्यान्थी नीकळी पोत-पोताना अभीष्ट कामकाजमां लागी गया ॥४९॥
विशेष - उपसंहार करतां शरदनुं सर्वसाधकपणुं छेल्ला श्लोकथी कहे छे. तेथी वणिक (वेपारी)
मुनि अने राजा, वैराग्य, ब्राह्मणो अने क्षत्रियो कह्या. राजा राज्यवृद्धिने माटे बहार
नीकळेला ते परदेशमां आव्या. तेमणे बहार जईने अर्थने सम्पादन कर्यो. अर्थ लोकमां जे
गणाय छे ते ज लेवो, बीजो वैदिक अने त्रीजो स्मार्त लेवो. अर्थमां प्रधान तम, पछी सत्व
अने पछी रज; आथी जे घरमां रह्या तेने सिद्धि न मळे. स्नातको तो तीर्थमां फरे छे ते धर्म,
अर्थ अने कामने मेळवे छे. अथवा प्रत्येकने माटे धर्म, अर्थ अने काम रह्या. तेम समुदायथी
पण ए ज त्रिवर्ग कह्यो. दृष्टान्तमां वर्षो सुधी जेमणे संयम राख्यो छे तेवा सिद्ध पुरुषोए
फल प्राप्त कर्युं. एटले पोते जे मागता हता ते काळ आव्यो त्यारे मळ्युं ते भोगव्युं. पछी
बीजो काळ (प्रलय) आव्यो त्यारे फरीने ज देव वगेरे देहोने पामे छे. पूर्व काळ साधक छे
ज्यारे उत्तर काळ फळरूप छे. एम लीलारहित शरदनुं वर्णन थयुं.दशमस्कन्ध १८२
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो अने चाल)
‘‘वर्षा शरद् वर्णन’’ (वैराग्य) नामनो वीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां १७ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
साधना विनानी कोरी दीक्षा अर्थहीन होय छे.
साधना न करी शकनार आपो आपज मार्गभ्रष्ट थई जाय छे.
अध्याय २१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १८ गोपीओए गायेलुं वेणुगीत बीजा तामसप्रकरणना बीजा पेटाप्रकरणःप्रमेयप्रकरणनो अ. ७
विशेष - गोपीओने श्रीकृष्णमां स्नेह तो छे ज पण आ एकवीसमा अध्यायमां तो ए स्नेहनी उत्तरावस्थारूप आसक्तिनुं स्पष्ट रीते वर्णन करे छे. ए वर्णन करवामां एक तो वर्णन करवानुं चरित्र जोईए अने एनुं वर्णन करनार जोईए. तो अर्ही भगवान् दिवसे जे चरित्र वनमां करे छे तेने भगवान्ना विरहमां आकुळ थयेली गोपीओ व्रजमां पोताना घरमां बेसी जोई शके छे अने पोतानी समान शील अने व्यसन वाळी सखी पासे ए लीलानुं वर्णन करे छे. एवी ज रीते गोपो आसक्तिभरथी रात्रि चरितने जोईने स्वसखा पासे वर्णन करे छे. एमां एक श्लोकथी वृन्दावनमां भगवत् प्रवेश अने बीजा श्लोकथी वेणुनुं कूजन करी भगवाने भक्तने बोधन कर्युं छे. कारण ए ज के जे जेना गुणमां आसक्तिवाळा होय ते एना स्वरूपमां पण आसक्त थाय छे. गोपीजनो भगवद्गुणगान वगर रही शक्तां नथी तेथी एने भगवत्स्वरूपमां आसक्ति छे एम सिद्ध थाय छे. आसक्तिनी पूर्वावस्था प्रेम छे, ए प्रेम ज्यारे वधे छे त्यारे ए आसक्तिरूप थाय छे. ए प्रेम पण कोई कारणने लईने थयो होय तो ए कारण नाश थतां प्रेम अस्त थाय छे. ए प्रेम उपाधिवाळो कहेवाय. एवो गोपीओनो प्रेम नथी, पण ए प्रेम हरिए सहज एमना हृदयमां उत्पन्न कर्यो छे. ए भगवत्कृत सहज प्रेम भगवत्प्रापक छे. ए प्रेमने उद्बोधन ईं उन्दशमस्कन्ध १८३ करनार पण वेणुकूजन भगवाने ज कर्युं, माटे ए प्रेमने वधारनार पण अलौकिक छे, एटले अर्ही जे वर्णन करवानुं छे ते बधुं लोक विलक्षण छे. तेथी गोपीओए आसक्तिने लीधे विद्याना पाञ्च पर्वरूप पाञ्च श्लोक जवा दईने पछीथी वर्णन कर्युं छे. एटले ‘‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’’ ए न्यायथी भगवान् अने गोपी मां स्वरूप तारतम्य रह्युं नथी, तेथी विद्याना अन्तमां ‘भक्ति’ एटले स्नेहनी उत्तरावस्था आसक्ति छे. आसक्तिथी वर्णन कर्युं छे तेथी ज ए धर्मरूपताथी वर्णन नथी कर्युं एम समजवुं. कारण के वर्णन ‘अक्षण्वतां’ ए श्लोकथी छे अने एनी पहेलां पाञ्च श्लोक छे. ते पाञ्च श्लोकमां विद्याना पाञ्च पर्वनुं वर्णन आवी गयुं; एटले विद्या सुधी धर्म छे अने एना अन्तमां धर्मी रहे छे. आ वर्णन विद्याने अन्ते होवाथी ए वर्णन धर्मीनुं छे. तेथी गोपीओनुं बधुं स्वरूपसम्बन्धी समजवुं, ए पण भगवत्स्वरूप हृदयमां आव्या पछी वर्णन कर्युं छे एटले एमां सन्देह नथी. इत्थं शरत्स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ॥ न्यविशद् वायुना वातं सगोगोपालकोच्युतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे शरदने लईने स्वच्छ जल जेमां थयां छे, कमळना समुदाय खीलवाथी सुगन्धवाळो पवन जेमां चाली रह्यो छे तेवा वृन्दावनमां गायो अने गोपाळो साथे अच्युत भगवाने क्रीडा करवामाटे प्रवेश कर्यो ॥१॥
सुन्दर-सुन्दर फूलोथी भरी-भरी लीलीछम वृक्षपक्तिंओमां मतवाला भमरा ठेक-ठेकाणे गुञ्जारव करी रह्या हता अने जात-जातनां पक्षीओनां टोळान्नां टोळां अलग-अलग कलरव करी रह्यां हतां जेथी ते वननां सरोवर, नदीओ अने पर्वतो बधां गुञ्जता रहेतां हतां. मधुपति श्रीकृष्णे बळदेवजी अने ग्वालबालोनी साथे तेमां प्रवेश कर्यो अने गायो चरावतां वेणु वगाडवा लाग्या ॥२॥
श्रीकृष्णने मळवानी तीव्र लालसा जगावनार ते कूजन अने वेणुगीत साम्भळीने श्रीकृष्णनी परोक्षमां केटलीक गोपीओ पोतानी सखीओनी पासे वर्णन करवा लागी ॥३॥
ए वर्णन करवानो आरम्भ करी बेठी, पण कृष्णलीलानुं स्मरण थतां स्मरनो वेग थवाथी चित्तमां विक्षेप थयो; हे राजन्! तेथी ए वर्णवी शकी नहि ॥४॥
त्यारे भगवाने पोतानुं स्वरूप नादब्रह्मद्वारा एमना *हृदयमां पहोञ्चाड्युं. (ध्यानमां तेमने दर्शन थयां के) ए स्वरूप मोरपिच्छना मुकुटवाळुं छे, नट अने वरदशमस्कन्ध १८४ ना जेवुं श्रीअङ्ग छे. कान उपर कर्णिकारनां पुष्प धर्यां छे. सुवर्ण जेवुं पीळुं वस्त्र अने वैजयन्ती माळा श्रीकण्ठमां धरी छे. वेणुना छिद्रोने अधरामृतथी पूरे छे. गोपवृन्दो जेनी लोकपावन कीर्ति गाता आवे छे, एवी रीते पोताना चरणथी रम्य देखाता वृन्दावनमां आप प्रवेश करे छे ॥५॥
विशेष - ज्यारे स्मरवेगथी गोपीओ नादामृतनुं वर्णन न करी शकी त्यारे स्वयं स्वस्वरूपे वेणुनादद्वारा एमना हृदयमां दाखल थया ते स्वरूप आ छे. एमां प्रथम वाक्योनो अर्थ कहे छे, एटले एमां स्वरूप, गुण अने लीला त्रणे आवी जाय. श्रीमस्तक उपर मोरपिच्छनो मुकुट छे. मोर ज्यारे कळा करीने नृत्य करे छे त्यारे तेनां पीछां तेना मस्तक उपर आवे छे. ज्यारे रसावेशथी एनाथी रह्युं न जाय त्यारे ते नाचे छे तेम भगवान् मोरपिच्छनो मुकुट धरे छे त्यारे रसाविष्टता बतावे छे. ज्यारे रसाविष्ट भगवान् रसनो अनुभव करावे ते समये भक्तो एनुं वर्णन न करी शके ए तो योग्य ज कहेवाय. ए रस संयोग अने विप्रयोग एवा भेदथी बे प्रकारनो छे. बन्ने मळीने एक रस कहेवाय छे. ए रस भगवान् छे, एम कहेवामाटे एमने ‘नटवरवपु’ कह्या छे. ‘नट’ एटले केवळ रस (विप्रयोग) अने ‘वर’ एटले संयोगरस, भक्त साथे क्रीडा करता भगवान्. एमां विप्रयोग धर्मी छे. अने संयोग धर्मरूप छे. संयोग सापेक्ष छे, विप्रयोग निरपेक्ष छे. संयोग परिच्छिन्न छे, विप्रयोग अपरिछिन्न छे. संयोग साधन छे, विप्रयोग फल छे. इत्यादि उभयरूप श्रीअङ्गने भक्तार्थ धारण करे छे. धारण करवानुं कारण तो ए ज के भगवान् तो हृदयमां पण रहे छे, पण ज्ञानीनी जेम; तेथी भक्तने सन्तोष नथी थतो. तेथी ज प्रभु ‘‘यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति’’ ए न्यायथी रसिकनेमाटे आप रसरूप धरे छे. कान उपर पीळां कर्णिकारनां पुष्पो धर्यां छे तेथी जे रस कर्णद्वारा पेय छे ते रस कर्णिकार उद्दीपक होवाथी उच्छलित थाय छे. परन्तु रसनुं स्वरूप गुप्त रहे त्यां सुधी रस कहेवाय अने प्रगट थाय तो रसाभास थई जाय तेथी रसरूपने गुप्त राखवामाटे पीताम्बर धर्युं छे. ए वस्त्र रसने ढाङ्कनार होवाथी मायारूप छे तेथी एने सोनाना जेवुं पीळुं कह्युं छे. सोनामां कपट छे एटले ज्यारे पीताम्बर स्वरूपनी खबर न पडे तो एनाथी ढङ्कायेल रसने तो कोण जाणी शके? तेथी गुप्त रहेवाथी एना रसपणामां खामी नथी आवती. ए पीताम्बरने पण ढाङ्की देनारी कीर्तिरूप वैजयन्ती नामनी माळा पोते धारण करी छे. ए पुष्पमयी छे तेथी अर्ही बे रस, एना उद्दीपक, एना आच्छादक अने एना विक्षेपक भावोनुं वर्णन थई गयुं, एटले अरधा श्लोकथी रूप कह्युं, हवे नामनुं वर्णन उत्तरार्धथी करे छे - नाम वेदरूप छे ते अर्ही वेणुनादात्मक छे. मर्यादामां अधिकार आपनार वेद छे ज्यारेदशमस्कन्ध १८५ पुष्टिमां अधिकार आपनार वेणुनाद छे. स्वरूपात्मक सुधाने हृदयमां पहोञ्चाडवामां वेणु साधन छे, नाद अधिकारसम्पादक छे. वेणुनां छिद्र सात छे. ते वेणु अधर उपर राखेल छे. तेमान्थी अधरसुधा नादद्वारा कानवाटे गोपीओना हृदयमां आवे छे त्यारे एने ए नाद स्वरूपात्मक होवाथी भगवान्नी साथे रमणनो अधिकार आपे छे. ए सुधा त्रण प्रकारनी छेःदेवभोग्या, भगवद्भोग्या अने सर्वाभोग्या. ‘देवभोग्या’ एटले देवोनी स्त्रीओना अधरमां रहेली, एटले देवो, भगवल्लीलामां गोपादिरूपे आव्या छे तेने तेमज गायो, पशु, पक्षी, स्थावर आदिथी भोग्य सुधा छे ते ‘देवभोग्या’. बीजी सुधानुं स्वरूप एवुं छे के भगवान् स्वरूपात्मक सुधा वेणुद्वारा जेना कानमां सिञ्चे ते हृदयमां जईने मिथो गुणगान रूपे जेना अधर उपर थईने ए सुधा बहार आवे ते मुखने ए सुधा भगवद्भोग योग्य करे छे; एवी सुधा श्रीगोपीजनना अधरमां रहे छे. जेनो अधिकार केवळ भगवान्ने ज छे, बीजा कोईने नथी ते ‘भगवद्भोग्या’ हवे त्रीजी सुधा ‘सर्वाभोग्या’ एटले उच्छिष्टथी ए सुधानो भोग न थई शके, पण केवळ शब्दनी साथे सुधा आवे ते कर्णद्वारा हृदयमां प्रवेश करे ते सुधा अधिकार सम्पादिका छे. ए सुधा जेना हृदयमां जाय तेने प्रसादरूप शक्तिनी साथे स्त्री देह आपे तेना भोक्ता भगवान् ज छे. सेवाफल ग्रन्थमां त्रण फल कह्यां छे. लीलामां उपयोगी देह वैकुण्ठ आदिमां ए फल ‘देवभोग्यानुं’ सायुज्य फल ‘‘भगवद् भोग्यानुं’’ अने अलौकिक सामर्थ्यरूप फल ‘सर्वाभोग्या’नुं छे. सुधानुं दान प्रभु जेने करे तेने थाय छे. त्रीजा नम्बरवाळा जीवो लीला परिकरमां पशु, पक्षी, वृक्ष, लता वगेरेमां अवतार लई सेवा करे छे. बीजा नम्बरनाने भगवान्नी नित्य संयोग, पण ए भगवान्ने अधीन सुखवाळा रहे छे; जेवा के ‘‘अन्तर्गृहगता गोपीओ’’ गोपीओ अने उत्तमाधिकारी भक्तो ‘‘सर्वात्मभावना युक्त’’ जेने भगवान् सर्व साधनरूप थईने हम्मेशां एने अनुकूळ रही एनुं हित चिन्तन करे छे, जे केवळ ‘विप्रयोगफलनो’ अनुभव करे छे, जेने स्वरूपनी अपेक्षा नथी. आ पुष्टिनुं उत्तमोत्तम फल छे. जे परमकाष्ठापन्न वस्तु छे, जेने भगवान्ना बाह्यस्वरूपनी पण अपेक्षा नहि तेने जगत् के जगत्ना वैभवमां विरक्ति होय एमां शुं कहेवुं? त्यां लोकवेद सम्बन्ध के एना फलनी उपेक्षामां शुं कहेवुं? ए फलनो अधिकार श्रुतिरूपानो छे. ए अधिकार आपनारी सुधा आनन्दना साररूप छे, ब्रह्मानन्दथी पण अधिक छे. ए कोई दिवस साधनरूप थती नथी, पण ए फलरूप ज छे. एने नादनी साथे जोडीने एने गोपीजनोना हृदयमां प्रवेश कराववा माटे वेणुना छिद्रथी बहार काढीने एने नादद्वारा पोताना स्वरूपथी जुदी करी मोकले छे, ए वेणुनो पण स्पर्श करती नथी. ए कानद्वारा हृदयमां जईनेदशमस्कन्ध १८६ वर्णनद्वारा मुखथी नीकळे छे त्यारे ए मुखने भगवद्भोग योग्य करे छे. ज्यां सुधी रसना पूरथी अपेक्षित अंश पूर्ण न थाय त्यां सुधी पण ए भगवद्भोग योग्य थई शक्ती नथी, माटे परस्पर वर्णन कर्युं छे. वेणुमां एक स्वरूप आव्युं ते बधा भक्तोना कानमां आव्युं. एमां कोई अंश कोईने काने पड्यो, बीजो अंश बीजाने काने पड्यो तेथी ए बधा भेगा थई पोत- पोताना हृदयमां आवेल स्वरूप बीजाने न कहे त्यां सुधी पूर्णस्वरूप हृदयमां प्रकाशे नहि, त्यां सुधी ए अधिकार सम्पादक न थाय; तेथी ए परस्पर गुणगान करी पोत-पोतानी न्यूनताने पूर्ण करे छे, ए गुणगान करवानो तात्पर्यार्थ समजवो. जेना हृदयमां सम्पूर्ण स्वरूप आव्युं तेने निरोध सिद्ध थाय छे तेथी ज थोडो निरोध गोपोनो अने भोग्य गोपी सिवायनी बीजी स्त्रीओनो पण सूक्ष्म निरोध समजवो. पुष्टि-सृष्टिमां उत्पन्न थयो तेने भोग एतत्पर्यवसायी छे. एवो अधिकार दुर्लभ छे तेथी जेनो कोई अंशमां न्यून निरोध छे तेने मुक्ति आपी अने पाछो एनो आश्रय सिद्ध करावे छे. एने माटे एकादश अने द्वादश स्कन्धनी लीलानो उपयोग छे. आ मुख्य फल ब्रह्मानन्दभाव थया पछी मळे छे तेथी ब्रह्मानन्दरूपा लक्ष्मी कही छे. ए लक्ष्मीना अंशोने तो क्रमथी, एक व्यवधानथी, बे व्यवधानथी एम फल छे, साक्षात् नथी. तेथी ज प्रकरणना अन्तमां स्त्रीओनुं निरूपण होवाथी ए स्त्रीभावथी भोग्य छे. तेथी श्रीशुकदेवजीए मुख्य स्त्रीओने आ प्रकरणमां वर्णवी छे. तेथी दण्डकारण्यवासी ऋषिओने पण स्त्रीत्व थयुं छे, केमके पुरुषरूपनो भोग स्त्रीशरीर विना न थई शके तेथी भगवाने भक्तोने अधरामृत आपी स्वच्छन्द कर्या ते गोपो गुणगान करता आवे छे. भगवान् वृन्दावनमां स्वचरण स्थापन करता आवे छे तेथी भक्तिनुं पृथ्वी उपर स्थापन थाय छे. आथी भगवान्नो गूढ स्त्रीभाव क्वचित् कह्यो छे. वेणु सर्व प्राणीओना मनने हरी ले छे. हे राजन्! प्राणीमात्रना मनने हरण करनारा भगवान्नी वेणुना रवने साम्भळता व्रजनी बधी *स्त्रीओ वर्णन करवाने माटे भेगी थईने एकबीजाने साम्भळवा सम्भळाववा लागी ॥६॥
विशेष - भगवाने प्रथम स्वरूपने मुख्य राखी वेणुनादने गौण कर्यो त्यारे साम्भळनारने स्वरूपनो अनुभव थयो तेथी ए वर्णन करी न शक्यां, केमके अनुभव करती वखते एनी वात कोई न करी शके, पण ए सिवायना काळमां एम बने तेथी भगवान्ने तो ए स्वरूपनुं वर्णन भक्तना मुखथी कराववानी जरूर छे. तेथी एमणे स्वस्वरूपने गौणता आपी अने ज्यारे नादने प्रधानता आपी एवो नाद एमना कानमां मूक्यो त्यारे स्वरूप गौण थतां नादनी मुख्यता आवतां गोपीजनो पोतानी समान शील व्यसनवाळी सखीओनी पासे ए स्वरूपनुं वर्णनदशमस्कन्ध १८७ करवाने शक्तिशाळी थई. ए ज आ श्लोकमां कह्युं छे. गोपस्त्रीओने पतिओ वनमां गया पछी बीजुं कांई काम न होय तेथी बधां मळी जे-जे अंश जेणे साम्भळ्यो तेनुं वर्णन ते-ते गोपी करवा लागी, जेनाथी अखण्ड स्वरूप सर्वना हृदयमां स्थिर थयुं. तेथी सर्वने समान फल सिद्ध थयुं. ए ज वर्णन आगळ गोपीओ करे छे. *गोपीओ बोली - हे सखीओ! पशुनी पाछळ चालता व्रजेशना पुत्रनुं मुख जेणे सर्व इन्द्रियोवडे सेव्युं छे अथवा अनुरक्तिवाळा कटाक्षो जेमान्थी छूटे छे तेवा श्रीमुखने जेणे नेत्रद्वारा हृदयमां उतार्युं छे तेणे ज इन्द्रियोने सफल करी छे अथवा नेत्रनुं फळ प्राप्त कर्युं छे, केमके इन्द्रियोवाळाने ए स्वरूपनी सेवा सिवाय बीजुं फळ नथी. तेमज नेत्रवाळाने एनां दर्शन सिवाय बीजुं फळ होय एम अमो (श्रुतिओ) मानतां नथी. ए ज फळ मुख्य छे ॥७॥
विशेष - भगवाने जे स्वरूप वेणुद्वारा गोपीओना हृदयमां दाखल कर्युं तेनुं ज अनुवर्णन तेर
श्लोकथी गोपीओ करे छे. संयोग अने विप्रयोग एवा बे रसना बे श्लोक, एक श्लोकथी वेणुने
पूर्यो, वृन्दावनमां स्वच्छन्द चरणथी फरवानुं वर्णन एक श्लोकथी कर्युं, एटले चार श्लोक तो
ए वेणुगीतनी पीठिकाना थया. त्यार पछीना छ श्लोकथी वेणुनाद भगवद्रूप छे एम बताववा
छ गुण पुष्टिमार्गीय जुदा छे ते एक-एक श्लोकथी कह्या, एटले दश श्लोक थया. बे श्लोकथी
वृन्दावनमां भक्तिनुं स्थापन कर्युं. एक श्लोकथी मर्यादाथी जुदी रीत करी एनुं समाधान कर्युं छे.
एम तेर श्लोकथी वेणुगीत गोपीओए गायुं छे. एमां प्रथम वर्णन न थई शक्युं, त्यारे
श्रीशुकदेवजीए वर्णन कर्युं ए कहे छे. एमां प्रथम स्वरूपथी रसात्मक भगवान्ने कहे छे के आ
पोताना हृदयमां जे स्वरूप भावनाथी देखायुं ते रूप फलरूप छे भगवान् साथे १. आलाप
करवो, मळे त्यारे २. दर्शन करवुं, आश्लेष अथवा ३. सेवा करवी तेवी रीते ४. स्पर्श करवो,
५. अधरामृतनुं पान करवुं ६. भोग करवो ७. रोमाञ्च थवो ८. एनां कूजनने साम्भळवां ९.
एनी सुगन्ध लेवी १०. एनी पासे नित्य जवुं, आ दश इन्द्रियोवाळाने फल छे. अन्यथा
एम न होय तो मोक्ष पण वृथा छे. ११. मन सर्व इन्द्रियोमां अनुस्यूत समजवुं तेथी
भावना करवी ए एनुं कार्य छे. जेम आङ्खवाळाने कायम अन्धारामां रहेवाथी आङ्खनुं फळ
मळ्युं न गणाय तेम इन्द्रियोवाळाने मोक्ष नकामो छे तेथी ज गोपीओए कह्युं के आ ज फल
छे, इन्द्रियोवाळाने बीजुं मोक्ष आदि फलरूप नथी. इन्द्रिय रहितने मोक्षरूप फल भले होय.
अर्ही व्यवस्थित विकल्प उपर बताव्यो छे ते योग्य छे; एटले ‘‘आत्मलाभान्न परं
विद्यते’’ इत्यादि श्रुतिओ पण सावकाश थई गई. आमां सर्व श्रुतिओनी सम्मति बताववादशमस्कन्ध १८८
‘सख्यः’ एम सम्बोधन आप्युं छे. मित्रोनी साथे पशुने वनमां लई जता राम-कृष्णनुं मुख
जेणे सेव्युं छे अथवा जोयुं छे तेणे ज इन्द्रियोनुं अथवा नेत्रनुं फल प्राप्त कर्युं छे. एमां
अगियार इन्द्रियथी सेवन करनार करतां केवळ नेत्रथी जोनार गौण छे एम बताववामाटे
‘वा’ शब्द मूक्यो छे. बळदेवजी आवेशवाळा छे तेमनुं मुखारविन्द स्पष्ट न होवाथी अथवा
गोपी मुखनिरूपण करे छे त्यारे बीजुं मुख एना ध्यानमां न आवतां एक मुख देखातां
‘वक्त्रम्’ (मुख) नुं एकवचन कह्युं छे. वळी बलभद्र व्रजेशना पुत्र नथी, जो भगवान्ना
आवेशवाळा छे एम कहो तो आवेश अने आवेशी तो धर्म-धर्मी भावथी एक ज गणाय, एवुं
पण समाधान सम्भवे छे. वेणुना सेवनमां जेने स्वर आदिमां प्रीति छे. अथवा तो जेने
भगवान्ना श्रीमुखमां काम आदि भावथी कटाक्ष आदिमां लोभ छे अने तेने लीधे जे मुखने
सेवनार छे तेमना भाव पण सोपाधि छे अने आराधन बुद्धिथी के स्वामिपुत्र छे एवी
अनुरोध बुद्धिथी सेवन करनारनी भक्ति पण गौण छे, एम बताववामाटे पण ‘वा’ शब्द
अनादरवाचक मूकायो छे. तेथी कोई पण स्वार्थ लेश वगर सहज सम्बन्ध प्रभुकृत जेने छे
तेनुं ज सेवन ते ज खरुं सेवन छे ए ज भगवद्वशीकार हेतु छे, अन्य तो स्वरूपथी जुदा
फळवाळा भावो छे,एमां ज निर्गुण सगुण भाव पण आवीजायछे.
(एक श्लोकथी संयोग रसरूपनुं वर्णन कर्युं. हवे बीजाथी केवळ रसरूपनुं वर्णन
करे छे) आम्रना *पल्लव, मयूरनां पिच्छ, कुमुद अने कमळ नी माळा अने एने
शोभावे तेवां वस्त्रो तेनाथी विचित्र छे वेष जेनो तेवा बन्ने भाईओ पशुपालनी
गोष्ठिमां, जेम रङ्गभूमि उपर नटवरो शोभे तेम, शोभवा लाग्या ॥८॥
विशेष - आमां गुणो अने माया एटले पल्लव, मयूर पिच्छ अने वस्त्रो वेषमां उपयोगी छे, माटे रस बताववामाटे चार वस्तुओ उपयोगी छे एम कहे छे. रस, रूप अने सुगन्धनी स्थिति प्रवाल, पिच्छ अने कमळ मां छे. धर्मीना आच्छादनने माटे माया पण आमां कहेवामां आवी छे. वस्तु बताववामाटे प्रथम पल्लव कह्यो छे. ज्यारे रसशास्त्रमां कह्या प्रमाणे ते-ते भावोनुं ज्ञान थाय त्यारे भाव कलिकारूप थाय ने भाव खीले अने एमान्थी एने कथा वैचित्य थाय ते भावनी पुष्पावस्था. ते पुष्पावस्थावाळा भावमान्थी वास नीकळे. ज्यारे तेमान्थी वास आवे त्यारे बधाना जाणवामां आवे तो रसनुं स्वरूप बगडी जाय, माटे एनी कोईने खबर न पडे तेम राखवामाटे एने मायाथी आच्छादित करवो जोईए. एटला माटे रसमां पीताम्बर उपयोगी छे. एक रसने उत्पन्न करवामां आ बधुं वर्णववानी जरूर पडी. आ रसनी मर्यादा रसशास्त्रकारोए कही छे. ए ज शास्त्रमां वर्णन करेलो रस ज भगवान्नुं रसात्मक स्वरूप छे.दशमस्कन्ध १८९ ज्यारे रसात्मा प्रकट थाय छे त्यारे रसानुभव थाय. त्यारे ज ते ‘रस’ कहेवाय छे. (कारिका) रस, रूप अने सुगन्ध ए त्रणना परस्पर गुणप्रधान भाववडे नव रस थाय छे. एम रसनुं स्वरूप कही एनां पोषक वाद्य अने गीत पण समाजमां कहे छे. पशुपालोनी सभा कांई गुप्त नथी होती तेथी अर्ही रस सुलभ छे. वाद्य, गीत अने नृत्य त्रणे समान होय तो उत्तमता गणाय. रङ्ग मण्डपमां नटवर गाय छे एम दृष्टान्त छे तेथी आ गान कांई मनमां आव्युं तेम बोलाय छे एम नथी, पण सङ्गीत शास्त्रना नियमोने अनुसरीने बोलाय छे एम सूचव्युं छे, केमके रङ्गमण्डपमां जे नाचवुं गावुं थाय ते शास्त्रने अनुसरीने ज थाय छे आ राजस भावनुं नृत्य कह्युं. सात्विक नृत्य तो ‘‘क्व च गायमानौ’’ पदथी कह्युं छे ते तो कोई स्थळ विशेषमां हाथनो अभिनय बतावतां श्रमरहित गान करे छे ए लोकप्रसिद्धछे. श्रीपुरुषोत्तमजी महाराजे आ श्लोकना ‘प्रकाश’मां रस शास्त्रथी केम सिद्ध थाय छे ते बताववानो प्रयत्न कर्यो छे. ए बहु विस्तारपूर्वक समजाव्यो छे. विशेष जिज्ञासुए ए ग्रन्थमान्थी जोई लेवुं. ए बधुं साहित्य मुद्रित थई गयुं छे एटले सुलभ छे. (एम संयोग विप्रयोग रस बतावीने ए रसनी आधिदैविक्तानो सम्पादक वेणुनाद छे तेनुं वर्णन करे छे के) हे गोपीओ! आ *वेणु पुरुष जातिनो होवा छतां तेणे पूर्व जन्ममां एवुं शुं पुण्यकर्म कर्युं हशे के जे दामोदरना अधरमां रहेली गोपी सम्बन्धी अधरसुधाने भोगवे छे? जेना भोगथी बचेली सुधानो भोग नदीओ अने वृक्षो करे छे जेथी ए नदीओ पुलकित थाय छे, ज्यारे वृक्षोने भगवद्भक्तोनी जेम हर्षाश्रु आवे छे ॥९॥
विशेष - जो के वेणु भोजन करतो नथी, पण मुख उपर धर्यो छे तेथी बीजाने माटे ए भोजन करतो होय एम लक्षणाथी सिद्ध थाय छे, पुरुषने एनुं भोजन सम्भवे नहि, नहि तो भगवाने ज एनो भोग कर्यो होत. तेथी ए तो स्त्री भोग्य होवाथी गोपिकानां एम स्पष्ट श्रीशुकदेवजी कहे छे. ए भगवद् अधरसुधा गोपीओ सम्बन्धी छे. ए लक्ष्मीभोग्य छे तेथी समुदित लक्ष्मी अत्रे कही छे. लक्ष्मीजी सिवाय कोई एनो भोग करी शक्तुं नथी तेथी तेनो भोक्ता पुरुष ज न होय तो बीजी योनिमां उत्पन्न थयेल जीव तो क्यान्थी होय? एमां पण वेणु तो जड छे. तेने भोग न ज सम्भवे, परन्तु एनुं पण आधिदैविक स्वरूप तो चेतन छे तेने भोगनी सम्भावना थई शके एटला माटे विचार करे छे, वेदमां एवो सिद्धान्त छे के सर्व सुख धर्मनुं फळ छे, त्यारे वेणु जे अधरसुधानो भोग करे छे एणे एवा क्या धर्मनुं आचरण कर्युं होय के जेनुं फल ए सुधा स्वरूपे ले छे? धर्मो तो वेदमां कहेला छे ते आपणे उपनिषद्रूपदशमस्कन्ध १९० होईने आपणाथी अज्ञात तो न होवा जोईए. जे धर्मोवडे आपणे पण थया छीए तेमां पण आपणामां साधननो विरोध नथी तेथी आपणामां स्त्रीपणुं छे. वेणुमां पुंस्त्व छे. (वेणु संस्कृतमां नर जातिनो शब्द छे) तेथी सन्देह थाय छे, तो पण ए कर्मनुं फल तो नथी तेथी साधनबळनो निश्चय करीए तो एवुं फल एने मळवुं न जोईए. वेदमां एवा फलनुं कोई साधन कहेवामां आव्युं नथी, पण एने फळ मळे छे ते तो प्रत्यक्ष छे तेथी फल बळना विचारथी साधननो अभाव तो जणातो नथी. आ कहेवानो तात्पर्यार्थ एवो छे के भगवद्वाणीरूपी वेदमां एवुं साधन नथी तो पण जेने भगवान् ज साधनरूप थई जाय तेने भगवान् ए फल आपी शके; माटे भगवाने ज आने ए फल आप्युं होय तो सम्भवे. आपवामां कारण कृपा, एनी मर्यादामां हीनता छे. वळी ए दामोदरना अधरनी सुधा गोपीओनी छे. सुधाभोग जीभवाळाथी थाय ते जीभ पण वेणुने नथी तेथी पण भोगाभाव सिद्ध छे. तेथी नादनो भोग करे तेमां शङ्का नथी, पण सुधा भोगमां शङ्का छे. पण जो भगवान् कृपाथी आपे तो सम्भवे. अधर सम्बन्धमां पान सिद्ध छे ए अमारा अनुभवनी वात छे. आ तो अमाराथी पण वधी जाय छे के जेना पानथी बचेली सुधा वेणु एनां माता-पिताने आपे छे. नदीओ एनी माता अने वृक्षो एना पिता छे. एने अधर अमृत मळ्युं होय तेवा एनामां चिह्न देखाय छे ते उपरथी साबित थाय छे, केमके नदीओमां कमळ ए एना रोमाञ्चरूप छे अने वृक्षमां मधुधारा ते एना हर्षाश्रुरूप छे. ते बन्नेमां बे गुण सुधाना सम्बन्ध विना सम्भवे नहि, माटे एने पण वेणुना भोगवतां बाकी रहेलो अंश मळ्यो लागे छे, नहि तो एनी एवी दशा न होवी जोईए. तेथी भगवद्भक्तने जेम भगवद्धर्म हृदयमां आवे त्यारे रोमाञ्च अने अश्रु वगेरे विकारो थाय छे तेम आ नदीओ अने वृक्षो मां पण भगवद् अधरसुधा आववाथी एवा विकारो थया जणाय छे तेथी बाळकना भोजन करतां बचेलुं एनां मा-बाप स्नेहने लईने खाई जाय छे तेम वेणुनां मा-बापे एने भोगवतां बचेली सुधानो भोग कर्यानुं सिद्ध थाय छे. हे सखी! देवकीसुतनां चरणकमळथी जेने शोभा प्राप्त थई छे तेवुं वृन्दावन पृथ्वीनी कीर्तिने वधारे छे. (पृथ्वीने धन्य छे के एनी उपर वृन्दावन छे जेमां भगवान् साक्षात् विहार करे छे) ए वृन्दावनमां गोविन्द नृत्य करे छे तेने जोईने पाछळथी मयूर नाचे छे त्यारे पर्वतना शिखरथी लईने भूतल पर्यन्तनां सर्व प्राणीओ पोत-पोताना व्यापार छोडीने नृत्यने लक्षीने शान्त थईने अने जोईने *भक्तिरसने अनुभवे छे ॥१०॥दशमस्कन्ध १९१
विशेष - वृन्दावनमां प्रभु विहार करे छे. तेमां चरणनुं स्वरूप कहे छे के देवतानां चरण पण पृथ्वीनो स्पर्श करतां नथी तो एनाथी उत्तम भगवान्नां चरण तो पृथ्वीनो स्पर्श केम ज करे? पुरुषोत्तमना अंश पुरुष तेना आधिभौतिक पदरूप पृथ्वी छे, आध्यात्मिक इन्द्रियरूप पाद छे; अने आधिदैविक पाद आनन्दरूप छे. एने पण पृथ्वीनो सम्बन्ध नथी. पृथ्वीमां पण (मधु) दैत्य सम्बन्धिनी भूमि छे तेमां पण स्त्रीनी भूमि वृन्दानुं वन गणाय तेमां भगवाननां चरण देखाय छे तेथी एनां भाग्यनां गोपीओ वखाण करे छे. ए भूमिनां भाग्य के जेमां ध्वज, वज्र, अङ्कुश, यव वगेरे चरणचिह्न प्रतिफलित थाय छे. अमारुं हृदय पण तत्समान धर्मवाळुं छे छतां एमां चरण प्रतिफलित नथी थतुं तेथी गोपीओ पोतानी निन्दा करे छे. आ गोपी निर्गुणा छे तेथी सपत्नीना भाग्यनुं वर्णन करे छे. ते वृन्दावन व्यापि वैकुण्ठमां होत तो चिन्ता न हती, पण ए हाल तो पृथ्वी उपर छे तेथी पृथ्वीनां भाग्य छे. पृथ्वीनी कीर्तिने वृन्दावने वधारी दीधी छे. जेम कृपाथी देवकीजीना पुत्र थया तेम कृपा करी अमारा मनोरथो पण सिद्ध करशे एम धारी ‘देवकीसुत’ कह्या छे. अर्ही वर्णन करनार स्त्रीओ छे तेथी पण एने देवकीजीना पुत्र कह्या छे. खरी रीते पुरुषोत्तम स्त्रीनी उपर कृपा करवा पृथ्वी उपर पधार्या छे. पुष्टिमार्गमां चरण प्रधानभूत छे. ए चरण कमळ जेवां छे. कमळ तो स्त्रीना हृदयना तापने दूर करे ते एना हृदय उपर शोभे एमां पण ध्वज, वज्र, अङ्कुश वगेरे चिह्नो वृन्दावनमां प्रतिफलित थयां छे लक्ष्मी पण ए कमळमां निवास करे छे. पृथ्वी पण ज्यारे आर्द्र होय त्यारे ज पदनुं प्रतिफलन एमां थाय तेथी चरणस्पर्श थतां पृथ्वीने पण सात्विकभावथी स्वेद थतां आर्द्रता थाय छे. तेमां प्रतिफलन थतां ए पृथ्वीने शोभारूप थाय छे. तेथी पृथ्वीनी कीर्ति वृन्दावनथी कही, एटलुं ज नहि, पण एमां भक्तिनुं स्थापन पण कर्यानुं कहे छे के ज्यारे भगवान् वेणुनाद करे छे त्यारे श्याम मेघ गाजतो होय एवो शब्द थाय छे तेने साम्भळीने मयूरो मदथी गाण्डा बनी जाय छे. वेणुनाद वखते मयूरने देहनुं विस्मरण थाय छे अने नाचवा लागे छे. एथी भक्तिनो उद्रेक कह्यो. भक्तने पण भगवान्नुं स्मरण थाय त्यारे नाचवा लागे छे. मयूर जेवा भक्तो वृन्दावनमां रहे छे तेथी पण वृन्दावननी शोभा छे. वृन्दावन पण एवां प्राणीओनुं रक्षण करे छे. ज्यारे मयूर नृत्य करे छे त्यारे गिरिराजमां बीजा प्राणीमात्र शान्त थईने साम्भळे छे. तेथी एक भक्त छे अने बीजा बधा ज्ञानी छे. नीचे तो सर्प रहे छे तेने ज्ञानी केम कहेवाय? त्यां कहे छे के ज्यारे मयूर नाचे छे त्यारे बधां प्राणी पोतानुं स्थान छोडी पर्वत उपर जईने जोतां चूप रहे छे तेथी बधां ज्ञानी छे अने ऊर्ध्वगतिवाळां छे. (प्रथम हरिणीनां भाग्यने वखाणे छे के) आपणा करतां आ *हरिणीओदशमस्कन्ध १९२ धन्य छे के जेणे नवो शृङ्गार धारण कर्यो छे तेवा नन्दकुमारने जोवामाटे पोताना पतिओने साथे लईने जाय छे अने एना वेणुना रणकारने साम्भळीने भगवान्नी पोताना नेत्रकमळवडे पूजा करे छे अने भगवत्कृत सत्कारने स्वहृदयमां स्थापन करे छे ॥११॥
विशेष - कृष्णमां ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य एम छ भग छे तेथी भगवान् कहेवाय छे. ए एक-एक भग हरिणीओ, अप्सराओ, गायो, पक्षीओ, नदीओ अने मेघ एम छ मां देखाय छे. ए वात अर्ही छ श्लोकथी कहे छे. एमां ऐश्वर्यनुं लक्षण एवुं छे के ज्यारे मूढ पशु जाति पण पूजा करे त्यारे निरुपाधि ऐश्वर्य कहेवाय छे. ते ऐश्वर्य हरिणीमां देखायुं छे. वीर्यनी देवमां असर थवी जोईए तेमां पण स्त्रीओमां अने ए पण कामथी असर थाय तो ए वीर्य श्रेष्ठ गणाय छे. एमां पण पुरुषनी समक्षमां ए अप्सराओने देहानुसन्धान रह्युं नथी तेथी एमां वीर्य कहेवामां आव्युं. मूढ पशुओने खानपानमां आसक्ति छे. तेने छोडावी दे अने तेने पोताना धर्ममां जोडे तो यश कहेवाय. ए गाय अने वत्स मां कहेवामां आव्युं छे. अर्ही तामस, राजस, सात्विक अने गुणातीत कह्या छे. वृन्दावन, मुनिओ, पक्षीओ अने गोवर्धन ए बधा गुणातीत छे अने एमां आसक्तिवाळा पण गुणातीत भाववाळा समजवा. भगवान्नो ‘श्री’ नामनो गुण पक्षीओमां प्रसिद्ध छे. सेवक पण स्वामी जेवा गुणातीत थई जाय त्यारे श्रीनी पराकाष्ठा जणाय छे. ए वात पक्षीओमां छे अने वृन्दावनमां मुनिओ ज पक्षीरूपे लीलामां आवीने रह्या छे. स्वभाव बदलाई जाय त्यारे ज्ञान थयुं कहेवाय. ते अर्ही नदीओमां प्रवाह धर्म छूटी गयो, वहेण अटकी गयुं तेथी सिद्ध थाय छे. भगवान्नां चरणमां प्रीतिने लीधे सर्वस्व आपीने भगवान्ना दुःखने पण निवारण करे ते ‘वैराग्य‘ कहेवाय. ए कार्य अर्ही मेघमां जोवामां आवे छे. ए पण स्नेहथी करे तो ए सेवकने लायक सेवा गणाय. (कारिका) ज्ञान क्रियानुं विशेषण होवुं जोईए. क्रियानो उत्कर्ष पूजामां छे ते पूजा पण ज्ञान साधनथी ज्ञानमय द्रव्यथी भगवद्विषयक थाय तो ‘उत्तम’ कहेवाय. एमां स्वज्ञान अने भगवद्ज्ञान ते बन्ने एनुं अङ्ग होवुं जोईए. आवी क्रिया न होय तो बधुं वृथा छे. मनुष्य सिवायमां पण जो होय तो ए उत्तम समजवुं. आवो पूर्वपक्ष करीने एनो उत्तर आपे छे. स्त्रीनुं प्रकरण छे माटे हरिणनी स्त्रीओ धन्य छे. पोतानी अकृतार्थता स्फुरता-दीनता थतां भगवान् कृपा करीने दर्शन आपे छे तेथी ‘एताः’ एम कह्युं छे. जेणे नन्दनन्दनने जोईने, वेणुनुं रणित साम्भळीने भगवान्नुं प्रेमथी अवलोकन कर्युं ते रूपपूजा पोताने विशे धारण करी. भगवाने विचित्र वेश धारण कर्यो ते जोयोदशमस्कन्ध १९३ अने एमना वेणुनो शब्द पासे आवीने साम्भळ्यो तेनाथी दैहिक धर्मो-भय-वगेरे एने बाधक न थया. पतिनी साथे ए त्यां आवी ए एना स्वामी पण एने रोकनार नथी, केमके ए कृष्णसार कृष्णने फळरूप माननार छे. अमारा पतिओ तो अमारामां अभिमान राखनार छे तेथी पण हरिणीओ धन्य छे, अमे अधन्य छीए. भगवान्ने स्नेहपूर्वक जोया ए ज हरिणीनी पूजा ते भगवान्ने अर्पण करी, नेत्रो ज ज्ञानरूपी सुगन्धवाळां, ज्ञान उत्पन्न करनारां कमळो छे. तेनाथी पूजा करी ते सर्वोत्तम गणाय. भगवाने तेनी तरफ दयावडे जोयुं. प्राणीमात्रनुं भगवान् प्रत्ये ए ज कर्तव्य छे. भक्त प्रत्ये भगवान्नुं पण ए ज कर्तव्य छे. प्रेमपूर्वक भगवान्ने जोवा ए जीव कर्तव्य, दयापूर्वक भक्तने जोवा ए भगवत्कर्तव्य छे. वनिताना मनने आनन्द आपे तेवा सुन्दर वेशवाळा श्रीकृष्णने जोईने अने एना वेणुना कवणनने साम्भळीने विमानमां फरनारी देवीओ काम व्याकुळ थतां एनुं बल क्षीण थयुं तेना केशपाशमान्थी पुष्प नीचे पडी गयां अने कपडां खसी गयां तेनुं पण एने भान रह्युं नहि अने *मोहित थई ॥१२॥
विशेष - आ श्लोकमां अप्सराओने वेणुनादथी जे असर थई ते कहे छे. कृष्ण शब्द कह्यो छे तेथी स्त्रीनो निरोध कह्यो छे. साक्षात् आनन्दने जोईने आनन्दना साधनमां रुचि न थाय ते स्वाभाविक छे. जोनार देवीओ छे. तेणे भगवान्नुं दर्शन दिव्यदृष्टिथी कर्युं छे. ए पण सदानन्दनुं दर्शन कर्युं, केमके सदानन्द पोताना सजातीयना उद्धारार्थ पधार्या छे ए ज ‘वनितोत्सव’ ए विशेषणथी कह्युं छे. वनिताने माटे सुन्दर वेश जेणे धर्यो छे. उत्सव अनेक होय छे. ते-ते उत्सव उपर ते-ते शृङ्गार धरवानी रीति छे. परन्तु अर्ही तो केवळ वनिताने गमे तेवो वेश प्रभुए धर्यो छे. ‘‘वनं यौवनं प्राप्ताः अथवा वनमिताः एम ईतच्’’ प्रत्यय करवो. वनमां गयेलो पाछो संसारमां आवतो नथी. यौवनमां ‘‘यु मिश्रणामिश्रणयोः’’ तेमां मिश्रणार्थे ‘वन’ एवो अर्थ करीए तो तेमने ज उत्सव थवा माटे भगवाने वेश धराव्यो छे. सर्व आभरणथी सज्ज थईने सर्व वनिताओ जेम वेशरसनो पुरुषार्थ अनुभवमां आवे तेम वर्ती. आथी एम कहेवामां आव्युं के आ वखते भगवान्नां दर्शन करीने जेने उत्सव न थयो तेनो जन्म विधवानी जेम वृथा गयो. बहारनां घरेणा अलङ्कार छे; तेम प्रेम, ज्ञान वगेरे आन्तर अलङ्कार पण जोईए. बहार रसनो अनुभव थाय तेम अन्दर पण रसानुभव थवो जोईए. भगवान्नी पासे आवीने एमणे वेणु-कवणितनुं श्रवण कर्युं. वेणुमान्थी प्रकट थतां अनेक गीतने साम्भळवानो मनोरथ हतो. तेमां एक ज गीतथी मोहित थई गयां. शृङ्गारमां सर्वरस छे एम नाट्यशास्त्रनो सिद्धान्त छे. ए गीतमां विचित्रतादशमस्कन्ध १९४ कही तेथी बधा रसोनो बोध थाय छे. जो के देवीओ मनुष्यने पूजवा योग्य छे, विमानमां फरनार छे, ए मनुष्यथी भोग्य नथी तेम दुःख सहन करवा लायक पण नथी, तो पण स्वर साम्भळवाथी ज एनी शक्ति नष्ट थई गई. शरीर अने इन्द्रिय करतां मन बलिष्ठ छे. एमान्थी कामे बधो विवेक हरी लीधो तेथी ए पृथ्वी उपर न आव्यां, पगथी न आव्यां के पोतानी मेळे भगवान् पासे आवी न शक्यां, पण केवळ मोहित थई गयां ए केवळ मनमां ज मोह न रह्यो, पण उपर नीचे बधे मोह व्याप्त थयो तेथी केशपाश चून्थाई गयो अने नीचेनुं वस्त्र पडी गयुं एनुं पण भान रह्युं नहि. आथी आ लोक अने परलोक ना फलनो त्याग सूचव्यो. विमानमां हतां एटले नीचे पड्यां नहि. देवयोनि होवाथी तेमनुं मरण न थयुं. भगवान्ना उपयोगनां ए न होवाथी बीजाने पण एनो उपयोग न थवा माटे आ मोह थयो तेथी अप्सरानुं आ चरित्र रसाभासरूप गणाय. भगवान्ना वीर्य एटले पराक्रमनो धर्म एटलो प्रबळ के अप्सरानुं पण पोतानुं मन स्थिर राखवानुं सामर्थ्य चाल्युं गयुं अने अन्ते मोहित थई गई. श्रीकृष्णना मुखथी नीकळेल वेणुना गीतरूपी अमृतने ऊञ्चा कानरूपी पडियाथी पान करती गायो ऊभी थई गई. वाछडां एनी मातानां स्तनपान करतां हतां तेनां मुख एम ज खुल्लां रही गयां जेमान्थी दूध बहार चाल्युं गयुं अने गायो तथा वत्सोए भगवान्ने हृदयमां पधराववाथी एनी आङ्खोमां अश्रुबिन्दु आवी गयां* ॥१३॥
विशेष - आ श्लोकमां भगवान्ना वेणुनादथी गायो अने वाछडां उपर केवी असर थई ए कहे छे. ए यशनुं लक्षण कह्युं छे. तेमां कह्युं छे के मूढने पण प्रत्यक्ष आसक्तिने छोडावी दे ए यश कहेवाय, तो अर्ही प्रत्यक्ष आसक्ति पशुने घास खावामां अने वत्सने दुग्धपानमां छे. ते वेणुनादना श्रवणथी छूटी जाय छे तेथी यशोवर्णन आ श्लोकनो विषय छे. एमां पण कृष्णमुख निर्गत वेणुगीत पीयूष एटलां बधां विशेषणो नादनां छे तेथी ए विलक्षण नाद कर्यो छे एम स्पष्ट थाय छे; नर्ही तो कृष्णगीत एम ज कहे. तेथी भगवाने एवो नाद कर्यो छे के जे पशु ते रसनां जाणकार न गणाय तेनां हृदयने पण पोताना स्वरूपमां आसक्त करी शके. कर्णने ‘पुट’ कह्या छे तेथी एने ऊञ्चा राख्या छे तेथी पण रसज्ञता एमां ऊतरी जणाय छे. पशुओए पण हृदयमां भगवान्नो स्पर्श कर्यो छे एवुं मूळमां स्पष्ट छे. हे माताजी! घणुं करीने आ पक्षीओ वृन्दावनमां देखाय छे ते मुनिओ छे. एमने पक्षीओनो जन्म केम थयो हशे? पण ए जन्म धन्य छे के जेनी क्षणदशमस्कन्ध १९५ श्रीकृष्णमां ज जाय छे अने एमणे उच्चारेला वेणुगीतने सुन्दर कोमळ प्रवालवाळी वृक्षनी शाखा उपर बेसीने बीजी वाणी बोलवी छोडीने आङ्खो बन्ध करीने पक्षीओ (मुनिओ) साम्भळे छे तेथी *कृतार्थ छे ॥१४॥
विशेष - पक्षीओ पाङ्ख आवे त्यारथी पोताना मा-बापना सङ्गमां पण रहेता नथी तो एने बीजानां सङ्गनो सम्भव क्यान्थी होय? तेम एने ज्ञान होतुं नथी तो एमां ज्ञानगुणने बेसतो करवो असम्भवित मानी कहे छे के ए पक्षीओ नथी पण ए तो मुनिगणो जे घणा जन्मथी भगवान्नुं मनन करे छे. ते भगवान् वृन्दावनमां विहार करशे एम स्वधर्मथी जाणी गया छे तेथी पक्षीनुं रूप धरीने वृन्दावनमां भगवान्नी लीलाने प्रत्यक्ष करवाने आवी रह्या छे. तेथी ‘बत’ खेदना अर्थमां नर्ही पण हर्षना अर्थमां छे एम कह्युं छे. एमणे भगवान्नी लीला जोवानी सारी युक्ति शोधी काढी. कृष्णे वेणुनाद नहोतो कर्यो त्यां सुधी रूपनुं पान करता हता, ज्यारे वेणुनाद कर्यो त्यारे एने पण साम्भळ्यो. पण ए मुनिओ होवाथी भगवान्नो सम्बन्ध न होय तेवी वाणी बोलता नथी अने नेत्रने बन्ध करीने श्रवण करे छे. मुनिओ वेदनी शाखाने भजनारा छे ते अर्ही वृक्ष वेदरूप छे तेनी शाखा उपर बेसीने साम्भळे छे, एटले त्यां तो काल आदिनो भय सम्भवतो नथी. नादरसनो अनुभव हृदयमां करे छे. तेथी ए नाद अलौकिक अने दुर्लभ छे एम पण सिद्ध थाय छे. कोई मारशे एवो पण एने भय नथी, केमके कोमळ पत्रना समुदायनी वच्चे बेठा छे तेने कोई पण जोई शक्तुं नथी. जे इन्द्रियो अने मन ने व्यापारमां योजनार छे तेनो एणे संयम कर्यो छे तेथी एना मननो प्रवाह केवळ नादरसनो ज अनुभव करी रह्यो छे, एम स्पष्ट थाय छे. चेतननी वात जवा दो, जड एवी नदीओने पण मुकुन्दनुं वेणुगीत साम्भळवामां आव्युं त्यारे एने काम थयो ते भमरी पडवाथी जणायो त्यारे एणे तरङ्गरूपी भुजावडे भगवच्चरणनुं आलिङ्गन कर्युं तेथी एनो प्रवाह अटकी गयो. एणे कमळ भेट करीने मुरारिना बन्ने चरणने तरङ्गथी पकडी लीधा* ॥१५॥
विशेष - ज्यारे मुनिओने भगवाने कृतार्थ कर्या त्यारे नदीओने पोताने पण कृतार्थ थवानो विचार आव्यो. त्यारे एणे मुनिने फळ मळ्यानुं जाणी पोते पण ए भगवान्नुं गीत साम्भळ्युं. साम्भळतां तेमां आवर्त थवा लाग्यां. ते नदीनी मूर्छारूप छे. तेनाथी एने काम थयो एटले विवेक जतो रह्यो. आथी अचेतन प्रायने पण भगवत्सम्बन्धनी इच्छा थाय छे तेथी एणे भगवान्ना चरणने अडकवाने माटे तरङ्गरूपी भुज लम्बाव्यो अने पोताना हृदयरूप कमळने भेट मूकवामाटे लईने एने चरणमां मूकी आलिङ्गन कर्युं एटले पेतानुं हृदयकमळ आपीदशमस्कन्ध १९६ भगवच्चरण कमळ लेवानो तरङ्गथी प्रयत्न कर्यो. नदी पण देवता छे तेथी तेमनी साथे बीजी कोई लीला सम्भवती नथी तेथी तेमनी प्रभुना चरणोने आलिङ्गन करवा ज स्थिति छे. राम अने गोप नी साथे व्रजना पशुने चारता अने वेणु वगाडता पोताना मित्र घनश्यामने जोई श्यामघनने प्रेमनोउभरो आवतां पोताना शरीरथी पोताना मित्रने छत्ररूपे छाया करी अने नानी-नानी बुन्दरूपी फूलो वर्षावी एने ग्रीष्मना तापथी मुक्त कर्या* ॥१६॥
विशेष - मेघोए समानशीलताथी भगवान्मां सख्य सम्बन्ध राख्यो छे तेथी ‘सख्युः’ एवुं मूळमां कह्युं छे. भगवान् श्याम छे, तापहारक छे, जीवनदाता छे तेवा गुणो मेघमां पण छे तेथी समान शील व्यसन होईने सख्य छे. एणे भगवान्ने शरदना तापमां वनमां फरता जोया त्यारे ‘‘अप्रेरितहितकर्तृत्वं मित्रत्वम्’’ ए न्यायथी भगवान्नी मागणी न हती छतां एना उपर पोताना शरीरथी छाया करी अने पोतानी कुसुमावलीथी स्वात्मनिवेदन कर्युं; केमके मेघनो आत्मा ज जळ छे. अरी सखी! अमे तो वृन्दावननी आ भीलडीओने ज धन्य अने कृतकृत्य मानीए छीए, केमके एमनां हृदय प्रेमपूर्ण छे. ज्यारे तेओ आपणा कृष्ण प्यारानां दर्शन करे छे त्यारे तेमनां हृदयमां पण एमने मळवानी तीव्र लालसा जागे छे. आपणा प्रियतमनी प्रेयसी गोपीओ पोताना वक्षःस्थल उपर जे केसर लगावे छे ते श्यामसुन्दरना चरणोमां लागेलुं होय छे अने तेओ ज्यारे वृन्दावनना घासपात उपर चाले छे त्यारे तेने पण लागी जाय छे. आ सौभाग्यवती भीलडीओ घास उपरथी लईने पोताना स्तनो अने मुख उपर चोपडी दे छे अने तेथी तेमने स्वरूपानन्दनो अनुभव थाय छे अने हृदयनी प्रेमपीडा शान्त थई जाय छे* ॥१७॥
विशेषः वनवासी क्षुद्र जातिने पण भगवान्ना चरणने लागेल कुङ्कुम घासने लागेलुं जोईने एमने अलौकिक मनोरथ थयो ए मोटी वात. ते मनोरथनी सिद्धिने माटे तेमणे ते कुङ्कुम हृदय अने मुख उपर लगाड्युं, तेथी ए कामनानी शान्ति पण ए उपायथी थई, तेथी ए पूर्णा छे आपणे नर्ही. वननां क्षूद्र प्राणीओने भगवान्ना चरणनी रजनो साक्षात्मसम्बन्ध थयो ए प्रथम तो आश्चर्य, एमां पण ए चन्दन लगाडतां एने ब्रह्मभाव थाय अने लक्ष्मीना जेवुं भाग्य एनुं थाय ए मोटा आश्चर्यनी वात थई. ए आ श्लोकनुं तात्पर्य छे. भगवान्नी लीलामां उच्चनीचनो भेद आपणा विचारथी करवो ए वृथा कल्पना छे. सर्व तद्रूप छे तो त्यान्दशमस्कन्ध १९७ जुदो कोण होई शके? हे अबला! आ गिरिराज भगवद् भक्तोमां श्रेष्ठ छे, केमके ए राम-कृष्णना चरणना स्पर्शमात्रथी प्रमुदित थाय छे, एटलुं ज नर्ही, पण गाय, गोप सहित राम अने भगवान्नो जल, घास, कन्दरा, कन्द अने मूळथी सत्कार करे* छे ॥१८॥
विशेष - पुलिन्दीओनी पूर्णता केम थई? एवी शङ्का थाय त्यां कहे छे के एने भगवद् भक्तोनो सङ्ग थयो. तेथी सत्सङ्गथी एने तेवो अधिकार मळ्यो के जेनां व्रजभक्तो गुणगान करे छे. ए क्यां सत्सङ्ग करवा गई? तो त्यां कहे छे के गोवर्धन पर्वत मोटा भगवद्भक्त छे तेनो ए पुलिन्दीओने सत्सङ्ग छे. अमे पण जो गोवर्धनमां पहोञ्च्यां होत तो अमने पण ए लाभ मळत. पण एम न बन्युं एनो खेद बतावनार ‘हन्त’ शब्द कह्यो छे. आ गोवर्धन भक्तोमां श्रेष्ठ गणाय छे. केमके जेने भगवान्ना चरणनो सम्बन्ध थतां रोमाञ्च थतां होय ते भक्त श्रेष्ठ गणाय छे. वळी ए सात्विक अथवा गुणातीत छे. ए निर्धन छे छतां पोताने त्यां आवनारनुं मान साचवी, बनी शके तेटलो तेनो सत्कार करे छे, भगवान्नी अने एना परिकरनी सेवा करे छे. गायने माटे जळ अने घास आपे छे. वर्षा वखते गोपोने कन्दरामां आराम आपे छे. भगवान् पण ए कन्दरानो लाभ ले छे. कन्दमूळ भोजनमाटे मळे छे. कन्द शेकवाथी भक्षण योग्य थाय छे, त्यारे मूळ तो आदू-मूळीनी जेम एम ज उपयोगमां आवे छे. आपणे तो भगवान् आपणा घरमान्थी माखण चोरी जता तो राडो (बूमो) पाडी एमनी माताने ठपको आपवा जतां अने आ पर्वत तो पुलिन्दीद्वारा पोतानुं सर्वस्व भगवान्ने भेट करे छे तेथी ए भक्तोमां श्रेष्ठ छे. हे सखीओ! गोपोद्वारा गायोने भगवान् वनमां लई जाय छे. त्यां जई अव्यक्त मधुर शब्दवाळो वेणुनाद करे छे अने गायने दोहवामां उपयोगी बे दोरडां साथे राखीने चाले छे त्यारे स्थावर चेतन थई जाय अने चेतन प्राणी स्थावर थई जाय छे ए विचित्र लीला* छे ॥१९॥
विशेष - आपणे सजातीय अने योग्य छीए. तेना उपर प्रभु कृपा करता नथी अने हरिणी, गाय, पुलिन्दी जेवानी उपर कृपा केम करे छे? एवी शङ्का अर्ही सहज थाय. एना उत्तरमां कहेवानुं के भगवान्नुं चरित्र विपरीत छे. भगवान् स्वयं कांई करता नथी; ए तो साक्षीमात्र रहे छे. एटलामां गतिवाळा स्थगित थई जाय छे अने वृक्षादिमां पुलकादि थाय छे एम अमे योग्य मानीए छीए तेनी भगवान्मां अयोग्यता छे अने आपणे जेने अयोग्य गणीए तेनी योग्यता थाय छे. एनां त्रण कारणो छेःगोपोनी साथे गायोने वनमां लई जाय छे तेदशमस्कन्ध १९८ एक कारण छे. वेणु बजावता जाय छे ए बीजुं कारण छे, अने एमां अव्यक्त मधुर पद बोले छे ए त्रीजो हेतु छे. गायोने वनमां फेरवे छे तेथी वननी शुद्धि थई जाय छे. ए वननो सम्बन्ध गोपने अने गायने थाय छे तेथी एनी पवित्रतानो सम्बन्ध पण एने थाय छे. वेणुनादना वृक्ष आदिने अनुभव थाय छे तेथी ए त्रण कारणोथी आम योग्यनी अयोग्यता अने अयोग्यनी योग्यता थाय छे. एमां भगवान् तो मात्र साक्षीरूप छे. भगवान् बे दोरडां पासे राखे छे तेथी पण एमने बान्धशे एवी बीकथी पोत-पोतानो रस जड पण आपी दे छे अने चेतन पण स्थिर थई जाय छे. एवं विधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ॥ वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः ॥२०॥
आ प्रकारनी वृन्दावनमां फरता भगवान्नी क्रीडानुं वर्णन करती गोपीओ भगवन्मयी थई जाय छे अथवा भगवान्नी क्रीडामयी थई जाय छे ॥२०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा-प्रकरणनो धर्मीनो सातमो अने चालु) ‘‘गोपीओए गायेलुं वेणुगीत’’ नामनो एकवीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां १८ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. बीजा तामस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण सम्पूर्ण थयो आपणे पुष्टिभक्तिने लजावीए छीए जोद्ग अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी) देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए
अध्याय २२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय १९ कुमारिकाओए कात्यायनीनुं व्रत कर्युं तामस साधन प्रकरण अध्याय १
विशेष - हवे पछीना सात अध्यायवडे उत्तम निरोध निरूपण कराय छे ते फळ सुधी [[१९९]] पहोञ्चाडनारो निरोध छे. आ प्रकरण (तामस साधन) मां विद्यानो निर्णय कहेवामां आवे छे. अर्ही *पाञ्चपर्ववाळी विद्या कहेवामां आवशे त्यारे इन्द्रने जोवानो वखत आवशे त्यान्थी लईने गोपोने वैकुण्ठ बतावशे त्यां सुधी साधन प्रकरण छे. विद्यामां ज्ञान अने कर्म ना पाञ्च-पाञ्च भेद छे. अर्ही अविद्याना कार्यनो सम्बन्ध नथी. स्त्री अने पुरुषो नुं साथे निरूपण कर्युं छे. प्रथम गोप अने पछी गोपीओनी कर्मज्ञानात्मिका लोकानुसारिणी विद्या कहे छे. तेमां आ बावीसमा अध्यायमां कुमारिकानुं व्रत कहेवामां आवे छे अने भगवान्ना स्वरूपमां रहेला कुमारोने ज्ञाननो उपदेश करवामां आवे छे. (कारिका-श्रीमहाप्रभुजी) *साक्षात् भगवान् न मळे तो परम्पराथी पण भगवान्नी सेवा करवी ए प्रथम अध्यायनो अर्थ, देह, इन्द्रिय वगेरेनो भगवदर्थ उपयोग करवो, पोताना स्वार्थमाटे न करवो. ए एक विद्यापर्व कह्युं. देहना निर्वाहनेमाटे, भूखतृषानी निवृत्तिने माटे आपणे तेनां साधनो मेळवी शकीए एम होईए छतां भगवान्ने एने माटे प्रार्थना करवी, पण बीजानी पासे माङ्गवुं नहि ए बीजा अध्यायनो अर्थ छे. प्रभु लोकमां अलौकिक नथी करता. भगवान्मां भाव थवामां प्रभुनो अनुग्रह ज कारण छे, पण शास्त्रीय साधन नियामक नथी ए बीजुं पर्व. बीजानुं परम्पराथी भजन थतुं होय ए छोडी देवुं, केवल भगवद् भजन करवुं, बीजा धर्मो भगवदिच्छा जाणी छोडी देवा ए त्रीजी विद्या, त्रीजा अध्यायनो अर्थ छे. सर्व अवस्थामां भगवान्नी सेवा करवी, भगवान् अकिलष्टकर्मा छे ते पोताना जननी रक्षा करे छे ज ए चोथुं पर्व. माहात्म्य ज्ञानपूर्वक सुदृढ स्नेहमां भक्तिनी अधिकतानुं ज्ञान ए पाञ्चमी विद्या ए पाञ्चमां अध्यायनो अर्थ छे. आम पुष्टिमार्गीय पाञ्च विद्या पाञ्च अध्यायथी कही. (श्रीटिप्पणीजीःश्रीगुसांईजी-श्रीविट्ठलनाथजी) (कात्यायनी पूजनना समये कुमारिकाओनी वय पाञ्च वर्षनी हती अने श्रीकृष्ण सात वर्षना हता तेथी आ बाललीला होवाथी लौकिक दृष्टिए पण आमां कोई दोष नथी) हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दगोपकुमारिकाः ॥ चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - नन्दरायजीना व्रजमां रहेती कुमारिकाओए हविष्यान्न भोजन करीने हेमन्त ऋतुना पहेला मागसर मासमां कात्यायनी देवीना पूजनरूपी व्रत कर्युम् ॥१॥
अरुणनो उदय थाय त्यारे कालिन्दीजीना जळमां स्नान करी जळने किनारे देवीनी रेतीमय मूर्ति करी. हे राजन्! एमां देवीनुं पूजन करवा लागी ॥२॥दशमस्कन्ध २०० सुगन्धी द्रव्यो (चन्दन) अने पुष्पो, बलि, धूप अने दीपथी उत्तम अने मध्यम प्रकारनी सर्व सामग्रीथी (तेम ज) प्रवाल, फळ अने चोखाथी ए देवीनुं पूजन करवा लागी ॥३॥
‘‘हे कात्यायनि! महान भाग्यवाळी, महायोगिनी, अधीश्वरी हे देवी! नन्दगोपना पुत्र अमारा पति थाय एम तुं करी दे. तने अमे नमन करीए छीए’’ ए मन्त्रनो जप करती कुमारिकाओ कात्यायनी देवीनी पूजामां प्रवृत्त थई ॥४॥
ए प्रमाणे कृष्णमय चित्तवाळां कुमारिकाओए एक मास सुधी व्रत कर्युं. ‘‘नन्दनन्दन (अमारा) पति थाओ’’ ए मन्त्रथी भद्रकाली (भगवत्सम्बन्ध प्राप्त करावे तेवा काल) नी सारी रीते पूजा करी ॥५॥
उषःकाळमां ऊठीने एक बीजाने बोलावती (कुमारिकाओ) परस्पर हाथ बान्धी कृष्णनुं ऊञ्चा स्वरथी गान करती रोज कालिन्दीजीमां स्नान करवा जवा लागी ॥६॥
एक वखत कुमारिकाओ यमुनाजी उपर आवी एना तीर उपर हम्मेशां करती हती तेम वस्त्रो मूकी कृष्णनुं गान करतां-करतां जळमां आनन्दमां आवी जईने जळक्रीडा करवा लागी ॥७॥
योगेश्वरोना ईश्वर श्रीकृष्ण ए कुमारिकाओना अभिप्रायने जाणीने पोताना मित्रोने साथे लई एना कर्मने सिद्ध करवामाटे त्यां श्रीयमुनाजी उपर पधार्या ॥८॥
एना काण्ठे पडेलां वस्त्रोने उठावी जलदी कदम्बना वृक्ष उपर चडी बाळको हसे छे तेनी साथे पोते पण हसता आ प्रमाणे मश्करीमां कहेवा लाग्या ॥९॥
‘‘अर्ही आवीने, हे अबळाओ, पोत-पोतानां वस्त्रो इच्छा प्रमाणे ग्रहण करो. हुं सत्य कहुं छुं. हसवानी वात न समजो, केमके तमे व्रतथी कृश थयां छो तेनी साथे मश्करी न होय ॥१०॥
में कदी पण खोटुं कह्युं नथी ए आ बधा बाळको जाणे छे. हे सुमध्यमा!(शुद्ध अन्तःकरणवाळां)एक-एक अर्ही आवीने अथवा सर्व साथे आवीने तमारां वस्त्र लई जाओ’’ ॥११॥
गोपीओ तो आ भाषणने मश्करी समज्यां अने प्रेममां डूबी गयां, शरमाई गयां, परस्पर जोईने हसवा लाग्यां, पण जळमान्थी बहार न नीकळ्याम् ॥१२॥
एम गोविन्द बोल्या त्यारे भगवान् हसे छे एम धारी एमनुं चित्त व्यग्र थयुं. कण्ठ सुधी जळमां ऊभा रह्यां, ठण्डीने लीधे कम्पवा लाग्यां अने बोल्यांः ॥१३॥दशमस्कन्ध २०१ ‘‘हे अङ्ग! अन्याय न करो. तमे नन्दरायजीना पुत्र छो अने अमने प्रिय छो. व्रजमां आप वखणाओ छो ए बधुं अमे जाणीए छीए. अमे ठण्डीमां ध्रुजीए छीए तो अमारां वस्त्रो अमने आपो ॥१४॥
हे श्यामसुन्दर! अमे आपनी दासीओ छीए. आप जे आज्ञा करो ते अमे करीशुं. हे धर्मज्ञ! अमारां वस्त्र आपो, नहि तो अमे राजा (नन्दरायजी) ने कहीशुं ॥१५॥
श्रीभगवान् बोल्या - ‘‘तमे जो मारी दासी हो अने मारा कह्या प्रमाणे करवाने तैयार हो तो हे शुचिस्मिता! अर्ही आवी पोत-पोतानां वस्त्र लई जाओ’’ ॥१६॥
त्यारे ते कन्याओ ठण्डीथी काम्पती पोताना बे हाथवडे गुह्य शरीरने आच्छादन करती ठण्डीथी दुर्बळ देहवाळी जळथी बहार नीकळी ॥१७॥
भगवाने तेमने सर्व प्रकारे निर्दुष्ट जोई. एना शुद्धभावे भगवान्ने प्रसन्न कर्या पछी पोते एमनां वस्त्रोने वृक्षनी शाखा उपर राखीने प्रसन्न थई जरा स्मित करता बोल्याः ॥१८॥
‘‘तमे व्रत धारण करेल होवा छतां वस्त्र वगर नाह्यां तेमां देवनुं अपमान थयुं छे. ए पापने दूर करवामाटे बे हाथ जोडी एने मस्तक लगाडी नमस्कार करीने तमारां वस्त्रो तमो ग्रहण करो’’ ॥१९॥
एम ज्यारे अच्युत भगवाने कह्युं त्यारे व्रजरत्नाओए वस्त्र वगर करेला स्नानने व्रतमां दोषरूप गणीने ए दोषने दूर करवा सारु अने व्रत पूर्ण थवा माटे समग्र कर्मना फळरूप भगवान्ने नमस्कार कर्या. कारण के व्रतमां कांई भूल रही गई होय तो ए भूल भगवान्ने नमस्कार करवाथी दूर थईने कर्म साङ्ग सफल थाय छे ॥२०॥
एवां नम्रतावाळां कुमारिकाओने देवकीजीना पुत्रे जोयां अने जोवाथी एमने दया आवी. एनाथी प्रसन्न थईने एमणे ए कुमारिकाओनां वस्त्र आप्याम् ॥२१॥
भगवाने तेमने अत्यन्त छेतर्यां, एमनी लज्जा छोडावी, एमनी मश्करी करी, रमकडान्नी जेम एमनी दशा करी, एमनां वस्त्रो पण लई लीधां, छतां भगवान्नां दर्शनथी ए सुखी थयां. एटलुं कर्या छतां एमणे एमनी असूया न करी पण एमणे (भगवाने) जे-जे कह्युं ते स्वहितार्थ कहे छे एवो भाव थतां एमनी प्रीतिमान्दशमस्कन्ध २०२ वधारो ज थयो ॥२२॥
पोत-पोतानां वस्त्रो पहेरीने प्राणप्रियना सङ्गममाटे तैयार थई गयां. भगवाने जेमनां चित्त खेञ्ची लीधां छे तेवा कुमारिकाओ नेत्रथी लज्जित थया छतां त्यान्थी हाली-चाली शक्यां नहि ॥२३॥
पोताना चरणना स्पर्शनी कामनाथी एमणे व्रत कर्युं छे एवो एमनो सङ्कल्प भगवान् समजी गया अने दामोदर भगवान् अबलाओने कहेवा लाग्याः ॥२४॥
‘‘हे साध्वीओ! तमे जे माटे मारुं अर्चन कर्युं ए तमारो सङ्कल्प मारा जाणवामां आव्यो छे. में तमारा सङ्कल्पने अनुमोदन आप्युं छे तेथी ए तमारो सङ्कल्प सिद्ध थवाने योग्य छे ॥२५॥
जेम भूञ्जेला के बाफेलां बी अङ्कुरित थतां नथी तेम, मारामां जेनी बुद्धिनो आवेश थाय छे तेनो कोई काम संसारना कामनो रहेतो नथी ते सङ्घातने उत्पन्न करतो नथी ॥२६॥
हे अबलाओ! तमे सिद्ध थयां छो माटे व्रजमां जाओ. हे सतीओ! जे उद्देशथी तमे व्रत कर्युं छे तेना फळ तरीके आ रात्रिओमां तमे मारी साथे रमण करशो’’ ॥२७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम भगवाने आज्ञा करी त्यारे कुमारिकाओनो मनोरथ पूर्ण थयो. ए भगवान्ना चरणकमळनुं ध्यान करतां अनिच्छाए व्रजमां आव्यां ॥२८॥
देवकीजीना पुत्र भगवान् पोताना मोटाभाईनी साथे गायोने चारता गोपोने साथे लईने वृन्दावनथी दूर गया ॥२९॥
ग्रीष्म ऋतुना तीक्ष्ण तापमां पोतानी छायाथी छत्रीरूपी बनी गयेलां वृक्षोने जोईने व्रजवासीओने भगवान् एना धर्म कहेवा लाग्याः ॥३०॥
‘‘हे स्तोक कृष्ण! हे अंसु! हे श्रीदामा! सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ, वरूथप! (कृष्ण ए अर्ही कोई गोप सखानुं नाम छे) ॥३१॥
आ महाभाग्यवाळां अने बीजाने माटे ज जेनुं जीवन छे तेवां वृक्षोने जुओ. वायु, वर्षा अने तडको पोते सहन करी बीजानां वायु, वर्षा अने तडकाने तेओ दूर करे छे ॥३२॥
सर्व प्राणीओना जीवनमां उपयोगी आ वृक्षोनुं जीवन उत्तम छे. सारादशमस्कन्ध २०३ माणसना घेरथी जेम याचक विमुख न जाय तेम आ वृक्षो पासे जे आवे तेने ए पोते आपे छे, पण कोईने निराश करतां नथी ॥३३॥
पत्र, पुष्प, फल, छाया, मूळ, छाल, लाकडुं, गन्ध, गुन्द, भस्म, अस्थि (अङ्गारा) अने शाखाओथी बधाना कामने वृक्षो पूर्ण करे छे ॥३४॥
देहधारीने देह मळ्यानी सफळता ए ज छे के ए प्राणथी, अर्थथी, बुद्धिथी अने वाणीथी सदा बीजानुं भलुं करे’’ ॥३५॥
एम कोमळ पल्लवना अने पुष्पना गुच्छो, फळो, पुष्पो, अने दळना समूहथी जेनी शाखाओ नमी गई छे तेवां वृक्षोनी वच्चे थईने भगवान् श्रीयमुनाजी तरफ पधार्या ॥३६॥
त्यां गायोने उज्जवल, शीतल अने आरोग्यदायक जलनुं पान करावीने हे राजा! भगवाने पोते अने गोपोए यथेच्छ स्वादिष्ट जलनुं पान कर्युम् ॥३७॥
तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशून् नृप ॥ कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रुवन् ॥३८॥
हे नृप! ए श्रीयमुनाजीना काण्ठा पासेना वनमां इच्छा प्रमाणे गायोने चारता गोवाळिया भूखथी दुःखी थतां राम-कृष्णनी पासे आवी आ प्रमाणे बोल्या ॥३८॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा प्रमाण-पेटा-प्रकरणनो ऐश्वर्य निरूपक पहेलो अने चालु) ‘‘कुमारिकाओए कात्यायनीनुं व्रत कर्युं’’ नामनो बावीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां १९मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय २३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २० भगवाने करेलो यज्ञपत्नीओनो उद्धार तामस साधन प्रकरण अध्याय २
विशेष - वैदिक कर्म अने ज्ञान आ त्रेवीसमा अध्यायमां कहे छे. ए बन्नेनो निर्णय पण आदशमस्कन्ध २०४ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. साक्षात् भगवान्नुं कथन पण प्रथम तो ठीक नथी लागतुं. परम्परोक्त ध्यानमां आवे छे. ब्राह्मणोनी स्त्रीओनो भाव श्रेष्ठ छे. ते स्त्रीओद्वारा ब्राह्मणोने भगवद् ज्ञान थशे. त्यारे ए पोताना कार्यनो पश्चात्ताप करशे. राम राम महावीर्य कृष्ण दुष्टनिबर्हण ॥ एषा वै बाधते क्षुन्नः तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः ॥१॥
गोपो बोल्या - हे राम! हे राम! हे महावीर्य! दुष्टने दूर करनार हे कृष्ण! आ भूख अमने बाधा करे छे तेनी शान्ति करवाने आप ज योग्य छो ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम देवकीसुत भगवान्ने गोपोए मळी विनन्ति करी त्यारे पोतानी भक्त एक ब्राह्मण स्त्रीनी उपर प्रसन्न थता भगवान् आ प्रमाणे बोल्या।२॥
‘‘ब्रह्मने कहेनार ब्रह्मणो देवोनुं यजन करे छे. स्वर्गनी कामनाथी आगिंरस नामनो यज्ञ करे छे. तेमां ए बेठेला छे. ए देव यजनमां तमे जाओ ॥३॥
हे गोपो! त्यां जईने भगवान् आर्य बलभद्र अने मारुं नाम दई ‘‘एमणे अमने मोकल्या छे’’ एम कही ‘‘एमनी पासे रान्धेलो भात मागो’’ ॥४॥
एम प्रभुनी आज्ञा थई तेने माथे चडावी गोपो देवयजनमां पहोञ्च्या. हाथ जोडी ए ब्राह्मणोनी सामे दण्डनी जेम पृथ्वी उपर पडी, नमस्कार करी याचना करवा लाग्या ॥५॥
‘‘हे भूमिदेवो! अमे कृष्णना आज्ञाधारक सेवक छीए ते राम (बलभद्र) ना मोकलवाथी अमो गोपो आपनी पासे आव्या छीए एम जाणो. आपनुं भलुं थाओ ॥६॥
अर्ही नजीकमां राम अने कृष्ण गायो चराववा आवेला छे ते भूख्या थया छे तेथी तमारी पासेथी रान्धेला भातनी इच्छा राखे छे. ए बन्नेए तमारी पासेथी ए लेवाने अमने मोकल्या छे तेथी हे द्विजो! जो तमारी श्रद्धा होय तो भात आपो. तमे धर्मने जाणनाराओमां श्रेष्ठ छो ॥७॥
हे सज्जनोमां उत्तम! दीक्षा पहेलां, यज्ञमां पशुवध पहेलां अने सोत्रामणि यज्ञना दिवस पहेलां दीक्षा लीधेलाओनुं पण अन्न खानारने दोष लागतो नथी’’ ॥८॥
ब्राह्मणोए तो भगवान्नी याचनाने साम्भळ्या छतां तेना प्रत्ये ध्यान आप्युन्दशमस्कन्ध २०५ नहि; केमके तेओ क्षुद्र आज्ञाने माटे मोटां कर्म करता हता, मूर्ख हता छतां तेमने ज्ञानवृद्धनो आडम्बर हतो तेथी ‘‘आपणे आपीए तो कर्मभङ्ग थाय’’ एम धारी आपवानो विचार न कर्यो एटलुं ज नहि पण ए गोपोने कांई उत्तर पण न आप्यो ॥९॥
देश, काळ, द्रव्य, मन्त्र, तन्त्र, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ अने धर्म ए बधुं जे क्रियारूप भगवान्नां ज रूप छे. ते परब्रह्म साक्षात् भगवान् जेनुं इन्द्रियोथी ज्ञान नथी थई शक्तुं तेनामां मनुष्य दृष्टि करीने एने मान्या नहि. तेथी ए दुष्ट बुद्धिवाळा छे. तेओ पोताना आत्माने पण मरणने अधीन माने छे ॥१०-११॥
ए लोको ‘‘आपीए छीए’’ एम न बोल्या. तेम ‘‘अमो नहि आपी शकीए’’ एम पण बोल्या नहि. हे परन्तप! त्यारे घणीवार सुधी ऊभा रही जवाब न मळ्यो तेथी निराश थई गोपो पाछा भगवान् पासे आव्या अने श्रीकृष्ण तथा राम ने जे बन्युं ते कही सम्भळाव्युम् ॥१२॥
जगदीश्वर भगवान् ते साम्भळीने खूब हस्या. लौकिक गति आवी ज होय छे. (कोईक वार मागेलुं मळे छे, कोईक वार नथी मळतुं अने कोईक वार मागनारने उत्तर पण नथी मळतो) ते गोपोने समजावीने तेमने फरीथी कह्युम् ॥१३॥
‘‘तमे जई यज्ञपत्नीओने कहो के ‘‘सङ्कर्षण सहित हुं (कृष्ण) अर्ही समीपमां आव्यो छुं अने अन्न मागुं छुं’’ एम कहेशो तो तमने यथेच्छ अन्न आपशे. तेओ मारामां स्नेहवाळी छे अने बुद्धिथी मारामां ज रहेनारी छे. एटले हवे तमे विफल नहि थशो तेथी जाओ’’ ॥१४॥
पत्नीशाळामां गोपो पहोञ्च्या त्यां आभरणोथी सज्ज थईने यज्ञपत्नीओ बेठेलां हतां. ते ब्राह्मणोनी सतीओने गोपो पगे लाग्या अने विनयथी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१५॥
‘‘हे विप्र पत्नीओ! आपने अमे नमन करीए छीए. अमारे कहेवानुं छे ते साम्भळो. अर्हीथी बहु दूर नहि पण पासे ज पधारेला श्रीकृष्णे अमने आपनी पासे मोकल्या छे ॥१६॥
गोपो अने राम नी साथे गायो चारता ए दूर आव्या त्यां एमने भोजननी इच्छा थई छे तेथी एमना अनुचरो साथे एमने योग्य रीते अन्न आपो’’दशमस्कन्ध २०६ ॥१७॥
जेनां दर्शननी नित्य उत्कण्ठा रहेती ते श्रीकृष्णने नजीक आव्या जाणीने एमनी कथाथी तो मन क्यारनां खेञ्चाया हता एवी ब्राह्मण स्त्रीओ एमनी पासे जवाने उतावळी थई ॥१८॥
चार प्रकारनुं बहु गुणवाळुं अन्न पात्रोमां लईने जेम नदीओ समुद्र तरफ जाय तेम बधी पोताना प्रिय तरफ जवा लागी ॥१९॥
पतिओए, भाईओए, सगांओए अने पुत्रोए तेमने रोक्यां छतां जे भगवान्नी कीर्तिनुं उत्तम पुरुषो (नारदजी, शुकदेवजी) गान करे छे अने जेमना गुणो घणा वखतथी श्रवण करेला तेमने विषे ज तेओए पोतानी आशाओ केन्द्रित करेली तेथी तेओ तो गयाम् ॥२०॥
अशोकना नवा पल्लवथी शोभायमान यमुनाजीनी पासेनां वनमां गोपो अने बळदेवजीनी साथे फरता श्रीकृष्णने बधी स्त्रीओए जोया ॥२१॥
(एमना रूपनुं वर्णन करे छे) चन्द्रने फरतुं कूण्डाळुं होय तेम आप श्यामचन्द्र छे. एमने सुवर्णनी मेखला छे. वनमाला, मोरपिच्छ, धातु अने प्रवाल वडे नटवेष धारण कर्यो छे. साथे चालनार गोपना खभा उपर श्रीहस्त धर्यो छे, ज्यारे बीजा श्रीहस्तमां कमळने फेरवे छे. कानमां फूल धर्यां तेथी अने कमळपत्रवाळा कपोलथी अने अलकथी शोभता मुखथी मन्दहास्य करता भगवान्ने जोया ॥२२॥
जेवा बीजाना मुखथी साम्भळ्या हता त्यारथी एमां मन खूञ्ची गयुं हतुं तेने जोया. आङ्खोना छिद्रथी अन्दर हृदयमां दाखल करी त्यां ज आलिङ्गन करी हे राजेन्द्र! जीव प्राज्ञने मळीने जेम अभिमानने छोडे छे तेम, घणा दिवसथी एमने जोया वगरनो ताप हतो ते द्विजपत्नीओए छोडी दीधो ॥२३॥
ते प्रमाणे बधी आशा छोडीने प्रभुनां दर्शनमाटे आवेल द्विज पत्नीओना हृदयना अभिप्रायने जाणीने बधान्ना हृदयना भावने जाणनार भगवान् मुखथी खूब हसीने बोल्या॥।२४॥
‘‘हे महाभाग्यवतीओ! तमे भले आव्यां. आवो, बेसो, तमारुं अमे शुं भलुं करीए? तमे मारा दर्शनार्थ आव्यां ए तमने योग्य ज छे ॥२५॥
स्वार्थ समजनार बुद्धिमान् पुरुषो कोई पण फलनी आशा विना अने व्यवधानरहित मारामां भक्ति करे छे, केमके हुं सर्वनो आत्मा अने सर्वनो प्रिय छुन्दशमस्कन्ध २०७ तेथी मारा सिवाय क्यांय पण एमनी प्रीति होती नथी ॥२६॥
प्राण, बुद्धि, मन, पोतानां शरीर अथवा धन, आत्मा, स्त्री, पुत्र, पशु वगेरे जे कांई आत्मसम्बन्धी छे ते बधुं मारा सम्बन्धथी प्रिय लागे छे माटे मारासिवाय बीजो (नियम्य) कोण प्रिय होई शके? ॥२७॥
ए मारुं दर्शन तमने थयुं एटले हवे तमारा पतिओ जेओ द्विज अने गृहस्थाश्रमी छे तेओ ज्यां यज्ञ करे छे त्यां तमे जाओ. ए ब्राह्मणो तमारी साथे रही पोताना यज्ञनी समाप्ति करशे तेथी तमारी त्यां आवश्यक्ता छे. तमारा विना एमनो यज्ञ पूर्ण नहि थाय माटे तमे जाओ ॥२८॥
पत्नीओ बोली - हे विभो (सर्व समर्थ)! एवुं क्रूर वचन आप न बोलो अने शास्त्रने सत्य करो. आपना चरणमां आव्यो ते फरीथी संसारमां न जाय ए शास्त्र छे ते कृतार्थ करो. अमे तो आपना चरणनी उतारी नाखेली (प्रसादी) तुलसीनी माळाने अमारा केश उपर राखवाने समस्त सगान्ने छोडीने आपनी पासे आव्या छीए ॥२९॥
हवे अमे अर्हीथी घर तरफ जवानो विचार करीए तो अमारा पतिओ अमारो स्वीकार नहि करे, मा-बाप नहि राखे, दीकरा सम्भाळशे नहि; सगां भाई, मित्रो वगेरे तो शा माटे अमने राखे ज? माटे अमे आपना चरणमां आवी पड्यां छीए तेनी हे अरिन्दम! बीजी गति न थाय तेम आप करो ॥३०॥
श्रीभगवाने कह्युं - पति, पिता, भाई, सुहृद वगेरे तमारा उपर दोषारोपण नहि करे. लोको तमारा कामने अनुमोदन आपशे. मारीपासे आवेलां तमारुं देवो पण सन्मान करशे ॥३१॥
अर्ही अङ्ग-सङ्ग प्रीति उत्पन्न नहि करे, मारे विषे स्नेह पण उत्पन्न नहि करे अने मनुष्योमां पण प्रीति उत्पन्न नहि करे; तेथी मारामां मन लगाववाथी तमे मने जलदी प्राप्त थशो ॥३२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - यज्ञपत्नीओने भगवाने ए प्रमाणे कह्युं त्यारे ए फरीथी यज्ञ थतो हतो त्यां गयां. ए ब्राह्मणोए पण ए भगवान् पासे गयां ए बाबत कांई न बोलतां स्त्रीओनी साथे बेसी यज्ञ समाप्त कर्यो ॥३३॥
एमां एक यज्ञपत्नीने एना स्वामीए भगवान् पासे आववा न दीधी ते तो जेवा भगवान्ने साम्भळ्या हता तेवाने हृदयमां लई तेने आलिङ्गन करी भगवद्रूपदशमस्कन्ध २०८ बन्यां. त्यारे एनो कर्मानुसार देह हतो ते एनी मेळे पडी गयो ॥३४॥
भगवान् गोविन्द प्रभुए पण ए यज्ञपत्नीओए लावेल अन्न चार प्रकारनुं हतुं तेनाथी गोपोने तृप्त करीने पोते पण ए अन्न लीधुम् ॥३५॥
एम लीलामाटे मनुष्यदेह स्वीकारीने मनुष्यलोकने अनुरूप लीला करता गायो, गोपो अने गोपीओ ने रूप, वाणी अने कृतिवडे खुश करता पोते रमण करवा लाग्या ॥३६॥
ज्यारे ब्राह्मणोने स्मरण आव्युं के भगवान् अर्ही पधार्या त्यारे आपणने याद कर्या हता छतां आपणे त्यां न गया ए पोतानो अपराध मानीने कहेवा लाग्या के आपणे मनुष्यलोकनुं नाट्य करता विश्वना ईश्वरनी आज्ञानो भङ्ग कर्यो ए बहु खोटुं कर्युं; एम बोली पश्चात्ताप करवा लाग्या ॥३७॥
स्त्रीओनी श्रीकृष्णमां अलौकिक भक्ति जोईने अने पोताने भक्तिथी रहित जाणीने पोताना आत्मानी निन्दा करता तेओ हृदयमां सन्तप्त थया ॥३८॥
‘‘आपणा शुक्ल, सावित्र अने याज्ञिक एम त्रिवृत् जन्मने धिक्कार छे, त्रण वेद सहितनी आपणीविद्याने धिक्कार छे, आपणां वैदिक व्रतोने धिक्कार छे, आपणी बहुज्ञताने धिक्कार छे, कुल अने क्रिया नी चतुरताने पण धिक्कार छे के आपणे अधोक्षज भगवान्थी विमुख रह्या ॥३९॥
भगवान्नी माया योगीओने पण मोह करनारी छे, जेथी आपणे मनुष्योना गुरु होईने पण हे ब्राह्मणो! आपणे आपणा स्वार्थमां ज मोह पाम्या छीए ॥४०॥
अहो! जगतना गुरु श्रीकृष्णमां स्त्रीओने अत्यन्त भाव थयो, जेथी घर नामना मृत्युना पाशने छेदी नाख्यो, पोतानी ममताने गृह आदिमान्थी छोडी भगवान्मां स्थापी. (श्लोक ४१ अने तेनुं व्याख्यान कोईक ज प्रतमां होवाथी अर्ही आप्यो छे. आ वधारानो होय तेम जणाय छे.) ॥४१॥
आ स्त्रीओने द्विजातिना संस्कारो (जनोई) थया नथी, एमणे(वेदाध्ययन माटे)गुरुगृहमां निवास कर्यो नथी, एमणे तप कर्युं नथी,आत्मासम्बन्धी विचार कर्यो नथी, एमनामां शौच नथी तेम ए अग्निहोत्र वगेरे शुभकर्मने करनार नथी ॥४२॥
तो पण उत्तम लोकोए स्तुत्य एवा योगेश्वरना ईश्वर श्रीकृष्णमां एमने दृढदशमस्कन्ध २०९ भक्ति थई अने आपणे उपर गणावेला बधा संस्कारवाळा छतां आपणने एमां भक्ति न थई ॥४३॥
अहो! सत्पुरुषनी परम गतिरूप भगवाने स्वार्थमां मोहित अने घर ना काममां पागल बनेला आपणने गोपोद्वारा याद कर्या ॥४४॥
ए एमनी आपणा उपर पण कृपा ज गणाय नहि तो पूर्ण काम अने कैवल्यादि मोक्षना स्वामी भगवान् स्वयं ईश्वर छे तेने अमारा जेवा जे एनी आज्ञा उठावनार छे तेने याद करवानुं बीजुं शुं कारण होई शके? पण दयाथी एमणे लोकवत् अनुकरण कर्युम् ॥४५॥
जेना चरणस्पर्शनी आशाथी पोतानो चाञ्चल्य दोष छोडी दीधो छे तेवी लक्ष्मी बधाने छोडी जेने भजे छे तेवा मोटा ईश्वर अमारा जेवा माणसनी पासे याचना करे ते तो मनुष्योने मोह करवामाटे ज कहेवाय ॥४६॥
देश, काल, जुदुं-जुदुं द्रव्य, मन्त्र, तन्त्र, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ अने धर्म ए बधुं भगवद् रूप ज छे ॥४७॥
ते ज आ (श्रीकृष्ण) भगवान्, साक्षात् विष्णु छे; योगेश्वरोना स्वामी छे ते यदुओमां प्रकट थया छे एम आपणे साम्भळ्युं छे छतां आपणे मूढ होवाथी तेमने ओखळता नथी ॥४८॥
अहो! अमे अत्यन्त धन्य छीए के अमारा घरमां आवी भक्त स्त्रीओ छे, जेनी भक्तिने लईने अमने भगवान्मां सद्बुद्धि निश्चळ थई. (विगीत-प्रक्षिप्त) ॥४९॥
ए भगवान् के जे सदानन्द अने अकुण्ठ ज्ञानवाळा छे तेने अमारा नमस्कार हो, जेनी मायामां मोहित थयेल अमो कर्ममार्गमां भटक्या करीए छीए ॥५०॥
आ ए ज भगवान् आद्यपुरुष छे; आपणे एनी मायामां मोहित थयेल अने भगवान्ना प्रतापने नहि जाणनार छीए. ए भगवान् आपणा अपराधने क्षमा करे ॥५१॥
इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः ॥ दिदृक्षवो व्रजमथ कंसाद् भीता न चाचलन् ॥५२॥
एम श्रीकृष्णनी जेमणे अवज्ञा करी छे तेवा पोताना पापने याद करनार अने भगवान्नां दर्शननी इच्छावाळा ए ब्राह्मणो हता छतां कंसनी भीतिने लईने एदशमस्कन्ध २१० दर्शनार्थ व्रजमां गया नहि ॥५२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा
साधन-पेटा-प्रकरणनो वीर्य निरूपक बीजो अने चालु) ‘‘भगवाने करेलो
यज्ञपत्नीओनो उद्धार’’ नामनो त्रेवीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां २० मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
(शरणागति-सेवारूपी) साधना शरू करवानी तत्परता जाण्या विना
गमेतेने दीक्षा आपनार गुरु अयोग्यने दीक्षा आपवाना पापे
पोतानो, दीक्षा लेनारनो तेमज सम्प्रदायनो पण विनाश नोन्तरे छे.
अध्याय २४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २१ भगवाने इन्द्रनो यज्ञ भङ्ग कर्यो तामस साधन प्रकरण अध्याय ३
विशेष - आ अध्यायमां गोपोए पोतानी मेळे मानी लीधेला कर्मने भगवान् बन्ध करे छे अने ए केवळ युक्तिवडे ज एने हैतुक ठरावे छे अने ए कर्मनी जग्याए वैदिक कर्मने दाखल करे छे. जेम ब्राह्मणोने चेतवी एमने पोतानुं ज्ञान पूर्व अध्यायमां कराव्युं तेम आ अध्यायमां देवोने पण चेतव्या. मोटाने मोटी शिक्षा एम उत्तरोत्तर बतावे छे. प्रथम बावीसमां अध्यायमां स्त्रीओनां वस्त्र लीधां. त्रेवीसमा अध्यायमां ब्राह्मणनी स्त्रीओने लीधी तेम आ चोवीसमा अध्यायमां देवोना हविषने भगवाने लई लीधां. ते-ते लोकोने ते-ते वस्तुमां ममत्व हतुं ते लई लेवाथी एनुं एमान्थी ममत्व दूर कराव्युं. तामस स्त्रीओ अने राजस ब्राह्मणोनो उद्धार करी सात्विक देवोनो उद्धार आ अध्यायमां यागनो भङ्ग करी भगवाने कर्यो छे. (कारिका) भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः ॥ अपश्यन्निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्रीकृष्ण पोते भगवान् होवा छतां, बळदेवजीनी साथे होवा छतां अने पोते गोकुलमां बिराजता होवा छतां गोपोने इन्द्रयागने माटे [[२११]] प्रवृत्ति करता भगवाने जोया ॥१॥
भगवान् तो सर्व जोनार अने सर्वात्मा होवाथी सर्व वातने जाणे छे, छतां नन्दरायजी वगेरे वृद्ध गोपोने विनयपूर्वक नमन करीने पूछवा लाग्या ॥२॥
‘‘हे पिताजी! तमे आ तैयारी शानी करी रह्या छो? एनुं फल शुं छे? क्या देवताना उद्देशथी ए करो छो? क्या पदार्थोथी आ यज्ञ सिद्ध थाय छे? ए मने कहो ॥३॥
ए साम्भळवानी मने तीव्र इच्छा छे तो आप मने ए बधी वात कहो. जे भगवद् भक्त होय छे तेने कांई गुप्त राखवानुं बिलकुल होतुं नथी ॥४॥
जेमने पोतानुं अने परायुं एवी दृष्टि मटी गई छे. अने जेमने मित्र, उदासीन अने शत्रु जेवुं कंई छे ज नहि तेमणे उदासीननो शत्रुनी माफक त्याग करी देवो अने मित्रने पोतानो आत्मा ज गणवो एम शास्त्रमां कह्युं छे ॥५॥
माणस कर्म करे छे ते एक तो एना स्वरूपने समजीने करे छे, ज्यारे केटलाक एना स्वरूपने समज्या विना पण कर्म करे छे. एमां जेवी जाणनारने सिद्धि थाय तेवी नहि जाणानारने सिद्धि मळती नथी ॥६॥
एमां आपे आ क्रियायोग केवा विचारथी कर्यो छे? वैदिक छे? स्मार्त छे? अथवा लौकिक ज छे? ए समजावो. हुं एनुं तात्पर्य जाणी शकुं एम सारी रीते मने कहो’’ ॥७॥
नन्दरायजी बोल्या - पर्जन्य ए भगवान् इन्द्र छे. मेघो ते पर्जन्यना शरीर छे. ए मेघो प्राणीना जीवनरूप अने तृप्त करनार जळने सारी रीते वर्षावे छे ॥८॥
हे तात! ए मेघोना पति इन्द्र ईश्वर छे अने एना रेतोरूपी जळथी थयेल पदार्थोवडे यज्ञ करी लोको एनी पूजा करे छे. एनी पूजा आपणे पण करीए छीए एने लईने धर्म, अर्थ अने काम नां फळ लोको मेळवीने पोताना देह आदिनो निर्वाह करे छे. पुरुषना जे पुरुषार्थ छे ते पुरुषार्थना फळने आपनार पर्जन्य छे ॥९-१०॥
कुलमां जे पारम्परिक धर्म चाल्यो आवतो होय तेने काम, लोभ, भय के द्वेष थी जे माणस छोडी दे छे ते सारा फलने भोगवतो नथी, पण एनुं अनिष्ट थाय छे ए चोक्कसछे ॥११॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - नन्दरायजी अने बीजा व्रजवासीओ नां वचननेदशमस्कन्ध २१२ भगवाने साम्भळी इन्द्रने क्रोध करावता भगवान् नन्दरायजीने कहेवा लाग्या ॥१२॥
श्रीभगवान् बोल्या - कर्मथी प्राणी पेदा थाय छे, कर्मथी लय पामे छे, सुख, दुःख, भय अने कल्याण ए बधुं कर्मथी ज लोको प्राप्त करी शके छे ॥१३॥
जीवना कर्मोनुं फल आपनार कोई ईश्वर होय तो पण ते कर्म करनारनेज फल आपे छे. जे माणस कर्म करतो(ज) नथी तेना उपर ते ईश्वरनी कंईज सत्ता चालतीनथी ॥१४॥
एटले कर्ममार्गमां कर्म ज ईश्वर छे. एनां कर्मोने अनुसारे बधुं मळी शके छे. ज्यारे प्राणीमात्र पोत-पोताना कर्मना फळने भोगवनार छे तो पछी इन्द्रने पूजीने लोकोए एनी पासेथी शुं लेवानुं बाकी रहे छे? माणसे स्वभावथी जे कर्म कर्युं तेने ऊलटुं करवाने तो इन्द्र पण समर्थ नथी ॥१५॥
माणसतो स्वभावने अधीन छे अने आ देव, आसुर, मानुषरूप जगत् स्वभाव प्रमाणे चाले छे ॥१६॥
असुरो, देवो, मनुष्य वगेरेना ऊञ्चा-नीचा देहो पण कर्मवडे मेळवे छे अने कर्मवडे ज ए देहोनो त्याग करे छे; कर्मवडे ज शत्रु, मित्र अने उदासीनभावने प्राप्त करे छे; तेथी सर्वथी मोटुं कर्म छे ते ज ईश्वर छे एम समजो तो पण कांई खोटुं नथी ॥१७॥
तेथी माणस स्वभावमां रहीने पोतानां कर्म करतो रहे अने ए कर्मने ज पूजे. जेनो जेवो स्वभाव-ब्राह्मणत्व आदि तेणे पोत-पोतानां कर्म करवां एनाथी एने सर्व सिद्ध थाय छे तेथी कर्म ज तेने देवता एटले फल आपनार छे, वचमां बीजाने राखवानी कांई जरूर नथी ॥१८॥
जेम स्त्री पोताना पतिने छोडी इतरने भजे तेथी सुख मळतुं नथी तेम एक भावने प्रथम स्वीकारीने पछी एने छोडी बीजा भावने लेवा जाय छे तेने पण सुख मळतुं नथी ॥१९॥
ब्राह्मण वेदथी पोतानी आजीविका चलावे, क्षत्रिय, पृथ्वीनुं रक्षण करी पोतानी वृत्ति करे, वैश्य वेपार धन्धो करी पोतानुं योग क्षेम चलावे अने शुद्र, ब्राह्मण आदि त्रिवर्णनी सेवा करी देह निर्वाह करे ॥२०॥
प्रकृतिना सत्व, रजस् अने तमस् ए त्रण गुण छे. तेमां रजोगुणने लईनेदशमस्कन्ध २१३ पारस्परिक सम्बन्धने लीधे जगत् सर्व नाना प्रकारयुक्त उत्पन्न थाय छे ॥२२॥
ए ज रजोगुण मेघने प्रेरणा करे छे त्यारेए मेघो चारे तरफ जळने वरसावे छे एनाथी प्रजा पोतानी सिद्धि मेळवे छे एमां इन्द्र शुं करी देछे? ॥२३॥
आपणो पोतानो कही शकाय एवो कोई देश नथी. आपणुं शहेर नथी एम गामडां के घर पण आपणा नथी; आपणे तो हे तात! वन अने पर्वत मां रहेनार छीए ॥२४॥
माटे इन्द्रनी साथे आपणे कांई सम्बन्ध नथी, पण आपणे तो गायो, ब्राह्मणो अने पर्वतो ना सम्बन्धथी सुखी छीए तेथी इन्द्रने छोडी गायो, ब्राह्मणो अने पर्वत नो यज्ञ करो अने जे तैयारी इन्द्रयागमाटे करी छे ते पदार्थोथी ज गाय, ब्राह्मण अने पर्वत नो याग करो ॥२५॥
जात-जातनां पकवान्, दूधपाक थी लई सूप सुधीना तैयार करो. सञ्जावनी, खीर, मालपूवा, वडां, जलेबी वगेरे बनावो. आजनुं बधुं दूध वापरी नाखो अने जे न वापरी शकाय ते दूध वाछरडांओने आपी दो ॥२६॥
ब्रह्मने जाणनार ब्राह्मणोने बोलावी सारी रीते अग्निमां होम करो. अनेक प्रकारनुं अन्न एने आपो अने दक्षिणामां गायो आपो ॥२७॥
बीजा क्षत्रिय, वैश्य पछी कूतरां अने चाण्डाळ सुधीना बधा जीवो तेम ज पतित वगेरे प्राणीओने एनी योग्यता प्रमाणे अन्न आपो. गायोने घास आपो अने बधा भोग्य पदार्थो पर्वतने धरी दो ॥२८॥
सारी रीते शृङ्गार करी, भोजन करी, चन्दन आदिथी अनुलेपन करी सारां वस्त्र पहेरी गाय, ब्राह्मण, अग्नि अने गोवर्धन पर्वतनी प्रदक्षिणा करो ॥२९॥
मारो मत तो आ कर्म करवानो छे. तमने बधाने ए गमे तो एम करो. आ गाय, ब्राह्मण अने पर्वतोनो यज्ञ मने पण प्रिय छे ॥३०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - कालात्मा भगवाने इन्द्रना गर्वने टाळवामाटे कहेलुं साम्भळी नन्दरायजी वगेरेए श्रीकृष्णे कह्या प्रमाणे करवानुं कबूल करी लीधुं अने ‘‘तमे साचुं कहो छो’’ एम बधाए स्वीकार्युम् ॥३१॥
मधुसूदन भगवाने जे प्रमाणे कह्युं हतुं तेवी रीते ए द्रव्यवडे ज याग करवामाटे ब्राह्मणोने बोलावी स्वस्तिवाचन कर्म करावी यज्ञनो आरम्भ करी दीधो ॥३२॥
पर्वतने बधुं निवेदन करी गायोने आदरपूर्वक घास आपी पोत-पोतानीदशमस्कन्ध २१४ गायोने आगळ करी पर्वतनी प्रदक्षिणा करवा लाग्या ॥३३॥
गोपोए गाडाम्मां बळदोने जोड्या. एमां बनीठनीने बेठा. भगवदीयो अने ब्राह्मणो ना आशीर्वादो लईने गोपीओ गाडाम्मां बेसीने कृष्णनां गीत गावा लागी. एम बधांए परिक्रमाकरी ॥३४॥
गोपोने विश्वास बेसाडवामाटे श्रीकृष्णे तो एक बीजुं जुदुं रूप धर्युं अने ‘‘हुं पर्वत छुं’’ एम बोलता मोटुं शरीर देखाडी ए घणी सामग्री आरोगी गया ॥३५॥
व्रजजनोनी साथे श्रीकृष्णे पोताना बीजा स्वरूप पर्वतने पोते नमस्कार कर्या अने कह्युं ‘‘ओहो! दर्शन करो, आ शैल (पर्वत) भगवान् छे. तेमणे साक्षात् स्वरूप धारण करीने आपणा उपर महान उपकार कर्यो छे ॥३६॥
हे व्रजवासीओ! एनुं अपमान करनारने ए काळरूपी होवाथी गमे तेवुं रूप धारण करीने मारी नाङ्खे छे तेथी आपणी गायोना सुखनेमाटे आपणे एने नमन करीए’’ ॥३७॥
इत्यद्रि गोद्विजमखं वासुदेवप्रणोदिताः ॥ यथा विधाय ते गोपाः सहकृष्ण व्रजं ययुः ॥३८॥
एम वासुदेवना कहेवाथी पर्वत, गाय अने ब्राह्मणो नो एमना कह्या प्रमाणे यज्ञ करी गोपो श्रीकृष्णने लई व्रजमां आव्या ॥३८॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा-प्रकरणनो यश निरूपक त्रीजो अने चालु) ‘‘भगवाने इन्द्रनो यज्ञ भङ्ग कर्यो’’ नामनो चोवीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां २१ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय २५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २२ भगवाने इन्द्रना माननो भङ्ग कर्यो तामस साधन प्रकरण अध्याय चोथो
विशेष - आ हेतु नन्दरायजीए दृष्टार्थफलक बताव्यो तेम एनी सामे भगवाने अदृष्टसाधकदशमस्कन्ध २१५ कर्म बताव्युं ए पण निश्चित साधन छे. आ हेतुथी फळनो भोक्ता इन्द्र थई पड्यो हतो तेणे गोपोने विघ्न कर्युं. एणे वृष्टि करी गोपोने हेरान कर्या त्यारे श्रीकृष्णे एना प्रतीकारमां पर्वतने उठावी गोपोने बचाव्या. जेम एणे ‘‘अमने नहि पूजो तो आवी रीते तमारुं अमे अनिष्ट करीशुं’’ एम करी बताव्युं तेम ‘‘भगवाने पण मारो आश्रय करशो तो हुं पर्वत उठावीने पण तमारुं रक्षण करीश’’ एम दृष्ट फळ बताव्युं. वळी भगवान्ने धर्या वगर खानारनी अथवा जेमां पोतानो हक नथी तेवुं खानारनी बुद्धि भ्रष्ट थाय छे ए बताववामाटे इन्द्र पासे मोहनां वाक्य कहेवडाव्यां छे. पचीसमां अध्यायमां इन्द्र व्रजवासीओने पीडा करे छे ए वात कहे छे. श्रीकृष्ण गोवर्धन उठावी व्रजनुं सारी रीते पालन करे छे. एटली वात आ अध्यायमां आवे छे. प्रथमना अध्यायमां इन्द्रनो याग बन्ध करी श्रीगोवर्धननो याग कर्यानुं कह्युं. तेथी इन्द्रे कोप कर्यो अने व्रजने पीडवामाटे वृष्टि करी एनुं निरूपण प्रथम दश श्लोकथी करे छे. एमां प्रथम चार श्लोकथी तो क्रोध कर्यो, एने पीडवामाटे सांवर्तकने हुकम कर्यो, वाक्यो बोल्यो, मेघोए सर्वनाश कर्यो ए कही पीडा, एनुं कारण, एनुं फळ वगेरे कहीने आ पछीना अध्यायमां भगवान्नी साथे सन्धि करशे. इन्द्रस्तदात्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ॥ गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप सः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! पोतानी पूजाने लोप थयो जाणी अने गोपो तो पोताना रक्षक कृष्णने माने छे ए वात जाणी नन्दरायजी वगेरेनी उपर ए इन्द्रे तो गुस्सो कर्यो ॥१॥
जे मेघो प्रलयमां जगत्नो अन्त करनार सांवर्तक नामथी प्रसिद्ध छे ते सांवर्तक मेघोने इन्द्रे क्रोध करी प्रेरणा करी अने ‘‘हुं ज ईश्वर छुं’’ एम गर्वनुं वाक्य बोल्यो ॥२॥
इन्द्रे कह्युं - ‘‘अहो! वनमां रहेनार गोपोने लक्ष्मीनो केटलो मद थयो छे! ए लक्ष्मीना मदनुं माहात्म्य तो जुओ के एणे एक माणस एवा कृष्णनो आश्रय करीने देवनुं अपमान कर्युम् ॥३॥
जेम अदृढ नाममात्रनी ज नावथी समुद्र तराय नहि तेम आत्मविद्या विना संसार समुद्रने तरातो नथी; तेम केवळ नाममात्रथी ‘यज्ञ’ कहेवाय एवो यज्ञ करी एनाथी पण मारो आश्रय छोडी केवळ कृष्णना आश्रयथी ए भय, दुःख आदिथी बची न शके ॥४॥दशमस्कन्ध २१६ गोपोए *वाचाळ, बालिश, स्तब्ध (अभिमानी), पोताने पडिन्त माननार, अज्ञ अने मृत्युधर्मवाळा कृष्णनो आश्रय करी मारुं अप्रिय कर्युम् ॥५॥
विशेष - ‘वाचाळ’ कहेवाथी ऐश्वर्य रहित कह्या, केमके वधारे बोलवानुं ईश्वरने न होय तेथी वैराग्यभाव पण समजाय छे. वळी स्वार्थमाटे वधारे बोलनार वैराग्य वगरना होय छे. ‘बालिश’थी मूर्ख कह्या एमां ज्ञान गुणनो अभाव कह्यो. ज्ञानना अभाववाळो मूर्ख कहेवाय. अभिमानीनी कीर्ति न होय तेथी कीर्तिनो अभाव ‘स्तब्ध’ कहेवाथी कह्यो. ‘अज्ञ’थी ज्ञाननो अभाव स्पष्ट छे. मनुष्य होय ते विरक्त न होय. एम छ गुणवाळा भगवान्मां इन्द्रने छ दोषनी स्फुर्ति थई तेथी एनी बुद्धि भ्रष्ट थई गई छे अथवा इन्द्र कहे छे के ‘‘गोपोए कृष्णना स्वरूपने जाण्युं नहि अने मारो याग बन्ध कर्यो’’ ए खोटुं कर्युं. श्रीकृष्णनुं स्वरूप केवुं छे? ‘वाचाळ’ एटले ज्यां वाणी न पहोञ्ची शके तेवुं छे. ए गोपो तो एने पोताना मित्र माने छे. ‘बालिश’ एटले रावण नामना शत्रुना पक्षमां रहेनार वालि वान्दराने सुख आपनार. तेने मारीने भगवाने भक्तने लायक मोक्ष आप्यो. तेथी एवा कृपाळ छे ते रूपे गोपो जाणता नथी. वळी ‘स्तब्ध’ छे. ‘‘वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठति’’ इत्यादि श्रुतिमां भगवान्ने स्तब्ध कह्या छे. जो भगवान् नम्र थाय तो सत्यादि लोक उपरा-उपर रही न शके तेथी भगवान् अक्कड रहे छे. पोते ‘पडिन्तमानी’ एटले विद्यावाळाने माननार छे. ‘अज्ञ’ एटले जेनाथी पर बीजो जाणनार नथी तेथी सर्वज्ञ छे. वळी ‘कृष्ण’ एटले ए छ धर्मवाळा धर्मी सदानन्द पोते छे. ए भगवान्ने मारा अप्रिय कर्या एटले सर्वथी प्रिय कराव्या एना जेवुं मने कोई प्रिय नथी तेथी एमणे मारा उपर मोटो उपकार कर्यो. एम आ श्लोकार्थमां सरस्वतीनो एवो अभिप्राय छे. आ गोवाळिया लक्ष्मीथी गर्ववाळा थया छे अने कृष्णथी मनमां बहु फुलाई गया छे. ए बधाना लक्ष्मीना मदने तमे उतारो अने एनां पशुओनो नाश करो ॥६॥
हुं ऐरावत हाथी उपर चडीने नन्दना व्रजनो नाश करवानी इच्छाथी महाबळवाळा वायुना गणने लई तमारी पाछळ व्रजमां आवुं छुं’’ ॥७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम ज्यारे इन्द्रे आज्ञा करी त्यारे मेघो बन्धनथी मुक्त थईने नन्दगोकुलने पोतानी धाराओथी बळात्कारे पीडवा लाग्या ॥८॥
मेघो वीजळीओना झबकारा अने गर्जनाना शब्द करता प्रचण्ड पवन साथे जलना करा र्झीकवा लाग्या ॥९॥दशमस्कन्ध २१७ वादळमान्थी थाम्भला जेवी जलनी धाराओ छोडवा माण्ड्या. जलना ओघ पृथ्वी उपर पडतां एमां ऊञ्चो-नीचो भाग देखातो बन्ध थई गयो ॥१०॥
अत्यन्त वरसाद पडवाथी अने एमां पवनना जोरथी पशुओ कम्पवा लाग्यां, गोप अने गोपीओ शीतने लईने दुःखी थयां, एनो प्रतीकार करवा असमर्थ होवाथी तेओ गोविन्दने शरणे गयाम् ॥११॥
पोतानां मस्तक अने अङ्गोथी पोतानां बाळकोने ढाङ्कीने धाराओ पडवाथी पीडातां काम्पतां सर्व प्रकारे भगवान्ना चरणमां आवी पहोञ्च्या ॥१२॥
‘‘हे कृष्ण! कृष्ण! हे महाभाग! हे प्रभो! आ गोकुलना रक्षक आप ज छो. कोपेला देवथी हे भक्तवत्सल! आप अमारुं रक्षण करवाने योग्य छो’’ ॥१३॥
करानो वरसाद पडवाथी हणाता अने तेथी चेतन वगरना थई गयेल गोपोने जोईने हरि भगवान् इन्द्रे करेला उपद्रवने जाणी गया ॥१४॥
ऋतु वगरनो आवो भयङ्कर वरसाद जोयो. तेमां मोटा वण्टोळिया जोया, वरसादमां पण शिलाओ पडती जोई. ‘‘अमे एनो याग बन्ध कर्यो तेथी इन्द्र अमारो नाश करवा वर्षे छे’’ एम भगवाने जाण्युम् ॥१५॥
‘‘हुं आत्मयोगवडे एनी सामे व्रजनो बचाव करुं अने लोकमां अमे ज ईश्वर छीए एम जे मूर्खाईथी माने छे तेना लक्ष्मीना मदरूप अज्ञानने हुं दूर करीश ॥१६॥
सात्विक भाववाळा देवोने ऐश्वर्यनो मद न थवो जोईए अने दुष्टोने एवुं थाय एनो माराथी मानभङ्ग थवो जोईए; तो ज ए शान्त थाय ॥१७॥
आ व्रज तो मारे शरणे आवेल छे, मने रक्षक माननार छे अने मारा कुटुम्ब जेवुं छे तेनी हुं आत्मयोगवडे रक्षा करुं केमके शरणागतनी रक्षा करवी* ए मारुं व्रत छे ॥१८॥
विशेष - भगवाने विचार कर्योःजेम में आ व्रजवासीओना जीवोनो स्वीकार कर्यो छे तेम एना देहो पण मारे रक्षवा जोईए केमके एनी रक्षा करवी ए मारुं व्रत छे. एनी आत्मयोगथी हुं रक्षा करीश. जेम वायुने रोकवाथी बधी इन्द्रियो उपद्रव रहित थाय छे तेम हुं आ व्रजवासीओमां मारो आत्मा स्थापन करुं तेथी ए मारामां आवी जशे; एटले प्रथम में घणुं भोजन कर्युं छे तेनो पण उपयोग थई जशे, केमके मारुं एवुं व्रत छे के शरणागतनी सर्वभावथी रक्षा करवी. गीतामां में कह्युं छे के हे कौन्तेय! मारो भक्त नाश न पामे. हुं सर्वनेदशमस्कन्ध २१८ अभय आपीश. ‘‘शरणागत संरक्षा सर्वभावेन सर्वथा, कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति’’ ‘‘सङ्ग्रामे च प्रपन्नानां तवास्मीति च यो वदेत्, अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम’’इत्यादि वाक्यो एमां प्रमाण छे. एम कही एक श्रीहस्तथी, बाळक जेम छत्री (बिलाडीनो टोप) धारण करे तेम, लीला करतां अनायासे गोवर्धन पर्वतने धारण कर्यो ॥१९॥
श्रीभगवान् बोल्या - ‘‘हे माताजी! हे पिताजी! हे व्रजवासीओ! में तमारी रक्षामाटे पर्वत उठाव्यो छे. तेनी नीचेना भागमां तमारी गायो अने घरवखरी लईने तमने सुख थाय तेम तमे इच्छा प्रमाणे रहो ॥२०॥
हुं गोवर्धनने हाथमां राखुं छुं. ए पडी जशे एवो भय तमे न राखशो. वायु, वरसाद वगेरेथी तमारुं रक्षण में कर्युं छे तेथी ए भय पण तमारे करवानो नथी’’ ॥२१॥
ज्यारे श्रीकृष्णे आ प्रमाणे आश्वासन आप्युं त्यारे पोतानां गायो, बालबच्चां अने उपजीवनना साधनसहित पर्वतनी नीचेना भागमां बधा गोपोए प्रवेश कर्यो ॥२२॥
क्षुधा-तृषानो विचार न कर्यो, पोताना सुखनी दरकार न करी अने ए व्रजवासीओ प्रभुनां दर्शन करता रह्या. ए रीते भगवाने सात दिवस सुधी गोवर्धनने धारण करी राख्यो. एमां पगने जरा पण चलित न कर्यो ॥२३॥
श्रीकृष्णना योगना प्रभावने जाणीने इन्द्र अत्यन्त विस्मयमां पड्यो. पोतानो गर्व जतो रह्यो, करेल सङ्कल्पथी भ्रष्ट थयो अने पोताना मेघोने व्रजनो नाश करता अटकाव्या ॥२४॥
इन्द्रे ज्यारे मेघोने पाछा बोलावी लीधा त्यारे वादळां दूर थतां सूर्य आकाशमां नहोतो देखातो ते देखावा लाग्यो, दारुण, वायु अने वरसाद हता ते बन्ध थया. आ बधुं जोईने श्रीगोवर्धनने धरनार भगवाने गोपोने कह्युंः ॥२५॥
‘‘हे गोपो! हवे अर्ही वर्षा वायु नथी, पहेलां जेवुं थई गयुं छे तेथी तमे भय छोडो अने बहार आवो; स्त्री, गोधन अने बाळको ने लईने आवी जाओ. वायु अने वर्षा गयां छे तेनी साथे नदीओमां पाणी पण ओछां थई गयां छे’’ ॥२६॥
त्यारे गोपो पोत-पोताना गोधनने लईने बहार नीकळ्या; स्त्री, बाळको, वृद्धो अने घरना बीजा परिकरने गाडाम्मां लादीने बधा बहार आव्या ॥२७॥दशमस्कन्ध २१९ भगवान् पण समर्थ छे. एमणे जेम पर्वत उठाव्यो हतो तेम ज पाछो ए ज जग्याए बधाना देखतां अनायासे स्थापन करी दीधो ॥२८॥
भगवाने पर्वतने मूक्यो के बधा प्रेममां आवी जईने जेने जेम फाव्युं तेम बधा भगवान्ने मळ्या, भेट्या. गोपीओए पण दर्ही, अक्षत अने जल थी स्नेहपूर्वक अने आनन्दथी एमनुं पूजन करी एमने शुभ आशिषो आपी पोतानो आनन्द प्रदर्शित कर्यो ॥२९॥
यशोदाजी, रोहिणीजी, नन्दरायजी, बलवानोमां श्रेष्ठ बळदेवजीए भगवान्ने आलिङ्गन आपी स्नेहमां विह्वल बनी आशीर्वाद आप्या ॥३०॥
स्वर्गमां देवोना समूहो, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण वगेरेए भगवान्नी स्तुति करी अने हे राजा! प्रसन्नताथी तेओ पुष्पोनी वृष्टि करवा लाग्या ॥३१॥
देवनी प्रेरणाथी शङ्ख अने दुन्दुभि आकाशमां सम्भळावा लाग्यां. हे राजन्! तुम्बुरुं जेमां मुख्य छे ते गन्धर्वो गान करवा लाग्या ॥३२॥
ततोनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो राजन् स गोष्ठं सबलोव्रजद्धरिः ॥ तथा विधान्यस्य कृतानि गोपिका गायन्त्ययुर्मुदिता हृदिस्पृशः ॥३३॥
हे राजन्! त्यार पछी स्नेहवाळा गोपालो अने बळदेवजीथी र्वीटळायेला हरि व्रजमां पधार्या त्यारे हृदयने असर करे तेवी भगवान्नी लीलानुं गान करतां गोपीओ आनन्द पाम्याम् ॥३३॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा
साधन-पेटा-प्रकरणनो श्रीनिरूपक चोथो अने चालु) ‘‘भगवाने इन्द्रना
माननो भङ्ग कर्यो’’ नामनो पचीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-
१४ बाद करतां २२ मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी
जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां
भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना
माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला
‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
[[२२०]]
अध्याय २६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २३ गोपोने भगवान्मां अज्ञान-अन्यथाज्ञान थयुं ते दूर थयुं तामस साधन प्रकरण अध्याय पाञ्चमो
विशेष - आ छव्वीसमा अध्यायमां निरुद्ध थयेला व्रजवासीओनां कृष्ण सम्बन्धी अज्ञान अने अन्यथाज्ञान नुं सर्वांशे निवारण करवामां आवे छे कारण के गोवर्धन पर्वतने धारण करवाथी करेलो तेमनो बधानो निरोध सरखो ज छे. पहेलां तो प्राकृतनो सम्बन्ध भगवान्मां न मानीए तो विरोध आवे. एम कहीने भगवान् स्वयं एवा ज प्रकट थया छे एम सिद्ध करे छे. पूर्वपक्ष कर्यो तेमां माहात्म्य जाणवामां आव्युं ते ज कारण छे. बीजाओ कहे छे के गर्गवाक्य कारण छे, त्यारे ए ज फळरूप छे एम निश्चय कर्योछे. एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते ॥ अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एवा प्रकारनां श्रीकृष्णनां कर्मोने जोईने एमना पराक्रमने न जाणनार गोपो अत्यन्त विस्मय पाम्या अने कहेवा लाग्याः ॥१॥
‘‘आ बाळक छे छतां एनां काम अत्यन्त अद्भुत छे. एणे आपणा जेवा गामडियाओने घेर मोटाओने निन्दवालायक जन्म केम लीधो? ॥२॥
पोते सात वर्षनो बाळक ज छे छतां गजराज जेम कमळने उठावे तेम, एक श्रीहस्तमां रमत करतां गिरिराजने केवी रीते उठाव्यो? ॥३॥
हजु आङ्ख तो बिलकुल बन्ध हती एवो छ दिवसनो थयो त्यां, काळ जेम आयुष्यनुं पान करे छे अने खबर नथी पडती तेम, बहु बळवाळी पूतनाना प्राणसहित दूधनुं तेणे पान कर्युम् ॥४॥
जेनी उम्मरनी गणतरी हजु तो महिनाओमां ज थती हती, (चार मासनो पण नहोतो थयो) जे रडतो हतो अने गाडानी नीचे सूतो हतो त्यां चरण ऊञ्चुं कर्युं ते गाडामां वाग्युं एनाथी गाडुं ऊन्धुं पडी गयुम् ॥५॥
एक वर्षनो थयो त्यां दैत्य एने आकाशमां उपाडी गयो. एणे दैत्यनो कण्ठ पकड्यो तेथी तृणावर्त मरी गयो. एने बाळक केम मारी शके? ॥६॥
एक वखत तेणे माखणनी चोरी करी त्यारे माताए ऊखळीथी बान्ध्यो त्यां तोदशमस्कन्ध २२१ ए यमलार्जुन वृक्षोनी वच्चेथी बे हाथथी चाल्यो अने एने पाडी नाख्याम् ॥७॥
रामनी साथे बाळकोथी र्वीटाईने वनमां पशु चारतो हतो तेने मारवानी कामनाथी एक दैत्य बगलानुं रूप लईने आव्यो तेने चाञ्चथी पकडी चीरी नाङ्ख्यो ॥८॥
मारवानी इच्छाथी एक दैत्य वाछडानुं रूप लई वाछडामां मळी गयो तेने मारी एना वडे कोठां पण रमत करतां पाड्याम् ॥९॥
पछी गधेडानुं रूप धरनार धेनुकासुर अने एना बान्धवोने मारी परिपक्व फळवाळुं तालवन जे भयानक हतुं तेने सर्वने माटे निर्भय कर्युम् ॥१०॥
बलवान प्रलम्ब दैत्य आव्यो तेने बळशाली बलदेवजीने हाथे मराव्यो अने गोपो तथा व्रज नी गायोने अरण्यना दावानळथी बचावी ॥११॥
जेनी दाढमां भयानक झेर हतुं तेवा कालिय नागने मदरहित करी कालिन्दीना हृदथी दमन करीने बळात्कारे काढी मूक्यो अने यमुनाने झेर रहित सुन्दर जलवाळी बनावी ॥१२॥
कोई रीते न छूटी शके तेवो आपणा बधानो एनी उपर अनुराग छे. हे नन्दजी! तेम तेनो पण अमारा उपर सहज ज स्नेह छे ते केम थई शके? (आ प्रेम तो वस्तुना सामर्थ्यथी ज थाय छे तो ए तमारो पुत्र केम होई शके?) ॥१३॥
क्यां सात वर्षनो बाळक अने क्यां मोटा पर्वतने ऊञ्चकी राखवो? तेथी हे व्रजनाथ! तमारा पुत्रना स्वरूपमां अमने शङ्का थाय छे ॥१४॥
नन्दरायजी बोल्या - हे गोपो! आ कुमारने उद्देशीने गर्गाचार्य जे बोल्या छे ते मारां वचनथी साम्भळो, जेथी तमारी शङ्का दूर थाय ॥१५॥
‘‘दरेक युगमां अवतार लेनार आ तमारा पुत्रना सफेद, लाल, पीळो एवा त्रण वर्ण कृत (सत्य), त्रेता अने द्वापरयुगमां थाय छे. हालमां एनो कृष्ण वर्ण थयो छे तेथी ए ‘कृष्ण’ कहेवाय छे ॥१६॥
आ तमारो पुत्र पहेलां कोईक देश अथवा कालमां वसुदेवने त्यां जन्म्यो हतो तेथी जेओ एनो मर्म जाणे छे तेओ तेने ‘वासुदेव’ (खरी रीते तो ‘वसु’शब्दनो अर्थ छे धन. धनरूप देव ते वसुदेव अर्थात् लक्ष्मीजीना पति ते वासुदेव) लक्ष्मीपति कहे छे ॥१७॥
तमारा पुत्रनां नाम अने रूप बहु छे ते एना गुणो अने कर्मो ने योगे थयेलान्दशमस्कन्ध २२२ छे. ए बधान्ने हुं जाणुं छुं, लोको जाणता नथी ॥१८॥
गोपो अने गायो ना कुलने आनन्द आपनार आ कृष्ण तमारुं श्रेय करशे. आ कृष्णना प्रभावथी तमे सर्व मुश्केलीओने तरी जशो ॥१९॥
हे व्रजपते! भगवद्भक्तोने प्रथम रावण वगेरे शत्रुओ दुःख आपता हता अने अराजक्ता चालती हती त्यारे आ तमारा पुत्रे साधुओनी शत्रुथी रक्षा करीअनेएनुं बळ वधार्युं त्यारे तेओए दैत्योने जीती लीधा हता. आपृथु वगेरेमांस्पष्ट देखायछे ॥२०॥
विष्णुना पक्षपातीने असुरो जीती न शके तेम जे महाभाग्यवाळा आमां प्रीति करशे तेने शत्रुओ जीतीनहिशके ॥२१॥
तेथी हे नन्द! तमारो कुमार गुणो, लक्ष्मी, कीर्ति अने प्रतापमां नारायण समान छे. तेथी ए जे-जे काम करे तेमां तमारे आश्चर्य पामवुं नहि’’ ॥२२॥
एम गर्गे साक्षात् मने कह्युं अने ए पोताने घेर गया. त्यारथी हुं तो अक्लिष्टकर्मा कृष्णने नारायणनो अंश मानुं छुं. ए कोई दिवस कोईने क्लेश आपे एवुं करतो नथी. (जे दुःखी होय ते ज क्लिष्ट कर्म करे, जे पीडित न होय ते न करे अने दुःखनो अभाव तो ब्रह्ममां ज सम्भवे) तेथी हुं एने ब्रह्म मानुं छुम् ॥२३॥
गर्गे गायेलुं नन्दनुं वचन साम्भळी व्रजवासीओए, अमित तेजवाळा श्रीकृष्णना प्रतापने जोयो अने साम्भळ्यो छे एथी नन्दनी पूजा करी अने श्रीकृष्णना स्वरूपमां विस्मय पामता हता तेथी निवृत्त थई आनन्द मानवा लाग्या ॥२४॥
देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा वज्राश्मपरुषानिलैः सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन् ॥ उत्पाट्यैककरेण शौलमबलोलीलोच्छिलीन्ध्रं यथा बिभ्रद् गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभीत्प्रीयान्नइन्द्रोगवाम् ॥२५॥
पोताना यज्ञनो नाश करवाथी कोप करीने इन्द्रे वीजळी, तीव्र, वायु, करानी साथे वरसाद वरसाव्यो त्यारे गोप, एनी स्त्रीओ अने पशुओ दुःखी थवा लाग्यां अने भगवान्ने शरणे आव्यां तेओने जोईने एना पोते ज रक्षक छे तेथी एनी उपर दया लावी ऊञ्चेथी हसीने गोपोने मोह करावी, बाळक जेम बिल्लीनो टोप (बिलाडीनी बळी, टोप एवा नामथी प्रसिद्ध चोमासामां खराब पदार्थमान्थी थायदशमस्कन्ध २२३ छे ते. ए बहु हलकी होय छे, देखाव छत्री जेवो सारो होय छे.) उपाडे तेम, एक हाथथी गोवर्धनने उपाडी अद्धर राख्यो अने गायो, गोपो अने एना परिकरनुं रक्षण कर्युं अने महेन्द्रना मदने भाङ्ग्यो; ए गोविन्द अमारा उपर प्रसन्न हो ॥२५॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा-प्रकरणनो ज्ञान निरूपक पाञ्चमो अने चालु) ‘‘गोपोने भगवान्मां अज्ञान-अन्यथा ज्ञान थयुं ते दूर थयुं’’ नामनो छव्वीसमो (प्रक्षिप्त ३अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां त्रेवीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए
अध्याय २७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २४ इन्द्रे अने सुरभिए भगवान्नो अभिषेक करी ‘गोविन्द’ नाम धराव्युं तामस साधन प्रकरण अध्याय ६
विशेष - आ सत्तावीसमां अध्यायमां सुरभि अने इन्द्रे भगवान्नो इन्द्रपद उपर अभिषेक कर्यो ए वात कहेवामां आवे छे. इन्द्रे स्तुति करी त्यारे भगवाने एने उपदेश कर्यो. कामधेनु वगेरेए पण स्तुति करी. भगवान्थी ज सर्वनी रक्षा थाय छे एम जाणे तो इन्द्र आदिने मद न थाय. एम थाय तो ज भगवत्कार्य सफळ थाय, अन्यथा न थाय. आधिदैविक सुधीनी गोरक्षा भगवत्कृता न थाय तो अने ए आधिदैविक गौ सुरभि (कामधेनु) ने भगवान्मां [[२२४]] दासभाव न थाय तो ए गोरक्षा आधिदैविकी न कहेवाय अने ते सुरभि वगेरे भगवान्ने पोताना आधिदैविक तरीके न स्वीकारे तो आ लीला प्रमाणरूप न गणाय. तेथी जे कारणथी सुरभि अभिषेक करे छे तेने पण स्फुट रीते सफळता थई. हवे पछी इन्द्रयाग ज थशे, केमके हवे तो गाय, गोप, गोपी वगेरेमां इन्द्र भगवान् स्वयं थया छे तेथी परम्परानो पण गोपोए भङ्ग न कर्यो गणाय, केमके इन्द्रयाग स्थिर थयो. गोवर्धने धृते शौले आसाराद्रक्षिते व्रजे ॥ गोलोकादाव्रजत्कृष्णं सुरभिः शक्र एव च ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - गोवर्धन पर्वतने उठावी प्रलयना मेघनी धाराथी व्रजनी रक्षा करी त्यारे गोलोकमान्थी सुरभि अने स्वर्गथी इन्द्र ए बन्ने कृष्ण पासे आव्यां ॥१॥
इन्द्रे पोते भगवान्नी अवज्ञा करी छे एनी शरमने लीधे भगवान्ने एकान्तमां मळ्यो; सूर्यना जेवा तेजस्वी किरीटवडे चरणोनो स्पर्श कर्यो ॥२॥
भगवान्नो प्रताप साम्भळ्यो हतो तेने नजरे जोयो अने तेथी श्रीकृष्णमां अद्भुत तेज जोयुं त्यारे पोते त्रण लोकनो ईश छे ए अभिमान जतुं रह्युं अने इन्द्र हाथ जोडी स्तुति करवा लाग्यो ॥३॥
इन्द्र बोल्यो* - आपनुं धाम (स्थान, प्रकाश) विशुद्ध सत्व छे, शान्त छे, रजोगुण-तमोगुण रहित छे मायाना कार्यरूप गुणना प्रवाहरूप संसार आपने न होई शके, केमके आप मायाथी पर छो अने संसार ए तो अज्ञानकृत होवाथी सर्वज्ञ आपने न सम्भवे ॥४॥
विशेष - भगवान्नी क्रियाशक्ति श्रीहस्तनो देवता इन्द्र छे. ए पोतानो पुरुषार्थ सिद्ध थवामाटे माधवनी तेना छ गुणवडे स्तुति करे छे. भगवान्ना छ गुण ज निर्दोष छे तेनुं वर्णन करवामाटे कहे छेःमें व्रजने दण्ड दीधो तेनाथी आपने क्रोध तो न ज थवो जोईए. प्रथम एनुं कारण कहे छे के आपनुं तेज विशुद्ध सत्वरूप छे. परमार्थथी (वास्तविक रीते) तो सर्वना आत्मा अने सर्व कर्ता आप छो, सर्वना प्रेरक पण आप छो तेने क्रोध सम्भवे ज नहि. आप अर्ही प्रकट्या ए हेतुथी पण क्रोध सम्भवतो नथी, कारण के रजोगुण अने तमोगुण क्रोधमां कारण छे ते आपनामां नथी. आपनुं तेज तो विशुद्ध सत्वरूप छे. ‘विशुद्ध’ एटले रजोगुण अने तमोगुण वडे अस्पृष्ट एवुं आपनुं धाम छे. ‘‘सत्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितम्’’ एमां भगवान् प्रकटे छे तेथी ‘वासुदेव’ कहेवाय छे. वळी धामने तेज कहीए तो पण तेज सात्विकदशमस्कन्ध २२५ छे. भगवान्नुं तेज सत्व छे. आ आपनुं सत्व, शुद्ध सत्वथी पण जुदुं छे. ए तो जीवमां रहे छे, तरतम भाववाळुं होय छे; तेथी आ सत्व परमकाष्ठापन्न वस्तु छे. ए ज कहे छे के ए शान्त छे. परमशान्ति, सत्वोत्कर्ष अने ज्ञान वगेरे एना भेद छे. ए अल्पविक्षेपरूप छे, नहि तो केम बोध करे, केम छोडी दे, केम भजे? माटे शान्ति परमाकाष्ठा छे. अज्ञान पण शान्तिनी पराकाष्ठा छे एम कोई कहे तो कहे छे के ए तपोमय शान्ति छे. तप ज्ञानात्मक छे. सुषुप्ति वगेरेमां शान्ति अज्ञानरूप छे. भगवान्नुं ज्ञानमय तप छे. ‘‘यस्य ज्ञानमयं तपः’’ तेथी मूढपणानी शान्ति उपरति रूप ते अर्ही ग्राह्य नथी. तेथी ‘शम-उपशमे’ जे शान्ति आत्मानी पासे छे ते शम अर्ही लेवानो छे. तेथी तपोमय एम कह्युं. गुणनो स्वभाव उपमर्दक्तानो छे; तेथी ए सत्वगुणनो रजोगुण आदिथी बाध थाय तो त्यां कहे छे के ‘ध्वस्तरजस्तमस्कं’ लोकनां रजोगुण, तमोगुण ने जे दूर करे तेमां तो ए क्यान्थी ज होय? ए तो आधिदैविक होय ते ज तेम करी शके. वळी ए गुणो पण प्रकृतिना नथी, पण अप्राकृत छे. सत्, चित् अने आनन्द ना ए धर्म छे. ए प्राकृतथी जुदा छे. एम न होय तो पृथ्वी आदिमां त्रण गुणथी मुक्त कोई सत्व नथी. एवा सत्वनी अप्रसिद्धि कही तो गुणावतारो पण अप्राकृत नहि कही शकाय. वळी सत्वने सत्वसम्बन्ध केम थाय? तेथी ए सच्चिदानन्दना धर्मो ब्रह्मा, विष्णु, शिव मां रहे छे. ज्यारे ब्रह्मादिमां इतर गुणनी अपेक्षा करे त्यारे ए बीजानुं भजन करे, त्यारे ‘सत्व’ थाय. चित्थी रज अने आनन्दथी तम थाय छे. भगवान् क्यारेक विष्णुनुं सत्व आधारने माटे स्वीकारे छे. ज्यारे ‘केवळ’ न आवे त्यारे ज ए स्वीकारे छे. प्रकृतमां प्रभु ‘केवळ’ छे छतां इन्द्र पोताना भ्रमथी भगवान्ने सत्वव्यवहित माने छे एम न होय तो ‘‘प्रागयं वसुदेवस्य कच्चिज्जातः’’ एम गर्गाचार्य न कहेत, केमके सर्वदा वसुदेवमां ज उत्पन्न थाय छे. माटे हालमां केवल छे छतां एने सत्वाश्रित छे एम इन्द्रनुं कहेवुं छे. पूर्वभ्रम (कृष्ण एक मर्त्य गोप ज छे एना) करतां आ भ्रम उत्तम एटले ‘केवळ’नी हीनता कहे छे तो पण एने स्तुति कही छे. जो आ ‘केवळ’ न होय तो सर्वने वैकुण्ठ लई जवां ए कार्य बने नहि. सत्व तो भगवाने आधारत्वे ग्रहण कर्युं छे. क्वचित् विष्णुमां पण एवुं सामर्थ्य देखाय छे तेथी ‘‘ब्रह्मैव सगुणं बभौ’’ इत्यादिमां सगुण विशुद्ध सत्वसहित ब्रह्म जेवुं विष्णुरूप होय तेवुं शोभ्युं. नहि तो ‘‘कृष्णवद् बभौ’’ एम कहेत. तेथी इन्द्र भगवान्ने विष्णु जाणीने स्तुति करे छे. ज्यारे ए धाम सत्व, रजस् अने तमस्नो नाश करनार छे तो माया तो एनी पासे आवी ज न शके; ए ज कहे छे. ‘‘मायामयोयं गुणसम्प्रवाहः’’ आ देव, पशु, मनुष्य वगेरे गुणप्रवाह माया प्रचुर छे, कारण के एनुन्दशमस्कन्ध २२६ कारण माया छे. तेथी एने ‘अयं’ कह्यो, नहि तो दृश्य केम थाय? तेथी बधुं प्राकृत छे. अप्राकृत होय तो देखाय नहि तेथी आ प्राकृत प्रपञ्च आपना ज्ञाननो विषय न होवाथी प्राकृत दृष्टिथी आणे उपकार कर्यो के अपकार कर्यो एवुं आपने न थवुं जोईए, केमके आपनी दृष्टि पर होईने एमां भेदभावने लईने उपकार-अपकार भावने स्थान नथी. ज्यारे आपना मनने मारो अपराध भासतो नथी तो मारे मारी दृष्टिथी एनीक्षमा मागवानी पण जरूर नथी. ज्यारे आपनामां प्राकृतभाव नथी तो तत्कृत क्रोध, लोभ आदि, हे ईश! आपनामां केम सम्भवे? क्रोध, लोभ वगेरे तमारामां छे एम जे माने छे तेओ अज्ञानी छे; तो पण आप धर्मना रक्षणार्थ अने खळना निग्रहार्थ *दण्डने धारण करो छो ॥५॥
विशेष - आप बीजानी विषमबुद्धिना नाशक छो त्यारे आपनामां विषमता क्यान्थी होय? त्यारे विषमबुद्धिनां काम जे लोभ आदि ते आपनामां क्यान्थी सम्भवे? ए कहे छेःहे ईश! जो क्रोध, लोभ आदि आपनामां होय तो ईशपणुं घटे नहि. जो के घणा दोष नथी एम कहेवुं छे तो पण अर्ही तो क्रोध अने लोभ ए बेनी ज वात लईए. जे आपणुं बूरुं करे तेना उपर क्रोध थाय अने द्रव्यमां लोभ थाय ते तो दृष्ट दोष छे, छतां ए मूर्खतानो सूचक छे; तेथी ए आपनामां न सम्भवे. कार्यथी कल्पना करे ते तो खोटी पण होय. दोषथी ज कार्य थाय अने गुणथी न थाय एवो नियम नथी. हर्षथी आंसु आवे, शोकथी पण आवे तेम क्रोधथी जे काम थाय ते काम आप अनुग्रहथी करो छो तेथी आप धर्मरक्षा अने खलनिग्रहमाटे दण्ड धारण करो छो; ए ज लोकमां अने भगवान्मां तफावत छे. लोक क्रोध करे छे तेनुं कांई फळ नथी होतुं. भगवान् दण्ड दे छे एमां क्रोध आदि नथी होतुं, परन्तु सर्वत्र साधनस्वरूप छो. जो साधनमां गोवर्धन आदिने धारण न करो तो दुष्टो भय न पामे, पाखण्डप्रवृत्तिथी धर्म नाश पामे तेनी रक्षामाटे आप दण्ड आदि धरो छो तेथी आप सर्वसमर्थ छो. तमे जगतना पिता, गुरु, अधीश्वर (स्वामी) अने दण्ड आपनार दुरत्यय काळ छो. अमारा जेवाने जगत्मां ईश्वरतानुं अभिमान करनारने तेमना हितमाटे इच्छा प्रमाणे अवतार धरी *दण्ड आपो छो, एना मानने छेदो छो अने क्रीडा करो छो ॥६॥
विशेष - बे श्लोकथी दण्डनी वात करीए पण अमारा जेवाने सन्मार्गे चलाववामाटे दण्ड करो छो ते शिक्षारूप छे. बाप बाळकने, राजा प्रजाने, गुरु शिष्यने शिक्षा करे छे. तेथी आप ब्रह्म आदिना ईश, हाथमां दण्ड लई ऊभेला यम पण आप छो, परलोकमां पण आपनी आज्ञादशमस्कन्ध २२७ अनुल्लङ्घ्य होत तो पण आपना स्वरूपने जाणी उत्तममार्ग ग्रहण कर्यो होत ए अमारी मूर्खाईने दूर करवानेमाटे आप दण्ड करो ते अनुग्रहरूप छे, केमके तेथी अमने आपना स्वरूपनुं ज्ञान थाय छे. हुं ऐश्वर्यना मदमां डूबी गयो तेथी में आपनो पण अपराध कर्यो ते आपनुं स्वरूप न समजवाथी कर्यो. हुं मूढबुद्धिवाळो तेथी एम थयुं, ए आप क्षमा करवाने योग्य छो अने एवी कृपा करो के जेथी करीने हे ईश्वर! फरीथी मारी आवी दुष्ट बुद्धि न थाय* ॥८॥
विशेष - इन्द्र कहे छे - में मारी मूर्खताथी करेलुं कर्म आपने अपराधत्वे देखाय ए ठीक नहि तेथी कहे छे के में ऐश्वर्यना मदमां ए काम कर्युं छे तेथी ए मूर्खाई गणाय, अपराध गणाय, केमके एमां मारी बुद्धि नष्ट थई हती तेथी एम थयुं. तमारो प्रभाव जाण्यो नहि तेथी मारा धर्मनो विचार न करतां केवळ आ दीन छे एम जाणी मारा अपराधने आप स्मरणमां न लावशो, केमके आपना मनमां अपराध आवशे तो आप सत्यसङ्कल्प होवाथी माराथी बीजीवार तेवो अपराध थशे तेथी मारा अपराधने मनमान्थी काढी नाखो. तेथी मारी ए खराब बुद्धिथी थयेल कार्य विस्मरण योग्य छे ए ज मारी प्रार्थना छे. हे अधोक्षज! स्वयं भाररूप अने मोटा भारना कारणरूप एवा दुष्ट सेनाना नायकोना नाशने माटे अने हे देव! आपना चरणमां रहेनार भक्तना रक्षणने माटे आ आपनुं अत्रे पधारवुं थाय छे ॥९॥
षड्गुणयुक्त, पुरुषरूप, महात्मारूप, वासुदेव, कृष्ण अने भक्तोना पतिरूप आपने मारा नमस्कार हो ॥१०॥
स्वतन्त्र रीते श्रीअङ्गने धारण करनार विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, सर्व प्राणीरूप, सर्वना बीजरूप अने प्राणीमात्रना आत्मा स्वरूप आपने नमस्कार हो ॥११॥
हे भगवान्! आपे मारो यज्ञ बन्ध कर्यो तेथी मने अति क्रोध थयो अने अहङ्कारथी में वर्षा, वायु वगेरेथी आ व्रजनो नाश करवानी चेष्टा करी ॥१२॥
हे ईश! तो पण आपे मारा उपर अनुग्रह कर्यो, मारो प्रयत्न विफल कर्यो तेथी मारो गर्व चाल्यो गयो तथा ईश्वर, आत्मा अने गुरु एवा आपने जाणी हुं शरणे आव्योछुम् ॥१३॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम इन्द्रे भगवान्नुं कीर्तन कर्युं त्यारे भगवाने मेघना सरखी गम्भीर वाणीथी इन्द्रने हसीने आ प्रमाणे कह्युम् ॥१४॥दशमस्कन्ध २२८ श्रीभगवाने कह्युं - हे मघवन् (इन्द्र)! में तारा उपर दया करी तारो यज्ञ बन्ध कर्यो. तुं स्वर्गनी सम्पत्तिथी अत्यन्त मदवाळो थयो हतो ए तारो मद उतारवामाटे अने मारुं अनुस्मरण कराववामाटे ए कार्य मारे करवुं पड्युं छे ॥१५॥
ऐश्वर्य अने लक्ष्मी ना मदथी आन्धळो बनेलो माणस, हुं हाथमां दण्ड राखीने ऊभो छुं तेने जोतो नथी. तेथी जेना उपर अनुग्रह करवानी हुं इच्छा करुं छुं तेने हुं सम्पत्तिथी भ्रष्ट करुं छुम् ॥१६॥
हे शक्र (इन्द्र)! तारुं कल्याण थाय. तुं अर्हीथी तारा अधिकार उपर जा अने तमे सौ पोत-पोताना अधिकार प्रमाणे मद विनाना थईने (दीनतापूर्वक) मारी आज्ञानुं पालन करजो ॥१७॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हवे मोटा मानवाळी (‘मोटा मनवाळी’नुं तात्पर्य ए छे के मारो करेलो अभिषेक जो भगवान् न स्वीकारे तो हुं जीवीशज नहि.) कामधेनुए पोताना परिवारने लईने गोपरूपने धरनार ईश्वर सदानन्द श्रीकृष्णनी पासे आवीने नीचे प्रमाणे कह्युम् ॥१८॥
सुरभि बोली - हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगिन्! हे विश्वना आत्मा! हे विश्वना उत्पादक! हे अच्युत! लोकना नाथरूप! आपवडे अमे सनाथ छीए ॥१९॥
अमारुं परम दैवत आप छो. हे जगत्पते! आप अमारा इन्द्र छो. आप गायो, ब्राह्मणो, देवो अने भक्तो ना पालक थाओ ॥२०॥
हे विश्वात्मन्! पृथ्वीनो भार उतारवाने आप भूतल उपर पधार्या छो तेथी ब्रह्मानी आज्ञाथी अमे अमारा इन्द्ररूपे आपने अभिषेक करीशु ॥२१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम श्रीकृष्णने विनन्ति करी अने पोताना दूधथी अने ऐरावतनी सूण्ढथी लावेला आकाशगङ्गाना जलथी कामधेनुए अभिषेक कर्यो ॥२२॥
इन्द्रने पण देवमाताओए प्रेर्यो तेथी ए देवर्षिओ साथे आवी कृष्णने पोताना इन्द्र जाणी तेमनो अभिषेक कर्यो अने ‘गोविन्द’ एवुं भगवान्नुं नाम राख्युम् ॥२३॥
त्यां तुम्बुरु, नारद आदि गन्धर्वो, विद्याधरो, सिद्धो, चारणो वगेरे भेगा मळीने आव्या अने लोकना पापने दूर करनार भगवद् यशनुं गान करवा लाग्या. अप्सराओ हरि भगवान्ना गान वखते आनन्दमां आवी नृत्य करवा लागीदशमस्कन्ध २२९ ॥२४॥
देवसमुदायमां मुख्य देवो हता तेमणे अद्भुत पुष्पनी वृष्टि करी अने स्तुति पण करी. त्रणे लोक परमानन्दनो अनुभव करता थया. गायोए तो पृथ्वीने पोताना दूधथी भीनी करीदीधी ॥२५॥
नदीओ रसना समूहने वहेवा लागी, वृक्षो मधु स्रववा लाग्यां, खेड्या वगरनी पृथ्वी धान्य आपवा लागी अने पर्वतोए मणिओने प्रकट कर्या ॥२६॥
श्रीकृष्णनो ज्यारे इन्द्रपद उपर अभिषेक थयो त्यारे स्वभावथी क्रूर प्राणीओ हतां तेमणे पण पोतानी स्वाभाविक शत्रुता छोडी दीधी. हे कुरुनन्दन! एवो प्राणीमात्रना हृदयमां फेरफार थई गयो ॥२७॥
इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः ॥ अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम् ॥२८॥
एम गायो, गोपो अने गोपीओ ना पति भगवान्ने पोताना इन्द्रत्वे अभिषेक कर्यो. इन्द्रने भगवाने स्वाधिकार उपर जवानी आज्ञा आपी तेथी देवोने लईने ए स्वर्गमां गयो ॥२८॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा-प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो अने चालु) ‘‘इन्द्रे अने सुरभिए भगवान्नो अभिषेक करी ‘गोविन्द’ नाम धराव्युं’’ नामनो सत्तावीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां चोवीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय २८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २५ भगवाने गोपोने वैकुण्ठ बताव्युं तामस साधन प्रकरण अध्याय ७
विशेष - आ अठ्ठावीसमा अध्यायमां भगवान् नन्दरायजीने वरुणना पाशथी छोडावशे, पछी बधाने वैकुण्ठमां लई जशे, ए एने फळ आपशे. गोपो, नन्दरायजी वगेरेए अभिषेक जोयो,दशमस्कन्ध २३० देवोए स्तुति करी ए पण साम्भळी. देवोत्तमता तो एमना जाणवामां आवी. हवे एमनुं (कृष्णनुं) पौरुष जोवुं जोईए. जो एम न थाय तो नन्दरायजीनुं ज्ञान भगवत्पर्यवसायी न थाय तेथी एमने पकडाववा जोईए एटले वरुण पण कृष्ण सेवक छे एम एमने ज्ञान थशे. भगवान्नो सेवक थई काल आदिनी उपासना करे तो एने क्लेश थाय छे, त्यारे कृष्ण एमने क्लेश मुक्त करे छे एवुं ज्ञान नन्दरायजीने थशे त्यारे भगवान्ना माहात्म्यने ए जाणशे, त्यारेए भगवान्नुं चिन्तन करशे. एम करतां एमने भगवान् पोतानुं स्थान वैकुण्ठ बतावशे. तेथी आमान्धर्मीनुं निरूपणछे. एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ॥ स्नातुं नन्दस्तु कालिन्द्यां द्वादृश्यां जलमाविशत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - नन्दरायजीए एकादशीनो उपवास कर्यो. अविद्याने मटाडनार भगवान्नुं सारी रीते पूजन कर्युं अने ज्यारे द्वादशी आवी त्यारे कालिन्दीमां स्नान करवामाटे जलमां *प्रवेश कर्यो ॥१॥
विशेष - गोपोने भगवान्नुं सम्पूर्ण ज्ञान थाय अने तेनाथी निरोध थाय त्यारे एने वैकुण्ठमां लई जवाय. एमां प्रथम धर्मबुद्धिथी मर्यादामां प्रवर्ततो होय अने सर्वथा भगवान्ने भगवत्पणे न मानतो होय तेवा नन्दरायजी जेवाने अनर्थ थाय छे ए वात कहे छे. नन्दरायजी विष्णुव्रत परायण छे, धर्मनिष्ठ छे. बीजाने तो भगवन्माहात्म्यनुं ज्ञान पण न थाय. एमने माहात्म्यज्ञान कराववा माटे ज वरुणना सेवके नन्दरायजीने पकड्या तो पण तरत न छोडाव्या तेम वरुणे पण दण्ड न आप्यो. एकादशीनुं नन्दरायजीए व्रत कर्युं तेथी वैष्णव पक्ष कर्यो, वैदिक पक्षने छोड्यो. अर्धरात्रे द्वादशी आवी त्यारे कालिन्दीना प्रवाहमां जळ प्रवेश कर्यो. ‘‘मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति। निशीथात् सम्यगुत्थाय क्रियाः कुर्याद्यथोचितम्। अग्निहोत्रादिकर्माणि तथा नैमित्तिकानि च। आमध्याह्नात् क्रियाः सर्वाः कर्तव्याः शम्भुचोदनात्’’ ए प्रमाणे वैष्णवधर्मना विश्वासथी स्नान करवा गया. रातना बार वाग्या पछीनी वेळा आसुरी छे तेमां जे स्नान करे तेनुं फळ आसुरोने पहोञ्चे. आ आसुरी वेळाए न जाणीने नन्दजी नाहवा आव्या* तेथी वरुणनो सेवक एमने बान्धीने वरुण पासे लई गयो ॥२॥
विशेष - त्यारे वरुणना सेवके जाण्युं के आ नन्दरायजी अन्याय करे छे केमके एमने वैष्णवधर्मनुं ज्ञान नथी तेथी एमने बान्धीने लई गयो. एणे जाण्युं के आ तो आसुर समयदशमस्कन्ध २३१ छे तेमां जे धर्म करे ते असुरने जाय छे ते वात नन्दरायजी जाणता नथी अने आव्या तेथी एमने ए वरुण पासे लई गयो. खरी रीते वरुणनो सेवक पण जाणतो नथी ते वात वरुण पोते ज कबूल करशे अने कहेशे - ‘‘अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना, आनीतोयं तव पिता तद्भवान् क्षन्तुमर्हति’’ एम वरुणे क्षमा मागी छे तेथी सिद्ध थाय छे. गोपो नन्दजीने न जोतां *हे कृष्ण! हे राम! एम आक्रोश करवा लाग्या. (नन्दालयमां घेर पोढेला) भगवाने जाण्युं के पिताने वरुणनो सेवक लई गयो तेथी हे राजन्! ते वरुण पासे पहोञ्च्या केमके पोताना गोप वगेरेनो भय एमने मटाडवो छे तेथी एम कर्युं. एम करवाने एमनामां सामर्थ्य पण छे ए पण बताववुं छे ॥३॥
विशेष - वरुणना सेवके ज्यारे नन्दरायजीने पकड्या त्यारे बधा गोपालो एमने छोडाववाने श्रीकृष्णने अने रामने उच्च स्वरे बोलाववा लाग्या. नन्दरायजी जळमां पेठा पण पाछा जोवामां न आव्या त्यारे सर्व कार्यमां अने सर्व समयमां बीजा कोई उपायने नहि जोता गोपो श्रीकृष्ण अने राम ने विनन्ति करे छे तेम आ प्रसङ्गे पण एमनां नाम लईने उच्च स्वरे बोलाववा लाग्या. भगवान् घरमां पोढ्या हता. तेमणे शब्द साम्भळ्यो. पिताजीने वरुणनो सेवक लई गयो ए वात जाणी गया अने त्यान्थी ज पोते वरुणनी पासे गया, ए पण घणुं करीने कोईने कहीने ज गया. न कहे तो मोटो भय थाय तेथी सूचन करी वरुण पासे भगवान् निरोध करवाने प्रवृत्त थया छे. ते भक्तना सर्व कर्ममां पण पोते करी दे छे, एनां कर्मने पोतानां करी ले छे, नहि तो ए कर्मथी ए कर्म करनारने बन्ध थाय; पण भगवान् ज्यारे एमां प्रवेश करे त्यारे बन्धनी सम्भावना न रहे. तेथी पोते प्रवेश करी जीवने ए कर्मथी मुक्ति आपे छे; ए कर्ममां साधनदशामां अने फळदशामां प्रभु प्रवेश करे छे. जेनुं फळ आवश्यक छे अने पहेलां कर्युं छे ते कर्म (एकादशी) तो थई गयुं. एमां भगवान् प्रवेश न करे एटले भगवान् वरुण पासे गया, नहि तो भगवान् एने पोतानी पासे बोलावत अथवा नन्दरायजीने वरुण लोकथी पाछा खेञ्ची लेत; परन्तु नन्दरायजीने पोतानुं माहात्म्य बताववुं छे तेथी पोते ज त्यां पधार्या अने बीजा स्वतन्त्र उपाय न अजमाव्या. प्रभु सेवकने त्यां पण कृपा करी जाय छे ए तमो जाणो छो एम बताववा ‘राजन्’ एवुं सम्बोधन आप्युं छे. जलदी न जाय तो भक्तोने भय थाय. वळी अर्ही भगवान् आव्या ते अर्हीनुं कार्य ज करी शके, अन्यत्र न जई शके एम नथी एम बताववामाटे पण वरुणलोकमां पधार्या छे, जो एवुं कार्य न करी शके तो भगवान् गोपोने वैकुण्ठ पण न बतावी शके. जेम बीजा अवतारो जे कर्म करवा आव्या होय तेदशमस्कन्ध २३२ सिवाय बीजुं नथी करता तेवा श्रीकृष्ण नथी, पण सम्पूर्ण सामर्थ्य साथे पधार्या छे एम बताववामाटे पण कृष्ण वरुणलोकमां पधार्या छे. लोकपाल वरुणे श्रीकृष्ण पोताने त्यां पधार्या जाणीने घणी धामधूमथी एमनी पूजा करी एमना दर्शनथी मोटो उत्सव मान्यो अने पोते भगवान्ने *विनन्ति करवा लाग्यो ॥४॥
विशेष - अर्ही शङ्का करे छे के भगवान् पोताना पिताने उठावी जनारनी पूजा केम स्वीकारे? केमके ए तो अनिष्ट करनार शत्रु जेवो गणाय, छतां भगवाने एनी पूजा केम लीधी? त्यां कहेवानुं के भगवान् इन्द्रियोना अधिष्ठाता छे तेथी जो एनी पूजा न करे तो वरुण पोताना लोकनो भोग भोगवी शके नहि केमके भोग इन्द्रियोथी भोगवाय तेना स्वामी तो श्रीकृष्ण छे तेथी एमनी कृपाथी भोग भोगवाय छे. वळी भक्त भगवान्ने निवेदन कर्या वगर भोग भोगवे तो पण एने दोष लागे तेथी एने सर्व निवेदन करे छे. देवोनो पति इन्द्र छे तेम दैत्योनो स्वामी वरुण छे. एनी लक्ष्मीनो भगवान् अर्ही ज भोग लई ले तो दैत्योनो नाश न थाय तेथी भगवान् त्यां पधार्या छे. तेथी पोतानी त्यां पण सत्ता सिद्ध करी. जो एम न करे तो बीजानी सत्ताना पदार्थो भगवद्भक्तनी शुद्धिना कारणरूप थता नथी. जीव त्रण जातना-मनुष्य, देवो अने दैत्यो. तेमां मनुष्यनी आकृति प्रभुए अङ्गीकार करी देवोना अभिषेकनो स्वीकार कर्यो; दैत्योनी पूजा स्वीकारी एटले ते समयमां भगवाने सर्व पुष्टिने उपयोगी बनावी दीधुं. हवे वरुणनी सर्वस्व निवेदिका पूजाने कहे छे के सर्व दैत्यलोकनो ए पति छे तेथी जेटली एणे सम्पत्तिथी पूजा करवी जोईए तेनाथी वधारे सम्पत्तिवडे पूजा करी. कायिकी ज करी एम नहि, पण वाचिकी सेवा पण करी. भगवान्ना दर्शनथी मोटो उत्सव थयो तो मानसिक छे तेथी मानसिकी पूजा पण एणे करी दीधी; तेथी काया, वाणी अने मन नी वरुणनी प्रपत्ति बतावी. वरुणे कह्युं - हे प्रभो! में आजे ज विशेषे करीने देह धर्यो एटले आपनां दर्शन थाय तो ज देह धर्यो कहेवाय नहि तो कृमि कीडा जेम प्रवाह पात जेवुं मनाय छे. हुं समुद्रनो पति छुं, पण एमां जे छे ते रत्न आदि जड होईने अर्थरूप नथी; पण आप मारे त्यां पधार्या ए आप अर्थरूप होवाथी मने अर्थ पण आजे ज मळ्यो *एम हुं मानुं छुं केमके आपना चरणने भजनार संसारना पारने पामे छे एटले मोक्ष मेळवे छे ॥५॥
विशेष - आज मारो देह में धर्यो एटले जो के देवयोनि प्राप्त थई तो पण दैत्यनी उपर हुकम करवानो अधिकार मळ्यो छे. एना सङ्गथी मने भगवत्परता नथी थती तेथी मळेली उत्तमयोनिदशमस्कन्ध २३३ न मळ्या जेवी छे. अत्यारे आपे दर्शन आप्युं त्यारे फळ मळ्युं तेथी मारो देह में आजे धर्यो एम मान्युं छे. पुरुषार्थ पण आजे सिद्ध थयो एटले मारामां पुरुषार्थ सिद्ध करवानुं साधन नथी, पण आप प्रभु समर्थ छो तेथी साधनरहितना पण पुरुषार्थ आपे सिद्ध कर्या. एम केम बने? तो कहे छे के आपना भक्तो पण अलौकिक दानमां समर्थ छे, तो आपनी तो वात ज शी कहेवी? जे आपना चरण सेवनार छे तेने मोक्ष मळे छे. जेम पादुका चरणमां रहे छे तेने चरण सिवाय गति नथी ते तो चाले तो पण चरणनी शक्तिथी चाले छे ते जेम विपरीत छे तेम मने पण साधनभाव छतां आपना सामर्थ्यथी पुरुषार्थरूप आप मळ्या. ऐश्वर्यादि छ गुणवाळा ब्रह्मरूप परमात्मारूप एवा आपने मारा नमस्कार* हो के जेमां लोकसृष्टिनो विकल्प पेदा करनारी माया नथी ॥६॥
विशेष - आजे मारो जन्म सफळ थयो. सफळ जन्मवाळानुं कर्तव्य कहे छे के आपने नमस्कार हो. जीवने नमन न करवुं जोईए केमके ए तो आपणी तुल्य छे. देह वगेरे तेने मळे छे माटे भगवान् ज नमस्करणीय छे. ए पण भगवान् सर्वसिद्धान्त सिद्ध होय तेने नमस्कार करवा. एने माटे कहे छेःसाक्षात् भगवान्ने एमां पण वैष्णवसिद्धान्तसिद्ध ब्रह्मरूपने, श्रुतिसिद्धने, परमात्माने एटले गीता आदि स्मृति सिद्धने नमन हो. श्रुतिस्मृति सिवायना पक्षमां सृष्टिमां मायानो उपयोग छे. एनो कारणपणे अथवा प्रधानपणे उपयोग छे. पाखण्डमतमां निमित्तपणे उपयोग छे. ए मायानो अर्ही उपयोग नथी एटले मायाकृत काम, लोभ आदि अर्ही नथी, एटले मायानो सम्बन्ध न होवाथी कांई कहेवानी जरूर नथी. मारो सेवक धर्मनुं तत्व जाणतो नथी अने नन्दरायजीनो आपनी साथेनो सम्बन्ध पण जाणतो नथी. ते मूढ छे एटले शुं करवुं जोईए अने शुं न करवुं जोईए तेनुं पण तेने भान नथी. ए आपना पिताने लई आव्यो छे तेथी आपे मने क्षमा करवी जोईए* ॥७॥
विशेष - तो पण पोतानो अपराध तो कबूल करवो जोईए तेथी कहे छे के धर्मतत्वने नहि जाणनार मारा नोकरे आपना पिताने एटले आपे लीलाने माटे जेमनामां पितृत्व स्थाप्युं छे तेमने अर्ही पहोञ्चाड्या छे. तमारा पितानो स्वरूपथी उत्कर्ष होय तो ए न लावी शकत. आपनो सम्बन्ध छे तेने तो ए जाणतो न हतो. ए आपनुं स्वरूप जाणे तो एमां दैत्यपणुं न रहे तेथी मारा हुकममां पण एणे कर्तव्य-अकर्तव्यनो विचार करवो जोईए ए मूर्ख होईने एणे न कर्यो ए मारो अपराध हुं गणुं छुं केमके मारा सेवके कर्युं ए में कर्युं गणाय; एनी आप क्षमा करो. तमारा पिताजी ध्रूजता ऊभा छे तेमने लई जाओ. ‘‘गोविन्द! आप लईदशमस्कन्ध २३४ जाओ’’ एम हुकम करे तो अपराधी थाय माटे ते पाठ क्षेपक समजवो. ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुमर्हस्यशेषदृक् ॥ गोविन्द नीयतामेष, पिता ते पितृवत्सल ॥७अ॥ हे कृष्ण! हे सर्वज्ञ! मारा उपर पण आपे तो कृपा ज करवी रही. हे पितृवत्सल गोविन्द! आ आपना पिताने आप भले लई जाओ. (७अ) सेवक स्वामीने हुकम न करी शके. आ एक श्लोक ७ अ आचार्यचरणना मतमां विगीत-क्षेपक होवाथी एनो अर्थ आपे नथी कर्यो. श्रीशुकदेवजी बोल्या - ईश्वरना पण ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने एम वरुणे प्रसन्न कर्या त्यारे बान्धवोने आनन्द आपता पिताने लईने* पोते पोताना स्थानमां पधार्या ॥८॥
विशेष - एम ज्यारे वरुणे भगवान्ने प्रसन्न कर्या त्यारे एने कृतार्थ करी चाकरनो अपराध गणी वरुणने निरपराधी ठरावी पोते पिताने लईने घेर आवी पहोञ्च्या. त्यां शङ्का करे के भगवान् ईश्वरेश्वर छे तेथी एमनी अनुवृत्ति वरुणे करवी जोईती हती, छतां ए केम पहोञ्चाडवान आव्यो?त्यां कहे छे के ईश्वरनी लीला थती होय त्यां सेवके आववुन्न जोईए तेथी ए न आव्यो. नन्दरायजीए लोकपालना महान अतीन्द्रिय वैभवने जोयो अने एवा मोटा वरुणनी कृष्णमां भक्ति (दीनता) जोई विस्मय पामी ज्ञातिजनोने* ए वात कहेवा लाग्या ॥९॥
विशेष - नन्दरायजीने दूत लई गयो. तेणे नन्दरायजीने एम ज केदीनी जेम बेसाडी राख्या, पण ज्यारे भगवान् त्यां पधार्या त्यारे बधुं एने अतीन्द्रिय दर्शन थयुं त्यां सुधी एने कांई देखायुं नहि. पोते तो श्रीकृष्ण साथे साधारण व्यवहार राखे छे त्यारे वरुण लोकमां तो वरुण वगेरे, जेम गर्भदास होय तेम एमने नमन करवा लाग्या. बधा ए प्रमाणे ज भगवान्नी सेवा करता नन्दरायजीए जोया त्यारे एमने विस्मय थयो तेथी त्यान्थी आवी उपनन्द वगेरे पासे बधी वात कहेवा लाग्या. भगवाने पोताने माटे प्रभाव बताव्यो ए वात बीजाने कहेवी न जोईए छतां नन्दरायजीए केम करी? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के नन्दजीने आश्चर्यरस उत्पन्न थयो अने कहेवा लाग्या के गर्गे मने तमारो पुत्र छे एम कह्युं ए मारी पासे खोटुं कह्युं. हे राजन्! ए गोपोने मनमां उत्सुक्ता थई के ज्यारे कृष्ण ईश्वर छे तो ए आपणने पोताना वैकुण्ठ नामना सूक्ष्म धामने आपणी समक्ष प्रकट करशे? ॥१०॥दशमस्कन्ध २३५ आवा ईश्वर पुत्र छे तो ए आपणी उपर अनुग्रह करे के नहि एने माटे एणे बधाने वात कही छे तेथी भगवत्स्वरूपनो एने पूछी निश्चय करवामाटे सर्व उत्सुक थई गया अने सङ्कल्प कर्यो के भगवान् पोतानो लोक आपणने बतावे? केमके ए ईश्वर छे तेथी आपणी पासे एने जोवानुं साधन नथी तो पण एमनामां बताववानुं सामर्थ्य छे. ते कृपा करे तो कांई अशक्य नथी. आ प्रकारे सर्वना हृदयने जोनार भगवान् कृष्णे पोताना अङ्गीकृत जीवोनो विचार जाणीने, पोताने सर्वनुं ज्ञान होवाथी तेमना सङ्कल्पनी सिद्धिनेमाटे कृपापूर्वक नीचे प्रमाणे *विचार कर्यो ॥११॥
विशेष - भगवान् एओना सङ्कल्प समजी गया अने विचारमां पड्याःआमने मारो लोक जोवानुं साधन बतावुं के फळ ज आपुं? साधनमां ते अति क्लेश छे तेथी कृपा करवी ए ज उचित समजी एमने पोतानो लोक कृपा करीने बताववानो भगवाने निश्चय कर्यो. आ लोकमां अविद्या काम अने कर्म वडे उच्च-नीच योनिमां फरतो मनुष्य निश्चय पोतानी गतिने जाणी *शक्तो नथी ॥१२॥
विशेष - भगवाने चिन्तन कर्युं ए ज बतावे छे के आ लोकमां जे जन्मे छे ते सामान्य रीते पोते क्यां पहोञ्चशे ए गतिने जाणतो नथी. ज्यारे पोताना कर्तव्यने समजे त्यारे ए करवाथी एना दोष निवृत्त थाय, त्यारे भगवान् केम मळे एना उपायनुं ज्ञान थाय. पछी शास्त्रमां कह्या प्रमाणे ए कर्मनुं अनुष्ठान करे त्यारे भगवत्स्वरूपनुं ज्ञान थाय त्यारे मारा स्थाननुं एने दर्शन थाय. आटला दरज्जाने चडवा ए तो करोडो जन्मे पण ए न करी शके केमके प्रथमाधिकारमां ज ए अयोग्य छे. ए ज कहे छे के आ अति तामस लोकमां जन्म लेनार (अति अपवित्रमां पेदा थयो तेथी ते) मनुष्य पोतानी गतिने न जाणी शके एनुं कारण ए के एने पाञ्च पर्ववाळी अविद्या जन्मथी लागु पडे छे. जीवने र्वीटाईने रहे छे. एना सम्बन्धथी काम थाय छे ते कामने लईने अनेकविध कर्म करे छे. ए कर्मोथी जन्म ले छे एटले मूळमां ज अशुद्ध जीव उत्कृष्ट गतिने केम मेळवी शके? एमां पण एने थोडुं उत्तम मळे एटले एने लई उपर चडवानी इच्छा नथी करतो, पण पाछुं नीचे जवानुं मन करे छे. तेथी कारण विचार के कार्य विचारथी आ जीवनो कोई अधिकार जणातो नथी. एम महाकरुणावाळा सर्व समर्थ भगवाने विचार करीने गोपोने तमस्ने पेले पार रहेलो पोतानो *लोक बताव्यो ॥१३॥
विशेष - तेथी गोपो जे इच्छे छे ते एना साधनथी सिद्ध थई शके एम नथी. एनोदशमस्कन्ध २३६ अनधिकार विचारी प्रमेय बळथी एने देखाडता विचार करे छे के जो साधन वगर एने लोक बतावुं तो मर्यादा भङ्ग थाय अने साधननो आग्रह राखुं तो हुं महाकारुणिक कहेवाउं छुं ए खोटुं पडे; तेथी बन्ने वाक्योने साचा करवाने आप समर्थ छे तेथी कृपाथी पोतानो लोक बतावे छे. ए पण त्यां ज रहीने, बीजे जईने नहि केमके जे व्रजवासीओ साक्षात् भगवान्ने जुए छे तेओ लोकने जुए एमां शुं आश्चर्य? तमस्थी पर जे वैकुण्ठ लोक छे ते एमने बताव्यो. ‘‘तम आसीत् तमसा गूढमग्रे प्रकेतम्’’ ए श्रुतिप्रतिपाद्य व्यापिवैकुण्ठने ए बधा गोपोए जोयुं. ते ब्रह्मलोक सत्य छे, ज्ञान छे, अनन्त छे, जेने उपनिषदो ‘ब्रह्म’ कहे छे, ज्योति छे, अनादिसिद्ध छे अने मुनिओ पण मनन करवाथी निर्गुण थाय त्यारे सावधान थईनेज तेनां *दर्शन करी शके छे ॥१४॥
विशेष - मायाने दूर करी त्यारे ए जोवामां आव्युं ते धाम अक्षररूप छे, पण ज्यारे भगवान् ईश्वरपणाथी एमना हृदयमां पधार्या त्यारे अक्षर-लोकरूपे देखायुं. जो एम न थाय तो जोयुं ते कृत्रिम थई जाय. सत्य, ज्ञान अने अनन्तरूप जोयुं, स्वयम्प्रकाश जे श्रुतिमां बताव्युं छे. सदा एक प्रकारनुं जोयुं, मुनिओ निर्गुण थया पछी ज तेने जोई शके छे. अर्ही अनेक श्रुतिथी ए ब्रह्म सिद्ध छे. ‘‘परं ज्योतिः सम्पद्य’’ ‘‘अजो नित्यः शाश्वतः’’ ‘‘हिरण्यमये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम्’’ एमां वर्णित गुणवाळा ब्रह्मशब्दवाच्य कृष्णने जोया, जे ब्रह्मने प्रथम अक्रूरे आङ्खथी जोयुं हतुं. जो भगवान् होय तो आपनो लोक बतावे एवो गोपोनो सङ्कल्प हतो. भगवाने कह्युंःतमने मारो लोक जोवानी इच्छा होय तो तमे कालिन्दीमां डूबकी मारशो तो देखशो. एमणे एम कर्युं त्यारे भगवद् विशिष्ट भगवल्लोकने एमणे एमां जोयो. ए बधाने तो ब्रह्महृदमां लई जई डुबाड्या, पाछा एमणे एमान्थी एमनो उद्धार कर्यो त्यारे तेओए ब्रह्मनो लोक जोयो, ज्यां पहेलां अक्रूरने भगवत्स्वरूपनुं दर्शन (एमां घर शून्य जेवुं न जोयुं, पण ए घरमां बिराजता श्रीकृष्णने पण जोया.) थयुं हतुम् ॥१५॥
नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्द निर्वृताः ॥ कृष्णं च तत्रच्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः ॥१६॥
नन्दरायजी वगेरेए ए ब्रह्मलोकने जोईने परमानन्दनो अनुभव कर्यो अने ए लोकमां श्रीकृष्णनुं वेदो स्तवन करी रह्या हता (एने जोईने नन्दरायजी वगेरेदशमस्कन्ध २३७ परमानन्दने प्राप्त थया. एमां पण मध्यमां श्रीकृष्णने जोया जेनी वेदो स्तुति करे छे. एमने जोईने बीजुं बधुं भूली गया अने आश्चर्य रसमां मग्न थया) ए जोईने तो तेओ अत्यन्त विस्मय पाम्याम् ॥१६॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना त्रीजा
साधन-पेटा-प्रकरणनो धर्मीनो सातमो अने चालु) ‘‘भगवाने गोपोने
वैकुण्ठ बताव्युं’’ नामनो अठ्ठावीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-
१४ बाद करता पचीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
बीजा तामस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण सम्पूर्ण
भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र
जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर
सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला,
मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला
‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय २९
तामस फल प्रकरण श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २६ भगवाने गोपीओनी साथे आत्माथी क्रीडा करी तामस फल प्रकरण अध्याय पहेलो(रासपञ्चाध्यायी अध्याय पहेलो)
विशेष - आ ओगणत्रीसमा अध्यायमां भगवान् आत्मावडे जीवने आनन्द आपे छे. ए जीवो जो समर्पित आत्मा होय तो तेमने भजनानन्द मळे एनो उपाय आमां कह्यो छे. आत्मा ज्यां सुधी प्रपन्न होय त्यां सुधी भगवान् एनी साथे क्रीडा करे छे. ए ज्यारे जीवना स्वरूपमां दाखल थाय त्यारे बहार दर्शन आपता नथी, पण अन्तःकरणना सम्बन्धी बने छे. साधन प्रकरणना अन्तमां गोपोने वैकुण्ठनुं भगवाने दर्शन कराव्युं. आ अध्यायमां गोपीओने फलनुं दान कर्युं ए वात कहेवानी छे. एमां फल प्रकरणना आरम्भमां [[२३८]] श्रीआचार्यचरण कारिकाओ वडे फल प्रकरणनुं तात्पर्य कहे छे. पूर्व अध्यायमां व्रजवासीओने ब्रह्मभाव थयो ए पछी जो एमां ए जीवो स्थित रहे तो एमनी मुक्ति थाय. परन्तु इन्द्रियवाळाने मुक्ति थतां एमां इन्द्रियोनो उपयोग न होवाथी ए व्यर्थ जाय तेथी जेनी उपर कृपा करवी छे ते जीवोनो ब्रह्मानन्दथी भगवाने उद्धार कर्यो. एनुं कारण ए ज के एमने भजनानन्दनो अनुभव कराववो छे. एमां जे लीलानी जरूर छे ते आ फल प्रकरणमां कहेवामां आवे छे. ए भजनानन्द लौकिक स्त्रीमां सारी रीते सिद्ध थाय छे अने स्त्रीद्वारा पुरुष (भगवान्) ने पण ए फळनो अनुभव थाय छे. एनाथी भजनानन्द लेवानी योग्यता केवळ प्रसादरूप शक्ति स्त्री छे अने एनो जेनामां प्रवेश थयो होय तेने ज ए भजनानन्दनो अधिकार छे एम पण कहेवामां आव्युं. तेथी ज भजनानन्द स्त्रीमां सारी रीते रही शके छे. पुरुषने जो एनो कांई पण लाभ मळे तो ए स्त्रीद्वारा ज मळे छे, बीजी रीते पुरुषने भजनानन्दनो अधिकार नथी. ए रसरूप भगवान्ने अन्तरमां उतारवाने माटे स्त्रीओ ज समर्थ छे. ए स्त्रीना भोग पछी भगवान् एनो भोग करी शके छे. तेथी ज भगवान् श्रीकृष्ण स्त्रीमां निरन्तर रात्रि-दिवस रम्या करे छे. एक बाह्य अने बीजुं आन्तर एम रमण बे जातनुं छे. एमां आन्तर रमण ए परम फळरूप छे. ए रूपलीला कह्या पछी शब्दात्मक लीला आवे छे. ए निर्दोष लीला छे. ए ‘नामलीला’ कहेवाय छे. रूपलीला पाञ्च प्रकारनी छे. आत्माथी, मनथी, वाणी अने प्राण थी, इन्द्रियोथी अने श्रीअङ्गथी एम पाञ्च प्रकारे भगवाने रूपथी लीला करी छे. ए पाञ्च अध्यायमां कहेवामां आवी छे तेम ज एक-एक अध्यायमां पाञ्च प्रकार जे उपर बताव्या ते प्रमाणे लीला सम्भवे छे. ए अर्ही कहेवा जतां विस्तार थाय माटे जिज्ञासुए श्रीटिप्पणीजीमां ए कहेवामां आवी छे ए जोईने सन्तोष मेळववो. उपर कह्या प्रमाणे आत्माथी शरीर सुधीनां पाञ्च स्वरूप गणाव्यां ते मळीने एकरूप कहेवाय छे. तेथी रूपलीला पाञ्च अध्यायथी अने प्रवृत्ति निवृत्ति भेदथी बे प्रकारनी नामलीला छे ते बे अध्यायथी कही छे. एम आ प्रकरण सात अध्यायनुं छे. भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ॥ वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रिताः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - मल्लिकानां पुष्पो जेमां खील्यां छे ते (कात्यायनी व्रत प्रसङ्गे वरदान आपेलुं ते) शरदनी रात्रिओने जोईने भगवाने पण योगमायानो आश्रय करी रमण करवाने माटे मन कर्युम् ॥१॥
जेम घणे वखते परदेशथी घेर आवेलो प्रिय प्रियाना मुखने हाथ लगाडी एनादशमस्कन्ध २३९ तापने शान्त करे तेम त्यारे नक्षत्रोनो राजा चन्द्र पूर्व दिशाना मुखने पोतानां सुखरूप किरणोथी र्लीपतो अने चर्षणीओना शोकने दूर करतो उदय पाम्यो ॥२॥
लक्ष्मीना मुख जेवी कान्तिवाळा अने नवीन केसरना जेवा लाल रङ्गवाळा अखण्ड मण्डळवाळा चन्द्रने अने एनां कोमळ किरणोथी रङ्गायेला वृन्दावनने जोईने भगवाने सुन्दर दृष्टिओना मनने हरण करनार अव्यक्त मधुर स्वरवडे गान कर्युं ॥३॥
अनङ्गने वधारनार श्रीकृष्णना ते गीतने साम्भळीने व्रजस्त्रीओनां मन श्रीकृष्णने वश थई गयां अने एक बीजाने खबर न पडे एम ए व्रजस्त्रीओए श्रीकृष्णनी पासे आववानो उद्योग कर्यो. जेना चालवाना वेगने लईने कानमां कुण्डळ हतां ते चञ्चळ थयां तेवां गोपीजनो श्रीकृष्णनी पासे आव्याम् ॥४॥
केटलाङ्क गोपीजनो गायो दोहतां हतां ते दोहवानुं पडतुं मूकी उत्सुक्ताथी प्रभु पासे आव्या. केटलाक दूध चूला उपर चडावेल तेने उतार्या वगर गया. बीजां घउन्नी खीर करवा दूध चूला उपर मूकेलुं तेने एम ज छोडीने चाली नीकळ्याम् ॥५॥
केटलाक पति वगेरेने पीरसतां हता ते पीरसवुं छोडीने गयां, ज्यारे बीजां बाळकने स्तनपान करावतां हता ए छोडीने गयां. केटलाक पतिनी सेवा करतां हता ते पडती मूकी चाली नीकळ्यां, तो बीजां भोजन पडतुं मूकीने गयाम् ॥६॥
केटलाक घर र्लीपतां हता, केटलाक स्नान करतां हता अने केटलाक आङ्ख आञ्जतां हता ते बधां पोत-पोतानुं काम अधूरुं मूकीने चाली नीकळ्यां. ए पण वस्त्र अने आभरणो उलटां-सुलटां पहेरी चाली नीकळ्यां अने बधां श्रीकृष्णनी पासे आव्यां ॥७॥
ते गोपीजनोने तेमना पतिए, माता-पिताए, पुत्रोए अने सम्बन्धीओए भगवान् पासे जतां अटकाव्यां छतां पण तेमनुं अन्तःकरण गोविन्द भगवाने हरी लीधेलुं होवाथी अने तेओ मोहित थयेलां होवाथी पाछां फर्या ज नहि ॥८॥
(उपर गणावेलां दस प्रकारनां गोपीजनो भगवान् पासे पहोञ्च्यां, पण जेमने काळ प्रतिबन्धक थयो तेमने भगवान्मां स्नेह हतो छतां ए भगवान् पासे पहोञ्ची शक्यां नहि, पण ए देहोने छोडी भगवान्मां सायुज्यमुक्तिने पाम्यां ए वात कहे छे के) केटलाङ्क गोपीजनो घरमां हतां तेमने बहार नीकळवानो रस्तो न मळतां नीकळी शक्यां नहि, त्यारे तेमणे कृष्णमां भावना करी आङ्खो र्मीची एनुं ध्यान कर्युन्दशमस्कन्ध २४० ॥९॥
न सहन थाय तेवो प्रेष्ठनो विरहताप थयो तेथी एमनां जन्म-जन्मान्तरनां अशुभ भस्म थई गयां. ध्यानमां हृदयमां प्राप्त थयेल भगवान्ना आश्लेषना सुखवडे जन्म-जन्मान्तरमां करेल शुभ कर्मनो भोग थई गयो ॥१०॥
आ प्रकारनां गोपीजनोए जो के भगवान्मां जार बुद्धि राखी हती, छतां ते ज परमात्मानो तेमने समागम थयो तेथी तेमनां कर्मनां बन्धनो बधां नाश पाम्यां अने तेमणे गुणमय देहनो तत्काल त्याग कर्यो. *ए भगवान्मां ज रही गयां एटले सायुज्यमुक्तिने प्राप्त थयाम् ॥११॥
विशेष - मूलमां शब्दो छे ‘‘जहुर्गुणमयं देहम्’’ अन्तगृहगता गोपीजनो कृष्णने कान्त भावथी भजतां हतां. तेमने रोकी राखवाथी प्रभुनो विरह थयो. एक क्षणना विरहमां, करोडो वर्ष सुधी कुम्भीपाक नरकमां रहेवाथी जेटलुं दुःख थाय तेटलुं दुःख तेमने थयुं अने तेथी तेमनां बधां अशुभ भोगवाई गयां. अशुभनो नाश थतां प्रभुनुं ध्यान धर्युं. ध्यानमां प्रभु पधार्या अने आपनुं आलिङ्गन कर्युं. आ एक क्षणना आलिङ्गनथी करोडो वर्षो सुधी स्वर्गनुं सुख भोगववामां जेटलो आनन्द आवे तेटलो आनन्द आव्यो. पुण्य अने पाप बन्ने भोगवाई जवाथी तेमना देह पडी गया अने अलौकिक स्वरूपे प्रभु पासे पहोञ्च्या. आ बाजु प्रभुनी योगमायाए तेमना देहोमां तत्काल बीजा जीवो दाखल करी दीधा एटले लौकिक व्यवहार यथावत् रह्यो अने व्रजमां कंई अमङ्गल थयुं नहि. (राजा परीक्षित विचारमां पडी गया, केमके प्रथम कह्युं छे के आ गोपीजनो भगवान्मां जारबुद्धिथी प्रेम राखतां हतां त्यारे भगवान्ने एमना खरा स्वरूपमां जाण्या वगर जो मुक्ति थाय तो विषयी लोको पण मुक्त बनी जाय अने ‘‘ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः’’ ‘‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेयनाय’’ इत्यादि श्रुतिनो विरोध आवे! आ जातनी शङ्का थवाथी) परीक्षित बोल्या - हे मुने! आ अन्तर्गृहगता गोपीजनो कृष्णने ब्रह्मरूप नहोती जाणती, पण एने पोताना कान्तरूपे जाणती हती; तो पछी गुणबुद्धिवाळी गणाय तेने गुणनिवृत्ति आ संसारनो नाश केम थाय? ॥१२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - पहेलां सातमा स्कन्धमां शिशुपालनी वात तमने कही छे के ए भगवान्नो द्वेष करनार हतो छतां ए भगवान्ना चरणने प्राप्त थयो, तो पछी आ गोपीजनो तो भगवान्नां प्रिय हतां तेमने भगवत्प्राप्ति थाय एमान्दशमस्कन्ध २४१ आश्चर्य शुं? ॥१३॥
भगवान् पोते *निर्विकार छे, ए ज्ञानसाध्य पण नथी. निर्गुण छे अने गुणना ते आत्मा पण छे छतां मनुष्यना कल्याणने माटे हे नृप! भगवान् स्वरूप प्रकट करे छे ॥१४॥
विशेष - प्राणीमात्रना श्रेयनेमाटे भगवत्प्राकट्य छे. जो एम न होय तो भगवान्नुं भूतळ उपर पधारवुं असम्भवित छे, केमके अर्ही पधारवानुं बीजुं असाधारण प्रयोजन जणातुं नथी. पृथ्वीनो भार उतारवो, धर्मरक्षा करवी, ए कार्य तो बीजी रीते पण थई शके एवां छे. तेथी निःसाधनोद्धार रूप असाधारण कार्य भगवान्ने अर्ही पधारवामां छे. ए बताववामाटे भगवान्नां चार विशेषण आप्यां छे. प्रथम तो भगवान् स्वतन्त्र छे. काळ कर्म, स्वभावना नियामक अने सर्व निरपेक्ष छे ते अर्ही शा माटे पधारे? कोई एम कहे के स्वार्थगमन न सम्भवे, पण परार्थ पधारे तो पधारी शके! त्यां कहेवानुं के ए अव्यय छे. जे कृतिसाध्य अथवा ज्ञानसाध्य होय ते बीजाना उपयोगमां आवी शके; भगवान् तो निर्विकार छे; कृतिसाध्य नथी, अप्रमेय होवाथी ज्ञानसाध्य पण नथी, केमके सर्व ज्ञान प्रमेय छे. देह आदिथी भजनद्वारा भजनीय पण नथी, केमके ए निर्गुण छे. गुण जो विद्यमान होय तो बीजाने देखाय; जेम भूख होय तो अन्नदान सफल थाय, काम होय तो स्त्रीनो उपयोग थाय, इन्द्रियो होय तो विषय उपभोग सम्भवे, पण भगवान्ने कोई सेवक पूरणीय अंश नथी तेथी ए भजन करवा योग्य नथी. जो लीलाने माटे एनी अपेक्षा छे एम कहो तो तो सर्व एनुं ज छे, कारण के सर्व गुणना पण आत्मा ए ज छे. तेथी साधनपणे एनो कांई उपयोग नथी. स्वप्रयोजन के पर प्रयोजन पण एने नथी. ए साधन विना ज मुक्ति न आपे तो एमनुं पधारवुं प्रयोजन रहित थई जाय. जो कोई माणस हमेशां भगवान्ने *विशे काम, क्रोध, भय, स्नेह, एक्ता अथवा भक्ति करे तो ए माणस भगवन्मय थई जाय ए वात निश्चित समजवी ॥१५॥
विशेष - गया श्लोकमां कह्युं तेम साधन निरपेक्ष मुक्ति स्वरूपबळथी प्राप्त करावे छे तो गमे तेवी रीते भगवान्ना स्वरूपना सम्बन्धमां जीव आवे तो ए मुक्त थाय; एटले काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐक्य अथवा सौहृद वडे भगवत्सम्बन्ध थवो जोईए. एमां काम तो स्त्रीमां सम्भवे, क्रोध शत्रुमां रहे, भय वध्यमां रहे, स्नेह सम्बन्धीओमां होय, एक्ता ज्ञानीमां होय अने भक्ति (सौहृद) भक्तमां सम्भवे छे. ए बधा उपायवडे भगवत्सम्बन्ध थतां जीव कृतार्थदशमस्कन्ध २४२ थाय; माटे अवतारदशामां ज्ञान के भक्ति नो उपयोग नथी पण एनो खरो उपयोग अनवतारदशामां होई शके. उपर गणाव्या ते सिवाय बीजा पण उपाय होय, पण ए उपाय सर्वदा करवा जोईए, नहि तो ‘‘अन्ते या मतिः सा गतिः’’ ए न्यायथी भगवत्सम्बन्ध गौण थई जाय. एटले निरन्तर भगवत्स्मरण न थतां बीजानुं स्मरण थतां भगवत्स्मरण भूलाय, एमां देह पडे तो बीजानुं सारूप्य थाय पण भगवत्सायुज्य न थाय; माटे भगवत्स्मरण मरणपर्यन्त करवुं. त्यां कहे छे के शरीरनो अध्यास होवाथी एने रोग वगेरे थतां नित्यस्मरण न बने तो केम थाय? एना उत्तरमां कहे छेःभगवान् हरिः छे ते भक्तने दुःख थवा ज देता नथी, एटले भगवान्नी भावना निरन्तर रहे छे. तेथी जेम कोईने कामथी जोतां दृष्टि कामथी रङ्गाई जाय छे तेम भगवान्नुं निरन्तर स्मरण करतां हृदय भगवत्स्वरूपमां रङ्गाई जाय छे, कारण के जीवमां, अन्तःकरणमां, प्राणमां, इन्द्रियोमां, देहमां, विषयोमां अने घरमां, द्रव्यमां, पुत्र वगेरेमां हरि ज छे, एवी भावना काम, क्रोध वगेरे वडे करतां पण प्रपञ्चनो लय थई जाय छे. जेम सर्वमां आत्माने जोतां ज्ञानीनो प्रपञ्च लीन थाय छे तेम भक्तनुं पण समजवुं. आ वातमां (तमे तो भगवान्नो प्रभाव गर्भमां हता त्यारे प्रत्यक्ष जोयो छे, अनुभव्यो छे तेथी) तमारे तो शङ्का ज करवी नहि, केमके भगवान् *अजन्मा छे, षड्गुण सम्पन्न छे, योगेश्वरोना ईश्वर छे अने सदानन्द छे, जेनावडे आ गोकुल मुक्त थाय छे ॥१६॥
विशेष - तमारे अर्ही असम्भावना रूप विस्मय करवानो नथी. भगवान्मां सर्व सम्भवित छे. जेनी बुद्धिमां असम्भव होय छे तेने सर्वत्र भ्रम थाय छे. ए अर्ही सम्भवे नहि एम नथी, केमके भगवान् ऐश्वर्य, वीर्य वगेरे छ धर्म विशिष्ट छे. जीवनो मोक्ष करवामां ज्ञाननो उपयोग छे एम ए जाणशे तो ए ज्ञानधर्म भगवान्मां छे तेथी पोतानुं ज्ञान आपीने पण जीवनो मोक्ष करवाने समर्थ छे. जेणे भगवान्नुं माहात्म्य न जोयुं होय ते सन्देह पण करे. तमे तो गर्भमां ज भगवान्नुं माहात्म्य जोयुं छे तो तमने तो एमां विस्मय न थवो जोईए. वळी जे निर्दोष होय तेमां बधुं सम्भवे. एमां दोषनुं मूळ तो जन्म छे. जेने जन्म नहि तेमां दोष पण न सम्भवे. भगवान् स्वयं अज छे एटले एमां जे कहो ते सम्भवे छे, केमके एमां दोष नथी. बीजा तो बधा जन्मे छे. जे जन्मे ते बीजानी मुक्ति न करी शके, केमके ए तो जीवनी तुल्य थयो. वळी जे साधन करे ते मुक्ति मेळवे. एमां साधन तो सर्वथी निवृत्त थयेलुं मन छे. ए सर्व विषयथी निवृत्त तो योगमार्गना साधनोवडे थई शके. ए योगमार्गना नियामक तो भगवान्दशमस्कन्ध २४३ छे. बीजां साधनोद्वारा मोक्ष थाय छे ते पण भगवान्नी इच्छाथी थाय छे केमके योग आदि मार्गना नियामक भगवान् छे. योग आदि साधनो पण एना नियमने अनुसरीने फळमां सहायक थाय छे. वळी भगवान् फळरूप छे. जे कोई मुक्त थाय ते भगवान्नी पासे जाय छे. तेथी साधनोथी प्राप्य पण भगवान् पोते ज छे ते भगवान् अर्ही स्वरूपे ज साधनरूप छे, कारण के भगवान्वडे सर्व आ देखातुं जगत मुक्तिने पामे छे. श्रीशुकदेवजी भावनावडे गोकुलमां बेठा बोले छे, अथवा ज्ञानदृष्टिथी मुक्त थता गोकुलने जोईने बोले छे. भगवान् साक्षात् अने परम्पराथी पण सर्वने मुक्त करशे, ए आगळ ‘‘स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्। गीर्भिस्ते स्मरतां चित्ते पदैस्तानीक्षतां क्रियाः’’ इत्यादि श्लोकथी कहेवामां आवशे. आ श्लोक उपर घणुं साहित्य छे. विशेष जिज्ञासुने श्रीसुबोधिनीजीमां जोईने सन्तोष मेळववा विनन्ति छे. ए व्रजाङ्गनाओने पासे आवेलां जोईने वक्ताओमां श्रेष्ठ एवा भगवान् सुन्दर शब्दोवाळी वाणीथी मोह करता कहेवा लाग्या ॥१७॥
श्रीभगवान् बोल्या - ‘‘हे महाभागा! तमे भले आव्यां. हुं तमारुं शुं प्रिय करुं? व्रजमां तो सर्व कुशळ छे? अर्ही आववानुं कारण होय ते मने तमे कहो ॥१८॥
आ भय करनार रात्रि छे, घोर प्राणीओ रातमां फरे छे, माटे तमे व्रजमां पाछां जाओ. हे सुमध्यमा! स्त्रीओए आवा समये जङ्गलमां रहेवुं न जोईए ॥१९॥
तमारां मात, पिता, पुत्र, भाई अने पति तमने नहि देखतां शोधवा नीकळशे माटे बन्धुओने भय थाय एवुं तमे न करो ॥२०॥
चन्द्रना किरणोथी रङ्गायेला यमुना जळनो स्पर्श करी आवता पवनथी कम्पायमान पल्लववाळां वृक्षोथी मडिन्त अने खीलेलां कुसुमोवाळा वनने तमे जोयुं ॥२१॥
माटे हे सतीओ! तमे जलदी जाओ, वार न लगाडो, पतिनी सेवा करो. तमारा घरमां बाळको तथा गायनां वाछडां आक्रन्द करे छे तेमने धवरावो अने गायोनुं दोहन करो ॥२२॥
(एम बोलतां जेमना हृदयमां स्नेह देखायो तेमने कहे छे के) अथवा मारामां स्नेहने लईने तमारुं अन्तःकरण मारी पासे आववाने उत्सुक थयुं अने तमे मारी पासे आव्यां ए योग्य ज कर्युं छे, केमके प्राणीमात्र मारामां प्रीति करे छे, अथवा मारा सम्बन्धमां आवनार जीवमात्रने मारामां प्रीति थाय छे. मारामां मात्र प्रीतिदशमस्कन्ध २४४ छे, कृति नथी तेथी तमे तमारा घेर जाओ ॥२३॥
हे कल्याणीओ! निष्कपट भावथी स्वामीनी सेवा करवी, एमना बन्धुओनी सेवा करवी तथा पोतानां बाळकोनुं पोषण करवानो स्त्रीओनो मुख्य धर्म छे ॥२४॥
खराब शीलवाळो, भाग्यहीन, वृद्ध, जड, रोगी, धनरहित एवो पण पति आ लोक अने परलोक नी दरकार करनार स्त्रीए सेववो ज जोईए, परन्तु ए पातकी होय तो एनी सेवा न करवी ॥२५॥
कुलीन स्त्री उपपतिनी सेवा करे तो एने स्वर्ग मळतुं नथी, एना यशनी हानि थाय छे, लोक विद्वेष करे छे. एमां भय बहु छे. एनाथी विषयनुं सुख थाय ते तुच्छ छे अने एमां कष्ट वधारे छे तेम ज सर्वत्र तेनी निन्दा थाय छे माटे स्त्रीओए स्वपुरुषमां ज निष्ठा राखवी पण अन्यत्र व्यभिचार न करवो ॥२६॥
मारा गुणना श्रवणथी, मारुं ध्यान, दर्शन अने कीर्तन करवाथी मारामां जेवो भाव थाय छे तेवो भाव पासे रहेवाथी थतो नथी, माटे तमे घेर पाछां जाओ’’ ॥२७॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एवुं गोविन्दनुं विपरीत भाषण साम्भळीने आवेली गोपीओने खेद थयो, एमना सङ्कल्प नष्ट थया अने तेमने अपार चिन्ता थई ॥२८॥
पोतानां मुखने नीचे नमावी दीधां. शोकथी गरम श्वास लागवाथी बिम्बफल जेवा होठ सुकाई गया. चरणथी पृथ्वीने खोतरतां आङ्खमान्थी काजळवाळां आंसु स्तन उपर पडतां स्तन उपर लगावेल कुमकुम धोवाई गयुं अने महादुःखना भारथी मौन ऊभां रह्याम् ॥२९॥
गोपीजनोनो श्रीकृष्ण उपर अनुराग तो हतो ज, श्रीकृष्ण तेमना प्रियतम हता अने तेमने प्राप्त करवामाटे बधी ज कामनाओने तेमणे छोडी दीधी हती. ए ज श्रीकृष्ण ज्यारे प्रिय करतां जुदुं ज बोलवा लाग्या. त्यारे तेमणे रुदनथी सूझी गयेलां पोतानां नेत्रो लूछी नाखी, कांईक क्रोध करीने प्रेमवडे गद्गद् कण्ठवाळी वाणीथी तेओए कह्युं* ॥३०॥
विशेष - रजोगुण, तमोगुण अने सत्वगुण ना त्रण-त्रण भेद अने एक निर्गुण एम दशविध स्त्रीओने भगवाने वाणीथी घेर जवानुं कहेल छे. एना उत्तरमां गोपीओ एमने एदशमस्कन्ध २४५ दस श्लोकना उत्तर दस श्लोकथी आपे छे अने एक श्लोकथी प्रार्थना करे छे ते अगियार प्रकारनी गोपीओनी वाणीनो उत्कर्ष थाय छे; त्यारे प्रभु प्रसन्न थई एमनी साथे क्रीडा करे छे. हे विभो! आपे आवुं क्रूर भाषण न करवुं जोईए, कारण के अमे वासना सहित सर्व विषयोने छोडीने आपना चरणना मूळ वृन्दावनमां आव्यां छीए. हे दुराग्रहवाळा! जेम आदि पुरुष मुमुक्षुओने भजे छे तेम आप अमने भजो, पण *अमने छोडो नहि ॥३१॥
विशेष - आप सर्वकरण समर्थ छो. समर्थ ज्यारे ऊलटुं बोले त्यारे ए क्रूरता कहेवाय. एने जो दया होय तो एवुं बोले नहि. वळी आपे व्रजमां कुशळ छे एम अमने कह्युं ए अमने पूछवुं न घटे, केमके अमे सर्व विषयोने छोडी आपना चरणमां आव्यां छीए तेथी ‘‘त्यक्तार्थ परिग्रह’’ (छोडी दीधेली वस्तुनो स्वीकार) अयोग्य गणाय. अमे जारबुद्धिथी आपनी पासे आव्यां नथी, पण अगियार इन्द्रियोना विषयने छोडीने आव्यां छीए; एनी वासनाने पण छोडी छे. एम न करीए तो आपना चरणमां आवी ज न शकाय. वळी आपे आववानुं कारण कहो एम कह्युं ए बाबतमां कहेवानुं के अमोने आप भजो. बीजी वात कहो ए नहि, एम कहो तो ते आपनो आग्रह खोटो छे, केमके प्रभुनुं भजन न करवुं अने बीजुं बधुं करवुं एवो जीवनो आग्रह खोटो छे तेवो अमने न भजवानो आपने आग्रह छे. ‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते’’ ए न्याय तो अमने आप लागु करता नथी. ए न्याय स्वीकारो तो अमारो त्याग करवानो नथी, केमके अमे आपने छोडवाने खुशी नथी. वळी अमारुं भजन विषय जेवुं नथी तेनुं स्वरूप अमे विशेष स्पष्ट करी शक्तां नथी, पण जेम आदिदेव भगवान् मुमुक्षुने भजे छे तेम आप अमने भजो. पूर्वोत्तरकाण्डमां भजन सार्थक छे. एमां पण देव भजन व्यभिचारजनक कहेवातुं नथी. पुरुषान्तरना भजनमां पण विवाहिता पति अभजनीय थतो नथी. ए व्यभिचार दोषथी अनगिङ्कार तो करे तेनाथी पण अभजन तो न थई शके. लौकिक पति जेम इतर भजन छोडावी स्वभजनमां जोडी दे छे तेम आपे करवुं जोईए. तेथी आप अमोने घेर पाछां मोकलो ए आपने उचित न गणाय. आदिदेव मुमुक्षुने आत्मीयताथी स्वीकारे छे. एने आत्मरूपे स्फुरे छे. एने आनन्द आपे छे अने पोताना स्वरूपमां एने राखवामाटे स्वरूप प्रकट करे छे. तेथी मुमुक्षुने देव पोते भजे छे एम कह्युंःनहि तो मुमुक्षु भगवान्ने जे भजे छे एम कहेवुं जोईए. एनुं फलद्वारा भजन छे तेथी जीवने पूर्वावस्थामां मूक्ता नथी पण स्वरूपमां ज राखे छे तेम आप अमने आपनी पासे राखो,दशमस्कन्ध २४६ घेर न मोकलो. ए कहेवानुं तात्पर्य छे. हे अङ्ग! आप धर्मज्ञ छो. आपे पति, प्रजा अने सुहृदो नी सेवा करवी ए स्त्रीओनो स्वधर्म छे एम कह्युं छे* ए बराबर छे, पण मनुष्य मात्रना अतिप्रिय तो आप छो, एटलुं ज नहि, पण सर्वना आत्मा पण आप छो; तो पछी आपनो पूर्वोपदेश अमे केवी रीते स्वीकारीए? माटे एतो आपज अमारा प्रेष्ठ, बन्धु अने आत्मा होवाथी अमारो आपने विशेज ए भाव छे तेने आपे स्वीकारवो जोईए ॥३२॥
विशेष - आपे एम कह्युं के स्त्रीओना पति वगेरेनी सेवा करवी ए स्वधर्म छे. ते छोडवामां एनुं अनिष्ट छे. वळी आ घोर रात्रिमां अर्ही आववुं ए ठीक नथी. एना उत्तरमां कहेवानुं के आपे तो पति, पिता, पुत्रनी सेवा करवी ए स्त्री धर्म छे एम कह्युं, परन्तु धर्मशास्त्र देहने उद्देशीने रचायुं छे, जीवनो विचार एणे कर्यो नथी तेथी एणे आत्मधर्म के भगवद् धर्मनो विचार कर्यो नथी; तेम आपे पण धर्मशास्त्रनो विचार करी कह्युं, पण अमारो विचार आपे कर्यो नथी. तेथी आपे कहेलां वचनने अमो दूषण आपतां नथी, पण एनो विचार करीए छीए. अमारो विचार पण स्त्रीओए स्वधर्ममां रहेवुं ए वात स्वीकारे छे. पण ते पति वगेरे धर्मना स्वरूप नथी तेम एना आधार नथी, पण ए धर्ममां निमित्त छे. ए धर्म बे प्रकारनो छेःएक तो अनुष्ठीयमाणमां पुत्रादि निमित्त छे, प्रमीयमाणमां गुरु निमित्त छे; तेथी एवो उपदेश आपनार गुरुनी प्रथम तो सेवा करवी जोईए, नहि तो ए धर्म हृदयमां आवीने स्थिर न थाय अने हृदयमां न आवे तो ए धर्मनुं ज्ञान ज न थाय, अनुष्ठान तो दूर ज रही जाय. वळी भगवान्नुं वाक्य अनुवादक नथी. जो ए पहेलां अमे एवो धर्म जाण्यो होत तो ए प्रमाणे करत. गुरुनी सेवा कर्या वगर एमणे कहेल धर्म हृदयमां आवे नहि. जो उपदेशमात्रथी हृदयमां धर्म दाखल थाय तो आपे घेर जवानुं कह्युं त्यारे ज अमे घेर पहोञ्च्या होत. तेथी आपे उपदेश कर्यो छे ते धर्म सिद्ध थवा माटे पण प्रथम आपनी सेवा करवी योग्य छे. उपदेशनुं स्थान तो एनो कर्ता होय छे. वळी धर्मो केटलाक उत्कृष्ट छे, केटलाक समान छे, केटलाक हीन छे. एमां जेम पति वगेरे स्वसमाननी सेवा करवानी छे तेम जन्म आपनार ईश्वरनी सेवा पण कर्तव्य छे, नहि तो नियामक होवाथी एनी प्रेरणा वगर कोई धर्मनी स्फूर्ति न थई शके. प्रकृतमां आप ज अन्तर्यामी अने ईश्वर छो ते आप अमने अन्तःकरणथी स्वसेवामां प्रेरो छो अने वचनथी गृहगमन कहो छो, वळी धर्मनुं मूळ धर्मी छे ते धर्मीनो विरोध न थाय तेम धर्म कर्तव्य छे. एम न होय तो पुरुषने अनिष्टमां प्रवर्तावनार अनाप्तदशमस्कन्ध २४७ थाय, माटे धर्मशास्त्रमां शरीर प्रिय होवाथी शरीरनो अनुरोध कर्यो छे. तो कोईने शरीर प्रिय छे, कोईने आत्मा प्रिय छे, कोईने परमात्मा प्रिय छे, कोईने देहनिर्वाहक प्रिय छे. आप तो सर्वना आत्मा, प्रिय अने निर्वाहक छो, तो केवळ अमारा ज नहि पण प्राणीमात्रना निर्वाहक, आत्मा, बन्धु अने प्रिय होवाथी आप ज अमारा सेव्य छो. स्वार्थमां कुशल एवा मुमुक्षु लोको नित्य प्रिय अने आत्मारूप आपने विशे ज पोतानी प्रीतिने जोडे छे. दुःखने आपनार पति पुत्र वगेरेनी सेवाथी शुं फळ मळी शके वारुं? माटे हे वरदान देनाराओना ईश्वर! अमारी आशाने आप न छेदो. *हे अरविन्दनेत्र! अमे आपनी आशा घणा काळथी राखी छे तो आप प्रसन्न थाओ अने अमारी आशाने सफळ करो ॥३३॥
विशेष - तमारां माता, पिता, पुत्र वगेरे तमारी वाट जोतां हशे एम आपे कह्युं, वळी
बन्धुओने भय थाय एवुं न करो एम कह्युं ए अमे ज एवुं कर्युं छे के बीजा कोईए पण एवुं
कर्युं छे? एमां पण अधम होय ते अनुवृत्ति करे छे के उत्तम पण करे छे? उत्तम पण
आपनी सेवामां अशक्त होय ते करे छे के सेवामां शक्तिवाळा होय ते करे छे? ए बधो विचार
अर्ही करवो जोईए, आ बाबतमां मोटाओनुं चरित्र निर्णायक होवाथी ए ज वात कहे छे के
आत्मानुं हित करनार डाह्या पुरुषो तो आपना स्वरूपमां प्रीति करे छे, केमके एने देहेन्द्रियनुं
हित करवानुं नथी. स्नेह होय तो त्यां क्रिया थाय छे, भगवान्मां ज जे उपचार आपणे
करीए ते आत्मगामी थाय छे. ‘‘तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः’’ (श्रीभागवत
७.९.११) मां ए वात स्पष्ट कही छे. प्रीतिथी सेवा थाय छे. पुत्र आदिनी सेवा जो धर्मरूप
होय तो ए सेवा पुरुषार्थरूप गणाय अने आत्मगामी थवी जोईए, पण एम थतुं नथी तेथी
एने छोडी भगवान्ने भजे छे तेने कुशळ कह्या छे. एनी कुशळता एटली ज के प्रवृत्ति करतां
ए निवृत्तिमां निष्ठावाळा छे. इन्द्रियो आत्मगामी थाय एमां पण जो ए भगवद् अर्थ
उपयुक्त थाय तो ज तेथी केवळ निग्रह कर्या करतां भगवत् सेवामां एने जोडवामां आवे तो ए
जलदी आत्मगामी थाय छे. एम करनार लोकोने आ श्लोकमां कुशळ कह्या छे. वळी त्वयि
(आपमां) ए शब्दथी भगवद् वाचक एक वचन छे तेमां पति, पुत्र आदि सर्वभाव आवी जाय
छे, ए प्रथम श्लोकमां ‘‘प्रेष्ठो भवान्’’ इत्यादि वाक्यथी कहेवाई गयुं छे. आप स्वात्मा
एटले स्वरूपभूत छो, पण देहमां अध्यासने लईने एम नथी. वळी प्रियनी सेवा करवी
जोईए. ए पण नित्य प्रिय होवो जोईए, एवा प्रिय तो आप ज छो. एम नित्य प्रियनी
सेवा न मानीए तो जारनी सेवा पण धर्मरूप थई जशे, जेम जन्म परिच्छेदक छे तेम दिवसदशमस्कन्ध २४८
पण परिच्छेदक छे. वळी पति, पुत्र आदि धर्मना हेतु नथी पण ए तो दुःख आपनार छे.
धर्मना हेतु होय ते दुःख आपनार न होय. जो एम ज होय तो संसार न थवो जोईए तेथी
पति, पुत्र आदिने भय थाय के एमनुं गमे तेम थाओ एमां अमारे विचार करवा जेवुं कांई
नथी. पण एक अमारी मागणी छे जेना वगर शास्त्र अने युक्ति ए बधुं वृथा थई जाय
एम छे. ए प्रार्थना एटली ज छे के आप प्रसन्न थाओ. आपनी अकृपाथी ज लोको भ्रान्त
थईने दुःखना हेतुमां प्रवृत्त थाय छे. आप कहो के तमोने हुं प्रसन्न थाउं एवुं साधन तमे शुं
कर्युं छे; एवी शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के आप वरदान आपनारामां सौथी मोटा छो. वरदान
आपनार कोईना साधननो विचार करता नथी, ए तो लोकोना क्लेशने जोईने दया करे छे. अमे
पण क्लेशवाळां छीए, तो आप कृपा करो. तपनी पेठे क्लेश पण आपने दया करवानुं साधन
छे तेथी आप अमारी आशा छोडावशो तो प्राण बचशे नहि तेथी स्त्रीना हृदयने जाणनारे
कह्युं छे के ‘‘आशाबन्धो हृदयं रुणद्धि’’ आप तो दृष्टिवडे पोषक छो, माटे
‘अरविन्दनेत्र’ एवुं सम्बोधन आप्युं छे.
आनन्दरूप आपे अमारुं चित्त सहजमां चोरी लीधुं छे तेथी अमारां चित्त तथा
हाथ पण घरना काममां चालतां नथी. आपना चरण पासेथी अमारा पग बीजे
क्यांय चालवाने *असमर्थ छे, माटे अमे व्रजमां केम जईए अने त्यां जईने अमे
शुं करी शकीए ए आप कहो ॥३४॥
विशेष - वन जोवाने आव्यां हतां ते तमे जोयुं, हवे घेर जाओ, एम आपे कह्युं ए सम्बन्धमां कहेवानुं के वन जोवानुं तो त्यारे बने के ज्यारे चित्त स्थिर होय. ए चित्तने तो आपे लई लीधुं छे, केमके आप आनन्दरूप छो. ज्यारे साक्षात् परमानन्द मळतो होय तो परम्पराथी पाक्षिक साधनने कोण ग्रहण करे? तेथी चित्त आपनामां पहोञ्च्युं एटले वनमां जवानुं तो रह्युं, पण घरमां पण चित्त जतुं नथी. एनाथी ज्ञानशक्ति पण आपे लई लीधी छे एम कहेवामां आव्युं. वळी आपे एम न जाणवुं के कांई बीजा काममाटे अमे वनमां आव्यां हतां. काममाटे तो क्रियाशक्ति सारी होय तो अवाय, पण अमारी तो क्रियाशक्ति नष्ट थई छे. ए ज कहे छे के अमारा हाथ घरकाम करवाने लायक नथी रह्या. घरमां जे काम न करी शके तेनाथी वननुं काम तो न ज बने एमां कहेवुं शुं? आपनी कामनाथी अमारुं बळ नष्ट थयुं छे ते आपना सम्बन्धथी ज बळ प्राप्त थाय, नहि तो मृतप्राय रहे. तेथी घेर जईने सेवा करवी ते पण हाथना अभावमां बने एम नथी. वळी तमे व्रजमां जाओ एम आपे कह्युं पण आपना चरणथी एक पगलुं पण छेटे अमारा पग जई शके एवी स्थितिमां नथी. ए पगदशमस्कन्ध २४९ पोताने गति आपनार आपना चरणने पहोञ्च्यां, हवे एने गन्तव्य रह्युं नहि तेथी एनी गति छूटी गई. मूळमां पहोञ्चे तेनी गति रोकाई जाय, एम न होय तो वृक्षने पण गति थवी जोईए. जे आप गाडां वगेरेमां बेसाडी त्यां मोकलो तो पण त्यां जईने कर्तव्य ते तो बने नहि तेथी जवुं व्यर्थ छे. आशाभङ्ग थतां शरीर शोषण थई जाय, एटले बाळकोने पोषण कराववाने पण लायक न रहीए तेथी स्तनपान कराववुं पण अशक्य छे. हे अङ्ग! आपना अधरामृतना मोटा प्रवाहवडे अमारा कामाग्निनुं आप *शमन करो, केमके आपे अव्यक्त मधुर वेणुनाद करीने अमारो काम उद्बुद्ध कर्यो छे ते आपनाथी शमित थशे. जो आप एम नहि करो तो अमे विरहाग्निमां देहने भस्म करीने ध्यानवडे आपना मार्गने अनुसरीशुं, केमके आप सखा छो. तेथी आपनो मार्ग ते ज अमारे आववानो मार्ग थशे ॥३५॥
विशेष - हे अङ्ग! आपनुं अधरामृत प्रवाहरूपे आप वहावी अमारा हृदयमां आपे जे काम उत्पन्न कर्यो छे अने जे अमने भस्म करी रह्यो छे ते शान्त करो. आपे हास कर्युं, भाववाळी दृष्टि करी अने अव्यक्त मधुर शब्दवडे ए काम आपे ज उत्पन्न कर्यो; एमां हास कामजनक छे, अवलोकन एने मदद करनार छे, अव्यक्त मधुरगीत वायुनुं काम करे छे तेथी ए वधे छे, ए कामाग्नि हृदयमां प्रकट्यो छे. त्यां तो फक्त अमृत पहोञ्ची शके. एमां पण एनां पूर होय तो ज एनी शान्ति थाय, थोडा अमृतनी कांई असर न थाय. अलौकिक अग्नि अलौकिक उपायथी शान्त थाय. कन्दर्प मरे तो बाळे छे. ए जीवतो होय तो अग्निरूप थतो नथी. अमृत मळे तो ज ए जीवतो थाय. ए पण देवभोग्य सुधाथी जीवतो न थाय. एम थतो होत तो ए घणा दिवस पहेलां जीवतो थयो होत. ए काम सृष्टिना कारणरूप छे माटे एनो मोक्ष तो सम्भवतो नथी तेथी गुप्त एवा अधरामृतथी एनुं जीवन शक्य छे. तेथी सिञ्चन करवानुं कह्युं छे, नहि तो ओळववानुं कहेत. कामने जीवाडशो तो अमे जीवीशुं, नहि तो पोते बळीशु अने बीजाने पण बाळीशुं. जो आप जीवाडशो नहि तो अमे विरहाग्निमां देहने बाळीने आपना ध्यानवडे आपना मार्ग ने पहोञ्ची जईशुं, केमके आप जीवना सखा छो तेथी आपने मार्गे चालीने आपने अमे प्राप्त थईशुं. हे कमलनयन! आप वनमां रहेनारा मनुष्यो उपर स्नेह राखो छो. आपना चरणतलनी सेवा लक्ष्मीजीने कोई वखत ज मळे छे. ए चरणने अमे ज्यारथी अडक्यां छीए, ज्यारथी आपे अमने रमाड्यां छे त्यारथी अमे बीजानी पासे ऊभां *रहेवाने पण समर्थ नथी ॥३६॥दशमस्कन्ध २५०
विशेष - हे अम्बुजाक्ष! आप दृष्टिवडे ज भक्तना तापने निवृत्त करनार छो. जे वखते आपना चरणना पृथ्वी उपर पडेला प्रतिफलने अमे प्राप्त कर्या त्यारथी अमे बाजानी पासे ऊभा रहेवाने समर्थ थतां नथी. आपनो साक्षात् चरण सम्बन्ध तो दुर्लभ छे. जे रजमां चरण ऊपडी आव्यो देखाय ते पादतळ कहेवाय. रमा (लक्ष्मी) पण चरणवडे जीवन करे छे ए नागपत्नीओए कह्युं छे. ‘‘तवाघ्रिंरेणुस्पर्शाधिकारः यद्वाञ्छया श्रीः’’ तेथी रमाने पण ए चरणनो अधिकार छे. एने सुख आपनार भगवद् चरण ज छे. अमने तो भूमिमां पडेला पगलानो स्पर्श ज थयो छे, पण लक्ष्मीनी जेम अमने अमारा हृदयमां ए चरणनो स्पर्श थयो नथी. अमे तो विचार कर्यो के लक्ष्मीने ए चरण हृदयगामी थयुं तो अमने पण थशे. ए चरणने लक्ष्मीए चाञ्चल्य छोडी तप करवाथी मेळव्युं तेम अमे पण चाञ्चल्य छोडी ए चरणनो आश्रय कर्यो. वळी एने अरण्यजनो प्रिय छे ए उपरथी अमे बधानो सङ्ग पण छोडी दीधो. सङ्गनो अभाव ज भगवान्ने प्रसन्न करवानुं साधन छे. अरण्य पोते सात्विक छे, विष्णुना सम्बन्धवाळुं छे तेथी अमे ए चरणनो लाभ थवा माटे सर्व सङ्ग छोडीने तत्पर थयां छीए. बीजा पासे ऊभां रहेवाने समर्थ नथी एनुं कारण तो एटलुं ज के आपना धर्मनो प्रवेश अमारामां थयो तेथी बीजा पासे ऊभां रहेवाने अमारामां शक्ति न रही. आपनो धर्म जेनामां होय एनी पासे अमे जई शकीए, पण आपनाथी जुदा होय तेनी पासे अमे जई न शकीए. जे जेनो घातक होय ते तेनी सामे ऊभो रही शके नहि; जेम देहाभिमानी वाघनी पासे ऊभो न रहे तेम भगवदीय अभगवदीयनी पासे ऊभो रही शके नहि. जो ऊभो रहे तो, वाघ जेम देहने खाई जाय तेम, अभगवदीय भगवद् भावनो नाश करी दे. ज्यां आवो सूक्ष्म विचार छे त्यां एनां स्थानमां जवुं अने एनां काम करवां ए वात तो केम ज बनी शके? तेथी प्राणीमात्रनी स्तुति करवी ते तो अल्प गणाय. अमे तो लक्ष्मीनी जेम अनन्यभाववाळां छीए तेथी जेम लक्ष्मी साथे आपे सर्व प्रकारे रमण कर्युं तेम अमने पण आप स्वप्न आदि द्वारा सुख आपो छो. नहि तो जीवन टकी न शके. तेथी ज अमारुं एवुं कथन छे के अमे भुक्तपूर्वा छीए तेथी हवे आपे अमने व्रजमां न मोकलवां जोईए. लक्ष्मी अमारी तरफ जुए एवी इच्छाथी बीजा देवो तपश्चर्या करे छे ते लक्ष्मीने आपे *वक्षःस्थळमां स्थान आप्युं छे तो पण तुलसीना स्थानरूप आपना चरणमां ते सापत्न्यभावने स्वीकारीने पण रहेवाने खुशी छे तेम अमे पण आपना चरणनी रजने शरणे थया छीए, ए रज अमने पण प्राप्त थई छे तेथी अन्यनेदशमस्कन्ध २५१ लायक नथी रह्याम् ॥३७॥
विशेष - लक्ष्मी कांई दैवगतिथी आपने प्राप्त नथी, पण आपने प्राप्त करवामाटे एणे महान तप कर्युं. ए आपनी स्त्री ज नथी, पण आपनी भक्त पण छे. एम न होय तो वक्षःस्थळमां स्वतन्त्र स्थान मळ्युं छे तेने छोडीने तुलसीनी साथे सोक्यपणुं स्वीकारीने चरणरजनी कामना न करे. चरणरज उपर तुलसीनो अधिकार छे, ए प्रथमस्कन्धमां कहेवामां आव्युं छे. ए रजनुं माहात्म्य शुं छे ए कहे छेःए चरण रजमान्थी भक्तना देह बन्धाय छे. बधा भक्तोना देह भगवच्चरणरजथी थयेल होय छे. ए चरणमां तुलसी भक्तिरूपे रही छे. ए रजनी प्राप्ति जेने थाय ते आपना सेवक थाय छे. तेथी लक्ष्मीने अन्तःकरणमां स्थान मळ्युं छे छतां ए चरणमां रहेवाने एटलामाटे खुशी छे के चरणमां कोई अन्यनो सम्बन्ध न थाय. वक्षःस्थळमां रहेवाथी भगवान् कोईने भेटे तो एनो सम्पर्क थवानो भय रहे. एवो लक्ष्मीने शा माटे भय रहे छे? त्यां कहे छे के ए लक्ष्मीने प्राप्त करवाने माटे ब्रह्मादिक बीजा बधा देवो पण तपश्चर्या करे छे के लक्ष्मी अमारी तरफ दृष्टि करे. जो लक्ष्मी दृष्टि न करे तो ब्रह्मादिनो कोई पुरुषार्थ सिद्ध न थाय. तेथी बहु लोको एनी कामना करनार होवाथी लक्ष्मीने भय उत्पन्न थयो के कोई अति उग्र तप करे तो कोण जाणे शुं करे! माटे प्रभुना चरणनुं शरण करवुं के पछी एनी तरफ जोई न शके. ए लक्ष्मीनी जेम अमे पण आपना चरणमां आव्या छीए, केमके अमने पण बहु लोको प्रार्थना करनार हता. एमना भयथी अमे आपना चरणमां आव्यां त्यारे बधी बला छूटी छे. अमारा देह पण आपना चरणनी रजना बनेला छे. मूळमां चकार छे तेथी महिष्यादिना देहो पण चरणरजना छे एम समजवुं; तेथी आप आ व्रजमां अमारेमाटे पधार्या छो तेथी आपना स्वरूपने छुपावशो ए काम नहि आवे, केमके आप गुप्त रही शकशो ज नहि तेथी अमने विशेष आग्रह न करावो पण जेने माटे पधार्या छो ते कार्यने प्रसिद्ध थईने करो. तेथी, हे पापनो नाश करनार प्रभो! आप अमारा उपर प्रसन्न थाओ. आपनी सेवा करवानी आशाथी गृहस्थाश्रमनो त्याग करीने अमे आपना चरणमूलने प्राप्त थयां छीए. हे पुरुषभूषण! आपना सुन्दर मन्दहास्ययुक्त नेत्रना कटाक्षथी उत्पन्न थयेल तीव्र कामथी अमारां अन्तःकरण तपी गयां छे माटे आप अमने दास्यनुं दान करो* ॥३८॥
विशेष - आ श्लोकनी पहेलान्ना श्लोकमां भगवाने लौकिक पतिनी सेवा करवानुं कह्युं हतुं एनो उत्तर अपाई गयो. आ श्लोकथी पण एने मळती ज प्रार्थना करे छे. जो आपनी कृपा न होयदशमस्कन्ध २५२ तो ज लौकिक पतिनो सम्बन्ध थाय. तेथी कृपा बीजा बधाथी वधारे शक्तिशाळी होवाथी प्रार्थना करे छे के आप प्रसन्न थाओ. आपनो प्रसाद थतां सर्व मनोरथ सिद्ध थशे. त्यां शङ्का करे छे के तमारुं अदृष्ट खराब के तमे अन्यत्र पडी गयां! एना उत्तरमां कहे छे के महाराज, आप दुःख आपनार पापने तो दूर करनार छो तेथी आप कृपा करो तो खराब नसीब तो क्यांय चाल्युं जाय. वळी अमे तो आपने शरणे थयां एटले आप अमारी उपर कृपा करवाने पण योग्य छो. ए कृपा पशुपुत्रादि आपीने न करशो, केमके अमे तो घरबार छोडीने आपनी सेवा करवानी इच्छाथी आव्यां छीए. तो आपना सुन्दर स्मितपूर्वक निरीक्षणथी उत्पन्न थयेल तीव्र तापने लईने अमारो आत्मा तपी रह्यो छे तेने अनन्तकोटि कन्दर्प लावण्यरूप! आप स्वतः पुरुषार्थरूप दास्य अमने आपो. तेथी अमे दास्य मागनार छीए, विवाह करवानी इच्छाथी आव्यां नथी तेथी जनोईनी पण कांई जरूर नथी. केशनी लटोथी ढङ्कायेलुं, कुण्डलोथी शोभतुं, जेमां गण्डस्थलने विषे रस अने अधरमां सुधा छे अने हास्यसहित अवलोकनवाळुं आपनुं जे श्रीमुख, अभयनुं दान करनारा आपना बन्ने भुजदण्ड तथा लक्ष्मीजी ने मुख्य रमण करवा योग्य आपना वक्षःस्थलने जोईने अमे आपनी *दासीओ ज थयां छीए ॥३९॥
विशेष - आपे आज्ञा करी हती के ‘‘लोकेप्सायां पतिर्न त्यक्तव्यः’’ एनो उत्तर आप्यो; हवे लोकमां त्रण पुरुषार्थमां प्रथम तो चार प्रकारनो मोक्ष, इन्द्रादि ऐश्वर्य भावथी स्वर्गप्राप्ति अने आ लोकमां परम लक्ष्मी, त्रणे पुरुषार्थ दास्यनी पासे तुच्छ छे, केमके आपनुं श्रीमुख नीरखतां ते-ते कामनाओ निवृत्त थाय छे. तेथी भक्तिरूप मुखारविन्दनी ए त्रण पुरुषार्थ करतां श्रेष्ठता छे. ए बतावे छेःजो श्रीमुख जोवापणुं रहे तो पछी सारूप्य शुं कामनुं? तेथी सारूप्यनी निरर्थक्ता जाणी लेवी. बे कुण्डळवडे श्रीमुखनी शोभा छे. अथवा आपनाथी शोभा पामतां ए कुण्डळो सामीप्यने प्राप्त थयां, ए कुण्डळो पण साङ्ख्य अने योगरूप छे. भगवत्प्रमाणने अवलम्बीने रह्यां छे, भगवान्ने अधीन एनी गति छे. वळी भगवन्मुख निरीक्षण करनार छे तो पछी सामीप्य मुक्ति शा कामनी? तेथी ए पण श्रीमुख पासे नकामी छे. वळी श्रीमुखमां कपोल स्थळरूप छे जे स्थळमां रहीने अधरसुधानुं पान थाय छे. एना करतां पण गण्डस्थळमां स्थिति उत्तम छे, केमके चुम्बनादि तेनी उपर थई शके छे. अधररस अक्षररसथी उत्तम छे. कुण्डळथी श्रीयुक्त छे गण्डस्थळ जेमां एवो अर्थ करीए त्यारे सामीप्य करतां भक्तिमां शास्त्रीय रस विशेष छे. ‘‘परस्परत्वद्गुणवादरूप’’ अक्षरथी अधरमां अधिक्ता तो स्पष्ट छे. वळी हास्यपूर्वक अवलोकन आप करो छो. ब्रह्मानन्दमां प्रविष्ट थायदशमस्कन्ध २५३ तेने भक्तिनो विलास प्राप्त न थाय. हास्य सर्व रसनो उद्बोधक अने ज्ञान पण प्रकट छे; अक्षरमां तो बन्ने अव्यक्त छे. जलमां डूबेलाने जलपान थाय तेवुं ए छे. अनुभवरस तो जुदाई होय तो ज सम्भवे छे. तेथी भक्तिरूप मुख देखाय एवुं दास्य ज श्रेष्ठ छे. मोक्ष उपयुक्त नथी. आपनी बन्ने भुजाने जोईने इन्द्रादिभावनी इच्छा थती नथी. स्वर्गमां इन्द्र परमकाष्ठापन्न छे, पण ए इन्द्रादि हम्मेश दैत्यना भयथी मुक्त होता नथी. एने पण अभय आपनार आपनी भुजा छे. ए जो आपनी पासे छे तो पछी आपनी पासे रहेवुं ज ठीक छे. इन्द्रादिभाव भययुक्त होईने स्वीकारवा योग्य नथी. आपनी भुजामां क्रियाशक्ति छे ते केवळ अभय आपीने बेसी रहेती नथी, पण यज्ञादि क्रियावडे देवोने हविष पण पूरुं पाडे छे. इन्द्र पोतानो अधिकार पूरो करे तेने मुक्ति आपवी ए पण श्रीभगवान् ज आपी शके. भुजने दण्ड कह्या छे तेथी बन्ने रीते आज्ञा न उठावे तो दण्ड पण ए आपे, एम पण सूचना करी छे. हे अङ्ग! आ त्रिलोकीमां कई स्त्री एवी दृढ मननी छे के जे आपना अव्यक्त मधुर पदामृतवाळा वेणुनादने साम्भळी मोहित थईने आर्यचरितथी चळी न जाय? आपना त्रण लोकना सौभाग्यरूप स्वरूपनुं दर्शन करीने गायो, वृषभो, पक्षीओ, वृक्षो अने मृगो पण *रोमाचिन्त थई गयाम् ॥४०॥
विशेष - हवे आप एम कहो के स्त्रीए लोकविद्विष्ट न करवुं जोईए तेथी सन्मार्गनी रक्षाने माटे बीजुं कांई न करतां भगवान्नुं श्रवण दर्शन वगेरे करवुं! तो एना उत्तरमां कहेवानुं के आपे ए धर्मो पुरुषोने कहेवा जोईए, स्त्रीओने एवो उपदेश न करवो जोईए, केमके एमनाथी ए प्रमाणे बनवुं अशक्य छे. जे सम्भवे नहि तेनो उपदेश आपवो वृथा छे, कारण के धर्म स्थापनार्थ आवेल आपनुं रूप ज धर्मनो नाश करनार छे. कारण के आप अद्भुत-कर्मा छो जेनाथी धर्म स्थापवो जोईए तेनावडे ज धर्मनो नाश करो छो. जे लोकमां स्त्री शब्दथी बोलाय छे ते पण त्रण लोकमां जेटली स्त्रीओ छे ते तो मर्यादामार्गथी चलित थया वगर न ज रहे एनुं कारण ए ज के आप अव्यक्त मधुर पद जेमान्थी नीकळे छे तेवा वेणुनो नाद करो छो. तेनाथी मोहमां पडी आर्यचरितथी च्युत थई जाय छे. गीत देहमां मोह करे छे. ‘‘गायन्तं स्त्रियः कामयन्ते’’ एम श्रुति पण कहे छे. स्त्री ए देहनी सञ्ज्ञा छे. इन्द्रियोने मोह करनार वेणु छे ते रसात्मा छे. एमान्थी नीकळतुं अमृत प्राणने मोह करनार छे, पदो नीकळे छे ते अन्तःकरणने मोह करे छे. अव्यक्तता जीवने मोह करे छे तेथी ‘‘सम्मोहिता’’ शब्द लख्यो छे. प्रमाण बळनो विवेक राखनार ‘आर्य’ कहेवाय छे. एने तो देह व्यतिरिक्त स्वरूपथी आवे तो प्रमाणमां स्वरूप मुख्य नहि पण देह मुख्य छे. तेथी इन्द्र उपेन्द्रमां पणदशमस्कन्ध २५४ भेद स्वीकार्यो छे. अर्ही वस्तुविचार प्रमेयबळथी करे छे, नहि तो विधि-निषेध व्यर्थ थई जाय. ए वात एकादश स्कन्धमां कहेवामां आवशे. मार्गान्तरविरोध मार्गान्तरमां उपयोगी नथी तेथी अर्ही मर्यादाभङ्ग दूषण न गणाय, ए वात अध्याय ३३ मां श्रीशुकदेवजी पोते ज परीक्षित राजानी शङ्कानो उत्तर आपतां कहेशे. आप केवळ नामथी मर्यादानो भङ्ग नथी करता, पण स्वरूपथी पण मर्यादाभङ्ग करो छो. त्रण लोकमां पण सुभगता जे स्वरूपथी प्राप्त थाय छे तेवुं तो आपनुं स्वरूप छे. जेम सूर्यथी दिवस शोभे छे, रात्रि चन्द्रथी शोभे छे तेम भगवान्थी त्रण लोक शोभा आपे छे. ए पण प्रत्यक्ष सिद्ध छे. एना अनुभवो पण प्रत्यक्ष छे. ए बधाने जोवाथी अने आपनां अमृतस्रावी वाक्योने साम्भळीने कोण चलित न थाय वारुं? आ तो प्रमाणनी वातनी दुर्बलता कही, पण आप तो प्रमेय मर्यादाने पण हटावी दो छो. गायो प्रमाणवार्ताने जाणती नथी. पशुओ तो मातृगमन पण करे छे, पक्षीओ सर्वभक्षक होय छे, वृक्षो स्थावर छे तेने बहिःसंवेदन होतुं नथी, मृगो सर्वतः भय पामनार छे, ए पण आपना वेणुगीतथी मोह पामी रसाश्लेष करी पुलक धारण करे छे. रसिक मनुष्यना धर्मने ए स्वीकारे छे. जेनेमाटे भगवाने एने पेदा नथी कर्या छतां ए केवुं कार्य करे छे, तो स्त्रीओ तो स्वभाविक कामभाववाळी छे ते आपना शब्द साम्भळवाथी तेम ज रूपनां दर्शनथी मर्यादा छोडे एमां आश्चर्य जेवुं कांई न गणाय, केमके आपे एने तो ए कार्यमाटे ज जगतमां उत्पन्न करी छे. जेम देवलोकना रक्षक आदिदेव भगवान् प्रकट थाय छे तेम आप व्रजनां भय तथा आर्ति ने हरवामाटे प्रकट थया छो. हे आर्तबन्धो! आपनी दासीओनां तप्त स्तन अने मस्तक उपर आपना करकमळने धरो अने ए तापने आप दूर करो* ॥४१॥
विशेष - एम भगवाने कहेलां वाक्योनो उत्तर आपतां पुष्टिसिद्धान्त गोपीजनोए बताव्यो ए बधुं आपनी कृपाथी सिद्ध थाय एम बतावतां कृपानी प्रार्थना करे छेःआपे कह्युं अने अमे एनी विरुद्ध कह्युं ए कांई विचारवानी जरूर नथी, पण आपनुं अर्ही पधारवुं शा माटे थयुं छे एनो विचार करी आपे अमारी उपर कृपा करवी जोईए, केमके आप व्रजनां आर्ति अने भय बन्नेने दूर करवाने पधार्या छो, नहि तो साक्षात् पधारवानुं बीजुं प्रयोजन होय एवुं अमे जोतां नथी. पृथ्वीनो भार सङ्कर्षण व्यूहथी निवृत्त थाय. वसुदेवादिनुं प्रिय प्रद्युम्न व्यूहथी थई शके. धर्मनी रक्षा अनिरुद्ध करी शके. तो आप व्रजनो भय अने त्यान्नी आर्तिने दूर न करो तो आप ते सिवायनुं शुं कार्य करवा पधार्या छो ए बतावो. तेथी आप अमारा आधिने मटाडवादशमस्कन्ध २५५ पधार्या छो. अमने आ वखते आधि पण एवो ज छे के क्षणवार उपेक्षा करो तो प्राण न रहे अने अमारा प्राण न रहे तो सर्व व्रज मोटा सङ्कटमां आवी पडे. आप मर्यादाथी ज एम करवा इच्छता हो, मर्यादा छोडवाने ना कहो, तो कहे छे के भगवान्, आप सर्वने समान छो छतां इन्द्र आदिने बचाववामाटे दैत्योने मारी विषमता पण करो छो तेम आप पण धर्ममर्यादा रक्षक छो. तेथी अमारो सम्बन्ध करो एवी प्रार्थना कोई मिषथी करे छे के प्रथम तो अमारां मस्तक उपर आप श्रीहस्त स्थापन करो. जेनावडे अमने अभयदान मळे अने हृदयनो ताप मटाडवामाटे स्तन उपर श्रीहस्तकमळ अमृत स्रवनार छे तेने स्थापन करो, जेनावडे हृदयनो ताप शमी जाय. आ अमारुं कथन अयोग्य नथी, केमके अमे तो आपनी दासीओ छीए. श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे *गोपीओनी काकलूदीवाळी वाणी साम्भळी योगेश्वरोना ईश्वर आत्मारामे पण हसीने गोपीओ उपर दया करी तेमने रमण कराव्युम् ॥४२॥
विशेष - भगवान् षडैश्वर्ययुक्त होवाथी छ प्रकारे हरिनी लीला कहेवामां आवे छे. शृङ्गार स्वरूपथी संयोग अने विप्रयोग एवा भेदथी बे प्रकारनो छे. एना अर्ही बन्ने भेद कहेवामां आवे छे. प्रथम सामान्य रमण छे. विशेष रमणमां कामादि मिश्रित लीला कहेवामां आवशे. प्रथम बाह्य रमण कहेशे, पछी आन्तर रमण कहेवाशे, पछी नानाविलासमां जातस्मरकेली, अजातस्मरकेली वगेरेनी साथे क्रीडा करशे. पछी विप्रयोगरसने आपवाना विचारथी भगवान् ए गोपीओने मान उत्पन्न करावे छे. ज्यारे एमनुं भगवान् मान जोशे त्यारे भगवान् स्वस्वरूपनुं तिरोधान करशे, केमके भगवान् लौकिक नायक नथी के जे प्रणिपात करी मान छोडावे. भगवान् तो अलौकिक नायक छे ते एना हृदयमां रही ए हृदयने स्वरूपमां प्रेरीने मानमोचनमां समर्थ छे तेथी अन्तःप्रविष्ट थया त्यारे बहारथी देखाता बन्ध थया. तेम भगवान् कामुक नथी के कामीना जेवी चेष्टा करे. (कारिका) प्रियनां दर्शनथी प्रफुल्लित नेत्रवाळां (अथवा प्रिये भावथी जोयुं तेथी प्रफुल्लित नेत्रवाळां) एकत्र मळेलां गोपीजनोनी साथे उदार चेष्टा करता अने नक्षत्रगणथी चन्द्रमा शोभे तेम उदार हास्यथी *कुन्द जेवा दान्तनी कान्तियुक्त भगवान् तेमनी साथे शोभवा लाग्या ॥४३॥
विशेष - भगवाने गोपीओनां विकलवतानां वचनो साम्भळ्यां त्यारे एमने दया आवी अने एने जोई हसीने एमनी साथे रम्या. त्यां शङ्का करे छे के भगवान्ने देह-इन्द्रिय नथी तेथी रमण केम सम्भवे? एना उत्तरमां कहे छे के ए योगेश्वरोना पण ईश्वर छे. योगमां सर्वदशमस्कन्ध २५६ अणिमादि सिद्धिनी स्फूर्ति थाय छे तेम अर्ही पण सर्वेन्द्रियादि भाववाळुं स्वरूप सिद्ध थई गयुं. कामथी एम नथी थयुं. कामथी एम थाय तो बीज निवृत्तिथी काम निवृत्त थई जाय. पण अर्ही एवुं नथी. प्रथम तो भगवाने एनो भाव कोई दिवस घटे नहि एने माटे हास्य कर्युं. ए भक्तोनो उद्धार करवो छे, मर्यादामां नाखी एनो नाश करवो नथी, माटे एनी उपर दया करी रमण कर्युं छतां स्वयं तो आत्माराम ज रह्या. सेङ्कडो वनितायूथना अधिपतिनुं गोपीओ गान करे छे, स्वयं पण गान करे छे. वैजयन्ती माळाने धारण करी वनने शोभावता भगवान् फरवा लाग्या ॥४४॥
गोपीओनी साथे कालिन्दीजीना तरङ्गथी आनन्द आपनार अने ठण्डी वालुकावाळा अने कुमुद पुष्पना सुगन्धयुक्त वायुवाळा काण्ठा पर आवी भगवान् गोपीओ साथे अनेकविध रमण करवा लाग्या ॥४५॥
*हस्त लाम्बा करवा; आलिङ्गन करवुं; हाथ, वाळनी लटो, जाङ्घ, नीवी अने स्तननो स्पर्श करवो; परिहास वचनो बोलावां; अने दान्तवडे मारवुं; प्रस्तोभन पूर्वक जोवुं अने हसवुन्द्ग आ बधाथी व्रज स्त्रीओना कामने वधारता एवा भगवान् गोपीजनोने रमण कराववा लाग्या ॥४६॥
विशेष ः क्रिया सर्वापि सैवात्र परं कामो न विद्यते। तासां कामस्य सम्पूर्तिर्निष्कामेनेति तास्तथा ॥१॥
कामेन पूरितः कामः संसारं जनयेत् स्फुटः। कामाभावेन पूर्णस्तु निष्कामः स्यात् न संशयः ॥२॥
अतो न कापि मर्यादा भग्ना मोक्ष फलापि च। अत एतच्छ्रुतौ लोको निष्कामः सर्वथा भवेत् ॥३॥
भगवच्चरितं सर्वं यतो निष्काममीर्यते। अतः कामस्य नोद्बोधः ततः शुकवचः स्फुटम् ॥४॥
(कारिकार्थ) अर्हीथी भगवान् कामना जेवी क्रिया करे छे, पण भगवान्मां काम नथी. लोकमां स्त्रीने जोवाथी पुरुषमां कामनो विकार थाय छे तेवो विकृत काम भगवान्मां नथी अने गोपीजनोना कामने पूर्ण कर्यो ते पण निष्कामभावथी गोपीनो काम पूर्ण थयो, माटे गोपीओ पण निष्काम छे. जो एम न होत अने कामभाववडे कामनी पूर्ति थई होत तो ए काम तो संसारने उत्पन्न करनार थाय छे ए वात आपणे लोकमां प्रत्यक्ष जोई शकीए छीए. अर्ही एवुं कांई नथी तेथी निष्काम भावथी ज अर्ही गोपीओना भावनी शान्ति करी छे. एम करीने गोपीओना कामभावने पण भगवाने निवृत्त करीने एने पण निष्काम बनावी दीधी छे तेथी मोक्षफलक मर्यादानो भङ्ग पण आ भगवद् रमणमां नथी थतो. तेथी आ रासपञ्चाध्यायीनी कथा साम्भळे तो ए साम्भळनारना कामनी पण निवृत्ति थाय एम श्रीशुकदेवजी एना श्रवणनुन्दशमस्कन्ध २५७ फल कहे छेः तेथी ए निष्कामने पण श्रवण करवा योग्य भगवद् चरित्र छे. जो कामलीला होत तो श्रीशुकदेवजी एनुं विस्तारथी वर्णन न करत अने एनुं फल पण ‘‘विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोनुशृणुयादथ वर्णयेद् यः। भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः’’ आ भगवान्नी व्रजभक्तो साथेनी क्रीडाने साम्भळनार भक्त भगवान्नी भक्तिने प्राप्त करे अने तत्काळ कामरूपी रोगने दूर करे एवुं एनुं फळ तेओ कहेत नहि. माटे आ पण भगवान्नी निष्काम लीला छे एम समजवुं, केमके भगवान्नुं समग्र चरित्र निष्काम छे. तेथी आना श्रवणथी कामनो वधारो थतो नथी पण कामरूपी रोग मटे छे, एम श्रीशुकदेवजी स्पष्ट शब्दोमां कहे छे तेथी भगवाने आत्माथी ज रमण नथी कर्युं, पण उत्तरोत्तर रस वधे एम अनेकविध रमण कर्युं छे. आ प्रमाणे महात्मा भगवान् कृष्णनी पासेथी गोपीजनोए पोताना मनोरथो प्राप्त कर्या तेथी तेमने अभिमान थयुं के पृथ्वी उपर तथा स्त्रीओमां अमे श्रेष्ठ छीए ॥४७॥
तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ॥ प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥४८॥
केशव भगवान् एमने सौभाग्यनो मद अने अभिमान थयेल जाणी ए मद अने मान ने मटाडी एमना उपर कृपा करवामाटे त्यां ज पोते अन्तहिर्त थई गया ॥४८॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा फल-पेटा-प्रकरणनो ऐश्वर्य निरूपक पहेलो अने चालु) ‘‘भगवाने गोपीओनी साथे आत्माथी क्रीडा करी’’ नामनो ओगणत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां छव्वीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवतना ओठा हेठळ भोळा श्रोताओना खिस्सां खङ्खेर्या !! भागवत भणीने शुं कीधुं, ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधु! मारे जन्तु अहि मणिअजवाळे, तेम तें उदर पोखी लीधुं!! (दयाराम) [[२५८]]
अध्याय ३०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २७ वियोगमां गोपीओए भगवान्नी शोध करी तामस फल प्रकरण अध्याय-२ (रासपञ्चाध्यायी अध्याय २)
विशेष - भगवद् आनन्द स्थापन करवामाटे भगवाने जे लीला करी ते पहेला २९ मा अध्यायमां कही. ए लीला एवी करी के जे अन्दर पण प्रकट थई जाय. ए माटे भगवान् लीलासहित गोपीना हृदयमां प्रवेश्या. अर्ही चार अर्थ कहेवाना छेःरसासक्ति, हरिनी लीला अने गर्वाभाव ए त्रण लीला भगवाने आ अध्यायमां करी छे अने गुणगान पछीना अध्यायमां कहेवामां आवशे. एम चार अर्थ कहेवाना छे. उद्देश, लक्षण अने फल थी ए अर्थो कहे छे. आ बीजा त्रीसमा अध्यायमां लीलावेशमां तत्पर थईने गोपीओ रसने अन्तःकरणमां प्रकट करे छे ए वात अर्ही कहेवामां आवे छे. अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ॥ अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवान् ज्यारे अन्तर्धान थया* त्यारे गोपीओए त्यां एमने न जोया के तरत, हाथणीओ हाथीने न जोतां दुःखी थाय तेम दुःखी थवा लाग्याम् ॥१॥
विशेष - गुण विशिष्ट भगवान् अन्तःप्रविष्ट थया त्यारे ज्यां सुधी अन्तर्दर्शन न कर्युं त्यां सुधी ताप पाम्यां, कारण के तेओए भगवान्ने बहार जोया नहि. ताप सहज हतो. ते कामकृत हतो. ते तो दर्शन स्पर्श आदि थाय तो निवृत्त थाय; ए वगर तो ताप चालु ज रहे. ए स्पर्शना अभावथी हतो माटे हाथणीनुं दृष्टान्त आप्युं. (ए भगवान्ना दर्शन न थवाथी ताप गोपीओना हृदयमां थवा लाग्यो एनी पहेलां तो भगवान्नी लीला एमना हृदयमां दाखल थई गई. ए ज कहे छे के प्रभुनी कायिक गति, स्नेह संयुक्त स्मित अने विलासयुक्त कटाक्ष, मनोहर वार्तालाप, विहार अने विलासद्ग आ बधान्थी आकर्षायेलुं छे चित्त जेमनुं एवां अने जेमनी अन्दर भगवान्नी स्फूर्ति थई छे एवां गोपीजनो लक्ष्मीना पतिनी जुदी-जुदी *लीलाओनुं अनुकरण करवा लाग्याम् ॥२॥
विशेष - भगवाने गोपीओने काया, वाणी अने मन थी वश कर्या छे. ए भगवद्भावने प्राप्तदशमस्कन्ध २५९ थईने भगवान्नी लीला करवा लाग्यां. प्रथम गतिवडे कायिक चेष्टा कही, इन्द्रिय सहित मननी चेष्टा वश कर्यानुं कहे छे. ‘अनुराग’ एटले मानस स्नेह, मानस स्नेहवाळुं स्मितः स्मितनो विलास भगवान्ना भजनमां रहेली निष्ठानो त्याग करावनार छे. जो एम न करे तो गोपीने ज्ञान ज थाय. तेथी स्मितथी मोहित करी अन्तःभगवत्स्फूर्ति थतां एना धर्मोमां रूढ थयां. वळी मनने रमाडनार आलाप एटले भगवान्नां गुप्त भाषणो गोपीने तत्काळ सुख करवामाटे बोलायेलां ते त्रणे प्रकार त्रिविध चित्तने खेञ्चनार उपाय थया तेथी तेमने वियोगनो ताप न थवा पाम्यो, पण ए भगवद् रूप थई भगवत् चेष्टा करवा लाग्यां. भगवान्नुं चालवुं, हास्य, एमनुं भावपूर्वक जोवुं अने एमनुं बोलवुं ए विषयमां भगवान्नुं स्वरूप ज गोपीजनोमां आवी गयुं. तेथी कृष्णना जेवो विहार अने विलास करतां ‘‘आ कृष्ण, हुं कृष्ण’’ एम *तद्रूपता बतावतां अबला प्रियाओ व्यवहार करवा लाग्याम् ॥३॥
विशेष - भगवत् प्रिया एवां गोपीजनो भगवान्ना जेवी चाल चाल्यां, भगवान्ना जेवुं स्मित कर्युं अने भगवान्ना जेवुं अवलोकन करी एमां जाणे भगवान् ज प्रविष्ट थईने बधुं करता होय एम प्रियनी मूर्तिने धारण करी क्रीडा करवा लाग्यां. अन्योन्य-अभिनिवेश वगर क्रीडा न थई शके, विलासमां जे पोतानी दशा प्रथम हती तेनाथी जुदी जातनी एनी दशा थई गई एटले तेओ प्रथम भोग्या हती ते हवे कृष्णना आवेशथी भोक्त्री थई गई, अने ‘‘आ कृष्ण छे’’ ‘‘हुं कृष्ण छुं’’ एम कहेवा लागी. एमां ए खोटुं बोलती न हती, पण ए आसक्तिथी तदात्मिका थई गई हती. केवळ धर्मी ज एमां आववाथी ए धर्मीरूप हतां, एटलुं ज नहि, पण भगवान्ना धर्मो पण बधा एमनामां जोवामां आवता हता. तेथी ज ‘‘कृष्ण विहार विभ्रमाः’’ एम कह्युं छे. (एम भगवान्ने न जोवाथी ताप थयो. भगवान् लीला सहित हृदयमां पधार्या तेथी लीला अने भगवान्ना उपदेशथी सम्बन्ध थतां प्रथम ताप मटाडवामाटे भगवान्नी शोध करवा लाग्यां. भगवदिच्छाथी त्रणेनो उपमर्द थतां पण परस्पर कार्यमां प्रतिबन्धक्ता न थई; ज्यारे उपर उपरथी प्रपञ्च संवेदन थयुं त्यारे पूछवा लाग्यां. ए वात कहे छे के ए बधां उच्च स्वरे *भगवद्गुण गावा लाग्या अने उन्मत्तनी जेम एक वनथी बीजा वनमां शोधवा लाग्यां अने आकाशनी पेठे प्राणीमात्रमां अन्दर अने बहार रहेता भगवान्ने माटे वनस्पतिओने गाण्डा माणसनी जेम पूछवा लाग्यांः ॥४॥दशमस्कन्ध २६०
विशेष - लाकडाम्मां भीनाशथी धूम (धूमाडो) नीकळे छे तेम मनुष्यना हृदयमां स्नेह थाय तो वियोग अवस्थामां एना हृदयथी गुणगानात्मक शब्द नीकळे छे ते बहार अने अन्दर व्यापीने रहे छे. तेमां पण धूममां तारतम्य होय तेवुं तारतम्य रहे तेथी अर्ही धर्मी अने धर्म अधिक होवाथी गोपीओनुं ज्ञान ए उत्तम गणाय छे. कारण तो ए ज के जेम भगवाने गान कर्युं त्यारे ए साम्भळी गोपीओ आवी. तेम गोपीओ ज्यारे भगवान्ने त्यां नथी जोती त्यारे पोते गान एटला माटे करे छे के जेम वेणुनादने साम्भळी अमे आव्यां हतां एम अमारा शब्दने साम्भळीने भगवान् अमारी पासे आवे. आ गोपीओनो भाव कृत्रिम हतो तेथी तो तेओ पोतानी मेळे वेणुना शब्द साम्भळीने मळ्यां. ज्यारे बधां मळ्यां त्यारे विशेष ज्ञान थयुं के भगवान् आपणी साथे नथी, त्यारे शोधवा लागी एमां पण सर्वात्माथी तिरोधानस्फूर्ति नथी तेथी अनियत वृत्तिवाळां थयां ए ‘‘उन्मत्तक्वत्’’ ए शब्दथी कह्युं. जेम उन्मत्त स्व-पर (पोतानुं अने पारकुं एवो) विवेक जाणतो नथी तेम वस्त्र खसी जाय एनुं अनुसन्धान राखतो नथी तेवी गोपीओनी अवस्था थवाथी एक वनथी बीजा वनमां गयां एटलुं ज नहि पण गाण्डानी जेम बीजाने पूछवा पण लाग्यां. श्रीशुकदेवजी अत्यारे सर्वत्र रहेला भगवान्ने जुए छे. जो भक्ति सहित ज्ञान हृदयमां प्रकट थाय तो बीजो पण भगवान्ने जोई शके छे. एवा व्यापक भगवान्ने परिच्छिन्न मानी आ गोपीओ पूछवा लागी, ए पण आत्मामां न जोतां बीजा चेतनने न पूछतां अचेतन एवां वृक्षोने पूछवा लागी, कारण के वनस्पतिओ वैष्णवरूप छे. ‘‘वैष्णवा वै वनस्पतयः’’ एम श्रुति कहे छे. एनो पूछवानो आशय तो एटलो ज के मूढ होय छतां वैष्णवो ज विष्णुगतिने जाणे छे, पण अत्यन्त डाह्यो पण जे अवैष्णव होय ते विष्णुगतिने नथी जाणतो एम धारी तेमणे भगवान् क्याञ्छे एम वनस्पतिने पूछ्युं. ज्यारे ए जवाब नहि आपे त्यारे भगवत् स्वरूपनुं आ वृक्षोने ज्ञान नथी एनुं कारण बतावी एने छोडी बीजाने, भगवद्गति जाणता हशे एवी सम्भावनाथी पूछशे. एम करीपोतानी भगवान्मां आसक्ति छे ए अन्वेषणथी सिद्ध करशे. आसक्ति विना भगवान्नुं अन्वेषण न करे. आसक्तिनहोय तो एनी गेरहाजरीमाम्पोताने घेर पहोञ्चे. बीजाने पूछीने पोताना हृदयनी वात प्रकट करवानुं साहस कोई न करे. माटे अन्वेषण ए रसासक्तिसूचक छे. ए कर्यापछी भगवल्लीलाप्रकट थशे. तेथीभगवद्रूप थई लीला करशे अने गर्वनो अभाव थशे. त्यां आअध्याय सम्पूर्ण थशे.गुणगान आ पछीना अध्यायमां आवशे. ‘‘हे अश्वत्थ! (पीपळा), हे प्लक्ष! (पीपर), हे न्यग्रोध! (वडला), प्रेम, हास्य अने अवलोकन वडे अमारा मननुं हरण करनार तमारा सम्बन्धी नन्दकुमारनेदशमस्कन्ध २६१ तमे क्यांय जोया छे? ॥५॥
हे कुरबक! हे अशोक! हे नागकेसर! हे पुनाङ्ग! अने हे चम्पाओ! स्मित मात्रथी मानवतीओना गर्वने हरनार बलरामना नाना भाईने तमे क्यांय जोया छे? ॥६॥
हे कल्याणि तुलसि! हे गोविन्दचरणप्रिये! अलिकुल (भ्रमरो) नी साथे तने धारण करनार तेथी तने अत्यन्त प्रिय अच्युतने तें जोया छे? ॥७॥
हे मालति! हे मल्लिका! हे जाई! हे जूई! श्रीहस्तथी तमारो स्पर्श करी तमारी प्रीतिने वधारता श्रीकृष्ण अर्हीथी पधार्या तेमने तमे क्यांय जोया खरा? ॥८॥
हे आम्बा! हे रायण! हे पनस! हे आशन! हे कोविदार! हे जाम्बुडा! हे आकडा! हे बीली! हे बकुल! हे आम्बलाओ! हे कदम्ब! हे नीप! (आसोपालव) तथा परोपकारनेमाटे ज जेमनी उत्पत्ति छे अने श्रीयमुनाजीना तट उपर आवेलां हे अन्य वृक्षो! भगवान् विना आत्माथी वचिन्त थयेल अमने श्रीकृष्णनो मार्ग बतावो’’ ॥९॥
एम अति विलाप करतां चाल्यां. तेओने दीनता प्रकट थई त्यारे भगवद्चरणारविन्द जोवामां आव्यां, त्यारे ए चरणारविन्द जेमां प्रतिफलित थयां छे ते भूमिनी स्तुति करवा लाग्यां के ‘‘हे पृथ्वी! तें शुं तप कर्युं के जेथी केशवना चरणस्पर्शना उत्सवथी रोमाचिन्त शरीरवडे तुं शोभे छे? (एमां त्रण कारणनी सम्भावना कहे छेःए कां तो भगवद्चरणस्पर्शथी थाय तेमने वामन भगवान्ना चरणनो सम्बन्ध सर्व शरीरव्यापी थयो एनाथी थाय अने वराह भगवाने आलिङ्गन कर्युं तेथी थई शके; एमां क्या कारणथी तुं पुलकित छे ए अमने कहे’’ आम कहेवाथी पृथ्वीने गोपीओए स्वसमान कही छे ॥१०॥
हे हरिणी! प्रिया साथे मळीने आ मार्गथी चालतां तमारां नेत्रोने शीतल करता अच्युतने, हे सखि! तमे जोया के? केमके कान्ताना अङ्गसङ्गथी कुचउपरनुं कुमकुम लागवाथी रङ्गायेली गोकुलपतिनी कुन्द पुष्पनी माळानी सुगन्ध अर्ही आवी रहीछे ॥११॥
पोतानी भुजा प्रियाजीना खभा उपर राखी बीजा श्रीहस्तमां कमळ धारण करता बलरामजीना नाना भाई के जेनी पाछळ तुलसीना मकरन्दना लोभी भमरा चाले छे तेवा भगवान् अर्हीथी नीकळ्या त्यारे तमे करेला प्रणामने प्रेमपूर्वक अवलोकन करी एमणे तमने अभिनन्दन आप्या? ॥१२॥दशमस्कन्ध २६२ वनस्पतिना बाहुवडे आलिगिन्त लताओने पूछवुं तो न जोईए, पण एमने भगवाने पोतानी आङ्गळीओनो स्पर्श कराव्यो होवो जोईए जेनावडे ए पुलकित देखाय छे तेथी एने पण पूछ्युं के तमे अमारा भगवान्ने अर्हीथी नीकळता जोया? ॥१३॥
(एम अन्वेषणथी गोपीओना हृदयमां भगवान् रसरूपे स्थिर थया ए वात कहेवामां आवी तेथी आ अध्यायमां त्रण अर्थ कहेवाना छे; एमां रसासक्ति कहेवामां आवी, हवे भगवद्लीला ए द्वितीयार्थ-ते गोपीजनोना हृदयमां प्रकट थयो ए कहे छे. ए कहेता प्रथमनो उपसंहार अने द्वितीयनो उपक्रम करे छे) श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम श्रीकृष्णने शोधवामां दीन बनेलां गोपीजनो उन्मत्त वचन बोलीने हवे तेओ भगवद् रूप थईने भगवद् लीलानुं *अनुकरण करवा लाग्याम् ॥१४॥
विशेष - भक्तिवडे अत्यन्त मत्त थई गई. केटलीक रोषने लईने थोडी गाण्डी बनी गई. एमां कोईक द्वेषभावने स्वीकारी मत्सर करी क्रीडा करवा लागी. सत्वादि गुणथी नव लीला करे छे तेथी शकट आदिथी आविष्ट गोपीमां न्यूनभाव नथी केमके सर्वत्र लीलामां एने भगवद्बुद्धि छे. भगवद् चरणस्पर्शनी इच्छाथी पण दैत्य आदि भावने स्वीकारे छे. तेम ज ऊखळी वगेरे जडभाव पण एना सम्बन्ध अर्थे स्वीकार्यो छे. (कारिका) एमां कोईक पूतना थई त्यारे श्रीकृष्ण थयेल गोपीए एना स्तननुं पान कर्युं. एक गोपी बाळक जेवी थईने रोवा लागी. ते वखते शकट बनेली गोपीने एणे पगवडे मारी ॥१५॥
एक श्रीकृष्णना बाळक भावने धरीने बेठी तेनुं बीजी दैत्य-भाववाळी गोपीए हरण कर्युं. कोई एक सखी पोताना नूपुरना शब्दनी साथे चरणने खेञ्चती घूण्टणियाभर चालवा लागी ॥१६॥
बे सखीओ तो श्रीकृष्ण अने राम थई, ज्यारे बीजी सखीओ गोप बनी. एक वत्सासुरनुं अनुकरण करवा लागी, बीजी सखी बकासुर बनेली गोपीने मारवा लागी ॥१७॥
केटलीक गायरूप थई, त्यारे बीजी गोपरूप थई, त्यारे श्रीकृष्ण बनेली गोपीए दूर रहेली गायोने बोलावीने वेणुनो नाद कर्यो, त्यारे बीजी एने ‘‘बहु सारुं गायुं’’ एम कही एने धन्यवाद आपवा लागी ॥१८॥दशमस्कन्ध २६३ कोईकना खभा उपर पोतानी भुजा राखीने चालती एवी सखी बीजीने कहे छे के ‘‘हुं कृष्ण छुं, मारी ललित एवी गति (चाल) ने तमे जुओ’’ एम श्रीकृष्णमां मन राखीने बोली. (आमां काया अने वाणी नी बे चेष्टा बतावी पूर्व श्लोकमां मनवडे चेष्टा कर्यानुं कह्युम् ॥१९॥
(हवे बीजी रीते चार प्रकार कहे छे)‘‘तमे वायु अने वर्षा नो भय न राखशो केमके एनाथी तमारुं रक्षण में कर्युं छे’’ एम बोली एक हाथथी पोतानुं वस्त्र ऊञ्चुं राखवानो यत्न करती गिरिराजधारणनी लीला बतावे छे ॥२०॥
हे नृप!एक सखीनी उपर बीजीए आरोहण कर्युंअने बोली - ‘‘हे दुष्ट सर्प!हुं खलने दण्ड आपनार प्रकट थयोछुं. माटे तुं अर्हीथी चाल्यो जा’’ ॥२१॥
एमान्थी एक बोली - ‘‘हे गोपो! भयङ्कर दावानळ सळगे छे तेने जुओ. तमे तमारां नेत्रो जलदी बन्ध करी दो, हुं तरत तमारुं कल्याण करीश’’ ॥२२॥
बीजी सखीए कोई सुन्दरीने फूलनी माळावडे ऊखळी साथे बान्धी त्यारे सुन्दर दृष्टिवाळी ए भय पामीने मोढुं छुपावीने भयनो देखाव करवा लागी ॥२३॥
(लीलासक्तिमां ‘‘इत्युन्मत्तवचः’’ ए श्लोकथी वचननो उपसंहार कर्यो न हतो पण प्रश्न पूछती हती; ए लीलानो उपसंहार कर्यो नथी तेथी हमणां वचमां लीलावेश बतावीने ए लीला बन्ध थतां वृन्दावननां लता अने वृक्षो ने पाछी गोपीओ पूछवा लागी. ए ज कहे छेः) एम वृन्दावननां लता अने वृक्षो ने पूछतां गोपीजनोए वनप्रदेशमां परमात्मानां चरणचिह्न जोयाम् ॥२४॥
महात्मानन्दना पुत्रनां आ पगलां स्पष्ट जणाय छे केमके ए चरणमां ध्वज, कमळ, चक्र, अङ्कुश अने यव वगेरेनां चिह्न स्पष्ट छे ॥२५॥
ते-ते पगलान्ने अनुसरीने अबळाओ आगळ चाली त्यां तो कोई वधूना चरणनी साथे भगवच्चरणने जोईने दुःखी थईने कहेवा लाग्यांः ॥२६॥
‘‘जेना खभा उपर भगवान्नो बाहु रहेलो छे ते, जेम हाथणी हाथीनी सूण्ढमां सूण्ढ मेळवीने चाले तेम भगवान्नी साथे चालनारी आ कोण छे, जेनां पगलां भगवान्ना चरणनी साथे जोडाजोड जोवामां आवे छे? ॥२७॥
आ सखीए तो भगवान्नुं खरेखर आराधन कर्युं होवुं जोईए केमके ए भगवान् एना हरि अने कर्तुम्, अकर्तुम्, अन्यथा कर्तुम् समर्थ थया छे ए आराधनदशमस्कन्ध २६४ वगर न थाय. केमके जे भगवाने एनी उपर प्रसन्न थईने अमने छोडी अने एकान्तमां लईने गोविन्दे एने सम्पूर्ण लाभ आप्यो एवुं विशेष कृपा वगर न बने’’ ॥२८॥
(एम साथमां रहेली सखीना भाग्यनां वखाण कर्यां, पण एवां वखाण तो गूढमात्सर्यमाम्पण थाय तेथी पोताना भाग्यने वखाणे छे के)‘‘हे सखीओ! आगोविन्दनी चरणरेणु धन्यछे के जेने ब्रह्मा, शिव अने रमादेवी पोताना दोषोनी निवृत्तिने माटे स्वमस्तक उपर लगाडे छे ॥२९॥
ए सखीनां पगलां अमारा मनने अत्यन्त खेद करे छे एनुं कारण एटलुं ज के समस्त गोपीजनोने भोग्य एवा भगवान्नो अधर ए एकली भगवान्ने दूर लई जईने स्वयं भोगवे छे ॥३०॥
अर्ही घास आवी जवाथी ए सखीनां पगलां देखातां नथी तेथी एना पगनां तळियां बहु कोमळ होवाथी घासमां धरतां एना पगने दुःख थतां प्रिये एने अद्धर उठावी देखाय छे ॥३१॥
पोतानी प्रियाने शणगारवामाटे प्रियतमे अर्ही पुष्प वीणवानुं कार्य कर्युं छे, कारण के फणाभर थवाथी प्रियनां पगलां आखां देखातां नथी ॥३२॥
कामी एवा प्रिये प्रियाजीना केश गून्थवानुं काम अर्ही कर्युं छे एना मस्तकनो शृङ्गार करता भगवान् अर्ही कान्तानी पासे बिराज्या होय एम चोक्कस जणाय छे ॥३३॥
आत्मामां रति करनार आत्माराम अखडिन्त छे छतां भगवाने एनी साथे अर्ही रमण कर्युं एनुं कारण तो ए ज के लोकमां स्त्रीओनी दृष्टता अने कामी पुरुषोनी दीनता एने स्पष्ट करवी छे, नहि तो अच्युतने एम करवुं सम्भवे नहि ॥३४॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम बतावतां विकळ चित्तवाळां गोपीजनो फरतां हतां. एटलामां बधी स्त्रीओने वनमां छोडीने जे एक गोपीनी साथे भगवान् गया हता ते गोपीने एम थयुं के बधी गोपीओने छोडी भगवान् मारी पाछळ फरे छे माटे हुं सर्व स्त्रीओमां श्रेष्ठ छुं केमके बधी भगवान्ने मळवानी इच्छावाळी गोपीओने छोडी प्रिय मने एकलीने भजे छे ॥३५-३६॥
त्यारे ए गोपी वनप्रदेशमां जईने कांई गर्व करीने केशवने कहेवा लागी केदशमस्कन्ध २६५ ‘‘(हवे) माराथी चाली शकातुं नथी. माटे आपनी ज्यां इच्छा होय त्यां मने तेडीने लई चालो’’ ॥३७॥
एम प्रियने कह्युं त्यारे भगवाने प्रियाने कह्युं के *‘‘खभा उपर बेसो’’ एटलुं कहीने भगवान् त्यां देखाया नहि त्यारे ते वधू त्यां पश्चात्ताप करवा लागीः ॥३८॥
विशेषः जे गोपीने भगवाने साथे लीधी हती तेनामां ए वखते अभिमानदोष न हतो, पण अत्यारे एने पण अभिमानदोष प्रकट थयो तेथी ‘‘हुं चालवाने असमर्थ छुं’’ एम बोली. भगवाने एनो उत्तर आप्यो के ‘‘तमे स्कन्धारोहण करो’’ पोताना खभा उपर पोते चडवुं अशक्य छे तेम भगवान् भक्तने उठावीने लई जवाने अशक्त छे. एवो उत्तर मळ्यो. भगवाने एनुं मान जोयुं अने पोते दर्शन आपता बन्ध थया. आ बधुं दोषनुं कार्य समजवुं. ज्यारे ए गोपीए भगवान्ने पण पोताने उठाववानी आज्ञा करी त्यारे ए तेणे अयोग्य आचरण कर्युं. ए वखते काळ वगेरे ए ते वधूनी बुद्धिनो नाश कर्यो तेथी ए पोते पण पश्चात्ताप करवा लागी (कारिका) ‘‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हे महाभुज! आप क्यां छो? क्यां छो? आपनी दीन दासीने, हे सखे! समीपमां राखो, दर्शन आपो’’ ॥३९॥
पेलां विह्वळ बनेलां गोपीजनो भगवन्मार्गने शोधतां हतां एटलामां प्रियना वियोगथी मोह पामती दुःखित सखी एमनी नजरे पडी ॥४०॥
(पेलां गोपीजनो एम समजेलां के ‘‘भगवान् आपणने दुःखी करवाना कौतुकथी अन्यत्र चाल्या गया छे’’ पण पोताना दोषथी गयानुं ज्ञान एमने थयुं न हतुं. जो पहेलां एम लाग्युं होत के ‘‘अमारा दोषने लीधे भगवान् दर्शन नथी देता तो ए दोष दूर करवानो तेओ प्रयत्न करत, पण एवुं स्वदोषनुं ज्ञान तो प्रभुनी कृपाथी थाय छे, पोतानी मेळे पोताना दोषनुं ज्ञान थतुं नथी ए बताववामाटे भगवाने एक गोपी, पोतानी साथे लीधी तेने पाछळथी छोडी दीधी. तेने पोतानो दोष भगवद् इच्छाथी जणातां बधी वात ए सखीओ पासे तेणे करी बतावी. ते साम्भळी आ गोपीजनोने पण खबर पडी के भगवान् आपणा दोषथी ज दर्शन आपता बन्ध थया छे. भगवान्ने आपणने छोडवानुं कोई कारण न हतुं, पण आपणे अभिमान कर्युं ते ज भगवान्ना दूर थवामां कारण छे. ए ज कहे छेः) ए सखीनुं कहेवुं थयुं के मने भगवान् साथे मान थयुं अने मारी दुष्टताथी मेन्दशमस्कन्ध २६६ भगवान्नुं अपमान कर्युं एटलुं कहेतां ए गोपीजनो परम विस्मय पाम्यां अने निश्चय कर्यो के आपणे भगवान्ने मेळववा अन्वेषण आदि उपाय कर्यां ते भगवद् मिलनना साधनरूप नथी, पण आपणा दोषथी भगवान् पधार्यां छे ते दोष छोडवानो प्रयत्न करवो जोईए ॥४१॥
(हवे भगवद् प्रसन्नता केम थाय एने माटे देह पडतां सुधी साधन करवानो निश्चय करीने कहे छेः) पछी ए गोपीजनो ज्यां सुधी चन्द्रनी चान्दनी देखाई त्यां सुधी वनना प्रदेशमां फर्यां अने ज्यां अन्धकार जोयो त्यान्थी ए पाछां फर्यां केमके ए भगवत्सम्बन्धवाळी छे तेथी ज्यां अन्धकार (तमोगुण) होय त्यां जाय नहि ॥४२॥
भगवान्मां ज मनवाळां, भगवत्सम्बन्धी वात करनारां, भगवान्नी क्रिया करनारां अने भगवन्मय थईने ए भगवान्ना गुणोने गावा लाग्यां जेमां आत्मा, घर वगेरेनी एमने विस्मृति थई गई ॥४३॥
पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ॥ समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षया ॥४४॥
(एमने घर के पोताना आत्मानुं स्मरण न थयुं त्यारे तेमणे शुं कर्युं तो कहे छे के) ते बधां एवा भाववाळां छे. ए पाछां कालिन्दीना *पुलिन उपर आव्यां. (एमने तो भान सरखुं नथी ते प्रथम जे-जे स्थानमां हतां ते स्थानमां केम पहोञ्ची शके? एवी शङ्का थाय तेना उत्तरमां कहेवानुं के) ए श्रीकृष्णनी भावनामां तत्पर छे तेथी श्रीकृष्णना अनुभावथी यमुनाना काण्ठा उपर पहोञ्च्या एमां पोतानी बुद्धिनो उपयोग कर्यो नथी. भगवान् अर्ही पधारे एवी इच्छाथी ए बधां मळीने भगवद् गुणगान करवा लाग्यां. एमां पण सदानन्दनुं गुणगान कर्युम् ॥४४॥
विशेष - भगवान् अमारी साथे रति करशे, प्रथम श्रीयमुनाजीनी कृपाथी भगवाने कृपा करी हती ते फरी एमनी कृपाथी अमने मळशे. एवी आशाथी गोपीजनो यमुनाकाण्ठे आव्यां. मळीने कीर्तन करवानो हेतु तो एटलोज केकोना भाग्यथी भगवान् मळे ए कही न शकाय तेथी बधां मळीने गान करवा लाग्यां. बीजुं साधन तो एमनी पासे न होवाथी गान करवा लाग्यां. केमके दोष मटाडवामां भगवद्गुणगान ज मुख्य साधन छे. दोष मटशे तो भगवान् स्वयं त्यां पधारशे. श्रीकृष्णमां आसक्तिवाळां गोपीजनो गुणथी नव प्रकारनां अने स्वरूपथी बे प्रकारनान्दशमस्कन्ध २६७ छे. ए समुदायथी अथवा पृथक्ताथी जुदां गर्व छोडी गुणगान करवा लाग्यां. एमने बीजुं साधन हतुं नहि. पोताना जीवनने माटे पण भगवद्गुणगान एमने प्रिय लाग्युं. पोताने एकलान्ने मळशे एवी खातरी न थता बधां मळीने भगवान्नां विविध गुणोनुं गान करवा लाग्यां (कारिका). इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा फल-पेटाप्रकरणनो वीर्यनिरूपक बीजो अने चालु ‘‘वियोगमां गोपीओए भगवान्नी शोध करी’’नामनो त्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अ.१२-१३-१४ बाद करतां) २७मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिभक्तिने लजावीए छीए जोद्ग अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी)देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए
अध्याय ३१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २८ गोपीजनोए गायेलुं-गोपीगीत तामस फल प्रकरण अध्याय ३ (रासपञ्चाध्यायी अध्याय ३)
विशेष - आ एकत्रीसमा अध्यायमां गोपीजनो भगवान्नुं गान करे छे तेनां बे कारण छेःएक
तो तेमणे भगवान्नो अपराध कर्यो छे, वळी वियोगमां गुणगान वगर बीजुं कोई जीवननुं
साधन नथी होतुं तेथी गान करे छे. तेथी जेमणे भगवान्नो अनादर कर्यो छे तेवां गोपीजनो
आ अध्यायमां भगवान्नी स्तोत्ररूपे प्रार्थना करे छे. पोत-पोताना अधिकारथी गोपीजनो
ओगणीस प्रकारनां छे तेथी तेओ ओगणीस प्रकारे भगवान्ने प्रसन्न करे एवी स्तुति करवा
लाग्यां. एमां स्तोत्र गानारां गोपीजनोनो क्रम आ प्रकारे जाणवोःराजसी, तामसी, सात्विकी
अने निर्गुणः एम चार प्रकारनां गोपीजनो १अन्यपूर्वा छे. तेवीज रीते २अनन्यपूर्वाए पण
उत्तम प्रार्थना करी. तेमां बोलनारान्नो क्रम आ प्रमाणे छेःगुणातीत, सात्विकी, तामसी अने
[[२६८]]
राजसी छे. ए चार प्रकारनां गोपीजनो कृष्णनी भावना करीने सिद्ध थई गयां छे. तेमने
श्रीशुकदेवजीए अर्ही विशेषरूपथी कह्यां छे. फरी त्रण अनन्यपूर्वा ज कहेनारां छे. ते सात्विकी,
तामसी अने राजसी भावथी विख्यात थयेलां छे. त्यारबाद अन्यपूर्वा त्रण गोपीजनोनी
उक्ति छे तेनो क्रम प्रथम तामसी, बीजां राजसी अने त्रीजां सात्विकी एवो छे. फरी
अन्यपूर्वा ज त्रण ‘‘अटति यद् भवान् ए श्लोकथी कहे छे. एनो क्रम राजसी, तामसी
अने सात्विकी छे. अने पछी अनन्यपूर्वा बेमां प्रथम राजसी अने बीजां सात्विकी छे केमके
एमां तामसी नथी. एम १९ थयां अथवा बीजो क्रम एवो छे के प्रथम सात श्लोक अने
छेल्ला बे श्लोक एम नव श्लोक कुमारिका (अनन्यपूर्वा) नी प्रार्थनाना छे अने एटला ज श्लोक
श्रुतिरूपा (अन्यपूर्वा) ओए कह्या छे. एक श्लोक निर्गुणानी प्रार्थनानो मळीने १९ श्लोक थाय
छे. एमां छेल्लो श्लोक गुणातीता गोपीजननी प्रार्थनानो छे. एमां प्रौढा अने कुमारिका नी
उक्तिमां नव-नव श्लोक आव्या तेथी समसङ्ख्यामां बन्नेनी स्तुति कहेवामां आवी छे. ते-ते
गोपीजनोना वाक्य अनुसार एनो-एनो भाव कह्यो छे. जो भाव जुदा न होय तो स्तोत्रमां
अनेकपणुं कह्युं ते सम्भवे नहि तेथी भावभेद सिद्ध थाय छे. तेथी सर्वभावात्मा भगवान्
एनाथी प्रसन्न थाय छे.
१. भगवान् सिवाय लोकमां लौकिक पतिनी साथे जेनुं लग्न थयुं होय ते अर्ही
‘अन्यपूर्वा’ शब्दथी कहेवाय छे. ‘‘अन्यः पूर्वो यस्याः सा’’ भगवान्नी पहेलां जेने
बीजानी साथे सम्बन्ध थयो छे एवां अर्ही श्रुतिरूपाओ गणाय छे.
२. भगवान् सिवाय जेने कोई पति नथी ते ‘अनन्यपूर्वा’ कहेवाय छे. एनो भाव
एवो छे के अमारा पति भगवान् थाय. एमनी साथे पण लग्नसम्बन्ध नथी तेवां अर्ही
ऋषिरूपा गोपीजनो छे जेने ‘कुमारिका’ कहेछे.
जयति तेधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ॥
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥१॥
गोपीजनोए कह्युं - ‘‘आपना जन्मथी व्रजनो वैकुण्ठ करतां पण अधिक *उत्कर्ष थयो छे, कारण के लक्ष्मीजी पण अर्ही ज हमेशां आश्रय ले छे. हे प्रिय! आपने माटे ज प्राण धारण करनारां आपनां जन आपने दिशाओमां शोधे छे ते जुओ ॥१॥
विशेष - ‘जयति’ शब्द प्रथम लख्यो छे ते मङ्गळनो सूचक होवाथी आ स्तोत्रनुं फळ श्रेष्ठ थशे एम समजी शकाय छे. जो एम अर्थ न करीए तो प्रथम ज क्रियापदनो प्रयोग उचित नदशमस्कन्ध २६९ गणाय. आपना पधारवाथी व्रज सर्व कृतार्थ थयुं. अमे व्रजमां रहेनार परम कृतार्थ थयां. अमे कृतार्थ थईए एम यत्न करशो एम बताववामाटे आपना अर्ही पधारवाथी व्रजनो सर्व प्रकारे उत्कर्ष थयो छे केमके ‘जयति’ शब्दनो अर्थ सर्वथी उत्कृष्ट स्थिति एवो थाय छे. अधिक जय एटलामाटे के आप वैकुण्ठथी उतरीने बीजे क्यांय न जतां व्रजमां पधार्या. एवो जय वैकुण्ठनो पण नथी केमके अर्ही लीला करो छो तेवी लीला वैकुण्ठमां पण करता नथी. जो के आपनुं प्राकट्य मथुरामां थयुं, पण तेथी मथुराने कांई लाभ थयो नथी, पण व्रजनो ज उत्कर्ष थयो छे. लोकमां भगवान्ना जन्मथी उत्कर्ष गणातो नथी एम कोई कहे त्यां कहे छे के आपना व्रजमां पधारवाथी लक्ष्मी सर्वदा व्रजमां रहेवा लागी. तेने लईने व्रजनो महिमा वधी गयो केमके वैकुण्ठमां लक्ष्मी भार्या तरीके रहे छे ज्यारे अर्ही तो हीन भावने धारण करीने रही छे केमके अर्ही एना जेवी अमो अनेक छीए तेथी ए अर्ही साधारण पणाथी स्थिति करे छे. लक्ष्मी पतिना व्रतवाळी छे. पतिव्रता पतिथी जुदी रहेती नथी. पति ज्यारे भक्तनी उपर कृपा करवामाटे अन्यने अधीन होय त्यारे एनी स्त्रीने पण आधीन रहेवुं ज पडे. तेथी आपना पधारवाथी व्रजनो उत्कर्ष लोकप्रसिद्ध थई चूक्यो छे. आप अने लक्ष्मी अर्ही प्रसन्न छो; पण आप व्रजमां अमारे माटे पधार्या छो तेथी अमारी तरफ पण आपे दृष्टि करवी जोईए केमके अमे आपनां छीए अने आपनेमाटे ज प्राण धारण करनार छीए. ए तो दिशाओमां आपनां दर्शननी लालसाथी भटकीए छीए, ज्यारे ब्रह्मा आदि आपनां दर्शननेमाटे अर्ही आवी दर्शन करी जाय छे ए अति अयोग्य गणाय. वळी एम कहो के तमारामां भक्ति नथी तेथी तमे जीवो छो, तो ए विषयमां कहेवानुं के आपनेमाटे ज अमोए प्राणने टकावी राख्या छे. ज्यारे अमने एम लागशे के आपने अमारो उपयोग नथी ते वखते ज प्राण चाल्या जशे. ए प्राण छे त्यां सुधी एने आश्वासन आपवा माटे अमे आपनी शोधमां छीए. जो थोडो पण विलम्ब थयो तो प्राण चालता थशे. आप बिराजो अने आपना जीव आपने माटे दिशाओमां शोध करे ए बहु दुःखनी वात गणाय. जो के भगवान् दर्शन दे तेनाथी कृतार्थता नथी, पण देखावाथी एनी कृपा थाय तो मनोरथ सिद्ध थाय. हे सुरतनाथ! शरदऋतुना निर्मळ सरोवरमां सुन्दर रीते उत्पन्न थयेलां कमळनी अन्दर रहेली शोभाने हरनार आपना नेत्रवडे आप अमने प्रहार करो छो ते हे वरदान आपनार! शुं वध न गणाय? अमे आपनी अमूल्य *दासीओ छीए. आपने शरण आव्यो ते वध करवा योग्य न होई शके; तो आप दर्शन न आपो तेथी वध नथी थतो शुं? जेनाथी प्राणने बाधा थाय ते वध ज गणाय ॥२॥दशमस्कन्ध २७०
विशेष - अर्ही ‘शुल्कदासिका’ अने ‘अशुल्कदासिका’ एवा बन्ने अर्थ घटाव्या छे. ब्रह्माजीए लोकमां अलौकिक काम प्रकट करवामाटे अमने शुल्कदासिका तरीके आपने आपी छे के जे द्वारा भगवदीय काम लोकमां आवी शके ए अर्थमां शुल्कदासिकानो अर्थ घटे छे. अशुल्कदासिका एटले धर्मदासीओ के जेने सेवा सिवाय बीजो धर्म नथी. तेमनो पण नेत्रद्वारा वध करवो ए अनुचित गणाय. जे साधनथी प्राणने बाधा थाय ते वधनुं साधन गणाय. आपना सुन्दर नेत्रना कटाक्षो विप्रयोगमां याद करतां ए प्राणने बाधा करनार थाय छे तो ए द्वारा अमारा प्राण जाय तो एना वधनो दोष आपना सिवाय बीजा कोने लागे? तेथी वध न थाय एवुं आपे करवुं योग्य छे. हृदयमां एकठो थयेलो रस वाणीद्वारा बहार न नीकळे त्यांसुधी पूर्ण रस न कहेवाय तेथी गोपीजनना हृदयमां पूर्ण थयेल रस वाणीद्वारा बहार नीकळे छे. तेथी ते पूर्णरसा छे एम सिद्ध थाय छे. (कारिका) (बीजी कोमळ भाववाळी सखीओ कहे छे के) घणीवार सङ्कटमां आपे रक्षा करी छे तो आ वखते पण करो. (ए गणावे छे के) कालियनागना झेरवाळुं श्रीयमुनाजीनुं जळ पीवाथी थयेला मृत्युथी आपे अमारी *रक्षा करी, अघासुर (अजगर रूप) ना उदरमां गयेलाओनी रक्षा करी अथवा ‘व्याल’ शब्दथी कालिय, सुदर्शन वगेरे सर्पोअनेतृणावर्त आदि राक्षसोथी अमारी आपे रक्षा करीछे. इन्द्रे पवन सहित वर्षा वरसावी तेनाथी आपे रक्षा करी छे. तेमज अग्नि, वीजळीथीपण आपे रक्षा करी. व्योमासुरथी पण रक्षा करीछे तो हे ऋषभ! आपे अमारी घणीवार रक्षा करीछे तेमआ वखते पण रक्षा करो ॥३॥
विशेष - कालिय हृदनुं जळ पीतां वाछडां अने ग्वाल-बाल मरी गयां तेने जीवतां कर्यां. कालिय, सुदर्शन आदि सर्पो, तृणावर्त आदि राक्षसो तेनाथी आपे बचाव्या. इन्द्रे व्रज उपर कोप कर्यो त्यारे वृष्टि, वायु, वीजळीथी रक्षा करी. दावाग्निथी पण आपे रक्षा करी छे. व्योमासुरथी पण रक्षा करी छे. गोपीजनो भगवद् आवेशथी सर्वज्ञ बन्यां छे तेथी लीलामां पौर्वापर्यनुं अनुसन्धान न करतां बधी लीला जेम याद आवे तेम वर्णन करे छे. तेथी अनेक प्रकारना भयथी ज्यारे आपे अनेक वार पालन कर्युं तो आ वखते पण आपे ज पालन करवुं जोईए, नहि तो आटली वार बचाव्यां ते बधुं व्यर्थ थई जाय. अत्यार सुधी बहारना मारनार हता तेनाथी आपे बचाव्या छे; अत्यारे तो मारक अन्दरनो छे तेथी आपे रक्षा करवानी छे; तेथी सर्वथा आप ज रक्षा विचारो तो ज रक्षा थई शके एवुं छे, बीजोदशमस्कन्ध २७१ उपाय नथी. आप केवळ यशोदानन्द नथी, पण समग्र देहधारीना अन्तरात्माने जोनार छो.* हे सखे! ज्यारे विश्वनी रक्षा करवानेमाटे ब्रह्माजीए आपने प्रार्थना करी त्यारे भक्तना कुळमां-यादव कुळमां आप प्रकट थयां छो ॥४॥
विशेषः आ वचन निर्गुण गोपीजननुं छे. ए भगवान्नुं महानुभावपणुं जाणे छे अने ते अनुसार कीर्तन करी विनन्ति करे छे के जेम ज्ञानीने मोक्ष आपो छो तेम अमने अमारे लायकनो मोक्ष आपो. ए गोपीजन कहे छे के जो भगवान् नन्दरायजीना पुत्र होय तो तेमने आपणे आपणा जेवा गणी ठपको आपी शकीए, पण ज्यां ए नन्दना नन्दन नथी तो पछी एमने ठपको आपवानो आपणने अधिकार नथी. ए कहे छे के आप गोकुलपतिना पुत्र नथी. एम थया होत तो एनी जेम अमारे स्वाधीन थात. पण आप तो सर्व प्राणीओना अन्तःकरणमां रहीने सर्वना साक्षी बनो छो तेथी अमारा हृदयना तापने आप जोशो तो प्रसन्न थशो ज. आप अमारा पालनमाटे पधार्या छो. आपने जणाशे के आ बचशे नहि तो आप कृपा करी अमने जीवाडशो एटले आपने कांई कहेवानी जरूर नथी. वळी आप स्वेच्छाथी पधार्या नथी, पण ब्रह्माजीए जगतनी रक्षा करवामाटे प्रार्थना करी तेथी रक्षाने माटे आप पधार्या छो. वळी आप जीवात्माना सखा छो तेथी पण लोकमां मित्रता बताववामाटे यादवरूपी वैष्णवना कुळमां आपे आपनुं प्राकट्य देखाड्युं छे. आप सखा होवाथी इच्छा प्रमाणे प्रेरणा करतां विशेष कांई आपे करवुं जोईए, नहि तो अवतार प्रयोजन व्यर्थ थाय. माटे आप पधार्या छो तो आत्मानुं निवेदन अमे करीए तेम आपे पण आपनुं स्वरूप अमने बताववुं जोईए ए कांई अमारे कहेवानुं नथी तेथी जेम आपने उचित लागे तेम करो. आपने विनन्तिनी जरूर न होय. (बीजी एनाथी ऊञ्चा भाववाळी गोपी भगवत्करनो स्पर्श पोताना मस्तकने थाय एवी प्रार्थना करे छे. एनो मत एवो छे के भगवान् पण माग्या वगर तो आपशे नहि तेथी प्रार्थना करे छे के) हे वृष्णिकुल शिरोमणि! आपनुं *हस्तकमळ, जे संसारना भयथी आपने शरणे आवनारने अभयदान आपनार छे, जे अभिलाषाओ पूर्ण करे छे अने जेणे लक्ष्मीजीनुं पाणिग्रहण कर्युं छे ते, हे कान्त! अमारा मस्तक उपर पधरावो ॥५॥
विशेष - हे स्वामिन्! अमारुं हृदय फूटी जाय छे माटे सर्व अङ्गने पोषण मळे तेवी रीते आप अमारा मस्तक उपर आपनो श्रीहस्त धरो केमके हस्त ए कमळ छे अने कमळ शीतळ होय छेदशमस्कन्ध २७२ एमां पण तळावमां थयेल कमळ शीतल होय छे. अर्ही तो श्रीहस्त ज सर अने सरसिज छे तेथी एनो उद्धार थवाथी पण रसने ओछो करे एम नथी. हे कान्त! आप श्रीहस्त मस्तक उपर धरी अमारी उपर आपनी सत्ता स्थिर करो. ए आपनो श्रीहस्त ताप दूर करे छे एटलुं ज नहि पण सर्व कामनाओ पूरनार छे. त्यां शङ्का थाय के भगवान् पुरुषोत्तम छे ते स्त्रीओना माथा उपर हस्त केम धरे? त्यां कहे छे के आपना श्रीहस्ते लक्ष्मीजीनुं पाणिग्रहण कर्युं छे तो अमारा मस्तक उपर हाथ धरवामां एमने शो वान्धो होय? त्यां कहे छे के ए तो विवाहिता छे, तमे तो बीजे विवाहिता छो ते तमारो अने लक्ष्मीजी नो एक न्याय न सम्भवे. त्यां कहे छे के विवाहमां प्रयोजक विधि छे तेम शरणागतना पालनमां पण विधि प्रयोजक छे. विवाहनी अपेक्षाए शरणागत पालन तो ईश्वर मात्रनो धर्म छे. एमां पण आ स्त्रीओ संसारना भयथी आवी छे. संसार पण स्वभावथी दुष्ट नथी, पण असह्य दुःखनुं कारण छे; तेथी आप ज अमारा दुःखने दृष्ट अने अदृष्ट उपायथी दूर करनारा छो. हे व्रजजनोनी आर्तिनो नाश करनार! हे स्त्रीओना वीर! हे अङ्गीकृत जीवोना गर्वने मन्द हास्यथी दूर करनार! हे सखा! आप आपनी दासीओने-अमने *भजो अने आपना मनोहर मुखकमळनां दर्शन करावो ॥६॥
विशेष - ‘‘हे सखा!’’ एम अप्रतारणमाटे सम्बोधे छे. तमे एवी धृष्टता केम करो छो एम कहे तो एना उत्तरमां कहे छे के अमे आपनी दासीओ छीए. ‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’’ एवी आपनी प्रतिज्ञा छे. अमारुं किङ्करीपणुं अने आपनी प्रतिज्ञा प्रसिद्ध छे. तेथी अमे जे भावथी भजीए छीए ते भावथी आप अमने भजो केमके आप व्रजजनोनी आर्तिने हरनार छो. वळी स्त्रीओना वीर छो. वीर होय ते शत्रुने जडमूळथी उखेडी नाखे. स्त्रीओनो शत्रु तो काम छे. ते गुप्त अङ्गोमां वसे छे तेने उखेडवामां आपना जेवो कोई नथी. तेथी स्त्रीओना वीर आप ज छो केमके श्रीकृष्ण विना कोई ए सम्बोधनने लायक नथी, कारण के बीजा बधा अपूर्णकाम छे. पूर्णकाम होय ते ज बीजानी कामनाने पूर्ण करे. तमारा अभिमान दोषने दूर करवामाटे हुं तमने भजतो नथी एम भगवान् कहे तो एना उत्तरमां कहे छे के आप तो स्मित मात्रथी निजजनोना गर्वने मटाडनार छो तेथी आपे दूर रहेवुं योग्य नथी. निजजननो पण धर्म ज दोषवाळो छे, पण जीव स्वरूपथी दोषवाळो नथी. स्वरूपथी जीव दुष्ट होय तो एने भगवान् निजमां न गणे. तेथी आप मुखकमळनुं दर्शन करावो अने पछी जुओ के आपनुं मुख देख्या पछी अमारामां दोष रहे छे के जाय छे. ए मुखने आप परीक्षा करवा तो एकवार बतावो.दशमस्कन्ध २७३ (ए ज अर्थने राजसी भाववाळी सखी बीजी रीते कहे छेः) प्रणत जनना पापने मटाडनार, गायो वगेरे तृणचरनी पाछळ फरनार, लक्ष्मीजीना निवासरूप, कालियनी फणा उपर धरेल आपनुं चरणकमळ अमारा कुचो उपर राखीने अमारा *कामने आप दूर करो ॥७॥
विशेष - आपना चरणने अमारा स्तन उपर स्थापन करो अने एनाथी हृदयमां रहेला कामने दूर करी दो. समुदाय अभिप्रायथी ‘कुचेषु’ एम बहुवचननो प्रयोग कर्यो छे अथवा अमारां स्तनना विरहभावथी टूकडे-टूकडा थई जाय छे तेथी बहुवचन कह्युं छे. प्रथम श्लोकमां मस्तक उपर हाथ मूकवानी प्रार्थना करी तेथी पासे आववानुं थशे एम धार्युं. बीजा श्लोकथी सम्बन्धनी प्रार्थना करी. तेथी स्पर्शादिक सिद्धि प्रार्थी छे अने आ श्लोकथी विपरीत रसनी प्रार्थना करे छे. अथवा बन्ध विशेषमां तिर्यक् भेद छे. तेटलाथी पण हृदयमां रहेलो काम निवृत्त थाय. अथवा लीलाशयनमां बधी बाजु रहेलाने भगवान्नो तेवो सम्बन्ध थाय छे. त्यां शङ्का करे छे के कठण स्तन उपर कोमळ चरण स्थापवानी प्रार्थना भावविरुद्ध गणाय! एना उत्तरमां कहेवानुं के ए चरण तो कालियना फणा उपर पण नाचीने आव्युं छे. एना जेवां अमारां स्तन क्रूर नथी. ए कालियना फणा उपर चरण राखी तेना दोषो दूर कर्या तेम अमारा हृदयना दोषने चरण स्थापन करी दूर करो. तो पण स्त्रीना हृदय उपर चरण धरवुं अयोग्य गणाय! एना उत्तरमां कहे छे के ए हृदय तो लक्ष्मीजीना स्थानरूप छे. लक्ष्मीजी त्यां स्पर्शने अनुभवे छे. त्यां कहे छे के तमे मूढ छो. तमारुं हित केम कराय! एना उत्तरमां कहेवानुं के आपनुं चरण तो गायोनी पाछळ फरनार छे, तो अमारा हृदयमां राखवामां शो वान्धो छे? त्यां कहे छे के तमे जितेन्द्रिय न होवाथी तमने अमे चरणस्पर्श नहि करावीए. एना उत्तरमां कहे छे के आपनुं चरण प्रणत जनना पापने मटाडनार छे. आपनी कृपाथी ज नम्रनां पाप घटी जायछे. अत्यन्त नम्र होवाथी धर्ममार्गनो परित्याग कह्यो. देहाभिमान होवाथी ज्ञाननो सम्भव नथी. प्रणत होवाथी अधोगति थवानीनथी. तेथी चरणवडे एनो उद्धारछे. चरणनुं चिन्तन, आलिङ्गन, स्पर्श वगेरेथी सर्वेष्ट सिद्धि थवीशक्य होईने तेने अन्य कांई करवानी जरूर रहेती नथी. (ए ज अर्थने एनाथी उत्तम सखी बीजी रीते प्रार्थे छेः) हे कमलनयन! हे वीर! मनोहर वाक्योवाळी अने विद्वानोने आनन्द आपनारी आपनी मधुर *वाणीथी आ आज्ञाकिन्त अने मोह पामती अमने दासीओने अधरामृतनुं पान करावीने जीवाडो ॥८॥दशमस्कन्ध २७४
विशेष - प्रथमनी गोपीए श्रीहस्त मस्तक उपर धरी उपकार करवानी विनन्ति करी, बीजीए चरणना सम्बन्धथी उपकार करवानी विनन्ति करी, त्रीजी आ गोपी मुखथी उपकार करवानी प्रार्थना करे छे. प्रथमनी बधी वात स्पष्ट रीते वाणीथी न कहेवाय त्यां सुधी वक्तव्य रसयुक्त थतुं नथी एवी रसनी मर्यादा छे. हे स्वामिन्! मधुरवाणीथी मोहित थती आ गोपीओने पोषण आपो. मोह (मूर्छा) मरण पहेलान्नी अवस्था छे, तो एने मरणथी बचाववी जोईए केमके ए आपनी आज्ञा उठावनारी छे. क्षणविलम्बे ए मरण-शरण थशे तेथी अङ्गुलिनिर्देशथी ‘आ’ कही बतावे छे. मोह तो मायारूप छे ते आपना सच्चिदानन्दरूपथी ज निवृत्त थाय. एमां आपनी वाणी आनन्दरूपा छे. सत्य अने प्रिय एवुं आपनुं वाक्य छे. विद्वानने हर्ष करनारी एटले ज्ञानरूप पण आपनी वाणी छे. मुखमां नेत्र छे. तेना व्यापार साथे आप कहो एम विनन्ति करतां कहे छे के आप कमळनेत्र छो. वळी अधरामृतथीपण पोषण करो एवी विनन्ति करी तेथी सर्वथा असाध्य व्याधिमां गुप्त रसोनुं पण पान कराववामां आवे छे. ‘वीर’ ए सम्बोधन छे. पूर्वप्रार्थित अर्थो स्मरणथी मूर्छाने वधारनारा थाय छे. आपनी कथारूपी अमृत संसारथी तपेलाओने *जीवाडनार छे, डाह्या-विद्वान (ज्ञानी) पुरुषो एनी प्रशंसा करे छे, पापनो नाश करनार छे, श्रवणने मङ्गळरूप छे, लक्ष्मीने आपनार छे, अपरिछिन्न (जगतमां व्यापीने रहेलुं) छे. ए छ धर्मविशिष्ट आपनी कथाने जे पृथ्वीमां सम्भळावे छे ते उदार-बहु मोटा दाताओ छे ॥९॥
विशेष - तमे जे प्रथम याचना करी ते भक्त होय तेने अपाय. तमे तो भगवद्विरहमां पण जीव्यां तेथी तमारामां स्नेह नथी एम निश्चय थाय छे. भगवान् तो निरपेक्ष होवाथी तमो जीवो के न जीवो एनाथी भगवान्ने कांई प्रयोजन नथी. एमने तो लक्ष्मी सरखी कोटिशः दासीओ छे. तेथी तमे जे प्रथम कह्युं छे के ‘‘तमारे माटे अमे प्राण धारण कर्या छे’’ ए वात असङ्गत लागे छे. तेथी तमारी प्रार्थना व्यर्थ छे! एवी शङ्का थाय एना उत्तरमां कहेवानुं के आ अमारुं जीवन अमारा प्रयत्नथी नथी थतुं, पण आपनी कथा, विरहथी अमारा प्राण जवाने तैयार थाय छे त्यारे तेने रोके छे. आपनी कथामां तो जेवुं स्वरूपमां सामर्थ्य छे तेवुं ज सामर्थ्य छे केमके आपनुं स्वरूप ऐश्वर्य आदि छ गुणवाळुं छे तेम कथामां पण ऐश्वर्य आदि छ गुण छे. ए पण मोक्ष आपनारी अने परमानन्द आपनारी छे. आपनी कथा अमृत छे; एटले भगवद्रसरूप छे जे सर्वना मरणने निवृत्त करे ते अमृत कहेवाय. तेथी एदशमस्कन्ध २७५ भगवद्रसरूप होवाथी मोक्ष अने परमानन्द ने आपनारी छे. जेवुं आपनुं स्वरूप छे तेवुं कथानुं स्वरूप थयुं. हवे धर्मी कहीने छ धर्मने कहे छे के तप्तना जीवनरूप छे. संसारमां दुःखी थयेलने जीवाडनारी कथा छे. अमृत तापने मटाडे छे. ए वात प्रसिद्ध छे. आ विशेषणथी भगवान्नो वैराग्य अथवा ज्ञानगुण कथामां कह्यो. उपर उपरथी तापने मटाडवापणुं जळमां पण छे ते करतां आ अमृत विलक्षण छे एम बताववामाटे कहे छे के शब्दना अर्थमां रसनो अनुभव करतां ज्ञानीओ जेनी स्तुति करे छे. एटले आ पद पण ज्ञान के वैराग्य बतावनार छे. कविओ पण देखीती रीते स्त्रीओनां पण वखाण करे छे. तेवुं कथामृत नथी ए बतावतां कहे छे के कथामृत तो पापने दूर करनार छे. अलौकिकने सिद्ध करनार वीर्य होय छे. ए धर्मरूप होय छे. ‘‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः’’ एवो पाठ लईए तो आ विशेष धर्मरूप थयुं. कथा धर्मने सिद्ध करनारी अने पापने दूर करनारी छे ए वात प्रसिद्ध छे. प्रायश्चित आदि पण पाप दूर करनार होय छे. कथामृत एनाथी विलक्षण छे. एम बताववामाटे ए श्रवण करतां ज मङ्गळ आपनारी छे अने प्रायश्चित आदि तो गोमयादि लेपनवडे अमङ्गळरूप छे, घोररूप छे. कथा एवी नथी पण मङ्गळरूप छे. तेथी यशकीर्तिरूपता कथामृतमां सिद्ध थई. पुत्रजन्म आदि साम्भळतां आनन्द आपनार छे एना करतां कथानी विलक्षणता कहेवा फरी विशेषण आपे छे के ए लक्ष्मीने आपनारी छे. पुत्र आदि जन्ममां तो लक्ष्मीनो व्यय थाय छे; कथामृत तो लक्ष्मीने पण अपेक्षित छे तेथी श्रोता वक्ता बन्नेने श्री-लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय छे. राज्य आदिनी प्राप्ति लक्ष्मीनो लाभ आपनारी छे तेथी पण कथानी विलक्षणता कहे छे के ए कथारूपी अमृत तो सर्वत्र व्याप्त छे. राज्यादि देश-कालथी परिछिन्न छे. एनाथी ऐश्वर्यादि बताव्युं. कथामृत तो सर्वलोकमां व्याप्त थईने रह्युं छे, जेवा भगवान् व्यापीने रह्या छे तेम; तेथी स्वरूपथी अने धर्मथी भगवान्ना जेवी भगवत्कथा छे. एनावडे अमारुं जीवन थयुं छे ए पण आपे ज जीवन सम्पादन कर्युं गणाय. आपनाथी पण कथामां विशेषता ए छे के आप स्वरूपथी कोईने मारो खरा, परन्तु कथा सर्वने जीवाडे ज. आप स्वतन्त्र, कथा तो अमने ‘अधीन’ एटले परतन्त्र. आप तो अवतार धरो ते ब्रह्माजी आदि प्रार्थना करे त्यारे पधारो, आवीने चाल्या पण जाओ. कथानो तिरोभाव कोई काळे थतो नथी. माटे एवुं कथामृत पृथ्वी उपर जे आपे छे ते बहु आपनार छे. ए बहु द्रव्यना आपनार व्यास आदि छे ते बहु आपनार अने मरण आदि धर्मरहित छे एटले केवळ भगवद्रूप छे, जनन (जन्म) आदि दोषरहित छे; परन्तु कथारूपी अमृत विरल छे केवळ मरण थतुं होय तो बचावी शके, परन्तु एकत्र थईने रसनो समुदाय आपनार नथी. द्रवरसदशमस्कन्ध २७६ अने घनरसमां फेर तेटलो आपनामां अने कथामां फेर छे. जो एम न होय तो बधा कथाथी ज सन्तोष पामे. पण विरह वखते मरतां बचावनारी कथा छे तेथी ए भगवद्रूपे स्तुतिने पात्र छे. अमारुं जीवन पण आपनी कथाएज टकाव्युं छे. हे प्रिय! आपनुं विशेष (अत्यन्त) हसवुं, प्रेमपूर्वक जोवुं, विहरण करवुं, एनुं ध्यान करतां ए मङ्गळरूप छे अने हृदयने स्पर्श करनार एकान्तनी वार्तानुं ज्ञान ए बधुं हे कपटी! अमे याद करीए छीए त्यारे ए अमारा मनने क्षोभ करनार* थई पडे छे ॥१०॥
विशेष - आ बोलनारी तामसी छे. एनुं कहेवुं एवुं छे के कथाथी जीवन तो थई शके छे, परन्तु जो भगवान्ना धर्म मनने क्षोभ न करे तो जीवन टकवानो सम्भव खरो. भगवान्मां जेम ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य ए छ धर्म छे तेवा ज बीजा छ व्यामोहक धर्म पण छे. जो ए व्यामोहक धर्मवडे भगवान् मोह न करे तो ए कथाथी बधुं काम बनी जाय. पण भगवान् तो मायावडे कपट लीला पण करी जाणे छे. आ तामसीना स्वभाव दोषथी ए पोतानो दोष भगवान्मां जुए छे. जेम ताववाळाने अन्न अमृत जेवुं होय तेमां विरसता लागे छे ते स्वदोषथी ज छे. तेथी कहे छे के तमारां प्रहसित वगेरे अमारा मनने क्षोभ करावे छे. एक तो स्वभावथी अमे दुःखी होईए त्यारे प्रिय अमारो त्याग करी अन्य साथे रहे छे, पछी आवीने ऊञ्चेथी हास्य करे छे तेथी अमारा मनमां अतिक्षोभ थाय छे. वळी आप प्रिय छो तेथी आपनुं स्मरण पण अमारा क्षोभनुं कारण थई पडे छे. तेथी जेने आपनो सम्बन्ध नथी तेना मनमां क्षोभ पण नथी. वळी आप ज्यारे प्रेमथी विशेष दर्शन करो छो त्यारे अमने क्षोभ थाय छे. एनुं स्मरण पण क्षोभजनक एटलामाटे थाय छे के आप एम जोवामां अन्तःकपट राखो छो. जो एम न होय तो कार्यमां विसंवाद न थाय. आपनुं जोवुं अमारा मनने ऊञ्चुं करी दे छे अथवा आशा उत्पन्न करे छे. ए आशा पूर्ण नथी थती तेथी आपनामां कपटनी सम्भावना थाय छे. आप वेणु वगाडता चालो छो ए आपनो विहार पण स्मरणमात्रथी क्षोभजनक छे. आप रसरूप छो. रस एनी खाणमान्थी बहार नीकळे छे के तरत विशेष करीने एनुं हरण थाय छे. एटले वेणु वगाडतां त्रिभङ्गललित आदि भाव स्वरूपथी प्रकट करो छो ए प्रथम अमारा ध्यानमां आवेल छे तेथी एनुं ध्यान पण मङ्गळरूप छे. ए मङ्गळरूपता संयोगमां हती, अत्यारे तो एनुं स्मरण पण मनने क्षोभ करे छे केमके आप अत्यारे दर्शन आपता नथी. बीजुं जे कपटथी करो छो ते तो रह्युं, मुख्य बाबत गणावी छे. एम चार प्रकार रूपने उद्देशीने कह्या अने बे प्रकार नामलीलामां क्षोभक छे ते गणावे छे.दशमस्कन्ध २७७ आप ज्यारे एकान्तमां अमने कहो छो ते ज्ञानरूप प्रकार छे ते पण शास्त्रार्थरूप होय छे. ए वाणी अमारा हृदयनो स्पर्श करनारी थाय छे केमके ए अमने लायकनी वात आप अमने कहो छो तेथी अमने सुख थाय छे, पण ज्यारे ए सङ्केत आपनो खोटो पडे छे त्यारे प्रिय आपणने कहेता हता ए खरा रूपमां नहि पण कपटभावथी कहेता हता एम ज्यारे अमे वचिन्त थईए त्यारे समजाय छे; त्यारे अमारा मनने दुःख थाय छे. आ वात अनुभवसिद्ध छे. ए सर्व जाणे छे तेथी हि शब्द कह्यो छे. आमां एकान्तमां वाचिक सङ्केत अने हृदयस्पर्शी वाणी एम बे विभाग लेवाना छे; त्यारे छ धर्मी थाय, नहि तो पाञ्च थाय. तेथी स्पष्टता करी छे. एकान्त संविद्मां केवळ मोहक वाणीनो आडम्बर होय छे, ज्यारे हृदयस्पर्शी वाणीमां स्वानरूप बन्ध आदिथी रमवानी वातो होय छे एटलो भेद पण समजवानो छे. हे नाथ! आप व्रजमान्थी पशुने लईने वनमां पधारो छो त्यारे कमळ करतां पण कोमळ आपनुं *चरणकमळ काङ्करी, तृण अने दर्भ आदिना अङ्कुरोथी पीडित थाय छे तेथी अमारां मनने खेद थाय छे ॥११॥
विशेष - अमारो तो आपनामां एवो स्नेह छे के आप अन्यत्र पधारो त्यां खेदनी सम्भावना पण होय, तो पण अमने दुःख थाय छे. अमे खरी रीते दुःखी होईए तो पण आपने दुःख थतुं नथी ए न्याय विरुद्ध गणाय. ए कहे छे के ज्यारे आप व्रजमान्थी पशुओ चराववामाटे वनमां पधारो छो त्यारे कमळ करतां पण कोमळ आपनुं चरण, हे नाथ! मार्गमां पडेला कङ्कर अने दर्भ ना अङ्कुरथी दुःखी थाय छे तेथी अमारा मनने दुःख थाय छे. खरी रीते तो आपने एनो खेद नहि थतो होय, नहि तो बीजे दिवसे आप न जाओ. खरी रीते तो आपनुं चरण अमारा स्थानथी बहार जतुं नथी, पण आप ज एने बळात्कारे लई जाओ छो. वळी व्रजमां रहेली गायोने वनमां लई जाओ तेने मार्गे चालतां तो खावानुं मळे नहि, माटे ज्यां घास होय त्यां अमार्गे पण एने फेरववी पडे. पृथ्वीनी उपर अनुग्रह करवामाटे आप चरणमां पादुका धरता नथी. आप पशुपाळ होवाथी पशुचर्म तो पहेरो नहि त्यारे कमळ करतां पण कोमळ चरण एवा रस्तामां काङ्कराथी अने अङ्कुरथी पीडाय छे. अर्हीथी वनमां जनारनी खोट नथी. तेओ गोचारण आदि करी आवे छतां आप स्वयं जाओ छो एनुं कारण समजातुं नथी. वनमां त्रण जातनी भूमि पर्वतरूप, अरण्यरूप अने कच्छरूप (भीनी-कादव-कीचडवाळी) होय छे. तेमां एकेकमां एकेक लो अथवा सर्वमां सर्व लो. अमे तो अबळा एटले अशक्त तेथी त्यां आवी ए दुःखनो उपाय न करी शकीए. एने लीधे चिन्ता थाय छे, नहि तो त्यां जई अमारा हृदय उपर ए चरणने अमे पधरावीए.दशमस्कन्ध २७८ हे वीर! *दिवस पूरो थती वखते (सन्ध्याकाळे) श्याम कुन्तलथी घेरायेलुं अने गायोनी रजथी व्याप्त कमळना जेवा मुखने धारण करता अने वारंवार दर्शन करावता आप अमारा मनमां स्मर (काम) ने प्रकट करो छो ॥१२॥
विशेष - एम सात प्रकारे कुमारिका कही, चार प्रकार अन्यपूर्वाना पण कह्या. हवे क्रमवडे छ प्रकार अन्यपूर्वाना कहेवाय छे. एमां प्रथम राजसीनुं वचन छे. ए बहार जईने जोई शक्ती नथी. ज्यारे सन्ध्या वखते भगवान् व्रजमां पधारे छे त्यारे भगवान्ने जोईने एना मनमां काम उत्पन्न थाय छे; त्यारे बन्ध अने अमृत नी प्रार्थना करे छे. अनन्यपूर्वानो तो काम नित्य होवाथी एवी प्रार्थना करवानी जरूर नथी. दिवसनो क्षय कह्यो तेथी दिवसमां एने द्वेषबुद्धि छे एम जणाय छे. सायङ्काळ रजोगुण अने कामनो काळ छे. भगवान्ना कुन्तल श्याम छे ते भमरानी माफक मुखने र्वीटाईने रह्या छे, जेम भमराने कमळने र्वीटाईने रहे छे. ए मुखकमळना लावण्यामृतने पीनार छे तेथी कुन्तलावृत श्रीमुख कह्युं छे. एने बतावीने आप अमारा हृदयमां कामने उत्पन्न करो छो. वळी गोधननी रजवाळुं आपनुं श्रीमुख छे तेने पुनः-पुनः (फरी-फरी) बतावो छो. एम जोवुं स्वापेक्षासूचक छे. ए स्मरजनक होई शके. निरन्तर दर्शन करावो तो एम न थाय; तेथी कामाग्निने फूङ्कवा जेवुं वारंवार जोवुं छे. एम करो छो त्यारे ए कामने दूर करवामाटे युद्ध अवश्य करवुं पडे तो आप ए बाबतमां वीर छो तेथी सम्बोधनमां ‘वीर’ पदनो प्रयोग कर्यो छे. धनथी रजस्वल कह्युं तेथी श्रमनुं सूचन थाय छे. वनरुह कह्युं तेथी वनमां उपभोग्य छे तेथी गृहरमण पक्षनी निवृत्ति सूचित थई. ए अवस्था बळात्कारे धारण करी छे, नहि तो मुखमार्जन करी पधारे तो एमनां दर्शनथी ज्ञान ज थाय. धनसम्बन्धी रजवाळुं मुख तो काम ज उत्पन्न करे. पात्रमां रहेल अन्य वस्तु अन्यने अपाय तेम मुखने धारण करी एमां रहेला कामने मनमां आप मूको छो एवुं बिभ्रत् शब्दनुं तात्पर्य छे. आप ज्यारे भोगार्थ काम रसने अमारा मनमां धारण करो छो तो ए भोग आपे करवो जोईए. आ काम आपनी पासेथी आव्यो छे तेथी बीजाथी एनी शान्ति न ज थई शके तेथी आपे ज ए पूरणीय होईने पूरण करवो आवश्यक छे. (एनाथी उत्तमा अनन्यपूर्वानी जेम स्तन उपर *चरण धारण करवानी प्रार्थना करतां कहे छे के) आपनुं चरण पण छ गुणवाळुं छे. अनन्यभावे आपने शरणे आवानार जीवोनी अभिलाषाए पूर्ण करनारुं ब्रह्माजीए पूजेलुं (लक्ष्मीजीए अर्चन करेलुं), पृथ्वीने अलङ्कृत करनार, आपत्कालमां (दुःखना समयमां) ध्यान करवा योग्य, अत्यन्त सुखरूप एवुं आपनुं चरणकमळ, हे रमण!दशमस्कन्ध २७९ अमारां स्तन उपर अर्पण करो केमके मननी पीडा (आधि) ने हरनार आप विना बीजो कोई नथी ॥१३॥
विशेष - पहेलां कुमारीनी प्रार्थना हती, अर्ही अन्यपूर्वानी प्रार्थना छे एटले पुनरुक्ति नथी, पण चरणनुं विशिष्ट माहात्म्य प्रतीत थाय छे. पहेलुं दोषनिवर्तक चरण हतुं ज्यारे आ गुणाधायक छे. हे रमण! रति करनार अमारां स्तन उपर चरणकमळ धरो, कारण के आप मानसी चिन्ताने दूर करो. हृदयना ताप अने चिन्ता आपे दूर करवां जोईए. एमां पण दृष्ट उपायथी दूर करो. अमे आपनुं चरण हृदयमां राख्युं छे ते बहार तो नहि आवे तेथी आपे तो चरण बहार स्थापन करवुं. ए चरणना पण भगवान्नी जेम छ धर्म छे. प्राणीने काम पूरक छे तेथी ऐश्वर्य कह्युं. भगवान्मां रहेलो काम स्तब्धथी लई शकातो नथी तेथी प्रणाम करनार ज एने सम्पादन करी शके छे. (ब्रह्माजी अथवा) पद्मजा=लक्ष्मीए पूज्युं छे तेथी ए चरण लक्ष्मीना धर्मरूप छे. ब्रह्माजीनी प्रार्थनाथी पृथ्वी उपर आव्युं तेथी कीर्तिरूपता छे. धरणीना शृङ्गाररूप छे तेथी श्रीरूपता कही. आर्तिमां ध्येय तेथी पण श्रीरूप के कीर्तिरूप गणाय. ‘शन्तम’ एटले कल्याणरूप तेथी ज्ञानरूपता अने ‘चरणपङ्कज’ शब्दथी वैराग्यरूपता ‘रमण’ शब्दथी ईष्टप्रापक्ता कही. ‘आर्तिहन्’ शब्दथी अनिष्ट निवारकता कही अथवा लोकमां जे पाञ्च प्रकारे उपकार करे छे ते अमारो एक ज उपकार करे एवी प्रार्थना करे छे. प्रकर्षथी नम्र होय तेना कामने दूर करनार छे. ऐश्वर्य आदि कामने माटे ब्रह्माजीए पूजेलुं धरणी स्त्री छे ते अनलङ्कृत होय तो भोग न थाय; तेथी एना अलङ्कारमाटे स्थापन करेलुं, भगवान् करतां पण चरण मोटुं छे, कारण के ए आपत्तिमां ध्यान मात्रथी दुःख दूर करी मङ्गळ आपे छे. जेम ए सर्वना उपकार करवामां तत्पर छे तेम अमारो पण उपकार एकरो. सुरतने वधारनार, शोकनो नाश करनार, स्वरवाळा वेणुथी चुम्बित एवुं, मनुष्यमात्रना अन्य रागने भुलावनार, हे वीर! आपनुं अधरामृत अमने* अनधिकारी निःसाधन जीवोने) दान करो ॥१४॥
विशेष - आप अमने अधरामृत आपो. ए अधरामृत गुणाधायक छे. ए चार गुणवाळुं छे केमके एमां ज्ञान अने वैराग्य नथी. एमां प्रथम ऐश्वर्य कहे छे के ए सुरतने वधारनार छे. गोपीओनो काम परिछिन्न छे ते अपरिछिन्न साथेना कामथी क्लिष्ट थाय. जेम रस भूखने उत्तेजन आपनार छे तेम आ रस अमारा कामने वधारनार छे; कामने पोषे छे एटलुं ज नहि, पण अन्तःकरणना सर्व दोषने दूर करे छे तेथी शोकनो नाश करे छे. आथी वैराग्यरूपता कही अथवा ज्ञानरूपता कही. ज्ञान अने वैराग्य ज शोकने दूर करनार छे. स्वरितवेणुए सारीदशमस्कन्ध २८० रीते चुम्बन करेल एनाथी यश कह्यो. इतर रागने विस्मरण करावे तेथी श्रीरूप छे; बधाने भुलावनारी छे. पुरुषार्थरूप होवाथी प्रमेयबळ कह्युं. स्वरितवेणुथी प्रमाणबळ कह्युं. सुरतवर्धनथी साधनबळ कह्युं. शोकनाशक होवाथी फळबळ कह्युं. जो के ए देवानी वस्तु नथी, पण दानशील होय ते दई शके तेथी प्रार्थना करी छे अने सम्बोधनमां ‘वीर’ शब्द पण एवी जातनुं शौर्य प्रकट कराववामाटे वापरवामां आव्यो छे. (एम निरूपण करीने तामसीओना प्रकारने निरूपण करे छे. देवनी निन्दा करनारी सात्विक-तामसी, भगवद् निन्दा करनारी राजस-तामसी अने पोतानी निन्दा करनारी तामस-तामसी तेने त्रण श्लोकथी कहे छे. एमां प्रथम ब्रह्मानी निन्दा करनारी कहे छेः) आप ज्यारे दिवसे वनमां पधारो छो त्यारे आपनां दर्शन नहि थवाथी अमने एक क्षण पण युगनी बराबर लागे छे केमके ए वखते आपनां दर्शन थतां नथी अने कुटिल कुन्तलवाळुं (वाङ्कडीया केशवाळुं) श्रीमुख अमे जोईए छीए त्यारे आङ्खमां पाम्पणो करनार *ब्रह्माजी अमने जड लागे छे ॥१५॥
विशेष - आप दिवसे वनमां फरो छो, त्यारे एक क्षण अमने आपना वियोगने लीधे युग जेवडी लागे छे. ज्यारे आपनां दर्शन थाय छे त्यां कुटिल कुन्तलवाळा आपना श्रीमुखनुं दर्शन थाय छे त्यां अमने आङ्खमां पाम्पण करनार ब्रह्मा मूर्ख लागे छे. कारण के देवोने भगवान्नुं दर्शन तो कोई दिवस थतुं नथी छतां एने पाम्पणो नथी करतो. एनुं कारण तो ए ज के देवो अलौकिकने जोनार छे. परन्तु देवना अलौकिक करतां हजार गणुं अलौकिक भगवान्नुं रूप अमे जोईए छीए तेवा अमने ब्रह्मा आङ्ख आडे पाम्पण करीने बेठो तेथी एणे ए अयोग्य कर्युं एटले अयोग्य करनार मूर्ख कहेवाय तेथी अमे तेने जड कह्यो. देवो घणो समय जीवे छे तो अमे पण भगवान्ने नथी जोता त्यारे (त्रुटि) चपटी बजाववामां वखत लागे तेटलो वखत वियोगसमय युग जेवो थाय छे. एवा अमारे पण घणा युग जाय छे त्यारे भगवान् दर्शन आपे छे. ए पण भगवान्नुं वनमां जवुं सार्थक थतुं होय तो कांई चिन्ता नहि, पण ए तो दिवसे वनमां फरे छे. अरण्यमां कोई पुरुषार्थ सिद्ध थतो नथी अने अमो घरनी बहार नीकळी शक्तां नथी ए कहेवाथी अत्रे ब्रह्मानी निन्दा सिद्ध थई. (जेमनुं उल्लङ्घन न थई शके तेवा) पति, पुत्र, वंश, भाई अने सगांओनुं उल्लङ्घन करीने *हे अच्युत! गतिने जाणनार अमे आप गतिने जाणनारनी पासे आव्यां छीए; गतिना जाणकार आपना उच्च गानथी मोहित थयेली स्त्रीओनो, हे कितव (कपटी) रात्रिनी वेळाए (अरण्यमां) कोण त्याग करे? ॥१६॥दशमस्कन्ध २८१
विशेष - हे कामनिवृत्तिना भयरहित! पति, पुत्र, वंश, भाईओ ए बधाना माननीय छे छतां एमनी अवगणना करीने अमे आपनी पासे आव्यां छीए. तमे बधानी गतिने जाणो छो. जेनी गति थाय छे तेना आपनार आप ज छो अथवा गतिने जाणनार अमे छीए केमके पति, सुत आदिना भजन अने भगवद्-भजननुं तारतम्य अमे जाणनार छीए. तमारा उच्च गानथी अमने मोह थयो छे. अमने मोह करावी अरण्यमां लाव्या तो रातना समये स्त्रीओने जङ्गलमां कोण छोडी दे? तेथी आपने कपटी कह्या, अने अमे (कितवयोषितः समास लईने अर्थ करतां) कपटीना सम्बन्धवाळां थयां. कपटी होय ते कोई बहानाथी अरण्यमां लई जईने एनुं सर्वस्व हरी लईने एने अरण्यमां ज छोडी दे छे. एना करतां पण आपनुं छोडवुं विलक्षण छे केमके आपे जे कार्यमाटे अमने बोलाव्यां ते कार्य पण आपे छोड्युं अने अमने पण छोड्यां तेथी आपनुं कपट केवा भाववाळुं छे ते अमे कोई जाणी शक्तां नथी. आ श्लोकमां भगवान्नी निन्दा स्पष्ट छे. (उपर बोलनारथी उत्तम सखी पोताना आत्मानी ज निन्दा करतां कहे छे के) एकान्तमां आपना बोलेला शब्दोनुं ज्ञान कामने उत्पन्न करनार होईने मोह करनार छे; प्रहसनयुक्त मुखारविन्द पण मोहक छे, प्रेमपूर्वक जोवानुं पण मोहक छे; वळी आपनुं विशाळ वक्षःस्थळ लक्ष्मीना निवासरूप छे तेने जोतां पण अति स्पृहाथी अमारुं मन वारंवार *मोहित थई जाय छे ॥१७॥
विशेष - एकान्तमां कहेली वातोनुं ज्ञान करावनार, कामनो उदय करनार, प्रहसन युक्त मुख छे जेमां एवुं, प्रेमपूर्वक जोवुं अने लक्ष्मीने विलास करवा लायक मोटा वक्षःस्थळने जोईने अमने मोह थाय छे. ए कहेवाथी भगवान्ना रूपना पण छ धर्म कहेवामां आव्यां. एकान्तमां ज्ञान जेनाथी थाय छे, कामनो उदय जेनाथी थाय छे, प्रहसनवाळुं अने प्रेमपूर्वक कटाक्ष युक्त मुख अने विशाळ वक्षःस्थळ लक्ष्मीने रहेवामाटे छे जेमां एवा रूपने जोईने वक्षःस्थळमां पोतानी स्थितिमाटे यश अने श्रीनुं निरूपण कर्युं. मुखमां हसवुं कह्युं एनाथी काम थाय. प्रेमलक्षणाथी ए काम स्थिर थाय त्यारे स्वयोग्यता थाय, त्यारे भोगचातुर्य प्रथम विशेषणथी थशे अने बीजुं बधुं पण थशे एम स्पृहावाळुं मन मोहित थाय छे. वारंवार मूर्छा थाय एवुं जीवन धिक्कारवा योग्य गणाय तेथी आ श्लोकमां आत्मनिन्दा थई. हे अङ्ग! व्रज अने वन मां रहेनार मनुष्योने आपनुं व्यक्त स्वरूप सर्व पापथी मुक्त करे छे. वळी आपनुं स्वरूप अखिल विश्वनुं मङ्गळ करनार छे तेम ज स्वजनना-गोपीजनोना हृदयना रोगोने दूर करनार* आपनुं स्वरूप छे, तोदशमस्कन्ध २८२ आपनी स्पृहावाळां अमोने आपना ए स्वरूपनुं थोडुं तो दान करो ॥१८॥
विशेष - आपनुं स्वरूप व्रज अने वन मां रहेनारनां पापनो नाश करे छे. जगतमां मङ्गळरूप छे, अमारा ज दोष मटाडनार छे, सर्वमां गुण धारण करनार छे. तमारामां अति स्पृहावाळां अमे छीए तेथी आप ए थोडुं बतावो, जेवी रीते स्वजनरूप गोपीजनना कामरूप रोगने मटाडो तेवा रूपमां बतावो. आपनुं स्वरूप केटलाकनां पापनो नाश करे छे, केटलाकने फळ आपे छे, त्यारे ए स्वरूप अमारा हृदयना रोगने दूर करनार थाओ. यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ॥ तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥१९॥
आपनुं सुन्दर *चरणकमळ अमारां कठण स्तन उपर धरतां अमे डरीए छीए तेथी बीतां-बीतां धीरेथी पधरावीए छीए ते ज चरणकमळवडे आप वनमां फरो छो तेथी आपने माटे जीवनार अमारुं मन हे प्रिय! त्यां कङ्कर पथ्थरथी आपना चरणने शुं दुःख नहि थतुं होय? एवो विचार करतां भ्रान्त थई जाय छे-बुद्धिने भ्रम थाय छे ॥१९॥
विशेष - सारी रीते बनेलुं कमळ सुगन्धमां, शीतलतामां अने रूपमां सुन्दर होय छे तेवुं आपनुं चरणारविन्द अमारा स्तन उपर धरतां ए कठिन होवाथी अमे धीरेथी धारण करीए छीए. आप प्रिय छो तेथी स्नेहथी अमे धारण करीए छीए. ए कोमळ चरणवडे आप वनमां फरो छो. ए पोते सुखी रहीने बीजाने दुःख देता हो तो कांई वान्धो नहि, पण आप त्यां दुःखी थाओ छो तेथी अमारुं मन भ्रमित थाय छे. एमांय अमे आपनामाटे जीवीए छीए ते ज्यारे आ दुःखने याद करीए छीए त्यारे अमने मूर्छा थाय छे. बहिःसंवेदनमां गान, अन्तःसंवेदनमां लीलावेश एम जेटलो ताप जीवथी सहन थाय तेटलो भगवद् वियोगमां गोपीजनोने थयो ए वात अर्ही कहेवामां आवी. इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा फल-पेटा-प्रकरणनो यश निरूपक त्रीजो अने चालु) ‘‘गोपीजनोए गायेलुं-गोपीगीत’’ नामनो एकत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां अठ्यावीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.दशमस्कन्ध २८३
अध्याय ३२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय २९ गोपीजनोना रुदनथी भगवान् त्यां प्रकट्या तामस फल प्रकरण अध्याय ४ (रासपञ्चाध्यायी अध्याय ४)
विशेष - ए प्रमाणे आ अध्यायमां गोपीजनो कोई उपाय न सूझतां श्रीकृष्णने मळवानी इच्छाथी रडवा लाग्यां, त्यारे तेओने निःसाधन जाणी प्रभु प्रसन्न थया ए कहेवामां आवे छे. त्यारे गोपीजनो पण भगवान्ना प्रादुर्भावथी प्रसन्न थईने भगवान्ने प्रश्न करी पोताना मनना सन्देहने दूर करवामाटे भगवान्नी पासेथी एनो निर्णय कराववा तत्पर थयां ए कहेवाय छे. कोई दिवस कोईनी साधनसम्पत्तिथी हरि प्रसन्न थता नथी, पण भगवान्ने प्रसन्न करवानुं कोई साधन भक्त पासे होय तो ए एक दैन्य ज छे. जो प्रभु प्रसन्न थया तो सर्व रीते बधां दुःखोनो नाश करे. तेथी निर्णयनां वाक्य भगवान्ना भजननी सिद्धिने माटे कहेवामां आवे छे.(कारिका) इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ॥ रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! पहेलां वर्णन कर्युं ते प्रमाणे गातां अने अनेक प्रकारे प्रलाप करतां गोपीजनो, श्रीकृष्णनां दर्शननी इच्छाथी ऊञ्चा स्वरे रडवा लाग्याम् ॥१॥
ए रुदन करतां गोपीजनोनी वचमान्थी ज स्मितयुक्त मुखवाळा, पीताम्बरने धरनार, वनमाळाने धारण करनार, साक्षात् कामदेवना मनने मथनार शूरसेनजीना पौत्र श्रीकृष्ण (शौरि) प्रकट थया ॥२॥
ए परम प्रिय प्रभुने पधारेला जोईने बधां गोपीजनोनां नेत्रो प्रीतिथी प्रफुल्ल थई गयां अने जेम हस्त वगेरे शरीरनां अवयवो प्राण आववाथी सचेतन थाय तेम ते बधां गोपीजनो एक साथे ऊभां थई गयाम् ॥३॥
कोईक गोपीजने भगवान्नुं हस्तकमल आनन्दथी पोतानी अञ्जलिमां धारण कर्युं. कोईक गोपीजने भगवान्ना चन्दनवाळा श्रीहस्तने पोताना खभा उपर मूक्यो ॥४॥
कोईक सुकुमार (कोमळ)गोपीजने भगवान्ना आरोगेला पाननी प्रसादी,दशमस्कन्ध २८४ अञ्जलिवडे ग्रहण करी तो कोईक विरहथी अत्यन्त तपेलां गोपीजने भगवान्नुं चरणकमल पोताना स्तन उपर धारण कर्युम् ॥५॥
प्रेमना आवेशथी विह्वल थयेलां एक गोपीजन भवां चढावीने, दान्तवडे होठ डसीने कटाक्षोथी प्रहार करतां होय तेम जोवा लाग्याम् ॥६॥
कोईक बीजां गोपीजन भगवान्ना मुखारविन्दनुं अनिमिष दृष्टिथीएकीटसे-पान करतां हतां तो पण जेम सन्तपुरुषो भगवान्ना चरणना रसथी तृप्ति पामता नथी तेम ते तृप्ति पाम्यां नहि ॥७॥
कोईक गोपीजन नेत्रद्वारथी प्रभुने हृदयमां धारण करी, आङ्खो र्मीची दई, रोमाचिन्त थई, प्रभुने आलिङ्गन करी, योगीनी माफक आनन्दमग्न थई बेठाम् ॥८॥
हे तात! ते बधां गोपीजनो भगवद् दर्शनरूपी परम उत्सवथी सुखी थयां अने जेम मनुष्यो परमात्माने पामीने तापथी मुक्त थाय छे तेम ते विरह तापथी मुक्त थयां ॥९॥
जेनो शोक निवृत्त थयो छे तेवां गोपीजनोथी भगवान् र्वीटाई रह्या त्यारे, पुरुष जेम पोतानी शक्तिथी शोभे छे तेम, भगवान् गोपीजनोना समुदायनी वचमां अधिक शोभवा लाग्या ॥१०॥
ज्यां कुन्द अने मन्दारनां पुष्पो खील्यां छे, ज्यां सुगन्धवाळो पवन वहे छे अने भ्रमरोवाळा श्रीयमुनाजीना काण्ठा उपर ए बधान्ने लई जईने भगवान् पोते विभुव्यापक थया ॥११॥
शरदचन्द्रनां किरणोवडे रात्रिनो अन्धकार जवाथी ए तीर सुखकर देखातुं हतुं. श्रीयमुनाजीना तरङ्ग (मोजां) रूप हस्तोथी पथरायेली कोमळ रेतीथी सुशोभित काण्ठा उपर भगवान् गोपीजनोनी साथे जई पहोञ्च्या ॥१२॥
गोपीजनोए ए काण्ठो अने भगवान् ए बन्नेनी साथे पोते प्रथम सुख प्राप्त कर्युं छे तेवो ज समय जोईने तेमना मननां दुःख दूर थयां एटलुं ज नहि, पण श्रुतिओए जेम भगवद् गुणगान करीने भगवदानन्द प्राप्त कर्यो हतो तेम गोपीजनोए पण भगवदानन्द प्राप्त कर्यो. पछी पोताना कुचकुङ्कुमथी अकिन्त पोतानां उत्तरीय वस्त्रो (ओढणां) बधांओए पोताना आत्माना बन्धु भगवान्ने आसननेमाटे अर्पण कर्या ॥१३॥
योगेश्वरना हृदयमां जेना आसननी कल्पना थाय छे तेवा छ गुणवाळा एदशमस्कन्ध २८५ ईश्वर गोपीजनोनां ते वस्त्रोरूपी आसन उपर बिराज्या (अने ते द्वारा बधां गोपीजनोमां बिराज्या) अने त्रण लोकनी शोभाना एक ज स्थानरूप श्रीअङ्गने धारण करतां भगवान् गोपीजनोनी सभामां तेओए करेली पूजा स्वीकारीने शोभवा लाग्या ॥१४॥
गोपीजनोए भगवान्ने प्रसन्न जोया. तेओए पोताना अन्तःकरणनो दोष दूर करवामाटे ए दोष पहेलां भगवान्मां कल्प्यो हतो तेने हृदयमान्थी काढी नाखवा सारु आपनामां ए दोष छे के नथी एनो निर्णय भगवान् पासेथी कराववाने पूछवा लाग्यां. हास्य अने लीलापूर्वक भ्रूकुटी नचावीने गोपीजनोना हृदयमां अनङ्गने- कामने उद्दीपन् करता भगवान्नो सत्कार करीने भगवान्नां बन्ने श्रीचरणने पोताना श्रीहस्तथी स्पर्श करतां स्तुति करीने जराक कोप करीने गोपीजनो बोल्या ॥१५॥
गोपीजनोए कह्युं - *केटलाक भजनारने भजे छे ज्यारे बीजा पोताने नहि भजनारने पण भजे छे, ज्यारे केटलाक तो भजन करे छे तेने, अने भजन न करे तेने पण भजता नथी एनुं कारण शुं? एमां कोण श्रेष्ठ एनो उत्तर सारी रीते आप अमने समजावो ॥१६॥ (भजनना भेद अने फल शुं ते समजावो.)
विशेष - साधनथी, फलथी अने स्वरूपथी त्रण पक्ष अर्ही सन्दिग्ध छे. भजन अने अभजन थी केटलाक भजनार छे, केटलाक भजन करनार नथी ए बे पक्षमां केटलाक तो बीजो जेम पोताने भजे तेम एनी जेम पोते पण एने भजे छे. बीजो पक्ष एथी जुदो छे ते न भजनारने भजे छे. त्रीजो पक्ष भजनारने भजतो नथी, न भजनारने पण भजतो नथी. ए त्रणमां भजनार अने न भजनारने शुं फल? जे भजनारनी जेम भजे छे ते एना कार्यनो नाश करे छे के ते धूर्त छे के ते सारा छे? जेम कोईने त्यां आपणे गया तो एणे आपणा पग धोया, तो ए आपणे त्यां आवे त्यारे आपणे पण एना पग धोवा. एम करवाथी शुं थाय? फळनेमाटे एणे कर्युं होय तो फळ आपवुं जोईए. सामा माणसे पण एम करवुं जोईए. ए निरपेक्षताथी करे एमां तो सन्देह ज रहे छे. तेथी प्रश्न पूछवो पड्यो छे. न भजनारने भजवामां क्वचित् दोष उत्पन्न थाय छे. जेम निष्कामने कामिनी भजे; कश्यप अने अदिति नो प्रसङ्ग (श्रीभागवत स्कन्ध ३ अध्याय १४) दोषोत्पत्तिनुं दृष्टान्त छे. क्वचित् उपकार थाय छे, आग्नीध्र अने पूर्वचित्ति (श्रीभाग. स्कन्ध ५ अध्याय २) एना दृष्टान्तरूप छे. क्वचित् स्नेह (उर्वशीना उपाख्यानथी-श्रीभागवत् स्कन्ध ९ अ.४) सिद्धदशमस्कन्ध २८६ थाय छे. क्वचित् धर्म सिद्ध थाय छे; सुदर्शन अने ओघवती (महाभारत चित्रोपाख्यान) धर्ममां दृष्टान्तरूप छे. तेथी एनो एक निश्चय करी एनुं शुं फल छे ए कहो. जे नथी भजतो तेनुं शुं फळ छे, जे बन्ने प्रकारवाळाने नथी भजतो ते बन्ने प्रकारवाळाने शुं फळ छे ए कहो. एणे जे भजन कर्युं तेनो शो उपयोग थयो ए सारी रीते समजाय एम कहो. ए त्रण प्रश्नमां बे भजन करनार छे अने एक भजन करनार नथी. श्रीभगवान् कहे छे - हे सखीओ! जे परस्पर भजन करवावाळा छे ते केवळ स्वार्थ परायण छे एना भजनमां सौहार्द (स्नेह) के धर्म जेवुं कशुं पण नथी, किन्तु केवळ स्वार्थने माटे परस्पर भजन करे छे. एमां कांई परोपकार आदि* नथी ॥१७॥
विशेष - एमां प्रथम पहेला प्रश्ननो उत्तर भगवान् आपे छे. जे परस्पर भजनार छे ते केवळ लौकिक स्वार्थ सिद्ध करनार छे. एना उद्योगमां स्वार्थ मात्र फळ छे ए परस्पर भजनार जाणीने भजन करे छे. एमां ओछुं वधारे जेम प्रथम करे तेने सामावाळो पण ओछा अधिक पदार्थथी भजे छे. तेथी तेओ एकबीजाने छेतरी शक्ता नथी. तेथी एमनो तो प्रयत्न लौकिक भावने साधवामाटे होय छे. त्यां शङ्का थाय के भजन करनार बन्ने ब्राह्मण होय ते परस्पर भजे तो धर्म सिद्ध थाय अथवा तो स्नेह सिद्ध थाय, तो पछी तमे स्वार्थ अर्थे तेने केम ठरावो छो? आ शङ्काना उत्तरमां कहे छे के एमां स्नेह तो सम्भवे ज नहि, केम के सामो माणस भजतो नथी के तरत एना उपर पहेलो क्रोध करे छे. स्नेहमां क्रोध सम्भवे ज नहि. हवे एमां धर्म पण नथी ए वात समजावे छे के धर्मशास्त्रमां कह्युं छे के ‘‘सहुए मळीने भोजन करवुं ए पिशाच भिक्षा कहेवाय छे. तेम करवामां ऐहिक पारलौकिक कांई फल नथी. पण बीजी गौशाळामां बेठेली गाय वाछडुं मरवाथी दुःखी थाय छे तेम ए पिशाच भिक्षानुं फल ऐहिक हानिमां ज परिणमे छे. ए सिवाय एमां बीजा फलनो सम्भव नथी’’ आ कथनथी समजाय छे के एमां धर्मनी गन्ध पण नथी. गुरु-शिष्यना सम्बन्धमां पण शिष्य पैसा आपे तेने गुरु ज्ञान आपे अथवा प्रसन्नता बतावे एवो दृष्टार्थ होय तो ए पण परस्पर भजन गणाय. एमां पण धर्म के स्नेह नथी एम समजवुं. शास्त्रीय भजन के ‘मिथोभजन’ परस्परनुं न कहेवाय. विद्यानुं दान गुरु करे, ज्यारे शिष्य तो एने मदद करे छे ए परस्पर भजन नथी केमके विद्या फलरूप छे तेनो शिष्ये आपेला द्रव्य आदिथी बदलो मळतो नथी केमके फलनो बदलो होय ते आपवानुं सामर्थ्य शिष्यमां न होवाथी ए मिथोभजन थतुं नथी. जे परस्पर भजनार छे ते प्रसिद्ध वाणिया जेवा छे. एनी पोताना स्वार्थमां ज दृष्टि होय छे.दशमस्कन्ध २८७ जो के धर्म आदि पण स्वार्थ तो छे ज पण ए अन्योन्य भजनथी सिद्ध थता नथी तेम सौहार्द पण सामानी अपेक्षा राखो तो सिद्ध थतुं नथी. ज्यां अपेक्षा त्यां स्वार्थ छे. ए बीजाने माटे करे छे एवो देखाव थाय छे तो पण सूक्ष्म दृष्टिथी जोतां एमां स्वार्थ स्पष्ट देखाय छे. एम बीजाने सेवानुं दान करे छे तेमां पण जो पोताना दुःखनी निवृत्ति थाय तो ए दान कर्युं ते पण मिथोभजन थयुं. ए लोकमां सर्वत्र प्रसिद्ध वात छे. एमां परोपकार सर्वथा नथी केमके एम करवाथी बीजाना हृदयमां तरत चिन्ता पेदा थाय छे के एमणे मारी उपर उपकार कर्यो तेनो बदलो मारे केवी रीते आपवो. नहि आपुं तो एनुं ऋण मारी उपर रहेशे. एवी ए चिन्ता करतो थई जाय छे अने ए उपकारनो बदलो पण आपे छे एटले मिथोभजन थई गयुं. तेथी एवो व्यवहार नाममात्रथी धर्मरूप गणाय छे; खरी रीते तोए पण स्वार्थ छे; एनुं अलौकिक फल नथी. अर्ही प्रथम प्रश्ननो उत्तर मळी गयो. (न भजनारने भजनार बे जातना होय छे ते हवे कहे छे के) न भजनारने भजवावाळा *दयाळु पुरुषो अने मा-बाप होय छे. ए बन्नेमान्थी एकमां तो पूर्ण धर्म छे, हे (सुमध्यमा) सुन्दरीओ! बीजामां स्नेह छे ॥१८॥
विशेष - भजन न करनारनुं भजन करवामां लौकिक अने वैदिक निमित्त छे. लौकिकमां स्नेह अने वैदिकमां विधि प्रेरक छे एमां सौहार्द अने धर्म-कर्मथी फल छे. जे पहेलो छे. न भजनार तेणे समय उपर एनो उपकार करवो जोईए. जो एम न करे तो ए कृतघ्न थाय छे. जो ए अभजद् भजनधर्म धर्मनुं अङ्ग होय तो भजनीये प्रायश्चित करवुं जोईए केमके एनो ज धर्म भजनद्वारा भजनीयमां आवे छे. जे धर्ममां कर्म अथवा देवता प्रधान होय ते बन्ने धर्म अर्ही लीधा नथी. एमां प्रतियोगीमां भजननी शङ्का थती नथी. सन्देहवाळा धर्मनोज निर्णय अर्ही करवानो छे. ज्यां असमानता छे, जेमके गायनो पङ्कथी उद्धार करवो तो एमां गाय एनो बदलो आपी शक्ती नथी. ए धर्म पण निःसन्दिग्ध होय ते प्रश्ननो विषय थई शक्तो नथी. जे आधार प्रत्युपकार करी शके एम छे तेनुं भजन कर्युं अने ए पाछो एनो बदलो न वाळे त्यां निरपवाद धर्म अथवा सौहार्द फल समजवुं. अधिकारीमां एकमां तो दया छे अने बीजामां दैहिक सम्बन्ध छे. ए ज मूळ ‘‘करुणा पितरो यथा’’ ए शब्दोथी कह्युं छे. एमां ‘यथा’ ए शब्दथी अतिदेश बीजामां पण कर्यो छे. जेम संसारमां अति क्रूर माणसो पण कोई वखते गरीब उपर दया करे छे, स्नेहीना जेवो क्वचित् भाव बतावे छे तेनो पण सङ्ग्रह कर्तव्य छे. सम्बन्ध तो बीजा जन्मनो पण सम्भवे छे. ए उपमान अने उपमेयमां एक ज प्रकारना होवाथी एक ज निरपवाद धर्म कह्यो छे. ए जो उपकार करे तो धर्मनो अपवाद थाय. एम नदशमस्कन्ध २८८ करे तो निरपवाद धर्म सिद्ध थाय. एटले ज्यां प्रत्युपकारनी सम्भावना नथी त्यां धर्म छे. ए ज वात निश्चित समजवी. तेथी केटलाक धर्म करती वखते ज पोते करे छे अथवा पोताने एनुं फळ जोईए छे एवुं न बतावतां भगवत् प्रीत्यर्थ एनो सङ्कल्प करे छे. चकार छे तेथी सौहार्दमां पण धर्म छे. सुमध्यमाः एवुं सम्बोधन भगवाने आ हेतुथी आप्युं के जे उत्तम होय छे तेने भगवद् वाक्यमां विश्वास होय छे. तमो एवां छो तेथी मारा कथनने तमे श्रद्धाथी विश्वासथी साम्भळशो, केमके तमे उत्तम न होत तो तमारुं आवुं रूप न होत; तेथी तमो भाग्यशाळी होवाथी तमने विश्वास होयज. (मिथोभजन=परस्परनुं भजन) (स्वार्थनेमाटे भजो के स्नेहथी भजो, ए बन्नेनुं भजन जे नथी करतो, जे धर्मथी भजवालायक छे तेने पण भजतो नथी तेनुं स्वरूप हवे कहे छेः) केटलाक भजनारने पण भजता नथी तो ए न भजनारने तो क्यान्थी भजे? ए चार प्रकारना छेःआत्माराम, आप्तकाम, कृतघ्न अने *गुरुद्रोहीओ न भजनार छे ॥१९॥
विशेष - केटलाक महापुरुषो भजन करनारने पण भजता नथी, तो न भजे तेने तो क्यान्थी ज भजशे? ए प्रथम गणाव्या तेम चार प्रकारना छे. एमां बे सारा छे अने बे ठीक नथी. जे धर्मना अधिकारी छे ते अधम छे. लौकिक निमित्तवाळा उत्तम छे. ए बधामां मळी न जाय माटे गणावे छे. जे आत्मामां रमनार छे ते आत्माराम गणाय. बीजा तो देहनुं भजन करे तेने ज आ पोतानो नथी मानतो ए देहना भजनने तो केम गणे? पोताना देहने पोते साधनपणे पण स्वीकारतो नथी तेथी देहमां करेलुं भजन स्वगामी न थतां एणे भजन कर्युं छे एम पण ए समजतो नथी. जेने सर्व कामनाओ सिद्ध छे ते आप्तकाम. ते बीजो न भजन करनार छे. जे भोजन करी रह्यो छे तेने कहे तमे भोजन करो अथवा न करो तो तेथी ए वाक्यनी प्रवृत्ति प्रथम वाक्यमां थती नथी. बीजा वाक्यमां तो ए वाक्य अनुवादरूप बोलाय छे. तेथी ए वाक्यमां व्यर्थ जाय छे. तेथी प्रवृत्त थनारने धर्म थाय अथवा एनुं अज्ञानसिद्ध थाय. आ बन्ने उत्तम अधिकारीनी वात थई. हवे बे अधम अधिकारीनी कहे छे. जे उपकार करनार उपकारने जाणता नथी ते प्रत्युपकार करवाने सामर्थ्यवाळा छे छतां ए करे एनो करता नथी अने न करे तेनो पण कांई करता नथी, केमके ए जाणता नथी के आ मारुं करे छे के आ मारुं नथी करतो. तो आमां उपकारनी सम्भावना केम थई शके? एनामां तो केवळ अज्ञान ज छे तेथी ए भजतो नथी. ज्ञान होय छतां न भजे ते ‘गुरुद्रोही’ कहेवाय. जे आपणा पुरुषार्थने साधवामां मदद करे ते ‘गुरु’ कहेवाय. एनी पूजा करवी जोईए. एने आपत्ति आवेदशमस्कन्ध २८९ अने आपणी शक्ति होय तो एने मदद करवी जोईए. एवा वखते नी उपेक्षा करे तो ए गुरुनो द्रोह करनार ठरे. ए प्रमाणे बधा प्रश्नोना गुणदोष कह्या. गोपीजनोना हृदयमां भगवान् आमां क्या वर्गमां जाय छे ए जाणवानी इच्छा छे. भजन करवानुं एमां सामर्थ्य छे छतां भजन एणे कर्युं नथी तेथी मिथोभजन अने अभजद्भजन पक्ष तो आमां सम्भवतो नथी. त्यां शङ्का थाय छे के गोपीजन स्नेहथी भजन करी शके, भगवान् तो ए स्नेह चरितार्थ करे, केमके ए तो ईश्वर छे ते कोई पक्षमां न आवी शके! एवी शङ्का न करवी, केमके गोपीजन ए तो भोग्य छे. ए तो भोग्य वस्तु अर्पण करवाथी उपक्षीण थई जाय अर्थात् भगवान्ना प्रतिभजननी तेमने जरूर नथी त्यारे बीजुं एने कांई कर्तव्य नथी रहेतुं. माटे भगवत् सम्बन्धी विचार करवो बाकी रहे छे. ईश्वरने फलने माटे आपणे आराधीए ए विचार जुदो छे. व्यवहारमां दृष्ट फलने माटे भजन होय तो ईश्वरनो पण विचार करवो जोईए. पहेलां गोपीजनो साथे रम्या छे तेथी भगवान् आत्माराम नथी. ए पूर्णकाम पण नथी. प्रथम प्रवृत्तिमां तृप्त होय तो पण अमारो त्याग तो एमणे करवो न जोईए. कृतघ्न पण नथी, केमके ए सर्वज्ञ छे, ईश्वर छे, फल आपनार छे. ए कदाचित् कोई वखते भूली जाय, एमां शङ्का थाय, एना उत्तरमां भगवान् पोतानो निर्णय आपे छे. हे सखीओ! हुं तो मने भजे तेने पण मारामां निरन्तर मन रहे एटलामाटे एनुं भजन करतो नथी. प्रथम धन विनानो होय, पछी तेने धन प्राप्त थाय अने ए धननो ज्यारे नाश थाय त्यारे एनी चिन्तामां ए बधुं भूली जईने ए धनमां ज मन राखे, बीजुं कांई जाणतो नथी. तमने हुं न मळ्यो, त्यारबाद तमारी साथे हुं रास रम्यो, हवे पाछो जुदो थयो त्यारे तमारुं मन मारा सिवाय बीजुं कांई याद न करे एटला माटे हुं तमाराथी परोक्ष रहुं छुं तेथी तमारुं मन *मारामां स्थिर रहे ॥२०॥
विशेष - ‘‘हुं तमारो मित्र छुं, ईश्वर नथी’’ एम कहेवामाटे सख्यः एम सम्बोधन करी गोपीजनोने कहे छे, केमके गोपीजनो एकार्थमां अभिनिवेशवाळां छे. हुं भगवान् छुं, जीव नथी तेथी उपरना श्लोकमां आत्मारामादि पक्ष कह्या ते मारामां सम्भवित नथी, केमके ए जीवधर्मो छे. हुं तो राम छुं, आत्माराम नथी तेथी मारी जुदी व्यवस्था छे. हुं जीवना जेवो नथी तेथी हुं भजनारने पण भजतो नथी. एनुं कारण बीजुं छे. आ जीवोने मारामां मन रहे एवा हेतुथी हुं एने भजतो नथी. भगवान्ने कोई जीवनो उपयोग नथी. जीवने तो फळरूप भगवान् छे तेथी भगवान् सर्वने उपयोगी छे. तेथी ए भगवान्नुं भजन करवुं ए जदशमस्कन्ध २९० जीवने इष्ट छे अने इष्टनुं साधन छे. जो हुं साधनरूपे तमारामां प्रवेश करुं तो तमारुं भजन कर्युं ते बधुं वृथा जाय. (हुं तमारा कामने पूर्ण करुं एटले तमारा सुखना साधनरूप थाउं तो तमारे मारामां काम न रहे, एटले तमे भजन न करो; पण तमने तो हुं इष्ट छुं तेथी तमारा इष्टनुं हुं साधन थई शक्तो नथी) भगवान्नो चार प्रकारे उपयोग थाय. भगवान् भोग्य थाय, भोक्ता पण थाय. भोग्य पक्षमां कामनापूरकपणे स्वतन्त्रपणे एम बे पक्ष छे. भोक्तापक्षमां भक्तिथी अने भक्तदत्त पदार्थ स्वीकारथी भोक्ता थाउं छुं. एमां प्रथम पक्षमां तमारुं भजन नष्ट थाय केमके तमारो कामना पूरकपणे भोग्य थाउं तो ए क्षणिक फळरूप थाउं. स्वातन्त्र्यथी भोग्य थाउं तो गोपीजनोए अति भजन करवुं जोईए ते गोपीजनोथी बने एम नथी. ए सामर्थ्य एमां थवा माटे हुं भजतो नथी. भोक्ता थाउं तो हुं विषयरूपे भोक्ता थतो नथी. माटे भोक्ता थाउं तो मारे भजन न ज करवुं जोईए. आ सिद्धान्त थोडामां कही दीधो छे. एमां दृष्टान्त कहे छे के पहेलां निर्धन होय, पछी धन मळे ते जो नाश पामे तो एनी चिन्तामां व्याप्त थईने बीजुं कांई ए जाणी न शके, ए वात लोकमां प्रसिद्ध छे. एम गोपीजनोने भगवान् प्रथम नहोता मळ्या. ज्यारे मळ्या त्यारे पाछा तिरोहित थया, त्यारे ए भगवदेकचित्त थईने बीजी बधी वातने भूली गयां. आगळ जतां एवो निरोध थशे के तेओ प्रपञ्चने पण भूली जशे. उपरनी वातथी भगवान्ने जीववत् भजन प्राप्त थतुं नथी ए वात सिद्ध करी. हवे प्रकृत प्रसङ्गमां भगवान् कहे छे के हुं तमाराथी क्षणवार पण दूर गयो नथी. तमने जे न देखवामां आव्यो ए तमारी दृष्टिनो दोष छे तेथी मारामां दोषबुद्धि करवी तमने उचित नथी. ए वात आगामी श्लोकथी कहे छे. हे अबलाओ! जेणे मारे माटे लोक, वेद अने स्व (आत्मा) नो त्याग कर्यो छे ते तमोने में छोड्यां नथी, पण तमारुं परोक्ष भजन में कर्युं छे तेथी हे अबलाओ! हुं तमारा जोवामां न आव्यो तेथी तमो मारामां दोषारोप न करो, केमके तमे *प्रियाओ छो ॥२१॥
विशेष - तमे कह्युं के रातमां अरण्यमां स्त्रीओने कोण छोडे? एना उत्तरमां कहेवानुं के अमारे कर्तव्य छे, एक तो ए भजे तेम न भजवुं तेथी एना मननो प्रवाह अमारामां रहे. रात्रिमां आव्यां तेनी रक्षा करवी. एमां एनुं भजन करवुं पडे ते वगर रक्षा न थई शके. ए बन्ने काम अमारा परोक्ष भजनथी सिद्ध थयां तेथी परोक्ष भजवामाटे में मारा स्वरूपने तिरोहित कर्युं. एनुं मारे एटला माटे भजन करवुं जोईए के एमणे मारे माटे लोक, वेद आदिनो त्याग कर्यो.दशमस्कन्ध २९१ वृथा परित्याग एनुं अनिष्ट करे; मोक्षार्थ त्याग करे तो मारे एने माटे कांई करवानुं न रहे, पण ज्यारे ए त्याग मारे माटे कर्यो त्यारे तो एनुं बधुं मारे सिद्ध करवुं जोईए. ए पण हुं मळ्या पछी त्याग कर्यो होत तो जुदी वात हती, पण मारी मळवानी आशा बान्धी जे त्रण लोकमां न छोडी शकाय तेवां छे तेनो त्याग कर्यो, त्यारे मारे एओनुं भजन प्राप्त थयुं; केमके अनन्यनुं पालन करवुं ए मारुं व्रत छे. परोक्ष भजन तो तमारा मननी मायामां अनुवृत्ति थवामाटे कर्युं छे. हुं मारुं काम करतो-करतो तमने देखवामां न आव्यो तेथी अभजनपक्ष निवृत्त थयो. जेनाथी असूया थाय तेथी हुं कृतघ्न छुं एवो दोष आपशो तो ए तमने पण दोष लागशे, केमके तमे मने छोडी शकशो नहि. न पारयेहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधु कृत्यं विबुधायुषापि वः ॥ या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलां संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ॥२२॥
तमे निर्दोष रीते मारुं भजन कर्युं, ए तमारा-उपकार-भजननो बदलो हुं ब्रह्माजीना आयुष्यथी पण न आपी शकुं. न तोडी शकाय एवी घररूप साङ्कळने तोडीने तमे मारुं भजन कर्युं, ए तमारा धर्मवडे ज तमे पोते प्रसन्न थाओ. *तमे मारी पासेथी एनो बदलो मेळववानी आशा न करो ॥२२॥
विशेष - हवे भक्तिमार्गनो विरोध मटाडवा एमनी स्तुति करे छे के तमारुं भजन निर्दुष्ट छे.
ब्रह्माना आयुष्यवडे पण तमारा करेला उपकारनो प्रत्युपकार हुं न करी शकुं, केमके भजन ए
वात जुदी अने उपकार ए वात पण जुदी छे. तेथी ज्यां स्नेह होय त्यां उपकार न होय,
केमके तमारुं भजन निष्कपट हतुं, ज्यारे अमारुं भजन सकपट हतुं. थोडा साचा जलनी
बरोबरी घणुं मृगजळ पण न करी शके, केमके थोडुं जळ साचुं छे त्यारे घणुं मृगजळ
भ्रान्तिथी देखाय छे. तेम खरुं भजन तो ब्रह्मथी बने नहि, कारण ए के भजन ए जीवनो
धर्म छे. कोई रीते न तूटे तेवी घररूप बेडी तोडी नाखी तमे मारुं भजन कर्युं, एम अलौकिक
करनारनुं भजन ते तमारुं सारुं कृत्य छे ए करीने ज तमे प्रसन्न थाओ. जेम भगवद् भक्तो
मोटुं काम करीने पोते ज खुशी थाय छे, पण प्रत्युपकारनी आशा करता नथी. आगळ पण
तमे खुशी हो तो भजन करो, न हो तो मरजी प्रमाणे वर्तो. मारामां तमारा जेवुं भजन
करवानुं सामर्थ्य नथी, केमके एवुं भजन जीवनो धर्म छे. मारामां जीवभाव नथी तेथी एवुं
भजन माराथी बनशे नहि. हुं ईश्वर छुं एम तमे जाणो.
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा
फल-पेटाप्रकरणनो श्रीनिरूपक चोथो अने चालु) ‘‘गोपीजनोना रुदनथीदशमस्कन्ध २९२
भगवान् त्यां प्रकट्या’’नामनो बत्रीसमो(प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां ओगणत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!!
अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटीवगेरे)ना
नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं.
फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के
भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं. (श्रीहरिरायजी)
अध्याय ३३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३० भगवाने गोपीजनो साथे करेली रासलीला तामस फल प्रकरण अध्याय पाञ्चमो(रासपञ्चाध्यायी अध्याय ५)
विशेष - आ तेत्रीसमां अध्यायमां भगवान् गोपीजनोनी उपर प्रसन्न थया अने पोतानो आनन्द आपवा माटे भगवाने गोपीजनोनी साथे इन्द्र आदि देवोने पण दुर्लभ एवी कामलीला करी ए कहेवामां आवे छे. आ भगवत्कामचेष्टा सर्वोपकारिणी छे एम बताववामाटे श्रीशुकदेवजीए छेल्ले एना श्रवणनुं फल लख्युं छे के आ भगवान्नी कामलीला साम्भळनारना हृदयनो रोग (काम) निवृत्त थाय छे. भगवान्मां लौकिक दृष्टि होय तो? त्यां सिद्धान्त कहे छे के रसात्मक काम अत्यन्त गूढ छे तेने बताववामाटे कामशास्त्र अने नाट्यशास्त्र वात्स्यायन अने भरते कर्यां छे. तेथी भगवान् अर्ही नृत्य करे छे तथा गोपीजनोने नृत्य करावे छे. सर्वाङ्गमां रहेलो काम नृत्यथी प्रगट थाय छे. जळ अने वायु श्रम अने शीत मां उपयुक्त छे. आ लोकमां उत्तममां उत्तम आधिदैविक कामसुख तो श्रीकृष्ण ज भोगवे छे. बीजो कोई एनो भोक्ता नथी. इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः ॥ जहुर्विरहजं तापं तदङ्गोपचिताशिषः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे भगवान्नी अति मनोहर वाणी साम्भळीने [[२९३]] गोपीजनोए विरहनो ताप छोडी दीधो, एटलुं ज नहि, पण एमनां श्रीअङ्गनां दर्शन मात्रथी पोताना शरीरमान्थी दूबळापणुं वगेरे भाव चाल्या गया, एमनां अङ्ग प्रफुल्लित थई गयाम् ॥१॥
प्रभुने अनुकूळ थयेलां स्त्रीरत्नो प्रसन्न थयां. तेमनी साथे मळीने गोविन्द भगवाने रासक्रीडा करवानो उपक्रम कर्यो ॥२॥
गोपीजनोना मण्डळथी शोभायमान रासनो उत्सव योगेश्वर कृष्णे शरू कर्यो तेमां बे-बे गोपीजनोनी वच्चे भगवान् रह्या अने पोतानी भुजाओ बन्नेना स्कन्ध उपर राखी जेथी स्त्रीओ पोतानी पासे ज भगवान् छे एम मानवा लागी ॥३॥
उत्कण्ठाथी जेओनां चित्त चोराई गयां छे तेवी स्त्रीओनी साथे देवो विमानमां बेसीने रास जोवाने आव्या. तेमनां हजारो विमानोथी आकाश भराई गयुम् ॥४॥
त्यां तो स्वर्गमां नगारां आपोआप गडगडी ऊठ्यां. पोतानी स्त्रीओनी साथे गन्धर्वपतिओ पवित्र गान करवा लाग्या अने पुष्पोनी वृष्टि थई ॥५॥
कृष्णनी साथे रमती स्त्रीओनी बङ्गडीओना, नेपुरना अने घूघरीओना (किङ्किणीओना) शब्द सम्भळावा लाग्या. रासमण्डळमां ए बधानो मळीने मोटो शब्द थयो ॥६॥
त्यां ए गोपीजनोनी साथे सुवर्णना (हेमना) मणिओनी वच्चे महामरकत मणि शोभे तेम देवकीजीना सुत भगवान् शोभवा लाग्या ॥७॥
अनेक प्रकारे *पगने उपाडीने धरवाथी, हाथ हलाववाथी, केडने वाळवाथी, स्मित सहित भ्रूकुटिना विलासथी, चलित थता स्तन उपरना वस्त्रथी अने गाल उपर प्रकाश करतां हालतां (चलित) कुण्डळथी रासमां फरतां गोपीजनोना मुख उपर पसीनो आवी जाय छे, केशपाश छूटी जाय छे. एम मेघमां वीजळी शोभे तेम कृष्णवधूओ रासमां भगवान्नी साथे शोभा आपे छे अने गान करतां जाय छे ॥८॥
विशेष - रासनी पूर्वपीठिका कहे छे. पगने रास वखते केम मूकवो ए बताव्युं. तेथी चरणना भेद सर्व कह्या. भुजाने चलाववामां बधा हस्तकभेद आवी गया. एक अवयव चलित थाय तेनी साथे बीजा अवयवो जेम योग्य लागे तेम ज रहे एम समजवुं. मन्दहास्य सहित सर्व कटाक्षो अने भ्रूभेद ते-ते रस हृदयमां प्रकट थाय छे तेने अनुकूळ वर्ते छे. कटिनो उपरनो भाग वक्र थाय त्यारे कटिनो जुदो भेद देखाय छे. रसाभिनिवेशमां ए गोपीजनोनां सर्व अङ्ग भ्रमणदशमस्कन्ध २९४ थतां एमां रहेलो रस भेळो थाय छे, चलित कुच उपर वस्त्रो कम्पे छे तेनाथी कम्पन कह्यां. कपोल उपर लटकतां कुण्डळोथी शिरोभेद कह्या छे. शिरोभेद कहेला छे तेमां कुण्डळचलन कहेवामां आव्युं. श्याम कमळ उपर वीजळीनी जेम प्रकाशपडे छे ते वात कहेवामाटे कह्युं छे, त्यारे अन्दर रहेलो रस बहार प्रकट थाय छे. ते स्वेदरूपे बहार आवे छे. केशपाश अने काञ्ची (कन्दोरो) नी ग्रन्थि खूली जाय छे. ज्यारे शरीरनो रस एकठो थयो त्यारे शरीर सूक्ष्म थतां एम थाय छे. ए कृष्णवधूओ छे एटले सदानन्दनो उपभोग करनारी छे. तेथी उपभोग क्रियासाध्य होवाथी एमां श्रम थवो योग्य छे. एने आन्तर सन्तोष थतां गावा लागी त्यारे अत्यन्त शोभावाळी थई. जेम वादळोना समूहमां (मेघचक्रमां) विद्युत शोभे तेम बधाए गोपीजनोने जोयां एटले लोको जोईने पण कांई निर्णय उपर आवी न शक्यां. गोपीजनोनुं जीवन भगवान्नी रति छे, प्रेम छे. तेओ श्रीकृष्ण साथे नाचतां- नाचतां लोकोने आनन्द आपे तेवा ऊञ्चा स्वरथी रागरागिणीयुक्त गान करवा लाग्यां* जेनाथी आ बधुं जगत् आज पण गूञ्जी रह्युं छे ॥९॥
विशेष - गाढ नृत्य कह्युं. हवे मध्य नृत्य कहे छे. नाच करीने पछी गान करवा लागी, केमके तेओनो कण्ठ रञ्जक छे. रति ज जेने प्रिय छे. गान अने नृत्य थी व्यामोह थाय ए वात प्रसिद्ध छे. पहेलां नृत्य करवाथी श्रमित हतां ते फरी नृत्यमां केम तत्पर थयां? एनुं कारण तो ए ज के ए श्रीकृष्णना सम्पर्कथी आनन्दमां आवी गयां. जेनां गीतथी जगत् व्यापी गयुं तेणे गान कर्युं ए सर्व जगतमां व्यापीने जगतने रसवाळुं बनावी दीधुं. ए लोकमां रस प्रकट करवामाटे कर्युं; एने अमृतरूप करवामाटे भगवाने पण नाद पूर्यो तेथी ए पूर्ण थयुं. कोईक गोपीजने मुकुन्दनी साथे स्वरजातिथी जुदी रीते ऊञ्चेथी राग उठाव्यो* त्यारे भगवाने ‘‘वाह वाह, सारुं गायुं’’ एम बोलीने एनो सत्कार कर्यो. बीजां कोई गोपीजने ते ऊञ्चा स्वरने स्थायी स्वरमां मेळव्यो एने बहुमान आप्युं ॥१०॥
विशेष - कोई गोपीजने भगवान्मां पोतानो स्वर अने जाति मिश्र न थाय एम गायुं. ते सारी रीते भगवद्भावने पहोञ्ची हती. भगवाने मोक्ष आपवामाटे उपनिषद्मां पोतानो नाद पूर्यो ए बन्नेनो एक नाद थयो. उपनिषद्मां बे कार्य मोक्षमां उपयोगी छेःएक तो जीवने शरीरथी जुदो करवो, बीजुं एने ब्रह्ममां पहोञ्चाडवो ए बे कार्य छे. अर्ही श्रुतिरूपाओ उपनिषद् छे तेटलामाटे लोकमां उपनिषदनो उपयोग छे, स्वर षड्ज वगेरे छे, मयूर षड्ज स्वर बोले छे. बीजा मनुष्य पक्षीओ जीवो पण षड्ज बोले छे. एनी अन्दर सूक्ष्म जातिनादशमस्कन्ध २९५ भेद छे ते क्रमपुरःसर रस प्रकट थाय तेम बोलाय तो ए स्वर जाति अमिश्रित गणाय छे. ए भगवान्थी ज शक्य छे. बीजो कोई जीव एम न करी शके. ए कार्य ज्यारे गोपीजने करी बताव्युं त्यारे भगवाने तेना वखाण कर्यां. भगवान् प्रसन्न थयां पण एने आश्चर्य न थयुं; बीजा तो ए गानना स्वरूपने ज जाणता नथी तो जातिभेदने तो क्यान्थी ज जाणे? भगवान्नी इच्छा प्रमाणे गायुं तेथी भगवान्नी प्रीति एनी उपर थईने ए नादने ध्रुवनादमां (स्थायी स्वरमां) मेळवी दीधो. स्थायी नाद ए ‘ध्रुवनाद’ कहेवाय. ‘‘यत्रोपविशते रागः स्वरः स्थायी स कथ्यते’’ एम ज्यारे ध्रुवमां गोपीजने नादने मेळव्यो त्यारे भगवाने एने बहुमान आप्युं. आ श्लोकमां भगवान्नां ऐश्वर्य अने वीर्यगुण कहेवामां आव्या. बीजा चार गुण आनी पछीना श्लोकमां क्रमे करीने कहेवामां आवे छे. (कीर्ति तो भगवान्नुं ज अवलम्बन करे तेथी हवे पछीनां बे गोपीजनोनी शरीरचेष्टानुं वर्णन करे छे के) कोई गोपीजन रास करतां बहु थाकी गया त्यारे पासे रहेला गदाधारी भगवान्ना स्कन्धने पोतानी भुजाथी पकडी लीधो* जेम वेली वृक्षने र्वीटाई रहे तेम भगवान्ना कण्ठमां बाहु लपेटी लटकी रही, त्यारे केशपाशमां मल्लिकानी माळा बान्धी हती ते शिथिल थई गई ॥११॥
विशेष - रासमां श्रान्त थयेली गोपीए पोतानी बाजुमां रहेला भगवान्नो कण्ठ पोताना बाहुवडे ग्रहण कर्यो, केमके भगवान्ने हाथमां गदा धारण करवानो अभ्यास छे तेथी तेटलो भार ग्रहण करे तो पण आप स्थिर रहेवाने समर्थ छे. जो गोपी एम न करे अने अधिक प्रयत्न करे तो रास विच्छिन्न थई जाय. रस विशेष थवाथी परिश्रम प्रकट देखायो छे. ते ज समये बीजी सखी पोताना एक खभा उपर आवेल चन्दननी सुगन्धवाळो भगवान्नो *बाहु जे स्वभावथी कमळ करतां वधारे सुगन्धवाळो छे तेने सूङ्घीने रोमाचिन्त थई गई अने ए बाहुने एणे चुम्बन कर्युम् ॥१२॥
विशेषः उत्पल करतां पण अधिक कोमळ अने सुगन्धवाळा अने चन्दनथी चर्चित एवा भगवान्ना बाहुने एक गोपीजने सूङ्घ्यो त्यारे एनी सुगन्ध अन्तःकरणमां पहोञ्ची एटले आखा शरीरमां आनन्द व्यापी गयो. ए रोमकूपद्वारा बहार नीकळ्यो तेणे ए बाहुने ज त्यारे चुम्बन कर्युं. रूप अने स्पर्श तो एने प्रथम प्राप्त ज हतां अने आ वखते गन्ध अने रस नो अनुभव करी रह्या छे. आम कहेवाथी बन्ने बाजुनां गोपीजनोनो भगवान्मां विनियोग कहेवामां आव्यो. सदानन्द होवाथी सर्वत्र भगवान्मां रस तुल्य छे. उत्पलनो विकास रात्रिए थाय छे ते स्त्रीओने प्रिय होय छे. भुज चन्दन लिप्त होवाथी आघ्राण करे छे एम नथीदशमस्कन्ध २९६ पण एमां सहज सुगन्ध छे. एने अनुभवीओ जाणी शके छे. चन्दनलेप विवेक-धैर्य नाशार्थ छे. अन्तःप्रवेश ए आ गोपीजनमां विशेषता छे. आ श्रीरूपा कही. (कोई गोपीजन भगवाने ग्रहण करेला ताम्बूलने ज्ञाननी जेम ग्रहण करवा लाग्या ए वात कहे छे के) कोईए तो नृत्यथी चलित थतां कुण्डळनी कान्तिथी शोभा आपता कपोल (गाल) ने भगवत्कपोल साथे जोडतां भगवाने तेने *चर्वित ताम्बूलनुं दान कर्युम् ॥१३॥
विशेष - कोई गोपीजनने भगवाने पोताना मुखमान्थी चर्वित ताम्बूल आप्युं एम करी आ गोपीजनने ज्ञान आप्युं तेथी आ गोपीजन भगवद् विप्रयोगमां सर्वने उपदेश आपनार थशे. नृत्यमां क्रिया शक्ति रही छे. कुण्डळमां ज्ञानशक्ति छे. क्रियानो विक्षेप एटले अभ्यास अथवा साधन, एनी कान्ति एटले अनुभव, एना वडे शोभती भक्ति एटले भगवत्प्रेममां बन्धायेल गोपीजन भगवान्मां रत थाय छे. भगवान् एमां आसक्त छे. एमां पण गण्ड ए साध्यरूप भक्ति छे. ए कुण्डळनी शोभा प्रत्ये मूळ जे स्वामिनी स्नेहरूप भगवान्नो कपोल तेने वारंवार सम्पर्क करे छे. एटले भगवान् स्वामिनीजीना कपोलनी शोभा जोईने एने पोतानो गाल (गण्ड) वारंवार लगावे छे. एनुं नाम ताम्बूल तेथी ज ताम्बूल अने ज्ञान नी समानता कही छे. (बीजां गोपीजने तो ज्ञानमां सहायक वैराग्य छे तेने माटे अच्छिद्र एवो भगवान्नो हाथ पोताना हृदय उपर स्थापन करवा लाग्यां, ए ज कहे छे के) कोई गोपीजन नृत्य करे छे* अने गाय छे त्यारे एना नूपुर अने कटिमेखलानुं कूजन थाय छे. ए ज्यारे एम करतां थाकी गयां त्यारे भगवान् नजीक हता तेमना करकमळने पोतानां स्तन उपर सुख थाय तेवी रीते पधराव्युम् ॥१४॥
विशेष - नाचवामां जेम बीजाना हाथमां पोतानो हाथ आपवामां आवे छे तेम अर्ही भगवान्नो हाथ गोपीजने पोतानां स्तन उपर पधराव्यो छे. शब्दनुं ज्ञान अने एनुं अनुष्ठान आ गोपीजनमां छे तेथी नृत्यगान कह्युं छे. उपर गान अने अभिनय छे. नीचे पगमां नृत्य छे तेथी नूपुर अने मेखला नो शब्द थाय छे ते भावने उद्दीप्त करे छे. तेथी आ गोपीजननी बधी क्रियाशक्ति सफल बतावी छे. एक बाजु उपर भगवान् छे. तेमनी क्रियाशक्तिने पोते श्रान्त थवाथी पोतानां स्तन उपर स्थापन करे छे, जेनाथी पोतानो ताप दूर थाय. कमळ तापहारक छे अने भगवत्कर एटले कल्याणरूप पण छे, केमके भगवान् आनन्दरूप छे.दशमस्कन्ध २९७ (एम भगवान्ना षड्गुणरूप छ गोपीजननुं वर्णन करीने सर्वनी साथेनी भगवान्नी साधारण लीलानुं वर्णन करे छे के) लक्ष्मीना एकान्तप्रिय एवा अच्युत *भगवान् पोताना कान्त छे तेने प्राप्त करवाथी गोपीजनोना कण्ठने बे श्रीहस्तथी भगवाने ग्रहण कर्या छे एवा गोपीजनो गान करतां-करतां ते भगवान्नी साथे विहार करवा लाग्या ॥१५॥
विशेष - अच्युतद्गकान्त तो भगवान् कहेवाय; अन्तः अने बहार नित्यानन्द तो ए ज छे. तेथी ज सर्व स्त्रीमूळरूप लक्ष्मीना वल्लभ छे. तेने प्राप्त करीने गोपीजनो विहार करवा लाग्या. परमानन्दना अनुभवमां तो क्रिया निवृत्त थवी जोईए तो आ गोपीजनमां क्रिया सम्भवे? एवी शङ्का दूर करवामाटे कहे छे के भगवान्ना बे श्रीहस्तवडे जेना कण्ठ ग्रहण कराया छे एटले ए समये क्रियाशक्ति भगवदीय छे. एनी पोतानी क्रिया नथी. भगवाने कण्ठमां क्रियाशक्ति स्थापन करी छे. तेथी गान क्रिया बन्ने सम्भवे छे. आ क्रियाशक्तिरूप गोपीजनो छे. तेनी स्वतन्त्रता कहेवामां आवी छे. (हवे पछी राधा दामोदरनी पेठे भगवान् अने गोपी बन्नेनुं नृत्य कहे छे.) *कान उपर कमळ धर्यां छे, अलको मुखारविन्दना रसना स्वादने लेनार छे, कपोल उपर घाम (ताप) थी पसीनानां टीपां आवतां मुखनी शोभामां वधारो थाय छे तेवा शृङ्गारवाळी, केशपाशमां बान्धेली जेनी माळाओ छूटी जाय छे तेवां गोपीजनो कङ्कण अने नूपुरना शब्दरूपी वाजिन्त्रोवडे अने भमराओ जेमां गान करनार छे तेवी रासगोष्ठिमां भगवान्नी साथे नृत्य करतां हताम् ॥१६॥
विशेष - पूर्व रास जेवो आ रास नथी, पण पूर्व करतां आमां वैलक्षण्य छे, केमके आ रासमां प्रत्येकने रस उत्पन्न थाय छे. ए गोष्ठिमात्र कही छे. पूर्वमां समुदाय नृत्य छे त्यारे आ रासमां प्रत्येक व्यक्तिथी नृत्य छे. एक स्वामिनी अने एक भगवान् एवुं आ नृत्य छे. तेथी ‘‘राधा दामोदरवत्’’ आ नृत्य कहेवाय छे. पूर्वे समुदायनृत्य थया पछी एक गोपीजनने साथे लई एमने एकलान्ने रसानुभव कराव्यो, ज्यारे बीजां बधान्ने विप्रयोग हतो तेम अर्ही नथी, पण प्रत्येकनी साथे पर्यायवडे रास रमशे. एटले प्रत्येकने फल सिद्ध छे, ए अर्ही विशेष छे. अर्ही भ्रमर गायक छे. ज्यारे कङ्कण (वलय) नूपुरना शब्द वाद्यनुं कार्य करे छे. अत्यन्त नृत्य करतां केशपाशमां बान्धेली माळाओ सरकी जाय छे. नृत्यना आरम्भमां एनी शोभानुं वर्णन करे छे. जो पूर्व नृत्यथी श्रान्त होय तो शोभा मारी जाय; एवुं अर्ही नथी एम बताववामाटे शोभानुं स्वरूप बतावे छे. कान उपर पुष्पो राख्यां छे ते नाच करतां छतां कान उपरथी पडीदशमस्कन्ध २९८ जतां नथी तेथी नृत्यनुं चातुर्य सिद्ध थाय छे. अलको भ्रमरनी जेम वदनामृतनुं पान करनार छे. ए भ्रमरने रसपाननुं स्थान मुख छे. कपोलमां स्वेदबिन्दु मोतीना जेवी शोभा आपे छे; जाणे मोती जडेलां कपोल होय एम देखाय छे! पण ए श्रमथी स्वेद नथी, किन्तु रसानुभवजन्य छे. भगवान् वडे ज एने आ सुख छे. एना साधनथी नथी, केमके ए गोपीजनो एटले चातुर्यानभिज्ञ छे. ए जेम भगवान् नाचे छे. तेथी एमनी साथे नृत्य करे छे. भगवान् रमापति छे छतां व्रजसुन्दरीओनी साथे बाळक पोताना प्रतिबिम्बनी साथे रमे तेम आलिङ्गन, करस्पर्श स्नेहपूर्वक जोवुं, निर्मर्याद (उद्दाम) विलास अने हास्य करीने रमण कर्युं* ॥१७॥
विशेष - अर्ही भगवाने सर्वभावथी रमण कर्युं अने एमने रसोद्गम थयो. त्यां एक शङ्का उपस्थित थाय छे के रमण अने रसोद्गम ते तो तुल्यतामां सम्भवे. न तत्समश्चाप्यधिकः कुतः पुनः इत्यादि श्रुति तो भगवान्नी बरोबर कोई नथी एम कहे छे तो पछी प्राकृतनी साथे एनुं प्रथम तो रमण ज न सम्भवे अने कदाच मानो के रमण थयुं तो एमां रस प्रकट न थवो जोईए! एवी आ शङ्काने श्रीआचार्यचरण ननु प्राकृतीषु इत्यादिथी उपस्थित करी एनुं समाधान करे छे के ए रमेश छे एटले रमानी साथे तो भगवान्नी तुल्यता छे. ए रमा भगवान्नी आज्ञाथी सर्व गोपीजनोमां प्रविष्ट थई छे, केमके ए व्रजनी सुन्दरीओ छे तेथी भगवान्नी साथे रमणार्ह अने रसार्ह छे. त्यां बीजी शङ्का थाय के भगवान् आत्माथी रमनार छे, लक्ष्मी तो ब्रह्मानन्दरूपा छे तेथी एनी साथे रमवामां भगवान्नी आत्मारामता जती नथी पण गोपीजनो तो ब्रह्मानन्दरूप नथी. तेमनी साथे रमवामां भगवान्ना आत्मारामपणामां बाध केम न थाय? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के जेम बाळक पोताना प्रतिबिम्ब साथे रमे छे तेम भगवान् गोपीजनोमां पोतानुं स्वरूप मूकी रम्या छे तेथी आत्मारामपणानी क्षति नथी. बाळक जेम दर्पणने आगळ करी एमां पोतानुं मुख जोईने एनी साथे रमे छे, ए पण अयोग्य गणाय, एम शङ्का थाय; एने माटे कहे छे के जेम भगवान् निर्धर्मक छे छतां बाललीलानो अङ्गीकार करी बाळक बने छे तेम अर्ही भगवान् आवी पण लीला करे, केमके ए ईश्वर छे. एम सर्व भावथी भगवद् धर्मनो आवेश थतां एमने देहनुं विस्मरण थयुं. भगवद् अङ्गना सङ्गथी जेमनी इन्द्रियो व्यग्र बनी छे तेवां गोपीजनो पोताना केशपाशने, पहेरेलां वस्त्रने के कञ्चुकीने पोतानां स्थाने बराबर राखी शक्यां नहि. हेदशमस्कन्ध २९९ कुरूद्वह! ए व्रजनी स्त्रीओए पहेरेलां माळा अने आभरणो पण शरीर उपरथी खसी गयाम् ॥१८॥
श्रीकृष्णनी विशेष क्रीडाने जोईने आकाशमां फरनारा देवोनी स्त्रीओ मोह पामी अने कामथी पीडित थई; लौकिक चन्द्र पण नक्षत्र (गण) सहित विस्मित थयो ॥१९॥
एम कर्या पछी व्रतचर्या वखते प्रत्येक गोपीजनने भगवाने वरदान आप्युं छे तेथी जेटलां गोपीजनो हतां तेटलां पोताना स्वरूप प्रकट करीने पोते आत्माराम होवा छतां लीलाथी तेमनी साथे रमण कर्युम् ॥२०॥
हे अङ्ग! अति विहारथी थाकी गयेलां गोपीजनोनां मुख दयाळु भगवाने पोताना सुख आपनार हस्तवडे प्रेमथी लूछ्याम् ॥२१॥
भगवान्ना उज्जवल सुवर्णना कुण्डळो अने केशनी कान्तिथी सुन्दर बनेला कुन्तलोनी शोभाथी अने अमृतमय हास्यसहित निरीक्षणथी गोपीजनोए भगवान्मां मोटुं मान धारण कर्युं अने तेथी (ते दोष दूर करवा) भगवान्ना नखना स्पर्शथी आनन्द पामी भगवान्नी (पापने दूर करनारी ज नहि पण) मङ्गलकारक लीलाओनुं गान करवा लाग्याम् ॥२२॥
गोपीजनोना कुचकुङ्कुमवडे भगवाने धारण करेली वनमाला रङ्गाई गई छे. हाथणीओनी साथे हाथी नाहवाने नदीमां प्रवेश करे अने पाळाओने तोडी नाखे तेम अङ्ग-सङ्गथी चोळाई गयेल माळाना सुगन्धना लोभथी गायक भ्रमरो जेमनी पाछळ चाल्या आवे छे तेवा भगवान् ए गोपीजनोना श्रमने निवृत्त करवाना हेतुथी एमनी साथे श्रीयमुनाजीना जळमां नाहवाने पधार्या; त्यां कोई पण मर्यादानो विचार न करतां जळक्रीडा करवा लाग्या ॥२३॥
जळमां अत्यन्त हास्य करती युवतीओ भगवान्ने प्रेमथी जुए छे, एमने चारे तरफथी जळ छाण्टे छेद्गअभिषेक करवा लाग्यां. हे राजन्! विमानमां बेठेला देवो कुसुमने वर्षावता दर्शन करे छेद्गअभिनन्दन आपवा लाग्या. तेवा भगवाने आत्माराम रहीने पोते गजेन्द्रनी लीलानो स्वीकार करीने रमण कर्युम् ॥२४॥
पछी श्रीयमुनाजीनी पासेना वनमां ज्यां जळ अने स्थळ मां रहेला पुष्पना सुगन्धयुक्त पवनवाळा प्रदेशमां भमरा अने प्रमदा ना गणथी र्वीटायेला, हाथणीओथी र्वीटायेला मद झरतां हाथीनी जेम, भगवान् फरवा लाग्याम् ॥२५॥दशमस्कन्ध ३०० एम सत्य कामवाळां गोपीजनोनी साथे जे अबळागणो प्रसन्नताथी अनुसरे छे तेवा अने बीजने पोताने विशे रोकी राखनार भगवान् शरद्नुं वर्णन करनार काव्यनी कथाना रसनो आश्रय करनारी चन्द्रकिरणथी शोभा आपनारी रात्रिओने सेववा लाग्या ॥२६॥
परीक्षित राजाए पूछ्युं - धर्मनुं सारी रीते स्थापन करवा अने अधर्मनो नाश करवामाटे भगवान् जगतना ईश्वर बलदेवजी साथे प्रकट थया छे ॥२७॥
ते धर्मरूपी मर्यादाना बान्धनार, कहेनार अने एने चारे तरफथी बचावनार छे, हे ब्रह्मन्! ए भगवाने धर्मविरुद्ध परस्त्रीनो सङ्ग केम कर्यो? ए तो धर्मना रक्षक छे तेथी बीजो कोई एवुं करतो होय तो एने एम करवा न दे एने बदले पोते एवुं काम केम कर्युं? ॥२८॥
पूर्णकाम यादवना पतिए निन्द्य काम केम कर्युं एनो कांई अभिप्राय जुदो होवो जोईए, केमके धर्मविरुद्ध तो आपे कर्युं न ज होय. तेथी मारो सन्देह छे ते आप सदाचारवाळा (सुव्रत) होवाथी दूर करो ॥२९॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सूर्य, अग्नि वगेरे ईश्वर (समर्थ) क्यारेक-क्यारेक धर्मनुं उल्लङ्घन अने साहसनुं काम करता जोवामां आवे छे. परन्तु ते कामोथी ते तेजस्वी पुरुषोने कोई दोष लागतो नथी. जुओ, अग्नि सर्वनुं भक्षण करी जाय छे पण ते पदार्थोना दोष तेने लागता नथी ॥३०॥
जे माणसमां आवुं सामर्थ्य नथी अथवा जे ईश्वर नथी तेणे मनथी पण कोई दिवस आवी वात विचारवी नहि, शरीरथी करवानी वात तो दूर रही. आवुं कार्य मूर्खतावश बीजो कोई जो करे तो तेनो नाश थाय छे. भगवान् शङ्करे समुद्रना हलाहल विषनुं पान कर्युं हतुं. बीजो कोई करे तो ते बळीने खाक थई जाय. अर्थात् तेनो विनाश थाय. (समर्थने एवुं काम शोभा आपे छे. महादेवजी विषपानथी नीलकण्ठ कहेवाया अने श्रीकृष्ण रासक्रीडाथी श्रीगोपीजनवल्लभ कहेवाया) ॥३१॥
ऐश्वर्यवाळा पुरुषो(श्रीकृष्ण, शङ्कर वगेरे)नुं वचन सत्यहोय छे. तेम ज क्यारेक तेमनुं आचरण पण सत्य होय छे. (‘‘रामस्य चरितं ग्राह्यं कृष्णस्य वचनं तथा’’ श्रीरामना चरित्रनुं अनुकरण अने श्रीकृष्णनां वचनोनुं पालन करवुं हितावह छे-ब्रह्मवैवर्त पुराण) बुद्धिमान पुरुषे तेमना स्वच्छन्द आचरणनुं अनुकरण करवुन्दशमस्कन्ध ३०१ नहि ॥३२॥
हे राजन्! अहङ्कार विनाना ते ऐश्वर्यवाळा पुरुषोने शुभ कर्म करवामां एमनो कोई सांसारिक स्वार्थ नथी होतो अने अशुभ कर्म करवामां कोई अनर्थ (नुकसान के गेरलाभ) नथी होतो. (तेओ स्वार्थ अने अनर्थथी पर होय छे.) ॥३३॥
तो पछी सर्व प्राणी जेवां के पशु-पक्षी, मनुष्य अने देवो नी उपर सत्ता चलावनार ईश्वरने पोताना सेवकोए करेल पुण्य अने पापनो सम्बन्ध शी रीते थाय? ॥३४॥
जेना चरणकमळना पराग रूपी भक्तोनी सेवा करवाथी तृप्त थयेल, योगना प्रभावथी बधा कर्मबन्धोने छोडनार योगीओ अने मुनिओ पण कांई बन्धन वगर स्वच्छन्द फर्या करे तो पछी स्वेच्छाथी स्वरूप धरीने भूतळ उपर आवनार भगवान्ने बन्धन केम घटी शके? न ज सम्भवे ॥३५॥
गोपीजनो, एमना पतिओ तेम ज सर्व देहधारी जीवना हृदयमां बिराजता भगवान् बहार प्रकट थईने क्रीडा करे छे, त्यारे नटनी पेठे पुरुष शरीर स्वीकारे छे. खरी रीते तो ए मनुष्य नथी. दोष तो मनुष्यने लागे. शास्त्र तो मनुष्य अधिकारक छे, ईश्वर अधिकारक नथी. तेथी ईश्वरथी करायेला गुणदोष एमने लागता नथी ॥३६॥
भक्तोना उपर कृपा करवानेमाटे मनुष्य देह धारण करीने भगवाने एवी क्रीडा करी के जेनुं श्रवण करवाथी माणस भगवान्मां लीन थई जाय ॥३७॥
भगवान्नी मायाथी मोहित थयेला व्रजवासीओए पोत-पोतानी स्त्रीओ पोतानी पासे ज छे एम मानी कृष्ण उपर ईर्ष्या-दोषारोप कर्यो नहि ॥३८॥
अरुणोदय सारी रीते थयो त्यारे भगवान् वासुदेवना अनुमोदनथी गोपीजनो अनिच्छा छतां, भगवान् अत्यन्त प्रिय होवा छतां, एमने छोडीने पोताने घेर गयाम् ॥३९॥
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोनुशृणुयादथ वर्णयेद् यः ॥ भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥४०॥
व्रजवधूओ साथेनुं विष्णुनुं विविध क्रीडन अर्ही वर्णव्युं छे ते श्रद्धायुक्त थईने साम्भळे अथवा वर्णन करे तो ए साम्भळनार अने कहेनारने भगवान्मां एम भक्ति थाय छे अने ए हृदयना रोगरूप कामने सदानेमाटे हृदयमान्थी दूर करी ते सत्वरे धीरदशमस्कन्ध ३०२ बने छे ॥४०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा
फल-पेटा-प्रकरणनो धर्मीनो पाञ्चमो अने चालु) ‘‘भगवाने गोपीजनो
साथे करेली रासलीला’’नामनो तेत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां त्रीसमो)
रासपञ्चाध्यायीनो छेल्लो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
दीक्षा लेवा आवनार पुष्टि जीव छे के नर्ही ते चकास्या विना जे आवे तेने कण्ठीब्रह्मसम्बन्ध आपनार गुरु श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोही छे, पुष्टिमार्गनो शत्रु छे.
आवा बेजवाबदारी भर्या आचरणथी ते पोतानुं ज सर्वनाश नोन्तरे छे.
अध्याय ३४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३१ भगवाने करेलो शङ्खचूडनो वध तामस फल प्रकरण अध्याय ६
विशेषः रूपप्रपञ्चथी पाञ्च प्रकारे रसनुं वर्णन पाञ्च अध्यायथी कहेवामां आव्युं, नामलीलाना प्रकारथी रसनुं वर्णन हवे करवामां आवे छे. एमां तात्पर्य एवुं छे के भगवान् जेनो उद्धार करवा आव्या छे तेवा भक्तो जो अन्याश्रय करे तो ए दुःखी थाय छे अने एने जो भगवान् ए दुःखथी छोडावे तो ज छूटे छे. बीजो कोई एनी रक्षा करी शक्तो नथी. चोत्रीसमा अध्यायमां सर्वभावथी निवृत्त थयेल गोपीजनोने प्रमाणनो आनन्द सिद्ध करवामाटे भगवाने गान करीने रमण कर्युं. तेमां वेदरूप बलभद्रनी साथे रहीने प्रवृत्तिना दोषरूप शङ्खचूडनो हरि भगवाने नाश कर्यो एम स्पष्टताथी आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः ॥ अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेम्बिकावनम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एकवार नन्दरायजी वगेरे गोपोए शिवरात्रिना अवसर उपर घणी ज उत्सुक्ता, कुतूहल अने आनन्दपूर्वक गाडाने बळदो जोड्या अने [[३०३]] तेमां बेसीने बधा अम्बिका वनमां गया ॥१॥
हे राजन्! गोपालोए त्यां सरस्वतीमां स्नान करी पशुपति देव शिवजीनुं अने अम्बिकानुं भक्तिथी पूजनना प्रकारवडे अर्चन कर्युम् ॥२॥
त्यां गायो, सोनुं, वस्त्रो, मध अने मधुर अन्न वगेरे पदार्थो देवनी प्रसन्नतामाटे ब्राह्मणोने दानमां आप्याम् ॥३॥
महाभाग्यवान् नन्द, सुनन्द वगेरे गोपो सरस्वती नदीना तीर उपर जळपान करी व्रतने धारण करी आखी रात्रि त्यां रह्याम् ॥४॥
कोईक मोटो अजगर ए वनमां घणा दिवसथी भूख्यो हतो ते दैवनी इच्छाथी त्यां आव्यो अने सूतेला नन्दरायजीने गळवा लाग्यो ॥५॥
अजगरना पेटमां नन्दरायजी जवा लाग्या त्यारे ‘‘हे कृष्ण! कृष्ण! आ मोटो सर्प मने गळी जाय छे, हे तात! हुं तमारे शरणे आव्यो छुं मने आ सर्पथी छोडावो’’ एम बोलता बूमो पाडवा लाग्या ॥६॥
एमनुं आक्रन्द साम्भळीने गोवाळिया तुरत ऊभा थई गया; जुए त्यां तो नन्दरायजीने अजगर गळे उतारतो जाय छे. गोपाळो गभराया अने ए सर्पने सळगतां लाकडान्थी मारवा लाग्या ॥७॥
ते सळगतां लाकडान्थी बळतो सर्प नन्दरायजीने गळतो अटक्यो नहि त्यारे सात्वतोना पति भगवाने आवीने एने पोताना चरणथी ते अजगरने स्पर्श कर्यो ॥८॥
भगवान्ना श्रीवाळा चरणनो सम्बन्ध थतां ए सर्पना बधां पाप भस्म थई गयां, सर्पनुं शरीर पण एणे छोडी दीधुं अने विद्याधरनुं स्वरूप एने प्राप्त थई गयुं ॥९॥
तेजस्वी शरीरवाळा, सुवर्णनी माळावाळा अने भगवान्ने प्रणाम करीने सामे ऊभा रहेनार विद्याधरने इन्द्रियोना अधिष्ठाता भगवाने पूछ्युंः ॥१०॥
‘‘परम शोभाथी प्रकाशता तमे कोण छो? तमारुं अद्भुत दर्शन जोतां आवी निन्दित योनि तमने आ वनमां केम प्राप्त थई? तेथी कोईनो शाप थयो होय एम अमारुं धारवुं छे’’ ॥११॥
सर्पे (अजगरना शरीरमान्थी नीकळेला पुरुषे) कह्युं - हुं सुदर्शन नामथी प्रसिद्ध विद्याधर छुं. लक्ष्मी अने स्वरूपनी समृद्धि थी दिशाओमां हुं विमानमां बेसीने फरीदशमस्कन्ध ३०४ रह्यो हतो ॥१२॥
मने रूपनो गर्व हतो. तेथी अगिंरा (अगिंरस) गोत्रना कद्रूपा ऋषिओने हुं हस्यो अने एमणे मने आ सर्पनी योनिमां दाखल करी दीधो. एमने में वक्रोक्तिथी सताव्या त्यारे एमणे मने अजगर बनाव्यो. ए मारा पापथी ज हुं एवी योनिने प्राप्त थयो हतो ॥१३॥
(एम अपराधथी शाप थयो ए वात कहीने पोतानी वैष्णवता सिद्ध करवामाटे निर्मत्सरताने देखाडतो कहे छे के) ए दयाळु ऋषिओए मारा उपर कृपा करवामाटे ज मने शाप आप्यो, कारण के त्रणेय लोकने उपदेश करनार गुरुए (साक्षात् भगवाने) स्वयं पोताना चरणथी मारो स्पर्श कर्यो अने मारां पापनो तत्काळ नाश थई गयो ॥१४॥
संसारना भयवाळा आपने शरणे आवे त्यारे एनो भय जाय छे. एवा आपना चरणस्पर्शथी, हे पापने दूर करनार प्रभु! शाप मुक्त थयेल हुं आपनी रजा मागुं छुम् ॥१५॥
हे महायोगिन्! हे महापुरुष! हे सत्पते! हे सर्व लोकना ईश्वर! हे देव! आप मने जवानी आज्ञा आपो ॥१६॥
हे अच्युत! आपना दर्शनथी हुं तरत ब्राह्मणोना शापमान्थी मुक्त थयो एमां आश्चर्य नथी. जेनुं नाम उच्चारवा मात्रथी साम्भळनारने, पोताने अने बीजा बधाने तत्काळ पवित्र करे छे ते ज भगवान्ना चरणनो मने स्पर्श थयो तो पछी मारो निस्तार थाय एमां शुं कहेवुं? ॥१७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे सुदर्शने दाशार्ह भगवान् श्रीकृष्णने विनन्ति करी तेमनी परिक्रमा करी अने तेमने प्रणाम कर्या. पछी तेमनी आज्ञा लई ते पोताना लोक-स्वर्गमां चाल्यो गयो अने नन्दरायजी भारे सङ्कटमान्थी मुक्त थया ॥१८॥
हे राजन्! ज्यारे व्रजवासीओए भगवान् श्रीकृष्णनो आ अद्भुत प्रभाव जोयो त्यारे तेमने अत्यन्त आश्चर्य थयुं. ते लोकोए ए क्षेत्रमां जे नियमो लीधा हता ते पूर्ण करी तेओ घणा आदर अने प्रेम थी श्रीकृष्णनी ते लीलानुं गान करताकरता फरी व्रजमां पाछा गया ॥१९॥
(एम अन्य भजन निवृत्तिने माटे भगवान्नो प्रताप कहीने शब्दब्रह्मनोदशमस्कन्ध ३०५ आनन्द गोपीजनोद्वारा सर्वमां पूरवामाटे गोपीजनोनी शब्द ब्रह्मरूप बलभद्रजीनी साथे पण क्रीडा थई ए वात १३ श्लोकथी कहे छे) एक वखत गोविन्द भगवान् अने अद्भुत पराक्रमवाळा राम रात्रे गायो अने व्रजस्त्रीओ नी साथे वनमां विहार करी रह्या हता ॥२०॥
बन्ने भाईए शृङ्गार, चन्दनादि लेप, निर्मळ वस्त्र अने माळाओ धारण कर्यां हतां. गोपीजनो अत्यन्त प्रेम अने आनन्द थी ललित स्वरमां तेमना ज गुणोनुं गान करी रह्यां हताम् ॥२१॥
हमणां ज साञ्ज थई हती. आकाशमां चन्द्र अने तारा ऊगी आव्या हता अने चान्दनी चमकी रही हती. मल्लिकानी सुन्दर गन्धथी मत्त थई भमरा आम-तेम गुञ्जारव करता हता अने जलाशयमां खीलेली कुमुदिनीनो सुगन्धयुक्त मन्द-मन्द वायु वातो हतो. ए वखते एमनुं सन्मान करता भगवान् श्रीकृष्ण अने बलरामजीए एकीसाथे राग आलाप्यो. एमनो राग आरोह-अवरोह स्वरोना चढाव-उतारथी खूब ज सुन्दर लागी रह्यो हतो. ते सम्पूर्ण जगतना समस्त प्राणीओनां मन अने कान ने आनन्दथी भरी देवावाळा हता ॥२२-२३॥
गोपीजनो ए गीतने साम्भळी, हे राजन्! मूर्छित थई गयां. ए शरीर उपरथी सरी पडतां कपडान्ने, पोतानी जातने अने केशपाशथी छूटी जती माळाने पण न जाणी शक्याम् ॥२४॥
मनमां आवे तेवी रीते उन्मत्त मनुष्यनी जेम बन्ने राम-कृष्ण गान अने
विशेष क्रीडा करता हता त्यारे शङ्खचूड नामनो* कुबेरनो नोकर त्यां आव्यो ॥२५॥
विशेष - प्रमाण बळवाळा मार्गमां दैत्यनो उपद्रव थाय एम बताववामाटे ए लीलामां विघ्न आव्युं ए कहे छे. एक वखते कुबेरनो नोकर शङ्खचूड ए स्त्रीओनुं हरण करवा आव्यो. एना माथामां शङ्ख नामनो निधि रहे छे. तेथी कुबेरना पुत्र जेवा धनमां मत्त हता अने स्त्रीओमां आसक्त हता तेथी नारदजीए शाप आप्यो हतो तेमां नारदजीनो दोष न हतो तेम आ शङ्खचूडने जोईने भगवान्ने तेने मारी नाखवानो विचार आव्यो. धन होय त्यां स्त्रीओ होवी ज जोईए. एम शङ्खचूड जे पाखण्डनुं स्वरूप छे ते माने छे. शङ्खचूड आ श्रुतिओने लईने एमने लौकिक बनावी देवा आव्यो, पण भगवाने एमनी रक्षा करी. हे राजन्! बलदेवजी अने भगवान् जोता हता एवामां ज ते बन्ने जेना नाथ छे अने आक्रन्द करता ते स्त्रीवर्गने ए शङ्खचूड तो कालनी जेम निःशङ्क थई एदशमस्कन्ध ३०६ बधान्ने लईने उत्तर दिशामां चालतो थयो ॥२६॥
चोरो शब्द करती गायोने उपाडी जाय तेम पोताना रक्षक एवा राम अने कृष्ण ने ‘‘हे राम! हे कृष्ण!’’ एम सम्बोधी ऊञ्चेथी भयसूचक शब्द करतां गोपीजनोने लई जतां शङ्खचूडनी पाछळ बन्ने भाई दोड्या ॥२७॥
‘‘भय न राखो’’ एम बोलता हाथमां शालनां वृक्ष अने मारवामाटे हथियाररूपे लई लीधां अने जलदीथी दोडी ए अधम गुह्यक पासे पहोञ्ची गया ॥२८॥
शङ्खचूड तो पासे आवता राम-कृष्णने काळ अने मृत्यु जेवा जोई भयथी उद्वेग करतो स्त्रीओने छोडी पोताना जीवने बचाववाने ए मूर्ख जलदी दोड्यो ॥२९॥
त्यारे स्त्रीओनी *रक्षामाटे बलदेवजीने त्यां छोडीने गोविन्द शङ्कचूडनी पाछळ पड्या. ज्यां-ज्यां ए गयो त्यां एनी पाछळ कृष्ण एना माथानो मणि लई लेवा दोडवा लाग्या ॥३०॥
विशेष - ए स्त्रीओनी रक्षा करवी ए भगवान्नी फरज हती, केमके ए गाय, गोपी अने गोप ना इन्द्र थया छे तेथी रक्षा न करे तो ‘गोविन्द’ न कहेवाय. रक्षा तो मूळमान्थी दोष जाय तो ज थाय. ए एने मारवाथी ज मूळथी नष्ट थाय. एने माटे भगवान्ने दोडवुं पड्युं. जो एने दूरथी मारे तो मारी शके; पण एम करे तो ए शङ्खचूडने बीजा यक्षो उठावी जाय अने एना मस्तकनो निधि लेवो छे ते हाथमां न आवी शके. मणि होय त्यां सुधी एना उपर शस्त्र चाले नहि तेथी पोते ज पधार्या छे. स्त्रीओनी रक्षा करवा बलदेवजीने राख्या, केमके एओने बचावे नहि तो बीजा यक्षो ए स्त्रीओने लई जई मारी नाखे. स्त्रीओनी रक्षा करवी ज जोईए. बलदेवजी सर्व रीते एनी रक्षा करवाने समर्थ छे तेथी स्त्रीओनी रक्षा करवामां एमने योज्या. हे अङ्ग! ए दुष्ट गुह्यकनी नजीकमां आवी समर्थ कृष्णे एना माथामां मूठी मारी एना वडे मस्तकना मणिनी साथे *माथुं उडावी दीधुम् ॥३१॥
विशेष - पलायितनो वध न करवो जोईए ए भगवाने केम कर्यो? त्यां कहे छे के ए दुष्ट छे. वेदत्रयीना द्वेषीने मारवा ज जोईए. वळी स्त्रीओनो हरनार होवाथी एने मारवो ज जोईए, केमके ए आततायी थयो. तेने वगर विचारे मारवो ज जोईए आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् एम धर्मशास्त्र ज कहे छे. भगवान् मणि राखे तो एने मुक्ति आपवी जोईए. ए न आपवा माटे ए मर्यादानुं फल वेदरूप रामने आपवा माटे मणि लावीनेदशमस्कन्ध ३०७ बलदेवजीने आप्यो. तेथी एम पण बताव्युं के प्रमाणने माटे जे कांई थाय छे ते एना अधिष्ठाताने मळवुं जोईए. आ लीलामां प्रमाणबळ मुख्य छे, अर्ही प्रमेयनी कोई पण वात नथी. शङ्खचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम् ॥ अग्रजायाददात् प्रीत्या, पश्यन्तीनां च योषिताम् ॥३२॥
आ प्रमाणे भगवाने शङ्खचूडने मारीने एनो बहु प्रकाशवाळो मणि लई भगवान् बलदेवजीनी पासे आव्या अने बधां गोपीजनोनां देखतां पोताना मोटाभाईने ए मणि प्रीतिथी आप्यो ॥३२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो) ‘‘भगवाने करेलो शङ्खचूड वध’’ नामनो चोत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४. बाद करतां एकत्रिसमो) नामलीलानो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतक ना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए पुष्टिमार्गमां घोर पाप छे.
अध्याय ३५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३२ गोपीजनोए गायेलुं-युगलगीत तामस फल प्रकरण अध्याय ७
विशेष - पान्त्रीसमा अध्यायमां हरि भगवान् गोपीजनोना हृदयमां पोतानो आनन्द पूरे छे, जेनाथी ए पूर्णानन्द कहेवाय छे. भगवान् श्रवणद्वारा अन्तःकरणमां प्रवेश करीने ए मुखथी वर्णन करती वखते बीजाना कानमां आवे छे. त्यारे ए भगवान् हृदयमां सारी रीते स्थिर थाय छे. अर्ही (नादात्मक) शब्द अने (नादमां वर्णवेला भगवान्रूपी) अर्थ ए बन्नेनी मुख्यता कहेवामाटे बब्बे (युग्म) श्लोकथी गोपीजनो वर्णन करे छे. भगवान् बार मासमां जे-जे लीला करे छे ते अर्ही कहेवानी छे तेथी अर्ही बार युगलो (जोडिया श्लोक) कहेवामां ईंईं उंउन्दशमस्कन्ध ३०८ आव्या छे. पहेला श्लोकथी आरम्भ कह्यो, छेल्ला श्लोकथी फल कह्युं ते बे श्लोकनुं पण एक युगलद्वारा अधिक मासनी लीला समजवी. एटले आ अध्यायमां २६ श्लोकथी तेर युगलोमां गोपीजनोए भगवद्गुणनुं विप्रयोगना तापथी जीवन निर्वाह माटे गान कर्युं छे. गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः ॥ कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्रीकृष्ण१ ज्यारे वनमां पधार्या त्यारे गोपीजनोनां मन तो एमनी पाछळ चाल्यां गयां जेथी तेमणे श्रीकृष्णनी लीलाने गाईने दुःखवडे दिवसोनुं निर्गमन२ कर्युम् ॥१॥
विशेष - १. सदानन्द वनमां पधारता एमना वियोगथी चित्त द्रवरूप थईने पाछळ चाली
नीकळे छे ते श्रीकृष्णनी लीलाने पकडे छे तेथी तेओ लीलानुं गान करे छे. जेवुं सदानन्द स्वरूप
छे तेवी एनी लीला पण छे एम बताववामाटे फरी ‘कृष्ण’ पदनो प्रयोग कर्यो छे, अर्ही
‘‘एनी लीला’’ एम कहेवाथी पण वाक्य रचनामां बाध नथी आवतो, पण सामञ्जस्य रहे
छे.
२. भगवान् हरिनी सर्वोत्तम लीला आ अध्यायमां कहेवानी छे. एमां प्रथम श्लोकमां
लीलाना कारणभूत वेणुनादनुं वर्णन आपवामां आवे छे. आ बधुं युगलमां एम समजवुं.
एमां ए वेणुनादनो अनुभव करनार प्रथम युगलथी छेल्ले सुधी कोण छे ए बतावे छे.
देवस्त्रीओ, गायो, नदीओ, वृक्षो, लताओ, पक्षीओ, मेघो, ब्रह्माजी वगेरे, गोपीजनो,
हरिणीओ, देवगन्धर्वो बे प्रकारे बे युगलमां वर्णवेला हरि, एटला वेणुवादनना उत्तर श्लोकमां
कहेवामां आवे छे. तेओने वेणुनी असर थई ए युगलना बीजा श्लोकमां कह्युं छे. भगवान्
जाणे छे ज, भगवान् हरि ज जाणे छे, एम बताववामाटे अन्तमां बे वार भगवान्नी
लीला कही छे. एमां बुद्धिने स्थिर करवी. एमां नादनो प्रताप पहेलां स्त्रीमां जणायो छे.
एम बताववामाटे प्रथम युगलमां देवस्त्रीओने वेणुनादथी चित्तविकार थयो एनुं वर्णन कर्युं छे.
ए देवस्त्रीओ, गायो अने नदीओ ए त्रण स्त्रीओमां कह्या पछी पुरुषोमां ब्रह्माजीने जे थयुं
ते नादकार्य कह्युं छे. ब्रह्माजी, गोपीजन अने हरिणी ए त्रण प्रकारनां छे. बाकीना देवो छूटाछूटा कहेवाया छे. ए बधा वस्तु सामर्थ्ययुक्त छतां नादने सर्व रीते जाणी शक्या नथी. एम
अर्ही वेणु द्वादश प्रकारे फलित थाय छे ए आ अध्यायनुं तात्पर्य छे एनो विस्तार श्लोकथी
जाणवो. (कारिका)
(आ फल प्रकरणमां स्त्रीनुं प्राधान्य छे तो वेणुवादनमां पण ए नादनोदशमस्कन्ध ३०९
अनुभव स्त्रीने प्रथम थाय छे एम बताववामाटे प्रथम स्त्रीना मनमां जे थयुं ते
कहे छे) हे गोपीजनो! *डाबा बाहु उपर डाबो कपोल (गाल) धरीने नाचती
भ्रमरवाळा मुखारविन्दमां अधर उपर वेणुने राखी कोमळ आङ्गळीओवडे वेणुना
छिद्रने पूरता मुकुन्द भगवान् ज्यारे वेणु वगाडे छे ॥२॥
त्यारे सिद्धोनी साथे विमानमां बेठेली तेमनी स्त्रीओ ते *वेणुनादने धारण करीने प्रथम लज्जित थाय छे, कामना बाणने चित्त अर्पण करी दे छे. चित्त विकारयुक्त थई जतां कटिवस्त्रनी ग्रन्थी खूली जाय छे एनुं एमने भान रहेतुं नथी ॥३॥
विशेष - मुकुन्द-मोक्ष आपनार भगवान् अधर उपर वेणु राखीने एने वगाडे छे ते ज वखते विमानमां बेसनार देवनी स्त्रीओ विकार पामे छे. ए वेणुनाद बे बाजु, सामे, उपर अने नीचे एम पाञ्च प्रकारे थाय छे. ए वेणुने ए तरफ धारण करवाथी ए नाद प्रकट थाय छे. स्त्रीओने कामनो उद्बोध करवो होय तो डाबी बाजु वेणु धारण कराय छे. स्त्री-पुरुष बन्नेने कामोद्बोधक करनार दक्षिण परावृत्त वेणु छे. समताथी सर्व चेतन प्राणीना कामनो उद्बोधक छे. ऊञ्चे राखवाथी देवोने अने नीचे राखवाथी पशुओने कामोद्बोधक थाय छे. एमां अर्ही देवस्त्रीओना कामने उद्बुद्ध करवामाटे वाम परावृत्तता कहेवाय छे. मानुष भावथी देवभाव मोटो छे तेथी मनुष्यकृत नादथी देवस्त्रीओने एम न थाय एम कोई माने तो अर्ही भगवान् छे माटे एम मानवाने कांई कारण नथी. भगवान्नी भ्रूकुटिनो विलास ते ब्रह्माजीनुं स्थान छे एम कह्युं छे तेथी भगवाने पोतानी भ्रूकुटिना विलासने वेणुनाद साथे जोडी दीधो त्यारे देवोने पण ए असर करनार थयो. ए ज कहे छे के वाम बाहु उपर राख्यो छे वाम कपोल जेणे, चञ्चळ छे भ्रू जेनी एवो अर्थ करवो. अर्ही ए दक्षिण भ्रमर लेवी, केमके अभिनयमां एम ज थाय छे. एनुं वल्गन एटले चाञ्चल्य. अधर तो प्रथम कहेवायो छे ज्यारे वेणुने अधर उपर राख्यो छे ते अधर लोभात्मक छे ते परमानन्दने न आपे पण कामने ज आपे तेथी ए वेणुने साम्भळनार पण विरह क्लेशने भोगवे, पण परमानन्दनो एने अनुभव न थाय. एमां पण जो क्रियाशक्ति पुष्ट थाय तो लोभीथी पण लाभ मळे. ए तो अर्ही कोमळ छे. कोमळ क्रिया लोभीने रीझवी न शके. प्रथम नाद मन्द थवो जोईए. ए वेणुना छिद्र ते पवन जवाना मार्ग छे तेने खूब आङ्गळीथी दबावे तो ऊञ्चा शब्द नीकळे; कोमळताथी पोची आङ्गळी राखे तो मन्द स्वर नीकळे; मध्यभावमां मध्यस्वर प्रकट थाय. एम मुकुन्द वेणुने वगाडे छे. एनो विचार एवो छे के वेणुनादवडे जगत् शुद्ध थाय तो एने मोक्ष आपुं. एम जगतना हितमाटेदशमस्कन्ध ३१० वेणुनाद भगवान् करे छे छतां जेनो मोक्षनो अधिकार नथी तेने तो ए नादथी काम ज उत्पन्न थाय छे. ए कहे छे के आकाशयानमां बेठेल देवनी स्त्रीओ देवयोनि होवाथी अधिकारिणी छे. स्त्री छे अने भोग्य छे तेथी मुक्तिने लायक नथी. ए पोताना पतिओनी साथे छे. पतिओ भगवान् सिवाय बधुं आपवाने समर्थ होवाथी सिद्ध कहेवाय छे. ए स्त्रीओ वेणुनाद साम्भळीने प्रथम विस्मय पामी; एनो विचार करतां ए लज्जित थई. अत्यन्त अनुभव करतां कामबाणने पोतानो आत्मा आपीने बेसी रही. जेम भीरु माणस लुटाराने प्रथमथी ज पोतानुं सर्वस्व आपी दे छे तेम एमणे कर्युं तेथी ए विकृतिने पामी जेथी एमने कपडानुं भान न रह्युं. तेथी गोपीजनो कहे छे के देवीओनी ए दशा थई तो अमने मूर्छा थाय एमां शी नवाई? ॥२-३॥
हे अबलाओ! आ एक आश्चर्य श्रवण करो; जेमनुं हास्य हारना जेवुं छे, जेमना वक्षःस्थळ उपर वीजळी स्थिर छे तेवा नन्दकुमार दुःखी जनने आनन्द आपता ज्यारे *वेणुने वगाडे छे ॥४॥
त्यारे व्रजना आखलाओ (वृषो), जङ्गली पशुओ अने गायोनां यूथो तरत ज वेणु वागतां ज एमनां चित्त चोराई जवाथी एमणे दान्ते तोडेलुं घास मुखमां एम ज रही गयुं अने कान ऊञ्चा करीने निद्रामां पडी गयां अने चित्रमां आलेख्यां होय तेवां ए बधां थई गया ॥५॥
विशेषः हे अबला! आ आश्चर्य तो साम्भळो. ज्यारे नन्दकुमार वेणु वगाडे छे त्यारे वृषो
(आखलाओ) अने गायोना दान्ते तोडेला घासना कोळिया एम ज रही जाय छे अने जाणे
ऊङ्घता होय तेम देखावा लाग्यां. पशुमां काम सजातीयमां ज होय छे, उत्कृष्ट के अपकृष्टमां
पशुने काम थतो नथी. खच्चरनी तो व्यवस्था जुदी ज छे. हीनमां मोटानुं रमण
रसाभासजनक गणाय. तेथी आ पशुओने सम्भोगरूप काम अर्ही लेवानो नथी, पण
आवश्यक खावानी कामना लेवानी छे. एनो पण वेणुनाद प्रतिरोध करे छे. ए कहे छे के ज्यां
गायोनी पण आवी स्थिति छे त्यां अमारी क्रिया निवृत्त थती नथी ए आश्चर्य जेवी वात छे.
पहेलां कह्युं एना करतां पण आ मोटुं आश्चर्य छे, केमके देवस्त्रीओ वखते पुरुषोत्तममां काम
भाव करे, पण आ पशुओनी वेणुनादथी क्रिया निवृत्त थाय ए तो ‘कौतुक’ कहेवाय. ‘‘हे
अबला’’ एम सम्बोधन आपी एम बतावे छे के आपणे प्रियनी पासे जई आ बधी लीला
प्रत्यक्ष करी शक्ता नथी; एवुं बळ आपणामां नथी. हवे गोपीजन वर्णन करे छे के भगवान्नुं
स्वरूप एवुं छे के एमनुं हास्य हारना जेवुं छे अने छाती उपर वीजळी स्थिर रहे छे. वळीदशमस्कन्ध ३११
ए नन्दरायजीना पुत्र पण थई जाय छे. आर्तजनने नर्म एटले आनन्द आपनार छे. एनुं
कारण के आ नन्दसूनु अर्ही प्रकट छे. अथवा जेम आ वर्णन आखा वर्षने योग्य छे तेम
आखा दिवसनुं पण आ चरित्र गणाय. दिवसमां पण सन्ध्या सन्ध्यांश बाद करतां बार
मुहूर्त थाय छे तेमां आ बीजा मुहूर्तनुं चरित्र छे. ए सोमोत्पत्तिना प्रसङ्गमां कह्युं छे. बीजानुं
हास्य दोरडां जेवुं होय, ज्यारे भगवान्ना हास्यमां दान्तनी कान्ति पडे छे. ए दान्त उपर
अधरनो प्रकाश पडे छे तेथी दान्तनी लाल कान्ति सफेद हास्यनी वच्चे पडे छे त्यारे मोतीनी
माळामां टिङ्कडा लाल होय तेवा हारनो देखाव थाय छे. हास्यनुं स्वरूप माया छे. ज्यारे ए
मायामां स्नेहनी कलारूप दान्तनुं प्रतिफलन थाय छे तेथी भगवान् प्रपञ्चमां स्थिर करे छे. केवळ
पुत्रादि-आसक्तिने स्थिर नथी करता, पण धनासक्तिने पण स्थिर करे छे, केमके ए हृदयमां
विद्युतने स्थिर करे छे. एम प्रमाण बळने दूर करवामाटे बे वात करी, हवे प्रमेयबळने दूर
करवामाटे बे वात कहे छे के भगवान् नन्दरायजीना पुत्र थया. एम प्रमेयबळ निरासक एक
वात थई अने आर्तने स्वयं आवीने सुख आपे छे ए प्रमेय ए प्रमेयमर्यादानिरासक बीजी
वात छे. मोटा आम न करे छतां करता जणाय छे. ए आश्चर्यनी वात छे. एवा भगवान्
वेणु वगाडे छे त्यारे व्रजना साण्ढ अने गायो, मृगो वगेरेनां चित्त नादवडे हराई जाय छे. ए
भगवान् पासे पण जई शक्तां नथी. केवळ मोढामां तृणना कवळ (कोळिया) दान्तथी तोडेला
रही जाय छे ते खवाता पण नथी, पण देवस्त्रीओनी पेठे तेमने मूर्छा नथी, पण कान धरीने
ए नादनो अनुभव करे छे. जाणे ऊङ्घता होय, चित्रमां उतारेला होय तेवा थई जाय छे.
देवस्त्रीओना करतां वेणुनादे पशुओमां अधिक प्रभाव बताव्यो ए ज आश्चर्यरूप छे ॥४-
५॥
(नदीओनी गतिने कहे छे) हे आलि! (सखी!) मोरपिच्छना गुच्छ, गैरिका (गेरू) वगेरे धातुओ अने कोमळपत्रोवडे मल्लनो शृङ्गार करता भगवान् बलदेवजी अने गोपो नी साथे गायने सारी रीते वेणुनादवडे *बोलावे छे ॥६॥
त्यारे एना चरणनी रजने वायु लावे छे तेनी स्पृहा करती आपणी जेम ओछा पुण्यवाळी, प्रेमथी जेनी तरङ्गरूपी भुजा कम्पे छे, जेनां जळ स्थिर थई गयां छे तेवी नदीओ पोतानी गतिने रोकीने थम्भी जाय छे ॥७॥
विशेषः नित्यनो वेश अने क्रीडा समयनो वेश कह्यो, हवे भगवान्नो ‘लीलावेश’ कहेवाय छे. ज्यारे नाचे छे ते समयनो वेश ए लीलावेश कहेवाय. नदीओनो प्रवाह निरन्तर चाल्या करे, चेतनने निद्रा अने मूर्छामां क्रिया बन्ध रहेती देखाय छे, पण नदीने कोई समय एवो नथीदशमस्कन्ध ३१२ होतो जेमां प्रवाह बन्ध रहे. मोटी नदीने बन्ध पण बान्धी शकाय नहि तेवी नदीनो पण वेणुनादे प्रवाह अटकाव्यो. भगवान् पोते मल्ल नथी, पण एनो वेश पहेरे छे. जे अस्वाभाविक होय ते ‘विडम्बन’ कहेवाय. नट अथवा मल्ल जेवो वेश नृत्यमां उपयोगी छे. नृत्यमां क्रियाशक्ति छे ते नादमां आवी तेथी एणे नदीना प्रवाहने अटकाव्यो. एवो वेणुनाद कर्यो त्यारे नदीओना प्रवाह चालता बन्ध थया, केमके भगवान्नी आज्ञानुं कोई उल्लङ्घन करी शक्तुं नथी, ए नदीओनो अधिपति समुद्र छे पण भगवान् तेमना अधिपति थाय एवा हेतुथी एनी चरणरजनी स्पृहा करे छे. वायु भगवद् चरणनी रजने लई जतो हतो तेने नदीमान्थी ठण्डक लेवी हती. ए रज पण भगवान्ना सम्बन्धने मेळवी शके छे तेथी नदीने तो कामना ज रही. ते कालिन्दीजी तपश्चर्यावडे पूर्ण करशे. हालमां तो ए आपणी जेम ओछा पुण्यवाळी होवाथी तेमने रज मळी शकी नहि. आपणे पण इच्छारूप करी शक्तां होत तो गोरूप के गोपाळरूप करी भगवान्नी साथे जई शकत, पण आपणां पण एवां पुण्य नथी तेथी आपणी जेम नदी पण ए रजनी स्पृहा मात्र करी रही; एनुं कार्य सिद्ध न थयुं. एने सात्विक भाव थयो देखाय छे. स्वेदः स्तम्भोथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोथ वेपथुः। वैवर्ण्यमश्रुप्रलयः इत्यष्टौ सात्विकाः मताः॥ ए ज कहे छे के प्रेमथी जेनी भुजा कम्पित थाय छे तेथी सन्तप्त लागे छे. एने स्तम्भ पण जणाय छे तेथी एनां जल थम्भी गयां छे. एम राजस भावना त्रण भेद कह्या ॥६-७॥
भगवान्ना अनुचर (सेवक) गोपो जेमनी कीर्ति (वीर्य) नुं गान करे छे, जे आदि पुरुषनी जेम स्थिर (अचल) लक्ष्मीवाळा छे ते भगवान् वनमां फरता गोवर्धन पर्वतना शिखर उपर विषम जमीनमां चरती गायोने वेणुनाद करीने१ ज्यारे २बोलावे छे ॥८॥
त्यारे वननी लताओ अने वृक्षो पोताना स्वरूपमां विष्णुने साबित करती पुष्प अने फळ नी सम्पत्तिथी सम्पत्तिवाळी बने छे. फळना भारथी एनी डाळो नमी जाय छे, प्रेमवडे रोमाचिन्त थईने मकरन्द (मधुधारा) स्रववा लागे छे ॥९॥
विशेष - १. सत्वगुणना भेद कहेवामाटे त्रण युगलथी भगवान्नुं वर्णन करे छे. लता,
पक्षीओ अने मेघो ए त्रण सात्विक छे. ए वेणुनादथी भक्तिपूर्ण थयां. एमां प्रथम
वृन्दावनमां रहेलां लता, वृक्षो वगेरे वैष्णव छे तेने वेणुनादवडे प्रेमरस उत्पन्न थयो. वेणुनाददशमस्कन्ध ३१३
पण बीजा प्रकारे भगवाने एने माटे कर्यो छे. भगवान्नुं पोतानुं पण वर्णन प्रकारान्तरथी
कर्युं छे. एमां भक्तिने अनुसारी अने लोकवेदानुसारी एम बे प्रकारे वर्णन करवुं छे. एमां
प्रथम तो भक्तिने अनुसरी वर्णन करे छे.
२. सेवक एवा गोपो भगवत्पराक्रमनुं गान करता भगवान्नी पाछळ चाले छे.
पुरुषोत्तमने जेम वेद सर्वोत्तमताथी वर्णवे छे, ए जगतना कर्ता छे, शास्त्रार्थरूप छे एम कही
वेद एमनां वखाण करे छे. वळी ए आदिपुरुषनी जेम स्थिर लक्ष्मीवाळा छे, छतां ए वनचर
छे, एटले वृन्दावनमां फरनार छे. वनमां वास सात्विक होवाथी सात्विक भावथी सत्वभूमिमां
प्रतिष्ठित थाय छे. वळी पर्वतना छेवटना भागमां फरती एटले विषम भूमिमां फरती गायने
समभूमि उपर लाववामाटे वेणुथी बोलावे छे. लौकिक न होवाथी एणे वेणुद्वारा बोलावे छे.
लौकिक गोपाळो तो नाम लईने बोलावे छे. अर्ही तो गायो अने गोपाळ अलौकिक छे तेथी वेणु
वगाडे छे त्यारे गायो समजी जाय छे अने भगवान्नी पासे आवे छे. आगला चरित्रमां कह्युं
छे के भगवान् वेणुमां पोतानुं स्वरूप मोकले छे तेम भगवान् वेणुद्वारा गायोमां पेसी एमने
भगवत्समीप जवानी प्रेरणा करे छे तेथी ए गायो दोडती जलदी आवे छे. जो वेणुद्वारा
भगवान् एमां पधारता न होय तो वृक्षमां अकाले फल, पुष्प न आवे अने एमान्थी मधुधारा
स्रवे छे ते न स्रवे तेथी ज वेणुनादनुं एमने ज्ञान छे ए वात सिद्ध थाय छे तेथी वृक्षो, गायो
वगेरेमां पण भगवान् वेणुनादद्वारा प्रवेश करे छे. वननी लताओ जाणे छे के भगवान् अमारी
पासे फरे छे. पोतानी गायोने बोलावे छे तेमां विद्यमान आनन्द एमने आपवामाटे ए
लताओ वगर माग्ये ज भगवान्ने अर्पण करी दे छे तेम ज वृक्षो पण करे छे. जेम भगवदीय
स्त्री-पुरुषो कोई भक्त घेर आवे तो प्रथम तो आनन्दयुक्त थाय छे, पोतानी सत्तानी वस्तु
एने भोगमाटे आपे छे तेम आ वृक्षो पण करे छे. ए धर्म जो के जङ्गमनो छे, छतां अर्ही
वृक्षोए भगवान् पधारवाथी जङ्गमता प्रकट करी छे, एटलुं ज नहि, पण एमां आनन्दांश
पण अभिव्यक्त थयो छे तेथी ए पोताना स्वरूपमां भगवान् छे एम बताववा लाग्यां. प्रथम
तो एमां क्रियाशक्तिना आविर्भाव थयो तेथी एमां पुष्पो अने फलो लागी गयां ते भगवदर्थ
होवाथी सदा वधतां ज रहे छे पण घटतां नथी. प्रेमवडे रोमाचिन्त थई जाय छे ए भक्तनुं
लक्षण छे. ए वृक्षोमां प्रकट देखवामां आव्युं त्यारे एमां आनन्दनो प्रवेश थयो छे ए वात
निःसन्दिग्ध थई ॥८-९॥
पक्षीओमां पण *दर्शन करवा लायकमां तिलकरूप एटले अति सुन्दर (श्रेष्ठ), वनमाळानी दिव्य गन्धवाळी तुलसीना मकरन्दथी मदवाळा बनेला भ्रमरोनां कुलदशमस्कन्ध ३१४ पोताने गमतुं गायन करे छे तेनो आदर करता भगवान् ज्यारे वेणुनुं कूजन करे छे त्यारे तळावमां रहेनारां सारस, हंस वगेरे पक्षीओ सुन्दर वेणुगीतने साम्भळवाथी एमना चित्तनुं आकर्षण थतां एमनुं चित्त एकाग्र थई जाय छे अने आङ्खो बन्ध करीने मौन धारण करी मुनिओनी जेम पक्षीओ हरिने सेवे छे ॥१०-११॥
विशेष - हवे पछी पक्षीओ उपर वेणुनादनी शी असर थई ए कहेवामां आवे छे. ए पक्षीओने असर करवामां उपयोगी रूप अने वेणुनाद नुं वर्णन करे छे. जो के पक्षीओ अर्ही वृन्दावनमां मुनिओ छे, एने कांई गीतथी भगवद्भाव थाय छे एम नथी पण स्वभावथी ज एमने भगवान्मां भाव छे. तो पण लोकबुद्धिथी कदाचित् भाव थाय ए शङ्का न थवा माटे भगवान्नां स्वरूप अने नाद थी एने भक्ति सिद्ध थई छे ए वात कहे छे. एमां प्रथम रूपनुं वर्णन करे छे, ‘दर्शनीयतिलकः’ इत्यादि श्लोकथी. दर्शनीयमां ‘तिलकरूप’ एटले अतिसुन्दर, सुन्दरताना भेदने जाणनार पक्षीओ होय छे. ए मनमां रूप प्रधान होय छे तेथी एमणे वेणुनाद अमारुं हित करनार छे एम जाण्युं. ए नाद पोताना होय तेमना अपराधने पण गणतो नथी. ए कहे छेः वनमालामां दिव्य गन्धवाळी तुलसीना मकरन्दथी गाण्डा बनेला भमराओना उच्चस्वरना गानवडे भगवान् खिन्न थता नथी पण एनो आदर करे छे, तो पछी सरोवर आदिमां रहेला सारस, हंस रसिक छे, क्षीर-नीरना विवेकवाळां छे तेनो आदर केम न करे? एमनो आदर एवी रीते करे छे के एमनुं जेम अभीष्ट थाय. वनमालामां रहेला भमराओने दूर नथी करता, पण एनुं जेम सारुं थाय तेम करे छे. एमने जेम कांई उपद्रव न थाय तेम करे छे. आदरथी तेमने रसपान करवानी छूट आपे छे. एम करीने ज्यारे वेणुनुं कूजन करे छे त्यारे जलवासीओ ‘सारस’ एटले सरस भक्त तेना सम्बन्धीओ उत्कृष्ट गतिवाळा पुरुषो करतां ए भजन करवामां वधारे अधिकारी छे. सुन्दर गीतथी एमनुं चित्त हराई जाय छे. गान साम्भळवा मात्रथी जेनुं चित्त खेञ्चाय ते उत्तम अधिकारी गणाय छे. ए भजन पण भक्तिमार्गने अनुसारे करे छे, पण अन्तर्यामीरूपे के ज्ञानमार्गनी रीते भजन नथी करता. ए भगवान्नी पासे आवीने सेवा करे छे. ए पक्षीओ मुनिओ छे अने प्रभुनां दर्शन थशे ए भावथी पक्षीरूपे वृन्दावनमां आवीने भगवान्नी सेवानी इच्छा करे छे. एमां पण सेवामां चित्त स्थिर करवुं मुख्य छे तेथी यतचित्त थईने वृक्ष उपर बेसे छे. जेनुं विक्षिप्त चित्त ते सेवा करवाने लायक गणातो नथी. बहारनो व्यापार छोडे ते ज सेवामां मुख्य गणाय. ए बहारना व्यापारमां आङ्ख अने वाणी मुख्य छे; ए बे इन्द्रियनो निरोध थाय तो भजनदशमस्कन्ध ३१५ सारी रीते बनी शके. माटे ए पक्षीओ मौन धारी आङ्खो बन्ध करीने केवळ नादामृतनुं पान करे छे. आ गोपी सात्विकी होवाथी पक्षीओना भाग्यनी स्तुति करे छे. अथवा आ मुनिओ अत्यन्त रसिक भक्तो छे. तेओए विचार कर्यो के मुनिरूपे तो वृन्दावनमां आपणो प्रवेश सम्भवित नथी तेथी गमे ते रूपे भगवान्नी सेवा बने ते रूप धारण करीने आपणे तो लीलानुं दर्शन अने एमां बनी शके तेटलो आपणे हिस्सो आपी शकीए तेवो देह जोईए. ए विचारथी मुनिओ वृन्दावनमां पक्षीओ थया अने पोताना विचित्र शब्दोथी भक्त अने भगवान् ना भावनुं उद्दीपन करावता प्रकट लीलानां दर्शन करता, वेणुनादामृतनुं नेत्र बन्ध करी वाक्संयम करी पान करे छे; इत्यादि स्वतन्त्रलेखोमां वर्णन छे ते विस्तार भयथी अर्ही आप्युं नथी. जिज्ञासुए स्वतन्त्र लेख जोवा विनन्तिछे. हे व्रजनी देवीओ! बलदेवजीनी साथे कीर्तिमयी माला अने पुष्पो ना गुच्छारूप कर्णाभरणना विलासवाळा अने आनन्द पामेला *भगवान् ज्यारे पर्वतना शिखरो उपर विश्वने आनन्द पमाडता वेणुना नादथी भरी दे छे, त्यारे मोटाना अपराधथी भयभीत थयेला चित्तवाळो मेघ पोताना मित्र (भगवान्) उपर पुष्पोनी वृष्टि करतो अने पोतानी छायाथी छत्र धारण करतो मन्द-मन्द गर्जना करे छे ॥१२-१३॥
विशेष - हे व्रजदेवीओ! तमे व्रजनी देवताओ छो तेथी तमने मारा वचनमां विश्वास थशे एम कह्युं. ज्यारे प्रिय वेणुरव करी विश्वने पूर्ण करे छे त्यारे मेघ महापुरुषनुं अपमान थशे एवा भयथी पोताना मित्र भगवान्नी उपर पोताना देहवडे छाया करे छे; ए शरीरने छत्ररूप बनावे छे. एम करीने एमान्थी नानां जळबुन्द भगवान्नी उपर वर्षावे छे. आ भगवान्नो नाद बहु ऊञ्चो छे. विश्वनिष्ठ सर्व धर्मने दूर करीने पोते पूर्ण थई जाय छे, ए भगवान्ना जेवो श्याम मेघ धूमादिना समुदायरूप शरीरवाळो छे. भगवाने विश्वने नादथी पूर्ण करी कृतार्थ कर्युं त्यारे पोताने कांई कर्तव्य रहेतुं नथी छतां पोतानो जन्म सफळ करवामाटे भगवान्नी उपर वर्षा करे छे. जेवो वेणुनाद करवाथी मेघ सेवा करे तेवा नाद करता भगवान्ने चार
विशेषणोवडे वर्णवे छे, नहि तो विश्वपूर्णता स्तुतिरूप गणाय. ए भगवान्मां क्रियाशक्ति सम्पूर्ण छे ए वात सहबल विशेषणथी सिद्ध थाय छे. सृष्टि रचवानी क्रिया करतां पण आ क्रिया मोटी छे एम बताववाने माटे पण उक्त विशेषण छे. वळी माळारूप, कर्णाभरण, एमां छे विलास जेनो एवी लीला कही. माळा कीर्तिमयी छे, कान दिशाओरूप छे तेथी दिशाओमां आपनी कीर्ति पहोञ्ची छे एवो एनो अर्थ थाय छे. ए दिशामां पहोञ्चनारी कीर्ति सर्वोत्तम जदशमस्कन्ध ३१६ होवी जोईए अथवा भगवान्नी कीर्तिने कहेनार भागवत् आदि शास्त्र सर्व वेदमां आभूषणरूप छे. एमां विलासयुक्ता कीर्ति छे जेनी, अर्थात् कीर्तिने भगवान् आदि प्रतिपादन करे छे; ए प्रकारे क्रियानुं स्वरूपथी अने गुणथी माहात्म्य क्ह्युं. एनी सहकारिणी इच्छानुं माहात्म्य कहे छे के पोते हर्षयुक्त थईने बीजाने हर्षयुक्त करे छे. एम वेणुनादना कारणरूप क्रियानो उत्कर्ष कहीने देशथी एनो उत्कर्ष कहे छे - गिरिराजजीनां शिखरोमां ए नाद पहोञ्चे छे. सर्वना आधाररूप पृथ्वीने जे धारण करे छे ते पर्वतना पण ऊञ्चा शिखरो उपर ए नाद पहोञ्चे छे. ए विश्वने केम पूर्ण न करे? ‘रव’ एटले अनुरणन एटले के पडघाने अत्यन्त गम्भीर पूर्ण करे छे अने तेथी मेघथी पण विशेष क्रिया कही छे. त्यारे मेघ भगवान्नी उपर जवाथी भगवान्नो अपराध थशे एम मनमां शकिन्त थतो उपर रहीने जुए तो पोताना जेवा श्याम अने जीवनप्रद भगवान्ने मित्र जाणीने कुसुमावलीरूप स्वबिन्दुथी एमनी उपर वर्षवा लाग्यो. पोतानां पुष्पोथी भगवान्नो सत्कार कर्यो, एटलुं ज नहि, पण एमने राज्य पण आप्युं; तेथी स्वयं एमनी उपर छत्ररूपे रही भगवत्तापने दूर कर्यो, केवळ राज्य आप्युं नहि पण आत्मनिवेदन पण कर्युं, केमके उपर तापने स्वदेहथी रोकी भगवान्ने छाया करी ए आत्मानो भगवान्मां उपयोग थयो. (त्रण प्रकारना उत्तम अधिकारीओनुं वर्णन करवामाटे भगवान् अने वेणुनाद बन्नेनुं वर्णन हवे करवामां आवे छे. ए त्रण प्रकारे उत्तमनुं त्रण युग्मथी वर्णन करे छे, ब्रह्माजी, गोपीजनो अने अरण्यवासीओने क्रमे करीने सन्देह, मोह अने सर्वपरित्याग थयो छे ते वेणुकृत छे ए वात कहे छे के) अनेकविध गोपोनी चालमां चतुर *भगवान् पोताना वेणुमां शास्त्रमां नहि वर्णन करायेला गानना भेदोने उतारे छे ते पोते ज जाणे छे, ब्रह्माजी आदिथी ए भेद अज्ञात छे. ए तमारा पुत्र बनेला भगवान् ज्यारे वेणुने अधर उपर राखी, हे सति! एमान्थी रागरागणी छेडे छे त्यारे इन्द्र, शिवजी, ब्रह्माजी वगेरे देवोना उपरी वखतो-वखत ए नादनो विचार करे छे, पण ए केवा प्रकारनो छे तेनो पत्तो न लागवाथी कण्ठ सहित मस्तक (गरदन) अने चित्तने सारी रीते नमावीने मूर्छाने पामी जाय छे. (एथी ब्रह्मादिनो सन्देह कह्यो) ॥१४-१५॥
विशेष - लोकमां अलौकिक प्रकार थाय तो ए बीजाने सन्देह पेदा करे छे. एवुं कोई भगवान्नुं रूप नथी के जे वेदमां कह्युं न होय. ए वेदविद्यानुं स्थान छे. एमां ब्रह्माजी कुशल छे. तेमने सन्देह केम थाय? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के वेणु सुषिरवाद्य छे. एना प्रकार शास्त्रमान्दशमस्कन्ध ३१७ कह्या छे तेने ब्रह्माजी जाणे छे; पण जे अनेक प्रकार भगवान् नवा कल्पीने वेणुमां उतारे छे ते तो भगवान् पोते ज एने प्रकट करनार होवाथी शास्त्रमां ए लखायेला न होवाथी ब्रह्माजी आदिने ए नादमां सन्देह थाय छे. तेथी नाद ब्रह्म नित्य छे एम पण सिद्ध थयुं. ए नादमां साधन तो क्रियाशक्ति छे तेनाथी उत्पन्न नाद अलौकिक केम सम्भवे? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के अनेक प्रकारना गोपचरणमां भगवान् चतुर छे. ए गोप सञ्चारो वेदमां नथी. बीजा ब्रह्माण्डमां सञ्चारो छे ते लोकमां पण प्रसिद्ध नथी. एमां पण भगवान्नो अभिज्ञ छे तेथी जे सञ्चारने ब्रह्माजी नथी जाणता ते सञ्चारने भगवान् करे छे तेथी ब्रह्माजी आदिने सन्देह थाय छे. त्यां ए शङ्का थाय छे के ब्रह्माजीनी सृष्टिमां भगवान् पधारी ब्रह्माजी न जाणे एवुं केम करे? एना उत्तरमां गोपीजनो श्रीयशोदाजीने कहे छे के तमारा पुत्र थया छतां तमारा मनमां पण न आवी शके एवुं मुखमां ब्रह्माण्ड दर्शन आदि तमने करावी सन्देह उत्पन्न करे छे तेम ब्रह्माजी आदिने पण अज्ञात वात भगवान् करे, केमके ए स्वतन्त्र छे. ए वेणुने अधर उपर राखीने एमां स्वर अने जाति नवां पेदा करे छे त्यारे राजस आदि भाववाळा देवो एनो विचार करतां एक चित्तथी साम्भळतां पण ए रागोनुं शुं स्वरूप छे एने नथी जाणी शक्ता त्यारे ए ज विचारनुं कांई परिणाम न आववाथी मूर्छित थई जाय छे तेथी आ नादाभास छे एम पण कोई न कही शके, कारण के ए अलौकिक रसने उत्पन्न करे छे. आभास वस्तुने प्रकट करवाने समर्थ न थई शके तेथी नाद ब्रह्मना पारने नहि पहोञ्चवाथी इन्द्र, ब्रह्माजी, शिवजी वगेरे अति निपुण अने नादशास्त्रना कर्ता छतां कांई निश्चयउपर न आवी शक्या त्यारे ए ज मोहमां बेभान थया. (बीजानी वात जवा दईए तो अमने पण ए नाद मोहमां नाखे छे एम गोपीजनो कहे छेः) भगवान् ध्वज, वज्र, कमळना चिह्नवाळा पोताना चरणनां दल एटले तळीयान्ना भागथी अथवा आङ्गळीओथी व्रजभूमिने गायनी खरी लागवाथी दुःख थाय तेने मटाडता महावृषभना जेवी मन्थरगतिवडे चालता वेणुनाद करे छे त्यारे एना सविलास गमनने जोनार अमने बधान्ने मनमां भ्रान्ति उत्पन्न थवाथी चाली न शक्तां वृक्षनी स्थावर दशाने भोगवतां मूर्छा थवाथी वस्त्रने के *केशपाशने छूटी जतां सुधी अमे जाणी शक्तां नथी ॥१६-१७॥
विशेष - ज्यारे वेणुने वगाडता भगवान् चाले छे त्यारे नाद अमने स्थावर बनावी दे छे, एटलुं ज नहि, पण अमे बधां मूर्छाथी अमारां वस्त्रो अने केशपाश सरकी जाय छे ए जाणी शक्ता नथी. आ वेणुनाद अमारे माटे थाय छे, ए भगवान्नी चेष्टाथी अने अमारादशमस्कन्ध ३१८ अनुभवथी अमे जाणीए छीए. एमां गोकुलवासीने माटे जे चेष्टा थाय छे ते चेष्टाथी व्याप्त थई गया छे ते बीजुं काम केम करी शके? तेथी प्रथम तो भगवान् गोकुलनुं हित करे छे ए कहे छे. पोताना चरणकमळना तळथी अथवा ‘दळ’ एटले आङ्गळीओथी निरन्तर पशुनी खरी लागवाथी व्रजभूमिने दुःख थाय छे तेने मटाडता चाले छे. धीमेथी चाले छे तेथी क्षतांश पादस्पर्शथी निवृत्त थाय छे, आध्यात्मिकांश ध्वजा आदिथी निवृत्त थाय छे, तामस भौतिक ध्वजा आदिथी मटे छे, राजस आध्यात्मिक वज्रथी, सात्विक आधिदैविक कमळना चिह्नथी निवृत्त थई जाय छे. ए ध्वजादि विचित्र ललाम चरणमां देखाय छे तेनावडे व्रजभूमिनां दुःख जाय छे. व्रजमां भूमि, गायो अने गोपीओ ए त्रण मुख्य गणाय छे. एमां भूमिनां दुःख विलासयुक्त गतिथी निवृत्त कर्यानुं कह्युं. गति अने कृति थी गायनां दुःख निवृत्त कर्यानुं कहे छे. मोटो साण्ढ होय ते धीमे-धीमे चाले छे, एवी मन्द गतिथी भगवान् चाले छे तेथी गायना दुःखने दूर करे छे. गोपीजनो कहे छे के भगवाने बीजानां दुःखने मटाड्यां त्यारे अमारामां तो स्थावरत्व बनावी दीधुं केमके वेणुनादथी स्वभावतः काम उत्पन्न थयो, एमां पण विलासपूर्वक जोवाथी ए काम वध्यो तेनाथी जडता थई गई त्यारे अमे पण वृक्षना जेवां ज्यां हतां त्यान्नां त्यां रही गयां. एनाथी पण विशेषता ए थई के वृक्षोने आन्तरज्ञान छे ते पण अमने तो न रह्युं, केमके अमने तो मूर्छा थई. स्त्रीओने अति आवश्यक वस्त्र आच्छादन अने केशपाशनुं ज्ञान जोईए ते बन्नेनुं ज्ञान न रह्युं ए वेणुनादनुं कार्य थयुं. क्वचित् भगवान् गायना आधिदैविकरूप मणिओनी अथवा अमारी मालाने धारण करे छे; ए मणिओनी मालाथी गायोने गणे छे. पोताने प्रिय छे गन्ध जेनी एवी तुलसीनी मालाथी शोभे छे. कोई वखत पोताना प्रेमवाळा सेवक(अनुचर)ना खभाउपर श्रीहस्त धारण करीने गान करे छे. त्यारे वेणुना नादथी जे शब्द नीकळे छे ते हरिणीओना कानमां पडतां हरिणीओ कृष्णवधू होवाथी श्रीकृष्णनी पासे बेसे छे; अने कृष्णसारमां एक-बे गुण ज्यारे कृष्णतो गुणसमुद्र छे तेथी अमारी जेम घरनी आशा छोडी कृष्णनी पाछळ तेओ चालती थई* जाय छे अथवा प्रभु परायण थई जायछे ॥१८-१९॥
विशेष - मणिओ गायनां आधिदैविक स्वरूप छे तेने पोते गळामां धारण करे छे. पोताने एनुं अभिज्ञान रहेवामाटे निरन्तर धरे छे. पोतानी प्रियाओने याद करावनार मणिओ छे तेनाथी कोई वखते गायोनी गणना करे छे. आ कथनथी एम सिद्ध थयुं के ए गायो अने एना धर्म भगवान्मां रह्या छे तेथी एनो संसार निवृत्त थई गयो. एवी ज रीते गोपीजनो अने एनादशमस्कन्ध ३१९ धर्म भगवाने धारण र्क्या एटले एनो संसार पण दूर थयो, हरिणीनो संसार पण निवृत्त थयो. पशुत्व तो गाय अने हरणीमां तुल्य छे. ज्यारे ग्राम्यनो उद्धार करे छे त्यारे आरण्यनो उद्धार करे एमां तो शुं ज कहेवुं? तेथी ज हरिणीओ कृष्णपर थई ए योग्य ज कर्युं. भगवान्ने श्यामरूप प्रिय छे, स्त्रीओनो स्पर्श प्रिय छे, वेणुनो शब्द प्रिय छे, माखणनो रस प्रिय छे, तुलसीनी गन्ध प्रिय छे; ते-ते वस्तुमां रहेली उत्तमता तो कोई सात्विकने ज भासे छे, ए वात अनुभवसिद्ध छे. जेनी गन्ध भगवान्ने प्रिय छे तेवी तुलसीनी माळा प्रिय धारण करे छे तेथी अमे पण प्रभुने प्रिय थईशुं त्यारे अमने पण धारण करशे. अमारा धर्मोने धारण करशे ए विचारथी कृष्णसारनी स्त्रीओनी भगवान्मां प्रवृत्ति थई छे. कृष्णसार वेदमां उपर्युक्त छे, भक्तिमार्गमां एनी स्त्रीओनो विनियोग थाय ए हेतुथी हरिणीनुं भगवान्नी पाछळ चालवुं थयुं छे. वळी भगवान् पोताना प्रेमपात्र गोपना खभा उपर भुज राखीने गायन करे छे त्यारे हरिणी विचार करे छे के स्नेह करवाथी अने सेवा करवाथी आ गोप उपर भगवान् अनुग्रह करे छे तेम आपणे पण स्नेहथी सेवा करीशुं तो प्रभु आपणी उपर अनुग्रह करशे. देहनी स्फूर्ति न थवाथी विजातीयपणाथी कामभाव थवो जोईए ते न थयो. एकदम वेणुमान्थी शब्द नीकळ्यो तेथी ए हरिणीओने वशीकरण थयुं. एमणे तो जाण्युं के हमणां ज आपणो उपयोग थशे. पण ए विषयमां वेणुनादे एने वचिन्त कर्या तेथी ए कृष्णनी पासे आवीने ऊभां रह्यां. ए कृष्णसारनी स्त्रीओ छे ते वेणुनादथी कृष्णनी गृहिणीओ थई चित्त वचिन्त थतां रूपमां मोहित न थतां शब्दमां मोहित थई. वेणुनादना प्रभावथी कृष्णमां पण पतिबुद्धि थई, कारण के कृष्णसारमां एक बे गुण छे त्यारे कृष्ण तो गुणना समुद्र छे तेथी ज्यां कृष्ण पधार्या त्यां हरिणीओ गृहनी आशाने छोडीने कृष्णनी पाछळ चाली नीकळी. (कृष्णसार=१. कृष्ण ज छे सार जेनो ते २. काळियार मृग) हे निष्पाप यशोदाजी! कुन्दनी मालावडे जेणे रमतनो वेश धारण करेलो छे अथवा शृङ्गार कर्या छे ते गोप अने गोधन ने लईने नन्दरायजीना पुत्र अने तमारा वत्स श्रीकृष्ण ज्यारे श्रीयुमनाजी उपर पधारे छे त्यारे प्रेमपात्रोने आनन्द आपी त्यां विहार करे छे ते वखते मन्द वायु अनुकूळताथी चाले छे, एमां पण चन्दननी सुगन्धवाळो चाले छे त्यारे स्तुति करनार उपदेवना गण वाजिन्त्र गान अने भोग सामग्री साथे त्यां आवी विहार करता भगवान्ने चारे तरफथी र्वीटाईने ऊभा रहे छे. भगवान्ने अनुकूळ पडे तेम वगाडवानुं, गावानुं अने *नाचवानुं करे छे ॥२०-२१॥
विशेष - ज्यारे भगवान् श्रीयमुनाजीमां विहार करे छे त्यारे पण एनी पहेलां अने पछीदशमस्कन्ध ३२० वेणुनाद करे छे तेमां विशेष प्रकार न होवाथी प्रतिपदोक्त कहेवामां आव्यो नथी पण एनुं प्रकरण चाले छे तेथी कोई वर्णन करनार एने छोडीने बीजी लीलानुं वर्णन न करे; तेथी ज्यारे भगवान् वेणुनाद करे छे त्यारे उपदेवना गण त्यां-त्यां आवीने भगवान्नी चारे बाजु पर हाजर थई जाय छे. आ समय ग्रीष्मनो छे तेथी गाय, गोपाळ वगेरेनी स्थिति जळनी पासे होय. त्यां भगवान् गोपो साथे जळमां स्नान करे छे, एमां जळक्रीडा पण करे छे, गायोने नवरावे छे, उद्वेग दूर करवा वेणुनाद करे छे. ए वखते कुन्दनां पुष्पनी माळामान्थी बधां आभरण बनावी भगवान् धरावे छे. ए वेश आश्चर्य करावे तेवो अद्भुत बने छे. जेनां दर्शनथी हास्यरस उत्पन्न थाय तेवी प्राकृत लीला करवानुं कारण तो नन्दरायजीना पुत्र थईने लोकलीला बतावी तेम गोपवत् आचरण बतावीने पण प्राकृतता लीला अर्थे स्वीकारे छे. ए जेम तमारा वत्स थया त्यारे तमे गायरूप थयां, कारण के एना गुप्तरसने तमे जाणो नहि माटे पशु; तेथी ज तमे एमने ऊखळी साथे बान्ध्या. जो तमने कोई रीते एमना स्वरूपनुं ज्ञान होत तो एम न करत. आगला विशेषण साथे भगवान्मां पूर्ण गुण प्रकट छे एम बताव्युं छे. जे भगवान् साथे स्नेह करनार छे तेनो स्नेह प्रतिहत न थाय. एम आप लीला करे छे ते अर्ही नृत्य, वेणुवादन अने जलक्रीडा ए त्रण क्रीडाओ छे. एम लीलाभेद न होय तो त्यां वाद्यादिनो उपयोग न थाय. विद्यावाळाने वश करवा जोईए. एमां विद्याने उत्पन्न करनार वायु छे, देवो विद्याना आधार छे. एमां पण आ उपदेवा बहार विद्या प्रकट करनार छे. ए बन्दीओमां विशेष भाव छे ते कहे छे के प्रथम तो मन्दवायु छे, ए किनारानी नजीक छे अने हितावह छे तेथी एमां शीतळता पण छे. चन्दनना सम्पर्कथी शीतळ, मन्द अने सुगन्ध वायु चाले छे ते वायु भगवाने लगावेला मलयचन्दनयुक्त होवाथी जेना हृदयमां ए वायु जाय तेने भगवदीय बनावे छे. ए त्रण प्रकारनो वायु पोताना गुणोथी भगवान्नुं सन्मान करे छे, एटले भगवान्ने वश थई इच्छानुसार सेवा करे छे. उपदेव गणो एटले गन्धर्वो, बन्दीओ कीर्तिने वखाणनारा ते ज गायन करनार छे, बीजा भगवदीयो छे. ए गायन वगेरेनुं कार्य पवनने अधीन होवाथी एनुं वचमां वर्णन कर्युं तेथी अर्ही ए गन्धर्व अने बन्दीओए भगवान्नी समयोचित सेवा करी भगवद् अपेक्षा पूर्ण करी ए एमां विशिष्टता छे. अर्ही तामस, राजस अने सात्विक भाव तो लीलामां अनुस्यूत चाल्यो आवे छे ते अर्ही पण समजवो. गायक, वादक अने पूजक ए त्रणनी लीलामां अपेक्षा हती ते एमणे पूर्ण करी ॥२०-२१॥
(अर्ही बे युगलमां केवळ भगवान्नी लीला कही छे) व्रजनी गायो उपरदशमस्कन्ध ३२१ वत्सलतावाळा गोवर्धन्ने धारण करनार अत्यन्त निपुण अने बहुज्ञ पुरुषो पण मार्गमां जेमने नमस्कार करे छे अने अनुचरो जेमनी कीर्तिनुं गान करे छे तेवा भगवान् सायङ्काले वेणु वगाडता गायोने लईने आवे छे त्यारे गायनी खुर-रजथी जेमनी माळा व्याप्त थई जाय छे, पोते श्रमनी कान्तिवडे पण गोपीजनोना नेत्रने उत्सव करावता देवकीजीना जठरथी उत्पन्न थतां चन्द्ररूप भगवान् पोताना मित्रोना मनोरथो *पूर्ण करवा पधारे छे ॥२२-२३॥
विशेष - भगवान् गायोने गोष्ठमां लावे छे ते गायो उपर एमनी कृपा बताववामाटे लावे छे. एम न करे तो एक लीलामां पडती गायो एनुं अनुसन्धान करतां मुक्त थई जाय. एम गोपीजनोनी उपर पण कृपा करीने पधारे छे, नहि तो तेओ पण मुक्त थई जाय. पण तेमने भजनानन्दनो अनुभव कराववामाटे पधारे छे. एनुं कारण ए के भगवान् गोवर्धनने धारण करे छे. जो भजनानन्द न आपे तो गोवर्धन्ने धारण न करे. गोवर्धननुं धारण भगवाने कर्युं ए एमनुं माहात्म्य सर्वजनप्रसिद्ध छे. ए एटला उपरथी सिद्ध थाय छे के गोवर्धन्ने उठाव्या पछी व्रजना वृद्ध पुरुषो पण भगवान् रस्तामां मळे तो एमने दण्डवत् प्रणाम करे छे. एटले एमनामां तेमनी गोपबाळक बुद्धि नथी, पण भगवद्बुद्धि छे. तेथी ज तेओ प्रणाम करे छे. ज्यारे बधी गायोने लईने साञ्जे व्रजमां पधारे छे त्यारे गोपो कीर्तिनुं गान करता पाछळ चाले छे. रात्रिमां गोपो घरमां रही कीर्तिनुं गान करे छे, ज्यारे दिवसना घरमां बेठां गोपीओ वनमां करेली भगवद्लीला जोईने एनुं वर्णन करे छे. जो एम सर्वनी भगवत् निष्ठा न होय तो सर्वनो निरोध न थाय. ए निरोध करवानुं स्वयं भगवान् जाणे छे तेथी ए स्वयं करे छे. पोते श्रमनी कान्तिथी व्रजस्थनी दृष्टिने उत्सवयुक्त करे छे. अर्ही भगवान्ने श्रम थाय छे एवो सिद्धान्त छे. मर्यादामार्गमां भगवान्ने श्रम थतो नथी तेथी एमने श्रम अपहारक उपचारो अपेक्षित नथी. ‘‘भर्ता सन्’’ ‘‘एको देवो’’ ‘‘यदा भारं तन्द्रयते’’ इत्यादि श्रुतिओथी भगवान् विरुद्ध धर्माश्रय छे तेथी श्रम नथी एम कहेवुं पण अयोग्य तो नथी. ए श्रमने जोईने खुश एटलामाटे थाय छे के जो श्रम न थाय तो भगवान् जलदी वनमां पधारे. श्रमयुक्त होय तो वधारे वार अमारी पासे रहे तो आनन्द विशेष थाय एवा विचारो एमने उत्पन्न थाय छे, नहि तो स्त्रीओ पुरुषने श्रमित जोईने निरुत्साह थवी जोईए. रस्तामां वायुथी रज ऊडे छे एमां गायनी खरीओथी रज ऊञ्ची चडे छे तेने वायु बीजे लई जाय छे. ए माला उपर स्थिर थई जाय छे. एमां गायो धर्मरूप, रज अर्थरूप अने व्याप्ति कामरूप छे. सर्व सम्बन्धीओने आशिषो आपवाने पधारे छे अनेदशमस्कन्ध ३२२ गोपीजनोद्वारा सर्वमां आनन्दनो प्रवेश करावे छे तेथी भगवान्ने प्रत्यक्ष करता गोपीजन ‘एषः’ आ भगवान् आवे छे एम कहे छे. ‘‘देवकीजठरभुरुडुराजः’’ एवुं भगवान्नुं
विशेषण छे तेथी देवकी अदिति छे. अन्तरिक्ष पण एज छे. ए आकाशरूप पण छे. एमां चन्द्रनो उदय जरूरनो छे. एमां लौकिकतापने लौकिक चन्द्र दूर करे छे. आ कृष्णचन्द्र विरहतापने दूर करनार छे ए अलौकिक चन्द्रनी विशिष्टता छे. (एम भगवान्नी साधारण लीला कहीने वेणुद्वारा गोपीजनो भगवाने जे लीला करी ते लीलानुं आ छेल्ला युगलथी वर्णन करे छेः) मदथी जेमनां नेत्र घेनवाळां (घेरायेलां) छे अने पोताना मित्रोने थोडुं मान आपनार, वनमाळाने धारण करनार, बोर जेवा श्वेत अने पीळा रङ्गना कपोलवाळा अथवा सहेज लाल मुखने कनकना कुण्डळथी शोभावता, यादवपति, मदोन्मत्त हाथीना जेवो विहार करनार आ कृष्णचन्द्र व्रजनी गायोने दिवसना अन्त विनाना तापने दूर करता, रात्रिना पतिनी पेठे हसते *मुखे पासे पधारे छे ॥२४-२५॥
विशेषः यदुपति हर्षयुक्त वदने आवे छे. अर्ही प्रथम लीला कही छे. आ गोपीजन कहे छे ते बधी लीला भगवाने अमारे माटे करी छे तेथी एनुं दश प्रकारे वर्णन करे छे. एमां भगवान्नां दश विशेषण छे. भगवान् तो युगलमां एक ज छे तेथी एमां विभागनी जरूर नथी. सर्वत्र रजोगुण मुख्य छे ते अमोने फलित थयो छे. ए वात कहे छे के भगवान्नां नेत्र मदवडे घूर्णायमान (घेनवाळां) छे. अर्ही मद तो पोताना आनन्दथी पूर्ण छे. एनो आनन्द ज्ञानमार्गमां पण छे तेनी निवृत्तिमाटे लोचनमां ए धर्म कह्यो. ज्ञानीओने नेत्रमां घेन न होय तेथी आ भक्तिनुं घेन भगवान्ना नेत्रमां जणाय छे. स्वरूपमां रहे एटलामाटे पूर्ण छे छतां थोडुं मान आपनार छे. सन्मान थोडुं करे छे तेथी भक्तो स्वगम्यताने तो जाणे छे अथवा रजोगुण प्रकट करी अभिमान आपे छे अथवा अभिमानने दूर करे छे एवो अर्थ पण थाय छे. ए त्रणे पक्षमां अल्पता छे. भगवान् पूर्ण छे तेने तमारी साथे एम करवानुं शुं कारण? एम कहे तो एना उत्तरमां कहेवानुं के ए बधा सुहृदोने मान आपनार छे. ते पोताना सुहृदोनुं कार्य करवामाटे एम करे छे. मोटा होय तेणे पण मित्रनुं कार्य तो करवुं ज जोईए. वळी ए कीर्तिमयी वनमालाने धारण करे छे. ‘बदर’ शब्द अर्ही बोरडीना फळनो वाचक छे. एना धर्म क्षण-क्षणमां बदलाता जाय छे. एनी उपर ताप पडे छे त्यारे एनी कान्ति फरे छे. एमां पण अर्धपक्व पाण्डु वर्ण थई जाय छे, पूरां पाके त्यारे लाल थाय छे. तेथी भगवान्नुं मुख बोर सरखुं पाण्डुं कह्युं. तेथी ए अर्धपक्व छे. आगळ सम्पूर्ण पक्व थशे त्यारे रक्त थशे.दशमस्कन्ध ३२३ तेथी ज ए अयारे इषत् थोडीक मानद छे, पछी पूर्ण मानद थशे. ए भगवान् मृदुगण्डवाळा छे. ए गण्ड (गाल) उपर कनक कुण्डळनी शोभाथी बीजो रङ्ग देखाय छे. भगवद् वर्ण श्याममां पीतवर्णनुं प्रतिबिम्ब पडे तेनी शोभा ओर ज थाय छे. तेथी उत्कृष्ट परमानन्द छे; छतां अमारे माटे तो ए कामरस आपनार ज छे. तेथी ज वनमान्थी एमनुं व्रजमां पधारवुं थयुं छे. जो ए उद्देश भगवान्नो न होय तो अमने उद्देशीने शिरोभेद कर्या ते भगवान् न करत. ए भगवान् यादवपति छे. बहु स्त्रीवाळा यादवो प्रसिद्ध छे. ए पण ‘द्विरदराजविहार’ छे. अमर्याद क्रीडा करनार हाथीना जेवो भगवान्नो विहार छे. ए प्रथम तो अमारा दिवसनो ताप मटाडशे तेथी एमने ‘यामिनीपति’ कह्या छे. चन्द्रमा दिवसे तापथी क्लिष्ट थयेलान्नो ताप उदय मात्रथी दूर करे छे. ए प्रथम तो अमारा तापने दूर करशे, पछी प्रसन्न थईने पाछा आवशे. ए बधा भावो गोपीजनोने हितकारी होवाथी पूर्वे साधारण तापनी वात कही. छेल्ले व्रजनी गायोना दिवसना तापने पण दूर करशे ॥२४-२५॥
एवं व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीलानुगायतीः ॥ रेमिरेहःसु तच्चित्तास्तन्मनस्का महोदयाः ॥२६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! आ प्रमाणे श्रीकृष्णनी लीलानुं अनुक्रमे गान करती, एमां ज्ञान प्रधान चित्त राखती, एमां ज कर्मप्रधान मनने परोवती मोटा भाग्यवाळी व्रजनी स्त्रीओ दिवसोए आनन्द करती हती ॥२६॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (बीजा तामस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो ज्ञान निरूपक सातमो) ‘‘गोपीजनोए गायेलुं युगल गीत’’नामनो पान्त्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां बत्रीसमो) नामलीलानो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. बीजा तामस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण सम्पूर्ण बीजुं तामस प्रकरण सम्पूर्ण सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे [[३२४]]
अध्याय ३६१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३३ अक्रूरजीनुं गोकुलमां जवुं प्रकरण ३ः राजस प्रकरण२ राजसप्रकरणनुं अवान्तर पहेलुं प्रमाण प्रकरण अ.१
विशेष - १. आ छत्रीसमा अध्यायमां अरिष्टनो वध कहेवाशे. नारदजी कंस पासे आवीने
‘‘श्रीगोकुलमां बिराजता भगवान् तने मारनारा छे’’ एम कहे छे. कंस विचार करीने
धनुर्यागनिमित्ते एमने बोलाववाने अक्रूरजीने हुकम करशे. १६ श्लोकथी ए वात आवशे. दोढ
श्लोकथी नारदजी कहेशे अने २३ श्लोकथी बीजी वातो आ अध्यायमां कहेशे.
२. हवे राजस् प्रकरण पूर्व जेम २८ अध्यायथी कहे छे. तेमां पण अवान्तर चार प्रकरणो
जाणवां. राजसमां यादवो मुख्य छे. एमां प्रथम प्रमाण प्रकरण छे. एना सात अध्यायना
अर्थ, क्रमथी ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य अने धर्मी; एमां नारदजी, अक्रूरजी,
नन्दजी, विदूरजी, गोपीजनो, अक्रूरजीने दर्शन आपनार हरि अने कुब्जा ए बधां प्रमाणभूत
छे. राजस प्रकरणमां भगवान् सगुण छे, व्यूह विशिष्ट छे. एमनाथी राजस भक्तोने
भगवान्मां स्नेह सिद्ध थयो छे. नारदजीए कंसने कह्युं - ‘‘कृष्ण वसुदेवना पुत्र छे’’
अक्रूरजीए एने पुष्टि आपी. आ प्रकरणमां पण प्रमाणथी स्नेह, प्रमेयथी आसक्ति,
साधनथी व्यसन अने फळ एम पूर्व जेम क्रम समजी लेवो. भगवान् ज्यारे तामस भक्तोना
भावने लईने त्यान्थी मथुरा पधार्या त्यारे गोकुलस्थ भक्तो पण राजस थयां. ए ज पाछां
सात्विक थईने निर्गुण थशे त्यारे मुक्ति थशे. नारदजी भगवान् पासे आव्या अने एमनी पासे
विनन्ति करी ए प्रद्युम्न व्यूहात्मा छे. नारदजीनो मध्यमाधिकार होवाथी ए पुरुषोत्तमनो भाव
न जाणी शक्या. आकाशवाणीथी वसुदेव देवकीजीए पोताना घेर प्रभु पधार्या एम जाणी
स्तुति करी त्यारे भगवाने त्यान्थी गोकुळ पधारवानी इच्छा बतावी तेम अर्ही नारदजीए कंसने
‘‘भगवान्-वसुदेवसुत’’ छे एम कह्युं त्यारे अक्रूरजी आवी भगवानने मथुरा पधरावी गया.
वसुदेव देवकीजीने कारागारमां जवुं पड्युं. प्रथम मायावडे मुक्त थया हता तेम अर्ही
कारागारमान्थी वसुदेव देवकीजीने श्रीकृष्ण छोडावशे. आमां नारदजीनो अधिकार ज एवो
होवाथी एमनो अपराध न गणाय, तो पण भगवान् नारदजीना कार्यथी प्रसन्न तो न ज
थाय. कंस आदि राजस छे ते बुद्धिथी कार्य करनार छे. एणे तामस केशीने व्रजमां मोकल्यो.
[[३२५]]
मथुरामां तामसनो वध न थवो जोईए तेथी ए गोकुलमां मर्यो. अरिष्ट पण गोकुलमां मर्यो.
एवा दैत्योने भगवान् मारे नहि तो गोकुलस्थ भक्तोनुं जीवन न रहे. व्योमासुरने पण त्यां ज
मार्यो छे. एम ऐश्वर्य अने वीर्यरूप बे अध्यायनो अर्थ कह्यो. अक्रूरजी स्वयं सात्विक छे
छतां राजस-तामस दोषथी ए कंसनी सेवा करे छे. एना राजस तामस दोष गया त्यारे ए
भगवान्नी पासे आव्या. अक्रूरजी भगवत् शास्त्रने जाणनार छे तेथी एमणे सन्दिग्ध अर्थ
कह्यो. भक्त ज्यारे स्वदोष छोडी भगवत्सन्मुख थाय त्यारे भगवान् एनी उपर प्रसन्न थाय
छे. तेथी अक्रूरजीने त्रणे मार्गमां निष्ठा थई. श्रीकृष्णनुं माहात्म्य जाणवुं ए भक्तिमार्गमां
उपयुक्त छे.
अर्ही त्रीजो अध्याय यशोरूप पूरो थयो. ए अक्रूरजीमां त्रण मार्गनी निष्ठा होवाथी
नन्दरायजी, बलदेवजी अने भगवान् ए त्रणे एमना उपर प्रसन्न थया. भगवान् गोकुल
छोडी पधारे ते श्रीशुकदेवजीने इष्ट न होवाथी गोपीजनोनां वाक्यथी ज श्रीकृष्ण पधारवानुं
एमणे कह्युं छे. गोपीजनोए अरिष्ट आदिना प्रतिबन्धने दूर करनार श्रीकृष्णने कायिक
व्यापारथी न रोक्या. पण वाक्यनो विनियोग कर्यो केमके ए गोपीजनो पण उपनिषद् रूपा
होवाथी वाणीरूप ज छे. अर्ही चोथो अध्याय-श्रीरूप पूर्ण थयो. अक्रूरजीने ब्रह्महृदमां
भगवाने दर्शन आप्यां. जो एम भगवान् न करे तो ए भगवान्नो सङ्ग छोडे नहि. भगवाने
स्वमाहात्म्य अकूरजीने बताव्युं तेथी एमणे स्तुति करी, कर्तापणानुं अभिमान छोड्युं तेथी
भगवान्मां एमने स्नेह अने भक्ति नो संस्कार रह्यो. अर्ही पाञ्चमो ज्ञानरूप अध्याय पूर्ण
थयो. अक्रूरजीने भगवान्नुं ज्ञान थयुं ए वात अर्ही स्पष्ट छे. वैराग्यनुं दर्शन अक्रूरजीने
एमने घेर मोकल्या तेथी स्पष्ट थाय छे. कुब्जाने सरल करी छे त्यां शङ्का करे छे के रजकने तो
भगवाने मार्यो छे ए वैराग्यरूप केम कहेवाय? एना उत्तरमां कहेवानुं के रजके रामावतारमां
पण सीतानो द्वेष करेलो ते अर्ही पाछो आव्या ते दैत्यना पक्षमां रहेनार छे. अन्त्यजोमां
रजक मुख्य छे तेनी पासे भगवाने याचना करी अने ‘‘तारुं श्रेय थशे’’ तेम फळनिर्देश कर्यो
छतां एणे वस्त्र न आप्यां त्यारे ए वधने लायक थयो. मालाकार अने वायक मां नटने वेश
करी आपनार वधारे प्रिय थाय छे तेथी तेमनी उपर प्रसाद कर्यो तेवो प्रसाद रजक उपर पण
थयो समजवो, केमके एम भगवान् न करत तो ए घणा जन्म सुधी भगवान्नो द्वेष करत.
ए द्वेष करतो मट्यो ए ज एने फळ थयुं. तेथी ज वैराग्यरूप अध्यायमां एने गण्यो छे.
अर्ही प्रमाण प्रकरण समाप्त थयुं.
प्रमेय प्रकरणमां प्रथम मल्लो, देवकीजी, वसुदेवजी, यादवो, सान्दीपनि गुरु,
[[३२६]]
नन्दरायजी, यशोदाजी, गोपिका अने कुब्जा वगेरे प्रमेयबळने बतावनार व्यक्तिओ छे.
कुवलयापीड, मल्लो, कंस अने एना आठ भाईओ ए पोताना दोषथी मर्या छे. भगवद्रूपमां
स्नेह अने द्वेष ए बन्ने एक ज फळ आपे छे. तारतम्य एटलुं के स्नेहथी जीवतां मुक्ति मळे
छे, ज्यारे द्वेष करनारने देह छोड्या पछी मुक्ति थाय छे. भगवद् रूप सर्व मोचक छे. ए
रूपनो जेने भय छे तेने भगवान् मारे छे. एनुं कारण सप्तम स्कन्धमां ‘‘गोप्यः कामात्
भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः’’ इत्यादिथी कह्युं छे. पछी सर्वना भयने मटाड्यो तेथी
भगवान्नुं माहात्म्य वध्युं छे. जेम स्नेहथी आसक्ति थाय छे तेम भयथी पण थाय छे.
एमां ‘‘कीटः पेशस्कृता रुद्धः’’ ए दृष्टान्त छे. एम अर्ही त्रण अध्यायथी आसक्तिमां
साधन कह्युं. ऐश्वर्य, वीर्य अने यश तेमां कहेवामां आव्यां, हवे तामस, राजस अने सात्विक
भक्तोना सान्त्वनने कहे छे. आसक्तिमां प्रतिबन्ध न थवा सारु भक्तनुं सान्त्वन थवुं
जोईए; अज्ञानथी अधीराई थती होय तेने माटे सान्त्वन थवुं जोईए; अज्ञानथी अधीराई
थती होय तेने माटे सान्त्वन करवुं पडे, माटे बे अध्यायथी नन्दरायजी, यशोदाजी अने
गोपीजनो नुं सान्त्वन उद्धवजीद्वारा कर्युं, केमके ज्यारे गोकुलवासीओ अन्तर्मुख होय त्यारे
तेमने भगवान् प्रत्यक्ष थाय छे; ज्यारे बहिर्मुख होय त्यारे ए वियोगने अनुभवे छे. ए
वातनुं एमने ज्ञान कराववुं एटलुं ज उद्धवजीनुं कर्तव्य छे. तामस अवस्थामां व्रजस्थने
पोतानामां आसक्ति कराववामाटे भगवाने चौर्यादि (चोरी वगेरे) कर्यां तेम अर्ही तेओ राजस
होवाथी एमने सन्देश मात्रथी शान्त करी पोतानामां आसक्त कर्यां. जीवो स्वभावथी दुष्ट छे
तेथी तेमने दोषभाव न आववा माटे ज्ञान कराववानी जरूर छे. प्रथम एना प्रपञ्चनुं विस्मरण
थवुं जोईए, त्यारबाद श्रीकृष्णमां आसक्ति थवी जोईए. भगवाने उद्धवजीने मोकली एमने
गुरु करीने व्रजस्थोने प्रपञ्च भुलावी पोतानामां आसक्ति करावी, पण स्वयं त्यां न पधार्या.
कुब्जा राजसी छे, अक्रूरजी, यादवो वगेरे पण राजस छे. तेथी अर्ही उपलक्षण प्रकारथी बे
कह्या छे. कुन्ताजी, पाण्डव वगेरे सात्विक छे. धृतराष्ट्रने बोध कर्यो ते एना राजसभावने
निवृत्त करवा कर्यो छे तेथी प्रथम स्कन्धमां एनी मुक्तिनी वात कही छे. अर्ही दशमस्कन्ध
पूर्वार्ध समाप्त थाय छे. (भगवाने जे-जे चरित्रो अने लीलाओमां अलौकिक सामर्थ्य दाखव्युं
छे ते बधुं दशम स्कन्धना पूर्वार्धमां आवे छे ज्यारे जे चरित्रोमां लोकधर्म आपे स्वीकार्यो छे
ते दशमस्कन्धना उत्तरार्धमां आवे छे.)
अठ्ठावीस अध्यायथी तामस प्रकरणीय भक्तोनो श्रीकृष्णे स्वगुणातीत स्वरूपवडे उद्धार
कर्यो एनुं वर्णन अठ्ठावीश अध्यायथी पूरुं कर्युं; हवे वसुदेवजीनुं हित करनार प्रद्युम्न भगवान्
[[३२७]]
छे ते राजस लीलावडे राजसभक्तोनो निरोध करशे. राजसो भगवान्ना सम्बन्धवाळा अने
सम्बन्धरहित एम द्विविध भक्तो छे. बन्नेनो निरोध सर्वान्तमां फलित थशे. आमां पण
अठ्ठावीश अध्याय अने प्रमाण आदि चार अवान्तर प्रकरणो सात-सात अध्यायनां ऐश्वर्य
आदि छ धर्म अने धर्मिरूप अध्यायार्थवाळां छे. आ प्रकरणमां पण प्रभु गुण अने स्वरूपवडे
लीला करे छे, एटलुं ज नहि, पण बन्धुने सुख आपी वंशवृद्धिरूप कार्य पण करशे. एमां
प्रथम प्रमाण प्रकरणना सात अध्यायनी लीलाथी भक्तोने सुख करशे अने सात अध्यायथी
विवाह वगेरे करशे. उषाहरण पर्यन्त राजस प्रकरण रहेशे. आ प्रमाणमां द्विविद अने
नारदजीनां व्याख्यानो आवे छे. अक्रूरजी भक्तिबोधक छे, प्रेमार्थबोधिका गोपीजनो छे,
ज्यारे भगवद्बोधक अक्रूरजी छे. कंसनुं कर्तव्य अक्रूरजी भगवान्ने कहे छे. एम सात
अध्यायथी प्रमाण प्रकरण प्रथम कहेवाय छे. ज्यारे लौकिक अरिष्ट (अरिष्ट=१. बळदनी
आकृतिवाळो असुर २. दुर्भाग्य, अनिष्ट) निवृत्त थाय त्यारे कर्मनी प्रवृत्ति थाय तेथी अरिष्ट
अर्ही आवे छे तेने भगवान् मारे एटले कर्ममार्ग निर्विघ्न फल आपनार थाय. आ प्रकरणमां
राजसोने भगवान् मारशे, प्रसङ्गथी बीजा पण उपद्रव करनार मरशे.
अथ तर्ह्यागतो गोष्ठम् अरिष्टो वृषभासुरः ॥
मर्ही महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - बळदना आकारनो खरीवडे पृथ्वीने ध्रुजावतो अने कम्पावतो मोटी खून्धवाळो महाकाय अरिष्टासुर नन्दरायजीना गोष्ठमां आव्यो ॥१॥
पृथ्वीने शिङ्गडान्थी उखेडतो, गर्जना करतो, पुच्छने ऊञ्चुं उठावीने पाळाओने शिङ्गडांवडे खोदी नाश करतो ॥२॥
थोडो-थोडो झाडो पेशाब करतो-करतो, खीला जेवी निर्निमेष आङ्खोवडे जोतो आव्यो ॥३॥
हे अङ्ग! जेना शब्दवडे भयथी गायो अने स्त्रीओ ना गर्भो समय वगर ज स्रवी अने पडी* जाय छे, जेनी खून्धने पर्वत जाणीने मेघो एना उपर थोभी जाय छे. (ते उपरथी तेनी मोटाईनुं परिमाण समजवुं) ॥४॥
विशेष - नाना गर्भो स्रवे छे, ज्यारे पक्व गर्भो पडे छे. चार मास सुधीना गर्भनो ‘स्राव’ कहेवाय छे, ज्यारे पाञ्च अने छठ्ठा मासना गर्भनो ‘पात’ कहेवाय छे. ‘‘आचतुर्थाद् भवेत् स्रावः पातः पञ्चम-षष्ठयोः’’. [[३२८]] ते मोटा शिङ्गडांवाळो अरिष्ट ज्यारे नन्दरायजीना गोष्ठमां आव्यो त्यारे गोपीजनो अने गोपो एने जोईने त्रास पाम्यां, पशुओ भयथी दूर पलायन करवा लाग्यां; हे राजन्! ए बधां गोकुळने छोडी भागवां लाग्याम् ॥५॥
ए बधां ‘‘हे कृष्ण! अमे आपने शरणे आव्या छीए’’ एम बोलतां श्रीकृष्णने शरणे गयां. भगवाने एमने जोयां अने गोकुळ उपर आपत्ति आवी एम नजरे जोयुम् ॥६॥
पछी भगवाने ए गोकुलवासीओने कह्युं. ‘‘तमे भय न पामो. हुं तेनो उपाय करुं छुं’’ एम वाणीथी समजावीने शान्त कर्या पछी अरिष्टासुर जे बळदनुं रूप लईने आव्यो छे तेने कह्युंः‘‘हे मुर्ख! महादुष्ट! पशु अने गोवाळो ने त्रास आपवाथीशुं थवानुं छे? ॥७॥
तारा जेवा दुष्टनां बळ अने गर्व नो नाश करनार हुं छुं’’ एम पडकार करीने मल्लनी जेम भगवाने हाथमां ताळी मारीने (भुजा ठोकीने) अरिष्टने गुस्से कर्यो ॥८॥
पोताना मित्रना खभा उपर हाथ राखी भगवान् एनी सामे ऊभा रह्या. अरिष्ट पण खरीथी पृथ्वीने खोदतो क्रोध करीने पुच्छने ऊञ्चुं लई वादळोने आमतेम विखेरी नाखतो भगवान् उपर त्राटक्यो ॥९॥
धारदार शिङ्गडां आगळ करी लाल आङ्खो काढी भगवान् तरफ कटाक्षथी जोतो, इन्द्रनुं वज्र आवे तेम धसी आव्यो ॥१०॥
भगवाने, जेम एक हाथी बीजा हाथीने पोताना बळवडे पाछो हटावी दे तेम एनां बे शिङ्गडां पकडी अढार पगलां पाछो धकेली दीधो ॥११॥
पण ते तरत ऊभो थई गयो. तेने आखा शरीरमां पसीनो थई गयो; क्रोधमां मूर्छित थईने श्वास लेतो ए पाछो भगवान् तरफ धस्यो ॥१२॥
धसी आवता अरिष्टने भगवाने फरी शिङ्गडांवडे पकडीने त्यां ज पछाड्यो. एना उपर पोतानो चरण धरी, जेम भीनुं कपडुं निचोवे तेम एना गळाने मरडी नाख्युं; शिङ्गडां खेञ्ची एनावडे मार्यो. ए पृथ्वी उपर पड्यो ॥१३॥
छिद्रोमान्थी लोही, छाण, पेशाब, वगेरे चालवा लाग्यां; पगने पछाडवा लाग्यो, आङ्खोनी स्थिति न रही (ऊलटी थई गई) अने मृत्यु पाम्यो. देवोए भगवान् उपर पुष्पनी वृष्टि करी अने ए भगवान्ना कर्मनी स्तुति करवा लाग्या [[३२९]] ॥१४॥
एम मोटा साण्ढने मारी नाखीने बलदेवजीने साथे लई भगवान् घर तरफ पधार्या त्यारे गोवाळिया एमनी स्तुति करवा लाग्या. भगवान् तो गोपीजनोनां नेत्रने उत्सव करता गोष्ठमां पधार्या ॥१५॥
अद्भुत कर्मा श्रीकृष्णे अरिष्टने मार्यो त्यारे भगवन्मय नारदजी, जे लोकोने जलदीमां जलदी भगवान्नां दर्शन करावता रहे छे ते कंस पासे आवीने तेने कहेवा लाग्याः ॥१६॥
‘‘श्रीगोकुलमां श्रीकृष्ण देवकीजीना पुत्र छे. कन्या यशोदाजीनी हती. वसुदेवजी पोताना पुत्र श्रीकृष्णने गोकुल मूकी आव्या हता अने यशोदाजीनी कन्याने ए लेता आव्या हता. रोहिणीजीना पुत्र रामने तमारी बीकथी वसुदेवजीए पोताना मित्र नन्दरायजीने त्यां राख्या छे. ए बन्नेए तमारा माणसोने मारी नाख्या छे’’ ॥१७॥
ते साम्भळीने कंसनी एक-एक इन्द्रिय क्रोधथी काम्पी उठी अने वसुदेवजीने मारी नाखवामाटे तीक्ष्ण तलवार उठावी ॥१८॥
नारदजीए तेने तेम करतां अटकाव्यो. तेने ज्यारे खबर पडी के पोतानुं मृत्यु तो वसुदेवजीना पुत्रोने हाथे छे त्यारे वसुदेव-देवकीजीने हथकडी अने बेडी मां जकडी जेलमां पूरी दीधाम् ॥१९॥
एटलुं कही नारदजी तो चालता थया त्यारे कंस केशी दैत्यने बोलावीने कहेवा लाग्यो - ‘‘तमे गोकुल जाओ अने श्रीकृष्ण बलदेवजीने मारी नाखो’’ ॥२०॥
एम हुकम करी कंसे मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल वगेरे मल्लोने बोलाव्या, अमात्योने अने हाथीना महावतोने बोलाव्या ॥२१॥
अने बोल्योः‘‘अरे मल्लो! महावतो! अमात्यो! साम्भळो; वसुदेवजीना बन्ने पुत्रो नन्दरायजीना व्रजमां रहे छे ॥२२॥
राम-कृष्ण नामथी त्यां प्रसिद्ध छे. एनाथी मारो काळ थवानो छे’’ एम आकाशवाणीए कह्युं छे. तेथी हे चाणूर! मुष्टिक! ए अर्ही आवे त्यारे एमनी साथे तमे मल्लक्रीडा करीने एमने मारी नाखजो ॥२३॥
मल्लनो अखाडो तैयार करावो. एनी चारे तरफ बाङ्कडां गोठवो. एनी उपर शहेरना अने परगणाना लोकोने बेसवानी गोठवण करो के ए मञ्च उपर बेसीने [[३३०]] तमारी कुस्ती जोईशके ॥२४॥
हे महावत! हे भद्र! ए रङ्गमण्डपना द्वार आगळ तुं कुवलयापीड नामना हाथीने तैयार राखजे. एनावडे मारा शत्रुनो नाश करजे ॥२५॥
आ ज चतुर्दशीने दिवसे विधि प्रमाणे धनुर्यागनो आरम्भ करी दो अने एमां भूतोना राजा, कामने पूर्ण करनार शिवजीने माटे पवित्र पशुओनुं बलिदान आपो’’ ॥२६॥
हे परीक्षित! कंस तो मात्र स्वार्थ साधननो सिद्धान्त जाणतो हतो तेथी तेणे मन्त्री, पहेलवान अने महावतने आ प्रमाणे आज्ञा आपी श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरजीने बोलावीने तेमनो हाथ पोताना हाथमां लई बोल्योः ॥२७॥
‘‘हे दानपते! मारी मित्रताने आदर आपी मारा हितनुं एक काम करवानुं हुं तमने सोपुं छुं, केमके भोजवृष्णिना कुळमां तमारा सिवाय बीजुं कोई मारुं हित करनार नथी ॥२८॥
जेवी रीते(ज्येष्ठ)इन्द्र समर्थ होवा छतां (कनिष्ठउपेन्द्र)विष्णुनो आश्रय करी पोतानो स्वार्थ सिद्ध करे छे तेम हुं पण आ महान कार्य साधवामाटे, हे मित्र! तमारो आश्रय करुं छुम् ॥२९॥
तमे नन्दना व्रजमां जाओ. त्यां वसुदेवजीना बे पुत्रो रहे छे. अर्हीथी रथ लई जाओ तेमां तेमने बेसाडीने तमे जलदी अर्ही लई आवो ॥३०॥
साम्भळ्युं छे के विष्णुनो आश्रय करनार देवोए आ बन्नेथी मारुं मृत्यु थशे एम नक्की कर्युं छे, तो तमे अर्हीथी जई नन्दरायजी अने गोपो भेट लईने आवे तेमनी साथे एमने पण अर्ही लई आवो ॥३१॥
अर्ही तमे एमने लावशो त्यारे काळना जेवा हाथीनी पासे हुं एमने मरावी नाखीश. जो एनाथी बची गया तो अग्नि जेवा मल्लोथी हुं तेमने मरावी नाखीश ॥३२॥
एमने मरावी नाख्या पछी वसुदेवजी वगेरे वृष्णि, भोज अने दशार्ह वंशना एमना भाईबन्धु शोकाकुल थई जशे. पछी तेमने हुं जाते ज मारी नाखीश ॥३३॥
मारो पिता उग्रसेन वृद्ध थयो छे छतां हजु तेने राजा थवानी इच्छा छे. तेथी आम कर्या पछी हुं तेने तेना भाई देवकने अने जे-जे मारो द्वेष करे छे ते बधा मारा शत्रुओने मारीश ॥३४॥
[[३३१]] पछी तो हे मित्र! आ पृथ्वी निष्कण्टक थई जशे. जरासन्ध मारा ससरा अने द्विविद मारो प्रिय मित्र छे ॥३५॥
शम्बर, नरक, बाण वगेरे मारामां स्नेह राखे छे तेमनी सहायताथी देवना पक्षपाती राजाओने मारीने हुं पृथ्वीनुं राज्य भोगवीश ॥३६॥
आ बधी वात मारा मनमां हती ते में तमने कही. ए जाणीने तमे जल्दी राम-कृष्ण पासे जईने धनुर्यागना दर्शन अने मथुरा नगरीनी शोभा जोवामाटे लावो. हजु तो तेओ बाळकोज छे. (एटले एमने नवुं-नवुं जोवानुं मन थशेज) ॥३७॥
अक्रूरजीए कह्युं - हे राजन्! तमारुं मृत्यु (अनिष्ट) टाळवानेमाटे तमे जे विचार्युं छे ते बराबर छे. परन्तु फल तो दैवाधीन छे तेथी सफळता अने निष्फळता मां समान बुद्धि राखवी श्रेष्ठ छे ॥३८॥
दैवथी जेनो नाश थाय छे तेवा मनोरथो माणस कर्या करे छे अने तेमां हर्ष अने शोक ने प्राप्त थाय छे; छतां हुं आपनी आज्ञा प्रमाणे करवा तैयार छुम् ॥३९॥
एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विसृज्य सः ॥ प्रविवेश गृहं कंसस्तथाक्रूरः स्वमालयम् ॥४०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम अक्रूरजीने हुकम करी तेमने तथा मन्त्रीओ ने रजा आपी कंस पोताना महेलमां गयो अने अक्रूरजी पोताने घेर गया ॥४०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धनो (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्य निरूपक पहेलो) ‘‘अक्रूरजीनुं गोकुल जवुं’’ नामनो छत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां तेत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ३७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३४ केशीदैत्य अने व्योमासुर ने भगवाने मार्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय२
विशेष - आ साडत्रीसमा अध्यायमां कंसे तामस केशीने गोकुल मोकल्यो. एनुं कार्य कहेवामां
[[३३२]]
आवे छे. नारदजी आवीने भगवान्ने मळे छे. तेमणे आपना पधारवानुं कारण कह्युं, हालमां
कर्तव्य छे ते कह्युं अने तेथी जे फल थशे ते बताव्युं. केशीने तो नारदजीना कहेवाथी ज कंसे
मोकल्यो हतो तेने भगवाने मार्यो तेथी भगवान्ने एमणे कंसने मारवानी विनन्ति करी. भक्त
भगवान्ने कहे ते जो भगवान् न करे तो प्रमेयनी दुर्बलता गणाय; तेथी भगवान् सिंहावलोकन
पण करशे. केशी मर्या पछी गोपालनुं रूप लईने व्योमासुर आव्यो तेने पण भगवान् जाणी
गया अने एनो नाश कर्यो छे. केशीनो प्रसङ्ग नव श्लोकथी, नारदजीनो संवाद १६श्लोकथी,
९श्लोकथी व्योमासुर वध अने व्रजगमन एटली वात आ अध्यायमां कहेवामां आवशे.
केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्मर्ही महाहयो निर्जरयन् मनोजवः॥
सटावधूताभ्रविमानसङ्कुलं कुर्वन् नभो हेषितभीषिताखिलः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मोटा घोडाना रूपने धरनार, पगना डाबलावडे पृथ्वीने उखेडतो, केशवाळीथी आकाशनां वादळोने अने विमानोने आम-तेम विखेरी नाखतो, पोताना हणहणाटथी बधानो भय उत्पन्न करतो, कंसे मोकलेल केशी नामनो दैत्य त्यां गोकुलमां आव्यो ॥१॥
विशाल नेत्रवाळो, भयङ्कर मुखरूपी गुफावाळो, मोटा गळावाळो, विशाळ मेघ सरखा श्याम वर्णवाळो, कंसनुं हित करवानी इच्छाथी दुष्ट भावनावाळो केशी, नन्दना व्रजमां आव्यो ॥२॥
भगवान् श्रीकृष्णे जोयुं के तेनी हणहणाटीथी तेमने आश्रये रहेतुं गोकुल भयभीत थई रह्युं छे अने तेना पूञ्छडाना वाळथी वादळां विखराई रह्यां छे तथा ते लडवाने माटे तेमने (भगवान्ने) ज शोधी रह्यो छे त्यारे आप तेनी सामे आवी गया अने सिंहनी जेम गर्जना करी तेने पडकार फेङ्क्यो ॥३॥
भगवान्ने सामे आवेला जोई ते वधारे चिडाई गयो अने तेमनी तरफ एवी रीते मों पहोळुं करीने दोड्यो के जाणे ते आकाशने पी जशे. तेनो वेग घणो प्रचण्ड हतो. तेना उपर विजय मेळववो तो कठिन हतो ज, एने पकडी लेवो पण सहेलुं नहोतुं. तेणे भगवान् पासे आवी पाछला बे पगे लात लगावी ॥४॥
भगवाने एना बे पाछला पगनी लातने चुकावी दीधी अने क्रोधमां एना ए बन्ने पगने पकडी तेनाथी एने फेरव्यो अने जेम गरुड सर्पने फेङ्के तेम तेने तिरस्कारथी चारसो हाथ (सो धनुष) दूर फेङ्की दीधो अने पोते हता त्यां जई बिराज्या ॥५॥
[[३३३]] केशीने पछाट लागतां मूर्छा थई, एमान्थी शुद्धिमां आवतां ते उठ्यो अने मों फाडी गुस्सापूर्वक श्रीकृष्ण उपर त्राटक्यो. भगवाने पण ए पासे आव्यो त्यारे हसता-हसता पोतानो डाबो हाथ एना मुखमां जेम सर्प भोणमां पेसे तेम घुसाडी दीधो ॥६॥
भगवान्नी भुजाना स्पर्शथी जेम धगावेला लोढाने अडकवाथी थाय तेम एना दान्त पडी गया. एना मुखमां गयेलो भगवान्नो बाहु उपेक्षा करवाथी रोग वधे तेम एना गळामां वधवा लाग्यो ॥७॥
ए श्रीकृष्णनो बाहु गळामां वधतां एनो प्राणवायु चालतो बन्ध पड्यो, ए पगने तरफडावा लाग्यो, शरीरमां पसीनो थई गयो, आङ्खोना डोळा ऊन्धा थई गया अने लाद करतो पृथ्वी उपर प्राणरहित थईने पडी गयो ॥८॥
काकडी पाकीने फाटी जाय तेम एनो देह फाटी गयो. भगवाने एने मर्यो जाणी मोम्मान्थी पोतानो श्रीहस्त काढी लीधो. भगवान्ने विस्मय के श्रम न थयां, पण एने मारवाथी देवो आनन्दमां आवी गया अने भगवान्ने पुष्पनी वृष्टिथी वधावी स्तुति करवा लाग्या ॥९॥
हे राजन्! भगवद्भक्तोमां श्रेष्ठ नारदजी भगवान् पासे आव्या अने एकान्तमां अक्लिष्टकर्मा भगवान्ने मळी आ प्रमाणे कहेवा लाग्याः ॥१०॥
‘‘हे कृष्ण! हे अपरिछिन्न स्वरूप! हे योगेश! हे जगदीश! हे वासुदेव! हे अखिलाधार! भक्तना पूज्य! हे प्रभो! ॥११॥
लाकडामां अग्नि रहे तेम आप सर्वना आत्मा छो, गूढ रीते बधाना हृदयमां निवास करो छो, एना साक्षी, महापुरुष अने ईश्वर छो ॥१२॥
आत्मावडे ज आत्माना आश्रये रही प्रथम मायावडे गुणोने उत्पन्न करो छो. आपनो सङ्कल्प सिद्ध होवाथी ए गुणोद्वारा आ जगत्ने उत्पन्न करो छो, पाळो छो अने एनो संहार पण आप ज करो छो ॥१३॥
ते ज आप दैत्यो, प्रमथो अने राक्षसो जेओ रक्षक छतां भक्ष करनार थया छे अने आज-काल राजानो वेष धारण करी बेठा छे तेमनो विनाश करवा तथा धर्मनी मर्यादाओनी रक्षा करवामाटे यदुवंशमां पधार्या छो ॥१४॥
देवताओ पण जेना हणहणाटथी डरी जईने स्वर्ग छोडीने भागी जता हता ते घोडाना रूपमां रहेला आ केशी दैत्यने आपे लीलावडे मार्यो ए ठीक कर्युम् ॥१५॥
[[३३४]] हे प्रभु! हवे परम दिवसे चाणूर, मुष्टिक, कुवलयापीड हाथी अने खुद कंसने पण आप मारशो, ए बधुं हुं जोईश ॥१६॥
ए कंसने मार्या पछी शङ्खासुर (पञ्चजन), कालयवन, मुर, भौमासुर वगेरेने आप मारशो; इन्द्रनो पराजय करी आप स्वर्गमान्थी पारिजातने पृथ्वी उपर लावशो ॥१७॥
जेमां पराक्रम जरूरी छे तेवी वीरकन्याओ साथे आप विवाह करशो. पछी हे जगत्पते! आप द्वारकामां नृग राजानो शापथी मोक्ष करशो; स्यमन्तक मणिनी साथे जाम्बुवतीने द्वारकामां लावशो; गुरुना मृत पुत्रने पोताना धाममान्थी लावी आपशो ॥१८-१९॥
पौण्ड्रकने मारशो; काशीपुरीने बाळशो; महायज्ञमां शिशुपाल अने त्यारबाद दन्तवक्रने मारशो ॥२०॥
आप द्वारकामां बिराजीने जे बीजां पराक्रम करशो ते कविओ गाशे एने हुं जोईश ॥२१॥
आप अर्जुनना सारथि थशो. आ जगत्नो नाश करता दुष्टना कालरूप थईने आप अक्षौहिणीओनो नाश करशो एने हुं जोईश ॥२२॥
विशुद्ध अने विज्ञानघन, पोताना स्वरूपवडे स्वार्थने सम्पूर्ण करनार, इच्छावडे फल आपनार, पोताना तेजवडे नित्य मायाना गुणना प्रवाहने निवृत्त करनार भगवान्ने हुं शरणे जाउं छुम् ॥२३॥
आत्ममायावडे जेणे महदादिनी कल्पना करी छे तेवा अने क्रीडामाटे मनुष्यविग्रहने स्वीकारनार ईश्वररूप आप यदु, वृष्णि अने सात्वत कुळना, शिरोमणि गणाता प्रसिद्ध श्रीकृष्णने हुं नमस्कार करुं छुं’’ ॥२४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - यदुपति श्रीकृष्णनां दर्शनथी जेमने उत्सव थयो छे तेवा नारदजी भगवद्भक्तमां मुख्य छे तेमणे भगवान्ने प्रणाम कर्या, एमनी आज्ञा लईने त्यान्थी रवाना थया ॥२५॥
भगवाने पण युद्धमां केशीने मार्यो अने गोपालोनी साथे गायो चरावता पोतानां जनना सुखने विस्तारता गोपालोनी साथे प्रीति करवालाग्या ॥२६॥
एक समय ते ग्वालबालो गोवर्धन पर्वतनी ऊञ्ची सपाटी उपर गायो चरावी रह्या हता. तथा केटलाक चोर अने केटलाक रक्षक बनी सन्ताकूकडीनी रमत रमी रह्या [[३३५]] हता ॥२७॥
हे राजन्! तेओमान्थी केटलाक तो चोर अने केटलाक रक्षक तथा केटलाक घेटां बन्या हता. आ प्रमाणे तेओ निर्भय थई रमतमां मशगूल थई गया हता ॥२८॥
मायावीओना आचार्य मय नामना असुरनो व्योम नामनो पुत्र मोटो मायावी हतो. ते त्यां आव्यो. ते गोपाल बनी चोर थईने घेटांरूप बनेला गोपोने उठावी दूर लई जई एकठा करवा लाग्यो ॥२९॥
ते महान असुर गोपोने उठावीने पर्वतनी गुफामां राखी अने मोटी शिलाथी ढाङ्की बीजा गोपोने लेवा आवे; एम करतां लगभग बधा गोवाळियाओने उपाडी गयो, चार पाञ्च ज बाकी रह्या ॥३०॥
त्यारे भगवान् एना दम्भने जाणी गया अने सत्पुरुषना रक्षक श्रीकृष्णे एने गोवाळियाने उठावी जतां जोयो अने सिंह जेम शियाळने पकडे तेम तेने पकड्यो ॥३१॥
व्योमासुर बहु बळवान् हतो. तेणे पर्वत जेवडुं पोतानुं असल स्वरूप प्रकट करी दीधुं अने इच्छ्युं के हुं मारी जातने छोडावी लउं. परन्तु भगवाने तेने एवी रीते सकञ्जामां लई लीधो हतो के ते मरवा जेवो थईगयो ॥३२॥
पछी भगवाने पोताना बन्ने श्रीहस्तोथी तेने पकडी भूमिउपर पछाड्यो अने पशुनी जेम तेनुं गळुं मरडी मारी नाख्यो. आकाशमां देवो भगवान्नी आ लीला जोई रह्या हता ॥३३॥
गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः। स्तूयमानः सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम् ॥३४॥
भगवान् श्रीकृष्णे गुफाना द्वार उपर लागेलां शिलाओनां द्वार तोडीने ग्वालबालोने तेमान्थी बहार काढ्या. देवताओ अने ग्वालबालो एमनी स्तुति करवा लाग्या अने भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमां पधार्या ॥३४॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला
प्रमाण-पेटा प्रकरणनो वीर्य निरूपक बीजो) ‘‘केशी दैत्य अने व्योमासुरने
भगवाने मार्या’’ नामनो साडत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-
१४ बाद करतां चोत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[३३६]]
अध्याय ३८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३५ अक्रूरजीनुं व्रजमां आगमन त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय३
विशेष - आ आडत्रीसमा अध्यायमां भक्तिमार्गनुं स्थापन करवामां आव्युं छे. अक्रूरजी गोकुल आव्या अने एमने भक्ति थई ए मान फलरूप छे. जो सात्विक भक्त भगवान्नी सन्मुख थाय तो ए भक्तिवाळो थाय छे, एम न करे तो एने दैत्यना संसर्गवाळी भक्ति वधे नहि, पण ज्यां होय त्यां ज रहे छे. तेथी अर्ही अक्रूरजीनी स्तब्ध भक्ति भगवान् सन्मुख आवतां फलित थई ए आ अध्यायमां कथनीय विषय छे. तेथी आचार्यचरणे ‘‘भक्तिमार्गना स्थापनमाटे अक्रूरागमन आ अध्यायमां कहेवाय छे’’ एम कह्युं. अक्रूरोपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः ॥ उषित्वा रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - महाबुद्धिवाळा अक्रूरजी पण कंसे कह्या पछी ए रात मथुरामां रह्या, बीजे दिवसे सवारमां रथमां बेसीने तेमणे नन्दरायजीना गोकुल तरफ प्रयाण कर्युम् ॥१॥
महाभाग्यवाळा अक्रूरजी चालतां-चालतां मार्गमां कमलनयन भगवान्मां परम भक्तिवाळा थई आ प्रमाणे विचारता जायछे ॥२॥
‘‘में एवुं क्युं शुभ कर्म कर्युं हशे, एवुं क्युं श्रेष्ठ तप कर्युं हशे अथवा कोई भगवत्परायण भक्तने भगवान्ने अर्थे सर्वे विनियोग कराववामाटे एवुं क्युं श्रद्धापूर्वक दान कर्युं हशे के आजे मने केशव भगवान्नां दर्शन थशे? ॥३॥
मोटा-मोटा भक्तो पण जेमना गुणोनुं गान ज करता रहे छे, पण दर्शन करी शक्ता नथी ए भगवान्नां दर्शन, जेम शूद्रकुलमां जन्मेल बाळकने माटे वेदोनो उच्चार दुर्लभ छे तेम मारा जेवा अति विषयी माटे दुर्लभ छे ॥४॥
पण ना, ना, एवुं नथी. भगवान् अने जीवो ए कालरूपी नदीना बे काण्ठा छे. ए बे काण्ठानी वच्चे विषय अने मायारूपी जलनो प्रवाह वहे छे. एक काण्ठे उभेलो माणस प्रवाहमां पडे ते कालवशात् क्यारेक तरी पण जाय छे ॥५॥
आजे मारुं अमङ्गळ दूर थयुं, मारो जन्म आजे सफल थयो, केमके योगीने पण [[३३७]] ध्यान गम्य एवा भगवान्ना चरणकमळने हुं नमन करीश ॥६॥
आ..हा..हा! कंसे तो आज मारा उपर महान कृपा करी छे. ते ज कंसना मोकलवाथी हुं आ भूतल उपर अवतरेला स्वयं भगवान्ना चरणकमळोनां दर्शन करीश, जेमना नखमण्डलनी कान्तिनुं ध्यान धरीने पहेलान्ना युगोना भगवदीयो अविद्यारूप अन्धकार राशिने अर्थात् न छूटे तेवा संसारने तरी गया छे ॥७॥
जे चरणारविन्दने ब्रह्माजी, शिवजी वगेरे देवोए, लक्ष्मीजीए, मुनिओए अने भक्तोए सेवेल छे, गोचारणमां जतां जेमनी पाछळ गोपो चाल्या आवे छे अने जे श्रीगोपीजनोना कुचकुङ्कुमथी अङ्कित थयुञ्छे तेनां दर्शन मने थशे एने हुं मारुं भाग्य समजुं छुम् ॥८॥
हरिणो मारी जमणी बाजुथी जाय छे ए शुकन उत्तम होवाथी हुं आजे भगवान्ना सुन्न्दर कपोलने नासिकावाळुं, मन्दहास्ययुक्त अवलोकन करतां अरुण नेत्रो जेमां छे एवुं अने वाङ्कडिया केशोथी शोभायमान श्रीमुखने जरूर जोई शकीश ॥९॥
मनुष्य नाट्य करता विष्णु पृथ्वीनो भार उतारवामाटे ब्रह्माजी वगेरे भक्तोनी इच्छाथी भूतळ उपर पधार्या छे. तेमना लावण्यना स्थानरूप श्रीमुखनुं मने आजे अवश्य दर्शन थशे अने आम इन्द्रियो सार्थक थवाथी मारो जन्म पण सफळ थशे ॥१०॥
कार्य कारणथी पर छतां अहङ्कार रहित, स्वप्रकाशवडे ज जेमणे अज्ञानजन्य भेदरूप अन्धकारने दूर कर्यो छे तेवा अने पोतानी मायावडे जेमणे आत्माने विशे प्राण, इन्द्रियो अने बुद्धि नी रचना करी छे तेवा अने साथे-साथे गोपीजनोना घरमां अहर्निश देखाता भगवान्नां आजे हुं दर्शन करीश ॥११॥
ज्यारे समस्त पापोना नाशक आपना परम मङ्गलमय गुण, कर्म अने जन्म नी लीलाओथी युक्त थई वाणी एमनुं गान करे छे, त्यारे ते गानथी संसारमां जीवननी स्फूर्ति जणाय छे, शोभानो सञ्चार थई जाय छे, तमाम अपवित्रताओ धोवाई जई पवित्रतानुं साम्राज्य छवाई जाय छे, परन्तु जे वाणीथी आपना गुण, लीला अने जन्मनी कथाओ नथी गावामां आवती ते तो मडदान्ने ज शोभित करनारी छे, होवा छतां न होवा बराबर व्यर्थ छे. (भगवान्मां जरापण प्राकृत धर्मनो सम्बन्ध होय तो भगवत्कीर्तनथी कोईनां पण पापोनो नाश न थाय ए [[३३८]] फलितार्थ छे) ए प्रभुनां हुं आजे दर्शन करीश ॥१२॥
ए ज भगवान् मर्यादाना रक्षणार्थ समग्र देवोने सुख आपनार यादवोना कुलमां अवतार ग्रहण करी पृथ्वी उपर पधार्या छे. पोताना यशने विस्तारता ए ईश्वर व्रजमां बिराजे छे. जेमनो सर्व मङ्गळ करनार यश देवो पण गाई रह्याछे ॥१३॥
मोटा-मोटा सन्तो अने लोकपालोना एक मात्र आश्रय, गुरु, नेत्रवाळा अने ज्ञानीओमाटे आनन्द अने रसनी अवधि, लक्ष्मीजीना एक मात्र आश्रयरूप भगवान्ने हुं जोईश एटले आजनो उषःकाल मारे माटे सुन्दर दर्शन आपनार थयो एम हुं मानुं छुम् ॥१४॥
पोताना कल्याणमाटे योगी लोको जेमने बुद्धिमां धारण करे छे तेवा ईश्वर राम-कृष्णना चरणारविन्दने हुं रथमान्थी कूदी पडी नमन करीश. ए बन्नेनी साथे एमना मित्रो अने व्रजवासीओने पण नमन करीश ॥१५॥
हुं ज्यारे ए विभुना चरणमां पडीश त्यारे ए कृपा करी मारा मस्तक उपर पोताना श्रीहस्तकमळने पधरावशे, जे करकमळ सर्वने अभय आपनार, कालरूपी सर्पना वेगथी भयभीत थयेला शरणागत जीवोने अभय आपनार छे ॥१६॥
भगवान्ना श्रीहस्तकमळमां इन्द्रे सर्वस्व अर्पण कर्युं तेनाथी ए त्रण जगतनो पति थयो, बलिराजाए त्रण पगलां पृथ्वी आपी ते पण त्रिलोकीनो राजा थयो, वळी ते सुन्दर गन्धवाळा हस्त कमळे गोपीजनोने विहार करतां थयेल श्रम बिन्दुने दूर कर्यां हताम् ॥१७॥
भगवान् सर्वज्ञ होवाथी एमना शत्रु कंसे मने मोकलवाथी हुं एमनी पासे जाउं छुं छतां ए मारी उपर शत्रुबुद्धि नहि करे; ए भगवान् मारा हृदयनी अन्दर अने बहारनी चेष्टाने पोते अन्तर्यामी होवाथी निर्मळ ज्ञानवडे जाणे छे ॥१८॥
जे भगवानना चरणमां हुं प्राप्त थईश त्यारे ए स्नेहार्द्र दृष्टिथी मारी तरफ जोशे. एमनी दृष्टि पडताञ्ज हुं बधां पापथी मुक्त थईश त्यारे मारामननी शङ्काओ नष्ट थतां हुं परम आनन्दने पामीश ॥१९॥
हुं एमना कुटुम्बनो छुं, एमनुं अत्यन्त हित चाहुं छुं, एमना सिवाय बीजो कोई मारो आराध्य देव नथी. आम होवाथी पोतानी लाम्बी-लाम्बी भुजाओथी आप पकडी मने पोताना हृदय सरसो लगावी लेशे. आहा! ए वखते मारो देह तो पवित्र थई जशे ज. ते बीजाओने पण पवित्र करी देनारो थई जशे अने ए ज [[३३९]] क्षणे तेनुं आलिङ्गन प्राप्त थतां ज मारां कर्मबन्धन, जेने कारणे अनादि काळथी हुं भटकी रह्यो छुं, तूटी जशे ॥२०॥
ज्यारे श्रीकृष्ण मारुं आलिङ्गन करी रहेशे अने हुं हाथ जोडी, शिर झुकावी आपनी सामे उभो थई रहीश त्यारे आप मने ‘‘काका अक्रूरजी’’ आ प्रमाणे सम्बोधन करीने मारुं बहुमान करशे. केम न करे? पोते उरुश्रवा छे. (जेना घरमां जे वस्तुनी छत होय ते-ते वस्तु बीजाने आपे. भगवान्नी कीर्ति-यश त्रणे लोकमां व्यापेली छे माटे आप बीजाओनुं बहुमान करे छे) अने त्यारे मारो जन्म सफल थई जशे. भगवान् श्रीकृष्णे जेने क्यारेय पण अपनाव्या न होय तेना जन्म अने जीवनने धिक्कार छे ॥२१॥
एमने कोई वहालो नथी के नथी अत्यन्त मित्र; तेम ज कोई अप्रिय द्वेष करवा योग्य के उपेक्षणीय पण नथी; तो पण जेम कल्पवृक्ष पोतानी पासे आवी याचना करनाराओने एमनी मों मागी वस्तु आपे छे एवी ज रीते भगवान् श्रीकृष्ण पण जे एने जे प्रकारे भजे छे तेने ते ज रूपमां भजे छे. प्रभु पोताना प्रेमी भक्तोउपरज पूर्ण प्रेम करेछे ॥२२॥
वळी हुं ज्यारे यदूत्तम मोटाभाई बलदेवजीने नमस्कार करीश त्यारे ए मने मन्दहास्य करी आलिङ्गन करशे, पोताना श्रीहस्तथी पकडी मने घरमां लई जशे अने त्यां भोजनादि सत्कारथी मारो आदर करीने पोताना बन्धुओने कंस केवी रीते राखे छे ते बधी बाबत मने पूछशे’’ ॥२३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्वफल्कना पुत्र अक्रूरजी हे राजन्! मार्गमां ए प्रकारे श्रीकृष्णनुं चिन्तन करता हता तेटलामां तेमनो वायु वेगवाळो रथ गोकुल पहोञ्च्यो अने सूर्य अस्ताचळ उपर पहोञ्च्यो ॥२४॥
बधा लोकपालोना किरीट जेमनी चरणरेणुनी प्रीतिथी सेवा करे छे तेवा अने पृथ्वीनी शोभा वधारनार ध्वज, वज्र, अङ्कुश आदि चिह्नोथी आ भगवान्नां चरण छे एम खातरी करावतां भगवान्नां पगलां गोष्ठमां जोवामां आव्या ॥२५॥
ए चरणचिह्नोनां दर्शन करतां ज अक्रूरजीना हृदयमां एटलो तो आनन्द थयो के पोतानी जातने ते सम्भाळी न शक्या, विह्वल थई गया, प्रेमना उभराथी एमनुं रोमेरोम खीली उठ्युं, नेत्रोमां आंसु छलकायां अने टपटप टपकवा लाग्यां. ते रथमान्थी कूदी पडीने रजमां आळोटवालाग्या अने कहेवा लाग्याः ‘‘अहो! आ मारा [[३४०]] प्रभुनी चरणरज छे!’’ ॥२६॥
कंसनो सन्देश मळ्या पछी अर्ही सुधी *अक्रूरजीना चित्तनी जेवी अवस्था रही छे ते ज जीवोनां देह धारण करवानो परम लाभ छे. तेथी जीवमात्रनुं आ ज परम कर्तव्य छे के ते दम्भ, भय अने शोक छोडी दई भगवान्ना चरणारविन्दना दर्शन, स्पर्श, भगवदीयत्व अने माहात्म्यना ज्ञानद्वारा एवो भक्तिभाव सम्पादन करे ॥२७॥
विशेष - अक्रूरजीने भगवत्सन्मुख जतां जे थयुं ते ज मनुष्यने कर्तव्य छे. तेथी ज जन्म सफळ थाय. उत्पन्न थयेल जीवे पुरुषार्थ करवो जोईए. ए पुरुषार्थ भगवान्ना थवुं एमां छे. एनो यत्न करवो जोईए. ज्ञान आदि तो अवान्तर फळरूप छे. भगवद्भाव मोक्षथी पण वधारे छे, ए ‘‘भगवदीयत्वेनैव परिसमाप्तसर्वार्थाः’’ ए वाक्यथी कह्यो छे. देहने ग्रहणमां क्लेश छे. ए क्लेश सह्यो अने जो पुरुषार्थ न थयो तो कष्ट सह्युं व्यर्थ थाय तेथी शुं कर्तव्य छे ए कहे छे के अक्रूरजीए पुरुषार्थ कर्यो तेम सहुए करवुं जोईए. भगवान्ने तेडवा अक्रूरजीने कंसे मोकल्या त्यारे एमनुं चित्त भगवत्प्रवण थयुं. एनाथी तेओ भगवदीय थया, माहात्म्यज्ञान थयुं अने बधा धर्मो एमनामां आव्या. परन्तु एमां त्रण दोष बाधक छे ते छोडवा जोईएःदम्भ, भय अने शोक ए त्रण दूर थवा जोईए. ए अक्रूरजीए छोडीने भगवत्प्रवणता मेळवी छे. भय शरीरनो धर्म छे, शोक अन्तःकरणनो धर्म छे, दम्भ (कापट्य) वाणीमां छे तेने छोडी काया, वाणी, मन वडे भगवत्प्रवण थवुं जोईए. आ बधुं करे तो एनो जन्म सफळ थाय. व्रजमां गया. त्यां गोदोहनना स्थळ उपर एके पीताम्बर धर्यां छे त्यारे बीजाए नीलाम्बर धर्यां छे तेवा अने कमळ सरखा नेत्रवाळा श्रीकृष्ण राम बन्ने भाईओने एमणे जोया ॥२८॥
बन्नेनी किशोर वय छे, एक श्यामवर्ण छे ज्यारे बीजा श्वेत छे. मोटी भुजावाळा, सुन्दर मुखवाळा, बाळ हाथीना सरखा पराक्रमवाळा ॥२९॥
चरणोमां ध्वज, वज्र, अङ्कुश, कमळ वगेरेना चिह्नवाळा व्रजने शोभित करता, मन्दहास्यपूर्वक कृपावलोक करता श्रीकृष्ण रामने जोया ॥३०॥
उदार अने रुचिकर क्रीडा करनार, अनेक प्रकारनी माळा अने वनमाळाथी शोभनार, पवित्र सुगन्धी द्रव्योनो अङ्गराग लगाडी हमणां स्नान करी नूतन निर्मल वस्त्रो धारण करनार ॥३१॥
[[३४१]] प्रधान अने आद्य पुरुषरूप, जगतना कारणरूप, जगतना रक्षक, जगतनी रक्षामाटे पोताना अंशवडे पृथ्वी उपर पधारेला बलराम अने केशवने जोया ॥३२॥
हे राजन्! दिशाओने स्वकान्तिवडे प्रकाशित करता, सोनेथी मढेली मरकतमणि अने चान्दीना पर्वत होय तेवा देखाता रामकेशवने जोईने अक्रूरजी रथ उपरथी कूदी पड्या, स्नेहमां विह्वल बनी गया अने एमना चरणमां साष्टाङ्ग लोटी पड्यां ॥३३-३४॥
भगवान्नां दर्शनथी तेमने एटलो आनन्द थयो के तेमनां नेत्रोमां आंसु ऊभरायां, आखा शरीरमां रोमाञ्च थई गयो. उत्कण्ठाथी गळुं भराई जवाथी ते बोली पण शक्या नहि ॥३५॥
शरणागतवत्सल भगवाने एमना अभिप्रायने जाणी चक्रवाळा श्रीहस्तथी एमने खेञ्चीने उभा करी प्रेमपूर्वक आलिङ्गन कर्युम् ॥३६॥
*त्यारबाद ज्यारे अक्रूरजी परम उदार श्रीबलरामजी सामे नम्रतापूर्वक उभा रह्या त्यारे तेमणे तेमने आलिङ्गन करी हाथथी हाथ पकडी श्रीकृष्ण साथे तेओ तेमने घरमां लई गया ॥३७॥
विशेष - भक्तो उपर कृपानी वर्षा करनार भगवान्ने काया, वाणी अने मनपूर्वक कोई पण जीव नमस्कार करे तो ते नमस्कार मात्रथी भगवान्मां कृपा प्रकट थाय छे. भगवान्ना चरणकमलनी रजमां जे अक्रूरजी आळोट्या छे अने तेथी भगवदीय बन्या छे अने जेमनो हाथ भगवाने पकड्यो छे ते अक्रूरजीनो जीव तो ते ज क्षणे भगवान्मां प्रवेश करी गयो, भगवान्ना श्रीअङ्गमां घणा जीवो होय छे तेमान्थी एकने अक्रूरजीनां शरीरमां प्रवेश करावी दीधो. (रासपञ्चाध्यायीमां अन्तर्गृहगताओने थयेलुं तेम थयुं) अक्रूरजीना कुशळ समाचार पूछ्या तेमने उत्तम आसन आप्युं, विधि प्रमाणे एमना पग धोया, मधुपर्कथी एमनी पूजा करी ॥३८॥
एमने गोनुं निवेदन करी अभ्यङ्गादिथी एमनो मार्गश्रम दूर कर्यो, एमनो सत्कार करी विभुए पवित्र बहुगुणवाळा अन्नवडे श्रद्धापूर्वक भोजनकराव्युं ॥३९॥
केमके ए विभु छे एटले परम धर्मने जाणनार छे. रामे प्रीतिथी भोजन करता अक्रूरजीने मुखवास (पान, एलची) गन्ध, माल्य वगेरे आपी अत्यन्त प्रसन्न कर्या ॥४०॥
[[३४२]] सत्कारायेला अक्रूरजीने नन्दरायजीए पूछ्युं ः‘‘हे दाशार्ह! कंस जीवे छे त्यां सुधी कसाईए पाळेलां घेटांओ जेवा बीजानुं कुशळशुं पूछी शकाय? ॥४१॥
आक्रन्द करती पोतानी बहेनना बाळकोने पोताना जीवननी खातर मारी नाख्या तेवा दुष्ट राजानी प्रजानुं कुशळ शुं होई शके के अमे तमने एनुं कुशळ पूछीए?’’ ॥४२॥
इत्थं सूनृतया वाचा, नन्देन सुसभाजितः। अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम् ॥४३॥
एम अत्यन्त कोमळ सत्य अने सुख आपनारी वाणीवडे नन्दरायजीए एमनो सत्कार कर्यो अने कुशळ समाचार पूछ्या तेनाथी अक्रूरजीनो मार्गनो श्रम दूर थयो ॥४३॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणनो भगवद् यश रूप अर्थने कहेनार त्रीजो) ‘‘अक्रूरजीनुं व्रजमां आगमन’’ नामनो आडत्रीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां पान्त्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘दाने हि न स्वविनियोगः’’ हवेली-मन्दिरमां प्रभुने भेट धरेल द्रव्य-सामग्री देवद्रव्य बनी जाय छे. देवद्रव्यनो उपयोग (प्रसाद स्वरूपे पण) जो करवामां आवे तो चोक्कस नरकमां पडाय. (नवरत्न, श्रीप्रभुचरणकृत विवृ.पर श्रीपुरुषोत्तमजीनी विवृति)
अध्याय ३९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३६ भगवान्नुं मथुरा पधारवुं. त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय ४
विशेषः आ ओगणचाळीसमा अध्यायमां भक्तनी उपर कृपा करी भगवाने पूर्वसिद्ध अत्यासक्तिने छोडीने पण पोताना रूपनुं दर्शन कराव्युं ए वात कहेवामां आवे छे. अक्रूरजीनी [[३४३]] साथे सारी रीते वातचीत करी त्यान्थी मथुरा जवानेमाटे तजवीज करे छे ते समये गोपीजनो विलाप करे छे ए वात कहेवामां आवे छे. मनोरथ सिद्ध थवा माटे भगवान्ना रूपनुं वर्णन करे छे, जवानो उद्यम पण करे छे तेथी आवेल अक्रूरजी त्यां न जाय तो आ बीजो छे एम सन्देह थाय. एम न थवा माटे चार अर्थनुं आ अध्यायमां वर्णन छे. ए चार अर्थ व्रजना पुरुषार्थरूप छे. ए सर्व सिद्ध थया. एनुं ज्ञान थवाथी बीजो पण भगवद्भक्त थाय ए आनुं फळ छे. पूर्व अध्यायमां अक्रूरजीए जे मनोरथ करेल ते जो के भक्तने इष्ट नथी तो पण भक्तिमार्गमां भक्त जे मनोरथ करे तेने भगवान् पूर्ण करे एम बताववामाटे भगवाने अक्रूरजीना ए मनोरथो सफळ कर्या, ए वात आ अध्यायना आरम्भथी कहेवामां आवे छे. सुखोपविष्टः पर्यङ्के राम-कृष्णोरुमानितः ॥ लेभे मनोरथान् सर्वान् पथि यान् स चकार ह ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राम-कृष्णे जेने बहु मान आप्युं तेवा अक्रूरजी आरामथी पलङ्गपर बेठा पछी मार्गमां तेमणे जे-जे अभिलाषाओ करी हती ते- ते बधी पूर्ण थई ॥१॥
लक्ष्मीजीना आधाररूप भगवान् प्रसन्न थाय तेने अलभ्य शुं होई शके? तो पण जे भगवान्मां तत्पर होय तेवा भक्त तो भगवान् पासेथी कांई पण लेवानी इच्छा राखतानथी ॥२॥
देवकीजीना पुत्र भगवान् श्रीकृष्णे साञ्जनुं भोजन करीने अक्रूरजीनी पासे जई पोतानां सगासम्बन्धीनी साथेना कंसना वर्ताव अने तेना आगळना कार्यक्रम विशे पूछ्युम् ॥३॥
भगवान् बोल्या - हे तात (काका)! हे सौम्य! तमे भले आव्या. तमारुं कल्याण थाओ. मथुरामां आपणा ज्ञातिजनो अने बन्धुओ, भक्तो अने सम्बन्धीओ पापाचरण अने आधिव्याधिथी मुक्त छे ने? ए बधा सुखी छे के केम? ॥४॥
हे अङ्ग! कंसमामारूपी रोग वधतो जाय छे तेमां मारे आपणा लोकोनी अने एनी कुशलता पूछवानी शी होय वारुं? ॥५॥
अहो! अमारां निरपराध अने सदाचारी मात-पिताने अमारा निमित्ते बहु दुःख पड्युं. एमना छ पुत्रो मर्या अने एमने केदखानामां नाख्या एनुं कारण पण अमे ज छीए ॥६॥
[[३४४]] आजे आपणा बन्धुओमां मने तमारुं दर्शन थयुं ए मारे इच्छित हतुं ज; एने हुं भाग्यनो योग ज समजुं छुं. हे तात! आपनुं आववानुं कारण अमने बतावो ॥७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम ज्यारे भगवाने पूछ्युं त्यारे अक्रूरजीए कंसनुं यादवो साथेनुं वेर अने एणे वसुदेवजीने मारी नाखवानो करेलो प्रयत्न (उद्योग) कही सम्भळाव्या ॥८॥
कंसे जे सन्देशो कहाव्यो हतो, जेने माटे अक्रूरजीने गोकुल मोकल्या हता, नारदजीए वसुदेवजीने त्यां आपनुं प्राकट्य थयानुं कंसने कह्युं हतुं, ए बधी वातो अक्रूरजीए भगवान्ने कही सम्भळावी ॥९॥
कालात्मा कृष्ण अने शत्रु ना वीरने मारनार बलदेवजी अक्रूरजीनां वचन साम्भळीने प्रथम तो हस्या. पछी राजा कंसे प्रकट सन्देश कहेवराव्यो हतो ए वात नन्दरायजीने कही सम्भळावी ॥१०॥
नन्दरायजीए बधा गोपोने हुकम कर्यो के ‘‘सर्व गोरसने साथे लई लो, राजाने भेट आपवानी चीजो लई लो अने गाडां जोडीने तैयार थाओ ॥११॥
आवती काले अर्हीथी मधुपुरी जवानुं छे. राजाने गोरस भेट करीशुं. त्यां एक घणो ज मोटो उत्सव थई रह्यो छे ते जोवाने माटे देशनी बधी प्रजा भेळी थई रही छे. आपणे पण ते जोईशुं. एमां राजाना निमन्त्रणथी आपणे जवानुं छे’’ एक कोटवाल मारफत नन्दरायजीए पोताना गोकुलमां बधाने (ढण्ढेरो पिटावी) जणावी दीधुम् ॥१२॥
काले बधा मथुरा जशे ए वात गोपीजनोए साम्भळी त्यारे एमने बहु दुःख थयुं तथा राम-कृष्णने मथुरा लई जवाने माटे अक्रूरजी आव्या छे ए खबर एमने त्यारे ज पडी तेथी तेमना दुःखमां वधारो थयो ॥१३॥
केटलाङ्कने तेथी हृदयमां ताप थतां ऊना श्वासथी एमनां मुखनी कान्ति ओछी थई गई, केटलाङ्कनां दुकूल (ओढवाना बारीक वस्त्रो) अने वलय (कङ्कण) खसी गयां, केटलाङ्कना केशपाश र्वीखाई गया ॥१४॥
बीजां (गोपीजनो) तो भगवान्ना स्वरूपना ध्यानथी मननी बधी वृत्तिओने रोकीने बेठां, जेणे आ लोकने पण न जाण्यो तेथी जाणे आत्मलोकमां पहोञ्ची गया होय, जाणे समाधि लागी गई होय तेवां थई गयाम् ॥१५॥
[[३४५]] बीजां केटलाङ्क गोपीजनो प्रेम अने स्मित नी साथे उच्चारेली अने हृदयनो स्पर्श करनारी विचित्र पदवाळी भगवान्नी वाणीना स्मरणथी मोहित थई गयां ॥१६॥
गोपीजनो मनमां ने मनमां भगवान्नी सुन्दर ललित गति, स्नेहयुक्त हास्यथी अवलोकन, सर्वशोकने मटाडनार नर्म (आनन्द-विनोदना) वचनो अने उदारतापूर्ण लीलाओनुं चिन्तन करवा लाग्यां अने एमना विरहना भयथी विह्वळ थई गयां. एमनां हृदय अने जीवन भगवान्ने ज समर्पित थई चूक्यां हतां. एमनी आङ्खोमान्थी आंसु वही रह्यां हतां. पछी बधां साथे मळीने कहेवा लाग्यां ॥१७-१८॥
गोपीजनोए कह्युं - हे विधाता! तने दया नथी. केमके तुं जगतनां प्राणीओनो सौहार्द अने प्रेमथी संयोग करावी आपे छे; परन्तु हजु एमनी आशा अभिलाषाओ पूरी पण थई होती नथी त्यां तुं एमने छूटां पाडी दे छे तेथी तारी आ रमत नाना बाळकनी चेष्टा जेवी छे ॥१९॥
काळा वाङ्कडिया केशवाळा, मरकत मणिजेवा सुस्निग्ध कपोलवाळा अने ऊञ्ची नासिकावाळा तथा तमाम शोकने तत्काल दूर करनार मन्द हास्ययुक्त अधरोवाळा मुकुन्दना मुखकमलनां दर्शन करावीने हवे तुं एने अमारां नेत्रथी दूर करे छे. ए तारुं कार्य घणुं ज अनुचित छे ॥२०॥
(भद्रा नक्षत्र अभद्र करे छे, मङ्गलवार अमङ्गल करे छे तेम अक्रूर क्रूर कार्य करनार छे ते कहे छे) हे अक्रूर तारुं नाम विपरीत अर्थवाळुं छे एटले तुं ज क्रूर छे ए अक्रूररूपे तुं ज अर्ही भगवान्ने लेवाने आवेल छे, केमके अमारां आ नेत्रने तुं पोते ज मुर्खनी जेम हरी ले छे. जे तारां आपेल नेत्रोद्वारा श्यामसुन्दरना एक-एक अङ्गमां तारी सृष्टिनुं सम्पूर्ण सौन्दर्य अमे निहाळतां रहेतां हतां. हे विधाता! आ तने शोभतुन्नथी ॥२१॥
ओहो! आ नन्दनन्दन पण क्षणिक सुखप्रद छे. एमनो प्रेम एक क्षणमां ज क्यां चाल्यो गयो? अमे तो घरबार, स्वजनसम्बन्धी, पतिपुत्र वगेरे छोडीने एमना स्मितने वश थई एमनी दासीओ बन्यां अने एमने माटे ज आज अमारुं हैयुं शोकातुर थई रह्युं छे त्यारे ए अमने छोडीने मथुरा जवा तैयार थाय छे केमके एमने नवां-नवां प्रिय लागे छे तेथी ज ए प्रीति करी एनो लाभ लई क्षणमां एनी [[३४६]] मैत्री छोडी अन्यत्र मित्रता करे छे ॥२२॥
मथुरानी स्त्रीओने मङ्गल प्रभातवाळी आ रात्रि थशे. कृष्ण ज्यारे मथुरामां प्रवेश करशे त्यारे मथुरानी नागरीओ कटाक्ष अने स्मितरूपी जेमां रस छे तेवुं व्रजपतिनुं श्रीमुख नीरखशे, नेत्रथी एमना लावण्यनुं पान करशे; ॥२३॥
मुकुन्द मनस्वी छे छतां एमनां सुन्दर मधुर भाषणथी एने अधीन बनी जशे. हे अबला! ए नागरीना सलज्ज स्मित अने विलासथी आपणने भूली एनी पाछळ फरता भगवान् आपणी ग्राम्य स्त्रीओनी पासे पाछा शा माटे आवे? नहि ज आवे ॥२४॥
आजे तो दाशार्ह, भोज, अन्धक, वृष्णि अने सात्वतनां नेत्रोने गुणना आलयरूप अने लक्ष्मीजीना रमणना एक स्थानरूप देवकीसुतना श्रीमुखने जोईने मोटो उत्सव थशे ॥२५॥
आवा निर्दयनुं ‘अक्रूर’ नाम न जोईए केमके ए तो अत्यन्त घातक जणाय छे, जे अत्यन्त दुःखित लोकोने आश्वासन पण आप्या वगर ज, अमारा प्रिय तमने अमे कोई दिवस न जोईए तेवा बीजे ज स्थळे लई जाय छे ॥२६॥
आ श्रीकृष्ण तो कठिन बुद्धिवाळा थई रथमां बिराजे छे. एमनी पाछळ आ उन्मत्त गोपो गाडां जोडी चाले छे अने वृद्धो एना कार्यनी उपेक्षा करे छे, माटे दैव ज अत्यारे आपणी प्रतिकूल चेष्टा करी रह्युं छे एमां कोने कहेवुं? ॥२७॥
चालो आपणे जाते ज माधवनी पासे जईने एमने जता अटकावीए; कुलना वृद्धो तेम ज बान्धवो आपणने शुं करी शकशे? आपणने तो अर्धनिमेष पण मुकुन्दनो सङ्ग दुस्त्यज छे. दैव आपणा संयोगनो विध्वन्स करी रह्युं छे तेथी आपणे अत्यारे दीन बनी गयां छीए. हवे आपणे मृत्युनो पण भय क्यां छे! ॥२८॥
जेमां प्रेम सुन्दर स्मितपूर्वक गुप्त वातो छे, लीलायुक्त अवलोकनपूर्वक आलिङ्गन छे तेवा रासनी सभामां जे श्रीकृष्णनी साथे रात्रिओ क्षणनी माफक विताडी हती, हे गोपीजनो! ते श्रीकृष्ण वगर आपणे एमना विरहमां काळ केम व्यतीत करी शकीए? ॥२९॥
साञ्जे दर्रोज ग्वाल-बालोथी घेरायेला बलदेवजीनी साथे वनमां गायोने चरावी श्रीकृष्ण पधारे छे. तेमना काळा वाङ्कडिया अलक अने गळामान्ना पुष्पहार [[३४७]] गायोनी खरीनी रजथी छवायेलां छे. तेओ वेणु वगाडता-वगाडता पोताना मन्दमन्द हास्य अने तीरछी नजरे आपणा सामुं जोई हृदय र्वीधी नाखे छे. तेमना विना आपणा शा हाल थशे? ॥३०॥ (आम ठपको आपी, पहेलां रासमां रुदनथी प्रकट थया हता एटले रुदन करे छे) श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! गोपीजनो वाणीथी तो आ प्रमाणे कही रह्या हता परन्तु तेमनो एक-एक मनोभाव श्रीकृष्णनो स्पर्श अने आलिङ्गन करी रह्यो हतो. विरहथी व्याकुल थयेलां तेओ लज्जा छोडी, ‘‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’’ आ प्रमाणे मोटेथी पोकारी रुदन करवा लाग्यां. (गोविन्द=गायो अने तेमना जेवा निःसाधन जीवोना इन्द्र; दामोदर=भक्तोने वश; माधव=लक्ष्मीपति, स्त्रीओ उपर विशेष कृपा करनार) ॥३१॥
गोपीजनो एम रुदन करे छे, रोतां-रोतां आखी रात वीती गई. एटलामां सूर्योदय थयो. अक्रूरजी पण सन्ध्या वगेरे नित्यकर्म करी रथने चलाववा लाग्या ॥३२॥
गोपो, नन्दरायजी वगेरे गाडां लई एमनी पाछळ चाल्या. गोरसथी भरेला कुम्भोनी साथे भेटो आपवानी बीजी घणी चीजो पण लीधी अने चालता थया ॥३३॥
प्यारा श्रीकृष्णनो सन्देशो साम्भळवानेमाटे गोपीजनो प्रेमथी पाछळ चाल्या, कांईक सन्देशो कहेशे ए आशाथी एमना मार्गमां उभा रह्याम् ॥३४॥
पोताना मथुरागमनने समये एमने सन्तापयुक्त जोईने उत्तम दूत अने सन्देशद्वारा ‘‘हुं पाछो आवीश’’ एम प्रेमपूर्वक कहेवरावी प्रिये तेमने शान्त कर्यां ॥३५॥
गोपीजनोने ज्यां सुधी रथनी धजा अने पैडान्थी उडेली धूळ देखाती रही त्यां सुधी एमनां शरीर चित्रलिखितनी जेम त्यां ज एमनां एम निश्चेष्ट उभां रह्यां, परन्तु तेमणे तेमनां मन तो मनमोहननी साथे ज मोकली दीधां हताम् ॥३६॥
हजु मनमां आशा हती के कदाच श्रीकृष्ण थोडे दूर जई पाछा पधारशे. परन्तु ज्यारे पाछा न ज फर्या त्यारे तेओ निराश थई गयां अने पोत-पोताने घेर पाछां फर्यां. हे परीक्षित! (भगवान्ना गुणो भगवद् रूप ज छे, भगवान् ज छे तेथी) रात्रि-दिवस तेओ भगवद् गुणगान कर्या करतां अने आम पोतानो शोकसन्ताप [[३४८]] हळवो करताम् ॥३७॥
(जो के गोकुलमां रहीने ज कंसने मारी नाखी शकायो होत, गोपीजनोने, साथे लई जई शकायां होत अथवा एक स्वरूपथी गोकुलमां बिराजी बीजा स्वरूपथी मथुरा जई शकायुं होत छतां गोपीजनोने अलौकिक सामर्थ्य-द्वितीय दल (विप्रयोग) नो अनुभव करवाना सामर्थ्यनुं दान करवा) भगवान् तो बलदेवजी अने अक्रूरजी नी साथे वायुवेगी रथमां, पापनाशिनी कालिन्दीजीने काण्ठे पधार्या ॥३८॥
रथमान्थी पोते उतरी, वृक्षनी पासे बिराजी हाथ-मुख धोई इन्द्रनीलमणि समान अने अमृत जेवा मीठा उज्जवल जलनुं पान करी अने बलदेवजीनी साथे रथमां बिराज्याम् ॥३९॥
अक्रूरजी बन्ने भाईनी रजा लईने एमने रथ उपर बिराजवानुं कही कालिन्दीजीना हृदमां आवी विधिवत् स्नान करवा लाग्या ॥४०॥
वेदात्मक गायत्रीनो जप करतां अक्रूरजीए जळमां डूबकी मारी त्यां तो जेमने रथ उपर पधराव्या छे ते ज राम-कृष्णने जळमां जोया ॥४१॥
वसुदेवजीना पुत्रो अर्ही जळमां क्यान्थी, केमके ए तो रथ उपर बेठा छे? अर्ही देखाया त्यारे रथ उपर नहि होय, ए पण मारी पाछळ स्नान करवा आव्या हशे एम धारी माथुं ऊञ्चुं करी जुए तो त्यां पण रथ उपर तेमने जोया ॥४२॥
आ तो बहार छे, मने एमनुं जळमां दर्शन थयुं ए भ्रम ज हतो के शुं? ॥४३॥
एनी तपास करवामाटे फरीने जळमां डूबकी मारीने जोयुं त्यां तो फरीने जळमां बन्ने भाईओनां अक्रूरजीने दर्शन थयां; पण एमां विशेषता ए जोवामां आवी के आ वखते सिद्ध, सर्पो, गन्धर्वो, असुरो वगेरे मस्तक नमावी जेमनी स्तुति करे छे तेवा शेषजीने जोया ॥४४॥
शेषजीने हजार फेण छे अने दरेकना उपर मुगट शोभे छे. तेमणे कमलनी दाण्डी जेवा उज्जवल शरीर उपर नीलाम्बर धारण कर्युं छे अने तेमनी शोभा एवी थई रही छे जाणे के हजार शिखरोवाळा श्वेतगिरि कैलास शोभायमान होय ॥४५॥
अक्रूरजीए जोयुं के शेषजीनी गोदमां श्याम मेघना जेवा घनश्याम बिराजमान छे. एमणे रेशमी पीताम्बर धारण कर्युं छे. पुरुषाकार शान्त (चार पुरुषार्थोनुं दान करनार) चतुर्भुज स्वरूपनां नेत्र कमलना रक्तदलना जेवां लाल छे ॥४६॥
[[३४९]] एमनुं वदन अत्यन्त मनोहर अने प्रसन्नतानुं सदन छे. एमनुं मधुर हास्य अने नमणी नजर चित्त चोरी ले छे. एमनी भ्रमर सुन्दर अने नासिका सहेज ऊञ्ची तथा बहु ज सुघड छे. सुन्दर कान, कपोल अने लाल अधरोनी छटा निराळी ज छे ॥४७॥
एमना बाहु घूण्टण सुधी लाम्बा अने हृष्ट-पुष्ट छे. खभा ऊञ्चा अने वक्षःस्थल लक्ष्मीजीनुं आश्रयस्थान छे. शङ्खना जेवुं चढाव-उतारवाळुं सुडोळ गळुं, गम्भीर (ऊण्डी) नाभि अने त्रिवलीयुक्त उदर पीपळना पानना जेवुं शोभायमान छे ॥४८॥
स्थूल कटिप्रदेश अने नितम्ब, हाथीनी सूण्ढना जेवी जाङ्घो, सुन्दर घूण्टणो अने पिण्डीओ छे. घूण्टीओ ऊञ्ची छे अने लाल नखोमान्थी दिव्य ज्योतिर्मय किरणो फेलाई रह्यां छे. चरणकमलनी आङ्गळियो अने अङ्गूठा नवी अने कोमळ पाङ्खडीओना जेवा सुशोभित छे ॥४९-५०॥
अत्यन्त बहुमूल्य मणीओथी जडायेल मुगट, कडां, बाजूबन्ध, कन्दोरो, हार, नूपुर अने कुण्डलो तथा यज्ञोपवीतथी ते दिव्य मूर्ति अलङ्कृत थई रही छे. एक हाथमां पद्म शोभी रह्युं छे अने बाकीना त्रणमां शङ्ख, चक्र अने गदा, वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनुं चिह्न, गळामां कौस्तुभमणि अने वनमाला बिराजी रह्यां छे ॥५१-५२॥
सुनन्द, नन्द वगेरे पार्षदो, सनकादि मुनिओ, इन्द्रादि देवोना ईशो, ब्रह्मा, रुद्र वगेरे, मरीचि वगेरे नव उत्तम ब्राह्मणो, प्रजापतिओ ॥५३॥
प्रह्लाद, नारदजी, भीष्म वगेरे भगवद् भक्तो जेमनी जुदा-जुदा भाववडे निर्मळ अन्तःकरणपूर्वक पूर्वसिद्ध वाणीवडे स्तुति करी रह्या छे ॥५४॥
श्री, पुष्टि, गिरा (सरस्वती), कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इला, उर्जा, विद्या, अविद्या, शक्ति अने माया नामनी बार शक्तिओ मूर्तिमान थई तेमनी सेवा करी रही छे ॥५५॥
आवा भगवान्ने जोईने अक्रूरजी प्रसन्न थया, परम भक्तिभाववडे रोमाचिन्त थया, भावथी नेत्र भीनां थई गयाम् ॥५६॥
गिरा गद्गदयास्तौषीत् सत्वमालम्ब्य सात्वतः। प्रणम्य मूर्ध्यावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः ॥५७॥
[[३५०]] गद्गद वाणीवडे धीरज राखी हाथ जोडी साष्टाङ्ग प्रणाम करी सावधान थई निर्गुण अवस्थानो त्याग करी, सत्व गुणनो आश्रय लई वैष्णवने उचित स्तुति करवा लाग्या ॥५७॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणनो श्रीनिरूपक चोथो) ‘‘भगवान्नुं मथुरा पधारवुं’’ नामनो ओगणचालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां छत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटीवगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं. (श्रीहरिरायजी)
अध्याय ४०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३७ अक्रूरजीए करेली भगवान्नी स्तुति त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय ५
विशेष - अक्रूरजीए जळमां भगवान्नां दर्शन करी प्रसन्न थई एमनी मनोहर स्तुति करी. एमणे चार प्रकारनुं माहात्म्य जाण्युं छे. तेथी सिद्ध थयेल सिद्धान्तने कहे छे. स्वरूपथी, प्रमाणथी, युक्तिथी, वस्तुस्वरूपवडे अने अवतार फलवडे सर्वनो निर्णय अर्ही कहेवाय छे. राजसमां आ स्तोत्र करनार अक्रूरजी मध्यम कक्षाना छे, उत्तम स्तोत्रमां नारदजी, वसुदेवजी वगेरे वक्ता छे. जेनो-जेनो जेवो-जेवो भाव छे ते-ते प्रमाणे ते स्तुति करे छे. भगवान्मां सर्व योग्य ज छे, कारण के सर्व कांई सर्वरूप नथी. जेथी जेटलुं ज स्वरूप जे समजे ते पोतानी बुद्धिवडे तेटलुं ज वर्णन करी शके. सर्वज्ञ तो एक भगवान् होवाथी ए सिवायना बधा असर्वज्ञ छे. [[३५१]] नतोस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम् ॥ यन्नाभिजातादरविन्दकोशाद् ब्रह्माविरासीद् यत एष लोकः ॥१॥
अक्रूरजी बोल्या - हे कृष्ण! आप सर्व कारणना कारण छो, आदि पुरुष अर्थात् प्रकृतिना भर्ता छो. अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण छो; जेमना नाभिकमळनी कळीमान्थी ब्रह्माजी प्रकट्या, जेमणे आ चराचर जगतनी सृष्टि करी तेवा आपने मारा नमस्कार हो ॥१॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, अहङ्कार, महत्तत्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रियो तेमना विषयो तेना अधिष्ठाता देवो वगेरे जे जगतना कारणरूप गणाय छे ते बधां आपना ज अङ्गरूप छे ॥२॥
आप सर्वना आत्मा छो छतां ब्रह्माजी वगेरे आपने सर्वना आत्मा तरीके जाणता नथी. आपे ब्रह्माजीनो आत्मतया (पोताना तरीके) स्वीकार कर्यो नथी कारण के तेओ साभिमान-अहङ्कारी छे, प्रकृतिना गुण रजस्थी युक्त छे तेथी तेओ पण आपनी प्रकृतिनुं अने तेना गुणोथी पर आपनु स्वरूप जाणता नथी. जो ब्रह्माजी आपना स्वरूपने न जाणे तो तेमनो बनावेलो बीजो जीव तो न जाणे ए स्पष्ट वात छे ॥३॥
योगीओ महापुरुष अने ईश्वर (अन्तर्बहि र्नियामक स्वरूप) तरीके आपनुं साक्षात् यजन करे छे ज्यारे स्मार्त धर्मपरायण सदाचारी साधुपुरुषो आप अध्यात्मसहित, अधिभूत सहित अने अधिदैव सहित छो तेम समजी आपनुं यजन करे छे. (अध्यात्म सहित=अन्तःकरणमां रहेल ‘अन्तर्यामी’ अधिभूत सहित=भौतिक पदार्थोमां व्याप्त ‘परमात्मा’ अधिदैव सहित=सूर्य, चन्द्र, अग्नि वगेरेमां स्थित ‘‘इष्ट देवता’’) ॥४॥
केटलाक याज्ञिको वेदविद्यावडे आपने मोटा यज्ञोमां अनेक प्रकारना इन्द्र, वायुनां नाम लई आपनुं ज यजन करे छे ॥५॥
वळी बीजा केटलाक सर्व कर्मनुं फल आपना चरणमां समर्पण करी शान्त थईने ज्ञानयज्ञथी ज्ञान विग्रहरूप आपनुं यजन करे छे ॥६॥
बीजा केटलाक लोको विधिए बतावेल साधनोवडे पोताना आत्माने संस्कृत करी आप जेवा थईने बहुमूर्तिमां के एक मूर्तिमां आपने भजे छे ॥७॥
बीजाओ तो शिवजीए कहेल मार्गवडे बहु आचार्योना (शैवपाशुपतादि) [[३५२]] भेदवडे, हे भगवन्! आपनी शिवस्वरूपे उपासना करे छे ॥८॥
हे स्वामिन्! जे लोको बीजा देवताओनी भक्ति करे छे अने तेमने आपथी जुदा समजे छे ते बधा पण हकीकतमां आपनी ज आराधना करे छे कारण के आप ज बधा देवस्वरूप छो अने सर्वेश्वर पण छो ॥९॥
हे प्रभो! जेम पर्वतमान्थी नदीओ नीकळे छे अने वर्षाना जलथी भराई घूमती-फरती अन्ते समुद्रमां प्रवेश करे छे तेवी ज रीते बधी जातना उपासना मार्ग अन्ते आपनी ज पासे पहोञ्ची जाय छे ॥१०॥
रजस्, तमस् अने सत्व ए आपनी प्रकृतिना गुणो छे ते गुणोमां ब्रह्माजीथी लईने स्थावर पर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव परोवायेला छे तेथी ए ‘प्राकृत’ कहेवाय छे ॥११॥
परन्तु आप सर्वस्वरूप होवा छतां आप एमनी साथे लिप्त थता नथी. आपनी दृष्टि निर्लिप्त छे कारण के आप बधी वृत्तिओना साक्षी छो. आ गुणोना प्रवाहथी थनारी सृष्टिनुं मूल अज्ञान छे अने ते देवता, मनुष्य, पशुपक्षी बधामां व्याप्त छे परन्तु आप तेनाथी अळगा छो तेथी हुं आपने नमस्कार करुं छुम् ॥१२॥
अग्नि आपनुं मुख, पृथ्वी चरण, सूर्य नेत्र, आकाश नाभि, दिशाओ कान, स्वर्ग मस्तक, देवेन्द्रगण श्रीहस्तो, समुद्रो उदर अने वायु आपनां प्राण अने बळ छे ॥१३॥
वृक्ष अने औषधि आपनां रोम, मेघो मस्तकना वाळ अने पर्वतो आपनां अस्थि अने नख छे, पलकोनुं खोलवुं अने बन्ध करवुं ए दिवस अने रात छे, प्रजापति आपनी गुह्येन्द्रिय अने वृष्टि आपनुं वीर्य छे ॥१४॥
हे अविनाशी भगवन्! जेवी रीते जलमां घणा जलचर जीवो अने गूलर (उम्बर)नां फलोमां अनेक नानां-नानां जन्तुओ रहेतां होय छे तेवीज रीते आपना मनोमय पुरुष रूपमां अनेक प्रकारना जीव जन्तुओथी भरेला लोक अने तेमनालोकपाल रचायेला छे. (अने छतां जलने जलचरोनो अने गूलरने जन्तुओनो भार जणातो नथी तेम आपने कंई ज भार जणातोनथी) ॥१५॥
आप क्रीडार्थ जे-जे रूपोने धारण करो छो ते रूपोवडे लोको शोकने मटाडीने आनन्द मेळवी आपना यशनुं गान करेछे ॥१६॥
प्रलयना समुद्रमां फरता कारणरूप मत्स्य स्वरूपने नमस्कार हो. मधु कैटभ [[३५३]] दैत्यने मारनार हयग्रीव भगवान्ने नमन हो ॥१७॥
मोटुं कूर्मरूप धरी पीठ उपर मन्दराचळने धारण करनार अने पृथ्वीना उद्धारने माटे वराह रूपथी विहार करनार आपने मारा नमस्कार हो ॥१८॥
भक्त लोकोने अभय आपवामाटे अद्भुत नरसिंहरूप धारण करनार अने त्रिलोकीने त्रण पगलामां मापी लेनार वामन रूपने मारा नमस्कार हो ॥१९॥
गर्विष्ट क्षत्रियरूप वनना कुहाडारूप भृगुपति परशुरामने नमन हो. रावणनो अन्त लावनार रघुवर्य रामरूप आपने हुं नमन करुं छुम् ॥२०॥
आप ज वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्धरूप छो. तेम ज समस्त भक्तोना सर्वथा रक्षक एवा आपने मारा नमस्कार हो ॥२१॥
(भगवान् दरेक अवतारनी झाङ्खी अक्रूरजीने जलमां करावे छे तेथी हवे थनारा अवतारोने पण आवरी ले छे) दैत्यो अने दानवो ने (वेदोनी निन्दा करी) मोह करावनार शुद्ध-बुद्ध भगवान्ने तथा सहज दैत्योरूपी म्लेच्छोने अने दोषित क्षत्रियोने हणनार कल्कि भगवान्ने हुं प्रणाम करुं छुम् ॥२२॥
हे भगवान्! आ जीवलोक आपनी मायाथी मोहित थयो छे, ‘हुं’ अने ‘मारुं’ एवा असत् आग्रहथी ऊञ्ची-नीची श्वान वगेरेनी योनिमां भटक्या करे छे ॥२३॥
हुं मूर्ख छुं अने स्वप्न सरखां देह, पुत्र, घर, पत्नी, धन अने स्वजनमां सत्य बुद्धि करी, हे विभो! हुं भटकतो फरुं छुम् ॥२४॥
अनित्य, अनात्म अने दुःखरूप पदार्थोमां नित्य, आत्मा अने सुख बुद्धि मने थाय छे तेथी हुं सुख दुःखमां आराम माननार होवाथी अज्ञानमां डूबी जवाथी मारुं शुं हित छे ए जाणी शक्तोनथी ॥२५॥
कमलपत्रो वगेरेथी ढङ्कायेल जलने छोडी जेम मूर्ख माणस झाञ्झवानां जल पाछळ दोडे छे तेम अन्तःकरणमां बिराजता पण अहन्ता-ममताथी ढङ्कायेल प्रभुने, ‘‘अहं मम’’ ने दूर नहि करतां, परमानन्दनो अनुभव नहि करतां दुःखात्मक बहारना विषयोमाटे हुं पण दोडुं छुं, कारण के हुं बहिर्मुख छुम् ॥२६॥
मननी नियामक बुद्धि छे, हवे मारुं मन काम अने कर्म थी विक्षिप्त छे अने बुद्धि विषयपरायण छे. वळी मारी इन्द्रियो बळवान अने बेकाबू छे तेओ मनने बळजबरीथी आम-तेम लई जाय छे तेथी तेने हुं रोकवानो उत्साह पण करी शकतो नथी.(एक चोरथी बीजा चोरने सन्मार्गे न लावी शकाय) ॥२७॥
[[३५४]] सर्वथा निःसाधन एवो हुं दीनतापूर्वक आपने शरणे आव्यो छुं. दुष्ट पुरुषोनेमाटे आवी शरणागति पण मुश्केल छे ते मने प्राप्त थई ते, हे ईश! हुं आपनो अनुग्रह ज मानुं छुं ज्यारे जीवनो छेल्लो जन्म होय छे त्यारे हे कमलनाभ! तेने पुरुषनो देह मळे छे, भगवदीयोनी सेवा करवामां रुचि थाय छे, भगवत्स्वरूपने जाणवानी इच्छा थाय छे अने भगवत् शास्त्र (श्रीभागवत्, श्रीगीताजी वगेरे) परायणता थाय छे ॥२८॥
विज्ञान स्वरूप अने सर्व ज्ञानना कारणरूप, पुरुषरूप, ईशरूप अने प्रकृतिरूप छतां अनन्त शक्तिवाळा ब्रह्मने मारा नमस्कार हो ॥२९॥
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च। हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो ॥३०॥
वासुदेवरूप, सर्व जीवोना निवासरूप, हे इन्द्रियोना नियामक! आपने हुं नमन करुं छुं, हे विभो!हुं आपने शरणे आव्यो छुं तो आप मारी रक्षाकरो ॥३०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला
प्रमाण-पेटा प्रकरणनो ज्ञानरूप अर्थवाळो पाञ्चमो) ‘‘अक्रूरजीए करेली
भगवान्नी स्तुति’’ नामनो चालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-
१४ बाद करतां साडत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!!
‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’
दक्षिणा लईने करवामां आवती कथा गटरना पाणी जेवी अपवित्र होय छे.
अध्याय ४१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३८ मथुरा नगरीमां श्रीकृष्णनो प्रवेश त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय६
विशेष - अक्रूरजी भगवत्तत्वने जाणी गया ए वात ४१ मा अध्यायमां कहे छे. भगवान्ने [[३५५]] एमना उतारा उपर छोडी अक्रूरजी घेर गया त्यारे भगवान् मथुरा जोवा नीकळ्या. पोताना माहात्म्यनुं ज्ञान भगवाने अक्रूरजीने कराव्युं. अक्रूरजीए स्नान करती वखते जलमां जे दर्शन कर्यां ते छुपाव्युं हतुं. तेनी परीक्षा पण करी लीधी. भगवान्ना प्रवेश वखते मथुरा नगरीनुं वर्णन करे छे. उत्सवमां जेवां बधानां मन भगवाने आकर्ष्या हतां तेवां मथुरानगरीवाळा भक्तोनां मनने पण निरुद्ध कर्यां. पोतानुं माहात्म्य बताववामाटे भगवाने धोबी (रङ्गारा) ने मार्यो, दरजी अने सुदामा माळीनी उपर भगवाने अनुग्रह कर्यो; तेम करी राजस लोकना प्रपञ्चने भुलाव्यो. आगळ श्रीकृष्णमां एमनी आसक्ति कहेवाशे. एनाथी सामान्य निरोध सिद्ध थशे. स्तुवतस्तस्य भगवान् दर्शयित्वा जले वपुः ॥ भूयः समाहरत् कृष्णो, नटो नाट्यमिवात्मनः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम जलमां स्तुति करता अक्रूरजीने भगवाने पोतानां श्रीअङ्गनां दर्शन कराव्यां अने नट जेम पोतानो पाठ पूरो करे तेम, भगवान् श्रीकृष्णे जळमां थतां पोतानां दर्शनने बन्ध कर्याम् ॥१॥
अक्रूरजी पण जळमां देखातुं स्वरूप अन्तर्धान थयुं जाणीने पोते जळथी बहार आव्या अने आवश्यक कर्म समाप्त करी विस्मय पामता रथ उपर सवार थई गया ॥२॥
एमने इन्द्रियोना अधिष्ठाता श्रीकृष्णे पूछ्युं के ‘‘पृथ्वी, आकाश के जळ मां आपे आश्चर्यकर कांई जोयुं होय एवुं तमारा रूप उपरथी अमारा जाणवामां आवे छे. तो आपे कोई अद्भुतवस्तुजोई केशुं?’’ ॥३॥
अक्रूरजीए भगवान्ने कह्युं - पृथ्वी, आकाश के जळमां अने जगतमां जेटला अद्भुत पदार्थ छे तेबधा आपनामां छे कारण के आप विश्वरूप छो.ज्यारे हुं आपनेज जोई रह्यो छुन्त्यारे एवी कई अद्भुत वस्तु रही जाय छे केमें न जोई होय? ए आपकहो ॥४॥
हे भगवन्! जेटली-जेटली अद्भुत वस्तुओ छे, पछी ते पृथ्वीमां होय के जल अथवा आकाशमां होय-बधीज जेमां छे ते आपने ज हुं जोई रह्यो छुं, पछी मारेकई वस्तु जोवानी बाकी रही?(आमां पूर्व श्लोकनो अनुवादज कहेवामां आव्यो) ॥५॥
एम बोली अक्रूरजीए रथ चलाव्यो. दिवसना अस्तनो समय थयो त्यारे राम [[३५६]] अने श्रीकृष्णने लई मथुरामां जई पहोञ्च्या ॥६॥
हे राजन्! मार्गमां ग्रामलोको गामेगाम भेगा थईने आवता तेओ बधा वसुदेवजीना बन्ने पुत्रोने जोईने बहु प्रसन्न थता अने तेमनी तरफ लागेलां पोतानां नेत्रोने पाछां खेञ्ची शक्ता नहि ॥७॥
भगवान् पधारे छे तेटलामां नन्दरायजी वगेरे व्रजवासीओ आगळ पहोञ्च्या हता. तेओ गामनी पासेना बगीचामां उतारो करी त्यां एमनी प्रतीक्षा करी रह्या हता ॥८॥
भगवान् पधारी ए बधाने मळ्या अने जगतना ईश्वर कृष्ण अक्रूरजीनो हाथ पोताना हाथमां लई हसीने विनयथी कहेवा लाग्याः ॥९॥
‘‘काका! आप रथ लई पहेलां मथुरापुरीमां प्रवेश करी पोताने घेर जाओ. अमे तो पहेलां अर्ही उतरी नगरनी शोभा जोवामाटे आवीशुं’’ ॥१०॥
अक्रूरजी बोल्या - हे प्रभो! आप बन्ने विना हुं नगरमां नहि जाउं. हे नाथ! मारो त्याग आपेन करवो जोईए. हेभक्तवत्सल! हुं आपनो भक्तछुम् ॥११॥
आप पधारो. आपणे चालीए. अमारा घरने हे अधोक्षज! आप सनाथ करो. हे सुहृत्तम! आप, बलदेवजी अने गोपो तथा नन्दरायजी वगेरे बधा मारे त्यां मुकाम राखो ॥१२॥
अमे गृहस्थ छीए. आपनी चरणरजवडे अमारां घरोने पवित्र करो, जेना चरणना प्रक्षालन जलवडे देवो, अग्निओ, पितृओ वगेरे तृप्त थाय छे ॥१३॥
हे प्रभो! आपना युगल चरणोने पखाळी महात्मा बलिराजाए एवो यश प्राप्त कर्यो के तेनुं गान सन्तपुरुषो करे छे. मात्र यश नहि तेमणे अतुल ऐश्वर्य तथा एवी गति प्राप्त करी जे आपना अनन्य प्रेमी भक्तोने ज प्राप्त थाय छे ॥१४॥
ते आपना चरणक्षालननुं जळ त्रण लोकने पवित्र करे छे, जेने शिवजी पोताना मस्तक उपर धारण करे छे, जेना सम्पर्कथी सगरना साठ हजार पुत्रो स्वर्गमां गया ॥१५॥
हे देवना देव! हे जगतना नाथ! हे पवित्र श्रवण कीर्तनवाळा! हे यदूत्तम! हे उत्तमश्लोक! हे नारायण! आपने मारा नमस्कार हो ॥१६॥
श्रीभगवान् बोल्या - काका! हुं बलदेवजीनी साथे आपने घेर आवीश; पण पहेलां आ यदुवंशीओना द्रोही कंसने मारी पछी बधा स्नेही-स्वजनोनुं प्रिय करीश [[३५७]] ॥१७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - अक्रूरजीने भगवाने एम कह्युं त्यारे अक्रूरजी कंईक दुःखाता (कचवाते) मने नगरमां गया, त्यां कंसने भगवान् पधार्यानी खबर करी पोताने घेर पहोञ्च्या ॥१८॥
ज्यारे त्रीजो पहोर थयो त्यारे बलदेवजी अने गोपोने साथे लईने श्रीकृष्णे मथुरानगरी जोवानी इच्छाथी बधानी साथे मथुरामां प्रवेश कर्यो ॥१९॥
भगवाने जोयुं के नगरना कोटमां स्फटिकमणिना मुख्य दरवाजाओ घणा ऊञ्चा छे. घरोने मोटा-मोटा बारणांओ छे तेमां सोनानां मोटां कमाड लागेलां छे अने सोनाना ज बहारना दरवाजाओ छे. नगरनी चारे बाजु ताम्बा अने पित्तळना कठेडाओ छे. चारे तरफथी खाई खोदेली होवाथी बीजे कोई स्थळेथी तेमां प्रवेश करवो बहु मुश्केल छे. ठेक ठेकाणे (पुष्प प्रधान) उद्यानो अने (फल प्रधान) उपवनो शोभी रह्यां छे ॥२०॥
शहेरनी वचमां चोक, सुवर्णथी सजावेला धनिकोना महेलो तेमनी ज साथे लागेला बगीचाओ, कारीगरोने बेसवानां स्थान के सभा भवन (टाउन होल) अने आम जनतानां घरो नगरनी शोभामां वधारो करी रह्यां छे. वैदूर्य, हीरा, स्फटिक, नीलम, प्रवाल, मोती अने पन्ना वगेरेथी जडेला रवेस, चोतरा, झरोखा तथा ओटलाओ वगेरे झगमगी रह्यां छे. एमना उपर बेठेलां कबूतरो, मोर वगेरे पक्षीओ जातजातनी बोली, बोली रह्यां छे. सडको, बजार, गलीओ अने चोकोमां पाणी छाण्टवामां आवेलुं छे. ठेकठेकाणे फूलोना गजरा, ज्वारा, शेकेली डाङ्गर अने चोखा वेरेला छे ॥२१-२२॥
घरोना दरवाजा उपर जलथी भरला कुम्भ राख्या छे तेने दर्ही अने चन्दन छाण्टी एनी पूजा करी छे, एने पुष्प चडाव्यां छे, दीवाओनी पङ्क्तिओ अने पल्लवो थी एने शणगार्या छे, सोपारी अने केळना स्तम्भो फलसहित त्यां रोप्या छे, द्वारो अने घरो ने शृङ्गार कर्यो छे अने नानी-नानी झण्डीओ फरकी रही छे ॥२३॥
हे राजन्! वसुदेवजीना बन्ने पुत्रोए गोपाळोने साथे लईने मथुराना राजमार्गमां प्रवेश कर्यो त्यारे मथुरानी स्त्रीओ एमनां दर्शन करवाने जलदी घरनी अटारीओ उपर चडी गई ॥२४॥
[[३५८]] केटलीक तो उतावळमां वस्त्रो अने आभरणो क्यान्नां क्यां पहेरीने आवी. केटलीक बे पग, बे हाथ, बे कान वगेरे बब्बे पहेरवानां घरेणान्ने एकमां ज धरीने बीजामां धरवानुं छोडी दई त्वराथी आवी पहोञ्ची. केटलीके एक कपोल उपर कमळपत्र कर्युं, बीजुं करवानो वखत न रह्यो ते एकथी ज चलावी लई त्यां आवी, श्रवणमां अने चरणमां एकमां ज आभरण धरीने आवी, बीजी एक नेत्रमां अन्जन करीने बीजा नेत्रमां अन्जन कर्या वगर ज आवी ॥२५॥
केटलीकने एवो उत्सव थयो के भोजन अधूरुं छोडीने त्यां आवी. केटलीक अभ्यङ्ग करती हती ते नाह्या वगर एम ज आवी. केटलीक सूई रही हती तेओ कोलाहल साम्भळतां ज उभी थई गई अने ते ज अवस्थामां दोडी गई. केटलीक छोकरान्नी माताओ स्तनपान करतां पोतानां बाळकोने छोडीने भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन करवा आवी ॥२६॥
कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण मदोन्मत्त गजराजनी जेम अत्यन्त मस्तीथी चाली रह्या हता. लक्ष्मीजीने पण आनन्दित करनारा पोताना श्यामसुन्दर श्रीअङ्गथी मथुरानी नागरीओनां नेत्रोने आपे अत्यन्त आनन्दनुं दान कर्युं अने पोताना विलासपूर्ण प्रगल्भ हास्य अने प्रेमपूर्ण अवलोकनथी तेमनां मन चोरीलीधाम् ॥२७॥
मथुरानी स्त्रीओ घणा दिवसोथी भगवान् श्रीकृष्णनी अद्भुत लीलाओ साम्भळती रहेती हती. एमनां चित्त घणा वखतथी श्रीकृष्ण नेमाटे व्याकुल थई रह्यां हतां. आजे तेमणे तेमनां दर्शन कर्यां. भगवान् श्रीकृष्णे पण पोतानी प्रेमयुक्त दृष्टि अने मन्दहास्यनी सुधाथी सिञ्चीने तेमनुं सन्मान कर्युं. हे परीक्षित! ते स्त्रीओए नेत्रोद्वारा भगवान्ने पोताना हृदयमां पधरावीने तेमना आनन्दमय स्वरूपने आलिङ्गन कर्युं. तेमना शरीर पुलकित थई गयां अने घणा दिवसोनो विरह- व्याधि शान्त थयो ॥२८॥
मथुरानी सहज सौन्दर्ययुक्त अबलाओ पोत-पोताना महेलोनी अटारीओ उपर चडी. बलदेवजी अने श्रीकृष्ण उपर पुष्पोनी वर्षा करवा लागी. ए वखते ए प्रमदाओनां नेत्रो भगवत्प्रेमथी विकसित थई रह्यां हतां एटलुं ज नहि पण पलक पण लागती नहोती ॥२९॥
ठेकठेकाणे ब्राह्मणोए दर्ही, अक्षत, जलथी भरेलां पात्रो, फूलोना हार, चन्दन [[३५९]] अने भेटनी सामग्रीओथी आनन्दमग्न थई भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजीनी पूजा करी ॥३०॥
मथुराना नगरजनो कहेवा लाग्या - ‘‘धन्य छे! धन्य छे! गोपीजनोए एवी ते कई तपश्चर्या करी हशे के जेना फलरूपे तेओ मनुष्यमात्रने महोत्सवनो आनन्द आपनार आ बन्ने मनोहर किशोरोनां दर्शन करती रहे छे!’’ (उत्सव क्यारेक ज थाय छे, महोत्सव तो एनां करतांय दुर्लभ छे अने तेमां पण बधानेमाटे महोत्सव अति दुर्लभ छे) ॥३१॥
आ ज वखते श्रीकृष्णे जोयुं के एक धोबी, जे कपडां रङ्गवानुं काम पण करतो हतो, एमना तरफ आवी रह्यो छे. श्रीकृष्णे तेनी पासे धोयेलां उत्तम वस्त्रो माङ्ग्यांः ॥३२॥
‘‘हे भाई! अमने योग्य होय तेवां वस्त्र तुं अमने आप तो थोडा समयमां तारुं परम कल्याण थशे. ए वात हुं साची कहुं छुं, एमां सन्देह न कर’’ ॥३३॥
सर्व रीते पूर्ण एवा भगवाने एनी पासे वस्त्रनी याचना करी त्यारे ए तो राजा कंसनो नोकर हतो तेथी अत्यन्त मदोन्मत्त हतो, एनी पासे मागतां ए गुस्से थयो, एटलुं ज नहि पण एमनी उपर आक्षेप करी आ प्रमाणे बोल्योः ॥३४॥
‘‘पर्वतो अने वनमां रहेनारा तमे हमेशां आवां ज कपडां पहेरता हशो केम? अथवा तमे उद्धत बनी मर्यादा छोडीने बेठा छो के शुं? जे तमे राजानी वस्तुमां इच्छा राखो छो ॥३५॥
हे मूर्खो! जलदी अर्हीथी चाल्या जाओ. जो तमारे जीववानी इच्छा होय तो आजे मागणी करी एम हवे पछी मागशो नहि. राजाना सैनिको एवा छे के जे गर्ववाळो थई राजाने न गणे तेने ए थोडो अपराध करे तो बान्धे छे,मोटा अपराधमां मारी नाखे छे. साधारणमां एने लूण्टीले छे’’ ॥३६॥
एम पोतानी बडाई करनार धोबी उपर देवकीजीना पुत्र श्रीकृष्णे गुस्सो कर्यो अने पोताना हाथवडे एना माथाने शरीरथी जुदुं पाडी दीधुम् ॥३७॥
आ जोईने ए धोबीना बधा नोकरो तो वस्त्रनां पोटलां त्यां ज छोडी जीववानी इच्छाथी दोडता नाठा त्यारे भगवाने एमान्थी वस्त्रो लीधाम् ॥३८॥
श्रीकृष्ण अने सङ्कर्षणे पोताने गमतां वस्त्रो पहेर्यां, बाकीनां गोपोने आप्यां अने वध्यां ते मार्गमां छोडी चालतां थया ॥३९॥
[[३६०]] पोते सर्वसमर्थ छे छतां क्वचित् बालभाव बतावता जाय छे. तेनाथी अने अनुपम सौन्दर्यथी प्रसन्न थयेला दरजीए नाना वर्णवाळां वस्त्रोमान्थी बन्ने भाईओने योग्य तेवो वेश तैयार करी आप्यो ॥४०॥
जाणे उत्सवमां धोळा अने काळा हाथी शणगारेला होय तेम अनेक प्रकारना वेशवडे राम-कृष्ण शोभवा लाग्या ॥४१॥
भगवान् ए दरजी उपर बहु प्रसन्न थया. आपे तेने आ लोकमां अपार धन सम्पत्ति, बल, ऐश्वर्य, स्मृति, इन्द्रियोनी शक्ति अने मृत्यु बाद सारूप्य मुक्ति पण आपी दीधाम् ॥४२॥
त्यान्थी सुदामा नामना माळीने घेर पधार्या. राम-कृष्णने आवता जोई एमने सुदामाए उठीने मान आप्युं, पृथ्वी उपर माथुं टेकवी नमन कर्युम् ॥४३॥
पछी तेमने आसन उपर बिराजमान करी एमना चरण धोया, हाथ धोवडाव्या अने त्यार पछी ग्वाल-बालो सहित बधानी फूलोना हार, पान, चन्दन वगेरे सामग्रीओथी विधिपूर्वक पूजा करी ॥४४॥
‘‘हे प्रभो! आजे अमारो जन्म सार्थक थई गयो. अमारुं कुळ आजे पवित्र थई गयुं; आपना अर्ही पधारवाथी आजे अमे पितृऋण, ऋषिऋण अने देवऋणमान्थी मुक्त थई गया. तेओ अमारा उपर बहु ज सन्तुष्ट छे ॥४५॥
आप बन्ने विश्वमां प्रसिद्ध छो, जगतना परम कारण छो. आप संसारना अभ्युदय-उन्नति अने निःश्रेयस मोक्षने माटे ज आ पृथ्वी उपर क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति सहित प्रकट थया छो ॥४६॥
जगतना आत्मा अने सुहृद्रूप आपने विषम भाव कोईमां न होय. आप सर्वमां सम छो अने छतां आपने भजनारने आप भजवावाळा छो ॥४७॥
हुं आपनो दास छुं. आप बन्ने मने आज्ञा करो के हुं आपनी शी सेवा करुं. जीव उपर आपनो आ अनुग्रह छे के आप तेने आज्ञा आपी कोई कार्यमां नियुक्त करो छो’’ ॥४८॥
हे राजेन्द्र! एमविनन्ति करी सुदामाए भगवान्नो अभिप्राय जाणी प्रसन्न थईने अत्यन्त सुगन्धवाळां पुष्पनी माळाओ बनावी भगवान्ने अर्पण करी ॥४९॥
एनाथी राम-कृष्णे सारी रीते शृङ्गार कर्या अने बन्ने प्रसन्न थया. गोपोने [[३६१]] पण माळाओ आपी खुश कर्या. शरणे आवेला, चरणमां दण्डवत्प्रणाम करता सुदामाने बन्ने भाईओए वरदान आप्याम् ॥५०॥
तेणे पण अखिलात्मा भगवान् श्रीकृष्णमां अचळ भक्ति मागी, एमना भक्तोनी मित्रता मागी अने प्राणीमात्र उपर उत्कृष्ट दया मागी ॥५१॥
इति तस्मै वरं दत्वा श्रियं चान्वयवर्द्धिनीम् ॥ बलमायुर्यशः कान्तिं निर्जगाम सहाग्रजः ॥५२॥
एना माग्या प्रमाणे तो एने वरदान आप्यां, उपरान्त एवी लक्ष्मी आपी के जे वंश परम्परानी साथे वधती जाय, वळी बळ, आयुष्य, यश तथाकान्ति आपी मोटाभाई साथे त्यान्थी भगवान् पधार्या ॥५२॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला प्रमाण-पेटा प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो) ‘‘मथुरा नगरीमां श्रीकृष्णनो प्रवेश’’ नामनो एक्तालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां आडत्रीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय ४२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ३९ श्रीकृष्णे धनुष भाङ्ग्युं अने एना रक्षकोने मार्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण अध्याय ७
विशेष - आ बेताळीसमा अध्यायमां अद्भुतकर्मा भगवाने पोताना स्वरूपमां आसक्ति कराववामाटे राजस कर्मोद्वारा स्ववीर्य प्रकट कर्युं. एनुं निरूपण अर्ही करवामां आवे छे. भगवान् प्रसन्न थाय तो लौकिक अलौकिक बन्ने फळ आपे छे, बीजो कोई फळ आपवाने [[३६२]] समर्थ नथी. लौकिक अने अलौकिक बन्ने सामर्थ्य भगवान्मां छे तेनुं लक्षण अर्ही निरूपित थाय छे. मल्लना रङ्गनी कथा पण ए माटे ज छे तेथी भगवान् अक्लिष्टकर्मा छे एम पण सिद्ध थयुं. प्रमाणनुं फल ए छे एम अर्ही कार्यथी बताव्युं छे. कुब्जा अर्ही पण धनुषरूप ज छे ते पण वायुथी एवी बनी हती. अध्यात्मा एना रुद्र छे, बाकीना बे आधिभौतिक अने आधिदैविक धनुषमां छे. जे पालन करनार हतुं ते मारणनुं साधन थयुं. काळ पण असुरोनो पति छे. ते दुर्निमित्तथी विपरित बन्यो छे. भगवान् ज्यारे प्रतिकूळ थाय छे त्यारे एनी बुद्धि पोताना हितने जोई शक्ती नथी तेथी ए स्वहितथी खसी जाय छे. (भगवान् प्रतिकूळ होय त्यारे बधुं प्रतिकूळ थाय छे) ए अर्ही कहेवानुं तात्पर्य छे. अथ व्रजन् राजपथेन माधवः स्त्रियं गृहीताङ्गविलेपभाजनाम् ॥ विलोक्य कुब्जां युवर्ती वराननां पप्रच्छ यार्न्ती प्रहसन् रसप्रदः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - त्यारपछी माधव राजमार्गमां जता हता त्यां एक सुन्दर मुखवाळी कूबडी युवती हाथमां चन्दनयुक्त पात्रने लईने जती हती. तेने जोईने आत्मस्वरूपनुं दान करनार भगवान् हस्या अने पूछवा लाग्याः ॥१॥
‘‘हे सुन्दरी! तुं कोण छे? हे अङ्गने! आ चन्दन कोनेमाटे लई जाय छे? ए अमने सारी रीते कहे. आ अनुलेपन अमारा अङ्गने लगाडवामाटे आपीश तो थोडा समयमां तारुं कल्याण थशे’’ ॥२॥
सैरन्ध्री बोली - ‘‘हे सुन्दरवर्य! हुं कंसनी दासी छुं, ‘त्रिवक्रा’ मारुं नाम छे, अनुलेपना काममां हुं मान पामेली कंसनी दासी छुं. मारुं बनावेल चन्दन कंसने अति प्रिय छे. आप बे सिवाय तेने माटे बीजो कोण वधारे लायक होई शके?’’ ॥३॥
भगवान्ना सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिक्ता, हास्य, प्रेमालाप अने सुन्दर दृष्टिथी कुब्जानो आत्मा भगवान्ने पराधीन थई गयो अने तेणे बन्ने भाईओने ते सुन्दर अने घाटुं चन्दन लगावी दीधुम् ॥४॥
श्रीकृष्णना श्याम अने बलदेवजीना गौरवर्ण थी जुदा ज (पीळा) रङ्गनो ते सोहामणो अङ्गराग हतो. तेनावडे शोभायमान राम-कृष्ण प्रसन्नतापूर्वक शोभवा लाग्या ॥५॥
सुन्दर मुखवाळी कुब्जा उपर भगवान् प्रसन्न थया. एने त्रण ठेकाणे वाङ्क हतो तेथी एनुं ‘त्रिवक्रा’ नाम हतुं. एने सीधी करवानो विचार एटला माटे कर्यो के एणे भगवान्नुं उत्तम स्वरूप जाणी दर्शन कर्युं छे एनुं प्रत्यक्षफळ तेने मळे ॥६॥
[[३६३]] भगवाने पोताना चरणोथी कुब्जाना पगनाबन्ने पञ्जा दबाव्या अने एक हाथ उञ्चो करी टचली अने अनामिका आङ्गळीओ वाळीने वचली बन्ने आङ्गळीओ तेने हडपचीनी नीचे राखी, बीजो हाथ तेनी पाछळ लगाडी तेना शरीरने उचकावी दीधुं ॥७॥
उचकातां ज एनां बधां अङ्ग सीधां अने समान थई गयां. प्रेम अने मुक्ति ना दाता भगवान्ना स्पर्शथी ते तरत ज विशाळ नितम्ब अने पीन पयोधर युक्त एक उत्तम युवती बनी गई ॥८॥
ते ज क्षणे कुब्जा रूप, गुण अने उदारता थी सम्पन्न थई गई. तेना मनमां भगवान्ने मळवानी कामना जागी उठी. तेणे श्रीकृष्णना दुपट्टानो छेडो पकडी हसतां-हसतां कह्युम् ॥९॥
‘‘हे वीर! आवो; आपणे घेर चालीए. आपने छोडवाने हुं उत्साहवाळी थती नथी. तमोए मारा चित्तने मथी नाख्युं छे तो हवे, हे पुरुषश्रेष्ठ! मारी उपर आप कृपा करो’’ ॥१०॥
एम रामना देखतां स्त्रीए याचना करी त्यारे श्रीकृष्ण गोपोना मुख तरफ जोई हसीने कुब्जाने कहेवा लाग्याः ॥११॥
‘‘हेसुन्दरी! तारुं घर संसारी लोकोमाटेपोतानी मानसिक पीडा मटाडवानुं साधन छे. हुं मारुं कार्य पूरुं करी जरूर त्यां आवीश. अमारा जेवा घरबार विनाना मुसाफरोमाटे तारो ज तो आशरो छे’’ ॥१२॥
मीठी-मीठी वाणीवडे एने रवाना करीने मार्गमां चालतां, वेपारीओए नाना प्रकारनी भेटो लई माळा, ताम्बूल अने चन्दन वडे बलदेवजीनी साथे भगवान्नो सत्कार कर्यो ॥१३॥
भगवान्नां दर्शन मात्रथी स्त्रीओनां हृदयमां प्रेमनो आवेग, मिलननी आकाङ्क्षा जागी उठी ते एटले सुधी के पोताना देहनुं पण भान रह्युं नहि, एमनां वस्त्रो, अम्बोडा अने कङ्गन ढीलां पडी गयां तथा खुद तो चित्रलिखित मूर्तिओनी माफक जेमनी तेम उभी रही गई ॥१४॥
त्यान्थी आगळ नगरना लोकोने धनुर्यज्ञनुं स्थान पूछता-पूछता श्रीकृष्ण धनुषना स्थानमां आव्या. एमां प्रवेश करीने जुए छे तो त्यां मोटुं इन्द्रना धनुष जेवुं अद्भुत धनुष जोयुम् ॥१५॥
[[३६४]] परम समृद्धिथी जेनुं पूजन करेलुं छे, घणा पुरुषो जेनी रक्षा करी रह्या छे तेवा धनुषने उठाववानी श्रीकृष्णे इच्छा करी त्यारे घणा लोकोए ए धनुषने न अडकवामाटे समजाव्या, रोक्या तो पण श्रीकृष्णे ते बळात्कारे ए धनुष उठावी लीधुं ॥१६॥
डाबा हाथथी अनायासे उठावी एने सज्ज कर्युं. माणसो जुए छे तेना देखतां एने चडावी खेञ्चीने शेरडीना साण्ठाने मतवालो हाथी सहेलाईथी भाङ्गे तेम, ए धनुषने श्रीकृष्णे भाङ्गी नाख्युम् ॥१७॥
ए धनुष भाङ्गतां एनो मोटो शब्द थयो ते आकाश- पाताल दिशाओमां भराई अने पूरी दीधी. ए शब्दने साम्भळी कंसने पण त्रास थयो ॥१८॥
ए धनुषना हथियारबन्ध रक्षकोद्गआततायी असुरो गुस्से थया अने ‘‘आने बान्धो-पकडो’’ एम बोलता श्रीकृष्णनी चारे तरफ फरी वळ्या ॥१९॥
एमनी खराब वृत्तिने भगवान् जाणी गया अने राम-कृष्ण एमनी उपर गुस्से थया. धनुषना बे टुकडा कर्या हता ते बन्ने भाईओए हाथमां लईने ए धनुषना रक्षकोने मार्या ॥२०॥
कंसे सेना मोकली तेने पण धनुषना ते ज टुकडाओथी मारी नाखी अने यज्ञशाळाना प्रधान द्वारथी बहार आवीने प्रसन्नताथी नगरनी शोभा जोता टहेलवा लाग्या ॥२१॥
आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी पूरी स्वतन्त्रताथी मथुरापुरीमां विचरवा लाग्या. ज्यारे सूर्यास्त थई गयो त्यारे ग्वाल-बालोथी घेरायेला बन्ने भाई नगरनी बहार पोताना उतारा पर, ज्यां गाडां हतां त्यां पाछा फर्या ॥२२॥
ज्यारे नगरवासीओए बन्ने भाईओना आ अद्भुत पराक्रमनी वात साम्भळी अने तेमना शरीरनी कान्ति, साहस अने कोटिकन्दर्प लावण्य स्वरूपने जोयां त्यारे तेमणे ए ज निश्चय कर्यो के मानो न मानो आ बन्ने श्रेष्ठ देवो छे ॥२३॥
(श्रीसुबोधिनीजी अनुसार श्लोक २२-२३नो क्रम फेरव्यो छे) त्रणे लोकना मोटा-मोटा देवताओ इच्छता हता के (समुद्र मन्थन वखते समुद्रमान्थी प्रकट थयेलां) लक्ष्मीजी अमने मळे, परन्तु भगवान्नी सेवाने माटे आवेलां लक्ष्मीजीए देवोनो पण परित्याग करी दीधो अने न चाहवावाळा भगवान्नुं वरण कर्युं, भगवान्ने ज सदाने माटे पोतानुं निवास स्थान बनावी दीधुं. मथुरानां नगरजनो [[३६५]] ए ज पुरुष भूषण भगवान् श्रीकृष्णना अङ्गे-अङ्गनुं सौन्दर्य जोई रह्या छे. एमनुं केवुं सौभाग्य! व्रजमां भगवान्ना प्रयाण वखते गोपीजनोए विरहातुर थई जई मथुरावासीओना सम्बन्धमां जे-जे वातो कही हती-आशिषो आपी हती ते बधी अक्षरे अक्षर साची पडी. खरेखर तेओ परमानन्दमां मग्न थई गयाम् ॥२४॥
पछी भगवाने हाथ-पग धोईने दूधभात वगेरेनुं भोजन कर्युं. कंसनो शो इरादो छे ए जाणी लीधुं अने रात्रि त्यां सुखथी पसार करी ॥२५॥
ज्यारे कंसे साम्भळ्युं के श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ए धनुष्य तोडी नाख्युं, रक्षको तथा तेमनी सहायताने माटे मोकलेली सेनानो पण संहार करी नाख्यो अने आ बधुं तेमने माटे तद्दन रमत जेवुं ज हतुं-एने माटे तेमने कोई श्रम अथवा मुश्केली पडी नहि ॥२६॥
त्यारे ते बहु डरी गयो. (छतां ते शरणे आव्यो नहि कारण के) ते दुर्बुद्धि हतो. तेने घणो वखत ऊङ्घ न आवी. जाग्रत अवस्था तथा स्वप्नमां तेने घणां अपशुकन थवा लाग्यां, जे एना मृत्युनां सूचक हताम् ॥२७॥
जाग्रत अवस्थामां तेणे जोयुं के जल अथवा दर्पणमां शरीरनुं प्रतिबिम्ब (शरीरनो पडछायो) तो पडे छे, पण मस्तक देखातुं नथी; आङ्गळी वगेरेथी पाम्पण पण दबावेली न होवा छतां चन्द्रमा, तारा अने दीपक वगेरेनी ज्योति एने बब्बे देखाय छे ॥२८॥
पोतानी छायामां छिद्र देखाय छे. कानमां आङ्गळी नाखतां सम्भळातो शरीरमां प्राणचलननो घूं..उ..उ अवाज सम्भळातो नथी. वृक्षोमां सोनानो भास थाय छे, रेती अथवा कीचड मां पोतानां पगलां देखातां नथी ॥२९॥
स्वप्नमां ते प्रेतने आलिङ्गन करे छे. स्वप्नमां गधेडे बेसतां अने झेर खातां पोताने जुए छे. जासुदनां पुष्पनी माळा पहेरी छे. तेलथी मालीश करेल शरीरवाळो पोते पोताने नग्न जुए छे ॥३०॥
एवा बीजां पण स्वप्न एणे जोयां. जाग्रत अवस्थामां पण एवुं ज जोवा लाग्यो अने एणे ‘‘हुं मरीश’’ एम जाण्युं तेथी त्रास पाम्यो. एने चिन्ताथी राते निद्रा न आवी ॥३१॥
हे परीक्षित! सवार थतां सूर्य जळमान्थी बहार नीकळतां कंसे मल्लक्रीडानो उत्सव शरू करवानुं जाहेर कर्युम् ॥३२॥
[[३६६]] राजपुरुषोए अखाडानी पूजा करी, त्यां मञ्च गोठवेला तेमां पुष्पनी माळाओ बान्धी, पताका तोरणो वगेरेथी पण एने अलङ्कृत कर्या, तुरी, भेरी वगेरे वाजां त्यां वागवां लाग्याम् ॥३३॥
ए मञ्चो उपर गामना लोको, नगरना लोको, बहारगामथी आवेला लोकोमां ब्राह्मण, क्षत्रियो वगेरेना क्रमथी बधा बेसी गया. राजाओ पण पोत-पोताना निश्चित स्थान उपर बेसीने जोवा लाग्या ॥३४॥
कंस पोताना मन्त्रीओनी साथे आव्यो अने राजानी बेठक उपर बेसी गयो. एनी बाजूमां खडिंया राजाओ बेठा. एनी वच्चे पोते बेठो; पण एना मनमां गभराट हतो-प्रसन्नता देखाती नहोती ॥३५॥
जेवा वाजां वागवा लाग्यां के तरतजमल्लो तैयार थईने हाथवडे ताल देवा लाग्या. तेओ बहुगर्व साथे आव्या अने पोताना उस्तादोने साथे लाव्या ॥३६॥
चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल वगेरे मल्लो वाजिन्त्रना सुन्दर नादथी प्रोत्साहित थई अखाडामां आवी गोठवाई गया ॥३७॥
नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहूताः ॥ निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन् ॥३८॥
भोजराज कंसे बोलावेला नन्दरायजी वगेरे गोपो लावेल भेटो कंस राजाने निवेदित करी एक मञ्च उपर तेओ पण बेठा ॥३८॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना पहेला
प्रमाण-पेटा प्रकरणनो धर्मिरूप सातमो) ‘‘श्रीकृष्णे धनुष भाङ्ग्युं अने
एना रक्षकोने मार्या’’ नामनो बेताळीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां ओगणचालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
त्रीजा राजस प्रकरणनुं पहेलुं प्रमाण प्रकरण सम्पूर्ण.
‘‘यस्तु स्वार्थं भगवन्तं सेवते सो अधमः इति’’
जे स्वार्थ (आजीविका, प्रतिष्ठावगरे माटे) भगवत्सेवा करतो होय
तेने अधम (अर्चक) जाणवो. (श्रीवल्लभाचार्य सुबो.२.९.१९)
[[३६७]]
अध्याय ४३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४० राजस-प्रमेय प्रकरण कुवलयापीडने मार्यो अने मल्लोनी सभामां श्रीकृष्ण पधार्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय १
विशेष - शब्दनुं बळ सम्पूर्ण रीतिथी सात अध्यायथी कहेवामां आव्युं, हवे अर्थनुं बळ सात अध्यायथी कहेवामां आवे छे. अनेक उत्सवोथी बधा प्रपञ्चने भूली गया अने माहात्म्यनुं ज्ञान थयुं. आ प्रकरणमां भक्तनी आसक्ति कहेवानी छे. ए रङ्गमां जोनारनी तथा नन्दरायजी वगेरेनी पण आसक्ति आ प्रकरणमां कहेवानी छे ते बे-बे अध्यायथी कहेवानी छे एम आसक्ति सिद्ध थतां भगवान्मां एकचित्तता थाय छे तेथी ए एक्तानुं फल पण कहेवामां आवे छे. आ तेताळीसमां अध्यायमां श्रीकृष्णमां भक्तोनी आसक्ति कहेवानी छे. भगवान्नुं अतुल सामर्थ्य जोई विस्मित थयेल भक्तोने एमां आसक्ति थाय छे ए वात अर्ही कहेवानी छे. अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ॥ मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - राम अने कृष्ण स्नानादि प्रातःकर्म करीने तैयार थया त्यां एमणे, हे परन्तप! मल्लनां दुन्दुभिनो अवाज साम्भळ्यो अने मल्लक्रीडा जोवानी इच्छाथी त्यान्थी पधार्या ॥१॥
भगवान् श्रीकृष्णे रङ्गभूमिना दरवाजे पहोञ्चतां जोयुं के त्यां अम्बष्ठ महावतनी प्रेरणाथी कुवलयापीड नामनो हाथी पोताने मारवाने उभो छे ॥२॥
त्यारे भगवान् श्रीकृष्णे पोतानी कमर कसी लीधी, वाङ्कडीआ वाळने सरखा करीने मेघना जेवी गम्भीर वाणीथी महावतने पडकार करतां कह्युंः ॥३॥
‘‘हे अम्बष्ठ! अम्बष्ठ! अमने रस्तो आप. मार्गमान्थी जलदी दूर था, नहि तो हाथी साथे तने आजे ज यमद्वारमां पहोञ्चाडुं छुं’’ ॥४॥
एम अम्बष्ठनो तिरस्कार कर्यो त्यारे ते गुस्से थयो अने काळ, मृत्यु अने यम जेवा गुस्से थयेला हाथीने श्रीकृष्ण तरफ एणे प्रेर्यो ॥५॥
हाथी पण एमनी सामे दोड्यो. एणे श्रीकृष्णने पोतानी सूण्ढमां लई लीधा. [[३६८]] भगवान् एनी सूण्ढमान्थी छटकी अने मुक्को मारी एना पगनीचे छुपाई गया ॥६॥
त्यारे हाथीने वधारे क्रोध थयो. एमने न जोया त्यारे ए त्यां सूङ्घवा लाग्यो एनाथी ए जाणी गयो. एणे सूण्ढवडे श्रीकृष्णने पकड्या पण श्रीकृष्ण बळात्कारे त्यान्थी छटकी गया ॥७॥
त्यारबाद जेवी रीते गरुड सापने खेञ्चे तेम भगवान् ते बलवान हाथीनुं पूछडुं पकडी अनायासे रमतां-रमतां तेने पचीस धनुष (सो हाथ) पाछळ घसडी गया ॥८॥
जेवी रीते घुमरडी फरता वाछडानी साथे बालक पण घुमरडी फरे छे तेवी ज रीते भगवान् तेनुं पूछडुं पकडी तेने घुमाववा अने खेलवा लाग्या. ज्यारे ते जमणी बाजुथी फरी तेमने पकडवा मथतो त्यारे प्रभु डाबी बाजु आवी जता अने ज्यारे ते डाबीबाजु तरफ घूमतो त्यारे प्रभु जमणी बाजु आवी जता ॥९॥
पछी एनी सामे आवी हाथथी हाथीने मारीने दोड्या. ए एवी रीते फर्या के ए पडी ज जाय. तेथी ए हाथी पडी गयो ॥१०॥
भगवान् श्रीकृष्णे दोडतां-दोडतां एकवार रमतां-रमतां ज पृथ्वी उपर पडी जवानो अभिनय कर्यो अने तरत त्यान्थी उभा थई भागी गया. हाथी ए वखते क्रोधथी बळी रह्यो हतो. ते समज्यो के भगवान् पडी गया. तेथी तेणे पूरी ताकातथी पोताना बन्ने दन्तशूळ धरती उपर खूञ्चाडी दीधा ॥११॥
एम ज्यारे पोतानुं पराक्रम विफळ गयुं त्यारे हाथीने घणो क्रोध थयो. एमां वळी महावते उश्केर्यो एटले ए श्रीकृष्ण उपर त्राटक्यो ॥१२॥
भगवान् मधुसूदने ज्यारे तेने पोताना उपर धसी आवतो जोयो त्यारे तेनी पासे आप गया अने पोताना एक ज हाथथी तेनी सूण्ढ पकडी तेने धरती उपर पछाड्यो ॥१३॥
सिंह जेम सहेलाईथी हाथी उपर चडी जाय तेम भगवाने एनुं चरणथी आक्रमण कर्युं अने दान्त खेञ्ची लीधा अने एनाथी ज हाथी अने एना रक्षकोने मारी नाख्या ॥१४॥
मरी गयेला हाथीने त्यां ज छोडी दई भगवान् श्रीकृष्णे तेनो दन्तशूळ हाथमां लईने ज रङ्ग मण्डपमां प्रवेश कर्यो. ए वखते आपनी शोभा जोवा जेवी हती. आपना खभा उपर हाथीनो दान्त हथियार तरीके राखेलो हतो, श्रीअङ्ग हाथीना रक्त [[३६९]] अने मदनां बिन्दुओथी शोभतुं हतुं अने मुखकमल उपर पसीनानां बिन्दुओ झळकी रह्यां हतां. (भक्तोने माटे आप आटली हदे परिश्रम हसते मुखे उठावे छे!) ॥१५॥
केटलाक गोपोनी साथे बलदेवजी अने जनार्दन हाथमां गजदन्तरूप उत्तम आयुधनी साथे रङ्गमण्डपमां पधार्या ॥१६॥
जे वखते भगवान् *श्रीकृष्ण बलदेवजीनी साथे रङ्गमण्डपमां पधार्या ते वखते
१. मल्लोने वज्र जेवा कठोर शरीरवाळा (रौद्ररस) २. साधारण माणसने नररत्न
(अद्भुतरस) ३. स्त्रीओने साक्षात् कामदेव (शृङ्गार रस) ४. गोपोने स्वजन
(हास्यरस) ५. दुष्ट राजाओने दण्ड देनारा शासक (वीर रस) ६. पोताना पिताने
बालक (वात्सल्य रस) ७. कंसने मृत्यु (भयानक रस) ८. अज्ञानीओने विराट
(बीभत्स रस) ९. योगीजनोने परमतत्व (शान्त रस) अने
१०.भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशीओने पोताना इष्टदेव (प्रेम-भक्तिरस)जणाया.
(बधाने पोत-पोताना भाव प्रमाणे रसनो अनुभव थयो ॥१७॥
विशेष - एवा वेशथी रङ्गमण्डपमां जवानुं प्रयोजन कहेतां भगवान्नुं स्वरूप बलदेवजीनी साथे बधाए पोताना अधिकार प्रमाणे जोयुं; तेना-तेना हृदयमां ते-ते प्रकारना भाव प्रकट थया ए वात कहे छे. अर्ही भगवान् प्रमेयबलथी निरोध करवाना छे. लोको दश प्रकारना छे तेथी भगवान् पण दश रसरूप थया. जेनो जेवो भाव होय तेने भगवान् अनुसरतां एनो निरोध थाय छे. ए सिवाय निरोध न थाय, पण संसारमां बन्धन थाय, माटे भगवान् एने पोताने योग्य लाग्या छे. नव प्रकार गुणना छे ज्यारे एक प्रकार गुणातीतनो छे तेथी दश स्वरूपे प्रभु जोवामां आव्या छे. शृङ्गार आदि दश रस पण ए भावने कहेनारा छे. पहेलां राजस त्रण, पछीथी तामस त्रण अने छेल्ला सात्विक त्रण भावने कहे छे. पहेलां आध्यात्मिक अने आधिदैविक ए क्रम छे. रौद्र, अद्भुत, शृङ्गार, हास्य, वीर, वात्सल्य-दया, भयानक, बीभत्स, शान्त अने भक्ति ए क्रमे दश रसनुं अत्रे कथन छे. ए बधा भाव बताववामाटे भगवान् एवा थया तेथी एमां गुणो ज बधा भावरूपे देखाय छे. एमां प्रथम मल्लो पोतानी साथे लडनारनी शोधमां छे. ते भगवान्ने प्रतिमल्ल मानता नथी पण मल्लथी विलक्षण माने छे एमां पण एने सर्वथा मारक माने छे तेथी मल्लोने वज्र (वीजळी पडे छे तेवा) देखाया एम कह्युं. वज्र जेवा भगवान्ने जोया तेथी मल्लनां मन भगवान्मां निरुद्ध थयां. अर्ही १. रौद्ररस कह्यो. बीजा राजसोभगवान्ने अद्भुत माने छे. [[३७०]] ए ज कहे छे के मनुष्योने अद्भुत मनुष्य जेवा देखाया तेथी एमने एमां २. अद्भुत रस उत्पन्न थतां तेओ एमां निरुद्ध थया. ए अवस्थामां पण स्त्रीओने तो मूर्तिमान कामरूपे देखाया. स्त्रीओ कामनी सेना छे तेणे पोताना स्वामीने कोई दिवस जोयेल नहि, केमके ए स्मर्तव्यात्मा छे ते आजे रूप प्रकट करीने पधार्या त्यारे ‘‘आपणे सनाथ थयां, हवे पछी सर्व इन्द्रियो शरीर अने अन्तःकरणथी ते ज सेव्य छे’’ एवो स्त्रीओने भाव थयो. अर्ही ३. शृङ्गार रस छे. एम जाणी एनो ए स्वरूपमां निरोध थयो. गोपोने स्वकीय जणाया, पण प्रभावशाली छे तेथी तेओ भगवान्ना वेशने जोईने हस्या तेथी तेमने ४. हास्यरसनो आविर्भाव थयो. जेम पोताना स्वकीय वेशमां-आध्यात्मिकमां आ राजाओ देहरूप छे, इन्द्रियरूप आगळ कहेवाशे अने आत्मरूप एनी पछी कहेवाशे. इन्द्रियोनुं दमन करवानुं ज होय तेम दुष्ट राजाओनुं पण दमन करवानुं ज होय तेथी राजाओ इन्द्रियो जेवा छे. आ दुष्ट ते ज के जे वृष्णिरूपे प्रसिद्ध छे. जे भक्तिना अधिकारी छे. जे लौकिक पामरो छे तेने बीभत्सरसमां कहेशे. जे राजस राजसो छे ते राजसभाव सिद्धिने माटे क्षितिभुज कहेवाय छे. तेओने भगवान्ना जोईने ५. वीररस उत्पन्न थयो, अर्थात् आ आपणने दण्ड देनार छे तेवो भाव थयो तेथी युद्ध करवानी बुद्धि थई पण प्रवृत्ति न थई. जेम हीन पुरुषनी दृष्टि राणी उपर पडे तो हीन पुरुषने काम उत्पन्न थाय पण राणीने न थाय कारण के राणी तेने पोतानाथी हीन जाणे छे. बधे ज पोतानाथी उत्तमपणानी बुद्धि रसनी पोषक छे. स्त्रीओने स्नेह छे तेना करतां अधिक वसुदेव-देवकीजीने छे पण तम अज्ञानरूप छे, स्त्रीओमां प्रयोजक काम छे अने अर्ही वसुदेव-देवकीजीमां तो प्रयोजक मोह छे. गोपीजनोने कामथी स्नेह छे त्यारे माता-पिताने श्रीकृष्णमां मोहथी स्नेह छे. मोहांशमां राजस भाव छे, स्नेह सर्वत्र सात्विक छे. लौकिकमां राजसता, निषिद्धमां तामसता, विहितमां सात्विक्ता सर्वत्र स्नेहमां समजवानी छे. ते-ते अधिकारीओनो एवा स्नेहथी निरोध सिद्ध थाय छे. तेथी ज पोतानां माता-पिताने बालक जेवा लाग्या तेथी एमने ६. दयारस (करुणरस-वात्सल्यरस) उत्पन्न थयो. बालक स्नेहमां मुख्य छे. तेनी उपर दया जेने करुणा कहे छे ते उत्पन्न थई तेमने ए बालक जोवामां आव्या. जे मुक्तिना अधिकारी छे, सात्विक छे, अलौकिक छे तेमने बीभत्सरस उत्पन्न थयो. जेमनी जलदीमां मुक्ति थवानी छे तेवा भय, बीभत्स अने शान्तरसना अधिकारीओ छे. तेओमां दुष्ट कर्म करनार कंस तामस सात्विक छे. देहना अधिष्ठातृ देव प्राज्ञ छे तेवो ए छे. ए कहे छे के भोजपति कंसने श्रीकृष्ण मृत्युरूपे देखाया. मृत्युथी मोटो कोई भय नथी. नरक करतां पण मृत्यु मोटा भयरूप छे. अर्ही ७. भयानक रस [[३७१]] समजवो. भोजनो पति सात्विक्तामाटे क्ह्यो. जे भगवत् स्वरूपमां निष्ठावाळा भक्तो छे ते राजस सात्विक छे तेमने भगवान्मां स्नेह छे तेथी ए भगवान्नो रुधिर अने मदना बिन्दुवाळा जोईने एमने ८. बीभत्सरस उत्पन्न थयो. पोतानुं बालक खराब पदार्थने अडके तो एनां मा-बापने एमां बीभत्सता लागे छे. जो एम न होय तो एने साफ करवा प्रवृत्ति एमने न थाय. एने भगवान्नी लीलानुं ज्ञान न होवाथी ए निन्दा करे छे. बीभत्स रसना उदाहरणमां उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिम् (मालती माधव अङ्क ५-१६ लेखक भवभूति) ए श्लोकमां मोटाओने बीभत्स रस उत्पन्न थाय छे, पामरोने तो उत्पन्न थतो नथी. भूल्ये चूक्येय भगवान्नुं भजन तो करवुं ज नहि एवी जेमनी बुद्धि छे तेवा अत्यन्त पामर लोको निरोधना आधिकारी नथी. एने श्रीकृष्ण विराट जेवा देखाया. (विराट् शब्दः शोभाभाववाचकः विगत राजनरूपः, न तु प्रसिद्धः) ‘विराट्’ शब्दनो अर्थ अर्ही ‘‘जेमां प्रकाश, कान्ति, सौन्दर्य के शोभा नथी तेवुं’’ समजवो, शास्त्रोमां प्रसिद्ध भगवान्नुं विराट स्वरूप नहि, कारण के ते स्वरूपने जाणनारा अज्ञानी होई शके नहि. योगीओने श्रीकृष्ण परम तत्व एटले पुरुषोत्तम स्वरूपे देखाया. योग साङ्ख्यमां आत्माने पण तत्वरूप मान्यो छे तेथी एने ए परम तत्वरूपे देखाया, केमके ए योगी लोको सात्विक छे. यादवो गुणातीत छे तेने तो शय्या, आसन, अटन वगेरेमां श्रीकृष्ण एमनी साथे ज रहेशे; तेणे तो श्रेष्ठ देवता मान्या, स्वामी मान्या. दासने स्वामी नियामक होय तो ए लौकिक गणाय तेम अर्ही नथी एम बताववा देवता-पदनो प्रयोग छे. तेथी ए अलौकिकनी मान्यतावाळाने अलौकिकता बतावे छे तेथी ज ‘विदित’ एम कह्यु, जो के अर्ही शान्तरस विशेषताथी बताव्यो नथी तो पण एवी रीते प्रवेश छे तेथी ९. शान्त रस पण एमां छे. आठ रसना अभिप्रायथी पण एम होवानो सम्भव छे. निपुणो १०. भक्ति रस पण रस वृष्टिरूप होवाथी अर्ही माने छे. एम दश रस विशिष्ट भगवान् रङ्गमण्डपमां पधार्या एम कहेवानुं तात्पर्य छे. वेदनो (बलदेवजीनो) सहभाव छे नहि तो समानता कहेवी होत तो द्विवचननो प्रयोग श्रीशुकदेवजी करत. तेथी बलदेवजीनो अर्ही सहभाव होवाथी एमनी गौणता छे ज्यारे श्रीकृष्णनी मुख्यता छे अने ए ज सर्व रस छे एम सिद्ध थयुं. हे राजन्! आम तो कंस बहु ज धैर्यवान् वीर ह्तो, छतां तेणे ज्यारे जोयुं के आ बन्नेए कुवलयापीडने मारी नाख्यो त्यारे ते समजी गयो के आमने जीतवा तो बहु कठण छे. ए वखते ते खूब गभराई गयो ॥१८॥
ए बन्ने भाईओ रङ्गमण्डपमां पधार्या त्यारे एमनो विचित्र वेशमाला, [[३७२]] आभरण अने वस्त्र एमणे धर्यां हतां अने महाभुजवाळा देखाता हता ॥१९॥
अने पोतानां श्रीअङ्गनी कान्तिथी बधा जोनारना मनने खेञ्चता हता. हे राजन्! मञ्च उपर बेठेला लोकोए ज्यारे श्रीकृष्ण बलदेवजीने जोया त्यारे हर्ष अने उत्कण्ठा मुख उपर देखावा लाग्यां अने एमने जोतां-जोतां नेत्र तृप्त न थयां ॥२०॥
जाणे के तेओ तेमने नेत्रोथी पान करी रह्याहोय, जिह्वाथी चाटी रह्या होय, नासिकाथी सूङ्घी रह्याहोय अने भुजाओथी पकडी आलिङ्गन करी रह्या होय ॥२१॥
एमनां सौन्दर्य, गुण, माधुर्य अने निर्भयताए जाणे के प्रेक्षकोने एमनी लीलाओनुं स्मरण करावी दीधुं अने ते लोको परस्पर तेमना विशे देखेली अने साम्भळेली वातो कहेवा अने साम्भळवा लाग्या ॥२२॥
‘‘आ बन्ने साक्षात् भगवान् नारायणना अंश छे. आ पृथ्वी उपर वसुदेवजीना घेर तेमणे अवतार लीधो छे ॥२३॥
(श्रीकृष्ण तरफ अङ्गुली निर्देश करीने) आ सांवरा सलोना कुमार देवकीजीना गर्भथी प्रकट थया के तुरत एमने गोकुल लई जवामां आव्या. ए गुप्त रीते आटलो वखत नन्दरायजीने त्यां रही मोटा थया ॥२४॥
पूतना, वण्टोळियो दानव तृणावर्त, अर्जुनवृक्षो, शङ्खचूड, केशी, धेनुक, अने एना जेवा बीजा अरिष्ट, बकासुर, वगेरेनो संहार आ कृष्णे ज करेलो ॥२५॥
आ कृष्णे ज गोपालो सहित गायोने दावाग्निथी बचावी, कालिय सर्पनुं दमन कर्युं अने इन्द्रनो मद उतार्यो ॥२६॥
पर्वत श्रेष्ठ गोवर्धनने सात दिवस सुधी एक हाथमां आ कृष्णे ज धारण कर्यो, तथा वायु, वर्षा अने वीजळीथी गोकुलनी रक्षा करी ॥२७॥
गोपीजनो एमना मन्द मृदु हास्य, मधुर दृष्टि अने सदा एकरस प्रसन्न रहेता मुखारविन्दना दर्शनथी अनायासे अने आनन्दपूर्वक विविध तापोथी मुक्त थई जतां हताम् ॥२८॥
कहे छे के श्रीकृष्ण यदुवंशनी रक्षा करशे. आ अलौकिक गुणयुक्त अत्यन्त विख्यात वंश एमना द्वारा महान समृद्धि, यश अने गौरव प्राप्त करशे ॥२९॥
आ बीजा ए ज श्यामसुन्दरना मोटाभाई शोभानिधान, कमलनयन श्रीबलदेवजी छे. तेमणे प्रलम्बासुर, वत्सासुर, धेनकासुर वगेरेने मार्या छे एम [[३७३]] कहेवाय छे’’ ॥३०॥
लोको आम वातो करता हता अने रङ्गमण्डपमां शरणाई वगेरे वाजां वागतां हतां त्यारे चाणूर श्रीकृष्ण रामने सारी रीते बोलावीने आ वाक्य बोल्योः ॥३१॥
‘‘हे नन्दसूनु! हे राम! तमे शूरवीर लोकोमां पङ्कायेला छो, बाहुयुद्धमां तमे निपुण गणाओ छो ए वात साम्भळी राजाए तमने अर्ही बोलाव्या छे, केमके तमारी कुस्ती जोवानी राजानी इच्छा छे ॥३२॥
मन, वचन अने कर्म थी राजानुं प्रिय करवाथी प्रजा श्रेय (धन आदि) प्राप्त करे छे. एम न करे तो एने विपरीत फल थाय छे एटले ए मुश्केलीमां आवी पडे छे ॥३३॥
ए तो बधा जाणे छे के गायो अने वाछडां चरावनारा गोवाळियाओ रोज आनन्दपूर्वक जङ्गलोमां कुस्ती करता रमता रहे छे अने गायो चरावता रहे छे ॥३४॥
तेथी आवो, तमे अने अमे राजाने प्रसन्न करवामाटे कुस्ती लडीए. एम करवाथी आपणा उपर बधां प्राणीओ प्रसन्न थशे, केमके राजा आखी प्रजानुं प्रतीक छे’’ ॥३५॥
चाणूरनुं कथन साम्भळी ‘‘बाहुयुद्ध पोताने अभीष्ट छे’’ एम मानी एने अभिनन्दन आपी श्रीकृष्णे देशकालने लायक वचन कह्युंः ॥३६॥
‘‘तमे अने अमे बन्ने आ भोजराज कंसनी प्रजा छीए पण अमे वनमां रहेनार छीए; एनुं आपणे बन्ने नित्य प्रिय करीए तो ए आपणा उपर अनुग्रह करे ॥३७॥
परन्तु अमे बाळक होवाथी अमारा जेवा समान बळवाळा बाळक होय तेनी साथे युद्ध करवानी इच्छा राखीए छीए. मल्लनी सभामां बेसनारने अधर्मनो सम्पर्क न थाय एम लडवाने अमो तैयार छीए’’ ॥३८॥
चाणूर बोल्यो - तमे के बलराम नथी बालक के नथी किशोर. बलदेवजी पण बळियाओमां श्रेष्ठ छे. हमणां तमे तो हजार हाथीना बळवाळा हाथीने रमत करतां मारी नाख्यो ॥३९॥
तस्माद् भवद्भ्यां बलिभिर्योद्धव्यं नानयोत्र वै ॥ मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥४०॥
[[३७४]] माटे बळवाळा तमो बन्ने भाईओए अमारी साथे कुस्ती करवी ज जोईए. एमां अन्याय नथी. अमारा बे मां हे कृष्ण! मने तमे पराक्रम बतावो अने बलदेवजीनी साथे मुष्टिक कुस्ती करो ॥४०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्य रूप पहेलो) ‘‘कुवलयापीडने मार्यो अने मल्लोनी सभामां श्रीकृष्ण पधार्या’’ नामनो तेताळीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां चालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए
अध्याय ४४
श्री सुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४१ श्रीकृष्णे करेलो कंसनो वध त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय २
विशेष - आ ४४ मा अध्याय एना भाईओ वगेरे सहित कंसनो वध कहेवाय छे. एम करीने श्रीकृष्णे पोतानां माता-पिता ने स्वस्वरूपमां आसक्ति करावी छे. मल्लोना बळना क्षयने माटे भगवाने लीला करी त्यारे स्त्रीओए श्रीकृष्णना कैशोर भावनुं वर्णन कर्युं छे ते माता-पितानी आसक्ति वधारवामाटे कर्युं छे. भक्तने वधारे वखत क्लेश न करवा मल्लोने मार्या छे. कंसने पण ए ज कारणे मार्यो छे. तेथी प्रतिबन्ध दूर थयो. शत्रुनो पण मोक्ष कर्यो ए प्रथमना निरोधथी विशेष छे. आसक्ति नवी नथी थई पण हती तेमां वधारो थयानुं कह्युं छे. ए भक्तो त्रण प्रकारना छे, मल्लो, स्त्रीओ अने माता-पिता. वसुदेवजी गुणातीत छतां अर्ही सात्विक छे. पहेलां निरुद्ध तामसोने बे अध्यायथी कहे छे. कुब्जा, अक्रूरजी वगेरे राजसोने बे [[३७५]] अध्यायथी कहे छे. आ अध्यायमां तो गुणातीत माता-पिता ना निरोधनी वात कहेवामां आवे छे. एमनी मुक्तिमाटे बीजानी वातो छे. एवं चर्चितसङ्कल्पो भगवान् मधुसूदनः ॥ आससादाथ चाणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - मधुसूदन भगवान् एम चर्चा करीने चाणूरनी साथे लडवाने तैयार थया अने बलदेवजी मुष्टिकनी साथे जोडाया ॥१॥
एकबीजाने जीती लेवानी इच्छाथी तेओ हाथनी साथे हाथ अडावी, पगनी साथे पग भिडावी बलपूर्वक पोत-पोतानी तरफ खेञ्चवा लाग्या ॥२॥
तेओ पञ्जा (मूठी वाळेल कोणी सुधीनो हाथ ‘अरत्नी’ कहेवाय. (अर्ही बळ, शिक्षा, कपट अने गुरु नो प्रसाद ए चार मल्लमान्थी कढाववामाटे चार श्लोकथी निरूपण कर्युं छे.)) साथे पञ्जा, घूण्टणोनी साथे घूण्टणो, माथा साथे माथुं अने छाती साथे छाती भिडावी एक बीजा उपर चोट करवा लाग्या ॥३॥
आ प्रमाणे दावपेच करता-करता पोत-पोताना जोडीदारने पकडी आम-तेम घुमावता, दूर धकेली देता, जोरथी पकडी लेता, बाझी पडता, उञ्चो करी नीचे पछाडी देता, पोताने छोडावी लई भागी जता अने क्यारेक छोडी दई पाछा हटी जता, आ प्रमाणे एकबीजाने रोक्ता, प्रहार करता अने पोताना प्रतिस्पर्धीने पछाडी देवानो प्रयत्न करता. क्यारेक कोई नीचे पडी जतो तो बीजो तेने गोठणो अने पगो वच्चे दबावी उठावी लेतो, हाथोथी पकडी उपर लई जतो, गळे बाझी पडे तो तेने धकेली देता अने जरूर पडे तो हाथ-पग भेगा करी गाण्ठ वाळी देता ॥४-५॥
हे परीक्षित! आ दङ्गल जोवा आवेली सर्व स्त्रीओए ज्यारे बळवाळा मोटामोटा पहेलवानोनी साथे नाना-नाना बलहीन बाळकोनुं युद्ध जोयुं त्यारे तेओ परस्पर कहेवा लागी ॥६॥
स्त्रीओए कह्युं ः‘‘अर्ही राजा कंसना सभासदो महान अन्याय अने अधर्म करी रह्या छे. केटला खेदनी वात छे के राजानी सामे ज आ बळवान पहेलवानो अने निर्बळ बाळकोना युद्धनुं अनुमोदन करे छे ॥७॥
वज्रसार अङ्गोवाळा मोटा पर्वत जेवा मल्लो क्यां अने अति कोमळ अने किशोरमूर्ति जेने युवावस्था पण नथी आवी तेवा राम-कृष्ण क्यां? ॥८॥
धर्मना उल्लङ्घननुं फळ आ समाजने भोगववुं पडशे. ज्यां अधर्म थतो होय [[३७६]] त्यां धर्मवाळाए रहेवुं न जोईए’’ ॥९॥
बीजी स्त्रीओए कह्युंः‘‘जुओ *शास्त्र कहे छे के बुद्धिमान् पुरुषे सभासदोना दोषो जाणीने प्रथम तो सभामां जवुं ज नहि कारण के त्यां जई जे माणस बोले नहि, विरुद्ध बोले अथवा ‘‘हुं नथी जाणतो’’तेम कही दे ते नरकमां जाय छे ॥१०॥
विशेष - मनुस्मृति-अध्याय ८, श्लोक १३ ‘‘सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम्, अब्रुवन् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्बिषी’’. चारे तरफ खेलता शत्रुथी श्रीकृष्णना मुख उपर श्रमबिन्दु आवी गयां छे छतां कमळनी कळी जेवुं एमनुं श्रीमुखकमळ तो जुओ केवुं सुन्दर देखाय छे! (आ स्त्रीओनी पोतानामां आसक्ति थाय अने कंस राजी थाय तेथी भगवाने श्रमित स्वरूपे तेमने दर्शन आपवानी लीला करी छे) ॥११॥
हे सखीओ! बलदेवजीनुं मुख मुष्टिकना प्रत्ये क्रोधने लीधे चोतरफ लाल नेत्रोवाळुं थई रह्युं छे छतां हास्यनो मुक्त आवेग केटलो सुन्दर लागे छे! ॥१२॥
हे सखी! खरेखर व्रजभूमि ज परम पवित्र अने धन्य छे कारण के त्यां आ पूर्ण पुरुषोत्तम मनुष्यना वेशमां बिराजे छे. स्वयं भगवान् शङ्कर अने लक्ष्मीजी जेमना चरणारविन्दनी सेवा करे छे ते ज प्रभु त्यां वननां रङ्गबेरङ्गी पुष्पोनी माला धारण करी ले छे तथा बलदेवजी साथे वेणु वगाडता, गायो चरावता अने तरेहतरेहनी रमतो रमता आनन्दपूर्वक विचरे छे ॥१३॥
हे सखी! खबर नथी पडती के गोपीजनोए एवी केवी तपश्चर्या करी हशे जेओ नेत्रोरूपी दूना (पडीआ) ओथी नित्य निरन्तर आप (श्रीकृष्ण) नी रूप- माधुरीनुं पान करती रहे छे. आमनुं रूप लावण्यनो सार छे. संसारमां अथवा तेनी बहार कोईनुं पण रूप आनी बराबरी करी शके एम नथी, पछी तेनाथी चडियाता होवानी तो वात ज क्यां रही? ए पण कोईना संवारवा-सजाववाथी नहि, घरेणां- कपडां थी नहि, परन्तु स्वयंसिद्ध छे. आ रूपने जोतां-जोतां तृप्ति ज थती नथी कारण के दरेक पळे ते नवुं थतुं जाय छे, नित्यनूतन छे. समग्र यश, सौन्दर्य अने ऐश्वर्य एनां ज आश्रित छे. बहेनो, आपनां दर्शन तो बीजाओ माटे बहु ज दुर्लभ छे ते तो गोपीजनोना ज भाग्यमां लखायेलुं छे ॥१४॥
हे सखी! व्रजना गोपीजनो धन्य छे, निरन्तर श्रीकृष्णमां ज चित्त लागेलुं [[३७७]] रहेतुं होवाथी प्रेमपूर्ण हृदयथी, आंसुओने लीधे गद्गद् कण्ठथी तेओ आमनी ज लीलाओनुं गान करती रहे छे. तेओ दूध दोहतां, वलोणुं करतां, धान्य खाण्डतां, घर लीपतां, बालकोने र्हीचोळतां, रोतां बाळकोने छानां राखतां एमने नवरावता- धोवरावतां, घरोमां झाडु काढतां एम बधाञ्ज काम करतां श्रीकृष्णना गुणगानमाञ्ज मस्त रहे छे ॥१५॥
आ श्रीकृष्ण ज्यारे प्रातःकाल गायोने चराववामाटे व्रजमान्थी वनमां पधारे छे अने सायङ्काल तेमने लई व्रजमां पाछा फरे छे त्यारे घणा ज मधुर स्वरथी वेणु वगाडे छे. तेनी टेर साम्भळी गोपीजनो घरनुं बधुं कामकाज छोडी दई झटपट रस्तामां दोडी आवे छे अने श्रीकृष्णनां मन्द-मन्द हास्य अने दयापूर्ण दृष्टिथी युक्त मुखकमल जोई-जोईनिहाल थई जाय छे. खरेखर गोपीजनोज परम पुण्यवती छे’’ ॥१६॥
एम स्त्रीओ बोले छे ए साम्भळी, हे भरतर्षभ! भगवाने शत्रुने मारी नाखवानो निश्चय कर्यो ॥१७॥
स्त्रीओनी आ भयपूर्ण वातो माता-पिता देवकी-वसुदेवजी पण साम्भळी रह्यां हतां. तेओ पुत्र-स्नेहवशात् शोकथी विह्वल थई गयां. तेमना हृदयमां अत्यन्त व्यथा थवा लागी, कारण के पोताना पुत्रना बलवीर्यने तेओ जाणतां नहोतां. (माता-पिता उपर मानसिक त्रास गुजारवा कुस्तीना अखाडा आगळ तेमने लाववामां आवेलां अने तेथी तेओ स्त्रीओनी वातचीत साम्भळी शक्यां हतां) ॥८॥
भगवान् श्रीकृष्ण अने तेनी साथे कुस्ती लडतो चाणूर बन्ने जुदी-जुदी जातना दावपेचना प्रयोग करता जे रीते लडी रह्या हता तेवीज रीते बलदेवजी अने मुष्टिक पण परस्पर कुस्ती लडताहता ॥१९॥
भगवान्नां वज्रथी पण कठोर अङ्ग-प्रत्यङ्गना टकरावाथी चाणूरनी रगेरग ढीली पडी गई तेनां गात्र भाङ्गी गयां अने तेने वारंवार मूर्छानो अनुभव थवा लाग्यो ॥२०॥
हवे ते अत्यन्त क्रोध करीने बाज पक्षीनी माफक त्राटक्यो अने बन्ने हाथनी मूठीवाळी तेणे श्रीकृष्णनी छाती उपर प्रहार कर्यो ॥२१॥
हाथी उपर फुलोनी माळाथी प्रहार करवामां आवे तो हाथीने तेनी खबर पण न [[३७८]] पडे तेम तेना प्रहारनी भगवान् पर कंई असर न थई. आपे चाणूरनी बन्ने भुजाओ पोताना एक हस्तमां पकडी लीधी अने तेने अन्तरिक्षमां घणा वेगथी केटलीय वार चक्कर-चक्कर फेरवी धरती उपर घा कर्यो. हे परीक्षित! चाणूरना प्राण तो घुमावती वखते ज नीकळी गया हता. तेनां आभूषणो, केश अने माला आमतेम जई पड्यां. इन्द्रध्वज (इन्द्रनी पूजाने माटे रोपवामां आवेल ऊञ्ची धजा) नी जेम जई पड्यो ॥२२-२३॥
ए ज प्रमाणे मुष्टिके पण पहेलां बलदेवजीने एक घुम्मो मार्यो. तेथी बळवान बलभद्रजीए तेने घणा जोरथी एक तमाचो मार्यो. (मुष्टिकपर बलपूर्वक मुष्टिक (तमाचो) मारी तेनुं कल्याण कर्युं) ॥२४॥
तमाचो लागवथी ते ध्रूजी उठ्यो अने आन्धीथी उखडी पडेला वृक्षनी माफक अत्यन्त पीडित अने अन्तमां प्राणहीन थई जई लोहीनी उलटी करतो जमीन उपर जई पड्यो ॥२५॥
हे राजन्! त्यारबाद योद्धाओमां श्रेष्ठ बलदेवजीए पोतानी सामे आवतां ज कूट नामना पहेलवान्ने रमतमां ज डाबा हाथना मुक्काथी उपेक्षापूर्वक मारी नाख्यो ॥२६॥
ते ज वखते भगवान् श्रीकृष्णे चरणनी ठोकरथी शल नामना मल्लनुं माथुं धडथी अलग करी दीधुं अने तोशलनो एक पग पोताना चरणनी नीचे दबावी, बीजो पग श्रीहस्तमां पकडी तेने चीरी नाखी तेनां बे फाडियां करी नाख्याम् ॥२७॥
चाणूर, मुष्टिक, शल, कूट, तोशल वगेरे मरेला जोई बीजा मल्लो जीववानी इच्छाथी त्यान्थी भागी छूट्या ॥२८॥
त्यारबाद श्रीकृष्ण अने बलदेवजी पोताना मित्रोने खेञ्ची-खेञ्ची एमनी साथे कुस्ती करवा लाग्या अने नाचता कूदता शरणाईना सूरनी साथे पोताना नूपुरोनो ध्वनि मिलावी मल्लक्रीडा करवा लाग्या ॥२९॥
राम-कृष्णना कर्मथी लोको आनन्द पाम्या. कंस सिवायना श्रेष्ठ ब्राह्मणो अने साधु पुरुषो ‘‘धन्य छे, धन्य छे’’ एम कही प्रशंसा करवा लाग्या ॥३०॥
मुख्य मल्लो मराया. बाकीना भागी छूट्या त्यारे कंसे वाजां वागतां हतां ते बन्ध कराव्यां अने ते आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥३१॥
कंसे कह्युं - ‘‘अरे, वसुदेवजीना आ दुष्ट चरित्रवाळा पुत्रोने नगरनी बहार [[३७९]] काढी मूको. गोपोनुं बधुं धन लई लो अने दुर्बुद्धि नन्दने केद करो ॥३२॥
अत्यन्त दुष्ट वसुदेवने तो जल्दी मारी नाखो. मारा पिता उग्रसेन पोताना अनुगामी देवक सहित शत्रुना पक्षमां मळेल छे. (ते बधाने मारी नाखो) ॥३३॥
(भक्तोनो अपराध थवानो छे ए साम्भळी) भगवान् श्रीकृष्ण अव्यय होवा छतां, आ प्रमाणे कंसना (कं प्रति सः न कमपीति कंसः। ते कोनो थयो छे? कोईनो नहि. जे कोईनो न थाय ते कंस.-श्रीसुबोधिनीजी) बडबडाटथी अत्यन्त गुस्से थया. आ उच्च आसन उपर बेठेला छे माटे बबडे छे एम मानी श्रीकृष्ण जलदीथी कूदको मारी तेना ऊञ्चा मञ्च उपर चढी गया ॥३४॥
कंस पण शूरवीर हतो. एणे जाण्युं, मारो काळ आव्यो त्यारे एणे तरत ज आसन उपरथी उठी ढाल तलवार हाथमां लीधी ॥३५॥
हाथमां तलवार लई ते घा करवानो अवसर जोतो पेन्तरा बदलवा लाग्यो. आकाशमां उडता बाजपक्षीनी जेम क्यारेक जमणी बाजु जतो तो क्यारेक डाबी बाजु. परन्तु भगवान्नुं प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुःसह छे. जेम गरुड सापने पकडी ले छे तेम ज भगवाने बलपूर्वक तेने पकडी लीधो ॥३६॥
भगवाने (कंसनो तो स्पर्श कर्या विना) तेना केश पकड्या. आथी कंसनो मुगट पडी गयो अने तेने ऊञ्चा मञ्च उपरथी (पोताना चरणरजथी पवित्र थयेल) अखाडामां पछाड्यो. पछी परम स्वतन्त्र अने सम्पूर्ण विश्वना आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण तेना उपर स्वयं कूदी पड्या ॥३७॥
भगवान्ना कूदतां ज कंस मरी गयो. बधाना जोतां ज भगवान् श्रीकृष्णे तेना मृतदेहने धरती उपर, जेम सिंह हाथीने घसडे तेम घसड्यो. हे नरेन्द्र! ते वखते मोटो हाहाकार मची गयो ॥३८॥
कंस नित्य-निरन्तर भारे गभराटमां श्रीकृष्णनुं ज चिन्तन करतो रहेतो हतो. ते खातां-पीतां, ऊङ्घतां, चालतां, बोलतां, अने श्वास लेतां हर समय पोतानी सामे हाथमां सुदर्शनचक्रधारी श्रीकृष्णने ज जोतो रहेतो हतो. आ अखण्ड चिन्तनना फळरूपे-भले ते द्वेष भावथी ज केम न करातुं होय-तेने भगवान्नां तेज रूपनी प्राप्ति थई, सारूप्य मुक्ति थई, जेनी प्राप्ति मोटा-मोटा तपस्वी योगीओने माटे पण दुर्लभ छे ॥३९॥
एना आठ नानाभाई कङ्क, न्यग्रोध वगेरे हता ते वेर लेवाने अतिक्रोध करी [[३८०]] लडवा आव्या ॥४०॥
तेमने बलदेवजीए वेगथी आवता जोया. तेमने पशुने जेम सिंह मारे तेम, रामे पोतानी पासेपरिघ जेवो हाथीदान्त हतो ते ऊठावीने मारी नाख्या ॥४१॥
ब्रह्माजी, शिवजी वगेरेए आकाशमान्थी पुष्पनी वृष्टि करी, देवोनां दुन्दुभि वाग्यां, देवस्त्रीओ नाचवा लागी अने बीजा प्रसन्नताथी स्तुति करवा लाग्या ॥४२॥
ए बधानी स्त्रीओ पोताना आत्मीय स्वजनोनां मरणथी दुःखित थईने माथां कूटवा लागी. जेमनी आङ्खमान्थी आंसु चाल्यां जाय छे तेवी स्त्रीओ, हे महाराज! त्यां आवी ॥४३॥
वीरशय्या उपर पोढेला पोताना पतिओना शरीरने आलिङ्गन करीने तेओ शोकग्रस्त थई गई अने वारंवार आंसु सारती मोटे अवाजे विलाप करवा लागीः ॥४४॥
हा नाथ! हे प्रिय! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपना मृत्युथी अमारां बधानुं मृत्यु थई गयुं. अमारा घर उज्जड थई गयां. अमारां सन्तान अनाथ थई गया ॥४५॥
हे पुरुषश्रेष्ठ! आ पुरीना आप ज स्वामी हता. आपना विरहथी तेना उत्सवो समाप्त थई गया अने मङ्गल चिह्न ऊतरी गयां. ए अमारी जेम ज विधवा अने शोभाविहोणी थई गई ॥४६॥
हे स्वामी! आपे निरपराध प्राणीओनो घोर द्रोह कर्यो हतो तेमने अन्याय कर्यो हतो तेथीजआपनी आ दशा थई. खरेखर, जगतना जीवोनुञ्जे अहित करे छे तेवा क्या पुरुषने शान्ति मळी शके? ॥४७॥
आ भगवान् श्रीकृष्ण जगत्ना समस्त प्राणीओनी उत्पत्ति-प्रलयना आधार छे. रक्षक पण ते ज छे. जे एमनुं बूरुं चाहे छे, तिरस्कार करे छे ते कदी सुखी नथी थई शकतो ॥४८॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान् श्रीकृष्ण ज सारा संसारना जीवनदाता छे. आपे राणीओने सान्त्वन आप्युं, धीरज राखवा समजाव्यां; पछी लोकरीति प्रमाणे मरनारनां क्रिया-कर्म थाय छे ते बधां कराववानी व्यवस्था करी ॥४९॥
त्यारबाद भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजीए जेलमां जई पोतानां माताअध्याय-४४,दशमस्कन्ध ३८१ पिताने बन्धनमान्थी छोडाव्यां अने मस्तकथी* स्पर्श करी एमनां चरणोमां वन्दन कर्युम् ॥५०॥
विशेष - भगवान्नुं मस्तक सत्यलोकरूप छे. मस्तकथी चरणस्पर्श करी एम जणाव्युं के ‘‘पिताजी सत्यलोक तो आपना चरणमां आळोटे छे! आपनुं स्थान सत्यलोकथी उपर वैकुण्ठमां छे’’ देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ॥ कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्कितौ ॥५१॥
देवकीजी अने वसुदेवजीए तो अत्यारे पोताना पुत्रोने जगतना ईश्वर मान्या तेथी पुत्रोए नमस्कार कर्या तो पण एमने भगवान्रूपे स्फूर्ति थतां तेओ पुत्रोने आलिङ्गन पण करी शक्यां नही ॥५१॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा प्रकरणनो वीर्य रूप बीजो) ‘‘श्रीकृष्णे करेलो कंसनो वध’’ नामनो चुमाळीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां एक्ताळीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!
अध्याय ४५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४२ मथुरामांशान्तिस्थापीभगवान्गुरुनेत्याम्पधार्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय३
विशेष - साधारण रीते बे प्रकारनो (भगवान्नो भक्तमां अने भक्तनो भगवान्मां) निरोध अर्ही कहेवाय छे. ए निरोध सर्वसम्मत छे. पिता, माता, उग्रसेन अने बीजाओनो भगवान्मां निरोध तथा भगवान्नो एमां निरोध कहेवाय छे.
ईं उं ईं उं
[[३८२]] पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः ॥ मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - माता-पिताने स्वमाहात्म्यनुं ज्ञान थयुं ए भगवाने जाण्युं, पण ए ज्ञान भगवान्ने इष्ट न होवाथी ए न थवा माटे जनने मोह करनारी पोतानी माया एमणे विस्तारी ॥१॥
माता-पिता पासे भक्तोना स्वामी भगवान् पोताना मोटाभाई साथे आवी विनयवडे नम्र बनी, हे अम्बे! हे तात! एम आदरपूर्वक बोल्या ॥२॥
श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘पिताजी! माताजी! अमे आपना पुत्रो छीए अने आप अमारे माटे सदा उत्कठिन्त रह्या छो. छतां पण आप अमारा बाल्य, पौगण्ड अने किशोर अवस्थानुं सुख अमारा तरफथी मेळवी शक्यां नहि ॥३॥
दैववशात् अमने आपनी पासे रहेवानुं सौभाग्य ज प्राप्त न थयुं. तेथी ज बाळकोने माता-पिताना घरमां रहीने लालन-पालननुं जे सुख मळे छे ते अमने न मळी शक्युम् ॥४॥
सर्व पुरुषार्थने आपनार देह जेणे उत्पन्न कर्यो तेनुं जेणे पोषण कर्युं ते बन्ने उत्पादक अने पोषक माता-पितानी कोई माणस सो वर्ष सेवा करे तो पण एनो बदलो ए न आपी शके. एना ऋणमान्थी ए मुक्त थई शक्तो नथी ॥५॥
शरीरथी अने धनथी पुत्र समर्थ होवा छतां माता-पिताने जे वृत्ति आपतो नथी तेना मर्या पछी यमदूतो एनुं मांस एने ज खवरावे छे ॥६॥
माता, वृद्ध पिता, सती स्त्री, जेने जनोई आपवामां आवी नथी तेवो पुत्र, (जनोई आप्या पछी बालक गुरुना आश्रममां अभ्यासमाटे जाय त्यां भिक्षावृत्तिथी निर्वाह थाय. पछी गृहस्थाश्रम शरू थाय.) ब्राह्मण गुरु (गोर, पुरोहित) अने शरणे आवेलानुं समर्थ होय छतां जे पालन-पोषण न करे ते जीवतो होय तोय तेने मरेलो ज समजवो ॥७॥
तेथी अमारा आटला दिवसो व्यर्थ ज गया कारण के कंसना भयथी सदा मनमां उद्वेग रहेतो होवाथी अमे आपनी सेवा न करी शक्या ॥८॥
हे माता! हे पिता! दुष्ट कंसे आपने आटआटलां कष्ट दीधां परन्तु अमे पराधीन होवाथी आपनी कंई ज सेवा न करी शक्या. ए अमारा अपराधने आप बन्ने क्षमा करो’’ ॥९॥
[[३८३]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - मायावडे मनुष्य जेवा देखाता विश्वात्मा हरिनी वाणी साम्भळी माता-पिताने मोह थयो अने आपने गोदमां उठावी लई, छाती सरसा चाम्पी परम आनन्दने प्राप्त थयाम् ॥१०॥
स्नेहना पाशमां बन्धाई गयां, नेत्रनां अश्रुथी पुत्रने सिञ्चन करवा लाग्यां अने एवां मोहित थयां के आंसुथी कण्ठ रून्धाई गयो तेथी कांई पण बोली शक्या नहि ॥११॥
एम देवकीसुत भगवाने माता-पिताने दिलासो आप्यो अने पोताना मातामह उग्रसेनने यदुना राजा बनाव्या ॥१२॥
‘‘हे महाराज! अमे आपनी प्रजा छीए. अमने आप हुकम करवाने योग्य छो केमके ययातिना शापथी यादवो तो राज्यासन उपर बेसी शके एवुं नथी; तेथी आप ज अमारा राजा छो’’ एम उग्रसेनने कह्युं* ॥१३॥
विशेष - राजा ययातिए यदु पासे यौवन मागेलुं पण भक्ति जुवानीमां ज थई शके, वृद्धावस्थामां नहि एम विचारी यदुए युवानी आपवानी ना पाडी त्यारे ययातिए यदुने शाप आप्यो के तमने राज्यनो अधिकार नहि मळे. यदु महान भगवद्भक्त होवाथी राज्य जतुं र्क्युं, पण भक्ति जती न करी. भगवान् श्रीकृष्ण यदुनी मुख्य शाखामां प्रकट थया छे माटे शापने मान आप्युं. भोज, कंस, उग्रसेन यदुनी छेल्ली शाखामां जन्म्या छे माटे तेमणे राज्य कर्युं छे. ‘‘हुं भृत्य थईने आपनी सेवा करीश तेथी देवो वगेरे पण आपने भेट आपशे, तो माणसोना राजाओ कर भरे एमां शुं आश्चर्य?’’ ॥१४॥
पोताना ज्ञातिजनो अने सम्बन्धीओ कंसना भयथी अन्यत्र दिशाओमां चाल्या गया हता एवा यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशार्ह, कुकुर वगेरेने बोलावी नगरमां वसाव्या ॥१५॥
विश्वविधाता श्रीकृष्णे तेमने बोलावी तेमनो सत्कार करी तेमने आश्वासन आप्युं. तेमने घरबार छोडवां पडेलां तेथी तेओ शरीरे अने पैसे टके पायमाल थई गयेला. तेमने पोतपोतानां घरोमां वसाव्या अने तेमने धन तथा सम्पत्ति आपी खूब सन्तुष्ट कर्या ॥१६॥
हवे बधा यादवो भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलदेवजी ना बाहुबलथी सुरक्षित हता. एमनी कृपाथी तेमने कोई प्रकारनी व्यथा नहोती, दुःख नहोतुं तेमना बधा [[३८४]] मनोरथो पूर्ण थई गया, दैहिक तेम ज मानसिक ताप रह्या नहि. हवे तेओ पोतपोतानां घरोमां आनन्दथी विहार करवा लाग्या ॥१७॥
भगवान् श्रीकृष्णनुं वदन आनन्दनुं सदन छे. ते नित्य प्रफुल्लित, कदी न करमाय तेवुं कमल छे. तेनुं सौन्दर्य अपार छे. दयायुक्त हास्य अने दृष्टि तेना उपर सदा नाचतां रहे छे. यदुवंशी दिन-प्रतिदिन तेनां दर्शन करी आनन्दमग्न रहे छे ॥१८॥
भगवान्ना मुखकमळनी सुधानुं नेत्रवडे वारंवार पान करता वृद्धो पण युवान अने अति बळवान थई गया ॥१९॥
पछी सङ्कर्षण अने भगवान् नन्दरायजीनी पासे आवीने हे राजेन्द्र! एने आलिङ्गन करी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२०॥
राम-कृष्णे कह्युं ः‘‘हे पिताजी! आपे अने यशोदा माताए अत्यन्त स्नेहथी अमारुं लालन-पालन कर्युं छे. माता-पिता पोताना शरीरथी पण वधारे प्रेम पोतानां सन्तान उपर राखे छे एमां कांई शङ्का नथी ॥२१॥
पोषण अने रक्षण मां असमर्थ माता-पिता ए जेने छोडी दीधां होय तेने जे पोताना पुत्रनी पेठे पोषे ए ज एनां माता अने ए ज पिता कहेवाय ॥२२॥
हे तात! आप व्रजमां पधारो. अमो अर्ही सुहृदोने सुखी करीने स्नेहथी दुःखी ज्ञातिरूप आपने जोवा आवीशुम् ॥२३॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान् श्रीकृष्णे नन्दरायजी तथा बीजा व्रजवासीओने आ प्रमाणे समजावी घणा आदर साथे वस्त्रो, आभूषणो अने कांसा-ताम्बा-पित्तळनां वासणो आपी तेनो सत्कार कर्यो ॥२४॥
नन्दरायजी प्रेममां विह्वल बन्या. बन्ने भाईओने आलिङ्गन कर्युं अश्रुपूर्ण नेत्रवाळा ए गोपालोनी साथे पोताना व्रजमां पधार्या ॥२५॥
हे राजन्! हवे वसुदेवजीए गर्गाचार्य पुरोहित अने बीजा ब्राह्मणोने बोलावी पोताना पुत्र कृष्ण बलदेवने विधि प्रमाणे क्षत्रियोमां थतो यज्ञोपवीत संस्कार कराव्यो ॥२६॥
तेमणे विविध प्रकारनां वस्त्रो अने आभूषणोथी ब्राह्मणोनो सत्कार करी तेमने घणी दक्षिणा अने वाछडांवाळी गायो आपी. ते बधी गायोनां गळाम्मां सोनानी माला पहेरावेली हती. बीजां पण घणां आभूषणो, रेशमी वस्त्रो अने मालाओ [[३८५]] थी तेओ विभूषित हती ॥२७॥
महामति वसुदेवजीए भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ना जन्म-नक्षत्र वखते जेटली गायो मनमां सङ्कल्प करीने आपी हती ते कंसे पहेलां अन्यायथी छीनवी लीधी हती अने ते हवे पाछी मळतां ब्राह्मणोने दानमां आपी ॥२८॥
कृष्ण रामने ज्यारे संस्कार थयो त्यारे एमने द्विजत्व प्राप्त थयुं. एमणे यदुकुलना आचार्य गर्गाचार्यनी पासेथी गायत्रीनुं व्रत धारण कर्युम् ॥२९॥
सर्व विद्याना उत्पत्ति स्थानरूप, सर्वज्ञ, जगतना ईश्वर छतां मनुष्य चेष्टाथी स्वतःसिद्ध ज्ञानने छुपावता ॥३०॥
गुरुकुलमां वास करवाने इच्छता श्रीकृष्ण अने बलदेव काश्य अथवा काश्यपगोत्रमां थयेला एवा सान्दीपनि नामना उज्जयिनीमां रहेता गुरुनी पासे पधार्या ॥३१॥
त्यां जई इन्द्रियोने जीती गुरुए बतावेल रीति पोते पाळता अने बीजाने शीखवता, देवना जेवी गुरुमां भक्ति राखता, आदरथी एमनी सेवा करवा लाग्या ॥३२॥
एमनां शुद्ध भाव अने सेवाने जोई ब्राह्मणमां श्रेष्ठ सान्दीपनि प्रसन्न थया. अने गुरुए छ अङ्ग अने उपनिषद् साथे बधा वेद एमने भणाव्या ॥३३॥
उपरान्त मन्त्रो अने देवताओ ना ज्ञानसहित धनुर्वेद, मनुस्मृति वगेरे धर्मशास्त्र, साम वगेरे न्यायशास्त्र (तर्कविद्या), साङ्ख्य, योग वगेरे रूपी आत्मविद्या अने छ प्रकारनी राजनीति भणावी. (राजनीतिना छ प्रकारःसन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध अने आश्रय) ॥३४॥
हे राजन्! नरवरमां श्रेष्ठ, सर्व विद्याना प्रवर्तक राम-कृष्णे गुरुना एक वखत कहेवा मात्रथी ए बधुं ग्रहण करी लीधुम् ॥३५॥
हे राजन्! संयमी शिरोमणि बन्ने भाईओ चोसठ अहेरात्रमां *चोसठ कला शीखी गया. ज्यारे शीखवानुं पूरुं थयुं त्यारे आचार्यने गुरुदक्षिणानेमाटे प्रार्थना करी ॥३६॥
विशेष - चोसठ कलाओ - १. गीत - गायन विद्या अने एना सुर-तालना भेद वगेरे बधुं
एमां आवी जाय. २. वाद्य - अनेक प्रकारनां वाजिन्त्र वगाडवानी विद्या. ३. नृत्यः
नाचवानुं. ४. नाट्य - अभिनयथी बताववाना भाव, जेनाथी बीजो हृदयनो भाव समजी
[[३८६]]
जाय. ५. आलेख्य (चित्रकळा) - लखवाना बधा भेद. ६.विशेषक छेद्य - कातरीने अनेक
प्रकारना नमूना करवा. ७. तण्डुल कुसुम बलिप्रकार - चोखा अथवा पुष्प नां अनेक मण्डळ
बनाववां, साथीआ-आरती बनाववां. ८. पुष्पास्तरण - पुष्पोने शय्यानी जेम बिछाववां
तेम ज पुष्पमान्थी वस्त्र बनाववा. ९. दशनवसनाङ्गराग - दान्त रङ्गवा, कपडां रङ्गवा, शरीर
रङ्गवा वेगरेनी कळा. १०. मणिभूमिका कर्म - भूमिमां मणिओनी गोठवण करवानी विद्या.
११. शयनरचन - शयननी रचनानी गोठवण करवानी विद्या. १२. उदकवाद्य अने
उदकाघात - पात्रमां जल भरी अने वगाडवुं. जलमां क्षेप करवो, जलने ताडन करवुं, ऊञ्चेथी
पडवुं, वगेरेनी विद्या. १३. चित्रयोग - अनेक चमत्कारकारक प्रयोग करवा. १४.
माल्यग्रथनः जुदी-जुदी रीते मालाओ गून्थवाना प्रकार. १५. शेखरापीडयोजन - माथा
उपर पहेरवाना फूलनां मुकुट, टोपी, किरीट वगेरे बनाववां. १६. नेपथ्ययोग - अनेक
जातना पोशाकनी कला; नटशाळा वगेरे निर्माणना प्रकार. १७. कर्णपत्र भङ्ग - कान उपर
राखवानां फूलमां विचित्रता देखाडवी; केसर, कस्तुरी, चन्दन वगेरे सुगन्धी पदार्थोथी कर्णो
उपर विचित्र आकृतिओ दोरवी. १८. सुगन्धयुक्ति - सुगन्धवाळा चन्दनने वस्त्रनी जेम
धरवुं, सुगन्धीनुं मिश्रण करवुं वगेरेनी विद्या. १९. भूषणयोजन - एनक प्रकारनां
आभरण बनाववा अने पहेरवानी रीति. २०. ऐन्द्रजाल - न होय एवी वस्तु मायाथी
बताववाना प्रयोग करवा. २१. कौचुमारयोग - एक छतां जुदी-जुदी रीते वेश करी कोईने
खबर न पडे एवा प्रयोग करवा. २२. हस्तलाघव - हाथ चालाकीना प्रयोग करी बताववा.
२३. चित्र शाका पूप भक्ष्य विकार क्रिया - अनेक प्रकारनां शाक, पूडला, मिठाई वगेरे
खावानी चीजो बनाववानी विद्या. २४. पानकरसरागासवयोजना - अनेक फलना रसना
पणा एवा रसमान्थी मादक पदार्थो बनाववानी रीति. २५. सूचि वायक कर्म - शीववानी
कळा, गून्थणकाम. २६.सूत्रक्रीडाः दोरीना सञ्चालनथी पूतळी नाचे तेवा प्रयोगनी विद्या.
२७. वीणा डमरु वाद्य - वीणा डमरु वगेरे बनाववानी-वगाडवानी विद्या. २८. प्रहेलिका
ः कूट वाक्यो समजवां, अनेकार्थवाळां गद्यपद्यो रचवां वगेरेनी विद्या. २९. प्रतिमाला - सर्व
वस्तुनुं अनुकरण करवुं. ३०.दुर्वाचकयोग - चार अक्षरनां नाम लेवां वगेरे, जेने पेदा करतां
घणी मुश्केली आवे. ३१. पुस्तकवाचन - जलदी वाञ्चतां केटलाक अक्षर न लख्या होय तेने
पण बुद्धिथी कल्पी वाञ्ची जवा एवी जातनी विद्या. ३२.नाटकाख्यायिकादर्शन - दीवानी
आगळ पडदो राखी ए पडदामां नाटक, आख्यायिका वगेरे बताववां, सिनेमा वगेरे अथवा
वस्त्र बनाववां तेमां नाटक के कथानी वात स्फुरे एवी रचना करवानी विद्या. ३३.
[[३८७]]
काव्यसमस्यपूरण - कवितामान्थी केटलाक अक्षर दूर करी बीजा अक्षर गोठववा, अर्थ ए ज
रहे, समस्या पूर्ण करवी. ३४.पत्रिकाचित्रवाचन विकल्पो-पट्टिकावेत्रवाचन विकल्प
ः एवो पण पाठ छे. नाना प्रकारना बोकडाना युद्धना प्रकार अथवा नेतरने गून्थवाना प्रकारो
वगेरेनी विद्या. ३५.तर्कुविद्या - ताकडी (तकली) त्राक रेण्टिया वगेरेथी सूतर कान्तवाना प्रकार
जेमां आवे ते विद्या) तर्ककर्म - तर्कथी ज सर्व पदार्थोनुं ज्ञान अने कृति. ३६. तक्षण ः
कण्डारीने आकृति बनाववीद्ग शिल्पविद्या. ३७. वास्तुविद्या - घर अने राजमहेल बनाववानी
विद्या. ३८.रूपरत्न परीक्षा - रूपनी अने रत्ननी परीक्षा, ‘‘रूप्य’’ पाठ होय तो कोरी वगेरे
रूपानाणुं पारखवानी विद्या. ३९. धातुवाद - नाना प्रकारनी धातुओ बनाववाना प्रकार,
सोनां करवानी रीति, धातुनी मेळवणीथी एमां विशेषाधान करवानी रीति. ४०.
मणिरागज्ञानः पन्ना माणेक वगेरेमां रङ्ग चडाववानी रीति. ४१. आकरज्ञान - सोनानी
रूपानी हीरानी खाणो क्यां नीकळशे ए जोवानी रीति. ४२. वृक्षार्युवेद - वृक्षोने आरोग्य मळे
एना रोग दूर थाय एमां बीजा वृक्षनी मेळवणी थाय, बीज वगरनां फलो उत्पन्न करवां,
वगेरे झाडवां उछेरवानी विद्या. ४३. मेष कुक्कुट लावक युद्ध विधि - घेटां, कूकडां अने
तेतरने लडाववा. ४४. शुक सारिका प्रलाप - पोपट अने मेना ने बोलता शीखववानी विद्या.
४५. उत्सादनः बीजाना मनने उद्वेग करे तेवा मन्त्रप्रयोगो करवा, जेनाथी ए पोतानी
बुद्धिनो काबू खोई बेसे. ४६. केशमार्जनकौशल - माथुं गून्थवानी चतुराई. ४७.
अक्षरमुष्टिकाकथन - बीजाए जोयेल पदार्थो अने मुठ्ठीमां रहेल वस्तु जाणी कही देवुं.
४८. म्लेच्छित कलिकल्पाः शत्रु म्लेच्छ थई जाय अथवा परस्पर कलह थई जाय एवी
विद्या-बीजाओ आनो अर्थ बीजी रीते करे छे एमां पाठभेद पण देखाय छे.म्लेच्छित
कुतर्कविकल्प एम पण पाठ छे. ४९. देशभाषाज्ञान - अनेक देशनी भाषा जाणवी. ५०.
पुष्पशकटिकानिर्माण - पुष्पमान्थी वाहन बनाववां, विमानो बनाववानुं ज्ञान करावनारी
विद्या. ५१.यन्त्रमातृका धारण मातृका - प्रतिमाने चलाववी. करपल्लवी विद्याथी बीजाने
ज्ञान न थाय तेम सङ्केत बताववो, शतावधान, अष्टावधानमां परभाषाने पण धारण करी एने
एक साथे बोली देवी वगेरे. ५२. मानसी काव्यक्रिया - सामा माणसना मनमां जे होय ते
कही बताववानी विद्या. ५३. सम्पाद्यम् - हीरा वगेरेना भेदनना प्रकार जाणवानी विद्या.
५४.अभिधानकोशः बीजाए बोलेलुं आनुपूर्वीथी बोली देवुं. ५५. छन्दोज्ञान - नाना
प्रकारनी कविता करवानुं ज्ञान अथवा पुरुषने जोईने एना स्वभावने कही देवानुं ज्ञान.
५६.क्रियाविकल्प - जे वस्तु जे रीते बनती होय तेनाथी जुदी रीते ए बनावी देवानुं ज्ञान.
[[३८८]]
५७. छलितकयोग - बीजाने छळवाना उपाय जेमां होय तेवी विद्या. ५८. वस्त्रगोपनः
वस्त्रने छुपाववानी विद्या अथवा सामान्यने विशेषरूपमां बताववाना प्रकार. ५९.द्युतविशेषः
जुगार रमवानुं ज्ञान. ६०. आकर्षक्रीडा - आकर्षण करवानी विद्या. ६१. बालक्रीडनकः
बाळकोने रमत करतां ज्ञान मळे एवा प्रकारनी विद्या. ६२. वैनयिकी - विनय राखवानी
विद्या. ६३. वैजयिनी - विजय मेळववानी रीति बतावनारी विद्या. ६४. वैतालिकी
विद्यानुं ज्ञान - स्तुति करवानी विद्यानुं ज्ञान.
ब्राह्मणे एमना अद्भुत महिमानो विचार कर्यो. माणसमां न होय एवी
एमनी बुद्धि जोई पत्नीनी साथे विचार र्क्यो के आ कोई महानुभाव छे, आनी
पासेथी गुरुदक्षिणामां शुं मागवुं? एनो विचार करी प्रभासमां महासमुद्रमां पोतानो
*बाळक मरी गयेल तेने पाछो लावी आपवानी दक्षिणा तरीके मागणी करी ॥३७॥
विशेष - कृष्णना गुरुनां पत्नी एक दिवस गायने दोहन करवा बेठां हतां त्यारे कृष्ण थोडे दूर सन्ध्या करता हता. गुरुपत्नीए पात्र नानुं पडतां बीजुं पात्र कृष्णपासे माग्युं त्यारे कृष्ण जो सन्ध्या छोडे तो मर्यादा लोप थाय, गुरुपत्नीनुं वाक्य न माने तो एनो अपराध बने ए बन्नेथी छूटवामाटे पोते पोताना प्रभावथी त्यां बेठां-बेठां श्रीहस्तने लम्बावीने पात्र लई ए गुरुपत्नीने त्यां बेठां आप्युं. ए जोई गुरुपत्नी मनमां विस्मय पामी मनमां समज्यां के आ शिष्य साधारण माणस नथी पण कोई प्रभावशाळी व्यक्ति छे तेथी एमणे दक्षिणाना समये मृत पुत्रने माग्यो. आ कथा बीजा पुराणमां छे. कृष्ण बलदेवे गुरुजीनी ए आज्ञानो स्वीकार करी, रथमां सवार थई प्रभासक्षेत्रमां आव्या. अथाक पराक्रमवाळा तेओ समुद्र किनारा उपर जई बेठा, त्यां समुद्रे एमनी पूजा करी ॥३८॥
भगवाने समुद्रने कह्युं ः‘‘अमारा गुरुनो पुत्र तमे मोटा मोजामां खेञ्ची लीधो हतो ते पाछो आपो’’ ॥३९॥
समुद्रे कह्युं - हे देव! में एने लीधो नथी, पण पञ्चजन नामनो मोटो दैत्य मारा जलनी अन्दर रहे छे ते शङ्खनुं रूप धरीने जलमां रह्यो छे ते आपना गुरुपुत्रने लई गयो छे. ए साम्भळी श्रीकृष्ण जळमां पेठा अने शङ्खासुरनो संहार कर्यो पण एना पेटमां गुरुपुत्रने न जोयो ॥४०-४१॥
पछी एनो शरीररूप शङ्ख हतो तेने लईने रथ उपर आव्या. त्यान्थी यमराजानी प्रिय नगर संयमनी नगरीमां गया ॥४२॥
[[३८९]] त्यां जई जनार्दने शङ्ख फूङ्क्यो. बन्ने भाईओ त्यां गया ए जाणी प्रजानुं संयमन करनार यमराजाए एमनी भक्तिथी महापूजा करी नम्रताथी सर्वभूतना अन्तःकरणमां रहेनार श्रीकृष्णने कहेवा लाग्याः‘‘हे लीला मनुष्य! हे विष्णो! हुं आपनी शुं सेवा करुं? आज्ञा करो’’ ॥४३-४४॥
श्रीभगवान् बोल्या - अमारा गुरुनो पुत्र एना कर्मने लईने तमारे त्यां आव्यो छे. हे महाराज! मारी आज्ञाने मान आपी (एनां कर्मो उपर ध्यान नहि आपतां) ए गुरुपुत्र अमने पाछो लावी आपो ॥४५॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ‘‘यमराजे जेवी आज्ञा’’ एमकही गुरुपुत्र आप्यो. यदूत्तम राम-कृष्णे ए पुत्रने गुरुने सोम्पी कह्युंः‘‘हवे बीजुं जे जोईए ते माङ्गो’’ ॥४६॥
गुरु बोल्या - हे वत्स! तमे बन्नेए घणी बधी गुरुदक्षिणा आपी. हवे बीजुं वधारे जोईए पण शुं? आपना जेवा पुरुषोत्तमोना गुरुनो क्यो मनोरथ अपूर्ण रही शके? ॥४७॥
हे वीर! तमे बन्ने तमारे घेर जाओ. तमारी पवित्र कीर्ति थाओ. तमोए मारी पासेथी भणेला वेदो अयातयाम थाओ (एटले ए आ लोक अने परलोक मां ताजा भणेला होय तेवा ज सदा रहो; एनुं क्षण पण विस्मरण न थाओ) ॥४८॥
गुरुए एवीरीते घेर जवानी रजा आपी त्यारे वायुना जेवा वेगवाळा मेघना जेवा शब्द करता रथमां सवार थई, हे तात! तेओ पोतानी नगरी मथुरामां पधार्या ॥४९॥
समनन्दन् प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ। अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ॥५०॥
राम-कृष्णने जोईने प्रजा बधी राजी थई. घणा दिवसथी एमनां दर्शन नहोतां थयां तेथी, जेम धन नाश पाम्युं होय ने पाछुं मळे त्यारे माणस राजी थाय तेम, राजी थई ॥५०॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटाप्रकरणनो यश रूप त्रीजो) ‘‘मथुरामां शान्ति स्थापी भगवान्
गुरुने त्यां पधार्या’’नामनो पीस्तालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां बेतालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[३९०]]
अध्याय ४६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४३ उद्धवजीए गोकुल जई नन्द-यशोदाजी अने गोपीजनोनुं सान्त्वन कर्युं त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय४
विशेष - आ ४६मा अध्यायमां भगवाने पोते व्रजमां पधारीने नन्दरायजी यशोदाजी वगेरेनो निरोध कर्यो छे. ए यशोदाजी अने नन्दरायजी ने निरोध कहेवाई गयो छे, छतां अर्ही फरीथी एमनो निरोध कहेवामां आवे छे. आ पछीना अध्यायमां गोपीजनोने पण निरोध कहे छे. तेथी जे कह्युं छे तेनुं समर्थन थाय छे. जे तामसो हता तेनुं राजस्पणुं पण एटलाथी सिद्ध थशे अने भगवान्नी कृपानो अने गोपीजनोना प्रेमनो उत्कर्ष पण ए कहेवाथीसिद्ध थशे. तेथीउद्धवजीने भगवाने व्रजमां मोकल्या छे. वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा ॥ शिष्यो बृह्स्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - वृष्णिना श्रेष्ठ मन्त्री, कृष्णना प्रियमित्र, साक्षात् बृहस्पतिना शिष्य अने बुद्धि मां अति श्रेष्ठ उद्धवजी छे ॥१॥
ए भगवान्ने अति प्रिय छे, भक्त छे, अनन्य छे. शरणागतनी आर्तिने हरनार हरि एने पोताना हाथथी पकडी कहेवा लाग्याः ॥२॥
हे उद्धवजी! तमे व्रजमां जाओ. हे सौम्य! त्यां अमारां माता-पिता रहे छे तेमने प्रीति थाय एम करो. गोपीजनोने मारा वियोगनुं मानसिक दुःख छे तेनाथी एमने मुक्त करो ॥३॥
वहाला उद्धव! गोपीजनोनुं मन नित्य निरन्तर मारामां ज लागेलुं रहे छे. एमना प्राण एमनुं जीवन एमनुं सर्वस्व हुं ज छुं. तेओ तेमना देहने पण मारो करीने बेठां छे. तेमणे देहना धर्मो छोडी दीधा छे. मारुं ए व्रत छे के जे लोको मारे माटे लौकिक वैदिक धर्मोने छोडी दे छे तेमने हुं मारामां धारण करुं छुं तेमनी सम्भाळ हुं राखुं छुम् ॥४॥
हुं ते गोपीजनोनो परम प्रियतम छुं. मारा अर्ही चाल्या आववाथी तेमनाथी हुं दूर पडी गयो छुं. तेओ वारंवार मारुं स्मरण करतां-करतां मूर्छित थई जाय छे. मारा [[३९१]] विरहनी व्यथाथी तेओ विह्वल थई रह्यां छे, प्रतिक्षण मारेमाटे उत्कठिन्त रहे छे ॥५॥
ए गोपीजनोए अत्यारे महान कष्ट अने यत्न थी पोताना प्राणोने जेमतेम करी टकावी राख्या छे. में तेमने कहेलुं के ‘‘हुं आवीश’’ बस आ ज एमना जीवननो आधार छे. उद्धव! वधारे तो शुं कहुं, हुं ज एमनो आत्मा छुं. तेओ नित्य निरन्तर मारामां ज तन्मय रहे छे ॥६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! एम भगवाने उद्धवजीने कह्युं त्यारे आदरपूर्वक सन्देशो लई पोताना स्वामीनुं कार्य अवश्य कर्तव्य समजी रथमां बेसी उद्धवजी नन्दजीना गोकुल गया ॥७॥
श्रीयुत उद्धवजी सूर्यास्त वखते नन्दजीना व्रजमां आव्या ते वखते पशु आवतां हतां तेनी खुररजथी रथ ढङ्काई गयो ॥८॥
(व्रजनुं वर्णन करतां कहे छे के) ऋतुमती गायोने माटे साण्ढो लडी रह्या छे तेवा मतवाला साण्ढोथी गाजतुं, नवप्रसूता आम तेम पोताना वत्समाटे दोडे छे, आउना भराथी श्रम थाय छे छतां पुत्र वात्सल्यने लईने दोडे छे, तेवी गायोथी व्रज शोभा आपे छे ॥९॥
आम तेम फरतां गायोना धोळां वाछडान्थी शोभतुं, गायोना दोहनना शब्दो अने वेणुना शब्दोथी शोभायमान, बल अने श्रीकृष्ण ना शुभ कर्मनुं गान करती, सारी रीते शृङ्गार करीने बेठेलां गोपीजनो अने गोपो थी सुशोभित व्रजने उद्धवजीए जोयुम् ॥१०-११॥
अग्नि, सूर्य, अतिथि, गाय, ब्राह्मण, पितृ अने देवो नी जेमां धूप, दीप, पुष्प नी माळावडे पूजा थई रही छे तेवा गोपोनां गृहोवडे सुन्दर देखातुं व्रज उद्धवजीए जोयुम् ॥१२॥
ज्यां सर्वत्र वनमां पुष्पो प्रफुल्लित थई रह्यां छे, पक्षीओ अने भ्रमरो शब्द करी रह्या छे, हंस बतक वगेरेथी तेमज पद्मना समूहथी शोभायमान व्रजने उद्धवजीए जोयुम् ॥१३॥
नन्दरायजीए श्रीकृष्णना अनुचर उद्धवजीने जोई एमने मळी प्रसन्न थई आलिङ्गन करी तेमनुं एवी रीते सन्मान कर्युं के साक्षात् श्रीकृष्ण पधार्या होय ॥१४॥
[[३९२]] समय थयो त्यारे उद्धवजीने उत्तम अन्ननुुं भोजन कराव्युं अने ज्यारे तेओ आरामथी पलङ्ग उपर बेसी गया त्यारे सेवकोए तेमना पग दबावी, पङ्खो करी तेमनो थाक दूर कर्यो ॥१५॥
नन्दरायजीए उद्धवजीने पूछ्युं, ‘‘परम भाग्यवान् उद्धवजी! हवे अमारा मित्र वसुदेवजी जेलमान्थी छूटी गया. तेमना आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि तेमनी साथे छे. अत्यारे ते बधां कुशळ छे ने? ॥१६॥
पापी कंस एना अनुचरोनी साथे पोताना पापथी मर्यो ए घणुं सारुं थयुं कारण के ते सज्जन अने धर्मवाळा यादवोनो हमेशां द्वेष करतो हतो ॥१७॥
श्रीकृष्ण क्यारेय अमने याद करे छे? आ एमनी माता छे, स्वजन सम्बन्धी छे, मित्रो छे, गोपो छे तेमने ज पोताना स्वामी अने सर्वस्व मानवावाळुं व्रज छे. आ तेमनी ज गायो, वृन्दावन अने गिरिराजजी छे. शुं ते क्यारेय तेमने याद करे छे? ॥१८॥
गोविन्द पोताना स्वजनोने जोवाने एक वखत अर्ही पधारशे खरा? जो आवशे तो सुन्दर नासिकावाळुं अने सुस्मित अवलोकनवाळुं एमनुं मुख अमो जोईशुम् ॥१९॥
दावाग्निथी, वण्टोळियाथी, वरसादथी, अरिष्टथी अने कालिय सर्पथी श्रीकृष्णे अमारुं रक्षण र्क्युं छे. सुहृद अने अमारा आत्मारूप श्रीकृष्णे एटलाथी रक्षा करी छे एम नथी, पण जे कोईथी दूर न थई शके तेवां मृत्युनां अनेक निमित्तोथी एमणे अमने बचाव्या छे ॥२०॥
श्रीकृष्णनुं लीलायुक्त कटाक्षथी जोवुं तेम ज एनां बीजां पराक्रमोने एना हसवाने एना भाषण वगेरेने याद करतां अमारी सर्व क्रियाओ शिथिल थई जाय छे ॥२१॥
ज्यारे अमे जोईए छीए के आ ते ज नदी छे जेमां श्रीकृष्ण जलक्रीडा करता हता; ए ते ज गिरिराज छे जेने तेमणे पोताना एक हाथ उपर उठावी लीधो हतो; आ ए ज वनना प्रदेश छे ज्यां श्रीकृष्ण गायो चरावतां वेणु वगाडता हता अने आ ते ज स्थान छे ज्यां ते पोताना सखाओनी साथे अनेक प्रकारनी रमतो रमता हता अने साथे-साथे ए पण जोईए छीए के हजु तेमना चरणचिह्न भुसायां नथी. त्यारे तेने जोई अमारुं मन श्रीकृष्णमय थई जाय छे ॥२२॥
[[३९३]] हुं तो एम मानुं छुं के कोई मोटा देवोना देव ए देवोनां मोटां कार्य करवाने मारे त्यां पधार्या छे. गर्गाचार्यजीए मने एम ज कह्युं हतुम् ॥२३॥
कंस, चाणूर मल्ल, कुवलयापीड हाथी ए बधा दस हजार हाथीना बळवाळा हता छतां, सिंह पशुने रमत करतां मारे तेम, भगवाने एमने क्रीडा करतां मारी नाख्या ॥२४॥
जेम मोटो हाथी शेरडीना साण्ठाने भाङ्गे तेम त्रणसो हाथनुं अत्यन्त कठण धनुष एक हाथथी उठावी एमणे भाङ्गी नाङ्ख्युं. सात दिवस सुधी गोवर्धन पर्वतने एक हाथथी अद्धर उठावी राख्यो ॥२५॥
प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त, बकासुर वगेरे सुर-असुरने जीतनार, दैत्योने जेणे अर्ही अमारी नजर सामे ज रमत करतां मारी नाख्या ॥२६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्रीकृष्णमां जेमने परम प्रेम छे तेवा नन्दरायजी कृष्णनी लीलाने याद करी करीने ज्यारे प्रेममां विह्वल थई गया, दर्शनमाटे अत्यन्त उत्कठिन्त थया, त्यारे कांई पण बोली न शक्या एटले हृदयमां अनुभव करता बहारथी बोलतां बन्ध थई गया ॥२७॥
यशोदाजी पोताना पुत्रनां चरित्रोनुं वर्णन साम्भळीने आङ्खमान्थी आंसु पाडवा लाग्यां अने पुत्रप्रेमने पूरने लीधे तेमनां स्तनमान्थी दूधनी धारा वही रही हती ॥२८॥
यशोदाजी अने नन्दरायजी नो श्रीकृष्णमां आवो परम-अनुराग जोईने उद्धवजीने आनन्द थयो अने एमणे नन्दरायजीने उद्देशीने कहेवानुं शरू कर्युं ॥२९॥
उद्धवजीए कह्युं - ‘‘हे मानद! एमां सन्देह नथी के समस्त शरीरधारीओमां आप बन्ने सराहना करवा योग्य छो, कारण के समस्त चराचर जगतना रचनारा तथा तेने ज्ञान आपनारा नारायण छे तेना प्रत्ये आपना हृदयमां दृढ अनुरागवाळी बुद्धि छे* ॥३०॥
विशेष - सत्कर्मथी माणसनी सराहना थाय छे. ज्ञानथी तेना करतां वधारे सराहना थाय छे. भक्तिथी ज्ञान करतां पण वधारे सराहना थाय छे. भक्तिमां पण परम प्रेम सर्वोत्कृष्ण (सर्वोत्तम) छे. प्रमाणबल करतां प्रमेय बल अधिक छे तेथी स्वतन्त्र भक्ति (श्रवण, कीर्तन वगेरे नवधा भक्ति) करतां प्रमेय भक्ति (स्वरूप विषेनी भक्ति) रसाल छे. [[३९४]] आ बलदेवजी अने श्रीकृष्ण पुराण पुरुष छे. तेओ समस्त संसारना उपादान कारण१ अने निमित्त कारण२ छे. भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष छे. बलदेवजी प्रकृति रूप छे. ए ज बन्ने समस्त शरीरोमां प्रवेश करी एमने जीवनदान दे छे अने तेमां तेथी अत्यन्त विलक्षण जे ज्ञान स्वरूप जीव छे तेनुं नियमन करे छे ॥३१॥
विशेष - १. उपादान कारण - जेमान्थी वस्तु बनाववामां आवे ते पदार्थ. दा.त. माटी ए
घडानुं उपादान कारण छे.
२. निमित्त कारण - जेनाथी पदार्थ बनाववामां आवे ते साधन. दा.त. कुम्भारनो
चाकडो, दण्ड ए घडानां निमित्त कारण छे.
जे *जीव मृत्यु वखते पोताना विशुद्ध मनने एक क्षणमाटे पण तेमां लगावी दे
छे ते समस्त कर्म वासनाओने धोई नाखे छे अने तरत ज सूर्यना जेवो तेजस्वी
तथा ब्रह्ममय थई परम गतिने प्राप्त करे छे ॥३२॥
विशेष - ‘‘जे जीव’’ - जीव ब्राह्मण, ऋषिमुनि होवानी जरूर नथी, मृत्यु वखते बधी इन्द्रियो विकळ होय अने देह अशुद्ध होय छतांय, क्षणमाटे ज मन भगवान्मां लगावे- लाम्बो समय नहि, देह अने वाणी स्वरूपमां लागेलां न होय तो पण ते मानसिक ध्यान सर्वफल साधी आपे छे. क्षण मात्र मन सारी रीते लगाडवाथी मन विशुद्ध-निष्काम- थई जाय छे. कर्मवासनाओने धोई नाखे छे एटले तेना बीजात्मक सङ्घातनो नाश थई जाय छे. तेथी जे पुरुषार्थ ज्ञान वगेरेथी थाय छे, अने ते पण क्रमे-क्रमे ते क्षण मात्रना एक ध्यानथी ज थाय छे. (श्रीसुबोधिनीजी) ते भगवान् ज, जे बधाना आत्मा अने परम फल छे, भक्तोनी अभिलाषाओ पूर्ण करवामाटे मनुष्यना जेवुं शरीर ग्रहण करीने प्रकट थया छे तेमना प्रत्ये आप बन्नेनो सुदृढ वात्सल्यभाव छे तो पछी हे महात्माओ! आप बन्नेने माटे क्युं शुभ कर्म करवानुं बाकी रही जाय छे? ॥३३॥
अच्युत थोडा वखतमां व्रजमां आवशे. सात्वतना (यादवो अने भक्तो ना) पति भगवान् व्रजमां आवी माता-पितानुं प्रिय करशे ॥३४॥
सर्व भक्तोना द्वेषी कंसने रङ्गभूमि उपर मारी आपनी पासे आवी अर्ही आववानुं आपने जे वचन आप्युं छे ते ए सत्य करशे ॥३५॥
हे महाभाग्यवाळा! आप खेद न करो. जे श्रीकृष्ण प्राणीमात्रना हृदयमां लाकडामां अग्निनी जेम रहे छे तेनां आप साक्षात् दर्शन करशो एटले परमानन्दनी [[३९५]] समीपे खेदने कांई अवकाश न ज होय ॥३६॥
एने कोई अप्रिय नथी, केमके एने पोताने मान नथी. एने कांई उत्तम अधम नथी, केमके ए सर्वमां समदृष्टि राखे छे; छतां एनी समान पण जगतमां कोई नथी ॥३७॥
एने कोई माता, पिता, स्त्री, पुत्र, पोतानो, पारको, देह के जन्म ए भावो ज नथी ॥३८॥
लोकमां तेना सत् (देव), असत् (मत्स्य कूर्म वगेरे तिर्यक् प्राणीओ) अने मिश्र (मनुष्य) योनिमां अवतार थाय छे. पण ते अवतार तेना कोई कर्मने लीधे नथी. क्रीडा करवामाटे ज ते अवतार छे. साधुओनी रक्षा करवी ए ते क्रीडा भावनो उद्देश नथी होतो पण ते क्रीडाभाव स्वयं साधु पुरुषोनी रक्षा करवा समर्थ होय छे. (जेम सूर्यनो उदय थाय त्यारे अन्धकार स्वयं दूर थई जाय छे, अन्धकार दूर करवा सूर्यने कोई प्रयत्न नथी करवो पडतो. महाराजा क्रीडा करवा बहार नीकळे त्यारे चोरनो भय आपोआप निवृत्त थई जाय छे) ॥३९॥
भगवान् अजन्मा छे तेमां प्राकृत, सत्व, रज आदिमान्थी एक पण गुण नथी. आ प्रमाणे आ गुणोथी अतीत होवा छतां लीलाने माटे खेल-खेलमां ते सत्व, रज अने तमद्ग आ त्रणेय गुणोनो स्वीकार करी ले छे अने ते द्वारा जगतनी रचना, पालन अने संहार करे छे ॥४०॥
जेम भ्रमरिका-दृष्टि* वाळाने पृथ्वी फरती देखाय छे तेमज आ चित्तमां कतृत्व आवतां बुद्धिवडे आत्मा पोतानुं कर्तापणुं माने छे. खरी रीते आत्मा कर्ता नथी ॥४१॥
विशेष - जेम बाळको फेर फुदरडी फरे छे के माणस जोरथी चक्कर-चक्कर फरे छे तेनी दृष्टि भ्रमरिका कहेवाय. तेने दृष्टिथी पृथ्वी परनी जड वस्तुओ गोळ फरती होय तेम लागे छे. खरेखर ते फरती होती नथी. ए वात अर्ही ‘भ्रमरिका दृष्टि’शब्दथी कही छे. आ भगवान् आपनाज पुत्र छे एम आपे समजवानुं नथी, पण ए सर्वना आत्मा पुत्र पिता माता अने ईश्वरछे ॥४२॥
जे कंई देखाय छे के सम्भळाय छे-पछी ते भूतकाळ, वर्तमान के भविष्य नी साथे सम्बन्ध राखतुं होय, स्थावर के जङ्गम होय, मोटुं के नानुं होय-एवी कोई वस्तु नथी जे भगवान् श्रीकृष्णथी पृथक् (जुदी) होय. हकीकतमां बधुं ते ज छे ते ज [[३९६]] परमार्थ, सत्य अने सर्वरूप छे. एना वगर कोई सत्तावाळुं छे ज नहि* ॥४३॥
विशेष - ऐहिक, पारलौकिक, परिच्छेद्य, अपरिच्छेद्य, तणखलान्थी लई पर्वत सुधी, रेतीना कणथी माण्डी ब्रह्माण्ड सुधी; मच्छरथी लई ब्रह्मा सुधी बधुं भगवान् ज छे. भगवान् सिवाय कंई छे ज नहि. तात्पर्य के भगवान् विरुद्ध धर्माश्रयवाळाछे. नन्दरायजी अने उद्धवजी एम वातो करता हता त्यां तो रात पसार थई गई. हे राजन्! सवार थतां गोपीजनो उठ्यां अने दीवाओ कर्या, वास्तुनी *पूजा करी अने तेओ दर्हीनुं मथन करवा लाग्याम् ॥४४॥
विशेष - वास्तुपूजाःब्राह्ममुहूर्तमां उठी उम्बरा (ऊमरा) उपर दीवो करवो ए केटलाकनो कुलधर्म होय छे अथवा भगवान् अर्ही सर्वदा बिराजे छे एवा भक्तिभावथी देहलि माण्डे छे. दीवाना तेजथी एमणे पहेरेला मणिओ प्रकाशयुक्त थया तेथी अने भुजामां कङ्कणोथी, मथन करतां देह चलित थाय त्यारे नितम्ब, हार, स्तन, कुण्डळ वगेरे हले छे. ए कुण्डळनी कान्ति कपोल उपर पडतां एमनां मुख मणिनी कान्तिथी लाल देखाय छे ॥४५॥
अरविन्द लोचन भगवान्नुं ऊञ्चे स्वरे गान करे छे तेवी व्रजाङ्गनानो ध्वनि आकाशमां पहोञ्चे छे एमां दधि मथननो शब्द मिश्रित थाय छे ए बन्ने शब्दो दिशाओना अमङ्गळने निवृत्त करे छे ॥४६॥
भगवान् सूर्यनो उदय थयो त्यारे गोपीजनोए नन्दरायजीना द्वार उपर सोनानो रथ जोयो. ए बधां परस्पर भेगां थई कहेवा लाग्यां के आ रथ कोनो आव्यो? ॥४७॥
कंसना अर्थने सिद्ध करवाने प्रथम आवेल अक्रूर तो पाछो नथी आव्यो, जे कमळ लोचन हरिने अर्हीथी मथुरा लई गयो हतो ॥४८॥
किं साधयिष्यत्यस्माभिः भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम् ॥ इति स्त्रीणां वदन्तीनाम् उद्धवोऽगात् कृताह्निकः ॥४९॥
हवे शुं आपणने मथुरा लई जई पोताना मरी गयेला स्वामी कंसने (आपणा रुधिर अने मांस थी) पिण्डदान करशे? हवे तेनुं अर्ही आववानुं बीजुं शुं प्रयोजन होई शके छे? व्रजवासिनी स्त्रीओ आ प्रमाणे आपसमां वात-चीत करी रह्यां हतां त्यां नित्यकर्मथी निवृत्त थई उद्धवजी आवी पहोञ्च्या ॥४९॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा [[३९७]] प्रमेय-पेटा प्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘उद्धवजीए गोकुल जई नन्द-यशोदा अने गोपीजनोनुं सान्त्वन कर्युं’’ नामनो छेताळीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां तेताळीसमो) अध्याय पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)
अध्याय ४७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४४ उद्धवजीए गोपीजनोने आपेलो भगावननो आदेश त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अ. ५
विशेष - आ ४७ मा अध्यायमां भगवान् गोपीजनोने ज्ञाननो सन्देशो उद्धवजीद्वारा मोकली प्रथमना करतां विशेष निरोध सारी रीते सिद्ध करी आपे छे. लोक रीत प्रमाणे ज्यारे श्रीकृष्ण बहारगाम पधार्या, त्यारे एमने सहवास तो रह्यो नहि तेथी जेम लोकमां प्रीतिवाळाओने सहवास मटे त्यारे प्रीति शिथिल थाय छे तेवी गोपीजनोनी बाबतमां कोईने शङ्का थाय के एमनो भगवान्मां निरोध नथी थयो! ए शङ्कानी निवृत्तिने माटे भगवाने पोताना सेवकद्वारा एमने ज्ञानरूप सन्देश कहेवराव्यो छे. प्रीतिवडे पोते एनो निरोध कर्यो तो पण ज्ञानथी फरी निरोध कर्यो एमां तमे मारो आत्मा छो एम आत्मापणे एमने पोतानुं भान कराव्युं, आथी सात अर्थ कह्याःवस्तुनिश्चय, उपालम्भ, व्याजोक्तिथी दोषो गणाव्या, ए त्रण वात थई. एम न करे तो ज्ञाननो सन्देश व्यर्थ थाय केमके ए ज्ञानाधिकारिणी नथी. भक्ति, स्तुति, उपदेश ए त्रण थयां त्यारे एना दोष जतां पूर्ववत् स्नेह थयो. एमां ज्ञाननुं फल एटलुं ज के भगवान्मां दोषबुद्धि थती हती तेने ज मात्र ज्ञाने निवृत्त करी, एटले तेओ भक्त तो हतां ज एनावडे ए कृतार्थ थयां. अर्ही सात अर्थ कह्या ते साक्षात् पुरुषोत्तमे कह्या छे केमके ए छ धर्म अने पोते धर्मी एम सात रूपे क्रीडा करे छे तेथी ए स्वरूपथी ज अर्ही उपदेश थयो छे ते एणे कर्यो एटले गोपीजनो अनन्य छे एम सिद्ध थाय छे.
ईं उं ईं उं
[[३९८]] तं वीक्ष्य कृष्णानुचरं व्रजस्त्रियः प्रलम्बबाहुं नवकञ्जलोचनम् ॥ पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन् मुखारविन्दं मणिमृष्टकुण्डलम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - मोटी भुजावाळां, नवां कमळ सरखां नेत्रवाळा, पीताम्बर अने कमळनी माळा धारण करनार, शुद्ध मणि जडित कुण्डळयुक्त मुखारविन्दवाळा *उद्धवजी कृष्णना सेवक छे एम जाणी गोपीजनो एमनी नजीक गयाम् ॥१॥
विशेष - गोपीजनोए भगवान्नी असूया करी आठ दृष्टान्त कह्यां त्यारे ए भगवान्मां दोष दृष्टिवाळां थयां तेने उपदेश आपवामां शुं फळ? ए शङ्काना समाधानमां कहे छे के ए क्लेशने लईने ए प्रमाणे बोले छे. एणे मोटां कष्टोथी सर्व परित्याग कर्यो. पूर्वे ज गोविन्दमां काया, वाणी अने मननो विनियोग कर्यो छे. एने माटे ज लौकिक लज्जानो पण त्याग कर्यो छे. उद्धवजी आव्या तो एमनी पासे पण प्रियकर्मनुं ज गान करे छे. तेथी एनो दोष दूर करवो आवश्यक छे. ए दोष दूर करवामाटे उद्धवजीद्वारा एमने भगवाने उपदेश आप्यो छे. गोपीजनो आपसमां कहेवा लाग्यां ः‘‘आ पुरुषना मुख उपर पवित्र हास्य फरकी रह्युं छे अने देखावमां तो वळी बहु ज सुन्दर छे; परन्तु आ कोण छे? क्यान्थी आव्या छो? कोना दूत छे? तेमणे श्रीकृष्णनां ज वस्त्राभूषणो पहेर्यां छे’’ बधां गोपीजनो (ए भगवदीय छे एम निश्चय करी) तेमनो परिचय प्राप्त करवामाटे अत्यन्त उत्सुक थई पवित्र कीर्तिवाळा भगवान् श्रीकृष्णना सेवक अने सखा उद्धवजीने चारे तरफथी घेरी लीधा ॥२॥
विनयथी नम्रतावाळां गोपीजनोए ‘‘आ रमापति भगवान्नो सन्देशो लईने आव्या छे’’ एम जाणी एमनो सारी रीते सत्कार करी, लज्जा अने हास्ययुक्त नेत्र तथा सारी वाणीवडे आसन उपर उद्धवजीने एकान्तमां बेसाडी पूछवा लाग्यांः ॥३॥
‘‘हे उद्धवजी! अमे जाणीए छीए के आप यदुपतिना पार्षद छो अने एमनां माता-पिताने आश्वासन आपवा माटे अमारा स्वामीना मोकलवाथी तमे अर्ही आव्या छो ॥४॥
ए सिवाय अमने तो हवे आ नन्दगाममां-गायोने रहेवानी जग्यामां तेमने स्मरण करवा योग्य कोई पण वस्तु जणाती नथी. माता-पिता वगेरे सगां सम्बन्धीओनुं स्नेहबन्धन तो मोटा-मोटा ऋषि-मुनिओ पण महा मुश्केलीए [[३९९]] छोडी शके छे ॥५॥
देहसम्बन्ध न होय तेवानी साथे प्रेम-सम्बन्धनो स्वाङ्ग कोई ने कोई स्वार्थमाटे ज होय छे. पुरुषोनो स्त्रीओनी साथे अने भ्रमरोनो पुष्पोनी साथेनो सम्बन्ध आवो ज स्वार्थनो प्रेमसम्बन्ध होय छे ॥६॥
गणिका अर्थने माटे पुरुष साथे प्रीति करे छे; ए ज्यारे धन रहित थाय छे त्यारे एने छोडी दे छे. प्रजा रक्षणने माटे राजानी प्रीति करे छे. राजा ज्यारे एना रक्षणमां असमर्थ थाय छे त्यारे प्रजा एने छोडी दे छे. विद्यार्थी आचार्य पासे आवी विद्या भणे छे; ए भणी रह्यो के आचार्यने छोडी दे छे. ऋत्विजने दक्षिणा मळी एटले यजमानना घरने छोडीने चाल्यो जाय छे ॥७॥
पक्षीओ जेमान्थी फळ खाली थयां छे तेवा झाडनो आश्रय छोडी दे छे. अतिथिओ भोजन कर्या पछी भोजन करावनारना घरने छोडी दे छे. तेम ज मृग वगेरे पशुओ अरण्यमां रहेता होय तेने आग लागे तो एने छोडी बीजा जङ्गलमां रहे छे. जार पुरुष भोग कर्या पछी प्रीति राखनार स्त्रीने पण छोडी दे छे’’ ॥८॥
हे परीक्षित! गोपीजनोनां मन, वाणी अने शरीर श्रीकृष्णमां ज तल्लीन हतां. ज्यारे श्रीकृष्णना दूत बनी उद्धवजी व्रजमां आव्या त्यारे तेमनी साथे आ प्रमाणे वातो करतां-करतां ए पण भूली गयां के कई वात कोनी पासे केवी रीते कहेवी जोईए. भगवान् श्रीकृष्णे बाल्यावस्थाथी लईने किशोर अवस्था सुधीमां जेटली लीलाओ करी हती ते बधीने याद करी करीने गोपीजनो तेमनुं गान करवा लाग्यां. तेओ आत्मविस्मृत थई जई स्त्री-सुलभ लज्जाने पण भूली गयां अने रुदन करवां लाग्यां (९-१०) एक गोपीजनने भगवान् श्रीकृष्णनी सङ्गम लीलानुं स्मरण थई रह्युं हतुं ते ज वखते तेमणे जोयुं के पासे ज एक भमरो गण गणी रह्यो छे. तेमणे मान्युं के हुं रिसाई छुं एम समजी श्रीकृष्णे मनाववामाटे दूत मोकल्यो छे. ते गोपीजन भ्रमरने आ प्रमाणे कहेवा लाग्याम् ॥११॥
(श्लोक १२ थी २१ सुधीमां श्रीगोपीजनोए भ्रमरने उद्देशीने उद्धवजी आगळ दर्शावेल विरह व्यथाना आ गीतने भ्रमर गीत कहेवामां आवे छे. आ श्लोकोमां अन्योक्ति अलङ्कार होवाथी तेनी सङ्गति भ्रमरने अने उद्धवजीने एम बन्नेने लागु पडे छे) गोपीजने कह्युं - हे मधुप-भमरा! तुं कपटीनो मित्र (कार्य साधक) छे तेथी तुं [[४००]] पण कपटी छे. सोक््यना कुचथी (वृक्षःस्थळ उपरना स्तनना स्पर्शथी) वनमाला चोळाएली छे. तेनुं पीळुं केसर (कुङ्कुम) तारी दाढी मूछो उपर पण लागेलुं छे तेवो तुं अमारा चरणनो स्पर्श न कर. खोटा प्रणाम करी अमारा प्रत्ये अनुनयविनय करीश नहि. तुं पोते पण कोई पुष्प प्रत्ये प्रेम करतो नथी पण आम तेम उड्या करे छे. तारा स्वामी जेवो ज तुं छे. (व्रजपति मटीने) मधुपति बनेला श्रीकृष्ण मथुरा नगरनी मानिनीओने भले मनाव्या करे तेनो ते कुङ्कुमरूप कृपा प्रसाद, जे यदुवंशीओनी सभामां जरूर उपहास (मश्करी) करवा योग्य छे तेने पोतानी ज पासे राखे. जेनो तुं दूत थईने आव्यो छे अथवा तारी मारफत तेने अर्ही मोकलवानी जरूर नथी. (तुं अमोने छेतरवा आव्यो छे, परन्तु अमे तने ओळखी गया छीए जेथी अमो छेतराइए तेम नथी) ॥१२॥
तुं जे पुष्पनो रस लई एने छोडी दे छे तेम भगवाने पोतानी परम मादक अधर सुधानुं एक वखत पान कराव्युं अने तरत ज अमारो त्याग करी अर्हीथी पधारी गया. तुं पान करीने छोडे छे ज्यारे भगवान् अधर सुधानुं पान करावी अमने छोडे छे एटलो बन्नेमां तफावत छे. बीजी बधी बाबतोमां भ्रमर अने तमे (कृष्ण) सरखा ज छो, तो पछी चञ्चल स्वभाववाळा लक्ष्मीजी ए भगवान्ना चरणकमलनी सेवा केम करतां हशे? अवश्य नारदजी जेवा भक्तो श्रीकृष्ण सर्व श्रेष्ठ छे एम गाय छे तेथी तेमनुं चित्त एमां लाग्युं हशे. (स्त्रीओ स्वभावथी भोळी होय छे) ॥१३॥
हे षट् (छ) पगवाळा भ्रमर! अमे तो घरबार विनानां छीए. (पहेलां गोपीपति व्रजपति हता ते मटीने हवे) यदुपति बनेला श्रीकृष्णनां बहु गुणगान (यश) अमारी आगळ शा माटे गाय छे? ए आजकालनो नथी पण जे तुं गाय छे ते यश पुराणो (जुनो) छे एटले अमे बहुवार साम्भळेलो छे. जेने सदाय विजय वरेलो छे ए अर्जुनना सखा श्रीकृष्णनी मथुरानी सखीओनी पासे एमनां गुण गान कर. ते नवी छे. तेमनी लीलाओ तेओ ओछी जाणे छे अने अत्यारे ते एमनी मानीती छे. तेमना हृदयनी पीडा तेमणे मटाडी दीधी छे. तेवान्नी पासे जईने ए यश तुं गाय तो तेओ प्रसन्न थई तारुं इच्छित आपशे अथवा तारुं जरूरथी कल्याण करशे. (अमे घरबार विनानी अबळाओ तारुं शुं भलुं करी शकीए?) ॥१४॥
[[४०१]] स्वर्ग, पृथ्वी अने रसातळ ए त्रण स्थळमां भगवान्ने कोई स्त्री दुर्लभ नथी केमके कपटथी सुन्दर लागे तेवुं हसवुं अने कटाक्ष आदिवडे सङ्केत करवा एने आधिन स्त्रीओ होय छे. तो ए बधुं भगवान्मां सिद्ध होवाथी भगवान्ने कांई दुर्लभ नथी. वळी साक्षात् लक्ष्मीजी जेमनां चरणनी उपासना करे छे. तेमनी आगळ अमारो शो हिसाब! अमे तो अति तुच्छ छीए. छतां ए उत्तम श्लोक छे. (उत्तम पुरुषो आपनी कीर्तिनुं गान करे छे) तेथी अमो दीन छीए तो पण अमारो पक्ष करशे- अमारा उपर कृपा करशे. एम न करे तो उत्तम भक्तो एमनी कीर्तिनुं गान न करे तेथी अमारे दूतनी कांई अपेक्षानथी ॥१५॥
हे मधुकर! मुकुन्दनी पासे जई तेनुं दूत कार्य करवा तुं अर्ही आव्यो छे ए हुं जाणुं छुं. मनमां कपट अने उपरथी विनय एवां स्त्रीओने बनाववानाभोळववाना सुन्दर शब्द बोलतां तने आवडे छे ए पण हुं जाणुं छुं. माटे मारा चरणने मस्तक लगाडवानुं छोडी दे. जे श्रीकृष्णने माटे बाळको, पति, आलोक अने स्वर्ग वगेरे परलोक बधुं छोड्युं एनो विचार न करतां अमने छोडी दीधां एवा अकृतज्ञनी साथे अमारे समाधान के सन्धि करवानुं शुं होय? (एकवार छेतराया पछी वारंवार छेतराया करवुं?) ॥१६॥
हे मधुप! आ लोभी श्रीकृष्णे रामावतारमां पारधीनी जेम छुपाईने वानरोना राजा वालीने मार्यो. (पारधी तो एमनां करतां वधारे सारो; कारण के ए तो मांसना लोभथी मृगने मारे छे पर्न्तु आमणे तो कोई प्रयोजन विना ज वालीने र्वीधी नाख्यो!) शूर्पणखा कामवश तेमनी पासे आवी हती पण तेमणे पोतानी स्त्री (सीताजी) ने वश थई जई ने बीचारीनां नाक-कान कापी लीधां अने तेने कदरूपी बनावी दीधी. ब्राह्मणने घेर वामन रूपे अवतार धारण करी बलिराजानी पूजानो सत्कार कर्यो. बलिराजाए मागेली वस्तु आपी छतां कागडानी जेम तेने वरुण पाशथी बान्धी पाताळमां मोकल्यो. (जेवी रीते कागडो बलि खाईने पण बलि आपनाराने पोताना बीजा साथीदारो साथे मळी घेरी ले छे अने हेरान करे छे तेम) श्याम शरीर एवा श्रीकृष्णनी मित्रताथी बस थयुं अथवा मित्रता करवानुं कोई प्रयोजन नथी. छतां तेमनी लीला-कथाओ तो अमारा माटे छोडवां मुश्केल छे ॥१७॥
भगवान् श्रीकृष्णे जे-जे लीलाओ करी ते-ते लीलाओनुं वर्णन व्यासजी [[४०२]] वगेरेए कर्युं. ते श्रीकृष्णनी लीलाना कथामृतना एक कणनो पण कोई एक ज वार आदरपूर्वक रसास्वाद करी ले छे तेना सुख-दुःख, रागद्वेष वगेरे द्वन्द्व धर्मो छूटी जाय छे ते त्यां सुधी के घणा तो पोताना दुःखमय गृहस्थाश्रमने छोडी दई अकिञ्चन थई जाय छे, पोतानी पासे कंई सङ्ग्रह-परिग्रह राखता नथी अने परमहंस (सन्यासी) बनी जई, पक्षीओ जेम ज्यां त्यां चण चणे छे तेम भिक्षा मागीने आ लोकमां आजीविका चलावे छे. संसारना कामना रहेता नथी; छतां श्रीकृष्णनी लीला-कथा छोडी शक्ता नथी. हकीकतमां तेनो रस एवो छे के तेना विना जीवन टकी ज न शके तेथी तेनो त्याग अमाराथी थई शक्तो नथी ॥१८॥
जेवी रीते कृष्णसार हरणनी अज्ञानी हरणीओ पारधीना अत्यन्त मधुर गानमां विश्वास मूके छे अने तेनी जाळमां फसाई मरी जाय छे तेवी ज रीते अमे भोळां गोपीजनोए पण श्रीकृष्णनी कपटी वाणीमां विश्वास मूक्यो तेमने सत्य समान मानी बेठां अने तेमना नखस्पर्शथी थनारी कामव्याधिनो वारंवार अनुभव करीए छीए. तेथी श्रीकृष्णना उपमन्त्री बनेला दूत हे भमरा! आ विषयमां तुं कंई वधारे न बोल, तारे कहेवी ज होय तो बीजी कोई वात कहे ॥१९॥
हे प्रियतमना सखा! तुं जईने पाछो आव्यो के शुं? प्रियतमे पोतानी पासे बोलाववामाटे तने मोकल्यो छे? भगवान्नो दूत होवाथी तुं अमारा सन्मानने पात्र छे, तारे जे जोईए ते मागी ले. हे अङ्ग! जेमनो सङ्ग छोडवो घणो कठण छे एवा श्रीकृष्ण एकला तो कोई समय रहेता नथी; अत्यारे पण लक्ष्मीजी तेमना हृदयमां कायम निवास करीने रह्यां छे एवा श्रीकृष्ण पासे अमने शा माटे लई जाय छे? (एमने अमे मळ्या पछी अमे छोडी नहि शकीए अने एमना स्वभाव प्रमाणे तेओ अमने क्याङ्क छोडी दे! माटे अमोने लई जवानो आग्रह रहेवा दे; कारण के अमे निःसाधन छीए. वळी अन्य स्त्रीओथी कोई पण स्त्रीने क्लेश थाय ए स्वाभाविक छे, अर्ही रहेवामां ज अमारुं हित छे) ॥२०॥
हे सौम्य! हे भ्रमर! गुरुकुलमान्थी पाछा पधारीने आर्यपुत्र श्रीकृष्ण मथुरामां प्रसन्नतामां बिराजे छे ने? तेओ पिता नन्दरायजी अने माता-यशोदाजीना घरने के गोवाळोने कोई वार याद करे छे? कोई वखते तेओ अमो गोपीजनो तेमनी दासीओ छीए एवी वात करे छे? खरेखर ए भगवान् श्रीकृष्ण पोतानो अगर करतां पण वधारे सुगन्धीवाळो श्रीहस्त अमारा मस्तक उपर क्यारे मुकशे? (अमो [[४०३]] अबुध अबलाओ तो एमना अन्तःकरणने जाणवा असमर्थ छीए; अमे तो एमना अनुग्रहना ज मनोरथवाळां छीए) ॥२१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! एम बोलतां गोपीजनो श्रीकृष्णना दर्शननी इच्छामां आतुर थयां. एमने शान्त करता उद्धवजी प्रियनो सन्देशो सम्भळावतां गोपीजनोने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२२॥
उद्धवजी बोल्या - अहो गोपीजनो! तमे पूर्णार्थ छो, तमे लोक पूज्य छो केमके वासुदेव भगवान्मां तमारुं आटली हद सुधी मन पहोञ्च्युं छे. ए मनने तमे एमां ज अर्पण करी दीधुं छे, एटले हवे तमारे कांई कर्तव्य बाकी रहेतुं नथी ॥२३॥
दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाभ्यास अने योग वगेरे करवां, ए केवळ श्रीकृष्णनी भक्ति प्राप्त थाय ए माटे ज करवानां छे ॥२४॥
तमे तो मुनिओने पण दुर्लभ एवी श्रीकृष्णमां भक्ति प्रवृत्त करी दीधी छे. ए बहु सारुं थयुं, ए लोकनां अहोभाग्य छे के तमारी भक्तिने जोई भगवान्मां मन लगाडी शकशे ॥२५॥
तमे पुत्रो, पतिओ, देह, स्वजन, घरबार वगेरेने छोडी केवळ श्रीकृष्णने वर्यां ए पण तमारुं अहोभाग्य एम अमे समजीए छीए केमके पुरुषोत्तमने वरवुं ए मनुष्य प्रयत्नथी तो अशक्य छे ए तमारा माटे शक्य बन्युम् ॥२६॥
तमने कृष्णना विरह थवानी साथे एमां सर्वात्मभाव थई गयो तेथी तमे मोटा भाग्यवाळां छो केमके इन्द्रियो जेने पहोञ्ची न शके एमां तमोए भाव स्थिर कर्यो ए पण विरहरूपी साधनथी अने ए विरहनुं आपे मने दर्शन कराव्युं ए पण हुं आपनो अनुग्रह समजुं छुम् ॥२७॥
हुं आपणा स्वामीनुं गुप्त कार्य करनार दूत छुं. तमारा प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णे तमने परम सुख आपवाने माटे आ प्रिय सन्देशो मोकल्यो छे. हे कल्याणीओ! ते ज लईने हुं तमारी पासे आव्यो छुं. हवे ते साम्भळो ॥२८॥
श्रीभगवाने कह्युं छे - हुं सर्वनो आत्मा होवाथी, भक्तोने वश होवाथी, सत्य वक्ता होवाथी अने स्त्रीओ उपर कृपा करवी ए मारो स्वभाव होवाथी तमारो कदी पण क्यांय पण माराथी वियोग नथी ॥२९॥*
विशेष - ‘‘भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित्’’ ‘‘वियोग चार प्रकारे थाय. ए चार हेतुओने कहेनार अर्धो श्लोक लुप्त थयो होय एम लागे छे’’ एम जणावी ए [[४०४]] खूटतो उत्तरार्ध-आत्मत्वाद् भक्तवश्यत्वात् सत्यवाक्त्वात् स्वभावतः’’ वाक्पति श्रीवल्लभाचार्यजीए प्रकट कर्यो छे. गोपीजनोनो वियोग भगवान्ने नथी केमके भगवान् गोपीजनोना आत्मा छे. भगवान्नो वियोग गोपीजनोने नथी केमके ते भक्तोने अधीन छे. जेवी रीते संसारना बधा भौतिक पदार्थोमां आकाश, वायु, अग्नि, जळ अने पृथ्वीद्गए पञ्च महाभूत व्याप्त छे तेमान्थी ज बधी वस्तुओ बनी छे अने ते ज ते वस्तुओना रूपमां छे तेवी ज रीते हुं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय अने तेमना विषयोनो आश्रय छुं. ते मारामां छे, हुं तेमनामां छुं अने साचुं पूछो तो हुं ज तेमना रूपमां प्रकट थई रह्यो छुम् ॥३०॥
हुं ज मारी मायारूपी करण (साधन) द्वारा भूत, इन्द्रिय अने तेमना विषयोना रूपमां थई जई तेमनो आश्रय बनी जाउं छुं तथा स्वयं निमित्त पण बनी जई मारी जातने ज (आत्मावडे आत्माने) उत्पन्न करुं छुं, पालन करुं छुं अने एनो आत्मामां लय पण करुं छुम् ॥३१॥
जीव (जेने गोपीजनो ‘‘हुं’’ माने छे) ज्ञानप्रचुर छे. (कारण के ते सच्चिदानन्द रूप छे), शुद्ध (अविद्याना सम्बन्धथी रहित) छे. (जेवी रीते तपेली रेतीथी सूर्य जुदो छे तेवी रीते) आ देहादि सङ्घातथी ते जीव जुदो छे ते गुणोनो आश्रय करीने रहेतो नथी. ते सुषुप्ति, स्वप्न अने जागरणरूप मायानी त्रण वृत्तिओने लीधे देखाय छे ॥३२॥
इन्द्रियोना मिथ्या विषयोनुं ध्यान करनार मनने ए विषयोनुं ध्यान करतां रोकवुं. जेम जागतो माणस स्वप्नमां जोयेला विषयोने ए खोटा (मिथ्या) होवाथी तेमनुं ध्यान करतो नथी तेम खोटा विषयोना ध्यानमान्थी मन अने इन्द्रियो नो निरोध करवो जोईए अने जाणे सूईने उठ्यो होय ते प्रमाणे जगतना मिथ्या विषयोनो त्याग करे त्यारे ते मारुं ज्ञान प्राप्त करे छे. पोताना आत्माने सङ्घातथी जुदो जाणे छे त्यारे एने उपाधि कृत दोषो लागता नथी. तेथी मनने रोकवुं ए ज जन्म-मरण रोकवानो उपाय छे ॥३३॥
जेवी रीते बधी नदीओ आडी अवळी फरी फरीने समुद्रमां ज समाई जाय छे ते ज प्रमाणे विवेकी पुरुषोना वेदाभ्यास, योग-साधन, साङ्ख्य (आत्मा अने अनात्मानो विवेक), सन्यास, तप, इन्द्रियनिग्रह अने सत्य आदि समस्त धर्मो- मननो निरोध करवानां साधनो ज छे ॥३४॥
[[४०५]] हे गोपीजनो! एमां सन्देह नथी के हुं तमारी दृष्टिने प्रिय छुं. पण हुं जे तमाराथी आटले दूर रहुं छुं तेनुं कारण ए छे के तमे निरन्तर मारुं ध्यान धरी शको. शरीरथी दूर रहेवा छतां पण मनथी तमे मारी सन्निधिनो अनुभव करो, पोतानुं मन मारी पासे राखो ॥३५॥
कारण के स्त्रीओ तथा बीजा प्रेमीओनुं चित्त पोतानो प्रियतम दूर होय त्यारे जेटला निश्चल भावथी लागेलुं रहे छे तेटला निश्चल भावथी पासे रहेनार प्रियतममां लागतुं नथी ॥३६॥
बधी वृत्तिओ रहित सम्पूर्ण मन मारामां लगाडी दई ज्यारे तमे मारुं अनुस्मरण (स्मरण ए चित्तनो धर्म छे पण अनुस्मरण ए आत्मानो ज धर्म छे.) करशो त्यारे जलदी सदाने माटे तमे मने प्राप्त थई जशो ॥३७॥
जे वखते में आ (वृन्दा) वनमां शरद पूर्णिमानी रात्रिए तमारी साथे रासक्रीडा करी ते वखते जे गोपीजनोने तेमनां स्वजनोए रोकी राखवाथी व्रजमां ज रही गया हतान्द्ग मारी साथे रासविहारमां जोडाई शक्या नहोतां तेओ महाभाग्यशाळी होवाथी मारी लीलाओनुं स्मरण करवाथी ज मने प्राप्त थई गया हतां. (तमने पण हुं अवश्य मळीश. निराश थवानुं कोई कारण नथी) ॥३८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे पोताना प्रियतमनुं कथन साम्भळीने गोपीजनो अत्यन्त प्रसन्न थयां अने ते सन्देशथी तेमने श्रीकृष्णना स्वरूप अने लीलाओ नुं स्मरण थयुं. तेमणे उत्सव स्वरूप उद्धवजीने कह्युम् ॥३९॥
गोपीजनोए कह्युं - ए घणा सौभाग्य अने आनन्दनी वात छे के यादवोनुं अहित करनार पापी कंस तेना परिकर सहित मरायो. ए पण ओछा आनन्दनी वात नथी के श्रीकृष्णना बन्धु-बान्धवो अने गुरुजनोना बधा मनोरथो पूर्ण थई गया. अत्यारे अमारा प्रिय श्यामसुन्दर तेमनी साथे कुशळ छे? ॥४०॥
पण सुशील उद्धवजी! आप अमने बतावो के ‘‘जे प्रमाणे अमे अमारा प्रेमाळ लज्जाळु हास्य अने उन्मुक्त दृष्टिथी एमनी पूजा करतां हतां अने ते पण अमारा उपर जे भाव राखता हता ते ज प्रमाणे मथुरानी स्त्रीओ साथे पण गदना मोटाभाई श्रीकृष्ण प्रेम करे छे के नहि?’’ ॥४१॥
त्यां तो बीजा गोपीजन बोल्या, ‘‘अरे सखी! आपणा प्यारा श्यामसुन्दर तो प्रेमनी मोहिनी कलाना निष्णान्त छे. बधी उत्तम स्त्रीओ एमना उपर प्रेम [[४०६]] दर्शावे छे. जो नगरनी स्त्रीओ एमनी साथे मीठी-मीठी वातो करे अने हावभावपूर्वक तेमनी तरफ जुए तो ते एमना उपर केम प्रसन्न न थाय?’’ ॥४२॥
त्रीजा गोपीजने कह्युं. ‘‘सौम्य! (साधो!) आप ए तो बतावो के पुरनी स्त्रीओमां कोई वात चालती होय अने अमारा व्हाला गोविन्द निःसञ्कोच प्रेमनी वातो करता होय त्यारे क्यारेय प्रसङ्गवशात् अम गामडिया गोवालणोने याद करे छे?’’ ॥४३॥
केटलाङ्क गोपीजनोए कह्युं, ‘‘हे उद्धवजी! शुं श्रीकृष्ण क्यारेय ते रात्रिओने याद करे छे के जेमां कुमुदिनी अने कुन्दना पुष्पो खीली रह्यां हतां, चारे तरफ चान्दनी खीली रही हती अने वृन्दावन अत्यन्त रमणीय थई रह्युं हतुं? ते रात्रिओमां ज तेमणे रासमण्डल रची अमारी साथे नृत्य कर्युं हतुं. केवी सुन्दर हती ए रासलीला! ए वखते अमारा पगनां नूपुर रूपझूम रूमझूम वागी रह्यां हतां. अमे बधी एमनी ज ललित लीलाओनुं गान करी रही हती अने ते अमारी साथे विहार करी रह्या हता’’ ॥४४॥
बीजां गोपीजन बोली उठ्या, ‘‘अमे बधां तो तेमना विरहाग्निमां बळी रह्यां छीए. देवराज इन्द्र जेवी रीते जल वरसावी वनमां लागेला दावानलने शान्त करे छे ते प्रमाणे दाशार्ह श्रीकृष्ण पोताना श्रीअङ्गना स्पर्शथी जीवनदान आपीने अमारुं सान्त्वन करवा अर्ही पधारशे खरा?’’ ॥४५॥
त्यां वळी एक बीजां गोपीजने कह्युं, ‘‘अरे सखी! हवे तो तेमणे शत्रुओने मारी नाखीने राज्य मेळवी लीधुं छे. (दिग्विजय दरमियान) ते अनेक राजकुमारीओ साथे लग्न करशे तेमनी साथे आनन्दपूर्वक रहेशे, अनेक लोको तेमना सुहृद बनशे अने पुत्रपौत्रादि थशे. पछी अर्ही अम गामडियणो पासे शा माटे आवे?’’ ॥४६॥
बीजां गोपीजने कह्युं, ‘‘नहि सखी! महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति छे, एमनी बधी ज कामनाओ स्वतः पूर्ण छे. ते *कृतात्मा छे आपण वनवासी ग्वालणो के बीजी राजकुमारीओ साथे एमने कोई प्रयोजन नथी. आपणा विना एमनुं क्युं काम अटकी रह्युं छे? ॥४७॥
विशेष - कृतात्मा-कृताः स्वार्थमात्मानो येन जेणे बधाने पोतानी क्रीडामाटे ज उत्पन्न [[४०७]] कर्या छे ते ‘कृतात्मा’ केटलाक टीकाकारो ‘कृतात्मा’ नो अर्थ कृतकृत्य करे छे. (श्रीसुबोदिनीजी) वेश्या होवा छतां पिङ्गलाए केवी मझानी वात करी के संसारमां कोईनी पण आशा न राखवी ए ज मोटामां मोटुं सुख छे. आ वात अमे जाणीए छीए छतां पण अमे भगवान् श्रीकृष्णना पधारवानी आशा छोडी शक्तां नथी. (पिङ्गलाए कृष्णनी आशा राखी, बीजा बधानी आशा छोडी. अमे कोनी आशाए कृष्णनी आशा छोडीए?) ॥४८॥
जेनी कीर्तिनुं गान नारदजी जेवा महात्माओ करता रहे छे एवा अमारा श्यामसुन्दरे अमारी साथे एकान्तमां जे मीठी-मीठी वातो करेली तेनुं अखण्ड स्मरण रहे तेवो नातो बान्धेलो ते छोडवानो, भूलवानो उत्साह पण कोण करे? जुओ ने तेमनी (श्रीकृष्णनी) इच्छा न होवा छतां स्वयं लक्ष्मीजी एमनुं अङ्ग (वक्षःस्थळ) एक क्षणवार पण छोडी क्यांय जतां नथी ॥४९॥
आ ए ज नदी (यमुनाजी) छे जेमां ते विहार करता हता, आ ए ज पर्वत (गोवर्धन) छे जेना शिखर पर चडी ते वेणु वगाडता हता. वनना आ ते ज विभागो छे ज्यां रात्रे रासलीला करता हता अने आ ए ज गायो छे जेमने चराववाने माटे ते सवार साञ्ज जता आवता हता. आ एवो ज वेणुरव अमारा कानमां गुञ्जी र्हयो छे के जेवो ते पोताना अधर संयोगथी छेड्या करता हता. बलदेवजीनी साथे श्रीकृष्णे अनेक लीलाओ करेली ते हे प्रभो! तमे (उद्धवजी) भूलवा समर्थ हो तो भले भूली जाओ, अमाराथी तो भूली शकाय तेम नथी ॥५०॥
अर्हीनो एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण अने अमारां श्रीअङ्ग आपना परम सुन्दर चरण कमलोथी अङ्कित छे तेमने ज्यारे अमे जोईए अने साम्भळीए छीए त्यारे ते नन्दनन्दनने अमारा नेत्रोनी सामे लावीने मूकी दे छे. हे उद्धवजी! अमे कोई पण रीते (मरी जईने पण)तेमने भूली शकीए एमनथी ॥५१॥
आप (श्रीकृष्ण) नी ए (हंस जेवी) सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण दृष्टि अने मधझरती वाणी! ए बधांए अमारुं चित्त हरी लीधुं छे, अमारुं मन अमारुं नथी रह्युं; हवे अमे तेमने भूलीए तो केवी रीते भूलीए? ॥५२॥
अमारा प्यारा श्रीकृष्ण! आप ज अमारा जीवनना स्वामी छो. आप लक्ष्मीनाथ हो तेथी शुं थयुं? अमारा माटे तो व्रजनाथ ज छो. श्यामसुन्दर! आपे [[४०८]] अनेक वखत अमारां दुःख दूर र्क्यां छे. हे गोविन्द! आपनुं आ आखुं गोकुलद्ग जेमां ग्वालबाल, माता-पिता, गायो अने अमे गोपीजनो बधां आवी गया-ते दुःखना अपार सागरमां डूबी रह्युं छे. आप एने बचावो, *डूबताने बचावनार आपना विना बीजो कोई नथी. वेदोने पण आपे ज डूबता बचाव्या हता, तो आप गोकुलने पण बचावो. ए काम आप बीजाद्वारा करावो तो एमां उभयनी गौणता थशे’’ ॥५३॥
विशेष - पहेलां एक ज गजेन्द्र एक तळावडीमां अर्धो ज डूबेलो हतो. तेनो पण दयाथी जो उद्धार कर्यो तो अमारो उद्धार करवामां विलम्ब केम? उद्धार करवामां आप ज समर्थ छो. पहेलां कच्छप अवतार धारण करी मन्दराचल पर्वतनो उद्धार कर्यो, मत्स्यावतार धारण करी वेदोनो उद्धार कर्यो तेम अत्यारे गोविन्द स्वरूपे अमारो दुःखना समुद्रमान्थी उद्धार करो. श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवान् श्रीकृष्णनो सन्देशो साम्भळी गोपीजनोनी विरह व्यथा दूर थई गई. (अत्यार सुधी इन्द्रियोनो अध्यास होवाथी तथा देहने ज आत्मा मानेल होवाथी भगवान् आत्मारूपे प्रतीत थया न हता ते हवे, उपदेश पछी इन्द्रियाध्यास दूर थवाथी) भगवान् तेमने आत्मारूपे प्रतीत थया; एटले प्रेम अने आदरपूर्वक उद्धवजीनो सत्कार करवा लाग्याम् ॥५४॥
उद्धवजी गोपीजनोनी विरह व्यथा दूर करवा महिनाओ सुधी गोकुलमां रह्या. ते भगवान् श्रीकृष्णनी अनेक लीलाओ अने प्रसङ्गो श्रवण करावी-करावी व्रजवासीओने आनन्दित करता रहेता ॥५५॥
नन्दरायजीना व्रजमां जेटला दिवसो उद्धवजी रह्या तेटला दिवसो दरम्यान भगवान् श्रीकृष्णनी लीलानी चर्चा थती होवाने कारणे व्रजवासीओने ए लाम्बो समय एक क्षण जेवो लाग्यो ॥५६॥
भगवान्ना परम प्रेमी भक्त उद्धवजी क्यारेक नदी किनारे जता तो क्यारेक वनमां, क्यारेक श्रीगिरिराजजीनी घाटीओमां फरता, तो क्यारेक रङ्गबेरङ्गी फूलोथी लचेलां वृक्षो जोई मग्न थई जता. अर्ही भगवान् श्रीकृष्णे कई-कई लीला करी छे ते पूछी-पूछीने व्रजवासीओने भगवान् श्रीकृष्णनी लीलाना स्मरणमां तन्मय करी देता ॥५७॥
श्रीकृष्णना आवेशथी गोपीजनोना देहनी विकळता, अन्तर्निष्ठा अने भगवद्विरह जोई, उद्धवजी अत्यन्त प्रसन्न थया अने तेमने नमस्कार करता आ [[४०९]] प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥५८॥
उद्धवजी बोल्या - १आ पृथ्वी उपर जो कोईए देहने धारण करी जाण्यो होय तो एकलां आ गोपवधूओ ज देहधारी कही शकाय केमके तेओ सर्वात्मा गोविन्दमां दृढ भाववाळां छे, जे भावने संसारथी भय पामेला मुनिओ अने आपणे बधा इच्छीए छीए, पण हजु प्राप्त करी शक्या नथी. अनन्त भगवान्नी कथामां जेने रस नथी एवा ब्रह्मजन्मथी२ पण शुं फल? कांई ज नहि ॥५९॥
विशेषः १. अर्ही उद्धवजी गोपीजनोना चरणरेणुनी अभिलाषाथी छ श्लोक (५९ थी ६४)
थी एमने नमस्कार करे छे ते श्लोको ‘‘उद्धवगीत’’ नामथी प्रसिद्ध छे. पुष्टिमार्गीय
आह्निकमां ए श्लोकोने प्रातःस्मरण रूपे लख्या छे.
२. शरीरधारी जो कोई कहेवाय तो ए केवळ गोपीजनो ज कहेवाय. ज्ञानीओ, लौकिको
अने भक्तो ए त्रणे शरीरधारी न कही शकाय. कारण लौकिकवाळानुं तो जीवन ज व्यर्थ छे.
दोरडेथी बन्धायेलो होय ते दोरडावाळो न गणाय. पण बीजाने बान्धे ते दोरडावाळो; एम
शरीरधारी पण ते ज गणाय के जे शरीरनो स्वतन्त्र उपयोग करी शके. ज्ञानीओने तो शरीर
केवळ ज्ञान थतां सुधी ज उपयोगी छे; ए पण ज्ञानसाधकपणे; पछी तो एने शरीर व्यर्थ
छे. एने अपेक्षा नथी छतां भारनी पेठे एने सम्भाळवुं पडे छे. भक्तो मूढपणाथी देहने
आत्मा माने छे. एमां ज आत्मबुद्धि दृढ होवाथी तेमज बहिर्मुखताथी ए तनुरूप ज
गणाय, पण तनुधारी न गणाय. एने पण कालान्तरे सत्फल थई शके खरुं. आपणा जेवा
जेने कांईक ज्ञान पण छे तेनो भाव मन्द छे तेथी तनुभृत तो न कहेवाइए. तेथी तनुधारीमां
उत्कर्ष क्यांय देखातो होय तो ए आ गोपीजनोमां ज देखाय छे. कोई कहे के एवा तनुधारी
लक्ष्मीजी वगेरे छे. पृथ्वी उपर प्रह्लाद वगेरेनो उत्कर्ष छे; तो त्यां कहेवानुं के गोपनी
स्त्रीओमां तो उत्कर्ष में अर्ही ज जोयो. आवी हीन जातिमां आवीने भगवान्मां आवो उत्कट
भाव तो गोपवधू विना अन्यत्र सम्भळातो नथी. तेओ तनुभृत कही शकाय. स्वाधीन देहनुं
भगवान्मां परिनिष्ठित थवुं ए फल छे. ए फळ एमणे मेळव्युं तेथी एमनो उत्कर्ष छे. अर्ही
शङ्का थाय के ज्ञाननिष्ठा श्रेष्ठ छे. केमके भगवाने पण एने ज्ञानसन्देश कहेवराव्यो छे; श्रुति
पण ‘‘आत्मलाभान्न परं विद्यते’’ एम कहे छे. एना उत्तरमां कहेवानुं के
आत्मालाभवाळा पण जे भावनी इच्छा ज करे छे तेने पण ए भाव सहज प्राप्त थतो
नथी. ए आमने प्राप्त थयो माटे ब्रह्मभाव करतां पण कृष्णभावनो उत्कर्ष छे. तेथी ज किं
ब्रह्मजन्मभिः एम कह्युं. संसारथी भय पामेला मुमुक्षुओ, मुक्तो अने उद्धवजी कहे
[[४१०]]
छेःआपणा जेवा भक्तो पण अने चकारथी बीजा धर्ममार्गवाळाओ ए भावने इच्छीए
छीए; ए सम्पादन करी शक्ता नथी. विदेह कैवल्य पर्यन्त ज्ञानीओने पण बहिःसंवेदन होय
छे; जीवन्मुक्तने पण एम सम्भळाय छे. प्रह्लादे पण राज्य कर्युं छे तेथी एमने पण ए
कोटिमां ज गणवा जोईए. बहिःसंवेदनमां तो सर्वशास्त्रमां आ अवस्था कहेवामां आवे छे.
तेथी अवस्थानो विचार करतां तो आ गोपवधूओने ज तनुभृत् कहेवां पडशे. त्यां शङ्का करे छे
के एमना करतां ब्रह्मने जाणनार वसिष्ठादि ब्राह्मणो श्रेष्ठ केम न गणाय? एना उत्तरमां कहे
छे के शुक्ल, सावित्र अने याज्ञिक एवा त्रण ब्रह्मजन्मथी शुं फल छे? कांई नहि केमके एने
बहिर्निष्ठामां वेदार्थानुष्ठान अने अन्तर्निष्ठामां ब्रह्मचिन्तन छे तो पण कर्म करतां भक्ति
श्रेष्ठ छे. कर्म तो प्रपञ्च स्वास्थ्य करावनार छे. भक्तिनुं एम नथी. तेथी अनन्तनी कथामां
जेने रसन आव्यो तेवा कर्मोपयोगी ब्रह्मजन्मथी कांई फल नथी. अथवा जेने
भगवत्कथामांरस आव्यो तेने ब्रह्मजन्म अपेक्षित नथी केमके एने तो साधन दशामाञ्ज फळ
प्राप्त थाय छे तेथीए ज उत्तमछे.
क्यां आ (दर्ही, दूध वेचवाने माटे) वनमां फरनारी, आचार, ज्ञान अने जातिथी
हीन (व्यभिचार दोषवाळी) गामडान्नी ग्वालणो अने क्यां भगवान् श्रीकृष्णमां आ
अनन्य परम प्रेम? धन्य छे! धन्य छे! आथी सिद्ध थाय छे के जेवी रीते कोई
अजाणतां पण औषधराज अमृत पी ले तो पण ते अमृतना वस्तु सामर्थ्यथी ज
तमारा रोगोथी मुक्त अने अमर बनी जाय छे. तेवी ज रीते, जो कोई भगवान्नुं
स्वरूप अने माहात्म्य जाण्या विना* पण तेनुं भजन करे तोय प्रभु पोताना
स्वरूपबलथी, कृपाथी तेनुं परम कल्याण करी दे छे ॥६०॥
विशेष - एक तो आ गोपीजनो एटले जातिथी हीन छे, एमां पण स्त्रीओ योनिथी हीन छे. स्थानथी हीनता कहे छे के ए वनमां फरनारी छे. सारा कुलमां उत्पन्न थईने पछी वनमां जाय तेनी उत्तमता शास्त्रमां कही छे. एम न होय तो हरिण आदिनी पण उत्तमता कहेवी पडशे. माटे वने तु सात्विको वासः इत्यादिथी वनस्थनी प्रशंसा करी छे. ए वनमां रहेनारनी नथी, पण घर छोडनारनी छे. चरी कहेवामां पण स्वाच्छन्द्य छे. ए पण स्त्रीओने न जोईए तेथी लोक रीते सर्व रीते जेमनो अपकर्ष छे तेमना भावनो विचार करतां ए सर्वोत्कर्ष बतावनारो छे. तेथी खरी रीते विचार करतां भगवाने लोकमां भगवद्भाव केवो जोईए ए बताववामाटे आ गोपीजनोने पोते जगतमां प्रकट कर्या छे. पण भगवान्ने आवता विलम्ब थयो तेथी भ्रमथी एमणे गोपोमां पतिबुद्धि करी, एटलो एमना भावमां व्यभिचार थयो. [[४११]] जेम अहल्या गौतमना भ्रमथी प्रवृत्त थई तो पण दोष लाग्यो. ते दोष दूर करवो जोईए, पण त्यां तो एमने भगवान्मां भाव उत्पन्न थयो; ज्यारे श्रीकृष्णमां एमने आवो भाव थयो त्यारे एमने अन्य सम्बन्ध नथी एम सिद्ध थाय छे. जो एमनामां व्यभिचार दोषनी सम्भावना होय तो श्रीकृष्णमां एमने आवो भाव न थाय तेथी एमना पतिओ ‘‘मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः’’ ए न्यायथी एमनुं रमण ए गोपीजनोथी नथी पण एमणे अभिमान मात्र कर्युं छे एम समजवुं. भगवद्भोग्य वस्तुमां गोपो स्वभोगबुद्धि करी न शके. एम करे तो एमनो नाश थाय. कदाच धारो के एमनामां दोष थयो होय तो एमनो आवो भाव न थाय; तेथी भावान्यथानुपपत्तिथी पण एओ निर्दोष छे, एम सिद्ध थाय छे. एमनो भाव सदानन्दमां छे तेथी ए भाव तो निर्दोष छे. जो भगवान्मां भाव राखतां दोष थतो होय तो कोई फलने माटे कांई पण कर्म आदि न करे; तेथी भगवान्मां भाव थाय एमां दोष नथी. ज्यारे परमानन्द प्रकट थाय छे तेमां भाव थाय त्यारे ए सर्व पुरुषार्थने सिद्ध करे छे. ईश्वररूपे जाण्या वगर एमां भाव थाय ते सर्व पुरुषार्थसाधक केम थाय? एमां दृष्टान्त आपे छे के रोगी अमृतना गुणने जाणतो नथी छतां ए एनुं सेवन करे तो ए अमृत पोतानो गुण एना शरीरमां दाखल करी एने अमर बनावी दे छे. एमां रोगीने अमृतना ज्ञाननी जरूर रहेती नथी; तेवी रीते श्रीकृष्ण पण भूतळ उपर प्रकट होय अने एमना स्वरूपने नहि जाणनारनी उपर पण ए कृपा करे तो ए एना सर्व पुरुषार्थने सिद्ध करी आपे छे. एमां एना साधननी ए दरकार करता नथी, पण स्वप्रमेयबळने लईने ए सर्व सिद्ध करी आपे छे. जेम औषध पेटमां प्रवेश कर्या पछी कोई प्रकारनी रोगीनी पासेथी मददने इच्छतुं नथी, पण स्वयं आरोग्य करवामां स्वसामर्थ्यवडे प्रवर्ते छे तेम भगवान् पण करे छे. तेथी एवो भाव ज्ञानादि निरपेक्ष छतां सर्व पुरुषार्थ साधक थाय छे ए वात निःसन्देह छे. अर्ही एक स्वतन्त्र लेख आ श्लोक उपर छे तेनुं भाषान्तर अर्ही जाणवामाटे आपीएछीए. परिणीत पतिनी सेवा करवी ए व्यभिचार न गणाय केमके एम होत तो धर्मशास्त्रमां एनुं प्रायश्चित्त होत; पण एवुं प्रायश्चित्त जोवामां आवतुं नथी. तेथी ए धर्म्य छे. जो एम न मानीए तो स्त्री मात्रने ए दोष प्राप्त थाय. वळी स्वपतिथी थयेल पुत्र आदि अधर्मथी उत्पन्न थयेला गणाय अने एने अग्निहोत्र आदि धर्मनो अधिकार पण न रहे. तेथी चतुर्वर्गनो उच्छेद थाय अने धर्मने कहेनार शास्त्र पण व्यर्थ जाय केमके एने शुद्ध अधिकारी मळी शक्तो नथी. भगवत्पुत्रोने उद्देशीने धर्मशास्त्र कहेवामां आव्यां नथी. वळी भगवत्पत्नी [[४१२]] सिवायनी स्त्रीने ‘सती’ शब्दथी बोलावाय पण नहि. एवा शब्द भागवत आदिमां भगवत्पत्नी सिवायनामां व्यासजीए प्रयोज्या होत तो ए पण खोटा लेखाशे! आ शङ्कानो उत्तर आपतां कहे छे के वर्णाश्रमना धर्मो देहनिष्ठ छे तेने उद्देशीने धर्मशास्त्रनी प्रवृत्ति छे तेथी ए दैहिक धर्मने कहेनार छे. पण धर्मशास्त्र भगवद् धर्मने कहेनार नथी केमके भगवद् धर्म भिन्न अधिकारीओने माटे कहेवायो छे. देहमां आत्मानो अध्यास होवाथी ए धर्मशास्त्रीय धर्मोमां ‘स्वधर्म’ शब्दनो प्रयोग थाय छे. खरी रीते जोईए तो ‘आत्मधर्मो’ ज स्वधर्म कहेवाय छे. ‘स्व’ शब्दनी शक्ति आत्मामां ज छे. देहमां नथी. (एटले के ‘स्व’ शब्दनो अर्थ आत्मा ज छे, देह नहि) तेथी धर्मशास्त्रीय धर्मोनो अधिकारी अविद्वान छे, ज्यारे विद्वाननो भक्तिमां मुख्य अधिकार छे. ए वात अवतारहेतुवादना प्रस्तावमां कही छे त्यां ‘‘तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनां भक्तियोगवितानार्थम्’’ एम स्पष्ट कह्युं छे. ‘‘मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्’’ ए व्याससूत्र पण ए वातनुं ज समर्थन करे छे. अर्ही भागवतमां भक्तिमार्गनी रीते सर्व अर्थनुं कथन छे. ए भगवद् मार्गमां भगवान् सिवायना अन्यनुं भजन दोष उत्पन्न करनार छे. आ सिद्धान्त छे. तेथी आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान्, धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत् स च सत्तमः॥ इत्यादि वाक्योथी बधा धर्मोना त्यागपूर्वक भगवद्भजननुं विधान अर्ही छे. तेथी अस्वधर्ममां पण स्वधर्म कहेवो ए कपट छे एम माननार व्यासजीए भागवतना आरम्भमां ‘‘धर्मः प्रोज्झितकैतवोत्र’’ एम प्रतिज्ञा करी छे तेथी भक्तिमार्गमां विहित अने निषिद्ध धर्मो धर्मशास्त्रमां न होय ए वात देखीती ज छे केमके एना विषय जुदा ज छे. चालता प्रसङ्गमां कहेवानुं के भगवान् प्राप्त करवा ए अत्यन्त कठिन काम छे. स्त्रीओने स्वतन्त्र रहेवुं पोषाय नहि केमके एमनामां राग विशेष होय छे. तेथी एओ स्वतन्त्र थाय तो एमनो नाश थई जाय, एम धारी भगवाने पोताने माटे उत्पन्न करेल गोपीजनोने, पोताने आवता विलम्ब थतां एमने धर्ममार्गीय बनावी एमनी रक्षा करी. तेथी एओ पतिसेवा करतां व्यभिचार दोषवाळां न थयां एम तो न कहेवाय केमके सहज भर्ताथी जुदा पुरुषनुं एमणे भजन कर्युं. तेथी मूळमां शुकदेवजीए व्यभिचारदुष्टाः एम गोपवधूने विशेषण आप्युं. तेथी ज श्रीरुक्मिणीजीए ः त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्तर्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्, जीवच्छवं भजतिकान्तमतिर्विमूढा याते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रतीस्त्री (श्रीभागवत १०.६०.४५) इत्यादि कह्युं छे. पण भगवान् अत्यन्त दुराप होईने बीजाना [[४१३]] भजन रहित भगवद्भजन करवुं. एम करवाथी भगवान् प्राप्त थई शके. आ भक्तिमार्गनो निष्कर्ष छे. आ गोपीजनो तो भगवदर्थ ज प्रगट थयां हतां तेथी श्रीआचार्यचरणे कह्युं छे ते योग्य ज छे. अथवा धर्म बे प्रकारनो छेःआन्तर अने बाह्य. ए दरेक त्रण प्रकारनो छे. शास्त्रोमां कहेलो भगवद्विषयक श्रवणादिधर्म अन्तरङ्गतम धर्म छे. योग आदि साधनद्वारा भगवद् चिन्तन आदि अन्तरङ्गतर धर्म छे. तेथी ज ‘‘अयं हि परमो धर्मो यद् योगेनात्मदर्शनम्’’ (योगथी आत्मानुं दर्शन थाय ए परम धर्म छे) एम याज्ञवल्क्य स्मृतिमां कह्युं छे. फल उद्देश वगर ईश्वर अर्पण बुद्धिथी करेलो यज्ञ आदि धर्म अन्तरङ्ग धर्म छे. आ त्रण अन्तरङ्ग धर्मो कह्या. स्वर्गने उद्देशीने करातो वर्णाश्रम धर्म वैदिक धर्म बहिरङ्ग धर्म कहेवाय. एनाथी तुच्छ स्वर्ग आदि जेनुं फल छे तेवो विविध स्त्रीपुरुषोना अधिकारने लईने पातिव्रत्यादि अनेक देवतानां व्रतो वगेरे स्मार्त धर्म बहिरङ्गतर धर्म कहेवाय. ऐश्वर्य, आरोग्य वगेरे जेनुं फल छे तेवो जुदा-जुदा देवो अने ग्रह आदिना पूजनरूप धर्म ते बहिरङ्गतम धर्म कहेवाय छे. एमां पूर्व-पूर्व प्रबळ समजवो. पूर्व न बने तो पछीनो करवो. प्रेम थया पछी पोताने व्यसन थई जतां जे श्रवण आदि थाय ते धर्मरूप नथी गणातुं, केमके एमां ‘‘चोदनालक्षणोर्थो धर्मः’’ ‘‘जेमां वेदनी प्रेरणा होय ते धर्म कहेवाय’’ ए लक्षण घटतुं नथी. पूर्वोक्त प्रवृत्ति निवृत्तिमां एनो अधिकार ज प्रयोजक छे. भगवान् मर्यादा अने पुष्टिमान्थी जे मार्गमां जीवनो अङ्गीकार करे तेमां एनो अधिकार छे एम जाणवुं अने ते-ते शास्त्र एना धर्मनुं निरूपक जाणवुं अने एमां कह्या प्रमाणे न करे तो एने दोष लागे. तेथी ज अर्जुननो मर्यादापुष्टिमां अङ्गीकार होवाथी निषिद्ध गुरुहनन आदि न करवाथी भगवाने एने दोष लागवानुं क्ह्युं छे - ‘‘अथ चेत्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’’ तेम अर्ही पण स्त्रीरत्नोनो पुष्टि पुष्टिमां अङ्गीकार छे, तेथी एमनो मर्यादाधर्ममां अधिकार नथी; पण भगवान् साथे एमने सम्बन्ध नथी छतां एमनुं भजन एमणे कर्युं. अङ्गीकारमां अधिकार ज कारणरूप छे. अनधिकारीने धर्मनी स्फूर्ति नथी थती. तेथी भार्यादिक धर्म आमने माटे परधर्म छे. तेथी विवाहित पतिभजनने पण श्रीशुकदेवजीए व्यभिचारमां गण्युं. अदिति आदिमां भगवाने मातृत्व स्तापन कर्युं तेथी एमने एवा भावथी पण फल मळ्युं. नहि तो लौकिक पुत्रभावथी फल न मळवुं जोईए, पण ए तो भगवान्ने ए भावथी ज मेळवी शक्यां. आवा चार स्वतन्त्र लेखो छे ते बधा अर्ही आपतां घणो विस्तार थाय, माटे विशेष [[४१४]] जिज्ञासुए श्रीसुबोधिनीजी साथे ए छपाया छे तेमान्थी जोई लेवा विनन्ति छे. अर्ही तो मात्र दिग्दर्शनार्थ एक आप्यो छे. भगवान् श्रीकृष्णे रासोत्सव वखते आ व्रजाङ्गनाओना कण्ठने भुजदण्डवडे ग्रहण करीने एमना मनोरथ पूर्ण कर्या, एमने भगवाने जे कृपाप्रसादनुं दान कर्युं, ते भगवान्नी परम प्रेमवती नित्यसङ्गिनी लक्ष्मीजीने पण प्राप्त थयो नथी. कमलना जेवी सुगन्ध अने कान्ति थी युक्त देवाङ्गनाओने पण नथी मळ्यो. पछी बीजी स्त्रीओनी तो वात ज शी?* ॥६१॥
विशेष - अर्ही अन्योन्याश्रय दोष बतावे छे. आवो भाव भगवान्मां उत्तम कारणना अभावे न थाय. तेथी कह्युं के भगवाने एमने एवा भावनुं दान कर्युं. भगवाने एमने ज केम दान कर्युं एमां कारण ए ज के भगवान्नी इच्छाने अनुकूळ एमणे भजन कर्युं. त्यां एवी इच्छा केम करी ए दोष एमनो ए प्राप्त थाय छे, तेथी एनुं एक साधन नक्की करीने कहेवुं जोईए, भगवान्नी इच्छा के कोई बीजुं कारण एमान्थी एक नक्की करो. जो भगवान्नी इच्छा कहो तो एमां गोपीजनोनी स्तुति करवानी जरूर नथी. बीजुं कारण छे एम कहो तो ‘‘किं ब्रह्मजन्मभिः’’ ए कह्युं छे ए कहेवुं न जोईए. एम अन्योन्याश्रय दोष बतावीने एनो परिहार करतां कहे छे के भगवान्नी इच्छाथी एमने आ कृपा प्राप्त थई छे. एमां एमनी स्तुति तो एटल माटे ज के सृष्टि थई त्यारथी आज सुधीमां आवी मोटी कृपा आ गोपीजनो उपर प्रथम ज थई तेथी एमनी स्तुति करवामां आवे छे. प्रसादनी सम्भावनानां स्थान बतावी, एमां आवी कृपा नथी थई, ए वात अर्ही स्पष्ट करे छे के भगवान्ने मुख्य कृपापात्र लक्ष्मीजी छे. तेमनी साथे भगवान् रमण करे छे. तो पण आ गोपीजनोनी उपर कृपा करी तेवी कृपा लक्ष्मीजी उपर करवामां न आवी. भगवान् इन्द्र, उपेन्द्ररूपे थाय छे, स्वर्गनी कमळगन्धवाळी पद्मिनीओनो इन्द्रादिरूपे भोग करे छे, छतां आवी कृपा एमनी उपर न थई त्यारे बीजा अवतारोना सम्बन्धमां आवेली स्त्रीओ तो एवी कृपाने क्यान्थी मेळवी ज शके? ए प्रसाद क्यो ए बतावे छे के रासना उत्सवमां भगवान्ना भुजदण्डवडे जेमना कण्ठनुं ग्रहण थयुं छे तेनाथी जे एमना मनना मनोरथ पूरा थया ए प्रसाद एमनी उपर ज थयो. भगवान् अवतार धारण करे तो एक रूप प्रकट करे, पण आने माटे तो ‘‘कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः’’ इत्यादि प्रकारे अनेक रसमां अभिनिवेश करी रम्या, एवुं रमण बीजे साम्भळवामां नथी; तेथी आ प्रसाद तो गोपीजनोमां ज देखाय छे. जो के बीजे एनुं वर्णन नहि होय तो पण ए सर्वोत्तमा छे एम कहेवुं ज पडशे; नहि तो [[४१५]] उद्धवजी जेवा के जेनी भगवाने ‘‘नोद्धवोण्वपि मन्न्यूनः’’ एवी स्तुति करी छे ते ज्यारे गोपीजनोना चरणरजनी अभिलाषा करे त्यारे एमनी उत्तमतामां बे मत केम होईशके? मारा माटे तो सौथी श्रेष्ठ वात ए ज छे के हुं आ वृन्दावन धाममां कोई गुल्म (झाडी), लता अथवा औषधि-जडबुट्टी ज बनी जाउं. आहा! जो हुं ए बनी जाउं तो मने आ व्रजाङ्गनाओनी चरणधूली निरन्तर सेवन करवाने माटे मळती रहेशे. *एमनी चरणरजमां स्नान करी हुं धन्य बनी जईश. धन्य छे आ गोपीजनोने! जुओ तो खरा, जेमने छोडवा अत्यन्त कठण छे ते स्वजन- सम्बन्धीओ तथा लोक-वेदनी आर्यमर्यादानो परित्याग करी एमणे भगवान्नी पदवी, एमनी साथे तन्मयता, एमनो प्रेम प्राप्त करी लीधो छे. बीजानी तो वात ज शी-भगवान्नी वाणी, एमना निश्वासरूप समस्त श्रुतिओ, उपनिषदो पण अत्यार सुधी भगवान्ना परम प्रेममय स्वरूपने शोधती ज रहे छे, प्राप्त करी शक्ती नथी ॥६२॥
विशेष - आ गोपीजनोना दासनो दास थवाने पण हुं लायक नथी, तो एमनुं दास्य तो हुं केम मागी शकुं? केमके अयोग्यनी इच्छा करनार पुरुषनो पात थाय छे. माटे एमनु चरणरेणुने सेवनार गुल्मलता के औषधिमां हुं कोईक जग्याए थाउं, ज्यां मने एमना चरणनी रजनो सम्बन्ध थाय. प्रथम तो जङ्गम प्राणीमां जन्मवानो मारो अधिकार नथी. एम जो होय तो जङ्गममां कृति रही छे तेना वडे मारे प्रभुथी दूर थवुं पडे. व्यवहार योग्यमां तो गोपीजनो साथे समानताथी व्यवहार थाय ए पण अयोग्य गणाय. स्थावरमां वृक्ष आदि थाउं तो घणो काल स्थिति करतां भगवान्ने मळवामां विलम्ब थाय; माटे जे जेना चरणनी इच्छा करे ते तेने प्राप्त (तद्रूप) थाय छे अथवा एनो थाय छे तेथी थोडा आयुष्यवाळुं चरणरज प्राप्त करे एवो जन्म मने इष्ट छे. माटे गुल्मलता के औषधिमां जन्म थाय तेमां पण रजनो सम्बन्ध थाय एवा लता आदिमां ज, नहि के तुलसी, कुन्द, जाती वगेरेमां. केमके एमां तो हस्तसम्बन्ध थाय, भगवान्ना मस्तकनो सम्बन्ध थाय. ए अर्ही इष्ट नथी तेथी वृन्दावनमां कोई जग्याए एवो जन्म थाय. त्यां शङ्का थाय के गोपीजनोनी चरणरजवडे तो गोपीजनोमां एक्ता न थाय! एना उत्तरमां कहेवानुं के गोपीजनोने जे भगवद्भाव सुलभ छे तेवो बीजाने ए भाव सुलभ नथी. ए भाव पण मारा जेवाने तो न ज होई शके, तेथी गोपीजनोनी मोटाईने कहे छे - जेमणे पोताना पति अने पुत्रो ने छोड्या, जेने छोडवानुं [[४१६]] घणुं मुश्केल गणाय छे, जेमणे आर्यमार्गने छोड्यो. ते पण छोड्यो छोडाय एवो नथी. एने छोडवाथी अपकीर्ति थाय अने एने लईने स्वर्ग आदि न मळे; सम्भावितने अपकीर्ति मरणथी पण विशेष गणाय छे; एने पण भगवान्ने माटे छोड्यो. एमने तो स्वजन अने आर्यमार्ग भगवान् ज छे, अन्य कोई नथी. ए भगवाने कहेल धर्म पण छोड्या अने मोक्षदाताना मार्गनुं सेवन कर्युं. जे जेना मार्गमां चाले छे ते तेटला अंशमां तेनी तुल्य गणाय छे, तेथी आ गोपीजनो पण मोक्षने आपनारां छे. अमे पण एमनी चरणरज प्राप्त करी मोक्ष आपनार थई शकीशुं. तेथी भगवान्ने भजवा करतां गोपीजनोनी चरणरेणुनुं सेवन अमारे माटे उत्तम छे. आ तमे कहो छो ए वेद केम कहेता नथी? ए तो ब्रह्मभावनुं प्रतिपादन करे छे! त्यां कहेवानुं के वेद पण आ भगवान्ना मार्गनी शोधमां छे; एने ए मार्ग मळ्यो नथी, श्रुतिओ एना मार्गनो विचार करे छे पण ‘‘आ तो आम छे’’ एम कही शक्ती नथी, केमके एने कहेवामां दृष्टान्त मळतुं नथी. आ वखते ज भगवाने गोपीजनोने दृष्टान्तरूप कर्या छे. श्रुति भगवान्ना अभिप्रेतार्थने न जाणे तेथी एनी सर्वज्ञता कुठिन्त थती नथी. तेथी ज ‘‘यस्यामतं तस्य मतम्’’ ‘‘व्यासाद्यैरीश्वरेहाज्ञैः’’ इत्यादि श्रुति-स्मृतिओ पण एवुं ज समर्थन करे छे. श्रुतिओने एनुं विशेष ज्ञान न थयुं तेथी एने जाणवानी इच्छाथी ए एनी शोध करे छे तेमां पण ‘‘विमृग्याम्’’ मां विशेष विचार करनार ‘वि’ उपसर्ग मूक्यो छे, तेमां पण ए ज सर्वोत्कृष्ट होवाथी एनोज विचार करवानुं एणे योग्य धार्युं छे. जे भगवद् चरणनुं लक्ष्मीजी निरन्तर अर्चन करे छे, जेना सर्व काम पूरण थया छे तेवा ब्रह्माजी अने सनकादिक योगाभ्यासवडे जेमनुं हृदयमां ध्यान धरी प्राप्त करे छे, ते श्रीकृष्णना चरणारविन्दने रासगोष्ठीमां गोपीजनो हृदयमां धारण करी पोताना तापने निवृत्त करे छे, एटले लक्ष्मीजी, ब्रह्माजी, सनकादि योगीओ जेने पूजे छे अने हृदयमां जोई शके ते वस्तु गोपीजनोना तापने दूर करवानुं साधन थाय छे, *एटले एमनी स्तुति क्यां सुधी करवी? ॥६३॥
विशेष - लोकमां सर्वत्र फलरूप गणाय ते लक्ष्मीजीए पण पोतानी मनोकामनानी सिद्धिमाटे जे चरणनुं अर्चन कर्युं छे, पण एनो यथेष्ट उपयोग ए पण करी शक्ती नथी. जेणे सर्व पुरुषार्थ प्राप्त कर्या छे, बधां साधन पोताने वश कर्यां छे तेवा ब्रह्मादि पण एनाथी उत्तम फल सिद्ध करवामाटे जे कृष्णचरणने सेवे छे, ते पण ध्यानवडे हृदयमां ए चरणने प्राप्त करी पूजे छे, बहारथी तो एमने पण ते चरण प्राप्त नथी ज. एवुं कृष्ण एटले सदानन्दनुं फलरूप, चरणारविन्द रासक्रीडा करतां ज्यारे गोपीजनो थाकी जाय छे त्यारे भगवान् एमना [[४१७]] हृदयमां शान्तिने माटे ए चरणने पोते स्थापन करे छे. तेथी न्यस्तम् कह्युं छे. भगवान् एमने वश होवाथी एमनो श्रम दूर करवामाटे पोते प्रवृत्त थाय छे अने ए चरणवडे एमना तापने दूर करे छे. तेथी, प्रमाणथी अने प्रमेयथी गोपीजनो सर्वोत्कृष्ट छे एटले एमने हवे नमस्कार करे छे. (गोपीजनोना कृष्णप्रेमथी उद्धवजी एटला बधा प्रभावित थया के तेमने लाग्युं के गोपीजनोने नमस्कार करवानो मारो अधिकार नथी, तेमना चरणकमलोने पण नमस्कार करवानी योग्यता नथी, अरे! तेमना चरणकमलोनां रजकणोने पण नहि, तेथी) नन्दरायजीना व्रजमां वसनारां गोपाङ्गनाओनी चरणरेणुना एक कणने हुं वारंवार प्रणाम करुं छुं, *तेने मस्तक पण चडावुं छुं. आहा! आ गोपीजनोए श्रीकृष्णनी लीलाकथाओ सम्बन्धमां जे कांई ऊञ्चेथी गान कर्युं छे ते त्रण लोक (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताळ) ने पवित्र करी रह्युं छे अने सदा-सर्वदा पवित्र करतुं रहेशे ॥६४॥
विशेष - अर्ही उद्धवगीत समाप्त थाय छे. साक्षात् गोपीजनोने नमन करवानी पोतानी योग्यता नथी, तेथी एमनी चरणरेणुने फलरूप मानीने उद्धवजी नमन करे छे, जेमनी कथानो शब्द त्रण लोकने पवित्र करे छे तेमनां स्वरूपने तो आपणे केम पहोञ्ची शकीए? माटे चरणरेणुने नमन कर्युं ए योग्य छे. श्रीशुकदेवजी बोल्या - हवे उद्धवजीए गोपीजनो, यशोदाजी अने नन्दरायजी पासे मथुरा जवा माटे आज्ञा प्राप्त करी. ग्वाल-बालो पासे विदाय मेळवी उद्धवजी मथुरा जवा रथमां सवार थया ॥६५॥
ज्यारे एमनो रथ व्रजनी बहार नीकळ्यो त्यारे नन्दरायजी वगेरे गोपगण विविध प्रकारनी भेटनी सामग्री लईने एमनी पासे आव्या अने आङ्खोथी आंसु ढाळता अत्यन्त प्रेमथी तेमणे कह्युम् ॥६६॥
‘‘उद्धवजी! अमे तो एटलुं ज इच्छीए छीए के अमारा मननी एक-एक वृत्ति, एक-एक सङ्कल्प श्रीकृष्णना चरण कमलोनो ज आश्रय करीने रहे. अमारी वाणी नित्य-निरन्तर तेमनां ज नामोनो उच्चार करती रहे अने शरीर तेमने ज प्रणाम करवामां, एमनी ज आज्ञानुं पालन करवामां अने तेमनी ज सेवामां लागेलुं रहे ॥६७॥
हे उद्धवजी! अमे साचुं कही छीए, अमने मोक्षनी इच्छा बिलकुल नथी. [[४१८]] भगवान्नी इच्छाथी अमे अमारां कर्मो प्रमाणे कोई योनिमां जन्म लईए, त्यां शुभ आचरण करीए, दान करीए अने तेनुं फल अमने ए ज मळे के अमारा पोताना ईश्वर श्रीकृष्णमां अमारो प्रेम उत्तरोत्तर वधतो रहे’’ ॥६८॥
हे राजन्! नन्दरायजी वगेरे गोपोए श्रीकृष्णभक्तिद्वारा उद्धवजीने प्रार्थना करी अने उद्धवजी श्रीकृष्णद्वारा सुरक्षित मथुरामा पाछा आव्या ॥६९॥
कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रेकं व्रजौकसाम् ॥ वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात् ॥७०॥
त्यां पहोञ्ची तेमणे भगवान् श्रीकृष्णने प्रणाम कर्या अने व्रजवासीओनी प्रेममयी भक्तिनो उद्रेक (अतिशयता, उत्तमता, अदृष्टपूर्वता) कही सम्भळाव्यो. पछी नन्दरायजी अने व्रजवासीओए जे भेटो आपी हती ते तेमणे वसुदेवजी, बलदेवजी अने राजा उग्रसेनने अर्पण करी ॥७०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमा (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटा प्रकरणनो ज्ञान रूप पाञ्चमो) ‘‘उद्धवजीए गोपीजनोने आपेलो भगवान्नो आदेश’’ नामनो सुडतालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां चुमालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. शुं तमे पुष्टिमार्गी छो? षोडशग्रन्थ भण्या छो? नर्ही!!! एकडाना ज्ञान विना दाखला केम गणी शकशो? भागवतने श्रीमहाप्रभुजीनी दृष्टिथी केम समजी शकशो?
अध्याय ४८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४५ भगवाने कुब्जा अने अक्रूरजी ने मान आप्युं त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय६
विशेषः जेनो प्रथम निरोध कर्यो छे तेनुं उद्धवजी द्वारा सान्त्वन कर्युं. एनो उत्कर्ष गया अध्यायमां कहेवामां आव्यो, हवे बीजानुं सान्त्वन बे अध्यायथी करवामां आवे छे.
ईं उं ईं उं
[[४१९]] मथुरावासीओ बधां राजसभाववाळां छे, पाण्डवो सात्विक भक्तो छे, ते बन्नेनुं सान्त्वन करवामां आवे छे. राजसक्रिया विक्षेपवाळी होय छे. तेथी अर्ही मथुरावासीओनी कृति मानसी छे, तेथी एने काम आदि द्वारा भगवाने शान्त करी छे, एटले कुब्जा अने अक्रूरजी नी जे इच्छा मनमां हती ते भगवाने पूर्ण करी छे. उद्धवजी करतां अक्रूरजी मुख्य छे तेथी आगळ एमने हस्तिनापुर मोकलवामां आवे छे. दासभावमां उद्धवजी मुख्य छे अने शास्त्रीय रीतिए अक्रूरजी मुख्य, तेथी विषय भेदथी बन्नेनी मुख्यता छे. राजस भावनी मुख्यता बताववामाटे कुब्जानुं सान्त्वन प्रद्युम्नरूपे प्रथम कर्युं छे. अक्रूरजीनुं वाणीवडे सान्त्वन कर्युं छे. एमणे भगवान्नी स्तुति करी त्यार पछी भगवाने एमने पाण्डवोनी खबर लेवा मोकल्या छे. ए ज आ ४८ मा अध्यायमां कायाथी कुब्जानुं अने वाणीथी अक्रूरजीनुं सान्त्वन कर्यानुं कहेवामां आव्युं छे. अथ विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ॥ सैरन्ध्य्राः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! त्यारबाद बधाना आत्मा अने बधुं ज जोनार भगवान् श्रीकृष्ण पोताने मळवानी आकाङ्क्षाथी व्याकुल थई रहेल सैरन्ध्री (कुब्जा) नुं प्रिय करवानी इच्छाथी (ते पोतानी पासे आवी शके एम न होवाथी पोते) तेने घेर पधार्या. (सैरन्ध्री=राणीवासनी दासी. श्रीभागवतजीमां तेने कुब्जा तरीके ओळखावी छे. कुब्ज=जेने खून्ध नीकळेल होय ते. कुब्जा=खून्धवाळी स्त्री) ॥१॥
ते (कुब्जा) नुं घर बहुमूल्य सामग्रीओथी सम्पन्न हतुं. तेमां शृङ्गार रसने उद्दीपन करनारी घणी बधी साधनसामग्री पण हती. मोतीनी झालरो अने ठेकठेकाणे झण्डीओ लागी रही हती, चन्दरवा बान्धेला हता, शय्याओ बिछावेली हती अने बेसवानेमाटे घणां सुन्दर आसन हतां, धूपनी सुगन्ध महेकी रही हती, अग्निमय अने मणिमय दीप प्रकाशी रह्या हता, ठेकठेकाणे फूलोना हार अने चन्दन राखवामां आव्या हतां. (घरनो आटलो बधो वैभव भगवाने तेने घेर पधारवानो विचार कर्यो तेथी भगवदिच्छाथी ज सिद्ध थई गयो हतो) ॥२॥
भगवान्ने पोताने घेर पधारेला जोई कुब्जा तरत ज सफाळी पोताना आसन उपरथी उभी थई गई अने सखीओनी साथे आगळ आवी तेणे विधिपूर्वक भगवान्नुं स्वागत कर्युं. पछी श्रेष्ठ आसन वगेरे आपी विविध उपचारोथी आपनी [[४२०]] विधिपूर्वक पूजा करी ॥३॥
तेवी ज रीते कुब्जाए उद्धवजीनी भगवद्भक्त तरीके पूजा करी, परन्तु सन्मानने माटे तेणे आपेल आसननो स्पर्श करी, तेओ (उद्धवजी) धरती उपर ज बेसी गया. (आम करी पोताना स्वामीनी समक्ष सेवके आसन उपर न बेसाय ते राजधर्म छे एम बताव्युं.) भगवान् श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दस्वरूप होवा छतां लोकाचारनुं अनुकरण करता तरत ज तेनी बहुमूल्य सेज उपर जई बिराज्या॥४॥
कुब्जा स्नान, अङ्गराग, वस्त्रो, आभूषण, हार, गन्ध (अत्तर वगेरे), ताम्बूल अने सुधासव आदिथी पोताने खूब सज्ज करी लीलामय लज्जायुक्त हास्य अने हाव-भाव साथे भगवान् तरफ जोती-जोती आपनी पासे आवी ॥५॥
कुब्जा प्रथम मिलनना सञ्कोचथी कंईक अचकाती हती, त्यारे श्यामसुन्दर श्रीकृष्णे तेने पोतानी पासे बोलावी लीधी अने कङ्कणथी सुशोभित हाथ पकडी पोतानी पासे बेसाडी दीधी अने तेनी साथे क्रीडा करवा लाग्या. हे परीक्षित! कुब्जाए भगवान्ने चन्दन लगाव्युं ते सिवायनुं तो तेनुं पुण्य लेशमात्र ज हतुं. पण भगवान् सर्वसमर्थ छे तेथी आ अनुपम अवसर आव्यो. (तेना कर्म के साधनथी नहि) ॥६॥
कुब्जा भगवान् श्रीकृष्णना चरणने पोताना काम सन्तप्त हृदय, वक्षःस्थल अने नेत्रो उपर राखी तेनी दिव्य सुगन्ध लेवा लागी अने आ प्रमाणे तेणे पोताना हृदयनी तमाम आधि-व्याधि शान्त करी लीधी. हृदयमां बिराजी रहेल अन्तर्यामीने हवे बहार आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दरना रूपमां बन्ने भुजाओथी गाढ आलिङ्गन करी कुब्जाए घणा लाम्बा समय (करोडो जन्मो) नो त्रिविध ताप शान्त कर्यो ॥७॥
हे परीक्षित! कुब्जाए मात्र अङ्गराग समर्पित कर्यो हतो. एटलाथी ज तेने ए सर्वशक्तिमान भगवान्नी प्राप्ति थई, जे कैवल्य मोक्षना अधीश्वर छे अने जेनी प्राप्ति अत्यन्त कठिन छे. परन्तु ते भाग्यहीन तेथी आपने प्राप्त करीने पण गोपीजनो जेवी अवस्था के मोक्ष मागवाने बदले आमाग्युम् ॥८॥
‘‘हे प्रियतम! आप केटलाक दिवस अर्ही बिराजीने मारी साथे रमण करो. हे कमलनयन! आपनो सङ्ग तो हुं छोडी शकुं तेम नथी पण आपना सङ्गने छोडवानो [[४२१]] उत्साह पण हुं करी शक्ती नथी’’ ॥९॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण बधानुं मान राखे छे अने स्वयं सर्वेश्वर छे. आपे तेने इच्छित वरदान आपी उद्धवजीनी साथे पोताने सर्व समृद्धिमान घरे पधार्या ॥१०॥
जेनी आराधना करवी अने ते पण प्रसन्नता प्राप्त थाय त्यां सुधी करवी अत्यन्त कठिन छे एवा काल, ब्रह्मा वगेरे सर्वेश्वरोना नियामकने प्रसन्न करीने जे मनमां आवे तेवुं एमनी पासे मागे छे ते कुबुद्धि छे, केमके आवा समर्थ ईश्वरने प्रसन्न करीने तो कैवल्य मोक्ष के गोपीजनना जेवो दृढ भाव मागवो जोईए. एने बदले मनने बे घडी आनन्द आपे एवुं क्षणिक सुख मागे तो एमां बुद्धिनो लेश नथी एम ज नक्की थाय छे. जेम कोई महाराजा प्रसन्न थया होय तो ए गाम के देश आपी शके छतां एनी पासे पोताने माटे नहि मागतां पोताना वान्दराने खावामाटे चणा मागे तेवुं-कुब्जाए ईश्वरना ईश्वरने चन्दन आपी प्रसन्न कर्यां अने एमनी पासे वान्दरा जेवा पोताना मनने तृप्त करवामाटे क्षणिक कामसुख माग्युं. तेथी एने श्रीशुकदेवजीए दुर्भगा कही ए योग्यजकह्युम् ॥११॥
(ते ज दिवसे) भगवान् श्रीकृष्ण बलदेवजी अने उद्धवजी ने साथे लईने अक्रूरजीना भवनमां पधार्या. एमां भगवान्ने एमनी पासे काम लेवानुं छे. वळी अक्रूरजीए पोताने घेर पधारवानुं आमन्त्रण भगवान्ने आप्युं ज छे ते निमित्ते तेमनी अभिलाषा पूर्ण करवा भगवान् त्यां पधार्या ॥१२॥
अक्रूरजीए दूरथी ज जोई लीधुं के अमारा परम बन्धुओ, नर (उद्धवजी), नरवर (बलदेवजी) अने नरवरथी श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पधारी रह्या छे त्यारे तेओ तुरत उभा थई आगळ आव्या अने आनन्दपूर्वक तेमनुं अभिनन्दन अने आलिङ्गन कर्युं ॥१३॥
अक्रूरजीए भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ने नमस्कार कर्या. उद्धवजी साथे ए बन्ने भाईओए पण तेमने नमस्कार कर्या. ज्यारे बधा आरामथी आसनो पर बेसी गया त्यारे अक्रूरजी तेमनी विधिवत् पूजा करवा लाग्या ॥१४॥
हे परीक्षित! तेमणे पहेलां भगवान्नां चरण धोई चरणोदक मस्तक उपर चडाव्युं अने पछी अनेक प्रकारनी पूजा सामग्री, दिव्य वस्त्र, चन्दन, माला अने श्रेष्ठ आभूषणोथी एमनुं पूजन कर्युं. मस्तक नमावी एमने प्रणाम कर्या अने [[४२२]] आपनां चरणोने पोतानी गोदमां लई दबाववा लाग्या. ए वखते तेमणे विनयथी नमीने भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजीने कह्युम् ॥१५-१६॥
‘‘पापी कंस मर्यो ए बहु सारुं थयुं. एना भाईओनो पण नाश थयो. ए पण पापी हता. ए मर्या ते पण एओना पापवडे ज मर्या. आम करी आपे आखा यदुकुलने कष्ट पामतुं बचाव्युं, एटलुं ज नहि, पण एनो आपे उद्धार कर्यो. एने पूर्वे हता तेथी विशेष समृद्धिवाळा कर्या ए बहु सारुं थयुम् ॥१७॥
आप प्रधान पुरुषरूप छो. आप ज जगतनुं कारण छो, एटलुं ज नहि, पण आप ज जगन्मय छो. आप सिवाय कारण कार्यरूप जगतमां बीजुं कांई नथी. केवल एना उपादान अने निमित्तरूपे आप ज छो. जेमां आप अल्प सामर्थ्य धरो ते अपकृष्ट अने विशेष सामर्थ्य धरो ते उत्कृष्ट गणाय; बीजो वस्तुतः एमां भेद नथी ॥१८॥
आ जगतने उत्पन्न करीने एमां पाछळथी आप प्रवेश करो छो. सर्व सामर्थ्ययुक्त थईने आप एमां प्रवेश करो छो, तेथी श्रुतिप्रतिपादित पदार्थ अने प्रत्यक्ष पदार्थ ए बन्ने आप ज छो ॥१९॥
जेवी रीते पृथ्वी वगेरे कारण तत्वोथी ज तेमनां कार्य स्थावर जङ्गम शरीर बने छे; जाणे के ते तेमां अनुप्रविष्ट थई अनेक रूपोमां प्रतीत थाय छे (देखाय छे), परन्तु हकीकतमां ते कारण रूप ज छे, ते ज प्रमाण छो तो केवल आप ज, परन्तु पोताना कार्यरूप जगतमां स्वेच्छाथी अनेक रूपोमां देखाओ छो. आ पण आपनी एक लीला ज छे ॥२०॥
आप रजोगुण, सत्वगुण अने तमोगुणरूप पोतानी शक्तिओथी क्रमशः जगतनी रचना, पालन अने संहार करो छो, पण आप ते गुणोथी के तेमनाद्वारा थतां कर्मोथी बन्धनमां नथी पडता कारण के आप शुद्ध ज्ञान स्वरूप छो. आवी स्थितिमां आपने माटे बन्धननुं कारण ज शुं होई शके? ॥२१॥
पहेलां तो जे आत्माने उपाधिओ (देह, इन्द्रियो, अन्तःकरण,स्वभाव कर्म अथवा काल) वळगेली होय ते आत्मानो जन्म होय छे. आपनामां आ उपाधिओ न होवाथी आपनो साक्षात् जन्म नथी.(हा, वसुदेव-देवकीजीने त्यां नटनी माफक जन्मनो प्रकाश करवानुं नाटक जरूर छे)आपमां भेद (भेद अथवा भिदा=पहेलान्ना सङ्घातनो त्याग करी बीजा सङ्घातनुं ग्रहण करवुं.)पण नथी, अने भेद नथी माटे [[४२३]] बन्ध अने मोक्ष पण नथी. आपमां पोत-पोतानी इच्छा अथवाअभिप्राय प्रमाणे बन्धन अने मोक्षनी जे कांई कल्पना करी लेवामां आवे छे तेनुं कारण भ्रान्त लोकोनो अविवेक ज छे ॥२२॥
आपे जगतना कल्याणने माटे आ सनातन वेदमार्ग प्रकट कर्यो छे. ज्यारे- ज्यारे पाखण्डमार्गे चालनारा दुष्ट लोको तेने बाधा करे छे त्यारे त्यारे आप शुद्ध सत्वमय शरीर धारण करो छो ॥२३॥
हे प्रभो! ते ज आप अत्यारे पोताना अंश श्रीबलदेवजीनी साथे पृथ्वीनो भार दूर करवा अर्ही वसुदेवजीने घरे अवतर्या छो. आप असुरोना अंशथी उत्पन्न नाम-मात्रना राजाओनी सेङ्कडो अक्षौहिणी सेनानो संहार करशो अने यदुवंशना यशनो विस्तार करशो ॥२४॥
जेमना चरण प्रक्षालननुं जल (गङ्गाजी) त्रण लोकने पवित्र करे छे तेवा आप, जेनुं स्वरूप इन्द्रियोथी जणातुं नथी, केमके ए इन्द्रियो पण ज्यां सुधी पहोञ्ची शक्ती नथी, तेवा आप आ अमारा घरमां पधार्या तेथी ए घरनां अमे मोटां भाग्य समजीए छीए; कारण के घरो आजे सर्वदेवरूप, पितृदेवरूप अने मनुष्यदेवरूप आपना चरणथी पवित्र थयां छे ॥२५॥
हे प्रभो! आप प्रेमी भक्तोना परम प्रियतम, सत्यवक्ता (सत्य प्रतिज्ञावाळा), हितेच्छु अने कृतज्ञ (थोडी सेवाने पण बहु मानी लेनार) छो. भला, एवो क्यो बुद्धिमान् पुरुष छे जे आपने छोडी कोई बीजाने शरणे जाय? आप आपनुं भजन करनार प्रेमी भक्तनी समस्त अभिलाषाओ पूर्ण करी दो छो, ते त्यां सुधी के जेनी क्यारेय क्षति अने वृद्धि थती नथी; जे एकरस छे. पोताना ते स्वरूपनुं पण आप दान करी दो छो. *विषयभाववाळो आपनो भक्त थई शक्तो नथी तेथी एनी इच्छा प्रमाणे आप नथी करता ए योग्य ज छे ॥२६॥
विशेष - प्राणीओए करवा जेवुं कंई होय तो ते प्रपत्ति छे. भक्ति करवी कठिन छे. प्रपत्ति (भगवान् ज मारुं शरण आश्रय छे एवी भावना) थी फलसिद्धि अनायासे परिश्रम वगर थाय छे. पोतानो अथवा बीजानो जे बिलकुल द्रोह करतो नथी तेवा शुद्ध अन्तःकरणवाळा (सुहृद) नी बधी कामनाओ भगवान् पूर्ण करे छे. आज अमारां भाग्यनो उदय तो थयो, साथे-साथे आजे आपे अमारा अज्ञाननो (अविद्यानो) नाश कर्यो, (‘‘जनाम्-अविद्याम् अर्दयति इति [[४२४]] जनार्दनः’’ जना (अविद्या)नो नाश करे ते जनार्दन.) तेथी ज आजे आपनां साक्षात् दर्शन अमने थयां, नहि तो आपना स्वरूपने तो मोटा-मोटा योगीराज अने देवराज पण जाणी शक्ता नथी. हे प्रभो! अमे पुत्र, स्त्री, धन, स्वजन, घर अने देह वगेरेना मोहनी रस्सीथी बन्धायेला छीए. पण ए आपनी मायानो ज खेल छे. आप कृपा करी आ गाढ बन्धनने जलदी दूर करो. जो हमणां दूर नहि करो तोए बन्धन दृढ थई जशे तो एने छेदतां पण ए पाछी उत्पन्न थशे अथवा छेद करनारमां वैमनस्य उत्पन्न करशे माटे जल्दीथी एने दूर करो’’ ॥२७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे भक्त अक्रूरजीए भगवान् श्रीकृष्णनी पूजा अने स्तुति करी. त्यारबाद भगवाने हास्य करतां पोतानी मधुरवाणीथी तेमने मोह पमाडता होय तेम कह्युम् ॥२८॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - आप अमारा गुरु (भगवान् खोटुं बोले नहि. भगवाने धनुर्विद्यानो अभ्यास लोकसङ्ग्रहार्थे पण बीजा कोई पासेथी कर्यो होय तेवो उल्लेख मळतो नथी. अक्रूरजीने ‘गुरु’ कहे छे तेथी अक्रूरजीए भगवान्ने धनुर्वेद भणाव्यो छे एम जणाय छे.) अने काका छो. अमारा वंशमां अत्यन्त प्रशंसनीय तथा सदा अमारा हितच्छु छो. अमे तो आपना बाळक छीए अने सदैव आपनी रक्षा, पालन अने कृपानां पात्र छीए ॥२९॥
पोतानुं परम कल्याण इच्छनार मनुष्योए आप जेवा परम पूजनीय अने महाभाग्यवान सन्तोनी सेवा करवी जोईए. आप जेवा सन्त देवताओथी पण अधिक छे. कारण के देवताओमां तो स्वार्थ होय छे, परन्तु सन्तोमां स्वार्थ नथी होतो ॥३०॥
(निवृत्तिमार्गमां तीर्थसेवन करवानुं कहेवाय छे. एना करतां पण भक्तोने सेववा श्रेष्ठ छे एम कहे छे के ‘तीर्थ’ एटले जळना अभिमानवाळी देवता. ते देवता चेतनमयी होय छे, केवळ जल तो जड छे, तेथी जळमात्र तीर्थ नथी. देवो पण मात्र मृत्तिका के शिलामय नथी पण चेतनदेव ज देव कहेवाय छे) ए देव अने तीर्थ ने एनां स्वरूपने जाणीने सेवे तो घणे काले ए फल आपनार थाय छे ज्यारे साधु (साधुज्ञानना उपदेशक, भक्तिनो प्रचार करनार.) पुरुषोनी सेवा तुरत फल देनारी थाय छे. तेओ तो दर्शन मात्रथी फल आपे छे ॥३१॥
अमारामां आप मोटा छो, तो आपणा सुहृदोनुं प्रिय करवाने आप [[४२५]] हस्तिनापुर जाओ. त्यां पाण्डवो केम निर्वाह करे छे ए जाणवानी अमारी इच्छा छे. तो ए वातने तमारा विना बीजो जाणी नहि शके तेथी आप त्यां पधारो ॥३२॥
अमे एम साम्भळ्युं छे के राजा पाण्डुना मृत्यु बाद युधिष्ठिर आदि पाण्डव पोतानी माता कुन्ताजीनी साथे दुःखी-दुःखी थई गया हता. अत्यारे राजा धृतराष्ट्र तेमने पोतानी राजधानी हस्तिनापुरमां लाव्या छे अने त्यां ज रहे छे ॥३३॥
आप जाणो ज छो के अम्बिकानो पुत्र-राजा धृतराष्ट्र अन्ध छे अने दीन बुद्धिवाळो छे. तेनो पुत्र दुर्योधन बहु दुष्ट छे अने तेने अधीन होवाथी ते पाण्डवोनी साथे पोताना पुत्रो जेवो समान व्यवहार करी शक्तो नथी ॥३४॥
तेथी आप त्यां जाओ अने तेमनी स्थिति सारी छे के बूरी (खराब) तेनो अहेवाल मेळवो. आप द्वारा तेमना समाचार जाणी हुं एवो उपाय करीश के तेमने सुख थाय ॥३५॥
इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ॥
५सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥३६॥
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरजीने आ प्रमाणे आदेश आपीने बलदेवजी अने उद्धवजीनी साथे त्यान्थी पोताना भवन तरफ पधार्या ॥३६॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा
प्रमेय-पेटा प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो) ‘‘भगवाने कुब्जा अने
अक्रूरजीने मान आप्युं’’ नामनो अडतालीसमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां पिस्तालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
प्राण कण्ठे आवी गया होय तो पण आजीविका अर्थे तो भागवतनो
उपयोग न ज करवो, भूख्या मरी भले जवुं.(श्रीवल्लभाचार्य)
प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो
जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी
धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!
ईं उं ईं उं
[[४२६]]
अध्याय ४९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४६ अक्रूरजीने हस्तिनापुर मोकली भगवाने पाण्डवोनुं सान्त्वन कर्युं त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण अध्याय ७
विशेष - भगवान् जीवना अधिकार प्रमाणे निरोध करे छे तेथी आ ४९ मा अध्यायमां सात्विक पाण्डवोनुं सान्त्वन अक्रूरजीद्वारा भगवाने कर्युं ए वात कहेवामां आवे छे. भगवाने मोकलेला अक्रूरजीए ‘‘धृतराष्ट्रने खरुं ज्ञान करावीशुं तो पाण्डवोने दुःख नहि दे’’ एम जाणी पोते पोतानी मरजी प्रमाणे धृतराष्ट्रने कह्युं. अक्रूरजी त्यां घणा दिवस रह्या, पाण्डवो साथे विषम वर्तन थाय छे ए बधुं पोते जाण्युं. पाण्डवोए पण एमने पोतानी हकीकत कही सम्भळावी. ए बधो विचार पोते करीने ए सम्बन्धे जे धृतराष्ट्रने कहेवुं योग्य हतुं तेटलुं तेमणे एने कह्युं, केमके अक्रूरजी पोते विचारमां कुशळ छे. एमजो न करे तो भगवान्ने एमनो निरोध करवो छे ते निरोध सिद्ध न थाय,तेथी अक्रूरजीनुं कार्य अक्रूरजी करी आव्या पछी भगवान् पोतानुं निरोधरूप कर्तव्य करशे एटले भगवान्नुं कर्तव्यतो बीजा कोईथी थई शकेज नहि ए वातसिद्ध थई. स गत्वा हस्तिनपुरं पौरवेन्द्रश्रियाङ्कितम् ॥ ददर्श तत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - पुरुवंशना राजाओनी लक्ष्मीथी शोभता हस्तिनापुरमां अक्रूरजी गया त्यां एमणे धृतराष्ट्र राजाने, भीष्म सहित विदुरजीने अने पृथाने जोयाम् ॥१॥
शन्तनुना भाई बाह्लीक, भूरिश्रवादि एना पुत्रो, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण,
दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाण्डवो अने बीजा सुहृदो वगेरेने अक्रूरजी मळ्या, एमने
बधी वातो पूछी अने एमणे पण यादवोनी खबर पूछी ते एमने कही ॥२-
३॥
धृतराष्ट्र पाण्डवोनी साथे केवो व्यवहार करे छे ते जाणवामाटे अक्रूरजी केटलाक महिनाओ सुधी त्यां ज रह्या. धृतराष्ट्रमां पोताना दुष्ट पुत्रोनी इच्छाथी विपरीत करवानुं कंई पण साहस, विवेक के धैर्य हतां नहि. ते शकुनि वगेरे दुष्ट पुरुषोनी सलाह प्रमाणे ज काम करता हता ॥४॥
[[४२७]] कुन्ताजी अने विदुरजी ए अक्रूरजीने ए बताव्युं के धृत्राष्ट्रना पुत्रो दुर्योधन वगेरे पाण्डवोनी कान्ति, ओज (इन्द्रियशक्ति), बल, पराक्रम, विनय वगेरे सद्गुणो जोई-जोईने बळ्या करे छे. ज्यारे ते जुए छे के प्रजा पाण्डवो प्रत्ये ज विशेष प्रेम राखे छे त्यारे तो ते विशेष चिडाई जाय छे अने पाण्डवोनुं अनिष्ट करवा तैयार थाय छे. अत्यार सुधीमां तेमणे पाण्डवो उपर विषदान वगेरे घणा अत्याचार कर्या छे अने हजु पण घणुं-घणुं करवा मागे छे ॥५-६॥
पृथा पोताना भाई अक्रूरजीनी पासे आव्यां. भाईने जोईने पोताना जन्मस्थाननी एमने स्मृति थई आवी तेथी एमना नेत्रमां आंसु आवी गयां ॥७॥
पृथाए कह्युं - भाई! अमारां माता-पिता, अमारां भाई-बहेनो, भत्रीजाओ, कुलस्त्रीओ, बहेनपणीओ वगेरे मने कोई दिवस याद करे छे? ॥८॥
भक्तवत्सल अने शरणे आवनारनुं रक्षण करनार अमारा (भाई वसुदेवजीना पुत्र) भत्रीजा श्रीकृष्ण अने कमलनयन बलदेवजी एमनी फोईना पुत्रो युधिष्ठिर आदिने याद करे छे? ॥९॥
शत्रुओथी घेरायेली हुं शोकथी आकुल थई रही छुं. जेवी दशा वरुओथी घेराई गयेली हरिणीनी होय तेवी ज मारी दशा छे. मारां बाळको पिता वगरनां थई गयां छे. शुं अमारा श्रीकृष्ण क्यारेय अर्ही आवी मने अने आ अनाथ बाळकोने सान्त्वन (धीरज) आपशे? ॥१०॥
(श्रीकृष्णने पोतानी सामे पधारेला समजी कुन्ताजी कहेवा लाग्यां) हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी छो, विश्वात्मा छो अने आप समग्र विश्वने अनुभव करावो छो. हे गोविन्द! मारां बाळको साथे हुं दुःखी दुःखी थई रही छुं. आपने शरणे आवी छुं. मारी अने मारां बाळकोनी रक्षा करो ॥११॥
आ संसार मृत्युमय छे अने आपनां चरणकमल मोक्ष आपवावाळां छे. हुं जोउं छुं के जे लोको आ संसारथी गभरायेला छे, तेमने माटे आपनां चरणकमल (अर्थात् भक्ति) सिवाय बीजुं कोई शरण के सहारो नथी ॥१२॥
हे श्रीकृष्ण! आप मायाना लेशथी रहित परम शुद्ध छो. आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा छो. समस्त साधनो योगो अने उपायो ना आप स्वामी छो तथा स्वयं योग पण छो. हुं आपना शरणमां पडी छुम् ॥१३॥
[[४२८]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! तमारां पितामही (परदादी) कुन्ताजी आ प्रमाणे पोतानां सगांसम्बन्धीओ अने जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णनुं स्मरण करी अत्यन्त दुःखित थई उच्च स्वरथी रडवा लाग्याम् ॥१४॥
अक्रूरजी अने विदुरजी बन्नेय सुख अने दुःख ने समान दृष्टिथी जोता हता, पण विदुरजी (धर्मनो पक्षपात करनारा हता तेथी) महा यशस्वी छे. बन्नेए कुन्ताजीने तेमना पुत्रो, धर्म, वायु, वगेरेथी थया छे तेनी याद देवडावी अने तेमने सान्त्वन आप्युम् ॥१५॥
अक्रूरजी मथुरा जतां पहेलां राजा धृतराष्ट्रनी पासे आव्या. अत्यार सुधीमां ए स्पष्ट थई गयुं हतुं के राजा पोताना पुत्रोनो पक्षपात करे छे अने भत्रीजाओ साथे पुत्रोना जेवो व्यवहार नथी करता. (तेथी) अक्रूरजीए कौरवोनी भरी सभामां वसुदेवजी, श्रीकृष्ण वगेरेए कहेवडावेलो मित्रभावथी भरेलो सन्देशो कही सम्भळाव्यो ॥१६॥
अक्रूरजी बोल्या - ए! ओ! हे विचित्रवीर्यना पुत्र! कुरुओनी कीर्तिने वधारनार! तमारा भाई पाण्डु परलोक सिधाव्या एटले आपने राजानुं आ स्थान प्राप्त थयुं छे* ॥१७॥
विशेष - धृतराष्ट्र अन्ध छे माटे बे वखत सम्बोधन कर्युं छेद्ग भो भो ए! ओ! राष्ट्रने व्यवस्थित रीते धारण नथी करी शक्या तथा कृत्रिम पिताना पुत्र छे एम बताववा सम्बोधन ‘धृतराष्ट्र’ शब्दथी नहि पण ‘वैचित्रवीर्य’ (विचित्रवीर्यना पुत्र) थी कर्युं छे. ‘कीर्तिवर्धन’ मां ‘वर्धन’ नो अर्थ छेदन पण थाय छे ते पण कटाक्षथी सूचन कर्युञ्छे. आप धर्मने साथे राखीने पृथ्वीनुं पालन करो. पोताना सारा स्वभावथी प्रजाने राजी राखो अने पोताना स्वजनोनी साथे समान वर्ताव राखो. आम करवाथी आपने आ लोकमां यश अने परलोकमां सद्गति प्राप्त थशे ॥१८॥
जो आप एथी उलटुं आचरण करशो तो आ लोकमां आपनी निन्दा थशे अने मृत्यु पछी आपने नरकमां जवुं पडशे. तेथी पोताना पुत्रो अने पाण्डवोनी साथे समान व्यवहार राखो ॥१९॥
आप जाणो ज छो के आ संसारमां कदी क्यांय कोई-कोईनी पण साथे कायमने माटे रही शक्तुं नथी. जेमनी साथे अत्यारे संयोग छे तेमनो एक दिवस वियोग थवानो ज. हे राजन्! आ वात आपणा शरीरने माटे पण एटली ज साची छे. तो [[४२९]] पछी स्त्री, पुत्र, धन, वगेरेने छोडीने जवुं पडशे एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥२०॥
जीव एकलो ज जन्मे छे अने मृत्यु बाद एकलो ज जाय छे. पोताना पाप- पुण्यनुं फल पण एकलो ज भोगवे छे ॥२१॥
जेम जळ माछलान्ने उपयोगी छे छतां एने खेडूतो नीकद्वारा खेतर वगेरेमां लई जाय छे त्यारे माछलां जल विना मरी जाय छे, तेम अधर्मथी एकठुं करेलुं द्रव्य आ अमारा सम्बन्धी छे तेने आपवुं ज जोईए एम विचारी बीजाने एनाथी पोषे त्यारे एने पेदा करनार तो ओछी बुद्धिवाळो अधर्मनुं फळ भोगवे छे ॥२२॥
अधर्म करीने जेनुं पोषण करे छे ते मूर्खने तो एना प्राण, एनुं धन अने पुत्र वगेरे छोडी दे छे, एनुं सर्वस्व लई ले छे, एमां एनो उपकार मानता नथी. ए मरनार पोते ए द्रव्यनो सद्व्यय कर्या वगर जाय छे तेथी ए अकृतार्थ रहे छे॥२३॥
ए अर्थने सम्पादन करवामां जे पाप करे छे तेने पोते एकलो भोगवे छे. पुत्र वगेरे एने छोडी दे छे त्यारे एणे आत्माने तो बन्धनथी छोडाव्यो नथी तेथी ए स्वधर्मथी विमुख होवाथी नरकमां जाय छे ॥२४॥
हे राजन्! तेथी आ लोकने स्वप्नवत्-मायावत् जाणीने आत्माने शरीरथी जुदो जाणी शान्त थई, हे प्रभो! सर्वनी साथे तमे समानताथी वर्तजो ॥२५॥
धृतराष्ट्रे कह्युं - हे दानपते! मनुष्यने जेम अमृत मळे तो एनावडे ते तृप्त थतो नथी तेम आप कल्याण करनारी वाणी बोलो छो ते वाणी साम्भळतां मने तृप्ति थती नथी ॥२६॥
छतां पण हितेच्छु अक्रूरजी! मारा चञ्चल मनमां आपनी आ साची सलाह जराय टकती नथी, कारण के मारुं हृदय पुत्रो तरफनी ममताने लीधे विषम थई गयुं छे. जेवी रीते सुदाम (स्फटिक्) पर्वतना शिखर उपर एकवार वीजळी झबके छे अने बीजी ज क्षणे अदृश्य थई जाय छे, ते ज दशा आपना उपदेशनी छे ॥२७॥
सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वीनो भार उतारवामाटे यदुकुळमां प्रगट थया छे. एवो क्यो पुरुष छे के जे तेमना विधानमां तलभार पण फेरफार करी शके? एमनी इच्छा हशे तेम ज थशे ॥२८॥
जेना मार्गनी कोईने खबर नथी तेवी भगवान्नी निज मायावडे भगवान् आ जगतने बनावे छे तेमां प्रवेश करी पोते एना गुणोनो, कर्मोनो अने एना फलोनो विभाग करे छे, एमां विहार करे छे ए अचिन्त्य विहाररूप लीलावडे संसारचक्रने [[४३०]] चलावनार परमेश्वरने मारा नमस्कार हो ॥२९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम अक्रूरजी राजाना अभिप्रायने जाणीने सुहृदोनी रजा लईने फरी यदुपुरी मथुरामां आव्या ॥३०॥
शशंस राम-कृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम् ॥ पाण्डवान् प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम् ॥३१॥
हे कुरुश्रेष्ठ! जेनेमाटे भगवाने अक्रूरजीने पाण्डवो पासे मोकल्या हता ते धृतराष्ट्रनो बधो व्यवहार-वर्ताव राम-कृष्ण पासे अक्रूरजीए निवेदन कर्यो* ॥३१॥
विशेष - अत्यार सुधी दशमस्कन्धना पूर्वार्धमां भगवाने साक्षात् कंई कर्युं नथी; जे कंई कर्युं छे ते अन्यना अनुरोधथी कर्युं छे, तेथी भगवान्नी भक्तवश्यता बतावी. हवे उत्तरार्धमां जे कंई भगवान् करशे ते पोते स्वतः करशे. आ पूर्वार्ध अने उत्तरार्ध वच्चेनुं तारतम्य छे. भक्तोनी इच्छा प्रमाणेनी लीला ओगणपचास अध्याय सुधी चाली एटले दशमस्कन्ध पूर्वाधमां ओगणपचास अध्याय छे. इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध पूर्वार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना बीजा प्रमेय-पेटाप्रकरणनो धर्मीरूप सातमो) ‘‘अक्रूरजीने हस्तिनापुर मोकली भगवाने पाण्डवोनुं सान्त्वन कर्युं’’ नामनो ओगणपचासमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१ बाद करतां छेताळीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. त्रीजा राजस प्रकरणनुं बीजुं प्रमेय प्रकरण सम्पूर्ण
विशेष - पूर्वाधनी समाप्तिमां श्रीआचार्यचरण आज्ञा करे छे के भक्तने विश्वास करावनारी, श्रीकृष्णना चरणकमळनो आश्रय करावनारी, भगवद्लीला अति प्रयत्नपूर्वक अमे पूर्वाधमां निरूपण करी. श्रीआचार्यचरण सर्व पुष्ट हृदय जीवोने निवेदन करे छे के भगवान्मां तमने भाव होय, हरिभक्ति सहित भगवन्मार्ग तमने जाणवानी इच्छा होय, तो तमे अमोए करेल आ व्याख्यानो विशेष करीने चिन्तन करजो. दशमस्कन्ध पूर्वाधनी विवृत्ति सुन्दररीते निरूपण करवामां आवी. आ सुन्दर उज्जवल पुष्पाञ्जलि श्रीकृष्णना चरणमां अमे अर्पण करीए छीए. (कारिका) पूर्वाध समाप्त [[४३१]]
दशमस्कन्ध-उत्तरार्ध निरोध लीला (हृदय)
अध्याय ५०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ४७ भगवाने जरासन्धने सत्तर वार हराव्यो त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय १
विशेष - १. राजस भक्तने भगवान्मां व्यसन सिद्ध थवा माटे सात अध्यायवडे राजसना साधननो विचार कर्यो छे. लोक व्यसन (आफत) थी घेरायेला होय तेमने ते व्यसन (आफत) मान्थी उगारी लेवाथी तेमने श्रीकृष्णमां व्यसन थाय छे. (व्यसनं तद्विना स्थातुमशक्तिः। जेनुं व्यसन होय तेना विना रही न शकाय) अर्थात् भक्त कृष्णैकतान- कृष्णमय-थाय छे. जरासन्ध अने काळयवन तेमां जरासन्ध शिवप्रसाद युक्त अने बीजी वार ब्राह्मण प्रसादवाळो थयो. तेथी ए एक ज द्वि रूप अने काळयवन मळी त्रण थया. ए सत्तरवार आव्यो त्यारे तो केवळ पौरुषवडे एने पाछो काढ्यो. पण ज्यारे ब्राह्मणोनी प्रसन्नताथी एमना आशीर्वाद लईने आव्यो त्यारे भगवाने पोताना ऐश्वर्यवडे द्वारका तैयार करावी योगबळथी यादवोने द्वारका पहोञ्चाड्या त्यारे लोक व्यसन (आपत्ति) थी मुक्त थयेल यादवो श्रीकृष्णमां व्यसनवाळा थया. एम एक अध्यायथी लोक व्यसनने ऐश्वर्यवडे दूर कर्युं. बीजा अध्यायमां आध्यात्मिक अने आधिदैविक दुःख दूर करवानुं बाकी रह्युं छे. तेने माटे काळयवननो दाह कराव्यो. हाल पण आध्यात्मिक अने आधिदैविक दोषो मथुरामां छे तेने त्रण अध्यायथी दूर करशे. तेथी मागधनिवृत्ति पर्यन्तनुं चरित्र आधिदैविक दुःखनी निवृत्तिने माटे छे. रुक्मिणीजीनो प्रसङ्ग आध्यात्मिक अने आधिदैविक दुःखनो प्रयोजक छे तेमां सर्व राजाओ साथे विरोध थयो त्यारे श्रीकृष्ण अने राम नो विवाह केम करीने थई शके ए आध्यात्मिक दुःखनो आकार छे. ए चिन्ताना मूळरूप दैव इच्छाना चिन्तनने आधिदैविक दुःखनो आकार समजवो. त्रण अध्यायथी ए दुःखनी निवृत्ति कहेवानुं कारण एटलुं ज के काया, वाणी अने मन थी ए चिन्ता त्रण प्रकारवाळी छे तेथी ए बधानी निवृत्ति पण त्रण अध्यायथी करी छे. आ बीजो भगवद् वीर्य अध्याय कहेवामां आव्यो. मुचुकुन्दनो मोक्ष न कर्यो त्यारे ए वीर्य [[४३२]] अध्याय केम कहेवाय? एना उत्तरमां कहेवानुं के भगवाने तेने तात्कालिक मोक्ष न आप्यो ते मोक्ष आपवानुं भगवान्नुं सामर्थ्य नथी माटे न आप्यो एम न समजवुं, पण एमां विलम्ब कर्यो ते मुचुकुन्दना सुखने माटे कर्यो छे. तेथी भगवान्ना वीर्यमां कांई न्यूनता आवती नथी. भगवान् तेने बळात्कारे मुक्त करे तो एमां एनुं चित्त स्थिर न थाय तेथी एने मुक्तिनुं साधन बताव्युं. प्रवृत्तिने माटे मृगयानी वात एने कही छे. एनुं प्रारब्ध कर्म हतुं तेनो प्रमेयबळथी नाश न कर्यो, पण एनो भोग करावी एनी पासे ज नाश कराव्यो. त्यां भगवान्ने एम करीने पोतानी लीला सिद्ध करवी छे तेथी एम कर्युं छे. यवन पण एमां प्रवेश करवाथी मुक्तिने प्राप्त थशे. यवने जे स्थानने दूषित कर्युं छे तेमां नित्य मथुरानी स्थिति न होय तेथी यवनने मारी एनुं धन लई लीधुं ते जरासन्धनी सेनाए उठावी घर भेगुं कर्युं. एणे ते दुष्ट द्रव्य लीधुं तेथी जरासन्ध आदिनी बुद्धिनो नाश थयो. वळी प्रवर्षण पर्वतना जीवोनो नाश कर्यो तेथी पण एमनी बुद्धिनो नाश थयो. प्रवर्षण पर्वत अगियार योजन (=८८ माईल=४,६४,६४० फूट) ऊञ्चो हतो. तेथी ते सदा वादळोथी व्याप्त रहेतो एटले सूर्यना किरणो तेना उपर पडी शक्तां नहि. तेना उपर कायम वरसाद वरस्या करतो तेथी तेना उपर अग्निनो तो सम्भव ज नहि, आम ते कडकडती ठण्डीथी हेरान-हेरान थई रह्यो हतो. तेणे भगवान्ने ठण्डी दूर करवा प्रार्थना करी. तेनी प्रार्थना स्वीकारी तेनी ठण्डी निवारवा वरदान आप्युं. प्रभुए जरासन्धमां भ्रम उत्पन्न कर्यो के राम-श्याम प्रवर्षण पर्वत उपर ज छे. एटले जरासन्धे पर्वतनी चारे बाजु लाकडां वगेरे ईन्धन खडकी आग लगावी. भगवान् पर्वत उपर हता त्यां सुधी अग्नि प्रवृत्त थयो नहि, थई शके ज नहि. प्रभु कूदीने दूर पधार्या पछी ज अग्नि लाग्यो छे. बलदेवजीनी स्त्री ‘रेवती’ निरोधनी अधिकारिणि न होवाथी एनी कथा नवमस्कन्धमां कही छे. लोकमां धर्म अने भोग नी सिद्धिने माटे विवाह थाय छे. तेमां प्रथम धर्मार्थ करवो, पछी भोगार्थ करवो जोईए. क्षत्रियने गान्धर्व अने राक्षस विवाह धर्मरूप गणाय छे तेमां पहेलां पटराणी रुक्मिणीजीमां गान्धर्व, राक्षस, अने धर्म्य ए त्रणे विवाह सिद्ध थया छे. ब्राह्मणने मोकल्यो तेथी गान्धर्व, युद्धमां हरण कर्युं तेथी राक्षस अने भाव प्रदर्शित करी वर्या तेथी ते धर्मरूप विवाह थयो छे. एमां रुक्मिणीजी लक्ष्मीजीनुं स्वरूप छे. तेना पिता विदर्भ देशना अधिपति भीष्मक समुद्रनुं स्वरूप छे अने तेनो भाई रुक्मी कालकूट (विष) नुं स्वरूप छे. रुक्मीए श्रीकृष्ण साथे युद्ध कर्युं ते दैत्यनुं हित करनार छे. एने बलदेवजी मारशे, अत्यारे तो भगवाने वधना विकल्परूपे (वध समान) मुण्डन करी काढी मूक्यो. रुक्मिणीजीए श्रीकृष्णने प्रार्थना करी तेथी एने जीवतो छोड्यो, नहि तो मारवा आवे तेने [[४३३]] मारवामां दोष न होवाथी एने मारवो योग्य हतो. बलदेवजीए भगवान्ने ठपको आप्यो ते तो एमां अन्य धर्मनो प्रवेश थतां लौकिक भाव आवतां एमणे भगवान्ना अभिप्राय जाण्या वगर (यशोदाजीए श्रीकृष्णने माटी खाधी त्यारे आप्यो हतो तेम) आप्यो छे. रुक्मिणीजीनो विचार एवो हतो के ते रुक्मीने बान्धीने द्वारका लई जवो, त्यां एने समजावीने छोडी मूकवो. एने बदले भगवाने रस्तामां ज छोडी दीधो तेथी रुक्मिणीजीने वैमनस्य थयुं ते बलदेवजीए दूर कर्युं. जो भगवान् रुक्मीने द्वारका लई जाय तो रुक्मीना पक्षना दैत्य राजाओ एनो द्वेष करे तेथी ए बधाथी आखो जन्म जुदो रहे. ए न करवामाटे एनुं मुण्डन करी छोडी दीधो. ज्ञानाध्यायमां मुण्डन कह्युं ते पण योग्य छे. तेथी ए मुण्डन थया पछी पोताना घरमां न गयो ए योग्य ज कर्युं छे. भगवान् द्वारकामां पधारीने सर्वने सुख आपनार थया. एम लोक व्यसन (दुःख) थी यादवोने मुक्त करी श्रीकृष्णमां व्यसनवाळा बनाववामां जे साधन हतुं ते आ प्रकरणमां कहेवामां आव्युं छे. कामवडे लोकमां व्यसन थाय छे केमके एना देहनो नाश थयो, धनुष आदि सर्वनो नाश थयो अने तेनी भार्या रतिनुं हरण थयुं. अर्ही तो कामदेव पोते ज दुःखी थयो. कामदेवनुं देवदेहथी हरण थयुं होत तो एनो नाश न थात कारण के शम्बर शिवजीनो कृपापात्र हतो. ज्यारे सर्वनी मुक्ति करवा वासुदेव भूतल उपर पधार्या त्यारे माया अने काम लोकबन्धार्थ उत्पन्न थयां, मायामां मोहित थयेलो जीव अद्यापि काम वगेरे छोडी शक्तो नथी. ज्यारे कामनी उत्पत्ति कृष्णथी थाय त्यारे एनुं दुःख दूर थाय अने ए श्रीकृष्ण सम्बन्धी देहमां आव्यो तेथी ए लोकोने बाधक न थयो. तेथी आ अध्यायमां बधानां दुःख दूर थयानुं लख्युं छे तेथी आ वैराग्य धर्मने कहेनार अध्याय छे. धर्मनी कथा कहेवामाटे मणिनी कथा कहे छे. लोकमां मणि ज व्यसन (दुःख) दूर करे तो भगवान्ने अर्ही पधारवानी जरूर न रहे. तेथी एम न थवा माटे मणिवाळाने व्यसन (दुःख) प्राप्त थयानी कथा कहे छे. ए पण जो श्रीकृषणना वाक्य पछी ज एने दुःख थाय तो ज ए दुःख श्रीकृष्णथी दूर थाय तेथी श्रीकृष्णे सत्राजितने बोलावीने मणि राजाने आपवानुं कह्युं अने ए मणिथी हमेशां जे धन पेदा थशे ते राजा तमने आपशे एम कह्युं, छतां श्रीकृष्णवाक्यमां एने विश्वास न आव्यो त्यारे एने दुःख थयुं. ए बधानो क्षय थयो. सत्राजित सूर्यनो भक्त हतो. लक्ष्मीजी अने सरस्वतीजी ना साचा भोक्ता भगवान् छे. मणि ए लक्ष्मीजीनुं स्वरूप छे अने सत्राजितनी पुत्री सत्यभामा ए सरस्वतीजीनुं स्वरूप छे. सत्राजित ए बन्नेनो विनियोग अन्यथा करवा मागतो हतो जे भगवाने न थवा दीधुं. पण भगवान् अक्लिष्टकर्मा होवाथी एनी पासेथी कन्या लेता नथी. एक दिवस मणि गळामां पहेरी सत्राजितनो भाई प्रसेन घोडे बेसी फरवा [[४३४]] नीकळ्यो त्यां सिंहे ए प्रसेनने तथा घोडाने मारी नाख्या; त्यां जाम्बुवान र्रीछ एनी पासेथी नीकळ्यो. तेणे सिंहने मारीने, मणि चळक्तो हतो; ‘‘बाळको एनाथी रमशे’’ एम जाणी पोते एने घेर लई गयो. सत्राजित भगवान् उपर आरोप मूक्यो के मारा भाईने मारी श्रीकृष्णे ए मणि लई लीधो त्यारे ए आरोपने दूर करवाने भगवान् एनी शोधमां नीकळ्या अने जाम्बुवान साथे युद्ध कर्युं. जाम्बुवान भगवान्ना स्वरूपने जाणी गया अने पोते मणि साथे पोतानी कन्या आपी. ते कन्याने भगवान् परण्या. मणि सत्राजितने आप्यो त्यारे एणे भगवान् उपर खोटो आरोप मूक्यो हतो तेथी मूञ्झायो अने भगवान् पोताने अपराधी न गणे ए हेतुथी पोते पोतानी कन्या सत्यभामा भगवान्ने आपी तेनी साथे मणि पण आप्यो, पण ए मणि सिंहनो उच्छिष्ट होवाथी भगवाने स्वीकार्यो नहि, पण कन्यानो ज स्वीकार कर्यो. (कारण के सिंहना चर्म-चामडुं अने नख पवित्र छे, मोढुं पवित्र नथी. सिंहे मणि मोढामां लीधेलो तेथी ते सिंहनो उचिछष्ट-एण्ठो थयो) जेम सर्वथा अप्रपन्नने कलि एना नाशनेमाटे ग्रहण करे छे तेम सर्वथा अन्य हृदयने भगवान् ग्रहण करता नथी. एम सात अध्यायवडे निरूपणकर्युं. हवे सात अध्यायथी राजस भक्तोना फलनो विचार करे छे. यादवोमां अक्रूरजी मुख्य छे. ते पछी विद्यानां पाञ्च पूर्वरूप पाञ्च कन्याओनी साथे भगवान्नो विवाह कहेवाय छे. श्रीकृष्णना सम्बन्धथी नायिका फलरूपा थई. एमने फलरूप श्रीकृष्ण मळ्या तेथी ए सर्व दुःखथी मुक्त थयां पछी आगळ सोळ कलारूपा जेनी एक-एक कलानी हजार वृत्तिओ छे ते पण सोळ हजार नायिकाओ श्रीकृष्णने प्राप्त थई. तेमना सम्बन्धथी बीजा पण अनेकने श्रीकृष्णरूपी फल प्राप्त थयुं छे. ए फल चार प्रकारनुं छेःश्रीकृष्ण प्राप्ति प्रथम फल छे, श्रीकृष्णने स्त्री प्राप्त थई छे ए बीजुं फल छे, पछी भगवान्ना अंशथी पुत्रादि थया ते लौकिक वैदिक प्रकारथी फल एमनुं सर्वभावथी सिद्ध करवुं ते चतुर्थ फल छे. जेम लोकनो लौकिकमां सर्वभाव थाय छे तेवो महिषीओने श्रीकृष्णमां सर्वभाव थयो. श्रीकृष्ण पासे जो एमनुं लौकिक सिद्ध करे तो एना स्वप्नादिकमां ए आवे. तो जेम लौकिकोनुं प्रपञ्चाद्वैत थाय छे तेम आनुं कृष्णाद्वैत थाय. अर्थकाम, धर्मकाम अने मोक्षकाम कह्या. केवल अने अन्यसंयुक्त पुरुषार्थो फलरूपे भगवान्थी प्राप्त थाय छे. अक्रूरजीने अर्थयुक्त धर्म पुरुषार्थ सिद्ध थयो. तेने माटे भगवाने लोक विलक्षण लीला करी. जेम दुर्योधन आदिने मारनार पाण्डवो भगवान्ने प्रिय छे तेम सत्राजितने मारनार शतधन्वादि भगवान्ने प्रिय छे ते सत्राजितने युद्धमां अथवा वनमां मारवो जोईए. एने बदले स्त्रीओनी समक्ष ऊङ्घताने मार्यो तेथी भगवाने शतधन्वाने मार्यो. फलमां [[४३५]] गुप्तलीला कहेली छे तेथी भगवाने सत्राजित मर्यानुं अज्ञान बताव्युं छे. शतधन्वा भाग्यो न होत अने भगवान्ने शरणे आव्यो होत तो अक्रूरजीनी जेम एने भगवान् मारत नहि. पण मर्यादामां एवुं फल उत्तम न होवाथी एम थयुं नथी. तेथी भगवान्ना आ कार्यमां बलदेवजी सम्मत थया नहि. अत्यारे बलदेवजीमां भगवदावेश ओछो होवाथी ए मिथिला गया. हवे पछी बलदेवजीनो मत श्रीकृष्णथी जुदो ज रहेशे. लोकमां पण सेवकने एवुं फल गमतुं नथी. तेथी शतधन्वाने मार्या पछी भगवाने वृथा मार्यो एम कह्युं छे. अक्रूरजी पण काशी तरफ गया. एने अर्थ साथे धर्मसिद्धिरूप फल थयुं; ए फरी द्वारका आव्या. एने माटे मणि भगवान्ने बताव्यो तेथी यादवोने ए फल थयुं तेम ज पाण्डवोने फल आपवा माटे भगवान् एमनुं सान्त्वन करवामाटे गया. एमने भगवाने त्रण (विश्वकर्माए नगर निर्माण करी आप्युं, अग्निए गाण्डीव आदि शस्त्र आप्यां, मय दानवे सुधर्मा सभा आपी) वस्तु गर्व करावनारी आपी छे. यादवोने ‘आमुष्मिक’ फल सूर्यथी मळे केमके ए वेदात्मा छे. एमनी सम्मति बताववामाटे कालिन्दीजीनी प्राप्ति भगवान्ने थई ए कथा कही छे, भगवान् इन्द्रप्रस्थमां पाण्डवोने सुख थतां सुधी रह्या. आत्मज्ञानरूपा कालिन्दीजी छे. तपोरूपा मित्रविन्दाजी छे. अन्तस्ताप अने बहिस्ताप रूप एमना भाईओ छे. एमनी साथे युद्ध करी भगवान् बलात्कारे एमने लाव्या छे. नाग्नजितीजी योगरूपा छे; ए सिद्धिरूपा होवाथी एमने मोटा सत्कार साथे लाव्या. भद्राजी नित्य अने अनित्य ना विवेकरूप छे; ए स्वयं प्राप्त थयां. लक्ष्मणाजी भक्तिरूपा छे; एमनी कथा विस्तारथी कही छे. ए सात्विकोना फलने माटे छे. ज्यारे इन्द्रियो अने विषयोनुं अनन्तपणु थाय त्यारे कर्मसाध्य फलमां निवृत्ति थाय छे. ए बताववामाटे श्रीकृष्णे सोळ हजार स्त्रीओ साथे लग्न कर्यां. नरना सुखरूप (क=सुख) नरकने मारीने ए कन्याओ लई आव्या. महिषीओनी (चित्तनी) वृत्तिरूप ए छे तेथी ए कन्याओ साथे लग्न कर्यां. अविद्याना कार्यरूप मुरदैत्य नरकनो रक्षक तेना पीठ वगेरे पुत्र प्राकृत इन्द्रियो जेवा समजवा. नरकासुर भगवान्नो पुत्र छे. ते भूमिथी उत्पन्न थयो छे. भगवान् सिवाय कोई एने मारी शके एम न हतुं तेथी एने भगवाने मार्योः तेम ऐहिक सुख दैवाधीन छे. ते सुख निवारण करी श्रीकृष्ण भगवान् भक्तने आ लोक परलोकनुं स्वतः सुख आपे छे. तेम बधा यादवोना ऐहिक सुख छोडावी पोते एमने सुख आप्युं. साठमा अध्यायमां रुक्मिणी साथे परिहास-विलास कर्यो तेमां भगवान्नुं वाचिक तिरोधान छे. तामस प्रकरणनी गोपीओमां भगवाने कायिक तिरोधान कर्युं तेम राजस भावमां वाचिक तिरोधान छे. अत्यन्त कोमळ भक्ति भगवद् रस भोगवी न शके; ए भक्तिने दृढ करवामाटे स्वरूप तिरोधान, वाक् [[४३६]] तिरोधान वगेरे भगवान् करे छे. एम करी भक्तने सामर्थ्य आपी एना दोषने दूर करी फल भोग करावे छे. पुत्र, पौत्र आदि सम्पत्ति फल कह्युं छे. एमां दैत्यनो सम्बन्ध दूर करवामाटे बलदेवजीए मङ्गळ प्रसङ्गमां रुक्मीने मार्यो केमके अधर्मरूप विवाहनुं पाप रुक्मीमां हतुं. तेना मरणथी ए गयुं. ए पापी मर्यो त्यारे यादवो बधा सुखी थया. घर आगळ आवेला श्रीकृष्ण सर्वभाववडे भक्तना अर्थने सिद्ध करे छे ए बताववा उषानुं आख्यान कह्युं छे. वैराग्य अने धर्मी अध्यायथी ए कह्युं छे. भगवान् बधुं जाणे छे छतां पोताना धर्मोने तिरोहित करी रहे छे. भक्तोनुं उत्तम कार्य होय तो एने सिद्ध करे छे, उषानुं रमण जाणी रक्षकोने दूर करी बाण अनिरुद्धने मारवा गयो त्यां नारदजीए बाणने रोक्यो. महादेवजीना मत प्रमाणे ए काम थयुं छे छतां महादेवजीनी साथे भगवान्ने युद्ध थयुं ते मनुष्य नाट्य बताववा अने सर्व देवोने पोत-पोताना भक्तमां पक्षपात होय छे ए बताववा पूरतुं छे. तो पण भगवान् सिवाय बाणासुरना हाथ कापी शके एवो कोई न हतो तेथी भगवाने एना एक हजार हाथमान्थी नवसो छन्नु आसुर बळरूपी हाथ कापी नाख्या. अनिरुद्धनी कथा यादवोने सूचक छे. राजसोने श्रीकृष्णथी चतुर्गुण फल मळे छे, अर्ही राजस फल प्रकरण पूरुं थाय छे.
विशेष - २. भगवाने भक्तना अनुरोधथी अलौकिक प्रकारे जे लीला करी ते पूर्वार्धमां कहेवामां आवी. आ उत्तरार्धमां पोते लौकिक राजानी माफक स्वतः लीला करी ए कहेवामां आवे छे. भक्तिनी अपेक्षा वगर सर्वोद्धारने अर्थे प्रकट थई लीला करी ए भगवान् अर्ही प्रकट थया छे. तेमनी लीला अर्ही विभागवडे कहे छे. आ निरोध लीलामां भगवान्ना संसारनी परम्परा कही छे. ए लीलामां भगवान्, भगवदीय अने भगवद् शास्त्र ए त्रण एक रूप छे तेथी ए विवाह आदि लीला पण निरोधरूप गणाय छे. तेनो विस्तार चौद अध्यायथी कहे छे. ए भगवान्ना धर्मो छे. ए ज छ गुणयुक्त भगवान् एकवीस अध्यायथी कहेवाय छे केमके काल एकवीस प्रकारनो छे. भगवान्नी कृति अर्ही प्रमाण छे. तेथी सात-सात अध्याय धर्म-धर्मी भेदथी कह्या छे. छ गुणयुक्त भगवान् अर्ही निरूप्या छे तेमां सर्वनो समावेश थाय छे. राजसना साधनमां भगवान्नी कृति ज साधनरूप समजवानी छे. ए ज साधन प्रथम अध्यायमां कहेवामां आवे छे. विवाह कर्या पछी पुत्रजन्म पर्यन्त ए कृतिनुं निरूपण करवामां आवे छे. एमां स्थान पण अलौकिक जोईए तेथी द्वारकानुं निर्माण कर्यानुं कह्युं छे. एमां उपद्रव न थाय एटला माटे श्रीकृष्णे जरासन्धने प्रवर्षणमां खेञ्ची जईने भ्रम उत्पन्न कर्यो; नहि तो ए द्वारका सुधी आवी त्यां उपद्रव करे. पण ए तो प्रवर्षणमां ‘‘सोपि दग्धो’’ इत्यादिथी शत्रु बळी गयानुं समजी त्यान्थी निवृत्त थयो. ए भ्रमकार्य छे. एम करीने भगवाने [[४३७]] जरासन्धनो निग्रह कर्यो अने मुचुकुन्द उपर अनुग्रह कर्यो एम न करे तो श्रीकृष्णनी लीला लौकिक गणाय. गान्धर्व, राक्षस अने स्वशाखा विहित एम त्रण विवाह क्षत्रियने धर्म्य कह्या छे. एमना पुत्र प्रद्युम्ननी कथा पण कही छे. एम सत्यभामाना विवाह सुधीनी कथा छे. प्रथम भगवत्प्राकट्यमां विविध दुःख कारणरूप कह्युं छे. एमान्थी पृथ्वी अने वैष्णव ए बन्नेना दुःख मथुरा छोडवामां पण कारणरूप छे. प्रजापति ब्रह्माण्डमां सत्तर प्रकारे कह्या छे. तेनुं निवारण थई शके छे. जरासन्ध प्रजापतिए आपेलो छे. तेने भगवाने सत्तरवार हरावी मथुराथी दूर कर्यो. हवे अढारमी वार आवे तो प्रमाणनी रक्षामाटे भगवान् एने दूर न करे तेथी आ अध्यायमां एक्तालीस श्लोकथी ए ज विषयनी कथा कही छे. बे श्लोकथी एनो सत्तरवार अतिदेश कर्यो छे. बीजो अतिदेश साडा पन्दर श्लोकथी कर्यो छे. तेमां शिवजी वेदरूप छे. जेमनुं जरासन्धे आराधन कर्युं. शिवजी प्रसन्न थया त्यारे तेमणे ब्राह्मणनो आशीर्वाद लेवा सूचव्युं. ब्राह्मणो जरासन्ध उपर प्रसन्न थया. आ शिवजी अने ब्राह्मणो प्रमाणरूप छे. तेमनां वचन सत्य करवामाटे आगामी अढारमा सङ्ग्राममां भगवान् एने जिताडशे एटले भगवान्नो सर्वथा जय ज छे. अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ ॥ मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे भरतवंश शिरोमणि परीक्षित! कंसने बे राणीओ हती-अस्ति अने प्राप्ति. पतिना मृत्युथी एमने बहु दुःख थयुं अने तेथी तेओ पोताना पिता (जरासन्ध) नी राजधानीमां चाली गई ॥१॥
मगध देशनो राजा जरासन्ध ते अस्ति अने प्राप्तिनो पिता छे. तेनी पासे जई दुःखयुक्त थईने पोताना वैधव्यनुं कारण कही सम्भळाव्युम् ॥२॥
ए वात साम्भळतां जरासन्धने शोक अने क्रोध पण थयो. त्यारथी पृथ्वीने यादव रहित करवाने माटे तेणे भारे तैयारी करी ॥३॥
त्रण अक्षौहिणी सेना एनी पोतानी हती अने वीश अक्षौहिणी बीजानी पासेथी लई एणे यदु राजधानी मथुराने चोतरफथी घेरी लीधी ॥४॥
भगवान् श्रीकृष्णे सागर उछळतो होय तेवुं जरासन्धनुं सैन्य जोयुं, पोतानुं नगर घेरायेलुं जोयुं, पुरवासीओ अने स्वजनो भयमां आवी गयां तेमने जोयां, त्यारे श्रीकृष्ण भगवान्, जो के मनुष्य नाट्य करे छे तो पण ए स्थळे अने ए समये मारे शुं करवुं जोईए ए विचार करवा लाग्या. तेम ज पोते अर्ही भूतल उपर [[४३८]] पधार्या छे एनी सार्थक्ता केम थाय ए बधो विचार करवा लाग्या ॥५-६॥
आपे (श्रीकृष्णे) विचार कर्यो के आ तो बहु सारुं थयुं के मगधराज जरासन्धे पोताने अधीन राजाओनी पायदळ, घोडेसवार, रथ अने हाथी ओ सहित केटलीक अक्षौहिणी सेना भेगी करी छे. आ तो पृथ्वी उपरनो भार ज भेगो थईने मारी पासे आवी पहोञ्च्यो छे. हुं एनो नाश करीश. परन्तु हजु जरासन्धने न मारवो जोईए, कारण के ते जीवतो हशे तो फरी असुरोनी मोटी सेना भेगी करी लावशे ॥७-८॥
पृथ्वीनो भार ओछो करवो, दुष्टोने मारवा अने साधुपुरुषोनुं रक्षण करवुं ए ज मारे पृथ्वी उपर आववानुं कारण छे ॥९॥
समये-समये धर्मनी रक्षा करवा अने वधता जता अधर्मने रोकवामाटे हुं बीजां पण अनेक शरीर धारण करुं छुम् ॥१०॥
एम भगवान् गोविन्द विचार करे छे त्यां ए वखत आकाशमान्थी सूर्यना जेवा चमक्ता बे रथ उतर्या जेमां कवच, ध्वज वगेरे युद्धनी तमाम सामग्री तैयार हती. बे सारथिओ तेमने हाङ्की रह्या हता ॥११॥
ए ज वखते भगवान्नां दिव्य अने सनातन आयुधो पण स्वयं हाजर थई गयां. तेमने जोईने बुद्धिप्रेरक भगवाने बलदेवजीने कह्युम् ॥१२॥
‘‘प्रभो! मोटाभाई! अत्यारे जे यदुवंशीओ आपने ज पोताना स्वामी अने रक्षक माने छे, जे आपथी ज सनाथ छे तेमना उपर बहु मोटी विपत्ति आवी पडी छे. जुओ आ आपनो रथ छे अने आपनां प्रिय आयुध (हळ-मुशळ) पण आवी पहोञ्च्या छे ॥१३॥
माटे आ रथमां बेसी शत्रुओने मारी स्वकीय यादवोनो दुःखथी उद्धार करो. हे ईश! साधुओने सुख आपवामाटे ज आपणुं अत्रे आववुं थयुं छे ए आप जाणो ज छो ॥१४॥
त्रेवीश अक्षौहिणी सेना पृथ्वीने भाररूप छे. तेने आप दूर करो’’ एम एकान्तमां विचार करी कवच धारण करी बन्ने भाईओ बन्ने रथमां सवार थई नगरनी बहार आव्या ॥१५॥
पोतानां आयुधोवडे शोभता बन्ने भाईओ थोडी सेनाने पण साथे लाव्या. दारुक सारथिवाळा भगवान्=हरिए बहार आवी शङ्ख फूङ्क्यो ॥१६॥
[[४३९]] तेमना शङ्खनो भयङ्कर ध्वनि साम्भळी शत्रुपक्षनी सेनाना वीरोनां काळजां भयथी कम्पी उठ्यां. तेमने जोईने मगधराज जरासन्धे कह्युं, ‘‘हे कृष्ण! पुरुषाधम, हुं तारी साथे युद्ध नहि करुं. तुं बाळक छे. तेथी मने तारी साथे लडतां लज्जा आवे छे. मामाने मारनार छे तेथी हे मन्द! हुं तारी साथे युद्ध नहि करुम् ॥१७-१८॥
*हे राम! तारुं धैर्य होय, लडवामां श्रद्धा होय, तो तुं युद्ध कर, अथवा मारा बाणथी देहने छिन्न-भिन्न करी मने छोडी स्वर्गमां जा’’ ॥१९॥
विशेष - वाक्पति श्रीमद्वल्लभाचार्यजीना सिद्धान्त प्रमाणे सरस्वती-वाणी भगवान्ने गाळ देवामां प्रवृत्त थाय ज नहि. ज्यां-ज्यां श्रीभागवतजीमां आवा प्रसङ्गो छे त्यां-त्यां भगवान्नी स्तुति, माहात्म्य, भक्तवश्यता ज प्रकट थता होय छे. दा.त. अर्ही नीचे प्रमाणेना अर्थ ए ज साचा अर्थ छे. तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम ॥१७॥
न त्वया योद्धुमिच्छामि बालकेन विलज्जया ॥ गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन् ॥१८॥
उपर-उपरथी देखातो अर्थ तो अनुवादमां आप्यो छे, जे प्रकरण विरुद्ध होवाथी उपेक्ष्य छे. साचो अर्थ आ प्रमाणे छे. भगवान् सच्चिदानन्द स्वरूप छे तेथी त्रण सम्बोधन छे. १.आनन्द २. चित् ३. सत्. १. कृष्ण एटले आनन्द स्वरूप २. पुरुष एटले चित् (ज्ञान) स्वरूप ३. अधम (अधो माति इति अधमः) जे नीचे व्यापीने रहे ते अर्थात् आ जगत्. बालक जेना एक एक बाल (रोममां) ब्रह्मा रहेला छे अथवा बालकोने जेनाथी सुख (क) प्राप्त थाय ते. विलज्जया लज्जाने लीधे. धृष्टता, उद्धताई करीने, युद्धथी मरण थतां मोक्ष मळशे एम समजी युद्ध करवुं शक्य छे पण लोको मश्करी करशे के आ जरासन्ध पोताना स्वामी साथे युद्ध करे छे तेथी लोकलज्जाथी युद्ध करवुं उचित नथी. गुप्तेन आपनाथी रक्षित. आपे जेनुं रक्षण करेल होय तेने कोण मारी शके? आपनी साथे युद्ध करतां मृत्यु आवे तो पण सारुं, बीजाने हाथे मरवुं सारुं नथी. अमन्द-‘मा’ एटले माया. अमः एटले ज्यां माया नथी ते अर्थात् मोक्ष. अम (मोक्ष) नुं दान करे ते अमन्दः। याहि बन्धुहन् बन्धुओने सद्गति आपनार! मोक्ष आपवामाटे जाओ. (विशेष जिज्ञासुने श्रीसुबोधिनीजी वाञ्चवा विनन्ति छे) भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे मगधराज! शूरवीर पोतानी बडाई न करे, पण ए पोतानुं पराक्रम बतावे. तुं तो मरवाने तैयार छो. सन्निपातमां बकनार छे. [[४४०]] तेनां वचन प्रमाणरूप गणातां नथी. जे मरवाने तैयार थयो होय ते गमे तेम बोले. तेथी तारां वचनने अमे गणता नथी’’ ॥२०॥
हे परीक्षित! जेवी रीते वायु वादळोथी सूर्यने अने रजकणोथी अग्निने ढाङ्की देतो लागे छे पण हकीकतमां ते ढङ्काता नथी तेमनो प्रकाश फरी फेलाय ज छे तेवी ज रीते जरासन्धे श्रीकृष्ण अने बलदेवजी नी सामे आवी पोतानी विशाळ, बलवान अने अपार सेनाद्वारा तेमने चारे तरफथी घेरी लीधां, त्यां सुधी के तेमनी सेना, रथ, ध्वजा, घोडा अने सारथिओ पण देखाता बन्ध थई गयाम् ॥२१॥
मथुरापुरीनी स्त्रीओ पोताना महेलोनी अटारीओ, जरुखा अने दरवाजाओ उपर चडी युद्ध जोई रही हती. ज्यारे तेमणे जोयुं के युद्धभूमिमां भगवान् श्रीकृष्णनी गरुडना चिह्नवाळी अने बलदेवजीनी तालना चिह्नवाळी धजावाळा रथ देखाता नथी त्यारे तेओ शोकना आवेगथी मूर्छा पामी ॥२२॥
ज्यारे भगवान् श्रीकृष्णे जोयुं शत्रुसेनाना वीर अमारी सेना उपर ए प्रमाणे बाणोनी वर्षा करी रह्या छे के जाणे वादळो पाणीनां अगणित बुन्दो वरसावी रह्यां होय अने अमारी सेना तेथी अत्यन्त पीडित-व्यथित थई रही छे त्यारे आपे देवता अने दानवो बन्नेथी सन्मानित पोताना शंर्ग (शारङ्ग) धनुषनो टङ्कार कर्यो ॥२३॥
त्यारबाद भगवान् भाथामान्थी बाणो काढी तेमने धनुष उपर चडावी, धनुषनी दोरी खेञ्ची बेसुमार बाणो छोडवा लाग्या. ए वखते एमनुं ए धनुष एटली स्फूर्तिथी घूमी रह्युं हतुं के जाणे कोई, उम्बाडियुं झपाटाबन्ध फेरवतो होय! आ प्रमाणे श्रीकृष्ण जरासन्धनी चतुरङ्गिणी सेनानो संहार करवा लाग्या ॥२४॥
आथी अनेक हाथीओना कुम्भस्थळ (सिर) फाटी गयां अने तेओ मरी जई ढळी पडवा लाग्या. बाणोना वरसादथी अनेक घोडाओनां सिर धडथी अलग पडी गयां. घोडा, धजा, सारथिओ अने रथीओ नष्ट थई जवाथी घणाक रथ नकामा थई गया. पायदल सेनानी बांहो, जाङ्घ, अने माथां वगेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग कपाई-कपाईने पडवा लाग्याम् ॥२५॥
भगवान् श्रीकृष्णे घणा मतवाला शत्रुओने मारी नाखीने तेमना अङ्ग- प्रत्यङ्गोमान्थी नीकळेला लोहीनी सेङ्कडो नदीओ वहावी दीधी. क्यांय मनुष्यो कपाई रह्यां छे तो क्यांय हाथी अने घोडा तरफडी रह्या छे. ए नदीओमां मनुष्योनी [[४४१]] भुजाओ सर्प जेवी देखाती हती अने माथां तो एवां लागतां हतां के जाणे काचबाओनी भीड जामी होय. मरी गयेला हाथी टापु (बेट) जेवा अने घोडा मगर जेवा देखाता हता ॥२६॥
हाथ अने साथळ माछलीओ जेवा, मनुष्योना केश सेवाळ जेवा, धनुष तरङ्गो जेवा अने अस्त्र-शस्त्र लता अने घास जेवा अने ढाल चक्कर फरे छे ते प्रवाहमां भयानक भमरी जेवी लागती हती. बहुमूल्य मणिओ अने आभूषणो पथ्थरोनां रोडां अने काङ्कराओनी जेम वही जतां हताम् ॥२७॥
ए नदीओने जोईने कायर पुरुषोनां काळजां कम्पी रह्यां हतां अने वीरोनो आपसमां उत्साह खूब वधी रह्यो हतो. (भगवान् श्रीकृष्णना पराक्रमनुं वर्णन करी हवे बलदेवजीनुं युद्ध कहे छे) बलदेवजीनुं तो अन्दरनुं बळ अने बहारनुं तेज अपार छे. एमणे पण मतवाला शत्रुओने मुसळथी मारी-मारी लोहीनी नदीओ वहेडावी दीधी ॥२८॥
हे परीक्षित! जरासन्धथी रक्षाएलुं लश्कर तेना अङ्गो (अश्व, हस्ती वगेरे) साथे समुद्रना जेवुं दुर्गम अने भयङ्कर हतुं. तेना रक्षको अने तेने मदद करवा आवेला राजाओनो पार नहोतो. तेने जीतवुं बहु कठिन हतुं. परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजीए तेने नष्ट करी नाख्युं. ए तो जगतना ईश्वर (स्वामी) छे. एमने माटे सेनानो नाश करी देवो ए तो क्रीडा जेवुं ज थयुं एनाथी एमने कांई वधारे श्रम न थयो ॥२९॥
अनन्त गुणवाळा भगवान् पोतानी लीलावडे जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने अन्त करे छे तेमने शत्रुनी सेनाने काबूमां लेवी के एनो नाश करवो ए कांई मोटी वात नथी; तो पण भगवान् मनुष्यनाट्य बतावे छे एमां पण पोताना भक्तोनो पक्ष करे छे. (एम बताववा भक्तिमार्गनो उत्कर्ष कहेवामाटे आटलुं कह्युं छे) ॥३०॥
महाबळवाळो जरासन्ध रथरहित थई गयो. एनुं सैन्य मरी जतां पोते एकलो ज बच्यो. जेम सिंहने सिंह बळवडे पकडे तेम बलदेवजीए एने जीवतो पकडी लीधो ॥३१॥
जेणे घणा शत्रुओने मार्या छे तेवा जरासन्धने वारुण अने मानुषपाशवडे बलदेवजी बान्धता हता त्यां श्रीकृष्ण पधार्या अने ए जरासन्धद्वारा बीजां कार्य [[४४२]] करवानां बाकी होवाथी बलदेवजीने बान्धता अटकाव्या ॥३२॥
लोकना नाथ एवा राम-कृष्णे एने छूटो कर्यो. ए जरासन्ध पण वीरनी गणतरीमां होवाथी शत्रुए बचाव्यो तेथी लाज्यो तेथी राज्य न करतां तप करवाने जङ्गलमां जवानो ए निश्चय करतो हतो त्यां मार्गमां बीजा राजाओ मळ्या तेओए एने तप करवा जतां अटकाव्यो ॥३३॥
पवित्र अर्थ अने पदवाळां वाक्यो तथा प्राकृत न्यायो (जेवां के श्रीकृष्ण तो भगवान् छे, ईश्वर छे तेमना हाथे हारवुं ए पण मोटुं भाग्य ज छे. मोटा-मोटा योद्धाओनो पण केटलीक वखत पराजय थाय छे. युद्धे चडे ए हारेय खरा वगेरे) वडे समजाव्यो. यदुवंशीओथी आ तमारो पराजय पोताना कर्मनुं बन्धन ज समजो ॥३४॥
सर्व सेना मरी गई त्यारे बृहद्रथनो पुत्र जरासन्ध एकलो रह्यो. तेने भगवाने जीवतो छोडी एनी उपेक्षा करी त्यारे ए उदास मनथी पोताना मगध देशमां गयो ॥३५॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनी सेना अक्षत (सलामत) रही अने जरासन्धनी त्रेवीस अक्षौहिणी सेना उपर, जे समुद्र समान हती, सहेलाईथी विजय प्राप्त करी लीधो. ए वखते देवताओ आपना उपर (नन्दनवननां) पुष्पोनी वर्षा अने आपना कार्यनुं अनुमोदन (प्रशंसा) करी रह्या हता ॥३६॥
मथुरावासीओनां मन भयरहित थयां. सूत, मागध अने बन्दीजनो भगवान्ना विजयनां गुणगान करवा लाग्या ॥३७॥
शङ्ख, नगारां, भेरी, तुरी, वीणा, वेणु मृदङ्ग वगेरे वाजां वागवा लाग्यां अने भगवाने पुरमां प्रवेश कर्यो ॥३८॥
नगरना मार्गोमां सुगन्धी जल छण्टायां. लोको आनन्दमां आवी गयां. आखा नगरमां विजयपताकाओ लहेराई रही हती. ब्राह्मणो वेदच्चार करी रह्या हता. ज्यां जुओ त्यां आनन्द अने उत्सव प्रकट करनार तोरणो बान्धेलां हताम् ॥३९॥
पुष्प, दर्ही, चोखा अने जवना अङ्कुरोवडे स्त्रीओए पुरमां आवता भगवान्ने वधाव्या. स्नेह, प्रीति अने उत्कण्ठा भाव बतावतां स्त्रीओए भगवान्ने बन्धुभाव (स्नेह), पुरुषभाव (प्रीति) अने कामभाव (उत्कण्ठा) थी निहाळ्या ॥४०॥
[[४४३]] युद्धभूमि उपरथी भगवान् श्रीकृष्णने योद्धाओना आभूषणोना रूपमां अपार धन प्राप्त थयुं. ते आपे यदुवंशीओना राजा उग्रसेनने मोकलाव्युं कारण के ए द्रव्यनी मालिकी राजानी होय ॥४१॥
हे परीक्षित! आ ज *प्रमाणे सत्तरवार त्रेवीश-त्रेवीश अक्षौहिणी सेना एकठी करी मगधराज जरासन्धे भगवान् श्रीकृष्णथी सुरक्षित यदुवंशीओ साथे युद्ध कर्युं ॥४२॥
विशेष - जरासन्ध सत्तरवार हार्यो त्यारे एणे तप करीने शिवजीने प्रसन्न कर्या, त्यारे शिवजीए एने कह्युं के कृष्ण ब्राह्मणने पूर्ण मान आपनार छे माटे तुं ब्राह्मणोनो आशीर्वाद मेळवीने जाय तो हारे नहि; त्यारे ए पोताना नगरमां आव्यो अने ब्राह्मणोने बोलावीने पोताना सिंहासन उपर एमने बेसाड्या त्यारे ब्राह्मणो एनी उपर प्रसन्न थया अने वरदान आप्युं के ‘‘शत्रुं जेष्यसि अजेयश्च भविष्यसि’’ तुं शत्रुने जीतीश अने अजेय थईश. ए वात नारदजी जाणी गया तेथी एमणे कालयवनने मोकल्यो. एणे पण जरासन्धनी जेम यादवोने दुनिया उपरथी काढवानी प्रतिज्ञा करी हती. ए जो पाछळ रहे तो द्वारका पहोञ्चे, माटे बन्ने एक साथे मथुरामां ज मळी जाय तो ठीक ए भगवद् अभिप्रायने जाणी नारदजी यवनने मथुरा मोकल्यो. ए काळयवन वृद्ध गर्गनो पुत्र छे. एनो बाप महायवन प्रजा वगरनो हतो. तेणे पुत्रमाटे वृद्ध गर्गने प्रार्थना करी त्यारे वृद्ध गर्गे एनी स्त्रीमां पुत्र उत्पन्न कर्यो ए वृद्ध गर्ग कोई वखते यदुसभामां गयेल त्यारे यादवोए तेनी मश्करी करेली, त्यारे तेणे पोताना पुत्र कालयवनने यादवोनो नाश करवानुं कह्युं तेथी एने ए कर्तव्य हतुं. एमां नारदजीए आ समये जवानुं कह्युं तेथी ते मथुरा आव्यो. आ बन्ने कथा अन्य पुराणोमां छे. परन्तु यादवोए भगवान् श्रीकृष्णनी शक्तिथी दरेक वखते तेनी बधी सेना नष्ट करी दीधी. ज्यारे बधी सेना नाश पामी जती त्यारे यदुवंशीओ तेने उपेक्षापूर्वक जवा देता अने ते पोतानी राजधानीमां पाछो जतो ॥४३॥
ज्यारे अढारमी वखते ए लडाई करवामाटे आववाने तैयार थयो त्यारे नारदजीए कालयवनने मथुरा उपर चडाई लई जवाने प्रेर्यो अने ते मथुरामां देखायो ॥४४॥
युद्धमां कालयवननी साथे लडे तेवो वीर त्रण लोकमां बीजो कोई नहोतो. तेणे ज्यारे नारदजी पासेथी साम्भळ्युं के यादवो मारा जेटला ज बळवान छे अने मारो सामनो करी शके तेवा छे त्यारेत्रण करोड म्लेच्छोनी सेना लई तेणे मथुराने घेरी [[४४४]] लीधी ॥४५॥
सङ्कर्षणनी सहायवाळा श्रीकृष्ण विचारमां पड्या. यवनने जोई ‘‘आ जरासन्ध अने यवन बन्ने तरफथी यादवो उपर दुःख आवी पड्युं छे केमके महाबळवाळा यवने तो शहेरने घेर्युं छे अने आजकालमां जरासन्ध पण आवी पहोञ्चशे ॥४६-४७॥
आपणे आनी साथे लडीशुं, दरम्यान जो जरासन्ध आव्यो तो आपणा बन्धुओने ए मारी नाखशे के पोताना नगरमां लई जई केद करशे केमके ए बहु बळवान छे ॥४८॥
माटे कोई माणस न जई शके एवो एक किल्लो आजे आपणे बनावीए. एमां स्वजनो-सम्बन्धीओने पहोञ्चाडी दईने कालयवनने मरावी नाखीशुं’’ ॥४९॥
बलदेवजी साथे आ प्रमाणे विचार करी भगवान् श्रीकृष्णे समुद्रनी वच्चे पण जलनी सपाटीथी अद्धर अन्तरिक्षमां एक एवुं नगर बनाव्युं जेमां बधी वस्तुओ अद्भुत हती अने जेनी लम्बाई-पहोळाई बार योजन (छन्नु माईल) हती ॥५०॥
ते नगरनी एक-एक वस्तुमां विश्वकर्मानुं विज्ञान (वास्तु विज्ञान) अने शिल्पकलानी निपुणता जणाती हती. तेमां वास्तुशास्त्र प्रमाणे मोटी-मोटी सडको, चोक अने गलीओनुं यथास्थान बराबर विभाजन करवामां आव्युं हतुं ॥५१॥
ते नगर एवा सुन्दर उद्यानो (पुष्पप्रधान) अने विचित्र उपवनो (फलप्रधान) वाळुं हतुं के जेमां देवताओनां वृक्षो (पारिजात वगेरे) अने लताओ लहेराती हती. (‘यथावास्तु’ एटले एकवीस-एकवीस माळनां) मकानो उपर सोनानां शिखरो आकाश साथे वातो करतां हतां. स्फटिकमणिनी अटारीओ अने ऊञ्चा-ऊञ्चा दरवाजा बहु ज सुन्दर लागता हता ॥५२॥
अन्ननो सङ्ग्रह करवामाटे पित्तळनी कोठीओ अने घृत दर्ही वगेरे राखवामाटे चान्दीनी कोठीओ हती. त्यां महेलो सोनाना हता अने तेमना उपर सोनाना कलशो हता. तेमनां शिखरो रत्नोनां हतांअने भूमि मरकत (लीलम)नी शिलाओथी जडेली हती ॥५३॥
[[४४५]] ते उपरान्न्त ते नगरमां वास्तुदेवता (भूमि) ना पतिओ, इन्द्र वगेरे लोकपालोनां मन्दिरो अने छज्जाओ अत्यन्त सुन्दर लागतां हतां. तेमां चारेय वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्रो) रहेता हता अने सौथी वचमां यदुदेव श्रीकृष्णना महेलो जगमगी रह्या हता ॥५४॥
हे परीक्षित! ते वखते देवराज इन्द्रे भगवान् श्रीकृष्णने माटे सुधर्मा१ सभा तथा पारिजात२ वृक्ष मोकली आप्यां. ते सभा एवी दिव्य हती के तेमां बेठेला मनुष्यने मर्त्य लोकना भूख-तरस वगेरे धर्मो अडकी शक्ता नहोता ॥५५॥
विशेष - १. सुधर्मा सभामां बेसवा मात्रथी धर्म अने धर्मफल नी प्राप्ति थाय छे. ते नवरत्नोनी बनेली हती. २. आगळ उपर श्रीकृष्ण पारिजातनुं इन्द्रना बगीचामान्थी हरण करी पृथ्वी उपर लई आवे छे ते कथा मतान्तरभाषानी छे. वरुणजीए एवा अनेक श्वेत घोडाओ मोकली आप्या जेमनो एक-एक कान *श्याम रङ्गनो हतो अने जेमनी चाल मनना जेटली तेज हती. धनपति कुबेरजीए पोताना आठेय निधिओ मोकली आप्या अने बीजा लोकपालोए पण पोत- पोताना भण्डारो मोकली आप्या ॥५६॥
विशेष - आ घोडाओनो एक कान धोळो छे, बीजो काळो. डाबो धोळो कान निवृत्ति शास्त्ररूप छे ज्यारे जमणो काळो कान प्रवृत्ति-शास्त्ररूप छे. प्रवृत्तिनां साधन कर्मथी स्वर्गनी प्राप्ति थाय छे. ते बन्ने दोषशङ्काथी क्लुषित होवाथी ते कर्ण श्याम छे. आधिपत्य (अधिकार, सत्ता वैभव) ईश्वर ज आपे त्यारे मळे छे अने फळे छे. ईश्वरने जे अर्पण करवामां आवे ते अक्षय थाय छे एटले पोतानुं धन अथवा अधिकार कायमी थाय एटला माटे लोकपालोए फरीथी ते-ते वस्तुओ भगवान् भूमिउपर पधार्या त्यारे हे राजन्! तेमने अर्पण करी ॥५७॥
प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः ॥ निर्जगाम पुरद्वारात् पद्ममाली निरायुधः ॥५८॥
भगवान् श्रीकृष्णे पोताना बधा स्वजन-सम्बन्धीओने पोतानी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाद्वारा पहोञ्चाडी दीधी. बाकीनी प्रजानी रक्षा करवामाटे बलदेवजीने मथुरामां राख्या अने तेमनी सलाह लई कमलोनी मालायुक्त अने कोई पण जातना अस्त्र-शस्त्र विना नगरीनी बहार नीकळी आव्या ॥५८॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा [[४४६]] साधन-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्यरूप पहेलो) ‘‘भगवाने जरासन्धने सत्तरवार हराव्यो’’ नामनो (उत्तरार्धनो पहेलो अने चालु) पचासमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां सुडतालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी तेमज तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय ५१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.४८ भगवाने मुचुकुन्द उपर करेलो अनुग्रह त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय२
विशेष - भगवाने पूर्वाध्यायमां जरासन्धनो निग्रह कर्यो ए कह्युं. आ अध्यायमां मुचुकुन्द उपर एमना अनुग्रहनी कथा कहे छे. आ अध्यायमां तामस, राजस, सात्विक अने निर्गुण एम चार लीला भगवान्नी कही. तेमां दुष्टोनो वध, द्वारका निर्माण, योगप्रभावथी त्यां सर्वने पहोञ्चाड्या ए त्रण गुणयुक्त लीला पूर्व अध्यायमां कही ज्यारे निर्गुण लीला आ अध्यायमां कहेवाय छे. ए भगवान्नी निर्गमलीला छे. एमां निर्गुण स्वरूप कालयवनना वधमां निमित्त ज छे पण साक्षात् वधकर्ता नथी. निर्गुण होय ते कर्ता न होई शके. एमां मुचुकुन्दने जगाड्यो, काळयवन मर्यो, भगवान् तथा मुचुकुन्द नो संवाद अने तेणे करेली भगवान्नी स्तुति जेनुं फल आगळ उपर मोक्ष थशे तेथी आ ५१ मा अध्यायमां निर्गुण लीलानुं वर्णन छे. भगवान्नी क्रिया सगुण निर्गुण भेदथी बे प्रकारनी छे. भगवाने तत्वरूप आयुधनो त्याग कर्यो अने केवळ एने मोह करवा कीर्तिमयी माळाने धारण करीने नीकळ्या ते निर्गुणताने बतावनार छे. निर्गुण स्वरूपवडे कालयवननो उद्धार कर्यो एम ‘‘ये च प्रलम्ब-खरदर्दुरकेश्यरिष्ट- मल्लेभकंसयवनाः’’ इत्यादिथी जणाय छे पण ए यवननी मुक्ति स्वस्वरूपमां नहि पण काळ स्वरूपमां समजवी. कालयवने नारदजीनो उपदेश ग्रहण कर्यो तेथी भगवाने एने साक्षात् दर्शन आप्यां छे. ए भगवान्ने अनुसर्यो तेथी एनी काळमां मुक्ति थई ए बार श्लोकथी कहे
ईं उं ईं उं
[[४४७]] छे. (काळ द्वादशात्मक बार महीना रूपे-छे तेथी बार श्लोकथी स्तुति करी छे) तं विलोक्य विनिष्क्रान्तम् उज्जिहानमिवोडुपम् ॥ दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥११॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे प्रिय परीक्षित! जे वखते भगवान् श्रीकृष्ण मथुरानगरीना मुख्य द्वारथी नीकळ्या त्यारे एम जणातु हतुं के जाणे पूर्व दिशामां चन्द्रनो उदय थई रह्यो होय. आपनुं श्यामळुं शरीर अत्यन्त दर्शनीय हतुं. तेना उपर रेशमी पीताम्बरनी छटा अनोखी ज हती. वक्षःस्थल उपर सुवर्णरेखाना रूपमां श्रीवत्सनुं चिह्न शोभी रह्युं हतुं अने गळामां कौस्तुभ मणि झगमगी रह्यो हतो. चार लाम्बी अने पुष्ट भुजाओ हती. ताजां खीलेलां कमल जेवां कोमल अने लालीयुक्त नेत्रो हतां. मुखकमल उपर अपार आनन्द नाची रह्यो हतो. कपोलोनी छटा अनूठी हती. पवित्र स्मित दर्शन करनाराओनुं चित्त चोरी लेतुं हतुं. कानोमां मकराकृत कुण्डल झलकी रह्यां हतां. एमने जोईने कालयवने नक्की कर्युं के आ ज पुरुष वासुदेव छे कारण के नारदजीए जे-जे लक्षणो बताव्या हतां. वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनुं चिह्न, चार भुजाओ, कमलना जेवां नेत्र, गळामां वनमाला अने सुन्दरतानी सीमा-ए बधां आमां मळी रह्यां छे. तेथी आ बीजुं कोई होई शके नहि. अत्यारे ते कोई पण जातना अस्त्र-शस्त्र विना पगे चालीने आ तरफ चाल्यो आवे छे माटे हुं पण तेनी साथे अस्त्र-शस्त्र विना ज लडीश. (१ थी ५) एवो निश्चय करी ज्यारे कालयवन भगवान् श्रीकृष्णनी तरफ दोड्यो त्यारे भगवान् मुख फेरवी रणभूमि उपरथी भागी नीकळ्या अने ते योगीजन दुर्लभ प्रभुने पकडवाने माटे कालयवने तेमनो पीछो पकड्यो ॥६॥
रणछोड भगवान् लीला करतां भागी रह्या हता. कालयवन डगले-डगले एम ज समजतो हतो के हमणां पकडी लउं, हमणां पकडी लउं. आ प्रमाणे भगवान् तेने घणे दूर एक पहाडनी गुफामां लई गया ॥७॥
पाछळथी कालयवन वारंवार भगवान्नी निन्दा करतो कहेवा लाग्यो ‘‘परम यशस्वी यदुकुलमां तुं जन्म्यो छे. आ प्रमाणे युद्ध छोडी भागवुं तने शोभतुं नथी’’ परन्तु हजु तेनां पाप बाकी हतां तेथी ते भगवान्ने पहोञ्ची शक्यो नहि ॥८॥
ए तो बोलतो-बोलतो पाछळ पड्यो छे एनी दरकार न करतां भगवान् पर्वतनी गुफामां पेठा. यवन पण एमनी पाछळ पर्वतनी गुफामां पेठो त्यां तो कोई [[४४८]] एक बीजा ज पुरुषने त्यां सूतेलो जोयो ॥९॥
तेने जोईने कालयवने विचार कर्यो के ‘‘जुओ तो खरा! आ मने आ प्रमाणे आटले दूर सुधी लई आव्यो अने हवे जाणे के कंई जाणतो ज नथी एवी रीते भला माणसनी जेम सूतो छे’’ एम विचार करी ते सूतेलाने भगवान् जाणी मूढ एवा यवने तेने पगवडे प्रहार कर्यो ॥१०॥
घणा वखतथी सूतेला ते पुरुषे महा महेनते आङ्खो खोली त्यां तो प्रथम ज कालयवनने पासे उभेलो जोयो ॥११॥
हे परीक्षित! काष्ठमां रहेला अग्निने बहारना अग्निनो स्पर्श थता ते प्रकट थाय छे तेवी रीते निरपराधने लात मारी तेथी सूतेला पुरुषने सहेजे क्रोध थयो. तेनी क्रोधयुक्त दृष्टिथी कालयवनना देहमां रहेलो अग्नि ज भभूकी उठ्यो अने तेनाथी क्षण मात्रमां ते भस्म थई गयो ॥१२॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - हे भगवन्! जेनी दृष्टिमात्र पडवाथी कालयवन बळीने भस्म थई गयो ते पुरुष कोण हतो? क्या वंशनो हतो? तेम तेनुं पराक्रम केवुं हतुं अने ते कोनो पुत्र हतो? (उत्तम स्थान छोडी ज्यां सिंह वगेरेनी सम्भावना होय तेवी पर्वतनी) गुफामां जई ते एकलो केम सूई रह्यो हतो? ॥१३॥
श्रीशुकदेवजी कह्युं - हे परीक्षित! ते इक्ष्वाकु वंशना महाराजा मान्धाताना पुत्र राजा मुचुकुन्द हता. ते ब्राह्मणोना परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, सङ्ग्रामविजयी अने महापुरुष हता ॥१४॥
एक वार असुरोए इन्द्रादि देवोने बहु त्रास आप्यो त्यारे इन्द्रादि देवोए मुचुकुन्दने पोतानी रक्षा करवानी प्रार्थना करी तेथी एणे घणा काल सुधी देवोनी रक्षा करी ॥१५॥
ज्यारे घणा दिवसो पछी देवताओने सेनापति रूपे कार्तिकेयस्वामी मळी गया त्यारे तेओए राजा मुचुकुन्दने कह्युं ‘‘हे राजन्! आपे अमारी रक्षाने माटे बहु श्रम अने कष्ट उठाव्या छे. हवे आप विश्राम करो ॥१६॥
हे वीर! तमे अमारा माटे मनुष्य लोक छोड्यो, निष्कण्टक राज्य छोड्युं एटलुं ज नहि पण अमारुं रक्षण करवा तमे सर्व कामने छोड्या ॥१७॥
तमे तमारां पुत्रो, राणीओ, सम्बन्धीओ, मन्त्रीओ, कारभारीओ अने ए वखतनी प्रजाने छोडीने अमारुं रक्षण कर्युं ते बधां तो कालना प्रवाहमां चाल्यां [[४४९]] गयां. (देवताओनो एक दिवस मनुष्य लोकना एक वर्ष बराबर छे तेथी) ॥१८॥
बधा बलवानो करतां पण काल वधारे बलवान छे. ते स्वयं समर्थ अविनाशी अने भगवान्नुं ज स्वरूप छे. जेवी रीते गोवाळो पशुओने पोताने वश राखे छे तेवीज रीते ते एक जातनी क्रीडामां बधी प्रजाने पोताने वश राखे छे ॥१९॥
हे राजन्! आपनुं कल्याण हो. आपनी जे इच्छा होय ते अमारी पासे मागी लो. अमे कैवल्य-मोक्ष सिवाय आपने बधुञ्ज आपी शकीए छीए, कारण के मोक्ष आपवानुं सामर्थ्य तो मात्र अविनाशी भगवान् विष्णुमां ज छे’’ ॥२०॥
(ते विष्णुनी प्राप्ति केवी रीते थाय एम राजा मुचुकुन्दे देवोने पूछ्युं त्यारे देवोए कह्युं के) ते मोक्षनुं ज दान करवा अवतार लेशे त्यारे तेनी सेवा अथवा आज्ञापालनथी मुक्ति थशे. मुचुकुन्दजीए पूछ्युं के क्यारे अवतार लेशे? देवोए कह्युं के अठ्ठावीसमा द्वापर युगमां. मुचुकुन्दजीए विचार कर्यो के त्यां सुधी जीवीए, शान्त जीवन जीवीए तो पण काम अने भूख, तरस वगेरे पीडे. समाधिमां पण ए ज दुःख. वळी समाधि अने सुषुप्ति-गाढनिद्रामां आनन्दनो अनुभव सरखो ज छे. फल तो विष्णु आपे तो ज मळे, योग वगेरे निरुपयोगी छे. बहु प्रयत्न-साधन करीए तो क्लेश ज हाथ लागे. तेथी तेणे सुषुप्ति-गाढनिद्रा-वरदानमां मागी. साथे ए पण वरदान माग्युं के मने जे जगाडे तेना उपर मारी दृष्टि पडतां ज ते भस्म थई जाय. परम यशस्वी राजा मुचुकुन्दने ज्यारे देवोए आ प्रमाणे वरदान आप्युं त्यारे तेणे देवोने प्रणाम कर्या अने (बहु थाकी गयेला होवाथी) वरदान मळतां ते पर्वतनी गुफामां सूई गया ॥२१॥
कालयवन ज्यारे भस्म थई गयो त्यारे भक्तवत्सल भगवाने महाबुद्धिमान राजा मुचुकुन्दने दर्शन आप्याम् ॥२२॥
नवीन मेघसरखा श्याम, रेशमी पीळा वस्त्रवाळा, वक्षःस्थळमां श्रीवत्सना चिह्नवाळा, सुन्दर प्रकाश आपता कौस्तुभथी शोभता ॥२३॥
चार भुजावाळा, कीर्तिरूपी वैजयन्ती मालाथी रुचि उत्पन्न करता, सुन्दर वदनथी प्रसन्नता बतावता, मकराकृत कुण्डलवाळा ॥२४॥
त्रिलोकीमां जोवालायक, प्रेमपूर्वक स्मितसहित जोनार, स्त्रीओने प्रिय वयवाळा, मतवाला सिंहना जेवा उदार पराक्रमवाळा भगवान्ना मुचुकुन्दे दर्शन कर्यां ॥२५॥
[[४५०]] राजा महाबुद्धिमान छतां भगवद् तेजमां अञ्जाई गयो. पासे न जवाय तेवा तेजने जोईने कांईक शङ्कामां पड्यो अने धीरेथी पूछवा लाग्यो ॥२६॥
राजा मुचुकुन्दे कह्युं - पर्वतथी भयङ्कर एवा अरण्य प्रदेशमां कमळ सरखा कोमळ चरणवडे अत्यन्त कण्टक युक्त जमीनमां फरनार आप कोण छो? ॥२७॥
आप शुं बधा तेजस्वीओनुं एकठुं करेलुं तेज छो के साक्षात् अग्नि छो? सूर्य, चन्द्र के देवराज इन्द्र छो के कोई बीजा लोकपाल छो? ॥२८॥
जेम दीवो पोताना तेजवडे अन्धकारने मटाडे तेम आ गुफाना अन्धकारने पोतानी कान्तिथी दूर करता ब्रह्मा, विष्णु, शिवना अधिष्ठाता पुरुषोत्तम छो एम हुं तो मानुं छुम् ॥२९॥
हे नरश्रेष्ठ! खरी वात साम्भळवानी इच्छावाळा अमोने आपनी इच्छा होय तो आपनां, जन्म, कर्म अने गोत्र आप कहो ॥३०॥
हे पुरुषोत्तम, अमे इक्ष्वाकुना वंशना क्षत्रबन्धुओ छीए. हे प्रभो! हुं युवनाश्वनन्दन मान्धातानो पुत्र छुं. मुचुकुन्द नामथी प्रसिद्ध छुम् ॥३१॥
घणा दिवसो सुधी जागता रहेवाने लीधे हुं थाकी गयो हतो. निद्राए मारी समस्त इन्द्रियोनी शक्ति छीनवी लीधी हती. तेमने नकामी बनावी दीधी हती तेथी हुं निर्जन वनमां यथेच्छ सूतो हतो ते मने कोईए हमणां ज जगाड्यो ॥३२॥
मने जगाडनार पोताना पापे ज भस्म थई गयो. त्यार पछी तुरत ज शत्रुने मारनार श्रीमाने (आपे) मने दर्शन आप्याम् ॥३३॥
हे महाभाग! आप समस्त प्राणीओना माननीय छो. आपना परम दिव्य अने असह्य तेजथी मारी शक्ति चाली गई छे. आपना सामुं बहु वखत माराथी जोई पण शकातुं नथी ॥३४॥
ज्यारे राजा मुचुकुन्दे आ प्रमाणे कह्युं त्यारे समस्त प्राणीओना जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्णे हसतां-हसतां मेघध्वनिना करतां पण वधारे गम्भीर वाणीथी कह्युम् ॥३५॥
श्रीभगवान् बोल्या - हे प्रिय मुचुकुन्द! मारां जन्म, कर्म अने नाम हजारो छे. हुं अनन्त छुं. तेथी ए माराथी पण गणी न शकाय तेने क्रमवडे कहेवानुं बनी शके एम नथी. ज्यारे हुं पण न कही शकुं तो बीजो तो क्यान्थी कहेवाने समर्थ थाय? ॥३६॥
[[४५१]] कोई पुरुष पोताना अनेक जन्मोमां पृथ्वीनां नाना-नाना धूळ-कणोनी गणतरी करी नाखे परन्तु मारा जन्म, गुणो, कर्मो अने नामोनी कोई क्यारेय कोई पण प्रकारे गणतरी करी न शके. (करोडो ब्रह्माण्डोमां एक दिवसमां करोडो जन्मो थाय छे. तेथी ते अपार होवाथी गणतरी अशक्य छे) ॥३७॥
हे राजन्! सनक सनन्दन आदि मोटा-मोटा ऋषिओ मारा त्रिकाल सिद्ध जन्मो अने कर्मो नुं वर्णन करता रहे छे परन्तु क्यारेय तेमनो पार पामता नथी* ॥३८॥
विशेष - जीव परिच्छिन्न छे. ते एक वखते एक देशमां एक देह ग्रहण करे छे. भगवान्ने तो देह न होवाथी पोतानी इच्छामां आवे तेम एकी साथे एक ज क्षणे अनेक भक्तोने अनेक प्रकारे दर्शन आपे छे तेथी आपनां अनेक स्वरूपो थाय छे. आकाश ज भगवान्नुं शरीर छे, बधे ज तेना हाथ, पग छे. (सर्वतः पाणिपादान्तः) अनन्तमूर्ति छे तेथी तेनां रूप पण अनन्त होय ते उचित छे. हे प्रिय मुचुकुन्द! एवुं होवा छतां हुं मारा वर्तमान (अत्यारना) जन्म, कर्म अने नामोनुं वर्णन करुं छुं ते साम्भळो. पहेलां ब्रह्माजीए मने धर्मनी रक्षा अने पृथ्वी उपर भाररूप बनेला असुरोनो संहार करवानेमाटे प्रार्थना करी हती ॥३९॥
ते प्रमाणे हुं यादवना कुलमां वसुदेवजीने त्यां प्रकट थयो. वसुदेवनो पुत्र होवाथी मने लोको ‘वासुदेव’ नामथी जाणे छे ॥४०॥
अत्यार सुधीमां हुं कालनेमि असुरनो, जे कंसना रूपमां जन्म्यो हतो तथा प्रलम्ब वगेरे अनेक साधुद्रोही असुरोनो संहार करी चूक्यो छुं. हे राजन्! आ कालयवन हतो जे तमारी तीक्ष्ण दृष्टि (रूपी बाणो) थी पण मारी ज प्रेरणाथी बळीने भस्म थई गयो ॥४१॥
ते ज हुं तमारा उपर कृपा करवामाटे ज आ गुफामां आव्यो छुं. (कालयवनने तो हुं बीजी पण कोई रीते मारी शकत) पूर्व जन्मोमां तमे मारी बहुवार प्रार्थना करेली. (आथी एम सूचव्युं के अत्यारे तमारामां जे सामर्थ्य छे ते मारा प्रतापथी ज छे. आटलो क्लेश वेठीने अर्ही सुधी आववानुं कारण एक ज अने ते ए के स्वभावथी ज) हुं भक्तवत्सल छुम् ॥४२॥
हे राजर्षे! तमारी जे अभिलाषा होय ते मारी पासे मागी लो. हुं तमारी बधी अभिलाषाओ पूर्ण करी दईश. जे पुरुष मारे शरणे आवी जाय छे तेने माटे पछी [[४५२]] एवी कोई वस्तु नथी रहेती जेने माटे ते शोक करे ॥४३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवाने आ प्रमाणे राजा मुचुकुन्दने कह्युं त्यारे मुचुकुन्दने वृद्ध गर्गनुं कथन याद आवी गयुं के भगवान् यदुवंशमां प्रकट थवाना छे. आनन्दविभोर बनी तेणे भगवान्ना चरणोमां प्रणाम कर्यां अने आ प्रमाणे स्तुति करी ॥४४॥
राजा मुचुकुन्दे कह्युं - हे प्रभो! जगतनां बधां प्राणीओ आपनी मायाथी अत्यन्त मोहित थई रह्यां छे. तेओ आपथी विमुख थई आपनी भक्ति करवाने बदले अनर्थमां ज फसायेलां रहे छे. तमाम दुःखोनुं जे मूल कारण छे तेवा गृहस्थाश्रमनी झञ्झटोमां ज तेओ सुख मेळववामाटे प्रयत्नो करे छे. (पण नदीमां अग्नि मळे तो ज गृहोमां सुख मळे) आ प्रमाणे स्त्री अने पुरुष बधां सुखने माटे घरमां आसक्त थई ठगाई रह्यां छे ॥४५॥
हे निर्दोष प्रभु! आ भूमि अत्यन्त पवित्र भूमि छे. जीव अनेक जन्म लेतो- लेतो महामुश्केलीए क्यारेक ज तेमां मनुष्यनो जन्म प्राप्त करे छे. एमां पण जेमां एकेय अङ्गमां खोडखाम्पण न होय, इन्द्रियो बराबर काम आपती होय अने बुद्धि तीक्ष्ण होय तेवो जन्म तो अति दुर्लभ छे. परम सौभाग्य अने भगवत्कृपाथी ज ते अनायासे प्राप्त करीने पण जे पोतानी मतिगति असत् संसारमां ज लगाडी दे छे अने तुच्छ विषयसुखने माटे ज बधा प्रयत्नो करता गृहस्थाश्रमना अन्धकूपमां पड्या रहे छे. भगवान्ना चरणकमलोनी भक्ति नथी करता ते तो घासना लोभथी अन्धारिया कूवामां जई पडेल पशु जेवा छे ॥४६॥
(अमे बधा तो काळथी जितायेला छीए. एक आपना उपर ज काळनी सत्ता चालती नथी माटे सम्बोधन) हे अजित प्रभो! हुं राजा हतो, राज्यलक्ष्मीना मदमां मस्त हतो. आ मरी जनारा शरीरने ज हुं आत्मा-पोतानुं स्वरूप समजी रह्यो हतो अने राजकुमार, राणी, खजानो तथा पृथ्वी नी आसक्तिमां ज फसाई गयो हतो ते वस्तुओनी चिन्ता रात-दिन मने थया करती. आ प्रमाणे मारा जीवननो अत्यार सुधीनो समय व्यर्थ ज गयो ॥४७॥
जे आ शरीर प्रत्यक्ष ज घडा१ अने घरना२ जेवुं माटीनुं बनेलुं छे तेने ज में मारुं स्वरूप मानी लीधुं हतुं अने वळी मारी जातने मानी बेठो हतो ‘नरदेव’! आ प्रमाणे मदमां अन्ध बनी आपनी तो कोई परवा ज करी नहि. रथ, हाथी, घोडा अने [[४५३]] पायदळनी चतुरङ्गिणी सेना तथा सेनापतिओथी र्वीटळायेलो हुं पृथ्वी उपर आमतेम घूमतो रहेतो ॥४८॥
विशेष - १. घडो जल लाववामाटे वपराय छे अने ते जल बीजे वपराय छे. तेवी रीते आ
शरीरथी कर्मो करवामां आवे छे अने ते कर्मोनो वळी ज्यां-त्यां विनियोग थाय छे. एवा कर्मना
मात्र साधनरूप शरीरने ज आत्मा गणो ए कुमतिनुं फल छे.
२.घरमां जेवी रीते कोई रहे छे तेवी रीते भगवाने आ शरीररूपी घर थोडो वखतज रहेवाने
माटे बनावेलुं छे.
बीजां बधां कामो करतां आ काम आवश्यक छे ते मारे चोक्कस करवुं जोईए.
आम करवुं जोईए तेम करवुं जोईए वगेरेनी चिन्तामां पडेल माणस पोतानुं एक
मात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्तिथी विमुख थई गाफेल थई जाय छे. संसारमां जकडी
राखनारा विषयोमाटे तेनी लालसा अने लोभ वधतां ज जाय छे. आवा त्रण
दोषथी व्याप्त थयेलाने, भूख्यो, सर्प जेम असावधान उन्दरने पकडी ले छे तेवी ज
रीते आप सावधानताथी आपना काळरूपवडे तेने पकडी पाडो छो ॥४९॥
पहेलां जे सोनाना रथ उपर अथवा मोटा-मोटा गजराज उपर सवारी करतो हतो अने नरदेव कहेवातो हतो ते ज आपना अबाध काळनो ग्रास बनी जतां बहार फेङ्की देवामां आवे तो सडीने ढगलो बनी जाय छे ॥५०॥
हे प्रभो! जेणे बधी ज दिशाओ उपर विजय प्राप्त करी लीधो छे अने जेनी सामे लडनारो संसारमां कोई रह्यो नथी, जे श्रेष्ठ सिंहासन उपर बेसे छे अने मोटा-मोटा राजाओ के जे पहेलां एना बराबरिया हता हवे जेना चरणोमां मस्तक नमावे छे ते ज पुरुष ज्यारे विषयसुख भोगववाने माटे, जे गृहस्थीनी एक खास वस्तु छे, स्त्रीओनी पासे जाय छे त्यारे एमना हाथनुं रमकडुं तेमनुं पाळेलुं पशु बनी जाय छे ॥५१॥
राज्य मळ्या पछी विषयभोग करे ते ‘अधम’ कहेवाय. घणा लोको विषयभोग छोडी दई फरीथी राज्य वगेरे भोग मेळववानी इच्छाथी ज दान पुण्य करे छे अने ‘‘हुं फरी जन्म लई सौथी मोटो परम स्वतन्त्र सम्राट थाउं’’ एवी कामना राखी तपस्यामां सारी रीते स्थित थई शुभ कर्मो करे छे ते वधारे अधम कहेवाय छे. आ प्रमाणे जेनी तृष्णा वधेली छे ते कदापि सुखी थई शक्ता नथी ॥५२॥
पोताना स्वरूपमां एकरस स्थित रहेनारा हे प्रभु! जीव अनादिकालथी [[४५४]] जन्ममृत्युरूप संसारना चक्करमां भटकी रह्यो छे. ज्यारे तेने भ्रमण जनित क्लेश जोईने आपनी दया तेना उपर थाय छे त्यारे तेनो जन्म योगी के महान भगवदीय कुलमां थाय छे त्यारे तेने सत्सङ्ग प्राप्त थाय छे. (सत्सङ्गमां प्रेम होवो ए छेल्लो जन्म (भवापवर्ग) नी निशानी छे.) ते ज क्षणे सत्सङ्ग प्राप्त थाय छे ते ज क्षणे तेने सन्तो-भगवदीयोनी एक मात्र गतिरूप (सन्तो साध्य, साधन अने फल भगवान्ने ज गणे छे) तथा काळ, कर्म, स्वभावना ईश एवा आपनामां जीवनी बुद्धि अत्यन्त दृढताथी लागी जाय छे ॥५३॥
हे भगवन्! हुं तो एम समजुं छुं के आपे मारा उपर महान अनुग्रहनी वर्षा करी कारण के भगवद्इच्छाथी, अनायासे ज, मारुं राज्यनुं बन्धन छूटी गयुं. साधु स्वभावना चक्रवर्ती राजाओ पण ज्यारे पोतानुं राज्य छोडी दई एकान्तमां भजन साधन करवाना उद्देशथी वनमां जवा मागे छे त्यारे तेना ममता-बन्धनथी छूटवामाटे प्रेमपूर्वक आपनी प्रार्थना कर्या करे छे ॥५४॥
हे विभो! आपथी शुं अजाण्युं छे? हुं आपनां चरणोनी सेवा सिवाय बीजुं कोई वरदान नथी चाहतो कारण के जेमनी पासे कंई ज सङ्ग्रह-परिग्रह नथी तेवा निष्किञ्चन लोको पण मात्र तेनी ज प्रार्थना कर्या करे छे. (आप तेमने बीजुं कंई पण आपो तो ते पण तेओ स्वीकारता नथी अने असाध्यनी प्रार्थना करे छे. माटे प्रार्थ्यतम शब्द छे.) हे हरे! मोक्ष आपनारा आपनी आराधना करी एवो कोण श्रेष्ठ पुरुष (मूर्ख) हशे के जे पोताने बन्धनमां नाखनारा सांसारिक विषयोनुं वरदान मागे? ॥५५॥
तेथी हे प्रभो! हे सत्वगुण, रजोगुण अने तमोगुणनी साथे सम्बन्ध राखनारी बधी ज कामनाओने छोडी दई केवल मायाना लेशमात्र सम्बन्धथी रहित, गुणातीत, भेदरहित चित्स्वरूप (ज्ञान स्वरूप), परम पुरुष आपनुं शरण ग्रहण करुं छुम् ॥५६॥
हे भगवन्! अनादि काळथी पोतानां कर्मोना फल भोगवतो-भोगवतो हुं दुःखी-दुःखी थई रह्यो हतो एनी दुःखद ज्वाला रात-दिवस मने बाळी रही हती. मारा छ शत्रु (पाञ्च इन्द्रियो अने मन) क्यारेय शान्त थता नहोता. तेमनी विषयोनी इच्छा वधती ज जती हती. क्यारेय कोई रीते एक क्षणनेमाटे पण मने शान्ति न मळी. हे शरण दाता! हवे हुं भय, मृत्यु अने शोकरहित एवां आपनां [[४५५]] चरणकमलोने शरणे आव्यो छुं. अखिल जगतना एक मात्र स्वामी! परमात्मा! कृपा करी शरणागतनी रक्षा करो ॥५७॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - हे सार्वभौम! हे महाभाग! तमारी बुद्धि शुद्ध अने श्रेष्ठ छे. में वरदानमाटे तमने कह्युं तो पण तमारी बुद्धि कामनाओने अधीन न थई ॥५८॥
में तमने वरदाननो लोभ कराव्यो ते मात्र तमारी सावधानीनी परीक्षामाटे ज हतो. मारा जे अनन्य भक्तो होय छे तेमनी बुद्धि क्यारेय कामनाओथी आम-तेम भटकती नथी ॥५९॥
हे राजन्! प्राणायाम आदि उपायोवडे मनने रोकनार अभक्तोने तेमनी वासनाओ नष्ट थती नथी तेथी तेमनुं मन शान्त छतां क्वचित् विषयोमाटे फरी दोडा-दोड करे छे* ॥६०॥
विशेष - भोग अने मोक्ष बन्ने एकी साथे जो क्यांय शक्य होय तो ते भगवद्मार्गमां ज छे. सौभरि ऋषिए दुःसङ्ग न लागे एटलामाटे जलमां उभा रहीने साठ हजार वर्ष तप कर्युं. पण वासनानो क्षय तपथी न थतो होवाथी बधुं तप वटावी नाखी, यौवन प्राप्त करी मान्धातानी पचास राजकन्याओ साथे लग्न कर्युं. ज्यारे भक्तिथी वासनानो क्षय थाय छे. भगवान् भक्तोनी कामनाओ तो पूर्ण करे छे, साथे-साथे उपद्रव न थाय तेनो पण प्रबन्ध करे छे माटे योग वगेरे करतां भक्ति श्रेष्ठ छे. मारामां मन राखी यथेच्छ (भगवान्नी लीला जोता) पृथ्वीमां फर्या करो. तमने कोई दिवस नाश न थाय तेवी मारामां नित्य भक्ति थाओ ॥६१॥
क्षात्रधर्ममां रही मृगयादि करतां तमे घणा जीवोनी हिंसा करेली छे ए पापना निवारणमाटे मारो आश्रय करी तप करो अने मननुं नियमन करी ए पापने दूर करो ॥६२॥
जन्मन्यनन्तरे राजन् सर्वभूतसुहृत्तमः ॥ भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ॥६३॥
हे राजन्! हवे पछीना जन्ममां तमे उत्तम ब्राह्मण थशो अने बधां प्राणीओना साचा हितेच्छु, परम सुहृद बनशो अने त्यारबाद मने पुरुषोत्तमने प्राप्त करशो ॥६३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा [[४५६]] साधनपेटा प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘भगवाने मुचुकुन्द उपर करेलो अनुग्रह’’ नामनो (उत्तरार्धनो बीजो अने चालु) एकावनमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां अडतालीसमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा लायक पण न गणाय.
अध्याय ५२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ४९ रुक्मिणीजीए भगवान्ने लखेलो पत्र त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय३
विशेष - भगवाने पुरुष (मुचुकुन्द) उपर अनुग्रह कर्यो ए वात गत अध्यायमां कहेवामां आवी, हवे स्त्री उपर अनुग्रह कर्यानी वात आ बावनमा अध्यायमां कहे छे. रुक्मिणीजी, जाम्बवतीजी अने सत्यभामाजी ए त्रणनी उपरनो अनुग्रह कहेवाय छे. पुरुषोत्तमे मुचुकुन्द उपर अनुग्रह कर्यो ते कालसापेक्ष कर्यो तेथी मुचुकुन्दे बार श्लोकथी स्तुति करी. तेरमामां तो प्रार्थना करी छे, गान्धर्वविवाह, राक्षसविवाह, अने वैदिकविवाह एम त्रण प्रकार रुक्मिणीजीमां सम्भवे छे. ‘‘श्रुत्वा गुणान्’’ ए प्रार्थनाथी गान्धर्वविवाह, युद्ध करी लाव्या ते राक्षसविवाह अने वैदिक धर्म्य ‘विवाह’ एटले वाचिक, कायिक अने मानसिक तेम त्रिविध एमां आवी जाय छे. स्त्रीओनी मुक्तिने कहेवामाटे मुचुकुन्दना तपनी कथा छे. देवना हितने माटे प्रसङ्गथी तामसोनो वध कह्यो छे. भगवाने जरासन्धथी पलायन कर्युं ए पण एक लीला छे. शिवजीनी उपर अनुग्रहमाटे अने तेमनुं आपेलुं वरदान सत्य करवा एम कर्युं छे. सात्विक, तामस अने राजस उपर भगवान्नी कृपा छे एम बताववामाटे शिवजी, लक्ष्मीजी अने राजानी वात कही छे. इत्थं सोऽनुगृहीतोङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकुनन्दनः ॥
ईं उं ईं उं
[[४५७]] तं परिक्रम्य सन्नम्य निश्चकाम गुहामुखात् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे प्रिय परीक्षित! ए प्रमाणे इक्ष्वाकुनन्दन मुचुकुन्द उपर भगवान् श्रीकृष्णे कृपा करी त्यारे ए मुचुकुन्द भगवान्ने परिक्रमा, नमस्कार वगेरे करी गुफामान्थी बहार आव्या ॥१॥
तेमणे बहार आवीने जोयुं के तमाम मनुष्यो, पशुओ, लताओ अने वृक्ष वनस्पति पहेलान्ना करतां बहु ज नाना-नाना आकारनां थई गयां छे तेथी कलियुग आवी गयो छे एम जाणी उत्तर दिशा तरफ चाली नीकळ्या ॥२॥
महाराज मुचुकुन्द तप (इन्द्रिय निग्रह), (भगवान्नां वचनोमां) श्रद्धा, (विघ्नरूपे सामेथी प्राप्त थयेला विषयोथी न लेपातां) धीर, अनासक्तिथी युक्त अने शरीरनी रक्षा करवा विशे संशय विनाना थई गया. पोतानुं चित्त भगवान् श्रीकृष्णमां लगाडी दई गन्धमादन (गरुडगङ्गाथी उत्तरमां बदरिकाश्रम सुधीनो बधो भाग ‘गन्धमादन’ गणाय छे.) पर्वत उपर जई पहोञ्च्या ॥३॥
त्यान्थी बदरिकाश्रममां आव्या; ज्यां नरनारायणनुं मन्दिर छे त्यां सर्व द्वन्द्वने सहन करता शान्त थई तपवडे भगवान् हरिनुं आराधन करवा लाग्या ॥४॥
आ बाजु भगवान् त्यान्थी पाछा फर्या अनेयवने घेरेली पोतानी नगरी मथुरामां आव्या.त्यां पडेला म्लेच्छ सैन्यने मारीने एनुं धन द्वारका लई गया ॥५॥
भगवान्ना कहेवाथी पोठियाओ उपर ए धन द्वारका तरफ रवाना करवामां आव्युं त्यां तो त्रेवीस अक्षौहिणी सेनानी साथे जरासन्ध आवी पहोञ्च्यो ॥६॥
हे राजन्! शत्रुसेनानो प्रबल वेग जोई भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी मनुष्यो जेवी लीला करता हता तेनी सामेथी जलदी दोडवा लाग्या ॥७॥
आपना मनमां भयनो लेश पण नहोतो. छतां जाणे के बहु ज भयभीत थई गया होय ते प्रमाणे नाटक करता ते बधुं ज धन त्यां ज पडतुं मूकी अनेक योजनो सुधी पोताना कमलदलना जेवो सुकोमल चरणोथी ज (पृथ्वीने सुख आपवा) पगपाळा चाली नीकळ्या ॥८॥
ज्यारे महा बळवान मगधराज जरासन्धे जोयुं के श्रीकृष्ण अने बलदेवजी तो भागी रह्या छे त्यारे ते हसवा लाग्यो. पोताना रथ अने सेना नी साथे तेणे तेमनो पीछो पकड्यो कारण के तेने भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ना ऐश्वर्य, प्रभाव [[४५८]] वगेरे सामर्थ्यनुं भान नहोतुम् ॥९॥
बहु दूर सुधी दोडी बन्ने भाईओ ‘प्रवर्षण’नामना घणा ऊञ्चा पर्वत उपर चढी गया. ते पर्वतनुं नाम प्रवर्षण एटलामाटे पड्युं हतुं के त्यां नित्य वरसाद वरसे छे* ॥१०॥
विशेष - ‘प्रवर्षण’ पर्वत घणो ऊञ्चो होवाथी सदा तेना उपर वादळो होय ज. तेथी सूर्यना किरणोनो तेने सम्बन्ध नथी. तेना उपर कायम वरसाद वरसतो रहेतो होवाथी त्यां अग्निनो सम्बन्ध शक्य नथी. प्रवर्षण पर्वते भगवान्ने एक वखत प्रार्थना करी के मारी ठण्डी दूर करो. भगवाने वरदान आपेलुं के हुं तारी ठण्डी दूर करीश. आटलामाटे भगवान् पर्वत उपर पधार्या. नर्हीतर शत्रुथी छुपावामाटे कोई ऊञ्चे न चडे. नीचे ऊभेलो माणस पर्वत उपरना माणसने तो सहेलाईथी जोई शके. वळी पर्वत उपर चडवाथी तो न थाकेलो होय तोय थाकी जाय. बन्ने भाईओ पर्वत उपरथी कूदी गयात्यार पछीज अग्नि लाग्यो छे. पर्वतथी आगळ कोईनां पगलां देखातां नहोतां तेना उपरथी जरासन्धे एम विचार्युं के आ बन्ने पर्वत उपर ज छुपाई गया छे. तेथी (भगवद् इच्छाथी) तेणे पर्वतनी चारे तरफ लाकडां अने घास मूकी पर्वतने आग लगाडी ॥११॥
(पर्वतने आपेलुं वरदान पूरुं थयुं एटले) बन्ने भाईओ (बळी जवानी बीकथी नहि पण पोते पर्वत उपर होय त्यां सुधी अग्नि प्रदीप्त न थई शके एटलामाटे) झपाटाबन्ध तळेटी जेनी सळगी रही छे तेवा, अगियार योजन (८८माईल) ऊञ्चा पर्वत उपरथी (तळेटी अने जरासन्ध ना घेराने पण लाङ्घीने) धरती उपर कूदी आव्या ॥१२॥
अनुचर सहित शत्रुए एमने जोया नहि. एम बन्ने भाईओ, हे नृप! समुद्रथी घेरायेली पोतानी द्वारकामां पधार्या ॥१३॥
राम-कृष्ण पर्वतमां बळी गया एम जरासन्धे मान्युं अने पोतानुं मोटुं सैन्य लईने मगध देशमां पाछो गयो ॥१४॥
आनर्त देशना रैवत राजाए पोतानी रेवती नामनी कन्याने ब्रह्माजीनी प्रेरणाथी बलदेवजीने आप्यानी वात नवमा स्कन्धमां कहेवामां आवी छे ॥१५॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण पण स्वयंवरमां आवेला शिशुपाल अने तेना पक्षपाती शाल्व वगेरे राजाओने बलपूर्वक हरावी, बधानी नजर सामे ज, जेवी रीते (मातानी आफत दूर करवा) गरुडजीए अमृतनुं हरण कर्युं हतुं तेवी ज रीते [[४५९]] विदर्भ देशनी राजकुमारी रुक्मिणीजीने हरी लाव्या अने तेनी साथे लग्न करी लीधुं. रुक्मिणीजी राजा भीष्मकनी कन्या अने स्वयं भगवती लक्ष्मीजीनो अवतार हती ॥१६-१७॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - हे भगवन्! अमे साम्भळ्युं छे के भगवान् श्रीकृष्णे भीष्मककुमारी परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने बलपूर्वक हरण करी *राक्षसविधिथी तेमनी साथे लग्न कर्यां हताम् ॥१८॥
विशेष - क्षत्रियोमां त्रण प्रकारना विवाह शास्त्रसम्मत छे; गान्धर्व, राक्षस अने धर्म्य. पहेलो विवाह धर्म्य होवो जोईए. समाधि भाषानो विवाह स्वयंवरमां थयेल छे. अन्य विवाह मतान्तरीय छे, बीजा कल्पनी कथा छे. जरासन्ध, शाल्व वगेरेने जीतीने भगवान् कन्याने लाव्या. ए अमाप बळवाळा श्रीकृष्णना विजयने साम्भळवानी मारी इच्छा छे ॥१९॥
हे ब्रह्मर्षे! भगवान् श्रीकृष्णनी लीलाओनी बाबतमां तो कहेवुं ज शुं? ते पोते तो पवित्र छे ज, परन्तु ते सारा जगतनो मल धोई नाखी तेने पण पवित्र करे छे. एमां एवी लोकोत्तर मधुरता छे के जेने रात-दिन सेवन करता रहेवा छतां तेमान्थी नित्य नवो-नवो रस मळतो रहे छे. भला एवो कोण रसिक, कोण मर्मज्ञ हशे के जे तेमने साम्भळी तृप्त थई जाय?* ॥२०॥
विशेष - अर्ही ‘श्रुतज्ञ’ अने ‘रसज्ञ’ एम बे पाठ छे. कृष्ण कथा चारेय पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष आपनारी छे. ‘पुण्याः’-पवित्र-धर्म. ‘माध्वी’-मधुर काम. ‘‘लोक मलापहाः’’-लोकनो पापरूप मल दारिद्रयनी जेम धोई नाखनार-अर्थ. ‘‘नित्य नूतनाः’’-नित्य नवीन, काळ जेनो ग्रास नथी करी शक्तो तेवी-मोक्ष. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - विदर्भ देशना अधिपति भीष्मक नामना एक महान राजा थई गया. तेने पाञ्च पुत्रो हता अने एक सुन्दर (मुखवाळी) कन्या हती ॥२१॥
*सौथी मोटा पुत्रनुं नाम ‘रुक्मी’ हतुं अने तेनाथी चार नाना हता जेमनां नाम रुक्मरथ, रुक्म बाहु, रुक्मकेश अने रुक्ममाली हतां. एमनी बहेन सती रुक्मिणीजी हती ॥२२॥
विशेष - भीष्मक महादेवजीनुं अने रुक्मिणीजी मायानुं स्वरूप छे. तेना पाञ्च भाईओ अविद्याना पाञ्च पर्व छे, कारण के अविद्या ए मायानुं कार्य छे. ‘रुक्म’नो अर्थ सोनुं छे. [[४६०]] पञ्चात्मक सोनुं कलियुगनुं निवासस्थान छे. पाञ्चेय भाईओ तथा तेमनी बहेननां नामोमां ‘रुक्म’ शब्द आवे छे. घेर आवेल ब्राह्मण आदिना मुखथी मुकुन्द भगवान्नां रूप, पराक्रम, गुण अने वैभव ना प्रभावने साम्भळी पोताने लायक पति श्रीकृष्ण छे एम एणे नक्की कर्युं ॥२३॥
बुद्धि, उदारता, रूप, शील अने गुण वाळी रुक्मिणीजीने पोताने लायक जाणी श्रीकृष्णे पण एने वरवानो मनोरथ कर्यो ॥२४॥
रुक्मिणीजीना बन्धुओ पण इच्छा राखता हता के अमारी बहेनना विवाह श्रीकृष्ण साथे ज थाय. परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण उपर बहु द्वेष राखतो हतो तेथी तेणे तेमने तेम करतां रोकी दीधा अने शिशुपालने ज पोतानी बहेननेमाटे योग्य वर मान्यो ॥२५॥
ज्यारे परम सुन्दरी रुक्मिणीजीने आ वातनी खबर पडीके मारो मोटो भाई मारो विवाह शिशुपाल साथे करवा मागे छे त्यारे ते बहुज उदास थई गई. तेणे खूब विचार करी एक विश्वासपात्र ब्राह्मणने तत्काळ श्रीकृष्ण पासे मोकल्यो॥२६॥
ब्राह्मण द्वारका आव्यो. तेने द्वारपालोए श्रीकृष्ण पासे पहोञ्चाड्यो. त्यां एणे आदि पुरुषने सुवर्णासन उपर बिराजेला जोया ॥२७॥
भगवाने ब्राह्मणने जोयो के तुरत पोते ब्राह्मणने मान आपनार तथा समर्थ होवाथी आसन उपरथी ऊतरी गया. ए सुवर्णना आसन उपर ब्राह्मणने बेसाडी, जेम देवो भगवान्नी पूजा करे छे तेम एमनी पूजा करी ॥२८॥
आदर सत्कार, कुशल प्रश्न पूछ्यां पछी ज्यारे ब्राह्मण देवता भोजनथी परवार्या अने आराम करी लीधो त्यारे सन्तोना परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण तेमनी पासे गया अने पोताना कोमल करकमलोथी तेमना पग दबावता खूब शान्त भावथी पूछवा लाग्या ॥२९॥
हे *द्विजवर शिरोमणि! आपने आपना पूर्व पुरुषोद्वारा स्वीकृत धर्मनुं पालन करवामां कोई कठिनाई तो नथी पडती ने? आपनुं चित्त सदा-सर्वदा सन्तुष्ट तो रहे छे ने? ॥३०॥
विशेषः जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारै र्द्विज उच्यते, विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ॥ जन्मथी ब्राह्मण, संस्कारोथी द्विज, विद्याथी विप्र अने ज्यारे त्रणेय होय त्यारे [[४६१]] श्रोत्रिय थाय छे. जे कंई मळे तेटलाथी ज जो ब्राह्मण सन्तुष्ट रहे अने पोताना धर्मनुं पालन करे तेमां चलायमान न थाय, तो ते सन्तोष ज तेनी बधी कामनाओ पूर्ण करी दे छे ॥३१॥
कोईने इन्द्रनी गादी मळी होय पण जो तेने सन्तोष न होय तो तेने वारंवार क्लेश भोगववा पडे छे; ज्यारे कोई साव गरीब होय पण जो ते सन्तुष्ट होय तो ते सर्व प्रकारे सन्ताप रहित थई आरामथी सूई रहे छे ॥३२॥
जे स्वयं मळी जाय तेनाथी सन्तोष मानी ले, जे सदाचारी छे, जे समस्त प्राणीओना हितेच्छु, अहङ्कार रहित तथा शान्त छे तेवा ब्राह्मणोने हुं मस्तक नमावी वारंवार प्रणाम करुं छुम् ॥३३॥
हे ब्राह्मण देवता! राजा तरफथी तो आप लोकोने बधी जातनी सुविधा छे ने? जेना राज्यमां प्रजानुं सारी रीते पालन थाय छे अने प्रजा आनन्दथी रहे छे ते राजा मने बहु प्रिय छे ॥३४॥
आप क्यान्थी, क्या कारणसर अने कई अभिलाषाथी आटलो कठिन मार्ग कापीने अर्ही पधार्या छो? जो ते कहेवामां आपने कोई मुश्केली न होय तो अमने कहो. अमे आपनी शी सेवा करीए? ॥३५॥
हे परीक्षित! लीलाथी ज मनुष्यरूप धारण करवावाळा भगवान् श्रीकृष्णे ज्यारे आ प्रमाणे ब्राह्मण देवताने पूछ्युं त्यारे तेमणे बधी वात कही भगवान्ने रुक्मिणीजीनो सन्देशो तेओ कहेवा लाग्या ॥३६॥
रुक्मिणीजीए कह्युं छे, हे त्रिभुवनसुन्दर! आपना गुणो, साम्भळनाराना कानद्वारा हृदयमां प्रवेश करी एके एक अङ्गनो ताप दूर करे छे. आपनुं रूप-सौन्दर्य नेत्रवाळा जीवोना नेत्रोमाटे धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष-चारेय पुरुषार्थोनुं फल तेमज स्वार्थ-परमार्थ बधुं ज छे ते बन्ने, गुण अने रूप साम्भळीने हे अच्युत! मारुं चित्त लाज शरम बधुं ज छोडी दई आपमां ज प्रवेश करी रह्युं छे* ॥३७॥
विशेष - भगवान् अने आपना छ गुणो एम सात श्लोकोथी प्रार्थना करी छे. आत्मा तो आपनो ज छे. हवे जो इन्द्रियो, अन्तःकरण अथवा शरीर बीजानां थाय तो सर्वनाश थई जाय. इन्द्रियो भगवत्पर होवाथी मन पण आपमां ज लाग्युं छे. हवे शरीर पण अपनावी लेवा आ मारो प्रयास छे. आपना गुणोनुं श्रवण मात्र करवाथी विना प्रयत्ने आपना गुणोए [[४६२]] स्वतः अन्दर प्रवेश करी दीधो छे. हे मुकुन्द! कुल, शील (स्वभाव), स्वरूप, विद्या, वय, धन अने ग्रह-आ सातेय आपणा बन्नेना समान छे. मनुष्य लोकमां जेटलां प्राणीओ छे ते बधानुं मन आपने जोईने आनन्दित थाय छे (एवा आप सुन्दर छो) हवे हे नृसिंह! एवी कई कुलवती, महा गुणवती अने धैर्यवती कन्या होय जे विवाह योग्य समय आवतां आपने ज पतिरूपमां पसन्द न करे? सौ कोई वरे ज ॥३८॥
तेथी हे प्रियतम! में आपने पतिरूपे वरण करी लीधा छे. हुं आपने आत्मसमर्पण करी चूकी छुं. हे विभु! मारा हृदयनी वात आपथी छानी नथी. आप अर्ही पधारी मारो आपनी पत्नीना रूपमां स्वीकार करो. हे कमलनयन! हुं आप जेवा वीरने समर्पित थई चूकी छुं, आपनी छुं. हवे सिंहना भागने जेम शियाळ अडकी जाय तेम क्याङ्क शिशुपाल दूरथी(अभिमानथी) पण मारो स्पर्श न करी जाय ॥३९॥
में वाव, तळाव वगेरे कराव्यां होय, यज्ञ कर्या होय, दान आप्यां होय, नियम पाळ्या होय, व्रत कर्यां होय, देव, ब्राह्मण, गुरु वगेरेनुं पूजन कर्युं होय अने आ बधुं भगवान्नी आराधना करवा, कोई कामनाथी नहि पण निष्काम बुद्धिथी कर्युं होय तो गदना मोटाभाई श्रीकृष्ण अर्ही पधारी मारो हाथ झाले पण दमघोषनो पुत्र शिशुपाल वगेरे कोई मारा हाथनो स्पर्श न करे ॥४०॥
हे प्रभु! आप अजित छो. जे दिवसे मारो विवाह थवानो छे तेने आगले दिवसे पहेलां आप यादवोनी सेना साथे विदर्भ देशमां आवीने जरासन्ध अने शिशुपाल ना सैन्यने मारीने बलपूर्वक राक्षसविधिथी वीरतानुं मूल्य चूकवी मारुं पाणिग्रहण करो ॥४१॥
आपने एवी शङ्का होय के ‘‘तुं मारा चरणनी सेवाने योग्य खरी, परन्तु अन्तःपुरमां-भीतर राणीवासमां-रहेनारी एटले तारा बन्धुओने मार्या विना हुं तने केवी रीते लई जई शकुं?’’ तो एनो उपाय हुं आपने बतावुं छुं. अमारा कुलनो एवो नियम छे के विवाहने आगले दिवसे कुलदेवीनां दर्शन करवाने माटे एक मोटी शोभायात्रा नीकळे छे-जेमां नववधूने नगरनी बहार गौरी (पार्वतीजी) ना मन्दिरे दर्शन करवा जवुं पडे छे ॥४२॥
हे कमलनयन! उमापति भगवान् शङ्कर जेवा महापुरुषो पण आत्मशुद्धि [[४६३]] (तमोगुण दूर करवा) माटे आपना चरण कमलनी रजथी स्नान करवानी झङ्खना करे छे. पण (स्नान थई शके एटली) आपनी चरणरज न मळी शकवाथी चरणरज मिश्रित जल-गङ्गाजलथी स्नान करी सन्तोष माने छे. जो मने कृपारूपी आपनी ए चरणरज नहि मळे तो व्रतथी शरीरने सूकवी नाखी प्राण छोडी दईश. तेनेमाटे भले सेङ्कडो जन्म लेवा पडे, क्यारेक ने क्यारेक तो आपनी ए कृपा अवश्य प्राप्त थशे ज. (हुं पण त्रिगुणात्मिका माया छुं. तेमां वळी रुक्मी जेवानी साथे दुःसङ्गमां रहुं छुं एटले तमोगुण आवी गयो छे. ते दूर करवानो प्रयत्न न करवामां आवे तो निकृष्ट जन्म थाय) ॥४३॥
इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मयाऽऽहृताः ॥ विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ॥४४॥
ब्राह्मण देवताए कह्युं - हे यदुदेव! रुक्मिणीजीनो आ गुह्य सन्देश लईने हुं आव्यो छुं तेनो आप विचार करो अने जे कर्तव्य होय ते पछीथी तुरत करो ॥४४॥
इति श्रीमद्भागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा प्रकरणनो यश रूप त्रीजो) रुक्मिणीजीए भगवान्ने लखेलो पत्र नामनो (उत्तरार्धनो त्रीजो अने चालु) बावनमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ओगणपचासमो) अध्याय सम्पूर्ण. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां वाञ्चन होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत वाञ्चन होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय ५३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५० राजाओने जीती श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीनुं हरण करी लाव्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय४
विशेष - प्रथमथी शतार्ध (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय बाद करतां आ अध्याय पचासमो थाय)
ईं उं ईं उं
[[४६४]] गणतां ५३मा अध्यायमां अने उत्तरार्धथी गणतां चोथा अध्यायमां ब्राह्मणे मागणी करी ते प्रमाणे भगवान् कुण्डिनपुर पधार्या ए वात तथा बलात्कारे कन्यानुं हरण कर्युं तेनो उद्योग वगेरे अर्ही कह्युं छे. एथी बनेनां काया, वाणी अने मननुं ऐकमत्य थयुं छे. वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः ॥ प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान् श्रीकृष्णे विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजीनो आ सन्देश साम्भळी पोताना हाथथी ब्राह्मण देवतानो हाथ पकडी हसतां-हसतां कह्युं ॥१॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - जेवी रीते विदर्भ राजकुमारी मने चाहे छे तेवी ज रीते हुं पण एने चाहुं छुं. मारुं चित्त तेनामां ज लागेलुं रहे छे तेथी मने तो रात्रे निद्रा पण नथी आवती. हुं जाणुं छुं के रुक्मीए द्वेषथी मारो विवाह थतो हतो तेने तोडाव्यो छे ॥२॥
परन्तु हे ब्राह्मण देवता! दुष्ट राजाओने सङ्ग्राममां मारीने जीतीने, लाकडामान्थी अग्नि शिखाने लावे तेम हुं निर्दोष अङ्गवाळी अने मारामां परायण परम सुन्दरी राजकुमारीने हरी लावीश ॥३॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - (ब्राह्मण देवता पासेथी) रुक्मिणीजीना विवाहनुं नक्षत्र जाणी लई, मधुसूदन श्रीकृष्णे सारथिने आज्ञा करी, ‘‘हे दारुक! हमणां ज रथ जल्दी जोडी लावो’’ ॥४॥
दारुक भगवान्नां रथमां शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प अने बलाहक नामना चार घोडा जोडी ते लई आव्यो अने हाथ जोडी भगवान्नी सामे ऊभो रह्यो ॥५॥
शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवताने रथमां बेसाडी पछी पोते सवार थया अने ते पवनवेगी घोडाओद्वारा एक ज रातमां ओखामण्डळथी वराडमां जई पहोञ्च्या ॥६॥
कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक पोताना ज्येष्ठ पुत्र रुक्मी उपरना स्नेहने लीधे पोतानी कन्या *शिशुपालने देवामाटे विवाहोत्सवनी तैयारीओ करावी रह्या हता ॥७॥
विशेष - शिशुपाल ‘‘शिशुं बालबुद्धिमेव पालयति इति शिशुपालः’’ जे युवान के प्रौढ थयो होय पण जेनामां बुद्धि बाळकना जेटली ज होय, बालबुद्धिने ज पम्पाळअध्याय-५३,दशमस्कन्ध ४६५ पम्पाळ करे ते शिशुपाल. नगरना राजमार्गो, शेरीओ तथा चोको वाळीने साफ कराव्या तेमना उपर चन्दन वगेरे छण्टाव्या, चित्र-विचित्र रङ्गबेरङ्गी नानी-मोटी धजाओ अने पताकाओ फरकाववामां आवी अने तोरणो बान्धवामां आव्याम् ॥८॥
नगरनां स्त्री-पुरुषो पुष्पमाला, हार, अत्तर, चन्दन, घरेणां अने निर्मल वस्त्रोथी सज्ज थयेलां हतां. त्यान्ना सुन्दर-सुन्दर घरोमान्थी अगरना धूपनी सुगन्ध फेलाई रही हती ॥९॥
हे परीक्षित! राजा भीष्मके पितृओ अने देवताओ नुं विधिपूर्वक पूजन करी ब्राह्मणोने भोजन अने नियमपूर्वक स्वस्तिवाचन कराव्याम् ॥१०॥
परम सुन्दर राजकुमारी रुक्मिणीजीने स्नान कराववामां आव्युं, (मुखमां ताम्बूल आपी) दान्तोनो संस्कार करवामां आव्यो (कारण के श्वेत दान्तोवाळी कन्याने जोवी नहि एवो केटलेक स्थळे देशाचार छे), मङ्गल कौतुक (कपोल उपर हळदरथी कमलनुं चित्र, मङ्गलसूत्र पहेराववुं, एक खण्डमां कुलदेवतानी स्थापना) करवामां आव्यां, पानेतर पहेराववामां आव्युं, एक वस्त्र ओढाडवामां आव्युं अने उत्तम आभूषणो धारण कराववामां आव्याम् ॥११॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणोए सामवेद, ऋग्वेद अने यजुर्वेद ना मन्त्रोथी तेनी रक्षा करी अने अथर्ववेदना विद्वान पुरोहिते ग्रहशान्तिने माटे हवन कर्यो (जेओ कन्यानो भगवान् साथे थनारो सम्बन्ध छोडावी नीचे सम्बन्ध कराववा तैयार थयेला तेमना ग्रहोनी शान्तिमाटे आ हवन छे.) ॥१२॥
राजा भीष्मके कुलपरम्परा अने शास्त्रविधि प्रमाणे ब्राह्मणोने सोना, चान्दी, वस्त्रो, गोळ मिश्रित तल अने गायोनुं दान कर्युम् ॥१३॥
ए ज प्रमाणे चेदि देशना राजा *दमघोषे पण पोताना पुत्र शिशुपालने माटे मन्त्र जाणनार ब्राह्मणो पासे पोताना पुत्रना विवाह सम्बन्धी बधां मङ्गल कृत्य कराव्याम् ॥१४॥
विशेष - दमघोष - दम=शान्ति; घोष=अवाज. शान्ति विशे मात्र जे अवाज-वातो ज- करतो होय ते दमघोष. ते पोते शान्त नथी अने अशान्तनुं करेलुं सफल थतुं नथी. अथवा ‘दम’ शब्दने उलटाववाथी ‘मद’ शब्द बने. मदघोष एटले ‘मद’ नो मार्यो घोष ज कर्या करे, बूम-बराडा पाड्या करे ते दमघोष [[४६६]] मदझरता हाथीओ, सोनाथी शणगारेल घोडावाळा रथो, पायदळ अने घोडानी बनेली चतुरङ्गिणी सेना साथे ते कुडिन्नपुरमां आव्या ॥१५॥
विदर्भ देशना राजा भीष्मके तेनुं सामैयुं कर्युं, पूजन कर्युं अने ज्यां जानने उतारो आपवानुं पहेलेथी नक्की कर्युं हतुं ते जुदा घरमां एने आनन्दथी उतारो आपी दीधो ॥१६॥
एनी जानमां शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ अने पौण्ड्रक वगेरे शिशुपालना पक्षना हजारो राजाओ आव्या हता ॥१७॥
ए बधा राजाओ श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ना विरोधी हता. कोई पण रीते ए कन्याने श्रीकृष्ण लई न जाय एटलामाटे बधा भेगा थईने शिशुपालने ए कन्या अपाववाना यत्नमां हता. ‘‘जो श्रीकृष्ण आवीने राम अने यादवो नी सहायथी कन्यानुं हरण करे तो आपणे बधा मळीने एनी साथे लडीशुं’’ एवो निश्चय करीने ए राजाओ पण पोतानुं बधुं सैन्य, रथ, घोडा, हाथी वगेरे लईने त्यां आव्या हता ॥१८-१९॥
प्रतिपक्षीओना उद्योगनी भगवान् बलदेवजीने खबर पडी अने ‘‘अर्हीथी श्रीकृष्ण एकला कन्यानुं हरण करवा गया छे तेथी त्यां कलह जरूर थशे’’ एवी आशङ्का थई ॥२०॥
जो के ते श्रीकृष्णनुं बल-पराक्रम जाणता हता तो पण भाई उपरना स्नेहने लईने तेमनुं हृदय भराई आव्युं. ते तुरत हाथी, घोडा, रथ अने पायदळनी भारे मोटी चतुरङ्गिणी सेना साथे लई कुडिन्नपुर जवा चाली नीकळ्या ॥२१॥
(आम बधी तैयारी थई जतां, ज्यारे अत्यन्त आकाङ्क्षा थाय त्यारे ज भगवान् पधारे छे ए सिद्धान्त दर्शावती रुक्मिणीजीनी आकाङ्क्षा कहेवामां आवे छे) आ बाजु परम सुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णना शुभागमननी राह जोई रह्या हतां. हजु सुधी ब्राह्मण देवता पण पाछा न आव्या तेथी ते भारे चिन्तामां पडी गयां अने विचारवा लाग्याम् ॥२२॥
‘‘ओहो! हवे मारा विवाहने तो एक रात ज बाकी छे. परन्तु मारा जीवन सर्वस्व कमलनयन भगवान् हजु पण पधार्या नहि तेनुं शुं कारण हशे ते मन्द भाग्यवाळी हुं समजी शक्ती नथी. एटलुं ज नहि मारो सन्देशो लई जनार ब्राह्मण देवता पण हजु सुधी पाछा आव्या नहि ॥२३॥
[[४६७]] भगवान् श्रीकृष्णनुं स्वरूप परम शुद्ध छे. आपे मारामां कंई ने कंई (भाई प्रत्येनो मारो पक्षपात) दोष जोयो हशे, त्यारे तो मारो हाथ पकडवाने माटे मारो अङ्गीकार करवाने माटे तैयार थई ए अर्ही पधारी रह्या नथी ॥२४॥
ठीक छे, मारुं भाग्य ज मन्द छे! विधाता अने शङ्कर भगवान् पण मने अनुकूल होय तेम जणातुं नथी. ए पण सम्भव छे के रुद्रपत्नी पर्वत राजकुमारी (गिरिजा) सती पार्वतीजी माराथी नाराज थयां होय’’ ॥२५॥
रुक्मिणीजी एक तो मुग्ध हतां. वळी तेमनुं सम्पूर्ण मन अने बधा मनोभाव भक्त मनचोर भगवाने चोरी लीधा हता. तेथी उपर प्रमाणे विचार करतां-करतां, ‘आ समय तो शुभ छे’ एम विचारी पोताना आंसुभर्या नेत्रो बन्ध करी दीधां ॥२६॥
हे परीक्षित! आ प्रमाणे रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णना शुभागमननी प्रतीक्षा करी रह्यां हतां. ए ज वखते एमनी डाबी जाङ्घ (साथळ), भुजा अने नेत्र फरकवां लाग्यां, जे प्रियतमना आगमनना शुभ समाचारनी वधाई आपी रह्यां हतां ॥२७॥
एटलामां ज भगवान् श्रीकृष्णे मोकलेला ब्राह्मण देवता पण आवी गया अने तेमणे अन्तःपुरमां राजकुमारी रुक्मिणीजीने भगवद् चिन्तनथी भगवदाविष्ट देवीरूपे जोयाम् ॥२८॥
सती रुक्मिणीजीए जोयुं के ब्राह्मण देवतानुं मुख प्रफुल्लित छे. हवे तेमने कोई काम बाकी रहेलुं नहि होवाथी अव्यग्र-धीमी गतिथी आवे छे. ते तेमने जोईने लक्षणोथी ज समजी गयां के भगवान् श्रीकृष्ण आवी पहोञ्च्या छे. पछी हर्षथी मन्द हास्य करी ब्राह्मण देवताने तेमणे पूछ्युम् ॥२९॥
त्यारे ब्राह्मणदेवताए समाचार आप्या के बलदेवजी साथे यदुनन्दन गाममां पधार्या छे’’ भगवान्ने तेनी साथे थयेली वात-चीत कही अने परणवानुं वचन आप्युं छे ते ए सत्य करशे एम कह्युम् ॥३०॥
भगवान्ना शुभागमनना समाचार साम्भळी रुक्मिणीजीनुं हैयुं आनन्दथी नाची उठ्युं. मोक्ष देनार भगवान्ने जेणे लावी दीधा ते ब्राह्मण देवताने तेना बदलामां बीजुं शुं प्रिय आपवुं तेनी समज न पडवाथी तेमणे तेमने नमस्कार कर्या* ॥३१॥
[[४६८]]
विशेष - ब्राह्मण छे एटले सहेजे जे मळे तेनाथी तेने सन्तोष छे. ब्रह्मचिन्तनमां ज तेनो समय जतो होवाथी वैभव आपवाने प्रश्न ज उपस्थित थता नथी. ज्यां बदलोवाळी न शकाय त्यां नमस्कार ए ज उत्तम बदलो छे. (अथवा) लक्ष्मीस्वरूप रुक्मिणीजीना वन्दन मात्रथी ब्राह्मणनी तमाम अभिलाषाओ पूर्ण थई. पोतानी पुत्रीना लग्नने उत्सुक्ताथी जोवाने, राम-कृष्ण पधार्या छे एम साम्भळी वाजां, पूजानी सामग्री वगेरे लईने सामैयुं करी भीष्मक राजाए एमनो सारी रीते सत्कार कर्यो ॥३२॥
एमने मधुपर्क, रजरहित शुद्ध वस्त्र अने नाना प्रकारनी अभीष्ट भेटो आपी विधि प्रमाणे तेमनुं पूजन कर्युम् ॥३३॥
भीष्मकजी बहु बुद्धिमान् हता. तेमणे भगवान्ने तेमनी सेना अने सेवको सहित समस्त सामग्रीओथी सज्ज निवासस्थानमां उतारो आप्यो अने तेमनो विधि प्रमाणे सत्कार कर्यो ॥३४॥
भीष्मक राजाए पोताने त्यां जे आवेला हता तेमनी सेना, बल अने अवस्था ना प्रमाणमां पोतानी सम्पत्तिनो विचार करी यथायोग्य एमनी कामना पूर्ण थाय तेवो सत्कार कर्यो ॥३५॥
विदर्भनगरनां वासीओए श्रीकृष्ण पधार्या छे एम जाण्युं त्यारे ए बधां त्यां आव्यां अने एमना मुखकमळनुं नेत्ररूपी अञ्जलिवडे पान करवा लाग्याम् ॥३६॥
तेओ आपसमां आ प्रमाणे वात-चीत करतां हतां ‘‘रुक्मिणीजी आपनी ज अर्धाङ्गिनी थवाने योग्य छे अन आ परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीजीने ज योग्य पति छे. बीजो कोई तेमनी पत्नी थवाने योग्य नथी. (लक्ष्मीजी सिवाय बीजुं कोई पण भगवत्पत्नी बनी शके नहि) ॥३७॥
जो अमे आ जन्ममां अथवा पूर्वजन्ममां कंई पण सत्कर्म कर्युं होय तो त्रिलोक विधाता भगवान् अमारा उपर प्रसन्न थाओ अने एवी कृपा करो के श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ज विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजीनुं पाणिग्रहण करो’’ ॥३८॥
प्रेम परवश थई नगरजनो परस्पर आ प्रमाणे वात-चीत करी रह्या छे त्यां ए ज समये रुक्मिणीजी राणीवासमान्थी नीकळी अम्बिकाजीना मन्दिरे जवा नीकळ्यां. ए वखते घणा सैनिको तेमनी रक्षा करी रह्या हता ॥३९॥
ते प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रनां चरणकमलोनुं चिन्तन करतां भगवती भवानीना [[४६९]] पादपल्लवोनां दर्शन करवामाटे चालीने ज नीकळ्याम् ॥४०॥
ते पोते मौन हतां अने माताओ तथा साहेलीओ तेमने चारे तरफ र्वीटळाई वळ्यां हतां. शूरवीर कवच अने शस्त्रधारी राजसैनिको तेमनी रक्षा करी रह्या हता ॥४१॥
ते वखते मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, शरणाई अने नगारां वगेरे वाजां वागी रह्यां हतां. (भवानी माटे) अनेक प्रकारनी भेटो अने पूजा नां साधनो साथे लेवामां आव्या हता. (नित्य नूतन भगवान्नां दर्शन करवा) हजारो श्रेष्ठ वाराङ्गनाओ पण साथे हती ॥४२॥
घणी ब्राह्मणपत्नीओ पुष्पमाला, चन्दन वगेरे सुगन्ध-द्रव्य अने घरेणां- कपडां पहेरी साथे-साथे चाली रही हती. (गवैया गाता जता हता, वाजांवाळा वाजां वगाडता जता हता, (कौसमां आपेल अडधा श्लोक उपर श्रीसुबोधिनीजी नथी) अने विद्योपजीवी सूत, मागध तथा बन्दीजन रुक्मिणीजीनी चारे तरफ जयजयकार करता गाता बजावता आगळ चाल्या ॥४३॥
देवीजीना मन्दिरे पहोञ्ची रुक्मिणीजीए पोताना कमलना जेवा सुकोमल हाथ- पग धोया, आचमन कर्युं; त्यार पछी अन्दर बहारथी पवित्र अने शान्त भावथी युक्त थई अम्बिका देवीना मन्दिरमां प्रवेश कर्यो ॥४४॥
वृद्ध अने विधिने जाणनार ब्राह्मणनी स्त्रीओए भगवान् शङ्करनां अर्धाङ्गिनी भवानीने अने भगवान् शङ्करने पण रुक्मिणीजी पासे प्रणाम कराव्या ॥४५॥
(ए ज वखते भगवद् इच्छाथी ज मन्त्र स्फूरी आव्यो) ‘‘अम्बिका माता आपना पुत्र गणपतिजी साथे आपने तथा शिवजीने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुं. आप सम्मति आपो के भगवान् श्रीकृष्ण ज मारा पति थाय* ॥४६॥
विशेष - श्लोक ४६नो बीजो भावः अम्बिका माता! आपना पुत्रो गणपतिजी वगेरे साथे आपने तथा शिवजीने हुं वारंवार प्रणाम करुं छुं. भगवान् श्रीकृष्ण ज मारा पति थाओ’’ श्रीकृष्ण आ अन्य देवताने करेला नमस्कारने अनुचित न गणे तेथी गुस्से न थाय पण तेने अनुमोदन आपे. त्यारबाद रुक्मिणीजीए जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेक प्रकारनां नैवेद, भेट अने आरती वगेरे सामग्रीओथी (शङ्कर- पार्वतीनी) पूजा करी ॥४७॥
[[४७०]] पछी शेष रहेली ते सामग्रीओथी तथा लूण, मालपूआ, ताम्बूल (पान), कण्ठसूत्र, फल अने शेरडीथी सुहागण (लूण, मालपूआ, ताम्बूल, कण्ठसूत्र, फल अने शेरडी ना खण्डद्ग ए छ पदार्थ रसरूप गणाय छे. ते बधा परस्पर सुवासिनीओ (सुहागणो) आपे छे अने ले छे.) ब्राह्मणनी स्त्रीओनी पण पूजा करी ॥४८॥
त्यारे ते स्त्रीओए मङ्गळ पदार्थ आपी आशीर्वाद आप्या. रुक्मिणीजीए तेमने तथा माता अम्बिकाने नमस्कार करी मङ्गळ पदार्थो वस्त्रमां बान्धी लीधां ॥४९॥
पछी तेमणे मौनव्रत छोड्युं अने रत्नजटित र्वीटीथी शोभता हस्तकमलथी एक सहेलीनो हाथ पकडी अम्बिकाजीना मन्दिरमान्थी ते बहार नीकळ्याम् ॥५०॥
हे परीक्षित! रुक्मिणीजी भगवान्नी मायानी जेम ज मोटा-मोटा धीर-वीरोने पण मोहित करी लेवावाळां हतां. तेमनो कटिभाग घणो ज सुन्दर अने पातळो हतो. मुखमण्डल उपर कुण्डलोनी शोभा झगमगी रही हती. सोळ वर्षनी अवस्था हती. स्तन प्रकट थयां हतां. लटकती वाळनी लटोने लईने तेमनी दृष्टि कंई चपल थई रही हती ॥५१॥
तेमना होठो उपर मनोहर हास्य नाची रह्युं हतुं. एमना दान्तोनी पङ्क्ति हती तो कन्दुकळीना जेवी परम उज्वल परन्तु पाकेला बिम्बफल (=घिलोडुं. पाकेला घिलोडानी बे ऊभी फाड करवामां आवे तो बन्ने होठ जेवो आकार थाय) जेवा लाल होठोनी चमकथी एना उपर पण लालश जणाती हती. चरणनां झाञ्झर चमकी रह्यां हतां अने तेमां लागेली झीणी घूघरीओ रूपझूम-रूमझूम वागी रही हती. ते पोताना सुकुमार चरणकमलोथी राजहंसनी गतिथी पेदळ ज चाली रह्यां हतां ॥५२॥
तेमनी अपूर्व छबी जोईने त्यां आवेला मोटा-मोटा यशस्वी वीरपुरुषो बधा मोहित थई गया. कामदेवे ज भगवान्नुं कार्य सिद्ध करवा पोतानां बाणोथी तेमनां हृदय जर्जरित करी दीधां. रुक्मिणीजी आ प्रमाणे आ उत्सव-यात्राने बहाने मन्द-मन्द गतिथी चालतां भगवान् श्रीकृष्ण उपर पोतानुं अपूर्व सौन्दर्य न्योछावर करी रह्यां हतां. तेमने जोईने मोटा-मोटा राजाओ अने वीरपुरुषो एटला मोहित अने बहोश थई गया के तेमना हाथमान्थी अस्त्र-शस्त्र नीचे पडी गयां अने तेओ पोते पण रथ, हाथी अने घोडा उपरथी धरती उपर जई पड्या. [[४७१]] आ प्रमाणे रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णना शुभागमननी राह जोतां पोताना कमलनी कळी जेवा सुकुमार चरणोथी धीमे-धीमे चालतां हताम् ॥५३-५४॥
पोताना डाबा हाथना नखोथी मुख उपर आवेली लटो हटावी अने त्यां आवेला राजाओ तरफ लज्जायुक्त नजरथी जोयुं ए ज वखते तेने श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन थयां. राजकुमारी रुक्मिणीजी जेवां रथ उपर चढवा जाय छे के तरत ज भगवान् श्रीकृष्णे बधा शत्रुओने देखतां तेमनी भीडमान्थी रुक्मिणीजीने उठावी लीधां अने ते सेङ्कडो राजाओना सिर उपर पग मूकी तेमने पोताना ते रथ उपर बेसाडी दीधां जेनी ध्वजा पर गरुडजीनुं चिह्न हतुं. पछी तो जेवी रीते सिंह शियाळनी वच्चेथी पोतानो भाग लई जाय तेवी ज रीते रुक्मिणीजीने लई भगवान् श्रीकृष्ण बलदेवजी वगेरे यदुवंशीओनी साथे त्यान्थी चाली नीकळ्या ॥५५-५६॥
तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं परे जरासन्धवशा न सेहिरे ॥ अहो धिगस्मद्यश आत्तधन्वनां गोपैर्हृतं केसरिणा मृगैरिव ॥५७॥
ते वखते जरासन्धने अधीन अभिमानी राजाओथी पोतानो आ तिरस्कार अने यशनो नाश सहन न थया. ते बधा चिडाईने कहेवा लाग्या, ‘‘ओहो! आपणने धिक्कार छे! आजे आपणे धनुष धारण करीने ऊभा ज रही गया अने आ गोवाळियाओ, जेवी रीते सिंहोनो भाग हरण लई जाय तेवी ज रीते आपणो यश छीनवीने लई गया’’ ॥५७॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा प्रकरणनो श्रीरूप चोथो) राजाओने जीती श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीनुं हरण करी लाव्या नामनो (उत्तरार्धनो चोथो अने चालु) ५३मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां पचासमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. मारे जन्तु (श्रोता) अहि (नाग=कथाकार) मणि (भागवत)अजवाळे, त्यम तें उदर पोखी लीधुं!! ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे
ईं उं ईं उं
[[४७२]]
अध्याय ५४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.५१ भगवाने रुक्मिणीजी साथे लग्न कर्युं त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय५
विशेष - ज्यां सुधी पोताना लोकोनुं चित्त ते-ते भावथी निवृत्त न थाय त्यां सुधी ए विषयने भगवान् ग्रहण न करे तेथी विधि प्रमाणे विवाह करवामाटे अन्य विषयने दूर करवा जोईए, माटे अर्ही जरासन्ध आदि साथे युद्ध कर्युं, रुक्मीनुं मुण्डन कर्युं अने रुक्मिणीजीना अज्ञानने दूर करीने एमने ए दोषथी मुक्त कर्यां. स्वकीय उदासीन होय ते शत्रु गणाय, पोतानो आत्मा पण भगवत्कृतिने अनुमोदन न आपे तो ए आत्मा शत्रु गणाय. ए उदासीनताने दूर करवामाटे भगवाने युद्ध करी बधाने स्वनिष्ठ कर्या. आ पाञ्चमा अध्यायमां रुक्मिणीजीना दोषोने दूर करी स्वभाववडे एने स्वनिष्ठ करीने भगवाने विवाह कर्यो ए वात कहे छे. (कारिका) इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः ॥ स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम क्रोधयुक्त जरासन्ध आदि राजाओ पोत-पोताना वाहनमां बेसी, कवच वगेरे धारण करी, पोत-पोतानी सेनाने साथे लई, हाथमां धनुष लई भगवान्नी पाछळ दोड्या ॥१॥
हे राजन्! ज्यारे यदुवंशीओना सेनापतिओए जोयुं के शत्रुदल अमारा उपर चढी आवी रह्युं छे त्यारे तेमणे पण पोत-पोताना धनुषनो टङ्कार कर्यो अने पाछा फरी दृढताथी तेमनो सामनो कर्यो ॥२॥
जरासन्धनी सेनाना लोको कोई घोडा उपर, कोई हाथी उपर तो कोई रथ उपर चढेला हता. ते बधा धनुर्वेदना सारा मर्मज्ञ हता. जेवी रीते घनघोर वादळो पहाडो उपर मुसळधार पाणी वरसावे तेवी रीते तेओ यदुवंशीओ उपर बाणोनी वर्षा करवा लाग्या ॥३॥
शुद्ध अन्तःकरणवाळां परम सुन्दरी रुक्मिणीजीए जोयुं के तेमना पति श्रीकृष्णनी सेना बाणवर्षाथी ढङ्काई गई छे, त्यारे तेमणे लज्जासहित भयभीत नेत्रोथी भगवान् श्रीकृष्णना मुख तरफ जोयुम् ॥४॥
श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे वामलोचने! भय न राखो. तमारा सैनिको हमणां ज [[४७३]] शत्रुना सैन्यनो नाश करशे’’ ॥५॥
शत्रुना ए पराक्रमने गद, सङ्कर्षण वगेरे यदुवीरो सहन न करी शक्या अने हाथी, घोडा, रथ वगेरेनो बाणथी नाश करवा लाग्या ॥६॥
तेमनां बाणोथी रथ, घोडा अने हाथी उपर बेठेला विपक्षी वीरोनां कुण्डल, किरीट अने पाघडीओथी सुशोभित करोडो माथां, तलवार, गदा अने धनुषयुक्त हाथ, पहोञ्चा, साथळो अने पग कपाई-कपाईने पृथ्वी उपर पडवा लाग्यां. ते ज प्रमाणे घोडा, खच्चर, हाथी, ऊण्ट, गधेडां अने मनुष्योनां माथां पण कपाई-कपाईने जमीन उपर पडवा लाग्याम् ॥७-८॥
अन्ते विजयनी आकाङ्क्षावाळा यदुवंशीओए शत्रुओनी सेना छिन्न-भिन्न करी नाखी. तेथी जरासन्ध वगेरे बधा राजाओ युद्धमां पीठ देखाडी पलायन करवा लाग्या ॥९॥
आ बाजु शिशुपाल पोतानी भावि पत्नीनुं हरण थवाथी मरवा जेवो थई गयो हतो. तेना हृदयमां उत्साह के तेना शरीर उपर कान्ति नहोती. तेनुं मों सुकाई रह्युं हतुं. जरासन्ध तेनी पासे जई कहेवा लाग्यो - ॥१०॥
‘‘हे पुरुषसिंह! तमे मनमां कांई दुःख न करशो. मनुष्यनुं सर्वदा प्रिय ज थाय एवुं पण नथी के सर्वदा अप्रिय थाय एवो पण नियम नथी. तेथी आपणे हार्या ए वातने भूली जवी जोईए ॥११॥
मायावी काष्ठनी पूतळीने नचावे छे तेवी ज रीते आ जीव पण भगवदिच्छाने आधीन रही सुख- दुःखना सम्बन्धमां यथाशक्ति चेष्टा करतो रहे छे ॥१२॥
श्रीकृष्णे मने त्रेवीस अक्षौहिणी सेनाओ सहित सत्तर वार हराव्यो पण छेल्ले में अढारमी वार तेना उपर विजय मेळव्यो ॥१३॥
तो पण आ वातनो हुं क्यारेय शोक करतो नथी के तेनाथी हर्ष पामतो नथी. (पोताना बराबरियाथी हार-जीत थाय तो लागी आवे ते बराबर छे. पण) हुं जाणुं छुं के जय-पराजय करनार काळ छे. ते बधानो अधिपति छे. ते शरीर आदि सहित छे अने शरीरद्वारा ज ते जगतने उपर नीचे करे छे. (‘‘द्रव्ययुक्तेन अने दैवयुक्तेन’’ बे पाठ छे. ‘द्रव्ययुक्त’ एटले शरीर आदि सहित अने ‘दैवयुक्त’ एटले प्रारब्ध प्रमाणे. तात्पर्य के दोष तेनो (काळनो) पण नथी) ॥१४॥
आपणे मोटा-मोटा वीर सेनापतिओना पण नेता छीए. छतां पण आ [[४७४]] समये श्रीकृष्णद्वारा सुरक्षित यादवोनी तुच्छ साधनवाळी सेनाए आपणने हराव्या एने काळनुं बल ज समजो ॥१५॥
अत्यारे काळ शत्रुने अनुकूळ हतो त्यारे एणे आपणने जीत्या; तो अनुकूळ समय आवशे त्यारे आपणे पण एने जीतीशुं’’ ॥१६॥
एम ज्यारे मित्रोए समजाव्यो त्यारे शिशुपाल पोताना माणसो साथे पोताने देश गयो. मरतां बाकी रहेला राजाओ पण पोताना नगरोमां पहोञ्च्या ॥१७॥
रुक्मिणीजीनो मोटो भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्ण उपर बहु द्वेष राखतो हतो. तेनी बहेननुं श्रीकृष्ण हरण करी लई जाय अने तेनी साथे राक्षसविधिथी विवाह करे ते वात रुक्मीथी बिलकुल सहन न थई. रुक्मि बलवान तो हतो ज. एक अक्षौहिणी सेना लईने श्रीकृष्णनी पाछळ लडवा दोड्यो ॥१८॥
महाबाहु रुक्मीए युद्धनी तैयारी करी, क्रोध करी, कवच पहेरी, हाथमां धनुष लई, सर्व राजाओनां साम्भळतां एवी प्रतिज्ञा करी के ‘‘हुं कृष्णने मार्या वगर अने रुक्मिणीने लाव्या वगर कुडिन्नपुरमां प्रवेश नहि करुं. आ मारुं वचन सत्य समजो. हुं तमने बधाने साचुं कहुं छुं’’ ॥१९-२०॥
आम कही ते रथ उपर सवार थई गयो अने सारथिने कह्युं, ‘‘ज्यां कृष्ण होय त्यां जलदीमां जलदी मारो रथ लई ले. आजे मारुं एनी साथे ज युद्ध थशे ॥२१॥
आज हुं मारां तीक्ष्ण बाणोथी ए अत्यन्त दुष्ट बुद्धिवाळा गोपालना पराक्रमना मदने दूर करीश के जे मारी बहेननुं बलपूर्वक हरण करी लई गयो छे’’ ॥२२॥*
विशेष - श्लोक २२ नो बीजो भाव ः अद्याहं निशितैर्बाणैः गोपालस्य सुदुर्मतेः ॥ नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता ॥२२॥
‘‘सुदुर्मतेः-सुदुष्टेष्वपि मतिर्यस्य।’’ अत्यन्त दुष्ट पुरुषो उपर पण जेनी कूणी नजर छे तेवा श्रीकृष्ण. ‘‘नेष्ये वीर्यमदं येन’’ भगवान्ने लीधे वीर्यजनित जे मद तेने हुं ग्रहण करीश. हवे अमे भगवान्ना सम्बन्धी थया छीए एटले वीरतामां अमारी कोई बराबरी नथी एवो गर्व थशे. (सरस्वती तेना स्वामी श्रीकृष्णने गाळ देवामां प्रवृत्त थाय ज नहि ए अध्याय ५० श्लोक १७-१८ मां जोई गया छीए) हे परीक्षित! रुक्मीनी बुद्धि बगडी गई हती. ते भगवान्ना तेज प्रभावने [[४७५]] बिलकुल जाणतो न हतो. तेथी ज आ प्रमाणे पोतानी बडाई करतो ते एक ज रथथी श्रीकृष्णनी पासे जई बोलवा लाग्यो, ‘‘ऊभो रहे! ऊभो रहे!’’ ॥२३॥
तेणे पोताना धनुषने जोरथी खेञ्ची भगवान् श्रीकृष्णने त्रण बाण मार्यां अने कह्युं, ‘‘एक क्षण मारी सामे ऊभो रहे! यदुवंशीओना कुलकलङ्क।’’१ जेवी रीते कागडो होमनी सामग्री चोरीने उडी जाय तेम ज तुं मारी बहेनने चोरीने क्यां भागी जई रह्यो छे? अरे मन्द! तुं घणो मायावी अने कपटयुद्धमां कुशळ छे. आज हुं तारा गर्वनो नाश करी नाखुं छुं२ ॥२४-२५॥
विशेष - १. स्तुति पक्ष लईए त्यारे श्लोकनो अर्थ ः
मारो उद्धार कर्या विना ज रुक्मिणीजीनुं हरण करवुं अयोग्य छे. त्रण ‘शर’
मार्या. ‘शर’ एटले १. बाण २. तर. तर ए रसने ढाङ्की दे छे. जलनी तर पृथ्वी छे, वायुनी
तर (आवरण, ढाङ्कण) अन्तरिक्ष छे अने ब्रह्माण्डनी तर स्वर्ग छे. त्रण बाण मारी त्रणेय
लोक भगवान्ने निवेदन करी दीधा. हाथथी मार्यां अर्थात् हाथथी निवेदन कर्या. चारे क्षणं
तिष्ठ-आपना चरणने योग्य सात्विक हृदयमां क्षणवार बिराजो. कुलपांसन कुलप-
यदुकुलना पालक. अंस-खभो, क्रियाशक्ति. न (नयति)-लई जनार, प्राप्त करावनार. जे
कोई यादवोना रक्षको छे तेमने वैकुण्ठनी प्राप्ति करावे ते कुलपांसन - आवा भक्तवत्सल
अमारा हृदयमां पण क्षणवार बिराजो तो अमने अने अमारा उपर उपकार करनाराओने
वैकुण्ठनी प्राप्ति करावशे तेवी प्रार्थना छे.
२. ब्रह्मानन्द जीवोनी बहेन छे. तेने लईने एटले अमारो उद्धार कर्या विना.
‘मुषित्वा’-अमाराथी परोक्ष रीते उपाडी जईने. ब्रह्मानन्द जीवोनी निकट ज होवा छतां
जीव तेने जोतो नथी. तेनो अनुभव तो भगवान् ज करे छे. भगवान् सर्वयज्ञभोक्ता छे अने
कागडा सिवायनुं अखिल जगत् हवि छे. कागडा सिवायना बीजा बधा होम करवाना हवि छे.
आखा जगतनो उद्धार करवामाटे पधारेला आप एक मारो उद्धार कर्या विना केम जाओ छो?
आम पोतानी जात उपर धिक्कार बतावे छे. भगवान् कहे छे के तें ज कागडानुं दृष्टान्त
आप्युं अने कागडो हवि तरीके न चाले पछी? ‘‘मन्दमायिनः कूटयोधिनः’’ मायाने
प्रसङ्ग आव्ये कार्यक्षम नहि करतां मन्द करी दो छो. युद्ध तो देखाडवा पूरतुं कपटथी ज करो छो.
हकीकतमां जेने-जेने मारो छो तेने-तेने मुक्ति ज आपो छो. आवा भगवान् सामे
बिराजमान होय तो प्रतिबन्धकरूपे आवेलो मारो मद हुं छोडी दईश.
ज्यां सुधीमां मारा बाणथी नीचे न पडे त्यां सुधीमां आ बाळकीने (कन्याने)
[[४७६]]
छोडी दई भागी जा’’ रुक्मीनी वात साम्भळी भगवान् श्रीकृष्ण हसवा लाग्या.
आपे तेनुं धनुष कापी नाख्युं अने तेना उपर छ बाण छोड्यां* ॥२६॥
विशेष - ‘बाण’ एटले इन्द्रिय. बाण दुश्मनने मारी नाखे छे तेम इन्द्रियो बहिर्मुख थनारने मारी नाखे छे. जो मारी इन्द्रियो भगवद् रस चाखी जशे तो पछी तेओ ब्रह्मानन्दनी पण परवा नहि करे, पछी तो भक्ति ज करशे, त्यां सुधी ब्रह्मानन्दनुं दान करवुं. ‘‘दारिका मुक्तिः संसारं विदारयिष्यति। दारिका’’ - संसारनो नाश करी नाखे ते. मुक्तिनी प्रार्थना तो ज्यां सुधी भक्ति न थई होय त्यां सुधी ज करवानी होय. ‘शयी थाः’ - प्रलय वखते आप पोढी जाओ ते पहेलां ज मुक्तिनुं दान करो. साथे ज भगवान् श्रीकृष्णे आठ बाण चार घोडाने मार्यां, बेथी सारथिने अने त्रणथी ध्वजने पाड्यो. रुक्मीए पण बीजुं धनुष लई पाञ्च बाण श्रीकृष्णने मार्या ॥२७॥
एणे बाण मार्यां त्यारे भगवाने एनुं धनुष तोडी नाख्युं. एणे बीजुं धनुष लीधुं तेने पण अच्युते उडावी दीधुं तेथी त्रीजुं लीधुं तेने पण भगवाने तोडी पाड्युं ॥२८॥
परिघ, ढाल, तलवार, शूल, शक्ति, तोमर वगेरे जे-जे आयुध एणे लीधां तेने सर्व समर्थ भगवाने प्रहार करतां पहेलां ज तोडी पाड्याम् ॥२९॥
क्रोधे भराई रुक्मी हाथमां तलवार उठावी भगवान् श्रीकृष्णने मारी नाखवा रथ उपरथी नीचे उतर्यो अने पतङ्गियुं जेम अग्निमां पेसे तेम तेमनी सामे आव्यो ॥३०॥
ए आवे छे तेटलामां तो बाणवडे एनी तलवार अने ढाल ना भगवाने तलतल जेवडा टुकडा करी नाख्या अने रुक्मीने मारवामाटे भगवाने तलवार हाथमां लीधी अने एना तरफ उगामी ॥३१॥
ज्यारे रुक्मिणीजीए जोयुं के आ तो मारा भाईने हवे मारी ज नाखशे त्यारे ते भयथी विह्वळ थई गयां अने पोताना प्रियतम पतिना चरणोमां पडी करुण स्वरमां तेमणे कह्युम् ॥३२॥
‘‘देवताओना पण आराध्य देव! जगत्पते! आप योगेश्वर छो. आपना स्वरूपने कोई जाणी शक्तुं नथी. आप परम बलवान छो परन्तु कल्याण स्वरूप पण छो. प्रभो! मारा भाईने (आजे ज लग्ननो दिवस, मङ्गल दिवस छे. लग्नना [[४७७]] अवसर उपर साळो मान्य-आदरने पात्र होय छे.) मारवो आपनेमाटे योग्य काम नथी’’ ॥३३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - रुक्मिणीजीनुं एक-एक अङ्ग भयथी कम्पी रह्युं हतुं. शोकनी प्रबलताथी मों सुकाई गयुं हतुं. गळुं रुन्धाई गयुं हतुं. आतुरताथी केश विखराई गया हता अने माळाओ अस्त-व्यस्त थई गई हती अने आ स्थितिमां तेमणे भगवान्नां चरणकमल पकडी लीधां हतां. परम दयाळु भगवान् तेमने भयभीत जोई करुणाथी द्रवित थई गया अने आपे रुक्मीने मार्यो नहि ॥३४॥
छतां पण रुक्मीए यादवोनुं अनिष्ट करवानी चेष्टा छोडी नहि तेथी भगवान् श्रीकृष्णे तेने तेना ज दुपट्टाथी बान्धी दीधो अने तेनां दाढी, मूछ तथा केश केटलेय ठेकाणेथी मूण्डी तेने कुरूप बनावी दीधो. त्यां तो जेवी रीते हाथी कमलवनने कचडी नाखे तेम यदुवंशी वीरोए शत्रुनी सेनानो नाशकर्यो ॥३५॥
पछी बलदेवजी श्रीकृष्ण पासे आव्या त्यां तो दाढी-मूछ वगरना, मरेल जेवा, दुपट्टाथी बान्धेला रुक्मीने तेमणे जोयो. सर्वशक्तिमान बलदेवजीने तेना उपर दया आवी अने तेने बन्धनमुक्त कर्यो. तेओ श्रीकृष्णने कहेवा लाग्याः ॥३६॥
‘‘हे कृष्ण! तमे आ खोटुं कर्युं. आपणे माटे आ निन्द्य काम गणाय, केमके सुहृदनी दाढी मूछ मूण्डी एने विरूप बनाववो ए एक प्रकारनो वध ज गणाय’’ ॥३७॥
त्यार बाद बलदेवजीए रुक्मिणीजीने सम्बोधन करी क्ह्युं, ‘‘हे साध्वी! तमारा भाईनुं रूप विकृत करी देवामां आव्युं एम विचारीने अमारा तरफथी खोटुं न लगाडशो, कारण के जीवने सुख-दुःख देनार बीजुं कोई नथी. तेने तो पोतानां ज कर्मनुं फल भोगववुं पडे छे’’ ॥३८॥
हवे तेमणे श्रीकृष्णने कह्युं, ‘‘हे कृष्ण! जो पोतानो सगो सम्बन्धी वध करवा योग्य अपराध करे तो पण पोताना ज सम्बन्धीओद्वारा तेनो वध थाय ए उचित नथी. तेने छोडी मूकवो जोईए. ते तो तेना अपराधथी ज मरी चूक्यो छे. एने आपणे मारवानी जरूर रहेती नथी ॥३९॥
ब्रह्माजीए क्षत्रियोनो धर्म ज एवो बनावी दीधो छे के सगो भाई पण पोताना भाईने मारी नाखे छे. तेनाथी भयानक अज्ञानज पेदा थायछे ॥४०॥
भाई! ए ठीक छे के जे लोको धनना नशामां अन्ध विवेकहीन थई रह्यां छे अने [[४७८]] अभिमानी छे तेओ, राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान तेज अथवा बीजा कोई कारणथी पोतान बन्धुओनो पण तिरस्कार करी देता होय छे ॥४१॥
तमे रुक्मीनुं मुण्डन कर्युं ए तमारी विषम बुद्धि गणाय. दुष्ट हृदयवाळाने विषम बुद्धि थाय. तमारे विषम बुद्धि न राखवी जोईए. अथवा दुर्हृदोनुं अकल्याण अने सुहृदोनुं कल्याण सदा मानो छो ए तमारी विषम बुद्धि तमने अयोग्य छे, केमके सर्वसमता तमारो (ब्रह्मनो) मुख्य धर्म छे’’ ॥४२॥
(आम भगवान्ने चार श्लोकथी ठपको आपता पण रुक्मिणीजीना मनने सन्तोष न थयो त्यारे बलदेवजी एमने सात श्लोकवडे ज्ञाननो उपदेश करे छे) ‘‘मनुष्यने देवनी मायाथी ‘‘आ मित्र, आ शत्रु, आ उदासीन’’ एवी एवी *जातनी देहमां आत्मबुद्धि थाय छे ए एक जातनो एनो मोह छे ॥४३॥
विशेष - स्वरूपना अज्ञानथी भेद थाय छे त्यारे शत्रु, मित्र वगेरे भावो पेदा थाय छे एनुं निरूपण करीने पाछी आत्मा एक छे एम आत्मधर्मनुं निरूपण करे छे. आत्मा स्वप्रकाश अने असङ्ग छे. जन्म आदि दोषो देह आदिमां छे. तेनाथी आत्माने कोई जातनो दोष लागतो नथी. आत्माने कोईनो संसर्ग नथी ए कोईनुं ग्रहण करतो नथी, छतां एमां संसर्ग वगेरे भ्रान्तिथी कल्पाय छे. तेथी ज्ञानवडे अज्ञानने दूर करीने ए भ्रान्तिने दूर करवी जोईए. तेथी ज धर्म- धर्मिरूप भगवान् सातरूप छे ते भगवद् ज्ञानने सात श्लोकथी कहे छे. एनाथी रुक्मिणीजीनुं वैमनस्य दूर थयुं, भगवान्मां दोषबुद्धि हती ते दूर थई अने तेमणे बुद्धिथी विक्षिप्त मननुं समाधान कर्युं. असुर (रुक्मी) नी हाजरीमां ज्ञान फळे नहि पण भगवान्ना सान्निध्यथी ज्ञान फळ्युं. समस्त देहधारीओनो आत्मा एक ज छे कारण के ते परनियन्ता छे. जेवी रीते सोनुं अने माटी एक होवा छतां तेना घडेला आकार उपरथी ते-ते नामथी व्यवहार थाय छे तेवी रीते देव, पशु-पक्षी तथा मनुष्यभावने आत्मा पामे छे. जल अने घडा वगेरे उपाधिओना भेदथी जेवी रीते सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ अने आकाश जुदा-जुदा जणाय छे, परन्तु एक ज छे. तेवी ज रीते मूर्ख लोको शरीरना भेदथी आत्मानो भेद माने छे ॥४४॥
द्रव्य, प्राण अने गुण, अधिभूत-अध्यात्म अधिदैवरूप मळी आदि अने अन्त धर्मवाळो देह थाय छे. अविद्याए आत्मामां एनी कल्पना करी छे. ए देह आत्माने जन्ममरणना चक्करमां लई जाय छे ॥४५॥
[[४७९]] हे सती! नेत्र अने रूप बन्ने सूर्यद्वारा प्रकाशित थाय छे. सूर्य ज तेनुं कारण छे. तेथी सूर्यनी साथे नेत्र अने रूप नो क्यारेय वियोग के संयोग थतो नथी. (दोरडा अने सर्प नो संयोग के वियोग नथी. सर्पनो सहेज पण अंश दोरडामां होतो नथी. मुखनो प्रतिबिम्बनी साथे के दर्पणनी साथे कोई ज सम्बन्ध नथी) ते ज प्रमाणे समस्त संसारनी सत्ता आत्मसत्ताने लीधे ज जणाय छे. समस्त संसारनो प्रकाशक आत्मा ज छे. पछी आत्मानी साथे असत् देहनो संयोग के वियोग होई ज शी रीते शके? आथी देह आदिमां अनासक्ति राखे तो वैराग्य थाय ए आ कहेवानुं तात्पर्य छे ॥४६॥
जन्म लेवो, रहेवुं, मोटुं थवुं, बदलवुं, घटवुं अने मरवुं आ बधा विकार शरीरना ज होय छे, आत्माना नहि. जेवी रीते कृष्णपक्षमां चन्द्रनी कलाओनो ज क्षय थाय छे, चन्द्रमानो नही, परन्तु अमावास्याने दिवसे व्यवहारमां लोको चन्द्रमानो क्षय थयो एम कहे छे. तेवी ज रीते जन्म-मृत्यु वगेरे बधा विकार शरीरना ज थाय छे, परन्तु लोको भ्रमने लीधे तेने पोताना आत्माना मानी ले छे ॥४७॥
जेम सूतेलो माणस स्वप्नमां पोताना आत्मानो, विषयनो अने फळनो अनुभव करे छे तेम अज्ञानी माणस संसारनो अनुभव करे छे. एने जेम निद्रा छे तेम आने अज्ञान छे. ए दूर थतां एने एनो सम्बन्ध रहेतो नथी ॥४८॥
तेथी हे शुचिस्मिते! अज्ञानथी उत्पन्न थयेला अन्तःकरणना शोकने तत्वज्ञानवडे दूर करी तमे स्वस्थ थाओ कारण के शोक अन्तःकरणने सूकवी नाखे छे, मोहित करी दे छे’’ ॥४९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवान् रामे एवीरीते समजाव्यां त्यारे परम सुन्दरी रुक्मिणीजीए विवेकबुद्धिवडे वैमनस्य छोडी दई मननुं समाधान कर्युम् ॥५०॥
रुक्मीनी सेना (अथवा बल) तथा तेना तेजनो नाश थई चूक्यो हतो. मात्र प्राण बची रह्या हता. तेना मननी बधी आशा-अभिलाषाओ सिद्ध न थई अने शत्रुओए अपमानित करी तेने छोडी मूक्यो हतो एनो विचार करतो ए घेर न गयो ॥५१॥
तेणे पहेलां ज प्रतिज्ञा करी हती के ‘‘दुर्बुद्धि कृष्णने मार्या विना अने मारी नानी बहेनने पाछी लाव्या विना हुं कुडिन्नपुरमां प्रवेश नहि करुं’’ तेथी तेणे पोताने रहेवा माटे *भोजकट नामनी मोटी नगरी वसावी अने क्रोधने लीधे त्यां ज रहेवा [[४८०]] लाग्यो ॥५२॥
विशेष - भोजकटः‘भोज’ एटले स्मशानमां शब उपरनुं वस्त्र लई लेनार मसाणियो. ‘कट’ एटले शब अथवा ननामी. भगवान् बधा राजाओने जीतीने भीष्मकनी पुत्री रुक्मिणीजीने द्वारकामां लाव्या अने हे परीक्षित! एनी साथे विधिवत् लग्न कर्याम् ॥५३॥
हे राजन्! ए वखते द्वारकामां घेर-घेर महान उत्सव मनाववामां आव्यो, कारण के त्यान्ना बधा लोकोने यदुपति श्रीकृष्णमां अनन्य प्रेम हतो ॥५४॥
त्यान्नां बधां स्त्री-पुरुषो मणिओनां चळकतां कुण्डल पहेरी आनन्द उल्लासयुक्त थई चित्र-विचित्र नवीन वस्त्रो धारण करेल वरवधूने अनेक भेटनी सामग्री उपहारमां आपी ॥५५॥
भगवान्ना लग्न वखते द्वारकामां सर्वत्र ध्वजा-पताका स्वर्ग सुधी पहोञ्चे एटलां ऊञ्चा बन्धाया, अनेक प्रकारनां फूलनां, वस्त्रोनां अने रत्नोनां तोरण बन्धायां, दरेक द्वारमां मङ्गल कलशो धराया, बारणे-बारणे दूब, धाणी वगेरे मङ्गळ वस्तुओ राखवामां आवी अने अगरुना धूप तथा दीवा थया तेथी नगरी अत्यन्त शोभवा लागी ॥५६॥
मित्र राजाओ आवेला तेना हाथीओना मदवडे मार्ग छण्टाई गया छे. प्रत्येक दरवाजे केळना स्तम्भो, सोपारीनां वृक्षो वगेरे रोपी शृङ्गार कर्यो छे. आथी पुरी घणी ज शोभायमान थई ॥५७॥
कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु अने कुन्ति देश ना राजाओ परस्पर वेर भूली जई आनन्द करवा लाग्या अने आम-तेम सम्भ्रमथी दोडता विवाहमां काम करनार माणसो साथे तेओ पण भळी गया ॥५८॥
ज्यां त्यां रुक्मिणीजीनुं भगवाने हरण कर्यानुं राजाओए साम्भळ्युं त्यारे राजाओ अने एमनी कन्याओने अत्यन्त आश्चर्य थयुम् ॥५९॥
द्वारकायामभूद् राजन् महामोदः पुरौकसाम् ॥ रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम् ॥६०॥
हे राजन्! लक्ष्मीरूपा रुक्मिणीजीनी साथे श्रीकृष्ण विवाहथी जोडाया एटले ए साक्षात् लक्ष्मीजीना पति थया. एमनां दर्शन करतां द्वारकामां नगरवासीओने बहु ज आनन्द थयो ॥६०॥
[[४८१]] इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा साधन-पेटा प्रकरणनो ज्ञान निरूपक पाञ्चमो) भगवाने रुक्मिणीजी साथे लग्न कर्युं नामनो (उत्तरार्धनो पाञ्चमो अने चालु) ५४मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां एकावनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोई पण हेतु विनाज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ५५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५२ प्रद्युम्ननी उत्पत्ति त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय६
विशेष - भगवाने स्त्रीनो स्वीकार कर्यो ए वात पूर्वाध्यायमां कही, आ पञ्चावनमां अध्यायमां प्रभुए पुत्रनो स्वीकार कर्यो ए वात कहे छे. लोकमां स्त्री पुत्रना सम्बन्धथी संसार थाय छे. दुष्टभावना संसर्गथी अर्ही श्रीकृष्णे एमने छोडाव्या छे. श्रीकृष्ण कोईने क्यांय पण जता अटकावता नथी. जेनो जे भाग होय ते तेने आपे. जो पोतानो भाग छोडी दे तो ए भगवान् स्वीकारे छे. तेथी पुत्रने शम्बर लई गयो तेने त्यां ए पुत्र न रहेतां पाछो आव्यो त्यारे भगवाने एने पुत्र तरीके स्वीकार्यो. काळे प्रद्युम्नने पुत्र नथी कर्यो. पण पोतानी इच्छाथी ए पुत्र थयो छे एवा जीवनी कामकथा अर्ही कहे छे. कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग् रुद्रमन्युना ॥ देहोपपत्तये भूयस्तमेव प्रत्यपद्यत ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - वासुदेवनो अंश काम प्रथम शिवजीना क्रोधथी बळी गयेलो तेणे पोतानो देह पाछो प्राप्त करवानी आशाथी *वासुदेवनो आश्रय लीधो ॥१॥
ईं उं ईं उं
[[४८२]]
विशेष - कामनी उत्पत्ति सम्भवे नहि, केमके काम होय तो स्त्रीमां प्रवृत्ति थाय; तेथी जगतमां कामथी प्रजोत्पत्ति थाय छे तेम कामनी उत्पत्तिमां कामनी जरूर नथी; तेथी कामनी उत्पत्तिनी वात सम्भवे नहि! एवी शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए वासुदेव भगवान्नो अंश छे. ए जीव नथी पण मोक्ष आपनार वासुदेवथी जगतनी रचना करी त्यारे बे अंश स्वरूपमान्थी नीकळ्या तेमान्थी एक अंश काम पुरुषमां रह्यो अने बीजो अंश माया स्त्रीमां रह्यो. ए बन्ने अंशे जगतने मोह कर्यो जेथी जीव भगवान्नी प्रपत्ति न करे. कामे तो बधाने मोह करतां भगवान्ना मुख्य अधिकारी रुद्रने पण छोड्या नहि. एने मोह करवा जतां ए पोतानुं शरीर खोई बेठो त्यारे भगवान्नो अवतार थयो न हतो. ज्यारे श्रीकृष्ण भूतळ उपर पधार्या त्यारे अक्षय देहनेमाटे एना द्वारा देह लईने बहार आवीश एवा विचारथी भगवान्मां तेणे प्रवेश कर्यो. ए काम गोपीजनोद्वारा श्रीकृष्णमां दाखल थयो. ए गोपीजनो प्रथम अग्निकुमार पुरुषरूप हती तेमां काम हतो; ए ज्यारे स्त्री थई गई त्यारे एमान्थी एने नीकळवुं पड्युं तेथी ए भगवान्मां पाछो आव्यो. श्रीकृष्णना *वीर्यथी जेनो जन्म छे तेवो ए काम रुक्मिणीजीमां जन्म्यो. प्रद्युम्न नामथी एनी प्रसिद्धि थई. ए कोई रीते श्रीकृष्णथी न्यून न होतो ॥२॥
विशेषः भगवान्नुं वीर्य एटले लोकमां जेम अन्नमय वीर्य होय छे तेवुं वीर्य नहि पण भगवान्नी क्रियाशक्ति ए ज वीर्य समजवुं. भगवान्ना सत्, चित् अने आनन्द ए त्रण अंशमां सत्मां क्रिया रहे छे, चित् तो काम पोते ज छे. तेने सत्नी अपेक्षा छे, सदंशमां निर्गलितरूपा केवळ क्रिया छे. ते भगवद् अंश छे तेथी एनुं प्रद्युम्न एवुं नाम थयुं छे. रुक्मिणीजीनो सम्बन्ध होवाथी आनन्द अंश पण सिद्ध छे. एनुं प्रद्युम्न नाम पड्युं. भगवान्नी इच्छा न होय तो तेनो देह अक्षय न थाय तेथी कह्युं के पिताथी कोई रीते न्यून नथी. तेथी भगवत सारूप्यने प्राप्त थया छे एम कह्युं. नारदजीए शम्बरने जईने कह्युं - ‘‘तारो शत्रु श्रीकृष्णने त्यां प्रकट्यो छे. ते दस दिवस पहेलां जो न मरे तो श्रीकृष्णनो स्पर्श थतां ए अवध्य थशे’’ ए जाणी शम्बर स्त्रीनुं रूप धारण करी सूतिका गृहमान्थी दस दिवसनो थयो नहोतो त्यां तो तेने उपाडीने एणे समुद्रमां फेङ्की दीधो, केमके एणे नारदजीना कहेवाथी एने पोतानो शत्रु मान्यो हतो. एने फेङ्की दई शम्बर पोताने घेर गयो ॥३॥
समुद्रमां पडतां कोई मत्स्य एने गळी गयो. माछीमारोए जाळमां माछलां पकड्यां तेमां ए मत्स्य शम्बरने त्यां भेट मोकल्यो. रसोई करनारा रसोडामां लई [[४८३]] गया अने एने हथियारवडे चीर्यो त्यां एना पेटमान्थी अद्भुत बाळक नीकळ्यो एने जोईने बधा आश्चर्यमां पड्या अने ए बाळक मायावतीने सोम्प्यो ॥४-५॥
ए मायावतीना चित्तमां शङ्का थई के आवो तेजस्वी बाळक मत्स्यना उदरमां केम सम्भवे! त्यां तो नारदजीए आवी ए बाळकनुं स्वरूप एनी उत्पत्ति अने मत्स्यना उदरमां आववानुं कारण एने कर्ही बताव्युम् ॥६॥
ए मायावती मोटा यशवाळी कामनी स्त्री रति हती. पतिनो देह बळी गयो हतो ते पाछो प्रकटे एनी ए प्रतीक्षा करती हती ॥७॥
एने शम्बरे रसोई-काममां राखी हती. ज्यारे आ मत्स्यना उदरथी नीकळेल बाळक काम छे एम नारदजी पासेथी तेणे जाण्युं त्यारे ए तो बाळक होवाथी एना उपर बहु स्नेह करवा लागी. पोते जेनी प्रतीक्षा करी रही छे ते पोताना पति कामदेव ज बाळकरूपे पोतानी पासे आवी गया जाणी, ‘‘देव होवाथी तुरत युवान थई जशे’’ एम जाणीने ए बाळक उपर प्रेम करवा लागी ॥८॥
श्रीकृष्णकुमार भगवान् प्रद्युम्न बहु ज थोडा दिवसोमां *युवान थई गया. तेमनुं रूपलावण्य एटलुं अद्भुत हतुं के जे स्त्रीओ तेमना तरफ जोती एमना मनमां शृङ्गार रसनुं उद्दीपन थई जतुम् ॥९॥
विशेष - सोळ वर्षे यौवननो प्रारम्भ थाय ए सामान्य नियम छे. एमां केटलाकने बार वर्षे तो केटलाकने आठ वर्षे पण यौवन प्रकटे छे. थोडा समयमां एटले आठेक वर्षे एनामां विलास प्रकट थया जे यौवनख्यापक गणाय छे. युवतीओनुं मन ज्यारे पुरुषमां सन्तुष्ट थाय छे त्यारे सर्वजनीन यौवन गणाय ए सिवाय यौवन देखाय ते अलौकिक समजवुं. हे प्रिय परीक्षित! कमलदलनां जेवा कोमल अने विशाल नेत्र, गोठण सुधी लाम्बी भुजाओ अने मनुष्य लोकमां सौथी सुन्दर शरीर! रति (मायावती) सलज्ज हास्य सहित नयन नचावीने तेमना तरफ जोती अने प्रेम भरी स्त्री-पुरुष सम्बन्धी भाव व्यक्त करती तेमनी सेवा सुश्रुषामां लागी रहेती ॥१०॥
श्रीकृष्णनन्दन *भगवान् प्रद्युम्ने तेना भावोमां परिवर्तन जोई कह्युं ‘‘देवी! तमे तो मारी माता तुल्य छो. तमारी बुद्धि अवळी केम थई गई छे? हुं जोउं छुं के तमे मातानो भाव छोडी कामिनीना जेवा हावभाव देखाडी रह्यां छो’’ ॥११॥
विशेष - अर्ही ‘भगवान्’ शब्द प्रयोज्यो छे ते धर्म पर छे. श्रीकृष्णनो पुत्र कह्यो तेथी सदानन्दनो अंश पण सदानन्द होय एम बताववामाटे छे. ‘माता’ एम सम्बोधन आप्युं ए [[४८४]] तो बालक होवाथी एने सम्बन्धनुं अज्ञान छे तेथी ए शब्द वापर्यो छे. व्यवहारमां पालन करनारी माता कहेवाय छे. आ सम्बोधनथी एम पण जणाव्युं के कामसहज धर्म विरोधी पण छे. एम न होय तो जेने माता कही तेनो सङ्ग न थई शके. अथवा आ लौकिक भाषा छे तेथी पारमार्थिकमां विरोध नथी. माता पोतानुं अने बीजानुं मान जाळवे छे पण विवृताङ्गमां मान रही शक्तुं नथी. तेथी सर्व प्राणीओने माता रक्षणीय छे; माटे अर्ही मातृभावने बदले कामिनीभाव जोई प्रद्युम्नने शङ्का थई ते योग्य छे. रतिए कह्युं - प्रभो! आप स्वयं भगवान् श्रीकृष्णना पुत्र छो. शम्बरासुर आपने सूतिका गृहमान्थी चोरीने लई गयो हतो. आप मारा पति स्वयं कामदेव छो अने हुं आपनी सदानी धर्मपत्नी रति छुं. आपने हजु दस दिवस पण थया न हता त्यां आ शम्बरे आपने दरियामां फेङ्की दीधा. हे प्रभो! आपने मत्स्य गळी गयो. ए मत्स्य अर्ही रसोडामां आव्यो. तेमान्थी आप नीकळ्या अने मने प्राप्त थया छो ॥१२-१३॥
आ शम्बर जिताय नहि तेवो, पासे न जई शकाय तेवो, सो मायाने जाणनारो आपनो शत्रु छे. आप मोहनादि मायावडे एने मारी नाखो ॥१४॥
हे स्वामी! (पोतानुं सन्तान) आपना गुम थई जवाथी आपनी माता पुत्रस्नेहथी व्याकुल थई रही छे. ते आतुर थई अत्यन्त दीनताथी रात-दिवस चिन्ता करी रही छे. पोतानुं बच्चुं खोवाई जवाथी टिटोडी पक्षीनी जेवी दशा थाय, वाछडुं खोवाई जतां बिचारी गायनी जेवी दशा थाय तेवी दशा आपनी मातानी थई रही छे ॥१५॥
महात्मा प्रद्युम्न साथे आटली वात करी मायावतीए एने सर्व मायानो नाश करनारी महामायारूपी विद्या शीखवी ॥१६॥
प्रद्युम्ने शम्बर पासे आवी युद्धनी मागणी करी, न सहन थाय एवा एनी उपर आक्षेप मूक्या एनो तिरस्कार कर्यो अने एनी साथे मोटो कजियो कर्यो ॥१७॥
कटु वचनोथी शम्बरनो प्रद्युम्ने तिरस्कार कर्यो त्यारे सर्पने जेम कोई लात मारे अने ते खावा दोडे तेम, शम्बर क्रोधथी लाल नेत्र करी हाथमां गदा लईने बहार नीकळ्यो ॥१८॥
तेणे पोतानी गदा जोरथी घुमावी अने महात्मा प्रद्युम्न उपर र्झीकी. गदा मारती वखते तेणे वीजळीना गडगडाट करतां पण वधारे भयङ्कर सिंहनाद कर्यो [[४८५]] ॥१९॥
भगवान् प्रद्युम्ने भारे वेगथी पोताना तरफ आवती गदाने पोतानी गदाना प्रहारथी पाडी दीधी अने गुस्सामां गर्जना करी पोतानी गदा तेना उपर चलावी ॥२०॥
मयदानवे बतावेली मायानो आश्रय करी शम्बरासुर आकाशमां चाल्यो गयो अने प्रद्युम्न उपर अस्त्र-शस्त्रोनो वरसाद वर्षाववा लाग्यो ॥२१॥
महारथी प्रद्युम्न उपर भारे अस्त्रवर्षा करी शम्बरासुर ज्यारे तेने पीडा पहोञ्चाडवा लाग्यो त्यारे रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्ने समस्त मायाओने शान्त करी (निष्फळ बनावी) देनारी सत्वमयी महाविद्यानो प्रयोग कर्यो ॥२२॥
त्यारे दैत्य यक्ष, गन्धर्व, पैशाच, नाग अने राक्षसो वगेरेनी जुदी-जुदी सेङ्कडो मायाओ प्रद्युम्न उपर अजमावी पण ते बधी मायाओने प्रद्युम्ने उडावी दीधी. (केमके एणे प्रथम बधी मायाओनो अभ्यास मायावती पासेथी करी लीधो छे) ॥२३॥
पछी एक तीक्ष्ण खड्ग उगामी शम्बरासुरनुं कुण्डल अने किरीट सहित लाल दाढी-मूछवाळुं माथुं धडथी उडावी दीधुम् ॥२४॥
देवताओ पुष्पोनी वृष्टि करी स्तुति करवा लाग्या. त्यारबाद मायावती रति, जे आकाशमां चालवानुं जाणती हती, पोताना पति प्रद्युम्नने आकाशमार्गथी द्वारकापुरीमां लई गई ॥२५॥
जेम वीजळी साथे मेघ आकाशमार्गे आवी पहोञ्चे तेम हे राजन्! पोतानी पत्नी साथे प्रद्युम्ने आकाशमार्गे हजारो श्रेष्ठ रमणीओ युक्त भगवान्ना उत्तम अन्तःपुरमां प्रवेश कर्यो ॥२६॥
अन्तःपुरनी स्त्रीओए जोयुं के प्रद्युम्ननुं शरीर वर्षाकालीन मेघना जेवुं श्याम छे. तेणे रेशमी पीताम्बर धारण करेलुं छे, गोठण सुधी लाम्बी भुजाओ छे, रतनाळां नेत्र छे अने सुन्दर मुख उपर मन्द-मन्द हास्यनी अनूठी छटा छे. मुखारविन्द उपर वाङ्कडिया वाळोनी श्याम लटो एवी रीते शोभी रही छे के मानो भमरा खेली रह्या होय. ते बधां तेने श्रीकृष्ण समजीने शरमाई गयां अने घरोमां ज्यां-त्यां सन्ताई गयाम् ॥२७-२८॥
पछी धीमे-धीमे झीणवटथी जोतां तेमने जणायुं के बन्नेमां थोडी विलक्षणता (फरक) तो छे ज. एटले तेमने अत्यन्त आनन्द थयो, (पोताना पुत्रने जोईने जेवो [[४८६]] भाव थाय तेवा) पवित्र स्मित साथे स्त्रीरत्नयुक्त प्रद्युम्न पासे तेओ गयाम् ॥२९॥
ए ज वखते काजळकाळां नेत्रोवाळां प्रियभाषिणी भक्त रुक्मिणीजी त्यां आवी पहोञ्च्या. आ दम्पतीने जोतां ज तेने पोताना खोवाई गयेल पुत्रनी याद आवतां वात्सल्य स्नेहनी अधिकताथी तेमनां स्तनोमान्थी दूध स्रववा लाग्युं॥३०॥
रुक्मिणीजी विचार करवा लाग्यां ‘‘आ *नररत्न कोण छे? आ कमलनयन कोनो पुत्र छे? कई भाग्यशाळी स्त्रीए तेने गर्भमां धारण कर्यो हशे? आ कोण सौभाग्यवती पत्नी रूपे तेने प्राप्त थई छे? ॥३१॥
विशेष - प्रद्युम्नने माटे ‘नरवैडूर्यः’ शब्द मूळ श्लोकमां छे. वैडूर्यमणि श्यामपीत होय छे. नरना आकारनो वैडूर्यमणि होय ए पण चेतन होय तो ए प्रद्युम्न जेवो ज होय. मारो पण एक नानकडो पुत्र खोवाई गयो हतो. कोण जाणे कोण एने सूतिकागृहमान्थी उपाडी गयुं! जो ए क्यांय जीवतो होय तो तेनी अवस्था तथा रूप पण आना जेवां ज थयां हशे ॥३२॥
मने तो ए वातथी अत्यन्त आश्चर्य थाय छे के आने भगवान् श्यामसुन्दरना जेवुं रूप, अङ्गो, चाल, अवाज, हास्य अने दृष्टि (ए छ) क्यान्थी प्राप्त थयां? ॥३३॥
मानो न मानो पण आ ए ज बाळक छे जेने में मारा गर्भमां धारण कर्यो हतो. कारण के कुदरती रीते ज मारा हृदयमां तेनेमाटे प्रेमनो उभरो आवे छे अने मारी *डाबी भुजा फरकी रही छे ॥३४॥
विशेष - पुरुषनी जमणी भुजा अने स्त्रीनी डाबी भुजा फरके ते कोई अत्यन्त प्रियनुं परम आनन्ददायक समालिङ्गन सूचवे छे. एवो तो पुत्रज होय. जे वखते रुक्मिणीजी आ प्रमाणे विचार करी रह्यां हतां त्यारे पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण पोतानां माता-पिता देवकीजी अने वसुदेवजी नी साथे त्यां पधार्या ॥३५॥
भगवान् श्रीकृष्ण तो बधुं जाणता हता परन्तु आप कंई बोल्या नहि. एटलामां नारदजी त्यां आवी पहोञ्च्या अने तेमणे शम्बरासुरद्वारा हरणथी माण्डीने बधी हकीक्त कही सम्भळावी ॥३६॥
नारदजीद्वारा आ महान आश्चर्यकारक घटना साम्भळीने भगवान् श्रीकृष्णना अन्तःपुरनी स्त्रीओने महान आश्चर्य थयुं अने घणां वर्षो सुधी खोवाई गयेला [[४८७]] अने हवे पाछा मळेला प्रद्युम्नने उमळकाथी अभिनन्दन आपवा लाग्यां. (सापत्न्य भावथी कोईए एनो विरोध न कर्यो) ॥३७॥
देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान् श्रीकृष्ण, बलदेवजी अने स्त्रीओए ते नवदम्पतीने हृदय सरसां चाम्प्यां अने तेओ खूब आनन्दित थयां पण ए बधान्ने जेटलो आनन्द थयो तेथी अधिक आनन्द एकलां रुक्मिणीजीने तेमने भेटवाथी थयो ॥३८॥
गुम थयेल प्रद्युम्नने पाछो आवेलो जाणीने द्वारकावासीओ परस्पर कहेवा लाग्या, ‘‘ओहो! बाळक खोवाई गयो हतो ते भाग्य योगे आटलां वर्षे पाछो आव्यो ए परम सौभाग्यनी वात छे’’ ॥३९॥
यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावास्तन्मातरो यदभजन् रह रूढ भावाः। चित्रं न तत् खलु रमास्पदबिम्बबिम्बे कामे स्मरेऽक्षिविषये किमुतान्यनार्यः ॥४०॥
हे परीक्षित! प्रद्युम्ननुं रूप भगवान् श्रीकृष्णने एटलुं बधुं मळतुं आवतुं हतुं के तेने जोईने तेनी माताओ पण तेने पोताना पतिदेव श्रीकृष्ण समजीने मधुरभावमां मग्न थई वारंवार एकान्तमां चाल्यां जतां हतां. श्रीनिकेतन भगवान्ना प्रतिबिम्बस्वरूप कामावतार भगवान् प्रद्युम्न प्रत्यक्ष नजर सामे आवतां एम थाय ए कोई आश्चर्यनी वात नथी. पछी तेने जोईने बीजी स्त्रीओनी विचित्र दशा थई जती एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥४०॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना त्रीजा
साधन-पेटा प्रकरणनो वैराग्य निरूपक छठ्ठो) ‘‘प्रद्युम्ननी उत्पत्ति’’
नामनो (उत्तरार्धनो छठ्ठो अने चालु) पञ्चावनमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां बावनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही
ते तो भगवान् जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने
मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज
तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?)
गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.
ईं उं ईं उं
[[४८८]]
अध्याय ५६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.५३ जाम्बवती अने सत्यभामानीसाथेश्रीकृष्णनो विवाह त्रीजा राजस प्रकरणनुं त्रीजुं साधन प्रकरण अध्याय७
विशेष - पोते काम साथे विवाह करे तो ‘तामस’ कहेवाय. एवो विवाह आ छप्पनमां अध्यायमां जाम्बवतीनो कहेवाशे. एना प्रसङ्गथी सत्यभामानो सात्विक विवाह कहे छे. ए बन्ने विवाह कलह उत्पन्न करीने भगवाने करेला. क्लेशनी निवृत्तिने माटे अर्ही ‘चौर्य’ कहेवाय छे. सत्राजिते वाचिक अभिशाप आप्यो त्यारे भगवाने गुफामां प्रवेश करी जाम्बवान साथे कायिक युद्ध कर्युं. ए कायिक अने वाचिक कार्यना परिणामे जाम्बवती अने सत्यभामा प्राप्त थयां अने अपराध करनार भगवत्सम्बन्धी थयां. जाम्बवती, सत्यभामा अने रुक्मिणीजी ए त्रण गुणरूप पटराणीओ छे. रुक्मिणीजी रजोगुण, जाम्बवती तमोगुण अने सत्यभामा सत्वगुण छे. रुक्मिणीजी अने जाम्बवतीने पराणे क्लेश करीने लाववामां आव्यां छे. माटे तेमनो विवाह सात्विक नहि. त्यारे पञ्चविद्याना पर्वरूप पाञ्च विवाहिताओ छे. कृपाथी हजारो साथे भगवाने विवाह कर्या छे. सात विवाह कामने लईने कर्या; एक विधिथी कर्यो. ते बधामां आ अध्यायमां भगवान्ना बे विवाहनी वात कहे छे. सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः ॥ स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सत्राजिते श्रीकृष्णना उपर जुठ्ठुं कलङ्क लगाव्युं हतुं. तेथी ते अपराधमान्थी छूटवामाटे तेणे पोते स्यमन्तक मणि सहित पोतानी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णने सोम्पी दीधी ॥१॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - ‘‘हे भगवन्! सत्राजिते भगवान् श्रीकृष्णनो शो अपराध कर्यो हतो? तेने स्यमन्तक मणि क्यान्थी मळ्यो हतो? अने तेणे पोतानी *कन्या श्रीकृष्णने केम आपी?’’ ॥२॥
विशेष - सत्यभामा सत्राजितनी ‘औरस’ कन्या न हती पण ए सूर्यथी ज वरदानमां मळेली हती. ए सरस्वतीना अथवा भूमिना अंशरूप हती. तेनी साथे भगवाने लग्न कर्युं तेथी ते स्वगोत्रनी कन्या थती नथी; तेथी विवाह करवामां कांई वान्धो नथी. सत्यभामा सूर्य पासेथी सत्राजितने मळ्यानी कथा पुराणान्तरमां छे. [[४८९]] श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! सत्राजित सूर्यना मोटा भक्त हता. तेनी भक्तिथी प्रसन्न थई (परम उदार) सूर्य भगवान् तेना मित्र बनी गया हता. तेमणे प्रसन्न थई तेने स्यमन्तक मणि आप्यो हतो ॥३॥
हे राजन्! सत्राजिते ए मणि कण्ठमां पहेर्यो त्यारे ए सूर्य जेवो तेजस्वी थई द्वारकामां आव्यो त्यारे अत्यन्त तेजस्विताने लीधे लोको तेने ओळखी शक्या नहि ॥४॥
दूरथी ज तेने जोई लोकोनी आङ्खो तेना तेजथी अञ्जाई गई. लोको समज्या के कदाच भगवान् सूर्य आवी रह्या छे. ते लोकोए भगवान्नी पासे आवी आपने आ समाचार आप्या. ते वखते भगवान् श्रीकृष्ण चोपाट रमता हता ॥५॥
लोकोए कह्युं ः‘‘हे शङ्ख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुनन्दन गोविन्द! आपने नमस्कार हो ॥६॥
हे जगत्पते! जुओ, पोतानां चमक्तां किरणोथी लोकोनां नेत्रोने आञ्जी नाखता उष्णरश्मि भगवान् सूर्य आपनां दर्शन करवा आवी रह्या छे ॥७॥
हे प्रभो! श्रेष्ठ देवताओ त्रिलोकीमां आपनी प्राप्तिनो मार्ग शोधता रहे छे पण ते तेमने मळतो नथी. आज आपने यदुवंशमां छुपायेला जाणी साक्षात् सूर्यनारायण आपनां दर्शन करवा आवी रह्या छे’’ ॥८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - कमळनेत्र भगवान् अज्ञानी पुरुषोना आ वचन साम्भळी हस्या अने बोल्या के ए सूर्यदेव नथी पण सत्राजित छे. एणे मणि पहेर्यो छे तेथी प्रकाशवाळो देखायछे ॥९॥
जेमां मङ्गल कलश धर्या छे, ध्वजा पताका बान्ध्या छे एवा पोताना समृद्ध घरमां सत्राजित आव्यो अने एमां ब्राह्मणोद्वारा विधिवत् मणिनी देवमन्दिरमां स्थापना करवामां आवी ॥१०॥
ए मणि हमेशां आठ भार (पाञ्च मणनो भार थाय तेवा आठ भार एटले चालीश मण सोनुं ए मणि हमेशां आपतो हतो.) सोनुं आपतो. दुकाळ, कोलेरा, मरकी वगेरे रोगो, बीजा आधि-व्याधिओ, अशुभ स्वप्नो, राक्षसो, पूतना (अविद्या) वगेरे मणिनुं पूजन थतुं होय त्यां पोतानो प्रभाव फेलावी शक्तां नथी ॥११॥
एकवार *प्रसङ्गवश भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं, ‘‘सत्राजित! तमे तमारो मणि [[४९०]] राजा उग्रसेनने आपी दो’’ पण ए एटलो लोभी हतो के भगवान्नी आज्ञानुं उल्लङ्घन थशे तेनो कंई विचार कर्या विना तेणे भगवान्नुं कह्युं मान्युं नहि ॥१२॥
विशेष - अयोग्य पुरुषमां महान धर्म योग्य नथी एम विचारी, आ मणिथी सत्राजितनो नाश थशे, पोतानी पुरीमां तेनो नाश थाय ए ठीक नर्ही, बीजा देवोनुं भगवत्पुरीमां कंई सामर्थ्य न चाले, बीजा देवोनी महेरबानी पण व्यर्थ छे तेना बन्ने लोकनी सिद्धिमाटे, मणिमान्थी जेटलुं द्रव्य उत्पन्न थायछे तेटलुं द्रव्य जमीन-जागीरद्वारा तेने प्राप्तथईरहे तेवी व्यवस्थाना बदलामां सत्राजित मणि उग्रसेनने आपी दे एवी दरखास्त प्रसङ्गवशात् भगवाने सत्राजित आगळ मूकी. *एक दिवस सत्राजितना भाई प्रसेने ते अत्यन्त प्रकाशमय मणिने गळामां धारण करी लीधो अने घोडा उपर सवार थई एकलो शिकार खेलवा वनमां चाल्यो गयो ॥१३॥
विशेष - तेने सिद्ध अर्थ ज जोईए छे, मृत्युनुं निराकरण नहि. एटले तेणे आ वात सूर्यने कही. तेनाद्वारा उपद्रव कराववानी युक्ति रची जेथी फरीने मणिनी मागणी करे ज नहि. आम भगवान्नी आज्ञानो भङ्ग अने अपकार बे दोष थया. पण नुकसान पोताने ज थयुं अने वधारामां आज्ञाभङ्गनुं फल-तेनुं मृत्युं थयुं. एटलुं ज नहि पण भगवद्भाव रहित मणिनुं परिणाम अनर्थमां आव्युं अने भगवद् आज्ञाना उल्लङ्घनथी तदीयोनी बुद्धि ज भ्रष्ट थई गई. भगवद्धर्मो भक्तोनेज उपकारक होय छे. सूर्यना भक्त सत्राजितेज पहेरवानो पूज्य मणि, अभक्त प्रसेने तेने सामान्य मणि गणीने कण्ठमां पहेर्यो. त्यां एक केसरी (सिंह) मळ्यो. तेणे घोडाने अने प्रसेनने मारी नाख्या अने तेजस्वी मणि लई गयो. सिंह हजु पर्वतमां जतो ज हतो त्यां जाम्बवाने एने जोयो अने मणिनी इच्छाथी सिंहने मारी नाख्यो ॥१४॥
ए पोताना कोतर (गुफा) मां गयो अने प्रकाशमान मणिने पोताना कुमारने रमवा आप्यो. सत्राजिते मणि सहित भाईने न जोयो त्यारे तेने बहु दुःख थयुं ॥१५॥
‘‘मने घणुं करीने एम लागे छे के श्रीकृष्णे ए मणि मारी पासे माग्यो हतो, में एमने आप्यो नहि तेथी श्रीकृष्णे मारा भाईने मारीने ए मणि लई लीधो. नहि तो ए क्यां जाय?’’ एम सत्राजित बोल्यो. ए वात कर्णोपकर्ण बधा गुप्त रीते कहेवा लाग्या. ए वात भगवान् सुधी पहोञ्ची ॥१६॥
[[४९१]] भगवाने विचार कर्यो के ‘‘अमे मणि लीधो नथी छतां एणे चोरीनो आरोप अमारीउपर लगाव्यो; आ दुर्यश दूर थवो जोईए’’ एम विचारी भगवान् केटलाक सभ्य लोकोने साथे लई प्रसेननो राह (मार्ग) जोता एनी शोधमां नीकळ्या ॥१७॥
वनमां केसरी सिंहे मारेला घोडा अने प्रसेनने जोया. एने कोई र्रीछे पर्वतमां मार्यो हतो तेने लोकोए जोयो ॥१८॥
र्रीछनुं कोतर हतुं त्यां घोर अन्धारुं छाई रह्युं हतुं. तेमां भगवान् पोते एकला ज पेठा. साथे माणसो हता तेमने कोतरनी बहार बेसाडी राख्या ॥१९॥
भगवान् अन्दर कोतरमां पहोञ्च्या त्यां रमकडा तरीके वपराता मणिने बाळकना हाथमां जोयो. एनी पासेथी मणि लेवानी इच्छाथी भगवान् बाळक पासे जरा उभा रह्या ॥२०॥
त्यां तो बाळकने रमाडनारी धात्री अजाण्या पुरुषने जोईने भय पामीने बूमो पाडवा लागी. ए साम्भळतां ज परम बली जाम्बवान् क्रोध करीने त्यां आवी पहोञ्च्या ॥२१॥
जाम्बवान् पोताना स्वामी भगवान्नी साथे एमने प्राकृत माणस जाणी युद्ध करवा लाग्या पण एमना प्रतापने ए कांई जाणी शक्या नहि ॥२२॥
जेवी रीते मांसने माटे बे बाज पक्षी आपसमां लडे छे तेवी रीते विजय मेळववानी अभिलाषावाळा भगवान् श्रीकृष्ण अने जाम्बवाने आपसमां भयङ्कर युद्ध मचावी दीधुं. पहेलां तो तेमणे अस्त्र-शस्त्रोनो प्रहार कर्यो, पछी शिलाओनो, पछी तो तेओ वृक्षो उखाडी-उखाडी एक बीजा उपर फेङ्कवा लाग्या. अन्तमां बन्ने वच्चे बाहु युद्ध थवा लाग्युम् ॥२३॥
हे परीक्षित! वज्र प्रहारना जेवी कठोर मूठीओथी परस्पर तेओ अठ्ठावीस दिवस सुधी रात-दिन विश्राम कर्या विना सतत लडता रह्या ॥२४॥
अन्ते भगवान् श्रीकृष्णनी मूठीओना प्रहारथी जाम्बवान्ना शरीरनां बन्धन शिथिल थई गयां एनुं बळ घटी गयुं (धैर्य अने उत्साह जता रह्यां) शरीरमां पसीनो आवी गयो. त्यारे तेणे अत्यन्त विस्मय (विस्मय एटला माटे थयो के जगतमां बळमां मारो बरोबरियो पण कोई पाक्यो नहि तो पछी माराथी वधारे बळवान आ वळी कोण?) पामीने भगवान् श्रीकृष्णने कह्युंः ॥२५॥
हे प्रभो!हुं जाणी गयो के आप ज समस्त प्राणीओना (काळरूप) नियन्ता, [[४९२]] रक्षक, पुराणपुरुष, (पुरुषोत्तम), भगवान् विष्णु छो. आप ज बधाना प्राण, इन्द्रिय, बल, मनोबल अने शरीरबल छो ॥२६॥
विश्वने पेदा करनार तत्वोना आप उत्पादक छो. घटादि पदार्थोमां सत्स्वरूपे आप छो. महादेव वगेरेनो उपसंहार करनार काळ आप छो. सर्व जीवोना फलरूप मोक्षरूप आप छो ॥२७॥ (श्लोक २७ मां बे पाठ छे - १. परमात्मा तथात्मनाम् २. पर आत्मा तथात्मनाम्। बीजा पाठमां पर ए सम्बोधन छेःहे अन्तर्यामी (प्रभो)!) हे प्रभो! मने याद आवे छे आपे आपनां नेत्रोमां, नहि जेवा, जराक ज, क्रोधना भावथी-वक्रदृष्टिथी समुद्र तरफ जोयुं हतुं. ते वखते समुद्रमान्ना मगरो अने मोटा-मोटा मगरमच्छो फफडी ऊठ्या हता अने समुद्रे आपने मार्ग आपी दीधो हतो. त्यारे आपे तेना उपर सेतु बान्धी पोताना यशनी साथे-साथे लङ्काने पण विश्वमां प्रख्यात करी तेनो यश वधार्यो हतो. (‘उज्ज्वलिता’-१. लङ्कानी साथे पोतानुं नाम जोडी तेनो यश उज्ज्वल कर्यो. २. लङ्काने बाळी.)(कारण के राक्षसोनां बीजां स्थानोने कोई ज जाणतुं पण नथी) आपना बाणोथी कपाई-कपाईने राक्षसोनां मस्तक पृथ्वी उपर पड्यां हतां. (अवश्य आप मारा ए ज ‘रामजी’ श्रीकृष्णना रूपमां पधार्या छो) ॥२८॥
हे महाराज परीक्षित! ज्यारे ऋक्षराज जाम्बवाने भगवान्ने ओळखी लीधा त्यारे कमलनयन श्रीकृष्णे पोतानो परम कल्याणकारी शीतल कर कमल तेना शरीर उपर फेरव्यो अने पछी अकारण कृपापूर्वक प्रेमगम्भीर वाणीथी पोताना भक्त जाम्बवान्जीने कह्युम् ॥२९-३०॥
‘‘हे ऋक्षपति! आ मणि निमित्ते अमारा उपर खोटुं आळ चड्युं छे ते दूर करवामाटे अमे मणि लेवा तमारा कोतरामां आव्या छीए’’ ॥३१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - (जाम्बवान्जीए विचार्युं के मागेलुं तो बधाय आपे. मात्र मागेलुं आपवाथी पोतानुं सेवकपणुं न गणाय एटले) भगवाने ज्यारे आ प्रमाणे कह्युं त्यारे जाम्बवाने बहु ज आनन्दपूर्वक आपनी पूजा करवामाटे पोतानी कन्या, कुमारी जाम्बवतीजीने मणि साथे आपना चरणोमां समर्पित करी लीधी ॥३२॥
गुफानी बहार जे नागरिको राखवामां आव्या हता तेओ बार दिवस भगवान्नी प्रतीक्षा करी भगवान् गुफामान्थी न आव्या त्यारे दुःखी थईने नगरमां [[४९३]] पाछा आव्या ॥३३॥
देवकीजी, वसुदेवजी, रुक्मिणीजी अने बीजा सुहृदो एमनी वात साम्भळी, श्रीकृष्ण गुफामान्थी न नीकळ्या जाणी, घणां दुःखी थया ॥३४॥
बधा द्वारकावासीओ अत्यन्त दुःखी थई सत्राजितने विषे कहेवा लाग्या, ‘‘आ दुरात्मा छे तेना भाई प्रसेननी माफक ए पण मरी जाओ’’ अने भगवान् श्रीकृष्णनी प्राप्तिमाटे महामाया दुर्गादेवीनी उपासना करवा लाग्या ॥३५॥
तेमनी उपासनाथी देवीना आशीर्वादनी साथे जेणे बधाने प्राण पण आप्या छे तेवा सिद्धार्थ भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी नववधू जाम्बवतीजी साथे बधाने प्रसन्न करता प्रकट थई गया ॥३६॥
गया हता ते ज पाछा आवेला भगवान्ने अने जेणे कण्ठमां मणि पहेर्यो छे तेवी एमनी पत्नीने जोईने बधा द्वारकावासीओ परमानन्दमां मग्न थई गया ॥३७॥
उग्रसेन राजानी सभामां सत्राजितने बोलावी मणि केम मेळव्यो एनो इतिहास एने सम्भळावी एनो मणि श्रीकृष्णे एने आपी दीधो* ॥३८॥
विशेष - जे वस्तुमां बीजानी आसक्ति होय ते वस्तु भगवान् बिलकुल अङ्गीकार करता नथी तेथी भगवाने पोते ते मणि राख्यो नहि. जे सम्पूर्ण रीते शरणे न आव्यो होय तेनो पण प्रभु अङ्गीकार करता नथी. महाभारतना युद्ध पहेलां दुर्योधन सहायनी याचना करवामाटे द्वारका भगवान् श्रीकृष्णनी पासे गयो खरो पण शरणागतिनी भावना विना. ज्यारे अर्जुन सम्पूर्ण शरणागतिनी भावना साथे गयेल. अर्जुनने भगवाने ‘पोताना’ तरीके अपनाव्यो ज्यारे दुर्योधनने भगवाने सैन्यनी सहाय करी खरी छतां दुर्योधननो नाश ज थयो. मणि तो सत्राजिते लई लीधो पण तेने अत्यन्त लज्जा आवी तेथी ए मुख नीचुं करी गयो अने पोताना पापथी मनमां पश्चात्ताप करतो जेम तेम पोताने घेर पहोञ्च्यो ॥३९॥
एमान्थी वखते मोटो कलह पेदा थाय एवा विचारथी ए व्याकुल थयो अने पोते श्रीकृष्ण उपर खोटुं दोषारोपण कर्युं एनुं ध्यान करवा लाग्यो - ‘‘मारा पापने हुं केम धोई नाखुं अने श्रीकृष्ण मारी उपर प्रसन्न केम थाय’’ ए विचारमां ए पड्यो ॥४०॥
‘‘खरेखर हुं टूङ्की दृष्टिवाळो, क्षुद्र, मूढ अने द्रव्य नो लोभी छुं. बधा माणसो [[४९४]] मने गाळो देता बन्ध केम थाय? मारुं कल्याण केवी रीते थाय?’’ एवुं ए विचारवा लाग्यो ॥४१॥
‘‘स्त्रीमां रत्नरूप आ मारी कन्या सत्यभामाने अने एनी साथे आ स्यमन्तक मणि हुं श्रीकृष्णने अर्पण करुं. आ उपाय श्रीकृष्णने प्रसन्न करवा बहु सारो छे. एनी शान्ति बीजी कोई रीते थई शकशे नहि’’ ॥४२॥
एम विचार करी सत्राजिते पोतानी सुन्दर कन्या अने मणि लईने श्रीकृष्ण पासे जईने एमने भेट तरीके अर्पण कर्याम् ॥४३॥
सत्यभामा शील, स्वभाव, सुन्दरता, उदारता वगेरे गुणोथी सम्पन्न होवाथी एनी बहु लोकोए पहेलां मागणी करेली छतां हवे ए सत्यभामाने भगवान् विधिवत् परण्या ॥४४॥
भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप ॥ तवास्तु देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः ॥४५॥
हे राजा परीक्षित! भगवाने कह्युं के अमे स्यमन्तक मणि नहि लईए. आप सूर्यना भक्त छो तेथी ए तमारे लायक छे. तमारी पासे ए रहेशे. एनुं फल अमने पण मळशे केमके ससराना धननो भोक्ता जमाई होई शके छे ॥४५॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजसप्रकरणना त्रीजा साधन-पेटाप्रकरणनो धर्मीरूप सातमो) ‘‘जाम्बवती अने सत्यभामानी साथे श्रीकृष्णनो विवाह’’ नामनो (उत्तरार्धनो सातमो अने चालु) छप्पनमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां त्रेपनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. त्रीजा राजसप्रकरणनुं त्रीजुं साधनप्रकरण सम्पूर्ण थयुं आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए
ईं उं ईं उं
[[४९५]]
अध्याय ५७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५४ राजस फल प्रकरण मणिनिमित्ते सत्राजित अने शतधन्वानो वध त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय१
विशेष - प्रमाणरूप निरोध सात अध्यायथी कह्यो, प्रमेयरूप निरोध सात अध्यायथी आ प्रकरणमां कहे छे. शत्रु, मित्र अने उदासीननुं फळ अर्ही कहेवाय छे. जेम तामसनुं फळ काम कह्युं तेम अर्ही राजसनुं फळ क्रोध कहेशे. एमां राजसनो जय विशेषरूपमां कहेवाशे. भगवद् धर्मवडे भगवान् धर्मीवडे, बलदेवजीथी अने यादवोथी एम चार प्रकारे जय कहेवाशे. ते राजसनो निरोध करनार थशे. एमां आ सत्तावनमां अध्यायमां सत्राजित, शतधन्वा अने अक्रूरने भगवाने जीत्या एटली वात कहे छे. एटले भगवान्नी इच्छा हती ते प्रमाणे एनाथी कार्य थयुं. विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान् ॥ कुर्न्ती च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवान् श्रीकृष्ण बधी वात जाणे छे तो पण आपे ज्यारे साम्भळ्युं के कुन्ताजी तथा पाण्डवो लाक्षागृहमां बळ्यां त्यारे ते समयनो कुलपरम्परोचित व्यवहार करवाने माटे बलदेवजी साथे आप हस्तिनापुर पधार्या ॥१॥
त्यां जईने भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुरजी, गान्धारी अने द्रोणाचार्यजीने मळी तेमनी पासे समवेदना-सहानुभूति बतावी अने ते लोकोने कहेवा लाग्या, ‘‘अहो! आ बहु दुःखजनक घटना बनी’’ ॥२॥
भगवान् द्वारकाथी पधार्या ए समयनो लाभ लई अक्रूर अने कृतवर्मा शतधन्वाने मळ्या अने हे राजन्! एने कह्युं, ‘‘तुं सत्राजित पासेथी मणि शा माटे छीनवी लेतो नथी? ॥३॥
जेणे कन्या रत्न आपवानुं आपणने वचन आपेलुं छतां न आपी. आपणो तिरस्कार करी कृष्णने आपी तो एना भाई प्रसेननी जेम एनुं मृत्यु पण केम थवुं न जोईए? ॥४॥
[[४९६]] एम बन्नेए शतधन्वानी बुद्धिमां भेद कराव्यो त्यारे ए *दुष्टतम पापी तो हतो ज अने अल्प आयुष्य जेनुं बाकी छे तेवा एणे मणिना लोभना कारणे ज्यां निरपराधी सत्राजित सूतो हतो त्यां जई एने ए पापीए मार्यो ॥५॥
विशेष - देवोमां पण जेम एक कलि अधम छे तेम यादवोमां शतधन्वा छे. तेने माटे मूल श्लोकमां असत्तम-दुष्टोनो शिरोमणि शब्द वापर्यो छे. अक्रूर असत्-दुष्ट छे, कृतवर्मा- असत्तर-वधारे दुष्ट छे. अने शतधन्वा-असत्तम-सौथी वधारे दुष्ट छे. अनाथनी जेम स्त्रीओ आक्रोश करवा लागी छतां कसाई पशुने मारे एम सत्राजितने मारी नाखी मणि लई शतधन्वा चालतो थयो ॥६॥
पिताजीने मरेला जोई सत्यभामा बहु शोक करवा लाग्यां अने मोहमां पडीने ‘‘हे तात! हा, हतास्मि (हाय, हुं मारी गई)’’ वगेरे वचन बोली विलाप करवा लाग्याम् ॥७॥
पिताजीना शरीरने तेलनी कोठीमां राखी ‘‘शतधन्वाए पिताजीने मार्या’’ एम कहेवामाटे हस्तिनापुरमां पोताना पति श्रीकृष्ण छे त्यां गयां. जो के भगवान् तो बधुं जाणनार छे ॥८॥
राम-कृष्ण एमनी वात साम्भळीने, हे राजन्! लोकने अनुसरीने ‘‘आ मोटी आपत्ति आवी, आथी अमने मोटुं कष्ट थयुं’’ एम कहीने नेत्रमां अश्रुबिन्दु लावी विलाप करवा लाग्या ॥९॥
हे प्रिय परीक्षित! त्यार पछी भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी अने बलदेवजी साथे हस्तिनापुरथी द्वारका पाछा फर्या अने शतधन्वाने मारवानो अने तेनी पासेथी मणि लई लेवानो उद्योग करवा लाग्या ॥१०॥
ज्यारे शतधन्वाने समाचार मळ्या के भगवान् श्रीकृष्ण मने मारवानो उद्योग करी रह्या छे त्यारे ते बहु डरी गयो अने पोताना प्राण बचाववा तेणे कृतवर्मा पासे मदद मागी. त्यारे कृतवर्माए कह्युम् ॥११॥
‘‘भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी सर्व शक्तिमान ईश्वर छे. (अत्यार सुधी जेणे-जेणे तेमनो विरोध कर्यो छे ते दरेकने तेमणे मार्यां छे) एमनो सामनो माराथी न थई शके. भला एवो कोण हशे के जे एमनी साथे वेर बान्धी सकुशल रही शके? ॥१२॥
तमे जाणो छो के कंस तेमनी साथे द्वेष करवाने लीधे राज्यलक्ष्मी खोई बेठो [[४९७]] अने पोताना अनुयायीओनी साथे मार्यो गयो. जरासन्ध जेवा शूरवीरने पण तेमनी सामे युद्ध मेदानमां सत्तरवार हारी जई रथ विहोणा थई पोतानी राजधानीमां पाछा फरवुं पड्युं हतुं’’ ॥१३॥
ज्यारे कृतवर्माए आ रीते एने सहाय आपवानी ना पाडी त्यारे शतधन्वाए, सेनाना पृष्ठरक्षक अक्रूरने सहायतामाटे प्रार्थना करी. तेणे पण कह्युं ‘‘सर्व शक्तिमान भगवान्नुं बल-पौरुष जाण्या छतां तेमनी साथे वेर-विरोध कोण करे? ॥१४॥
जे पोतानी मायावडे आ जगतने उत्पन्न करे छे, पालन करे छे अने स्वरूपमां लीन करे छे, जेनी चेष्टाने ब्रह्मा आदि पण एनी *मायामां मोहित थईने जाणी शक्ता नथी ॥१५॥
विशेष - माया १. बधुं थवानुं सामर्थ्य २.अवर्णनीय अचिन्त्य देवी. ए मायाने पण एक करण-साधन तरीके स्वीकारी जे आ अखिल जगतने उत्पन्न करे छे, तेनुं पालन करे छे अने तेनो नाश करे छे अने ते पण लीलाथी जाणे के रमता होय तेम. ए भगवत् क्रिया पण कोई समजी शक्तुं नथी-भगवान् शुं करे छे, केम करे छे, आ सामर्थ्यनुं स्वरूप शुं वगेरे तेनुं कारण ए के तेओ अजा-प्रकृतिथी मोहित थई गयेला छे. जो कोई जाणी शक्तुं होय तो ते आत्मवञ्चना केम स्वीकारे? पोतानी जातने केम ठगे? जो अजा १. प्रकृति २. बकरीथी मोहित थई जाय ते अजाः (बकरा) ज होय बधा तेमने मारे तोय पोतानी रक्षा करवा ज शक्तिमान न होय ते सृष्टि शुं रचवाना? ‘अज’नो बीजो अर्थ ब्रह्माजी पण थाय छे. ज्यारे ते मात्र सात वर्षनी उम्मरना हता त्यारे जेम नानो बाळक बिलाडीना *टोपने उखेडी पोताना हाथमां लई ले तेम गोवर्धन पर्वतने एना स्थानथी उखेडी एक हाथमां सात दिवस सुधी लीलावडे अनायासे धारण करी राख्यो हतो ॥१६॥
विशेष - वरसादना दिवसोमां छत्री जेवा, खराब वस्तुमान्थी अङ्कुर थाय छे. ते बहु हलको होय छे तेटला अंशमां ए दृष्टान्त छे. टोपीनी आकृति जेवा होवाथी एने ‘टोप’ पण कहे छे. ऐश्वर्यादि धर्मवाळा, सदानन्द, अद्भुत कर्मवाळा, जेनो अन्त नथी तेवा, सर्वना आदिमां बिराजनार, सर्व जगतनां मूलरूप अने आत्म स्वरूप एवा आपने नमस्कार करुं छुं’’ ॥१७॥
ज्यारे आ प्रमाणे अक्रूरजीए पण स्पष्ट कह्युं अने एनुं मान न राख्युं त्यारे शतधन्वा ए मणि तेमने सोम्पी एक दिवसमां सो गाउ (आठसो माईल) चालनार घोडा उपर बेसीत्यान्थी चालतो थयो ॥१८॥
[[४९८]] राम अने श्रीकृष्ण पण मोटा वेगवाळा घोडाओ साथे गरुडना ध्वजवाळा रथ उपर बेसी ससराने मारनार शतधन्वानी पाछळ पड्या ॥१९॥
मिथिला नगरनी पासेना एक उपवनमां एनो घोडो पडी गयो. तेणे तेने त्यां ज छोडी दीधो; बहु गभराई गयेलो ते पगे दोडवा लाग्यो. भगवान् पण क्रोध करी रथने पडतो मूकी पैदळ ज दोड्या ॥२०॥
शतधन्वा पैदळ भागी रह्यो हतो तेथी भगवाने पण पैदळ ज दोडी पोताना तीक्ष्ण धारवाळा चक्रथी तेनुं माथुं कापी नाख्युं अने तेनां कपडाम्मां मणि शोध्यो ॥२१॥
मणि तो मळ्यो नहि त्यारे मणि विना श्रीकृष्ण भाई पासे आव्या अने बोल्याः‘‘शतधन्वाने वृथा मार्यो केमके मणि एनी पासेथी मळ्यो नहि’’ ॥२२॥
बलदेवजीए कह्युं - ‘‘एणे जरूर कोईनी पासे मणि राख्यो होवो जोईए माटे तमे द्वारका जई एनी शोध करो ॥२३॥
मारा परम मित्र विदेहने मळवामाटे हुं *मिथिला जईश’’ हे परीक्षित! एम कही यदुनन्दन बलदेवजी मिथिला पधार्या ॥२४॥
विशेष - श्रीकृष्ण अने बलदेवजी पृथ्वीनो भार उतारवा पधारेल छे अने लोक तो द्विस्वभाव (बे स्वभाववाळाः१.प्रवृत्ति परायण अने निवृत्ति परायण २.कर्मपरायण अने भक्ति परायण) छे. जो बन्ने श्रीकृष्ण अने बलदेवजी एक ज पक्षे रहे तो बीजो पक्ष अत्यन्त बळ जोईने निवृत्त थाय अने एने अनुकूल थईने वरते; त्यारे तो पृथ्वीनो भार एमनो एम ज रहे. तेथी लोकने जीतवामां बन्ने भाईए विरुद्ध स्वभाव बताव्यो छे. तेथी बलदेवजी विदेहनगरमां दुर्योधनने गदा शीखववा गया. भगवान्ने एमणे द्वारका मोकल्या. अर्हीथी बन्नेनी शक्तिओ जुदी पडी. तेणे लीलामां एकबीजाने सम्मति न आपी तेथी ज भगवाने कह्युं के ‘‘किन्तु मामग्रजः सम्यक् न प्रत्येति मणिं प्रति’’ ए ईश्वरशक्ति विभक्त थई एनुं वचन छे. भगवद्भक्तनी बुद्धिमां पण फेर पड्यो तेथी अक्रूर, भीष्म वगेरे पण भगवान्थी जुदा स्वभाववाळा थया छे; नहि तो बन्ने विरुद्ध न पडे तेथी भगवान्ने सम्मत नथी तेम भगवान्ना प्रकारे जेनो निरोध थयो तेवा लोको बलदेवजीने अनुकूल नथी. आ बे शक्तिना विभागथी शास्त्रनो पण विभाग थयो तेथी ‘विदेह’ पद कह्युं छे. बलदेवजीने ज्ञाननिष्ठ प्रिय छे ज्यारे श्रीकृष्णने भक्तिनिष्ठ प्रिय छे. क्रिया अने ज्ञानशक्ति एक बाजु छे त्यारे भक्ति अने परमानन्द बीजी बाजु छे तेथी बलदेवजीए विदेहने प्रियतम गण्या. एना [[४९९]] दर्शननी एमने उत्कण्ठा थई. ज्ञानपक्षमां वेदमार्ग अत्यन्त आदरणीय न होवाथी गरुडध्वज रथ भगवाने पोते राख्यो. बलदेवजी तो कोई रथवडे के पगे चाली आव्या एवो निश्चय थाय छे. अर्ही बलदेवजी नियोगकर्ता छे तेथी एमनुं चरित्र प्रथम कह्युं छे. बलदेवजीने जोईने मिथिलाना राजा अत्यन्त प्रसन्न थया अने पूजानां साधनोथी विधिवत् पूजनीय बलदेवजीनुं पूजन कर्युम् ॥२५॥
ते प्रसिद्ध मिथिलानगरीमां बलदेवजी केटलाङ्क वर्ष रह्या, छतां पोते विभुसमर्थ हता तेथी परदेशमां लाम्बो समय रहेवाथी थतो क्लेश तेमने थयो नहि. (गदा शीखवानी) योग्य *उम्मरे धृतराष्ट्रना पुत्र सुयोधने (दुर्योधने) बलदेवजी पासेथी गदायुद्धनी तालीम लीधी ॥२६॥
विशेष - अत्यन्त तरुण अने पुष्ट युवक ज गदायुद्धनी तालीमने माटे योग्य गणायो छे. योग्य उम्मर एटले ज्यारे घा जलदी रुझाई जाय, परु न थाय ते. शरदथी शरू थता छ मास. महात्मा जनके तेने (पण) मान आपीने प्रेमपूर्वक राख्यो. आ बाजु भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका पधार्या अने प्रिया सत्यभामाजीने शतधन्वाना मृत्युना तथा तेनी पासेथी मणि न मळ्यो तेना समाचार आप्या. साथे-साथे समर्थ प्रभुए सत्यभामाजीने ए वात पण समजावी के मणि न मळ्यो तेमां ज तमारुं हित (प्रिय) छे ॥२७॥
त्यार पछी श्रीकृष्णे सर्व सुहृदोनी साथे पोताना ससरा सत्राजितनी उत्तर क्रिया विप्रो पासे करावी जेथी मरनारनो परलोक सुधरे ॥२८॥
अक्रूर अने कृतवर्माए ज्यारे साम्भळ्यु के श्रीकृष्णे शतधन्वाने मारी नाख्यो छे अने लोको अक्रूर अने कृतवर्मा पासे ए मणि होवो जोईए एम कहेवा लाग्या त्यारे श्रीकृष्ण अमने मारशे एवो भय लागतां ए बन्ने द्वारका छोडीने चाल्या गया. अक्रूर द्वारकाना दानाध्यक्ष अने कृतवर्मा कोटवाल-कायदो अने व्यवस्था जाळवनार हता. (छतां श्रीकृष्णनो ताप जीरवायो नहि) ॥२९॥
हे परीक्षित! केटलाक लोको एम माने छे के अक्रूर द्वारकाथी चाल्या गया त्यार बाद द्वारकावासीओने घणी जातना अनिष्टो अने अरिष्टो (दुर्भाग्यो) नो सामनो करवो पड्यो. दैविक अने भौतिक निमित्तोथी वारंवार द्वारकावासीओने शारीरिक अने मानसिक पीडाओ वेठवी पडी. परन्तु जे लोको एवुं कहे छे ते पहेलां कहेवाई गयेली वातोने भूली जाय छे. भला! ए कदी सम्भवे खरुं के ज्यां घर करीने चिदभिमानथी [[५००]] (ज्ञानाभिमानथी) मुनि अक्रूरजी रहे त्यां तेना निवासस्थान द्वारकामां कोई उपद्रव थाय? ॥३०-३१॥
ते वखते नगरना वृद्ध अनुभवी लोकोए कह्युं ‘‘एकवार काशी राजाना राज्यमां वरसाद नहोतो थतो, दुकाळ पड्यो हतो. त्यारे तेणे पोताना राज्यमां प्रसङ्गवश आवेला अक्रूरना पिता *श्वफल्क नी साथे पोतानी पुत्री गान्दिनी परणावी दीधी एटले एना राज्यमां वरसाद थयो. अक्रूर पण श्वफल्कना पुत्र छे एने तेनो प्रभाव पण एवो छे. तेथी ज्यां-ज्यां अक्रूर रहे छे त्यां-त्यां खूब वरसाद थाय छे तथा कोई जातना कष्ट अने महामारी वगेरे उपद्रव नथी थता’’ ते लोकोनी वात साम्भळी भगवाने विचार कर्यो के ‘‘आ उपद्रवनुं एकमात्र ते ज कारण नथी’’ ते जाणवा छतां जनार्दन भगवाने दूत मोकली तेनी शोध करावी अने ते आव्या त्यारे तेनी साथे वातचीत करी ॥३२-३४॥
विशेष - काशीराजाने त्यां वृष्टि न थई तेथी ए दुःखी हतो त्यारे त्यां श्वफल्क यदृच्छाथी आव्या. महादेवजीना कहेवाथी काशीराजाए एने पोतानी गान्दिनी नामनी पुत्री आपी त्यारे वर्षा थई. गान्दिनीनी कथा एवी छे के काशी राजाए वर्ष सुधी हमेशां गोदान कर्युं त्यारे ए अपुत्र हतो तेने आ एक पुत्री थई. त्यारपछी बार वर्ष सुधी हमेशां एक-एक गाय एणे गान्दिनीना हाथे ब्राह्मणने अपावी तेथी एनुं ‘गान्दिनी’ एवुं नाम प्रसिद्ध थयुं छे. ए दम्पती ज्यां जाय त्यां एना पुण्य प्रभावथी अरिष्ट, महामारी वगेरे न थाय. एना प्रभाववाळा एना पुत्र अक्रूरजी छे. तेनामां एवो गुण छे; केवळ स्यमन्तक मणिना गुणथी सर्व उपद्रव निवृत्त थाय छे एवुं नथी. भगवाने तेनो खूब स्वागत-सत्कार कर्यो. ‘‘तमे आव्या ते बहु सारुं थयुं’’ एम कही तेनी साथे वातो करी. भगवान् दरेकना चित्तनो एक-एक सङ्कल्प जाणे छे. (तेथी ज अक्रूरे विचार कर्यो के आमनाथी कंई छूपावी शकाशे नहि अने मणि बताव्या विना छूटको नथी) भगवाने आश्चर्य अनुभवतां अने हसीने कह्युं ॥३५॥
हे दानपति अक्रूरजी! अमने पहेलेथी ज ए वातनी जाण छे के शतधन्वा आपनी पासे, नाश न थई शके तेवो श्रीमान मणि राखी गयो छे ॥३६॥
आप जाणो छो के सत्राजितने कोई पुत्र नथी. तेथी तेनी पुत्रीना पुत्रो पण तेने पिण्ड आपे, जलथी एनुं तर्पण करे, एनुं करज चूकवे त्यारे बाकी रहेला द्रव्यना [[५०१]] तेओ उत्तराधिकारी थाय ॥३७॥
आ प्रमाणे शास्त्रीय दृष्टिथी जो के स्यमन्तक मणि अमारा पुत्रोने ज मळवो जोईए छतां ते मणि भले आपनी पासे रहे, कारण के आप अत्यन्त व्रतनिष्ठ अने पवित्रात्मा छो अने बीजाओमाटे तो आ मणि राखवो पण कठिन छे. परन्तु अमारा उपर धर्म सङ्कट ए आव्युं छे के अमारा मोटाभाई बलदेवजी मणिनी बाबतमां मारी वातनो पूरो विश्वास नथी करता ॥३८॥
तेथी महाभाग्यवान् अक्रूरजी! आप ते मणि देखाडी दईने अमारा ईष्ट-मित्र बलदेवजी, सत्यभामा अने जाम्बुवतीनो सन्देह दूर करी दो अने तेमना मनमां शान्तिनो सञ्चार करो. (मणि तमारी पासे छे एनी साबिती तो ए वात ज पूरे छे के आ ज मणिना प्रतापथी काशी वगेरेमां तमे हमणां एवा यज्ञो करी रह्या छो जेमां सोनानी वेदीओ होय छे) (कौंसमान्नो अडधो श्लोक ओगणचालीसमानो उत्तरार्ध विगीत-अप्रस्तुत छे.) ॥३९॥
आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्णे तेने सान्त्वन दई समजाव्या त्यारे अक्रूरजीए वस्त्रमां लपेटेलो सूर्यना जेवो प्रकाशमान मणि काढ्यो अने श्रीकृष्णने आपी दीधो ॥४०॥
मणि भगवान् पासे छे एम जेओ कहेता हता तेमने ए मणि बतावीने पोतानी उपर कलङ्क हतुं ते दूर करीने ते मणि पोतानी पासे राखवा तथा तेने दण्ड आपवा समर्थ होवा छतां भगवाने ए मणि पाछो अक्रूरने आपी दीधो ॥४१॥
यस्त्वेतद् भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च ॥ आख्यानं पठति श्रुणोत्यनुस्मरेद् वा दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ॥४२॥
भगवान् ईश्वर अने सर्वत्र व्यापक विष्णुनुं आ मणिनुं आख्यान के जे पराक्रमथी पूर्ण छे, दोष मटाडनार अने मङ्गळ करनार छे तेनो जे पाठ करे, साम्भळे के स्मरण करे ते दुर्यश अने पापोथी छूटी जई शान्ति मेळवे छे ॥४२॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा
फल-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्य रूप पहेलो) ‘‘मणिनिमित्ते सत्राजित अने
शतधन्वानो वध’’ नामनो (उत्तरार्धनो आठमो अने चालु)
५७मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां
चोपनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[५०२]]
अध्याय ५८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५५ पाञ्च कन्याओने श्रीकृष्ण परण्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय २
विशेष - आ अठ्ठावनमां अध्यायमां पाञ्च कन्याओ जे वैराग्य, साङ्ख्य, योग, तप अने भक्ति ए विद्याना पाञ्च पर्वरूप गणाय छे तेनी साथे भगवाने लग्न कर्युं ए वात कहे छे. रुक्मिणीजी मायारूप छे तेना सम्बन्धथी काम, क्रोध अने लोभ थाय तेनुं निराकरण कर्युं. भगवान्ने पुत्र आदिनो अभिलाष न होय. एम होत तो प्रद्युम्ननो नारदजीनी सम्मति विना स्वीकार करत. भगवान्ने क्रोध होय तो जाम्बवतीजीनो स्वीकार न करत. एमने लोभ होत तो स्यमन्तक पाछो न आपत. तेथी ते त्रण दोष भगवान्मां नथी ए वात सिद्ध थई. हवे विद्यानुं फल कहे छे; तेथी भगवान् निर्दोष अने पूर्ण गुण सिद्ध थशे. ओगण साईठमां अध्यायमां त्रिलोकीमां जे सुख छे तेनुं दान करशे. साईठमां अध्यायमां माया (रुक्मिणीजी) ना दोषनुं निवारण करशे. आमां पहेला (६० मा) अध्यायथी आन्तर दोषो अने बीजा (६१ मा) अध्यायथी रुक्मीरूप बाह्य दोषने दूर करशे. पछीना बे अध्याय (६२-६३) थी सर्वना बाह्यदोषने दूर करशे. त्यां राजस प्रकरण पूरुं थशे. विद्यामां सूर्यनी मुख्यता छे तेथी सूर्यनी पुत्री कालिन्दी साथे भगवान्नुं लग्न कह्युं. शत्रुनो पराजय करी बीजी-मित्रविन्दाने सम्पादित करी. कालिन्दी ज्ञानरूपा अने मित्रविन्दा तपोरूपा छे. त्रीजी सूर्यवंशना राजा नग्नजितनी सत्या नामनी कन्याने परण्या ते भक्तिरूपा छे तेथी त्यां भगवाने पोते जई मागणी करी अने एने परणवामां जे सात आखला (बळद) रूप व्यसन हतां तेने जीतीने परण्या. निबन्धमां नाग्नजितीने योगरूपा अने लक्ष्मणाने भक्तिरूपा कही छे. ज्ञान अने भक्ति नी वच्चे मित्रविन्दानो लौकिक विवाह कह्यो. तेथी ज्ञान अने भक्ति स्वतन्त्र छे एक बीजाने सापेक्ष नथी एम कहेवानुं तात्पर्य छे. भद्रा अने लक्ष्मणा योग अने साङ्ख्यरूप छे तेने भगवान् वर्या. एमां योगनुं फल भक्ति अने साङ्ख्यनुं फल ज्ञान छे तेथी लक्ष्मणामाटे क्लेशनी भावना रूप युद्ध थयुं. एम पाञ्च पर्वरूप पाञ्च कन्याओनीसाथे छठ्ठा भगवान् पूर्णरूपे आमां निरूपण करवामां आव्या छे. एमां प्रथम अध्यायमां भगवान् अने तत्वोनो व्यापार छे तेथी २९ श्लोकथी विवाह कहेवामां आवे छे एमां भक्ति अने कर्म ए ज्ञाननां अङ्ग तरीके कह्या छे. तेथी बार श्लोकथी भक्ति अने पाञ्च श्लोकथी कर्म, पछी भक्तद्वारा दश श्लोकथी एनुं ग्रहण कर्युं. [[५०३]] प्रसङ्गवशात् भक्तना उपकारनी वात पण कही. भक्तना उद्धारमाटे यत्न करे ते ज ज्ञानशक्तिने ग्रहण करे छे एम बताववामाटे भगवान् पाण्डवो लाक्षागृहमां बळ्या नथी पण पाञ्च पुत्रवाळी कोई भीलडी लाक्षागृहमां बळी गई तेथी लोकोए माता सहित पाण्डवो बळ्यानी वात उडावी हती ए तो ‘एकचक्रा’नामनी नगरीमां ब्राह्मणवेशथी रहे छे. ए वातने भगवान् सारी रीते जाणे छे तेथी ‘विज्ञातार्थोपि गोविन्दः’ एम आ राजसफल प्रकरणना प्रथम श्लोकमां कह्युं छे. एकदा पाण्डवान् द्रष्टुं प्रतीतान् पुरुषोत्तमः ॥ इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान् युयुधानादिभिर्वृतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - पाण्डवो लाक्षाभवनमां बळी गया नथी ए वात हवे जाहेर थई गई हती. तेथी एकवार श्रीमान् श्रीकृष्ण तेमने मळवाने माटे सात्यकि वगेरे यदुवंशीओनी साथे इन्द्रप्रस्थ पधार्या ॥१॥
ज्यारे पाण्डवोए जोयुं के सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधार्या छे त्यारे जेम प्राणनो सञ्चार थतां बधी इन्द्रियो सचेत थई जाय छे तेम ज बधा एकी साथे ऊभा थई गया ॥२॥
वीर पाण्डवोए भगवान् श्रीकृष्णनुं आलिङ्गन कर्युं, आपना अङ्गसङ्गथी तेमना बधा पाप-ताप शमी गया. भगवान्नी प्रेमपूर्ण मन्द हास्यथी सुशोभित मुखसुषमा सुन्दरता जोई तेओ आनन्दमां मग्न थई गया ॥३॥
भगवान् श्रीकृष्णे युधिष्ठिर अने भीमसेन ना चरणोमां (मोटा होवाथी) प्रणाम कर्या, अर्जुनने आलिङ्गन कर्युं. नकुल अने सहदेवे (नाना होवाथी) भगवान्ना चरणोमां वन्दन कर्युम् ॥४॥
ज्यारे भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासन उपर स्वस्थताथी बिराजमान थई गया त्यारे शुद्ध चरित्रवाळी परम सुन्दरी श्याम वर्णनी द्रौपदी, जे नवविवाहिता होवाथी सहेज शरमाती हती ते धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्ण पासे आवी अने तेणे आपने प्रणाम कर्या ॥५॥
जेवी रीते भगवान् श्रीकृष्णनुं सन्मान कर्युं तेवी ज रीते सात्यकि अने बीजाओनुं पण ‘‘आप आव्या ते सारुं कर्युं’’ एम कही अभिनन्दन कर्युं तेओ एक आसन उपर बेसी गया. बीजा यदुवंशीओनो पण यथायोग्य सत्कार करवामां आव्यो अने तेओ पण भगवान् श्रीकृष्णनी चारे तरफ बेसी गया ॥६॥
[[५०४]] भगवान् कुन्ताजीनी पासे गया अने एमने अभिवादन कर्युं त्यारे हृदयना भावपूर्वक प्रेमवाळी दृष्टिथी एमणे भगवान्ने आलिङ्गन कर्युं. ए पोतानी फोई थाय छे तेमने पुत्रवधूनी साथे कुशळ समाचार पूछ्या ॥७॥
ते वखते प्रेमनी विह्वळताथी कुन्ताजीनुं गळुं रुन्धाई गयुं, नेत्रोमां आंसु छलकाई आव्यां. (स्वस्थ होय तेने पण भक्ति विह्वळ बनावी दे छे, ज्यारे कुन्ताजीने माथे तो दुःखना डुङ्गर तूटी पड्या हता ते) भोगवेला आपदाओनी याद आवी गई. (छतां आपदाओ दूर करवा ते प्रार्थना करता नथी कारण के) भगवान्नां तो दर्शन ज तमाम विपत्तिओनो नाश करी देनार छे. (प्रेमथी अन्तःकरणनी, रुद्ध कण्ठथी शरीरनी अने अश्रुथी इन्द्रियोनी विह्वळता सर्जाई छे) कुन्ताजीए कह्युंः ॥८॥
‘‘हे कृष्ण! जे क्षणे आपे अमने पोताना कुटुम्बी-सम्बन्धी समजीने अमारुं स्मरण कर्युं अने अमारी कुशळता जाणवानेमाटे भाई अक्रूरने मोकल्या ते ज क्षणे अमारुं कल्याण थई गयुं. अम अनाथने आपे सनाथ करी दीधाम् ॥९॥
हुं जाणुं छुं के आप सम्पूर्ण जगतना परम हितैषी, सुहृद अने आत्मा छो. (देहनो विचार करवामां आवे तो आप ज विश्व छो. अन्तःकरणनो विचार करवामां आवे तो आप बधाना सुहृद-मित्र छो अने वस्तुनो विचार करवामां आवे तो आप आत्मा ज छो) आ मारुं छे अने आ परायुं एवी भ्रान्ति आपनामां नथी. एम होवा छतां, हे कृष्ण! जेओ आपनुं अखण्ड स्मरण करे छे तेमना हृदयमांआवी आप बेसी जाओ छो अने तेमनी क्लेश परम्पराने सदानेमाटे मिटावी दो छो’’ ॥१०॥
युधिष्ठिरजीए कह्युं - ‘‘हे सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! अमने ए वातनी खबर नथी के अमे अमारा पूर्वजन्ममां अथवा आ जन्ममां एवुं ते क्युं कल्याणनुं साधन कर्युं हशे? आपनां दर्शन मोटा-मोटा योगेश्वरोने पण महा मुश्केलीए प्राप्त थाय छे अने अम कुबुद्धिओने घर बेठां आपनां दर्शन थई रह्यां छे’’ ॥११॥
राजा युधिष्ठिरे आ प्रमाणे भगवान्नुं खूब सन्मान कर्युं अने केटलाक दिवसो त्यां ज रहेवानी प्रार्थना करी. तेथी भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थनां नरनारीओने पोतानी रूपमाधुरीथी नयनानन्दनुं दान करतां वर्षाऋतुना चार महिना सुखपूर्वक त्यां ज बिराज्या ॥१२॥
[[५०५]] एकवार (श्राद्धना दिवसोमां) वीर शिरोमणि अर्जुन गाण्डीव धनुष अने अक्षय बाणवाळा बे भाथा लई, कवच पहेरी श्रीकृष्णनी साथे पोताना ते रथ उपर सवार थया जेमनी धजा उपर हनुमानजी बेसता. पछी विपक्षी वीरोनो संहार करनार अर्जुन एक एवा गहन वनमां शिकार खेलवा गया ज्यां घणां सिंह, वाघ, सर्प, मृग वगेरे भयङ्कर जानवरो रहेतां हताम् ॥१३-१४॥
त्यां तेमणे घणा वाघ, सूवर, पाडा, काळां हरण, शरभ, रोझ, गेण्डा, हरिण, ससलां, शेढाई वगेरेने बाणवडे र्वीधी नाख्या ॥१५॥
कोई अष्टकादि श्राद्धनो समय आव्यो हतो तेथी ए बधां यज्ञने योग्य प्राणीओने नोकरोए राजानी पासे लावीने एने सोम्पी दीधां, अर्जुन खूब थाकी जवाथी अने तृषा लागवाथी श्रीयमुनाजीने किनारे गया ॥१६॥
त्यां श्रीयमुनाजीमां स्नानादि करी जळपान कर्युं तेटलामां बन्ने महारथीओए त्यां फरती सुन्दर दर्शनवाळी एक कन्याने जोई ॥१७॥
ए सुन्दरी सुन्दर दान्त अने मुखवाळी हती. तेने जोईने श्रीकृष्णना मोकलवाथी अर्जुन ए उत्तम प्रमदानी पासे गया अने एने पूछवा लाग्याः ॥१८॥
‘‘हे सुन्दरी! तमे कोण छो? कोनां पुत्री छो? क्यान्थी आव्यां छो अने शुं करवा मागो छो? हुं मानुं छुं के तमे पोताने योग्य पतिनी इच्छा राखी रह्यां छो. हे कल्याणी! जे तमारो अभिप्राय होय ते कहो’’ ॥१९॥
कालिन्दीजी बोल्या - हुं सूर्यदेवनी पुत्री छुं, पतिनी इच्छावाळी छुं पण ए पति बीजो नहि पण वरदान आपनार अने वरवाने योग्य विष्णु मारा पति थाय एम हुं इच्छुं छुं. एने माटे ए पति थाय त्यां सुधी कठोर तप करी रहीछुम् ॥२०॥
हे वीर अर्जुन! श्रीवत्सना चिह्नवाळा विष्णु विना बीजाने हुं वरनार नथी. अनाथोना एक मात्र नाथ, मोक्ष आपनार ए भगवान् मारा उपर प्रसन्न थाओ ॥२१॥
मारुं नाम कालिन्दी छे. श्रीयुमनाजीना जळमां मारा पिता सूर्ये मारे माटे एक भवन बनावडावी आप्युं छे. तेमां हुं रहुं छुं. ज्यां सुधी भगवान्नां दर्शन नहि थाय त्यां सुधी हुं त्यां ज रहीश* ॥२२॥
विशेष - ‘‘कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुना जले॥’’ १०.५८.२२ नो पूर्वाध. श्रीसुबोधिनीजीः‘‘अनेन यमुनायास्तस्याश्च भेदः प्रदर्शितः।’’ ‘‘मारुं [[५०६]] नाम कालिन्दी छे अने श्रीयमुनाजीना जलमां हुं रहुं छुं’’ ए कथनथी श्रीयमुनाजी अने कालिन्दीजी जुदां छे एम दर्शावायुं. सूर्य पर्वतरूपथी कलिन्द पर्वतमां पधार्या एटले माताने ठेकाणे कलिन्द पर्वत अने पिता पर्वतना रूपमां सूर्य. पर्वत अचेतन होवा छतां हिमालयथी पार्वतीजीनी उत्पत्ति थई, ‘अभिमानिव्यपदेशस्तु’नदीओ, पर्वतो वगेरेनी अभिमानी देवता होय छे ए न्याये तेमान्थी उत्पत्ति घटे छे. देवरूप सूर्ये पुत्र यमने उत्पन्न कर्या ते दोष दूर करवा श्रीयमुनाजीने उत्पन्न कर्यां. सूर्य वेदात्मक छे एम श्रुति कहे छे. ए वेदात्मक सूर्यमां बिराजता केयूरधारी, मकर कुण्डलधारी हिरण्यमय परमात्मा रहे छे. ते रसरूप, सच्चिदानन्द स्वरूप छे. जे रस छे ते ज श्रीयमुनाजी छे. तेमना भाई धर्मराजा छे, माता सञ्ज्ञा छे. कालिन्दीजी ए भौतिक सूर्यना पुत्री छे. श्रीयमुनाजी आधिदैविक सूर्यनां पुत्री छे. कलिन्द पर्वते श्रीयमुनाजीने पोताना उपर थई पृथ्वी उपर पधारवा विनन्ति करी अने ते प्रमाणे पधार्या. तेथी श्रीयमुनाजी कालिन्दीजी पण कहेवाय छे. एणे जे कह्युं हतुं ते अर्जुने भगवान् वासुदेवने कह्युं. आप तो पहेलेथी ज आ बधुं जाणता हता. एमणे एने पण रथमां बेसाडी अने युधिष्ठिर पासे आव्या ॥२३॥
ज्यारे पाण्डवोए प्रार्थना करी त्यारे एमने माटे विश्वकर्मा देवशिल्पीनी पासे अत्यन्त अद्भुत अने विचित्र नगर करावी आप्युम् ॥२४॥
भगवान् आ वखते पाण्डवोने आनन्द आपवा तथा तेमनुं हित करवाने माटे त्यां घणा दिवस बिराज्या. ए समय दरम्यान अग्निदेवने खाण्डव वन आपवाने माटे आप अर्जुनना सारथि पण थया ॥२५॥
हे परीक्षित! खाण्डव वननुं भोजन मळी जवाथी अग्निदेव प्रसन्न थया. तेमणे अर्जुनने गाण्डीव धनुष, चार सफेद घोडा, एक रथ, अक्षय बाणवाळां बे भाथां अने एक एवुं कवच आप्युं जेने कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेदी न शके ॥२६॥
(भगवाने) मय दानवने अग्निमां बळी जतो बचावी लीधो हतो. (एटले उपकार करवो जोईए. भगवान् उपर ते सभानो प्रभाव चाले नहि एटले तेने बदले तेमना) सखा (भगवान् पोताना सखाने आपेलुं पोताने ज आपेलुं छे एम माने छे.) अर्जुनने सुधर्मा सभा आपी. ते ज सभामां दुर्योधनने जलने ठेकाणे स्थल अने स्थलने ठेकाणे जलनो भ्रम थयो हतो ॥२७॥
[[५०७]] केटलाक समय पछी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुननी अनुमति अने अन्य सम्बन्धीओनुं अनुमोदन मेळवी सात्यकि वगेरे साथे द्वारका पाछा पधार्या ॥२८॥
त्यां पधारीने आपे विवाहने योग्य ऋतु अने ज्योतिष शास्त्र प्रमाणे बधा ग्रहो जेमां अनुकूल होय तेवा प्रशंसित पवित्र नक्षत्रमां कालिन्दीजीनुं पाणिग्रहण कर्युं. रुक्मिणीजी वगेरे स्वजनोने परम आनन्दनुं दान करता आप परम मङ्गल-विशिष्ट फलदायी थया ॥२९॥
(बीजो विवाह कहे छे) अवन्ती (उज्जैन) देशना राजा विन्द अने अनुविन्द हता. तेओ दुर्योधनने अधीन अने तेना अनुयायी हता. तेमनां बहेन मित्रविन्दा स्वयंवरमां श्रीकृष्णने पोताना पति बनाववा इच्छतां हतां. परन्तु विन्द अने अनुविन्दे तेमने तेम करतां रोकी दीधाम् ॥३०॥
वसुदेवजीनी बहेन अने श्रीकृष्णनी फोई राजाधिदेवीनी पुत्री मित्रविन्दाने बधा राजाओना जोतां हे राजन्! श्रीकृष्ण बलात्कारथी हरण करी गया ॥३१॥
(हवे त्रीजो विवाह कहे छे) हे कुरुवंशज! १नग्नजित नामना एक अति धार्मिक राजा हता. तेमने सत्या नामनी एक देवी स्वरूप कन्या हती. ते नग्नजितनी राजानी कन्या२ होवाथी ‘नाग्नजिती’ कहेवाती हती ॥३२॥
विशेष - १. अर्ही ‘कौरव्य’ अने ‘कौसल्य’बे पाठ छे. ‘कौसल्य’ एटले कोसल देशना
अधिपति. कोसलनी राजधानी अयोध्याछे.
२. ज्ञानमां सर्व प्रपञ्चना पदार्थो विरुद्ध होय छे ज्यारे भक्तिमां केवळ प्रकृति विरोध
करनार छे. एमां सात व्यसन बाधक छे. ते एक रूपथी सात व्यसन एक ज समये दूर न थई
शके तेथी सातथ प्रकारनी साधन भक्ति कही छे. एम न कहीए तो श्रवण, कीर्तन अने
स्मरणथी प्रेम प्रकट थतां सात भक्तिनी कांई जरूर रहेती नथी. सख्य अने आत्मनिवेदन तो
भगवाने पोताना धर्मनुं स्थापन करवामाटे करी छे. ज्यारे भगवान् स्वधर्म स्थापन करे त्यारे
ए भगवद्तुल्य थई जाय, त्यारे व्यसन आदिनो समूल नाश थाय. ए बताववामाटे भगवान्
अर्ही पोतानां सातरूप करे छे. आ नाग्नजिती भक्तिरूपा छे. भक्ति पाखण्डीओमां पेदा थती
नथी. ते नग्नजिति राजाने त्यां कन्या रूपे जन्मी छे. ‘‘नग्नान् वेद रहितान् जयति
इति नग्नजित्!’’ ‘नग्न’ एटले के वेदरहित, वेद विरोधी, पाखण्डीओ तेमने जे जीती ले
ते नग्नजित्! तेनी कन्या नाग्नजिती पण तेवी ज होय. हे परीक्षित! तमे पण कुरुवंशमां
जन्म लीधो छे ते केवळ शत्रुने ज जीतता नथी पण श्रौत अने स्मार्त धर्मनुं रक्षण करो छो;
[[५०८]]
तेथी ज राजाने पण अर्ही अति धार्मिक कह्यो छे. स्वरूप, साधन अने फल वडे आ भक्ति
सत्य छे तेथी तेनुं नाम सत्या छे. तेथी वेदविरुद्ध मतमां, कर्महीनमां अने अधममां भक्ति
सत्य होती नथी. एनो उत्कर्ष सम्भळाय छे ते तो अधमने पण भक्ति तारे छे. एम एनो
उत्कर्ष बताववामाटे छे. सात व्यसन जो बाधक न होय तो भक्तिशास्त्र व्यर्थ ज थई जाय.
श्रवणथी दास्य सुधीनी सात भक्तिद्वारा व्यसनोनुं निराकरण करी देवामां आवे त्यारे सख्य
अने आत्मनिवेदन भगवान् सम्पादन करी आपे छे. हजारो भक्तो अनुभाव बतावे छे ते
भगवान्ना अंशथी एम बातवी शके छे. तो पण ए भक्ति सत्य न कहेवाय. ए सदाचार
सिद्ध भक्ति न कहेवाय. भगवान्ना साक्षात्कारनी पहेलान्नी ज भक्तिनी आ व्यवस्था छे. जे
भक्ति देवतारूप छे ते भगवान्ना कोई अंशने लेनार नथी ते कन्यारूपा असाधारणी छे. ए
जेने प्राप्त थाय ते वेदने अनुसरनार होय छे. एम अर्ही पण ए ज्यां रहे छे ते पण
वेदानुसारी छे. एने नाग्नजिती कही छे तेथी पिताने अनुसरनारी छे. तेथी ज धन्या
पितृमुखी कन्या एम कह्युं छे.
हे परीक्षित! राजानी प्रतिज्ञा प्रमाणे सात अत्यन्त क्रोधी *आखलाओ उपर
विजय प्राप्त न करी शकवाथी कोई राजा तेनी साथे विवाह करी शक्यो नहि, कारण के
तेमना शिङ्गडां भारे धारदार हतां अने शठतानी सीमा तो ए हती के तेओ कोई पण
वीर पुरुषनी गन्ध पण सहन करी शक्ता न हता ॥३३॥
विशेष - सात वृषभ-आखला सात व्यसनरूप छे. तेओ भक्तिमां प्रतिबन्ध करनारा छे. ते सात व्यसननां नामःभूख, प्यास, रोग, लोकने उपद्रव करे एवां बे प्रकारनां कर्म (१. निषिद्ध-सुवर्णनी चोरी वगेरे २. काम्य-हिंसा वगेरे कर्म), जुगार, मद्यपान अने स्त्रीसङ्ग. शिकार बधा करता नथी होता तेथी तेने व्यसनमां गण्युं नथी. दोष जाणवा छतां पण जेनाथी छूटी न शकाय ते ‘व्यसन’. ‘‘विशेषेण अस्यन्ते दैहिकाः धर्माः अनेन इति व्यसनम्।’’ दैहिक धर्मो जेनाथी छूटी जाय ते व्यसन. ‘‘तद्विना स्थातुमशक्तिः व्यसनम्।’’ जेना विना रही न शकाय ते वस्तुनुं ‘व्यसन’ छे एम कहेवाय. मनमां जाणीए के आ खोटुं छे छतां छूटे नहि ते ‘व्यसन’ कहेवाय. ए आखलाओने जीते तेने ज सत्या मळे एवी प्रतिज्ञा साम्भळीने भक्तोना पति भगवान् मोटी सेनानी साथे अयोध्या नगरीमां आव्या ॥३४॥
कोसल देशना राजा नग्नजिते बहु प्रसन्न थई ऊभा थई जई आपने [[५०९]] उमळकाभेर आवकारी आसन आपी अमूल्य सामग्रीथी आपनो सत्कार कर्यो अने कह्युं, ‘‘आप पधार्या ते बहु सारुं थयुं’’ ॥३५॥
राजा नग्नजितीनी कन्या सत्याए जोयुं के मारा चिर-अभिलाषित रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण अर्ही पधार्या छे त्यारे तेणे मनोमन ए कामना करी के ‘‘जो में भगवान्ने, भगवानने वश करनार व्रतो-नियमोथी सेव्या होय, तेनुं ज चिन्तन कर्युं होय, तो आप ज मारा पति थाओ अने मारा विशुद्ध मनोरथने पूर्ण करो’’ ॥३६॥
नाग्नजिती सत्या मनमां विचार करवा लागी, ‘‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शङ्कर अने मोटा-मोटा लोकपाल जेमना पदपङ्कजनो पराग पोताना सिर उपर धारण करे छे अने जे प्रभुए पोते बनावेली मर्यादानुं पालन करवामाटे ज वखतो वखत अने लीला अवतार ग्रहण कर्या छे ते प्रभु मारा क्या धर्म, व्रत के नियम थी प्रसन्न थशे? आप तो केवल पोतानी कृपाथी ज प्रसन्न थई शके छे’’ ॥३७॥
राजा नग्नजिते भगवान् श्रीकृष्णनी विधिपूर्वक अर्चापूजा करीने आ प्रमाणे प्रार्थना करी ‘‘हे जगतना एक मात्र स्वामी! हे नारायण! आप आपना स्वरूपभूत आनन्दथी ज परिपूर्ण छो अने हुं एक अत्यन्त तुच्छ मनुष्य छुं. हुं आपनी शी सेवा करुं?’’ ॥३८॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान् श्रीकृष्णे तेणे आपेल आसननो स्वीकार कर्यो अने हे कुरुनन्दन! मेघना सरखी गम्भीर वाणीवडे मन्दस्मित करी एने कह्युंः ॥३९॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - हे नरेन्द्र! जे क्षत्रियो पोताना धर्ममां स्थित छे तेमणे कंई पण मागवुं उचित नथी. धर्मज्ञ विद्वानोए तेना आ कामनी निन्दा करी छे. छतां आपनी साथे सौहार्द प्रेमना सम्बन्धनी स्थापना करवामाटे आपनी कन्यानी हुं याचना करुं छुं. पण अमे एनुं शुल्क आपनार नथी ॥४०॥
राजा नग्नजिते कह्युं - प्रभो! आप समस्त गुणोना धाम छो, एक मात्र आश्रय छो. आपना वक्षःस्थळ उपर लक्ष्मीजी नित्य निवास करे छे. (बीजे तो ते मात्र परिभ्रमण करे छे) आपनाथी वधारे सारो कन्याने माटे बीजो कोण वर होई शके? ॥४१॥
हे यादववंश शिरोमणि! परन्तु अमे पहेलान्थी ज कन्याना वरना बळनी अने [[५१०]] पुरुषना पराक्रमनी परीक्षामाटे आ विषयमां एक शरत राखी छे ॥४२॥
हे वीर श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! अमारा आ सातेय साण्ढ कोईना काबूमां न आवनारा अने अणर्वीध्या छे. तेमणे घणा राजकुमारोना अङ्ग भाङ्गी नाख्या छे अने तेमने निरुत्साह करी दीधां छे ॥४३॥
हे यदुनन्दन! आप निग्रह करी एमने नाथ घाली दो तो, हे लक्ष्मीपते! मारी कन्याना इच्छित वर आप थई शको ॥४४॥
एम कन्या मेळववाना सङ्केत (शरत) ने साम्भळीने समर्थ भगवाने कटिबद्ध थई सात स्वरूप धारण करीने साते साण्ढने रमत करतां नाथी लीधा ॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्णे एमने दोरडान्थी बान्ध्या एमनो गर्व चाल्यो गयो अने एमनुं पराक्रम नष्ट थई गयुं. जेम बाळक लाकडाना गोधाने दोरडुं बान्धी ढसरडे तेम एमने रमत करतां ढसड्या ॥४६॥
राजाने ए जोईने विस्मय थयो. प्रसन्न थई राजाए कन्यादान कर्युं. पोताने लायक कन्यानुं विधिवत् पाणिग्रहण कर्युम् ॥४७॥
पोतानी पुत्रीने श्रीकृष्ण मनमान्या पतिरूपे प्राप्त थया तेथी राजपत्नीओने परम आनन्द थयो अने एमणे परम उत्सव मनाव्यो ॥४८॥
शङ्ख, ढोल, नगारां वगेरे वाजिन्त्रो वागवा लाग्यां. गीत अने ब्राह्मण नी आशिषो सम्भळावा लाग्यां. स्त्रीपुरुषो सुन्दर वस्त्र अने अलङ्कारथी शोभायुक्त थईने परम आनन्दयुक्त थईने उत्सवमां भाग लेवा लाग्याम् ॥४९॥
समर्थ राजा नग्नजिते दस हजार गायो अने त्रण हजार एवी नवयुवतीओ जेमणे सुन्दर वस्त्रो अने गळामां सोनाना हार पहेर्यां हता, पहेरामणीमां आपी. एमनी साथे नव प्रकारना हजारो हाथीओ आप्या, हाथीथी सो गणा रथ आप्या, रथथी सो गणा घोडा आप्या अने घोडाथी सो गणा माणसो एम चतुरङ्गिणी सेना आपी ॥५०-५१॥
राजा नग्नजिते वरकन्याने रथमां बेसाडी भारे मोटी सेना साथे विदाय आपी. ते वखते वात्सल्य-स्नेहना उद्रेकथी तेमनुं हृदय द्रवित थई रह्युं हतुम् ॥५२॥
यदुवंशीओ तथा राजा नग्नजितना गोधाओए पहेलां घणा राजाओना बलपौरुषने धूळमां मेळवी दीधुं हतुं. ज्यारे ते राजाओए आ समाचार साम्भळ्या त्यारे भगवान् श्रीकृष्णनो आ विजय तेमनाथी सहन न थयो. ते लोकोए [[५११]] नाग्नजिती विजय तेमनाथी सहन न थयो. ते लोकोए नाग्नजिती सत्याने लईने जती वखते मार्गमां भगवान् श्रीकृष्णने घेरी लीधा ॥५३॥
ते लोको भारे वेगथी तेमना पर बाणोनी झडी वरसाववा लाग्या. ते वखते पाण्डव वीर अर्जुने, वसुदेवजी वगेरेनुं प्रिय करवा गाण्डीव धनुष धारण कर्युं. काळने जेम कोई प्राणीनो कोळियो करवामां क्लेश थतो नथी अने सिंह जेम नानां-मोटां प्राणीओने मारी नाखे छे तेम अर्जुने सहेलाईथी तेमने मारी नाख्या ॥५४॥
(सत्याजी भक्तिनुं स्वरूप छे. भगवान् भक्तिमां जेवुं रमण करे छे तेवुं बीजे क्यांय तप, योग, साङ्ख्यमां करता नथी एटली सत्याजीनी विशिष्टता कहे छे) त्यारबाद यदुवंश शिरोमणि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ते पहेरामणी अने सत्याजीनी साथे द्वारका पधार्या अने त्यां बिराजी गृहस्थोचित विहार करवा लाग्या ॥५५॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनां फोई श्रुतकीर्तिने केकय देशमां परणाव्या हतां. तेमनी कन्यानुं नाम ‘भद्रा’ हतुं. (ते केक्य देशना राजानी पुत्री हतां तेथी श्लोकमां कैकेयी कह्यां छे) तेमना भाई सन्तर्दन वगेरेए तेमने सामे चालीने भगवान् श्रीकृष्णने आप्यां तेथी आपे तेनुं पाणिग्रहण कर्युम् ॥५६॥
(पाश्चात्य केकय देशनी पासे आवेल) मद्रप्रदेशना राजानी एक कन्या लक्ष्मणा हती. ते अत्यन्त सुलक्षणा हती. जेवी रीते गरुडजीए स्वर्गमान्थी अमृतनुं हरण कर्युं हतुं तेवी ज रीते भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंवरमां एकला ज तेनुं हरण करी गया ॥५७॥
अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन् सहस्रशः ॥ भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः ॥५८॥
हे परीक्षित! आज प्रमाणे श्रीकृष्णे भौमासुरने मारीने तेना बन्दीगृहमान्थी बीजी हजारो उत्तम ज्ञानयुक्त (चारुदर्शनाः, दर्शन=१. ज्ञान २. सौन्दर्य.) सुन्दरीओने छोडावी लावी तेमनी साथे लग्न कर्याम् ॥५८॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा
फल-पेटा प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘पाञ्च कन्याओने श्रीकृष्ण परण्या’’
नामनो (उत्तरार्धनो नवमो अने चालु) अठ्ठावनमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां पञ्चावनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[५१२]]
अध्याय ५९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५६ भौमासुरने मारी सोळ हजार कन्याओने त्यान्थी लावी भगवाने एमनी साथे लग्नकर्यां त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय३
विशेष - बधी राजकन्याओनो उद्धार प्रथम सङ्क्षेपथी कहेवायो. ओगणसाईठमा अध्यायमां ते विस्तारथी बीजी भाषामां कहेवाय छे. जेनेमाटे भगवान्नो अवतार भूतळ उपर थयो छे. तेनुं कारण अत्यन्त शोधवुं पडे तेम नथी तेथी भौमासुरे राजाओने जीतीने एमनी जे कन्याओने केद करी हती ए भौमने मारी ए कन्याओने द्वारका लावी श्रीकृष्णे एमनी साथे लग्न कर्यां ए वात कहेवामां आवी छे. यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः स्त्रियः ॥ निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शांर्गधन्वनः ॥१॥
राजा परीक्षिते पूछ्युं - जे भौमासुरे स्त्रीओने बन्दीगृहमां पूरी राखी हती तेने भगवान् श्रीकृष्णे शामाटे अने केवी रीते मार्यो? आम कृपा करी शांर्ग धनुषधारी भगवान्नुं पराक्रम अमने कहो ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भौमासुरे इन्द्रनुं छत्र, *एनी माता अदितिनां कुण्डळ अने मेरु पर्वत उपर आवेल देवताओनुं मणिपर्वत नामनुं स्थान छीनवी लीधां हतां. तेथी इन्द्रे द्वारकामां आवी भगवान् श्रीकृष्णने ए पदार्थो अपाववानी विनन्ति करी. एटले भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी साथे गरुडजी उपर सवार थया अने भौमासुरनी (कामरूप-पश्चिम आसामनी) राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर पधार्या ॥२॥
विशेष - पहेलां नरकासुरे दिग्विजय कर्यो त्यारे एणे इन्द्रने हराव्यो. पोते एने जीत्यो छे एम बताववामाटे इन्द्र पासेथी एणे त्रण चीज लीधी. तेमां पहेलुं राजानुं चिह्न छत्र लीधुं एटले इन्द्रपणुं लई लीधुं. इन्द्र अदिति अने कश्यप नो पुत्र छे ते तो कोई रीते मटी शके एम नथी पण कश्यपथी भगवान् मोटा छे एम बताववामाटे अदिति एनी उत्पत्तिरूप छे तेना रूपविशेषना ख्यापक बे कुण्डल छे ते लईने पोतानी माता भूमिने आप्यां. वळी त्रण लोकनो राजा इन्द्र गणाय ए दूर थवुं जोईए एमां ए ज्यां रहे छे तेनो कबजो तो एनी पासे रहेवो [[५१३]] जोईए. केमके ए साधारण वात छे तेथी पृथ्वीनो ए राजा नथी एम कहेवराववामाटे मेरु पर्वतमां अमराद्रिस्थान इन्द्रनुं कहेवाय छे ते भौमे पडावी लीधुं. पाताळनुं आधिपत्य तो भौमना कबजामां छे एनुं राज्य तो एनी पासेथी क्यारनुं गयुं छे. स्वर्ग पण लई लेवानो भौमनो विचार छे. भगवद् अवतारमां पण जेटलुं काम करवा भगवान् पधारे छे तेटलुं ज करे छे, विशेष करता नथी. वामनजी भगवान् छे, इन्द्रना पक्षमां छे पण ए भौमासुर पोतानो पुत्र थाय तेथी एने मारे नहि, भाई करतां लोकमां पुत्र वहालो होय छे. अदिति अने भूमि बन्ने भक्तो छे. पोताना करतां माताने पुत्रमां प्रीति वधारे होय छे तेथी पुत्र कुण्डळ आपे तो माता एनो निषेध न करे. विशेषावतारमां बधा अवतारोनुं तेज एमां आवी जाय छे. तेथी वामन तो इन्द्रनी उपर अत्यारे उदासीन छे तेम ए भौमनी साथे लडवाने पण राजी नथी. तेथी इन्द्रे श्रीकृष्ण पासे आवी विनन्ति करी के भौमासुर मारुं छत्र अने मारी मातानां कुण्डळ उठावी गयो छे. ए पृथ्वीनो पुत्र छे; एने बीजो मारी पण न शके. प्रथम भगवान् चार मूर्तिरूप हता. तेमां एक मूर्ति तप करे छे, बीजी लोक रक्षा करे छे, त्रीजी भोगवे छे, चोथी मूर्ति निद्रा करे छे. ए रहेण्टना घडाओनी जेम आवे छे, काम करीने चालती थाय छे. एमां जे तप करती होय ते रक्षा करे छे, रक्षा करती होय ते भोग करे छे, भोग करती होय ते निद्रा करे छे, निद्रा करती होय ते तप करे छे. क्रियानो काळ हजार वर्षनो गणाय छे. एक दिवस पृथ्वी तप करती हती त्यारे भगवान् एनी उपर प्रसन्न थया. एमणे पृथ्वीने कह्युंःवर माङ्ग. ए वखते सन्ध्या हती. तेमां एणे पुत्रनी मागणी करी तेथी नरकासुर पुत्र थयो. पण सन्ध्या निषेध काळ होवाथी ते असुर थयो. त्यारे पृथ्वीए भगवान्ने प्रार्थना करी के ए असुर छे पण बीजा असुरने आप मारो छो तेम आने आपे मारवो नहि. भगवाने जवाब आप्योःतमारी सम्मति सिवाय हुं मारीश नहि. पोतानुं नारायणास्त्र एने आप्युं अने कह्युं के आ अस्त्र ए धारण करशे त्यां सुधी मरशे नहि. ए तो असुर हतो तेथी ए महादेवजीनो भक्त थयो. महादेवजी तरफथी एने त्रिशूळ मळ्युं ते नारायणास्त्र बरोबरनुं छे. पोते शिवभक्त होवाथी त्रिशूळ पोते राख्युं अने नारायणास्त्र पोताना पुत्र भगदत्तने आप्युं; तेथी एक रक्षण तो तेणे ज दूर कर्युं. हवे मात्र भूमिनी सम्मति होय तो भगवान् एने मारे. तेथी अर्हीथी चाल्या त्यारे सत्यभामाजीने साथे लईने चाल्या छे. ते ‘‘सभार्यो गरुडारूढो’’ इत्यादिथी कह्युं छे. ए सत्यभामाजी पृथ्वीनो अवतार छे एटले एमनी सम्मतिथी भौमासुरनो वध करशे. अने एणे जीतेला राजाओनी सोळहजार कन्याओ एकत्र करी ते हजु कन्या अवस्थामां छे ते भगवान्नां दर्शन करी एमने पति तरीके स्वीकारशे त्यारे भगवान् एमने परणशे. [[५१४]] प्राग्ज्योतिषपुरमां दाखल थवुं बहु मुश्केल हतुं. पहेलां तो तेनी चारे तरफ पहाडोनी किल्लेबन्धी हती; त्यारपछी शस्त्र दुर्ग हतो. पछी पाणीथी भरेली खाई हती. त्यार पछी अग्नि अथवा वीजळीनी किल्लेबन्धी हती. तेनी अन्दर वायु (गेस) बन्ध करी राखवामां आव्यो हतो. तेनी पण अन्दरना भागमां मुर दैत्ये नगरनी चारे बाजु पोतानी दस हजार भयङ्कर अने सुदृढ जाळ पाथरी दीधी हती ॥३॥
गदावडे भगवाने पर्वतोने भेदी नाख्या, बाणोवडे शस्त्रदुर्गने छिन्न-भिन्न करी नाख्यो, चक्रवडे अग्निदुर्गने, जळदुर्गने अने वायुदुर्गने भेद्या अने तलवारवडे मुरपाशने तोडी नाख्या ॥४॥
गदाधर भगवाने शङ्खनाद करीने पथ्थर फेङ्कवाना यन्त्रोनो अने वीर पुरुषोनी हिम्मतनो नाश कर्यो तथा तेनो किल्लो जमीनदोस्त करी दीधो ॥५॥
प्रलय वखते वीजळीना कडाका साथे वज्र पडे अने अवाज थाय तेना करतां पण वधारे भयङ्कर पाञ्चजन्य शन्नो नाद साम्भळी (अविद्याना पाञ्च पर्वरूप) पाञ्च माथांवाळो ‘मुर’नामनो दैत्य सूतो हतो ते बेठो थई गयो ॥६॥
ते दैत्य प्रलय वखतना सूर्य अने अग्नि जेवो प्रचण्ड तेजस्वी हतो. ते एटलो भयङ्कर हतो के तेनी सामे जोवानी पण कोई हिम्मत करतुं नहोतुं. तेणे त्रिशूळ उठाव्युं अने जेम (भक्षक) गरुडजी (भक्ष्य) साप उपर तूटी पडे तेम भगवान् उपर धसी आव्यो. ए दृश्य एवुं लागतुं हतुं के जाणे ते पोताना पाञ्चेय मुखेथी त्रिलोकीने गळी जशे ॥७॥
तेणे पोताना त्रिशूळने जोरथी घुमावी गरुडजी (ते भगवान्ने जोई शक्यो नहि कारण के भगवान्ने अविद्या जोई शक्ती नथी तेथी तेणे गरुडजी उपर त्रिशूळ चलाव्युं.) उपर र्झीक्युं अने पछी पाञ्चेय मोढेथी घोर सिंहनाद करवा लाग्यो. तेनी सिंह गर्जनानो भयङ्कर अवाज पृथ्वी, आकाश, पाताल अने दसे दिशाओमां फेलाई जई आखा ब्रह्माण्डमां छवाई गयो ॥८॥
भगवान् श्रीकृष्णे जोयुं के मुर दैत्यनुं त्रिशूळ गरुडजीनी तरफ भारे वेगथी आवी रह्युं छे. एटले पोतानुं हस्त कौशल देखाडी फूर्तिथी आपे बे बाण मार्यां जेनाथी ते त्रिशूळना त्रण टुकडा थया. (तेने लोकोने डरावनारी गर्जना करतो बन्ध करी देवा) मुर दैत्यना मोढामां पण बाण मार्या. एथी ते दैत्य अत्यन्त गुस्से थई गयो अने [[५१५]] तेणे भगवान् उपर पोतानी गदा चलावी ॥९॥
परन्तु भगवान् श्रीकृष्णे पोतानी गदाना प्रहारथी मुर दैत्यनी गदाना ते पोतानी पासे पहोञ्चे ते पहेलां ज चूरेचूरा करी नाख्या. हवे ते शस्त्रहीन थई जवाथी पोतानी भुजाओ फेलावी श्रीकृष्ण तरफ धस्यो अने आपे रमत मात्रमां ज चक्रथी तेनां पाञ्चेय माथां छेदी नाख्याम् ॥१०॥
मस्तक कपातां ज मुर दैत्यना प्राण चाल्या गया अने इन्द्र वज्रथी पर्वतनुं शिखर कपाई जतां एम ते समुद्रमां जई पड्युं होय तेम ते जलमां जई पड्यो. मुर दैत्यना सात पुत्रो हताद्ग ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान अने सातमो अरुण. तेओ पोताना पिताना मृत्युथी अत्यन्त शोकाकुल थई गया अने बदलो लेवानेमाटे क्रोधायमान थई (अस्त्र - हाथथी फेङ्की शकाय ते. दा.त. बाण, भालुं, शक्ति, त्रिशूळ. शस्त्र - हाथमां राखीने लडवानुं हथियार. दा.त. गदा, खड्ग.) शस्त्र-अस्त्रथी सुसज्जित थई पीठ नामना दैत्यने पोताना सेनापति बनावी भौमासुरनी आज्ञाथी श्रीकृष्ण उपर चढी आव्या ॥११-१२॥
तेओए त्यां आवी भारे क्रोधथी भगवान् श्रीकृष्ण उपर बाण, तलवार, गदा, शक्ति, अर्ष्टि अने त्रिशूळ-छ प्रकारनां शस्त्रोनी, भगवान् अजित छे एम जाणवा छतां, वर्षा करवा लाग्या. भगवान्नी शक्ति तो अमोघ छे. आपे पोतानां बाणोथी तेमनां लाख-लाख शस्त्रोना तल-तल जेवडा टुकडा करीनाख्या ॥१३॥
भगवान्ना शस्त्रप्रहारथी सेनापति पीठ अने तेना साथी दैत्योनां माथां,
जाङ्घ, भुजा, पग अने कवच कपाई गयां अने ए बधाने भगवाने यमद्वारमां
पहोञ्चाडी दीधा ज्यारे पृथ्वीना पुत्र नरकासुरे (भौमासुरे) जोयुं के भगवान्
श्रीकृष्णनां चक्र अने बाणो थी पोतानी सेना अने सेनापतिओनो संहार थई गयो
त्यारे ते कोईथी सहन न थाय तेवो क्रोध करीने (ऐरावतनी जेम) समुद्रमान्थी
उत्पन्न थयेल मदझरतां मदमस्त हाथीओनी सेना लई नगरमान्थी बहार नीकळ्यो.
तेणे जोयुं के भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी पत्नीनी साथे आकाशमां गरुडजी उपर जेवी
रीते सूर्यनी उपर वीजळी साथे वर्षाकालना श्याम मेघ शोभायमान होय तेम शोभी
रह्या छे. भौमासुर पोते भगवान् उपर ‘शतघ्नी’नामनी शक्ति चलावी अने तेना
बधा सैनिकोए पण एकी साथे पोत-पोतानां अस्त्र-शस्त्रो छोड्याम् ॥१४-
१५॥
[[५१६]] हवे भगवान् श्रीकृष्ण पण चित्र-विचित्र पाङ्खवाळां तीक्ष्ण बाण छोडवा लाग्या. आथी ते ज समये भौमासुरना सैनिकोनी भुजा, जाङ्घ, मस्तक अने पग कपाई-कपाईने पडवा लाग्यां अने घोडा तथा हाथीओ पण मरवा लाग्या ॥१६॥
हे परीक्षित! भौमासुरना सैनिकोए भगवान् उपर जे-जे अस्त्र-शस्त्र चलाव्यां तेमानां प्रत्येकने भगवाने त्रण-त्रण तीक्ष्ण बाणोथी कापी नाख्यां ॥१७॥
ते वखते भगवान् श्रीकृष्ण गरुडजी उपर बिराजता हता अने गरुडजी पोतानी पाङ्खोथी हाथीओने मारी रह्या हता. तेमनी चाञ्च, पाङ्ख अने पञ्जाना मारथी हाथीओने भारे पीडा थई अने ते बधा दुःखी थवाथी युद्धभूमि उपरथी भागी जई नगरमां घूसी गया. हवे त्यां एकलो भौमासुर ज लडतो रह्यो. ज्यारे तेणे जोयुं के गरुडजीना मारथी त्रासी जई मारी सेना भागी रही छे त्यारे तेणे पोतानी शक्ति ते गरुडजी उपर चलावी के जेमणे वज्रने पण विफल बनावी दीधुं हतुं* ॥१८-१९॥
विशेष - कश्यप ऋषिनी बे पत्नीओ कद्रु अने विनता ए एक वखत सूर्यना घोडाओनी पूञ्छना रङ्गनी बाबतमां शरत लगावी. जे हारे ते जीतनारने त्यां एक हजार वर्ष सुधी दासी थईने रहे. विनताए कह्युं हतुं के पूञ्छनो रङ्ग सफेद छे, कद्रुए कह्युं के काळो. हकीकतमां सफेद रङ्ग हतो पण कद्रुए पोताना पुत्रो सर्पोने कह्युं के तमे जाओ अने सूर्यना घोडाओना पूञ्छने र्वीटाई जाओ एटले रङ्घ काळो लागे. आम विनता हारी गई तेथी कद्रुनी दासी थई रही हती. विनताए मूकेलुं ईण्डुं पाक्युं अने गरुडजीनो जन्म थयो त्यारे तेमनी माता तो दासी थई चूकी हती. गरुडजी आगळ कद्रुए शरत मूकी. मने इन्द्र पासेथी मारा पुत्रोमाटे अमृत लावी आपो तो तमारी माताने छोडी मूकुं. गरुडजी अमृत लेवा इन्द्र पासे गया. इन्द्र अने गरुडजी वच्चे अमृतमाटे युद्ध थयुं त्यारे इन्द्रे गरुडजी उपर वज्र चलाव्युं पण वज्रनी चोटनी पण गरुडजी उपर कंई ज असर न थई तेनो अर्ही उल्लेखछे. पण तेनी चोटथी हाथी उपर फूलनी माळा फेङ्कवामां आवे अने जेवी असर थाय तेवी असर थई. (हाथीने ज्यारे अङ्कुश मारवामां आवे त्यारे हाथी मात्र जागृत थाय छे अने कार्यक्षम थाय छे तेम गरुडजीने शौर्यनो जुस्सो चड्यो) गरुडजी उपर तेनुं कंई पराक्रम न चालवाथी महादेवजी पासेथी प्राप्त थयेलुं अमोघ त्रिशूळ भगवान्ने मारी नाखवा उपाड्युम् ॥२०॥
(महादेवजीए आपेल त्रिशूळनुं मान जाळववामाटे) त्रिशूळ तेना हाथमान्थी [[५१७]] छूटे ते पहेलां ज श्रीकृष्णे अस्त्राना जेवी तीक्ष्ण धारवाळा चक्रथी हाथी उपर बेठेला भौमासुरनुं माथुं कापी नाख्युं. (दिव्य अस्त्रनो प्रयोग करतां पहेलां आचमन वगेरे करवामां आवे तो ज देवनुं सान्निध्य थाय. भौम हाथी उपर बेठेलो होवाथी आचमन वगेरे कर्युं नथी) ॥२१॥
कुण्डल अने सुन्दर किरीट धारण करेलुं तेनुं झगमगतुं मस्तक पृथ्वी उपर पड्युं. ते जोई असुरोए हाहाकार कर्यो. ऋषिओ, ‘‘सारुं थयुं, सारु थयुं’’ एम कही अने देवताओ पुष्पोनी वृष्टि करी भगवान्नी स्तुति करवा लाग्या ॥२२॥
भौमासुर मर्यो त्यारे पृथ्वी भगवान्नी पासे आवी१ अने तपेल सोना जेवां अने रत्नना प्रकाशवाळां कुण्डलो, छत्र अने कौस्तुभमणि ए त्रण वस्तु वैजयन्ती२ माळानी साथे भगवान्ने एणे भेट करी ॥२३॥
विशेष - १. पृथ्वी भगवान्नी स्त्री छे तेनो पुत्र एने भगवाने आप्यो तेथी एने भगवान्
उपर रोष थयो नहि. भौमासुरनी माता भूमिनी अभिमानिनी देवता छे पण ‘‘श्रिया
पुष्ट्या गिरा कान्त्या’’ इत्यादिमां जे इलाने बार शक्तिमां गणावी छे ते आधिदैविक पृथ्वी
छे. ते तो सत्यभामा छे तेथी एने साथे लाव्या छे. एमां पाञ्च प्रयोजन छे. भगवाने
सृष्टिने माटे वीर्यविभाग कर्यो तेमां योनिरूपता बलदेवजीमां मूकी हती ते शक्ति अत्यारे
सत्यभामारूप छे. ए साथे आव्यां एटले भगवान् पूर्ण शक्तियुक्त थया. ए एक प्रयोजन.
एनुं माहात्म्य देखाडवानुं छे ए बीजुं प्रयोजन. भौमने मारवामां एनी सम्मतिनी जरूर छे
ए त्रीजुं प्रयोजन. सापत्न्य सहन कराववुं छे, नहि तो ए बीजी स्त्रीनुं स्वातन्त्र्य सहन न
करी शके ए चोथुं प्रयोजन. पारिजातनुं हरण करवुं ए पाञ्चमु प्रयोजन छे.
२. वैजयन्ती माळा भगवाने पृथ्वीने आपी हती ते तेणे पाछी आपी छे. वरुणे
बनावेलुं ते समुद्र पासेथी इन्द्रने प्राप्त थयेल, छत्र एणे लीधुं हतुं ते पाछुं आप्युं छे. कुण्डल
भूमिमान्थी प्राप्त थयेल, छत्र स्वर्गमां हतुं अने मणि पाताळथी आवेलो ते त्रणे लोकना
उत्कृष्ट पदार्थ भगवान्ने आप्या तेथी ईश्वरनां खाली हाथे दर्शन न करवां (‘‘रिक्तपाणिर्न
पश्येत्तु राजानं दैवतं गुरुम्’’) ए वाक्यने भूमिए सफळकर्युं.
हे राजन्! देवश्रेष्ठ ब्रह्मादिए जेमनुं पूजन कर्युं छे तेवा विश्वेश्वरने भक्तिमां
तत्पर एवी बुद्धिवडे हाथ जोडी प्रणाम करी पृथ्वी स्तुति करवा लागी ॥२४॥
भूमि बोली - हे देवना देव! हे ईश! हे शङ्ख-चक्र-गदाने धारण करनार! भक्तनी इच्छाने अनुकूल रूप धरनार परमात्मन्! आपने मारा नमस्कार हो [[५१८]] ॥२५॥
नाभिमां कमळवाळां! कमळनी मालाने धारण करनार! कमळ सरखां नेत्रोवाळा! अने कमळ सरखां चरणवाळा! आपने मारा नमस्कार हो ॥२६॥
छ ऐश्वर्यवाळा, शुद्ध सत्वमां प्रकट थनार, सर्वमां आत्मरूपे स्थिति करनार, पुरुषरूप, जगतना बीजरूप, पूर्णज्ञानरूप, आपने हुं प्रणमुं छुम् ॥२७॥
आप अज छो छतां आ जगतना उत्पादक छो. ब्रह्मरूप अनन्त शक्तिवाळा, कार्य कारणमां व्याप्त थईने रहेल हे परमात्मन्! आपने मारां नमन हो ॥२८॥
हे प्रभो! आ जगतने उत्पन्न करवानी इच्छा करो छो त्यारे आप उत्कट रजोगुणने अने लीन करवा धारो छो त्यारे उत्कट तमोगुणने धारण करो छो. छतां एनाथी आप ढङ्काता नथी. आ जगतनुं पालन करवा हे जगत्पते! आप उत्कट सत्वगुणने ग्रहण करो छो. काळ प्रकृति अने पुरुष पण आप छो छतां ए त्रणेयथी पर छो ॥२९॥
हे भगवन्! हुं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्रा, मन, इन्द्रियो अने तेमना अधिष्ठाता देवताओ, अहङ्कार अने महत्तत्व-क्यां सुधी कहुं, आ सम्पूर्ण चराचर जगत् आपना अद्वितीय स्वरूपमां भ्रमने लीधे ज जुदुं प्रतीत थई रह्युं छे ॥३०॥
हे शरणागत भयभञ्जन प्रभो! मारा पुत्र भौमासुरनो आ पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत थई रह्यो छे. हुं तेने आपना चरणकमलोना शरणमां लई आवी छुं. हे प्रभो! आप एनी रक्षा करो अने आप एना मस्तक उपर जगतना समस्त पाप-तापोने नष्ट करी देनार, करकमल स्थापो जेथी ए पण आसुर भावथी मुक्त थाय ॥३१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भक्तिभावथी विनम्र पृथ्वीए आ प्रमाणे वाणीथी भगवान्नी सेवा (स्तुति) करी त्यारे भगवाने भगदत्तने अभयदान आप्युं अने भौमासुरना समस्त सम्पत्तिथी सम्पन्न महेलमां प्रवेश कर्यो ॥३२॥
त्यां जई भगवाने जोयुं के भौमासुरे बलपूर्वक राजाओ पासेथी सोळहजार राजकुमारीओ हरण करी नाखी हती* ॥३३॥
विशेष - आ सोळहजारनी सङ्ख्या पूरी थई के तरत ज भगवान् अर्ही पधार्या छे. कला सोळ छे. एक-एक कलानी एक-एक अधिष्ठात्री देवता भूमि उपर प्रतिष्ठित थयेली छे. तेथी [[५१९]] भूमि ज भूमिनो पुत्र भौमासुर हरी लाव्यो छे. ‘षट्सहस्राधिकायुतम्’ ‘‘दश हजारथी छ हजार अधिक’’ एम बतावे छे के तेओ द्विस्वभाव छे. तेमां छ हजार उत्तम छे. तेओ अप्सराओ छे. देवता होवाथी राजकन्याओ रूपे क्रीडार्थ जन्मी छे. तेओए अष्टावक्र ऋषिनी पहेलां स्तुति करी हती अने पछी मश्करी करी एम जणाववा द्विस्वभावत्व कह्युं छे. तेथी ज शरूआतमां अर्ही अने अन्तमां मुशळथी शाप थयो त्यारे ऋषिना कोपथी दुःख भोगववुं पड्युं छे. ज्यारे ते राजकुमारीओए अन्तःपुरमां पधारेला नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णने जोया त्यारे तेओ मोहित थई गई अने दैव ज मेळवी आपेल भगवान्नुं पोताना परम प्रियतम पतिना रूपमां मनमां ने मनमां वरण करी लीधुम् ॥३४॥
ते राजकुमारीओए प्रत्येके अलग-अलग पोताना मनमां एज निश्चय कर्यो के ‘‘आ श्रीकृष्णज मारा पति थाओ. विधाता मारी आ अभिलाषाने पूर्ण करो’’आ प्रमाणे तेओए प्रेमभावथी पोतानुं हृदय भगवान्उपर न्योछावर करी दीधुं ॥३५॥
त्यारे भगवान् श्रीकृष्णे ते राजकुमारीओने सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषणो पहेरावी पालखीओद्वारा द्वारवती मोकली दीधी अने तेमनी साथे ज रत्नादि साथे मोटो खजानो, घणा रथ, घोडा अने वित्त पण मोकली दीधां (द्वारवती-द्वारका ए भगवान्नां स्थानमां जवामाटेनुं द्वार छे, महत्-महान. अल्प पात्र पासे ‘महत्’ वस्तु राखवामां आवे तो ‘‘अल्पनुं अनिष्ट थाय’’) ॥३६॥
अत्यन्त वेगवान् चार दान्तवाळा ऐरावतना कुलमां उत्पन्न थयेला सफेद चोसठ हाथीओने पण केशव भगवाने द्वारका रवाना कर्याम् ॥३७॥
त्यान्थी भगवाने स्वर्गमां पधारीने अदितिने (अदितिनुं भोगरूप स्वर्गमां छे अने क्रियारूप अंशथी ते देवकीजीरूपे प्रकट्यां छे.) एनां कुण्डळ आप्यां. त्यां इन्द्र- इन्द्राणीए प्रिया सहित पधारेला श्रीकृष्णनुं पूजन कर्युम् ॥३८॥
त्यान्थी पाछा फरती वखते सत्यभामाजीनी प्रेरणाथी भगवान् श्रीकृष्णे पारिजातने उखेडी लई गरुडजी उपर राखी दीधुं अने देवराज इन्द्र तथा बधाय देवताओने जीती लई तेने द्वारकामां लई आव्या* ॥३९॥
विशेष - वात-चीत दरम्यान सत्यभामाजीए इन्द्राणी पासे पारिजातना पुष्पनी आकाङ्क्षा व्यक्त करी. इन्द्राणीए कह्युं के ए तो देवोने माटे ज छे, आप तो मनुष्य छो अने तेथी ते [[५२०]] न आपी शकाय. बहिर्मुख शची (इन्द्राणी) नां वचन सहन न थई शकवाथी तेमणे पारिजातने माटे भगवान्ने प्रार्थना करी. भगवाने ते वृक्षने सत्यभामाजीना महेल अने बगीचा बेउनी शोभा वधे एवीरीते बन्नेनी वचमां रोपी दीधुं. पारिजात वृक्षनी साथे तेनी गन्ध अने मकरन्द मां लम्पट बनेला भ्रमरो (भ्रमर - भ्रम अने मर(ण) युक्त होय ते ‘भ्रमर’. स्वर्गमां आमान्थी एकेय नहोतुं छतां ते छोडी अर्ही आव्या.) स्वर्गथी द्वारका आवता रह्या हता ॥४०॥
हे परीक्षित! ज्यारे इन्द्रने पोतानुं काम कराववुं हतुं त्यारे तो तेणे पोताना किरीटवडे भगवान्नां चरणनो स्पर्श करी आपनी पासे सहायतानी भिक्षा मागी हती. परन्तु ज्यारे काम पूरुं थई गयुं त्यारे ते भगवान् श्रीकृष्ण सामे लडाई करतां अचकायो नहि. खरेखर आ देवताओ पण अज्ञानी छे अने सौथी मोटो दोष तो तेमनामा सम्पत्तिनो छे तेथी एने ज धिक्कार छे ॥४१॥
त्यारबाद भगवान् श्रीकृष्णे एक ज मुहूर्तमां अलग-अलग भवनोमां अलगअलग रूप धारण करीने एकी साथे बधी राजकुमारीओनुं शास्त्रोक्त विधिथी पाणिग्रहण कर्युं. सर्व शक्तिमान भगवान्ने माटे आमां आश्चर्य पामवा जेवुं कंई नथी ॥४२॥
हे परीक्षित! भगवान्नी पत्नीओना अलग-अलग महेलोमां एवी दिव्य सामग्री भरी हती जेनी बराबरी करनार स्वर्गमां पण क्यांय कोई पण सामग्री नथी, पछी अधिकनी तो वात ज शी? ते महेलोमां स्थिर बिराजी मति-गतिथी पर लीला करनारा अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण पोताना आत्मानन्दमां मग्न रहीने लक्ष्मीजीनां अंशरूप ते पत्नीओनी साथे बराबर एवी रीते विहार करता हता जेवी रीते कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमां रही श्रौत अने स्मार्त धर्मोनुं आचरण करतो होय ॥४३॥
हे परीक्षित! ब्रह्माजी वगेरे मोटा देवताओ पण भगवान्ना वास्तविक स्वरूप अने आपनी प्राप्तिना मार्गने जाणता नथी. ते ज रमारमण भगवान् श्रीकृष्णने आ स्त्रीओए पतिरूपे प्राप्त कर्या हता. तेथी हवे नित्य-निरन्तर एमना प्रेम अने आनन्द नी अभिवृद्धि थती रहेती हती अने तेओ प्रेमपूर्ण हास्य, मधुर दृष्टि, नित्य नूतन समागम, प्रेमालाप तथा भाव वधारनारी लज्जा सहित सर्व [[५२१]] रीते भगवान्नी आनन्दपूर्वक सेवा करतां रहेतां हताम् ॥४४॥
प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौचताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ॥ केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैर्दासीशताअपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥४५॥
तेमान्थी बधी पत्नीओ पासे सेवा करवाने माटे सेङ्कडो दासीओ हती छतां ज्यारे भगवान् एमना महेलमां पधारता त्यारे स्वयं सामे जई आदरपूर्वक लई जतां, श्रेष्ठ आसन उपर बेसाडतां, पछी भगवान् जे आज्ञा करे ते प्रमाणे करतां, चरणकमल धोतां, पान सिद्ध करी आरोगावतां, चरण दबावी श्रम दूर करतां, पङ्खो करतां, अत्तर, फूलेल, चन्दन वगेरे लगावतां, फूलोना हार पहेरावतां, केश संवारता, शयन करावता, (काम तृप्त थतां) स्नान करावतां अने त्यार पछी भोजन करावी पोताने हाथे ज भगवान्नी बधी सेवा करता* ॥४५॥
विशेष - मननी बार वृत्तिओ छे ते पूर्ण करवा बार उपचार कह्या छे. कामपूर्ति पछी भोजननो क्रम छे, नहि तो बन्ने विरस थई जाय. भगवान् विभु छे, स्वतः समर्थ छे, आपने सेवानी जरूर नथी, पण राणीओने कृतार्थ करवा सेवा स्वीकारे छे. इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो यशरूप त्रीजो) भौमासुरने मारी सोळहजार कन्याओने त्यान्थी लावी भगवाने एमनी साथे लग्न कर्यां नामनो (उत्तरार्धनो दशमो अने चालु) ओगणसाईठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४- बाद करतां छप्पनमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ६०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५७ रुक्मिणीजीनी साथे भगवाने करेलो परिहास त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय४
विशेष - तामस प्रकरणमां भगवान्नो कायिक तिरोभाव कह्यो छे तेम आ साईठमां अध्यायमां ईं उं [[५२२]] रुक्मिणीजीमां भगवान्नो वाचिक तिरोभाव कहेवाय छे. ए न कहे तो केवळ लौकिक सम्बन्ध गणाय. सर्वथा जे सेवा करे छे तेनी भगवान् परीक्षा पण करे छे. जेम प्राण होय तो शरीर रहे, नहि तो न रहे तेम सेवा होय तो भक्तनो देह रहे, सेवा छूटतां प्राणने बाधा थाय. ए भक्तनुं लक्षण अर्ही रुक्मिणीजीमां प्रत्यक्ष थाय छे. भगवाने एमनुं सान्त्वन श्रीअङ्गथी कर्युं. तेम जो शरीरथी सम्बन्ध न करे तो एमना प्राण न रहे ए भयथी एम कर्युं छे. दोष नथी एम बताववाने वाक्य कह्यां त्यारे एनो लक्ष्मीजीए उत्तर आप्यो. एनाथी तेमां ईर्ष्या, मात्सर्य वगेरे नथी एम सिद्ध थयुं. एमनामां दोष न होवानुं तो भगवान्ना वाक्यनो विरोध न करवा एमणे वर्णन कर्युं तेथी पण स्पष्ट थाय छे. एमने कोई रीते भ्रम नथी माटे एमणे भगवान्पणाथी भगवान्नां वाक्यनो अर्थ कर्यो. प्रमाणमां शब्द अने अर्थ नो विरोध थाय ज, लक्षणा तो मुख्य अर्थनो बाध थाय तो ज थई शके तेथी भगवान्नुं वाक्य दुर्ज्ञेय छे. ए वाक्यने जे जाणे तेने मोह थतो नथी. आ पहेलानां अध्यायमां महिषीओए भगवान्नी पूजा करी एम एना छेल्ला श्लोकमां कह्युं. ए स्त्रीओ हृदयना भावथी स्वरूपज्ञानपूर्वक सेवा करे छे के कामोपाधिक सेवा करे छे एनी परीक्षा करवी जोईए तेथी मुख्य महिषीना प्रसङ्गमां परीक्षणार्थ भगवान् वाक्य कहे छे. पूर्वे सेवानां द्वादश अङ्ग बताव्यां छे तेमां पहेला छ उपचार पूर्वाध्यायमां कहेवाया एटले पछीना छ उपचारमां प्रथम पङ्खो छे ते रुक्मिणीजी ‘‘व्यजनेन सखीजनैः’’ एम मूळमां कह्या प्रमाणे पङ्खो नाखवानुं कार्य करे छे. तेमां भगवान् वाणीद्वारा एमना हृदयमान्थी तिरोहित थतां महिषी मूर्छित थाय छे. ए एमना भावनी परीक्षाने माटे भगवाने कर्युं छे. पछी सान्त्वन कर्युं त्यारे रुक्मिणीजी भगवान्नां वाक्योना क्रमवडे उत्तर आपे छे. कर्हिचित् सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम् ॥ पतिं पर्यचरद् भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवान् श्रीकृष्ण एक वखत राजदरबारमान्थी उठी भीष्मनन्दिनी रुक्मिणीजीना महेलमां राते पधार्या. (सेवाना प्रत्युद्गम वगेरे छ उपचार पती गया पछी) पोतानी सखीओनी साथे रुक्मिणीजी करियावरमां मळेल पलङ्ग उपर आरामथी बिराजता जगद्गुरु श्रीकृष्णनी पङ्खानी सेवा करी रह्या हता ॥१॥
हे परीक्षित! जे सर्वशक्तिमान् भगवान् लीलावडे ज आ जगतनी रचना, रक्षा अने प्रलय करे छे ते ज अजन्मा प्रभु पोतानी बनावेली धर्ममर्यादाओनी रक्षा [[५२३]] करवामाटे यदुवंशीओमां प्रकट थयां छे ॥२॥
रुक्मिणीजीनो महेल अत्यन्त सुन्दर हतो. तेमां एवां-एवां चन्दरवा बान्धवामां आव्या हता जेमां मोतीओनी झालर लटकी रही हती. मणिमय दीपक झगमगी रह्या हता ॥३॥
मल्लिका अने चमेली नां फूल अने हार महेकी रह्या हता. फूलो उपर भमरानां झुण्डना झुण्ड गुञ्जारव करी रह्यां हतां. सुन्दर झरूखानी जाळीमान्थी चन्द्रमानां शुभ्र (विमल) किरणो महेलनी अन्दर पथराई रह्यां हताम् ॥४॥
उद्यानमां पारिजातना उपवननी सुगन्धवाळो मन्द शीतल वायु वाई रह्यो हतो. झरूखानी जाळीओमान्थी अगरना धूपनो धुमाडो बहार नीकळी रह्यो हतो ॥५॥
आवा महेलमां दूधना फीण जेवा कोमळ अने उज्जवल बिछानावाळा सुन्दर पलङ्ग उपर भगवान् श्रीकृष्ण आनन्दपूर्वक बिराजमान हता अने रुक्मिणीजी त्रण लोकना स्वामीने पतिरूपमां प्राप्त करी आपनी सेवा करी रह्यां हताम् ॥६॥
रुक्मिणीजीए रत्नोनी दाण्डीवाळो चम्मर सखीना हाथमान्थी लई लीधो अने लक्ष्मीस्वरूप रुक्मिणीजी पोते पासे जई भगवान्ने चम्मर ढोळवा लाग्या ॥७॥
तेमना करकमलोमां जडाउ र्वीटीओ, कङ्कण अने चम्मर शोभी रह्यां हतां. चरणोमां मणिजटित झाञ्झर रूमझूम-रूमझूम करी रह्यां हतां. वस्त्रना छेडाथी आच्छादित स्तनोना कुङ्कुमने लीधे लाल देखाता हारना प्रकाशथी शोभतां हतां. कटि उपर बहुमूल्य कटि मेखला धारण करी हती. आ प्रमाणे तेओ भगवान्नी पासे ऊभां रही आपनी सेवामां संलग्न हताम् ॥८॥
रुक्मिणीजीना वाङ्कडिया केशनी लटो, कानोना कुण्डल अने गळाना हार अत्यन्त शोभता हता. तेमना मुखकमलनो मलकाट अमृतवर्षा करी रह्यो हतो. ए रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यावती लक्ष्मीजी ज तो छे. तेमणे ज्यारे जोयुं के भगवाने लीलामाटे मनुष्यना जेवुं शरीर ग्रहण कर्युं छे त्यारे तेमणे तेने अनुरूप रूप प्रकट करी दीधुं. भगवान् श्रीकृष्ण ए जोईने अत्यन्त प्रसन्न थया के रुक्मिणीजी मारे परायण ज छे, मारी अनन्य प्रिया छे, त्यारे आपे प्रेमपूर्वक तेमने हसतां- हसतां कह्युम् ॥९॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - हे राजकुमारी! जेमनी पासे लोकपालोना जेवुं [[५२४]] ऐश्वर्य अने सम्पत्ति छे, जे मोटा महानुभाव अने श्रीमन्त छे तथा सुन्दरता, उदारता अने बळमां बहु चडियाता छे एवा मोटा-मोटा नरपतिओ तमारी साथे विवाह करवा मागता हता ॥१०॥
तमारा पिता तथा भाई पण तेमनी साथे ज तमारो विवाह करवा मागता हता ते त्यां सुधी के तेमणे वाग्दान पण करी दीधुं हतुं. शिशुपाल वगेरे मोटा-मोटा वीरोने, जे कामोन्मत्त थई तमारा जाचक बनी रह्या हता, तमे तेमने छोडीने मारा जेवी व्यक्तिनो जे कोई रीते तमारी समान नथी, पोताना पति तरीके स्वीकार कर्यो तमे आम केम कर्युं? ॥११॥
हे सुन्दरी! जरासन्ध वगेरे राजाओथी डरी जईने अमे समुद्रने शरणे आवीने वस्या छीए. मोटा-मोटा बलवानोनी साथे वेर बान्ध्युं छे अने राजसिंहासनना अधिकारथी पण अमे प्रायः वचिन्त ज छीए* ॥१२॥
विशेष - श्रीकृष्णना पूर्वज ययातिए पोताना पुत्र यदु पासे ययातिने बुढापो लई पोतानी जुवानी आपवा कह्युं. भक्ति जुवानीमां ज थई शके, घडपणमां नहि माटे यदुए ना पाडी. ययातिए यदु अने तेना वंशजोने राज्याधिकारथी वचिन्त कर्या. (भाग. पुरा.९.१८) हे सुन्दरी! अमारी नीति-रीति मार्गनी लोकोने खबर नथी. अमे लौकिक व्यवहारनुं पण मोटे भागे पालन नथी करता. लोकमां रहेवा छतां, लोकमां न रहेता होय तेवानो मार्ग खेडनारा छीए; अनुनय-विनयथी स्त्रीओने रीझवता पण नथी. अमारा जेवा पुरुषोना आश्रय करनारी स्त्रीओ प्रायः (प्रायः (मोटाभागे) एटलामाटे कह्युं के ते स्त्रीओ पण तत्प्रवण अने तेवी ज होय तो दुःखी थती नथी. एटले के सुखी थाय छे.) दुःखी थाय छे ॥१३॥
(जेने कोई न भजे तेने जे भजे ते दुःखी थाय छे ते वधारे स्पष्ट करतां कहे छे के) अमे तो सदाना अकिञ्चन छीए. न तो अमारी पासे क्यारेय कंई हतुं के न हशे. एवा ज अकिञ्चन लोको अमने वहाला छे अने अमे पण तेमने वहाला छीए. हे सुन्दरी! धनवान लोको तेथी ज तो प्रायः (घणुं करीने) अमने भजता नथी, अमारा उपर प्रेम करता नथी. (प्रायः एटलामाटे के अम्बरीष राजा जेवा कोई विरलाओ धनवान होवा छतां अमने भजे छे) ॥१४॥
जेमनां धर्म, धन, जन्म (मूलमां ‘जन्म’ अने ‘भव’ शब्दो छे. जन्मउम्मर. वर चोवीस वर्षनो, कन्या सोळ वर्षनी ए समान जन्म, ‘भव’ एटले एक [[५२५]] ज देशमां जन्म अथवा सरखी समृद्धि.) ऐश्वर्य, सौन्दर्य अने समृद्धि ए छ समान होय तेमनी साथे ज विवाह अने मित्रता नो सम्बन्ध करवो जोईए. जे पोतानाथी उत्तम के अधम होय तेमनी साथे न करवो जोईए ॥१५॥
हे विदर्भ राजकुमारी! तमे तमारी अदूरदर्शिता (टूङ्की दृष्टि) ने कारणे आ वातोनो विचार न कर्यो अने जाण्या बूज्या विना (नारदजी वगेरे) भिक्षुकोने मोढे मारी जूठी प्रशंसा साम्भळी मने गुणहीनने पसन्द करी लीधो ॥१६॥
ए भूल सुधारवाने माटे तमे१ तमने अनुरूप२ कोई श्रेष्ठ क्षत्रियने वरण करी लो जेथी करी तमारी आ लोक अने परलोकनी बधी आशा-अभिलाषाओ पूरी थई शके ॥१७॥
विशेष - १. ‘तमे’ एटले मायारूप. मायानो अर्थ कपट पण थाय छे. कपट संसारी बहिर्मुख
आगळ ज चाले, ब्रह्म पासे न चाले.
२. ‘‘तमने अनुरूप’’ एटले संसारमां रच्यो-पच्यो रहेनारो. स्त्रीओमां संसारिक
आसक्ति ज होय छे तेथी स्त्रीओनी मुक्ति थती नथी एवी शास्त्र मर्यादा छे. तेमने पतिनुं
सायुज्य मळे छे.
हे वामोरु! (सुन्दरी) शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र अने तमारो मोटो
भाई रुक्मी-ए बधा राजाओ मारो द्वेष करनार छे तेथी मारा शत्रुओ छे ॥१८॥
ए पराक्रमना मदमां आन्धळा बनेला अने गर्ववाळा हता. तेमना गर्वने तोडवामाटे अने हे कल्याणी! दुष्टोना तेजनो नाश करवामाटे एमने जीतीने हुं तमने लाव्यो छुम् ॥१९॥
एक वात चोक्कस छे के अमे उदासीन छीए. अमे स्त्री, सन्तान अने धननी कामना राखता नथी. निष्क्रिय अने देहगेह ना सम्बन्ध विनानी दीपशिखाना जेवा साक्षीमात्र छीए. अमे अमारा आत्माना साक्षात्कारथी ज पूर्णकाम छीए, कृतकृत्य छीए. (दीवो पेटाववामां आवे तो तेने पोताने कोई अपेक्षा नथी पण ते जे स्थानमां होय ते स्थानने प्रकाशयुक्त करे छे एम अमारुं समजवुं) ॥२०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम एक क्षण पण भगवान्थी छूटां नहि पडेल अने तेथी भगवान्नी बधी राणीओमां पोते सौथी अधिक प्रिय छे एम मानतां रुक्मिणीजीने एटलुं कही एमना गर्वनो नाश करनार भगवान् बोलता बन्ध थया ॥२१॥
[[५२६]] हे परीक्षित! ज्यारे देवी रुक्मिणीजीए पोतानां परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान्नी आ अप्रिय वाणी साम्भळी, जे पहेलां कदी साम्भळी नहोती, त्यारे ते अत्यन्त भयभीत थई गयां. तेमनुं हृदय धडकवा लाग्युं अने रोतां-रोतां चिन्ताना अगाध समुद्रमां गरकाव थई गयाम् ॥२२॥
ते पोताना अत्यन्त कोमल तेमज सुलक्ष्ण चरणना नखोनी लालाशथी सहेज लाल देखातां चरणोथी धरती खोतरवा लाग्यां. (आथी धरतीमां समाई जवानो भाव सूचित थाय छे) अञ्जनयुक्त काळां-काळां आंसु केसरथी रङ्गेल वक्षःस्थलने धोवा लाग्यां. मुख नीचे झूकी गयुं. अत्यन्त दुःखने लीधे तेमनी वाणी कुठिन्त थई गई. (आंसु पडवाथी आङ्खमान्थी अञ्जन नीकळी गयुं तेम हृदयना दोषो पण-अर्ही अहङ्कार; बहार फेङ्काई गयो) ॥२३॥
अत्यन्त व्यथा, भय अने शोक ने लीधे विचार शक्ति चाली गई; वियोगनी सम्भावनाथी ते तत्क्षण एटलां दूबळां थई गयां के काण्डामान्थी कङ्गन सरकी जईने नीचे फेङ्काई गया. हाथमान्थी चम्मर पडी गयुं. बुद्धिनी विकलताने लीधे ते एकाएक अचेत थई गयां, केश वीखराई गया अने पवनना झपाटाथी केळ पडी जाय तेम ते धरती उपर पडी गयाम् ॥२४॥
भगवान् श्रीकृष्णे जोयुं के पोतानी प्रिया रुक्मिणीजी हास्यनी प्रौढि (प्रौढिः जेमां पहेलां पूर्व पक्ष करवामां आवे अने पछी सिद्धान्तनुं निरूपण थाय तेवी चर्चा प्रौढता.) नथी समजी शक्यां अने प्रेमपाशनी दृढताने लीधे तेमनी आ दशा थई रही छे. स्वभावथी ज परम कारुणिक, स्त्रीओनां हितने माटे ज प्रकट थयेला श्रीकृष्णनुं हृदय तेमना प्रत्ये करुणाथी भराई गयुम् ॥२५॥
चतुर्भुज भगवान् श्रीकृष्ण ए ज वखते पलङ्ग उपरथी नीचे उतरी गया अने बे हस्तथी रुक्मिणीजीने उठावी लीधां, बे हस्तथी छूटी गयेला केशने संवारी, शीतल अमृतस्रावी जमणा हस्तकमलथी मुखने लूछी नाख्युम् ॥२६॥
भगवाने तेना नेत्रनां आंसु तथा शोकनां आंसुओथी र्भीजायेलां स्तनोने *लूछी नाखी. पोताना उपर अनन्य प्रेमभाव राखवावाळां ते सती रुक्मिणीजीने भगवाने भुजावडे आलिङ्गन कर्युम् ॥२७॥
विशेष - प्रसृज्य - आंसु लूछी नाखी आंसुथी रेलायेलुं आञ्जण आखा चहेरा उपर लपेडी दीधुं. (अने आ रीते पोताना प्रेमनी प्रतीति करावी आपी) [[५२७]] भगवान् श्रीकृष्ण मनाववानी कळामां बहु कुशळ अने भगवद् वाक्योमां अडग विश्वास राखनारा सन्तोना एक मात्र आश्रय छे. ज्यारे आपे जोयुं के हास्यनी प्रौढिने नहि समजवाथी रुक्मिणीजीनी बुद्धि चक्करमां पडी गई छे, चित्त भ्रमित थई गयुं छे ते अत्यन्त दीन थई गयां छे त्यारे आ अवस्थाने अयोग्यतेवी दुःखित प्रिया रुक्मिणीजीने समजाववा लाग्या ॥२८॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे वैदर्भी! खोटुं न लगाडशो. मारा उपर गुस्सो न करशो. हुं जाणुं छुं के तमे मारां अनन्य भक्त छो, मने ज परायण छो. हे अङ्गना! तमारी प्रेमभरी वातो साम्भळवामाटे ज में आ परिहास कर्यो हतो ॥२९॥
हुं जोवा मागतो हतो के मारा आम कहेवाथी तमारा लाल होठ प्रेम अने क्रोध थी केवी रीते फरके छे, तमारा कटाक्षपूर्वक जोवाथी नेत्रो केवां लाल थई जाय छे अने भ्रमर चढी जवाथी तमारुं मुख केवुं सुन्दर लागे छे ॥३०॥
हे प्रियतमा! सुन्दरी! गृहस्थाश्रममां रहेनारा लोकोने माटे ज उत्तम लाभ छे के (त्रण यामनी रात्रिमान्थी) एक याम (त्रण कलाक) पोतानी धर्मपत्नीनी साथे परिहास (मश्करी) मां आनन्दपूर्वक गाळवामां आवे’’ ॥३१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजन्! ए वैदर्भीने भगवाने एम कही शान्त कर्यां त्यारे एमने लाग्युं के आ तो भगवान् परिहासमां मने कहे छे तेथी पहेलां प्रिय मारो त्याग करशे के शुं एवो एमने भय हतो ते दूर थई गयो ॥३२॥
पुरुषोत्तम प्रभुना श्रीमुखने लज्जा, हास अने स्नेह वाळा कटाक्षवडे जोतां हे भारत! रुक्मिणीजी पोताना प्रियने आ प्रमाणे कहेवा लाग्याम् ॥३३॥
रुक्मिणीजीए कह्युं - हे अरविन्दलोचन! ‘‘तमने अमे लायक नथीतो असमान एवा अमने तमे केम वर्या?’’ एम आपे कह्युं ए ठीक कह्युं केमके त्रण लोकना अधीश अने पोताना पूर्णानन्दमां आसक्त भगवान् क्यां अने गुण छे स्वरूप जेनुं तेवी अने मूर्खो जेना चरणने ग्रहण करे छे तेवी हुं क्यां? तेथी हुं आपने लायक नथी छतां आपे कृपा करी मने स्वीकारी छे तेथी आपनुं कहेवुं हुं यथार्थ समजुञ्छुम् ॥३४॥
हे भगवान्! आपे ‘‘अमे राजाओना भयथी समुद्रने शरणे आव्या छीए’’ एम कह्युं ए योग्य छे केमके रजोगुणना धर्मरूप राजस राजाओ निरन्तर प्रकृति (माया) ना ज स्वभाववाळा होय छे. ए गुणरूप राजाओथी आप भय मानी [[५२८]] समुद्र जे चैतन्यघन छे एटलुं ज नहि; पण ए मुद्रा (ढाङ्कण) सहित छे तेथी त्यां गुण आवी न शके तेनी पण अन्दर आत्मारूपे आप रहो छो. आपे कह्युं ‘‘राजाओ नित्य अमारो द्वेष करे छे’’ ए ठीक छे केमके राजाओ कुत्सित विषयमां लम्पट छे तेमनी सामे आप सदा युद्धमेदाने ऊतरेला ज छो. आपे कह्युं ‘‘अमे राज्यासननो त्याग कर्यो छे’’ ए तो आपना सेवको पण राजपदने तेना उपर बेसनारने अन्ध करी दे छे तेथी तेने ठोकरे मारी छोडी दे छे तो आप छोडी दो एमां शुं आश्चर्य? ॥३५॥
आपे कह्युं के ‘‘अमारो मार्ग स्पष्ट नथी अने अमे लौकिक पुरुषो जेवुं आचरण पण नथी करता’’ आ सम्पूर्ण सत्य छे कारण के आपना चरणना उपासक ज्ञानीओ तेथीय आगळ जईए तो, आपना चरणकमलना उपासक भक्तो एमांय वळी चरणकमलना मकरन्दना सेवनारा भक्तिरसना अभिज्ञ ते भक्तिरस बीजो लई जशे एवा डरथी बहारथी विपरीत आचरण करे छे एटले तेमनो पण मार्ग स्पष्ट नथी. आ मार्ग ज एवो छे के तेनी अस्पष्टता दोषरूप नथी गुणरूप छे. विषयोमां आसक्त, नर आकारना, पूञ्छ अने शिङ्गडां विनाना पशुए ते मार्ग समजी शक्ता नथी. हे अनन्त! आपना मार्गे चालनाराओनी चेष्टाओ प्रायः अलौकिक होय छे तो समस्त शक्तिओ अने ऐश्वर्यो ना आश्रयरूप आपनी चेष्टाओ अलौकिक होय तेमां तो कहेवुं ज शुं? ॥३६॥
आपे कह्युं ‘‘अमे निष्किञ्चन छीए तथा अमे निष्किञ्चनना प्रिय छीए अने ए अमने प्रिय छे. धनमदथी आन्धळा लोको घणुं करीने अमने भजता नथी’’ आपनी अकिञ्चनता दरिद्रता नथी. तेनो अर्थ ए छे के आपना सिवाय (आ जगतमां) बीजुं कंई ज न होवाने लीधे आप ज बधुं छो. आपनी पासे राखवाने माटे कंई ज नथी. परन्तु जे ब्रह्माजी वगेरेनी पूजा बधा लोको करे छे, जेने भेट धरे छे ते देवो ज आपनी पूजा कर्या करे छे. आप तेमने प्रिय छो अने तेओ आपने प्रिय छे. जे लोको पोतानी धनाढ्यताना अभिमानथी अन्ध थई गया छे अने इन्द्रियोने तृप्त करवामां ज लाग्या रहे छे तेओ नथी तो आपनुं भजन करता के नथी तो एम जाणता होता के आप मृत्युना रूपमां एमना सिरपर सवार थयेला छो ॥३७॥
‘‘सात बाबत समान होय तेनी साथे विवाह तथा मैत्री शोभे’’ एवी आपनी वात पण वाजबी छे, कारण के जगतमां जीवनेमाटे जेटला इच्छवा जेवा पदार्थ [[५२९]] (सर्व पुरुषार्थरूप अने फलरूप) छे ते धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष-आ तो आपना आनन्द स्वरूपमां ज छे. (जेवी रीते गङ्गाजीमां जळ छे छतां पण जळ करतां गङ्गाजी महान छे) आप समस्त वृत्तिओ, प्रवृत्तिओ, साधनो, सिद्धिओ अने साध्यो ना फलस्वरूप छो तेथी ज विचारशील मतिमान पुरुषो आपने प्राप्त करवानी इच्छा थतां ज समस्त कर्तव्योने छोडी दईने आपने भजे ए योग्य छे. जेवी रीते सर्व क्लेश रहित परस्पर खूब प्रेम करनारां स्त्री अने पुरुष मळे तो तेमनो समाज रसजनक थाय छे तेवी रीते हे विभो! उपर कहेला मतिमान पुरुषो अने आपनो समाज रसजनक थाय छे. पण रतिने माटे दाम्पत्यथी जोडायेलां स्त्रीपुरुष बेमान्थी एक सुखी होय अने एक रोगथी दुःखी होय तो तेमनो समाज रसजनक थतो नथी. तेमने आपनो सम्बन्ध थवो पण योग्य नथी ॥३८॥
‘‘मने भिक्षुकोए आपनी प्रशंसा करी छे’’ एम आपे कह्युं ते बराबर छे. परन्तुं क्या भिक्षुकोए? ते परम शान्त, परमहंस, कोई पण फलनी आकाङ्क्षा वगरना महात्माओए आपना महिमा अने प्रभाव नुं वर्णन कर्युं छे, जेमणे अपराधीमां अपराधी व्यक्तिने पण दण्ड न देवानो निश्चय करी लीधो छे. में अदूरदर्शिताथी नहि पण ए वातने समजीने ज आपनुं वरण कर्युं छे के आप आखा जगतना आत्मा छो अने आपना प्रेमीओ (भक्तो) ने पोताना आत्मानुं पण दान करी दो छो. हुं (लक्ष्मी) जाणी बूजीने ब्रह्माजी, देवराज इन्द्र वगेरेने छोडीने आपने एटलामाटे वरी छुं (समुद्रमन्थन वखते लक्ष्मीजी समुद्रमान्थी प्रकट थयां अने ते वखते स्वयंवरमां ब्रह्माजी, इन्द्र वगेरेनो त्याग करी विष्णुने वर्यां ते प्रसङ्गनुं अनुसन्धान करवुं.) के आपनी भ्रूकुटिना ईशाराथी उत्पन्न थतो काल पोताना सपाटाथी तेमनी आशा-अभिलाषाओ नष्ट करे छे तो पछी बीजानी-शिशुपाल, जरासन्ध, दन्तवक्त्र वगेरेनी तो वात ज शी? ॥३९॥
हे सर्वेश्वर आर्यपुत्र! ‘‘आप राजाओथी भयभीत थई जईने समुद्रमां जई वस्या छो’’ ए आपनी वात कोई रीते युक्तिसङ्गत नथी; कारण के आपे मात्र आपना शांर्गधनुषना टङ्कारथी मारा विवाह वखते आवेला बधा राजाओने मारी हठावीने आपना चरणोमां समर्पित मने (आपनी दासीने), जेम सिंह पोतानी गर्जनाथी वनपशुओने भगाडी मूकी पोतानो भाग लई ले छे तेम, हरण करीने लई गया ॥४०॥
[[५३०]] आपे कह्युं ‘‘जेनो मार्ग स्पष्ट नथी तेने परणनारी स्त्री दुःखी थाय छे, ‘‘ए वात ठीक छे. पण आपनो तो राजमार्ग छे; ए मार्गे तो राजाओना शिरोमणि अङ्ग, पृथु, भरत, ययाति तथा गय वगेरे राजाओ आपनुं भजन करवानी इच्छाथी पोतानुं चक्रवर्ती राज्य छोडी वनमां गया छे. अने आ लोकमां आपनो आश्रय नहि करनार राज्य करीने शुं सुखी थाय छे? तेम जेणे राज्य छोडी वनमां आपनुं आराधन कर्युं ते शुं परिणामे दुःखी थाय छे? ते ज आपने प्राप्त थाय छे पण अर्ही राज्य करनार ज आपना आश्रय वगर संसारने पामे छे ॥४१॥
आपे कह्युं ‘‘बीजा कोई उत्तम क्षत्रियने वरो’’ हे भगवन्! आप समस्त गुणोना एक मात्र आश्रय छो. मोटा-मोटा सन्त पुरुषो आपना चरणकमलनी सुगन्धना वखाण करता रहे छे तेनो आश्रय लेवा मात्रथी प्राणी मात्रने मोक्ष सुधीनुं बधुं सुख मळी रहे छे. लक्ष्मीजी सर्वदा चरणकमलमां ज निवास करे छे. पछी आप ज बतावो के पोताना स्वार्थ अने परमार्थ ने सारी रीते समजनारी एवी कई स्त्री होय के जेने एकवार ते चरणकमलोनी सुगन्ध सूङ्घवा मळी जाय अने पछी तेने अवगणी एवा लोकोनुं वरण करे छे जे सदा जन्म, रोग, जरा, मृत्यु वगेरे भयोथी युक्त होय? अथवा कोई पण बीजाने न भजे ॥४२॥
हे प्रभु! आप समस्त जगतना एक मात्र स्वामी छो. (तेथी हीनमां हीन जीवने पण पोतानी शक्ति प्रमाणे आपनी सेवा करवानो अधिकार छे) आप बधाना आत्मा छो अने आ लोकमां (स्वर्गादि) परलोकनां सुख अने परलोकमां आ लोकनां सुख जीवोनी कामनाओ पूर्ण करीने आपो छो. हुं आपने अनुरूप कदाच न होउं पण आप तो मने अनुरूप छो ज एम समजीने ज में आपनुं वरण कर्युं छे. मारे मारां कर्मो अनुसार जुदी-जुदी योनिओमां भटकवुं पडे तेनी मने परवा नथी. मारी एक मात्र अभिलाषा ए ज छे के हुं सदा आपनुं भजन करवावाळानो मिथ्या भ्रम दूर करी देनार मोक्षने आपनारुं तथा तेमने आपना स्वरूप सुद्धानुं दान करी देनार आप परमेश्वरना चरणनां शरणमां रहुं. (प्रार्थना करवामां न आवे, भगवान् न आपे तो पण मोक्ष सामेथी भगवद्भक्त पासे आवे छे) ॥४३॥
हे अच्युत! हे *अरिसूदन! गधेडानी जेम घरनो भार ऊञ्चकनारा, बळदोनी जेम घरनां कामोमां जोडायेला, कूतरानी जेम तिरस्कार सहन करीने तथा मालिक सूतो होय त्यारे जागीने घरनी चोकी करनारा, बिलाडीनी जेम चाटी खानारा अने [[५३१]] हिंसा करनारद्ग आ चार प्रकारना स्त्रीनी सेवा करनारा चाकर जेवा शिशुपाल वगेरे राजाओ, जेमनुं वरण करी लेवानुं आपे सूचन कर्युं ए ज दुर्भाग्यवाळी स्त्रीना पति हो के जेना कर्णमूलमां भगवान् शङ्कर, ब्रह्माजी वगेरे देवेश्वरोनी सभामां गवाती रहेती आपनी लीला कथाए प्रवेश न कर्यो होय ॥४४॥
विशेष - भगवान्ने माटे सम्बोधन ‘अरिकर्षण’ वापर्युं छे. ‘‘विषं यान्ति इति विषयाः अरयः तान् कर्षते।’’ विषयरूपी अरि (दुश्मन) नो नाश करनार भगवान्. ‘युष्मत्कथाः।’ समासथी ज्यां कथा होय त्यां भगवान् होय ज एवो सहभाव कह्यो. कथा - बहुवचनथी एम बताव्युं के भगवान् एकरूप छे, कथाओ बहुरूप छे. अर्थात् भगवान् करतां भगवत्कथा अति बलवान छे. हे नाथ! जे स्त्रीने क्यारेय आपना चरणारविन्दना मकरन्दनी सुगन्ध सूङ्घवा नथी मळी ते मूर्ख ज चामडी, दाढी, मूछ तथा वाळ अने नख वडे उपरथी मढेला अने अन्दरना भागमां मांस, हाडकां, लोही, कीडा, मलमूत्र, कफ, पित्त अने वायु थी भरेला एवा मुडदा सरखा पुरुषने पोतानो धणी मानी सेवे छे* ॥४५॥
विशेष - शबनुं आलिङ्गन करवामां कंई भोग नथी. शबने आलिङ्गन करवानुं स्वप्नुं पण आवे तो पण ते स्वप्नुं मोत नीपजावे छे. मनुष्यमां प्राण छे एटलो ज मनुष्य अने शबमां तफावत छे. जे कमलनी सुगन्ध सूङ्घे छे तेने शबनी गन्धथी ऊबको आवे छे. बेउ गन्धना तफावतनी जेने खबर ज न पडती होय तेवा कागडा वगेरेने शबनी गन्धथी घृणा थती नथी. ‘स्त्री’ शब्द वापर्यो छे ते ‘पतिव्रता’ ने लागु नथी पडतो. ते तो पतिनुं भगवद्बुद्धिथी सेवन करे छे,विषयनी आशाथीनहि. हे कमलनयन! आप आत्माराम छो. हुं सुन्दरी अथवा गुणवती छुं ए वात तरफ आपनी दृष्टि जती नथी. तेथी आप उदासीन रहो ए स्वाभाविक छे. छतां आपनां चरणमां मारो अनुराग (प्रेम) हो ए ज मारी अभिलाषा छे. ज्यारे आप आ जगतनी वृद्धिने माटे उत्कट रजोगुणनो स्वीकार करो छो त्यारे आप मारी तरफ (कामदृष्टिथी) जुओ छो. ते ज वखते अमारी आखी स्त्री जाति उपर आपनी महान कृपा उतरे छे ॥४६॥
हे मधुसूदन भगवान्! आपनुं वचन हुं सत्य मानुं छुं केमके एक पुरुषद्वारा जितायेली कन्या पण काशीराजनी कन्या अम्बानी जेम क्वचित् पर पुरुषमां प्रीति करे छे* ॥४७॥
[[५३२]]
विशेष - महाभारतमां उद्योग पर्वमां प्रसङ्ग आवे छे के काशीराजने त्रण कन्या हती-अम्बा, अम्बिका अने अम्बालिका. तेमनो स्वयंवर रचवामां आव्यो. भीष्म ए स्वयंवरमां आवी त्रणेय कन्याओने विचित्रवीर्यने परणाववामाटे हरण करी गया. अम्बाए जाहेर कर्युं के हुं तो मनथी शाल्व राजाने वरी चूकी छुं. सत्यवतीनी सलाहथी भीष्मे अम्बाने शाल्व पासे पहोञ्चती करी. बीजाने त्यां रही आवेल होवाथी शाल्वे तेनो स्वीकार न कर्यो. अम्बाए पोताने परणवा भीष्मने विनन्ति करी पण ते तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हता एटले स्वीकार न कर्यो. पिताने त्यां नहि जतां तेणे एक ऋषिना आश्रममां रही तप करवा सङ्कल्प कर्यो. अम्बाना मातामह त्यां आवी चड्या. ते अम्बाने लई परशुरामजी पासे गया अने हकीकत जणावी. परशुरामजीए भीष्मने अम्बानी साथे लग्न करवा समजाव्या. भीष्म न मान्या. बन्ने वच्चे युद्ध थयुं. गङ्गा अने जमदग्नि ए वच्चे पडी युद्ध अटकाव्युं. भीष्म पोतानी माता गङ्गाने तथा गुरु परशुरामजीने वन्दन करी पोताने स्थाने गया. परशुरामजी पण दैव बळवान् छे एम अम्बाने समजावी पोताने आश्रमे पधार्या. अम्बाए भीष्म उपर वेर लेवा घोर तप कर्युं. रुद्र प्रसन्न थया अने कह्युं के आवते जन्मे तुं द्रुपद राजाने त्यां कन्या तरीके जन्मीश. नाम शिखण्डीनी पडशे. दैववशात् तुं स्त्रीमान्थी पुरुष थई जईश त्यारे नाम शिखण्डी पडशे. भीष्म स्त्रीओ उपर शस्त्रो चलावता नहि अने शिखण्डी पहेलां स्त्री हती तेनी पण तेने खबर हती एटले शिखण्डी सामे शस्त्र चलावे नहि. आनो लाभ लई महाभारतना युद्धमां अपराजित भीष्मनी सामे शिखण्डी आव्यो के तरत ज भीष्मे शस्त्रो मूकी दीधां. शिखण्डीए बाण चलावी तेमने युद्धमां वीरगति आपी. (महाभारत उद्योगपर्व अध्याय १७३ थी १८७) कुलटा (पुंश्चली) स्त्रीनुं मन तो विवाह थई गया पछी पण नवा पुरुष तरफ खेञ्चातुं रहेतुं होय छे. बुद्धिमान पुरुष एवी स्त्रीनुं धारण-पोषण न करे. एवी स्त्रीने पोषनार बन्ने लोकथी भ्रष्ट थाय छे ॥४८॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे साध्वी! राजकुमारी! आ ज वातो साम्भळावामाटे तो में हसतां-हसतां वाङ्कां वचन कही तमारी छलना (वञ्चना) करी तमने छेतर्यां हतां. मारा कहेलां वचनोना तमे उत्तर आप्या ते बधा योग्य छे, सत्य छे ॥४९॥
हे मानिनी! तमे मारां अनन्य भक्त छो. मारा उपर तमारो अनन्य प्रेम छे. तमे मारी पासे जे-जे अभिलाषाओ करो छो ते तो सदा सर्वदा तमने प्राप्त ज छे. एक बीजी पण वात छे के मारी पासेथी करेली अभिलाषाओ सांसारिक कामनानी [[५३३]] जेम बन्धनमां नाखनारी नथी होती, परन्तु हे कल्याणी! ते समस्त कामनाओथी मुक्ति-निष्काम करी दे छे ॥५०॥
हे पुण्यमयी प्रिये! में तमारो पतिप्रेम अने पातिव्रत्य पण सारी रीते जोई लीधां. हुं सीधी-टेडी वात कही-कही तमने डगावी देवा मागतो हतो परन्तु तमारी बुद्धि मारामान्थी लेश पण चलित न थई तेम ज ए घटी पण नहि ॥५१॥
हे प्रिय! हुं मोक्षदाता छुं. लोकोने संसार सागरनी पेले पार लई जाउं छुं. जे सकाम पुरुष तपस्या करीने अने स्त्रीओ व्रतो करीने दाम्पत्य जीवनना विषय सुखोने माटे मारी भक्ति करे छे ते मारी मायाथी मोहित छे. (कारण के शीतळतानी प्राप्तिमाटे अग्निनुं सेवन करवुं वृथा छे) ॥५२॥
हे मानिनी! हुं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पत्तिओनो आश्रय छुं, अधीश्वर छुं. मने परमात्माने प्राप्त करीने पण जे लोको मात्र विषयसुखनी अने ऐहिक साधनसम्पत्तिनी ज अभिलाषा राखे छे. मारी भक्ति नथी करता ते भारे मन्दभागी छे, कारण के विषयसुख तो नरकमां अने नरक जेवी ज सूकर-कूकर जेवी अधम योनिओमां पण प्राप्त थई रहे छे. परन्तु ते लोकोनुं मन तो विषयोमां ज लाग्युं रहे छे तेथी तेमने नरकमां जवुं पण सारुं लागे छे. नरक तो सुलभ छे. क्लेश वगर जे मळी जतुं हेय तेने माटे क्लेश भोगववो ते मन्दभाग्य नहि तो बीजुं शुं? ॥५३॥
हे गृहेश्वरी! तमे अत्यार सुधी संसार बन्धनथी छोडावी देनारी मारी निरन्तर सेवा करी छे ते बहु आनन्दनी वातछे. रुक्मी वगेरे दुष्टोए करेला उत्पात जोतां तो ते वधारे कठिन हती. जे स्त्रीओनां चित्त दूषित कामनाओथी भरेलां छे अने जे पोताना प्राणोनुं पोषण करवामाञ्ज रचीपची रहे छे अने नरकनी सेविकाओ छे तेओ माटे तो वळी वधारे कठणछे ॥५४॥
हे मानिनी! मने मारा घरमां तमारा जेटलो प्रेम करनारी भार्या बीजी कोई देखाती नथी केमके तमे तमारा विवाहमां आवेला राजाओनी परवा कर्या विना मने जोयो पण नहोतो छतां मात्र मारी उत्तम कीर्ति साम्भळी गुप्त सन्देश साथे ब्राह्मणने मारी पासे मोकली तमे मने वरवानो आग्रह बताव्यो हतो ॥५५॥
तमारुं हरण करती वखते में तमारा भाईने जीती लई तेने विरूप करी दीधो हतो अने अनिरुद्धना विवाह उत्सवमां चोपाट रमती वखते बलदेवजीए तो तेने मारी [[५३४]] ज नाख्यो. परन्तु अमारा वियोगना भयथी तमे आ बधुं दुःख सहन करी लीधुं. तेम ए सम्बन्धी कंई पण कह्युं नहि तेथी तमे अमने जीती लीधा छे ॥५६॥
तमे मने प्राप्त करवा दूतद्वारा पोतानो गुप्त सन्देशो मोकल्यो हतो. परन्तु ज्यारे तमे मारा आवी पहोञ्चवामां कंईक विलम्ब थतो जोयो त्यारे तमने आ आखुं जगत् सूनुुं जणावा लाग्युं. ते वखते तमे तमारुं आ सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर बीजा कोईने योग्य नथी एम समजी तेनो त्याग करी देवानो सङ्कल्प करी लीधो हतो. तमारो आ प्रेमभाव तमारामां ज रहो. तमारा आ अद्वितीय प्रेमनुं हुं अभिनन्दन करुं छुं. तेनो बदलो तो हुं चूकवी शकुं एम नथी. हुं तमारो ऋणी छुम् ॥५७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम छे. ते ज्यारे मनुष्योना जेवी लीला करी रह्या छे त्यारे तेमां दाम्पत्य प्रेमने वधारनारा विनोदभर्या वार्तालाप पण करे छे अने आ प्रमाणे लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीनी साथे विहार करे छे ॥५८॥
तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव ॥ आस्थितो गृहमेधीयान् धर्मान् लोकगुरुर्हरिः ॥५९॥
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगतने शिक्षा देवावाळा अने सर्वव्यापक छे. तेओ आ प्रमाणे बीजी पत्नीओना महेलोमां पण ते-ते पत्नीओ जोग विनोद करता, गृहस्थोनी जेम रहेता अने गृहस्थोचित धर्मनुं पालन करता हता ॥५९॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘रुक्मिणीजीनी साथे भगवाने करेलो परिहास’’ नामनो (उत्तरार्धनो ११मो अने चालु)६०मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ५७मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. पोताना कुटुम्बनुं पोषण, धन के यश नी कामनाथी जेओ पुराणनी कथा कहे छे तेमने खेतरमां पाणी पहोञ्चाडनारी नीक जेवा जाणवा. नीक वाटे पाणी मळतां जेम खेतरमां अनाज उगतुं होय छे तेम दक्षिणा स्वीकारीने कथा करनाराओना मुखे कथा साम्भळनार श्रोताओमां भक्तिभावने ठेकाणे अधोपात करनार अहन्ता-ममताज वधे छे. भक्तिमार्गीओए एवाना मुखे कथा न साम्भळवी-श्रीवल्लभाचार्य.
ईं उं ईं उं
[[५३५]]
अध्याय ६१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५८ अनिरुद्धना लग्नमां बलदेवजीए रुक्मीने मार्यो त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय ५
विशेष - भगवान् पुत्रपौत्रादियुक्त द्वारकामां बिराज्या ए प्रसङ्गथी रुक्मीनो वध आ एकसठमां अध्यायमां कहेवाय छे. भगवान् लोकमां केवळ क्रीडा करवा आव्या नथी पण सर्वनो उद्धार करवा आव्या छे तेथी विवाहमां पण रुक्मीने मार्यो छे. कलियुगमां शुद्ध क्षत्रिय राखवानो भगवद् अभिप्राय न होवाथी आ पापविवाह कर्यो तेनुं फल पण रुक्मीना वधथी बताव्युं. देवकीजीने प्रसन्न करवाने माटे भगवानने वंश राखवो छे. ए भगवानना वखतमां धर्म बराबर हतो एम कहेवाने अने श्रुतिमां दश पुत्रो स्त्रीमां उत्पन्न करवानी वात छे तेने सफल करवाने भगवानने बधी स्त्रीओमां दश-दश पुत्रो थया. भगवान् सिवाय बीजाथी लोकमां ए काम थई शके नहि तेथी अर्ही भगवाननुं स्मरण पण लोकवेदने आगळ करीने कह्युं छे ए वात अर्ही कहेवाय छे. एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान् दश दशाबलाः ॥ अजीजनन्ननवमान् पितुः सर्वात्मसम्पदा ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनी दरेक पत्नीए *दसदस पुत्रोने जन्म आप्यो. तेओ शरीर, इन्द्रिय, रूप, गुण, बल वगेरेमां तेमना पिता भगवान् श्रीकृष्णथी कोई रीते न्यून नहोता ॥१॥
विशेष - ‘‘दशास्यां पुत्राना धेहि’’ ‘‘आ (पत्नी) मां दस पुत्रो उत्पन्न कर’’ (एम ऋग्वेद ८.३.२८.५) मां कह्युं छे. असमर्थ भले वैदिक आज्ञानुं पालन न करे, समर्थ होय ते तो अवश्य करे; माटे दस-दस वधारेय नहि अने ओछाय नहि-पुत्रो थया छे. राजकुमारीओ जोती के भगवान् श्रीकृष्ण अमारा महेलथी बहार जता नथी, निरन्तर अमारी पासे ज बिराजमान होय छे. तेथी तेओ एम समजती के हुं ज श्रीकृष्णने सौथी वधारे वहाली छुं. हे परीक्षित! साचुं पूछो तो तेओ पोताना पति श्रीकृष्णनुं तत्व अने अभिप्राय जाणती नहोती ॥२॥
ते सुन्दरीओ पोताना आत्मानन्दमां एकरस स्थित भगवान् श्रीकृष्णना कमलकली जेवा मुख, विशाल (लाम्बा) बाहु, कर्णस्पर्शी (दीर्घ) नेत्र, प्रेमभर्या [[५३६]] हास्य, रसमयी दृष्टि अने मधुर वाणी (ए छ धर्मो) थी पोते ज मोहित रहेती हती. तेओ पोताना विलासोथी भगवानना मनने जीतवाने समर्थ न थई एटले भगवान् एमने वश न थया ॥३॥
भगवान् श्रीकृष्णनी पत्नीओ सोळहजार अने आठ हती. तेमनुं भगवान् तरफ गर्वपूर्वक जोवुं. क्षणवार जोई नजर हटावी लेवी, भगवाननो भाव (मनोधर्म) पोतामां आसक्त थाय तेवुं कामशास्त्र सिद्ध भ्रूमण्डल रचवुं, सुरतोद्बोधक गुह्य वार्तालाप (अने ते पण पत्नीओ होवाथी यथेच्छ, निःसङ्कोच अने प्रतिबन्धनी बीक विना), मनोहर भ्रमरना ईशाराथी कामकलाना भावो सहित प्रेमनां बाण चलाववां वगेरे कोई पण प्रकारे कपट धर्मोथी पण भगवानना मन अने इन्द्रियो मां चञ्चलता उत्पन्न करी शक्तां नहि ॥४॥
ब्रह्मा वगेरे मोटा-मोटा देवता पण भगवानना वास्तविक स्वरूपने अथवा आपनी प्राप्तिना मार्गने जाणता नथी. ते ज रमारमण भगवान् श्रीकृष्णने ते स्त्रीओए पति स्वरूपे प्राप्त कर्या हता. हवे नित्य निरन्तर एमना प्रेम अने आनन्द नी अभिवृद्धि थती रहेती हती अने तेओ प्रेमपूर्ण हास्य, मधुर दृष्टि, नवसमागमनी लालसा वगेरेथी भगवाननी सेवा करती रहेती हती ॥५॥
तेमान्थी दरेक पत्नी साथे सेवा करवामाटे सेङ्कडो दासीओ हती छतां पण ज्यारे तेना महेलमां भगवान् पधारता त्यारे ते पोते ऊभां थई जई आदरपूर्वक आपनुं स्वागत करतां, श्रेष्ठ आसन उपर बिराजमान करतां, उत्तम सामग्रीओथी आपनी पूजा करतां, चरणकमल पखाळतां, ताम्बूल आरोगावतां, चरण दाबी श्रम दूर करतां, पङ्खो करतां, अत्तर वगेरे लगाडतां, फूलोना हार पहेरावतां (केश संवारता) पोढाडतां, स्नान करावतां अने अनेक प्रकारनुं भोजन करावी पोताने हाथेज भगवाननी (बार उपचारथी) सेवा करताम् ॥६॥
हे परीक्षित! पहेलां कह्युं छे के भगवान् श्रीकृष्णनी दरेक पत्नीने दस-दस पुत्रो थया हता. ते राणीओमां आठ पटराणीओ हती. तारा हितनी खातर हवे तेमना प्रद्युम्न वगेरे पुत्रोनुं वर्णन करुं छुं* ॥७॥
विशेष - केटलीक वखत पूछवामां आवे छे के श्रीमद् भागवतमां आवी लाम्बी वंशावळी शा माटे कहेवामां आवे छे? महानुभावोनुं कहेवुं छे के वंशावळी श्रद्धापूर्वक श्रवण करवामां आवे तो श्रोतानो वंश आगळ चाले. [[५३७]] रुक्मिणीजीने दस पुत्रो थया हताःप्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु अने दसमा चारु.तेबधा पोताना पिता श्रीकृष्ण समान पराक्रमवाळाहता ॥८-९॥
भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान, चन्द्रभानु, बृहद्भानु अने आठमो अतिभानु ॥१०॥
श्रीभानु अने प्रतिभानु ए सत्यभामाना दस पुत्रो थया. साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्रजित ॥११॥
विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड अने क्रतु ए जाम्बवतीना दस पुत्रो पिताने सम्मत हता ॥१२॥
वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शङ्कु, वसु अने तेजस्वी कुन्ति ए नाग्नजितीना पुत्र थया ॥१३॥
श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, एकलो शत्रुने मारनार भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास अने सौथी नानो सोमक ए दस कालिन्दीजीना पुत्र थया ॥१४॥
सुघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज अने अपराजित ए दश माद्रीना पुत्र थया ॥१५॥
वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि अने क्षुधि ए मित्रविन्दाना दस पुत्र थया ॥१६॥
सङ्ग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु अने सत्यक ए दश भद्राना पुत्र थया ॥१७॥
भगवाननी सोळ हजार स्त्रीओमां मुख्य रोहिणीजीना दीप्तिमान, ताम्रपत्र वगेरे पुत्रो थया१ प्रद्युम्नना मायावती, रति उपरान्त भोजकट-नगर निवासी रुक्मीनी पुत्री रुक्मवती साथे पण विवाह थयो हतो. तेना गर्भथी महाबळवान् अनिरुद्धनो जन्म थयो२ ॥१८॥
विशेष - १. रोहिणीजीना ज्येष्ठ पुत्र दीप्तिमान आठ पटराणीओना पुत्रो जेवा ज हता.
आठ पटराणीओनां एंसी अने दीप्तिमान मळी एकासी पुत्रो एकासी भक्तिप्रकार भगवाने
प्रकट कर्या छे.
२. मामानी पुरी भोजकटमां केटलोक वखत प्रद्युम्नजी रह्या हता. त्याञ्ज मामा रुक्मीनी
पुत्री रुक्मवतीनी साथे लग्न कर्यां अने त्याञ्ज अनिरुद्धनो जन्मथयो.
[[५३८]]
हे राजन्! श्रीकृष्णना पुत्रोनी माताओ ज (भगवानना बधा पुत्रोनी
भगवाननी बधी स्त्रीओ सगी माता-जननी जेवी ज हती. एके एक स्त्री बधी
राणीओना पुत्रोने पोताना ज पुत्रो गणती.) सोळहजारथी वधारे हती. तेथी
तेमना पुत्र-पौत्रोनी सङ्ख्या तो करोडो सुधी पहोञ्ची गई ॥१९॥
राजाए पूछ्युं - रुक्मीए शत्रुना पुत्रने कन्या केम आपी, केमके एनो तो श्रीकृष्णे युद्धमां तिरस्कार कर्यो हतो अने श्रीकृष्णने मारवामाटे कोई निमित्त ज शोधी रह्यो हतो. ए बन्ने शत्रुने परस्पर विवाह सम्बन्ध केम थयो ए वात, हे विद्वन्! आप कहो ॥२०॥
आपथी कोई वात छूपी नथी, कारण के योगीजनो भूत, भविष्य अने वर्तमान नी बधी वातो सारी रीते जाणे छे. इन्द्रियोथी दूर होय, बहु दूर होय अथवा वचमां कोई वस्तुनुं आवरण होय तेवी बाबतो पण तेमनाथी छूपी नथी होती ॥२१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - जो के भगवान् श्रीकृष्णद्वारा अपमानित थवाने लीधे रुक्मीनी हृदयनो क्रोधाग्नि शान्त थयो नहोतो, हजु पण धुन्धवाई रह्यो हतो, छतां पोतानी बहेन रुक्मिणीने राजी करवा तेणे पोताना भाणेज प्रद्युम्नने पोतानी पुत्री परणावी दीधी ॥२२॥
हे परीक्षित! प्रद्युम्न मूर्तिमान कामदेव हता. तेमना सौन्दर्य अने गुणो उपर वारी जई रुक्मवतीए स्वयंवरमां तेमने ज वरमाळा पहेरावी दीधी. प्रद्युम्नजीए युद्धमां एकले हाथे त्यां एकठा थयेला राजाओने जीती लीधा अने रुक्मवतीनुं हरण करी लाव्या ॥२३॥
कृतवर्मानो पुत्र बली रक्मिणीजीनी विशाळ नेत्रवाळी चारुमती नामनी सुन्दर कन्याने परण्यो ॥२४॥
रुक्मी भगवान्थी बद्धवैर हतो छतां बहेनने सारुं लगाडवा पोतानी पौत्री रोचनानो विवाह रुक्मिणीजीना पौत्र पोताना दोहित्र अनिरुद्ध साथे करी दीधो. ए सम्बन्धमां अधर्म छे एम ए जाणतो हतो छतां बहेन भाईना स्नेहनिर्वाहने माटे धर्म-अधर्मनो विचार न करतां एणे आपी ॥२५॥
हे राजन्! ए विवाहमां रुक्मिणीजी, बलदेवजी, भगवान्, साम्ब, प्रद्युम्न वगेरे भोजकटपुर गया ॥२६॥
ए विवाह पूरो थयो त्यारे कलिङ्ग देशनो राजा जेओमां मुख्य छे तेवा बधा [[५३९]] गुमानी राजाओए रुक्मीने कह्युंः‘‘तमे बलदेवजीने पासानी रमत रमाडो अने एमने जीतो ॥२७॥
हे राजन्! बलदेवजीने पासा फेङ्कतां तो आवडता नथी परन्तु तेमने रमतनुं भारे व्यसन छे’’ एम ते लोकोना बहेकाववाथी रुक्मीए बलदेवजीने बोलाव्या अने ते तेमनी साथे चोपाट रमवा लाग्यो ॥२८॥
बलदेवजीए पहेलां सो, पछी हजार, त्यार पछी दसहजार महोरोना दाव लगाव्या ते रुक्मी जीती गयो. रुक्मीनी जीत थवाथी कलिङ्ग देशनो राजा दान्त देखाडी हस्यो. बलदेवजीथी ते हांसी सहन न थई ॥२९॥
त्यारे रुक्मीए एक लाख महोरोनो दाव लगाव्यो ते बलदेवजी जीत्या, त्यारे कपटथी रुक्मीए कह्युं ः‘‘ए तो हुं जीत्यो छुं’’ ॥३०॥
पूर्णिमाने दिवसे समुद्रमां भरती आवे तेम *श्रीमान् बलदेवजी क्रोधथी लालचोळ थई गया. एमनां नेत्रो जन्मथी अने स्वभावथी ज लाल तो हतां ज अने वधारामां अत्यन्त क्रोधथी वधारे लाल थई गयां. हवे तेमणे दश करोड महोरो दावमां लगावी ॥३१॥
विशेष - ‘श्रीमान्’ शब्द बलदेवजीमाटे एटला माटे वापर्यो छे के हारी जवाथी दावनी रकम चूकववानी त्रेवड नहोती एम नहोतुं कारण के ते सदा ‘श्रीमान्’ पूर्ण धन छे. राम ए जीत्या छतां छल करीने ‘हुं जीत्यो’ एम रुक्मीए कह्युं. ‘‘आ जोनाराओ तमे बोलो, हुं जीत्यो के नहि’’ एम ए बोल्यो. बीजाओ बोले ए पहेलां आकाशवाणी थई के ‘‘धर्मथी बलदेवजी जीत्या छे; वचनथी रुक्मी ‘हुं जीत्यो’ एम कहे छे ए खोटुं छे’’ ॥३२-३३॥
ए वाणीनो अनादर करी दुष्ट राजाओनी प्रेरणाथी ए बलदेवजीने कहेवा लग्योः ॥३४॥
‘‘तमे चोपाट रमवामां चतुर नथी. तमे तो गोवाळ छो. वनमां फरवुं ए तमारो विषय छे. पासानी रमतो अने बाणनी रमतो तो राजाओ रमी जाणे, तमारा जेवा न रमी जाणे’’ ॥३५॥
रुक्मीए एम तिरस्कार कर्यो अने बीजाओ हस्या त्यारे बलदेवजीने क्रोध चड्यो. हे राजन्! परिघ उपाडीने माङ्गलिक सभामां ज रुक्मीने मारी नाख्यो ॥३६॥
[[५४०]] पहेलां कलिङ्गराज दान्त देखाडी हस्यो हतो ते त्यान्थी भाग्यो. परन्तु बलदेवजीए दस पगलामां ज तेने पकडी पाड्यो अने गुस्सामां तेना दान्त पाडी नाख्या ॥३७॥
बलदेवजीए पोताना परिघथी बीजा राजाओना पण बाहु, साथळ, माथां वगेरे कापी नाख्यां. लोही लुहाण थई तेओ भयभीत थई भागी गया ॥३८॥
हे परीक्षित! बलदेवजीना आ कार्यनुं भगवान् समर्थन करे तो रुक्मिणीजी नाराज थाय अने रुक्मीना वधने वखोडी काढे तोबलदेवजी रुष्ट थाय एमविचारी भगवान् श्रीकृष्ण आ अङ्गे कांई बोल्या नहि ॥३९॥
ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम् ॥ रामादयो भोजकटाद् दशार्हाः सिद्धखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ॥४०॥
त्यारबाद अनिरुद्धजीनो विवाह अने शत्रुनो वध बन्ने प्रयोजन सिद्ध थई जवाथी भगवानना आश्रित बलदेवजी आदि यदुवंशीओ नवोढा रोचनानी साथे अनिरुद्धजीने श्रेष्ठ रथ उपर बेसाडी भोजकट नगरथी द्वारकापुरी आव्या ॥४०॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो) ‘‘अनिरुद्धना लग्नमां बलदेवजीए रुक्मीने मार्यो’’ नामनो (उत्तरार्धनो बारमो अने चालु) ६१मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ५८मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ६२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ५९ बाणासुरनी पुत्री उषानो अनिरुद्धनी साथे सम्बन्ध त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय६
विशेष - १. राजसना फलरूप निरोधमां देवोनो विजय स्पष्ट कहेवाय छे, कारण के एनो
निरोध थाय त्यारे ए कोईनी पण सम्भावना करता नथी. ए निरोधनुं कारण ६२ मा
अध्यायमां कहेवाय छे. आ अध्यायमां अनिरुद्धनो प्रसङ्ग छे अने धर्मने सिद्ध करनार
अनिरुद्ध छे ते सर्वथा उपकारी छे. धर्म राजसमां सफल थाय छे. अनिरुद्धनो निरोध करवो
[[५४१]]
छे पण एनो तो कोई बीजाए निरोध कर्यो छे. धर्ममूलक सर्व देवो छे. अनिरुद्धना रोधथी
सर्वनो निरोध सिद्ध थशे. बाणे पोताना घरमां अनिरुद्धजीने केद कर्या छे तेने भगवान्
छोडावशे त्यारे ए भगवान्मां निरुद्ध थशे. भक्तनी इन्द्रियोना देवो अत्यारे अनिरुद्धमूलक
छे. केमके अनिरुद्ध मनना अधिदेवछे.
२. माणसने स्वप्नमां पण जो स्त्रीनो प्रसङ्ग थाय तो एनाथी एने बन्धन थाय छे
तो पछी साक्षात् स्त्रीनो प्रसङ्ग थाय अने ए बीजाना जाणवामां आवे तेने बन्धन थाय
एमां तो कहेवुं ज शुं? (कारिका)
*श्रीशुक उवाच
बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः ॥
सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥१॥
विशेष - अर्ही शुक-परीक्षित संवादमां एक बे श्लोको ओछा वधारे जोवामां आवे छे. अर्ही श्रीसुबोधिनीजीने अनुकूल पाठ राख्यो छे. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - महात्मा बलिराजाने एक सो पुत्रो हता. तेमां बाणासुर सौथी मोटो हतो. (महादेवजीनी कृपाथी) तेने एक हजार हाथ हता. एक वखत शङ्कर ताण्डव१ नृत्य करी रह्या हता त्यारे हजार हाथोथी अनेक प्रकारनां वाद्यो वगाडी तेणे शङ्कर भगवानने प्रसन्न करी दीधा२ ॥१॥
विशेष - १. ताण्डव नृत्यमां नर्तकनो उत्साह वधारवामाटे अनेक प्रकारनां वाद्यो वागे ए जरूरी
होय छे. वगाडनारा जुदा-जुदा होय तो बेसूरापणुं थाय एक ज होय तो तेथी नर्तकने
सन्तोष थाय छे.
२. भगवान् वामनजीए बलिने बान्ध्या हता. बलि तो महात्मा हता एटले ए तो
भगवाननो अपकार करवानो विचार पण न करे. हवे बाणासुर भगवानने तो कंई करी शके
नहि एटले बदलो लेवा भगवानना अंश अनिरुद्धजीने तेणे बान्ध्या अने सन्तोष अनुभव्यो.
आ बधुं कहेवा बाणासुरनो परिचय बलिना ज्येष्ठ पुत्र तरीके आपवामां आव्यो छे.
सर्व नियामक शङ्कर शरणे आवेलना दुःखनिवारक अने भक्तवत्सल छे. तेमणे
बाणासुरने कह्युं, ‘‘तारी जे इच्छा होय ते तुं मारी पासे मागी ले’’ बाणासुरे कह्युं
‘‘हे भगवन्! आप अर्ही (मारी राजधानी शोणितपुरमां) ज कायममाटे रहो अने
मारा नगरनी रक्षा करता रहो’’ ॥२॥
एक दिवस बल-पौरुषना घमण्डमां उन्मत्त बनेला बाणासुरे पोताना सूर्य [[५४२]] जेवा किरीटवडे महादेवजीना चरणकमलनो स्पर्श करी एमनी पासे आवीने कह्युंः ॥३॥
‘‘हे महादेवजी! आपने हुं नमुं छुं, केमके आप लोकना गुरु अने ईश्वर छो अने अपूर्ण कामनावाळा माणसना कामपूरक कल्पवृक्ष छो ॥४॥
आपे मने हजार हाथ आप्या पण ए तो मने भाररूप थई पड्या छे, केमके आपना सिवाय मारी साथे लडवामां मारो बराबरियो योद्धो हुं त्रण लोकमां कोईने जोतो नथी ॥५॥
हे आदिदेव! एकवार मारी भुजाओमां लडवाने माटे एटली खञ्जवाळ ऊपडी के हुं दिशाओना हाथीओनी पासे गयो परन्तु तेओ पण डरना मार्या नासी छूट्या. ते वखते मार्गमां मारी भुजाओथी में घणाय पहाडोने चूर्ण करी नाख्या’’ ॥६॥
आ साम्भळी भगवान् शङ्कर क्रोधमां कह्युं ः‘‘अरे मूढ! जे वकते तारी *ध्वजा तूटीने पडी जशे ते वखते मारा जेवा ज योद्धा साथे तारुं युद्ध थशे अने ते युद्ध तारा घमण्डना चूरेचूरा करी नाखशे’’ ॥७॥
विशेष - ध्वजानो दण्ड वंश (वांस) नो बनेलो होय. वंश कन्याद्वारा चाले. वंश तूटी जशे एटले कन्या दूषित थशे एवो ध्वनि छे. जारोपभुक्त कन्या ‘भग्नकेतु’ कहेवाय छे. हे परीक्षित! बाणासुरनी बुद्धि एटली बधी बगडी गई हती के भगवान् शङ्करनी वात साम्भळी तेने घणो हर्ष थयो अने ते पोताने घेर पाछो गयो. हवे ते मूर्ख, भगवान् शङ्करनी आज्ञा प्रमाणे ते युद्धनी राह जोवा लाग्यो जेमां तेना बल- पराक्रमनो नाश थवानो हतो ॥८॥
हे परीक्षित! बाणासुरने एक कन्या हती. तेनुं नाम *उषा हतुं. हजु ते कुंवारी ज हती. एक दिवस स्वप्नमां तेणे जोयुं के ‘‘परम सुन्दर अनिरुद्धजीनी साथे मारो समागम थई रह्यो छे’’ आश्चर्यनी वात तो ए हती के तेणे अनिरुद्धजीने न तो क्यारेय जोया हता के न साम्भळ्या हता ॥९॥
विशेष - उषाए पतिने माटे पार्वतीजीनुं आराधन कर्युं त्यारे पावर्तीजीए प्रसन्न थईने एने कह्युं के आजे रातमां जे तारा स्वप्नमां तने भजशे ते तारो पति थशे. तेथी एने स्वप्नमां अनिरुद्धजीनो सङ्ग थयो अने ए ज एना पति थया. आ वात पुराणान्तरमां प्रसिद्ध छे. ज्यारे स्वप्नमान्थी ते जागी त्यारे ए कान्तने तो तेणे जोयो नहि, सखीओनी वच्चेथी ऊठी पण बधीने जोईने शरमाई गई अने विह्वल थई गई; ‘‘हे कान्त! [[५४३]] तमे क्यां छो?’’ एम बोलवा लागी ॥१०॥
(पार्वतीजीए पहेलेथी ज चित्रलेखा नामनी एक योगिनीने तेनी सखीरूपे मेळवी आपी हती) ‘कुम्भाण्ड’नामे बाणनो एक मन्त्री हतो अने चित्रलेखा नामनी कन्या उषानी सखी हती; एने आश्चर्य थयुं तेथी ए उषाने पूछवा लागीः ॥११॥
‘‘हे सुन्दरी! राजकुमारी! तुं कान्तने शोधे छे पण तारो शो मनोरथ छे ए तो कहे, केमके हजु तारो विवाह तो थयो नथी ए हुं जाणुं छुं’’ ॥१२॥
उषाए कह्युं - ‘‘वर्णे श्याम, कमळ सरखां नेत्रवाळो, पीताम्बरधारी, लाम्बी भुजाओवाळो अने स्त्रीओना हृदयने गमे तेवो श्रेष्ठ पुरुष में स्वप्नमां जोयो ॥१३॥
तेणे पहेलां तो मने पोताना अधरना मधुनुं पान कराव्युं, परन्तु हुं हजु धराईने पी लउं ते पहेलां तो दुःखना दरियामां मने धकेली मूकी, खबर नहि क्यां ते चाल्यो गयो. हुं तो तलसती ज रही गई. ते ज प्राणवल्लभने हे सखी! हुं शोधी रही छुं’’ ॥१४॥
चित्रलेखा बोली - ‘‘हे सखी! जो तारो चित्तचोर त्रिलोकीमां क्यांय पण हशे अने तेने जो तुं ओळखी शकीश तो हुं तारी विरह व्यथा अवश्य शान्त करी दईश. हुं चित्रो बनावुं छुं, तुं तारा चित्तचोर प्राणवल्लभने ओळखी काढी बतावी देजे. पछी ते गमे त्यां हशे तो पण हुं तेने तारी पासे लावी दईश’’ ॥१५॥
आम कही चित्रलेखाए अनेक देवो, गन्धर्वो, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष अने मनुष्यो नां चित्रो बनावी दीधां. मनुष्योमां तेणे वृष्णिवंशी वसुदेवजीना पिता शूरसेन, स्वयं वसुदेवजी, बलदेवजी अने भगवान् श्रीकृष्ण वगेरेनां चित्र बनाव्यां. प्रद्युम्नजीनुं चित्र जोतां ज ते शरमाई गई ॥१६-१७॥
हे राजन्! ज्यारे तेणे अनिरुद्धजीनुं चित्र दोर्युं त्यारे तो लज्जाने लीधे एनुं माथुं झूकी गयुं. पछी मन्द-मन्द हसतां तेणे कह्युं, ‘‘मारा प्राण वल्लभ आ ज छे, आ ज छे’’ ॥१८॥
चित्रलेखा योगिनी छे तेणे श्रीकृष्णना आ पौत्र छे एम जाणी लीधुं अने श्रीकृष्णद्वारा रक्षायेली द्वारकामां आकाशमार्गे पहोञ्ची ॥१९॥
त्यां पोताना पलङ्गमां सूतेला प्रद्युम्नजीना पुत्र अनिरुद्धजीने योगविद्याथी [[५४४]] उठावी शोणितपुर आवी सखीने एना प्रियतमनां दर्शन करावी दीधाम् ॥२०॥
पोताना परम सुन्दर प्राणवल्लभ मळी जवाथी आनन्दनी अधिक्ताथी तेनुं मुखकमल प्रफुल्लित थई गयुं अने ते अनिरुद्धजीनी साथे पोताना महेलमां विहार करवा लागी. हे परीक्षित! तेनुं अन्तःपुर एटलुं सुरक्षित हतुं के तेने कोई पुरुष जोई पण शक्तो नहोतो ॥२१॥
ते र्कीमती वस्त्रो, घरेणां, पुष्पोना हार, अत्तर-फूलेल, धूप, आरती, आसन, मादक अने रुचि उत्पन्न करे तेवां पेय (केसर कस्तुरीवाळुं दूध, शरबत वगेरे), भोजन, भक्ष्य (चाववी न पडे तेवी ओगाळी जवानी वस्तुओ), मनोहर वाणी अने सेवा-शुश्रूषाथी अनिरुद्धनो बहु प्रेमपूर्वक सत्कार करती ॥२२॥
जेनो नित्य स्नेह वधतो जाय छे तेवी ए उषानी साथे गुप्त रहेतां घणो समय चाल्यो गयो एनी अनिरुद्धजीने खबर न पडी, केमके एमनी इन्द्रियोने तो उषाए वश करी लीधीहती ॥२३॥
ज्यारे कन्यानुं व्रत (कुंवारापणुं) भाङ्गी गयुं अने यदुवीर एने भोगववा लाग्यो त्यारे उषानो कांईक पीतवर्ण थई गयो (जे गर्भधारणनो सूचक हतो)अनेएना प्रकट अवयवो उपरथीएने कोई पुरुषनो संसर्ग थयो छे एवुं स्पष्ट अनुमान करीने एना रक्षकोए पोताना बचावने माटे राजा पासे जईने राजाने कह्युं ः ‘‘हे राजन्! तमारी कन्यानुं चरित्र कन्याने दूषण आपे तेवुं छे एम अमारुं मानवुं छे जे तमारा कुळने कलङ्करूप गणाय’’ ॥२४-२५॥
हे प्रभो! एमां तो सन्देह नथी के अमे रात-दिन खडेपगे कोई जातनी गफलत विना महेलने पहेरो भरता रहीए छीए. आपनी कन्याने बहारना पुरुषो तो जोई पण शक्ता नथी छतां ए दूषित शी रीते थई गई तेनुं कारण अमने समजातुं नथी ॥२६॥
रक्षको पासे कन्याना चरित्र दूषित थयाना समाचार साम्भळी बाणासुरने अत्यन्त दुःख थयुं. तत्काल ते उषाना महेले पहोञ्ची गयो तो एणे यदुवंशना एक महाशूरवीर अनिरुद्धजीने एनी पासे जोया ॥२७॥
अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्नजीना पुत्र हता. त्रण भुवनमां एमना जेवो सुन्दर बीजो कोई नहोतो. सांवलुं-सलूणुं शरीर अने तेना उपर लहरातुं पीताम्बर, कमलदलना जेवी विशाल कोमल आङ्खो, लाम्बी भुजाओ, कपोलो उपर [[५४५]] वाङ्कडिया केशोनी लटो अने कुण्डलोनी झगमगती ज्योत, होठो उपर मन्द हास्य अने प्रेमभरी दृष्टिथी मुखनी छटा अनूठी थई रही हती ॥२८॥
ते वखते अनिरुद्धजी पोतानी अत्यन्त कामुक प्रियतमा उषानी साथे चोपाट रमी रह्या हता. तेमना गळामां वसन्ती मल्लिकानो हार शोभी रह्यो हतो. ते हारमां उषाना अङ्ग-सङ्गथी तेना वक्षःस्थळ उपरनुं केसर लागेलुं हतुं. पोते त्यां जवां छतां सामे जेमना तेम निर्भय रीते बेसी रहेल अनिरुद्धजीने जोई बाणासुर आश्चर्यचकित थई गयो ॥२९॥
ज्यारे अनिरुद्धजीए जोयुं के बाणासुर घणा आक्रमणकारी शस्त्रास्त्रथी सुसज्जित वीर सैनिकोनी साथे महेलमां घूसी आव्यो छे त्यारे तेमने मारवामाटे तेओ लोखण्डनो एक भयङ्कर परिघ लई, जाणे के कालदण्ड लई साक्षात् यम ऊभा होय तेम, सावधान थई गया ॥३०॥
बाणासुरनी साथे आवेला सैनिको तेमने पकडी लेवाने माटे जेम-जेम तेमनी नजीक आवता जता तेम-तेम तेमने सूवरना टोळानो नायक जेम कुतराओने दूर लई जाय तेम दूर लई गया. अनिरुद्धजीना प्रहारथी ते सैनिकोनां माथां, भुजा, जाङ्घ वगेरे अङ्गो भाङ्गी तूटीने भुक्को थई गयां अने तेओ महेलमान्थी भागी छूट्या ॥३१॥
तं नागपाशैर्बलिनन्दनो बलीघ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह ॥ उषा भृशं शोकविषादविह्वलाबद्धं नियम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत् ॥३२॥
त्यारे बलिना पुत्र बळवान बाणासुरे पोतानी सेनानो संहार थतो जोईने क्रोध करीने नागपाशवडे एमने बान्धी लीधा. उषाए ज्यारे साम्भळ्युं के तेना प्रीतमने तो बान्धी लीधा छे त्यारे ते अत्यन्त शोक अने विषादथी विह्वळ थई गई अने तेनां नेत्रोमान्थी अश्रुधारा वहेवा लागी ॥३२॥
इति श्रीभागवत् दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा फल-पेटा प्रकरणनो वैराग्य रूप छठ्ठो) ‘‘बाणासुरनी पुत्री उषानो अनिरुद्धनी साथे सम्बन्ध’’ नामनो (उत्तरार्धनो तेरमो अने चालु) बासठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ओगणसाईठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५४६]]
अध्याय ६३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६० बाणासुरने हरावीने भगवान् उषा-अनिरुद्धने द्वारका लाव्या त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण अध्याय ७
विशेष - भगवाने शिव वगेरेने जीत्या ए वात त्रेसठमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. आ फल प्रकरणमां राजस निरोधनुं काम सम्पूर्ण कहेवामां आवशे. अत्यार सुधी बधेय भगवाननी भक्तवत्सलता तो जोई पण भक्तने माटे बीजा देवोनी साथे भगवाननो विरोध क्यांय जोवामां आव्यो नथी. तेथी भक्तने बीजा देवथी पोताना नाशनी शङ्का थाय. भगवाने शिवजीने हरावी सिद्ध कर्युं के भक्तने कोई देव पण दुःख दई शके एम नथी. भगवान् सर्वज्ञ छे तो चार महिना केम विचार न कर्यो? त्यां कहे छे के भगवान् अक्लिष्टकर्मा छे. ए बीजाना कह्या वगर स्वतः उपेक्षा करे छे. प्रद्युम्ननी खातरी आपनार नारदजी हता. तेम अनिरुद्धजीमां पण ए ज छे. सर्व भावथी लडवामाटे ज्वरनुं उपाख्यान कह्युं छे. तामस ज्वर अर्ही ज उत्पन्न थयो तेनी सामे वैष्वण ज्वर थयो. शीत उष्ण ज्वर पहेलां उत्पन्न थयेल पण मळेल नहि तेने भगवाने अर्ही भेगा कर्या. अपश्यतां अनिरुद्धं तदृबन्धूनां च भारत ॥ चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे भारत! अनिरुद्धने नहि जोतां एना बन्धुओ शोक करवा लाग्या अने एम करतां वर्षाऋतुना चार मास नीकळी गया ॥१॥
एक दिवस नारदजीए आवी अनिरुद्धजीनुं शोणितपुर जवुं, त्यां उषा साथेनो सहवास, बाणासुरना सैनिकोने हराववा अने पछी तेनुं नागपाशमां बन्धावुं; आ बधी वात सम्भळावी. आथी यदुवंशीओए शोणितपुर उपर चढाई करी. (शोणितपुरना अधिष्ठाता देव शङ्कर छे तेना रक्षणनी जवाबदारी पोते पोताना उपर राखी छे तेनी तेमणे कंई चिन्ता करी नहि कारण तेओ वळी श्रीकृष्णने ज पोताना आराध्य देव मानवावाळा हता अने एटले तेमनी शक्तिमां पूर्ण श्रद्धा हती) ॥२॥
हवे श्रीकृष्ण अने बलदेवजी नी साथे तेमना अनुयायीओ बधा यदुवंशीओ प्रद्युम्न, युयुधान, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द, भद्र वगेरेए बार [[५४७]] अक्षौहिणी सेनानी साथे व्यूह बनावी यादवोए बाणासुरना नगरने चारे तरफथी घेरो घाल्यो ॥३-४॥
शोणितपुरनां परां, बगीचा, किल्ला, माढ, दरवाजा वगेरे तूटी-फूटी रह्यां छे ए ज्यारे बाणासुरे जोयुं त्यारे क्रोधे भराई ते पण बार अक्षौहिणी सेना लई लडवाने सामे आव्यो ॥५॥
बाणासुरना पक्षे साक्षात् भगवान् शङ्कर पोताना वृद्ध पोठिया उपर सवार थई देवताओना सेनापति पोताना पुत्र कार्तिकेय अने गणोनी साथे रणभूमिमां पधार्या अने तेमणे श्रीकृष्ण तथा बलदेवजी साथे युद्ध कर्युम् ॥६॥
हे राजन्! ते युद्ध एटलुं बधुं अद्भुत अने भयङ्कर हतुं के ते जोवाथी तो ठीक पण तेनुं वृत्तान्त साम्भळवाथी पण रुंवाटां ऊभां थई जाय. भगवान् श्रीकृष्णनी साथे शङ्करजीनुं अने प्रद्युम्नजी साथे कार्तिक स्वामीनुं युद्ध थयुम् ॥७॥
कुभाण्ड अने कूपकर्ण नी साथे बलदेवजीनुं युद्ध थयुं. बाणासुरना पुत्रनी साथ साम्ब लड्यो. बाणासुरनी साथे सात्यकि (युयुधान) नुं युद्ध थयुम् ॥८॥
ब्रह्माजी वगेरे मोटा-मोटा देवो, इन्द्र वगेरे सुरपतिओ, सनक वगेरे मुनिओ, कपिलजी वगेरे सिद्ध पुरुषो, गन्धर्वो, अप्सराओ अने यक्षो विमानोमां बेसी युद्ध जोवा आव्या ॥९॥
भूत, प्रमथ, गुह्यक वगेरे शिवना सेवकोने, डाकिनी, यातुधान, विनायक सहित वेताळने, भूत, मातरो, पिशाचो, कूष्माण्डो, ब्रह्मराक्षसोने भगवाने शांर्ग धनुषमान्थी तीक्ष्ण छेडावाळां बाण छोडी हाङ्की काढ्याम् ॥१०-११॥
पिनाकपाणि शिवजीए पोताना पिनाक नामना धनुषथी भगवान् श्रीकृष्ण उपर जातजातनां अगणित अस्त्रो छोड्यां पण भगवान् श्रीकृष्णे जराय विस्मय पाम्या विना तेमनां विरोधी अस्त्रोथी तेमने विफल बनावी दीधाम् ॥१२॥
ब्रह्मास्त्र सामे ब्रह्मास्त्र, वायव्यास्त्र सामे पार्वतास्त्र, आग्नेयास्त्र सामे पार्जन्यास्त्र, पाशुपतास्त्र सामे नारायणास्त्र प्रतिकारने माटे प्रयोज्युम् ॥१३॥
ज्यारे महादेवजीनां अस्त्र-शस्त्रोनो जथ्थो पूरो थई गयो त्यारे भगवान् श्रीकृष्णे जाृम्भणास्त्रथी (जेनाथी माणसने बगासां उपर बगासां आववा लागे छे) महादेवजीने मोहित करी दीधा. ते युद्ध करता बन्ध थई गया अने बगासां खावा लाग्या. हवे भगवान् श्रीकृष्ण तलवार, गदा अने बाणो थी बाणासुरनी सेनानो [[५४८]] संहार करवा लाग्या ॥१४॥
आ बाजु प्रद्युम्नजीए बाणोना माराथी कार्तिक स्वामी (स्कन्द) ने घायल करी दीधा. तेमना अङ्गे-अङ्गमान्थी लोहीनी धारा चाली नीकळी तेथी पोताना वाहन मयूरद्वारा रणभूमि छोडी बहार जता रह्या ॥१५॥
बलदेवजीना मुशळना मारथी कूम्भाण्ड अने कूपकर्ण पड्या. आ प्रमाणे पोताना सेनापतिओने हणायेला जोईने बाणासुरनी आखी सेना चोतरफ छिन्न-भिन्न थई गई ॥१६॥
पोताना सैन्यमां नासभाग थती जोई बाणासुर बहु गुस्से थयो अने सात्यकिने छोडी श्रीकृष्ण सामे लडवा आव्यो ॥१७॥
पाञ्चसो धनुषने एक वखते खेञ्ची रणमां दुष्ट मदवाळां बाणासुरे एक-एक धनुषमान्थी बे-बे बाण एम एक हजार बाण एकी साथे छोड्याम् ॥१८॥
भगवान् हरिए एक ज बाणथी एकी साथे तेनां हजार बाण तोडी नाखी सारथि, रथ अने घोडा छेदी नाख्या. (छतां पण बाणासुर युद्ध करतो बन्ध न थयो त्यारे) आपे भय उपजाववा शङ्खनाद कर्यो ॥१९॥
त्यारे बाणासुरनी उपास्य माता कोटरा (कोटरा - आ कोटरा गणमाता छे. बाणासुरनी जनेतानुं नाम ‘अशना’ छे. बलिनी बीजी पत्नी विन्ध्याचली छे. ‘‘कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः।’’ श्रीभागवत १०.६.२८ मां गणावेल गणमाताओमान्नी आ छे.) पोताना उपासक पुत्रना प्राणोनी रक्षा करवामाटे वच्चे आवी छूटा केश मूकी नग्न थईने ऊभी रही ॥२०॥
नग्न अने प्रकट स्तनवाळी स्त्री सामुं जोवानी शास्त्रमां मना करवामां आवी छे तेथी रखेने क्याङ्क तेना उपर दृष्टि पडी जाय एटले मुख फेरवी जईने बीजी तरफ भगवान् जोवा लाग्या. ए समयनो लाभ लई रथ अने धनुष रहित थयेलो बाणासुर पोताना नगरमां पहोञ्च्यो ॥२१॥
आ बाजु ज्यारे शिवजीना भूतगण भागी गया त्यारे तेमणे छोडेलो त्रण माथां अने पगवाळो माहेश्वर *ज्वर दसे दिशाओने बाळतो होय तेम भगवान् श्रीकृष्ण तरफ दोड्यो ॥२२॥
विशेष - ‘‘महाराज! हुं आपना स्वरूपने, आपना बलने अने आपना कार्यने जाणुं छुं पण आपे मारी रक्षा करवी ज जोईए’’ ए मतलबनी स्तुति ज्वरे करी छे. एमां प्रथम स्वरूपने [[५४९]] कहे छे, बाकी बे रह्या ते अनुक्रमे कहेशे. (कारिका) भगवान् श्रीकृष्णे तेने पोतानी तरफ आवतो जोई तेनो मुकाबलो करवामाटे पोतानो ज्वर छोड्यो. एटले वैष्णव अने माहेश्वर ज्वर आपसमां लडवा लाग्या ॥२३॥
अन्तमां वैष्णव (विष्णुना) ज्वरना तेजथी माहेश्वर (महेश-शङ्कर नो) ज्वर पीडित थई बहु रुदन करवा लाग्यो अने अत्यन्त भयभीत थई गयो. ज्यारे तेने बीजे क्यांयथी रक्षण न मळ्युं त्यारे ते अत्यन्त नम्रताथी हाथ जोडी शरणमां लेवाने माटे भगवान् श्रीकृष्णनी हाथ जोडी स्तुति करवा लाग्यो ॥२४॥
ज्वरे कह्युं - हे प्रभो! आपनी शक्तिओ अनन्त छे. आप ब्रह्माजी वगेरे ईश्वरोना पण नियन्ता छो. आप सर्वना आत्मा छो. आप प्रकृति वगेरेना सम्बन्ध विनाना अविकारी अने ज्ञान स्वरूप छो. विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने संहार नुं कारण आप ज छो. आप लोक-वेद सिद्ध छो. जगत्कर्तृत्व, जगतनुं निर्वाहकत्व, सेतुत्व, धारकत्व, प्रशान्तत्व वगेरे ब्रह्मनां लक्षणो आपमां ज छे. ब्रह्म स्वरूप आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२५॥
(सर्वनुं कारण) काल, दैव (प्रारब्ध), तत्वो, शरीर, सर्वनो हेतु (प्राण), (तेनो पण स्वामी) आत्मा, अहङ्कार, तेनो (देव, तिर्यन्क्, मनुष्यादिरूप) सङ्घात अने पछी बीजमान्थी अङ्कुर थाय अने अङ्कुरमान्थी बीज थाय तेम सङ्घातथी शरीर अने शरीर थी सङ्घातरूपी अनादिसिद्ध प्रवाह-आ बधुं आपनी माया छे. आप मायाना निषेधनी परम सीमा छो. आपने हुं शरणे आव्यो छुम् ॥२६॥
आप लीलावडे अनेक प्रकारना अवतार धारण करी देव, साधु अने लोकमर्यादा नुं रक्षण करो छो अने हिंसाथी वर्तन करता उन्मार्गे चालनारने हणो छो. आपनो आ अवतार पृथ्वीनो भार उतारवामाटे छे ॥२७॥
हे प्रभो! आपना (बहारथी शान्त छतां अन्दरथी) अति दुःसह उग्र तेजरूपी ज्वरथी अत्यन्त सन्तप्त थई रह्यो छुं. (अग्नि अग्निथी दाझे नहि ए न्याये तावने ताव न आवे पण छतां हुं सन्तप्त थई रह्यो छुं) हे भगवन्! देहधारी जीवो ज्यां सुधी आशानी जाळमां फसाई रही आपना चरणकमलोनुं शरण नथी लई लेता त्यां सुधी ज ताप-सन्ताप तेमने सतावे छे* ॥२८॥
विशेष - आथी एम पण कहेवायुं के तापनी निवृत्ति भगवद् चरणना शरण सिवाय बीजा [[५५०]] कोई प्रकारे थती नथी. ज्ञानथी ताप निवृत्ति थाय छे ए वात साची पण तेनुं पण कारण चरणमूलनो आश्रय ज छे. तो पछी ज्ञानरूपी अन्तर्गडु (रसोळी) नुं शुं काम छे? आम ज्ञान करतां भक्तिनी उत्तमतासिद्ध थई. भगवान् बोल्या - ‘‘हे त्रिशिर! (कफ, वात अने पित्त ए तावनां त्रण मस्तक छे.) हुं तारी उपर प्रसन्न छुं. मारा ज्वरथी तने भय नहि थाय. आपणा आ संवादनुं संसारमां जे कोई स्मरण करशे तेने ताराथी भय नहि थाय’’ ॥२९॥
एम भगवाने कह्युं त्यारे अच्युतने नमस्कार करी माहेश्वर ज्वर चाल्यो गयो; एटलामां बाणासुर रथमां बेसी जनार्दन साथे युद्ध करवा आवी पहोञ्च्यो ॥३०॥
बाणासुरे पोताना हजार हाथोमां जातजातनां हथियारो (तो) धारण कर्यां हतां. तेणे सुदर्शन चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण उपर बाणो छोड्यां (य खरां). पण हे परीक्षित! हकीकतमां तेने क्रोध थयो नहोतो. (कारण के भगवाने पहेलां तेना प्राणोनी रक्षा करेली) ॥३१॥
ज्यारे भगवान् श्रीकृष्णे जोयुं के बाणासुरे तो बाणोनी झडी लगावी दीधी छे त्यारे छराना जेवी तीणी धारवाळा चक्रथी, जेम कोई वृक्षनी नानी-नानी डाळीओ कापी रह्यो होय तेम तेनी भुजाओ कापी नाखवा लाग्या ॥३२॥
ज्यारे भक्तवत्सल भगवान् शङ्करे जोयुं के बाणासुरनी भुजाओ कपाई रही छे त्यारे ते सुदर्शन चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्णनी पासे आव्या अने स्तुति करवा लाग्या ॥३३॥*
विशेष - जेवा भगवान् छे तेवा रूपमां तो ए योगवडे मेळवी शकाय छे. अत्यारे देखाता भगवान् शास्त्रथी सङ्गत थता नथी एम बताववा भूमि वगेरे एना अङ्ग छे एम बताव्युं छे. ए अङ्गो पण भगवद् लोकमां जुदा रूपे देखाय छे. जेमके रोम, नख आदि मनुष्यनी मरेली त्वचा गणाय छे तेम भगवान्मां एवी कोई वस्तु नथी पण ए पण अङ्गरूप गणाय छे. भगवान् अमारे माटे भूतल उपर पधार्या छे (शिवजी वेदरूप छे अने भगवान् वैदिक धर्मनुं पालन करवा पधार्या छे) तेथी एमनी स्तुति करी. आप तो निर्दोष अने पूर्णगुण छे छतां अमने ए दर्शन आपे छे. पण जेनो जेवो अधिकार ते प्रमाणे दर्शन आपे एनुं कारण ए पोते ज छे. पोताना अज्ञानथी अन्तराय थाय छे ते अन्तरायने आप मटाडो त्यारे आपनुं दर्शन थाय. श्रीकृष्णनी इच्छाथी सर्वनी बुद्धि विपरीत थई जाय छे. नहि तो विवेकी पुरुषो धन, पुत्र आदिमां मोह केम पामे? तेथी पहेलान्ना अपराधोनी क्षमा सर्वनियन्ता श्रीहरिमां [[५५१]] नित्य (सिद्ध) छे, छतां जे लोको श्रीहरिनी भक्ति नथी करता तेमनुं जीवन व्यर्थ छे. तेथी भगवाननी भक्ति करवी ते कर्तव्य छे, कारण के बाणासुर पण भक्ति करे छे. (भगवान् आवा भक्तवत्सल अने महोदार होवा छतां) प्राकृत लोको भक्ति नथी करता तेमां तेमनुं दुर्भाग्य ज कारण छे. अमे तो लोकरीतिथी ज आपनी उत्तमता सिद्ध थाय ते माटे युद्धमाटे आव्या छीए पण अमे भक्त छीए एमां संशय नथी. प्रकट प्रकारथी ‘शरणागति’ कहेवाय छे. तेवानुं जेनाथी हित थाय ते करवा माटेनी प्रार्थना छे. शङ्कर भगवाने कह्युं - हे प्रभो! वेदमन्त्रोमां तात्पर्यरूपथी छुपायेल परम ज्योति स्वरूप परब्रह्म निश्चय आप ज छो. आपना स्वरूपने गूढ जाणीने पहेलां तो जिज्ञासुओ पोताना हृदयोने शुद्ध करे छे. पछी जेम घडामां आकाश छे पण ते अप्रकट छे तेम शून्यवत् भासता आपना स्वरूपने सर्वव्यापी अने निर्विकारी तरीके सर्वत्र जुए छे ॥३४॥
आकाश आपनी नाभि छे. अग्निमुख अने जल वीर्य छे. स्वर्ग आपनुं मस्तक छे. दिशाओ कान अने पृथ्वी चरण छे. चन्द्र आपनुं मन अने सूर्य नेत्र छे. अहङ्कार हृदय छे. समुद्र आपनुं पेट अने इन्द्र भुजा छे ॥३५॥
वृक्षो अने औषधिओ आपनां रोम छे. मेघ आपना केश छे. विरचिं (ब्रह्मा) बुद्धि छे. प्रजापति (ब्रह्मा) आपनी गुह्येन्द्रिय छे. धर्म आपनुं हृदय छे. आ प्रमाणे समस्त लोक अने लोकान्तरो नी साथे जेना शरीरनी तुलना करवामां आवे छे ते परम पुरुष आप ज छो ॥३६॥
हे अखण्ड ज्योतिस्वरूप परमात्मा! आपनो आ अवतार धर्मनी रक्षा अने खल पुरुषोने दण्ड आपवामाटे थयो छे. अमे बधा (देवो) पण आपना प्रभावथी ज प्रभावित थई साते भुवनोनुं पालन करीए छीए ॥३७॥
आप एक अने अद्वितीय आदिपुरुष छो. जाग्रत, स्वप्न अने सुषुप्ति मां अनुगत अने तेमनाथी पर तुरीय तत्व पण आप ज छो अर्थात् आप समाधिगम्य छो. आपनी दृष्टि आपमां ज रहेली छे अर्थात् आप आत्मानुभवथी ज तुष्ट छो. मोक्षना कारणरूप छो. आप बधान्नुं कारण छो पण आपनुं कारण कोई नथी. (जेवी रीते हरडेमां छ रस छे छतां ते स्वादमां नीरस लागे छे तेवी रीते) आप त्रणे गुणोनी विभिन्न विषमताओने प्रकाशित करवामाटे पोतानी मायाथी देवता, पशुपक्षी, मनुष्य वगेरे शरीरो प्रमाणे जुदा-जुदा रूपोमां देखाओ छो* [[५५२]] ॥३८॥
विशेष - चिन्तामणि जेनुं आपणे चिन्तन करीए ते आपे छे छतां चिन्तामणिमां कोई विकार थतो नथी. वळी चिन्तामणिए निर्माण करेला पदार्थोनी फलदाता तरीके उपासना करवामां आवती नथी. फलदाता तरीके तो चिन्तामणिनी ज उपासना करवामां आवे छे. साकरने लीमडो मानीने खावामां आवे तो पण ते मोढुं कडवुं नथी करी देती. साकर ए साकर ज छे अने ते मोढुं मीठुं करे ज करे. बीज एक ज होय छे पण तेमान्थी पत्रो, काष्ठ, गुन्द, पुष्पो अने फलो थाय छे. छतां बीजमान्थी वृक्ष थया पछी बीजनो तो नाश थई जाय छे पण भगवान् तो अखण्ड ज रहे छे. (श्रीसुबोधिनीजी) वादळांओने सूर्य उत्पन्न करे छे पण ते ज वादळां सूर्यने ढाङ्की दे छे. तेम जगतने आप उत्पन्न करो छो पण ते ज जगत् आपने ढाङ्की दे छे. जेम सूर्य ते वादळांओने तेमणे करेली वृष्टिने अने तेमनी नीचे रहेला पृथ्वी उपरना पदार्थोने, पोते अदृष्ट होवा छतां प्रकाशित करे छे. तेम सर्वना कारणरूप आप सर्वत्र सर्व वस्तुने प्रकाशित करो छो. आप सूर्यना जेवा स्वयं प्रकाश छो परन्तु गुणोद्वारा जाणे के ढङ्काई जाओ छो अने समस्त गुणोने तथा गुणाभिमानी जीवोने प्रकाशित करो छो. हकीकतमां तो आप अनन्त छो ॥३९॥
विषयो दुःखदायी छे एम जाणवा छतां जे विवेकी पुरुषो पण पुत्र, स्त्री, गृह वगेरेमां आसक्त थाय छे तेमनी बुद्धि आपनी कोई अद्भुत मायाथी ज मोहित थयेली छे. तेथी पुत्र वगेरेमां आसक्त होवाथी (भरतजीनी आसक्ति हरणमां हती तो तेमनो जन्म हरणने त्यां थयो तेम) तेओ पुत्र, स्त्री वगेरेने त्यां ज जन्मे छे अने मरे छे अने आम दुःखना अगाध सागरमां डूबकां खाधा करे छे ॥४०॥
विवेक इन्द्रियादि युक्त शरीर आप मनुष्यने कृपा करीने आपो छो पण ते इन्द्रियोने आधीन होवाथी, आपना चरणारविन्दमां आसक्ति राखवी जोईए छतां आदर पण राखतो नथी. आवो पोतानी जातने छेतरनारो पुरुष शोचनीय छे ॥४१॥
हे प्रभो! आप समस्त प्राणीओना आत्मा, *प्रिय अने (अवळे रस्ते चालनारने दण्ड देनारा समर्थ) ईश्वर छो. मनुष्य पोते मृत्युनो कोळियो छे अने छतां ते आपने छोडी दई अनात्म, अप्रिय अने अनीश्वर (तुच्छ) विषयोमां [[५५३]] सुखबुद्धि करी तेमनी पाछळ पडे छे ते एटलो मूर्ख छे के ते अमृत छोडी झेर पी रह्यो छे ॥४२॥
विशेष - बेतालीसमां श्लोकमां ‘प्रिय’ शब्द छे. तेतालीसमा श्लोकमां ‘प्रेष्ठ’ (प्रियतम-सौथी वधारे प्रिय) शब्द छे. ए एम बतावे छे के जेनामां भगवत्प्रेम अत्यन्त उत्कट होय तेनां अन्य साधन सम्पन्न थई चूक्यां. हुं, ब्रह्माजी, बधा देवताओ अने विशुद्ध हृदयवाळा ऋषिमुनिओ आपने सर्वथा सर्वात्मभावथी शरणागत छीए कारण के आप ज अमारा आत्मा, प्रियतम अने ईश्वर छो ॥४३॥
आप जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय नां कारणरूप छो. आप बधामां समान, परम शान्त, बधाना मित्र, आत्मा अने इष्टदेव छो. आप एक छो. (अर्थात् आपना सिवाय बीजुं कंई छे ज नहि, आपनो बरोबरियो कोई नथी अने आपने माटे कोई परायो नथी) आप जगतना आधार तथा अधिष्ठान (निवास) छो. हे प्रभो! अमे बधा संसारथी मुक्त थवाने माटे शरणागतिपूर्वक आपनुं भजन करीए छीए ॥४४॥
हे देव! आ बाणासुर मारो प्रिय भक्त छे. में तेने अभयदान आप्यु छे. ए आपनी कृपाथी में र्क्युं छे. तेथी एने अभय थाओ. मारी विनन्तिथी पण आप दैत्यपतिना उपर प्रसन्न थाओ ॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - आप तो अमारा स्वकीयछो अने स्वकीयने गमे ते करवुं जोईए. एटले आपनी वात मानी हुं तेने निर्भय करी दउं छुं. तेना सम्बन्ध पहेलाञ्जे आपनी *इच्छा हती तेप्रमाणे में तेनी भुजाओ कापी नाखी तेनुं ज अनुमोदन कर्युञ्छे ॥४६॥
विशेष - भगवाननी इच्छा ए ज कृति होय छे. क्रिया तो मात्र तेनुं अनुमोदन ज होय छे. जेवी रीते भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनने महाभारतनुं युद्ध करवा समजावतां आज्ञा करे छे के द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च (गीता अध्याय ११ श्लोक-३४) द्रोण, भीष्म वगेरेने तो में मारी ज नाख्या छे. तुं तो निमित्तमात्र था, अर्थात् आपे तेमना मृत्युनी इच्छा करी त्यारे ज तेओ मरी चूकेला. पछीनी क्रियातो भगवदइच्छानुं अनुमोदन ज छे. हुं जाणुं छुं के बाणासुर दैत्यराज बलि राजानो पुत्र छे. तेथी हुं पण तेनो वध करी शकुं एम नथी कारण के हुं प्रह्लादजीने वरदान दई चूक्यो छुं के तमारा वंशमां [[५५४]] जन्मेला कोई पण दैत्यनो हुं वध नहि करुम् ॥४७॥
(वामन भगवानना प्रसङ्गमां प्रह्लादजीए तो एक बलिना प्राणोनी रक्षा करवा ज प्रार्थना करेली पण भगवाननी भक्तवश्यता एवी के प्रह्लादजीने वरदान आपी दीधुं, ‘‘तारा वंशमां जन्मेल कोई पण दैत्यनो हुं वध नहि करुं!थ) (प्रह्लादजीना पुत्र विरोचन. विरोचनना पुत्र बलि. बलिना पुत्र बाणासुर). तेना गर्वने दूर करवामाटे ज में एनी भुजाओ कापी नाखी छे. तेनी बहु मोटी सेना पृथ्वी उपर बोजारूप थई पडी हती तेथी ज में तेनो संहार करी नाख्यो छे ॥४८॥
हवे तेनी चार भुजाओ बची रही छे. ते अजर अमर रहेशे. आ बाणासुर आपना पार्षदोमां मुख्य थशे. हवे तेने कोई तरफथी कोई पण प्रकारनो भय नथी ॥४९॥
श्रीकृष्ण पासे आ प्रमाणे अभयदान प्राप्त करी बाणासुरे दण्डवत् प्रणाम कर्या अने अनिरुद्धजीने पोतानी पुत्री उषानी साथे रथमां बेसाडी भगवाननी पासे लई आव्यो ॥५०॥
त्यारबाद भगवान् श्रीकृष्णे महादेवजीनी सम्मतिथी (‘रुद्रानुमोदितः’ अने ‘कृष्णोनुमोदितः’ बे पाठ छे. बन्नेनो अर्थ सरखो ज छे) वस्त्रो अने अलङ्कारो थी विभूषित उषा अने अनिरुद्धजी ने एक अक्षौहिणी सेना साथे आगळ करी द्वारकामाटे प्रस्थान कर्युम् ॥५१॥
आ बाजु ज्यारे भगवान् श्रीकृष्ण वगेरेना पधारवाना समाचार द्वारकमां पहोञ्च्या त्यारे नगरनो खूणे-खूणो धजाओ अने तोरणो थी सजाववामां आव्यो. मोटी-मोटी सडको अने चोको ने चन्दनमिश्रित जलथी छाण्टी देवामां आव्या. नगरजनो, बन्धु, बान्धवो अने ब्राह्मणोए आगळ पडी भारे धामधूमथी भगवाननुं स्वागत कर्युं. ते वखते शङ्ख, नगारां अने ढोलो नो तुमुल अवाज थई रह्यो हतो. आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्णे पोतानी राजधानीमां प्रवेश कर्यो ॥५२॥
य एतत् कृष्णविजयं शङ्करेण च संयुगम् ॥ संस्मरेत् प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात् पराजयः ॥५३॥
हे परीक्षित! जे पुरुष शङ्करनी साथे भगवान् श्रीकृष्णना युद्ध अने आपना विजयनी कथानुं प्रातःकालमां ऊठीने स्मरण करशे तेनो (इन्द्रियो अने [[५५५]] अन्तःकरणद्वारा कदी) पराजय नहि थाय ॥५३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (त्रीजा राजस प्रकरणना चोथा
फल-पेटा प्रकरणनो धर्मीरूप सातमो) ‘‘बाणासुरने हरावीने भगवान्
उषा-अनिरुद्धने द्वारका लाव्या’’ नामनो (उत्तरार्धनो चौदमो अने चालु)
६३मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां
६०मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
त्रीजा राजस प्रकरणनुं चोथुं फल प्रकरण सम्पूर्ण
त्रीजुं राजस प्रकरण सम्पूर्ण
(शरणागति-सेवारूपी) साधना शरू करवानी तत्परता जाण्या
विना गमे तेने दीक्षा आपनार गुरु अयोग्यने दीक्षा आपवाना पापे
पोतानो, दीक्षा लेनारनो तेमज सम्प्रदायनो पण विनाश नोन्तरे छे.
अध्याय ६४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अध्याय ६१ प्रकरण ४-सात्विक प्रकरण - नृगनुं आख्यान पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय पहेलो
विशेष - १.पूर्वे अठ्ठावीश अध्यायथी राजस प्रकरण कह्युं. हवे सात्विक प्रकरण एकवीस अध्यायथी कहे छे. ते सात्विक प्रक्रिया वसुदेवजीना यज्ञमां पूर्ण थशे. तामस प्रकरणनी लीला श्रवण करवाथी तामस अहङ्कारना कार्यरूप देहनी शुद्धि थाय छे तेम राजस लीलाना श्रवणथी राजस अहङ्कारना कार्यभूत इन्द्रियोनी शुद्धि थाय छे तेथी श्रीआचार्यचरणे ‘इन्द्रियशोधिका’ एम राजसलीलानुं विशेषण कह्युं छे. तामसोनो दृढ आग्रह होय तेनो निरोध करतां विशेष श्रम थाय तेटलो राजसोनो आग्रह न होय तेथी ‘नातियत्ना’ कही छे. सात्विक प्रक्रिया चार प्रकार कहे छे. धर्म, अर्थ अने काम ए त्रण छ-छ अध्यायथी कह्या छे, ज्यारे मोक्ष त्रण अध्यायथी कह्यो छे. प्रमेय, साधन अने फल वडे अर्थ, धर्म अने काम कह्या छे. धर्मी प्रकरणमां त्रिविध मोक्ष कह्यो छे. प्रकीर्ण आख्यानवाळी आ प्रक्रिया छे. अर्ही क्रमनी
ईं उं ईं उं
[[५५६]]
विवक्षा नथी तेथी नृगनुं आख्यान प्रथम कह्युं छे. पण पहेलां धर्म कह्यो. पछी गोपीजनोनी
कथाथी काम कह्यो. नृग प्रमाणमां श्रद्धावाळो छे, गोपीजनो वेदात्मक बलदेवजीना रमणथी
प्रमाण पुष्ट छे, पौण्ड्रक महादेवजीना वरथी पुष्ट छे. ए त्रण प्रमाण पोषित छे. द्विविद,
लक्ष्मणा अने नारदजी ए त्रणनो मोक्ष कह्यो छे. द्विविद रामभक्त छे. तेने ‘ये च प्रलम्ब’
इत्यादिमां गण्यो छे. भगवद् आवेशद्वारा बलदेवजीए हस्तिनापुरने ऊन्धुं कर्युं त्यारे कौरवोने
भगवाननुं माहात्म्यज्ञान थयुं के जेथी लक्ष्मणानो मोक्ष थयो. नारदजीने भगवाननी बहु
स्त्रीओना रमणमां सन्देह पड्यो. तेमनुं ए अज्ञान दूर करी भगवद् धर्मना ज्ञानरूप मोक्ष कर्यो.
पछी छ अध्यायथी धर्म कह्यो. तेमां एकथी साधारण अने पाञ्चथी धर्म कह्यो. नृगे दानमां
योजेलो अर्थ अनर्थरूप थयो तेने भगवाने अर्थरूप विशेष कर्यो. भगवानने भजतां स्वरूप
सिवाय बीजी कामना करे तो भगवान् विरुद्ध थई जाय छे अने पशु-पुत्रादि आपे छे. फलनी
कामना छोडीने भजे तो फलरूपे पोते प्रकट थाय छे. एमां पण ब्राह्मणनो पैसो न लेवो ए
नृगना आख्यानथी समजाव्युं छे. एणे ब्राह्मणनो पैसो आप्यो तेथी काकीडो (काचण्डो) थवुं
पड्युं. तेमान्थी भगवाने छोडाव्यो ए वात चोसठमां अध्यायमां कहे छे, केमके यादवो राजस
छे. तेमने उपदेश आपशे त्यारे तेओ सात्विक थशे. अर्ही उद्धारक अनिरुद्धजी छे.
२. नृगना मोक्षथी वसुदेवजीना यज्ञ सुधी सात्विक प्रकरण छे. सात्विकोने प्रमाणनी
अपेक्षा होती नथी तेथी आमां सात-सात अध्यायना प्रमेय, साधन अने फल नामनां त्रण
प्रकरण छे. एमां राजसो, तामसो केम आव्या ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के एमने स्नेह
अने आसक्ति हतां ते व्यसनथी शुद्ध थयां त्यारे एमनो विक्षेप दोष दूर थयो. तेमने संस्कार
थयो अने प्रभुनी कृपा थई एटले तेमनो उद्धार पण थयो. तेथी आ प्रकरणमां बधाना
दोषनी निवृत्ति कहेवानी छे. नृग राजा पहेलान्नो भक्त अने सात्विक हतो. तेणे अतिदान कर्युं
तेथी ए दुःखी थयो. तेनो श्रीकृष्णे मोक्ष कर्यो एम केटलाक कहे छे. आज्ञाना अभावमां एने
दोष लाग्यो एम केटलाक कहे छे. भगवाननी इच्छा न हती अने एणे गायो आपी तेथी एम
थयानुं केटलाक कहे छे. हुं दान आपनार छुं एवुं अभिमान एने थयुं ए दोष छे. खरी रीते
जोतां विचार कर्या वगर धर्ममां अत्यन्त आग्रह ए एनो दोष हतो. तेथी तेने काकीडो (काचण्डो)
थवुं पड्युं. श्रीकृष्ण सिवाय कोईमां अत्यन्त आग्रह न राखवो, केमके भक्तिमार्गमां एवाने
पण श्रीकृष्ण मुक्ति आपी शके छे. ए पाछो आवो आग्रह न करे एने माटे सर्वने मारवा
लायक काकीडानो देह भगवाने एने आप्यो. जेम एणे एक ब्राह्मणनो क्षोभ कर्यो तेम कर्ममां
जेटला जोडायां होय तेमने ए कर्म क्लेश आपनार थाय छे. तेथी बीजामां व्यसन राखनार,
[[५५७]]
धर्म करतां पण दुःख पामे छे. माटे श्रीकृष्णनुं भजन करवुं. असङ्ख्य गायो आपी
‘‘ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य’’ ए वाक्यथी तामस आदि त्रण भेद कह्या छे. तेथी
तामस धर्ममां तो फल भ्रम सिवाय बीजुं कांई नथी तेथी धर्मनो निर्धार करवो. जेमां दोष न
लागे तेवो धर्म करवो, नहि तो गुण होय तो पण ए दोषरूप थाय छे. आ अध्यायमां ऐश्वर्य
कार्य स्पष्ट छे.
बीजा अध्यायनो विचार करतां चार अध्यायमां चार पुरुषार्थ सिद्ध न थया ते
भगवाने करी आप्या ए कहे छे के धर्ममार्गमां ब्राह्मणनुं अपमान न करवुं. मुख्य धर्ममां तो
प्राणीनो द्रोह न करवो. अर्थमां बन्धुनो क्षोभ न करवो. काममां आत्मानो क्षोभ न करवो.
मोक्षमां ईश्वरनो अपराध न करवो. ए वात चार अध्यायथी कहे छे; जेम नृगनो धर्म सिद्ध
न थयो. एणे ब्राह्मणनो अपराध कर्यो. यमुनाजीए प्रभुना भाईने क्षोभ कर्यो. तेमनो
भगवत्सम्बन्धरूप अर्थ सिद्ध न थयो. पौण्ड्रके भगवाननो अपराध कर्यो. तेनो काम सिद्ध न
थयो. द्विविदनो मोक्ष सिद्ध न थयो, कारण के एणे एना मूळनो विरोध कर्यो. अनिरुद्धजी
धर्मरक्षक छे. दुष्टने मार्या विना सद् रक्षण न थाय तेथी बलदेवजीनुं पण एमां कार्य छे. तेथी
आमां बलदेवजीनुं चरित्र छे. ते योग्य ज छे. तेम ज आ अध्यायनो अर्थ वीर्य छे ए वीर्यनुं
कार्य बलदेवजीए यमुनाकर्षण करीने बताव्युं छे. पछी लौकिक गोपीजनोनी साथे बलदेवजीनी
क्रीडा छे. ए गोपीजनो ‘‘ब्रह्मणा शप्ता वाग् गोपीः’’ एम तृतीयस्कन्धमां ब्रह्माजीए
कामथी शाप आप्यो तेथी ए गोपीजनो थयां अने कामथी श्रीकृष्णने मळ्यां तेथी ‘‘गोप्यः
कामात्’’ एम कह्युं छे ते आ गोपीजनो समजवां. तेओ बलदेवजीना सङ्गथी सात्विक थयां.
एमणे श्रीकृष्णमां दोषभाव कर्यो ते दोष एमनो दूर थयो. वरुणे वारुणीनी धारा करी,
कान्तिए पोशाक आप्यो. श्रीयमुनाजीने भगवत्प्रतिबन्ध निवृत्त थयो. ए भगवदाविष्ट
बलभद्रना वीर्यनुं कार्य समजवुं.
त्रीजा अध्यायना विचारमां पौण्ड्रकनो काम सिद्ध न थयो ए वात आवे छे. एमां
श्रीकृष्णमां जेने मान होय तेनो काम सिद्ध थाय. एणे तो भगवान् साथे मात्सर्य कर्युं तेथी ए
पोताना मित्र साथे नष्ट थयो पण भगवाने प्रमेय बळवडे ए दोष मटाडी एने मुक्ति आपी
तेथी यश आ अध्यायमां कह्यो. देवोए सहाय करवी तो भगवाननी आज्ञाथी करवी. एम न करे
तो तीर्थ, देव, क्षेत्र वगेरेमां भक्ति कांई काम करती नथी. तेथी काशी दहननो प्रसङ्ग अर्ही कह्यो
छे. महादेवजीनुं पण एमां कांई चाल्युं नहि. ज्यां भगवान् प्रकट होय त्यां बीजां रूप कांई करी
न शके. द्विविदनो वध चोथा अध्यायमां कह्यो छे. एना दोषनी निवृत्ति प्रमेय बळथी करी. एमां
[[५५८]]
श्रीकार्य तो ए ज के भगवाने स्त्रीओ साथे क्रीडा करी तेथी ए अध्यायार्थ छे.
पाञ्चमा अध्यायमां कौरवोने भगवान् वगेरेमां दोष थयो तेथी ए त्याज्य छे. ए अर्ही
एना सङ्ग्रहरूप दूषण नथी. पाण्डवो पण कौरवोमां मळेल छे तेओना दोष दूर करवा जोईए. ए
ज्ञाननुं कार्य छे तेथी ए ज्ञानाध्यायछे.
छठ्ठामां भगवाननी पासे नारदजी आव्या. भगवाननुं गार्हस्थ वैराग्यथी छे एम एमने
लाग्युं. लोकोने एवी रीते गार्हस्थ करवानुं शीखववामाटे श्रीकृष्णनुं गार्हस्थ छे. तेथी नारदजीनुं
अज्ञान गर्युं. निर्लेपतावडे गृहस्थाश्रम कर्तव्य छे एम ए समज्या.
सातमा अध्यायमां स्त्रीओ विघ्न करता कूकडा वगेरेने शाप आपे छे. ए स्त्रीओना
दोषोने भगवान् धर्माचरणथी दूर करे छे. आगळ राजसभामां उद्धवजीने प्रश्न करे छे. यादवो
जरासन्धने जीतवानी इच्छा करे ए दोषनुं निवारण करीने भक्त युधिष्ठिरनो पक्षपात करे छे.
ए धर्मिकार्य छे. अर्ही प्रमेय प्रकरण समाप्त थाय छे.
साधन प्रकरणमां कहेवानुं के पोतानुं सामर्थ्य होय छतां भगवाननी आज्ञाथी जो साधन
करे तो एमां भगवान् पधारी सहाय करे. साधनमां सर्वथा नीतिनो आश्रय करवो ए
जणाववामाटे भगवान् बधुं जाणे छे छतां उद्धवजीनो मत ले छे. जीवथी जेटलुं बने ते ज
उद्धवजी कहे छे. तेथी ज भगवान् पण सैन्य साथे इन्द्रप्रस्थ गया. आमां ऐश्वर्यलीला
कहेवामां आवी.
बीजा अध्यायमां भक्तने सहाय करवा भगवान् क्वचित् एकलापण कार्य करे छे तेथी
पोतानुं सामर्थ्य भीममां मूकी जरासन्धने जीत्यो ए वीर्यनुङ्कार्यकह्युं.
त्रीजा अध्यायमां यज्ञ कर्यो एमां यश स्पष्ट छे. एमां दैत्यनी पासे देवो एकला निःशङ्क
आवी न शके तेथी दैत्योने प्रकट करवाने ज्यारे भगवाननुं पूजन कर्युं त्यारे शिशुपाले दैत्यनुं
स्वरूप प्रकट कर्युं. एने भगवाने मार्यो तेथी देवो निःशङ्क एमां आव्या. एमां दैत्यना हितैषी
दुर्योधन वगेरेनो मानभङ्ग थयो. तेथी तो बलदेवजी युधिष्ठिरना यज्ञमां आव्या न हता,
प्रद्युम्न वगेरे आव्या हता. पछीथी बलदेवजी आव्या पण श्रीकृष्णनी हाजरीमां कांई बोली
शक्या नथी. जो भगवान् हाजर न होत तो बधा पाण्डवोने बलदेवजी मारी नाखत. परन्तु ए
वात श्रीकृष्ण जाणता हता तेथी त्यां हाजर रह्या हता अने पाण्डवोना हृदयमां बलदेवजीनी
प्रार्थना करवानी प्रेरणा करी. महादेवजीनो अधिदेव काल शाल्वमां आव्यो ने एणे द्वारकामां
अति दुःख आप्युं. एणे सत्तावीस दिवस युद्ध कर्युं तेथी भगवाननी आज्ञा वगर कांई न करवुं
एम बताव्युं, कारण के बलदेवजीने त्यां रक्षामाटे राख्या हता ते आज्ञा वगर इन्द्रप्रस्थ
[[५५९]]
आव्या तेथी आ दुःख थयुं. एमां प्रद्युम्ननो पराजय थयो ते भगवाननी उपेक्षाथी थयो एटले
ए वैराग्य अध्याय छे. वळी लौकिक वैदिक बधुं भगवद् आज्ञा होय तो करवुं, नहि तो
भगवद्भजन करवुं ए ज भगवत् प्राप्तिनुं साधन छे एम बताववामाटे महादेवजीना वरथी
शाल्वने सौभ विमान मळ्युं ए प्रसङ्गमां मतान्तर सिद्ध एवी भगवानने मोह थयानी लीला
भगवाने देखाडी छे. ते मायिक वसुदेवजीनुं भगवाननी समक्ष मस्तक कापे छे त्यारे भगवाने
‘‘कथं राममसम्भ्रान्तं’’ ए श्लोकथी पोते मोह बताव्यो छे ए मोह अर्ही सम्भवे नहि
पण कोई कल्पमां भगवाने महादेवजीने एवो वर आप्यो होय ते अंशावतारमां सम्भवे; तेथी
भगवद्भक्तने वधारेली विद्यावडे अविद्यानिवृत्तिपूर्वक अनन्त ऐश्वर्यनो लाभ थाय त्यारे शोक
मोहथी निवृत्त थई निर्गुण श्रीकृष्ण स्वरूपने भजे. ए धर्मि-स्वरूप होवाथी आ धर्मीना
वर्णननो अध्याय थयो.
योगी लोको पण निर्गुण स्वरूपने जाणी शक्ता नथी तेथी ‘‘विदूरकाष्ठाय मुहुः
कुयोगिनाम्’’ एम कह्युं छे. श्रीशुकदेवजीए भगवन्मोहनो प्रसङ्ग पूर्वपक्ष तरीके कह्यो छे.
केटलाक आ कथाने प्रक्षिप्त गणे छे. पाण्डवो अने यादवो ने काळथी ज्यारे अत्यन्त ताप थयो
त्यारे भगवाने एमने ए दुःखथी मुक्त कर्यां. एम न करे तो फळमां स्वाद न आवे. मोहलीला
महादेवजीनी प्रसन्नतामाटे भगवाने कोई कल्पमां करी होय तेथी स्मृति योग ज धर्मथी
आवतां कोईए अर्ही एनुं वर्णन कर्युं होय पण श्रीशुकदेवजी, भक्तियोगवाळाने श्रीकृष्णमां
मोह थाय ए वात मानवाने तैयार नथी. जेने श्रीकृष्णमां दोषभाव होय तेवा योगीने एवुं
स्मरण थाय, परन्तु शुद्ध योगवाळाने एवुं स्मरण थाय ज नहि; तेथी मूल श्रीकृष्णमां
मोहनो सम्भव नथी ए सिद्धान्त जाणवो.
फल प्रकरणमां शिवना भक्त शाल्वनो, स्वभक्त दन्तवक्त्रनो अने विदूरथनो वध कर्यानुं
कहेवाय छे. फलनी पहेलां दोषनो नाश करवो जोईए. एनाथी यादवनां सर्व दुःखो जतां ए
श्रीकृष्णने फलरूपे स्वीकारशे. पछी बलदेवजी तीर्थयात्राना मिषथी जशे. ए वर्णाश्रमना
धर्मोमां ज्यां दोष कर्या हशे ते दोषोनो नाश करी धर्मनुं स्थापन करशे. भगवान् तो पाण्डवोना
दोषोनो नाश करशे. काळना दोषथी मुनिओए अधम वक्तानी पासेथी श्रवण कर्युं तेथी धर्मने
माटे रामे सूतजीने मार्या. मुनिओना सत्रने पूर्ण करवा एना पुत्रने एने स्थाने बेसाड्यो एमां
भागवतनुं श्रवण पूरुं करवानुं हतुं. एम न करे तो श्रीशुकदेवजीनुं कहेल भागवत हृदयमां प्रवेशे
नहि. बल्वलनो वध करी ऋषिओना दोषने दूर कर्या. बल्वल, दोषो अने सूतजी त्रणने
बलदेवजीए निवृत्त कर्या, ज्ञाननो उपदेश कर्यो अने तीर्थमां फर्या. तीर्थ, ज्ञान अने यज्ञ थी
[[५६०]]
शुद्धि थाय छे. आगळ मोह न थवामाटे ऋषिओने त्रण प्रकारे शुद्ध कर्यां तेथी पहेलामां
धर्मिलीला अने बीजामां ज्ञानलीला कही. त्रण अध्यायथी तामस आदि त्रणे प्रकरणमां कहेल
भक्तोना सर्व दोषनो नाश करीने एने फळ मळ्यानी वात कहे छे. ‘सुदामा’नामना एक ब्राह्मण
हता. (‘सुदामा’ नाम श्रीमद् भागवतमां आवतुं नथी, बीजा पुराणमां छे) तेओ गाममां
रहेता हता तेमनी भार्या-ब्राह्मणीमां ऋषिना धर्मो न हता अने घरमां दारिद्रय तो हतुं ज.
(जो के श्रीभागवत १०.८०.१९ मां तेमने माटे ‘विप्रर्षि’ (विप्र+ऋषि) शब्द वापर्यो छे.
छतां तत्वार्थदीप निबन्धमां कारिका ३८० मां तेमने माटे ‘‘अर्ध च ऋषि सम्मतः’’ कह्युं
छे. अर्थात्) सुदामाजी अडधा ऋषि हता ए गृहस्थ हता. एमनी स्त्रीने लक्ष्मीनी इच्छा
हती. ए स्त्रीने माटे श्रीकृष्णे एने धन आप्युं तेथी एणे भक्तनो सङ्ग कर्यो. जेम भगवान्
पूर्णकाम छे तेम भक्तने पण कामना छोडीने पूर्णकाम थईने रहेवुं एम एनाथी बताव्युं. एम
रहे तो तेना परलोकनो नाश न थाय. सुदामाजीने भगवाने अलौकिक आप्युं तेथी एमना
परलोकने ए बाधक न थयुं. पोते समक्षमां कांई आप्युं नहि तो पण सुदामाजीए एमनामां
भावने शिथिल न कर्यो ए वात मार्गमां जतां तेमणे कही छे. एमणे समृद्धि भोगवी ते पण
भक्तिमार्गनी रीते निरभिमानथी भोगवी तेथी एमनामां ऋषिपणुं, धनीपणुं, भक्तपणुं,
दारिद्रय वगेरे विरुद्ध धर्मो राख्या. बे अने त्रण अध्यायथी दुःखनो अभाव, सुख अने
श्रीकृष्णरूपता ए त्रण फल कह्यां. सर्वने वाञ्छिताकार श्रीकृष्ण स्त्रीओने अत्यन्त प्रिय छे.
देव, ऋषि अने पितृओ ने आपवानां फल पण श्रीकृष्ण आपे छे. ए समयना सर्व जीवो,
श्रीकृष्णना दर्शन करीने शुद्ध सात्विक थई एमां निरुद्ध थता ते बधाने भगवान् फलरूप थया.
अन्ते गोपीजनो शुद्ध सत्वने माटे कह्यां छे. एमनो सर्व भावथी निरोध कह्यो छे. संसार अने
भगवान् ए विरुद्ध वस्तु छे. बन्नेथी जे सुख थाय ते गोपीजनोने पुष्टिवडे थयुं छे जेवी
एमनी प्रार्थना हती तेवुं सुख भगवाने कृपा करीने आप्युं. तेथी भगवाने एकादश स्कन्ध
(२०.३१) मां ‘‘न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह’’ एम कह्युं छे. जेने
भगवान्मां रुचि थाय तेने लौकिक-वैदिकमां अरुचि थाय; त्यारे तो ‘‘मारुं आ कर्तव्य छे’’ एम
जाणी श्रवणादि करे, कामादिनी निन्दा करतो जाय एने भोगवतो जाय; श्रवणादि नवनी
आवृत्ति करे त्यारे एवा हृदयमां भगवान् पधारे; त्यां एना हृदयमां कामना नष्ट थाय त्यारे
एने फळ मळ्युं गणाय. एवा भक्तने साधनरूप ज्ञानवैराग्यनी जरूर रहेती नथी. त्यारे एने
सर्वात्मभाव थाय. सर्वात्मभावथी भजन करतां जेने प्रभुनो साक्षात्कार थाय तेने सर्वसिद्ध
थाय छे. ए गोपीजनोने कोषध्वंस कह्यो छे तेथी विदेहकैवल्य इष्ट नथी पण निरोध ज इष्ट
[[५६१]]
छे एम बताववामाटे जीवतान्नी स्थिति बतावी छे. ए ‘आहुश्च ते’ त्यान्थी लई ‘‘ततः
कामैः पूर्यमाणः’’ त्यां सुधी. एमनो काम भगवान्मान्थी नथी गयो ए वात बीजाने उपकारक
थाय तेथी बीजानी पासे कही छे. भगवाननी स्त्रीओए भगवान्मां प्रेम बताव्यो छे.
द्रौपदीए ए वात पूछी छे, त्यारे पति तरीके नहि पण बधांओए स्वपतिने भगवान् तरीके
स्वीकार्या छे. वळी एमनुं दास्य माग्युं पण दाम्पत्य माग्युं नथी. ए साम्भळीने बीजानो पण
महिषीना जेवो भाव थशे. एम लौकिकनो उद्धार करी ऋषिओनो उद्धार करवाने एमनी स्तुति
भगवाने करी त्यारे एमणे एनाथी विपरीत भावथी भगवाननी स्तुति करी छे. ए भगवानना
सान्निध्यथी एमनी बुद्धिमां फेरफार थयो. यादवोना निरोधमाटे वसुदेवजीनो प्रश्न छे. पछी
यज्ञने माटे उद्योग कर्यो. मुनिओने पण सन्देह थयो. नारदजीए सन्देह निवृत्त कर्यो तेथी यज्ञ
कर्यो. लौकिक वैदिक बन्ने भक्तिमां उपयोगी थयां तेथी सर्व फळनुं फळ भगवान् थया. आथी
सात्विकनो निरोध कह्यो. अर्ही सात्विक फल प्रकरण पूर्ण थाय छे.
एकदोपवनं राजन् जग्मुर्यदुकुमारकाः ॥
विहर्तुं साम्बप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! एक दिवस साम्ब, प्रद्युम्न, चारु, भानु, गद वगेरे यादवकुमारो विहार करवाने माटे नजीकना वनमां गया ॥१॥
त्यां ए बाळकोए घणो वखत क्रीडा करी. बधाने जल पीवानी इच्छा थई एटले जलनी शोधमां नीकळ्या. त्यां जळ वगरना कूवामां एक मोटा अद्भुत विचित्र प्राणीने ते यादव कुमारोए जोयुम् ॥२॥
पर्वत जेटलो मोटो काकीडो जोई तेओ विस्मय पाम्या ॥३॥
चामडानां दोरडां बान्धी एने उपर लाववानो यत्न कर्यो पण एमां ए फाव्या नहि त्यारे चित्तना उल्लासथी एमणे श्रीकृष्णने जईने कह्युम् ॥४॥
विश्वना पोषक कमलनेत्र भगवान् त्यां पधार्या अने एने जोयो अने वाम बाहुथी लीलावडे अनायासे भगवाने एने बहार काढ्यो ॥५॥
जेवो भगवानना हाथनो स्पर्श थयो के तुरत एणे कार्कीडानो देह छोडी दीधो, स्वर्गना लोकने पण अद्भुत लागे तेवा घरेणां, वस्त्रो, फूलनी माळाओ वगेरेथी शृङ्गारयुक्त, तपेल सोना जेवी कान्तिवाळो ए थई गयो ॥६॥
अने ए भगवाननी पासे आवीने ऊभो रह्यो. पोते बधुं जाणे छे छतां मुकुन्द भगवाने देह छूटतां बीजो देह सुन्दर थवानुं कारण एने पूछ्युं, केमके लोकोने एनुं [[५६२]] कारण बताववुं छे ते एना मुखथी कहेवरावे तो लोको माने तेथी एम र्क्युं. ‘‘हे महाभाग! तुं कोण छे? सुन्दर रूपवाळा तने अमे तो उत्तम देव मानीए छीए ॥७॥
हे सुभद्र! तारा क्या कर्मे आ दशाए तने पहोञ्चाड्यो ए जाणवानी इच्छावाळा अमो छीए. जो तुं अमने एनुं कारण कहेवाने इच्छतो होय तो कहे, अथवा अमने ए साम्भळवानुं योग्य जाणतो होय तो कहे’’ ॥८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! ज्यारे अनन्तमूर्ति एवा भगवान् श्रीकृष्णे *राजा (नृग) ने आ प्रमाणे पूछ्युं त्यारे तेमणे पोताना सूर्य समान देदीप्यमान मुगटवडे भगवानने प्रणाम कर्या अने तेओ आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥९॥
विशेष - भगवान्ना करकमलोनो स्पर्श थतां ज तेनुं काचण्डामान्थी पहेलां हतुं तेवुं ज राजानुं रूप थई गयुं. ‘राजा’ शब्द श्रीशुकदेवजीए एटलामाटे वापर्यो छे के जेवी रीते राज्यमदथी तें ब्राह्मणनो अतिक्रम कर्यो हतो तेवी ज रीते तेणे पण कर्यो. नृगः नृन् कीर्तिद्वारा गच्छतीति। कीर्तिद्वारा मनुष्यो पासे जाय ते. राजा नृग बोल्या - हे प्रभो! हुं महाराज ईक्ष्वाकुनो पुत्र नृग छुं. ज्यारे पण कोईए आपनी आगळ दानीओनी गणतरी करी हशे त्यारे मारुं नाम जो आपना कर्णमां पड्युं हशे तो हुं प्रसिद्ध खरो. (दानी-विधिपूर्वक दान आपे ते. दाताविधिनी अपेक्षा विना दान आपे ते) ॥१०॥
हे प्रभो! आप समस्त प्राणीओना अन्तःकरणना साक्षी छो. भूत अने भविष्य नुं व्यवधान (पडदो) पण आपना अखण्ड ज्ञानमां कोई जातनी बाधा पहोञ्चाडी शक्तुं नथी. तेथी आपथी छूपुं छे शुं? छतां आपनी आज्ञानुं पालन करवा हुं कहुं छुम् ॥११॥
पृथ्वीमां धूळनां जेटला रजकणो छे, आकाशमां जेटला तारा छे अने वरसादमां जेटली जलनी धाराओ पडे छे तेटली गायो में दानमां आपी हती* ॥१२॥
विशेष - गायोनी सङ्ख्या आम बताववानुं कारण ए छे के सङ्ख्या बताववा सङ्ख्यावाचक अङ्क तो परार्ध (एकडा उपर सत्तर र्मीडा) सुधी ज छे. वळी त्रण कहेवानुं तात्पर्य ए छे के रजकण उपादान कारण (तामस) छे, ताराओ प्रकाशक (सात्विक) छे अने वर्षाधारा पोषक (राजस) छे. ‘असङ्ख्यात’ शब्द वापरवाथी अल्पप्रीतीति थाय. [[५६३]] ते गायो दुधाळ (खूब दूध देनारी) पहेलवेतरी, सोजी (मारकणी नहि), ऊडीने आङ्खे वळगे एवी रूपाळी, गुणियल१ अने (घणीखरी) कपिला२ हती. ते बधी में न्यायना धनथी मेळवी हती. ते दरेकनी साथे एक-एक वाछडुं हतुं. तेमना शिङ्ग सोनेथी अने खरीओ चान्दीथी मढाव्यां हतां, उपरान्त ते दरेकने वस्त्र, हार अने घरेणां थी शणगारवामां आवी हती. आवी गायो में दानमां आपी हती. (शास्त्रोमां दान आपवामाटे नक्की करेल प्रकारनी गायो अने शास्त्रविधिपूर्वक में आपी हती) ॥१३॥
विशेष - १. ‘गुणोनन्नाः’ सद्गुणोवाळी, गुणियल. दूध आरोग्य आपनारुं अने घणा
घीवाळुं होवुं ए दूधना गुणोछे.
२. कपिला गाय शास्त्रोमां दान आपवामाटे श्रेष्ठ मनायेली छे. नकपिलाथ एटले
जेना आखा शरीरनो एक ज रङ्ग होय तेवी पण मुख्यत्वे सफेद.
हे भगवन्! युवावस्थाथी सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारो जे इन्द्रियनिग्रही,
पोत-पोतानी विद्याशाखामां निष्णात, वेद-वेदार्थने जाणनारा, निर्लोभी,
परोपकारी, विद्यावन्त, सदाचारी, कष्टमां पडेलां कुटुम्बवाळा, सत्य छतां
मधुरवाणीना व्रतधारी होय तेमने वस्त्राभूषणोथी शणगारतो अने ते गायोनुं दान
करतो ॥१४॥
आ प्रमाणे गायो, भूमि, घर, घोडा, हाथी, दासी सहित कन्याओ, तल, चान्दी, शय्या, वस्त्रो, नवरत्नो, रथ अने गृह उपयोगी पदार्थोनां में दान कर्यां, यज्ञवडे यजन कर्युं, कूवा, बगीचा वगेरे पण बनावडाव्या ॥१५॥
एक दिवस कोई अप्रतिग्रही (राजानुं दान न लेनार) स्वधर्मनिष्ठ ब्राह्मणनी एक गाय भूली पडी अने मारी (राजानी) गायोमां भळी गई. मने ए वातनी खबर न हती. तेथी में अजाणतां ते गाय बीजा कोई ब्राह्मणने दानमां आपी दीधी ॥१६॥
ज्यारे ते ब्राह्मण ते गायने लईने चाल्यो त्यारे तो ते गायना मूळ मालिके (तेने जोईने) कह्युं, ‘‘आ गाय मारी छे’’ दान लई जनारा ब्राह्मणे कह्युं, ‘‘आ गाय तो मारी छे, कारण के राजा नृगे मने एनुं दान करेलुं छे’’ ॥१७॥
ते बन्ने ब्राह्मण परस्पर झघडता पोत-पोतानी वातनी खात्री करवामाटे मारी पासे आव्या. एके कह्युं ‘‘आ गाय हमणां ज आपे मने दानमां आपी छे’’ [[५६४]] ज्यारे बीजाए कह्युं, ‘‘जो ए वात साची होय तो आपे मारी गाय चोरी लीधी छे’’ हे भगवन्! ए बन्ने ब्राह्मणोनी वात साम्भळी मारुं चित्त भ्रमित थई गयुं ॥१८॥
हुं धर्मसङ्कटमां पड्यो. बन्नेने में विनयपूर्वक समजावा माण्ड्या के हुं तमारी गायना बदलामां एक लाख गाय आपुं ए पण साधारण नहि, उत्तम गायो आपुं अने तमे आ गाय मने आपी दो ॥१९॥
हुं आप लोकोनो दास छुं. माराथी अजाणतां आ अपराध थई गयो छे. मारा उपर आप कृपा करो अने मने आ घोर कष्टमान्थी अने घोर नरकमां पडतां उगारी लो ॥२०॥
‘‘हे राजन्! हुं आना बदलामां कंई नहि लउं, मारे तो ए गाय ज जोईए’’ कही गायनो मूळ मालिक चाल्यो गयो. ‘‘आप एना बदलामां एक लाख ज नहि, वधारानी दसहजार गायो आपो तो पण हुं लेवानो नथी’’ एम कही बीजो ब्राह्मण पण चाल्यो गयो (गायना विक्रय अने प्रतिग्रह बन्नेनो शास्त्रमां निषेध छे) ॥२१॥
(बे ब्राह्मणोने क्षोभ पमाडवाथी तथा गाय पडावी लेवाथी राजा नृगनुं आयुष्य क्षीण थई गयुं अने यमराज दण्ड देवा प्रवृत्त थया) ए दरम्यान, हे देवाधिदेव जगदीश्वर! यमना दूतो मने यमपुरीमां लई गया ॥२२॥
त्यां यमराजे मने पूछ्युं, ‘‘हे राजन्! पहेलां तमे तमारा पापनुं फल भोगववा मागो छो के पुण्यनुं? तमारा दान अने धर्म ना फलरूप तमने अनन्त यश अने तेजस्वी लोकनी प्राप्ति थवानी छे’’* ॥२३॥
विशेष - आ श्लोकनां श्रीसुबोधिनीजीमां श्रीमहाप्रभुजी नीचेनी एक सुन्दर कहानी टाङ्के छेःएक वञ्चकनी गाय मरवा पडी. गाय मरी गया पछी तेनो निकाल करवाना पण जेनी पासे पैसा नथी तेवा एक ब्राह्मणने कपटथी बोलावी तेने ए वञ्चके गोदान कर्युं. दान पछी त्रण मुहूर्त (एक सो चुमालीस मिनिट) मां गाय मरी गई. दान लेनार ब्राह्मणे पोतानुं वस्त्र चाण्डालोने आपी गायने खसेडावी. आम ब्राह्मणने छेतरी ते धूर्त पण मरी गयो. यमराजे तेने तेना जीवननां जमा उधार पासां कही बताव्या. जमा पासामां एक मरवा पडेली गायनुं दान ज बताव्युं. तेने पूछ्युं के पहेलां तारे पुण्यनुं फल भोगववुं छे के पापनुं? त्यां पण कुटिलता करी के मारा पुण्यनुं फल शुं मळशे? त्यारे यमराजाए कह्युं के दान आप्या पछी गाय जेटलो वखत जीवी तेटलो वखत ते गाय कामधेनु स्वरूपे तारा कह्यामां रहेशे. ते धूर्ते कह्युं के पहेलां मारे मारा [[५६५]] पुण्यनुं फल भोगववुं छे. ते वञ्चके कामधेनुने कह्युं, ‘‘तुं वाघ थई जा अने यमने खाई जा’’ वाघ यमराज उपर छापो मारवा जाय छे त्यां तो यम भाग्या अने विष्णुने शरणे गया. कामधेनुद्वारा आ पण पाछळ त्यां पहोञ्च्यो. तेणे विष्णु भगवाननां साक्षात् दर्शन थयां अने मोक्ष मळी गयो. आवां गोदाननुं पण अनन्त फल होय तो पछी विधिपूर्वक दान अपायेलीना फलनी तो वात ज शी करवी? आ श्लोकमां नीचे मुजब पाठो छे - १. यशो लोकश्च भास्वरः। आ पाठ श्रीमदाचार्यचरणे श्रीसुबोधिनीजीमां स्वीकार्यो छे. २. पश्ये लोकस्य भास्वरः। श्रीसुबोधिनीजीमां मूलमां छपायेलो पाठ. ३.पश्ये लोकस्य भास्वतः। अन्य टीकाकार सम्मत अर्थमां खास कंई फेर पडतो नथी. हे भगवन्! त्यारे में यमराजने कह्युं, ‘‘हे देव! पहेलां हुं मारां पापनुं फल भोगवी लेवा मागुं छुं’’ (नृगे करेला ब्राह्मणना अतिक्रमथी यमराज गुस्से तो थयेला ज हता) एटले तत्काल हुकम छोड्यो ‘‘(आ लोकमान्थी पृथ्वी लोक उपर) पड’’ पडतां-पडतां तो, हे प्रभो! में जोयुं के हुं काचण्डो थई गयो छुं* ॥२४॥
विशेष - अर्ही शङ्का थाय के आटलुं दान आपनार, यज्ञ करनारनी आवी दशा केम? तो तेनो खुलासो ए छे के बधाय गुणोने धोई नाखनारो एक महान दोष तेनामां हतो अने ते हतो ‘बहिर्मुखता’ एटले तो ‘प्रभो’ सम्बोधन वापरी एम कहे छे के आवा कर्ममान्थी उद्धार करवा, छुटकारो करवा, आप ज प्रभु-समर्थ छो. जीवने तो ग्रहण परित्यागनुं ज ज्ञान नथी तो मोचननुं ज्ञान क्यान्थी होय? आवी अटपटी बाबतोमां तो भगवान् ज शरण छे. हे केशव! ब्राह्मणनुं हित करनार अने दानी एवा आपना आ दासने पूर्व जन्मनुं स्मरण अद्यापि गयुं नथी, केमके हुं आपना दर्शननो अभिलाषी छुं. जे भगवानना धर्मोनी प्रतीक्षा करे छे तेने बीजा धर्म बाधक थता नथी ॥२५॥
हे विभो! वेदे कहेल ज्ञानथी शुद्ध हृदयवाळा योगी लोको हृदयमां जेमनुं मात्र ध्यान ज करी शके छे, प्रत्यक्ष दर्शन करी शक्ता नथी ते परमात्माने में मारां नेत्रोथी जोया. हे इन्द्रियातीत *परात्मा! अनेक व्यसनोमां जेनी बुद्धि अन्ध थई रही छे तेवा मने साक्षात् दर्शन थयां एनुं कारण तो एटलुं ज के भगवान् जेनो मोक्ष करवा धारे तेने अर्ही आ जन्ममां ज दर्शन आपे छे. तेथी मोक्षमां साधन फलोन्मुख थतां आपे मने दर्शन आप्याम् ॥२६॥
विशेष - देहनी अन्दर आत्मा रहेलो छे अने आत्मानी पण अन्दर आप बिराजो छो. तेवा [[५६६]] परात्मानां दर्शन देहनी पण बहार केवी रीते थयां ए आश्चर्य छे. हे देवोना देव! हे जगतना नाथ! हे सत्पुरुषोना इन्द्र! हे अक्षरथी पर पूर्ण पुरुषोत्तम! हे नारायण! हे इन्द्रियोना अधिष्ठाता! हे पवित्रकीर्ते! हे अच्युत! हे अव्यय! ॥२७॥
हे विभो! देवगतिने पामता मने आप जवानी आज्ञा आपो. हे कृष्ण! हुं ज्यां होउं त्यां मारुं चित्त आपना चरणमां रहे एटलुं इच्छुं छुम् ॥२८॥
हे सर्वभावस्वरूप ब्रह्मरूप छतां अनन्त शक्तिवाळा, सदानन्द, वासुदेव! योगोना पतिरूप! आपने मारा नमस्कारहो ॥२९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम बोली भगवानने परिक्रमा करी, पोताना मुकुटवडे चरणनो स्पर्श करी, भगवाननी आज्ञा लई बधा लोकोना देखतां, उत्तम विमानमां ए सवार थयो. (परिक्रमा अने नमस्कार सर्व कार्य सिद्ध करी दे छे) ॥३०॥
भगवान् देवकीजीना पुत्र श्रीकृष्ण पोताना पुत्र, पौत्र आदिने अने बीजा राजाओने शिक्षा आपवामाटे पोते धर्मात्मा अने ब्राह्मण मां देवबुद्धिवाळा होवाथी कहेवा लाग्याः ॥३१॥
अरेरे! (बाळक सर्प पासे जाय अने मा-बापनी, जेम अरेराटी छूटी जाय तेम भगवान् आ श्लोकमां खेद प्रकट करे छे. ए बत (अरे रे)नो भाव छे.) जे अग्नि बधुं बाळीने भस्म करी नाखे छे ते अग्नि पण ब्राह्मणोनुं थोडामां थोडुं धन पण पडावी लईने पचावी शक्तो नथी. ज्ञानरूपी तेजथी सम्पन्न ब्राह्मण पण ब्राह्मणनुं धन नथी पचावी शक्तो तो पछी जे राजाओ (पोताना क्षात्र धर्म छोडी भगवद्धर्म) ऐश्वर्यनुं अभिमान राखता फरे छे तेओ (पर धर्म निष्ठ होवाथी), ब्राह्मणनुं धन केवी रीते पचावी शकवाना हता? ॥३२॥
(समुद्रमन्थन वखते नीकळेलां) हळाहळ विष (झेर)ने हुं विष नथी मानतो, केमके (ते शङ्कर पी गया एटले) तेनो तो उपाय थई गयो. साचुं पूछो तो ब्राह्मणोनुं धन ज साचुं विष छे. तेने पचावी लेवामाटे पृथ्वीमां कोई औषध के शास्त्रमां कोई उपाय नथी ॥३३॥
विष तो जे खाय तेने मारे, अग्नि जलथी शान्त थई जाय पण ब्राह्मणना धनरूप अरणिथी उत्पन्न थयेल अग्नि तो कुळने समूळुं बाळी नाखे छे ॥३४॥
ब्राह्मणनुं धन तेनी पूरेपूरी *हार्दिक सम्मति लीधा विना जो वापरवामां आवे [[५६७]] तो ते वापरनार, (ब्राह्मणने मनथी आपवानुं कह्युं होय अने ए न अपाय अने पोताना उपयोगमां ले तो) तेना पुत्रो अने पौत्रो आ त्रण पेढीओनुं निकन्दन काढी नाखे छे; परन्तु पराणे बळपूर्वक तेनो उपभोग करवामां आवे तो-तो पहेलां (बापदादा) नी दस पेढी, पछी (पुत्र, पौत्र वगेरे) नी दस पेढी अने पोते; एम एकवीस पेढी नष्ट थई (नरकमां) जाय छे ॥३५॥
विशेष - दुरनुज्ञातम्! उपर-उपरथी वाणीथी ज जेनी अनुमति आपवामां आवी होय तेवुं. जेवी रीते जङ्गलमां कोई डाकु पिस्तोलनी अणीए बधा दागीना उतरावे. प्रसह्य अने बलात्मां सूक्ष्म भेद छे, जो के व्यवहारमां ‘बळजबरीथी’ एवो बेउनो अर्थ केटलीक वखते करातो जोवामां आवे छे. प्रसह्य - सुरुचिना भङ्गपूर्वक अतिक्रम करी. अर्ही सलामतीनी खातर वस्तुनो मालिक सामे बळनो प्रयोग करतो नथी. बलात् - मालिक सामनो करे छे पण तेना उपर बळ वापरी वस्तु पडावी लेवामां आवे छे. जे मूर्ख राजाओ ब्राह्मणना धनने-जे नरकमां जवानो राजमार्ग छे. बिनहानिकारक मानी हडप करी ले छे. तेओ राजलक्ष्मीना (मदमां) अन्ध बनीने पोताना नरकपातने जोई शक्ता नथी ॥३६॥
जे उदार अने बहोळा कुटुम्बवाळा ब्राह्मणोनी आजीविका आञ्चकी लेवामां आवे छे तेमना रुदननां आंसुनां बुन्दोथी धरतीनां जेटलां रजकणो र्भीजाय छे. तेटलां वर्षो सुधी ब्राह्मणनुं धन छीनवी लेनार ते उच्छृङ्खल राजा अने तेना वंशजोने कुम्भीपाक नरकमां यातना भोगववी पडे छे ॥३७-३८॥
जे मनुष्य पोते अथवा बीजाए आपेल ब्राह्मणोनी आजीविकानुं साधन छीनवी ले छे तेने साठ हजार वर्ष सुधी विष्ठा (नरक) नो कीडो थवुं पडे छे ॥३९॥
तेथी हुं तो ए ज इच्छुं छुं के ब्राह्मणोनुं धन क्यारेय भूलथी पण मारी राज तिजोरीमां न आवे, कारण के जे राजाओ ब्राह्मणोनां धननी इच्छा पण करे छे तेने छीनवी लेवानी वात तो अलग रही तेओ आ जन्ममां अल्पायु, दैववशात् मोत न आवे तो शत्रुओथी पराजित अने राज्यभ्रष्ट थई जाय छे अने मृत्यु पछी बीजाने कष्ट देनार सर्प ज थाय छे ॥४०॥
तेथी मारा वहाला पुत्रो अने पौत्रो! ब्राह्मण अपराध करे तो पण तेनो द्रोह कदी करवो ज नहि. तेओ शाप आपे तो पण एमने हम्मेशा नमस्कार ज करजो ॥४१॥
[[५६८]] जेम हुं त्रणे काळमां सावधान थई ब्राह्मणोने नमस्कार करुं छुं तेम तमे पण कर्या करो. मारी आ आज्ञानुं जे उल्लङ्घन करशे तेने हुं क्षमा नहि करुं, दण्ड दईश ॥४२॥
अजाणतां ब्राह्मणनी गाय नृगना लेवामां आवी तो पण एनो अधःपात थयो तेम ब्राह्मणनुं द्रव्य ले तेनो अधःपात थाय छे ॥४३॥
एवं विश्राव्य भगवान् मुकुन्दो द्वारकौकसः ॥ पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् ॥४४॥
हे परीक्षित! समस्त लोकोने पवित्र करनारा मुकुन्द भगवान् द्वारकावासीओने आ प्रमाणे उपदेश आपी पोताना मन्दिरमां पधार्या ॥४४॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना पहेला
प्रमेय-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्य रूप पहेलो) ‘‘नृगनुं आख्यानपथ नामनो
(उत्तरार्धनो पन्दरमो अने चालु) चोसठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां एकसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्
जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे
भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार
कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.
अध्याय ६५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६२ बलदेवजीनुं गोकुलमां पधारवुं चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय२
विशेष - सामान्य रोध एक अध्यायथी कह्यो. विशेष रोधमां जे तामस भावनामान्थी राजस भाववाळा थया छे तेनो अर्ही सात्विक भाव कहेवाय छे. ए सात्विको सकाम हता तेमनो
ईं उं ईं उं
[[५६९]] भगवान् बलदेवजीद्वारा आ पांसठमां अध्यायमां निरोध करशे त्यारे ए स्वरूपभूत थशे एटले एने सायुज्य आपशे. अर्ही बलदेवजी तामस राजस सात्विक ना मानखण्डक छे एम कहे छे. प्रसङ्गथी काशीनुं दहन कर्युं ते प्रसङ्ग पण छे. पछी स्त्रीओनो भगवान् स्वयं निरोध करशे. सात-सात अध्यायनां त्रण प्रकारना छेल्ला त्रणेना धर्मि अध्यायो छेल्ले कहेवामां आवे छे. एम प्रमेयमां प्रमेय बळथी निरोध पाञ्च प्रकारे कहेवामां आवे छे. आमां सङ्कर्षण अने अनिरुद्ध ए बन्ने व्यूहनुं कार्य प्रकट छे. प्रथम अध्यायमां सामान्य निरोध कह्यो छे तेने गणीए तो निरोधना प्रकार छ थाय छे. प्रथम भगवान्मां साधन-फलभाव बन्ने हता. हवे साधनरूप बलदेवजीने जुदा कर्या त्यारे पोते फलरूपे रह्या. ए कुरुक्षेत्रना प्रसङ्गमां निरोध करशे. बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ॥ सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान् बलदेवजी सुहृदोने जोवानी उत्कण्ठाथी रथमां बेसी नन्दरायजीना गोकुलमां पधार्या ॥१॥
अर्ही एमने माटे व्रजवासी गोपो अने गोपीजनो पण घणा दिवसोथी उत्कठिन्त हतां. तेमने मळी बधांए तेमने छाती सरसा लगाव्या. बलदेवजीए माता यशोदाजी अने नन्दरायजी ने प्रणाम कर्या. तेओए पण आशीर्वाद दई तेनुं अभिनन्दन कर्युम् ॥२॥
तेमणे कह्युं, ‘‘हे बलदेवजी! आप जगदीश्वर छो; आपना नाना भाई श्रीकृष्णनी साथे सर्वदा अमारी रक्षा करता रहो’’ पछी तेमने गोदमां बेसाडी, आलिङ्गन करी पोताना प्रेमाश्रुओथी तेमनां बधां अङ्गोने र्भीजवी दीधाम् ॥३॥
त्यार पछी वडील गोपोने (गोत्रना उच्चार सहितनी) विधिपूर्वक बलदेवजीए अने नाना-नाना गोपोए बलदेवजीने नमस्कार कर्या. ते पोतानी उम्मर, मित्रता अने सम्बन्ध प्रमाणे बधान्ने मळ्या ॥४॥
ग्वालबालोनी पासे जई तेमणे नानी उम्मरना गोपोना हाथ पोताना हाथमां लीधा, सरखी उम्मरना मित्रोनी साथे हस्या अने मुरब्बीओने नमस्कार कर्या. त्यारबाद ज्यारे बलदेवजीनो थाक ऊतरी गयो अने तेओ आरामथी बेसी गया त्यारे बधा गोवाळो तेमनी पासे आव्या. आ गोपालोए कमलनयन१ श्रीकृष्णमां ज बधी ज लौकिक, वैदिक सिद्धिओ स्थापित करी दीधी हती. बलदेवजीए ज्यारे [[५७०]] तेमने अने तेमना कुटुम्बीजनो विषे कुशळ समाचार पूछ्या२ त्यारे तेओए प्रेम गद्गद वाणीथी तेमने प्रश्न पूछ्या ॥५-६॥
विशेष - १. श्रीकृष्ण भगवान्ने माटे समस्त भोग, स्वर्ग अने मोक्ष सुद्धां छोडी दीधां हतां
कारण के आप ‘‘कमलपत्राक्ष’’ कमलना पत्र जेवा नेत्रोवाळा हता अर्थात् आप पोतानी
दृष्टिथी ज सर्व तापनो नाश करी नाखी मोह उपजावे छे.
२. ‘‘ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्, वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं
चारोग्यमेव च’’ (मनुस्मृति)
हे बलदेवजी! वसुदेवजी वगेरे अमारां सगां सम्बन्धीओ कुशळ छे ने? हवे
आप स्त्री-पुत्रवाळा थया ते अमने याद करो छो खरा? ॥७॥
पापी कंसने आप लोकोए मारी नाख्यो अने तमारा सुहृद-सम्बन्धीओने भारे आफतमान्थी उगारी लीधां ते घणा आनन्दनी वात छे. ए पण ओछा आनन्दनी वात नथी के आप लोकोए बीजा पण घणा शत्रुओ (कालयवन वगेरे) ने मारी नाख्या के जीती लीधा अने हवे अत्यन्त सुरक्षित द्वारकामां जईने निवास कर्यो ॥८॥
हे परीक्षित! भगवान् बलदेवजीनां दर्शनथी अने एमनी प्रेमभरी दृष्टिथी जेमनो सत्कार थयो छे तेवां गोपीजनो हसतां-हसतां पूछवा लाग्यां, ‘‘हे बलदेवजी! नगर नारीओना प्राणप्रीतम श्रीकृष्ण हवे प्रसन्नतामां बिराजे छे ने? ॥९॥
आप (श्रीकृष्ण) ने क्यारेय पोताना बन्धु अने माता-पिता नी याद आवे छे खरी? पोतानी माताना दर्शनने माटे एक वखत पण अर्ही पधारशे खरा? महाबाहु श्रीकृष्ण अमे तेमनी इच्छा प्रमाणे करेली *सेवाने क्यारेय याद करे छे खरा? ॥१०॥
विशेष - अपेक्षित होय ते ‘सेवा’ कहेवाय अने सेव्यनी इच्छानुसार करायेली सेवा ‘अनुसेवाथ’ कहेवाय. एटलुं सेवा अने अनुसेवा वच्चे तारतम्य छे. आप जाणो छो के स्वजनो अने सम्बन्धीओ ने छोडवां बहु ज कठिन छे. छतां पण अमे एमने माटे माता-पिता, बन्धु, ज्ञातिजनो, पुत्रो अने बहेनो ने पण छोडी दीधां. परन्तु हे प्रभो! ते तो तुरत अमारा सौहार्द अने प्रेम ना बन्धनने पण छोडीने चाल्या गया. अम लोकोने बिलकुल छोडी दीधां. (अमे धार्युं [[५७१]] होत तो आपने रोकी शक्या होत पण) आपे कहेलुं के ‘‘न पारयेहं निरवद्य संयुजा स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः’’ (१०.३२.२२) ‘‘हुं ब्रह्माजीना आयुष सुधी, अनन्त काल सुधी, तमारा प्रेम, सेवा अने त्याग नो बदलो चूकववा मागुं तो पण चूकवी शकुं नहि’’ आपनां आवां मधुर वचनोमां एवी कई स्त्री होय के जे विश्वास न मूके? ए तो कपट रहित होवाथी भगवान्ना कथनमां विश्वास राखे ज तेमने पण भगवाने छोडी दीधां’’ ॥११-१२॥
एक गोपीजने कह्युं, ‘‘हे बलदेवजी! अमे तो गामडान्नी गमार गोवालणो रही तेथी तेमनी वातोथी भोळवाई गई. परन्तु नगरनी स्त्रीओ तो भारे चतुर होय छे. भला जेमना जीवो-भगवदीयो; लोकमां अने वेदमां निष्ठा राखता नथी तेवा कृतघ्न श्रीकृष्णनी वातोमां ते स्त्रीओ केम फसाई गई हशे? तेमने तो श्रीकृष्ण मूरख नहि बनावी शक्या होय?’’ त्यां तो बीजां गोपीजने कह्युं, ‘‘नहि सखी! श्रीकृष्ण बनावट करवानी कळामां बहु कुशळ छे. एवी तो रङ्गबेरङ्गी मीठी-मीठी वातो करतां एमने आवडे छे के न पूछो वात. आपनुं सुन्दर हास्य अने प्रेमभरी दृष्टिथी नगरनी नारीओ पण प्रेमना आवेगी व्याकुळ थई जती हशे अने आपनी वातोमां आवी जई पोतानी जातने न्योछावर करी देती हशे(जेम तावनो दरदी वैदना वाक्यमां श्रद्धा राखी कडवां औषध खाय छे तेम) ॥१३॥
त्यां वळी एक गोपीजने कह्युं, हे गोपीजनो! एमनी कथाथी आपणे शुं? माटे बीजी वात कहो. जो तेमनो समय आपणा विना पसार थाय छे तो आपणो पण (समय) तेमनी ज जेम पसार थई ज जशे ॥१४॥
हवे भगवान् श्रीकृष्णनुं हास्य, प्रेमभरी वातो, मधुर दृष्टि, अनूठी चाल अने प्रेमालिङ्गन वगेरेनुं स्मरण करता तेओ मूर्छित थई गयाम् ॥१५॥
अनेक प्रकारना समाधानमां कुशळ सङ्कर्षणे श्रीकृष्णना हृदयस्पर्शी सन्देशावडे तेमने बहु वातो करी समजावी तेमनुं सान्त्वन कर्युम् ॥१६॥
रातना वखते गोपीजनोनी साथे क्रीडा करता बलदेवजी वसन्तना चैत्र अने वैशाख बे मास त्यां रह्या ॥१७॥
पूर्ण चन्द्रकलाथी शोभायमान कुमुदसम्बन्धी नदीना वायुवाळा श्रीयमुनाजीना उपवनमां स्त्रीगणोथी र्वीटाईने पवननुं सेवन करता ए बलदेवजी गोपीजनो साथे रमण करवा लाग्या ॥१८॥
[[५७२]] वरुणे मोकलेली वारुणी वृक्षमान्थी झरे छे ते आखा वनने पोतानी गन्धथी सुवासित करे छे ॥१९॥
ए गन्धने वायु लाव्यो तेने सूङ्घी बलदेवजी त्यां गया अने ए वारुणीने स्त्रीओनी साथे पोते पण पीधी ॥२०॥
ते वखते गोपीजनो बलदेवजीनी चारे बाजु तेमना चरित्रोनुं गान करी रह्यां हतां अने तेओ मदमां गाण्डा बनी वनमां फरता हता. तेमना नेत्रो आनन्दमदथी विह्वल थई रह्यांहताम् ॥२१॥
गळामां पुष्पोनो हार शोभी रह्यो हतो. वैजयन्ती माला धारण करी आनन्दमां उन्मत्त थई रह्या हता. एमना एक कानमां *कुण्डल चळकी रह्युं हतुं. मुखारविन्द उपरना मलकाटनी शोभा अनोखी हती. तेना उपर पसीनानां बिन्दु हिमकणना जेवा जणातां हताम् ॥२२॥
विशेष - एक कुण्डलः। बलदेवजी हमेशां एक ज कुण्डल धारण करे छे, बे नहि. सङ्कर्षणजीनुं ते असाधारण चिह्न छे. सङ्कर्षणजी वेदनुं स्वरूप छे. साङ्ख्य शास्त्रमां आत्मा अने अनात्मा नो विवेक दर्शाववामां आव्यो छे. वेदना सिद्धान्त मुजब बधुं ज आत्म स्वरूप छे एटले साङ्ख्य शास्त्रनो आत्मा-अनात्मानो विवेक श्रीसङ्कर्षणजीने मञ्जूर नथी माटे योगरूपी एक ज कुण्डल तेओ धारण करे छे. वारुणीनुं पान करीने जे स्थळे बलदेवजी हतां त्यां जल विहारमाटे श्रीयमुनाजीने बोलव्या. जे स्थळे भगवाने नदीओने स्थापी छे ते स्थाननो नदीओ त्याग करे तो मर्यादानो भङ्ग थाय. तेथी श्रीयमुनाजीए विचार्युं के ए तो नशामां छे एटले श्रीयमुनाजी आव्यां नहि तेमनी आज्ञा न मानी. त्यारे (बलदेवजीए मान्युं के ईश्वर ईशितव्यनी पासे न जाय पण ईशितव्ये ईश्वरनी पासे जवुं जोईए) बलदेवजीए पोताना हळनी अणीथी तेमने खेञ्च्याम् ॥२३॥
अने कह्युं,‘‘हे *पापिणी यमुने! हुं बोलावुं छुं छतां तुं मारी आज्ञानुं उल्लङ्घन करी अर्ही नथी आवती, मारोतिरस्कार करी रही छे!हमणां जमारा हळनी अणीथी तारा सेङ्कडो टूकडा करी नाखुं छुं’’ ॥२४॥
विशेष - अर्ही बलदेवजीना रासमां यमुनाजीने बोलाव्यां अने तेमने बलदेवजीए ‘पापे’ एवुं
विशेषण आप्युं छे. त्यां लोकोने शङ्का पडे तेथी कहेवानुं के भगवान्नी क्रीडामां ज अथवा निर्गुण पुरुषोत्तमनी लीलामां ज यमुनाजी स्वयं होय छे. अर्ही एमनो प्रादुर्भाव नथी, मात्र [[५७३]] नदीनो उपयोग छे तेथी एने बोलावी ते आवी. एणे माफी मागी त्यारे बलदेवजीए एने मुक्त करी छे. यमुनाष्टकनी टीकामां श्रीपुरुषोत्तमजी आ विषयने लईने विशेष निर्णय करे छे.
विशेष जिज्ञासुए ए जोवा विनन्ति छे. आ गोपीजनो जुदां छे तेनो निर्णय ए श्लोकनां श्रीसुबोधिनीजी वाञ्चीने करवो. बलदेवजीद्वारा एगोपीजनोनी शुद्धि भगवाने करीछे. ज्यारे बलदेवजीए श्रीयमुनाजीनो आम तिरस्कार कर्यो त्यारे आश्चर्य पाम्यां अने भयभीत थई गयां अने बलदेवजीनां चरणोमां नमस्कार करी प्रार्थना करवा लाग्या ॥२५॥
हे राम! राम! महाबाहो! हे जगत्पते! आपनुं पराक्रम हुं भूली गई हती. हवे हुं जाणी गई के आपना अंश शेषजीनी फेणना एक भाग उपर ज आखी पृथ्वी राईना दाणानी जेम आपे धारण करी राखी छे ॥२६॥
हे भगवन्! (आपमां श्रीकृष्णनो आवेश होवाथी) आपना भगवान् जेवा सामर्थ्यने, आपना वास्तविक स्वरूपने, न जाणती होवाने लीधे ज माराथी आ अपराध थई गयो छे. हे विश्वात्मा भक्तवत्सल! हुं आपने शरणे आवी छुं. मारो अपराध क्षमा करो अने मने छोडी दो ॥२७॥
एम याचना करी त्यारे बलदेवजीए एमने छोडी दीधां अने पोते स्त्रीओनी साथे जलक्रीडा करवाने, जेम हाथणी साथे गजराज विहार करे तेम, ऊतर्या ॥२८॥
इच्छापूर्वक विहार करीने बहार नीकळेला बलदेवजीने कान्ति नामनी भगवान्नी चोथी शक्तिए बे श्याम वस्त्रो, बहु कीमती आभरणो अने सुन्दर माळा भेट आपी ॥२९॥
बे श्याम वस्त्रो पहेर्यां, सोनानी माळा पहेरी चन्दननो लेप कर्यो तेथी, इन्द्रनो श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी शोभे तेम बलदेवजी शोभवा लाग्या ॥३०॥
हे परीक्षित! यमुनाजी आजे पण बलदेवजीए हळनी अणीथी जे मार्गे खेञ्च्यां हतां ते ज मार्गे वहे छे अने जाणे के अनन्त शक्ति बलदेवजीना पराक्रमनुं गान करी रह्याञ्छे ॥३१॥
एवं सर्वा निशा याता एकेव चरतो व्रजे ॥ रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रज्योषिताम् ॥३२॥
बलदेवजीनुं चित्त व्रजवासिनी गोपीजनोना माधुर्यथी एवुं मुग्ध थई गयुं के तेमने समयनुं कंई ध्यान ज न रह्युं. केटली बधी रात्रिओ एक ज रात्रिनी जेम [[५७४]] पसार थई गई. आ प्रमाणे बलदेवजी व्रजमां विहार करता रह्या ॥३२॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरण पहेला
प्रमेय-पेटा प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘बलदेवजीनुं गोकुल पधारवुं’’
नामनो (उत्तरार्धनो सोळमो अने चालु) पांसठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां बासठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!!
‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’
भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही
अध्याय ६६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६३ भगवाने मिथ्या वासुदेवने मार्यो अने काशीने बाळी चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय३
विशेषः कामनी वात पूर्ण करी. हवे क्रोधनी वात कहे छे. एम करीने कंस वगेरेनो मोक्ष कर्यो तेम अर्ही, दुष्टोनो भगवान् मोक्ष करे छे. बाणासुरना प्रसङ्गमां भगवाने एनुं स्थान बताव्युं तेना सहायक महादेवजी उपर दया करी एना मदद करनार रुद्र गणने जीवाड्या अने मात्र एनो गर्व दूर कर्यो. अर्ही तेथी विपरीत छे, केमके त्यां तो भगवाने प्रह्लादने वचन आपेल के हुं तारा वंशनो नाश नहि करुं तेथी त्यां सर्वने बचाव्यां, अर्ही भगवाने सर्वनो नाश कर्यो. लौकिकवडे पण काममां प्रवृत्त थाय. जेम गोपीजनो बलदेवजी साथे काममां प्रवृत्त थयां तेवानो पण भगवान् मोक्ष करे छे तेम अर्ही मूर्खाओए ‘‘तुं वासुदेव छो’’ एम कहेवाथी पौण्ड्रकने भगवान् उपर क्रोध थयो अने पोते ज एक भगवान् छे एम धारीने भगवान्ने भगवदचिह्न छोडवानुं कहेण मोकल्युं अने एम न थाय तो लडवा आववानुं निमन्त्रण कर्युं. भगवान् तो अक्लिष्टकर्मा छे. ए कोईना कह्या वगर तो लडवा जाय नहि तेथी एणे कहेवराव्युं त्यारे त्यां पधार्या. एना तथा एना आधाररूप काशीनो अने एना मित्र काशीराजनो तथा एनी सेना वगेरेनो भगवाने नाश कर्यो. ए आ छासठमा अध्यायमां कहेवानुं छे. एम करीने भगवाने
ईं उं ईं उं
[[५७५]] एनो पोताना स्वरूपमां निरोध कर्यो, केमके पहेलां ए भक्त हतो एना पितानुं नाम वसुदेव हतुं एटले एने लोको ‘वासुदेव’ कहेता हता. वासुदेवनुं शास्त्रमां वर्णन साम्भळी एणे एवो वेश कर्यो तेथी ए मोक्षने लायकनो तो हतो, भगवान्नी इच्छाथी एने ‘‘हुं वासुदेव छुं’’ एम बुद्धि थई. शास्त्रमां ‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म’’ जाणी पोते पण एक ज होवो जोईए एथी तेनाथी भगवान्नो उत्कर्ष सहन न थतां एणे दूत मोकल्यो त्यारे भगवाने एने त्यां जईने ब्रह्म एक ज छे सिद्ध करी बताव्युं नन्द व्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप ॥ वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् ॥१॥
श्रीशकदेवजीए कह्युं - ज्यारे बलदेवजी नन्दरायजीना व्रजमां पधार्या हता त्यारे हे परीक्षित! ‘करूष’ देशना राजाए ‘‘वासुदेव हुं छुं’’ एम अज्ञानथी जणावी पोताना एक दूतने श्रीकृष्ण पासे मोकल्यो ॥१॥
एने बधा मूर्खोए ‘‘वासुदेव तमेज छो, तमे पृथ्वीउपर अवतार धर्यो छे तेथी जगतना पति तमेज छो’’ एम कही बनाव्यो त्यारे ए बन्यो अने पोताने अच्युत मानवा लाग्यो ॥२॥
जेम बाळको रमतमां कोईने राजा करे अने ए मुख्य राजाने दूत मोकले तेम पोते मन्दमति अने अज्ञानी होवाथी एणे जेनो मार्ग कोईथी जणातो नथी तेवा भगवान् श्रीकृष्ण पासे द्वारकामां दूत मोकल्यो ॥३॥
दूत द्वारका आव्यो त्यां कमललोचन भगवान्श्रीकृष्ण सभामां बिराजमान हता तेमने राजानो सन्देश कह्यो ॥४॥
‘‘वासुदेव एक मात्र हुं ज छुं, बीजो कोई नहि. प्राणीओ उपर कृपा करवाने माटे में ज अवतार लीधो छे. तमे खोटी रीते पोतानुं नाम वासुदेव राखी लीधुं छे, हवे ते छोडी दो ॥५॥
हे यदुवंशी! तमे मूर्खताने लीधे मारां चिह्नो धारण करी लीधां छे. ते छोडी दई मारे शरणे आवो अने मारी वात जो तमारे न स्वीकारवी होय तो मारी साथे युद्ध करो’’* ॥६॥
विशेष - ‘‘यानि त्वस्मच्चिह्नानि मौढ्याद् बिभर्षि सात्वत, त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद् देहि ममाहवम्’’. भगवाननो आविर्भाव मनुष्य तरीके थाय त्यारे जीवो आपने ओळखी न शके. पोतानी पिछान जीवोने कराववामाटे भगवान् जीवोनी मूढताने लीधे [[५७६]] शङ्ख, चक्र वगेरे धारण करे छे. ‘सात्वत’नो अर्थ वैष्णव पण थाय छे. शङ्ख, चक्र वगेरेनी मुद्रा वैष्णवो धारण करे ज छे. आप पण धारण करो छो ते उचित ज छे. ‘‘मामेहि ततः शरणं शरणमार्गं देहि नो चेन्मम वं आह वद इति अन्वयः’’ मारी पासे पधारो, पछी मने शरणमार्गनुं दान करो. शरणमार्गनुं दान न करवुं होय तो एम कहो के हुं तने मोक्ष आपीश. ‘‘त्यक्तवैहि=त्यक्त्वा+आ+एहि। आ समन्तात् त्वं मामेहि प्राप्नुहि’’ चारे बाजुथी, पूरेपूरी रीते तमे मारी पासे एटला निकट पधारोके मने (व) सायुज्य प्राप्त थई जाय. सामेथी चालीने आवीने उद्धार करवो ए कृपानुं कार्य छे. श्रीशुकदेवजीए कह्युंः मन्दमतिवाळा *पौण्ड्रकनी आ आत्मप्रशंसा साम्भळीने उग्रसेन वगेरे सभामां रहेला बधाने हसवुं आव्युम् ॥७॥
विशेष - पौण्ड्रकनामथी ज तेनी हीनता कहेवाई जाय छे. पुण्ड्र अत्यन्त नीच कोटिनी चाण्डालनी जाति छे. ते भावथी उत्पन्न थयेल ते पौण्ड्र ‘क’ प्रत्ययनो अर्थ कुत्सित-खराब थाय छे. अधम स्वभाववाळी जातिमां उत्पन्न थयेल व्यक्ति पण अधम ज होय. एम हसी रह्या पछी भगवान् बोल्या - ‘‘तुं एम तारां वखाण करे छे तो हुं, हे मूढ! मारां चिह्न छोडी दईश ॥८॥
हे मूर्ख! कङ्क, गीध अने बगला थी र्वीटाईने ज्यारे तुं रणमां पडीश त्यारे तारुं मुख ढङ्काई जशे अने तुं कूतराने शरण जईश’’ ॥९॥
भगवान्नो आ तिरस्कार पूर्ण जवाब लई पौण्ड्रकनो दूत पोताना स्वामीनी पासे गयो अने तेने कही सम्भळाव्यो. आ बाजु भगवान् श्रीकृष्ण पण रथ उपर सवार थई काशी पासे गया* (कारण के ते दिवसोमां ते ‘करूष’नो राजा पोताना मित्र काशीराजनी पासे काशीमां ज रहेतो हतो) ॥१०॥
विशेष - तामस स्थानमां भगवान्नो एकदम आविर्भाव थतो नथी. काशीमां स्वयं पधार्या नथी. जो पधारे तो काशी शिवपुरी मटी जईने विष्णुपुरी-मथुरा के द्वारका थई जाय. पौण्ड्रक पण भगवान्नो उद्योग जोईने (सन्देश जाणीने) मोटा रथमां बेसी, बे अक्षौहिणी सेना लईने लडवामाटे तरत ज नगरनी बहार आव्यो ॥११॥
हे राजन्! एनो मित्र काशीराज पण त्रण अक्षौहिणी सेना लई एनी सहायताने माटे लडवा तैयार थई तेनी पाछळ-पाछळ आव्यो त्यारे श्रीहरिए पौण्ड्रकने जोयो ॥१२॥
[[५७७]] तेणे कुदरती सहज भुजाओमां शङ्ख अने चक्र धारण कर्यां हतां, गदा अने शांर्ग धनुष कृत्रिम भुजाओमां, तलवार, श्रीवत्सचिह्न अने वक्षःस्थळ उपर बनावटी कौस्तुभ मणि अने वनमाला पण धारण कर्या हताम् ॥१३॥
तेणे रेशमी पीळां वस्त्र पहेर्यां हतां अने रथनी धजा उपर (काष्ठनुं) गरुडनुं चिह्न लगाव्युं हतुं. तेना मस्तक उपर अमूल्य मुगट हतो अने कानोमां मकराकृत कुण्डल झगमगी रह्यां हताम् ॥१४॥
तेनो आ आखोय स्वाङ्ग बनावटी हतो, जाणे के कोई अभिनेता रङ्गमञ्च उपर अभिनय करवा आव्यो होय. तेनी वेशभूषा पोतानां जेवां ज जोई भगवान् श्रीकृष्ण बहु हस्या ॥१५॥
हवे शत्रुओए भगवान् श्रीकृष्ण उपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश अने बाण-दश प्रकारनां शस्त्रास्त्रोथी प्रहार कर्यो ॥१६॥
प्रलय वखते जेवी रीते अग्नि बधी जातनां प्राणीओने बाळी नाखे छे तेवी ज रीते भगवान् श्रीकृष्णे पण गदा-तलवार-चक्र अने बाणोथी पौण्ड्रक अने काशीराजना हाथी-रथ-घोडा अने पायदळ नी सेनानो नाश कर्यो ॥१७॥
ते रणभूमि भगवान्ना चक्रथी टुकडे-टुकडा थई गयेल रथ, घोडा, हाथी, मनुष्य, गधेडां अने ऊण्टोथी छवाई गई. ए वखते एवुं लागतुं हतुं के जाणे के भूतनाथ शङ्करनी भयङ्कर क्रीडास्थली होय.तेनेजोई जोईने शूरवीरोनो उत्साह घणो वधी रह्यो हतो ॥१८॥
हवे भगवान् श्रीकृष्णे पौण्ड्रकने कह्युं, ‘‘अरे पौण्ड्रक! तें दूतद्वारा कहेवडाव्युं हतुं के मारां अस्त्र-शस्त्रादि चिह्न छोडी दे ते हुं तारा उपर छोडी रह्यो छुम् ॥१९॥
तें मारुं नाम खोटी रीते धारण करी राख्युं छे. तेथी हे मूर्ख! हवे हुं तारां ए नामो पण छोडावीने ज जम्पीश. जो हुं तारी साथे युद्ध नहि करी शकुं तो तारे शरणे आवीश’’ ॥२०॥
भगवान् श्रीकृष्णे आ प्रमाणे पौण्ड्रकने तिरस्कार करी पोतानां तीक्ष्ण बाणोथी तेना रथने तोडी नाख्यो अने इन्द्रे पोताना वज्रथी पर्वतोनी पाङ्खो कापी नाखी हती तेम पोताना सुदर्शन चक्रथी तेनुं माथुं उतारी लीधुम् ॥२१॥
तेवी ज रीते काशीराजनो वचनथी तिरस्कार करी तेने पण रथ वगरनो करी [[५७८]] नाखी भगवान् श्रीकृष्णे पोतानां बाणोथी काशीराजनुं माथुं पण धडथी अद्धर उडावी, जेवी रीते वायु कमलनी कळीने उडावी लई जाय तेम, काशीपुरीमां नाखी दीधुं. (आ रीते जाणे के भगवाने मस्तकरूपी कमलथी शङ्करजीनुं सन्मान कर्युं) ॥२२॥
आ प्रमाणे पोताना प्रत्ये ईर्ष्या राखनार पौण्ड्रक तथा तेना मित्र काशीराजने मारी नाखी भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी राजधानी द्वारकामां पाछा पधार्या. ते वखते सिद्धगण भगवान्नी अमृतमयी कथानुं गान करी रह्या हता ॥२३॥
हे परीक्षित! गमे ते भावथी होय पण पौण्ड्रक भगवान्ना रूपनुं सदा चिन्तन करतो रहेतो हतो. तेथी तेनां बधां बन्धन कपाई गया. ते भगवान्नो बनावटी वेष तो धारण करी राखतो ज हतो तेथी वारंवार तेनुं ज स्मरण थवाने लीधे ते भगवान्ना सारूप्यने ज प्राप्त थयो ॥२४॥
अर्ही काशीमां राजमहेलना दरवाजा आगळ कुण्डलयुक्त एक माथुं पडेलुं जोईने लोको जात-जातना सन्देह करवा लाग्या के ‘‘आ कोनुं माथुं छे? ते अर्ही क्यान्थी आव्युं?’’ ॥२५॥
आ तो काशीना राजानुं ज माथुं छे एम नक्की थतां एनी राणीओ, राजकुमारो, राजपरिवारना लोको तथा प्रजाजनो रोतां-रोतां विलाप करवा लाग्यां, ‘‘हा नाथ! हा राजन्! अमारो तो सर्वनाश थई गयो’’ ॥२६॥
काशीराजनो ‘सुदक्षिण’नामे पुत्र हतो. तेणे पोताना पिताना अन्त्येष्टि संस्कार करी मनोमन निश्चय कर्यो के मारा पिताना हणनारने मारीने ज हुं मारा पिताना ऋणमान्थी मुक्त थई शकीश. आखरे पोताना कुलपुरोहितो अने आचार्यो नी साथे चित्तनी अत्यन्त एकाग्रता पूर्वक भगवान् शङ्करनी आराधना करवा लाग्यो ॥२७-२८॥
*अविमुक्त क्षेत्र(काशी)मां तेनी आराधनाथी प्रसन्न थई भगवान् शङ्करे तेने वरदान मागवानुं कह्युं. सुदक्षिणे ए अभीष्ट वरदान माग्युं के मने मारा पितृघातीना वधनो उपायबतावो ॥२९॥
विशेष - पहेलां ब्रह्माजीने पाञ्च मस्तक हतां. चारे मुखो वेदोच्चार करी रह्यां हतां ज्यारे पाञ्चमुं भूङ्कतुं हतुं. एक वखत महादेवजी सत्सङ्गमाटे आव्या. महादेवजीए ब्रह्माजीने भगवत्कथा श्रवण कराववा विनन्ति करी. ब्रह्माजीए पाञ्चेय मुखे कहेवा माण्ड्युं. महादेवजीथी भगवदयशना श्रवणमां आ विक्षेप सहन न थयो. अनामिकाथी पाञ्चमुं भूङ्कतुं मस्तक छेदी [[५७९]] नाख्युं. महादेवजीने ब्रह्महत्या लागी. कपाल (छेदायेलुं माथुं) शङ्करनी पाछळ पड्युं. शङ्कर बदरीनाथ भगवान् पासे दोडता-दोडता गया अने ब्रह्मवधथी केम छूटकारो थाय ए पूछ्युं. भगवाने कह्युं, ‘‘आप स्वस्थाने पधारो, ज्यां आ कपाल पडे त्यान्थी आगळ जवुं नहि, त्यां ज स्थिर थई जवुं’’ काशीमां कपाल पड्युं. त्यारथी महादेवजी ते स्थान (काशी) ने छोड्युं नथी. २९ मां श्लोकमां ‘‘प्रीतोविमुक्ते’’ प्रयोग छे. ‘‘न विमुक्तम् इति अविमुक्तम्’’ छोडेलुं नहि ते त्यां काशीमां महादेवजी नित्य बिराजे छे अने ते पण प्रसन्नतामां. वळी श्लोकमां महादेवजीने माटे ‘भगवान्’ शब्द छे. तामस कल्पोमां महादेवजी ज भगवान् होय छे कारण के ते वखते तेओ सृष्टिनुं सर्जन करे छे. ‘भगवान्’ शब्द भागवतजीमां शुकदेवजी, व्यासजी, नारदजी वगेरे माटे वपरायेल छे. तेनो अर्थ अलौकिक दिव्य शक्ति अने ज्ञानथी सम्पन्न भगवान् शङ्करे कह्युं - ‘‘तमे ब्राह्मणोनी साथे मळी यज्ञना देवता ऋत्विजोना सम्बन्धी दक्षिणाग्निनी अभिचार विधिथी आराधना करो. तेथी ते अग्नि प्रथमगणोनी साथे प्रगट थई, जे ब्राह्मणोनो भक्त न होय तेवा उपर प्रयोग करशो तो ते तमारो सङ्कल्प सिद्ध करशे’’ भगवान् शङ्करनी एवी आज्ञा थतां सुदक्षिणे अनुष्ठान माटेना नियमो लीधा अने ते भगवान् श्रीकृष्णने माटे अभिचार (मारणनुं पुरश्चरण) करवा लाग्यो ॥३०-३१॥
अभिचार पूर्ण थतां ज यज्ञकुण्डमान्थी अत्यन्त भीषण अग्नि मूर्तिमान् थई प्रगट थयो. तेना केश अने दाढीमूछ तपावेला ताम्बाना जेवा लाल-लाल हता. आङ्खोमान्थी अङ्गारा वरसी रह्या हता ॥३२॥
उग्र दाढो अने दण्ड जेवी भ्रूकुटीने लीधे तेना मुखमान्थी क्रूरता टपकी रही हती. ते पोतानी जीभथी मोन्ना बन्ने छेडा चाटी रह्यो हतो. ते वस्त्र वगरनो अने हाथमान्ना त्रिशूळने फेरवतो हतो. तेमान्थी अग्निनी झाळ नीकळी रही हती ॥३३॥
ताडना जेवडा पगवडे पृथ्वीने कम्पावतो, दिशाओने बाळतो, भूतोने साथे लईने ए अग्नि द्वारका तरफ दोड्यो ॥३४॥
द्वारकाना लोको आ अभिचारना अग्निने आवतो जोईने, वनमां रहीने बळतां पशुओ त्रास पामे तेम, बधा त्रास पाम्या ॥३५॥
सभामां पासानी रमत रमता त्रण लोकना ईशने अग्निथी द्वारका बळे छे तो आप रक्षा करो, रक्षा करो एम भयथी आतुर थई बधा लोको कहेवा लाग्या ॥३६॥
[[५८०]] शरणागतवत्सल भगवाने जोयुं के अमारा स्वजन भयभीत थई गया छे अने पोकारी-पोकारी विकलताभर्या स्वरथी अमारी प्रार्थना करी रह्या छे. त्यारे आपे हसीने कह्युं - ‘‘भय न पामो हुं तमारी रक्षा करीश’’ ॥३७॥
हे परीक्षित! भगवान् बधान्नी अन्दर-बहारनी वात जाणे छे. आप जाणी गया के आ काशीथी आवेली माहेश्वरी कृत्या छे. आपे तेनो प्रतीकार करवा पोतानी पासे ज बिराजमान सुदर्शन चक्रने आज्ञा करी ॥३८॥
करोडो सूर्यनी कान्तिवाळुं, प्रलयना अग्नि जेवा तेजवाळुं, पोताना तेजथी आकाश, पाताळ अने दिशाओ ने पीडा करतुं ए सुदर्शन चक्र ए कृत्यानी पाछळ पड्युम् ॥३९॥
ए कृत्यानो अग्नि तो भगवान्ना चक्रना तेज पासे पाछो हठतो पाछो काशी जई सुदक्षिण, ऋत्विजो अने बीजा बधा जे अभिचारमां हता तेओने बाळवा लाग्यो. पोतानुं बाण पोताने वागे तो एमां कोईने दोष न देवाय तेम ए अभिचार करनाराओए ए अग्नि पेदा कर्यो तेनाथी ए बळ्या एमां कोईने एनो दोष न लाग्यो ॥४०॥
एनी पाछळ काशी पहोञ्चेला सुदर्शन चक्रे पण मोटी-मोटी अटारीओ, सभागृह, बजारो, दरवाजाओ, प्राचीर (राङ्ग), खजाना, हाथी, घोडा अने रथ अने अन्न भण्डारो वगेरेने बाळी भस्म कर्या ॥४१॥
भगवान् श्रीकृष्णना सुदर्शनचक्रे आखी काशी (वाराणसी) ने बाळीने भस्म करी नाखी अने ते परमानन्दमयी लीला करवावाळा भगवान् श्रीकृष्णनी पासे पाछु आवी गयुम् ॥४२॥
य एतच्छ्रावयेन्मर्त्य उत्तमश्लोकविक्रमम् ॥ समाहितो वा शृणुयात् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥४३॥
जे माणस आ उत्तम श्लोक भगवान्ना पराक्रमवाळी आ कथाने सम्भळावे अथवा चित्त स्थिर राखीने साम्भळे ते सर्व पापथी मुक्त थाय छे ॥४३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना पहेला प्रमेय- पेटा प्रकरणनो यशरूप त्रीजो) ‘‘भगवाने मिथ्या वासुदेवने मार्यो अने काशीने बाळी’’ नामनो (उत्तरार्धनो सत्तरमो अने चालु) छासठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां त्रेसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५८१]]
अध्याय ६७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६४ बलदेवजीए द्विविद वानरने मार्यो चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय४
विशेषः बलदेवजी गेरहाजर हता. तेमां पौण्ड्रके पोतानी बडाई करी हती एम लोको कहेवा लाग्या तेथी बलदेवजीमां पराक्रम विशेष छे पण बळ भगवान्नुं ज छे. एमनुं कर्युं हजु समाप्त थयुं नथी. तेथी एमनां वधारे चरित्र जाणवानी इच्छा, राजाए प्रश्न करीने बतावी छे. आ सडसठमा अध्यायमां द्विविदनो ‘वध’ कहे छे. गोपिकाओनी जेम अर्ही पण स्त्रीओनुं माहात्म्य बताववानुं छे. एम न करे तो बलदेवजीद्वारा निरोध करवानो छे ते स्त्रीओनो निरोध न थाय. तो पछी भगवान् प्रकट थयां त्यारे शक्तिनो विभाग कर्यो छे ते व्यर्थ जाय. केटलीक शक्तिओ पोताना स्वरूपमान्थी बलदेवजीमां धरी छे तेटलुं कार्य एमनाद्वारा भगवान्ने कराववुं छे. आथी एम समजवुं के जेना आवेशनुं चरित्र अद्भुत छे तो ए भगवान् साक्षात् शुं न करी शके? एथी भगवान्नुं माहात्म्य सिद्ध थाय छे. ए ज बलदेवजी लक्ष्मणाना स्वयंवर प्रसङ्गमां सर्व जाणी शके एवुं चरित्र करशे. भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्भुतकर्मणः ॥ अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः ॥१॥
राजाए पूछ्युं - अनन्तरूप अने जेनी स्वतः कल्पना न थई शके तेवा अद्भुत पराक्रमवाळा बलदेवजीए जे कांई बीजुं चरित्र कर्युं होय ते हुं साम्भळवानी इच्छा राखुं छुम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - नरकासुरनो मित्र *स्त्रद्विविदथ नामनो कोई एक वानर हतो. ते रामावतारमां सुग्रीवनो प्रधान हतो अने मैन्दनो भाई हतो. ते बहु पराक्रमवाळो हतो ॥२॥
विशेष - ‘‘द्विविदः द्विधा वित् ज्ञानं यस्य इति द्विःस्वभावोयम्’’ रामावतारमां ए भक्त हतो, अत्यारे वेरी बन्यो ए एनो द्विःस्वभाव. अत्यार सुधी तेनी उपेक्षा एटलामाटे करी के भगवाने ज एने वानर-अर्धनर बनाव्यो छे, तो तेने शुं मारवो? पोताना मित्र नरकासुरने मार्यो एनो बदलो लेवामाटे ते वानरे देशनो नाश करवानो [[५८२]] आरम्भ कर्यो. शहेरो, खाणो, नेस वगेरेमां आग लगाडी एने बाळी नाखवा लाग्यो ॥३॥
कोई ठेकाणे मोटा पर्वतोने उखाडी ए देशमां वस्ता लोको उपर नाखी एमने ताराज करवा लाग्यो. एमां पण एना मित्रने मारनार भगवान् श्रीकृष्ण ज्यां बिराजे छे तेवा आनर्त (काठियावाड) देशनो तो ए विशेष नाश करवा लाग्यो ॥४॥
क्यारेक समुद्रमां जई बे हाथवडे एनुं जळ उडाडे अने काण्ठाना प्रदेशने जळमां डुबाडी दे. ए दसहजार हाथीना बळवाळो हतो तेथी एम करी शक्तो हतो ॥५॥
ए दुष्ट एटलेथी न अटकतां मुख्य ऋषिओना आश्रमोमां जईने वृक्षोने भाङ्गी नाखतो, वैदिक अग्निकुण्डोमां मलमूत्र नाखी एने अभडावी दई पोतानी दुष्टता सिद्ध करतो हतो ॥६॥
भमरी कीडाने उपाडी जई पोताना दरमां पूरी दे छे. कीडो बीकमां भमरीनुं ज स्मरण करे छे. ते अखण्ड स्मरणना प्रतापे ते कीडो, कीडो मटी जई भमरी बनी जाय छे. तेवी रीते ते मदोन्मत्त वानर स्त्रीओ अने पुरुषो ने उपाडी जई पहाडोनी घाटी अने गुफाओ मां पूरी, मोटी-मोटी शिलाओशङ्केनां मोढां बन्ध करी देतो. आम ते एटलामाटे करतो हतो के विश्व भगवदात्मक मटी जाय अने कीडानी माफक तेनुं स्मरण करी तदात्मक (द्विविदात्मक-दुष्ट) बनी जाय ॥७॥
आ प्रमाणे देशवासीओने तो ते हेरान करतो ज हतो, कुलीन स्त्रीओने पण ते दूषित करी देतो हतो (तेणे बधाना बधा विषयो छोडाव्या हता तेमां वळी) एक दिवस रैवतक पर्वत उपरथी अत्यन्त मधुर गीत साम्भळी, (हुं छुं ने वळी मारी उपस्थितिमां गावानी कोण हिम्मत करे छे एम विचारी) ते (बन्ध कराववा) रैवतक पर्वत उपर गयो ॥८॥
त्यां तेणे जोयुं के यदुवंश शिरोमणि बलदेवजी सुन्दर युवतीओना मण्डळमां बिराजमान् छे. तेमनुं एकेएक अङ्ग सुन्दर अने दर्शनीय छे अने वक्षःस्थल उपर कमलनी माला लटकी रही छे ॥९॥
ते मधुपान करी मधुर सङ्गीत गाई रह्यां हतां अने तेमनां नेत्रो आनन्दना उन्मादथी विह्वळ थई रह्यां हतां. तेमनुं शरीर एवुं शोभी रह्युं हतुं के जाणे कोई मदझरतो गजराज होय ॥१०॥
[[५८३]] ते दुष्ट वानर वृक्षोनी शाखा उपर चडी जतो अने वृक्षोने हचमचावी मूक्तो. क्यारेक स्त्रीओनी सामे आवी गुप्त अङ्ग बतावतो, किकियारी करतो ॥११॥
युवती स्त्रीओ जातिथी, स्वभावथी अने वयथी ज चञ्चल अने हास- परिहासमां रुचि राखनारी होय छे. बलदेवजीनी स्त्रीओ तो वानरनी धृष्टता जोई हसवा लागी ॥१२॥
हवे ते वानर भगवान् बलदेवजीनी सामे ज ते स्त्रीओनी अवगणना करवा लाग्यो. क्यारेक तेमने पोतानी गुदा देखाडतो, तो क्यारेक भवां नचावतो तो वळी क्यारेक चिचियारी करी मोढुं मरडतो, घूरकतो ॥१३॥
वीर शिरोमणि बलदेवजी तेनी आ चेष्टा जोई गुस्से थई गया. तेमणे तेना उपर पथ्थरनो एक टूकडो फेङ्क्यो. परन्तु द्विविदे पोतानी जातने आघा खसी जई बचावी लीधी अने झपट मारीने तेणे मधुकलश उठावी लीधो अने बलदेवजीनो अनादर करवा लाग्यो. ते धूर्ते मधुकलशने तो फोडी नाख्यो एटलुं ज नहि, जलक्रीडा करीने बदलवानां काण्ठे मूकेलां वस्त्रो पण फाडी नाख्यां. आ ओछुं होय तेम तेणे उद्धताईथी बाहुवडे ताल दई बलदेवजीने मल्लयुद्धने माटे पडकार फेङ्क्यो ॥१४-१५॥
हे परीक्षित! ज्यारे आ प्रमाणे बलवान् अने मदोन्मत्त द्विविद बलदेवजीनो घोर तिरस्कार करवा लाग्यो त्यारे तेमणे तेनो अविनय जोई तथा तेनाद्वारा थती प्रदेशोनी पायमालीनो विचार करी ते शत्रुने मारी नाखवानी इच्छाथी क्रोधपूर्वक पोताना हळ अने मुशळ उठाव्यां. द्विविद पण भारे बळवान् हतो. तेणे पोताना एक ज हाथथी सागनुं झाड मूळमान्थी उखेडी नाख्युं अने भारे वेगथी दोडीने बलदेवजीना मस्तकमां मार्युं. भगवान् बलदेवजी पर्वतनी जेम अडग ऊभा रह्या. तेमणे ते वृक्षने पोताना हाथथी सिर सुधी पहोञ्चतां पहेलां ज पकडी लीधुं अने पोताना ‘सुनन्द’ नामना मुशळथी तेना उपर प्रहार कर्यो. मुशळ वागवाथी द्विविदनुं माथुं फाटी गयुं अने तेमान्थी लोहीनी धारा वहेवा लागी. ते वखते एवी शोभा थई के जाणे कोई पर्वत उपरथी गेरुनुं झरणुं वही रह्युं होय. परन्तु द्विविदे पोतानुं मस्तक फाटी जवानी जराय परवा न करी. तेणे आङ्खना पलकारामां एक बीजुं झाड उखेड्युं तेनां पान्दडां तोडी नाखी तेने पान्दडां विनानुं बनावी दीधुं. एकदम गुस्से थई झाडने छेडेथी पकडी थड बलदेवजीने वागे तेम जोरथी प्रहार कर्यो. बलदेवजीए तेना सेङ्कडो टुकडा करी नाख्या. त्यार पछी द्विविदे त्रीजुं झाड चलाव्युं, परन्तु बलदेवजीए [[५८४]] तेने पण शतधा छिन्न-भिन्न करी नाख्युम् ॥१६-२१॥
आ प्रमाणे ते तेमनी साथे युद्ध करतो रह्यो. वृक्ष तूटी जतां बीजुं उखेडतो अने तेनाथी प्रहार करवानी चेष्टा करतो. आ प्रमाणे बधी तरफथी वृक्षो उखेडी लडतां-लडतां तेणे आखाय वनने वृक्षहीन करी दीधुं, वनमां एकपण वृक्ष रहेवा पाम्युं नहि ॥२२॥
वृक्ष न रह्यां त्यारे खूब ज खिजाईने बलदेवजी पर पथ्थरोनी वर्षा करवा लाग्यो. परन्तु भगवान् बलदेवजीए पोताना मुशळथी ते बधा पर्वतो (पथ्थरो) नुं चूर्ण करी नाख्युम् ॥२३॥
छेवटे द्विविदे पोताना तालना जेवा दीर्घ, स्थूल अने कठोर बाहुनी मुठ्ठी वाळी बलदेवजीनी छातीमां मारी ॥२४॥
हवे यदुवंश शिरोमणि बलदेवजीए हळ अने मुशळ छोडी दई, क्रोध करी बन्ने हाथोथी तेना गळानी हांसडी उपर प्रहार कर्यो. तेथी ते वानर मोढामान्थी लोही काढतो धरतीउपर जई पड्यो ॥२५॥
हे कुरुशार्दूल! आन्धी आवतां जेम जलमां वहाण डगमगवा लागे तेम ज तेना पडवाथी मोटां वृक्षो अने शिखरो सहित आखो पर्वत ध्रूजी ऊठ्यो ॥२६॥
त्यारे आकाशमां देवताओ ‘‘जय हो, जय हो!’’ सिद्ध लोको ‘‘नमो नमः’’ अने मोटा-मोटा ऋषिमुनिओ ‘‘साधु साधु’’ (बहु सारुं थयुं, बहु सारुं थयुं) शब्दना पोकार करवा अने बलदेवजी पर पुष्पोनी वृष्टि करवा लाग्या ॥२७॥
एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ॥ संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥२८॥
हे परीक्षित! द्विविदे जगतमां भारे उपद्रव मचावी दीधो हतो. तेथी भगवान् बलदेवजीए तेने आ प्रमाणे मारी नाख्यो अने पछी तेओ द्वारकामां आव्या. ए वखते पुरजन-परिजन भगवान् बलदेवजीनी स्तुति करता हता ॥२८॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना पहेला
प्रमेय-पेटा प्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘बलदेवजीए द्विविद वानरने मार्यो’’
नामनो (उत्तरार्धनो अढारमो अने चालु) सडसठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां चोसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[५८५]]
अध्याय ६८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६५ बलदेवजी कौरवोने जीती लक्ष्मणा अने साम्बने लाव्या चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय ५
विशेष - अति अलौकिक अने आश्चर्य करनार लोकथी न थई शके तेवुं बलदेवजीनुं चरित्र आ अडसठमां अध्यायमां कहेवाय छे. एम बलदेवजी अने श्रीकृष्ण नां त्रण-त्रण चरित्र कह्यां एटले षड्गुण भगवान्नुं ए चरित्र थई गयुं. बलदेवजीमां धर्म सिद्ध थयो, श्रीकृष्णमां काम सिद्ध थयो अने अद्वितीय हरित्व तो फलथी श्रीकृष्णमां सिद्ध थयुं. जगतना दोषनी निवृत्ति बलदेवजीमां सिद्ध थई. ते निवृत्तिमां पोते साधन थया. अलौकिक साधन बलदेवजी अने अलौकिक पळ श्रीकृष्ण छे. अर्ही अवान्तर भेदना धर्मीओ जुदा कह्या छे. श्रीयमुनाजीना काण्ठे अने पर्वत उपर जे कर्युं ते कहेवामां आव्युं. आ अध्यायमां गङ्गाजीनां काण्ठे आवेला शहेरमां जे पराक्रम बलदेवजीए कर्युं ते स्पष्टताथी बतावे छे. लक्ष्मणाना हरणथी साम्बने कौरवोए बान्ध्यो हतो तेने बलदेवजीए छोडाव्यो अने तेमणे शत्रुओनो निग्रह कर्यो ए वात अर्ही स्पष्ट थाय छे. पूर्व चरित्र दुष्ट निवारण रूप छे ज्यारे आ चरित्र शिष्ट शिक्षारूप छे. दुर्योधनसुतां राजन् लक्ष्मणां समितिञ्जय ॥ स्वयंवरस्थामहरत् साम्बो जाम्बवतीसुतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजा परीक्षित! जाम्बवतीनन्दन साम्ब एकला ज भारे मोटा-मोटा वीरो उपर विजय प्राप्त करनारा हता. ते स्वयंवरमां स्थित दुर्योधननी कन्या लक्ष्मणानुं हरण करी लाव्या ॥१॥
कौरवो गुस्से थईने बोल्या के ‘‘आ छोकरो दुर्विनीत(उद्धत) छे तेणे अमने तो गण्या पण नहि. अमारी कन्या एने इच्छती नथी छतां बळात्कारे एणे अमारी कन्यानुं हरणकर्युम् ॥२॥
आ दुर्विनीतने बान्धो. वृष्णिओ आपणी कृपाथी आपेली भूमिने भोगवनार छे ते आपणने शुं करवाना हता? ॥३॥
पोताना छोकराने केद करेलो साम्भळीने जो तेओ अर्ही आवशे तो अर्ही एमनो गर्व नष्ट थई जशे एटले जेम प्राणायाम करवाथी प्राण ठेकाणे आवी जाय छे तेम तेओ पण शान्त थई जशे’’ ॥४॥
[[५८६]] आम विचार करी कर्ण, शल्य, भूरिश्रवानो भाई भूरि, यज्ञकेतु अने दुर्योधन वगेरे वीरोए कुरुवंशना वडीलोनी सम्मति लईने साम्बने पकडी लेवानी तैयारी करी ॥५॥
ज्यारे महारथी साम्बे जोयुं के धृतराष्ट्रना पुत्रो मारो पीछो करी रह्या छे त्यारे ते सुन्दर धनुष लई सिंहनी जेम एकलो ज मक्कम थईने सामे ऊभो रही गयो ॥६॥
कर्णने पोतानो अग्रणी बनावी कौरववीर धनुष चडावी साम्बनी पासे आवी पहोञ्च्या अने क्रोधे भराई तेने पकडी लेवानी इच्छाथी ‘ऊभो रहे’ एम बोलता तेना उपर बाणोनी वर्षा करवा लाग्या ॥७॥
हे परीक्षित! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्य भगवान् श्रीकृष्णना पुत्र हता. जेना पिता बीजाओ माटे अचिन्त्य होय ते पोते चिन्ता केम करे? शियाळवां वगेरे पामर पशुओ सिंहने पीडा पहोञ्चाडे तो सिंह जेम तेनी कंई परवा न करे तेम कौरवोए तेने र्वीधी नाख्यो खरो पण तेणे तेनी कंई ज परवा करी नहि ॥८॥
साम्बे पोताना सुन्दर धनुषनो टङ्कार करी कर्ण वगेरे वीरो उपर, जे अलगअलग रथमां सवार हता, छ-छ बाणोथी एकी साथे अलग-अलग प्रहार कर्या ॥९॥
तेमान्थी चार-चार बाण तेमना चार-चार घोडाओ उपर एक-एक एमना सारथिओ उपर अने एक-एक ते महान धनुर्धर रथी वीरो उपर छोड्यां. साम्बना आ अद्भुत हस्त लाघवने जोईने विपक्षीवीरो पण मुक्त कण्ठथी तेनी प्रशंसा करवा लाग्या ॥१०॥
(आ प्रशंसाएज एनुं पतन नोतर्युं तेना बन्धननुं निमित्त बनी, कारण के ते फुलाई गयो अने ब्रह्मास्त्र वगेरेथी प्रतिकार न कर्यो)त्यारबाद ते छ वीरोए साथे मळी साम्बने रथ वगरनो करी दीधो. चार वीरोए एक-एक बाणथी तेना चार घोडाओने मारी नाख्या. एके सारथिने मार्यो अने छठ्ठाए तेनुं धनुष कापी नाख्युं ॥११॥
आ प्रमाणे कौरवोए युद्धमां भारे कठिनाईथी साम्बने रथहीन करी बान्धी लीधो. त्यारबाद तेओ तेने तथा पोतानी कन्या लक्ष्मणाने लई जीत मनावता हस्तिनापुर आव्या ॥१२॥
[[५८७]] हे राजन्! नारदजीए आवी ए वात यादवोनी सभामां कही त्यारे क्रोध करीने उग्रसेननी आज्ञाथी यादवो कौरवोनी उपर चडाई करवानी तैयारी करवा लाग्या ॥१३॥
यादववीरो कवच पहेरीने तैयार थई गया हता. तेमने बलेदेवजीए समजावीने शान्त कर्या. ए बलदेवजी कलहरूप मेलने दूर करनार छे तेथी यादव कौरवोनो कलह थाय एम इच्छता न हता ॥१४॥
सूर्यना सरखा तेजस्वी रथमां बेसी ब्राह्मणो अने कुलवृद्धो ने साथे लई चन्द्र जेम ग्रहोनी साथे शोभे तेम शोभता बलदेवजी हस्तिनापुर पधार्या ॥१५॥
बहारना उपवनमां ( ‘‘दुश्मनना शहेरमां प्रवेश न करवो’’ एम नीतिशास्त्र कहे छे.) एमणे मुकाम कर्यो अने धृतराष्ट्रने खबर आपवामाटे उद्धवजीने नगरमां मोकल्या ॥१६॥
उद्धवजी त्यां गया अने धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण, बाह्लीक, दुर्योधन वगेरेने यथायोग्य विधिवत् नमन करी बलदेवजीना पधारवाना समाचार आप्या ॥१७॥
पोताना अत्यन्त प्रिय (बलदेवजी दुर्योधनना ससरा अने गुरु हता.) सुहृद बलदेवजीने आव्या साम्भळीने बधा प्रसन्न थया; उद्धवजीनो सत्कार करी हाथमां मङ्गळ वस्तुओ लईने ए बधा बलदेवजी पासे आव्या ॥१८॥
पछी पोत-पोतानी अवस्था अने सम्बन्ध प्रमाणे बधा लोको बलदेवजीने मळ्या. तेमना सत्कारने माटे गाय अर्पण करी अने अर्ध्य प्रदान कर्युं. जे लोको भगवान् बलदेवजीनो प्रभाव जाणता हता तेमणे मस्तक नमावी तेमने प्रणाम कर्या ॥१९॥
त्यारबाद ते लोकोए परस्पर कुशळमङ्गळ अने आरोग्य ना खबर-अन्तर पूछ्यां अने बधा भाईबन्धु क्षेम कुशळ छे ए साम्भळी बलदेवजीए घणी धीरता अने गम्भीरतापूर्वककह्युम् ॥२०॥
‘‘उग्रसेन राजा तमने आज्ञा करे छे ए प्रभु छे. एमनी आज्ञाने तमे चित्तने स्थिर करी साम्भळो अने जलदी एमना वचननो अमल करो ॥२१॥
तमे अनेके भेगा थईने अधर्मवडे अमारा पुत्र साम्बने जीतीने बान्ध्यो छे ते आपणो बान्धव सम्बन्ध जाळववाने हुं सहन करुं छुं’’ ॥२२॥
वीर्य, शौर्य अने बळ थी उत्तम अने पोतानी शक्तिने लायक बलदेवजीनुं वचन [[५८८]] साम्भळी कुरुओ गुस्से थया अने कहेवा लाग्या ॥२३॥
कुरुओ बोल्या - ‘‘अहो!कालनी गति विचित्र छे. आएक आश्चर्य जेवीवात साम्भळी केआ खासडुं मुकुटे सेवायेला मस्तक उपर चढवानी इच्छा करेछे ॥२४॥
आ यदुवंशीओनी साथे जेम-तेम करीने अमे लोकोए विवाहसम्बन्ध१ करी लीधो. तेओ अमारी साथे सूवा-बेसवा अने एक पङ्गतमां खावा लाग्या. अमे लोकोए ज एमने राजसिंहासन आपी राजा बनाव्या अने अमारी बराबर बनाव्या२ ॥२५॥
विशेष - १. वसुदेवजीना पिता शूरसेनजीनी सौथी मोटी पुत्री ‘पृथा’ हती. शूरसेनजीना एक
यादव मित्र राजा कुन्तिभोजने कंई सन्तान न होवाथी शूरसेनजीए पोतानी कन्या पृथा
कुन्तिभोजने गोद आपी. पृथा हवे राजा कुन्तिभोजनी दत्तक पुत्री थवाथी कुन्ती कहेवाई. आ
पृथा राजा पाण्डुने परण्यां ते लग्नसम्बन्धनो अर्ही उल्लेख छे (भाग.स्क.९.२४.३१
वाञ्चवा विनन्तिछे)
२. राजा ययातिए पोतानुं राज्य पोताना सौथी मोटा पुत्र यदुने नहि आपतां पुरुने
आप्युं हतुं. उपरान्त यदुने राज्यासनथी वचिन्त रहेवानो शाप पण आप्यो हतो. (ययाति
राजानुं चरित्र श्रीभाग. स्क.९.१८-१९)
आ यदुवंशीओ (आजुबाजु) चम्मर, पङ्खा, (आगळ) शङ्ख, (पाछळ) श्वेत
छत्र, (उपर) मुगट, (नीचे) आसन अने (निद्रावस्थामां) राजोचित शय्याद्ग आ
सात राजचिह्नो अमारी उपेक्षाने लीधे भोगवे छे ॥२६॥
जेम सर्पने अमृत आपवुं ते आपनारनुं अनिष्ट करनार छे तेम यादवोने राजानां लक्षण आज सुधी भोगववा दीधां ते हवे बन्ध करो केमके ए तो लज्जारहित छे अने अमारी कृपाथी राज करे छे छतां अमारी उपर हुकम करवा तैयार थया छे ॥२७॥
भीष्म, द्रोण, अने अर्जुन वगेरे ज्यां सुधी राजा तरीके न कबूल करे त्यां सुधी इन्द्र होय तो पण, जेम सिंहे पकडेलुं नानुं घेटुं कोई छोडावी शक्तुं नथी तेम ए पण केम राज्य करी शके?’’ ॥२८॥
हे भरतर्षभ! जन्म, बन्धु अने लक्ष्मी थी जेओनो मद वधी गयो छे तेवा कौरवो उपर कहेलां वचन बलदेवजीने सम्भळावीने पोताना नगरमां गया ॥२९॥
समर्थ बलदेवजीए कौरवोनी दुष्टतानो परिचय कर्यो अने एमनां वाक्य [[५८९]] साम्भळ्या त्यारे एमने अत्यन्त क्रोध उत्पन्न थयो एटलुं ज नहि पण कोई एमनी सामे जोई न शके तेवुं रूप थयुं अने ए अच्युत बलदेवजी त्यारे मोटेथी हसीने आ प्रमाणे बोल्याः ॥३०॥
अनेक प्रकारना मदमां छकेला दुष्ट पुरुषो शान्तिने इच्छता नथी. जेम पशु तोफान उपर चड्युं होय तेने लाकडीथी प्रहार करीए तो ज ए शान्त थाय तेम आवा दुष्टोने मारीने शान्त करवा जोईए ए ज एमनो दण्ड छे ॥३१॥
यादवो बधा क्रोध करता हता. श्रीकृष्णने पण क्रोध आव्यो ते बधाने में शान्त कर्या अने एमने परस्पर क्लेश न थाय ए हेतुथी बधाने शान्त राखवा हुं एकलो अर्ही आव्यो ॥३२॥
मन्दबुद्धिवाळा, कलह प्रिय अने खल एवा कौरवोए मारो अनादर करी पोते मोटा मानवाळा बनीने मने खराब वचन साम्भळाव्याम् ॥३३॥
भोज, वृष्णि अने अन्धक ना राजा उग्रसेन छे, इन्द्रादि लोकपालो जेमनी आज्ञामां वर्ते छे ते शुं समर्थ नथी? ॥३४॥
जेओ सुधर्मा सभामां बेसनार छे, जेमने घेर पारिजात नामनुं कल्पवृक्ष जे देवने त्यां ज होय तेने तेओ स्वर्गमान्थी लावीने पोताना उपयोगमां ले छे तेओ राजगादीने शुं लायक नथी? ॥३५॥
जेमना चरणनी उपासना साक्षात् लक्ष्मीजी करे छे तेवा लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण राजानां चिह्न धरवाने योग्य नथी एम तेओ कहे छे ए खरुं छे? ॥३६॥
दश दिशाना पतिओ पोताना उत्तम मुकुटोवडे जेमना चरणनी रजने मस्तक उपर चडावे छे, जेमना चरणनी रजना सम्बन्धने लई गङ्गाजी अखिल लोकने पवित्र करे छे, जेमनी एक कलावडे ब्रह्माजी, शिवजी अने हुं (बलदेवजी) जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने संहारने एमनी आज्ञा प्रमाणे करीए छीए, साक्षात् लक्ष्मीजी जेमनी सेवा करे छे तेमने राज्यासन शा हिसाबमां छे? ॥३७॥
कुरुए आपेल पृथ्वीनो एक भाग वृष्णिओ भोगवे छे. पोते कुरुओ मस्तक बनी अमने यादवोने खासडुं गणे छे ॥३८॥
अहो! ऐश्वर्यना मदमां आवेला आ कौरवो गाण्डा जेवा थई गया छे. तेमनी वातो असम्बद्ध छे. मारा जेवो पुरुष तेमनी आवी रूक्ष वाणीने केवी रीते सहन करी शके? ॥३९॥
[[५९०]] ‘‘आजे तो हुं पृथ्वीने कौरव विनानी ज करी नाखीश’’ एम बोली क्रोध करी त्रण लोकने बाळता होय तेवा थई हळ हाथमां लईने बलदेवजी ऊभा थई गया. (प्रलय वखते सङ्कर्षण आ ज प्रमाणे ऊभा थाय छे) ॥४०॥
तेमणे तेना छेडाथी खोदी नाखीने हस्तिनापुरने उखाडी नाख्युं अने तेने डुबाडी देवाने माटे अत्यन्त क्रोधपूर्वक गङ्गाजी तरफ खेञ्चवा लाग्या ॥४१॥
हळथी खेञ्चावाथी जलमां कोई वहाण डगमगी रह्युं होय तेम हस्तिनापुर डोलवा लाग्युं, ज्यारे कौरवोए जोयुं के अमारुं नगर तो गङ्गाजीमां पडी जवानी तैयारीमां छे त्यारे तेओ गभराई गया ॥४२॥
(तरत ज) ते लोकोए लक्ष्मणासाथे साम्बने आगळ कर्या अने पोताना प्राणोनी रक्षामाटे कुटुम्बनी साथे हाथ जोडी सर्व शक्तिमान् ते बलदेवजीने शरणे गया ॥४३॥
अने कहेवा लाग्या ‘‘हे लोकाभिराम! हे बलदेवजी! आप अखिल जगतना आधार छो. अमे आपनो प्रभाव जाणता नहोता. अमे अविचारी छीए एटलुं ज नहि पण दुष्ट बुद्धिवाळा छीए. अमारो अपराध क्षमा करो ॥४४॥
जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना करनार आप केवळ एक ज छो हे सर्वशक्तिमान् प्रभो! व्यासजी वगेरे मोटा ऋषिमुनिओ कहे छे के लोक तो आपनी क्रीडानां साधन (रमकडा) जेवो छे ॥४५॥
हे अनन्त! (पचास करोड योजन विस्तारवाळा) आ भूमण्डलने आप हे सहस्रमूर्धन्! आपना मस्तक उपर लीलावडे धारण करी रह्या छो. ज्यारे प्रलयनो समय आवे छे त्यारे आप समग्र जगतने पोतानी अन्दर लीन करी दो छो अने एकला शेष उपर पोढो छो त्यारे आप ज बाकी रहो छो तेथी आपनुं नाम ‘शेष’ छे ॥४६॥
हे भगवन्! आपे जगतनी स्थिति अने पालन ने माटे विशुद्ध सत्वमय शरीर ग्रहण कर्युं छे. आपनो आ क्रोध द्वेष अथवा मत्सर ने (मत्सर=बीजानो उत्कर्ष सहन न थई शकवो.) लीधे नथी. बधां प्राणीओने (जे आपनां बाळको छे तेमने) शिक्षा (शिक्षण) आपवाने माटे ज छे. एम न करो तो जगतनी मर्यादाओ तूटी जाय ॥४७॥
समस्त शक्तिओने धारण करनारा सर्व प्राणीस्वरूप अविनाशी भगवन्! [[५९१]] आपने अमे नमस्कार करीए छीए. समस्त विश्वना रचयिता देव! अमे आपने वारंवार नमस्कार करीए छीए. अमे आपने शरणे आव्या छीए’’ ॥४८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - कौरवोने पहेलां जे गर्व हतो ते चाल्यो गयो एटलुं ज नहि पण एमना भयवडे ध्रूजता शरणे आवेला कौरवोए बलदेवजीने स्तुतिवडे प्रसन्न कर्या. एमनो गर्व नाश थयेलो जोईने बलदेवजी प्रसन्न थया अने ‘‘तमे भय न करो’’ एम तेमने अभयदान आप्युम् ॥४९॥
पुत्री उपर वात्सल्यभाव राखनार दुर्योधने पुत्रीने दायजामां साठ वर्षनी उम्मरना बारसो हाथी तेम ज एक लाख वीश हजार घोडा आप्या ॥५०॥
सूर्यना जेवा तेजस्वी छ हजार सोनाना रथ आप्या. कण्ठाभरणवाळी हजार दासीओ आपी ॥५१॥
यदुवंश शिरोमणि भगवान् बलदेवजीए आ बधी पहेरामणीनो स्वीकार कर्यो अने नवदम्पती लक्ष्मणा अने साम्ब नी साथे कौरवोना अभिनन्दननो स्वीकार करी द्वारका प्रति प्रयाण कर्युम् ॥५२॥
बलदेवजी द्वारकापुरी पहोञ्च्या अने समाचार जाणवाने उत्सुक सगां- सम्बन्धीओने मळ्या. तेमणे यदुवंशीओनी सभामां कौरवोनां वचनो तथा हस्तिनापुरमां पोते जे-जे कार्य कर्युं हतुं ते बधुं कही सम्भळाव्युम् ॥५३॥
अद्यापि च पुरं ह्येतत् सूचयद् रामविक्रमम् ॥ समुन्नतं दक्षिणतो गङ्गायामनुदृश्यते ॥५४॥
हे परीक्षित! आ हस्तिनापुर आजे पण* दक्षिणनी तरफ ऊञ्चुं अने गङ्गाजीनी तरफ कंईक नीचुं देखाय छे अने आ प्रमाणे भगवान् बलदेवजीना पराक्रमने सूचवे छे ॥५४॥
विशेष - अद्यापिः आजे पण एटले ज्यारे श्रीशुकदेवजी परीक्षितने श्रीमद् भागवतनी कथा सम्भळावी रह्या छे त्यारे, भगवान् श्रीकृष्ण स्वधाममां पधार्या पछी कलियुगनां त्रीस वर्षथी कंईक वधारे समय गयो त्यारे आ पहेली सप्ताह थयेली. त्यारपछी तो हस्तिनापुर गङ्गाजीमां तणाई गयेलुं अने कंईक आसमानी सुलतानी आवी गई. आ वात ‘‘गजाह्वये हृते नद्या कौशाम्ब्यां साधु वत्स्यति’’ (श्रीभागवत ९.२२.४०) मां स्पष्ट कहेवामां आवी छे. एटले अत्यारे आपणने भागवतमां कहेल प्रकारथी उलटुं देखातुं होय तो पण शङ्का न करवी. इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथो सात्विक प्रकरणना पहेला [[५९२]] प्रमेय-पेटा प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो) ‘‘बलदेवजी कौरवोने जीती लक्ष्मणा अने साम्ब ने लाव्या’’ नामनो (उत्तरार्धनो ओगणीसमो अने चालु) अडसठमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां पांसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय ६९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६६ श्रीकृष्णना गार्हस्थ्यने नारदजीए जोयुं चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय ६
विशेष - सात्विक भक्तोना निरोधमां नारदजी मुख्य छे. तेमने पूर्व बुद्धिनुं निवारण एटले के प्रपञ्च विस्मृति थवी जोईए कारण के भक्तिमार्गने अनुसरवुं ए आमां मुख्य छे. आ ओगण्योसित्तेरमा अध्यायमां नारदजीए श्रीकृष्ण अने एमनां चरित्रो जोयां. तेमनुं गार्हस्थ्य अलौकिक छे एम बताववामाटे भगवाने आ रूपो एमने बताव्यां छे. साम्ब हस्तिनापुरमां केद थयो ए कहेवाने नारदजी आवेला त्यारे भगवान् नरकासुरने मारीने सोळ हजार स्त्रीओ लाव्या अने एमनी साथे लग्न कर्यां ए जाणी एमने सन्देह थयो एमनी भ्रान्ति दूर करवामाटे भगवाने दरेक पटराणीना महेलमां पोते एनी साथे दर्शन आप्यां त्यारे नारदजीने संशय दूर थयो अने एमनो निरोध सिद्ध थयो. नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ॥ कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः नरकासुरने मारीने एकला श्रीकृष्णे घणी राजकुमारीओ साथे लग्न कर्यां एम ज्यारे नारदजीए साम्भळ्युं त्यारे तेमना मनमां भगवान्नो गृहस्थाश्रम जोवानी तीव्र अभिलाषा थई ॥१॥
ईं उं ईं उं
[[५९३]] ते विचारवा लाग्या के एक ज शरीरवडे जुदा-जुदा घरमां रहेली सोळ हजार राजकुमारीओने एक ज वखते भगवान् परण्या ए घणा आश्चर्यनी वात कहेवाय ॥२॥
देवर्षि नारदजी आ उत्सुक्ताथी प्रेराईने भगवान्नी लीलानां दर्शन करवा द्वारका आवी पहोञ्च्या. त्यां पुष्पोथी लची पडेलां उपवनोमां क्रीडा स्थानो हतां. अनेक पक्षीओ अने भमराओ ते क्रीडास्थानोमां गान करी रह्यां हताम् ॥३॥
निर्मल जलथी भरेलां सरोवरोमां इन्दीवर (आसमानी), अम्भोज (लाल) अने कह्लार (सफेद) रङ्गनां जातजातनां कमल खीलेलां हतां. कुमुद (पोयणुं, रात्रिकमल) अने उत्पल (नवजात कमल) नो तो कोई पार न हतो. तेमां हंस अने सारस कलरव करी रह्यां हताम् ॥४॥
द्वारकापुरीमां स्फटिकमणि अने चान्दीना नव लाख महेलो हता. ते भोंयतळियामां जडेल महा मरकतमणि (पन्ना) नी प्रभाथी झगमगी रह्या हता अने तेमां सोना तथा हीरानी घणी वस्तुओ शोभायमान हती ॥५॥
तेना राजमार्ग, गलीओ, चोक अने बजार अत्यन्त सुन्दर हतां. कोठार, भोजनालय, सभास्थान अने देवमन्दिरोने लीधे तेनुं सौन्दर्य घणुं वधारे चमकी ऊठतुं हतुं. त्यान्नी सडको, चोको, गलीओ अने दरवाजाओ उपर छण्टकाव करवामां आव्यो हतो. नानी-नानी पताकाओ अने मोटा-मोटा ध्वजो ठेक-ठेकाणे लहेराई रह्या हता. जेने लीधे सूर्यनो तडको तो रस्ताओ उपर आवी शक्तो ज नहोतो ॥६॥
ते द्वारकाना निर्माणमाटे इन्द्र वगेरे लोकपालोए परम्परा प्राप्त पोतानां उत्तम रत्नो अर्पण कर्यां हतां. अने विश्वकर्माए पोतानी तमाम कुशलता अने कारीगीरी कामे लगाडी भगवान् श्रीहरिनो राणीवास निर्माण कर्यो हतो. लक्ष्मीजी तो त्यां अवतीर्ण स्वरूपे नहि पण मूळरूपे ज बिराजतां हताम् ॥७॥
ते राणीवासमां भगवान्नी राणीओना सोळ हजार महेलो शोभता हता. ते महेलो एवा तो अद्भुत हता के जे महेलनी पासे कोई जाय ते ज महेल बीजा बधा महेलो करतां उत्तम लागे. आमान्थी एक आलीशान भवनमां देवर्षि नारदजीए प्रवेशकर्यो ॥८॥
ते महेलमां प्रवालना थाम्भला, वैदूर्यना उत्तम-उत्तम पाटडाओ अने इन्द्र [[५९४]] नीलमणिनी दिवालो झगमगी रही हती अने भोंयतळियामां इन्द्र नीलमणिनी एवी लादी बेसाडेली हती जेनी चमक कोई रीते क्यारेय ओछी न थाय ॥९॥
तेमां मोतीनी झालरोवाळा विश्वकर्माए बनावेला चन्दरवा हता. हाथीदान्तना बनेलां आसन अने पलङ्गोमां उत्तम-उत्तम मणिओ जडेला हता ॥१०॥
सुन्दर वस्त्रोथी सुसज्जित दासीओए गळामां सोनाना हार पहेर्यां हतां. घणा बधा सेवको पण जामा (अङ्गरखा), पाघडी अने सुन्दर-सुन्दर वस्त्रो अने कानोमां जडाउ कुण्डल धारण करी पोत-पोताना काममां लागेला हता अने महेलनी शोभामां वधारो करी रह्या हता ॥११॥
अनेक रत्नदीप पोताना झगमगाटथी तेना अन्दरनो अन्धकार दूर करी रह्या हता. अगरना धूपने लीधे झरोखामान्थी धुमाडो नीकळी रह्यो हतो. तेने जोई रङ्गबेरङ्गी मणिमय झरूखा उपर बेठेला मोर वादळोना भ्रमथी केकारव करता-करता नाची ऊठताहता ॥१२॥
देवर्षि नारदजीए जोयुं के भगवान् श्रीकृष्ण ते महेलमां स्वामिनीजीनी साथे बिराजमान् छे. जो के ते महेलमां स्वामिनीजी जेवां ज गुण, रूप, तारुण्य अने वस्त्राभूषणयुक्त हजारो दासीओ हर समय हाजर रहेती हती तो पण स्वामिनीजी पोताना हाथे भगवान्ने सोनानी दाण्डीवाळो चामर ढोळी रह्यांहतां ॥१३॥
नारदजीने जोतां ज समस्त धर्मधारीओमां श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण स्वामिनीजीना पलङ्ग उपरथी एकदम ऊभा थई गया. आपे नारदजीना युगल चरणोमां मुकुटयुक्त मस्तकथी प्रणाम कर्या अने हाथ जोडी तेमने पोताना आसन उपर बेसाड्या. (आवनारने पोताना आसन उपर बेसाडवाए तेमनुं मोटामां मोटुं सन्मान-पूजा छे. तेमने पोताना आसन उपर न बेसाडी दे तो भगवान् अने बीजा मां फरक शो?) ॥१४॥
हे परीक्षित! ए तो शङ्का वगरनी वात छे के भगवान् श्रीकृष्ण चराचर जगतना परम *गुरु छे अने आपना चरणोनुं जल-गङ्गाजल समग्र जगतने पवित्र करवावाळुं छे कारण के गङ्गाजलमां बधां साडात्रण करोड तीर्थो रहेलां छे. छतां पण आप अत्यन्त भक्तवत्सल, सन्तोना परम आदर्श, तेमना स्वामी छे. आपनुं एक असाधारण नाम ब्रह्मण्य देव पण छे. आप ब्राह्मणोने ज पोताना आराध्य [[५९५]] देव माने छे. आपनुं आ नाम आपना गुणने अनुरूप अने उचित ज छे. एटले तो भगवान् श्रीकृष्णे जाते ज नारदजीना चरण धोया अने तेनुं चरणामृत पोताना श्रीमस्तक पर धारण कर्युम् ॥१५॥
विशेष - ‘गुरुतरः’ ‘तर’ प्रत्ययनो भाव ए छे के आप शास्त्रप्रणेता, उपदेशक, प्रेरक अने उपदेशरूप छे. भगवान्नुं नाम भगवत्स्वरूप ज छे. नरशिरोमणि नरना सखा सर्वदर्शी पुराण पुरुष भगवान् नारायणे शास्त्रोक्त विधिथी देवर्षि शिरोमणि भगवान् नारदजीनी पूजा करी. त्यार पछी अमृत जेवी मीठी वाणीथी पण थोडा शब्दोमां एमनुं स्वागत कर्युं अने पछी कह्युं - ‘‘ओहो नारदजी! प्रभो! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री अने ऐश्वर्य थी पूर्ण छो. आपनी हुं शी सेवा करुं?’’ ॥१६॥
नारदजी बोल्या - हे भगवन्! आप समस्त लोकोना एक मात्र स्वामी छो. आप आपना भक्तो उपर प्रेम करो छो अने दुष्टोने दण्ड आपो छो ए आपने माटे कंई नवी वात नथी. हे परम यशस्वी प्रभो! आपे जगतनी स्थिति अने रक्षा द्वारा समस्त जीवोनुं कल्याण करवाने माटे स्वेच्छाथी अवतार ग्रहण कर्यो छे. आ वात अमे मात्र तर्कथी नहि पण अनुभव अने श्रुति ने आधारे जाणीए छीए ॥१७॥
आज मारां अहोभाग्य छे के आपनां चरणारविन्दनां दर्शन थयां. आपनां आ चरणकमल मनुष्य मात्रने मोक्ष आपवा समर्थ छे. जेमनुं ज्ञानपूर्ण छे एवा ब्रह्माजी, शङ्कर वगेरे पोताना हृदयमां तेमनुं चिन्तन करता रहे छे. (पण तेमने चरण कमलोनां साक्षात् दर्शन थतां नथी) वास्तवमां तो ते श्रीचरण ज संसाररूपी कूवामां पडेला लोकोने बहार नीकळवाने माटे अवलम्बन छे. आप एवी कृपा करो के आ जे चरणकमल में जोयुं तेनुं मने अखण्ड स्मरण रहे. (तेटलुं थाय तो बीजुं कंई करवानुं बाकी रहेतुं नथी. चरणकमल प्राप्त पण थाय तो पण तेनी स्मृति रहेवामां घणा विघ्न आवे छे एटले स्मृति अखण्ड रहेशे एवो विश्वास पडतो नथी) ॥१८॥
हे परीक्षित! त्यारबाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोना पण ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णनी योगमायानुं रहस्य जाणवाने माटे आपनी बीजी पत्नीना महेलमां गया* ॥१९॥
विशेष - योगनी गति ज अकळ छे तो योगने वश करनार योगेश्वरनी गति तो अकळ होय [[५९६]] तेमां कहेवुं ज शुं? श्रीकृष्ण योगेश्वरोना पण ईश्वर छे तेमनी पण योगमायानुं रहस्य जाणवानी इच्छा. ए योगमायानो वैभव तो भगवान् पण जाणता नथी एवो अपार छे. भगवान् श्रीकृष्ण पहेला महेलमां बिराजता हता एटले बीजा महेलमां राणी एकलां ज हशे एवी नारदजीनी समज छे. त्यां तेमणे जोयुं के भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी प्राणप्रिया तथा उद्धवजीनी साथे चोपाट रमी रह्या छे. त्यां पण भगवाने ऊभा थई जई तेमनुं स्वागत कर्युं आसन उपर बेसाड्या अने विविध सामग्रीओथी परम भक्तिभावपूर्वक तेमनी अर्चा-पूजा करी ॥२०॥
त्यारबाद जाणे कंई जाणता न होय तेम भगवाने नारदजीने पूछ्युं, ‘‘आप अर्ही क्यारे पधार्या? आप तो परिपूर्ण छो अने अमे तो अपूर्ण छीए. एवी स्थितिमां अमे आपनी शी सेवा करी शकीए? ॥२१॥
छतां पण हे ब्रह्मन्!* आप कंईने कंई आज्ञा करी आ जन्म सफल करो. नारदजी आ बधुं जोई अने साम्भळीने विस्मित थई रह्या हता. ते त्यान्थी ऊठी चुपचाप बीजा महेलमां गया ॥२२॥
विशेष - ब्रह्मन्=ब्राह्मण, ब्रह्म. ब्रूहि-याचना करो, कहो. ब्राह्मण याचना करे ए उचित छे. आ मारो जन्म (अवतार) भक्तोना उद्धारमाटे छे. भक्तोमां तमे (नारदजी) मुख्य छो. एटले पोतानी जातने पूर्ण करी जन्म सफळ करी लो. ‘‘आ साचुं न होई शके, भगवान् मने छेतरे छे’’ एम विचारी ऊठीने तरत ज नारदजी बीजे गया. त्यां पण नारदजीए जोयुं के भगवान् श्रीकृष्ण पोतानां नानां बाळकोने लाड लडावी रह्या हता. त्यान्थी वळी बीजा महेलमां गया तो त्यां भगवान् श्रीकृष्ण स्नाननी तैयारी करी रह्या हता ॥२३॥
कोई महेलमां ‘आहवनीय’नामना अग्निमां होम करता, क्याङ्क पाञ्च महायज्ञ करता, क्याङ्क ब्राह्मणोने भोजन करावता, क्याङ्क ब्राह्मणोने भोजन करावतां बाकी रहेल अन्नमान्थी भोजन करता भगवान्ने नारदजीए जोया ॥२४॥
क्याङ्क सन्ध्योपासना करता, क्याङ्क वाणीनो संयम करी गायत्रीनो जप करता, क्याङ्क ढाल तलवार लई एने केम चलाववी एनो शास्त्रोक्त प्रयोग करता जोया ॥२५॥
[[५९७]] क्याङ्क घोडा, हाथी अने रथ मां सवार थई फरता जोया. क्याङ्क पलङ्गमां पोढता अने क्याङ्क बन्दीजननी स्तुतिने साम्भळता भगवान्ने जोया ॥२६॥
कोई महेलमां उद्धवजी वगेरे मन्त्रीओनी साथे कोई गम्भीर विषय उपर विचार-विमर्श करी रह्या छे, तो क्याङ्क वळी उत्तमोत्तम वाराङ्गनाओथी र्वीटळाईने जलक्रीडा करी रह्या छे ॥२७॥
क्याङ्क श्रेष्ठ ब्राह्मणोने वस्त्राभूषणोथी सुसज्जित गायोनुं दान करी रह्या छे, क्याङ्क इतिहास अने पुराणो नुं तो क्याङ्क वळी मङ्गलकारक भगवद् गुणोनुं श्रवण करी रह्या छे ॥२८॥
क्याङ्क कोई पत्नीना महेलमां पोतानी प्राणप्रियानी साथे हास्यविनोद करी रह्या छे, तो क्याङ्क धर्मनुं सेवन करी रह्या छे. क्याङ्क अर्थनुं सेवन करी रह्या छे. धनसङ्ग्रह अने धनवृद्धि ना कार्यमां लागेला छे, तो क्याङ्क धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोनो उपभोग करी रह्या छे ॥२९॥
क्याङ्क एकान्तमां बिराजी प्रकृतिथी अतीत पुराण पुरुषनुं ध्यान करी रह्या छे, तो क्याङ्क गुरुजनो, वडीलोने इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करी तेमनी सेवा करी रह्या छे ॥३०॥
देवर्षि नारदजीए जोयुं के भगवान् श्रीकृष्ण कोईनी साथे युद्धनी वात करी रह्या छे. कोईनी साथे सन्धि करी रह्या छे. क्याङ्क बलदेवजीनी साथे सत्पुरुषोना कल्याण अने भविष्य मां उत्पन्न थनारा कलियुगना जीवोना कल्याण विशे विचार करी रह्या छे ॥३१॥
क्याङ्क योग्य समये पुत्रो अने कन्याओ ना एमने अनुरूप पत्नीओ अने वरोनी साथे धामधूमथी विधिपूर्वक विवाह करी रह्या छे ॥३२॥
क्याङ्क घरेथी कन्याओने विदाय करी रह्या छे, तो क्याङ्क कन्याओने बोलाववानी तैयारीमां लागेला छे. योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णना आ अभूतपूर्व विराट उत्सवोने जोईने एमां गून्थायेला सौ लोकोने विस्मयमां लीन करता भगवान्ने नारदजीए जोया ॥३३॥
क्याङ्क मोटा-मोटां यज्ञोद्वारा भगवत्कलायुक्त भगवदावेशयुक्त देवताओनुं यजन करी रह्या छे अने क्याङ्क वळी कूवा, बगीचा, मन्दिरो वगेरे बनावडावी इष्टापूर्त धर्मनुं आचरण करी रह्या छे ॥३४॥
[[५९८]] क्याङ्क श्रेष्ठ यादवोनी साथे समुद्रमान्थी नीकळेल घोडा उपर सवार थई मृगया करी रह्या छे अने तेमां श्राद्ध वगेरेने माटे मेध्य (पवित्र) पशुओनो ज वध करी रह्या छे ॥३५॥
अने क्याङ्क वळी प्रजामां अने अन्तःपुर ना महेलोमां वेशपलटो करीने गुप्तरूपथी बधानो अभिप्राय जाणवामाटे फरी रह्या छे ॥३६॥
आ प्रमाणे मनुष्यना जेवी लीला करता हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णनी योगमायानो प्रभाव जोई नारदजीए हसतां-हसतां कह्युम् ॥३७॥
‘‘हे योगेश्वरात्मा! आपनी योगमाया ब्रह्माजी वगेरे मोटा-मोटा योगीओने माटे पण अगम्य छे. परन्तु आपना चरणकमलनी सेवाना प्रतापथी आजे अमे जाणी ॥३८॥
चौदे भुवन आपना सुयशथी परिपूर्ण थई रह्यां छे. हवे मने आज्ञा आपो के हुं आपनी त्रिभुवनपावनी लीलानुं गान करतो-करतो ते लोकोमां फरतो रहुं’’ ॥३९॥
भगवान् श्रीकृष्णे क्ह्युं - ‘‘हे ब्रह्मन्! हुं ज धर्मनो उपदेशक, पालन करवावाळो अने तेनुं आचरण करता लोकोनो अनुमोदन कर्ता पण छुं. आथी संसारने धर्मनी शिक्षा आपवानेमाटे ज हुं आ प्रकारना धर्मोनुं आचरण करुं छुं. (मारी लीलानुं तत्व तुं न जाणी शक्यो तेथी) हे पुत्र! तुं खेद न कर’’ ॥४०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थोने पवित्र करनारा श्रेष्ठ धर्मोनुं आचरण करी रह्या हता. जो के श्रीकृष्ण एक ज छे छतां देवर्षि नारदजीए एमने एमनी प्रत्येक पत्नीना महेलमां अलग-अलग जोया ॥४१॥
भगवान् श्रीकृष्णनी शक्ति अनन्त छे. एमनी योगमायानो परम प्रभाव वारंवार जोईने देवर्षि नारदजीने अत्यन्त विस्मय तो थयो ज पण फरी-फरीने ते जोवामाटे उत्सुक्ता पण थई ॥४२॥
द्वारकामां भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थनी जेम एवुं आचरण करता हता के जाणे धर्म, अर्थ अने काम रूप पुरुषार्थोमां आपनी भारे श्रद्धा होय. भगवान् श्रीकृष्णे नारदजीनुं ब्राह्मण बुद्धिथी अने ऋषि बुद्धिथी सन्मान करीने भोजन करावीने सन्तुष्ट कर्या अने नारदजी प्रभुनुं स्मरण करता - करता त्यान्थी विदाय थया ॥४३॥
हे राजन्! भगवान् नारायण समस्त जगतना कल्याणने माटे बधी सात्विक [[५९९]] शक्तिओनो सङ्ग्रह करे छे अने आ प्रमाणे मनुष्यना जेवी लीला करे छे. नारदजीए नक्की कर्युं के द्वारकापुरीमां सोळ हजार पत्नीओ पोतानी लज्जायुक्त अने प्रेमपूर्ण दृष्टि तथा मन्द-मन्द हास्यथी जे श्रीकृष्णनी सेवा करती हती ते भगवान नारायण ज छे ॥४४॥
यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार ॥ यस्त्वङ्ग गायति शृणोत्यनुमोदते वा भक्तिं लभेत भगवत्यपवर्गमार्गे ॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्णे जे लीलाओ करी छे ते बीजुं कोई करी शके नहि. हे परीक्षित! ते श्रीकृष्ण विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना परम कारण छे. जे आपनी लीलाओनुं गान, श्रवण अने गान श्रवण करवावाळानुं अनुमोदन करे छे तेने मोक्षना मार्गस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णना चरणोमां प्रेममयी भक्ति प्राप्त थई जाय छे ॥४५॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना पहेला प्रमेय-पेटा प्रकरणनो वैराग्य रूप छठ्ठो) ‘‘श्रीकृष्णना गार्हस्थ्यने नारदजीए जोयुं’’ नामनो (उत्तरार्धनो वीसमो अने चालु) ६९मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां छासठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘श्रीभागवतम् आदरात्, पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकम् अदम्भतः’’ (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ) हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो.
अध्याय ७०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.६७ सवारथी रात सुधीनी भगवान्नी दिनचर्या चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण अध्याय ७
विशेष - सात्विक भक्तोना निरोधमां प्रमेय बलवडे प्रथम छ अध्यायथी सर्वनो निरोध कर्यो छे तेमनो साधनवडे हवे छ अध्यायथी निरोध करे छे. आमां भगवान्नो धर्म बे प्रकारे कह्यो
ईं उं ईं उं
[[६००]] छे. तेमां आ अध्यायमां भगवत्कृत धर्म कहेवामां आवे छे. तेनावडे लोक भगवत्प्रवण थाय. ते-ते भेदवडे भगवान्नी ‘दिनचर्या’ कहेवामां आवे छे. एनाथी शुद्ध चित्तवाळा राजाओ सात्विक थईने भगवान्ना चरणनुं शरण ग्रहण करशे ए अर्ही कहेवानुं प्रयोजन छे. एम न मानीए तो आ दिनचर्या धर्मना प्रयोजन रहित थई जाय. भगवान्नुं सभामां जवुं ए क्षत्रियधर्मनुं सूचक छे, जे क्षतथी रक्षा करे ते क्षत्रिय कहेवाय. अर्ही अरुणोदयथी रात्रि पर्यन्त जे कार्यो हम्मेशां भगवान् करे छे ते कहेछे. अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् क्रूजतोऽशपन् ॥ गृहीतकण्ठ्यः पतिभिर्माधव्यो विरहातुराः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! ज्यारे अरुणोदय थवा लागतो अने कूकडा बोलवा लागता त्यारे श्रीकृष्णनी ते पत्नीओ, जेमना कण्ठमां श्रीकृष्णे पोतानी भुजा मूकी राखेली हती, हवे वियोग थशे एवी शङ्काथी, कूकडाओने शाप देवा लागी ॥१॥
ए वखते पारिजातनी सुगन्धथी सुवासित वायु वावा लागतो. अर्ही भमराओ गान करे छे तेथी जेओनी निद्रा जती रही छे तेवा पक्षीओ बन्दीजनोनी माफक भगवान् श्रीकृष्णने जगाडवामाटे मधुर स्वरथी कलरव करवा लागता ॥२॥
ब्राह्म मुहूर्त सर्व पुरुषार्थ साधी आपनार होवाथी अत्यन्त सुन्दर अने पवित्र छे पण छतां रुक्मिणीजी, पोताना प्रियतम श्रीकृष्णना भुजपाशमां बन्धायेल होवा छतां, आलिङ्गन छूटी जशे एवी शङ्काथी ते पवित्र ब्राह्ममुहूर्तने पण असह्य समजतां हताम् ॥३॥
भगवान् श्रीकृष्ण रोज ब्राह्ममुहूर्तमां ऊठी जतां अने आचमन करता. (ए वखते पण) आपनी बधी इन्द्रियो प्रसन्न होय. (जे सर्व अङ्गोमां शुद्ध सत्वगुणनो आविर्भाव बतावे छे) त्यारबाद तमस्थी पर, मायातीत पोताना आत्मस्वरूपनुं ध्यान करता ॥४॥
१ते षड्गुणयुक्त आत्मस्वरूप ब्रह्म ज छे एम दर्शाववा सात विशेषणो वापर्यां छे. ते एक छे अर्थात् बीजा कोईनी सहाय विना स्वयं ऐश्वर्ययुक्त ईश्वर छे. स्वयं ज्योति (स्वप्रकाश) छे, अर्थात् सूर्य, चन्द्रमा वगेरे नेत्र इन्द्रियद्वारा प्रकाशित थाय छे अने नेत्र इन्द्रिय सूर्य, चन्द्रमा वगेरे द्वारा प्रकाशित थाय छे तेवी रीते आ आत्मस्वरूपने प्रकाशित करनार बीजुं कोई नथी. ते स्वयं प्रकाश छे; तेनुं कारण ए छे के पोताना स्वरूपमां ज सदा सर्वदा अने कालनी सीमाथी पर होवा [[६०१]] छतां एक रस स्थित रहेवाने लीधे अविद्या एनो स्पर्श नथी करी शक्ती. तेथी ज प्रकाश्य-प्रकाशक भाव तेमां नथी. जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने नाशनी कारणरूप ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति अने रुद्रशक्तिद्वारा मात्र ए वातनुं ज अनुमान थई शके छे के ते स्वरूप एकरस सत्तारूप अने आनन्दरूप छे. तेने ज समजाववाने माटे ‘ब्रह्म’ नामथी ओळखवामां आवे छे. भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन पोताना आ ज स्वरूपनुं ध्यान करता२ ॥५॥
विशेषः १. आ श्लोकमां घणुं जाणवा जेवुं छे. १. ब्राह्म मुहूर्तमां ऊठी जवुं. २. जलनुं
आचमन करी भगवत्स्वरूपनुं ध्यान करवुं. ३. आ ध्यानथी अन्तःशुद्धि थाय छे. ४.
अन्तःशुद्धि कर्या पछी बाह्यशुद्धि करवी. ५. स्नान पण बे करवानो विधि छे. ६. पहेला
स्नानथी शौच अने ७. बीजा स्नानथी सेवा वगेरे. ८. बीजा स्नान पछीनुं ध्यान ए कर्मनुं
अङ्ग छे. ९. कालथी पण पर तमस् छे अने १०. तमस्थी पण पर भगवान् बिराजे छे.
११. सत्वगुण भगवान्नुं बहिरावरण छे. १२. सत्वगुणनुं आवरण तमस् छे.
२.‘‘एकं स्वयञ्ज्योतिरनन्यमव्ययं स्वसंस्थया नित्यनिवृत्तकल्मषम्, ब्रह्माख्य-मस्योद्भव-
नाशहेतुभिः स्वशक्तिभिर् लक्षितभावनिर्वृतिम् ॥५॥
१.एकम्-ऐश्वर्य २.स्वयञ्ज्योतिः-वीर्य ३.अनन्यम्-कीर्ति ४.अव्ययम्-लक्ष्मी
(श्री) ५.ब्रह्माख्यम्-वैराग्य ६.स्वसंस्थया नित्यनिवृत्तकल्मषम्-ज्ञान
७.‘‘अस्योद्भवनाशहेतुभिः स्वशक्तिभिर् लक्षितभावनिर्वृतिम्’’ धर्मी आम
भगवान् प्रपञ्चकर्ता छे अने प्रपञ्च रहित छे, विरुद्धधर्माश्रयी छे.
(त्यार पछी राते पहेरेलां वस्त्रोनो त्याग करी) बे स्वच्छ वस्त्रो पहेरी,
(मस्तक उपरथी जल पसार थई जाय तेवी रीते गोमतीजी नदी वगेरेमां डूबकी
मारीने) यथा विधि स्नान करी, यथा विधि बे पवित्र वस्त्रो पहेरी, तिलक अने
आवश्यक भूषणो धारण करता. पछी मौन धारण करी सन्ध्या, अग्निहोत्र अने
गायत्री मन्त्रनो जप करता* ॥६॥
विशेष - आ श्लोकमां शास्त्रविधिनुं आप केवा आग्रहपूर्वक पालन करता ते बताव्युं छे. केटलाङ्क तारणो आ प्रमाणे छे - १. अरुणोदय पहेलां ध्यान २. अरुणोदय वखते स्नान ३. पछी अर्ध्य सुधीनी सन्ध्या ४. अग्निहोत्र ५. सूर्योदय सुधी गायत्रीनो जप. स्नान पण राते पहेरेलां वस्त्रो बदलावी, बे स्वच्छ वस्त्रो पहेरी उपरथी पाणी फरी वळे एवी रीते पाणीमां डूबकी मारी करवुं, ‘‘न तूद्धृतजलैः’’ कूवा वगेरेमान्थी भरेल पाणीथी [[६०२]] नहि. तिलक धारण करवुं, वाग्यतः मौन रहीने जप करवो. स्नान करीने पण बे वस्त्रो धारण करवां. त्यार पछी सूर्योदय वखते आप सूर्योपस्थान करता अने पोतानी ज कलारूप देवता, ऋषि-पितरोनुं१ तर्पण करता. पछी कुलना मोटेराओतथाब्राह्मणोनुं विधिपूर्वक निष्कामभावे अर्चन२ करता ॥७॥
विशेष - १. जेवी रीते अवयवोना पोषण-पुष्टिमाटे अवयवी (मनुष्य) यत्न करे छे तेवुं
देवता, ऋषि अने पितरो नुं आ तर्पण छे, उपायस्वरूपे नथी.
२. अर्चन-चन्दन लगाडवुं, पुष्पो, अत्तर आपवुं वगेरे.
त्यारपछी श्रीकृष्ण दुधाळी (दूझणी), पहेलवेतरी, वाछडांवाळी, सोजी
(सीधी-शान्त) गायोनुं दान करता. ते वखते तेमने सुन्दर वस्त्र अने मोतीओनी
माला पहेरावी देवामां आवती तेमना शिङ्गडां सोनेथी अने खरी चान्दीथी मढी
देवामां आवतां. आप ब्राह्मणोने वस्त्राभूषणोथी सुसज्जित करी रेशमी वस्त्र,
मृगचर्म अने तलनी साथे दरेक महेलमां दररोज गोष्ठ भर गायोनुं दान
करता ॥८-९॥
विशेष - स्नाननी जेम गोदान नित्य करवानुं कर्म छे. द्वारकामां कोई दुर्भागी माणस ज नहोतुं. नवमा श्लोकमां ‘‘बद्धं बद्धं दिने दिने’’ प्रमाणिक पाठ छे; ‘‘बद्धं बद्धं दिने दिने’’ ए बीजा केटलाक टीकाकारोए स्वीकारेल पाठ छे. ‘बद्धं बद्धम्’ वैदिक शब्द छे. ते अर्ही अप्रस्तुत छे. वेदमां वपरायेल बद्ध शब्द पण बद्ध शब्दनो अर्थ पण बद्ध (गोष्ठ, गायोनो वाडो) ज छे. कोई टीकाकार बद्ध पाठ स्वीकारी तेनो अर्थ तेर हजार चोरासी करे छे. तेने विषे श्रीभगावतना नवमा स्कन्धमां विचार करवामां आव्यो छे अने ते अप्रमाण छे तेम सिद्ध करवामां आव्युं छे. नवमा स्कन्धना वीसमा अध्यायमां छवीसमो श्लोकः भरतस्य हि दौष्यन्तेरग्निः साचीगुणे चितः ॥ सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे॥ दुष्यन्तकुमार भरतनुं यज्ञीय अग्निस्थापन अत्यन्त उत्तम गुणवाळा स्थानमां करवामां आव्युं हतुं. त्यां भरते एटली गायोनुं दान कर्युं हतुं के एक हजार ब्राह्मणोमान्थी प्रत्येक ब्राह्मणने एक-एक बद्व गायो मळी हती. तेथी ‘बद्ध’ शब्द गोष्ठनो समानार्थक छे. अर्ही कोई चोक्कस सङ्ख्यानो उपयोग के औचित्यनथी. करबद्ध प्रार्थना - श्रीमद्भागवतनो गूढ अर्थ प्रकट करवाने माटे ज जेमनुं प्राकट्य छे ते [[६०३]] वाक्पति श्रीवल्लभाधीश आ नवमा श्लोकमां आवता ‘‘बद्धं बद्धं दिने दिने’’ उपरना श्रीसुबोधिनीजीमां लखे छे के ‘‘चतुरशीत्यग्रसहस्राणि त्रयोदशेति केचित्। तन्नवमे विचारितं निराकृतं च’’ अर्थ-कोई टीकाकार (श्रीधर स्वामी वगेरे) ‘बद्ध’नो अर्थ १०८४ करे छे. तेनो विचार अने तेनुं निराकरण नवमा स्कन्धमां ज करी देवामां आव्युं छे. आ उपरथी चोक्कस फलित थाय छे के आपे (श्रीवल्लभाधीशे) नवमा स्कन्ध उपर श्रीसुबोधिनीजी लख्यां छे. तो आजे पण जो विद्याप्रेमी संशोधको, जिज्ञासुओ तपास करे तो श्रीमहाप्रभुजीनुं घणुं अप्रकट साहित्य बाकीनां सुबोधिनीजी साथे मळी आवे-सम्पादक. त्यार पछी पोतानी विभूतिरूप गाय, ब्राह्मण देवता, कुलना मोटेराओ, गुरुजन, तेमना शिष्य-प्रशिष्यो, समस्त प्राणीओने नमस्कार (जेम पोताना पग धोवाथी कंई हीनता थई जती नथी तेवी रीते आ नमस्कारथी कंई हीनता थती नथी.) करी गाय, सोनुं वगेरे माङ्गलिक पदार्थोनो स्पर्श करता ॥१०॥
हे परीक्षित! जो के भगवान्ना श्रीअङ्गनुं सहज सौन्दर्य ज मनुष्यलोकना भूषणरूप छे. (एटले एमने पोताने माटे वस्त्र अलङ्कार वगेरेनी जरूर नथी पण लोको लौकिक उत्कर्षनी अपेक्षा राखता होय छे तेथी जगतने सुशोभित करवामाटे) पोते जामो, पाघ, दुपट्टो वगेरे वस्त्रो तथा पोतानां असाधारण आभूषणो, कौस्तुभ मणि, मकराकृतकुण्डल वगेरे धारण करता अने दिव्य सुगन्धवाळा अङ्गरागथी पोताने विभूषित करता ॥११॥
त्यारबाद आप घी अने दर्पण मां पोतानुं मुखारविन्द जोता; गाय, साण्ढ, ब्राह्मण अने (मन्दिरमां बिराजमान्) देवोनां दर्शन करता. पछी पुरवासी तथा अन्तःपुरना चारेय वर्णोना लोकोनी अभिलाषाओ पूरी करावता. राणीवासनी स्त्रीओनी इच्छाओ पूर्ण करी तेमने सन्तुष्ट करता अने तेमने प्रसन्न जोई पोते बहु ज आनन्दित थता ॥१२॥
पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन, अङ्गराग वगेरे ब्राह्मणोने, पछी स्वजनसम्बन्धीओने, मन्त्रीओ अने राणीओने आपी पछी पोते तेनो उपयोग करता. त्यारपछी बीजा ते वस्तुओ वापरता ॥१३॥
भगवान् आ बधुं नित्य कार्य पूर्ण करे ते दरमियान दारुक नामनो सारथि सुग्रीव वगेरे घोडाओ जेने जोड्या छे ते अत्यन्त अद्भुत रथ लई आवतो अने प्रणाम करी भगवान्नी सामे ऊभो रहेतो ॥१४॥
[[६०४]] पछी भगवान् श्रीकृष्ण पोताना हाथथी सारथिनो हाथ पकडी, सात्यकि अने उद्धवजी नी साथे, जेम भुवनभास्कर सूर्य उदयाचल पर्वतउपर आरूढ थाय तेम, रथमां सवारथता ॥१५॥
ते वखते राणीवासनी स्त्रीओ लज्जा अने प्रेमपूर्ण दृष्टिपूर्वक आपने जोती रहेती अने आपने महा कष्टपूर्वक विदाय आपती. भगवान् हसीने तेमनुं चित्त चोरी लई महेलमान्थी बहार पधारता ॥१६॥
हे परीक्षित! त्यारबाद भगवान् श्रीकृष्ण बधा यदुवंशीओनी साथे ‘सुधर्मा’ नामनी सभामां प्रवेश करता. ते सभानो एवो प्रभाव छे के जे लोको ते सभामां बेसे छे तेमने (‘‘क्षुत्-पिपासे शोकमोहौ जरामृत्यू षडूमर्यः’’) भूख, तरस, शोक, मोह, वृद्धावस्था अने मृत्यु ए छ ऊर्मिओ-पीडी शकती नथी ॥१७॥
आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्ण बधी राणीओनी अलग-अलग विदाय लई एक ज स्वरूपथी सुधर्मा सभामां प्रवेश करता अने त्यां जई श्रेष्ठ सिंहासन उपर बिराजता. आपनी निजी असाधारण अङ्गकान्तिथी दिशाओ प्रकाशित थती रहेती. ते वखते यदुवंशी वीरोनी वच्चे यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण, *स्वर्गमां ताराओथी र्वीटायेला चन्द्रदेव जेम शोभे तेवा शोभता ॥१८॥
विशेष - मूलमां दिवि-द्यौ (स्त्री.) स्वर्गनुं सप्तमी एक वचन छे. एटले आकाशमां ज्योतिश्चक्रमान्ना आधिभौतिक चन्द्रनी वात नथी. स्वर्गमान्ना देवस्वरूप चन्द्रनी वात छे. सभामां विदूषको विभिन्न प्रकारना हास्यविनोदथी, नटाचार्य अभिनयथी अने नर्तकीओ कलापूर्ण नृत्यथी अलग-अलग पोतानी मण्डळीओ साथे भगवान्नी सेवा करती ॥१९॥
ते वखते मृदङ्ग, वीणा, पखावज, बांसुरी, झाञ्झ अने शङ्ख वागवा लागतां अने सूत, मागध तथा बन्दीजनो नाचता, गाता अने भगवान्नी स्तुति करता ॥२०॥
केटलाक व्याख्यान विशारद ब्राह्मणो त्यां बेसी वेदमन्त्रोनी व्याख्या करता तो केटलाक प्राचीन काळना पवित्र यशवाळा (ईक्ष्वाकु वगेरे) राजाओनां चरित्रोनी कथा कहेता. (सभामां धर्मवार्ता ज थती, बीजी कोई वात नहि) ॥२१॥
एक दिवस द्वारकापुरीमां राजसभाने द्वारे एक अपरिचित मनुष्य आव्यो. द्वारपालोए भगवान्ने तेना आव्याना समाचार आप्या. तेने अन्दर लाववानी [[६०५]] आज्ञा मळतां सभाभवनमां तेने दाखल थवा देवामां आव्यो ॥२२॥
काल, कर्म, स्वभाव, अदृष्ट वगेरेना नियामक भगवान् श्रीकृष्णने हाथ जोडीने दूते नमस्कार कर्या. जरासन्धना दिग्विजय वखते जे राजाओ एने पूर्ण रीते ताबे थया नहोता तेओने जरासन्धे बलपूर्वक पर्वतोनी अन्दर केद कर्या हता. ते वीस हजार (अने आठसो) राजाओनुं केदी बनवानुं दुःख दूते भगवान् श्रीकृष्णने जणाव्युं. (अर्ही वीस हजारनो सहस्रान्त आङ्कडो आशरे बताव्यो छे. आगळ अध्याय तोतेरना पहेला श्लोकमां चोक्कस आङ्कडो वीस हजार आठसोनो आवे छे)* ॥२३-२४॥
विशेष - २०,८००नुं रहस्यःदस इन्द्रियो अने चार अन्तःकरण मळी चौद स्थान
अहन्ताना एवा ज चौद स्थान ममतानां दरेक इन्द्रियनी वृत्तिओ हजार अने दरेक
अन्तःकरणनी वृत्तिओ एक सो. १० इन्द्रियोनी वृत्तिओ १०,००० + ४ अन्तःकरणनी
वृत्तिओ ४००= १०,४००. अहन्ता अने ममता दरेकनां १०,४०० स्थान मळी कुल
२०,८०० थयां. अर्थात् केदनुं कारण अभिमान हतुं.
‘‘हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! आप मन अने वाणी थी अगोचर छो. जे
आपने शरणे आवे छे तेना समस्त भय आप नष्ट करी दो छो. हे प्रभो! अमारी
भेदबुद्धि नष्ट थई नथी. (समस्त भयोथी निवृत्ति शक्य होय त्यां कोई एक ज
भयमान्थी निवृत्ति मागे नहि. अमने जरासन्धनो एटलो भय नथी जेटलो) अमने
जन्म-मृत्युरूप संसारना चक्करनो भय छे. ते भयथी मुक्त थवा अमे आपने शरणे
आव्या छीए ॥२५॥
हे भगवन्! मोटा भागना लोको एवां निषिद्ध कर्मोमां फसायेला रहे छे के आपे बतावेला परम कल्याणकारी कर्म आपनी भक्ति, श्रवणथी विमुख थई गया छे परन्तु आप बहु बलवान् छो. आप कालरूपे सदा सर्वदा सावधान रही तेमनां जीवननी आशा ज महान व्याधि वगेरे द्वारा मूळमान्थी उखेडी नाखो छो. अमे आपना आ अति सावधान कालस्वरूपने (अमारा पहेलान्ना अपराध क्षमा कराववा) नमस्कार करीए छीए ॥२६॥
आप जगदीश्वर छो. आपे आपनी कला (सहायको, ज्ञान, बल) साथे जगतमां सन्तोनी रक्षा करवा अने दुष्टोने दण्ड करवा अवतार लीधो छे. तो पछी हे प्रभो! जरासन्ध वगेरे कोई बीजा राजाओ आपनी इच्छा अने आज्ञानी विरुद्ध [[६०६]] जईने अमने केवी रीते कष्ट आपी रह्या छे ए वात अमने समजमां नथी आवती. जो एम कहेवामां आवे के जरासन्ध अमने कष्ट नथी देतो तेना रूपमां तेने निमित्त बनावी अमारां अशुभ कर्म ज अमने दुःख आपी रह्यां छे तो ए पण बराबर नथी, कारण के ज्यारे अमे लोको आपना पोताना छीए त्यारे अमारां दुष्कर्म अमने फल आपवामां केवी रीते समर्थ थई शके? तेथी आप कृपा करी अवश्य अमने आ क्लेशथी मुक्त करो-छोडावो ॥२७॥
हे प्रभो! अमे जाणीए छीए के राजानुं सुख स्वप्नना सुख जेवुं अत्यन्त तुच्छ अने असत् छे. साथे-साथे ते सुखने भोगवनार आ शरीर पण मृतक समान छे अने तेनी पाछळ सर्वदा सेङ्कडो प्रकारना भय वळगेला ज छे. परन्तु अमे तो ते द्वारा ज जगतना भारने उठावीए छीए. तेथी ज अमे अन्तःकरणना निष्कामभाव अने निरसङ्कल्प स्थितिथी प्राप्त थनार आत्मसुखनो परित्याग करी दीधो छे. खरेखर अमे अत्यन्त अज्ञानी छीए अने आपनी मायानी जाळमां फसाई जई पार वगरना क्लेश भोगवी रह्या छीए ॥२८॥
हे भगवन्! आपनां चरणकमल शरणागत पुरुषोना समस्त शोक अने मोह ने नष्ट करनारां छे. तेथी आप ज जरासन्धरूप कर्मोना बन्धनमान्थी अमने छोडावो. हे प्रभो! ए मगधराज एकलो ज दस हजार हाथीओनुं बळ धरावे छे अने अमने तो सिंह जेम घेटांओने पोताना भक्षणमाटे ज पकडे छे तेम प्रमथनाथ-शिवजीना यज्ञमां होमवामाटे ज केद कर्या छे ॥२९॥
आपे अढार वखत जरासन्ध साथे युद्ध कर्युं, आपे (भक्षणने माटे कालशक्तिरूपी) सुदर्शन चक्र धारण करी तेनुं मानमर्दन करी छोडी मूक्यो. अमे जाणीए छीए के आपनी शक्ति अनन्त छे, आपनुं बल-पौरुष अनन्त छे. छतां मनुष्योना जेवुं आचरण करता आपे एक वखत हारवानो अभिनय कर्यो. परन्तु तेथी ज तेनो गर्व वधी गयो छे. अमे आपना भक्त छीए, आपनी प्रजा छीए ते जाणीने हवे ते अमने विशेष पीडे छे. हे अजित! हवे आप (अमारुं पालन करी) आपनुं नाम अजित छे ते सिद्ध करो’’ ॥३०॥
दूते कह्युं - ‘‘हे भगवन्! जरासन्धे केद करेल राजाओए आ प्रमाणे आपने प्रार्थना करी छे. तेओ आपना चरणकमलोने शरणे आव्या छे अने आपनां दर्शन करवा इच्छे छे. आप कृपा करी ते दीन दुःखीओनुं कल्याण करो’’ ॥३१॥
[[६०७]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! राजाओने दूत आ प्रमाणे कही रह्यो हतो त्यां तो परम तेजस्वी देवर्षि नारदजी त्यां प्रगट थया. (तपने लईने) तेमनी सोनेरी जटा चमकी रही हती. तेमने जोईने एम ज लागतुं हतुं के जाणे साक्षात् सूर्यनो ज उदय थई गयो होय ॥३२॥
ब्रह्माजी वगेरे समस्त लोकपालोना एक मात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण तेमने जोतां ज सभासदो अने सेवको नी साथे आनन्दित थई ऊभा थई गया अने मस्तक नमावीने तेमने (लोक शिक्षाने माटे) वन्दन कर्युम् ॥३३॥
ज्यारे देवर्षि नारदजी आसननो स्वीकार करी बेसी गया त्यारे भगवाने तेमनी विधिपूर्वक पूजा करी अने पोतानी श्रद्धाथी तेमने सन्तुष्ट करी मधुर वाणीथी कह्युंः ॥३४॥
‘‘हे देवर्षे! अत्यारे त्रणे लोकमां कुशल-मङ्गल तो छे ने? आप त्रणेय लोकमां फरता रहो छो तेथी अमने एक मोटो लाभ छे के त्रण लोकना बधा समाचार मळे छे (देवर्षि नारदजी भगवान्नी इच्छाशक्तिनुं आधिभौतिक रूप छे. भगवान् जे कंई इच्छे छे अने करे छे ते बधुं नारदजी जाणे छे.) ॥३५॥
ईश्वरे बनावेला आ त्रणेय लोकमां एवी कोई वात नथी के जे आप न जाणता हो. तेथी अमे आपनी पासे ए जाणवा मागीए छीए के युधिष्ठिर वगेरे पाण्डवोने अत्यारे शुं करवानी इच्छा छे?’’ ॥३६॥
देवर्षि नारदजीए कह्युं - हे विभु! जीवने मोह पमाडी, हे मायापति! आप विश्वनी उत्पत्ति (स्थिति अने प्रलय) करो छो. मोटा-मोटा मायावी ब्रह्माजी वगेरे पण आपनी मायानो पार पामी शक्ता नथी. हे प्रभो! आप बधाना घटघटमां आपनी असाधारण अचिन्त्य शक्तिओथी व्याप्त रहो छो. गरम जळमां अग्निनो प्रताप होवा छतां अग्नि तो गुप्त छे तेम आप आपनो प्रभाव गुप्त राखो छो, में आपनी माया एक वार नहिं अनेकवार जोई तेथी आप अजाण्या बनी पाण्डवोना समाचार मने पूछो छो तेथी मने नवाई नथी लागती ॥३७॥
हे भगवन्! आप आपनी मायाथी ज आ जगतनी रचना अने संहार करो छो अने आनी मायाना प्रभावथी ज जे वस्तु छे ज नहि ते छे तेम निश्चय करी लेवामां आवे छे. आप क्यारे शुं करवा मागो छो ते चोक्कसपणे कोण समजी शके छे? आपनुं स्वरूप सर्वथा अचिन्तनीय छे, सर्व विलक्षण छे. हुं तो आपने नमस्कार करुं [[६०८]] छुम् ॥३८॥
शरीर अने तेनी साथे सम्बन्ध राखनारी वासनाओमां फसाई जई जीव जन्म-मृत्युना चक्करमां भटकतो रहे छे अने ते आ शरीरथी हुं केम छूटी शकीश ते जाणतो नथी. तेना ज हितने माटे आप नाना प्रकारनां लीलास्वरूप धारण करी आपना पवित्र यशनो दीवो प्रगटावो छो जेनी सहायथी ते आ अनर्थकारी शरीरथी छूटी शके तेथी हुं आपने शरणे आव्यो छुम् ॥३९॥
हे प्रभो! आप स्वयं परब्रह्म छो छतां मनुष्योनी जेवी लीलानुं नाट्य करता हो तेम मने पूछो छो तेथी आपनी फोईना दीकरा अने आपना प्रेमी भक्त राजा युधिष्ठिर शुं करवा मागे छे ते हुं आपने सम्भळावुं छुम् ॥४०॥
नियत समये नियत साधन सम्पत्तिनी उपस्थिति ब्रह्माजीने ज होय छे. तेवी सम्पत्ति विना भगवान्नी सर्वभावथी सेवा न थई शके. युधिष्ठिर राजा होवाथी मानसी सेवामां तेनो अधिकार नथी. तेथी ते श्रेष्ठ राजसूय यज्ञद्वारा आपनी प्राप्तिमाटे आपनी आराधना करवा मागे छे. पूजामां पूज्यनुं अनुमोदन आवश्यक छे तो आप तेनी आ अभिलाषानुं अनुमोदन करवा कृपा करो ॥४१॥
ते श्रेष्ठ यज्ञमां आपनां दर्शन करवानी इच्छाथी मोटा-मोटा देवताओ तथा यशस्वी राजाओ आवशे ॥४२॥
हे प्रभो! आप स्वयं विज्ञानानन्दघन छो. आपना श्रवण, कीर्तन अने ध्यान करवा मात्रथी ज चाण्डाळ पण पवित्र थई जाय छे. तो पछी आपनां दर्शन अने स्पर्श करे तेनी बाबतमां तो कहेवानुं ज शुं होय? ॥४३॥
हे त्रिभुवनमङ्गल! जेवी रीते आपना चरणामृतनी धारा स्वर्गमां मन्दाकिनी, पातालमां भोगवती अने मर्त्यलोक (पृथ्वी) मां गङ्गाजीना नामथी प्रवाहित थई आखा विश्वने पवित्र करी रही छे तेवी रीते आपनी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओमां छवाई रही छे, तथा स्वर्ग, पृथ्वी अने पातालमां व्याप्त थई रही छे’’ ॥४४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! सभामां जेटला यदुवंशी बेठा हता ते बधा पहेलां जरासन्ध उपर चडाई करी तेने जीती लेवो जोईए तेवा मतना हता. तेथी तेमने नारदजीनी वात पसन्द न आवी. त्यारे ब्रह्माजी तथा शिवजी ना पण नियामक तेम ज सुखदाता श्रीकृष्णे सहेज हसी अत्यन्त मधुर वाणीथी (पोताना [[६०९]] सर्वस्वीकार्य बधा जेमनुं मान राखे तेवा-अन्तरङ्ग) मन्त्री उद्धवजीने कह्युं॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - हे उद्धवजी! तमे अमारा हितैषी सुहृद अने शुभ सम्मति आपनारा छो. वळी कोई पण कार्यनुं शुं परिणाम आवे ते तमे जाणो छो. तेथी अमे तमने अमारुं उत्तम नेत्र मानीए छीए. तो तमे ज बतावो के आ बाबतमां अमारे शुं करवुं जोईए. तमारामां अमने श्रद्धा छे. तेथी अमे तमारी सलाह प्रमाणे ज काम करीशुम् ॥४६॥
इत्युपामन्त्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ॥ निदेशं शिरसाऽऽधाय, उद्धवः प्रत्यभाषत ॥४७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे उद्धवजीए जोयुं के मारा भर्ता भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होवा छतां कंई जाणता न होय तेवानी माफक सलाह पूछी रह्या छे त्यारे आज्ञा माथे चडावी ते बोल्या ॥४७॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथो सात्विक प्रकरणना पहेला प्रमेय प्रकरणनो धर्मी रूप सातमो) ‘‘सवारथी रात सुधीनी भगवान्नी दिनचर्या’’ नामनो (उत्तरार्धनो एकवीसमो अने चालु) सित्तेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां सडसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. चोथा सात्विक प्रकरणनुं पहेलुं प्रमेय प्रकरण सम्पूर्ण पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!
ईं उं ईं उं
[[१]]
अध्याय ७१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ६८ सात्विक साधन प्रकरण भगवान् इन्द्रप्रस्थ पधार्या चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय १
विशेष - इकोतेरमां अध्यायमां धर्मनी रक्षाने माटे भगवान् इन्द्रप्रस्थ पधारे छे तेमां सर्वनी सम्मति लईने पधारवाथी एनी जे शोभा आवी तेनुं निरूपण कर्युं छे. भगवाननी एक ज क्रिया घणा अर्थोने सिद्ध करनारी होय छे. तेथी प्रथम युधिष्ठिरनी पासे जवाने तैयार थाय छे. एटले सुहृत्कार्यमां भक्तरक्षण ए द्वारा एमां ज आवी जशे. तेथी भक्तरक्षण भगवाननुं मुख्य कार्य थशे तेथी नारदजी अने दूत ए बन्नेना कथन अविरोधथी सिद्ध थशे. इत्युदीरितमाकर्ण्य देवर्षेरुद्धवोऽब्रवीत् ॥ सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनां वचन साम्भळी महामति उद्धवजीए देवर्षि नारदजी, सभासदो अने भगवान् श्रीकृष्ण ना मत उपर विचार कर्यो अने पछी ते कहेवा लाग्या ॥१॥
उद्धवजीए कह्युं - हे भगवन्! देवर्षि नारदजीए आपने एम सलाह आपी के फोईयात भाई पाण्डवोना राजसूय यज्ञमां हाजरी आपी एमनी सहायता करवी जोईए. एमनुं आ कहेवुं ठीक छे अने साथे शरणागतोनी रक्षा करवी जोईए ए पण बराबर छे ॥२॥
हे प्रभो! ज्यारे आपणे ए दृष्टिथी विचार करीए के राजसूय यज्ञ ते ज करी शके के जे दशे दिशाओ उपर विजय प्राप्त करी ले, त्यारे आपणे कोई पण जातनी शङ्का विना ए निर्णय करी शकीए छीए के पाण्डवोनो यज्ञ अने शरणागतोनी रक्षा; ए बन्ने कामोने माटे जरासन्धने जीतवो जरूरी छे ॥३॥
हे प्रभो! मात्र जरासन्धने जीती लेवाथी आपणने घणुं धन* प्राप्त थशे अने हे गोविन्द! राजाओने बन्धनमान्थी मुक्त करावनार आपने यश पण प्राप्त थशे ॥४॥
विशेष - कालयवन उपरना जयथी भगवानने प्राप्त थयेलुं धन बधुं य जरासन्ध लई गयेलो अध्याय-७१,२ दशमस्कन्ध ते मळी जशे. वळी जे राजाओने जरासन्धे केद करेला तेमनुं धन पण ते लई गयेलो. ते धन पण जरासन्धने हराववाथी मळी रहे अने ते धन मुक्त करायेल राजओनुं पोषण करवामां आवे. जरासन्धनो मुकाबलो यादवोमान्थी कोई करी शके एम नथी. बीजा बधा बळवान योद्धाओने ते एकलो पूरो पडे तेवो ते बलवन्त छे कारण के तेनामां दस हजार हाथीओनुं बळ छे. तेनी सामे थनार जो कोई होय तो ते भीमसेन ज छे कारण के ते पण एटला ज बळवान छे ॥५॥
द्वन्द्वयुद्धमां एक ज वीर तेने जीती ले ए सौथी उत्तम छे. सेङ्कडो अक्षौहिणी सेना लईने ते ज्यारे युद्धमेदानमां सामे आवे त्यारे तेने जीतवो शक्य नथी. जरासन्ध बहु ज मोटो ब्राह्मण भक्त छे. ब्राह्मण एनी पासे गमे ते वस्तुनी मागणी करे ते तेने आपी दे छे ॥६॥
तेथी भीमसेन (यज्ञोपवीत, बे वस्त्रो, तिलक वगेरे साथे) ब्राह्मणनो वेश लईने जाय अने तेनी पासे द्वन्द्वयुद्धनी भिक्षा मागे. आपनी हाजरीमां भीमसेन अने जरासन्धनुं द्वन्द्वयुद्ध थाय तो भीमसेन तेने अवश्य मारी नाखी शकशे ॥७॥
हे प्रभो! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित, कालस्वरूप छो. विश्वनी सृष्टि अने प्रलय आपनी शक्तिथी ज थाय छे. ब्रह्माजी अने शङ्कर तो (तलवार वगेरेनी जेम) तेमां निमित्त मात्र ज छे. (तेवी ज रीते जरासन्धनो वध तो आपनी शक्तिथी ज थशे. भीमसेन तो मात्र तेमां निमित्त बनशे) ॥८॥
आपनो यश तो त्रण लोकमां फेलायेलो ज छे. ज्यारे आपे हिरण्यकशिपुने मार्यो अने देवोने छोडाव्यां त्यारे देवोनी स्त्रीओ पोताना शत्रुनो नाश थयो अने पोते शत्रुना भयमान्थी मुक्त थई तेथी आपना यशनुं गान करे छे. कुञ्जर पति (गजेन्द्र) नी स्त्रीओ पण नक्र (मगर) ने मारवाथी अने गजेन्द्ररूप एमना पतिने आपे मुक्त करवाथी आपना यशनुं गान करे छे. सीताजी पोताना शत्रु रावणने मारवाथी आपनो यश गाय छे. शङ्खचूडने मारवाथी गोपीजनो आपना यशनुं गान गाय छे. आपे कंसने मार्यो अने आपना माता-पिता देवकीजी अने वसुदेवजी ने केदमान्थी छोडाव्या तेथी आपना यशनुं गान करे छे. मुनिओ अने अमे आपना शरणागत आपना यशनुं गान करीए छीए. तेवी रीते आप जरासन्धनो वध करी नाखशो त्यारे केदमां पडेला राजाओनी राणीओ पोताना महेलोमां आपनी [[३]] आ विशुद्ध लीलानुं गान करशे के आपे एमना शत्रुनो नाश करी दीधो अने एमना प्राणपतिओने छोडाव्या ॥९॥
तेथी हे कृष्ण! (उद्धवजीने बोलतां-बोलतां आवेश आवी जवाथी, प्रमादथी अथवा पापक्षयनेमाटे तेमनाथी मात्र ‘कृष्ण’ शब्दनो प्रयोग थई गयो छे.) जरासन्धनो वध ज घणां प्रयोजन (भक्तिमार्गनी सिद्धि, शरणागतोनी रक्षा, यज्ञ, कीर्ति, वेरनी वसूलात, पृथ्वी उपरनो भार हळवो करवो वगेरे) सिद्ध करशे. (घणानो द्रोह करेलो होवाथी) जरासन्धे करेलां कर्मोनो विपाक आवी लाग्यो छे. (पाप पूर्ण भराई गयुं छे.) आप पण अत्यारे राजसूय यज्ञ थाय ते पसन्द करो छो तेथी पहेलां आप त्यां पधारो ॥१०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्!* उद्धवजीनी सलाह दरेक रीते हितकर अने योग्य हती. देवर्षि नारदजी, यदुवंशना मोटेराओ अने स्वयं भगवान् श्रीकृष्णे तेनुं समर्थन कर्युम् ॥११॥
विशेषः कपट विना दैत्यनो वध थई शक्तो न होवाथीआवे प्रसङ्गे कपट करवामां दोष नथी एम जणाववा तथा राजानो धर्म पण तेवो जछे एम बताववा ‘राजन्’ सम्बोधन वापर्युञ्छे. भगवान् श्रीकृष्णे वसुदेवजी वगेरे वडीलोनी अनुमति लई दारुक, जैत्र वगेरे सेवकोने इन्द्रप्रस्थ जवामाटे तैयारी करवानी आज्ञा आपी ॥१२॥
हे शत्रुने हणनार! पछी भगवान् श्रीकृष्णे यदुराज उग्रसेन तथा बलदेवजीनी आज्ञा लई, राणीओ साथे पुत्रो अने तेमना सामानने आगळ रवाना करी, दारुक सारथिए लावेल गरुडध्वज रथमां पोते सवार थया ॥१३॥
पछी रथो, हाथीओ, सैनिको, अश्वोना समूहो अने एना नायको सहित शत्रुने भय करनारी चतुरङ्गिणी पोतानी सेनाथी र्वीटाई मृदङ्ग, भेरी, नगारां, शङ्ख अने नरसिङ्गा वागतां तेमना अवाजना दिशाओमां पडता पडघा साथे भगवान् नगर बहार पधार्या ॥१४॥
सती शिरोमणि रुक्मिणीजी वगेरे हजारो राणीओ पोतानां सन्तानो साथे सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन, अङ्गराग अने पुष्पोना हार वगेरेथी सुशोभित म्याना, रथो अने सोनानी पालखीओमां बेसी पोताना पतिदेव श्रीकृष्णनी पाछळ-पाछळ रवाना थयां. हाथमां ढाल तलवार लई पायदळ सिपाहीओ तेमनी रक्षा करता चाली रह्या हता ॥१५॥
अध्याय-७१,४ दशमस्कन्ध ते ज प्रमाणे अनुचरोनी स्त्रीओ अने वाराङ्गनाओ पण सुन्दर शृङ्गार करी झूरूपडीओ, जातजातना तम्बुओ, कनातो, धाबळाओ अने पाथरवा ओढवानी सामग्रीओ, बळदो, पाडाओ, गधेडांओ अने खच्चरो उपर लादी पोते पालखी, ऊण्ट, गाडां अने हाथणीओ उपर सवार थईने (श्रीकृष्णनी पाछळ ज नहि पण) पोतानी अनुकूळता प्रमाणे चालवा लाग्याम् ॥१६॥
जेम मगरमच्छो अने मोजांओ खळभळी ऊठे त्यारे समुद्र शोभी ऊठे तेम मोटी धजाओ, छत्रो, चामरो, उत्तम आयुधो, आभरणो, किरीटो, बख्तरो अने एनी उपर दिवसे पडतां सूर्यना किरणोथी मोटा घोङ्घाटथी सेना शोभवा लागी ॥१७॥
देवर्षि नारदजी भगवान् श्रीकृष्णथी सन्मानित थई आप (श्रीकृष्ण) ना निश्चयने साम्भळी बहु प्रसन्न थया. भगवाननां दर्शनथी तेमनुं हृदय अने बधी इन्द्रियो परमानन्दमां मग्न थई गई. विदाय थती वखते भगवान् श्रीकृष्णे तेमनुं अनेक प्रकारनी सामग्रीओथी पूजन कर्युं, देवर्षि नारदजीए आपने मनोमन प्रणाम कर्या अने प्रभुना दिव्य स्वरूपने हृदयमां धारण करी आकाश मार्गे प्रस्थान कर्युं ॥१८॥
त्यार पछी भगवान् श्रीकृष्णे जरासन्धना केदी राजाओना दूतने पोतानी मधुर वाणीथी प्रसन्न करतां कह्युं ‘‘हे दूत! तमे तमारा राजाओने जईने कहेजो के तमे भय न करशो. तमारुं कल्याण थशे. हुं जरासन्धने मरावी नाखीश’’ ॥१९॥
भगवाननी एवी आज्ञा मळतां ते दूत गिरिव्रज चाल्यो गयो अने राजाओने भगवान् श्रीकृष्णनो सन्देशो सम्भळाव्यो ते राजाओ पण कारागारथी छूटवामाटे जलदीमां जलदी भगवाननां शुभ दर्शननी राह जोवा लाग्या ॥२०॥
भगवान् श्रीकृष्ण हवे ओखामण्डळ, सोरठ, मारवाड, कुरुक्षेत्र अने वच्चे-वच्चे आवता पर्वत, नदीओ, नगर, गामडांओ, अहीरोना नेसडाओ तथा खाणोने पसार करता आगळ वधवा लाग्या ॥२१॥
भगवान् मुकुन्द मार्गमां दृषद्वती अने सरस्वती नदी पार करी, पाञ्चाल अने मत्स्य देशोमां थई, इन्द्रप्रस्थ जई पहोञ्च्या ॥२२॥
मनुष्य मात्रने श्रीकृष्णनां दर्शन अत्यन्त दुर्लभ छे. ज्यारे अजातशत्रु महाराजा युधिष्ठिरने ए समाचार मळ्या के श्रीकृष्ण पधार्या छे, त्यारे तेमनुं [[५]] रोमेरोम आनन्दथी खीली ऊठ्युं. पोताना आचार्यो अने सम्बन्धीओनी साथे भगवाननुं स्वागत करवामाटे तेओ नगरथी बहार आव्या ॥२३॥
मङ्गलगीतो गवावा लाग्यां, वाजां वागवा लाग्यां अने ब्राह्मणो ऊञ्चा स्वरे वेदमन्त्रोनो उच्चार करवा लाग्या. बहार नीकळेल प्राण जेम अनायासेज प्राणनी पासे जाय तेमतेओ (युधिष्ठिर) हृषीकेश(बुद्धिप्रेरक)श्रीकृष्णनी पासे आदरयुक्त आव्या ॥२४॥
भगवान् श्रीकृष्णने जोई राजा युधिष्ठिरनुं हृदय अतिशय स्नेहथी भराई आव्युं. प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन करवानुं सौभाग्य घणा दिवसे प्राप्त थयुं हतुं तेथी ते (अन्तरना आनन्दथी बाह्य भान भूली जई) भगवान् श्रीकृष्णने वारंवार हृदय सरसा चाम्पवा लाग्या ॥२५॥
भगवान् श्रीकृष्णनुं श्रीअङ्ग लक्ष्मीजीनुं पवित्र निवासस्थान छे. राजा युधिष्ठिर पोतानी बन्ने भुजाओथी तेनुं आलिङ्गन करी समस्त पाप-तापथी मुक्त थई गया अने परमानन्दना समुद्रमां डूबी गया. तेमनां नेत्रोमां आंसु छलकाई आव्यां, अङ्गे-अङ्ग पुलकित थई गयुं अने तेमने आ विश्वप्रपञ्चना भ्रमनुं लेश मात्र भान रह्युं नहि ॥२६॥
प्रेमना वेगथी जेमनी इन्द्रियो आकुळ थई छे तेवा भीम हसीने मामाना पुत्रने आलिङ्गन करी सुखी थया. नकुल, सहदेव अने अर्जुन ए त्रण जण नेत्रमां आनन्दनां अश्रुवाळा थई पोताना परम सुहृद अच्युत भगवानने हर्षथी भेट्या ॥२७॥
(एम प्रेमथी कर्युं ते कह्युं हवे अजुर्न वगेरेए लौकिकनी रीते करवुं जोईए ए कहे छे) भगवाने भीम युधिष्ठिर वगेरेने नमस्कार कर्या, अर्जुन समान वयस्क छे तेणे भगवानने आलिङ्गन कर्युं; नकुल, सहदेवे भगवानने वन्दन कर्युं. भगवाने ब्राह्मणोने नमस्कार कर्या. वृद्धोने जेनी जेवी योग्यता हती तेम नमस्कार वगेरे कर्या ॥२८॥
कुरु, सृञ्जय अने केकय देशना नरपतिओए भगवान् श्रीकृष्णनुं सन्मान कर्युं अने भगवान् श्रीकृष्णे पण तेमनो यथोचित सत्कार कर्यो. सूत, मागध, बन्दीजन अने ब्राह्मणो भगवाननी स्तुति करवा लाग्या तथा गन्धर्व, नट, विदूषक वगेरे मृदङ्ग, शङ्ख, नगारां, वीणा अने ढोल बजावी-बजावी कमलनयन श्रीकृष्णने अध्याय-७१,६ दशमस्कन्ध प्रसन्न करवा लाग्या. ज्ञानीओए भगवाननी स्तुति करी, भक्तोए नृत्य कर्युं अने कर्ममार्गीओए साम गान कर्युम् ॥२९-३०॥
एवी रीते (नळराजा, युधिष्ठिर वगेरे) पुण्यश्लोक पुरुषोना मुगटमणि श्रीकृष्णे पोताना सुहृद-स्वजनोनी साथे दरेक प्रकारे सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगरमां प्रवेश कर्यो. ते वखते बधा लोको भगवान् श्रीकृष्णनी स्तुति-प्रशंसा करता जता हता ॥३१॥
इन्द्रप्रस्थ नगरनी सडको अने गलीओमां मतवाला हाथीओना मदमिश्रित सुगन्धी जलथी छण्टकाव करवामां आव्यो हतो. ठेकठेकाणे रङ्गबेरङ्गी ध्वजाओ बान्धी हती. सुवर्णना तोरणो अने जलपूर्ण कुम्भो शोभी रह्या हता. नगरनां नर- नारीओ नाही-धोई नवां वस्त्रो, आभूषण पुष्पोना हार, अत्तर-फूलेल आदिथी सज्ज थई फरतां हताम् ॥३२॥
जे महेलमान्ना दरेक भवनमां दीवाओ प्रगटाववामां आव्या हता, पुष्पनां मण्डळो गोठववामां आव्यां हतां, तेना जाळियामान्थी बहार नीकळता धूपने लीधे ते मघमघी रह्युं हतुं, पताकाओ लहराई रही हती, शिखरो उपर सोनाना कळशो अने चान्दीना शिखरो हतां ते युधिष्ठिरनो महेल भगवाने जोयो ॥३३॥
ज्यारे युवतीओए साम्भळ्युं के मानव नेत्रोना पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण राजमार्ग उपर आवी रह्या छे त्यारे तेमना दर्शननी उत्सुक्ताना आवेगथी तेमना अम्बोडा अने साडीओनी गाण्ठो ढीली थई गई. तेमणे घरनुं कामकाज तो छोडी दीधुं एटलुं ज नहि पण शय्यामां सूतेला पोताना पतिने पण छोडीने भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन करवा राजमार्ग उपर दोडी गई ॥३४॥
सडक उपर हाथी, घोडा, रथ अने पायदळ सेनानी ठठ जामी हती. ते स्त्रीओए अटारी उपर जई राणीओ साथे भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन कर्यां, आपना उपर पुष्पोनी वर्षा करी, मनोमय आलिङ्गन कर्युं अने प्रेमपूर्ण मन्द स्मित अने दृष्टिथी आपनुं स्वागत कर्युम् ॥३५॥
ठेकठेकाणे घणा वेपारीओ अने कळा-कारीगरी उपर जीवन चलावनारा नगरजनोए चन्दन, पुष्प वगेरे माङ्गलिक वस्तुओथी श्रीकृष्ण भगवाननी पूजा- अर्चा करी स्वागत कर्युं. श्रीकृष्णे तेनो स्वीकार करतां तेमनी सामे दृष्टि करी तेथी [[७]] तेओ तत्काल निष्पाप बनी गया ॥३६॥
चन्द्रमानी साथे बिराजमान ताराओ समान राजमार्ग उपर श्रीकृष्णने तेमनी राणीओ साथे जोईने नगरनी स्त्रीओ आपसमां कहेवा लागी, ‘‘आपणुं लोकमां एवुं क्युं पुण्य हशे के जेथी पुरुष शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण पोताना उदार हास्यसहित दृष्टिनी कला-घणी निपुणताथी एटले पोताना सर्वस्वथी आपणां नेत्रोने परम आनन्द आपे छे’’ ॥३७॥
राणीवासनी स्त्रीओ भगवान् श्रीकृष्णने जोई आनन्दमग्न थई गई. तेमणे पोताना प्रेमविह्वल अने आनन्दथी खीली ऊठेलां नेत्रोथी भगवाननुं स्वागत कर्युं अने श्रीकृष्ण तेमना स्वागत सत्कारनो स्वीकार करता राजमहेलमां पधार्या ॥३८॥
ज्यारे कुन्ताजीए पोताना त्रिभुवनपति भत्रीजा श्रीकृष्णने जोया त्यारे प्रेमथी तेमनुं हृदय भराई आव्युं. पलङ्ग उपरथी ऊठी पोतानी पुत्रवधू द्रौपदी साथे तेओ आगळ आव्यां अने (जाति, देह अने उम्मर भूली जई) भगवान् श्रीकृष्णने हृदय सरसा लगाव्या ॥३९॥
देवदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने राजमहेलमां पधरावी राजा युधिष्ठिर आनन्द अने आदर ना उद्रेकथी आत्म विस्मृत थई गया, देहानुसन्धान भूली गया. ए वातनुं पण एमने भान न रह्युं के भगवाननी पूजा क्या क्रमथी करवी जोईए ॥४०॥
फोईना जनानामां वृद्ध स्त्रीओने श्रीकृष्णे नमस्कार कर्या, द्रौपदी अने सुभद्राए श्रीकृष्णने नमन कर्युम् ॥४१॥
पोतानां सासु कुन्ताजीनी प्रेरणाथी द्रौपदीए रुक्मिणी, जाम्बुवती, सत्यभामा, भद्रा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा अने साध्वी सत्या वगेरे भगवाननी अष्ट पटराणीओ तथा त्यां आवेली श्रीकृष्णनी बीजी राणीओ अने प्रद्युम्न वगेरेनी राणीओनो वस्त्र, माळा, घरेणां वगेरेथी यथायोग्य सत्कार कर्यो ॥४२-४३॥
धर्मराज युधिष्ठिरे भगवान् श्रीकृष्णने आपनी सेना, सेवको, मन्त्रीओ अने पत्नीओ सहित एवा स्थानमां मुकाम आप्यो ज्यां तेमने नित्य नवी-नवी सुखनी सामग्री प्राप्त थती रहे. (खरी रीते तो सुख स्वरूप अनन्दघन भगवानने पोताने त्यां पधरावी युधिष्ठिर पोते ज सुखी-निहाल थई गया) ॥४४॥
अध्याय-७१,८ दशमस्कन्ध अर्जुनने साथे राखी भगवाने खाण्डववन अग्निने भक्षणमाटे आप्युं. ते एना भक्षणथी तृप्त थयो. मयदानवने अग्निथी बचाव्यो. तेणे राजाने दिव्य सभा आपी. ए बधुं कार्य भगवाने त्यां रह्या त्यारे कर्युम् ॥४५॥
उवास कतिचिन्मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षय ा। विहरन् रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥४६॥
रथमां बेसी विहार करता भगवाने त्यान्ना लोकोने सुख आप्युं, अर्जुन अने बीजा योद्धाओनी साथे फर्या, राजानुं प्रिय करवानी इच्छाथी त्यां केटलाक मास बिराज्या ॥४६॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्ध उत्तरार्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन प्रकरणना ऐश्वर्य रूप पहेलो) ‘‘भगवान् इन्द्रप्रस्थ पधार्या’’ नामनो (उत्तरार्धनो बावीसमो अने चालु) इकोतेरमो(प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां अडसठमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणा मार्गमां भगवत्सेवा घरमां रह्या सिवाय सम्भव नथी. घरमां रहीने कराती सेवाना प्रकार सिवाय भगवत्सेवानो बीजोकोई (जाहेरमन्दिर-हवेलीमां)सेवा करवानो प्रकार मार्गमां नथी.तेथी भगवत्सेवा करवामाटे अनुकुळ होय तेवा घरमां रहीने श्रीकृष्णनी सेवा करवी (भक्तिवर्धिनी टीका, श्रीगोकुलनाथजी)
अध्याय ७२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.६९ भगवाने जरासन्धने भीमद्वारा मार्यो चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय२
विशेष - सगुण सात्विकोनो निरोध कह्यो. आ वखत एमनां दुःख दूर करवानो छे. आ बोतेरमा अध्यायमां जरासन्धनो वध कहेवाशे. ए बधा क्लेशने मटाडशे त्यारे बधा सात्विको सुखी थशे. अर्ही सात्विकोमां राजाओ, यादवो अने पाण्डवो ए त्रण भेद छे. एमां बेने तो- राजाओने केदखानामान्थी तथा शङ्करना यज्ञमां थनारा वधमान्थी छूटवामाटे अने यादवोने
ईं उं ईं उं
[[९]] जरासन्ध सामे जूनुं वेर होवाथी जरासन्धनो वध इच्छित छे पण भक्तो अने कर्मठो ने एनो वध इष्ट थाय तो पाण्डवोनुं इच्छित पूरुं करवाने जरासन्धनो वध योग्य गणाय. एमां यज्ञमाटे तो ब्राह्मणने मारवानुं पण वेद कहे छे तो अर्ही यज्ञनेमाटे जरासन्धने मारवा ए कार्य पाण्डवोने दोषरूप नथी. ए तो क्षत्रिय छे, भगवान्थी विमुख छे, मात्र ब्राह्मणनुं हित करनार छे तो पण यज्ञार्थ मारीए तो ब्राह्मणो पण तेमां अनुकूळ थशे. एकदा तु सभामध्ये आस्थितो मुनिभिर्वृतः ॥ ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक वखते मुनिओ, ब्राह्मणो, क्षत्रियो, वैश्यो अने पोताना भाईओनी साथे युधिष्ठिर राजा सभामां बेठेला हता ॥१॥
त्यां आचार्यो, कुलवृद्धो, ज्ञाति, सम्बन्धी अने बान्धवो ए बधा साम्भळे तेम राजा आ प्रमाणे बोल्या ॥२॥
धर्मराज युधिष्ठिरे कह्युं - ‘‘हे गोविन्द! सर्वश्रेष्ठ राजसूय यज्ञद्वारा हुं आपनुं तथा आपनी परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओनुं यजन करवा चाहुं छुं.हेप्रभो! आप कृपा करी मारो आ सङ्कल्प सिद्ध करो ॥३॥
हे कमलनाभ प्रभो! आपनां चरणकमलनी पादुकाओ समस्त अमङ्गलोनो नाश करनारी छे. जे लोको निरन्तर तेमनी सेवा करे छे, ध्यान अने स्तुति करे छे ते लोको ज खरी रीते पवित्रात्मा छे. तेओ जन्ममृत्युना चक्करमान्थी छुटकारो मेळवी ले छे अने जो तेओ सांसारिक विषयोनी इच्छा करे तो तेमने तेनी पण प्राप्ति थई जाय छे. परन्तु जेओ आपना चरणकमलोनुं शरण ग्रहण नथी करता तेमने मुक्ति अने सांसारिक भोगो पण मळता नथी ॥४॥
हे देवताओना पण आराध्य देव! मारी एवी इच्छा छे के संसारी लोको आपना चरणकमलनी सेवानो प्रभाव नजरे निहाळे. हे प्रभो! कुरुवंशी अने सृञ्जयवंशी नरपतिओमां जे (पाण्डव वगेरे) लोको आपनी सेवा करे छे अने (शिशुपाल, दुर्योधन, जरासन्ध वगेरे) जे आपनी सेवा नथी करता तेमनां फलमान्नुं अन्तर (अन्तर=तफावत, तारतम्य. सेवकोने कीर्ति, धन, धर्म प्राप्त थाय छे अने विमुखोने मरण, मानभङ्ग ठगावुं वगेरे) आप जगतने बताववानी कृपा करो ॥५॥
हे प्रभो! आप बधाना आत्मा, समदर्शी अने स्वयं आत्मानन्दनो अनुभव करनार छो, स्वयं ब्रह्म छो. आपमां ‘‘आ हुं छुं अने आ बीजो, आ मारुं छे अने अध्याय-७२,१० दशमस्कन्ध आ पारकुं’’ आ प्रकारनो भेदभाव नथी. छतां जेम कल्पवृक्षनो आश्रय लेनारने तेनी भावना प्रमाणे फल मळे छे तेम जे लोको आपनी सेवा करे छे तेमने पण तेमनी भावना प्रमाणे ज फल मळे छे. ते फलमां जे न्यूनाधिक्ता होय छे ते सेवाने अनुरूप ज होय छे. तेथी आपने विषमता के निर्दयता नो दोष लागतो नथी’’ ॥६॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे शत्रु विजयी धर्मराज! आपनो निश्चय सुन्दर छे. राजसूय यज्ञ करवाथी आपनी मङ्गलमय कीर्तिनो विस्तार समस्त लोकोमां थशे ॥७॥
हे राजन्! आपनो आ महायज्ञ ऋषिओ, पितरो, देवताओ, सगासम्बन्धीओ, अमे, काल तेमज समस्त प्राणीओनी मनपसन्द वात छे ॥८॥
पृथ्वी उपरना बधा राजाओने जीती लई, आखी पृथ्वीने पोताने वश करी यज्ञने माटे आवश्यक सम्पूर्ण सामग्री तैयार करीने, जेम मूर्तिमान्थी देवने हृदयमां पधरावे छे तेम, तमे यज्ञदेवने अर्ही पधरावो ॥९॥
हे महाराज! आपना चारेय भाईओ वायु, इन्द्र वगेरे लोकपालोना अंशथी जन्मेला छे. ते बधा मोटा शूरवीर छे. आप तो *जितेन्द्रिय छो ज. आप लोकोए पोताना सद्गुणोथी मने वश करी लीधो छे. जे लोकोए पोतानी इन्द्रियोअनेमन ने वश नथी कर्या तेओ मने वश नथी करी शक्ता ॥१०॥
विशेष - सर्व शृङ्गारथी सज्ज थयेल स्त्री एक शयनमां पुरुषनी साथे पूर्ण एक वरस सुधी शयन करे, पुरुष पण पोते पुष्ट होय, युवान होय, कामभोगमां तत्पर होय छतां मनथी पण ए स्त्रीनी इच्छा न करे एनो स्पर्श पण एने शिलाना स्पर्श जेवो लागे, आवुं एक वर्षनुं व्रत ते ‘असिधाराव्रत’ कहेवाय. ए करवाथी भगवान् प्रसन्न थाय छे. युधिष्ठिरने आ व्रतथी ज भगवान् वश जणाय छे. आ लोकमां मोटामां मोटा देव पण तेज, यश, लक्ष्मी अने ऐश्वर्य द्वारा हुञ्ज जेनो स्वामीछुं तेवा मारा अनन्य भक्तनो पराभव के तिरस्कारनथी करी शक्ता तोपछी कोई राजा एनोपराभवकेतिरस्कार करी शके तेनीतोसम्भावनाज क्यान्थीहोय? ॥११॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवाननी वात साम्भळी युधिष्ठिरनुं हृदय [[११]] आनन्दमग्न थई गयुं. तेमनुं मुखकमल प्रफुल्लित थई गयुं. हवे तेमणे भाईओने दिग्विजय करवानी आज्ञा करी. भगवान् श्रीकृष्णे पाण्डवोमां पोताना स्पर्शमात्रथी पोतानी शक्तिनो सञ्चार करी तेमने अत्यन्त प्रभावशाळी बनावी दीधा हता ॥१२॥
धर्मराज युधिष्ठिरे सञ्जयवंशी वीरोनी साथे सहदेवने दक्षिण दिशामां दिग्विजय करवा मोकल्या. नकुलने मत्स्य देशना वीरोनी साथे पश्चिममां. अर्जुनने केकय देशना वीरोनी साथे उत्तरमां अने भीमसेनने मद्र देशना वीरोनी साथे पूर्वदेशमां दिग्विजय करवानी आज्ञा आपी ॥१३॥
हे परीक्षित! ते वीरोए पोताना बलपौरुषथी दशे दिशाओना राजाओने जीती लीधा अने यज्ञ करवाने तैयार थयेल महाराज युधिष्ठिरने पुष्कळ धन लावी आप्युं ॥१४॥
ज्यारे महाराज युधिष्ठिरे साम्भळ्युं के हजु सुधी जरासन्ध जितायो नथी त्यारे ते विचारमां पडी गया. ते वखते भगवान् श्रीकृष्णे तेमने उद्धवजीए पहेलां जे बताव्यो हतो ते उपाय बताव्यो ॥१५॥
त्यारबाद भीमसेन, अर्जुन अने भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मणनो वेश धारण करी गिरिव्रज गया, ज्यां जरासन्धनी राजधानी हती ॥१६॥
राजा जरासन्ध ब्राह्मणोनो भक्त तथा गृहस्थोचित धर्मोनुं पालन करवावाळो हतो. त्रणेय क्षत्रिय ब्राह्मणनो वेश धारण करी अतिथि-अभ्यागतोना सत्कार करवाने समये जरासन्धनी पासे गया अने तेनी पासे आ प्रमाणे याचना करी ॥१७॥
‘‘हे राजन्! आपनुं कल्याण हो! अमे त्रणेय आपना अतिथि छीए अने घणे दूरथी आव्या छीए. अमे अर्ही खास प्रयोजनमाटे आव्या छीए तेथी जे कंई आपनी पासे अमे मागीए ते आप अमने आपो ॥१८॥
सहनशील पुरुषोने शुं असह्य होय? दुष्ट पुरुषो शुन्नकरी शके? उदार पुरुषो शुं न आपी शके? अने समदर्शी पुरुषोमाटे पारकुं कोण छे? केमके एने तो बधा आत्मरूप होय छे ॥१९॥
पोते स्वयं समर्थ होवा छतां जे पुरुष आ अनित्य शरीरथी सत्पुरुषने वर्णन करवा लायक नित्ययशने मेळवतो नथी ते आ लोकमां निन्दवा लायक अने परलोकमां अध्याय-७२,१२ दशमस्कन्ध हीन शरीर मळवाथी शोक करवा लायक थाय छे ॥२०॥
*हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, उञ्छवृत्ति, शिबि, बलि, व्याध, कपोत अने एवा घणा लोको अतिथिओने पोतानुं सर्वस्व आपीने आ नाशवान् शरीरद्वारा अविनाशी पदने प्राप्त करी चूक्या छे. तेथी आप पण अमने निराश नर्ही ज करो’’ ॥२१॥
विशेष - हरिश्चन्द्र सर्वस्व आपी चाण्डाळ थयो, रन्तिदेव तृषाथी मरतो हतो छतां अन्त्यजने जल आपीने पोते प्राणसङ्कट वेठ्युं. उञ्छवृत्ति पोते भूखे मरतो हतो छतां अनाज बीजाने आप्युं. शिबिए कपोतने बचाववा पोतानुं मांस बाजपक्षीने आप्युं हतुं. बलिराजा विष्णुने सर्वस्व आपीने पोते सुतळमां गया. व्याध ब्राह्मणनी रक्षा करवा गयो. तेनुं वाघ भक्षण करी गयो. कबूतरने त्यां चोर परोणो आव्यो. तेने जमाडवामां पोते पोतानो देह अग्निमां मूकी एने आपी दीधो. आ बधां दृष्टान्तो श्रीमद्भागवत, पञ्चतन्त्र अने महाभारतमां छे. श्रीशुकदेवजी बोल्या - (मेघना जेवो गम्भीर) स्वर अने (घूण्टण सुधीना लाम्बा बाहुवाळी) आकृति उपरथी तथा धनुषनी पणछ वारंवार घसावाथी काण्डां उपर पडेला आङ्काना चिह्नो जोईने जरासन्धे ओळखी काढ्या के आ ब्राह्मणो नथी पण क्षत्रियो छे अने पहेलां एमने कोई जग्याए जोया छे ॥२२॥
पछी मनमां ने मनमां विचार कर्यो के आ लोको क्षत्रिय होवा छतां (मारा भयथी) ब्राह्मणनो वेश लईने आव्या छे. ज्यारे तेओ भिक्षा मागवानी हद सुधी जवा तैयार थया छे त्यारे तेओ जे मागे ते हुं तेमने आपीश. याचना करवामां आवे तो मारो अत्यन्त व्हालो अने दुस्त्यज देह पण आपवामां हुं आनाकानी नर्ही करुं ॥२३॥
विष्णु भगवाने ब्राह्मणनो वेश धारण करी बलिराजानुं धन, ऐश्वर्य वगेरे बधुं छीनवी लीधुं छतां बलिनी पवित्र कीर्ति चारे तरफ फेलायेली छे अने आजे पण लोको घणा ज आदरपूर्वक तेनुं गान करे छे ॥२४॥
ए वात तो नक्की छे के विष्णु भगवाने देवराज इन्द्रनी राजलक्ष्मी बलि पासेथी हरी लई तेने पाछी आपी देवामाटे ज ब्राह्मणनुं वामनरूप धारण कर्युं हतुं. दैत्यराज बलिने आ वातनी खबर पण पडी गई हती अने शुक्राचार्यजीए तेने तेम करतां रोक्यो पण खरो; पण तेणे तो पृथ्वीनुं दान करी ज दीधुम् ॥२५॥
मारो तो ए पाको निश्चय छे के आ शरीर नाशवन्त छे. आ शरीरथी जे विपुल यश नथी कमातो अने जे क्षत्रिय ब्राह्मणने माटे ज जीवन धारण नथी करतो तेनुं [[१३]] तो जीववुं ज व्यर्थ छे ॥२६॥
हे परीक्षित! खरेखर जरासन्धनी बुद्धि घणी उदार हती. अने भीमसेनने कह्युं, ‘‘हे ब्राह्मणो! आप लोक तमारी इच्छा होय ते मागो. आप (ब्राह्मणो) ने जोईए तो हुं मारुं माथुं आपवाने पण तैयार छुं’’ ॥२७॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोल्या - हे राजन्! तमे आपवाने तैयार हो तो अमने द्वन्द्वयुद्ध आपो. अमे राजाओ युद्ध मागवाने आव्या छीए; अमे अन्न मागनार ब्राह्मणो नथी ॥२८॥
आ पृथानो पुत्र भीमसेन छे. आ तेनो भाई अर्जुन छे. ए बन्नेना मामानो पुत्र अने तमारो शत्रु हुं कृष्ण छुं एम जाणी लो ॥२९॥
ज्यारे भगवान् श्रीकृष्णे आ प्रमाणे पोतानो परिचय आप्यो त्यारे *मगधराज जरासन्ध खडखडाट हसी पड्यो अने क्रोध करीने बोल्यो, अरे मूर्खाओ! जो तमारे युद्ध ज जोईतुं होय तो ल्यो हुं तमारी प्रार्थना स्वीकारुं छुं ॥३०॥
विशेष - भगवानने जोईने तेने भगवानना स्वरूप सामर्थ्यथी भक्ति केम उत्पन्न न थई? तिरस्कार केम कर्यो? तेनुं समाधान ए छे के ते मागध-मगध देशनो राजा हतो अनेमगध देश आसुरी छे. भक्ति उत्पन्न थवामां देश, स्थळ पण भाग भजवेछे. परन्तु कृष्ण! तुं तो घणो *बीकण छे. युद्धमां तुं गभराई जाय छे. (नीति तो एम कहे छे के आपत्तिमां पण स्वदेश छोडवो न जोईए पण) तें तो मारा डरथी पोतानी नगरी मथुरा पण छोडी दीधी अने समुद्रमां शरण लीधुं छे तेथी हुं तारी साथे तो नर्ही लडुम् ॥३१॥
विशेषः ‘‘न त्वयाऽभीरुणा योत्स्ये!’’ भगवानने गाळ देवामां कदापि सरस्वती प्रवृत्त न थाय. एटले साचो अर्थ ए छे के आप तो सदा अभीरु अर्थात् बीकण नर्ही पण नीडर छो. आपनी साथे लडवानुं मारुं गजुं क्यान्थी होय? हा, बीकण होवानुं क्यारेक नाटक करो छो ते तो लीलामाटेज. आ अर्जुन योद्धोछे खरो पण उम्मरमां ते माराथी नानो छे. बीजुं ते खास बळवान् पण नथी तेथी ते पण मारो बरोबरियो वीर न कहेवाय. एनी साथे पण हुं नर्ही लडुं. बाकी रह्यो भीमसेन. ए मारा जेटलो बळवान तेम ज मारो बरोबरियो छे* ॥३२॥
अध्याय-७२,१४ दशमस्कन्ध
विशेष - खरी रीते तो नरनारायण (अर्जुन अने कृष्ण) नो त्याग करी पोते कालनी कन्या, जरानो पुत्र होवाथी मुख्य प्राण (भीम) ने ज पोतानी समान माने छे. ‘जरा’ नामनी राक्षसीए जरासन्धने जीवतो कर्यो हतो. (महाभारत सभापर्व अ. १७-१८) एम कही जरासन्धे भीमसेनने एक भारे मोटी गदा आपी अने पोते बीजी गदा लई (घरमां घरना मालिकनुं बळ वधारे होय माटे ते छोडी) नगरनी बहार नीकळ्यो ॥३३॥
हवे बन्ने रणोन्मत्त वीरो अखाडामां सामसामे आवी गया अने पोतानी वज्र जेवी कठोर गदाओथी एक बीजा उपर प्रहार करवा लाग्या ॥३४॥
तेओ जमणा-डाबा जातजातनां पेन्तरा बदलता हता त्यारे जाणे के बे श्रेष्ठ नट रङ्गमञ्च उपर युद्धनो अभिनय करी रह्या होय तेवा शोभायमान थई रह्या हता ॥३५॥
हे परीक्षित! ज्यारे एकनी गदा बीजानी गदा साथे टकराती त्यारे एम लागतुं हतुं के जाणे युद्ध करता बे हाथीओना दान्त आपसमां अथडाई टकराता होय अथवा वीजळीना कडाका थता होय ॥३६॥
ज्यारे बे हाथी क्रोधे भराई लडवा लागे छे अने आकडाना वृक्षनी डाळीओ तोडी-तोडी एक बीजा उपर फेङ्के छे त्यारे एक बीजानी चोटथी ते डाळीओना चूरेचूरा थई जाय छे तेवी ज रीते ज्यारे जरासन्ध अने भीमसेन भारे वेगथी गदा चलावी-चलावी एक बीजाना खभा, कमर, पग, हाथ, साथळ अने गळानी हांसडी उपर प्रहार करवा लाग्या त्यारे तेमनी गदाओना तेमनां अङ्गो साथे टकराईटकराईने भूके-भूका ऊडी गया. (तेमनां शरीर गदा करतां वधारे कठोर हतां) ॥३७॥
एवी रीते ज्यारे बेउ गदाओनो भूको थई गयो त्यारे बन्ने वीर क्रोधे भराईने लोढा जेवा पोताना कठोर मुक्काओथी प्रहार करवा लाग्या. प्रहार करतां ते बेउनो अवाज बे हाथीओनी गर्जना जेवो थयो अने मुष्टि-मूठी मारवाथी थयेलो अवाज वीजळीना पडवा साथेना वज्रथी पण कठोर थयो ॥३८॥
हे राजन्! जरासन्ध अने भीमसेन बन्नेना गदायुद्धमां तालीम, बल अने पराक्रम सरखां हतां. आ प्रमाणे सतत लडवा छतां बेमान्थी कोईनो वेग ओछो थयो नर्ही. तेथी न तो कोईनी जीत थई के न तो हार थई* ॥३९॥
विशेष - आ पछी ३९-४० ए बे श्लोकनी वच्चे ‘‘एकदा मातुलेयम्’’ ए श्लोक केटलीक [[१५]] प्राचीन प्रतोमां छे पण श्रीसुबोधिनीजीमां ए न होवाथी अर्ही लीधो नथी. एनो अर्थ आ छे. हे राजन्! अठ्ठावीसमे दिवसे भीमसेने पोताना मामाना पुत्र श्रीकृष्णने विनन्ति करी के ‘‘हे माधव! युद्धमां जरासन्धने जीतवानुं मारामां सामर्थ्य नथी’’ ॥३९ अ.॥ भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धना जन्म अने मृत्यु नुं रहस्य जाणता हता अने ए पण जाणता हता के ‘जरा’नामनी राक्षसीए जरासन्धना शरीरनां बे फाडियान्ने जोडीने तेने जीवनदान दीधुं छे. तेथी आपे भीमसेनना शरीरमां पोतानी कालशक्ति मूकी (कारण के कालनी कन्या जरा करतां कालशक्ति वधारे बळवान् छे.) अने जरासन्धना वधनो विचार कर्यो ॥४०॥
हे परीक्षित! भगवाननुं ज्ञान अबाध छे, आपनो निर्णय कदी खोटो होतो नथी. हवे आपे तेना मृत्युनो उपाय जाणी लई एक वृक्षनी डाळीने बराबर वचमान्थी चीरी नाखी अने जरासन्धने पण तेम चीरी नाखवा भीमसेनने ईशारो कर्यो ॥४१॥
वीर शिरोमणि अने प्रहार करनाराओमां श्रेष्ठ भीमसेन भगवान् श्रीकृष्णनो अभिप्राय समजी गया अने जरासन्धना पग पकडी तेने धरती उपर पछाडी दीधो ॥४२॥
पछी तेना एक पगने पोताना पगनी नीचे दबाव्यो अने बीजाने पोताना बन्ने हाथोथी पकडी लीधो. त्यार पछी भीमसेने तेने, जेवी रीते गजराज वृक्षनी डाळीने चीरी नाखे तेम गुदाएथी चीरी नाख्यो ॥४३॥
लोकोए जोयुं के जरासन्धना शरीरनां बे ऊभां फाडियां थई गयां छे अने आ प्रमाणे तेना एक-एक पग, जाङ्घ, वृषण, कमर, पीठ, स्तन, खभो, भुजा, नेत्र, भवुं अने कान अलग-अलग थई गयां छे ॥४४॥
मगधेश्वर मर्यो त्यारे मोटो हाहाकार थयो. अर्जुन अने श्रीकृष्ण भीमने शाबाशी आपी एने आलिङ्गन करवा लाग्या* ॥४५॥
विशेष - भगवाने भीमनी प्रशंसा करी तेने आलिङ्गन कर्युं. प्रशंसाथी गर्व थाय छे अने गर्वथी तेज जतुं रहे छे. भगवाने भीमनुं आलिङ्गन करी तेनामां मूकेली पोतानी शक्ति पाछी खेञ्ची लीधी. सहदेवं तत्तनयं भगवान् भूतभावनः। अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः। अध्याय-७२,१६ दशमस्कन्ध मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये ॥४६॥
प्राणीमात्रनुं पालन करनार, जेना अभिप्रायनी कोईने खबर पडती नथी तेवा सर्वशक्तिमान भगवाने जरासन्धना पुत्र सहदेवनो जरासन्धनी गादी उपर अभिषेक कर्यो एने मगधनो राजा बनाव्यो अने मागधे जे राजाओने केद कर्या हता तेमने कारावासमान्थी मुक्त कराव्या ॥४६॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन- पेटा प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘भगवाने जरासन्धनो भीमद्वारा मार्यो’’नामनो (उत्तरार्धनो त्रेवीसमो अने चालु) बोतेरमो (प्रक्षिप्तत्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ओगण्योसित्तेरमो) अध्याय सम्पूर्ण. दाने हि न स्वविनियोगः प्रभुने दान-भेटस्वरूपे अर्पण करेल वस्तु देवद्रव्य बनी जायछे. देवद्रव्यनो उपयोग (प्रसाद स्वरूपे पण) पोतानाथी करी शकातो नथी. परन्तु पोताना माथे बिराजता प्रभुनी सेवामां समर्पित कराती वस्तुदेवद्रव्य बनती नथी तेथी महाप्रसाद तरीके पोताना उपयोगमां लई शकाय छे. (नवरत्न, श्रीप्रभुचरणकृत विवृ.पर श्रीपुरुषोत्तमजीनी विवृति)
अध्याय ७३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.७० भगवाने राजाओने मुक्त करी एमने उपदेश आप्यो चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय३
विशेष - आ तोतेरमा अध्यायमां जे राजाओने केदमान्थी छोड्या तेमने भगवाने ज्ञान आपीने एमनुं अज्ञान दूर कर्युं अने एमने एवो उपदेश कर्यो के प्रयत्न विना प्राप्त थता पदार्थोथी समृद्धि प्राप्त करवी. पोताना धर्मथी तेओ पुष्ट न थाय तो तेमनो निरोध करवो निरर्थक थाय तेथी भगवाने एमनो निरोध सार्थक करवा एमने ज्ञान अने राज्य आप्यां. तेओ राजना
ईं उं ईं उं
[[१७]] मदमां अन्ध बनी भगवानने न भूले ए माटे ज्ञाननुं दान कर्युं. अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलया युधि निर्जिताः ॥ ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! जरासन्धे अनायासे ज वीस हजार *आठसो राजाओने जीती लई पहाडोनी घाटीओमां एक किल्लामां केद करी राख्या हता. भगवान् श्रीकृष्णे तेमने छोडी मूकतां तेओ ज्यारे तेमान्थी बहार नीकळ्या त्यारे तेमनां शरीर अने कपडां मेलां हताम् ॥१॥
विशेष - जरासन्धनी योजना एवी हती के केद करवामां आवेला राजाओनी सङ्ख्या पूरी एकवीस हजार थाय के तरत ज प्रमथनाथ (शिवजी) नो यज्ञ करी ते नरमेध यज्ञमां एकवीसेय हजार राजाओने होमी देवा. पण दामोदर लीला (श्रीभागवत १०.९.१५, १६) जेम श्रीकृष्णने बान्धवामाटे दोरडुं बे आङ्गळ घट्युं हतुं बान्धवामां आवनार भगवान् श्रीकृष्ण ईश्वर हता तेमनो कुदरती गुण ईश्वरत्व अने बान्धनार यशोदाजीनो कुदरती गुण दासत्व प्रतिबन्धक होवाथी दोरडुं बे आङ्गळ घट्युं हतुं अर्ही केद करवामां आवेला राजाओनो धर्म भगवदीयपणुं अने केद करनार जरासन्धनो धर्म आसुरत्व-आ उभयनिष्ठ बन्नेमां रहेल; बे धर्मो प्रतिबन्धक थया तेथी राजाओनी सङ्ख्या बसो ओछी ज रहेती आवी; असुरे करवा धारेल प्रमथनाथना यज्ञमां भगवदीयो-भगवानना थई चूकेला जीवो हणी शकाय ज नहि. ते सङ्ख्या पूरी थया पहेलां भगवाने एमने मुक्ति आपी. ए राजाओ सगुण छे. तेमान्थी निर्गुण थवामाटे नव श्लोकथी स्तुति करे छे, जेथी ते गुणथी पर एटले निर्गुण थाय. प्रथम श्लोकमां प्रार्थना, बीजामां मत्सरनो अभाव, त्रीजामां राज्य गयुं एनुं अनुमोदन, चोथामां युक्ति, पाञ्चमामां पोताना दोषनुं कथन, छठ्ठामां स्वभाग्य-अभिनन्दन, सातमामां प्रार्थना, आठमामां पोतानो अधिकार, नवमान्थी भगवाननो उपदेश-आ श्लोकोनो क्रम समजवो. तेओ भूखथी दूबळा थई गया हता अने तेमनां मों सुकाई गया हतां. जेलमां बन्दी रहेवाने लीधे तेमनां शरीरनुं एके एक अङ्ग ढीलुं पडी गयुं हतुं. त्यान्थी नीकळतां ज राजाओए जोयुं के सामे भगवान् श्रीकृष्ण ऊभा छे. वर्षाऋतुना मेघना जेवुं एमनुं सांवलुं सलूणुं शरीर छे अने तेना उपर पीळा रङ्गनुं रेशमी वस्त्र फरफरी रह्युं छे ॥२॥
चार भुजाओछे जेमां गदा, शङ्ख, चक्र अने कमल शोभी रह्याञ्छे. वक्षःस्थल उपर सोनेरी रेखा-श्रीवत्सनुं चिह्न छेअने कमलना अन्दरना भाग जेवां कोमल अध्याय-७३,१८ दशमस्कन्ध रतनाळां नेत्र छे. सुन्दर वदन प्रसन्नतानुं सदनछे. कानोमां मकराकृति कुण्डल झगमगी रह्याञ्छे. सुन्दर मुगट,मोतीओनो हार,कडां,कन्दोरा अने बाजुबन्ध पोत-पोताने स्थाने शोभी रह्याञ्छे ॥३-४॥
गळामां कौस्तुभ मणि झगमगी रह्यो छे अने वनमाला लटकी रही छे. भगवान् श्रीकृष्णने जोई ए राजाओनी एवी स्थिति थई गई जाणे के बन्ने नेत्रोथी तेओ (बाळक जेम बेउ हाथे भोजन करे तेम) आपने पी रह्या छे. जीभथी चाटी रह्या छे, नासिकाथी सूङ्घी रह्या छे अने बाहुओथी आलिङ्गन करी रह्या छे. एमनां तमाम पाप तो भगवाननां दर्शनथी ज नाश पामी गया हतां. तेमणे भगवान् श्रीकृष्णनां चरणो उपर पोतानां मस्तक मूकी प्रणाम कर्या ॥५-६॥
श्रीकृष्णना दर्शननो आनन्द एटलो बधो आव्यो के तेओ केदनां दुःखोने भूली गया अने ए राजाओ हाथ जोडी वाणीवडे इन्द्रियोना नियामक भगवाननी स्तुति करवा लाग्या ॥७॥
राजाओए कह्युं - ‘‘हे देवोना देवो (काल वगेरे) ना नियामक! हे शरणागतोना तमाम दुःख दूर करनार निर्विकार श्रीकृष्ण! अमे आपने नमस्कार करीए छीए. आपे अमने जरासन्धना कारागारमान्थी तो छोडावी ज दीधा, हवे आ जन्ममृत्युरूप घोर संसारचक्रमान्थी पण छोडावी दो, कारण के अमे संसारमां दुःखनो कटु अनुभव करी तेनाथी कण्टाळी गया छीए अने आपने शरणे आव्या छीए. हे प्रभो! आप अमारी रक्षा करो ॥८॥
हे मधुसूदन! स्वामी! जरासन्धे अमने आपनी प्राप्ति करावी आपी ते तेणे अमारा उपर महान उपकार ज कर्यो छे एटले अमे जरासन्धनो दोष जोता नथी. हे भगवन्! अमे अमारी जातने राजा कहेवडावनारानी राज्यलक्ष्मी चाली गई ए तो आपनो अनुग्रह ज मानीए छीए. अमारुं इष्टसाधक राज्य दूर थई गयुं. तेनी खोट आप ज अमने सालवा नहि ज दो कारण के आप विभु-समर्थ छो ॥९॥
राजा, ‘‘हुं ईश्वर-शक्तिशाळी छुं, फावे तेम करीश एवा’’ ऐश्वर्यना मदथी मत्त थई पोतानुं कल्याण-धर्म वगेरे नथी जाणी शक्तो के नथी प्राप्त करी शक्तो. सम्पत्तिथी धर्म थई शके छे ए वात साची पण जो ते सम्पत्ति समूल होय, धर्म मूलक होय तो. सम्पत्ति धर्ममूलक न होय, अधर्मथी ते प्राप्त करेली होय तो ते थोडा ज समयमां नाश पामे छे. पण आपनी मायाथी मोहित थई गयेल राजा सम्पत्तिने [[१९]] नित्य अने अचल माने छे ॥१०॥
जेवी रीते विवेक शून्य सार अने असार नो भेद न समजनारा लोको मृगतृष्णाना जलने ज जलाशय मानी ले छे तेवी ज रीते आपना चरणारविन्दमां जेमनी लय नथी लागती तेओ आ रोज परिवर्तन पामती रङ्ग बदलती मायाने ज सत्य वस्तु मानी ले छे ॥११॥
पहेलां अमे लक्ष्मी ना मदथी आन्धळा बनी जई आ पृथ्वीने जीती लेवानी इच्छाथी एक बीजानी स्पर्धा करता हता, हे प्रभो! मृत्युरूपमां आगळ ऊभेला आपनी अवगणना करी तेमनी प्रजानो निर्दयतापूर्वक नाश अने अमारी प्रजानो खोटो दण्ड वगेरे करी तेमने त्रास आपी रह्या हता ॥१२॥
हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! (जेने छेतरीने तेनाथी बचवा बीजे स्थळे भागी जई न शकाय तेवो) कालनो वेग गम्भीर छे. जेनो सामनो न थई शके अने जे टाळ्यो टाळी न शकाय तेवो ते बळवान छे. केम न होय? ए काळ पण आपनुं शरीर ज छे. अत्यारे तेणे अमने श्रीहीन-निर्धन करी दीधा छे. आपनी कृपाथी अमारो घमण्ड दूर थई गयो. हवे अमे आपना *चरणकमलोनुं स्मरण करीए छीए ॥१३॥
विशेष - जिज्ञासा अने आर्ति ए भक्तना अधिकारसूचक बे धर्म राजाओमां भगवाने जोया त्यारे सात्विकनुं मुख्य शास्त्र भगवानना छ गुण प्रतिपादक छे ते एमने कह्युं. एमां पोताना छ गुणो जे सर्वत्र दुर्लभ छे ते कह्या तेनो आ प्रमाणे क्रम समजवो; पहेलामां भक्तिनुं दान, बुद्धिनी प्रशंसा, राज्यमां दोष, तेनी उपर कृपा करी, त्रण ऋणथी मुक्ति अने वैराग्य ए छ गुण छ श्लोकथी कह्या तेनाथी भक्तने भगवाननी प्राप्ति थाय छे. जरासन्धथी राजाओनां शरीरोने छोडावीने हवे एमना आत्माने संसारथी मुक्त करवाने माटे भगवान् कहे छे. (जेने ताव आव्यो होय तेने ज भोजन नुकसान करनारुं होय छे तेवी रीते दोषवाळाओने ज राज्य अनर्थना कारणरूप छे. अत्यारे दोष दूर थई गयेला होवाथी आनन्दथी राज करो एम कोई कहे तो कहे छे के) हे विभो! आ शरीर रोज- रोज क्षीण थतुं ज रहे छे. रोगोनी तो ए जन्मभूमि ज छे. हवे अमने आ शरीरथी भोगवी शकाय तेवा राज्यनी अभिलाषा नथी कारण के अमे जाणी गया छीए के ते मृगतृष्णाना जलना जेवुं बिलकुल मिथ्या छे. एटलुं ज नहि, मृत्यु पछी मळनारा कर्मना फल स्वर्ग वगेरे लोकनी पण इच्छा नथी, कारण के अमे जाणीए छीए के ते अध्याय-७३,२० दशमस्कन्ध निस्सार (स्पर्धा अने असूयावाळा) छे. मात्र साम्भळवामां ज आकर्षक लागे छे ॥१४॥
अमारे संसारनी कोईपण योनिमां भले जन्म लेवो पडे पण आप हवे कृपा करीने एवो उपाय बतावो के आपना चरणकमलोनुं स्मरण कदीये न भुलाय, अखण्ड स्मरण थयाकरे ॥१५॥
(भगवानने आदर पूर्वक मात्र नमस्कार करवामां आवे तो तेनाथी बधां कार्योनी सिद्धि थई जाय छे तेम जणाववा भगवानना छ गुण जणाववा छ नामो वापरी नमस्कार करे छे) प्रणाम करनाराओना समस्त क्लेशनो नाश करनार (वीर्य), श्रीकृष्ण (वैराग्य), वासुदेव (ज्ञान), हरि (श्री), परमात्मा (यश), गोविन्द (ऐश्वर्य), ने वारंवार नमस्कार छे’’ ॥१६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! जेलमान्थी छोडावायेला राजाओए ज्यारे आ प्रमाणे करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्णनी स्तुति करी त्यारे शरणागतरक्षक (शरणे आवेलानी रक्षा करवी ए जेनो सहज स्वभाव छे तेवा) प्रभुए अत्यन्त मधुरवाणीथी तेमने कह्युम् ॥१७॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - ‘‘हे नरपतिओ! तमे जेवी इच्छा प्रगट करी छे ते प्रमाणे आजथी तमारी मारामां सुहृद भक्ति चोक्कस थशे. ए जाणी लो के हुं बधानो आत्मा अने स्वामी छुम् ॥१८॥
तमे जे निश्चय कर्यो छे ते खरेखर तमारामाटे महान सौभाग्य अने आनन्दनी वात छे. तमे मने जे कंई कह्युं छे ते बिलकुल साचुं छे, कारण के हुं जोउं छुं के धनसम्पत्ति अने ऐश्वर्य ना मदथी मत्त थई गयेला घणा लोको उच्छ्रुङ्खल अने मतवाला थई जाय छे ॥१९॥
हैहय(सहस्रार्जुन), ययातिना पिता नहुष, वेन, रावण, नरकासुर तथा हिरण्यकशिपु वगेरे बीजा, (नहुष वगेरे) देवो, (हिरण्यकशिपु वगेरे) दैत्यो अने (सहस्रार्जुन वगेरे) नरपतिओने तेमना (राज्य)लक्ष्मीना मद अने स्थान (शरीर) थी भ्रष्ट कराववामां आव्या छे(अर्थात् राज्य अने देह बन्ने तेमने छोडवां पड्या छे)* ॥२०॥
विशेष - सहस्रार्जुननो मद परशुरामजीए, नहुषनो इन्द्राणीए, वेननो ब्राह्मणोए, रावणनो श्रीरामे, नरकासुरनो में (भगवान् श्रीकृष्णे) अने हिरण्यकशिपुनो श्रीनरसिंह [[२१]] भगवाने दूर कर्योहतो. तमे आटली वात समजी लो के देह, राज्य वगेरे पेदा थाय छे तेथी तेमनो नाश पण चोक्कस थवानो छे. तेथी तेमनी आळपम्पाळ कर्या विना, तेमनी रक्षाने माटे बहु प्रयत्न कर्या विना, तेमां वैराग्य राखी, यज्ञोद्वारा मारुं यजन करो अने धर्मपूर्वक प्रजानी रक्षा करो ॥२१॥
तमे तमारी वंश परम्परानी रक्षाने माटे, भोगने माटे नहि, सन्तान उत्पन्न करो अने प्रारब्ध प्रमाणे सुख अने दुःख, लाभ अने हानि जे-जे आवी मळे तेनुं समान भावथी मारो प्रसाद समजी सेवन करो अने पोतानुं चित्त मारामां राखी, जीवन वितावो ॥२२॥
अने देह, घर धन अने सगां सम्बन्धीओ प्रत्ये उदासीन रही (अर्थात् तेमनामां रागद्वेष राख्या विना) आत्मामां ज रमण करो अने भगवदव्रतोनुं पालन करता रहो. तमारुं मन तमे मारामां सारी रीते लगाडी अन्तमां तमे लोको मने ब्रह्मस्वरूपने ज प्राप्त थशो’’ ॥२३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - भक्तोने सुख आपवामाटे ज जेमणे अवतार लीधो छे तेवा सदानन्द श्रीकृष्णे राजाओने ते प्रमाणे आज्ञा आपी ते राजाओनो श्रम दूर करवा नवराववा पुरुषोने नीम्या अने शृङ्गार करवा स्त्रीओने मोकली ॥२४॥
हे परीक्षित! जरासन्धना पुत्र सहदेवद्वारा एमने, राजाने योग्य वस्त्रो, आभूषणो, माला, चन्दन वगेरे अपावी एमनुं खूब सन्मान कराव्युम् ॥२५॥
पछी तेमने सुन्दर भोजन करावी, साञ्जे फरीथी स्नान करावरावी, वस्त्राभूषणोथी सुसज्जित करावी, राजाने योग्य विविध नृत्यगीत वगेरेथी तेमनुं मनोरञ्जन करावी ताम्बूल वगेरेथी तेमनुं सन्मान कर्युम् ॥२६॥
हवे भगवान् श्रीकृष्णे स्वयं तेमनुं मधुर भाषण वगेरेथी सन्मान कर्युं एटले वरसादथी धूलि कणो दूर थई जतां ग्रहो वरसाद पछी जेम वधारे प्रकाशे छे तेम राजाओ, क्लेश भोगव्या पछी पापोनो नाश थई जवाथी, वधारे तेजस्वी थया ॥२७॥
पछी भगवान् श्रीकृष्णे तेमने सुवर्ण अने मणिओ थी भूषित अने उत्तम अश्वोयुक्त रथोमां बेसाड्या, तेमने मधुर वाणीथी तृप्त कर्या अने पोत-पोताने देश पहोञ्चाड्या ॥२८॥
अध्याय-७३,२२ दशमस्कन्ध आ प्रमाणे महात्माओना *शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णे ते राजाओने महान कष्टमान्थी छोडाव्या. हवे तेओ जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णना गुण, उपकार, सन्मान, अपूर्व उदारता वगेरेनुं चिन्तन करता-करता पोतपोतानी राजधानीओमाङ्गया ॥२९॥
विशेषः सुमहात्मनाः महात्मा-(उदार) पोते उपकार करे छे एवुं सामी व्यक्ति (दुश्मन) ने जणावा न दे ते महात्मा. सुमहात्मा-कोईनी प्रेरणा के मागणी विना स्वतः दुश्मनने सर्वनुं दान करे अने उपकारनो भार जणावा न दे ते सुमहात्मा. त्यां जई ते राजाओए पोत-पोतानी प्रजाने परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्णनी अद्भुत कृपा अने लीला कही सम्भळावी अने पछी बहु ज सावधानीथी भगवाननी आज्ञा प्रमाणे पोते राज्य करवा तथा जीवन व्यतीत करवा लाग्या ॥३०॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्णे भीमसेनद्वारा जरासन्धनो वध करावी, भीमसेन अने अर्जुन नी साथे जरासन्धनन्दन सहदेवथी सन्मानित थई आप *खाण्डवप्रस्थ जवा रवाना थया. इन्द्रप्रस्थनी पासे पहोञ्च्या त्यारे ते विजयी वीरोए पोत-पोताना शङ्खो वगाड्या, जेथी तेमना इष्टमित्रोने सुख अने दुश्मनोने भारे दुःख थयुम् ॥३१-३२॥
विशेष - खाण्डव वनने बाळ्या पछी भगवाने इन्द्रप्रस्थनी पासे अद्भुत सामग्री अने सुख सगवडोनां साधनोथी सज्ज खाण्डवप्रस्थ नामना नगरनी रचना करेली. इन्द्रप्रस्थना नागरिकोनां मन ए शङ्खध्वनिने साम्भळी प्रफुल्लित थयां. तेमणे समजी लीधुं के जरासन्ध हणायो अने हवे युधिष्ठिरनो राजसूय यज्ञ करवानो सङ्कल्प एक रीते पूरो थई गयो ॥३३॥
भीमसेन, अर्जुन अने भगवान् श्रीकृष्णे राजा युधिष्ठिरने वन्दन कर्युं अने जरासन्धना वधना प्रसङ्गमां जेणे जे कार्य कर्युं हतुं ते बधुं कही सम्भळाव्युम् ॥३४॥
निशम्य धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम् ॥ आनन्दाश्रुकणान् मुञ्चन् प्रेम्णानोवाच किञ्चन ॥३५॥
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णना आ परम अनुग्रहनी वात साम्भळी प्रेम परवश थई गया. एमनी आङ्खोमान्थी आनन्दना आंसु टपकवा लाग्यां अने (प्रशंसा अभिनन्दनना शब्दो सहित) कंई पण बोली शक्या नहि ॥३५॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन- [[२३]] पेटा प्रकरणनो यश रूप त्रीजो) ‘‘भगवाने राजाओने मुक्त करी एमने उपदेश आप्यो’’ नामनो (उत्तरार्धनो चोवीसमो अने चालु) तोतेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां सित्तेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय ७४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७१ युधिष्ठिरना राजसूय यज्ञमां शिशुपालनो वध चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय४
विशेष - प्रतिबन्धथी मुक्त थया अने प्रेमथी गद्गद् कण्ठ थया एवा अने भगवान्मां निरुद्ध थयेल राजा युधिष्ठिरनो धर्म आ चुमोतेरमा अध्यायमां कहेवाय छे. आ धर्ममां आधिदैविक यज्ञरूप श्रीकृष्णनुं पूजन थशे तेमां बाधारूप शिशुपालने भगवान् मारशे. राजाओने भगवाने छोडाव्या छे ते बधा यज्ञमां सेवा करवाने तत्पर छे. मागध ब्रह्मण्य हतो तेथी ब्राह्मणोमां अर्ही संशय थाय तेथी बधा मुनिनां नाम लईने एमनो उल्लेख कर्यो छे तेनाथी आधिदैविक यज्ञ-भगवत्पूजानी सर्व रीते सर्वथी उत्कर्ष अर्ही कहेवामां आवे छे. आध्यात्मिक यज्ञ तो तेनो शेष छे केमके आध्यात्मिक यज्ञ तो तेनी आगळ गौण छे. कारण के मुख्य प्रयोजनवाळो बीजो (आधिदैविक यज्ञ) छे. राजा भक्त थया तेथी प्रथम भगवानने आज्ञा करेली एने माटे पहेला पाञ्च श्लोकथी क्षमा मागे छे. एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः ॥ कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - समर्थ श्रीकृष्णना प्रतापथी जरासन्धने भीमे मार्यो ए
ईं उं ईं उं
अध्याय-७४,२४ दशमस्कन्ध वातने जाणीने श्रीकृष्णना प्रतापनो अनुभव करी प्रसन्न थयेल युधिष्ठिर राजा भगवानने विनन्ति करवा लाग्या ॥१॥
युधिष्ठिरे कह्युं - त्रिलोकीना ब्रह्मा, शङ्कर, वेदमां कहेला ऋषिओ जेवा उपदेशको, इन्द्र वगेरे, सहित सर्व लोकपालो आपनी आज्ञा मेळववाने माटे तलसता रहे छे अने जो मळी जाय तो भारे श्रद्धाथी तेनो अमल करे छे ॥२॥
अमे तो अत्यन्त दीन छीए, परन्तु पोतानी जातने भूपति अने नरपति मानीए छीए. आवी स्थितिमां अमो तो दण्डने पात्र छीए, परन्तु आप अमारी आज्ञा स्वीकार करो छो अने तेनुं पालन करो छो. सर्व शक्तिमान पुरुषोत्तम होवाछतां आप भक्तो उपर कृपा करवा कमलनयन दृष्टिथी ज तेमने पुष्ट करनार थया ते मनुष्य लीलानो अभिनय मात्र छे ॥३॥
जेवी रीते उदय अने अस्त ने लीधे सूर्यना तेजमां वधारो के घटाडो थतो नथी तेवीज रीते कोई पण प्रकारना कर्मोथी आपनी वृद्धि के क्षय(ह्रास) थतां नथी कारण के आप सजातीय, विजातीय अने स्वगत भेदथी रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा छो ॥४॥
हे अजित भगवान्! ‘‘आ हुं छुं अने आ मारुं छे अने आ तुं छे अने आ तारुं छे’’ आवा प्रकारनी विकारवाळी भेदबुद्धि तो पशुओने होय छे. त्रण प्रकारना अद्वैतवाळा (‘‘त्रण प्रकारनुं अद्वैत- भावनुं अद्वैत, क्रियानुं अद्वैत अने द्रव्यनुं अद्वैत’’ श्रीभाग.७.१५.६२) आपना भक्तोमारूपण अभिमान होतुं नथी कारण केआपना भक्तो आप रूप ज छे. दुनियामां जे कंई बडप्पन (मोटाई)छे ते लक्ष्मीने लीधे ज छे अने ते लक्ष्मीनातो आप नाथ छो तोपछी आपमान्तो पशुना जेवी विकारवाळी भेदबुद्धि होय ज क्यान्थी? (तेथी आप लीलापूर्वकज बधुं करो छो) ॥५॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - आ प्रमाणे कही धर्मराज युधिष्ठिरे भगवान् श्रीकृष्णनी अनुमतिथी यज्ञमाटे योग्य समय आव्यो त्यारे यज्ञनां कर्मोमां निपुण वेदवादी ब्राह्मणोनुं ऋत्विज, आचार्य वगेरेना रूपमां वरण कर्युम् ॥६॥
श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित ॥७॥
विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग अने वैशम्पायन ॥८॥
[[२५]] अथर्वा, कश्यप, धौम्य परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन, अकृतव्रण ॥९॥
तेम ज बीजा पण द्रोण, भीष्म, कृपाचार्य वगेरे बान्धवो, गुरुओ तथा मित्रो ने बोलाव्या. तेमां धृतराष्ट्र पोताना पुत्रो साथे आव्या अने अति बुद्धिशाळी विदुरजी पण यज्ञमां आव्या ॥१०॥
हे नृप! यज्ञना दर्शननी इच्छावाळा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्रो, राजाओ अने तेमनी राणीओ वगेरे ए यज्ञमां आव्याम् ॥११॥
पछी देव यजननी भूमिने सोनाना हळवडे ब्राह्मणोए खेडी तेमज वेदमां कहेला विधि प्रमाणे राजाने ब्राह्मणोए यज्ञनी दीक्षा आपी ॥१२॥
पहेलां वरुणना यज्ञमां बनेलां हतां तेवां यज्ञसाधन सोनानां बनाव्यां. इन्द्र, ब्रह्मा, शिव वगेरे पोत-पोताना गणो सहित ए यज्ञमां आव्या ॥१३॥
सिद्ध, गन्धर्व, चारणो, विद्याधरो, नाग, मुनिओ, यक्ष, राक्षसो, गरुडजी वगेरे पक्षीओ तेमज किन्नरो, चारण वगेरे बधां आव्याम् ॥१४॥
बोलावेला राजाओ अने राजपत्नीओ युधिष्ठिरना राजसूय यज्ञमां एमना निमन्त्रणने मान आपी आव्याम् ॥१५॥
लेशमात्र आश्चर्य पाम्या विना बधाए ए वातनो स्वीकार करी लीधो के राजसूय यज्ञ युधिष्ठिरने माटे योग्य ज छे, कारण के भगवान् श्रीकृष्णना भक्तने माटे आम करवुं ए कंई बहु मोटी वात नथी. जेवी रीते प्राचीन समयमां देवताओए वरुण पासे यज्ञ कराव्यो हतो तेवी ज रीते देवताओ समान तेजस्वी याजकोए धर्मराज युधिष्ठिर पासे विधिपूर्वक यज्ञ कराव्यो ॥१६॥
सोमलतानो रस काढवाने दिवसे महाराज युधिष्ठिरे पोताना परम भाग्यवान याजको अने यज्ञकर्म नी भूलचूक निरीक्षण करवावाळा सदस्पतिओ (सभासदो) नुं घणी सावधानीथी विधिपूर्वक पूजन कर्युम् ॥१७॥
हवे सभासदो ए विषय उपर विचार करवा लाग्या के सदस्योमां-अग्रपूजा सौथी पहेलां कोनी पूजा थवी जोईए. जेटली मति तेटला मत. तेथी सर्वानुमते तेनो निर्णय न थई शक्यो. एवी स्थितिमां *सहदेवे कह्युम् ॥१८॥
विशेष - सहदेव भगवाननी ज्ञानकलानो अवतार, सर्वज्ञ, भविष्यनां बार वर्षोमां थनारुं बधुं जाणता हता पण पूछ्या विना कंई कहेता नहि. अर्ही थई रहेला विचार विमर्शमां तो अध्याय-७४,२६ दशमस्कन्ध अग्रपूजानो प्रश्न बधाने पुछायेलो ज छे एटले भगवत्प्रेरणाथी ते बोल्या. ‘‘भगवान् श्रीकृष्ण (कालने ठगीने कालना घरमां आवी भरायेला वैष्णवोने, लई जवा पधारेला छे कारण के आप) वैष्णवोना पति छे. आप ज सदस्योमां सर्वश्रेष्ठ अने अग्रपूजा ने लायक छे कारण के आप ज सर्व देवताओना रूपमां छे. वळी देश, काल, धन वगेरे जेटली वस्तुओ छे ते बधाना रूपमां पण आप ज छे ॥१९॥
आ आखुं विश्व श्रीकृष्णनुं ज रूप छे. समस्त यज्ञ पण श्रीकृष्ण स्वरूप ज छे. भगवान् श्रीकृष्ण ज अग्नि, आहुति अने मन्त्रो ना रूपमां छे. ज्ञानमार्ग अने कर्ममार्ग बन्ने पण श्रीकृष्णनी प्राप्तिमाटे ज छे ॥२०॥
हे सभासदो! हुं क्यां सुधी वर्णन करुं? भगवान् श्रीकृष्ण ते एक (रस) अने अद्वितीय ब्रह्म छे जेमां सजातीय, विजातीय अने स्वगत भेद नाममात्रनो पण नथी. आ आखुंय जगत् तेनुं ज स्वरूप छे* ते पोताना स्वरूपमां ज स्थित अने जन्म अस्तित्व, वृद्धि वगेरे छ विकारोथी रहित छे. आप आपना आत्मस्वरूप सङ्कल्पथी ज जगतनी सृष्टि, पालन अने संहार करे छे ॥२१॥
विशेष - ‘‘एतदात्म्यमिदं जगत्’’ ते बीजा हशे एवी शङ्का थाय तेथी ‘आ’ एम कहेलुं छे. महाभारतना वन पर्वमां दुर्वासा मुनिए पण निर्णय कर्यो छे के ‘‘आ जगतना आ (श्रीकृष्ण) आत्मा छे’’ एम न होत तो श्रीकृष्णे भाजीनुं मात्र एक पान आरोगवाथी दुर्वासा अने तेना दस हजार शिष्यो धराई केम जात? ॥३१२॥*
- ॥३११॥दुर्वासानो प्रसङ्ग - ज्यारे पाण्डवो द्रौपदीनी साथे काम्यक वनमां रहेता हता त्यारे, पाण्डवोनुं अनिष्ट करवानी दानतथी, दुर्योधनने त्यां आवेला दुर्वासा ऋषिने तेणे अतिथि सत्कारथी खूब प्रसन्न करी दीधा. दुर्वासाए दुर्योधनने वरदान मागवानुं कह्युं. दुर्योधने वरदान माग्युं के जेवी रीते मारुं आपे कल्याण कर्युं तेवी ज रीते पाण्डवोने त्यां पधारी तेमनुं कल्याण करो. दुर्वासाने आ गम्युं तो नहि पण वरदान आपी चूक्या हता एटले काम्यक वनमां गया पणते एवा वखते के द्रौपदी साथे पाण्डवो भोजन करी आराम करी रह्या हता. युधिष्ठिरे अतिथि सत्कारमाटे सूर्यदेवनी पासे एक एवुं पात्र प्राप्त कर्युं हतुं के तेमां रान्धेल थोडा अन्नथी पण गमे तेटला महेमान आव्या होय तेमने भोजन करावी शकाय. पण शरत ए हती के ज्यां सुधी द्रौपदी भोजन न करी लेती त्यां सुधी ज ते चमत्कार रहेतो. युधिष्ठिरे ऋषिने शिष्यमण्डली साथे भोजन करवा कह्युं. ऋषि शिष्यो साथे स्नानादि नित्यकार्यथी निवृत्त थवामाटे गङ्गातट पर गया. दुर्वासानी साथे दस हजार शिष्योनुं एक विश्व विद्यालय कायम रहेतुं हतुं. [[२७]] धर्मराजे ए बधाने भोजनने माटे निमन्त्रण तो आप्युं अने ऋषिए तेनो स्वीकार पण कर्यो पण कोईए ए वातनो विचार न कर्यो के द्रौपदीए तो भोजन करी लीधुं छे तेथी सूर्ये आपेल पात्रथी एमना भोजननी व्यवस्था अशक्य हती. द्रौपदी भारे चिन्तामां पडी गई. विचार कर्यो के ऋषिने भोजन कर्या विना जवुं पडशे तो शाप दीधा विना ए जशे नहि. बीजो कोई उपाय नहि सूझतां द्रौपदीए भक्त भयभञ्जन भगवान् श्रीकृष्णनुं स्मरण कर्युं अने आ आफतमान्थी उगारी लेवा विश्वासपूर्ण आर्त प्रार्थना करता अन्तमां कह्युं, ‘‘आपे जेवी रीते राजसभामां दुःशासनना अत्याचारथी मारी लाजनी रक्षा करी तेवी रीते फरी लाज जवा बेठी छे तो कृपा करी रक्षा करो’’ (महाभारत वन पर्व २६३-१६) दुःशासनादहं पूर्वं सभायां मोचिता यथा । तथैव सङ्कटादस्मान् मामुद्धर्तुमिहार्हसि॥ श्रीकृष्ण तो सदा सर्वत्र निवास करे छे अने घटघटनी जाणवावाळा छे, आप तत्काल त्यां आवी पहोञ्च्या. आपने जोईने द्रौपदीना खोळियामां प्राण पाछा आव्या, डूबताने मानो होडी मळी गई. द्रौपदीए बधी वात टूङ्कमां कही, श्रीकृष्णे अधीरता बतावता कह्युं, ‘‘बीजी बधी वात तो पछी थशे. हुं बहु दूरथी आव्यो छुं तेथी थाक पुष्कळ लाग्यो छे अने थाक करतांय भूख वधारे लागी छे एटले पहेलां तो मने कंईक खावामाटे आप’’ द्रौपदीना शरीरमान्थी तो शरमने लीधे मानो लोही ऊडी गयुं! खचकातां-खचकातां तेणे कह्युं, ‘‘प्रभो! हुं हमणां ज खाईने ऊठी छुं. हवे तो भोजन पात्रमां कंई बच्युं नथी’’ श्रीकृष्णे कह्युं, ‘‘जरा तारुं पात्र मने बताव तो खरी’’ द्रौपदी ते लई आवी. पात्रना गळामां भाजीनुं एक पत्तुं चोट्युं हतुं. ते भगवाने मुखमां मूकी कह्युं, ‘‘आ भाजीना पत्ताथी सम्पूर्ण जगतना आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त थई जाय’’ पछी श्रीकृष्णे सहदेवने कह्युं ‘‘जाओ मुनीश्वरोने भोजनने माटे बोलावी लावो’’ सहदेव गङ्गातट उपर जईने जुए तो कोई मळे ज नहि. वात एम बनी के जे क्षणे श्रीकृष्णे शाकनुं पत्तुं मुखमां मूकी सङ्कल्प कर्यो ते वखते मुनीश्वरो जलमां ऊभा-ऊभा अधमर्षण करी रह्या हता. तेमने अकस्मात एवो अनुभव थयो के तेमनुं पेट गळा सुधी अन्नथी भराई गयुं होय. तेओ एकबीजाना मों सामुं जोवा लाग्या अने कहेवा लाग्या के ‘‘हवे आपणे त्यां जईशुं खाईशुं? दुर्वासा चुपचाप जवामां ज श्रेय समज्या कारण के ते जाणता हता के पाण्डवो भगवद्भक्त छे अने अम्बरीषने त्यां तेमना उपर जे वीत्युं हतुं त्यारबाद तेमने भगवद्भक्तोनो भारे भय लागतो हतो. बधा चुपचाप चाल्या गया. सहदेवे आवी वात करी. आ प्रमाणे द्रौपदीनी श्रीकृष्ण भक्तिथी एक भारे आफत टळी गई. भगवाने अध्याय-७४,२८ दशमस्कन्ध पोतानी शरणागतवत्सलतानो परिचय आप्यो. आखुं जगत श्रीकृष्णना अनुग्रहथी अनेक प्रकारना कर्मोनुं अनुष्ठान करतुं धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षरूप पुरुषार्थो प्राप्त करे छे ॥२२॥
तेथी (श्रीकृष्ण साक्षात् पूर्ण ब्रह्म होवाथी) सौथी महान भगवान् श्रीकृष्णनी ज अग्रपूजा थवी जोईए. एमनी पूजा करवाथी समस्त प्राणीओनी तथा आपणी पोतानी पण पूजा थई जाय छे ॥२३॥
जे पोते करेल दाननुं अनन्तगणुं फळ मेळववा मागतो होय ते सर्व प्राणी स्वरूप अने आत्मस्वरूप, भेदभाव रहित, परम *शान्त अने परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णने ज दान करे’’ ॥२४॥
विशेष - कदीये जेने क्रोध न आवे ते शान्त लोभनो लेश पण जेने न होय ते पूर्ण आथी एम कहेवायुं के भगवान् श्रीकृष्ण निर्दोष अने सर्वगुण सम्पन्न छे. हे परीक्षित! सहदेव भगवाननो महिमा अने आपना प्रभावने जाणता हता. एटलुं कही ते चुप थई गया. ते वखते धर्मराज युधिष्ठिरनी यज्ञ सभामां जेटला सत्पुरुषो हाजर हता ते बधाए एकी अवाजे ‘‘बराबर, बराबर’’ कही सहदेवनी वातनुं समर्थन कर्युम् ॥२५॥
धर्मराज युधिष्ठिर ब्राह्मणोनी आ आज्ञा साम्भळी तथा सभासदोनो अभिप्राय जाणी प्रसन्न अने प्रेमोद्रेकथी विह्वल थई गया अने तेमणे श्रीकृष्णनी अग्रपूजा करी. (प्रसन्नता थई ते अन्तःकरणथी पूजा, प्रेमविह्वळता थई ते इन्द्रियोथी पूजा थई अने शरीरथी पूजा तो करी ज) ॥२६॥
एमनां चरणनुं क्षालन कर्युं. ते जल लोकने पवित्र करनार होवाथी पोतानी स्त्री, पोताना भाईओ, अमात्यो अने कुटुम्बनी साथे एमणे मस्तक उपर चडाव्युं ॥२७॥
पीळां रेशमी वस्त्रो, अमूल्य घरेणां वगेरेथी एमनुं सारी रीते पूजन करतां प्रेममां ते एवा विह्वल बनी गया के तेथी एमनां नेत्रमां आंसु आववाथी भगवाननां दर्शन सारी रीते करवाने पण समर्थ न थया ॥२८॥
एम पूजायेला श्रीकृष्णने बधा माणसो हाथ जोडी ‘‘नमो नमः, जय हो, जय हो’’ ना शब्दोच्चार साथे आपने नमस्कार करवा लाग्या अने एमनी उपर स्वयं पुष्पनी वृष्टि थवा लागी ॥२९॥
[[२९]] हे परीक्षित! पोताना आसन उपर बेठेलो दमघोषनो *पुत्र शिशुपाल आ बधुं जोई साम्भळी रह्यो हतो. भगवान् श्रीकृष्णना गुणो साम्भळी तेने क्रोध आव्यो अने ते आसन उपरथी ऊभो थई गयो. भरी सभामां ते हाथ ऊञ्चो करी भारे असहिष्णुता पण निर्भयतापूर्वक भगवान् साम्भळे तेम अत्यन्त कठोर वचन कहेवा लाग्यो ॥३०॥
विशेष - ‘‘दमघोषसुतःविपरीतमदस्य दुष्टमदस्य यो घोषः सर्वलोकेषु बम्बारवः तदात्मको दमघोषः’’ दमघोषमान्ना ‘दम’ शब्दने उलटाववाथी ‘मद’ शब्द थाय. तेथी ‘दम’ एटले उलटावेलो-दुष्ट मद. घोष-बूम बराडा. भगवाने पोताना गुणो प्रगट कर्यां त्यारे सिंहासनमां भगवाननो गुण प्रगट थयो एटले त्यान्थी उठाडी मूकवामां आव्यो तेवी वास्तविक स्थिति छे. श्रीकृष्ण प्रत्येना द्वेषने लीधे तेने सभामां बेसवानो अधिकार न रह्यो. ‘‘सभासदो! काल ज ईश्वर छे एवुं श्रुतिओनुं कहेवुं सर्वथा सत्य छे. लाख चेष्टा करवा छतां ते (काल) पोतानुं काम करावी ज ले छे एनुं प्रत्यक्ष प्रमाण अमे जोई लीधुं के अर्ही बाळकनी अने मूर्खनी वातथी मोटा-मोटा वयोवृद्ध अने ज्ञानवृद्धनी बुद्धि पण अवळे मार्गे दोरवाई गई छे* ॥३१॥
विशेष - आ प्रसङ्गमां श्लोकोनो उपरथी जणातो अर्थ भगवाननी निन्दा करनारो छे, साचो अर्थ स्तुति करे छे. शिशुपाल-शिशु,बाळक. ‘‘पलसमूहः पालः’’ - मांसनो ढगलो. एम ‘शिशुपाल’ नामनो अर्थ ‘मांसनो ढगलो’ थाय छे, परन्तु तेमां धर्मना कारणरूप इन्द्रियोनो समूह अथवा जीव कोई पण रहेल नथी तेथी ते राक्षसोने ज योग्य छे. पण हुं मानुं छुं के आप लोको अग्रपूजानेमाटे योग्यपात्रनो निर्णय करवामां सर्वथा समर्थ छो. तेथी हे सभासदो! आप लोक ‘‘कृष्ण ज अग्रपूजाने माटे लायक छे ए बालक सहदेवनी दरखास्त अयोग्य मानी न मानशो* ॥३२॥
विशेष - श्लोकमां ‘‘कृष्णो यत्सम्मतोर्हणे’’ शब्दो छे. उपर-उपरथी जणातो अर्थ भाषान्तरमां लख्यो छे. श्रीमहाप्रभुजीने अभिप्रेत अर्थ आ प्रमाणे छेः‘‘बाळकनुं वचन जेने लीधे कृष्णने पूजननी समीप रहेवा दीधो ते न स्वीकारो’’ दुष्टना मुखमान्थी नीकळेलो ‘कृष्ण’ शब्द मलिनपणाना सम्बन्धने लीधे मलिनने ज दर्शावे छे. तेथी मलिनपणाना सम्बन्धने लीधे तेवो (मलिन) शिशुपाल ज छे. तेवाने ‘‘जे कारणथी पूजननी समीपमां सम्मतः ‘‘भले रहे’ एम रहेवा दीधो छे’’ ते वचन न स्वीकारो. ‘कृष्ण’ ना काळुं, मलिन, दुष्ट वगेरे पण अर्थो थाय छे एटले आ श्लोकमां ‘कृष्ण’ शब्द मलिन, दुष्टना अर्थमां शिशुपालने माटे अध्याय-७४,३० दशमस्कन्ध वपरायो छे. अर्ही मोटा-मोटा तपस्वी विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञानद्वारा पोताना समस्त पाप- तापोने शान्त करी देनारा, परम ज्ञानी, परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ वगेरे हाजर छे जेमनी पूजा मोटा-मोटा लोकपालो करे छे ॥३३॥
यज्ञनी भूलचूक बताववावाळा ते सदस्पतिओने छोडी दई आ कुलकलङ्क गोवाळियो अग्रपूजानो अधिकारी केवी रीते थई शके? कागडो वळी क्यांय यज्ञना पुरोडाशनो अधिकारी होई शके खरो?* ॥३४॥
विशेष - श्लोक ३४नां विशेषणो खरी रीते शिशुपाल पोताने माटे ज वापरे छे अने त्यारे अर्थ नीचे प्रमाणे थाय छेः गोपालः - इन्द्रियोने लाड लडावनार=इन्द्रियलोलुप. गो=इन्द्रिय, कुलपांसनः (चैद्य)=कुलने बट्टो लगाडनार. ‘‘यथा काकः अथवा यथाकाकः’’ एमां बीजो पाठ लईए त्यारे थतो अर्थ; कम्=सुख; अकम्=दुःख; एटले क+अक=काक=सुख-दुःख. अकाक=सुख के दुःख जेने छे ज नहि ते, सुख-दुःख रहित श्रीशुकदेवजी जेवा ते जेम पुरोडाश (यज्ञमां अपाता बलि) ने पात्र नथी अर्थात् कर्ममार्गमाटे योग्य नथी तेम हुं पण पूजन (समीपे रहेवा) योग्य नथी. आप जाणो छो के ययातिए आना वंशने शाप आप्यो छे तेथी सत्पुरुषोए तेना वंशनो ज बहिष्कार करी नाख्यो छे. ए बधा कायम व्यर्थ मधुपानमां आसक्त रह्या करे छे, पछी ए अग्रपूजाने लायक केम होई शके?* ॥३५॥
विशेष - पाण्डवोना वडवा पुरु, ययातिना पाञ्चमा पुत्र हता. भोगने माटे ययातिए पुरुनुं यौवन लीधेलुं. ते दोषनो सम्बन्ध परम्पराथी पाण्डवोने पण छे ज तेथी पाण्डवोना घरमां भगवान् पूजन केम स्वीकारे? आ दोष आखा कुलनो छे तेथी ययातिना वंशमां उत्पन्न थयेलो (हुं) पूजननी समीप रहेवा शी रीते योग्य गणाउं? शिशुपाल पण ययातिना वंशमां जन्मेल छे. (श्रीभाग. ९.२३-२४) नथी तो तेनो कोई वर्ण, आश्रम के कुल. समस्त धर्मोथी ते बहिष्कृत छे. वेद अने लोकमर्यादाओने तोडी स्वच्छन्द रीते वर्तनार छे. तेनामां कोई गुण पण नथी. आवी स्थितिमां तेनी अग्रपूजा शी रीते थई शके?* ॥३६॥
विशेष - वर्ण आश्रम अने कुलरूप भगवान् ज छे. ते भगवान्थी शिशुपाल दूर रहेतो होवाथी ते (शिशुपाल) ज वर्ण आश्रम अने कुल नी बहार छे, भ्रष्ट छे. भगवान्थी विमुख होवाथी ते शिशुपाल सर्व धर्मोथी बहिष्कृत छे. ‘‘स्वैरवर्ती=स्वैः अवर्ती’’ एटले बन्धुओ साथे [[३१]] सारुं वर्तन नहि राखनारो शिशुपाल छे नहि तो ते भगवान्मां स्नेह ज करत. तप वगेरे गुणोथी पण हीन शिशुपाल पूजननी समीप रहेवाने क्यान्थी योग्य होय? आ बधा ब्रह्मर्षिओद्वारा सेवित देशो छोडी ब्रह्म तेज विनाना (वेद चर्चा रहित) समुद्रमां किल्लो बनावी तेमां रही शत्रु थई प्रजाने त्रास आपे छे* ॥३७॥
विशेष - शिशुपाल कहे छे के आ अमे विद्या वगेरे प्राप्त करवा ब्रह्मर्षिओए सेवेला कुरुक्षेत्र वगेरे देशोमां नहि रहेता, ब्रह्म तेज विनाना, समुद्र-मुद्रावाळा पाखण्डनो आश्रय करी डाकु थई प्रजाने पीडीए छीए. अथवा भगवाननी सन्निधिने लईने ऋषिओनी स्तुति करे छे. आ ऋषिओ ब्रह्मर्षिओए सेवेला, ज्ञान, कर्म वगेरे वाळा देशोनो त्याग करीने ब्रह्मनुं पण वर्चः तेज छे जेमनाथी तेवा समुद्र मुद्रावाळा हस्तमां चक्रवाळा भगवान्रूपी दुर्गनो आश्रय करीने अदस्यवः थईने एटले इन्द्रियो वगेरेद्वारा कोईनी पण वस्तु ग्रहण नहि करतां. (प्रजाः) ‘प्र’ बलत्कारथी, ‘जाः’ उत्पन्न थयेली इन्द्रियोनी सर्वथी बलवान् वृत्तिओने रोकी राखे छे एम भगवानना आश्रयने लीधे ज तमे कृतार्थ छो. एवी तेमनी स्तुति करेली छे. समुद्र खाडो होवाथी शाप पामेलो छे अथवा ‘‘समुद्रनो काण्ठो चन्द्रभागा…देशोने शूद्रो भोगवशे’’ (श्रीभा.१२.१.३९ ए वाक्य प्रमाणे) ब्रह्म तेज विनाना लोको त्यां रहेता होवाथी समुद्रनुं अब्रह्मवर्चस्त्व थयेलुं छे. हे परीक्षित! जेनुं मङ्गळ पूर्ण थयुं छे तेवा शिशुपाले बीजी पण घणी अमङ्गळ वातो कही. परन्तु सिंह जेवी रीते शियाळनी बूमो उपर लक्ष आपतो नथी तेम भगवान् श्रीकृष्णे तेनी वातोनो कंई जवाब न आप्यो ॥३८॥
परन्तु सभासदोमाटे भगवाननी निन्दा साम्भळवी असह्य थई पडी. तेमान्थी केटलाय पोत-पोताना कान बन्ध करी क्रोधमां शिशुपालने गाळो देता-देता त्यान्थी चाल्या गया ॥३९॥
भगवाननी अथवा तत्पर भक्तनी निन्दा साम्भळीने जे त्यान्थी चाल्यो न जाय ते पोतानां शुभ कर्मोथी भ्रष्ट थई जाय छे अने तेनी अधोगति थाय छे. (आ विधान निर्बळ, अशक्त लोकोमाटे छे. समर्थ होय तेणे तो निन्दा करनारनी जीभ खेञ्ची काढी तेने मारी नाखवो जोईए. जुओःभा. ४.४.१७) ॥४०॥
त्यारे पाण्डुना पुत्रो, मत्स्य, केकय, सृञ्जय वगेरे वंशना राजाओ गुस्से थईने शिशुपालने मारवामाटे हथियार उगामी उभा थई गया ॥४१॥
त्यारे हे भारत! शिशुपाल जराय गभराया विना श्रीकृष्णनो पक्ष करनार अध्याय-७४,३२ दशमस्कन्ध राजाओनो तिरस्कार करतो ए सभामां ज पोते सावधान थई हाथमां ढाल तलवार लई एमने मारवाने तैयार थई गयो ॥४२॥
एटलामां भगवान् ऊभा थया अने स्वकीयोने लडता बन्ध करी क्रोध करी अस्त्राना जेवी तीखी धारवाळा सुदर्शन चक्रवडे सामे मारवा आवता शिशुपालनुं मस्तक छेदी नाख्युम् ॥४३॥
शिशुपाल मरायो त्यारे सभामां मोटी धान्धल मची गई. तेना अनुयायी एना पक्षना राजाओ जीववानी इच्छाथी आडा आवळा भागी छूट्या ॥४४॥
आकाशमान्थी पडेल उल्का जेम पृथ्वीमां समाई जाय तेम शिशुपालना शरीरमान्थी नीकळेलुं तेज सर्व लोकोना देखतां वासुदेव भगवान्मां दाखल थई गयुं ॥४५॥
पोते भगवद्भक्त हतो छतां ब्राह्मणना शापथी वैरभाववडे भगवाननी शत्रुता करतो हिरण्यकशिपु, रावण अने शिशुपाल रूपे वैरबुद्धिथी पण एमां सतत भाव राखतो हतो ते भगवानने प्राप्त थयो. तेथी भाव ज मृत्यु पछी थनारी गतिनुं कारण छे. जे माणस जे वस्तुने निरन्तर याद करे ते-ते रूप ते थाय छे तेम, आ शिशुपाले पण भगवानने त्रण जन्म सुधी निरन्तर याद कर्या तेथी ए भगवद्रूप थई सायुज्यने पाम्यो ॥४६॥
सदस्य साथे ऋत्विजोने मोटी दक्षिणाओ आपी बधानी विधिवत् पूजा कर्या पछी भारतवर्षमां एकज राजा बनेला युधिष्ठिरे यज्ञान्त अवभृथ स्नान कर्युं ॥४७॥
राजानो यज्ञ सिद्ध करावी योगेश्वरोना ईश्वर श्रीकृष्ण केटलाक मास सुधी सुहृदोना आग्रहथी त्यां बिराज्या ॥४८॥
पछी पण राजानी इच्छा नहोती छतां पोताने देश जवानी एनी पासेथी रजा लई अमात्यो अने राणीओ सहित देवकीजीना पुत्र इन्द्रप्रस्थथी पोताना नगर द्वारकामां आव्या ॥४९॥
हे परीक्षित! हुं आ उपाख्यान तमने बहु विस्तारथी (त्रीजा अने सातमा स्कन्धोमां) सम्भळावी चूक्यो छुं के वैकुण्ठमां रहेनार जय अने विजय ने सनकादि ऋषिओना शापथी वारंवार जन्म लेवो पड्यो हतो ॥५०॥
राजसूयना अवभृथ नामना स्नान कर्या पछी राजा युधिष्ठिर, ब्राह्मणो अने [[३३]] क्षत्रियो नी सभामां बेठा त्यारे, देवोनी सभामां इन्द्र शोभे तेम, शोभवा लाग्या ॥५१॥
देवो, मनुष्यो अने बीजा आकाशचारीओ नुं राजाए यथा योग्य सन्मान कर्युं त्यारे ए लोको श्रीकृष्णनां अने यज्ञनां वखाण करता पोत-पोताना लोकमां चाल्या गया ॥५२॥
पापी! कुरुना कुळना रोगरूप, कळियुगना अवतार एवा दुर्योधन सिवाय बीजा बधा पाण्डवोनी उज्जवल लक्ष्मीने जोईने प्रसन्न थया पण दुर्योधनथी ए भव्य लक्ष्मी जोई शकाई नहि ॥५३॥
य इदं कीर्तयेद् विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम् ॥ राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥५४॥
आ शिशुपालने मारवा वगेरे भगवान् विष्णुना कर्मने, राजाओना छुटकाराने अने युधिष्ठिरना यज्ञनी कथाने जे साम्भळे तेनुं कीर्तन करे ते सर्व पापोथी मुक्त थाय छे ॥५४॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विकप्रकरणना बीजासाधन- पेटाप्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘युधिष्ठिरना राजसूय यज्ञमां शिशुपालनो वध’’नामनो (उत्तरार्धनो पचीसमो अने चालु) चुमोतेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां इकोतेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे
अध्याय ७५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७२ दुर्योधनना मानभङ्गनो प्रसङ्ग चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय५
विशेष - राजसूय यज्ञ पृथ्वीनो भार हरवामां कारणभूत छे एम आ पञ्चोतेरमां अध्यायथी
ईं उं ईं उं
अध्याय-७५,३४ दशमस्कन्ध कहेवाय छे. एने माटे आ अध्यायमां दुर्योधनना माननो भङ्ग वर्णव्यो छे. जेम कंसवध वगेरे भगवानने भूतळ उपर पधारवानुं मुख्य कारण गणाय छे तेम भूभार हरणमां निमित्तरूप गणाता राजसूय वगेरे पण भगवाननां मुख्य कार्यमां गणाय छे. ए राजसूय जो स्वतन्त्र होय तो भगवान् पधार्या तेमां गौणता आवे ए भगवाननी कथामां योग्य न गणाय तेथी सर्वत्र भगवान् कारण छे. एम कहेवुं जोईए. दुर्योधनना अभिमाननुं कारण लौकिक सम्पत्ति छे. अर्ही वधारे सम्पत्ति एना जोवामां आवी ते एनाथी सहन न थई. ए अधिक सम्पत्ति अत्रे स्पष्ट छे. अर्ही लौकिकभाषा छे. भगवाननुं अधीनपणुं प्रेमने लीधे छे, सर्व प्रकारे नथी. तेथी पहेलान्ना वाक्योनो अने हवे पछी कहेवाना वाक्योनो (भगवानना स्वतन्त्रपणामां) विरोध नथी. अजातशत्रोस्तां दृष्ट्वा राजसूयमहोदयाम् ॥ सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः ॥१॥
राजाए पूछ्युं - हे ब्रह्मन्! राजसूय यज्ञथी अजातशत्रु युधिष्ठिर राजानी महान अलौकिक समृद्धि थई हती ते जोईने त्यां आवेला बधा पुरुषो अने देवो ने आनन्द थयो ॥१॥
राजाओ, ऋषिओ अने देवताओ प्रसन्न थया पण दुर्योधन प्रसन्न न थयो तेम आपनी पासेथी अमे हमणां ज साम्भळ्युं. तो बधाज प्रसन्न थयात्यारे दुर्योधनने अप्रसन्न थवानुं कारण शुं ए कहो ॥२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! तमारा दादा युधिष्ठिर महात्मा हता. एमना प्रेमबन्धनथी बन्धाईने बधां सगा-सम्बन्धीओए राजसूय यज्ञमां जुदुं- जुदुं सेवाकार्य स्वीकार्युं हतुम् ॥३॥
(जेने जे कार्यमां रस होय तेने ते कार्य सोम्पवाथी प्रसङ्ग दीपी ऊठे) भीमसेन (बहु भोजन करनारा होवाथी ते) ने रसोडाना अध्यक्ष बनाव्या. (कारण के ते रसोई वधारे करावे एटले कोई वस्तु खूटी पडवानी बूम न आवे) दुर्योधनने धननो अधिकार आप्यो. (कारण के तेना हाथमां पद्म होवाथी जे पदार्थने ते अडतो तो अक्षय थई जतो) सहदेव ज्ञानी होवाथी तेने ब्राह्मणो, अभ्यागतोनुं स्वागत करवानुं कार्य सोम्प्युं. नकुल (अश्विनीकुमारना पुत्र होवाथी पदार्थोना गुणदोष जाणनार होवाथी) विविध प्रकारनी साधन सामग्री एकत्रित करवानुं काम तेने सोम्प्युम् ॥४॥
अर्जुनने सत्पुरुषोनी सेवानुं, भगवान् श्रीकृष्णने आवेला अतिथिओना पग [[३५]] पखारवानुं, देवी द्रौपदी (ना हाथमां अमृत रहेलुं होवाथी ते) ने पीरसवानुं अने दरियावदिल कर्णने दान आपवानुं काम सोम्पवामां आव्युम् ॥५॥
युयुधान, विकर्ण हार्दिक्य, विदुर, बाह्लीकना पुत्र भूरिश्रवा अने सन्तर्दन वगेरे बीजा महायज्ञनां अनेक कार्य करवामां रोकाया हता. ए बधा ‘‘राजानुं केम सारुं थाय’’ एम इच्छता पोत-पोताना काममां सावधानता राखीने काम करता हता ॥६-७॥
ऋत्विजो, सदस्यो, बहुज्ञानीओ, उत्तम स्नेहीओ वगेरेने मधुर वाणी, दक्षिणा वगेरेथी बहु प्रसन्न कर्या पछी अने शिशुपाल भगवानना चरणमां प्रवेश करी गया पछी (यमुना अथवा) गङ्गानदीमां राजाए अवभृथ स्नान कर्युं* ॥८॥
विशेष - शास्त्रनी मर्यादा एवी छे के जेणे यज्ञनी दीक्षा लीधी होय तेनाथी यज्ञभूमिनी हदनी बहार जई शकाय नहि. छतां गङ्गाजलमां सुन्दर तुलसीनां पान साथे भळेल श्रीकृष्ण भगवानना चरणकमलनी रज घणी होवाथी त्यां जवुं योग्य छे. तेथी भक्तिमार्गने अनुसरतां वेदनो विरोध थतो होय तो बाध नथी एम फलित थाय छे. मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, नोबत, नगारां, नरसिङ्गा वगेरे अनेक प्रकारनां विचित्र वादित्र (वाजिन्त्र) अवभृथ-उत्सवमां वगाडवामां आव्या ॥९॥
नर्तकीओ आनन्दपूर्वक नाचवा लागी. गवैयाओनी मण्डळीओ गावा लागी अने वीणा, बंसरी तथा झाञ्झ-मन्जीरा वागवा लाग्यां. आ बधान्नो तुमुल ध्वनि आकाशमां गूञ्जी ऊठ्यो ॥१०॥
सोनाना हार जेमणे पहेरेला छे तेवा यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकय अने कोसल देशना राजाओ रङ्गबेरङ्गी (गरुड वगेरेना चिह्नोवाळी) धजाओ (विजयसूचक शब्दो जेमां लखेला छे तेवी) पताकाओथी युक्त अने खूब शणगारेला गजराजो, रथो, घोडाओ तथा सुसज्जित वीर सैनिकोनी साथे महाराज युधिष्ठिरने आगळ करी पृथ्वीने कम्पावता जई रह्या हता ॥११-१२॥
यज्ञना सदस्यो, ऋत्विजो अने श्रेष्ठ ब्राह्मणो वेदना मन्त्रोने उच्च स्वरे बोलता आवे छे, देव ऋषि, पितृ अने गन्धर्वो आकाशमान्थी पुष्पोनी वृष्टि करता तेमनी स्तुति करी रह्या छे ॥१३॥
इन्द्रप्रस्थना नर-नारी अत्तरफुलेल, पुष्पोना हार, रङ्गबेरङ्गी वस्त्रो अने बहुमूल्य आभूषणो पहेरी एकबीजा उपर गुलाब जल, तेल, दूध, माखण वगेरे अध्याय-७५,३६ दशमस्कन्ध रस नाखता र्भीजवी दे छे एकबीजाना शरीरमां लपेडी दे छे अने आ प्रमाणे क्रीडा करता चाले छे ॥१४॥
वाराङ्गनाओ पुरुषोने तेल, गोरस, सुगन्धी जल, हळदर, गाढ केसर वगेरे चोपडी दे छे अने पुरुषो पण तेमने ते-ते वस्तुओमां नवडावी दे छे ॥१५॥
ते वखते ते उत्सव जोवाने माटे जेम उत्तम-उत्तम विमानमां बेसीने आकाशमां घणी देवीओ आवी हती तेम ज सैनिकोद्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थनी घणी बधी राज महिलाओ पण सुन्दर-सुन्दर पालखीओमां बेसी आवी हती. तेमना मामाना पुत्रो तथा तेमना मित्रो ते राणीओ उपर जात-जातना रङ्ग छाण्टी रह्या हता. तेथी राणीओनां मुख लज्जाळु हास्यथी खीली ऊठतां हतां अने तेमनी खूब शोभा थती हती (आ बधी स्नान वखते जलमां करवानी वात समजवी. मार्गमां ते ए एम न करी शके) ॥१६॥
ते लोकोए रङ्ग वगेरे छाण्ट्यां एटले राणीओनां वस्त्रो र्भीजाई गयां. आथी तेमना अङ्ग-प्रत्यङ्ग वक्षःस्थल जाङ्घ अने नाभि (वस्त्रो बारीक होवाथी) कंईक- कंईक देखाई जतां हतां. तेओ पण पिचकारीओमां रङ्ग भरी-भरी पोताना दियर अने तेमना मित्रो उपर छाण्टी रही हती. प्रेम भरी उत्सुक्ताने लीधे तेमना अम्बोडानी गाण्ठो ढीली पडी गई हती अने तेमां लगावेलां फूलो पडी जई रह्यां हतां. तेमना आरुचिर विहारने जोई मलिन अन्तःकरणवाळानां चित्त चञ्चल थई जतां हतां, काम मोहित थई जतां हताम् ॥१७॥
चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर पोतानी राणीओनी साथे, जेने सुन्दर घोडाओ जोडेला छे तेवा (हाथीदान्तना) सोनाना हारथी सुसज्जित रथ उपर सवार थया त्यारे एवा शोभता हता के स्वयं राजसूय यज्ञ संयाज वगेरे क्रियाओनी साथे मूर्तिमान थई प्रगट थई गयो होय ॥१८॥
ऋत्विजोए पत्नी संयाज (एक प्रकारनुं यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्तस्नान सम्बन्धी कर्म करावी द्रौपदीनी साथे सम्राट युधिष्ठिरने आचमन कराव्युं अने त्यारपछी गङ्गास्नान ॥१९॥
ए वखते देवताओनां दुन्दुभिओ साथे मनुष्योनां नगारां वागवा लाग्यां. देवताओ, ऋषि-मुनि, पितर अने मनुष्यो राजाराणीनी उपर पुष्पोनी वर्षा करवा लाग्या ॥२०॥
[[३७]] महाराज युधिष्ठिरे स्नान करी लीधा पछी वर्ण अने आश्रम ना धर्मो पाळनारा बधा लोकोए गङ्गाजीमां स्नान कर्युं कारण के आ स्नानथी महापापी पण पोतानां पापोथी तत्काल मुक्त थई जाय छे ॥२१॥
(नियम, दीक्षा वगेरे लीधेलां होय त्यारे आभूषणो उतारी नाखेलां होय छे एटले अत्यार सुधी अलङ्कार विनाना) राजा युधिष्ठिरे नवी रेशमी धोती अने नवो दुपट्टो धारण करी विविध प्रकारनां आभूषणो धारण कर्या. पछी ऋत्विजो, सदस्यो, ब्राह्मणो वगेरेने वस्त्राभूषणोनुं दान करी तेमनी पूजा करी ॥२२॥
महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण हता. तेमने बधामां भगवाननां ज दर्शन थतां. तेथी तेओ भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्टमित्र, हितैषी अने बधा लोकोनी वारंवार पूजा करता ॥२३॥
ते वखते बधा लोको जडाउ कुण्डल, पुष्पोनी माळा, पाघ, अङ्गरखा, (केडे बान्धेली) रेशमी वस्त्रनी भेट, मणिओना मूल्यवान हार पहेरी देवताओना जेवा दीपी रह्या हता. बन्ने कानोनां कर्णफूल अने वाङ्कडिया वाळनी लटोथी स्त्रीओनां मुखोनी शोभा अनेरी थई रही हती. वळी कटिभागे पहेरेला सोनाना कन्दोरा घणा ज शोभायमान लागता हता ॥२४॥
विद्वान ऋत्विजो, ब्रह्मवादी सदस्यो, ब्राह्मणो, क्षत्रियो, वैश्यो, शूद्रो, आवेला राजाओ, देवो, ऋषिओ, पितृओ, अन्य प्राणीओ, लोकपालो एमना सेवको बधानी राजाए पूजा करी तेमने प्रसन्न कर्या. त्यारे हे नृप! ए एमनी रजा मागी पोत-पोताना स्थाने गया ॥२५-२६॥
जेम माणस अमृतने पीतां-पीतां तृप्त नथी थतो तेम हरिना दास राजर्षि युधिष्ठिरना राजसूयनी प्रशंसा करता ए लोको तृप्त थता न हता ॥२७॥
(यज्ञना अवसर दरम्यान तो बधा पोत-पोतानी फरज बजाववामां रोकायेला होय एटले साथे बेसवानो समय न मळ्यो होय तेथी) राजा युधिष्ठिरे मित्रो, जमाईओ, कुटुम्बीजनो अने भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रेमपूर्वक आग्रह करी विशेष रोक्या कारण के तेमने विदाय आपवी अत्यन्त वसमी लागती हती ॥२८॥
हे राजा! भगवान् एमने प्रसन्न करवाने माटे केटलोक वखत त्यां बिराज्या अने यदुवीरोने तथा साम्ब वगेरेने द्वारका मोकल्या ॥२९॥
एम धर्मपुत्र युधिष्ठिर राजा पोताना मनोरथरूप दुस्तर महासागरने अध्याय-७५,३८ दशमस्कन्ध श्रीकृष्णनी कृपाथी तरी गया तेथी चिन्ता रहित थया ॥३०॥
एक दिवसनी वात छे, भगवानना परम प्रेमी भक्त महाराज युधिष्ठिरना अन्तःपुरनी स्त्रीरूपी अने धनरूपी लक्ष्मी तथा राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त थयेल महत्वने जोईने दुर्योधननुं मन ईर्ष्याथी बळवा लाग्युम् ॥३१॥
पाण्डवोने माटे भगवाने जे महेलो बनावडाव्या हता तेमां नरपति, दैत्यपति अने सुरपतिओ नी अनुक्रमे मानुषी, मायाप्रचुर आसुरी अने विचित्र अलौकिक अनेकविध सम्पत्ति जे स्वयं भगवाने आगवी सिद्ध करी हती ते शोभती हती. ते द्वारा राजराणी द्रौपदी पोताना पतिओनी सेवा करती हती. उपरान्त ते समये भगवान् श्रीकृष्णनी हजारो राणीओ पण त्यां ज निवास करती हती. नितम्बना भारे भारने लीधे ज्यारे तेओ राजभवनमां धीरे-धीरे चालवा लागतां हतां त्यारे तेमना झाञ्झरनो झणकार चारे तरफ फेलाई जतो हतो. एमनो कटिभाग बहु सुन्दर हतो तथा तेमनां वक्षःस्थल उपर लागेल केसरनी लालिमाथी मोतीओना सुन्दर श्वेत हार पण लाल-लाल लागता हता. कुण्डलोनी अने वाङ्कडी लटोनी चञ्चलताथी तेमनां मुखनी शोभा घणी वधी जती हती. आ बधुं जोईने दुर्योधनना हृदयने बहु सन्ताप थयो. हे परीक्षित! साचुं पूछो तो दुर्योधननुं चित्त द्रौपदीमां आसक्त हतुं अने ते ज तेना सन्तापनुं मुख्य कारण हतुम् ॥३२-३३॥
एक दिवस युधिष्ठिर राजा मयदानवे बनावेली सुधर्मा सभामां बन्धु, नोकरो अने पोताना मार्गदर्शक श्रीकृष्णनी साथे साक्षात् देवराज इन्द्रनी जेम सोनाना सिंहासन उपर बेठा हता. तेमनी भोगसामग्री, तेमनी राजलक्ष्मी ब्रह्माजीना ऐश्वर्यनी बराबरी करे तेवी हती. बन्दीजनो तेमनी स्तुति करताहता ॥३४-५॥
ते ज वखते अभिमानी दुर्योधन तेना दुःशासन वगेरे भाईओनी साथे त्यां आव्यो. तेना सिर उपर मुगट, गळामां माळा अने हाथमां तलवार हती. हे परीक्षित! क्रोधवश ते द्वारपालो तथा सेवको ने धमकावतो-तिरस्कार करतो आवतोहतो ॥३६॥
ए मयनी सभामां आवतां ज्यां स्थळ हतुं त्यां जळ छे एम समजीने एणे वस्त्र ऊञ्चा लई लीधां अने जळ हतुं तेने जमीन मानीने चालतां ए पड्यो. ए मयनी मायामां मोहित थयो तेथी एने जळ-स्थळनी खबर न रही ॥३७॥
ए जोईने भीम, बीजा राजाओ अने राणीओ वगेरे श्रीकृष्णना अनुमोदनथी [[३९]] हसी पड्यां. हे परीक्षित! युधिष्ठिरे एम करतां अटकाव्यां तोये दुर्योधन पड्यो ए जोईने खूब हस्याम् ॥३८॥
तेथी दुर्योधन शरमाई गयो अने तेनां रोम-रोममां क्रोध व्यापी गयो. ते ऊन्धुं घाली राजाने, ‘‘हुं जाउं छुं’’ एम कह्या वगर चुपचाप सभाभवनने छोडी हस्तिनापुर चाल्यो गयो. आ घटनाने जोईने सत्पुरुषोमां हाहाकार मची गयो. (भगवाननुं आमां अनुमोदन छे एटले कंईक रहस्य छे खरुं एम जाणी) राजा युधिष्ठिरनुं मन पण खिन्न जेवुं थई गयुं. आ बधुं बनवा छतां भगवान् श्रीकृष्ण चुप हता. आपनी इच्छा हती के कोई रीते पृथ्वीनो भार हळवो थाय. साचुं पूछो तो भगवाननी ज्ञानदृष्टि आगळ तो शानुं शुं परिणाम आवी शके ते बधुं प्रत्यक्ष छे. (एटले आपनी दृष्टिथी ज दुर्योधनने आ भ्रम थयो हतो) ॥३९॥
एतत्तेऽभिहितं राजन् यत्पृष्टोऽहमिह त्वया। दुर्योधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ ॥४०॥
हे राजन्! राजसूय महायज्ञमां दुर्योधननी दुष्टतानुं कारण तमे मने पूछ्युं हतुं ते बधुं में तमने कही बताव्युम् ॥४०॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन-
पेटा प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो) ‘‘दुर्योधनना मानभङ्गनो प्रसङ्ग’’ नामनो
(उत्तरार्धनो छवीसमो अने चालु) पञ्चोतेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बात करतां बोतेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ७६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७३ शाल्व अने प्रद्युम्नजी नुं युद्ध चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय६
विशेष - सात्विकना निरोधनो छ अध्यायथी साधनांश कह्यो. हवे फलना अंशवाळा (सात्विकोना) निरोधनुं तो आ अध्यायथी आरम्भी छ अध्यायमां निरूपण करवामां आवशे. फलमां शत्रुनो नाश, यश अने अलौकिकी सम्पत् तेने बे-बे अध्यायथी कहे छे. बन्धुने, अध्याय-७६,४० दशमस्कन्ध बीजाने अने मित्रोने फल आपवुं छे तेमां बन्धुने श्रीकृष्णमां सद्भाव होवाथी ए बीजी इच्छा करता नथी. साथे आवेला अंशोने तो पृथ्वीमां कीर्ति इच्छित छे. मित्रो लक्ष्मीथी विमुख थया छे तेमने सम्पत्ति इच्छित छे. परोक्षमां दार (लक्ष्मी) दर्शक मित्र थाय छे एमां पहेलां द्वारकामां रहेला बन्धुओने कोई वखते अनिवार्य दुःख आव्युं तेने बीजा अध्यायथी दुःखथी मुक्त करे छे. आ छोतेरमा अध्यायमां यादवोने मोटो भय थयानुं कहेवामां आवे छे. महादेवजीनी आराधना करी पुष्ट बनेला शाल्व वगेरेथी ए भय थयानुं कहे छे. प्रद्युम्नजीनुं कोई अपमान न करी शके एवा छे एम बताववामाटे आ अध्यायमां प्रद्युम्नजीनो मोटो जय थयो एम कहे छे. बधाने मोटो भय थवामाटे बीजुं वर्णन आ अध्यायमां छे. अथान्यदपि कृष्णस्य शृणु कर्माद्भुतं महत् ॥ क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - क्रीडाथी मनुष्यशरीरनो धरनार श्रीकृष्णनुं सौभ विमानना पति शाल्वने मारवारूप बीजुं पण महान अद्भुत कर्म कहुं छुं ते साम्भळ ॥१॥
शाल्व शिशुपालनो मित्र हतो. ते रुक्मिणीजीना विवाह वखते शिशुपाल तरफथी जानमां आव्यो हतो. ते वखते यादवोए युद्धमां जरासन्ध वगेरेनी साथे शाल्वने पण जीती लीधो हतो ॥२॥
ते दिवसे बधा राजाओनी सामे शाल्वे प्रतिज्ञा करी हती के ‘‘हुं पृथ्वी उपरथी यादव मात्रने नाबूद करीने ज रहीश. बधा मारुं पराक्रम जोई लेजो’’ ॥३॥
एम ए मूर्ख प्रतिज्ञा करीने प्रतिदिन एक मूठी धूळ खावानो नियम लईने, हे नृप! ते तो पशुपति महादेवजीनी आराधना करवा लाग्यो ॥४॥
आम तो पार्वती पति शङ्कर जलदी प्रसन्न थई जाय तेवा छे छतां शाल्वनो घोर सङ्कल्प जाणी एक वर्ष पछी प्रसन्न थया अने शरणे आवेला शाल्वने ‘‘वर माग’’एम कह्युम् ॥५॥
एणे तो देव असुर मनुष्य गन्धर्व साप के राक्षसोथी भेदाय नहि तेवुं, मनमां आवे त्यां जनार, वृष्णि यादवोने भय करनार विमाननी मागणीकरी ॥६॥
भगवान् शङ्करे कह्युं, ‘तथास्तु’ त्यारबाद तेमनी आज्ञाथी शत्रुओनां नगरने जीतनारा मयदानवे ‘सौभ’नामनुं लोढानुं विमान बनाव्युं अने ते शाल्वने आपी दीधुम् ॥७॥
[[४१]] खरेखर तो ते विमान न हतुं एक नगर ज हतुं. ते एटलुं अन्धकारमय हतुं के तेने जोवुं अथवा पकडवुं कठिन हतुं. चालक तेने ज्यां लई जवा मागे त्यां एनी इच्छा थताञ्ज पहोञ्ची जतुं. शाल्वे ते विमान लई द्वारका उपर चडाई करी कारणके वृष्णिवंशी यादवोनुं वेर तेनाथी भूल्युं भुलातुं नहतुम् ॥८॥
हे परीक्षित! शाल्वे पोतानी भारे मोटी सेनाथी द्वारकाने चारे तरफथी घेरी लीधी अने फलफूलथी लची रहेलां उपवनो अने उद्यानो नो कच्चरघाण वाळी नाखवा लाग्यो तथा नगर द्वारो, फाटको, राजमहेलो, अटारीओ, दिवालो अने नागरिकोनां विश्रान्तिनां स्थानोने खेदान-मेदान करी नाखवा लाग्यो. ते श्रेष्ठ विमानमान्थी बधान्नी उपर ते शस्त्रोनी वृष्टि करवा लाग्यो ॥९-१०॥
मोटी-मोटी चट्टानो, वृक्ष, वज्र, सर्प अने ओलां वरसवा लाग्यां. भारे जोरनी आन्धी चडी आवी अने चारे तरफ धूळ ज धूळ छवाई गई ॥११॥
हे परीक्षित! प्राचीन समयमां जेवी रीते त्रिपुरासुरे आखी पृथ्वीने पीडित करी दीधी हती तेवी ज रीते शाल्वना विमाने द्वारकापुरीने दुःखी करी. त्यान्ना नरनारीओने क्यांय पलभर पण शान्ति मळती नहोती ॥१२॥
परम यशस्वी वीर भगवान् प्रद्युम्नजीए जोयुं के अमारी प्रजा उपर भारे त्रास गुजारवामां आवी रह्यो छे त्यारे रथ उपर सवार थई बधान्ने धीरज आपतां तेमणे कह्युं, ‘‘तमे गभराओ नहि’’ ॥१३॥
सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाईओ सहित अक्रूर, हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक, सारण अने बीजा मोटा धनुर्धारीओ, रथोनी सेनानुं रक्षण करनाराओना पण सेनापतिओ कवच धारण करी लई रथ, हाथी, अश्व अने सैनिको थी रक्षित थई बहार नीकळ्या ॥१४-१५॥
जेम प्राचीन समयमां देवोने दैत्यो साथे मोटुं भयङ्कर ंवाडां ऊभां करी दे तेवुं युद्ध थयुं हतुं तेम शाल्वना सैनिको अने यादवो वच्चे ंवाडां ऊभां करी दे तेवुं युद्ध थयुम् ॥१६॥
रुक्मिणीजीना पुत्र प्रद्युम्नजीए ए सौभना पतिनी मायाने, रात्रिना अन्धारानो सूर्य क्षणमां दूर करी दे तेम दूर करी दीधी ॥१७॥
प्रद्युम्नजीनां बाणोमां सोनानां पङ्ख अने लोढानां फल (फल=हथियारनुं पानुं, फळुं, अणी.) लागेलां हतां. तेमनी गाण्ठो जणाती न हती. एवा पच्चीस बाणोथी अध्याय-७६,४२ दशमस्कन्ध शाल्वना सेनापतिने घायल करी दीधो ॥१८॥
महापराक्रमी प्रद्युम्नजीए सेनापतिनी साथे ज शाल्वने पण सो बाण मार्यां, प्रत्येक सैनिकने एक-एक, सारथिओने दस-दस तथा वाहनोने त्रण-त्रण बाणो मारी घायल कर्याम् ॥१९॥
(आम एकलाए ज बधानी खबर लई नाखी त्यारे) महामना प्रद्युम्नजीनुं आ अत्यन्त आश्चर्यकारक अने महान कर्म जोई पोताना तथा दुश्मनना बधा सैनिको तेमनी प्रशंसा करवा लाग्या ॥२०॥
हे परीक्षित! मयदानवे बनावेलुं ते विमान बहु मायामय हतुं. ते एटलुं विचित्र हतुं के क्यारेक ते अनेक रूपे देखातुं तो क्यारेक एक रूपे; क्यारेक देखातुं तो क्यारेक न पण देखातुं. यदुवंशीओने ए वातनी खबर ज न पडती के अत्यारे ते विमान क्यां छे? ॥२१॥
ते क्यारेक पृथ्वी उपर आवी जतुं तो क्यारेक आकाशमां ऊडवा लागतुं. क्यारेक पहाडना शिखर उपर चडी जतुं तो क्यारेक पाणीमां तरवा लागतुं. ते अलातचक्र (ऊम्बाडिया) नी जेम घूमतुं रहेतुं हतुं एक क्षणमाटे य क्यांय स्थिर रहेतुं नहोतुं ॥२२॥
शाल्व तेना विमान अने सैनिको साथे ज्यां-ज्यां देखातो *त्यां-त्यां यदुवंशी सेनापतिओ बाणोनी झडी लगावी देता हता ॥२३॥
विशेष - मूल श्लोकमां ततस्ततः शब्दो छे. ‘ततः’ एटले त्यान्थी. एनो भाव एवो छे के यादव सेनापतिओ बाण छोडे ते तेनी पासे पहोञ्चे ते पहेलां ते स्थळेथी शाल्व बीजे जतो रह्यो होय. नहि तो ‘तत्र-तत्र’शब्दो श्लोकमांहोत. तेमनां बाण सूर्य अने अग्नि जेवा बळबळतां तथा झेरी सापना जेवा असह्य हतां. तेमनाथी शाल्वनुं नगराकार विमान अने सेना अत्यन्त त्रासी गई ते त्यां सुधी के यदुवंशीओनां बाणोथी शाल्व पोते मूर्छित थई गयो ॥२४॥
हे परीक्षित! शाल्वना सेनापतिओए पण यदुवंशीओ उपर ढगलाबन्ध शस्त्रोनी वर्षा करी हती तेथी तेओ अत्यन्त पीडाई रह्या हता परन्तु तेओए पोत-पोतानो मोरचो छोड्यो नहि. तेओ समजता हता के मरीशुं तो परलोक सुधरशे, स्वर्ग मळशे अने जीतीशुं तो आ लोकमां कीर्ति मळशे ॥२५॥
हे परीक्षित! शाल्वना मन्त्रीनुं नाम ‘द्युमान्’ हतुं, जेने पहेलां प्रद्युम्नजीए [[४३]] पच्चीस बाण मार्यां हतां. ते बहु ज बळवान हतो. तेणे प्रद्युम्नजी उपर धसी आवी पोतानी लोखण्डनी गदाथी बहु ज जोरथी प्रहार कर्यो अने ‘‘हुं जीती गयो, हुं जीती गयो’’ एम कही गर्जना करवा लाग्यो ॥२६॥
हे परीक्षित! (महादेवजीए आपेल वरदाननुं सन्मान करवाना नाटकमां) शत्रुदमन प्रद्युम्नजीना वक्षःस्थलमां घा पड्यो. दारुकनो पुत्र तेमनो रथ हाङ्कतो हतो. सारथिधर्मने अनुसरी ते प्रद्युम्नजीने रणभूमिनी बहार लई गयो ॥२७॥
एक मुहूर्त (अडतालीस मिनिट) पछी प्रद्युम्नजीनी मूर्छा तूटी. त्यारे तेमणे सारथिने कह्युं, ‘‘सारथि! तें बहु ज खोटुं कर्युं. अररर! तें मने रणभूमिमान्थी पीछेहठ करावी! ॥२८॥
सूत! अमारा वंशना कोई पण वीरे क्यारेय पण रणभूमि छोडी पीठ बतावी होय तेवुं कदी साम्भळवामां आव्युं नथी. आ कलङ्कनी काळी टीली तो मात्र मारे कपाळे ज चोण्टी. खरेखर सूत! तुं कायर छे, नपुंसक छे ॥२९॥
बताव तो खरो, हवे हुं मारा बापुजी बलरामजी अने पिता श्रीकृष्णनी पासे जई शुं उत्तर दईश? हवे तो बधा एम ज कहेशे ने के हुं युद्धमान्थी भागी गयो! तेओ मने पूछशे त्यारे हुं मारा मोढामां शोभे तेवो क्यो उत्तर दईश? ॥३०॥
मारी भाभीओ हसतां-हसतां मने पूछशे के ‘‘कहो वीर! तमे नपुंसक केम करतां थई गया? बीजाए तमने युद्धमां नीचुं शी रीते जोवडावी दीधुं? हे सारथि! रणभूमिमान्थी मने भगाडी लावी तें अक्षम्य अपराध कर्यो छे’’ ॥३१॥
सारथिए कह्युं - हे आयुष्यमन्! में जे कंई कर्युं छे ते सारथिनो धर्म समजीने ज कर्युं छे. हे मारा समर्थ स्वामी! युद्धनो एवो धर्म छे के सङ्कट पड्ये सारथि रथीनी अने रथी सारथिनी रक्षा करी ले ॥३२॥
एतद्विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात् ॥ उपस्पृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः ॥३३॥
(धर्म अने कीर्ति वच्चे विरोधमां धर्मनी रक्षा करवी अने कीर्तिने जती करवी) ए धर्मने समजीने ज हुं आपने रणभूमिनी बहार लाव्यो छुं. शत्रुए आपना उपर गदानो प्रहार कर्यो हतो अने तेथी आपने मूर्छा आवी गई हती. आप भारे सङ्कटमां हता तेथी ज मारे आम करवुं पड्युम् ॥३३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन-
अध्याय-७६,४४ दशमस्कन्ध
पेटा प्रकरणनो वैराग्यरूप छठ्ठो) ‘‘शाल्व अने प्रद्युम्नजीनुं युद्ध’’ नामनो
(उत्तरार्धनो सत्तावीसमो अने चालु) छोतेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां तोतेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
कथाना श्रोता-आयोजको! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!!
‘‘श्रीभागवतम् आदरात्, पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकम् अदम्भतः’’
(फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक
स्वार्थ-परार्थ) हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो.
अध्याय ७७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७४ श्रीकृष्णे करेलो शाल्वनो नाश चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण अध्याय ७
विशेष - सीत्तोतेरमा अध्यायमां यादवोने अति पीडामां भगवत् स्मरण थतां ए दुःखमान्थी श्रीकृष्णे बचाव्या ए वात कहे छे. द्युमाननो वध श्रीकृष्ण करे तो एमां प्रद्युम्नजीनो यश वधे नहि तेथी प्रद्युम्नजीए एनो वध कर्यो ए वात पण अर्ही कही छे. भक्तने दुःख थाय ए भगवानने योग्य न लागे तेथी मतान्तरथी भगवान् पोतानी अशक्ति बतावे छे. ए बीजाना वाक्यथी कहे छे. श्रीशुकदेवजी आ कथा पोते कहेता नथी पण कोई कहे छे एम कहे छे एथी कोई समये अंशावतार-श्रीकृष्णनी आ कथा छे एम समजवुं केमके पूर्ण श्रीकृष्णने मायानो मोह थाय एम कोई पण भक्तिमार्गीय भक्त मानी शके नहि ए सिद्धान्त न जाणे ते लोकोने स्वरूपमां पण भ्रम थाय छे. तेम कोई कल्पान्तरमां सूक्ष्म अंशथी अवतार लई कहेल हशे. अर्ही न जणावे तो निरोधमां विरोध आवे तेथी परभाषा अर्ही शुके बतावी छे. तेथी स्कन्धार्थ अने शास्त्रार्थ ए बन्नेनुं निरूपण अत्रे करवामां आव्युं छे. स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः ॥ नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - (मूर्छा पछी आचमन करवुं जोईए एटले) प्रद्युम्नजीए आचमन कर्युं. (पहेलां पोताना बलपौरुषना अभिमानमां प्रद्युम्नजी
ईं उं ईं उं
[[४५]] कवच धारण कर्या विना गयेला ते हवे गर्वभङ्ग थयो एटले) नारायण कवचनो पाठ करी तथा लोढानुं कवच धारण करी, धनुषलई सारथिने कह्युं, ‘‘मने वीर द्युमाननी पासे लई जा’’ ॥१॥
ते वखते द्युमान यादवोनी सेननो नाश करी रह्यो हतो. प्रद्युम्नजीए तेनी पासे जई तेम करतां तेने रोकी दीधो अने (द्युमाननुं पाणी मापवा जाणे के) हसीने आठ बाण मार्याम् ॥२॥
चार बाणोथी चार घोडा एक-एक बाणथी सारथि, धनुष, धजा अने तेनुं माथुं उडावी दीधुम् ॥३॥
आ बाजु गद, सात्यकि, साम्ब वगेरे यदुवंशी वीर पण शाल्वनी सेनानो संहार करवा लाग्या. सौभ विमान उपर चडेला सैनिकोनां गळां कपाई जतां अने ते समुद्रमां जई पडताम् ॥४॥
आ प्रमाणे यदुवंशी अने शाल्व ना सैनिको एकबीजा उपर प्रहार करता रह्या. भारे भयङ्कर घमसाण मची गयुं अने ते सतत सत्यावीस दिवस चालतुं रह्युम् ॥५॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ते वखते भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरना बोलाववाथी इन्द्रप्रस्थ गयेला हता. राजसूय यज्ञ पूरो थयो हतो अने शिशुपालनुुं पण मृत्यु थई गयुं हतुम् ॥६॥
त्यां श्रीकृष्णे जोयुं के भयङ्कर अपशुकन थई रह्या छे त्यारे त्यान्नुं कार्य समाप्त थतां कुरुवृद्धोनी अने मुनिओनी आज्ञा मागी कुन्तीजी तथा एमना पुत्रोनी रजा लईने भगवान् द्वारका तरफ रवाना थया ॥७॥
पोते विचार करे छे के ‘‘हुं अर्ही आव्यो त्यां मोटाभाई पण पाछा अर्ही मने आवी मळ्या तेथी शिशुपालना पक्षना राजाओए जरूर मारी नगरी उपर चढाई करी हशे’’ ॥८॥
भगवान् श्रीकृष्णे द्वारकामां पहोञ्ची जोयुं के खरेखर यादवो उपर आफत आवी पडी छे. त्यारे आपे बलदेवजीने नगरनी रक्षानुं काम सोम्पीने सौभपति शाल्वने जोई पोताना सारथि दारुकने क्ह्युम् ॥९॥
‘‘हे सारथि! मारा रथने जलदी शाल्व पासे लई जा. आ सौभराट (सौभमां प्रकाशतो शाल्व) मायावी छे पण तुं डरीश नहि’’ ॥१०॥
भगवाननी एवीआज्ञा मळतां नीडर थईने दारुक (दारुक-दारु=लाकडुं; क=सिर, अध्याय-७७,४६ दशमस्कन्ध सुख. लाकडां (रथ) तेनी इच्छाप्रमाणे फरतां.) रथ उपर चडी गयोअने तेने शाल्व तरफलई गयो.बराबर ए ज वखते पोताना अने दुश्मन ना सैनिकोए जेना ध्वजमां गरुडजीनुं चिह्न छेएवा रथने युद्धभूमिमां प्रवेशेलोजोयो ॥११॥
हे परीक्षित! अत्यार सुधीमां शाल्वनी लगभग आखी सेनानो नाश थई चूक्यो हतो. भगवान् श्रीकृष्णने जोतां ज तेणे आपना सारथि उपर एक भारे मोटी शक्ति फेङ्की. ते शक्ति घणो भयङ्कर अवाज करती आकाशमां सनसनाट करती आवी रही हती अने मोटा खरता तारा जेवी लागती हती. तेने सारथि तरफ आवती जोईने भगवान् श्रीकृष्णे पोतानां बाणोथी सेङ्कडो टुकडा करी नाख्या ॥१२-१३॥
सूर्य आकाशने किरणोथी भेदे तेम शाल्वने अने आकाशमां भमता सौभने भगवाने सोळ बाणथी र्वीधी नाख्युम् ॥१४॥
शांर्गधनुष जेमना हाथमां छे तेवा श्रीकृष्णना डाबा हाथमां धनुष हतुं तेमां शाल्वे बाण मारवाथी शांर्गधनुष हाथमान्थी पडी गयुं ए अद्भुत वात बनी ॥१५॥
त्यां जोनार प्राणीओ हाहाकार करवा लाग्यां अने सौभराटे हुं जीती गयो एवी मोटी गर्जना करीने भगवानने आ प्रमाणे कह्युंः ॥१६॥
‘‘हे अमूढ! अमारा मित्र अने तारा भाई शिशुपालनी स्त्रीने तुं अमारा देखतां लई गयो अने मारा ए मित्रने ओचिन्तो सभामां तें मारी नाख्यो ॥१७॥
अने तारा मनमां तुं माने छे के मारो कोई पराजय करी शके नहि तो तुं आज मारी सामे ऊभो रहे तो हुं मारां तमतमतां तीखां बाणोथी तने त्यां पहोञ्चाडी दईश ज्यान्थी फरी कोई पाछुं आवतुं नथी’’ ॥१८॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोल्या - ‘अरे मूरख! तुं वृथा बकवाद करे छे. तारी पासे काळ आव्यो छे तेने तुं जोतो नथी. बहादुर पुरुषो बहु बोलता होता नथी तेओ तो पोतानुं पराक्रम प्रत्यक्ष देखाडे छे’’ ॥१९॥
आ प्रमाणे कही भगवान् श्रीकृष्णे गुस्से भराई पोतानी अत्यन्त वेगवान् अने भयङ्कर गदाथी शाल्वनी हांसडी उपर प्रहार कर्यो. तेने लोहीनी ऊलटी थई अने पोते ध्रूजवा लाग्यो (तेने लोही ओकतो जोई पोतानुं कार्य पूरुं थयुं छे एम मानी) गदा भगवाननी पासे पाछी फरी. (हवे बीजा प्रहारथी तो मारुं मोत ज थशे एम मानी भगवद्रूप मायानी प्रार्थना करवा) शाल्व अन्तर्धान थई गयो. (कारण के हवे [[४७]] महादेवजीए तेनो पक्ष छोडी दीधो हतो) ॥२०॥
त्यार बाद बे घडीमां एक माणसे भगवाननी पासे आवी आपने सिर झुकावी प्रणाम कर्या अने तेणे रोतां-रोतां कह्युं, ‘‘मने आपनी माता देवकीजीए मोकल्यो छे’’ ॥२१॥
तेमणे कह्युं छे, ‘‘पोताना पिता उपर अत्यन्त प्रेम राखनार महाबाहु श्रीकृष्ण! जेवी रीते कसाई पशुने (मारी नाखवा माटे) बान्धीने लई जाय तेम शाल्व तमारा पिताने बान्धीने लई गयो छे’’ ॥२२॥
आ अप्रिय समाचार साम्भळी भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य स्वभावने स्वीकारता उदास थई गया. साधारण पुरुषनी जेम अत्यन्त करुणा अने स्नेह थी आप कहेवा लाग्या ॥२३॥
‘‘ओहो! मारा भाई बलदेवजीने तो देवो तथा असुरो कोई जीती शके एम नथी. ते सदा सर्वदा सावधान रहे छे. शाल्वनुं बल-पौरुष तो अत्यन्त तुच्छ छे. छतां तेणे तेमने केवी रीते जीती लीधा तथा मारा पिताश्रीने केवी रीते बान्धीने लई गयो? खरेखर, प्रारब्ध बहु ज बळवान् छे’’ ॥२४॥
भगवान् श्रीकृष्ण आ प्रमाणे कही ज रह्या हता त्यां शाल्व वासुदेवजीना जेवा एक माया रचित पुरुषने (आ पुरुष शाल्वे जे मायारूप भगवाननी उपासना करेली ते हतो.) लावीने तेणे श्रीकृष्णने कह्युम् ॥२५॥
‘‘हे बालिश!* जो, आ ज तने जन्म आपनार तारो बाप छे, जेने माटे तुं जीवी रह्यो छे. तेने तारा देखतां ज हुं मारीश. तारामां ताकात होय तो तेनी रक्षा कर. ॥२६॥
विशेष - शाल्व मायारूप भगवान् होवाथी तेनी जीभनी आम बोलवानी प्रवृत्ति थई. हकीकतमां श्लोकनो पाठ आ प्रमाणे छेः एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि ॥ वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्वेत् पाहि बालिश ॥२६॥
वास्तविक स्थिति तो अजनिता-जन्म नहि आपनार, अतात-पिता नहि तेवी छे. हकीकतमां पूर्ण ब्रह्मने न तो कोई पैदा करी शके के न तो कोई तेनो पिता होई शके. बालिश=बालिनोपि शं यस्मात् स बालिश! सुग्रीवना भाई वालीने पण जेनी पासेथी सुख प्राप्त थयुं ते बालिश. द्वेषीओ उपर स्वयं उपकार करो छो, मारीने पण मोक्ष आपो छो तो अध्याय-७७,४८ दशमस्कन्ध मने पण मारी नाखीने कृतार्थ करो एवी वास्तवमां प्रार्थना ज छे. मायावी शाल्वे आ प्रमाणे भगवाननो तिरस्कार करी मायारचित वसुदेवजीनुं मस्तक तलवारथी उडावी दीधुं अने तेने लई आकाशमां रहेला पोताना (सौभ) विमानमां जई बेठो ॥२७॥
भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप अने महानुभाव छे. आप आ घटना जोई बे घडीने माटे तो पोताना स्वजन वसुदेवजीने माटे अत्यन्त प्रेम होवाने लीधे साधारण मनुष्यनी माफक शोकमां डूबी गया. परन्तु पछी तो आप जाणी गया के आ तो मयदानवे शाल्वने बतावेली आसुरी मायानो ज प्रसार छे ॥२८॥
भगवान् श्रीकृष्णे प्रबुद्ध थई युद्ध भूमिमां जोयुं तो नथी त्यां दूत के नथी पितानुं ते शरीर; जाणे के स्वप्नमां एक दृश्य देखाई लुप्त थई गयुं होय! बीजी बाजु जोयुं तो शाल्व विमान उपर चडी आकाशमां फरी रह्यो छे. एटले आप तेनो वध करवाने माटे तैयार थई गया. (आ पूर्वपक्ष कह्यो) ॥२९॥
(हवे सिद्धान्त कहे छे)हे राजर्षि! पूर्वापरनो (आगळ-पाछळनो) विचार न करनारा कोई-कोई ऋषि आ प्रमाणे कहे छे. अवश्य तेओ ए वातने भूली जाय छे के श्रीकृष्णनी बाबतमां आम कहेवुं तेमनाज वचनोथी विपरीतछे* ॥३०॥
विशेष - मनन करनार मुनिओ कहेवाय तेमने मननथी ज्ञान थाय छे पण ज्यां मूळरूपमां विरोध आवे त्यां आर्ष ज्ञान प्रमाणरूप गणातुं नथी केमके एनुं ज्ञान एना उपजीव्यथी विरुद्ध छे तेथी ए प्रमाण नथी. जेम साङ्ख्यादि मत वेदविरुद्ध अंशमां अप्रमाण गणाय छे तेम भगवाननी कृपा वगर, केवळ प्रमेयबळ प्राप्त कर्या वगर, आर्षज्ञान थतुं नथी. तेथी ज ए भगवान्मां दोष जोई शके छे. पोताना जन्ममां माताना व्यभिचारने जोनारनी जेम ए देखे छे. एनी उपेक्षा करवी योग्य छे. प्रथम ‘‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’’ एम कहे छे अने अर्ही माया-मोहित कहे ए केम सम्भवे? तेथी पूर्वापरना अनुसन्धान वगर बोले ते अप्रमाण जाणवुं. क्यां आज्ञानमान्थी उत्पन्न थता शोक, मोह, स्नेह अने भय अने क्यां क्षणे- क्षणे जेमनी देवोए स्तुति करी छे ते परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण. जेमना आत्मानुभव, ज्ञान अने ऐश्वर्य अखडिन्त छे एकरस छे! ॥३१॥
विशेष - जे अज्ञान बाळपणमां बधामां होय छे ते श्रीकृष्णमां बाळपणमां पण नहोतुं तो जे अवस्थाए सामान्य जीवो पण सारुं नरसुं पारखी शके तेवी पक्व बुद्धि धरावता होय छे [[४९]] ते अवस्थाए ए अज्ञान श्रीकृष्णमां सम्भवी ज शी रीते शके? मोटा-मोटा ऋषि मुनिओ भगवान् श्रीकृष्णना चरणकमलोनी सेवा करी आत्मविद्या पुष्ट करे छे अने ते द्वारा ‘‘शरीर ए ज आत्मा छे’’ एवा अनादि अज्ञाननो नाश करी दे छे; एटलुं ज नहि पण अनन्त ऐश्वर्ययुक्त भगवानने ज प्राप्त करी ले छे. ते उत्तम सत्पुरुषोनी गतिरूप, फलरूप श्रीकृष्णमां मोह केवी रीते होई शके? ॥३२॥
विशेष - ब्रह्म जाणनारना चरणनी सेवा करवाथी आत्मविद्यानी प्राप्ति थाय छे. ते आत्मविद्या भगवानना चरणकमलनी सेवाथी पुष्ट थाय छे. हवे शाल्व भगवान् श्रीकृष्ण उपर भारे उत्साह अने वेग थी शस्त्रोनी वर्षा करी रह्यो हतो. अमोघ पराक्रमयुक्त श्रीकृष्णे पण पोतानां बाणोथी शाल्वने घायल करी दीधो अने तेना कवच, धनुष तथा मस्तक ना मणिने छिन्न-भिन्न करी नाख्यां. साथे-साथे गदाना प्रहारथी तेना विमानना पण टुकडे-टुकडा करी नाख्या ॥३३॥
(कालस्वरूप) श्रीकृष्णनी (सम्पूर्ण क्रियाशक्तिरूप) हस्तथी फेङ्कायेली गदाथी ते विमान घूमरी खातुं-खातुं समुद्रमां जई पड्युं त्यां तो तेना हजार टुकडा थई गया हता. शाल्व धरती उपर कूदी पड्यो. (‘‘आ अच्युत भगवान् ज छे एमनाथी भागीने क्यां जवुं अथवा तेमनी सामे पराक्रम पण शुं चाले?’’ एम विचारी) शाल्व उगामेली गदा साथे अच्युत भगवान् सामे स्फुर्तिथी दोडी आव्यो ॥३४॥
दोडी आवता शाल्वने जोई आपे भालाथी गदा सहित तेनो हाथ कापी नाख्यो. पछी तेने मोक्षनुं दान करवा श्रीकृष्ण भगवान् प्रलयकालना सूर्य जेवा तेजस्वी अने अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण करी थोडीवार(शाल्वनुं रक्षण करनार कोई होय तो आवी जाओ एम जाणे के कहेता होय तेम) ऊभा रह्या. ए वखते सूर्यनी साथे उदयाचल शोभतो होय तेवा शोभी रह्या हता ॥३५॥
जेवी रीते इन्द्रे वज्रथी वृत्रासुरनुं मस्तक छेदी नाख्युं हतुं तेवी रीते भगवान् श्रीहरिए ते चक्रथी, पुररूपी मोह करावनारी माया हती जेनी तेवा, शाल्वनुं किरीटकुण्डलयुक्त सिर धडथी अलग करी दीधुं. ते वखते शाल्वना सैनिको अत्यन्त दुःखी थई ‘हाय, हाय’ करवा लाग्या ॥३६॥
नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः ॥ सखीनामपचितिं कुर्वन् दन्तवक्त्रो रुषाभ्यगात् ॥३७॥
अध्याय-७७,५० दशमस्कन्ध हे परीक्षित! (भगवान् तो अक्लिष्टकर्मा छे. आपे शाल्वने मार्यो नहोतो पण) ज्यारे ते पापी पोताना ज पापथी मरायो अने तेना विमानना पण भूकेभूका ऊडी गया त्यारे देवता लोक आकाशमां दुन्दुभिओ वगाडवा लाग्या. बराबर आ ज वखते दन्तवक्त्र पोताना मित्र शिशुपाल वगेरेनो बदलो लेवामाटे अत्यन्त क्रोधित थई आवी पहोञ्च्यो ॥३७॥
इति श्रीभागवत दशमस्क्न्धमां(चोथा सात्विक प्रकरणना बीजा साधन-
पेटा प्रकरणनो धर्मी रूप सातमो) ‘‘श्रीकृष्णे करेलो शाल्वनो’’नाश
नामनो(उत्तरार्धनो अठ्ठावीसमो अने चालु)७७मो (प्रक्षिप्त त्रण ध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां ७४मो)अध्यायसम्पूर्णथयो.
चोथा सात्विक प्रकरणनुं बीजुं साधन प्रकरण सम्पूर्ण
सावधान! सावधान!! सावधान!!!
षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन
पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे
अध्याय ७८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७५ सात्विक फल प्रकरण दन्तवक्त्र तथा विदूरथ नो भगवाने करेलो उद्धार चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय १
विशेष - बे अध्यायथी बलदेवजीनी सत्कीर्ति कहेवामां आवे छे. ऋषिओ एमनी कीर्तिनां वखाण करशे जेनाथी एमनी कीर्ति पृथ्वी उपर स्थिर थाय. तीर्थाभिषेकथी, यज्ञ करवाथी, स्वप्रतापथी अने उपदेश आपवाथी कीर्ति प्रसरे छे. दुर्योधनना युद्धमां पोते मध्यस्थ रह्या. (दुर्योधन बलदेवजीनो जमाई छतां तेना प्रत्ये पक्षपात न कर्यो) तेथी एमनी कीर्तिमां वधारो थयो. रामकीर्तिना अध्यायमां दन्तवक्त्रनुं कथन तो ए पण भगवाननो दास (पार्षद विजय)
ईं उं ईं उं
[[५१]] छे तेथी कर्युं छे तेथी भगवानना त्रण भृत्यो (सेवको-बलदेवजी, दन्तवक्त्र अने विदूरथ) नुं आ अध्यायमां वर्णन आवे छे. शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः ॥ परलोकगतानां च कुर्वन् पारोक्ष्यसौहृदम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! शिशुपाल, शाल्व अने पौण्ड्रक ना मरायाथी तेमनी मित्रतानुं ऋण चुकववामाटे मूर्ख दन्तवक्त्र एकलोज पगे चालतो युद्धभूमिमां धसी आव्यो. क्रोधथी ते बळी रह्यो हतो. शस्त्र तरीके तेना हाथमां एकमात्र गदाहती. परन्तु, हे परीक्षित! लोकोए जोयुं के ते एटलोतो शक्तिशाळी हतो के तेना पगना धमकाराथी पृथ्वी ध्रुजी रहीहती ॥१-२॥
ए दन्तवक्त्रने आवतो जोईने भगवान् हाथमां गदा लई जलदी रथमान्थी उतरी, काण्ठा जेम दरियाना भरती-ओटने आगळ वधतां रोकी दे तेम तेने रोकी दीधो ॥३॥
घमण्डना नशामां चकचूर कंषनरेश दन्तवक्त्रे गदा उगामी भगवान् श्रीकृष्णने कह्युं, ‘‘घणा सौभाग्य अने आनन्द नी वात छे के आज तुं फरी नजरे पडी गयो* ॥४॥
विशेष - गदा उगामीने जणाव्युं के हुं आपनो द्वारपाल छुं, अधिकारी छुं, आप मुकुन्द-मोक्ष आपनार छो एटले मोक्ष मेळववानो मारो अधिकार छे. स्नेहथी सायुज्य प्राप्त करवाने बदले वेरथी प्राप्त करवा मागे छे माटे मूल श्लोकमां तेने माटे ‘‘दुर्मद-उन्मत्त’’ शब्द वापर्यो छे. आपनां मने दर्शन थयां ते मारुं अहोभाग्य छे. हे कृष्ण! तुं मारा मामानो पुत्र छे. तेथी तने मारवो तो न जोईए; परन्तु एक तो तें मारा घणा मित्रोने मारी नाख्या छे, बीजुं मने पण तुं मारी नाखवा मागे छे. तेथी हे मन्द! आजे मारी वज्र जेवी कठोर गदाथी तारा भूकेभूका उडावी दईश* ॥५॥
विशेष - त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुम्मां जिघांससि, अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ॥५॥
श्रीमहाप्रभुजी श्रीकृष्ण भगवाननी निन्दा जणावतो अर्थ तो श्रीसुबोधिनीजीमां करता ज नथी. सरस्वती भगवाननी स्तुति ज करे. कृष्ण एम वहालथी सम्बोधन करे छे. मने मारवा मागे छे कारण के हुं कृष्णना मित्रोनो द्रोह करुं छुं. हुं पण कृष्णनो मित्र छुं तेथी मने अपराध अध्याय-७८,५२ दशमस्कन्ध विना नहि मारो तेथी गदा चलावीने हुं पहेलो अपराध करुं. गदया हनिष्ये-‘गदा’ एटले सुषुम्णा नाडीद्वारा हुं आपने प्राप्त करीश. हे अज्ञ! आम तो तुं मारो सगो छे पण पोताना शरीरमां कोई रोग होय तेम, मारो शत्रु ज छे. हुं मारा मित्रो उपर बहु प्रेम करुं छुं तेमनुं मारा उपर ऋण चडेलुं छे. हवे तने मारीने ज हुं तेमना ऋणमान्थी ऋणमुक्त थई शकुं छुं* ॥६॥
विशेषः तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः। बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ॥६॥
अज्ञ=न विद्यते ज्ञो यस्मात्=जेनी आगळ कोई ज्ञानी नथी, सर्वज्ञ. हे मित्र वत्सल-भगवान् प्राणीमात्रनुं हित करनारा अने तेथी मित्र वत्सल छे. ‘‘बन्धुरूपमरिं हत्वा=बन्धुरूपो देह;, बन्धोः रूपमिव रूपं यस्य हितकर्तृत्वात् वस्तुतः तु अरिः ‘‘सृष्ट्वास्य बीजम्’’ (११.९.२६) इति न्यायात्’’ बन्धुरूप देह छे, बन्धुना रूप जेवुं रूप छे जेनुं ते पण खरेखर तो देह दुश्मननी गरज सारे छे कारण के देह पडे छे त्यारे वृक्षनी माफक भविष्यना बीजा शरीरमाटे बीज वावी तेने माटे पण दुःखनी व्यवस्था करतो जाय छे. जेवी रीते महावत अङ्कुशथी हाथीने घायल करे छे तेवी रीते दन्तवक्त्रे पोतानी कडवी वाणीथी श्रीकृष्णने चोट मारवानी चेष्टा करी अने पछी ते आपना श्रीमस्तक उपर भारे जोरथी गदा मारी सिंहनी जेम गरजी ऊठ्यो* ॥७॥
विशेष - महावत हाथीने अङ्कुश भोङ्की आगळ जवा सूचना आपे छे तेम अर्ही दन्तवक्त्र श्रीकृष्णने पोताने जलदी मारी मोक्ष आपवा प्रेरणा करे छे. हवे पोतानी जातने कृतार्थ मानी तेणे खुशीमां आवी जई गर्जना करी. रणभूमि उपर गदानी चोट लागी छतां पण भगवान् श्रीकृष्ण जराय चलित न थया. आपे पण पोतानी भारे मोटी गदा कौमोदकी तेना वक्षःस्थल उपर मारी* ॥८॥
विशेष - कौमोदकी गदा जेना उपर पडे तेनो, गमे तेवो पापी होय तो पण, मोक्ष थाय तेवुं तेनुं माहात्म्य छे. गदा वक्षःस्थल उपर एटलामाटे मारी के तेना जीवने देहमान्थी बहार नीकळती वखते छ चक्र भेदवानो क्लेश न थाय. मारतां-मारातांय दुश्मन सुखपूर्वक आसानीथी मरे तेवी श्रीकृष्ण व्यवस्था करे छे. त्यारे दन्तवक्त्रनी गाढ विशाळ छाती गदाथी फाटी गई, मोढामान्थी लोही वहेवा [[५३]] लाग्युं अने ते हाथ-पग पृथ्वी उपर पहोळा करी जीव रहित नीचे पड्यो ॥९॥
जेम शिशुपालना मरण वखते भगवान्मां एनो आत्मा पेठो हतो तेम, हे नृप! आना शरीरमान्थी सूक्ष्म ज्योति सर्व लोकोना देखतां भगवान्मां दाखल थई गई ॥१०॥
एनो भाई विदूरथ पण भाईना शोकथी अत्यन्त व्याकुल थई ढाल तलवार लईने फूम्फाडा मारतो भगवानने मारवानी इच्छाथी आव्यो ॥११॥
ए प्रहार करवा आवतो हतो तेटलामां ज तीक्ष्ण धारवाळा चक्रवडे किरीट कुण्डळ सहित एनुं माथुं भगवाने उडावी दीधुम् ॥१२॥
एम सौभविमान, शाल्व, दन्तवक्त्र एना भाई विदूरथ अने बीजाने भारे पडे तेवा वीरोने श्रीकृष्णे मारी नाख्या त्यारे देवो अने मनुष्यो भगवाननी स्तुति करवा लाग्या ॥१३॥
मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, वासुकि वगेरे मोटा सर्पो, अप्सराओ, पितृगणो, यक्षो, किन्नरो तथा चारणोए भगवानना विजयनां गान कर्यां अने पुष्पोथी जेमने वधाव्या तेवा भगवान् यादवश्रेष्ठोनी साथे पोतानी द्वारकापुरीमां पधार्या. भगवानना प्रवेश वखते नगरी घणी सारी रीते सजाववामां आवी हती ॥१४-१५॥
एम योगेश्वर श्रीकृष्ण छ ऐश्वर्यवाळा अने जगतना ईश्वर छे छतां पशुना जेवी दृष्टिवाळा लोको ‘‘भगवान् कोई वार जीते छे, कोई वार जरासन्ध वगेरेथी *हारे छे’’ एम माने छे एथी ए पशुतुल्य छे केमके भगवानना सामर्थ्यने ए जाणता नथी ॥१६॥
विशेष - ए तो पुरुषोत्तम होवाथी एमने हार जीतनो सम्भव ज न होय. अर्ही भगवाने पोतानी क्रियाशक्तिनो सङ्कोच कर्यो छे. पुराणान्तरमां भगवाने अर्ही शस्त्र त्याग कर्यानुं कह्युं छे तेथी ज पुरुषोत्तम सहस्रनाममां ‘‘विदूरथप्राणहर्ता न्यस्तशस्त्रास्त्रविग्रहः’’ एवुं भगवाननुं नाम श्रीआचार्यजीए कह्युं छे. ज्यारे कौरवोने पाण्डवोनी साथे युद्धनो प्रसङ्ग उभो थयानुं बलदेवजीए साम्भळ्युं त्यारे पोते तटस्थ होवाथी तीर्थमां स्नान करवाने मिषे त्यान्थी तीर्थोमां चाली नीकळ्या ॥१७॥
प्रथम प्रभासमां स्नान कर्युं. देव, ऋषि, पितृ, मनुष्य वगेरेनां अध्याय-७८,५४ दशमस्कन्ध ब्राह्मणभोजनद्वारा तर्पण करी ब्राह्मणोने साथे लई सरस्वतीना किनारा उपर प्रवाहनी सामे चाल्या. (ब्राह्मणोनी मन्जूरी विना तीर्थपूर्ति थती नथी) ॥१८॥
पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शन तीर्थ, विशाल तीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ अने प्राची सरस्वती वगेरे तीर्थोमां गयाम् ॥१९॥
त्यान्थी यमुनाजीना काण्ठे-काण्ठे चालतां तीर्थो आव्यां तेम ज गङ्गाजीना प्रवाहने काण्ठे-काण्ठे तीर्थो आव्यां तेमां फरता-फरता नैमिष क्षेत्रमां आव्या ज्यां ऋषिओ सत्सङ्गरूपी महान सत्र करी रह्या हता ॥२०॥
एक दीर्घ यज्ञना आयोजनमाटे नियम लई बेठेला ऋषिओए बलदेवजीने पधारेला जोई पोत-पोताना आसनेथी ऊभा थई तेमनो स्वागत सत्कार कर्यो अने यथायोग्य प्रणाम आशीर्वादनी विधि बाद तेमनी पूजा करी ॥२१॥
तेओ ब्राह्मणोनी साथे आसन ग्रहण करी बेसी गया अने तेमनी अर्चापूजा थई गई त्यारे तेमणे जोयुं के भगवान् व्यासजीना शिष्ये रोमहर्षण व्यास गादी उपर बेठेला छे ॥२२॥
बलदेवजीए जोयुं के रोमहर्षणजी हीन सूत जातिमां जन्मेला होवा छतां ते श्रेष्ठ ब्राह्मणो करतां ऊञ्चा आसन उपर बेठेला छे अने तेओ आव्या त्यारे ऊभा थईने स्वागत करता नथी के हाथ जोडीने प्रणाम पण करता नथी. आथी बलदेवजीने क्रोध थयो* ॥२३॥
विशेष - बलदेवजीनो तर्क कंईक आ प्रमाणे छे - उत्तम ब्राह्मणोए ज्यारे ऊभा थईने प्रणाम वगेरे कर्या तो सूत तो जातिथी हीन छे, छतां तेणे अभिवादन न कर्युं तेथी तेनामां धर्म नथी, धर्मनो आभास (देखाव) छे. ए धर्माभास पाखण्ड ज छे. पाखण्डथी क्रोध आव्यो. व्रतनियम लीधां होय तेणे पण आदरणीयने हाथ जोडी विनय तो दाखववो जोईए. विप्रो करतां ते ऊञ्चा आसन उपर बेठेलो छे. विप्रो तो बधाना सुहृध होवाथी तेओ तो नभावी ले. पोते दण्ड करवाने अधिकारी छे एटले क्रोध थयो ते उपपन्न (योग्य) छे. आ प्रतिलोम जातिनो सूत ब्राह्मणोथी ऊञ्चा आसन उपर केम बेठो छे ते पण धर्मरक्षक एवा अमारी सामे बेठो छे ते वधने लायक छे केमके ए दुष्ट छे. एने कहेवाथी भान आवशे नहि ॥२४॥
आ बादरायण भगवान् व्यास ऋषिनो शिष्य छे. इतिहास, पुराणो वगेरे घणां शास्त्रो भण्यो छे अने एना अभिप्रायोने पण जाणनारो छे ॥२५॥
[[५५]] छतां ए अविनयवाळो, इन्द्रिय निग्रह रहित, पोताने वृथा पडिन्त माननार होवाथी, नट जेम बीजाने देखाडवा चेष्टा करे छे तेम, देखाव करनार अने अन्तःकरणने काबूमां नहि राखनारने विद्या प्राप्त थाय तो पण ते तेने के बीजाने हितकर न थाय (श्लोक छव्वीसमां सूतमां पाञ्च दोषो कह्या छे. अविद्यानां पाञ्च पर्व छे. पाञ्च दोष होवाथी सूतने विद्या फळी नथी.) ॥२६॥
जे लोको धर्मना चिह्न धारण करे छे, परन्तु धर्मनुं पालन करता नथी तेओ वधारे पापी छे अने तेओ मारे माटे वधने योग्य छे.* आ जगतमां आ माटे ज में अवतार लीधो छे ॥२७॥
विशेष - परमहंस बधानो अतिक्रम सही ले ते शोभारूप छे पण राजा ए प्रमाणे वर्तवा जाय तो सर्वनाश थाय. निषिद्धनुं आचरण करवुं ए अधर्म छे. निषिद्धना आचरणनी मात्रा वधी जाय त्यारे ते महापातक बने छे तेना करतां पण धर्मध्वजी-पाखण्डी वधारे दोषपात्र छे. (जेणे व्रत-नियम लीधा होय तेनाथी वध्य-मारी नाखवा लायकनी पण हत्या न कराय एवी शास्त्र मर्यादा छे आथी) भगवान् बलदेवजी तीर्थयात्राने कारणे दुष्टोनो पण वध न करता छतां आटलुं कही तेमणे पोताना हाथमां दर्भनी एक नानकडी सळी लीधी अने ते सूतजी उपर फेङ्की. सूतजी तरत ज मरी गया. बनवाकाळ ज एवुं हतुं. (भगवान् जे वस्तु हाथमां ले ते वस्तुमां भगवाननी क्रियाशक्तिनो आविर्भाव थई जाय छे) ॥२८॥
भगवत्कथाना श्रवणमां विघ्न थवाथी बधा मुनिओमां हाहाकार थई गयो अने तेओनां मन खिन्न थई गयां. तेमणे सङ्कर्षण (बलदेवजी) भगवानने कह्युं, ‘‘आपे भारे अर्धम कर्यो. आप प्रभु छो.(तेथी प्रभुता-सामर्थ्यनो परिचय आप्यो, ज्ञाननोनहि) ॥२९॥
हे यदुवंश शिरोमणि बलदेवजी! सूतजीने अमे ज ब्रह्मासन आप्युं हतुं अने ज्यां सुधी अमारुं सत्र पूरुं न थाय तेटला समयमाटे एमने शारीरिक कष्ट रहित (अमारुं) आयुष्य पण एमने आप्युं हतुं* ॥३०॥
विशेष - ब्राह्मण सिवाय बीजाना मुखथी कथा न सम्भळाय माटे अमे तेने ब्रह्मासन आपेलुं,
अर्थात् ज्यां सुधी व्यासासन उपर बेठेला होय त्यां सुधी ते ब्राह्मण ज छे अने क्षत्रिय आवे
त्यारे ब्राह्मण ऊभो थई मान आपतो नथी. सत्रनी समाप्ति सुधी अमे अमारुं आयुष्य पण
तेने आपेलुं. तो पछी तमे केवी रीते जीवो छो? एनुं समाधान ए छे के धर्म वगेरेनुं आचरण
अध्याय-७८,५६ दशमस्कन्ध
थतुं होय त्यारे सूर्य तेना आयुष्यनुं हरण करता नथी.
आपे अजाणतां आ एक एवुं काम करी नाख्युं जे ब्रह्महत्यानी बराबर छे.
अमे एम मानीए छीए के आप योगेश्वर छो. (कर्मथी लागता गुणदोष जीवने
लागे, योगेश्वर ब्रह्मने नहि) छतां अमारी आपने प्रार्थना छे के आपनो अवतार
लोकोने पवित्र करवामाटे थयेलो छे. आपे कोईनी पण प्रेरणा विना स्वयं पोतानी
इच्छाथी ज आ ब्रह्महत्यानुं प्रायश्चित्त लोकशिक्षणार्थ करवुं जोईए’’ ॥३१-
३२॥
भगवान् बलदेवजीए कह्युं - ‘‘हुं लोकशिक्षणमाटे, लोको उपर अनुग्रह करवामाटे आ ब्रह्महत्यानुं प्रायश्चित्त अवश्य करीश तेथी तेने माटे (अनुकल्प नहि पण) प्रथम श्रेणिनुं जे प्रायश्चित्त होय ते आप कहो ॥३३॥
आप लोक आ सूतने लाम्बु आयुष्य, बल, इन्द्रियशक्ति वगेरे जे कंई आपवा मागता हो ते मने बतावो. हुं आपने योगबलथी बधुं सिद्ध करी आपीश’’ ॥३४॥
ऋषिओए कह्युं - ‘‘हे बलदेवजी! आप एवो कोई उपाय करो जेथी आपनुं अस्त्र, पराक्रम अने तेनुं मृत्यु पण व्यर्थ न थाय अने अमे तेने जे वरदान आप्युं हतुं ते पण सत्य थई जाय’’ ॥३५॥
भगवान् बलदेवजीए कह्युं ः‘‘हे ऋषिओ! वेदोनुं एवुं कहेवुं छे के आत्मा ज पुत्रना रूपमां उत्पन्न थाय छे. तेथी रोमहर्षणने स्थाने तेनो पुत्र आप लोकोने पुराणोनी कथा सम्भळावशे. तेने हुं मारी शक्तिथी दीर्घायु, इन्द्रियशक्ति अने बल आपुं छुम् ॥३६॥
हे ऋषिओ! ते उपरान्त आप लोक बीजुं जे कंई मागवा इच्छो ते मने कहो. हुं आप लोकोनी इच्छा पूर्ण करीश. अजाणतां माराथी जे अपराध बनी गयो छे तेनुं प्रायश्चित पण आप लोको विचारीने कहो, कारण के आप लोको ते विषयना विद्वान छो’’ ॥३७॥
ऋषिओए कह्युं - ‘‘हे बलदेवजी! ईल्वलनो पुत्र बल्वल नामनो एक भयङ्कर दानव छे. ते दरेक पर्व उपर अर्ही आवे अने अमारा आ सत्रने दूषित करे छे. (पर्व=पूर्णिमा अने सोमरस काढवानो दिवस) ॥३८॥
हे यदुनन्दन! ते अर्ही आवी परु, लोही, विष्ठा, मूत्र, शराब अने मांसनी [[५७]] वर्षा करवा लागे छे. आप तेने मारी नाखो. आ अमारी बहु मोटी सेवा थशे ॥३९॥
ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः ॥ चरित्वा द्वादशान्मासान् तीर्थस्नायी विशुद्ध्यसे ॥४०॥
त्यारबाद आप एकाग्र चित्तथी तीर्थोमां स्नान करता-करता बार महिना सुधी भातरवर्षनी परिक्रमा करता-करता विचरण करता रहेजो. आथी आपनी शुद्धि थई जशे’’ ॥४०॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजाफल-पेटा प्रकरणनो ऐश्वर्यरूप पहेलो) ‘‘दन्तवक्त्र तथा विदूरथ नो भगवाने करेलो उद्धार’’ नामनो (उत्तरार्धनो ओगणत्रीसमो अने चालु) इठ्योतेरमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां पञ्चोतेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय ७९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७६ बलदेवजीए करेलो बल्वलनो वध चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय२
विशेष - सूतजीने मारवाथी अपकीर्ति थई त्यारे कीर्ति थाय एवां कामो तीर्थयात्रा, भीम अने दुर्योधन ना, गदायुद्धनी मध्यस्थी तथा यज्ञ वगेरे धर्मो बलदेवजीए कर्या. एनुं आ ओगण्याएंशीमा अध्यायमां वर्णन करवामां आवे छे. ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांशुवर्षणः ॥ भीमो वायुरभूद् राजन् पूयगन्धस्तु सर्वतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे पूर्णिमानुं पर्व आव्युं त्यारे धूळ वरसावती
ईं उं ईं उं
अध्याय-७९,५८ दशमस्कन्ध भयङ्कर आन्धी चडी आवी. हे राजन्! ए वायुमां परुनी गन्ध सर्वत्र फेलाती हती ॥१॥
पछी बल्वले फेङ्केल मल, मूत्र वगेरे अपवित्र पदार्थनो वरसाद यज्ञशाळामां थयो अने ए पोते पण हाथमां त्रिशूल लईने ऊभेलो जोवामां आव्यो ॥२॥
तेनो देह राक्षसी विशाळकाय हतो. एवुं लागतुं हतुं के ढगलाबन्ध काजळनो पर्वत ज होय. तेनी चोटी अने दाढीमूछ तपेला ताम्बा जेवा लाल-लाल हतां. मोटी-मोटी दाढो अने भवान्ने लीधे तेनुं मों बहुज बिहामणुं लागतुं हतुं. तेने जोईने भगवान् बलदेवजीए शत्रु सेनानो नाश करनार मुशलनुं अने दैत्योनुं दमन करनार हळनुं स्मरण कर्युं. तेमनुं स्मरण करतां ज ते तरत त्यां आवी पहोञ्च्या ॥३-४॥
बलदेवजीए आकाशमां विचरता बल्वल दैत्यने पोताना हळना आगला भागथी खेञ्ची ते ब्रह्मद्रोहीना माथा उपर क्रोध करीने एक मुशल भारे जोरथी मार्युं जेथी तेनुं कपाळ फाटी गयुं अने ते लोही ओकतो, आर्त स्वरथी चीसो पाडतो, जेवी रीते वज्रना प्रहारथी गेरु वगेरेथी रङ्गेलो *लाल पर्वत पडी गयो होय तेवी रीते धरती उपर पडी गयो ॥५-६॥
विशेष - श्लोक त्रीजामां ते मेशना जेवो काळो छे एम वर्णन कर्युं छे. अर्ही मुशळना मारथी लोही पुष्कळ नीकळतां तेने लाल पर्वत जेवो कह्यो छे. मुनिओ बलदेवजीनी स्तुति करता सत्य आशिषो आपवा लाग्या अने वृत्रने मारीने इन्द्र आव्या त्यारे देवोए अभिषेक कर्यो हतो तेम बलदेवजीनी उपर मन्त्राभिषेक करवा लाग्या ॥७॥
अने लक्ष्मीना स्थानरूप अने जेमां गून्थेलां कमळ करमातां नथी तेवी वैजयन्ती माळा, बे दिव्यवस्त्रो अने दिव्य आभूषण आप्याम् ॥८॥
ए ब्राह्मणोए त्यान्थी जवानी आज्ञा आपी त्यारे ए बलदेवजी ब्राह्मणोनी साथे कौशिकी नदी उपर आव्या एमां स्नान करीने ज्यान्थी सरयू नदी नीकळे छे ते मानस सरोवर उपर गया ॥९॥
सरयूना काण्ठे-काण्ठे चालतां-चालतां प्रयाग आव्या. त्यां त्रिवेणीमां स्नान करी देवो, ऋषिओ अने पितरोनुं तर्पण करी पुलहना आश्रम (हरिक्षेत्र) मां आव्या ॥१०॥
[[५९]] त्यान्थी गण्डकी, गोमती (पञ्जाबमां हरिक्षेत्रनी पासे आवेली) विपाशा१ नदीओमां स्नान करी शोण नदीना तट उपर जई त्यां स्नान कर्युं. पछी गयामां२ जई पितरोनुं यजन-पूजन कर्युं. पछी गङ्गासागर सङ्गम उपर गया. त्यां पण स्नान वगेरे तीर्थकृत्योथी निवृत्त थई महेन्द्र पर्वत उपर गया. त्यां परशुरामजीनां दर्शन अने अभिवादन कर्यां. त्यारबाद सप्त गोदावरी, वेणा (विद्यानगर समीप) पम्पा अने भीमरथी वगेरेमां स्नान करी स्वामी कार्तिकना दर्शन करवा गया. त्यान्थी महादेवजीना निवासरूप श्रीशैल पर्वत उपर पहोञ्च्या. त्यार बाद भगवान् बलदेवजीए द्रविड देशना परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचलनां३ दर्शन कर्यां अने त्यान्थी ते कामाक्षी-शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची थईने तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमां स्नान करी पुण्यमय श्रीरङ्गक्षेत्रमां पहोञ्च्या. श्रीरङ्गक्षेत्रमां भगवान् विष्णु सदा बिराजमान रहे छे ॥११-१४॥
विशेष - १. एक बीजी विपाशा नदी काश्मीरमां पण छे.
२. जेना पिता हयात हो तेनाथी गया खास न जवाय. पण यात्रा करवा कोई नीकळे
अने रस्तामां गया आवे तो त्यां जवामां वान्धो नहि.
३. वेङ्कट पर्वत पोते ज विष्णुरूप छे.
त्यान्थी ऋषभाद्रि ज्यां भगवाननुं धाम छे त्यां गया. त्यान्थी दक्षिण मथुरा
थईने समुद्रना सेतु उपर गया के जे महापातकने दूर करे छे ॥१५॥
त्यां हलायुध बलदेवजीए ब्राह्मणोने दश हजार गायोनुं दान कर्युं. पछी कृतमाला, ताम्रपर्णी, मलय (कुलाचल)* सुधी आव्या. त्यां अगस्त्य बेठा छे तेमने नमस्कार कर्या त्यारे अगस्त्ये आशीर्वाद आप्या. एमने वन्दन करी आज्ञा मागीने दक्षिण समुद्र उपर ज्यां कन्याकुमारी क्षेत्र छे त्यां पहोञ्च्या अने दुर्गादेवीनां दर्शन कर्याम् ॥१६-१७॥
विशेष - समग्र खण्डमां आवेला मुख्य सात पर्वतो कुलपर्वत (कुलाचल) कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे छेःमहेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य अने पारियात्र. त्यारबाद ते फाल्गुनतीर्थ-अनन्तशयन क्षेत्रमां गया अने त्यान्ना सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस (पाञ्च अप्सराओना) तीर्थमां स्नान कर्युं. त्यां सदा सर्वदा विष्णु भगवाननुं सान्निध्य रहे छे. त्यां दश हजार गायोनुं दान कर्युम् ॥१८॥
हवे भगवान् बलदेवजी त्यान्थी नीकळी केराळा अने मलबार मां थई भगवान् अध्याय-७९,६० दशमस्कन्ध शङ्करना क्षेत्र गोकर्ण तीर्थमां आव्या. त्यां भगवान् शङ्कर सदा सर्वदा बिराजमान रहे छे ॥१९॥
ज्यां व्यासजीए तप करेल ते ‘आर्या’नामनी नदी छे त्यां थई बलदेवजी शूर्पारक आव्या. त्यान्थी तापी, पयोष्णि अने निर्विन्ध्या मां स्नान करी दण्डकारण्यमां आव्या ॥२०॥
त्यान्थी नर्मदा नदीमां स्नान करी माहिष्मती नगरीमां आव्या. त्यान्थी मनु तीर्थमां थईने प्रभास क्षेत्रमां बलदेवजी आव्या ॥२१॥
त्यां ब्राह्मणोए कौरव पाण्डवना युद्धनी वात करी ते साम्भळीने बधा राजाओ मर्या तेथी पृथ्वीनो भार ओछो थयो एम बलदेवजीए मान्युम् ॥२२॥
एमणे एम साम्भळ्युं के भीम अने दुर्योधन गदायुद्ध करे छे, त्यारे ए बन्नेने लडता बन्ध करवाना उद्देशथी बलदेवजी कुरुक्षेत्रमां आव्या ॥२३॥
युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, कृष्ण वगेरे बलदेवजीने जोईने पगे लाग्या. शुं कहेवाने बलदेवजी अर्ही आव्या छे ए जाणवामाटे पोते कांई पण न बोलतां ऊभां रह्याम् ॥२४॥
बलदेवजीए बन्नेने हाथमां गदा लई युद्ध करता एकबीजाने जीतवाने माटे क्रोध करता अने अनेक प्रकारना पेन्तरा लेता जोया त्यारे बलदेवजीए एमने आ प्रमाणे कह्युंः ॥२५॥
‘‘हे राजा दुर्योधन! हे भीमसेन! तमे बन्ने वीर छो, तुल्य बळवाळा छो एक शिक्षणमां अधिक छे ज्यारे बीजामां बळ वधारे छे ॥२६॥
तमे बराबर पराक्रमवाळा होवाथी एकनो जय थवानो सम्भव नथी. तेमज पराजय पण कोईनो थाय एम लागतुं नथी. तेथी तमारुं लडवुं फोगट छे. तेथी तमे लडता बन्ध रहो एम हुं इच्छुं छुं’’ ॥२७॥
हे राजन्! अति वेर बन्धाई जवाथी सार्थक वाक्योने पण बन्नेए साम्भळ्यां नहि; एक बीजाना आगळ-पाछळना बोलेला करेला अपकारनुं स्मरण करता रहीने गदायुद्ध चालु राख्युम् ॥२८॥
भगवान् बलदेवजीए निश्चय कर्यो के तेमनुं प्रारब्ध ज एवुं हशे तेथी ते बाबतमां विशेष आग्रह राख्या विना ते द्वारका पाछा फर्या. द्वारकामां उग्रसेन वगेरे गुरुजनोए तथा बीजा सम्बन्धीओए प्रेम पूर्वक सामे आवी तेमनुं स्वागत कर्युं [[६१]] ॥२९॥
त्यान्थी बलदेवजी फरी नैमिषारण्य क्षेत्रमां गया. त्यां ऋषिओए बलदेवजीद्वारा आनन्दपूर्वक बधी जातना यज्ञो *कराव्या. बलदेवजीए तमाम वेदविरोध, युद्धने तिलाञ्जली आपी दीधी हती. हे परीक्षित! साचुं पूछोतो जेटला यज्ञ छे तेबधा बलदेवजीना अङ्गो ज छे. एमने यज्ञ करवानी जरूर नहोतीपण छतां एमणे यज्ञो कर्या ते लोकसङ्ग्रहने माटेज ॥३०॥
विशेष - यज्ञ करवानो अधिकार जेने प्राणीमात्र उपर दया होय एटलुञ्ज नहि पण प्राणीमात्रनी साथे जेने मैत्री होय तेनेज होय छे. समर्थ बलदेवजीए एमने विशुद्ध ज्ञान आप्युं जेनाथी पोताना आत्मामां आ विश्वने अने विश्वमां पोताना आत्माने ए ऋषिओ जोवा लाग्या ॥३१॥
पोतानी पत्नी रेवतीजी साथे अवभृथ स्नान करी ज्ञाति सम्बन्धीथी र्वीटाई चन्द्र पोतानी चान्दनीथी शोभे तेम, बलदेवजी सारां आभूषण अने वस्त्रोमां शोभवा लाग्या ॥३२॥
हे परीक्षित! भगवान् बलदेवजी स्वयं अनन्त छे. एमनुं स्वरूप मन अने वाणी थी अगोचर छे. तेमणे लीलाने माटे ज आ मनुष्यना जेवुं शरीर धारण कर्युं छे. एवा बलशाली बलदेवजीनां आवां चरित्रो तो अगणित छे ॥३३॥
शृण्वन् गृणंश्चरामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः ॥ सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ॥३४॥
(बलदेवजीनां चरित्रोनां श्रवण, पाठ वगेरेनी श्रीकृष्ण भक्तिमां उपयोगिता जणावतां कहे छे के) जे पुरुष अनन्त, अद्भुत कर्मो करनारा बलदेवजीनां चरित्रोनुं साञ्ज सवार श्रवण करे अने (अर्थनुं अनुसन्धान होय के न होय) पाठ मात्र करे ते (आ श्रवण, कीर्तन वगेरे करनार मारा सेवकनो सेवक छे तेथी जेम पौत्र करतां पण प्रपौत्र-पौत्रनो पुत्र वधारे वहालो लागे छे तेम) पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्णनो अत्यन्त प्रिय थई जाय छे ॥३४॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल-पेटा
प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘बलदेवजीए करेलो बल्वलनो वध’’ नामनो
(उत्तरार्धनो त्रीसमो अने चालु) ओगण्याएंसीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां छोतेरमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय-७९,६२ दशमस्कन्ध
अध्याय ८०
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७७ श्रीकृष्णना मित्र सुदामानुं आख्यान चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय ३
विशेष - बे अध्यायथी भगवानना मित्र सुदामा पासे लोकमां प्रसिद्ध लक्ष्मीना कारण राज्य वगेरे न होवाथी केवळ भगवान्थी ज प्राप्त थयेल सम्पत्तिनुं वर्णन करे छे. आ ८० मा अध्यायमां श्रीकृष्णना मित्र सुदामाने सम्पत्ति बिलकुल न हती एम कहेवामां आवे छे. चतुर परीक्षित राजा बलदेवजीना चरित्रने साम्भळीने दिलगीर थया तेथी भगवाननी विशेष लीला साम्भळवामाटे अर्ही प्रश्न करे छे. (कारिका) भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ॥ वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो ॥१॥
राजा परीक्षिते कह्युं - हे भगवन्! मोक्ष, महत्ता अने स्व स्वरूप नुं दान करवा ज प्रकट थयेल श्रीकृष्णनां पराक्रमो अनन्त छे. हवे अमे आपनी प्रकट अने अप्रकट ऐश्वर्यपूर्ण बीजी लीलाओ साम्भळवा इच्छीए छीए. अमारी आ जिज्ञासा पूर्ण करवा समर्थ आप ज छो, बीजुं कोई नहि ॥१॥
हे ब्रह्मन्! आ जीव विषयसुख पाछळ दोडतां-दोडतां दुःखी-दुःखी थई गयो छे. विषयो तेने बाणोनी जेम सदा त्रास आपता ज रहे छे. आवी स्थितिमां एवो कोण रसनो विशेषज्ञ पुरुष हशे जे वारंवार पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीकृष्णनी श्रेष्ठ मङ्गलमयी लीलाओ श्रवण करीने तेमनाथी विमुख थई जाय! गुणानुरागी कोई पण भगवाननी कथामां तृप्त ज न थाय ॥२॥
जे वाणी भगवानना गुणोनुं गान करे छे तेज साची वाणी छे. तेज हाथ साचा हाथ छे जे भगवाननी सेवा करे छे. ते ज मन साचुं मन छे जे चराचर प्राणीओमां निवास करनारा भगवाननुं स्मरण करे छे अने ते ज कान, कान कहेवडाववाने योग्य छे जे कल्याणकारी भगवाननी कथाओनुं श्रवण करे ॥३॥
जे चराचर जगतने भगवाननां चल-अचल स्वरूप समजीने नमस्कार करे छे ते ज मस्तक कहेवाय अने जे सर्वत्र भगवद् रूपोनां दर्शन करे छे ते ज नेत्र वास्तवमां नेत्र छे. शरीरनां जे अङ्ग भगवान् अने आपना भक्तोना चरणोदकनुं सेवन करे छे [[६३]] अथवा भगवद् चरणरूप गङ्गाजीनां स्नान पान करे ते ज अङ्ग वास्तविक रीते अङ्ग छे, साचुं पूछो तो तेमनुं ज होवुं सफल छे ॥४॥
सूतजी कहे छे - आ प्रमाणे परीक्षित राजाए प्रश्न पूछ्यो त्यारे भगवान् श्रीशुकदेवजीनुं हृदय भगवान् वासुदेवमां तल्लीन थई गयुं. तेमणे परीक्षितने आ प्रमाणे कह्युं* ॥५॥
विशेष - आने माटे ज भगवाने परीक्षितनुं ते गर्भमां हता त्यारे रक्षण कर्युं हतुं. श्रीशुकदेवजीमाटे सूतजीए भगवान् बादरायणिः शब्दो वापर्या छे. ‘‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’’ जेने जेमां श्रद्धा होय ते-ते रूप ज छे. श्रीशुकदेवजीने भगवान् श्रीकृष्णमां अडग श्रद्धा हती. बीजुं ते तप परायण बोरडीओना वनमां रहेनारा व्यास भगवानना पुत्र हता. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! एक ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णना परम मित्र हता. ते महान ब्रह्मज्ञानी, विषयोथी विरक्त, शान्तचित्त अने जितेन्द्रिय हता ॥६॥
ते गृहस्थ हता छतां कोई प्रकारना सङ्ग्रह-परिग्रह करता नहि. प्रारब्ध अनुसार जे कंई मळी आवतुं तेमां ज ते सन्तोष मानता. तेमनां वस्त्रो तो फाट्यां-तूट्यां हतां ज तेमनी पत्नीनां वस्त्रो पण तेवां ज हतां. ते पण पोताना पतिनी जेम भूखथी दूबळी ज थई गई हती* ॥७॥
विशेष - भगवान् ज भगवानना सखा थई शके छे. भगवानना ऐश्वर्य वगेरे छ धर्मो अने
सातमा धर्मी पोते छे. तेम सुदामाजीमां पण सात धर्मो छे - १. ब्राह्मणः - श्री (लक्ष्मीजी
ब्रह्मानन्दरूप छे) २. ब्रह्मवित्तमः - ब्रह्मवेत्ताओमां श्रेष्ठ-ज्ञान ३. विरक्तः - वैराग्य
४.प्रशान्तात्मा - धर्मी ५.जितेन्द्रियः - ऐश्वर्य ६.‘‘यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमा-
नः’’- भगवदिच्छाथी प्राप्त थई जाय तेथी सन्तुष्ट वीर्य ७. गृहाश्रमी - गृहस्थ-
कीर्ति.
एक दिवस दरिद्रतानी प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता ध्रूजती-ध्रूजती पोताना
पतिदेवनी पासे गई अने करमाई गयेल मोढे कह्युम् ॥८॥
हे ब्रह्मन्! (भगवाने पोतानुं स्वरूप आपमां स्थाप्युं छे तेथी आप भगवत्स्वरूप छो. तेथी ज) साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण आपना सखा छे. श्रीकृष्ण ब्राह्मणोना भक्त, स्वतः उदार अने शरणे जनारने सर्व निःसङ्कोच आपी दे छे. (शरणे न जाओ अने एमने एम पण जाओ तो पण आपशे ए बीजा ‘च’ नो अर्थ छे) अध्याय-८०,६४ दशमस्कन्ध परम भक्तोना तो स्वामी ज छे. (एटले सेवको तेमनी पासे जतां आपने रोकी शकशे नहि) ॥९॥
हे महाभाग! एओ सत्पुरुषना परम हितैषी छे, तो आप कुटुम्बी छो, गृहस्थाश्रममां दुःख भोगवो छो तेथी आप आपना ए मित्रनी पासे जाओ तो आपने बहु द्रव्य आपशे ॥१०॥
भोज, वृष्णि अने अन्धकवंशी यादवोना स्वामीना रूपमां द्वारकामां बिराजे छे. आप एटला उदार छे के जे आपनां चरणकमलनुं स्मरण करे तेने पोतानो आत्मानन्द पण आपी दे तो पछी अर्थ काम जे आपने बहु प्रिय नथी ते भजनारने आपे एमां तो शुं ज कहेवुं? केमके ए जगतना गुरु छे, हितोपदेश करनार आपणुं हित थाय तेवुं ज आपे. एमनाथी अहित करे तेवुं मळवानी शङ्काने अवकाश नथी, तो आप एकवार तो आपना सखाने मळो ॥११॥
एम एमनी स्त्रीए बहु वार प्रार्थना करी त्यारे विप्रने विचार आव्यो के उत्तम पुरुषो जेमनां गुणगान करे छे ते भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन थई जशे ए तो जीवननो एक अणमोल लहावो छे ॥१२॥
आवो विचार सुदामाना मनमां आवतां एमणे द्वारका जवानो बुद्धिथी निश्चय कर्यो पण भगवाननी पासे खाली हाथे न जवाय तेथी स्त्रीने कह्युंः‘‘हे कल्याणि! हुं त्यां जाउं पण कांई आपणा घरमां आवी चीज छे के जे त्यां भेटतरीके आपी शकाय? एवी वस्तु होय तो लाव एटले हुं जाउं’’ ॥१३॥
पतिव्रताए पतिनी इच्छा जाणी पडोशना ब्राह्मणो पासे याचना करी चार मूठी पौंवा लावी एने एक वस्त्रना टुकडामां बान्धी भगवानने भेट धरवामाटे तैयार करीने पोताना पतिनेआप्या ॥१४॥
ब्राह्मणदेवता सुदामाए पोटली लईने चाल्या. द्वारकाने मार्गे चालतां विचार करे छे के ‘‘मने श्रीकृष्णनां दर्शन केम थशे?’’ एम चिन्तन करता द्वारका पहोञ्च्या ॥१५॥
त्रण पहेरा अने त्रण दरवाजा ओळङ्गी आगळ चालतां ज्यां न प्रवेशी शकाय तेवा अन्धक वृष्णि वगेरे भगवानना भक्तोना महेलो आव्या ॥१६॥
तेमनीवच्चे भगवान् श्रीकृष्णनी सोळ हजार राणीओना महेलो हता. तेमान्थी एकमान्ते ब्राह्मण देवताए प्रवेश कर्यो.(ब्राह्मण जाणी कोईए रोक्यानहि) तेमहेल [[६५]] खूब सजावेलो-शणगारेलो हतो. द्वारकामां वैङ्कुण्ठनो आवेश, सुदामाजी ब्राह्मण, श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्मना महेलमांसुदामाजीए प्रवेश कर्यो त्यां तोजाणे ब्रह्मानन्दमां डूबी गया होयतेवो अनुभव थयो ॥१७॥
ते वखते भगवान् श्रीकृष्ण पोतानी प्राणप्रिया (लक्ष्मणाजी) ना पलङ्ग उपर बिराजेला हता. ब्राह्मण देवताने दूरथी ज जोई आपे एकदम ऊभा थई एमनी पासे जई अत्यन्त आनन्दथी तेमने भुजपाशमां बान्धी दीधा ॥१८॥
हे परीक्षित! कमलनयन श्रीकृष्णने पोताना प्रिय मित्र अने विप्रर्षि एवा सुदामाना अङ्गस्पर्शथी एटलो बधो आनन्द थयो के भगवाननुं मन जाणे के तेमने जोवा नेत्रद्वारा बहार आववानी कोशिष करे छे अने तेथी नेत्रोने श्रम थवाथी स्वेदनी जेम जाणे के हर्षाश्रु टपकी पड्याम् ॥१९॥
ए पछी सुदामाजीने अन्दर लई जई पोते बिराजता हता ते पलङ्ग उपर बेसाडी तेमनी पूजा करतां पग धोवानुं जळ लावी एमना पग जाते धोईने ॥२०॥
हे राजन्! पोते लोकोने पवित्र करनार छे छतां ए ब्राह्मणना चरणक्षालन जळने पोताना मस्तक उपर चडाव्युं, पछी दिव्य सुगन्धवाळां चन्दन, अगरु, केसर वगेरेथी ब्राह्मणने अनुलेपन कर्युम् ॥२१॥
सुगन्धवाळा धूप अने दिपावली थी तेमनी आरती उतारी एमनुं पूजन करी एमने ताम्बूल तथा विधिनुं परिपालन करवा वृषभ अर्पण करी तेमनुं स्वागत कर्युं ॥२२॥
ब्राह्मण देवताए जीर्ण-शीर्ण कपडां पहेर्यां हतां. शरीर मलिन अने दुर्बल हतुं. शरीर उपर नसेनस देखाती हती. तेवा दुर्बल ब्राह्मणने (लक्ष्मीजीना आवेशयुक्त) देवी लक्ष्मणाजी चमर ढोळवा लाग्याम् ॥२३॥
पवित्र कीर्तिवाळा भगवान् श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमथी आ मेला-घेला अवधूत ब्राह्मणनी पूजा पोते करी रह्या छे ते जोईने राणीवासनी स्त्रीओने अत्यन्त आश्चर्य थयुम् ॥२४॥
तेओ आपसमां कहेवा लाग्यां ‘‘भिखारी, निर्धन, निन्दनीय अने निस्तेज एवा आ अवधूते एवुं ते क्युं पुण्य आ लोकमां कर्युं हशे के जेथी त्रण लोकना गुरु अने लक्ष्मीजी ना निवासरूप भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं तेनो आदर-सत्कार करी रह्या छे! जुओ तो खरां तेमणे पोताना पलङ्ग उपर सेवा करतां लक्ष्मीस्वरूप अध्याय-८०,६६ दशमस्कन्ध श्रीलक्ष्मणाजीने छोडीने आ ब्राह्मणने, पोताना मोटाभाई बलदेवजीनी जेम छाती सरसा चाम्प्या छे!’’ ॥२५-२६॥
हे प्रिय परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण अने ते ब्राह्मण बन्ने एकबीजाना हाथ पकडी पोताना पूर्वजीवननी ए रसमय घटनाओनुं स्मरण अने वर्णन करवा लाग्या जे गुरुकुलमां रहेती वखते बनी हती ॥२७॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - हे धर्मना मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा आपी ज्यारे आप गुरुकुलथी पाछा आव्या त्यारे आपे आपने अनुरूप स्त्री साथे लग्न कर्युं के नहि? ए वात प्रथम कहो ॥२८॥
हुं जाणुं छुं के आपनुं चित्त गृहस्थाश्रममां रहेवा छतां प्रायः विषयभोगमां आसक्त नथी. हे विद्वन्! (ज्ञाननो उदय थाय त्यारे शरीरनो अध्यास छूटी जाय छे तेथी शरीरने प्रिय घरमां प्रीति न होय) ए पण हुं जाणुं छुं के (गाय, भूमि, सुवर्ण वगेरे) धनमां पण आपनी कोई खास प्रीति नथी ॥२९॥
जगतमां एवा लोको विरला ज होय छे जे निष्काम थई फलनी आशा राख्या विना ज कर्मो करे छे. तेओ स्वभाव उपर विजय मेळववा कर्मो करे छे. तेओ मारी जेम लोकशिक्षानेमाटे कर्मो करी दैवी प्रकृतिने छोडी दे छे ॥३०॥
हे ब्राह्मण शिरोमणि! शुं तमने ए वखतनी याद आवे छे ज्यारे आपणे बन्ने गुरुकुलमां साथे रहेता हता? खरेखर गुरुकुलमां ज द्विजातिओने खरेखर ज्ञातव्य (जाणवा जेवी वस्तु-ईश्वर अने प्रमाणो) वस्तुनुं ज्ञान थई जाय छे जे द्वारा ते भगवानने प्राप्त करी ले छे ॥३१॥
आ संसारमां आ शरीरने आपनार पिता प्रथम गुरु छे. त्यारबाद उपनयन संस्कार करी सत्कर्मोनी शिक्षा आपनार बीजा गुरु छे. ते मारी जेम ज पूज्य छे. त्यार पछी ज्ञाननो उपदेश करी परमात्माने प्राप्त करावी आपनार गुरु तो मारुञ्ज स्वरूप छे. वर्णाश्रमीओना आ त्रण गुरु होयछे ॥३२॥
हे ब्राह्मण देव! गुरुना स्वरूपमां हुं ज छुं. आ जगतमां वर्णाश्रमीओमान्थी जे लोको पोताना गुरुदेवना उपदेश प्रमाणे अनायास ज-सहजमां भवसागर पार करी ले छे ते पोताना स्वार्थ अने परमार्थ ना साचा जाणकार छे ॥३३॥
हे प्रिय मित्र! गुरुदेवनी सेवा-शुश्रूषाथी हुं जेटलो सन्तुष्ट थाउञ्छुं तेटलो हुं(गृहस्थोना धर्म)याग अने प्रजा उत्पादनथी (वानप्रस्थना धर्म) तपथीअने [[६७]] (परमहंसना धर्म) उपराम-तमाम प्रवृत्तिमान्थी निवृत्तिथीपण एटलो सन्तुष्ट थतो नथी कारण केप्राणीमात्रमां हुञ्ज वसेलोछुं* ॥३४॥
विशेष - यज्ञ करवामां हिंसा करवी पडे छे. प्रजोत्पत्तिमां पण क्लेश छे. तपथी शरीरने क्लेश थाय छे. उपराम (परमहंसना धर्म) मां पण शरीर अने इन्द्रियो ने क्लेश आपवामां आवे छे. आम आ बधा धर्मो क्लेश करनारा होवाथी हुं प्रसन्न थतो नथी. ज्यारे गुरु सेवामां गुरु अने शिष्य बन्नेने आनन्द थाय छे तेथी हुं प्रसन्न थाउं छुं. आपणे गुरुकुलमां वसता हता त्यारे गुरुपत्नीए आपणने लाकडां लेवा मोकलेला ए वात तमने याद आवे छे के? ॥३५॥
हे द्विज! आपणे घोर अरण्यमां पहोञ्चेला त्यां वर्षाऋतु नहोती छतां वायु अने वरसाद बहु थयो, कानथी सहन न थाय तेवी मेघगर्जना थई हती ॥३६॥
एटलामां सूर्य अस्त थई गयो, दिशाओमां अन्धकार छवाई गयो. धरती उपर तो बधुं एवुं जळबम्बाकार थईगयुं के क्यां नदी छे, क्यां धरती छे तेनी खबर ज पडती नहोती. (गुरुना)घेर पाछा आववानो कोई रस्तो सूझतोनहतो ॥३७॥
ए वरसाद नहोतो, प्रलयनी ज नानी आवृत्ति हती, नानेरो प्रलय ज हतो. आन्धीना झपाटा अने वर्षाना कडाका थी आपण त्रणेने भारे पीडा थई अने दिशानुं भान न रह्युं. आपणे भूख्या तरस्या अत्यन्त व्याकुल थई गया अने (छूटा न पडी जवाय एटलामाटे) एकबीजाना हाथ पकडी राखी जङ्गलमां आमतेम भटकता रह्या ॥३८॥
आ बधी वात जाणतां सान्दीपनी गुरु दिवस ऊगतां पहेलां ज आपणी शोधमां नीकळी पड्या अने वनमां आव्या. त्यां एमणे आपणने ठण्डीथी थरथरता जोया ॥३९॥
ते कहेवा लाग्या, ‘‘हे पुत्रको! तमे अमारे माटे बहु दुःखी थया. दरेक प्राणीने पोतानुं शरीर सौथी वधारे वहालुं होय छे छतां तमे ए शरीरनी परवा कर्या वगर मारा काममाटे अर्ही आव्या ॥४०॥
गुरुना ऋणथी मुक्त थवामाटे सत्-शिष्योनुं एटलुं ज कर्तव्य छे के तेओ विशुद्ध भावथी पोतानुं सर्वस्व अने शरीर पण गुरुदेवनी सेवामां समर्पण करी दे ॥४१॥
हे द्विज शिरोमणिओ! हुं तमारा उपर बहु ज प्रसन्न छुं. तमारी बधी इच्छा-अभिलाषाओ पूर्ण हो अने तमे अमारी पासेथी जे वेदाध्ययन कर्युं छे ते अध्याय-८०,६८ दशमस्कन्ध तमने सदा कण्ठस्थ रहे तथा आ लोक अने परलोक मां फलसाधक थाय’’ ॥४२॥
गुरुकुलमां आपणा निवास दरम्यान आपणा जीवनमां आवी अनेक घटनाओ बनी हती. ए शङ्का वगरनी वात छे के गुरुदेवनी कृपाथी ज मनुष्य परम शान्ति प्राप्त करवा समर्थ थाय छे ॥४३॥
ब्राह्मण देवताए कह्युं - हे देवताओना आराध्य देव जगद्गुरु श्रीकृष्ण! हवे भला अमारे शुं करवानुं बाकी रह्युं? कारण के सत्य सङ्कल्प परमात्मा आपनी साथे अमने गुरुकुलमां रहेवानुं सौभाग्य प्राप्त थयुं हतुम् ॥४४॥
यस्यच्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभोः ॥ श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥४५॥
हे प्रभो! छन्दोमय वेद धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार प्रकारना पुरुषार्थोनो मूल स्रोत छे; आपनो देह ते ज वेदस्वरूप छे. ते ज आप वेदोनो अभ्यास करवामाटे गुरुकुलमां निवास करो ते मनुष्य लीलानो अभिनय नहि तो बीजुं शुं छे? ॥४५॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल-पेटा
प्रकरणनो यशरूप त्रीजो) ‘‘श्रीकृष्णना मित्र सुदामानुं आख्यान’’नामनो
(उत्तरार्धनो एकत्रीसमो अने चालु) एंशीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय
१२-१३-१४ बाद करतां ७७मो) अध्यायसम्पूर्ण थयो.
फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे
भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी
आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे, गुरुद्रोह छे
अध्याय ८१
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७८ भगवाने सुदामाने सम्पत्ति आपी चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय ४
विशेष - आ एकाशीमा अध्यायमां पुरुषार्थपणाथी सुदामाए भगवान् प्रकट थयेला जाण्या छे
ईं उं ईं उं
[[६९]] तेथी भगवान् पोतानुं कर्तव्य जाणीने एने सम्पत्ति आपे छे ए वात कहेवाय छे. मर्यादाथी प्रेरायेली लक्ष्मी अर्ही स्थिर थाय छे तेथी भगवान् अही एना पौंवा आरोगे छे. स्त्रीए भेट आपी छे ते आपे तो पण तेजनी हानि थाय तेथी भगवाने पोते एनी स्त्रीए आपेली भेट लीधी अने लक्ष्मी पण एने लीधे एनी स्त्रीने ज आपी. ए आपवामाटे ज पोते ए पौंवा आरोग्या. भगवान् एक मूठी आरोगे तो आखुं जगत् तृप्त थाय ए वात पाण्डवोना वनवास वखते दुर्वासा त्यां आव्या छे अने भगवाने शाकनुं पत्र मुखमां मूकी सर्वने तृप्त कर्या छे त्यां प्रसिद्ध छे. बीजी मूठी आरोगतां परलोकनुं फल सिद्ध थाय छे. त्रीजी आरोगे तो लक्ष्मी देवता एने ताबे थाय अने त्यार पछी चोथी मूठी आरोगे तो पोताना आत्मानुं दान करी दे एवी बुद्धिथी सुदामापत्नीए चार मूठी पौंआ आपेल, चारेय मूठी जो भगवान् आरोगे तो तेनुं पूरेपूरुं फल मळे. तेथी एक ज मूठी भगवानना पेटमां गई. तेथी लक्ष्मणाजीमां रहेला लक्ष्मीजीए निषेध कर्यो. (कारिका) स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः ॥ सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच ह ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ब्राह्मण देवता सुदामानी साथे एम वातो करता-करता, सर्व प्राणीना मननी वात जाणनार *हरि भगवान् जरा मन्दहास्य करीने ब्राह्मणने कहेवा लाग्या ॥१॥
विशेष - जे वस्तुनी कामना करी होय ते निर्दोष होय तो भगवान् ते वस्तु भक्तने आपे छे. भगवान् अलौकिक सम्पत्ति आपे तो एमान्थी दोष उत्पन्न न थाय. सुदामाने कामना नथी तेथी एमने कांई आपवानुं नथी. ए पोते लक्ष्मीमाटे आव्या नथी पण स्त्रीए एमने मोकल्या छे तेथी आ फल एमनी स्त्रीने मळवुं जोईए एम भगवाने विचार कर्यो अने स्त्रीए मोकलेली भेटने लईने तेमनी स्त्रीने सम्पत्ति आपी छे तेथी प्रथम अर्ध ऋषि सुदामाने कहेवाथी एमनी स्त्रीमां एवा धर्म नथी एम कह्युं. भगवान् पासे भक्त सम्पत्ति पण न मागे एम आ उपरथी सिद्ध थाय छे. ब्राह्मणनुं प्रिय करवा मन्दहास्य सहित विनोद करता तेना उपर प्रेमभरी दृष्टिए जोई सत्पुरुषोना एक मात्र आश्रयरूप भगवान् एनी तरफ जोई बोल्या ॥२॥
श्रीभगवाने कह्युं - हे ब्रह्मन्! तमे मारे माटे घेरथी शी भेट आपवानी लाव्या छो? केमके मारो भक्त मने थोडुं आपे तो पण ए प्रेमथी आपे तेथी मने ए घणुं अध्याय-८१,७० दशमस्कन्ध लागे छे. स्नेह वगरनो घणुं आपे छतां एनाथी मने सन्तोष थतो नथी* ॥३॥
विशेष - प्रभु पासे अथवा यात्रामां जईए त्यारे प्रभुने समर्पण करवानी सामग्री घेरथी ज लई जवी जोईए. शास्त्रनी विधिनुं पालन करवा रस्तामां खरीदेली के लीधेली वस्तुथी प्रभुने सन्तोष थतो नथी. आखी द्वारकामां मुठ्ठीभर पौंआने ज भगवान् प्रेमोपहार माने छे. प्रेम अन्तःकरणनो धर्म छे. मारो (श्रीकृष्ण भगवाननो) आ नियम छे के प्रेमथी लावेलुं ज हृदयथी लावेलुं होय छे, कारण के हृदय अणुमात्र छे अने हुं हृदयरूप छुं अने ते रूपे ज पौंआ ग्रहण करुं छुं. एटले अणुमात्र पण लावेली भेट मारी बराबर होवाथी हुं आरोगीश. ते मारे माटे बहु थई पडशे. अभक्ते लावेली भेट, बहारनी दृष्टिए भेट लागे छेपण बहार तो ब्रह्माण्ड छे एटले अभक्तनी भेट आवे त्यारे हुं पण ब्रह्माण्डरूप थाउं छुं. अभक्त एटले लूखो, स्नेह वगरनो. स्नेह=१.प्रेम २.घी. लोकमां पण घीमां बनावेल भोजनथी सन्तोष थाय छे, लूखा भोजनथीनहि. (श्रीसुबोधिनीजी) पत्र, पुष्प फल अने जल जेमने भक्तिथी आपवाने माटे यत्न करेछे. तेम करीने प्रयत्न पूर्वक आपेछे अने स्नेहथी आपे छेतेने हुं आरोगुं छुम् ॥४॥*
विशेष - भक्त्युपहृतम् - भक्तिपूर्वक समर्पण करेलुं. बजार वगेरे स्थानेथी सामग्री लाववामां आवे त्यान्थी माण्डीने भोग धरतां सुधी अविच्छिन्न स्नेह होवो अनिवार्य छे. अहम् - हुं पुरुषोत्तम. मारे माटे सम्पादन करेली वस्तु पोताना अधिकार प्रमाणे गमे त्यां, जङ्गलमां के पर्वतनी टोच उपर पण हुं तेनुं भक्षण करुं छुं. खरेखर तो बधी ज वस्तुओनो समावेश चारमां ज थई जाय छे, दा.त. अन्नवस्त्रादि फल ज छे. दूध, शेरडीनो रस वगेरे जल, ताम्बूल, तुलसी वगेरे पत्र अने सुवर्ण, रत्न वगेरे पुष्प ज छे. पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मनः ॥१०.८१.४॥
‘‘तदहं भक्त्युपहृतम्’’ भगवान् तो स्वसम्बन्धी वस्तुनो ज अङ्गीकार करे छे, कोई पण प्रकारे परसम्बन्धी वस्तुनो अङ्कीकार नथी करता. आम होवाथी, श्रीने भोग धर्या पछी पाछळथी पण वस्तु (प्रसाद वगेरे) आपणा उपयोगमां आवशे एवुं भान थाय तो ते वस्तुने थोडो पण परसम्बन्ध थवाथी ते वस्तुनो भगवान् साक्षात् अङ्गीकार करता नथी. सर्वथा (बिलकुल) अन्यसम्बन्ध रहित केवल भगवत्सम्बन्धी अने बीजा बधाने अनुपयोगी कोई वस्तु होय तो ते मात्र तुलसी छे तेथी साक्षात् अङ्गीकार तुलसीनो ज करे छे. बीजी बधी [[७१]] वस्तुओने तेवी बनाववा तुलसीनो सम्बन्ध कराववामां आवे छे अने त्यारे ज भगवान् ते- ते वस्तुओनो अङ्गीकार करे छे, साक्षात् नहि. तेथी ज भोग धरती वखते तुलसी समर्पवामां आवे छे. तुलसी समर्पवाथी बधी वस्तुओ अन्यसम्बन्धथी रहित थई जाय छे. ब्रह्मसम्बन्ध वखते पण आटलामाटे ज तुलसीद्वारा सर्व समर्पण करवामां आवे छे कारण के भगवान् अन्य दृष्टि रहित स्वकीयोनो ज अङ्गीकार करे छे. (नोट - ‘तदहं भक्त्युपहृतम्’ उपर श्रीहरिरायजी महाप्रभुजीनो स्वतन्त्र लेख ‘वेणुनाद’ मासिक सं.१९७८ चैत्र-वैशाखना अङ्कना पृष्ठ १५५ उपर प्रगट थयेल तेना आधारे) एम भगवाने क्ह्युं तो पण लक्ष्मीना पति श्रीकृष्णने आ केम अपाय एम जाणी ब्राह्मणदेवता तो शरमाई गया, नीचुं जोई गया अने चार मूठी पौंआ लाव्या हता ते आप्या नहि ॥५॥
हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण प्राणीमात्रना हृदयनी बधी वात जाणे छे. भगवाने विचार्युं के आ ब्राह्मणने तो तेनी पत्नीए मोकल्यो छे तेथी आव्यो छे, पहेलेथी ज ए मारो भक्त छे अने तेनी भक्तिने तेणे कदी कामनाथी अभडावा दीधी नथी; ते निष्काम भक्त छे तेथी तेने तो मारुं स्वरूप ज आपवुं पडशे. मारो ए सखा छे तेथी मारुं प्रिय करवाने माटे मारी पासे आव्यो छे. तेथी आना सम्बन्धने लीधे देवोने पण दुर्लभ सम्पत्ति (तेनी पत्नीने) आपीश ॥६-७॥
आ प्रमाणे विचार करी तेनां वस्त्रमान्थी र्चीथरान्नी एक पोटलीमां बान्धेला पौंआ, ‘‘अरे, आ शुं छे?’’ एम कही (तेनुं ध्यान नहोतुं त्यारे) खेञ्ची लीधा ॥८॥
अने आदरपूर्वक कहेवा लाग्या, ‘‘मित्र, आ तो तमे मारे माटे अत्यन्त प्रिय भेट लाव्या छो. आ (भक्तिमां र्भीजावेला) पौंआ मात्र मने ज नहि, समग्र विश्वने तृप्त करी देवा पूरता छे ॥९॥
एम बोली एक मूठी एमान्थी लई भगवान् आरोगी गया अने बीजी आरोगवामाटे लेवा गया त्यां (लक्ष्मणाजी स्वरूप) लक्ष्मीजीए भगवाननो हाथ पकडी लीधो केमके लक्ष्मीजी तो भगवत्परायण छे तेथी पोतानी स्थिति भगवान् पासे रहे एटलामाटे एमने बीजी मूठी लेतां निषेध करवो पड्यो ॥१०॥
हे विश्वात्मन्! बस, बस. मनुष्यने आ लोकमां तथा परलोकमां पण समस्त सम्पत्तिओनी समृद्धि प्राप्त करवाने माटे आ एक मूठी पौंआ ज पूरता छे कारण के आपने माटे एटला ज प्रसन्नतानुं कारण छे ॥११॥
अध्याय-८१,७२ दशमस्कन्ध ब्राह्मण ए रात्रि तो त्यां भगवानना मन्दिरमां ज रह्या, खाधुं, पीधुं अने पोते जाणे के स्वर्गमां रह्या होय एवुं सुख माण्युम् ॥१२॥
हे प्रिय परीक्षित! बीजे दिवसे सुदामाजीए कह्युं ‘‘मित्र, हवे हुं जाउं छुं’’ त्यारे भगवाने कह्युं ‘‘भले पधारो’’ आनन्दघन श्रीकृष्णे सुदामाजीने मार्गमां एमनी साथे थोडुं चालीने एमने राजी करीने वळाव्या अने पोते पोताना महेले पाछा पधार्या. प्रभुए सुदामाजीने प्रत्यक्ष कंई आप्युं नहि कारण के पोते विश्वभाव छे, समग्र विश्वमां आपनो अनुभाव मोजूद छे, जे स्थळे जे वस्तुनी जरूर होय ते स्थळे ते वस्तु आपना प्रतापथी ज हाजर थई जाय छे तो पछी द्वारकाथी सुदामाजी पासे व्यर्थ वजन शा माटे उञ्चकाववुं? ॥१३॥
भगवाने स्वयं सुदामाजीने कंई आप्युं नहि, सुदामाजीए पोते भगवाननी पासे कंई याचना करी नहि. (धन न मळ्युं तेथी कंई ज दुःख न थयुं पण ब्राह्मणीने जवाब शुं दईश एनी चिन्ता थतां अने याचनाने निमित्ते दर्शन करवा गया तेथी जरा लज्जित पण थया) भगवाननां दर्शन थयां एना अलौकिक सुखनो अनुभव करता-करता पोताना घर तरफ रवाना थया ॥१४॥
सुदामाजी मनमां विचार करवा लाग्या ‘‘केटला आनन्द अने आश्चर्य नी वात छे? ब्राह्मणोने पोताना इष्टदेव माननारा भगवान् श्रीकृष्णनी ब्राह्मण भक्ति आजे में मारी नजरे जोई. धन्य छे! जेमना वक्षःस्थल उपर सदा सर्वदा लक्ष्मीजी बिराजे छे तेमणे, नजरे जोवो पण न गमे तेवा अत्यन्त दरिद्र मने छाती सरसो चारूपी आलिङ्गन कर्युं! ॥१५॥
क्यां हुं अत्यन्त पापी अने दरिद्री अने क्यां लक्ष्मीजीना एक मात्र आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण? परन्तु आपे, ‘‘जेवो तेवो तो य आ ब्राह्मण तो छे ने?’’ एम समजी मने पोतानी भुजाओमां भीडी लई आलिङ्गन कर्युम् ॥१६॥
एटलुं ज नहि, आपे मने ते पलङ्ग उपर सुवडाव्यो जेना उपर आपनी प्राणप्रिया पोढे छे. जाणे के हुं आपनो भाई होउं. क्यां सुधी कहुं? हुं थाकेलो हतो तेथी स्वयं आपनी पटराणीए हाथमां चम्मर लई मारी सेवा करी! ॥१७॥
बधाना पूज्य देवो छे. देवोना पण पूज्य भगवान् श्रीकृष्ण छे. तेमणे जाते पग दबाववा, गीतनृत्यथी मनोरञ्जन वगेरे चोसठ उपचारोथी देवनी जेम मारी पूजा करी कारण के आप तो विप्रोने ज पोताना इष्ट देव माने छे ॥१८॥
[[७३]] (जगतमां पाञ्च प्रकारनुं सुख प्रसिद्ध छेः) स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी अने रसातलनी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धिओनी प्राप्तिनुं मूल आपना चरणोनी सेवा ज छे ॥१९॥
धनथी अवश्य मद थाय, मदथी भगवानने भूली जवाय. भगवानने भूलाय एटले सर्वनाश थाय एम समजीने ज दयाळु भगवाने मने वधारे धन न आप्युं’’ ॥२०॥
आ प्रमाणे विचार करता-करता ब्राह्मण देवता पोताना घरनी पासे पहोञ्च्या. त्यां जुए छे तो सूर्य, अग्नि अने चन्द्रमाना जेवां तेजस्वी विमानो घर उपर ऊडी रह्यां छे ॥२१॥
ठेकठेकाणे (फलप्रधान) उपवनो, (पुष्पप्रधान) उद्यानोमां झुण्डना झुण्ड रङ्गबेरङ्गी पक्षीओनां समूहो कलरव करी रह्यां छे. सरोवरोमां (रात्रे खीलतां) कुमुद, दिवसे खीलतां अम्भोज (कमळ) सन्ध्या वखते खीलतां कल्हार (कमळ) अने रात्रे विकसतां उत्पल (नामनां कमळ) शोभी रह्यां छे ॥२२॥
सुन्दर-सुन्दर पुरुषो अने हरिणीना जेवां नेत्रोवाळी युवतीओ सारा शृङ्गार करी आम-तेम फरी रह्यां छे. ते स्थानने जोईने ब्राह्मण देवता विचारवा लाग्या, ‘‘आ हुं शुं जोई रह्यो छुं? आ कोनुं स्थान हशे? हुं रहेतो हतो ते ज स्थान जो आ होय तो ते आवुं केम थई गयुं?’’ ॥२३॥
आ प्रमाणे विचार करे छे त्यां तो देवता जेवा तेजस्वी स्त्री पुरुषो अनेक प्रकारनां वाजान्नी साथे तुमुल स्वरथी गातां-गातां (अत्यार सुधी जेमनो देखाव दरिद्री जेवो हतो पण हवे भाग्य खूली जवाथी जेमनुं स्वरूप देवेन्द्र जेवुं बनी गयुं छे तेवा) महाभाग्यशाळी ब्राह्मण् (सुदामाजी) नुं स्वागत करवामाटे आवी पहोञ्च्या ॥२४॥
(आ दरम्यान त्यां इन्द्रनी राजधानी अमरावतीनो अने तेमनी पत्नीमां इन्द्राणीनो प्रादुर्भाव थई गयो हतो) पति देवनुं शुभ आगमन साम्भळी ब्राह्मणीनां नेत्रो अति आनन्दथी खीली ऊठ्यां. ते एकदम जलदी-जलदी घरमान्थी बहार नीकळी, (एकाएक सर्व आभूषणोथी आभूषित अने ऐश्वर्य युक्त थई गई तेथी) ते एवी लागती हती के जाणे मूर्तिमती लक्ष्मीजी कमल वनमान्थी पधार्यां होय ॥२५॥
पासे आवी पतिने जोईने पतिव्रताने नेत्रमां प्रेमनां आंसु आव्यां तेथी आङ्ख अध्याय-८१,७४ दशमस्कन्ध र्मीचाई गई, बुद्धिथी नमस्कार कर्या अने मनथी पतिने आलिङ्गन कर्युम् ॥२६॥
जेमणे सोनाना हार गळामां पहेर्यां छे तेवी दासीओनी वच्चे विमानमां बेठेली देवाङ्गनाओ जेवी ते अत्यन्त शोभायमान अने देदीप्यमान थई रही हती. तेने आ रूपमां जोई सुदामाजीने आश्चर्य थयुं के केवुं अलौकिक चरित्र मारा प्रभुनुं छे! ॥२७॥
पोते एने जोईने प्रसन्न थया अने एनी साथे पोताना मन्दिरमां आव्या त्यां तो महेन्द्रनुं भवन होय तेवुं हजारो मणिओना स्तम्भवाळुं पोतानुं घर जोयुं ॥२८॥
सुवर्णना साजवाळा हाथीदान्तना बनेला पलङ्गो उपर दूधना फीण जेवा श्वेत अने कोमल बिछानां बिछाववामां आव्यां हतां. सोनानी दाण्डीवाळा घणा बधा चामर यथास्थान राखेल हता ॥२९॥
सिंहासनो सोनानां हतां अने तेमना उपर कोमल गादीओ गोठवी देवामां आवी हती. मोतीओनी लटीओवाळा चन्दरवा पण झगमगी रह्या हता ॥३०॥
र्भीतो स्वच्छ स्फटिकमणि तथा लीलमनी हती अने रत्ननिर्मित स्त्रीओनी प्रतिमाओना हाथमां रत्नोना दीवाओ प्रकाशी रह्या हता ॥३१॥
आ प्रमाणे सर्व सम्पत्तिओनी रेलमछेल जोई तथा तेनुं कोई प्रत्यक्ष कारण न जणातां सावधान थई ब्राह्मण देवता विचार करवा लाग्या के आटली सम्पत्ति मारे त्यां क्यान्थी? ॥३२॥
ते मनमां ने मनमां कहेवा लाग्या ‘‘ओहो! हुं जन्मथी ज भाग्यहीन अने दरिद्र छुं. तो पछी मारी आ अढळक सम्पत्ति-समृद्धिनुं कारण शुं होई शके? चोक्कस, लक्ष्मीजी जेवी जेनी अनेक महाविभूतिओ छे ते यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णना कृपा कटाक्ष सिवाय बीजुं कोई कारण न होई शके* ॥३३॥
विशेष - अढळक समृद्धिनां कारणो भगवदिच्छा, प्रारब्ध, काल, सानुकूल ग्रहो अने भगवान् छे. कोई एकाएक रातोरात पैसादार थई जाय तो लोको कहे छे के तेना उपर लक्ष्मीजीनी नजर पडी गई हशे. लक्ष्मीजी जेवी महान विभूतिओ भगवाननी अनेक छे तो आपनी कृपादृष्टि पडी जाय तो शुं बाकी रहे? माटे ते ज कारण छे. जेवी रीते (वरसाद उपर ज आधार राखनार, बळबळता तापथी सन्तप्त खेडूतो राते घेर सूतेला होय त्यारे तेमनां खेतरोमां) मेघ खूब वरसाद वरसावी दे तेवी रीते [[७५]] भक्तोनी हालत जोईने यदुवंश शिरोमणि कंई पण बोल्या विना तेमनी गेरहाजरीमां याचनारने अढळक सम्पत्ति आपी दे छे. भगवान् श्रीकृष्ण पोते पूर्णकाम अने लक्ष्मीपति होवाथी अनन्त भोग सामग्रीओनां भोक्ता छे तेमांय वळी मारा तो ए सखा छे. (पछी मने आपवामां कशी कचाश राखे खरा?) ॥३४॥
मारा प्यारा सखा श्रीकृष्ण आपे छे घणुं पण तेने माने छे बहु ओछुं (कारण के ओछुं आपनार ज शरमथी कह्या विना गुप्त रीते आपे) अने आपना प्रेमी भक्तो आपने तुच्छ वस्तुनी भेट करे तो तेने ते घणी मोटी मानी ले छे. जुओ तो खरा, (इन्द्र वगेरे अमृत लावीने आपने समर्पण करे तो ते पण आप नथी आरोगता ज्यारे) में आपेला मुठ्ठीभर पौंआ आरोग्या अने ते पण जाणे पोतानी परम इच्छेली वस्तु मळी गई होय तेम परम प्रेमथी. स्वयं तो कोटि ब्रह्माण्डना नायक छे. (छतां आपने इन्द्रना अमृत करतां मारा पौंआमां वधारे स्वाद आव्यो!) ॥३५॥
मने भवोभव भगवान् श्रीकृष्णनो ज प्रेम, आपनुं ज सख्य, आपनी ज मित्रता अने आपनुं ज दास्य प्राप्त हो. (मारे सम्पत्ति जोईती नथी) सदा सर्वदा गुणोना एक मात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान् श्रीकृष्णनां चरणोमां प्रेम वधतो जाय अने आपना ज प्रेमी भक्तोनो मने सत्सङ्ग प्राप्त थतो रहे* ॥३६॥
विशेष - आवा भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण सिवाय बीजुं कोई नथी तेथी तेमनी साथे घणी जातनी सगाई होय एम लागे छे. प्रेम (सौहार्द) हृदयनो धर्म छे, सख्य प्राणनो धर्म छे, मैत्री ए इन्द्रियोनो धर्म छे अने दास्य ए देहनो धर्म छे. जन्म थाय तो विषयासक्ति थाय अने ते सत्सङ्गथी दूर थाय. सौहार्द (प्रेम) हृदयनो धर्म छे, सख्य ए प्राणनो धर्म छे अर्थात् भगवान् मारा प्राणना सखा थाय तो प्राण आपने ज अनुसरे. मैत्री ए इन्द्रियोनो धर्म छे. (इन्द्रियो मित्रने रुचे तेवुं ज करती होय छे) दास्य ए देहनो धर्म छे. प्राणीओनां आ चार हृदय, प्राण, इन्द्रियो अने देह भगवन्मय थाय तो कृतार्थ थवाय. वगर माग्ये जो आटली समृद्धि आपी दीधी तो पछी आपना घेर जईने याचनारने आप शुं न आपे? अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिना दोष जाणे छे. आप जुए छे के बहु धनवान पुरुषोनुं धन अने ऐश्वर्य ना मदथी पतन थई जाय छे तेथी आप पोताना अदूरदर्शी भक्तने बुद्धिनो व्यामोह करनारी सम्पत्ति, राज्य अने ऐश्वर्य वगेरे आपता नथी ॥३७॥
हे परीक्षित! पोतानी बुद्धिथी आ प्रमाणे निश्चय करी ते ब्राह्मण देवताए, अध्याय-८१,७६ दशमस्कन्ध (आ बधुं ब्राह्मणीमाटे ज आप्युं छे) थोडा वखत पछी विषयो छोडवानी इच्छाथी पोतानी पत्नीमां आसक्ति राख्या वगर विषयोनुं सेवन कर्युं; अविद्याने दूर करनार श्रीकृष्णमां तेमनी भक्ति तो रोज-रोज वधती ज रही ॥३८॥
हे प्रिय परीक्षित! देवताओना पण आराध्य देव भक्तभयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान भगवान् स्वयं ब्राह्मणोने पोताना प्रभु, इष्टदेव माने छे. तेथी आ जगतमां ब्राह्मणोथी मोटुं कोई नथी ॥३९॥
आ प्रमाणे ते ब्राह्मण देवताने भगवत्साक्षात्कार थयो तेथी तेमनामां भगवदावेश थई गयो. भगवानना सखा तो हता ज. तेमणे जोयुं के ‘‘जो के भगवान् अजित छे, कोईने अधीन नथी, छतां आप पोताना भक्तोने अधीन थई जाय छे’’ हवे ते आपना ध्यानमां तन्मय थई गया, ध्यानना वेगथी तेमनी अविद्यानी गाण्ठो कपाई गई. भगवानना चिन्तनथी तेमणे वैकुण्ठने प्राप्त कर्युं. पछी थोडा ज वखतमां भगवानने प्राप्त करी सायुज्य पाम्या ॥४०॥
एतद् ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः ॥ लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद् विमुच्यते ॥४१॥
हे परीक्षित! ब्राह्मणोने पोताना इष्टदेव माननारा भगवान् श्रीकृष्णनी आ ब्राह्मण भक्तिने जे साम्भळे छे तेनो भगवद्भाव दृढ थाय छे अने ते कर्मबन्धनथी मुक्त थई जाय छे ॥४१॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल- पेटाप्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘भगवाने सुदामाने सम्पत्ति आपी’’ नामनो (उत्तरार्धनो बत्रीसमो अने चालु)एकाशीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ७८मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान् जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.
ईं उं ईं उं
[[७७]]
अध्याय ८२
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ७९ भगवाननुं कुरुक्षेत्रमां पधारवुं चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय ५
विशेष - सात्विक प्रकरणमां छ अध्यायथी त्रण प्रकारना धर्मो-प्रमेय, साधन अने फल कह्या. हवे धर्मीओने कहे छे. ए त्रण अध्यायथी प्रमेय, साधन अने फल ना धर्मीओनुं एक साथे निरूपण करे छे. सात्विक प्रमेयमां जेवो धर्मी जोईए ते आ ब्यासीमा अध्यायमां कहे छे. सर्वनो ए वहालो होय, सर्वनो साक्षी होय अने सर्वनुं प्रिय अने हित करनार तेने धर्मी कहे छे. ए तीर्थमां ज प्राप्त थई शके. ज्ञानपूर्ण होय एवो अने मोक्षने आपनार गुरु ते ज धर्मी अर्ही कहे छे. भगवानना गुणोनुं वर्णन अने रसात्मक चरित्रोनुं श्रवण ए सात्विक भक्तोनुं एक मात्र साधन छे ते आगळ चोत्रीसमा अध्यायमां कहेवामां आव्युं छे. त्यार पछी फल स्वरूप हरि बधान्नी इच्छा पूरी करनारा छे ते कहेवामां आवे छे. त्यारबाद देश, काल अने अङ्ग(यज्ञरूप क्रियाशक्ति)नुं निरूपण आवे छे. आम तामस भक्तोनुं तामसपणुं मटाडी दई तेमने राजस बनाववामां आवे छे अने राजस भक्तोनुं राजसत्व दूर करीने तेमने सात्विक बनाववामां आवे छे. बधा ज्यारे सात्विक थाय त्यारे भगवान् प्रमेय थाय छे(भगवानने ओळखी शकाय छे) बीजी रीते नहि ए वात स्पष्ट कहेवामां आवे छे(कारिका). अथैकदा द्वारकायां वसतो रामकृष्णयोः ॥ सूर्योपरागः सुमहान् आसीत् कल्पक्षये यथा ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी द्वारकामां निवास करी रह्या हता. एकवार प्रलय वखते थाय तेवुं सर्व ग्रास सूर्यग्रहण आव्युं ॥१॥
हे परीक्षित! लोकोने ज्योतिषीओद्वारा ए ग्रहणनी खबर पहेलेथी ज पडी गई हती तेथी चारे तरफथी लोको पोत-पोतानुं कल्याण करी लेवाना उद्देशथी पुण्य वगेरे कमाई लेवामाटे राजा कुरुए निर्माण करेल स्यमन्तकतीर्थ कुरुक्षेत्रमां गयाम् ॥२॥
स्यमन्तपञ्चक ए क्षेत्र छे ज्यां शस्त्रधारीओमां श्रेष्ठ परशुरामजीए आखी पृथ्वीने क्षत्रियहीन करी राजाओनी रुधिरधाराथी नव मोटा *कुण्ड बनावी दीधा हता ॥३॥
अध्याय-८२,७८ दशमस्कन्ध
विशेष - परशुरामजीए सङ्कल्प कर्यो हतो के अमुक समये बधा क्षत्रियोनो हुं नाश करीश. त्यारे बधा क्षत्रियो कुरुक्षेत्रमां मरवाथी मोक्ष मळे छे एम विचारी ते समये कुरुक्षेत्रमां गया अने त्यां परशुरामजीए तेमने हण्या हता पाछळथी ऋचिक वगेरे पितरोना आशीर्वादथी ते रुधिरना कुण्ड जळना कुण्ड बनीगयाहता. जेवी रीते कोई साधारण मनुष्य पोताना पापनी निवृत्तिमाटे प्रायश्चित करे तेवी ज रीते सर्व शक्तिमान् भगवान् परशुरामे, पहेलां तो कुरुक्षेत्रमां करेला वधनुं पाप कोईने लागतुं नथी अने बीजुं परशुरामजी भगवान् हता तेथी पण तेमने कोई पापनो सम्बन्ध होई शके नहि छतां लोकमर्यादानी रक्षाने माटे त्यां यज्ञो कर्या हता ॥४॥
ए वखते मोटी तीर्थयात्रामां भारतवर्षनी (बधां राज्योनी) प्रजा त्यां भेगी थई हती. तेमां वृष्णिओ, अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन वगेरे त्यां गया ॥५॥
हे भारत! (यादवोने सर्वदा भगवाननुं सान्निध्य होवाथी) घरमां ज सर्व श्रेयनां साधन हतां. तेथी कुरुक्षेत्र जवानी जरूर न हती पणभगवानना सतत सहवासने लीधे भगवाननी अवज्ञा-अनादर रूपी पाप सम्भवे छे जेनुं बीजे क्यांय प्रायश्चित न होवाथी तो पाप दूर करवाने माटे गद, प्रद्युम्न, साम्ब वगेरे पण भरतना वंशज कुरुए निर्माण करेल कुरुक्षेत्रमां आव्या हता. अनिरुद्धजी अने यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा बन्ने, सुचन्द्र, शुक, सारण वगेरेनी साथे नगरनी रक्षाने माटे द्वारकामां रोकाया हता. यादवो एक तो सहज ज तेजस्वी हता. उपरान्त गळामां सोनानी माळा दिव्य पुष्पोना हार, र्कीमति वस्त्रो अने कवचोथी सुसज्जित होवाने लीधे तेमनी शोभा घणी वधी रही हती. तीर्थयात्राना मार्गमां तेओ देवताओना विमानना जेवा रथो, समुद्रना मोजांओनी जेम चालनारा घोडा, वादळोना जेवा विशालकाय अने गर्जना करता हाथीओ तथा विद्याधरोना जेवा मनुष्योद्वारा उञ्चकायेली पालखीओ उपर पोतानी पत्नीओनी साथे एवा शोभी रह्या हता जाणे स्वर्गना देवताओ यात्रा करी रह्या होय. महाभाग्यवान् यदुवंशीओए कुरुक्षेत्र पहोञ्ची काम, क्रोध, भोग वगेरेनो त्याग करी स्नान कर्युं सूर्य ग्रहण ग्रस्त ज अस्त थयेल होवाथी बधाए ते दिवसे उपवास कर्यो. (आ उपवास तीर्थे पहोञ्चीने करवानो उपवास नथी, कारण के कुरुक्षेत्रमां आवा उपवासनो निषेध छे) ॥६-९॥
[[७९]] ग्रहण समये तेमणे ब्राह्मणोने गोदान कर्युं. दानमां आपेली गायोने सुन्दर झूल ओढाडेली हती अने तेमना गळामां पुष्पोनी माला तथा सोनानी साङ्कळो हती. त्यां एक मुख्य सरोवर छे अने नव बीजा हृद (कुण्ड) छे जे ‘रामहृद’ने नामे ओळखाय छे. ग्रहण छूट्या पछी पहेलां मुख्य सरोवरमां स्नान करी पछी विधिवत् रामहृदमां स्नान कर्युम् ॥१०॥
‘‘अमारी श्रीकृष्णनां चरणोमां भक्ति हो’’ एवी कामनाथी सत्पात्र ब्राह्मणोने तेमणे सुवर्णनुं दान कर्युं (कारण के दान विनानुं तीर्थस्थान अपूर्ण छे) भगवान् श्रीकृष्णने ज पोताना इष्टदेव मानवावाळा यादवोए ब्राह्मणोनी अनुमति लई भोजन कर्युं. पछी ठण्डी छायावाळां वृक्षोनी नीचे पोत-पोतानी इच्छा प्रमाणे डेरा नाखी मुकाम कर्यो. हे परीक्षित! विश्राम करी लीधा पछी (भगवान् त्यां ज बिराजता होवाथी यादवो ते स्थळ छोडीने क्यांय गया नथी पण) तेमणे त्यां तेमना मुकाम उपर आवेला हितैषी अने सम्बन्धी राजाओने मळवुं शं कर्युम् ॥११-१२॥
मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, कौङ्कण, केरल देशना अने बीजा अनेक देशोना पोताना पक्षना तथा शत्रुपक्षना सेङ्कडो राजाओ आव्या हता. हे राजन्! पोताना सुहृद नन्दरायजी वगेरेनी साथे गोपीजनो अने गोपो ने पण जोया. तेओ घणा कालथी श्रीकृष्ण दर्शननी तीव्र उत्कण्ठावाळां हताम् ॥१३-१४॥
हे परीक्षित! एकबीजानां दर्शन, मिलन अने वार्तालाप थी बधाने बहु ज आनन्द थयो. बधान्नां हृदयकमल अने मुखकमल खीली ऊठ्यां. बधां एक बीजाने भुजाओमां भीडी लई छातीए लगावतां तेमनां नेत्रोमां आंसुओनी झडी लागी जती, रोमेरोम खीली ऊठतुं, प्रेमना आवेगथी वाणी बन्ध थई जती अने बधाञ्ज आनन्दसमुद्रमां डूबकीओ मारवालाग्या* ॥१५॥
विशेष - हर्ष थाय छे अन्दर पण एनो वेग एवो प्रबळ होय छे के तेनो प्रभाव बहार प्रकट थई जाय छे. काया, वाणी, मन अने बधी इन्द्रियोमां भाव उत्पन्न थयो छे. ‘रोमाञ्च’ कायिक सन्तोष, ‘‘गद्गद गिरा‘‘ वाचिक सन्तोष अने ‘‘आनन्दित थयां’’ ए मानसिक सन्तोष व्यक्त करे छे. पुरुषोनी जेम स्त्रीओ पण एक बीजान्ने जोईने प्रेम अने आनन्द मां मग्न थई गयां. तेओ अत्यन्त सौहार्द, मन्द मलकाट, परम पवित्र तीरछी दृष्टिथी अध्याय-८२,८० दशमस्कन्ध जोई-जोई परस्पर भेट्यां. घणा वखते मळ्यां होवाथी रोतां-रोतां ते-ते नामोच्चार पूर्वक एक बीजान्ने पोताना भुजपाशमां जकडी लई केसरचर्चित वक्षःस्थलोने बीजी स्त्रीओनां वक्षःस्थलो साथे दबावतां अने अत्यन्त आनन्दनो अनुभव करतां नेत्रोमान्थी ते प्रेमनां आंसु छलकाई जताम् ॥१६॥
अवस्था वगेरेमां नानाओए वृद्धोने प्रणाम कर्या अने तेमणे तेमना प्रणामनो स्वीकार कर्यो. एकबीजानुं स्वागत करी, कुशल-मङ्गल वगेरे पूछी-पूछी तेओ श्रीकृष्णनी मधुर लीलाओ आपसमां कहेवा-साम्भळवा लाग्यां(परम वैष्णवनुं आज लक्षण छे) ॥१७॥
हे परीक्षित! कुन्ताजी (वसुदेवजी वगेरे) पोताना भाईओ, (श्रुतदेवा वगेरे) बहेनो तेमना (बलदेवजी, शिशुपाल वगेरे) पुत्रो, (मारिषा अने शूरसेन) मातापिता, (देवकीजी वगेरे) भाभीओ अने भगवान् श्रीकृष्णने जोई तथा तेमनी साथे वातो करी पोतानां बधां दुःख भूली गयाम् ॥१८॥
कुन्ताजीए वसुदेवजीने कह्युंः हे भाई! (दुष्ट न पूछे ते तो समजाय पण) तमे तो आर्य छो. हुं खरेखर अभागणी छुं. मारी एक पण अभिलाषा पूरी न थई. आप जेवा सज्जन शिरोमणि भाई पण आफतने समये मारी खबर न ले, मने याद पणन करे तेथी वधारे दुःखनी वात बीजी कई होईशके? ॥१९॥
हे भाई! जेनुं प्रारब्ध प्रतिकूल होय, विधाता वाङ्की होय तेने स्वजन- सम्बन्धी, पुत्रो, माता-पिता पण भूली जाय छे एमां आप लोकोनो कोई दोष नथी ॥२०॥
वसुदेवजीए - (नानी बहेनने स्नेहथी) कह्युंःहे अम्ब! अमारो दोष न जो. मनुष्यो तो देव (काल) नां रमकडां छे. आ सम्पूर्ण जगत् काल भगवानने वश छे. तेने वश रही सहु कर्म करे छे अने तेनुं फल भोगवे छे ॥२१॥
हे बहेन! कंस अमारा उपर काळो केर वरतावतो हतो तेथी अमे चारेय दिशाओमां भागता ज फरता हता. हवे थोडा दिवस पहेलां ज प्रभुकृपाथी अमे पोताना मूल स्थाने ठरीने स्थिर थयां छीए ॥२२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - त्यां जेटला राजाओ आव्या हता ते बधानुं वसुदेवजी, उग्रसेनजी वगेरे यदुवंशीओए खूब सन्मान कर्युं. भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन करी ते बधान्ने परम आनन्द अने शान्ति थई ॥२३॥
[[८१]] हे परीक्षित! भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधन वगेरे पुत्रोनी साथे गान्धारी, पत्नीओनी साथे युधिष्ठिर वगेरे पाण्डव, कुन्ताजी, सृञ्जय, विदुरजी, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराजा, नग्नजित, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशी नरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, पोताना पुत्रोनी साथे बाह्लीक अने बीजा पण युधिष्ठिरना अनुयायी नृपति भगवान् श्रीकृष्णनुं परम सुन्दर श्रीनिकेतन श्रीअङ्ग अने आपनी पत्नीओने जोई अत्यन्त विस्मित थई गया ॥२४-२७॥
हवे तेओ बलदेवजी तथा श्रीकृष्ण पासे सन्मान प्राप्त करी घणा आनन्दथी श्रीकृष्णना अनुग्रहयुक्त स्वजनो-यादवोनी प्रशंसा करवा लाग्या. (भगवाननी प्रशंसा तो बधा करे पणभगवाने जेमनो परिग्रह-अङ्गीकार कर्यो छे तेमनी प्रशंसा करनार विरल छे) ॥२८॥
तेओए उग्रसेनजीने सम्बोधीने कह्युं ‘‘हे भोजराज उग्रसेनजी! साचुं पूछो तो आ जगतना मनुष्योमां जन्म तमारो ज सफल छे. धन्य छे, धन्य छे. (वैकुण्ठवासीओने तो दर्शन क्यारेक थाय छे) योग कदाच परिपक्व थाय तो भगवानना दर्शन एक ज वार करावी शके ज्यारे आप तो भगवाननां दर्शन नित्य निरन्तर करता रहो छो ॥२९॥
वेदोए घणा आदरपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णनी कीर्तिनुं गान कर्युं छे. श्रीकृष्णनी अति रसाल कीर्ति आदरपूर्वक श्रवण करवामां आवे तो ते जगतने अत्यन्त पवित्र करी दे छे. जेमनी कीर्ति जगतने पवित्र करी दे ते साक्षात् श्रीकृष्णनुं शुं कहेवुं? वळी आपना चरणकमलनुं जल-गङ्गाजी अने आपनी वाणी गीताजी तेमज भागवतजी पण जगतने एवी ज रीते पावन करी दे छे. समयनी ऊथल-पाथलथी पृथ्वीनुं बधुं सौभाग्य नाश पामी चूक्युं हतुं; परन्तु आपनां चरणकमलनो स्पर्श थतां पृथ्वीमां समग्र शक्तिओनो सञ्चार थई गयो अने फरी ते अमारी बधी आशाअरमान, इच्छा-अभिलाषाओ पूर्ण करवा लागी छे ॥३०॥
हे उग्रसेनजी! आप लोकोनो श्रीकृष्णनी साथे वैवाहिक तेम गोत्रसम्बन्ध छे एटलुं ज नहि आप हर समय एमनां दर्शन अने स्पर्श प्राप्त करता रहो छो. आप श्रीकृणनी साथे हरो-फरो छो, मीठी-मीठी वातो करो छो, शयन करो छो, बेसो छो अने खान-पान करो छो. आम तो आप लोक गृहस्थीनी झञ्झटमां फसायेला रहो अध्याय-८२,८२ दशमस्कन्ध छो; जे नरकनो मार्ग छे, परन्तु जे सम्बन्ध बीजाओने माटे नरकमां नाखनारो छे ते ज सम्बन्ध आपने माटे विष्णुरूप थई रह्यो छे, कारण के आपना घरमां सर्व सन्देहोना निवारक साक्षात् विष्णु निवास करे छे अने विष्णुनां तो दर्शन मात्रथी स्वर्ग अने मोक्ष सुद्धान्नी स्पृहा रहेती नथी ॥३१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - श्रीकृष्णनी साथे यादवो अर्ही आव्या छे ए वात जाणीने नन्दरायजी गोपोने साथे लई गाडामां दर्ही, दूध वगेरे भेट आपवाना पदार्थो भरीने एमना दर्शनार्थ त्यां आव्या ॥३२॥
जेम देहमां प्राण आवे अने देह चाले तेम यादवो नन्दरायजीने जोईने बहु राजी थई ऊभा थई गया. घणा दिवसे मेळाप थयो हतो एटले दर्शननी उत्कण्ठा घणी वधी गई हती तेथी एक बीजाने गाढ आलिङ्गन करीने मळ्या ॥३३॥
वसुदेवजी नन्दरायजीने मळीने बहु प्रसन्न थया अने अन्दरना प्रेमथी बहार विह्वल थई गया; कंसे जे-जे दुःख आप्यां हतां जेने लीधे पोताने स्वपुत्रोने नन्दरायजीने त्यां राखवा पड्या हता ए बधी वातो एक पछी एक याद आवीगई ॥३४॥
भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलदेवजी ए माता यशोदाजी तथा पिता नन्दरायजीने भेटीने पछी प्रणाम कर्या. हे परीक्षित! ते वखते प्रेमनां पूरथी बन्ने भाईओने डूमो भराई आव्यो अने कंई बोली शक्या नहि ॥३५॥
महाभाग्यवती यशोदाजी तथा नन्दरायजी ए बन्ने पुत्रोने पोतानी गोदमां बेसाडी दीधा अने भुजाओथी गाढ आलिङ्गन कर्युं. एमना हृदयमां घणा कालनुं वियोगनुं दुःख हतुं तेथी नेत्रो सजल थयां, वियोगनो शोक हळवो थयो* ॥३६॥
विशेष - ‘‘जे मने जेवी रीते भजे छे तेने हुं तेवी ज रीते भजु छुं’’ ए भगवद्वाक्य प्रमाणे नन्द-यशोदा सदा बालभावथी ज श्रीकृष्ण अने बलदेवजी नी भावना करतां एटले अर्ही बन्ने भाईओए बालस्वरूपे ज झाङ्खी आपी छे. गोदमां बिराज्या त्यारे तेमनुं मस्तक सूङ्घी शकाय एवी रीते गोदमां समाई गयां छे. रोहिणीजी अने देवकीजी व्रजेश्वरी यशोदाराणीने भेटी पड्या. यशोदाजीए तेमनी साथे मित्रतानो जे व्यवहार कर्यो हतो तेने याद करतां बन्नेनुं गळुं भराई आव्युं. तेओ यशोदाजीने कहेवा लाग्याम् ॥३७॥
‘‘हे व्रजराणीजी! हे यशोदाराणी! आपे अने व्रजेश्वर नन्दरायजीए अमारी [[८३]] साथे जे मित्रतानो व्यवहार कर्यो छे तेनो बदलो आ पृथ्वी उपर सर्वथा वाळी शकाय एम नथी. अमने इन्द्रनो वैभव अने ऐश्वर्य मळे तो पण ते उपकार भूली शकाय तेवो नथी. इन्द्रासन अमने मळी जाय अने ए इन्द्रासन आखुं ने आखुं आपने आपी दईए तो पण अमे ऋणमान्थी छूटी शकीए नहि. (वधु तो शुं कहुं. तमाम यादवो तमारी मैत्रीथी खरीदायेला छे) ॥३८॥
हे देवी! जे वखते बलदेव अने श्रीकृष्णे पोतानां मा-बापने जोयां पण नहोतां अने एमना पिताए तेमने आपने त्यां थापणना रूपमां मूक्या हता ते वखते आप बन्नेए ए बन्नेनी, आङ्खनी पारूपण आङ्खनी पूतळीओनी जेम रक्षा करे तेम, रक्षा करी. आपे ज एमने खवडाव्युं, पिवडाव्युं, लाड कर्यां, रीझव्या; एमना कल्याणने माटे अनेक प्रकारना उत्सव मनाव्या. साचुं पूछो तो एमनां माबाप ज आप ज छो. आपनी देखरेखमां एमने ऊनी आञ्च सुद्धां नथी आवी. ते सर्वथा निर्भय रह्या. एवुं करवुं आप लोकोने उचित ज हतुं, कारण के सत्पुरुषोनी दृष्टिमां पोताना-परायानो भेदभाव नथी रहेतो. ते नन्दराणीजी! खरेखर आप लोक परम सन्त छो’’ ॥३९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! हुं कही गयो छुं के गोपीजनोना परम प्रीतम जीवन-सर्वस्व श्रीकृष्ण ज हता. ज्यारे श्रीकृष्णनां दर्शन करतां नेत्रोनी पलक लागे छे त्यारे तेओ पलकना बनावनार ब्रह्माजीने ज शाप देतां हतां. ते ज प्रेमनी मूर्ति गोपीजनोने आज घणा समय बाद भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन थयां. तेमना मनमां तेने माटे केटली आर्ति हती तेनुं तो अनुमान पण न करी शकाय. तेमणे नेत्रोने मार्गे पोताना प्रियतम श्रीकृष्णने हृदयमां लई जई गाढ आलिङ्गन कर्युं अने तन्मय थई गयां. हे परीक्षित! शुं कहुं? तेओ नित्य निरन्तर अभ्यास करनारा योगीओने पण जे दुर्लभ छे ते भावने प्राप्त थयां-भगवद्रूप थई गयाम् ॥४०॥
भगवाने गोपीजनोने भावमां मग्न थई गयेलां जोयां. तेमने आप एकान्तमां मळ्या. एमने हृदय सरसां लगाव्यां, कुशळ समाचार पूछ्या अने हसतां-हसतां आप कहेवा लाग्या ॥४१॥
‘‘हे सखीओ! अमे अमारा स्वजन-सम्बन्धीओना कार्य करवामाटे गोकुल छोडी चाल्या गया. त्यां शत्रुओ अने तेमना पक्षकारोनो विनाश करवामां फसाई गया. (तेथी पाछुं तमने मळवा आवी शकायुं नहि पणचित्त तो तमारामां ज हतुं) अध्याय-८२,८४ दशमस्कन्ध त्यां घणा दिवसो लागी गया. तमे लोको क्यारेय अमने याद पण करो छो? ॥४२॥
तमारा मनमां क्याङ्क एवी शङ्का तो नथी थई गई के अमे अकृतज्ञ छीए अने एवुं समजी तमने अमारा तरफथी खोटुं तो नथी लागी गयुं? केमके मळवुं अने छूटा पडवुं एमां माणस स्वतन्त्र नथी. पण भगवान् छूटा पाडे त्यारे छूटा थवाय अने भगवान् मेळाप करावे त्यारे माणसथी मळाय. भूतमात्रने माटे आ नियम छे एम तमे समजो. (गोपीजनो श्रीकृष्णने मनुष्य समजे छे एवुं स्वीकारी आ कहेवामां आव्युं छे) ॥४३॥
जेवी रीते वायु मेघना समूह (निगुर्ण) ने, घासनां तणखलां (राजस) ने, ं (सात्विक) ने अने रजकणो (तामस) ने स्वच्छन्दरूपथी एकबीजा साथे मेळवी आपे छे के छूटां पाडे छे तेवी ज रीते काल भगवान् पण बधानो संयोग-वियोग पोतानी इच्छा प्रमाणे करता रहे छे. (आम संयोग-वियोग कालने आधिन होवाथी तेमां कोईनो वाङ्क नथी) ॥४४॥
हे सखीओ! ए घणा सौभाग्यनी वात छे के तमने लोकोने मारो ते प्रेम प्राप्त थई चूक्यो छे जे मारी प्राप्ति करावी देनारो छे, कारण के मारी भक्ति एकली ज प्राणीओने अमृतत्व (मोक्ष) मेळवी आपवामाटे समर्थ छे* ॥४५॥
विशेष - भक्ति=हृदयना प्रेमपूर्वकनी सेवा अथवा ‘‘हुं पहेलां, हुं पहेलां’’ एवी सेवा करवा माटेनी इन्द्रियो वच्चेनी स्वाभाविक हरिफाई, मर्यादामार्गमां ब्राह्मणोनो ज मोक्ष छे, भक्तिमार्गमां बधान्नो अधिकार छे. ज्ञानमार्गमां अमुक समये अमुक कर्मो करवां अनिवार्य छे. अन्तःकरणनी शुद्धि पण जरूरी छे, ज्यारे भक्तिमार्गमां एवां बन्धन नथी. हे (अङ्गना) वहालां गोपीजनो! जेवी रीते घट, पट वगेरे जेटला पण भौतिक पदार्थो छे तेमना आदि, अन्त अने मध्य मां, बहार अने अन्दर तेमनां मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ज ओतप्रोत थई रहेलां छे. तेवी ज रीते जेटला पण पदार्थो छे तेमनी पहेलां, पछी, वचमां, बहार अने अन्दर केवल हुं ज रहेलो छुम् ॥४६॥
आ ज प्रमाणे बधां प्राणीओनां शरीरमां आ ज पञ्चमहाभूत तेमनां स्वरूप तरीके रहेलां छे. (अर्थात् आ जगत् पञ्चमहाभूतोनुं बनेलुं छे) पछी बन्ने मारामां रहेलां छे परन्तुं हुं बन्नेथी पर अविनाशी सत्य छुं एवो तमे अनुभव करो’’ ॥४७॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! आ प्रमाणे भगवान् श्रीकृष्णे [[८५]] गोपीजनोने अध्यात्म ज्ञान (आत्मा ब्रह्म छे तेवा ज्ञान) नी शिक्षा आपी. (तेओ ब्रह्मभावने प्राप्त थई चूक्यां हतां छतां) बोध आपनार भगवान् (अथवा आपे आपेल उपदेश) नुं वारंवार स्मरण करवाथी लिङ्ग शरीर-जीवकोशनो त्याग करी तेओ भगवद्रूप ज थई गयाम् ॥४८॥
आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः। संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं गेहञ्जुषामपि मनस्युदियात् सदा नः ॥४९॥
श्रीगोपीजनोए कह्युं ः‘‘हे पद्मनाभ! बहारना योगरूप साधन सम्पन्न पूरा ज्ञानी योगेश्वरो पोताना हृदयमां आपनां चरणकमलोनुं चिन्तन ज करता रहे छे. जेमान्थी बहार नीकळवानो उपाय नथी तेवा, संसाररूप कूवानी अन्दर जे लोको पडेला छे तेमने माटे तेमान्थी बहार नीकळवामाटे आपनुं चरणकमल एक मात्र अवलम्बन छे. हे प्रभो! आप एवी कृपा करो के आपनुं ए चरणकमल अमे घरमां रहीए छतां घरमां आसक्ति न थाय अने अमारा हृदयमां ते सदा सर्वदा बिराजमान रहे एक क्षणने माटे पण तेने भूलीए नही ॥४९॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल-पेटा
प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो) ‘‘भगवाननुं कुरुक्षेत्रमां पधारवुं’’ नामनो
(उत्तरार्धनो तेत्रीसमो अने चालु) ब्याशीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-
१३-१४ बाद करतां ओगण्याएंशीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
दीक्षा लेवा आवनार पुष्टि जीव छे के नर्ही ते चकास्या विना जे आवे तेने कण्ठीब्रह्मसम्बन्ध आपनार गुरु श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोही छे, पुष्टिमार्गनो शत्रु छे.
आवा बेजवाबदारी भर्या आचरणथी ते पोतानुं ज सर्वनाश नोन्तरे छे.
अध्याय ८३
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.८० भगवाने पटराणीओ उपर करेल अनुग्रह चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय६
विशेष - आ त्रेयाशीमां अध्यायमां कौरवकुलनी स्त्रीओ (द्रौपदी वगेरे) आगळ यादव कुलनी
ईं उं ईं उं
अध्याय-८३,८६ दशमस्कन्ध स्त्रीओ (रुक्मिणीजी वगेरे) बधां ज साधनोमान्थी भगवत्प्राप्तिनुं उत्तम साधन कीर्तन छे एम कहे छे. श्रीकृष्णनो अनुग्रह होय तो ज सर्व साधन मळी आवे, अनुग्रह न होय तो नहि; तेथी अर्ही अनुग्रहनुं वर्णन करवामां आवे छे. भगवान् निर्दोष छे, दयाळु छे, भक्तवत्सल छे एवी जीवमां सद्बुद्धि होय तो ज अनुग्रह स्थिर रहे छे. आवी सद्बुद्धि भगवानना माहात्म्यनुं ज्ञान होय तो भगवानना अनुग्रहयुक्त थाय. भगवाननी स्तुतिथी ते सद्बुद्धि अनुग्रह स्थिर करवा समर्थ थाय. तेथी सिद्ध थाय छे के सर्व महिषीओ (पटराणीओ, राधिकाराणी, गोपीजनो) साथेनी श्रीकृष्णनी लीलाओनुं श्रवण करवुं. महिषीओनुं जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ज छे कारण के तेओ पण सात्विक ज्ञान सहित श्रीकृष्णनी स्तुति करतां थाकतां नथी. तथानुगृह्य भगवान् गोपीनां स गुरुर्गतिः ॥ युधिष्ठिरमथापृच्छत् सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण ज गोपीजनोने शिक्षा आपनारा गुरु (साधन) छे अने ते ज श्रीकृष्ण ते शिक्षाद्वारा प्राप्त थनारी वस्तुफल छे. श्रीकृष्णे तेमना उपर अनुग्रह करी, धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धीओने कुशळ समचार पूछ्या ॥१॥
भगवान् श्रीकृष्णनां चरणकमलनां दर्शन करवाथी ज तेमनां तमाम अशुभ तो नष्ट थई चूक्यां हतां. हवे ज्यारे भगवान् श्रीकृष्णे तेमनो सत्कार कर्यो, कुशळ समाचार पूछ्या त्यारे अत्यन्त आनन्द पामी तेओ आपने कहेवा लाग्या ॥२॥
हे भगवन्! मोटा-मोटा महात्माओ मनमां ने मनमां आपना *चरणारविन्दना मकरन्दरसनुं पान करता रहे छे. क्यारेक-क्यारेक (ज्यारे महान भगवदीयनां सङ्गमां रसनो आविर्भाव थाय छे त्यारे) तेमना मुखकमलमान्थी लीलाकथाना रूपमां ते रस छलकाई जाय छे. हे प्रभु! ए रस एटलो अद्भुत अने दिव्य छे के कोई पण प्राणी ते पी ले तो ते जन्म-मृत्युना चक्करमां धकेली देनारी विस्मृति अथवा अविद्यानो नाश करी दे छे. ते ज रसने जे लोको पोताना कानरूपी पडियामां भरी धराई-धराईने पीए छे तेमनां अमङ्गलनी सम्भावना ज क्यान्थी होय? ॥३॥
विशेष - आपनुं चरण पण परम आनन्दरूप छे केमके आप आनन्दघन छो. ए आपनुं चरण भक्तिमार्गने लोकमां प्रवृत्त करे छे. वळी ए कमळरूप एटले सुखसेव्य पण छे. ए चरण कमळनो मकरन्द ए रस छे, भगवान् रसात्मा छे ते सर्वत्र छे. भक्तिमार्गद्वारा लावेलो [[८७]] ब्रह्मानन्द ज कर्णमां प्रवेश करे तो ए देहधारीओने देहनुं स्मरण भुलावी दे छे. तेथी ज तेने आसव कह्यो छे. ए रस परमानन्दरूप छे अने लौकिक काम वगेरे दोषोनो निवर्तक छे. ए ब्रह्मानन्दमां तेनाथी पण उत्तम भक्तिरस मळे अने कीर्तनथी ते पुष्ट थाय तो तो पछी पूछवुं ज शुं? तेथी ए ब्रह्मानन्दरूप भगवत्स्वरूप भक्तना मुखथी नीकळे त्यारे ए परमकाष्ठापन्न थाय छे. भक्तिमार्गनो सिद्धान्त एवो छे के ब्रह्मानन्द पोतानी इच्छाथी, जेम लाम्बु वस्त्र घडी कर्युं होय तो नानुं देखाय छे तेम ए पण घनीभूत रहे छे. जेम दर्ही घाटुं थई जाय छे त्यारे थोडुं देखाय पण एमां जेटलो रसपडे तेटलुं ए विस्तृत थाय छे तेवुं भगवच्चरण आनन्दघन छे. एने भक्तिमार्गवडे ग्रहण करे छे त्यारे भक्तनां काया, वाणी अने मन थी दृढ रीते ग्रहण थाय छे त्यारे ए स्वयं रसात्मा होवाथी आनन्दने स्रवे छे. ए भक्तिरस एवा नामथी बोलाय छे. ए रस पण शब्द ब्रह्मरूप भागवत आदिथी उद्धृत थाय छे त्यारे घडाथी लावेल जळनी पेठे मोटाओना मुखथी उच्चारण थतां कानमां आवी मुखथी नीकळे छे त्यारे ते रस इन्द्रियोना ओघ तथा देह नां छिद्रोद्वारा अन्तःकरणमां प्रवेशीने हृदयरूपी हृदमां भेगो थाय छे. ए भक्तिरस करतां पण भक्तनी इन्द्रियोथी पवित्र थयेलो होवाथी छणाईने अति उत्तम बने छे. एम ज्यारे वारंवार भगवद्गुणनुं कीर्तन थाय छे त्यारे चरणारविन्दना मकरन्दरूप गूढ अर्थो भक्तना मुखथी नीकळे छे. ए पण हमेशां नहि पण कोई वखते भक्तनी गोष्ठीमां बेठा होय, भगवाननो प्रसङ्ग चालतो होय तेवखते भक्तिभावमां रसावेश थाय त्यारे एवी गूढ वातो बहार आवे छे. ए हमेशां कहेवा साम्भळवानी न होय पण रसावेशनी परवशतामां ए वात बहार आवी जाय छे. एने कानरूपी पडियाद्वारा ऊञ्चा पडियामां अद्धरथी झीलीने पर्याप्त रीते ए गूढ रसनुं पान करे छे एटले बहार रहेला रसने हृदयमां दाखल करे छे त्यारे ए रसरूप बने छे. आवो दुर्लभ रस बहुपान थाय एटलो क्यान्थी मळे, एम शङ्का थाय त्यां कहे छे के भगवान् प्रभु छे एटले सर्वसामर्थ्ययुक्त छे. एवा भगवानना भक्तो भगवानना चरणरूप भक्तिमार्गमां करोडो छे, जे अमृतना कलशरूप गणाय छे. मधमाखी तो बहु प्रयास करीने एक रसनुं बुन्द लावी एने भेगुं करे छे पण भगवानने तो रसना कलशरूप भक्तो कोटिशः छे तेथी भगवाननो आश्रय करनारने एवो घणो रस सहजमां मळी शके छे. ए रसनुं पान करनार भक्तोने अशुभ होय ज शानुं के एनुं कुशळ पूछवुं पडे? अशुभ तो धर्मथी निवृत्त थाय छे त्यारे आनन्दघन भगवान् प्रकट थाय छे त्यारे भक्तिवडे सर्व दोषने दूर करनार भक्तिरस जे नित्य छे अने संसारने भुलावनार छे ते प्रकट थाय छे. ए पण भक्तना हृदयमान्थी मुखद्वारा बहार नीकळी कर्णद्वारा हृदयमां प्रवेशे छे त्यारे अध्याय-८३,८८ दशमस्कन्ध ए पान करनारने अशुभनी सम्भावना पण कोई करी शक्तुं नथी. भक्तने देहनुं अभिमान तो रहे छे पण ज्यारे प्रयत्नथी ए भक्तिरसने ग्रहण करे छे त्यारे एने देहनुं विस्मरण थाय छे त्यारे एनुं देहाभिमान पण विगलित थाय छे. एटले ते भक्त ज ब्रह्मरूप थई जाय छे. एने कुशळ-अकुशळ व्यवहारनी सम्भावना पण न होय त्यां प्रश्न पण न सम्भवे केमके ए तो ब्रह्मानन्दनी पूर्व कक्षानी बधी वातो छे. जेने भगवाननुं विस्मरण छे तेने देहनो सम्बन्ध सम्भवे, भगवद्रस मग्नने देहनुं स्मरण केवुं? वासो यथा परिवृत्तं मदिरामदान्धः ए न्यायथी ए स्वरसनिमग्न रहे छे. हे भगवन्! आप एकरस ज्ञानस्वरूप अने अखण्ड आनन्दना समुद्र छो. अन्तःकरणनी वृत्तिओने लीधे थती जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- आ त्रणेय अवस्था आपना स्वरूप सुधी पहोञ्ची ज शक्ती नथी, दूरथी ज नाश पामे छे. आप परम हंसोनी १ एक मात्र गति २ छो. कालवशात् वेदोनो नाश थतां तेमां कहेला धर्मोनुं रक्षण करवा आपे आपनी अचिन्त्य योगमायाद्वारा मनुष्यना जेवो देह धारण कर्यो छे. अमे घरबार, देह (नी आसक्ति) छोडी (भगवद्भावनी प्राप्तिमाटे) आपने नमन करीए छीए ॥४॥
विशेष - १. हंस=जे आत्मानी स्थिति संसारथी जुदी छे ते जाणी शके अने प्राप्त करी शके
ते. परमहंस=जे भगवाननुं पद अने जीवोनी स्थितिना भेदने पारखी जाणे ते.
२.गति=गम्य, जाणी शकाय अथवाप्राप्त करी शकायतेवा.
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! जे वखते बीजा लोको आ प्रमाणे
भगवान् श्रीकृष्णनी स्तुति करी रह्या हता ते ज वखते यादव अने कौरव कुलनी
स्त्रीओ एकत्र थई परस्पर भगवाननी त्रिभुवन-विख्यात लीलाओनुं वर्णन करी
रही हती. हवे हुं तमने तेमनी ज वातो कहुं छुं. ध्यान दई साम्भळो ॥५॥
द्रौपदीए कह्युं - हे (वैदर्भी) रुक्मिणीजी, हे भद्राजी, हे जाम्बवतीजी, हे कौसले (सत्याजी), हे सत्यभामाजी, हे कालिन्दीजी, हे शैब्याजी (मित्रविन्दाजी), हे रोहिणीजी*, हे लक्ष्मणाजी अने हे अन्य श्रीकृष्णपत्नीओ! आप लोको अमने तो बतावो के पोतानी मायाथी लोकोनुं अनुकरण करता स्वयं भगवान् श्रीकृष्णे आपनुं पाणिग्रहण केवी रीते कर्युम् ॥६-७॥
विशेष - सोळ हजार राणीओमां ‘रोहिणी’ नामनां राणी मुख्य छे. कोई कल्पमां वळी ते आठ पटराणीओमान्ना एक पण होय छे. [[८९]] रुक्मिणीजीए कह्युं - हे द्रौपदीजी! मारा भाई रुक्मीए तो निश्चय करेलो के मारो विवाह शिशुपालनी साथे ज थाय. कन्यादान पहेलां ज मारुं हरण न थाय एटलामाटे शस्त्रास्त्रथी बधा सुसज्जित हता. परन्तु बकरां अने घेटांओ ना टोळामान्थी सिंह जेम पोतानो भाग उपाडी जाय तेवी रीते भगवान् मारुं हरण करी गया. एमां नवाई पामवा जेवुं कंई नथी कारण के जेमनो एक-एक पगपाळो सैनिक पण अजेय छेतेवा वीर राजाओना मुकुटोउपर भगवाननी चरणधूलि शोभायमान होय छे. मारी तो एटलीज अभिलाषा छे के भगवाननुन्तेज चरणकमल जे साक्षात् लक्ष्मीजीनुं आश्रयस्थान छे ते मने जनमोजनम प्राप्त थतुं रहे, हुं तेनी ज सेवामां लागी रहुं* ॥८॥
विशेष - मूलमां श्रीनिकेतचरणः प्रयोग छे. शब्दार्थ-जे (भगवान्) नुं चरण लक्ष्मीजीनो निवास छे. भाव - लक्ष्मीजीने भगवाने पोताना वक्षःस्थल उपर निवास आप्यो छे अने लक्ष्मीजी पण त्यां दक्षिणावर्त सुवर्णमय रोमराजीना रूपमां बिराजे छे, छतां लक्ष्मीजीनुं अन्तःकरण भगवानना चरणकमलमां ज लागेलुं छे तेथी भगवानना चरणनुं श्रीनिकेतन तरीके ठेकठेकाणे वर्णन आवे छे. सत्यभामाजी बोल्यां - हे द्रौपदीजी! मारा पिताजी पोताना भाई प्रसेनना मृत्युथी बहु दुःखी थई रह्या हता तेथी तेमणे तेनुं कलङ्क भगवानने लगाड्युं. आ कलङ्क दूर करवा भगवाने ऋक्षराज जाम्बवान् उपर विजय मेळव्यो अने ते स्यमन्तकमणि लावी मारा पिताने आपी दीधुं. आथी मारा पिताजी मिथ्या कलङ्क लगाडवाथी डरी गया. तेथी जो के मारा पिताजीए मारुं बीजाने वाग्दान करी दीधुं हतुं तो पण तेमणे स्यमन्तकमणिनी साथे मने प्रभुना चरणोमां समर्पित करी दीधी.(जो के ए वखते भगवाननी बीजी भार्याओ हती पण आप ‘प्रभु’ हता तेथी मने परणावी) ॥९॥
जाम्बवतीजीए कह्युं - हे द्रौपदीजी! मारा पिता जाम्बवान् भगवान् साथे सत्तावीस दिवस लड्या अने परीक्षा पूरी थई त्यारे एमणे एमने सीतापति पोताना आत्माना नाथ अने पूज्य जाण्यां. त्यारे एमणे मणिनी साथे मने पण भगवानने भेट तरीके आपी; एमनी ए प्रकारे हुं दासी थई छुं. स्वतन्त्र होय ते कामना करे, हुं तो दासी छुं तेथी दास्य सिवाय मारे बीजी कामना न होय ॥१०॥
कालिन्दीजी बोल्यां - हे द्रौपदीजी! आपना चरणस्पर्शनी कामनाथी तप अध्याय-८३,९० दशमस्कन्ध करती मने जोईने पोताना मित्र अर्जुनने मारी पासे मोकलीने मारो अभिप्राय जाणी लीधो, पछी मने पोताने त्यां लई जई मारुं पाणिग्रहण कर्युं मारे कोई कामना नथी कारण के कुदरती रीते ज हुं तेमना घर (मथुरा) नी सफाई करनारी सावरणी ज छुं. (अथवा गृहदासी थवानी मारी इच्छा हती ते पूरी थई गई) ॥११॥
मित्रविन्दाजीए कह्युं - हे द्रौपदीजी! (हुं तो पहेलेथी ज श्रीकृष्णमां आसक्त हती. छतां मारा भाईओद्वारा) मारो स्वयंवर रचायो हतो. त्यां आवी भगवाने बधा राजाओने जीती लीधा अने जेवीरीते सिंह कूतराना टोळामान्थी पोतानो भाग लई जाय तेवी ज रीते आप पोतानी शोभामयी समृद्ध द्वारकापुरीमां मने लई आव्या. मारा भाईओ (विन्द अने अनुविन्द) मने भगवान्थी छोडावी मारो अपकार करवा मागता हता परन्तु आपे तेमने नीचुं जोवडावी दीधुं. हुं ए ज चाहुं छुं के भवोभव मने आपना चरण पखारवानुं सौभाग्य मळतुं रहे* ॥१२॥
विशेष - मित्रविन्दाजी भगवानना फई राजाधिदेवीनां पुत्री हतां. क्षत्रियोमां फईनी पुत्री ए पोतानो भाग ज गणाय छे. भाईओ बे ज, विन्द अने अनुविन्द छे पण तेमना पक्षकारोनो समावेश करवा ‘भ्रातृन्’ बहुवचन वापरवामां आव्युञ्छे. सत्याजीए कह्युं - हे द्रौपदीजी! मारा पिताजीए मारा स्वयंवरमां आवेला राजाओनां बल-पौरुषनी परीक्षा करवाने माटे बहु ज बलवान अने पराक्रमी, अणियाळां शिङ्गडांवाळा सात आखला राख्या हता. ते आखलाओए मोटा-मोटा बहादुर पुरुषोना दुष्ट मदनो चूरो करी नाख्यो हतो. जेम नानां बाळको बकरीनां बच्चान्ने पकडी ले तेम भगवाने रमतां-रमतां झपाटाबन्ध तेमने पकडी लीधा, नाथी लीधा अने बान्धी दीधा* ॥१३॥
विशेष - भूख, तरस, रोग अने बे प्रकारनां (सकाम अने निष्काम) कर्म, जुगार, मदिरापान अने स्त्रीओ ए सात व्यसन स्कन्ध १० अध्याय ५८ मां आवी गयां छे ते याद हशे. आमान्थी पहेलां चार आवश्यक छे, ज्यारे जुगार, मदिरापान अने स्त्रीओ-ए त्रण अनावश्यक छे. मनुस्मृति अध्याय ७ मां बतावेलां शिकार वगेरे दस व्यसनो बधान्ने होतां नथी तेथी ते अर्ही गणवानां नथी. सत्याजी (नाग्नजितीजी) ना पिता राजा नग्नजिते विचार्युं के जे व्यसन ग्रस्त होय ते भोक्ता शी रीते होई शके? ‘व्यसन’ एटले जे वस्तुना दोष जाणता होईए छतां जे छोडी न शकाय तेमां आसक्ति. आ प्रमाणे भगवान् बल पराक्रमद्वारा मने प्राप्त करी चतुरङ्गिणी सेना अने [[९१]] दासीओ साथे द्वारका लई आव्या. मार्गमां जे राजाओए विघ्न करवानो प्रयत्न कर्यो तेमनो सखत पराजय कर्यो. हवे एटली ज अभिलाषा छे के आपनुं दास्य सदा मळतुं रहे ॥१४॥
१भद्राजीए कह्युं - हे द्रौपदीजी! मारुं मन मारा मामाना२ पुत्र श्रीकृष्णमां आसक्त हतुं तेथी मारा भाईओए मारुं वाग्दान कर्युं अने मारा पिताए मने एक अक्षौहिणी सेना तथा सखीओ साथे आपने आपी ॥१५॥
विशेष - १. आ पटराणीओ सात गणावी ते सात भक्तिरूप छे. अर्चनरूप रुक्मिणीजी,
श्रवणरूपा सत्यभामाजी तेथी एमां प्रथम सर्व पापनो क्षय कह्यो छे. जाम्बवतीजी एकान्तमां
भगवानने आप्यां तेथी ए स्मरण भक्तिरूप छे, पादसेवन भक्तिरूप कालिन्दीजी अने
मित्रविन्दाजी कीर्तन भक्तिरूपा छे. सर्व बलवान् दोषोने पण छोडीने कीर्तन करवुं. छठ्ठां
पटराणी सत्याजी दास्यभक्तिरूप छे, सातमां भद्राजी वन्दन भक्तिरूप छे अने आठमां
लक्ष्मणाजी सख्य भक्तिरूप छे. ए सर्वथी श्रेष्ठ छे एम नीचेना श्लोकथी आरम्भी कहेवामां
आवे छे.
२. वसुदेवजीनां बहेन श्रुतकीर्तिजीनां पुत्री भद्राजी छे.
हुं मारुं परम कल्याण एमां ज समजुं छुं के कर्म प्रमाणे मारे ज्यां-ज्यां जन्म
लेवो पडे त्यां बधे ज स्थळे आपना ज चरणकमलनो संस्पर्श प्राप्त थतो रहे
॥१६॥
लक्ष्मणाजी बोल्यां - हे राणीजी! देवर्षि नारदजी भगवानना अवतार अने लीलाओ नुं वारंवार गान करता रहेता हता. ते साम्भळीने मारुं चित्त पण मुकुन्दमां आसक्त थई गयुं. हाथमां कमल राखी सारी रीते विचार करी बीजा राजाओने छोडी खरेखर हुं आपने (श्रीकृष्णने) वरी ॥१७॥
हे साध्वी! मारा पिता बृहत्सेन मारा उपर बहु प्रेम राखता हता. ज्यारे तेमने मारी इच्छानी खबर पडी त्यारे तेमणे मारी इच्छा पूरी करवा आ उपाय कर्यो ॥१८॥
हे महाराणी! जेवी रीते अर्जुननी प्राप्तिमाटे आपना पिताए स्वयंवरमां मत्स्यवेधनुं आयोजन कर्युं हतुं तेवी ज रीते मारा पिताए पण कर्युं. आपना स्वयंवर करतां मारा स्वयंवरमां विशेषता ए हती के मत्स्य बहारथी ढङ्कायेल, मात्र जलमां ज तेनो पडछायो देखातो हतो ॥१९॥
अध्याय-८३,९२ दशमस्कन्ध ज्यारे आ समाचार राजाओने मळ्या त्यारे चारे तरफथी बधां अस्त्र- शस्त्रोना तत्वज्ञ हजारो राजाओ पोत-पोताना गुरुओनी साथे मारा पिताजीनी राजधानीमां आववा लाग्या ॥२०॥
मारा पिताजीए आवेला बधा राजाओनुं बल पराक्रम अने अवस्था अनुसार सारी रीते स्वागत कर्युं. ते लोकोए मने प्राप्त करवानी इच्छाथी स्वयंवर सभामां राखेलां धनुष अने बाण उठाव्याम् ॥२१॥
एमान्थी केटलाय राजाओ तो धनुषने पणछ ज न चडावी शक्या. तेमणे धनुषने जेमनुं तेम रहेवा दीधुं. केटलाके वळी पणछ तो बान्धी पण तेने छाती सुधी खेञ्ची तेटलामां तो तेओ नीचे पडी गया अने उपर धनुष पडवाथी चगदाई मर्या ॥२२॥
हे राणीजी! बीजा वीरो जरासन्ध, *अम्बष्ठ, शिशुपाल, भीम, दुर्योधन अने कर्णे पणछ तो चडावी पण मत्स्य (माछलुं) क्यां छे ते ज तेओ नक्की करी शक्या नहि ॥२३॥
विशेष - प्राग्ज्योतिषपुरनो राजा, भौमासुरनो पुत्र भगदत्त. अम्बष्ठ=हाथीनो महावत. भगदत्त हाथीओनो शोखीन हतो अने गजयुद्धमां कुशळ हतो. अर्जुने जलमां ते माछलीनो पडछायो जोई लीधो अने ए पण जाणी लीधुं के ते माछली क्यां छे. घणी सावधानीथी तेमणे बाण छोड्युं पण खरुं परन्तु तेमनाथी लक्ष्यवेध थयो नहि तेमना बाणे तेनो स्पर्श मात्र कर्यो* ॥२४॥
विशेष - श्रीकृष्ण नारायणनो अवतार छे, अर्जुन नरनो, ज्ञानशक्ति अने क्रियाशक्ति बन्ने नारायणमां पूर्ण छे, ज्यारे नर (अर्जुन) मां जेवी तेवी एक-ज्ञानशक्ति छे. नर अने नारायण मां आटलुं तारतम्य छे. हे राणीजी! आ प्रमाणे मोटा-मोटा अभिमानी राजाओनुं मान-मर्दन थई गयुं. मोटा भागना राजाओए मने मेळववानी लालसा अने साथे-साथे लक्ष्यवेधनी चेष्टा ज छोडी दीधी. त्यारे भगवाने धनुष उठावी रमतां-रमतां ज, अनायास ज तेना उपर दोरी चडावी दीधी, बाणथी सन्धान कर्युं अने जलमां फक्त एकवार मत्स्यनो पडछायो जोई बाण मार्युं अने तेने नीचे पाडी दीधो. ए वखते बराबर बपोर थई रह्यो हतो, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित’ नामना नक्षत्रमां सूर्ये प्रवेश कर्यो हतो ॥२५-२६॥
[[९३]] हे देवी! ते वखते स्वर्ग तथा पृथ्वी उपर जय जयकार थई रह्यो. आकाशमां तथा पृथ्वी उपर नगारां गडगडी ऊठ्यां अने हवे दैत्योनो वध हाथवेन्तमां ज छे एवा सन्तोषथी देवताओ हर्षथी विह्वल थई पुष्पोनी वर्षा करवा लाग्या ॥२७॥
ते ज वखते में स्वयंवरना मण्डपमां प्रवेश कर्यो. मारा पगनां झाञ्झर म्मझूम- म्मझूम वागी रह्यां हतां. में नवां उत्तम बे रेशमी वस्त्र धारण कर्यां हतां. मारा अम्बोडामां मालाओ गून्थी हती अने मों पर लज्जा मिश्रित मन्द हास्य हतुं. में हाथमां रत्नोनो हार लीधो हतो, जे सुवर्णजटित होवाथी वधारे चमकी रह्यो हतो. हे राणीजी! ए वखते मारुं मुख मण्डल घट्ट वाङ्कडिया केशोथी सुशोभित थई रह्युं हतुं. गाल उपर कुण्डलोनी आभा पडवाथी ए विशेष शोभी रह्युं हतुं. में एकवार मुख ऊञ्चुं करी चन्द्रमानां किरणो जेवी शीतल हास्यरेखा अने वाङ्की नजरथी चारे तरफ बेठेला राजाओ तरफ जोयुं अने हृदयना अनुरागथी में धीमे रहीने मारी वरमाळा मुरारि भगवाननां कण्ठमां पहेरावी दीधी ॥२८-२९॥
में जेवी वरमाळा पहेरावी के तरत ज मृदङ्ग, ढोल, शङ्ख, दुन्दुभी वगेरे वागवा लाग्यां, नटो अने नर्तकीओ नाचवा लागी अने गायको गान करवा लाग्या ॥३०॥
हे याज्ञसेनि! (द्रौपदीजी!) ज्यारे में आ प्रमाणे मारा स्वामी प्रियतम भगवानने वरमाळा पहेरावी दीधी, आपनुं वरण करी लीधुं त्यारे हरीफ राजाओना यूथनां (राजाओनां यूथ-टोळां कह्यां छे. टोळां बकरां, घेटानां होय. सिंह एकलो फरे, घेटां बकरां टोळामां फरे.) नायकोथी ते सहन थई शक्युं नहि ॥३१॥
तेटलामां जेने *उत्तम चार अश्वो जोडेला छे तेवा रथमां मने बेसाडी, श्रीहस्तमां शांर्गधनुष लई, कवच धारण करी चार भुजावाळा थई युद्ध करवामाटे रथ उपर ऊभा थई गया ॥३२॥
विशेष - मूलमां हयरत्न चतुष्ट्यम् प्रयोग छे. स्यमन्तक, कौस्तुभ, स्पर्शमणि अने चिन्तामणि चार मणि कहेला छे. श्रीकृष्णना अश्वो तेमना जेवा छे. युग चार छे, भगवान् अर्ही चतुर्भुज थया छे तेथी आपे कालना स्वरूपनो स्वीकार कर्यो छे. काल ए भगवाननी चेष्टारूप छे. पण हे राणीजी! मृगोनी वच्चेथी सिंह नीकळे तेम बधा राजाओ जोई रह्या. तेमनी वच्चेथी दारुके सोनाथी शणगारेलो रथ हाङ्की मूक्यो ॥३३॥
तेमान्थी केटलाक राजाओ सावधान थई धनुषो चडावी जेम कूतरा सिंहने रोकवा अध्याय-८३,९४ दशमस्कन्ध जाय तेम मार्गमां भगवानने रोकवा तेमनी पाछळ दोड्या ॥३४॥
शांर्ग धनुषमान्थी छूटेलां तीरोथी तेमना हाथ, पग, गरदन कपाई गयां* अने रणभूमिमां पड्या अने केटलाक रणमेदान छोडी पलायन करी गया ॥३५॥
विशेष - भगवान् एक ज बाण छोडता तेमान्थी अनेक बाण थतां. बाण वागवाथी दुश्मनना योद्धाना शरीरना छ टुकडा थई जता-बे हाथ, बे पग, धड अने माथुं. त्यार बाद सूर्य जेम पोताना धाममां प्रवेश करे तेम यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्णे स्वर्ग अने पृथ्वी मां सर्वत्र प्रशंसित द्वारका नगरीमां प्रवेश कर्यो. ते प्रसङ्गे ते
विशेषरूपथी सजाववामां आवी हती. एटली बधी झण्डीओ, पताकाओ अने तोरणो लगाववामां आव्या हतां के तेने लीधे सूर्यनो प्रकाश धरती सुधी आवी शक्तो नहोतो ॥३६॥
मारा पिताए हितैषी सुहृदो, सगा-सम्बन्धीओ अने भाईबान्धवोने किम्मती वस्त्रो, आभरणो, शय्याओ, आसनो अने बीजी घरवखरीनी सामग्री आपी सर्वनो सत्कार कर्यो ॥३७॥
भगवान् तो पूर्ण छे छतां मारा पिताए भक्तिपूर्वक दासीओ, सर्व सम्पत्तिओ, चतुरङ्गिणी सेना, किम्मती हथियारो वगेरे दायजामां आप्या ॥३८॥
हे राणीजी! अमे बधांए अमारा पूर्वजन्ममां सर्व आसक्ति छोडी भारे तप कर्युं हशे; खरेखर तेथी तो आ जन्ममां अमने आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णना घरनी दासीओ बनवानुं सौभाग्य प्राप्त थयुं छे ॥३९॥
सोळ हजार महिषीओ-राणीओ (मां मुख्य रोहिणीजी) ए कह्युं ः भौमासुरे दिग्विजय वखते घणा राजाओने जीती लई तेमनी कन्याओ अम लोकोने पोताना महेलमां केद करी राखी हती. आ जाणी भगवाने युद्धमां भौमासुर तथा तेनी सेनानो संहार करी नाख्यो अने पोते पूर्णकाम होवा छतां आपे अमने जेलमान्थी (देहथी, चिन्तामान्थी, संसारमान्थी) छोडावी अने अमारुं पाणिग्रहण कर्युं. हे राणीजी! अमे सदा सर्वदा आपना ए ज चरणकमलनुं चिन्तन करती रहेती हती जे जन्म-मृत्युरूप संसारथी मुक्त करी दे छे ॥४०॥
हे साध्वि! अमने आखी पृथ्वी उपरनुं राज्य, आत्मारामपणुं, भोग, ब्रह्माण्डरूपत्व, ब्रह्माण्डनुं आधिपत्य, मोक्ष के हरिनां पद (सायुज्य) नी इच्छा नथी पण अमारे मात्र एटलुं ज जोईए छे के अमने (हरि साथे) भोग प्राप्त थतो रहे [[९५]] अने अमारा प्रीतम प्रभुना सुकोमल चरणकमलोनी जे श्रीरज लक्ष्मीजीना वक्षःस्थल उपर लागेल केसरनी सुगन्धथी युक्त होय ते श्रीरज अमारा मस्तक उपर धारण करती रहीए ॥४१-४२॥
व्रजस्त्रियो यद् वाञ्छन्ति पुलिन्द्यस्तृणवीरुधः ॥ गावाश्चारयतो गोपाः पादस्पर्शं महात्मनः ॥४३॥
(तुच्छमां तुच्छ मनुष्य प्रसिद्ध वस्तुने छोडी जेनी इच्छा करे ते वस्तु ज निःशङ्क सर्वोत्तम होय ते प्रतिपादन करे छे) आवा अलौकिक प्रभाववाळा भगवाननां जे चरणकमलोनो स्पर्श आप गाय चरावता होय ते वखते गोप, गोपीजनो, पुलिन्दीजीओ (भील स्त्रीओ), तणखलां अने लताओ करवा मागती हती तेमनी ज कामना अमने पण छे. (भगवानना चरणकमलनी रज नूतन भगवदीय शरीरनुं निर्माण करी दे छे अने भगवदीय (भगवानना) जो थई जवाय तो बधा पुरुषार्थो प्राप्त थई चूक्या, कोई पुरुषार्थ प्राप्त करवानो बाकी रहेतो नथी) ॥४३॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल- पेटाप्रकरणनो वैराग्यरूप छठ्ठो) ‘‘भगवाने पटराणीओ उपर करेल अनुग्रह’’नामनो (उत्तरार्धनो ३४मो अने चालु) ८३मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां एंशीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!
अध्याय ८४
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ.८१ बान्धवोनुं प्रस्थान अने वसुदेवजीना यज्ञनुं वर्णन चोथा सात्विक प्रकरणनुं त्रीजुं फल प्रकरण अध्याय७
विशेष - आ चोर्यासीमा अध्यायमां फलनो उत्कर्ष, राजाओनुं सन्मान अने वसुदेवजीनुं
ईं उं ईं उं
अध्याय-८४,९६ दशमस्कन्ध ऋणथी मुक्त थवुं ए वात कहेवामां आवे छे एमां सङ्क्षेपमां ए कहेवामां आव्युं के भक्तने भगवानना थवुं ए मोटी वात छे. भगवान् पोताना जीवनो स्वस्वरूपमां निरोध करावे छे तेमां फल तो भगवानना थवुं ते ज छे ते तो सिद्ध छे छतां निरोध करीने ए सिद्ध कर्युं एम कहे छे. भगवाननी लीला अद्भुत छे, निरोध एनुं फल छे ए फल तदीय थवाने माटे छे. एटले भगवाननी लीला फलरूप थाय एमां कांई आश्चर्य नथी. श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्यथ याज्ञसेनी माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः। कुष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धं सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! सर्वना आत्मा परमानन्द स्वरूप सर्वदोष निवर्तक श्रीकृष्ण उपर आपनी पत्नीओनो केवो उत्कट प्रेम छे- आ वात कुन्ताजी, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, बीजी राजपत्नीओ अने भगवाननां अत्यन्त वहालां गोपीजनोए पण साम्भळी. तेमनो आवो अलौकिक प्रेम जोईने बधां ज अत्यन्त विस्मित थई गयां. बधानी आङ्खोमां प्रेमनां आंसु ऊभराई आव्याम् ॥१॥
एम स्त्रीओ स्त्रीओनी साथे अने पुरुषो पुरुषोनी साथे वातो करता हता तेटलामां त्यां श्री राम (बलदेवजी) अने श्रीकृष्णना दर्शननी इच्छाथी मुनिओ आव्या ॥२॥
तेमां मुख्य आ हता- श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज अने गौतम ॥३॥
शिष्योनी साथे भगवान् परशुराम, भगवान् वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति ॥४॥
द्वित, त्रित, एकत, ब्रह्माजीना पुत्र-पुलह, अङ्गिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य अने बीजा वामदेव वगेरे मुनिओ त्यां आव्या हताम् ॥५॥
प्रथम बेठेला राजाओ ऊभा थई गया. तेओए नमस्कार कर्या अने जगतने वन्दन करवा योग्य ए मुनिओने श्रीराम-कृष्ण अने पाण्डवोए नमस्कार कर्या ॥६॥
श्रीरामनी साथे अच्युत भगवाने ए आवेला सर्व मुनिओनुं स्वागत कर्युं, आसन आप्यां, चरण धोवानुं जल, पूजानी सामग्री, पुष्प, धूप, दीप, चन्दन वगेरेथी पूजन कर्युम् ॥७॥
ज्यारे बधा ऋषिमुनिओ स्वस्थ थई बेसी गया ते मोटी सभा शान्त थई गई त्यारे धर्मनुं रक्षण करनार विभु श्रीकृष्णे बधा साम्भळे तेम कह्युम् ॥८॥
[[९७]] *भगवान् श्रीकृष्ण बोल्या - धन्य छे! अमारा लोकोनुं जीवन सफल थई गयुं, जन्म लेवानुं पूरेपूरुं फल आज अमने मळी गयुं कारण केजे योगेश्वरोनां दर्शन देवताओने पण दुर्लभ छे तेमनां ज दर्शन आजे अमने प्राप्त थयां छे ॥९॥
विशेष - भगवान् पाञ्च श्लोकथी मुनिओनी स्तुति करे छे एमां एमना मुखथी निर्णय कराववामाटे पूर्व पक्ष रीते भगवान् कहे छे. मनुष्योने मात्र देवनी मूर्तिमां देव देखायछे कारणके तेमणे बहु ओछुं तप करेलुं होयछे. मुनिओनां जे प्रमाणे दर्शन, स्पर्श, कुशल प्रश्न, विनयपूर्वक चरणपूजा वगेरे थई शके छेते बधुं मूर्तिमां साक्षात् नथी पण भावथी बधुं करवुं पडेछे ॥१०॥
फक्त जळमय *तीर्थो ज तीर्थो नथी के मात्र माटी अने पथ्थरमय देवोनी प्रतिमाओ ज देवो नथी, परन्तु (महापुरुषो) भगवद्भक्तो पण तीर्थरूप अने देवरूप छे. तीर्थो अने देवो नुं सेवन खूब लाम्बा समय सुधी करवामां आवे त्यारे तेओ पवित्र करे छे ज्यारे भगवद्भक्तो दर्शन मात्रथी कृतार्थ करी दे छे ॥११॥
विशेष - जे पवित्र करनार अने स्वच्छ होय ते तेवुं जल पण छे, भगवदीयो पण छे. फरक एटलो छे के जे ज्ञानरूपे शुद्धि साधुओथी थाय छे ते जलथी थती नथी. अग्नि, सूर्य अने चन्द्र तथा ताराओ, भूमि, जल, (हृदयरूपी) आकाश, प्राणायामरूपी वायु, (सरस्वतीरूपी) वाणी अने (योग वगेरेमां प्रसिद्ध) मन- आ बधानुं भगवदृबुद्धिथी पूजन करवामां आवे तो तेओ मात्र पापोनो नाश करे छे एटलुं ज तेथी अधिक (भेदबुद्धिनो नाश) करतां नथी कारण के उपासक अखण्ड ब्रह्ममां भेद स्वीकारीने ज प्रवृत्त थयेल होय छे ते कृतार्थ केवी रीते थाय? ज्यारे विद्वान् पुरुषो तो तेमनी मुहूर्त मात्रनी सेवाथी भेदबुद्धिनोज नाश करी देछे ॥१२॥
जे मनुष्य वात, पित्त अने कफ-आ त्रण धातुओना बनेला शब समान शरीरने ज आत्मा माने छे, स्त्री-पुत्र वगेरेने ज स्वकीय (आ मारां स्वजन छे एम) गणे छे, माटी, पथ्थर, काष्ठ वगेरे पृथ्वीना विकारोने ज इष्टदेव माने छे तथा जे केवल जलने ज तीर्थ समजे छे, ज्ञानी महापुरुषोनो नर्ही ते मनुष्य होवा छतां बळद के गधेडा जेवो ज छे ॥१३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञान सम्पन्न छे. आपनुं आ गूढ भाषण साम्भळी बधा ऋषिमुनि चुप थई गया. एमनी बुद्धि चक्करमां पडी गई तेओ भगवान् आ शुं कही रह्या छे ते समजी ज न शक्या अध्याय-८४,९८ दशमस्कन्ध ॥१४॥
घणीवार विचार कर्या पछी साक्षात् ईश्वर होवा छतां सेवक भाव बतावे छे एम एमना जाणवामां आववाथी ‘‘लोक सङ्ग्रहार्थ ईश्वर पण एम करे’’ एम जाणी जरा हसीने जगद्गुरु श्रीकृष्णनो मुनिओ आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१५॥
मुनिओबोल्या - अमे तत्वज्ञानीओमां उत्तम अने विश्वनेबनावनार कश्यपादिनापण उपदेशक छीए तोपण आप गूढ रहीने सेवकभाव बतावो छो त्यारे अमे आपनी मायामां मोह पामीए छीए. अहो! भगवाननी लीला विचित्र छे, जे जाणनारने पण भ्रममां नाखे छे ॥१६॥
जेम पृथ्वी पोतानामान्थी उत्पन्न थयेल घट, पट वगेरे पदार्थोवडे बहु नाम अने रूपवाळी एक छतां अनेक रूपे थाय छे तेम आप पण पोते एक छो, कांई चेष्टा करता नथी, छतां अनेक प्रकारे आ जगतने उत्पन्न करो छो, रक्षण करो छो अने स्वरूपमां लीन करो छो, छतां एमां बन्धाता नथी-एना दोषथी स्वयं दोषवाळा थता नथी तेथी आप लोकनुं अनुकरण करो छो ए पण आपनुं एक चरित्र छे अने ए विचित्र पण छे ॥१७॥
हे भगवन्! जो के आप प्रकृतिथी पर, स्वयं परब्रह्म परमात्मा छो छतां समये-समये भक्तोनी रक्षा तथा दुष्टोनुं दमन करवामाटे विशुद्ध सत्वमय श्रीविग्रह (शरीर) प्रगट करो छो अने पोतानी लीलाद्वारा सनातन (प्राचीन) वैदिकमार्गनी रक्षा करो छो कारण के वर्णो अने आश्रमो ना रूपमां आप ज स्वयं प्रगट छो ॥१८॥
तप, वेदाभ्यास अने संयमने लीधे ब्राह्मण जाति आपनुं शुकल हृदय (अन्तरङ्ग शक्ति)* छे, जेमां प्रगट अने अप्रगट सद्रूप ब्रह्म अने तेथी उत्तम आनन्दरूप पुरुषोत्तम जोवामां आवे छे ॥१९॥
विशेष - भगवाननी अन्तरङ्ग शक्ति-शुकल (श्वेत), लोहित (लाल) अने कृष्ण (श्याम) ना भेदथी-त्रण प्रकारनी छे. ब्राह्मणो सात्विक होवाथी श्वेत, क्षत्रियो राजस होवाथी अने वैश्यो रजस्प्रधान होवाथी लाल अने शूद्रो तामस होवाथी कृष्ण (श्याम) वर्णना गणवामां आवे छे. तप वानप्रस्थ आश्रममां, स्वाध्याय ब्रह्मचर्य आश्रममां अने संयम परमहंसनी दशामां होय छे. हे परमात्मा! हे वेदोना मूल कारण! आप तेथी ज आपना सत्ना धामरूप [[९९]] ब्राह्मणकुलनुं बहुमान करो छो अने तेथी ज आप ब्राह्मणोनुं हित करनाराओमां अग्रगण्य छो ॥२०॥
आप सर्व प्रकारनां साधनोनी चरम (छेवटनी) सीमा छो अने सन्त पुरुषोनी एक मात्र गति (आश्रय) छो. आपने मळीने आज अमारो जन्म, विद्या, तप अने ज्ञान* सफल थई गयां. वास्तवमां बधान्नु परम फल आप ज छो ॥२१॥
विशेष - दृशः=दृष्टि, ज्ञान. दृशः ने स्थाने अनघ - ‘‘पाप टाळनार’’ पाठ पण छे. आप पापनो नाश करनार होवाथी (अमारां पापनो नाश थई जवाथी) अमारा सम्बन्धथी आपने कंई हानि नथी. आप षड्गुण ऐश्वर्य सम्पन्न, सदानन्द, अनन्त ज्ञानवन्त पूर्ण पुरुषोत्तम छो, आपे आपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाद्वारा आपनो महिमा छुपावी राख्यो* छे. अमे आपने नमस्कार करीए छीए ॥२२॥
विशेषः चेतन पुरुषने पोतानामाटे विषयनुं आच्छादन करवुं सम्भवे नर्ही तेथी ए आत्मानुं आच्छादन बीजाने माटे ज होई शके तेथी भगवान् पोताना महिमानुं आच्छादन पोताने माटे नथी करता पण बीजाने माटे करे छे जेनाथी बीजो भगवानना महिमाने न जाणे. आ सभामां बेठेला राजाओ अने बीजानी वात तो शुं पण स्वयं आपनी साथे आहार-विहार करवावाळा यादवो पण आपने साचा स्वरूपमां जाणता नथी कारण के आपे आपना स्वरूपने- जे बधानो आत्मा, जगतनुं आदि कारण अने नियन्ता छे तेने मयाना पडदाथी ढाङ्की (‘‘ईश्वरास्तु गुप्ता एव तिष्ठन्ति’’ समर्थ पुरुषो तो सन्ताता ज रहे छे. तेमने प्रसिद्धिनी कंई पडी नथी होती) दीधुं छे॥२३॥
ज्यारे मनुष्य स्वप्न जोवा लागे छे त्यारे ते स्वप्नना मिथ्या पदार्थोने ज सत्य समजी ले छे अने नाम मात्रनी इन्द्रियोथी जणाता पोताना स्वप्न शरीरने ज वास्तविक शरीर मानी ले छे. तेने तेटला वखतने माटे ते वातनी बिलकुल खबर ज नथी होती के स्वप्न शरीरथी जुदुं एक जाग्रत अवस्थानुं शरीर पण छे ॥२४॥
ए ज प्रमाणे हे ब्रह्मन्! नाम, मात्र (विषयो) अने इन्द्रियोमान्नी चेष्टाने लीधे मायाथी भमता चित्तवाळो आ पुरुष (जन्म, मरण वगेरेथी) स्मरणनो नाश थई जवाथी (आ ते ज भगवान् छे एम) आपने जाणतो नथी* ॥२५॥
विशेष - जेम स्वप्नमान्ना देहनो आत्मा जाग्रत अवस्थानो देह छे तेम जाग्रत अवस्थाना देहनो आत्मा भगवान् छे तेथीज भगवाननुं ज्ञान थतुं नथी. अध्याय-८४,१०० दशमस्कन्ध आजे अमने आपनां ते चरणारविन्दना दर्शन थयां जे समस्त पापराशिनो नाश करे छे, जे गङ्गाजी वगेरे तीर्थोनुं उत्पत्तिस्थान छे अने सिद्ध परिपक्व योगीओए जेने पोताना हृदयमां फल समजी धारण कर्युं छे. (मर्यादाथी पण आगळ वधेली) आपनी उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक अमे अमारा अन्तःकरण, जीव अने देह आपने समर्पण कर्यां छे. आम (बधी उपाधि आपने अर्पण करी दई) अमे आपना पदने पामीशुं. आथी आप अम भक्तोने आत्मसात् करो, अनुग्रह करी अपनावी लो ॥२६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - (सेवको जेमने प्रिय छे एवा भगवान्) दाशार्हनी ए प्रमाणे स्तुति करी, आपनी, धृतराष्ट्रनी तथा युधिष्ठिरनी अनुमति लई मुनिओए पोताना आश्रमे जवानो विचार कर्यो ॥२७॥
ते जोईने महा यशस्वी वसुदेवजी तेमनी तरफ जई प्रणाम करी, पासे आवीने अत्यन्त विनयपूर्वक कहेवा लाग्या ॥२८॥
वसुदेवजी बोल्या - हे ऋषिमुनिओ! आप लोक सर्व देवस्वरूप (‘‘जेटला देवताओ छे तेटला ब्राह्मणमां वसेला छे’’ तेवी श्रुति (वेदवचन) छे तेथी आम कह्युं छे.) छो. हुं आप सौने नमस्कार करुं छुं. आप कृपा करीने मारी एक प्रार्थना साम्भळी लो. ते ए के जे कर्मो करवाथी कर्मो अने कर्मवासनाओनो आत्यन्तिक नाश-मोक्ष थई जाय तेनो आप मने उपदेश करो ॥२९॥
श्रीनारदजी बोल्या - हे विप्रो! श्रीकृष्णने (पोताना) बाळक मानीने वसुदेवजी पोताना कल्याणनुं साधन शुद्ध जिज्ञासाथी आपणने पूछे छे तेमां नवाई पामवा जेवुं पण कंई नथी* ॥३०॥
विशेष - ‘‘जे मने जेवी रीते भजे छे तेमने हुं पण तेवी ज रीते भजुं छुं’’ ए भगवानना वाक्य प्रमाणे वसुदेवजी एम माने छे के माराथी ज उत्पन्न थयेल मारो पुत्र माराथी वधारे शी रीते जाणतो होय? तेथी भगवान् पण तेमने बाळक जेवा ज जणाय छे. संसारमां बहु पासे रहेवुं मनुष्योना अनादरनुं कारण बनी रहे छे. (आपणे जोईए ज छीए के) गङ्गाजीने काण्ठे रहेनारो माणस शुद्धिमाटे बीजुं जल शोधे छे (गङ्गाजलमां टोळामां स्नान करवामां आवे एटले लोको वळी घेर जई फरीथी स्नान करता होय छे.) ॥३१॥
श्रीकृष्णनो अनुभव कालक्रमथी थनार जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय थी [[१०१]] मटतो नथी. ते स्वतः, कोई बीजां कारण (शाप वगेरे) थी, गुणो (रजोगुण तमोगुण) थी अने बीजा कोईथी ते क्षीण थतो नथी ॥३२॥
आपनुं ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, क्लेश, पुण्य पापमय कर्म, सुखदुःखादि कर्मफल, (उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय नी परम्परारूपी) गुण प्रवाहथी खडिन्त नथी. आप स्वयं अद्वितीय ईश्वर छे. ज्यारे आप पोतानां स्वरूपने पोतानी ज विभूतिओ (आनन्दमय प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण, देह) थी ढाङ्की दे छे त्यारे मूर्ख लोको जेवी रीते सूर्यनी आडे वादळां आवी जाय त्यारे तेने ढङ्काई गयेलो माने छे, झाकळ पडे त्यारे निस्तेज अने ग्रहण वखते राहुथी ग्रसायेलो माने छे तेवी रीते भगवानने पण अविद्याथी ग्रस्त तृष्णा वगेरेथी प्रभाहीन अने शरीरथी ढङ्कायेला माने छे ॥३३॥
हे परीक्षित! त्यार पछी ऋषिमुनिओए भगवान् श्रीकृष्ण, बलदेवजी तथा बीजा राजाओनां साम्भळतां वसुदेवजीने सम्बोधन करीने कह्युम् ॥३४॥
कर्मोद्वारा कर्मवासनाओ अने कर्मनां फलनो आत्यन्तिक (कायम माटेनो) नाश करवानो सर्वश्रेष्ठ उपाय श्रद्धापूर्वक यज्ञोना ईश्वर विष्णुनुं यज्ञोद्वारा पूजन छे ॥३५॥
त्रिकालदर्शी ज्ञानीओए शास्त्रदृष्टिथी आ ज धननी शान्तिनो उपाय, सुगम मोक्ष साधन अनेचित्तमां आनन्दनो उल्लास करनारो धर्म बताव्योछे ॥३६॥
न्यायपूर्वक कमायेल धनथी श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवाननी आराधना करवी ए ज द्विजाति-ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य; गृहस्थने माटे परम कल्याणनो मार्ग छे ॥३७॥
विचारवान् पुरुषने जो धननी एषणा (तीव्र इच्छा) होय तो तेणे धन कमाईने यज्ञ अने दान करवां जोईए. अने तेथी थती अन्तःकरणनी शुद्धिद्वारा धननी इच्छानो त्याग करवो जोईए. जेने पत्नी अने पुत्र नी इच्छा होय तेणे गृह्स्थाश्रममां रही गृहस्थोचित भोगद्वारा पत्नी अने पुत्र नी इच्छानो अने देवो साथे क्रीडा करी स्वर्ग वगेरे लोकनी इच्छानो त्याग करवो. गाममां रही जेणे इच्छाओनो त्याग करेलो छे ते बधा धीर पुरुषो तपोवनमां जता रहेता हता ॥३८॥
हे समर्थ वसुदेवजी! ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य- आ त्रणेय; देवता, ऋषि अध्याय-८४,१०२ दशमस्कन्ध अने पितरो नुं ऋण लईने ज पेदा थाय छे, यज्ञ करवाथी देव ऋणमान्थी छुटाय छे, अध्ययन करवाथी ऋषिओना ऋणमान्थी छुटाय छे अने सन्तान उत्पन्न करवाथी पितरोना ऋणमान्थी मुक्ति मळे छे. आ त्रण ऋणमान्थी मुक्ति मेळव्या विना जे संसारनो त्याग करे छे तेनुं पतन थई जाय छे ॥३९॥
हे परम बुद्धिमान् वसुदेवजी! आप अत्यार सुधीमां ऋषि अने पितरोनां ऋणथी तो मुक्त थई गया छो. हवे यज्ञोद्वारा देवताओनुं ऋण चूकवी दो अने ऋणमुक्त थई सर्वनो त्याग करी योगी बनो ॥४०॥
हे वसुदेवजी! आपे अवश्य परम भक्तिपूर्वक जगदीश्वर भगवाननी आराधना करी छे त्यारे तो स्वयं ईश्वर आपने त्यां पुत्ररूपे प्रकट थया छे ॥४१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ऋषिमुनिओनी आ वात साम्भळीने घणा उत्साही वसुदेवजीए एमनां चरणोमां मस्तक नमावी प्रणाम करी एमने प्रसन्न कर्यां अने यज्ञने माटे ऋत्विजोना रूपमां तेमनुं वरण कर्युम् ॥४२॥
हे राजन्! ते ऋषिओनुं वरण करायुं एटले ते ऋषिओए ते स्थळे उत्तम *विधिवाळा यज्ञोथी ते धार्मिक वसुदेवजीने धर्म प्रमाणे यज्ञो कराव्या ॥४३॥
विशेष - उत्तम विधिवाळाःएटले ज विधिमां जे वस्तु जेटली वापरवानी होय ते ज वस्तु तेटली वापरवी. क्यांय अनुकल्पनो आश्रय लीधो न होतो. दाखला तरीके जवनी जगाए घउं के चोखा वापरवा ते ‘अनुकल्प’ कहेवाय. हे परीक्षित! ज्यारे वसुदेवजीए यज्ञनी दीक्षा लई लीधी त्यारे यदुवंशीओए स्नान करी सुन्दर वस्त्रो पहेरी कमलोनी मालाओ धारण करी लीधी. त्यां आवेला राजाओ पण वस्त्राभूषणोथी खूब शोभायमान थया ॥४४॥
ते राजाओनी राणीओए सुन्दर चादर ओढी अङ्गराग (चन्दन) अने मङ्गळसूत्र वगेरे पहेरी लई शृङ्गार कर्यो अने पछी आनन्दपूर्वक पोताना हाथमां भेट आपवानी वस्तुओ लई यज्ञशाळामां (वसुदेवजीनी पत्नीओनां दर्शन करवा) गई ॥४५॥
ते वखते मृदङ्ग, ढोल, शङ्ख, नोबत, नगारां वगेरे वाजां वागवा लाग्यां. नट अने नर्तकीओ नाचवा लागी. भाट अने चारणो स्तुति करवा लाग्या. गन्धर्वो अने सुरीला गळांवाळी गन्धर्वपत्नीओ गान करवा लागी ॥४६॥
दश दीशाओमां थाय छे तेम वसुदेवजीए पहेलां तो नेत्रोमां अञ्जन अने शरीरे [[१०३]] माखण लगावी दीधुं; पछी तेमनी देवकीजी वगेरे अढार पत्नीओ साथे तेमने ऋत्विजोए महाभिषेकनी विधिथी, प्राचीन समयमां नक्षत्रोनी साथे चन्द्रमानो जेवी रीते अभिषेक थयो हतो तेवी ज रीते अभिषेक कराव्यो ॥४७॥
ए यज्ञपत्नीओ रेशमी वस्त्रो, हाथमां कडां, कण्ठमां हार, पगमां नूपुर, कानमां कुण्डळ वगेरेथी शृङ्गार करी बेठी हती. ज्यारे वसुदेवजी काळा मृगचर्मथी शरीरने ढाङ्कीने बेठा हता केमके दीक्षितने एना नियम प्रमाणे वर्तवुं जोईए ॥४८॥
हे महाराज! वृत्रने मार्या पछी इन्द्रे यज्ञ कर्यो हतो ने एना यज्ञमां शोभा थई हती तेवी ज शोभा वसुदेवजीना यज्ञमां थई. ऋत्विजो तेम ज सदस्यो रत्नो अने रेशमी वस्त्रोथी शोभता हता ॥४९॥
त्यारे बलदेवजी अने श्रीकृष्ण पोत-पोतानां बन्धुओ, पुत्रो अने स्त्रीओ नी साथे जीव अने अन्तर्यामी पोतानी विभूतिओ साथे शोभे तेम शोभवा लाग्या ॥५०॥
वसुदेवजीए दरेक यज्ञमां ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास वगेरे प्राकृत यज्ञो, सौरसत्र वगेरे वैकृत यज्ञो अने अग्निहोत्र वगेरे बीजा यज्ञोद्वारा द्रव्य, क्रिया अने तेमना ज्ञानना मन्त्रोना स्वामी विष्णु भगवाननी आराधना करी ॥५१॥
त्यारबाद तेमणे उचित समये ऋत्विजोने वस्त्रो अने अलङ्कारो थी सुशोभित कर्या अने शास्त्रनी विधि प्रमाणे घणी दक्षिणा अने प्रचुर धननी साथे शणगारेली गायो, भूमि अने सुन्दर कन्याओ आपी ॥५२॥
त्यारबाद महर्षिओए पत्नी संयाज(नामनुं यज्ञमां थतुं कर्म) तथा अवभृथ(यज्ञने अन्ते थतुं) स्नान करावी वसुदेवजीने आगळ करी परशुरामजीए बनावेल धरा(रामहृद)मां स्नान कर्युम् ॥५३॥
स्नान कर्या पछी वसुदेवजी तथा तेमनी पत्नीओए पोते पहेरेलां तमाम वस्त्रो अने आभूषणो बन्दी वगेरेने आपी दीधां. पछी पोते नवो शृङ्गार करी सर्व वर्णोने ब्राह्मणोथी लईने कूतरा सुधीना बधा जीवोने अन्न आपी तृप्त कर्या ॥५४॥
विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केक्य अने सृञ्जय वगेरे राजाओ, पोताना बान्धवो, स्त्रीओ, छोकरां वगेरेने विदायनां रूपमां घणी भेटो आपी तेमज ऋत्विजो, सदस्यो, देवो, मनुष्यो, भूत, पितृ, चारण वगेरेनो सत्कार कर्यो. ते बधां अध्याय-८४,१०४ दशमस्कन्ध लक्ष्मीजीना निवासरूप भगवाननी आज्ञा मागी यज्ञनां वखाण करतां त्यान्थी रवाना थयाम् ॥५५-५६॥
हे परीक्षित! ते वखते राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ताजी, नकुल, सहदेव, नारदजी, भगवान् व्यासजी तथा बीजां स्वजन, सम्बन्धी अने बान्धवो पोताना हितैषी बन्धु यादवोने छोडीने जवामां अत्यन्त स्नेहार्द्र चित्तथी यादवोने आलिङ्गन कर्युं अने महामुश्केलीए जेम-तेम करीने पोत-पोताना देश गया. बीजा लोको पण तेमनी साथे ज त्यान्थी रवाना थई गया ॥५७-५८॥
नन्दरायजी अने गोवाळियाओ नो तो राम (बलदेवजी), श्रीकृष्ण अने उग्रसेन आदिए बहु सत्कार कर्यो अने एमने राम-कृष्णे रोक्या त्यारे बान्धवोना प्रेमने लीधे ए रोकाया ॥५९॥
वसुदेवजी मनोरथरूपी महासमुद्रने सर्व रीते तरी गया त्यारे सुहृदोथी र्वीटाईने प्रसन्न मनवडे नन्दरायजी पासे आवी एमनो हाथ पोताना हाथमां पकडी बोल्या ॥६०॥
वसुदेवजी बोल्या - हे भाई! भगवाने मनुष्योमाटे एक भारे बन्धन बनावी दीधुं छे. ते बन्धननुं नाम स्नेह छे. हुं एम समजुं छुं के देवो अने योगी-यति पण तेने तोडवामां असमर्थ छे ॥६१॥
आपे अम अज्ञानीओ प्रत्ये अनुपम मित्रतानो व्यवहार कर्यो छे. आपना जेवा सन्तशिरोमणिओनो तो एवो स्वभाव ज होय छे. अमे तेनो बदलो कदी वाळी शकीए तेम नथी, आपने तेनुं कोई फल आपी शकीए तेम नथी छतां आपणो आ मैत्री सम्बन्ध क्यारेय पण तूटनार तो नथी ज. आप एने सदा निभावता रहेजो ॥६२॥
हे भाई! पहेलां तो केदखानामां पूरायेला होवाथी अमे आपनुं कंई पण प्रिय अने हित न करी शक्या. हवे अमारी आ दशा थई रही छे के अमे धनसम्पत्तिना नशामां श्री मदथी अन्ध थई रह्या छीए. आप अमारी सामे छो तो पण अमे आपना तरफ जोता नथी ॥६३॥
(स्वयं सन्मान न चाहतां) बीजाने सन्मान आपनार हे मानद! जेने पोतानुं कल्याण करी लेवुं छे तेने तो राज्य लक्ष्मी न मळे तेमां ज तेनुं भलुं छे कारण के [[१०५]] मनुष्य राज्य लक्ष्मीथी अन्ध थई जाय छे अने पोताना भाई-बन्धु स्वजनो सुद्धां तरफ जोतो नथी ॥६४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित आ प्रमाणे कहेतां-कहेतां वसुदेवजीनुं हृदय प्रेमथी गद्गद थई गयुं. तेमने नन्दरायजीनी मित्रता अने तेमणे करेला उपकार याद आवी गया. हैयुं हाथ न रह्युं, नेत्रोमां प्रेमनां आंसु ऊभरायां अने रुदन करवा लाग्या ॥६५॥
यादवोए साचा दिलथी नन्दरायजीनुं सन्मान कर्युं. एटले तेमने प्रसन्न करवामाटे तथा भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ना प्रेमपाशमां बन्धाई नन्दरायजी त्यां त्रण महिना रोकाया. पछी ‘‘आजे जजो काले जजो’’ एम करतां-करतां त्रण महिना (बीजा) थई गया ॥६६॥
त्यार पछी (माह मासथी अषाड सुधी रही) वसुदेवजी, उग्रसेनजी, श्रीकृष्ण, बलदेवजी, उद्धवजी वगेरे यदुवंशीओए (व्रजमां नन्दरायजीने त्यां महिनाओ सुधी रहेला तेथी) अलग-अलग र्कीमती आभूषण, रेशमी वस्त्रो, जुदी-जुदी जातनी उत्तमोत्तम सामग्रीओ अने भोगो थी नन्दरायजी, तेमना व्रजवासी साथीओ तथा बन्धु बान्धवोने खूब राजी कर्यां. एमणे विदाय आप्या पछी ते बधी भेटनी सामग्रीओ लई नन्दरायजी पोताना व्रजमां जवा रवाना थया ॥६७-६८॥
(आटला बधा स्नेहीओ पासेथी आटली बधी वस्तुओ नन्दरायजी लईने ज जाय छे के तेमणे कंई आप्युं? तेना जवाबमां कहे छे के) नन्दरायजी, गोपीजनो अने गोपो नुं मन गोविन्दनां चरणाम्बुजमां एवी सज्जड रीते जडाई गयुं हतुं के प्रयत्न करवा छतां तेने पाछुं त्यान्थी लई शक्या नर्ही. तेथी मन त्यां मूकीने ज तेओ मथुरा गया.(मनने निमित्तेज बधुं अपाय छे. नन्दरायजी वगेरेनुं मन तो भगवानना चरणकमलमां ज रही गयुं. तेथी तेओ मन विहोणाज व्रजमां गया तेथी नन्दरायजीने जेटली किम्मतनी भेटनी सामग्री मळी हती तेथी वधारे किम्मतनी सामग्री(मन) अर्ही मूकीनेज तेओ व्रजमां गया) ॥६९॥
ज्यारे बधा बान्धवो आव्या हता ते पोत-पोताना स्थाने जवा विदाय थई गया त्यारे श्रीकृष्ण ज जेमना एक मात्र इष्टदेव छे तेवा यादवो चोमासुं नजीकमां आवतुं जाणीने द्वारका गया ॥७०॥
जनेभ्यः कथयाञ्चक्रुर्वसुदेवमहोत्सवम् ॥ अध्याय-८४,१०६ दशमस्कन्ध यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्सन्दर्शनादिकम् ॥७१॥
त्यां जई तेओए बधा लोकोने वसुदेवजीना यज्ञ महोत्सव, स्वजन- सम्बन्धीओनां दर्शन, मिलन वगेरे तीर्थयात्राना प्रसङ्गो कही सम्भळाव्या ॥७१॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (चोथा सात्विक प्रकरणना त्रीजा फल-पेटा प्रकरणनो धर्मी रूप सातमो) ‘‘बान्धवोनुं प्रस्थान अने वसुदेवजीना यज्ञनुं वर्णन’’ नामनो (उत्तरार्धनो पान्त्रीसमो अने चालु) चोर्याशीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां एक्याशीमो) अध्याय सम्पूर्ण. चोथा सात्विकप्रकरणनुं त्रीजुं फलप्रकरण सम्पूर्ण चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च। स्पृष्ट्वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद् ॥ मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे पोताना सेव्यस्वरूपनी सेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं (द्रव्यशुद्धि, गो.श्रीपुरुषोत्तमजी)
अध्याय ८५
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ८२ भगवाने देवकीजीना मरेला पुत्रो लावी आप्या प्रकरण प गुण प्रकरण अध्याय १
विशेष - भगवान् कर्ता छे, सर्वमां रहीने एने चलावनार छे. ए ज अनेक रूप धरे छे छतां एनाथी जुदा रूपे रहे छे. एम वेदनी रक्षा करवा सारु चार रूपे भगवान् प्रकट थाय छे. आवुं वसुदेवजीनां कहेवानुं तात्पर्य छे ते अर्ही कारिकाथी कह्युं छे. कारिकाओनो भाव - एवी रीते भगवाने करेला सर्वना निरोधनुं वर्णन करवामां आव्युं. ते श्रीकृष्ण सर्व तर्क सिद्ध भगवान् छे के भगवान् नथी? जो श्रीकृष्ण भगवान् न होय तो तेमणे करेलो निरोध निष्फळ थाय. तेथी बधी रीते श्रीकृष्ण भगवान् छे एम सिद्ध करवामां आवे छे. तेथी भगवान् व्यासजीए हवे आवता छ अध्याय श्रीकृष्णनां ऐश्वर्य वगेरे छ गुणो प्रसिद्ध थाय ते माटे रच्या. आ ज खरेखर तो सङ्गति छे, जे क्रम लीला थई ते क्रम
ईं उं ईं उं
[[१०७]] कथामां साचवेलो नथी. छ अध्यायोमां आरम्भमां पहेला अध्यायमां अनुक्रम प्रमाणे ऐश्वर्यनुं ज निरूपण करवुं जोईए एवी ज सङ्गति छे. एटले कथाना भावार्थ प्रमाणे ज कथा वर्णवेली छे, परन्तु समयना अनुक्रम प्रमाणे (जेम-जेम लीला थई तेम-तेम) कहेली नथी. पञ्चासीमा अध्यायमां तो श्रीकृष्णना ऐश्वर्यरूप भगवद्भावनुं निरूपण करवामां आवे छे. आपनुं ऐश्वर्य माता-पिताना हृदयमां स्थिर थाय एटलामाटे क्रिया अने ज्ञान ना भेदथी अलौकिक अने लौकिक ऐश्वर्यरूप भगवद्भावनुं निरूपण करवामां आवे छे. पहेलां भगवानना प्रभावने लीधे आपनुं ऐश्वर्य तेमना हृदयमां रहेलुं जेने लीधे ते बन्नेए भगवाननी स्तुति करी. श्रीकृष्णनां वाक्यथी तो तेमने निश्चय थयो, कारण के तीर्थ अने यज्ञ मां सत्पुरुषोनां वचनोथी दरेकनुं अन्तःकरण शुद्ध थाय छे. पछी श्रीकृष्णना गुणोनुं ज्ञान प्राप्त करवानी तेनी इच्छा थाय एम कहेलुं छे. तेवी ज रीते-तीर्थ अने यज्ञ मां सत्पुरुषोनां वचनथी-देवी देवकीजीए भगवाननुं उत्तम माहात्म्य जाणीने ऐश्वर्यनी परीक्षा करवा पोताना मृत पुत्रोने लावी आपवानुं कह्युं. (कारिका) जे अलौकिक करे अथवा वेदथी पण जे अशक्य होय ते करे ते ईश्वर. तेवा ईश्वरनुं अर्ही निरूपण करवामां आवे छे. पोतानुं पुत्रपणु कायम राखीने श्रीकृष्ण वसुदेवजीने ज्ञाननो अने ते पण अखण्ड ज्ञाननो उपदेश करे छे तेथी ते ईश्वर छे एम सिद्ध थाय छे. तेवी ज रीते जन्मतान्नी साथे ज मरी गयेला, काळे तद्दन परमाणु जेमने बनावी दीधा छे तेमने, काळना माथा उपर पग मूकी पाछा तेमने तेमनी योग्य स्थितिए पहोञ्चाडी पोताना पदनी प्राप्ति पण करावी आपवानुं कार्य श्रीकृष्णे करेलुं छे ते पण सिद्ध करे छे के श्रीकृष्ण ईश्वर छे. एवी रीते वेद अने काळ नुं उल्लङ्घन पुरुषोत्तम विना बीजा कोईथी थई शके नहि. अथैकदाऽऽत्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ ॥ वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक वखत वसुदेवजीनी पासे राम (बलदेवजी) अने श्रीकृष्ण आव्या अने एमणे वसुदेवजीने नमन कर्युं. वसुदेवजी पोताना पुत्रोने आव्या जाणी एमने अभिनन्दन आपीने प्रीतिथी बोल्या ॥१॥
पुत्रोनां स्वरूपने सूचवनारी मुनिओनी ते वाणीनुं स्मरण करी तेमनां श्रीगिरिराज धारण कर्यो वगेरे पराक्रमोथी विश्वास जेमने थयेलो छे तेवा वसुदेवजीए सम्बोधन करी (नीचे प्रमाणे) कह्युं, (विद्याओ अढार छे. तेनुं निरूपण करनारा अढार श्लोकोथी शरण जवा पर्यन्त स्तुति करे छे.) ॥२॥
अध्याय-८५,१०८ दशमस्कन्ध ‘‘हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगी! हे सङ्कर्षण! हे सनातन! आ (सम्पूर्ण जगत्) ना आप मुख्य प्रधान अने पुरुष छो (श्रीकृष्ण पुरुष अने बलदेवजी प्रधान छे एवो भाव छे.) एम हुं जाणुं छुम् ॥३॥
आ (जगत्) जेनी अन्दर, जेनाथी, जेमान्थी, जेनुं, जेनेमाटे, जे, जेने, जे प्रकारे, ज्यारे थाय छे ते प्रधान पुरुष अने ईश्वर साक्षात् भगवान् आप छो. (अर्थात् आ जगतना आधार, घडवैया (निर्माता) अने निर्माण सामग्री पण आप ज छो) आ समस्त जगतना स्वामी आप ज छो अने आपनी ज क्रीडामाटे आ जगत्नी रचना थई छे. आ (जगत्) जे वखते, जे रूपमां जे कंई रहे छे, थाय छे ते बधुं आप ज छो. प्रधान (प्रकृति) अने पुरुष पण आप छो. ते बन्नेनुं कारण ईश्वर एटले काळ पण आप छो अने ते बे (१.प्रकृति अने पुरुष २.काळ) ने वश राखनार पुरुषोत्तम पण आप (श्रीकृष्ण) ज छो* ॥४॥
विशेष - व्याकरणमां विभक्तिओ आठ छे. आठमी विभक्ति सम्बोधन विभक्ति (हे कृष्ण!)
मां सम्बोधन जेनुं करवामां आव्युं होय ते शब्दनो व्याकरणनी दृष्टिए बीजा कोई शब्द साथे
सम्बन्ध होतो नथी. छठ्ठी विभक्तिमां एक नामनो बीजां नाम साथे सम्बन्ध होय छे, जेम
के ‘‘कृष्णनुं कीर्तन’’ मां कीर्तननो सम्बन्ध कृष्ण साथे छे अने ते बन्ने नाम छे. बाकीनी छ
विभक्तिओमां नामनो सम्बन्ध क्रियापद साथे होय छे. आ सम्बन्ध ‘कारक’ कहेवाय छे. आ
कारक छ छे. १. कर्ता २. कर्म ३. करण (साधन) ४. सम्प्रदान (जेने कंई आपवामां आवे ते)
५. अपादान (छूटा पडवुं-पाञ्चमी विभक्तिनो अर्थ) अने ६. अधिकरण (जेमां कंई रहे छे
ते-सातमी विभक्तिनो अर्थ) आम छ कारको अने प्रकार सहित बधी विभक्तिओ जेटलो अर्थ
जणावे छे ते आप ज छो एवो भाव छे.
हे अघोक्षज (इन्द्रियातीत) भगवान्! जन्म, अस्तित्व वगेरे भावविकारोथी रहित परमात्मन्! आ चित्र-विचित्र जगतनुं निर्माण आपे ज कर्युं छे.
(पण बहिर्मुख लोको ते समजता नथी) अने तेमां आपे ज आत्मारूपथी प्रवेश
पण कर्यो छे, आप प्राण (क्रियाशक्ति) अने जीव (ज्ञानशक्ति) ना रूपमां तेनुं
पालन पोषण करी रह्या छो ॥५॥
विश्वने उत्पन्न करनार प्राण, इन्द्रियो वगेरेमां शक्ति जोवामां आवे छे ते एना पर आधिदैविकनी शक्ति छे पण आध्यात्मिक के आधिभौतिकनी शक्ति नथी. जेम आत्मानो प्रयत्न इन्द्रियो अने शरीर मां व्यक्त थाय छे, आध्यात्मिक [[१०९]] आदिनी शक्तिओ परतन्त्र छे तेम न होय तो एणे सर्वदा कार्य करवुं ज जोईए पण एम थतुं नथी. परन्तु ज्यारे शक्तिनुं आधान भगवान् करे त्यारे कार्य करे छे, नहि तो करती नथी. वळी सर्व शक्तिओनो आत्मा जुदो ज छे केमके शक्तिओ जड छे त्यारे एनो आत्मा चेतन छे. जो एम न होय तो अन्ध पुरुषने अन्तर्यामी के जीव कान वगेरेमां जोवानुं सामर्थ्य केम न मूके? तेथी बधी शक्तिओने चलावनार एक बीजुं रूप छे एम मानवुं ज जोईए तेथी आध्यात्मिक आधिभौतिक चेष्टा करे पण एमां कर्तृत्व, प्रेरकत्व तो पण एटले आधिदैविकनुं ज छे. एनी प्रेरणा थाय त्यारे तृणादिमां पण चेष्टाभाव देखाय छे ॥६॥
हे प्रभो! चन्द्रमानी कान्ति, अग्निनुं तेज, सूर्यनी प्रभा, नक्षत्र अने विद्युत वगेरेनी स्फुरणारूपथी सत्ता, पर्वतोनी स्थिरता, पृथ्वीनी साधारण शक्तिरूप वृत्ति अने गन्धरूप गुण- आ बधुं वास्तवमां आप ज छो. (कारणना गुणो कार्यमां आवे छे पण जे सामर्थ्य धर्मीमां न होय तेवुं सामर्थ्य धर्ममां होय तो समजवुं के ते कार्यनुं सामर्थ्य भगवान् छे. तेज अने भूमिना धर्मो भगवद्रूप छे एम आ श्लोकमां जणाव्युं) ॥७॥
(बीजां भूतोना धर्मो भगवद्रूप छे एम कहे छे) जलमां जिवाडवापणुं अने तृप्ति करवापणुं तथा गङ्गाजी वगेरेना जलमां देवत्व मनाय छे ते धर्मो भगवानना छे. एम न मानीए तो जल सुकाई जाय छे ते न सुकावुं जोईए. माणस पाणीमां डूबी मरे छे त्यां जो जिवाडवुं ए गुण जलनो होय तो कोई पाणीमां डूबी मरे नहि. तीर्थमां पाप क्षय थाय छे ते जलनो गुण होय तो सर्वना पापनो क्षय थवो जोईए पण जलना अनेक भेद छे एना अनेक गुण कह्या छे ते जलपणामां तो समान थवा जोईए, विषमता तो एने भगवत्ता होय तो ज सम्भवे तेथी जलना गुण जणाय छे ते गुणो आपना छे. ए जलनो मधुर गुण छे छतां अनेक रस जणाय छे ते पण आपना धर्मने लीधे ज समजवुं. हे ईश्वर! वायुमां इन्द्रियसामर्थ्य, अन्तःकरणनुं सामर्थ्य, शरीर सामर्थ्य, तृणादिमां क्रिया अने जङ्गममां गतिरूप धर्मो लोकमां प्राणीमां होय तेम देखाय छे छतां ए भगवद् धर्मो छे. साक्षात् वायु ज आपनुं स्वरूप छे. वायुना हजारो भेद छे ते बधा आपना धर्म छे ॥८॥
दिशाओमां अवकाश, आकाश वगेरे पण आप छो. ए दिशाओ के आकाशमां जे स्फोट छे ते पण आप ज छो, नहि तो शब्दमान्थी अर्थ स्फुट न थाय. (जेनाथी अध्याय-८५,११० दशमस्कन्ध अर्थ समजाय ते स्फोट कहेवाय) एना आश्रय आप छो. नाद, वर्ण अने ओङ्कार, वर्णनी आकृतिओ, ए वर्णो नीकळवानां कण्ठ, तालु वगेरे स्थानो वगेरे बधुं आप ज छो, नहि तो एक कण्ठमान्थी पवन नीकळे तेमान्थी विविध ज्ञान केम सम्भवे? ॥९॥
बधी इन्द्रियोमां रहेली इन्द्रिय तो आप छो. ए इन्द्रियोना देवो पण आप ज छो. इन्द्रियनो अनुग्रह, अन्तःकरणनुं ज्ञान, जडबुद्धिमां ज्ञान अने जीव ने स्मरण थाय छे ते बधुं आप ज छो. ए स्मृति दोषने लईने कदाचित उलटी रीते पण स्फुरे छे, जेम छीपमां रूपुं. एवी स्मृति भगवद्रूप नथी एम कहेवानेमाटे ‘‘जीवस्यानुस्मृतिः सती’’ ए वाक्यमां जे सती स्मृति छे ते ज भगवद्रूप छे ॥१०॥
पञ्चमहाभूतोनुं कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियोनुं कारण राजस अहङ्कार, सङ्कल्प विकल्पात्मक मननुं अने देवोनुं कारण सात्विक अहङ्कार तथा महत्तत्वादिनुं कारण प्रकृति पण आप ज छो ॥११॥
ते-ते भावो नाश पामे छे छतां जेनो नाश थतो नथी तेवुं आपनुं स्वरूप छे. जेम घट-पट आदि भाव तिरोहित थतां पण ‘‘अर्ही घट नथी, पट नथी’’ ए सद् व्यवहार थाय छे ते आपनी सत्ताथी थाय छे ॥१२॥
सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण अने एनी वृत्तिओ ते बधां परब्रह्म एवा आपने विशे योगमायावडे कल्पायेलां छे तेथी एना आप आधार छो छतां एना दोषथी आप लिप्त थता नथी. योगवडे पण जीवो योगना आधाररूप भगवाननो स्पर्श करी शक्ता नथी ए योगमायानुं कार्य छे. जे गुणो अने एनी वृत्तिओने भगवत्सम्पर्कथी विमुख राखे छे ते ज गुणनी गुणता छे ॥१३॥
आपनाथी ते-ते भावो जुदा कह्या छे तेथी ए भावोनी सत्ताज नथी. ए विकारोमां आप पण रहेता नथी तेथी ए भावो विद्यमान दशामां बीजा समये व्यवहार मात्रज छे ॥१४॥
आगुण प्रवाहने जेपरमार्थ सत्य माने छे ते अबुध छे. जे सर्वना आत्मारूप भगवाननी सूक्ष्मगतिने जाणतो नथी ते स्वकर्मवश थईने आ संसारमां आवीने जन्म-मरण आदि क्लेशने भोगवे छे ॥१५॥
हे परमेश्वर! दैवनी गतिथी इन्द्रिय आदि सामर्थ्ययुक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यजन्म अर्ही (आ असार संसारमां) प्राप्त करी, आपनी मायाथी मोहितथई [[१११]] पोतानो साचो स्वार्थ (भक्ति, ज्ञान) प्राप्त करी लेवामां जेगाफेल रहेछे तेनो जन्म व्यर्थ जायछे ॥१६॥
हे प्रभो! आ (वसुदेव नामे ओळखातुं शरीर) हुं छुं एवी बुद्धि होवी (परन्तु हुं तेमनो पण छुं एवी बुद्धि न होवी) अने आ शरीरना सम्बन्धीओ मारा पोताना छे- आ अहन्ता अने ममता रूप स्नेहनां बन्धनथी आपे (मने एकलाने नहि पण आखा) जगतने बान्धी राख्युं छे ॥१७॥
आप बे मारा पुत्रो नथी परन्तु भूमिना भाररूप क्षत्रियोनो नाश करवा अवतरेला प्रधान अने पुरुषना ईश्वर, अर्थात् काल अने पुरुषोत्तम छो. आ वात आपे मने कही पण हती ॥१८॥
(विषयोना भोगनी इच्छा, देहनुं अभिमान अने पूर्ण पुरुषोत्तम मारा पुत्र छे एवो बुद्धिरूप असाध्य त्रिदोष पोताने लागु पड्यो छे तेम वसुदेवजी कहे छे) तेथी हे आर्त बन्धो! हे शरणागत वत्सल! हुं हवे आपना चरणकमलने शरणे आव्यो छुं, कारण के ते ज शरणागतोना संसार भयने मटाडनार छे. (आप कदाच विलम्ब पण करो पण आपनां चरणकमल अमने अभय आपवामां विलम्ब नहि करे) हवे इन्द्रियोनां विषय सुखोने हुं इच्छतो नथी. काळना कोळियारूप आ शरीरने ज में आत्मा मानी लीधो अने आपने परमेश्वरने पुत्र मानी लीधा ॥१९॥
हे प्रभो!आपे प्रसूतिगृहमां ज अमने कह्युं हतुं के ‘‘हुं जो के अजन्मा छुं तो पण हुं प्रत्येक युगमां पोताना भक्तोना अने धर्मना रक्षणमाटे अवतार ग्रहण करुं छुं’’ हे भगवन्! आप आकाशनी जेम अनेक शरीर ग्रहण करो छो अने छोडो छो. वास्तवमां आप अनन्त, एक रस छो. आपनी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायानुं रहस्य तो कोण जाणी शके? बहु बहु तो बधा आपनी कीर्तिनुं गान करी शके’’ ॥२०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - (एम वसुदेवजीए स्तुति करी अने शरण थया त्यारे भगवाने जाण्युं के वसुदेवजीने खण्ड ज्ञान तो थयुं पण एमने हवे पूर्ण ज्ञान कराववुं जोईए तेथी कहे छे) भक्तना पति भगवाने उपरनां पितानां वचनो साम्भळीने विनयथी नम्र थईने हसीने मधुर वाणीथी एनो उत्तर आपवानो आरम्भ कर्यो ॥२१॥
श्रीभगवाने क्ह्युं - हे पिताजी! ‘‘अमे आपना पुत्रो ज छीए’’ अमने उद्देशीने आपे आ ब्रह्म ज्ञाननो उपदेश कर्यो छे. अमे आपनी एक-एक वातने अध्याय-८५,११२ दशमस्कन्ध अर्थगम्भीर अने युक्तियुक्त मानीए छीए ॥२२॥
हे यदु श्रेष्ठ! आप, मोटाभाई राम अने बधा द्वारकामां रहेनार लोको एटलुं ज नहि पण चराचर सहित सर्व जगत् पण भगवद्रूप छे* एम मारा माटे आपे कह्युं तेम सर्वमां आप भगवद् बुद्धि करो ॥२३॥
विशेष - विष्णु भगवान् पोतानी इच्छाथी जेम अर्ही प्रकट थाय छे तेम सर्वरूपे थवानी इच्छाथी ए जगतरूपे पण पोते ज थाय छे तेथी सर्वत्र भगवद्बुद्धि करवी एम आ श्लोकमां कहेवानुं तात्पर्य छे. हे पिताजी! आत्मा तो एक ज छे. परन्तु ते पोतानामां ज गुणोनी सृष्टि करी ले छे अने गुणोद्वारा बनाववामां आवेल प्राणीओमां घणे प्रकारे -एक होवा छतां अनेक, स्वयम्प्रकाश होवा छतां दृश्य, पोतानुं ज स्वरूप होवा छतां पोताथी भिन्न, नित्य होवा छतां अनित्य अने निर्गुण होवा छतां सगुणना रूपमां देखाय छे ॥२४॥
जेवी रीते आकाश, वायु, अग्नि, जल अने पृथ्वीद्गआ पञ्चमहाभूत पोतानां कार्य घडो, कुण्डल वगेरेमां प्रगट-अप्रगट, नाना-मोटा, वधारे-थोडा, एक अने अनेक होय तेम लागे छे परन्तु वास्तवमां सत्तारूपथी ते एक ज होय छे तेवी ज रीते आत्मामां पण उपाधिओना भेदथी ज जुदापणान्नी प्रतीति थाय छे. तेथी जे हुं छुं ते ज बधुं छे. आ दृष्टिथी आपनुं कहेवुं बराबर ज छे. (एम ज अखण्ड अद्वैतवाद समजो)* ॥२५॥
विशेष - पञ्च महाभूतो हाथी वगेरेना शरीरमां विस्तार पामे छे, मच्छर वगेरेमां नानां थाय छे. मोर वगेरेमां अनेक रङ्गवाळां अने कोयल, धातु वगेरेमां एक ज रङ्गवाळां थाय छे. एवी रीते आत्माने पण जुदां-जुदां उपादान (रहेवानां स्थान) प्राप्त थवाथी जुदापणुं प्राप्त थाय छे. वास्तविक रीते आत्मानुं स्वरूप एक ज छे. एवी ज रीते सत्, चित्, आनन्द, ऐश्वर्य, श्री वगेरे ओछां-वत्तां होवाने लीधे आत्मानुं जुदापणुं घटे छे. आत्माना जुदापणाने घटाववामाटे आत्माना स्वरूपमां भेद होवानी कल्पना करवी बराबरनथी. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनां आ वचनो साम्भळी वसुदेवजीनी भेदबुद्धि जती रही अने आनन्द मग्न थई जई वाणीथी मौन अने मनथी निःसङ्कल्प थई गया ॥२६॥
हे कुरुश्रेष्ठ परीक्षित! ते वखते सर्वदेवमयी देवकीजी पण त्यां बेठेलां ज हतां. [[११३]] श्रीकृष्ण अने बलदेवजी पोताना गुरुना मरी गयेला पुत्रने यमलोकथी पाछो लाव्या हता ते साम्भळीने ते पहेलान्थी ज अत्यन्त विस्मय पाम्यां हताम् ॥२७॥
हवे तेमने पोताना ते पुत्रो याद आवी गया जेमने कंसे मारी नाख्या हता. तेमना स्मरणथी देवकीजीनुं हृदय भराई आव्युं, नेत्रोमान्थी आंसु टपकवा लाग्यां. तेमणे घणा ज करुण स्वरे श्रीकृष्ण अने बलदेवजी ने सम्बोधन करीने कह्युम् ॥२८॥
देवकीजीए कह्युं - हे लोकाभिराम राम! तमारी शक्ति अने तमारा स्वरूपने मन अने वाणी समजी शके तेम नथी. हे श्रीकृष्ण! तमे शङ्कर वगेरे योगेश्वरोना पण ईश्वर (वश राखनार) छो. हुं जाणुं छुं के तमे बन्ने ब्रह्माजी वगेरे विश्व रचनाराओना पण ईश्वर आदि पुरुष नारायण छो ॥२९॥
ए वातनी पण मने नक्की खबर छे के जे लोकोए कलाक्रमथी पोतानां धैर्य, संयम अने सत्वगुण खोई नाख्यां छे तथा शास्त्रनी आज्ञाओनुं उल्लङ्घन करी जे स्वेच्छाचारी थई रह्या छे तेवा भूमिने भाररूप थई पडेला राजाओनो नाश करवामाटेज तमे बन्ने मारे त्यां अवतीर्ण थयाछो ॥३०॥
हे विश्वात्मन्! अक्षर ब्रह्म आपनो अंश छे. प्रकृति (माया) अक्षरब्रह्मनो अंश छे. गुणो प्रकृतिना अंशरूप छे अने ते गुणोना अंश मात्रथी खरेखर जगतनी उत्पत्ति, विकास (पालन) तथा प्रलय थाय छे. आजे हुं अन्तःकरणथी आपने शरणे आवी छुम् ॥३१॥
में साम्भळ्युं छे के तमारा गुरु सान्दीपनिजीना पुत्रने मरी गये घणा दिवसो थई गया हता. तेमने गुरुदक्षिणा आपवाने माटे तेमनी आज्ञा तथा प्रेरणा थी तमे बन्नेए तेमना पुत्रने पितृओना स्थानमान्थी पाछो लावी आप्यो ॥३२॥
तमे बन्ने योगेश्वरोना पण ईश्वर छो तेथी आज मारी पण अभिलाषा पूरी करो. कंस राजाए मारेला मारा छ पुत्रोने जोवाने हुं आतुर छुं. ते मारा पुत्रो पण तमे मने लावी आपो एवी मारी कामना छे ॥३३॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे भारत! राम अने श्रीकृष्ण ने माताजीए एवी सूचना करी त्यारे ए बन्ने योगमायानो आश्रय करी सुतलमां जई पहोञ्च्या ॥३४॥
ज्यारे दैत्यराज बलिने खबर पडी के जगतना आत्मा अने इष्टदेव तथा मारा परम स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण अने बलदेवजी सुतल लोकमां पधार्या छे त्यारे तेनुं अध्याय-८५,११४ दशमस्कन्ध हृदय बन्नेनां दर्शननां आनन्दमां निमग्न थई पवित्र थई गयुं. पोताना कुटुम्ब साथे आसनथी एकदम ऊभा थई जई तेणे भगवानना चरणोमां प्रणाम कर्या ॥३५॥
ए बन्ने भाईओने उत्तम आसन आप्यां. तेनी उपर ए महात्माओ बिराज्या त्यारे एमनां चरणारविन्दनुं प्रक्षालन कर्युं. ते भगवच्चरणोदक ब्रह्माजीथी लईने सर्व जगतने पवित्र करनार होवाथी पोते ए जल परिवार सहित मस्तकउपर धारणकर्युम् ॥३६॥
त्यारबाद दैत्यराज बलिए बहुमूल्य वस्त्रो, आभूषणो, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृत समान भोजन तथा बीजी विविध सामग्रीओथी आपनी पूजा करी अने पोताना समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदिने आपनां चरणोमां समर्पित करी दीधाम् ॥३७॥
हे राजन्! दैत्यराज बलिए* भगवाननां चरणकमलने (पोताना बन्ने हाथमां लई) पोताना वक्षःस्थलअने मस्तक उपरतेने वारंवार राखवा लाग्या. तेनुं हृदय प्रेमथी विह्वळ थई गयुं.नेत्रोमान्थी आनन्दनां आंसु वहेवालाग्यां. रोम-रोम खीली ऊठ्युंअनेगद्गद वाणीथीते भगवाननी स्तुति करवालाग्या. (इन्द्रियो, देह अने वाणी त्रणेयनी व्याकुलता आथीसूचवेली छे) ॥३८॥
विशेष - दैत्यराज बलिने माटे मूलमां ‘इन्द्रसेन’ शब्द वापर्यो छे. इन्द्रनी सेना जेवी सेना छे जेनी ते इन्द्रसेन. इन्द्र उत्तम सत्व अंशवाळा छे. तेनी इन्द्रिय वगेरे सामग्री अत्यन्त भगवत्परायण छे तेवी ज बलिनी पण छे. दैत्यराज बलिए कह्युं - आप अनन्त छो, सर्वथी महान छो, आप सदानन्द कृष्ण छो, साङ्ख्य अने योग ना आप प्रवर्तक छो, ब्रह्म अने परमात्मारूप आप छो, आपने हुं नमन करुं छुम् ॥३९॥
प्राणीओने आप (शब्द अने परब्रह्म)नां दर्शन *दुष्प्राप्य अने अति दुर्लभ छे एवा आपे रजोगुणी अने तमोगुणी अम दैत्योने दर्शन आप्यां तेनुं कारण आपनी इच्छाज छे ॥४०॥
विशेषः पोतानी क्रिया-साधन थी महामुश्केलीए पण न मळी शके ते ‘दुष्प्राप्य’ अने देव वगेरेना वरदानथी पण जे न मळी शके ते ‘दुर्लभ’ हे प्रभो! अमे अने अमारा ज जेवा बीजा दैत्यो, दानवो, गन्धर्वो, [[११५]] सिद्धपुरुषो, विद्याधरो, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत, प्रमथ अने तेमना नायको वगेरेए प्रेमथी आपनुं भजन करवुं तो दूर रह्युं, आपना उपर दृढ वेरभाव राखीए छीए; परन्तु आपनुं श्रीअङ्ग साक्षात् वेदमय अने विशुद्ध सत्व स्वरूप छे. तेथी अमारामान्थी घणाए दृढ वेरभावथी, केटलाके भक्तिथी अने केटलाके कामनाथी आपनुं स्मरण करी ते पदने प्राप्त कर्युं छे जे आपनी समीप रहेनारा सत्वप्रधान देवता वगेरे पण प्राप्त करी शक्ता नथी ॥४१-४३॥
हे योगेश्वरोना अधीश्वर! मोटा-मोटा योगेश्वरो पण मोटे भागे आपनी योगमाया आ छे अने आवी छे ते जाणता नथी तो पछी अमारी तो वात ज शी करवी? ॥४४॥
सर्व प्रकारनी कामना रहित पुरुषोए ज शोधवा योग्य हे मारा प्रभु! आपना चरणारविन्दनुं स्मरण ए ज साचो प्रकाश छे. ए स्मरण जे घरमां थतुं नथी ते घर, घर नथी पण अन्धारो कूवो ज छे. तेवा अन्धारा कूवा जेवा मारा घरनो त्याग करी ते अन्धारा कूवामान्थी बहार नीकळी, जेमनां चरणो विश्वनुं शरण छे तेवा सत्पुरुषोना सङ्गरूपी आजीविका प्राप्त करी हुं (परम हंसनी जेम) एकलो फर्या करुं अने अन्ते बधानो मित्र बनी जाउं तेवी कृपा आप मारा उपर करो* ॥४५॥
विशेष - श्रीभागवत ४.२९.४० मां कह्युं छे के ज्यां भगवद्गुणोना कथन अने श्रवण मां तत्पर विशुद्ध चित्तवाळा भक्तो रहे छे ते भक्तमण्डळीमां चारे तरफथी महापुरुषोना मुखथी नीकळती श्रीमधुसूदन भगवानना चरित्ररूप शुद्ध अमृतनी अनेक नदीओ वहे छे. जे लोको अतृप्त चित्तथी श्रवणमां तत्पर पोताना कर्णोद्वारा मस्त थईने ते अमृतनुं पान करे छे तेमने भूख-तरस, भय, शोक अने मोह वगेरे कंई सतावी शकतुं नथी. हे प्रभो! आप ईश छो, अमे जीवो ईशितव्य छीए, अर्थात् आप स्वामी छो, अमे सेवक छीए, आप आज्ञा करनार छो, अमे आज्ञा उठावनार छीए. आप अमने आज्ञा करो, निष्पाप करो, ‘‘अमारां पापोनो नाश करी दो कारण के जे पुरुष श्रद्धापूर्वक आपनी आज्ञानुं पालन करे छे ते विधि-निषेधनां बन्धनथी मुक्त थई जाय छे ॥४६॥
भगवान् श्रीकृष्णे कह्युं - भूतपूर्व ब्रह्माजीना कल्पमां प्रजापति मरीचिनी पत्नी ऊर्णाना गर्भथी (इन्द्रियोना देवो जेवा) छ पुत्रो थयेला. पोतानी घाटीली पुत्री वाणी साथे सम्भोग करवा प्रवृत्त थयेला ब्रह्माजीने जोईने तेओ हस्या अध्याय-८५,११६ दशमस्कन्ध ॥४७॥
परिहासरूप आ अपराधने लीधे तेमने ब्रह्माजीए शाप दीधो अने तेओ असुर योनिमां हिरण्यकशिपुना पुत्रो रूपे उत्पन्न थया. हवे योगमायाए तेमने त्यान्थी लावी देवकीजीना गर्भमां राखी दीधा अने तेमनो जन्म थतां ज कंसे तेमने मारी नाख्या. हे दैत्यराज! माता देवकीजी पोताना ते पुत्रोने माटे अत्यन्त शोकातुर थई रह्यां छे अने तेओ अत्यारे तमारी पासे बेठेला छे ॥४८-४९॥
अमे अर्हीथी एमने माता देवकीजीनो शोक दूर करवा लई जईशुं. आ जीवो शापथी मुक्त थशे एटले ए सन्तापथी मुक्त थई पोताना ऋषिलोकमां जशे ॥५०॥
तेमनां नाम छे- स्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् अने घृणी. आ छये मारी कृपाथी फरी सद्गतिने प्राप्त थशे ॥५१॥
एम कही तेओने साथे लीधा त्यारे इन्द्रना जेवी सेनावाळा बलिए एमनी पूजा करी ते स्वीकारीने भगवाने द्वारकामां आवी पोतानी माताने एमना पुत्रो आप्या ॥५२॥
पोतानां बाळकोने जोईने माताने पुत्रमां स्नेहने लीधे स्तनमान्थी दूध स्रववा लाग्युं. ते पुत्रोने माताए आलिङ्गन कर्युं ने खोळामां बेसाडी एमनुं मस्तक वारंवार सूङ्घवा लाग्याम् ॥५३॥
पुत्रोना स्पर्शना आनन्दथी तरबोळ थई गयेलां देवकीजीए तेमने स्तनपान कराव्युं. (साक्षात् भगवान् जेमना पुत्र थया छे तेमने बीजा उपर आवो ने आटलो स्नेह केम? समाधान करे छे के) सृष्टिचक्र जेनाथी चाले छे ते विष्णु भगवाननी मायाथी ते मोहित थई रह्यां हताम् ॥५४॥
हे परीक्षित! देवकीजीनां स्तनोनुं दूध साक्षात् अमृत हतुं. ते बालकोए श्रीकृष्णने पान करतां बचेलुं ते ज अमृतमय दूध पीधुं. ते दूध पीवाथी अने भगवान् श्रीकृष्णनां अङ्गोनो संस्पर्श थवाथी तेमने आत्म साक्षात्कार थई गयो* ॥५५॥
विशेषःपीत्वामृतम् पयन्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः। नारायणाङ्गस्पर्शप्रतिलब्धात्मदर्शनाः शङ्का - आ छ पुत्रोने ऋषिलोकनी प्राप्ति थवानुं कारण ज्ञान छे ते ज्ञान (आत्मदर्शन, आत्म साक्षात्कार) थवानां त्रण कारणो छेः१.भगवाने पान करतां वधेला उच्छिष्ट अर्थात् प्रसादी धावणनुं पान २.अमृत (अमृतमय स्तन) नुं पान ३.नारायणनां अङ्गोनो स्पर्श. भगवान् [[११७]] मथुरामां जेलमां चतुर्भुजरूपे प्रकट थया. पछी प्राकृत बाळक थया के तरत वसुदेवजी आपने गोकुळ नन्दरायजीने त्यां पधरावी आव्या. अगियार वर्षे मथुरा पधार्या. कंस आदिने मारी द्वारकामां बिराज्या. आमां श्रीकृष्ण भगवाने माता देवकीजीना स्तननुं पान क्यारे र्क्युं? समाधान - श्रीकृष्ण ज्यारे मथुरा अने द्वारका मां बिराजता हता त्यारे नन्दरायजी वगेरेनी विरह दशा हती. विरह दशामां परम स्नेहना उद्रेकथी ज्यारे तेमने बहारना प्रपञ्चनुं अनुसन्धान न रहेतुं, अन्तर्मुख अने मात्र श्रीकृष्ण निष्ठ थई जता त्यारे श्रीकृष्ण त्यां प्रकट थई जई दर्शन आपता, लीलाओनो अनुभव करावता; तेवी ज रीते श्रीकृष्ण गोकुलमां अगियार वर्ष बिराज्या ते वखते देवकीजीने अत्यन्त विरह थतो त्यारे परम स्नेहना उद्रेकथी अन्तर्मुख थतां प्रभु साक्षात् प्रगट थई नित्य स्तनपान करता. तेथी गदाभृत (श्रीकृष्ण) तुं ‘पीतशेषत्व’ ‘‘स्तनपान करतां वधेलुं’’ सिद्ध थाय छे. आ पक्ष मात्र भावुक वेद्य होवाथी, सर्व लोकोने स्वीकार्य बीजो पक्ष कहे छे के प्राकट्य थया पछी, वसुदेवजी श्रीकृष्णने गोकुल पधरावी जवा तैयार थाय छे त्यारे माता देवकीजीए प्रभुने गोदमां लई स्तनपान करावेलुं. बन्ने पक्षे छ पुत्रोए प्रसादी स्तनपान कर्युं अने भगवत्प्रसाद लेनारा वैष्णवो मायाने तरी जाय छे ए वात निःशङ्क छे. (तत्वार्थ दीप निबन्ध) त्यारबाद तेओ भगवान् श्रीकृष्ण, देवकीजी, पिता वसुदेवजी अने बलदेवजीने नमस्कार करी, सर्व लोकोनी सामे आकाशमार्गे पोताने धाम गया ॥५६॥
हे नृप! पोताना मरेला पुत्रो आव्या अने पाछा चाल्या गया ए जोईने देवी देवकीजी विस्मय पाम्यां अने आ बधी श्रीकृष्णनी माया छे एम मान्युम् ॥५७॥
हे भारत! कृष्ण-परमात्मानां अनन्त वीर्यवाळा पराक्रम अनन्त छे. (वर्तमान प्रयोगथी चरित्रोनी नित्यता सूचवी छे) ॥५८॥
य इदमनुशृणोति श्रावयेद् वा *मुरारेश्चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः। जगदघभिदलं तद् भक्तसत्कर्ण पूरं भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ॥५९॥
सूतजी कहे छे - (हे शौनकादि ऋषिओ!) भगवान् मुरारिनी कीर्ति अमर छे, अमृतमय छे. आपनुं चरित्र जगतना समस्त पाप-तापोनो नाश करनारुं तथा भक्तजनो रूपी सत्पुरुषोना कर्णोनुं ए उत्तम आभरण छे, शणगार छे. तेनुं वर्णन व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीए कर्युं छे. जे कोई आनुं श्रवण करे अथवा बीजाने श्रवण करावे तेनी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान्मां लागी जाय छे तेनुं चित्त भगवान्मां स्थिर थई जाय छे अने ते श्रीकृष्णना परम कल्याणरूप धामने प्राप्त करे छे ॥५९॥
अध्याय-८५,११८ दशमस्कन्ध
विशेष - मुरारि-मुर नामनो दैत्य दोषरूप अने विघ्नरूप छे. तेनो नाश करनार मुरारिनुं चरित्र
पण दोष अने विघ्नोनो नाश करे ज. व्यासपुत्रैःःश्रीशुकदेवजीए अनन्तरूप धारण करी आ
चरित्र वर्णवेलुं छे. अथवा व्यासजीना शिष्यो अने पुत्रोए आनुं वर्णन करेलुं छे. (शिष्यो
पुत्रो ज छे)
सत्कर्णपूरम् - ए ज सत्पुरुष जेना कानमां आ आभरण पहेरेलुं होय. आ प्रमाणे विघ्नोनो
नाश करवाथी माण्डी भगवानना स्वरूपनी प्राप्ति सुधीनां फल भगवानना वीर्यना श्रवणथी थाय
छे. ते सिद्ध करे छे के श्रीकृष्ण सर्वना ईश्वर छे.
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमा गुण प्रकरणनो ऐश्वर्यरूप
पहेलो) ‘‘भगवाने देवकीजीना मरेला पुत्रो लावी आप्या’’नामनो
(उत्तरार्धनो छत्रीसमो अने चालु) ८५मो (प्रक्षिप्त त्रण अ.१२-१३-
१४ बाद करतां ८२मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
कथाना श्रोता-आयोजको! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!!
(फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक
स्वार्थ-परार्थ)हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो.
दक्षिणा लईने कथा करनारना मनोभाव गटरना पाणी जेवा
गन्धारा जाणी तेनो सङ्ग छोडवो.
अध्याय ८६
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ८३ अर्जुने करेलुं सुभद्रानुं हरण प्रकरण प-गुण प्रकरण अध्याय२
विशेष - आ अध्यायमां भगवानना वीर्यगुणने कहे छे. एमां त्रण प्रकारे भगवद् वीर्य कहे छे. एनाथी भगवाने बधानां बधां कार्य कर्यां छे एम कहे छे. लोकमां जे कोईनाथी न थाय ते भगवद् वीर्य कहेवाय. पोतानी बहेनने बीजाने आपवी ए लोकमां कोई न करी शके ए भगवाने कर्युं. जेनाथी पोतानुं हीनपणुं जणाय तेवा वचनो पोतानी विभूति (श्रुतदेव ब्राह्मण) ने कोई कही शके नहि. वगर बोलाव्यो कोई बीजाने घेर जाय पण नहि ए बधुं भगवाने अर्ही कर्युं
ईं उं ईं उं
[[११९]] छे. एम करीने पण पोतानुं वीर्य बताव्युं छे. अर्ही व्यासजीए जे प्रसङ्ग विचार्यो छे ते क्रमथी श्रीशुकदेवजीए कथा कही छे. फलसिद्धि भगवानने हाथ छे तेथी अर्ही व्यासजी उदासीनताथी कथा कहे छे. ग्रन्थना आरम्भमां श्रीकृष्णे अमने ए ज व्यासजीए जे क्रम प्रमाणे कथा कही छे ते ज क्रम प्रमाणे व्याख्यान करवुं एम कह्युं छे एम श्रीआचार्यजी कहे छे. ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः ॥ यथोपयेमे विजयो या ममासीत् पितामही ॥१॥
राजा परीक्षित बोल्या - हे ब्रह्मन्! राम-कृष्णनां बहेन सुभद्राजी जे मारां पितामही थाय तेमने अर्जुन केवी रीते परण्या ए जाणवानी मारी इच्छा छे तेथी आप मने ए कहो ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक वार अत्यन्त शक्तिशाळी अर्जुन तीर्थयात्रामां फरता-फरता प्रभास आव्या. त्यां पोताना मामानी पुत्री परणवा जेवडां छे एम साम्भळ्युम् ॥२॥
एमने बलदेवजी दुर्योधनने आपशे ए पण एमना जाणवामां आव्युं पणबलदेवजी सिवायना बीजानो एने देवानो विचार नथी एम जाणी ए पोतानो भाग पोते लेवो जोईए* एम जाणी कृत्रिम त्रिदण्डीनो वेश करी सन्न्यासी थई द्वारका गया ॥३॥
विशेष - अर्जुन नरावतार छे. ए जीवनी कलारूप छे. सुभद्रा मायाशक्ति छे जेनो जन्म प्रथम यशोदाजीमां थयो हतो. देवकीजीए एने स्नेहथी राखी हती. जेम ए माया आठ स्थानमां रही तेम ज देवकीजीना स्नेहथी एनी पासे पण ए रही. कंसना हाथमान्थी छटकी गई ते ज ‘सुभद्रा’नामे प्रसिद्ध थई. स्त्रीभावथी पुरुषने मोह थाय. ए अर्जुननी स्त्री थवाने लायक हती तेथी एमां अर्जुनने मोह थयो एटले सन्न्यासीनो वेश करी चौर्यथी कन्यानुं हरण कर्युं. जो के चौर्य अने अधर्मवेश क्षत्रियने निन्दित गणाय पणए कन्यानां माता-पिता अने श्रीकृष्णनी सम्मतिथी एमणे ए कन्यानुं हरण कर्युं छे. तीर्थमां कृत्रिम वेशनो निषेध नथी तेथी एम कर्युं छे. द्रौपदीने परण्या एमां पाञ्चने एक स्त्री होवाथी परस्पर कलह थवानो सम्भव जणातां नारदजीए आवी सुन्द अने उपसुन्द नी कथा कही अने एमने एक वर्ष सुधी एक भोगवे एमां एकना विलासने बीजो भाई जोई जाय तो ए एक वर्ष सुधी तीर्थमां फरे एवो ठराव करी गार्हस्थ्य चलावता हता. एक दिवस एक ब्राह्मणनी गायने चोर लई गयो. एनी ब्राह्मणे अर्जुन पासे फरियाद करी. अर्जुन शस्त्रागारमां गया. त्यां द्रौपदीने युधिष्ठिरनी अध्याय-८६,१२० दशमस्कन्ध साथे बेठेलां जोयां तेथी ए शस्त्र लई लुटारा पासेथी गाय छोडावी, ब्राह्मणने आपी करारनुं पालन करवा त्यान्थी यात्रा करवा नीकळी गया. आ बधी वात महाभारतमां छे. मामानी दीकरी पोतानो भाग गणाय छे. ए बीजाने जाय तो एमां एमनी अशक्तिनी सम्भावना थाय तेथी मूलमां प्रभु शब्द कह्यो छे. ‘‘मातुलस्येव योषा भागस्ते पैतृष्वसेयीवपामिव’’ ए श्रुति पण ए वातनुं समर्थन करे छे. पोतानो स्वार्थ साधवामाटे अर्जुन वरसादना चार महिना सुधी त्यां रह्या. वर्षाकाळमां यतिने फरवानो निषेध होय छे. गामना लोकोए यतिनी पूजा करवा लाग्या त्यारे बलदेवजीए पण अजाणतां तेमनी पूजा करी ॥४॥
एक दिवस तेमने भिक्षानुं निमन्त्रण कर्युं अने बलदेवजी यतिने पोताने घेर बोलावी लाव्या अने श्रद्धाथी एमने भिक्षा आपी ते यतिए स्वीकारी पोते त्यां बेसीने भोजन कर्युम् ॥५॥
(अर्जुने रसोई तैयार थाय तेटलो समय त्यां रह्या. ते दरम्यान) विवाह योग्य परम सुन्दरी सुभद्राजीने जोयां. तेमनुं सौन्दर्य मोटा-मोटा वीरपुरुषोनुं मन हरी ले तेवुं हतुं. अर्जुननां नेत्रो प्रेमथी प्रफुल्लित थई गयां. तेमनुं मन तेमने प्राप्त करवामाटे क्षुब्ध थई गयुं अने तेमने पोतानी पत्नी बनाववानो तेमणे दृढ निश्चय करी लीधो ॥६॥
हे परीक्षित! तमारा दादा अर्जुन पण बहु ज सुन्दर हता. एमना शरीरनो बान्धो अने भाव स्त्रीओनां हृदयमां वसी जाय तेवा हतां. तेमने जोईने सुभद्राजीए पण तेमने ज पोताना पति बनाववानो मनमां निश्चय करी लीधो. तेओ सहेज हस्यां, लज्जाळु दृष्टिथी तेमना तरफ जोवा लाग्या अने पोतानुं हृदय तेमने समर्पी दीधुम् ॥७॥
हवे अर्जुन मात्र तेमनुं ज चिन्तन करवा लाग्या अने क्यारे तेमने हरीने लई जाउं तेनो मोको जोता रह्या. सुभद्राजीने प्राप्त करवानी उत्कट कामनाथी तेमनुं चित्त भ्रमित थयुं एमनी शान्ति नाश पामी गई ॥८॥
(आ दरम्यान भगवान् अर्जुननो माता-पिता साथे परिचय करावे छे अने माता-पिता सुभद्राजीनुं अर्जुनने वाग्दान करे छे) एकवार सुभद्राजी (श्रीकृष्णे योजना करी हती ते मुजब) देव दर्शनने माटे रथमां बेसी द्वारकाना किल्लानी बहार नीकळ्यां. ते ज समये महारथी अर्जुने वसुदेवजी, देवकीजी अने श्रीकृष्णनी [[१२१]] अनुमतिथी सुभद्राजीनुं हरण करी लीधुम् ॥९॥
रथ उपर सवार थई वीर अर्जुने धनुष ऊठावी लीधुं अने जे सैनिको तेमने रोकवाने माटे आव्या तेमने हरावीने नसाडी मूक्या. सुभद्राजीना सगां-सम्बन्धी कोलाहल करतां रह्यां अने सिंह जेवी रीते पोतानो भाग लई चालतो थाय छे तेम अर्जुन सुभद्राजीने उठावी चालता थया ॥१०॥
आ समाचार साम्भळी पूर्णिमाने दिवसे समुद्र जेम खळभळी ऊठे तेम बलदेवजी ऊकळी ऊठ्या, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तथा बीजा सुहृदसम्बन्धीओए तेमनां चरण पकडी तेमने बहु समजाव्या त्यारे ते *शान्त थया ॥११॥
विशेष - आपणे कन्या अवश्य कोईने देवानी तो हती ज. तेने अर्जुन उठावी गयो. हरण करायेली कन्या हवे बीजुं कोई लेशे नहि. आपणे पाछळ पडी तेने मारीए तो ए कन्या पति वगरनी थाय एने आपणे केम जोई शकीए? वळी अर्जुन वीर छे, कन्याने लायक वर छे. एणे पोतानुं काम करवामाटे कृत्रिम वेश कर्यो तेम तो स्वार्थ सिद्ध करवाने बधा करे एमां एनो दोष न गणाय. आपणे एने जाणी शक्या नहि ए आपणो दोष छे. सन्न्यासनो वेश पण जो बनावटी होय तो एमां वान्धो नहि. एम समजावी पगमां पडवाथी बलदेवजी मानी गया अने बधो सत्कार थवो जोईए ए एमणे कर्यो. बलदेवजीए प्रसन्नताथी वरवधूने घणा धन अने उपस्कर सहित दायजो आप्यो* घोडा, रथ, हाथी अने माणसोवाळी चतुरङ्गिणी सेना तथा सुभद्राजीनी दासीओ तरीके स्त्रीओ पण एमने मोकलावी आपी ॥१२॥
विशेष - भगवाने पोताना भक्तने पोतानी बहेन आपी तेमां शुं आश्चर्य छे? कारण के कर्मनिष्ठ राजा अने ज्ञाननिष्ठ श्रुतदेवने त्यां पोते पधार्या, मुनिओना समाजने साथे राख्यो अने बन्नेनुं भलुं करवा पोतानो आत्मा एने आप्यो. जेने जेवी इच्छा हती तेवुं सुख भगवाने बन्नेने आप्युं. ज्यारे ए कृतार्थ थया त्यारे भगवान् त्यान्थी पाछा पधार्या. श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! विदेहनी राजधानी मिथिलामां एक गृहस्थ१ ब्राह्मण हता. तेमनुं नाम श्रुतदेव हतुं२. ते भगवान् श्रीकृष्णना परम भक्त हता. ते एक मात्र भक्तिथी पूर्णकाम, परम शान्त, ज्ञान अने विरक्त हता. गृहस्थाश्रममां रहेता होवा छतां ते कोई पण प्रकारनो उद्योग करता नहि. विना प्रयासे जे कंई मळी आवतुं तेटलाथी ज पोतानो निर्वाह करी लेता अने कर्ममार्ग अध्याय-८६,१२२ दशमस्कन्ध प्रमाणे ब्राह्मणे करवी जोईती क्रिया करता हता ॥१३-१४॥
विशेष - १. अभिमान न होय तो बीजा आश्रमो करतां गृहस्थाश्रम ज मुख्य छे, कारण के
अभिमान विनाना पुरुषने गृहस्थाश्रममां दोषो थताजनथी.
२. श्रुतदेव-श्रवणमां देवना जेवी बुद्धि छे जेनी ते.
प्रारब्ध वश रोज तेमने जीवन निर्वाह पूरती सामग्री मळी रहेती, वधारे नहि.
तेमने एटलाथी सन्तोष पण हतो अने पोताना वर्णाश्रम प्रमाणे धर्मपालनमां
तत्पर रहेता हता ॥१५॥
हे प्रिय परीक्षित! ते देशना राजा पण ब्राह्मणना जेवा ज भक्तिमान् हता. मैथिल वंशना ए प्रतिष्ठित राजानुं नाम बहुलाश्व हतुं. तेमनामां अभिमाननुं तो नाम पण नहोतुं. श्रुतदेव अने बहुलाश्व बन्ने भगवान् श्रीकृष्णना प्रिय भक्त हता. ए बन्नेने भगवाने याद कर्या ॥१६॥
एकवार भगवान् श्रीकृष्णे ते बन्ने उपर प्रसन्न थई, दारुक पासे रथ मङ्गाव्यो अने तेमां सवार थई द्वारकाथी विदेह जवामाटे प्रस्थान कर्युम् ॥१७॥
भगवाननी साथे नारदजी, वामदेव, अत्रि, वेदव्यासजी, परशुरामजी, असित, आरुणि, हुं (शुकदेवजी), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय अने च्यवन वगेरे ऋषिओ पण हता ॥१८॥
हे परीक्षित! तेओ ज्यां-ज्यां जता त्यां-त्यां लोको पूजानी सामग्री लईने हाजर थता. पूजा करनाराओने भगवान् ग्रहोनी साथे साक्षात् सूर्यनारायण उदित थई रह्या होय तेवा जणाता ॥१९॥
हे परीक्षित! ते यात्रामां आनर्त, धन्व, कुरु, जाङ्गल, कङ्क, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण अने बीजा देशोना नर-नारीओए पोताना नेत्ररूपी पडियाओथी भगवान् श्रीकृष्णना मुक्त हास्य अने प्रेमाळ दृष्टिथी युक्त मुखारविन्दना मकरन्द रसनुं पान कर्युम् ॥२०॥
त्रण लोकना गुरु भगवान् श्रीकृष्णनी दृष्टिथी तेमनी अज्ञान दृष्टि दूर थई गई. दर्शन करनारां नर-नारीओने परम कल्याण अने अर्थदृष्टि (सर्वस्थले अर्थरूप भगवान्, जे सर्व वस्तुओमां वस्तुनुं स्वरूप छे तेमनां दर्शन करे तेवी दृष्टि ते अर्थदृष्टि.) नुं दान करता-करता प्रभु पधारी रह्या हता. रस्तामां बधेय देवरूपी मनुष्यो (अथवा देवो अने मनुष्यो) भगवाननी ते कीर्तिनुं गान करीने सम्भळावता [[१२३]] हता जे समस्त दिशाओने उज्जवल बनावनारी तथा समस्त अशुभोनो नाश करी देनारी छे. आम भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देशमां पहोञ्च्या ॥२१॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णना शुभागमनना समाचार साम्भळी प्रजाजनोना आनन्दनी सीमा न रही. तेओ पोताना हाथमां पूजानी विविध सामग्रीओ लई आपनुं सामैयुं करवा आव्या ॥२२॥
भगवान् श्रीकृष्णनां दर्शन करीने तेमनां हृदय अने मुखकमल प्रेम अने आनन्द थी खीली ऊठ्यां. तेमणे भगवानने तथा जेमनां नाम मात्र साम्भळ्यां हतां पण जेमने कदी जोया नहोता ते मुनिओने हाथ जोडी मस्तक नमावी प्रणाम कर्या ॥२३॥
जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण पोताना उपर कृपा करवा ज पधार्या छे एम समजी, मिथिलानरेश बहुलाश्व अने श्रुतदेवे प्रभुनां चरणोमां पडी प्रणाम कर्या ॥२४॥
बहुलाश्व अने श्रुतदेव बन्नेए एकी साथे हाथ जोडी मुनिमण्डली साथे भगवान् श्रीकृष्णने आतिथ्य ग्रहण करवाने माटे आमन्त्रण आप्युम् ॥२५॥
भगवान् श्रीकृष्ण बन्नेनी प्रार्थनानो स्वीकार करी बन्नेने प्रसन्न करवामाटे एक ज समये जुदा-जुदा रूपथी बन्नेने घेर पधार्या अने आ वातनी जाण एकबीजाने न थई के भगवान् श्रीकृष्ण मारा घर सिवाय बीजे क्यांय पण पधारी रह्या छे* ॥२६॥
विशेष - श्रुतदेवने त्यां भगवान् तथा मुनिओ पधार्या छे. जनकने त्यां बीजा स्वरूपे तथा मुनिओनां स्वरूप धारण करी पधार्या छे. जनक राजाने त्यां घणा दिवस बिराज्यां छे. श्रुतदेवने त्यां सन्मार्गनो उपदेश करवा एकज दिवस बिराज्या छे अने छतां बन्नेना घेरथी एकी साथे विदाय थायछे. विदेहराज बहुलाश्व बहु उदार हता. दुष्ट दुराचारी लोको जेमनुं नाम पण न साम्भळी शके ते ज भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषिमुनिओ मारे घेर पधार्या छे ते जोई सुन्दर आसन मङ्गाव्या अने भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषिमुनिओ ने आसन उपर पधराव्या. ते वखते बहुलाश्वनी विचित्र दशा हती. प्रेमभक्तिना उद्रेकथी तेमनुं हृदय भराई आव्युं हतुं. आङ्खोमां आंसु ऊभराई रह्यां हतां. तेमणे पोताना अति पूज्य अतिथिओना चरणोमां नमस्कार करी चरणो पखाळ्यां अने पोताना अध्याय-८६,१२४ दशमस्कन्ध कुटुम्बनी साथे ते चरणोनुं गङ्गाजी समान लोकपावन जल मस्तक उपर धारण कर्युं. पछी भगवान् तथा भगवत्स्वरूप ऋषिओने गन्ध, माला, वस्त्र, अलङ्कार, धूप, दीप, अर्घ्य, गाय, बळद वगेरे समर्पण करी तेमनी पूजा करी ॥२७-२९॥
ज्यारे बधा भोजन (पान, विश्राम अने शयन) करी तृप्त थई गया त्यारे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णनां चरणोने पोतानी गोदमां लईने बेसी गया अने बहु ज आनन्दथी धीरे-धीरे तेमना उपर हाथ फेरवता (चरण दबावता) अत्यन्त मधुर वाणीथी भगवाननी स्तुति करवा लाग्या ॥३०॥
राजा बहुलाश्वे कह्युं - आप सर्व प्राणीओना आत्मा, अन्तर्यामी अने स्वयं प्रकाश छो, हे विभो! आपनां चरण कमलनुं स्मरण करनारने आपे दर्शन आप्यां ते भक्तिमार्गने अनुरूप ज छे ॥३१॥
हे प्रभो! आपनुं वचन छे के ‘‘मने लक्ष्मीजी, ब्रह्माजी के शिवजी एटला प्रिय नथी जेवो मारो भक्त मने प्रिय छे’’ ए वचन सत्य करवाने ज आपे अमोने दर्शनआप्यां छे ॥३२॥
भला एवो क्यो पुरुष होय के जे आपनी परम दयालुता अने प्रेम परवशताने जाणीने पण आपना चरणकमलनो परित्याग करी शके? हे प्रभो! जेमणे जगतनी समस्त वस्तुओनो अने शरीर वगेरेनो मनथी परित्याग करी दीधो छे ते परम शान्त मुनिओने आप आपनां स्वरूप सुद्धानुं दान करी दो छो ॥३३॥
आपे यदुवंशमां अवतार लई जन्म-मृत्यु (संसार) ना प्रवाहमां तणाता मनुष्योने तेमान्थी छोडाववाने माटे जगतमां एवा विशुद्ध यशनो विस्तार कर्यो छे के जे त्रणेय लोकना पाप-तापने शान्त करी दे छे ॥३४॥
हे प्रभो! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य अने माधुर्यना निधि छो. बधाना चित्तने पोताना तरफ आकर्षवामाटे आप सच्चिदानन्द स्वरूप श्याम ब्रह्म छो. आपनुं ज्ञान अनन्त छे. परम शान्तिनो विस्तार करवामाटे आप ज नारायण ऋषिना रूपमां तप करी रह्या छो. हुं आपने नमस्कार करुं छुम् ॥३५॥
हे एकरस अनन्त! मुनिमण्डलीनी साथे आप अमारे त्यां केटलाक दिवस बिराजो अने आपना चरणनी धूलीथी आ निमिना वंशने पवित्र करो ॥३६॥
लोकोने अनुभव करावनार भगवान् राजा बहुलाश्वनी आ प्रार्थनानो स्वीकार करी मिथिलावासीओना नर-नारीओनुं कल्याण करता केटलोक समय त्यां [[१२५]] बिराज्या. (मिथिला ज्ञानीओनी नगरी छे. त्यान्ना लोको उत्सवने बहु जाणता होता नथी तेथी तेमने आपे उत्सवनुं वितरण कर्युं) ॥३७॥
जेवी रीते राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण अने मुनिमण्डली ना पधारवाथी आनन्द मग्न थई गया हता तेवी ज रीते श्रुतुदेव ब्राह्मण पण भगवान् श्रीकृष्ण अने मुनिओ ने पोताने घेर पधारेला जाणी आनन्द विह्वल थई गया. तेमणे तेमने नमस्कार कर्या अने खभा उपरना दुपट्टाना बे छेडा बे हाथमां लई ते उछाळता-उछाळता नाचवा लाग्या ॥३८॥
पधारेला सर्वने घास, दर्भना आसन तथा चटाई उपर बेसाडीने स्वागतथी अभिनन्दन करी पत्नी सहित तेमणे आनन्दथी तेमनां चरण धोयाम् ॥३९॥
महा सौभाग्यशाली श्रुतदेवना बधा मनोरथो भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषिओनुं चरणोदक मळवाथी ज पूर्ण थई गया. ते चरणोदकथी पोते स्नान कर्युं, कुटुम्बीओने स्नान कराव्युं अने आखा घरमां ते छाण्टी दीधुं. हर्षना अतिरेकथी तेओ मतवाला थई रह्या हता ॥४०॥
त्यारबाद तेमणे उत्तम फळो, खसथी सुवासित निर्मल तथा मीठुं पाणी, (हाथपग धोवामाटे) सुगन्धी माटी, तुलसी, कुश, कमलो वगेरे अनायासे प्राप्त थयेल पूजा सामग्री अने सत्वगुण वधारनार अन्नथी बधानी पूजा करी ॥४१॥
श्रुतदेव मनमां विचार करवा लाग्या के हुं तो घररूपी अन्धारा कूवामां पड्यो छुं, सर्व तीर्थरूप चरण रेणुवाळा अने भगवानने रहेवाना स्थानरूप तेवा आ ऋषिमुनिओनो अने श्रीकृष्णनो समागम मने क्यान्थी थाय? छतां एमनी कृपाथी थयो ए मारुं मोटुं भाग्य हुं समजुं छुम् ॥४२॥
ज्यारे बधा लोको आतिथ्य स्वीकार करी आरामथी बेसी गया त्यारे श्रुतदेव पोतानां स्त्री पुत्रो तथा बीजा सम्बन्धीओ साथे तेमनी सेवामां उपस्थित थया. भगवान् श्रीकृष्णनां चरणकमलनो स्पर्श करतां ते कहेवा लाग्या ॥४३॥
श्रुतदेवे कह्युं - आपे आपनी शक्तिओ द्वारा आ जगतनी रचना करी अने आत्मसत्ताना रूपमां तेमां प्रवेश कर्यो ए भगवान् केवा हशे ते विशे अत्यार सुधी तो हुं विचार ज करतो हतो, (कदी दर्शन करवानुं सौभाग्य प्राप्त थयुं न हतुं) परन्तु आजे ज आप पूर्ण पुरुषोत्तमनां दर्शन थयां* ॥४४॥
विशेष - आ अर्थ ‘‘अद्य नो दर्शनं प्राप्तः’’ पाठ प्रमाणे थयो. बीजो ‘‘नाद्य नो दर्शनं अध्याय-८६,१२६ दशमस्कन्ध प्राप्तः’’ पाठ पण छे. ते प्रमाणे अर्थ-मने आपनां दर्शन आजे ज थयां होय तेवुं नथी. ज्यारथी आपे आ जगतनी रचना करी तेमां आत्मसत्ताथी प्रवेश कर्यो त्यारथी हुं सर्व वस्तुमां आपनां दर्शन करुं छुं. आ शास्त्रीय वात थई. साक्षात् मारां नेत्रोथी तो आजे ज थयां. जेवी रीते निद्राधीन पुरुष स्वप्ननी अवस्थामां अविद्यावश मनमां ने मनमां स्वप्न जगतनी सृष्टि करी ले छे अने तेमां पोते पण शामिल थई अनेक रूपोमां अनेक कर्मो करतो जणाय छे तेवी ज रीते आपे आपमां ज पोतानी मायाथी जगतनी रचना करी लीधी छे अने हवे तेमां प्रवेश करी अनेक रूपोमां प्रकाशित थई रह्या छो ॥४५॥
जे लोको सर्वदा आपनी लीला कथानुं श्रवण-कीर्तन करे छे अने आपनी प्रतिमाओनुं अर्चन-वन्दन करे छे तथा आपनी ज लीलाओनी परस्पर चर्चा करे छे तेमनुं चित्त (अने दृष्टि) शुद्ध थतां आप तेमना हृदयमां प्रकट थाओ छो ॥४६॥
कर्मवडे जेनां चित्त विक्षिप्त थयां छे तेना हृदयमां आप छो छतां एनाथी बहु दूर छो केमके अन्तःकरणमां रहेली शक्तिओथी आप जोई शकाओ पण ते शक्तिओ तो कर्ममां रोकाई गयेली होवाथी कर्मठना हृदयमां आप देखाता नथी. जे शक्ति भगवाननां दर्शनमाटे छे तेनो विनियोग कर्ममां करवाथी भगवान् एनी पासे छतां बहु दूर रहे छे. जेणे जड गुणोमां ज आत्मा स्वीकार्यो एटले जड अने चेतन ए बे कोटिमां चेतनने आत्मा माने तो दर्शन थाय पण आ तो जडने आत्मा माने छे तेथी ए भगवान् चेतन होवाथी एनुं ग्रहण करवाने असमर्थ थाय छे ॥४७॥
हे प्रभो! ब्रह्म अने आत्मा एक छे एम जाणनारा अनुभवयुक्त ज्ञानीओना आप उत्कृष्ट आत्मा छो. (आ सिवाय) बीजो आपने आत्मा ज नथी. जेमणे आत्मानो भेद करेलो छे तेमने माटे तो आप मृत्युरूप छो. काल वगेरे आपनुं नित्य शरीर छे, घडो वगेरे आपनुं अनित्य शरीर छे; आम आप नित्य अने अनित्य बन्ने शरीर धारण करो छो, आपे आपनी मायाथी आत्माने ढाङ्की दीधेल छे अने दृष्टिने रोकी राखेल छे. आवा आप तो मात्र नमस्कार करवा योग्य छो तेथी आपने हुं नमस्कार ज करुं छुम् ॥४८॥
हे देव! अमे आपना दास छीए. अमने आज्ञा करो. आपनी कई सेवा अमे करीए? मनुष्यने आपनां दर्शन थतां क्लेश रहेतो नथी. ज्यां सुधी आपनो [[१२७]] साक्षात्कार न थाय त्यां सुधी ज क्लेशनो सम्भव छे. आपनां दर्शन करनार जीवने स्वार्थ तो रह्यो नहि एने स्वामीकार्य करवानुं रह्युं तेथी आज्ञा मागवी ए योग्य ज छे ॥४९॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! शरणागत भयहारी भगवान् श्रीकृष्णे श्रुतदेवनी प्रार्थना साम्भळी पोताना हाथथी तेनो हाथ पकडी लीधो अने तेने हसतां- हसतां कह्युम् ॥५०॥
भगवान् बोल्या - हे ब्रह्मन्! तमारा उपर अनुग्रह करवामाटे आ मुनिओ तमारे त्यां आव्या छे एम तमे जाणो. ए पोतानी चरणरेणुथी लोकोने पवित्र करता मारी साथे सर्वत्र फर्या करे छे ॥५१॥
देवो, पुण्यक्षेत्रो अने तीर्थो वगेरे तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन द्वारा धीरे-धीरे घणा काळे पवित्र करे छे, परन्तु सन्तपुरुष पोतानी दृष्टिथी ज बधाने पवित्र करी दे छे. एटलुं ज नहि देवो वगेरेमां पवित्र करवानी जे शक्ति छे ते पण तेमने सन्तोनी दृष्टिथी ज प्राप्त थाय छे* ॥५२॥
विशेष - ‘‘अभ्यनुज्ञाविहीनं हि ब्राह्मणानां विशेषतः। सर्वं निष्फलतां याति व्रतदानार्चनादिकम्’’ व्रत, दान, पूजन वगेरे ब्राह्मणोनी आज्ञा लीधा वगर करे तो ए सर्व निष्फळ जाय छे एवां धर्म शास्त्रनां वाक्योथी आ विषय विशेष दृढ थाय छे. (कारिका) हे श्रुतदेव! जगतमां ब्राह्मण जन्मथी ज बधां प्राणीओमां श्रेष्ठ छे. तेमांय वळी ते तपस्या, विद्या, सन्तोष अने मारी भक्तिथी युक्त होय तो पछी कहेवानुं ज शुं? ॥५३॥
आ चतुर्भुज स्वरूप मने ब्राह्मण करतां वधारे वहालुं नथी, कारण के बधा वेदो विप्रमां रहेला छे अने बधा देवो मारामां रहेला छे* ॥५४॥
विशेष - प्रमेयनुं साबित थवुं प्रमाण (वेद) ने आधीन छे. प्रमाणथी प्रमेय साबित थाय छे. मानाधीना मेयसिद्धिः। आ ब्राह्मणो प्रमाणना पूजारीओ होवाथी भगवान् अर्ही तेमनो आदर करे छे. दुर्बुद्धि मनुष्यो आ मारो अभिप्राय अने सिद्धान्त जाण्या विना मात्र मूर्ति, तीर्थ, क्षेत्र वगेरेमां ज पूज्य बुद्धि राखे छे अने गुणोमां दोष काढी मारा रूप जगद्गुरु ब्राह्मणनो, जे तेनो आत्मा ज छे, तिरस्कार करे छे ॥५५॥
आ चर अने अचर आखुं विश्व अने विश्वना कारणरूप तत्वो ते बधुं अध्याय-८६,१२८ दशमस्कन्ध भगवद्रूप छे एम ब्राह्मण पोताना चित्तमां जाणे छे ॥५६॥
हे ब्रह्मन्! आ ब्रह्मर्षिओने तमे भगवद्बुद्धिथी पूजो तो ज तमे मारुं साक्षात् पूजन कर्युं एम हुं मानीश, नहि तो मोटी समृद्धिथी पण करेल मारुं पूजन मने सन्तोष आपनार थतुं नथी ॥५७॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णनी आ आज्ञा मेळवी श्रुतदेवे भगवान् श्रीकृष्ण अने ते ब्रह्मर्षिओनी एकान्त भक्तिथी आराधना करी सद्गति (भगवाननुं सायुज्य) प्राप्त करी अने मिथिला नगरीना राजा बहुलाश्वे पण (देह पड्या पछी) ते ज गति प्राप्त करी ॥५८॥
एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान् ॥ उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात् ॥५९॥
हे राजन्! भक्तमां भक्तिवाळा भगवान् एम पोताना बन्ने भक्तोने त्यां बिराजी ए बन्नेने सन्मार्गनो उपदेश आपी सत्पुरुषनी गतिरूप भगवान् फरी द्वारकापुरीमां पधार्या ॥५९॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमा गुण प्रकरणनो वीर्यरूप बीजो) ‘‘अर्जुने करेलुं सुभद्रानुं हरण’’ नामनो (उत्तरार्धनो साडत्रीसमो अने चालु) छ्याशीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां त्रेयाशीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ८७
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ८४ श्रुतिओए भगवाननी स्तुति करी जीवे भगवाननी भक्ति करवी एम सिद्ध कर्युं प्रकरण प मुं गुण प्रकरण अध्याय३
विशेष - वेदरूप शब्द अने ब्रह्मरूप अर्थनो वाच्य-वाचक सम्बन्ध जेवो मान्यो छे तेवो कहेवाने माटे वेदव्यासजीए आ श्रुतिगीत कह्युं छे. अर्ही प्रमाणरूप ब्राह्मण छे ए पूर्वाध्यायमां श्रुतदेवनी कथाथी कहेवामां आव्युं. प्रमेयरूप भगवान् श्रीकृष्ण छे तेथी एमनुं भजन करवानुं आ अध्यायमां कह्युं छे. एमां वाचक सम्बन्धमां युक्ति कहेवी जोईए तेथी [[१२९]] राजानो अर्ही प्रश्न छे. वेदनुं वाक्य सगुण होय तो ब्राह्मणो पण वेदमां निष्ठावाळा छे. तो- तो अर्ही भगवान् ज पूज्य छे, बीजो कोई रीते पूज्य नथी एम निश्चय थाय. वैदिक सिद्धान्त सनन्दने कह्यो तेथी ए मतान्तर उक्ति छे. अनन्त गुणोथी पूर्ण हरि, ब्रह्म (अक्षर) अने श्रुति ए त्रण एकत्र पोतानी शक्तिमां वहेञ्चीने त्रण भागने फल (श्रीकृष्ण), प्रमेय (ब्रह्म) अने प्रमाण (श्रुति) रूप थई छे. ते ज सत्, चित् अने आनन्दरूप पण छे. स्वरूपथी फलरूपे थया ते श्रीकृष्ण, प्रमेयरूपे थया ते ब्रह्म, प्रमाणरूपे थतां श्रुतिरूप थया. आनन्दांशने प्राधान्य आपी श्रीकृष्ण थया, चिदंशना प्राधान्यथी ब्रह्म अने सदंशने प्राधान्यथी स्वीकारीने श्रुतिरूप थया. आ ८७ मा अध्यायमां श्रुतिनो वाच्यार्थ ब्रह्म छे. एने माटे पूर्व पक्ष करी सिद्धान्तरूपे श्रीकृष्ण फलात्मा छे तेमनुं भजन करवुं ए जीवमात्रनो स्वधर्म छे एम श्रुतिओ सिद्ध करे छे. तत्व अठ्ठावीस छे तेथी अठ्ठावीस श्लोकथी श्रुतिओए भगवत्स्वरूपनुं स्तवन कर्युं छे एटले सर्वतत्वनुं तत्व आ गीतमां कहेवामां आव्युं छे. (कारिका) ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः ॥ कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे ॥१॥
राजा परीक्षित बोल्या - (शब्दार्थ) हे भगवन्! ब्रह्म कार्य अने कारण थी सर्वथा पर छे. सत्व, रज अने तम- आ त्रणे गुण तेमां छे ज नहि. मन अने वाणी थी सङ्केतरूपमां पण तेनो निर्देश थई शके तेवो नथी. बीजी बाजु बधी श्रुतिओनो विषय गुणो ज छे. (तेओ जे विषयनुं वर्णन करे छे तेना गुण, जाति अथवा क्रिया नो ज निर्देश करे छे) आ स्थितिमां श्रुतिओ निर्गुण ब्रह्मनुं प्रतिपादन कई रीते करे छे? कारण के निर्गुण वस्तुनुं स्वरूप तो तेनी शक्तिनी बहारनो विषय छे ॥१॥
श्रीसुबोधिनीजी - (भगवद्गुणनो विरोध दूर थतां प्रमाणमां विरोध आवे छे एवी शङ्का करे छे) हे ब्रह्मन्! ब्रह्ममां श्रुतिओ साक्षात् ब्रह्मनुं प्रतिपादन केवी रीते करी शके ए प्रश्न छे. अर्ही श्रुतिनी एक वाक्यतानो स्वीकार करीने राजा पूछे छे. एक वाक्यता तो बधी श्रुतिओ एकनुं ज कथन करे तो थाय ए तो सर्व गुणनुं वर्णन करे छे. ब्रह्म तो निर्गुण छे. तेथी राजाने सन्देह थयो. राजा पूछे छेः‘‘ब्रह्म वेदोनो तात्पर्यार्थ छे के वाक्यार्थ (व्युत्पत्तिथी थतो अर्थ) छे?’’ अखण्ड वाक्यार्थने राजा जाणतो नथी माटे पूछे छे. पदना अर्थो करणताने पामी वाक्यार्थने उत्पन्न करे छे एम राजानुं मन्तव्य छे. ‘‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’’ ‘‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’’ ए बे श्रुतिओथी सर्व वेद एक ज अर्थने कहेनार छे एम जणाय अध्याय-८७,१३० दशमस्कन्ध छे. श्रुतिओ भगवाननी अनेक प्रकारनी ज्ञान शक्ति अने क्रिया शक्तिनुं प्रतिपादन करे छे. शक्ति गुणमयी छे एटले श्रुतिओने पण सगुण कहेवी जोईए. पदनो सङ्केत तो लौकिकमां थई शके ते लौकिक सङ्केतथी अलौकिक पदार्थनुं स्मरण शी रीते थई शके? लौकिक सङ्केतथी ब्रह्मनुं वर्णन थाय तो ब्रह्म पण लौकिक थई जाय. आ पूर्व पक्षथी वेद मात्र, साधननो कहेनार छे, फल सुधी पहोञ्चनार नथी तेथी स्वप्रकाश ब्रह्म स्वानुभववेद्य छे ते प्रसन्न थईने कृतार्थ करे तो जीव कृतार्थ थाय तेथी प्रमेय (ब्रह्म) बलथी कार्य सिद्धि थाय. प्रमाण (वेद) बलथी कार्य सिद्धि नथी ए पूर्वपक्ष छे. ब्रह्म तो अलौकिक छे एम कह्युं. तेनी अलौकिकतानां कारण कहे छे के ए अनिर्देश्य छे. आ घडो-आ कपडुं एम बताववुं ए निर्देश कहेवाय. तेवो निर्देश ब्रह्मने माटे करी शकातो नथी. विचार करवामां आवे त्यारे बृहत्पणुं (सर्वथी अधिक अथवा सर्वथी जूना होवापणुं) बृहणपणुं (वध्या करवापणुं) एवी (ब्रह्म शब्दनी) व्युत्पत्ति पण लौकिक धर्म (गुण) थी जुदुं (ब्रह्म छे एम जणावनारी) होवाथी, ब्रह्ममां ज घटे छे तेथी ‘ब्रह्म’ शब्द अयोग्य नथी ज. पण विचार करतां लौकिक धर्मथी जुदुं ब्रह्म तो सर्व शब्दनो वाच्यार्थ नथी पण बुद्धिवाच्य छे तेथी समान धर्मथी व्यवहार थई शकशे. ब्रह्म निर्गुण छे. श्रुतिओ तो पद-पदथी गुणनुं वर्णन करनारी एटले गुणमां वृत्तिवाळी छे एटले ए धर्मने कहेनारी छे. ब्रह्म निर्धर्मक छे. ब्रह्ममां धर्मनो स्वीकार करो तो अद्वैतनी हानि थाय तेथी साक्षात् निर्धर्मक ब्रह्ममां ए केम पहोञ्ची शके? ते ब्रह्म ज कार्यरूप थाय छे त्यारे श्रुति ते कार्य कारणनुं वर्णन करे त्यारे ए द्वारा ए भगवान् ब्रह्ममां पण पहोञ्चे तेथी लक्षणा, गौणी के तात्पर्य वृत्ति थी श्रुतिनी ब्रह्मपरता थाय- त्यां कहे छे के ब्रह्म तो कार्य अने कारण थी पण पर छे. ए तो स्वानन्द पूर्ण छे. एने कार्य के कारण थी प्रयोजन नथी. तेथी सम्बन्धना अभावथी, गुणना अभावथी, तात्पर्यना अभावथी ब्रह्म केवी रीते श्रुति प्रतिपाद्य थई शके? ॥१॥
एम एक श्लोकथी राजाए पूर्वपक्ष कर्यो. बीजा श्लोकथी शुकदेवजी सिद्धान्त कहे
छे ः
श्रीशुकदेवजी कहे छे - (शब्दार्थ) १. जगतने माटे २. उद्भवनेमाटे
३.आत्मानेमाटे अने ४. कल्पनान थाय (अथवा थाय)ते माटे,प्रभुए जीवोनां
बुद्धि, इन्द्रिय, मन अने प्राणोनी सृष्टि करी छे ॥२॥
श्रीसुबोधिनीजी - अर्ही पूर्वपक्ष करनारने पूछवुं जोईए के ब्रह्म श्रुतिसिद्ध छे एम तें श्रुतिद्वारा जाण्युं एनो विचार करे छे के तारा मनथी ब्रह्मने तुं समजीने विचार करे छे? जो श्रुतिद्वारा जाणीने विचार करे तो एमां सन्देह ज नथी पण विचारमां प्रकार ज शोधवो [[१३१]] जोईए. बुद्धिथी ब्रह्मनो विचार करनारने तो जवाब ज न देवो जोईए. सत्पुरुषो एवानी तो उपेक्षा ज करे. ब्रह्म तो जेवुं वेदान्तमां कह्युं छे तेवुं मानवुं जोईए. एमां मूळभूत ब्रह्म सर्व व्यवहारथी पर छे तो पण ए ब्रह्म पोते ज पोतानी शक्तिरूपे पोताना धर्मरूपे अने कार्यरूपे थाय छे एम श्रुति कहे छे. ब्रह्म तो श्रुतिथी ज जणाई शके तेवुं होवाथी ए ब्रह्ममां सङ्केत समीपथी अथवा दूरथी लोकधर्मनी समानताथी, वैदिक पररूपराथी थाय तेथी सर्व भगवद्भावनुं खण्डशः श्रुति प्रतिपादन करे छे. तेथी सम्पूर्ण वाक्य पण ब्रह्मने ज कहे छे एम सिद्ध थशे ते वाक्यार्थ अपूर्व थशे. जेम लोकमां लोकानुवाद छे ए जो श्रुति कहे तो श्रुति लौकिक थई जायएवी शङ्का थाय तेथी आ वाक्यार्थने अपूर्व कह्यो. अपूर्व वाक्यार्थ केम बोध करे एनो प्रकार कहे छेःलौकिकमां ‘‘चैत्रः घटं करोति’’ ए वाक्यनो घटकृतिरूप वाक्यार्थ छे. एनो वक्ता लौकिक जीव छे तेनी बुद्धिमां ए वाक्यार्थ आव्यो. हवे घटने जाणवावाळाने एनो ए बोध करी दे छे तेम वैदिक वाक्यार्थ भगवान् जगत् करे छे ए भगवाननी बुद्धिमां प्रलयना समयमां रहे छे. ए ईश्वरना वाक्यनो विषय थाय छे. जगत्कर्तानी जिज्ञासावाळाने एनो ईश्वर बोध करावे तेथी श्रीशुकदेवजी भगवाने चार प्रकारनी सृष्टि करी एनो प्रकार बतावे छे. भगवान् प्रथम बुद्धिने उत्पन्न करे छे, पछी इन्द्रियोने, पछी मनने अने त्यार पछी प्राणने उत्पन्न करे छे एवुं एमनामां सामर्थ्य छे तेथी ‘प्रभुः’ ए पद कहेलुं छे. प्रत्येक जीवने बुद्धि, इन्द्रिय, मन अने प्राण करवानुं प्रयोजन कहे छे. एमां बुद्धिनुं प्रयोजन मात्र छे. जेमनुं माप करवामां आवे अने जेमनुं रक्षण करवामां आवे ते ‘मात्रा’. एटले ज्ञान (प्राप्त करवामां) अने क्रिया (करवा) मां उपयोगी पदार्थो एटले के बधुंय जगत्. ए बधा पदार्थो जुदा रहे एनो शब्दथी बोध थतां पण पुरुषने ज्ञान क्रियामां उपयोगी न थई शके तेथी बुद्धिने उत्पन्न करी. ए बुद्धि ज्ञानक्रियोपयोगी विषयो ग्रहण करे छे. जेम चित्र जोतां तेमां बधा पदार्थनी स्फूर्ति थाय तेम बुद्धिमां सर्व जगतनी स्फूर्ति थाय छे. ए बुद्धिवडे जे जाणवानुं के करवानुं होय ते थाय छे. तेथी जगत्ने माटे बुद्धि बतावी. तेथी ज वेदो खण्डशः (कटके-कटके) अर्थने प्रतिपादन करे तेना महावाक्यनुं ज्ञान बुद्धिथी थई शके तेथी वेदो तात्पर्यथी ब्रह्मनुं निरूपण करे छे. आगळ जे बीजां त्रणनुं प्रतिपादन करे छे तेने माटे पण बुद्धिनुं निर्माण समजवुं. ‘भव’ एटले सरसाईमाटे इन्द्रियोने उत्पन्न करी छे. बुद्धि तो सर्वनेमाटे छे. बुद्धिथी सर्व उत्कर्ष प्राप्त थाय छे. आत्मा पण बुद्धिथी ज आत्मनिष्ठ अने भगवन्निष्ठ थाय छे. भगवत्सेवा पण बुद्धिथी थई शके छे. मोक्ष पण बुद्धिथी मळे. तेथी सर्व सिद्ध थाय अने सर्व अडचण दूर थाय. एटलामाटे आ चारनी उत्पत्ति कही छे तेथी शङ्का थाय ते पण बुद्धिथी अध्याय-८७,१३२ दशमस्कन्ध दूर करवी ए पण एनाथी सूचित थाय छे. ए बुद्धि परिपूर्ण थाय माटे इन्द्रियोने उत्पन्न करी. इन्द्रियोथी कर्म करे एनाथी बीजो जन्म थाय. बीजां पण प्रयोजनो इन्द्रियोथी सिद्ध थाय छे. विषयोनुं ज्ञान इन्द्रियोथी थाय छे. भगवत्सेवा पण इन्द्रियोथी थाय छे. इन्द्रियोथी अनेक प्रकारनी कल्पना थाय छे. योगादि द्वारा मोक्ष पण थाय छे. आत्माने माटे मनने उत्पन्न कर्युं छे. ‘‘मनसैवानुद्रष्टव्यं’’ एम श्रुति कहे छे. इन्द्रियोनी प्रवृत्ति थाय ते माटे मननी सृष्टि छे. प्राणनी सृष्टि कल्पना दूर करवामाटे छे. सर्वनी एक्ता करी आपनार प्राण छे एटले के सर्व पदार्थ तरफ जनारा मनने आत्मा तरफ वाळे छे. जो प्राण न होय तो अन्न आदि (पृथ्वी वगेरेना परिणामरूप घटपटादि) परिणाम करी देखाडीने जगतनो प्रलय थाय त्यारे जगतनी एकपणानी बुद्धि थाय नहि. क्रियाशक्ति प्राणथी ज उत्पन्न थाय छे. ‘‘अन्नेन प्राणाः प्राणैः बलम्’’ एम श्रुतिओ कहे छे. ‘‘प्राणैर्मनो मनसश्च विज्ञानं विज्ञानादानन्दो ब्रह्मयोनिः’’ एम श्रुति कहे एटले के प्राणोथी मन, मनथी विज्ञान अने विज्ञानथी ब्रह्ममां रहेलो आनन्द प्राप्त थाय छे. एम सर्वना उपयोगमाटे भगवाने बुद्धि, इन्द्रिय, मन अने प्राण ने उत्पन्न कर्यां छे. आथी (एटले प्राणोथी पोषण पामेला मनथी प्रवृत्त थयेली इन्द्रियोथी परिपूर्ण थयेली बुद्धिथी करेला विचारथी) सर्व अयोग्यतानो निरास करवो एवो श्रीशुकदेवजीनो गूढ आशय छे. आ ज वात निबन्धमां पण कही छे. लौकिकयुक्तिसिद्ध होय तो एनो लोक बतावी शके. आ बधुं भगवाने स्वरूपमान्थी कर्युं छे ते अलौकिक छे. एने अलौकिक- शब्दराशि वेद ज कही शके, बीजानुं कहेवानुं सामर्थ्य नथी. भगवाननो अलौकिक यश आमां कहेवामां आव्यो छे. ‘‘अलौकिकस्य करणाद् यशो जातम् अलौकिकम्’’ इत्यादिथी भगवाननो अलौकिक यश थयो ते यशने निरूपण करनार आ अध्यायमां श्रुतिवाक्यना शेषभूत ‘‘जय जय जह्यजाम्’’ ए अठ्ठावीस श्लोकथी कहेला भावो समजवा ॥२॥
आ अर्थ पोते (श्रीशुके) खोटो पाड्यो हशे एम शङ्का थाय ते न थवा माटे श्रुतिओ आ अर्थने परम्पराथी कहेती आवी छे अने ए ज क्षेम प्राप्तिनुं साधन छे एम कहे छेः ब्रह्मविद्यानुं प्रतिपादन करनारी प्रसिद्ध उपनिषदनुं आ ज स्वरूप छे. तेने पूर्वजोना पण पूर्वज सनक वगेरे ऋषिओए धारण करी छे. जे कोई मनुष्य श्रद्धापूर्वक तेने धारण करे छे ते अकिञ्चन थई जाय छे (तेनी दृष्टिमां भगवान् सिवाय बीजुं कंई देखातुं नथी) अने परम कल्याण स्वरूप परमात्माने प्राप्त करी ले छे ॥३॥
श्रीसुबोधिनीजी - आ ब्रह्मने कहेनार श्रुति छे. वेदमां ब्रह्मनुं प्रतिपादन कर्युं छे ते [[१३३]] श्रुति प्रसिद्ध छे. ए योग्य छे केमके श्रुति सिवाय बीजो कोई ब्रह्मने कहेवाने समर्थ नथी. अर्ही ‘उपनिषद्’ शब्दथी ब्रह्मविद्या कही छे. ‘उप’ उपसर्ग सामीप्यने कहेनारो छे. श्लोकमां ‘तत् (सा) अने हि’ शब्द कह्या छे. तेथी ब्रह्म विद्यामां ए ज प्रमाण रूप छे. ‘तत्’ शब्दनो अर्थ परमात्मा छे. ‘सद्’ धातुना त्रण प्रकारना अर्थनुं ‘नि’ विशेषण छे. सद् धातुना त्रण अर्थ छे. १. छुटा पडवुं २. जवुं ३. लीन थवुं. जीवने ब्रह्म प्राप्तिमां पूर्व भावथी ‘विशरण’ करीने एने देहथी जुदो करीने ब्रह्ममां पहोञ्चाडीने (एमां गति आवी गई) ब्रह्ममां ‘लीन’ करे छे, स्थिर करे छे. एमान्थी कोई दिवस जुदो न करे ए ‘नि’ शब्दनो अर्थ छे. एवी आ ‘ब्रह्मविद्या’ ‘उपनिषद्’ शब्दथी कही छे तेम अर्ही पण सर्व अनुपपत्तिनो परिहार करी वेदने ब्रह्मने प्रतिपादन करनार कहीने ब्रह्ममां मेळवीने एमां ज स्थिर करे छे. आ ज वाक्य ब्रह्मरूप अर्थने प्रतिपादन करीने अनुपपत्तिओनो परिहार करीने सिद्धान्तने स्थापन करे छे. ए उपनिषदने प्रतिपादन करनार होवाथी ‘उपनिषद्’ नामथी प्रसिद्ध छे. त्यां शङ्का थाय के ए अर्थ मारा हृदयमां आववाथी में ए प्रमाणे निर्णय कर्यो एम केम अर्थ न थाय? त्यां कहे छे के ए उपनिषदने पूर्वना तमारा पूर्वजोए धारण करी छे तेने जे श्रद्धाथी धारण करे ते भगवानने मेळवे छे. तेथी सर्व सन्देह, उपनिषदना अर्थने विचार करी, निवृत्त करवा एवो सिद्धान्त फलित थयो ॥३॥
आ विचार राजाथी थई शके एवो न होवाथी कृपा करी पोते सर्व श्रुतिनुं मथन करी जे अर्थ निर्णीत कर्यो छे ते कहेवानी प्रतिज्ञा करे छेः आ विषयमां हुं तमने एक गाथा सम्भळावुं छुं. ते गाथानी साथे स्वयं भगवान् नारायणनो सम्बन्ध छे. ए गाथा देवर्षि नारदजी अने ऋषि श्रेष्ठ नारायणनो संवाद छे ॥४॥
श्रीसुबोधिनीजी - पूर्व वृत्तान्त प्रतिपादन करनार वाक्य पररूपरा ‘गाथा’ कहेवाय. ए अर्ही श्रुतिगीतारूप गाथा छे. ए लक्ष्मीजीना भूजान्तरमां रहेला, उदार गुणना समुद्ररूप, जगतनेक्ष्क्षेताना उदरमां लईने सूतेला नारायणनो प्रबोध करवा गवायेली छे. ए तमारा जाणवामां केम आवी? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के ए नारायण नारदजीना संवादरूप छे ते हुं तमने कहीश. मोटाओए करेलो निर्णय एमना कहेवाथी ज सर्वना सन्देहने दूर करे छे. तेथी एमनो संवाद ज हुं कहीश. एमणे कहेलो जनलोकनो संवाद पण हुं तमने कहीश ए ‘चकार’नो अर्थ छे ॥४॥
संवादने माटे ए कथानी प्रस्तावना करे छे ः अध्याय-८७,१३४ दशमस्कन्ध एकवार भगवान् जेमने प्रिय छे तेवा नारदजी लोकनुं पर्यटन करता-करता सनातन ऋषि भगवान् नारायणनां दर्शन करवामाटे बदरिकाश्रम गया ॥५॥
श्रीसुबोधिनीजी - लोकमां फरवाथी आ उपनिषदनुं श्रवण करवानो अधिकार प्राप्त करावनारी शुद्धि थाय छे. एम अर्ही सूचव्युं छे. ‘एक वखते’ एम कहेवाथी अर्ही काळ नियामक नथी. नारदजीने पर्यटननुं कारण तो ए ज के भगवान् तेमने प्रिय छे. क्यां भगवाननुं माहात्म्य समजाय? क्यां भगवान् मळे? एटला माटे प्रिय भगवाननी शोधमां ए फर्या करे छे. भगवानने प्रिय थवामाटे जेम कौडिन्न्ये भ्रमण करेलुं तेम भ्रमण करवुं जोईए. त्यान्थी भगवाननुं स्वरूप अने वेदने समजावनार नारायण ऋषिनां दर्शन करवामाटे नारदजी बदरिकाश्रममां गया ॥५॥
ए स्थाननुं पण उत्तमपणुं कहे छे ः भगवान् नारायण मनुष्योना क्षेम अने कल्याण ने माटे आ भारतवर्षमां कल्पनी शंआतथीज धर्म, ज्ञान अने संयमपूर्वक महान तपस्या करी रह्या छे ॥६॥
श्रीसुबोधिनीजी - आ भारत देश कर्म (करवानी) भूमि छे तेमां एक पण माणस तेवुं कर्म करे के जेथी (आखा) जगतनो ज प्रलय थई जाय. तेथी ते (जगत्) नुं रक्षण दुर्लभ होवाथी, नारायण ऋषि पोते तेवा कर्मथी रक्षण करवामाटे तथा बधाय माणसोने वधारे ने वधारे कल्याणनी प्राप्ति थाय ते माटे कल्पनी शंआतथी तप करी रह्या छे ॥६॥
ए जो एकान्तमां तप करता होय तो एमने पूछी न शकाय माटे सुगम अवस्थानुं निरूपण करे छे ः हे परीक्षित! एक दिवस ते कलाप ग्रामवासी सिद्ध ऋषिओनी वच्चे बेठेला हता ते वखते नारदजीए तेमने प्रणाम करी घणी नम्रता पूर्वक तमे जे प्रश्न मने पूछी रह्या छो ते ज प्रश्न पूछ्यो ॥७॥
श्रीसुबोधिनीजी - बेठेला होवाथी बीजा कार्यमां रोकायेला न हता. ‘कलाप ग्राम’ एटले सर्व विद्याओनुं धाम बनेला. ‘‘कलाः पाति इति कलापः’’ कलाओनुं पालन करे ते कलाप. तेवाओनो पण ‘ग्राम’ एटले समूह. एटले बधाय ‘कलाप’-सर्व विद्याओनुं धाम हता. नारायण तेमनाथी र्वीटायेला हता. एम बहारनी तेमनी सत्वगुणनी अवस्था कहेली छे. पछी नारदजीए पोते प्रणाम करीने ‘आ ज’ एटले ते परीक्षिते पहेला श्लोकमां जे प्रश्न कर्यो तेज प्रश्न कर्यो. परीक्षितने आ कथामां विश्वास रहे ते माटे ‘‘हे कुरुना वंश ज’’ ए सम्बोधनथी तेनुं माहात्म्य कहेलुं छे ॥७॥
[[१३५]] भगवान् नारायणे ऋषिओनी ते भरी सभामां नारदजीने तेमना प्रश्ननो उत्तर आप्यो अने प्राचीन समयना जनलोकना निवासीओमां परस्पर वेदोना तात्पर्य अने ब्रह्मना स्वरूपना सम्बन्धमां विचार करतां जे कथा कही हती ते कथा सम्भळावी ॥८॥
श्रीसुबोधिनीजी - आमां विश्वास रहेवो दुर्लभ होवाथी ज नारायणे ते वृत्तान्त नारदजीने कह्युं. प्रगट रीते कहेल होवाथी तेमां कांई सन्देह राखवा जेवुं न हतुं. पहेला सङ्क्षेपमां कहेल होवाथी नारदजीनो सन्देह दूर न थयो एटले, ब्रह्मना स्वरूपना निर्धारमाटे थयेलो विचार-ब्रह्मवादनो इतिहास कह्यो ॥८॥
ए सङ्क्षिप्त होवाथी नारदजीनो सन्देह न गयो त्यारे नारदजीने पहेलां जे बन्यु हतुं ते कही सम्भळाव्युं एम हवे कहे छेः भगवान् नारायणे कह्युं - (शब्दार्थ)हे नारदजी! प्राचीन समयनी वात छे. एकवार जनलोकमां त्यां रहेनारा ब्रह्माजीना मानस पुत्र, नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन सनातन आदि परमर्षिओनो ब्रह्मसत्र (ब्रह्म विषयक विचार या प्रवचन) थयो हतो ॥९॥
श्रीसुबोधिनीजी - जेमां समान फलवाळा अने समान साधनवाळा सत्तर ब्राह्मणो मुख्य अने गौणस्थान धारण करी कर्म करे छे ते जेम कर्मसत्र (कर्मयज्ञ) कहेवाय छे ए प्रमाणे सन्देह न रहे तेवुं ब्रह्मनुं ज्ञान प्राप्त कसतमाटे निर्णय करवा बधाय प्रवृत्ति करे तेमनो विचार ‘ब्रह्मसत्र’ कहेवाय छे. ते ब्रह्मसत्र जनलोकमां थयो हतो. महर्लोक सुधी कर्मनुं ज फळ मळे छे तेथी शुद्ध ब्रह्मनो विचार त्यां थई शक्तो नथी तेथी (महर्लोकथी उपरनो) *जनलोक तेमणे पसन्द कर्यो. स्वायम्भुव एटले स्वयम्भू; ब्रह्माजीना पुत्र नारदजी तेमने आमां विश्वास रहे ते माटे एवुं सम्बोधन करेलुं छे. जनलोकमां ज रहेता एटले तेमनामां कर्मना सम्बन्धथी थता दोषो न हता. ब्रह्माजीना मनथी उत्पन्न थयेला मानस पुत्रो हता आथी जन्मनी उत्तमता कहेवाई. ‘मुनिए’ एटले मनन करवानी टेववाळा-आथी तेमनुं कर्म उत्तम कहेवायुं. ‘ब्रह्मचारी’ शब्दथी तेमने ब्रह्मविद्यानो अधिकार कहेलो छे ॥९॥
विशेष - लोक चौद छे - अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल अने पाताळ ए सात लोक पृथ्वीनी नीचे छे. भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक अने ब्रह्मलोक ए उपर छे. आ वात मारा जाणवामां केम न आवी? एम पूछे तो एना उत्तरमां कहे छेः अध्याय-८७,१३६ दशमस्कन्ध ते वखते तमे मारी श्वेतद्वीपना अधिपति अनिरुद्ध मूर्तिनां दर्शन करवा श्वेतद्वीप चाल्या गया हता. ते वखते त्यां ते ब्रह्मना सम्बन्धमां सुन्दर चर्चा थई हती, जेना विषयमां श्रुतिओ पण मौन धारण करी ले छे, स्पष्ट वर्णन न करतां तात्पर्य रूपथी लक्षणो बतावती तेमां ज सूई जाय छे-विराम पामे छे. जे प्रश्न तमे मने पूछी रह्या छो ते ज प्रश्न ते ब्रह्मसत्रमां उपस्थित थयो हतो ॥१०॥
श्रीसुबोधिनीजी - क्षीरोद (दूधना समुद्र) नुं स्थान ए भगवान् अनिरुद्धनुं क्रीडासाधन छे. त्यां श्वेतद्वीपना पतिनां दर्शन करवाने तमे गयेला त्यारे ब्रह्मवाद सारी रीते थयो हतो. एथी बधा पोत-पोताना स्थानमां रहेला हता त्यारे ब्रह्मवाद थयो हतो एम कह्युं. पहेलान्ना (भूर्लोकथी महर्लोक सुधीना) लोकोनुं रक्षण भगवान् नारायणे करेल होवाथी कर्म करनारा सुखी हता. भक्तो पण भगवाननां दर्शन करवाथी सुखी हता त्यारे ज्ञानीओए ब्रह्मनुं निरूपण करवामाटे वितराग कथा करी तेथी ए वाद सुसम्पन्न थयो. त्यां शङ्का करे छे के ए स्थान पण बीजा स्थान जेवुं ज छे तो त्यां केम सारी रीते कथा थई? एना उत्तरमां कहेवानुं के श्रुतिओ सर्वत्र भ्रमण करीने ज्यां शयनमाटे जाय छे तेथी श्रुतिओनुं ए विश्रामस्थान छे. त्यां रहीने श्रुतिओ पोतानो अभिप्राय प्रकट करे छे. श्रुतिनी अभिमानी देवता अथवा मूर्ति धारिणी श्रुतिओना वाक्यने संवादी निर्णय कोई दिवस खोटो होय नहि. त्यां रहेनार लोको तो श्रुतिना अभिप्रायने जाणता होय छे. एमने सन्देह तो होतो नथी तो एमने आवो विचार केम आव्यो? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के त्यां आ ज प्रश्न खरेखर उपस्थित थयो के जे प्रश्न तमे मने पूछो छो. तेथी ज आ ठेकाणे प्रश्न कह्यो नथी ॥१०॥
न जाणनार प्रश्न करे अने सर्व जाणतो होय ते एनो उत्तर आपे, आ संवादनी रीति छे. त्यां तो बधा सरखी रीते जाणनार छे तो प्रश्न कोण करे? एनो उत्तर आपे छेः सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार आ चारेय भाईओ- शास्त्रीयज्ञान, तपस्या अने शील-स्वभावमां सरखा छे. तेमनी दृष्टिमां शत्रु, मित्र अने उदासीन सरखा ज छे. छतां तेओए पोतानामान्थी सनन्दनने वक्ता बनाव्या अने बाकीना भाईओ श्रवण करवानी इच्छावाळा थई बेसी गया ॥११॥
श्रीसुबोधिनीजी - शास्त्राभ्यास, तप अने शील जेमनां समान छे तेवा ए मुनिओ छे. ए त्रणे समान होय तो ए अदृष्टने उत्पन्न करे छे. त्रणमान्थी एक पण न होय तो ए अदृष्टने एटले के आ पछीना विशेषणमां जणाव्यो तेवो [[१३७]] (मित्र, शत्रु अने उदासीन प्रति समानतानो) भाव उत्पन्न करनार थई शक्तां नथी. पोताना मित्र, शत्रु के उदासीन एवा त्रण भाव नथी तेथी ब्रह्मज्ञानने लायकनी शुद्धि एमां कहेवामां आवी. एम दृष्ट अने अदृष्ट प्रकारे जे अधिकारवाळा छे तेमान्थी एक (सनन्दन) ने वक्ता बनाव्या ज्यारे बीजा श्रोता थया. ‘आवृत्तिरसकृ-दुपदेशात्’ ए न्यायथी ब्रह्मविचारनी आवृत्ति करवा लाग्या ॥११॥
एमां सनन्दन वक्ता थया, सनकादिक श्रोता थया. सनन्दन कहेवा लाग्या. सन्दिग्ध श्रुतिना निर्णयने माटे श्रुतिनां वचन कह्यां ते प्रसङ्गने माटे नारायण पोते बे श्लोकथी अर्ही कहे छे. वेदनां वाक्योवडे वेदना अर्थनो निर्णय करवो एवो भगवाननो मत छे केमके ‘‘सन्दिग्धेषु वाक्यशेषात्’’ ए न्याय एवुं प्रतिपादन करे छे. तत्वो अठ्ठावीस प्रकारे जुदां छे. ते-ते तत्वमां सन्देह दूर करवाने माटे वाक्य शेष रूप अर्ही अठ्ठावीस श्लोक छे. आ श्रुति गीताना श्लोकोनुं प्रकरण वेदमां नथी एटले त्यां वेदमां आ श्लोको नथी तेथी तेमां आ श्लोकोनो पाठ थतो नथी. परन्तु सामान्य वाक्यो पण निर्णय करावनार होवाथी सर्व तत्वरूप भगवान् पोढ्या छे त्यारे शुद्ध तत्वरूपोनी स्फूर्ति न होवाथी ए समयमां मुख्य गुणनी स्फूर्ति थवामाटे निर्णयने कहेतां चालु विषयमां तात्पर्य रहित छे पण भगवानने प्रबोध करवामां एनुं तात्पर्य छे. जेम नट रसनो अभिनय करी अर्थनुं निरूपण करे छे तेम शब्दरूप वेद अने अर्थरूप भगवानने निरूपण करवामाटे तत्वनी नटना जेवी अवस्थानुं निरूपण करे छे. नटने जेम पोताने रसानुभवमां तात्पर्य नथी होतुं पण बीजाओने रसानुभव कराववामां तात्पर्य होय छे तेम अर्ही तत्वोने स्वार्थमां तात्पर्य नथी पण भगवद्बोधनमां तात्पर्य छे. एटलुं कहेवाथी सर्व वेदना सन्देहनी निवृत्ति थती नथी पण बीजाने माटे प्रवृत्त थयेल केटलाक वेदोनुं ज बोध करनारुं आ वचन छे. राजा जागीने जगतनुं पालन करे एवा आशयथी भाटो तेने जगाडे छे. पालन करवुं ए तो राजाने ज अधीन छे. आ (भाट अने राजाना) दृष्टान्तथी एम सूचव्युं के ब्रह्मनो निर्णय करनारा पण नजीकथी अथवा दूरथी ज पोताना प्रकरणमां थता सन्देहो दूर करे छे. परन्तु भगवाननां दर्शन करीने तेम करता नथी. तेथी अर्ही वेदने भाट (वैतालिक) कह्या छे. सनन्दन बोल्या - पोते उत्पन्न करेल आ जगतनुं सर्व तरफथी पान करीने अध्याय-८७,१३८ दशमस्कन्ध (बधान्ने मुक्त करीने) शक्तिओ साथे पोढेला ईश्वरने ते (प्रलय) ने अन्ते श्रुतिओ भगवाननां वीर्यो (पराक्रमो) नुं प्रतिपादन करनारां वचनोथी जगाडे छे ॥१२॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘‘पोते उत्पन्न करेल’’ शब्दोनुं तात्पर्य एवुं छे के सृष्टि अनादि छे. ‘‘आ जगतनुं सर्व तरफथी पान करीने’’ एटले पहेलां उत्पन्न करेल बधाने मुक्त करीने हवे जाणे के पोताने कांई करवानुं नथी एम जणावता भगवान् पोढी ज रह्या. पछी भगवानने सृष्टिना तत्वोना भेदनी विस्मृति थई गई छे एम मानी वेदो सन्देह न रहे तेम जाणे के आपनो प्रबोध करवा लाग्या. ‘‘कालरूप शक्ति ज प्रबोध करनारी छे, वेदोए केम प्रबोध कर्यो?’’ एवी शङ्का थाय त्यां कहे छे के आप शक्तिओनी साथे पोढेला हता. पछी जगाडवाने वखते श्रुतिओए जगाड्या, वहेला नहि. समय पहेलां जगाडे तो अपराध थाय. आ प्रबोध आपना चिह्नो (तत्वो, पराक्रमो) थी करे छे. तत्वो भगवानने आपनी अन्दर जगतनो लय थयेलो छे एम जणावे छे तेथी तेमनाथी ज प्रबोध करे छे कारण के आ श्रुतिओ मात्र श्रवण रूप ज छे. (भगवाननां वीर्योथी-वीर्योनां श्रवणथी ज जगतने भगवाननी प्राप्ति थाय छे तेवा हेतुथी मोक्ष जेनो थवानो छे तेवी सृष्टि रचे ते माटे वीर्योथी ज भगवाननो प्रबोध करे छे) श्रुतिओ भगवाननां प्रत्यक्ष दर्शन करनारी नथी. तेमां पण ते साक्षात् प्रबोध करती नथी. परन्तु प्रबोध करनार (भगवाननां वीर्यो) नी आगळ करे छे ॥१२॥
आ श्रुतिओ स्वतन्त्रताथी भगवान् सिवायना अर्थनुं प्रतिपादन करे तो एनो पण विचार करवो पडे तेथी एमनुं बोधन प्रकरण रूप नथी एम बताववाने दृष्टान्त कहे छेः जेवी रीते प्रातःकाल थतां सूतेला सम्राटने जगाडवामाटे तेना अनुजीवी (सेवक) भाट-चारणो (बन्दिजनो) सम्राटनां पराक्रम अने सुयशनुं गान करी तेने जगाडे छे तेवी रीते श्रुतिओ भगवानने आ (नीचे जणाव्या) प्रमाणे जगाडे छे ॥१३॥
श्रीसुबोधिनीजी - भाट लोको अनुवाद करनारा होवाथी, स्वतन्त्रताथी निरूपण करता नथी ते प्रमाणे आ श्रुतिओ भगवानने ज आपे करेलां पराक्रमो श्रवण करावे छे. तेनुं कारण ‘बन्दिनः’ भाटो ए शब्दथी कहेलुं छे. तेओ प्रबोध करनारा अधिकारीओ छे अने आजीविकामाटे विद्या उपर आधार राखनारा छे. ‘विद्या’ थी अर्ही ‘तत्वविद्या’ समजवानी छे. जेम बन्दीजन वधारे द्रव्य प्राप्त थाय ते माटे चक्रवर्ती राजाने जगाडे छे तेम आ श्रुतिओ पण अधिक फल प्राप्त करवा प्रभुनो प्रबोध करे छे. अधिक फलनो निर्णय करवा [[१३९]] तत्पर थयेली श्रुतिओए तत्व विद्या उपर आधार राखवो ज जोईए. जागेला भगवाननो कोई समये साक्षात्कार थाय अथवा कोई समये पोताना आनन्दनुं दान करे तेवी ते श्रुतिओने पण अभिलाषा होय छे. तेओ पहेलान्नुं ज वृत्तान्त जाणे छे, परन्तु भविष्यमां थवानुं वृत्तान्त जाणती नथी एम जणाववा, त्रीस मुहूर्तना रात-दिवसमां मात्र बे ज मुहूर्त (रातनां) बाकी रहे त्यारे आवे छे अने त्यारे ज प्रबोध करे छे कारण के तेओ अनुजीवी सेवको छे. आथी एम सूचव्युं के तेओ प्रबोध न करे तो तेमनां स्वरूपनो ज नाश थाय. केटलाक एम कहे छे के श्रुतिओ (भगवानना) पहेला निःश्वासमान्थी नीकळेली छे. (आ मत) दृष्टान्त वगेरेथी विरुद्ध नथी पण तेओ भगवान्थी जुदी ज रहे छे. (एम) दृष्टान्त प्रमाणे जणावे छे ॥१३॥
ए प्रमाणे प्रसङ्ग कहीने पहेलां प्रकृतिनुं निरूपण करनारी श्रुतिओ १. स्वतन्त्रताथी
प्रकृतिनुं निरूपण करे छे के केम? जो एम स्वतन्त्रताथी निरूपण करती होय तो शक्ति अथवा
देवतानुं प्रधानपणुं थाय; अथवा २. भगवद्रूप प्रकृतिने भगवान् तरीके जणावे छे? अथवा
३. आ प्रकृति जीवोना धर्म रूप होवाथी एमना ज प्रयत्नथी अथवा (एमना ज) स्वरूपना
ज्ञानथी (एने) दूर करवानी छे एवुं (तेनुं) वर्णन करे छे? के ४.ससलाना शीङ्गडान्नी जेम जेनुं
पोतानुं अस्तित्व नथी तेवी (मायिक) देखाय छे? के ५.आ लक्ष्मीना जेवी भगवाननी साची
अन्तरङ्ग शक्ति छे (के) जेथी एनामां ज स्थिति (करवी) योग्य होवाथी, प्रपञ्च होय त्यारे
अने प्रपञ्च न होय त्यारे एक सरखी रीते (एनुं) निरूपण करे छे? ए प्रमाणे अनेक
प्रकारना सन्देहो उत्पन्न थतां प्रकृतिनुं निरूपण करनारी श्रुतिओनो निर्णय थाय ते माटे वाक्य
(श्रुति) नो भावार्थ नीचेना श्लोकथी कहे छे.
श्रुतिओ कहे छे - हे अजित! आप ज सर्वश्रेष्ठ छो. आपना उपर कोई
विजय प्राप्त करी शक्तुं नथी, आपनो जय हो, जय हो, जीवोने पोताना स्वरूपनुं
ज्ञान न थाय एटलामाटे ज सत्व आदि गुणोनो जेणे स्वीकार कर्यो छे ते निद्राने
आप तजी दो; कारण के आपे पोतानाथी ज जेमणे समस्त भग-अणिमा वगेरे
सुखो अने स्वरूपना आनन्दो, निद्रानी जरूर विना ज, पोतामां ज सारी रीते रोकी
राखेला छे. हे स्थावर-जङ्गम जीवोनी इन्द्रियोनी समग्र शक्तिने जागृत करनार!
कोई वार अजाथी अने (सदा) पोतानी ज क्रीडा करता आपनो वेद प्रबोध करे छे
॥१४॥
श्रीसुबोधिनीजी - यथा शर्करा अक्ताः उपदध्यात् आ श्रुतिमां काङ्करीओने अध्याय-८७,१४० दशमस्कन्ध चोपडवानी छे पण ए घी, तेल, मध के दूधथी चोपडवी एम कह्युं नथी. बीजी श्रुतिमां ‘‘तेजो वै धृतम्’’ कह्युं छे त्यां घी तेजो रूप छे एम कह्युं पण एनो शो उपयोग करवो ए कह्युं नथी; तेथी ए प्रथम श्रुतिनी शेष श्रुति कहेवाय. एनो आमां उपयोग कर्यो त्यारे घी थी ते शर्कराने चोपडवानो निश्चय थतां दूध, मध, तेल वगेरेनी निवृत्ति थई गई; तेम भगवाननी मायाना स्वरूपभूत गुणना प्रतिपादननुं श्रवण थतां ज सन्देह निवृत्त थाय छे. एने माटे बीजी युक्ति कहेवानी जरूर नथी छतां ए युक्ति कहे छेःएमां प्रथम प्रकृतिना निराकरणने माटे भगवानना स्वरूपनी स्थितिने माटे प्रार्थना करे छे - आप सर्वोत्कर्षथी विराजो. बे वखत ‘जय जय’ कहेवाथी सर्वदा सर्वोत्कर्षनी प्रार्थना करी. एम न करे तो एना सम्बन्धी होवाथी अमारो ए नाश करे. बीजी प्रार्थना ए कहे छे के निद्राने छोडो एटले अजा-निद्रानो मूळथी त्याग करो जेनाथी सारी रीते आपनो प्रबोध थाय. त्यां शङ्का करे छे के अत्यार सुधी हुं ए अजाने वश थईने रह्यो छुं तो हुं नाश केम करी शकुं? एना उत्तरमां कहे छे के आप अजित छो; आप कोईनाथी जितायेला नथी. योग निद्रा तो आपे लीलाने माटे ग्रहण करी छे. आप जीवनी पेठे निद्राथी जितायेला नथी. भगवाननी निद्रा, माया, प्रकृति ए त्रणेनुं स्वरूप तो एक ज छे तेथी ज ‘मार्कण्डेय’ पुराणमां ब्रह्माजीए योगनिद्रानी स्तुति करी छे. सृष्टि भगवाने उत्पन्न करी ते पहेलां ज प्रकृतिनो त्याग करवा श्रुतिओ प्रार्थना करे छे तेथी सृष्टि भगवान् उत्पन्न करे तेमां प्रकृति करण (साधना) पण नथी तो सृष्टि उत्पन्न करनारी तो ते क्यान्थी होय? पण ए माया स्वप्न सृष्टिने उत्पन्न करनारी छे. आगळ सत्य सृष्टिनी उत्पत्तिनो प्रकार कहेवामां आवशे त्यारे एनो नाश केम करवो? ए तो गुणवाळी छे, सुषुप्तिमां परमानन्दने आपनारी छे. एना उत्तरमां कहेवानुं के एणे गुण राख्या छे ते स्वरूपने भूलववाने माटे ज राख्या छे. ए ज माया पोतानी शक्तिद्वारा जीवने मोह करावे छे. एने पण निद्रा, आळस वगेरेथी मोह करे छे. ए स्थावर-जङ्गमां देहमां रहेला जीवोनो सम्बन्ध करनारी छे, भगवान् कहे छे के ‘‘ए तो मने पण सुख आपनारी छे माटे ए भले रहे!’’ तो एना उत्तरमां कहेवानुं के आप तो सर्व ऐश्वर्योने आपना स्वरूपमां रोकीने विराजो छो. क्षुद्र सुखो,निद्रा, आळस अने प्रमादथी थतां सुखोने ते ज इच्छे के जेने स्वरूपानन्द के सात्विक आनन्दनो कोई काळे पण सम्भव न होय. आप तो अजित छो एम कह्युं तेथी आपने तो ए बोलावी शके एम नथी ज. आपनो ए बोध करनारी तो नथी ज पण ते इच्छेलुं प्राप्त करावनारी पण नथी एम ‘अजित’ विशेषणथी कह्युं. आप तो स्वरूपवडे ज सर्व अणिमादि सुखोने-स्वरूपानन्दने स्वरूपमां राखीने विराजो छो तेथी ए आपनुं इष्ट [[१४१]] साधन करवाने असमर्थ छे तेथी आपने एनी कांई पण जरूर नथी. भगवान् एम कहे के मारे सेवा करवामाटे जीवोनी अपेक्षा रहे. एनी इन्द्रियो तो प्राकृत होय. जो प्रकृतिनो नाश थाय तो मारा सेवकोनो नाश थई जाय. ए एनो नाश करवामां विघ्न करनार छे! तो एना उत्तरमां कहेवानुं के स्थावर-जङ्गम जीवनी इन्द्रियोना उद्बोधक आप छो, प्रकृति नथी. एमां पण ए स्थावर-जङ्गम जेवो आपना छे तेना तो आप ज उद्बोधक छो. प्राकृतनो तो विचार पण करवो पडे. जो प्रकृतिनो नाश थाय तो मारुं ज्ञान करावनारा वेदो केम मने कहेवाने समर्थ थशे? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के वेद आपने अनुसरशे ज. (आपनो प्रबोध करशे ज) आप क्यारेक मायाथी लीला करो छो; सर्वदा तो आत्माथी ज आपनो विहार छे. अर्ही चकार छे तेथी मायाथी फरो छो त्यारे पण आप तो आत्मविहारमां ज मग्न रहो छो तेथी ए अजानी आपे कोई रीते रक्षा करवानी जरूर नथी. ‘निगमः’ शब्द एक वचनान्त अर्ही कह्यो छे तेथी कोई एक ज वेद आपने मायानो सम्बन्ध छे एम कहीने वर्णवे छे. एमां पण आप तो माया विहार वखते पण स्वरूपमां ज स्थित रहो छो, ‘‘हुं प्रकृतिना सम्बन्धवाळो छुं अने तेनो ज वेद प्रबोध करे छे’’ एम केम न कहेवुं? एना उत्तरमां कहेवानुं के ‘अरूपमस्पर्श’ ‘‘रूप विनाना स्पर्श विनाना’’ (कठोपनिषद ३-१५) वगेरे श्रुतिओ आपने प्रकृतिना सम्बन्ध नथी एम ज कहे छे. तेम बीजी श्रुतिओ स्वरूपना आनन्दनो बोध करावनारी छे. केटलीक सृष्टिनुं प्रतिपादन करे छे त्यारे बीजी केवळ ब्रह्म परायण छे ए आगळ जतां कहेशे. तेथी मोह करनारी शक्तिनो नाश करो एवी प्रार्थना छे ॥१४॥
प्राकृताः श्रुतयः सर्वा भगवन्तमधोक्षजम् । स्तुवन्ति दोषनाशाय तत्राविष्टो भवेद्यथा॥का.१॥
आखा श्लोकनो सार छेवटे एक कारिकाथी कहे छे के प्रकृतिनुं निरूपण करनारी बधी श्रुतिओ इन्द्रियातीत भगवाननी स्तुति करे छे के आप दोष-अजानो त्याग करी जगतमां प्रवेश करो ॥१४-१॥
पछी ब्रह्मनुं निरूपण करवा प्रवृत्त थयेली श्रुतिओ ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’’ जेमान्थी आ भूतो उत्पन्न थाय छे; तस्माद्वा एतस्मात् आत्मन आकाशः सम्भूतः ‘‘ए आ आत्मामान्थी खरेखर आकाश उत्पन्न थयुं’’ एम ब्रह्मनुं निरूपण करतां वच्चे भूतोनी अने भूतोना बनेला (पदार्थो) नी सृष्टिनुं वर्णन करे छे. ए श्रुतिओ ब्रह्मनुं निरूपण करनारी छे के सृष्टिनुं निरूपण करनारी छे? *अध्यारोप अने अपवादथी ब्रह्मनुं ज्ञान स्थिर थाय ते माटे अथवा अध्याय-८७,१४२ दशमस्कन्ध भगवाननुं माहात्म्य जणावाय ते माटे (ए श्रुतिओ) जगत् ब्रह्म छे एम जणावनारी छे? वगेरे अनेक प्रकारना सन्देह थतां तेमनो निर्णय करवा नीचेनो श्लोक कहे छेः
विशेष - अध्यारोप एटले जे गुणो अमुक पदार्थमां न होय ते तेमां छे तेम मानवुं. जेमके दोरडुं होय तेने साप मानवो. अपवाद एटले ते गुणो तेमां नथी एम जाणवुं. साप नथी पण दोरडुं छे एम पाछळथी जाणवुं. आ प्रमाणे ब्रह्ममां जगत् नथी, छतां ब्रह्ममां जगतनो अध्यारोप करवो अने पछी ब्रह्ममां जगत् नथी पण आ ब्रह्म ज छे एम जाणवुं. ए प्रमाणे करवाथी ब्रह्मनुं ज्ञान सारी रीते थाय ते माटे एम श्रुति जणावे छे. ब्रह्मवेत्ताओ अने वेदो आ देखाता (अनुभवाता जङ्गम जगत्) ने अवशेष रहेवाने लीधे ब्रह्म जाणे छे कारण के माटीनी जेम विकार रहितमान्थी विकारना उदय अने अस्त थयेला छे. तेथी ऋषिओए मन अने वाणी ना आचरितो-मनथी जे कंई विचारवामां आवे अने वाणीथी जे कंई बोलवामां आवे तेने आपमां मूकेलां छे. भूमि उपर माणसनां पडेलां पगलां अयथा (निरर्थक-खोटां) केम थाय? ॥१५॥
श्रीसुबोधिनीजी - (मनुष्य पोतानो पग क्यांय पण राखे-ईण्ट, पथ्थर अथवा लाकडा उपर आखरे तो ए पृथ्वी उपर ज हशे, कारण के ए बधां पृथ्वी रूप ज छे) ज्यारे श्रुतिथी अने (ब्रह्मना) प्रभावथी जगत् ब्रह्मरूप सिद्ध थाय त्यारे बीजी श्रुतिओनी ए ब्रह्ममां एकवाक्यता थाय तेथी भगवन्माहात्मयद्वारा भगवान् रूप अर्थने सिद्ध करनार श्रुतिओ प्रमाणरूप थईने साक्षात् भगवान्रूप फलने कहेनारी थशे तेथी प्रथम जगत् ब्रह्मरूप छे एम कहे छे. आ देखातुं चराचर जगत् ब्रह्म छे एम वेद अने एने जाणनार कहे छे. अर्ही शङ्का थाय के ब्रह्म तो नित्य, आत्मरूप सुखरूप छे ज्यारे जगत् अनित्य, अनात्मरूप अने दुःखरूप छे तेथी जगत् ब्रह्म छे ए तर्क (युक्ति) थी खोटुं ठरतुं होवाथी तथा प्रत्यक्ष विरोध पण देखाय छे तो एने ब्रह्म केम कहेवाय? ए शङ्काना परिहारमां कहेवानुं के ए जगतने ब्रह्म एटला माटे कहीए छीए के एमान्थी ब्रह्म ज बाकी रहे छे. लोकमां जे बाकी रहे तेनो व्यवहार थई शके. काच वगेरेवाळुं सुवर्ण होय ते अग्निमां नाखतां सुवर्ण बाकी रहे तेनुं ज मूल्य थाय छे. जेम जेने घी जोईतुं होय ते दूध ले तेमान्थी जेटलुं घी नीकळे तेनुं मूल्य थाय. खेतरमां डाङ्गर थाय तेमान्थी जेटला चोखा सिद्ध थाय तेना खरीद-वेचाण वखते हिसाब थई शके. जेम डाङ्गरने अन्न ज कहे छे तेम विकारवाळा जगतमान्थी विकार जतो रहे त्यारे ब्रह्म ज बाकी रहे छे त्यारे एनो ब्रह्मपणाथी व्यवहार थाय छे. बाकी ज कांई केम रहे? [[१४३]] जेम जळने अग्नि उपर चडाव्युं होय तो ए बळतां कांई बाकी रहेतुं नथी तेथी बाकी रहेते ब्रह्म एम केम कहो छो? एना उत्तरमां कहेवानुं के ब्रह्ममान्थी ए जगत्ना उदय अने अस्त थयेला छे. यतो वा इमानि इत्यादि श्रुतिओ ब्रह्मथी जगतनी उत्पत्ति कहे छे. ब्रह्ममां ए लीन थाय छे एम पण श्रुति कहे छे. तेथी जेम माटीमान्थी घडो थयो ते फूटे त्यारे पाछो माटीरूप थई जाय तेम ब्रह्ममान्थी जगत् थयुं ते पाछुं एमां लीन थाय त्यारे ब्रह्म ज बाकी रहे. सोनामान्थी कुण्डळ थयुं तेने भङ्गावी नाखीए तो सोनुं बाकी रहे एनो घाट न रहे? त्यां कहे छे के जगतनो उदय (उत्पत्ति) अने अस्त (विनाश) ज थता नथी? एना उत्तरमां कहेवानुं के श्रुतिमां ‘जायन्ते’ एम कहे छे. तेमां ‘जन्’ धातुनो अर्थ प्रादुर्भाव थवो अने ‘नश्’ नो अर्थ देखातुं बन्ध थवुं छे. तेथी ‘उदय’ अने ‘अस्त’ ने श्रुति कहे छे तेथी ब्रह्मथी जगतना आविर्भाव तिरोभाव थया करे छे, जेने उत्पत्ति लय कहेवामां आवे छे. ‘असत्’ (न होय तेवा पदार्थ) नी सत्ता (होवापणुं), अथवा नाश थाय छे एम मानी शकातुं नथी एवी शङ्का थाय तेथी ‘विकारना’ शब्द योजेलो छे. धर्मीनी वार्ता (धर्मीना सम्बन्धमां) भले एम होय- धर्मीनो उत्पत्ति अने नाश थतां न होय पण विकारनां थाय छे. धर्मीनो तो आविर्भाव अने तिरोभाव ज थाय छे परन्तु कार्यमां जणाता विकारनां उत्पत्ति अने नाश थाय छे पण कार्य थयुं ते पहेलां नहोता तेवा बधा विकारो आश्रय (कार्य) नो आधार लई उत्पन्न थाय छे एम मानवुं जोईए. एम विकारो उत्पन्न थता न होय तो ए आश्रयो ब्रह्मरूप होवाथी विकार विनाना ज रहे. तेथी (कार्यनी स्थिति थया पछी उत्पन्न थयेला होवाथी) विकारना समूहोनो उदय अने अस्त ज थाय छे एम मानवुं जोईए, कारण के एवी रीते विकारो नाश पामे त्यारे ब्रह्म ज बाकी रहे छे. एमां माटी दृष्टान्त रूपे कही छे. माटी ज रहे एवो क्यां नियम छे? घडो फूटे तो एनां ठीकरां बाकी रहे छे! ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए ठीकरां पण फूटे छे अने अन्तमां माटी ज बाकी रहे छे. माटीनी पहेलान्नी अवस्थाओ विकृतिरूप छे; तेथी ज मन्त्रना दृष्टा ऋषिओ मन अने वचन थी जे कांई चिन्तन थाय अने बोलाय तेनुं तात्पर्य ब्रह्मरूप आपने विशे छे एम कहे छे. मन तो मनोरथोना विचार करे छे. वाणी खोटुं बोले छे. तद्दन न होय तेने माटे पण बोले छे; जेम के वन्ध्या पुत्र, आकाश कुसुम वगेरे त्रिकाळमां नथी छतां शब्द एने कहे छे. ज्यां वाणी अने मनना विषयने आपणे ब्रह्म कहीए तो जे साक्षात् अभिव्यक्त थईने देखाय छे तेवा जगत्ने ब्रह्म कहेवामां सन्देहने अवकाश ज क्यां छे? तेथी ब्रह्मने जाणनारना बधा व्यवहार ब्रह्मना सम्बन्धवाळा होवाथी एने कोई कर्मनो लेप थतो नथी. अर्ही ए शङ्का थाय के जे असत्य वस्तु छे तेने तमे ब्रह्म कहो ए केम मानी अध्याय-८७,१४४ दशमस्कन्ध शकाय? त्यां कहे छे के माणसे पगलुं माण्ड्युं ते पृथ्वीमां नथी एम केम कहेवाय? ज्यां तमे पग मूको त्यां पृथ्वीनी सत्ता तो तमारे स्वीकारवी जोईशे. एम असत्यने पण अधिकरणरूपे सत्यनी जरूर पडशे; नहि तो असत्यनी प्रतीति केम थशे? तेथी भान थवुं-भासवुं ए ब्रह्मनो धर्म छे; तेथी भ्रमथी स्वीकार करेल पदार्थमां पण अधिकरणरूपे भगवान् ज छे. ब्रह्म सिवाय बीजानो भास थतो नथी तेथी भासे छे ते ब्रह्म छे. कार्यरूप हो के न हो ए प्रमा विषय हो के भ्रम विषय हो ए बन्ने एक ज छे केमके एनो प्रादुर्भाव इच्छाथी थाय छे. भगवाननी इच्छाथी पदार्थ प्रकटे, एमनी इच्छाथी तिरोभाव थाय पण एनो धर्मी ब्रह्म तो त्रणे काळमां अबाधित-सनातन सत्य छे ॥१५॥
सत्यो हरिः समस्तेषु भ्रमभातेष्वपि स्थिरः। अतः सन्तः समस्तार्थे कृष्णमेव विजानते॥का.२॥
सर्व पदार्थोमां, भ्रमथी जणाता पदार्थोमां पण, सत्य हरि स्थिर (रहेला) छे तेथी सत्पुरुषो सर्व पदार्थोमां श्रीकृष्ण ने ज जाणे छे ॥१५-२॥
एम प्रथम श्लोकथी प्रकृतिने कहेनार श्रुति कही अने बीजा श्लोकथी पुरुषने कहेनारी श्रुतिने कही साधनने कहेनारी श्रुतिओ शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः ‘‘शान्त, दान्त (जितेन्द्रिय) त्यागी, सहनशील’’ ‘‘पोतानी अन्दर ज पोतानां दर्शन करे’’ वेगरे श्रुतिओ अहङ्कारने प्रतिपादन करे छे अथवा अहङ्कारद्वारा आत्मानुं प्रतिपादन करे छे? एवा सन्देहने दूर करवामाटे निर्णीत अर्थने कहे छेः हे त्रण लोकना अधिपति! (साधननुं निरूपण करनारी श्रुतिओ पण ब्रह्मनुं ज निरूपण करे छे) एवो निश्चय करीने आपना भक्तोए सर्व लोकना मलनो नाश करनार कथारूपी अमृतना सागरनुं अवगाहन करीने तप (दुःखदायक साधनो) छोडी दीधां. हे पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभो! आपनी स्फूर्तिथी देह तथा काल ना गुणोने जेमणे दूर करेला छे तेवा जे निरन्तर सुखनो जेमां अनुभव छे तेवा पदने भजे छे तेमनुं तो पछी कहेवुं ज शुं? ॥१६॥
श्रीसुबोधिनीजी - शान्तो दान्त इत्यादि श्रुतिओ अहङ्कारनुं प्रतिपादन करे छे. नहि तो जीवने कर्तापणानो अभाव होवाथी एक ज पदार्थ कर्ता अने कर्म तो न होई शके. त्यारे आत्माने पण कर्ता-कर्मपणुं नहि सम्भवे! ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए आत्मा तो स्वयम्प्रकाश छे तेथी एमां बधुं सम्भवे. जे पोताना आत्माने ‘‘हुं ब्रह्मने जाणनार छुं’’ एम माने छे ते अहङ्कारना आवेशवाळो छे [[१४५]] तेथी ए वाक्यना अर्थनुं ध्यान करनारना मननी क्रियानो श्रुति अनुवाद करे छे. शान्त कहेवाथी मनना चाञ्चल्यनुं निराकरण कह्युं. ए जो के प्रयत्नथी थई शके छे तो पण अहङ्कारनुं ए कार्य छे. जेने अहङ्कार नथी ते शान्त के दान्त होई शके नहि केमके एनो अन्तःकरणनो अध्यास नथी. पुत्र वगरनो माणस पडिन्त पुत्रवाळो न ज होय. तेथी ए श्रुतिओनुं शम आदि प्राप्त करवानी आज्ञा करवानुं तात्पर्य नथी पण अहङ्कारवाळाने घणो क्लेश थाय छे त्यारे निरभिमानने स्वतः आत्मस्फूर्ति थाय छे. एम साधननुं निरूपण करनारी श्रुतिओ पण भगवत्पर छे. आमां कारण कहे छे के आम नक्की करीने डाह्या विद्वान् पुरुषोए तप करवानुं छोडी दीधुं एटले साधनना क्लेशने छोडी दीधो. त्यारे एने साधन वगर मोक्ष केम मळे? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के जगतना मळरूप संसारनो नाश करनार आपनी कथारूपी अमृतमां एणे अवगाहन कर्युं एनाथी एने सर्व प्राप्त थयुं. कथा साम्भळवा मात्रथी कार्य सिद्धि केम थाय? ते-ते अंशना भागवाळा देवो प्रसन्न न थाय तो तेओ विघ्न करे. विघ्न न आवे ते माटे एमनी प्रीति रहे एटलामाटे एमने प्रसन्न करवानुं साधन करवुं जोईए! ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के आप त्रण लोकना अधिपति छो एटले देव आदि आपना भक्तने विघ्न न करी शके. त्यां शङ्का थाय के शम आदि वेदे कह्या छे तेथी वैदिके एनो अमल तो करवो जोईए! एना उत्तरमां कहे छे के ए सूरि लोको छे, जे अविद्यावाळा छे. तेने माटे श्रुति शमादिनुं विधान करे छे, परन्तु अविद्याना पारने पहोञ्चेला विद्वानोने शमादि तो सहज होय तेने माटे विधाननी अपेक्षा न होय तेथी विद्वानो परमानन्द रूप साधनने ग्रहण करी साधन दशामां ज कृतार्थ थई जाय छे, दुःख रूप साधनथी ए निवृत्त थई जाय छे. त्यां कोई शङ्का करे के विद्वानो पण साधन तो करे छे! एना उत्तरमां कहे छे के आपना थई चूकेला सेवको साधन करता नथी. पहेला सर्व ब्रह्म छे एम कह्युं. ए पक्षमां साधनो पण ब्रह्मरूप छे तो सर्व ब्रह्म न्यायथी साधनोने पण ब्रह्मात्मक जाणीने ए करे ए पक्षमां आगळ जतां अरुचि बतावी छे के एमणे तप छोड्यानुं कह्युं छे तो एमने ताप न होय तो ए साधन रहे नहि अने करे नहि ते छोडे क्यान्थी? भक्तने तो सेवोपयोगी अध्यास भगवान् राखे छे तेथी एमने ताप पण रहे छे. तावत्कर्माणि ए वाक्यथी भक्तिमार्गमां अने ज्ञानमार्गमां बन्नेमां त्याग छे पण भक्तिमां भगवद् विरह वधे अध्याय-८७,१४६ दशमस्कन्ध छे त्यारे सर्व त्याज्य थाय छे, ज्यारे ज्ञानमार्गमां ए लौकिक पदार्थनी जरूर नहि होवाथी एनो त्याग छे. अर्ही ज्यारे तमोने जाणनारा कह्या तेथी ए तो जे करे ते बधुं भगवानने अर्पण करे एने स्वतः कांई करवानुं होतुं नथी तेथी अभिमान पण न होय. देहाध्यास पण एने स्वार्थने माटे नथी पण सेवार्थ छे तेथी एमने माटे साधनो करवानी आज्ञा करेली नथी. भगवानना सम्बन्धवाळा पदार्थो पापनो नाश करनारा होवाथी, जे कोई कथा वगेरेना सम्बन्धमां आवे छे ते सर्वनां पाप कथा दूर करे छे तेथी कथा सर्व लोकना मलनो नाश करनारी छे. ‘तव’ ‘आपनी’ शब्दनो अर्ही कथा साथे पण सम्बन्ध छे. कथा ज अमृतनो समुद्र छे. कथा अमृत छे एम ‘‘तव कथामृतं तप्तजीवनं’’ श्रीमद् भागवत् (१०.३१.९) मां जणावेलुं छे. कथाने समुद्र एटलामाटे कहेली छे के एक कथा हृदयमां रहेली होय त्यारे तेमान्थी भगवाननी एक हजार कथा थाय छे एटले ए एक कथामान्थी ज उत्पन्न थाय छे. कोईनुं वचन छे के हरकोई श्लोकना अमे एक सो अर्थ कहीए छीए. अमने आग्रह करवामां आवे तो तेना ज एक हजार अर्थ कहीए छीए. तेथी जेना हृदयमां हजारो कथा स्फुरे छे ते कथाने समुद्र कहेवाय. एमां अवगाहन करे छे एनाथी ए पूर्ण होवाथी ए साधन करवाना क्लेशने छोडे छे. गुरुओ आवा ज थाय- जेमना हृदयमां अनन्त कथाओ स्फुरे छे. तेमना हृदयमां समुद्र छे अने तेमनो उपदेश बिन्दु छे. एमनी पासेथी एक बिन्दु मात्र मळे तो ताप जरूर दूर थाय. अर्ही तो समुद्र कह्यो छे तेनाथी ताप निवृत्ति थाय एमां तो शुं कहेवुं? तप वगेरे तो साधन छे. भगवाननी परोक्षमां साधननो विचार होय छे. जे पासे रहे छे- जेम उद्धवजी, वैकुण्ठस्थ भक्तो तेमनी तो वात ज शी करवी? आपनां चरणनी सेवा करनार आपनी कृपाथी कृतार्थ थाय छे. आपना माहात्म्यने न जाणनार यादवो पण छे. तेओ पुष्टिना विचार प्रमाणे कृतार्थ होवा छतां मर्यादामां तेमनी कृतार्थता नथी. ‘‘यदवो नितरामपि’’ ए वाक्य एनी साक्षी पूरे छे! तेथी तेमनो अर्ही समावेश थतो नथी एम जणाववा ‘‘आपनी स्फूर्तिथी देहना अने कालना गुणोने जेओए दूर करेला छे तेवा’’ शब्दो वापर्या छे. हृदयमां आपनी स्फूर्ति थतां जेणे काळना गुण-जरा वगेरेने, अन्तःकरणना गुण काम वगेरेने छोडी दीधा छे ते मुख्य सेवक गणाय. भगवान् पण मुक्तने पामवा योग्य छे. एवा भक्तोने भजननी शी जरूर छे? एम कहे तो एना उत्तरमां कहेवानुं के ए भक्तोने आपनुं चरण निरन्तर सुखरूप होवाथी ए [[१४७]] निरन्तर भजन करे छे, अन्तरमां ब्रह्मानन्दनो ए अनुभव करे छे. कथानन्त्योक्तिहृदयाः साधनानि न कुर्वते। साक्षात्ते पादसंश्लिष्टास्ते किं वाच्या महाशयाः॥का.३॥
जेना हृदयमां अनन्त कथाओ भरी छे तेवा भक्तो तप वगेरे साधन नथी करता तो साक्षात् आपनां चरणने आश्रये रहेला छे तेवा महाशयोनी तो वात ज शी कहेवी? ए लोको फळनो अनुभव करता होवाथी साधन आदि क्लेशमां शा माटे उतरे? ॥१६-३॥
एवी रीते साधन करवानुं जणावनारी श्रुतिओनो निर्णय कही, महत्तत्व जीवनरूप होवाथी बीजा देवतानी उपासना वगेरे करवानुं अथवा कर्म करवानुं जणावनारी ए श्रुतिओ छे ते विषेनो निर्णय जणाववामां आवे छे. भगवान् सिवाय बीजा देवोनी उपासना अने कर्म करवानुं वेदनी आज्ञाने आधारे आज्ञाना नियमथी प्राप्त थाय छे? अथवा कामनाओ होय त्यारे तेमने तेम करवानी श्रुतिओ मात्र परवानगी आपे छे? अथवा ते न करवां जोईए एम कहेवामाटे तेमनुं वर्णन करवामां आवे छे? हवे नीचेना श्लोकमां ‘‘जे बीजा देवतानी उपासना करे छे’’ वगेरे श्रुतिओमां ते न करवां जोईए एम कहेवा ते वर्णवेलां छे एवो तेमनो निर्णय कहे छेः आपनी आज्ञानुं पालन करनारा आपना भक्तो ज साचा प्राणधारी छे. (तेमनुं जीवन ज सफल छे) बीजानुं तो जीवन व्यर्थ छे अने तेमना शरीरमां श्वासनुं आववुं जवुं तो लुहारनी धमण जेवुं छे. महत्तत्व, अहङ्कार वगेरे ए आपना अनुग्रहथी आ ब्रह्माण्डनी उत्पत्ति करी छे. अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय अने आनन्दमय- आ पाञ्चेय कोशोमां पुरुषरूपथी रहेवावाळा आप ज छो. आपना अस्तित्वथी ते कोशोना अस्तित्वनो अनुभव थाय छे अने तेओ न रहे त्यारे पण अन्तिम अवधिरूपथी आप विराजमान रहो छो. आ प्रमाणे बधामां अन्वित अने बधानी अवधि होवा छतां आप असङ्ग ज छो, कारण के वास्तवमां जे कंई वृत्तिओद्वारा अस्ति अथवा नास्ति (भाव अथवा अभाव) ना रूपमां अनुभव थाय छे ते बधा कार्य-कारणोना आप नियामक छो. ‘नेति नेति’ द्वारा आ बधानो निषेध थई जतां पण आप ज बाकी रहो छो, कारण के आप ए निषेधना पण साक्षी छो अने वास्तवमां आप ज एक मात्र सत्य छो ॥१७॥
श्रीसुबोधिनीजी - १. जे लौकिक पुरुषो (पशु, पुत्र, स्वर्ग वगेरेनी) कामनाथी प्रवृत्त अध्याय-८७,१४८ दशमस्कन्ध थई ए कामनाओ पूर्ण करवा बीजा देवोनी उपासना अने कर्म करवां जोईए एम माने छे अने २. जे कामनावाळा न होय तेमनेमाटे श्रुति फल आपनारी नथी तेथी वेदनी आज्ञा छे माटे ए करवां जोईए एम जे माने छे ते बन्ने पण धमणनी माफक श्वास ले छे. (श्वास ले छे तेटलुं ज तेमनामां जीवननुं लक्षण छे. हकीकतमां तेमनुं जीवन व्यर्थ ज छे) कामनाथी प्रवृत्त थई कर्म करनारा प्राणनुं पोषण करनारा छे अने एनुं पोषण करवामाटे श्रुतिए कहेलुं करे छे. केवळ लौकिकनो निषेध तो प्रकरणथी ज थई जाय छे केमके ब्रह्मने जाणनारना विचारनो अर्ही प्रसङ्ग छे. वैदिक बधा ब्रह्मवादी कहेवाय छे तेथी कामना परत्वे के विधि परत्वे जे वेदने कहे छे तेनी अर्ही प्राणपोषकमां गणना करी छे. ए प्राणरूप उपाधिथी ग्रस्त थया छे. धमण जेम धातुओने गाळे छे तेम कामनावाळाने धमणना जेम श्वास लेनार कह्या तेथी बहिर्मुख होवाथी बीजाने दुःख देवामाटे ज कर्म करे छे ‘‘यो नः शपादशपतः’’ ‘‘शाप नहि आपनार अमने जे शाप आपे छे’’ ‘‘यो नः सपत्नः’’ ‘‘जे अमारो शत्रु छे’’ ‘‘यो मां द्वेष्टि जातंवेदः’’ ‘‘जे वेद समजनार मारो द्वेष करे छे’’ इत्यादि श्रुतिओथी ए बीजाने दुःख देवामाटे अलौकिक प्रकारथी उपद्रावक छे तेथी एने मरेल जेवा कह्या छे. एने आ लोकनुं के परलोकनुं फळ मळतुं नथी पण बीजाने दुःख देवामाटे एनुं जीवन छे. बीजा जे यज्ञेन यज्ञमयजन्त ए श्रुतिने लईने आपना अङ्गरूप देवताओने यज्ञद्वारा आराधे छे ते आपना भक्तो छे. एना प्राण सफळ छे केमके एनाथी बीजाने गेरलाभ थतो नथी. पहेला कह्या तेमां बीजा दोषने कहे छे के भगवाननी आज्ञाथी महत्तत्व, अहङ्कार वगेरे ब्रह्माण्ड रचे छे तेमां ए रहे छे. एणे बनावेल शरीरने धारण करे छे छतां एना बनावनारनी भक्ति ए करता नथी तेथी ए कृतघ्ननी कोई काळे मुक्ति थती नथी. ए सकाम कर्म करनाराओनी वात थई. हवे जे आपना सेवक छे ते सर्वभावथी आपनुं भजन करे छे. एमने तो महदादि जे ब्रह्माण्डने बनावे छे तेने भक्तो भगवाननी क्रीडानुं स्थान माने छे. महदादि पण ए भगवाननी सेवा करे छे ते पण आपना अनुग्रहथी ज करे छे; एमां ए स्वसामर्थ्य मानता नथी. तेथी एवी बुद्धिथी भगवाननां अङ्ग तरीके बीजा देवोनुं भजन करे तेने कोई जातनो दोष लागतो नथी. बीजी रीते पण बन्नेनी अनुक्रमे निन्दा अने स्तुति करे छे. आ देहमां पुरुष जातनो सम्बन्ध छे तेमां अन्नमयादि कोशमां भगवान् छेल्ला छे. जेम ढाळानां पात्र करनार पहेलां आकृति करी एमां धातुने गाळी रेडी दे छे एम न करे तो ए पात्र तैयार न थाय एवो आ देह छे. बीजा घडा वगेरे तो माणसनी कृतिथी बने छे. तेथी आ देहमां कोई एवो छे के जेने लीधे अन्नना रस वगेरे बनी आ देहने पोषे छे. एम न होय तो राखनो ढगलो होय तेम देहनी धातुओ ते-ते [[१४९]] स्थाने न रहेतां एकत्र ढगली थाय. तेथी देहमां रही जे आ तन्त्रने चलावे छे ते बहुमान्य छे. तेथी ‘‘तस्य पुरुषविधताम्’’ ए श्रुतिमां भगवानने पुरुष प्रकारे कहीने अन्नमयादिने पण पुरुषरूप कह्या छे. पुरुषविध तो वंशन्यायथी अन्वित छे. त्यां शङ्का करे के अन्नमयमां भगवद् अन्वय होई विशेष अन्वयनी शी जरूर छे? त्यां कहे छे के अन्नमयमां छेल्ला आनन्दमय ते भगवान् छे. ए आनन्दमय होवाथी एमने बीजुं कांई कर्तव्य नथी. अन्दर रहीने ए आकारने आपनार छे. ‘‘तस्य पुरुषविधताम्’’ एम षष्ठीना निर्देशथी भेद बताव्यो छे. पण पूर्व पुरुषविधथी उत्तर पुरुषविध छे एम अर्ही मानवानुं नथी. एमां छेल्लो आनन्दमय छे ते भगवान् छे. अर्ही केटलाक (आनन्दमय) कोश१ छे एम जणावनारा पोताने माटे शोक ज प्राप्त करे छे, कारण के आनन्दमय (भगवान्) नो त्याग करवामां आवे त्यारे शोक ज बाकी रहे. ‘मयट्’२ प्रत्ययनी अयोग्यता तो सूत्रकारे प्राचुर्यात् (प्रचुरता-प्राचुर्यने लीधे) शब्दथी दूर करी ज छे. ‘‘वेदमां बे स्वरवाळाने’’ (पाणिनि ४.३.१५०) ए व्याकरण प्रमाणे पण त्रण स्वरवाळा ‘आनन्द’ शब्दने विकारना अर्थमां मयट्- ‘मय’ प्रत्यय लागे नहि तेथी साकार ब्रह्मना द्वेषने लीधे ज कोई ए एवुं (आनन्दमय कोश छे एवुं) व्याख्यान करेलुं छे, अथवा ‘ब्रह्म’ शब्द उपरनी श्रद्धाने लीधे एवुं व्याख्यान करेलुं छे. (जे उपेक्षा करवा योग्य छे) कारण के ‘‘ब्रह्म पुच्छ अने चरण छे’’ (तै. उ. २-५) एम ब्रह्मने आनन्दमयनुं पुच्छ कहेल छे, (अने भगवाननी) ‘‘हंसनी आकृति कहेवामां आवे त्यारे (ब्रह्म) परमात्मानुं पूञ्छडुं होय छे’’ ते सिद्धान्त तेओ जाणता नथी. एम न होय तो भगवाननुं चरण ब्रह्म न होवाथी ज्ञानमार्ग अने भक्तिमार्ग नुं फल एक न होय ए वातने त्यां ज छोडी दो केमके भाष्यमां ए विस्तार पूर्वक समजाववामां आवी छे तेथी अन्तर रहीने पुरुषपणुं अने आनन्दने आपनार छे तेने जे नथी मानता ते लोको कृतघ्न छे अने जे तेने भजे छे ते योग्य छे. एनी योग्यतानुं तो शुं कहेवुं? वळी जगतमां जे कार्य छे तेना नियन्ता आप ज छो, जे कार्य कारणना पर नियामक छे ते ज आप छो अने नियामक मात्र नहि पण जे बाकी रहे छे ते पण आप ज छो; तेथी पर्यवसान न्यायथी ३ पण आपने अनुसरवुं ए ज इष्ट छे पण नश्वरने अनुसरवुं नहि ए बधामां जे सत्य वस्तु ते भगवान् छे. बाकी रहे तेटलाथी काम थतुं नथी केमके बाकी रहे तेनो काल आवे त्यारे ते जाय छे. तेथी अर्ही अवशिष्टने ऋतु (सत्य) कह्या छे ते आप स्वयं छो. एने अनुसरे छे तेनी स्तुति अने एने अनुसरता नथी तेनी निन्दा कही. नहि करवानुं करता नथी तेनी स्तुति त्यारे जे नहि करवानुं करे छे तेनी निन्दा कही. आमां निन्दा अने स्तुतिमां पाञ्च हेतु बताव्या छे ॥१७॥
अध्याय-८७,१५० दशमस्कन्ध
विशेष - १. कोश=जीवनी साथे रहेनार सूक्ष्म शरीरना अवयवो. २.प्राणमय, अन्नमय मान्नो मय प्रत्यय. ३.परिणाम जोवुं जोईए ए नियम प्रमाणे. कृष्ण एव सदा सेव्यो निर्णीतः पञ्चधा बुधैः। शरीरदः प्रेरकश्च सुखदः शेषसत्यदः॥का.४॥
डाह्या पुरुषोए पाञ्च प्रकारे हेतुओ आपी निर्णय कर्यो छे के श्रीकृष्णनी ज सेवा करवी केमके आप शरीरने आपनार छे, प्रेरणा करनार छे, सुखने आपनार छे, आ जगतना प्रलय पछी बाकी रहेनार छे अने सत्यरूप छे ॥१७-४॥
एवी रीते बीजा देवोनी उपासना अने बीजुं कर्म करवानुं जणावनारी श्रुतिओनो निर्णय करीने भगवाननी उपासना करनार घणा छे तेमने जुदां-जुदां फळ मळे छे तेनो निर्णय नीचेना श्लोकमां करे छेः ऋषिओना वेदोए कहेला मार्गोमां जेओ कर्मनी उपासना करे छे तेओ स्थूल दृष्टिवाळा छे. अल्प प्रकाशवाळा नाडीओना मार्ग हृदयनी उपासना करे छे ते अल्प जुए छे. हे अनन्त! आपनुं परम धाम शिर तेथी पण ऊञ्चे जाय छे जेने प्राप्त करी लेनारा (मनुष्यो)अर्ही जन्म-मृत्युना चक्करमां फरीथी पडता नथी ॥१८॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवाननी उपासना करनाराओ त्रण प्रकारना छे - १. कर्म (रूप भगवान्) नी उपासना करनारा, २. योग आचरनारा अने ३. ज्ञानीओ. ए पैकी ज्ञानीओ श्रेष्ठ छे, कर्म करनारा हीन अने योग आचरनारा मध्यम छे. एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् (श्रीभ.गीता ९.१५) ‘‘एकपणाथी, जुदापणाथी अथवा बहुप्रकारे विश्व थई रहेलानी- मारी उपासना करे छे’’ ए भगवाननां वचन प्रमाणे भगवाननुं भजन घणा प्रकारे सम्भवे छे. केटलाक टीकाकारो१ आ श्लोक योगना सम्बन्धमां ज कहेलो छे एवो अर्थ करे छे. श्रुतिना निर्णयथी ते विरुद्ध होय तेम जणाय छे. ‘ऋषिवर्त्मसु’ वेदे कहेला मार्गोमां जेओ ‘उदरमुपासते’ कर्मनी उपासना करे छे तेवो अर्थ छे. वेदनुं उदर कर्म छे तेथी अने (कर्मनी) उदरमां ज समाप्ति थाय. ‘उदर’ शब्दनी बन्ने प्रकारे लक्षणा२ छे अने (उदर शब्द) नाभिनी आसपासना चक्रना अथवा कर्मना अर्थमां लेवामां आवे तो अर्ही छ चक्रो कहेलां नहि होवाथी एवो अर्थ प्राप्त थतो नथी. पाञ्च (कर्म) रूप भगवाननो विचार करतां पण उदर सोम थाय छे अने स्त्रीलम्पट अने उदर भरवामां आसक्तिवाळा (पुरुषो) लोकमां निन्दाय छे तेथी निन्दा करवा ‘उदर’ शब्द योजलो छे. ए उदरनी उपासना करनार स्थूल दृष्टिवाला होय [[१५१]] छे. ‘कूर्प’ शब्दथी काङ्करा लेवा. ए काङ्कराथी नानी वस्तुने जोई शक्ता नथी तेथी एने स्थूल दृष्टिवाळा कह्या छे अथवा काचबानी पीठने ‘कूर्प’ कहे छे. तेना उपर चित्र जेवा आकारो होय छे तेमने आङ्ख जेवा कहेला छे तेथी ए कांई पण जोई शक्ता नथी एटले ‘‘गतागतं कामकामा लभन्ते’’ ‘‘आवी रीते वेदना धर्मोने वळगी रहेनार कामनानी इच्छावाळाओने जन्म-मरण प्राप्त थया करे छे’’ ए न्यायथी एनी निन्दा थाय छे. एम एक कहीने हवे बीजाने कहे छे के परिसर पद्धति एटले हृदय नाडीओनो मार्ग हृदयमां होय छे. एवा योगीओ नाडीओना मार्गने शोधीने हृदयमां भगवाननुं चिन्तन करे छे. ए अरुणनी जेम अल्प प्रकाशवाळा छे. ए थोडा प्रकाशवाळा थोडी उपासना करी शके छे. एम सर्वात्मा भगवाननुं केटलाक उदर तो बीजा हृदयने पूजनार कह्या. आ कर्म अने योग कह्यां. गीतामां तो एनी प्रशंसा योगशास्त्र होवाथी करी छे अथवा बहिर्मुखोने उद्देशीने एनी प्रशंसा छे. ‘‘त्यारे मुख्य उपासना करनारा क्या?’’ एम जाणवानी इच्छा थाय तेथी (आपनुं परम धाम शिर) तेनाथी ऊञ्चे जाय छे एम कहेलुं छे. भगवाननां घणा स्थान छे तेमां अक्षर परम धाम छे. अक्षर शब्दना प्रयोगथी ए भगवाननुं स्थान सिद्ध थाय छे. त्रण लोकथी अने काळथी पण शिर उपर छे. एनुं आधिभौतिक रूप ब्रह्मलोक छे. ब्रह्मलोकने विराटना शिररूप कह्यो छे; ए स्वरूपने प्राप्त करीने प्राणी सदाने माटे काळना मुखमान्थी बची जाय छे. ‘‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते। ‘‘हे अर्जुन! मने प्राप्त करीने तो पुनर्जन्म थतो नथी’’ (गीता ८.१६)
विशेष - १. विश्वनाथ चक्रवर्तीए आ प्रमाणे अर्थ करेल छे. २.’उदर’ एटले पेट. वेदमां कर्म करवानी विधिओ कहेली होवाथी वेदनुं उदर कर्म छे तेथी ‘उदर’नो अर्थ कर्म कर्यो. कर्मनी समाप्ति धन वगेरे प्राप्त करवामां एटले उदरनुं पोषण करवामां थती होवाथी उदरनो अर्थ कर्म कर्यो. आ बन्ने अर्थ लक्षणा वृत्तिथी थया. कर्मरूपं हरिं केचित्, सेवन्ते योगम्पिणम् । तेभ्योप्यक्षररूपस्य सेवकाः सम्मताः सताम्॥का.५॥
केटलाक कर्मरूप भगवानने सेवे छे, ज्यारे बीजा योगरूप पण भगवान् छे एम जाणी योग करी एमनुं हृदयमां चिन्तन करे छे. एना करतां पण अक्षररूप भगवाननी सेवा करनार लोकोने सन्तोए उत्कृष्ट (उत्तम) मानेला छे ॥१८-५॥
एम उपासनाना भेदनो निर्णय करीने नीचेना श्लोकमां भगवान् कार्योमां पाछळथी प्रवेश करे छे एम जणावनारी श्रुतिओनो निर्णय कहे छे ः अध्याय-८७,१५२ दशमस्कन्ध आपे ज देवता, मनुष्य, पशुपक्षी वगेरे योनिओ बनावी छे. बधां रूपोमां सदा सर्वदा उपादान कारणरूपे आप छो ज, छतां आप तेमां प्रवेश करता हो तेवा भासो छो. साथे-साथे जुदी-जुदी आकृतिओनुं अनुकरण करी, जेम अग्नि नानां-मोटां- वाकाञ्चूकां लाकडांओमां बहु अथवा थोडा परिमाणमां अथवा उत्तम अधम रूपमां देखाय छे तेम, क्यांय उत्तम तो क्यांय अधम रूपमां देखाओ छो. तेथी रजोगुणरहित सन्तपुरुषो लौकिक पारलौकिक कर्मोनी दुकानदारीथी एमनां फलोथी विरक्त थई जाय छे अने सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मानी पहेचान करी जगतनां जुदा रूपोमां फसाता नथी अने आपना सत्यधामने सम अने एक रस जाणे छे ॥१९॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘‘तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्’’ ‘‘एने सर्जीने एमां ज पछी प्रवेश कर्यो’’ ‘‘स एव इह प्रविष्ट आनखाग्रेभ्यः’’ ‘‘आ ए अर्ही नखथी माथा सुधी प्रवेशेला छे’’ वगेरे श्रुतिओमां भगवाने करेल प्रवेश साम्भळवामां आवे छे. ‘‘गुहां प्रविष्टावात्मानो हि तद्दर्शनात्’’ हृदयाकाशमां प्रवेश करेला बे आत्मा (परमात्मा अने जीवात्मा) छे, कारण के एमनुं दर्शन (निरूपण करेलुं) छे’’ अर्ही ए विचारवानुं छे के ते प्रवेश १. सर्व प्रकारे बहार रहेलानो थाय छे के २. अन्दर ज रहेलानो प्रकाश थतां लोकोने तेमां दर्शन थाय छे तेथी लोकनी दृष्टिनो आश्रय करीने प्रवेश कहेलो छे? ते पैकी १.बहार रहेलानो ज प्रवेश थतो होय तो भगवान् पोते ज सृष्टि बने छे ए (सिद्धान्त) खोटो ठरे छे, अद्वैत रहेतुं नथी अने भगवान् अवयवरहित पण रहेता नथी. प्रवेश थतो होय तो पण बन्नेनो प्रवेश ब्रह्मसूत्रमां कहेलो छे. प्रवेश कर्या पहेलां तो जुदा थवानुं कारण नहि होवाथी कोईनी अन्तर प्रविष्ट थयेला भगवान् जीव अने ब्रह्म थाय छे. तेथी बे विषयनो निर्णय करवानो छेःशुं बहार रहेला भगवान् प्रवेश करे छे? अथवा २.भगवान् अथवा जीव बन्ने प्रवेश करे छे? आ प्रमाणे अर्ही अनुक्रमे बे श्लोकोथी निर्णय करे छे. पोते ज करेली विचित्र योनिओमां भगवान् हेतुपणाथी त्यां रहेला ज जाणे के प्रवेश करता होय एम प्रकाशे छे. आथी एम कहेलुं छे के प्रवेश कहेनारी श्रुति देखाय छे तेवुं जणावनारी छे. केटलाक एम कहे छे के ‘‘कारणनो कार्यमां पछी प्रवेश जुदो थाय छे; एम न होय तो तेमां कारण देखाय नहि; तेथी बन्ने (मत) नो सङ्ग्रह करवा ‘इव’ ‘‘जाणे के (प्रवेश करता होय)’’ एवो शब्द योजेलो छे. ‘‘परस्य दृश्यते धर्मो ह्यपरस्मिन् समन्वयात्’’ एम कार्यमां कारणना प्रवेशने उपला वाक्यथी श्रीभागवत पण कहे छे तेथी भगवान् कार्यमां उपादानथी होवा छतां एमां [[१५३]] प्रवेश करे छे एम प्रवेश कह्या पछी ‘‘सच्च त्यच्चाभवत्’’ ए श्रुति प्रविष्टनी विलक्षणता बतावे छे. एनो पण निर्णय करे छे के ‘‘वधारे ओछा भावथी एमां भासो छो’’ देव, मनुष्य, पशु भावथी, राजस, तामस, सात्विक स्वभावथी भासो छो. त्यां शङ्का थाय के प्रवेश करनार एक ज होय तो तरतम भाव केम घटे? त्यां कहेवानुं के ए अग्निनी जेम देखाय छे. आथी भेद जीवनो करेल नथी ए वात सूचित थई. भगवान् तो अन्तर्यामी एक ज प्रकारना छे ए देवादि जीवभेदथी भेदवाळा देखाय छे एवो ए मत छे. जेम अग्नि सर्वत्र काष्टमां पेसे त्यारे रङ्गभेद, स्थूल, सूक्ष्म भेद, लाम्बा वाङ्कानो भेद एमां देखाय छे, पोते जे लाकडामां रहेलो होय ते सिवाय बीजा कोईथी भेद थतो नथी. ‘‘अर्ही तो अग्निनुं दृष्टान्त कह्युं तेमां युक्ति न कही?’’ एवी शङ्का थाय त्यां कहे छे के भगवान् पोते जे करे छे तेनुं पोते ज अनुकरण करे छे. जेम शिक्षक शिष्यनी विद्यानुं अनुकरण करे छे तेम भगवान् जगत्रूपे क्रीडा करवामाटे सर्वत्र अनुप्रवेश करी ते-ते रूप पोते थाय छे. एम थवामां दोषनी निवृत्तिने कहे छे. ए बधा पाञ्च भौतिको असत्य छे तेमां पोतानुं स्वरूप सत्य छे. एनुं कारण के सर्वमां पोतानुं स्वरूप समान छे. पृथ्वी वगेरे दस-दसगणां विषम छे ते प्रवेश करे एमां एनी समता नथी केमके कठणपणा अने विरलताथी एमां वैषम्य छे; आकाश पण अनित्य होवाथी विषम छे पण ए सूक्ष्म होईने एनी विषमता जाणी शकाती नथी. भगवान् तो सम रहीने ज सर्वमां प्रवेश करे छे कारण के ‘‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’’ एम श्रुति कहे छे. ज्ञानादि तारतम्य तो जीवनिष्ट छे ते पछीना श्लोकमां कहेवाशे, अर्ही तो मात्र समता कहेवानी छे. जेमां पेसे छे तेना जेवडो आत्मा देखाय छे तेथी ज ‘‘समो नागेन समो मशकेन’’ ‘‘हाथी जेवडा, मच्छर जेवडा’’ वगेरे श्रुति प्रमाणे भगवान् जेमां प्रवेश करे छे तेना जेवडा थईने तेमां प्रवेश करे छे. भगवान् तुल्य अंशथी प्रवेश करे तो सर्वनी समानता न देखाय. केम न देखाय? ए प्रश्नना उत्तरमां कहे छे के जो समता ज देखाय तो भगवानना कार्यमां विषमता जोवामां न आवे. भगवाननां कार्य तो ‘‘योन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्ताम्’’ जे अन्दर प्रवेश करीने मारी आ प्रसुप्त वाणीने जिवाडे छे. इत्यादि भागवत वाक्यथी कह्यां छे. ए भगवाननी विलक्षणताने तो जेनी ब्रह्मदृष्टि थई होय ते ज जाणी शके छे. जेम झवेरी होय ते ज आ खरुं अने आ बनावटी रत्न छे एम जाणे छे तेम रजोगुण विनाना पुरुषो भगवत्स्वरूपने जाणे छे. एने ज जणाय एनुं शुं कारण के ए आ लोक अने परलोक ना व्यवहारने छोडीने भगवद् दर्शन करनार छे. जे जेनो अभ्यास करे ते तेने जोई शके छे. जेम व्यवहारमां रात-दिवस तोळनारा हाथमां लेतां ज आ एक शेर छे एम कही दे छे तेम व्यवहारने छोडीने सर्वथा ब्रह्मनुं अध्याय-८७,१५४ दशमस्कन्ध अनुचिन्तन करनार छे ते सर्वत्र ब्रह्मने जोई शके छे पण विकारथी उत्पन्न थयेल पदार्थने जोता नथी केमके एने ए पण ब्रह्मरूपे भासे छे. ए ब्रह्मने जुए ए तो ठीक पण बधाने ब्रह्म जुए एनुं कारण शुं? एना उत्तरमां कहे छे के ए सर्वत्र एकरसने जुए छे. रस तो अनुभवथी जणाय. ए ब्रह्मज्ञोनो प्रेम सर्वत्र सम होय छे. जो एम न होय तो अनुभवमां विरोध आवे; तो दर्शनमान्थी समता जती रहे. लोकमां पण विलक्षण रसना अभिज्ञ थाय छे ते विलक्षण पदार्थोमां तुल्य दृष्टिवाळा होय छतां एनी विलक्षणताने ए जाणी शके छे. ‘‘ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने’’ श्रीभागवत ११.२९.१४ ‘‘ब्राह्मणमां, चाण्डालमां अने चोरमां’’ तेमनी समदृष्टि जणावी छे. तेथी भगवान् सर्वमां सम छे अने सर्वमां अनुस्यूत छे तेथी जगत्रूपमां प्रवेश करीने क्रीडा करतां पण एमने दोषनो सम्भव नथी ॥१९॥
सर्वत्र भगवान् तुल्यः सर्वदोषविवर्जितः। क्रीडार्थमनुकुर्वन् हि सर्वत्रैव विराजते॥का.६॥
भगवान् सर्व दोष रहित छे, सर्वत्र तुल्य छे. ए क्रीडामाटे अनुकरण करता सर्वत्र प्रकाशे छे ॥१९-६॥
एम प्रवेश करे छे छतां भगवान् निर्दोष छे ए वात कहीने बेनो प्रवेश श्रुतिमां कहेलो होवाथी बीजानी शी वात छे? ए शङ्का निवृत्त करवामाटे कहे छेः आ पोते बनावेल देहोमां सर्व शक्तिवाळा आपना अंश जीवने बहारथी अने अन्दरथी देहे करेल गुणदोषरहित अंशथी बनेलो कहे छे. एवी रीते माणसो (जीवो) नी गतिनो विवेक राखीने भूतल उपर विश्वास राखनारा कविओ (पडिन्तो) जन्ममरणनो फेरो टाळनार, वेदो जेनुं प्रतिपादन करे छे तेवा आपना चरणनी उपासना करे छे ॥२०॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवाने करेलो देव, पशु अने मनुष्य शरीरमां भगवदंशरूप पुरुष एटले जीव अन्दर अने बहार आवरणरहित एटले एना गुणदोषरहित होवाथी अंशरूप विषमताने धारण करे छे. अर्ही एटलुं समजवानुं छे के जीव भगवाननो चित् अंश छे ए अत्यन्त सूक्ष्म छे. ए बधा देहमां प्रवेश करे छे, अन्दर अने बहार चैतन्य गुणथी पूर्ण रहे छे तेथी स्वभावथी ए जीव पण विषम नथी तो पण अंशभावथी एमां विषमता आवे छे केमके एमां आनन्दनो अंश तिरोहित रहे छे. ए पोताना आनन्दनी अपेक्षामाटे देहने धारण करे छे. एमां सुख न मळतां ए विषम जेवो देखाय छे. भगवान् अने जीव मां आटलो ज तफावत छे के भगवान् आनन्दपूर्ण छे ज्यारे जीवनो आनन्द तिरोहित थयो छे. ए [[१५५]] आनन्दने माटे बीजानी अपेक्षा करे छे तेटली एमां विषमता छे. आ अर्थ अंशकृत पदथी कह्यो छे. ए प्रमाणे जेओ भगवान्थी जीवनो भेद जाणे छे तेओ भगवानने भजे छे, बीजा भगवानने भजता नथी. जीवनी प्रवृत्ति आनन्दने माटे छे. ए आनन्द भगवान्मां ज छे, बीजे क्यांय पण नथी. ‘‘को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् एषं ह्येवानन्दयति’’ जो आ आकाश आनन्द न होत तो कोण श्वास ले, कोण जीवे? कारण के आ ज आनन्द प्राप्त करावे छे. (तै. उ. २.७.१) एम श्रुति कहे छे. ज्यां जीवनो आनन्द तिरोहित थयो त्यां जडमां तो आनन्दनी गन्ध पण क्यान्थी होय? मरु देशमां झाञ्झवानां जळमां भ्रान्तने जळ छे एवो भास थाय तेम लोक पण माळा, चन्दन, वनिता मां आनन्द छे एम कहे छे ते भ्रान्त छे एम समजवुं. दाता माणस पोतानी पासे होय ते आपी शके पण जे त्रणे काळमां पोतानी पासे नथी तेने ए क्यान्थी आपी शके? तेथी आनन्द भगवान्मां छे ए वातने पडिन्तो सारी रीते जाणे छे तेथी ए भगवच्चरणनी उपासना करे छे केमके भगवान् आनन्दना खजानारूप छे. त्यां शङ्का करे छे के परमानन्द भगवान्मां होय एनी कोई ना न कही शके पण स्वर्ग वगेरेमां (हलको) आनन्द तो होवो जोईए? एना उत्तरमां कहेवानुं के वेद तो ‘‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’’ ‘‘सर्व वेदो जेमना चरणनो विचार करे छे’’ आपना चरणने ज फळ तथा साधनारूप गणे छे माटे यज्ञो पण चरणरूप अने मुख्य गणातुं स्वर्ग पण आपना चरणरूप छे. ‘‘अस्यैवानन्दस्य अन्यानि भूतानि मात्राम् उपजीवन्ति’’ आ ज आनन्दना अंश उपर बीजाओ नभे छे. एम श्रुति ज कहे छे. ‘‘एष एव आनन्दयाति’’ आ ज आनन्द प्राप्त करावे छे एमां एव कार ‘ज’ कह्यो छे तेथी वेदना मतथी तो भगवच्चरण सिवाय अन्यत्र कोई स्थळे आनन्द नथी एम सिद्ध थाय छे. तेथी ज कोई दिवस जेनी उत्पत्ति नथी पण बीजानां जन्म-मरणने पण दूर करनार आपना चरणने पृथ्वी उपर तीर्थ आदिथी पवित्र अन्तःकरणवाळा आपनामां विश्वास राखी आपना चरणनुं सेवन करे छे. स्वर्ग आदिमां आनन्दनी सामग्रीनी सम्भावना पण खरी तेथी ‘भुवि’ ए शब्द कह्यो छे. वळी स्वर्ग आदिमां रहेनारने भगवान्मां विश्वास पण ओछो होय तेथी पण भुवि विश्वसिताः भूतल उपर विश्वास राखनारा एम कह्युं छे ॥२०॥
गुप्तानन्दा यतो जीवा निरानन्दं जगद्यतः। पूर्णानन्दो हरिस्तमाज् जीवैः सेव्यः सुखार्थिभिः॥का.७॥
जीवमां आनन्द तिरोहित छे, जगत् आनन्दरहित छे तेथी सुखनी इच्छावाळा जीवोए पूर्ण आनन्दवाळा हरिनी सेवा करवी ॥२०-७॥
अध्याय-८७,१५६ दशमस्कन्ध एवी रीते भगवान् कार्योमां प्रवेश करे छे एम जणावनारी श्रुतिना विषयना विचारथी जीवनुं स्वरूप कहेवामां आव्युं, आनन्दनी अपेक्षावाळाए भगवाननी सेवा करवी ए पण कह्युं ए भगवान्मां असम्भावना विपरीत भावना न थवामाटे भगवान्मां आनन्द न होय तो? क्या पूर्णानन्द भगवान्? ए बे सन्देहनी निवृत्तिने माटे कहे छेः हे भगवन्! परमात्मतत्वनुं ज्ञान प्राप्त करवुं अत्यन्त कठिन छे. तेनुं ज ज्ञान प्राप्त कराववाने माटे आप अनेक अवतार ग्रहण करो छो अने ते द्वारा एवी लीला करो छो के जे अमृतना महासागरथीपण मधुर अने मादक होय छे. आलीला अने कथा ना अमृतना महासागरने डहोळवानो परिश्रम करनाराओ जेमणे आपना चरणकमलनो जआश्रय करनारा हंसोना समूहना सङ्गमाटे घरबार त्यजी दीधाञ्छे तेवा केटलाक, हे ईश्वर! अनेक प्रकारे ललचावनारा पदार्थोनीतो शुं पणमोक्षनी पण इच्छा करतानथी ॥२१॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवान्मां आनन्द छे के नहि ए तो शङ्का पण न करवी तेम भगवान् कोण ए शङ्का पण करवी ज नहि तेम जीवनी पेठे जन्म न लेतां एनो आनन्द तिरोहित थाय ए शङ्का पण न करवी केमके अवतारने धरनार-श्रीकृष्णना चरित्र मात्रना श्रवणथी पण एवो आनन्द प्राप्त थाय छे के एनो विचार करनार परमानन्दनी पण इच्छा करतो नथी ए सर्वना अनुभवनी वात छे. ए मोक्षने पण इच्छतो नथी ए बतावनार बीजो पण हेतु कहे छे के घरमां माणस मात्रने घणुं सुख होय तेने पण ज्यारे ए भगवानने माटे छोडी दे छे. जो भगवान्मां सहस्रांशे पण आनन्दनो सन्देह होय तो पोताना घरनो हाजराहजूर आनन्द कोण छोडे? माटे भगवान्मां आनन्द छे एमां सन्देह करवानो नथी. भगवाननो अवतार थाय छे ते पण पोताना स्वरूपनुं ज्ञान कराववामाटे थाय छे तेथी अवतार दशामां जे आपणी साथे परिचयमां आवे छे ते पण पूर्ण आनन्दरूप छे एम सिद्ध करे छे के आत्मा कोई रीते जाणी न शकाय तेवो छे. चक्षुवाळो होवा छतां जे जुए नहि, छती आङ्खे आन्धळो होय तेने ज्ञान कराववानो उपाय कठिन छे. जे पोतानो आत्मा छे तेने जाणतो नथी तेने एनो आत्मा कोण बतावी शके? तो पण आत्मा जणातो नथी ए माटे शुं करवुं ए सन्देह रहे छे. ए आत्मानुं यथार्थ स्वरूप दुर्ज्ञेय छे. एनुं परमार्थरूप केवुं छे एवुं ज्ञान लोकमां प्रसिद्ध होत तो आज सुधीमां एने कोईए जाण्युं होत ने आटला समयमां बधा मुक्त थई गया होत; पण एम थयुं नथी तेथी आत्माने जाणवामां लोकमां प्रसिद्ध कोई कारण होय एम जणातुं नथी. भगवान् एने माटे प्रसिद्ध थया तेथी ‘नितराम्’ सारी रीते ‘गमः’ [[१५७]] ज्ञान ते निगम. देहने ग्रहण करवो ए अज्ञाननुं कार्य छे. भगवाननुं अद्भुत चरित्र पण अज्ञान कार्य जेवुं प्रकट करीने बधाने ए स्वरूपनुं ज्ञान करावे छे. तेथी अद्भुत कर्मवाळा भगवाननुं चरित्र ज अमृतनो मोटो सागर छे. ‘मोटो’ एटले लोकमां प्रसिद्ध समुद्र करतां मोटो, कारण के आ पृथ्वी उपरनो समुद्र घणा प्रयासे सुकावी देवाय१ पी जवाय, बन्धाय के ओळङ्गी शकाय परन्तु भगवानना चरित्ररूपी अमृतनो सागर तो कोईथी एम करी शकाय तेवो नथी. समुद्रपणुं अने अमृतपणुं तो सिद्ध करेलां ज छे२ ‘परिवर्त’ एटले एमां फर्या करवुं एटले एने घणा प्रकारे डहोळवो. ए माटे सर्व तरफथी श्रम छे जेमनो तेवा पुरुषो मोक्षनी पण इच्छा करता नथी. एवा चरित्रने डहोळी नाखवानुं (एनो विचार करवानुं) जेमनुं सामर्थ्य छे तेओ महारसना पानथी मतवाला थया होय तेम पोतानी मेळे प्राप्त थयेल अथवा कोईथी अपाता मोक्षने पण ले नहि एमां कहेवुं ज शुं? घणा प्रकारे ललचावनारा पदार्थमाटे पण तेमनी इच्छा सरखी पण थती नथी. ‘हे ईश्वर!’ ए सम्बोधनथी एम सूचव्युं के आप मोक्ष आपो तो पण तेओ लेता नथी. ‘‘भगवाननुं चरित्र अने मोक्ष बन्नेमांय परमानन्द सरखो छे अने कथारूपी समुद्रमां अवगाहन (कथानो विचार कर्या करवा) नो क्लेश वधारे छे तो पछी मोक्षनी तेओ इच्छा केम करता नथी?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘आपना चरणकमलनो ज आश्रय करनारा हंसोना समूहना सङ्घमाटे घरने तज्यां छे तेवा शब्दो योजेला छे. जेम लोकमां एकलो पुरुष जे प्रकारे रसनो अनुभव करवामां आवे ते वधारे सुख आपनारो थाय छे तेम परमानन्द पण (योग्य पुरुषो साथे अनुभव करवाथी) वधारे सुख आपनारो थाय छे. एटले आपना चरणरूपी कमलनो ज जेमने आश्रय होय ते. तेमनुं कुल एटले समूह तेवा हंसोना सङ्घमाटे जेमणे घरबार छोडी दीधेलां छे तेमने मोक्षनी पण परवा नथी. हंसोनी साथे परमानन्दनो घणे प्रकारे भोग करवानो छे. तेथी मोक्षनी पण इच्छा करता नथी. आम मोक्ष करतां पण भगवाननी कथाना श्रवणनो रस अदकेरो (वधारे) जणावेलो छे. घर (कथाना श्रवणमां) विघ्न करनारुं होवाथी अने त्यां रहेवामां भगवानना सेवकोनी सम्मति नहि होवाथी तेनो त्याग करे छे.
विशेष - १. ‘काळकेय’नामना असुर लोकोने बहु रञ्जाडतो अने समुद्रमां छुपाई जतो तेथी
अगस्त्य ऋषिए समुद्रने शोषी लई काळकेयनो नाश कर्यो हतो. एवी रीते ‘ईल्वल’नामनो
असुर समुद्रमां सन्ताई गयेलो. अगस्त्य ऋषि समुद्रनुं आचमन करी पी गया अने ईल्वलने
मारी नाख्यो. श्रीरामचन्द्रजीए सुमद्रने बान्ध्यो हतो-सेतुबन्ध द्वारा- अने हनुमानजी समुद्रने
ओळङ्गी गया हता.
अध्याय-८७,१५८ दशमस्कन्ध
२.आगळना सोळमां श्लोकनां श्रीसुबोधिनीजी तथा १०.२८.९ ‘तव कथामृतं’ ए श्लोकनां
श्रीसुबोधिनीजीमां.
कृष्णे हरौ भगवति परमानन्दसागरः।
वर्तते नात्र सन्देहः कथा तत्र नियामिका॥का.८॥
भगवान् हरि श्रीकृष्णमां परमानन्दनो सागर छे. आ विषयमां सन्देह नथी. कथा ए जणावनारी छे अर्थात् भगवान्मां जो परमानन्द न होय तो एमनी कथामां परमानन्द न होत एवो भाव छे ॥२१-८॥
ए प्रमाणे परमानन्द प्राप्त करवानी इच्छावाळाओए भगवाननी ज सेवा करवी जोईए एम जणावीने ए भगवाननी सेवा थई शके ते माटे नीचेना श्लोकमां खास करीने सेवामां विघ्न करनार (असत्सङ्ग) नुं निरूपण करे छे. हे प्रभो! (इन्द्रिय, बल, विवेकवाळुं) आ शरीर आपने (आपनी सेवाने) अनुकूल छे. ते आत्मा, मित्र अने प्रियनी जेम वर्ते छे. वळी आप हित करनार, प्रिय अने आत्मा होवाथी (आ जीव मारी सेवा क्यारे करशे एवी उत्कण्ठायुक्त) अनुकूल छो छतां अरेरे! खेदनी वात छे के (पूर्व जन्मनां पापने लीधे दुःसङ्ग थवाथी, इन्द्रियोनी आळपरूपाळ करवाथी तथा अन्याश्रय करवाथी) आत्महत्यारा आपनी भक्तिमां रममाण थता नथी, भक्ति करता नथी तेओ असत्सङ्गमां आसक्त होवाथी खबर नहि तेमने केटलां दुष्ट शरीरो धारण करवां पडे छे अने अत्यन्त भयावह संसारमां भटकवुं पडे छे ॥२२॥
श्रीसुबोधिनीजी - पोते जे इच्छेलुं होय (असत्सङ्ग) ते ज विघ्न करनारुं थाय छे,
बीजां विघ्न करनार थतां नथी एम कहेवा, बीजां विघ्न करनार थतां नथी एम सिद्ध करे छे.
ए पैकी शरीर विघ्न करनार थतुं नथी एम सिद्ध करे छे, कारण के शरीर (एमां रहेला) सर्व
दोषोने लीधे दुष्ट, शक्ति रहित अने आळसु छे; तेथी आ शरीर भगवानना भजनमां विघ्न
करनारुं हशे एवी शङ्का दूर करे छे. आ शरीर सर्व इन्द्रियवाळुं तथा बल, विवेक वगेरे गुणोवाळुं
आपने ‘अनुपथम्’ अनुकूल सेवकरूप छे, कारण के इन्द्रियोवाळां होवुं ए ज सेवाना
अधिकारीनो गुण छे. (इन्द्रियो जेनी सङ्गीन अने साबूत होय ते ज भगवाननी सेवा करी
शके छे) तेवा शरीरमां जो अहन्ता-ममता दृढ होय तो तेने लीधे पुरुष तेने सेवामां न लगाडे
तेथी ते सेवामां लगाडे ते माटे ‘कुलायम्’ शब्द योजेलो छे. ‘कुलायः’ एटले पक्षीनो माळो.
पाङ्खो आवे त्यारे पक्षीओ तेमां रहेता नथी. शरीर पुत्र वगेरेथी जुदुं छे. जेमणे पोताना
[[१५९]]
शरीरने पुत्र वगेरेथी जुदुं जाणेलुं छे, ‘‘आ मात्र (आत्माना) घर रूप छे अने ए पण विवेक
वगरना लोकोने ज हितकारी लागे छे, इन्द्रियो वगेरेथी पण जुदुं छे अने विवेक प्राप्त थाय
त्यारे तजवा योग्य छे’’ एम जेओए जाणेलुं छे तेमनुं शरीर आपने अनुकूल छे. एमां
पण स्त्री अथवा सेवक नुं शरीर होय अथवा ऊलटा स्वभावने लीधे (भगवाननो) द्वेष
करनारनुं शरीर होय तो सेवा थाय नहि. तेथी ‘‘आत्मसुहृत्प्रियवच्च रति’’ शब्दो योजेला
छे. ‘‘आत्मानी जेम, मित्रनी जेम अने प्रियनी जेम वर्ते छे’’ तेवो एनो अर्थ छे.
१.आत्मा पोताने अधीन होय छे तेथी आवुं (शरीर) स्त्रीना शरीर जेवुं के सेवकना शरीर
जेवुं नथी एम कहेलुं छे. स्त्री अथवा सेवकनुं शरीर तो बीजाने (स्त्रीने अथवा सेवकने)
अधीन होय छे, छतां पण २.जो धर्मना कार्यमां असहिष्णु होय, शक्तिवाळुं न होय तो पण
सेवा थाय नहि तेथी ए (धर्मकार्यमां शक्तिमान होवा) माटे ‘सुहृद्वत्’ ‘मित्रनी जेम’ शब्द
वापरेल छे, कारण के मित्र पोतानुं हित ज करे छे. ए प्रमाणे आ शरीर पण धर्मना कार्य
वगेरे करवा शक्तिवाळुं छे. वळी ३.जेम प्रिय (पुरुष) उपर आपणो स्नेह होय छे तेम आ
शरीर स्नेह करवा योग्य छे, परन्तु घणा पापवाळानी जेम द्वेष करवा योग्य, चाण्डाल वगेरेना
शरीरनी जेम मनने पीडा उत्पन्न करनारुं नथी. ए प्रमाणे शरीर भगवाननी सेवामां विघ्न
करनारुं नथी एम सिद्ध कर्युं. कदाच जेनुं भोजन करवानुं छे ते भगवान् ज सेवा न करावे तो
ए प्रतिबन्धक थाय. ए पण आप ब्राह्मण आदि देह आपीने आ जीव मारी सेवा करशे एम
आतुर रहो छो. वळी ए देहनुं अकस्मातथी आप रक्षण करो छो. आ मित्रनुं कार्य छे. वळी
भगवान् आ सेवा करनार देहना आत्मा छे अने सर्वने आत्मानी जरूर होय छे. तेवी रीते
भगवान् अनुकूल छे. एम शरीररूप साधन अनुकूल छे अने सेवा करावनार भगवान् अनुकूल
छे छतां जे जीव भगवत्सेवा नथी करतो ते दुष्टोनो सङ्ग करनार छे तेथी सङ्गदोषथी ए भजन
करतो नथी. बीजी बहारना देवताओ छे तेनो एकवार पण प्रसङ्ग पडे तो ए भगवद्भजनथी
विमुख करे छे ए वात ‘च’कारथी कही छे. ए सर्व पुरुषार्थने नाश करनार असत्सङ्ग केम करता
हशे? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए लोको पूर्वना पापने लईने आत्महत्यारा थया छे
अथवा दुष्ट इन्द्रियोनी उपासनाने लीधे भजन करता नथी. ‘‘ए दुष्ट इन्द्रियोनी
उपासनाथी शुं थाय?’’ एवी शङ्का थाय तो कहे छे के ‘यदनुशयाः’ जे असत्सङ्गनी अन्दर
अनुशय एटले वासनावाळा तेओने महा भयावह संसारमां खबर नहि केटकेटलां खराब शरीर
ग्रहण करवां पडे छे ॥२२॥
असत्सङ्गो न कर्तव्यो भक्तिमार्गस्य बाधकः। अध्याय-८७,१६० दशमस्कन्ध देहे ह्यनुगुणे कृष्णे नेन्द्रियाणां प्रियं चरेत्॥का.९॥
भक्तिमार्गमां बाधक दुष्टनो सङ्ग कोई दिवस न करवो. देह सेवाने लायक होय अने
श्रीकृष्ण सेवा कराववाने अनुकूळ होय तो सेवा करवी पण इन्द्रियोनुं हित न करवुम् ॥२२-
९॥
आटली वात कहेवाथी जीवे भगवाननुं भजन (सेवा) अवश्य करवुं एम कह्युं. एमां क्या प्रकारथी भगवानने भजवा एम जाणवानी इच्छा थाय त्यां एनो निर्णय करे छेः हे प्रभो! मोटा-मोटा विचारशील योगी यति पोताना प्राण, मन अने इन्द्रियो ने वश करी दृढ योगाभ्यासद्वारा हृदयमां आपना चरणनुं ध्यान धरी उपासना करे छे. परन्तु आश्चर्यनी वात तो ए छे के तेमने जे पदनी प्राप्ति थाय छे तेनी ज प्राप्ति ते शत्रुओने पण थई जाय छे. जे आपनी साथे वेरभाव राखे छे कारण के स्मरण तो तेओ पण करे छे. आपनी शेषनागनी काया जेवी (पुष्ट, लाम्बी अने सुकुमार) भुजाओमां आसक्त बुद्धिवाळी स्त्रीओ अने अमे (श्रुतिओ) पण समान दृष्टिवाळा आपनी दृष्टिमां सरखां ज छीए कारण के योगीओ, शत्रुओ, स्त्रीओ अने अमे आपनां चरणकमलने सारी रीते धारण करनार छीए ॥२३॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘‘तेथी कोईपण उपायथी मन श्रीकृष्णमां परोववुं. (श्रीमद् भा.
७.१.३) ए वाक्य प्रमाणे भगवानना चरणमां आसक्ति ज जरूरनी छे, परन्तु कोई
चोक्कस प्रकार जरूरनो नथी एम कहेवा जणावे छे के जेओ मर्यादामार्ग प्रमाणे, वेदमां मना
करेल मार्ग प्रमाणे, पुष्टिमार्ग प्रमाणे अथवा प्रवृत्ति करावनारना मार्ग प्रमाणे भगवाननी
उपासना करे छे ते बधामां जरूरी सामान्य धर्मगुण हयात होवाथी, भगवान् विचार प्रमाणे
ए बधा सरखा छे. १.ए पैकी वेदमां कहेला मर्यादामार्ग प्रमाणे जे सेवा करे छे तेमने पहेलां
जणावे छे. ‘नितरां’ सारी रीते ‘भृतः’ धारण करेल (क) ‘मरुद् वायु’ (ख) ‘मनः’ मन
अने (ग) ‘अक्षाणि’ इन्द्रियो ए प्रमाणे (क) प्राणायाम (ख) प्रत्याहार अने (ग) ध्यान
कह्यां. एवी रीते त्रण साधनोथी जेओ ‘दृढयोगयुजः’ सदा योगद्वारा भगवानना जे
स्वरूपनुं चिन्तन करे छे, मनथी करेली पूजा वगेरेथी हृदयमां भगवाननी उपासना करे छे
एटले भगवान्मां मनने दृढ राखे छे ते ज भगवानना स्वरूपने २.एमना शत्रुओए पण
स्मरणथी प्राप्त करेलुं छे. जेनी अन्दर मन सम्पूर्ण रीते प्रवेश करे ते ज प्राप्त करे छे तेथी
वेदमां कहेला अने एमां मना करेला मार्गोनुं परिणाम सरखुं ज कहेलुं छे. आथी एम सूचवेलुं
[[१६१]]
छे के भगवान्मां प्रमेय बल ज मुख्य छे, प्रमाण बल मुख्य नथी कारण के आ बन्ने
अन्तर्मुख छे. ३. ‘‘शेषनी काया जेवा भुजदण्डमां आसक्त बुद्धिवाळी स्त्रीओ’’ शब्दथी
बहिर्मुखोने पण जणावे छे. ‘उरगेन्द्रस्य’ शेषनी भोग इव कायाना जेवा जे बे भगवानना
बाहुओ तेमां आसक्त थयेली छे बुद्धि जेमनी तेवी गोपीओ घणी बहिर्मुख छे अने ४. अमे
श्रुतिओ अन्तर्मुख अने बधाए आदर करवा योग्य छीए. ए प्रमाणे पुरुषो अने स्त्रीओ
बधाय आपनी दृष्टिमां सरखां छे कारण के भगवान् समान दृष्टिवाळा छे, पोतानुं चिन्तन
करनाराओनो सामान्य गुण ‘‘अङ्घ्रिसरोज सुधाः’’ (अङ्घ्रि सरोजं सुष्ठु धारयन्तीति।
आ अर्थ कह्यो. समासनो विग्रह तो ‘‘अङ्घ्रि सरोजं सुष्ठु दधति’’ एम समजवानो छे.)
‘‘चरणकमलने सारी रीते धारण करनारा छे’’ एम कहे छे. १. मुनिओ भगवानना चरणने
धारण करे छे ए स्पष्ट छे. २. ‘‘भगवान् अमने मारी नाखवा पधारे छे’’ एवो सतत
विचार रहेतां, द्वेषीओने तो चरणनुं दर्शन ज दृढ थाय छे, कारण के एमने तो भगवानना
पधारवानो ज विचार करवानो होय छे. ३. भगवानना समागमनी इच्छा राखनारी
गोपीओने पण एवी ज रीते भगवान् पधारी रह्या छे एवा कायमना विचारथी
चरणारविन्दनां दर्शन ज थया करे छे अने ४. ‘‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’’ ‘‘सर्वे वेदो
जेमना चरणनुं ध्यान धरे छे’’ ए वाक्य प्रमाणे अमे श्रुतिओ भगवानना चरणनुं ध्यान
धरीए छीए ॥२३॥
सर्व एव हरे र्भक्तास्तुल्या यान्मन्यते हरिः। अतः कृष्णो यथात्मीयान् मन्यते भजनं तथा॥का.१०॥
जेमने हरि पोताना माने छे ते बधाय हरिना भक्तो सरखा छे तेथी जेम श्रीकृष्ण पोताना माने तेवी रीते (भजन) सेवा करवी ॥२३-१०॥
ज्यारे बधा भक्तो तुल्य छे एम कह्युं एमां तो शास्त्रनो विरोध आवे तेनो परिहार करे छेः हे भगवन्! आप अनादि अने अनन्त छो. जेनां जन्म अने मृत्यु कालथी सीमित छे ते भला आपने केवी रीते जाणी शके? स्वयं ब्रह्माजी आपमान्थी उत्पन्न थया. पछी आध्यात्मिक अने आधिदैविक बन्ने प्रकारना देवोना समूह उत्पन्न थया. ज्यारे आप बधुं समेटी लई पोढी जाओ छो ते वखते एवुं कोई पण साधन बची रहेवा नथी पामतुं जेथी एमनी साथे ज सूई रहेलो जीव आपने जाणी शके, कारण के ते वखते नथी होतुं सत् के नथी होतुं असत्. बने नथी होतां. अध्याय-८७,१६२ दशमस्कन्ध कालनो वेग नथी होतो तेम ज कोई पण शास्त्र नथी होतुम् ॥२४॥
श्रीसुबोधिनीजी ः‘‘तेथी ज्ञानी तेमां मने सौथी वधारे प्रिय छे’’ ‘‘चार प्रकारना लोको मने भजे छे’’ एम आरम्भ करीने ‘‘तेमां नित्य मारामां योग करनार एकमां ज भक्तिवाळो ज्ञानी उत्तम छे’’ एम ज्ञानीनी प्रशंसा करी छे तेथी मुनिओ, स्त्रीओ, श्रुतिओ अने द्वेष करनारनी समता कही ते न घटे! ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के अर्ही तो ज्ञाननी प्रशंसा करी छे. जे माने छे के हुं भगवानने जाणुं छुं तेनी बुद्धि लक्षमां लईने आ प्रशंसा छे. पण खरी रीते तो भगवानना स्वरूपने कोई जाणतुं नथी. आ संसारमां भगवानने कोण जाणे छे? केमके आपणे पण एनुं स्वरूप जाणतां नथी तेथी ज श्रुति ‘‘यस्यामतं तस्य मतं, मतं यस्य न वेद सः’’ ‘‘जे एम माने छे के ब्रह्म जाणी शकातुं नथी तेणे ब्रह्म जाणी लीधुं अने जे एम माने छे के मने ब्रह्मनुं ज्ञान थई गयुं छे ते ब्रह्मने जाणतो नथी’’ एम कहे छे. प्रमाण (जाणवानां साधन वेद वगेरे) हयात छे तो भगवानना स्वरूपनुं अज्ञान केम सम्भवे? ए शङ्का थाय त्यां कहे छे के भगवान् सर्व प्रमाणोनी पहेलान्थी ज सिद्ध छे. जाणनार पाछळथी थयो छे अने गयो छे. भगवान् प्रथम सृष्टि उत्पन्न करीने पोते तिरोहित थया, मध्यमां जीवो उत्पन्न थया अने थाकी गया. जो जीव पहेलेथी ज रहेलो होत अने प्रलय सुधी रह्यो होत तो ए जाणत केमके सृष्टिनो पडदो एने न रहेत. श्रुतिनो ‘‘न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव’’ ‘‘जेमणे आ उत्पन्न कर्युं तेमने तमे जाणता नथी, कारण के ए तमाराथी जुदा प्रकारना छे’’ (सं. ४.६.२२) एम कहे छे. तेथी सृष्टि व्यवधायक होवाथी सृष्टिमां उत्पन्न थयेल कोई पण भगवानने जाणी शक्तो नथी. ए भगवान्थी प्रथम ब्रह्माजी थया एमना पछी आध्यात्मिक अने आधिदैविक देवो थया. प्रलय पछी व्यवधान न रहे त्यारे केम न जाणे? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए वखते एटले भगवान् बधुं समेटीने एने स्वरूपमां लईने ज्यारे पोढे छे त्यारे ज्ञाननी सामग्री कांई रहेती नथी. पहेलां तो जाणनार न होय, ज्ञान करावनार इन्द्रियो न होय, इन्द्रियना विषय के एनो व्यापार पण न होय, सदसदात्मक मन पण न होय. मनने उभयरूप कह्युं छे एटले सद्रूप अने असद्रूप. मात्र, स्वर वगेरेनुं नियमन करनार सत्व गुणनो प्रेरक काळनो वेग पण जे ज्ञाननो उत्पादक छे ते पण न होय, वेद पुराण आदि पण त्यारे नथी होतां. ज्यारे भगवान् बधुं स्वरूपमां लईने सूए छे त्यारे ज्ञाननी कंई पण सामग्री न होवाथी ज्ञान थतुं नथी. कदाचित् भगवत्साक्षात्कार थाय तो ते तेटलुं ज जणावनार होय छे परन्तु भगवानना बधा खास गुणो जणावतो नथी. अवतार समयमां तो मर्यादावादी देहने आनन्दमय माने छे. [[१६३]] जीवना साक्षात्कारमां तो भगवानना वैभवनुं सारी रीते ज्ञान थतुं नथी. ए योग ज धर्मथी थाय छे. स्वप्न जेवुं थाय छे. एमां वस्तुनुं नियमन थई शक्तुं नथी. अनुभव जात-जातनो थतो होवाथी प्रमाण कहेवाथी तो सन्देह विनानुं ज्ञान थतुं नथी. आम सृष्टि पडदारूप होवाथी सृष्टि मोजूद होय त्यारे, अथवा ज्ञाननी जरापण साधन सामग्री न होवाथी प्रलय वखते पण भगवानने जाणी शके एवो कोई होतो ज नथी. ज्ञाननी प्रशंसा तो ज्ञाननी प्रवृत्तिने उत्तेजन आपवामाटे छे. आ प्रशंसा हरकोई प्रकारे चित्तनी शुद्धि थाय ते माटे प्रवृत्ति करावे छे के जेनाथी शुद्ध थई जीव भगवाननुं भजन करे एवो भाव छे ॥२४॥
ज्ञानमार्गो भ्रान्तिमूलस्ततः कृष्णं भजेद्बुधः। प्रवर्तकं ज्ञानकाण्डं चित्तशुद्ध्यै यतो भवेत्॥का.११॥
भ्रान्तिने लईने हुं भगवानने जाणुं छुं एम जीव कहे छे पण खरी रीते तो ज्ञानना मार्गनुं मूल भ्रान्ति छे. वेदमां ज्ञानकाण्ड छे ते मात्र चित्तनी शुद्धि करावे छे. ए भगवाननो साक्षात्कार करावतो नथी तेथी डाह्या माणसे श्रीकृष्णने भजवा (तेमनी सेवा करवी) ए श्रुतिनुं तात्पर्य छे. तेथी ज्ञान मेळववानी खटपटमां न पडतां श्रीकृष्णनुं भजन करवुम् ॥२४-११॥
एम ज्ञानमार्गनुं प्रयोजन पण भगवाननुं भजन (सेवा) कराववामां छे एम जणावीने, बीजा जे वादीओ भगवाननुं भजन सहन करी शक्ता नथी अने जेओ शास्त्रनो खोटो अर्थ करे छे तेमना मतने नीचेना श्लोकथी आरम्भी बे श्लोकथी खोटा साबित करे छेः जेओ असत् (घडा वगेरे) नो जन्म, सत् (आत्मा) नो नाश, आत्मामां भेद अने कर्मनां फलने सत्य माने छे तेओ आरोपोथी-गूञ्चवाडा ऊभा करी समजावे छे. पुरुष (नारायण) त्रण गुणवाळा छे एवो भेद अज्ञानथी करेलो छे तेथी ते अज्ञान तेनाथी पर अने ज्ञानैकघन आपमां प्रवर्ततुं (होई शक्तुं) नथी ॥२५॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवद्भजनना विरोधीओ बे जातना छे तेमां एक अर्ध वैनाशिक
छे ज्यारे बीजा सर्व वैनाशिक (वैनाशिक=बौद्धना जेवा निरीश्वरवादी.) छे. एमां अर्ध
वैनाशिकनुं प्रथम निराकरण करे छे. ए चार प्रकारना छे. १. नैयायिक २. वैशेषिक ३.
मीमांसक अने ४. साङ्ख्यना एकदेशीओ. श्रुतिओ जाणे के तेमनी मश्करी करती होय तेम
पोतानो मत जणावे छे.
१. ते पैकी नैयायिको असत् ज घडा वगेरेनो जन्म थाय छे एम कहे छे एटले असत्
(न हतो तेवा) नो ज पछी जन्म थतां सत् थाय छे आ सम्भवतुं नथी. सत्ता अने सम्बन्ध
नित्य छे* त्यारे घडो असत् केम होय? कारण के सत्पणुं अने असत्पणुं परस्पर विरुद्ध छे.
अध्याय-८७,१६४ दशमस्कन्ध
वळी असत्पणुं जाति छे अने घडानो तेमां समवाय छे एम पण तेओ स्वीकारता नथी के
जेथी कालनी व्यवस्थावडे घडो (सत्पणुं अने असत्पणुं) बन्ने प्राप्त करे. तेथी मात्र घडो
देखातो नहि होवाथी तेने असत् कहेनारा नैयायिको भ्रान्त ज छे. आविर्भाव अने तिरोभाव
नो स्वीकार करवामां न आवे तो भक्तिमार्ग खोटो ठरे, भगवाननी कृपा वगेरे नित्य होवाथी,
(भगवानना) भजनथी तेमनी कृपा न थाय; इच्छा वगेरे पण नित्य होवाथी, इच्छाने लीधे
अवतार न थाय; अने परमानन्द (एक प्रकारनुं) सुख होई अनित्य होवाथी, भगवान्
आनन्दथी भरपूर न होय. तेथी आ (नैयायिकोनो) मत खोटो ठराववामां आवे छे.
विशेष - सत् होवुं ते सत्ता. सत्तानो घडा साथे सम्बन्ध अने ते (घडा) सत्ता-आ बन्ने
नित्यछे. तेथी घडो असत् न होई शके, कारण के सत्पणुं अने असत्पणुं परस्पर विरुद्धछे.
२. वैशेषिको वगेरे तो सत्नो नाश थाय छे एम कहे छे. सत् देह ज छे पछी मरण पामे
छे. आम होवाथी, (मरण) पछी तेना परलोकनी चिन्ता करवी नहि कारण के ‘देवदत्त’ शब्दथी
जणावेलो (अर्थ) देह ज छे. देवोने नहि माननाराओनो आ मुख्य सिद्धान्त छे. भोगनी
व्यवस्था तो ते जुदां-जुदां प्राणीओ स्वभावथी ज तेवा ज (जुदा-जुदा प्रकारनो भोग
करनारां) होय छे (एम तेओ कहे छे) आ मत प्रमाणे तो ज्ञान, भक्ति वगेरे बधा मार्गोनी
तिलाञ्जली थई जाय छे तेथी आ मत खोटो ठराववो जोईए. सङ्घातमान्थी इन्द्रिय सहित
जीव ऊडीने ऊञ्चो जाय छे. ‘‘उत्क्रामन्तं स्थितं वापि’’ इत्यादि वाक्यो एना टेकारूप छे.
ब्रह्मज्ञने एवो अनुभव पण थाय छे. लोकमां पूर्वजन्मनी वातने जाणनार पण देखाय छे.
जो एम न होय तो एमनो अहिंसा आदि व्यर्थ जाय छे. वळी ज्योतिः शास्त्रना प्रामाण्यथी
संवादी एवो परलोकमां जवारूप मत एनी दृष्टिथी व्यर्थ थाय छे. अर्थनो आश्रय आत्मा छे
एम श्रुति कहे छे. ए अर्थ नित्य-सिद्ध छे तेने आधिदैविक कहो के देवतारूप कहो ए देवदत्त
शब्दथी ओळखाय छे. आ वात कर्मनो निर्णय कर्यो छे त्यां ब्रह्मसूत्रना चोथा अध्यायमां
कहेवामां आवी छे. वळी नामकरण संस्कार शास्त्रीय होवाथी ते (देह) मां रहेला जीवनो ज
करवामां आवे छे, परन्तु देह जेनो खास गुण छे तेवा जीवनो करवामां आवतो नथी; कारण
के (नाम) शास्त्रीय छे अने केश वगेरे अथवा वस्त्रो वगेरेनी जेम देह पण मात्र ते समये
जीवनी साथे होय छे तेथी परलोकनी बीजी रीते सिद्धि थती नहि होवाथी, जीव अथवा मुख्य
सङ्घात (सूक्ष्म देह) नुं मरण थतुं नथी. आत्मा अथवा सूक्ष्म देहनुं मरण थतुं न होवाथी
पहेलां कहेला नियम प्रमाणे भक्तिमार्ग सिद्ध थाय छे.
३. मीमांसको वगेरे आत्माओ एटले जीवो (भगवान्थी) जुदा छे एम माने छे अथवा
[[१६५]]
‘आत्मनि’ एटले यज्ञ वगेरे रूप ईश्वर (जुदा छे एम माने छे) तेम ईश्वर कर्मरूप होय तो
ईश्वर एक छे ए मत खोटो ठरे. ईश्वर एक छे ते मत खोटो थतो न होय तो कर्तुं, अकर्तुं,
अन्यथा कर्तुम् समर्थ (करवानी, न करवानी अने करेलुं फेरवी नाखवानी शक्तिवाळो) एक
ईश्वर होय तो वैषम्य (पक्षपात) अने नैघृण्य (निर्दयता) ना दोषो तेमने केम न लागे? तेथी
कर्म सिवायनो जुदो ईश्वर छे ज नहि अने ते (ईश्वर) अनेक छे तेथी दरेके पोताने माटे
मुकरर करेलुं कर्म ज करवुं जोईए एम तेओ (मीमांसको) माने छे. तेमनो मत पण खोटो
ठराववो जोईए. तेम न करवामां आवे तो ईश्वर ज न होवाथी भक्त ध्यान कोनुं धरे? तेओ
पण आरोपने लीधे ज ते प्रमाणे माने छे, कारण के कर्म करनाराओ फल प्राप्त करे छे परन्तु
फल आपे छे कोण ते (दाता) ने जोता नथी. फल बीजाने अधीन होय तो फल आपनारनी
अवश्य जरूर रहे छे कारण के साक्षात् फल उत्पन्न न थाय तेवा राजामाटे गढ बनाववो वगेरे
कार्योमां ए प्रमाणे (फल आपनार बीजो छे एम) जोवामां आवे छे. जेम रान्धवानी क्रिया
भात तैयार करे छे तेम यज्ञ स्वर्ग प्राप्त करावी देतो नथी के जेथी ईश्वरनी जरूर न रहे.
लोकरूप स्वर्ग पण ब्रह्माण्डना अधिपतिने अधीन छे. सुखनां साधनो पण एमने अधीन छे.
एम न होय तो यज्ञ करवामां आवे के तरत ज स्वर्ग केम प्राप्त न थाय? तेथी ईश्वर छे एम
अवश्य कबूल करवुं पडे छे. त्यारे महाराजानी जेम एक ज ईश्वरथी कार्य सरतुं होवाथी दरेक
कर्मनो जुदो ईश्वर धारवो ए व्यर्थ छे कारण के ए गूञ्चवाडो ऊभो करनारुं छे. ‘आत्मनि’
शब्दमां एकवचन योजेलुं होवाथी अने चालु विषयमां जीवोनुं जुदा-जुदा होवापणुं उपयोगी
नहि होवाथी, जीवो जुदा-जुदा छे एम कहेवुं तो अर्ही इच्छेलुं नथी ए जणाय छे.
जीवो जुदा-जुदा होय ए तो ऊलटुं भक्ति सिद्ध करनार छे, परन्तु तेमां बाधक नथी.
ए (जीवो जुदा-जुदा छे ते) मत पण अनेक रीते खोटो सिद्ध कर्यो ज छे अने आगळ
करवामां आवशे.
योगेन साधितो योर्थः स नित्यो हि निगद्यते।
वैदिकेनाप्यक्षयात्मा लोकः स्यान्नित्यकर्मणा॥
४. ‘‘जे पदार्थ योगथी प्राप्त थयेलो छे ते नित्य कहेवाय छे. वैदिक नित्य कर्मथी पण
अक्षररूप लोक प्राप्त थाय छे’’ एम बीजा साङ्ख्यना एक विभागवाळा अने योगीओ
विपणं विपण-कर्मना फलने नित्य माने छे. पोताथी प्राप्त थता फलथी ज कार्य पार पडतुं
होवाथी ए मत प्रमाणे पण ईश्वरनुं प्रयोजन नथी तेथी ते मत पण खोटो ठराववो जोईए,
कारण के आरोपने लीधे ज एटले प्रशंसा जणावनारा शब्दोमां सत्यपणानो आरोप करनारी
अध्याय-८७,१६६ दशमस्कन्ध
बुद्धिथी ज ए मत सम्भवे छे. ‘‘अपाम सोमममृता अभूम’’ ‘‘अमे सोम पीधो अने
अमर थया’’ एवुं सोमनी प्रशंसानुं वाक्य छे. ‘‘अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं
भवति’’ ‘‘चातुर्मास्य यज्ञ करनारनुं सुकृत खरेखर क्षयरहित छे’’ एवी तो सुकृतनी प्रशंसा
छे तेथी आ सिद्धान्तो भ्रमवाळा होवाथी, आ वाक्यने अनुसरीने पहेलां कहेला सिद्धान्तो
दोषवाळा होवानी शङ्का करवी नहि एवो भाव छे. ‘‘तमे कहेला नियम प्रमाणे भक्तिमार्गनी
पण सङ्गति थती नथी, कारण के भक्तिमार्गमां विष्णु, शिवजी अथवा ब्रह्माजी नी सेवा
करवामां आवे छे. आ देवो गुणना अभिमानवाळा छे, दरेक (गुणनुं) मुकरर करेलुं कार्य करनारा
छे अने पोताना भक्तमाटे पोत-पोताने अधीन होय तेवुं ज कार्य करे छे तेथी त्रण गुणवाळा
आ ब्रह्माण्डना अभिमानवाळा पुरुष नारायण सत्व, रजस् अने तमोगुण थी जुदा-जुदा थई,
उपाधिना भेदने लीधे अथवा जीवना भेदने लीधे स्थिति वगेरे करे छे तेथी ए अल्प फल
आपनार होवाथी भक्तिमार्गथी पण शुं वळवानुं? वळी ए नारायण पण सगुण होई
तिरोहित थयेला आनन्दवाळा होवाथी राजाना सेवकनी जेम एने एकबीजानुं ध्यान करवानी
जरूर रहे छे अने ए प्रमाणे लोकमां तथा पुराणमां जोवामां आवे छे एवो जे स्मार्तनो मत
छे ते पण खोटो ठराववो जोईए, कारण के एम करवामां न आवे तो पहेलां कहेलो मार्ग
साबित न थाय. ‘‘पुरुष त्रण गुणवाळा छे’’ एवो (भजन करवा योग्य) भगवान्मां जे भेद
(गणवामां आवे छे) ते पण जेमना अज्ञानथी करेलो छे एटले भगवानना स्वरूपना
अज्ञानथी ज थाय छे. स्मार्त=स्म एटले प्रसिद्धि प्रमाणे, ‘आर्त’ एटले दुःखी होय ते
‘स्मार्त’ शब्दथी ओळखाय छे. तेओ जेने भजन करवा योग्य कहे छे ते तो भगवाननी एक
विभूति छे. भक्तिमार्गमां जणावेल भगवान् तो एटला ज नथी, परन्तु ते पुरुषोत्तम छे एम
घणा प्रकारे जणावेलुं छे. ‘‘भजन करवा योग्य पुरुषोत्तम छे एवा मत प्रमाणे पण जो
जगतनुं मूल बनेल ब्रह्ममां अज्ञान होय तो ए दोष ए ज स्थितिमां रहे छे; तेथी ज केटलाक
वादीओ ‘‘आश्रयपणुं अने विषयपणाना सम्बन्धवाळुं, विभाग विनानुं केवल ज्ञानज ब्रह्म-
भगवान्मां आवे केमके एना उपादानकारणरूप भगवान् छो; जीवने जो भगवान् मानो तो
कामक्रोधादि जीवदोषो भगवान्मां आवे ए बन्ने दोषना परिहारने हवे कहे छेः
(घासना तणखलाथी आरम्भी महत्तत्व सुधी जीवोना समूहो छे. तेमां
मनुष्य मध्यमां छे.) मनुष्य सुधी असत् त्रण गुणवाळुं मन सत् होय तेवुं आपमां
भासे छे. आत्मवेत्ता ज्ञानीओ आ समग्र जगतने आत्म (ब्रह्म) पणाथी सत्
(बधुं ब्रह्म) छे एम जाणे छे कारण के सुवर्णना विकारो (कडां, कुण्डल, हार) ने ते
[[१६७]]
सोनाना बनेला होवाथी (लोको) छोडता नथी. आ जगतने आपे बनावेलुं छे अने
पछी आपे तेमां प्रवेश करेलो छे तेम आत्मा (ब्रह्म) तरीके निर्धार थयेलो छे
॥२६॥
श्रीसुबोधिनीजी - पहेलां तो (ब्रह्म) जीव थतां एने जे दूषणो थतां होवानुं कहेवामां आवे छे तेनुं खण्डन करवामां आवे छे. ए दोषो मनना ज छे, परन्तु जीवना नथी; अने ए मन चोक्कसपणाथी निरूपण थई न शके तेवुं होवाथी असत् ज छे कारण के ‘‘नासदासीन्नो सदासीत्’’ ‘‘असत् न हतुं, सत् न हतुं’’ ए श्रुति प्रमाणे मननी एवी सदसद्रूप (सद्रूप अने असद्रूप) स्थिति छे. एमां पण ए स्वभावथी असत् छे (कारण के न होय तेवा पदार्थनो ते विचार करे छे) अने सत्पणुं तो अकस्मातथी थाय छे एम श्रुति वगेरेथी जणाय छे तेथी ‘‘सत् होय तेवुं’’ एम उपमाथी (इव वापरी) तेनुं वर्णन करेलुं छे. ए सदसत् होवानुं कारण कहे छे के ए त्रण गुणथी र्वीटायेलुं छे. एमां सत्वांशमां सत्तानो सम्भव छे, बीजा बे अंशमां सत्व नथी एनामां प्रकाश जीवथी नथी पण आपनाथी ज ए प्रकाशे छे. मनने वश बधा छे, मन कोईने वश थतुं नथी. ए भयङ्कर देव छे. तेजस्वीथी पण ते वधारे तेजस्वी छे. एम श्रुति एना माहात्म्यने कहे छे. ए माहात्म्य जीवना आश्रय करनारने सम्भवे नहि! त्यां कहे छे के ए भगवदाश्रयथी एनुं माहात्म्य भले होय पण एना दोषनो सम्बन्ध तो थवो जोईए. मनुष्य पर्यन्तमां भमता ए मननो स्वभाव छे. ए घासना तणखलाथी लई महत्तत्व सुधी जीवो छे तेमां मनुष्य वचमां छे. मन तो भगवाने बधाने माटे कर्युं छे ते सर्वमां भमे छे. ए जेवी रीते बधामां फरी शके तेवुं सामर्थ्य अथवा अंशना भेद एमां कल्पवां जोईए. उत्पत्तिमां ए एक छे एम कह्युं छे. एमां मनुष्य पर्यन्तमां फरे छे त्यां सुधी ए असत् छे छतां सत् होय तेवुं भासे छे. आगळ क्याङ्क सत् जेवुं तो क्याङ्क असत् जेवुं भासे छे तेथी काम आदि दोषो मनोमूलक होवाथी अने मनना ए दोष स्वाभाविक न होवाथी एना दोषथी भगवान्मां ए दोष आवतो नथी. बीजा दोषनो परिहार करे छे. आत्माने जाणनारा सत्य ज्ञान प्राप्त करनारा छे. तेओ आ बधाने एटले आखा जगतने, भ्रमवाळी दृष्टिथी ए जुदा-जुदा प्रकारे भासतुं होवा छतां, आत्मा तरीके ज एटले ए सत् ज छे एम जाणे छे, ‘‘बधुं ब्रह्म छे’’ एम ज तेओ जाणे छे. अर्ही मनना दोषनुं पण खण्डन थयेलुं छे. जेम जादुगरनी अध्याय-८७,१६८ दशमस्कन्ध एक वस्तु बतावी तेने बीजी वस्तुमां फेरवी नाखवानी शक्तिगुण छे पण दोष गणातो नथी तेम मन पण काम वगेरे देखाडे छे ए गुण ज छे, कारण के आनन्दमाटे ज ए एम देखाडे छे. वास्तविक रीते तो ए ब्रह्म ज छे. आत्मविद् कहेवाथी एनुं ज्ञान आत्मपर्यवसायी छे, आत्मा तो खरेखरो सत्य छे. ते ज जो सर्व थाय तो असत्यनी शङ्का ज केम करी शकाय? तो पण एम कहेवामां युक्ति कहेवी जोईए. ए एज के स्वरूपथी सुवर्ण छे अने कडां, कुण्डळ एना विकार होवाथी सुवर्णनो ग्राहक एना विकारने सुवर्ण होवाथी छोडतो नथी. एमां कारण ए ज के ए विकार नामथी बोलाय छे पण ए सुवर्ण छे. त्यां शङ्का करे छे दागीना सुवर्णथी थाय छे एटले एमां रेण वगेरे विजातीय आवे तेने पण सुवर्ण मानीने वाणियो ले छे, आ जगत् तो जडमान्थी बने छे तेमां जीव वगेरे सामग्री छे तेने भगवान् केम कही शकाय? ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के जगत् पण भगवत्कृत छे तेमां पोते पाछळथी प्रवेश करे छे. ‘‘स आत्मानं स्वयमकुरुत। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’’ ए श्रुति प्रमाणे जगत् भगवाने पोते ज बनावेलुं अने पोतानुं (आत्मानुं) ज बनावेलुं छे अने ‘‘तेने बनावीने पछी तेमां ज प्रवेश कर्यो’’ एम श्रुतिनुं कथन छे. तेथी सामग्री पण भगवान् छे. तेथी आ जगत् आत्मारूप ज छे. ज्यारे सर्व ब्रह्म छे; त्यारे कोनो दोष अने ए दोष कोने लागे? तेथी बीजा मतमां दोषो दोषरूप भले हो, ब्रह्मवादमां तो सर्व ब्रह्मरूप छे तेथी अर्ही कोई प्रकारनो दोष नथी ॥२६॥
जीवानां ब्रह्मरूपत्वाद् दोषा अपि च मानसाः। जगच्च सकलं ब्रह्म ततो दोषः कथं हरौ॥का.१३॥
जीवो ब्रह्मरूप छे तेथी अने सर्व जगत् तथा मन ना दोषो पण ब्रह्म छे तेथी हरिमां दोष केवी रीते होय? ॥२६-१३॥
ए प्रमाणे भगवान्मां दोषो नथी एम जणावीने भक्तिमार्गमां भगवान् दोष विनाना छे एम सिद्ध कर्युं. हवे नीचेना श्लोकमां भगवान्मां दोष नथी एम *फलथी जणावी भक्तोमां दोष नथी एम सिद्ध करे छेः
विशेष - बीजाओ (भक्तो) ने पण भगवान् मृत्युनुं उल्लङ्घन करवारूपी फल आपनार होवाथी पोते दोषरहित ज छे एवो भाव छे. हे भगवन्! जे लोको एम समजे छे के आप समस्त प्राणीओ तथा पदार्थो मां बिराजी रह्या छो अने सर्वात्माभावथी आपनी सेवा करे छे तेओ ज मृत्युना [[१६९]] सिरनी अवगणना करीने तेनुं पगथी आक्रमण करे छे. ते (प्रसिद्ध) देवोने पण आप वाणीथी पशुओनी जेम बान्धो छो. आपना उपर प्रेम राखनारा भक्तो खरेखर (जगत्ने) पवित्र करे छे पण आपथी विमुख लोको पवित्र करता नथी ॥२७॥
श्रीसुबोधिनीजी - जेओ आपनी सेवा करे छे तेओ ज मृत्युना मस्तक उपर पग मूकीने आगळ जाय छे. एमां पण ए अज्ञानथी एम करता नथी पण मृत्युने जाणी एनी अवगणना करीने एना मस्तक उपर पग धरे छे. आथी भगवान् आपे एनी वात बाजु पर रही, मात्र सेवा करवाथी भक्तो मृत्युने जीती ले छे एम कह्युं. दुःख दूर थाय अने सुख मळे ए बे वात सर्वने प्रिय छे. एमां सुख तो भगवान्मां ज छे. ए आपे तो ज मळे, बीजी रीते सुख मळवानो कोई उपाय ज नथी. दुःखनी हानि पण भगवत्सेवाथी ज थाय छे, बीजी रीते दुःख मटतुं नथी ए ज कहे छे. दुःखनी अवधि मृत्यु छे. ए मृत्यु कर्म अनुसार प्राणीओने दुःख आपे छे. बधां करतां दुःख आपनारनो तिरस्कार अने तेनुं माथुं भाङ्गी नाखवा रूप अतिक्रम अत्यन्त दुःखदायक छे. एनाथी तो मृत्युना माथामां पीडा थाय छे तेथी ते वधारे दुःख आपे छे. ते मृत्यु पण जो भक्तने भजन करवामां साधनरूप थाय तो एने दुःख क्यान्थी होय? मृत्युना मस्तक उपर पग धरवानी वात ध्रुवजीनी कथामां स्पष्ट छे. जेओ निरन्तर भगवाननी सेवा करे छे तेमनी वैकुण्ठमां पण सेवामाटे अपेक्षा रहे छे तेथी एनो देह चालु सेवा छोडी सेवोपयोगी देहने धारण करे तेटलो वखत सेवामां विलम्ब थाय अथवा सेवानो संस्कार लुप्त थाय तेथी ए ज शरीरथी ए जल्दी सेवामाटे वैकुण्ठमां जाय छे त्यारे वचमां मृत्यु प्रतिबन्ध करे तो एने जोईने एनो भय न राखतां एनो तिरस्कार करी वैकुण्ठ उपर चडवामां निसरणी होय एम एना माथा उपर पादप्रहार करीने आगळ जाय छे. अर्ही मोटां साहस मृत्युना मस्तकरूप छे ते साहस करवां ए ज मृत्युना माथा उपर पग देवा जेवुं छे. आ तो आधिभौतिक व्यवस्था कही, आध्यात्मिकमां तो देह, एना धर्मो-वैदिक धर्मो ए बधाने ओळङ्गीने विरुद्ध आचरण करीने पण तेओ भगवाननी सेवा करे छे. सेवानो प्रकार कहे छे के ए बधां प्राणीओने भगवानने रहेवाना स्थानरूप समजीने सेवा करे छे तेथी बहिर्मुख सेवाने लायक नथी ए कहेवाई गयुं. सर्वत्र भगवान् छे एम जाणी कोईनो विरोध न थाय तेवी रीते सवा करे छे. ‘‘सर्वं तद्धिष्ण्यमीक्षध्वम्’’ ‘‘सर्वने भगवाननां स्थान तरीके जुओ. ए प्रमाणे भगवान् तमारा उपर प्रसन्न थशे’’ (श्रीभागवत ६.४.१३) ए वाक्यमां कह्या प्रमाणे माननारा भक्तो छे. आवी रीते भगवाननुं दर्शन करवुं ए भगवानने प्रसन्न करनार अध्याय-८७,१७० दशमस्कन्ध छे. एम न जाणे अने मूर्तिमां सेवा करे छे तेने दोष लागे छे तेथी ‘‘कुरुतेर्चाविडम्बनम्’’ ‘‘भस्मन्येव जुहोति सः’’ ‘‘पूजानी हांसी करे छे’’ ‘‘ते राखमां ज होम करे छे’’ (श्रीभागवत ३.२९.२१-२२) इत्यादिथी एवानी निन्दा करी छे. ‘तव’ ‘आपना’ शब्दथी एम कह्युं छे के आपना सम्बन्धवाळा कोई पण पदार्थने ते सेवे छे. परन्तु एमां सर्वात्मभावनी जरूर छे. ‘‘मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति’’ ‘‘जे अर्ही जुदा-जुदा जेवुं जुए छे ते मृत्युना पण मृत्युने प्राप्त करे छे’’ एम भेद जोवामां आवे त्यारे ज मृत्युनुं पराक्रम चाले छे एम कहेलुं छे. त्रणेय प्रकारनां मृत्युनां मस्तकोनुं उल्लङ्घन करवामां आवे त्यारे दोष केम न लागे? अथवा धर्मनुं रक्षण करनार तेमने (मृत्युओने) क्रोध केम न थाय? एवी शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के ए देवोने तो आप पशुनी जेम बान्धो छो. पोताना स्वामी मृत्यु जेवा श्रेष्ठ देवने बान्धी राखे तो एना सेवको मृत्युने न गणे एमां एने शङ्का शानी होय? वळी भगवान् बधाने वाणीथी बान्धे छे. भगवानना सेवको एमने हाथथी बान्धे छे. जेम राजा हुकम करे छे अने ए हुकमथी सिपाईओ बान्धे छे तेथी एनो अतिक्रम करवानो तो अभ्यास होय छे एनी अवगणनामां सेवकने भय लागतो नथी ए पण पशुनी जेम बान्धे छे, गाडामां जेम बळदने जोडीने बान्धी दे छे ए सेवकनुं तो काम ज छे तेम मृत्यु वगेरे देवोने पण भक्तो सेवामां जोडी दे छे. ए पण भगवाननी सेवा करी कृतार्थ थाय छे तेथी एना मनने पण क्लेश थतो नथी. आथी भगवत्सेवकनो देवो करतां पण उत्कर्ष कह्यो. तो पण जो सेवक मर्यादा न राखे तो लोकमां तेनी निन्दा थाय अने एने दोष पण लागे एम शङ्का थाय तो एना उत्तरमां कहेवानुं के ए भक्तो आपनुं सौहृद करनार होवाथी ए तो जगत्ने पवित्र करे छे. आपथी विमुख रहीने तप करनार के बीजा धर्म करनार बीजाने तो शुं पण पोतानी जातने पण पवित्र करी शक्ता नथी. शुद्धि एक तो दोषने दूर करनारी अने बीजी गुण उत्पन्न करनारी एम बे जातनी होय छे एमां गुणोनी अवधि भगवाननी सेवामां छे ः ‘‘यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः’’ ‘‘भगवान्मां जेने अनन्य भक्ति छे तेनामां सर्व गुणो सहित देवो वास करे छे. ए श्लोकथी ए वात कही छे. दोषनी अवधि भगवाननी अवज्ञा पर्यन्त छे. ‘‘ब्रह्महत्यासहस्रस्य पापं शाम्येत् कथञ्चन। न पुनस्त्वय्यवज्ञाते कल्प कोटि शतैरपि’’ ‘‘हजारो ब्रह्महत्याओनुं पाप तो कदाच महामुश्केलीए दूर करी शकाय परन्तु आपनी अवज्ञा करवामां आवे ते पाप करोडो कल्पोना सेङ्कडाओथी पण मटतुं नथी’’ ए वात आ श्लोकथी सिद्ध थाय छे. तेथी जेओ गुणी होय अने ते ज गुणोना अंशथी जेमणे दोषो अने दोष जेवा जणाता (आचारो) ने मटाडेला [[१७१]] छे तेओ ज बीजाना दोषोने दूर करी तेमनामां गुणो लाववाने शक्तिमान होय छे परन्तु जेओ खुद दोषपूर्ण छे अने ते दोषना अंशोथी जेमना सर्व गुण जता रहेला छे तेवा बीजानी शुद्धि करवा शक्तिमान होता नथी. ‘खलु’ ‘खरेखर’ शब्दथी आ विषयनुं प्रमाण कहेलुं छे ॥२७॥
सर्वथा सर्वतः शुद्धा भक्ता एव न चापरे। अतःशुद्धिमभीप्सद्भिः सेव्या भक्ता न चापरे॥का.१४॥
सर्व प्रकारे अने पूर्णपणे भक्तो ज शुद्ध छे, बीजा शुद्ध नथी; माटे पोतानी शुद्धिनी इच्छा राखनारे भक्तोनी सेवा करवी, बीजानी नहि ॥२७-१४॥
ए प्रमाणे भजनीय भगवान् अने भक्तो मां दोष नथी एम सिद्ध करी भक्तिनो सिद्धान्त दृढ कर्यो छतां पण देखाता दोषने लीधे कोई भजन (सेवा) न करे एवी शङ्का करी तेनुं निराकरण नीचेना श्लोकमां करे छेः हे प्रभो! आपने इन्द्रियो (सर्वथा) नथी पण आपनुं स्वरूप ज सर्व समर्थ स्वयम्प्रकाश छे. बधा कारकोनी बधी शक्तिओने सदा आप ज धारण करो छो तेथी कोई काम करवाने माटे आपने इन्द्रियोनी जरूर नथी. जेवी रीते खडिंया राजाओ पोत-पोतानी प्रजा पासेथी कर उघरावी पोताना सम्राटने भरणुं भरे छे तेवी ज रीते देवो मायाने अधीन रही बलि ले छे अने शेष पोते खाय छे. विश्वना रचयिता ब्रह्माजी वगेरे, राजाओ जेम सम्राटनी आज्ञा प्रमाणे वर्ते तेम, आपनी बीकथी आपे जेमनी ज्यां जे कार्य करवाने माटे निमणूक करी होय तेओ त्यां ते कार्यकरता रहे छे ॥२८॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवान् अवतार धरे त्यारे इन्द्रियवाळा देखाय छे. ए इन्द्रियो बीजाने माटे होय एम तो न कहेवाय. एम होय तो अधर्म थाय एटलुं ज नहि पण कार्यमां पण बाध आवे. मुक्त जीवोनी इन्द्रियो भगवान्मां देखाय छे एम पण न कहेवाय केमके ‘‘वाम्मनसि सम्पद्यते’’ ‘‘वाणी मनमां मळी जाय छे’’ इत्यादि श्रुतिओ ज एनो लय थयानुं कहे छे. ‘‘वागग्निरभवत्’’ ‘वाणी अग्नि थई’ इत्यादि एना आधिदैविक भावने कहे छे. तेथी अवैदिक ज आवो सिद्धान्त सम्भाळी शके. माटे ईश्वरनी इन्द्रियो पोत-पोतानुं कार्य करनारी अने नित्य छे अथवा जीवोनी ते इन्द्रियो सर्व प्रकारे तेमना प्रारब्धे करेली छे, (अने) भगवाननी इन्द्रियो भगवान्माटे ज करेली अने दरेक कार्य करवामाटे मुकरर करेली छे एम मानवुं जोईए. तेथी ते इन्द्रियो साथे भगवानने स्वाभाविक अथवा अध्यासथी थयेलो सम्बन्ध छे एम कहेवुं जोईए तेथी ते इन्द्रियोद्वारा भगवान्मां दोष आववानुं सम्भवे छे अध्याय-८७,१७२ दशमस्कन्ध एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘आप इन्द्रियरहित छो’’ एम कहेलुं छे. आपने ‘करणो’ एटले इन्द्रियो कोई पण रीते छे ज नहि एवो अर्थ छे. जो इन्द्रिय न मानो तो भगवान् सर्व कार्य करे छे ए केम सम्भवे? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के आप स्वरूपथी ज प्रकाशनार छो. ए स्वरूपमां ज एवुं सामर्थ्य छे के एने कोईनी जरूर पडती नथी. एवुं स्वरूप न मानीए तो इन्द्रियोमां सामर्थ्य क्यान्थी आवे? मूळभूत इन्द्रियोनी कल्पना करो तो अद्वैतहानि थाय. आप सर्व कारकनी शक्तिने स्वरूपवडे ज धारण करो छो. छ कारकनी आधारशक्तिओ छे ते तो शब्दनो आश्रय करनार छे अने अनित्य छे एने जातिनी जेम नियत शक्तिवाळी मानो तो एक ज कार्य करशे. एनाथी बीजुं कार्य नहि थई शके. जो सर्व शक्तिमान भगवानने मानो तो सर्व कार्य थशे, शुद्ध ब्रह्मता पण सिद्ध रहेशे अने अनेक कारको करवानुं व्यर्थ थाय तेथी कारकोनी सर्व शक्तिओने सदा भगवान् ज धारण करे छे. भगवान् ते-ते समये ते-ते शक्तिओनुं तेमां स्थापना करे छे एम मानवुं जोईए. आमां अन्यथानुपपत्ति प्रमाण छे. जो देवोमां स्वतः शक्तिओ होत तो ए स्वाधीन होवा जोईए तो ए भगवानने बलि आपी बाकीनुं रहेलुं पोते ग्रहण न करे. ‘‘हे जन्मरहित! पोत-पोताना समये ज्यां सुधी अमे आपनामाटे बलि लावी’’ (श्रीमद् भाग. ३.५.४८) ‘‘यावद्बलिं तेज हराम काले’’ ए सृष्टिना प्रसङ्गना वाक्यमां देवोए तेवी प्रार्थना कहेली छे. वळी तेओ अजाथी घेरायेला एटले प्रकृतिए वश करेला होवाथी तेओ स्वतन्त्र केम होई शके? कारण के लोकमां अजा (बकरीओ) ना रक्षको भरवाडो पण पोताना स्वामीमाटे सेवा करे छे. अथवा जेमनी मिलकत मात्र बकरीओ ज छे तेवा आ घणा अल्प छे. ज्यारे इन्द्रियोना स्वामी (देवो) नी पण आ स्थिति छे तो पछी इन्द्रियोनी शक्तिओ इन्द्रियोमां केवी रीते रहे? आ तो नाना देवोनी वात थई, विश्वने उत्पन्न करनार मोटा देवोनी पण एवी ज दशा छे. आ जम्बूद्वीपमां नव खण्ड छे, बीजा द्वीपोमां सात-सात छे. एमां एक-एक खण्डनो एक-एक अधिपति होय छे ते पोताना निर्वाहने माटे खडिंया राजाओ सार्वभौमनी सेवा करे छे तेम एक-एक इन्द्रियनो अधिपति सर्वेन्द्रिय अधिपतिनी सेवा करे छे. ए साधारण नथी पण विश्वने बनावनार छे. खण्डना अधिपतिओ कदाचित् स्वतन्त्र पण रही शके छे, आ तो केवळ आपने अधीन ज छे. ए भगवाननो मनमां भय राखीने कार्य करे छे. एम न होय तो पोताने न गमती वस्तुमां ए प्रवृत्त न थाय. ‘‘दुर्गन्धे दुष्टशब्दे च विरसे च भयानके। खर स्पर्शे दुःखपुञ्जे वर्तन्ते खानि यद्भयात्’’ ‘‘दुर्गन्धयुक्त, कर्णकटु अवाजवाळा, बगडी गयेला रसवाळा, भयानक, कठण स्पर्शवाळा अने दुःखपूर्ण कार्यमां जेमना भयथी इन्द्रियो प्रवृत्ति करे छे’’ ए वाक्यमां [[१७३]] एम कहेलुं छे. भगवाननो भय न होत तो मलत्याग वगेरे लोकमां निन्दायेल कार्यनो अधिकार तेओ कोई पण प्रकारे ग्रहण न ज करत ॥२८॥
सुवर्णप्रतिमेवासौ सर्वानन्दमयोधिराट्। सर्व सेव्यो नियन्ता च निर्दुष्टः सर्वथैवहि॥का.१५॥
सुवर्णनी प्रतिमाना जेवा आ (श्रीकृष्ण) आनन्दघन, सार्वभौम राजा, बधाए सेववा योग्य, (बधाने) वश राखनारा हर प्रकारे दोष विनाना छे ॥२८-१५॥
ए प्रमाणे भगवाननुं भजन थई शके ते माटे (आपमां) दोष नथी एम धर्म अने धर्मी ना प्रकारथी कही, नीचेना श्लोकमां कार्य मारफत थता दोष पण भगवान्मां नथी एम सिद्ध करेछेः हे नित्यमुक्त प्रभो! आप मायातीत छो. छतां ज्यारे आपने प्रकृति (माया) नी साथे विहार करवानी इच्छा थाय छे त्यारे चराचर जीवोनी उत्पत्ति थाय छे. आप परम-अक्षरथी पण ऊञ्चे बिराजोछो. कोई आपने उत्तम नथीके कोई अधम नथी; (कोई आपने पोतानुं नथीके कोई परायुं नथी) कारण के आप आकाशनीजेम आश्रय रहित शून्यनी समानछो ॥२९॥
श्रीसुबोधिनीजी - अर्ही शङ्का थाय के जो भगवान् पूर्णानन्द होय, सर्व दोष रहित
होय तो एना अंशरूप जीवो अनेक प्रकारनी योनिने केम प्राप्त करे? माटे जणाय छे के
भगवाने ज एने पोताना हितने माटे उत्पन्न कर्या छे. एम न होय तो एनी उत्पत्ति न
सम्भवे! आ शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के आप तो पोताना आनन्दमां विहार करो छो, जेम
राजा पोताना घरमां रमण करतां वधारे आनन्द ऊभराय त्यारे बहार नीकळे छे तेम आप
पण क्वचित विहार करो छो त्यारे स्थावर-जङ्गम प्राणीओ एनी मेळे ज उत्पन्न थाय छे.
जेम वर्षाकाळमां जीवो उत्पन्न थाय छे एमां वरसाद तो पृथ्वी उपर जल वर्षवा सिवाय
बीजुं कांई पण करतो नथी तेम भगवान् पण विहार सिवाय जीवनेमाटे कांई प्रयत्न करता
नथी. भगवानना विहार वखते चेष्टा उत्पन्न थाय छे. काल ए ज चेष्टा छे. काल प्रकृति
वगेरेने प्रेरे छे. जेम राजा बहार नीकळे त्यारे राजाना सेवको, राजाना हुकम वगर ज, पोत-
पोताना काममां लागी जाय छे तेम काल गुणोने खळभळावे छे. अग्निना भडकामान्थी जेम
अग्निना तणखा नीकळे तेम ते समये जीवो नीकळे छे. पछी कालथी खळभळी ऊठेला गुणो
बारोबार अथवा परम्पराथी बधाये कार्यना समूहने उत्पन्न करे छे. पछी भगवान्मान्थी
नीकळेला ते जीवो प्रकृतिना सम्बन्धमां आवी (पोतानी) कामनाने लीधे निमित्त, कर्म अथवा
अध्याय-८७,१७४ दशमस्कन्ध
अज्ञाननो आश्रय करी ज्यां-त्यां जुदा-जुदा प्रकारना देहो प्राप्त करे छे. जेम अग्निमान्थी
नीकळेला तणखाओ पवनद्वारा ज्यां-त्यां लई जवाय छे त्यारे ते घास उपर पडतां वृद्धि
पामे छे, जलमां पडतां ठरी जाय छे अने भूमि उपर पडतां वचली स्थितिमां रहे छे. परन्तु
आ बाबतमां मूळ अग्नि ते पोते कोई तणखाने कोई चोक्कस जग्याए मूकतो नथी. ते ज
प्रमाणे आ जीवोनी उत्पत्ति छे एम कहे छे के प्रकृत्या-प्रकृतिथी ज उत्पन्न थई तेनाथी ज
उत्पन्न थयेलां कर्मरूप निमित्त साथे पण सम्बन्धमां आवे छे. ते विषयमां भगवाननो विहार
ज निमित्त छे. आ विहारमां भगवाननी क्रियाशक्ति तेमज ज्ञानशक्ति निमित्त छे. ज्यारे
इच्छा उत्पन्न थाय छे त्यारे ते इच्छाथी विहार थाय छे एटले भगवाननी ज्ञानपूर्वक क्रीडा
थाय छे त्यारे तेम जीवोनी उत्पत्ति थाय छे एवो अर्थ छे. ए भगवान् प्रकृतिथी पर-
प्रकृतिना नियामक छे. तेथी विहार करतां एमने दोष प्राप्त थतो नथी. त्यारे ए एनी स्त्री
थई तेथी एमां आसक्ति के मोह केम न थाय? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के आप विमुक्त छे
एनी साथे सम्बन्ध नथी राखता के जेथी ते कांई पण कार्य करी शके. जेम राजानी पासे क्षुद्र
दासीओ होय ते विहारमां आवी शक्ती नथी तेम अजा पण क्षुद्र होवाथी भगवानना विहारमां
ए आवी दाखल थई शक्ती नथी. तो बीजी अन्तरङ्ग शक्तिओ एमां हशे तेनाथी पण
भगवानने दोषनो सम्भव तो खरो! एम शङ्का करे तो एना उत्तरमां कहेवानुं के आप ‘परम’
छे, अक्षरथी पण अति ऊञ्चे रहेनारा छे ए लोकनी वातनो जेमने सम्बन्ध नथी तेवा
भगवानने कोई पण पदार्थ हलको अथवा उत्तम होई शके नहि. जेने विषय होय तेने कोई
प्रेरणा करे, जेम के अन्तःकरण आङ्ख-कानने प्रेरणा करे छे. ते प्रसङ्गे अन्तरङ्ग सेवक
सामग्री प्राप्त करावनारो अथवा प्रेरणा करनारो थाय छे तेम जेने माटे विषय प्राप्त करवानो
होय तेने कोईक प्रेरणा करे परन्तु जे केवल आनन्द ज छे अने सर्व विषयना सम्बन्ध
विनाना छे तेवा भगवानने कोण केवी रीते प्रेरणा करनार थाय? ए माटे भगवानने (एवी)
सामग्री नथी एम कहे छे. सामग्री पाञ्च प्रकारनी छेः१.स्वरूप २.स्थान ३.चोक्कस आकार
४.ऊञ्ची स्थितिवाळा पदार्थ अने ५.हलकी स्थितिवाळा पदार्थ. ए पाञ्चमान्थी एकेय भगवान्मां
नथी कारण के भगवान् सर्वथी ‘परम’ एटले ऊञ्ची अथवा हलकी स्थिति विनाना सर्वथी
विलक्षण छे. आपने पोतानो के पारको एवो भेद नथी. वळी स्थानरहित पण छो. बधा
पदार्थने आधार तो होवो जोईए! एना उत्तरमां कहेवानुं के आप आकाश जेवा छो. आकाशमां
कोई क्रिया के व्यापार नथी. ए कोईने देखातुं नथी तेथी कहे छे के शून्यनी उपमा एने देवाय
छे. भगवान् शून्य नथी एम जणाववा ‘तुला’शब्द कह्यो छे तेथी शून्यवाद अर्ही नथी. कृपा
[[१७५]]
करे तो ज दृश्य थाय, नहि तो शून्य तुल्य रहे. ‘‘असङ्गो ह्ययं पुरुषः’’ ‘अरूपमस्पर्शम्’
‘‘अस्तीत्येवोपलब्धव्यः’’ ‘‘आ पुरुष सङ्ग विनाना छे’’ ‘‘रूप विनानुं, स्पर्श विनानुं’’
‘मात्र’ ‘छे’ एम ज जाणवा योग्य छे’’ एवुं भगवत्स्वरूप छे तेने कोण जाणी शके के जे
बीजाने प्रेरणा करे? ॥२९॥
सर्वभावविनिर्मुक्तः पूर्णः क्रीडार्थमुद्गतः। निमित्तं तं समाश्रित्य जायन्ते जीवराशयः॥का.१६॥
सर्व भावथी रहित पूर्ण (श्रीकृष्ण) क्रीडामाटे तैयार थया छे ए निमित्तनो सारी रीते आश्रय करीने जीवोना समूहो तणखानी जेम भगवान्मान्थी नीकळे छे ॥२९-१६॥
ए प्रमाणे जीवोना जुदा-जुदा देहोना सम्बन्धने लीधे थतो दोष भगवान्मां नथी एम सिद्ध कर्युं. हवे भगवाननुं माहात्म्य जीवोने बराबर ठसी जाय एटला माटे जीवो भगवानने अधीन छे एम सिद्ध करवा, नीचेना श्लोकमां जीवो स्वतन्त्र छे एवो मत वर्णवी तेने खोटो ठरावे छेः जो जीव असङ्ख्य होय अने बधाये नित्य अने सर्वव्यापी होय तो-तो जीव आपनी बराबर थई जाय अने तो जीव शासित अने आप शासक ए वात घटी ज शके नहि अने तो आप तेमनुं नियन्त्रण पण न ज करी शको. आप तेमनुं नियन्त्रण त्यारे ज करी शको ज्यारे जीव अव्यापक होय, अन्यथा जीव व्यापक होय अने आप अणुरूप हो तो नियम्य नियामक भाव घटी शके नहि. जे (जीव) जेनामय (ब्रह्ममय) होय; ते (जीव) ते (ब्रह्ममयपणुं) तज्या विना वश राखनार केवी रीते थाय? भगवत्स्वरूप जीवनुं नियामक छे. ब्रह्म सर्वसम छे. (जीव अने ब्रह्म एक ज छे एम मानता वेदान्तीओ पण ते मत दोष पूर्ण होवाथी स्वीकारता नथी) ॥३०॥
श्रीसुबोधिनीजी - जीवने स्वरूपथी व्यापक मानो तो ए भगवानने वश न रहे, भोग,
मोक्ष अने दुःख ना अभावने माटे भगवान् अपेक्षित छे पण जो जीव ज व्यापक होय तो
भगवाननी एने जरूर न पडे ए आगळ कहेवाशे. माटे जो श्रौतन्याय-वेदमां कहेला सिद्धान्त
प्रमाणे जीवने तणखारूप मानो तो नियम्य-नियामक भाव सम्भवे. स्मार्त लोकोना मत
प्रमाणे तो जीव व्यापक छे एनुं अर्ही निराकरण करे छे. केटलाक नैयायिक लोको जीवने व्यापक
कहे छे. तेमनो अभिप्राय एवो छे के जीव नित्य अणु अने व्यापक छे पण वचला अवान्तर
परिमाणवाळो नथी केमके अवान्तर परिमाण तो अनित्य छे. जो जीवने अणु जेवडो मानीए
अध्याय-८७,१७६ दशमस्कन्ध
तो सर्व शरीरमां चैतन्य न देखाय, वळी देशान्तरमां जे द्रव्य आपणा भोगने माटे उत्पन्न
थाय छे तेनुं कारण आपणुं अदृष्ट छे एम कहेवुं जोईए. माटे एनी उत्पत्तिना देशमां
अदृष्टवाळा आत्मानो संयोग कारणरूपे छे तेथी ज जीव व्यापक सिद्ध थाय छे; तेथी
आत्माओ (जीवो) परिच्छेद रहित छे. नित्य कह्या तेथी कालनी पण ए हद नथी. जो आत्मा
अनित्य होय तो एनो मोक्ष न थाय केमके जे वस्तु व्यापक छे ते अनित्य नथी एम साबित
थयेलुं छे. वळी ए आत्माओ सर्वत्र रह्या छे; सकल मूर्तिवाळा पदार्थोथी एमनो संयोग छे.
एम न मानीए तो ए पदार्थना भोग साधनमां ए द्रव्यो न आवी शके. आ अनादि संसारमां
कोई पदार्थ कोईने माटे नथी एम सिद्ध थतुं नथी. तेथी आत्माने देशनी अने कालनी हद नथी
ए वात सिद्ध थई. तेम ज सर्व आकारवाळा पदार्थनो एने संयोग पण छे एम अवश्य
मानवुं पडशे. आम एनो मत कहीने हवे ए मतनुं खण्डन करे छे ः
‘‘जो जीवो सर्वना सम्बन्धवाळा होय तो तेमनामां नियम्यपणुं (बीजा कोईने वश
रहेवापणुं) नथी एवो नियम छे. आ वश राखवानुं कर्मना निमित्तनुं नथी. जेवुं जेनुं कर्म होय
तेवी तेने (शिक्षा थाय) ए तो यमराजा वगेरेनुं कार्य छे. परन्तु (आ तो) सेवक अने स्वामी
नी जेम वश रहेनार अने वश राखनारनी स्थिति छे. जीवो व्यापक होय तो तेमनामां
दासपणुं न होय एवो अर्थ छे. वळी, जीवो व्यापक होय तो ईश्वर छे एम पण सिद्ध न
थाय, कारण के एमनुं प्रयोजन रहे नहि. सर्व स्थले जीव ज कारण तरीके हाजर रहेवाथी ए
ज पोतानो भोग प्राप्त करी शके. अदृष्टने अङ्कुशमां राखनारुं तो कर्म ज छे. भोग तो
अदृष्टने वश छे. कर्म प्रयत्नथी काबूमां रहेनारुं छे. तेथी जीवोमाटे ईश्वरनी जरूर न रहेवाथी
ईश्वर छे एम ज सिद्ध न थई शके तो पछी जीव अने ईश्वर नो वश रहेनार अने वश
राखनारनो सम्बन्ध तो दूर रह्यो (साबित ज न थाय). ‘‘वश रहेनार अने वश राखनारनो
सम्बन्ध सिद्ध थशे नहि’’ एम जे श्रुतिओ कहे छे तेमनो एवो अभिप्राय छे के भोगनुं
नियन्त्रण करनार परमेश्वर ज छे. (परमेश्वर जो भोगना नियामक न होय तो भोगमां कोई
नियम ज न रहे (नर्युं अन्धेर ज थई जाय) अने भोगमां नियम तो देखाय छे ज.
(नैयायिक वगेरेना मत प्रमाणे व्यापक जीवो) घणा होवाथी एक शरीरमां बधानो
सम्बन्ध सरखो होवाथी एक शरीर केरी खाय त्यारे एक जीवने ज सुख केम थाय? ‘‘ते
(सुख) ते जीवना अदृष्टे उत्पन्न करेलुं छे’’ एम कहो तो ते अदृष्ट ते ज जीवनुं छे अने
बीजानुं नथी एनी शी खातरी? (ते शरीर साथे बधा जीवोने) आत्मानो संयोग सरखो
होवाथी, (बधाना) ज्ञान, इच्छा अने प्रयत्न पण सरखां थाय. वळी ईश्वर विना कोई बीजो
[[१७७]]
(भोग) नक्की करनार नथी के जेनाथी दरेक (जीव) पोतानो नक्की करेलो भोग (भोगवतो)
देखाय छे ए नियम सिद्ध थाय. (भोग) नक्की करनार ईश्वर छे एम स्वीकारवामां आवे
त्यारे तो ‘‘(आ भोग) एक ज (जीव) भोगवे बीजो नहि’’ एवा ईश्वरना काबूने लीधे ए
नियम घटे छे. अदृष्टना सम्बन्धमां पण तेवुं ज (जाणवुं). तेथी भोग नक्की करवामाटे
नक्की करनार ईश्वर छे एम अवश्य कहेवुं जोईए अने जीव व्यापक होय तो ते (ईश्वरनुं
भोग नक्की करवापणुं) घटतुं नथी, (कारण के) मोटापणाने लीधे ते जीवने थता अभिमानने
लीधे अने (कदमां ईश्वर साथे) समानपणाने लीधे ते भगवानने गणकारे नहि. जो दरेक
(जीव) नो मुकरर करेलो भोग ईश्वरथी ज सिद्ध थतो होय तो जीव व्यापक छे एम मानवुं न
जोईए. अणु जेटला कदवाळा जीवमां पण गन्धनी जेम आखा देहमां व्यापेलो चैतन्य गुण
सम्भवे छे. ज्यारे गन्धनी सतत उत्पत्तिनी तपास करवामां आवे त्यारे गन्ध पोताना
आश्रय (आधार) थी छूटी पडती नथी एम ज मानवुं योग्य छे कारण के जोवामां तेम आवे
छे. तेम न होय तो पत्र, पुष्प वगेरेनी जेम गन्ध पोताना आश्रयने पण छोडीने बीजे जाय
छे एम ज मानवुं जोईए, कारण के वायु गन्धने लई जाय छे एवी प्रसिद्धि छे अने ‘‘जेम
सारी पुष्पित वृक्षनी गन्ध दूरथी वाय छे’’ एवी श्रुति छे. गन्धनां अवयवो जाय छे एवी
कल्पना तो योजनगन्धा (कस्तूरी) ना सम्बन्धमां खोटी ठरे छे, कारण के घणां फूलोनी पासे
जेवी गन्ध प्रगट थाय छे तेवी गन्ध एक फूल नाकमां जतां पण प्रगट थती नथी. तेथी
चैतन्य गन्धनी जेम आखा शरीरमां प्रसरेलुं रहे छे अने लोकमां हदवाळा पदार्थमां ज वश
रहेनार अने वश राखनारनो सम्बन्ध होय छे.
‘‘वश राखनार (ईश्वर) हदवाळा होय तो शुं वान्धो छे?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘हे ध्रुव!’
एवुं सम्बोधन करेलुं छे. जे निश्चल (गति न थई शके तेवा) छे ते व्यापक ज होय छे. बीजा
प्रकारे तो भूमि वगेरेमां पण ध्रुवपणुं जोवामां आवे छे. तेथी ईश्वर व्यापक ज छे,
‘‘तेमनामां आकाश लाम्बु अने पहोळुं गून्थायेलुं छे’’ श्रुति पण (ईश्वरने व्यापक कहे) छे.
‘‘आराग्रमात्रो ह्यपरोपि दृष्टः’’ ‘‘आर जेटलो बीजो पण जोवामां आवेल छे’’,
‘‘नाणु रतच्छ्रुतेरिति चेन्नेतराधिकारात्’’ (जीव) अणु नथी, व्यापक होवानी श्रुतिने
लीधे एम कहो तो तेम नथी, कारण के ते बीजाना ईश्वरना सम्बन्धमां कहेलुं वाक्य छे.
ब्रह्मसूत्र (२.३.२१।) प्रमाणे ईश्वर व्यापक छे. ‘इतरथा’ अन्य प्रकारे एटले जीव
व्यापक होय अने भगवान् अणु होय अथवा (ए बे मान्थी) एक पण जुदा प्रकारनां (बन्ने
व्यापक अथवा बन्ने अणु) होय तो पण वश रहेनार अने वश राखनारनो सम्बन्ध घटतो
अध्याय-८७,१७८ दशमस्कन्ध
नथी एवो भाव छे. आ विषयमां कांई दृढ तर्क कहेलो नथी. (जीव) व्यापक पण भले होय
अने वश रहेनार पण भले होय एमां शो दोष छे? नानो बाळ सिंह पण मोटा हाथीने वश
करी ले छे. नानो राजा पण बधा लोकोने वश राखे छे. नानो अग्निनो तणखो पण बधां
घरोने बाळी मूके छे. तेथी मोटा कदवाळो वश राखनार होय तेम ज नानो वशमां रहेनार छे
एम नथी तेथी आ तमारो आग्रह नकामो छे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘(जे) जेना-मय
उत्पन्न थयुं (ते) तेने तज्या विना वश राखनार थाय?’’ एम कहेलुं छे. जे (जीव) जेनामय (ब्रह्ममय) उत्पन्न थयेलो होय ते जीव ‘तदविमुच्य’ ए ब्रह्मपणाने तज्या विना वश
राखनार थाय? न ज थाय एवो अर्थ छे. हारी जनार अने हरावी देनारनो सम्बन्ध अने
बळनार अने बाळनारनो सम्बन्ध जुदा प्रकारनो छे. राज्यमां उत्पन्न थयेली प्रजा
राज्यमय होय छे अने राज्य राजानुं अङ्ग छे तेथी प्रजा राजामय ज छे तेवी ज रीते जीवो
पण भगवन्मय छे. जो तेओ व्यापक होय तो कोई पण रीते तन्मय (भगवन्मय) न होई
शके. (जीवोने ईश्वर साथे) सदानो सम्बन्ध होवा छतां पण भोग मुकरर करवामां ईश्वर
बिनजरूरी छे. ईश्वरनी जरूर नथी, अदृष्ट ज भोग प्राप्त करावनार छे एम कहेवामां आवे
तो उपर कह्युं तेम ‘ईश्वर छे’ ए ज सिद्ध थशे नहि तेथी एम कहेवुं ए साहसनुं कार्य छे
तेथी जीवोनुं तन्मयपणुं (भगवन्मयपणुं) बीजी रीते सिद्ध थतुं न होवाथी जीव व्यापक
नथी एम सिद्ध थाय छे.
वेदान्तीओ पण आत्मानुं एकपणुं (जीव अने ब्रह्म एक ज छे एम) कहेता होवाथी
तेमनो वश रहेनार अने वश राखनारनो सम्बन्ध (होवानुं) स्वीकारता नथी, कारण के तेओ
सर्वमां समान दृष्टिवाळा छे. तेथी वेदान्तमां (जीव अने ईश्वर नो) ‘‘वश रहेनार अने वश
राखनारनो सम्बन्ध नथी’’ एम जेओ कहे छे तेमनो मत जणावी ‘‘सम माननाराओने
इष्ट नथी’’ शब्दोथी तेने खोटो पाडे छे.
श्रीभागवतजी (११.२९.१४) मां श्रीकृष्ण उद्धवजीने कहे छे के ‘‘ब्राह्मण अने
चाण्डाल, चोर अने ब्राह्मणभक्त, सूर्य अने चिनगारी तथा कृपालु अने क्रूरमां समान दृष्टि
राखे छे तेने ज पडिन्त-साचो ज्ञानी समजवो जोईए’’ आ वाक्य प्रमाणे ब्रह्म जाणनाराओ
समान दृष्टिवाळा होवाथी जेओ सर्व स्थले ब्रह्म जुए छे तेमने पण आ ‘‘जीव व्यापक छे’’
ते मत इष्ट नथी. तेओ पण जीव अने ईश्वर नो वश रहेनार अने वश राखनारनो सम्बन्ध
स्वीकारे छे ज. एम न होय तो भगवान् ‘मुक्तोपसृप्य’ (मुक्त जीवोए पासे जवा योग्य)
न होय. ‘‘चार प्रकारना (भक्तो) मने भजे छे’’ (श्रीभगवद्गीता ७-१६) मां ज्ञानीओ
[[१७९]]
पण भगवाननुं भजन करे छे एम कहेलुं छे. ते नियम्य-नियामक भाव विना घटी शके नहि.
‘‘ज्ञानमार्गमां पण जीव भगवानने वश नथी एम मानवामां शुं वान्धो छे?’’ एवी शङ्का
थाय तेथी ‘मतदुष्टतया’-मतमां दृष्ट होवाने लीधे शब्द योजेल छे. मते ब्रह्मवादमां आ अर्थ
दोषपूर्ण छे तेथी एवो तेनो अर्थ छे. उपनिषदोमां ठेकठेकाणे कहेलुं छे - ‘एष सर्वेश्वरः’ आ
सर्वना ईश्वर छे; ‘एष लोकपालः’ आ लोकपाल छे; ‘एष भूताधिपतिः’ आ
प्राणीमात्रना अधिपति छे. ‘‘एतस्यैवाक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठतः’’
हे गार्गी! आ अक्षर (भगवान्) नी ज आज्ञाथी आकाश अने पृथ्वी धारण करेलां रहेलां छे
वगेरे श्रुतिओमां ईश्वरनी आज्ञा स्पष्ट ज जोवा मळे छे. ‘‘सा च प्रशासनात्’’ (ब्रह्मसूत्र
१.३.११) सूत्रमां कह्युं छे के ‘‘अने ए (धारण करेला रहेवानी स्थिति) आज्ञाने लीधे छे’’
तेथी भगवाननी आज्ञा चाले छे ए बधा वादवाळाओने मञ्जूर छे अने जीवो व्यापक होय तो
ए घटतुं नथी, कारण के तेओ तन्मय (भगवन्मय) न होवानुं अनुमान थाय ॥३०॥
नियन्ता जीवसङ्घस्य हरिस्तेनाणवो मताः। जीवा न व्यापकाः क्वापि चिन्मया ज्ञानिनां मताः॥का.१७॥
जीवोना समूहने वश राखनार हरि छे तेथी जीवो अणु मनायेला छे. जीवो कोई पण समये व्यापक नथी. ज्ञानीओ जीवने चिन्मय माने छे ॥३०-१७॥
ए प्रमाणे भक्ति थई शके ते माटे (जीव अने भगवान् नो) वश रहेनार अने वश राखनारनो सम्बन्ध जणाव्यो अने तेनुं कारण (जीवो) तन्मय (भगवन्मया) होवानुं कह्युं तेथी एम फलित थाय छे के जे जेनामय होय ते तेनाथी वश रहेनार छे. आम होवाथी देह वगेरे समूहमां जीवे प्रवेश करेलो होय त्यारे, जड भाग प्रकृतिमय होवाथी अने चिद् भाग पुरुषमय होवाथी (ए देह वगेरेना समूहमां प्रवेश करेलो जीव) प्रकृति अने पुरुष ने ज वश रहेनार होवानुं योग्य छे, परन्तु पुरुषोत्तमने वश रहेनार होवानुं योग्य नथी एवी शङ्का नीचेना श्लोकमां करी तेने खोटी ठरावे छेः जन्मरहित प्रकृति अने पुरुष नो जन्म घटी शक्तो नथी. उपादान कारण जल अने निमित्त कारण वायुना संयोगथी जेम परपोटानी उत्पत्ति थाय छे तेम जीवोनी उत्पत्ति पुरुष अने प्रकृति बन्नेना संयोगथी थाय छे. तेथी आ देखाता ते विविध नाम अने गुणो वाळा जीवो, बधी नदीओ जेम आखरे समुद्रमां समाई जाय छे, बधां पुष्पोनो रस जेम मधमां समाई जाय छे तेम (सूक्ष्मरूपथी) आपमां ज समाई जाय छे ॥३१॥
अध्याय-८७,१८० दशमस्कन्ध श्रीसुबोधिनीजी - जे जेना स्वरूपथी आविर्भाव थवा योग्य होय त्यारे तेनामां तन्मयपणुं सम्भवे. जेम घडो मृत्तिकाथी थयो ते ‘मृद्रूप’ कहेवाय, अर्ही तो जगत् ब्रह्मवादमां ब्रह्मात्मक कहेवाय पण प्रकृति योनि होवाथी निमित्त कारण छे, पुरुष बीजरूप छे तेथी उभयात्मक कहो तो चाले, केवळ ब्रह्मरूप केम कही शकाय? प्रकृति अने पुरुष तो उत्पत्ति रहित होवाथी ए कार्यरूप पण न थई शके. ए ज कहे छे के प्रकृति पुरुषनो जन्म सम्भवतो नथी. त्यारे देह आदिनी उत्पत्ति केम थाय छे? एना उत्तरमां कहेवानुं के बन्नेथी उत्पत्ति थाय छे. जे एकथी न थाय ते बन्नेना संयोगथी केम थई शके? ए शङ्काना उत्तरमां कहेवानुं के जलना परपोटानी जेम थाय छे. जलनो परपोटो एकला जलथी के एकला वायुथी थतो नथी पण बन्नेना संयोगथी थाय छे तेम प्रकृति अने पुरुष थी देव, तिर्यं, मनुष्य आदि सङ्घातो थाय छे. एम थवाथी शुं सिद्ध थयुं? त्यां कहे छे के ए कारण थी प्राणिमात्रनुं उपादान कारण आप ज छो. उत्पत्ति वगरनां बे (प्रकृति अने पुरुष) नो संयोग योग्य नथी. बन्ने उत्पत्ति वगरनां अने व्यापक होई क्रिया वगरनां होवाथी तेमनो संयोग थतो नथी एवां बेनो संयोग थतो नहि होवाथी ते संयोग भगवद्रूप अने भगवाने करेलो होवो जोईए, कारण के भगवान् ज अद्भुत कर्म करनारा छे तेथी बधा देह वगेरेना समूहो भगवद्रूप ज छे तेथी ए बधा भगवान्मां ज पूर्ण थयेला छे, बीजा कोईमां पूर्ण थयेला नथी तेवो निर्णय छे. वळी ‘‘विविध नाम अने गुणो थी’’ एम कहेलुं छे. जो समूहो एक प्रकारना होत तो तेओ प्रकृति अने पुरुष रूप छे एवी हरकोई प्रकारे कल्पना करवामां आवत परन्तु तेवुं नथी. वळी, सर्वना एकबीजाथी जुदा प्रकारनां जात-जातनां नाम, रूप अने गुणो होय छे तेथी ए (जुदां-जुदां नाम, रूप अने गुणो) जणाय छे के तेओ भगवान्थी ज थयेल छे, कारण के भगवान् ज न चिन्तन करी शकाय तेवी शक्तिवाळा अने अनन्त आकारवाळा छे, ‘‘आधुनिक प्रकृति अने पुरुष मां पण अनन्त शक्तिओ केम न होय?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘परम’ शब्द योजेल छे. परम (आप अथवा भगवान्) मां ज ए गुणो छे बीजामां नथी एवो सिद्धान्त होवाथी एवो अर्थ छे. वळी बधी नदीओ समुद्रमां लय पामे छे तेम जेओ जेनी अन्दर लीन थता होय तेओ ज तद्रूप होय छे. (बधी नदीओ) वरसादद्वारा समुद्रमान्थी ज उत्पन्न थाय छे अने समुद्रमां प्रवेश करे छे तेथी जलरूप समुद्रमां जलरूप नदीओ पण तद्रूप थाय छे, परन्तु तेओ पर्वतरूप अथवा भूमिरूप नथी तेथी सद्रूप अने चिद्रूप आ देह वगेरेना समूहो सच्चिद्रूप भगवान्मां ज रहेवा योग्य छे, बीजामां रहेवा योग्य नथी एवो अर्थ छे. जो विश्व भगवद्रूप होय तो भगवान्मां विश्व जणात. जेने-जेने भगवाननो साक्षात्कार थाय तेना-तेना [[१८१]] अनुभवमां विश्व जणात अने तेथी भगवाने विचार कर्यो, ‘‘हुं एक छुं ते बहु थाउं’’ ए सृष्टि भगवान्मां मोजूद ज होवाथी सम्भवतुं नथी एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘सर्व रसो मधमां लीन थाय छे’’ ए शब्दो योजेला छे. जेम सर्व रसो मधमां लय पामे छे, छतां पण ‘‘आ अमुक फूलनो रस छे अने आ तमुक फूलनो रस छे’’ एम जुदा-जुदा जणाता नथी, परन्तु एकरस थई गयेला रसो मध तरीके ज जणाय छे ते प्रमाणे सर्व देह वगेरेना समूहो भगवान्मां सूक्ष्म रूपे रहे छे, परन्तु जुदा-जुदा जणाता नथी एवो अर्थ छे ॥३१॥
नानारूपप्रपञ्चं हि देवतिर्यन्नरात्मकम्। कृष्णादेव समुद्भृतं लीनं तत्रैव तन्मयम्॥का.१८॥
देव, मनुष्य, पशु वगेरे नामरूपात्मक प्रपञ्च श्रीकृष्णथी उत्पन्न थाय छे अने अन्ते श्रीकृष्णमां ज लीन थाय छे तेथी ए श्रीकृष्णमय ज छे एनाथी जुदो नथी. जे जेमान्थी उत्पन्न थाय तेनो तेमां ज लय थाय ते तद्रूप कहेवाय. घडो मृत्तिकाथी उत्पन्न थई मृत्तिकामां लीन थाय छे ते घडो ‘मृन्मय’ कहेवाय छे तेवुं जगत्नी बाबतमां समजवानुं छे ॥३१-१८॥
जीव अने सङ्घात मां प्रत्येक तेम ज बन्ने नियम्य होवाने लीधे एनी भगवदात्मक्ता कहेवामां आवी तेथी भगवान् अवश्य भजनीय छे ए वात स्पष्ट थई. एम भगवान् भजनीय छे एम जाणतां छतां पण भजन करवामां तत्पर थनारने काल बाधा करे तो भजन केम सिद्ध थाय? ए शङ्का दूर करतां हवे कहे छेः आ मनुष्यो आपनी मायाना भ्रममां भटकी रह्या छे एम सारी रीते जाणीने बुद्धिमान् पुरुषो जन्म-मरण ने सदानेमाटे टाळी देनार आपमां भगवत्प्रेम करवानी सद्बुद्धिनो उदय थाय त्यारथी ज प्रेम करता थई जाय छे. तेमने जन्ममरणनो भय क्यान्थी रहे? कारण के टाढ, ताप अने वर्षा रूपी त्रण नेमि (नाभि) वाळो काळ जे आपनी भ्रुकुटि छे ते, आपनुं शरणुं जेमणे न सवीकार्युं होय तेमने ज वारंवार भय उत्पन्न करे छे ॥३२॥
श्रीसुबोधिनीजी - सृष्टिनी शंआतमां भगवाने काल अने माया नी रचना करी. जेओ मायाथी मोह पामशे तेमनुं काल भक्षण करशे, परन्तु जेओ लोकोने भगवाननी मायाना सपाटामां सपडायेला अने पछी काले भक्षण करेला जोईने, माया दूर करवामां अने मोक्ष प्राप्त करवामां भगवाननुं भजन ज साधन छे एम जाणीने भगवत्सेवा करे छे तेमने पछी मायाथी मोह थवानुं कोई रीते घटी शक्तुं नथी. तेथी तेमनुं कालथी भक्षण पण थतुं नथी एम सिद्ध अध्याय-८७,१८२ दशमस्कन्ध थाय छे. भक्तिमार्गमां विषयो होवाथी जो कोई पण समये कोई प्रकारे मोह थई पण जाय, छतां पण ते समये तो काल भक्षण करतो नथी तेनुं कारण ‘‘(तेमने) भवनो भय केवी रीते रहे?’’ ए शब्दोथी कहेल छे. तेमने भवनो भय न रहेवानुं कारण पण ‘‘जे कारणथी (कारण के) आपनी ज भ्रुकुटि आपनुं शरण जेमने न होय तेमने भय उत्पन्न करे छे’’ ए शब्दोथी कहेलुं छे. तेथी भक्तिमार्ग सर्वप्रकारे कालने टाळनारो छे. वळी शास्त्रना अधिकारी मनुष्यो होवाथी, (श्लोकमां नृषु शब्दनो भाव कहे छे) तेमने कर्म करवानो अधिकार छे अने बीजां प्राणीओए भोगमाटे शरीर धारण करेलां होवाथी ‘‘(मनुष्य देह) स्वर्ग अने मोक्ष नुं तेमज हलकां प्राणीओना अने आ (मनुष्य देह) नुं द्वार छे’’ (श्रीभागवत ३.१३.२४।) ए वाक्य प्रमाणे मनुष्यनुं शरीर प्राप्त थया पछी ज जुदा-जुदा प्रकारनी योनिओनो सम्बन्ध थाय छे. तेथी ‘मनुष्योनुं भ्रमण’ एम कहेलुं छे. तेथी जेओ बुद्धिमान् छे, जेमणे पोते पण मनुष्य देह प्राप्त करेल छे तेओ जो गाफेल रहे तो ‘‘फरीथी कालचक्रने लीधे हलकापणुं अथवा उत्तमपणुं प्राप्त करेला आपणे कृतार्थ थईशुं नहि’’ एम जाणीने मोक्षमाटे प्रयत्न करता तेओ (जेमने बीजो जन्म थतो नथी, श्रीभगवद्गीता १७-३ मां कहेला) तेवा ज गुरुने शरणे जाय छे अने तेवा गुरु भगवान् ज छे अथवा भगवान् ज गुरु छे कारण के प्रवृत्ति कराववानी अने भजन करवा योग्य होवानी बन्ने शक्तिओ तेमनामां ज जणायेली छे. गुरु प्रवर्तक छे, भगवान् भजनीय छे, ‘‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः। (श्रीभगवद्गीता १३-३) जेनी जेनामां श्रद्धा होय ते ज ते छे’’ ए नियम प्रमाणे लाम्बा समये एवापणुं (गुरुपणुं) प्राप्त थाय. ‘‘ए (गुरु) पण जो फरीथी जन्म ले तो एवा थवामां शो लाभ?’’ एवी शङ्का थाय तेथी अभवे ‘‘भव-जन्ममरण मटाडनार’ एवो शब्द योजेलो छे. गुरु भगवान्थी जुदा होय त्यारे पण ए गुरु भगवदीय होवाथी एनो पण जन्म थतो नथी. ‘‘क्यारथी भगवाननुं भजन करवुं जोईए?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘सारी बुद्धि थई त्यारथी’’ ‘अनुप्रभवम्’ शब्द योजेलो छे. ‘प्रकृष्टः भवः’ (सारी) बुद्धि सहित जन्म=प्रभवः। ज्यारथी भगवान्मां सारी बुद्धि थाय त्यारथी ज आरम्भी भगवान्मां भाव (प्रेम) करवो. आज्ञा प्रमाणे वर्तन पण करवुं, कारण के काल बहारनो छे. आपणा मात्र अन्दरना भावने लीधे ते पीडा करवी बन्ध करतो नथी, परन्तु पीडा करे छे ज. तेथी ज अन्दरथी भजन नथी तेथी ज अन्दरथी भजन करनार ज्ञानीओने बहिर्मुखोथी दुःख थाय छे अने एनुं जडभरतजीना प्रसङ्गमां वर्णन करेलुं छे. ए (दुःख) थी हेरान थयेला कदाच मोह पण पामे. तेथी शंआतथी ज बहारनुं पण आज्ञा प्रमाणे वर्तन [[१८३]] करवुं. ए प्रमाणे बहारना अने अन्दरना भेदथी (भगवानने) अनुसरनारा वास्तविक रीते (भगवानना) सेवक थयेला जीवोने, कामनाने लीधे सेवा न करता जोईने एमने शिखामण आपवामाटे ज दण्ड करनार काल तेमने भय केम करे अथवा केम हणे? काल भगवाननी भमररूप छे एम पहेलां कहेलुं छे. ‘‘काल थोडो दण्ड करे तेथी लौकिक भयनी जेम ए पण थोडो भय करनार होवाथी भजनमां प्रवृत्ति केवी रीते थाय?’’ एवी शङ्का थाय तेथी मुहुः वारंवार शब्द योजेलो छे. ‘‘काल देखातो नथी. लोको जे देखाय तेनाथी डरे छे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘त्रिणेमिः’ ‘‘त्रण नेमिवाळा’’ शब्द योजेल छे. संवत्सररूप काल प्रत्यक्ष ज छे, जेनी टाढ, ताप अने वरसाद नामनी त्रण नेमिओ (नाभिओ) छे ते (टाढ वगेरे) ने प्रकट करतो (काल) लोकमां पोतानुं पराक्रम जणावे छे एवो अर्थ छे. आप जेमनुं शरण नथी एटले ‘‘जेओ मने जेवी रीते भजे छे’’ (श्रीभगवद्गीता ४-११) प्रमाणे जेमणे भगवाननुं शरण स्वीकारेलुं नथी तेमने काल भय उत्पन्न करे छे एवो अर्थ छे ॥३२॥
नृणां दुर्गतिमालोक्य ये सेवन्ते दृढव्रताः। कृष्णं तद्भ्रुकुटिः काली न तान् हन्ति कदाचन॥का.१९॥
मनुष्यनी दुर्गति थाय छे ते जोईने जे दृढ व्रत धरीने श्रीकृष्णने भजे छे तेनो श्रीकृष्णनी भ्रुकुटिरूपी काळ कोई दिवस नाश करी शक्तो नथी ॥३२-१९॥
ए प्रमाणे भजन करवुं योग्य छे एम सिद्ध करी योग वगेरेना मार्ग प्रमाणे भजन करवाथी कार्य सिद्ध थतुं नथी, कारण के (एवुं भजन) योगना अङ्ग तरीकेनुं थाय. तेथी भक्तिमार्ग प्रमाणे स्वतन्त्र रीते ज भजन करवुं जोईए एवा अभिप्रायथी योग (मार्ग प्रमाणे भजन करवुं एवा) मतनी नीचेना श्लोकमां निन्दा करे छेः जे योगीओए पोतानी इन्द्रियो अने प्राणो ने सारी रीते वश करी लीधां छे तेओ पण ज्यारे गुरुदेवनां चरणोनो साधन तरीके पण त्याग करी, उच्छ्रङ्खल अने अति चञ्चल मनरूपी घोडाने पोताने वश करवानो अर्ही यत्न करे छे त्यारे हे अजन्मा प्रभो! तेओ पोताना साधनोमां सफळ थता नथी तेमने वारंवार खेद अने सेङ्कडो विपत्तिओनो सामनो करवो पडे छे. सुकानी विनाना नावमां मुसाफरी करनारा सागरखेडुओनी जेवी दुर्दशा थाय छे तेवी ज दशा ए योगीओनी पण थाय छे. श्रीसुबोधिनीजी - गया श्लोकमां गुरुद्वारा भजन करवानुं जणाव्युं. एवुं ज भजन अध्याय-८७,१८४ दशमस्कन्ध पुनर्जन्म न थवा रूपी फल प्राप्त करावनारुं होय छे. (गुरुस्वरूप भगवानने अथवा भगवत्स्वरूप गुरुने प्रसन्न कर्या विना) पोतानी मेळे प्रवृत्त थयेलुं मन विघ्न करनारुं होवाथी योग तो कोईथी पण कोई प्रकारे थई शक्तो नथी, कारण के मन दुष्ट छे. भगवान् प्रसन्न थाय त्यारे मनमां शक्ति आवे छे. जेना उपर ईश्वर अने गुरु नी कृपा थई जाय तेने योगनुं शुं प्रयोजन छे? कारण के साधनथी ज ए कृतार्थ थई जवानो सम्भव छे. तेथी लौकिक पुरुषोनी जेम योगीओ पण संसारमां ज परिभ्रमण करे छे पण कृतार्थ थता नथी एम आ श्लोकमां जणाववामां आवे छे. तो पछी योग१ मार्ग करेलो शा माटे छे एवी शङ्का थाय तेथी कहीए छीए के ‘‘जेने अणिमादि सुखनी इच्छा होय, भगवान्थी अत्यन्त बहिर्मुख होय, क्लेशवाळां कार्य करवामां आसक्तिवाळा होय तेवाने माटे योग कह्यो छे. तेथी जेने फळमाटे पररूपराना साधनमां श्रद्धा होय तेमनेमाटे योग छे. योग साक्षात् मोक्षने माटे नथी एम तो व्याससूत्र पण ‘‘एतेन योगः प्रत्युक्तः’’ ‘‘आथी योगनो उत्तर अपायो’’ ब्रह्मसूत्र (२.१.३।) थी कहे छे तेथी एनां फळ तो योगनी प्रशंसाने माटे कह्यां छे तेथी स्वतन्त्र योगना निषेधने माटे अर्ही कहे छे के जेणे विशेष करीने इन्द्रियो अने प्राणादि वायुने जीत्या होय ते योग करे छे तेथी योग प्रत्याहार पर्यन्त सिद्ध थाय छे एम कह्युं, नहि तो योगनां आठ अङ्गोमां पहेलां ज साधनो सिद्ध न थाय तो योग शङ्कास्पद थाय तेथी महेनत करनारने योगनां पहेलां पाञ्च अङ्ग सिद्ध थाय छे, वधारे सिद्ध थतां नथी. एनुं कारण कहे छे के मन स्वभावथी ज काबूमां न रहे तेवा घोडा जेवुं छे. दरेक जीवनां मन अने इन्द्रियो जुदां-जुदां मुकरर करेलां छे ते (उत्तर मीमांसाना) मत प्रमाणे जेमनुं मन स्वभावथी सात्विक प्रकृतिवाळुं होई काबूमां रहे तेवुं होय तेमनाथी योग थई पण शके एम जणावेलुं छे, परन्तु जेमनुं मन काबूमां रही न शके तेवुं ज अने ए पण घोडा जेवुं होय (अने) ए घोडा उपर सवार थयेलो जीव मनना विलासनी इच्छा करनारो थाय तेनाथी तो मननो निग्रह थई शक्तो ज नथी एम जणावेलुं छे; अने पोते पण आ लोकमां लोकनी रीत प्रमाणे ज रहीने (मनने) वश करवा इच्छे छे. ‘‘घोडाने पण महेनत लई वश करी शकाय छे तेम मन पण वश थशे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘बहु ज चञ्चल’’ विशेषण योजेलुं छे. प्रयत्नथी पकडी ज शकाय नहि तेवुं (मन) छे. ‘‘चञ्चल अने अस्थिर मन ज्यां-ज्यां जाय (श्रीभगवद्गीता ६-२६) एम चञ्चल मननो पण निग्रह करवानुं साधन कहेलुं छे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘उपाय करतां ज खेद पामे छे’’ शब्दो योजेल छे. उपायथी ज दुःख प्राप्त करे छे. एनी (मनने वश करवानी एटले धारणानी) [[१८५]] पहेलां योगशास्त्रमां योगनां पाञ्च अङ्गो कहेलां छे अने मन चञ्चल होवाथी ए (पाञ्च अङ्गो ज) करवां अशक्य छे, कारण के मन विक्षेपवाळुं होय त्यारे आसन थई शक्तुं नथी तेम ज यम वगेरे थई शक्ता नथी; तेथी (मन) सर्व प्रकारे काबूमां रही शके तेवुं न होय त्यारे योगनो आरम्भ ज करवो नहि. वळी, यम वगेरे साधनो लाम्बो समय करतां चित्तनी शुद्धि थाय त्यारे कदाच बीजां साधनो थई शके, (परन्तु) एटलुं (चित्तनी शुद्धि) पण थतुं नथी एम ‘‘सेङ्कडो व्यसनवाळा’’ शब्दथी कहेल छे. विक्षेपपूर्ण मनवाळां उत्पन्न थयेलां प्राणीने क्षणे-क्षणे अनेक आफत आवे छे. ‘‘प्रथम दुःख मटाडवा बीजुं साधन करवुं’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘गुरुना चरणनो सारी रीते त्याग करीने’’ शब्दो योजेला छे. ‘‘एतत् सर्वं गुरौ भक्त्या’’ ‘‘गुरुमां भक्ति राखवाथी आ सर्व सिद्ध थाय छे’’ (श्रीमद् भागवत ७.१५.२५) ए वाक्य प्रमाणे आरम्भमां दुःख मटाडवानुं एक साधन गुरु ज छे. (एमनो) सारी रीते त्याग एटले साधन तरीके पण त्याग करीने (दुःख केम मटाडाय?) गुरुनी सेवा करवामां आवे तो२ तेनाथी ज कृतार्थ थवातुं होवाथी, योग नकामो ज छे एवो भाव छे. ‘‘हे अज! तेओ वेपारीओनी जेम सेङ्कडो आफतमां सपडायेला होय छे’’ शब्दोथी पछी एमनुं बन्ने (मार्ग) थी पतन थाय छे एम कहे छे. समुद्रमार्गे वेपार करनारा वाणियाओ सुकानीने पण राख्या विना समुद्रमां ज विनाश पामे छे, परन्तु (पोतानुं) कार्य तो पार पडतुं नथी एटलुं ज नहि, साजा-ताजा घेर पण नथी आवता. ‘जलधि’ समुद्र शब्दथी एमां घणुं दुःख थाय छे एम सूचवेलुं छे. ए प्रमाणे योगमां शरीर सूकवी नाखीने रहेनार घणुं दुःख ज पामे छे एवो अर्थ छे ॥३३॥
विशेष - १. १यम २नियम ३आसन ४प्राणायाम ५प्रत्याहार ६धारणा ७ध्यान अने ८समाधि ए योगनां आठ अङ्ग छे. २.योगना साधन तरीके पण गुरुनी सेवा जरूरी छे, गुरुनी सेवा करवामां आवे तो योगनी कोई जरूर नथी. अदान्ते मनसि ज्ञाते योगार्थं न यतेद् बुधः। गुरुसेवापरो भूत्वा भक्तिमेव सदाभ्यसेत्॥का.२०॥
मन काबूमां रही शके तेवुं नथी एम जाणी डाह्या पुरुषे योगमाटे प्रयास करवो नहि (पण) गुरुनी सेवामां तत्पर रही सदा भक्ति ज करवी ॥३३-२०॥
एवी रीते भजन (कराववा) मां बीजा प्रकारोनो निषेध करी, वैराग्य आव्या विना अने अध्याय-८७,१८६ दशमस्कन्ध मोह मट्या विना भक्ति थई शके नहि तेथी वैराग्यनो उपदेश करतां नीचेनो श्लोक कहे छेः हे भगवन्! आप सर्व रसरूप अने शरणागतोना आत्मा छो. आप बिराजमान हो पछी माणसोने स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री धन, घर, भूमि वगेरे प्राण वाहकोनी शी जरूर छे? जे लोको आ सत्य सिद्धान्तने नथी जाणता होता तेओ स्त्री-पुरुषना सम्बन्धथी थतां सुखोमां रमता रहे छे. तेमने संसारमां भला एवी कई वस्तु छे जे सुखी करी शके? कारण के संसारनी बधी ज वस्तुओ स्वयं पडी गयेलां घरना जेवी विशीर्ण (चूरेचरा थई गयेल) अने ते पण उत्तम पदार्थ विनानी अने अपवित्र पदार्थोना सम्बन्धवाळी छे ॥३४॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘‘सगांओए करेला उपकारनी जरूर छे ज अने तेने माटे सगांओनी दरकार राखवी ज जोईए. आत्मामां पोतानी स्थिति थया विना एवी अपेक्षानो त्याग थई शके नहि तेथी ज्ञान थया पछी ज वैराग्य थाय’’ एवो मत चालु प्रसङ्ग (भगवानना भजन) मां घटतो नथी. तेथी सगां वगेरेनुं प्रयोजन छे एम स्वीकारीने ज, बीजां साधनथी ते (प्रयोजन) सिद्ध थशे. तेथी पहेलां प्राप्त थयेलां साधनो ज नकामां छे एम (श्रुति) सिद्ध करे छे. हरकोई प्रकारे लोकमां प्राप्त थयेलां साधनो जतां रहेतां, भगवान्थी अपातुं प्रयोजन अलौकिक ज हशे तेथी आ वैराग्य पण मुख्य वैराग्यनी बराबर ज छे. आ लोकमां सगांओनो उपयोग छे, कारण के आ लोकनी कीर्ति वगेरे तेमनाथी ज प्राप्त थाय छे. पुत्रनो उपयोग परलोक प्राप्त करवामाटे छे. ‘आत्मनः’ देहनो तो परलोक प्राप्त करावनारां कर्म करवामाटे अने आ लोकमां भोग भोगववामाटे उपयोग छे. पीडा करनार कामने शान्त करवामाटे अने सुखमाटे स्त्रीनो उपयोग छे. ‘धन धाम धराः’ एटले धन, घर अने भूमि (अनुक्रमे) सुख, स्थिति अने आजीविका आपनारां छे. आ बधां ज ‘आसवः’ प्राणरूप छे कारण के आ न होय तो (लोको) प्राण (पण) तजी दे छे. अथवा ‘अश्वरथैः’ ‘‘घोडा अने रथ’’ एवो पाठ लेवो. आ गतिनां साधनो सुख आपनारां छे. आठ प्रकारनां आ सुखनां साधनो जेटलो उपकार करशे ते बधाय उपकार करतां करोडगणो उपकार भगवान् करे छे. जो सुखनी ज जरूर होय तो भगवान् पोते सुख आपे छे. जो साधनो साथे सुखनी जरूर होय तो अलौकिक साधनो पण सुख आपे छे एवो भाव छे ‘नृणाम्’ ‘माणसोने’शब्दथी तेमने कामनाओ अने विवेक छे. एम जणावेलुं छे. ‘‘कोई वखते भगवान् सुख अथवा सुखनां साधनो न आपे तो शी स्थिति थाय?’’ एवी शङ्का थाय तो ‘‘श्रयत आत्मनि’’ ‘‘आश्रय करनारना आत्मा’’ शब्दो योजेला छे. भगवाननो जे [[१८७]] माणस आश्रय करे छे तेने तो पोताना आश्रय तरीके ज (भगवान्) प्रकाशे छे. जेम दरेक माणस पोते पोतानुं हित करे तेम भगवान् पण तेनुं हित करे छे. ‘‘भगवान् पण जो विषयो आपता होय तो उपस्थित विषयोनो त्याग शा माटे करवो?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘सर्व रसे’ शब्द योजेल छे. कीर्ति, परलोक, भोग वगेरे बधाय रसो भगवान्मां ज होय छे अने आ रसो प्रगट (जणाई आवे तेवा) छे परन्तु मधमां होय छे तेवा जणाई न शके तेवा, नथी होता. ‘‘आ बाबतमां शुं योग्य छे? भगवान्मां रहेला रसोनो भोग करवो के पोतानी मेळे प्राप्त थयेला रसोनो भोग करवो?’’ (भजन) जरूरी होवाथी अने स्त्री वगेरे साथे करवानुं सहेलुं होवाथी, स्त्री वगेरे साथे ज भजन करवुं योग्य छे, परन्तु स्त्री वगेरे सर्वनो त्याग करीने भजन करवुं योग्य नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘सदजानतां-सत्य नहि जाणनार’’ शब्दो योजेला छे. अर्ही जे भजन करवाना प्रकार पहेलां कह्या तेमां भगवान् अने सगांओने सरखा जणावेला नथी, कारण के आ सगांओ तो दुःख देनारा छे अने भ्रमथी ज सुख आपनारना जेवा देखाय छे पण भगवान् तो दोषरहित आनन्द प्राप्त करावनारा छे, आवो तेमनामां तफावत जाणवामां आवे त्यारे सन्देह ज उत्पन्न थतो नथी. तेथी भेद जाणवामां आवे ते माटे पुत्र वगेरेनुं स्वरूप श्रुतिओ वर्णवे छे. इति एवा प्रकारथी जेओ सत्-सत्य तत्व एटले सगांओ वगेरे अने भगवान् वच्चेनो भेद जाणता नथी, (अने) रतिमाटे सजोडे फरे छे एटले विषयसुख प्राप्त करवा जोडकां थई (विषयसुख भोगवता) फरे छे. पोताने बेसवामाटे जेम कोई मुसाफर मोटो खाटलो माथे ऊञ्चकीने फरे तेम आवा पुरुषो मात्र अडधी पलना विलासमाटे पूरेपूरा बेडीओथी जकडायेला होय तेम ते (स्त्री) नी साथे फरे छे. आ प्रमाणे बहु दुःखी थयेला होय तेमने क्यो पदार्थ सुख आपे? जे बहु पीडायेलो होय तेने विषयो आनन्द आपी शक्ता नथी. सगांओए तो तेमने सुख आपेल होवानी तो वात होय ज क्यान्थी? वळी बीजां साधन (तेमने) होवाथी, भगवान् पण तेमने सुख आपता नथी एवो अर्थ छे. ‘नु’ ए शब्द ‘तपास’ ना अर्थमां वपरायो छे. अमे (श्रुतिओए) बधुं तपासी जोयुं, (छतां) तेवा पुरुषने सुख आपनार अमने कोई मळ्यो नहि. वळी ‘‘कोईक तेने सुख आपशे’’ एवी शङ्का न करवी; कारण के आ जगत् पोतानी मेळे ज विहते पडी गयेलां घरनी जेम विशीर्ण (चूरेचूरा थई गयेल) अने तेमां पण ‘निरस्तभगे’ ‘‘उत्तम पदार्थ विनानुं’’ अपवित्र पदार्थोना सम्बन्धवाळुं होय तेवुं छे तेवा स्थानमां सुख आपनारो पण कोण तेने सुख आपे? अर्ही वैराग्यनी अवस्था जेने वैराग्य थाय छे तेना विचारथी कहेवा इच्छेली छे. जगतनो त्याग करवानो छे ए मत प्रमाणे पण भगवाननो भक्त कोई पण स्थळे भगवाननी अध्याय-८७,१८८ दशमस्कन्ध सेवा करतो होय ते वैकुण्ठमां ज सेवा करे छे. परन्तु जगत्मां सेवा करतो नथी एम समजवुं ॥३४॥
पुत्रादीन् सम्परित्यज्य कृष्णः सेव्यो न तैः सह। तत्सुखं भगवान् दाता ते तु क्लिष्टेतिदुःखदाः॥का.२१॥
पुत्र आदिने छोडीने श्रीकृष्णनी सेवा करवी. एनी साथे रहेवाथी सेवा बनती नथी केमके चित्तनी प्रवणतानुं नाम सेवा छे. ए पुत्र आदिनी साथे रहेवाथी भगवान्मां चित्त रहेतुं नथी. भक्त सुखनी इच्छा करे तो एने सुख पण भगवान् आपे छे. पुत्र आदि स्वजनो भक्तने अति दुःख आपनार छे. तेथी सर्व परित्याग करी भगवानने सेववा एवुं श्रुतिनुं तात्पर्य छे ॥३४-२१॥
सर्वनो त्याग करी भगवाननी सेवा करवी एम पूर्व श्लोकथी कह्युं. एमां प्रथम शुं करवुं एम कोईने पूछवानुं मन थाय तो एनो क्रम आ श्लोकथी श्रुति कहे छेः हे भगवन्! मदरहित सन्तपुरुषो आ पृथ्वी उपर परम पवित्र अने बधाने पवित्र करवावाळा पुण्यमय साचां तीर्थस्थान छे वळी तेओ आपना चरणकमलने हृदयमां धारण करनारा छे अने पोताना चरणना जलथी पाप-तापनो नाश करनारा छे. हे प्रभो! आप नित्य आनन्दस्वरूप आत्मा ज छो. जे एकवार पण आपने पोतानुं मन समर्पण करी दे छे; आपमां मन लगावी दे छे; तेओ ते देहगेहमां कदी फसाता नथी जे विवेक, धैर्य, वैराग्य, क्षमा अने शान्ति वगेरे गुणोनो नाश करनारा छे. तेओ तो बस आपमां ज रमता रहे छे ॥३५॥
श्रीसुबोधिनीजी - पृथ्वी भगवानना चरणरूप छे एटले पहेलां पृथ्वीनो आश्रय लेवो तेथी मञ्च उपर सूवुं नहि, पादुका पहेरवी नहि अने निरन्तर भूमि उपर वास करवो. एम कहेवाथी सर्व भोगनो त्याग करी भगवच्चरणनो आश्रय करीने रहेवानुं कहेवामां आव्युं. पछी चरणारविन्दनी स्फूर्ति थाय ते माटे तीर्थोनुं पर्यटन करवुं. बधां तीर्थोमां गङ्गाजी मुख्य छे. ए भगवानना चरणमां ज रहेनारां छे. तेथी आधिदैविक गङ्गाजी भगवद्रूप छे अने भगवानना चरणकमलनी रज ते गङ्गाजीमां घणी छे तेथी गङ्गाजीना तीर उपर भगवानना चरणारविन्दनी स्फूर्ति थाय. भूमि उपर पण पुरुपुण्य एटले घणां पवित्र तीर्थोमां फरवुं. कुरुक्षेत्रादि तीर्थो एवां छे. ए तीर्थोनी ज सेवा करवी एटलुं ज नहि पण गुरुरूप तीर्थोनी पण सेवा करवी. तीर्थना ‘सदन’ एटले गुरुना घरमां रही एमनी सेवा करवी. भूतल उपर गुरुनां घर पण तीर्थ छे तेथी ए गुरुनी सेवा करवी. ए गुरुओ कोण के एमनी सेवा करवी? एम कहे [[१८९]] तो एना उत्तरमां कहेवानुं के मन्त्रने जोनार ऋषिओ गुरु छे. ते (मन्त्रो) मां (कहेल) उद्धार करनारो अलौकिक प्रकार तेओ जाणे छे; तेथी तेमनां स्थळोए जईने मन्त्र वगेरेमां कहेलुं भगवानना भजननुं अलौकिक साधन शीखवुं जोईए एवो अर्थ छे. ‘‘तेमनामां कई उत्तमता छे?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘मदरहित’ विशेषण योजेलुं छे. ‘मद’ एटले जेनाथी ‘पोते’ अने ‘बीजा’ एवुं ज्ञान थतुं नथी ते अहङ्कार. आ (‘मदरहित’ शब्द) थी ऋषिओने ज्ञान पण छे एम जणाव्युं. ‘‘मात्र मद न होवो (ए ज उत्तमपणुं होय) तो सात्विक कर्म करनारा अथवा बीजा देवोनी उपासना करनारा पण आश्रय करवा योग्य गणाय’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘तेओ वळी आपना चरणकमलने हृदयमां धारण करनारा छे’’ शब्दो योजेला छे, आ शब्दोथी तेमनुं अन्दरनुं अने बहारनुं माहात्म्य कहेलुं छे. अन्दरनुं माहात्म्य ए के तेमना हृदयमां भक्तिमार्गना प्रकारथी भगवान् बिराजेला छे अने बहारनुं माहात्म्य ए के तेओ भगवाननी आज्ञा प्रमाणे वर्तनारा छे. ते महात्माओ तो सर्व लोक उपर उपकार करवा सर्वनो मोक्ष थाय ते माटे श्रीकृष्णने साथे राखी परिभ्रमण करे छे’’ तेथी ज सर्वना पापनो नाश करे छे. तेमना चरणारविन्दना जलथी पापनो नाश थाय छे अने तेमना उपदेशथी तेमना हृदयमां रहेल भगवाननुं चरणारविन्द जेमने ते उपदेश करे छे तेमनामां आवेछे एम सूचवेलुं छे. तेमनी सेवा करवामां आवे अने भगवान् तेमनी सेवा करनारना हृदयमां पधारे त्यार पछी तरत ज जो देह पडे तो-तो कांई चिन्ता न रहे पण जो देह पडवामां विलम्ब थाय तो काल वगेरेथी बुद्धिनो नाश थाय एटले फरीथी घरमां आसक्ति थाय तेथी (भजन) करेलुं सर्व नकामुं थाय’’ एवी शङ्का थाय तेथी श्लोकनो उत्तरार्ध कहेलो छे. जेम कामी पुरुषोनुं अमुक स्त्रीमां चित्त लागे ते तेनो अनुभव कर्या विना सर्वथा पाछुं फरतुं नथी तेम भगवान्मां स्नेह थई जतां अने भगवद्रसमां आसक्ति थई जतां ज्यारे भगवान्मां जेनुं चित्त चोण्टे छे तेवा पुरुष कोई पण समये घरनो आश्रय करतो नथी. जेने भगवाननो अनुभव थयो नथी एटले के जेणे पहेलां भगवाननुं मनथी ध्यान करेलुं नथी ते घरनो आश्रय करे पण खरो, परन्तु जेने पहेलां भगवाननो अनुभव थई चूक्यो छे ते घरनो आश्रय करतो नथी ज एवो अर्थ छे. ‘‘जेने भगवाननो अनुभव थई चूक्यो छे ते घेर आवे तो पण ते भगवाननो त्याग करे नहि तो पछी ते घेर आवे तेमां शुं वान्धो?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘पुरुषनो सार हरी लेनार घरने’’ शब्दो योजेल छे. विवेक, धैर्य वगेरे अने पहेलां प्राप्त करेली (भगवाननो अनुभव थवानी) स्थिति, बधुंय घरो हरी ले छे एवो अर्थ छे ॥३५॥
अध्याय-८७,१९० दशमस्कन्ध परिभ्रमन् तीर्थ निष्ठो गुरुलब्धहरिस्मृतिः। न सेवते गृहान् दुष्टान् सद्धर्मात्यन्त नाशकान्॥का.२२॥
गुरु पासेथी जेने हरिनी स्मृति थई छे तेवो परिभ्रमण करतां तीर्थोमां रहेनार पुरुष सारा गुणोनो नाश करी देनार दुष्ट घरोनो आश्रय करतो नथी ॥३५-२२॥
ए प्रमाणे भगवाननुं भजन करवुं जोईए एम दरेक प्रकारे जणावी भक्तिमार्ग प्रमाणे भजनने सारी रीते दृढ करी, भजन करवा योग्य कोण छे तेनो निर्णय करवा प्रयास करतां, ‘‘सच्चिदानन्द भगवान् भजन करवा योग्य छे’’ एम कहेवामाटे ‘‘लोकमां सत्, चित् अने आनन्द त्रणेय धर्मो एक पदार्थमां नथी एमां तो कहेवुं ज शुं? परन्तु ए धर्मोमान्थी एक-एक धर्म पण कोई ज पदार्थमां नथी’’ एम जणाववा माटे, जड पदार्थोमां सत्पणुं नथी, चेतन पदार्थोमां चित्पणुं नथी अने स्वर्ग वगेरेमां आनन्द नथी एम बब्बे श्लोकथी ए दरेक धर्म लोकमां नथी एम छ श्लोकोथी ‘‘जगत्मां सत्पणुं नथी’’ एम प्रथम सिद्ध करे छे, कारण के एम न करे तो ‘‘भगवान् ज सत् छे’’ एवो अर्थ घटे नहि, केम के भजन करवा योग्य कोण छे एनो निश्चय करवामां *गौण सत्व निरर्थक छे. ज्ञान थाय ते माटे अथवा दोष न रहे ते माटे गौण सत्वनो उपयोग छे. असत्नी सेवा करवाथी नाश थाय छे अने सत्नी सेवा करवाथी कृतार्थ थवाय छे एम पहेलां सिद्ध करेलुं छे. जो जगत्मां पण सत्पणुं होय तो तेमां तेनुं पण भजन थाय, अथवा तेनुं भजन करवाथी दोष न लागे तेथी ए जगत्मां सत्पणुं नथी एम अवश्य सिद्ध करवुं जोईए. ए बाबतमां जेओ जगत् सत् छे एम कहे छे तेमना मतने वादी-प्रतिवादीना संवादथी (वाद अने तेनो प्रत्युत्तर एम प्रश्नोत्तरीथी) अर्ही खोटो ठरावे छे.
विशेष - ब्राह्मण वगेरे सत् (भला) छे, शूद्र वगेरे असत् (दुष्ट) छे. ए प्रमाणे ब्राह्मणपणुं वगेरे गुणोना सम्बन्धथी थतुं सत्व गौण सत्वछे. ‘गौण’ गुण उपरथी बनेलुं विशेषणछे. ए विषयमां नीचे प्रमाणे शङ्का छे - ‘‘आ जगत् सत् छे एम जे कहो छो ते शुं तमारा अनुभव प्रमाणे कहो छो? के एवो निर्णय करनारुं कंई कारण छे? अथवा तेनुं कोई प्रमाण छे? एवी नीचेना श्लोकमां शङ्का करी श्रुतिओ ए मतने खोटो ठरावे छेः आ जगत् सत् (सत्वाळा ब्रह्म) मान्थी उत्पन्न थयुं छे माटे ते सत् छे एम कहेता हो तो ते असम्भवित छे कारण के ते युक्तिथी असङ्गत ज छे. सत्मान्थी सदा सत् ज उत्पन्न थाय एवुं सदाकाळ होतुं नथी. (सत्-भला अङ्ग राजानो पुत्र असत्-भूण्डो वेन राजा थयो) अने क्यारेक ते खोटुं पण थई जायछे. (सत्-छीपमां [[१९१]] असत् रूपुं उत्पन्न थाय छे तेम) परन्तु जगतने सदसदात्मक (सत् अने असत्) बन्ने युक्त मानवाथी उपर कहेला व्यभिचार आदि दोष जगतने लागतानथी. जगतनी उत्तम सत्पणारूप रचनामनथी कल्पेलीछे परन्तु परमार्थरूप सत्य नथी. आवीकल्पना व्यवहारमाटे अन्ध पररूपराथी करवामां आवेलीछे. आपनी वेदरूप वाणी ण्ढि लक्षणावगेरे वृत्तिओथी कर्म जड पुरुषोने भमावेछे ॥३६॥
श्रीसुबोधिनीजी - उपर शङ्कामां जणावेल बीजा पक्षने (‘‘तेवो निर्णय करावनारुं कांई कारण छे? ए पक्षने) प्रथम खोटो ठरावे छेः‘‘कारणने लीधे आ (जगत्) सत् छे’’ एवो मत प्रथम खोटो ठरावे छे. ते मत प्रमाणे ‘‘जगत् सत्’’ छे एम अनुमानथी साबित थाय. ते विषयमां पूर्वपक्षनुं अनुमान नीचे प्रमाणे छेःआ जगत् सत् ज छे, कारण के ते सत्मान्थी उत्पन्न थयेलुं छे. जे जेमान्थी उत्पन्न थयेल होय ते तेना जेवो ज होय, जेमके सुवर्णमान्थी उत्पन्न थयेलुं कुण्डल सुवर्ण ज होय छे. तेम सत्पणावाळा ब्रह्ममान्थी उत्पन्न थयेल जगत् सत् ज छे’’ ‘‘कथमसतः सज्जायेत’’ ‘‘असत्मान्थी सत् केम उत्पन्न थाय?’’ ए श्रुति एम जणावे छे के कारण सत् होय त्यारे कार्य पण सत् ज थाय छे. ‘‘एम (कहेता हो) तो एम नथी’’ शब्दोथी ते मतने खोटो कहे छे. खोटो ठराववामां ते मतथी विरुद्ध तर्क अने प्रमाण कहे छे. ‘नु’ शब्द विरुद्ध तर्क छे एम जणावे छे. आ ‘नु’ शब्दथी ते मत तर्कथी खोटो पडे छे एम कहेल छे. तर्क शङ्कानो अन्त लावनार छे एवा अभिप्रायथी पूर्वपक्षीए पण व्याप्तिने लीधे बळवान बनेला तर्कथी ज पदार्थनो निर्णय करेलो छे तेथी ‘‘तर्कथी बाधित (खोटो ठरेल) छे ‘तर्कहतम्’’’ शब्दथी ते ज (विरुद्ध तर्क होवानो दोष) कहे छे. अर्थ नीचे प्रमाणे छेः‘‘जगत्मां जे सत्पणुं (तमे) सिद्ध करो छो ते १. शुं कारणमां रहेलुं सत्पणुं ज कार्यमां आवे छे एम कहो छो? अथवा २. आरम्भ (करवाना) नियम प्रमाणे कार्यमां बीजुं सत्पणुं उत्पन्न थाय छे? ते पैकी १. पहेलो पक्ष बराबर नथी, कारण के तर्कथी ते खोटो ठरे छे. जो कारणनुं सत्पणुं कार्यमां आवे तो कारण असत् (सत्पणा वगरनुं) थाय अने पोताना नाशनी शङ्का थतां कार्यने उत्पन्न पण न करे तेथी पोताना सत्पणाना नाश थवानी शङ्काथी भगवान् जगत्ने (उत्पन्न) ज न करे. वळी कारणमां रहेलो सत्पणारूप गुण कार्यमां आव्यो एवुं कोई समये आपणने ज्ञान पण थतुं नथी. तेथी घणा तर्कोथी ए खोटुं ठरतुं होवाथी कारणमां रहेलुं सत्पणुं कार्यमां आवतुं नथी एवो अर्थ छे. २. बीजुं सत्पणुं (कार्यमां) उत्पन्न थाय छे एवा बीजा पक्षनो हवे विचार करीए. ते मत पण व्यभिचार-दोषवाळो१ होवाथी खोटो छे. सत् (भला) अङ्ग२ राजामान्थी पण वेन राजा असत् (भूण्डो) उत्पन्न अध्याय-८७,१९२ दशमस्कन्ध थयो. तेमां देहमां असत् भाग ज रह्यो हतो एम पण कहेवाय नहि, कारण के तेम होय तो कार्यमां पण तेटलुं ज असत् थाय, परन्तु ते सिवायनुं स्वभाव वगेरे पण असत् न थात. ‘‘बीजमां ते (असत् भाग) ज आव्यो एम कहो तो ते वेनमान्थी पृथुनो आविर्भाव थात नहि. तेथी कार्य अने कारणमां भेद होवाथी, कारणमां सत्पणुं होवाथी नियम तरीके (बधा प्रसङ्गे) कार्यमां सत्पणुं उत्पन्न थतुं नथी. ‘‘गमे ते कारण कार्यमां सत्पणुं उत्पन्न करतुं नथी, परन्तु समवायी कारण ज तेम करे छे, बीज (वीर्य) तो निमित्त कारण छे. तेमां योनिना दोषने लीधे अने स्वभावना दोषने लीधे ते वेन दुष्ट थयो. बीज तो गुणवाळुं होवा छतां योनिनो दोष तेना करतां पण वधारे बलवान् होवाथी बीजनो गुण ढङ्काई गयो, समवायी कारण तो ते-ते अवयवो जुदा ज हता तेथी व्यभिचार थतो नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘अने कोई स्थले खोटुं थाय छे’’ शब्दो वापरेला छे. छीपमान्थी भ्रमवाळा पुरुषने जणातुं रूपुं उत्पन्न थाय छे. छीप सत् होवा छतां पण ते (रूपुं) साचकलुं नथी होतुं ते रूपानो आश्रय छीप होवाथी तेनुं समवायी कारण छीप ज छे तेथी व्यभिचार थाय छे एम सिद्ध थाय छे. छीपमां रूपुं देखावामां मात्र छीप उपादान (समवायी कारण) नथी, परन्तु दोष अने छीप उपादान छे. छीपना चकचकाट वगेरे दोषने लीधे सारी रीते ते जोई न शकवाथी ते रूपुं उत्पन्न थाय छे, परन्तु मात्र ‘‘(ते रूपाना) आश्रय (छीप) मान्थी उत्पन्न थतुं नथी’’ ‘‘एम होय तो पण एक अंशथी रूपुं साचुं होय, सम्पूर्ण रीते असत्य न होय’’ आ अर्थ ‘न’ शब्दथी कहेलो छे. ‘‘सत्नो अंश दोषने लीधे छीपमां देखाता रूपामां ढङ्काई गयेलो होय छे’’ एम कहो तो चालु विषयमां पण तेम भले देखाय एटले मनना दोषने लीधे जगत् जुदा प्रकारनुं (ब्रह्मथी जुदा सत्पणावाळुं) देखाय छे. तेम न होय तो जगत् सच्चिदानन्द रूपथी केम न देखाय? वळी सर्व स्थले ब्रह्म ज कारण छे एवो सिद्धान्त कहेवानो नथी, परन्तु प्रकृति अने पुरुष कारण छे एवो वाद पण कहेलो छे. तेथी बन्नेना योगने लीधे जगत् सद्रूप अने असद्रूप छे, (पण) मात्र सत् नथी एवो अर्थ छे. ‘‘आ कल्पना व्यवहारमाटे करायेली छे’’ ए शब्दोथी बीजा हेतुनी कल्पना करी तेने खोटो सिद्ध करे छे. ‘‘आ जगत् सत् तरीके देखाय छे तेथी ब्रह्मनी जेम सत् छे’’ एवुं पूर्वपक्षीनुं अनुमान छे तेने पण खोटुं ठरावे छे. आ विकल्प एटले जगत्नी उत्तम सत्पणारूप रचना मनथी कल्पेली छे, परन्तु सत्य नथी, कारण के मात्र व्यवहारने लीधे पण मनथी कल्पेली सिद्ध थती होवाथी ते वस्तुतः सत्य छे एम मानवानुं प्रयोजन नथी. ‘‘आ संसार अनादि छे अने ते सत् होवाथी बधानी मान्यता छे. तेथी जणाय छे के ते सत् ज छे’’ एवी शङ्का [[१९३]] थाय तेथी ‘‘अन्धोनी पररूपराथी शब्द योजेल छे. भले अन्धोनी पररूपरा होय पण पररूपरा एटले पररूपरा अने वळी देखताओनी पररूपरा छे एवुं कंई प्रमाण आ बाबतमां नथी. ऊलटुं महापुरुषोनी बुद्धि ‘‘आ असत् ज छे’’ एम भासे छे. ‘‘वेद प्रमाणे जगत् सत् छे एम अमे स्वीकारीए छीए’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘भ्रमयति भारती ते’’ आपनी वाणी भुलावामां नाखे छे’’ शब्दो योजेला छे. भारती-आपनी वेदरूप वाणी. ‘उक्थजडान्’-कर्ममां रच्यापच्या रहेनाराओने भुलावामां नाखे छे. ‘‘कारण के वेद बधुं ब्रह्मना सम्बन्धमां कहे छे, परन्तु ते जगत्ना सम्बन्धमां होय तेम लोको भूले छे’’ एवो भ्रमण कराववानो प्रकार तो बीजा स्कन्धमां जणावेलो छे. क्रियामां जेमनी आसक्ति छे तेओ पदार्थोनो विचार करता नथी तेथी तेमने ‘कर्मजड’ कह्या छे ॥३६॥
सद्बुद्ध्या सर्वथा सद्भिः न सेव्यमखिलं जगत्। भ्रान्त्या सद्बुद्धिरत्रेति सन्तं कृष्णं भजेद् बुधः॥का.२३॥
सन्तोए समग्र जगत्ने ‘ते सत् छे’ एवी बुद्धिथी सर्वथा सेववुं नहि. आ (जगत्) मां ‘सत्’ होवानी मान्यता भ्रान्तिथी थयेली छे तेथी डाह्या पुरुषे सत् रूप श्रीकृष्णनी भक्ति करवी ॥३६-२३॥
विशेष - १. व्यभिचार-सदा काळ नियम लागु न पडे, सत्य न होय तेवी स्थिति. दा.त.
‘‘जाडो माणस बळवान होय छे’’ एमां व्यभिचार दोष छे.
२. अङ्ग, वेन अने पृथुराजा नां चरित्रोमाटे श्रीमद् भागवतस्कन्ध ४, अध्याय १३
थी २३ वाञ्चवा विनन्ति छे.
जगतनी सत्यता न मानो एनाथी जगतने विशेष सेवनार हशे ते एम करता बन्ध थशे
पण जे स्वभावथी ज जगतने सेवनार छे तेने एम करतां कोण अटकावशे? तमे कहो छो
जगतमां सत्व नथी तेम अमे कहीए छीए के एमां असत्व पण नथी. जेम सत्व साबित
थतुं नथी तेम असत्व पण ए ज कारणोथी सिद्ध थतुं नथी तेथी ज जगतने सत्-असत्थी
जुदा प्रकारनुं मानवुं जोईए. एनी सेवा करनारने गुण न थाय तेम दोष पण नहि थाय तो
जगतनो त्याग करवानुं केवी रीते सिद्ध थशे? एम कहे त्यां कहे छेः
हे भगवन्! वास्तविक वात तो एम छे के सृष्टिनी उत्पत्ति पहेलां आ जगत्
हतुं नहि अने प्रलय पछी ते रहेशे नहि. तेथी एम अनुमान थाय छे के ते वचला
समयमां पण एकरस आपमां मिथ्या ज भासी रह्युं छे. तेथी ज अमे श्रुतिओ आ
जगत्नुं वर्णन उपमा दईने करीए छीए, (जेम के ‘रोझ’नामनुं जङ्गली प्राणी
अध्याय-८७,१९४ दशमस्कन्ध
गाय जेवुं छे पण गाय नहि) तेथी द्रव्योनी जातिओना अवान्तर भेदना मार्गोथी
उपमानथी ते जणाय छे. मनना विलासरूप असत्य जगतने पण जेओ सत्य
माने छे तेओ पडिन्तो नथी पण नासमज (अणसमजु) छे ॥३७॥
श्रीसुबोधिनीजी - जो जगत्ने असत् सिद्ध करनारुं अर्ही कांई न होत तो एम कही पण शकात, परन्तु ‘‘आ जगत् असत् छे, कारण के ते अनित्य छे. जे अनित्य नथी ते असत् नथी, जेमके ब्रह्म’’ एवुं तेने असत् सिद्ध करनारुं (अनुमान) छे. (आ अनुमानमां केवल व्यतिरेकी (व्याप्तिःतर्कशास्त्रमां बे अविच्छेद परिस्थिति अथवा घटनाने व्याप्ति कहे छे. दाखला तरीके ‘‘ज्यां-ज्यां धुमाडो होय त्यां-त्यां अग्नि होय’’ अग्नि अने धुमाडो साथे ज होय. आ साहचर्यना नियमने ‘व्याप्ति’ कहे छे. अन्वय व्याप्तिःपर्वत उपर धुमाडो छे माटे पर्वत उपर अग्नि होवो जोईए. व्यतिरेक व्याप्तिःज्यां अग्नि न होय त्यां धुमाडो न होय, दा.त. सरोवरमां) हेतु जगतनुं असत्पणुं निरूपण करे छे. यत् कारण के आ जगत् सृष्टि पहेलां नहोतुं अने वळी प्रलय पछी नहि होय तेथी वचमां अमुक समय सुधी ज रहेलुं छे तेथी जणाय छे के ते असत् छे कारण के जे सत् होय छे ते त्रणे कालमां सत् ज होय छे केमके सत् कोई समये असत् थतुं नथी. जुदा-जुदा समये पदार्थनुं स्वरूप जुदुं-जुदुं थतुं होय तो क्यारेक घडो पण वस्त्र थई जाय. तेथी वचला समयमां रहेनारुं होवाथी जगत् असत् छे. ‘‘आ हेतुथी (जगत्) सत् नथी एम ज सिद्ध थशे परन्तु ते असत् छे एम सिद्ध नहि थाय. व्यतिरेक व्याप्तिथी पण ते अमुक गुणनो अभाव ज सिद्ध थाय छे, परन्तु बीजो गुण छे एम सिद्ध थतुं नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘मध्यमां आपमां अनुमानथी जणायेलुं खोटुं भासे छे’’ शब्दो योजेला छे. आ जगत् खोटुं ज भासे छे तेनुं कारण ‘‘त्वयि आपमां’’ शब्दथी कहेलुं छे, छीपमां जेम रूपुं भासे छे तेम, जे-जे होय तेनाथी जुदुं भासे ते-ते जुदा तरीके मिथ्या (असत्) छे एम सिद्ध थयेलुं छे. आ सर्व (जगत्) ब्रह्म छे एवो श्रुतिथी अने ब्रह्मवेत्ताओथी निर्णय थयेलो छे. छतां पण (ते) जे जगत् तरीके (जुदुं छे तेथी जुदा प्रकारे) भासे छे ते मिथ्या ज होवा योग्य छे एवो अर्थ छे. ‘‘अनुमानथी जणायेलुं’’ शब्दथी (ते असत् होवानुं) बीजुं कारण पण कहे छे. (छीपमां) रूपुं प्रत्यक्ष तो देखातुं नथी, कारण के आङ्ख अने छीप नो सम्बन्ध छीपना विषे थाय छे, कारण के रूपानी साथे तेवो सम्बन्ध थतो नथी कारण के सत् (जे वस्तुतः होय तेवा) पदार्थोनो ज संयोग थाय छे. ‘‘पुरुषनी इन्द्रियोनो सत् (पदार्थ) साथे सम्बन्ध थाय त्यारे जे ज्ञान बुद्धिथी उत्पन्न थाय छे ते प्रत्यक्ष कहेवाय छे’’ एवी प्रत्यक्षनी व्याख्या छे. [[१९५]] रूपुं तो (छीप साथे आङ्खनो सम्बन्ध थतां उत्पन्न थयेल प्रत्यक्ष ज्ञान) त्यार पछी बुद्धिथी उत्पन्न थाय छे अने देखाय छे. तेमां बुद्धि ज करण छे तेथी ज्ञान जेनुं करण छे तेवुं ज्ञान अनुमान होवाथी रूपुं अनुमाननो विषय थाय छे. वळी ‘अन्तरा’ मध्ये प्रकाशे छे. इन्द्रिय अने पदार्थ नी मध्ये जे भासे ते मिथ्या छे. तेवी ज रीते अर्ही पण जेने ज्ञान थाय छे तेना चैतन्य अने ब्रह्म ना चैतन्यनी वच्चे जगत् भासे छे तेथी ते मिथ्या छे. ज्यां सुधी आ बे चैतन्यो पाकी परीक्षा न करी ले त्यां सुधी जगत् भासे छे. तेथी ते (ए बेनी मध्ये ज भासे छे) आ बन्ने चैतन्यनो विचार करवामां आवे, (अने) ‘‘ते (ब्रह्म) तुं जीवात्मा छे. तत्वमसि’’ ए वाक्य जाणवामां आवे, पछी सर्व स्थळे ब्रह्म ज भासे छे. वळी जेम एक चन्द्र होवा छतां बे देखाय छे ते भ्रान्तिथी थाय छे तेम ‘एकरस’ आपमां जुदा-जुदा प्रकारे भासे छे ते मिथ्या ज छे एम जाणवुं. छतां पण जगत् असत् छे एम केम सिद्ध थशे? कारण के ते असत् देखातुं नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी उपमानथी (उपमान - पण, अनुमान जेवुं एक प्रमाण छे. ‘समानता’ अथवा ‘‘तेना जेवा गुणवाळा होवुं’’ ए कारण छे.) जणाय छे’’ एम कहेल छे. ‘‘जगत् असत्ना जेवुं होवाथी ते असत् छे एनुं उपमान थाय छे. ‘‘गवय गायना जेवो होय छे’’ ए वाक्य साम्भळी वनमां गवयने जोतां समानताने सम्भारी ते समानताने गवयमां जोतां, ‘‘गायना जेवो होवाथी आ गवय छे’’ एम जोनार माने छे. (तेम जगत्मां असत् पदार्थनी समानता होवाथी ते असत् छे एम उपमानथी जणाय छे) गाय वगेरे द्रव्योनी जे गोत्व (गाय होवापणुं) वगेरे जाति छे ते जातिओनो पेटाभेद ते ज उपमानमां उपमान करवानुं साधन छे. तेम न होय तो ‘‘आ गाय छे’’ एम ज जणाय. आ समानतामां तफावत होवाने लीधे ज तेना सम्बन्धी अनुमान थतुं नथी. *अग्नि तो व्याप्ति वगेरे सर्व स्थले एक ज जातनो छे. समानतानुं ज्ञान तो जुदी जातनुं द्रव्य छे एम जणावे छे. तेथी छीपमां देखाता रूपा जेवा असत् पदार्थो जोवामां आवे छे तेवो विचार करतां सत् होवानुं सम्भवतुं नथी एवा आ गुणनी समानताने लीधे जगत् पण असत् ज छे एवो निश्चय थाय छे. भान तो ससलाना शीङ्गडान्नुं पण थाय छे तेथी ते भान ससलानुं शीङ्गडुं असत् नथी एम सिद्ध करतुं नथी. सत्यपणुं पण भासे छे, असत्यपणुं पण भासे छे, परन्तु विचारसहिष्णु गुणवाळा प्रमाणथी सत् भासे छे अने विचार असहिष्णु दोषवाळा करण (ज्ञानमां साधन) थीअसत् भासेछे एटलो तफावतछे. वेदोमां पारङ्गत मोटा-मोटा पुरुषो पण जगत्ने सत् माने छे. जगत् सत् न होय तो ते अध्याय-८७,१९६ दशमस्कन्ध असत् होवाथी तेनी स्थिरता न होवाथी, विश्वासपूर्वक सर्व व्यवहारो थई शके नर्ही तेथी जगत्ने कां तो सत् मानवुं जोईए अथवा सत्थी तथा असत्थी जुदा प्रकारनुं मानवुं जोईए’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘वितथ मनोविलासम्’’ ‘‘खोटो मननो विलास’’ शब्द योजेलो छे. आ सर्व जगत् वितथम् खोटुं ज छे, कारण के ते मननो विलास छे; कारण के जगत्मां जे कोई जेने मित्र अथवा शत्रु, शुद्ध अथवा अशुद्ध, पोतानुं अथवा पारकुं एम जेवुं मनथी माने छे तेना प्रति ते तेवुं थाय छे केमके जगत्मां कोई एवो पदार्थ नथी के जे कुदरती रीते बधाने प्रिय होय तेथी आ जगत् मनना विलासथी करेलुं होवाथी, मनोरथनी जेम खोटुं ज छे. आवा जगत्ने पण जेओ सत्य छे एम माने छे तेओ पडिन्तो नथी, विचार विनाना छे एवो अर्थ छे ॥३७॥
(ज्यां-ज्यां धुमाडो होय त्यां-त्यां अग्नि होय, जेम के रसोडामां एवी व्याप्तिथी पर्वतमां अग्नि छे एम साबित करे छे. रसोडानो अग्नि अने अने पर्वतनो अग्नि एक ज प्रकारना छे. अनुमानमां ए प्रमाणे छे, उपमानमां तो प्रथम गायनुं ज्ञान थाय छे अने गवय गायना जेवो एटले गवयथी गाय जुदा प्रकारनी छे एवो भेद छे.) खपुष्पादि समत्वाद्धि मिथ्याभूतं जगद्यतः। अधिष्ठानाच्च सद्भानं तं कृष्णं नियतं भजेत्॥का.२४॥
आ जगत् ब्रह्मज्ञनी दृष्टिथी ब्रह्मरूप छे छतां साधारण जीवनी दृष्टिमां ए आकाशना कुसुम जेवुं मिथ्या छे केमके ए अन्तरा सृष्टिने जुए छे. तेथी ए जुए छे ते पदार्थ मायिक छे. एनुं भान तो एनुं अधिष्ठान ब्रह्म छे तेथी थाय छे. एवा श्रीकृष्णनी सदा भक्ति करवी ॥३७-२४॥
एम बे श्लोकथी भगवान् भजनीय छे एना वगर अन्यत्र सत्यत्व नथी तत्वथी भगवान्मां ज सत्यत्व छे, ए ज भजनीय छे एम बे श्लोकथी भगवानना सद्अंशनो विचार कर्यो. हवे चिदंशनो बे श्लोकथी विचार करे छेः ते भगवद्रूप ज जीव मायाथी अविद्याने अनुसरीने जीवभावने प्राप्त करे त्यारे गुणजन्य वृत्तिओ इन्द्रियो देहोमां फसाई जाय छे अने तेमने ज अपनावी लई तेमनुं सेवन करवा लागे छे. आथी ते जड बनी जाय छे अने तेनुं भाग्य परवारी जाय छे अने मृत्युने भेटे छे परन्तु तेनाथी ऊलटुं आप सर्प जेम काञ्चळी उतारी नाखे तेम अविद्यानी साथे कोई सम्बन्ध राखता ज नथी. तेने सदा सर्वदा द्वार दूर ज राखो छो तेथी आप सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त अणिमा वगेरे आठेय सिद्धिओ [[१९७]] सहित पूर्ण तेजोरूप धाममां बिराजो छो, कारण के आपनुं ऐश्वर्य अमाप अने अनन्त छे ॥३८॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘चित्’ अंशनो आश्रय करवो जोईए’’ एवा मत प्रमाणे पण भगवान् ज सेवा करवा योग्य छे, परन्तु जीवो सेवा करवा योग्य नथी; कारण के स्वरूपमां रहेलो आश्रय करवा योग्य छे. परन्तु जीवो तो स्वरूप गुमावी बेठेला छे. तेनुं कारण कहे छे के जीवः सः भगवद्रूप ज होवा छतां पण यद् ज्यारे अथवा जे कारणथी अजया भगवाननी मायाने लीधे अजाम् भगवाननी मायाने अथवा प्रकृतिने अनुशयीत ते (माया अथवा प्रकृति ने अनुसरीने जीवनी स्थिति प्राप्त करे छे त्यारे ते (प्रकृति अथवा माया) ना गुणोने भोगवतो (एटले) ‘‘जड (पदार्थ) मान्थी हुं आनन्द प्राप्त करीश’’ एवा विचारथी पोताना आनन्दने त्यजी दईने ज्यारे जडनो अनुभव करे छे त्यारे पोते पण पोताना चैतन्यनो त्याग करी समानताने प्राप्त करे छे एटले जडनी स्थिति (देह) प्राप्त करे छे एवो अर्थ छे. ए प्रमाणे अविद्याना सम्बन्धने लीधे ‘आनन्द’ अंश तेम ज ‘चित्’ अंश जतो रहे छे. (अने) मात्र जडनी स्थिति प्राप्त करे छे (चित्पणुं भूली जईने, ‘‘हुं देह ज छुं’’ एम जाणे छे) जड पदार्थ सेवा करवा योग्य नथी ए तो पहेलां ज कहेलुञ्छे. ‘‘जडनी स्थितिमां शुं वान्धो?’’ भारे किम्मती रत्नो पण जड होय छे’’ एम पूछवामां आवे तो, कहे छे के ‘‘ते पछी भाग्य रहित थई मृत्युने प्राप्त करे छे’’ काल जड गुणोने खळभळावे छे अने अन्न जेवा (देहो) नुं भक्षण करे छे ते प्रमाणे काल देहनी स्थिति प्राप्त करेला जीवनो कोळियो करी जशे. ‘तदनु’ एटले जडपणानी पछी ते मृत्युने पण प्राप्त करे छे. वळी जेम राजा जीवतां सुधी सुखथी जीवे छे अने छेवटे मृत्यु पामे छे तेम आटलुं अनिष्ट जाणे पूरतुं न होय तेम ते ‘अपेतभगः’ ऐश्वर्य अने भाग्यहीन थई जाय छे. एम माटीना ढेफां जेवो अने कालनो कोळियो जीव सेवा करवा योग्य शी रीते होई शके?’’ ‘‘मम माया दुरत्यया’’ ‘‘मारी माया तरवी मुश्केल छे’’ ए भगवद् वाक्यथी भगवानने पण मायानो सम्बन्ध तो छे अने तेथी भगवान् पण मृत्युथी गळायेला ज हशे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘तेनाथी उलटुं आप तेने तजो छो’’ शब्दो योजेला छे. ‘‘जहात्येनां भुक्त भोगामजोन्यः’’ ‘‘जन्मरहित बीजो भोगवाइ चूकेली आ (माया) नो त्याग करे छे’’ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ४-५) श्रुति अनुसार आप तो ए मोह करनारी मायाने तजो छो. भगवान् अने जीव वच्चे आ ज तफावत छे. ‘‘आत्तभगः भग (ऐश्वर्य) ने अध्याय-८७,१९८ दशमस्कन्ध स्वीकारीने’’ शब्दथी प्रकृतिनो त्याग जेनुं मूल छे तेवो बीजो तफावत कहे छे. ऐश्वर्य वगेरे भाग्यो (आपे तो) स्वीकारेलां ज होय छे, कारण के तेमनो नाश करनार कोई कारण नथी. ‘‘ए माया साथे गून्थाईने रहेला (भगवान्) जो तेनो त्याग करे तो आपनुं उत्तम स्वरूप ज जतुं रहे तेथी आप तेनो त्याग केवी रीते करे?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘सर्प काञ्चळीने तजे तेम’’ शब्दो योजेला छे. कालने लीधे सर्पो पोताने घरडा मानवा लाग्या. पछी तेओमान्ना मुख्य सर्प कसर्णीरे ‘भूमिर्भूम्ना’ वगेरे केटलाक मन्त्रोनुं दर्शन करी पोतानी काञ्चळी उतारी नाखी अने ए मन्त्रोथी बधा सर्पोने वृद्धावस्थाथी बचावी लीधा. त्यारथी बधा सर्पो पेतानी जूनी काञ्चळी उतारी नाखवा लाग्या. ए प्रमाणे भगवान् पण काञ्चळीरूप माया सहज सम्बन्धवाळी होवा छतां पण अखण्ड ज रहीने एटले पोताना ऐश्वर्यने लीधे पोतानी पहेलान्नी अवस्थामां रहीने ज तेनो त्याग करे छे. ‘‘सर्पो काञ्चळी तजी दे तो पण तेमने कंई पण उत्तमता प्राप्त थती नथी. ए प्रमाणे भगवान्मां पण मायाने ग्रहण करेली अवस्थामां अथवा तेनो त्याग करेली अवस्थामां कांई फरक हशे नर्ही तेथी तेनो त्याग नकामो छे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘महसि महीयसे’’ पूर्ण अजोड आठ ऐश्वर्यवाळा धाममां आप बिराजो छो. साची वात तो ए छे के माया होय के न होय तेथी आपने कांई हानि अथवा लाभ नथी. आपतो परम प्रकाशमान आठ ऐश्वर्यवाळा स्वरूपानन्दमां सदा बिराजी रह्या छो ज छतां पण मायानो सम्बन्ध होय त्यारे लोकनी दृष्टिए दोष देखाय तेथी आ कहेलुं छे के ‘‘एने आप तजो छो’’ वास्तविक रीते तो ए सर्व (माया वगेरे शक्तिओ) भगवान्मां ज रहेली छे. भगवानने तेमनाथी कंई नुकशान के हानि थतां नथी, कारण के नुकसान तो भगवान्थी जुदा पडेला जीवोने ज (थाय छे एम शास्त्रमां) कहेलुं छे. आप तो अमाप भगवाळा छो. जेमनुं माप थई शके तेमनो ज क्रियाथी नाश थई शके, परन्तु जेमनुं माप थई शक्तुं नथी तेमनो क्रिया शक्तिथी पण केवी रीत नाश थाय? तेथी बधा सद्गुण होवाना माहात्म्यवाळा तथा कोई पण दोष विनाना भगवान् ज सेवा करवा योग्य छे, परन्तु जीवो कोई समये सेवा करवा योग्य नथी एवो अर्थ छे ॥३८॥
कालादितृणपर्यन्ता न सेव्यामुकित मिच्छता। दोषत्याजनशक्तो हि सेव्यो दाता गुणस्य च॥का.२५॥
मुक्तिनी इच्छा राखनारे *कालथी आरम्भी घासना तणखला सुधीना (जीवो) नी सेवा न करवी कारण के सेवा करवा योग्य तो दोष दूर करी देवानी शक्तिवाळा अने गुणनुं दान करनार भगवान् ज छे ॥३८-२५॥
[[१९९]]
विशेष - त्रीजा स्कन्धमां कालनी सृष्टि पछी मुक्त जीवोनी सृष्टि कहेली छे तेथी ‘‘कालः काल आदिः’’ ‘‘आरम्भमां छे जेमना’’ एवो अतद्गुण संविज्ञान बहुव्रीहि समास छे (एटले कालनो समावेश थतो नथी. त्यार पछी कहेला बधा जीवो एटले ‘‘मुक्त जीवो अने एमना पछी सर्जेला बधा जीवो’’ एवो अर्थ थयो) तेथी ‘‘मुक्त जीवथी आरम्भी तणखला सुधीना जीवो’’ एवो अर्थ छे. भगवाननी सेवा करतां जीवनुं भजन ज मुख्य छे. जीवमां भगवान् पण छे अने जीव पण छे तेथी अंशसहित भगवान् ए (जीव) मां होवाथी तेने छोडी अंश विनाना केवळ भगवान् सेवा करवा योग्य केम गणाय? एवी शङ्का थाय तेथी नीचेनो श्लोक कहे छेः हे भगवन्! मनुष्यो योगी-यति बनीने पण जो हृदयनी विषय-वासनाओने ऊखेडीने फेङ्की नथी देता तो तेमने माटे पण आप देखावा अशक्य छो. कण्ठमां मणि पहेर्यो होय अने पहेरनार तेने भूली जाय तो ते मणिने आम-तेम शोधतो फरे छे तेम देहाभिमानी असत्पुरुषोना हृदयमां आप बिराजता होवा छतां तेमने देखावा अशक्य छो, इन्द्रियोनो लाड लडाववामां जे लोको लागेला रहे छे तेमने जीवनभर अने जीवन बाद पण दुःखो ज भोगववां पडे छे-एक तो हजु तेमने मृत्युथी छुटकारो नथी मळ्यो अने बीजुं आपनुं चरण प्राप्त न थवाने लीधे परलोकमां नरक वगेरे दुःख प्राप्त थवानो भय तो ऊभो ज छे ॥३९॥
श्रीसुबोधिनीजी - ज्यां भगवाननो अंश प्रकट होय अने भगवान् पण प्रकट होय त्यां एम ज करवुं योग्य छे. तेथी ज पहेलां विष्णुना पुरुष नामना त्रण रूपोनुं ज आराधन करवानुं कहेलुं छे, परन्तु ज्यां जीवनुं स्वरूप जडपणाने प्राप्त थयेलुं छे अने भगवान् जरापण प्रगट नथी त्यां शुं थाय? काष्ठमां अग्नि छे ते कारणथी टाढ उडाडवा अथवा होम करवामाटे कोई काष्ठ वापरतुं नथी. तेथी जेमनामां भगवाननुं स्वरूप प्रगट नथी तेओ बिलकुल आश्रय करवा योग्य नथी. ‘‘(जीवना) हृदयमां रहेला पोतानी मेळे प्रकाशनार१ भगवान् केम न प्रकाशे?’’ एवी शङ्का थाय त्यां कहे छे के ‘‘यतिओ पण जो हृदयमां रहेली कामनी वासनाओने दूर न करे’’ तो तेमने पण भगवाननां दर्शन थवां अशक्य छे. जेम दाटी दीधेला धन उपर वृक्षो रोपवामां आव्या होय त्यारे जेम ते वृक्षोने मूळमान्थी उखेडी नाख्या विना दाटी दीधेलुं धन वगेरे बहार काढी शकातुं नथी ते प्रमाणे हृदयनी अन्दर बिराजता भगवान् मायारूपी पडदाथी ढङ्कायेला छे अने तेना पर वळी अविद्यानी चादर बिछावी देवामां आवी छे अने पछी वासना, काम, क्रोध अध्याय-८७,२०० दशमस्कन्ध वगेरे वृक्षोने लीधे जीव आपनुं ज्ञान बिलकुल खोई बेसे छे ते केम देखाय? एमां पण असत् पुरुषोने एटले देहना अभिमानवाळाओने तो देखाय ज केम? ‘‘छतां पण हृदयमां भगवान् छे तेथी वस्तु (भगवान्) ना सामर्थ्यने लीधे (जेना हृदयमां भगवान् छे तेवा जीवनी सेवा करवाथी) फल प्राप्त थशे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘अस्मृत कण्ठमणिः विसरायेला कण्ठनो मणि’’ शब्द प्रयोग कर्यो छे. कण्ठमां पहेरेलो पण भुलाई गयेलो मणि जेम पहेरनारने सुख आपतो नथी तेम भगवान् पण (हृदयमां बिराजता होवा छतां, जे जीव तेने भूली जाय छे तेने सुख आपता नथी. ऊलटुं भूली जवाने लीधे तेनी याद आवे त्यारे दुःख ज आपे छे ते प्रमाणे भगवान् ए जे जीवनी सेवा करवामां आवे तेने ज) सुख आपता नथी तो पछी एनी पूजा करनारने सुख क्यान्थी ज आपे? ऊलटुं भगवान् यतिओने दुःख आपनारा पण थाय छे. जे माणस पोतानो मणि भूली गयो होय ते तेनी शोध करतां जेम दुःखी थाय छे तेम आत्माने शोधवामाटे पोताना सर्वस्वनो त्याग करीने वनमां गयेला यतिओने भगवान् घणुं दुःख आपनारा थाय छे. मरण सुधी सन्न्यासना धर्मनुं पालन करनारा विशे आ कह्युं, परन्तु जेओ बहार आत्मानी प्राप्ति न थवाथी घणो क्लेश आपनारां साधनोथी दुःखी थई मुश्केलीथी प्राणनुं पोषण करे छे तेओ तो प्राण पोषनारा छे अने पहेलां योगीओ हता अथवा प्राणनुं पोषण करवामाटे ज योगीओ थई (पोतानां) बधांय कृत्यथी भरणपोषण ज प्राप्त करे छे. तेमने ‘‘बन्नेय बाजुथी दुःख थाय छे’’ ‘‘दूर नर्ही थयेल मृत्युथी’’ अने ‘आपथी’ शब्दोथी (जे बे बाजुएथी दुःख थाय छे) ते बन्ने कहेलां छे. (तेमणे सन्न्यासना) धर्मनो त्याग करेल होवाथी यम सहित काल २ पण तेमने दुःख आपे छे अने नरक तथा मृत्यु प्राप्त करावे छे; अने भगवानने विसारेल होवाथी भगवान् एमने दुःख आपे छे तेथी जीवता होय त्यारे पण तेमने दुःख थाय छे. भगवान् बहु-बहु तो प्राप्त न थाय, दुःख शा माटे आपे? एम शङ्का थाय तेना समाधानमां ‘‘जेमनुं चरण प्राप्त थयेल नथी’’ ए
विशेषण वापर्युं छे. भगवाननुं चरण तेमणे प्राप्त करेलुं नथी तेथी तेओ चिन्ताथी आकुळ- व्याकुळ थई दुःखी थाय छे. एवो अर्थ छे ॥३९॥
विशेष - १. स्वयम्प्रकाश पदार्थने तेनो कोई बीजो प्रकाश करे तेनी तो जरूर न होय परन्तु
पोते प्रकाशे तेमां तेनो प्रकाश रोकनार बीजो कोई आडो न आवे तेवी तो जरूर रहे ज.
स्वयम्प्रकाश सूर्य वादळान्थी ढङ्काई जाय त्यारे देखातो नथी. भगवानने तो ढाङ्की देनारा एना
करतां पण वधारे छे.
२. पहेलां जे योगीओ जणाव्या तेमना उपर कालनुं सामर्थ्य चालतुं नथी, परन्तु
[[२०१]]
भगवान् ज मरण सुधी दुःख आपी, पछी तेमने प्राप्त थाय छे. आ पाछळथी कह्या ते
योगीओ उपर तो कालनो पण अधिकार चाले छे एम ‘अपि=पण’ शब्दथी जणावेलुं छे.
जीवेषु भगवानात्मा सञ्छन्नस्तेन तत्र न।
भजनं सर्वथा कार्यं ततोन्यत्रैव पूजयेत्॥का.२६॥
जीवोमां भगवान् आत्मारूपे बिराजे छे खरा पण आप अत्यन्त अणछता (ढङ्कायेला) छे तेथी सर्वथा जीवोनुं भजन न करवुं तेथी बीजा (अंश-जीव अने अंशी-भगवान् बन्ने प्रकट होय छे तेवा अवतारो) मां (भगवाननुं) ज पूजन करवुम् ॥३९-२६॥
ए प्रमाणे ‘चित्’ अंशवाळा जीवो पूजा करवा योग्य नथी एम जणावी नीचेना श्लोकथी आरम्भी बे श्लोकथी लौकिक आनन्दो पण भोगववा योग्य नथी पण भगवत्सम्बन्धी आनन्द ज भोगववा योग्य छे एम कहे छेः आपना वास्तविक स्वरूपने जाणवावाळो पुरुष आपना निमित्ते प्राप्त थतां सुख तथा दुःख ना गुण तथा अवगुण ना सम्बन्धने जो नथी गणकारतो तो देहाभिमानीओनी (विधि, निषेध, चिन्ता, अपकीर्ति करनार) वचनोनी पण ते परवा करतो नथी, कारण के श्रवणादिना अधिकारी मनुष्योए प्रसिद्ध आप जे भक्तोना हितकर्ता अने मोक्षना देनार छो तेमने युगेयुगमां दर्रोज, व्यासजी वगेरेए आपना गुणोनां गायेलां गीतोनी पररूपराद्वारा, पोताना कर्णोमां भरी दीधा छे अने पछी हृदयमां बेसाडी दीधा छे ॥४०॥
श्रीसुबोधिनीजी - स्मृति वगेरेमां स्वभावथी ज तमाम आनन्दो भोगववानी मना फरमावेली छे. जेम आ लोकमां गणिकाओ सेवन करवा योग्य नथी तेम स्वर्गमां अप्सराओ पण, (सेवन करवा योग्य नथी) जेम आ लोकमां काल वगेरेना नियमोनुं पालन कर्या विना भोग भोगववामां आवे तो श्रुतिओ अने स्मृतिओ थी विरुद्ध कार्य थाय तेम स्वर्ग लोकमां पण एवुं थाय एम जाणवुं. जेम (बे लगाम भोग भोगववाथी) अर्ही अपकीर्ति थाय तेम त्यां पण (अपकीर्ति थाय). तेथी तमाम सुखनो अनुभव करवानी मना फरमावेली छे. तेथी मना करेला कार्यनुं आचरण करवाथी दरेक प्रकारे दुःख थतुं होवाथी बधुं ज सुख दुःख मिश्रित छे तेथी ए सुख भोगववा योग्य केम गणाय? भगवान् सम्बन्धी आनन्द तो बधाए भोगववा योग्य छे. एमां उपर जणावेला दोषो सम्भवता नथी कारण के अर्ही (आ लोकमां) ज भगवानना स्वरूपनुं ज्ञान थतां, भोग वगेरे भोगववाथी दुःख, निन्दा, चिन्ता वगेरे थतां नथी ए अर्थ श्लोकना पूर्वार्धथी कहे छे के जो ‘त्वदवगमी’ आपने जाणनार अध्याय-८७,२०२ दशमस्कन्ध ‘भवदुत्थशुभाशुभयोः’ आपना निमित्ते प्राप्त थयेल सुख अथवा दुःख ना गुण अथवा अवगुण ने न जाणे (तो देहाभिमानीओनी वाणीने पण जाणतो नथी) जेम जार (स्त्री उपर) घणो स्नेह राखतो होय त्यारे स्त्री एने माटे गमे तेटलुं दुःख उठावती होय तो पण तेने ते दुःख मानती नथी अथवा जेम राजानो सेवक राजाने कस्तुरी वगेरेना लेप करतो होय त्यारे पोताने एनो लेप थतो होवा छतां पोते तेने सुख मानतो नथी ते प्रमाणे जेम भगवानना महान वैभवनो सेवक तरीके एमनी साथे अनुभव करतो होवा छतां (सेवक) एने सुख मानतो नथी तेम भगवाननी सेवा करवामाटे घणुंय दुःख प्राप्त थतां एने पण जो दुःख न माने तो शास्त्रमां कहेला विधि, निषेध, चिन्ता, अपकीर्ति वगेरे प्राप्त करावनारां वाक्यो पण एने असर करतां नथी. वास्तविक रीते ए वाक्यो ‘देहभृतां’ देहना अभिमानवाळा लोकोना सम्बन्धमां कहेलां छे तेथी आ लोकमां ज भगवाननो सम्बन्ध थतां ए भगवत्सेवकना बधा उपद्रवो जता रहे छे. बीजाने तो साधारण पण सुख अथवा दुःख नो अनुभव थतां राग अथवा द्वेष उत्पन्न थता होवाथी प्राणीओनां सम्बन्धवाळा शास्त्रमां करेल विधि (आज्ञा) अथवा निषेध (मना) नां वाक्यो पण लागु पडे छे ए स्पष्ट छे. ए प्रमाणे भगवत्सम्बन्ध स्पष्ट थाय के तरत ज सुख थाय छे, बीजी रीते नर्ही ए स्पष्ट छे. ‘‘सुख अथवा दुःख प्राप्त थतां आपने जाणनार पुरुषने राग अथवा द्वेष केम थता नथी? अथवा तेनी अपकीर्ति वगेरे केम थतां नथी?’’ एवी शङ्काना समाधानमाटे श्लोकनो उत्तरार्ध कहेलो छे. मनुष्योए युगे-युगे दर्रोज आपने कर्णोमां धारण करेला छे, कारण के आप मोक्षदाता छो भगवानना गुणोनुं श्रवण ए दररोज करवानुं कर्म छे कारण के अमुक स्थळे ज अथवा अमुक समये ज भगवानना गुणोनुं श्रवण थाय एवो नियम नथी. जे कर्म अमुक चोक्कस समये ज करी शकाय ते काम्य कर्म कहेवाय तेथी भगवानना ‘गुणगीतपररूपरया’ व्यासजी वगेरेए जे गीतो रचेलां छे तेमनी जे पररूपरा छे ते पररूपराद्वारा भगवानने (भक्ते) धारण करेला छे तेथी शास्त्रना निषेध वगेरे बीजुं ए साम्भळतो नथी कारण के तेना कानमां भगवान् ज भरेला छे. तेना बधां पापोनो नाश तेना नित्य कर्मे-भगवानना गुणोना श्रवणे अने भगवाने करी नाखेल होवाथी तेने दुःखदायक अपकीर्ति वगेरे प्राप्त थतां नथी. मोक्ष तो तेनो थयेलो ज छे कारण के मोक्ष आपनार भगवान् छे. सदाय भगवानना गुणोनुं श्रवण तेनो धर्म होवाथी कालना धर्मो (गुणो) तेने पीडता नथी. वळी भगवान् भक्तोनुं हित करनार तरीके (व्यासजी वगेरेनी रचनाओद्वारा) खूब प्रसिद्ध छे. बधा मनुष्योए भगवानने श्रवणमां धारण करेला होवाथी तथा भगवानना भक्तोए भगवान् साथे एक्ता प्राप्त करेली होवाथी कोई आपना [[२०३]] सेवकनी निन्दा करतुं नथी तेथी भगवानना सेवक ज निर्दोष सुख भोगवनार छे, बीजो कोई नर्ही एम जणावेलुं छे ॥४०॥
सुखसेवापरो यस्तु स आनन्दं हरिं भजेत्। अन्यथा सुखसम्प्रेप्सुः सर्वथा दुःखमाप्नुयात्॥का.२७॥
सुख अने सेवा ना प्रयोजनवाळो जे होय तेणे आनन्द स्वरूप हरिनी भक्ति करवी. ए सिवाय बीजी रीते सुख प्राप्त करवा इच्छतो पुरुष सर्वथा दुःख प्राप्त करे छे ॥४०-२७॥
वळी सुख पण ते ज सेववुं के जे सुख नश्वर न होय. देश अने काळ थी जेनो परिच्छेद थतो होय तेवुं सुख तो सर्वथा सेववुं नर्ही. ए ज वात कहे छेः स्वर्गादि लोकोना अधिपति ब्रह्माजी वगेरे पण आपना आनन्दना अन्तने पामी शक्या नथी. नवाईनी वात तो ए छे के आप पण आपना स्वरूपनो पार पामी शक्ता नथी, कारण के ज्यारे अन्त छे ज नर्ही त्यारे कोई ते पामी केवी रीते शके? हे प्रभो! जेवी रीते आकाशमां हवाथी धूळनां रजकणो ऊडतां रहे छे तेवी ज रीते आप (नां रोमना छिद्र) मां (उत्तरोत्तर सात) आवरणो सहित करोडो काल साथे खचीत ज असङ्ख्य ब्रह्माण्डो एकीसाथे गोथां खाधा करे छे. अमे श्रुतिओ ‘‘आ नथी, आवा नथी, आटला नथी’’ एम जणावीने आपमां लय पामती आपमां भम्या करीए छीए अने आपमां खरेखर पर्यवसान पामीए छीए, पूर्णताने प्राप्त करीए छीए ॥४१॥
श्रीसुबोधिनीजी - हे प्रभो! स्वर्गना अधिपतिओ इन्द्र, ब्रह्माजी वगेरे आपना सुखनुं तारतम्य जाणे छे. तेओ पण भगवानना स्वरूपानन्दनो थाह (छेडो) पामी शक्या नथी. ब्रह्मानन्द सुधीना आनन्दनुं पण परिमाण (माप) सेङ्कडोनी सङ्ख्याथी जणायेलुं होवाथी, आनन्दमय (भगवान्) ना ज (आनन्द) नो पार पामी शकायो नथी. ‘‘अन्त होय तो ए जाणवामां न आवे तोय शुं? पार पमाय के न पमाय तो पण पार (छेडो) होवाथी, (आनन्द) समाप्त थतां (तेनो अन्त) दुःखनो अनुभव करावे ज’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘अनन्ततया अनन्त होवाथी’’ शब्द योजेल छे. अन्त जो होय अने जाणवामां न आवे तो ज आ दोष गणाय अने तेओ असर्वज्ञ थाय, परन्तु अन्त छे ज नर्ही. वळी, आप पण (आपना आनन्दना अन्तने) जाणता नथी ‘‘सर्वज्ञ भगवान् पण पोताना आनन्दना अन्तने केम न जाणे?’’ एवो विचार न करवो, कारण के जे विद्यमान होय तेनुं ज अज्ञान सर्वज्ञतामां उणप (ओछप) करनारुं छे. परन्तु जे होय ज नर्ही तेना अज्ञानथी अध्याय-८७,२०४ दशमस्कन्ध सर्वज्ञपणामां ऊणप आवती नथी. आ प्रमाणे भगवानना आनन्दने कालनी अवधि नथी एम कही ‘‘आपमां ब्रह्माण्डोना ब्रह्माण्डो आवरणो सहित घूमतां रहे ज छे’’ शब्दोथी एने देश (स्थळ) नी पण अवधि नथी एम कहे छे. जे ब्रह्माण्डो घूमे छे ते पण सावरणाः प्रकृति सुधी एक पछी एक दशगणां आवरणो सहित फरे छे. आथी एक ब्रह्माण्डना अधिपतिनो ब्रह्मानन्द ससीम (हदवाळो) छे एम जणावी भगवाननो आनन्द अनन्त छे एम दृढ कर्युं, छतां पण ब्रह्माण्डोनी सङ्ख्या नियत गणी शकाय एवी होवाथी भगवाननो आनन्द अनन्त छे एम सिद्ध थशे नर्ही’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘आकाशमां रजकणोनी जेम घूमे छे’’ शब्दो योजेला छे. केटलाक एम कहे छे के जेम जाळीमान्थी आवतां सूर्यनां किरणोमां करोडो रजकणो ऊड्या करे छे ते प्रमाणे भगवानना रोमनां छिद्रोमां ब्रह्माण्डो छे. वास्तविक रीते तो एक-एक रोमनुं छिद्र अत्यन्त विशाळ आकाश जेवुं छे अने जेम ए आकाशमां भूमिनां करोडो रजकणो भमे छे तेम भगवानना रोमछिद्रमां ब्रह्माण्डोनां ब्रह्माण्डो घूमतां होय छे. ‘‘तो-तो पछी काल मोटो हशे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘वयसा सह कालनी साथे’’ शब्दो वापर्या छे. काल पण करोडोनी सङ्ख्यामां ए ंवान्ना छिद्रमां घूम्या करे छे. अथवा काल वायुने स्थाने छे, ‘‘एम छतां पण वेदथी तेनी अवधि जणाई आवशे, कारण के ‘अनन्त’ वगेरे शब्दोथी ए जणावाय छे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘यद् कारण के यदन्तरा’’ ‘‘जे भगवाननी अन्दर श्रुतिओ पण भम्या करे छे’’ एम कहेलुं छे. ब्रह्माण्डो जेम अनन्त छे तेम वेदो पण अनन्त छे तेथी एक वेद एक ज ब्रह्माण्डनी वात कहे छे तेथी वेदो पण भगवानना आनन्दनी हद बान्धी शक्ता नथी. ‘‘एम होय तो सर्व प्रमाणोथी भगवाननो आनन्द जाणी शकातो न होवाथी भगवान्मां एवो आनन्द छे एम जाणवानुं साधन शुं?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘त्वयि हि फलन्ति’’- आपमां खरेखर फलित थाय छे, (चरितार्थ थाय छे, पर्यवसान पामे छे) शब्दो योज्या छे. श्रुतिओ एनुं प्रमाण छे. पण तेओ पर्यवसान वृत्तिथी प्रमाण छे पण वाच्य (‘वृत्ति’ एटले शब्दनी पोतानो अर्थ जणाववानी शक्ति. ‘वाच्यवृत्ति’ एटले शब्दनी व्युत्पत्ति प्रमाणे पोतानो जे अर्थ थतो होय ते जणाववानी शक्ति. आनुं बीजुं नाम ‘अभिधा’ शक्ति. ‘‘पर्यवसानवृत्ति’’ तो फळो, वृक्षो अने भूमि ना दृष्टान्तथी समजी शकाशे.) वृत्तिथी प्रमाण नथी. जेम अनन्त वृक्षो भूमि उपर फळे छे तेथी वृक्षो उपरनां फळो पण भूमि उपर ज पडे छे ते प्रमाणे बधा वेदो पोत-पोतानी रीते पोतनाथी बनी शके तेटलुं भगवाननुं माहात्म्य कहे छे. भगवानना माहात्म्यनां ज्ञानो ते फळ. एमनुं भगवान् सिवाय बीजे क्यांय पण परिणाम आवतुं नर्ही होवाथी तेओ भगवान्मां ज पडे छे अने परिणाम [[२०५]] पामे छे, अर्थात् भगवाननुं ज्ञान करावे छे. जेम अनन्त वृक्षोनां असङ्ख्य फलो भूमि उपर पडे छे पण भूमिना एक हजारमा भागने पण तेओ ढाङ्की शक्ता नथी तेम श्रुतिओ वास्तविक रीते मेरुसर्षपन्यायथी (‘मेरु’ पर्वतनुं नाम छे. ‘सर्षप एटले राईनो दाणो. पर्वतनो राईना दाणा जेटलो अंश जणाववामां आवे त्यारे ते ‘मेरुसर्षप’ न्याय कहेवाय छे.) भगवाननुं माहात्म्य जणावे छे. ए प्रमाणे श्रुतिओ विधिना (अमुक वस्तु आवी छे ए विधिनो प्रकार.) प्रकारथी भगवाननुं स्वरूप जणावे छे एम कही, ‘‘एटलापणुं ज नथी एम जणावीने आपमां लय पामती’’ शब्दोथी निषेध (अमुक वस्तु आवी नथी ए निषेधनो प्रकार.) ना प्रकारथी पण तेओ भगवानने जणावे छे एम कहे छे. जणाववामां आवतो पदार्थ ब्रह्म नथी एम जणावनारी ‘‘न तदश्नोति कश्चन’’-तेने कोई खातुं नथी ‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते’’ ज्यान्थी वाणी पाछी फरे छे वगेरे हजारो श्रुतिओ, जे कंई वेदमां जणावेलुं छे ते बधानो उल्लेख करी, ‘‘जे भगवान् आ सर्वथी उत्तम छे’’ एम भगवाननुं ए बधाथी उत्तमपणुं (भगवान् एटला ज नथी पण एथी तो हजारोगणा गुणवाळा छे एम.) जणावे छे एटले के भगवान् एटला ज नथी पण एनाथी हजारोगणा गुणवाळा छे. हदवाळा तरीके निषेधनो अन्त नथी अने निषेध (अमुक पदार्थ आवो नथी, आवो नथी एम कहेवुं ते ‘निषेध’ कहेवाय. निषेधने तो हद होय,) तेथी निषेधथी कंई जणाववुं होय त्यारे तेनी हदनुं ज्ञान होवुं जोईए. भगवानना सम्बन्धमां ते हदनुं ज्ञान श्रुतिओने नथी. एक जगाए पुस्तक अने बीजा पाञ्च पदार्थो होय अने पुस्तक मङ्गाववुं होय तो, ‘‘लाकडी नर्ही, घडो नर्ही, थाळी नर्ही’’ एम पुस्तक सिवायना पाञ्चेय पदार्थोनो निषेध करी दईए एटले बाकी रहेलुं पुस्तक मळी जाय. अर्ही निषेध करवाना पदार्थो गणतर होवाथी एमनो अन्त छे. भगवाननुं ज्ञान निषेधथी कराववुं होय त्यारे निषेध करवाना पदार्थोनो अन्त ज नथी तेम केटकेटला पदार्थोनो निषेध करवो जोईए तेनुं श्रुतिओने पण ज्ञान नथी तेथी ते प्रमाणे भगवाननुं ज्ञान कराववा प्रयास करतां श्रुतिओनी शक्ति पण ओछी पडे छे अने श्रुतिओ पूरुं ज्ञान करावी शक्ती न होवाथी अप्रमाण होय तेवी स्थिति प्राप्त करी भगवान्मां ज पोतानी हस्ती (सत्ता) समावी दई के खोई नाखी सफल थई जाय छे तेवो अर्थ जणाय छे.) करवाना छेवटनी हद सुधीना पदार्थोनुं श्रुतिओने ज्ञान नथी तेथी भगवानने जणाववानी तेमनी शक्ति अटकी पडतां-अधूरी पूरवार थतां-जाणे के पोते अप्रमाण होय तेवी स्थिति प्राप्त करती श्रुतिओ भगवान्मां ज लय पामे छे एवो अर्थ छे. तेथी आवा परमानन्दरूप श्रीकृष्ण सेवा करवा योग्य छे, बीजो कोई सेवा करवा योग्य नथी एवो बधा वेदोए नक्की अध्याय-८७,२०६ दशमस्कन्ध करेलो अर्थ छे एम सूचवेलुं छे अने वेदो भगवाननो ए प्रमाणे बोध करे छे. ए प्रमाणे ज्ञान प्राप्त करवामाटे भगवाने बुद्धि उत्पन्न करेली छे तेथी सूक्ष्म दृष्टिथी एम जाणवुं के बधा वेदो उपर जणावेला प्रकारे भगवाननुं ज्ञान करावे छे. ए प्रमाणे श्रुतिओ गुण जणाववानी शक्तिवाळी होवा छतां, निर्देश न थई शके तेवा ब्रह्मने पण साक्षात् जणावे छे एवो निर्णय करवामां आव्यो. आ विषयने लगती मूळ श्रुतिओ जेमने विषे विवाद थयेलो छे ते जिज्ञासुए पोते जोई लेवी. बहु विस्तार थई जाय तेवा भयथी लखेली नथी. ए प्रमाणे श्रुतिओए जणावेलो अर्थ गूढ छतां लख्यो छे ॥४१॥
कृष्णानन्दः परानन्दो नान्यानन्दस्तथाविधः। वेदा अपि न तच्छक्ताः प्रतिपादयितुं स्वतः॥का.२८॥
कृष्णानन्द उत्तममां उत्तम आनन्द छे, बीजो कोई आनन्द तेवो नथी. वेदो पण स्वसामर्थ्यथी तेनुं प्रतिपादन करवा समर्थ नथी (तो बीजानुं तो शुं गजुं?) ॥४१-२८॥
इत्येवं श्रुतिगीतायाः सङ्क्षेपेण निम्पितः। अर्थराशिः समुद्रो हि यथाङ्गुल्या निम्प्यते॥का.२९॥
आवी रीते जेम समुद्रने आङ्गळीथी देखाडवामां आवे तेम श्रुतिगीताना अर्थना समूहने *सङ्क्षेपथी कह्यो ॥४१-२९॥
विशेष - रात दिवसनां त्रीस मुहूर्त होय छे. एटले १ मुहूर्त=४८ मिनिट. रात्रिनां छेल्ला बे
मुहूर्त बाकी रहे त्यारे चक्रवर्ती सम्राटने भाटचारणो आवीने तेनी कीर्तिनुं वर्णन करी जगाडे
तेवी रीते श्रुतिओ भगवाननो प्रबोध करे छे, आपने जगाडे छे. भाटचारणो जेवी रीते सम्राट
पासे अधिक द्रव्यनी आशा करे छे तेम श्रुतिओ पण भगवान् पासे अधिक फलनी अपेक्षाए
प्रबोध करे छे. आ प्रबोध आपना चिह्नोथी करे छे. तत्वो ज भगवाननां चिह्नो छे जेमनुं
बीजुं नाम वीर्य अथवा पराक्रम छे. तत्वो अठ्ठावीस छे तेथी अठ्ठावीस श्लोकथी प्रबोध करे छे.
श्रुतिगीताना पहेला चार श्लोकमां तो चार तत्वोनो स्पष्ट उल्लेख कर्यो छे. ते प्रमाणे क्या
श्लोकमां क्युं तत्व छे ते सहेलाईथी समजी शकाय ते माटे नीचे विगते समज आपवानो
प्रयत्न कर्यो छेः
पद्य श्लोक तत्त्व
१४. जय जय जह्यजाम् १.प्रकृति
१५. बृहदुपलब्ध २.पुरुष
१६. इति तव सूरयः ३.अहङ्कार
[[२०७]]
१७. दृतय इव ४.महत्तत्व
१८. उदरमुपासते ५.आकाशतत्व
१९. स्वकृतविचित्र ६.तेजतत्व
२०. स्वकृतपुरेषु ७.वायुतत्व
२१. दुरवगमात्म ८.जलतत्व
२२. त्वदनुपथं ९.भूततत्व
२३. निभृतमरुन् १०.मनस्तत्व
२४. क इह नु वेद ११.चक्षुस्तत्व
२५. जनिमसतः १२.श्रोत्रतत्व
२६. सदिव मनः १३.त्वचातत्व
२७. तव परि ये १४.हस्त
२८. त्वमकरणः १५.रसना अने वाणी
(बन्नेनुंएकस्थानहोवाथी)
२९. स्थिर चर जातयः १६.गुदा
३०. अपरिमिता १७.गन्ध तन्मात्रा
३१. न घटत उद्भवः १८.उपस्थ
३२. नृषु तव मायया १९.चरण
३३. विजितहृषीक २०.स्पर्श तन्मात्रा
३४. स्वजन सुतात्म २१.रस तन्मात्रा
३५. भुवि पुरुपुण्य २२.घ्राणेन्द्रिय
३६. सत इदमुत्थितं २३.शब्द तन्मात्रा
३७. न यदिदमग्र रूप २४.तन्मात्रा
३८. स यदजया २५.तमोगुण
३९. यदि न समुद्धरन्ति २६.रजोगुण
४०. त्वदवगमी न २७.सत्वगुण
४१. द्युपतय एव ते २८.निर्गुणावस्था
तत्वो भगवानना भावरूप छे अने भगवान् जेमनुं कारण छे तेवां छे. वेदो कहे छे के आ
तत्वो भगवाने रचेलां छे तेथी तत्वो अठ्ठावीस होवाथी वेद अठ्ठावीस प्रकारना छे. प्रजानुं
अध्याय-८७,२०८ दशमस्कन्ध
पालन ए राजाने अधीन छे. तेथी भाटचारणो राजाने जगाडे छे. राजा जागीने प्रजापालन
करे. तेवी रीते श्रुतिओ भगवाननो प्रबोध करे छे. तत्वो निवृत्तिरूप छे एटले के तेओ मोक्षमाटे
उपयोगी सृष्टिनुं निरूपण करे छे. भाटचारणो सम्राटने जगाडती वखते कदाच अतिशयोक्ति
करे, श्रुतिओ तो भगवानना जे गुणो वेदोमां जणावेल छे ते ज कहे छे.
उपरना श्लोक १४ थी ४१ सुधी श्लोकोनां श्रुतिओए कहेलां वाक्यो सुनन्दन मात्र फरी
बोली गया. तेथी ‘‘व्याख्यान विना ते वाक्योनो अर्थ समजी शकायो के नहि’’ एवो सन्देह
करी जन्मजात कुदरती बुद्धिथी आनो अर्थ समजाई गयो एम जणाववा नीचेना श्लोकमां ते
अर्थनुं ज्ञान थयुं एम कहे छेः
श्रीनारायणे कह्युं - (नारदजीने नारायणे कह्युं त्यां साम्भळनार ब्रह्माजीना
पुत्रो छे. सम्पूर्ण श्रुतिगीतानो सङ्क्षेपमां अर्थ नारायण कहे छे) ‘आत्मा’ एटले
जीवने श्रुतिगीतानो उपदेश आपेल छे. ‘‘भगवान् ज पुरुषार्थ रूप छे. ए ज सेवा
करवा योग्य छे’’ ए श्रुतिगीतानो अर्थ छे. तेने साम्भळनार ब्रह्माजीना पुत्रो छे.
ए अर्थ एमना हृदयमां आव्यो एटले श्रोताओए गुरु सनन्दननी पूजा करी. प्रथम
तो बधा समान हता ए ‘‘तुल्यश्रुततपःशीलाः’’ (पाछळ श्लोक ११) थी
कहेवामां आव्युं छे. हवे तो श्रुतिगीतारूप अर्थ एमना द्वारा विशेष रीते जाणवामां
आव्यो. ज्यारे ए बधाए एमने उपदेश करवानो अधिकार आप्यो त्यारे बधा जे
न जाणता होय ते ज कहेवुं जोईए तेथी आ उपाख्यान सनन्दने कह्युं. जो तेओए
आ अर्थ सारी रीते जाण्यो न होत तो ‘‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’’ तेने
साम्भळवा छतां कोई पण जाणतो नथी ए न्यायथी एमना तरफथी विशेष अर्थ
जाणवामां न आव्यो होय तो वक्तानी कोई पूजा न करे. तेथी आ अपूर्व अर्थ
जनलोकवासीओने पण दुर्लभ हमणां ज प्रकट थयो ए निश्चय थयो. ए अर्थने
जाणवाथी बधा ‘सिद्ध’ थई गया हवे एमने श्रवण करवानुं कांई रह्युं नहि. पहेलां
पण तेमने आत्मानुं ज्ञान हतुं पण ‘‘मात्र भगवाननी जे सेवा करवी जोईए,
बीजो उपाय नथी’’ एवी तेमनी गति अत्यारे ज एमना जाणवामां आवी माटे
ए ‘सिद्ध’ थया ॥४२॥
नारदजीने अर्ही जाणवानी इच्छा थई के आवो बीजो पण अर्थ हशे तेथी नीचेनो श्लोक कहे छेः समग्र वेदो, पुराणो अने उपनिषदो नुं मन्थन करतां जे सार नीकळ्यो ते आ [[२०९]] श्रुति गीतामां कह्यो. तेथी ए रस छे. ए रस प्रथम तेमां रह्यो हतो पछी पूर्वे थयेल महात्माओए (सनकादिके) एमान्थी जुदो काढ्यो. एम करवानुं प्रयोजन कहे छे के ए महात्माओ छे तेमने परोपकार करवो ए ज कार्य होय छे तेथी जगतना उद्धारमाटे एमनी कृति छे ॥४३॥
अर्थः स्थलत्रये गूढः पुराणोपनिषच्छृतौ। सर्वतः सारमेतद्धि समुद्धृतमिहोच्यते॥(का.) गूढ अर्थ पुराणो, उपनिषदो अने श्रुतिओ-आ त्रण स्थलोए रहेलो छे. बधाम्मान्थी आ सार काढेलो छे एम अर्ही कहेलुं छे तेथी बीजो कोई सारांश नथी एम कहेवा आ जणावे छे. एम श्रुतिगीतानुं माहात्म्य कहीने नारदजीने नारायण भगवान् विशेष उपदेश करे छेः हे ब्रह्मना वारसदार देवर्षे! मनुष्योनी कामनाओनो नाश करनार आ तने आपेल अणमोल उपदेशने श्रद्धापूर्वक धारण करी तुं इच्छा प्रमाणे पृथ्वी उपर फरतो रहे ॥४४॥
श्रीसुबोधिनीजी - ब्रह्माजीनो पुत्र ब्रह्मनो वारसो प्राप्त करनार थाय. अर्ही तो ब्रह्मसम्बन्धी ज वारसो नारदजीए प्राप्त करेलो छे तेथी खास करीने आ सम्बोधन ‘‘ब्रह्मदायाद ब्रह्मनो वारसदार’’ कहेलुं छे अथवा नारदजीनो अधिकार जणाववा आ सम्बोधन करेलुं छे. जेने ब्रह्मनो वारसो मळेलो होय तेना हृदयमां आ अर्थ स्फुरे ज. आपेल उपदेश एटले तने आपेल महान उपदेशरूप आ अर्थने श्रद्धाथी धारण करतां एटले आ अर्थनो सदा विचार करतां तुं पृथ्वी उपर सर्व स्थळे परिभ्रमण कर्या कर, कारण के आ शास्त्रमां जणावेल भजन परित्यागथी ज प्राप्त थवानुं सम्भवे छे. (आ) जीवोने आपेल उपदेशथी ज सदा भगवाननुं भजन प्राप्त थाय छे. नारदजीने ते प्राप्त थयेलुं पण छे महापुरुषने भगवाननुं स्मरण करवामां एक विघ्न छे अने ते छे ‘काम’ जेनो उल्लेख ‘‘कश्चिन् महान् तस्य न कामनिर्जयः’’ ‘‘कोई महान पण तेणे कामने जीत्यो नथी. (श्रीभागवत ८.८.२०)’’ तेथी तेनी कामनाओनो नाश करनारुं साधन छे. ‘‘कामानां कामनाओनो’’ ए बहुवचननो प्रयोग एम सूचवे छे के आ श्रुतिगीता तेनी बधी कामनाओ दूर करनार छे. ‘‘नृणाम्-मनुष्योनी’’ शब्दथी एम कहेलुं छे के मनुष्योनुं आ वधारे हित करनार छे ॥४४॥
आ उपदेश नारदजीना हृदयमां ऊतर्यो एम जणाववा नीचेना श्लोकथी आरम्भी तेमनीकथा कहे छेः अध्याय-८७,२१० दशमस्कन्ध श्रीशुकदेवजी कहे छे - हे राजन्! ए प्रमाणे गुरुए आपेल उपदेशने श्रद्धाथी ग्रहण करी, संयमी, सन्तोष पामेला, साम्भळेलुं याद राखी शकनारा, वीरव्रती (नारदजी) मुनिए नीचे प्रमाणे कह्युंः ॥४५॥
श्रीसुबोधिनीजी - जो के नारदजीए घणां व्याख्यानो साम्भळ्या हतां, छतां पण आ व्याख्यानमां तेमने घणी श्रद्धा थई. ‘‘आत्मवान् संयमी’’ शब्दथी तेओ साम्भळवाना अधिकारी हता तेम जणावेलुं छे. पूर्णः तेमणे अर्थ जाण्यो अने पूर्णतानो अनुभव कर्यो. श्रुतधरः मात्र श्रवण करवाथी ज तेमणे शब्द अने अर्थ बन्ने धारण करी लीधां. आ अर्थ तेमणे याद राखी लीधो, हवे आवृत्ति करवानी जरूर नथी एम सूचव्युं छे. ‘राजन्’ सम्बोधन राजा परीक्षितने एटलामाटे कर्युं छे के आ आर्थ ग्रहण करवा जेवो छे. ‘वीरव्रतः’ नारदजी वीरना जेवा व्रतवाळा हता. वीर ए ज वखत कार्य हाथमां लई तेने पार पाडे छे अने ते पण विना विलम्बे. आथी क्रियाशक्ति तो नारदजीमां घणी हती ए कह्युं, ज्ञानशक्ति पण घणी हती ए मुनिः शब्दथी कह्युम् ॥४५॥
नीचेना श्लोकमां नारदजी पोताना गुरुने नमस्कार करे छेः देवर्षि नारदजीए कह्युं - हे भगवन्! आप सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण छो. आपनुं स्वरूप परम पवित्र छे. आप समस्त प्राणीओना परम कल्याण-मोक्षने माटे कमनीय कलावतार धारण करता रहो छो. हुं आपने नमस्कार करुं छुं ॥४६॥
श्रीसुबोधिनीजी - श्रीकृष्ण नारायणनुं स्वरूप छे. नारायणरूपथी श्रीकृष्णे ज अवतार लीधेलो होवाथी, श्रीकृष्ण मूल (स्वरूप) छे. जो के ‘‘ताविमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ’’ ‘‘आ बे ते भगवानना अंशो अर्ही आवेला छे’’ ए वाक्य प्रमाणे श्रीकृष्ण नारायणना ज अंश छे एवी लोकमां प्रसिद्धि छे, छतां पण श्रुति गीतानी शिक्षाथी तेमणे तेथी ऊलटुं जाण्युं; कारण के श्रुति गीतामां ‘‘स्त्रिय उरगेन्द्र भोजभुजदण्डविषक्तधियः’’ ‘‘शेषनागनी काया जेवा आपना भुजदण्डमां आसक्त बुद्धिवाळी स्त्रीओ’’ (श्लोक २३) स्त्रीओने श्रुतिओनी समान कहेली छे. श्रीकृष्ण विषे ज गोपिकाओ वगेरे तेवी आसक्तिवाळी छे. बीजा अवतारोनी बाबतमां तेवुं नथी तेथी श्रुतिगीतामां श्रीकृष्ण ज भजन करवा योग्य जणावेला एम तेमणे जाण्युम् ॥४६॥
माहात्म्यं बहुधा ज्ञात्वा जीवानां च गतिं पराम्। सर्वं त्यक्त्वा विधार्यैतन् नित्यं कृष्णं स्मरंश्चरेत्॥(का.) [[२११]] श्रीकृष्णनुं माहात्म्य घणा प्रकारे जाणीने तथा जीवोनी उत्तम गति श्रीकृष्ण छे एम जाणीने, बधुं छोडी दई आ (श्रुतिगीतानो अर्थ) धारण करी सदा श्रीकृष्णनुं स्मरण करतां फर्या करवुं. (कारिका) आटलो ज उपाख्याननो अर्थ छे एम जाणीने नारदजी श्रीकृष्णने ज नमी पडे छे. ‘अमलमूर्तये’ ए शब्दथी, श्रीकृष्ण अवतार होवाथी तेमनामां दोष हशे एवी बुद्धि न राखवा जणावेल छे. अथवा ‘‘पवित्र (पुरुषो) मां बिराजे छे स्वरूप जेमनुं’’ एवो अर्थ करवो, अथवा (आ शब्दथी) भगवाननी प्राप्तिनो उपाय जणावेलो छे. ‘‘नारायण साक्षात् गुरु छे अने ते (श्रीकृष्ण) ना अवतार छे ते प्रत्यक्ष गुरुने छोडी, ‘तम्’ ‘तेमने’ ए शब्दथी जणावेल परोक्ष श्रीकृष्णने शा माटे नमस्कार करे छे?’’ एवी शङ्कानुं निवारण करवा उत्तरार्ध कहेलो छे. ते ज भगवान् (श्रीकृष्ण) आपणे वगेरे बधाय प्राणीओना मोक्षमाटे सुन्दर कलाओ धारण करे छे. ते (श्रीकृष्ण) ज आ (नारायण) ना रूपथी आपणो उद्धार करवा अवतरेला छे. एम होवाथी आ (नारायण) मूलरूप नथी तेथी तेमणे (श्रीकृष्णे) ज आ उपकार करेलो होवाथी तेमने ज नमस्कार कर्या छे ॥४६॥
गुरुने नमस्कार करवा जोईए ते नारदजीए केम न कर्या?’’ एवी शङ्का थाय तेथी नीचेनो श्लोक कहे छेः एवी रीते आद्य ऋषिने तथा तेमना महात्मा शिष्योने नमस्कार करी त्यान्थी नारदजी मारा पिता द्वैपायनना साक्षात् आश्रममां गया ॥४७॥
श्रीसुबोधिनीजी - एवी रीते (श्रीकृष्णने नमस्कार करीने) ज ते (नारायण) ने नमस्कार कर्या, कारण के ते नारायण आद्य ऋषि छे तेथी हुं श्रीकृष्ण छुं एवुं पोतानुं स्वरूप जाणे छे अने तेमना शिष्यो तेमने (श्रीकृष्ण छे एम) जाणे छे, कारण के वस्तुना स्वरूपने महात्माओ जाणे छे. बहिर्मुखो जाणता नथी. ‘‘आ मात्र बीजानो मत (जो के सनन्दने आ कह्युं तेथी (व्यासजीनो नहि पण) बीजानो आ मत थयो, छतां पण आ मत व्यासजीने मान्य छे तेथी आ मतान्तरभाषा (बीजाना मतनी भाषा) नथी एवो भाव छे.) हशे’’ एवी बुद्धि न थाय ते माटे उत्तरार्धथी व्यासजीनो सम्बन्ध कहे छे. जो के व्यासजीनां स्थानो घणां छे तो पण साक्षात् स्थान ते (तेमनो आश्रम) ज छे. ‘‘व्यासजी साक्षात् भगवान् छे तेमणे पोतानी मेळे श्रुतिगीतानो अर्थ केम न जाण्यो?’’ एवी शङ्का थाय तेथी द्वैपायन (‘‘द्विर्गता आपो यस्मिन्’’ जेमां जलना बे प्रवाह थाय छे तेवुं स्थान-बेट व्यासजीनुं जन्मस्थान होवाथी तेमनी बुद्धिमां पण क्यारेक द्विधा थई जाय तेवुं सूचन छे.) शब्द वापर्यो छे ॥४७॥
अध्याय-८७,२१२ दशमस्कन्ध भगवान् वेदव्यासे तेमनो यथोचित सत्कार कर्यो. ते आसन स्वीकारी बेसी गया. त्यार बाद नारदजीए भगवान् नारायणना मुखथी साम्भळ्युं हतुं ते बधुं मारा पिताजी व्यासजीने सम्भळाव्युम् ॥४८॥
श्रीसुबोधिनीजी - पछी व्यासजीए तेमनो सत्कार कर्यो. पूजा अने आसन स्वीकारी, नारदजीए नारायणना मुखे साम्भळेल गूढ अर्थ (तेमने) कह्यो. तेमनी (व्यासजीनी) पासेथी पररूपराथी प्राप्त थयेल ते अर्थ में पण तमने कह्यो. आ विचार प्रमाणे ज जेम निर्गुण (ब्रह्म) मां मन प्रवेश करे तेम करवुं जोईए. भाव एवो छे के भगवाने जो तने (परीक्षितने) एवी बुद्धिनुं दान कर्युं हशे तो तारुं मन निर्गुण ब्रह्ममां प्रवेश करशे ॥४८॥
आ प्रमाणे मन अने वाणी थी अगोचर अने समस्त प्राकृत गुणोथी रहित परब्रह्म परमात्मानुं वर्णन श्रुतिओ केवी रीते करे छे अने मन तेमां केवी रीते प्रवेश करे छे ते हे राजन्! में तमारी आगळ वर्णन कर्युं. आ ज तो तमारो प्रश्न हतो ॥४९॥
श्रीसुबोधिनीजी - आ अर्थ न समजवाथी ‘‘में पूछ्युं हतुं कंई अने उत्तर आप्यो कंई’’ एम परीक्षित न माने ते माटे कहे छे के जे प्रश्न तमे अमने पूछ्यो हतो तेनोज आ जवाब छे. वेदो तो निर्गुण ब्रह्मनुं निरूपण करे छे ते क्या प्रकारे करे छे एवो सन्देह थतां, आ (अध्यायमां जणावेल)प्रकारथीज करे छे एम जाणनारनुं मन निर्गुण ब्रह्ममां पण प्रवृत्त थायछे ॥४९॥
श्रुतिगीतामां कहेलो अर्थ सहेलाईथी समजी शकाय ते माटे श्रीशुकदेवजी पोते पण फरीथी टूङ्काणमां नीचेना श्लोकमां कहे छेः भगवान् ज आ विश्वना हितचिन्तक छे. आप ज तेना आदि मध्य अने अन्तरूप छे. आप ज प्रकृति, जीव अने वश राखनार समर्थ काल छे. आप ज तेने उत्पन्न करी वेद साथे तेमां प्रवेश करी जुदां-जुदां शरीरो बनावे छे अने तेमने वश राखे छे; सूई गयेलो पुरुष जेम देहने भूली जाय तेम तेमने प्राप्त करी प्रकृतिने अनुसरनारो पुरुष अविद्यानो त्याग करी दे छे एटले अविद्यानुं जरा पण स्मरण तेने रहेतुं नथी. आपे केवलपणाथी जन्ममरणना कारणरूप योनिनो नाश करी दीधेल छे. आप भयरहित छे एटलुं ज नहि. बीजाने पण अभय बनावी दे छे. आवा भगवान् हरिनुं निरन्तर ध्यान धरवुम् ॥५०॥
[[२१३]] श्रीसुबोधिनीजी - भगवाननुं माहात्म्य जाणीने भगवाननुं भजन करवुं एम होवाथी श्रुति गीताना बे अर्थ छेः१.भगवाननुं माहात्म्य अने भगवाननुं भजन. ते पैकी भजननुं निरूपण करनारी बधी श्रुतिओने एकत्र करी कहे छे के ‘ध्यायेदजस्रम्’ ‘‘निरन्तर ध्यान करवुं’’ हृदयमां भगवाननुं स्थापन करी त्यां तेमनी सेवा करवी. ते भजन फलरूप छे एम जणाववा ‘‘नित्य (हरि) एटले सुखरूप, सर्व दुःख हरनारनुं ध्यान करवुं’’ एम कहेलुं छे. ते सम्बन्धमां भगवाननुं माहात्म्य गुणरूप अने दोष विनानुं छे. ते पैकी गुणरूप माहात्म्य बार प्रकारे जणावे छे. १. जे भगवान् आ समस्त जगतना उत्प्रेक्षक ऊञ्चे जोनारा (उन्नतिना चाहक) छे एटले आ जीवोना समूहोने मोक्ष केवी रीते मळे’’ एम विचार करी ‘‘आवी रीते तेमने मोक्ष मळशे’’ एम तेमनुं हित विचारे छे. भजन करवा योग्य भगवाननो आ योग गुण थयो. आ जगत्मां २. आदि ३. मध्य अने ४. अन्तरूप एम जरूरी होवाथी बीजा त्रण गुणो कहे छे. आ प्रमाणे भगवान् भजन करवा जेवा छे ते सिद्ध करनार आ चार गुणोनो समूह सृष्टिना कारणरूप एक छे. त्रण प्रकारनां माहात्म्य कहे छे के जे ५.अव्यक्त- प्रकृति ६. ‘जीवः’ पुरुष अने ७. ‘ईश्वरः’ वश राखनार काल त्रणना समूहरूप छे. आ प्रमाणे सात गुणो जणाव्या. बाकीना पाञ्च गुणो कहे छे. ८. जे भगवान् ‘‘आ जगत्ने उत्पन्न करीने’’ एवो एक गुण, ९.पछी तेमां प्रवेश करे छे ए बीजो गुण. ब्रह्माण्डने सरजीने भगवाने ब्रह्माण्डमां प्रवेश कर्यो एवो अर्थ छे. १०. पछी ‘ऋषिणा’ वेद साथे अथवा मुख्य जीव साथे सम्बन्धमां आव्या, एवो अर्थ छे. ११.पछी देवो, हलकां प्राणीओ वगेरे शरीरो बनाव्यां. पाञ्च पैकी आ चोथो गुण कह्यो अने १२.तेमने वश राखनारछे ए पाञ्चमो गुण कह्यो. हवे उत्तरार्धथी आरम्भी भगवान्मां त्रण दोषो नथी एम कहे छे. १. जीवो पण (भगवानने) प्राप्त करी एटले भावनावडे मनथी पण प्राप्त करी ‘अजां जहति’ अविद्याने दूर करे छे. ‘‘त्यारे तो (जीवो भगवाननुं) स्मरण करवाथी ज मुक्त थई जता हशे अने तेम होय तो तेओ फरीथी देह ग्रहण करता नहि होय’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘जेम निद्राधीन पुरुष देहने भूली जाय’’ एवुं दृष्टान्त आपेलुं छे. तेओ सम्पूर्ण रीते अविद्यानो त्याग करता नथी, परन्तु भगवाननुं माहात्म्य एवी रीते जणाववामां आवे छे के तेमनो मात्र सम्बन्ध थवाथी ज पुरुष अविद्यानो तेना कार्य (परिणाम) सहित त्याग करे छे एटले जेम सूई रहेला पुरुषने शरीरनुं भान रहेतुं नथी तेम तेने अविद्यानुं जरापण स्मरण रहेतुं नथी एवो अर्थ छे. ए प्रमाणे पररूपराथी पण (भगवान्मां) दोष नथी एम जणाव्युं. २. ‘कैवल्येन’ अध्याय-८७,२१४ दशमस्कन्ध केवलपणाने लीधे ‘निरस्ता’ नाश करेलो छे ‘योनिः’ (जन्म-मरणनुं) कारण बनेली योनिनो जेणे ए विशेषणथी (भगवान्मां) साक्षात् दोष नथी एम कहे छे. बधुं ज भगवान् छे तेथी (भगवान्थी) वधारानी योनि (प्रकृति पदार्थ छे एम स्वीकारवामां आवे छे ते मत प्रमाणे पण ते (प्रकृति) पण भगवद्रूप होवाथी ते वधारानो पदार्थ नथी एवो भाव छे.) क्यान्थी होय? ३. ‘अभयम्’ ‘भयरहित’ ए शब्दथी भगवान्मां त्रीजो दोष नथी एम कहेलुं छे. (भगवान्) पोते भय विनाना छे अने बधानोय भय दूर करनारा छे. ए प्रमाणे भगवान् दोषरहित अने गुणपूर्ण होवाथी ते पोते ज परमानन्द आपे छे अने दुःख दूर करे छे तेथी बधाए तेमनुं ज भजन करवुं जोईए तेवो अर्थ छे. ॥५०॥
इति श्रीभगवत दशमस्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमां गुण प्रकरणनो यशरूप त्रीजो) श्रुतिओए भगवाननी स्तुति करी ‘‘जीवे भगवाननी भक्ति करवी’’ एम सिद्ध कर्युं नामनो (उत्तरार्धनो आडत्रीसमो अने चालु) सत्यासीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां चोर्यासीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्, वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोईपणहेतु विनाज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ८८
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ८५ निर्दोष लक्ष्मी नित्य भगवान् पासे जरहे छे प्रकरण ५ गुण प्रकरण अध्याय ४
विशेष - भगवान् श्रीकृष्णे पोतानी सगी बहेन सुभद्रानुं हरण कराव्युं. आवा श्रीकृष्ण मूल ब्रह्म केम होई शके एवी शङ्का करनाराना सन्देहने श्रीकृष्ण अलौकिक छे एम सूक्ष्म दृष्टिथी गया अध्यायमां जणावी दूर कर्यो. ए सन्देह दूर थतां श्रीकृष्ण सौथी महान छे तेम
ईं उं ईं उं
[[२१५]] अनुभवपूर्वक जणाया. आवा श्रीकृष्ण भगवान् विषे चक्षु वगेरे इन्द्रियोनो व्यवहार पण तेवा ज प्रकारनो थाय छे. जेवी रीते श्रुतिओ पर्यवसानवृत्तिथी भगवानने ग्रहण करे छे एम कहेलुं छे तेवी ज रीते इन्द्रियो पण पर्यवसान वृत्तिथी ज श्रीकृष्णने ग्रहण करे छे. जेम अलौकिक शब्द (वेदादि) भगवानने ज लागु पडे छे तेम अलौकिक इन्द्रियो पण भगवान्मां ज पर्यवसान पामे छे. तेथी ज श्रीभागवत १०.१५.४३ ‘‘पीत्वा मुकुन्द मुख सारघमक्षिभृङ्गैः’’ श्लोकनां श्रीसुबोधिनीजीमां एम निरूपण करवामां आव्युं छे के गोपीजनोनां नेत्रो फरे छे बधेय पण दर्शन तो श्रीकृष्णना मुखारविन्दना लावण्यरूपी अमृतनां ज करे छे. (दशमस्कन्धना उत्तरार्धना) आ देवासुरमनुष्येषु ये भजन्त्यशिवं शिवम् ॥ प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम् ॥१॥
राजाए प्रश्न कर्योःदेव, असुर अने मनुष्य भजन करे छे तेमां लक्ष्मीनी शोभा वगरना शिवजीने भजनार भक्तो घणुं करीने धनवाळा अने भोग भोगवनार होय छे ज्यारे ॥१॥
ए बन्ने समर्थ छे छतां बन्नेना शील विरुद्ध छे. एकनी पासे लक्ष्मी नथी ते पोताना भक्तोने लक्ष्मी अने भोग आपे छे. ज्यारे साक्षात् लक्ष्मीना पति भक्तोने लक्ष्मी अने भोग आपता नथी, आनुं कारण शुं ए आप कहो ॥२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - शिवजी सदा पोतानी घोररूप शक्ति (शिवा) नी साथे ज होय छे. अहङ्कार त्रण प्रकारनो छे. सात्विक, राजस अने तामस. अहङ्कार गुणोथी र्वीटायेलो होवाथी शिवजी पोते पण एवा थया* ॥३॥
विशेष - शान्त स्वरूपवाळा शिवजी प्रलय करनारी शक्तिनो एक क्षण पण त्याग करे तो ते घोर शक्ति प्रलय करी नाखे. जो शिवजी कालकूट झेरने कण्ठमां न राखे तो ते सर्व वस्तुओना दोषनुं आधिदैविक रूप होवाथी तेनो शिवजीथी त्याग थतां, बधी वस्तुओमां दोष व्यापी जतां अन्न वगेरेनुं भोजन करवाथी बधा मरण पामे. जो ते सर्पोने धारण न करे तो बधाय पुरुषो सर्पथी र्वीटाई जई तेनाथी मरण पामे. शिवजी तेमना आधिदैविक सर्पोनो निरोध करी (रोकी राखी) तेमने पोतानी पासे राखे छे तेथी ते सर्व कोईने हणतो नथी एम सूचव्युं छे. ए प्रमाणे अग्निने धारण करे छे कारण के तेम न करे तो ते बधाने बाळी नाखे. चन्द्रने धारण न करे तो ते बधानो क्षय करी दे. वस्त्रो सर्व देवतामय होवाथी लोकोने पीडा करनारां नथी तेथी शिवजी वस्त्रो धारण करता नथी. ‘‘वाघनुं चर्म ते मृत्युनो वर्ण छे’’ (तै.ब्र. १.७.८) श्रुति अध्याय-८८,२१६ दशमस्कन्ध प्रमाणे वाघनुं चामडुं तो प्राणीओनां मृत्युने रोकी राखवा धारण करे छे. गङ्गाजी मात्र स्पर्शथी दोषरूप पहेलान्ना देहने दूर करी भगवदीय देह प्राप्त करावी दे छे तेथी जो गङ्गाजीने रोकी न राखे तो गङ्गाजी अधिकारी-बिन अधिकारी बधाने फल आपी दे. ‘‘केशो वादळां छे’’ तेथी जटाने धारण करी शिवजी वादळने काबूमां राखे छे नहि तो वायु वशात् वादळो जतां ज रहे अने वृष्टि न करे. ईश्वरनी इच्छा प्रमाणे आ बधां पोताने सोम्पेलुं ज काम करे तेटलामाटे शिवजीए तेमने धारण करी रोकी राखेलां छे. तेमान्थी सोळ विकारो थया. महादेव सोळ रूप थया. जे मनुष्य आ सोळमान्थी गमे ते एकनो आश्रय करे ते तमाम विभूतिओनुं फल भोगवे छे ॥४॥
‘‘लक्ष्मीयुक्त विषयो उत्तम छे के अधम? जो उत्तम होय तो भगवान् पोताना भक्तोने केम आपता नथी? जो अधम होय तो पोते केम भोगवे छे?’’ लक्ष्मीरूप विषयो उत्तम छे तेथी तो भगवान् सेवे छे ए बराबर छे. दोषरूप विषयोनो समूह राखवामाटे भगवाने शिवनुं रूप ज धरेलुं छे तेथी आगळ कहेली विचारधारा अर्ही लागु पडती नथी. तो हवे जो ते विषयो उत्तम होय तो भगवान् पोताना भक्तोने केम आपता नथी एवी शङ्का थाय तेथी कहे छे के हरि तो प्रकृतिथी पर, पुरुष (बधाना आत्मा अने तेथी बधानुं हित विचारनार), गुणातीत छे. आप सर्वज्ञ अने अन्तर्यामी छे तेथी जेने ज्यारे जे वस्तु विना हवे नहि चाले तेम भगवान् जुए त्यारे ज तेने ते वस्तु आपे छे. तेथी आवा चतुर भगवाननी भक्ति करनार जीव पोते पण निर्गुण थई जाय छे; तेथी तो भक्त विषयोनी इच्छा करतो नथी. भगवान् तेने विषयो आपता पण नथी ॥५॥
यज्ञ कर्या पछी भगवानना धर्मोनी कथा श्रवण करवी एवी शास्त्रोनी आज्ञा छे. ते मुजब त्रण अश्वमेध यज्ञो पूरा थया त्यारे तमारा दादा युधिष्ठिरे भगवानना गुणो साम्भळतां श्रीकृष्णने आ प्रश्न पूछ्यो हतो ॥६॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण सर्व शक्तिमान परमेश्वर छे. मनुष्योने मोक्ष आपवाने माटे ज आपे यदुकुलमां अवतार लीधो हतो. सेवानिष्ठ युधिष्ठिर उपर प्रसन्न थई तेमने नीचे प्रमाणे उत्तर आप्यो ॥७॥
भगवान् बोल्या - हुं जेना उपर कृपा करुं छुं तेनुं धन धीरे-धीरे हरी लउं छुं. ज्यारे ए मारो भक्त धनहीन थाय त्यारे तो एना स्वजनोथी पण दुःखी देखाय एटले स्वजनो तेनो त्याग करे छे. एमां पोतानो स्वार्थ न देखातां तेने छोडी दे छे [[२१७]] ॥८॥
पछी ते धन कमावामाटे पुरुषार्थ करे छे त्यारे तेनो ते पुरुषार्थ पण निष्फळ बनावी दउं छुं. आ प्रमाणे वारंवार निष्फळ जवाथी तेनुं मन संसारथी विरक्त थई जाय छे. पछी मारा भक्तो साथे ते मैत्री करे छे अने ते वखते हुं मारी मेळे ज तेना उपर अनुग्रह करुं छुम् ॥९॥
ते मारो अनुग्रह परम सूक्ष्म, केवल चित्, अनन्त ब्रह्मभाव छे. तेथी घणा कष्टथी प्रसन्न करी शकाय तेवा मने छोडी दई माणस बीजानुं भजन करे छे. अर्ही आ क्रम छेःपहेलां भगवद् भक्तोनी साथे थयेल मैत्रीथी ते मारा सेवक समान थाय छे. पछी भक्तोना सङ्गथी अथवा मारा (भगवान्) थी तेना ज्ञाननो उदय थाय छे. ज्ञान प्राप्त थतां ते एकलो ज मारुं भजन करे छे. शब्द ब्रह्मनो भाव प्राप्त थतो नथी एम जणाववा ‘परम’शब्द योजेल छे. कार्यनो भाव प्राप्त थतो नथी एम जणाववा ‘सूक्ष्म’शब्द वापर्यो छे. गुणवाळा पदार्थनो भाव प्राप्त थतो नथी एम जणाववा ‘‘चिन्मात्र केवल चित्’’ शब्द योजेल छे. दुष्ट जीवनो भाव प्राप्त थतो नथी एम जणाववा ‘सत्’ शब्द वापर्यो छे. भला जीवनो भाव प्राप्त थतो नथी एम जणाववा ‘अनन्त’ शब्द योजेल छे. ए प्रमाणे ‘‘ब्रह्म, सत्य, ज्ञान अने अनन्त छे’’ एवी ब्रह्मनी जे व्याख्या कहेली छे तेना पणुं एटले के ब्रह्मभाव हुं करुं छुं एवो अर्थ छे ‘‘एम करवाथी तेनो क्यो पुरुषार्थ सरे? शंआतथी ज तेने ज्ञाननो उपदेश केम करता नथी?’’ एवी शङ्का थाय तेनुं समाधान श्लोकना उत्तरार्धथी करे छे के एम करवामां बीजुं पण प्रयोजन छे ए सत्य छे. भगवान् पोते (धन) आपता नथी, हतुं ते पण हरी ले छे, मुक्ति ज आपे छे, परन्तु आ लोकनुं सुख मागवा छतां आपता नथी. तेथी ते ‘‘अत्यन्त कष्टथी आराधन थई शके तेवा’’ छे तेथी ज आ लोकनां सुखनी इच्छावाळा ‘‘मने छोडीने बीजाने भजे छे’’ तेम न थतुं होय तो, मारा भक्तो जातजातना; भला तेमज भूण्डा पण होय. तेवुं न थाय ते माटे हुं तेम करुं छुं एवो अर्थ छे ॥१०॥
‘‘बीजो देव पण एवो होय तो आपमां उत्तमता शी? एवी शङ्का थाय तो कहे छे के पछी जलदी प्रसन्न थई जनारा (देवो) पासेथी प्राप्त करेल राज्यनी लक्ष्मीथी उद्धत थई गयेला तेओ प्रमादी अने उन्मत्त थई जाय छे अने पोताने वरदान आपनार देवताओने पण भूली जाय छे तथा तेमनो तिरस्कार करे छे ॥११॥
अध्याय-८८,२१८ दशमस्कन्ध श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! ब्रह्मा, विष्णु अने महादेव, (दुर्गा, गणेश) वगेरे शाप अने वरदान आपवामां समर्थ छे; परन्तु तेमां महादेवजी अने ब्रह्माजी जलदी प्रसन्न अथवा रुष्ट थई जई वरदान अथवा शाप दई दे छे. परन्तु विष्णु भगवान् तेवा नथी ॥१२॥
आ विषयमां प्राचीन इतिहासना जाणकारो कहे छे के महादेवजी एकवार वृकासुरने वरदान आपी आफतमां आवी पड्या हता ॥१३॥
(हिरण्याक्षना पुत्र) शकुनिना दुष्ट बुद्धिवाळा पुत्र ‘वृक’नामना असुरे रस्तामां नारदजीने जोईने तेमने पूछ्युं, ‘‘त्रण देवोमां सौथी जलदी प्रसन्न कोण थई जाय छे?’’ ॥१४॥
तेमणे जणाव्युं ‘महादेवजी’ अने कह्युं ‘‘तुं तेमनी उपासना कर. तारी इच्छा तरत सफळ थशे कारण के थोडाज गुणथी तेओ प्रसन्न थई जाय छे अने थोडा ज दोषथी गुस्से थायछे’’ ॥१५॥
रावण अने बाणासुरे भाट चारणोनी जेममहादेवजीनी (भक्तिपूर्वक नहिपण सपडाववाना दुष्ट हेतुथी) मात्र थोडी स्तुतिज करेली. तेटलाथीज तेओ तेमना उपर प्रसन्न थई गया अने तेमने अतुल्य ऐश्वर्य आपी दीधुं. बादमां तेमने बन्नेना पहेरेगीर बनवुं पडेल होवाथीतेओ सङ्कटमां पण आवी पड्याहता ॥१६॥
नारदजीनां वचनो साम्भळी वृकासुर केदारक्षेत्र (केदारतीर्थनुं जल पेटमां जतां त्यां लिङ्गो प्रकट थाय छे तेवुं ते पवित्र छे.) (अति शुद्ध हिमालय) मां गयो अने अग्निने महादेवजीनुं मुख मानी पोताना शरीरमान्थी मांस कापी-कापी तेमां हवन करवा लाग्यो ॥१७॥
आ प्रमाणे छ दिवस सुधी उपासना करवा छतां पण ज्यारे तेने देवनां प्रत्यक्ष दर्शन न थयां त्यारे ते हताश थई गयो. सातमे दिवसे केदार तीर्थमां स्नान करी पोताना र्भीजायेला वाळवाळुं मस्तक हथियारथी कापवा लाग्यो ॥१८॥
हे परीक्षित! शिवजी महाकारुणिक (‘महाकारुणिकः’-बीजानुं दुःख देखीने जे दुःखी थाय ते कारुणिक (दयाळु). बीजाना उपर दुःख आववानी सम्भावना मात्रथी जे दुःखित थाय ते महाकारुणिक) छे. ‘‘रुद्र, पधारो, आ बलि ग्रहण करो, स्वाहा’’ एम कही जेवो ते पोतानुं माथुं कापवा जाय छे के तत्काल *धूर्जटि (धूळना रङ्गनी जटावाळा) शिवजी अग्निकुण्डमान्थी अग्निदेवनी जेम प्रकट थई पोताना बन्ने [[२१९]] हस्तोथी तेना बन्ने हाथ पकडी लीधा अने माथुं कापतां तेने रोकी दीधो. शिवजीनो स्पर्श थतां ज वृकासुरना अङ्गो पहेलां हतां तेवां ज पूर्ण थई गयाम् ॥१९॥
विशेष - ध्रूजटि - धूळ जेवी जटावाळा (शङ्कर). शङ्करनी जटा धूसरवर्णी छे. देवोने दुर्लभ महामोलो मनुष्य देह मळवा छतां श्रीकृष्णनी भक्ति कर्या विना लोको वृथा मरी रह्या छे तेनो आघात जीरवी न शकावाथी शङ्कर स्मशाननी धूळमां व्याकुल थईने आळोटे छे तेथी तेमनी जटा धूसरवर्णी (धूळना रङ्गनी) थई गई छे. शिवजीए कह्युं - हे अङ्ग! हवे बहु कर्युं, हवे बस छे. तारी इच्छा होय ते वर मागी ले. हुं वर आपवाने तैयार छुं. जे मारे शरणे आवे छे तेने हुं प्रसन्न थाउं छुं. तें तो तारा देहने वृथा दुःख आप्युं. आटलुं करवानी जरूर नहोती ॥२०॥
हे परीक्षित! अत्यन्त पापी वृकासुरे समस्त प्राणीओने भयभीत करी देनारुं वरदान माग्युं के ‘‘जेना माथा उपर हुं हाथ मूकुं ते मरण पामे’’ ॥२१॥
हे परीक्षित! तेनी आ याचना साम्भळी भगवान् रुद्र (रुद्र - प्राणीनुं दुःख देखी जे रोई पडे ते रुद्र. प्राणिनो दुःखं दृष्ट्वा रोदिति) पहेलां तो खिन्न जेवा थई गया, पछी हसीने कही दीधुं, ‘‘सारुं एम ज थशे’’ आवुं वरदान आपी जाणे तेमणे सर्पने अमृत पाई दीधुम् ॥२२॥
ते असुर खरेखर गौरीनुं हरण करवानी इच्छाथी अने ते वरदाननी परीक्षा करवा शिवजीना मस्तक उपर पोतानो हाथ मूकवानो प्रयत्न करवा लाग्यो. हवे तो शिवजी पोते आपेला वरदानथी ज भयभीत थई गया ॥२३॥
ते एमनो पीछो करवा लाग्यो अने शिवजी कारूपता-कारूपता त्रास पामीने त्यान्थी दोड्या. ते पृथ्वी, स्वर्ग अने दिशाओ ना अन्त सुधी दोडता गया. छतां तेने पाछळ पडेलो जोई उत्तर दिशा पकडी ॥२४॥
मोटा-मोटा देवताओ आ सङ्कट टाळवानो कोई उपाय जाणता न होवाथी चूप ज थई रह्या. छेवटे (शिवजी प्राकृतिक अन्धकारथी पर परम प्रकाशमय वैकुण्ठमां (आ वैकुण्ठस्थान बदरीमां नारायण पर्वतना पश्चिम भागमां आवेलुं प्रसिद्ध ज छे. तेमां मूल वैकुण्ठनो आवेश होवाथी ते पण ज्योतिर्मय अने प्रकृतिथी पर छे) गया ॥२५॥
ज्यां शान्त अने दण्डधारी सन्न्यासीओना परम फलरूप साक्षात् (बदरी) नारायण बिराजे छे. त्यां गयेला जीवने फरी (संसारमां) पाछुं आववुं पडतुं नथी. अध्याय-८८,२२० दशमस्कन्ध (सूचन एवुं छे के वृकासुर पण पाछो नहिआवे) ॥२६॥
भक्त भयहारी भगवाने जोयुं के शिवजी तो भारे आफतमां आवी पड्या छे. त्यारे तेओ पोतानी योगमायाथी बटुक ब्रह्मचारी बनी जई दूरथी धीमे-धीमे तेनी सामे आववा लाग्या ॥२७॥
भगवाने मुञ्जनी मेखला (कन्दोरो), काळुं मृगचर्म, (खाखरानो) दण्ड अने माळा धारण कर्या हतां. आपनां एक-एक अङ्गमान्थी धधकती आग जेवी ज्योति नीकळी रही हती. हाथमां दर्भ हता. वृकासुरने जोई विनयवाळानी जेम अभिवादन (वन्दन)* करवा लाग्या ॥२८॥
विशेष - भगवाने वन्दन करी तेनुं आयुष्य हरी लीधुं, दर्भथी तेनुं पुण्य हर्युं, कन्दोरो वगेरे चार वस्तुओथी तेना चारेय पुरुषार्थो हरी लीधा तेजथी तेज अने अग्नि जेवा थई तेनुं बल वगेरे हरी लीधां. ब्रह्मचारी वेशधारी भगवाने कह्युं - हे शकुनिनन्दन वृकासुर! (पसीनाथी रेबझेब थई गयेला होवाथी) आप स्पष्ट रीते ज बहु थाकी गयेला हो तेवा लागो छो. आज आप बहु दूरथी आवी रह्या छो शुं? थोडो आराम तो करी लो. जुओ, आ शरीर ज बधां सुखोनुं मूळ छे. तेनाथी ज बधी कामनाओपूर्ण थाय छे. तेने वधारे पडतुं कष्ट न आपवुं जोईए ॥२९॥
आप तो हर प्रकारे समर्थ छो. अत्यारे आप शुं करवा मागो छो? मने सम्भळाववा जेवी कोई वात होय तो बतावो, कारण के हे पुरुषव्याघ्र! संसारमां जोवामां आवे छे के लोको सहायकोद्वारा घणां काम काढी लेता होय छे ॥३०॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! भगवानना शब्दे-शब्दे अमृत झरतुं हतुं. ए प्रमाणे भगवाने पूछ्युं तेटला मात्रथी तेनो थाक तो क्यांय जतो रह्यो. त्यार पछी क्रमशः पोतानी तपस्या, वरदान प्राप्ति तथा शिवजीनी पाछळ दोडवानी वात कही सम्भळावी ॥३१॥
श्रीभगवाने कह्युं - सारुं! एम छे? तो-तो भाई! अमे शिवजीनी वात उपर विश्वास करता नथी. आप नथी जाणता शुं? शिवजी तो दक्ष प्रजापतिना शापथी पिशाचपणाने प्राप्त थया छे अने प्रेत तथा पिशाचना राजा छे ॥३२॥
हे दानवराज! आप आटला मोटा होवा छतां आवी नानी-नानी वातो उपर विश्वास करी लो छो? आप जो हजु पण तेमने जगद्गुरु मानता हो अने तेमनी [[२२१]] वातमां विश्वास राखता हो तो जलदी पोताना मस्तक उपर हाथ मूकी जोई परीक्षा ज करी लो ॥३३॥
हे दानव शिरोमणि! जो शिवजीनुं वचन असत्य होय तो ए खोटुं बोलनाराने प्रहार करो के एवां खोटां वचन हवे पछी न बोले ॥३४॥
एम सुन्दर विचित्र अने भ्रम करावे एवां भगवाननां वचनवडे एनी बुद्धिमां भेद पड्यो. पहेलान्नी स्थितिने भूली गयो* अने कुबुद्धिवाळाए पोताना माथा उपर ज पोतानो हाथ राख्यो ॥३५॥
विशेष - विस्मृतः ने स्थाने विस्मितः पण पाठ छे. त्यारे अर्थ ‘‘न वयं श्रद्धीमहि ‘‘अमे विश्वास नथी करता’’थी भगवाने आम केम कह्युं हशे ते वातथी ते विस्मयपाम्यो. बस ए ज क्षणे तेनुं माथुं फाटी गयुं अने जाणे के तेना उपर वीजळी पडी होय तेम ते त्यां ज धरती उपर पटकाई गयो. ते वखते आकाश ‘‘जय जय, नमो नमः सारुं थयुं, सारुं थयुं’’ ना पोकारोथी गाजी ऊठ्युम् ॥३६॥
पापी वृकासुरना मृत्युथी देवताओ, ऋषिओ, पितरो अने गन्धर्वो ए पुष्पोनी वृष्टि करी, शिवजीने (भगवाने विकट) सङ्कटमान्थी* छोडाव्या ॥३७॥
विशेष - आ बाजु वाघ अने ते बाजु खीण होय त्यारे माणस सङ्कटमां छे एम कहेवाय. वृकासुर शिवजीना मस्तक उपर हाथ मूके अने शिवजीने कांई हानि न थाय तो पोते आपेलुं वरदान खोटुं पडे अने वरदान साचुं पडे तो शिवजी अजर अने अमर छे तेवुं शास्त्रनुं वचन खोटुरूपडे. हवे भगवान् पुरुषोत्तमे भयमुक्त शिवजीने कह्युं, ‘‘अहो देव! अहो महादेवजी! आ दुष्ट पोताना पापवडे ज मर्यो. हे ईश! महापुरुषोनो अपराध करनार जीव क्यान्थी सुखी थाय? पछी स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर! आपनो अपराध करीने तो कोई सकुशल रही ज केवी रीते शके! ॥३८-३९॥
य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः परस्य साक्षात् परमात्मनो हरिः ॥ गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः ॥४०॥
भगवान्, मन, वाणी अने बुद्धि थी अगोचर तेवी अनन्त शक्तिओना सागर छे. आ महादेवजीनो मोक्ष ए अनन्त भगवाननी अनन्त लीलाओमान्नी एक लीला छे. आप प्रकृतिना नियामक, साक्षात् परमात्मा छे एटलुं ज नहि, बधाना दुःखो दूर करनार पण छे. महादेवजीना मोक्षरूप आ चरित्र ए प्रमाणे जे वर्णन करे अध्याय-८८,२२२ दशमस्कन्ध अथवा साम्भळे ते अज्ञान अने वासनारूप संसारना बन्धनोथी तेमज काम वगेरे शत्रुओथी मुक्त थायछे ॥४०॥
इति श्रीभागवत दशम स्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमा गुण प्रकरणनो श्रीरूप चोथो) ‘‘निर्दोष लक्ष्मी नित्य भगवान् पासे ज रहे छे’’ नामनो (उत्तरार्धनो ओगणचालीसमो अने चालु) अठ्यासीमो (प्रक्षिप्त त्रण ध्याय १२-१३-१४ बाद करतां पच्यासीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. कुल्याः पौराणिकाः प्रोक्ताः पारम्पर्ययुता भुवि। क्षेत्रप्रविष्टास्ते चापि संसारोत्पत्तिहेतवः॥ पोताना कुटुम्बनुं पोषण, धन के यश नी कामनाथी जेओ पुराणनी कथा कहे छे तेओ खेतरमां पाणी पहोञ्चाडनारी नीक जेवा होय छे. नीक वाटे पाणी मळतां जेम खेतरमां अनाज उगतुं होय छे तेम रूपीआ स्वीकारीने कथा करनाराओना मुखे कथा साम्भळनार श्रोताओमां भक्तिभावने ठेकाणे अधोपात करनार अहन्ता-ममताज वधे छे. भक्तिमार्गीओए एवाना मुखे कथा न साम्भळवी. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ८९
श्रीसुबोधिनीजी अनुसार अ. ८६ गुणाधिष्ठाता देव त्रण छे तेमां विष्णु भजन करवा योग्य छे प्रकरण प मुं गुण प्रकरण अध्याय५
विशेष - आगळना अध्यायमां श्रीकृष्ण दान करता नथी एवो सन्देह दूर कर्यो. एनाथी भगवाननी उत्तमतानो निर्धार थयो तो पण भगवाननी श्रेष्ठता आ नेव्याशीमा अध्यायमां स्पष्टताथी कहेवामां आवे छे. लोकमां भगवाननुं माहात्म्य प्रमाण अने प्रमेयना भेदथी बे प्रकारनुं छे. एमां प्रमाणनुं मूळ वेद छे. तेना वडे माहात्म्य प्रथम कहेवायुं; बीजुं प्रमेयथी माहात्म्य भगवाने ज कह्युं छे. भगवान्मां ज्ञानशक्ति पूर्ण छे अने ए ज्ञान क्रियामां ऊतरेलुं छे. सर्वनुं मूळ भगवान् होवाथी सर्वसहन करनार छे. पिताना जेवी एमनी सहनशक्ति अर्ही बतावे छे. अथवा अत्यार सुधीमां भगवाननां ऐश्वर्य, वीर्य, यश अने श्री एम चार गुण कहेवामां आव्या. हवे ज्ञान वैराग्यने श्रीशुकदेवजी राजाना पूछ्या विना पोतेज कहे छे.
ईं उं ईं उं
[[२२३]] सरस्वत्यास्तटे राजन् ऋषयः सत्रमासत ॥ वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! एकवार सरस्वती नदीना किनारे यज्ञनो प्रारम्भ करवाने माटे ऋषि मुनिओ बेठेला हता. ते लोकोमां ए विषय उपर वादविवाद ऊभो थयो के ब्रह्मा, शिव अने विष्णु मां सौथी महान कोण छे?* ॥१॥
विशेष - ऋषि मुनिओने ए जिज्ञासा थई के कर्मनुं फल क्या देवने समर्पण करवुं? केटलाक ऋषिओए कह्युं के ब्रह्माजी पिता होवाथी तेमने समर्पण करवुं. बीजाओए कह्युं के विष्णु यज्ञरूप होवाथी कर्मफल विष्णुने समर्पण करवुं. केटलाके वळी एम कह्युं के महादेवजी ज्ञाननो उपदेश करनार गुरु होवाथी तेमने समर्पण करवुं. क्या एकने बीजा बे देवो अधीन छे तेनो सर्व स्वीकार्य निर्णय न थई शक्यो. नक्की एम थयुं के सौथी वधारे महान होय तेमने कर्मफळ अर्पण करवुं. मोटाई सद्गुणोथी थाय छे. सद्गुणोमां सौथी मोटो सद्गुण-अक्षोभ्यता कोई पण परिस्थितिमां क्षोभ न थाय ए छे. गुस्सो आव्या विना रहे नहि. एवा सञ्जोगोमां पण गुस्सो न करवो ए सत्व गुण ज मोटाईनो मापदण्ड. जेनामां सत्वगुण जेटलो वधारे तेटलो ते वधारे महान. हे परीक्षित! ते लोकोए ए वात जाणवानेमाटे ब्रह्मा, विष्णु अने शिव नी परीक्षा लेवाने माटे ब्रह्माजीना पुत्र भृगु ऋषिने तेमनी पासे मोकल्या. सौथी पहेलां ते ब्रह्माजीनी सभामां गया ॥२॥
(ब्रह्माजी मारा पिता छे, ‘ब्रह्मन्’ शब्दथी ओळखाय छे, सर्वनी प्रवृत्ति पण करावनार छे तेथी तेमने जो क्षोभ न थाय, गुस्सो न आवे, तो आटलेथी ज हुं पाछो फरीश एवो निश्चय करी) ब्रह्माजीना सत्व (विवेक, धैर्य, अक्षोभ्यता वगेरे) नी परीक्षा करवामाटे तेमणे ब्रह्माजीने प्रणाम कर्या नहि अने तेमनी स्तुति पण करी नहि. आथी पोताना तेजथी प्रकाशता भगवान् ब्रह्माजी तेमना उपर गुस्से थई गया ॥३॥
जेम अग्निथी उत्पन्न थयेल जलथी कोई माणस अग्नि ओलवी नाखे तेम समर्थ ब्रह्माजी पोतामां उत्पन्न थयेल पुत्र (भृगुजी) उपर गुस्साने पोते ज गळी गया. (‘‘अग्नेरापः अग्निमान्थी जल उत्पन्न थयुं’’ एवी श्रुति छे. ते मुजब भृगुजीमां ऋषिओए स्थापन करेल ज्ञानरूप ब्रह्म तेजथी ब्रह्माजीनो क्रोध शान्त थयो छे) ॥४॥
अध्याय-८९,२२४ दशमस्कन्ध (ब्रह्माजीने गुस्सो आव्यो. महानने गुस्सो न आवे. भगवान् भोगाविष्ट छे एम मानी तेमने पडता मूकी) पछी त्यान्थी तेओ कैलास गया. (शिवजी भृगुजीना भाई थता होवाथी अने ए रीते समान होवाथी, मात्र शान्त रहेवाथी ते खळभळी नहि उठे माटे वाणीथी अपराध करवानुं कहेल छे.) देवाधिदेव शिवजीए ऊभा थई जई भाईने भेटवा आनन्दथी भुजाओ पसारी ॥५॥
परन्तुं भृगुजीए तेमना आलिङ्गननो स्वीकार कर्यो नहि अने कह्युं, ‘‘तमे लोक अने वेद नी मर्यादाओनुं उल्लङ्घन करो छो तेथी हुं तमने नहि भेटुं’’ भृगुजीनी आ वात साम्भळी शिवजीने गुस्सो आव्यो, नेत्रो लाल थयां, (आङ्खोमान्थी आग झरवा लागी) त्रिशूल उठावी भृगुजीने मारवा ज जता हता त्यां देवी पार्वतीजीए तेमना चरणोमां पडी (विनययुक्त) वाणीथी तेमनुं सान्त्वन कर्युम् ॥६॥
त्यार पछी महर्षि भृगु अविद्यानाशक देव (विष्णु) ज्यां बिराजे छे ते वैकुण्ठमां गया. प्रभु लक्ष्मीजीना खोळामां श्रीमस्तक राखीने पोढ्या हता. भृगुजीए भगवाननी छाती उपर चरणथी लात मारी. (एक कल्पमां लक्ष्मीजी, कर्दमकुमारी ख्याति अने भृगुजीने त्यां पुत्रीरूपे प्रगट थयां हतां तेथी भगवान् भृगुजीना जमाई थाय. एटले द्वारपालोए भृगुजीने रोक्या नहि. सूतेला पुरुषने लात मारीने जगाडवा करतां तेनो कोई मोटो अपराध होई शके नहिं) ॥७॥
सत्पुरुषोनी गतिरूप भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीनी साथे ऊभा थई गया अने एकदम पोतानी सुखशय्या उपरथी नीचे ऊतरी मुनिने मस्तक नमावी प्रणाम कर्या ॥८॥
भगवाने कह्युं, ‘‘हे ब्रह्मन्! आपनुं अर्ही आगमन कुशलतापूर्वक थयुं छे ने? आ आसन उपर थोडी क्षणो बेसी विश्राम करो. हे प्रभो! आपना शुभ आगमनना मने खबर नहोता. तेथी हुं आपनी आगता-स्वागता करी शक्यो नहिं. मारो अपराध क्षमा करो. (हे प्रभो! एवुं सम्बोधन करी भगवान् पोताना गुणो भृगुजीमां स्थापन करे छे) ॥९॥
हे महामुनि! हे प्रिय! आपनां चरणो घणां ज कोमल छे एम कही पोताना श्रीहस्तथी विप्रना चरणनुं मर्दन करता-करता कहेवा लाग्या, (आ दसमा श्लोक उपर श्रीमहाप्रभुजीए श्रीसुबोधिनीजी लख्यां नथी. आगळ पाछळनो सम्बन्ध जोतां श्रीमदाचार्यजीए आ श्लोक प्रक्षिप्त मान्यो होय तेम जणाय छे) ॥१०॥
[[२२५]] तीर्थोने पण तीर्थ बनावनार आपना चरणनां जलथी वैकुण्ठलोकने, मने अने मारामां रहेनार लोकपालोने पवित्र करो. (भगवान् पोताना धर्मो भृगुजीमां मूकी तेमना धर्मो पोते ग्रहण करी आ प्रमाणे बधुं कहे छे. आम भगवान् न करे तो भृगुजीनो नाश थई जाय. जेम महान राजद्रोह करवामां आवे त्यारे राजाना सेवको राजद्रोह करनारनो नाश ज करी नाखे. पण राजा जो ते अपराध करनारने पोताना सिंहासन उपर बेसाडी दे तो बधाय बाधक साधक बनी जाय अने पीडा न करे, तेथी भृगुजीने साचवी लेवा भगवाने आ लीला करी छे. भगवाननुं हीनत्व कहेनारी आ लीला मोह करावनारी समजवी) ॥११॥
हे भगवन्! आपनां चरणकमलोना स्पर्शथी मारां बधां पाप धोवाई गयां. आज हुं लक्ष्मीनो एक मात्र आश्रय बनी गयो. हवे आपनां चरणोथी चिह्नित मारा वक्षःस्थल उपर लक्ष्मी सदा सर्वदा निवास करशे ॥१२॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे भगवाने अत्यन्त गम्भीर वाणीथी आ प्रमाणे कह्युं त्यारे भृगुजी अत्यन्त सुखी, तृप्त अने शान्त थई गया. (अद्भुत कर्म करनारा भगवाने तेमने अपराधना बदलामां प्रेमलक्षणाभक्तिनुं दान कर्युं तेथी) भगवान् विषे ते उत्कण्ठावान् थया अने ‘‘वाह रे भगवच्चरित्र’’ एम आश्चर्य थवाथी नेत्रो प्रेमाश्रुथी ऊभराई गयाम् ॥१३॥
हे परीक्षित! भृगुजी त्यान्थी पाछा ब्रह्मवादी मुनिओनां सत्सङ्ग सत्रमां आव्या अने त्रणेय देवोनो जे अनुभव थयो हतो ते बधो कही सम्भळाव्यो ॥१४॥
(अल्प उत्कर्षनुं ज्ञान प्राप्त करवाने माटे प्रवृत्त थयेला) मुनिओने (विष्णुनो परम उत्कर्ष जणावतो) भृगुजीनो अनुभव साम्भळी भारे आश्चर्य थयुं अने तेनो सन्देह दूर थई गयो. त्यारथी तेओ भगवान् विष्णुने सर्वश्रेष्ठ देव मानवा लाग्या कारण के ते ज शान्ति अने अभय नुं उद्गमस्थान छे (अर्थात् शान्ति अने अभय आपी शके तेवा ते ज छे, बीजुं कोई ज नहि) ॥१५॥
भगवान् विष्णु पासेथी ज साक्षात् धर्म, दया साथेनां ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारनुं अणिमा वगेरे सिद्धिओ सहितनुं ऐश्वर्य अने अन्तःकरणने शुद्ध करी देनार यश प्राप्त थाय छे. (‘दयान्वितम्’ ने स्थाने ‘तदन्वितम्’ पाठ होय त्यारे ‘‘ज्ञान सहित वैराग्य, माङ्कडानुं वैराग्य नहिं’’ एवो अर्थ करवो) ॥१६॥
बधां शास्त्रो कहे छे केशान्त, समचित्त, अकिञ्चन अने बधाने अभय अध्याय-८९,२२६ दशमस्कन्ध आपवावाळासाधु मुनिओनीते ज एक मात्र परम गति(फल)छे ॥१७॥
सत्वगुण भगवाननी प्रिय मूर्ति छे. (सत्वगुण उत्पन्न करनारा) ब्राह्मणो तेमना इष्ट देवता छे. (आथी एम जणाव्युं के आ मार्गमां प्रमाण विघ्न करतुं नथी) निष्काम, शान्त अथवा विवेक अने ज्ञानयुक्त पुरुषो तेमनुं भजन करे छे. (भक्तिमां कुशलबुद्धिनी बहु जरूरनथी) ॥१८॥
भगवाननी गुणमयी मायाए तेनां त्रण स्वरूप बनावी दीधां छे - १.राक्षसो (तामस) २. असुरो (राजस) अने ३. देवो (सात्विक) (आथी एम कह्युं के भगवान् सर्वरूप छे तेथी बधेय भगवद् बुद्धि राखवी) बधामां पण सत्व छे ते पवित्र करनाराओनुं साधन छे. (आथी दरेक रीते श्रीकृष्ण ज सौथी महान छे एम जणाव्युं) ॥१९॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! आ रीते सरस्वती नदीना तीरे रहेनारा ऋषिओए पोताने माटे नहि, मनुष्योनो संशय दूर करवाने माटे ज आ युक्ति रची हती. पोते पण पुरुषोत्तम प्रभुनां चरणकमलोनी सेवा करी तेनाथी प्राप्त थती परम गतिने तेओ पाम्या ॥२०॥
सूतजीए कह्युं - हे शौनकादि ऋषिओ! भगवान् पुरुषोत्तमनी आ कमनीय कीर्तिकथा जन्म-मृत्यु रूप संसारना भयने टाळनारी छे. व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीना मुखारविन्दमान्थी नीकळेली आ सुधा धारा छे. आ संसारना लाम्बां पन्थनो जे मुसाफर पोताना कानरूपी पडियाथी आनुं निरन्तर पान करतो रहे छे तेनी आ दुनियामां आमतेम भटकवाथी थयेली तमाम थकावट दूर थई जाय छे अने ते भगवद् गतिने प्राप्त थाय छे ॥२१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! एक दिवस द्वारिकापुरीमां कोई ब्राह्मणीना गर्भथी एक पुत्र थयो परन्तु ते-ते ज वखते (काल पृथ्वी पर रहेलो होवाथी) पृथ्वीनो स्पर्श थतां ज खरेखर मृत्यु पाम्यो* ॥२२॥
विशेष - ब्राह्मणीना आ दश पुत्रो जेमने माटे भगवान् दूर-दूर पधारशे ते सर्ग वगेरे भगवाननी दश लीलारूप हता अथवा शरीरमान्ना दश प्राणरूप हता अथवा श्रवणादि नव सगुण अने दशमी निर्गुण भक्तिरूप हता. ब्राह्मण पोताना बालकना मृत शरीरने राजमहेलना द्वारे लई गयो अने त्यां ते राखी अत्यन्त आतुरता अने दुःखी मनथी विलाप करतां-करतां आ प्रमाणे कहेवा [[२२७]] लाग्यो* ॥२३॥
विशेष - कमलोथी छवायेल मानस सरोवरमां पण जलना दोषने लीधे छीपो पण थाय छे. ते मुजब भगवान् ज्यां बिराजता होय ते देशमां पण राजाना दोषने लीधे मारो बालक मरण पाम्यो पण साक्षात् भगवान् बिराजता होवाथी मारो बालक पाछो आवशे एवो अर्थ छे. श्रीरामचन्द्रजीना राज्यमां ‘शम्बूक’नामनो एक शूद्र तप करतो हतो. शूद्रोने तप करवानी शास्त्रमां मना छे अने राज्यमां कोई शूद्र तप न करे ते जोवानी जवाबदारी राजानी छे. राजाना आ दोषथी एक ब्राह्मणनो बालक, पिता जीवतो होवा छतां मरण पाम्यो हतो. श्रीरामे शम्बूकने हण्यो अने ते ब्राह्मणनो बाळक जीवतो थई गयो हतो. शम्बूकनो अर्थ छीप पण थाय छे. ‘‘एमां कांई सन्देह नथी के ब्राह्मणोनो द्रोह करनार दुष्ट बुद्धिवाळा, लोभी अने विषयी क्षत्रिय नाम धारी राजाना कर्मदोषथी ज मारा बाळकनुं मृत्यु थयुं छे ॥२४॥
हिंसावडे विहार करनार, खराब आचरणवाळा, अजितेन्द्रिय एवा राजाने भजनारी प्रजा दरिद्री अने नित्य दुःख भोगवनारी होवाथी नाश पामे छे’’ आटलुं बोली बालकने लईने ते चाल्यो गयो ॥२५॥
हे परीक्षित! आ ज प्रमाणे पोतानो बीजो अने त्रीजो बाळक पण जन्मतां ज मरी जवाथी ते ब्राह्मण छोकराना मृत शरीरने राजमहेलना दरवाजे नाखी गयो अने ते ज वात कही गयो ॥२६॥
नवमुं बाळक मरी जवाथी ज्यारे ते त्यां आव्यो त्यारे ते वखते भगवान् श्रीकृष्णनी पासे अर्जुन पण बेठेला हता. तेमणे ब्राह्मणनी वात साम्भळी तेने कह्युं ॥२७॥
(‘‘आ एक स्त्रीमां दश पुत्रो उत्पन्न कर’’ ए श्रुति प्रमाणे मर्यादामार्ग अनुसार दश ज पुत्रो थाय. नव बालक मरण पाम्या. हवे एक ज बाकी रह्यो. गुण नव छे. गुणोनुं कार्य पूरुं थयुं. भगवान् निर्गुण ज कार्य करे छे तेथी नवमो पुत्र मर्या पछी हवे भगवान् विलम्ब करवाना नथी एवो भाव छे) हे ब्राह्मण! तमे ज्यां रहो छो ते द्वारिकामां धनुषने धारण करनार कोई क्षत्रिय नथी के शुं? (सभामां बेठेला क्षत्रियोने बतावी) आ तो मात्र कहेवडाववा पूरता क्षत्रिय छे. (एमना पूर्वजो क्षत्रिय हता. ब्राह्मणो बालकनी रक्षा नथी करता कारण के) ब्राह्मणो तो यज्ञ करी अध्याय-८९,२२८ दशमस्कन्ध रह्या छे. क्षत्रिय दोषथी तमारा पुत्रो मरे छे ए वात तमारी खरी लागे छे ॥२८॥
जे राजाना राज्यमां ब्राह्मणो, धन, स्त्री अने पुत्र ना वियोगवाळा होय छे ते राजाओ नटनी जेम पोतानी जीविका उत्पन्न करी पेट भरनारा छे, तेमां रक्षक्तानो धर्म नथी होतो ॥२९॥
हे भगवन्! हुं तमारी प्रजानी रक्षा करीश, जो आ प्रतिज्ञाने हुं न पाळुं तो अग्निमां प्रवेश करीश अने एम करी प्रतिज्ञाभङ्गनो दोष दूर करी शुद्ध थईश ॥३०॥
ब्राह्मणे कह्युं - हे अर्जुन! अर्ही बलदेवजी, भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धर शिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्वा अनिरुद्ध पण मारा बाळकोनी रक्षा करवा समर्थ नथी. आ जगदीश्वरोने माटे पण आ काम कठिन थई पड्युं छे त्यारे तमे ते केवी रीते करवा मागो छो? खरेखर आ तमारी मूर्खता छे. अमे तमारी आ वात उपर बिलकुल विश्वास करता नथी ॥३१-३२॥
अर्जुने कह्युं - हे ब्रह्मन्! हुं बलदेव, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नथी. हुं तो अर्जुन छुं, जे एकलो ज गाण्डीव धनुष वापरी जाणे छे ॥३३॥
हे ब्राह्मण देवता! आप मारां पराक्रमनो तिरस्कार न करो. आप जाणता नथी, में मारां पराक्रमथी (मृत्युञ्जय) शङ्कर भगवानने पण सन्तुष्ट कर्या हता. हे भगवन्! हुं आपने वधारे शुं कहुं? युद्धमां साक्षात् मृत्युने पण जीती लई हुं आपनुं सन्तान लावी आपीश एटली मारामां शक्ति छे ॥३४॥
हे परीक्षित! अर्जुने ज्यारे विप्रमां आ प्रमाणे विश्वास पेदा कर्यो त्यारे ते अर्जुनना बल-पौरुषनी वाह-वाह करतो-करतो प्रसन्न थई घेर गयो ॥३५॥
ब्राह्मणनी स्त्रीने प्रसूतिनो समय पासे आव्यो त्यारे ते आतुर थई अर्जुन पासे आव्यो अने कहेवा लाग्यो, ‘‘आ वखते मारा सन्तानने तमे मृत्युथी बचावो’’ ॥३६॥
आ साम्भळी अर्जुने मन्त्रथी पवित्र जलनुं आचमन कर्युं. (महादेवजीना आश्रयथी धारेलुं काम पार पाडीश एम विचारी) शिवजीने नमस्कार कर्या. दिव्य अस्त्रोनुं स्मरण कर्युं अने गाण्डीव धनुषने दोरी चडावी ते हाथमां लई लीधुम् ॥३७॥
अजुर्न बाणोने अनेक प्रकारना अस्त्रमन्त्रोथी अभिमन्त्रित करी प्रसूतिगृहने चारे तरफथी घेरी लीधुं. आ प्रमाणे तेमणे सूतिकागृहनी उपर-नीचे, आजु-बाजु बाणोनुं एक पाञ्जरुं बनावी दीधुम् ॥३८॥
[[२२९]] त्यारबाद ब्राह्मणीना गर्भथी एक शिशु थयो जे वारंवार रुदन करी रह्यो हतो. पण जोत-जोतामां ते शरीर साथे आकाशमां अदृश्य थई गयो ॥३९॥
हवे तो ते ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णनी सामे ज अर्जुननी निन्दा करवा लाग्यो. तेणे कह्युं ‘‘मारी मूर्खता तो जुओ के में आ नपुंसकनी वातोमां विश्वास कर्यो ॥४०॥
जेने प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, बलराम के श्रीकृष्ण पण न बचावी शक्या तेनी रक्षा करवा, भला बीजो कोण समर्थ होय?* ॥४१॥
विशेष - जो धनथी पुत्रनुं रक्षण थई शक्तुं होत तो ‘प्रद्युम्न’ करत. ‘द्युम्न’ एटले धन. ‘प्रद्युम्न’ एटले पुष्कळधन. जो बलथी रक्षण थई शक्तुं होत तो ‘अनिरुद्ध’ करत. अ+निरुद्ध एटले युद्धमां जेनी सामे कोई टकी न शके ते जो आनन्द उत्पन्न करावीने रक्षण करी शकातुं होत तो (बल) राम करत. रमण करावे ते राम. जो सृष्टि अने प्रलयथी रक्षा थई शक्ती होत तो ‘केशव’ करत. क=ब्रह्मा, ईश=महादेव-सृष्टि अने प्रलय करता देवो. जो धर्मथी रक्षा शक्य होत तो हुं ब्राह्मण हुं करत. खोटा बोला अर्जुनने धिक्कार छे! पोताने ज मोढे पोतानां ज वखाण करनारा अर्जुनना धनुषने धिक्कार छे!! एनी कुबुद्धि तो जुओ. प्रारब्धे जे बाळकने अमारी पासेथी आञ्चकी लीधुं छे ते बाळकने ते पाछो लाववा मागे छे! मूढतानी कोई मर्यादा होती हशे के नहिं? ॥४२॥
ज्यारे ते ब्राह्मण आ प्रमाणे तेमने गाळो देवा लाग्यो त्यारे अर्जुन दैवी विद्याना प्रभावथी तत्काल संयमनी पुरी गया ज्यां भगवान् यमराज निवास करे छे ॥४३॥
त्यां तेमने ब्राह्मणनो बालक न मळ्यो. पछी शस्त्र लई क्रमशः इन्द्रनी नगरी (पूर्व) मां गया. त्यान्थी अग्नि, नैऋत्य, उत्तण, वायव्य अने पश्चिम दिशाओमां गया. त्यान्थी रसातल, स्वर्ग अने (गन्धर्वो वगेरेनां) बीजां स्थानोमां गया ॥४४॥
परन्तु कोई स्थले तेमने ब्राह्मणनो पुत्र मळ्यो नहि. तेमनी प्रतिज्ञा पूरी न थई शकी, तेथी तेमणे अग्निमां प्रवेश करवानो विचार कर्यो, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णे तेमने तेम करतां अटकावीने कह्युम् ॥४५॥
‘‘भाई अर्जुन! तमे तमारी जाते पोतानो तिरस्कार न करो. हुं तमने अध्याय-८९,२३० दशमस्कन्ध ब्राह्मणना (बधा) पुत्रो हमणां ज बतावी दउं छुं. (लोको तो जेवुं जुए तेवुं बोले छे, साची वात जाणवानी दरकार नथी करता होता) जे लोको आज तमारी निन्दा करे छे तेओ ज वळी आपणी निर्मल कीर्तिनी स्थापना करशे’’* ॥४६॥
विशेष - ‘‘दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना’’ आ पाठ बधां पुस्तकोमां छे. विद्वद्वर्य (विद्वानोमां श्रेष्ठ) धीरजलाल भाईए प्रसिद्ध करेल पुस्तकमां ‘‘मावज्ञात्मानमात्मना!’’ ने बदले ‘‘मावज्ञात्मनः कृथाः’’ पाठ (श्लोकना बीजा पादनो) लीधो छे. सामान्य पाठनो श्रीसुबोधिनीजीमां ‘‘ब्राह्मणपुत्रांस्तुभ्यं दर्शयामि इति ततो हेतोः आत्मनः स्वस्यावज्ञां मा कृथाः’’ आ शब्दोथी अर्थ करेल छे. तेने अनुसरीने आ पाठ लीधो होय तेम जणाय छे, परन्तु लेखकार श्रीवल्लभजी ‘अवज्ञ’ पद आज्ञार्थ (लोट्) ना बीजा पुरुषनुं एक वचन केवी रीते थाय छे ते ‘मनोरमा’ नुं प्रमाण टाङ्की लम्बाणपूर्वक समजावे छे. तेथी लेखकारने पण ‘‘मावज्ञात्मानमात्मना’’ आ पाठ सम्मत छे. अर्थमां कंई फरक पडतो नथी. आ प्रमाणे कहीने, कोईथी रोक्या रोकाया नहि तेवा सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन साथे पोताना दिव्य गरुडध्वज रथमां बेसी पश्चिम दिशा तरफ पधार्या ॥४७॥
तेमणे सात-सात पर्वतोवाळा सात द्वीप, सात समुद्र अने लोकालोक पर्वत वटावी घोर अन्धकारमां प्रवेश कर्यो ॥४८॥
हे परीक्षित! ते अन्धकार एटलो तो घोर हतो के तेमां भगवानना चार प्रसिद्ध अश्वो- शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प अने बलाहक पोताना मार्ग भूली जई ठोकर खावा लाग्या. तेमने कंई सूझतुं ज नहोतुम् ॥४९॥
महायोगेश्वर ब्रह्माजी वगेरेना पण ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णे घोडानी आ स्थिति जोई पोताना हजारो सूर्यना जेवा तेजस्वी सुदर्शन चक्रने आगळ चालवानी आज्ञा करी ॥५०॥
जेम धनुषनी दोरीमान्थी छूटेलुं श्रीरामनुं बाण सडसडाट करतुं दुश्मननी सेनामां घूसी जाय तेवी रीते मनना जेवा वेगवाळा सुदर्शन चक्रे घणा ज भयानक, गाढ अने प्रकाश करतां पण वधारे महान अने बलवान् अन्धकारने तेनाथी वधारे उग्र तेजथी चीरी नाखी तेमां प्रवेश कर्यो. (श्रीरामचन्द्रजीनुं बाण दोरी उपरथी छूटतां ज लक्ष्यने वीन्धीने ज रहे तेम सुदर्शन चक्र श्रीकृष्ण भगवानना श्रीहस्तमान्थी छूटतां [[२३१]] रेखा मात्र आडुं अवळुं गया विना श्रीकृष्णे विचारेली दिशामां अने विचारेल लक्ष्य उपर ज जतुं) ॥५१॥
ए प्रमाणे सुदर्शन चक्रद्वारा बतावायेला मार्गे जतां अर्जुने जोयुं के रथनी पाछळ तो अपार घोर अन्धकार छे अने रथनी आगळ परम ज्योतिर्मय सुदर्शन चक्रनो अनन्त ब्रह्मतेजरूप प्रकाश छे अने वचमां रथ छे. (घोर अन्धकारमां वीजळी थतां आङ्खो अञ्जाई जाय तेम) अर्जुननी तो आङ्खो अञ्जाई गई अने विवश थई तेणे ते र्मीची दीधी ॥५२॥
त्यारबाद भगवानना रथे प्रचण्ड वायुथी उत्पन्न थतां मोटां-मोटां मोजावाळां भयङ्कर जलराशिमां प्रवेश कर्यो. त्यां एक विशाळ सुन्दर महेल हतो. तेमां मणिओना हजार थाम्भलाओ पोताना झगमगाटथी तेनी शोभामां वधारो करी रह्या हता. अने तेनी चारे तरफ अत्यन्त उज्जवल प्रकाश रेलाई रह्यो हतो ॥५३॥
ते ज महेलमां भगवान् शेषजी बिराजमान हता. तेमनुं शरीर अत्यन्त भयानक अने अद्भुत हतुं. तेमने एक हजार मस्तक हतां अने दरेक फेण उपर सुन्दर मणिओ झगमगी रह्या हता. प्रत्येक सिरमां बब्बे नेत्रो हतां अने ते भयङ्कर हता. तेमनुं आखुं शरीर कैलास अथवा हिमालय जेवुं श्वेत वर्णनुं हतुं अने गळुं तथा जीभ नीलवर्णना हतां. (आ शेषजी महादेवजीनुं आधिदैविक रूप छे. जिह्वामां मृत्यु अने कण्ठमां कालकूट झेर होवाथी बन्नेनो रङ्ग नील कह्यो छे.) ॥५४॥
हे परीक्षित! अर्जुने जोयुं के शेष भगवाननी सुखमयी शय्या उपर सर्वना नियामक विभु अत्यन्त प्रभावशाली, सर्वगुणसम्पन्न अति सुन्दर पुरुषोमां पण उत्तम भगवान् बिराजी रह्या छे. तेमनां शरीरनी कान्ति वर्षाकाळना मेघना जेवी *श्यामल छे. अत्यन्त सुन्दर पीळुं वस्त्र धारण कर्युं छे. मुख उपर प्रसन्नता खेली रही छे अने मोटां-मोटां नेत्रो बहु ज सोहामणां लागे छे. ॥५५॥
विशेष - भगवानना श्रीअङ्गनो वर्ण श्याम शा माटे छे तेनां कारणो - १. सत्वगुणनो रङ्ग
श्याम छे अने ते धाम होवाथी भगवान् तेना उपर आधार राखे छे एटले तेना रङ्गनुं
भगवान् उपर प्रतिबिम्ब पडवाथी भगवाननो रङ्ग श्याम थाय छे. २. काल कलि श्याम रङ्गनो
होवाथी ते (कलि) कालमां भगवाननो पण तेवो रङ्ग थाय छे. भगवानना अवतारोनो वर्ण
सत्ययुगमां श्वेत, त्रेतायुगमां लाल अने द्वापरयुगमां पीळो होय छे. श्रीभागवत १०.८.१३
अध्याय-८९,२३२ दशमस्कन्ध
३. चक्षु रङ्गवाळा पदार्थ जुए छे अने रङ्ग न होय त्यारे दूर-दूर फरतुं श्यामना जेवुं जुए छे
तेथी भगवाननो रङ्ग श्याम छे. ४. शृङ्गार रसनो रङ्ग श्याम छे अने भगवान् शृङ्गाररूप
होवाथी आपनो रङ्ग पण श्याम छे. ५. कामनो भाव श्याम छे. ६. आनन्द स्वभावथी ज
श्याम छे तेथी आनन्दपूर्ण भगवान् पण श्याम छे. ७. भगवानने रूप श्याम ज गमे छे
(अने रस माखणनो गमे छे) तेथी भगवाननी रुचि अनुसार आपनो वर्ण श्याम छे. ८.
लक्ष्मीजी वीजळी जेवां झबकतां छे, तेथी तेमने पोताने योग्य श्याम रङ्ग ज गमे छे तेथी
तेमनी रुचिने मान आपवा भगवाने श्याम रङ्ग स्वीकार्यो छे. ९. भगवाननो कुदरती सहज
वर्ण श्यामछे.
बहुमूल्य मणिओथी जडेल मुगट अने कुण्डलोनी कान्तिथी सहस्रो वाङ्कडिया
केशनी अलको चमकी रही छे. लाम्बी-लाम्बी सुन्दर आठ भुजाओ छे. गळामां
कौस्तुभमणि छे. वक्षःस्थल उपर श्रीवत्सनुं चिह्न छे अने घूण्टणो सुधी वनमाला
लटकी रही छे ॥५६॥
अर्जुने जोयुं के सुनन्द, नन्द वगेरे पोताना पार्षद, सुदर्शन चक्र (शङ्ख, तलवार, ढाल, शांर्ग धनुष, गदा, बाण, कमल अने मूशल) वगेरे आयुधो पोतानां आधिदैविक स्वरूपोथी भगवाननी सेवामां उपस्थित हतां. पुष्टि, श्री, कीर्ति अने अजा (प्रकृति) तथा धनधान्य वगेरे ऋद्धिओनां आधिदैविक स्वरूपो पण हजारो ब्रह्माओना अधीश्वर भगवाननी सेवा करी रह्या हताम् ॥५७॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्णे पोताना ज स्वरूप श्रीअनन्त भगवानने प्रणाम कर्यां. अर्जुन एमना दर्शनथी भयभीत थई गया हता; श्रीकृष्णना पछी तेमणे पण तेमने प्रणाम कर्या अने बन्ने हाथ जोडी ऊभा थई रह्या. हवे परमेष्ठिओ (ब्रह्माओ) ना पति भूमा पुरुषे (भूमा पुरुष ए ज अनिरुद्धजी छे.) हसतां-हसतां मधुर अने गम्भीर वाणीमां कह्युम् ॥५८॥
*‘‘हे श्रीकृष्ण! हे अर्जुन! तमारा बन्नेनां दर्शन करवा ज हुं ब्राह्मणना आ पुत्रोने लाव्यो छुं. ब्राह्मणो अने धर्म नुं रक्षण करवामाटे मारी कलारूप तमे पृथ्वी उपर अवतार लीधो छे. पृथ्वीने भाररूप बनी गयेला असुरोनो संहार करी जलदीमां जलदी अर्ही मारी पासे पाछा आवी जाओ ॥५९॥
विशेष - अर्जुननुं अभिमान दूर करवामाटे ज श्रीकृष्णे आ नाट्य कर्युं, नहितर तो ‘‘भूमेति गोवर्धन पूजाग्राही, यः कृष्णः स एव’’ गोवर्धनपूजाने ग्रहण करनार ए ज आ [[२३३]] भूमास्वरूप छे. (श्रीसुबोधिनीजी) तमे बन्ने ऋषिवर नर अने नारायण छो. जो के तमे पूर्णकाम अने सर्व श्रेष्ठ छो तो पण जगतनुं पालन करवा तथा जगतने उत्तम आदर्श आपवा धर्मनुं आचरण करो ॥६०॥
भगवान् परमेष्ठिए ज्यारे ए प्रमाणे आदेश आप्यो त्यारे श्रीकृष्ण तथा अर्जुने ‘बहु सारुं’ कही भूमा भगवानने नमस्कार करी बहु ज आनन्दपूर्वक ब्राह्मणना बाळकोने लई जे रस्ते जेवी रीते आव्या हता ते ज रस्ते तेवी ज रीते द्वारका पाछा आव्या. ब्राह्मणना बाळको पोत-पोतानी उम्मर प्रमाणे मोटा थई गया हतां. तेमनुं रूप, आकृति, स्वभाव, जन्म वखते जेवा हता तेवा ज हता. सर्वशक्तिमान प्रभु श्रीकृष्णे तथा अर्जुने बालको तेमना पिताने सोम्पी दीधा. (ब्राह्मणे एक पुत्र पाछो लाववानी अपेक्षा करी हती, भगवाने बधा लावी आप्या) ॥६१-६२॥
अर्जुनने तो त्यां जईने पाछा आव्या त्यां सुधीमां कांई गम ज पडी नहिं. पछी भगवाने अनिरुद्धना स्वरूपनुं निरूपण कर्युं त्यारे ते साम्भळी तेमने विष्णुना धामनुं ज्ञान थयुं. अर्जुन तो मानता हता के विष्णुनुं धाम पण इन्द्र वगेरेना धाम जेवुं हशे. पण बे धामनी वच्चे पर्वत अने राईना दाणा जेटलो तफावत जाणी तेमने अत्यन्त आश्चर्य थयुं. आ अनुभवथी तेमणे मनोमन गाण्ठ वाळी के जीवोमां जे कंई बल पराक्रम छे तथा में अत्यार सुधीमां जे पराक्रमो कर्यां छे ते बधुं श्रीकृष्णनी कृपानुं ज फल छे ॥६३॥
हे परीक्षित! भगवाने अर्ही पृथ्वी उपर बीजी पण आवी अनेक ऐश्वर्य अने वीरताथी परिपूर्ण लीलाओ करी हती. लोकदृष्टिमां साधारण पृथग्जनोनी जेम सांसारिक विषयोनुं सेवन कर्युं तथा मोटा-मोटा महाराजाओनी जेम उत्तम-उत्तम यज्ञो कर्या ॥६४॥
जेवी रीते इन्द्र प्रजाने माटे समयसर वरसाद वरसावे छे तेवी रीते भगवान् श्रीकृष्णे दरेक रीते श्रेष्ठपणुं बतावतां ब्राह्मण वगेरे समस्त प्रजाजनोना मनोरथ पूर्ण कर्या ॥६५॥
हत्वा नृपानधर्मिष्ठान् घातयित्वाऽर्जुनादिभिः। अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः ॥६६॥
अध्याय-८९,२३४ दशमस्कन्ध आपे घणा अधर्मी राजाओनो स्वयं संहार कर्यो अने घणाने अर्जुनादि द्वारा मरावी नाख्या.आ प्रमाणे धर्मराज युधिष्ठिरादि राजाओद्वारा आपे सम्पूर्ण रीते धर्मनी मर्यादाओनी स्थापना करावीदीधी ॥६६॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमा गुण प्रकरणनो ज्ञानरूप पाञ्चमो) ‘‘गुणाधिष्ठाता देव त्रण छे तेमां विष्णु भजन करवा योग्य छे’’ नामनो (उत्तरार्धनो चालीसमो अने चालु) नेव्यासीमो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां छ््यासीमो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम् । वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोईपणहेतुविनाज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ९०
श्री सुबोधिनीजी अनुसार अ. ८७ भगवद् वैराग्य वर्णन प्रकरण ५ गुण प्रकरण अध्याय६
विशेष - एम सर्वनो उद्धार करीने अमारा ईश्वर क्रीडा करे छे. क्रीडामां प्राप्त थयेल स्त्रीओनां संसारने क्रीडा करीने दूर करावे छे. आ अध्यायनी पूर्वना अध्यायमां ज्ञाननुं निरूपण कर्युं, आ नेवुम्मा अध्यायमां वैराग्यनुं निरूपण करे छे. आ चरित्र अद्भुत छे तेथी एमां प्रणयलीला कहेवामां आवी छे. श्रीकृष्ण भगवान् छे तेथी तेमने पोताने तो विषयमां आसक्ति थती नथी ज परन्तु स्त्रीओने विषयमां आसक्ति थाय तेनुं निवारण श्लोक तेरमामां गति वगेरेथी करवामां आवे छे. आ उत्तरार्धना एकताळीशमा अध्यायमां श्रीशुकदेवजी आनन्दपूर्वक भक्तना सुखमाटे परम उत्सवरूप लीलाने कहेछे(का.) सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः ॥ सर्व सम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - पोतानी द्वारका नगरी जे सर्व समृद्धिथी युक्त छे अने
ईं उं ईं उं
[[२३५]] श्रेष्ठ वृष्णिओथी सेवायेल छे तेमां लक्ष्मीना पति सुखथी निवास करता हता ॥१॥
एमां उत्तम वेशवाळी, नव यौवननी कान्तिवाळी, वीजळीना सरखी तेजस्विनी पोताना घरमां दडा वगेरे साधनोथी क्रीडा करती हती ॥२॥
मदझर हाथीओथी, अलङ्कारथी सज्ज थयेल योद्धाओथी, घोडाओथी अने सोनाना उज्जवल रथोथी ए द्वारकाना मार्गो खीचोखीच भीडवाळा रहेता हता ॥३॥
ज्यां जुओ त्यां (पुष्पप्रधान) बगीचा अने (फलप्रधान) उपवनो लहराई रह्यां हतां. वृक्षोनी अनेक हारो फूलोथी लची रहेली हती. तेमना उपर बेसी भमराओ गुञ्जारव करी रह्या हता अने पक्षीओ कलरव करी रह्या हता ॥४॥
भगवान् श्रीकृष्ण सोळ हजार पत्नीओना एकमात्र प्राणवल्लभ हता. ते पत्नीओना अलग-अलग महेल पण परम ऐश्वर्यथी सम्पन्न हता. जेटली पत्नीओ हती तेटलां ज अद्भुत रूप धारण करी आप तेमनी साथे विहार करता हता ॥५॥
बधी पत्नीओना महेलोमां सुन्दर-सुन्दर सरोवरो हतां. तेमनुं निर्मल जल खीलेलां उत्पल, कल्हार, कुमुद, अम्भोज (नील, पीळां, श्वेत, लाल) वगेरे जात- जातनां कमलोना परागथी महेकी रह्युं हतुं. तेमां झुण्डनां झुण्ड हंस, सारस वगेरे सुन्दर-सुन्दर पक्षीओ कलरव करी रह्यां हतां. भगवान् श्रीकृष्ण ते जलाशयोमां अने क्यारेक-क्यारेक नदीओना जलमां प्रवेश करी पोतानी पत्नीओनी साथे जलविहार करता हता. महोदय भगवाननी साथे विहार करती आपनी पत्नीओ ज्यारे आपने भुजपाशमां जकडी लेतां, आलिङ्गन करती त्यारे भगवाननां श्रीअङ्गोमां एमना वक्षःस्थलनुं केसर लागी जतुम् ॥६-७॥
ते वखते गन्धर्वो आपना यशनुं गान करवा लागता अने सूत, मागध अने बन्दीजन आनन्दथी मृदङ्ग ढोल नगारां वीणा आदि वाजां वगाडवा लागता ॥८॥
भगवाननी पत्नीओ क्यारेक-क्यारेक हसतां-हसतां पीचकारीओथी आपने र्भीजवी देती. आप पण तेमने तरबोळ करी देता. यक्षराज कुबेर यक्षिणीओनी साथे विहार करे ते प्रमाणे भगवान् पोतानी पत्नीओ साथे क्रीडा करता. (यक्षो प्रणय कलहमां प्रवीण होय छे तेथी ते दृष्टान्त आप्युं छे) ॥९॥
ते वखते भगवत्पत्नीओनां वस्त्रो र्भीजाई जवाथी तेमनां वक्षःस्थल अने अध्याय-९०,२३६ दशमस्कन्ध जाङ्ग (साथळ) आदि अङ्गो तेमान्थी झळकवा लागतां. तेमनी लाम्बी-लाम्बी वेणी अने अम्बोडामां गून्थेलां फूल खरी पडतां. तेओ आपने र्भीजवतां र्भीजावतां पीचकारी आञ्चकी लेवाने माटे आपनी पासे पहोञ्ची जतां अने आज बहानाथी पोताना प्रियतमनुं आलिङ्गन करी लेतां. आपना स्पर्शथी पत्नीओना हृदयमां प्रणयभावनुं पूर आवतुं जेथी तेमनां मुखकमल खीली ऊठतां. आवे प्रसङ्गे एमनी शोभा ओर वधी जती हती ॥१०॥
ते वखते भगवान् श्रीकृष्णनी वनमाला ते राणीओना वक्षःस्थल उपर लागेला केसरना रङ्गथी रङ्गाई जती. विहारमां अत्यन्त मग्न थई जवाथी वाङ्कडिया केश उन्मुक्त भावथी लहेरावा लागता. आप राणीओने वारंवार र्भीजावी देता. अने राणीओ पण आपने तरबोळ करी देतां. जेवी रीते हाथणीओथी घेरायेल गजराज तेमनी साथे क्रीडा करतो होय तेवी रीते आप तेमनी साथे विहार करता ॥११॥
भगवान् श्रीकृष्ण अने आपनी पत्नीओ क्रीडा करी लीधा बाद क्रीडामाटे ज खास सिद्ध करावेला अने पहेरेला अलङ्कारो अने वस्त्रो नट, नर्तकी अने गावा बजाववानी ज आजीविकावाळांओने आपी देतां. (भविष्यमां बीजी वार पहेरवामाटे राखी मूकवामां आवतां नहि.) ॥१२॥
हे परीक्षित! भगवान् आ ज प्रमाणे तेमनी साथे विहार करता रहेता. तेमनी गति, वार्तालाप, दृष्टि, स्मित, हासविलास अने आलिङ्गन आदिथी राणीओनी चित्तवृत्ति आपे ज हरी लीधी हती. तेमने बीजी कोई वातनुं स्मरण ज न रहेतुं ॥१३॥
हे परीक्षित! राणीओनुं जीवन सर्वस्व एमना एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ज हता. तेओ कमलनयन श्रीश्यामसुन्दरना चिन्तनमां एटला मग्न थई जतां के जेम उन्मत्त (पागल) गन्धर्वगृहीत् गणाय छे तेम आ भगवद्गृहीत् हता. (पागलने लौकिक भूतप्रेतनो वळगाड होय तेम आमने अलौकिक हतो) उन्मत्तनी जेम असम्बद्ध वातो करतां. जड पदार्थोमां पण चेतन धर्मोनुं आरोपण करतां. प्रेमोन्मादमां तेओ जे कहेवा लागतां ते मारी पासेथी सावधान थईने साम्भळो ॥१४॥
(श्रोताओनो पण निरोध थाय ते माटे श्रीशुकदेवजी, सगुण (नव) अने निर्गुण (एक) एम दश प्रकारना प्रभु प्रत्येना स्नेहरूपी करण (साधन) थी महाराणीओए दश श्लोकमां वर्णन कर्युं [[२३७]] छे ते परीक्षितने कहे छे. आ महिषीगीत छे.) महिषीओ बोल्यां - अरे टिटोडी! अत्यारे तो रात घणी वीती गई छे. संसारमां सर्वत्र सन्नाटो छवाई गयो छे. जो, अत्यारे जेमनुं ज्ञान छुपातुं नथी, प्रगट ज होय छे तेवा ईश्वरे जगतमां शयन कर्युं छे अने तने र्नीद नथी आवती? तुं आ प्रमाणे राते जागती रहीने विलाप केम करे छे? हे सखी! कमलनयन भगवानना मधुर हास्य अने लीला भरी उदार दृष्टिथी अमारा हृदयनी जेम तारुं हृदय पण र्वीधाई तो नथी गयुं ने? ॥१५॥
विशेष - टिटोडी, चक्रवाकी, समुद्र, चन्द्र, मलयनो पवन, मेघ, कोयल, क्रीडा, पर्वत, नदी अने हंस एम दस जणने भगवान्मां स्नेहने लईने स्त्रीओए स्वभावथी कह्युं छे. आमां मनवडे भगवाननुं तिरोधान उक्तिथी स्पष्ट कह्युं छे. वाचिक तिरोधानमां पण रुक्मिणीजीने वाक्यो ज कह्यां छे. अर्ही भगवान् विद्यमान छे. पटराणीओ सम्भोगनी लालसावाळां छे छतां एमनी दृढ आसक्तिनां ख्यापक एमनां वाक्यो छे. पोताना धर्मने अने पोताना प्रियने कुररी वगेरे सर्वमां कल्पीने बहार पण भगवानना वियोगना भावने जोती पटराणीओ प्रलाप करे छे. ए वात अर्ही कहे छे. अर्ही चकवी वगेरे कोई महिषीनी पासे नथी छतां विप्रयोगवशात् उन्मत्त दशामां तेओ बोले छे तेथी असम्बद्ध वाक्यो छे. श्रीसुबोधिनीजी - श्रीभागवत१०.२९.४८। मां ‘‘ततश्चान्तर्दधे कृष्णः’’ ‘‘पछी कृष्ण अन्तर्धान थई गया’’ भगवाननुं कायिक अन्तर्धान कहेल छे तेम अर्ही मानस अन्तर्धान छे. घरनां कामकाज, निद्रा वगेरे अन्य आसक्तिना पदार्थोने दूर करवा बधामां पोताना वियोगने लीधे थता विलाप वगेरेनी तथा पोताना प्रियनी पण कल्पना करीने गान करेलुं छे. भगवाने शयन करवानी लीलानो आरम्भ कर्यो त्यारे प्रथम बहार टिटोडीनो स्वभावाविक विलाप साम्भळीने राजस-राजस महाराणीओने टिटोडीना विलापथी भगवान् जागी जशे एवो भय लागतां, प्रभु जागे तो फरी विहारादि लीला थई शके एम होवा छतां ते इच्छानो त्याग करी, भगवान्मां तेमनो घणो स्नेह होवाथी आपनी निद्रामां भङ्ग न पडे एटलामाटे तेओ टिटोडीने विलाप करतां अटकाववानी प्रवृत्ति करतां दुःखिणी टिटोडीने जोई तेने आश्वासन आपवा सम्बोधन करे छे हे टिटोडी! वगेरे. भगवान् सिवाय समग्र जगत् स्त्रीरूप ज छे अने तेथी समस्त स्त्रीओना भर्ता एकला भगवान् ज छे एम तेओ माने छे तेथी जे कोई दुःखियुं होय तेना दुःखनुं कारण भगवाननो अध्याय-९०,२३८ दशमस्कन्ध विरह ज छे, कारण के बीजुं दुःख भगवान् ज दूर करी दे छे तेथी आ टिटोडी पण स्त्री भगवानना विरहथी दुःखी थयेली अने भगवाने समागममाटे लावीने कटाक्षरूपी बाणोथी तेना मननुं भगवाने हरण करी तेने ज हरी लीधी हती तेथी विलाप करे छे एवो निश्चय करीने तेने कहे छे के हे टिटोडी! तुं विलाप करे छे ते अमे जाण्युं. तेम करवुं अयोग्य होवाथी अमे तने अटकाववा आव्या छीए. तुं शा माटे विलाप करे छे? तुं अने अमे समदुःखी छीए. ऊङ्घ न आवती होय तो पण तुं आडे पडखे थई पडी केम नथी रहेती? (कारिकार्थ) ज्यारे देहमां घणी चिन्ता होय अथवा धातुमां विषमता होय त्यारे, खास करीने भय वगेरेने लीधे ऊङ्घ आवती होती नथी. मोटी चिन्ता ए छे के महा मुश्केलीए प्रसन्न थाय तेवा भगवान् केम वश थशे? (तेथी ऊङ्घ हराम थई गई छे.) अमने पण ऊङ्घ आवती नथी अने अमे सूई पण शक्तां नथी. ‘‘मारी वेदना तमे भगवानने जणावो’’ एम टिटोडी कहे तो कहे छे के ‘‘ईश्वरे शयन करेलुं छे’’ ‘‘परब्रह्म भगवानने तो निद्रा न होय ते केम ऊङ्घे?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘जगतमां’शब्द वापर्यो जगतमां सर्वत्र भगवान् ज पोढे छे, कारण के बीजो कोई निद्रानुं सुख भोगवनार नथी. अथवा बधां प्राणीओने सुख थाय ते माटे (भगवान् जगतमां सर्व स्थळे पोढे छे) एटले ‘जगति’जगतना निमित्तथी निद्रानो विस्तार करे छे. ‘‘त्यारे लोकोने माटे भगवाने स्वीकारेली तेमनी निद्राथी तेमने पोताने पण मोह थतो हशे’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘जेमनुं ज्ञान छुपातुं नथी तेवा अगुप्तबोधः’’ ए विशेषण योजेलुं छे. भगवान् पोढी रह्या होय त्यारे पण आपनुं ज्ञान छुपातुं नथी. ‘‘त्यारे तेमने मारुं दुःख केम जणावता नथी?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘ईश्वर’शब्द योजेलो छे. लीलामाटे पण ईश्वर पोढेला होय त्यारे आपने जगाडी शकाय नहि. तेथी अमारी साथे पति सम्बन्धी वातचीतथी तारुं दुःख दूर कर एम उत्तरार्धथी कहे छे. ‘हे सखी!’एटले समदुःखिणी. ‘‘गाढ- निर्भिन्नचेताः घणा ज घवायेला चित्तवाळी’’ शब्दथी मोटा दुःखनुं कारण पण मोटुं हशे एम कल्पेलुं छे, कारण के पीडा कामथी ज थाय छे. कामनुं नाम पुष्पधन्वा छे. तेनुं धनुष पुष्पनुं बनेलुं होय छे तेथी भगवानना नेत्रने पण कमलरूप कहेलुं छे. वणखील्यां पुष्पथी शुं थाय? ए शङ्का थाय तेथी ‘‘नलिन नयन हास’’ ‘‘कमल जेवा नयनमां जे हास्यवाळा’’ छे एम कहेलुं छे. ‘‘हृदय र्वीधाया विना व्यथा थती नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘ईक्षणेन-दृष्टिथी’’शब्द योजेल छे. तीक्ष्ण बाणने स्थाने दृष्टि छे. ‘‘छतां पण भगवान् दयाळु होवाथी हणशे नहि’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘उदार’=उत्ऊञ्ची छे आराः अणीओ जेनी अथवा ‘‘उद्गताः ऊर्ध्वभूताः प्रबलाः कटाक्षैः पीडाजनकाः दाराः [[२३९]] यस्य’’ ‘‘ऊञ्ची थयेल छे, प्रबल छे, कटाक्षोथी पीडा करनार छे दारा जेनां’’ एवा भगवान् छे. पोते पीडातां होवाथी बीजाने पण पीडशे. दृष्टिने लीलावाळी दृष्टि कही छे, रमतमां जे आसक्त होय ते कोईना पण सुखनो विचार करता नथी होता. तेथी ‘‘घणो ज ऊण्डो घा थयेलो होय तेवा चित्तवाळी’’ कहेवुं छे. (कारिकार्थ) ज्ञानशक्ति (दृष्टि), क्रियाशक्ति (लीला), भक्तियोग (उदारता कारण के मुख्य भक्ति उदार ज होय छे), माया (हास्य) वैभवनो समय (कमलनां जेवा नयनो कह्यां तेथी सूचवेलो कमलमान्थी झरता मकरन्दना स्थाने रहेला जात-जातना सङ्केत सूचवनारो काल)- हरिना सम्बन्धवाळी आ पाञ्च वस्तुओ जेना हृदयमां सदा बिराजे छे ते भक्त पोताना भक्तोनी अन्दर दुःखी (अनिर्वृत) कहेवाय छे ॥१५॥
राजस सात्विक महाराणीओ पहेलान्नी जेम चक्रवाकने खेद करता अटकाववा प्रवृत्त थई कहे छे ः अरे चकवी! तें राते पण पोतानां नेत्रो बन्ध कर्यां नथी. तारा पतिने जोती नथी माटे नेत्रो बन्ध करती नथी अने करुण क्रन्दन कर्या करे छे? के पछी अमारी जेम दासी बनेली तुं अच्युत श्रीकृष्णना चरणमां धरावेली प्रसादी मालाने अम्बोडामां धारण करवा इच्छे छे? ॥१६॥
श्रीसुबोधिनीजी - चकवा-चकवीनुं एक जोडुं महाराणीओने रमवामाटे राखेलुं एम मानीने तेमने जोवा एक चकवी आवी. पोतानी पासे आवेली जोईने ते पण रडे छे एम विचारीने तेनुं पण दुःख दूर करवा महाराणीओ दुःखनुं वर्णन करे छे. ऊङ्घ न आवती होय तो पण नेत्रो र्मीचीने पड्युं रहेवाय. तुं (चकवी) ते पण करती नथी. ‘‘केम आङ्खो बन्ध नथी करी देती?’’ एवो प्रश्न छे. ‘‘नक्तम् रात्रे’’ शब्दथी एम कहेलुं छे के नेत्रो बन्ध करवानो ज आ समय छे. तन्दुरस्त प्राणी नेत्रो बन्ध करे छे. ‘‘मारां पति क्यां छे एनी तपास करवा नेत्रो बन्ध नथी करती अने करुण क्रन्दन करे छे’’ ज्यां चकवी आवेली मानेली तेनी पासे चकवो आव्यो एवी भावना करे छे. आम होवाथी पति पासे होवा छतां रडे छे तेथी तेनी इच्छा प्रसादी माला मस्तक उपर धारण करवानी छे एनो भाव छे. जेम आखो दिवस सेवा करी अन्ते एमने फलनी इच्छा थई तेम आ पण सेवानुं फल इच्छे छे अने ते फल प्रसादरूप छे. भगवान् जो पोताना चरणमां समर्पेली माला आपे तो प्रसाद मळ्यो गणाय. भगवान् प्रसादी माला आपे त्यारे भगवाने मारी सेवानो स्वीकार कर्यो छे एवो निश्चय करीने भक्त ते भक्तिरूप मालाने माथे चडावी कृतार्थ थाय छे. आ चकवीने तेवो प्रसाद मळेल नथी तेथी ते अध्याय-९०,२४० दशमस्कन्ध प्राप्त करवानी इच्छाथी खेद करे छे एम अमारी जेम तुं अच्युतना चरणमां रहेली मालाने अम्बोडामां धारण करवा इच्छे छे?’’ ए शब्दोथी कहे छे. अम्बोडो वगेरे तो महाराणीने होय, चकवाकीने न होय एटले ते प्रसादी माला माथे चडाववा मागे छे ॥१६॥
राजस-तामस महाराणीओ तो समुद्रनो घुघवाट साम्भळीने तेने पण सम्बोधन करे छेः अरे ओ समुद्र! तुं निरन्तर घूघव्या ज करे छे ते तने नीन्द नथी आवती शुं? लागे छे के तने अनिद्रानो रोग लागु पड्यो छे. परन्तु ना, ना, अमे समजी गयां; अमारा प्यारा श्यामसुन्दरे जेवी रीते अमारा देह, इन्द्रियो, प्राण अने अन्तःकरण हरी लीधां छे तेवी रीते तारां धैर्य, गाम्भीर्य वगेरे स्वाभाविक गुणो पण हरी लीधा छे. शुं तेथी ज अमारी माफक ज एवी व्याधिनो शिकार तुं पण थई गयो छे जेनी कोई दवा ज नथी ॥१७॥
श्रीसुबोधिनीजी - समुद्र साम्भळे ते माटे ‘‘भो भोः अरे ओ’’ एम बे वार कहेलुं छे. स्तन् धातुनो अर्थ ‘‘अवाज करवो, घूघववुं’’ थाय छे. निष्टनसे एटले निरन्तर घूघवतो रहे छे एवो थाय छे, आथी जणाय छे के तुं पण राते सूतो नथी. ते न सूवानुं कारण ‘उदन्वन् समुद्र’शब्दथी कहेलुं छे. जे जलवाळो होय ते ठण्डीथी पीडायेलो होय. तेथी ज तने कोई पण रीते ऊङ्घ आवती नथी, उलटुं घणो ज उजागरो थाय छे कारण के ज्यां जल होय छे त्यां लक्ष्मीजीनुं उत्तम रमण थतुं नथी तेथी तेनी अन्दर त्यां इन्द्र अने इन्द्राणी भोग करता नथी. तेथी निद्रानुं *प्रयोजन नहि होवाथी तेने उजागरो ज थाय छे, परन्तु तेने निद्रा आवती नथी. ‘‘छतां पण राडाराड करवानुं शुं प्रयोजन?’’
विशेष - श्रुतिमां उपाख्यान आवे छे के ‘‘जमणी आङ्खमां इन्द्र रहे छे अने डाबी आङ्खमां इन्द्राणी रहे छे, ऊङ्घता होइए त्यारे तेओ परस्पर भोग करे छे. तेथी तेओ भोग करे ते माटे ऊङ्घ छे’’ तेथी जलवाळा प्रदेशमां लक्ष्मीजीनुं रमण थतुं नहि होवाथी, प्रदेश (समुद्र) उत्तम नहि होवाथी तेमनो (इन्द्र अने इन्द्राणिनो) भोग तेमां थतो नथी तेथी अर्ही तेमनो भोग थाय ते प्रयोजनथी निद्रा थाय नहि तेथी समुद्रने ऊङ्घ आवती नथी अने ऊङ्घनुं फल तेमनो भोग पण थतो नथी एवो अर्थ छे. तेथी तेमनो भोग न थाय ए ज उजागरो एवो अर्थ छे. (लेख) विद्वानोनुं मानवुं छे केअर्ही इन्द्र अने इन्द्राणी अनुक्रमे नारायण अने लक्ष्मीजी ना अर्थमां योजाया छे. द्गएवी शङ्का थाय तेथी उत्तरार्ध कहे छे. जेम भगवान् अमारा हृदयमां शयन करे छे तेम पहेलां ए प्रमाणे समुद्रमां पण शेषरूपी शय्या उपर शयन करता हता. त्यां (समुद्रमां) थी [[२४१]] हमणां अर्ही अवतार लई बिराजेला छे ते ज प्रमाणे अमारा हृदयमान्थी पण तिरोहित थयेला छे. तेथी ज (पोतानुं) सर्वस्व जाय त्यारे चीसो पाडवी योग्य ज छे. ‘मुकुन्द’ एटले मोक्ष आपनाराए हरी लीधेलुं छे महाराणीओनी पेठे लाञ्छनम् चिह्न जेनुं तेवो समुद्र छे. तेथी तेने मोक्ष पण मळ्यो नथी अने संसार पण रह्यो नथी तेथी (मोक्ष अने संसार) बन्नेथी तुं भ्रष्ट थयेलो होवाथी अमारी जे हालत थई छे ए हालत तारी पण थई छे. ए प्रमाणे समुद्रना दुःखनुं वर्णन करी, ‘‘न दुःखं पञ्चभिः सह पाञ्चनी साथे रहेवाथी दुःख (लागतुं) नथी’’ ए नियम प्रमाणे ते दूर करेलुं छे. ‘‘दूरत्ययाम्-जेनो कोई ईलाज के दवा नथी तेवी’’ ए विशेषणथी बीजा प्रकारे पण दुःख हरे छे. आ दशा अमारी जेम तारी पण सदाकाळमाटे थयेली छे तेथी आ दशानो कोई उपाय न होवाथी दुःख गणकारवुं न जोईए एवो भाव छे ॥१७॥
तामस-तामसी महाराणीओ तो कालने शाप आपतां, रात जो पूरी थाय तो अमारुं दुःख मटे एवो निश्चय करी, चन्द्रनो अस्त थाय त्यारे सवार थाय तेथी चन्द्रनी गति उपर मीट माण्डी ज्योतिओनी गति देखी शकाय तेवी न होवाथी (चन्द्र) धीमे-धीमे चाले छे अथवा चालतो नथी एवो निर्णय करी अति कामने लीधे अन्ध जेवा थई गयां. बहार अन्धारुं घोर जोईने तेओ नीचेनो श्लोक कहे छे ः हे चन्द्रदेव! तमने बहु भारे क्षयरोग लागु पडी गयो छे. तेथी ज तमे आटला क्षीण थई रह्या छो. जेथी हवे तमे पोतानां किरणोथी अन्धारुं पण हटावी शक्ता नथी ते घणुं आश्चर्यकारक छे. अमारा प्यारा श्यामसुन्दरनी मीठी-मीठी वाणी भूली जवाथी तमारी वाचा बन्ध थई गई छे? शुं तेनी ज चिन्ताथी तमे मौन थई रह्या छो? अमने तो तमे तेवा लागो छो ॥१८॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘यक्ष्मा’एटले क्षय रोग. ते पण बलवान् (गम्भीर) अने दक्ष प्रजापतिना शापथी थयेलो छे. तेथी ज तमने ते लागु पड्यो छे अने तेथी चालता नथी ए बराबर छे. (पण) ‘‘पोतानां किरणोथी अन्धकार दूर करता नथी’’ ते घणुं आश्चर्यकारक छे. आ विषयमां अमारो अनुभव ज प्रमाण छे. ए प्रमाणे चन्द्रनो दोष कही, घणुं करीने आनो आ दोष स्वाभाविक नथी एवो निश्चय करी, उत्तरार्धथी बन्ने बाबत (चन्द्र झडपथी चाली शक्तो नथी अने अन्धकारनो नाश करतो नथी) नां कारणनी कल्पना करे छे. मुकुन्द मोक्ष आपवामाटे केटलाङ्क वाक्यो बोलेला ते (वाक्यो) ने दुर्लभ मानी, भूली जई, पछी घणी ज चिन्ताने लीधे तमारी वाणी बन्ध थई गई. (वाणी विराम पामी) तमारा मुखमान्थी वाक्य अध्याय-९०,२४२ दशमस्कन्ध पण नीकळतुं नथी. चन्द्रमानुं वाक्य ज *‘गो’ होवाथी किरणरूप छे अने इन्द्रिय होवाथी चरणरूप छे. ते न होवाथी (अटकी पडवाथी) झडपथी जवानुं अने अन्धकारनो नाश करवानुं बन्ने तमाराथी थतां नथी. ‘भो हे’ एवुं सम्बोधन ‘‘अमे जे कहीए छीए तेम थयेल छे के नहि?’’ एवो प्रश्न पूछवा करेलुं छे. ‘‘तमे (महाराणीओए) ते केम जाण्युं?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘उपलक्ष्यसे नः। अमने तमे तेवा जणाओ छो’’ एम कहेलुं छे ॥१८॥
विशेष - ‘गो’ एटले १. वाणी २. किरण ३. इन्द्रिय. चन्द्रनी वाणी अटकी गई छे तेथी तेना मुखमान्थी वाक्य नीकळतुं नथी. अर्ही गिर् शब्द वाणीना अर्थवाळो योजेलो छे. तेथी चन्द्रनुं वाक्य ज गो होवाथी किरणरूप छे अने इन्द्रियरूप पण छे. किरण अटकी पड्यां तेथी अन्धकारनो नाश थतो नथी. इन्द्रिय एटले चरण अटकी पड्यां तेथी झडपथी चालता नथी. तामस राजसी महाराणीओ कामथी पीडित होवाथी, नीचेना श्लोकमां मलयपर्वतना वायुने ठपको (गाळो) आपे छे ः हे मलयानिल! (मलय पर्वतना वायु)! अमे तारुं शुं अप्रिय कर्युं (बगाड्युं) छे के जेथी तुं अमारा हृदयमां कामनो सञ्चार करे छे? अरे तुं जाणतो नथी शुं? भगवानना कटाक्षथी अमारुं हृदय तो पहेलेथी ज र्वीधाई चूक्युं छे ॥१९॥
श्रीसुबोधिनीजी - हे मलयानिल! अमे ते तारुं शुं अप्रिय कर्युं छे? शीतल मलयना वायुनुं अप्रिय (तेने) उष्ण बनावनारुं कार्य छे. ज्यारे अमे भगवान् साथे रहेतां हतां त्यारे अमारां हृदय उपर लगाडेलां चन्दन वगेरेथी अमे तने घणो शीतल बनावेलो. ए प्रमाणे उपकार करनारा उपर तुं अपकार केम करे छे? ‘‘शुं अपकार कर्यो?’’ एवी शङ्का थाय तेथी कहे छे के गोविन्दना कटाक्षनुं स्मरण थतां ज वीन्धाई गयेलां हृदयमां तुं कामनो सञ्चार करे छे. जेम वृक्षना पोलाणमां कोई अग्नि मूके के जेथी आखुंय वृक्ष लीलुञ्छम होवा छतां बळी जाय तेम तुं अमने ताप उपजावे छे एवो अर्थ छे. गोकुल पधारेला भगवाननी लीलानुं स्मरण थई आव्युं अने तेथी ज घणुं दुःख थयुं एम ‘गोविन्द’ शब्दथी सूचवेलुं छे. परन्तु जो हमणां अमे तप्त (दुःखी) छीए तेथी तारो अमारा उपर रोष होय तो पण (तुं) मलयानिल सर्पादिए गळेलो आवे छे तेवाना उपर कोण अपकार करी शके? ॥१९॥
तामस सात्विक महाराणीओ तो मेघने भगवानना जेवो जोईने मेघे चन्द्रने ढाङ्की दीधेल होवाथी थोडीवार जाणे के ठण्डक प्राप्त करी होय तेम नीचेना श्लोकमां तेनी प्रशंसा करी, पछी पोताना गुणोनो तेमां आरोप करीने ते पण दुःखी छे एवी कल्पना करी, पोताना समानपणाने लीधे तेनुं दुःख दूर करे छेः [[२४३]] हे श्रीमान् मेघ! तमारा शरीरनुं सौन्दर्य तो श्यामसुन्दरना जेवुं ज छे. अवश्य तमे यदुवंशशिरोमणि भगवानना परम प्यारा छो त्यारे तो तमे अमारी जेम प्रेमपाशमां बन्धाई एनुं ध्यान करी रह्या छो. तमारुं हृदय शब्दना बळवाळुं एटले लौकिक कार्यमां निन्दनीय थयेलुं छे. तेमने माटे तमे अत्यन्त आतुर थई रह्या छो. त्यारे तो वारंवार तेने याद करी-करी अमारी माफक ज आंसुओनी धाराओ वहावी रह्या छो. हे श्यामघन! खरेखर घनश्यामनी साथे सम्बन्ध बान्धवो ए घेर बेठां आफतने आमन्त्रण आपवा बराबर छे ॥२०॥
श्रीसुबोधिनीजी - मेघने श्रीमान् विशेषण एटलामाटे आपवामां आव्युं छे के ते विद्युत वगेरेथी शोभावाळो छे. ए प्रमाणे मेघनो आदर करे छे. तुं भगवाननो प्रिय छे. केमके तुं वर्ण (रङ्ग) मां भगवानना श्याम वर्ण (रङ्ग) वाळो छे. तेमनी माफक वस्त्रो पण पीळा छे. तथा प्राणीओने जीवन पण आपे छे अने तेमना तापने पण मटाडे छे. आ कार्योने लीधे तुं भगवानने प्रिय छे. ‘‘त्यारे तो हुं सुखी छुं. जेथी तेमने हुं सुखी करीश’’ जो मेघ आ प्रमाणे कहे तो आथी कहे छे के तुं सुखी नथी. कारण के तुं पण अमारी माफक श्रीवत्स चिह्नवाळा (भगवान्) नुं मात्र ध्यान करी रह्यो छे. तने पण तेमनां दर्शन थतां नथी कारण के आ समये भगवान् सूई रह्या छे. मित्र होय ते मित्रना भावोने जाणे छे. भगवाननां दर्शन थाय तो अथवा मळे तो पण आनन्द थाय छे. ते पण सुखथी सूई रह्या छे. आथी मित्र (भगवान्) नी सुखी अवस्था जोईने मित्र मेघ सुखी थाय छे. कोई वखते दुःख करतो नथी. आ प्रकारनी शङ्का थाय तेथी कहे छे के भगवान् श्रीवत्सना चिह्नवाळा छे. ब्राह्मण तेमनुं अतिक्रमण करे छे. तेनी चिन्ताथी दुःख थाय छे एवो अर्थ छे. लक्ष्मीजी श्रीवत्समां रहे छे परन्तु अत्यारे तो ते लक्ष्मीजी भगवान् पासे छे. जेथी भगवान् लक्ष्मीजीनी साथे होवाथी अमने ध्यानमां पण लेता नथी आथी अमने दुःख छे. जेम ब्राह्मण लक्ष्मीजीना अतिक्रमथी भगवाननुं अपमान करे छे. जेनी चिन्ताथी मेघने दुःख थाय छे. एक ज श्रीवत्स बन्नेना दुःखमां कारण छे. आटलामाटे कह्युं छे के ‘‘वयमिव-अमारी माफक’’ जो कहो के दुःखने भूली जाव तो आ वात पर कह्युं छे के ‘‘प्रेम बद्धः जेना अन्तःकरणने प्रेमरूपी दोरडाथी बान्धी राखे छे तेने भूली शकातुं नथी’’ हुं तो सुखी छुं. मारामां तमने दुःखना क्या धर्मो देखाया छे? आ प्रकारनी आकाङ्क्षा थाय तो कहे छे के पाञ्च प्रकारनो क्लेश (दुःख) तारा (मेघ) मां अमने देखाय छे. १. भगवाननां दर्शननी उत्कण्ठा, आ पहेलो मानस क्लेश छे. २. घणा जोरथी मेघनाद-अवाज (गर्जना) करवाना कारणे लोकमां निन्दाने पात्र थयो छे. जे बीजो क्लेश छे. तेथी थती गर्जना अध्याय-९०,२४४ दशमस्कन्ध रोकी दे. ३. आथी तुं अमारा जेवो धूसर (धूलना जेवा रङ्गवाळो), गति रहित अने निस्तेज थई गयो छे. महाराणीओ आकाशमां रहेला मेघने जोईने आ वचन कही रह्यां छे. ४. आ बधा दुःखोनुं नियामक दुःखने कहे छे के तुं थोडी-थोडी वारे आंसुओनी वर्षा करी रह्यो छे. ५. बहु दुःख थाय छे. तुं वारंवार प्रियनुं स्मरण करे छे कारण के वारंवार स्मरण करवाथी दुःख थवाथी आ प्रमाणे थोडी-थोडीक वारे आंसु वहावे छे. (वर्षा करे छे) जो मेघ कहे के में क्यो अपराध कर्यो छे? जेथी मने आटलुं दुःख आपे छे? जेनो उत्तर आपे छे के ‘दुःखदस्तत्प्रसङ्गः’ तेमनो प्रसङ्ग (सम्बन्ध) मात्र ज बधा दुःखनुं कारण छे तो
विशेष सङ्ग तो दुःखदायी होय ज, जो न थतो होत तो अमे महाराणीओए एवो क्यो अपराध कर्यो छे? जगतमां कोई एवुं जोवामां आवतुं नथी के जेणे भगवान् साथे प्रेम करीने क्षण मात्र पण सुख मेळव्युं होय! आ दोष तो भगवान् साथे सम्बन्ध जोड्या पछी जाणवामां आवे छे. जेमणे आनो अनुभव कर्यो नथी तेमने माटे आ दोष बाधक नथी. तेथी जे अनुभवी नथी ते भगवान् साथे प्रेम करवा चाहे छे ॥२०॥
सात्विक सात्विक महाराणीओ नीचे प्रमाणे विचार करे छे ः हे कोयल! तारुं गळुं अत्यन्त सुरीलुं तेम ज ऊञ्चुं छे. मीठी बोली बोलनार अमारा प्राणप्रियनी जेम ज तुं मधुर स्वरथी बोले छे, खरेखर तारी बोलीमां अमृत घोळेलुं छे, जे प्रीतमना विरहथी मरी रहेला प्रेमीओने जीवाडनारुं छे. तुं ज बताव, अत्यारे अमे तारुं शुं प्रिय करीए? ॥२१॥
श्रीसुबोधिनीजी - पछी कोयलनो अवाज साम्भळी, भगवान् अमने बोलावे छे एम थोडी वार परम आनन्दनो अनुभव करी, आवुं सुख अमने कोयल नी वाणीथी थयुं एम विचारी तेनी प्रशंसा करे छे. ‘प्रियराव’ एटले प्रियना अवाज जेवो छे अवाज जेनो तेवी, हे प्रियना जेवा अवाजवाळी! एम कहे छे. कोयलने भगवाननो सम्बन्ध छे तेथी तारी (कोयलनी) साथे वात-चीत करवामां पण कांई पण दोष नथी. ‘‘ए भगवाननुं ज वाक्य नथी पण कोयलनुं छे एम शाथी जाण्युं?’’ एवो विचार थाय तेथी ‘‘पदानि भाषसे’’ शब्दो बोले छे’’ एम कहेलुं छे. ते बोले छे तेनां वाक्यनो अर्थ जाणतो नथी. तेथी ते बोले छे ते वाक्य नथी पण भगवाने कहेला शब्दोनुं ते स्मरण करावे छे. तेथी समानताने लीधे कोयलनी वाणी शब्द छे. ‘‘त्यारे आवी शब्दवाळी वाणीनो शुं उपयोग?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘मरेलाने जीवाडनारी आ वाणीथी’’ ए शब्दो योजेला छे. पहेलां भगवानना विरहने लीधे अमे लगभग मरेलां ज हतां. जो एक क्षण पण कोयलनो टहुको साम्भळ्यो न होत तो मरी ज [[२४५]] गयां होत तेवो अर्थ छे. आ वाणी मरेलाने जीवाडनारी छे. आ वाणीथी तने ओळखी काढी. तारुं अमे शुं प्रिय करीए? एक महाराणी वधारामां कहे छे, ‘मने कहे’मारी पासे आवी एकान्तमां कहे. हुं तने खीर खवडावीश एवो भाव छे. परन्तु आवी मीठी वाणी वारंवार बोलती रहेजे एवा अभिप्रायथी ‘‘हे वल्गित कण्ठवाळी’’ एवुं सम्बोधन करेलुं छे. ऊञ्चो छे स्वर (कण्ठ) जेनो एवी तुं छे. तुं शब्दो बोलवा प्रयत्न करे छे पण बोलती नथी एम कहेवा आ सम्बोधन करेलुं छे. ‘हे कोयल!’ ए सम्बोधन ते मुख्यत्वे शब्द बोलनारी छे एम जणाववा करेलुञ्छे ॥२१॥
सात्विक-राजस महाराणीओए नीचे प्रमाणेकह्युं ः हे उदार बुद्धिवाळा पर्वत! तें ज पृथ्वीने पण धारण करी राखी छे. तुं नथी तो हालतो चालतो के नथी कंई बोलतो चालतो. एवुं जणाय छे के तुं कोई महान गम्भीर विषयनुं चिन्तन करी रह्यो छे. ठीक छे, ठीक छे. अमे समजी गयां के तुं पण अमारी ज माफक पोताना स्तनो समान घणां शिखरो उपर, भगवान् श्यामसुन्दरना चरण कमलने धारण करवानो मनोरथ सेवे छे ॥२२॥
श्रीसुबोधिनीजी - आ पर्वत पण भगवानना चरणारविन्दने धारण करतो होवाथी भक्त छे एवो निर्णय आ श्लोकमां करवामां आवे छे. तेवो भक्त पण भगवानना नामनो उच्चार करतो नथी तेथी तेनुं कारण पूछे छे अने ते भ्रान्त नथी ज एम ‘‘उदारबुद्धे-हे उदार बुद्धिवाळा!’’ ए सम्बोधनथी कहे छे. पर्वतनी बुद्धि उदार छे. तेनी बुद्धि आ प्रमाणे विचार करे छेः‘‘भगवानना नामनो उच्चार करवाथी शुं? जेने भगवाननो मात्र आश्रय छे ते सर्व कृतार्थ थशे. तेवो उपाय करवो जोईए के जेथी समग्र विश्व ज कृतार्थ थई जाय’’ तेथी ‘‘बधाने पुरुषार्थो प्राप्त थाओ’’ एवी तेनी उदार बुद्धि छे. तेथी ज ‘‘तुं महान विषयनुं चिन्तन करे छे’’ तेथी मन निश्चल होवाथी तारी काया अने वाणी पण निश्चल छे. ते अर्थ ‘‘तुं हालतो चालतो नथी, बोलतो चालतो नथी’’ ए शब्दोथी कहेल छे. ‘हे क्षितिधर।’ ए सम्बोधनथी आनी बुद्धि सारी होय ते योग्य छे एम कहे छे. भूमि उपर रहीने भूमिने जे धारण करे ते घणी ज सारी बुद्धिवाळो होय ज. ‘‘त्यारे आवो महान विषय क्यो हशे?’’ तेनो विचार करी, महाराणीओ पोते ज श्लोकना उत्तरार्धथी ते विषय जणावे छे. वसुदेवजीना पुत्रनुं ज चरण आवुं छे, के एक पण पुरुष तेनुं चिन्तन करीने विश्वनो मोक्ष करावी शके छे. तेथी घणाभागे आपना चरणनां चिन्तननी ज इच्छा तें सेवेली छे. ‘‘तमे आ केम जाणी लीधुं? कारण के पृथग्जन सामान्य माणस- आ विषय जाणतो नथी होतो’’ एवी शङ्का थाय अध्याय-९०,२४६ दशमस्कन्ध तेथी ‘‘अमारी जेम कामना करे छे’’ ए शब्दो योजेला छे. अमारी पण आ ज इच्छा छे के भगवाननां चरणने स्तन उपर धारण करवुं. आ तो ज्यारे भगवान् पोढेला होय त्यारे चरण चारूपवा वगेरे उपायथी थई शके. तुं तो (भगवान् तारा उपर परिभ्रमण करे त्यारे) आपनुं चरण तारा उपर धारण करी शके. पर्वतनी टोचना जेवा भाग तेनां स्तन छे. अमारे चरणने स्तन उपर धारण करवानुं बन्ध विशेषमां थाय छे अने पर्वतने सात्विक भाव उभरातां जेम गयामां थयेल छे तेम टोच उपरनां मेदानमां चरणनी आकृति ग्रहण करवाथी थाय छे- आटलो अमारी अने पर्वतनी वच्चे तफावत छे एवो अर्थ छे ॥२२॥
सात्विक तामस महाराणीओए नीचे प्रमाणे कह्युंः जेम अमे यदुपतिना प्रणय अने दृष्टि प्राप्त न थवाथी अमारुं हृदय खोई बेठां छीए तेम सागरनी पत्नीओ (नदीओ) ने पण मनना मान्या पतिना प्रणय अने दृष्टि प्राप्त नहि थतां तेओना कुण्ड सुकाई गया छे. पोते क्षीण थई गई छे अने हवे तो तेमां कमलोनी शोभा पण रही नथी ॥२३॥
श्रीसुबोधिनीजी - क्रीडा करवामाटे बनावेला पर्वतोनी जे नदीओ अन्तःपुरमां हती ते पहेलां अगाध जलवाळी हती. पछी धीमे-धीमे क्षीण थतां उनाळामां तेमना धरा पण सुकाई गया. महाराणीओ घणां दूबळां थई गयां छे एम जणाववा आ कहेलुं छे. थोडा समय पछी अरर! तेमना पटमां काङ्करा ज ऊडता रहेशे एम अमे पण हती न हती थई जईशुं. ‘‘कई योग्यताने लीधे नदीओनुं वर्णन करवामां आवे छे? तेओमां कोई पण भगवदीय गुण नथी (एटले के महान पतिने प्राप्त करीने पण, कोई वार तेमनो वियोग थाय त्यारे घणा दूबळा थई जवुं ए भगवदीयोमां रहेल तेमनो गुण छे एवो अर्थ जणाववा आ शङ्का अने तेनुं समाधान करेलां छे) एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘सिन्धुनी पत्नीओ’’ शब्द योजेल छे. ‘सिन्धुनी’ एटले महान जलराशिनी पत्नीओ थवा छतां पण जेम घणी ज क्षीण थई गयेली छे तेम अमे पण आनन्दाकार कोटि ब्रह्माण्डोना पतिनी पत्नीओ होवा छतां पण घणां ज खिन्न छीए एम जणाववा नदीओनी कथा कहे छे. शरीरनुं दुःख होवा छतां पण जो चिन्ता न होय तो पण मुख करमाई जाय नहि. तेवुं पण नथी एम जणाववा ‘‘हमणां कमलनी शोभा विनानी’’ ए विशेषण योजेल छे. ‘‘ए प्रमाणे अन्तःकरणनुं अने शरीरनुं दुःख थयुं. शाथी?’’ ए जाणवानी इच्छा थतां, पोते ज ‘‘इच्छेला पति यदुपतिना प्रणय अने दृष्टि प्राप्त न थतां’’ ए शब्दोथी ते (दुःख) नां कारणनी कल्पना करे छे. मननो मान्यो पति न मळवाथी मनमां दुःख थाय छे अने (पोताने) पोषनारी (ए पतिनी) दृष्टि न मळवाथी शरीर [[२४७]] करमाय छे. जो के नदीओनो पति समुद्र छे, छतां पण ते जोयेलो नथी कारण के क्रीडामाटे महेलमां बनावेला पर्वत उपरनी आ नदीओ छे. तेथी आ नदीओ महेलनी बहार नीकळती ज न होवाथी तेमणे समुद्र न ज जोयो होय. भगवान् तो सर्वना पति होवाथी ‘‘इच्छेला पति’’ छे. अर्ही भर्तृ=पति’शब्द ‘‘पालन करनार’’ ना अर्थमां योजेलो छे, कारण के दृष्टान्तमां लागु न पडे तेवो गुण कहेवो ए प्रसिद्ध नथी. ‘‘जेम अमे दूबळां थई गयां छीए तेम आ सुकाई गई छे. अमो इष्ट पतिना प्रणय अने दृष्टि विनानां हमणां ज थयां छीए तेथी क्षणमात्रमां दूबळां थई गयां छीए. सजातीयनो पति (पालन करनार) सजातीय होय. जो पति महान होय तो विषम जातीय (एक जातना न होय ते) मां पण स्नेह राखी पालन करे. आ महानता जणाववा ‘यदुपति’शब्द योज्यो छे. दृष्टि ए बहारनो गुण छे अने स्नेह ए अन्दरनो गुण छे. ते बेमान्थी एकेय प्राप्त न थतां अमे अन्दर तेम ज बहारथी दूबळां थई गयां छीए. ‘‘जेम मिष्टान्न न मळे तो जे मळे तेथी पुष्ट केम न थवाय?’’ एनुं समाधान ‘‘हरायेला चित्तवाळी’’ थी करे छे. हृदय पहेलेथीज चोराई गयुं छे तेथी जे साधनथी कोईनुं पण ग्रहण थई शके ते साधन भगवानेज हरी लीधेलुं छे तेथी हवे बीजा कोईथी पुष्ट थवानी नथी एवो अर्थ छे ॥२३॥
एवी रीते बहार विचार करतां केटलाङ्क गुणातीत महाराणीओ दूर गयां. पछी अन्तःपुरमां ज नदी वगेरेना तीर उपर रहेलां हंसने जोईने तेमणे नीचे प्रमाणे कह्युंः हे हंस! आव, आव, भले आव्यो. अमे तारुं स्वागत करीए छीए. बेस, ले दूध पी. प्रिय हंस! श्यामसुन्दरनी कोई वात तो सम्भळाव. अमे समजीए छीए के तुं तेनो दूत छो. कोईना पण वशमां न थनार श्यामसुन्दर छे तो सकुशळ ने? अरे भाई! तेनी मित्रता तो भारे अस्थिर छे, क्षणभङ्गुर छे. एक वात तो बताव. आपे अमने कह्युं हतुं के तुं ज मने सौथी वधारे वहाली छे, शुं ते वात आपने हजु याद छे के? जा, जा, अमे तारी मीठी-मीठी वातो नथी साम्भळवा मागती. ज्यारे ए अमने याद नथी करता तो अमे शा माटे तेमने भजीए (याद करीए)? हे मीठा बोला! तुं कहे छे के तेओ सर्व कामनाओ पूर्ण करनारा छे तो तेमनो प्रसङ्ग भले चलाव पण तेमां लक्ष्मीजीनी वात न आववी जोईए. शुं श्यामसुन्दरमां अनन्य निष्ठा राखनारां एकलां लक्ष्मीजी ज छे? ॥२४॥
श्रीसुबोधिनीजी - ते गुणातीत महाराणीओ तो शुद्ध हतां, भगवानने कोई प्रकारे दोष देतां नथी. तेथी भगवान् पोतानुं हित ज करे छे एम विचारतां हतां अने तेमनुं हित भगवान् अध्याय-९०,२४८ दशमस्कन्ध साथे सम्बन्ध थवाथी ज थाय अने ते सम्बन्ध मानवतीओनुं मान दूर कर्या विना एमने एम न थाय. तेथी भगवाने तेमनुं मान मनाववा हंसने मोकलेलो छे, कारण के आ हंस छे एटले (दूध अने पाणी नो) सारा-नारसानो भेद जाणे छे. तेथी ते आपणने-गुणातीतने भगवाननी पासे लई जशे एवो निश्चय करीने तेनुं ‘हे हंस!’ एम सम्बोधन करे छे. ते पोताने माटे आवेलो होवाथी तेना कुशळ समाचार पूछे छे. अमे जलदी मानी जनार नथी एम जणाववा ‘बेस’ एम कहेलुं छे. ‘‘अमे पक्षीओ सदा भूख्यां थतां होवाथी भूख मटाडवानो उपाय अमारे करवो जोईए तेथी मारे जवुं जोईए’’ एम केम न कह्युं एवी शङ्का थाय तेथी कहे छे के ‘दूध पी’ आथी महाराणीओ तेने एम जणावे छे के अर्ही रहीश तो दूध जेवां अमने भगवान् पासे तुं लई जईश अने बीजे जईश तो जलना जेवी एटले के जेमनामां माधुर्य नथी तेवी बीजीओने लई जईश. ‘‘अर्ही रोकाईने करवुं शुं?’’ एवी शङ्का थाय तेना जवाबमां कहे छे के ‘‘शौरेः (शूरसेनजीना पौत्र श्रीकृष्ण) नी कथा कहे’’ भगवानना दादा शूरसेनजीना नामथी भगवान्मां शौर्य छे एम सिद्ध करती एमनी कथा छे एम कहेलुं छे. ‘‘हुं शौरिनी कथा जाणतो नथी’’ एम तारे न कहेवुं एम अमे ‘‘तने दूत जाणीए छीए’’ ए शब्दोथी कहेलुं छे. पहेलां पण हंसो दूत हता तेथी तुं पण हंस होवाथी दूत छो एवा अनुमानना अर्थमां ‘नु’ शब्द योजेलो छे. तारे अर्ही आववानुं कोई बीजुं प्रयोजन न होवाथी तुं दूत ज छो एम अमे निर्णय करीए छीए एवो ‘नुं’ नो अर्थ छे. तेथी दूतपणानो निश्चय थाय ते माटे शौरिनी कथा कहे. ‘‘पूछ्या वगर न कहेवाय’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘अजित भगवान् कुशळ तो छे ने?’’ एम पूछे छे. भगवान् अजित (कोईथी न जितायेल) होवाथी तेमनी कुशळतानो प्रश्न ज ऊभो थतो नथी परन्तु बधाने हणतां कदाच व्यग्र थाय तेथी कुशळता विशे प्रश्न पूछ्यो छे. ‘‘अमने पहेलां जे कहेलुं ते अस्थिर मित्रतावाळा सम्भारे छे?’’ पहेलां कहेलुं के ‘‘तारा जेवी प्रणयिनी गृहिणीने कोई महेलमां हुं जोतो नथी’’ ते शब्दो भगवान् सम्भारे छे के नहिं? ‘‘बधुं जाणनारने याद न रहे एवुं बने?’’ एवी शङ्काना जवाबमां ‘‘अस्थिर मित्रतावाळा’’ ए विशेषण योजेलुं छे, कारण के कोई पण माणस कोई पण वात कायमने माटे याद राखतो नथी. मित्रता होय त्यां सुधी याद रहे अने भगवान् अस्थिर मित्रतावाळा छे. ‘‘भगवानने ते पूरेपूरुं याद छे. तमे मारी साथे चालो’’ एम हंस कहे तेथी ‘‘अमे तेमने शा माटे भजीए?’’ एम कहेलुं छे. मित्रतामां तो सन्देह छे तेथी भजवानुं प्रयोजन न रहेवाथी अमे तेमने शा माटे भजीए? ‘‘तो पण क्रोध तो न करवो जोईए, मारी साथे चालो’’ एम हंस कहे तेथी तेनुं ‘‘हे क्षौद्रालापय!’’ एवुं सम्बोधन करे [[२४९]] छे. ‘क्षौद्र’ एटले साकर, ‘आलाप’ एटले वात. क्षौद्रालापः एटले साकर जेवी मीठीमीठी वातो कहेनारो. क्षौद्रालापयः एटले मीठी वाणीवाळा पासे जे जाय छे ते अर्ही सम्बोधन छे. ‘हे क्षौद्र!‘ एवा सम्बोधनमां पण मधुरप स्पष्ट छे. ‘‘क्षुद्रस्य सम्बन्धी क्षौद्रः’’ ‘‘क्रूर अथवा नीचनो सम्बन्धी तो क्षौद्र’’ एम केटलाक टीकाकारो निन्दा करनारुं आ सम्बोधन छे एवो अर्थ करे छे. ते ज भगवाननी तुं आलापय-वार्ता कर. कामदं-कामना पूर्ण करनार भगवाननी तुं वात कर. कामना पूरनार भगवान् पासे मीठी वातो करवा जनारो तुं छे, परन्तु तेमनी वात करतां लक्ष्मीजीनी वात करीश नहिं एम ‘‘श्रियमृते-लक्ष्मीजी सिवाय’’ शब्दोथी कहेलुं छे. ‘‘लक्ष्मीजी तो परम अनन्य भक्त छे, भगवत् परायण ज छे एमनी कथा साथे केम न आवे?’’ एम पूछवामां आवे तो कहे छे के ‘‘सैवैकनिष्ठा स्त्रियः?’’ स्त्रीओमां शुं लक्ष्मीजी एकलां ज अनन्य छे? ना एम नथी, बधी स्त्रीओ (प्रथमा बहुवचन) तेवी एक निष्ठावाळी छे. केटलाक टीकाकारो जाति बताववा स्त्रियः ने छठ्ठी विभक्तिनुं एक वचन ले छे. जेमनो सम्पूर्ण निरोध थई चूक्यो छे तेवां आवा भाववाळां महाराणीओनुं वर्णन करेलुं छे (विशेष - श्लोक १५ थी २४ महिषी गीत कहेवाय छे.) ॥२४॥
आ प्रमाणे स्त्रीओने क्रीडामां प्राप्त थयेल संसार भगवाने दूर कर्यो पछी तेमनो भगवान्मां भाव अति दृढ थयो. हे परीक्षित! महादेवजी वगेरे योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमां महाराणीओ आवोज अनन्य प्रेमभाव राखतां हतां तेथी तेमने परम गति प्राप्त थई. अर्थात् तेमने भगवत्प्राप्ति थई गई ॥२५॥
भगवान् श्रीकृष्णनी कीर्तिकथा, लीला चरित्रोनुं अनेक प्रकारे गान करवामां आव्युं छे. ते लीला एटली तो मधुर अने मनोहर छे के ते साम्भळवा मात्रथी स्त्रीओनां मन स्वस्वरूपमां आकर्षाय छे तो पछी साक्षात् दर्शन करनारी स्त्रीओनुं मन भगवान् स्वस्वरूपमां आकर्षे तेमां तो कहेवुं ज शुं?* ॥२६॥
विशेष - भगवत्प्राप्तिमाटे मात्र भगवत्सम्बन्धनी ज जरूर छे. सम्बन्धोमां सहेलामां सहेलो सम्बन्ध श्रवणथी थाय छे. श्लोकमान्नो ‘मात्र’ कही जाय छे के साम्भळो तेने विषे विचार वगेरेनी पण जरूर नथी. ‘‘उरुगायोरुगीतानां-विपुल कीर्तिवाळा भगवाननुं घणुं गान करनारी स्त्रीओनुं’’ ए शब्द श्रवण करतां कीर्तननी उत्तमता बतावे छे. जे महाभाग्यवाळी स्त्रीओए जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णने पोताना पति मानी परम प्रेमपूर्वक आपनी चरणसेवा वगेरे अनेक प्रकारनी सेवा करी तेमनी अध्याय-९०,२५० दशमस्कन्ध तपस्यानुं वर्णन तो भला थई ज शी रीते शके? ॥२७॥
हे परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण सत्पुरुषोमाटे साक्षात् एक मात्र फलरूप छे. आपे वेदोक्त धर्मनुं वारंवार आचरण करीने लोकोने ए वस्तु समजावी दीधी के घर ज धर्म, अर्थ अने काम ए त्रिवर्ग सिद्ध करवानुं स्थान छे ॥२८॥
उत्तम धर्मनुं आचरण करतां गृहस्थ श्रीकृष्ण भगवाननी महाराणीओ तो सोळहजार हती. तेमान्नी एके एक राणी दरेक रीते सो-सो स्त्रीओथी पण विशेष हती ॥२९॥
विशेष - कृष्णस्य छठ्ठी विभक्ति एक वचन. ‘गृहमेधिनाम्’ छठ्ठी विभक्ति बहुवचन. महिष्याः - महिषीनुं छठ्ठी विभक्ति एकवचन. शताधिकम् - सोथी वधारे. स्वरूपथी श्रीकृष्ण एक हता पण गृहस्थाश्रम धर्मनुं आचरण करवा, जेटली राणीओ हती तेटलां स्वरूप धारण करी गृहस्थ धर्मनुं आचरण जगत्माटे उत्तम आदर्श स्थापवा करता. तेवी ज रीते महाराणी लक्ष्मीजीए ज जुदां-जुदां स्वरूपो धारण करी जुदी-जुदी राणीओमां प्रवेश करेलो तेथी ज एके एक भगवत्पत्नी सो-सो आदर्श स्त्रीओ करतां पण उत्तम हतां. आम राणीओनी सङ्ख्या समाधिभाषामां १६,००८ छे; नहिं के १६,१०८. १६,१०८ बीजा कल्पनी वात छे. हे राजन्! ते उत्तम स्त्रीओमान्थी रुक्मिणीजी वगेरे आठ पटराणीओ अने तेमना पुत्रोनुं वर्णन तो हुं पहेलां ज क्रमपूर्वक करी चूक्यो छुम् ॥३०॥
(जेमनां नाम नथी आप्यां ते राणीओ पण जेमनां नाम आप्यां छे तेमना समान ज हतां एम जणाववा एमना पुत्र वगेरे जणावे छे के) ते उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णनी बीजी पण पत्नीओ हती. तेमनाथी दरेकने *दस-दस पुत्र उत्पन्न कर्या. आमां आश्चर्य पामवा जेवुं कंई नथी कारण के भगवान् श्रीकृष्ण सर्व शक्तिमान तेमज अमोघरति छे ॥३१॥
विशेष - श्रुति कहे छे के ‘‘दशास्यां पुत्रानां धेहि’’ ‘‘आमां दश पुत्रोनुं गर्भाधान करजे’’ भाव दस छे एटले के काम दस इन्द्रियोथी साध्य छे. ‘‘पण लोकमां आ निश्चित नथी’’ बधा लोको दस-दस पुत्रो उत्पन्न करता नथी; तेना समाधानमां कहे छे के अशक्तिमान पुरुषो श्रुतिना अर्थनुं परिपालन भले न करे, शक्तिमान पुरुष श्रुतिना अर्थनुं पालन केम न करे? भगवानना परम पराक्रमी पुत्रोमान्थी अढार तो महारथी हता जेमनो यश समग्र जगतमां फेलायेलो हतो. मारी पासेथी तेमनां नाम साम्भळो* ॥३२॥
[[२५१]]
विशेष - महारथीओ तो भगवानना बधा ज पुत्रो हता पण आ अढार पुत्रोए महारथीपणुं युद्धना मेदान उपर प्रत्यक्ष एक या बीजा प्रसङ्गे प्रगट करेलुं. प्रद्युम्न, *चारुदेष्ण, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि अने न्यग्रोध ॥३३-३४॥
विशेष - चारुदेष्णने स्थाने ‘अनिरुद्ध’ पाठ पण छे. त्यारे अनिरुद्ध नामना भगवानना एक पुत्र समजवा. हे राजेन्द्र! भगवान् श्रीकृष्णना आ पुत्रोमां पण सर्वश्रेष्ठ रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्नजी हता. ते बधा गुणोमां पोताना पिताना जेवा ज हता ॥३५॥
महारथी प्रद्युम्नजीए रुक्मीनी कन्या साथे लग्न कर्युं हतुं. तेना ज गर्भथी अनिरुद्धजीनो जन्म थयो, जेमनामां दस हजार हाथीओनुं बल हतुम् ॥३६॥
रुक्मीना दौहित्र अनिरुद्धजीए पोताना नाना रुक्मीनी पौत्री साथे विवाह कर्यो. तेना गर्भथी वज्रनाभनो जन्म थयो. ब्राह्मणोना शापथी उत्पन्न थयेल मुसळद्वारा यदुवंशनो नाश थई गया पछी मात्र ते ज बची गया हता ॥३७॥
वज्रनाभना पुत्र प्रतिबाहु, तेमना सुबाहु, सुबाहुना शान्तिसेन अने तेमना श्रुतसेन थया ॥३८॥
हे परीक्षित! आ वंशमां कोई पण एवो पुरुष न थयो जेने घणां सन्तान न होय, जे निर्धन, अल्पायु अने अल्प शक्तिवाळो होय. उपरान्त ते बधा ब्राह्मणोना भक्तो हता ॥३९॥
हे राजा! यदुवंशमां एवा-एवा यशस्वी अने पराक्रमी पुरुषो थई गया के जेमनी गणतरी हजारो वर्षमां पण पूरी न थई शके ॥४०॥
यादवकुमारोमां यदुकुलमां ज जन्मेलां आचार्यो त्रण अबज आठ हजार अने आठसो हता एवुं अमे साम्भळ्युं छे ॥४१॥
श्रीसुबोधिनीजी - ‘‘आदौ सहस्राणां तिस्रः कोट्यः त्रिंशदर्बुदानि। ततः अष्टाशीति शतानि च। एतावतः यदुकुलाचार्याः यदुकुलोद्भवा एव आचार्याः। तत्कुमाराणामिति श्रुतमिति प्रमाणम्। बहूनां मध्ये कश्चिदाचार्यो भवितुमर्हति। बालकाश्चैकस्य स्थाने बहवोपि पठन्ति। पहेलां तो त्रण करोड हजार एटले त्रीस अर्बुद अर्थात् त्रण अबज, वत्ता अठ्ठासी सो एटले ३,००,००,०८,८०० त्रण अबज आठ हजार अने आठ सो तो अध्याय-९०,२५२ दशमस्कन्ध यदुकुलमां ज जन्मेला आचार्यो हता घणा यादवोमान्थी कोईक ज आचार्य थई शके अने एक आचार्यना स्थाने घणां बाळको भणता होय छे* ॥४१॥
विशेष - सङ्ख्याओ-एक, दस, सो, हजार, दस हजार अथवा अयुत, लाख, दस लाख, अथवा प्रयुत, करोड, दस करोड अथवा अर्बुद, अबज, खर्व, निखर्व, महापद्मा, शङ्कु, जलधि, अन्त्य, मध्य, परार्ध. दरेक सङ्ख्या आगली करतां दस गणी छे. ‘परार्ध’ एटले एकडा उपर १७र्मीडावाळीसङ्ख्या. आ स्थितिमां महात्मा यदुवंशीओनी सङ्ख्या तो बतावी ज केवी रीते शकाय? स्वयं महाराज उग्रसेनना सेवक वर्गनी सङ्ख्या शङ्कु अथवा दस हजार अबज (१,००,००,००,००,००,०००) करतां विशेष हती. (आ उपरथी बीजा पण महात्मा यादवोना सेवक वर्गनुं अनुमान लगावी लेवुं)* ॥४२॥
विशेष - करोडो अने अबजोनी सङ्ख्यामां आचार्यो, उग्रसेनना सेवक वर्ग अने ते प्रमाणे बीजा महात्माओना सेवक वर्गनी सङ्ख्या वाञ्चता चक्कर आववा लागे. आस्तिकने पण घडीभर एम थई आवे के आटलां बधां माणसो रहेतां क्यां हशे? अत्यारे आखी पृथ्वीनी वस्ती पण अमुक अबज ज छे. तेनुं समाधान ए छे के ए बधा द्वारकामां ज रहेता हता. द्वारका साक्षात् भगवाने (एक मत प्रमाणे भगवदाज्ञा अनुसार विश्वकर्माए) रची हती जेमां प्रत्येक मकानने एकवीस माळ हता, जे स्वर्णमय हती. तेनो आधार पृथ्वी नहिं, भूमिनी जेम नगरी अन्तरिक्षमां समुद्रनी वच्चे अने जलनो स्पर्श कर्या विना जलथी अद्धर बान्धेली हती. श्रीकृष्णे भूतलनो त्याग कर्यो ते ज क्षणे भगवदाज्ञाथी सुमद्रे तेने पोतानामां समावी दीधी हती. ‘‘द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रीप्लावयत् क्षणात्’’ श्रीभागवत ११.३१.२३. भगवाने गीताजीमां ‘‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’’ मारां जन्म कर्म वगेरे दिव्य छे एम कह्युं छे. ‘दिव्य’ एटले मुठी जेवडा मगजमां न समाय तेदिव्य. उत्तम जीवो तो थोडा ज उत्पन्न थाय छे. आटला बधानी एकी साथे केम उत्पत्ति थई? एवी शङ्काना समाधानमां कहे छे के हे परीक्षित! साची वात तो ए छे के प्राचीन कालमां देवो अने असुरो ना सङ्ग्राम वखते अत्यन्त भयङ्कर असुरो मराया हता. तेओ ज मनुष्योमां पेदा थया अने घमण्डमां प्रजा उपर जुलम गुजारता हता ॥४३॥
तेमनुं दमन करवा भगवाननी आज्ञाथी देवताओए यदुवंशमां अवतार लीधो हतो. हे परीक्षित! तेमनां कुलनी सङ्ख्या एकसोने एक हती ॥४४॥
[[२५३]] (ते देवो जे हता तेनी शुं खातरी?) तेओ देवो होवानुं प्रमाण ए छे के भगवान् हरि तेमना प्रभु (स्वामी) थया. (स्वामी अने सेवक सजातीय ज होय, भगवान् बीजा (अ-देवो) ना प्रभु थता नथी) बधा ज यादवो अने तेमना सेवको (वडलाना जरा जेटला बीजमान्थी घेघूर वडलो थाय तेम) वृद्धि पाम्या तेमनी सर्व रीते उन्नति थई ॥४५॥
यदुवंशीओनुं चित्त भगवान् श्रीकृष्णमां एवी रीते लागी गयुं हतुं के तेमने १. शयन २. भोजन ३. फरवुं ४. वातचीत ५. क्रीडा (चोपाट वगेरे रमवी) ६.स्नान अने ७. आसन -आ बधी अवस्थाओमां तेओ यादवो छे तेनुं स्मरण सुद्धां तेमने रहेतुं नहिं. (तेमनो निरोध थई गयो अर्थात् तेओ प्रपञ्चने भूली जई भगवान्मां आसक्त थई गया) ॥४६॥
(हा पण महाभारतनी जेम श्रीभागवतजीमां भूभार हरवानी वात तो न आवी. त्यां कहे छे) हे परीक्षित! भगवाननुं चरणधोवन गङ्गाजी अवश्य बधां तीर्थोमां महान अने पवित्र छे. परन्तु ज्यारे स्वयं परम तीर्थस्वरूप भगवाने ज यदुवंशमां अवतार लीधो त्यारे तो गङ्गाजीना जलनो महिमा आपोआप आपना सत्कीर्तिरूप तीर्थनी तुलनामां ओछो थई गयो. भगवानना स्वरूपनो आ केटलो महिमा छे के आप उपर प्रेम करनारा भक्त अने आपनो द्वेष करनारा दुश्मन बन्ने ज आपना स्वरूपने प्राप्त थई गया. जे लक्ष्मीजीने प्राप्त करवा मोटा-मोटा देवताओ यत्न करता रहे छे ते ज लक्ष्मीजी भगवाननी सेवामां नित्य निरन्तर लागेलां रहे छे. भगवाननुं नाम साम्भळवाथी अथवा साम्भळ्या पछी तेनो उच्चार करवाथी बधां ज अमङ्गलोने भस्मीभूत करी दे छे. ऋषिओनी पररूपरामां जेटला पण धर्म प्रचलित छे ते बधा धर्मोना संस्थापक श्रीकृष्ण ज छे. आप पोताना श्रीहस्तमां कालस्वरूप सुदर्शन चक्र धारण करेलुं ज राखे छे. आपने माटे भूमिनो भार हरवानुं आ कार्य रमत वात छे. एमां आश्चर्य जेवुं न ज गणाय ॥४७॥
श्रीसुबोधिनीजीः ‘‘ए क्युं तीर्थ?’’ ए जाणवानी इच्छा थाय तेथी ‘‘स्वः सरित्-
स्वर्गना गङ्गाजी’’ शब्द योजेलो छे. यदुकुलमां अवतरेला भगवानना सम्बन्धवाळुं जे कंई छे
ते बधुंय, दरेके दरेक पदार्थ एकलो पण, गङ्गाजीथी उत्तम छे. ‘‘अजनि - कर्युं’’ शब्दथी आ
पदार्थने गङ्गाजीथी उत्तम भगवाने ज बनावी दीधो छे. भगवाने पोते ते चरित्रने तेवुं
माहात्म्य आपेलुं छे. (तीर्थ पोते ज हलकुं नथी परन्तु लीलाकर्ता भगवाने स्वचरित्रनुं
अध्याय-९०,२५४ दशमस्कन्ध
अधिमूल्यन कर्युं छे) ‘‘जेओ दलीलोथी ज सिद्धान्तना सत्य-असत्यनो निर्णय करता होय
तेमने आ वात केम गळे ऊतरे? एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘स्वर्गनां गङ्गाजी चरण धोवानुं जल
छे’’ एम कहेलुं छे. प्राणीओ चरण धोवाना जलने सौथी हलकुं गणे छे. चरण धोवनना
जलनो पुरुष फरीथी स्पर्श ज करतो नथी. भूमि उपरनां गङ्गाजी अथवा पातालनां गङ्गाजीने
तो भूमिनो अथवा पातालनो दोष पण लाग्यो होय तेथी ‘‘स्वः सरित्-स्वर्गना गङ्गाजी’’
शब्द प्रयोग कर्यो छे. ए प्रमाणे सामान्य प्रकारनुं बधा जड पदार्थोने लागु पडतुं एक
माहात्म्यकह्युं.
२. ‘‘द्वेष करनारा अने प्रेम करनाराओने स्वरूपनी प्राप्ति थई’’ ए शब्दोथी जीवो
विषेनो खास महिमा कहे छे. द्वेष अने प्रेम पण मोक्ष मेळवी आपनारा थया. तेथी
श्रीकृष्णावतारमां हरकोई प्रकारनो धर्म मोक्ष आपशे एम जणावेलुं छे. ३.‘‘लक्ष्मीजी
अजीतमां आसक्त छे’’ ए शब्दोथी भगवान् पासेथी आ लोकनुं फल प्राप्त थवानुं कारण
कहेलुं छे. लक्ष्मीजी भगवान्मां आसक्त छे. तेथी स्वामी पोताना सेवकोने ज लक्ष्मी आपशे,
बीजाने नहिं आपे एम प्रयास विना ज आ लोकनुं फल भक्तने प्राप्त थाय छे. परम्पराना
प्रकारथी थतुं आ त्रीजुं माहात्म्य कह्युं. ‘‘जेमने माटे बीजाओ प्रयत्न करे छे’’ ए शब्दोथी
प्रसङ्गने लीधे भगवानना सम्बन्धवाळां लक्ष्मीजीनुं माहात्म्य कहे छे के जेथी बीजाओनुं
माहात्म्य नथी एम सिद्ध थाय. जे लक्ष्मीजीना सम्बन्धवाळां अर्थ (धन) एटले अर्थरूप
पुरुषार्थमाटे, बीजाओ घणो ज प्रयत्न करे छे पण तेनी प्राप्तिमां तो सन्देह ज रहे छे एवो
अर्थ छे. ‘अर्थ’ जेवो हलको पुरुषार्थ ज प्राप्त थवामां ज्यां सन्देह छे त्यां धर्म वगेरे उत्तम
पुरुषार्थोनुं तो कहेवुं ज शुं? ४.ए प्रमाणे भगवत्सम्बन्धी सर्व पदार्थो, जीवो अने शक्ति ना
माहात्म्यनुं निरूपण करी, ‘‘जेमनुं नाम अमङ्गलनो नाश करे छे’’ ए शब्दोथी नामनुं
माहात्म्य कहे छे. ‘साम्भळेलुं’ शब्दथी एम जणाव्युं छे के नामना मात्र सम्बन्धथी ज ते
अमङ्गलनो नाश करी दे छे. ५.उच्चारेलुं नाम तो तेथी पण वधारे-अमङ्गलनो कारण साथे
नाश-करी दे छे. ६.‘‘ऋषिओना पररूपराथी प्राप्त थयेल धर्मनुं माहात्म्य हशे’’ एवी शङ्का
थाय तेथी कहे छे के जे भगवाने ज ऋषिओनी पररूपरामां रहेलो धर्म करेलो छे. ए प्रमाणे
भगवाननुं छ प्रकारनुं माहात्म्य कह्युं.
जेमनुं आटलुं माहात्म्य छे तेमनुं आ भूमिनो भार हरवा रूप कार्य छे ते
अर्जुन वगेरेए करेलुं छे तेमां आश्चर्य नथी, कारण के ते जीवनो धर्म छे. ‘‘कोईक
धर्म सेवकोथी ज थई शके तेथी भूमिनो भार हरवानुं कार्य भगवानने माटे अशक्य
[[२५५]]
केम न होय?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘कालरूपी चक्रना आयुधवाळा’’ ए विशेषण
योजेल छे. कालरूप चक्र भगवाननुं आयुध छे. कालनो एक हजारमो भाग पण
भूमिनो भार हरवा शक्तिमान छे. त्यारे पूरेपूरो काल सुदर्शन भगवाननुं एक
आयुध होवाथी भगवान् भूमिनो भार हरे तेमां शुं सन्देह होई शके? ॥४७॥
आवापण भगवान् अत्यारे क्यां छे ते माटे जीज्ञासा थाय तो कहे छेः भगवान् श्रीकृष्ण ज सर्व जनोमां वास करीने बिराजेला छे. देवकीजीने त्यां आपे जन्म लीधेलो ए तो मात्र कहेवा पूरतुं ज छे. उत्तम यादवोनी सभामान्ना पोताना सेवकोरूपी बाहुओथी श्रीकृष्ण अधर्मनो नाश करी रह्या छे. हे परीक्षित! स्थावर अने जङ्गम (चराचर) जगतना पापोनो नाश करी दे छे. मन्द-मन्द हास्ययुक्त पोताना सुन्दर मुखारविन्दथी व्रजस्त्रीओ अने पुरस्त्रीओ (ना हृदय) मां (कामनी) प्रेमभावनी वृद्धि करता रहे छे. वास्तवमां जगत् उपर आप ज विजयी छे. आपनो जय हो! जय हो!! ॥४८॥
श्रीसुबोधिनीजी - ते भगवान् श्रीकृष्ण अत्यारे पण तेमना बधाय सम्बन्धवाळा जनोमां सर्वथी उत्तम थई बिराजी रह्या छे, कारण के आप ‘जननिवास’ होवाथी स्वभावथी पण सर्व जनोमां बिराजी रह्या छे. परमात्मा सर्वमां छे ज. ‘‘देवकीजीना पुत्रने विशे हुं पूछुं छुं, देवकीजीमां जे जन्मेला ते क्यां छे?’’ एम पूछवामां आवे तो ‘‘देवकीजीने त्यां जन्मेला एवुं जेमना विशे कहेवाय छे’’ एम कहेलुं छे. देवकीजीमां जन्मेला ए तो मात्र कहेवा पूरतुं छे. लोकोमां विवाद थतां, भगवान् क्यांय छे ज नहिं एम कहेवामां आवे त्यारे संसारमान्थी जेमनी आसक्ति जती रहेली छे तेओ भगवान् देवकीजीमां जन्म्या छे एम कहे छे, परन्तु मात्र तेटलुं ज भगवाननुं स्वरूप नथी एवो अर्थ छे. ‘‘ते भगवान् बधामां बिराजीने शुं करे छे?’’ ए जाणवानी इच्छा थाय तो आपनां त्रण प्रकारनां कर्म कहे छे. ते पैकी १. सात्विक कर्म कहे छे के उत्तम यदुओनी सभामां पण मात्र लौकिक (कार्य) मां आसक्त पण जेओ स्वैः पोताना सेवको छे तेमनाथी पण दैत्य वगेरे रूप बधाय अधर्मना समूहनो नाश करता, आज पण भगवान् द्वारकामां यादवोनी सभामां पोताना सेवको सहित ज बिराजी रह्या छे. कोई पण दैत्य जो प्रकट थाय तो त्यान्थी ज कोईने मोकली तेने हणे छे एवो अर्थ छे. २.‘‘स्थावर अने जङ्गम नां पापनो नाश करी देनारा’’ ए विशेषणथी भगवाननुं तामस कर्म कहे छे. (द्वारकामां तो पापनो सम्भव ज नथी तेथी) द्वारका सिवाय बधे स्थळे ज्यां- ज्यां भगवान् परिभ्रमण करे छे त्यां-त्यां पुरुषो के वृक्षो बधानां पापनो प्रसङ्गवशात् ज नाश अध्याय-९०,२५६ दशमस्कन्ध करी दे छे; अथवा पापना ज प्रकार अने वासनारूप स्थावर अने *जङ्गम एम बे भेदो छे तेमनो नाश करी दे छे. आथी एम जणावेलुं छे के जो कोई भक्त होय तेने माटे भगवान् सर्व स्थळे हाजराहजूर छे.
विशेष - हत्या वगेरे निषेध करेलां पापो स्थिर (स्थावर) छे कारण के तेनुं परिणाम भोगव्या
विना तेनो नाश थतो नथी; ज्यारे मनथी विचारेल दुष्कर्म ए चर (जङ्गम) छे. कारण के तेना
नाशमाटे तेनुं फल भोगववानी जरूर रहेती नथी.
३. ‘‘सुन्दर स्मितयुक्त शोभीता मुखारविन्दथी वज्र अने पुर नी स्त्रीओना (कामनी)
प्रेमभावनी वृद्धि करता’’ ए विशेषणथी राजस कर्म कहे छे. भगवानना हास्ययुक्त अने
शोभायमान मुखारविन्दथी व्रजे-गोकुलमां अने पुरे-मथुरा तथा द्वारकामां गोपीजनो, कुब्जा
अने महाराणीओ वगेरेना हृदयमां कामदेवनी वृद्धि करता भगवान् अत्यारे पण बिराजी रह्या
छे. कामनुं फल मोक्ष थतुं होवाथी तेने कामदेव कहेलो छे. जे काम बधाम्मां मोजूद तो छे ज
तेनीज वृद्धि करता, मात्र पोताना सम्बन्धथीज मोक्ष आपे छे तेवो अर्थ छे. अत्यन्त मोह
उत्पन्न करनारी लोकमां परमसुन्दर भक्तिथी (भगवाननुं मुखारविन्द भक्तिरूप छे.)
व्रजवासीओना अने गाममान्तथा वनमां रहेनाराओना कामने जाग्रत करता भगवान् बिराजी
रह्या छे तेथी तेमने (कामने) देव मानवा जोईए ॥४८॥
आ प्रमाणे भगवानना चरित्रनुं निरूपण करी श्रीशुकदेवजी ते चरित्रनुं श्रवण वगेरे नित्य करवानी आज्ञा करे छेः ए प्रमाणे (अक्षरब्रह्मथी पण) उत्तम पोताना भक्तोनी रक्षा करवा श्रीकृष्णे दिव्य लीला; शरीर धारण कर्युं अने तेने अनुरूप अनेक अद्भुत चरित्रोनो अभिनय कर्यो. यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णनां चरणकमलोनी सेवा करवानी जेनी इच्छा होय तेणे, कर्मबन्धनोनो नाश करी देनारी आपनी लीलाओनुं श्रवण करवुं जोईए ॥४९॥
श्रीसुबोधिनीजी - भगवान् श्रीकृष्ण परः अक्षरब्रह्मथी पण उत्तम छे. ‘निजधर्माः’ एटले भक्तो. तेमनी रक्षा करवा लीलामय शरीर धारण कर्युं. परम कृपालु भगवाने लीलातनुथी लोकमां भोजन, शयन वगेरे लौकिक कर्म करवानो अभिनय कर्यो. ते कर्मोनुं श्रवण करवुं जोईए तेवी विधि (आज्ञा) छे. श्रवण न करवाथी पाप थाय छे एवो अर्थ छे. ‘‘श्रवणथी शुं (फल प्राप्त) थाय?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘कर्मकषणानि - कर्मनो नाश करी देनारां’’ ए विशेषण योजेलुं छे. (भगवाननां कर्मो) सर्व पापोनो नाश करी दे छे. पापोनो [[२५७]] नाश ए तेमनुं गौण फल छे एवो अर्थ छे. जो के बीजा अवतारोनां चरित्र पण पापनो नाश करनारां छे, छतां पण यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्णना चरित्रनुं श्रवण करवुं. ‘‘श्रीकृष्णना चरित्रनुं श्रवण करवामां शुं अधिक छे?’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘आमना चरणारविन्दनी सेवा इच्छनारे’’ ए शब्दो योजेला छे. जो श्रीकृष्णना चरणारविन्दनी सेवानी इच्छा होय तो आ श्रीकृष्णचरित्रनुञ्ज श्रवण करवुं जोईए तेवो अर्थ छे ॥४९॥
एवी रीते नित्यश्रवण करतां चरणारविन्दनीसेवा प्राप्त थतां शुं फल थशे? एना जवाबमां कहे छेः मर्त्यस्तया तनुसमेधितया मुकुन्दश्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ॥ तद्धामदुस्तरकृताऽन्तजवापवर्गं ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥५०॥
हे परीक्षित! मुकुन्द भगवाननी श्रीमती कथाना श्रवण, कीर्तन अने चिन्तन थी धीमे-धीमे पुष्ट थयेल ते सेवाना प्रतापथी मनुष्य भगवानना वैकुण्ठ धामने प्राप्त करी ले छे. भगवानना आ धाम आगळ कोई पण प्रकारे रोकी न शकाय तेवा कालनो वेग पण समाप्त थई जाय छे. आ ज धामनी प्राप्तिना प्रयोजनमाटे प्राचीन समयमां सम्राटो राजपाट छोडी दई (शहेरमान्थी गामडामां जता हता) अने गामडामान्थी वनमां जता रहेता हता ॥५०॥
श्रीसुबोधिनीजी - ते चरणनी सेवाथी मरण पामवाना धर्मवाळो मनुष्य पण ते ज शरीरथी भगवाननुं धाम प्राप्त करे छे. ‘‘ते ज समये ते वैकुण्ठमां आवतो होय तेवुं जणातुं नथी’’ एवी शङ्का थाय तेथी ‘‘धीरे-धीरे वधेली’’ ए विशेषण योजेलुं छे. ‘तनु’ एटले थोडी-थोडी वधेली एटले तेलनी धारनी जेम सतत श्रवण वगेरेथी ज्यारे ते सेवा पुष्ट थाय छे त्यारे ते भगवाननुं धाम प्राप्त करे छे अथवा ‘‘तनौ एटले शरीरमां’’ वधेली (ते सेवाथी भगवद्धाम प्राप्त करे छे) ‘तनु’ ने बदले ‘ननु’ पाठ होय त्यारे ‘‘हुं तने छेतरतो नथी’’ एम श्रीशुकदेवजीए करेलुं सम्बोधन जाणवुं. ते सेवानुं पोषण थाय ते माटे पण तेनां त्रण अङ्गो कहे छे के ते सेवा श्रीमती कथानुं श्रवण, कीर्तन अने चिन्तन सहित करायेली छे. ‘‘श्रीमत्-श्रीमती, मनोहारिणी’’ शब्दथी कथा कहेवानुं नहिं जाणनारा पामर अज्ञानीओए करेली कथा बातल करी छे. भगवाननुं धाम सर्वथी उत्तम फल छे एम जणाववा ‘‘रोकी न शकाय तेवो कालनो वेग ज्यां समाप्त थाय छे’’ एवुं तेनुं विशेषण योजेलुं छे. दुस्तर-कोई पण प्रकारे रोकी न शकाय तेवा ते (काल) ना मारवामाटे दोडता वेगनी समाप्ति जेनी अन्दर थई जाय छे तेवुं ते धाम छे. मृत्यु अक्षर (ब्रह्म) सुधी ज दोडे छे, कारण के कालनुं निरूपण अध्याय-९०,२५८ दशमस्कन्ध अक्षर सुधी ज करेलुं छे. तेथी अक्षररूप व्यापी वैकुण्ठमां ते भक्त जाय छे तेवो अर्थ छे. आ फल ज्ञानमार्गमां पण दुर्लभ छे एम जणाववा, श्लोकनुं चोथुं चरण कहेलुं छे. पहेलान्ना जमानामां राजाओ राज्यमां रही, राज्यनुं पालन करवाना धर्मथी घणा अनुभवी थई शहेरमान्थी चाली नीकळता. ज्ञानमां श्रद्धा राखी कलाप ग्राम वगेरे गामडाम्मां रहेता हता. त्यान्थी पण भगवाननो महिमा जाणी ते गामडान्ने पण त्यजी वनं-सर्वथी छूपा स्थान वनमां जता हता एवो अर्थ छे. अथवा ‘ग्राम-ग्राम’शब्द ग्राम्य (विषयी जीवन) ना अर्थमां वपरायेलो जाणवो. भगवानना धामनुं मात्र श्रवण राज्यना करतां पण घणुं उत्तम छे. एम न होय तो जे राज्य (सुख भोग माटे) हाजर हतुं. छतां तेने छोडी दईने ते विवेकीओ (सार असारनो भेद जाणनाराओ) वनमां शा माटे जाय? ‘यदर्थाः’ एटले जे स्थान ज जेमनो पुरुषार्थ छे तेओ राजपाट छोडी दई गामडाम्मान्थी वनमां जता रहेता हता ॥५०॥
इति श्रीभागवत दशमस्कन्धमां (छेल्ला पाञ्चमा गुण प्रकरणनो वैराग्यरूप छठ्ठो) ‘‘भगवद् वैराग्य वर्णन’’ नामनो (उत्तरार्धनो ४१मो अने चालु) नेवुम्मो (प्रक्षिप्त त्रण अध्याय १२-१३-१४ बाद करतां ८७मो) अध्याय सम्पूर्ण थयो. पाञ्चमुं गुण प्रकरण सम्पूर्ण दशमस्कन्ध उत्तरार्ध समाप्त आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीए छीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी)दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी) देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए.