नवमस्कन्ध ईशानुकथा
अध्याय २४
भगवाननीकथा भगवानने अनु सरनारानी कथा दुःखनिवारण सुखप्राप्ति सगुणभक्तद्वारा ज्ञानीभक्तद्वारा भगवच्चरित्रद्वारा भक्तथी भगवान्थी अ.१-९ अ.१० अ.११-१३ अ.१४-२३ अ.२४ कर्म ज्ञान भक्ति अध्याय११ अध्याय१२ अध्याय१३ प्रकरणविभागानुसार स्कन्ध ९ ईशानुकथा सूर्यवंश अध्याय१२/१३ चन्द्रवंश अध्याय१२/११ [[४४४]]
विशेष - आठमा स्कन्धमां चोवीस अध्यायथी सद्धर्म कहेवामा आव्यो. दुष्ट वासना दूर थाय त्यारे सद्धर्मनो विचार आवे छे. सद्धर्मनुं आचरण करवाथी शुभ वासनाओ एटले के कृष्ण मारा स्वामी छे एवी स्फूर्ति थाय छे. ‘‘वैष्णवत्वं हि सहजम्’’ ए न्याय छे. ज्यारे भक्तोनो स्वभाव ज एवो थाय त्यारे एने भक्ति थाय छे. कृपाना बे भेद छेःअधिक अने सामान्य. जो प्रभुनी कृपा अधिक होय तो ए जीवने भक्तिनुं दान करे, जो सामान्य होय तो मोक्षनुं दान करे. आ नवमा स्कन्धमां पण २४ अध्याय छे तेमां भक्तिनुं प्रतिपादन छे. ईश एटले भगवान्, भगवाननी पाछळ (अनु) पाछळ चालनार भक्त; एवा भक्तोनी कथा ते ‘ईशानुकथा’. जो भगवान्मां ताप राखीने सेवा करे तो एना लौकिक भावमां पण कृष्ण प्रवेश करे अने लौकिक भावने अलौकिक बनावी दे. अध्याय सङ्ख्यानुं तात्पर्य पण ए शब्दोमान्थी ज नीकळे छे. भगवान् हरि छे. पुरुषार्थ बे जातना छे - दुःखनो अभाव अने सुखनी प्राप्ति. हरि एटले दुःखने हरनार अने सुखने आपनार; तेमां दुःख सत्त्वादि गुणजन्य होवाथी गुणना अवान्तर नव भेद छे; अने एक प्रकार निर्गुणनो छे; एम कुल दश भेद थया. वळी ए दश भेदवाळा जीवोने ज्ञान, कर्म अने भक्ति एम त्रण भावथी जोडीए तो तेर भेद थाय; ते ए तेर वेदनो दुःखने मटाडवामां विनियोग थाय छे. हवे सुखनी प्राप्तिमाटे दश इन्द्रियो तथा एक भगवान् एम अगियारनी अनुकूळताए सुखप्राप्ति थाय छे. आ प्रमाणे प्रभुना चोवीश गुणो आ नवमस्कन्धमां चोवीश अध्यायथी थाय छे. अथवा सूर्य बार छे तेथी बार अध्यायथी सूर्यवंश वर्णव्यो छे अने बार अध्यायथी चन्द्रवंशनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. आम चोवीश अध्याय कह्या छे. अर्ही जे भक्ति कही छे ते मरण पछी मोक्ष आपनारी छे. जीवतां सुधी भगवाननी साथे रही लीलानो आस्वाद लेवानो छे. ज्यारे साक्षात् रमापति भूतळमां पधार्या त्यारे स्वरूपवडे जीव यशोगानथी मुक्ति मेळवे छे. एमां अर्ही सूर्यवंशथी मर्यादा अने चन्द्रवंश थी पुष्टिलीला बतावी छे. प्रथम सूर्यवंशना राजाओनुं वर्णन नव अध्यायथी छे. ए राजाओ उत्तम, मध्यम अने प्रथम एवा भेदथी त्रण प्रकारना छे एनुं त्रण-त्रण अध्यायथी वर्णन आप्युं छे. जेम-जेम भक्त दोषरहित अने शुद्ध थाय तेम-तेम एनो प्रताप अधिक. एमां उत्तम कक्षाना राजाओमां सर्वने मुक्ति आपवानुं सामर्थ्य होय छे; मध्यम कक्षावाळा राजाओ लोक अने वेद नां साधनो द्वारा मुक्तिनो प्रयत्न करनारा छे अने प्रथम कक्षावाळा ज्ञान अने वैराग्यवाळा छे. सुद्युम्न, कवि, शर्याति वगेरे प्रथम कक्षाना छे, नाभाग, अम्बरीष शशाद वगेरे मध्यम कक्षाना छे अने हरिश्चन्द्र, सगर, भगीरथ वगेरे उत्तम कक्षाना छे. प्रथम [[४४५]] अध्यायमां सुद्युम्ननी कथा आवे छे तेमां स्त्रीभाव अने पुरुषभाव बन्ने छे. ब्राह्मणोथी स्त्रीत्व थयुं, विष्णुना अनुग्रहथी पुंस्त्व थयुं अने शिवजीए बन्ने भावो साथे राख्या. एवडे एने वैराग्य थयुं. ए स्त्रीत्व अने पुंस्त्व थी वंशकर्ता थयो; ब्रह्माजीना मनथी मरीचि अने मरीचिना पुत्र कश्यप थया. एमनी पत्नी दक्षपुत्री अदितिथी विवस्वान (सूर्य)नो जन्म थयो. विवस्वाननी सञ्ज्ञा नामनी पत्नीथी श्राद्धदेव मनुनो जन्म थयो. श्राद्धदेवनी पत्नी श्रद्धाथी दश पुत्रो थया. एमनां नाम हतां - इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नाभाग अने कवि. पृषध्र शाप थवाथी हीन थयो. ए ज्ञाननो अवतार हतो. कवि वैराग्यरूप छे, करूष कीर्तिरूप छे, धृष्ट वीर्यरूप छे, नृग श्रीरूप छे अने नरिष्यन्त ऐश्वर्यरूप छे. मरुत्त धर्मीरूप छे ए बधा राजस राजाओ छे. शर्याति सात्त्विक छे; ए यज्ञप्रर्वतक अने कामपूरक पण छे, ब्रह्मादिना अनुग्रहवाळो तथा भगवद्भाववाळो छे. आ प्रथम कक्षाना राजाओ छे. अर्ही पहेलुं अवान्तर प्रकरण पूर्ण थाय छे. जो भक्ति पोतानो प्रभाव न बतावे तो ए फळरूप नहि पण धर्मरूप भक्ति कहेवाय, जे वळी देवप्रसाद, देवकृतत्व अने देवपोषण एवा त्रण प्रकारनी छे. एमां नाभाग शिवने सन्तोष आपनार मन्त्रद्रष्टा छे. अम्बरीष भगवानना जेवो ज छे. अक्षरथी उत्तम कृष्ण छे. ए अम्बरीष अक्षरनी वीर्यने हरावनार छे. ब्राह्मणनो शाप पण एने कांई करी शक्यो नहि ‘अनशन’ ए विष्णुने प्रसन्न करनार व्रत छे. एमां एकादशी मुख्य छे. जळपान करवुं ए जमवा बराबर तेमज न जमवा जेवुं पण गणाय. एणे ब्राह्मणने जमाड्या पहेलां जळपान कर्युं तेथी ए मध्यम कक्षामां मुकायो. ब्राह्मणनो शाप पण एनो पराभव करी शक्यो नहि शिवजीनुं आधिभौतिकरूप आदि त्रणरूप छे. दुर्वासा आधिभौतिकरूप छे. भगवाननुं सुदर्शन चक्र ए शिवजीनुं आध्यात्मिकरूप छे. अने साक्षात् शङ्कर ते आधिदैविक रूप छे. ते तो भगवानने वश छे. दुर्वासाने ब्रह्माए शापमुक्त न कर्या एनुं कारण एटलुं ज के अम्बरीषे ब्राह्मणोनी आज्ञाथी जळपान कर्यु हतुं एटले ब्रह्मानी सम्मति एमां आवी गई. शिव भगवानना भक्त होवाथी भगवाननी इच्छा विरुद्ध न करे. भगवाने एने ना कही एनुं कारण ए छे के भगवानने प्रिय एवुं एकादशी व्रत अम्बरीषे कर्युं हतुं. तेथी भगवान् एनी उपर प्रसन्न हता. दुर्वासाने ब्राह्मणपणानो गर्व हतो. एक वखते दुर्वासाने एना ससरा गालव मुनि साथे लडाई थई अने गालवे दुर्वासाने शाप आप्यो के एक वखत एवो पण आवशे के तमारा गर्वनो नाश थई जशे. ए एमनो गर्व छोडाववो हतो तेथी पण भगवाने एमने अम्बरीष पासे मोकल्या. ब्रह्मभाव करतां भक्तिभाव उत्तम छे. एम देखाडवानो हेतु पण आ आख्याननो छे. एवी रीते बीजुं अवान्तर प्रकरण पूरुं थयुं. [[४४६]] उत्तम प्रकरणमां प्रथम हरिश्चन्द्र छे. एनी भक्ति श्रेष्ठ छे एम कहेवामाटे एनो बाप त्रिशङ्कु चाण्डाल हतो एम कह्युं छे. कोई पूर्व दोषथी चाण्डालपणुं आवी पड्युं हतुं. ए हरिश्चन्द्रने त्रण ऋण उतारवानी इच्छा थई. पुत्रप्राप्तिथी पितृऋणथी मुक्त थवुं; एम करवाने एणे वरुण साथे शरत करी पुत्र मेळव्यो. पण भगवान् भक्तने जे आपे ते एणे भगवानने ज अर्पण करवुं जोईए एवो भक्तधर्म छे. ज्यारे वरुण दैत्योनो राजा छे. छतां भक्त पुत्रने ए मारी शक्यो नहि एणे यज्ञपशु तरीके पुत्र खरीदी लीधो तेनी पण भगवाने रक्षा करी. आमां अभक्तनुं हृदय क्रूर होय छे ए बताव्युं छे. सगर राजा सर्वमां श्रेष्ठ छे तेना पुत्रोए सागर बनाव्यो छे. तेओने श्रेष्ठ एटलामाटे गणवामां आव्या छे के तेओए सागर बनाववा रूपी एक कायमी लोकोपयोगी कार्य करी बताव्युं. एना अंशुमान, दिलीप वगेरे थया ते एना वंशनी शुद्धि बतावनार थया. भगीरथ गङ्गाने पृथ्वी उपर लाव्या. गङ्गाना स्वरूपनुं वर्णन प्रथम स्कन्धमां कह्युं छे. खट्वाङ्ग सुधी राजाओनी कथा कहेवामां आवी छे. अर्ही अवान्तर त्रीजुं प्रकरण पूरुं थयुं. ईशकथा एटले भगवाननी कथा. एमां श्रीरामचन्द्रनुं प्राकट्य त्रण अध्यायथी कहे छे. त्रीजा अध्यायमां वंश वर्णन छे ते पण भगवान् अने भक्त मां भेद नथी एम बताववामाटे ईशकथा निर्वाहक (निर्वाह करनार) छे अने ईशानुकथा निर्वाह्य छे ईशानुकथानो निर्वाह ईशकथा करे छे. अवान्तर चार प्रकरणनी सूचना पण करवामां आवी छे. बीजुं महाप्रकरण अर्हीथी शरू थाय छे. तेमां चन्द्रवंश अगियार अध्यायथी कहेवामां आवे छे. अत्रिना नेत्रथी चन्द्रनी उत्पत्ति करी, आम तो चन्द्रमां पुष्टिमार्गीय छे. पण विषमता एनामां ए आवी गई हती के पोतानी बधी पत्नीओ उपर सरखो प्रेम राखवाने बदले रोहिणी प्रत्ये तेने पक्षपात हतो अने अमावास्या तथा पूर्णिमा नामनी पत्नीओ उपर प्रेम न हतो ते विषमताने लीधे चन्द्रमामां कलङ्क छे. पण आ तो तेनो आगन्तुक (कायमी नहि) दोष छे; वास्तविक स्वरूप तो यज्ञरूप अने ज्ञानरूप छे अने तेथी ज तेना कुलमां बुध वगेरे महानुभावो थया छे. अर्ही पण भक्तना नव भेद कह्या छे. एना नव अध्याय अने बे अध्यायथी परशुरामनुं चरित्र कहेवामां आव्युं छे. एम अगियार अध्यायमां ईशकथा अने ईशानुकथानुं वर्णन छे. आमां चार अवान्तर प्रकरण छे ते पण पूर्ववत् समजी लेवां. बृहस्पतिनी स्त्री तारा लक्ष्मीनो अंश छे, चन्द्र नारायणनो अंश छे. एनाथी अत्यन्त तेजस्वी बुध उत्पन्न थया तेथी ज बृहस्पतिए ए बाळकनी इच्छा करी, नहि तो बीजाथी स्वस्त्रीमां थयेला गर्भनी इच्छा बृहस्पति जेवा ज्ञानी न करे तेमज बधा देवोए ए चन्द्रनो पुत्र छे एम सम्मति आपी तेने सोपाव्यो ते ब्रह्मादि एने न सोम्पावे. बुधथी ईलामां पुरूरवा [[४४७]] नामनो पुत्र थयो. नारायणना श्रीअङ्गमान्थी भक्तिरूप उर्वशी स्त्री शक्ति प्रकट थई तेने मित्रावरुणनो शाप थयो तेथी ए मनुष्यलोकमां आवी अने तेणे पुरूरवा साथे शरती सहवास स्वीकार्यो. एने छ सन्तान थया ते ऐश्वर्य आदि छ गुणयुक्त थयां. पुरूरवानी आसक्ति उर्वशीमां होवाथी ए एना लोकमां जशे. एकादशमां एनी मुक्ति पण कही छे. वैराग्य थया पछी वेदनो विस्तार पण ए ज करशे. ए चन्द्रवंशमां प्रथम थया. गाधि राजा सुधी एनो वंश छे. पुष्टिमां यदुनो वंश थयो. एणे ब्राह्मणो जे दैत्योमां जन्म्या हता तेने मार्या. ब्राह्मणोमां मन्त्र छे, गायमां हविष छे, परशुराम यज्ञरूप भगवद् अवतार छे. ज्यारे सहस्त्रार्जुन बळात्कारे ज जमदग्निनी गायने लई गयो त्यारे परशुरामे एने *मार्यो परशुराम मूळ तो क्षत्रिय पण एनी मानी प्रार्थनाथी चरु बदलवाना कारणे ए ब्राह्मण थया. ज्यारे सहस्त्रार्जुनना पुत्रो जमदग्निनुं माथुं कापी गया. त्यारे परशुरामे एकवीसवार पृथ्वी निःक्षत्रिय करी. परशुरामनी मा भक्तिरूपा छे. ए जळ भरवा गई त्यां पद्ममाली चित्ररथ गन्धर्वने जोता वार लागी तेथी जमदग्निए परशुरामने तेनी माताने मारी नाखवा हुकम कर्यो. मुनिना तपोबळने जाणनार परशुरामे पोतानी माने मारी नाखी. मुनि प्रसन्न थतां एने जीवती करी. ए वात मूळमां छे. एमां रेणुका दोषयुक्त नथी. कारण के ते आधिदैविक भक्तिरूप छे अने चित्ररथ गन्धर्व भगवाननी विभूति छे. ‘‘गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः’’ (गीता १०.२६). ‘‘सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः’’ ए मन्त्रमां सोम, गन्धर्व वगेरे कन्याने प्रथम भोगवे छे त्यार बाद एने लौकिक पतिनो सम्पर्क थाय छे. जो रेणुका दोषयुक्त होय तो एमां भगवदवतार परशुरामनुं प्राकट्य न सम्भवे. क्षत्रियभावमां क्रोध मुख्य छे. परशुराममां ते प्रधानपणे हतो तेथी ए क्षत्रियमां गणाय छे. ए क्षत्रियपणुं भाई, मा वगेरेने मारवाथी एणे प्रकट देखाडी आप्युं छे. रावणने केदमां नाखनार सहस्त्रार्जुनने स्वयं एकाकी मारे ते एमनो वीर्योत्कर्ष लोकोत्तर छे एम गणाय. आ ज कथानुं तात्पर्य छे. ए पछी मथुरामां शूरसेन भक्त थया तेनी कथा छे. भक्त बे प्रकारना थाय छेः केटलाक वैदिक अने केटलाक भोगतत्पर. पुरूरवा, अलर्क वगेरे वैदिको छे. नहुष, ययाति, पुरु वगेरे भोगतत्पर छे. ए राजाओ मध्यम कक्षाना छे. भक्त रन्तिदेव, यदु वगेरे उत्तम कक्षामां छे. एमनां पराक्रम कह्या पछी साक्षात् भगवानना प्राकट्यनी वात आवे छे. अर्ही नव स्कन्ध पूरा थया छे. अवान्तर चार प्रकरण साथे बीजुं महाप्रकरण अर्ही पूरुं थाय छे. (*श्रीपरशुरामजीना दादा ऋचीक ऋषि अने दादी सत्यवती. सत्यवती गाधि राजानी पुत्री क्षत्रिय कन्या हती. एकवार ऋचीक ऋषि पासे एनी पत्नी अने सासु बन्नेए पुत्र [[४४८]] प्राप्तिमाटे प्रार्थना करी. ऋचीक ऋषिए बन्नेमाटे अलग-अलग मन्त्रोथी चरु पकाव्या अने स्नान करवा चाल्या गया. सत्यवतीनी माताए विचार्यु के ऋषिए पोतानी पत्नीमाटे श्रेष्ठ चरु पकाव्यो हशे माटे ते चरु सत्यवती पासे मागी लीधो. सत्यवतीए पोतानो चरु तो माताने आपी दीधो अने मातानो चरु पोते खाधो. ऋचीक ऋषिने खबर पडतां सत्यवतीने कह्युंः‘‘गजब थई गयो. हवे तारो पुत्र तो लोकोने दण्ड देनारो क्रूर प्रकृतिनो थशे अने तारो भाई थशे ब्रह्मवेत्ता’’. सत्यवतीए अनुनय-विनय कर्यो त्यारे ऋषिए प्रसन्न थई कह्युं के ‘‘ठीक छे, पुत्रने बदले पौत्र एवो घोर प्रकृतिनो थशे’’. ए पौत्र ते भगवान् परशुराम जमदग्निना पुत्र). प्रथम सूर्यवंश प्रकरण
अध्याय १
इला अने बुध थी पुरूरवानी उत्पत्ति मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे ॥ वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च ॥१॥
राजाए पूछ्युं - आपे बधा मन्वन्तर कह्या तेमां अनन्त पराक्रमवाळा हरिए ज पराक्रमो कर्या ते में साम्भळ्याम् ॥१॥
द्रविडदेशमां सत्यव्रत नामनो राजर्षि हतो तेणे गया कल्पमां भगवाननी सेवा करीने ज्ञान मेळव्युं हतुम् ॥२॥
पछी ए ज आ कल्पमां वैवस्वत मनु थया ए पणमें आपनी पासे साम्भळ्युं. एना पुत्रो इक्ष्वाकु वगेरे राजाओ थया ॥३॥
हे ब्रह्मन्! हवे कृपा करी एमना वंश अने वंशमां थनारा राजाओना चरित्रनुं वर्णन करो. हे महाभाग! अमारा हृदयमां कथा साम्भळवानी उत्सुकता कायम रह्या ज करे छे ॥४॥
वैवस्वत मनुना वंशमां जे थई गया, जे थशे अने हालमां जे छे ते बधा ज पवित्र कीर्तिवाळा पुरुषोनां पराक्रमनुं आप वर्णन करो ॥५॥
सूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! ज्यारे राजा परीक्षिते एवी रीते ब्रह्मवादीओनी सभामां पूछ्युं त्यारे धर्मना परम मर्मज्ञ शुकदेवजीए कह्युम् ॥६॥
[[४४९]] श्रीशुकदेवजीए कह्युंः हे परीक्षित! हुं तमने सङ्क्षेपमां मनुनो वंश कहुं छुं ए साम्भळो. विस्तारथी तो सेङ्कडो वर्षे पण ए न कही शकाय ॥७॥
नानां-मोटां प्राणीओना आत्मा ए ज परम पुरुष छे. कल्पना अन्तमां ए एकला हता. आ विश्वमां बीजुं कांई न हतुम् ॥८॥
एनी नाभिमान्थी सुवर्णमय कमळकोश प्रकट थयो. तेमां चार मुखवाळा ब्रह्माजी थया ॥९॥
ब्रह्माजीना मनथी मरीचि थया अने एना कश्यप थया. ए कश्यपने दक्षनी पुत्री अदितिमां विवस्वान (सूर्य) नामना पुत्र थया ॥१०॥
हे भरतवंशोद्भव! सञ्ज्ञा नामनी सूर्यनी स्त्रीमां श्राद्धदेव नामना मनु थया. ते उदार मनवाळां श्राद्धदेवने श्रद्धानामनी स्त्री हती. तेनाथी इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, नभग, पृषध्र अने कवि ए नामना दश पुत्रो थया ॥११-१२॥
वैवस्वत मनुने प्रथम प्रजा न हती तेथी वसिष्ठे एने प्रजा थाय एवा उदेशथी मित्रावरुणनो यज्ञ कराव्यो ॥१३॥
यज्ञना आरम्भमां मात्र दूध पीने रहेनारी वैवस्वत मनुनी धर्मपत्नी श्रद्धाए पोताना होता पासे जईने प्रणाम पूर्वक याचना करी के मने कन्या ज थाय ॥१४॥
त्यारे अध्वर्युनी प्रेरणाथी होता बनेला ब्राह्मणे श्रद्धानी विनन्ति याद करी एकाग्र चित्तथी वषट्कारनो उच्चार करी यज्ञकुण्डमां आहुति आपी ॥१५॥
ज्यारे पोताना विपरीत कर्मथी यज्ञना फलस्वरूप पुत्रने बदले इला नामनी कन्या थई त्यारे एने जोईने श्राद्धदेव मनु अति प्रसन्न न थया अने गुरु वसिष्ठने तेणे कह्युंः ॥१६॥
हे भगवन्! आप तो ब्रह्मवादी छो, आपे करावेला कर्मनुं आवुं विपरीत फल केम आव्युं? वैदिक कर्मनुं आवुं विपरीत फल तो क्यारेय न थवुं जोईए ॥१७॥
(जो आवुं ज थाय तो लोकोने वैदिक कर्ममान्थी विश्वास जतो रहे. जो एम थाय तो एओ वैदिक कर्म न करे अने सन्मार्गनो नाश थई जाय; माटे एम न थवुं जोईए). तमे बधा मन्त्रने जाणनार तो छो ज तेपथी पापने बाळी नाखीने शुद्ध थया छो तो देवोमां असत्यनी प्राप्तिनी जेम तमारा सङ्कल्पथी ऊलटुं फळ केम थयुं? ॥१८॥
श्राद्धदेवनुं आवुं वचन साम्भळीने आमां होतानो सङ्कल्प कन्यानो हतो तेथी ते [[४५०]] कन्या थई छे ए वात अमारा वृद्ध प्रपिताह वसिष्ठ जाणी गया. तेथी तेमणे वैवस्वत मनुने कह्युंः ॥१९॥
‘‘तमारो पुत्रनो सङ्कल्प हतो अने कन्या थई ए ऊलटुं फळ होताना विपरीत सङ्कल्पथी थयुं छे पण मारा तपना बळथी तमने हुं श्रेष्ठ पुत्र आपीश’’ ॥२०॥
हे राजन्! एम कहीने इला स्त्रीमान्थी पुरुष थई जाय एटलामाटे परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठे आदिपुरुष भगवाननी स्तुति करी ॥२१॥
प्रभु वसिष्ठ उपर प्रसन्न थया अने एने इच्छित वरदान आप्युं. जेना प्रभावथी इला जे स्त्री हती तेज सुद्युम्न नामनो श्रेष्ठ पुत्र बनी गयो ॥२२॥
हे महाराज! एक दिवस ए सुद्युम्न वनमां शिकार करवामाटे केटलाक मित्रोनी साथे सुन्दर धनुष अने अति अद्भुत बाण हाथमां लई सिन्धुदेशमां जन्मेला घोडा उपर चढी कवच पहेरी उत्तर दिशामां मृगोनो पीछो करतां-करतां बहु दूर नीकळी गयो ॥२३-२४॥
अन्तमां सुद्युम्न मेरु पर्वतनी तळेटीमां आवेल एक वनमां जई पहोञ्च्या. ते वनमां भगवान् शङ्कर-पार्वतीनी साथे विहार कर्या करे छे ॥२५॥
हे नृप! ए सुद्युम्न शत्रुनो संहार करे एवो पराक्रमी हतो छतां एणे ए वनमां प्रवेश कर्यो के तरत तेणे जोयुं के हुं स्त्री बनी गयो छुं अने घोडो घोडी थई गयो छे ॥२६॥
साथे एनी पाछळ चालनार एना बधा सेवकोने पण जणायुं के पोतानी जात पुरुषनी बदलाई जई स्त्रीनी थई गई छे तेथी एक बीजाने जोतां बधा स्त्री बनी गया छे ए जाणी एमने दुःख थयुम् ॥२७॥
राजाए पूछ्युं - अर्ही प्रवेशमात्रथी पुरुष स्त्री थई जाय एम थवानुं कारण कहो अने एम करनार कोण हतुं एनो हे भगवान्! मने उत्तर आपो ए जाणवानी मने बहु उत्सुक्ता छे ॥२८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः एक दिवसे व्रतवाळा ऋषि लोको शिवजीना दर्शने दिशाओ दीपावता त्यां आगळ आवेला तेओने जोई पार्वती देवीए वस्त्र नहि पहेरेलां होय तेथी ए शरमाई गयां अने महादेवजीना खोळामान्थी ऊठीने पोतानां वस्त्र धारण करवा लाग्याम् ॥२९-३०॥
दर्शन करवा आवेला मुनिओए शिव पार्वतीनुं रमण जोई विचार कर्यो के आ [[४५१]] दर्शननो समय नथी माटे आपणे आ वखते आव्या ए उचित न थयुं. एवो विचार करी एओ त्यान्थी पाछा फर्या अने सीधा बदरिकाश्रम तरफ गया, ज्यां नर- नारायणनो आश्रम छे ॥३१॥
पार्वतीनी इच्छाने जाणी एने विशेष लाज न आवे एमाटे शिवजीए ते समयथी आ आश्रममां जे प्रवेश करे ते स्त्री थाय, पछी ते मनुष्य, पशु के पक्षी गमे ते हो ते पुल्लिङ्गवाळो होय छतां स्त्रीलिङ्ग थाय एवो प्रबन्ध करीदीधो ॥३२॥
त्यारथी पुरुष मात्र ए वन छोडीने मुसाफरी करे छे. हवे सुद्युम्न अने एना मित्रो जे स्त्रीओ थई गया ते अनुचरी स्त्रीओ पोतानी साथे एक वनमान्थी बीजा वनमां फरवा लागी ॥३३॥
स्त्रीत्वनी लज्जाथी ए घर तरफ गई नहि. एक वखते आश्रमनी नजीक उत्तम प्रमदाने एनी स्त्री परिकर साथे फरती जोईने शक्तिशाळी बुधने थयुं के मने ए मळे ॥३४॥
सुन्दर भ्रुकुटीवाळी इला पण बुधने जोईने कामुकी थई गई. आ तो चन्द्रनो पुत्र छे, पति आवो सुन्दर जोईए एवुं एने पण मनमां थयुं तेथी ए बन्नेए गान्धर्व विवाह कर्यो अने एने बुधथी पुरूरवा नामनो पुत्र थयो ॥३५॥
एवी रीते मनुनो सुद्युम्न नामनो पुत्र स्त्री थयो तेणे पोताना कुळगुरु वसिष्ठने सम्भार्या. एम साम्भळवामां छे ॥३६॥
त्यां आवी वसिष्ठे यजमाननी आवी दशा जोई फरी स्त्रीरूपमां जोतां एने दया आवी तेथी ए बाबतनुं दुःख थयुं अने कृपा करीने एने पाछुं पुंस्त्व प्राप्त थाय एमाटे वसिष्ठ शिवजीनी आराधना करवा लाग्या ॥३७॥
शिवजी वसिष्ठ उपर प्रसन्न थया. एनुं प्रिय करवाने माटे प्रथम पोते ज बोल्या छे ते पण साचुं रहे अने वसिष्टना यजमाननुं पण श्रेय थाय एम विचार करीने शिवजीए आ प्रमाणे कह्युंः ॥३८॥
‘‘तमे पुत्र तरीके स्वीकारेलो सुद्युम्न एक मास स्त्री अने एक मास पुरुष रहेशे. एवी व्यवस्थाथी सुद्युम्न आ पृथ्वीने भोगवी शकशे तेमज रक्षा करी शकशे ॥३९॥
आचार्य वसिष्ठना अनुग्रहथी व्यवस्थापूर्वक मनमान्युं पुरुषत्व मेळवीने सुद्युम्न राज्य करवा लाग्यो पण एने प्रजाए वखाण्यो नहि केमके ए एक मास तो पुरुष होय त्यारे रक्षा करे पण बीजे मासे स्त्री थाय त्यारे स्त्रीधर्मो प्रकट देखाय तेथी [[४५२]] लोकोए एने पसन्द न कर्यो ॥४०॥
एने उत्कल, गय अने विमल नामना त्रण पुत्र थया ते धर्ममां प्रीतिवाळा हता अने दक्षिण देशना राजाओ थया ॥४१॥
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ॥ पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥४२॥
घणा समय पछी प्रतिष्ठान (पेठण) नगरीना अधिपति सुद्युम्न वृद्ध थया त्यारे एमणे पृथ्वीनुं राज्य पोताना पुत्र पुरूरवाने (सुद्युम्ननो देह स्त्रीनो हतो त्यारे बुधथी थयेल पुत्र ते पुरूरवा.) आप्युं अने पोते तपश्चर्या करवा वनमां गया ॥४२॥
इति श्रीभागवत *नवमस्कन्धमां (उपक्रममां चन्द्रवंशना आरम्भरूप) ‘‘इला अने बुध थी पुरूरवानी उत्पति’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण.
विशेषः सूर्यवंश १३ अध्यायमां अने चन्द्रवंश ११ अध्यायमां एम चोवीस अध्याय कह्यो छे, निबन्धमां बार-बार अध्यायनां बे प्रकरण गणवामां आव्यां छे. तेमां प्रथम अध्याय चन्द्रवंशमां गण्यो छे केमके एमां बुधथी पुरूरवा थया अने ए चन्द्रवंशना छे. अत्रि-चन्द्र- बुध अने पुरूरवा ए क्रमथी चन्द्रवंशीओ थया छे. तेथी अर्ही आ अध्यायमां सूर्यवंश नामनुं प्रथम प्रकरण समाप्तिमां लख्युं नथी. जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? (प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) तेनो सर्वनाश थाय. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोकज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. (श्रीगुसांईजी)
अध्याय २
सूर्यवंशना राजाओनुं वर्णन
विशेष - आ बीजा अध्यायमां पृषध्र अने कविनुं चरित्र भगवद्भक्तने पण वखाणवा लायक कहेवाशे. अने पछी करूष वगेरेना वंशने पण आ अध्यायमां कहेवामां आवशे. एवं गतेऽथ सुद्युम्ने मनुर्वैवस्वतः सुते ॥ पुत्रकामस्तपस्तेपे यमुनायां शतं समाः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे सुद्युम्न वनमां गया त्यारे वैवस्वत मनुए
ईं उं ईं उं
[[४५३]] पुत्रनी कामनाथी यमुनाजीना काण्ठा उपर सो वर्ष सुधी तप कर्यु ॥१॥
प्रजाने माटे मनुए हरि भगवाननुं यजन कर्युं तेनाथी एने इक्ष्वाकु वगेरे पोताना जेवा ज दश पुत्रो थया ॥२॥
गुरु-वसिष्ठजीए मनुना पुत्र पृषध्रने गायनी सेवामां राख्यो. ते हाथमां तलवार लई जागतो रात्रिए वाघ आदिथी गायनी रक्षा करतो ॥३॥
एक दिवसे रात्रिमां वरसाद थयो त्यारे एक वाघ गामना खीरकमां आवी गयो. तेथी गायो भय पामी व्रजमां दोडवा लागी ॥४॥
एमान्थी एक गायने वाघे पकडी. गाय ऊञ्चेथी शब्द करवा लागी. ए गायनुं बराडवुं साम्भळी पृषध्र वाघ पाछळ दोड्यो ॥५॥
अन्धारी रातमां वाघ जाणीने एणे अन्धारामां गायने तलवार मारी तेथी गायनुं माथुं नीचे पडी गयुम् ॥६॥
वाघनो पण कान कपाई गयो. एने पण डर लाग्यो तेथी ए लोही टपकतो वनमां चाल्यो गयो. शत्रुने मारनार पृषध्र तो एम ज समजतो हतो के में वाघ मार्यो छे पण अजवाळुं थतां जोयुं तो मरेली गाय जोवामां आवी तेथी ए मनमां दुःखी थयो ॥७-८॥
जो के पृषध्रे जाणीने अपराध कर्यो न हतो छतां कुलपुरोहित वशिष्ठजीए तेने शाप आप्यो - ‘‘तुं आ कर्मथी क्षत्रिय नहि रहे, जा, शूद्र थईजा’’ ॥९॥
ए शापनो पृषध्रे स्वीकार कर्यो अने त्यारथी एणे मुनिओने प्रिय एवुं भगवद्भजनरूपी व्रत ब्रह्मचर्य पूर्वक राख्युम् ॥१०॥
सर्व प्राणीमां समदृष्टि राखवाथी तथा पर अने परम शुद्ध एवा वासुदेव भगवाननी भक्ति करवाथी ए एमां एकचित्त थई गयो. एणे सङ्ग छोडी दीधो, चित्तने शान्त करी दीधुं अने प्रभु इच्छाथी जे कांई मळे तेनाथी ए देहनो निर्वाह करवा लाग्यो ॥११-१२॥
ज्ञानवडे तृप्त थई चित्तने आत्मामां स्थिर करी समाधिस्थ थई जाणे जड होय, आन्धळो होय अने बहेरो होय एम आत्माने बतावतो ए पृथ्वीमां फरवा लाग्यो ॥१३॥
आ दशामां ए वनमां गयो तो वनमां बळता अग्निने जोईने एमां बळी गयो अने परब्रह्मने प्राप्त थयो ॥१४॥
[[४५४]] नानो भाई कवि हतो ते पण विषयनी इच्छा राखतो न हतो. ए बन्धुनी साथे राज्यने पण छोडी दईने चित्तमां पुरुषने पधरावी किशोर वयमां ज वनमां गयो अने त्यां भजन करीने परमात्माने प्राप्त थयो ॥१५॥
करूष नामना मनुपुत्रथी कारूष नामना क्षत्रियो थया. तेओ खूब ज ब्राह्मण भक्त अने धर्मप्रेमी थई उत्तर देशोना रक्षक थया ॥१६॥
धृष्ट नामना मनुपुत्रथी धार्ष्ट नामनुं क्षत्रिय कुळ थयुं अन्ते तेओ पृथ्वी उपर आ शरीरथी ज ब्राह्मण बनी गया. मनुना पुत्र नृगनो पुत्र सुमति तेनो भूतज्योति अने एनो वसु थयो ॥१७॥
वसुनो पुत्र प्रतीक थयो एनो ओघवान एनो पुत्र पण ओघवान अने एनी ओघवती नामे एक पुत्री पण हती जेने सुदर्शन परण्या ॥१८॥
हवे मनुना पुत्र नरिष्यन्तने चित्रसेन पुत्र थयो. एने ऋक्ष नामनो पुत्र थयो. एनो पुत्र मीढ्वान थयो एनो कूर्च अने एनो इन्द्रसेन थयो ॥१९॥
इन्द्रसेननो पुत्र वीतिहोत्र हतो तेने सत्यश्रवा नामनो पुत्र थयो. एनो उरुश्रवा थयो. उरुश्रवानो देवदत्त नामनो पुत्र थयो ॥२०॥
ए देवदत्तने त्यां भगवान् अग्निनो अवतार अग्निवेश्य पुत्र थयो. ए मोटो ऋषि थयो. आगळ उपर ए ज कानीन अने महर्षि जातूकर्ण्यना नामथी प्रख्यात थया ॥२१॥
ए अग्निवेश्यथी हे नृप! अग्निवेश्यायन नामनुं ब्राह्मणकुल थयुं, आ प्रमाणे नरिष्यन्तना वंशनुं में वर्णन कर्युं. हवे दिष्टनो वंश साम्भळो ॥२२॥
दिष्टना पुत्रनुं नाम हतुं नाभाग जेनुं वर्णन हुं आगळ करवानो छुं ते नाभागथी आ नाभाग जुदा. ते पोताना कर्मने लीधे वैश्य थई गयो. एनो पुत्र भलन्दन थयो अने भलन्दनो वत्सप्रीति थयो ॥२३॥
वत्सप्रीतिनो पुत्र प्रांशु थयो तेनो प्रमति नामनो पुत्र थयो. प्रमतिनो खनित्र थयो तेनो चाक्षुष अने एनो विविंशति नामनो पुत्र थयो ॥२४॥
हे महाराजा परीक्षित! विविंशतिनो रम्भ अने एनो खनिनेत्र बन्ने परम धार्मिक थया. एनो करन्धम थयो ॥२५॥
करन्धमनो अवीक्षित थयो एनो चक्रवर्ती मरुत्त थयो. अङ्गिराना पुत्र महायोगी संवर्ते एनो यज्ञ कराव्यो हतो ॥२६॥
[[४५५]] रुत्तना यज्ञ जेवो कोईनो यज्ञ थयो नथी. एना यज्ञमां नाना-मोटा बधा पात्रो सुन्दर अने सोनानां हताम् ॥२७॥
ए मरुत्तना यज्ञमां सोमपान करी इन्द्र मतवाला थई गयेला अने ब्राह्मणो दक्षिणाथी धराई गया हता. मरुत्तो ए यज्ञमां पीरसवामां रोकाया हता अने विश्वदेव सभासद हता ॥२८॥
ए मरुत्तने दम नामनो पुत्र हतो तेनो पुत्र राज्यवर्धन थयो तेनो सुधृति थयो अने एनो पुत्र नर हतो ॥२९॥
ए नरनो पुत्र केवल हतो एनो बन्धुमान अने तेनो वेगवान हतो. एनो पुत्र बन्धु थयो. एनो तृणबिन्दु पृथ्वीनो पति थयो ॥३०॥
आदर्श गुणोना भण्डार तृणबिन्दुनी पासे, अलम्बुषा नामनी श्रेष्ठ अप्सरा आश्रयमाटे आवी तेने एणे राखी तेनाथी एने घणाय पुत्रो अने इडविडा नामनी एक कन्या थई ॥३१॥
ए इडविडा कन्याने विश्रवा नामनो पुलस्त्यनो पुत्र परण्यो तेनाथी एने कुबेर नामनो पुत्र थयो. ए कुबेर धनद थयो. एणे योगेश्वर एवा पोताना पिता विश्रवा पासेथी परम श्रेष्ठ अन्तर्धानविद्या सम्पादन करेली तेथी ए सूक्ष्म बुद्धिवाळो थयो. हवे तृणबिन्दुने विशाल, शून्यबन्धु अने धूम्रकेतु नामना पुत्रो थया ॥३२॥
वंशने करनार विशाल नामना राजाए वैशाली नामनी पुरी करी ॥३३॥
ए विशालनो हेमचन्द्र, तेनो धूम्राक्ष, तेनो संयम, संयमना बे पुत्र थयाकृशाश्व अने देवज ॥३४॥
कृशाश्वनो पुत्र सोमदत्त थयो. एणे अश्वमेधयज्ञो द्वारा यज्ञपति भगवाननी आराधना करी अने योगेश्वर भक्तोनो आश्रय करी उत्तम गति प्राप्तकरी ॥३५॥
सौमदत्तिस्तु सुमतिस्तत्सुतो जनमेजयः ॥ एते वैशालभूपालास्तृणबिन्दोर्यशोधराः ॥३६॥
सोमदत्तनो पुत्र सुमति तेनो जनमेजय थयो. आ बधा तृणबिन्दुना यशने वधारनार विशालना वंशना राजाओ थया ॥३६॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेलां प्रकरण सूर्यवंशनो पहेलो) ‘‘सूर्यवंशना राजाओनुं वर्णन’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४५६]]
अध्याय ३
शर्यातिनी कन्या तथा पुत्र अने रेवत राजानी कन्या रेवतीनी कथा
विशेष - मनुना पुत्र शर्यातिनी कन्यानुं वृत्तान्त तथा एना पुत्रनो वंश आ त्रीजा अध्यायमां कहेवाशे; तेमज रेवत राजानी रेवती कन्याना सगपणनी वात पण आ अध्यायमां कहेवामां आवशे. शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्यिष्ठः स बभूव ह ॥ यो वा अगिंरसां सत्रे द्वितीयमह ऊचिवान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - मनुनो पुत्र राजा शर्याति वेदोना निष्ठावान विद्वान हता तेणे अगिंरा गोत्रना ऋषिओना यज्ञमां बीजा दिवसनुं कर्म बताव्युं हतुम् ॥१॥
एने सुन्दर नेत्रवाळी सुकन्या नामनी पुत्री हती. एनां नेत्र कमळ जेवां हतां तेथी ए सुकन्याना नामे प्रसिद्ध हती. एक दिवस एने साथे लई शर्याति राजा वनमां च्यवन ऋषिना आश्रमे गया ॥२॥
सखीओ साथे सुकन्या वनमां फरी वृक्षोनुं सौदर्य निहाळती हती तेवामां एक राफडाना ऊण्डाणमान्थी पतङ्गियानी जेम बे ज्योत छेदमान्थी देखाई ॥३॥
देवनी प्रेरणाथी बाळाए शोधक बुद्धिथी ए प्रकाशक ज्योतिने काण्टावडे र्वीध्यां ते तो तेमान्थी बहु लोही पडवा लाग्युम् ॥४॥
ए ज समये सेनाना माणसोनां झाडो पेशाब बन्ध थई गया. शर्यातिने एनी जाण थतां खूब आश्चर्य थयुं अने कहेवा लाग्याः ॥५॥
‘‘अरे! आपणे अर्ही च्यवनना आश्रममां रह्या छीए. तमारामान्थी कोईए च्यवन मुनिनुं कांई अनिष्ट तो कर्युं नथीने? मने तो स्पष्ट लागे छे के आपणामान्थी कोईए ने कोईए आ आश्रममां अनर्थ कर्यो होवो ज जोईए’’ ॥६॥
त्यारे डरतां-डरतां सुकन्याए पिताने कह्युं - आ राफडामां बे जोत देखाती हती तेने में अजाणतां काण्टाथी र्वीधी छे. एटलुं तो माराथी थई गयुं छे ॥७॥
पुत्रीनुं कहेवुं साम्भळी शर्याति ध्रुजी उठ्या. पछी राफडामां रहेला मुनि पासे जईने तेमनी धीरे-धीरे स्तुति करी तेमने प्रसन्न कर्या ॥८॥
मुनिना अभिप्रायने जाणीने शर्यातिए सुकन्याने मुनिनी सेवामां आपी दीधी [[४५७]] त्यारे सेना उपर सङ्कट आव्युं हतुं ते दूर थयुं. पछी राजा शर्याति च्यवननी रजा लई एमना मननुं समाधान करी पोताना नगरमां आव्या ॥९॥
अत्यन्त क्रोधी च्यवनमुनि सुकन्याना पति थया. मुनिना चित्तने सुकन्या जाणी गई अने सावधान थई एनी मरजी प्रमाणे सेवा करी च्यवन मुनिने प्रसन्न करवा लागी ॥१०॥
थोडा समय बाद बे अश्विनीकुमारो च्यवन मुनिना आश्रमे आवी चड्या. मुनिए एमना स्वागत-सत्कार करी अने बोल्या - आप समर्थ छो तो मारुं यौवन गयुं छे ते पाछुंआपो ॥११॥
जो मारी युवाअवस्था पाछी मने लावी आपो तो तमने यज्ञमां सोमपान करवानुं मळतुं नथी ते हुं तमने सोमथी भरेलुं सोमपात्र अपावुं ते उवम मदवाळी स्त्री पण स्पृहा करे एवुं मारुं रूप अने यौवन आप करी आपो’’ ॥१२॥
वैदशिरोमणि अश्विनीकुमारोए शरत कबूल करी अने आज्ञा करी के ‘‘ठीक, हवे आप सिद्ध पुरुषे बनावेला आ जलना कुण्डमां डूबकी मारो’’ ॥१३॥
आवो हुकम साम्भळी वृद्धावस्थाने लीधे जेनो देह थाकी गयेलो छे, नाडीनां दोरडां चामडीमां व्याप्त थवाथी जेनामां शिथिलता आवी गई छे अने जेनी चामडीमां वळ पडी गया छे तथा जेना माथाना वाळ धोळा थई गया छे तेवा ए च्यवन मुनिने अश्विनीकुमारोए ह्रदमां उतार्या अने एओ पोते पण जळाशयमां नहावा माटे पड्या ॥१४॥
तरत ज रूपयौवनमां एक सरखां, स्त्रीओने वहाला लागे तेवा, कण्ठमां कमळनी माला धारण करेला, कानमां कुण्डळो धारण करेला तेमज अङ्गे सुन्दर वस्त्र धारण करेला त्रण पुरुषो जळमान्थी बहार आवी ऊभा रह्या ॥१५॥
परम साध्वी सुन्दरी सुकन्याए एमने सूर्य जेवा तेजस्वी अने समानरूपवाळा जोया तेथी एमां पोतानो पति कोण हतो ए जाणी शकी नहि. ए जाणवामाटे ए अश्विनीकुमारोने शरणे गई. ते पतिव्रता स्त्रीए अश्विनीकुमारोने ज कह्युं के ‘‘मारो पति मने आपो’’ ॥१६॥
सुकन्याना पतिव्रत्यथी प्रसन्न थयेला अश्विनीकुमारोए एनो पति बताव्यो अने पछी च्यवननी रजा लईने विमानद्वारा तेओ स्वर्ग तरफ गया ॥१७॥
कोई समये यज्ञ करवानी इच्छा थतां सुकन्याना पिता शर्याति च्यवनमुनि पासे [[४५८]] आव्या त्यां पोतानी पुत्रीने जोई पण जे वृद्ध मुनिने पोते कन्यादान आपी गया हता ते बुढ्ढाने एनी पासे न जोतां एनी पासे सूर्य समान एक तेजस्वी युवान पुरुषने जोयो. तेथी एने कन्याना शीलमां शङ्का आवी ॥१८॥
सुकन्या आवी, पिताना चरणमां नमन कर्युं तो पण शर्यातिए एने आशीर्वाद न आपतां कांईक अप्रसन्न हृदयथी कन्याने कह्युं - ॥१९॥
‘‘हे असती! तारी शुं करवानी इच्छा छे? तें मारो आपेलो पति छोडी दीधो. ए पति तो घडपणथी घेरायेलो हतो तेथी ए तने गम्यो नर्ही होय एटले रस्ते चालता मनगमता यारने पकडी लई एनी साथे तुं पतिनो व्यवहार राखीने बेठी छे ॥२०॥
हे सत्कुळमां जन्म लेनार! तारी बुद्धि आम केम फरी गई? एवुं करवुं ए कुलीन कन्याने दूषणरूप गणाय. तें लाज छोडी दीधी अने यारने राखी लीधो अने आम करीने तुं पिता अने श्वशुर बन्नेना कुळने नरकमां खेञ्ची रही छे ॥२१॥
एवी रीते बोलता पिता सामे पवित्रहास्य करी सुकन्या बोली‘‘हे पिताजी! तमे मने जे बुढ्ढाने परणावी हती ते ज आ च्यवनमुनि तमारा जमाई छे ॥२२॥
एटलुं कही एमनी वृद्धावस्था केवी रीते गई अने यौवन शी रीते मळ्युं ए बधी हकीक्त एने कही सम्भळावी त्यारे शर्यातिने बहु आश्चर्य थयुं अने पोतानी पुत्रीने खूब प्रेमपूर्वक ए भेट्यो ॥२३॥
च्यवन मुनि शर्याति पासे सोमयज्ञ कराववा तैयार थया. एमणे ए यागमां पोताना तेजना प्रभाववडे जेने कोई दिवस सोमनो भाग यज्ञमां मळतो नहतो तेवा अश्विनीकुमारने सोममां भाग काढ्यो अने एना नामनिर्देशथी सोमनी आहुति च्यवने अश्विनीकुमारने आपी ॥२४-२५॥
च्यवने अश्विनीकुमारने नर्ही मळतो लाभ आप्यो तेथी इन्द्रे च्यवनउपर कोप कर्यो अने यज्ञ करनार शर्यातिने मारवा माटे वज्र उठाव्युं त्यारे च्यवने वज्र सहित इन्द्रनो हाथ थोभावी दीधो ॥२६॥
वैद्य होवाथी सोम लेवाने अयोग्य छे एवुं बधा देवो गणता हता पण एनो भाग यज्ञमां च्यवने शरू कर्यो त्यारथी देवो अश्विनीकुमारनो भाग आपवाने कबूल थया. शर्याति अने उत्तानबर्हि, आनर्त अने भूरिषेण नामना त्रण पुत्र हता. आनर्तनो पुत्र रेवत थयो ॥२७॥
[[४५९]] एणे समुद्रनी अन्दर कुशस्थली (जेने हालमां द्वारका कहे छे.) नामनी नगरी वसावी हती अने तेमाञ्ज रहीने ते आनर्त (आनर्त ए ओखा मण्डळनुं नाम छे)वगेरे देशोनुं राज्य करताहता ॥२८॥
एने सो श्रेष्ठ पुत्र हता जेमां ककुद्मी सौथी मोटा हता. पोतानी कन्या रेवती कोने आपवी एनी सलाह लेवामाटे रेवतराजा रेवतीने लईने ब्रह्माजी पासे गया हता केमके ए वखते त्यां जवामां आवा लोकोमाटे प्रतिबन्ध न हतो ॥२९॥
त्यां ए वखते सङ्गीत समारोह चालु होवाथी पूछवानो वखत मळ्यो नर्ही तेथी गान थयुं त्यां सुधी ते थोडी क्षण ऊभा रह्या. एटलामां तो गान पूरुं थयुं पछी एमणे ब्रह्माजीने नमन कर्युं त्यारे ब्रह्माजीए आटले दूर आववानुं कारण पूछ्युं ॥३०॥
ब्रह्माजीए रेवती कोने आपवी ए सम्बन्धमां एना पिता रेवतनो अभिप्राय जाण्यो अने हसवा लाग्या ॥३१॥
हे राजा! तमे जेने तमारी कन्या आपवानो विचार करो छो ते बधाने काळ खाई गयो. एना पुत्रो अने पौत्रो पण हालमां नथी. एना पुत्रो तो शुं पण एना गोत्रने पण अत्यारे लोकमां कोई जाणतुं नथी ॥३२॥
केमके तमे अर्ही आवी गायन साम्भळ्युं एटलामां चार युग सत्तावीस वखत चाल्या गया; माटे हवे तमे पृथ्वी उपर जाओ अने देवना देव, भगवानना अंशरूप बळदेवजीने तमारी कन्या रेवती आपजो केमके ए महाबळवान अने मनुष्यमां रत्न जेवा छे. तमारुं कन्यारत्न पण एने योग्य छे; तो ए कार्य जलदी करो. पृथ्वीनो भार उतारवाने माटे भगवान् पोतेपोताना अंश बळदेवजी साथे पृथ्वी उपर अवतर्या छे. एनां श्रवण-कीर्तन पण पवित्र करनार छे माटे ए बळदेवजीने तमे रेवती परणावी दो ॥३३-३४॥
ज्यारे ब्रह्माजीए ए प्रमाणे कह्युं त्यारे रेवत राजा ब्रह्माजीने प्रणाम करी एमनी रजा लई पाछा फर्या ते्यां तो शत्रुना त्रासथी एना भाईओ नगरने मूकीने चाल्या गया हता. रेवत राजाए नगरमां आव्या ॥३५॥
सुतां दत्त्वानवद्याङ्गी बलाय बलशालिने ॥ बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम् ॥३६॥
पोतानी पुत्री रेवती सम्पूर्ण शोभावळी हती तेने बळवाळा बळदेवजीने आपी [[४६०]] राजा रेवत पोते तपश्चर्या करवा नारायणना बदरिकाश्रममां गया ॥३६॥
इतिश्रीभागवत नवमस्कन्धमां(पहेलां सूर्यवंश प्रकरणनो बीजो) ‘‘शर्यातिनी कन्या तथा पुत्र अने रेवत राजानी कन्या रेवतीनी कथा’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!
अध्याय ४
नाभाग तथा अम्बरीष राजानुं चरित्र
विशेषः मनुना पुत्रना पुत्र नाभाग अने एना पुत्र अम्बरीष एनी कथा आ चोथा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम् ॥ यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मनुना पुत्र नभगने नाभाग नामनो पुत्र थयो. ए बधाथी नानो हतो. ए ब्रह्मचर्य राखी गुरुकुळमां रहेतो हतो त्यारे बीजा भाईओए पितानुं धन वेञ्ची लीधुं. नाभाग विद्वान थई आव्यो अने एणे भाईओ पासे पोतानो भाग माग्यो त्यारे ‘‘आ पिता तारा भागमाटे राख्या छे’’ एम भाईओए कह्युं. ‘‘भाग पड्या त्यारे तो तुं अमने याद न आव्यो पण हवे आ पिता छे एनो भाग पड्यो नथी तेथी एने तुं भागमां राखी ले’’ ॥१॥
त्यारे ‘‘हे पिताजी! भाईओ मने भागमां तमने सोम्पे छे तो ए वात तमे कबूलो छो?’’ एम पूछतां एमणे कह्यु - ‘‘तारा भाई तने छेतरे छे. ए कहे एनो तारे विश्वास करवो नहि. केमके सम्पत्तिनो भाग थाय एम मारो भाग थई शके नहि माटे हुं भागमां उपयुक्त साधन तरीके गणाउं नहि’’ ॥२॥
ईं उं ईं उं
[[४६१]]
त्यारे नाभागे कह्युं - ‘‘जो तमे भागरूप न गणाओ तो मारे आजीविका शाथी
चलाववी?’’ त्यारे नभगे कह्युं के ‘‘अर्ही नजीकमां बुद्धिमान आगिंरस गोत्रना
ब्राह्मणो यज्ञ करे छे. ते यज्ञ बार दिवसनो छे; तेमां छठ्ठा दिवसनुं कर्म बेवार आवे
छे. ए कर्ममां सुक्तविशेषमां ए विद्वान ब्राह्मणो मूञ्झाई जाय छे. ए सूक्त तुं जाणे
छे तेथी ए विद्वान ब्राह्मणोने ए बे सूक्त तुं बताव एटले ए यज्ञ समाप्त करी
स्वर्गमां जशे; एमनुं जे बाकी रहेलुं धन हशे ते तने आपी देशे माटे तुं यज्ञमां जा’’
एम पितानी आज्ञा थतां नाभाग त्यां गयो अने बे सूक्त बताव्यां त्यारे ए
ब्राह्मणो पण यज्ञ करतां बाकी रहेलुं धन नाभागने लेवानुं कही स्वर्गमां गया ॥३-
५॥
नाभाग ज्यां ए धन लेवा जाय छे त्यां एक काळा रङ्गनो पुरुष उत्तर दिशा तरफथी आवी बोल्यो के यज्ञमां वधेलुं धन तो मारुं छे; तुं क्यां लेवा तैयार थयो छे? ॥६॥
मनुना पौत्र नाभागे कह्युं - ‘‘में सूक्त बताव्यां तेथी ऋषिलोको स्वर्गमां गया त्यारे मने पोतानुं धन आपी गया छे माटे आ धन मारुं छे’’ रुद्रे कह्युंः‘‘आपणा कलहमां तारा पिता कहे ए आपणे बन्नेने मञ्जूर छे’’. नाभागे हा कहीने ए एना पिताने पूछवा गयो ॥७॥
पिताए कह्युं - ‘‘एकवार दक्षप्रजापतिना यज्ञमां ऋषिलोको एवो निर्णय लई चूक्या छे के यज्ञभूमिमां जे कांई बचे ते बधुं रुद्र देवनो हिस्सो थाय. तेथी ए धन उपर तो श्रीमहादेवजीनो हक्क छे तेथी एमने लेवा दे’’ ॥८॥
नाभागे जईने रुद्रने कह्युं - ‘‘मारा पिताने में पूछ्युं तो ‘‘ए धन तमारुं छे’’ एम कहे छे तेथी में एमां ममता करी ए मारो अपराध आप क्षमा करो’’. एम कही रुद्रने नाभागे प्रणाम कर्या ॥९॥
त्यारे रुद्रे कह्युं - ‘‘तारा पिताए धर्मयुक्त कह्युं तेथी मन्त्रद्रष्टा एवा तने हुं ब्रह्मनुं ज्ञान जे सनातन छे ते आपुं छुम् ॥१०॥
वळी आ यज्ञमां बाकी रहेलुं धन मारुं छे छतां हुं खुशीथी तने आपुं छुं. तुं मारी आज्ञाथी ले एनाथी तारी जीविका चालशे. एटलुं कही सत्यभाषणथी प्रसन्न थयेला भगवान् रुद्र अन्तर्धान थईगया ॥११॥
आ कथाने जे सवार-साञ्ज याद करे ते पण विद्वान अने मन्त्रने जाणनार थाय [[४६२]] एटलुं ज नहि पण परमात्माना स्वरूपने ए जाणे अने आ संसारमां पाछो आवे नहि ॥१२॥
नाभागना पुत्र अम्बरीष थया. ए मोटा भगवद्भक्त हता. जे दुर्वासाना शापथी इन्द्र भिखारी थई गयो हतो. तेनो शाप अम्बरीषने कांई पण न करी शक्यो; अम्बरीष राजा एवो कृतार्थ थयो ॥१३॥
राजाए कह्युं - हे भगवन्! जेनी उपर अप्रतिहत एवा ब्रह्मदण्डनी पण कांई असर थई नहि तेवा ए अम्बरीषराजानुं चरित्र साम्भळवानी मने इच्छा थाय छे ॥१४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - अम्बरीष सात द्वीपवाळी पृथ्वीनो राजा, अविकृत लक्ष्मीवाळो अने अतुल बळवाळो थयो ॥१५॥
माणसने एना जेवो वैभव दुर्लभ गणाय छतां अम्बरीष तो एने स्वपन जेवो गणवा लाग्यो, कारण के ए जाणतो हतो के वैभवनुं फळ तो नरक छे अने तेथी ए एमां मोह पाम्यो नहि ॥१६॥
ए वासुदेव भगवान् अने एना भक्तोमां परम भाववाळो हतो तेथी ए आ विश्वने माटीना ढेफा जेवुं गणतो हतो ॥१७॥
एनुं मन कृष्णना चरणकमळमां ज हतुं एनी वाणी वैकुण्ठ भगवानना गुण गावामां ज उपयोगी हती एना बे हाथ भगवानना मन्दिरने साफ करवामां उपयोगमां आवता हताअने भगवाननी उत्तम कथा साम्भळवामां एना काननो उपयोग हतो ॥१८॥
मोक्षदाता भगवान् मुकुन्दनी मूर्तिने अने बिराजवाना मन्दिरने नीरखवामां ज एना नेत्रनो व्यापार हतो. भगवद्भक्तनो स्पर्श करवामां सकळ अङ्गमां व्यापी रहेली चामडी उपयोगमां हती; भगवानना चरणकमळ सुङ्गवामां तेमज चरणनी तुलसी सुङ्गवामां नाकनो विनियोग हतो तथा प्रभुने धरवामां आवेला महाप्रसादमां एनी जीभनो व्यापार हतो ॥१९॥
भगवानना मन्दिरे जवामां ए एना पगनो उपयोग करतो अने इन्द्रियना नियामक भगवानने नमन करवामां ए एना मस्तकनो उपयोग करतो; जो के कामनो उपयोग दासत्वमां छे छतां काम पूर्ण करवाना उद्देशथी नहि पण भगवद्भुक्त पदार्थने माथे चढाववाना कार्यमां उपयोग थई शके एमाटे ए चन्दन, माळा वगेरे [[४६३]] करतो ॥२०॥
एवी रीते पोते जे-जे कर्म करता ते बधुञ्ज भगवान्मां अर्पण करता. एम करतां एने भगवान्मां सर्वात्मभाव थईगयो अने भगवद्भक्त ब्राह्मणोनी आज्ञाथी पृथ्वीनुं राज्य करता हता ॥२१॥
एणे यज्ञना अधीश्वर विष्णु भगवाननी प्रीतिने अर्थे जे मोटी समृद्धि अने दक्षिणाने अवकाश होय छे तेवो अश्वमेध यज्ञ कर्यो. एमां वसिष्ठ आदि मुनिओ ऋत्विक हता. सरस्वतीना प्रवाहनी अभिमुखमां ज्यान्थी मारवाड देशनी शरूआत थाय छे त्यां एणे आ यज्ञ कर्यो अने ए द्वारा यज्ञाधीश्वरने प्रसन्न कर्या ॥२२॥
ए अम्बरीषना यज्ञमां ऋत्विक् अने सदस्यो देव जेवा देखाता हता एमनां रूप देव जेवां हतां एमनी आङ्खमां एओ निमेष वगरना हता अने एमणे सारां वस्त्राभूषण पहेर्या हताम् ॥२३॥
देवोने प्रिय एवा स्वर्गनी अम्बरीषनी प्रजाए कदी इच्छा करी न हती केमके स्वर्गमां तो केवळ भोग छे अने अर्ही तो उत्तम कीर्तिवाळा भगवाननुं चरित्र श्रवण करवानो तथा कीर्तन करवानो लाभ मळे ते छोडी स्वर्गमां जवानी कोण इच्छा करे? ॥२४॥
भगवाने जेने पोताना मान्या छे तेवा भगवद्भक्तो स्वर्गादिकना भोगवी लालचथी ललचावी शकाता नथी, कारण के एओ तो भगवानने पोताना हृदयमां जोईने आनन्द पामे छे. एमने अणिमादि सिद्धिओ पण आनन्द आपी शकती नथी तो कर्मथी मळतो स्वर्ग एमने न गमे एमां तो शुं कहेवुंवारुं? ॥२५॥
भक्ति अने तपरूप स्वधर्मवडे भगवानने प्रसन्न करता ए अम्बरीष राजाए धीमे-धीमे बधी आसक्तिओने छोडी दीधी ॥२६॥
घर, स्त्री, पुत्र, बन्धुजन, मोटा हाथीओ, रथो, घोडा, पायदळनी चतुरगिण्णी सेना, अक्षय रत्न, आभूषणो अने हथियार तथा अखूट खजानाओ विषे तेमनो दृढ निश्चय हतो के आ बधुञ्ज असत्य छे ॥२७॥
विशेषः ‘‘जेनाथी अमृत न मळे तेने हुं शुं करुं’’ एम उपनिषद्मां मैत्रेयीए कह्युं छे. अम्बरीषने पण ए बधां सुख आपनार न थया. भगवाने ए अम्बरीषने शत्रुने भय करे तेवुं चक्र आप्युं हतुं. केमके ए एकान्त [[४६४]] भक्त हतो. शत्रुनुं ध्यान राखवा जतां भगवान्मान्थी चित्तने चलित करवानुं भक्तने पोसाय नहि एटलामाटे भगवाने एनी भक्तिथी प्रसन्न थई एनी रक्षामाटे चक्र आप्युंहतुम् ॥२८॥
वीर अम्बरीषनी राणी पण एना जेवी ज धर्मिष्ठ, संसारथी विरक्त अने भगवद्भक्त हती. एकवार एमणे पत्नी साथे भगवान् श्रीकृष्णनी आराधना करवामाटे एक वर्ष सुधी द्वादशी प्रधान एकादशीनुं व्रत करवानो नियम लीधो ॥२९॥
व्रत पूरुं थतां कार्तिक मासमां एमणे त्रण दिवस-रातना उपवास कर्या अने एक दिवसे यमुनाजीमां स्नान करी मधुवनमां भगवान् श्रीकृष्णनी पूजा करी ॥३०॥
एमणे पहेलां जलनी धाराथी अभिषेक करी वस्त्र वगेरेथी केशवनी पूजा करी गन्धमाल्य, धूप, दीप, नैवेद्य वगेरे धर्या ॥३१॥
एमणे भगवाननुं भक्तिपूर्वक पूजन कर्युं तथा मोटा भाग्यवाळा ब्राह्मणोने पण भक्तिथी पूज्या ॥३२॥
एमणे सोनाना शिङ्गडावाळी तथा रूपानी खरीवाळी तथा सुन्दर वस्त्रवाळी दूझती रूपाळी वाछडावाळी साठ करोड गायोनुं दोहननां साधनो साथे दान कर्युं ए पण गायनी सेवा करे तेवा योग्य ब्राह्मणोने ए गायो आपी तथा छ प्रकारना रसवाळुं अन्न ब्राह्मणोने जमाड्युम् ॥३३-३४॥
ब्राह्मणोनो मनोरथ पूरो थतां एमणे एमने पारणां करवानी (जमवानी) आज्ञा आपी अने ए जमवानी तैयारीमां हता तेवामां तो भगवान् दुर्वासा मुनि अतिथि तरीके त्यां आव्या ॥३५॥
एमने जोतां ज राजाए ऊभा थई एमनुं पूजन कर्युं, आसन आपी एमना चरणमां माथुं नमावी नमस्कार कर्या अने भोजन करवानी विनन्ति करी ॥३६॥
दुर्वासाए राजानी मागणी स्वीकारी अने पोतानुं नित्य कर्म करवाने यमुना तटे गया अने त्यां ब्रह्मनुं ध्यान करतां-करतां यमुनाजीना पवित्र जलमां स्नान करवा लाग्या ॥३७॥
ए समये द्वादशी मात्र एक घडी बाकी रही हती (अने अम्बरीषे एमां ज पारणां करवां जोईए) तेथी धर्मज्ञ अम्बरीषे धर्मसङ्कट आवी पडतां ब्राह्मणोने [[४६५]] पण बोलाव्या ॥३८॥
पोतानी मुश्केलीनी वात करी के ‘‘दुर्वासा जमवाना छे, जो एमना पहेलां पारणुं करवामां आवे तो दोष लागे अने एक घडी वीती जाय अने पारणामां द्वादशी न मळे तो व्रत खडिन्त थाय तेथी बन्ने वातमां बाध न आवे अने अधर्म न थाय एवो कोई रस्तो बतावो, जे करवाथी मारा घरमां निमन्त्रित ब्राह्मणने जमाडीने जमुं अने मारुं व्रत पण खडिन्त थाय नहि’’ ॥३९॥
विचार करीने राजाए कह्युं - ‘‘केवळ जळथी पारणुं करुं तो चाले? हे ब्राह्मण देवताओ जळनुं भक्षण करवुं ए खाधुं पण कहेवाय एटले एकादशीनां पारणां कर्या कहेवाय अने निमन्त्रित ब्राह्मणने जमाड्या वगर जमवुं नहि ए वातने पण पुष्टि मळे. जो आम थाय तो मारुं सङ्कट पण दूर थाय’’ ॥४०॥
ब्राह्मणोनी सम्मति मळतां भगवाननुं चिन्तन करी राजाए एम कर्युं अने मुनिनी वाट जोईने बेठा ॥४१॥
दुर्वासा यमुनाजी उपरथी नित्यनियम करी आव्या. राजाए कह्युं ः‘‘बहु जलदी पधार्या?’’ पण ए राजाए जळथी पारणुं कर्युं ए मुनि बुद्धिथी जाणी गया ॥४२॥
क्रोधथी एमनुं शरीर कम्पवा लाग्युं अने एमणे भ्रमर चडावी. एमां वळी ए भूख्या हता एटले क्रोध वधी गयो तेथी ए हाथमां जळ लई बोल्या - ॥४३॥
‘‘आ अम्बरीष लक्ष्मीना मदमां गाण्डो बनी गयो छे एटलुं ज नहि पण क्रूर बन्यो छे. ए भक्त नथी छतां ‘‘हुं ज भक्त छुं’’ एम माने छे. एणे धर्मनो लोप कर्यो ए जुओ. हुं एने घेर अतिथि आव्यो, मने एणे भोजननुं निमन्त्रण कर्युं, छतां एणे मने तो भोजन आप्युं नहि अने पोते खाई लीधुं. एनुं फळ हुं एने हमणां ने हमणां देखाडुं छुं’’ ॥४४-४५॥
एम बोली क्रोधमां सळगता दुर्वासाए पोतानी जटाने उखेडीने अम्बरीषने मारवाने एमान्थी एक कृत्या (मारनारी शक्ति) उत्पन्न करी, जे प्रलयकाळना अग्नि जेवी भयङ्कर हती ॥४६॥
हाथमां तलवार लई ए कृत्यादेवी पगवडे पृथ्वीने डोलावती अम्बरीषनी सामे आवी पण अम्बरीष एने जोईने एक पग पण चलित थयो नहि ए त्यां ज अडग ऊभा रह्या ॥४७॥
[[४६६]] क्रोधे भरायेलो सर्प अग्निमां पडे अने जेम बळी मरे तेम भगवाने अम्बरीषनी रक्षामाटे प्रथमथी ज जे चक्र आप्युं हतुं तेणे ए कृत्याने सळगावी दीधी ॥४८॥
पोते ऊभी करेली कृत्या बळी गई त्यारे दुर्वासाए जाण्युं के मारो प्रयास व्यर्थ गयो. एटलामां तो ए चक्र एमनी पाछळ पड्युं तेथी मुनि पोताना प्राण बचाववा दशेय दिशाओमां दोडवा लाग्या ॥४९॥
ऊञ्चा-ऊञ्चा भडकावाळो दावानळ जेम सर्पनी पाछळ पडे तेम एनी पाछळ भगवाननुं चक्र पड्युं, पोतानी पाछळ चक्र पडेलुं छे जाणी दुर्वासा मेरुपर्वतनी गुफामां पेसी जवा ए दिशामां दोड्या ॥५०॥
दिशाओ, आकाश, पृथ्वी, अतल, वितल वगेरे नीचेना पाताळो, समुद्रो, लोकपाल तथा तेमनाद्वारा सुरक्षित लोक अने स्वर्ग सुधी ज्यां-ज्यां ए गया त्यां- त्यां ए चक्र पाछळ आवतुं देखावा लाग्युम् ॥५१॥
ज्यारे एमने कोई रक्षा करनार मळ्यो नहि त्यारे तो ए चित्तमां वधारे त्रासी ऊठ्या अने रक्षा करनारनी शोधमां पड्या अने देवशिरोमणि ब्रह्माजी पासे जई ‘‘ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू छो. भगवानना आ अजित तेजोमय चक्रथी कृपा करी मने बचावो’’ एम कह्युम् ॥५२॥
ब्रह्माजीए कह्युं - ‘‘बे परार्धने अन्ते ज्यारे सृष्टिनी रचनानो अन्त आवशे त्यारे मारा ब्रह्मलोक सहित आखुं विश्व कालात्मा भगवाननी भ्रूकुटि मात्रथी बळी जशे एवा भगवानना चक्रथी हुं तारी रक्षा करवाने समर्थ नथी ॥५३॥
हुं, शिवजी, दक्ष वगेरे, मरीचि आदि प्रजापतिओ एकादश रुद्र वगेरे भूतेश, देवेश ए बधा अमे जेमनी आज्ञा मस्तक पर चढावी एमणे बान्धेला नियम प्रमाणे लोकनुं हित करीए छीए’’ (तेना भक्तना द्रोहीने बचाववा अमे समर्थ नथी) ॥५४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - विष्णुना चक्रथी ताप पामेला दुर्वासाने ब्रह्माजीए ए प्रमाणे जवाब आपी मोकल्या त्यारे दुर्वासा कैलासवासी शिवजी पासे जई ‘‘चक्रथी मारी रक्षा करो’’ एम कहीने ऊभा रह्या ॥५५॥
शिवजी बोल्या - ‘‘हे तात! ए समर्थ विष्णु बहु मोटा छे. अमे ब्रह्मा तथा बीजा जीवो एमनी इच्छा प्रमाणे उत्पन्न थतां अने समाप्त थतां हजारो [[४६७]] ब्रह्माण्डोमां फरीए छीए ते एना चक्रने शान्त करवाने समर्थ नथी ॥५६॥
हुं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिल, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि, मरिचि वगेरे सिद्धना ईश्वरो जे पारने पामेला गणाय छे छतां जे एमनी मायामां र्वीटायेला छे ते अमे एमनी मायाना पारने पामता नथी ॥५७-५८॥
ए विश्वेश्वरनुं आ असह्य शस्त्र छे. माटे जेनुं ए शस्त्र छे ते हरिने तमे शरणे जाओ. ए ज तमारुं मङ्गल करशे’’ ॥५९॥
त्यान्थी पण निराश थई दुर्वासा भगवानना परम धाम वैकुण्ठमां गया के ज्यां लक्ष्मीनी साथे भगवान् स्वयं बिराजे छे ॥६०॥
भगवानना शस्त्रना तापथी बळता दुर्वासा ध्रूजता कम्पता भगवानना चरणमां पडी गया - ‘‘हे अच्युत! अनन्त पुरुषने पामवा योग्य प्रभु! हे विश्वरक्षक! हुं अपराधी छुं छतां मने बचावो ॥६१॥
में तमारो प्रताप जाण्यो नहि अने तमारा प्रीतिपात्र भक्तनो में अपराध कर्यो. हे विधाता! ए मारा अपराधनी निवृत्ति आप करो. आपनुं नाम लेवा मात्रथी नरकनो जीव पण बचे छे तोहुन्तो आपना चरणमां पड्यो छुं तेथी मारी रक्षा करो’’ ॥६२॥
श्रीभगवाने कह्युं - हुं भक्तने अधीन छुं. हे ब्राह्मण! एनी पासे हुं स्वतन्त्र नथी. साधु भक्त पुरुषो मारा हृदयने कबजे करी बेठा छे. हुं पण भक्तने जोईने प्रसन्न थाउं छुं. सत्पुरुष एवा मारा भक्त विना हुं मारा आत्माने पण इच्छतो नथी तेमज माराथी अभिन्न एवी लक्ष्मी के जेने मारा सिवाय बीजुं कोई नथी तेने पण हुं मारा भक्तनी अपेक्षाए गौण गणुं छुं केमके जे स्त्री, घर, पुत्र, मित्र, प्राण, धन आ लोक तथा परलोक ने छोडीने मारा रक्षण नीचे आव्या होय तेओने हुं केम छोडी शकुं? तेओए मारामां पोताना हृदयने बान्धी दीधुं होय छे, जगत् प्रत्ये समान दृष्टिथी जोनारा होय छे तेथी जेम सारी स्त्री सारा पतिने वश करे तेम ए भक्तोए मने प्रेमवडे वश करी लीधो छे. एमने सालोक्यादि चार प्रकारनी *मुक्ति आपवामां आवे छे छतां तेओ मारा सिवाय एने पण इच्छता नथी. तेओ केवळ सेवाथी ज कृतार्थ छे, पूर्ण छे ते ए काळथी नाश पामतां स्वर्ग आदिनी तो इच्छा ज केम करे? भक्तो मारुं हृदय छे. भक्तोनुं हृदय हुं छुं. मारा वगर ए कांई जाणता नथी. एना वगर हुं बीजुं कांई पण जाणतो नथी. तेथी माराथी तमारी रक्षा तो न [[४६८]] थई शके पण हुं तमने उपाय बतावुं ते हे विप्र! तमे साम्भळो, ज्यान्थी तमने आ दुःख थयुं छे तेनी पासे ज तमे पहोञ्ची जाओ. भगवद्भक्त उपर जे पोतानुं तेज अजमावे ते अजमावनारनुं ज अनिष्ट करे छे. ब्राह्मणने तप अने विद्या ए बे श्रेय करनार छे पण जो ए दुष्टनी पासे होय तो ए तप अने विद्या ते दुष्टनुं अनिष्ट करे छे ॥६३-७०॥
विशेष - १. सालोक्य=भगवानना लोक (वैकुण्ठ)मां वास. २. सार्ष्टि=भगवानना ऐश्वर्य जेवुं ऐश्वर्य. ३. सामीप्य भगवाननी समीपमां स्थिति. सालोक्य करतां आ कंईक विशेषछे. ४. सारूप्य=भगवानना जेवा चतुर्भुज रूपनी प्राप्ति. श्रीभागवत ३.२९.१३मां पाञ्चमी मुक्ति ऐक्य-सायुज्यनो उल्लेख पण छे ब्रह्मंस्तद् गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम् ॥ क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति ॥७१॥
माटे हे ब्रह्मन्! तमे नाभागना पुत्र अम्बरीष पासे जाओ; एनाथी ज तमने आ उपद्रव मटशे अने शान्ति थशे ॥७१॥
इति श्रीभागवत नवम स्कन्धमां (पहेला सूर्यवंश नामना *प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘नाभाग तथा अम्बरीष राजानुं चरित्र’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
विशेषः आ सूर्यवंशना वर्णन नामना महाप्रकरणमां चार अवान्तर प्रकरण त्रण-त्रण अध्यायनां छे तेमां प्रथम, मध्यम अने उत्तम एवा भक्तना त्रण भेद अने भगवद्अवताररूप चोथो भेद एम बार अध्याय छे. तेमां प्रथम अवान्तर प्रकरण त्रण अध्यायनुं अर्ही पूर्ण थयुं. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!
ईं उं ईं उं
[[४६९]]
अध्याय ५
अम्बरीषे चक्रने स्तुतिवडे शान्त करी दुर्वासाने प्राणसङ्कटथी बचाव्या
विशेष - अम्बरीष राजाए प्रयत्नपूर्वक चक्रनी स्तुति करी अने दुर्वासाने प्राणसङ्कटथी बचाव्या एटली वात आ पाञ्चमा अध्यायमां आवे छे. एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः ॥ अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे भगवाने ए प्रमाणे आज्ञा करी त्यारे चक्रना तेजथी दुःख भोगवता दुर्वासा अम्बरीष पासे पाछा आव्या अने दुःखित होवाथी एना पग पकडी लीधा ॥१॥
दुर्वासानी आ चेष्टा जोईने तथा पोताना पगमां पडेला जोई अम्बरीष शरमाई गया; एमनुं दुःख जोईने पोते दुःखी थया अने ए दुःखथी दुर्वासाने छोडाववामाटे सुदर्शन चक्रनी स्तुति करवा लाग्या ॥२॥
अम्बरीषे कह्युं - हे सुदर्शन! भगवान् सूर्यरूप, सोमरूप, अग्निरूप, ज्योतिरूप, जळरूप, पृथ्वीरूप, आकाशरूप, वायुरूप, विषय अने इन्द्रियरूप पण तमे छो. तमने मारा नमस्कार हो. हे सहस्र! धारवाळा अने भगवानने प्रिय, हे सर्वास्त्रनाशक! हे पृथ्वीपते! आ ब्राह्मणनुं कुशळ करो. मङ्गळरूप एवा आप एमना रक्षक थाओ. आप धर्मरूप, १ ऋतरूप, २ सत्यरूप, यज्ञरूप अने यज्ञनो भोग करनार छो. आप ज सर्वना आत्मा थई लोकना पालक छो. परमेश्वरनुं परम तेज आप छो. हे सुनाभ! अखिल धर्मनी मर्यादाओना रक्षक, अधर्मशील असुरोना धूमकेतुरूप, त्रण लोकनी रक्षा करवामां शुद्ध तेजस्वीरूप, मनना जेवा वेगवाळा अने अद्भुत कर्मवाळा आपने हुं नमस्कार करुं छुं. आपे आपना तेजवडे भक्तोनी आङ्ख आडे आवे तेवा अज्ञानने धर्मवडे दूर कर्युं छे, महात्माओने ज्ञानरूप प्रकाशनुं दान कर्यु छे. हे वाणीना पति! आपनो महिमा कोईथी जाण्यो जाय तेवो नथी, अपार छे. आ उच्च-नीच कार्यकारणात्मक जगत् आपनुं स्वरूप छे; आपनाथी जादुं नथी. हे अजित! ज्यारे निर्लेप भगवान् आपने आज्ञा करे छे त्यारे आप असुरनी सेनामां पेसी एनां बाहु, पेट, जाङ्घ, पग अने गळां वगेरे कापता युद्धमां [[४७०]] अत्यन्त शोभो छो ॥३-८॥
विशेष - १.ऋत=‘‘इतं च सूनृता वाणी’’ (भाग.११.१९.३८) सत्य अने मधुर वाणी.
२.सत्य=‘‘सत्यं च समदर्शनम्’’ (त्याञ्ज११.१९.३७) समदर्शन अर्थात् सर्वत्र
समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मानुं दर्शन.
गदाधर भगवाने विश्वमां भक्तनी रक्षामाटे अने दुष्ट बळने मारवामाटे आपने
आज्ञा करेली छे केमके आप बधाना बळने सहन करी एनो पराजय करवामां समर्थ
छो. तो अमारा कुळना भाग्यनो उदय करवामाटे आ ब्राह्मणनी रक्षा करो. एम
करशो तो आपे अमारा उपर कृपा करी एम अमे जाणीशुम् ॥९॥
जो एम नहि थाय अने ब्राह्मणनुं अनिष्ट थशे तो लोकमां अमारुं अपयश, कुळनाश अने नरकपातरूप अनिष्ट थशे. तेथी ब्राह्मणनी रक्षा करो, जेथी अमारा कुळनुं श्रेय थाय. जो अमे ब्राह्मणने कंई दान आप्युं होय, यज्ञ कर्यो होय, स्वधर्म कर्यो होय अने अमारुं कुळ ब्राह्मणने देवनी पेठे पूजतुं आव्युं होय ते आ ब्राह्मण दुःखमुक्त हो ॥१०॥
भगवान् समस्त गुणोना एकमात्र आश्रय छे. जो में सर्व प्राणीमां भगवद्भावना राखी होय अने ए सर्वात्मभावथी भगवान् मारी उपर प्रसन्न थया होय तो आ ब्राह्मण सुदर्शनना दुःखथी मुक्त थाओ ॥११॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - अम्बरीष राजानी स्तुतिने ध्यानमां लई ब्राह्मणने चारे तरफथी बाळतुं सुदर्शन नामनुं विष्णुनुं सुदर्शन चक्र शान्त थई गयुम् ॥१२॥
चक्रनां तापथी दुर्वासा मुक्त थई गया अने एमनुं चित्त स्वस्थ थई गयुं अने हवे ए राजाने परम आशिष आपतां एमनी प्रशंसा करवा लाग्या ॥१३॥
दुर्वासाए कह्युं - ‘‘अहो! आजे में भगवानना प्रेमी भक्तोनी मोटाई जोई. हे राजा! में आपनो अपराध कर्यो तो पण आप मारी मङ्गळ कामना ज करो छो. ए ज भक्तनो महिमा कहेवाय. परकार्य साधनार साधुने कांई दुष्कर नथी. एवुं कशुं नथी जे महात्मा पुरुषो छोडी न शके, कारण के एमणे तो भक्तने पूज्य अने श्रेष्ठ एवा भगवानने पोताना हृदयमां सारी रीते धारण कर्या होय छे. जेनुं मङ्गलमय नाम मात्र साम्भळवाथी पुरुष निर्मल थई जाय छे तेवा तीर्थपाद भगवानना जे दास बने छे तेनेमाटे कयुं कर्तव्य करवानुं बाकी रही जाय छे? एवाने भगवान् सिवाय कोईनी कामना रहेती नथी. हे राजन्! दयाळु एवा आपे मारा उपर कृपा करी आपे मारा [[४७१]] दोषने जोयो नहि अने मारा प्राण बचाव्या’’ ॥१४-१७॥
अम्बरीष राजा दुर्वासाना आववानी प्रतीक्षा करता हता, जम्या पण न हता; एमणे मुनिना चरणमां पडी एमने मनाव्या अने जमाड्या ॥१८॥
एमणे आदरपूर्वक लावेला अने सर्व मनोरथ पूर्ण करे तेवा छ प्रकारना भोजनथी एमनो सत्कार कर्यो. भोजन करी मुनि तृप्त थया अने आदरपूर्वक राजाने जमवानी आज्ञाआपी ॥१९॥
‘‘भगवान्मां तमारी बुद्धि स्थिर छे तेमारां दर्शन, स्पर्श अने आतिथ्य सत्कारथी हुं प्रसन्न थयो छुं एटलुं ज नहि पण मारा प्राण तमे बचाव्या तेथी हुं तमारी कृपाने पात्र पण थयो छुम् ॥२०॥
स्वर्गनी देवाङ्गनाओ आपना आ उज्वल चरित्रनुं गान करशे. आ पृथ्वी पण आपनी परम पुण्यमयी कीर्तिनुं सङ्कीर्तन करती रहेशे’’ ॥२१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - प्रसन्न थयेला दुर्वासाए ए प्रमाणे अम्बरीष राजाना गुणोनी प्रशंसा करी तेमनी रजा लई, जे केवल निष्काम कर्मथीज प्राप्त थाय छे ते ब्रह्मलोकमां आकाशमार्गे गया ॥२२॥
दुर्वासा स्नान करवा गया त्यान्थी आव्या एमणे कृत्या उत्पन्न करी, सुदर्शने कृत्यानो नाश कर्यो ए दुर्वासानी पाछळ पड्युं त्यान्थी पाछा फर्या अने राजाए एमने बचाव्या आ बधा कार्यमां एक वर्ष वीती गयुं; त्यां सुधी राजा तेमना आववानी आशामान्ने आशामां मात्र जल पीने ज रह्या ॥२३॥
ब्राह्मणना जम्या पछी वधेलुं उत्तम अन्न विशेष पवित्र गणाय छे. दुर्वासाना गया पछी अम्बरीष राजाए ए पवित्र अन्ननो आहार कर्यो अने मानवा लाग्या के दुर्वासा मुनिने सुदर्शनथी दुःख थयुं अने पोते पण त्यां सुधी शान्ति राखी ए बधानुं कारण भगवाननो प्रताप छे ॥२४॥
एवा अनेक गुणवाळा ए राजा जेने स्मृतिमां परमात्मा कहे छे, उपनिषदमां ब्रह्म कहे छे अने पुराणमां वासुदेव भगवान् कहे छे तेमां सर्व क्रियाना समर्पणरूप भक्ति करतां-करतां ब्रह्मलोक सुधीना भोगोने नरकतुल्य गणवा लाग्या ॥२५॥
त्यार पछी राजा अम्बरीषे पोताना जेवा स्वभाव अने गुणवाळा पुत्रोने राजपाट सोम्पी दीधुं अने घणी धीरताथी वनमां वासुदेव भगवान्मां मन लगावी गुणोना प्रवाहरूप संसारथी मुक्त थई गया ॥२६॥
[[४७२]] इत्येतत् पुण्यमाख्यानमम्बरीषस्य भूपतेः। सङ्कीर्तयन्ननुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत् ॥२७॥
राजा अम्बरीषना आ पवित्र आख्याननुं जे कीर्तन अने स्मरण करे ते भगवाननो भक्त बनी जाय छे ॥२७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेला प्रकरण सूर्यवंश वर्णनमां अवान्तर मध्यम प्रकरणनो पहेलो अने स्कन्धनो) ‘‘अम्बरीषे चक्रने स्तुतिवडे शान्त करी दुर्वासाने प्राणसङ्कटमान्थी बचाव्या’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय ६
इक्ष्वाकु राजानो वंश अने सौभरिनुं आख्यान
विशेष - मनुना पुत्र इक्ष्वाकुनो वंश, मान्धाता सुधीना राजाओनां चरित्रो तथा सौभरि मुनिनुं आख्यान पण छठ्ठा अध्यायमां कहेवामां आवशे. विरूपः केतुमाञ्छम्भुरम्बरीषसुतास्त्रयः ॥ विरूपात् पृषदश्वोभूत् तत्सुतस्तु रथीतरः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - अम्बरीष राजाने विरूप, केतुमान अने शम्भु नामना त्रण पुत्र हता. विरूपथी पृषदश्व थयो तेनो रथीतर थयो ॥१॥
रथीतरने सन्तान न हतुं. एणे सन्तान थवामाटे अगिंराने प्रार्थना करी. ए अगिंराए रथीतरनी स्त्रीमां ब्रह्म तेजथी सम्पन्न केटलाय पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥२॥
जो के ए रथीतरनी पत्नीथी थया पण अगिंराथी थया तेथी ए अगिंरस कहेवाया. ए रथीतरनी बीजी स्त्रीओना पुत्रो करतां ब्राह्मणोत्पन्न होवाथी आगिंरसो श्रेष्ठ कहेवाया. ए क्षत्रत्वयुक्त ब्राह्मणो थया ॥३॥
(मनुना दश पुत्रोमां पृषध्र अने कवि संसारमां विरक्त होवाथी वंश प्रवर्त्तक न
ईं उं ईं उं
[[४७३]] थया. करूष आदि सातना वंश तारतम्यथी कह्या) एक वार मनुने र्छीक आवतां नाकमान्थी इक्ष्वाकु नामना पुत्र थया. पहेला दश पुत्रो श्रद्धा नामनी स्त्रीमां थया ते सामान्य रीते कह्युं छे. आ इक्ष्वाकुने सो पुत्र थया जेमां विकुक्षि, निमि अने दण्डक ए त्रण मोटा हता ॥४॥
इक्ष्वाकुना ए सो पुत्रमान्थी पचीश पुत्रो आर्यावर्तना पूर्वभागमां समुद्र सुधीनी पृथ्वीना राजा थया, पचीश आर्यावर्तना पश्चिम समुद्र सुधी राजा थया अने उपर्युक्त त्रण आर्यावर्तना मध्य भागना राजा थया अने अने बाकीना सुडतालीस दक्षिण वगेरे प्रान्तोना अधिपति थया ॥५॥
एक वार अष्टकाश्राद्धमाटे मांस जोईतुं हतुं ते लावी आपवाने इक्ष्वाकुए विकुक्षिने आज्ञा करी - ‘‘हे विकुक्षि! तुं जलदी जा; श्राद्धने लायक पवित्र पशुओनुं मांस लाव’’ ॥६॥
पितानी आज्ञा प्रमाणे ए वनमां गयो. मृगोने श्राद्ध लायक जोई तेणे मार्या. पण एटलामां ए थाकी गयो अने क्षुधित पण थयो एमां एने स्मृति न रही के आ द्रव्य श्राद्धमाटे छे; तेथी एमान्थी एक ससलाने लई पोते खाई गयो ॥७॥
बीजुं बधुं लावी पोताना पिताने बताव्युं. इक्ष्वाकुए वसिष्ठने कह्युं के ‘‘श्राद्धमाटे मांस आप्युं छे तेने जल छाण्टी लई लो’’. वसिष्ठे जोतां ज कह्युं के आ मांस श्राद्धना उपयोगमां नहि आवे ॥८॥
केमके आ मांस खाधा पछी बाकी रहेल मांस पैकीनुं छे. पुत्रे श्राद्धने माटे मङ्गावेल मांस पोते खाधा पछी आप्युं छे एम ज्यारे इक्ष्वाकुए जाण्युं त्यारे न करवानुं काम कर्युं तेथी क्रोध करीने राजाए पुत्रने देशपार कर्यो ॥९॥
पछी इक्ष्वाकु तो वसिष्ठनी साथे तत्त्वविचार करतां अने योग करतां कलेवरने छोडी परमात्माने प्राप्त थया ॥१०॥
ज्यारे पिता गुजरी गया त्यारे विकुक्षि राजधानीमां पाछो आवीने पृथ्वीनुं पालन करवा लाग्यो. एणे भारे-भारे यज्ञोथी विष्णुनुं आराधन कर्यु अने ए ‘शशाद’ नामथी प्रसिद्ध थयो ॥११॥
एनो पुत्र पुरञ्जय ते इन्द्रवाह तथा ककुत्स्थना नामथी पण ओळखातो हतो. जे कर्मो करवाथी एनां ए नाम पड्यां हतां ते साम्भळो ॥१२॥
सत्ययुगना अन्तमां देवताओने दानवो साथे घोर सङ्ग्राम थयो हतो. त्यारे [[४७४]] दैत्योए देवोने हरावेला ते वखते इन्द्र आदि देवोए वीर पुरञ्जयने मददमाटे मित्र बनाव्यो ॥१३॥
पुरञ्जये कह्युं - ‘‘जो मने इन्द्र पोतानी कान्ध उपर बेसाडी लई जाय तो हुं दानवोनो पराजय करी एने स्वर्गनुं राज्य अपावुं’’. इन्द्रने ए वातनी लज्जा आवी तेथी एम करवा ना पाडी परन्तु विश्वात्मा भगवान् विष्णुए एम करीने पण स्वार्थसिद्ध करवा समजाव्यो अने इन्द्र मोटो आखलो थयो ॥१४॥
हथियार वगेरे युद्धनी सामग्री साथे दिव्य धनुष तथा तीक्ष्ण बाण लई पुरञ्जय तैयार थयो अने इन्द्रनी कान्ध उपर बेठो ॥१५॥
विष्णुए एने पोताना तेजवडे प्रबळ कर्यो अने देवोने लईने ए पश्चिम दिशामां दैत्यना नगर उपर जई चढ्यो अने एने चोतरफथी घेरी लीधुम् ॥१६॥
त्यां दैत्यो अने देवो वच्चे रुवाडां ऊभां करे तेवुं भारे मोटुं युद्ध थयुं तेमां भालावडे दैत्योने मारी एने यमराज पासे पहोञ्चाडी दीधा ॥१७॥
पुरञ्जयनां बाण एवां पडवा लाग्यां के जाणे प्रलयनो घोर अग्नि प्रकट्यो. आवी स्थितिमां दैत्यो रणाङ्गण छोडीने भयथी दोडी गया अने पोताना घर आगळ पहोञ्ची गया ॥१८॥
पुरञ्जये एमनुं नगर, धन अने ऐश्वर्य बधुं जीती लई इन्द्रने आपी दीधुं. तेथी ज ए राजर्षिने पुर जीतवाने कारणे ‘पुरञ्जय’, इन्द्रने वाहन बनाववाने कारणे ‘इन्द्रवाह’ अने बळदनी ककुद्(खून्ध) उपर बेसवाने कारणे ‘ककुत्स्थ’ कहेवामां आवे छे. (खून्धने संस्कृतमां ‘ककुद्’ कहे छे जेना उपरथी नाम ककुत्स्थ पड्युं) ॥१९॥
पुरञ्जयनो पुत्र अनेना थयो, तेनो पृथु थयो, तेनो विश्वरन्धि थयो, तेनो चन्द्र थयो, तेनो युवनाश्व थयो ॥२०॥
युवनाश्वनो शाबस्त थयो जेणे शाबस्ती पुरी वसावी. एनो बृहदश्व थयो; तेनो कुवलयाश्व थयो ॥२१॥
ए कुवलयाश्व बहु बळवान हतो. उत्तङ्क नामना ऋषिने प्रसन्न करवाने तेणे पोताना एकवीस हजार पुत्रोने साथे लईने धुन्धु नामना दैत्यने मार्यो ॥२२॥
ए उपरथी एनुं नाम ‘धुन्धुमार’ एवुं पण प्रसिद्ध थयुं. एना बधा पुत्रो धुन्धुना मुखमान्थी जे अग्नि नीकळतो हतो तेनाथी बळी गया हता, मात्र दृढाश्व [[४७५]] कपिलाश्व अने भद्राश्वए त्रण ज एमान्थी बचवा पाम्या हता ॥२३॥
हे भारत! दृढाश्वनो पुत्र हर्यश्व थयो, तेनो निकुम्भ थयो, तेनो बर्हणाश्व थयो, तेनो कृशाश्व थयो, तेनो सेनजित् थयो अने एनो युवानाश्व थयो. तेने सो स्त्रीओ हती, छतां एने प्रजा न थई तेथी एने वैराग्य आव्यो अने राज्य छोडी सो स्त्रीओ साथे ए वनमां चाल्यो गयो; ॥२४-२५॥
त्यारे ऋषिओए एनी उपर कृपा करी. ब्राह्मणोए एनी पासे एकाग्रचित्तवडे इन्द्रदेवतानो यज्ञ कराव्यो ॥२६॥
तेमां एक वखत रात्रे राजा युवनाश्वने बहु तृषा लागी तेथी ए यज्ञ शाळामां गयो. त्यां ब्राह्मणो तो सूता हता. त्यारे जळ मळवानो बीजो कोई उपाय न जोतां ब्राह्मणोए यजमान पत्नीमाटे जे जळ अभिमन्त्रित करी राख्युं हतुं ते ज जळ ते पी गयो ॥२७॥
ब्राह्मणो जाग्या अने जुए तो अभिमन्त्रित जळ न मळे. जळनो कळश खाली जोईने तेओ पूछवा लाग्या के ‘‘आ काम कोनुं छे? पुत्र उत्पन्न करावनारुं जळ कोण पी गयुं?’’ ॥२८॥
भगवाननी प्रेरणाथी राजाए ए जळ पीधुं छे एवुं जाणी ब्राह्मणोए ईश्वरने नमस्कार करी कह्युं, ‘‘धन्य छे! भगवाननुं बल ए ज साञ्चु बल छे’’ ॥२९॥
ज्यारे प्रसवनो समय आव्यो त्यारे राजाना पेटनी जमणी बाजूने फाडी एमान्थी चक्रवर्ती पुत्र जन्म्यो ॥३०॥
हवे ज्यारे ब्राह्मणो ‘‘ए युवनाश्वनो पुत्र कोने धावशे? ए भूखथी रुदन करे छे’’. एम बोलवा लाग्या त्यारे इन्द्र बोल्यो के मां धाता ए मने धावशे. हे वत्स! तुं रुदन न कर’’ एम बोली इन्द्रे अमृत स्त्रवनारी पोतानी तर्जनी आङ्गळी ए बाळकना मोम्मां आपी ॥३१॥
ब्राह्मणो अने देवो नी कृपाथी एनो पिता युवनाश्व पण मर्यो नहि अने अन्ते ए वनमां ज तप करी सिद्धिने पाम्यो ॥३२॥
हे परीक्षित! इन्द्रे युवनाश्वना ए पुत्रनुं नाम त्रसद्स्यु राख्युं कारण के रावण वगेरे (दस्यु=ए नामना राक्षसो. लूण्टारा, डाकु वगेरे असामाजिक तत्त्वो.) दस्यु पण एनाथी उद्विग्न अने भयभीत रहेता ॥३३॥
[[४७६]] युवनाश्वनो पुत्र मान्धाता चक्रवर्ती राजा थयो. एणे भगवानना तेजथी तेजस्वी बनी सात द्वीपवाळी पृथ्वीनुं शासन एकले हाथे कर्यु ॥३४॥
ए माधाताए बहु दक्षिणावाळा यज्ञोथी सर्वदेवमय विष्णुरूप, इन्द्रियथी पर भगवाननुं आराधन कर्यु ॥३५॥
द्रव्य, पुरोडाश, मन्त्रवेदनो भाग, कर्ममां प्रेरनार वेदभागरूप विधि, यज्ञ, यजमान, कर्ता, यज्ञ करावनार, ब्राह्मणो, ऋत्विज एना फळरूप धर्म, देश अने काळ ए बधुं ज नहि पण आ विश्व जे भगवद्रूप छे तेनुं यजन कर्युम् ॥३६॥
ज्यान्थी सूर्य ऊगे छे, ज्यां सूर्य आथमे छे ते बधी पृथ्वी युवनाश्वना पुत्र मान्धाताना अधिकारमां हती ॥३७॥
शशबिन्दुनी कन्या बिन्दुमतीथी मान्धाताने पुरुकुत्स, अम्बरीष (आ बीजा अम्बरीष छे) अने मुचुकुन्द ए त्रण पुत्रो थया तेमां मुचुकुन्द भक्तियोगमां निष्ठावाळो हतो, मान्धाताने चार कन्याओ थई ते पुरुकुत्सादि भाईओनी बहेनो थाय ते बधी सौभरि नामना मुनिने परणी ॥३८॥
परम तपस्वी सौभरिजी एकवार यमुनाना जळमां तपश्चर्या करता हता ते समये एक मत्स्यराजने पोतानी पत्नीओ साथे विहार करतो जोयो ॥३९॥
तेथी एने पण ए सुखनी इच्छा थई. तेणे राजा मान्धाता पासे आवी एक कन्यानी मागणी करी. राजाए कह्युं - ‘‘ब्रह्मन्! आ कन्यानो हुं स्वयंवर करवानो छुं त्यां आप पधारो. जो कन्या आपने पसन्द करी ले तो खुशीथी कन्याने आप लई जाओ’’ ॥४०॥
सौभरिए विचार कर्यो के ‘‘हुं स्त्रीओने अप्रिय एवो बुढ्ढो छुं तेथी पण स्त्री इच्छे नहि. चामडी ढीली थई गई छे. वाळ सफेद थई गया छे. राजाए ए जाणीने ज मने कन्याना स्वयम्यवरनी वात कही छे पण हुं मारा शरीरने एवुं तो सुन्दर बनावुं के ए सुन्दरतानी स्पृहा देवस्त्रीओ पण करे तो मनुष्यस्त्रीनुं तो शुं कहेवुं?’’ ॥४१-४२॥
(एम विचार करी मुनिए पोतानुं रूप अद्भुत बनाव्युं) अने पोते कन्याना निवास स्थळ तरफ गया. मोटी समृद्धिवाळा ए स्थळमां पहोञ्चतां ज पचास कन्याओए एमने पतिरूपे स्वीकारी लीधा ॥४३॥
ए कन्याओने परस्पर प्रेम हतो ते नष्ट थयो अने अन्दर परस्पर झघडो करवा [[४७७]] लागी अने एक बीजीने कहेवा लागी के ‘‘आ पति मारे लायक छे माटे हुं वरुं तुं एने लायक नथी’’ ॥४४॥
ऋग्वेदी सौभरिए ए बधीयनुं पाणिग्रहण करी लीधुं. पोतानी अथाह तपस्याना प्रभावथी कीमती राचरचीलाथी सज्ज अनेक उपवनो अने निर्मल जलथी भरेलां सरोवरोवाळा अने सुगन्धी फूलोना बगीचाथी घेरायेला महेलोमां बहुमूल्य पलङ्गो, आसन, वस्त्र, जर-झवेरात, स्नान, अनुलेखन, स्वादिष्ट भोजन अने पुष्पमालाओ साथे पोतानी पत्नीओनी साथे विहार करवा लाग्या. सुन्दर-सुन्दर वस्त्र आभूषण धारण करेला स्त्री-पुरुषो एमनी सेवामां तैयार रहेता, क्यांय पक्षी कलरव करतां होय तो क्यांय भमराओ गुञ्जारव करता होय अने क्यांय भाटचरण एमनी बिरदावली गाता होय तेवा वनमां ए विहार करवा लाग्या ॥४५-४६॥
सात द्वीपनी सार्वभौम सम्पत्तिने भोगवनार मान्धाता ए मुनिना गृहस्थीना सुखने जोईने विस्मय पाम्यो अने पोताने जे लक्ष्मीनो अहङ्कार हतो ते एणे छोडी दीधो ॥४७॥
जेम घी थोडुं-थोडुं पडे तो अग्नि तृप्त थतो नथी तेम सौभरि एवा समृद्ध घरमां विलास करता हता अने अनेक प्रकारनां सुख भोगवता हता छतां एमने सन्तोष थयो नहि ॥४८॥
एक दिवस ए सौभरिने विचार आव्यो के ‘‘हुं भगवद्भजन करतो हतो त्यारे में जळमां मत्स्यमैथुन जोयुं अने मारी आ स्थिति थई अने अहो! हुं मारा आत्माने क्यान्थी क्यां लई गयो! ॥४९॥
हुं तप करनारो साधु, व्रतनुं पालन करनारो तेवो हुं तेनो आ नाश थई रह्यो छे ए तो जुओ. में जळमां मत्स्यनो सङ्ग जोयो एटला ज छिद्रथी घणा काळ सुधी तपश्चर्याथी हृदयमां एकत्र करेला भगवत्स्वरूपने हुं खोई बेठो ॥५०॥
माटे मोक्षनी इच्छा करनारे स्त्रीजीवननो सङ्ग करवो नहि तथा इन्द्रियोने एक क्षण पण बहिर्मुख थवा देवी नहि पण एने वश राखवी अने एकला रहेवुं अने एकान्तमां बेसी देशकाल परिच्छेद रहित थई सर्वशक्तिमान ईश्वरमां ज मन लगावी देवुं. जो सङ्ग करवो ज पडे तो भगवानना अनन्यप्रेमी निष्ठावान भगवानने हृदयमां धारण करनार भक्तोनो सङ्ग करे ॥५१॥
प्रथम हुं एक तपश्चर्या करनार हतो. में मत्स्यनो सङ्ग मात्र जळमां जोयो [[४७८]] एटला दुःसङ्गथी हुं पचास स्त्रीवाळो थयो. एमां एकने सो-सो पुत्र थतां पाञ्च हजाररूपे थयो. मायाना गुणवडे मारी बुद्धि नष्ट थतां मने विषयमां अर्थभाव थयो.हवे ए स्त्री-पुरुषोना मनोरथनोना अन्तने हुं पामी शकुं एम नथी ॥५२॥
आ प्रमाणे विचार करता केटलोक समय तो ए घरमां ज रह्या पछी विरक्त थई जई एमणे सन्न्यास लई लीधो अने वनमां चाल्या गया. पोताना पतिने ज सर्वस्व माननारी एमनी पत्नीओए पण एमनी साथे वनवास कर्यो ॥५३॥
भगवान्मां मन स्थिर करी त्यां एमणे घोर तप कर्यु. जेनाथी देहादिनी शुद्धि थाय तेवुं तप करतां-करतां एमणे अग्निनी साथे आत्माने जोडी दीधो ॥५४॥
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिर्की गतिम् ॥ अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः ॥५५॥
हे महाराज! पोताना पति सौभरि भगवान्मां मळी गया ए जोई अग्निनी पाछळ जेम जवाळा शान्त थाय तेम एमनी स्त्रीओ पण मुनिना प्रभाववडे पतिनी गतिने पामी मुक्त थई ॥५५॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (सूर्यवंशना वर्णनरूप पहेला प्रकरणनो पाञ्चमो तथा अवान्तर मध्यम प्रकरणनो बीजो अने स्कन्धनो) ‘‘इक्ष्वाकु राजानो वंशे सौभरि नुं आख्यान’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (हवेली-मन्दिर खोलीने ठाकोरजीना दर्शन-मनोरथ-भेट-सामग्रीना माध्यमथी) पैसा कमाववा माटे सेवा करनारनो आलोक-परलोक सहित सर्वनाश थयो समजवो. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)
अध्याय ७
मान्धाताना वंशमां थयेल हरिश्चन्द्रनी कथा
विशेष - मान्धाताना वंशमां महाशस्वी हरिश्चन्द्र राजा थया तेणे नरमेघ यज्ञ कर्यो हतो ए वात आ सातमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः ॥ पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः ॥१॥
ईं उं ईं उं
[[४७९]] श्रीशुकदेवजीए कह्युंः हे परीक्षित! हुं आगळ वर्णन करी गयो के मान्धाताना पुत्रोमां अम्बरीष सर्वश्रेष्ठ हता. एना दादा युवनाश्वे एनो पुत्र रूपे स्वीकार कर्यो. एनो पुत्र थयो यौवनाश्व अने यौवनाश्वनो हारित थयो. मान्धाताना वंशमां आ त्रण अवान्तर गोत्रोना प्रवर्तक थया ॥१॥
नर्मदा नामे नागकन्या हती ते एना भाईओए पुरुकुत्सने आपी. पछी नागराज वासुकिनी आज्ञाथी नर्मदा पुरुकुत्सने रसातळमां लई गई ॥२॥
त्यां विष्णुनी शक्तिथी सम्पन्न एणे जे गन्धर्वो सर्पोने मारवा आवेला तेओने मारी हराव्या. ए उपरथी प्रसन्न थई सर्पोए एवुं वरदान आप्युं के ‘‘तमे रसातळमां आवी अमने गन्धर्वोथी बचाव्या तेथी जेओ आ आख्याननुं स्मरण करशे तेओने सर्पथी भय नहि थाय’’ ॥३॥
राजा पुरुकुत्सनो पुत्र त्रसद्स्यु थयो जे अनरण्यनो पिता थयो. एनो पुत्र हर्यश्व थयो तेनो अरुण थयो. अरुणथी त्रिबन्धन थयो ॥४॥
त्रिबन्धना पुत्र सत्यव्रत थया. आ ज सत्यव्रत त्रिशङ्कुना नामथी विख्यात थया. जो के *त्रिशङ्कु पोताना पिता तथा गुरु (वशिष्ठ) ना शापथी चाण्डाल थई गया हता, परन्तु विश्वामित्रना प्रभावथी ते आ ज शरीरथी स्वर्गमां चाल्या गया. देवोए त्रिशङ्कुने स्वर्गमां आवता अटकाव्या अने ते ऊन्धे माथे पडी गया परन्तु विश्वामित्रे एने पोताना तपना बलथी आकाशमां ज स्थिर करी दीधा. ए अत्यारे पण आकाशमां तारा रूपे देखाय छे ॥५-६॥
विशेष - त्रण शङ्कु एटले दोष जेने होय ते त्रिशङ्कु कहेवाय छे. ए दोष हरिवंशमां आ प्रमाणे क्ह्या छेः‘‘पितुश्चा परितोषेण गुरोर्दोग्ध्रीवधेन च, अप्रोक्षितोपयोगाच्च त्रिविधस्ते व्यतिक्रमः’’ (पितानो असन्तोष, दूझती गायनो वध अने छाण्ट्या विनानी वस्तुनो उपयोग). त्रिशङ्कुना पुत्र हरिश्चन्द्रने माटे *विश्वामित्र अने वसिष्ठ ने घणां वर्ष सुधी पक्षी थईने युद्ध करवुं पड्युम् ॥७॥
विशेष - विश्वामित्रे राजसूय यज्ञ कर्यो तेमां वसिष्ठ आचार्य थयां अने राजसूयनी दक्षिणाना मिषथी एमणे विश्वामित्रनुं सर्वस्व लई लीधुं. आ वातनी विश्वामित्रने खबर पडी त्यारे विश्वामित्रे एमने शाप आप्यो के ‘‘तुं बगली था’’. त्यारे वसिष्ठे शाप आप्यो के ‘‘तुं बगलो था’’. ए बन्ने बगला-बगलीनुं घणां वर्ष सुधी युद्ध थयुं ए कथा पुराणान्तरमां छे. [[४८०]] ए हरिश्चन्द्रने प्रजा न हती तेथी दुःखी हतो. नारदजीना कहेवाथी ए वरुण पासे गयो अने कह्युं के ‘‘प्रभो! मने पुत्र थाय एवी कृपा करो ॥८॥
जो मारे वीरपुत्र थशे तो ए ज पुत्रथी हुं आपनुं यजन करीश’’ त्यारे वरुणे वरदान आप्युं के ‘‘जो मारुं पूजन करीश तो तारे त्यां पुत्र थशे’’ एनाथी हरिश्चन्द्रने रोहित नामे पुत्र थयो ॥९॥
पुत्र थतां ज वरुणे कह्युं - ‘‘तारे पुत्र थयो छे माटे एने लईने मारो यज्ञ कर’’. त्यारे हरिश्चन्द्र कह्युं - ‘‘दश दिवस थई जाय तो आ पुत्र यागने लायक थाय माटे दश दिवसनो थवा दो’’ ॥१०॥
दश दिवस बाद वरुणे पाछा आवी कह्युं - ‘‘हवे मारो यज्ञ कर’’. त्यारे हरिश्चन्द्र बोल्या - ‘‘आपना यज्ञ पशुने दान्त फूटी आवे त्यारे ते यज्ञना उपयोगमां आवे’’ ॥११॥
ज्यारे दान्त आवी गया त्यारे वरुणे आवी कह्युंः‘‘दान्त तो उगी गया छे, हवे यज्ञ कर’’. त्यारे हरिश्चन्द्रे कह्युंः‘‘ज्यारे आ दूधिया दान्त पडी जशे त्यारे ए यज्ञने लायक पवित्र थाय’’ ॥१२॥
दान्त पड्या त्यारे वरुणे यज्ञ करवानुं कहेतां फरीने दान्त आवे त्यारे यज्ञ पशु पवित्र थाय एम हरिश्चन्द्रे कह्युम् ॥१३॥
फरीने दान्त आव्या त्यारे वरुणे आवी कह्युं, ‘‘हवे मारो यज्ञ करो’’ ए ज वात कही त्यारे हरिश्चन्द्रे कह्युं - ‘‘क्षत्रिय यज्ञ पशु (राजानो छोकरो)कवच पहेरे अने लडाईमां जाय एवो थाय त्यारे यज्ञने लायक पवित्र थाय’’ ॥१४॥
एवी रीते स्नेहमां बन्धाई पुत्रना उपर प्रेमने लीधे हरिश्चन्द्र कंईने कंई बहानुं काढी वरुणने आगळ उपर यज्ञ करवानी आशा आपतो गयो ॥१५॥
पिताने पोतानो नरमेध करवानी इच्छा छे एवुं रोहित जाणी गयो त्यारे ‘‘मने यज्ञमां होमी देशे’’ एवा भयथी हाथमां धनुष लईने ए अरण्यमां चाल्यो गयो ॥१६॥
(पुत्र वनमां जतो रह्यो छे तेथी हवे हरिश्चन्द्र यज्ञ नहि करे एम जाणी) वरुणे हरिश्चन्द्रना पेटमां जलोदरना रोगरूपे आक्रमण कर्युं छे ए वातनी रोहितने वनमां खबर पडी तेथी ए गाममां आववा नीकळ्यो त्यारे इन्द्रे एने अटकाव्यो ॥१७॥
[[४८१]] एने इन्द्रे कह्युं - (हे वत्स रोहित! यज्ञपशु बनी मरी जवा करतां) ‘‘पृथ्वीमां फरवुं ए श्रेष्ठ छे. फरवामां तीर्थो-क्षेत्रो आवे अने एमां एनी सेवा मळे’’ आम इन्द्रना कहेवाथी रोहित वनमां ज एक वर्ष वधारे रह्यो ॥१८॥
एवी ज रीते बीजे वर्षे इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण थई आव्यो अने एणे गाममां नहि जवानो उपदेश कर्यो. एवी रीते त्रीजे, चोथे अने पाञ्चमे वर्षे पण नगरमां नहि जवानी ज एणे वात करी ॥१९॥
आ प्रमाणे छ वर्ष सुधी रोहित वनमां ज रह्यो. सातमे वर्षे ज्यारे ते पोताना शहेर तरफ जवा लाग्यो त्यारे तेणे अजीगर्त पासे एना वचला पुत्र शुनःशेपने किम्मत आपी खरीदी लीधो अने तेने यज्ञपशु बनाववामाटे पोताना पिताने सोम्पी एमना चरणोमां प्रणाम कर्या. त्यारे परम यशस्वी अने श्रेष्ठ चरित्रवाळा राजा हरिश्चन्द्रे जलोदर रोगथी छूटी जई पुरुषमेध यज्ञद्वारा वरुण वगेरे देवताओनुं यजन कर्यु. ए यज्ञमां विश्वामित्र होता, परम संयमी जमदग्नि अध्वर्यु, वसिष्ठजी ब्रह्मा बन्या अने अयास्य मुनि सामगान करवावाळा उद्गाता बन्या. ए वखते इन्द्रे प्रसन्न थई हरिश्चन्द्रने सोनानो एक रथ आप्यो ॥२०-२३॥
हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा ॥ अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः ॥२७॥
शुनःशेपनुं माहात्म्य आगळ कहेवाशे. पोतानी पत्नी साथे सत्यवादी हरिश्चन्द्रनी सत्यमां दृढता पूर्वक स्थिति जोईने विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न थया तेथी एमणे एने अविनाशी भगवद्ज्ञान आप्युं. ए ज्ञानवडे मनने पृथ्वीमां, पृथ्वीने जळमां, जळने तेजमां, तेजने वायुमां अने वायुने आकाशमां, आकाशने अहङ्कारमां, अहङ्कारने महत्तत्त्वमां लीन कर्युं अने एमान्थी विषयाकारने छोडी चिदात्मक भगवदंशरूप आत्मानुं ध्यान करीने एणे ध्यानथी ज्ञानांशविद्यावडे विविक्त आत्मामां जोडी अज्ञानने भस्मीभूत कर्यु अने ध्यानात्मक चित्तवृत्तिने छोडी दई बन्धमुक्त थयो अने एवी रीते देहाध्यासथी मुक्त थईने अचिन्त्य एवा परमार्थरूप निजस्वरूपमां स्थित थयो, जीवन मुक्तरूप बनी गयो ॥२४- ॥२७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (सूर्यवंशरूप पहेला प्रकरणनो छठ्ठो, अवान्तर मध्यमप्रकरणनो *त्रीजो) ‘‘मान्धाताना वंशमां थयेल हरिश्चन्द्रनी कथा’’नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४८२]]
विशेषः प्रथम, मध्यम अने उत्तम नामनां अवान्तर त्रण प्रकरणोमां ईशानुकथा एटले भक्तनी कथा कहेवामां आवी. आ छेल्लुं ईशकथानुं प्रकरण छे तेमां एकेक अध्यायथी रामना जन्म अने चरित छे अने त्रीजामां कुशनो जन्म वगेरे छे ते पण गङ्गामां पडेला जलनी जेम रामचरितमां ज गणाय छे. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे
अध्याय ८
सगरना साठ हजार पुत्रोनो कपिलनी कोपदृष्टिथी थयेलो नाश
विशेष - रोहितना वंशमां सगर नामे मोटो राजा थयो. तेणे अश्वमेध यज्ञ कर्यो तेमां तेना साठ हजार पुत्रो कपिलना कोपाग्निथी बळी गया. ए वात आ अध्यायमां आवे छे. हरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद्विनिर्मिता ॥ चम्पापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - रोहितनो पुत्र हरित थयो. हरितनो चम्प थयो. तेणे ज चम्पापुरी वसावी. चम्पनो पुत्र सुदेव अने सुदेवनो विजय थयो ॥१॥
विजयनो भरुक थयो, भरुकनो वृक अने वृकनो बाहुद थयो. एना शत्रुए बाहुकनुं बधु ज राज्य लई लीधुं त्यारे पत्नी साथे ए वनमां चाल्यो गयो ॥२॥
बाहुक वृद्ध थयो अने मरण पाम्यो त्यारे एनी स्त्री सती थवा तैयार थई एवामां एना गर्भमां पुत्र छे एम जाणी महर्षि और्वे एने मरवा दीधी नहि ॥३॥
आ स्त्रीना उदरमां गर्भ छे एम एनी शोकोए जाण्युं त्यारे एनो उत्कर्ष सहन न थई शकवाथी राणीने अनाजनी साथे गर (विष) आपी दीधुं परन्तु गर्भउपर ए विषनी कंई असर थई नहि पण ए गर (विष)ने साथे लईनेज एक बाळकनो जन्म थयो. गरनी साथे जनमवाने कारणे ते ‘सगर’ कहेवाया. सगर बहुज यशस्वी राजा थया ॥४॥
ईं उं ईं उं
[[४८३]] सगर चक्रवर्ती सम्राट हतां एमना ज पुत्रोए पृथ्वी खोदीने सागर बनावी दीधो हतो. और्व गुरुनी आज्ञा मानी ए सगरे तालजङ्घ, यवन, शक, हैहय, बर्बर जातिना लोकोनो वध न कर्यो पण तेमने विरूप बनावी दीधा. एमान्थी केटलाकनां माथां मूण्डावी नाख्यां, केटलाकनां दाढी मूछ वधाराव्यां, केटलाकना वाळ छूटा मुकाव्यां तो केटलाकना अर्धा माथां बोडाव्याम् ॥५-६॥
केटलाकने सगरे वस्त्र ओढवानो ज हुकम कर्यो, पहेरवानो नहि. केटलाकने मात्र लङ्गोटी ज पहेरवानुं कह्युं, ओढवानुं कंई नहि. त्यार बाद और्व ऋषिना उपदेश प्रमाणे राजा सगरे अश्वमेध यज्ञद्वारा सम्पूर्ण वेद अने देवतामय, आत्मास्वरूप सर्वशक्तिमान भगवाननी आराधना करी. तेना यज्ञमां जे घोडाने छूटो मूकवामां आव्यो हतो तेने इन्द्र चोरी गया ॥७-८॥
सगरने सुमति अने केशिनी नामनी बे स्त्रीओ हती तेमान्थी सुमतिने साठ हजार छोकरा हता ते जाति अभिमानवाळा हता. पितानी आज्ञाथी एओ घोडानी शोधमां नीकळ्या. एओ ए चोतरफ पृथ्वीने खोदी नाखी ॥९॥
पूर्व उत्तर दिशामां कपिलनो आश्रम हतो तेनी नजीकमां तेमणे ए घोडो जोयो. एने जोतां ज एओ बोल्या के ‘‘आङ्ख र्मीचीने बेठेला आ चोरे ज आपणो घोडो चोरेलो छे ॥१०॥
आने मारे ए पापी छे’’ एम बोलता साठ हजार आयुध उठावीने मुनि उपर तूटी पड्या. त्यारे समाधिमान्थी निवृत्त थईने मुनिए आङ्ख खोली ॥११॥
मुनिए आङ्ख खोलतां सगरना पुत्रोनां शरीरमान्थी अग्नि प्रकट्यो अने ए अग्निवडे क्षणवारमां बधा भस्म थई गया. खरेखर इन्द्रे एमनी बुद्धि हरी लीधी हती जेथी मोटानो अपराध एओए कर्यो ॥१२॥
मुनिना कोपथी ए बळी मर्या ए ठीक तो नथी ज, परन्तु ए सगरपुत्रो मोटानुं अपमान करनारा होवाथी तेओ पोताना अपराधथी ज मर्या एम कहेवुं ठीक छे. (जेम आकाशमां रज नथी छतां आकाश रजवाळुं कहेवाय छे; तेम जगतने पवित्र करनार कपिलदेवजी सत्त्वमूर्ति छे तेमां तमोगुणनी सम्भावना अज्ञो ज करे; वस्तुतः राजपुत्रो पोताना अपराधथी ज नष्ट थया छे) ॥१३॥
जेमणे संसारसमुद्र तरवामाटे साङ्ख्यशास्त्ररूप दृढ नौका करी तेमनो मुमुक्षु आश्रय करे तो दुरत्यय मृत्युना मार्गरूप संसारने पेले पार पहोञ्चे एवा विद्वान ज [[४८४]] नहि पण साक्षात् परमात्मारूप कपिलदेवजीमां शत्रु, मित्र वगेरे भेदबुद्धिनी सम्भावना ज केम करी शकाय? ॥१४॥
सगरनी बीजी स्त्री केशिनीनो पुत्र असमञ्जस हतो तेनो पुत्र अंशुमान थयो. ए पोताना पितामहनुं श्रेय थाय एम इच्छतो हतो ॥१५॥
असमञ्जस पोताने कोई सारो कहे एवुं इच्छतो न हतो. ए योगी हतो तेथी एवी रीते जाणी जोईने करतो हतो. एने पूर्वजन्मनी जाण हती. पूर्वजन्ममां कोई दुःसङ्ग थवाथी ए योगभ्रष्ट थयो हतो अने राजाने त्यां जन्म्यो हतो तेथी लोकसङ्गथी डरीने कोई एनी पासे न आवे एवुं चरित्र देखाडतो हतो ॥१६॥
ए लोकमां निन्दा थाय एवां काम करतो; ज्ञातिजनोनुं पण बूरुं करतो; रमतां बाळकने लई सरयू नदीमां फेङ्की आवतो. एवी रीते एणे लोकोने उद्विग्न बनावी दीधा हता ॥१७॥
एनुं एवुं आचरण जोई एना पिताए पण एमां स्नेह छोडी दीधो. पिताए एनो त्याग कर्यो त्यारे एणे जेटलां बाळकोने सरयूमां फेङ्की दीधेलां ते बधाने जीवतां बनावी सौने सोम्पी दीधां अने पोते त्यान्थी चालतो थयो ॥१८॥
मरेलां बाळको फरी आवेलां जोई अयोध्यावासीओ विस्मय पाम्या. राजाने पण पाछळथी पस्तावो थयो ॥१९॥
राजाए अंशुमानने घोडानी शोधमां मोकल्यो. काकाए खोदेल पृथ्वीने मार्गे तपास करतो-करतो ए चालतो हतो त्यां तो एणे एमना शरीरना मोटा राखना ढगलानी पासे घोडाने जोयो ॥२०॥
त्यां बेठेला भगवद्रूप कपिल मुनिने जोईने तेणे प्रणाम कर्या अने एकाग्र मन करी हाथ जोडीने ए मुनिनी स्तुति करवा लाग्यो ॥२१॥
अंशुमान बोल्यो - ब्रह्माजी पण समाधि अने युक्तिवडे आपने परमात्मारूपे जोई शकता नथी. ब्रह्माजी के जेमणे मन, शरीर अने बुद्धि वडे देव मनुष्य अने पशु-पक्षी वगेरे बनाव्यां छे ते जो आपना स्वरूपने न जाणे तो एमनाथी पछीना अने एमणे आपेली बुद्धिवाळा एवा अमे आपना स्वरूपने क्यान्थी जाणी शकीए? ॥२२॥
संसारना देहधारी सत्त्व, रजस अने तमस प्रधानवाळा छे ते पण आपने सारी रीते जाणी शकता नथी. तेओ जाग्रत तथा स्वपन अवस्थामां गुणमय पदार्थो [[४८५]] विषयोने जुए छे अने सुषुप्तिमां मात्र अज्ञानने जुए छे कारण के तेओ भगवाननी मायावडे मोहित थयेला छे. तेओ बहिर्मुख होवाथी बहारनी वस्तुओने तो जुए छे पण पोताना ज हृदयमां स्थित आपने जोई शकता नथी ॥२३॥
जेमणे पोताना आत्मस्वरूपना अनुभवथी मायाना गुणोथी थता भेदभावने फेङ्की दीधा छे अने एना कारणरूप अज्ञाननो नाश करी चूक्या छे तेवा सनकादि आपना स्वरूपनुं चिन्तन कर्या करे छे. तेवा ज्ञानधन अने एकरस आपना स्वरूपने हुं मूढ केम चिन्तन करी शकुं? ॥२४॥
हे प्रशान्त! माया एना गुण अने गुणोने लीधे थतां कर्म अने कर्मोना संस्कारथी नीपजतुं लिङ्ग शरीर आपने छे ज नहि, आपनुं नाम के आपनुं रूप नथी, आपमां कार्य नथी कारण नथी आप सनातन आत्मा छो. ज्ञाननो उपदेश आपवाने माटे ज आपे आ शरीर धारण कर्युं छे एवा आपने नमस्कार करीए छीए ॥२५॥
काम एटले भोगनी इच्छा, लोभ एटले मळे तेटलाथी असन्तोष, मोह एटले अविवेक, ईर्षा एटले बीजाना सुखने जोईने सहन न करवुं ए, आ चार दोषथी लोकोनां चित्त फरी गयां छे तेथी प्रकृतिना कार्यरूप लोकमां (घरमां) परमार्थ बुद्धिथी ए भटके छे, फरी-फरी गृहस्थ थतां भटके छे एनो अन्त आवतो नथी ॥२६॥
हे सर्व प्राणीना आत्मा! हे भगवन्! काळ, कर्म अने अन्तःकरण ना मूळरूप अमारा बधा कुळनुं मोहबन्धन छूटवुं मुश्केल छे. आपे कृपा करीने दर्शन आप्युं छे तेनाथी ए बन्धन आजे छूट्युम् ॥२७॥
श्रीशुकदेवजी कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे पोताना माहात्म्यने पोते साम्भळ्युं त्यारे मुनि बुद्धिवडे अनुग्रह करी, हे राजन्! ए अंशुमानने कहेवा लाग्या ॥२८॥
श्रीभगवाने कह्युं - हे वत्स! तमारा पितामहना यज्ञना पशुरूप आ घोडो तमे लई जाओ. आ तमारा पितृओ भस्म थई गया छे तेमनो उद्धार मात्र गङ्गाजलथी ज थशे, बीजो कोई उपाय नथी ॥२९॥
अंशुमाने खूब दीनताथी एमने प्रसन्न करी एमनी परिक्रमा करी अने घोडो लई आव्या. सगरे ए यज्ञ पशुद्वारा यज्ञनी बाकी रहेली क्रिया पूरी करी ॥३०॥
राज्यमंशुमति न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः ॥ और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम् ॥३१॥
[[४८६]] राज्य अंशुमानने सोम्पी सगर राजा पोते विषयोथी निःस्पृह अने बन्धनमुक्त थई गया. ए महर्षि और्वे बतावेल मार्गेथी उत्तम गतिने पाम्या ॥३१॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेलां सूर्यवंश नामना प्रकरणनो सातमो, अवान्तर त्रीजा प्रकरणनो पहेलो) ‘‘सगरना साठ हजार पुत्रोनो कपिलनी कोपदृष्टिथी थयेलो नाश’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही
अध्याय ९
गङ्गाजीनुं पृथ्वी उपर आगमन
विशेष - आ नवमा अध्यायमां अंशुमाननो वंश, गङ्गाजीनुं पृथ्वी उपर पधारवुं तथा सुदास वगेरे राजाओनां आख्यान कहेवामांआवशे. अंशुमांश्च तपस्तेपे गङ्गानयनकाम्यया ॥ कालं महान्तं नाशकनेत् ततः कालेन संस्थितः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः गङ्गाजीने लाववानी इच्छाथी अंशुमाने तपश्चर्या करी. तप करतां घणो समय गयो तो पण गङ्गाजीने लाववाने ए समर्थ न थयो अने काळे करीने ए पहोञ्ची गयो ॥१॥
एनो पुत्र दिलीप थयो तेणे पण एवी ज रीते तपस्या करी तो पण ते गङ्गाजी लावी शक्यो नहि. समय थतां एनुं पण मृत्यु थयुं. एनो पुत्र भगीरथ थयो तेणे गङ्गाजीने भूतळ उपर लाववाने महान तप कर्यु ॥२॥
भगवती गङ्गाजीए प्रसन्न थई तेने दर्शन आप्या अने कह्युं ‘‘हुं तने वरदान आपवाने आवी छुं’’ त्यारे भगीरथे बहु ज नम्रताथी पोतानो अभिप्राय गङ्गाजीने कही सम्भळाव्यो. एणे कह्युं - ‘‘मारा पूर्वजो कपिलना शापथी भस्म थई
ईं उं ईं उं
[[४८७]] गया छे तेओनो उद्धार करवा आप भूतळ उपर पधारो’’ ॥३॥
त्यारे गङ्गाजीए कह्युं - ‘‘हुं पृथ्वी उपर तो आवुं पण मारा वेगने धारण करनार कोई होवुं जोईए जो मने रोकनार कोई न मळे तो हे राजन्! हुं पृथ्वीने भेदीने रसातळमां पहोञ्ची जईश ॥४॥
वळी एक बीजी वात पण छे. हुं पृथ्वी उपर आवीश त्यारे माणसो पोतानां पाप मारामां मूकी जशे ते बधां पापने मारे कयां मूकवां? माटे हे राजन्! तमारे ए बाबत पण विचारवानी छे’’ ॥५॥
भगीरथे कह्युं - ‘‘हे माता! जेमणे लोक-परलोक, धन, सम्पत्ति अने स्त्री, पुत्र नी कामनानो त्याग कर्यो छे जे संसारनी अहन्ता-ममताने छोडी दई शान्त थई गया छे जे भगवद् शास्त्र परायण छे अने लोकोने पवित्र करवावाळा परोपकारी सज्जन छे तेओ पोताना अङ्गस्पर्शथी तमारां पापोनो नाश करी देशे. कारण के एमनां हैयामां अघरूप अघासुरने मारनारा हरि सदा निवास करे छे ॥६॥
वळी तमे वेग धरवानुं कह्युं तो शिवजी आपना वेगने धारण करशे केमके ए प्राणी मात्रना आत्मा छे. जेम आखी साडी ताणा-वाणामां ओतप्रोत छे तेम आ आखुं विश्व शिवजीमां ओतप्रोत छे. ए बधानुं भलुं करनार छे. ए तमने रसातळमां जवा देशे नहि ॥७॥
गङ्गाजी एम कही भगीरथ राजाए तपवडे शिवजीने सन्तुष्ट कर्या. शिवजी थोडाज समयमां प्रसन्न थई गया ॥८॥
सर्व लोकनुं हित करनार एवुं राजानुं कथन शिवजीए ‘तथास्तु’ कही कबूली लीधुं अने भगवानना चरणना स्पर्शथी पवित्र थयेलां गङ्गाजीने शिवे *सावधानताथी धारण कर्या ॥९॥
विशेष - मूळ श्लोक ९.९.९ मां दधारावहितो गङ्गाम् एम कह्युं छे त्यां‘‘सावधानताथी शिवजीए गङ्गाने धारण करी’’ एमां ए समजवानुं छे के भगवच्चरणोदकने शिवजी पोताना शरीर उपरथी जवा दे तो ए स्नानजलवत् उच्छिष्ट थई जाय. माटे एम न थाय तेम ध्यान दई, कोई बीजानी महान वस्तु पोताना उपयोगमां न लेतां माथा उपर सम्भाळीने ले तेम गङ्गाजीने शिवजीए धारण करेलां छे; एटले गङ्गाजल अति पवित्र गणाय छे. गोदावरी शिवनिर्माल्यरूप थयेल ते पुनः वराहतीर्थमां वराहजीनो सम्बन्ध थतां दोषमुक्त थयां छे; आ वात गोदावरी-माहात्म्यमां स्पष्ट छे. [[४८८]] ज्यां पोताना पितृओना देह भस्म थईने पडेला हता त्यां त्रिभुवनने पवित्र करनार गङ्गाजीने लईने राजर्षि भगीरथ आगळ चाल्या ॥१०॥
राजा पोतानो वायुवेगवाळो रथ आगळ चलावतो जतो हतो अने एनी पाछळ गङ्गाजीनो प्रवाह चालतो हतो. एवी रीते देशने पवित्र करवा गङ्गाजी ज्यां सगरना पुत्रोना देह पड्या हता त्यां पहोञ्च्या ॥११॥
जे गङ्गाना स्पर्श मात्रथी ब्रह्मदण्डथी मरेला सगरना पुत्रो भस्म मात्र हता तेओने गङ्गाजलनो सम्बन्ध थतां ए स्वर्गमां गया ॥१२॥
हे परीक्षित! ज्यारे गङ्गाजलनो शरीरनी राख साथे स्पर्श थई जवाथी सगरना पुत्रोने स्वर्ग मळी गयुं तो जेओ श्रद्धापूर्वक नियम थई श्रीगङ्गाजीनुं सेवन करे एनी बाबतमां तो कहेवानुं ज शुं होय? ॥१३॥
संसारने मटाडनार अनन्त भगवानना चरणकमळमान्थी नीकळेली गङ्गाजी जीवने स्वर्गमां पहोञ्चाडे ए कांई एनुं आश्चर्यजनक माहात्म्य नथी ॥१४॥
केमके जो पवित्र मुनिजनो श्रद्धावडे पोताना मनने एमां राखे तो निमेष मात्रथी कोई रीते न छूटी शके तेवा त्रिगुणात्मक संसारने छोडीने एमनुं मन तत्काल भगवद्भावने पामी मुक्त थाय छे ॥१५॥
भगीरथनो पुत्र श्रुत थयो तेनो नाभ थयो, आ नाभ पूर्वोक्त नाभथी भिन्न छे. नाभनो सिन्धुद्वीप थयो अने एनो अयुतायु थयो ॥१६॥
ए अयुतायुनो ऋतुपर्ण थयो. ते नळराजानो मित्र हतो. एणे नळराजा पासेथी अश्वविद्या शीखी अने पोते नळने पासा फेङ्कवानी विद्या शीखवी. द्यूत शास्त्रमां पासा नखाय छे ए द्यूतशास्त्र एणे नळने आप्युं. ए ऋतुपर्णनो सर्वकाम पुत्र थयो ॥१७॥
तेनो सुदास थयो. ए मदयन्तीनो पति हतो जेने कल्माषपाद तथा मित्रसह एवा नामथी पण कवचित् लोको जाणे छे. वसिष्ठना शापथी ए राक्षस थयो अने पोताना कर्मवडे अपुत्र रह्यो ॥१८॥
राजाए पूछ्युं - ए महात्मा सौदासने गुरुनो शाप केम थयो? जो एमां कांई गुप्त बाबत न होय तो ए वात जाणवानी मारी इच्छा छे ॥१९॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सौदास मृगया रमवा गयेलो त्यां एणे कोई एक राक्षसने मार्यो. एणे एना भाईने जीवतो राखेलो तेथी जीवतो रहेलो भाई पोताना मरेला [[४८९]] भाईनुं वेर लेवाने राजाने त्यां गयो अने मरेला भाईनो बदलो लेवा सारुं राजाने त्यां रसोईया तरीके नोकर रह्यो. एक दिवस राजाए गुरु वसिष्ठने जमवानुं कहेडाव्युं हतुं तेमने रसोई करनार राक्षसे माणसनुं मांस रान्धीने पीरसी दीधुम् ॥२०-२१॥
गुरुए पीरसतां जोई लीधुं के आ मांस खावाने लायक नथी तेथी तरत क्रोध करी वसिष्ठे राजाने शाप आप्यो के ‘‘तुं राक्षस थईश. केमके राक्षसो माणसना मांसनो उपयोग करे ते, तें मारे माटे कर्यो; माटे तुञ्ज राक्षस थईने तेम कर ॥२२॥
राजाए तपास करी तो रसोई करनार राक्षसनुं आ काम छे एम कही वसिष्ठने वीनव्या त्यारे एमणे बार वर्ष सुधी राक्षस रहेवानो अवधि बताव्यो. सौदास पण गुरुने शाप आपवाने तैयार थई गयो ॥२३॥
परन्तु मदयन्तीए सौदासने तेम करतां अटकाव्यो त्यारे ए सौदासे दिशा, आकाश, पृथ्वी वगेरे बधुं ज जीवमय जोयुं तेथी हाथमां लीधेल जळ उग्र होवाथी कोई प्राणी उपर न नाखतां ए जळ पोताना पग उपर ज नाङ्ख्युं तेथी एने पग उपर काळो डाघ पडी गयो तेथी ते ‘कल्माषपाद’ पण कहेवायो. राक्षस थया पछी काळा डाघावाळा पगे ए वनमां फरतो हतो त्यां एणे कोई ब्राह्मण स्त्री-पुरुषने मैथुन करता जोयाम् ॥२४-२५॥
ए भूख्यो तो हतो तेथी मैथुन करतां स्त्री-पुरुषमान्थी पुरुषने खावामाटे उठाव्यो त्यारे एनी स्त्री के जेनो काम पूर्ण थयो न हतो तेणे कह्युं ‘‘राजन्! आप राक्षस नथी. आप तो इक्ष्वाकुना वंशना वीर महारथी छो, मदयन्तीना पति छो. आपने आ अधर्म करवो घटे नहि. मने सन्ताननी कामना छे अने आ ब्राह्मणनी कामना पणअधूरीछे तेथी आप मने मारो पति कृपा करीनेआपीदो ॥२६-२७॥
आ मनुष्यनो देह सर्व पुरुषार्थने आपनार छे. मनुष्यमां पण ब्राह्मणनो वध ते सर्व पुरुषार्थने बराबर छे ॥२८॥
वळी आ ब्राह्मण तो तपस्वी, विद्वान, सारा स्वभाववाळो छे, महापुरुषरूप ईश्वरनुं आराधन करनार छे. जे ब्रह्म सर्वभूतना आत्मारूपे सर्वमां छे, जे गुणोवडे भूतमां रहे छे ते ब्रह्मनुं आ आराधन करवानी इच्छावाळो होवाथी ब्रह्मर्षि छे अने तमे राजर्षि छो; तो हे धर्मज्ञ! जेम बापनो वध दीकरो न करे तेम तमे एनो वध करी शको नहि ॥२९-३०॥
ए सज्जन छे, निष्पाप छे, भणेलो छे, वेदनो अर्थ कहेवामां समर्थ छे तेथी [[४९०]] जेम गायने मारवामां कोई सम्मत थाय नहि तेम आ मारा पतिने मारवामां तमे केम सम्मत थई शको? तमे तो सत्पुरुषमां मान्य छो’’ ॥३१॥
आटलुं कहेवा छतां पण ए निवृत्त थयो नहि त्यारे ब्राह्मणी बोली के ‘‘जो तारे आनुं भक्षण करवानी इच्छा होय तो मने प्रथम खाई जा कारण के हुं पति विना एक क्षण पण जीवी शकीश नहि. ए मरे तो हुं मरी गयेला जेवी ज छुं’’ ॥३२॥
एम दया आवे एवुं बोलती अनाथनी जेम ए ऊभी रही एटलामां तो सौदास जे शापथी मोहित थयो हतो ते वाघनी पेठे ब्राह्मणने खावा लाग्यो ॥३३॥
एम गर्भाधान करता पतिने खवातो जोईने एनो शोक करती ब्राह्मणीए राजा उपर कोप करीने एने शाप आप्यो; ॥३४॥
‘‘हे पाप! ज्यारे हुं कामथी पीडित हती ते समये तें मारा पतिने खाधो तेथी हे अकृतप्रज्ञ! दुष्ट तारुं मृत्युं पण गर्भाधान करती वखते थशे’’ ॥३५॥
एम मित्रसह-सौदासने शाप आपी पतिलोकमां जवाने तैयार थयेली ब्राह्मणी पतिनां हाडकान्ने सळगेला अग्निमां नाखीने स्वामीनी साथे बळी मरी अने पोताना पतिदेवने जे गति मळी हती ते गति तेणे प्राप्त करी ॥३६॥
सौदास बार वर्ष पर्यन्त राक्षस रह्या पछी शापमुक्त थईने मैथुन करवाने तैयार थयो त्यारे महिषीए एने ब्राह्मणीनो शाप थयो छे एनी याद अपावी मैथुन करतां अटकाव्या े ॥३७॥
ए दिवसथी एणे स्त्रीसुख बिलकुल छोडी दीधुं तेथी एने पोताना कर्मवशात् प्रजा न थई एटले वसिष्ठने तेणे अनुज्ञा आपी तेथी वसिष्ठे मदयन्तीने गर्भाधान कराव्युम् ॥३८॥
ए गर्भ सात वर्ष सुधी एना पेटमां रह्यो. परन्तु बाळक जन्म्युं नहि त्यारे वसिष्ठे एना पेटमां अश्म (पथ्थर) मारी पेट फोडी गर्भने बहार काढ्यो तेथी ‘ए अश्मक’ कहेवायो ॥३९॥
अश्मकनो पुत्र मूलक थयो. ज्यारे परशुरामजी पृथ्वीने क्षत्रिय हीन करी रह्या हता त्यारे स्त्रीओए एने छुपावी राख्यो हतो. तेथी ज तेनुं एक नाम ‘नारी कवच’ पण थयुं. ए मूलक एटलामाटे कहेवाय छे के ते पृथ्वी क्षत्रियहीन थई जतां ए वंशनुं ते मूल (प्रवर्तक) बन्यो ॥४०॥
[[४९१]] ए मूलकथी दशरथ थया, तेना पुत्र ऐडविड थया. एना विश्वसह अने एना खट्वाङ्ग चक्रवर्ती थया ॥४१॥
देवोए एनी पासे आवी रक्षणनी प्रार्थना करी त्यारे एणे दैत्योने मार्या हता. ए रणमां कोईथी न जिताय तेवा हता. देवताओ पासे एने खबर पडी के ‘‘मारुं जीवन फक्त बे घडी छे’’ त्यारे पोतानी राजधानीमां पाछा आवीने एणे पोतानुं मन भगवान्मां लगावी दीधुम् ॥४२॥
‘‘अमारा कुळना दैवतरूप ब्राह्मणनुं कुळ छे. एनाथी अमारा प्राण पण अमने वहाला नथी, पुत्र वहाला नथी, लक्ष्मी वहाली नथी, राज्य, स्त्री, पृथ्वी वगेरे कशुं ज ब्राह्मणथी वहालुं नथी ॥४३॥
नानपणमां पण मारी बुद्धि अधर्ममां पडी नथी. वळी हुं भगवान् सिवाय कोई वस्तुने उत्तम मानतो नथी ॥४४॥
देवोए मने इच्छित वर मागवानुं कह्युं हतुं, परन्तु हुं प्राणी मात्रना सुखनी इच्छावाळो छुं, मारा एकलाना सुखमाटे वरदान मागतो नथी ॥४५॥
देवोना मन अने इन्द्रियो विषयोमां भटकतां रहे छे ते पोताना हृदयमां बिराजता प्रिय आत्माने मेळवी शकता नथी तो राजस तामस भाववाळा मनुष्यो तो भगवानने क्यान्थी मेळवी शके ज? ॥४६॥
आ शब्द आदि विषयो जलदी नाश पामे तेवा छे एनो सङ्ग छोडी अने भगवद् भक्तिवडे आत्मामां रहेला भगवानने हुं शरणे जाउं छुं’’ ॥४७॥
एम अन्तर्यामीए खेञ्चेली बुद्धिथी निश्चय करीने अज्ञान आदि बीजा भावोने छोडीने ए भगवद्भावने पामी गयो ॥४८॥
यत्-तद् ब्रह्म परं सूक्ष्ममशून्यं शून्यकल्पितम् ॥ भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः ॥४९॥
खट्वाङ्ग राजाए जे परब्रह्म छे, सूक्ष्म छे, अशून्य छे, छतां शून्य तरीके कल्पना करवामां आवे छे जेने भगवद्भक्तो भगवान् अने वासुदेव एवा नामथी बोले छे ते भावनो सर्वमान्थी मन छोडी आश्रय कर्यो ॥४९॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेलां सूर्यवंश प्रकरणनो आठमो, त्रीजा अवान्तर प्रकरणनो बीजो) ‘‘गङ्गाजीनुं पृथ्वीउपर आगमन’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४९२]]
अध्याय १०
श्रीरामचन्द्रजीनुं प्राकट्य अने एमनुं चरित्र
विशेषः आ अध्यायमां खट्वाङ्ग राजानो वंश तथा एना वंशमां अवतार लेनार श्रीरामचन्द्रजीनुं रावणना वधथी लईने अयोध्या पधार्या त्यां सुधीनुं चरित्र कहेवामां आवे छे. खट्वाङ्गाद् दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः ॥ अजस्ततो महाराजस्तस्माद् दशरथोऽभवत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः खट्वाङ्ग राजाना पुत्र दीर्घबाहु अने दीर्घबाहुना पृथुश्रवा एटले परम यशस्वी रघु थया. एना अज अने एना पुत्र महाराजा दशरथ थया ॥१॥
ए दशरथने त्यां देवोए भगवानने प्रार्थना करी त्यारे लोकनां दुःख टाळवाने साक्षात् ब्रह्म पोताना स्वरूपना विभागवडे चार स्वरूपे प्रकट थया ते राम, लक्ष्मण, भरत अने शत्रुघ्न ए नामथी प्रसिद्ध थया ॥२॥
सीतापति रामनुं चरित्र तत्त्वदर्शी वाल्मीकि वगेरे मुनिओए वर्णव्युं छे. ते-तें पोते घणी वार साम्भळ्युं पण छे ॥३॥
ए रामचन्द्रजीए पिताना वचनने सत्य करवामाटे राजपाट छोडी दीधुं. सीताजीना हाथनो स्पर्श पण न सही शके तेवा, मार्गे चालतां जेमना श्रमने लक्ष्मक्ष, हनुमान के सुग्रीवे मटाड्यो छे तेवा कोमळ चरणवडे वनमां फरीने एमणे केटलाक दिवस निर्गमन कर्या. (रावणनी बहेन) शूर्पणखाए कामबुद्धि देखाडी तेथी लक्ष्मणजीए एनां नाक-कान काप्यां तेथी शूर्पणखा एना भाई रावण पासे पहोञ्ची अने सीताना रूपना वखाण करतां रावण सीताने उपाडी गयो. ए सीताना वियोगथी रामे क्रोधवडे भ्रूकुटी चडावी तेथी समुद्र पण भयभीत थई गयो, जेनी उपर एमणे पूल बान्ध्यो. एवा दुष्ट राक्षसोना जङ्गलने लङ्कामां जई दावाग्निनी जेम बाळी नाख्युं. ए कोशल देशना राजा श्रीराम अमारा रक्षक हो ॥४॥
जेमणे विश्वामित्रना यज्ञमां राक्षसोमां वखणाता एवा बळवान मारीच वगेरे राक्षसोने लक्ष्मणना देखतां मार्या हता; ॥५॥
सीताना स्वयम्वरमां जे रामचन्द्रजीए लोकमां वीरपुरुषनी गणनामां आवे तेवा शूराओनी सभामां त्रणसो माणसो उपाडी शके तेवा शिवजीना धनुष्यने [[४९३]] हाथमां उठावीने हे राजन्! हाथी जेम शेरडीना साण्ठाने भाङ्गे तेम खेञ्ची वचमान्थी भाङ्गी नाख्युं हतुम् ॥६॥
रूप, गुण अने स्वभावथी अनुकूळ एवां सीता नामनां लक्ष्मीने धनुष उठाववारूपी पणने पूर्ण करी मेळवी जेमणे एमनो सत्कार कर्यो हतो तथा मार्गमां आवतां जेमणे क्षत्रनो अन्त करनार पृथ्वी एकवीस वार राजबीज वगरनी करनार एवा परशुरामना वधेला गर्वने छोडाव्यो हतो ॥७॥
जेणे सत्यरूपी दोरडाथी बन्धायेला तथा स्त्रीने अधीन थयेल पोताना पितानुं वचन सत्य करवामाटे राज्यलक्ष्मीनो त्याग कर्यो हतो तेमज प्रेमवाळा स्नेहीओनो त्याग कर्यो हतो; तथा सर्व सङ्ग छोडी स्त्रीनी साथे वनवास कर्यो हतो ॥८॥
जेमणे कामना विकारवाळी रावणनी बहेन शूर्पणखाने विरूप बनावी हती अने एना भाई खर, त्रिशिर अने दूषण ने चौद हजारनी राक्षस सेना समेत एकलाए असह्य अने कोई जीती न शेक तेवुं धनुष हाथमां लईने मार्या हता एटलुं ज नहि पण वनमां फरतां-फरतां केटलांय वर्ष गाळ्यां हताम् ॥९॥
शूर्पणखाए सीताना रूप, गुण, सौन्दर्य वगेरेनां वखाण करतां रावणे सीताने हरी लाववानो मनोरथ कर्यो अने तेथी मारीचने सोनाना जेवी आकृतिवाळो अद्भुत सोनेरी हरण बनावी पर्णकुटी पासे मोकल्यो. आश्रम पासेथी नीकळतां सीताने एनुं चर्म जोवानी इच्छा छतां जेम वीरभद्रे दक्ष प्रजापतिनुं माथुं उडावी दीधुं हतुं तेम ए रामे मारीचने मारी नाख्यो हतो ॥१०॥
राम लक्ष्मणनी गेरहाजरीमां राक्षसाधम रावण, जेम वाघ-बकरीने उठावी जाय तेम, *सीताने उठावी गयो त्यारे स्त्रीना सोबतीनी आवी दशा थाय छे एम जाणे जगतने बतावता होय तेम सीताना वियोगथी दीननी पेठे राम पोताना भाई लक्ष्मण साथे वनमां फरता रह्या ॥११॥
विशेष - एक वखत सीताजी बाल्यभावथी मेना-पोपटने पकडीने रमतां हतां. एमां मेनाने पूरी राखी तेथी एना प्राण चाल्या गया तेथी खोटुं लाग्युं अने एणे शाप आप्यो के ‘‘तें अमो दम्पतीने वियोग कराव्यो तेथी तमो दम्पतीने पण वियोग थशे’’. एटलुं कह्या पछी ज्यारे ए मरी गयो त्यारे ए अयोध्यामां धोबी थयो अने पोतानी स्त्रीने कह्युं के ‘‘तुं परगृहमां रही आवी तेथी तारो स्वीकार हुं न करुं. परगृहमां गयेली स्त्रीओ स्वीकार तो स्त्री-लोभी राम करे’’. आ वचन [[४९४]] रामचन्द्रजीनां साम्भळवामां आवतां एमणे सीतानो त्याग कर्यो छे ए पण रामनी लीला छे. आ वात रामाश्वमेधमां कही छे. लक्ष्मणजीना त्यागनी वात पण ए ज प्रमाणे लीलारूप समजवी. सीताने छोडाववा जतां जटायु नामनो गीध रावणने हाथे मरायेलो तेनी ऊर्ध्वगमननी क्रिया पुत्रवत् करी. कबन्ध पोताने मोढामां लेवाने आवेलो तेने मार्यो. वालीने मारी सुग्रीव वगेरे वानरो साथे मित्रता बान्धीने एनी मारफते सीतानी शोध करावी. जेना चरणनी सेवा ब्रह्माजी अने शिवजी वगेरे करे छे ते श्रीराम एवी रीते मनुष्यनाट्य करता-करता समुद्रना किनारा उपर वानरसेना सहित पधार्या ॥१२॥
त्रण दिवस समुद्रना किनारा उपर बेठा छतां समुद्र कांई बोल्यो नहि त्यारे श्रीरामचन्द्रे भ्रूकुटी चढावी क्रोध देखाडी समुद्र तरफ कटाक्ष कर्यो त्यारे समुद्रमां रहेलां मगर, माछलां, सर्प वगेरे आम-तेम तरफडवा लाग्यां अने समुद्र बीक लागवाथी गर्जना करतो बन्ध थई गयो अने माणसनुं रूप धारण करी पूजा साधन अने घणी भेट माथा उपर लईने श्रीरामचन्द्रना चरणनां शरणमां आवी आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥१३॥
हे भूमन्! जगतना मूळ पुरुष, सर्वनी पूर्वे पुरुषरूपे प्रकट थयेल एवा आपने मूर्खबुद्धिवाळा एवा अमे जाणी शक्या नहि. आपना ज सत्त्वभागथी देवो, रजोगुणना अंशथी प्रजापतिओ अने तमोगुणथी भूतना पति रुद्र वगेरे थाय छे ते त्रणे गुणना नियामक आप छो ॥१४॥
हे वीर शिरोमणि! आप प्रसन्नता पूर्वक मारा उपरथी पसार थाओ अने विश्रवस मुनिना मळरूप रावणने मारी आपनां वीरपत्नी सीताने मेळवो. मारी उपर पूल बान्धो. एनाथी आपनो यश वधशे. दिग्विजय करनार राजाओ ए सेतु उपर आवी आपनुं यशोगान करशे ॥१५॥
वानरना हाथमां चलित थतां वृक्षो साथे नाना-मोटा जे पर्वतो आव्या तेने समुद्रमां नाखी समुद्र उपर पाळ बान्धी सैन्य साथे सुग्रीव, नील, हनुमान वगेरेने साथे राखी विभीषणे जे मार्ग बताव्यो ते मार्गे पूर्वे हनुमाने बाळेली लङ्कामां श्रीरामचन्द्रजी दाखल थया. ज्यारे श्रीरामचन्द्रजी वानर सेना सहित लङ्कामां पेठा त्यारे रमत-गमतनां ठेकाणां, अनाज भरवाना कोठार, खजानानां मकान, गामना दरवाजा, सभास्थानो, घरनी अगासीओ, ओरडीओ, कबूतरखानां वगेरे सर्व [[४९५]] स्थळो वानरोथी भराई गयां अने जेम हाथीओनी भीडथी नदी भराई गई होय तेवी लङ्का देखावा लागी ॥१६-१७॥
आ जोईने रावणना जाणवामां आव्युं के वानरो लङ्कानो नाश करे छे त्यारे एणे निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन वगेरे पोताना बधा अनुचरो, पुत्र मेघनाद अने अन्ते भाई कुम्भकर्णने पण रामनी सामे लडवाने रणसङ्ग्राममां मोकल्याम् ॥१८॥
तलवार, त्रिशूळ, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भालां, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रथी सुरक्षित अने पासे पण न जई शकाय तेवी राक्षस सेनानी सामे सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, गन्धमादन, नील, अङ्गद, जाम्बवान अने पनस वगेरे वीरोने साथे लई श्रीरामचन्द्रजीए राक्षसोनी सेना साथे लडवा तैयार थया ॥१९॥
श्रीरामचन्द्रजीनी सेनाना नायको, हाथी, पायदळ, रथ अने घोडा उपर झाडो, पर्वतो, गदाओ बाणो वगेरे लईने, सीताना स्पर्शथी जेनुं मङ्गळ नष्ट थयुं छे तेवा रावणनी सेनाना माणसोनी साथे युद्ध करवा लाग्या ॥२०॥
पोतानी सेनानो नाश थतो जोई रावणे क्रोध कर्यो अने पुष्पक विमानमां बेसी ज्यां श्रीरामचन्द्रजी बिराजता हता त्यां आव्यो अने त्यां स्वर्गीय अने अति देदीप्यमान लडायक रथ लईने इन्द्रनो सारथि मातलि आवेलो हतो तेना उपर तीक्ष्ण बाणो फेक्याम् ॥२१॥
एने रामे कह्युं - ‘‘हे राक्षसना मळतुल्य! कूतरानी पेठे अमारी गेरहाजरीमां तुं अमारी स्त्रीने लई गयो ए कार्य तें लाज छोडीने कर्यंु छे. अधर्म करनारने जेम काळ फळ आपे छे तेम हुं तने तारा कामनुं खराब फळ आजे आपुं छुं. जेम कोई काळनुं उल्लङ्घन करी शकतुं नथी तेम मने पण तुं जीती शके एम नथी’’ ॥२२॥
एम वाणीथी एनो तिरस्कार करी धनुषमां बाण सान्धी ए बाण एना उपर छोड्युं. ए बाण वज्रनी पेठे एनी छातीने फाडी अन्दर पेसी गयुं. एनाथी दसे मोढामान्थी रुधिर वहेला लाग्युं अने जेम सुकृतथी स्वर्गमां गयेलो जीव पुण्य समाप्त थतां पृथ्वीमां पडे तेम ए रावण विमानमान्थी नीचे पड्यो त्यारे लोकोमां हाहाकार थई गयो ॥२३॥
रावणना मरायाथी लङ्कामान्थी मन्दोदरीनी साथे केटलीक यातुधानीओ नीकळी अने ज्यां रावणनुं मडदुं पड्युं हतुं त्यां आवी रोवा लागी ॥२४॥
[[४९६]] त्यां आवी पोताना पतिओने लक्ष्मणना बाणथी मरेला जोई तेओए आलिङ्गन कर्युं अने पोताना हाथे माथां छाती कूटी दुःखथी दीन बनी सुन्दर स्वर काढी रोवा लागी - ॥२५॥
‘‘हे नाथ! अमे बधां लङ्कावासी मरी गया छीए. लोकोने रडावनार रावणशत्रु दुःख दे छे तेवी लङ्का तमारा वगर कोनी पासे पोतानुं दुःख रोशे? एनी रक्षा कोण करशे? आप कामने अधीन थया तेथी आ थनार वस्तुने जाणी नहि अने सीताना तेजना प्रतापने जाणी शक्या नहि अने तेथी तमारी आ दशा थई. हे कुळनन्दन! अमने अने लङ्काने तमे धणी वगरना कर्या अने तमारा देहने गीधनुं अन्न बनाव्यो, आत्माने नरकने माटे तैयार कर्या’’ ॥२६-२८॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - रामचन्द्रजीनी आज्ञाथी विभीषणे पोताना कुटुम्बनी पितृमेधनी विधिथी उत्तरक्रिया करी ॥२९॥
त्यार बाद श्रीरामचन्द्रजीए अशोकवनना आश्रममां शिंशपाना वृक्ष मूळमां विरहना रोगथी जेमनुं शरीर कृश थई गयेलुं छे तेवां सीताजीने बेण्ठेलां जोयां ॥३०॥
श्रीरामनुं दर्शन थतां ज जेमनुं मुखकमळ प्रफुल्ल बन्युं छे तेवां रामनां प्रियतमा सीताजीने जोई रामने एमनी उपर दया आवी ॥३१॥
सीताजीने त्यान्थी पुष्पक विमानमां बेसार्या, लक्ष्मण, सुग्रीव तथा हनुमान नी साथे विभीषण पासे आव्या अने राक्षसना स्वामी रावणनी लङ्कामां एने गादी उपर बेसाड्या अने कल्प सुधी आयुष्य आपी पोताना वनवासनो चौद वर्षनो नियम पूरो थयो होवाथी पोते अयोध्या तरफ आव्या ॥३२॥
इन्द्र आदि देव आकाशमान्थी पुष्पवृष्टि करता हता अने मार्गमां ब्रह्मा आदि जेमनां पराक्रमोनी स्तुति करता हता तेवा राम अयोध्या पधार्या ॥३३॥
पोतानो भाई भरत पोतानी गेरहाजरीमां गोमूत्रमां पकवेला जवनी काञ्जीनुं भोजन करे छे तथा झाडनी छालनां वस्त्र पहेरे छे तथा पृथ्वी उपर दर्भ पाथरी सूए छे तथा जटा वधारी छे त्यारे एनी दशानुं स्मरण करी परम करुणाशील भगवाननुं हृदय भराई आव्युं. ज्यारे भरतजीए खबर पडी के मारा मोटा भाई भगवान् श्रीरामजी आवी रह्या छे त्यारे ते नागरिको, मन्त्रीओ अने पुरोहितो ने साथे लई अने भगवाननी पादुकाओ सिरपर पधरावी तेमनुं सामैयुं करवा रवाना थया. ज्यारे [[४९७]] भरतजी पोताना रहेवाना स्थान नन्दीग्रामथी नीकळ्या त्यारे आम जनता एमनी साथे मङ्गलगान करती, गाती, वाजां वगाडती, वेदवादी ब्राह्मणो वारंवार वेदमन्त्रोनो उच्चार करवा लाग्या अने एनो घोष चोतरफ गुञ्जी ऊठ्यो. सोनेरी बुट्टीदार ध्वजाओ लहेरावा लागी. सोनेथी मढेला रथ जेना उपर रङ्गबेरङ्गी ध्वजाओ फरकती हती, सोनाना साजथी सज्ज सुन्दर घोडा अने सोनानां कवच पहेरेलां सैनिको एमनी साथे चालवा लाग्या. साजन महाजन, श्रेष्ठ वाराङ्गनाओ, पायदळ अने महाराजाने योग्य नानी-मोटी तमाम वस्तुओ साथे चालती हती. भगवानने जोतां ज प्रेमना पूरथी भरतजीनुं हृदय गद्गद थई गयुं, नेत्रोमां आंसु छलकाई आव्यां ए भगवाननां चरणोमां पड्या ॥३४-३९॥
एमणे प्रभु आगळ एमनी पादुकाओ राखी अने हाथ जोडी ऊभा रह्या. आङ्खोमान्थी आंसुनी धारा वही रही छे. भगवाने बन्ने हाथोथी पकडी घणी वार सुधी भरतजीने हृदय सरसा दाब्या अने परस्पर नेत्रना जळथी एक बीजाने र्भीजव्याम् ॥४०॥
पछी रामे सीता अने लक्ष्मण ने साथे लई जेओ ब्राह्मणमां प्रख्यात हता तेमने पोते नमस्कार कर्या अने प्रजाए रामने नमस्कार कर्या ॥४१॥
ए वखते उत्तरकोसल देशमां रहेती समस्त प्रजा पोताना स्वामी भगवानने घणा दिवसे आवेला जोई पोताना खेस-दुपट्टा हलावी-हलावी पुष्पोनी वृष्टि करती आनन्दमां आवी जई नाचवा लागी ॥४२॥
पछी भरतजीए पादुका लीधी, सुग्रीवे पङ्खो अने विभीषणे श्रेष्ठ चामर लीधां, सफेद छत्र हनुमाने लीधुम् ॥४३॥
भाथा साथे धनुष शत्रुध्ने लीधुं. तीर्थोनां जलथी भरेलुं कमण्डळ सीताजीए उठाव्युं. अङ्गदे सोनानी तरवार ऊठावी अने हे नृप! ढाल जाम्बवाने लीधी ॥४४॥
रामचन्द्रजी स्त्रीओनी साथे पुष्पक विमानमां बिराज्या त्यारे जेम ग्रहोनी साथे चन्द्र शोभे तेम ए शोभवा लाग्या. बन्दीजनो स्तुति करवा लाग्या ॥४५॥
भाईओनां अभिनन्दन स्वीकारी एमणे उत्सवयुक्त पुरीमां प्रवेश कर्यो. पहेलां ए राजभवनमां गया त्यां पोतानी माताओ, मोटेराओ, मित्रो, नानाओए एमनो सत्कार करतां रामे तेमनो पण यथायोग्य सत्कार कर्यो. सीताजी अने [[४९८]] लक्ष्मणजी पण ए ज प्रमाणे बधाने यथायोग्य रीते मळ्या ॥४६-४७॥
ए वखते जेवी रीते मृतक शरीरमां प्राणोनो सञ्चार थई जाय तेमज माताओ पोताना पुत्रोना आगमनथी हर्षित थई गई. एमणे एमने पोतानी गोदमां बेसाडी लीधा अने आंसुओथी एमने अभिषेक कर्यो. ए वखते एमनो शोक मटी गयो ॥४८॥
पछी वसिष्ठजीए बीजा गुरुजनोनी साथे विधिपूर्वक भगवाननी जटा उतरावी अने बृहस्पतिजीए जेवी रीते इन्द्रनो अभिषेक कर्यो हतो तेवी ज रीते चारेय समुद्रोना जल आदिथी एमनो अभिषेक कर्यो ॥४९॥
एवी रीते शिरःस्नान करी सुन्दर वस्त्रो तथा आभूषणो वगेरे धारण कर्या. पोताना भाईओ तथा सीताजीए पण सुन्दर वस्त्र-अलङ्कार धारण कर्या तेमनी साथे श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त शोभायमान थया ॥५०॥
पछी भरते प्रणाम करी तेमने प्रसन्न करी आग्रह कर्यो त्यारे श्रीरामे राज्यासननो स्वीकार कर्यो ॥५१॥
स्वधर्ममां निष्ठावाळी प्रजा पोतपोताना वर्ण अने आश्रम ना धर्मो पाळवा लागी. प्रजा रामने पिता तुल्य मानती हती तो राम एने पोतानी सन्तति तुल्य गणी एनी रक्षा करता हता ॥५२॥
त्रेतायुग हतो छतां सत्ययुगना जेवा धर्म थया एटले के धर्म सम्पूर्ण अंशे प्रवर्त्यो. ज्यारे धर्मने जाणनार अने सर्व भूतने सुख आपनार राम राजा थया त्यारे काळ सर्वांशे धर्मने अनुकूळ थयो ॥५३॥
हे परीक्षित! रामना राज्यमां वनो, नदीओ, पर्वतो, देशो, द्वीपो अने समुद्रो बधां कामधेनुनी जेम लोकोनी बधी कामना पूर्ण करनार थयाम् ॥५४॥
मननी पीडा, शरीरनी पीडा, वृद्धावस्था, मनोव्यथा, शोक, मोह, भय, श्रम वगेरे रामना राज्यमां लोकोने कशुं थतुं नहि तेमज लोकोने भूतल उपर रहेवानी इच्छा होय तो त्यां सुधी मृत्यु पण थतुं नहि ॥५५॥
एक स्त्रीव्रत पाळता, राजर्षिना चरित्रने देखाडता, पवित्रताथी रहेता राम पोते गृहस्थना धर्मने पाळता हता अने प्रजाने एना धर्म पळावता हता ॥५६॥
प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ॥ धिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताहरन्मनः ॥५७॥
[[४९९]] प्रेमवडे, आज्ञाकारीपणावडे, स्वभाववडे, विनयनी नम्रतावडे, बुद्धिवडे, लज्जावडे अने हृदयना भाववडे सीताजीए पण पोताना पतिना मनने पोतानी तरफ वाळी लीधुं हतुम् ॥५७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेला सूर्यवंश प्रकरणनो नवमो अने अवान्तर उत्तम प्रकरनो त्रीजो) ‘‘श्रीरामचन्द्रजीनुं प्राकट्य अने एमनुं चरित्र’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. … … श्रीभागवतमादरात्।पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकमदम्भतः॥ प्रयत्न पूर्वक जातेज, कोई पण लौकिक (पैसा-टका कमाववा, फण्ड-फाळा)- पारलौकिक (मृतकनो उद्धार, पितृदोषनुं निवारण) हेतु के ढोङ्ग विना आदर पूर्वक श्रीभागवतनोनो पाठ करवो जोईए (श्रीवल्लभाचार्य)
अध्याय ११
श्रीरामे सर्वस्व-दक्षिणावाळो यज्ञ कर्यो
विशेषः भरत आदि भाईओ साथे रामे अयोध्यामां रहीने त्यां यज्ञ वगेरे कर्या ए वात आ अगियारमां अध्यायमां कहेवामां आवे छे. भगवानात्मनाऽऽत्मानं राम उत्तमकल्पकैः ॥ सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान् मखैः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युंः गुरु वसिष्ठजीने पोताना आचार्य बनावी सर्वदेवमय पोताना आत्मारूप भगवानने रामे पोताना आत्मावडे उत्तम साधन-सामग्रीवाळा यज्ञोथी आराध्या ॥१॥
होताने पूर्व दिशा आपी, ब्रह्माने दक्षिण दिशा आपी, अध्यर्युने पश्चिम दिशा आपी अने सामवेदनो उच्चार करता उद्गाताने उत्तर दिशा आपी ॥२॥
एनी वचमां जेटली पृथ्वी बची ते आचार्यने आपी दीधी. श्रीरामचन्द्रजीनो दृढनिश्चय हतो के निःस्पृह ब्राह्मणज आ पृथ्वीना एकमात्र अधिकारी छे ॥३॥
तेथी बधी पृथ्वी ब्राह्मणोने आपी दीधी. पोते वस्त्र, अलङ्कार जे कांई शरीर उपर धारण कर्यु हतुं ते सिवायनुं जे कांई हतुं ते बधुं ज ब्राह्मणोने आपी दीधुं. ए
ईं उं ईं उं
[[५००]] ज प्रमाणे राणी जनकतनया-सीताजी पण मात्र कण्ठमां मङ्गळसूत्र अने वस्त्रयुक्त रह्याम् ॥४॥
ज्यारे आचार्य वगेरे ब्राह्मणोए जोयुं के श्रीराम तो ब्राह्मणोनेज पोताना इष्टदेव माने छे त्यारे एमनुं हृदय प्रेमथी भीनुं थई गयुं. एमणे प्रसन्न थई आखी पृथ्वी भगवानने पाछी आपी अने कह्युम् ॥५॥
हे परमेश्वर! आप त्रणेय भुवनना एकमात्र स्वामी छो. आप तो अमारा हृदयमां बिराजी पोतानी ज्योतिथी अज्ञान-अन्धकारनो नाश करी रह्या छो. आ स्थितिमां भला, आपे अमने आपवामां शुं बाकी राख्युं छे? ॥६॥
आपनुं ज्ञान अनन्त छे. पवित्र कीर्तिवाळाओमां आप सर्वश्रेष्ठ छो. जे कोईने कोई प्रकारनो क्लेश नथी पहोञ्चाडता तेवा महात्माओने आपे आपना चरणकमल आपी दीधां छे. आवुं होवा छतां आप ब्राह्मणोने पोताना इष्टदेव मानो छो. हे भगवन्! आपना आवा रामरूपने अमे नमस्कार करीए छीए ॥७॥
एकवार प्रजानी स्थिति जाणवामाटे भगवान् राते वेशपलटो करी कोईने जणाव्या विना फरता हता. ए वखते एमणे कोई धोबीने पोतानी पत्नीने आ प्रमाणे कहेतां साम्भळ्यो ॥८॥
तुं असती अने दोषवाळी छे, वळी तुं पारका घरमां रहीने आवी छे तेवी स्त्रीने तो स्त्रीलोभी रामे सीताने राखी तेवोज होय ते राखे. तुं एवी छे माटे हुं तने घरमां नहि राखुम् ॥९॥
बहु मोढे बोलता अने कोई रीते न समजावी शकाय तेवा आ लोकवादथी श्रीराम भय पाम्या. एमणे सीताने वनमां छोडी दीधां. सीता वाल्मीकि मुनिना आश्रममां जई रह्याम् ॥१०॥
सीता ज्यारे वनमां गयां त्यारे सगर्भा हतां. समय थतां एमणे कुश अने लव नामना बे पुत्रने जन्म आप्यो. मुनि वाल्मीकिए एमना जातकर्म आदि संस्कार कर्या ॥११॥
लक्ष्मणजीने अङ्गद अने चित्रकेतु नामना बे पुत्रो थया. हे महीपते! भरतने पण तक्ष अने पुष्कल तेमज शत्रुघ्नने सुबाहु अने श्रुतसेन नामना बे पुत्रो थया ॥१२॥
भरतजीए दिग्विजयमां करोडो गन्धर्वने जीत्या तथा एमनुं बधुं धन लावीने [[५०१]] राजा श्रीरामचन्द्रजीने निवेदन कर्युम् ॥१३॥
शत्रुघ्नजीए मधुवनमां मधुना पुत्र लवण नामना राक्षसने मार्यो अने त्यां मथुरा नामनी पुरी वसावी ॥१४॥
स्वामीए वनमां मोकली आपेली सीताए बे पुत्रने मुनिनी पासे राख्या अने पोते रामना चरणनुं ध्यान करतां पृथ्वीमां समाई गई ॥१५॥
आ साम्भळी श्रीरामने घणो शोक थयो ते बुद्धिथी रोक्यो. आम छतां सीताना गुणोने सम्भारता एनो शोक श्रीरामथी रोकी शकायो नहि अने ए शोकने रोकवाने समर्थ थया नहि ॥१६॥
हे परीक्षित! स्त्री-पुरुषनो प्रसङ्ग समर्थ पुरुषोने पण आवी रीते त्रास आपनार थाय छे तो पछी जाडी बुद्धिवाळाने दुःख दे एमां शुं कहेवुं? ॥१७॥
सीताजी गया पछी रामे ब्रह्मचर्य राख्युं अने १३,००० वर्ष सुधी अखण्ड अग्निहोत्रनो होम कर्यो ॥१८॥
*दण्डकारण्यना काण्टाथी र्वीधायेला पोतानां चरणकमळने पोताने स्मरनारना हृदयमां धारण करी श्रीरामचन्द्रजी प्रकाशात्मक एवा पोताना वैकुण्ठधाममां पधार्या ॥१९॥
विशेषः चौद वर्षना वनवास दरमियान श्रीरामचन्द्रजी नागा चरणे ज रह्या छे. कमल करतांय कोमल चरणारविन्दमां केटलाय काण्टा-काङ्करा वगेरे खूञ्ची गया हशे! पण ठेठ सुधी ए काण्टाकाकंराने चरणमान्थी पोते काढी दूर कर्या नथी अने स्वधामगमन कर्युं त्यारे पण काण्टा-काङ्कराओ वाळा चरण साथे गमन कर्यु! एक वखत चरणनो आश्रय करेल होय तेने पोते दूर करे तो शरणागत वत्सलनुं बिरुद लाजे! माटे तो श्रीराम-राज्याभिषेक वखते बधा देवो स्तुति करे छे तेमां ब्रह्माजी तो ए काण्टाळां कञ्ज-कमलनो याद करी तेमने शरणे जाय छे. ‘‘ध्वज कुलिस अङ्कुस कञ्ज जुत बन फिरत कण्टक किन लहे, पद कञ्ज द्वन्द मुकुन्द राम रमेस नित्य भजामहे’’. जे चरणोमां ध्वजा, वज्र, अङ्कुश अने कमलनां चिह्न छे, जे चरणकमलमां वनमां फरती वखते काण्टा भोङ्काई जवाथी कपाशी थई गई छे, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! अमे आपनां ए ज बन्ने चरणकमलोने भजता रहीए छीए. (किन - कणी, कपाशी) उत्तरकाण्ड, श्रीरामचरितमानस. श्रीरघुनायके शस्त्रसमुदायवडे राक्षसोने मार्या, समुद्रने बान्ध्यो ए कांई एमनी कीर्ति वधारनार नथी केमके एओ तो साक्षात् भगवान् छे. देवोनी प्रार्थनाथी पोते [[५०२]] भूतल उपर आव्या अने मनुष्यनाट्य बताववामाटे शत्रुने मारवामां एमणे वानरोनी सहायता लीधी, परन्तु पोते कर्तुं, अकर्तुं अने अन्यथाकर्तुं समर्थ होवाथी एमने सहायतानी कांई जरूर न हती. छतां एम करीने पोते लोकना जेवी लीला बतावी छे ॥२०॥
दिशाओना हाथीना कानमां अलङ्काररूप पहोञ्चतो, शास्त्रथी अविरुद्ध, पापने दूर करनार एवो ए श्रीरामचन्द्रजीनो पवित्र यश मार्कण्डेय आदि मुनिओ राजानी सभामां अद्यापि पण गाय छे; जेमना चरणकमळने इन्द्र, कुबेर वगेरे पोताना मुकुटवडे सेवे छे तेवा श्रीरामचन्द्र भगवाननो अमे आश्रय करीए छीए ॥२१॥
ज्यां मोटो योगी लोको योगप्रभावथी जई शके त्यां जेओए श्रीरामचन्द्रजीने जोया के तेमनो स्पर्श कर्यो के तेमने अनुसर्या तेवा सघळा कोसल देशना रहेनाराओ श्रीरामचन्द्रजीनां दर्शन आदिथी पहोञ्च्या ॥२२॥
जे पुरुष पोताना कानोथी भगवान् श्रीरामनुं चरित्र साम्भळे छे तेने सरलता, कोमलता आदि गुणोनी प्राप्ति थाय छे. हे परीक्षित! एटलुं ज नहि. ए समस्त कर्मबन्धनोथी मुक्त थई जायछे ॥२३॥
परीक्षितराजाए पूछ्युं - भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पोतानाभाईओ साथे केवो वर्ताव राखता हता? भाईओ, प्रजाजनतथा अयोध्या - वासीओ श्रीरामचन्द्रजी साथे केवो व्यवहार राखताहता? ॥२४॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - त्रिभुवनपति श्रीरामे दिग्वज्य करवाने भाईओने दिशा जीतवामाटे मोकल्या अने पोते पोतानी प्रजाने दर्शन आपतां सेवको साथे अयोध्यायनी रक्षा करी ॥२५॥
ए वखते अयोध्यापुरीना रस्ताओ सुगन्धी जळथी छण्टाया हता, हाथीना मदनां बिन्दु पण मार्गमां पडता हतां अने पोताना स्वामीना आगमनथी जाणे नगरी मस्त बनी होय तेवी समृद्धिवाळी बनीहती ॥२६॥
वळी अयोध्यापूरीनां महेलो, दरवाजा, सभागृहो, विहार, देवगृहो वगेरे उपर सुवर्ण कळश झगमगी रह्या हता अने ठेकठेकाणे पताकाओ राखी शृङ्गार युक्त बनाववामां आवी हती ॥२७॥
पुष्पयुक्त सोपारीना पानथी, केळना स्तम्भथी तथा एना फळोथी ए शोभी रही हती. केटलीक जग्याए वस्त्रोना शृङ्गार करवामां आव्या हता तो केटलीक [[५०३]] जग्याए आरसा बान्धेला हता; क्याङ्क पुष्प माळाओनी शोभा हती तो क्वचित् बारीक वस्त्रनी आश्चर्य पमाडे तेवी पताकाओथी आखी पुरी शोभायमान बनी रही हती ॥२८॥
नागरिको हाथमां भेटो लई श्रीरामना दर्शनार्थे आवता अने एमने प्रार्थना करता, ‘‘देव! पहेलां आपे ज वराह अवतारमां पृथ्वीनो उद्धार कर्यो हतो तेम हमणां पण आप ज एनुं पालन करो’’ एवी आशिषो कहेता ॥२९॥
घणा काळ पछी श्रीरामचन्द्र फरी नगरीमां पधार्या हता तेथी श्रीरामचन्द्रनां दर्शन करवाने प्रजाजनो, पुरुषो अने स्त्रीओ घरना उपरना भागमां चडी अतृप्त नेत्रथी दर्शन करतां भगवानने पुष्पथी वधाववा लाग्याम् ॥३०॥
पोतानी पूर्वे थई गयेला राजाओए जे राजभवन भोगवेलुं तथा जेमां असङ्ख्य खजाना अने मोटी कीमतनां राचरचीलां गोठववामां आवेला हतां तेवां प्रवाळना उमरा, बारणां तेमज वैदुर्यमणिना स्तम्भनी पक्तिंओथी, मरकतमणिनी बेठकोथी, स्फटिक मणिथी भीतोथी जे शोभायमान हतुं तेमां श्रीराम गया ॥३१-३२॥
एमां विचित्र माळावाळी धजाओ, वस्त्रो, मणिओ अने अंशुक बारीक वस्त्रो अने चैतन्य जेवा प्रकाशवाळां मुक्ताफळ वगेरेथी मडिन्त अने मनने खेञ्चीले तेवां अनेक प्रकारना भोगसाधनोथी शणगारेलां घर हताम् ॥३३॥
एमां धूप, दीवा तथा सुगन्धी फूलोनी शोभा थई रही हती. देव जेवा पुरुषो एनीशोभामांवृद्धि करी रह्या हता. तेनाथी राजभवन शोभायमानहतुम् ॥३४॥
एमां आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषोना पण शिरोमणि भगवान् रामचन्द्रजी स्नेहवाळां अने प्रेमाळ पत्नी सीता देवीनी साथे विहार करी रह्या हता ॥३५॥
बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन् ॥ वर्षपूगान् बहून् नृणामभिध्याताघ्रिम्पल्लवः ॥३६॥
जगत् जेमना चरण-कमळनुं ध्यान करे छे तेवा श्रीरामचन्द्रजी धर्मनो बाध न आवे तेम समये-समये कामादिनो हजारो वर्ष पर्यन्त त्यां रही भोगववा लाग्या ॥३६॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (सूर्यवंश नामना पहेला प्रकरणनो दशमो, अवान्तर चोथानो पहेलो) ‘‘श्रीरामे सर्वस्व दक्षिणावाळो यज्ञ कर्यो’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५०४]]
अध्याय १२
कुशनो वंश अने इक्ष्वाकुना पुत्र शशादनो वंश
विशेष - आ बारमां अध्यायमां रामना पुत्र कुशनो वंश कहीने इक्ष्वाकुना पुत्र शशादनो वंश सम्पूर्ण कहेवाशे. कुशस्य चातिथिस्तस्मान्निषधस्तत्सुतो नभः ॥ पुण्डरीकोऽथ तत्पुत्रः क्षेमधन्वाभवत्ततः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - कुशनो पुत्र अतिथि थयो, अतिथिनो निषध थयो, निषधनो नभ थयो, नभनो पुण्डरीक थयो अने पुण्डरीकनो क्षेमधन्वा पुत्र थयो ॥१॥
क्षेमधन्वानो देवानीक, देवानीकनो अनीह, अनीहनो पारियात्र, पारियात्रनो बल, बलनो स्थल अने स्थलनो वज्रनाभ पुत्र थयो. ए सूर्यना अंशथी उत्पन्न थयो हतो ॥२॥
वज्रनाभनो खगण, खगणनो विधृति, तेनो हिरण्यनाभ, जे जैमिनिनो शिष्य थईने योगाचार्यनी पदवीथी प्रसिद्ध थयो ॥३॥
ए हिरण्यनाभ पासेथी कोसल देशवासी याज्ञवल्क्य अध्यात्मयोग भण्या हता, जे अध्यात्मविद्या मोटो अभ्युदय करनारी छे तथा हृदयनी चिद-चिद् ग्रन्थिने छेदनारी छे ॥४॥
हिरण्यनाभनो पुष्य थयो. पुष्यनो ध्रुवसन्धि थयो, तेनो सुदर्शन थयो, सुदर्शननो अग्निवर्ण थयो, अग्निवर्णनो शीघ्र अने शीघ्रनो पुत्र मरु थयो ॥५॥
मरु योगवडे सिद्ध थयो हतो अने कलाप ग्राममां आज दिवस सुधी रहे छे. कलिना अन्तमां सूर्यवंश नष्ट थतां तेने ए पाछो चलावशे ॥६॥
मरुनो प्रसुश्रुत अने एनो सन्धि थयो सन्धिनो अमर्षण थयो, तेनो महस्वान थयो अने एनो विश्वसाहृ थयो ॥७॥
एनो प्रसेनजित् थयो, प्रसेनजित्नो तक्षक थयो, तेनो बृहदबल थयो. आ ज बृहद्बलने तमारा पिता अभिमन्युए युद्धमां मार्यो हतो ॥८॥
इक्ष्वाकु वंशना आटला राजाओ थई गया छे. हवे जे थवाना छे तेने कहुं छुं ए साम्भळो. बृहदृबलनो पुत्र बृहद्रणथशे ॥९॥
विशेष - द्वापरयुगना अन्त सुधीना सूर्यवंशना राजाओनो वंश कहीने हवे ते पछीना वंशनुं [[५०५]] वर्णन करे छे तेमां ‘‘थशे’’ एम भविष्य सूचन ते समयमाटेनुं छे वर्तमान समयमां तो ते थई गयेला राजाओ छे. बृहद्रणनो उरुक्रिय अने उरुक्रियनो वत्सवृद्ध नामनो पुत्र थशे. एनो प्रतिव्योम अने एनो भानु थशे. भानुनो पुत्र दिवाक थशे जे इन्द्रनो सेनापति थशे ॥१०॥
एनो सहदेव, तेनो बृहदश्व, तेनो भानुमान, भानुमाननो प्रतीकाश्व, तेनो सुप्रतीक थशे ॥११॥
सुप्रतीकनो मरुदेव थशे. मरुदेवनो सुनक्षत्र अने सुनक्षत्रनो पुत्र पुष्कर थशे, एनो अन्तरिक्ष, तेनो सुतपा अने एनो अमित्रज्रित थशे ॥१२॥
एनो बृहद्राज, तेनो बर्हि, बर्हिनो कृतञ्जय पुत्र थशे. एनो रणञ्जय अने एनो सञ्जय थशे ॥१३॥
एनो शाक्य, शाक्यनो शुद्धोद नामनो पुत्र थशे. एनो पुत्र लाङ्गल थशे. एनो प्रसेनजित्, तेनो क्षुद्रक थशे ॥१४॥
तेनो रणक, तेनो सुरथ, तेनो सुमित्र थशे, जे एना वंशनो छेल्लो पुरुष गणाशे. एटला बृहद्बल राजाना वंशना प्रजाओ थशे ॥१५॥
इक्ष्वाकुणामयं वंशः सुमित्रान्तो भविष्यति ॥ यतस्तं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ॥१६॥
इक्ष्वाकुना आ वंशमां सुमित्र छेल्लो थशे केमके एना गया पछी कलियुग आवतां इक्ष्वाकु वंशनो अन्त थशे ॥१६॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेलां सूर्यवंश प्रकरणनो अगियारमो तथा अवान्तर चोथा प्रकरणनो बीजो) ‘‘कुशनो वंश अने इक्ष्वाकुना पुत्र शशादनो वंश’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान् जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.
ईं उं ईं उं
[[५०६]]
अध्याय १३
निमिराजोनो ुुवंश जेमां जनक वगेरे ज्ञानी थया
विशेष - जनक वगेरे ब्रह्मज्ञो जेना कुळमां थया छे तेवा निमि राजानो वंश आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम् ॥ आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - इक्ष्वाकुना पुत्र निमि हता. एमणे यज्ञनो आरम्भ करी महर्षि वसिष्ठनी ऋत्विज तरीके पसन्दगी करी वसिष्ठजीए कह्युं, ‘‘हे राजन्! इन्द्रे पोताना यज्ञमाटे पहेलां ज मारी पसन्दगी करी लीधी छे ॥१॥
तेथी एनो यज्ञ समाप्त करावी तमारी पासे आवीश; त्यां सुधी तमे वाट जुओ’’. त्यारे निमि कांई बोल्या नहि अने वसिष्ठ इन्द्रनो यज्ञ कराववा गया अने एमणे एनो यज्ञ कराव्यो ॥२॥
निमि पोते आत्म-अनात्मना विवेकने जाणनार हता तेथी आयुष्यने अनित्य मानी ज्यां सुधी गुरु वसिष्ठजी न आवे त्यां सुधीना समयमाटे एनी वाट न जोतां एमणे बीजा ऋत्विजो द्वारा यज्ञ शरू कर्यो ॥३॥
इन्द्रनो यज्ञ करावी वसिष्ठजी आव्या अने जोयुं तो निमिनो यज्ञ शरू थई गयो हतो. शिष्ये पोतानी आज्ञा न मानी तेथी क्रोध करी ए बोल्या के ‘‘तुं पोते पडिन्त छे एम माने छे अने मारी आज्ञानुं उल्लङ्घन करे छे’’ माटे तारो देह पडो ॥४॥
ए उपरथी निमिए गुरुने सामे शाप आप्यो के ‘‘तमे धर्म जाण्या वगर लोभथी मने शाप आपो छो तेथी तमारो देह पण पडो केमके तमे अधर्म करो छो’’ ॥५॥
एम कही पोते आत्मविद्यामां कुशळ होवाथी निमिए देहनो त्याग कर्यो. अने वसिष्ठे पोतानो देह छोड्यो. पछी उर्वशीना दर्शनथी मित्रावरुणनुं वीर्य फलित थयुं हतुं ते घडामां नाख्युं तेमान्थी वाल्मीकि अने वसिष्ठ थया. आ कथा प्रमाणे वसिष्ठ कुम्भथी उत्पन्न थया ॥६॥
निमिनो देह मुनिओए सुगन्धी वस्तुमां राख्यो अने यज्ञ समाप्त कर्यो त्यारे त्यां जे देवो आव्या हता तेओने विनन्ति करी के ॥७॥
‘‘जो तमे यज्ञथी प्रसन्न थया हो तो निमिराजानो देह जीवतो थाओ’’. देवोए [[५०७]] देहने जीवतो कर्यो, परन्तु निमिए क्हयुं के ‘‘मने देहनुं बन्धन जोईए नहि. जे मुनिओ वियोग थशे एवा भयथी डरीने देहना योगने इच्छता नथी तेओ तो संसार दुःखने दूर करनार भगवानना चरण कमळने भजे छे तेथी हुं देहने धारण करवाने इच्छतो नथी जेमके देहवाळाने दुःख, शोक अने भय वगेरे थाय छे. वळी जळमां ज्यां माछलुं जाय त्यां एनुं मृत्यु थाय छे तेमे सर्वत्र देहवाळाने मृत्यु अवश्य थशे ज. तेथी पण हुं जीववाने इच्छतो नथी’’ ॥८-१०॥
ज्यारे निमिए एवुं कह्युं त्यारे देवो बोल्याः‘‘हे निमि! तमे देहने न राखो पण लोकना नेत्रमां पलकरूपे रहो’’. ए निमि लोकना नेत्रमां रही आङ्ख उघाडतां- र्मीचतां बधाना जाणवामां आवे छे ॥११॥
राजा वगर लोकने भय थशे एम मानी ऋषिओए निमिना देहनुं मन्थन कर्यु तेमान्थी कुमार थयो ॥१२॥
एनो जन्म थतां ए ‘जनक’ एवा नामथी अने विदेहथी (विदेह=१.मृतदेह
२. माताना देह वगर.) थयो तेथी ‘वैदेह’ एवा नामथी प्रसिद्ध गयो. वळी ए देहनुं
मन्थन करवाथी थयो माटे ‘मैथिल’ पण कहेवातो एणे ‘मिथिला’नामनी नगरी
वसावी ॥१३॥
ए जनकनो पुत्र उदावसु थयो, उदावसुनो नन्दिवर्धन थयो, तेनो सुकेतु थयो अने सुकेतुनो, हे महिपते! देवरात पुत्र थयो ॥१४॥
एनो बृहद्रथ थयो, बृहद्रथनो महावीर्य, महावीर्यनो सुधृति, सुधृतिनो धृष्टकेतु, तेनो हर्यश्व अने हर्यश्वनो मरु थयो ॥१५॥
मरुनो प्रतीपक थयो, तेनो कृतिरथ थयो. तेनो देवमीढ, एनो विश्रुत, ते विश्रुतनो महाधृति पुत्र थयो ॥१६॥
ए महाधृतिनो कृतिरात थयो, तेनो महारोमा थयो, तेनो स्वर्णरोमा थयो अने एनो हृस्वरोमां थयो ॥१७॥
आ ज हृस्वरोमाना पुत्र महाराज सीरध्वज हता. ते ज्यारे यज्ञने माटे धरती खेडता हता त्यारे तेना सीर (हळ) ना अग्रभागथी सीताजीनी उत्पत्ति थई. आथी एनुं नाम सीरध्वज पड्युम् ॥१८॥
सीरध्वजना पुत्र कुशध्वज थया, तेना धर्मध्वज थया, धर्मध्वजना कृतध्वज अने मितध्वज नामना बे पुत्र थया ॥१९॥
[[५०८]] कृतध्वजथी केशिध्वज नामना पुत्र थया अने मित्रध्वजथी खाडिङ्क्य नामना पुत्र थया. केशिध्वज ब्रह्मविद्यामां कुशळ हता ॥२०॥
खाडिङ्क्य कर्मकाण्डना मर्मज्ञ हता. ते केशिध्वजनी बीकथी घरमान्थी नीकळी चाल्या गया. केशिध्वजना भानुमान थया भानुमानना शतद्युम्न थया ॥२१॥
एना शुचि थया. शुचिना सनद्वाज थया, सनद्वाजना ऊर्ध्वकेतु थया, तेना अज थया अने अजना पुरुजित् थया ॥२२॥
एना अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमिना श्रुतायु, श्रुतायुना सुपार्श्वक, तेना चित्ररथ, तेना क्षेमपि पुत्र थया. जे मिथिलाना राजा थया ॥२३॥
ए क्षेमधिनो समरथ, तेना सत्यरथ थया, तेना उपगुरु, उपगुरुना उपगुप्त थया. ते अग्निनो अंश हता ॥२४॥
उपगुप्तना वस्वनन्त, वस्वनन्तना युयुध, तेना सुभाषण, सुभाषणना श्रुत, श्रुतना जय अने जयना विजय थया. विजयना पुत्र ऋत थया ॥२५॥
ए ऋतना पुत्र शुनक थया, तेना वीतहव्य थया. तेना धृति, धृतिना बहुलाश्व अने बहुलाश्वना कृति थया अने एना महावशी थया ॥२६॥
एते वै मिथिला राजन्नात्मविद्याविशारदाः ॥ योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥२७॥
हे परीक्षित! आ मिथिलना वंशमां जन्मेला बधा राजाओ ‘मैथिल’ कहेवाय छे. ए बधाय आत्मज्ञानथी सम्पन्न अने गृहस्थाश्रममां रहेवा छतां सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोथी मुक्त हता कारण के याज्ञवल्कल्य वगेरे मोटा-मोटा योगेश्वरोनी एमना उपर महान कृपा हती ॥२७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (पहेला सूर्यवंश नामना प्रकरणनो बारमो, अवान्तर चोथो प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘निमि राजानो वंश जेमां जनक वगेरे ब्रह्मज्ञानी थया’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्रथम महाप्रकरण सम्पूर्ण दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
ईं उं ईं उं
[[५०९]] बीजुं चन्द्रवंश प्रकरण
अध्याय १४
पुरूरवा राजा उर्वशीमां आसक्त थई गन्धर्वलोकमां गया
विशेषः १. एम तेर अध्यायथी सूर्यवंश कह्यो. हवे ११ अध्यायथी सोम (चन्द्र)वंश कहे छे.
तेमां आ चौदमां अध्यायमां बृहस्पतिनी स्त्री तारामां चन्द्रथी बुध थया अने बुधथी इलामां
पुरूरवा नामे पुत्र थया ए कथा आ स्कन्धना प्रथम अध्यायमां आवी जाय छे अने पुरूरवानी
वात अर्ही कहेवामां आवे छे.
२.अर्ही प्रकरण विभागमां सूर्यवंशना १३ अध्याय अने चन्द्रवंशना अगियार अध्याय
कह्या छे पण नवमस्कन्धना प्रथम अध्यायमां चन्द्रवंश सिवाय बीजी कथा नथी तेथी ए
अध्यायने निबन्धमां सूर्यवंशमां गण्यो नथी. ए कारणथी बन्ने प्रकरण बार-बार
अध्यायनां राखवामां आव्यां छे. प्रथम सूर्यवंशना बार अध्यायमां अवान्तर चार प्रकरण
आव्यां तेवां ज अवान्तर चार प्रकरण चन्द्रवंशमां पण त्रण-त्रण अध्यायमां आवशे.
प्रथम, मध्यम अने उत्तम भक्तना त्रण प्रकरण अने त्रण अध्यायथी भगवत् प्राकट्य एटले
ईश अने ईशानुकथा बन्नेनुं वर्णन वंशोमां तुल्य छे.
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः ॥
यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - (सूर्यवंश कहेवायो) हवे पवित्र करनार चन्द्रवंश कहेवाशे ए तमे साम्भळो. हे राजन्! एमां पवित्र यशवाळा पुरूरवा वगेरे राजाओ थया छे ॥१॥
हजार मस्तकवाळा विराट पुरुष नारायणना नाभि-सरोवरना कमलथी ब्रह्माजीनी उत्पत्ति थई. तेनाथी पिताना जेवा पराक्रमवाळा अत्रि नामना पुत्र थया ॥२॥
एनी बे आङ्खोथी अमृतमय पुत्र चन्द्रमानो जन्म थयो. ब्रह्माजीए एने ब्राह्मण, नक्षत्रगण अने औषधि नो अधिपति बनावी दीधो ॥३॥
ए सोमे (चन्द्रे) त्रण लोकने जीतीने राजसूय यज्ञ कर्यो आथी एनो घमण्ड वधी गयो अने बृहस्पतिनी स्त्री तारानुं बळात्कारे हरण कर्यु ॥४॥
देवगुरु बृहस्पतिजीए पोतानी स्त्री पाछी मागी पण ए एने आपी नहि. [[५१०]] अनेक वखत एमाटे याचना करी पण मतवाला चन्द्रे ए न आपी त्यारे ए स्त्रीने लीधे देव अने दैत्य नी वच्चे मोटी लडाई थई ॥५॥
बृहस्पतिजीनी साथे शुक्राचार्यजीने द्वेष हतो तेथी शुक्राचार्यजीए तेमज सर्व असुरोए चन्द्रनो पक्ष कर्यो, परन्तु बृहस्पतिजी पोताना विद्यागुरु अङ्गिराजीना पुत्र थाय तेथी शिवजी पोताना गणथी र्वीटाईने गुरुना पक्षमां रह्या ॥६॥
बधा देवोनी साथे इन्द्र पण गुरुना पक्षमां लडवा तैयार थयो. एम ताराना निमित्ते देव-दैत्यनो मोटो विनाश थयो ॥७॥
बृहस्पतिजीना पिता अङ्गिराए आ बधी वात ब्रह्माजीने निवेदन करी त्यारे ब्रह्माजीए चन्द्र (सोम) नो तिरस्कार करी ताराने एनी पासेथी लई लीधी अने एना स्वामी बृहस्पतिजीने स्वाधीन करी; पण तपास करतां बृहस्पतिजीने मालूम पड्युं के तारा सगर्भा छे ॥८॥
‘‘हे दुष्टा! मारा क्षेत्रमां बीजाए गर्भने स्थापित कर्यो होय ते तुं छोडी दे. हे सती! हुं पुत्रनी इच्छावाळो छुं. तुं स्त्री छे माटे तने हुं भस्म करतो नथी’’ ॥९॥
जयारे ताराए सोनानी कान्तिवाळा ए कुमारने गर्भमान्थी दूर कर्यो त्यारे चन्द्र अने बृहस्पतिजी बन्नेने ए बाळक गम्यो तेथी ए पुत्रनी इच्छा करी ॥१०॥
‘‘मारो पुत्र छे, तारो नथी’’ एम परस्पर एओ विवाद करवा लाग्या त्यारे देवो, ऋषिओ वगेरे ताराने पूछवा लाग्या के ‘‘आ पुत्र तने कोनाथी थयो छे?’’ शरमने लीधे जयारे तारा एनो कांई पण जवाब आपी शकी नहि ॥११॥
त्यारे खोटी लज्जाथी कोप करी कुमार बोल्योः‘‘ओ दुष्ट वर्तनवाळी! तें जेनाथी खोटुं काम कर्युं होय तेनुं नाम लई दे; मने खरुं कहे, गर्भ कोनाथी रह्यो छे’’ ॥१२॥
ब्रह्माजी शरमवाळी ताराने एकान्तमां लई गया त्यां एने शान्त करी एने खोटुं न लागे एम पूछतां एणे धीमेथी कह्युं के ‘‘गर्भ सोम (चन्द्र) थी रह्यो छे’’ त्यारे ए पुत्रने सोम लई गयो ॥१३॥
एनुं ब्रह्माजीए बुध नाम पाड्युं. पुत्र मळतां चन्द्र खुशी थयो ॥१४॥
ए बुधने इलाथी पुरूरवा नामनो पुत्र उत्पन्न थयो, जे हकीकत आगळ कहेवामां आवी गई छे. एक दिवस इन्द्रनी सभामां देवर्षि नारदजी ए पुरूरवानां रूप, गुण, उदारता, स्वभाव, धन-सम्पत्ति अने पराक्रम नुं गान करी रह्या हता ते साम्भळी उर्वशीना हृदयमां कामभाव थयो अने एनाथी पीडित थई ते देवाङ्गना [[५११]] पुरूरवानी पासे चाली आवी ॥१५-१६॥
स्वर्गमां रहेनारी उर्वशी मनुष्य लोकमां केम आवी? एने मित्रावरुणने शाप हतो तेथी ए मनुष्यलोकमां आवी. आवीने मनुष्यमां श्रेष्ठ अने जाणे कामदेव पोते ज मनुष्य लोकमां पुरूरवारूपे आव्यो होय एम लागतां एने धीरज रही नहि, उर्वशी राजानी पासे आवी ॥१७॥
एने जोतां ज राजानां नेत्र हर्षथी प्रफुल्लित थई गयां, शरीरमां रोमाञ्च थयो अने स्निग्ध वाणीथी तेणे देवीने कह्युम् ॥१८॥
राजा पुरूरवाए कह्युं - ‘‘हे सुन्दरी! तमारुं स्वागत करुं छुं. बेसो, हुं तमारी शी सेवा करुं? तमे मारी साथे विहार करो अने आपणा बन्नेनो आ विहार अनन्त काळ सुधी चालतो रहे’’ ॥१९॥
उर्वशी बोली - ‘‘हे सुन्दर! तमारामां कोनां मन अने आङ्ख न ठरे? तमारा वक्षःस्थळनी सामे आवनारने रमवानी उत्कट इच्छा थतां एनां विवेकधैर्यादि छूटी जाय छे ॥२०॥
हे राजन्! आ घेटानी जोडी में पुत्ररूपे पाळी छे; हुं तमारी पासे एने मारी थापण तरीके राखुं छुं. तमे एनी रक्षा करो. ए घेटानी जोडीने तमे साचवशो त्यां सुधी हुं तमारी साथे रमी शकीश. जे रूप उदारता आदि गुणोथी वखणातो होय ते ज स्त्रीओनो पति थई शके अने तेवानी साथे रमण करे ॥२१॥
मारे खोराकमां घी जोईशे. वळी हुं मैथुनना समय सिवायना काळमां तमने वस्त्र वगरना न जोउं’’. एणे आ त्रण शरतो सम्भळावी जे पुरूरवाए कबूल करी ः ॥२२॥
‘‘तमारुं रूप तथा तमारी चतुराई मनुष्यलोकने मोह पमाडे एवां छे. तमे साक्षात् देवी छो अने कृपा करीने पोतानी इच्छाथी आव्यां छो; तो तमने कयो मनुष्य न सेवे वारुं?’’ ॥२३॥
ए उर्वशी पुरूरवा साथे विहार करवा लागी. पुरूरवा पण जयां देवो विहार करे छे तेवां चैत्ररथ, नन्दनवन वगेरे स्थानोमां देवोने लायक भोगवडे उर्वशीनी साथे इच्छा प्रमाणे विहार करवा लाग्यो ॥२४॥
उर्वशी पद्मतन्तु (कमल केसर) ना गन्ध जेवा गन्धवाळी हती. एनी साथे रमतां एना मुखनी सुगन्धिना लोभमां पडतां घणो समय चाल्यो गयो ॥२५॥
[[५१२]] स्वर्गनी सभामां उर्वशी नहि देखातां इन्द्रे कह्युं के ‘‘उर्वशी वगर मारी सभा शोभती नथी’’ तेथी एने शोधवाने एणे गन्धर्वोने पृथ्वी उपर मोकल्या ॥२६॥
मधराते घोर अन्धकारमां गन्धर्वोए आवी उर्वशीए राजाने जे बे घेटा सोप्यां हतां ते उठावी चालता थया ॥२७॥
जयारे गन्धर्वो घेटा लईने चाल्या त्यारे ए शब्द करवा लाग्या. ए शब्द साम्भळी उर्वशी बोली - ‘‘नपुंसक छतां पोताने वीर पुरुष माननार आ पुरूरवाए मने मारी नाखी. में जाण्युं हतुं के मारा पुत्र घेटाओने आ राजा साचवशे तेथी ज में एने सोप्या हता पण ए एने सम्भाळी शक्यो नहि. चोर लोको मारा पुत्रने लई गया छे तेथी हवे हुं जीवते मृतवत् थई गई छुं. जेनो विश्वास करतां चोर मारा छोकराने लई गया तेथी मारो पण नाश थयो. जे राजा रातमां स्त्रीनी पेठे भयमुक्त फरे छे अने दिवसे पुरुषनी पेठे व्यवहार करे छे तेवानो में आश्रम कर्यो’’ ॥२८-२९॥
ए प्रमाणे उर्वशीनी वाणीरूपी बाणथी र्वीधायेलो पुरूरवा हाथमां तरवार लई, अङ्कुश लागवाथी खिजायेला अने क्रोधे भरायेला हाथीनी जेम कपडां पहेर्या वगर नग्नदेहे रातमां गन्धर्वोनी पाछळ पड्यो ॥३०॥
गन्धर्वोए राजाने पाछळ आवतो जोई घेटाओने रस्तामां पडतां मूकी दीधां त्यारे वीजळी जेवो झबकारो अन्धारामां थयो. ए वीजळीना झबकारामां उर्वशीए घेटाओने लावता पुरुरवाने वस्त्रहीन अवस्थामां आवतो जोयो ॥३१॥
(शरतनो भङ्ग थतां उर्वशी बिछानामान्थी चाली गई). उर्वशीने शयनमां न जोतां राजा उदास थई गयो अने एनामां एनुं चित्त लागेलुं होवाथी गाण्डो बनी शोक करवा लाग्यो अने गाण्डानी पेठे पृथ्वीमां भटकवा लाग्यो ॥३२॥
एक दिवस राजाए उर्वशीने कुरुक्षेत्रमां प्रफुल्लित मुखवाळी एनी पाञ्च सखीओ साथे जोई त्यारे सारी वाणीवडे कहेवा लाग्योः ॥३३॥
‘‘हे प्रिये! ऊभी रहे, ऊभी रहे! हे निष्ठुर! भोगवडे तृप्त कर्या वगर तुं मने छोडी जाय ए योग्य नथी; माटे तुं ऊभी रहे. आपणे बन्ने वातो करीए. हे देवी! मारो देह अर्ही ज पडशे केमके तें एने आकर्षित कर्यो छे. जो तुं कृपा नहि करे तो आ शरीरने वाघ अने सिंह वगेरे खाई जशे’’ ॥३४-३५॥
उर्वशी बोली - ‘‘तमे पुरुष छो तमारे आम मरवुं घटे नहि. तमारा शरीरने नारडां अने गिधडां खाई न शके. जेम फाडी खानार जनावरनुं हृदय क्रूर होवाथी [[५१३]] मित्रता सम्भवे नहि तेम स्त्रीनी मित्रता पण होय ज नहि. स्त्रीओने दया न होय. ए क्रूर होय छे. एमना क्रोधनो पार होतो नथी. तेओ माफ करी शकती नथी. जोखम खेडवुं एने वहालुं होय छे. थोडा स्वार्थने माटे ए विश्वासवाळा भाई के पतिने पण मारे तो पछी बीजाने मारे एमां तो कहेवुं शुं! ॥३६-३७॥
एमना हृदयमां मित्रता तो होती ज नथी. मूर्खोमां खोटो विश्वास उत्पन्न करी पछी एना स्नेहने ए छोडी दे छे अने पुरुषने देखीने चलायमान थती ए नवा-नवा पुरुषने इच्छे छे अने मनमां आवे एम वर्ते छे ॥३८॥
तो पछी तमे धीरज धरो. तमे राज राजेश्वर छो, गभराओ नहि. दरेक वर्षने अन्ते एक रात तमे मारी साथे रहेशो त्यारे तमारे बीजां पण सन्तान थशे’’ ॥३९॥
उर्वशीने सगर्भा जोई पुरूरवा पोतानी राजधानीमां पाछा आव्या. वर्ष पुरुं थतां पाछा ए कुरुक्षेत्रमां गया त्यां सुधीमां उर्वशी एक वीरपुत्रनी माता थई चूकी हती ॥४०॥
अने आनन्दमां आवी एनी साथे ए एक रात्रि रह्या. विरहमां आतुर अने कृपण एवा राजा प्रति उर्वशी बोली - ॥४१॥
‘‘मारा विना तमने न ज चाले तो आ गन्धर्वोने स्तुति वगेरेथी प्रसन्न करो. जो एनी दया थाय तो तमे मने मेळवी शको’’. पुरूरवाए ए गन्धर्वोनी स्तुति करी. गन्धर्वो प्रसन्न थया. हे राजन्! एमणे राजाने एक अग्निनी थाळी आपी. (गन्धर्वोए तो अग्निनी थाळी एटला माटे आपी के जो राजा ए अग्निवडे यज्ञ करे तो एने उर्वशीना लोकनी प्राप्ति थाय, परन्तु) राजाए तो ए थाळीने ज उर्वशी मानी लीधी अने एनी साथे वनवनमां घूम्या ॥४२॥
त्यां तो आ उर्वशी नथी पण अग्निनी थाळी छे एम जाणीने थाळीने वनमां छोडी दीधी अने ए आव्यो रोज रात्रे ए एनुं ध्यान करतो. एम करतां-करतां त्रेतायुग आव्यो त्यारे एना हृदयमाथी वेदत्रयी उत्पन्न थई ॥४३॥
जयारे प्रथम एक वेद हता तेना त्रण थया अने कर्मने बतावनार थया त्यारे एने ज्ञान थयुं के ‘‘मारे गन्धर्वोए जे थाळी अग्निनी आपी हती तेनो उपयोग उर्वशीना लोकमाटे करवानो छे’’ एवुं ज्ञान थतां तो एणे जे वनमां जे स्थळे ए थाळी छोडी हती त्यां ए आव्यो त्यां तो एणे खीजडाना झाडनी अन्दर पीपळो [[५१४]] ऊगेलो जोयो तेथी आमां अग्नि छे एम जाणी एणे पीपळाना काष्ठनी बे अरणी करी. आ बधुं एणे उर्वशीना लोकनी कामनाथी कर्युम् ॥४४॥
एणे उर्वशीनुं मन्त्रथी ध्यान कर्युं. एमां उपली अने नीचली अरणीरूप उर्वशी छे अने पोते वचमां छे एवी गर्भग्रहणनी भावना करी अने एनुं मथन कर्यु. मथन करतां-करतां एमान्थी अग्नि थयो ते आहवनीय गार्हपत्य अने दक्षिणाग्नि एवा त्रण भेदवाळो थयो तेने राजाए पोताना पुत्र तरीकेमान्यो ॥४५-४६॥
पछी सर्व देवरूप इन्द्रियथी पर एवा भगवान् हरिनो यज्ञ एणे उर्वशीनो लोक मेळववानी कामनाथी कर्यो ॥४७॥
हे परीक्षित! त्रेता युगनी पहेलां सत्ययुगमां एकमात्र प्रणव (ॐकार) ज वेद हतो. बधां वेदशास्त्रो एमां ज अन्तर्गत हतां. देवता एक मात्र नारायण हता. बीजुं कोई हतुं नहि अग्नि पण त्रण न हता. केवल एक ज हतो अने वर्ण पण केवल एक ‘हंस’ ज हतो ॥४८॥
पुरूरवस एवासीत् त्रयी त्रेतामुखे नृप ॥ अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥४९॥
हे परीक्षित! त्रेतानी शरूआतमां पुरूरवाथी ज वेद त्रण थया अने अग्नि पण त्रण थया. राजा पुरूरवाए अग्निने सन्तान रूपे स्वीकारी गन्धर्वलोकनी प्राप्ति करी ॥४९॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश महाप्रकरणनो तथा अवान्तर पहेला प्रकरणनो पहेलो अने स्कन्धनो) ‘‘पुरूरवा राजा उर्वशीमां आसक्त थई गन्धर्व लोकमां गया’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय १५
गाधिराजाना दौहित्रने त्यां परशुरामनो जन्म
विशेष - पुरूरवाना पुत्रना वंशमां गाधि राजा थया. तेनी पुत्रीना पुत्रने त्यां भगवानना अवताररूप परशुराम थया जेनुं चरित्र आ पन्दरमां अध्यायमां कहेवाय छे. ऐलस्य चोर्वशीगर्भात् षडासन्नात्मजा नृप ॥ [[५१५]] आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजन्! पुरूरवाने उर्वशीना गर्भथी आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय अने जय ए छ पुत्रो थया ॥१॥
श्रुतायुनो पुत्र वसुमान थयो, सत्यायुनो श्रुतञ्जय थयो, रयनो एक थयो (अथवा ‘श्रुत’ पाठ होय तो श्रुत अने एक एम बे पुत्रो थया) अने जयनो अमित थयो ॥२॥
विजयनो भीम, भीमनो काञ्चन अने एनो होत्र थयो. होत्रनो जह्नु थयो. आ जह्नु गङ्गाजीने पोतानी अञ्जलिमां लईने पी गया हता. जह्नृनो पुरु थयो. पुरुनो बलाक अने बलाकनो अजक थयो ॥३॥
एनो कुश, कुशना चार पुत्रो हता कुशाम्बु तनय, वसु अने कुशनाभ ॥४॥
ए कुशाम्बुनो गाधि नामनो पुत्र थयो. गाधिने सत्यवती नामनी कन्या हती. ऋचीक नामना ऋषिए ए कन्यानी मागणी करी. ऋचीकने ए कन्या आपवी योग्य नथी एम लागवाथी गाधिए (युक्तिथी) उत्तर आप्योः ॥५॥
‘‘तमे चन्द्रना जेवा श्वेत तेजस्वी अने एक काने श्याम एवा एक हजार घोडा कन्याने बदले, आपो. अमे तो कन्याने बदले कांईक लेनार कुशिको छीए ॥६॥
ज्यारे गाधि राजाए ए प्रमाणे कह्युं त्यारे एना मननो आशय जाणीने ऋचीक वरुणनी पासे गया अने एना माग्या प्रमाणे वरुण पासेथी घोडा लई गाधिने आपी ए सुन्दरी सत्यवतीने परण्या ॥७॥
केमके सत्यवती सुन्दर मुखवाळी हती. एक वार एवुं बन्युं के सत्यवती अने एनी मा जे गाधिनी स्त्री अने ऋचीक मुनिनी सासु थाय ते बन्नेए ऋचीक मुनि पासे पुत्र प्राप्तिने माटे प्रार्थना करी त्यारे ऋचीक मुनिए बन्नेमाटे अलग-अलग मन्त्रवडे चरु पकावी पोते स्नान करवा गया ॥८॥
एटलामां सत्यवतीने माटे तैयार करेलो चरु श्रेष्ठ हशे एम जाणी एनी माए ए सत्यवती पासे माग्यो त्यारे सत्यवतीए पोतानो चरु श्रेष्ठ जाणी पोतानी माने आप्यो अने माताने माटे तैयार करेलो चरु पोते लीधो ॥९॥
आ वात मुनिना जाणवामां आवतां मुनि बोल्या - ‘‘तमे चरुनो अदलो- बदलो कर्यो ए बहु खोटुं कर्युं. केमके तारो भाई ब्रह्म जाणनारमां श्रेष्ठ थशे पण तारो पुत्र घोर अने दण्ड आपनार थशे’’ ॥१०॥
[[५१६]] सत्यवतीए ऋचीकने आजीजी करी त्यारे क्ह्युङ्के ‘‘पुत्र नहि तो पौत्र एवो भयानक दण्ड धरनार थशे’’. एथी सत्यवतीना जमदग्नि थया ते शान्त थया ॥११॥
ए सत्यवती समस्त लोकोने पवित्र करनारी महापवित्र कौशिकी नदी थई गई. जमदग्नि रेणु ऋषिनां पुत्री रेणुकाने परण्या ॥१२॥
जमदग्निथी रेणुकामां वसुमान वगेरे अनेक पुत्रो थया तेमां सौथी नाना परशुरामजी थया. एमनो यश सम्पूर्ण जगतमां प्रसिद्ध छे ॥१३॥
लोको एने भगवान् वासुदेवनो अंश कहे छे. एणे सहस्त्रार्जुन वगेरेना कुलनो अन्त आण्यो एटलुं ज नहि पण एणे आ पृथ्वीने एकवीस वार क्षत्रिय वगरनी करी दीधी ॥१४॥
क्षत्रियो दोषवाळा थवाथी पृथ्वीने भाररूप हता तेओने रामे थोडा अपराधने लीधे पण मारी नाख्या केमके ए लोको ब्राह्मणनुं अहित करनार हता. वळी, रजोगुण तथा तमो गुणथी व्याप्त होवाथी पण एमणे तेओनो नाश कर्यो ॥१५॥
राजाए पूछ्युंए क्षत्रियो अन्तःकरणने नियममां राखनार हता तो पण एमणे भगवाननो शो अपराध कर्यो हतो जेथी भगवानने वारंवार क्षत्रियकुळनो नाश करवो पड्यो? ॥१६॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हैहय कुळनो अर्जुन नामे क्षत्रियश्रेष्ठ हतो तेणे भगवानना अंशरूप दत्त भगवाननुं आराधन कर्यु ॥१७॥
त्यारे दत्ते प्रसन्न थई एने एक हजार हाथ आप्या; कोई पण शत्रु पासे आवी शके नहि एवुं तेज आप्युं; इन्द्रियोनी शक्ति क्षीण थाय नहि एवां शक्ति ऐश्वर्य तेज वीर्य बळ वगेरे बधुं आप्युं, योगेश्वरपणुं आप्युं; एमांये अणिमां आदि सिद्धिओ आपी. एनाथी अर्जुन, जेम लोकमां पवन फरे तेम, इच्छा प्रमाणे फरवा लाग्यो ॥१८-१९॥
एकवार ए सुन्दर स्त्रीओनी साथे नर्मदाना जळमां मदोन्मत्त थई विहार करी रह्यो हतो. वैजयन्ती माळाने धारण करी हती. पोताना हजार हाथवडे नर्मदाना जळने पण तेणे रोकी दीधुम् ॥२०॥
एटलामां विजय करवा नीकळेलो रावण माहिष्मतीनी पासे पडाव नाखी पड्यो हतो अने देवपूजा करतो हतो त्यां तो नर्मदामां जळ रोकाववाथी वधवा माण्ड्यां तेथी [[५१७]] रावणनो मुकाम जळमां डूबवा लाग्यो. रावणथी ए सहन थई शक्युं नहि ॥२१॥
रावण अर्जुन पासे आव्यो त्यां तो स्त्रीओनां देखतां अर्जुने एने पकडी लीधो अने माहिष्मती नामनी पोतानी नगरीमां एने केद कर्यो. पछी घणा लाम्बा समये वान्दरानी जेम एने छोडी मूक्यो ॥२२॥
एक दिवस आवो पराक्रमी सहस्त्रार्जुन मृगया करतो गाढ वनमां जई चड्यो त्यां दैवेच्छाथी जमदग्निनो आश्रम एना जोवामां आव्यो. ए आश्रममां आव्यो ॥२३॥
परम तपस्वी जमदग्नि मुनिनी पासे एक गाय हती तेने लीधे ए तपोधन मुनिए राजा, मन्त्रीओ, सैन्य अने एमनां वाहन बधान्नो सत्कार कर्यो ॥२४॥
मुनिए सौनो सत्कार कर्यो तो पण एने कोई चीज ओछी न पडी. ‘‘कामधेनु गायने लीधे आम थयुं अने मारे सर्व समृद्धि छे पण आवी कामधेनु गाय नथी’’ एथी जो के मुनिए राजानो घणो सत्कार कर्यो छतां एनाथी राजा प्रसन्न न थयो अने राजाने ए कामधेनुने लई जवानो विचार थयो; ॥२५॥
तेथी पोताना बळवडे ऋषि पासेथी ए गाय उठावी जवामाटे राजाए पोताना माणसोने हुकम कर्यो. एना माणसोए आक्रोश करती गाय अने एना वाछरडाने जबरीथी उपाडी माहिष्मतीमां पहोञ्चाड्याम् ॥२६॥
राजा अने एना माणसो गायने बळात्कारथी लई गया त्यार पछी परशुरामजी आश्रममां आव्या अने राजाए जे दुष्टता करी हती ते साम्भळीने जेवो छञ्छेडेलो नाग क्रोध करे तेवो क्रोध रामे कर्यो ॥२७॥
एमणे पोतानो भयानक (परशु) कुहाडो हाथमां लीधो अने ढाल, भाथा, धनुष वगेरे सहित जेम सिंह हाथीनी पाछळ पडे तेम जता अर्जुननी पाछळ दोड्या ॥२८॥
जेमणे वस्त्रने ठेकाणे काळुं मृगचर्म धारण कर्युं हतुं जेमनी जटा सूर्यनां किरणोनी जेम प्रकाश करती हती अने जे धनुषबाण, परशु वगेरे आयुधोथी सज्ज थयेला हता तेवा भृगुकुळ श्रेष्ठ परशुरामने माहिष्मतीमां पेसता अर्जुने जोया ॥२९॥
एमने एकलाने हठाववामाटे हाथी, घोडा, प्यादा तथा खड्ग, बाण, शक्ति वगेरे आयुधवाळी सत्तर अक्षौहिणी सेना मोकली ते बधी सोनानो रामे एकले हाथे [[५१८]] नाश कर्यो ॥३०॥
मन अने वायु नी झडपथी राम पोतानो (परशु) कुहाडो फेरवता जता हता अने शत्रुना सैन्यनो नाश कर्ये ज जता हता. ज्यां कुहाडो फरतो त्यां कोईना हाथ, कोईनी डोक, कोईना सारथि, कोईना घोडा कपाई-कपाईने नीचे पडता हता ॥३१॥
त्यां रणभूमिमां रुधिरना ढगला थई एनो कीच थयो. बधुं सैन्य छिन्न- भिन्न थई गयुं. कोईनी ढाल, धनुष, कोईनी धजाओ पडेली जोई अर्जुनने क्रोध थयो अने जाते चडी आव्यो ॥३२॥
अर्जुनना हजार हाथथी पाञ्चसो धनुष चालवा माण्ड्यां. एमान्थी एक साथे बाण छूटवा माण्ड्यां ते राम उपर जवा लाग्या. राम तो एक ज धनुष अने बाणवडे ए पाञ्चसोने उडावी देवा लाग्या ॥३३॥
एमां न फाव्यो त्यारे सङ्ग्राममां पर्वतो अने वृक्षो उठावी एमनी उपर फेङ्कवा ए रणभूमिमां आव्यो. जेम हजार फणवाळा शेषनी फणाओने कापे तेम रामे अर्जुनना हजार हाथने पोताना कुहाडावडे बळात्कारे कापवा माण्ड्याम् ॥३४॥
एना हजार हाथ कपाई गया पछी एनुं माथुं जे पर्वतना शिखर जेवुं बाकी रह्युं तेने पण कुहाडाथी उडावी दीधुं त्यारे एना दस हजार छोकरा रणसङ्ग्राममां परशुराम लडता हता त्यान्थी भयना मार्या नासी गया ॥३५॥
शत्रुना वीरने मारनार परशुरामे अत्यन्त खेद पामेली गायने वाछडा सहित लावी आश्रममां पिता पासे रजु करी ॥३६॥
माहिष्मतीमां सहस्त्रार्जुने तथा पोते जे कंई कर्यु हतुं तेनी बधी वात एमणे पोताना भाईओ तथा पिताने कही बतावी ए साम्भळी जमदग्नि बोल्याः ॥३७॥
‘‘राम, राम, महाबाहो! तमे पाप कर्युं केमके तमे सर्व देवमय नरदेवने व्यर्थ ज मार्यो. एने मारवो जोईए नहि ॥३८॥
आपणे ब्राह्मणो छीए. हे तात! क्षमाथी ज आपणे पूजवाने योग्य थया छीए. बीजुं तो शुं पण ब्रह्माजी पण क्षमाना बलने प्रतापे ब्रह्मपदने पाम्या छे ॥३९॥
सूर्यनी कान्ति शोभे तेम ब्राह्मणनुं तेज पण क्षमा गुणथी शोभे छे. क्षमा करनारने भगवान् हरि जलदी प्रसन्न थाय छे ॥४०॥
[[५१९]] राज्ञो मूर्धावषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः। तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्गाच्युतचेतनः ॥४१॥
हे अङ्ग! जेनो राज्याभिषेक थयो होय तेवा राजाने मारवो ए ब्राह्मणने मारवा करतां पण विशेष छे. माटे आ दोषथी तारे छूटवुं जोईए. एनेमाटे तुं भगवानने चित्तमां राखी तीर्थोनुं सेवन कर जेनाथी राजवधनुं पाप धोवाई जाय’’ ॥४१॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (त्रीजा चन्द्रवंश प्रकरणनो तथा अवान्तर प्रकरणनो बीजो) ‘‘गाधिराजाना दौहित्रने त्यां परशुरामनो जन्म थयो’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. साधनाने क्यारे पण धर्मप्रचार, प्रदर्शन के कमाई नुं साधन बनावी न शकाय. साधना हम्मेशा व्यक्तिगतपणे अने एकान्तमां ज थई शके. भगवत्सेवा ए गुरु अने शिष्य बन्नेनी भक्तिमयी साधना छे. पोताना घरना एकान्तमां ज भगवत्सेवा गुरु तेमज शिष्ये करवी जोईए. हवेली-मन्दिरमां दर्शन-मनोरथना माध्यमथी तेने सार्वजनिक बनावी न शकाय.
अध्याय १६
परशुरामे क्षत्रियोने मारी यज्ञ कर्यो
विशेष - सोळमा अध्यायमां परशुराम क्षत्रियोनो वध करशे, यज्ञ करशे अने आ ज अध्यायमां विश्वामित्रना वंशनी कथा पण कहेवामां आवशे. पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनन्दन ॥ संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे कुरुनन्दन! पिता जमदग्निए उपदेश कर्यो तेनो स्वीकार करी एक वर्ष सुधी तीर्थ करी परशुरामनां पोताना आश्रममां आव्या ॥१॥
एक वार परशुरामना माता रेणुका गङ्गा किनारे गयां हतां त्यां गन्धर्वनो राजा चित्ररथ कमलोनी माला पहेरी अप्सराओ साथे जलक्रीडा करतो हतो तेने जोयो ॥२॥
ईं उं ईं उं
[[५२०]] रेणुका गङ्गामां जल भरवा गयेलां पण त्यां एने क्रीडा करतो जोईने कांईक चित्ररथनी क्रीडा जोवानी स्पृहाथी एने स्मरणमां होमनो समय थई गयो छे एवुं जतुं रह्युम् ॥३॥
हवननो समय वीती गयो छे तेथी मुनि शाप देशे एवी बीकथी जलदी आवी घडो महर्षिनी सामे मूकी हाथ जोडीने ऊभी रही ॥४॥
मुनि योग प्रभावथी स्त्रीना *मानसिक व्यभिचारने जाणीने क्रोधे भराया अने बोल्याः‘‘हे पुत्रो! आ तमारी पापी माताने मारो’’ एवुं कह्युं छतां कोईए माताने मारी नहि ॥५॥
विशेष - कन्याने प्रथम सोम अने पछी गन्धर्व भोगवे छे, त्रीजो लौकिक पति थाय छे एम सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः एवी श्रुति छे तेथी चित्ररथमां स्पृहा थतां रेणुकाने व्यभिचार नथी थतो तेथीज मुनिए एने फरी जीवती करी छे. तेथी परशुरामने हुकम कर्यो के ‘‘आ तारा भाईओ सहित तारी माताने मारी नाख’’. त्यारे मुनिनां तप अने समाधिना प्रतापने जाणनार परशुरामे माता सहित भाईओने मारी नाख्या ॥६॥
परशुरामनां आ कार्यथी सत्यवती नन्दन महर्षि जमदग्नि घणा ज प्रसन्न थया अने कह्युं, ‘‘हे पुत्र! तारी जे इच्छा होय ते वरदान मागी ले’’. परशुरामे कह्युं, ‘‘पिताजी! मारां माता अने बधा भाईओजीवता थई जाय तथा एमने ए याद न रहे के में एमने मारी नाख्यां हतां’’ ॥७॥
परशुरामे आटलुं कहेतां ज जेवी रीते कोई सूईने ऊठे तेम बधां अनायास ज सकुशळ बेठा थई गयां,परशुरामे पोताना पिताजीनुं तपोबल जाणीनेज तो पोताना सुहृदोनो वध कर्योहतो ॥८॥
सहस्त्रार्जुनना छोकराओ पोताना पिताने परशुरामे मार्या ए याद करीने परशुरामने पहोञ्ची शके एम नथी एम जाणी दुःखी हता एमने कयांय पण सुख हतुं नहि ॥९॥
एक दिवस परशुराम पोताना भाईओनी साथे आश्रमनी बहार गयेला छे एम जाणी बापने मार्यानुं वेर लेवानो आ मोको ठीक छे. एम जाणी ए हैहयार्जुनना छोकराओ ए आश्रममां आव्या तो त्यां अग्निशाळामां उत्तमश्लोक भगवान्मां चित्त एकत्र करी परशुरामना पिता जमदग्नि बेठेला छे अने बहारनी [[५२१]] कोई सूध-बूध नथी एवुं जोई एमने मारवानो पापी निश्चय करी आवेला ए क्षत्रियोए जमदग्निने मारी नाख्या ॥१०-११॥
परशुरामनी माताए पतिना प्राण बचाववा दीनता पूर्वक मागणी करी, परन्तु ए नीच अने क्रूर क्षत्रियो तो बळात्कारे जमदग्निनुं माथुं कापी एने लई चालता थया ॥१२॥
सती रेणुका दुःख अने शोक थी व्याकुळ थई गई. ए पोताने हाथे पोतानी छाती तथा माथुं फूटती जोरजोरथी रोवा लागी, ‘‘हे परशुराम! हे परशुराम! जानदी आवो’’ ॥१३॥
पोतानी मातनुं करुणक्रन्दन साम्भळी राम दूर हता त्यान्थी जलदी त्यां आव्या. आश्रममां आवी एमणे जोयुं तो पिताने कोईए मारी नाख्या छे ॥१४॥
पिताने मरेला जोई दुःख थयुं. शत्रुए एमने मार्या एनो क्रोध थयो अने शोकने लीधे ए मूञ्झाई गया. ‘‘हा तात! साधो, धर्मिष्ठ’’ एवा सम्बोधनोथी बोलावता, ‘‘आप अमने छोडी स्वर्गमां गया’’ एम कहेवा लाग्या ॥१५॥
ए प्रमाणे विलाप करता पितानो देह भाईओने सोम्पी क्षत्रिय जातिनो पृथ्वीमान्थी नाश करी नाखवानो परशुरामजीए सङ्कल्प कर्यो अने पछी कुहाडो लई ए माहिष्मती नगरी गया ॥१६॥
हे परीक्षित! परशुरामे माहिष्मती नगरीमां जई सहस्त्रबाहु अर्जुनना (दस हजारेय) पुत्रोनां माथान्थी नगरनी वच्चोवच्च एक बहु ज मोटो पर्वत खडो करी दीधो. ए नगरनी शोभा तो ब्रह्मधाती (ब्राह्मण हत्यारा) नीच क्षत्रियोने लीधे नाश पामी गई हती ॥१७॥
एमनां लोहीथी एक मोटी भयङ्कर नदी वही नीकळी जेने जोईने ब्राह्मणोना द्रोहीओनुं हृदय भयथी कम्पी ऊठ्युं हतुं. भगवाने जोयुं के अत्यारना क्षत्रियो अत्याचारी थई गया छे. तेथी हे राजन्! तेमणे पोताना पिताना वधने निमित्त बनावी पृथ्वीने एकवीस वार क्षत्रिय हीन बनावी दीधी अने कुरुक्षेत्रना समम्त पञ्चकमां एवां *पाञ्च तळाव बनावी दीधां जे लोहीना जलथी भर्या हताम् ॥१८-१९॥
विशेष - महाभारतमां पाञ्च तळाव कर्यानुं कहेवायुं छे तेथी अर्ही शोणितोदान् ह्रदान् नृप। पाठ लई अर्थ कर्यो छे. नवमो उल्लेख छे ते बीजा कल्पनी कथा छे. परशुरामजीए दर्भ लावी पोताना पितानुं मस्तक तेना धड साथे सान्धी दीधुं [[५२२]] अने यज्ञोद्वारा सर्व देवमय आत्मस्वरूप भगवाननुं यजन कर्यु ॥२०॥
होताने दक्षिणामां पूर्व दिशा, ब्रह्माने दक्षिण दिशा, अध्वर्युने पश्चिम दिशा अने उद्गाताने उत्तर दिशा आपी दीधी ॥२१॥
आ ज प्रमाणे बीजाओने अग्नि, नैऋत्य, वायव्य अने ईशान वगेरे खूणा आप्या. कश्यपजीने मध्यभाग आप्यो. आर्यावर्त उपद्रष्टाने आप्यो अने आपतां बाकी रह्युं ए बधुं सदस्योने आप्युम् ॥२२॥
पछी ब्रह्मनदी सरस्वतीमां यज्ञान्त (अवभृथ) स्नान करी समग्र पापथी मुक्त थई. मेघथी रहित स्वच्छ आकाशमां सूर्य शोभे तेम, शोभवा लाग्या ॥२३॥
जमदग्नि पोते चैतन्य देहने धारण करी सात ऋषिओनी अन्दर एक ऋषि तरीके एना मण्डळमां रह्याम् ॥२४॥
कमळ सरखा नेत्रवाळा परशुरामजी पण आगामी मन्वन्तरमां सप्तर्षिओना मण्डळमां रही वेदोनो विस्तार करशे ॥२५॥
दण्ड करवानुं छोडी दई आज पण परशुरामजी महेन्द्रपर्वतमां शान्तजीवन गाळे छे अने सिद्ध-गन्धर्व-चारण एमना यशनुं गान कर्या करे छे ॥२६॥
एवी रीते भृगुकुळमां विश्वात्मा भगवाने पधारीने पृथ्वीना भाररूप घणा राजाओने घणीवार मारी पृथ्वीनो भार ओछो कर्यो ॥२७॥
गाधि राजाने प्रज्वलित अग्नि जेवो एक पुत्र थयो तेणे तपवडे क्षत्रियत्वनो त्याग करी ब्रह्मतेज प्राप्त करी लीधुम् ॥२८॥
हे नृप! ए विश्वामित्रना सो पुत्रो हता तेमां मध्यम पुत्रनुं नाम मधुच्छन्दा हतुं तेथी बधा पुत्रो मधुच्छन्दस कहेवाया ॥२९॥
आपणे पूर्वे कही गया के शुनःशेपनुं माहात्म्य आगळ कहेवाशे. ए कहेवामाटे आपणे विश्वामित्रनुं चरित्र अर्ही कहेवुं रह्युं. शुनःशेप भृगुवंशनो हतो. एने विश्वामित्रे पुत्र कर्यो हतो अने देवरात एनुं नाम राख्युं हतुं. विश्वामित्रे पोताना सो पुत्रोने बोलावी एमने कह्युं के ‘‘आ तमारो मोटो भाई छे एम तमे मारी आज्ञाथी मानो’’ ॥३०॥
आ ए ज प्रसिद्ध भृगुवंशी शुनःशेप हतो जे हरिश्चन्द्रना यज्ञमां यज्ञपशुना रूपमां खरीदी लाववामां आव्यो हतो. विश्वामित्रजीए प्रजापति वरुण आदि देवताओनी स्तुति करीने एने पाशबन्धनमान्थी छोडावी लीधो हतो. देवताओना [[५२३]] यज्ञमां आ ज शुनःशेप देवताओद्वारा विश्वामित्रजीने आपवामां आव्यो हतो. तेथी ‘‘देवैः रातः’’ आ व्युत्पत्ति प्रमाणे गाधिवंशमां आ तपस्वी देवरातना नामथी विख्यात थयो ॥३१-३२॥
विश्वामित्रजीना पुत्रोमां जे मोटा हता एमणे शुनःशेपने मोटा भाई मानवानी वात ठीक न लागी. एथी विश्वामित्रजीए क्रोध करी तेमने शाप आपी दीधो के ‘‘दुष्टो! तमे बधा म्लेच्छ थई जाओ’’ ॥३३॥
मधुच्छन्दा अने एनाथी नाना पचास पुत्रोए कह्युं के ‘‘आप अमने शुनःशेपने मोटा भाई मानवानी आज्ञा करो छो ए अमारे मञ्जूर छे. आपनी आज्ञाने अमे माथे चढावीए छीए’’ ॥३४॥
एम कही मन्त्रद्रष्टा देवरातने एमणे कह्युं के ‘‘तमे अमारा मोटा भाई छो, अमे बधा तमारा अनुयायी नाना भाईओ छीए. त्यारे विश्वामित्रजीए पोताना ए आज्ञाकारी पुत्रोने कह्युं - ‘‘तमे वीरपुत्रोवाळा थशो केमके तमे मारुं कह्युं मानीने मारुं मान राख्युं छे. तमे मने वीरपुत्रवाळो कर्यो ॥३५॥
हे कुशिको! आ देवरातने तमे अनुसरजो’’ आ विश्वामित्रजीने उपर गणाव्या ते उपरान्त पण अष्टक, हारीत, जय, क्रतुमान वगेरे बीजा पुत्रो पण हता ॥३६॥
एवं कौशिकगोत्रं तु वैश्वामित्रैः पृथग्विधम् ॥ प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम् ॥३७॥
आ प्रमाणे विश्वामित्रजीनां सन्तानोथी कौशिकगोत्रमां अनेक भेद थई गया अने देवरातने मोटा भाई मानवाने लीधे तेनुं प्रवर ज बीजुं थई गयुम् ॥३७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश प्रकरणना अवान्तर प्रथम प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘परशुरामे क्षत्रियोने मारी यज्ञ कर्यो’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ब्रह्मसम्बन्ध लेनाराओ! सावधान!!! समर्पित जीवन जीववानी दीक्षा लीधा बाद असमर्पित जीवनारानुं दासत्व खण्डित थई जाय छे (सिद्धान्तरहस्य) अने ते ‘असिपत्र’ नामना नरकमां जाय छे. (श्रीहरिरायचरण)
ईं उं ईं उं
[[५२४]]
अध्याय १७
पुरूरवाना पुत्र आयुनो वंश
विशेष - एम पुरूरवाना पाञ्च पुत्रोनो वंश कह्यो; हवे पछी आयुना वंशनुं वर्णन आ सत्तरमा अध्यायमां करवामां आवे छे. पूर्वे पाञ्चनो वंश सूक्ष्म रीते कह्यो. आयुना वंशमां श्रीकृष्ण थशे माटे एनो वंश विस्तारथी कहेवाय छे. यः पुरूरवसः पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुताः ॥ नहुषः क्षत्रवृद्धश्च रजी रम्भश्च वीर्यवान् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - पुरूरवाना पुत्र आयुना नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाळी रम्भ अने अनेना नामना पाञ्च पुत्रो थया ॥१॥
हे राजेन्द्र! एमां क्षत्रवृद्धना वंशने तमे प्रथम साम्भळो. क्षत्रवृद्धनो सुहोत्र, तेना काश्य, कुश अने गृत्समद ए नामना त्रण पुत्रो थया. तेमां गृत्समदनो शुनक थयो जेना ऋग्वेदी शौनकमुनि थया ते प्रवर (श्रेष्ठ) गणाया ॥२-३॥
काश्यनो काशि थयो, तेनो राष्ट्र थयो, तेनो दीर्घतमा तेना धन्वन्तरि थया. आ ज आयुर्वेदना प्रवर्तक छे ॥४॥
ए यज्ञभागना भोक्ता अने वासुदेवना अंश छे. एमने मात्र याद करवाथी बधी जातना रोगनी पीडा दूर थाय छे. एना पुत्र केतुमान थया अने एनो भीमरथ थयो ॥५॥
भीमरथनो दीवोदास, ते ज दीवोदास द्युमान, प्रतर्दन, शत्रुजित् अने ऋतध्वज एवा नामथी पण प्रसिद्ध थयो वळी एने ‘कुवलयाश्च’ पण कहेवामां आवतो. द्युमानथी अलर्क वगेरे थया ॥६॥
ए युवान अलर्के साठ हजार वर्ष पर्यन्त राज्य कर्यु एटलुं कोई युवाने भोगव्युं नथी ॥७॥
अलर्कनो सन्तति थयो तेनो सुनीथ, सुनीथनो सुकेतन, सुकेतननो धर्मकेतु अने धर्मकेतुनो सत्यकेतु थयो ॥८॥
सत्यकेतुनो धृष्टकेतु, धृष्टकेतुनो सुकुमार थयो ते राजा थयो. सुकुमारनो वीतिहोत्र, तेनो भर्ग अने हे नृप! भर्गनो भार्गभूमि थयो ॥९॥
ए बधा क्षत्रवृद्धना वंशमां काशिना वंशना राजाओ कह्या. रम्भनो पुत्र रसभ [[५२५]] अने तेनो गम्भीर थयो गम्भीरनो अक्रिय थयो ॥१०॥
अक्रियनी पत्नीथी ब्राह्मणवंश चाल्यो. हवे अनेनानो वंश साम्भळो. अनेनानो पुत्र शुद्ध थयो, शुद्धनो शुचि, शुचिनो त्रिककुद अने त्रिककुदनो धर्मसारथि थयो॥११॥
धर्मसारथिना पुत्र शान्तरय हता. शान्तरय आत्मज्ञानी होवाथी कृतकृत्य हता एमने सन्ताननी जरूर न हती. हे परीक्षित! आयुना पुत्र रजिना अत्यन्त तेजस्वी पाञ्च सो पुत्र हता ॥१२॥
देवोए प्रार्थना करतां देवोनी साथे रही एमणे दैत्योने मारी हठाव्या अने स्वर्गने जीतीने इन्द्रने सोम्पी दीधुं. पण इन्द्रने प्रह्लाद वगेरे शत्रुनो भय रहेतो हतो तेथी इन्द्रे स्वर्ग फरी रजिने सोम्पी दीधुं अने एमनां चरण पकडी एमने ज पोतानी रक्षानो भार पण सोम्पी दीधो. ज्यारे रजिनुं मृत्यु थयुं त्यारे इन्द्रे माग्युं तो पण तेने तेनुं स्वर्ग रजिना पुत्रोए पाछुं न आप्युं. तेओ जाते यज्ञोनो भाग लेवा लाग्या! त्यारे गुरु बृहस्पतिजीए इन्द्रनी प्रार्थनाथी अभिचार विधिथी हवन कर्यो. तेथी तेओ धर्मना मार्गथी भ्रष्ट थई गया. त्यारे इन्द्रे सहेलाईथी रजिना बधा पुत्रोने मारी नाख्या. एमान्थी कोई बाकी रह्यो नहि. क्षत्रवृद्धना पौत्र कुशनो पुत्र प्रति थयो. तेनो सञ्जय अने सञ्जयथी जयनो जन्म थयो ॥१३-१६॥
जयनो कृत थयो, ए कृतनो हर्यवन अने हर्यवननो सहदेव थयो; तेनो हीन हीननो जयसेन ॥१७॥
सङ्कृतिस्तस्य च जयःसक्षत्रधर्मा महारथः ॥ क्षत्रवृद्धान्वया भूपाः श्रृणु वंशं च नाहुषात् ॥१८॥
जयसेननो सङ्कृति, सङ्कृतिनो वीर शिरोमणि महारथी जय थयो. क्षत्रवृद्धना वंशमां आटला ज राजा थया. हवे नहुषनो वंश कहुं छुं ते साम्भळो ॥१८॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (चन्द्रवंश नामना बीजा प्रकरणनो चोथो अने अवान्तर मध्यम प्रकरणनो पहेलो) ‘‘पुरूरवाना पुत्र आयुनो वंश’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे
ईं उं ईं उं
[[५२६]]
अध्याय १८
ययाति राजानुं चरित्र
विशेष - नहुषनो पुत्र ययाति राजानुं परम अद्भुत चरित्र (ए क्षत्रिय छे छतां एने ब्राह्मण कन्या केम मळी ए अद्भुत वात) आ अढारमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः ॥ षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनाम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - मनुष्यने जेम पाञ्च इन्द्रियो होय अने छठ्ठुं मन होय, तेम नहुष राजाने यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति अने कृति एम छ पुत्र हता ॥१॥
राज्यनुं परिणाम नरक छे एम मोटो पुत्र यति तो जाणतो हतो तेथी पिताए राज्य आपवा माण्ड्युं तो पण एणे ए लीधुं नहि कारण के राज्यना मदमां आसक्त थयेलो पुरुष पोताना स्वरूपने भूली जाय छे तेथी ए नरक मळे तेवां पाप करे छे ॥२॥
ज्यारे नहुषे इन्द्राणी उपर खोटी दृष्टि करी अने ब्राह्मणोनी पालखीमां बेसी ए इन्द्राणी पासे जवा लाग्यो त्यारे ब्राह्मणोए एने अजगर था एवो शाप आप्यो. ए समये नहुषनी राजगादी उपर एनो बीजो पुत्र ययाति बेठो ॥३॥
एणे पोताना नाना चार भाईओने चार दिशाओनुं राज्य आप्युं. ययाति शुक्राचार्यनी कन्या देवयानी अने वृषपर्वानी कन्या शर्मिष्ठाने परण्यो अने पृथ्वीनुं रक्षण करवा लाग्यो ॥४॥
राजाए पूछ्युं - भगवान् शुक्राचार्य तो बह्मर्षि छे अने ययाति क्षत्रिय छे. तोएबन्नेनोपरस्परविवाह केम थई शके? ए तो प्रतिलोम लग्न कहेवाय ! ॥५॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक दिवस दानवराज वृषपर्वानी शर्मिष्ठा नामनी मानिनी कन्या पोतानी हजारो सखीओ अने शुक्राचार्यनी पुत्री देवयानी साथे फरवा गई तेओ बधी नगरनी पासेना बगीचामां फरती हती तेमां पुष्पनां पुष्कळ झाडो हतां अने भमराओनां यूथ अव्यक्त मधुर शब्द करी रह्यां हतां. एटलामां एमणे त्यां एक जळाशय जोयुम् ॥६-७॥
तेथी ए कमळनयनाओ तीर उपर वस्त्रो राखी एमां नहावा ऊतरी परस्पर [[५२७]] पाणी उराडती जलक्रीडा करवा लागी ॥८॥
ते ज वखते पार्वतीजीनी साथे पोठिया उपर बेसीने त्यान्थी शिवजीने नीकळेला जोई बधी कन्याओ शरमाई गई अने झटझट तळावमान्थी बहार नीकळी पोत- पोताना वस्त्रो पहेरवा लागी ॥९॥
अजाणतां शर्मिष्ठाए देवयानीनां वस्त्रो पोतानां छे एम धारी पहेरी लीधां. तेथी देवयानीने रीस चडी अने ए आ प्रमाणे बोलीः‘‘अहो! आ दासीनुं अयोग्य कर्म तो जुओ. आ शर्मिष्ठाए अमारे पहेरवानां वस्त्र हतां ते जेम यज्ञमां कूतरी हविष खाई जाय तेम, पोते पहेरी लीधां छे. जेणे तपवडे आ जगतने उत्पन्न कर्यु छे जे परमात्माना मुखरूप छे जे परब्रह्मरूप ज्योतिने पोताना हृदयमां धारण करे छे, जेणे जगतने माटे कल्याणनो वेदमार्ग खुल्लो करी बताव्यो छे, जेने स्वर्गादि, पातालादिना लोकपालो नमन करे छे, विश्वात्मा अने पवित्र एवा लक्ष्मीपति पण जेनुं आराधन करे छे तेवा मारा पिता के जे भृगुना कुळना छे अने जेमनो शर्मिष्ठानो पिता शिष्य छे ए शिष्यनी असती पुत्री शर्मिष्ठाए जेम कोई शूद्र वेदवाणीने धारण करे तेम, मारे पहेरवानुं वस्त्र पहेर्यु’’ ॥१०-१४॥
ज्यारे देवयानीए शर्मिष्ठाने ए प्रमाणे गाळो दीधी त्यारे शर्मिष्ठाए प्रथम तो क्रोधथी नागणी पेठे फूम्फाडा मार्या अने पछी दान्तने कचकचावी गुरुपुत्रीने उत्तर आप्योः‘‘हे भिक्षुकी! तुं पोतानुं स्वरूप जाण्या विना आत्मश्लाधा करे छे. जेम कागडां कूतरां कोई गृहस्थना घर आगळ भूख शमाववामाटे फरे तेम तमे अमारा घरमां भोजनमाटे फरो छो के नहि?’’ ॥१५-१६॥
एवां कठोर वचनवडे शर्मिष्ठाए गुरुपुत्रीनो तिरस्कार कर्यो त्यारे क्रोधमां आवी जवाथी एनुं पहेरेलुं वस्त्र हतुं ते एणे खेञ्ची लीधुं अने एने एक कूवामां फेङ्की दीधी ॥१७॥
(एने कूवामां फेङ्की) शर्मिष्ठा घेर चाली गई. संयोगवशात् राजा ययाति शिकार करता त्यां आवी चड्या. तरस लागतां जलमाटे कूवा पासे ते गया तो कूवामां तेणे देवयानीने जोई लीधी ॥१८॥
देवयानीने वस्त्र वगरनी करी कूवामां फेङ्की हती तेने निरावरण रूपमां जोई राजाए पोतानी पासे राखवानुं वस्त्र ए बाई तरफ फेङ्क्युं अने दया आवतां राजाए एने हाथ पकडीने कूवानी बहार काढी ॥१९॥
[[५२८]] शुक्राचार्यनी पुत्री देवयानीए राजाने प्रेम भरी वाणीमां कह्युंः‘‘हे राजन्! आपे आजे मारो हाथ पकड्यो छे. हे शत्रुना नगरने जीतनार! हवे मारो पाणिग्रहण करनार कोई बीजो नहि थाय एम हुं धारुं छुं. भगवाने ज तमारी साथे आ मारो सम्बन्ध कराव्यो छे. हे वीर! आ मनुष्यकृत सम्बन्ध न समजो केमके हुं कांई तमने शोधवा आवी नहोती; हुं तो कूवामां पडेली हती त्यां आवी आपे मारो हाथ झाली मने कूवामान्थी बहार काढी तेथी आपना दर्शनमां मने दैवी सङ्केत जणाय छे ॥२०-२१॥
हे वीरश्रेष्ठ! पहेलां में बृहस्पतिना पुत्र कचने शाप आपी दीधो हतो तेना जवाबमां तेणे पण मने शाप आपी *दीधो आ ज कारणथी कोई ब्राह्मण मने परणी शके एम नथी ॥२२॥
विशेषः १. देवना गुरु बृहस्पतिनो पुत्र कच शुक्राचार्य पासे मृतसञ्जीवनी विद्या शीखवा गयो त्यां एमना घरमां रहेतां देवयानीने कचनो परिचय थयो. देवयानी कचना रूपगुणमां मोहित थई अने पोताने वरवानी मागणी करी कचे गुरुपुत्री होवाथी एना पाणिग्रहणनो स्वीकार न कर्यो त्यारे देवयानीए एने विद्या विफल जवारूप शाप आप्यो. कचे एनी सामे शाप आप्यो के ब्राह्मण तारो पति नहि थाय.(महाभारत) देवो, दानवो वच्चे वारंवार युद्ध फाटी नीकळतां त्यारे दानवोना गुरु शुक्राचार्यजी पोतानी अमृत सञ्जीवनी विद्याना प्रभावथी दानव अने दैत्यो जे युद्धमां मृत्यु पामता तेमने फरी जीवता करता. आ विद्या देवोना गुरु बृहस्पतिजी जाणता नहोता. एटले देवतापक्षे जानहानि थती ते पूरी शकाती नहि. एटले बृहस्पतिजीए पोताना पुत्र कचने शुक्राचार्यजीने त्यां अमृत सञ्जीवनीविद्या भणवा मोकल्यो. कच विद्या भणवा गयो. विद्याभ्यास दरमियान शुक्राचार्यनी पुत्री देवयानी कच प्रत्ये आकर्षाई. आ बाजु दानवोए जोयुं के जो कच आ विद्या भणी जशे तो देवताओ जाणी जशे अने मरायेला देवताओने कच जीवता करी देशे एटले षड्यन्त्र रची तेओए कचने मारी नाखी कूवामां फेङ्की दीधो. शुक्रचार्ये देवयानीने जमी लेवानुं कहेतां देवयानीए कचनी राह जोवानुं कह्युं. कचने आवतां मोडुं थयुं, शुक्राचार्ये समाधिमां जोयुं तो कचने तो मारी नाखवामां आव्यो हतो. देवयानीना कहेवाथी तेने कूवामान्थी कढावी जीवतो कर्यो. घेर लाव्या. दैत्योने आ खबर पडतां तेमणे बीजे दिवसे कचने मारी नाखी तेना शबने बाळी नाखी तेनी भस्म शुक्राचार्यजीने सुरा साथे भेळवी पाई दीधी. ते दिवसे पण कच न आवतां देवयानीए कचने होय त्यान्थी लाववा पोताना पिताने कह्युं. शुक्राचार्ये ध्यानमां जोयुं तो कच तो पोताना [[५२९]] पेटमां छे. सञ्जीवनी विद्याथी तेने सजीवन करी पूछ्युं के पेटमां तुं क्यान्थी? कचे विगते वात करी. हवे कचने शुक्राचार्यजी पोतानुं पेट चीरावी बहार काढे तो पोते मरी जाय त्यारे तेमने जीवता कोण करे? एटले कच पोताने बहार नीकळी जीवतां करे ए शरते शुक्राचार्यजीए कचने अमृत सञ्जीवनीविद्या भणावी. शुक्रचार्यजीनुं पेट चीरायुं अने पहोञ्ची गया. कच बहार आव्यो तेणे तेमने सजीवन कर्या. आम कचे विद्याभ्यास पूरो करी विदाय मागी. देवयानी कहे के मारी साथे लग्न करे तो विदाय मळे. कच जवाब आपे छे ः यत्रोषितं विशालाक्षि त्वचा चन्द्रनिभानने । तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्य भामिनि ॥ शुक्राचार्यजीनी जे कूखमां तुं रही हती ते ज कूखमां हुं रह्यो छुं तेथी आपणे भाई बहेन थईए माटे तुं अस्वीकार्य छो. आम देवयानीनी दरखास्त न स्वीकारवानुं बीजुं कारण बन्ने एक ज उदरमां रह्यां ते छे. (मत्स्य पुराण) आ वात शास्त्र विरुद्ध होवाथी ययातिने रुचि तो नहि पण दैवे सम्बन्ध करावी आप्यो तेथी अने एमां मन लागवाथी ययातिए एना वचननो स्वीकार कर्यो ॥२३॥
वीर ययाति राजाना गया पछी देवयानी रोती-रोती शुक्राचार्य पासे गई अने जे वात बनी हती ते बधी कही बतावी तथा शर्मिष्ठाए जे कह्युं हतुं अने कर्यु हतुं ते पण कही दीधुम् ॥२४॥
ज्यारे भगवान् शुक्राचार्ये ए साम्भळ्युं त्यारे एमनुं मन पण अत्यन्त बगडी गयुं. ए गुरुपणानी निन्दा करवा लाग्या. एमने थयुं के आना करतां तो कबूतरनी माफक खेतर अथवा बजारमां वेरायेला अन्नना दाणा वीणीने पेट भरवुं सारुं. ते पोतानी पुत्रीने साथे लईने गाममान्थी नीकळी गया ॥२५॥
गुरुजी शुक्राचार्य गाम छोडी चाल्या गया छे ए बाबतनी वृषपर्वाने खबर पडी त्यारे ‘‘ए देवोने जिताडशे’’ एम जाणी शुक्रचार्यने ए रस्तामां मळ्या अने एमना चरणमां माथुं नमाव्युं त्यारे अर्धक्षण क्रोध करनार शुक्रचार्य वृषपर्वाने बोल्याः‘‘आ देवयानी जेम कहे तेम तुं करे तो ए तारा नगरमां आवे तो माराथी पण अवाय. एने छोडीने हुं तारा नगरमां आवी शकीश नहि’’ ॥२६-२७॥
देवयानी जे कहे ते करवानुं राजाए कबूल्युं त्यारे देवयानीए कह्युं के ‘‘मारा पिता मने ज्यां परणावशे त्यां हुं जउं त्यारे तमारी पुत्री शर्मिष्ठा एनी सखीओ [[५३०]] मारी दासी थईने मारी साथे आवे’’ ॥२८॥
शर्मिष्ठाए आ शरतनो विचार कर्यो. पोताना कुटुम्बने दुःख न थाय एवी इच्छाथी एणे देवयानीनी साथे दासी थईने एनी पाछळ जवानुं कबूल्युं अने पोतानी हजार सखीओ साथे देवयानीनी दासी थई सेवा करवा लागी ॥२९॥
शुक्राचार्ये देवयानी ययातिने आपी. शर्मिष्ठाने पण दासी तरीके आपी अने राजाने कह्युंः‘‘हे राजन्! आ शर्मिष्ठाने तमारी शय्या उपर क्यारेय आववा देवी नहि’’ ॥३०॥
शर्मिष्ठाए देवयानीने प्रजावाळी जोईने एक समये ऋतुकाळमां ययातिने मळी प्रजामाटे मागणी करी ॥३१॥
ज्यारे वृषपर्वानी पुत्रीए प्रजाने माटे मागणी करी त्यारे ययाति पण धर्मने जाणनार होवाथी एणे धर्मनो विचार कर्यो एटलुं ज नहि पण साथे-साथे शुक्रचार्ये एम करवानी ना पाडी छे एनो पण विचार कर्यो. परन्तु दैवनी ज एवी इच्छा हशे तेथी एनो *ऋतुकाळमां सङ्ग थयो. आमां राजानी कामना न हती मात्र धर्मरक्षानो उद्देश हतो ॥३२॥
विशेष - ‘‘ऋतौ सकामागमनं धर्मः’’ ए वाक्य अनुसार. दैव=श्रीकृष्णनी इच्छा
‘‘कृष्णेच्छा दिष्टमत्रेति पौरवान्वयशुद्धये’’ (निबन्ध कारिका १६१ स्कन्ध ९). वर्ष
प्रमाण कल्प=ब्रह्माजीनो एक दिवस=१००० चतुर्युगी. एक चतुर्युगीमां देवनां
४३,२०,००० वर्ष एटले पृथ्वी उपरना मनुष्यनां ४,३२,००,००,००० अर्थात् ४
अबज ३२ करोड वर्ष थाय.
ए ययातिथी देवयानीने यदु अने तुर्वसु बे पुत्र थया; द्रुह्युं, अनु अने पूरु ए
त्रण पुत्रो वृषपर्वानी पुत्री शर्मिष्ठाने थया ॥३३॥
शर्मिष्ठाने पण पोताना स्वामीनो ज गर्भ रह्यो छे ए वात देवयानीना जाणवामां आवतां एने अत्यन्त क्रोध थयो अने ए पोताना पिताने त्यां चाली गई ॥३४॥
कामी एवो ययाति राजा वचनवडे एनुं सान्त्वन करतो एनी पाछळ गयो एना पगमां मस्तक नमाव्युं तो पण ए देवयानीने प्रसन्न करी शक्यो नहि ॥३५॥
शुक्राचार्ये ययाति उपर क्रोध कर्यो अने ‘‘हे स्त्रीकाम! हे जूठा पुरुष! मनुष्यने विरूप करनार वृद्धावस्थाने तुं प्राप्त थशे’’ एवो एने शाप आप्यो ॥३६॥
[[५३१]] ययाति बोल्यो - ‘‘हे ब्रह्मन्! तमारी पुत्रीमां काम पूर्ण थयो नथी, हुं एमां अतृप्त छुं’’ त्यारे शुक्राचार्ये कह्युं के ‘‘तमे तमारी वृद्धावस्था कोई बीजाने आपी एनुं यौवन लेशो तो चालशे’’ ॥३७॥
एवी रीते शापनी व्यवस्था थतां ययातिए मोटा पुत्र यदुने पूछ्युंः‘‘हे यदो! हे तात! मातामहे आपेली वृद्धावस्थाने तुं ले तारुं यौवन एने बदले तुं मने आप केमके हुं हजुं कामथी तृप्त थयो नथी तेथी तारा यौवनथी केटलाङ्क वर्ष हुं आनन्द भोगवीश’’ ॥३८-३९॥
यदु बोल्या - ‘‘हुं तमे आपेली जरावडे जीववाने राजी नथी केमके ग्राम्य सुखने जाण्या वगर माणस तृष्णा रहित थई शकतो नथी’’ ॥४०॥
यदुए एवो जवाब आप्यो त्यारे ययातिए तुर्वसु, द्रुह्यु अने अनुने बोलावी जरावडे यौवनना बदलानी मागणी करी. ए बधा अनित्यमां नित्य बुद्धिवाळा होवाथी एमणे ए वातनो निषेध कर्यो ॥४१॥
त्यारे पुरु जे सर्वथी नानो हतो छतां गुणमां मोटो हतो तेने पूछ्युंः‘‘हे वत्स! तारा मोटा भाईओनी जेम तारे मारी वात टाळवी न जोईए’’ ॥४२॥
त्यारे पुरु बोल्यो - हे नरेन्द्र! पिता देहने आपे छे जेनाथी पुरुष परमात्माने मेळवी शके छे. एवा पिताना उपकारनो बदलो कोण आपी शके? ॥४३॥
एनी कृपाथी आ लोक अने परलोक ने पुत्र साधी शके छे. उत्तम पुत्र होय ते तो पिताना मनमां होय ते जाणी लई ए प्रमाणे करे; कहेलुं करे ते तो मध्यम कहेवाय अने श्रद्धा वगर करे ते पुत्र अधम कहेवाय अने जे कोई रीते पण पितानी आज्ञानुं पालन न करे तेने तो पुत्र कहेवो ज भूल छे. ते तो पितानुं मळमूत्र ज छे’’ ॥४४॥
एम बोली प्रसन्नतापूर्वक पुरुए पितानी वृद्धावस्था लई लीधी. हे राजन्! ए ययाति पण पुरुनुं यौवन लई पहेलान्नी जेम विषयभोग करवा लाग्या ॥४५॥
सात द्वीपवाळी पृथ्वीनो पति ययाति पितानी पेठे प्रजानुं पालन करतो अने इन्द्रियोने दृढ राखतो जेम योग्य लागे तेम विषयने भोगववा लाग्यो ॥४६॥
देवयानी हम्मेशां मन वाणी देह अने सुन्दर वस्तुवडे प्रियतमनी प्रेयसी बनी एकान्तमां रही एनी प्रीति वधारवा लागी ॥४७॥
ए राजाए मोटी दक्षिणावाळा यज्ञोवडे सर्ववेदमय देवोने अने सर्वदेवमय यज्ञरूप हरिने आराधनथी प्रसन्न कर्या ॥४८॥
[[५३२]] एवं वर्षसहस्त्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ॥ विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥५१॥
भगवाने आ विश्वने व्यवहारदशामां भेदवाळुं देखाड्युं छे. पण सुषुप्तिमां एवुं देखातुं नथी. जेम आकाशमां मेध देखाय छे तेम भगवान्मां आ अनेक भेदवाळुं जगत् देखाय छे. जेम वादळान्थी आकाशने आवरण थतुं नथी तेम आत्माने व्यावहारिक भेदथी विकार थतो नथी. स्वपनमां जेम माया अने मनोरथवडे क्षणिक वस्तु देखाय पण क्षणान्तर ए मूळरूपमां रहेती नथी तेवो आ व्यावहारिक प्रपञ्च छे. एवुं भगवाननुं स्वरूप छे. ए ज वासुदेवने हृदयमां राखी सर्व कामना छोडी सूक्ष्मरूपे सर्वना हृदयमां रहेनार नारायणनुं एणे भजन कर्युं. एवी रीते मननी साथे कुत्सित एवी छ इन्द्रियोद्वारा मनने सुख करतो चक्रवर्ती ययाति हजारो वर्ष सुधी भोग भोगव्या छतां भोगथी तृप्त न थयो ॥४९-५१॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश नामना प्रकरणमां पाञ्चमो,आवान्तर मध्यम प्रकरणनो बीजो) ‘‘ययाति राजानुं चरित्र’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
अध्याय १९
ययाति विरक्त थई वनमां गया त्यां एमनी मुक्ति थई
विशेष - आ ओगणीसमां अध्यायमां ययाति राजाने भोग भोगवतां प्रभुकृपाथी वैराग्य थयो अने स्त्री साथे वनमां गया त्यां एनी मुक्ति थई ए वात कहेवामां आवे छे. स इत्थमाचरन् कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः ॥ बुद्ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! राजा ययाति आ प्रमाणे स्त्रीने वश थई
ईं उं ईं उं
[[५३३]] जई विषयोनो उपभोग करता रह्या. एक दिवस ज्यारे तेनी पोताना अधःपतन उपर नजर गई त्यारे तेने खूब वैराग्य थयो अने तेणे पोतानी प्रियतमा देवयानीने आ गाथा गाई ॥१॥
‘‘हे भृगुनन्दिनी! तुं आ गाथा साम्भळ, पृथ्वीना मारा ज जेवा विषयीनो आ साचकलो इतिहास छे. एवा ज ग्रामवासी विषयी पुरुषो विषे वनवासी जितेन्द्रिय पुरुषो दुःखनी साथे विचार कर्या करता रहे छे के आमनुं कल्याण केम थशे? ॥२॥
वनमां एक *बकरो हतो ते पोते-पोतानुं प्रिय करवाने फरतो हतो एटलामां फरतां-फरतां एणे कर्मने वश थयेली अने कूवामां पडेली एक बकरी जोई ॥३॥
विशेष - आ बकरानी वात कही छे ते ययाति अने देवयानीना चरित्रने बरोबर लागु थाय छे. ययातिए वैराग्य थतां पोते पशुपणुं कर्युं एनुं ज्ञान थयुं अने भोगथी विरक्त थया. ए कामी बकरो कूवामां पडेली ए बकरीने एमान्थी काढवामाटे यत्न करवा लाव्यो. एणे शिङ्गडाथी कूवाना काण्ठाने खोदी बकरी बहार आवे एवो रस्तो बनावी आप्यो ॥४॥
कूवामान्थी सुन्दर नितम्बवाळी ए बकरी बहार नीकळी अने कूवामान्थी बहार नीकळवामां मदद करनार ए बकरानी कामना करवा लागी. एक बकरीए एनो स्वीकार कर्यो छे एवुं जाणवामां आवतां घणी बकरीओने एने वरवानी इच्छा थई केमके ए जाडो, दाढी मूछवाळो, सेचन करनार अने भोगचतुर हतो ॥५॥
ए बकराए बधी बकरीओना कामने पूर्ण कर्यो अने एनी साथेना काममां गूञ्चवाई गयो अने पोताना स्वरूपनुं पण भान न रह्युम् ॥६॥
ज्यारे ए बकरो बीजी बकरीनो भोग करवा लाग्यो त्यारे कूवामान्थी काढेली बकरीने ए ठीक लाग्युं नहि ॥७॥
ए सुहृदरूप शत्रुने कामभोग करे एवा छतां क्षणिक मित्रता राखनार अने इन्द्रियोने आराम आपनार एवा बकराने छोडी ए बकरी पोताना पितानी पासे गई ॥८॥
ए बकरो पण स्त्रीने वश हतो तेथी बकरा जेवो अवाज करतो पाछळ गयो. दीन थईने मार्गमां एणे अनुनय कर्यो पण एने प्रसन्न करवामां ए समर्थ थयो नहि ॥९॥
ए बकरी ज्यां गई त्यां एनो मालिक हतो. क्रोधमां एणे आ बकराना लटकता [[५३४]] वृषणने कापी नाख्या. पछी एने लाग्युं के आम कर्यु एमां तो आपणने ज नुकशान छे. पण एनो मालिक सान्धवाना काममां होशियार हतो तेथी कापेला वृषणने ए द्विजे पाछो सान्धी दीधो ॥१०॥
ज्यारे वृषणनो सान्धो मळी गयो त्यारे बकरो कूवावाळी बकरीने लईने पाछो पोताने स्थाने आव्यो अने भोग भोगववा लाग्यो. ए आज सुधी एमां तृप्त थयो ज नथी ॥११॥
हे सुभ्रु! ए बकरानी पेठे हुं पण तारा प्रेममां बन्धाई गयो छुं अने तारी मायाना मोहमां पडीने मारा आत्माने भूली गयो ॥१२॥
पृथ्वीमां जेटलां डाङ्गर जव सोनुं पशुओ स्त्रीओ वगेरे छे ते कामथी हणायेला पुरुषना मनने तृप्त करी शकतान्नथी ॥१३॥
कोई दिवस पण काम भोग करवाथी शान्त थतो नथी; घी नाङ्खवाथी अग्नि वधे तेम फरी वधतो ज जाय छे ॥१४॥
‘‘ज्यारे सर्वभूतमां आ सारुं अने आ खोटुं एवो विषम भाव जतो रहे अने सर्व समता थाय त्यारे ए पुरुषने सर्व दिशा सुखरूप थाय छे ॥१५॥
दुर्मतिवाळाने दुःखथी पण न छूटी शके तेवी तृष्णा होय छे. माणस बुढ्ढो थाय त्यारे तृष्णा बुढ्ढी थती नथी. एवी तृष्णा दुःखना समुदायरूप छे. माटे जे कोई सुखनी इच्छा राखतो होय तेणे प्रथम तृष्णाने छोडवी रही ॥१६॥
माता, बहेन अने दीकरी नी साथे पण एकान्तमां बहु नजीक बेसवुं नहि. इन्द्रियोनो समुदाय बहु बळवान होय छे ते विद्वानने खेञ्ची उन्मार्गे लई जाय छे, सगां- सम्बन्धीना विवेकने भुलावी दे छे. जो ए विद्वाननी आवी दशा करे तो पछी साधारण माणसनी तो वात ज शी करवी? माटे सगान्थी पण सम्भाळीने चालवुम् ॥१७॥
विषयो भोगवतां-भोगवतां मने पूरां हजार वर्ष थई गयां छतां वखतोवखत मने विषयमां तृष्णा थया करे छे ॥१८॥
माटे ए तृष्णाने छोडी, मनने ब्रह्ममां स्थिर करी, सुख-दुःख, टाढ-तडको, सारुं-बूरुं वगेरे द्वन्द्वोथी अने अहङ्कारथी मुक्त थई मृगनी साथे हवे हुुं वनमां फरीश ॥१९॥
जे जोवामां के साम्भळवामां आवे ते बधाने खोटुं जाणवुं तेनुं ध्यान करवुं नहि तेनो भोग पण करवो नहि. ए विषयोथी ज संसार थाय छे अने संसारमां मोह [[५३५]] थतां आत्मानो नाश थाय छे एम नक्की जाणवुं एने छोडे तो ज परमात्मामां निष्ठावाळो थई शके’’ ॥२०॥
एवी रीते कही नहुष राजाना पुत्र ययातिए पुत्रने यौवन पाछुं आप्युं अने एनी पासेथी पोतानी वृद्धावस्था पाछी लईने स्पृहा रहित थई गयो ॥२१॥
द्रुह्युन्ने अग्निकोणनो राजा बनाव्यो, यदुने दक्षिण दिशानो राजा बनाव्यो, तुर्वसुने पश्चिम दिशानो राजा बनाव्यो, अनुने उत्तर दिशानुं राज्य आप्युम् ॥२२॥
पूरुने बाकीनी बधी पृथ्वीनो राजा कर्यो. एम जो के बीजा पुत्रो पुरुथी मोटा हता छतां बधाने पूरुनी आज्ञामां राखीने ययाति वनमां गयो ॥२३॥
जेम पाङ्ख आवतां पङ्खी जन्मथी सेवेला माळाने छोडी दे छे तेम हजारो वर्ष भोगवेला विषयोने ययातिए क्षणवारमां छोडी दीधा ॥२४॥
सर्व सङ्ग छोडीने ययाति आत्मानो अनुभव करवा लाग्यो. एनाथी गुणनां कार्य छूटी गयां. पछी पर अने शुद्ध एवा वासुदेवरूप ब्रह्ममां भगवद्भक्तने गति थाय छे तेवी मुक्तिरूप गतिने प्राप्त थयो ॥२५॥
स्त्री पुरुष स्नेहमां गाण्डा बने छे एवी परिहास रूपे पति ए कहेली गाथा साम्भळी वैराग्य थयो ॥२६॥
जेम परबमां जळ पीवाने माणसो भेगा थाय अने पोतपोतानां काममाटे छूटां पडे तेम भाई, माता, पिता, पति, दीकरा बधां ईश्वर-इच्छाथी भेगां थाय छे अने एनी इच्छाथी छूटां पडे छे एम ए मानवा लागी ॥२७॥
बधुं स्वपनना जेवुं मानी एणे सर्वनो त्याग कर्यो अने श्रीकृष्णमां मन राखीने देवयानीए पोताना शरीरने छोडी दीधुम् ॥२८॥
नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ॥ सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥२९॥
ऐश्वर्यादि छ धर्मोथी पूर्ण एवा आपने हुं नमस्कार करुं छुं. जगतना बनावनार, सर्व भूतना अन्तरात्मा होवा छतां शान्त ब्रह्मरूप एवा वासुदेव भगवानने मारा नमस्कार हो ॥२९॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (चन्द्रवंश नामना बीजा प्रकरणनो छठ्ठो, अवान्तर मध्यम प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘ययाति विरक्त थई वनमां गया त्यां एमनी मुक्ति थई’’ नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५३६]]
अध्याय २०
पूरुना वंशमां दुष्यन्त तथा भरत मोटा राजा थया
विशेष - पूरुना वंशमां दुष्यन्त अने एना पुत्र भरतनुं चरित्र आ वीसमा अध्यायमां कहेवानुं छे केमके ए बधा राजाओ महात्माओ थया छे. पूरोर्वशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ॥ यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जेमान्थी भारतवंशनो उद्भव थयो तेवा पूरुवंशने हवे हुं कहुं छुं. तमे पण एमां ज जन्म्या छो. ए वंशमां घणा राजर्षि अने ब्रह्मर्षिओ एटले के क्षत्रियो अने ब्राह्मणो जन्म्या छे ॥१॥
पूरुनो पुत्र जन्मेजय थयो तेनो प्रचिन्वान, तेनो प्रवीर, प्रवीरनो नमस्यु अने नमस्युनो चारुपद थयो ॥२॥
चारुपदनो सुद्यु, सुद्युनो बहुगव, बहुगवनो संयाति, संयातिनो अहंयाति अने अहंयातिनो रौद्राश्व नामनो पुत्र थयो ॥३॥
ए रौद्राश्वनो धृताची नामनी अप्सराथी, मुख्य प्राणथी जेम दश इन्द्रियो थाय तेम, ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थडिंलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु अने दशमो वनेयु थया वनेयु बधाथी नानो पुत्र हतो ॥४-५॥
ऋतेयुनो रन्तिभार नामनो पुत्र थयो. हे नृप! रन्तिभारना सुमति, ध्रुव अने अप्रतिरथ नामना त्रण पुत्र थया अने अप्रतिरथनो कण्व थयो ॥६॥
कण्वनो मेधातिथि, मेधातिथिथी प्रस्कण्व वगेरे ब्राह्मणो थया. सुमतिनो रैभ्य थयो अने आ ज रैभ्यनो पुत्र दुष्यन्त थयो ॥७॥
ए दुष्यन्त मृगया करवा वनमां गयो हतो. त्यां ए कण्वना आश्रमे जई चड्यो ॥८॥
एमां दाखल थतां त्यां ज एणे पोतानी कान्तिवडे आश्रमने शोभावती जाणे देवनी माया होय तेवी, स्त्रीने जोईने ए मोहित थयो. केटलाक शूरवीर साथे कन्या पासे जईने दुष्यन्त ए वरारोहानी साथे बोल्यो ॥९॥
ए एना दर्शनथी आनन्द पाम्यो अने दर्शन मात्रथी एनो परिश्रम जतो रह्यो. कामथी जरा उष्ण थईने मन्द हास्यवडे मीठी वाणीथी ए आ प्रमाणे कहेवा लाग्योः ॥१०॥
[[५३७]] ‘‘हे कमळनी पाङ्खडी जेवां नेत्रवाळी! तुं कोण छे? हे हृदयङ्गमे! तुं कोनी पुत्री छे? आ निर्जन वनमां शुं करवानी इच्छाथी तुं आवी छे? हे सुमध्यमे! हुं स्पष्टपणे जोई शकुं छुं के तुं कोई राजानी कन्या छे केमके पूरुवंशना राजाओनुं चित्त अधर्ममां रमे नहि. जो तुं इतर वर्णनी होय तो मारुं मन तारामां कामवाळुं थाय नहि. जो ए थयुं छे तो तुं राजपुत्री होवी जोईए एमां सन्देह नथी’’ ॥११-१२॥
शकुन्तला बोली - ‘‘हुं विश्वामित्र अने मेनकाथी उत्पन्न थयेली पुत्री छुं. मेनकाए मने वनमां छोडी दीधी ए वात भगवान् कण्व जाणे छे. हे वीर! आपनी हुं शुं सेवा करुं? ॥१३॥
हे कमलनयन! आवो, बेसो अने अमारुं स्वागत स्वीकारो. आ सामो आरोगो अने आपने गमे तो अर्ही रहो’’ ॥१४॥
आ प्रमाणे शकुन्तलाए कह्युं त्यारे दुष्यन्त बोल्याः‘‘हे सुन्दरी! तमे कुशिकना वंशनां छो तेथी तमे अतिथि सत्कार करो ए योग्य ज छे. कारण के राजकन्याओ पोते ज पोताने योग्य वर पसन्द करी लेती होय छे ॥१५॥
शकुन्तलाए एना कथननो स्वीकार कर्यो त्यारे राजा दुष्यन्त शकुन्तलाने धर्मनी मर्यादाने साचवीने परण्या. देश काळना विभागने जाणनार राजाए एनी साथे गान्धर्वविधिथी लग्न कर्यु केमके क्षत्रियने माटे ए विवाह वखणायेलो छे ॥१६॥
अमोघ वीर्यवाळा राजर्षिए एमां पोतानुं वीर्य धारण कर्युं अने बीजे दिवसे ए पोताने घेर गयो. शकुन्तलाने गर्भना दिवसो पूरा थतां पुत्रनो प्रसव थयो ॥१७॥
कण्वे वनमां ए कुमारनी जातकर्म आदि क्रियाओ करी. ए बाळक तो मोटो थतां सिंहने पकडी एने बान्धी एनी साथे रमत करवा लाग्यो ॥१८॥
भगवदंश दुष्यन्तथी उत्पन्न थयेला ए पराक्रमी पुत्रने लई प्रमदाओमां श्रेष्ठ एवी शकुन्तला पोताना पति दुष्यन्त पासे आवी ॥१९॥
ज्यारे राजाए पुत्रने तेमज स्त्रीने निर्दोष छतां स्वीकार्यो नहि त्यारे बधां लोको साम्भळे तेम आकाशमान्थी अशरीरवाणी थई ॥२०॥
‘‘माता तो पुत्रने धारण करनार मात्र धमण जेवी छे. वास्तवमां पुत्र पितानो ज छे कारण के पिता ज पुत्रना रूपमां उत्पन्न थाय छे. तेथी हे दुष्यन्त! शकुन्तलानो तिरस्कार न करो, पोताना पुत्रनुं भरण-पोषण करो ॥२१॥
[[५३८]] रेत धारण करनार ज पुत्रनो हकदार थाय छे. ए पुत्र पुन्नामना नरकथी पितानुं रक्षण करे छे. तमे ज आ शकुन्तलामां गर्भाधान करनार छो. शकुन्तला जे कहे छे ते ज खरुं छे ॥२२॥
त्यारे दुष्यन्ते पुत्रने राख्यो. ए भरत नामे राजा थयो. पिता परलोक गया पछी भरत पण चक्रवर्ती राजा थयो. ए भगवानना अंशरूप हतो. आज पण पृथ्वी उपर तेनो महिमा गवाई रह्यो छे ॥२३॥
ए भरत राजाने जमणा हाथमां चक्रनुं चिह्न हतुं अने चरणोमां कमळनी कळीनुं चिह्न हतुं. महाभिषेकनी विधिथी राजाधिराजना पद उपर तेनो अभिषेक थयो. ते बहु ज शक्तिशाळी राजा हतो ॥२४॥
ए भरत राजाए भगवाननी आराधना अर्थे ममताना पुत्र दीर्घ तमा नामना मुनिने बोलावी एने पुरोहित बनाव्या अने एमनीद्वारा गङ्गा सागरथी गङ्गोत्री सुधीना गङ्गाना किनारा उपर पञ्चावन अश्वमेध यज्ञ कर्यो. प्रयागथी यमनोत्री सुधीना यमुना नदीना किनारा उपर एणे ७८ पवित्र घोडा बान्ध्या अने घणा पैसा आपीने एटला बीजा अश्वमेध यज्ञ पण एणे कर्या ॥२५॥
दुष्यन्तना पुत्र भरत राजाए जे उत्तम गुणवाळी जमीन उपर यज्ञ चेतव्यो हतो ते जग्या उपर हजारो ब्राह्मणोने बे-बे करी गायो वहेञ्ची हती ॥२६॥
एणे तेत्रीससो घोडाओने बान्धी एटला अश्वमेध कर्या. एम करीने बीजा राजाओने विस्मय पमाड्या. मायाना वैभववाळाओमां श्रेष्ठ एवा भरत राजा मायाने तरी गया ॥२७॥
यज्ञनुं एक कर्म ‘मष्णार’ मां धोळा दातवाळा अने सोनाना आभरणथी शणगारेला काळा मृग जातिना १४ लाख हाथीनुं एणे दान आप्युम् ॥२८॥
जेम हाथीथी स्वर्गमां पहोञ्ची शकातुं नथी तेम भरतनां पहेलान्नां के एनी पछीना राजाओ के वर्तमान राजाओ एना कर्मनुं अनुकरण करवाने शक्तिमान नथी ॥२९॥
किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कङ्क, खश अने शकना वंशना राजाओ ब्राह्मणने माननारा न होवाथी म्लेच्छ हता ते बधाने दिग्विजय वखते मारी नाख्या ॥३०॥
वळी भळवान दैत्यो पण देवोने जीतीने रसातळमां देवनी स्त्रीओने लईने चाल्या गया हता ते बधाने मारी देवनी स्त्रीओने भरते पाछी लावी देवोने आपी. [[५३९]] जे बीजा प्राणीओ पण एनी साथे गया हता ते प्राणीओने पण पाछा लावी देवोने आप्या ॥३१॥
भरतना शासनकाळमां पृथ्वी अने आकाश प्रजाना सर्व मनोरथ पूर्ण करतां हतां. पृथ्वी उपर एनी आज्ञा २७,००० वर्ष सुधी अविच्छिन्न चाली ॥३२॥
त्यार पछी एने त्रिलोकनुं चक्रवर्ति राज्य, ऐश्वर्य, एनी लक्ष्मी, अप्रतिहत आज्ञा अने प्राण वगेरे भगवत्प्राप्तिमां प्रतिबन्धक लाग्यां तेथी एने छोडी एणे वैराग्यनो आश्रय कर्यो अने वनमां जई भक्तिवडे भगवानने प्राप्त कर्या ॥३३॥
हे परीक्षित! विदर्भराजनी त्रण कन्याओ सम्राट भरतनी पत्नीओ हती. तेमने पुत्रो थया हता पण ए मारे लायक नथी एम ज्यारे एणे कह्युं त्यारे राजा अमारो त्याग करशे ए भयथी राणीओए पुत्रोने मारी नाख्या तेथी भरतनो वंश न रह्यो ॥३४॥
ज्यारे भरतनो वंश विच्छिन्न थयो त्यारे एणे पुत्रमाटे मरुत्स्तोम नामनो यज्ञ कर्यो तेमां देवो प्रसन्न थया अने एने भरद्वाज नामनो पुत्र आप्यो ॥३५॥
भरद्वाजनी उत्पतिनो प्रसङ्ग आ प्रमाणे छे - बृहस्पतिना भाई उतथ्यनी स्त्री ममता सगर्भा हती छतां ए चोरीथी मैथुन करवा प्रवृत्त थया. ममताना पेटमां गर्भ रहेवानी जग्या नहोती तेथी उदरस्थ (दीर्घतमाए) गर्भे बृहस्पतिना वीर्यने धारण करवानी ना कही त्यारे बृहस्पतिए क्रोध करी ‘‘तुं आन्धळो था’’ एवो शाप आप्यो अने बळात्कारे ममतामां वीर्यसेचन कर्युम् ॥३६॥
बृहस्पतिना शापथी गर्भमां रहेलो दीर्घतमा आन्धळो थयो. बृहस्पतिना वीर्यने गर्भस्थ दीर्घतमाए पाटु मारी तेथी ए बहार पड्युं. तत्काळ ए वीर्यमान्थी कुमार थयो. ममताने बीजा वीर्यथी उत्पन्न थयेलो छोकरो राखवानुं मन थयुं नहि. केमके पतिने खबर पडे तो एनो त्याग करे; त्यारे देवोए ए बन्नेनुं नाम लई ए प्रमाणे श्लोक कह्यो ॥३७॥
‘‘हे मूढ! हे बृहस्पते! तमो बन्नेथी आ थयो माटे द्वाज कहेवाय. एनुं भर- पोषण करो’’. ममताए ए न स्वीकार्युं त्यारे बृहस्पतिए पण एनुं रक्षण कर्युं नहि; बन्ने एने मूकीने चाल्यां गयां अने वारंवार ‘भर-द्वाज’ एम कह्युं तेथी एनुं नाम ‘भरद्वाज’ पड्युम् ॥३८॥
चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ॥ [[५४०]] व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेन्वये ॥३९॥
देवताओए आ प्रमाणे नामनी व्युत्पत्ति करी बतावी. तो पण ममता एम ज समजी के मारे आ पुत्र वितथ अर्थात् अन्यायथी (व्यभिचारथी) थयो छे. तेथी तेणे ते बाळकने त्याग करी दीधो. मरद्गणोए एनुं पालन कर्यु अने ज्यारे राजा भरतनो वंश नाश थयो त्यारे तेने लावी भरतने आपी दीधो. आ ज वितथ (भरद्वाज) भरतनो दत्तक पुत्र थयो ॥३९॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (त्रीजा चन्द्रवंश नामना प्रकरणनो सातमो अने अवान्तर त्रीजा उत्तम प्रकरणनो पहेलो) ‘‘पूरुना वंशमां दुष्यन्त तथा भरत मोटा राजा थया’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)
अध्याय २१
रन्तिदेव राजानुं आख्यान
विशेषः भरतना वंशमां उत्पन्न थयेल रन्तिदेव राजाए भगवानने प्रसन्न करे एवुं व्रत कर्युं ए वात आ एकवीसमां अध्यायमां आवे छे. वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्रो जयस्ततः ॥ महावीर्यो नरो गर्गः संस्कृतिस्तु नरात्मजः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - वितथ (भरद्वाज) नो पुत्र मन्यु थयो. मन्युने बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर अने गर्भ एम पाञ्च पुत्र थया. नरनो पुत्र सुङ्कृति थयो ॥१॥
हे पाण्डुनन्दन! ए सङ्कृतिने गुरु अने रन्तिदेव नामना बे पुत्रो थया. तेमां रन्तिदेवनो यश आ लोकमां तेमज स्वर्ग आदिमां गवाय छे ॥२॥
ईं उं ईं उं
[[५४१]] एने द्रव्य खलास थयुं हतुं. जे कांई मळतुं ते बीजाने आपी देतो, पोते निष्किचन अने भुभुक्षित हतो अने कुटुम्बवाळो होवाथी दुःखी हतो ॥३॥
ए रन्तिदेवने ४८ दिवस तो पाणी वगर वीती गया त्यारे ४९ दिवसे एने यदृच्छाथी दूधमां बनावेली यवनी खीर अने पाणी ए बे चीज आवी मळी ॥४॥
एनुं कुटुम्ब खूब दुःखी हतुं. एमनां शरीर भूख अने तृषाथी कम्पतां हतां. रन्तिदेव भोजन करवानो विचार करे छे एटलामां तो कोई ब्राह्मण अतिथि एने घेर आवी चड्यो ॥५॥
रन्तिदेवे एनो सत्कार कर्यो अने जे अन्न एने मळ्युं हतुं तेमान्थी श्रद्धापूर्वक एनो भाग काढी आप्यो केमके सर्वत्र ए जीवमात्रमां भगवानने देखतो हतो; तेथी एणे ब्राह्मणने भोजन आप्युं अने ब्राह्मण देवतां भोजन करीने चाल्या गया ॥६॥
ब्राह्मणना गया पछी जे रह्युं हतुं ते खावानो विचार करे छे एटलामां हे महीपते! कोई शूद्र अतिथि आव्यो एने पण भगवाननुं स्मरण करी राखेल हतुं तेमान्थी एणे खवडावी दीधुम् ॥७॥
खाई पीने शूद्र गयो. त्यां तो बीजो अतिथि कूतराओने साथे लई आव्यो अने बोल्योः‘‘हे राजन्! हुं कूतराओनी साथे बहु भूख्यो छुं माटे मने अने कूतराओने कंईक अन्न आपो’’ ॥८॥
रन्तिदेवे एनो आदर कर्यो जे बाकी अन्न बच्युं हतुं ते बधुं मानपूर्वक एने आपी अने एना कूतराओने पण नमस्कार कर्या ॥९॥
हवे एनी पासे मात्र जल बाकी रह्युं हतुं ते पण एक जणने पूरुं थाय तेटलुं ज हतुं. ए बधामां वहेञ्ची लई पीवानो विचार करे छे त्यां नीच जातनो माणस आवी बोल्यो - ‘‘हुं अशुभ अने नीच छुं. मने जल आपो’’ ॥१०॥
एनी वाणी उपरथी ए घणो तृषित होय एम जणातुं हतुं. तृषाने लीधे एने बोलवामां श्रम पडतो हतो. एना हीन वचनने साम्भळीने रन्तिदेवने बहु दुःख थयुं एने प्रथम तो अमृत सरखा वचनथी कहेवा लाग्यो ॥११॥
एना मोम्मान्थी अत्यन्त दयाळुनुं वचन नीकळ्युं ः‘‘हुं अणिमा आदि आठ सिद्धिओने के मोक्षने इच्छतो नथी पण मारी तो इच्छा एवी छे के बधा दुःखीना हृदयमां रही एना दुःखनो भोग हुं करुं अने ए बधा दुःखरहित थई शान्त रहे [[५४२]] ॥१२॥
अति दीन अने जीववानी इच्छावाळा अतिथिने हुं जळ आपुं अने एनावडे मारी क्षुधानो अने तृषानो श्रम अने शरीरनो श्रम, दैन्य, शोक, खेद, मोह वगेरे जतां रहे’’ ॥१३॥
एम बोली जळ हतुं ते पण पिपासाथी मरता पुलकशने राजाए आपी दीधुं केमके स्वभावथी ज रन्तिदेव धीरजवाळो अने दयाळु हतो ॥१४॥
ए समये भगवाननी स्वेच्छाथी पोते सर्वत्र व्यापक होवाथी वरने इच्छा राखनार लोकोने वरदान आपनारा ब्रह्मा, विष्णु, शिव वगेरे देवो त्यां प्रकट थया. प्रथम अतिथि, शूद्र, चाण्डाल वगेरे देखाया ते पण मायिक हता. एम देवमायाने पोते जाणी गया ॥१५॥
रन्तिदेवे एमने नमस्कार कर्या अने पोते निःसङ्ग अने निःस्पृह रह्या. पोते वासुदेव भगवान्मां भक्तिवाळा होवाथी एमने भक्तिपूर्वक नमन कर्यु ॥१६॥
भगवान् सिवाय बीजुं जेने कांई इच्छित नथी तेवा रन्तिदेवनुं तो एक भगवन्निष्ठ ज चित्त हतुं तेथी एने त्रिगुणात्मक माया स्वपननी पेठे देखावी बन्ध थई ॥१७॥
ए रन्तिदेवना सङ्गना प्रतापे केटलाय एने अनुसरनारा पण नारायण- परायण योगीओ थई गया ॥१८॥
मन्यु पुत्र गर्गनो पुत्र शिनि थयो, शिनिनो पुत्र गार्ग्य थयो. जो के गार्ग्य क्षत्रिय हतो छतां एनाथी ब्राह्मणवंश चाल्यो. महावीर्यनो दुरितक्षय नामनो पुत्र थयो. तेना त्रय्यारुणी, कवि अने पुष्करारुणि नामना त्रण पुत्रो थया ॥१९॥
ए क्षत्रियपणामान्थी ब्रह्माणपणाने पाम्या. वितथना बीजा पुत्र बृहत्क्षत्रनो पुत्र हस्ती थयो जेणे हस्तिनापुर वसाव्युम् ॥२०॥
ए हस्तीने अजमीढ, द्विमीढ अने पुरुमीढ नामना त्रण पुत्र थया. अजमीढना पुत्रोमां प्रियमेध वगेरे ब्राह्मणो थया ॥२१॥
आ ज अजमीढना एक पुत्रनुं नाम बृहदिषु हतुं, बृहदिषुनो बृहद्धनु, बृहद्धनुनो बृहत्काय अने एनो जयद्रथ थयो ॥२२॥
जयद्रथनो पुत्र विशद अने विशदनो सेनजित् थयो. सेनजित्ना चार पुत्र थया रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य अने वत्स ॥२३॥
[[५४३]] रुचिराश्वनो पुत्र पार अने पारनो पृथुसेन हतो. पारना बीजा पुत्रनुं नाम नीप हतुं. एने सो पुत्र हता ॥२४॥
आ ज नीपे (छाया) *शुकनी कन्या कृत्वी साथे लग्न कर्युं हतुं. तेनाथी ब्रह्मदत्त नामनो पुत्र थयो. ब्रह्मदत्त महान योगी हतो तेणे पोतानी पत्नी (गो) सरस्वतीना गर्भथी विष्वक्सेन नामनो पुत्र उत्पन्न कर्यो ॥२५॥
विशेष - व्यासजीना पुत्र महायोगी शुक थया ते तो जन्म्या अने चालता थई गया एम प्रथम स्कन्धमां वर्णन छे पण हरिवंशमां शुकनो जन्म आम कह्यो छे. व्यासजीथी अरणी नामनी स्त्रीमां शुक उत्पन्न थया अने ए अरणीमां कृष्ण, गौरप्रभ, भूरिसुत अने अज नामना पुत्रोने अने कीर्तिमती नामनी कन्या, (ते ब्रह्मदत्तनी माता अने अणुहनी महिषी थशे) तेने उत्पन्न कर्या. अर्ही शुकदेवजीने आवो संसार न सम्भवे पण व्यासजीने बहु विरह थयो त्यारे छाया शुक मूकीने पोते चाल्या गया होय अने ए छायानो आ वंश सम्भवे. केटलाक ए अरणीना पुत्र शुकथी जुदो ज शुक, भागवतनी कथा परीक्षितने सम्भळावनार छे एम कहे छे. बीजा टीकाकारो पुराणान्तरनी कथा जुदी रीते लखे छे. ए विष्वक्सेने जैगीषव्य नामना मुनिना उपदेशथी योगशास्त्र कर्यु हतुं. एनो उदक्स्वन अने उदक्स्वननो भल्लाद नामनो पुत्र थयो. आ बधा गणाव्या ते बधा बृहदिषुना वंशना राजाओ थया ॥२६॥
द्विमीढनो पुत्र यवीनर, यवीनरनो कृतिमान, कृतिमाननो सत्यद्यृति, सत्यद्यृतिनो दृढनेमि अने दृढनेमिनो सुपार्श्व थयो ॥२७॥
सुपार्श्वनो सुमति, सुमतिनो सन्नतिमान अने तेनो कृति थयो तेणे हिरण्यनाभ पासेथी योगविद्या प्राप्त करी हती अने ‘प्राच्यसाम’ नामनी ऋचाओनी छ संहिताओ कही हती. एनो पुत्र नीप थयो. एने उग्रायुध नामनो प्रसिद्ध पुत्र थयो. उग्रायुधनो क्षेम्य, तेनो सुवीर अने सुवीरनो रिपुञ्जय थयो ॥२८-२९॥
एने बहुरथ नामनो पुत्र थयो. आ अजमीढ अने द्विमीढना वंश कह्या. द्विमीढना भाई पुरुमीढने प्रजा न हती. अजमीढना वंशमां प्रियमीढ वगेरे केटलाक ब्राह्मणो थया, बृहदिषु वगेरे क्षत्रियो थया. अजमीढने नलिनी नामनी स्त्रीथी नील नामनो पुत्र थयो ते नीलनो शान्ति थयो ॥३०॥
शान्तिनो सुशान्ति, सुशान्तिनो पुरुज थयो, तेनो अर्क थयो, तेनो भर्म्याश्व [[५४४]] थयो; तेने मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य अने सञ्जय नामना पाञ्च पुत्रो थया ॥३१॥
ए भर्म्याश्वे कह्युं, ‘‘आ मारा पुत्रो पाञ्च देशो (शब्दादि विषयो) नुं शासन करवा समर्थ (पञ्च अलम्) छे’’. तेथी ते पञ्चाल नामथी प्रसिद्ध थया. आमां मुद्गलथी मौदगल्य नामना ब्राह्मण गौत्रनी प्रवृत्ति थई ॥३२-३३॥
भर्म्याश्वना पुत्र मुद्गलने मिथुन थयुं तेमां पुरुष दिवोदास अने कन्या अहल्या थई. ए अहल्या गौतमने आपी. गौतमनो शतानन्द नामनो पुत्र थयो ॥३४॥
शतानन्दनो पुत्र सत्यधृति थयो, ते धनुर्विद्यामां अत्यन्त निपुण हतो. एनो पुत्र शरद्वान थयो. एकवार उर्वशीने जोईने शरद्वाननुं वीर्य मुञ्जना थूमडा उपर स्त्रवी पड्युं तेथी एक शुभ लक्षणवाळा पुत्र अने पुत्रीनो जन्म थयो ॥३५॥
तद् दृष्ट्वा कृपयागृह्णाच्छन्तनुर्मृगयां चरन् ॥ कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्न्यभवत् कृपी ॥३६॥
शन्तनुं राजा मृगया करवा वनमां आवेला तेणे ए कन्या अने कुमारने जोयां; एने पोते दयावश पोताने घेर लई गया एमां कुमार हतो ते कृपाचार्य थयो अने कन्या हती ते द्रोणाचार्यनी स्त्री कृपी थई ॥३६॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश नामना प्रकरणनो आठमो अने अवान्तर उत्तर प्रकरणनो बीजो) ‘‘रन्तिदेव राजानुं आख्यान’’ नामनो एकवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही
अध्याय २२
अजमीढ राजाना वंशनुं वर्णन
विशेष - जेना वंशमां अर्जुन, दुर्योधन, जरासङ्घ वगेरे राजाओ थया छे ते अजमीढ राजानो वंश आ बावीसमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे.
ईं उं ईं उं
[[५४५]] मित्रेयुश्च दिवोदासाच्च्यवनस्तत्सुतो नृप ॥ सुदासः सहदेवोऽथ सोमको जन्तुजन्मकृत् ॥१॥
श्रीशुकदेवजी कह्युं - मुद्गलना वंशमां थयेला दिवोदासनो पुत्र मित्रेयु थयो. हे नृप! एने च्यवन, सुदास, सहदेव अने सोमक ए चार पुत्रो थया. सोमकने सो पुत्रो हता. एमां सौथी मोटो जन्तु अने सौथी नानो पृषत हतो. पृषतना पुत्र द्रुपद हता, द्रुपदने द्रौपदी नामनी पुत्री अने धृष्टद्युम्न वगेरे पुत्रो थया ॥१-२॥
धृष्टद्युम्ननो धृष्टकेतु थयो. आ बधा ज भर्म्याश्व वंशमां जन्मेला अने ए ‘पाञ्चाल’ कहेवाया. अजमीढना बीजा पुत्र ऋक्षने संवरण नामनो पुत्र थयो ॥३॥
संवरणनो विवाह सूर्यनी कन्या तपती साथे थयो. एना ज गर्भथी कुरुक्षेत्रना स्वामी कुरुनो जन्म थयो. ए कुरुना परीक्षित, सुन्धत्वा, जह्नु अने निषधाश्व नामना चार पुत्र थया ॥४॥
सुधन्वानो सुहोत्र, एनो च्यवन, एनो कृती एनो उपरिचर वसु अने उपरिचर वसुना बृहद्रथ जेमां मुख्य छे एवा पुत्रो थया ॥५॥
एमां कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र, चेदिप वगेरे चेदि देशना राजा थया. बृहद्रथथी कुशाग्र थयो अने एनो ऋषभ थयो ॥६॥
एनो सत्यहित थयो. एनो पुष्पवान अने पुष्पवाननो जहु नामे पुत्र थयो. बृहस्थने बीजी स्त्रीथी एक शरीरना बे टुकडा जन्म्या ॥७॥
एने माताए बहार फेङ्कावी दीधा. त्यारे ‘जरा’ नामनी राक्षसीए जीवतो थई जा, जीवतो थई जा एम कही रमतां-रमतां ए बन्ने टुकडाने जोडी दीधा. तेज जोडेलो बाळक जरासन्ध थयो ॥८॥
एनो पुत्र सहदेव थयो एनो सोमापि अने सोमापिनो श्रुतश्रवा थयो. कुरुना जयेष्ठ पुत्र परीक्षितने पुत्र न हतो. कुरुना पुत्र जह्नुनो पुत्र सुरथ थयो ॥९॥
सुरथनो विदूरथ थयो, तेनो सार्वभौम थयो. एनो जयसेन अने जयसेननो राधिक थयो. राधिकनो पुत्र अयुत थयो ॥१०॥
ए अयुतनो क्रोधन थयो, तेनो देवातिथि थयो. तेनो ऋष्य थयो, तेनो दिलीप थयो, तेनो प्रतीप नामे पुत्र थयो ॥११॥
ए प्रतीपने देवापि, शन्तनु अने बाह्लीक नामना त्रण पुत्रो थया, तेमां देवापि पितानुं राज्य छोडी वनमां चाल्यो गयो ॥१२॥
[[५४६]] त्यारे तेनाथी नानो शन्तनुं राजा थयो, ते पूर्वे महाभिष नामे प्रसिद्ध हतो. ए जेने हाथ लगाडे ते जुनुं मटी नवुं थई जाय, वृद्ध होय तो युवान थई जाय एटलुं ज नहि पण आरोग्य अने सुख पण एना स्पर्शमात्रथी थतुं माटे ते ‘शन्तनु’ (शं एटले सुख, तनु एटले शरीर, आकार वगेरे) ए नामथी ओळखातो हतो. ज्यारे एना राज्यमां बार वर्ष सुधी वरसाद न पड्यो त्यारे एनुं कारण ब्राह्मणोने पूछतां एमणे कह्युं के ‘‘राज्यनो हक तमारा मोटा भाईनो छे, ते वनमां गयो अने तमे गादी पर छो तेथी तमे *परिवेत्ता थया, आने लईने वरसाद थतो नथी. जो नगर अने देशनी उन्नति करवां होय तो मोटा भाईने राज्य आपो ॥१३-१५॥
विशेष - ‘‘दाराग्निहोत्रसंयोग कुरुते योग्रजे स्थिते, परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः’’ जे पुरुष पोतानो मोटो भाई होवा छतां एनी पहेलां ज विवाह अने अग्निहोत्रनो संयोग करे छे तेने परिवेत्ता जाणवो अने एनो मोटो भाई ‘परिवित्ति’ कहेवाय छे. ज्यारे ब्राह्मणोए एम कह्युं त्यारे शन्तनुं मोटा भाई देवापिने मळ्या अने ‘‘तमे राज्य करो’’ एम कह्युं. त्यारे देवापिए वेदवाक्योनो अनादर कर्यो. हवे शन्तनुना कारभारी अश्मरात वगेरेए विचार्यु के ‘‘जो ए वेदनी निन्दा पाखण्ड वगेरे करे तो ज ए पतित थाय अने तो ज शन्तनुनो राज्यनो हक थाय अने वरसाद वरसे’’. तेथी ए वनमां गया अने एनी पासे ब्राह्मणोने एनी द्वारा ज पाखण्ड शीखवी एने वेदविमुख कर्यो ॥१६॥
त्यारे वरसाद वरस्यो. देवापि योग करी कलाप ग्राममां रह्यो. ज्यारे कलियुगना अन्तमां सोमवंश नाश पामशे त्यारे सत्ययुगनी शरूआतमां पृथ्वी उपर सोमवंशने ए फरी स्थापन करशे. शन्तनुना नाना भाई बाह्लीकथी सोमदत्त थयो. सोमदत्तने भूरि, भूरिश्रवा अने शल नामे त्रण पुत्रो थयाम् ॥१७-१८॥
(ब्राह्मणना शापथी गङ्गाजीने मनुष्यपणुं प्राप्त थयुं) गङ्गाजी भूलोकमां आव्यां. एनो स्वयम्वर थयो त्यां शन्तनुं गया ते शन्तनुने गङ्गाजी परण्यां. एनाथी नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्म नामना पुत्र थया. ए अन्तःकरणने जीतनार, सर्व ज्ञानीओमां श्रेष्ठ, मोटा भगवद्भक्त अने आत्मज्ञानी थया ॥१९॥
ते जगतना समस्त वीरोना अग्रगण्य नेता हता, बीजानी तो वात ज शुं पण तेमणे पोताना गुरु भगवान् परशुरामजीने पण युद्धमां सन्तुष्ट करी दीधा हता. शन्तनुन्द्वारा दाशराजनी *कन्याना गर्भथी बे पुत्रो थया-चित्राङ्गद अने विचित्रवीर्य. [[५४७]] चित्राङ्गदने चित्राङ्गद नामना गन्धर्वे मारी नाख्यो. आ ज दाशराजनी कन्या सत्यवतीथी पराशरजीथी मारा पिता, भगवानना कलावतार स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी अवतर्या. एमणे वेदोनी रक्षा करी, हे परीक्षित! में एमनी पासेथी ज आ श्रीमद् भागवत पुराणनुं अध्ययन कर्युं हतुं. आ पुराण परम गोपनीय अत्यन्त रहस्यमय छे. तेथी ज मारा पिताश्री भगवान् व्यासजीए पोताना पैल वगेरे शिष्योने आनुं अध्ययन न कराव्युं, मने ज एनो योग्य अधिकारी समजवामां आव्यो! एक तो हुं एमनो पुत्र हतो अने बीजुं शान्ति वगेरे गुण मारामां विशेष हता. शन्तनुना बीजा पुत्र विचित्रवीर्ये काशिराजनी कन्या अम्बिका अने अम्बालिका साथे लग्न कर्युं हतुं. आ बन्नेने भीष्मजी स्वयम्वरथी बलपूर्वक लई आव्या हता. विचित्रवीर्य पोतानी बन्ने पत्नीओमां एटला आसक्त थई गया के तेने क्षय थई गयो अने तेनुं मृत्युं थयुम् ॥२०-२४॥
विशेषः आ कन्या वास्तवमां उपरिचर वसुना वीर्यथी माछलीना गर्भथी उत्पन्न थई हती. पण दाश (खलासी) द्वारा तेनुं पालन थयेल होवाथी ते दाशकन्या कहेवाई. (दाश = माछीमार, खारवो) ए निःसन्तान गुजरी गयो. एनी माता सत्यवतीए पोताना पुत्र व्यासने निःसन्तान भाई विचित्रवीर्यनी स्त्रीओमां पुत्र उत्पन्न करवानी आज्ञा करतां अम्बिकाथी धृतराष्ट्र अने अम्बालिकाथी पाण्डु बे पुत्रो उत्पन्न कर्या अने तेनी दासीथी त्रीजा पुत्र विदुरजी थया ॥२५॥
धृतराष्ट्रने गान्धारीथी सो पुत्रो थया तेमां दुर्योधन सौथी मोटो हतो अने दुःशला नामनी कन्या थई ॥२६॥
पाण्डुनी पत्नी कुन्ती हती. किन्दमना शापथी पाण्डु स्त्री सहवास करी शक्ता न होता. तेथी तेनी पत्नी कुन्तीना गर्भथी धर्म, वायु अने इन्द्रद्वारा क्रमशः युधिष्ठिर, भीमसेन अने अर्जुन नामना त्रण पुत्रो उत्पन्न थया. आ त्रणे-त्रण महारथीओ हता ॥२७॥
पाण्डुनी माद्री नामनी बीजी स्त्रीमां अश्विनीकुमारोथी नकुल अने सहदेव नामे बे पुत्रो थयां. द्रौपदीने पाञ्च पाण्डवोथी पाञ्च पुत्रो थया ते तमारा काका थाय ॥२८॥
युधिष्ठिरथी द्रौपदीमां प्रतिविन्ध्य थयो, भीमथी श्रुतसेन थयो, अर्जुनथी श्रुतिकीर्ति थयो, नकुलथी शतानीक थयो, हे राजन्! सहदेवथी श्रुतकर्मा थयो ॥२९॥
[[५४८]] युधिष्ठिरथी पौरवीमां देवक थयो. भीमसेनने हिडम्बाथी घटोत्कच थयो ॥३०॥
एने काली नामनी बीजी स्त्रीथी सर्वगत नामनो पुत्र थयो. पर्वतनी विज्या नामनी पुत्रीमां सहदेवथी सुहोत्र नामे पुत्र थयो ॥३१॥
नकुले करेणुमतीमां नरमित्र उत्पन्न कर्यो, अर्जुने उलूपी नामनी नागकन्यामां इरावान नामना पुत्रने अने मणिपूरना राजानी पुत्रीमां बभ्रुवाहनने उत्पन्न कर्या. ए बभ्रुवाहन अर्जुननो पुत्र होवा छतां एना नानानो ज पुत्र गणायो. केमके मणिपुरना राजाए कन्या आपी त्यारे एवी शरत करेली के एनो पुत्र पोते राखशे ॥३२॥
अर्जुनथी सुभद्रामां तारा पिता अभिमन्यु थया. ए अभिमन्युए बधा अतिरथीओने जीती लीधा हता. अभिमन्युथी उत्तरामां तमे थया छो ॥३३॥
कुरुओ बहु ओछा थई गया त्यारे त्यां तमे उत्तराना गर्भमां हता तेना उपर अश्वत्थामाए ब्रह्मास्त्र मूकेलुं छतां तमे कृष्णना प्रतापे मृत्युमान्थी बच्या ॥३४॥
हे तात! तमने चार पुत्रो थया. जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन अने पराक्रमी उग्रसेन ॥३५॥
तमने तक्षक नाग करडशे अने तमारुं एने लीधे मृत्यु थशे ए वात जनमेजयना जाणवामां आवतां ए क्रोधे भराई ए सर्पयागना अग्निमां सर्पोने होमी देशे ॥३६॥
कावषेय तुरने पुरोहित करीने ते अश्वमेधनो घोडो छोडी बधा राजाओने जीतीने भगवाननुं अश्वमेधयागवडे यजन करशे ॥३७॥
ए जनमेजयनो पुत्र शतानीक थशे ते याज्ञवल्क्यनी पासेथी वेदत्रयी भणीने, शौनक पासेथी अस्त्रज्ञान अने कर्मज्ञान सम्पादन करशे. (अस्त्रज्ञान कृपाचार्य पासेथी मेळवशे एम विष्णु पुराणमां कहेवामां आव्युं छे) ॥३८॥
ए शतानीकनो पुत्र सहस्त्रानीक, तेनो अश्वमेधज थशे. एनो असीमकृष्ण अने एनो नेमिचक्र थशे ॥३९॥
ज्यारे गङ्गानदी हस्तिनापुरने ताणी जशे त्यारे ए कौशम्बीमां जईने सुखपूर्वक रहेशे. नेमिचक्रनो पुत्र चित्ररथ अने चित्ररथनो कविरथ थशे ॥४०॥
कविरथनो पुत्र वृष्टिमान, तेनो सुषेण, तेनो सुनीथ, तेनो नृचक्षु, तेनो सुखीनल, तेनो परिप्लव, तेनो मेधावी, मेधावीनो सुनय, तेनो नृपञ्जय, [[५४९]] नृपञ्जयनो दुर्व, दुर्वनो तिमि नामनो पुत्र थशे ॥४१-४२॥
तिमिनो बृहद्रथ, तेनो सुदास, तेनो शतानीक, शतानीकनो दुर्दमन, तेनो वहीनर, तेनो दण्डपाणि, दण्डपाणिनो निमि, निमिनो क्षेमक पुत्र थशे. आ प्रमाणे में तमने ब्राह्मण अने क्षत्रिय बन्नेने उत्पन्न करनार चन्द्रवंशनुं वर्णन सम्भळाव्युं. मोटा-मोटा देवताओ अने ऋषिओ आ वंशनुं बहुमान करे छे ॥४३-४४॥
आ वंश कलियुगमां राजा क्षेमक सुधी ज चालशे. बाद ते समाप्त थई जशे. हवे हुं भविष्यमां थनारा मगध देशना राजाओना वंश कहुं छुम् ॥४५॥
जरासङ्घना पुत्र सहदेवनो पुत्र मार्जारि थशे. (सोमापि पण एनुं बीजुं नाम छे जे प्रथम कहेवामां आव्यो छे). एनो पुत्र श्रुतश्रवा, तेनो अयुतायु, अयुतायुनो निरमित्र थशे ॥४६॥
एनो सुनक्षत्र, सुनक्षत्रनो बृहसेन, तेनो कर्मजित्, तेनो सूतञ्जय, तेनो विप्र अने एनो शुचि थशे ॥४७॥
शुचिनो क्षेम थशे. तेनो सुव्रत, सुव्रतनो धर्मसूत्र अने एनो शम थशे. एनो द्युमसेन, तेनो सुमति अने सुमतिनो सुबल थशे ॥४८॥
सुनीथः सत्यजिदथ विश्वजिद् यद् रिपुञ्जयः ॥ बार्हद्रथाश्च भूपाला भाव्या साहस्रवत्सरम् ॥४९॥
एनो सुनीथ तेनो सत्यजित्, तेनाथी विश्वजित् पुत्र थशे. एनो रिपुञ्जय पुत्र थशे. आ बधा बृहद्रथना वंशना (हवे पछीना राजाओ थशे ते द्वादशस्कन्धमां कहेवामां आवशे.) राजाओ एक हजार वर्ष सुधीमां थशे ॥४९॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (चन्द्रवंश नामना बीजा महाप्रकरणना अवान्तर उत्तम प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘अजमीढ राजाना वंशनुं वर्णन’’ नामनो बावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामात्मक स्वरूप भागवत कथाने (कथानी दक्षिणा, पोथीभेट वगेरे रीते) वेचनारने ते वेचाणना बदलामां मळतां दान- दक्षिणाथी वधु बीजुं कंई पण फळ आपतुं नथी.(श्रीमहाप्रभुजी)
ईं उं ईं उं
[[५५०]]
अध्याय २३
ययातिना त्रण पुत्रोनो वंश
विशेष - अनु, द्रुह्युं अने तुर्वसु ए ययातिना पुत्रोनो वंश क्रमवडे अर्ही कहेवामां आवे छे. यदुनो वंश कहेतां छेल्लो ज्यामध थशे त्यां सुधीनी वात आ त्रेवीसमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. अनोः सभानरश्चक्षुः परोक्षश्च सुतास्त्रयः ॥ सभानरात् कालनरः सृञ्जयस्तत्सुतस्ततः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ययातिना पुत्र अनुने सभानर, चक्षु अने परोक्ष नामना त्रण पुत्रो थया. सभानरनो कालानर अने कालनरनो सृञ्जय पुत्र थयो ॥१॥
ए सृञ्जयनो जनमेजन थयो, तेनो महाशील, महाशीलनो महामना, महामनाना उशीनर अने तितिक्षु ए नामे बे पुत्रो थया ॥२॥
उशीनरना शिबि, वन, शमि अने दक्ष ए नामना चार पुत्रो थया. शिबिना वृषादर्भ, सुवीर, मद्र अने केक्य नामना चार पुत्रो थया ॥३॥
उशीनरना भाई तितिक्षुनो एक ज रुशद्रथ थयो. एनो पुत्र हेम थयो, तेनो सुतपा थयो अने सुतपानो पुत्र बलि थयो ॥४॥
ए बलिराजानी स्त्रीमां दीर्घतमा मुनिथी अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, सुह्य, पुण्ड्र अने आन्ध्र नामना राजाओ थया ॥५॥
ए अङ्ग आदि छ राजाओए पूर्व तरफ पोताना नामना छ देश वसाव्या. ए राजाओनां नाम उपरथी ए देशोनां नाम पड्यां. अङ्गनो खनपान नामनो पुत्र थयो तेनाथी दिविरथथयो ॥६॥
तेनो पुत्र धर्मरथ थयो, तेनो चित्ररथ थयो तेने प्रजा न थई. ए ज चित्ररथं रोमपादना नामथी प्रसिद्ध थयो. ए रोमपादने प्रजा न होवाथी एने एना मित्र दशरथ राजाए पोतानी शान्ता नामनी कन्या गोद आपी दीधी. एणे शान्ताने पोतानी पुत्री तरीके राखी. ए शान्ताने ऋष्यशृङ्ग मुनि परण्या जे विभाण्डक मुनिथी हरिणीथी उत्पन्न थया हता. ज्यारे रोमपादना देशमां घणा समय सुधी वृष्टि थई नहि त्यारे गणिकाओ पोताना नृत्य, सङ्गीत, वाद्य, हाव-भाव, आलिङ्गन अने अनेक प्रकारनी भेटो आपी ऋष्यशृङ्गने मोहित करी त्यां लई आवी. एना आवतां [[५५१]] ज वर्षा थई ॥७-९॥
एणे राजा पासे मरुत् नामना देवनी इष्टि करावी अने निःसन्तान राजा रोमपादने प्रजा थई. तेमज एना मित्र दशरथने प्रजा नहोती ते ज्यारे शान्ता नामनी पोतानी कन्या दशरथे ऋष्यशृङ्गने आपी त्यारे तेथी प्रसन्न थई ऋष्यशृङ्गे दशरथने पण प्रजामाटे इष्टि करावी ते इष्टिना प्रभावथी दशरथ राजा उत्तम प्रजावाळा थया. रोमपादनो चतुरङ्ग नामनो पुत्र थयो. तेनो पुत्र पृथुलाक्ष थयो ॥१०॥
ए पृथुलाक्षना बृहद्रथ, बृहत्कमां अने बृहद्भानु एम त्रण पुत्रो थया, तेमां प्रथम बृहद्रथने बृहन्मना अने बृहन्मनानो जयद्रथ थयो ॥११॥
जयद्रथने सम्भूति नामनी स्त्रीथी विजय नामनो पुत्र थयो, तेनो धृति थयो, तेनो धृतव्रत थयो, तेनो सत्कर्मा थयो अने सत्कर्मानो अधिरथ थयो ॥१२॥
कुन्तीए कन्यावस्थामां सूर्यनुं आवाहन कर्युं तेथी एणे एने पुत्र आप्यो ए पोते कुमारीका होवाथी घरमां पुत्रपालन करी शकाय नहि तेथी पेटीमां भरी गङ्गामां ए पुत्र तरतो मूकी दीधो. ए वखते अधिरथ राजा गङ्गाजी उपर फरवा आवेलो. पुत्रनी इच्छावाळो होवाथी पाणीमां तरती आवती ए पेटीमां पुत्र हतो ते एणे लई लीधो. ए पुत्र ‘कर्ण’ नामथी प्रसिद्ध थयो. अधिरथ एनो पालक पिता थयो ॥१३॥
ए कर्ण राजानो पुत्र वृषसेन थयो. हवे ययातिना त्रीजा पुत्र द्रुह्युनो वंश कहेवामां आवे छे. द्रुह्युन्नो बभ्रु थयो अने एनो सेतु थयो ॥१४॥
सेतुनो आरब्ध थयो, तेनो गान्धार, तेनो धर्म, धर्मनो धृत, धृतनो दुर्मना, तेनो प्रचेता. प्रचेताने प्राचेतस नामना सो पुत्र थया ॥१५॥
ते बधा उत्तर दिशामां म्लेच्छोना अधिपतिओ थया. (हवे ययातिना बीजा पुत्र तुर्वसुनो वंश कहे छे ः) तुर्वसुनो पुत्र वह्नि थयो, तेनो भर्ग, भर्गनो भानुमान, भानुमाननो त्रिभानु, तेनो उदार बुद्धिवाळो करन्धम नामनो पुत्र थयो. तेनो मरुत थयो. तेने पुत्र न हतो. तेथी एणे पुरुवंशना दुष्यन्त राजाने पुत्र तरीके स्वीकार्यो ॥१६-१७॥
परन्तु दुष्यन्त राज्यनी कामनाथी पुरुना वंशमां पाछो गयो. हे नरश्रेष्ठ! हवे हुं ययाति राजाना मोटा पुत्र यदुनो वंश कहुं छुम् ॥१८॥
[[५५२]] ए यदुनो महापवित्र वंश साम्भळनारना बधां ज पापनो नाश करे छे. जे मनुष्य आ यदुना वंशने साम्भळशे ते बधां पापथी मुक्त थई जशे ॥१९॥
आ वंशमां स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्णे मनुष्यना जेवा रूपमां अवतार लीधो हतो. यदुने चार पुत्रो हताःसहस्त्रजित, कोष्ठा, नल अने रिपु सहस्त्रजितथी शतजितनो जन्म थयो. शतजितना त्रण पुत्रो हताः महाहय, वेणुहय अने हैहय ॥२०-२१॥
एमां हैहयनो पुत्र धर्म थयो. धर्मनो नेत्र थयो. ए कुन्तिनो पिता हतो. ए कुन्तिनो सोहजिं, तेनो महिष्मान् अने एनो भद्रसेन थयो ॥२२॥
भद्रसेनना बे पुत्रो हता दुर्मद अने धनक. धनकने चार पुत्रो हता-कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवमां अने कृतौजा ॥२३॥
कृतवीर्यनो अर्जुन नामनो पुत्र थयो. ए सात द्वीपनो चक्रवर्ती सम्राट थयो. एणे भगवद् अवतार दत्तात्रेय पासेथी योगविद्या अने अणिमा लधिमा वगेरे योग-सिद्धिओ मेळवी हती ॥२४॥
एमां सन्देह नथी के यज्ञ, दान, तप, योग, शास्त्रश्रवण, पराक्रम अने विजयमां कोई आ सहस्त्रार्जुननी बरोबरी करी शके एवो थशे नहि ॥२५॥
सहस्त्रार्जुन एवो हतो के एनुं पराक्रम कदीये नष्ट थयुं नहोतुं. एना स्मरणथी गयेलुं द्रव्य पण पाछुं मळे एवो एना नामनो प्रताप हतो. ए दत्त भगवाननो भक्त हतो. पराक्रममां एने कोई पण पहोञ्ची शके एम नथी. एवा अर्जुनने पञ्चाशी हजार वर्ष सुधी छ इन्द्रियोना भोग भोगव्या ॥२६॥
एने एक हजार पुत्रो हता ते बधा परशुराम साथे लडाईमां गया तेमान्थी पाञ्च जीवता बाकी रह्या, बीजा तमाम मरी गया. ए बचेला पाञ्च पुत्रो जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु अने ऊर्जित हता ॥२७॥
जयध्वजने तालजङ्घ नामनो पुत्र थयो. तालजङ्घने सो पुत्रो थया. ते बधा तालजङ्घ नामना क्षत्रियो कहेवाया जेने और्व मुनिना तेजथी सगर राजाए मारी नाख्या हता ॥२८॥
ए सो पुत्रोमां वीतिहोत्र सौथी मोटो हतो. एनो पुत्र मधु थयो. ए मधुना सो पुत्रोमां वृष्णि सौथी मोटो हतो ॥२९॥
हे परीक्षित! आ ज मधु, वृष्णि अने यदुने कारणे आ वंश माधव, वार्ष्णेय [[५५३]] अने यादवना त्रण नामथी प्रसिद्ध थयो. यदुनन्दन कोष्टुना पुत्रनुं नाम वृजिनवान हतुम् ॥३०॥
वृजिनवाननो श्वाहि थयो. तेनो रुशेकु, तेनो चित्ररथ थयो, तेनो शशबिन्दु थयो जे मोटो योगी हतो. ए पण मोटा भोगवाळो अने गुणोवडे महान थयो ॥३१॥
ए *चौद महारत्नवाळो अने अजेय थयो अने महान यशस्वी हतो. शशबिन्दुने दश हजार स्त्रीओ हती ॥३२॥
विशेष - मार्कण्डेय पुराणमां चौद रत्नो आ प्रमाणे गणाव्यां छे. जे उत्तम होय ते रत्न कहेवाय छे - १. हाथी. २. घोडा, ३. रथ, ४. स्त्री, ५. बाण, ६. भण्डार (खजानो), ७. माला, ८. वस्त्र, ९. वृक्ष, १०. शक्ति, ११. पाश, १२. मणि, १३. छत्र, १४. विमान. ते पैकी एक-एकथी एने लाख-लाख पुत्रो थया तेथी ते दश हजार लाख (एकसो करोड-अबज) पुत्रवाळो हतो. एमां छ पुत्रो मुख्य हता. जेमां पृथुश्रवानो पुत्र धर्म थयो ॥३३॥
एनो उशना थयो, तेणे सो अश्वमेध यज्ञ कर्या हता. एनो पुत्र रुचक थयो. एना पाञ्च पुत्रोने हुं कहुं ए साम्भळो ॥३४॥
पुरुजित्, रुकम, रुकमेषु, पृथु अने जयामध ए पाञ्च पुत्रो थया एमां जयामधने सन्तान नहोतुं तेथी ए बीजी स्त्री करवानो हतो पण एनी प्रथम स्त्री शैब्याथी भय पामीने एणे बीजी स्त्रीनुं नाम सुद्धां न लीधुम् ॥३५॥
एक दिवस शत्रुने जीतीने जयामध शत्रुना घरनी भोज्या नामनी एक कन्याने रथमां पोतानी साथे बेसारीने लावतो हतो त्यां शैब्या एने जोतां क्रोधे भराईने पोताना पतिने बोलीः ॥३६॥
‘‘हे कपटी! आ रथमां मारी बेठक उपर बेठेली स्त्री कोण छे?’’ त्यारे राजा बीकथी बोल्यो के ‘‘आ तो तारा दीकरानी वहु छे’’ त्यारे शौब्याए ए उत्तर साम्भळी मन्द हसता पाछो प्रश्न कर्योः ॥३७॥
‘‘हुं वन्ध्या छुं, मारी बीजी सोक्य पण नथी तो पछी मारा दीकरानी वहु ए केम सम्भवे?’’ त्यारे जयामध बोल्यो - ‘‘हे राणी! तमने पुत्र थशे तेने आ कन्या उपयोगी थशे’’ ॥३८॥
शैब्या गर्भमधात् काले कुमारं सुषुवे शुभम् ॥ स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे स्नुषां सतीम् ॥३९॥
[[५५४]] एम कह्युं त्यारे शैब्या कांई बोली नहि. राजा जयामधना कथनने विश्वेदेवोए अने पितृओए अनुमोदन आप्युं. तेथी समय उपर शैब्याने गर्भ रह्यो अने एणे सुन्दर कुमारने जन्म आप्यो. ए विदर्भ नामे थयो. राजाए एने पेली कन्या परणावी एटले ए सती जयामध राजा अने शैब्यानी पुत्रवधू थई ॥३९॥
इति श्रीभागवत नवम स्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश प्रकरणनो दशमो अने अवान्तर चोथा निर्गुण प्रकरणनो पहेलो अध्याय) ‘‘ययातिना त्रण पुत्रोनो वंश’’ नामनो त्रेवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाना श्रोता-आयोजको! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ)हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो. दक्षिणा लईने कथा करनारना मनोभाव गटरना पाणी जेवा गन्धारा जाणी तेनो सङ्ग छोडवो.
अध्याय २४
विदर्भना वंशनुं रामकृष्णावधि वर्णन
विशेष - विदर्भना त्रण पुत्रोमान्थी थयेला अनेक वंशो कहेवाय छे तेमां छेल्ले राम अने कृष्ण ना प्रार्दुभावनी वात आवे छे. आटली चोवीसमां अध्यायमां कथा कही छे. तस्यां विदर्भोऽजनयत् पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ ॥ तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! ए विदर्भने भोज्याथी कुश, क्रथ अने रोमपाद एम त्रण विदर्भना कुळने आनन्द आपनार कहेवाय छे ॥१॥
रोमपादनो बभ्रु थयो, बभ्रुनो कृति, कृतिनो उशिक, उशिकनो चेदि थयो. हे राजन! आ चेदिना वंशमां ज दमघोष, शिशुपाल वगेरे राजाओ थया ॥२॥
विदर्भनो बीजो पुत्र क्रथ हतो तेनो पुत्र कुन्ति थयो, कृन्तिनो धृष्टि थयो तेनो निवृत्ति, निवृत्तिनो दशार्ह अने दशार्हनो व्योम थयो ॥३॥
व्योमनो पुत्र जीमूत थयो. तेनो विकृत्ति, तेनो भीमरथ, तेनो नवरथ अने
ईं उं ईं उं
[[५५५]] नवरथनो दशरथ थयो ॥४॥
दशरथनो शकुनि, तेनो करम्भि तेनो देवरात नामे पुत्र थयो, तेनो देवक्षत्र, तेनो मधु, तेनो कुरुवश अने एनो अनु थयो ॥५॥
अनुनो पुरुहोत्र, तेनो आयु, तेनो सात्वत थयो. तेने ७ पुत्रो थया भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध,अन्धक,महाभोज. भजमानने एक स्त्रीमां निम्लोचि, किकिण्ण अने धृष्टि नामना ३ पुत्र थया ॥६-७॥
हे प्रभो! बीजी स्त्रीथी शताजित्, सहस्त्रजित् अने अयुताजित् नामना त्रण पुत्र थया ॥८॥
सात्वतना देवावृधनो बभ्रु नामे पुत्र थयो. ए पिता-पुत्र जेनेमाटे लोको एम कहेता हता के आपणे दूर रही साम्भळीए तेमज नजीक रही जोईए तो एवाने एवा. एम एने लोकद्वारा जेवा दूरथी साम्भळेल तेवा ज लोकोए पासे आवीने जोया ॥९॥
बभ्रु मनुष्योमां श्रेष्ठ छे ज्यारे देवावृध तो देवनी तुल्य छे. ए बभ्रु अने देवावृधने लीधे एना वंशना छ हजार अने तोत्तेर राजाओ मोक्षने पाम्या ॥१०॥
महाभोज पण अत्यन्त धर्मात्मा थयो. ए सात्वतनो पुत्र हतो. एना ज वंशना राजाओ ‘भोज’ एवा नामथी प्रसिद्ध थया ॥११॥
हे परन्तप! वृष्णिने, सुमित्र अने सुधाजित्ना शिनि अने अनमित्र एम बे पुत्र थया. अनमित्रनो निम्न थयो ॥१२॥
ए निम्नना सत्राजित् अने प्रसेन ए नामे बे दीकरा थयो. अनमित्रनी बीजी स्त्रीमां बीजो शिनि दिकरो थयो. ए शिनिनो सत्यक थयो ॥१३॥
एनो युयुधान थयो. जे सात्यकि नामथी प्रसिद्ध थयो. तेनो जय, जयनो कुणि, कुणिनो युगन्धर थयो. अनमित्रनो त्रीजो दीकरो वृष्णि हतो ॥१४॥
वृष्णिना श्वफल्क अने चित्ररथ नामना पुत्रो थया. श्वफल्कने गान्दिनी नामनी स्त्रीथी अक्रूर उपरान्त बीजा बार पुत्रो थया. ए बारे प्रख्यात थया ॥१५॥
अक्रूरना बार भाई - आसङ्ग सारमेय मृदुर मृदुविद् गिरि धर्मवृद्ध युकर्मा क्षत्रोपेक्ष अरिमर्दन शत्रुघ्न गन्धमादन अने प्रतिबाहु नामे हता. तेमने सुचीरा नामनी एक बहेन पण हती. अक्रूरने बे पुत्रो हता ॥१६-१७॥
एनां नाम देववान अने उपदेव हतां. श्वफल्कना भाई चित्ररथने पृथु, विदुरथ [[५५६]] वगेरे घणा पुत्रो हता जे वृष्णि वंशीओमां श्रेष्ठ मानवामां आवे छे ॥१८॥
सात्वतना पुत्र अन्धकना कुकुर, भजमान, शुचि अने कम्बलबर्हि नामना चार पुत्रो थया. तेमां कुकुरनो पुत्र वह्नि थयो. तेनो विलोमा, तेनो कपोतरोमा, तेनो अनु थयो. तुम्बुरु गन्धर्वनी साथे अनुने गाढ मित्रता हती. ए अनुनो अन्धक थयो, तेनो दुन्दुभि थयो, तेनो अरिधोत, तेनो पुनर्वसु थयो ॥१९-२०॥
एने आहुक पुत्र थयो अने आहुकी कन्या थई. आहुकना बे पुत्र देवक अने उग्रसेन हता. देवकने चार पुत्रो थयाः ॥२१॥
देववान, उपदेव, सुदेव अने देववर्धन. ए चार भाईने सात बहेनो पण हती, हे राजन्! तेमां धृतदेवा सौथी मोटी हती ॥२२॥
एनी नानी बहेनो शान्तिदेवा, उपदेवा श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा अने देवकी ए साते कन्याओने वसुदेवजी परण्या ॥२३॥
कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कङ्क, शङ्कु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि अने तृष्टिमान ए उग्रसेनना नव पुत्रो थया ॥२४॥
कंसा, कंसवती, कङ्का, शूरभू अनेराष्ट्रपालिकाए पाञ्च उग्रसेननी कन्याओनी कन्याओ हती. ते वासुदेवना नानाभाई देवभाग वगेरेनी साथे परणी हती ॥२५॥
अन्धकना चार पुत्रोमां प्रथम पुत्र कुकुरनो वंश कह्यो, हवे बीजा पुत्र भजमाननो वंश कहेवाय छे. भजमाननो पुत्र विदूरथ थयो. तेनो शूर थयो, तेनो शिनि थयो, तेनो स्वयम्भोज थयो अने स्वयम्भोजनो हृदीक नामनो पुत्र थयो ॥२६॥
हृदीकना देवबाहु, शतधनु अने कूतवर्मा एम त्रण पुत्र थया. देवमीढना पुत्र शूरने मारिषा नामनी स्त्री हती. तेनाथी शूरने दश दीकरा थया ते बधा पवित्र हता. वसुदेव देवभाग देवश्रवस आनक सृञ्जय श्यामक कङ्क शमीक वत्सक अने वृक ए एमनां नाम हतां. ज्यारे वसुदेवजीनो जन्म थयो त्यारे देवनां आनक अने दुन्दुभि आपमेळे वाग्यां हताम् ॥२७-२९॥
तेनाथी वसुदेवजीनुं ‘आनक-दुन्दुभि’ नाम पण पड्युं. वसुदेवजीने त्यां भगवान् पुत्ररूपे पधारवाना हता तेथी ज वसुदेवजीना जन्मकाळे नगारां वाग्यां हतां. पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा अने राजाधिदेवी ए पाञ्च वसुदेवजीनी बहेनो अने शूरनी पुत्रीओ हती. शूरसेने पोतानी पुत्री पृथाने एनो मित्र [[५५७]] कुन्तिभोज जे अपुत्र हतो तेने पुत्री तरीके आपी हती ॥३०-३१॥
ज्यारे पृथा कुंवारी हती त्यारे एना पिताने त्यां दुर्वासा मुनि आवेला. पृथाए एने सेवाथी प्रसन्न कर्या त्यारे दुर्वासाए देवने बोलावी आपनारी विद्या पृथाने शीखवी. ए विद्यानुं पारखुं करवानी इच्छाथी पृथाए परम पवित्र भगवान् सूर्यनुं आवाहन कर्युम् ॥३२॥
त्यारे भगवान् सूर्य तत्काळ त्यां आवीने उभा रह्या. एने जोईने पृथाना मनमां खूब आश्चर्य थयुं - ‘‘हे देव! में तो मात्र मन्त्र खरो छे के केम ए जाणवानी इच्छाथी आपने बोलाव्या. में ए जोई लीधुं. हवे आप स्वस्थानमां पधारो. वगर कामे में आपने बोलाव्या ए माटे मने क्षमा करो ॥३३॥
ज्यारे आम पृथाए सूर्यने कह्युं त्यारे सूर्य बोल्या - ‘‘हे देवी! मारुं आववुं व्यर्थ न होय; तेथी हुं तारामां गर्भ धारण करी तने पुत्र आपीने जईश. हे सुमध्यमे! हुं तारामां गर्भ एवी रीते धारण करीश के तारी योनिने कोई प्रकारनो दोष लागशे नहि तारा कन्यापणानो विधात नहि थाय’’ ॥३४॥
एम कही एनामां गर्भ राखी सूर्य स्वर्गमां गया. तुरत ज बीजा सूर्य जेवो कुमार पेदा थयो ॥३५॥
लोकनिन्दाना भयथी पृथाए ए कुमारने गङ्गानदीना जळमां दुःखी मनथी छोडी दीधो. ए पृथाने तमारा प्रपितामह सत्य पराक्रमवाळा पाण्डुराजा परण्या ॥३६॥
करुष देशनो अधिपति वृद्धशर्मा पृथानी नानी बहेन श्रुतदेवाने परण्यो, जेने एनाथी दन्तवक्त्र थयो. सनकादिना शापथी दन्तवक्त्ररूपे विजयनो आ त्रीजो जन्म थयो ॥३७॥
केक्य देशनो राजा धृष्टकेतु श्रुतकीर्तिने परण्यो तेनाथी एने सन्तर्दन वगेरे पाञ्च पुत्रो थया ते ‘कैक्य’ कहेवाया ॥३८॥
अवन्तीना जयसेने राजाधिदेवीथी विन्द अने अनुविन्द उत्पन्न कर्या. चेदि देशनो राजा दमधोष श्रुतश्रवा नामनी शूरनी कन्याने परण्यो ॥३९॥
तेनो शिशुपाल थयो. एना जन्मनी वात प्रथम (सातमा स्कन्धमां) कहेवामां आवी छे. ए प्रमाणे वसुदेवनी बहेनोनो वंश कहेवायो, हवे वसुदेवना भाई देवभागनो वंश आवे छे. देवभागने कंसा नामनी स्त्री हती तेनाथी एने चित्रकेतु अने बृहदबल थया ॥४०॥
[[५५८]] देवश्रवाने कंसवतीथी सुवीर अने इषुमान बे पुत्रो थया. कङ्काथी आनकने सत्यजित् अने पुरुजित् बे पुत्रो थया ॥४१॥
सञ्जये पोतानी राष्ट्रपाली नामनी पत्नीथी वृष अने दुर्मर्षण आदि कंईक पुत्रो उत्पन्न कर्या. श्यामके शूरभूमिमां हरिकेश अने हिरण्याक्ष नामना बे पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥४२॥
वत्सके मिश्रकेशी अप्सराथी वृक वगेरे केटलाय पुत्रो उत्पन्न कर्या. वृके दुर्वाक्षीथी तक्ष, पुष्कर अने शाल वगेरे पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥४३॥
शमीके सुदामिनी नामनी स्त्रीथी सुमित्र, अर्जुनपाल वगेरे पुत्रोने उत्पन्न कर्या. कङ्के कर्णिकाथी ऋतधाम अने जय ए बे पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥४४॥
पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला, देवकी वगेरे वसुदेवनी घणी स्त्रीओ हती तेमां देवकीजी मुख्य हताम् ॥४५॥
वसुदेवने रोहिणीजीथी बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव, कृत वगेरे पुत्रो थया ॥४६॥
वसुदेवने पौरवीथी भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद, भद्र वगेरे बार पुत्रो थया ॥४७॥
नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर वगेरे मदिराना पुत्रो थया. कौसल्याए एक ज वंशउजागर पुत्र उत्पन्न कर्या हतो. एनुं नाम केशी हतुम् ॥४८॥
रोचनामां हस्त, हेमाङ्गद वगेरे पुत्रो थया. इलामां उरुवल्क आदि थया जे यादवोमां श्रेष्ठ हता ॥४९॥
धृतदेवाथी वसुदेवजीने विपृष्ट नामनो एक पुत्र थयो. हे राजन्! शान्तिदेवाना श्रम, प्रतिश्रुत वगेरे अनेक पुत्रो थया ॥५०॥
कल्पवर्ष वगेरे दश राजा उपदेवाना पुत्रो थया अने श्रीदेवाथी वसु, हंस, सुवंश वगेरे छ पुत्रो थया ॥५१॥
देवरक्षिताथी गद वगेरे नव पुत्र थया. सहदेवामां वसुदेवे आठ पुत्रोनुं आधान कर्युं तेमां पुरुविश्रुत मुख्य छे. जेम साक्षात् धर्म आठ वसुने पेदा करे तेम वसुदेवे आठ पुत्र सहदेवाथी उत्पन्न कर्या. वसुदेवे देवकीमां आठ पुत्रोने जन्म आप्यो ॥५२-५३॥
कीर्तिमान, सुषेण, उदार बुद्धिवाळा भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्र, सङ्कर्षण [[५५९]] जे साक्षात् शेष रूप छे ॥५४॥
तेमां आठमा साक्षात् हरि पोते छे. वसुदेवने देवकीथी सुभद्रा नामनी कन्या थई ते तमारा पितानी माता अने अर्जुननी स्त्री अने मोटा भाग्यवाळी श्रीकृष्णनी बहेन थई ॥५५॥
ज्यारे-ज्यारे पृथ्वी उपर धर्मनो नाश अने पापनो वधारो थाय त्यारे-त्यारे भगवान् हरि पोताना आत्माने उत्पन्न करे छे. हे महीपते! आ भगवानने पोतानी माया सिवाय अर्ही आववानुं के कांई कर्म करवानुं कारण नथी केमके ए सर्वथी पर, सर्वना द्रष्टा अने सर्वना आत्मा छे. एनी मायानी चेष्टा ए ज पुरुषनां जन्म, स्थिति अने लयनुं कारण थाय छे; एनो अनुग्रह ज जन्मादिनी निवृत्तिनुं अने आत्मश्रेयनुं कारण छे ॥५६-५८॥
राजानां चिह्न धारण करी असुरो अक्षौहिणीना पतिओ थईने पृथ्वीउपर भार करता हता तेनो भार उतारवामाटे भगवाननुं पृथ्वीउपर आववुन्थयुम् ॥५९॥
मधुदैत्यने मारनार भगवान् श्रीकृष्णे देवना देवथी पण न थई शके तेवां असङ्ख्य कर्म सङ्कर्षणनी साथे कर्या ॥६०॥
कलियुगमां थनार लोकोनां दुःखने मटाडवामाटे एमणे भक्तो उपर अनुग्रह कर्यो अने एम करी पवित्र, शोक दुःख अने अज्ञान दूर करे तेवा पोताना यशने एमणे पृथ्वी उपर विस्तार्यो, जे गावाथी कलिना जीवो कृतार्थ थशे ॥६१॥
ए यश सत्पुरुषोना कानने अमृतरूप छे. ए यशरूप तीर्थमां जो एक वखत कान रूपी अञ्जलिथी आचमन कर्युं तो भलेने सत्पुरुषोथी गवायेलो ए यश कानथी थोडोक साम्भळवामां आवे तो पण एनाथी कर्मनी बधी वासनाओ छूटी जाय छे ॥६२॥
भोज वृष्णि अन्धक मधु शूरसेन दशार्ह कुरु सञ्जय अने पाण्डवो जेना वखाण करे तेवी ए भगवाननी लीला छे ॥६३॥
स्नेहयुक्त स्मितवाळा अवलोकनवडे, उदार वाक्योवडे, पराक्रमथी भरेली लीलाओवडे अने सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूपवडे भगवान् मनुष्य लोकने रमाडवा लाग्या ॥६४॥
भगवाननुं श्रीमुख मकराकृत कुण्डळोथी तथा सुन्दर नाकथी शोभतुं हतुं. ए कपोलथी सुन्दर देखातुं हतुं, विलासथी भरेलुं एमनुं हास्य हतुं अने नित्य उत्सववाळुं ए हतुं तेने जोईने स्त्री-पुरुषो आनन्दित थाय छे एमना दर्शनथी [[५६०]] तृप्त थाय छे एटलुं ज नहि पण भगवानना दर्शनमां निमेष मात्र अन्तरायरूप थवाथी दर्शन करनार स्त्री-पुरुषो गुस्से थाय छे ॥६५॥
भगवान् पोते स्वस्वरूपे प्रगट्या, पिताना घरमान्थी व्रजमां गया त्यां एमणे व्रजवासीओनी समृद्धि वधारी जेटला दैत्यो शत्रुपणे आव्या तेओने मार्या पछी ए त्यान्थी मथुरा पधार्या अने हजारो स्त्रीओ परण्या तेमां घणा पुत्र उत्पन्न कर्या. पोतानी आज्ञारूप वेदने लोकमां प्रसिद्ध करता भगवाने यज्ञोवडे पोताना स्वरूपनुं ज पोते यजन कर्युम् ॥६६॥
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन् कुरूणामन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः ॥ दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विधोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात् स्वधाम ॥६७॥
कौरवमां परस्पर द्वेष कराव्यो. क्लेशने निमित्त करीने पृथ्वीनो मोटो भार दूर कर्यो. युद्धमां राजाओनी सेनाओने केवळ दृष्टिवडे निःसत्त्व बनावी दीधी अने अर्जुननी जीव बोलावी, उद्धवजीने परमतत्त्वनो उपदेश आप्यो, स्वस्वरूपे श्रीकृष्ण स्वधाममां पदार्या. सङ्क्षेपमां श्रीकृष्ण केवी रीते पधार्या एनुं आ पवित्र चरित्र कही बताव्युम् ॥६७॥
इति श्रीभागवत नवमस्कन्धमां (बीजा चन्द्रवंश प्रकरणनो अगियारमो अने अवान्तर निर्गुण प्रकरणनो बीजो) ‘‘विदर्भना व)ंशनुं रामकृष्णावधि वर्णन’’ नामनो चोवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. नवमस्कन्ध सम्पूर्ण पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्। वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि॥ ‘‘प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो’’ —श्रीवल्लभाचार्य. प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!