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अध्याय-१५,अष्टम स्कन्ध ३२७ अष्टम स्कन्ध-मन्वन्तर लीला सद्धर्म निरूपण (जमणुं स्तन) अध्याय२४ हरिस्मरण दान स्वोक्तनिर्वाह मत्स्यचरित्र अ.१-४ अ.५-१४ अ.१५-२३ अ.२४ (दानमां कहेला प्रथम नव प्रकारो) धर्म अर्थ काम मोक्ष सत्त्वसत्त्व सत्त्वरज सत्त्वतम रजःसत्त्व रजोरजः रजस्तमः तमःसत्त्व तमोरजः तमस्तमः निर्गुण

विशेष - सप्तम स्कन्धमां त्रण प्रकरणोथी कर्मनी वासना कही. आ अष्टम स्कन्धमां सद्धर्म कहेवाय छे. ‘मन्वन्तर’ एटले सद्धर्म. जे धर्मो देहादिथी थाय छे ते प्राकृत धर्मो छे. भक्ति ए तो जीवधर्म छे. सद्धर्मना २४ भेद छे, प्रकृतिना भेद पण २४ छे. तेथी सद्धर्मना श्रवणथी प्राकृत दोष निवृत्त थाय छे. प्राकृत वासनाओ पण २४ प्रकारनी छे ते २४ प्रकारना सद्धर्मना श्रवण (उत्तम भक्ति) थी निवृत्त थाय ए कहेवानुं तात्पर्य छे. पूर्वमीमांसाना बार अध्याय छे तेमां प्रथम छ अध्यायमां उपदेश छे अने बीजा छ मां अतिदेश धर्म छे; अर्थात्‌ प्रथममां प्रकृतियोगो छे अने बीजामा विकृतियोगो छे. एवी ज रीते श्रीभागवतना बार स्कन्धमां प्रथमना छ स्कन्धमां उपदेश छे अने सातथी बार सुधीमां अतिदेश अने ए बन्ने धर्मोना प्रवृत्ति निवृत्ति वडे बे प्रकार होवाथी २४ भेद थाय. आ अष्टम स्कन्धना २४ अध्यायनी सङ्ख्यानुं तात्पर्य छे.३२८ अष्टम स्कन्ध श्रीआचार्यचर द्वि, सुबोधिनीमां २४ अध्यायनुं तात्पर्य आ प्रमाणे कहे छे - सद्धर्म त्रण प्रकारना छे - काया, वाचा अने मन वडे. कायाथी दश प्रकारना, वाचाथी दश प्रकारना अने मनथी चार प्रकारना. सर्वेन्द्रियोवडे सद्धर्मनुं आचरण थवुं जोईए. सप्तम स्कन्धमां कर्मवासनाओ जीवमां रहेली कही छे. ए वासनाओ सद्धर्मना आचरणथी नष्ट थाय छे. तेथी ‘‘मन्वन्तराणि सद्धर्मः’’ ए ऊति-कर्मवासनाओ छे तेनो व्युत्क्रमथी निर्देश कर्यो छे. कर्मजन्य वासना प्राकृत होय छे तेथी एनो नाश थाय त्यारे भगवद्भक्तिनो जीवने अधिकार थाय छे तेथी ऊतिलीला पछी सद्धर्मनी आवश्यकता सिद्ध थाय छे. ए धर्मो तामस, सात्त्विक, राजस अने निर्गुण एम चार प्रकारना छे. आ स्कन्धमां चार प्रकरण छे. धर्मनो विषय भगवान्‌ छे. ए चतुर्मूर्ति होवाथी चार अध्यायनुं प्रथम प्रकरण छे. ए चार प्रकरणना अध्यायनो क्रम आ प्रमाणे ४.१०.९.१ सङ्ख्यानो छे. त्रण प्रकरण सगुण छे ज्यारे एक निर्गुण छे. निर्गुण धर्मने कहेनार भगवान्‌ मत्स्य ए सर्व गुणावतारना रह्स्यने जाणनार छे तेथी २४मा अध्यायमां मत्स्यप्रादुर्भाव छे. मनु, तेना पुत्रो, ऋषिओ, देवो, इन्द्र अने भगवदावतार ए छ मन्वन्तर कहेवाय छे. भगवान्‌ पोतानां छ रूप सद्धर्मने प्रवर्तावे छे. मनु चौद छे - पहेला मनुए उपनिषदर्थ विचार्यो, बीजाए ब्रह्मचर्य पाळ्युं, त्रीजाए सत्यनी रक्षा करी, चोथोए वेदाभ्यास कर्यो, पाञ्चमाए व्रत सह भगवत्सेवा करी, छठ्ठाए भगवद्भकतो तथा देवोनी सेवा करी, सातमाए वैष्णव व्रत कर्यां जेमां एकादशी मुख्य छे, आठमाए पुष्टिमार्गीय धर्म कह्या, नवमाए यज्ञादि धर्मो कह्या, दशमाए लोको सुखी थाय एवा लोकरक्षक धर्म कह्या. अगियारमाए स्मृतिना धर्म कह्या, बारमाए वैराग्यना कर्म कह्या, तेरमाए उपास्य देवोना पोषक धर्म कह्या अने चौदमांए मनुष्यने धर्मपूर्वक भोग्य धर्म कह्या. आ चौद धर्मोनुं दोहन करी एमान्थी मुख्य त्रण धर्म अंशी कहेवाय छे. आपत्ति वखते प्रभुने शरणे जवुं ए एक धर्म. ते धर्म पहेलाथी ते चोथा अध्याय सुधीमां गजेन्द्रमोक्षना प्रसङ्गथी कहेवामां आवे छे तेथी चार अध्यायनुं पहेलुं प्रकरण समजवुं. हरिस्मरणना चार अध्याय कहेवानुं तात्पर्य ए छे के भगवान्‌ वासुदेव चतुर्मूर्ति छे. भगवाननी स्मृतिथी धर्मो सिद्ध थाय छे तेमां पण धर्म बाद ए थतां क्लेश थाय छे ए बताववा माटे इन्द्रद्युम्ननी कथा कही छे. इन्द्रद्युम्न राजा पूजामां हतो तेनुं ध्यान बहार नहोतुं एटलामां अगत्स्य पधार्या. इन्द्रद्युम्न समाधिमां होवाथी एने बोलाव्या नहि छतां मुनिए पोतानुं अपमान थयेलुं मान्युंअष्टम स्कन्ध ३२९ पण राजा तो समाधिस्थ होवाथी ब्राह्मणनुं अपमान करवानो तेनो इरादो नहोतो तेथी ए अगस्त्यना शापथी हाथी थयो तो पण उपासनाना प्रभावथी गजत्वमां एने भगवत्स्मृति न गई. अगस्त्य शिवभकत हता. शिवभकतने भृगुनो शाप हतो तेथी एणे भकतने भगवान्‌ मेळवतां विलम्ब कराव्यो. खरी रीते कहीए तो ‘‘आसक्तौ भगवानेव शापं दापयति कवचित्‌ अहङ्कारेथवा लोके तन्मार्गस्थापनाय हि’’ ए न्यायथी भगवान्‌ ज विचारे ते थाय तेथी इन्द्रद्युम्नने शाप पण भगवदिच्छाथी ज थयो एम समजवुं. धर्ममर्यादामां स्थापनामाटे ज शाप अपायो छे. जीव भगवदीय छतां ए भगवानना उद्‌देशथी पण बीजो मार्ग स्वीकारे तो एने भगवान्‌ ए मार्गे जतो अटकावी पोते धारे ते मार्गे अने फळ सुधी पहोञ्चाडे त्यारे भगवान्‌ भक्तिथी प्रसन्न थाय छे. इन्द्रद्युम्न विष्णु व्रतमां तत्पर हतो. ए जो निष्काम होत तो एने विघ्न न आवत पण एनुं व्रत सकाम होईने एने तामस योनिमां ऊतरवुं पड्युं तेथी ए निःसाधन थयो. पूर्वजन्मनुं स्मरण रहेतां अने भगवद्भक्ति थई तेथी एनो प्रभुए मोक्ष कर्यो. ‘‘भक्‌त्या तुतोष भगवान्‌ गजयूथपाय’’ ‘‘तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये’’ इत्यादि वाकयोथी भगवान्‌ प्रसन्न थाय त्यारे भकतने फळमां कांई बाकी रहेतुं नथी. सकामता गया पछी भकत निर्गुण थाय तेने भक्ति करतां विघ्न आवे तो भगवान्‌ एने आपात्तिमान्थी बचावे छे. आ गजना दृष्टान्तथी बराबर सिद्ध थाय छे. अम्बरीष अने दुर्वासा ना प्रसङ्गथी पण भगवान्‌ भक्तनी रक्षामां तत्पर होवानुं स्पष्ट प्रतीत थाय छे. वर्णनमां हाथीने जे जातनी सम्पत्ति जोईए तेवी वर्णवी. हाथी-हाथणीओथी आवृत थईने फरे छे तेनाथी एने काम सिद्ध थई जाय छे. पण ए काम लौकिक छे तेथी एने ए कामनुं फळ क्लेशमां परिणम्युं त्यारे एणे प्रार्थनामां ‘‘प्रपद्ये अवतुं’’ शब्दो कह्या तेथी भगवत शरणागतिनी मुख्य कामना एणे प्रकट करी अने भगवाननुं शरण स्वीकारी पोतानुं कष्ट निवेदन कर्युं. भगवाने पण एनुं कल्याण कर्युं. अर्ही आपत्तिमां ‘‘हरि स्मरण’’ नामनुं प्रथम प्रकरण चार अध्यायनुं पूर्ण थयुं. हवे पछी दश अध्यायथी बीजुं प्रकरण कहेवाय छे. बीजा प्रकरणमां सम्पत्ति होय तो दान करवुं ए ‘धर्म’ कहेवामां आव्यो छे. दानना त्रण प्रकार छेःराजस, तामस अने सात्त्विक; अने एक भेद गुणातीतनो छे - एम कुल्ले दश प्रकारना भेद छे. एटला माटे आ प्रकरणमां दश अध्याय छे. त्रण-त्रण अध्यायथी दाननो हेतु, एनुं स्वरूप अने एनुं फळ कहे छे. एना देनार केवळ भगवान्‌ छे. ए एक प्रकारना होईने ए दश सङ्ख्या थई ए दश अध्यायनी सङ्ख्याने कहेनार छे एम समजवुं. भगवान्‌ सात्त्विक, देव असुर राजस अने शिवजी तामस ए त्रण देव जीवना दोषने दूर करे त्यारे दान३३० अष्टम स्कन्ध थई शके छे तेथी प्रथम दाननुं कारण कहे छे - कृष्ण देवोने प्रेरणा करे, देवो मनने प्रेरणा करे, शिवजी मनना दोष लोभने दूर करे त्यारे जीव पोते दान देवाने तैयार थाय छे. आ प्रकारनो सूक्ष्म विचार करतां सर्व लीला भगवान्‌ ज करे छे पण ए लीलामां सर्व देवोनो भगवान्‌ उपयोग करे छे. हवे दान ए शुं छे? दान शेनुं करवानुं होय? आ जाणवानी पण जरूर छे. देय वस्तुमां देवोथी जीव अभय थाय ते देव उत्तमोत्तम गणाय. चक्रवर्ती राजा होय पण एने अभय न मळ्युं तो एनो जन्म वृथा छे. तेथी भयमुक्ति ए मुख्य दान छे. भयमां मोटो भय काळनो छे. ए काळना भयथी मुकत करनार अमृत छे. अमृत आप्युं तेने अभय आप्युं गणाय. अमृत सर्व दानमां श्रेष्ठ छे तेने माटे समुद्रमथनादि क्लेशनो देवासुरे अनुभव कर्यो. जेने मेळवतां जेटलो क्लेश तेटलो एनाथी आनन्द. अमृत कलेशनो अनुभव देवोने प्रथम थयो. भगवाननुं पण स्थान निश्चित होय तो ए अर्थरूप गणाय तेथी पाञ्चमा मनु रैवतने ज्ञान प्राप्त थयुं अने चाक्षुष मनु वैराग्यना अधिकारी थया. दुर्वासाना शापथी देवो लक्ष्मी रहित थया त्यारे बधा मळी ब्रह्माजीने लई भगवान्‌ पासे गया. ब्रह्माजीए स्तुति करी त्यारे भगवाने असुरो साथे सन्धि करवानुं कह्युं. भगवाननी इच्छाथी देवो दैत्योने मळ्या तेमने अमृतमाटे क्षीरसागरने मथन करवानुं कहेतां एओना ध्यानमां ए आव्युं. बन्ने मळीने क्षीरसागरमां सर्व औषधिओ पधरावी, मन्दराचळने रवाई बनावी देवो अने असुरो सङ्केत करी मथन करवा लाग्या तेमान्थी प्रथम विष नीकळ्युं, विष तामस होईने लोकरक्षार्थे शिवजीए एनुं पान कर्युं. लोकहितावह कर्म होवाथी ए सात्त्विक छे. एम त्रण गुणोनो विचार सर्वत्र अनुस्यूत समजवो. हवे बीजा त्रण अध्यायथी अमृतना स्वरूपनुं वर्णन करवामां आवे छे. सद्धर्ममां सर्वत्र हरि साधक छे अने देवो साधन छे. अमृत फळ छे अने विष बाधक छे. ए कालकूटनी उत्त्पत्ति प्रथम जन्ममां मधुकैटभ नामना दैत्यरूपे थई हती. भगवाने एने मार्यो त्यारे एनुं चैतन्य समुद्रमां अन्तर्हित थयुं हतुं. समुद्रना अग्निथी ए विषरूपे बहार आव्युं. एमां मधुकैटभ दैत्यनो आसुर भाव छे. ए चेतन पण छे तेथी ज्यां सुधी कालकूटनी मुक्ति न थाय त्यां सुधी ए विष लोकने दुःख आप्या ज करे. तेथी समुद्रमथनद्वारा ज्यारे ए कालकूट बहार आव्युं त्यारे ए लोकनो प्रलय करवा लाग्युं. लोको शिवजीने शरणे गया. शिवजीना उदरमां मुक्तो वसे छे. तेथी लोकना दुःखने जोईने ए कालकूटनी सदाने माटे मुक्ति करवा अने एनुं पान करवा महादेवजीए पार्वतीनी रजा लीधी. पार्वती महादेवजीना प्रभावने जाणतां हतां. एमणे अनुमति आपी त्यारे शिवजीए विषपान कर्युं तेथी एनी मुक्ति थई. हवे अमृत रूपनुं वर्णन करे छे. एनी उत्त्पत्ति, एनुं दान अने पेटमां गया पछी ए अनर्थ न करे ए एनुं फळअष्टम स्कन्ध ३३१ ए त्रण वात त्रण अध्यायथी कहे छे. ब्रह्म सत्‌, चित अने आनन्द ए त्रण धर्मवाळुं छे. अमृत, अभय, ब्रह्म वगेरे एनां ज नाम छे. सदंशथी हविर्धोनी वगेरे समुद्रमान्थी नीकळ्यानुं कह्युं छे. ए यज्ञमां जोईती चीजो आपी अग्निना द्वारा मोक्षमां साधन रूप थाय छे. सदानन्दनी मुख्य शक्ति रमा छे; अमृत ए चिदानन्द छे जे जीवने माटे छे; ज्यारे सदानन्द शक्ति स्वतन्त्र छे तेनो भाग न पडे पण ए जेने पसन्द करे ते एने भोगवे तेथी अर्ही रमा एटले लक्ष्मीजी नीकळ्यां त्यारे एमने एक जणे न राख्यां पण एमनो स्वयंवर थयो. ए लक्ष्मी ब्रह्मानन्दरूप छे. तेना भोक्ता केवळ भगवान्‌ छे, बीजो कोई नहि; तेथी लक्ष्मीजीए भगवान्‌ सिवाय बधा दोषवाळा छे एम कह्युं. ए आधिदैविक लक्ष्मी भगवानने स्वयंवरी. आध्यात्मिक अमृत छे. धेनु वगेरे आधिभौतिक छे. धन्वन्तरि समुद्रमान्थी प्रकट्या ते अमृतनो कुम्भ हाथमां लाव्या. तेने वगर पूछये असुरो लई गया; एनुं कारण शुं? अमृत समुद्रमान्थी नीकळे तेनो खरो हकदार समुद्र थाय तेथी बीजाने ए आपी शके जो भगवान्‌ ए आपे तो. जेम रसोई करनारने पीरसवाना फळ रूप अतिथिसत्कारनुं फळ मळतुं नथी तेम ए अमृत बीजानी सत्तानुं होवाथी भगवान आपे तो पण एणे आप्युं न गणाय. भगवाने ए आप्युं नथी एवुं जो देवोना मनमां थाय तो भगवाननो उपकार तेमना हृदयमां न रहे. देवोना दुर्भावने जाणी अमृत पोतानुं अभय रूप श्रेष्ठ फळ तेमने आपे. ए बधुं न थाय अने अमृत भगवाननी कृपाथी ज मळे एवो देवोना मनमां निश्चय कराववामाटे असुरो अमृतना कळशने हरी गया. भगवान्‌ युक्तिवडे एने तेमनी पासेथी न छोडावे त्यां सुधी देवोने ए न ज मळे. तेथी भगवाने मोहिनीरूप धारण कर्युं अने एनावडे दैत्योने मोहमां मग्न करीने देवोने ए अमृत आप्युं. एटले भगवाननो एमां असाधारण उपकार देव उपर थयो. भगवान्‌ समुद्रना जमाई थाय तेथी पण भगवान्‌ समुद्रनी सत्ताथी पण अमृत आपवाने योग्य ज छे. ए अमृत पीवानो अधिकार देवोनो हतो तेथी भगवाने ए देवोने आप्युं. तेम ज वारुणी मदिरा समुद्रमान्थी नीकळी ते भगवाने दैत्योने आपी कारण के एमां एनो अधिकार मुख्य हतो. आथी ए सिद्ध थयुं के दान अधिकार प्रमाणे थाय. राहु देवनी पक्तिम्मां बेसीने अमृतपान करी गयो. भगवाने एनुं माथुं उडावी दीधुं. ए मात्र एटलो ज मस्तकरूपे अमर थयो. एने ब्रह्माजीए ग्रह बनाव्यो. अमृतपानथी ए देवपक्तिम्मां आव्यो. अमृत सुखरूप छे पण ए भगवान्‌ आपे तो ज. अमृत क्षयिष्णु न होय तो ज सुखरूप थाय छे. ए अक्षयरूप अमृत कर्णद्वारा हृदयमां जाय अने हृदयथी बहार प्रकट थाय त्यारे अक्षय थाय छे. भगवानना गुणने भकतद्वारा श्रवण करी एने हृदयमां दाखल करे अने हृदयना तापथी ए भगवान्‌ हृदयथी बहार प्रकटी३३२ अष्टम स्कन्ध दर्शन दे त्यारे ए दर्शन करनार जीव भगवाननी लीलामां प्रवेश करे छे. देवोने आपेल अमृतनुं पान कर्या पछी ए गर्व करावे अने भगवानने भुलावे तो तेथी देवलोकथी पात थाय छे माटे भक्तने माटे तो श्रवणामृत ज श्रेष्ठ छे. देवोने अमृत मळ्या पछी ए हारी न जवा जोईए. हारे तो अमृतनुं फळ मळ्युं न गणाय. तेथी बलिराजा आ मन्वन्तरमां देवोने जीती न शकयो. आ प्रमाणे दश अध्यायथी सम्पत्तिमां दान करवानी वात कहेवामां आवी. हवे नव अध्यायथी ‘स्वोकतनिर्वहण’ नामनुं ‘त्रीजुं प्रकरण’ कहेवामां आवे छे पोते बोलेलुं पाळवुं ए त्रीजा धर्म छे. आ प्रकरणनो अर्थ पण ए ज छे. सम्पत्ति होय तो आपवुं ए पक्ष तो प्रथम कह्यो परन्तु एवो पण पक्ष छे के गमे ते स्थितिमां पण माणस जो चित्त स्थिर होय तो दान आपी शके. आ धर्मनो प्रवर्तक बलिराजा छे. तेमां एक अध्यायथी दाता अने दान नुं सामर्थ्य बतावे छे. भगवाने याचना करी ए त्रण अध्यायथी कहेवामां आव्युं. एक अध्यायथी भगवाने वामनरूपवडे याचना करी ए कहेवामां आव्युं. एक अध्यायथी बलिराजाए दान आप्युं ए वात कही. ए दान पूर्ण न अपायाथी एने प्रतिबन्ध थयानुं एक अध्यायथी कह्युं. एक अध्यायथी प्रतिज्ञापूर्ण थतां भगवान्‌ एने वर आपे छे एम कह्युं. एक अध्यायथी एने सुतळमां स्थापित कर्यो. आम नव अध्यायथी साधन फळ सहित ‘सत्यवाकयरूप’सद्धर्म कह्यो. दान करनार बलि राजस छे. दान बीजानुं अनिष्ट करनार होईने तामस छे. अवतार कपटवाळो होईने तामस छे. याचना राजस छे; वचन कह्यां ते तामस, आम छ अध्याय थया. दान सात्त्विक, प्रतिबन्ध तामस, कीर्तिनमाटे साहस ए राजस भाव छे. समजीने दान करे तो सुख थाय, वगर समज्ये दान करे तो दुःख थाय ए दान करनारे समजवानुं छे. एकने बधुं आपवुं ए श्रेष्ठ छे. ए बलिए कर्यु ते ‘सद्धर्म’ कहेवाय. आत्मनिवेदन ए मुख्य दान छे. एनो निर्वाहक प्रभु छे. लक्ष्मीनुं दान मध्यम छे. आपत्ति होय तो शरणे जवुं ए एनाथी पण ऊतरतुं छे. एम सद्धर्मनो निर्धार करी आपणी सर्व वस्तु जे श्रेष्ठ होय ते भगवाने अर्पण करवी. प्रभुनी इच्छाथी ए भकतने पण आपी शकाय. ‘‘आ कृष्णनुं छे ते हुं एने आपुं छुं’’ एम कही आत्मा सहित सर्व कृष्णने अर्पण करवुं ए त्रीजा प्रकरणनो सार छे. भगवान्‌ पोताना जीवने जे आज्ञा करे ते प्रमाणे देहाभिमान छोडी करवुं एने अनुमोदन आपवुं ए आ प्रकरणमां स्पष्ट बताव्युं छे. उपर कहेलां त्रणे प्रकरणोनो अर्थ भगवान्‌ मत्स्य जाणे छे, बीजो कोई जाणतो नथी. सप्त मनुने माटे मत्स्यावतार थयो छे. सद्धर्मना आदर अने आचार थी ज वासनानो क्षय थाय छे. वासना दूर करवानो बीजो कोई उपाय ज नथी ए बताववाने मत्स्यावतार छे तेथी एमणेअष्टम स्कन्ध ३३३ वेदनो उद्धार कर्यो छे. आ प्रमाणे भगवाने बतावेला सद्धर्मनुं आचरण करे तो बधी वासना नष्ट थाय ए कहेवानो सार छे. ए आ स्कन्धना छेल्ला २४मा अध्यायमां बताव्युं छे. आ चोथुं निर्गुण प्रकरण एक अध्यायनुं मळी २४ अध्यायनो स्कन्ध पूर्ण थयो. पहेलुं हरिस्मरण प्रकरण

अध्याय १

स्वायम्भुव वगेरे चार मनुनी कथा स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः ॥ यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः ॥१॥

राजाए पूछ्‌युं - हे गुरो! आपे जे स्वायम्भुव मनुनो वंश विस्तारथी क्ह्यो ते में साम्भळ्यो जेमां मरीचि आदि प्रजापतिओथी मनुनी कन्याओमां पुत्रो थयेला. हवे बीजा मनुओना वंशनी कथा अमने कहो ॥१॥

ज्यां-ज्यां भगवाननो जन्म थयो होय तेमज ज्ञानी महात्मा पुरुषोए एवा महान भगवाननां कर्म गायां होय ते साम्भळवाने अमे तत्पर होवाथी अमने आप ए भगवच्चरित्रो कहो ॥२॥

हे ब्रह्मन्‌! विश्वभावन भगवाने वीतेलां मन्वन्तरोमां जे-जे लीलाओ करी छे वर्तमान मन्वन्तरोमां जे करी रह्या छे अने आगामी मन्वन्तरोमां जे करशे ते बधुं अमने श्रवण करावो ॥३॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ क्ल्पना स्वायम्भुव वगेरे छ मन्वन्तर वीती गया. एमान्थी पहेलां मन्वन्तरनुं वर्णन में करी दीधुं; एमां ज देवता वगेरेनी उत्पत्ति थई हती ॥४॥

ए स्वायम्भुव मनुनी पुत्री आकूति अने देवहूति नामनी बे पुत्रीओमां धर्मज्ञाननो उपदेश करवामाटे भगवान्‌ एना पुत्र थया छे. आकूतिमां यज्ञमूर्ति थया तेमणे धर्मनो उपदेश कर्यो अने देवहूतिमां कपिलदेवजी थया जेमणे साङ्ख्य ज्ञाननो उपदेश कर्यो ॥५॥

(तृतीय स्कन्धमां)भगवान्‌ कपिलनुं आख्यान तमने पहेलां कह्युं. हे कुरुद्वह! हवे भगवान्‌ यज्ञपुरुषे शुं चरित्र कर्युं ए हुं तमने कहीश ॥६॥

अध्याय-१,३३४ अष्टम स्कन्ध शतरूपाना पति स्वायम्भुव मनुए कामभोगथी वैराग्य पामीने राज्यासननो त्याग कर्यो अने पोतानी स्त्रीने साथे लईने वनमां तपश्चर्या करवामाटे गया ॥७॥

एक पगथी पृथ्वीनो स्पर्श करीने सुनन्दा नामनी नदीना किनारा उपर सो वर्ष सुधी घोर तप कर्युं. तप करती वखते ते रोज आ प्रमाणे भगवाननी स्तुति करता ॥८॥

मनुजी कहेता - विश्वने जे चेतन आपे छे पण विश्व जेने चेतन आपी शकतुं नथी, आ विश्व ऊङ्घे छे त्यारे पण जे जागे छे अने जेने आ जगत्‌ जाणतुं नथी पण जे जगतने जाणे छे ते ज परमात्मा छे ॥९॥

आ जगतमां जे कांई स्थावर जङ्गम पदार्थ छे ते बधुं परमात्माना आवेशथी सत्ता अने चेतना वाळुं छे तेथी एणे आपेली वस्तुने प्रसादना भावथी ग्रहण करी एनाथी निर्वाह करे, कोईना धननी स्पृहा करे नहि ॥१०॥

जे आपणने जुए छे पण जेने आपणे जोई शकता नथी अने जेनुं ज्ञान कोई प्रकारे नाश पामतुं नथी ते प्राणीमात्रना आधाररूप छे ते देवरूप असङ्ग पुरुषनुं बधा आराधन करो, भजन करो ॥११॥

जेने आदि, अन्त के मध्य नथी, जेने स्व के पर नथी, अन्दर के बहार एवो भेद नथी, परन्तु विश्वना आदि, अन्त अने मध्य, अन्दर अने बहार, स्व अने पर वगेरे भेद जेनाथी थाय छे ते सत्यरूप ब्रह्म पूर्णरूपे छे ॥१२॥

विश्व जेनुं शरीर छे, जेनां बहु नाम छे, जेनी सर्वनी उपर सत्ता छे, जे सत्यस्वरूप छे, जे स्वयम्प्रकाशरूप छे, जे अजन्मा अने अनादि छे ते ज सर्वभवनसमर्थ आत्मशक्तिवडे आ जगतना जन्म आदिने धारण करे छे अने विद्यावडे माया शक्तिने दूर करी निश्चेष्ट रहे छे ॥१३॥

तेथी ज ऋषिमुनिओ नैष्कर्म्यस्थिति अर्थात्‌ ब्रह्म साथे एकता प्राप्त करवामाटे पहेलां कर्मयोगनुं अनुष्ठान करे छे. घणुं करीने कर्म करनारो पुरुष ज अन्तमां निष्क्रिय बनी जई कर्मोनां बन्धनमान्थी मुकत थई शके छे ॥१४॥

आम तो भगवान्‌ पण कर्म करे छे छतां ए एमां बन्धाता नथी केमके ए आत्माना लाभथी पूर्णकाम छे. भगवानने जेओ अनुसरे तेओ पण संसारनां बन्धनमां बन्धाता नथी ॥१५॥

भगवान्‌ कर्मनी चेष्टा करे छे छतां पोताना स्वरूपने जाणनार होवाथी निरभिमान छे, निरभिलाष छे; अने कोई प्रेरणा करी शकतो नथी. ए पोते जे करे छे ते लोकने अध्याय-१,अष्टम स्कन्ध ३३५ शीखववामाटे करे छे. पोताना मार्गने छोडता नथी. एवा समग्र धर्मना पोषक प्रभुने हुं शरणे जाउं छुम् ॥१६॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - स्वायम्भुव मनु ए प्रमाणे समाधिमां मन्त्रमय उपनिषद्‌ स्वरूप श्रुतिनो पाठ करी रह्या हता. ए जोईने असुरो अने राक्षसो भूखना मार्या एमने खावामाटे एनाउपरतूटीपड्या ॥१७॥

खावाना निश्चयवाळा असुरोने जोईने याम नामना पोताना पुत्रो देवो ए ज वखते थया तेओनी साथे त्यां सर्वत्र फरता यज्ञ भगवान्‌ आव्या अने असुरोने मारीने स्वर्गनुं राज्य करवा लाग्या ॥१८॥

अग्निना पुत्र स्वारोचिष ए बीजा मनु थया. द्युमान, सुषेण, रोचिष्मान वगेरे एना पुत्रो थया ॥१९॥

एना वखतमां रोचन नामना इन्द्र हता. तुषित देव थया, ऊर्जस्तम्भ आदि ब्रह्मने कहेनार सात ऋषिओ हता ॥२०॥

ए मन्वन्तरमां वेदशिरा ऋषिनी तुषिता नामनी पत्नीमां विभु नामे अवतार भगवाने लीधो. ते अत्यन्त प्रसिद्ध थया ॥२१॥

अठयासी हजार मुनिओ जे व्रत धारण करनार हता ते बधा ब्रह्मचारी एवा विभुना व्रतनुं अनुशीलन करवा लाग्या ॥२२॥

प्रियव्रतनो उत्तम नामनो पुत्र ए त्रीजो मनु थयो. हे नृप! पवन, सृञ्जय अने यज्ञ, होता वगेरे एना पुत्रो थया ॥२३॥

वसिष्ठना प्रमद आदि सात पुत्रो ए मन्वन्तरमां ऋषिओ थया. सत्य, वेदश्रुत अने भद्र आदि देवो थया. अने सत्यजित्‌ नामना इन्द्र थया ॥२४॥

ए समये धर्मनी सूनृता नामनी स्त्रीमां सत्यव्रत आदि देवनी साथे भगवान्‌ सत्यसेन नामे पुरुषोत्तम थया ॥२५॥

तेणे सत्यजित्‌ नामना इन्द्रनी साथे मैत्री करी खोटुं बोलनार तथा आचरण करनार, भूतनो द्रोह करनार एवा यक्ष राक्षसोने मार्या ॥२६॥

उत्तमनो भाई तामस ते चोथो मनु थयो. पृथु, ख्याति, नर, केतु वगेरे एना दश पुत्रो थया ॥२७॥

सत्यक, हरि, वीर वगेरे देवो थया. त्रिशिख नामना इन्द्र थया. ए तामस मन्वन्तरमां ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थया ॥२८॥

अध्याय-१,३३६ अष्टम स्कन्ध हे राजन्‌! विधृतिना पुत्रो वैधृतिओ नामना बीजा पण देवो थया. काले करीने नाश पामेला वेदने पोताना तेजवडे धारण कर्या तेथी ए ‘वैधृति’ कहेवाया ॥२९॥

आ मन्वन्तरमां हरिमेधानी ऋषिनी हरिणी नामनी स्त्रीमां हरि नामना भगवाननो अवतार थयो ते हरि भगवाने, झूड नामना जलचरे गजेन्द्रने तळावमां पकड्यो हतो ते झूडना मुखथी गजेन्द्रने छोडाव्यो हतो ॥३०॥

राजा परीक्षिते पूछयुं - हे बादरायणि! हरि भगवाने झूडना मोढामान्थी गजेन्द्रने छोडाव्यो ए कथा आपनी पासेथी अमे साम्भळवानी इच्छा राखीए छीए ॥३१॥

ज्यां-ज्यां उत्तम कीर्तिवाळा भगवाननुं गान थाय छे त्यां-त्यां ए भगवाननी कथामां मोटुं पुण्य रहेलुं होय छे. ए पुण्य धन आपनार छे, कल्याण करनार छे अने माङ्गलिक छे ॥३२॥

परीक्षितैवं स तु बादरायणिः प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः ॥ उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं मुदा मुनीनां सदसि स्म शृण्वताम्‌ ॥३३॥

सूत पौराणिके शौनिकादिकने कह्युंःहे शौनकादि ऋषिओ! राजा परीक्षित आमरण अनशन करी कथा साम्भळवामाटे ज बेठा हता. तेमणे ज्यारे श्रीशुकदेवजी महाराजने आ प्रमाणे कथा कहेवामाटे प्रेरणा करी त्यारे तेमने घणो आनन्द थयो अने प्रेमथी परीक्षितनुं अभिनन्दन करी मुनिओनी भरी सभामां कहेवा लाग्या ॥३३॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (पहेलां हरिस्मरण नामना प्रकरणनो) ‘‘स्वायम्भुव वगेरे चार मनुनी कथा’’नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथा ए तो दिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही.

अध्याय २

गजेन्द्रने जलमां झूडे पकड्यो त्यारे ए भगवानने शरणे गयो

विशेष - चोथा मन्वन्तरमां गजेन्द्रमोक्षनी कथा छे ते बीजा अध्यायथी त्रण अध्यायो कहेवामां आवे छे. गजेन्द्र हाथणीओ साथे क्रीडा करतो जळ पीवा तळावमां आवे छे त्यां अध्याय-१,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३३७ दैवयोगे झूड एना पगने पकडे छे त्यारे गजेन्द्र भगवानने याद करे छे एटली वात आ बीजा अध्यायमां आवे छे. आसीद्‌ गिरिवरो राजन्‌ त्रिकूट इति विश्रुतः ॥ क्षीरोदेनावृतः श्रीमान्योजनायुतमुच्छ्रितः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याःत्रिकूट नामनो एक शोभायमान प्रसिद्ध पर्वतश्रेष्ठ छे जेने फरतो क्षीरसागर छे; ए दश हजार योजन ऊञ्चो छे ॥१॥

एनी लम्बाई अने पहोळाई पण चोतरफ एटली ज हती. एने त्रण शिखरो छे जेमां एक रूपानुं, बीजुं लोढानुं अने त्रीजुं सोनानुं छे. एने पण चोतरफ समुद्र होवाथी एमां एना किरण पडे छे तेथी समुद्र, आकाश अने दिशाओनी शोभामां वधारो थाय छे ॥२॥

दिशाओने बीजी धातुओ तथा रत्नो थी प्रकाश आपतो अने अनेक प्रकारनां वृक्षो लताओ गुच्छो तथा जळझरणान्ना खडखडाट वडे ए शोभी रह्योछे ॥३॥

चारे तरफ जळना तरङ्गोथी धोवाता होवाथी एना पर्वतो स्वच्छ देखाय छे. तेओ लीलावर्णवाळा मरतकमणिना प्रभावथी पृथ्वीने श्यामता आपे छे ॥४॥

ए पर्वतनी कन्दराओमां नाग, किन्नरो, अप्सराओ, गन्धर्वो, विद्याधरो, सिद्धो, चारणो वगेरे क्रीडा करे छे ॥५॥

कन््‌दरामां सिद्धचरणो जे गान करे छे तेना नादने साम्भळीने असहन शक्तिवाळा सिंहो बीजा सिंहनी गर्जनानी कल्पना करीने साची गर्जनाकरेछे ॥६॥

एनी तळेटीमां अनेक प्रकारनां अरण्यपशुओनो समुदाय वसे छे. त्यान्नां विचित्र वृक्षो उपर सुन्दर कण्ठवाळां देवोना बगीचानां पक्षीओ मधुर कण्ठे कलरव करी रह्या छे ॥७॥

नदीओ, तळावो वगेरे स्वच्छ जळाशयोमां काण्ठा पण छे तेमान्थी पवन तथा जळ पण सुगन्धवाळुं थाय छे ॥८॥

ए पर्वतनी तळेटीमां भगवत्प्रेमी महात्मा वरुणनुं ऋतुमान नामनुं उपवन आवेलुं छे. तेमां देवाङ्गनाओ क्रीडा करे छे ॥९॥

तेमां चोतरफ दिव्य वृक्षो शोभे छे जेमां फळो अने फूलो सदा पुष्कळ प्रमाणमां होय छे. ते उद्यानमां मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पो, जातजातना आम्बा, रायण, फणस, बीजा आम्बानी जातनां आमळां, सोपारी, नाळियेर, अध्याय-१,३३८ अष्टम स्कन्ध खजूर, बीजोरां, महुडां, साजड, ताड, तमाल, आसोन्द, अर्जुन, अरीठां, उम्बरा, पीपर, वड, खाखरो, चन्दन, लीमडा, कोविदार, सरल देवदार, द्राक्ष, शेरडी, केळ, जाम्बु, बोर, रुद्राक्ष, हरडां, बहेडां, आमळां, बीली, कोठ, जम्बीर, भिलामा वगेरे झूमी रह्याञ्छे. एक मोटा सरोवरमां सोनेरी कमळोनी शोभा खूबछे ॥१०-१४॥

कुमुद, उत्पल, कह्‌लार, शतपत्र वगेरेनी अनोखी शोभाथी ए सुन्दर देखाय छे. मदोन्मत्त भमरा गुञ्जारव करे छे. मधुर कण्ठवाळां पक्षीओ त्यां कलरव करी रह्यां होय छे ॥१५॥

एमां हंस, कारण्डव वगेरे घणां पक्षी छे. चकवा, सारस, जलकूकडी, बपैया वगेरेना मधुर स्वरथी ए गाजी रहेलुं छे ॥१६॥

मच्छ, काचबा वगेरेना फेरवाथी पद्मनो पराग पाणी उपर फेलाई जाय छे. कदम्ब, वेतस, नल अने नीप वगेरे वृक्षोथी ते घेरायेलुं छे ॥१७॥

कुन्द, कुरबक, अशोक, शिरीष, मल्लिका, ईगुद, कुब्जक, स्वर्णयूथी तेम ज नाग, पुन्नाग अने जूईनां वृक्षथी शोभे छे ॥१८॥

जूई, मालती अने शतपत्र कमळ, माधवी, मोगरो अने नित्यनां तथा ऋतुविकासी पुष्पोनां वृक्षोथी ए जलाशय शोभायमान हतुम् ॥१९॥

एक दिवसे पर्वतमां वनमां हाथणीओनी साथे फरतो एना यूथनो नायक हाथी काण्टावाळां झाडोनो तथा शब्द करता वेणुवाळा विशाळ प्रदेशने नुकशान करतो-करतो त्यां ए तळावे आव्यो ॥२०॥

ए हाथीनी गन्ध मात्रथी सिंहो, हाथीओ, वाघो, गेण्डाओ, शरभ अने चमरी गाय तथा मोटा सर्पो, पशुओ वगेरे भयथी पलायन करी जता ॥२१॥

दीपडा, सूवर, पाडा, रोझ, वान्दरां अने बीजां नानां प्राणीओ जेवां के हरण, ससलां वगेरे ए हाथीना अनुग्रहथी वगर बीके त्यां फर्या करता हता ॥२२॥

मध्याह्‌नना सूर्यना तापथी ए हाथी तपी गयो हतो. एनी साथे हाथीओ तथा हाथणीओ हती, मद जरतां नानां बच्चां पण साथे हतां. एनी साथे चालतो पोताना गौरवथी पर्वतने कम्पावतो अने मदनी उपर तूटी पडता भमरोओथी सेवायेलो ए हाथी त्यां तळावे आव्यो ॥२३॥

कमळना रेणुथी व्याप्त थयेल पवनने दूरथी सूङ्घतो-सूङ्घतो मदमां नेत्रने चपल करतो ए हाथी, पोतानां गोठियां, तृषाथी पीडातां बीजां हाथी-हाथणीओ नी साथे अध्याय-२,अष्टम स्कन्ध ३३९ सरोवर पासे जलदी आवी पहोञ्च्यो ॥२४॥

एणे ए तळावमां प्रवेश कर्यो अने सोनाना कमळनी रजथी सुगन्धवाळुं अमृत सरखुं जळ पूर्ण तृप्तिथी एणे पीधुं. पछी पोतानी सूण्ढमां जळ भरी पोताना शरीरने सिञ्चन करीने ए पोते पोतानो ताप तथा थाक उतारीने तैयार थई गयो॥२५॥

पछी जेम कोई गृहस्थ पोतानी साथे आवेलान्नो सत्कार करे तेम ते पोतानी सूण्ढमां जळ भरीने बच्चांओने अने हाथणीओने स्नान कराववा लाग्यो तथा तेमने जळ पावा लाग्यो. हाथीनां बच्चान्ने तेमज हाथणीओने जळ छाण्टवा लाग्यो एमां भगवाननी मायावडे मोहित ते बिचाराने आवी पडनारा दुःखनो ख्याल सुद्धां न आव्यो ॥२६॥

हाथी हाथणीओने जळ सिञ्चन करतो हतो एटलामां प्रारब्धे प्रेरेलो झूड नामनो महा बळवान जळचर प्राणी जळमां रहेलो हतो तेणे पाणीने डोळता हाथीनी उपर कोप कर्यो अने एने पगमान्थी पकड्यो. अकस्मात आवी पडेली आफतमान्थी ऊगरवा बळवान गजेन्द्रे खूब प्रयत्न कर्यो परन्तु छोडावी शकयो नहि ॥२७॥

ज्यारे हाथणीओए जाण्युं के कोई बळवान जानवर हाथीने जळमां खेञ्ची जाय छे त्यारे बिचारी गरीबडी बनी गई अने आक्रोश करवा लागी. एनी पाछळ आवनारा बीजा हाथीओए महेनत करी छतां ज्यारे ए यूथपतिने छोडावी शकया नहि त्यारे दीन बनी गया ॥२८॥

हे महीपते! हवे ग्राह अने गजेन्द्र नुं युद्ध चाल्युं. ग्राह अन्दर लई जाय अने हाथी एने बहार खेञ्ची काढे. एम करतां-करतां एक हजार वर्ष थई गयां तो पण ए एक बीजा थाकया नहि. आ जोईने देवोने पण आश्चर्य थयुम् ॥२९॥

एम युद्ध घणा काळ सुधी चालवाथी गजेन्द्रनुं मननुं, शरीरनुं अने इन्द्रियोनुं बळ क्षीण थयुं अने ग्राह तो जलचर होवाथी तेना बळमां वधारो थयो तेथी ए गजेन्द्रने जळमां वधारे जोरथी खेञ्चवा लाग्यो ॥३०॥

ज्यारे गजेन्द्र दुःख पामवा लाग्यो अने प्राणसङ्कटने पहोञ्ची वळवाने समर्थ न थयो. ग्राहथी पोताने केम छुटवुं एम ध्यान करवा लाग्यो त्यारे एने बुद्धिमां आ प्रमाणे स्फूरणा थई ॥३१॥

‘‘अरे! मने दुःखी जोईने आ हाथीओ जे मारा सगा छे तेमणे मने छोडाववानो प्रयत्न कर्यो पण ए छोडावी शकया नहि तो आ हाथणीओ मने कयान्थी बचावी अध्याय-२,३४० अष्टम स्कन्ध शके? तेथी बधानुं अवलम्बन छोडी विधिना बन्धनथी बन्धायेलो एवो हुं जे बधा (ब्रह्मादि) ने रक्षण करनार छे तेने शरणे जाउम् ॥३२॥

यः कश्चनेशो वलिनोऽन्तकोरगात्‌ प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्‌। भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्‌भयान्‌ मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥३३॥

ए सर्वनो ईश्वर छे. बळवान काळरूपी सर्प जे सर्वनी पाछळ अत्यन्त वेगथी दोडे छे तेना भयथी जेओ ईश्वरने शरणे आवे छे तेने ए छोडावे छे. काळरूपी मृत्यु पण जेनाथी भय पामे छे तेवा ईश्वरने रक्षक जाणी एने शरणे जईए’’ ॥३३॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां(पहेला हरिस्मरण नामना प्रकरणमां) ‘‘गजेन्द्रने जलमां झूडे पकड्यो त्यारे ए भगवानने शरणे गयो’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. इदं नामात्मकं भगवतो रूपं तत्‌ स्वविक्रेतरी विक्रयातिरिक्तं फलं न प्रयच्छति भगवानना नामात्मकस्वरूप भागवतने(कथादक्षिणा, पोथीभेट वगेरे रीते) जे वेचे छे तेने तेना वेचाणना बदलामां मळतां दान-दक्षिणाथी वधु बीजुं कंई पण आध्यात्मिक के आधिदैविक फळ मळतुं नथी. (श्रीमहाप्रभुजी)

अध्याय ३

गजेन्द्रे स्तुति करी त्यारे प्रभुए एनो अने ग्राहनो करेलो उद्धार

विशेष - गजेन्द्रनी स्तुति साम्भळी भगवान्‌ त्यां पधार्या अने गजेन्द्रनो उद्धार कर्यो तथा ग्राहनो देवल मुनिना शापथी उद्धार कर्यो ए वात आ त्रीजा अध्यायमां आवशे. एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि ॥ जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे गजेन्द्रे बुद्धिथी निश्चय करीने मनने हृदयमां स्थिर कर्युं अने पूर्व जन्ममां शीखेल श्रेष्ठ स्तोत्रना जप द्वारा भगवाननी स्तुति करवा लाग्यो. ॥१॥

अध्याय-२,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३४१ गजेन्द्र बोल्यो - आ जगत्‌ जेनावडे चेतनात्मक थाय छे ते भगवानने हुं नमुं छुं. ए ज पुरुषरूप छे. बीजरूप छे अने परेश छे; ए भगवाननुं अमे ध्यान करीए छीए ॥२॥

जेमां आ जगत्‌ रहे छे, जेनाथी आ जगत्‌ थाय छे, जे कारणवडे आ थाय छे अने जे रूप आ बधुं छे, जे आ अने बीजाथी जुदां छे ते स्वतन्त्र भगवानने हुं शरणे जाउं छुम् ॥३॥

जे पोतानी इच्छाशक्तिवडे कवचित्‌ नामरूपे प्रकट थतुं तो कवचित्‌ नामरूपना भेद वगर स्वरूपमां रहेतुं तेवा कार्य कारणात्मक जगतने जे नित्यज्ञानवडे साक्षीरूपे जुए छे. ते बधानुं मूल छे अने पोतानुं मूल पण ते ज छे. कोई बीजुं तेमनुं मूल नथी. ते ज समस्त कार्य अने कारण थी अतीत प्रभु मारी रक्षा करे ॥४॥

बधा लोक एना पालको अने ए लोकना कारणरूप भूतो काळे करीने नाश पामे छे त्यारे केवळ गहन अने गम्भीर अन्धकार रहे छे. ए अन्धकारथी पण पर बिराजनार समर्थ भगवान्‌ मारा रक्षक हो ॥५॥

जेनी लीलाओना रहस्यने देवो के ऋषिओ पण जाणता नथी तो जीव तो एनी पासे जवाने के तेनुं वर्णन करवाने केम लायक थई शके? जेम नवा वेश करनार नटने कोई जाणी शकतुं नथी तेम जेनुं दुःखे करीने पण न जणाय तेवुं चरित्र छे ते मारुं रक्षण करो ॥६॥

जेमना परम मङ्गलमय स्वरूपनां दर्शन करवामाटे महात्मा लोको संसारनी समस्त आसक्तिओनो परित्याग करी दे छे अने वनमां जईने अखण्ड ब्रह्मचर्य वगेरे अलौकिक व्रतोनुं पालन करे छे तथा पोताना आत्माने बधाना हृदयमां बिराजमान्‌ जोईने स्वाभाविक रीते ज बधानुं हित करे छे ते ज मुनिओना सर्वस्व भगवान्‌ मारा सहायक छे ते ज मारी गति छे ॥७॥

जेने जन्म के कर्म नथी, नाम के रूप नथी, गुण के दोष नथी, छतां ए लोकनी सृष्टि अने संहार करवामाटे नाम-रूप, जन्म-कर्म अने गुण-दोष पोतानी माया शक्तिवडे समयने अनुसरीने स्वीकारे छे ॥८॥

ए अनन्त शक्तिवाळा परमेश्वर रूपरहित छे, बहु रूपवाळा छे एमनां कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय छे एमने मारा नमस्कार हो ॥९॥

आत्मप्रकाशरूप, साक्षीरूप, परमात्मरूप अने वाणी, मन अने चित्त थी सुदूर अध्याय-२,३४२ अष्टम स्कन्ध एवा प्रभुने मारा नमस्कार हो ॥१०॥

विवेकी पुरुष कर्म-सन्न्यास अथवा कर्म-समर्पण द्वारा पोतानुं अन्तःकरण शुद्ध करीने जेमने प्राप्त करे छे तथा जे स्वयं तो नित्य मुकत, परमानन्द अने ज्ञान स्वरूप छे ज पण बीजाने कैवल्य मुक्ति देवानुं सामर्थ्य पण केवल एमनामां ज छे एवा प्रभुने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥११॥

जे सत्त्व, रज, तम आ त्रण गुणोनो धर्म स्वीकार करी क्रमशः शान्त, घोर अने मूढ अवस्था पण धारण करे छे ए भेद रहित, समभावथी स्थित, ज्ञानधन प्रभुने मारा नमस्कार हो ॥१२॥

हे प्रभु! आप क्षेत्रज्ञ छो, सर्वना अध्यक्ष छो, साक्षी छो, पुरुष अने जीवना पण मूळरूप छो, मूळ प्रकृतिरूप पण छो तेवा आपने मारां नमन हो ॥१३॥

आप सर्व इन्द्रिय गुणना दृष्टा छो, समस्त प्रतीतिना आधार छो. असत्‌ अहङ्कारादिवडे छायारूपे देखाओ छो अने सत्पदार्थना आभासरूपे देखाओ छो तेवा आपने मारा नमस्कार हो ॥१४॥

आप बधानुं मूल कारण छो, आपनुं कारण कोई नथी. अने आप कारण स्वरूप होवा छतां आपमां विकार या परिणाम थतुं नथी तेथी आप अनोखुं कारण छो, जेम बधा नदी-झरणां आदिनो परम आश्रय समुद्र छे तेमज आप समस्त वेद अने शास्त्रोनुं परम तात्पर्य छो. आप मोक्षस्वरूप छो अने समस्त भकत आपनुं ज शरण स्वीकारे छे. तेथी आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥१५॥

जेम यज्ञना काष्ठ अरणिमां अग्नि गुप्त रहे छे तेमज आपे आपना ज्ञानने गुणोनी मायाथी ढाङ्की राख्युं छे. गुणोमां क्षोभ थतां ए द्वारा विविध प्रकारनी सृष्टि रचवानो आप सङ्कल्प करो छो. जे लोको कर्म-सन्न्यास अथवा कर्म-समर्पण द्वारा आत्मतत्त्वनी भावना करी वेदशास्त्रोथी पर थई जाय छे एमना आत्माना रूपमां आप स्वयं ज प्रकाशित थई जाओ छो. आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥१६॥

जेम कोई दयाळु पुरुष जाळमां सपडायेला पशुनी जाळ कापी नाखे तेवी ज रीते आप मारा जेवा शरणागतोनी फांसी कापी नाखो छो. आप नित्य मुकत छो, अत्यन्त करुणामय छो अने भकतोनुं क्ल्याण करवामां आप कयारेय आळस करता नथी. बधां प्राणीओना हृदयमां पोताना अंशद्वारा अन्तरात्माना रूपमां आप प्राप्त थता रहो छो. आप सर्व ऐश्वर्योथी पूर्ण अने अनन्त छो. आपने हुं अध्याय-३,अष्टम स्कन्ध ३४३ नमस्कार करुं छुम् ॥१७॥

देह, पुत्र, गुरुजन, गृह, धन, स्वजन वगेरेमां जेओ आसक्त छे तेमने ए भगवाननी प्राप्ति अत्यन्त कठिन छे कारण के ते पोते तो गुणोनी आसक्तिथी रहित छे. जीवन्मुकत पुरुषो एने पोताना हृदयमां भावनाथी धारण करी शके छे; तेवा ज्ञानरूप ईश्वरने मारा नमस्कार हो ॥१८॥

चतुर्वर्गनी इच्छावाळा एमनुं भजन करी इच्छित गति मेळवी शके छे एटलुं ज नहि पण ए भजनार भक्तिवडे नित्य देहने पण प्राप्त करे छे. वळी अन्य इच्छित पदार्थो पण भगवान्‌ एने आपे छे तेवा अत्यन्त दयाळु मारो मोक्षकरो ॥१९॥

भगवानने शरणे जई जेओ एक एने ज भजनारा छे तेओ भगवान्‌ पासेथी कांई पण लेवानी इच्छा करता नथी, परन्तु एमना अति अद्‌भुत चरित्रनुं गान करता आनन्द समुद्रमां मग्न रहे छे; तेवा भगवाननी हुं स्तुति करुं छुम् ॥२०॥

ए ज अक्षर ब्रह्मरूप तेमज पर ब्रह्मरूप छे. ए स्पष्ट जणाता नथी छतां माणस आध्यात्मिक योगवडे एमनी पासे जई शके छे. ए इन्द्रियनी वृत्तिथी ग्रहण थई शकता नथी, अतिसूक्ष्म छतां परिपूर्ण छे, आदि अने अन्त रहित छे तेवा भगवाननी हुं स्तुति करुं छुम् ॥२१॥

एमनी तुच्छ कलाथी अनेक नाम अने रूप ना भेदभावथी युकत ब्रह्मादि देव, वेद अने स्थावर जङ्गम लोको उत्पन्न थयाछे ॥२२॥

जेम अग्निमान्थी ज्वाळा नीकळे अने एमां समाय, जेम सूर्यमान्थी किरणो बहार पडे अने एमां ज लय पामे तेम बुद्धि, मन, इन्द्रिय अने देह आदिनो प्रवाह भगवान्‌मान्थी पेदा थाय छे अने भगवान्‌मां ज पाछो समाप्त थाय छे ते भगवान्‌ सर्वोत्कर्षवडे शोभो ॥२३॥

जे भगवान्‌ देव, असुर, मनुष्य, पशु, स्त्री, नपुंसक, पुरुष, जीव वगेरे नथी, जे गुण के कर्म नथी, जे सत्‌ के असत्‌ नथी; बधुं निषेध करतां जे रहे ते ए पोते छे. ए ज सर्वनो आश्रय छे. ते भगवाननो जय हो ॥२४॥

हुं ग्राहथी मुकत थईने जीववानी इच्छा करतो नथी; अन्दर अने बहारथी अज्ञानवडे आच्छादित आ हाथीना शरीरथी मारे शुं करवानुं छे? परन्तु काळे करीने पण जेनो नाश नथी तेवा आत्माने ढाङ्कनार आवरणथी छूटवानी इच्छा करुं छुम् ॥२५॥

विपत्तिना वादळमां घेरायेलो हुं ए परब्रह्म परमात्माने शरणे छुं जे विश्वरहित अध्याय-३,३४४ अष्टम स्कन्ध होवा छतां विश्वना घडनारा अने विश्वरूप छे. साथे-साथे जे विश्वना अन्तरात्माना रूपमां विश्वरूप सामग्रीनी साथे क्रीडा पण करता रहे छे. ए अजन्मा परमपद स्वरूप ब्रह्मने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२६॥

जेणे योगवडे कर्मनो परिपाक कर्यो होय, जे योगवडे योगीओ पोताना हृदयमां भावनाथी जेने जोई शके छे तेवा योगीना नियन्ताने हुं नमुं छुम् ॥२७॥

असह्य जेनो वेग छे तेवी त्रण शक्तिओ विशिष्ट बुद्धिना बधा गुणयुकत, शरणागतरक्षक, अचिन्त्य शक्तिवाळा, क्षुद्र इन्द्रियसुख मागनारने अगम्य तेवा भगवानने हुं अनेकवार नमुं छुम् ॥२८॥

एमनी मायाशक्तिवडे अहङ्कार थतां माणस सर्वमां व्यापी रहेला पोताना आत्माने जोई शकतो नथी जेनुं एवुं अनन्त माहात्म्य छे तेवा भगवानने हुं शरणे जाउं छुम् ॥२९॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याःएवी रीते गजेन्द्रे कोईना विशेष नाम वगरनुं भगवाननुं वर्णन कर्युं त्यारे ब्रह्मा आदि देवो नाना प्रकारना राजस आदि भावना अभिमानवाळा होवाथी त्यां गया नहि पण हरि भगवान्‌ सर्वात्मा अने सर्व देवस्वरूप होवाथी त्यां प्रकट थई गया ॥३०॥

जगतना आधाररूप भगवाने गजेन्द्रने अत्यन्त पीडातो जोयो एणे करेली स्तुति साम्भळी अने पछी वेदमय गरुड उपर बिराजेला अने देवताओ जेमनी स्तुति करता हता तेवा चक्रधारी भगवान्‌ ज्यां गजेन्द्र हतो त्यां जलदी आवी पहोञ्च्या ॥३१॥

हाथीने तो महा बळवान झूडे पाणीमां पकडी राख्यो हतो तेथी ए अत्यन्त दुःखी हतो. एणे हाथमां चक्र धारण करेला हरि भगवानने गरुड उपर बिराजेला जोया एटले पोतानी सूण्ढमां एक कमळ लई एणे उपर उठाव्युं अने दीन आर्तिपूर्वक बोल्यो ‘‘नारायण! अखिलगुरो! भगवान्‌ आपने हुं नमुञ्छुं’’ ॥३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ॥ ग्राहाद्‌ विपाटितमुखादरिणागजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुयदुच्छ्रियाणाम्‌ ॥३३॥

अजन्मा भगवाने एने दुःखी जोईने कृपा करी तळावमान्थी ग्राह साथे गजेन्द्रने बहार खेञ्ची काढ्‌यो अने चक्रवडे देवोना देखतां ग्राहना मोढाने चीरीने हाथीने ग्राहथी छूटो कर्यो ॥३३॥

अध्याय-३,अष्टम स्कन्ध ३४५ इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (पहेलां हरिस्मरण नामना प्रकरणनो) ‘‘गजेन्द्रे स्तुति करी त्यारे प्रभुए एनो अने ग्राहनो करेलो उद्धार’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो.(श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

अध्याय ४

गजेन्द्र अने ग्राह नो पूर्वजन्म

विशेष - गजेन्द्र अने ग्राह ए बे मान्थी ग्राह तो गन्धर्व हतो तेने देवलना शापथी ग्राह थवुं पड्युं हतुं ते ग्राहना शरीरथी मुकत थई नहूहूथ नामनो गन्धर्व थई गयो. गजेन्द्रने भगवाने पोताना पार्षद बनाव्यो. तेने प्रभुए पोतानुं स्थान आप्युं ए वात आ चोथा अध्यायमां कहेवाय छे. तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः ॥ मुमुयुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे भगवान्‌ हरिए गजेन्द्रने झूडना मोढामान्थी छोडाव्यो त्यारे ब्रह्मा अने शिवजी साथे बधा देवो भगवान्‌ हरिना कर्मनी प्रशंसा करता एमनी उपर पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या ॥१॥

देवनां दुन्दुभि वाग्यां, गन्धर्वो नाचवा अने गावा लाग्या अने ऋषिओ चारणो अने सिद्ध लोको पुरुषोत्तमनी स्तुति करवा लाग्या ॥२॥

गजेन्द्रने पगथी पकडनार ग्राहे तरत ज आश्चर्यकारक रूपधारण कर्युं. देवलना शापथी मुकत थयेलो ए असल ‘हूहू’ नामनो गन्धर्व हतो ते पाछो पूर्वरूपने प्राप्त थई गयो ॥३॥

अध्याय-३,

ईं उं ईं उं

३४६ अष्टम स्कन्ध ए हूहू गन्धर्व उत्तम कीर्तिवाळा, अविकृत स्वरूपवाळा, यशना धामरूप अने कीर्तन करवा योग्य जेना गुण अने सुन्दर कथाओ छे तेवा भगवानने मस्तकवडे प्रणाम करीने भगवानना गुण गावा लाग्यो ॥४॥

त्यारे प्रभुए एनी उपर दया करी तेथी ए बधा दोषोथी मुकत थयो. भगवाननी परिक्रमा करी तेमने प्रणाम करी बधा लोकोना देखतां ए पोताना गन्धर्वलोकमां गयो ॥५॥

गजेन्द्र पण भगवाननो स्पर्श थतां ज अज्ञानना बन्धनमान्थी मुकत थई गयो. तेने भगवाननुं ज रूप प्राप्त थई गयुं. ते पीताम्बरधारी अने चतुर्भुज बनी गयो ॥६॥

पूर्व जन्ममां गजेन्द्र द्रविडोमां उत्तम पाण्ड्‌य देशनो राजा हतो अने इन्द्रद्युम्न एनुं नाम हतुं. ए विष्णुना व्रतमां परायण एन अत्यन्त यशस्वी हतो ॥७॥

एकवार राजा इन्द्रद्युम्न राजपाट छोडी मलय पर्वत उपर रहेवा लाग्या हता. एमणे जटाओ वधारी तपस्वीनो वेश धारण करी लीधो. एक दिवस स्नान कर्या बाद पूजा वखते मनने एकाग्र करी अने मौन धारण करी ते सर्व शक्तिमान भगवाननी आराधना करी रह्या हता ॥८॥

ते वखते दैवयोगथी महायशस्वी अगस्त्य मुनि पोताना शिष्यो साथे एमना आश्रममां आवी पहोञ्च्या त्यारे राजा इन्द्रद्युम्न तो समाधिमां चूपचाप भगवद्‌ आराधन करता हता. एमनाथी ऋषिनो सत्कार थयो नहि तेथी ऋषि गुस्से थई गया ॥९॥

ए कहेवा लाग्या के ‘‘आ इन्द्रद्युम्न राजा बुद्धिहीन छे, दुष्ट छे अने ब्राह्मणनुं अपमान करनार छे. हुं अर्ही आव्यो तो पण मारी सामे जोतो नथी तेथी ए अभिमानी छे. ए हाथी जेवो जड होवाथी अन्धतममां जाय, अर्थात्‌ जेमां ज्ञान नथी तेवो हाथी थई जाय’’ एवो शाप अगत्स्ये आप्यो ॥१०॥

श्रीशुकदेवजीए राजा परीक्षितने कह्युं - हे राजन्‌ एम बोलीने शाप अने वरदान देवा समर्थ अगत्स्य शिष्योनी साथे त्यान्थी रवाना थई गया त्यारे राजाए पण धार्युं के ‘‘मारुं प्रारब्ध ज आवुं हतुं; जे थयुं ते ठीक थयुं’’ ॥११॥

त्यां तो एने आत्मानी विस्मृति करावनार हाथीनो देह प्राप्त थई गयो. परन्तु भगवाननी भक्तिनो प्रभावज एवो छे के हाथीना देहमां पण एने भगवाननी अध्याय-३,अष्टम स्कन्ध ३४७ स्मृति थईने ज रही ॥१२॥

उपर कह्या प्रमाणे कमलनाभ भगवाने गजेन्द्रनो उद्धार करी तेने पोतानो पार्षद बनावी एने पोतानी साथे लईने गरुड उपर बिराज्या. गन्धर्वो सिद्धो अने देवो तेमनी आ अद्‌भुत लीलानुं गान करवा लाग्या, भगवान्‌ तेनी साथे स्वभवने पधार्या ॥१३॥

कुरुवंश शिरोमणि परीक्षित! में भगवान्‌ श्रीकृष्णनो महिमा तथा गजेन्द्रना उद्धारनी कथा तमने सम्भळावी. आ प्रसङ्ग श्रोताओना कलिमल अने खराब स्वप्न मटाडी देनारो तथा यश, उन्नति अने स्वर्ग अपावनारो छे ॥१४॥

तेथीज श्रेयनी कामनावाळा द्विजो सवारमां ऊठी, पवित्र थई, दुःस्वप्न आदिनी शान्तिने माटे गजेन्द्रमोक्षनो पाठ करे छे ॥१५॥

हे कुरुसत्तम! गजेन्द्रनी स्तुतिथी प्रसन्न थई सर्वव्यापक तथा सर्वभूत स्वरूप श्रीहरि भगवाने गजेन्द्रने बधाना साम्भळता कह्युं हतुम् ॥१६॥

श्रीभगवाने कह्युं - जे लोको रातना छेल्ला पहोरे ऊठी इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्तथी मारुं, तारुं तथा आ सरोवर, पर्वत अने कन्दरा, वन, नेतर, कीचक अने वांसनी झाडीओ, अर्हीना दिव्य वृक्ष तथा पर्वत शिखर, मारा, शिवजी अने ब्रह्माजीनां निवासस्थान, मारुं प्रिय धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, वनमाला, मारी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षीराज गरुड, मारा सूक्ष्मकला स्वरूप शेषजी, मारा आश्रयमां लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शिवजी तथा भकतराज प्रह्‌लाद, मत्स्य, कूर्म, वराह आदि अवतारोए करेलां मारां अनन्त पुण्यमय चरित्रो, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गाय, ब्राह्मण, अविनाशी सनातन धर्म, सोम, कश्यप अने धर्मनी पत्नी दक्षकन्याओ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि अने पवित्रकीर्ति (जनक विदेही, युधिष्ठिर, नल वगेरे) महापुरुषोनुं स्मरण करे छे ते समस्त पापोथी छूटी जाय छे; कारण के आ बधांय मारां ज रूप छे ॥१७ थी २४॥

प्रिय गजेन्द्र! जे लोको ब्राह्ममुहूर्तमां ऊठी जई तें करेली मारी स्तुतिथी मारुं स्तवन करशे तेमने हुं तेमना मृत्यु वखते निर्मल बुद्धिनुं दान करीश ॥२५॥

इत्यादिश्य हृषीकेशः प्रध्माय जलजोत्तमम्‌ ॥ हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम्‌ ॥२६॥

अध्याय-४,३४८ अष्टम स्कन्ध श्रीशुकदेवजीए कह्युं - इन्द्रियना प्रेरक भगवान्‌ एम कहीने शङ्खनो नाद करी देवताओने आनन्दित करता गरुड उपर सवार थई पधार्या ॥२६॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (पहेलां हरिस्मरण नामनो प्रकरणनो) ‘‘गजेन्द्र अने ग्राह नो पूर्व जन्म’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!! बीजुं दान-दाता प्रकरण

अध्याय ५

रैवत अने चाक्षुष मन्वन्तरनी कथा

विशेष - अर्हीथी बीजुं ‘दान दाता’ए नामनुं प्रकरण १० अध्यायनुं शरू थाय छे. हवे पछी आठ अध्यायथी समुद्रमान्थी अमृत मेळव्युं ए आख्यान कहेवामां आवे छे ज्यां भगवाने पोताना अङ्गीकृतनो पक्षपात करी स्त्रीनुं रूप धारण कर्युं. आ पाञ्चमा अध्यायमां पाञ्चमा छठ्ठा मन्वन्तरनी कथा कहेवामां आवे छे. ज्यारे ब्राह्मण (दुर्वासा) ना शापथी देवो लक्ष्मी वगरना थया त्यारे तेओ भगवाननी स्तुति करे छे ए पण आ अध्यायमां कहेछे. राजन्नुदितमेतत्‌ ते हरेः कर्माधनाशनम्‌ ॥ गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं शृणु ॥१॥

श्रीशुक देवजीए कह्युं - हे राजन्‌! पापने दूर करनारी गजेन्द्रमोक्षनी पवित्र लीला में तमने कही. हवे पवित्र रैवत मनुनो समय कहुं छुं ते साम्भळो ॥१॥

चोथा मनु तामसनो सगो भाई रैवत पाञ्चमो मनु थयो. तेने अर्जुन, बलि, विन्ध्य वगेरे पुत्रो थया जेमां अर्जुन मुख्य हतो ॥२॥

ए मन्वन्तरमां विभु नामे इन्द्र थया; भूतरय वगेरे देवो थया; हिरण्यरोमा, वेदशिरा अने ऊर्ध्वबाहु वगेरे सप्तर्षि थया ॥३॥

अध्याय-४,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३४९ तेमां शुभ्र ऋषिनी पत्नीनुं नाम विकुण्ठा हतुं. तेमना गर्भथी वैकुण्ठ नामना श्रेष्ठ देवताओनी साथे पोताना अंशथी स्वयं भगवाने वैकुण्ठ नामनो अवतार धारण कर्यो ॥४॥

ए वैकुण्ठ भगवाने लोको जेने नमन करे छे तेवो वैकुण्ठ नामनो लोक लक्ष्मीजीनी प्रार्थनाथी एनी कामना पूर्ण करवामाटे बनाव्यो ॥५॥

ए वैकुण्ठनाथनो प्रताप तो (त्रीजा स्कन्धमां) कहेवामां आव्यो छे. एमना गुण एटला बधा छे के जे कोई पृथ्वीना रेणुने गणी शके ते ज भगवानना गुणने कही शके. एम बधा गुण कहेवाने समर्थ नथी ॥६॥

छठ्ठा मनु चक्षुना पुत्र चाक्षुष थया, ते चाक्षुषना पूरु, पुरुष, सुद्युम्न वगेरे अनेक पुत्रो थया ॥७॥

मन्त्रद्रुम नामना इन्द्र थया, आप्य आदि देवगण थया, हविष्मान अने वीरक आदि सात ऋषिओ थया ॥८॥

जगत्पति भगवाने त्यारे पण वैराजथी सम्भूति नामनी स्त्रीमां अजित नामना भगवान्‌ थया, ते जगतना रक्षक थया ॥९॥

ए भगवाने समुद्रनुं मन्थन करी देवोने माटे अमृत उत्पन्न कर्युं. ए अजित भगवाने कूर्मनुं रूप धरीने जलमां फरता मन्दराचल पर्वतने पोतानी पीठ उपर धारण कर्यो ॥१०॥

राजाए पूछ्‌युं - हे ब्रह्मन्‌! भगवाने क्षीर सागरनुं मथन कर्युं ते जे कारणथी कर्युं जेने माटे कर्युं अने जळचर रूप धरी मन्दरने शा माटे उठाव्यो ए वात जेवी बनी होय तेवी ज कहो ॥११॥

एकला देवोने ज अमृत केम मळ्युं? बीजुं त्यां शुं-शुं बन्युं? ए भगवाननी लीला अत्यन्त अद्‌भुत होवाथी आप मने कहो ॥१२॥

मारुं मन अत्यन्त तापयुकत थयुं छे छतां आप भगवाननो महिमा सारी रीते कहो छो तेनाथी मने तृप्ति थती नथी ॥१३॥

सूतजी बोल्या - ए प्रमाणे व्यासजीना पुत्र श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षिते पूछयुं त्यारे हे द्विजो! राजाना प्रश्ननुं अभिनन्दन करी श्रीशुकदेवजीए भगवाननां पराक्रम कहेवानो आरम्भ कर्यो ॥१४॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याःज्यारे युद्धमां देवो असुरनां तीक्ष्ण बाणोवडे घवाया अने अध्याय-४,३५० अष्टम स्कन्ध एमांये केटलाक प्राण छोडीने पड्या, ज्यारे *दुर्वासाना शापथी त्रण लोक लक्ष्मी रहित थई गया अने यज्ञादि क्रियाओ नाश पामी गई अने ज्यारे इन्द्र वगेरे देवोने आनी खबर पडी त्यारे एओए साथे मळी विचार कर्यो के आपणे आवा केम थई गया? पण एओ स्वतः एनुं कारण जाणी शकया नहि ॥१५ थी १७॥

विशेष - इन्द्र ऐरावत उपर बेसी आवतो हतो तेने दुर्वासा सामा मळ्या त्यारे दुर्वासाए प्रसन्नताथी पोतानी प्रसादी माळा इन्द्रने आपी. इन्द्रे लक्ष्मीना मदथी ए दुर्वासानी पहेरेली माळाने पोते नहि पहेरतां ऐरावतना कुम्भस्थळ उपर धरी, ऐरावते ते माळा लई पोताना पगतळे कचरी नाखी. ए जोई दुर्वासा गुस्से थया अने लक्ष्मी रहित थवानो शाप आप्यो तेथी इन्द्रे त्रिलोकनुं राज्य गुमाव्युं. त्यारे बधां देवो मळी मेरुं पर्वतनी उपर ज्यां ब्रह्मानी पुरी छे त्यां ब्रह्मसभामां आ वातनो निर्णय करवाने गया. ब्रह्माजीने देवोए पोतानी विकट परिस्थितिनुं विगतवार वर्णनकर्युम् ॥१८॥

ब्रह्माजीए स्वयं जोयुं के इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन अने शक्ति हीन थई गया छे. लोकोनी परिस्थिति साव बे हाल, सङ्कटग्रस्त थई रही छे ज्यारे एथी ऊलटुं असुरो फूलीफाली रह्या छे ॥१९॥

एमणे समाधि करी एकाग्र मनथी परम पुरुषनुं स्मरण कर्युं अने प्रफुल्ल वदनथी समर्थ ब्रह्माजी देवोने कहेवा लाग्या ॥२०॥

हुं ब्रह्मा, शिवजी तमे इन्द्रादि बीजा देवो, मनुष्य, पशु, वृक्षो अने स्वेदज बधां जेनाथी ऊतरी आवेल छीए ते आपणे बधां भगवानने रक्षणने माटे प्रार्थना करीए ॥२१॥

एमने कोई मारवा योग्य नथी अने कोई बचाववानो नथी के कोई उपेक्षणीय नथी के कोई आदरणीय नथी तो पण ए लोकनी उत्पत्ति रक्षा अने नियन्त्रणने ने माटे काले करी रजोगुण, सत्त्वगुण अने तमोगुण नो स्वीकार करे छे ॥२२॥

अत्यारे भगवान्‌ सत्त्वगुणने सेवे छे अने मनुष्यनुं पालन करवानो एमनो विचार छे तेथी आपणे बधां जगतना गुरु भगवानने शरणे जईए. एमने देवो प्रिय होवाथी ए तमारुं रक्षण करशे ॥२३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे शत्रुना नाश करनार राजा परीक्षित! देवोने एम कहीने ब्रह्माजी वगेरे तमसथी पर एवुं जे साक्षात्‌ भगवान्‌ अजितनुं स्थान छे त्यां अध्याय-५,अष्टम स्कन्ध ३५१ पहोञ्च्या ॥२४॥

त्यां जोया तो नहि पण पूर्वे साम्भळेल होवाथी सावधान थई दैवी वाणीवडे ए भगवाननी स्तुति करवा लाग्या ॥२५॥

ब्रह्माजी बोल्या - आप विकार रहित छो, सत्य छो, अनन्त स्वरूप छो, सर्वना हृदयमां रहेनार आदि पुरुष छो, उपादिमुकत छो, तर्कमां न आवो तेवा छो, मन ज्यां-ज्यां जाय छे त्यां-त्यां आप पहेलेथी ज विद्यमान रहो छो. वाणी आपनुं निरूपण करी शकती नथी. देवोमां आप ज श्रेष्ठ-वरण करवा लायक छो. आपने अमे नमन करीए छीए ॥२६॥

आप प्राण, मन, बुद्धि अने अहङ्कार ना ज्ञाता छो. इन्द्रियो अने तेमना विषयो बन्ने आप द्वारा ज प्रकाशित थाय छे, अज्ञान आपनो स्पर्श करी शकतुं नथी. प्रकृतिना विकाररूप मरनारुं-जीवनारुं शरीर आपने नथी. जीवना बन्ने पक्षविद्या अने अविद्या आपमां बिलकुल नथी. आप अविनाशी आनन्द स्वरूप छो. सत्युग, त्रेतायुग अने द्वापरयुगमां तो आप प्रकटरूपथी ज बिराजमान रहो छो. अमे बधा आपने शरणे आव्या छीए ॥२७॥

जीवने देहादिरूप जे चक्र (रथनुं पैडुं) छे ते फर्या करे छे. ए चक्र मनोमय छे. दश इन्द्रियो अने पाञ्च प्राण एम पन्दर एमां आरा छे. सत्त्व, रज, तम रूपी त्रण गुण एनी नाभि छे जे वीजळीनी पेठे जलदी चाले छे. पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि अने अहङ्कार आठ पाटा छे. स्वयं माया एनुं सञ्चालन करे छे अने तेनी झडप वीजळीथी पण वधारे छे. ए चक्रनी धरी स्वयं परमात्मा छे तेज एक मात्र सत्य छे. ए प्रभुने हुं शरणे जाउं छुम् ॥२८॥

आप ज्ञान स्वरूप छो. अज्ञानथी पर होवाथी आप देखाता नथी के स्पष्ट थता नथी. काळ के देश वडे आपनो परिच्छेद थतो नथी. आप भकतनी रक्षा करवाने गरुड उपर सवार थईने पासे आवो छो, अथवा तो जीवना नियमनमाटे आप एनी साथे अन्तर्यामीरूपे हमेशां बिराजो छो. विचारशील पुरुषो भक्तियोगथी एमनी जे आराधना करे छे. एवा आपने मारा नमस्कार हो ॥२९॥

जेनी मायावडे लोको मोह पामी पोताना लक्ष्यने चूकी जाय छे. ते मायानो कोई पार पामी शकतुं नथी. ते माया अने तेना गुणोने जेणे वश करी जे सर्व प्राणीमां समानरूपे विचरण करतां रहे छे. जीव पोताना साधन बलथी नहि पण एमनी अध्याय-५,३५२ अष्टम स्कन्ध कृपाथी ज एमने प्राप्त करी शके छे. अमे एमना चरणोमां नमस्कार करीए छीए ॥३०॥

जेना परम प्रिय सत्त्व शरीरथी अमे देवरूपे अने ऋषिरूपे थया छीए एम छतां जेनां सत्ता अने प्रकाश थी प्रकट एवा निरुपाधिक स्वरूपने एम जाणी शकतां नथी तो असुरो के जे रजतमःप्रधान छे ते तो शी रीते जाणी शके? ॥३१॥

आ पृथ्वी के जेमां जरायुज वगेरे जीवनी चार प्रकारनी सृष्टि थाय छे ते तेना चरणरूप छे. महापुरुष स्वतन्त्र छे. ए महा वैभववाळा छे, ब्रह्मरूप छे एवा ते मारा उपर प्रसन्न हो ॥३२॥

जेनावडे लोको अने लोकपाळो जीवे छे अने वृद्धि पामे छे तेवुं उदार शक्तिशाळी जळ जेनुं रेतोरूप छे ते महाविभूति प्रभु मारी उपर प्रसन्न थाओ ॥३३॥

श्रुतिओ कहे छे के चन्द्रमां ए प्रभुनुं मन छे. आ चन्द्रमा तमाम देवताओनुं अन्न, बल अने आयु छे. ते ज वृक्षोना सम्राट्‌ अने प्रजानी वृद्धिना करणहार छे. एवा मननो स्वीकार करनारा परम ऐश्वर्यवान प्रभु अमारा उपर प्रसन्न हो॥३४॥

अग्नि प्रभुनुं मुख छे तेनी उत्पत्ति ज एटलामाटे थई छे के वेदना यज्ञयागादि कर्मकाण्ड पूर्णरूपथी थई शके. आ अग्नि ज शरीरनी अन्दर जठराग्नि रूपथी अने समुद्रनी अन्दर वडवानल रूपथी रही एमां रहेनारा अन्न, जल आदि धातुओनुं पाचन करतो रहे छे अने समस्त द्रव्योनी उत्पत्ति पण तेनाथी ज थई छे. एवा परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ अमारा उपर प्रसन्न हो ॥३५॥

जे द्वारा जीव देवयान मार्गथी ब्रह्मलोकमां जाय छे. जे वेदोनी साक्षात्‌ मूर्ति अने भगवाननुं ध्यान करवा योग्य धाम छे जे पुण्यश्लोक स्वरूप होवाथी मुक्तिनुं द्वार अने अमृतमय छे अने काळरूप होवाने कारणे मृत्यु पण छे. एवा, सूर्य जेमनां नेत्र छे ते परम ऐश्वर्य शाली भगवान्‌ अमारा उपर प्रसन्न हो ॥३६॥

जेना प्राणमान्थी स्थावर जङ्गमनो प्राणवायु थाय छे, जेना मननुं बळ सह थाय, जेनी इन्द्रियनुं बळ ओज थाय छे, जेना शरीरनुं सामर्थ्य बल छे एवा पाञ्च प्रकारनो प्राण छे, जेम सार्वभौम राजाने सेवको सेवे तेम, अमे ए प्राणनी सेवा करीए छीए. एवा प्राणने धारण करनार प्रभु प्रसन्नहो ॥३७॥

जेना कानोथी दिशाओ, हृदयथी इन्द्रियगोलक अने नाभिथी आ आकाश उत्पन्न थयुं छे, जे पाञ्च प्राणवायु (प्राण, अपान, उदान, समान अने व्यान) दशेय अध्याय-५,अष्टम स्कन्ध ३५३ इन्द्रियो, मन, पाञ्चेय असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त अने धनञ्जय) तेमज शरीरना आश्रय छे ते परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ अमारा उपर प्रसन्न हो ॥३८॥

जेना बळथी इन्द्र, जेनी प्रसन्नताथी देवो, जेना क्रोधथी शिव, जेनी बुद्धिथी ब्रह्मा, जेनी इन्द्रियोथी वेदना, जेना गायत्री आदि छ्‌न्दो अने ऋषिओ अने उपस्स्त्री प्रजापति थया छे ते महाविभूति अमारा उपर प्रसन्न हो ॥३९॥

जेना वक्षःस्थळथी लक्ष्मी, छायाथी पितृओ, स्तनथी धर्म, पीठथी अधर्म, मस्तकथी आकाश अने जेना विहारथी अप्सराओ प्रकट थई ते महावैभवशाळी भगवान्‌ अमाराउपर प्रसन्नथाओ।४०। जेना मुखथी ब्राह्मण अने अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाथी क्षत्रियो अने बळ, साथळमान्थी वैश्य अने व्यवहार दक्षता अने चरणमान्थी वेदबाह्य शूद्र अने सेवावृत्ति उत्पन्न थयां छे ते महावैभववाळां भगवान्‌ अमारा उपर प्रसन्न हो॥४१॥

जेना अधरथी लोभ, उपला होठथी प्रीति, नासिकाथी कान्ति, स्पर्शथी पशुओनो प्रिय काम थयो, भ्रूकुटिथी यम अने पाम्पणथी काळनी उत्पत्ति थई छे ते प्रभु अमारा उपर प्रसन्न हो ॥४२॥

पञ्चभूतो, काळ, कर्म, सत्त्व, आदिगुणो अने जे कंई विवेकी पुरुषोद्वारा बाधित करवा योग्य निर्वचनीय अथवा अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ छे ते बधा भगवाननी योगमायाथी ज थाय छे एम शास्त्र कहे छे तेवा महावैभववाळा भगवान्‌ अमने प्रसन्न हो ॥४३॥

जेनी सर्व प्रवृत्ति करनार शक्तिओ शान्त थई छे तेवा स्वातन्त्र्यना लाभथी पूर्ण, अनवधि आनन्दना अनुभववडे पूर्णकाम अने मायाना गुणोथी दूर रहेता, वायुना जेवा सदा असङ्ग प्रभुने मारा प्रणाम हो ॥४४॥

आप अमने आपनुं स्वरूप बतावो जेने अमे अमारी इन्द्रियोथी जोई शकीए केमके अमे आपने शरणे थया छीए. आपनुं मन्दस्मितयुकत मुखकमल जोवानी इच्छावाळा अमे छीए ॥४५॥

हे प्रभो! समय-समय उपर आप स्वेच्छारूप धारण करी कोईथी न थाय तेवां अमारां कार्य करो छो ॥४६॥

विषयमां दुःखी थता मनुष्यनां कर्मोमां कष्ट घणुं अने फळ ओछुं होय छे, परन्तु जे कर्म आपने समर्पित करवामां आवे छे ते करती वखते पण परम सुख अध्याय-५,३५४ अष्टम स्कन्ध प्राप्त थाय छे ते स्वयं फलरूपछे ॥४७॥

भगवाने समर्पण करवामां आवेल नानामां नानुं देखाव मात्र अथवा कहेवा मात्रनुं कर्म पण कयारेय नकामुं जतुं नथी कारण के भगवान्‌ जीवना परम हितैषी, परम प्रियतम-अरे तेना आत्मा ज छे ॥४८॥

जेम वृक्षना मूळमां जळ सिञ्चवामां आवे तो ते मोटामां मोटी अने नानामां नानी डाळीओने सिचवा बराबर छे तेमज सर्वात्मा भगवाननी आराधना सम्पूर्ण प्राणीओनी अने पोतानी पण आराधना छे ॥४९॥

नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितक्‌र्यात्मकर्मणे। निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम्‌ ॥५०॥

जे त्रणेय कालमां अने एथी पण पर एकरस छे, जेनी लीलाओमां रहस्य तर्कवितर्कथी पर छे, जे गुणोथी पर होवा छतां गुणोना स्वामी छे तथा जेमणे अत्यारे सत्त्वगुण स्वीकार्यो छे एवा आपने अमे वारंवार नमस्कार करीए छीए ॥५०॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान-दाता प्रकरणनो पहेलो) ‘‘रैवत अने चाक्षुष मन्वन्तरनी कथा’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय ६

देवो तथा दैत्योए अमृत मेळववा समुद्रमथन कर्युं

विशेष - भगवान्‌ प्रकट थतां देवोए फरीथी एमनी स्तुति करी. अमृत मथनमाटे भगवान्‌ साथे विचार करी असुरोने ए कार्यमां भाग आपवानुं करी देवो अमृतमाटे मोटो उद्योग करवा अध्याय-५,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३५५ लाग्या एटली वात आ छठ्ठा अध्यायमां आवे छे. एवं स्तुतः सुरगणैः भगवान्‌ हरिरीश्वरः ॥ तेषामाविरभूत्साक्षात्‌ सहस्रार्कोदयद्युतिः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे ज्यारे देवोए स्तुति करी त्यारे छ ऐश्वर्ययुकत भगवान्‌, जे भकतना दुःखनुं हरण करनार छे तथा सर्वने वश राखनार हजार सूर्यना तेजवाळा छे ते, प्रकट थया ॥१॥

ए भगवानना तेजवडे देवोनी आङ्खो अञ्जाई गई. एओ आकाश, दिशाओ, पृथ्वी के पोताना शरीरने पण देखी शकया नहि तो प्रभुने तो कयान्थी देखी शके? ॥२॥

स्वच्छ मरकतमणि जेवी, श्याम कमळना गर्भ जेवी, श्वेतरक्त नेत्रवाळा तपेला सुवर्ण जेवी, शुद्ध रेशमी वस्त्रथी शोभती, प्रसन्न अने सुन्दर अङ्गवाळी, सुन्दर मुखवाळी, सुन्दर भ्रूकुटीवाळी, मोटा मणिना किरीटवाळी, बे बाजूबन्धथी शोभित, कानना आभरणथी कपोलनी शोभामां वधारो करता मुखकमळवाळी, कटिमेखला, कडां, हार अने नेपूरथी शोभायमान, कण्ठमां मणिथी शोभित वनमालाथी विराजित, मूर्तिमान, सुदर्शनादि, आयुधथी सेवायेली भगवन्मूर्तिनां दर्शन करीने देवमां श्रेष्ठ एवा ब्रह्माजी, शिवजी तथा सर्व अन्य देवोनी साथे सर्व अङ्गने पृथ्वी उपर नमावीने ए परम पुरुषनी स्तुति करवा लाग्या ॥३-७॥

ब्रह्माजीए कह्युं - आपनां जन्म, स्थिति वगेरे कयारे पण न ज होय, आप प्राकृत गुणथी पर छो, वळी आप अपार मोक्ष सुखना समुद्र छो छतां सूक्ष्मथी पण सूक्ष्म छो तेवा अगणित तेजवाळा महाप्रतापी आपने अमारा नमस्कार हो ॥८॥

हे पुरुषश्रेष्ठ! श्रेयनी इच्छावाळा लोको वैदिक तेमज नारद पञ्चरात्र वगेरेमां कहेल तान्त्रिक उपायोवडे आ तमारा रूपनुं आराधन करे छे तेथी आपनुं रूप अनादि छे, अत्यारे ज नवुं प्रकट थयुं नथी. आप विश्वमूर्ति छो तेथी त्रण लोकनी साथे अमने पण अमे आपना स्वरूपमां निश्चय पूर्वक जोई शकीए छीए ॥९॥

आप स्वतन्त्र होवाथी आपने विशे आ जगतप्रथम हतुं, मध्यमां छे अने अन्तमां पण ए लीन थईजशे तेथी घडा अने माटीनी पेठे आप जगतना आदि अने अन्त मां छो; आप प्रकृति-पुरुषथी परछो ॥१०॥

आपनो आश्रय करी रहेली आपनी मायावडे आ जगतने बनावी एमां आप अध्याय-५,३५६ अष्टम स्कन्ध अन्तर्यामी रूपथी बिराजो छो. तेथी ज विवेकी अने शास्त्रज्ञ पुरुष खूब सावधानीथी पोताना मनने एकाग्र करी, आ गुणो-विषयो खूब होवा छतां पण आपना निर्गुण स्वरूपनो साक्षात्कार करे छे ॥११॥

जेवी रीते युक्तिथी माणस काष्ठमान्थी अग्निने, गायमान्थी धीने, पृथ्वीमान्थी अन्नने, पृथ्वीमान्थी जळने अने उद्योगथी आजीविका मेळवे छे तेम भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि द्वारा आपने आ विषयोमां ज प्राप्त करी ले छे अने पोताना अनुभव प्रमाणे आपनुं वर्णन पण करे छे ॥१२॥

हे कमलनाभ! हे नाथ! दावाग्निथी दाझी गयेला हाथीओ गङ्गाना जळमां डूबकी मारी शान्ति अनुभवे तेम आप प्रकट थया तेथी आपना स्वरूपनां दर्शन करी घणा दिवसनी अमारी इच्छा पूर्ण थतां अमे घणा सुखी थया छीए ॥१३॥

अमे बधा लोकपाळो जेने माटे आपनी पासे आव्या छीए ए वस्तु लोकनी अन्दर अने बहार रहेनार आपना जाणवामां छे एथी बधाना साक्षी अने सर्वना अन्तरमां रहेनार एवा आपने अमारे शी विनन्ति करवी पडे? माटे आप अमने जे आज्ञा करो ते करवाने अमे आपनी पासे आव्या छीए ॥१४॥

हुं, शिवजी, देवो, दक्ष वगेरे, अग्निनी चिनगारी जेम जुदी देखाय तेम, आपथी जुदा देखाईए छीए पण अमारुं श्रेय शेमां छे ए अमे जाणता नथी; तेथी जे कर्तव्य होय एनो विचार करी अमने आज्ञा करो ॥१५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे ब्रह्माजीए आम कह्युं त्यारे एमना अभिप्रायने जाणीने, बधी इन्द्रियोनी वृत्तिने रोकी हाथ जोडी पासे ऊभेला देवोने मेघ सरखी गम्भीर वाणीवडे भगवान्‌ कहेवा लाग्या ॥१६॥

जो के देवोनुं काम करवाने भगवान्‌ एकला समर्थ हता छतां समुद्रमथनादि लीलावडे विहार करवानी इच्छाथी प्रभु देवोने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१७॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे ब्रह्मन्‌! हे शम्भो! हे देवो! हुं कहुं छुं ए सावधान थईने साम्भळो अने पछी ए प्रमाणे तमे करो; एनाथी तमारुं भलुं थशे ॥१८॥

अत्यारे असुरो उपर काळनी कृपा छे तेथी तमारा अभ्युदय अने उन्नतिनो समय न आवे त्यां सुधी तमे दैत्यो अने दानवोनी पासे जई तेमनी साथे सन्धि करी लो ॥१९॥

कोई महान कार्य करवुं होय त्यारे शत्रु आगळ पण मैत्रीनो हाथ लम्बाववो पडे अध्याय-६,अष्टम स्कन्ध ३५७ छे; ए वगर अर्थ सरतो नथी. सर्प करण्डियामां पूरायो पूरायो होय तो उन्दर साथे पण मैत्री बान्धी एनी मारफत करण्डियो तोडावी एने खाईने बहार नीकळे तेम तमारे पण तमारुं कार्य थतां सुधी सन्धि करवी योग्य छे ॥२०॥

विलम्ब न करतां अमृत उत्पन्न करवामाटे यत्न करो. अमृत पीवाथी मरणना मुखमां पडेलो माणस पण अमर थई जाय छे ॥२१॥

पहेलां क्षीरसागरमां बधी जातनां घास, तणखलां, लताओ अने औषधिओ नाखो. पछी तमे मन्दराचलने रवैयो अने वासुकि नागनुं नेतरुं बनावी, मारी सहायथी समुद्रनुं मथन करो. अत्यारे आळस अने प्रमाद करवानो समय नथी. हे देवताओ! विश्वास राखो, दैत्योने मात्र काम अने कलेश मळशे, परन्तु फळ मात्र तमने ज मळशे ॥२२-२३॥

हे देवताओ! असुर लोको तमारी पासे जे-जे मागणी मूके ते बधी तमे स्वीकारी लेजो. शान्तिथी बधां काम थतां होयछे क्रोध करवाथी कंई थतुन्नथी ॥२४॥

समुद्रमान्थी पहेलां कालकूट झेर नीकळशे एथी डरशो नहि अने कोई पण वस्तुमाटे कयारेय पण लोभ न करवो. पहेला तो कोई चीजमाटे कामना ज न करवी जोईए परन्तु जो कामना होय अने ते पूरी न थाय तो क्रोध न करवो जोईए ॥२५॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्‌! देवताओने आम आज्ञा करी श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ एमनी वच्चे ज अन्तर्धान थई गया. ए सर्व शक्तिमान अने परम स्वतन्त्र छे एमनी लीलानुं रहस्य कोण समजे? ॥२६॥

त्यार पछी ब्रह्मा अने शिव भगवानने नमस्कार करी पोतपोताने स्थाने गया अने इन्द्रादि देवो बलि राजा पासे गया(केमके ए हमणां त्रण लोकने जीतीने स्वर्गनुं राज्य करतो हतो) ॥२७॥

लडवानां साधन वगरना देवो बलि पासे आव्या तेने असुर सेनाना आगेवानो रोकवा लाग्या. ए बन्नेने कलह करता जोई बलिराजा पोताना दूतोने एनी साथे लडता अटकावी बोल्या के ‘‘देवो लडाई करवा आव्या नथी; एओ कांई दुःखी होवाथी आव्या छे;’’ एम सन्धि विग्रहना समयने जाणनार एमणे देवोने पोतानी पासे आववा दीधा ॥२८॥

सर्वने जीतीने ज्यां परम लक्ष्मीथी शोभायमान बलि राजा अनेक दैत्योना रक्षण वच्चे बेठेला छे त्यां देवो जई पहोञ्च्या ॥२९॥

अध्याय-६,३५८ अष्टम स्कन्ध बुद्धिशाळी इन्द्र सुन्दर वाणीवडे श्रीपुरुषोत्तमे शीखव्युं हतुं ते प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥३०॥

एटले जे असुराधिपो जेवा के शम्बर, अरिष्टनेमि, त्रिपुर वगेरे हता तेओने पण एनुं कहेवुं पसन्द पडतां बन्ने वच्चे सन्धि थई, परस्पर करार थया ॥३१॥

परस्पर मित्रता बन्धाई अने हे परन्तप! अमृतने माटे बन्नेए मळीने यत्न करवानो आरम्भ पण करी दीधो ॥३२॥

बन्नेए मळीने दुर्मद थईने बळवडे मन्दराचळने उखेड्यो अने मोटा शब्द करता-करता ए मोटा बाहुवाळा देवदैत्योए पर्वतने समुद्रना काण्ठो उपर लाववाने उठाव्यो ॥३३॥

बलि अने इन्द्र आदि बहु लाम्बेथी ए पर्वतने लावतां एना अतिभारथी थाकी गया अने असमर्थ थतां मन्दर पर्वतने मार्गमां छोडी दीधो ॥३४॥

तेओए ए सोनाना मन्दर पर्वतने मूकयो तेवो ए पड्यो अने केटलाक देव तथा दैत्यो एनी नीचे पिसाई गया ॥३५॥

ज्यारे केटलाकनो उत्साह भाङ्गी गयो अने केटलाकनां बाहु, डोक वगेरे भाङ्गी गयां त्यारे गरुडध्वज भगवान्‌ त्यां पधार्या ॥३६॥

पर्वतनी नीचे कचरायेला देवदैत्योने जोईने पोतानी अमृत दृष्टिथी देवोने जीवता कर्या अने आरोग्यवाळा पण कर्या ॥३७॥

पछी पर्वतने एक हाथवडे रमत मात्रमां उठावी गरुड उपर मूकी पोते सवार थई देवो अने दैत्यो साथे समुद्र तीरे आव्या ॥३८॥

अवरोप्य गिरिं स्कन्धात्‌ सुपर्णः पततां वरः ॥ ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः ॥३९॥

पक्षीराज गरुडजीए पर्वतने समुद्रना तटे उतारी दीधो पछी भगवाने तेने विदाय आपवाथी गरुडजी त्यान्थी चाल्या गया. (कारण के हवे वासुकि नागनुं काम छे अने गरुडजी होय त्यां नाग न आवे, आवे तो गरुडजी तेने खाई जाय) ॥३९॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान दाता प्रकरणनो बीजो) ‘‘देवो तथा दैत्योए अमृत मेळववा समुद्रमथन कर्युं’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अध्याय-६,अष्टम स्कन्ध ३५९

अध्याय ७

समुद्रने मथतां विष नीकळ्युं ते कृपा करी रुद्रे पीधुं

विशेष - समुद्रने मथतां झेर नीकळ्युं त्यारे बधा शिवजीनी स्तुति करवा लाग्या; रुद्रने दया आवी अने एमणे झेर पीधुं; ए वात आ सातमा अध्यायमां आवे छे. ते नागाराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्‌ ॥ परिवीय गिरौ तस्मिन्‌ नेत्रमब्धिं मुदान्विताः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए देव दैत्योए समुद्रमान्थी नीकळनार अमृतमां वासुकिनो पण भाग ठराव्यो अने एने त्यां लाव्या. तेमणे वासुकिना देहनुं नेतरुं बनाव्युं अने एनाथी पर्वतने र्वीटीने आनन्दयुकत थईने समुद्रमथन करवा लाग्या ॥१॥

हे कुरुद्वह! पूरी तैयारी साथे बन्ने अमृतने माटे यत्न करवा लाग्या. पहेलां- पहेलां अजित भगवाने वासुकिनुं मुख पकडयुं तेथी देवो पण मुख तरफ गया ॥२॥

परन्तु भगवाने वासुकिनुं मुख पकडयुं ए दैत्योना सेनापतिओने न गम्युं. तेओ कहेवा लाग्या के सर्पनुं पुच्छ अमङ्गळ होवाथी अमे ए नहि पकडीए ॥३॥

अमे वेदपाठ करनारा अने एनुं श्रवण करनारा अलौकिक सम्पत्तिवाळा छीए एटलुं ज नहि. पण जन्म अने कर्म वडे प्रसिद्धिने पामेला छीए तो पूञ्छने केम पकडीए? एवुं बोली एओ चूप रह्या ॥४॥

ए जोईने पुरुषोत्तमे जरा मन्दहास्य करीने सर्पना मुखने छोडी दीधुं अने देवोने साथे लई पुच्छ पकडी खेञ्चवा लाग्या. आम पोतपोताने क्यां रही श्रम करवो ए कश्यपना पुत्रो देव दैत्योए निश्चय करी लीधो ॥५॥

परम यत्नवडे अमृतने माटे समुद्रनुं मथन करतां आधार नहि होवाथी मन्दराचळ पर्वत जळमां नीचे ऊतरवा लाग्यो ॥६॥

हे पाण्डुनन्दन! बलवाळा देव दैत्योए मन्दरने पकड्यो पण अतुल भारने लीधे ए हाथमां न रह्यो. ज्यारे बळवान दैवे एओनो पुरुषार्थ नष्ट करी दीधो त्यारे बधानां मन खेद पाम्यां अने एओनी मुखकान्ति मलिन थई गई ॥७॥

विघ्न करनार दैवे आ विघ्न कर्युं छे एम जाणी सत्य सङ्कल्पवाळा अने अनन्त शक्तिवाळा भगवाने मोटा कच्छप शरीरने ग्रहण कर्युं अने जळमां प्रवेश करी मन्दराचळने उठावी लीधो ॥८॥

अध्याय-६,३६० अष्टम स्कन्ध कुलाचळ एवा मन्दरने उपर आवेलो जोई देव अने असुरो फरी मथवा लाग्या. लाख योजनना विस्तारवाळो ए मन्दर पर्वत पृष्ठ उपर जाणे मोटो बेट होय तेवो देखातो हतो तेने कच्छप भगवाने उठाव्यो ॥९॥

हे अङ्ग! देव-दैत्यो वडे फरतो मन्दराचळ पृष्ठ उपर आमतेम आवर्तन करतो हतो छतां कच्छप भगवान्‌ एने जाणे कोई पीठने खञ्जवाळतुं होय एम मानवा लाग्या ॥१०॥

साथे-साथे समुद्रमथन सम्पन्न करवामाटे भगवाने असुरोनी शक्ति अने बलने वधारवा तेमनामां असुररूपथी प्रवेश कर्यो; तेवी ज रीते देवताओने उत्साहित करवा तेमनामां देवरूपथी अने वासुकि नागमां निद्राना रूपथी प्रवेश कर्यो. भगवान्‌ एवा अकलित बळवाळा होवाथी भगवाननुं माहात्म्य सिद्ध थाय छे ॥११॥

बीजी बाजु पर्वतनी उपर बीजा पर्वत समान बनी सहस्र बाहु भगवान पोताना हाथोथी तेने दबावी स्थित थई गया. ए वखते आकाशमां ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि तेमनी स्तुति तथा तेमना उपर पुष्पनी वर्षा करवा लाग्यो ॥१२॥

आ प्रमाणे भगवाने पर्वतनी उपर तेने दबावी राखनारना रूपमां, नीचे तेना आधार काचबाना रूपमां, देवता अने असुरो ना शरीरमां एमनी शक्तिना रूपमां, दृढताना रूपमां अने नेतरुं बनेला वासुकि नागमां निद्राना रूपमां जेथी एने कष्ट न थाय; प्रवेश करी चारे तरफथी बधाने बळवाळा बनावी दीधा. हवे तेओ पोताना बलना मदथी उत्पन्न थई. मन्दराचळद्वारा भारे धूमधामथी समुद्रमथन करवा लाग्या. ते वखते समुद्र अने तेमां रहेनारां मगर, माछलां वगेरे जीवो अकळाई उठ्यां.॥१३॥

वासुकिनां हजार मोढां, हजार आङ्खो अने एमान्थी नीकळता श्वास, धूम वगेरेथी जेओनां तेज हणाई गयां छे तेवा पौलोम, कालेय, बलि अने इल्वल दावानळथी बळेला सरळना वृक्ष जेवा काळा मोढावाळा थई गया ॥१४॥

देवोने वासुकिना श्वासनो संसर्ग थतां एओनी कान्ति ओछी थई गई अने एमनां वस्त्र, माळाओ अने कपडां धुमाडावाळां थई गयां. भगवाननी आज्ञा उठावनार मेघोए वृष्टि करी तेथी एओने शान्ति थई तेमज समुद्रना तरङ्गने लागीने आवता पवनने पण एओने आराम आप्यो ॥१५॥

देवो अने असुरो ना अधिपोए मथन कर्युं छतां अमृत नीकळ्युं नहि त्यारे अजित भगवान्‌ पोते मथन करवा लाग्याम् ॥१६॥

अध्याय-६,अष्टम स्कन्ध ३६१ मेघना सरखा श्याम वर्णवाळा, सुवर्ण सरखा वस्त्रनी परिधिवाळा कानमां वीजळीना जेवा कुण्डळवाळा, मस्तक उपर विखरायेला केशवाळा तथा जय करनार बाहुवडे सर्पने पकडी मथन करता भगवान्‌ बीजा पर्वत जेवा शोभायमान देखावा लाग्या ॥१७॥

जेमां माछलां भमी रह्यां छे, जेमां मगर, काचबा, ‘तिमि’नामनां लाम्बा माछलां अने झूड वगेरे आकुळ-व्याकुळ फरे छे तेवा मथाता समुद्रथी प्रथम तो ‘हालाहल’ नामनुं झेर नीकळ्युम् ॥१८॥

ए झेर एवुं तो उग्र हतुं के एनो बीजो नमूनो न मळे. आम तेम फरतुं झेर असह्य छे एवुं जणातां एना भयथी बधी प्रजा अने एना पालको पलायन करवा लाग्या अने सदाशिवने शरणे गया ॥१९॥

त्रिलोकना कुशळमाटे देवी पार्वती साथे शिव कैलास पर्वतमां बेठेला मोक्ष सारु तपश्चर्या करे छे तेमनी पासे जईने बधा प्रणाम करी स्तुति करवा लाग्या ॥२०॥

प्रजापतिओ बोल्याःहे देवना देव महादेव! आप प्राणी मात्रनुं कल्याण करनार अने भूत मात्रना आत्मा छो. अमे त्रण लोकने भस्म करनार आ झेरथी भयभीत थई गया छीए तेमनी आप रक्षा करो ॥२१॥

आ सम्पूर्ण जगतना बन्ध-मोक्षमाटे आप एकला समर्थ छो, वळी शरणागतना दुःखने मटाडनार छो एटलुं ज नहि पण सर्वना मोटा गुरु होवाथी डाह्या माणसो आपनी पूजा करे छे ॥२२॥

हे ब्रह्मन्‌ आप स्वप्रकाश छो. त्रण गुणवाळी आपनी शक्तिवडे आप आ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने संहार करो छो त्यारे आप ब्रह्मा विष्णु अने शिव एवां नाम धारण करो छो ॥२३॥

आप परम गुह्य ब्रह्म छो, कार्य कारणरूप छो. देव, मनुष्य, पशु वगेरे भावोना उत्पादक छो. आप ज जगतना ईश्वर अने नानाविध शक्तिवडे आप ज सर्वना आत्मारूप छो ॥२४॥

आप समस्त वेदनुं कारण एटले के सिद्धज्ञानवाळा छो, आप ज जगतनुं आदिकरण महत्तत्त्व अने त्रिविध अहङ्कार छो. वळी आप ज प्राण, इन्द्रिय, पञ्च महाभूत तथा शब्द वगेरे विषयोना भिन्न-भिन्न स्वभाव अने तेमनुं मूल कारण छो. आप स्वयं ज प्राणीओनी वृद्धि अने ह्रास (नाश) करनारा काळ छो, एमनुं अध्याय-७,३६२ अष्टम स्कन्ध क्ल्याण करनारा यज्ञ छो अने वळी सत्य अने मधुर वाणी छो. धर्म पण आपनुं ज स्वरूप छे, ‘‘अ, उ, म्‌’’ आ त्रण अक्षरो युकत ॐकार आपनुं ज स्वरूप छे अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति छो एम वेदवादीओ कहे छे ॥२५॥

अखिल देवना आत्मारूप अग्नि आपनुं मुख छे. हे त्रणेय लोकोनी उन्नति करनार शङ्कर, पृथ्वी आपनुं चरणकमळ छे. आप अखिल देवस्वरूप छो. आ काळनी आपनी गति छे, दिशाओ कर्ण छे, वरुण जिह्‌वा छे ॥२६॥

आकाश नाभि छे, वायु श्वास छे, सूर्य नेत्र छे, जळ वीर्य छे, आपनो अहङ्कार नीचे-ऊञ्चे बधा जीवोनो आश्रय छे. चन्द्र मन छे अने स्वर्ग प्रभुनुं मस्तक छे ॥२७॥

हे वेदरूप प्रभु! समुद्र आपनुं पेट छे, पर्वतो अस्थि छे, वृक्ष, औषधि अने वीरद्ध आपनी रोमावली छे, गायत्री आदि सात छन्द आपनी सात धातु छे, सर्व प्रकारना धर्म आपनुं हृदय छे ॥२८॥

हे स्वामी! सद्योजातादि पाञ्च उपनिषद्‌ ज आपना तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव अने ईशान नामनां पाञ्च मुख छे. एमना ज परिच्छेदथी आडत्रीस कलात्मक मन्त्र नीकळ्या छे. आप ज्यारे समस्त प्रपञ्चथी उपरत थई जई पोताना स्वरूपमां स्थिति करी लो छो त्यारे ते ज स्थितिनुं नाम नशिवथ बने छे. वास्तवमां ए ज स्वयं प्रकाश परमार्थ तत्त्व छे ॥२९॥

अधर्मनी दम्भ, लोभ आदि ऊर्मिओमां आपनी छाया छे. जेनाथी विविध प्रकारनी सृष्टि थाय छे. सत्त्व, रज अने तम ते आपनां त्रण नेत्र छे. हे देव! गायत्री वगेरे छन्दप्रचुर वेद आपनी इक्षा (ज्ञान) छे. आप साङ्ख्यरूप अने शास्त्रना कर्ता होवाथी आपनुं ज्ञान ते ज वेद छे ॥३०॥

हे गिरित्र! (कैलासने तारनारा) आपनुं स्वयं ज्योति स्वरूप सर्व लोकपाल, ब्रह्मा अने वैकुण्ठ तथा इन्द्र पण जाणी शकता नथी. ज्यां सत्त्वादि त्रण गुण पहोञ्चता नथी तेवा भेदभाव रहित परब्रह्म ए आप छो ॥३१॥

आपे कामदेव, दक्षनो यज्ञ, त्रिपुरासुर अने कालकूट विष (जेने आप हमणां ज अवश्य पी जशो) अने अनेक जीवद्रोही असुरोने नष्ट करी नाख्यां छे. परन्तु आम कहेवाथी आपनी कंई स्तुति थई जती नथी. कारण के प्रलय वखते आपे घडेलुं आ विश्व आपना ज नेत्रथी नीकळेली आगनी चिनगारी अने ज्वाळाओ थी अध्याय-७,अष्टम स्कन्ध ३६३ भस्म थई जाय छे अने आप एवा तो ध्यानमग्न रहो छो के आपने एनो पत्तो पण लागतो नथी ॥३२॥

आत्मामां रमण करनार जीवन्मुकत पुरुषो आपना चरणाद्वन्द्वनुं हृदयमां ध्यान करे छे तथा स्वयं निरन्तर ज्ञान अने तपस्या मां ज लीन रहो छो. छतां सतीनी साथे रहेता जोईने जे आपने आसकत तथा श्मशानवासी जोईने आपने निष्ठुर अथवा उग्र कहे छे ते मूर्ख आपनी लीलाओनुं रहस्य भला शुं जाणे? एमनुं नाम कहेवुं निर्लज्जताथी भरेलुं छे ॥३३॥

आप कार्य कारणथी पर छो. आपना स्वरूपने जाणवाने कोई ब्रह्मादि पण समर्थ थता नथी तो पछी एनी सृष्टिमां अनेक रीते पाछळ एओनी परम्परामां पेदा थयेला तेवा अमे तो आपनुं स्वरूप कयान्थी जाणीए? तथापि आपनी स्तुति करी अमे मात्र अमारी शक्तिनुं दर्शन करावीए छीए एम गणाय ॥३४॥

हे महेश्वर! अमे आपना आ स्वरूप सिवाय बीजुं कांई जाणता नथी. अस्पष्ट कर्मवाळुं आपनुं स्वरूप लोकना कल्याण माटे ज छे एम अमे मानीए छीअ ॥३५॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रकारे देवोनी आपत्ति जोईने शिवजी अत्यन्त दुःखी थया अने सर्वभूतना अकारण मित्र शिवजी पोतानी प्रिया सतीने कहेवा लाग्या ॥३६॥

शिवजी बोल्या - हे भवानी! घणा खेदनी वात छे के समुद्रमान्थी नीकळेल झेरथी प्रजानो नाश थाय छे ए जुओ. पोतानो प्राण बचाववा माटे आ बिचारी प्रजा मारे शरणे आवी छे तेनुं भलुं मारे करवुं ज रह्युं. जेमनामां शक्ति सामर्थ्य छे तेमना जीवननी सफलता एमां ज छे के तेओ दीन दुःखीओनी रक्षा करे ॥३७-३८॥

प्राणीओ देवमायामां मोहित थईने परस्पर वेर बान्धीने लडवा माण्डे छे ज्यारे सज्जन पुरुषो पोताना प्राण आपीने पण बीजानी रक्षा करे छे ॥३९॥

हे भद्रे! जो कोई पुरुषनी उपर कृपा करे तो सर्वात्मा हरि तेना उपर प्रसन्न थाय छे. भगवान्‌ प्रसन्न थाय त्यारे स्थावर जङ्गम जगतनी साथे हुं पण एना उपर प्रसन्न थाउं छुं. तेथी हुं आ झेरनुं पान करुं जेथी मारी प्रजानुं कल्याण थाय ॥४०॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - विश्वनुं भलुं करता शिवजी एवी रीते पार्वतीनी सम्मति लईने झेर पीवाने तैयार थई गया त्यारे एमना प्रभावने जाणनार पार्वती पण अध्याय-७,३६४ अष्टम स्कन्ध एमने अभिनन्दन आपवा लाग्याम् ॥४१॥

भगवान्‌ शङ्कर बहु दयाळु छे. तेमनी ज शक्तिथी समस्त प्राणी जीवित रहे छे. तेमणे ए तीक्ष्ण हालाहल विषने पोतानी हथेलीमां लीधुुं अने भक्षण करी गया ॥४२॥

ते विष जलनुं पाप-मल हतुं. तेणे शङ्कर उपर पण पोतानो प्रभाव देखाडी दीधो. तेथी एमनो कण्ठ नीलो पडी गयो पण ए तो प्रजानुं कल्याण करनारा शङ्करमाटे भूषणरूप थई गयुं (अने तेमनुं एक नवुं ज नाम नीलकण्ठ पड्युं) ॥४३॥

परोपकारी सज्जनो प्रायः प्रजानुं दुःख टाळवाने माटे स्वयं दुःख सहन कर्या करे छे.आ दुःख परन्तु दुःख नथी, आ तो बधाना हृदयमां बिराजमान भगवाननी परम आराधनाछे ॥४४॥

देवना देव शिवजीनुं आ लोकोपकारक कर्म साम्भळी बधी प्रजा, दक्ष कन्या सती, ब्रह्माजी अने भगवान्‌ विष्णु पण एमनी प्रशंसा करवा लाग्या ॥४५॥

प्रस्कन्नं पिबतः पाणेर्यत्‌किचिञ्ज्जगृहुः स्म तत्‌ ॥ वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्च येऽपरे ॥४६॥

पीतां-पीतां एमना हाथमान्थी थोडुङ्क झेर पडी गयुं ते झेर र्वीछी, सर्प, झेरी औषधिओ तथा अन्य झेरी प्राणीओए लई लीधुम् ॥४६॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दानदाता नामना प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘समुद्रने मथतां विष नीकळ्युं ते कृपा करी रुद्रे पीधुं’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय ८

समुद्रमथन थतां एमान्थी अनेक रत्न नीकळ्यां पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः ॥ ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोभवत्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे शिवजीए विषपान कर्युं त्यारे देवो अने दैत्यो प्रसन्न थया अने फरी नवा उत्साहथी मथन करवा लाग्या. तेमान्थी यज्ञना हविषने अध्याय-७,अष्टम स्कन्ध ३६५ पेदा करनारी कामधेनु प्रकट थई ॥१॥

हे राजन्‌! यज्ञ ब्रह्मलोक प्राप्त करी आपनार छे. घी वगेरे पदार्थो यज्ञोमां काम लागे छे. एवी गायने वेदना जाणनार ऋषिओए राखी ॥२॥

त्यारबाद फरी मथन करतां एमान्थी चन्द्र जेवो श्वेत उच्चैःश्रवा नामनो घोडो नीकळ्यो तेने बलिराजा इच्छवा लाग्या. भगवाने प्रथमथी इन्द्रने लोभ न करवानुं कही राख्युं हतुं तेथी ए कांई बोल्या नहि ॥३॥

त्यारबाद जेने चारे दान्त बहार देखातां हतां तेवो चार शिखरथी शोभतो उज्जवल वर्ण कैलास पर्वत जेवो देखातो ऐरावत नामनो हाथी समुद्रमान्थी नीकळ्यो ॥४॥

त्यार पछी कौस्तुभ नामनुं पद्मराग रत्न समुद्र मथतां नीकळ्युं. आभूषण तरीके छाती उपर धारण करवाने माटे अजित भगवाने इच्छा व्यकत करी ॥५॥

पछी मथन करतां देवलोकना भूषणरूप ‘पारिजात’ नामनुं कल्पवृक्ष नीकळ्युं. जेम तमे लोकोना मनोरथने हम्मेशां पूर्ण करो छो तेम ए कल्पवृक्ष पण याचकोना मनोरथने हम्मेशां पूर्ण करे छे ॥६॥

त्यारबाद अप्सराओ प्रकट थई. एमणे सुन्दर वस्त्रो तथा गळामां सुवर्णना हार पहेरेला हता. तेओ पोतानी सुन्दर चाल अने विलासभरी दृष्टिथी देवताओने सुख पहोञ्चाडनारी थई ॥७॥

त्यारबाद शोभानी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट थया. ते भगवाननी नित्यशक्ति छे. ‘सुदाम’ नामना पर्वतथी प्रकट थती वीजळीना पेठे ए पोतानी कान्तिवडे बधी दिशाओने रङ्गवा लाग्याम् ॥८॥

एमना सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रङ्ग अने महिमाथी बधाना चित्त हराई गयां. देवता, असुर, मनुष्य बधाने मनमां वसी गयुं के ए अमने ज मळे ॥९॥

स्वयं इन्द्रे एमने मोटुं विचित्र आसन आप्युं, साक्षात्‌ शरीरधारिणी मोटी नदीओ सोनाना घडाओमां जळ लईने आवी, पृथ्वीए अभिषेक समये काम लागती औषधिओ लावीने आपी, गायोए पञ्चगव्य लावी आप्युं, वसन्तऋतुए चैत्र, वैशाखमां थतां फळफूल हाजर करी दीधां, ऋषिलोकोए आ सामग्रीथी विधिवत्‌ अभिषेक कराव्यो, गन्धर्वोए मङ्गळ गान कर्युं, नर्तकीओ नाचती-नाचती गावा लागी. मेघाए मृदङ्ग, डमरू, ढोल, नगारां, गोमुख, शङ्ख, वेणु अने वीणा जोरअध्याय-७,३६६ अष्टम स्कन्ध जोरथी वगाड्याम् ॥१०-१३॥

त्यारे भगवती लक्ष्मीदेवी हाथमां कमळ लई सिंहासन उपर बिराजमान थई गयां. दिशाना हाथीओए जलथी भरेला पूर्ण कळशो सूण्ढमां लई ए कळशोवडे ब्राह्मणोना सूक्तोना पाठ साथे तेमनो अभिषेक कर्यो ॥१४॥

समुद्रे पीळां रेशमी वस्त्र एमने पहेरवामाटे आप्यां. वरुणे एवी वैजयन्तीमाला अर्पण करी के जेनी मधुमय सुगन्धथी भमरा मत्त थई रह्याहता ॥१५॥

प्रजापति विश्वकर्माए चित्र-विचित्र आभूषण, सरस्वतीए मोतीओना हार, ब्रह्माजीए कमळ अने नागोए बे कुण्डल समर्पण कर्याम् ॥१६॥

ब्राह्मणोए स्वस्तिवाचन कर्या पछी पोताना हाथमां कमलनी माळा लई लक्ष्मीजी सर्वगुण सम्पन्न पुरुषना गळामां पहेराववा नीकळ्यां. माळानी आस-पास तेनी सुगन्धथी मतवाला थयेला भमराओ गुञ्जारव करी रह्या हता. ए वखते लक्ष्मीजीना मुखनी शोभा अवर्णनीय थई रही हती. सुन्दर कपोलो उपर कुण्डल झळकी रह्या हता अने पोते कंईक लज्जायुकत मन्द-मन्द हास्य वेरी रह्यां हताम् ॥१७॥

तेमनी कमर बहु पातळी हती. बन्ने स्तनो एकबीजानो अडकेलां अने सुन्दर हतां. एना उपर चन्दन अने केसरनो लेप करेल हतो. ज्यारे ते आमतेम चालतां त्यारे झाञ्झरनो मधुर झङ्कार थतो हतो एवुं लागतुं हतुं के जाणे कोई सोनानी लता आम-तेम फरती होय ॥१८॥

तेमनी इच्छा हती के मने कोई निर्दोष अने समस्त उत्तम गुणोथी नित्ययुकत अविनाशी पुरुष मळी जाय तो हुं तेने मारो आश्रय बनावुं, तेने वरुं. परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदिमां कोई पण एवो पुरुष एमने न मळ्यो ॥१९॥

(मनमां विचारवा लाग्यां के) कोई तपस्वी तो छे, परन्तु तेमणे क्रोध उपर विजय मेळव्यो१ नथी. केटलाकमां ज्ञान२ छे परन्तु तेओ पूरा अनासकत नथी. कोई-कोई वळी महान तो छे परन्तु तेओ कामने जीती शकया३ नथी. केटलाकमां ऐश्वर्य बहु छे पण ए ऐश्वर्य कामनुं शुं ज्यारे तेमने वारेवारे बीजानो आश्रय लेवो पडे छे ॥२०॥

विशेष - १. बदरिकाश्रममां तप करतां बे ऋषि नर नारायण सिवाय एवो कोई तपस्वी नथी जेणे कोईने ने कोईने शाप न आप्यो होय! पण ए बे तो अर्ही आवे ज शाना? दुर्वासा वगेरे अध्याय-७,अष्टम स्कन्ध ३६७ तपस्वी छतां अत्यन्त क्रोधी एटले ते तपनो दुरुपयोग करनार कहेवाय.
२.बृहस्पति, शुक्राचार्य आदि सर्वज्ञ छे परन्तु एमना ज्ञाननो उपयोग लोकना उत्कर्षमां होई ए भगवद्‌गामी न होवाथी एनुं ज्ञान नकामुं. ब्रह्मज्ञानी मुनिओमां अनासक्ति नथी. वशिष्ठजीए निमिने शाप आप्यो. इन्द्रना कहेवाथी बृहस्पतिजीए मरुतनो त्याग करी दीधो, दक्षिणा मळी एटले औचित्यने दूर मूकयुं.
३.ब्रह्मा, सोम वगेरे मोटा छे परन्तु काम हेतु होवाथी ए पण योग्य न गणाय. गृहिणीने सदाचारी पति ज गमतो होय छे. केटलाकमां धर्मनुं-आचरण छे परन्तु प्राणीओ प्रत्ये प्रेमनो१ पूरो वर्ताव तेओ करता नथी. त्याग२ तो छे पण कोरो त्याग तो मुक्तिनुं कारण नथी. कोई-कोईमां वीरता३ तो अवश्य छे पण तेओय काळना चक्रमान्थी (मृत्युथी) बचे तेम नथी. अवश्य केटलाक महात्माओमां४ विषयासक्ति नथी परन्तु तेओ तो वळी निरन्तर अद्वैत समाधिमां ज लीन रहे छे ॥२१॥

विशेष - १. धर्म धारण करतां छतां परशुराम वगेरेमां भूत सौहृदनो अभाव छे तेथी मा, भाई वगेरे उपर पण पितानी आज्ञाथी शस्त्र चलाव्युं एवो क्रूर वरवाने योग्य न होई शके.
२.शिबि, नृगराजा वगेरेनो त्याग होवो छतां स्वर्गनी कामना होवाथी ते त्यागथी मुक्ति न मळे माटे नकामो
३.बलवान पति स्त्रीने गमे ए खरुं पण घरमां पत्नीने समय आपे तेना करतां युद्धना मेदानने वधारे आपे. वळी गमे त्यारे वीर गतिने पामी जाय एटले सौभाग्य अखण्ड न रहे तेथी ते वरवा लायक नथी.
४.आ महात्मा सनत्कुमार आदि मारा झाञ्झरनो झङ्कार अने कङ्कणनो खणखणाट जाणे के साम्भळताय न होय तेम नासिकाना अग्रभाग उपर चोण्टाडेली नजर ज खसेडता नथी. सरसरसिक पुरुष ज स्त्रीओने तो गमे. कोई-कोई ऋषिए (लोमश, मार्कण्डेय) आयुष्य तो बहु ज लाम्बु प्राप्त करी लीधुं छे पण एमनुं वर्तन स्त्रीओमाटे मनपसन्द नथी. कोईनुं वर्तन सरस छे तो तेमना आयुष्यनुं कंई ठेकाणुं नथी. कोईमां आ बन्ने बाबतो छे तो तेमनो वेष ज अमङ्गल* छे. रह्या एक भगवान्‌ विष्णु तेमनामां बधाय मङ्गलमय गुण नित्य निवास करे छे पण तेओ मने चाहता ज नथी ॥२२॥

विशेष - शिवजी मङ्गळ करनार अने स्त्रीने अनुकूळ छतां स्मशानमां क्रीडा करनार होवाथी अध्याय-८,३६८ अष्टम स्कन्ध वरवाने लायक न गणाय. आ प्रमाणे विचारी अन्ते श्रीलक्ष्मीजीए पोताना मनना मान्या भगवान्‌ उपर ज पोतानी पसन्दगी उतारी. कारण के एमनामां बधा सद्‌गुणो नित्य निवास करे छे. प्राकृत गुण एमनो स्पर्श नथी करी शकता अने अणिमा आदि समस्त गुण एमनी कामना कर्या करे छे पण ते कोईनी परवा करता नथी. खरुं पूछो तो लक्ष्मीजीना एकमात्र आश्रय भगवान्‌ ज छे. तेथी ज तेमने ज वर्याम् ॥२३॥

जेनी आसपास मदोन्मत्त भमराओ गुञ्जारव करी रह्या छे तेवी सुन्दर ताजां कमळनी माला भगवानना गळामां पहेरावीने त्यां ए भगवानना हृदयमां पोतानुं स्थान नक्की करी लज्जा अने हास्य थी विकसित नेत्रवडे एमनी समीपमां जई ऊभां रह्याम् ॥२४॥

जगत्पिता भगवाने जगज्जननी समस्त सम्पत्तिनी अधिष्ठातृ-देवता श्रीलक्ष्मीजीने पोताना वक्षःस्थल उपर ज सर्वदा निवास करवा स्थान आप्युं. लक्ष्मीजीए त्यां ज बिराजी पोतानी दयामयी दृष्टिथी त्रणेय लोक, लोकपति अने पोतानी वहाली प्रजानी अभिवृद्धि करी ॥२५॥

ते वखते शङ्ख, तूरी, मृदङ्गो वगेरे वाद्यो वागवा लाग्यां. गन्धर्वो अप्सराओ साथे नाचवा-गावा लाग्या. तेथी मोटो शब्द सम्भळावा लाग्यो ॥२६॥

ब्रह्मा, शिव, अगिंरा वगेरे देवो विष्णुनुं यथार्थ प्रतिपादन करता मन्त्रोवडे स्तुति करता पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या ॥२७॥

ज्यारे प्रजापति अने प्रजाओनी साथे लक्ष्मीजीए देवो तरफ दृष्टि करी त्यारे एमां शील आदि गुणोनो तेम ज सम्पत्तिनो निवास थतां तेओ परम सुखी थया ॥२८॥

अर्ही लक्ष्मीजीए दैत्य दानवोनी उपेक्षा करी दीधी तेथी ए निर्बल, लोभी, उद्योग रहित अने निर्लज्ज थई गया ॥२९॥

हवे समुद्र मथन करतां कमळना सरखां नेत्रवाळी वारुणी देवी कन्यारूपे तेमान्थी नीकळी तेने भगवाननी सम्मति लईने असुरो लई गया ॥३०॥

अमृतने माटे देवता अने असुरो फरी समुद्रनुं मथन करवा लाग्या त्यारे एमान्थी एक अलौकिक पुरुष प्रकट थयो ॥३१॥

एने लाम्बा अने जाडा हाथ हता. एनो कण्ठ शङ्खना जेवो हतो. एनां नेत्र अध्याय-८,अष्टम स्कन्ध ३६९ श्वेतरकत हतां. एनो वर्ण श्याम हतो. ए तरुण, पुष्पमाळाधारी अने सर्वाभरणथी सज्ज थयेलो हतो ॥३२॥

एनी छाती मोटी हती. एणे पीळां वस्त्र पहेर्या हतां, कुण्डलो बहु शुद्ध हतां. एना वाळ सुंवाळा हता अने ए सिंहना सरखो पराक्रमवाळो देखातो हतो ॥३३॥

एणे हाथे कङ्गन पहेरेलां हतां तेथी ए शोभतो हतो. अमृतपूर्ण कळश हाथमां धारण करनार ए साक्षात्‌ विष्णुना अंशावतार हता ॥३४॥

आयुर्वेदना प्रवर्तक यज्ञभोकता तेमनुं नाम धन्वन्तरि हतुं. बधां असुरोए, पोताना हाथमां अमृत कळश धारण करेला एमने जोया ॥३५॥

सर्व वस्तुना लोभवाळा ए दैत्यो अमृतकळश उठावी चालता थया त्यारे देवो दुःखी थया अने श्रीहरिने शरणे गया. भगवाने देवोनी दीनता जोई कह्युं के ‘‘तमे दुःख न लगाडो’’ हुं मारी मायावडे दैत्योने परस्पर लडावी स्त्रीना मोहमां नाखी तमारुं काम सिद्ध करी आपीश ॥३६-३७॥

ए देव अने असुर ने मांहोमांहे मोटो कलेश थयो केमके एक वस्तुमां बन्नेने सरखी तृष्णा हती; तेथी ‘‘हुं प्रथम लउं तुं पछी’’ एम एओ एक बीजाने कहेवा लाग्या ॥३८॥

‘‘सत्र नामना यज्ञमां बधाने सरखुं फळ मळे छे. देवो पण तमारी बराबर महेनत करनार छे तेथी तमारा जेटला भागना हकदार छे’’ एम भगवाने चालतो आवेलो धर्म समजाव्यो ॥३९॥

दैत्योमां परस्पर केटलाकने मत्सर थयो तेथी जे मोटा हता ते लई गया त्यारे जेओ गरीबो हता तेओ एओने मारीने तो लई शके नहि तेथी एनी अदेखाई करता ‘‘तमे अमृतने न लई जाओ’’ एम कहेवा लाग्या ॥४०॥

सर्व उपाय जाणनार विष्णुए कोईनी उपमा न आपी शकाय तेवुं परम अद्‌भुत स्त्रीनुं रूप धारण कर्युम् ॥४१॥

जोवा लायक, काळा कमळ सरखी श्याम, सर्व अवयवना सौष्ठववाळी, कानमां सरखां घरेणांवाळी, सुन्दर कपोल तथा उन्नत नाकवाळी- ॥४२॥

नवीन यौवनथी सुन्दर देखाती, ऊञ्चां स्तनना भागथी दुर्बळ उदरवाळी, मुखनी सुगन्धमां बहु भमता अने शब्द करता भमरोओथी नेत्र व्याकुळ थयां छे तेवा नेत्रवाळी- ॥४३॥

अध्याय-८,३७० अष्टम स्कन्ध पोताना केशपाशमां फूलेली मालतीनी माळा धारण करती, डोकमां सुन्दर कण्ठाभरण युकत, सुन्दर भुजामां बाजूबन्धनी शोभाथी शोभती- ॥४४॥

शुद्ध वस्त्रथी ढाङ्केला नितम्बथी शोभित कटिमेखलायुकत, प्रकृष्ट विलासवडे चालतां चरणमां धरेल नूपुरवडे शब्दायमान- ॥४५॥

सव्रीऽस्मितविक्षिप्त-भूविलासावलोकनैः ॥ दैत्ययूथपयेतःसु काममुदीपयन्‌ मुहुः ॥४६॥

लज्जासहित स्मितवडे फेङ्केल कटाक्षपूर्वक जोवाथी जेणे दैत्यनी सेनाना नायकना मनमां काम उत्पन्न कर्यो छे तेवी भगवाननी मोहिनीरूप-स्त्रीरूप आकृति प्रकट थई ॥४६॥

इति श्रीभागवत्‌ अष्टम स्कन््‌धमां (बीजा दानदाता नामना प्रकरणनो चोथो) ‘‘समुद्र मथन थतां एमान्थी अनेक रत्न नीकळ्यां’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ सेथज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)

अध्याय ९

भगवाने मोहिनी स्वरूपे दैत्यो पासेथी अमृत पडावी लई देवोने पिवराव्युं

विशेष - दैत्यो मोहिनीने जोई मोहित थया अने एने अमृतनुं पात्र आप्युं त्यारे मोहिनीए ए बधाने छेतरीने फकत देवोनेज अमृत आप्युं आटली वात आ नवमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. तेऽन्योन्यतोऽसुराः पात्रं हरन्तस्त्यक्‌तसौहृदाः ॥ क्षिपन्तो दस्युधर्माणः आयार्न्ती ददृशुः स्त्रियम्‌ ॥१॥

अध्याय-८,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३७१ श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए असुरो भलमनसाई छोडी एक बीजानी पासेथी पात्र लई जता चोरना धर्मने प्रकट करता हता तेवामां तेमणे एक स्त्रीने आवती जोई ॥१॥

अहो! ‘‘आनुं रूप केवुं छे! एनुं तेज केवुं छे! आनुं नवुं वय केवुं छे!’’ एम बोलता कामबळथी एनी तरफ दोडी पहोञ्चीने एने पूछवा लाग्या ॥२॥

‘‘हे कमळपत्र सरखां नेत्रवाळी! तुं कोण छे? शुं करवानी इच्छा करे छे? अमारां मनने वलोवनारी तुं कोनी स्त्री छे? ए हे वामोरु! तुं अमने कहे ॥३॥

अथवा तो अमे ‘‘तुं कोनी स्त्री छे’’ एम कह्युं ए खोटुं कह्युं केमके तुं कोई देव, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारणना स्पर्शवाळी होय एम जणातुं नथी. ज्यां लोकना इशने स्पर्शनो सम्भव नथी त्यां मनुष्य तो तारो स्पर्श कयान्थी ज करी शके? ॥४॥

हे सुन्दरी! ब्रह्माजीए दया आववाथी मनुष्यने सर्व इन्द्रियो तथा मनने तृप्त करवा ब्रह्माजीए ज तने अर्ही मोकली होय एम अमारुं मानवुं छे ॥५॥

माटे हे मानवाळी! अमे बधा एक वस्तुमां स्पर्धावाळा ज्ञातिजनो छीए तेओने परस्पर वेर बन्धायुं छे ते अमने हे सुमध्यमे! तुं सुखी कर ॥६॥

अमे बधा महर्षि कश्यपना पुत्रो छीए तेथी परस्पर सगा भाईओ छीए, अमे अमृतने माटे भारे पुरुषार्थ कर्यो छे. तो अमारो झघडो न थाय तेवी रीते आ अमृत न्यायने नजरमां राखी निष्पक्षपणे अमने तुं वहेञ्ची आप’’ ॥७॥

एम मायावडे स्त्रीरूप धारण करनार भगवानने दैत्योए प्रार्थना करी त्यारे भगवान्‌ सुन्दर कटाक्षथी जोई जरा हस्या अने कहेवा लाग्या ॥८॥

श्रीभगवान्‌ बोल्या - हे कश्यपना पुत्रो! हुं पुंश्चली छुं तेमां केम विश्वास राखो छो? डाह्यो माणस कोई दिवस कामिनीमां विश्वास राखे नहि ए चोक्कस छे ॥९॥

हे दैत्यो! स्वच्छन्दी स्त्रीओ अने फाडी खानार प्राणीओनी मित्रता ज खोटी गणाय केमके ए बन्ने तो नवा-नवा शिकारनी शोधमां फरे छे तेथी तमारे स्त्रीमां विश्वास करवो जोईए नहि ॥१०॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - एम ए स्त्रीए मश्करी करी त्यां तो असुरोने एमां वधारे विश्वास आव्यो अने भावथी गम्भीरपणे हसीने अमृतनुं पात्र मोहिनीने आपी दीधुम् ॥११॥

अध्याय-८,३७२ अष्टम स्कन्ध भगवाने ए पात्र पोताना हाथमां लीधुं अने जरा मन्द हास्य करी मीठी वाणीथी बोल्या - ‘‘हुं जे करुं ते बधुं तमने कबूल होय, पछी ए सारुं होय के नहि, हुं न्याय करुं के अन्याय करुं ते बधुं तमने मञ्जूर होय तो ज हुं आ अमृत तमने वहेञ्ची आपुं’’ ॥१२॥

हरिनुं एवुं कथन साम्भळी मोटा-मोटा असुरो एमना वाकयना मर्मने जाण्या विना ‘‘तमारी इच्छा प्रमाणे तमे आपो ते अमने मञ्जूर छे’’ एम सम्मत थया ॥१३॥

त्यारे हरिनी आज्ञाथी ए बधाए एक दिवस उपवास कर्यो. पछी तेमणे स्नान कर्युं, अग्निमां होम कर्यो, गाय अने ब्राह्मण तथा समस्त प्राणीओने घास-चारो, अन्न-धन आदिनुं यथायोग्य दान आप्युं. ते ब्राह्मणोने बोलावी स्वस्तिवाचन कराव्युम् ॥१४॥

पछी मनगमतां नवीन वस्त्र धारण करी पूर्व तरफ आगला छेडावाळा दर्भोनी उपर ए सर्वे अलङ्कृत बेसी गया ॥१५॥

धूप, दीप अने माळाओथी शणगारेला भव्य भवनमां पूर्व तरफ मोढां राखी देवो अने दैत्यो बेठा. हे राजन्‌! मोहिनी हाथमां अमृत कळश लई सभा-मण्डपमां आवी. एना साथळ, सुन्दर, गोळ, चढ-उतरना समान, टचली आङ्गळीना मूळथी मणिबन्ध सुधीना हाथना जेवा हतां. एना पगमां सुवर्णना झाञ्झर अव्यकत शब्द करतां हतां. एना स्तन घट्ट हतां. लक्ष्मीनी साहेली जेवी ज्यारे ए कनकनां कुण्डळोवाळी, सुन्दर कान, नासिका, गाल अने मुख नी सुन्दरताने धारण करती, जेनां स्तनो उपरथी कपडुं जरा खसी जतुं हतुं तेवी स्थितिमां कंईक अधिक हास्य सहित भावसूचक कटाक्ष करती पोताना हाथमां कळश लईने आवी त्यारे देवो अने असुरो बधा एमां मोह पामी गया ॥१६-१८॥

भगवाने जोयुं के जन्मथी ज क्रूर स्वभावना असुरोने अमृत आपवुं ए तो सर्पने अमर करवा जेवुं थाय ए योग्य नथी एम धारी एमणे तेमने अमृत न आप्युम् ॥१९॥

ए माटे जगतना पति भगवाने देवोनी अने असुरोनी एक-एक जुदी पक्‌तिं करावी, देवोने देवोनी अने असुरोने असुरोनी पक्‌तिम्मां बेसाड्याम् ॥२०॥

हाथमां अमृतनो कळश लई बहु मानवाळा शब्दोवडे दैत्योने बनावी दूर बेठेला अध्याय-८,अष्टम स्कन्ध ३७३ देवोने मृत्यु अने वृद्धावस्था दूर करनारी सुधा पिवडावी ॥२१॥

हे नृप! असुरोए प्रतिज्ञा करेली तेनुं पालन करवुं जोईए तेथी ए देवने सुधा आपी तो पण कांई बोल्या नहि तेओ प्रेममां पडी गया हता अने स्त्री साथे झघडो करवो ए शूरवीरमाटे निन्द्यकर्म गणाय तेथी पण तेओ चूप रह्या ॥२२॥

ए मोहिनीना रूपमां असुरोने अत्यन्त प्रेम थयो हतो पण एम करतां प्रणयनो भङ्ग थाय तेथी तेओ डरी गया. वळी मोहिनीए कह्युं के ‘‘देवो धीरज वगरना छे तो एओने प्रथम पीवा दो; तमे धैर्यवाळा छो एटले क्षणवार पछी लेजो’’ एम बहु मानथी कहेवामां आवतां एओ बन्धाई गया अने एने अप्रिय लागे तेवुं कांई पण तेओ बोली शकया नहि ॥२३॥

ए समये देवोना रूपमां सज्ज थई देवसभामां चन्द्र अने सूर्य नी वच्चे राहु अमृत पीवा लाग्यो तेने चन्द्र-सूर्ये भगवानने बताव्यो ॥२४॥

हरिए अमृत पीता राहुना माथाने अस्त्रा जेवी तीखी धारवाळा चक्रथी उडावी दीधुं. एना धडमां अमृतनो अंश पहोञ्चे ए पहेलां तो एनुं धड माथाथी जुदुं थई गयु ॥२५॥

एना मुखमां अमृत आव्युं तेथी ए अमर थई गयुं. ब्रह्माजीए तेने नव ग्रह मांहेनो एक ग्रह बनाव्यो, जे पर्वने (पूर्णिमा अने अमावास्या ने) दिवसे वेरबुद्धिथी चन्द्र-सूर्य उपर आक्रमण कर्या करे छे ॥२६॥

ज्यारे देवताओए अमृत पी लीधुं त्यारे समस्त लोकोनुं भलुं करनार भगवाने दैत्योना देखतां ज पोतानुं मोहिनी रूप छोडी असल स्वरूपनो स्वीकार कर्यो ॥२७॥

अमृतमन्थनमां देव अने दैत्यो नुं देशकाळ, पदार्थ, परिश्रम अने विचार बधुं ज सरखुं ज हतुं तो पण तेओने फळ मळवामां तफावत रह्यो एनुं कारण एटलुं ज के देवोए भगवानना चरणनो आश्रय कर्यो तेथी तेओने श्रम विना अमृतरूप फळ मळ्युं, ज्यारे दैत्योए भगवाननो आश्रय न कर्यो पण पोताना बळने भरोसे रह्या तेथी तेओने फळ न मळ्युं. तेओने श्रमनो पार न होतो पण फळ देनार कोण छे एनुं ज्ञान न होवाथी ए फळथी वचिन्त रह्या ॥२८॥

यद्‌युज्यतेऽसुवसुकर्ममनोवयोभिर्देहात्मजादिषु नृभिस्तदसत्‌ पृथक्‌त्वात्‌ ॥ तैरेव सद्‌भवति यत्‌क्रियतेऽपृथक्‌त्वात्सर्वस्य तद्‌ भवति मूलनिषेचनं यत्‌ ॥२९॥

मनुष्यो पोताना देह तथा पुत्रादिने माटे प्राण, धन, वाणी, कर्म अने मन वडे अध्याय-९,३७४ अष्टम स्कन्ध जे कांई करे छे ते भेदबुद्धिथी करे छे तेथी एनुं फळ तेमने मळतुं नथी अने वृथा जाय छे. परन्तु जो तेओ जे कांई करे ए अभेद बुद्धिथी करी भगवदर्पण करे तो एनुं फळ जलदी मळे. जेम वृक्षना मूळमां जळ सिञ्चन करे तो थड, डाळीओ अने पान बधाने पाणी पहोची जाय तेवी ज रीते भगवानने माटे कर्म करवाथी ते बधाने माटे थई जाय छे ॥२९॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान-दाता प्रकरणनो पाञ्चमो) ‘‘भगवाने मोहिनी स्वरूपे दैत्यो पासेथी अमृत पडावी लई देवोने पिवडाव्युं’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. साधनाने क्यारे पण धर्मप्रचार, प्रदर्शन के कमाई नुं साधन बनावी न शकाय. साधना हम्मेशा व्यक्तिगतपणे अने एकान्तमां ज थई शके. भगवत्सेवा ए गुरु अने शिष्य बन्नेनी भक्तिमयी साधना छे. पोताना घरना एकान्तमां ज भगवत्सेवा गुरु तेमज शिष्ये करवी जोईए. हवेली-मन्दिरमां दर्शन-मनोरथना माध्यमथी जेम सेवाने सार्वजनिक बनावी न शकाय तेम दर्शन-भेटने पण भक्तिसाधना कही न शकाय.

अध्याय १०

युद्धमां असुरनी मायाथी देवो मूञ्झातां भगवान्‌ प्रकट थया

विशेष - दैत्यो देवोनो उत्कर्ष जोई शकया नहि तेथी देवो साथे तेमणे युद्ध आदर्युं. देवो दैत्योनी मायाथी मूञ्झाया त्यारे देवोनी पासे भगवान्‌ प्रगट थया; ए वात आ अध्यायमां कहेवामां आवी छे. अभकतने भगवान्‌मां ममता होती नथी ए भकतनो द्वेष करे छे पण तेथी तेनी ज प्राणहानि थाय छे ए अर्ही आ अध्यायमां कहेवानुं छे. इति दानवदैतेया नाविन्दन्नमृतं नृप ॥ युक्‌ताः कर्मणि यत्ताश्च वासुदेवपराङ्गमुखाः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याःहे नृप! दानवो अने दैत्यो ए बहु सावधानीथी समुद्रमथननो पुरुषार्थ कर्यो छतां भगवान्‌थी विमुख होवाथी अमृत मेळवी शकया नहि ॥१॥

हे राजन्‌! भगवाने देवोने अमृत मेळवी आप्युं अने तेमने पायुं केमके ए देवो अध्याय-१०,

ईं उं ईं उं

अष्टम स्कन्ध ३७५ भगवत्पक्षपाती छे. हवे कार्य सिद्ध थयुं छे एम जाणी बधाना देखतां भगवान्‌ गरुड उपर बिराजी त्यान्थी पधार्या ॥२॥

दैत्योए शत्रुओनी समृद्धि जोई पण एनाथी ए सहन थई शकयुं नहि तेथी शस्त्र उठाव्यां अने तेओए देवो उपर हुमलो कर्यो ॥३॥

आ बाजु नारायणना चरणना आश्रयवाळा देवो अमृतपान करी बळवान बनेला हता तेथी तेओए शस्त्रथी सज्ज थईने दैत्योनो बराबर मुकाबलो कर्यो ॥४॥

देवो अने असुरो नी वच्चे क्षीरसागरना तट उपर अत्यन्त भयङ्कर अने रुवाडां ऊभां करे तेवो भीषण सङ्ग्राम जाम्यो. देवो अने दैत्यो नुं आ युद्ध ज ‘दैवासुर सङ्ग्राम’ना नामथी ओळखाय छे ॥५॥

क्रोधे भरायेला शत्रुओ साम सामे आवी जईने तलवार, बाण वगेरे अनेक प्रकारनां आयुधो युद्धमां मारवा लाग्या ॥६॥

शङ्ख, मृदङ्ग, भेरी, तुरी, डमरु वगेरे वाजिन्त्रोनो तेमज हाथी, घोडा, रथ, पायदळ वगेरेनो कोलाहल त्यां थवा लाग्यो ॥७॥

ए लडाईमां रथीओ-रथीओनी सामे, पायदळ-पायदळनी सामे, घोडेसवार- धोडेसवारनी सामे अने हाथीवाळा-हाथीवाळाओनी सामे जोडाया ॥८॥

केटलाक ऊण्ट, हाथी, गधेडा, गौरमृग, र्रीछ, वाघ अने सिंह उपर सवार थईने लडवा आव्या ॥९॥

केटलाक जळचर प्राणी तिमिङ्गल नामना मगर उपर बेठा. केटलाक शरभ उपर तो केटलाक पाडाओ उपर सवार थया. केटलाक गेण्डा, बळद, रोझ अने जङ्गली साण्ढ उपर बेसी लडवा आव्या ॥१०॥

केटलाक शियाळवी, उन्दर, काकीडा, ससला, माणसो, बोकडा तथा काळियार मृग उपर बेसीने लडवा आव्या तो केटलाक हंस उपर अने बीजा सूवर उपर सवार थई लडवा आव्या ॥११॥

आम केटलाय दैत्यो जळचर अने स्थळचर प्राणीओ तेम ज भयङ्कर शरीरवाळां प्राणीओनी उपर सवार थईने बन्ने सेनाओमां आगळ-आगळ घूसी गया ॥१२॥

हे परिक्षत! ते वखते रङ्गबेरङ्गी पताकाओ, स्फटिक मणिना जेवा श्वेत निर्मल छत्रो, रत्नजटित दण्डवाळा बहुमूल्य पङ्खाओ, मोरपङ्खा, चामर, पवनथी ऊडता दुपट्टा, पाघडी, कलङ्गी, कवच, आभूषण तथा सूर्यना किरणोथी चकचकतां ऊजळां अध्याय-१०,३७६ अष्टम स्कन्ध शस्त्रो तेमज वीरोनी हरोळोने लीधे देवता अने दैत्यो नी सेना एवी शोभायमान थई रही हती के जाणे जलजन्तुओथी भरेला बे महासागर हिलोळे चड्या होय ॥१३-१५॥

युद्धमां असुरोनी सेनाना उपरी बलिराजा हता ते मयदानवे बनावेला वैहायस नामना विमानमां बेसीने त्यां आव्या. ते विमान सुकानीनी ज्यां जवानी इच्छा थती त्यां चाल्युं जतुम् ॥१६॥

युद्धनी बधी ज सामग्रीओ एमां सुसज्जित हती. हे परीक्षित! ए एटलुं आश्चर्यमय हतुं के कयारेक ते देखातुं तो कयारेक अद्रश्य थई जतुं ते अत्यारे कयां छे ते वातनुं अनुमान पण करी शकातुं नहि तो पछी तेने चोक्कस पणे बतावी तो कयान्थी शकाय? ॥१७॥

ए श्रेष्ठ विमान उपर राजा बलि सवार हता. बधा मोटा-मोटा सेनापतिओ एनी चोतरफ गोठवाई गया हता तेना मस्तक उपर छत्र हतुं अने सेवको उत्तम चामर ढोळी रह्या हता. ए वखते बलि राजा जाणे उदयाचल उपर चन्द्रमां होय तेवा शोभता हता ॥१८॥

ए असुर टुकडीओना उपरी पोतपोताना वाहन साथे हता. तेमां नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, हेति, प्रहेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, बीजा पौलोम, कालेय अने निवातकवच वगेरे हता ॥१९-२२॥

लाभथी विमुख रहेला अने पहेलां देवोने जीतनारा छतां अत्यारे कष्ट भोगवता बधा ज सिंहना जेवो शब्द करता मोटा शङ्ख फूङ्कवा लाग्या त्यारे शत्रुने बळथी गर्वित जोईने इन्द्रने बहु गुस्सो थयो ॥२३-२४॥

जेमान्थी नदीओ अने नाना झरणां वहे छे तेवा उदय पर्वत उपर जेम सूर्य आरोहण करे तेम इन्द्र मद झरता ऐरावत उपर चढीने शोभवा लाग्यो ॥२५॥

अनेक विध वाहनो, ध्वजो अने आयुधवाळा देवो, लोकपाळो, पोतपोताना गण साथे वायु अग्नि वरुण वगेरे पण जोडाईगया ॥२६॥

बन्ने सेनाना योद्धा एक बीजाने भेदता परस्पर मर्मभेदी आक्षेप करता, लडवामाटे एकबीजाने पोतानी तरफ बोलावता, बाहुयुद्ध करवा लाग्या ॥२७॥

अध्याय-१०,अष्टम स्कन्ध ३७७ बलि इन्द्र साथे, कार्तिक स्वामी तारक दैत्य साथे, वरुण हेति साथे तो मित्रदेव प्रहेति साथे लडवा लाग्या ॥२८॥

यमराज काळनाभ साथे, विश्वकर्मा मयनी साथे, शम्बर त्वष्टानी साथे, विरोचन सवितानी साथे लडवा लाग्या ॥२९॥

अपराजितनी साथे नमुचि, वृषपर्वानी साथे अश्विनीकुमारो, बाण वगेरे बलिना सो पुत्र साथे सूर्य लडवा लाग्या ॥३०॥

राहुनी साथे चन्द्रमा अने पुलोमानी साथे वायुनुं युद्ध थयुं. भद्रकाली देवीनी निशुम्भ अने शुम्भ नी साथे लडाई थई ॥३१॥

शङ्कर जम्भासुर साथे, महिषासुर साथे अग्नि अने हे अरिन्दम! वातापि तथा इल्वल ब्रह्माना पुत्रो मरीचि वगेरे साथे लड्या ॥३२॥

दुर्मर्ष कामदेवनी साथे, उत्कल मातृगणोनी साथे, शुक्राचार्य बृहस्पतिनी साथे अने नरकासुर शनैश्वरनी साथे लड्या ॥३३॥

निवात कवचो मरुद्‌गणो साथे तेमज कालेयो वसुगण साथे, पौलोमोनी विश्वेदेवगण साथे तथा क्रोधवशो रुद्रगणनी साथे लड्या ॥३४॥

आ प्रमाणे असुर अने देवता रणभूमि उपर द्वन्द्वयुद्ध तथा सामूहिक आक्रमणद्वारा एकबीजानी साम-सामे आवी जई परस्पर विजयनी इच्छाथी उत्साहपूर्वक तीक्ष्ण बाण, तलवार अने भालाओ थी प्रहार करवा लाग्या, युद्धमां अवनवी युक्ति-प्रयुक्तिओ अजमावाती हती ॥३५॥

भुंशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, परशु तलवार, भाला, मुद्‌गर, परिघ, गोफण वगेरे आयुधोनां साधनोथी तेओ एकबीजानां माथां उडावी देवा लाग्या ॥३६॥

ए वखते पोताना असवारोनी साथे हाथी, घोडा, रथ आदि अनेक प्रकारनां वाहन अने पायदळ सेना छिन्न-भिन्न थई जवा लागी. कोईना हाथ, कोईनी जाङ्घ, कोईनी गरदन अने कोईना पग कपाई गया तो कोई कोईनी धजा, धनुष, कवच अने आभूषणना टुकडे टुकडा थई गयाम् ॥३७॥

एमना पगना धबकाराथी तथा रथना पैडाना घरघराटथी पृथ्वी खोदाई गई ते वखते रणभूमि उपरथी धूळनी डमरी एवी तो उडी के तेनाथी दिशाओ, आकाश अने सूर्य पण ढङ्काई गयां पण जोतजोतामां तो लोहीनी धाराओथी भूमि तरबोळ अध्याय-१०,३७८ अष्टम स्कन्ध थई गई अने धूळनुं कयांय नामनिशान पण रह्युन्नहि ॥३८॥

लडाईनुं मेदान कपायेलां माथाथी भराई गयुं, केटलाकना मुगट अने कुण्डल ऊडी गयां हतां तो केटलाकनी आङ्खोमां क्रोधनी मुद्रा प्रकट थती हती, कोईए वळी पोताना दान्तोथी होठ दबावी राख्या हता. केटलायनी आभूषणो अने शस्त्रोथी सुसज्ज लाम्बी-लाम्बी भुजाओ कपाई जई जुदी पडी हती, आम रणभूमि घणी ज भीषण देखाती हती ॥३९॥

त्यां घणेरां धड पोताना कपायेलां माथामान्ना नेत्रोथी जोई हाथोमां हथियार उठावी वीरो तरफ दोडवा अने ऊछळवा लाग्या ॥४०॥

राजा बलिए दस बाण इन्द्र उपर, त्रण एना वाहन ऐरावत उपर, चार ऐरावतना चार चरण-रक्षको उपर अने एक मुख्य महावत उपर आम कुल अढार बाण छोड्या ॥४१॥

इन्द्रे ए छूटेलां बाण पोतानी तरफ धसी आवतां जोई तत्काळ चेतीने ए बधान्नी पोतानी पासे पहोञ्चे ते पहेलां ज एने एटलाञ्ज तीक्ष्ण भालावडे हसतां- हसतां छेदीनाख्याम् ॥४२॥

इन्द्रनी एवी प्रशंसनीय चपळता जोईने बलिए क्रोध करी हाथमां भारे उल्का१ जेवी आग ओकती शक्ति२ लीधी, जेने इन्द्रे बलिना हाथमान्थी छूट्या पहेलां ज उडावी दीधी ॥४३॥

विशेष - १. उल्का=खरतो तारो; आकाशमां लागेलो अग्नि. २. शक्ति=एक प्रकारनुं हथियार. त्यारबाद बलिए एक पछी एक शूल, प्रास, तोमर अने शक्ति उठावी. परन्तु ते जे-जे शस्त्र हाथमां लेता तेना इन्द्र टुकडे-टुकडा करी नाखतां. आ हस्त कौशलथी इन्द्रनुं ऐश्वर्य वधारे जणायुम् ॥४४॥

हे परीक्षित! त्यारे तो इन्द्रथी गभराई जईने बलि अन्तर्धान थई गया. पछी तेमणे आसुरी मायानी सृष्टि करी. तत्क्षण देवताओनी सेना उपर एक पर्वत प्रकट थयो ॥४५॥

ए पर्वतना दावाग्निथी भडभडतां वृक्ष अने छीणी जेवा तीक्ष्ण धारवाळां शिखरो उपरथी धारदार शिलाओ पडवा लागी. आथी देवताओनी सेना चूर्ण थई जवा लागी ॥४६॥

अने त्यारबाद मोटा-मोटा साप, नाग, र्वीछी अने बीजां झेरी प्राणीओ अध्याय-१०,अष्टम स्कन्ध ३७९ करडवा लाग्या. सिंह, वाघ अने सूवर देव-सेनाना मोटा-मोटा हाथीओने फाडी खावा लाग्या ॥४७॥

हे परीक्षित! सेङ्कडो नग्न राक्षसीओ अने राक्षसो, हाथोमां शूल लईने त्यां प्रकट थई गयां अने ‘‘मारी नाखो, कापी नाखो’’ एम बूमो पाडवा लाग्याम् ॥४८॥

थोडी ज क्षणोमां आकाशमां वादळोनी घनघोर घटा चडी आवी. एमना आपसमां टकरावाथी घणो घेरो अने कठोर गडगडाट थवा लाग्यो, वीजळी चमकवा लागी अने आन्धी चडी आववाथी वादळां अङ्गारा वरसवा लाग्याम् ॥४९॥

दैत्यराज बलिए उत्पन्न करेलो ते अग्नि, वायुने सारथि बनावीने सांवर्तक एटले प्रलयना अग्नि जेवो भयानक थयो अने देवनी सेनाने बाळवा लाग्या ॥५०॥

पछी समुद्र मर्यादा छोडी चोतरफ फरी वळ्यो अने प्रचण्ड वायुवडे उछळता पाणीना तरङ्गोथी भयानक बन्यो ॥५१॥

महामायावी दैत्योनुं काम कोई जाणी शकतुं नथी तेवी भीषण दैत्योनी मायाथी देवोनी सेनाना योद्धाओ दुःखी थईगया।५२। हे राजन्‌! ए मायाने दूर करवानो कोई उपाय इन्द्र आदिना जाणवामां आव्यो नहि त्यारे एमणे भगवाननुं ध्यान कर्युं के तरत ज प्रभु प्रकट थया केमके ए विश्वना रक्षक छे तेथी स्मरण मात्रथी रक्षा माटे एमणे प्रकट थवुं जोईए ॥५३॥

ए भगवाने गरुडनी कान्ध उपर पोतानुं चरणकमळ धारण कर्युं हतुं एमणे पीताम्बर पहेर्युं हतुं अने एमनां लोचन कमळनी पान्दडी जेवां सुन्दर हतां एमणे पोतानी आठ भुजामां आठ आयुध धारण कर्यां हतां, कौस्तुभ माळाथी तेओ शोभता हता, अमूल्य किरीट पोताने मस्तके शोभी रहेलो हतो तेवा भगवान्‌ त्यां प्रकट थया ॥५४॥

भगवान्‌ प्रकट थया के तरत ज भगवानना महिमावडे ज असुरनां कपट कर्मोथी पाथरेली माया, जेम माणस जागे एनी साथे स्वपननो व्यापार बन्ध थई जाय तेम नाश पामी. ज्यां भगवाननुं स्मरण पण विपत्ति ने छोडावनार छे तो ज्यां साक्षात्‌ भगवत्प्रादुर्भाव थाय त्यां माया एकदम अदृश्य थाय एमां शुं आश्चर्य? ॥५५॥

सङ्ग्राममां गरुड उपर बिराजेला भगवानने जोईने काळनिमेए गरुड उपर शूळ अध्याय-१०,३८० अष्टम स्कन्ध फेङ्कयुं जे गरुडना मस्तक उपर पड्युं न पड्युं एटलामां तो भगवाने ए शूळने पकडी एना वडे वाहन सहित काळनेमिने मार्यो ॥५६॥

माली सुमाल्यतिबलौ युधि पेततुर्यच्चक्रेण कृत्तशिरसावथ माल्यवांस्तम्‌ ॥ आहत्य तिग्मगदया हनदण्डजेन्द्रं तावच्छिरोऽच्छिनदरेर्नदतोहरिणाऽऽद्यः ॥५७॥

चक्रे जेना माथां कापी नाख्यां छे तेवा माली अने सुमाली अति बळवान छतां युद्धभूमि उपर पड्यां. शुक्राचार्ये एने जीवता कर्या के तरत ज माल्यवाने तीक्ष्ण गदावडे गरुडना उपर प्रहार कर्यो अने नाद करवा गयो एटलामां तो भगवाने चक्रवडे माल्यवाननुं माथुं उडावी दीधुम् ॥५७॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान-दाता प्रकरणनो छठ्ठो) ‘‘युद्धमां असुरनी मायाथी देवो मूञ्झातां भगवान्‌ प्रकट थया’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय ११

देवोने नारदजीए लडता बन्ध कर्या देवो अने असुरो पोतपोताना स्थानमां गया

विशेष - आ अगियारमां अध्यायमां, नारदजीए त्यां आवी देवोए दैत्योने मार्या ए बाबतमां दैत्योने समजाव्यां अने लडाई बन्ध करावी. शुक्राचार्ये मरेला असुरोने सजीवन कर्या एटली वात कहेवामां आवे छे. अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः परस्य पुंसः परमानुकम्पया ॥ जध्नुर्भृशं शक्रसमीरणादयः तांस्तान्‌ रणे यैरभिसंहताः पुरा ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - देवो परम पुरुषनी कृपावडे सचेत थया. तेमनामां नवुं

ईं उं ईं उं

अध्याय-११,अष्टम स्कन्ध ३८१ शौर्य प्रकटयुं. जे-जे रणमां सामे थया तेओने इन्द्र, वायु वगेरेए खूब मार्या ॥१॥

बलिराजानी सामे परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रे लडतां-लडतां ज्यारे वज्र तैयार कर्युं त्यारे प्रजामां हाहाकार मची गयो ॥२॥

सम्पत्तिमां सारी पेठे मुग्ध बनेला बलिनो तुच्छकार करीने मनस्वी इन्द्र हाथमां वज्र लई पासे ऊभेलो हतो. ए बोल्यो - ‘‘हे मूढ! जेम कोई धूर्त नट बालकोनी आङ्खो बान्धी एनुं धन हरि ले तेम शुं अमने मायाना ईश्वरने मायावडे जीतवानी इच्छा करे छे? ॥३-४॥

जे नीचे रह्या छतां मायावडे स्वर्गमां जवानी इच्छा करे छे अने जे एने उल्लङ्घन करवानी इच्छा करे छे तेवा मूर्खोने प्रथम तेओ जे स्थाने हता तेनाथी पण हुं नीचे फेङ्की दउं छुम् ॥५॥

हे मन्दात्मन्‌! शतधारवाळा वज्रवडे तारा दुष्ट मायावाळा मस्तकने उडावी दउं छुं. तारी ज्ञातिनी साथे जो ताराथी बनी शके तो तुं एनाथी बचाव करी ले’’ ॥६॥

बलिए कह्युं - काळ शक्तिथी प्रेरित लोको सङ्ग्राममां कर्म प्रमाणे युद्ध करे छे एमां कोईने कीर्ति मळे छे, कोईनी जीत थाय छे, कोई मरी जाय छे तो कोई हारे छे ॥७॥

डाह्या माणसो आ युद्धने काळना कोयडारूप गणे छे तेनाथी ए खुशी थतो नथी के शोक करतो नथी, आम छतां तमे मने ज कांई कहो छो ते उपरथी तमे आ विषयमां अज्ञान हो एम स्पष्ट देखाय छे ॥८॥

उपर जणाव्युं तेम अमे तो जय पराज्यमां अमारा आत्माने साधन मानता होईने तमारी मर्मभेदक वाणीने ग्रहण करी शकता नथी केमके तमे पोते ज साधु शोच्य छो. सारा पुरुषो तो तमारी मूर्खता जोईने तमारो शोक करे छे तो पछी ज्यां तमारी वाणी पण शोच्य ज होय तेने केम ग्रहण करीए? ॥९॥

श्रीशुकदेवजी कहे छे - ए प्रमाणे इन्द्रनो तिरस्कार करी बलिराजा वीरने मर्दन करनार होवाथी एणे कान सुधी पोताना बाणने खेञ्ची इन्द्रने मार्युम् ॥१०॥

ए प्रमाणे जो के साचुं बोलनार बलिए इन्द्रनो तिरस्कार कर्यो पण जेम हाथी अङ्कुशने सहन न करे तेम इन्द्रे एने सहन न कर्युम् ॥११॥

जेवुं शत्रुघाती इन्द्रे एनी उपर वज्र छोड्युं के एनाथी, जेम पाङ्ख टूटवाथी अध्याय-११,३८२ अष्टम स्कन्ध पर्वत पडे तेम, वाहन सहित बलि पृथ्वी उपर पड्यो ॥१२॥

बलिनो एक बहु ज हितेच्छु अने घनिष्ठ मित्र जम्भासुर हतो ते मित्रना पडी जवा छतां एने मारवानो बदलो लेवा ते इन्द्रनी सामे लडवा आव्यो ॥१३॥

ए महाबळवाळा जम्भे सिंहना जेवी गर्जना करी गदा उठावी पासे आवीने इन्द्रना गळाना हाडका पासे मारी अने एना हाथीने पण गदावडे मार्यो ॥१४॥

गदाना प्रहारथी ऐरावत अत्यन्त विह्‌वल थयो, बे गोठणथी ए पृथ्वी उपर बेसी गयो अने तेने मूर्च्छा आवी गइ ॥१५॥

त्यां तो इन्द्रनो सारथि नमातलिथ हजार घोडावाळो रथ लई हाजर थयो अने समर्थ इन्द्र ऐरावतने छोडी ए रथमां सवार थयो ॥१६॥

दानव श्रेष्ठ जम्भे मातलिनी समयसूचकतानी भारे प्रशंसा करी अने हसतां- हसतां तेना उपर एक चमकतुं त्रिशूळ चलाव्युम् ॥१७॥

मातलिए धैर्यथी आ पीडा सहन करी लीधी. इन्द्रने जम्भ उपर क्रोध आव्यो अने वज्रवडे एनुं माथुं उडावी दीधुम् ॥१८॥

जम्भना भाई-बन्धुओ बल, पाक अने नमुचिए नारदमुनिना मुखथी जम्भ मरायानी वात साम्भळी तेओ त्यां आव्या ॥१९॥

ए असुरो कठोर वचनोथी इन्द्रने मर्ममां आघात करवा लाग्या अने जेम मेघ धाराओ वडे पर्वत उपर वर्षे तेम इन्द्र उपर बाणोनो वरसाद वरसाववा लाग्या ॥२०॥

बले इन्द्रना हजार घोडाने हजार बाणथी अने वधारानी बाणवडे इन्द्रने हलका हास्त्री आक्रान्त कर्यो ॥२१॥

पाके सो बाणथी सारथिने हण्यो, रथना जुदां-जुदां अवयवोमां एकवीस बाणो चडावीने छोड्यां, जे सङ्ग्राममां अत्यन्त आश्चर्यरूप गणायुम् ॥२२॥

नमुचिए सोनानां छेडावाळां मोटां पन्दर बाण छोड्यां ते जळवाळा मेघो गाजे तेम गाजवा लाग्या ॥२३॥

जेम वर्षाकाळना सूर्यने मेघो ढाङ्की दे तेम असुरोए बाणनां समुदायथी इन्द्रने, इन्द्रना रथ अने घोडाओने चार तरफथी ढाङ्की दीधा ॥२४॥

इन्द्रने न जोवाथी देवता अने तेमना अनुचरो अत्यन्त विह्‌वळ बनी गया अने बूमो पाडवा लाग्या. एक तो शत्रुओए तेमने हरावी दीधा हता अने बीजुं अध्याय-११,अष्टम स्कन्ध ३८३ तेमनो सेनापति कोई न रह्यो. ए वखते मधदरिये वहाण तूटी जतां जेवी व्यापारीओनी स्थिति थाय तेवी तेमनी थई ॥२५॥

एटलामां ज इन्द्र पोताना घोडा, रथ अने सारथि साथे शरपञ्जरमान्थी बहार नीकळी आव्यां. जेम रात गया पछी सवार थतां सूर्य दिशा, आकाश अने पृथ्वी ने पोताना तेजवडे प्रकाशित करतो शोभे तेम इन्द्र पोताना तेजवडे बधी दिशा, आकाश अने पृथ्वी ने प्रकाशता शोभवा लाग्या ॥२६॥

देवेन्द्र पोतानी सेना शत्रुओथी हणायेली जोई त्यारे दुश्मनने मारवाने वज्र धारण करनार इन्द्रे पोताना वज्रने हाथमां लीधुं अने आठ धारवाळुं ए वज्रबळ अने पाकनां माथाम्मां बधानां देखातां मार्युं त्यारे असुरो भय पाम्याम् ॥२७-
२८॥

एनाथी बन्ने दैत्यो मर्या छे एवुं ज्यारे नमुचिए साम्भळ्युं त्यारे ए शोक अने क्रोध वडे व्याप्त थयो अने इन्द्रने मारवा माटे, हे नृपते! महान उद्यम करवा लाग्यो ॥२९॥

एणे सुन्दर लोहना बनेला अने जेना सोनानां घरेणां छे तेवा शूळने प्रणाम कर्या अने क्रोध करीने ‘‘तु मूओ छे’’ एम बोली इन्द्रनुं अपमान करी इन्द्र सामे दोड्यो अने सिंहनाद करी एणे इन्द्रने शूळ मार्युम् ॥३०॥

सुसवाटा मारतुं पोतानी उपर धसी आवतां त्रिशूलना इन्द्रे पोतानां बाणोथी आकाशमां ज हजारो टुकडा करी नाख्या अने त्यारबाद तेना माथाने पण उडावी देवा भारे क्रोध करी तेनी गरदन उपर वज्र मार्युम् ॥३१॥

जो के इन्द्रे आवुं यशस्वी वज्र जोरथी मार्युं तो पण ए वज्र एनी चामडीने पण भेदी शकयुं नहि. जे वज्रवडे अति पराक्रमवाळा मार्यो ते वज्रनो आ नमुचिनी त्वचाए तिरस्कार करी नाख्यो ॥३२॥

ज्यारे एमां वज्र निष्फळ गयुं त्यारे इन्द्रने शत्रुनी बीक लागी. ए कहेवा लाग्यो के नस्त्रलोकने मोह करे एवुं आ दैवयोगथी शुं बन्युं? ॥३३॥

पहेलान्ना युगमां ज्यारे पर्वतो पाङ्खोथी ऊडी लोकोउपर पडीने लोकोनो नाश करता हता त्यारे आ ज वज्रवडे में ए पर्वतोनी पाङ्खो उडावी दीधीहती ॥३४॥

त्वष्टाना तपना साररूप वृत्रने में आ ज वज्रवडे मार्यो तेमज जेनी बीजां अस्त्रोथी चामडी पण न भेदाय तेवा बीजा महा बळवाळा असुरोने मारा वज्रवडे अध्याय-११,३८४ अष्टम स्कन्ध मार्या छे ॥३५॥

ते ज वज्रने में आ एक नाना असुर उपर छोड्युं तो एमां एनुं काम करी शक्युं नहि; तेथी जो के ए वज्र ब्रह्मतेजरूप छे छतां एनुं सामर्थ्य जतां ए लाकडी जेवुं थई गयुं केमके धार्युं काम करवानुं सामर्थ्य एनामां देखातुं नथीथथ ॥३६॥

एवी रीते ज्यारे इन्द्रे खेद कर्यो त्यारे आकाश वाणी थईःस्त्रस्त्रआ दानव कोई सूकी वस्तुथी के भीनी वस्तुथी मरशे नहि ॥३७॥

आ नमुचि दानव सूकाथी के लीलाथी मृत्यु नहि पामे; सूकाथी के भीनाथी ए न मरे एवुं मारो वेर छे तेथी हे इन्द्र! ए शत्रुनो वध थाय तेवो बीजो कोई उपाय शोधी काढो ॥३८॥

ज्यारे इन्द्रे आवी आकाश वाणी साम्भळी त्यारे एना मननुं समाधान थयुं अने ध्यान करता समाधिमां एने सूझीअने आव्युं के सूकुं नहि अने भीनुं नहि एवुं तो फीण गणाय ॥३९॥

तेथी इन्द्रे समुद्र फीणथी नमुचिनुं मस्तक उडावी दीधुं त्यारे मुनिगणो स्तुति करवा लाग्या अने देवोए एना उपर पुष्पनी वृष्टि करी ॥४०॥

गन्धर्व शिरोमणि एवा विश्वावसु अने परावसु गान करवा लाग्या; देवनां दुन्दुभि वागी ऊठ्या अने नर्तकीओ हर्षमां आवी नाचवा लागी ॥४१॥

ए ज प्रमाणे बीजा देवो वायु, अग्नि वगेरे जेम सिंह मृगने मारे तेम पोताना शस्त्र समुदायवडे शत्रुने मारी नाखवा लाग्या ॥४२॥

दानवोनो सर्व नाश थतो जोईने ब्रह्माजीए नारदजीने मोकल्या अने एमणे देवोने लडाई करता बन्ध पाडया ॥४३॥

नारदजीए कह्युं - तमे नारायणनी भुजानो आश्रय कर्यो तेथी तमने अमृत प्राप्त थयुं छे, लक्ष्मीथी वृद्धिने पाम्या छो तो हवे तमारे लडाई न करतां शान्त थवुं जोईए ॥४४॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - मुनिना वचनने मान आपी क्रोधने नियममां राखी, जेनां स्तुतिगान अनुचरो करी रह्या छे तेवा बधा देवो पोताना स्वर्ग लोकमां गया ॥४५॥

असुरो पैकी जेओ युद्धमां बची गया हता तेओ नारदजीनी सम्मतिथी वज्रथी हणायेला बलिने लईने अस्ताचल तरफ गया ॥४६॥

अध्याय-११,अष्टम स्कन्ध ३८५ त्यां शुक्राचार्यजीए पोतानी सञ्जीवनी विद्याथी, जेमनां गरदन वगेरे अङ्ग साबूत अने अकबन्ध हता तेमने जीवता करी दीधा ॥४७॥

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः ॥ पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥४८॥

शुक्राचार्यजीनो स्पर्श थतां ज बलिनी इन्द्रियोमां चेतना अने मनमां स्मरण शक्तित आवी गई. बलि समजता हता के संसारमां जीवन-मृत्यु जय-पराजय वगेरे आव्या ज करे छे. तेथी हारी जवा छतां तेमने कंई ज खेद थयो नहि ॥४८॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां(बीजा दान-दाता प्रकरणनो सातमो) ‘‘देवोने नारदजीए लडता बन्ध कर्या, देवो अने असुरो पोताना स्थानमां गया’’ नामनो ११मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

अध्याय १२

भगवानना मोहिनी रूपने जोई शिवजी मोह पाम्या

विशेष - शिवजी भगवाननो मोहिनीरूपनो विलास जोवाने उत्कठिन्त थया. पछी एथी भगवाने ए रूप शिवजीने बताव्युं ए जोई शिवजी मुग्ध बन्या त्यारे भगवाने एमने फरी शान्त कर्या; तो पछी भगवाननी मायामां असुरो मोह पाम्या ए वात कोई मोटी न गणाय एवुं बताववाने शिवजीनो मोह आ अध्यायमां कह्यो छे. वृषध्वजो निशम्यैवं योषिद्रूपेण दानवान्‌ ॥ मोहयित्वा सुरगणान्‌ हरिः सोममपाययत्‌ ॥१॥

ईं उं ईं उं

अध्याय-१२,३८६ अष्टम स्कन्ध श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवाने स्त्रीरूप धरीने दानवोने मोहित करी सुरगणोने केवी रीते अमृत पायुं हतुं ए वात शिवजीए साम्भळी ॥१॥

त्यारे नन्दी उपर बेसी पार्वती साथे बधा भूतगणने साथे लई शिवजी, ज्यां मधुसूदन भगवान्‌ बिराजता हता त्यां एमनां दर्शनमाटे रवाना थया ॥२॥

भगवान्‌ श्रीहरिए पार्वती साथे शिवजीनुं आदरपूर्वक स्वागत कर्युं त्यारे शिवजी सारी रीते बेठा, भगवाननुं पूजन कर्युं अने कांईक हसीने भगवानने कहेवा लाग्या ॥३॥

श्रीमहादेवजीए कह्युं - हे समस्त देवोना आराध्य देव! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर अने जगत्स्वरूप छो. तमाम चराचर पदार्थोनुं मूल कारण ईश्वर अने आत्मा पण आप ज छो ॥४॥

आ जगतनां आदि, मध्य अने अन्त आपथी ज थाय छे छतां आप अव्यय होईने आपने आदि, मध्य अने अन्त नथी; आपना अविनाशी स्वरूपमां द्रष्टा, दृश्य, भोकता अने भोग्यनो भेदभाव नथी. वास्तवमां आप सत्य चिन्मात्र ब्रह्म ज छो ॥५॥

श्रेयने इच्छनार भकतो आ लोक परलोकनो सङ्ग छोडीने कांई पण कामना न करतां आपना चरणाविन्दने भजे छे ॥६॥

आप पूर्ण ब्रह्म छो, अमृत स्वरूप छो, प्राकृत गुणरहित छो, शोकनी छायाथी पण दूर स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म छो, आनन्द मात्र कर पादमुखोदरादि छो, आप निर्विकार छो. आपथी भिन्न कंई ज नथी, परन्तु आप बधाथी भिन्न छो, आप विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय नुं परम कारण छो. अने आपनी अपेक्षा छे परन्तु आपने कोईनी अपेक्षा नथी, केवळ भकतनी उपर कृपा करवामाटे आपनुं ऐश्वर्य छे ॥७॥

हे मारा स्वामी! कार्य अने कारण, द्वैत अने अद्वैत जे कंई छे ते बधुं एकमात्र आप ज छो-जेम आभूषणोनुं सोनुं अने सोनानो टुकडो ए बन्ने एक ज स्वरूप छे. लोकोए आपनुं खरूं स्वरूप न जाणवाने लीधे ज आपमां नाना प्रकारना भेदभाव अने विकल्पोनी कल्पना करी राखी छे. आ ज कारणथी आपमां कोई पण प्रकारनी उपाधि (गुणधर्म) न होवा छतां गुणोने लईने भेद मनाय छे ॥८॥

केटलाक आपने ब्रह्मरूपे जाणे छे तो केटलाक धर्मरूप माने छे ते वळी केटलाक अध्याय-१२,अष्टम स्कन्ध ३८७ कार्यकारण रूपथी पर एवा पुरुषरूपे माने छे. केटलाक आपने विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रहती, सत्या, इशाना अने अनुग्रहा आ नव शक्तिओथी युकत माने छे ते योगीओ आपने कलेश-कर्म आदि बन्धनथी रहित, पूर्वजोना पण पूर्वज, स्वतन्त्र, अविनाशी अने महापुरुष माने छे, छतां आप निर्विकार छो ॥९॥

एक पर आयुष्यवाळो एवो हुं तेम ज मरीचि वगेरे मुनिओ पण सात्त्विक सृष्टिथी उत्पन्न थयेली जेनी कृतिरूप विश्वने जाणी शक्ता नथी तो हे इश! जेनां चित्त भगवाननी मायावडे हराई गया छे तेवा अने हम्मेशां अकुशळ कार्य करनार तेवा दैत्यो अने मनुष्यो तो कयान्थी ज जाणी शके? ॥१०॥

ज्ञानस्वरूप होवाथी आप सर्वना आत्मा छो. एने लीधे आपे रचेला आ जगतनां उत्पत्ति स्थिति अने प्रलय ने, प्राणीओनी जुदी-जुदी चेष्टाओने तथा जगतना बन्ध अने मोक्षने आप जाणो छो. वायुनी पेठे स्थावर-जङ्गममां तथा आकाशमां आप अदृश्य छतां व्यापीने रह्या छो ॥११॥

गुणोनो स्वीकार करी अनेक लीलाओ करता आपना बीजा अवतारोनां में दर्शन कर्या छे. आपे जे मोहिनी स्वरूप धारण करेलुं ते स्वरूपनां दर्शन करवानी हवे हुं इच्छा राखुं छुम् ॥१२॥

जे मोहिनी स्वरूपवडे आपे दैत्योने मोह कर्यो अने देवोने अमृतपान कराव्युं ते स्वरूपने जोवानुं कौतुहल थतां अमे बधां आपनी पासे आव्या छीए ॥१३॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे भगवान्‌ शूलपाणिए ए प्रमाणे विष्णुनी प्रार्थना करी त्यारे भावगम्भीर थई प्रभु जरा हसीने शिवजीने कहेवा लाग्या ॥१४॥

श्रीभगवाने कह्युं - में जोयुं के देवोए महेनत करी हती छतां अमृत तो दैत्यो लई गयां त्यारे में दैत्योने कुतूहल करवा माटे स्त्रीरूप धारण कर्युम् ॥१५॥

हे देवशिरोमणि! तमे जे मोहिनीरूप जोवानी इच्छा करो छो ते हुं तमने बतावीश. मारुं ए मोहिनीरूप कामी पुरुषोमाटेज आदरणीय छे कारण के ते कामने उत्पन्न करनारुञ्छे ॥१६॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम कहेतां-कहेतां भगवान्‌ त्यां ज अन्तर्धान थई गया. शङ्कर पार्वती साथे चोतरफ नजर दोडावता त्यां ज बेसी रह्या ॥१७॥

एटलामां तो शिवजीए त्यां विचित्र रङ्गबेरङ्गी पुष्पोवाळुं, नव पल्लववाळां अध्याय-१२,३८८ अष्टम स्कन्ध वृक्षोथी भरपूर वन जोयुं. ए उपवनमां गेन्द उछाळती एक सुन्दरी स्त्रीने एमणे जोई. सुन्दरीए वस्त्राच्छादित नितम्ब उपर सोनानी कटिमेखला पहेरी हती ॥१८॥

दडाने ऊञ्चे-नीचे उडावती ए पोताना शरीरने पण साथे ऊञ्चे-नीचे हलावती हती. चालतां उत्तम हारना भारवडे जाणे कटिनो भाग ज होय तेम देखाव करी ए पद पल्लवने बीजे ठेकाणे धारण करी रही हती ॥१९॥

दिशामां उडता दडानी चपळताथी एनी आङ्खनी ताराओ आम-तेम फरती होवाथी एनां नेत्र पण चपळ अने मोटां देखातां हतां. कानमां पहेरेलां चळकतां कुण्डळोवडे एना कपोळ अने काळाकेश एना मुखने शोभा आपी रह्या हता ॥२०॥

नीचेनुं वस्त्र शिथिल थतां, केशपाश नरम पडतां, केळना गर्भ जेवा हाथवडे दडाने उडावती मोहिनी मायावडे जगतने फसाववा लागी ॥२१॥

एवी रीते दडो उछाळती ए कांईक शरम अने कांईक मन्द हास्यपूर्वक शिवजी तरफ जोवाथी मोहित थयेला शिवजी पोताना गणने पण जोवा समर्थ न थया ॥२२॥

ए मोहिनीना हाथमान्थी दडो छेटो पडयो तेने लेवा जती मोहिनीनी पाछळ शिवजी दोडया. शिवजी एनी सामे जुए छे तेटलामां तो वायुए एनुं सूत्र सहित (नाडीवाळुं) बारीक वस्त्र उडावी दीधुम् ॥२३॥

निरावरण, सुन्दर कटाक्षवाळी, मनने रमाडनारी, वक्र दृष्टिवडे शिवजी प्रत्ये जोती ए मोहिनीमां शिवजीनुं मन लाग्युम् ॥२४॥

मोहिनीमां मन लागतां एमनुं ज्ञान चलित थयुं अने स्वर उद्‌दीप्त थतां शिवजी विह्‌वल बनी गया अने पार्वतीना जोतजोतामां ज लाज छोडी शिवजी एनी नजीक गया ॥२५॥

पोतानी पासे शिवजीने आवता जोईने मोहिनी वस्त्ररहित होवाथी शरमाई गई अने वृक्षोमां सन्तावा लागी अने हसतां-हसतां आम-तेम दोडवा लागी ॥२६॥

शिवजी पण कामने वश थई गया. जेम हाथणीमां आन्धळो बनेलो हाथी एनी पाछळ पडे तेम शिवजी के जेमनी ईन्द्रियो क्षुब्ध थई छे ते मोहिनीनी पाछळ पडया ॥२७॥

एटलुं ज नहि पण ए मोहिनी इच्छती न होती एम छतां एनी पाछळ पडी अध्याय-१२,अष्टम स्कन्ध ३८९ एने पकडी एनो अम्बोडो पकडीने बे भुजाथी आलिङ्गन करवा लाग्या ॥२८॥

आम-तेम फरती हाथणीने हाथी पकडे तेम आम-तेम फरती मोहिनीने पकडतां एना माथाना वाळ चोतरफ फेलाई गया ॥२९॥

एटलामां शिवजीना हाथमान्थी पोताना देहने छोडावीने मोटा नितम्बवाळी ए देवनी माया एकदम दोडवा लागी ॥३०॥

ए विष्णु अद्‌भुत कर्मवाळा होवाथी अत्यारे स्त्रीरूपे फरवा लाग्या; एनी पाछळ पोताना वैरी कामे जेमने जीती लीधा छे तेवा रुद्र ते जे रस्ते गई ते रस्ते चालवा लाग्या ॥३१॥

गायनी पाछळ दोडता आखलानुं वीर्य जेम टपकी जाय तेम पाछळ दोडता शिवजीनुं वीर्य पण अमोघ होवा छतां स्खलित थयुम् ॥३२॥

हे महीपते! ज्यां-ज्यां शिवजीनुं वीर्य पडयुं त्यां-त्यां सोना चान्दीनी खाणो थई गई ॥३३॥

हे परिक्षित! नदीओ तेळावो, पर्वतो, वनो अने उपवनो ज्यां-ज्यां हतां त्यां सर्वत्र मोहिनीनी पाछळ दोडता शिवजी देखाया ॥३४॥

ज्यारे रेतःपात थयो त्यारे ‘‘देवनी मायाए मारा आत्माने जड बनावी दीधो छे’’ एवुं जोई ए कामथी निवृत्त थया ॥३५॥

ए जगदात्मा भगवाननुं माहात्म्य कोई जाणी शकतुं नथी. एना माहात्म्यने जाणीने आ स्त्रीरूपे भगवाने दानवने वञ्चित कर्या हता एमां एमने कांई आश्चर्य लाग्युं नहि ॥३६॥

ज्यारे शिवजीने धृष्ट अने लाज वगरना जोया त्यारे मधुसूदन भगवाने परम प्रसन्न थईने पोतानुं पुरुष स्वरूप फरी धारण कर्युम् ॥३७॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे विबुध श्रेष्ठ! में मारा मोहिनीरूपवडे तमने मोहित कर्या छतां हे अङ्ग! तमे तमारी मेळे ज तमारा स्वरूपने प्राप्त थया छो ए घणुं सारुं थयुं ॥३८॥

मारी माया, जे अजितेन्द्रियथी दुस्त्यज छे तेमां जो जीव एक वार फसायो तो पछी ए काम, क्रोध आदि अनेक भावोने पामे छे एमां तमारा सिवाय बीजो कोई पोतानी मेळे पाछो बहार नीकळी न ज शके ॥३९॥

ए त्रण गुणवाळी मारी माया काळे करीने पण तमारो पराजय करी शकशे अध्याय-१२,३९० अष्टम स्कन्ध नहि॥४०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - श्रीवत्साङ्क भगवाने ए प्रमाणे शिवजीनो सत्कार कर्यो त्यारे शिवजी भगवाननी आज्ञा मागी परिक्रमा करी पोताना गण साथे कैलास पधार्या ॥४१॥

हे भारत! एमणे वखाण करता ऋषिमुख्योनी समक्ष पार्वतीने आत्माना अंशभूत ए भगवाननी मायानी वात कही ॥४२॥

एमणे कह्युं - ‘‘हुं शिवजी विद्यानो अधिपति छुं छतां पर दैवत एवा अजन्मा पुरुषनी मायाथी मोहित थई गयो ते मायाने तमे पण जोई’’ ॥४३॥

अनेक वर्ष तप करीने तपोयोगथी हुं विरत थयेलो छुं तेवा मने उपास्य वस्तु शुं छे एवुं तमे पूछेलुं ते आ ज साक्षात्‌ पुराण पुरुष, ज्यां काळ प्रवेश करी शकतो नथी छतां काळ वगेरेने जाणे छे ते सर्वोपास्य छे ॥४४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे तात! में तमने शांर्ग नामनुं धनुष धारण करता विष्णु भगवाननी ऐश्वर्यपूर्ण लीला कही. ए भगवाने समुद्रनुं मथन करती वखते मन्दराचळने पोतानी पीठ उपर धारण कर्यो हतो ॥४५॥

भगवानना गुणनुं वर्णन करवुं ते समस्त संसार परीभ्रमणने दूर करनार छे तेथी आ क्षीरसमुद्रमथननुं वर्णन जे कोई वारंवार साम्भळशे के सम्भळावशे तेनो उद्योग, कयारेय पण अने कयांय पण निष्फळ नथी थतो, कारण के पवित्र कीर्ति भगवानना गुण अने लीलाओनुं गान, संसारना समस्त कलेश अने परिश्रमने मटाडी देनारो छे ॥४६॥

असदविषयमन्ध्रिं भावगम्यं प्रपन्नानमृतममरवर्यानाशयत्सिन्धुमथ्यम्‌ ॥ कपटयुवतिवेषो मोहयन्‌ यः सुरार्रीस्‌ तमहमुपसृतानां कामपूरं नतोऽस्मि ॥४७॥

जे भगवाने कपटथी स्त्रीवेश धारण कर्यो, दैत्योने मोहमां नाख्या अने दुष्टोने दुर्लभ छतां भक्तिथी प्राप्त थता भगवानना चरणने शरणे रहेनार उत्तम देवोने समुद्रथी नीकळषलुं अमृत पायुं हतुं ते शरणागतनी समस्त कामनाओने पूरनार भगवानने हुं नमन करुं छुम् ॥४७॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां(बीजा दान दाता नामना प्रकरणनो आठमो) ‘‘भगवानना मोहिनीरूपने जोई शिवजी मोह पाम्या’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अध्याय-१२,अष्टम स्कन्ध ३९१

अध्याय १३

छेल्ला सात मन्वन्तरोनी कथा

विशेषः आ अध्यायमां पछीना सात मन्वन्तरोनी कथा छे. मनुर्विवस्वतः पुत्रः श्राद्धदेव इति श्रुतः ॥ सप्तमो वर्तमानो यस्तदपत्यानि मे शृणु ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! सूर्यना पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ज सातमा मनु छे. आ चालु मन्वन्तर जे एमनो कार्यकाल छे. तेमना वंशनुं हवे हुं वर्णन करुं छुं ते साम्भळो ॥१॥

वैश्वस्वत मनुना दस पुत्र छे - ईक्ष्वाक, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग अने सातमो दिष्ट, करूष, पृषध्र अने दशमो वसुमान ॥२-३॥

हे परीक्षित! आदित्य, वसु, रुद्रो, विश्वेदेव, मरुद्‌गर, अश्विनीकुमार, ऋभु आ देवताओना प्रधान गण छे अने पुरन्दर तेमना इन्द्र छे ॥४॥

कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि अने भरद्वाज ए सप्तर्षिओ छे ॥५॥

आ मन्वन्तरमां पण कश्यपनी पत्नी अदितिना गर्भथी आदित्योना नाना भाई वामनना रूपमां विष्णुनो अवतार थयो हतो ॥६॥

में तमने सङ्क्षेपमां सात मन्वन्तर कही बताव्या. हवे थनारा विष्णुनी शक्तिवाळा एटले विष्णुना अवतारवाळा सात मन्वन्तरोने कहुं छुम् ॥७॥

विश्वकर्माने बे पुत्रीओ हती - सञ्ज्ञा अने छाया. ए बन्ने विवस्वाननी स्त्रीओ हती, हे राजन्‌! आ वात में प्रथम (छठ्ठा स्कन्धमां) तमने कही हती ॥८॥

केटलाकनुं कहेवुं एवुं छे के एने त्रीजी वडवा* नामनी स्त्री हती. यम, यमी अने श्राद्धदेव ए सञ्ज्ञानी प्रजा हती. हवे छायानी प्रजा कहुं छुं ते साम्भळो ॥९॥

विशेष - केटलाकनो मत एवो छे, परन्तु एटले आ टीकाकारनो मत तो सञ्ज्ञा ए ज वडवा छे एवो छे एना समर्थनमां एओ ‘‘सैव भूत्वाथ वडवा नासत्यौ सुषुवे भुवि’’ वाकय टाङ्के छे. सावर्णि पुत्र अने तपती कन्या ते संवरणनी स्त्री. एने त्रीजो शनैश्वर पुत्र थयो. वडवाना बे अश्विनीकुमार थया ॥१०॥

हे राजन्‌! आठमा मन्वन्तरमां सावर्णि मनु थशे; निर्मोक, विरजस्क वगेरे एना पुत्रो थशे ॥११॥

अध्याय-१३,३९२ अष्टम स्कन्ध ए समये सुतपा, विरज अने अमृतप्रभ नामना देवगण थशे एने विरोचननो पुत्र बलि इन्द्र थशे ॥१२॥

जे बलिराजा पासे विष्णुए आवी त्रण पगलां पृथ्वी मागी तेने ते आपवाथी सिद्ध करेल इन्द्रपदने छोडीने बलिराजा मुक्तिने प्राप्त थशे ॥१३॥

जे बलिने भगवाने बान्ध्यो तेना उपर प्रसन्न थतां एने स्वर्गथी पण अधिक सुतळमां स्वतन्त्र शोभे तेम राख्यो छे ॥१४॥

गालव, दीप्तिमान्‌, परशुराम, द्रोणना पुत्र अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यशृङ्ग अने अमारा पिता भगवान्‌ बादरायण ॥१५॥

ए सात ऋषिओ अत्यारे तो योगबलवडे पोतपोताना आश्रयमां रहे छे तेओ आठमा मन्वन्तरमां सप्तर्षिओ थशे ॥१६॥

देवगुह्यथी सरस्वती नामनी एनी स्त्रीमां सार्वभौम नामनो भगवाननो समर्थ अवतार थशे. ते पुरन्दर पासेथी स्वर्गनुं राज्य छीनवी लईने बलिराजाने आपी देशे ॥१७॥

हे परीक्षित! दक्षसावर्णि नामना वरुणना पुत्र नवमा मनु थशे. तेने भूतकेतु अने दीप्तकेतु नामना बे पुत्रो थशे ॥१८॥

पार, मरीचिगर्भ वगेरे देवगण थशे अने अद्‌भुत नामना इन्द्र थशे. ए मन्वन्तरमां द्युतिमान्‌ आदि सप्तर्षि थशे ॥१९॥

आयुष्यमाननी पत्नी अम्बुधाराना गर्भथी ऋषभ नामनो भगवाननो कला अवतार थशे, अद्‌भुत नामना इन्द्र एमणे ज आपेल त्रण लोकनुं राज्य भोगवशे ॥२०॥

उपश्लोकनो पुत्र ब्रह्मसावर्णि ते मोटो दशमो मनु अने भूरिषेण वगेरे एना पुत्रो अने हविष्मान वगेरे ऋषिओ थशे ॥२१॥

हविष्मान, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति वगेरे ए वखते ऋषिओ, सुवासन, विरुद्ध वगेरे देवो अने शम्भु नामना इन्द्र थशे ॥२२॥

विश्वसृजना घरमां एनी भार्या विषुचिना गर्भथी समर्थ विश्वक्‌सेनना रूपमां अंशावतार लई ते शम्भु नामना इन्द्रनी मित्रता करशे ॥२३॥

अत्यन्त संयमी धर्मसावर्णि अगियारमा मनु थशे. सत्य, धर्म आदि एना दश पुत्रो थशे ॥२४॥

अध्याय-१३,अष्टम स्कन्ध ३९३ विहङ्गम, कामगम अने निर्वाणरुचि वगेरे देवो थशे एमना वैधृत नामना इन्द्र अने अरुण आदि सात ऋषिओ थशे ॥२५॥

आर्यकनो पुत्र धर्मसेतु विधृतामां भगवाननो अवतार थशे अने त्रण लोकनी रक्षा करशे ॥२६॥

रुद्रसावर्णि नामना बारमां मनु थशे. हे राजन्‌! देववान, उपदेव अने देवश्रेष्ठ वगरे एमना पुत्रो थशे ॥२७॥

ए मन्वन्तरमां ऋतधामा नामना इन्द्र थशे, हरित वगेरे देवो थशे तेपोमूर्ति अने आग्नीध्रक वगेरे सप्तर्षिओ थशे ॥२८॥

सत्यसहानी पत्नी सूनृतामां स्वधामा नामना भगवाननो अंशावतार थशे ते मन्वन्तरनुं पालन करशे ॥२९॥

देव सावर्णि नामना मोटा मनवाळा तेरमा मनु थशे. चित्रसेन विचित्र वगेरे देवसावर्णिना पुत्रो थशे ॥३०॥

सुकर्म, सुत्राम आदि देवगण थशे. दिवस्पति नामना इन्द्र थशे अने निर्मोक अने तत्त्वदर्शादि सप्त ऋषिओ थशे ॥३१॥

देवहोत्रनी स्त्री बृहतीमां भगवानना अंशावतार थशे, योगेश्वर एमनुं नाम थशे; दिवस्पति नामना इन्द्रना ए सहायक थशे ॥३२॥

चौदमा इन्द्रसावर्णि नामना मनु थशे. उरगम्भीरबुद्धि वगेरे एमना पुत्रो थशे ॥३३॥

ते वखते पवित्र चाक्षुष वगेरे देवो थशे अने शुचि नामना इन्द्र थशे. अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध अने मागध वगेरे सप्तर्षि थशे ॥३४॥

ते वखते सत्रायणनी पत्नी वितानाना गर्भथी बृहद्‌भानुना रूपमां भगवान्‌ अवतार लेशे अने कर्मकाण्डनो विस्तार करशे ॥३५॥

राजन्‌ चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते ॥ प्रोक्‌तान्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः ॥३६॥

हे राजन्‌! त्रण काळमां थता मन्वन्तरोमां थई गयेला, चालता अने थनार मळीने चौद मन्वन्तर में तमने कही बताव्या. ए बधानो जेटलो समय थाय ते ब्रह्माजीनो एक कल्प एटले एक दिवस थाय. एमां चार युग एकहजार वार बदली जाय छे ॥३६॥

अध्याय-१३,३९४ अष्टम स्कन्ध इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान दाता प्रकरणनो नवमो) ‘‘छेल्ला सात मन्वन्तरोनी कथा’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिर माञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला अधम लोको तो ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय १४

मनुओना कर्तव्यनुं कथन

विशेष - भगवानने वश रहेनार १४ मनुओनां जुदां-जुदां कर्मोनुं जुदी-जुदी रीते आ १४मा अध्यायमां वर्णन करवामां आवे छे. मन्वन्तरेषु भगवन्‌ यथा मन्वादयस्त्विमे ॥ यस्मिन्‌ कर्मणि ये येन नियुकतास्तद्‌ वदस्व मे ॥१॥

राजाए पूछ्‌युं - हे भगवन्‌! आपे जेनुं हमणां वर्णन कर्युं. ते मनु, मनु पुत्र, सप्तर्षि वगेरे पोतपोताना मन्वन्तरमां कोना द्वारा निमाय छे, कयुं-कयुं काम करे छे अने केवी रीते करे छे ते आप कृपा करीने मने कहो ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे महिपते! मनुओ, मनुपुत्रो, मुनिओ, देवो, इन्द्र वगेरे बधाने भगवदवतार होय ते नियोग करी चलावे छे ॥२॥

हे राजन्‌! भगवानना जे यज्ञ पुरुष आदि अवतार कह्या तेनी आज्ञाथी मनु आदि जगत यात्राने चलावे छे एटले एमना कहेवा प्रमाणे जगतनुं पालन- पोषणकरेछे ॥३॥

ज्यारे चार युगनो अन्त आवे त्यारे काळे करीने वेद बधा नष्ट थाय छे ते समये ऋषि लोको तपश्चर्यावडे ए वेदनो साक्षात्कार करी शके छे, कारण के वेदोथी ज सनातन धर्मनी रक्षा थाय छे ॥४॥

ईं उं ईं उं

अध्याय-१४,अष्टम स्कन्ध ३९५ इन्द्रनी प्रेरणाथी चार पगवाळा ए धर्मने मनुओ ते-ते काले पृथ्वीमां फेरवे छे. धर्म सञ्चालक मनुओ ए धर्मनो प्रचार करे छे ॥५॥

प्रजानुं पालन करे छे, देवो यज्ञभागीओनी साथे एना कर्मनो भोगवनार थाय छे ॥६॥

इन्द्र भगवाने आपेली त्रण लोकनी अतुल सम्पत्तिने भोगवता प्रजानुं पालन करे छे. संसारमां यथेष्ट वरसाद मोकलवानो अधिकार पण एमनो छे ॥७॥

भगवान्‌ युगे-युगे सनक, कपिल आदि सिद्धोनुं रूप धारण करी ज्ञाननो, याज्ञवल्कय आदि ऋषिओनुं रूप धारण करी कर्मनो अने दत्तात्रेय आदि येगेश्वरोना रूपमां योगनो उपदेश आपे छे ॥८॥

भगवान्‌ मरीचि आदि प्रजापतिओना रूपमां सृष्टिनो विस्तार करे छे, सम्राटना रूपमां लुटाराओनो वध करे छे अने ठण्डी, गरमी वगेरे अलग-अलग गुणो धारण करी काळरूपथी बधाने संहार तरफ लई जाय छे ॥९॥

नाम अने रूप नी मायाथी प्राणीओनी बुद्धि विमूढ थई रही छे तेथी तेओ अनेक प्रकारनां दर्शन शास्त्रोद्वारा महिमा तो भगवाननो ज गाय छे परन्तु तेमनुं साचुं स्वरूप तेओ जाणी शकता नथी ॥१०॥

एतत्‌ कल्पविकल्पस्य प्रमाणं परिकीर्तितम्‌ ॥ यत्र मन्वन्तराण्याहुःचतुर्दश पुराविदः ॥११॥

हे परीक्षित! आ प्रमाणे में तमने महाकल्प अने अवान्तर कल्पनुं परिमाण सम्भळावी दीधुं. पुराणतत्त्वना विद्वानोए दरेक अवान्तर कल्पमां चौद मन्वन्तर बताव्या छे ॥११॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (बीजा दान दाता प्रकरणनो दसमो) ‘‘मनुओना कर्तव्यनुं कथन’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌, वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. –श्रीवल्लभाचार्य)

ईं उं ईं उं

अध्याय-१४,३९६ अष्टम स्कन्ध त्रीजुं स्वोक्तनिर्वाह प्रकरण

अध्याय १५

भृगुओनी कृपाथी बलिए देवो पासेथी स्वर्ग मेळव्युं

विशेष - आचार्योए बलिने विश्वजित यागथी यजन कराव्युं तेना प्रतापे तेणे स्वर्ग जीती लीधुं अने देवो एना भयथी छुपाई गया एटली वात आ अध्यायमां छे. आ नव अध्यायना त्रीजा प्रकरणमां वामनजीनुं चरित्र कहेवाय छे. छळथी बलिनो निग्रह करी एना उपर वामन भगवाने महान अनुग्रह कर्यो ए वात आ प्रकरणमां कहे छे. बलेः पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरिरयायत ॥ भूत्वेश्वरः कृ पणवल्लब्धार्थोऽपि बबन्ध तम्‌ ॥१॥

परीक्षित बोल्या - हे भगवन्‌! श्रीहरि स्वयं सर्वना स्वामी छे छतां आपे दीनहीननी जेम राजा बलि पासे त्रण पगलां पृथ्वी केम मागी? तथा जे कंई माग्युं ते मळी गयुं छतां आपे बलिने केम बान्ध्यो? ॥१॥

मारा मनमां ए वातनुं भारे कुतूहल छे के पोते परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान्‌ द्वारा याचना अने निरपराधनुं बन्धन-ए बन्ने बाबत केम बनी? ए जाणवानी मने इच्छा थाय ए अयोग्य न गणाय ॥२॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! ज्यारे इन्द्रे बलि राजाने हरावी एनी सम्पत्ति छीनवी लीधी अने एना प्राण पण लई लीधा तेरे भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीए तेने पोतानी सञ्जीवनी विद्याथी जीवता करी दीधा. तेथी शुक्राचार्यजीना शिष्य महात्मा बलिए पोतानुं सर्वस्व एमना चरणोमां धरी दीधुं अने ते तन-मनथी गुरुजीनी साथे भृगुवंशी ब्राह्मणोनी सेवा करवा लाग्या ॥३॥

आथी प्रभावशाली भृगुवंशीब्राह्मणो एना उपर बहु प्रसन्न थया. तेमणे स्वर्ग उपर विजय मेळववानी इच्छावाळा बलिनो महाभिषेकनी विधिथी अभिषेक करी एनी पासे विश्वजित नामनो यज्ञकराव्यो ॥४॥

यज्ञनी विधिथी हविष्यद्वारा ज्यारे अग्निदेवतानी पूजा करवामां आवी त्यारे यज्ञकुण्डमान्थी सोनानां पतरान्थी मढेलो एक अत्यन्त सुन्दर रथ नीकळ्यो. पछी इन्द्रना घोडा जेवा लीला रङ्गना घोडा तथा सिंहना चिह्नवाळी रथ उपर फरकाववानी धजानीकळी ॥५॥

अध्याय-१५,अष्टम स्कन्ध ३९७ साथे-साथे सोनाना पतराथी मढेलुं धनुष, कदी खाली न थाय तेवां बे अक्षय भाथां अने दिव्य कवच पण प्रकट थयां. दादा प्रह्‌लादजीए एने एक एवी माळा आपी जेनां फूल कदी करमातां नहोतां. शुक्राचार्यजीए एक शङ्ख आप्यो ॥६॥

एवी रीते लडाईनो साज ब्राह्मणोनी कृपाथी सम्पादन कर्येथी ब्राह्मणोए स्वस्तिवाचन कराव्युं त्यारे बलिए ब्राह्मणोनी प्रदक्षिणा करी एमने प्रणाम कर्या अने पछी प्रह्‌लादजी साथे वात-चीत करी एमने पण नमन कर्युम् ॥७॥

पछी भृगुवंशी ब्राह्मणोए आपेल रथ उपर ते सवार थया. महारथी राजा बलिए कवच धारण करी धनुष, तलवार, भाथां आदि शस्त्र धारण करी लीधां अने दादाए आपेली सुन्दर माला पहेरी लीधी ॥८॥

एनी भुजाओमां सोनाना बाजुबन्ध अने कानोमां मकराकृत कुण्डल झगमगतां हतां. तेथी रथउपर बेठेला ते जाणे के अग्निकुण्डमां अग्नि प्रज्वलित थई रह्यो होय एवा शोभताहता ॥९॥

एनी साथे एना जेवा ऐश्वर्य, बळ अने विभूतिवाळा दैत्यना सेनापति पोतपोतानी सेना लई जोडाई गया. एवुं लागतुं हतुं के ते जाणे के पोतानी क्रोधभरी प्रज्वलित आङ्खोथी बधी दिशाओने अने क्षितिजने बाळी नाखशे ॥१०॥

असुरनी मोटी सेनाने लईने आकाश-पाताळने हलावतो ए समृद्धिवाळी इन्द्रपुरी उपर सेनाने लईने गयो ॥११॥

ए इन्द्रपुरी उपवन अने बगीचाथी रमणीय छे. नन्दनवन वगेरे समृद्धिवाळा बगीचा छे तेमां पक्षीओनां जोडां कूजन करे छे अने मदोन्मत्त भमरा गुञ्जारव करी र्‌ह्या छे ॥१२॥

नवपल्लव फळ अने पुष्प ना मोटा भारथी देववृक्षोनी शाखाओ ज्यां शोभी रही छे तेवी तळावडीओ जेमां हंस, सारस, चकला अने कारण्डव (बतक) नां जूथ रमी रह्यां छे तेमां देवोवडे सेवायेली देवाङ्गनाओ क्रीडा करी रही छे ॥१३॥

एनी चोतरफ खाई जेवी देखाती आकाशगङ्गा आवेली छे अने ए अग्निना सरखा किल्ला उपरनी ऊञ्ची अटारीओवडे शोभे छे ॥१४॥

ज्यां द्वारनां कमाड सोनाना पाटलानां छे, दरवाजा स्फटिक मणिना छे एमां अलग-अलग मोटा-मोटा राजमार्ग छे. ए अमरावती नगरी विश्वकर्माए निर्माण करेली छे ॥१५॥

अध्याय-१५,३९८ अष्टम स्कन्ध सभा, चोक अने शेरीओ थी दशकोटि विमानथी शोभावाळी अने मणिना चोक तथा हीरा तेमज प्रवाळनी वेदीओवाळी ए अमरावतीने एणे जोई ॥१६॥

एमां स्थिर आयुवाळी सोळ वर्षनी, स्वच्छ कपडांवाळी रूपाळी स्त्रीओ, जेम शिखाथी अग्नि शोभे तेम, शोभे छे ॥१७॥

देवनी स्त्रीओना केशथी जे माळाओ पडी जाय छे तेना सुगन्धने लई वायु त्यान्ना मार्गोमां सुगन्धवाळो थई वही रह्यो छे ॥१८॥

सोनाना सळियावाळी बारीओमान्थी अगरुथी कांईक सफेद थयेलो धुमाडो नीकळे छे तेनाथी मार्ग धोळा बनी जाय छे; ते ज मार्गथी देवाङ्गनाओ आव-जाव करे छे ॥१९॥

मोतीवाळा चन्द्रवाथी, मणिवाळी ध्वजाओथी अनेक प्रकारनी पताकावाळा घर उपरना जरूखाओथी ए खीचोखीच छे. जेमां मोर, कबूतर, भमरा वगेरे नाद करी रह्या छे तेवा विमानोमां बेठेली स्त्रीओना गानथी त्यां मङ्गळ वर्ती रह्युं छे ॥२०॥

मृदङ्ग, शङ्ख, नगारां, ढोल, ताल सहित बीन, बंसी, मञ्जीरा अने ऋष्टि वागी रह्या छे. गन्धर्वो वाजांओना साथमां गान कर्या करे छे अने अप्सराओ नाच्या करे छे. आथी अमरावती एटली सुन्दर लागे छे के तेणे पोतानी छटाथी छटानी अधिष्ठात्री देवीने पण जीती लीधी होय! ॥२१॥

ए नगरीने अधर्मी, दुष्ट, जीवोनो द्रोह करनार, शठ, मानी, कामी, लोभी वगेरे जोई शकता नथी. जेओ आटला दोषथी मुकत होय तेओ ज त्यां जई शके छे ॥२२॥

बलिराजाए ए अमरावती नगरीने बहारथी अने चारे तरफथी पोतानी सेनावडे घेरी लीधी; त्यां जई एणे आचार्ये आपेलो इन्द्रनी स्त्रीओने भय करनार शङ्ख फूङ्कयो. ते शङ्खनो घोर अवाज सर्वत्र फेलाई गयो ॥२३॥

बलिराजाना आ उद्यमने इन्द्र जाणी गयो अने ए बधा देवोनी साथे पोताना गुरु बृहस्पतिनी पासे आवी कहेवा लाग्यो ॥२४॥

‘‘हे भगवन्‌! आ पणा पूर्व शत्रु बलिराजाए आ पणने हराववा आ मोटो उद्यम कर्यो छे. आ सहन न थई शके तेवी वस्तु छे. कोनी मददथी बलिराजा आ करवाने समर्थ थयो छे?’’ ॥२५॥

अत्यारे एनुं तेज एवुं छे के जे कोई पण सहन करी शके नहि. जाणे मुखथी अध्याय-१५,अष्टम स्कन्ध ३९९ ए बधाने पान करी जतो होय, दशे दिशाने चाटतो होय, आङ्खोवडे दशे दिशाने बाळतो होय एवो देखाय छे अने प्रलयकाळना अग्नि जेवो ए तैयार थईने आव्योछे ॥२६॥

मारो शत्रु पासे पण न जई शकाय तेवो तेजस्वी केम थई गयो? एमां पण आटलुं बधुं इन्द्रियनुं बळ, मननो उत्साह अने शरीरनुं बळ कयान्थी आवी गयुं के जेथी आटली भारे तैयारी करी चढाई करी ते समजावो ॥२७॥

देवगुरु बृहस्पतिए कह्युं - हे मधवन्‌! शत्रुनी आबादीनुं कारण हुं जाणुं छुं. ब्रह्मने जाणनार भृगुओए पोताना शिष्यमां बधुं तेज एकठुं कर्युं छे ॥२८॥

भगवान्‌ सिवाय तमे के तमारा जेवो कोई, जेम माणस यमराजनी पासे जई शके नहि तेम, आनी सामे कोई थई शके तेम नथी ॥२९॥

तेथी तमे लोको स्वर्ग छोडी कयाङ्क छुपाई जाओ अने तमारा शत्रुनुं भाग्य पलटाय ए समयनी राह जुओ ॥३०॥

आ बलि ब्राह्मणना बळथी आगळ वधे छे. एनी पासे अत्यारे जोईए तेटलुं बळ छे. ज्यारे बलि ब्राह्मणोनुं अपमान करशे त्यारे ए बधी सम्पत्ति साथे नाश पामशे ॥३१॥

एम गुरुए विचार करी सिद्ध कर्युं. ए साम्भळी गुरुए बताव्या प्रमाणे इच्छा प्रमाणे रूप करी स्वर्ग छोडी बधा देवो चाल्या गया ॥३२॥

ज्यारे देवो सन्ताई गया त्यारे बलिराजाए ए पुरीनो कबजो लीधो अने एमां रही एणे त्रणलोकने वश कर्या ॥३३॥

ए प्रमाणे विश्वने जीतनार पोतानो शिष्य बलि पोताना स्थानमां स्थिर थाय ए माटे शिष्य उपर कृपा करनार भृगुवंशीओए तेनी पासे सो अश्वमेघ यज्ञ कराव्या ॥३४॥

ए यज्ञना प्रतापे चन्द्रमानी पेठे ए बलि त्रण लोकमां प्रख्यात एवी कीर्तिने फेलावतो शोभवा लाग्यो ॥३५॥

बुभुजे च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम्‌। कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानो महामनाः ॥३६॥

ब्राह्मण देवताओनी कृपाथी प्राप्त थयेल समृद्ध राज्य-लक्ष्मीनो ए खूब उदारताथी उपभोग करवा लाग्यो अने पोताने कृतकृत्य जेवो मानवा लाग्यो ॥३६॥

अध्याय-१५,४०० अष्टम स्कन्ध इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोकत निर्वाह प्रकरणनो पहेलो) ‘‘भृगुओनी कृपाथी बलिए देवो पासेथी स्वर्ग मेळव्युं’’ नामनो पन्दरमोअध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ सेथज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)

अध्याय १६

अदितिने दुःखी जोई एनुं दुःख मटाडवा कश्यपे एने पयोव्रतनो उपदेश कर्यो

विशेष - पुत्रना नाशथी शोक करती अदितिने एना पति कश्यपे जोई त्यारे अदितिए पतिनी प्रार्थना करतां कश्यपे एने पयोव्रत करवानुं कह्युं एटली वात आ अध्यायमां आवे छे. एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ॥ हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथवत्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - देवनी माता अदितिए ए प्रमाणे पुत्रोनो नाश थतो जोयो. दैत्यो स्वर्ग जीती गया छे एवुं ज्यारे एणे जाण्युं त्यारे अनाथनी पेठे ए शोक करवा लागी ॥१॥

घणा काळे समाधिथी विराम पामी एक दिवस कश्यप एमना आश्रममां आव्या ते तो आश्रम उत्सव अने आनन्द वगरनो जोवामां आव्यो ॥२॥

हे परीक्षित! पोतानुं स्वागत थया पछी ऋषिए ज्यारे आसननो स्वीकार कर्यो त्यारे कहेवा लाग्या; ॥३॥

हे भद्रे! हालमां लोकमां ब्राह्मणोनुं, धर्मनुं अने पोतानी मरजी प्रमाणे चालता मृत्युने वश थनार लोकनुं अकुशळ तो नथी ने? ॥४॥

हे प्रिये! तमारुं घर के जेमां धर्म-अर्थ-कामनो योग सिद्ध थाय छे ते कुशळ तो छे ने? ॥५॥

ईं उं ईं उं

अध्याय-१६,अष्टम स्कन्ध ४०१ घरना काममां आसक्त होवाथी कोई अतिथि आवीने वगर पूजाए पाछो तो चाल्यो गयो नथी? ॥६॥

अथवा तो जे घरमान्थी अतिथि पूजा सत्कार वगरनो पाछो जाय छे ते घर तो शियाळना घर जेवुं गणाय ॥७॥

हे सती! घरमान्थी हुं चाल्यो गयो तेथी तारुं मन उद्विग्न थतां, हे भद्रे! हविषथी समयसर अग्निने तृप्त करवामां भूल तो करी नथी ने? ॥८॥

जेनी पूजा करवाथी गृहस्थ बधा कामने आपनार लोकमां पहोञ्चे छे ते अग्नि अने ब्राह्मण, भगवान्‌ सर्वात्माना मुखरूप छे ॥९॥

हे मनस्विनी! तारा बधा पुत्रो कुशळ तो छे ने? तारा लक्षण उपरथी तारो आत्मा स्वस्थ होय एवुं जणातुं नथी तेथी आवी रीते पूछवानुं प्राप्त थाय छे ॥१०॥

अदितिए कह्युं - हे ब्रह्मन्‌!ब्राह्मण, गाय, धर्म अने आपनी आ दासी बधां कुशळ छे. हे स्वामी! आ गृहस्थाश्रम ज त्रिवर्ग एटले धर्म, अर्थ अने काम नी साधनामां परम सहायकछे ॥११॥

अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक अने बीजी इच्छा करवावाळा, हे ब्रह्मन्‌! हुं आपनुं ध्यान करुं छुं तेटला मात्रथी सन्तुष्ट थाय छे; एनो अपराध मने पडतो नथी ॥१२॥

आप मारी प्रजाना पालक छो, मने आवा धर्मोनो उपदेश करो छो तेथी मारा मननो कयो मनोरथ पूर्ण न थाय? ॥१३॥

हे मारीच! आ सात्त्विक, राजस अने तामस प्रजा तमारां मन अने शरीरथी उत्पन्न थई छे. आप ए बधानी उपर समान दृष्टि राखो छो तो पण ए बधामां जे पोतानो भक्त होय तेने ज आप भजो छो ॥१४॥

हे मारीच! आ सात्त्विक, राजस अने तामस प्रजा तमारां मन अने शरीरथी उत्पन्न थई छे. आप ए बधानी उपर समान दृष्टि राखो छो तो पण ए बधामां जे पोतानो भक्त होय तेने ज आप भजो छो ॥१४॥

माटे हे ईश! हुं आपनुं भजन करनार छुं. मारां स्थान अने लक्ष्मी शत्रुए लई लीधां छे. ए बाबतमां सुन्दर व्रतवाळां एवां आप मारुं श्रेय थाय एवो विचार करो केमके आप समर्थ छो ॥१५॥

अध्याय-१६,४०२ अष्टम स्कन्ध शत्रुए मने मारा स्थानथी काढी मूकी छे तेथी हुं दुःख सागरमां डूबी गई छुं. ए शत्रुओ प्रबळ थया छे. एओए मारां ऐश्वर्य, लक्ष्मी, यश अने स्थानने हरण कर्या छे ॥१६॥

हे साधो! हे कल्याण करनारमां श्रेष्ठ! आप एवुं कोई चिन्तन करो, जेनाथी मारा पुत्रोने लक्ष्मी वगेरे पाछां मळे ॥१७॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे अदितिए ए प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे जरा मन्द हास्य करता कश्यप एने कहेवा लाग्याः‘‘अहो! विष्णुनी मायानुं बळ तो जुओ; एमनी मायावडे आ जगत्‌ स्नेहपाशथी सर्वत्र बन्धायेलुं छे ॥१८॥

अनात्म अने पृथ्वी आदिथी बनेलो देह कयां अने प्रकृतिथी पर एवो आत्मा कयां? पति दीकरा वगेरे कोण कोनां छे? छतां एमां बन्धन थाय तो एनुं कारण मोह ज छे ॥१९॥

अविद्याने मटाडनार, प्राणीमात्रना हृदयाकाशमां रहेनार अने जगतना गुरु वासुदेव भगवाननुं तुं भजन कर ॥२०॥

गरीब उपर दया करनार अने दुःखने हरनार ए हरि तारी कामना पूर्ण करशे. भगवानने प्रसन्न करावनार एना जेवो बीजो कोई उपाय नथी एवी मारी बुद्धि छे ॥२१॥

अदितिए पूछ्‌युं - हे ब्रह्मन्‌! मारे जगतना पति भगवाननुं आराधन केवी रीते करवुं जेथी ते सत्यसङ्कल्प भगवान्‌ मारो मनोरथ सफळ करे? ॥२२॥

हे द्विज श्रेष्ठ! एमने प्रसन्न करवानो विधि आप मने बतावो. हुं मारा पुत्रो साथे बहु दुःखी छुं. मारा उपर भगवान्‌ जलदी प्रसन्न थाय एवो उपाय मने कहो ॥२३॥

कश्यपजीए कह्युं - मने ज्यारे सन्ताननी कामना थई त्यारे ब्रह्माजीने पूछवा जतां एमणे मने जे उपाय बतावेलो ते व्रत केशवने प्रसन्न करनार होवाथी हुं तने कहीश ॥२४॥

फागण मासना शुकल पक्ष-सुद (अजवाळियां) मां बार दिवस सुधी फकत दूध पीने रहेवुं अने परम भक्तिथी भगवान्‌ कमलनयननी पूजा करवी ए ‘पयोव्रत’ नामनुं व्रत छे ॥२५॥

वराहे (सूवरे-भूण्डे-डूक्करे) खोदेली माटीवडे शरीर मर्दन करीने नहावुं. ए बधुं अध्याय-१६,अष्टम स्कन्ध ४०३ अमावास्याने दिवसे करवुं. नदीमां जई आ मन्त्र बोलीने उपर बतावेली माटी शरीरे लगाडीने स्नान करवुम् ॥२६॥

‘‘हे देवी! स्थाननी शोध करता आदि वराहे रसातलथी तमने अर्ही लावी राख्यां छे ते तमे मारा पापनो नाश करो’’ ॥२७॥

पछी पोतानां नित्य अने नैमित्तिक कर्मोथी परवारी एकाग्रचित्तथी मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि अने गुरुदेव ना रूपमां भगवाननी पूजा करवी ॥२८॥

(अने आ प्रमाणे स्तुति करवी) ‘‘हे प्रभु! आप सर्वशक्तिमान छो. अन्तर्यामी अने आराधना करवा योग्य छो. बधां प्राणी आपमां अने आप बधा प्राणीओमां निवास करो छो तेथी ज आपने वासुदेव कहे छे, आप समस्त चराचर जगत अने तेना कारणना पण साक्षी छो. हे भगवन्‌! आपने मारा नमस्कार हो ॥२९॥

आप अव्यकत, सूक्ष्म, प्रधान पुरुषरूप अने चोवीश गुणने जाणनार अने गुणनी सङ्ख्या करनारा साङ्ख्यशास्त्रना प्रवर्तक छो. आपने मारा नमस्कार हो ॥३०॥

आप ते ज यज्ञ छो जेना प्रायणीय अने उदनीय आ बे कर्म मस्तक छे. प्रातः मध्याह्‌न अने तृतीय आ त्रण सवन ज त्रण पाद छे. चारेय वेद चार शिङ्गडा छे. गायत्री आदि सात छन्द ज सात हाथ छे. आ धर्ममय वृषभरूप यज्ञनुं वेदोए प्रतिपादन कर्युं छे अने एनो आत्मा स्वयं आप छो एवा आपने मारा नमस्कार हो ॥३१॥

आप ज लोक कल्याणकारी शिव अने आप ज प्रलय करनारा रुद्र छो अने शक्तिने धारण करनार, सर्व विद्याना अधिपति अने भूतोना अधिपतिने मारा नमस्कार हो ॥३२॥

आप ज बधाना प्राण अने आप ज आ जगतनुं स्वरूप पण छो. आप योगनुं कारण तो छो ज, स्वयं योग अने तेथी मळतुं ऐश्वर्य पण आप ज छो. हे हिरण्यगर्भ! आपने मारां नमस्कार हो ॥३३॥

आप ज आदि देव छो. सर्वना साक्षी छो. आप ज नर-नारायण ऋषिना रूपमां प्रकट स्वयं भगवान्‌ छो, आपने मारा नमस्कार हो ॥३४॥

आपनुं शरीर मरकत मणिना जेवुं श्याम छे. समस्त सम्पत्ति अने सौन्दर्यनी देवी लक्ष्मीजी पोतानी मेळे आवे छे तेवा पीताम्बरधारी केशव (ब्रह्माजी तथा शङ्कर ने पण मोक्ष आपनार)! आपने मारा वारंवार नमस्कार हो ॥३५॥

अध्याय-१६,४०४ अष्टम स्कन्ध हे वरणीय! हे वरदातामां श्रेष्ठ! आप पुरुषोने सर्व इच्छित पदार्थना दाता छो तेथी ज कल्याणमाटे धीर पुरुषो आपना चरणनी रजने आराधे छे ॥३६॥

जेमना चरण कमलोनी सुगन्ध प्राप्त करवानी इच्छाथी समस्त देवता तथा स्वयं लक्ष्मीजी सेवा करे छे. तेवा भगवान्‌ मने प्रसन्न हो’’ ॥३७॥

भगवाने हषीकेशनुं आवाह्‌न पहेलां ज करी लेवुं. पछी आ मन्त्रोथी पाद्य, आचमन आदि सहित श्रद्धापूर्वक मन लगावी पूजा करवी ॥३८॥

गन्ध, माला वगेरेथी पूजा करी दूधथी स्नान कराववुं, पछी वस्त्र, जनोई, आभरण, पग, धोवानुं जळ अने स्नाननुं जळ आपी गन्ध, धूप वगरे अर्पण करवुं अने द्वादशाक्षर मन्त्रथी पूजा करवी ॥३९॥

शक्ति होय तो दूधपाक अथवा भातमां घी अने गोळ नाङ्खी नैवेद्य धरवुं अने तेनो ज द्वादशाक्षर मन्त्रथी अग्निमां हवन करवो ॥४०॥

भगवानने धरावेलुं नैवेद्य भगवद्‌भकतने आपवुं अथवा पोते लेवुं, पछी आचमन करावी बीजी पूजा करी ताम्बूल धरवुम् ॥४१॥

एकसो आठवार मन्त्रनो जप करवो. स्तोत्रोवडे प्रभुनी स्तुति करवी. प्रभुनी परिक्रमा करी प्रेम अने आनन्दपूर्वक दण्डवत्प्रणाम करवा ॥४२॥

एनुं जे शेष निर्माल्य होय ते मस्तके चढावी देवनुं विसर्जन करवुं. ज्यारे योग्य लागे त्यारे वधारे ब्राह्मणने दूधपाकथी जमाडवा ॥४३॥

ब्राह्मणनी आज्ञा मागी ए आज्ञा करे त्यारे बाकी रहेलुं होय तेमान्थी पोते इष्टजन सहित भोजन करवुम् ॥४४॥

रात्रिमां स्वयं ब्रह्मचर्य राखवुं. बीजे दिवसे प्रथम स्नान करी, उपर कह्युं ते प्रमाणे मनने सारी पेठे कबजामां राखीने जलथी देवने नवडाववा. एम व्रत समाप्त थाय त्यां सुधी करवुम् ॥४५॥

विष्णुनी पूजामां आदर राखवो. पोते मात्र दूध उपर रहीने पूर्वे कह्युं तेम रोज होम करवो अने ब्राह्मणोने पण भोजन कराववुम् ॥४६॥

एम बार दिवस सुधी दररोज करवुं; ए प्रमाणे करे ते पयोव्रत कहेवाय छे. एमां भगवाननी आराधना करवी, होम करवो अने ब्राह्मणोने तृप्त करवा. आ प्रमाणे फागण सुदि पडवाथी माण्डी तेरस सुधी करवुं. एटला दिवस ब्रह्मचर्य पाळवुं, पृथ्वी उपर सूवुं अने हम्मेशां त्रणेवार स्नान करवुम् ॥४७-४८॥

अध्याय-१६,अष्टम स्कन्ध ४०५ खोटुं बोलवुं नहि, पापीओनी साथे वात न करवी. पापनी वात न करवी. नाना-मोटा तमाम भोगोनो त्याग करी देवो. कोई पण प्राणीने कोई पण रीते कष्ट न पहोञ्चाडे. भगवाननी आराधनामां लाग्या ज रहेवुम् ॥४९॥

त्रयोदशीने दिवसे पञ्चामृतथी विष्णुनी पूजा करवी. ए पण विधिमां निपुण होय तेवा ब्राह्मणोने बोलावी शास्त्रमां कहेला विधि प्रमाणे करवी ॥५०॥

पूजा मोटा पाया उपर करवी, पैसानो लोभ करवो नहि; दूधमां खीर रान्धी विष्णु भगवानने उद्‌देशीने सारी रीते मनने स्थिर राखीने होम करवो ॥५१॥

अत्यन्त एकाग्र चित्तथी पुरुषे दूधपाक वगेरे भगवान्‌ प्रसन्न थाय तेवा गुणवाळा स्वादिष्ट नैवेद्य धरवा ॥५२॥

ज्ञानसम्पन्न आचार्यने वस्त्र, आभुषण अने गाय वगेरे आपी प्रसन्न करवा. तेवी ज रीते बीजा ब्राह्मणोनुं ऋत्विक तरीके वरण कर्युं होय तो एने पण प्रसन्न करवा. ए ज भगवाननुं मुख्य आराधन छे ॥५३॥

हे शुचिस्मिते! आचार्य तथा ऋत्विजो ने शुद्ध, सात्त्विक अने गुणयुकत भोजन कराववुं. बीजा ब्राह्मणो तथा अतिथिओ ने पण पोतानी शक्ति प्रमाणे जमाडवा ॥५४॥

आचार्य तथा ऋत्विक वगेरेने एना अधिकार अने आपणी शक्ति प्रमाणे दक्षिणा आपवी. त्यां आवेला माणसोमां चण्डाल पर्यतने अन्नादि भोजन आपी प्रसन्न करवा ॥५५॥

बधां भोजन करे तेमां गरीब, आन्धळां अने कृपण जे कोई आवे तेने भोजन कराववुं. एज विष्णुनी प्रसन्नतानुं सम्पादकछे एमजाणी गरीबोनेपण जमाडया पछी पोताना बान्धवोनी साथे भोजनकरवुं।५६। हम्मेशां भगवाननुं पूजन करवुं तेमां नाचवुं, गावुं, बजाववुं, स्तुति करवी, ब्राह्मणोद्वारा स्वस्ति वाचन करवुं अने हम्मेशां एमनी पूजा करवी तथा कथा साम्भळवी. आ नित्य कर्तव्य छे ॥५७॥

आनुं नाम पयोव्रत. आथी परम पुरुष भगवान्‌ प्रसन्न थाय छे. जे ब्रह्माजीए मने कह्युं हतुं ते में तने कह्युम् ॥५८॥

हे देवी! तुं भाग्यशाळी छे. तारी इन्द्रियो वश राखी शुद्धभाव अने श्रद्धापूर्ण चित्तथी आ व्रतनुं सारी रीते आचरण कर अने आ द्वारा अविनाशी भगवाननी अध्याय-१६,४०६ अष्टम स्कन्ध आराधना कर ॥५९॥

हे कल्याणी! आ व्रत भगवानने सन्तुष्ट करनारुं छे तेथी तेनुं नाम ‘सर्वयज्ञ’ अने ‘सर्वव्रत’ छे. आ समस्त तपस्याओनो सार अने मुख्य दान छे ॥६०॥

जेनाथी इन्द्रियथी पर एवा भगवान्‌ प्रसन्न थाय ते ज नियम ते ज उत्तम यज्ञ ते ज वास्तविक तप, दान, व्रत अने यज्ञ कहेवाय ॥६१॥

तस्मादेतद्‌व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धया चर। भगवान्परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥६२॥

माटे हे भद्रे! तुं आ व्रत संयमपूर्वक-श्रद्धापूर्वक कर. ए व्रत करवाथी भगवान्‌ प्रसन्न थशे अने तने इच्छित वरनुं तरत ज दान करशे ॥६२॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोकतनिर्वाह प्रकरणनो बीजो) ‘‘अदितिने दुःखी जोई एनुं दुःख मटाडवा कश्यपे पयोव्रतनो उपदेश कर्यो’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

अध्याय १७

अदितिना गर्भमां वामन भगवान्‌ पधार्या

विशेष - आ पयोव्रत करवाथी अदितिनी कामना पूर्ण करवामाटे भगवान्‌ पोते अदितिना पुत्र थया ए वात आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. इत्युक्ता सादिती राजन्स्वभर्त्रा कश्यपेन वै ॥ अन्वतिष्ठद्‌ व्रतमिदं द्वादशाहमतन्द्रिता ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - पोताना पति कश्यपे ए प्रमाणे कह्युं त्यारे हे राजन्‌!

ईं उं ईं उं

अध्याय-१७,अष्टम स्कन्ध ४०७ अदितिए सावधान थईने बार दिवसनुं पयोव्रत कर्युम् ॥१॥

एणे बुद्धिने सारथि बनाव्यो, इन्द्रियरूप दुष्ट अश्वनी लगाम हाथमां लीधी अने एकनिष्ठ बुद्धिथी ए महापुरुष ईश्वरनुं चिन्तन करवा लागी ॥२॥

एणे एकाग्र चित्तवडे अखिलना आत्मा वासुदेव भगवान्‌मां पोताना मनने स्थिर करीने पयोव्रत कर्युम् ॥३॥

एम करतां भगवान्‌ आदिपुरुष पीताम्बर धारण करी चार बाहुमां शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म सहित तेनी समक्ष प्रकट थया ॥४॥

पोतानां नेत्रोनी समक्ष भगवानने एकाएक प्रकट थयेला जोई अदिति आदरपूर्वक ऊभी थई गई अने प्रेमथी विह्‌वल थई जई एणे शरीरवडे आपने साष्टाङ्ग दण्डवत्‌ प्रणाम कर्या ॥५॥

प्रणाम करी हाथ जोडीने भगवाननी स्तुति करवाने तैयार थई छतां आनन्दनां अश्रुवडे नेत्र भराई जतां ए स्तुति पण करी शकी नहि तेथी चूप ऊभी रही. भगवाननां दर्शन थतां अत्यन्त आनन्दथी ए पुलक्ति थई गई अने एना शरीरने कम्प थई गयो ॥६॥

हे कुरूद्वह! ए अदिति देवी पछी प्रसन्न थईने गद्‌गद कण्ठे धीमे-धीमे भगवाननी स्तुति करवा लागी एटलुं ज नहि पण लक्ष्मीपति, जगतना पति अने यज्ञपति एवा भगवानने नेत्रवडे पान करती होय एम ए अधिक दर्शन करवा लागी ॥७॥

अदिति बोली - हे ईश्वर! आप यज्ञना स्वामी छो अने स्वयं यज्ञ पण आप ज छो, हे अच्युत! आपना चरणकमलोनो आश्रय करी लोको भव सागरने तरी जाय छे. आपना यशकीर्तननुं श्रवण पण संसारमान्थी तारनारुं छे. आपनां नामोना श्रवण मात्रथी ज आनन्द-मङ्गळ थई जाय छे. हे आदिपुरुष! जे आपने शरणे आवी जाय छे एनी बधी ज विपत्तिओनो आप नाश करी दो छो. हे भगवन्‌! आप दीन-हीनना स्वामी छो. आप अमारुं कल्याण करो ॥८॥

आप विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयनुं कारण छो. अने विश्वरूप पण आप ज छो. अनन्त होवा छतां इच्छावडे आप अनेक शक्ति अने गुणोनो स्वीकार करी लो छो. आप सदा आपना स्वरूपमां ज स्थिति करीने बिराजो छो. नित्य वधता पूर्ण ज्ञानथी आप हृदयना अन्धकारनो नाश करी दो छो एवा हे भगवन्‌! आपने मारां नमस्कार हो ॥९॥

अध्याय-१७,४०८ अष्टम स्कन्ध हे अनन्त! परम आयुष, सुन्दर शरीर, जेनी जोडी न मळे तेवी लक्ष्मी, स्वर्ग, पृथ्वी अने रसातळ, सकळ योगना गुणो, धर्म, अर्थ, काम अने ज्ञान ए बधुं प्रसन्न थयेला एवा आपथी ज प्राप्त थाय छे तो पछी शत्रुने जीतवो ए शुं आपनी पासे मागणी करवा योग्य वस्तु छे? ए तो आपना तरफथी वगर माग्ये मळी शके एम छे ॥१०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे अदितिए कमळनेत्र भगवाननी ए प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे समस्त प्राणीओना हृदयमां बिराजी तेमना अभिप्रायने जाणनार भगवाने, हे भारत! आ प्रमाणे कह्युम् ॥११॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे देवमाता अदिति! घणा दिवसनुं तमारुं हार्द में जाणी लीधुं छे; ते ए छे के तमारा शत्रुओए तमारुं स्थान लई एणे तमारी लक्ष्मी लई लीधी छे अने तमने स्वर्गथी दूर कर्या छे ॥१२॥

दुष्ट मदवाळा असुरोए जे लक्ष्मी जीती लीधी छे ते तमारा पुत्रो पाछी मेळवे अने तमे बधां पाछां स्वर्गमां साथे रहो एवी तमे इच्छा राखो छो ॥१३॥

जेमां इन्द्र सौथी मोटो छे तेवा तमारा देवपुत्रो सङ्ग्राममां असुरोने मारे तेओनी स्त्रीओ पतिना शबने लई रुदन करे अने दुःखी थाय एवुं जोवा तमे इच्छो छो ॥१४॥

अने तमारा पुत्रो लक्ष्मीने पाछी सम्पादन करीने सारी समृद्धिवाळा थाय एटलुं ज नहि पण स्वर्गमां बेसीने क्रीडा करे ए जोवाने तमे इच्छोछो ॥१५॥

घणुं करीने असुरोना नायको एवा ब्राह्मणोने ईश्वर अनुकूळ छे अने असुरो एमनी रक्षाथी सुख भोगवे छे तेथी हालमां लडवाथी तमे तेओने पहोञ्ची शकशो नहि. ज्यां सुधी काळनी अनुकूळता न होय त्यां सुधी पराक्रम करवाथी सुख मळतुं नथी ॥१६॥

तो पण हे देवी! तमे मने व्रतना आचरणथी सन्तोष आप्यो छे तेथी एनो उपाय मारे शोध्ये ज छूटको छे केमके जे मारी सेवा करे छे तेने ए सेवा एनी श्रद्धाने अनुकूळ होय एवुं फळ आपे छे ए कदापि व्यर्थ जती नथी ॥१७॥

तमे तमारा पुत्रोनी रक्षाने माटे ज विधिपूर्वक पयोव्रतथी मारी पूजा अने स्तुति कर्या छे. तेथी हुं अंशरूपथी कश्यपना वीर्यमां प्रवेश करी तमारो पुत्र बनीश अने तमारां सन्तानोनी रक्षा करीश ॥१८॥

अध्याय-१७,अष्टम स्कन्ध ४०९ हे भद्रे! तमे निर्दोष एवा तमारा माटे पतिने भजो, भक्तिवडे पतिमां मारी भावना करो; हुं सर्वमां ते-ते रूपे रहुं छुम् ॥१९॥

तमारे आ वात बीजा कोईने कहेवी नहि. देवगुह्य बाबत बहु छानी रहे तो ज सिद्धि मळे छे ॥२०॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - एवुं बोली भगवान्‌ त्यां ज अन्तर्धान थई गया. पोताना गर्भथी भगवाननो जन्म थवो ए वात दुर्लभ गणाय छतां ‘‘भगवान्‌ पधारशे’’ एम जाणी अदिति खुशी थयाम् ॥२१॥

एमणे पोताना आत्माने कृतकृत्य मान्यो अने पतिनी सेवा करवा लाग्यां. बधी वात कश्यप समाधिमां जाणी गया ॥२२॥

भगवाने पोताना आत्मामां प्रवेश कर्यो छे ए पोते पोताना सफळ ज्ञाननेत्रथी समाधिमां जोई शकया. एमणे समाधि करी अदितिमां स्ववीर्यने स्थापन कर्युं. हे राजन्‌! जेम सर्वत्र एवो समान वायु लाकडानुं परस्पर घर्षण थतां अग्निने जन्म आपे तेम भगवान्‌ सर्वत्र समान छतां असुरनो नाश करनार वामन भगवान्‌ कश्यपद्वारा अदितिना गर्भमां पधार्या ॥२३॥

अदितिना गर्भमां सनातन भगवान्‌ पधार्या छे ए वातने जाणीने ब्रह्माजी भगवाननां रहस्यमय नामोथी एमनी स्तुति करवा लाग्या ॥२४॥

त्वं वै प्रजानां स्थिरजङ्गमानां प्रजापतीनामसि सम्भविष्णुः ॥ दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ॥२८॥

ब्रह्माजीए कह्युं - मोटाओए जेमना गुण गाया छे तेवा हे भगवन्‌! मोटा पराक्रमवाळा आपने मारां नमस्कार हो. ब्राह्मणनुं हित करनार देवरूप, त्रण गुणवाळा आपने मारां नमन हो. व्यापक विष्णुरूपे आप पृश्निना गर्भमां आवेला छो, वेदना गर्भरूपे आप त्रण लोकनी उपर रहो छो, त्रण लोक आपनी मध्यमां रहे छे, पशुजीवोमां आप अन्तर्यामीरूपे वास करी रहेला छो तेवा आपने मारां नमस्कार हो. आप आ जगतनां आदि, मध्य अने अन्त मां रहो छो केमके आप अनन्त शक्तिओना पति पुरुषरूप छो. जेम पाणीनो मोटो प्रवाह अन्दर पडेला तृणने खेञ्चे छे तेम आप काळरूपे आ जगतने खेञ्चीने चालो छो. आप स्थावर अने जङ्गम, प्रजा तेमज एना पालकना उत्पादक छो. जेम नाव जळमां डूबताने बचावे छे तेम देवो जे स्वर्गथी भ्रष्ट थया छे तेओने आपनो ज आश्रय छे; तो आप अवतार अध्याय-१७,४१० अष्टम स्कन्ध धारण करी एओने पुनः पोतना स्थान उपर स्थापन करो ॥२५-२८॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन््‌धमां (त्रीजा स्वोक्त निर्वाह प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘अदितिना गर्भमां भगवान्‌ पधार्या’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध ३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं. (श्रीहरिरायजी)

अध्याय १८

वामन भगवान्‌ प्रकट थई बलिना यज्ञमां पधार्या

विशेष - ज्यारे कश्यपथी अदितिमां वामन भगवाननुं प्राकट्य थयुं त्यारे एमनी सर्व लोकोए स्तुति करी. भगवान्‌ प्रकट थईने बलिना यज्ञमां पधार्या. त्यां बलिए एमनो सत्कार कर्यो अने इच्छा होय ते मागो एम बलिए कह्युं; आटली वात आ अढारमां अध्यायमां आवे छे. इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम्‌ ॥ चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे ब्रह्माजीए जेनां कर्मो अने प्रताप नुं वर्णन कर्युं छे शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मरूपी आयुधोने पोताना श्रीहस्तमां धारण करनार चतुर्भुज भगवान्‌, जे मृत्यु जन्म रहित छे ते, स्वयं अदितिनी सामे प्रकट थया. कमलनां जेवां कोमल, विशाल अने सहेज लाल नेत्रो हतां. श्रीअङ्ग उपर पीताम्बर धारण कर्युं हतुम् ॥१॥

एमनी कान्ति श्याम अने शुद्ध हती, मकराकृत कुण्डलोनी कान्तिथी श्रीमुखकमळ शोभी रह्युं हतुं एमना वक्षःस्थळमां श्रीवत्सनुं चिह्‌न हतुं, श्रीहस्त उपर एमणे कडां अने बाजूबन्ध पहेर्या हतां, श्रीमस्तक उपर किरीट शोभी रह्यो हतो, कटिमां सुवर्णनो कन्दोरो अने चरणारविन्दमां सुन्दर नूपुर झगमगी रह्यां हताम् ॥२॥

कण्ठमां श्रीचरण सुधी लाम्बी वनमाळा लटकी रही हती अने ए उपर भमराओनो

ईं उं ईं उं

अध्याय-१८,अष्टम स्कन्ध ४११ समूह गुञ्जारव करी रह्यो हतो. भगवान्‌ पोतानी कान्तिवडे प्रजापति कश्यपजीना घरना अन्धकारने दूर करी रह्या हता, वळी पोते श्रीक्ण्ठमां कौस्तुभ मणिने धारण करी रह्या हता ॥३॥

ज्यारे श्रीवामनजीनुं प्राकट्य थयुं त्यारे दिशाओ निर्मल थई गई, जळाशय स्वच्छ थई गयां, प्रजानां हृदयमां आनन्दनो सागर उछाळा मारवा लाग्यो. बधी ऋतुओ पोतपोताना गुणने एकीसाथे प्रकट करवा लागी. स्वर्ग, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवो, गायो, ब्राह्मणो अने पर्वतो हर्षित थयाम् ॥४॥

भाद्रपद शुकल द्वादशीए श्रवण नक्षत्रमां मध्याह्‌न काळे श्रवण योगमां अने अभिजित मुहूर्तमां भगवान्‌ प्रकट थया. बधां नक्षत्र अने ताराओ भगवानना जन्मने मङ्गलमय सूचित करी रह्या हता ॥५॥

हे परीक्षित! जे तिथिए भगवाननो जन्म थयो हतो तेने ‘‘विजया द्वादशी’’ कहेवाय छे. जन्म समये सूर्य आकाशना मध्यभागमां स्थित हताम् ॥६॥

भगवानना अवतार समये शङ्ख, दुन्दुभि, मृदङ्ग, पणव, आनक वगेरे अनेक प्रकारनां बीजां वाजिन्त्रो अने तुरी वगेरे वाग्यां एनो मोटो घोष थयो ॥७॥

अप्सराओ प्रसन्न थई नाचवा लागी. श्रेष्ठ गन्धर्वो गावा लाग्या. मुनि, देवो, मनुओ, अग्निओ अने पितृओ स्तुति करवा लाग्या ॥८॥

सिद्धलोको, विद्याधरो, किम्पुरुषो, किन्नरो, चारणो, यक्षो, राक्षसो, पक्षी, मुख्यमुख्य नागगण अने देवताओ ना सेवको नाचवा, गावा तथा घणी-घणी प्रशंसा करवा लाग्या तथा तेमणे अदितिना आश्रमने फूलोना वरसादथी ढाङ्की दीधो ॥९-१०॥

पोताना गर्भथी पधारेला परम पुरुष परमात्माने जोई अदिति विस्मय पाम्यां अने बहु ज प्रसन्न थयां. प्रजापति कश्यपजी पोतानी योगमायावडे देहने धारण करता भगवानने जोईने विस्मय पाम्या अने ‘ज्य हो! ज्य हो!’ एम कहेवा लाग्या ॥११॥

जेनुं चैतन्य व्यकत नथी तेवुं भगवत्स्वरूप विभूषण अने आयुधोवडे शोभतुं हतुं. भगवाने जे वपु स्वीकार्युं हतुं ते श्रीअङ्गथी ज दिव्य गतिथी एटले जेम अद्‌भुत नट एक रूपमान्थी बीजुं रूप करी नाखे तेम, भगवाने बधाना देखतां ए ज रूपने बटु वामन ब्रह्मचारी रूपमां फेरवी नाखी सर्वने बताव्युम् ॥१२॥

अध्याय-१८,४१२ अष्टम स्कन्ध ए नानुं वामन-ब्रह्मचारीनुं रूप जोईने मोटा ऋषिओ आनन्द पाम्या. प्रजापति कश्यपने आगळ करीने ए बधा बटु वामन-ब्रह्मचारीना जातकर्मादि संस्कार कराववा लाग्या ॥१३॥

ज्यारे एमने यज्ञोपवीत आप्युं त्यारे सूर्ये गायत्रीनो उपदेश कर्यो, बृहस्पतिजीए जनोई आपी अने कश्यपे कटिमेखला आपी ॥१४॥

पृथ्वीए काळियार मृगनुं चर्म, वनस्पतिना पति चन्द्रे दण्ड आप्यो. माता अदितिए कौपीन अने कटिवस्त्र तथा आकाशना अभिमानी देवताए छत्र आप्युं ॥१५॥

अविनाशी प्रभुने ब्रह्माजीए कमण्डल, सप्तर्षिओए दर्भ आप्या अने हे महाराज! अव्यय भगवानने सरस्वतीए रुद्राक्षनी माळा आपी ॥१६॥

कुबेरे एमने भिक्षापात्र आप्युं अने उमा सती अम्बिकाए साक्षात्‌ भिक्षा आपी ॥१७॥

ब्रह्मर्षिओथी भरेली सभामां पोताना ब्रह्मतेजवडे श्रेष्ठ बटु भगवान्‌ सर्वथी

विशेष कान्तिथी शोभवा लाग्या ॥१८॥

कश्यपे प्रकट थयेल अग्निनुं आवाह्‌न करी एने सरखो कर्यो अने एनी पूजा करी समिधवडे होम कर्यो ॥१९॥

भृगुओना तेजथी वृद्धि पामेलो बलि अश्वमेधद्वारा हरिनुं भजन करे छे एम साम्भळी पगले-पगले पृथ्वीने नमावता ए वामनजी सर्वबळथी पूर्ण थईने त्यां पधार्या ॥२०॥

नर्मदाना उत्तर किनारा उपर भृगुकच्छ (भञ्च) नामनुं स्थान छे त्यां भृगुओ यज्ञ करावता हता त्यां, समीपमां ऊगता सूर्यने जुए तेम, समीपमां पधारता वामनजीने भृगुओए जोया ॥२१॥

हे राजन्‌! वामनजी त्यां पधारतां ऋत्विजो, यजमान, सदस्यो वगेरे बधा ज वामजीना तेज आगळ निस्तेज थई गया अने तेमने एम लाग्युं के आ यज्ञने जोवामाटे शुं सूर्य आवे छे के अग्नि आवे छे के सनत्कुमार आवे छे! ॥२२॥

एवी रीते पोताना शिष्यो साथे भृगुना पुत्र शुक्राचार्यजी वगेरे अनेक प्रकारे कल्पना करता हता त्यां तो दण्डयुकत, छत्र अने जळपूर्ण कमण्डलने धारण करता वामनजी अश्वमेध यज्ञना मण्डपनी भूमि उपर आवी पहोञ्च्या ॥२३॥

अध्याय-१८,अष्टम स्कन्ध ४१३ एमणे मुञ्जनी मेखला पहेरी हती अने जनोईनी पेठे मृगचर्म धारण कर्युं हतुं. मायावडे मनुष्यबाळक जेवा देखाता वामनजी जटाधारी अने विप्ररूप हरि त्यां पधार्या ॥२४॥

जेवो वामनजीए त्यां प्रवेश कर्यो के शिष्य सहित भृगुओ अने एना आराध्य अग्निओ एमना तेजथी पराभूत थई एमनो सत्कार करवा लाग्या ॥२५॥

एमनुं दर्शनीय अने मनोहर सौष्ठववाळुं स्वरूप जोई यजमाननो आनन्द थयो अने एणे एमने बेसवाने आसन आप्युम् ॥२६॥

बलि राजाए एमनुं वाणीथी स्वागत कर्युं एमनां चरण धोईने आसक्ति रहित महापुरुषोना मनने पण भावता भगवाननुं अर्चन कर्युम् ॥२७॥

ए चरणक्षालननुं जळ लोकना पापने टाळनारुं तेम ज सुमङ्गळ छे एम जाणी एना माहात्म्यने जाणनार बलिए एने पोताना मस्तक उपर धारण कर्युं, जेने देवना भगवान्‌ शिवजी के जेमना मुकुटमां चन्द्र वास करे छे तेमणे परम भक्तिवडे पोताना मस्तक उपर धारण कर्युं हतुम् ॥२८॥

बलिराजाए कह्युं - हे ब्राह्मण कुमार! आप भले पधार्या. आपने हुं नमस्कार करुं छुं. आज्ञा करो. हुं आपनी शी सेवा करुं? आर्य! एवुं लागे छे के मोटा-मोटा ब्रह्मर्षिओनी तपस्या ज साक्षात्‌ मूर्तिमान थईने मारी सामे आवी छे ॥२९॥

आजे आपनां पवित्र पगलां अमारा घरोमां थवाथी मारा पितृ तृप्त थई गया. आज मारो वंश पवित्र थई गयो. आजे मारो आ यज्ञ सफल थई गयो ॥३०॥

हे ब्राह्मण कुमार! आपना चरण पखाळवाथी मारां बधांय पाप नाश पाम्यां छे अने विधिपूर्वक यज्ञ करवाथी, अग्निमां आहुति आपवाथी जे फळ मळत ते अनायास ज मळी गयुं. आपना आ चरणो अने एना प्रक्षालनथी पृथ्वी पवित्र थई गई ॥३१॥

यद्‌ यद्‌ बटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये ।१। गां काञ्चनं गुणवद्‌ धाम मृष्टं तथान्नपेयमुत वा विप्र कन्याम्‌। ग्रामान्‌ समृद्धान्‌तुरगान्‌ गजान्‌ वा रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ ॥३२॥

हे ब्राह्मण कुमार! एवुं लागे छे के आपने कंईक जोईए छे. परम पूज्य ब्रह्मचारीजी! घर, पवित्र अन्न, पीवानी वस्तु, विवाहमाटे ब्राह्मणनी आपने जे जोईए-गाय, सोनुं, भर्युं भादर्युं, (सुसज्जित) कन्या, सम्पत्तिओथी छलकातां अध्याय-१८,४१४ अष्टम स्कन्ध गाम, घोडा, हाथी, रथ ए बधुं ज आप मारी पासे मागवानी कृपा करो ॥३२॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोक्तनिर्वाह प्रकरणनो चोथो) ‘‘वामन भगवान्‌ प्रकट थई बलिना यज्ञमां पधार्या’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिभक्तिने लजावीए छीए जोद्ग अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी) देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए

अध्याय १९

वामनजीनी मागणी बलिए स्वीकारी

विशेष - भगवाने त्रण पगलां पृथ्वी बलि पासे मागीः बलि आपवा कबूल थयो ए वात जाणी शुक्राचार्य ‘‘आ तारा शत्रु अने देवना पक्षपाती भगवान्‌ छे ए त्रण पदमां तारुं सर्व लई लेशे माटे वचन जाय पण ए दान न आपवुं एम समजावे छे; एटली वात आ ओगणीसमां अध्यायमां कहेवामां आवे छे. इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं ससूनृतम्‌ ॥ निशम्य भगवान्‌ प्रीतः प्रतिन्नधेदमब्रवीत्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे विरोचनना पुत्र बलिराजा धर्मभावथी भरेलां, सत्य अने मधुर वचनो साम्भळी भगवान्‌ वामनजी प्रसन्न थया अने एनां वखाण करता आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१॥

श्रीभगवाने क्ह्युं - हे राजन्‌! आपे जे कंई कह्युं ते आपनी कुल परम्पराने अनुरूप, धर्मयुकत, यशने वधारनारुं अने अत्यन्त मधुर छे. केम न होय? परलोक हितकारी धर्मनी बाबतमां आप भृगुपुत्र शुक्राचार्यजीने परम प्रमाण मानो छो. तदुपरान्त पोताना कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्‌लादजीनी आज्ञा पण एटली ज अदबपूर्वक मानो छो ॥२॥

आपनी कुलपरम्परामां कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कयारेय थयो ज नथी.

ईं उं ईं उं

अध्याय-१९,अष्टम स्कन्ध ४१५ एवो पण कोई नथी थयो जेणे ब्राह्मणने कयारेय दान न आप्युं होय अथवा जेणे एकवार कोईने कंई आपवानी प्रतिज्ञा करी होय अने पछी फरी गयो होय ॥३॥

दान आपवानो समय आवे के युद्धनो समय आवे त्यारे पाछी पानी करे तेवो कोई तमारा कुळवाळो नथी तेमज ‘‘हुं पराधीन छुं’’ एवुं कहेनार पण तमारा कुळमां कोई जन्म्यो नथी. जेम आकाशमां चन्द्र शोभे तेम तमारा कुळमां स्वच्छ यशवाळा प्रह्‌लादजी शोभी रह्या छे ॥४॥

आपना कुळमां ज हिरण्याक्ष थयो हतो अने दिग्विजय करवा ए एकलो गदा लईने आखी पृथ्वीमां फर्यो पण एने सामे लडनार कोई मळ्यो नहि ॥५॥

पृथ्वीनो उद्धार करवा ज्यारे विष्णु गया त्यारे त्यां हिरण्याक्ष एने युद्ध करवा मळ्यो. जो के एने भगवाने जीत्यो खरो पण एना पराक्रमनुं स्मरण करतां विष्णु पण ‘‘हुं बहु बळवान छुं’’ एवुं मानता न हता ॥६॥

भगवाने हिरण्याक्षने मार्यो एम ज्यारे हिरण्यकशिपुए साम्भळ्युं त्यारे पोताना भाईना वध करनारने मारवा ए क्रोधे भरायो अने भगवान्‌ पासे एमना निवास स्थाने (वैकुण्ठमां) पहोञ्ची गयो ॥७॥

काळनी पेठे हाथमां शूळ लईने एने आवतो जोई मायावीमां श्रेष्ठ एवा विष्णु काळने जाणनार होवाथी विचारमां पडी गया अने कहेवा लाग्या के ‘‘ज्यां-ज्यां हुं जईश त्यां-त्यां, जेम काळ मनुष्यने पहोञ्चे तेम, आ मने आवी पहोञ्चशे माटे लाव, हुं एना हृदयमां ज पेसी जाउं, जेथी ए बहार जोनार होई अन्दर रहेला मने जोई शके नहि’’ हे असुरश्रेष्ठ! एम निश्चय करी दोडता आवता शत्रुना शरीरमां विष्णु श्वासवायुमां देहने मेळवीने प्राणवायुना छिद्रने मार्गे दया करीने हृदयमां पेसी गया ॥८ थी १०॥

ज्यारे एणे भगवद्‌धाममां भगवानने जोया नहि त्यारे ए दैत्य मोटी गर्जना करवा लाग्यो अने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशाओ, आकाश, पाताल अने समुद्रमां शोध करतां पण ए विष्णुने जोई शक्यो नहि त्यारे ए बोल्यो के ‘‘में आखुं जगत जोयुं पण मारा भाईने मारनार न मळ्यो एटले ज्यान्थी पुरुष पाछो आवी शकतो नथी त्यां ए पहोञ्च्यो लागे छे’’ ॥११-१२॥

हवे एनी सामे वेर चालु राखवानुं कोई कारण नथी. अज्ञानथी उत्पन्न थयेलो अने हुं पणाथी वधेलो क्रोध मनुष्यने मृत्यु सुधी जतो नथी. ज्यां सुधी एने ज्ञान अध्याय-१९,४१६ अष्टम स्कन्ध थयुं नथी त्यां सुधी जाय तो ए कायर निर्माल्य गणाय छे ॥१३॥

वळी प्रह्‌लादना पुत्र अने आपना पिता विरोचने ब्राह्मणनो वेश करी आवेला देवोनुं कपट पोते जाणता हता छतां ब्राह्मणमां भक्ति होईने तेमना मागवाथी पोतानुं आयुष्य आपी दीधुम् ॥१४॥

आप पण ए ज धर्मनुं आचरण करो छो, जेनुं शुक्राचार्य वगेरे गृहस्थ ब्राह्मण, आपना पूर्वज प्रह्‌लाद अने यशस्वी वीरोए कर्युं छे ॥१५॥

तमे वरदान आपनारमां श्रेष्ठ छो तेथी मारा पगलाथी मपाय तेवां त्रण पगलां जेटली थोडी पृथ्वीनी हुं तमारी पासे याचना करुं छुं. जो तमे मने इच्छित आपवाने तैयार हो तो एटली जमीन तमारी पासेथी लेवाने हुं इच्छुं छुम् ॥१६॥

आप तो जगतना स्वामी अने महान दाता छो छतां हुं आपनी पासेथी वधारे लेवा नथी मागतो. हे राजन्‌! विद्वान माणस जेटलुं जरूरी होय तेटलुं ज दान ले तो ते-ते प्रतिग्रहथी थता पापथी बची जाय छे ॥१७॥

बलि राजाए कह्युं - हे ब्राह्मण कुमार! आपनी वातो तो वृद्धोना मुखमां शोभे एवी छे परन्तु आपनी बुद्धि हजु बाळकनी बुद्धि जेवी ज छे. हजु आप छो पण बाळक ज ने! अने तेथी पोताना लाभ-हानिनो ख्याल न ज होय ॥१८॥

हुं त्रणेय लोकनो एक मात्र अधिपति छुं अने खण्डना खण्ड आपी शकुं तेम छुं. मने जे पोतानी वाणीथी प्रसन्न करी ले अने मारी पासे मात्र त्रण डगलां भूमि मागे ते पण बुद्धिमान कही शकाय नहि ॥१९॥

मारी पासे पुरुष एक वखत मागे तेने फरीने बीजानी पासे मागणी करवानी न होय. माटे हे बटुक! आपना कुळनी आजीविका चाले तेटली जमीन-जागीर आप मारी पासेथी मागी लो ॥२०॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे नृप! आ त्रिलोकीमां प्रीति करावनारा जेटला विषयो छे ते अजितेन्द्रियने सन्तोष आपवाने समर्थ थता नथी. त्रण डगलां पृथ्वीथी सन्तुष्ट न थयो तेने नव खण्डवाळो आखो द्वीप आपो तो पण ए सन्तुष्ट नहि थाय; एवे वखते एने श्रेष्ठ सात द्वीप मेळववानी इच्छा थशे ॥२१-२२॥

में साम्भळ्युं छे के पृथु, गय आदि राजाओ सातेय द्वीपोना अधिपति हता; परन्तु एटलुं धन अने भोग नी सामग्री मळवा छतां तेओ तृष्णानो पार पामी अध्याय-१९,अष्टम स्कन्ध ४१७ शकया नहोता ॥२३॥

माटे भगवदिच्छाथी जे मळे तेमां ज सन्तोष माने ए ज सुखमां रही शके छे. जेने मन वश नथी तेवा असन्तोषीने त्रण लोकनुं राज्य मळे तो पण एटलाथी एने सन्तोष थतो नथी ते पछी एने सुख तो कयान्थी ज मळे? एथी एटलुं मळतां पण ए दुःखी रहे छे ॥२४॥

धन अने भोगमां सन्तोष न होवो ए ज जीवना जन्म-मृत्युना चक्करमां पडवानुं कारण छे. जे मळ्युं तेमां सन्तोष माननार ज मुक्तिने मेळवी शके छे ॥२५॥

दैवेच्छाथी जे कंई मळ्युं एमां सन्तोष माननार ब्राह्मणनुं तेज वधे छे. असन्तोषथी तो जलथी जेम अग्नि बुझाई जाय तेम असन्तोषथी ब्रह्मतेज नाश पामे छे माटे हुं तो, जो के तमे वरदान आपनारमां उत्तम छो छतां तमारी पासेथी, त्रण पगलां पृथ्वी ज मागुं छुं. एटलाथी ज हुं सिद्ध थई जईश केमके द्रव्य तो मात्र प्रयोजन पूरतुं ज होवुं जोईए ॥२६-२७॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे बटुके ए प्रमाणे कह्युं त्यारे बलि हसी पड्या अने तेमणे कह्युं ‘‘जेवी तमारी इच्छा! तमारे एटलुं ज पूरतुं होय तो एटलुं लो’’ एम बोली एणे वामनजीने पृथ्वी आपवा सङ्कल्प करवामाटे जळपात्र लीधुम् ॥२८॥

वामनजीने पृथ्वी आपवाना निश्चय उपर राजा बलि आव्या छे एम जाणी विद्वानोमां श्रेष्ठ एवा शुक्राचार्यजी पोताना शिष्य बलि राजाने विष्णुनी शी इच्छा छे ए कहेवा लाग्या ॥२९॥

शुक्रचार्यजी बोल्या - हे विरोचन कुमार! आ साक्षात्‌ भगवान्‌ निर्विकार विष्णु छे. ए देवोनुं कार्य सिद्ध करवाने अदितिनी प्रार्थनाथी कश्यपने घेर प्रकट थया छे ॥३०॥

वस्तुने जाण्या वगर आपवाने तमे कबूल थया छो ए तमे ठीक कर्युं नथी. आने आपवाथी दैत्योने मोटो अन्याय मळशे ॥३१॥

आ हरि भगवान्‌ मायावडे छोकरा जेवा देखाय छे. ए तारुं स्थान ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज अने यश बधुं ज तारी पासेथी लईने इन्द्रने आपशे ॥३२॥

आ पोतानी कायाने विश्वरूप बनावशे अने त्रण पगलान्थी त्रण लोकने लई लेशे. आम थशे तो विष्णुने सर्वस्व आपी दईने हे मूढ! तुं केवीरीते पोषण करीश? अध्याय-१९,४१८ अष्टम स्कन्ध आ वात विचारवा जेवीछे ॥३३॥

ए पोताना एक पगलाथी आखी पृथ्वी लई लेशे, बीजा पगलाथी स्वर्गने अने कायावडे आकाशने लई लेशे ते पछी त्रीजुं पगलुं देवानुं तारी पासे शुं रहेशे, जेथी एने आपी तुं तारी प्रतिज्ञा पूर्ण करी शके? ॥३४॥

जो तुं नहि आपी शके तो कबूलेल नहि आपवाथी तारी स्थिति नरकमां थशे केमके सङ्कल्पित वस्तु तुं आपी शकयो नहि होय ॥३५॥

जे दान देतां पोतानी आजीविकाने हानि पहोञ्चे तेवुं दान लोकमां वखणातुं नथी. लोकमां पण जेने पोतानुं पेट भरवानी शक्ति होय छे तेने माटे दान, यज्ञ, तप अने परोपकारनां कार्यो वगेरे करवानी शास्त्रोनी आज्ञा छे ॥३६॥

धर्मने माटे, यशने माटे, अर्थने माटे, कामने माटे अने पोताना माणसोने माटे एम द्रव्यना पाञ्च भाग पाडी जो माणस भोगवे तो ए आ लोक तेमज परलोकमां सुखी गणाय छे ॥३७॥

ज्यारे वृत्तिमां सङ्कट आवे त्यारे खोटुं बोलवानुं पण शास्त्रमां कह्युं छे. वेद जाणनाराओए सत्य अने अनृतनो निर्णय कर्यो छे. ॐ एटले ‘हा’ कहेवी, स्वीकारवुं ए सत्य, नकार कहेवो, ‘ना’ पाडवी ए असत्य-अनृत. १अर्ही सत्यनी स्तुति करी छे अने अनृतनी निन्दा करी छे. पछी ‘‘पराग्वा रिक्तमक्षरम्‌’’२ मन्त्रथी सत्यमां दोष कह्यो अने अनृतमां गुण कह्यो छे. पछी ‘‘तस्मात्‌ कालएव दद्यात्‌ काले न दद्यात्‌ तत्सत्यानृते मिथुनीकरोति’’ ए सत्य पण थोडुङ्क खोटुं न होय तो सिद्ध थतुं नथी. कहे छे के सत्य ए पुष्पफळ छे अने अनृत ए देहनुं मूळ छे कारण के सत्य एटले देहनो निर्वाह थाय छे. देह होय तो वाणी बोली शकाय तेथी अनृत ए देहवृक्ष छे अने सत्य बोलवुं ए देहमान्थी नीकळेली वाणीरूप पुष्प छे. जो देहरूपी वृक्ष पडी जाय तो सत्यरूपी वाणी तो एमान्थी उद्‌भवेली होवाथी नष्ट थाय ज कारण देहनुं मूळ तो असत्य छे ॥३८-३९॥

विशेष - १. आ विषयमां प्रस्तुत श्रुति छे ः‘‘सत्यमोमिति यत्प्रोकतं यन्ने त्याहानृतं हि तत्‌’’ कोईने कंई आपवा सम्मत थवुं ते सत्य अने आपवानी ना पाडवी ते असत्य (अनृत).
२. अर्ही प्रस्तुत श्रुति छे ः‘‘पराग्‌ रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत्‌ तदोमिति’’ ‘‘हा! हुं आपीश’’ आ वाक्य ज धनने दूर करी देनारुं छे तेथी तेनो उच्चार ज अपूर्ण अर्थात्‌ अध्याय-१९,अष्टम स्कन्ध ४१९ धनविहोणो बनावी देनार छे’’ जे आम कहे छे तेनुं धन चाल्युं जायछे. माटे जेम वृक्ष ऊखडी जाय तो पत्र-पुष्प सुकाई जाय तेम अनृत गयुं एटले देह गयो अने देह गयो एटले सत्य पण गयुं ज; तेथी खोटुं बोले ते देहने प्रकट करे छे. तेथी सङ्कटमां अनृतवडे आत्माने बचाववो ॥४०॥

तेथी ‘ॐ’ ए अक्षर पराक्‌-बहार लई जनार अर्थ छे, खाली अर्थ छे, अपूर्णता करनार ए अक्षर छे जेथी मागनारने ॐ कही कबूल करे छे तेना घरमान्थी प्रतिश्रुत अर्थ चाल्यो जाय छे एटले अंशे ए खाली थाय छे. भिक्षुकने बधुं आपवानुं कहेनार पोताना देहनी कामना पूर्ण करवाने समर्थ थतो नथी ॥४१॥

वळी नथी एम कहेनारनुं ए वचन पूर्ण छे, आत्मानी प्रत्ये बीजाना अर्थने खेञ्चनार छे; परन्तु ए बधामां नकार कहेनारनी कीर्ति नष्ट थाय छे. परन्तु एमां ए जीवते मरेला जेवो छे. एथी सर्वमां ना न कहेवी पण सङ्कटमां ना कहेवाने वान्धो नथी ॥४२॥

स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसङ्कटे ॥ गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जाृगुप्सितम्‌ ॥४३॥

स्त्रीओनी पासे, विवाहमां, मश्करीमां, पोतानी आजीविका नष्ट थती होय तेवा वखतमां, प्राण बचाववानो समय होय त्यारे, गाय अने ब्राह्मणनी कयांय हिंसा थती होय तेवा समयमां, खोटुं बोलवुं ए निन्द्य गणातुं नथी ॥४३॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोक्त निर्वाह प्रकरणमां पाञ्चमो) ‘‘वामनजीनी मागणी बलिए स्वीकारी’’ नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो.(श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

ईं उं ईं उं

अध्याय-१९,४२० अष्टम स्कन्ध

अध्याय २०

वामनजीनुं स्वरूप मोटुं थयुं

विशेष - भगवान्‌ कपट करीने मारी पासे मागवा आव्या छे पण में कबूल कर्युं ए आप्या वगर केम चाले एम भीति लागवाथी बलि राजाए त्रण पगलां पृथ्वी आपी के भगवान्‌ वधवा लाग्याः ए वात आ वीसमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. बलि रेवं गृहपतिः कुलाचार्येण भाषितः ॥ तूर्ष्णी भूत्वा क्षणं राजन्‌ उवाचावहितो गुरुम्‌ ॥१॥

श्रीशुक बोल्या - ज्यारे कुलाचार्य शुक्राचार्ये कह्युं के आ विष्णु छे अने एने आपवामां अनर्थ थशे त्यारे ए साम्भळी आदर्श गृहस्थ बलिराजाक्षणभरचूप थईगयाअनेपछी सावधान थई गुरुने कहेवालाग्या ॥१॥

बलिराजाए कह्युं - हे भगवन्‌! आपे गृहस्थनो धर्म समजाव्यो ए बराबर छे. ए धर्म अनुसार अर्थ, काम, यश अने पोतानी आजीविकाने कशी पण अडचण आववी जोईए नहि ॥२॥

परन्तु हे गुरुदेव! हुं प्रह्‌लादजीनो पौत्र छुं अने आपवानी प्रतिज्ञा एकवार करी चूक्यो छुं तेथी हुं धनना लोभथी ठगनी जेम आ ब्राह्मणने शी रीते कहुं के ‘‘हुं तमने नहि आपुं’’ ॥३॥

आ पृथ्वीए कह्युं छे के असत्यथी मोटो बीजो कोई अधर्म नथी. हुं बधानो भार सहन करी शकुं छुं पण खोटुं बोलवानो भार माराथी सहन थई शक्तो नथी॥४॥

हुं नरकथी, दरिद्रताथी, दुःखना समुद्रथी, मारा राज्यना नाशथी अने मृत्युथी डरतो नथी पण ब्राह्मण आगळ आपवानी प्रतिज्ञा करी पछी एने न आपीने विश्वासघात करवाथी डरुञ्छुम् ॥५॥

मरनारनी साथे धन जतुं नथी, धन तो एने छोडीने अर्ही ज रहे छे. एवा धनने आपणा हाथे ज कोईने आपी दईए तो एमां शुं खोटुं? थोडुं आपीए अने थोडुं राखीए एवुं करवाथी पण जो ब्राह्मण प्रसन्न न थाय तो आप्यानुं फळ कंई नहि माटे आपवुं तो ए प्रसन्न थाय तेटलुं आपवुं. सज्जनो तो जे प्राण छोडी शकातो नथी तेवो प्राण आपीने पण प्राणीनुं भलुं करे छे. दधीचि मुनि, शिबि राजा वगेरेए पोताना प्राण आपीने पण प्राणीओनुं भलुं कर्युं छे तो पछी पृथ्वी वगेरेना अध्याय-२०,अष्टम स्कन्ध ४२१ दानमां विचार वळी शुं करवानो? ॥६-७॥

रणमान्थी पाछा नहि फरतां दैत्येन्द्रोए आ पृथ्वी भोगवी. भले ए भोगकाळ चाल्यो गयो होय पण हजु एनी कीर्ति तो अमर छे; माटे आपणे पण कीर्तिनुं स्थान करवुं. आपणो पण भोगकाळ नष्ट थशे ॥८॥

हे विप्रर्षे! प्राण आपनार अने एमान्थी पाछा न आवनार योद्धा सुलभ छे पण पात्र आवे तेने माटे श्रद्धाथी धन आपनार मळवा दुर्लभ छे ॥९॥

दयावाळा अने उदार पुरुषनी कुपात्र याचकनी कामना पूर्ण करतां कदाच दरिद्रता आवे तो ए पण ठीक गणाय त्यारे आपणा जेवा वेदने जाणनार ब्राह्मणने आपतां कदाच दरिद्रता आवे तो केम ठीक न गणाय? माटे आ ब्राह्मणने एनी इच्छानुसार आपवा हुं तैयार छुम् ॥१०॥

हे मुने! वेदविधिमां निपुण एवा आप यज्ञ, याग आदि वडे आदरपूर्वक जेनुं आराधन करो छो ते आ विष्णु होय के शत्रु होय एमने एमणे माग्युं छे ए प्रमाणे पृथ्वी आपीश ॥११॥

एम करतां आ विष्णु कदाच मने निरपराधीने बान्धीने केद करशे तो पण ब्राह्मणनुं ज शरीर धारण करीने आवेला शत्रुने ब्राह्मणना अपमानना भयथी हुं मारीश नहि. आ विष्णु उत्तम कीर्तिवाळा छे. ए जो पोतानी कीर्तिनो त्याग न करे तो कान्तो ए मने मारीने पृथ्वी लई ले. ए जो विष्णु न होय तो ए मारा हाथथी मरत. जो हुं मरत तो ए पृथ्वीनो राजा थात अने हुं एने मारत तो राज्यनी सत्ता मारी रहेत ॥१२-१३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे शुक्राचार्यजीए जोयुं के मारो आ शिष्य गुरु प्रत्ये अश्रद्धाळु छे तथा मारी आज्ञानुं उल्लङ्घन करी रह्यो छे त्यारे दैवनी प्रेरणाथी तेमने राजा बलिने शाप आपी दीधो, जो के एकवचनी अने उदार होवाने लीधे शापने योग्य न हता ॥१४॥

‘‘तुं अभिमानथी मारा वचननी उपेक्षा करे छे, वळी अज्ञानी छतां तारा मनथी तुं पोताने बहु मोटो पडिन्त मानी बेठो छे, वळी ते मारी आज्ञानो भङ्ग कर्यो छे, आथी तुं तरत ज राज्यलक्ष्मीथी भ्रष्ट थईश’’ ॥१५॥

जो के शुक्राचार्ये आ प्रमाणे बलि राजाने शाप आप्यो तो पण ए अति उदार होवाथी सत्यथी चलित थया नहि. एमणे वामनजीनी पूजा करी अने एना हाथमां अध्याय-२०,४२२ अष्टम स्कन्ध जल लई पृथ्वी दाननो सङ्कल्प कर्यो ॥१६॥

मोतीनां आभरण पहेरीने तथा जाळीवाळां कपडान्नो पडदो राखीने बलि राजानी स्त्री त्यां आवी अने पग धोवामाटे जळथी भरेली सोनानी झारी लावी ॥१७॥

बलिए एमनां बन्ने चरण पखाळ्यां अने जगतने पवित्र करनार ए चरणक्षालननुं जळ पोताना मस्तक उपर चडाव्युम् ॥१८॥

त्यारे आकाशमां देवो, सिद्धो, विद्याधरो अने चारणोए बलिराजाना ए कर्मनां तथा एनी सरळतानां वखाण कर्या अने हर्षमां आवी तेओ पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या ॥१९॥

एकी साथे हजारोनी सङ्ख्यामां देवोनां दुन्दुभि वारंवार वागवा लाग्यां. गन्धर्वो, किम्पुरुषो अने किन्नरो गावा लाग्या, ‘‘अहो धन्य छे! आ उदार शिरोमणि बलिए एवुं काम करी बताव्युं जे बीजाने माटे अत्यन्त कठिन छे. जुओ तो खरा एमणे जाणीबूजीने पोताना शत्रुने त्रणेय लोकोनुं दान करी दीधुं’’ एम कही देवोए एनी वाहवाह करी ॥२०॥

अनन्त एवा भगवान्‌ हरिनुं ए त्रिगुणात्मक वामनरूप वधवा लाग्युं. ए एटले सुधी वध्युं के पृथ्वी, आकाश, दिशाओ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, ऋषि-बधा ज ए स्वरूपमां समाई गया ॥२१॥

ऋत्विज, आचार्य अने सदस्य साथे बलिराजाए समस्त ऐश्वर्योना एकमात्र स्वामी भगवानना ए त्रिगुणात्मक शरीरमां पाञ्च भूतो, इन्द्रियो एनां विषयो, अन्तःकरण अने जीवो साथे आ सम्पूर्ण त्रिगुणमय विश्वने जोयुम् ॥२२॥

त्यारबाद परमैश्वर्यवाळी सेनावाळा बलिराजाए भगवानना चरणतलमां पाताळ, बे चरणमां पृथ्वी, जङ्घामां पर्वतो, गोठणमां पक्षीओ अने बे साथळमां मरुद्‌गणो जोया ॥२३॥

वस्त्रमां सन्ध्याकाळ, गुह्यभागमां प्रजापतिओ, जघनमां दैत्यो, नाभिमां आकाश, उदरमां सात समुद्रो अने भगवान्‌ उरुक्रमनी छातीमां नक्षत्र पक्‌तिं जोई ॥२४॥

हे राजन्‌! हृदयमां धर्म, स्तन भागमां ऋतु (मधुर अने सत्य वाणी), मनमां चन्द्र, वक्षःस्थळमां हाथमां कमळवाळां लक्ष्मीजी, कण्ठमां सामगान तथा सम्पूर्ण शब्द समूह जोया ॥२५॥

हाथमां इन्द्रादि देवो, कानमां दिशाओ मस्तकमां स्वर्गलोक, केशमां मेघो, नासिकामां अध्याय-२०,अष्टम स्कन्ध ४२३ वायु, नेत्रमां सूर्य, मुखमां अग्नि ॥२६॥

वाणीमां वेदो, जीभमां वरुण, भ्रूकुटीमां विधि-निषेध, पाम्पणोमां रात-दिवस, ललाटमां क्रोध, नीचला होठमां लोभ ॥२७॥

स्पर्शमां काम, वीर्यमां जळ, पीठमां अधर्म, पगनी गतिमां यज्ञ, छायामां मृत्यु, हास्यमां माया, रोममां सर्व जातनी औषधिओ ॥२८॥

नाडीमां नदीओ, नखमां शिलाओ, बुद्धिमां ब्रह्मा, देव तथा ऋषिओ जोया. ए ज प्रमाणे वीरवर बलीए भगवाननी इन्द्रियो अने शरीरमां बधां चराचर प्राणीओनां दर्शन कर्याम् ॥२९॥

हे राजन्‌! सर्वात्मा भगवान्‌मां आ सर्व जगतने जोईने सर्व असुरो भयभीत थई गयां. ए ज वखते असह्य तेजवाळुं सुदर्शन चक्र अने मेघना जेवुं गम्भीर टङ्कार करतुं शांर्ग नामनुं धनुष्य जोयुम् ॥३०॥

वादळना जेवो गम्भीर शब्द करतो पाञ्चजन्य शङ्ख, अत्यन्त वेगवाळी कौमोदकी गदा, सो चन्द्राकार चिह्‌नवाळी ढाल, विद्याधर नामनी तलवार, अक्षय बाणवाळा बे उत्तम भाथा वगेरे जोया ॥३१॥

भगवाननी सभामां बेसनारा पार्षदो सुनन्द मुख्य छे. तेओ लोकपालोनी साथे भगवाननी सेवाकरवा माटे उपस्थित थई गया. ए समये देदीप्यमान किरीट, बाजूबन्ध, मच्छाकृति कुण्डल, श्रीवत्स, कौस्तुभ, रत्नयुकत मेखला अने वस्त्रोथी भगवान्‌ शोभी रह्या छे ॥३२॥

पदं द्वितीय क्रमतस्त्रिविष्टपं न वै तृतीयाय तदीयमण्वपि ॥ उरुक्रमस्यान्ध्रिरुपर्यु पर्यथो महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः ॥३४॥

जेनी आसपास भमराओ गुञ्जी रह्या छे तेवी पाञ्च प्रकारना फूलोनी बनेली वनमालावडे भगवान्‌ शोभे छे. एणे एक पगलाथी बलिनी बधी भूमिने, शरीरथी आकाशने अने भुजाओथी दिशाओने अने बीजा पगलामां स्वर्गने लई लीधुं त्यारे त्रीजुं पगलुं मूकवामाटे बलिनी जरा जेटली कोई चीज बची नहि. उरुक्रम भगवाननो आ बीजो चरण उपर चढतां महर्लोक, जनलोक अने तपलोकथी पण उपर सत्यलोकमां पहोञ्ची गयो ॥३३-३४॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोकत निर्वाह प्रकरणमां छठ्ठो) ‘‘वामनजीनुं स्वरूप मोटुं थयुं’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अध्याय-२०,४२४ अष्टम स्कन्ध

अध्याय २१

सङ्कल्प प्रमाणे पृथ्वी बलिराजा न आपी शक्या तेथी भगवाने एने बान्ध्या

विशेष - पूरां त्रण पगलां पृथ्वी न आपी शकयो एवा बहानान्थी भगवाने बलिराजाने बान्ध्यो. एमां विष्णुने एनो उत्कर्ष प्रसिद्ध करवो ए ज उद्‌देश छे. आ कथा आ अध्यायमाञ्छे. सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभिर्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात्‌ ॥ मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्‌व्रताः सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याः हे नरदेव! मरीचि वगेरे मुनिओ, ब्रह्मचर्य राखनार सनन्द आदि सिद्धो तथा योगीओनी साथे ब्रह्माजी ए भगवानना नखनी कान्तिवडे पोतानी स्थाननी कान्तिने हणती सत्यलोक सुधी आवेल जोईने त्यां आवी पहोञ्च्या ॥१॥

वेदो, उपवेदो, नियमो, यमो, तर्क, इतिहास, वेदनां छ अङ्गो, पुराणो, संहिताए-जे ब्रह्मलोकमा, मूर्तिमान थईने निवास करे छे-तथा जेमणे योगरूप वायुथी ज्ञानाग्निने प्रज्वलित करी कर्मफलने भस्म करी नाख्यां छे ते महात्मा, बधाए भगवानना चरणने वन्दन कर्युं. कर्मथी न मळी शके तेवा ब्रह्मलोकमां जेना स्मरणना प्रतापथी जई शकाय तेवो ए चरणनो प्रताप छे अने आ बधा ए प्रतापथी ज त्यां पहोञ्च्या छे ॥२॥

भगवान्‌ ब्रह्माजीनी कीर्ति बहु पवित्र छे. पोते भगवानना नाभिकमलमान्थी उत्पन्न थया छे. स्वागत कर्या पछी तेमणे स्वयं विश्वरूप भगवानना उपर आवेला चरणनुं पूजन कर्युं अने चरणक्षालननुं जळ मस्तक उपर चढाव्युं तेर बाद ए ब्रह्माजी भगवाननी भक्तिपूर्वक स्तुति करवा लाग्या ॥३॥

हे राजन्‌! ए ब्रह्माना कमण्डलनुं जळ भगवानना चरणने धोईने नीचे आव्युं. आकाशमां आवतां ए देवोनी नदी गङ्गा थई. भगवाननी शुद्ध कीर्ति जेम पवित्र करे तेम ए आकाशगङ्गा त्रण लोकने पवित्र करनारी थई ॥४॥

वामनजीए जेमनी विभूतिओने सूक्ष्म करी नाखी छे तेवा ब्रह्मादि लोकपतिओ पोताना शिष्यो साथे वामनजी पासे आवी भेट करवा लाग्या ॥५॥

कोई जळ लाव्या, कोई पूजानी सामग्री लाव्या, कोई माळा लाव्या ते कोई विलेपनमाटे चन्दन लाव्या ते कोई धूप, दीप, शेकेली डाङ्गर, चोखा, फळ, अङ्कुर वगेरे अध्याय-२१,अष्टम स्कन्ध ४२५ लाव्या ॥६॥

पराक्रमना महिमाथी भरेलां स्तोत्रोवडे तेमज जयनादवडे तेओ स्तुति करवा लाग्या. कोई नाचवा लाग्या तो कोई गीत गावा लाग्या ते कोई शङ्ख अने नोबत वगाडवा लाग्या ॥७॥

जाम्बवान र्रीछ तो भेरीनो शब्द करवा लाग्यो. जेनो वेग मनना जेटलो हतो तेवा शब्दथी एणे दशे दिशामां विजयनो जयघोष कर्यो ॥८॥

आम दीक्षित एवा बलि राजानी सर्व पृथ्वी त्रण पगलान्ना बहानान्थी भगवाने लई लीधी तेथी असुरो अत्यन्त क्रोधवाळा थईने पोताना स्वामी बलिने कहेवा लाग्या ॥९॥

दैत्योए कह्युं - ‘‘अरे आ अधम ब्राह्मण नथी. परन्तु मायावीओनो श्रेष्ठ एवो विष्णु छे. ब्राह्मणना रूपमां ए गुप्त छे. देवनुं काम करीने ए तेओनी इच्छा पूरी करे छे ॥१०॥

बटुकरूपे शत्रु थई ए मागवा आव्यो अने तमे यज्ञमां राजनी सत्ता मूकी एटलामां तो ए बटुके आपणुं बधुं ज हरी लीधुम् ॥११॥

सत्यव्रतवाळा अने दीक्षा लेनारे बहुधा ब्राह्मणनुं हित करवुं, दया राखवी अने खोटुं न बोलवुं ए वात खरी ॥१२॥

छतां जो अमे एने मारीए तो अमे अमारा स्वामीनी सेवा करेली गणाशे अने एने मारवानुं धर्मरूप गणाशे’’ एम कही बलिना नोकरोए हथियार लीधाम् ॥१३॥

एओ शूळ, पट्टिश वगेरे हाथमां लई क्रोध करीने वामनजीने मारवाने दोडया, परन्तु हे राजन्‌! एवुं थाय ए बलिनी इच्छा न हती ॥१४॥

दैत्य सेनापतिओने वामनजी उपर चढाई करता जोई विष्णुना अनुचरो हसीने एने रोकवा लाग्या ॥१५॥

नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबळ, बळ, कुमुद, कुमुदाक्ष, विश्वक्‌सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त अने सात्वत ए बधा दश-दश हजार हाथीना बळवाळा हता तेओए असुरनी सेनाने खूब मारी ॥१६-१७॥

भगवानना पार्षदो पोतानी सेनाने मारे छे ए जोईने तथा शुक्राचार्यने शाप थयो छे एनो विचार करीने क्रोधवाळा असुरोने समजावी बलिए लडाई बन्ध करावी॥१८॥

अध्याय-२१,४२६ अष्टम स्कन्ध ‘‘हे विप्रचित्ते! हे राहो! हे नेमे! तमे मारुं वचन साम्भळो! आ काळ आपणने अनुकूळ नथी माटे तमे लडाई करो नहि पण लडाई बन्ध करो ॥१९॥

दैत्यो! जे काळ समस्त प्राणीओने सुख अने दुःख आपवानुं सामर्थ्य धरावे छे. तेने कोई पुरुष पोताना प्रयत्नोथी दबावी देवा मागे तो ते तेनी शक्तिनी बहारनी वात छे ॥२०॥

जे काळ पहेलां आपणो उदय करनार हतो त्यारे ए देवोनो नाश करनार हतो ते ज काळ आजे आपणाथी प्रतिकूळ चाले छे अने देवोने अनुकूळ छे ॥२१॥

बळवडे, मन्त्रीओवडे, बुद्धिवडे, मन्त्रोवडे, साम आदि उपायोवडे पण पुरुष ए काळने अनुकूळ करवाने समर्थ नथी ॥२२॥

तमे घणीवार विष्णुना अनुचरोने हराव्या छे ए ज काळ दैव बळथी अत्यारे युद्धमां आपणने हरावी गर्जना करेछे ॥२३॥

ज्यारे दैव प्रसन्न थशे त्यारे आपणे देवोने हरावीशुं; माटे अर्थ अपावे एवा काळनी आपणे हालमां वाट जुओ’’ ॥२४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे दैत्योना सेनापतिओए पोताना स्वामीनुं कहेवुं साम्भळ्युं त्यारे तेओ विष्णुना पार्षदोथी हारी जईने हे राजन्‌! रसातळमां चाल्या गया ॥२५॥

गरुड भगवाननी इच्छाने जाणी गया. ज्यारे सोम काढवानो दिवस हतो ते यज्ञना दिवसे एमणे बलिराजाने वरुणना पाशवडे बान्धी दीधा ॥२६॥

सर्वशक्तिमान भगवाने ज्यारे असुरराजने बन्धावी दीधो त्यारे आकाश, पातळ अने सर्व दिशाओमां हाहाकार मचीगयो ॥२७॥

वरुणना पाशथी बन्धायेला, स्थिर बुद्धिवाळा अने जेनी सम्पत्ति नाश पामी हती तेवा बलिने, हे नृप! वामनजी भगवाने कह्युंः ॥२८॥

‘‘हे असुर! तें मने त्रण पगलां पृथ्वी आपी छे तेमान्थी तारी सत्तानी बधी जमीन में मारां बे पगलान्थी लई लीधी छे माटे हवे त्रीजा पगलानी सगवड कर ॥२९॥

ज्यांसुधी पोताना किरणथी सूर्य तपे छे, चन्द्र चान्दरडां साथे प्रकाशे छे, जेटलामां वरसाद वर्षे छे तेटली तारी पृथ्वी छे ॥३०॥

एमां एक पगलान्थी में आखो भूलोक रोक्यो, बीजा पगलान्थी स्वर्ग लोकने तारा अध्याय-२१अष्टम स्कन्ध ४२७ देखतां में मारा शरीरथी रोकयोछे ॥३१॥

जो सङ्कल्प करीने तुं पूरुं नहि आपी शके तो तारे नरकमां वास करवो पडशे. तारा गुरुए तने अनुमोदन आप्युं छे ते प्रमाणे तुं नरकमां प्रवेश कर’’ ॥३२॥

मागनारने आपवानुं कही पछी आपतो नथी पण एने छेतरे छे तेना मनोरथो पडी भाङ्गे तो स्वर्गतो एने कयान्थी ज मळे? एथी स्वर्ग पण एनाथी दूर रहे छे अने ए नीचे (नरकमां) पडे छे ॥३३॥

विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्‌यमानिना ॥ तद्‌ व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्‌ समाः ॥३४॥

तें तारी शाहुकारीमां ‘हुं आपीश’ एम कही मने छेतर्यो ए खोटुं बोलवानुं फळ नरकमां तने मळशे. केटलाङ्क वर्ष ए नरकनो तुं अनुभव कर ॥३४॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा ‘स्वोक्तनिर्वाह’ नामना प्रकरणनो सातमो) ‘‘सङ्कल्प प्रमाणे पृथ्वी बलिराजा न आपी शकयो तेथी भगवाने एने बान्ध्यो’’ नामनो एकवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. लोभी गुरु लालची चेलाओ चेतो! (शरणागति-सेवारूपी) साधना शरू करवानी तत्परता जाण्या विना गमेतेने दीक्षा आपनार गुरु अयोग्यने दीक्षा आपवाना पापे पोतानो, दीक्षा लेनारनो तेमज सम्प्रदायनो पण विनाश नोन्तरे छे.

अध्याय २२

भगवान्‌ बलिउपर प्रसन्न थया एने सुतळमां मोकल्यो अने पोते एना द्वारपाळ थया

विशेष - वामनजी बलि उपर प्रसन्न थया एने सुतळमां मोकल्यो एने अनेक वरदान आप्यां एटलुं छतां ए ओछुं जणातां भगवान्‌ स्वयं एना द्वारपाळ थया. जेणे शरीर, धन, निर्मळ, अचळ भक्ति ईश्वरमां अर्पण करेल छे ते बलि राजाए भगवानने छेतर्या छे केमके एटलुं कर्युं एना बदलामां भगवाने पोतानुं स्वरूप बलिने आपी दीधुं; आ हकीकत आ अध्यायमां आवशे.

ईं उं ईं उं

अध्याय-२२,४२८ अष्टम स्कन्ध एवं विप्रकृतो राजन्‌ बलिर्भगवतासुरः ॥ विद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्‌लवं वचः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे राजन्‌! भगवाने ए प्रमाणे बलिनुं अनिष्ट कर्युं अने एम करीने एनी भक्तिमां भेद पाडवानो प्रयत्न कर्यो तो पण अखडिन्त रह्यो. ए बेधडक रही भगवानने कहेवा लाग्यो ॥१॥

‘‘हे देवश्रेष्ठ! हे उत्तम कीर्तिवाळा! आप मारा वाक्यने खोटुं मानता नहि. ए वचन तमने छेतरनारुं न थाय तेम हुं एने खरुं पाडुं छुं आप त्रीजुं पगलुं मारा मस्तक उपर धरो’’ ॥२॥

हुं मारा स्थानथी पडुं, नरकमां जाउं, दोरडाथी बन्धाउं के नाश न पामे तेवा अपार दुःखमां आवी पडुं पण तेथी हुं डरतो नथी; हुं तो आ खराब छे एवा असाधुवादथी (अपकीर्तिथी) डरुं छुम् ॥३॥

लायकमां लायक पुरुष मने जे दण्ड आपे तेने हुं श्रेष्ठ गणुं छुं केमके एवो दण्ड तो माता, पिता, भाई के मित्रो पण आपी शकया नथी ॥४॥

खरेखर तमे अमारा जेवा असुरोना परोक्ष गुरु छो केमके अनेक मदमां आन्धळा थयेला छीए तेओने मोटाईथी पाडी आपे अमारी आङ्खो उघाडी छे ॥५॥

आपनी साथे वेर बान्धीने एकला योगीओ ज जे सिद्धिने मेळवी शके तेवी सिद्धिओ केटलाक दैत्यो मेळवी शकया छे ॥६॥

अद्‌भुत कर्मवाळा एवा आपे मने केद करी वरुणनापाशथी बान्ध्यो छे एमां हुं कांई दुःख के शरम जेवुं मानतोनथी।७॥

मारा पितामह प्रह्‌लाद आपना भक्त छे. एमनी साधुता सुप्रसिद्ध छे. एमने आपना शत्रु अने एना पिता हिरण्यकशिपुए अनेक प्रकारनां विचित्र दुःख आप्यां तो पण एमणे पण आपने ज पुरुषार्थ रूप मान्यां. एणे आपना चरण सिवाय बीजुं कांई स्वीकार्युं नहि ॥८॥

आ शरीर अन्ते जीवथी छूटुं पडनार छे. वळी स्वजन नामना चोर आपणी दोलतने हरी लेनारा छे. स्त्री तो अहन्ता-ममताना कारण रूप छे. घर आयुष्यने नाश करवानुं साधन छे. आम देह, पुत्र, स्त्री, घर वगेरे कोई जीवनुं भलुं करनार नथी ॥९॥

आवो निश्चय करीने मारा पितामह, भक्तश्रेष्ठ, अगाध ज्ञानवाळा, संसारथी अध्याय-२२,अष्टम स्कन्ध ४२९ गभरायेला प्रह्‌लादजी जो के आप दैत्यकुळना नाशक हता छतां निर्भय एवा आपना नित्य पुरुषार्थरूप चरणने प्राप्त थया ॥१०॥

मारा पितामहनी पेठे मारा शत्रुरूप आपनी पासे दैववडे पहोञ्च्यो छुं. आपे मारी लक्ष्मी छोडावी छे. जीव आजीवित कालनी समीपमां पहोञ्ची जाय त्यां सुधी ए लक्ष्मी हुं काळनी नजीकमां आव्यो छुं एवुं ज्ञान सुद्धां थवा देती नथी. लक्ष्मीना मदथी ए एम ज माने छे के हुं मारवानो ज नथी. तेथी ए जता आयुषने जोई शकता नथी. आपे मने ए लक्ष्मीथी छूटो कर्यो एमां हुं आपनो अनुग्रह मानुं छुं ॥११॥

श्रीशुकदेवजीए क्ह्युं - हे कुलश्रेष्ठ! बलि राजा आ प्रमाणे बोली ज रह्या हता तेटलामां पूर्णिमानो चन्द्र ऊगे तेम भगवानना भकत प्रह्‌लाद त्यां आवी पहोञ्च्या ॥१२॥

एमनुं शरीर दिव्य सौन्दर्यवडे शोभतुं हतुं. एमनां नेत्रकमळ सरखां हतां. एमणे शुद्ध पीताम्बर धारण कर्युं हतुं. अञ्जनना जेवी कान्तिवाळा एमना लाम्बा बाहु गोठण सुधी पहोञ्चता हता. एमने त्यां पधारेला जोई बलिना नेत्रमां अश्रुबिन्दु आवी गयां अने ए नीचुं मुख राखी कांईक शरमायो अने बन्धनमां होवाथी पहेलाना जेवी बीजी पूजा तो ए न करी शक्यो पण एणे केवळ पोतानुं मस्तक नमाव्युं ॥१३-१४॥

प्रह्‌लादजीए सुनन्द, नन्द आदि पार्षदो थी सेवाता भगवान्‌ वामनजीनां दर्शन कर्यां के तरतज मोटा मनवाळा थई रोम पुलकथी आकुळ थई पृथ्वीउपर मस्तक नमावी दण्डवत्‌ प्रणामकर्या ॥१५॥

प्रह्‌लादजी बोल्या - आपे ज आ बलिने त्रण लोकनुं राज्य आप्युं हतुं ते आपे आजे पाछुं लई लीधुं ए पण सारुं कर्युं. लक्ष्मी आत्माने मोह पमाडनारी छे तेनाथी एने छूटो कर्यो तेथी आपे एना उपर मोटो अनुग्रह कर्यो छे एम हुं मानुं छुं ॥१६॥

विद्वान पण लक्ष्मीथी मोह पामे छे ते पछी लक्ष्मी होय त्यां कयो पुरुष आत्माना स्वरूपने समजी शके? माटे मारा पौत्र उपर अनुग्रह करनार, जगतना ईश्वर अने अखिल लोकना साक्षी आप श्रीनारायण भगवानने मारा नमस्कार हो ॥१७॥

अध्याय-२२,४३० अष्टम स्कन्ध श्रीशुकदेवजीए कह्युं - त्यार पछी बे हाथ जोडीने ऊभेला प्रह्‌लादनां साम्भळतां मधुसूदन भगवानने भगवान्‌ ब्रह्माजी कंईक कहेवा मागता हता ॥१८॥

परन्तु एटलामां ज पोताना पतिने बन्धायेला जोईने बलिनी स्त्री विन्ध्यावली भयभीत बनी गई अने बे हाथ जोडीने नीचुं मुख राखी भगवानने नमन करी कहेवा लागी ॥१९॥

विन्ध्यावलीए कह्युं - हे प्रभो! आ त्रण लोकनी रचना आपे आपनी क्रीडामाटे ज करी छे. तेमां कुबुद्धिवाळा बीजा लोको पोतानी सत्ता दाखल करवा जाय छे तेथी ज वस्तु पोतानी नहि छतां एमां पोतानो हक्क करे छे. एवा लोको लाज वगरना होय एम जणाय छे. वळी अमे आ वस्तुना मालिक छीए एवुं अभिमान तमे ज करावो छो तेथी ए पोतनाथी कोई मोटो छे एवुं जोता नथी. एवुं तो अर्ही कांई ज नथी. जगतना कर्ता अने संहर्ता आप ज छो. तेथी ए आपने कांई आपवाने समर्थ नथी पण आपनी वस्तुमां ममता करी कांई आपने हानि पहोञ्चाडे ते हानि पण आपने थती नथी. (तेथी ज बलि राजाए त्रण लोकमां अभिमान कर्युं हवे एणे आत्मनिवेदन कर्युं छे तो एना उपर अनुग्रह करो. आत्मनिवेदकने बन्धन न घटे) ॥२०॥

ब्रह्माजीए कह्युं - हे प्राणिमात्रने उत्पन्न करनार! हे प्राणिओ उपर सत्ता चलावनार! देवना देव, जगद्रूप, आनुं सर्वस्व आपे लीधुं तेथी ए हवे बन्धनने लायक नथी एथी तेने छोडी दो ॥२१॥

आणे पोतानी सम्पूर्ण भूमि अने पुण्य कर्मथी उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, पोतानुं सर्वस्व तथा आत्मा सुद्धां आपने समर्पित करी दीधां छे अने आम करती वखते एनी बुद्धि स्थिर रही छे, धैर्यथी डग्यो नथी ॥२२॥

जे माणस जलवडे के धरोनां अङ्कुरथी आपनी पूजा करे छे तेने पण आप उत्तम गतिनुं दान करो छो ते आ बलिए तो आपने त्रण लोक आपी दीधा तेने दुःख केम थवुं जोईए? ॥२३॥

श्रीवामनजीए कह्युं - हे ब्रह्मन्‌! हुं जेनी उपर अनुग्रह करुं छुं तेनुं द्रव्य खेञ्ची लउं छुं. जे पैसाना मदथी लोकाभिमानी तथा अनम्र थई जाय छे ते लोकनुं तेम ज मारुं अपमान करे छे ॥२४॥

जीव पोतानां कर्मोवडे आ संसारमां फरतो अनेक प्रकारना देहने बदले छे अने पराधीन थईने पोतानी मरजी प्रमाणे शरीर लई शकतो नथी पण पोतानां कर्मोवडे अध्याय-२२,अष्टम स्कन्ध ४३१ ज पुरुष शरीरमां आवे छे ॥२५॥

एमां उत्तम कुळमां जन्म, उत्तम कर्म, सुन्दर रूप, विद्या, धन अने ऐश्वर्य होवा छतां जो एने गर्व न थाय तो मारो एनी उपर अनुग्रह छे एम समजवुं ॥२६॥

उपर गणाव्यां ए जन्म-कर्म आदि, अभिमान अने जडता उत्पन्न करे छे. ए बधां श्रेयना प्रतिबन्धक छे. परन्तु एमां मारा भकतने मोह थतो नथी तेथी हुं एने सम्पत्ति वगेरे आपुं छुं पण अभकतनो तो ए नाश करे छे तेथी एनी सम्पत्ति हरी लउं छुम् ॥२७॥

आ बलि दैत्य अने दानवो नो अग्रेसर थशे, बन्ने कुलोनी कीर्तिने वधारशे. तेणे अजेय मायाने जीती लीधी छे. तेथी ज ए आटला दुःखमां पण मोह पाम्यो नहि ॥२८॥

पैसा गया, स्थानभ्रष्ट थयो, शत्रुए केद कर्यो, ज्ञातिए छोडी मूकयो अने एने बहु दुःख आप्युं, गुरुए तिरस्कार कर्यो, शाप आप्यो, छतां एणे पोतानुं सत्य छोड्युं नहि. में कपटवडे एने धर्म कह्यो पण एणे पोतानी साची वात छोडी नहि ॥२९-३०॥

तेथी हुं एने देवोने पण न मळे तेवुं स्थान आपुं छुं. आ बलि राजा सावर्णि मन्वन्तरमां मारो परम भकत इन्द्र थशे ॥३१॥

त्यां सुधी विश्वकर्माए बनावेला सुतळ लोकमां ए रहेशे. त्यां मन के शरीरनुं दुःख होतुं नथी; आळस, थाक, बहारना तथा अन्दरना शत्रुओथी पराजय अने कोई प्रकारना विघ्नो त्यां रहेनाराने सतावतां नथी कारण के तेमना उपर मारी कृपा दृष्टि कायम छे ॥३२॥

(बलिने सम्बोधन करीने) हे महाराज इन्द्रसेन! तुं जा तेरुं कल्याण थाओ. स्वर्गना लोको पण ए सुतळनी प्रार्थना करे छे पण तेमने ए मळतुं नथी. त्यां तारा कुटुम्ब सहित जईने रहे ॥३३॥

मोटा-मोटा लोकपाल पण तारो पराभव नहि करी शके तो बीजा तो शुं ज करी शके? तारा हुकमनुं अतिक्रमण करनारने मारुं चक्र मारी नाखशे ॥३४॥

हुं तारा नोकरो अने तारा परिकर सहित तारी रक्षा करीश. हे वीर! तुं त्यां मने तारी पासे ज जोई शकीश ॥३५॥

अध्याय-२२,४३२ अष्टम स्कन्ध तत्र दानवदैत्यानां सङ्गात्‌ ते भाव आसुरः ॥ दुष्ट्‌वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनङ्क्ष्यति ॥३६॥

त्यां रहेता दैत्यो अने दानवो ना सङ्गवडे तारो आसुरभाव मारा प्रतापना दर्शन मात्रथी ओछो थतो-थतो धीमेथी नाश पामशे ॥३६॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (त्रीजा स्वोकत निर्वाह प्रकरणनो आठमो) ‘‘भगवान्‌ बलि उपर प्रसन्न थया एने सुतळमां मोकल्यो अने पोते एना द्वारपाळ थया’’ नामनो बावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. इदं नामात्मकं भगवतो रूपं तत्‌ स्वविक्रेतरी विक्रयातिरिक्तं फलं न प्रयच्छति भगवानना नामात्मक स्वरूप भागवतने (कथानी दक्षिणा, पोथीभेट वगेरे रीते) वेचनारने ते वेचाणना बदलामां मळतां दान-दक्षिणाथी वधु बीजुं कंई पण फळ आपतुं नथी. (श्रीमहाप्रभुजी)

अध्याय २३

बलिराजा सुतळमां गया

विशेष - बलिराजा पोताना पितामह प्रह्‌लादजीनी साथे सुतळमां गया त्यारे वामन भगवान्‌ स्वर्ग पधार्या. प्रथमनी जेम इन्द्रने अभिनन्दन आप्युं एटली वात आ अध्यायमां आवे छे. इत्युकतवन्तं पुरुषं पुरातनं महानुभावोऽखिलसाधुसम्मतः ॥ बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो भक्‌त्युद्गलो गद्गदया गिराब्रवीत्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मोटा अनुभववाळा अने भक्तोमां मानवायोग्य बलिराजाए हाथ जोड्या अने भक्तिथी उत्कठिन्त थई नेत्रमां अश्रुकलाथी आकुळ रीते जोतो गद्‌गदवाणी वडे बोलतो आ प्रमाणे पुराण पुरुष भगवानने कहेवा लाग्यो ॥१॥

बलि बोल्यो - अहो! में तो आपने प्रणाम करवानो मात्र यत्न ज कर्यो छे ते पण ए भक्तना इच्छित अर्थने आपनार थयो. आपनो जे अनुग्रह लोकपालो अने देवो सम्पादन करी शकया नथी ते प्रसाद आपे मारा जेवा नीच एवा असुर उपर करी बताव्यो छे ॥२॥

ईं उं ईं उं

अध्याय-२३,अष्टम स्कन्ध ४३३ श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे परीक्षित! आटलुं कहेतां मात्रमां तो वरुणनो पाश बलिने छोडीने चाल्यो गयो अने ते बन्धनमुकत थई गया त्यारे तेमणे भगवान्‌ ब्रह्माजी अने शङ्करने प्रणाम कर्या अने त्यार बाद प्रसन्नतापूर्वक असुरो साथे तेणे सुतल लोक तरफ प्रयाण कर्युम् ॥३॥

एवी रीते भगवाने स्वर्गनुं राज्य लईने इन्द्रने आप्युं, अदितिनी कामना पूरी करी अने स्वयं उपेन्द्र बनी समग्र जगतनुं शासन करवा लाग्या ॥४॥

पोताना पौत्र बलि उपर प्रभुनी कृपा थई छे अने ए बन्धनमुकत थयो छे एवुं साम्भळी प्रह्‌लादजीभक्तिमां लीन थई गया अने आ प्रमाणे कहेवा लाग्याः ॥५॥

‘‘जेने चरणे आखुं जगत पडे छे तेवा आप अमारा जेवा असुरना किल्लाना रक्षक बन्या; आवी कृपा तो आपे ब्रह्माजी, शिवजी के लक्ष्मीजी उपर पण करी जणाती नथी ते बीजा उपर तो कयान्थी ज करी होय? ॥६॥

हे शरणदाता! आपना चरणारविन्दने सेववाथी ब्रह्मादि देवो आपना वैभवने भोगवे छे; परन्तु अमे तो कुमतिवाळा छीए; असुरनी योनिमां जन्म्या छीए, छतां आपे अमने आपनी कृपादृष्टिना पात्र केम बनाव्या एनो विचार करतां जीवमाटे अशकय एवी आपनी कृपानुं ज ए फळ छे एवुं निश्चित थाय छे ॥७॥

अमित योगमायाना बळवडे अनायासथी आप सृष्टिने उपयोगी सर्वज्ञादि गुणोथी युकत अने विषमता निर्धुणता रहित छो, छतां आप भकतना कल्पतरुना जेम मनोरथोने पूरो छो तो पण एमां कल्पतरुनो दोष नथी. आपनी लीला विचित्र छे,निर्दोष छे.आप भकतकामपूरक होवा छतां विषम स्वभावना नथी ॥८॥

श्रीभगवान्‌ बोल्याः वत्स प्रह्‌लाद! तमारुं कुशळ हो. हवे तमे पण सुतळलोकमां जाओ. त्यां तमारा पौत्र अने ज्ञातिजननी साथे आनन्द करो अने ज्ञातिने पण सुख आपो’’ ॥९॥

त्यां तमे नित्य गदा धारण करीने बिराजनार मारा स्वरूपनां दर्शन करशो. मारां दर्शनना परमानन्दमां मग्न रहेवाने लीधे तमारां सम्पूर्ण कर्मबन्धननो नाश थई जशे ॥१०॥

श्रीशुकदेवजी बोल्याः हे परीक्षित! प्रह्‌लादजीए हाथ जोड्या अने भगवाननी आज्ञा माथे चडावीने ‘‘जेवी आपनी आज्ञा’’ एम कहीने असुरसेनाना पति एवा एमणे प्रणाम कर्या अने एमना कहेवाथी बलि राजानी साथे सुतळमां गयाम् ॥११-१२॥

अध्याय-२४,४३४ अष्टम स्कन्ध हे राजन्‌! त्यारे ब्रह्मवादीओनी सभामां ऋत्विजोनी साथे बेठेला शुक्राचार्यजीने भगवाने पोतानी नजीक बोलाव्या अने एमने कह्युं ः‘‘हे ब्रह्मन्‌! आपना शिष्यना यज्ञमां जे कांई रही गयुं होय ते पूरुं करो. जे कांई कर्ममां रही गयुं होय तेने बाह्मणनी दृष्टि मात्रथी पूर्णता मळे छे. सर्व कोई अनुष्ठानथी पूर्णता मेळवी शके छे, पण ब्राह्मणनी दृष्टि एवी छे के जेनी उपर ए पडे तेना स्वरूप केवळ दृष्टि मात्रथी सिद्ध करी आपे छे’’ ॥१३-१४॥

शुक्राचार्यजी बोल्या - हे भगवन्‌! जेणे पोतानां समस्त कर्म समर्पित करी दरेक प्रकारे यज्ञेश्वर, यज्ञपुरुष आपनी पूजा करी छे तेवा बलि राजाना कर्ममां कोई त्रुटि, विषमता केवी रीते रही शके? ॥१५॥

कारण के मन्त्रोनी, अनुष्ठानपद्धतिनी, देश, काल, पात्र अने वस्तुनी बधीय भूलो आपना नामना सङ्कीर्तनमात्रथी सुधरी जाय छे. आपनुं नाम बधीज त्रुटिओने पूर्ण करी दे छे ॥१६॥

तो पण हे अनन्त! आपनी आज्ञा प्रमाणे हुं करीश. मनुष्यमाटे सौथी मोटुं शक्तिशाळी कल्याणसाधन ए ज छे के ते आपनी आज्ञानुं पालन करे ॥१७॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे भगवाननी आज्ञा लईने शुक्राचार्ये बलि राजाना यज्ञमां जे कंई अधूरुं हतुं ते ब्रह्मर्षिओनी सहायताथी पूर्ण कर्युम् ॥१८॥

एवी रीते वामनजीए बलि राजा पासेथी पृथ्वीनी भिक्षा मागीने, स्वर्गनुं राज्य वगेरे जे शत्रुओ लई गया हता ते लई पोताना मोटाभाई इन्द्र (महेन्द्र) ने आप्युम् ॥१९॥

त्यार पछी प्रजापतिओना पति ब्रह्माजीए देवर्षि, पितृ, मनु वगेरे राजाओ, दक्ष, भृगु, अगिंरा वगेरे ऋषिओ अने सनत्कुमारो, शिवजी ए बधानी साथे मळीने कश्यप अने अदितिने प्रसन्न करवामाटे तथा सर्व प्राणीओनी आबादीमाटे समस्त लोक अने लोकपालो ना स्वामीरूपे वामन भगवाननो अभिषेक करी दीधो॥२०-२१॥

वेदना, सर्व देवना, धर्मना, यशना अने लक्ष्मीना पति पण वामनजीने मान्या; तथा मङ्गळ व्रत, स्वर्ग अने मोक्ष ना पण उपेन्द्र भगवानने पति बनाव्यां. हे राजन्‌! त्यारे प्राणी मात्र बहु राजी थयाम् ॥२२-२३॥

इन्द्रे वामनजीनो सत्कार कर्यो अने ब्रह्माजीनी अनुमतिथी लोकपालोनी साथे इन्द्र विमानने मार्गे वामनजीने सौथी आगळ बिराजावी स्वर्गमां पधरावी गया अध्याय-२४,अष्टम स्कन्ध ४३५ ॥२४॥

इन्द्रने एक तो त्रण भुवननुं राज्य मळ्युं अने बीजुं वामन भगवान्‌ (उपेन्द्र) ना भुजथी रक्षण पण मळ्युं तेथी ए भयमुकत थया अने परम शोभा अने लक्ष्मी वडे आनन्द करवा लाग्या ॥२५॥

हे नृप! ब्रह्मा, शिवजी, सनत्कुमारो, भृगु वगेरे मुनिओ, पितृओ, बधा भूतो, सिद्धो, बीजा बधा जे विमानमां आवेला ते भगवान्‌ वामनना अत्यन्त महान अने अद्‌भुत चरित्रनुं गान करता-करता पोत पोताना लोकमां गया अने बधाए अदितिनी भारे प्रशंसा करी ॥२६-२७॥

हे कुळनन्दन! में तमने श्रोताओना बधां पापने दूर करनार उरुक्रम भगवाननी आ बधी लीला कही सम्भळावी ॥२८॥

आ पृथ्वीना परमाणुने गणी शकाय तो भगवानना चरित्रनो पार पामी शकाय. ए पुरुषना महिमाना पारने पामेलो होय तेवो मनुष्य हजु थयो नथी एम मन्त्रने जोनार वसिष्ठादि ऋषिओ कहे छे ॥२९॥

देवोना आराध्यदेव भगवान्‌ अद्‌भुतकर्मवाळाछे. तेमनुं चरित्र साम्भळनार पुरुष परम गतिपामेछे ॥३०॥

क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येथ मानुषे ॥ यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत्तेषां सुकृतं विदुः ॥३१॥

ज्यारे देव सम्बन्धी, पितृ सम्बन्धी के मनुष्य सम्बन्धी कर्म थतुं होय त्यारे जो आ कथानुं कीर्तन करवामां आवे तो ए कार्य सफलतापूर्वक सिद्ध थाय छे एवो मोटा-मोटा महात्माओनो अनुभव छे ॥३१॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां(त्रीजा स्वोकत निर्वाह प्रकरणनो नवमो) ‘‘बलिराजा सुतळमां गया’’ नामनो त्रेवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ)हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो. दक्षिणा लईने कथा करनारना मनोभाव गटरना पाणी जेवा गन्धारा जाणी तेनो सङ्ग छोडवो.

ईं उं ईं उं

अध्याय-२४,४३६ अष्टम स्कन्ध चोथुं मत्स्यावतार प्रकरण

अध्याय २४

भगवाने मत्स्यनुं रूप धरी सत्यव्रतनी रक्षा करी

विशेष - भगवान्‌ मत्स्यावतारना प्रसङ्गनी कथा आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. एमणे महासमुद्रमां सत्यव्रतनी रक्षा करी ए आ लीलामां कहेवानुं छे. नाना-नाना रूपमां मोटुं-मोटुं रूप देखाडता भगवान्‌ मत्स्य वामनजीनुं अनुकरण करे छे. राजा जेम-जेम पूछे छे तेमतेम भगवान्‌ स्वरूप विस्तारता जाय छे. भगवन्‌ श्रोतुमिच्छामि हरेरद्‌भुतकर्मणः ॥ अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम्‌ ॥१॥

राजाए पूछ्‌युं - हे भगवन्‌! अद्‌भुत कर्म करनार भगवाने कपटवडे एकवार मत्स्यनुं अनुकरण कर्युं, भगवानना ए पहेला अवतारनी कथा साम्भळवानी मारी इच्छा छे ॥१॥

एक तो मत्स्यनी योनि तो लोकमां निन्द्य छे अने केवळ बीजुं तमोगुणी अने असह्य परतन्त्रताथी युकत पण छे एवुं रूप सर्वशक्तिमान्‌ साक्षात्‌ भगवाने केम धारण कर्युं? ॥२॥

हे भगवन्‌! महात्माओना कीर्तनीय भगवाननुं चरित्र सर्वने सुख करनार छे ते ए बधी लीला जे प्रमाणे करी होय ते यथार्थ (अथथी इति) अमने कृपा करीने कहो ॥३॥

सूतजी बोल्या - हे शौनकादि ऋषिओ! ज्यारे परीक्षिते श्रीशुकदेवजीने एम पूछ्‌युं त्यारे भगवाने मत्स्यरूप धरी जे कर्युं हतुं ते चरित्र कहेवानो तेमणे आरम्भ कर्यो ॥४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! आम तो भगवान्‌ बधाना एकमात्र प्रभु छे छतां गाय, ब्राह्मण, देवता, भकत, वेद, धर्म अने अर्थनी रक्षा करवामाटे शरीर धारण कर्या करे छे ॥५॥

ते सर्व शक्तिमान प्रभु वायुनी माफक, नाना-मोटां के उञ्चा-नीचा थई जता नथी कारण के ते तो वास्तवमां समस्त प्राकृत गुणोथी रहित-निर्गुण छे ॥६॥

काळे करीने ब्रह्माजीने ऊङ्घवानी इच्छा थई अने निद्रा आवी त्यारे बळवान हयग्रीव नामनो दानव ब्रह्माना मुखमान्थी नीकळेला वेदने चोरी गयो ॥८॥

अध्याय-२४,अष्टम स्कन्ध ४३७ सर्व शक्तिमान भगवान्‌ श्रीहरि ए दानवेन्द्रनी चोरी जाणी गया. तेथी एमणे मत्स्यावतार लीधो ॥९॥

हे परीक्षित! ए समये ‘सत्यव्रत’नामना भारे उदारअने भगवत्परायण राजर्षि केवळ जल पीने तपस्या करी रह्याहता ॥१०॥

ते आ महाकल्पमां सूर्यनो पुत्र हतो तेनुं श्राद्धदेव नाम हतुं. भगवाने एने मनुनो अधिकार आप्यो हतो ॥११॥

ए सत्यव्रत एक वखत कृतमाला नदीना जळमां तर्पण करता हता त्यारे एना बे हाथनी अञ्जलिमां एक माछली आवी गई ॥१२॥

हे भारत! पोतानी अञ्जलिमां आवेली माछलीने द्रवीड देशना राजा सत्यव्रते नदीना जळमां फरी नाखी दीधी ॥१३॥

त्यारे ए माछली अत्यन्त दयाळु सत्यव्रतने कहे ः‘‘तमे दयाळु छो. अमे ज्ञातिने मारी खानार छीए. तमे मने मारी नात साथे मूको छो ए मने खाई जशे तेथी आ नदीना जळमां पडतां मने मोटो भय लागे छे. आप दीनवत्सल छो’’॥१४॥

ए मत्स्यना रूपमां भगवान्‌ ज हता. पोतानी उपर अनुग्रह करवाने स्वयं भगवाने मत्स्यरूप लीधुं छे एनी सत्यव्रतने खबर पडी नहि तेथी एमणे ए माछलीनुं रक्षण करवानो सङ्कल्प कर्यो ॥१५॥

ए माछलीनुं अत्यन्त दीनताभर्युं वाकय साम्भळीने सत्यव्रतने दया आवी अने एने पोताना लोटाना जळमां लईने ए आश्रमे लई आव्या ॥१६॥

ए माछली तो एक रातमां कमण्डलुं जेवडी थई गई अने कयांय जग्या खाली न जोई त्यारे राजाने कहेवा लागी ः‘‘ए तमारा कमण्डलुम्मां हुं बहु दुःखथी रही, पण हवे एमां रही शकीश नहि माटे मारे माटे कोई मोटुं विशाळ स्थान शोधी काढो ज्यां हुं सुखे रही शकुं’’ ॥१७-१८॥

राजाए एने कमण्डलुमान्थी बहार काढी वधारे जळवाळी कोठीमां मूकी तेतो ए बे घडीमां त्रण हाथ लाम्बी थई गई ॥१९॥

अने ए बोली - ‘‘आ जग्या मारे माटे पूरती नथी. हे राजन्‌! हुं आमां सुखथी रही शकुं नहि तेथी तमारे शरणे आवेली मने कोई वधारे मोटुं स्थान रहेवाने आपो’’ ॥२०॥

हे राजन्‌! कोठीमां हती तेमान्थी काढी एने सरोवरना जळमां फेङ्की ते तो ए अध्याय-४२,४३८ अष्टम स्कन्ध मत्स्य आखा सरोवरने फरी वळे एवो मोटो थई गयो ॥२१॥

‘‘आ जळ मारा सुखरूप नथी तेथी जळ सुकाई न जाय तेवा कोई मोटा जळाशयमां मारी रक्षानो विचार करी मने एमां छोडो’’ ॥२२॥

एम कहेतां एने जुदां-जुदां जळाशयोमां नाखवामां आव्यो. जे जळाशयमां एने नाख्यो ते जळाशय जेवडो ते थई गयो तेथी अन्ते एने समुद्रमां फेङ्कवो पडयो ॥२३॥

ज्यारे मत्स्यने समुद्रमां मूकयो त्यारे ए बोल्योः‘‘हे राजन्‌! मने अर्ही अतिबळवाळा मगर वगेरे खाई जशे माटे हे वीर! तमारे मने अर्ही छोडवो न जोईए’’ ॥२४॥

मत्स्य भगवाननी सुन्दर वाणी साम्भळी राजा मुग्ध थई जई बोल्याः‘‘मत्स्यरूपवडे मने मोहित करनार आप कोण छो? ॥२५॥

अमे आवडुं जळचर प्राणी कदी दीठुं नथी के साम्भळ्युं नथी. आपे एक ज दिवसमां तो सो योजन लाम्बा तळावने घेरी लीधुम् ॥२६॥

माटे आप तो साक्षात्‌ सर्व शक्तिमान, सर्वान्न्तर्यामी, अविनाशी श्रीहरि ज छो, परन्तु जीवो उपर अनुग्रह करवाने जळचर रूप धारण कर्युं छे ॥२७॥

हे पुरुषोत्तम! आप जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना स्वामी छो. आपने हुं नमस्कार करुं छुं. हे प्रभो! एम शरणागत भकतोमाटे आप ज आत्मा अने आश्रय छो ॥२८॥

जो के आपना बधा लीला-अवतार प्राणीओना कल्याणमाटे ज होय छे तो पण हुं ए जाणवा इच्छुं छुं के आपे आ रूप कया चोक्कस हेतुमाटे धारण कर्युं छे ॥२९॥

हे कमलनयन प्रभो! जेवी रीते देह वगेरे अनात्म वस्तुओमां ममतानुं अभिमान करनार संसारी पुरुषोनो आश्रय व्यर्थ होय छे तेवी रीते आपना चरणोनो आश्रय तो व्यर्थ थई नथी शकतो कारण के आप बधाना निःस्वार्थ प्रेमी, परम प्रियतम अने आत्मा छो आपे अत्यारे जे रूप धारण करीने अमने दर्शन आप्यां छे ते अद्‌भुत छे ॥३०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित! भगवान्‌ पोताना अनन्य प्रेमी भकतो उपर खूब प्रेम राखे छे. ज्यारे जगत्पति मत्स्य भगवाने पोताना प्रिय भकत अध्याय-२४,अष्टम स्कन्ध ४३९ राजर्षि सत्यव्रतनी आ प्रार्थना साम्भळी त्यारे तेनुं प्रिय अने हित करवाने माटे, साथे क्ल्पना अन्ते थता प्रलय समयना समुद्रना विहार करवामाटे तेनेकह्युंः ॥३१॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे अरिन्दम! आजथी गणतां सातमे दिवसे प्रलयना समुद्रमां भुर्‌, भुवर्‌ अने स्वर्‌ ए त्रण लोक जळमां डूबी जशे त्यारे मारी प्रेरणाथी एक विशाळ नाव तारी पासे आवी लागशे. तुं बधी औषधिओ अने नानां-मोटा बीजने लई सप्तर्षिओने साथे सर्व सत्त्वजीवोने पण साथे लईने ए नावमां चढी बेसजे अने ऋषिना तेजवडे तुं ए नावमां एकलो फरजे. ज्यारे नाव वायुने लीधे डोलवा माण्डे त्यारे आ ज रूपमां त्यां हुं आवी जईश अने तुं एने मारा शिङ्गडां साथे वासुकि नागनुं दोरडुं करी एनाथी बान्धी देजे ॥३२-३६॥

हुं ऋषिओनी साथे तारी नावने मोटा समुद्रमां लई जईश अने ज्यां सुधी ब्रह्मानी रात्रि रहेशे अने एमनी ऊङ्घ नहि जाय त्यां सुधी हे प्रभो! हुं समुद्रमां सफर करीश ॥३७॥

मारा अनुग्रहथी जे परब्रह्मरूप मारुं माहात्म्य छे तेने तुं जाणीश. पण ए सारी रीते प्रश्न करवाथी अने हृदयारूढ थवाथी जणाशे’’ ॥३८॥

ए प्रमाणे राजाने आज्ञा करीने प्रभु अन्तर्धान थई गया. हृषीकेश भगवाने जे समयनी वाट जोवानी आज्ञा करी हती ते समयनी राजा वाट जोता रह्या ॥३९॥

दर्भोनो अग्रभाग पूर्व तरफ राखीने राजर्षि सत्यव्रत एना उपर पूर्वोत्तर मुखथी बेसी गया अने मत्स्यरूपी भगवानना चरणनुं स्मरण करवा लाग्या ॥४०॥

एटलामां समुद्रमां मोटां मोजां आववा लाग्यां तेथी समुद्र वध्यो अने पृथ्वी जळमां ढङ्कावा लागी ॥४१॥

भगवाननी आज्ञानुं स्मरण कर्युं अने राजाए नाव आवती जोई. नाव जोईने ऋषिओ वगेरेने लई एमां राजा पण गोठवाई गया ॥४२॥

मुनिओए प्रसन्न थईने राजाने केशवनुं ध्यान करवानुं कह्युं. एमणे कह्युं के ‘‘आपणे बेठा छीए तेमने सङ्कटथी बचावी सुखने आपनार ए केशव छे. एनुं ध्यान धरवुं ए आपणुं कर्तव्य छे’’ ॥४३॥

जयारे राजाए भगवाननुं ध्यान धर्युं त्यारे मत्स्यना रूपमां भगवान्‌ महासमुद्रमां प्रकट थया. एमने एक शिङ्गडुं हतुं. भगवान्‌ मत्स्य सुवर्णमय अने दश लाख योजन लाम्बा देखाया ॥४४॥

अध्याय-२४,४४० अष्टम स्कन्ध भगवाने प्रथम आज्ञा करी हती ते प्रमाणे राजाए नावने ए भगवानना शिङ्गडामां वासुकिरूपी दोरडाथी बान्धी अने पछी मत्स्य भगवाननी पोते स्तुति करवा लाग्या ॥४५॥

सत्यव्रत बोल्या - लोकोनुं ज्ञान अनादि अविद्यावडे नाश पाम्युं छे. तेओ अज्ञानथी उत्पन्न थता आ संसारमां जन्म-मरणरूप क्लेशथी हेरान-हेरान थया करे छे, परन्तु ज्यारे दैवथी तेओ भगवानना अनुग्रह अने आश्रय ने प्राप्त थाय छे त्यारे एने मुक्ति मळी शके छे. ते मुक्तिदाता आप अमारा परम गुरु छो॥४६॥

अज्ञानी मनुष्य पोताना कर्मथी बन्धायेलो होय छे. सुखनी इच्छाथी ए दुःख भोगवीने पण कर्म करे छे, परन्तु ए भगवाननी सेवारूपी सुखनी बुद्धिने दूर करे छे. हे भगवन्‌! अमारा हृदयमां रहेली देहाभिमाननी ग्रन्थिने अमारा गुरु थईने कापी नाखो ॥४७॥

सोनुं अग्निना योगथी पोतानामां रहेला दोषने छोडी दे छे तेम पुरुष पण भगवत्सेवाथी मनना मेलरूप अज्ञानने छोडीने स्वस्वरूपमां शोभे छे. छ विकार रहित एवा ए अविनाशी ईश्वर अमारा गुरुना पण गुरु हो ॥४८॥

बीजा देवो, गुरुओ अने सर्व लोको मळीने पण भगवाननी कृपाना दश हजारमां भाग जेटलो कृपानो एक अंश पण निरपेक्ष रीते करी शकता नथी ते भगवानना शरणने हुं प्राप्त थयो छुम् ॥४९॥

जेम आङ्ख विनानो माणस आन्धळाने दोरे ते प्रमाणे मूर्ख गुरु अने अज्ञानी चेलानो सम्बन्ध होय छे. जेम आन्धळो नियत स्थान पर पहोञ्चाडी शकतो नथी तेम मूर्ख गुरु अज्ञानीनुं श्रेय करी शकतो नथी; तेथी सूर्य चन्द्र जेमनां नेत्र छे तेवा स्वयं प्रकाशरूप आपने गुरु करी आपनां स्वरूपने जाणवानी इच्छाथी आपने शरणे आव्या छीए ॥५०॥

जो माणस सद्‌गुरुने छोडी प्राकृतनी सेवा करे तो एने मोक्ष सिद्ध थतो नथी. माणस बीजा माणसने पोतानी बुद्धि प्रमाणे उपदेश आपे छे. पोते विषयी होय तो बीजाने पण ए पोताना जेवो करी दे छे तेथी ए नरकमां जाय छे, परन्तु आप तो अविनाशी फळ आपनार, स्वरूपना भेदने मटाडनार ज्ञानने आपो छो तेथी एना वडे माणस भगवानना धाममां जई पहाञ्चे छे ॥५१॥

तमे सर्व लोकना मित्र छो, प्रीतिपात्र छो एना ईश्वर छो, आत्मा छो, गुरु अध्याय-२४,अष्टम स्कन्ध ४४१ छो, ज्ञानरूप अने इच्छित सिद्धिरूप छो. आम छतां जेनी बुद्धि आन्धळी छे तेवो लोक कामनामां बन्धाय छे अने सर्वना हृदयमां बिराजता आपने जोई शकतो नथी ॥५२॥

देवमां श्रेष्ठ अने वरणीय एवा ईश्वररूप आप अमने उपदेश करशो ए हेतुथी हुं आपने शरणे आव्यो छुं ते सत्य अर्थथी प्रकाशतां वचनोवडे अमारा हृदयमां प्रकाश करो’’ ॥५३॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ज्यारे राजा सत्यव्रते आ प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे प्रलयना समुद्रमां विहार करता मत्स्यरूपी भगवान्‌ आदि पुरुषे तेने आत्मतत्त्वनो उपदेश कर्यो ॥५४॥

एमणे राजर्षि सत्यव्रतने दिव्य मत्स्य पुराण समग्र कही बताव्युं जेमां साङ्ख्ययोग अने कर्मयोग वगेरेनुं वर्णन आवे छे एटलुं ज नहि, पण जेमां पोतानी रहस्य कथा पण आवी जाय छे ॥५५॥

एवी रीते ऋषिओनी साथे नावमां बेठेला सत्यव्रतने सन्देह रहित सनातन ब्रह्मरूप आत्माना स्वरूपनो उपदेश कर्यो ॥५६॥

ज्यारे प्रलयनो अन्त आव्यो* त्यारे आ जगतना आरम्भमां ब्रह्माजी जाग्या त्यारे वेदोने जे हयग्रीव चोरी गयो हतो ते हयग्रीवने मारीने एनी पासेथी वेद लईने मत्स्य भगवाने ब्रह्माजीने पाछा सोम्प्या ॥५७॥

विशेष - आ मत्स्यावतार समयना प्रलयने कोई टीकाकार मायिक प्रलय छे एम कहे छे, पण खरी रीते ए नैमित्तिक प्रलय छे. ब्रह्मानो दिवस पूरो थाय अने रात्रि आवे त्यारे रात्रे ब्रह्माजी निद्रा ले तेटलो समय प्रलय रहे ते नैमित्तिक प्रलय कहेवाय. एने माटे प्रमाण जोईए तो ‘‘कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली।’’ ८.२४.८ ‘‘यावद्‌ब्राह्मी निशा विभो’’ इत्यादि वाकयोथी ए नैमित्तिक प्रलय छे एम स्पष्ट समजाय छे. त्यां वरसादनुं वर्णन नथी एम पण न कहेवाय ‘‘वर्षद्‌भिर्महामेधैः’’ ‘‘समुद्रः प्लावयन्‌ महीम्‌’’ ए वाकयो वरसादनी साबिती आपनारां छे. कदाच एवी शङ्का अत्रे कोई करे के प्रथम स्कन्धमां ‘‘चाक्षुषोदधिसं प्लवे’’ ए वाक्य छे तेथी ए छठ्ठो मन्वन्तर छे तेमां प्रलयनो सम्भव नथी ए शङ्काने पण स्थान नथी केमके मनुओनो कोई नियत क्रम नथी तेथी चाक्षुष पण अन्तिम आवे ए सम्भव छे अने एम होय तो चाक्षुषमां पण प्रलय सम्भवे. हवे कोई ए शङ्का करे के प्रलय थाय त्यारे पृथ्वी, औषधि वगेरे प्रलयथी बचे नहि केमके त्रण लोकनो लय थाय एम अध्याय-२४,४४२ अष्टम स्कन्ध कहेल छे. एना उत्तरमां कहेवानुं के भगवाननी इच्छा सर्वत्र बळवान छे तेथी भगवान्‌ जेने बचावे ते प्रलयथी पण बची शके. हवे द्वादशस्कन्धमां मार्कण्डेय मुनिने मायिक प्रलय भगवाने बताव्यो हतो तेवो ज आ प्रलयने मायिक मानो एम कोई कहे एना उत्तरमां कहेवानुं के त्यां तो मूळ भागवत्‌मां ज मार्कण्डेये आपनी माया जोवा उत्क्ण्ठा करी छे एने भगवाने पण एमनी मरजी प्रमाणे माया बतावी छे. अर्ही ए प्रमाणे मायिक प्रलय मानवा जोईए तो उपर लख्यां बधां प्रमाणोनो थतो विरोध आवे. तेथी मत्स्यावतार समये ब्रह्माजीनी रात्रिए थतो निमित्त प्रलय छे ए वात सिद्ध थाय छे. (बालप्रबोधिनी) मत्स्य भगवाननो कृपापात्र ए सत्यव्रत राजा ज्ञान अने विज्ञानयुकत थईने आ कल्पमां एनी कृपावडे वैवस्वत मनु थया ॥५८॥

राजर्षि सत्यव्रत अने पोतानी योगमायाथी मत्स्यरूप धरनार भगवाननो आ संवाद अने श्रेष्ठ आख्यानने साम्भळवा मात्रथी माणस बधां पापथी मुक्त थई जाय छे ॥५९॥

आ भगवद्‌ अवतारनुं जे माणस हम्मेशां कीर्तन करे छे तेना सर्व सङ्कल्पो सिद्ध थाय छे अने ए परम गतिने प्राप्त थाय छे ॥६०॥

प्रलयपयसि धातुः सुप्तशकतेर्मुखेभ्यः श्रुतिगणमुपनीतं प्रत्युपादत्त हत्व ा। दितिजमकथयद्‌ यो ब्रह्म सत्यव्रतानां तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि ॥६१॥

प्रलयना जळमां ब्रह्माजीनी सर्जन करवानी बधी शक्तिओ लुप्त थई गई हती ए वखते एमना मुखमान्थी नीकळेली श्रुतिओ ‘हयग्रीव’ नामनो दानव चोरी गयो हतो त्यारे दानवने मारी सर्व श्रुतिओ ब्रह्माजीने पाछी आपी अने वेदोना साररूप मत्स्य पुराणरूप ब्रह्मनुं दान ब्राह्मणो तेमज सत्यव्रतने जेमणे कर्युं हतुं ते समस्त जगतना कारणरूप लीलाथी मत्स्य रूप धरनार भगवानने हुं नमुं छुम् ॥६१॥

इति श्रीभागवत अष्टमस्कन्धमां (चोथा मत्स्यावताररूप निर्गुण प्रकरणनो पहेलो-एक ज) ‘‘भगवाने मत्स्यनुं रूप धरी सत्यव्रतनी रक्षा करी’’ नामनो चोवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अष्टमस्कन्ध सम्पूर्ण [[४४३]]