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सप्तमस्कन्ध उतिलीला कर्मवासना (दक्षिण श्रीहस्त) कर्मवासना (अध्याय१५) असद्वासना सद्वासना सदसद्वासना अ.१-५ अ.६-१० अ.१०-१५ अविद्यानापाञ्चपर्वो विद्यानापाञ्चपर्वो अविद्यानापाञ्चपर्वो अथवापञ्चअधिष्ठानादिकर्मो आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक

विशेष - ए प्रमाणे छठ्ठा स्कन्धमां पुष्टि कही. दुःखनो अभाव अने सुख फळ छे. ए आ लोकनुं तेमज परलोकनुं एम बे प्रकारनुं छे. पुष्टिमां पक्षपात दोष लागे तेथी पन्दर अध्यायथी ए मटाडवामाटे ‘ऊतिलीला’ सप्तम स्कन्धमां कहेवामां आवे छे. भगवानने कामादि न होय तेथी विषमता एने न घटे छतां कोईनी उपर अनुग्रह करे अने कोई उपर न करे ए दोष लागे. एनी निवृत्तिमाटे वासना कहेवामां आवे छे. अध्यात्मिक आदि त्रण भेदथी कर्म त्रण प्रकारनुं छे. ए पाञ्च जातनुं होवाथी तेना पन्दर [[२३१]] भेद थया. माटे ‘ऊतिलीला’ पन्दर अध्यायथी कहेवामां आवे छे. भगवान्‌ सृष्टिना आरम्भमां जे विचार करे छे ते ज जीव वासनावडे पामे छे. जीवने ए ज हितावह छे. एटले ए लीलामां जीवनी वासनाथी तेम थाय छे माटे ईश्वरने विषमतानो दोष लागतो नथी. आ ऊतिलीलामां असद्‌ वासना, सद्‌ वासना अने सदसद्‌ वासना एम त्रण प्रकरण पाञ्च-पाञ्च अध्यायनां छे. दैत्यना अंशथी हिरण्यकशिपु अने देवना अंशथी प्रह्‌लाद कह्या छे. तेथी कर्मथी ज एम बने छे. नारदजीमां ए त्रणेनो आवेश होवाथी ए अत्रे वक्ता छे. आ स्कन्धमां श्रोता पण ज्ञानी, भक्त अने कर्म करनार एवा युधिष्ठिर छे. लौकिक अने अलौकिक प्रकारे दैत्योनां पाञ्च कर्म छे तेमां लौकिक कर्म बे जातनुं छे. ए भोगथी पण कहेवाय छे. एमां सत्‌ पुरुषनुं उल्लङ्घन करवुं ए सेवाधर्म नथी. एम ज होय तो जय, विजय सनक आदिने रोकतां विनन्ति करी समजावत. परन्तु दैत्य स्वभावनो उद्‌गम थतां एमणे एम कर्युं त्यारे सनक आदिए एमने वैकुण्ठमां रहेवाने लायक नथी एम जाणी शाप आप्यो. ए वासना त्रण प्रकारनी स्पष्ट रीते देखाई तेथी जय, विजयने त्रण जन्म लेवा पड्याःलोभथी पहेलो, कामथी बीजो अने क्रोधथी त्रीजो. हिरण्यकशिपुना प्रथम जन्ममां लोभ वासना उत्पादक छे; तेथी ज भगवान्‌ पण क्रोधरूपे प्रकट थया. प्रभु क्रोधादि दोषने स्वीकारे त्यारे भक्तनो दोष दूर थाय. तेथी ज नृसिंह अवतार थतां दैत्यना लोभथी वासना निवृत्त थई. अर्ही हिरण्यकशिपुनो अधिकार साबित करवाने एणे पोताना कुटुम्बने ज्ञाननो उपदेश कर्यो ए वात छे. एणे तप कर्युं, ब्रह्माजीनी स्तुति करी एमनी पासेथी वरदान मेळव्युं ए बधां एना अधिकार सूचक छे. अत्यन्त वासना वधवाथी भोगमां अतृप्ति थई, भाई (हिरण्याक्ष) ना मरावाथी हिरण्यकशिपुने भगवान्‌ प्रत्ये द्वेष थयो अने पुत्रमां स्नेह थयो ते बधुं वासनाथी थयुं. तो अर्ही शङ्का थाय के दुष्ट वासनावाळा दैत्यने त्यां ज भक्तनुं आववुं केम थयुं? पूर्वे कह्युं छे के दैत्यने अधिकार छे. तेथी ज ज्ञान अने तप वगेरे करवानुं कहेवामां आव्युं छे. तेथी ते वैकुण्ठमां गयो त्यारे ‘‘अतोहमस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराक्‌दृशः’’ ए वाकयवडे भगवान्‌ एना हृदयमां दाखल थई गया. दैत्ये भगवानने न जोया त्यारे पाछो फर्यो छे. एना हृदयमां भगवान्‌ पधार्या ते पुत्ररूपे प्रकट थया छे. तेथी जो शत्रु पुत्ररूपे आवे तो एनी साथे बापने वेर थाय छे. आथी हिरण्यकशिपुए प्रह्‌लादने मारवाना प्रयत्न करी द्वेष प्रकट कर्यो छे. ‘‘औद्धत्यं सर्वपीडा च स्वपीडानिर्वृत्तिः सदा। भगवद्भक्त पीडा च वासना पञ्चधोदिता॥ तत्त्वार्थदीप निबन्ध स्कन्ध ७, कारिका २९’’ए श्लोकथी दैत्यवासनावडे अविद्यानां पाञ्च पर्व बतावी पाञ्च अध्यायमां ‘असद्वासनाथी’ जे थाय ते बतावी आप्युं. [[२३२]] हवे वचला पाञ्च अध्यायवडे ‘सद्वासना’ प्रकरण कहेवाय छे. ज्यारे दैत्यभाव निवृत्त थाय त्यारे बधानी मुक्ति थाय छे. जे सर्वनो मोक्ष करे छे ते ज सद्वासना कहेवाय. दया ए पहेलुं पर्व; महाकृपा ए बीजुं पर्व; भगवान्‌ दुःखथी भक्तने छोडावे ए त्रीजुं पर्व; जीव भगवत्‌ सन्मुख रहे ए चोथुं पर्व; अने काया, वाणी अने मनना भाववडे भगवन्‌ निष्ठित थाय त्यारे भगवत्‌ प्रसाद थाय अने निर्दुष्ट सर्व सुख एने प्राप्त थाय ए पाञ्चमुं पर्व. अर्ही शङ्का थाय के ऊतिलीलामां प्रथम सद्वासना कह्या पछी असद्वासना कहेवी जोईए तो आम ऊलटो क्रम केम? समाधान आ प्रमाणे छेःज्यारे असद्वासना जाय त्यारे सद्‌ वासना थाय छे. तो अर्ही आ स्कन्धना दशमा अध्यायमां मय दैत्य अने त्रिपुर आदिनी कथानुं शुं कारण? कारण ए छे के दुष्ट वासना मोहथी थाय छे. मोहनुं मूळ माया छे. सद्वासनानुं मूळ हरि छे. ए बताववाने त्रिपुर दैत्यने त्यां भगवाने जई रसरूप अमृतनुं पान करी देवोनी रक्षा करी, प्रह्‌लादद्वारा ज्ञान आपी दैत्योना छोकराओने मुक्त कर्या. हिरण्यकशिपुने देहवियोग करावी लोभथी मुक्त कर्यो. प्रह्‌लादने दैहिक दुःखथी मुक्त कर्यो. ‘‘मैवं वरो सुराणाम्‌’’ इत्यादि उपदेश करी अविचारी कार्यरूप ब्रह्माजीने क्लेशथी मुक्त कर्या. महादेवजीने त्रिपुर हनन-वैक्ल्य क्लेशथी मुक्त कर्या. मय दैत्य शिवभक्त छे तेने पण क्लेश मुक्त कर्यो. आ प्रकरणमां मर्यादापुष्टि सहकारिणी छे एम देखाडी आप्युं. सत्सङ्गथी सद्‌ वासना वधे अने दुष्ट सङ्गथी दुर्वासना वधे छे एम पण आथी बताव्युं. अर्ही बीजुं प्रकरण पूरुं थाय छे. त्रीजा छेल्ला प्रकरणनो विचार आ प्रमाणेछेः ‘‘द्वौ भूतसर्गौ’’ए वाकयथी बे सर्ग कह्या तेथी बे सर्गमां वासना पण बे प्रकारनी होय. एवी वासना सत्‌ अने असत्‌ एवी बे प्रकारनीछे. हवे ‘सदसद्वासना’शा माटे कहेवी? कारण मिश्र भाववाळाने बन्ने भाव थवा सम्भव छे तेथी ए प्रकरणनी पण जरूर छे. ए ज कहे छे के ए वासनाओमां श्रवण आदिथी सद्वासनाओनुं पोषण थाय पण एनुं मूळ अविद्या छे ते प्रायश्चित आदिथी निवृत्त थती नथी. तेथी जय, विजय वैकुण्ठमां पहोञ्च्या छतां एओने असद्वासना थतां सदतिक्रम थयो. आ सूक्ष्मता समजवा माटे नारदजीए कह्युं छे ः ‘‘किं भूयः श्रोतुमिच्छसि’’ भक्तिमार्ग ज एवो छे के जेमां दुर्वासना गई होय ते पाछी उद्‌भवती नथी. ज्ञान अने कर्म वडे वासना निवृत्त थाय छे पण पाछी उपमर्दक भावथी काळे करीने दुर्वासना थाय छे. ‘‘कषायपङ्क्तिः कर्माणि’’ दोषने पकवनार कर्मो छे. पकव थयेल दोषो तुरत नाश पामे [[२३३]] छे ए उपाय आ प्रकरणमां बतावे छे. साधारण धर्म तथा वर्णाश्रम धर्मवडे दुर्वासनानो नाश थाय छे. ब्रह्माण्डमां जेटला धर्म वासनानां पोषक छे तेनी निवृत्तिमाटे ‘‘सत्यं शौचं’’ वगेरे त्रीस धर्म कहेवामां आव्या छे तेनाथी बधी दुर्वासनाओनो नाश थाय छे. ए बधा धर्म भगवानना छे ते जो हृदयमां आवे तो हृदयमां भगवाननी स्थिति करावे अने देहात्मभावनुं दहन करे. तेथी एक अध्यायथी ब्रह्मचारी अने वानप्रस्थना धर्म क्ह्या, त्रीजामां सन्न्यास धर्म क्ह्या. तेथी पण धर्मनुं फळ अर्थ अने काम तो नथी एम कहेवामां आवी गयुं. ए प्रकारे सामान्य अने वर्णाश्रम धर्मथी वासनानो क्षय थाय, पछी भक्ति थाय छे. भक्तिनो अधिकार वासनावाळाने नथी. छतां सत्सङ्ग के सङ्ग थी कृष्णने भजे पण वासनानुं मूळ गयेलुं न होवाथी भक्ति करतां-करतां एने हरिमां द्वेष थाय अथवा दुर्बुद्धि थाय तो एनाथी अपराध थाय छे. भक्ति करे छतां ए दुष्ट एटले दोषवाळो थाय छे. त्यारे भगवान्‌ एवा भक्तनी उपेक्षा करे छे त्यारे काळकर्म आदिना उपद्रवथी ए दुर्वासनावाळो भक्त दुःख पामे छे. भीष्म, अक्रूर वगेरे एना दृष्टान्त छे. युधिष्ठिर कृष्णना भक्त छे तेने नारदजी कर्मनो उपदेश करे छे. एमां कहे छे के जीव विधर्म आदिनो त्याग करी कर्म करे तो दुर्वासना मटे, जीवने ब्रह्मभाव थाय त्यारे वासना टळे पण गुरुना उपदेश वगेरेथी ज्ञान थाय त्यारे दोष पक्व थई एनो नाश थाय. एनो उपाय ज्ञान अने भक्ति बन्ने छे. तपवडे प्राणनी वासना, योगवडे इन्द्रियनी अने कर्मवडे शरीरनी वासना नष्ट थाय छे. सर्व वर्णवाळाए पाञ्च प्रकारनुं कर्म करवुं पण एमां भक्ति जे अधिकार आपे ते कोई आपी शक्तुं नथी. अन्तःकरणना धर्म क्षीण थाय त्यारे वासना क्षय पामे. माटे धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे. सर्वनुं मूळ ब्राह्मणो छे. एमनी कृपाथी बधुं थाय. ए ब्राह्मणो ज मर्यादामां मुख्य साधनरूप छे तेमनी सेवाथी वासना मटे छे एम बताववामां माटे जय, विजयने ब्राह्मणनो शाप थयो अने त्रण जन्मे पाछा भगवानने पामवानो प्रसाद पण एमनी पासेथी मळ्यो. ए स्कन्धनो सार छे. सर्वनुं कारण भगवान्‌ छे. ए जेमां निष्ठा करावे ते करवुं. ए बधी भगवाननी लीला छे. भगवान्‌ स्वतन्त्र छे. अर्ही ‘ऊतिलीला’ समाप्त थाय छे. टूङ्कमां पन्दर अध्यायथी जीवने पोत पोताना कर्मने अनुसारे जे वासना थाय छे तेनुं वर्णन आ स्कन्धमां करवामां आवे छे. ए कर्म वासनानुं नाम ज ‘ऊतिलीला’. भेदवडे ए शुभ अने अशुभ ए बे प्रकारनी छे. मोटानो कोप थाय तो तेथी अशुभ वासना थाय छे. अनुग्रह थवाथी शुभ वासना थाय छे. भगवानना द्वारपाल जय, विजय वैकुण्ठमां रहेता हता तेओने भगवद्‌ भक्त सनक आदिकना कोपथी भगवान्‌मां अशुभ वासना थई. प्रह्‌लाद दैत्य होवा छतां तेने नारदजीना अनुग्रहथी भगवद्भक्तिरूप वासना थई. [[२३४]] पोतानो भक्त द्वेष करतो होय छतां भगवान्‌ एनुं रक्षण करे छे. तेथी ज जय, विजयने त्रीजे जन्मे भगवाने पोतानी पासे लई लीधा छे. आ उपरथी डाह्या पुरुषे मोटानो अनुग्रह थाय एवो प्रयत्न करवो. एटला माटे अर्ही ‘ऊतिलीला’ नुं लक्षण कह्युं छे तेथी अर्ही दश अध्यायवडे हिरण्यकशिपु अने प्रह्‌लाद ने मोटाना कोपथी तथा मोटाना अनुग्रहथी असद्वासना अने सद्वासना कहेवामां आवे छे. असद्वासना मोटाना कोपथी थाय छे तेनुं वर्णन पाञ्च अध्यायथी करवामां आव्युं छे. हिरण्यकशिपुने विष्णुना भक्त पोताना पुत्र प्रह्‌लादनी साथे शापने लीधे विरोध थयो. पुत्रमां विरोध केम सम्भवे? कारण ए छे के हिरण्यशिपु, हिरण्याक्ष पूर्व अवस्थामां भगवानना द्वारपाल, जय, विजय हता. एणे ब्राह्मणने (सनक आदिने) वैकुण्ठमां जता अटकाव्या त्यारे ए वखते एमणे एने भगवद्‌ धाममां विषमता करता जोईने शाप आप्यो तमे वैकुण्ठमां वास करवाने लायक नथी पण पृथ्वी उपर रहेवा लायक छो; तेथी पृथ्वीमां जाओ त्यारे तेओ पृथ्वी उपर दैत्यो थया अने एने लीधे ज एणे भक्तपुत्रनो पण द्रोह कर्यो. पहेलुं असद्वासना प्रकरण

अध्याय १

हिरण्यकशिपुने भक्तपुत्रमां वेर थवानुं कारण समः प्रियः सुहृद्‌ब्रह्मन्‌ भूतानां भगवान्‌ स्वयम्‌ ॥ इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यान्‌ अवधीद्विषमो यथा ॥१॥

परीक्षिते पूछ्‌युं - भगवान्‌ तो सर्व प्राणीना सुहृद अने सर्वना प्रिय छे. भगवान्‌ तो स्वभावथी ज भेदभाव रहित छे तो एमणे विषम दृष्टिवाळो करे तेम इन्द्रने माटे दैत्योने केम मार्या? ॥१। हे ब्रह्मन्‌! साक्षात्‌ स्वरूपानन्दरूप भगवान्‌ तो स्वयं परिपूर्ण कल्याण स्वरूप छे तेथी देवोथी कांई काम लेवानुं नथी अने निर्गुण होवाथी दैत्यो साथे वेर-विरोध नथी तेम उद्वेग पण नथी ॥२॥

हे भगवत्‌ प्रेमना सौभाग्यथी सम्पन्न महात्मन्‌! अमने सर्वने नारायणना गुणोना सम्बन्धमां भारे सन्देह उत्पन्न थयो छे ते आप ज दूर करवाने समर्थ छो ॥३॥

[[२३५]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे महाराज! तमे भगवाननुं अद्‌भुत चरित पूछ्‌युं ए बहु ज सारुं कर्युं. हुं तमने नारदजी वगेरे ऋषिओ गाय छे ते भगवाननी कथा श्रीवेदव्यासजीने नमस्कार करीने कहीश. एमां भगवाननी भक्तिने वधारनार भगवद्भक्तिनुं पवित्र माहात्म्य आवे छे. ॥४-५॥

(हवे पछी आपेला मोटा कौंसमान्ना ३ श्लोक प्रक्षिप्त छे). जीभ मेळवीने जे कीर्तन करवा योग्य विष्णुनुं कीर्तन करतो नथी ते दुर्बुद्धिवाळो मोक्षरूपी सीडी मेळव्या छतां एनी उपर चढी शक्तो नथी ॥१॥

एटला माटे जेओ गोविन्दनुं माहात्म्य जे आनन्दरसथी सुन्दर छे ते नित्य श्रवण करी गाय छे तेओ निःसंशय कृतार्थ थाय छे ॥२॥

माटे हे धैर्यवान्‌ नृप श्रेष्ठ! ए पवित्र करनारी तथा महापुण्य आपवा वाळी अने गोविन्दना माहात्म्यथी भरेली कथा तमे साम्भळो ॥३॥

कोईने व्यक्तताथी न जणाय माटे अजन्मा अने निर्गुण भगवान्‌ पोतानी सृष्टि करनारी मायाना गुणोनो स्वीकार करी बाध्य-बाधकभावने प्राप्त थाय छे, अर्थात्‌ मरनार अने मारनार बन्नेनां परस्पर विरोधी रूपो ग्रहण करे छे ॥६॥

सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण ए त्रण गुण प्रकृतिना छे, आत्माना नथी ते त्रण गुणो पण एकदम वधी के घटी जता नथी ॥७॥

भगवान्‌ समय-समयनी इच्छा प्रमाणे गुणोनो स्वीकार करे छे, सत्त्व गुणनी वृद्धिना समये देवता अने ऋषिओने, रजोगुणनी वृद्धिना समये दैत्योने अने तमोगुणनी वृद्धिना समये यक्षो अने राक्षसो नी अन्दर आविष्ट थईने एओने वधारे छे ॥८॥

जेम अग्नि एक छतां उपाधि भेदथी भिन्न छे तेम भगवान्‌ एक छतां देव, असुर अने मनुष्य मां भिन्न देखाय छे. विद्वान पुरुषो काष्ठना मथनथी अग्निनी पेठे आ देहमान्थी आत्माने जुदो मेळवी शके छे ॥९॥

ज्यारे परमेश्वर पोताने माटे शरीरो उत्पन्न करवा धारे छे त्यारे ए पोतानी मायाथी रजोगुणनी अलग सृष्टि करे छे. ज्यारे ते विचित्र योनिओमां क्रीडा करवानी इच्छा करे छे त्यारे सत्त्वगुणनी सृष्टि करे छे अने शयननी इच्छा करे छे त्यारे ए तमोगुणने वधारे छे ॥१०॥

हे परीक्षित! भगवान्‌ सत्य सङ्कल्प छे. एनी इच्छामां हर ब्रह्मा आदि पण [[२३६]] मीन मेख न करी शके. तेओ ज जगतनी उत्पत्तिना कारण प्रकृति अने पुरुष ना सहकारी अने आश्रय काळने उत्पन्न करे छे. तेथी ते काळने आधीन नथी पण काळ तेने आधीन छे. ए काळरूपी ईश्वर ज्यारे सत्त्वगुणनी वृद्धि करे छे त्यारे सत्त्वमय देवताओनुं बळ वधारे छे अने त्यारे ज ए परम तमोगुणी दैत्योनो संहार करे छे. खरेखर तो ए ज सम ज छे ॥११॥

हे राजन्‌! आ विषयमां देवर्षि नारदजीए परम प्रेमथी एक इतिहास कह्यो हतो. आ समयनी वात छे ज्यारे राजसूय यज्ञमां तमारा दादा युधिष्ठिरे एमने ए बाबतमां एक प्रश्न पूछ्‌्यो हतो ॥१२॥

ए महान राजसूय यज्ञमां राजा युधिष्ठिरे पोतानी ज आङ्खे एक भारे आश्चर्य जनक घटना जोई के चेदिराज शिशुपाल बधाना देखतां ज भगवान्‌ श्रीकृष्णमां समाई गयो. तेनुं श्रीकृष्ण भगवान्‌मां सायुज्य थई गयुम् ॥१३॥

ए जोईने यज्ञमां पाण्डुना पुत्र राजा युधिष्ठिर विस्मय पामी गया अने त्यां बेठेला नारदमुनिने बधा मुनिओना साम्भळतां पूछयुम् ॥१४॥

युधिष्ठिर बोल्या - अहो! आ तो एक अद्‌भुत वात कहेवाय के शिशुपाल श्रीकृष्णनी साथे शत्रुता राखतो हतो छतां अनन्य भक्तने पण दुर्लभ एवी वासुदेव रूप परतत्त्वनी एने प्राप्ति थई ॥१५॥

हे मुने! अमने बधाने ए जाणवानी इच्छा छे. भगवाननी निन्दा करवाथी वेन राजाने तो ऋषिओए नरकमां पहोञ्चाड्यो हतो ॥१६॥

दम घोषनो छोकरो आ पापी शिशुपाल अने दुर्मति दन्तवक्‌त्र बन्ने ज्यारथी बोलतां शीख्या त्यारथीज अत्यार सुधी भगवाननी साथे द्वेषज करता रह्या छे ॥१७॥

अविनाशी परब्रह्म भगवान्‌ श्रीकृष्णने तेमणे अनेकवार गाळो दीधा करी छे. परन्तु एना फळरूपे एमनी जीभमां कोढ नीकळ्यो नहि के एने घोर अन्धकारमय नरकमां पण जवुं पड्युं नहि ॥१८॥

परन्तु जे भगवाननी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ छे तेना स्वरूपमां बधा लोकोनां देखतां अनायास ज लयने पाम्या, एवुं केम बन्युं? ॥१९॥

ए विषयमां वायुमां दीवानी ज्योतिनी माफक मारी बुद्धि भम्या करे छे. हे भगवन्‌! आ अत्यन्त अद्‌भुत घटनानुं रहस्य मने कहो ॥२०॥

[[२३७]] श्रीशुकदेवजीए कह्युं - युधिष्ठिरनुं वचन साम्भळी सर्व समर्थ नारद ऋषि प्रसन्न थया अने बधी सभा साम्भळे तेम युधिष्ठिरने कहेवा लाग्या ॥२१॥

नारदजीए कह्युं - हे युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार अने तिरस्कार तो आ शरीरना थाय छे अने आ शरीरनी कल्पना प्रकृति अने पुरुषनो विवेक न होवाथी ज थई छे ॥२२॥

ज्यारे आ शरीरने ज आत्मा मानी लेवामां आवे छे त्यारे ‘‘आ हुं छुं अने आ मारुं छे’’ एवी धारणा बन्धाय छे. आ ज बधा भेदभावनुं मूळ छे. एने लीधे ज मार अने दुर्वचनोथी दुःख थाय छे ॥२३॥

जे देहमां अभिमान छे ते देहनो वध थतां प्राणी पोतानो वध थयो एम समजे छे, परन्तु एवुं अभिमान भगवान्‌मां तो छे नहि कारण के ते अद्वितीय अने सर्वात्मा छे. ए जे बीजाने दण्ड दे छे ए पण एमना कल्याणने माटे ज, क्रोधथी अथवा द्वेषथी नहि. तो पछी भगवाननी बाबतमां हिंसानी कल्पना तो करी ज केवी रीते शकाय? ॥२४॥

तेथी (भगवान्‌मां आम देहाभिमान न होवाथी) भले तो पूरा वेरभावथी अथवा निर्वैर भक्तिभावथी, भयथी, स्नेहथी अथवा कामथी गमे तेम होय, भगवान्‌मां पोतानुं मन पूरेपूरुं लगाडी देवुं जोईए. भगवाननी दृष्टिए आ बधा भावोनुं मूल्य एक सरखुं छे ॥२५॥

हे युधिष्ठिर! मारो तो एवो दृढ निश्चय छे के मनुष्य वेरभावथी भगवान्‌मां जेटलो तन्मय थई जाय छे एटलो भक्तिभावथी थतो नथी ॥२६॥

भमरी कीडाने उपाडी लावी र्भीतमान्ना पोताना दरमां पूरी मूके छे. ते कीडो उद्वेग अने फफडाट ने लीधे भमरीनुं ज चिन्तन करतां-करतां भमरी जेवो ज (एक मत प्रमाणे भमरी ज) बनी जाय छे ॥२७॥

आ ज वात भगवान्‌ श्रीकृष्णना सम्बन्धमां पण एटली ज साची छे. लीलाथी मनुष्य जणाता ए सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ज छे. एनी साथे वेर करनारा पण एनुं चिन्तन करतां-करतां पाप रहित थई एने ज प्राप्त थई गया ॥२८॥

एक नहि अनेक मनुष्यो कामथी, द्वेषथी, भयथी अने स्नेहथी पोताना मनने भगवान्‌मां लगाडी दई ए ज रीते भगवानने प्राप्त थया जेवी रीते भक्तो भक्तिथी प्राप्त थया ॥२९॥

[[२३८]] हे राजन्‌! गोपीओ कामथी, कंस भयथी, शिशुपाल, दन्तवक्‌त्र वगेरे राजाओ द्वेषथी, यादवो कुटुम्बना सम्बन्धथी तमे स्नेहथी अने अमे भक्तिथी पोतानुं मन भगवान्‌मां लगाड्युं छे ॥३०॥

भक्तो सिवाय जे पाञ्च प्रकारना भगवाननुं चिन्तन करनारा छे एमान्थी राजा वेननी तो एकेयमां गणना न थाय. कारण के ते पापी हतो अने तेणे कोई पण प्रकारे भगवान्‌मां मन लगाड्युं न हतुं. तेथी पोतानुं मन गमे तेम करीने श्रीकृष्णमां तन्मय करी देवु जोईए ॥३१॥

हे पाण्डव! वळी तमारी मासीना पुत्र शिशुपाल अने दन्तवक्‌त्र विष्णुना मुख्य पार्षद हता पण ब्राह्मणोना शापथी ए भगवत्पदथी च्युत थई (खसी) ने अर्ही आव्या हता ॥३२॥

युधिष्ठिरे पूछ्‌युं - भगवानना दासनो पराभव करे एवो शाप केवो? अने कोनो होय जेथी भगवानना चरणमां पहोञ्चेलानो पण संसारमां पात थाय? आ वात मने तो मानवामां न आवे तेवी लागे छे ॥३३॥

जेने प्राकृत देह, इन्द्रिय, प्राण नथी तेवा वैकुण्ठपुरमां रहेनाराओने अर्ही प्राकृत शरीरनो सम्बन्ध केवी रीते थवा पाम्यो ए आप अवश्य सम्भळावो ॥३४॥

नारदजीए कह्युं - एक वखते दैव इच्छाथी ब्रह्माजीना मानस पुत्रे सनकादिक त्रण लोकमां फरता-फरता विष्णुना लोकमां आव्या ॥३५॥

आम तो तेओ पूर्वजना पण पूर्वज छे, प्राचीनमां प्राचीन छे पण लागे छे एवा के जाणे पाञ्च वर्षना बाळक होय. वस्त्र पण पेहेरता नथी. एमने साधारण बाळको जाणी द्वारपालोए द्वार आगळ रोकी दीधा ॥३६॥

ब्राह्मणो गुस्से थया अने द्वारपालोने शाप आप्योः‘‘रजोगुण अने तमोगुण रहित भगवाननां चरणमां तमे रहेवाने लायक नथी. माटे हे मूर्खो! तमे अर्हीथी पापमयी आसुरी योनिमां जलदी जाओ’’ ॥३७॥

शाप लागतां ए वैकुण्ठथी पडवा लाग्या त्यारे ब्राह्मणो दया लावी बोल्या के फरीथी त्रण जन्मे तमे पाछा वैकुण्ठमां आवी जशो ॥३८॥

ए जय विजय दैत्यदानवना समाजमां सर्व श्रेष्ठ दितिना पुत्रो रूपे हिरण्यकशिपु अने हिरण्याक्ष थया जेमां हिरण्याक्ष नानो अने हिरण्यकशिपु मोटो हतो ॥३९॥

[[२३९]] हिरण्यकशिपुने भगवाने नृसिंहरूपे प्रकट थईने मार्यो अने हिरण्याक्षने पृथ्वीनो उद्धार करवाने भगवाने वराह अवतार ग्रहण करीने मार्यो ॥४०॥

पोतानो पुत्र प्रह्‌लाद भगवत्प्रेमी होवाथी हिरण्यकशिपुनी इच्छा एने मारी नाखवानी हती अने ए आशय पूरो करवा प्रह्‌लादने अनेक प्रकारनां दुःख आपवा लाग्यो ॥४१॥

परन्तु प्रह्‌लाद सर्वात्मा भगवानना परम प्रिय थई गया हता, समदर्शी बनी गया हता, भगवानना प्रभावथी सुरक्षित हता तेथी अनेक उपायो कर्या छतां हिरण्यकशिपु एने मारी नाखवामां सफळ न ज थयो ॥४२॥

ए ज बन्ने विश्रवा मुनिद्वारा केशिनी (कैकसी) ना गर्भथी राक्षसोना रूपमां पेदा थया. एमनां नाम हता रावण अने कुम्भकर्ण. एमना उत्पातोथी तो बधा लोको घणां दुःखी थवा लाग्या ॥४३॥

त्यारे पण भगवाने रामावतार धारण करी ब्राह्मणना शापथी छोडाववामाटे ए बन्नेने मार्या. हे प्रभो! तमे रामनां आ पराक्रमो मार्कण्डेय मुनिना मुखथी साम्भळशो ॥४४॥

ए बन्ने जय-विजय आ वखते क्षत्रिय कुळमां तमारी मासीना पुत्रो थया हता. श्रीकृष्णना चक्रनो स्पर्श थई जवाथी तेओ हमणां ज पापमुक्त थई सनकादिना शापथी मुक्त थई गया ॥४५॥

वेरभावने लीधे निरन्तर तेओ भगवान्‌ श्रीकृष्णनुं चिन्तन कर्या करता हता. ते तीव्र तन्मयताना फलरूपे तेओ भगवानने प्राप्त थई गया अने फरी एमना पार्षद बनी जई एमना ज सान्निध्यमां पहोञ्ची गया ॥४६॥

विद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि ॥ ब्रूहि मे भगवन्‌ येन प्रह्‌लादस्याच्युतात्मता ॥४७॥

युधिष्ठिरे कह्युं - हे भगवन्‌! हिरण्यकशिपुए पोताना पुत्र प्रह्‌लाद उपर आटलो बधो द्वेष केम कर्यो? तेमांय वळी प्रह्‌लाद तो महात्मा हता! साथे ए पण मने बतावो के प्रह्‌लाद कया साधनथी भगवन्मय थई गया ॥४७॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (पहेलो असद्वासना प्रकरणनो) ‘‘हिरण्यकशिपुने भक्तपुत्रमां वेर थवानुं कारण’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[२४०]]

अध्याय २

हिरण्यकशिपुए हिरण्याक्षना शोकथी दिति तथा एना पुत्रोने मुक्त कर्या

विशेष - आ बीजा अध्यायमां पोताना भाईने मारनार विष्णुनो द्रोह करतो हिरण्यकशिपु दैत्योद्वारा लोकनो नाश करवामां प्रवृत्त थाय छे अने भाईना शोकथी दुःखी थता पोताना कुटुम्बने ज्ञानना उपदेशथी शान्त करे छे. भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ॥ हिरण्यकशिपू राजन्‌ पर्यतप्यद्रुषा शुचा ॥१॥

नारदजीए कह्युं - हे राजन्‌! वराहरूप धारण करनार भगवाने भाईने मार्यो तेथी हिरण्यकशिपु क्रोधथी भभूकी ऊठ्यो अने शोकथी परिताप करवा लाग्यो ॥१॥

ते क्रोधथी कम्पवा लाग्यो अने दान्तोथी वारंवार होठ कचरवा लाग्यो, क्रोधथी बळती आङ्खोनी आगना धुमाडाथी धून्धळा आकाश तरफ जोईने ए कहेवा लाग्यो ॥२॥

ए वखते विकराल दाढो, आग ओकती उग्र दृष्टि अने चडावेली भ्रमरने लीधे एना सामुं तो जोई शकातुं न हतुं. ते शूळ उठावी भरी सभामां त्रिमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा, शकुन वगेरेने सम्बोधन करीने कहेवा लाग्यो, ‘‘दैत्यो अने दानवो! तमे बधा मारी वात साम्भळो अने मारा हुकम प्रमाणे वगर विलम्बे तैयारी करो तेमां ढील न थवी जोईए ॥३-
५॥

क्षुद्र शत्रुओए समान बळवाळा विष्णुनी मदद लई मारा भाईने एनी पासे मराव्यो छे ॥६॥

आ विष्णु पहेलां तो बहु शुद्ध अने तटस्थ हतो. परन्तु हमणां-हमणां मायाथी वराह वगेरेनुं रूप लेवा लाग्यो छे अने जेणे पोतानो मूळ स्वभाव छोडी दीधो छे. बाळकनी माफक जे एनी सेवा करे तेनो पक्ष लई ले छे. आम एनुं चित्त स्थिर नथी ॥७॥

मारा शूळथी एनी गरदन उडावी दई, लोही काढी एना रुधिरनी धाराथी मारा प्रिय भाई हिरण्याक्षनुं तर्पण करीश त्यारे मारा मननुं दुःख जशे ॥८॥

[[२४१]] कपटी हरिने मार्यो एटले मूळ कपाई जतां वृक्षनां पान्दडां, डाळीओ एनी मेळे सुकाई जाय तेम विष्णु जेना प्राणरूप छे तेवा देवो एनी मेळे मरी जशे ॥९॥

तेथी तमे बधा हमणां-हमणां ब्राह्मण अने क्षत्रियो थी समृद्ध पृथ्वी उपर जाओ. त्यां जे लोको तपस्या यज्ञ स्वाध्याय व्रत दान वगेरे शुभ कर्मो करता होय ए बधानेमारो ॥१०॥

विष्णुनुं मूळ द्विजातिओना धर्म अने कर्म छे; कारण के यज्ञ अने धर्म ज एनां स्वरूप छे. देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी अने धर्मनो ते ज परम आश्रय छे ॥११॥

ज्यां-ज्यां ब्राह्मणो, गायो, वेदो, वर्णाश्रमधर्म अने एनी क्रिया थती होय त्यां-त्यां तमे जाओ अने ते-ते देशमां जई ते-ते देशने बाळी नाखी उज्जड करी दो’’ ॥१२॥

मारफाड तो ते दैत्योने स्वभावथी ज प्रिय होय छे तेथी ए स्वामीना हुकमने आदरथी मस्तकवडे मान आपीने प्रजाओनुं निकन्दन काढवा लाग्या ॥१३॥

शहेरो गामडां, नेस, बगीचा, खेतरो, फरवा जवाना ठेकाणां, ऋषिओना आश्रमो, खाणो, खेतरो खेडनारना निवासो, पर्वतनी खीणमां रहेनारना वासो अने अहीरोना निवासोने तथा वेपारना केन्द्र मोटां-मोटां शहेरोने सळगावी मूक्यां ॥१४॥

केटलाक दैत्योए कुहाडाथी मोटा-मोटा पुल, गढ, नगरना दरवाजाने तोडी-फोडी नाख्या तथा बीजाए कुहाडीओथी लीलाछम झाडवां कापी नाख्यां. केटलाके वळी सळगतां लाकडांओथी लोकोनां घरोमां आग चाम्पी दीधी ॥१५॥

आ प्रमाणे दैत्योए निर्दोष प्रजाने पीडवामां कंई कसर न राखी. ए वखते देवताओ स्वर्ग छोडी दई छूपा वेषमां पृथ्वी उपर फरता हता ॥१६॥

हिरण्यकशिपु मरेला भाईने जोई दुःखी थयो अने एने अञ्जलि आपी भाईना पुत्रोने समजाववा लाग्यो ॥१७॥

शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन्‌, वृक्‌, कालनाभ, हरिश्मश्रु अने उत्कच तथा एनी मा रुषाभानु अने एनी दादी तथा हिरण्याक्षनी मा दिति वगेरेने हिरण्यकशिपुए मधुर वाणीथी देशकाळने अनुरूप कह्युंः ॥१८-१९॥

हिरण्यकशिपु बोल्यो - हे वहाली माता! वहु, पुत्रो, वीरनो शोक न होय. वीर [[२४२]] पुरुषो तो एवुं ज इच्छता होय छे के लडाईना मेदानमां पोताना शत्रुनी सामे लडतां-लडतां पोते प्राण छोडे ॥२०॥

हे देवी! जेवी रीते परब उपर घणा लोको भेगा थई जाय छे, परन्तु एमनुं हळवुं-मळवुं थोडा समयमाटे ज होय छे तेवी रीते कर्मवशात्‌ (ऋणानुबन्ध प्रमाणे) जीवो पण आ दुनियामां भेगा थाय छे अने छूटा पडे छे ॥२१॥

वास्तवमां आत्मा तो नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ अने देह इन्द्रिय आदिथी अलग छे. ते पोतानी अविद्याथीज देह आदिनी सृष्टि करी भोगोना साधन सूक्ष्म शरीरनो स्वीकार करे छे ॥२२॥

जल हालतुं होय त्यारे तेमां जेनो पडछायो पडेलो छे तेवां वृक्षो पण हालतां होय तेवां जणाय छे. फेरफुदरडी फरती वखते आखी पृथ्वी फरती होय तेम जणाय छे. हे क्ल्याणी! तेवी ज रीते विषयोने लीधे मन भटकवा लागे छे अने साचेसाच तो निर्विकार होवा छतां एनी माफक आत्मा पण भटक्तो होय तेवा जणाय छे. आत्माने स्थूल अने सूक्ष्म शरीरो साथे कंई सम्बन्ध छे ज नहि छतां ते तेनो सम्बन्धी होय तेवो जणाय छे ॥२३-२४॥

शरीर विनाना आत्माने शरीर समजी लेवुं आ ज अज्ञान छे. तेथी ज प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओनुं मळवुं के न मळवुं थाय छे. एथी ज कर्मो साथे सम्बन्ध थई जवाथी संसारमां भटकवुं पडे छे ॥२५॥

जन्म, मृत्यु अनेक प्रकारना शोक, अविवेक, चिन्ता अने विवेकनुं विस्मरण बधान्नुं कारण आ अज्ञान ज छे ॥२६॥

आ विषयमां महात्माओ एक प्राचीन इतिहास कहेता होय छे ते इतिहास मरी गयेला मनुष्यना सम्बन्धीओ साथे यमराजने वातचीत छे. ध्यानथी तमे ते साम्भळो ॥२७॥

उशीनर देशमां एक खूब यशस्वी राजा हतो. एनुं नाम हतुं सुयज्ञ. लडाईमां शत्रुओए तेने मारी नाख्यो. ए वखते एनां सगां वहालां एने घेरीने बेसी गयां ॥२८॥

एनुं रत्ननुं कवच छिन्न-भिन्न थई गयुं हतुं. घरेणां अने मालाओ अस्त- व्यस्त थई गई हती. बाणोना मारथी हृदय चीराई गयुं हतुं. शरीर लोहीमां लदबद हतुं. वाळ विखराई गया हता. आङ्खो नाश पामी गई हती. क्रोधने लीधे एना होठ [[२४३]] दान्तोथी दबायेला हता. कमलना जेवुं एनुं मुख धूळथी ढङ्काई गयुं हतुं अने कपाई गयेलो हाथ हथियार साथे लडाईना मेदानमां पड्यो हतो ॥२९-३०॥

पोताना पतिदेव उशीनर नरेशनी दैववश आ दशा देखी राणीओने बहु दुःख थयुं. तेओ ‘‘हा नाथ! अमे अभागणी तो वगर मोते मरी गई’’ एम मान्था कुटती वारंवार पोताना स्वामीना चरणोमां ढळी पडी ॥३१॥

तेओ जोरजोरथी एटलुं रोवा लागी के एमनी छाती उपर थईने पडतां आंसुओए एमना प्रियतमनां चरणकमल र्भीजवी दीधां. एमना केश अने घरेणां आमतेम विखराई गयां. तेओ करुण रुदन साथे एवो विलाप करी रही हती के जे साम्भळीने मनुष्योना हृदय शोकमां डुबाडी दे ॥३२॥

अरे! निर्दय विधाताए आपने अमारी आङ्खोथी अळगा करी दीधा जे प्रथम आखा उशीनर देशनुं पोषण करनार हता ते ज आप आजे बधानो शोक वधारनार थई गया ॥३३॥

हे महीपते! आप कदरदान अने परम सुहृद हता. आपना वगर अमे केम जीवी शकीशुं? आप ज्यां जाओ त्यां आपना चरणनी सेवामाटे अम दासीओने पाछळ-पाछळ आववानी रजा आपो ॥३४॥

एम पतिना शबने गोदमां लईने विलाप करती तेओ पोताना मरेला पतिनी दहन क्रियामाटे पण आपवा मागती न हती एटलामां सूर्यास्त थयो ॥३५॥

ए वखते सद्‌गत राजाना कुटुम्बीजनोना शोकने साम्भळी यमराजा पोते बाळकनुं रूप लई एमनी पासे आवी पहोच्यां अने तेणे तेमने कह्युम् ॥३६॥

यमराजे कह्युं - अहो आश्चर्यनी वात छे! आ लोको तो माराथी कयांय मोटा अने शाणा छे, लोकोनां जन्ममरण रोजे-रोज तेओ जुए छे छतां आटला मूढ थई रह्या छे. अरेरे! आ मनुष्य ज्यान्थी आव्यो हतो त्यां ज चाल्यो गयो. आ लोकोए पण एक दिवस तो त्यां ज जवानुं छे तो पछी तेओ आ निरर्थक शोक शाने करे छे? ॥३७॥

अमे परम धन्य छीए कारण के अमने अमारां मां-बापे छोडी दीधा छतां अमे कंई चिन्ता करता नथी. वाघ वगेरे अमने खाई जता नथी; तेथी गर्भमां जे रक्षा करे छे ते ज सर्वत्र रक्षा करे छे ॥३८॥

हे अबलाओ! जे निर्विकार ईश्वर पोतानी इच्छाथी आ जगत्‌ पेदा करे छे ते [[२४४]] ज रक्षा करे छे अने लोप करे छे. आ जगत्‌ भगवाननी क्रीडारूप छे. मात्र ते आ चराचर जगतने दण्ड या पुरस्कार आपवा समर्थ छे ॥३९॥

भाग्य सवळुं होय तो रस्तामां पडी गयेली वस्तु जेमनी तेम अकबन्ध पडी रहे छे. पण भाग्य अवळुं थतां घरनी अन्दर तिजोरीमां राखेली वस्तु पण चोराई जाय छे. दैवनी दयादृष्टिथी कंई पण सहाय विना जीव जङ्गलमां घणा दिवस जीवतो रहे छे पण दैव विपरीत थतां घरमां सुरक्षित रहेवा छतां ते मरणने शरणे थाय छे ॥४०॥

बधां प्राणीओनुं मृत्यु पोतपोतानां पूर्वजन्मोनी कर्मवासना प्रमाणे चोक्कस समये थाय छे अने ते ज प्रमाणे जन्म पण थाय छे. पण आत्मा शरीरथी बिलकुल जुदो छे तेथी तेमां रहेवा छतां एना जन्म-मृत्यु आदि धर्मोथी ए अस्पृष्ट ज रहे छे अर्थात्‌ आत्मा अलिप्त रहे छे ॥४१॥

आ शरीर पुरुषना मोहथी थाय छे. जेम आपणे घरने जुदुं अने माटी- पथ्थरनुं बनेलुं गणीए छीए तेम शरीर आत्माथी जुदुं छे. जेम जळमान्थी परपोटो, माटीथी घडो अने सुवर्णथी कुण्डळ बने छे, रूपान्तरित थाय छे अने नाश पामेछे तेम शरीर काळे करीने उत्पन्न थाय छे अने नाश पामे छे ॥४२॥

जेवी रीते काष्ठमां रहेलो व्यापक अग्नि तेनाथी स्पष्ट रीते जुदो छे जेवी रीते देहमां रहेवा छ्‌तां वायुनो एनी साथे कंई सम्बन्ध नथी जेवी रीते आकाश बधी जगाए एकसरखुं होवा छतां कोईना दोषगुणथी लिप्त थतुं नथी तेवी ज रीते समस्त देहइन्द्रियोमां रहेवावाळो अने तेमनो आश्रय पण एमनाथी अलग अने निर्लिप्त छे ॥४३॥

जेनो तमे शोक करो छो ते सुयज्ञ नामनुं शरीर अर्ही सूतुं छे, परन्तु जे साम्भळनार अने पछी उत्तर आपनार हतो ते तो पहेलांय देखातो नहोतो अने हाल पण देखातो नथी तो पछी शोक कोनो? ॥४४॥

तमारी जो एवी मान्यता होय के प्राण ज बोलवावाळो अने साम्भळवावाळो हतो ते जतो रह्यो तो ते मान्यता मूर्खतापूर्ण छे कारण के निद्रावस्थामां प्राण तो होय छे पण नथी तो ते बोलतो के नथी साम्भळतो.) शरीरमां बधी इन्द्रियोनी प्रवृत्तिनुं कारण जे महाप्राण छे ते प्रधान होवा छतां बोलवा अथवा साम्भळवा वाळो नथी. कारण के ते जड छे. देह अने इन्द्रियो द्वारा बधा पदार्थोने द्रष्टा जे [[२४५]] आत्मा छे ते शरीर अने प्राण बन्नेथी अलग छे ॥४५॥

जो के ते मर्यादित नथी, व्यापक छे तो पण पञ्चभूत, इन्द्रिय अने मनथी युक्त उच्च-नीच देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरोने ग्रहण करे छे अने पोताना विवेकबळथी मुक्त पण थई जाय छे. वास्तवमां तो ए आ बधाथी अलग छे ॥४६॥

ज्यां सुधी पाञ्च प्राण, पाञ्च कर्मेन्द्रिय, पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि अने मन आ सत्तर तत्त्वोथी बनेला लिङ्गशरीरथी युक्त रहे छे त्यां सुधी ज ते कर्मोथी बन्धाएलो रहे छे अने बन्धनने कारणे ज मायाथी थता मोह अने कलेश एनो पीछो छोडता ज नथी ॥४७॥

प्रकृतिना गुणो अने तेनाथी बनेली वस्तुओने सत्य समजवी अथवा कहेवी ए खोटो दुराग्रह छे. मनोरथना समये कल्पी लीधेली अथवा स्वपनमां देखाती वस्तुओनी माफक इन्द्रियोद्वारा जे कंई ग्रहण करवामां आवे छे ते बधुं मिथ्या छे. व्यवहार क्षणिक होय छे, नित्य नथी होता. स्वपनकाल मात्र होयछे ॥४८॥

तेथी शरीर अने आत्मा नुं तत्त्व जाणनारा पुरुषो अनित्य शरीरमाटे शोक करता नथी तेमज नित्य आत्माने माटे पण शोक करता नथी. परन्तु ज्ञान दृढ न होवाथी शोक करवानो जेनो स्वभाव छे तेनो कोई शोक मटाडी शक्तुं नथी. शोक करवाथी ए वस्तुमां कांई फेरफार थतो नथी ॥४९॥

ईश्वरे जेने पक्षीनो काळ बनाव्यो छे तेवो एक पारधी वनमां ज्यां-त्यां जाळ फेलावी पक्षीओने एमां फसाववाना लोभथी बेठो हतो ॥५०॥

त्यां बे चकलां फरतां देखायां तेमां चकली पारधीना प्रयत्नथी एकदम जाळमां आवी गई ॥५१॥

कालवशात्‌ ते जाळना फ्न्दामां फसाई गई. नरपक्षीने पोतानी मादानी आफत जोई बहु दुःख थयुं. ते बिचारो एने छोडावी शके एम तो हतो नहि; स्नेहथी ए बिचारी माटे विलाप करवा लाग्यो ॥५२॥

तेणे कह्युं के आम तो विधाता चाहे ते करी शके छे, परन्तु ए छे बहु निर्दय! आ मारी सहचरी एक तो स्त्री छे, बीजुं मारा अभागिया माटे शोक करती अत्यन्त दीनताथी तरफडी रही छे. एने मारी पासेथी झूण्टवी लईने ए शुं करशे? ॥५३॥

तो मने पण आ लुब्धक एनी इच्छा होय तो भले लई ले. हुं एकलो [[२४६]] अर्धागिन्नी स्त्री विनानो दीनदुःखी जीवनने शुं करुं? ॥५४॥

वळी जीवुं तो जेने पाङ्ख नथी आवी तेवां अभागी, मा वगरना बच्चान्ने हुं केम पाळीपोषी शकीश? ए बिचारां माळामां एनी मानी राह जोतां हशे ॥५५॥

एम स्त्रीना वियोगथी आतुर थयेलो अने अश्रुथी जेनो कण्ठ रून्धायेलो छे तेवो ए चकलो विलाप करे छे तेटलामां कालनी प्रेरणाथी बाजुमां ज छूपायेला ए पारधीए एवुं बाण मार्युं के ते त्यां ज ढळी पड्यो ॥५६॥

मूरख राणीओ! तमारी पण आ ज दशा थवानी छे. तमने तमारुं मृत्यु तो देखातुं नथी अने आने माटे रुदन करी रही छो! आ प्रमाणे सो वरस सुधी तमे शोकवश छाती कूटती रहो तो पण तमे एने हवे मेळवी शकवानी नथी ॥५६॥

हिरण्यकशिपुए कह्युं - ए नानकडा बाळकनी एवी ज्ञानपूर्ण वातो साम्भळी बधां विस्मित थई गयां. उशीनर नरेशना सगां सम्बन्धी अने स्त्रीओने ए वात समजाई गई के समस्त संसार अने एना सुख-दुःख अनित्य अने मिथ्या छे ॥५८॥

यम एटलुं व्याख्यान करी त्यां ज अन्तर्धान थई गया अने सगावहालांए पण सुयज्ञनी अन्त्येष्टि क्रिया करी ॥५९॥

माटे तमे पण आ पोतानो अने आ पारको एवो शोक न करो. आ संसारमां कोण आत्मा अने कोण आपणाथी भिन्न? कोण पोतानो अने कोण पारको? ए बधा भेद जीवने ज्ञान न होवाथी थाय छे. आ भेदबुद्धिनुं बीजुं कंई ज कारण नथी ॥६०॥

इति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा। पुत्रशोकं क्षणात्त्यकत्वा तत्त्वे चित्तमधारयत्‌ ॥६१॥

नारदजी बोल्या - हे युधिष्ठिर! पोतानी पुत्रवधूनी साथे दितिए हिरण्यकशिपुनी आ वात साम्भळी ते ज क्षणे पुत्रशोक छोडी दीधो अने पोतानुं चित्त परमतत्त्व स्वरूप परमात्मामां लगावी दीधुम् ॥६१॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (पहेला असद्वासना प्रकरणनो बीजो) ‘‘हिरण्यकशिपुए हिरण्याक्षना शोकथी दिति तथा एना पुत्रोने मुक्त कर्या’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[२४७]]

अध्याय ३

तपथी प्रसन्न थई ब्रह्माजीए हिरण्यकशिपुने आपेलां वरदान

विशेष - हिरण्यकशिपुना तपथी जगतने तापयुक्त जोई ब्रह्माजी विस्मय पामी एनी पासे पधार्या तेमनी दैत्यराजे स्तुति करी त्यारे ब्रह्माजीए प्रसन्न थई एने वरदान आप्यां. ए वात आ त्रीजा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. हिरण्यकशिपु राजन्‌ अजेयमजरामरम्‌ ॥ आत्मानमप्रतिद्वन्द्वम्‌ एकराजं व्यधित्सत ॥१॥

नारदजीए कह्युं - हे राजन्‌! हिरण्यकशिपुए एवी इच्छा करी के हुं अजेय, अजर, अमर अने संसारनो एक छत्र सम्राट थई जाउं जेथी कोई मारी सामे ऊभुं पण न रही शके ॥१॥

एथी मन्दराचल पर्वतनी एक खीणमां जई पगनां अङ्गूठाथी पृथ्वी उपर ऊभो रही हाथ ऊञ्चा उठावी, आकाश तरफ दृष्टि राखी ए परम दारुण तप करवा लाग्यो ॥२॥

जेम प्रलयकाळनो सूर्य किरणोथी चमके तेम तेनी जटा चमकवा लागी. एना भयथी छुपाई फरता देवो पाछा पोतपोताने स्थाने आवी रहेवा लाग्या ॥३॥

घणा दिवसो सुधी तपस्या कर्या पछी एनी तपस्यानी आग धुमाडानी साथे शिरमान्थी नीकळवा लागी. ते चारे तरफ फेलाई गई अने उपर, नीचे तथा आजु- बाजुना लोकोने बाळवा लागी ॥४॥

एनी ज्वाळाओथी नदी अने सागर उकळवा लाग्या. द्वीप अने पर्वत सहित पृथ्वी कम्पवा लागी. ग्रहो अने ताराओ पडवा लाग्या. दशे दिशाओ बळवा लागी ॥५॥

हिरण्यकशिपुनी ए तपरूप आगनी ज्वाळाथी स्वर्गना देवताओ पण बळवा लाग्या. तेओ गभराईने स्वर्ग छोडीने ब्रह्मलोकमां ब्रह्माजी पासे गया अने एमने विनन्ति करवा लाग्या ॥६॥

‘‘हे देवना देव! जगतना पति, दैत्यराजना तपथी सन्तापित अमे हवे स्वर्गमां रही शक्ता नथी. हे समर्थ! हे सर्वाधिप! आपने ठीक लागे तो आपनी सेवा [[२४८]] करनारी जनतानुं मरण थई जाय ए पहेलां ज आ ज्वाला शान्त करी दो ॥७॥

कोईथी न बने एवुं तप करवामां एनो शो उद्‌देश छे ए आपनाथी अजाण्युं तो न होय तो पण अमे निवेदन करीए ए साम्भळो ॥८॥

‘‘ब्रह्माजी तप, योग अने समाधि वडे जेम स्थावर जङ्गमने उत्पन्न करी बधा लोकोनी उपर सत्यलोकमां बिराजे छे तेवी ज रीते उग्र तप अने योगना प्रभावथी ए ज पद अने स्थान प्राप्त करी लउं कारण के समय असीम छे अने आत्मा नित्य छे. एक जन्ममां नहि तो अनेक जन्मो पछी एक युगमां नहि तो अनेक युगो पछी पण मेळवी लईश ॥९-१०॥

मारी तपस्यानी शक्तिथी हुं पाप, पुण्य वगेरेना नियमोमां क्रान्ति करी नाखी नियमोने बिलकुल पलटी नाखी, आ संसारमां एवो पलटो लावी दईश के जेवो पहेलां कदी थयो न होय. वैष्णवपद वगेरेथी तो आमेय शुं थई शके? कारण के कल्प (‘कल्प’ एटले ब्रह्माजीनो एक दिवस जे एक हजार चतुर्युगी-चोकडीनो होय छे. आपणां ४३२ करोड वर्ष) ना अन्ते तो ए पण काळनो कोळियो थई जाय छे’’ जो के वैष्णवपद (विष्णुनुं पद वैकुण्ठ आदि नित्यधाम) अविनाशी छे परन्तु हिरण्यकशिपु पोतानी आसुरी वृत्तिने लीधे एने कल्पने अन्ते नष्ट थाय एम ज माने छे. आसुरी बुद्धिने बधुं अवळुं ज भासे छे ॥११॥

हे त्रिभुवनना ईश्वर! आवो ए दैत्यनो आग्रह छे एवुं अमारा साम्भळवामां आव्युं छे तेथी आपने उचित लागे ते करो ॥१२॥

हे जगत्पति ब्रह्माजी! आपनुं आ सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि पद ब्राह्मण तथा गायोनी वृद्धि, क्ल्याण, कुशळ अने विजय ने माटे छे. (तेथी ते जो हिरण्यकशिपुना हाथमां चाल्युं गयुं तो सज्जनो उपर सङ्कटोनो पहाड तूटी पडशे) ॥१३॥

हे राजन्‌! देवोए ए प्रमाणे विनन्ति करी त्यारे भृगृ, दक्ष वगेरेने साथे लई भगवान्‌ ब्रह्माजी ज्यां दैत्यराज तप करतो हतो त्यां गया ॥१४॥

त्यां एनी उपर घास, राफडा अने वासडा ऊगी जवाथी दैत्यराज जोवामां पण न आव्यो. वधारे तपास करतां जेना मेद, मांस, लोही, चामडी वगेरेने कीडीओ खाई गई हती तेवा दैत्येन्द्रने ब्रह्माजीए जोयो ॥१५॥

वादळान्थी ढङ्कायेला सूर्यनी जेम ते पोताना तपवडे बधा लोकोने तपावता दैत्यराजने जोई, विस्मत थई, हंस उपर बिराजेला ब्रह्माजीए एने हसतां- [[२४९]] हसतां कह्युंः ॥१६॥

ब्रह्माजीए कह्युं - हे कश्यपनन्दन! तुं तपथी सिद्ध थई गयो छे माटे ऊठ, ऊठ; हुं वरदान आपवा आव्यो छुं तेथी तारी इच्छामां आवे ते वरदान मागी ले ॥१७॥

में तारुं अति अद्‌भुत धैर्य जोयुं. तारा देहने डांस खाई गया छे; छतां पण तारा प्राण हाडकान्ने आधारे टकी रह्या छे ॥१८॥

आवुं तप नथी तो पूर्वे कोई ऋषिओए कर्युं के नहि कोई बीजो भविष्यमां करी शके केमके देवनां सो वर्ष सुधी पाणी पीधा वगर प्राणने कोण धारण करी शके? ॥१९॥

मोटा-मोटा धीरपुरुषोमाटे पण दुष्कर तेवो तारो तपमां निष्ठारूप आ उद्योग छे तेथी हे दितिनन्दन! तें मने जीती लीधो छे ॥२०॥

हे दैत्यशिरोमणि! एथी प्रसन्न थई तुं जे कंई मागे ते आपवा तैयार हुं छुं. तुं मरणने आधीन छे अने हुं अमर छुं. तेथी तने थयेल मारां दर्शन निष्फळ रही शके नहि ॥२१॥

नारदजीए कह्युं - सत्य सङ्कल्पवाळा ब्रह्माजीए एम कही कीडीओथी खवाई गयेला दैत्यना शरीर उपर पोताना दिव्य अने अमोघ प्रतापवाळा कमण्डलनुं जल छाण्ट्युम् ॥२२॥

जेम लाकडाना ढगलामान्थी आगनो भडको थाय तेम ते जल छण्टाता ज वांस अने राफडा नी माटीमान्थी तरत ज बेठो थयो. ए वखते एनुं शरीर बधा अवयवोथी सम्पन्न अने बळवान थई गयुं हतुं अने मन सचेत थई गयुं हतुं. बधां अङ्गो वज्रनां जेवां कठण अने तपावेलां सोना जेवा तेजस्वी थई गयां हतां तेवो ते बहार देखावा लाग्यो ॥२३॥

हंसना वाहनवाळा ब्रह्मदेवने आकाशमां जोई एमना दर्शनथी अत्यन्त आनन्दमां आवी जईने पृथ्वी पर मस्तक टेकावी तेणे प्रणाम कर्या ॥२४॥

पछी दैत्यराज ऊभो थई, बे हाथ जोडी, नम्रताथी दर्शन करतो, हर्षनां अश्रुथी गद्‌गदकण्ठे पुलक्ति थई नीचे प्रमाणे स्तुति करवा लाग्यो ॥२५॥

हिरण्यकशिपुए कह्युं - कल्पना अन्तमां आ समस्त सृष्टि कालद्वारा प्रेरित तमोगुणथी गाढ अन्धकारथी छवाई गई हती.एवखते स्वयम्प्रकाश स्वरूप आपे [[२५०]] पोताना तेजथी तेने फरी प्रकट करी।२६। आप ज पोताना त्रिगुणामय रूपथी एनी रचना, रक्षा अने संहार करो छो. आप रजोगुण, सत्त्वगुण अने तमोगुणना आश्रय छो. आप ज बधाथी पर अने महान छो. आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२७॥

आपज जगतनुं मूल कारण छो. ज्ञान अने विज्ञान आपनी मूर्ति छे. प्राण, इन्द्रिय, मन अनेबुद्धि आदि विकारोद्वारा आपे आपने प्रकट कर्याछे ॥२८॥

आप मुख्य प्राण सूत्रात्माना रूपथी चराचर जगतने पोताना नियन्त्रणमा राखो छो. आप ज प्रजाना रक्षक पण छो. हे भगवन्‌! चित्त, चेतना, मन अने इन्द्रियो ना स्वामी आप ज छो. पञ्चभूत, शब्द वगेरे विषय अने तेमना संस्कारोना रचनार पण महत्तत्त्वना रूपमां आप ज छो ॥२९॥

जे वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा अने उद्‌गाता आ ऋत्विजोथी थता यज्ञनुं प्रतिपादन करे छे ते आपनुं ज शरीर छे. एमनी ज द्वारा अग्निष्टोम वगेरे सात यज्ञोनो आप विस्तार करो छो. आपज बधां प्राणीओना आत्मा छो. कारण के आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ अने अन्तर्यामीछो ॥३०॥

आप ज काळ छो. आप प्रतिक्षण सावधान रहीने आपना क्षण, लव आदि विभागोद्वारा लोकोना आयुष्यने क्षीण (ओछुं) करता रहो छो अने तोय आप निर्विकार छो, कारण के आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान अने बधां प्राणीओना जीवनदाता अन्तरात्मा छो ॥३१॥

जड, चेतन, कार्य, कारण कोई वस्तु आपथी जुदी नथी केमके विद्या अने कला ए आपनां शरीर छे. आ सुवर्णमय ब्रह्माण्ड आपनां गर्भमां स्थितछे. आप त्रिगुणमयी मायाथी अतीत स्वयं ब्रह्मछो ॥३२॥

प्रभु! आ व्यक्त ब्रह्माण्ड आपनुं स्थूल शरीर छे. तेथी आप इन्द्रिय, प्राण अने मनना विषयोनो उपभोग करो छो. आम छतांय ए वखते पण आप आपना परम ऐश्वर्यमय स्वरूपमां ज स्थित रहो छो. खरेखर तो आप पुराणपुरुष, स्थूल अने सूक्ष्म बन्नेथी परब्रह्मस्वरूप ज छो ॥३३॥

आप पोतानां अनन्त अने अव्यक्त रूपथी समग्र जगतमां व्याप्त छो. चेतन अने अचेतन बन्नेय आपनी शक्तिओ छे. हे भगवन्‌! हुं आपने नमस्कार करुं छुं ॥३४॥

[[२५१]] हे प्रभो! आप वरदाताओमां श्रेष्ठ छो. आप मने इच्छित वरदान आपवा मागो छो तो एवुं वरदान कृपा करी आपो के आपना सरजेला कोई पण प्राणीथी भले ते मनुष्य होय के पशु, प्राणी होय के अप्राणी, देवता होय के दैत्य अथव नाग वगेरे कोईथी पण मारुं मृत्यु न थाय, अन्दर अथवा बहार, दिवसे के राते, आपना घडेला कोई पण घाट सिवाय पण कोई जीवथी, अस्त्र-शस्त्रथी, पृथ्वी या आकाशमां-कयांय मारुं मृत्यु न थाय, युद्धमां कोई मारो सामनो न करी शके. हुं समस्त प्राणीओनो चक्रवर्ती सम्राट थाउम् ॥३५-३७॥

सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथाऽऽत्मनः ॥ तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कर्हिचित्‌ ॥३८॥

इन्द्रादि लोकपालोमां जेवो आपनो महिमा गाजे छे तेवो ज मारो पण महिमा गाजे. तपस्वीओ अने योगीओने जे अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त छे ते ज मने पण आपो ॥३८॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (पहेला असद्वासना प्रकरणनो) ‘‘तपथी प्रसन्न थई ब्रह्माजीए हिरण्यकशिपुने आपेलां वरदान’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणा मार्गमां भगवत्सेवा घरमां रह्या सिवाय सम्भव नथी. घरमां रहीने कराती सेवाना प्रकार सिवाय भगवत्सेवानो बीजो कोई (जाहेरमन्दिर-हवेलीमां) सेवा करवानो प्रकार मार्गमां नथी. तेथी भगवत्सेवा करवामाटे अनुकुळ होय तेवा घरमां रहीने श्रीकृष्णनी सेवा करवी (भक्तिवर्धिनी टीका, श्रीगोकुलनाथजी)

अध्याय ४

वरदान मेळवी सर्वने जीती दैत्येन्द्र विष्णुनो द्रोह करवा लाग्यो

विशेष - वरदान मेळवी बधा लोकने जीती विष्णुना द्रेषने लीधे सर्व प्राणीओने पीडा करवानो अध्याय-४,

ईं उं ईं उं

सप्तमस्कन्ध २५२ दैत्यन्द्रे आरम्भ कर्यो एटली वात आ चोथा अध्यायमां आवे छे. एवं वृतः शतधृतिर्हिरण्यकशिपोरथ ॥ प्रादात्तत्तपसा प्रीतो वरांस्तस्य सुदुर्लभान्‌ ॥१॥

नारदजीए कह्युं - ज्यारे दैत्यराज हिरण्यकशिपुए ए प्रमाणे माग्युं त्यारे एना तपथी प्रसन्न थयेला शतधृति ब्रह्माजीए अत्यन्त दुर्लभ वरदानो एने आपी दीधाम् ॥१॥

ब्रह्माजीए कह्युं - हे तात! तुं जे वरो मागे छे पुरुषोने माटे बहु दुर्लभ छे; छतां हे अङ्ग! एवां दुर्लभ पण हुं तने आपुं छुम् ॥२॥

(नारदजी कहे छे). अमोघ अनुग्रहवाळा ब्रह्माजी एटलुं बोल्या त्यारे दैत्येन्द्रे एमनी पूजा करी. पछी देवो अने प्रजापतिओ थी स्तुति करायेला ब्रह्माजी त्यान्थी पधार्या ॥३॥

दैत्यने उपर प्रमाणेनां वरदान मळ्या पछी तेनुं शरीर सुवर्ण जेवुं कान्तिमान अने हृष्टपुष्ट थई गयुं. मारा भाईने भगवाने मार्या छे ए याद करी, भगवान्‌ साथे द्वेष करवा लाग्यो ॥४॥

सर्व दिशाओ, त्रणलोक, देव, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड अने सर्पलोको, सिद्ध, चारण, विद्याधरो, ऋषि पितृओना अधिपति मनु, यक्षो, राक्षसो, पिशाचो, प्रेतो अने भूत ना पतिओने तेमज सर्व प्राणीओना राजाओ हता ते सर्वने जीती लई एणे पोताने वश करी लीधा. अने पछी पोते विश्वजित बनी एमनां बधां स्थानो तेमज एमनां तेजने पण हरि लीधाम् ॥५-७॥

देवना बगीचा नन्दनवननी शोभाथी स्वर्ग आनन्द आपे छे तेमां साक्षात्‌ विश्वकर्माए बनावेलुं इन्द्रनुं भवन छे ते त्रण लोकनी लक्ष्मीनुं स्थान छे तेवी सर्व प्रकारनी समृद्धियुक्त भवनमां पोते रहेवा लाग्यो ॥८॥

ए इन्द्रभवनमां प्रवाळनां पगथियां छे, मरकत मणिनी भूमि छे, स्फटिकनी र्भीतो छे अने वैदूर्यमणिना स्तम्भ छे ॥९॥

एमां रङ्ग-बेरङ्गी चन्दरवा छे, पद्मरागना आसन छे, दूधना फीण जेवी शय्याओ छे, जेना उपर मोतीनी झालरो लागेली छे ॥१०॥

सर्वाङ्गसुन्दरी अप्सराओ पोतानां नूपुरोथी रूमझूम-रूमझूम करती रत्नजटित भूमि उपर आम तेम टहेलती हती अने क्याङ्क-क्याङ्क तेमां पोतानुं स्वच्छ सुन्दर [[२५३]] दान्तवाळुं मनहर मुख जोवा लागती हती ॥११॥

ए महेन्द्रना महेलमां महाबली अने महामनस्वी हिरण्यकशिपु बधा लोकोने जीती लई, बधानो एकछत्र सम्राट बनी जई, स्वच्छन्दतापूर्वक विहार करवा लाग्यो एनुं शासन घणुं कडक हतुं, देवो तथा दानवो पण तेना चरणोनी वन्दना करता रहेता हता ॥१२॥

हे युधिष्ठिर! ते उग्र गन्धवाळी मदिरा पीने नशामां चकचूर रहेतो हतो एनी आङ्खो लालघूम अने चढेली ज रहेती तपस्या, योग, शारीरिक अने मानसिक बलनो तो ए भण्डार हतो, ब्रह्मा, विष्णु अने शङ्कर सिवाय बीजा बधा देवता पोताना हाथमां भेट लई लईने एनी सेवामां लाग्या रहेता ॥१३॥

हे पाण्डव! पोताना पुरुषार्थना प्रतापे महेन्द्रासन उपर बेठेला दैत्येन्द्रने विश्वावसु, तुम्बुरु अने अमे (नारद) बधा एनी आगळ गान करता हता, गन्धर्वो, सिद्धो, ऋषिओ, विद्याधरो अने अप्सराओ तेनी स्तुति करतां हतां ॥१४॥

मोटी दक्षिणावाळा यज्ञोवडे वर्णाश्रम धर्मनुं पालन करवावाळा पुरुषो दैत्येन्द्रनुं यजन करवा लाग्या. एमां हविर्भागने ते पोताना तेजवडे लेवा लाग्यो ॥१५॥

पृथ्वीना सातेय खण्डोमां तेनुं अखण्ड राज्य हतुं. बधी जग्याए खेतर खेडया विना अने बी वाव्या विना धरतीथी धान्य नीपजतुं हतुं. एने जे कंई जोईए ते आकाशमान्थी तेने मळी जतुं तथा आकाश तेने जातजातनी आश्चर्यकारक वस्तुओ बतावी तेनुं मनोरञ्जन करतुम् ॥१६॥

ए ज प्रमाणे खारा पाणी, सुरा, घृत, शेरडीनो रस, मीठा पाणीना सात समुद्रो अने तेओनी स्त्रीओ गङ्गादि नदीओ पोताना तरङ्गोवडे रत्नना समूह आपवा लाग्याम् ॥१७॥

पर्वतो पोतानी खीणोना रूपमां एने माटे रमतनां मेदान पूरां पाडतां अने वृक्षो बधी ऋतुओमां फूलतां अने फळतां ए एकलो ज बधा लोकपालोना विभिन्न गुणोने धारण करतो ॥१८॥

आ प्रमाणे दिग्विजयी अने एक छत्र सम्राट बनी जईने पोताना मनभावता विषयोनो स्वच्छन्द उपभोग करवा लाग्यो. परन्तु आटला विषयोथी पण एने सन्तोष न थई शकयो. कारण के ए जितेन्द्रिय न हतो ॥१९॥

[[२५४]] हे युधिष्ठिर! आ रूपमां पण भगवाननो ते ज पार्षद छे जेने सनकादिए शाप आप्यो हतो. ते ऐश्वर्यना मदथी मस्त थई रह्यो हतो. तथा अभिमानथी अन्ध बनी तेणे शास्त्रोने छोडी दीधां हतां. जोतजोतामां तेना जीवनमां घणोखरो समय वीती गयो ॥२०॥

एना उग्र शासनथी उद्विग्न थयेला लोकपालको सहित लोको बीजुं कोई रक्षक न मळतां विष्णुने शरणे गया ॥२१॥

‘‘भगवानना ते परम धामने अमे नमस्कार करीए छीए ज्यां सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करे छे अने जेने प्राप्त करी शान्त अने निर्मल सन्न्यासी महात्मा पाछा फरतानथी’’ ॥२२॥

एम कही प्राणनो निग्रह करी समाधिथी निर्मळ बुद्धिवाळा सावधान थई खान, पान अने निद्रा नो त्याग करी मात्र वायुनो आहार करी देवो विष्णुनी स्तुति करवा लाग्या ॥२३॥

एम उपस्थान करतां मेघना जेवी गम्भीर दिशाओने गजवती अने साधुने अभय आपनारी आकाशवाणी एक दिवसे प्रकट थई ॥२४॥

‘‘हे श्रेष्ठ देवताओ! डरो नहि. तमारुं कल्याण हो. मारा दर्शन सर्वप्राणीओनुं परम श्रेयःसाधक छे ॥२५॥

ए अधम दैत्यनी दुष्टता में जाणी लीधी छे. हुं एनी शान्ति करीश. पण एने माटे तमे थोडो वखत राह जुओ ॥२६॥

कोई पण प्राणी ज्यारे देव, वेद, गाय, ब्राह्मणो, भकतो, धर्म अने भगवाननो सारी रीते द्वेष करे छे त्यारे ते जोत-जोतामां नाश पामे छे ॥२७॥

निर्वेर, शान्त, महात्मा एवा पोताना पुत्र प्रह्‌लादनो द्रोह करशे त्यारे वरदानथी छकी गयेला एवा एने हुं मारीश ॥२८॥

नारदजीए कह्युं - लोकगुरु भगवाने एम कह्युं त्यारे बधा देवो एमने प्रणाम करी उद्वेगमुकत थई ‘असुर मर्यो’ एम समजी त्यान्थी पाछा फर्या ॥२९॥

हे युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपुने अत्यन्त विलक्षण चार पुत्रो हता तेमनामां प्रह्‌लाद आम तो सौथी नाना हता परन्तु गुणोमां सौथी मोटा हता. ते सन्तोनी सेवा करता ॥३०॥

ते ब्राह्मणभकत, सुन्दर स्वभाववाळा, सत्यप्रतिज्ञ अने जितेन्द्रिय हता. बधां [[२५५]] प्राणीओनी साथे ते पोतानी जेम ज वर्ताव करता अने सर्वना एकमात्र प्रिय अने साचा हितैषी हता ॥३१॥

दासनी पेठे मोटाओने पगे पडनार दीन-हीन उपर पिता जेवो प्रेम दाखवता. सरखाओ साथे भाईचारो राखता, गुरुजनोमां भगवद्‌भाव राखता, विद्या, वैभव, सौन्दर्य अने कुलीनता थी सम्पन्न होवा छतां पण अभिमान के दम्भनुं एमनामां नाम पण न हतुम् ॥३२॥

भारेमां भारे आपात्तिमां ते बिलकुल अकळाता नहि. लोक-परलोकना विषयो तेमणे देख्या-साम्भळ्या तो बहु हता. परन्तु ते तेमने निःसार समजता. तेथी तेना मनमां कोई लालसा ऊठती ज नहि. इन्द्रिय, प्राण, शरीर अने मन एमना वशमां हतां. सदा निष्काम थई गया हतां. जन्मथी असुर होवा छतां आसुरी सम्पत्ति (काम, लोभ, मत्सर वगेरे) नो लेश पण नहोतो ॥३३॥

जेवी रीते भगवानना गुणो अनन्त छे ते ज प्रमाणे प्रह्‌लादना श्रेष्ठगुणोनी पण कोई सीमा नथी. महात्माओ सदाथी तेमनुं वर्णन करतां आव्या छे अने तेने अपनावता आव्या छे. आम छतां ते गुणो आजे पण जेमना तेम रहेला छे ॥३४॥

हे राजन्‌! आम तो देवता एमना दुश्मन छे परन्तु छतां भकतोना चरित्र साम्भळवामाटे ज्यारे ए लोकोनी सभा भराय छे त्यारे बीजा भक्तोने प्रह्‌लादजीनी साथे सरखावीने तेमनुं बहुमान करे छे तो पछी आपना जेवा भकत एमनो आदर करे एमां तो शङ्का शी होय? ॥३५॥

एमना महिमानुं वर्णन करवा अगणित गुणोनी गणना करवानी जरूर नथी. (मात्र एक ज गुण भगवान्‌ श्रीकृष्णना चरणोमां स्वाभाविक जन्मजात प्रेमएमनो महिमा प्रकट करवामाटे पूरतो छे) ॥३६॥

बाळक छतां भगवान्‌मां मन लागवाथी रमकडान्ने छोडी देनार ग्रहगृहीत (गाण्डो) माणस जेम जगतनी शरम राखतो नथी तेम प्रह्‌लाद पण श्रीकृष्णना अनुग्रहथी गृहीत थतां आ जगतना विषयोने लोकरीते जोतो न हतो ॥३७॥

कयारेक भगवान्‌ मने छोडी चाल्या गया एम मानी जोरजोरथी रोवा लाग्या. कयारेक मनमां ने मनमां भगवानने पोतानी सामे जोई एमने एम लागतुं के भगवान्‌ मने पोतानी गोदमां लई आलिङ्गन करी रह्या छे. तेथी एमने सूतां- [[२५६]] बेसतां, खातां-पीतां, चालतां-फरतां अने वातचीत करती वखते ए बाबतोनुं कंई अनुसन्धान ज रहेतुं नहि ॥३८॥

आनन्दमां आवी जई खडखडाट हसी पडता तो कयारेक वळी एमना ध्यानना दिव्य आनन्दनो अनुभव करी जोरथी गावा लागता ॥३९॥

कयारेक उत्सुकताथी बूमो पाडता. कयारेक-कयारेक लोकलाज छोडी दई प्रेममां छकी जई नाचवा पण लागता. कयारेक प्रभुनी लीलाना चिन्तनमां एटला तल्लीन थई जतां के ए पोतानी जातने भूली जतां अने लीलानुं अनुकरण करवा लागता ॥४०॥

कयारेक अन्दर ज भगवानना कोमल स्पर्शनो अनुभव करी आनन्दमां डूबी जता अने चूपचाप शान्त थई जई बेसी रहेता. ए वखते एमनुं एक एक रोम पुलक्ति थई जतुं अधखूली आङ्खो अविचल प्रेम अने आनन्दनां आंसुओथी भरीभरी रहेती ॥४१॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णना चरणकमलोनी आ भक्ति अकिञ्चन भगवत्प्रेमी तादृशीओना सङ्गथी ज प्राप्त थाय छे. ए द्वारा ते पोते तो परमानन्दमां मग्न रहेता ज हता पण जे बिचारानुं मन दुःसङ्गने लीधे दीन-हीन थई रह्युं हतुं तेमने पण वारंवार शान्ति आपता हता ॥४२॥

हे युधिष्ठिर! प्रह्‌लादजी भगवानना परमप्रेमी भकत, परम भाग्यवान अने ऊञ्ची कोटिना महात्मा हता. हिरण्यकशिपु एवा साधु पुत्रने पण अपराधी बताडी एनुं अनिष्ट करवानो प्रयत्न करवा लाग्यो ॥४३॥

युधिष्ठिरे पूछ्‌युं - हे सुन्दर व्रतवाळा देवर्षि! शुद्ध अने पोताना ज भकत पुत्रनो हिरण्यकशिपुए द्वेष केम कर्यो ए हुं जाणवा मागुं छुम् ॥४४॥

पिता तो स्वाभाविक रीते ज पोताना पुत्रो उपर प्रेम राखता होय छे. पुत्र जो कोई प्रतिकूल आचारण करे तो ते तेने शिखामण देवा माटे ज धमकावे छे, शत्रुनी माफक वेर-विरोध तो करता होता नथी ॥४५॥

एतत्‌ कौतूहलं ब्रह्मन्‌ अस्माकं विधम प्रभो ॥ पितुः पुत्राय यद्‌ द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥४६॥

वळी प्रह्‌लादजी जेवा अनुकूळ-सज्जन, शुद्ध हृदयवाळा अने गुरुजनोमां भगवद्‌भाव राखनारा पुत्रनो तो कोई द्वेष करीज केवी रीते शके? आप बधुं जाणो [[२५७]] छो. अमने आ जाणीने कौतुक थाय छे के पिता द्वेषने लीधे पुत्रने मारी नाखवानी हद सुधी गया! कृपा करीने आप मारुं आ कुतूहल शान्तकरो ॥४६॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (पहेला असद्वासना प्रकरणनो) ‘‘वरदान मेळवी सर्वने जीती दैत्येन्द्र विष्णुनो द्रोह करवा लाग्यो’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवन साधना होवी जोईए, न्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय ५

दैत्ये पुत्रने मारवाना योजेला उपायोमां एनी निष्फळता

विशेष - गुरुनुं भणावेल भणतर छोडीने भगवान्‌ विष्णुनी स्तुतिमां आसक्ति राखता पोताना पुत्रने हिरण्यकशिपु मारवाना उपाय करे छे पण एने मारवामां सफळ थतो नथी एटली वात आ पाञ्चमा अध्यायमां कहेवामां आवशे. पौरोहित्याय भगवान्‌ वृतः काव्यः किलासुरैः। शण्डामर्कौ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ॥१॥

नारदजीए कह्युं - आसुरोए भगवान्‌ शुक्राचार्यने पोताना पुरोहित तरीके नीम्या हता. शण्ड अने अमर्क नामना एमना बे पुत्रो हता ते दैत्यराजना राजमहेल पासे ज रहेता हता ॥१॥

शण्ड अने अमर्क ने हिरण्यकशिपुए मोकलेला पोताना नीतिनिपुण बाळक प्रह्‌लादजीने तेमज असुरोने बीजा भणाववा योग्य बाळकोने भणाववा सारु राख्या अने तेओ एमने भणाववा लाग्या ॥२॥

प्रह्‌लादजी गुरुजीए भणावेला पाठ साम्भळी लेता अने अक्षरे अक्षर याद करी अध्याय-५,

ईं उं ईं उं

सप्तमस्कन्ध २५८ तेमने सम्भळावी पण देता हता. पण मनथी ते तेने भणवा लायक गणता नहि. कारण के ए पाठनो मूल आधार पोताना अने पारकानो खोटो आग्रहहतो ॥३॥

हे युधिष्ठिर! एक वखत हिरण्यकशिपुए पोताना पुत्र प्रह्‌लादजीने गोदमां लई प्रेमपूर्वक पूछ्‌युं. ‘‘वत्स! बताव जोईए तने कई वात सारी लागे छे?’’ ॥४॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - पिताजी! संसारनां प्राणीओ ‘हुं’ अने ‘मारुं’ना खोटा आग्रहने पकडी राखी कायमने माटे अत्यन्त बेचेन रहे छे. आवां प्राणीओ माटे हुं ए ज सारी वात समजुं छुं के तेओ पोताना अधःपतनना मूल कारण, घासथी ढङ्कायेला अन्धारा कूवा जेवा आ घरने छोडी दई वनमां चाल्या जाय अने भगवान्‌ श्रीहरिनुं शरण स्वीकारी ले ॥५॥

नारदजीए कह्युं - शत्रुना पक्षनुं समर्थन करनारी पुत्रनी वाणी साम्भळी दैत्यराज हस्यो अने ए बोल्यो - शत्रुओ (विष्णुना भक्तो)नी बुद्धिवडे बाळकनी बुद्धिमां भेद थाय छे ॥६॥

एम लागे छे के गुरुजीना घेर विष्णुना पक्षपाती केटलाक ब्राह्मणो वेशपलटो करीने रहे छे. बाळकनी सारी रीते सम्भाळ राखवामां आवे जेथी हवे एनी बुद्धिने कोई भरमावे नहि ॥७॥

पछी घेर आवेला प्रह्‌लादजीने बोलावीने दैत्यना पुरोहितो एने शान्त करी सुन्दर वाणीवडे पुछवा लाग्या ॥८॥

हे वत्स प्रह्‌लाद! तारुं कल्याण हो. साचेसाचुं बताव. जो जे हो, खोटुं न बोलतो. आ तारी बुद्धि अवळी केम थई गई? बीजा कोई बाळकनी बुद्धि तो एवी थई नथी ॥९॥

हे कुलनन्दन प्रह्‌लाद! अमे तारा गुरुजन जाणवा मागीए छीए के तारी बुद्धि पोतानी मेळे एवी थई गई के कोईए खरेखर तने भरमावी दीधो छे? ॥१०॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - जे मनुष्योनी बुद्धि मोहग्रस्त छे एमने ज भगवाननी मायाथी आ खोटो दुराग्रह बन्धाई जाय छे के आ ‘मारुं’ छे अने आ ‘पारकुं’ ए मायापति भगवानने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥११॥

ज्यारे ए भगवाननी कृपा थाय त्यारे ‘‘हुं जुदो छुं अने आ जुदो छे’’ एवी भेदवाळी असती पशुबुद्धि मटी जाय छे ॥१२॥

ते ज परमात्मा आ आत्मा छे. अज्ञानी लोको पोताना अने पारकान्नो भेद [[२५९]] पाडी एनुं ज वर्णन कर्या करे छे. तेओ न जाणे ए पण बराबर ज छे, कारण के एना तत्त्वने ओळखवुं बहु ज कठिन छे अने ब्रह्मा वगेरे मोटा-मोटा वेद जाणनारा विद्वानो पण ते बाबतमां मोहित थई जाय छे. ते ज परमात्मा आप लोकोना शब्दोमां कहुं तो मारी बुद्धि ‘बगाडी’ रह्या छे ॥१३॥

गुरुजी! लोहचुम्बकनी पासे लोढुं पोतानी मेळे जेम खेञ्चाई आवे छे तेवी ज रीते चक्रपाणि भगवाननी इच्छाशक्तिथी मारुं चित्त पण संसारमान्थी अलग थई तेना तरफ पराणे खेञ्चाय छे ॥१४॥

नारदजीए कह्युं - ब्राह्मणने एम कही परमज्ञानी प्रह्‌लादजी शान्त थई गया. पुरोहित बिचारा राजाना सेवक अने पराधीन हता. तेओ डरी गया. एमणे क्रोधथी प्रह्‌लादजीने धमकाव्या अने कह्युंः ॥१५॥

अरे आतो अमने अपयश अपावे एवो छे; माटे चाबूक लावो. दैत्यना कुळमां आ अङ्गारा जेवो अने दुष्ट बुद्धिवाळो छे माटे ते तो दण्डने ज योग्य छे ॥१६॥

दितिथी थयेला दैत्यरूप चन्दनवनमां आ कण्टकवृक्ष छे. दैत्यना मूळने उखेडवामां परशुराम (कुहाडारूप) विष्णुनो आ (प्रह्‌लाद) हाथारूप छे ॥१७॥

ए प्रमाणे बोलतो अनेक प्रकारना उपायथी भय पमाडतो अने तिरस्कार करतो ए गुरु प्रह्लादने धर्म-अर्थ-कामनुं प्रतिपादन करता शास्त्र भणाववा लाग्यो ॥१८॥

त्यार पछी प्रह्‌लाद ज्ञेय चतुष्टयने जाणतो थयो छे एम जोई माताए एने स्नान कराव्युं, घरेणां पहेराव्यां अने एना गुरुओ एने राजानां दर्शन कराववा लई गया ॥१९॥

पगमां पडेला बाळकने हिरण्यकशिपुए आशिष आपी अने एने बे हाथथी उठावी आलिङ्गन करी परम सुखनो अनुभव कर्यो ॥२०॥

हे युधिष्ठिर! प्रसन्न मुखवाळा प्रह्लादने पोतानी गोदमां बेसाडी मस्तक सूङ्घी, हर्षनां अश्रुथी मस्तक उपर सिञ्चन करतो दैत्य आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥२१॥

हिरण्यकशिपु बोल्यो - हे प्रह्‌लाद! आटला समयमां तुं गुरुनी पासेथी जे शीख्यो होय ते, हे आयुष्मन्‌! मने कहे ॥२२॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - विष्णुनी श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य अने आत्मनिवेदन ए प्रमाणे नवविध भक्ति करीने पुरुष विष्णुने अर्पण करे तो ए उत्तम भणतर कहेवाय ॥२३-२४॥

[[२६०]] ए साम्भळतां ज हिरण्यकशिपुना होठ क्रोधथी फरफरवा लाग्या अने ए गुरुपुत्रने आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥२५॥

‘‘शत्रुनो आश्रय करता दुष्ट ब्रह्मबन्धो तें मारो अनादर कर्यो छे; तमे बाळकने सार वगरनुं शीखव्युं छे ॥२६॥

कपट वेशवाळा केटलाक दुष्ट लोको होय छे तेओ दुष्टताथी मित्रता करे छे. जेम पातकीओनो रोग काळे करीने देखाय छे तेम एवाओनुं कपट पण काळे करीने बहार आवे छे’’ ॥२७॥

गुरुपुत्रे कह्युं - हे इन्द्रशत्रो! आ तमारो पुत्र मारुं कह्युं करतो नथी. एनी आ बुद्धितो नैसर्गिक छे. एथी आप अमारा उपर खोटो दोषारोप न करो; क्रोध न करो ॥२८॥

नारदजीए कह्युं - गुरुए कहेलुं साम्भळी असुर पोताना पुत्रने फरी कहेवा लाग्यो; ‘‘जो गुरुए तने आवुं भणाव्युं न होय तो तारी आवी अक्ल्याणी दुष्ट बुद्धि क्यान्थी थई? ॥२९॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - गृह ज जेनुं व्रत छे तेवा अने तेथी ज अशान्त इन्द्रियोने लईने फरीने संसारमां पडता लोकोनी बुद्धि स्वतः के परतः कृष्णमां थती नथी. ए तो चर्वितनुं ज चर्वण करे छे ॥३०॥

जे लोको इन्द्रियोथी जणाता ब्राह्य विषयोने परम प्रिय समजी मूर्खताने लीधे, अन्धजनोनी पाछळ अन्धजनोनी माफक खाडामां पडवामाटे चाल्या जता होय छे अने वेदवाणीरूप रस्सीना-काम्य कर्मोना दीर्ध बन्धनमां बन्धायेला छे तेमने खबर नथी के आपणा स्वार्थ अने परमार्थ भगवान्‌ विष्णु ज छे एमनी ज प्राप्तिथी आपणने बधा पुरुषार्थोनी प्राप्ति थई जाय छे ॥३१॥

जेमनी बुद्धि भगवानना चरण कमलोनो स्पर्श करी ले छे तेमनो जन्म-मृत्युरूप अनर्थनो कायमने माटे अन्त आवी जाय छे. परन्तु जे लोको निष्किञ्चन भगवत्प्रेमी भगवदीयोना चरणोनी रजमां स्नान करी लेता नथी एमनी बुद्धि काम्यकर्मोना पूरा सेवन करवा छतां पण भगवानना चरणोनो स्पर्श करी शक्ती नथी ॥३२॥

एटलुं कही प्रह्‌लादजी चुप थई गया, हिरण्यकशिपुए क्रोधवडे अन्ध थई जई तेने पोतानी गोदमान्थी उठावी भूमि उपर फेङ्की दीधो ॥३३॥

प्रह्‌लादजीनी वातने ते सहन न करी शक्यो. तेनी आङ्खो गुस्साने लीधे लाल [[२६१]] थई गई. ते कहेवा लाग्यो, ‘‘दैत्यो! आने अर्हीथी बहार लई जाओ अने हमणां ने हमणां मारी नाखो. ए मारी नाखवाना ज लायक छे ॥३४॥

जुओ तो खरा, पोताना सुहृद-स्वजनोने छोडी दई आ नीच दासनी जेम ते ज विष्णुना चरणोनी पूजा करे छे जेणे एना काकाने मारी नाख्या. मानो न मानो पण ए रूपे मारा भाईने मारनारो विष्णु ज आवी पहोञ्च्यो छे ॥३५॥

हवे एनो विश्वास न थाय. पाञ्च वरसनी उम्मरमां ज जेणे पोताना सगां माबापनो, छोड्यो छोडाय नहि एवो वात्सल्यस्नेह छोडी दीधो ए प्रतिकूळ चालनार विष्णुनुं शुं सारुं करी देशे? ॥३६॥

कोई बीजो पण औषधनी माफक लाभ करे तो ते एक रीते पुत्र ज छे, परन्तु जो पोतानो पुत्र पण अहित करवा लागे तो रोगनी जेम ते शत्रु छे. पोताना शरीरना ज कोई एक अङ्गथी आखा शरीरने नुकशान थतुं होय तो तेने कापी नाखवुं जोईए, कारण के एने कापी नाखवाथी बाकीनुं शरीर सुखरूप जीवी शके छे ॥३७॥

आ स्वजननो स्वाङ्ग पहेरी मारो कोई शत्रु ज आव्यो छे. जेम योगीनी भोग लोलुप इन्द्रियो तेनुं अहित करे छे तेम ज आ मारुं अहित करनारो छे. तेथी ते खातो होय त्यारे, सूतो होय त्यारे अथवा बेठो होय त्यारे कोई पण उपायथी एने मारी नाखो’’ ॥३८॥

आ प्रमाणे आज्ञा मेळवी राक्षसो हाथमां शूळ लईने मोटी दाढोथी विकराळ मुखवाळा, लाल दाढी-मूछवाळा, ‘‘मारो, कापो’’ वगेरे भयङ्कर शब्दो करता त्यां चूपचाप बेठेला प्रह्‌लादने सर्व मर्म स्थानोमां शूळ भोङ्कवा लाग्या ॥३९-४०॥

ए वखते प्रह्‌लादजीनुं मन ए परमात्मामां लागेलुं हतुं जेने मन अने वाणी पहोञ्ची शक्तां नथी जे सर्वना आत्मा छे, समस्त शक्तिओना आधार अने परब्रह्म छे. तेथी भाग्यहीनोना भारे-भारे पुरुषार्थना व्यर्थ जाय छे तेम तेमना बधा प्रहार निष्फळ थई गया ॥४१॥

हे युधिष्ठिर! ज्यारे पुत्रने मारवाना प्रयत्न निष्फळ गया त्यारे दैत्येन्द्रने शङ्का थई तेथी ए आग्रहपूर्वक बीजा मारण प्रयोग करवा लाग्यो ॥४२॥

तेणे प्रह्‌लादजीने मोटा-मोटा मदोन्मत्त हाथीओना पग नीचे कचडाव्या, झेरी सर्पो करडाववामां आव्या, कृत्या राक्षसी उत्पन्न करावी, पर्वतोना शिखर उपरथी गबडावी मूकवामां आव्या, अन्धारी कोटडीमां पूरवामां आव्या, झेर पायुं अने [[२६२]] भोजन आपवुं बन्ध करवामां आव्युम् ॥४३॥

जळमां, ठण्डीमां, वायुमां, धधकती आग अने समुद्रमां फरीफरीने तेने नाखवामां आव्या, आन्धीमां छोडी देवामां आव्या, पर्वतो उपरथी फेङ्की देवामां आव्या, परन्तु आमान्थी कोई पण उपायथी ते पोताना पुत्र निष्पाप प्रह्‌लादजीने मारवाने समर्थ न थयो. त्यारे हिरण्यकशिपुने घणी चिन्ता थई. तेने प्रह्‌लादजीने मारी नाखवामाटे कोई उपाय सूझ्झ्????यो नहि ॥४४॥

ते विचार करवा लाग्यो, ‘‘एने में बहु खराब वचन कह्यां, मारी नाखवाने माटे घणा बधा उपाय कर्या. परन्तु कोईनी सहाय विना, पोताना ज प्रभावथी मारा द्रोह अने दुर्व्यवहार थी बचतो ज गयो ॥४५॥

बालक होवा छतां ते समजदार छे अने मारी पासे ज बेधडक रहे छे. एमां कंईक सामर्थ्य तो छे ज. जेवी रीते *शुनःशेप पोताना पितानां करतूतोथी एनो विरोधी थई गयो हतो तेम आ पण मारा करेला अपकारो भूलशे नहि ॥४६॥

विशेष - शुनःशेप भृगुकुलमां उत्पन्न ऋचीक अजीगर्त नामना ऋषिना वचलो पुत्र अने विश्वामित्र ऋषिनो भाणेज. एना बीजा बे भाईओनां नाम शुनःपुच्छ अने शुनोलाङ्गूल एना बीजां बे पैतृक नाम आजीगर्ति अने सौयवसि छे. शुनःशेपनो अर्थ छे कूतरानी पूञ्छडी. विश्वामित्रे तेने बलिस्तम्भथी छोडावी पोतानो पुत्र, प्रमुख शिष्य अने जह्‌नु अने गाधिकुलनो उत्तराधिकारी बनाव्यो अने ‘देवरात’ नाम आप्युं. विशेष माटे स्कन्ध ९ अने ७ जोवाविनन्ति. ए कोईथी डरतो नथी के एनुं मृत्युं थतुं नथी. एनो प्रभाव अगणित जणाय छे. अवश्य एनी साथे विरोध करवाथी मारुं मोत आवी जाय’’ ॥४७॥

आम विचार करतां-करतां एनो चहेरो सहेज ऊतरी गयो. शुक्राचार्यना पुत्र शण्ड अने अमर्के ज्यारे जोयुं के हिरण्यकशिपु तो मों नीचुं करीने बेठेला छे त्यारेतेमणे एकान्तमां जई तेमने आ वात कही ॥४८॥

‘‘स्वामी! आप एकले हाथे ज त्रणेय लोकने जीती लीधा. आपनी भ्रमर टेडी थतां ज बधा लोकपाल ध्रुजी ऊठे छे. अमारी दृष्टिए तो आपने माटे चिन्तानुं कोई कारण ज नथी. वळी बाळकना गुण-दोष ए कोई तमारी चिन्तानुं कारण थई शके ज नहि ॥४९॥

ज्यां सुधी अमारा पिता शुक्राचार्यजी न आवी जाय त्यां सुधीमां डरीने क्याङ्क [[२६३]] ए भागी न जाय एटला माटे एने वरुणना पाशथी बान्धी राखो. मोटे भागे एवुं बनतुं होय छे के उम्मर वधवानी साथे-साथे अने गुरुजनोनी सेवाथी बुद्धि सुधरी जती होय छे’’ ॥५०॥

ज्यारे गुरुपुत्रोए ए प्रमाणे कह्युं त्यारे एने सम्मति आपीने दैत्यराज कहेवा लाग्या. आ बाळकने गृहस्थाश्रमी राजाना धर्मोनो उपदेश करजो ॥५१॥

एम कह्युं त्यारे गुरुपुत्रोए विनयथी नम्रतापूर्वक प्रह्‌लादजीने अनुक्रमे धर्म, अर्थ अने कामनुं शिक्षण आप्युम् ॥५२॥

परन्तु गुरुओनुं आ शिक्षण प्रह्‌लादजीने गम्युं नहि कारण के तेओ एमने केवळ धर्म, अर्थ अने काम नुं ज शिक्षण आपता हता. आ शिक्षण तो जेओ राग-द्वेष वगेरे द्वन्द्व अने विषयभोगो मां रस लेता होय तेमने माटे ज छे ॥५३॥

एक दिवस गुरुजी गृहस्थीना कार्यमाटे क्याङ्क बहार गया हता. रजा मळी जवाथी सरखे सरखा बाळकोए प्रह्‌लादजीने रमवामाटे बोलाव्या ॥५४॥

प्रह्‌लादजी परम ज्ञानी हता. एमनो प्रेम जोई तेमणे ते बाळकोने ज अत्यन्त मधुर वाणीथी सम्बोधन करी पोतानी पासे ज बोलावी लीधा. एमनां जन्ममरणनी गति प्रह्‌लादजीथी छानी न हती. तेमना उपर कृपा करी हसता होय तेम तेमने उपदेश करवा लाग्या ॥५५॥

पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः ॥ तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ॥५७॥

हे युधिष्ठिर! ते बधा हजु बाळको ज हता तेथी राग-द्वेष परायण विषयी पुरुषोना उपदेशोथी अने चेष्टाओथी एमनी बुद्धि हजु बगडी नहोती. तेथी ज अने प्रह्‌लादजी प्रत्ये मान होवाथी बधाए पोतानी बालक्रीडा छोडी दीधी अने प्रह्‌लादजीनी पासे जई एमनी चारे तरफ बेसी गया अने एमना उपदेशमां मन लगाडी घणा प्रेमथी एकीटसे तेमनी तरफ जोवा लाग्यां. भगवानना परम भक्त प्रह्‌लादजीनुं हृदय एमना प्रति करुणाअने मैत्री ना भावथी भराई आव्युं तथा ते तेमने कहेवा लाग्या।५६-५७॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (पहेला असद्वासना प्रकरणनो प्रह्‌लाद अने दैत्य बाळकोना संवादरूप) ‘‘दैत्यपुत्रने मारवाना योजेला उपायोमां एनी निष्फळता’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[२६४]] बीजुं सद्वासना प्रकरण

अध्याय ६

प्रह्‌लादजीए दैत्यकुमारोने आत्मधर्मनो करेलो उपदेश

विशेष - गुरुओ गृहकार्यमां व्यग्र हता ते समये प्रह्‌लादजी दैत्य पुत्रोने कृपा करीने नारदजीए कहेला धर्मतत्त्वनो उपदेश करे छे. बालको निरर्थक क्रिया अने वाणी-विलासमां आयुष्यनो व्यय थाय छे तेने समजता नथी तेथी तेनी उपर दया लावी प्रह्‌लादजी एमने भगवद्धर्म एटले भक्तिमार्गीय धर्मनो उपदेश करे छे, आ वात छठ्ठा अध्यायमां आवे छे. कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्‌ भागवतानिह ॥ दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्‌ ॥१॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - मित्रो आ संसारमां मनुष्य जन्म बहु दुर्लभ छे. एना द्वारा अविनाशी परमात्मानी प्राप्ति थई शके छे. परन्तु एनो अन्त क्यारे आवी जाय तेनी खबर पडती नथी. तेथी बुद्धिमान पुरुषे वृद्धावस्था अथवा युवानी ने भरोसे नहि रहेतां बचपणमां ज भगवाननी प्राप्ति करावी आपनारा साधनो करी लेवा जोईए ॥१॥

अर्ही मनुष्य जन्ममां विष्णुना चरणनो आश्रय करवो ए ज पुरुषनुं कर्तव्य छे केमके ए सर्व भूतना प्रिय, आत्मा, सुहृद अने ईश्वर छे ॥२॥

हे मित्रो! इन्द्रियोथी भोगवातां सुख तो जीव गमे ते योनिमां होय त्यां एने प्रारब्ध प्रमाणे एवी ज रीते मळतां रहे छे के जेवी रीते कोई पण जातनो प्रयत्न कर्या विना, निवारण करवा छतां पण, दुःख मळे छे ॥३॥

तेथी सांसारिक सुखने माटे प्रयत्न करवानी कोई जरूर नथी कारण के पोतानी मेळे ज मळनारी वस्तुमाटे प्रयत्न करवो ए आयुष्य अने शक्तिनो व्यर्थ बगाड छे. जे लोको तेमां सपडाई जाय छे एमने भगवानना परम कल्याण स्वरूप चरणकमलोनी प्राप्ति नथी थती ॥४॥

मनुष्यना शिर उपर अनेक प्रकारना भय सवार थयेला छे. तेथी आ शरीर जे भगवत्प्राप्ति करावी आपवा कार्यक्षम छे; ज्यां सुधीमां रोगग्रस्त थई मृत्युनुं महेमान बनी न जाय त्यां सुधीमां बुद्धिमान पुरुषे पोताना कल्याणमाटे प्रयत्न करी लेवो जोईए ॥५॥

[[२६५]] पुरुषनुं आयुष्य सो वर्षनुं गणाय तेमान्थी अरधुं आयुष्य तो अजितेन्द्रिय मनुष्यने रातमां तमोगुणथी निद्रा आवे तेमां ज खपी जाय छेःएटले के पचास वर्ष तो एने ऊङ्घवामां जाय छे. ए पचास वर्षमां तो ए कांई पण करी शकतो नथी ॥६॥

बचपणमां पोताना हित-अहितनुं भान नथी होतुं; कंईक मोटा थाय त्यारे खेलवा-कूदवामां लागी जाय छे. आ प्रमाणे वीस वर्ष तो चाल्या जाय छे. ज्यारे घडपण शरीरने घेरी ले छे त्यारे छेवटनां वीस वर्ष कंई करी शकवानी शक्ति रहेती नथी ॥७॥

बाकी रही गयुं वचमानुं अल्प आयुष्य. ए वखते तो क्यारेक पुरी न थनारी मोटी-मोटी कामनाओनो जबरजस्त मोह छे अने घरबारनीए आसक्ति छे जेमां जीव एवो तो फसाई जाय छे के एने कर्तव्य-अकर्तव्यनुं भान ज नथी रहेतुं. आ प्रमाणे रह्युं-सह्युं आयुष्य पण चाल्युं जाय छे ॥८॥

जेणे इन्द्रियोने वश करी नथी तेवो कयो पुरुष दृढ स्नेहपाशथी घरमां बन्धायेलो आत्माने छोडाववा समर्थ थई शके? ॥९॥

एने अर्थनी तृष्णा प्राणथी पण वधारे वहाली होय छे ते कोण छोडी शके छे? अर्थमाटे प्रिय प्राण आपीने पण चोरी करवा नीकळेलो चोर माथुं मूकी काम करे छे, लडाईमां सिपाई सेवक बनी मरवानो सङ्कल्प करी द्रव्य लेवा जाय छे, वाणियो पैसा पेदा करवाने डूबवानो भय स्वीकारीने पण परदेश जाय छे ॥१०॥

जेणे पोतानी प्रियतमा पत्नीना एकान्त सहवास एनी प्रेमाळ वातो अने मीठी-मीठी सलाह उपर जातने न्योछावर करी दीधी होय छे. जे भाई बन्धु अने मित्रो ना स्नेहपाशमां बन्धाई चुक्यो छे; भला ए एमने शी रीते छोडी शके? ॥११॥

सासरे गयेली प्रिय पुत्रीओ, पुत्रो, भाई-बहेनो, वृद्धावस्थाथी दीन थई गयेलां माता-पिता, घणा बधा सुन्दर किम्मती रास-रचीलाथी भर्युं भादर्युं घर, कुलपरम्परागत जीविकाना साधनो तथा पशुओ अने सेवको ना सतत स्मरणमां जे रमी रह्यो छे ते भला तेमने कई रीते छोडी शके? ॥१२॥

जे जननेन्द्रिय अने जिह्‌वानां सुखोने ज सर्वस्व मानी बेठो छे जेनी भोगवासनाओ क्यारेय तृप्त थती नथी, जे लोभथी कर्म उपर कर्म करतां-करतां [[२६६]] रेशमना कीडानी जेम पोताने वधारे ने वधारे बन्धनमां जकडतो जाय छे अने जेना मोहनी कोई मर्यादा नथी ते तेमनाथी कई रीते विरक्त थई शके अने केवी रीते एमनो त्याग करी शके? ॥१३॥

आ मारुं घर छे ए भावमां ए एटलो गरकाव थई जाय छे के तेनुं ज पालन पोषण करवामां पोतानुं अमूल्य आयुष्य वेडफी नाखे छे अने एने ए पण ख्याल नथी रहेतो के मारा जीवननुं वास्तविक लक्ष्य चुकाई जई रह्युं छे. आ प्रमादनी पण भला कोई हद छे? जो ए कामोमां थोडुं घणुं सुख मळतुं होय तो पण कंईक ठीक परन्तु अर्ही तो ज्यां-ज्यां ते जाय छे त्यां-त्यां दैहिक, दैविक अने भौतिक ताप एना हृदयने बाळतां ज रहे छे अने छतां पण तेने वैराग्य थतो ज नथी केवी विडम्बना! (विटम्बणा!). कुटुम्बनी ममताना चक्करमां पडी ए एटलो गाफेल बनी जाय छे एनुं मन धनना चिन्तनमां सदा एटलुं तल्लीन बनी जाय छे के ते बीजाना धननी चोरी करवाना लौकिक-पारलौकिक दोषो जाणतो होवा छतां कामनाओने वश न करी शकवाने कारणे भोगनी लालसाथी चोरी करी ज बेसे छे ॥१४-१५॥

भाईओ! जे आ प्रमाणे पोताना कुटुम्बनुं भरण पोषण करवामां ज लाग्यो रहे छे क्यारेय भगवद्भजन नथी करतो; ते विद्वान होय तो पण तेने प्रभुनी प्राप्ति थई शकती नथी. कारण के पोताना-पारकानो भेदभाव रहेवाथी एने पण अज्ञानीओ समान ज तमःप्रधान गति प्राप्त थाय छे ॥१६॥

जे कामिनीओना मनोरञ्जननो सामान तेमनो क्रीडामृग बनी रह्यो छे अने जेना पोताना पगोमां सन्ताननी बेडी पडी गई छे ते बिचारो गरीब कोई पण होय क्यांय पण होय कोई पण रीते पोतानो उद्धार करी शकतो नथी ॥१७॥

तेथी हे भाईओ! तमे विषयी दैत्योनो सङ्ग दूरथी ज छोडी दो अने आदिदेव भगवान्‌ नारायणनुं शरण ग्रहण करो. कारण के जेओए संसारनी आसक्ति छोडी दीधी छे ए महात्माओना ए ज परम प्रियतम अने परम गति छे ॥१८॥

हे मित्रो! नारायणने प्रसन्न करतां बहु महेनत पण पडती नथी केमके ए सर्वभूतना आत्मा छे तथा सर्वत्र अर्ही सिद्ध होवाथी सर्वदा साथे ज छे ॥१९॥

ब्रह्माजीथी माण्डी तणखलां सुधी नानां-मोटां बधां प्राणीओमां, पञ्चभूतोथी बनेली वस्तुओमां, पञ्चभूतोमां, सूक्ष्म तन्मात्राओमां, महत्तत्त्वमां, त्रणेय [[२६७]] गुणोमां अने गुणोनी साम्यावस्था प्रकृतिमां एक ज अविनाशी परमात्मा बिराजेला छे ए ज समस्त सौन्दर्य, माधुर्य अने ऐश्वर्यो नी खाण छे ॥२०-
२१॥

ए ज अन्तर्यामी द्रष्टाना रूपमां छे अने ते ज दृश्य जगतना रूपमां पण छे, सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होवा छतां पण दृष्टा अने दृश्य, व्याप्य अने व्यापकना रूपमां ए प्रभुनुं निर्वचन करवामां आवे छे. वस्तुतः तेमां एक पण विक्ल्प नथी ॥२२॥

ए केवळ अनुभवैकवेद्य स्वरूप छे, परम ऐश्वर्यरूप छे अने आनन्दरूप छे! परन्तु ए मायाथी स्वरूपने तिरोधान करी गुणसर्गने प्राप्त थाय छे ॥२३॥

तेथी तमे सर्व प्राणीओ उपर दया अने सौहार्द राखो, प्रेमथी एमना उपर उपकार करो, असुर भावने छोडी दो एनाथी ज अधोक्षज भगवान्‌ प्रसन्न छे ॥२४॥

आदि नारायण अनन्त भगवान्‌ प्रसन्न थई जतां एवी कई वस्तु छे जे न मळी शके? लोक अने परलोक ने माटे जे धर्म, अर्थ वगेरेनी आवश्यकता बताववामां आवे छे ते तो गुणोना परिणामथी प्रयास विना एम ज मळवाना छे ज्यारे आपणे श्रीभगवानना चरणामृतनुं सेवन करवामां तथा आपना नाम गुणोनुं कीर्तन करवामां लाग्या छीए त्यारे आपणने मोक्षनी पण शी जरूर छे? ॥२५॥

धर्म, अर्थ अने काम ए त्रिवर्ग एना साधन आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, तर्कशास्त्र, दण्डनीति अने जीविका ना अनेक प्रकारनां साधन वेदोना प्रतिपाद्य विषयो छे. ए खरुं छे पण बधुं जीवने पोताना परम हितेच्छु, परम पुरुष भगवान्‌ श्रीहरिने आत्मसमर्पण करवामां साधनरूप होवुं जोईए. जो एम न होय तो ए बधुं असत्य छे केमके पोताना सुहृद भगवानने स्वात्मा अर्पण करवो एज सत्य छे, नहि तो ‘‘वेद त्रिगुणना विषय छे एथी तुं एनाथी पर भगवानने शरणे जा’’ एम अर्जुनने भगवान्‌ जे उपदेश करे छे ते न करत ॥२६॥

आ निर्मल ज्ञान जे में तमने बताव्युं ते बहु ज दुर्लभ छे. पहेलां आ ज्ञाननो उपदेश नर नारायणे नारदजीने कर्यो हतो. अने आ ज्ञान जेओए भगवानना अनन्य प्रेमी अने निष्किञ्चन भक्तोना चरणकमलोनी रजथी पोताना शरीरने नवरावी दीधुं छे ते बधाने प्राप्त थई शके छे ॥२७॥

[[२६८]] आ विज्ञान सहित ज्ञान विशुद्ध भागवत धर्म छे. पहेल वहेलां आ ज्ञान में भगवाननां दर्शन करावी देनारा देवर्षि नारदजीना मुखेथी साम्भळ्युं हतुम् ॥२८॥

दैत्यपुत्रो पूछवा लाग्या - हे प्रह्‌लाद्‌! तमे अने अमे आ गुरुना पुत्रो शण्ड अने अमर्क सिवाय बीजा गुरुने तो ओळखता पण नथी अने ए ज आपणा बधानी देखरेख राखे छे ॥२९॥

बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्गो दुरन्वयः। छिन्धिनः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विश्रम्भकारणम्‌ ॥३०॥

बाळकने अने जनानामां रहेनारने मोटा पुरुषनो सङ्ग थवो दुर्घट छे तो पछी तमने नारदजीथी ज्ञान मळ्यानी वात एमने कहेवा योग्य होय तो कहो. नारदजीए तमने जे ज्ञान आप्युं ते वातमां अमारो विश्वास दृढ थाय ए माटे, हे सौम्य! ए बधी वात कही अमारा सन्देहने दूर करो ॥३०॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (बीजा सद्वासनारूप प्रकरणनो पहेलो) ‘‘प्रह्‌लादजीए दैत्य कुमारोने आत्मधर्मनो करेलो उपदेश’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी पुष्टिमार्गी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय ७

‘‘में माताना गर्भमां नारदजी पासेथी ज्ञान मेळव्युं हतुं’’ एवो प्रह्‌लाद कुमारोने आपेलो उत्तर

विशेषः प्रह्‌लादजी माताना गर्भमां हता त्यारे नारदजी पासेथी आ ज्ञान साम्भळेलुं ते साम्भळनार दैत्यपुत्रोने साचुं कह्युं एनो विश्वास बेसाडवाने ‘‘आ ज्ञान में माताना गर्भमां रही अध्याय-७,

ईं उं ईं उं

सप्तमस्कन्ध २६९ नारदजी पासेथी साम्भळ्युं छे’’ एम सातमा अध्यायमां प्रह्‌लादजी दैत्यकुमारोने कहे छे. एवं दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः ॥ उवाच स्मयमानस्तान्‌ स्मरन्‌ मदनुभाषितम्‌ ॥१॥

नारदजी बोल्याःहे युधिष्ठिर! ज्यारे दैत्य बालकोए आ प्रमाणे प्रश्न कर्यो त्यारे भगवानना परम प्रेमी भक्त प्रह्‌लादजीने मारी वातनुं स्मरण थई आव्युं. सहेज हसतां-हसतां तेमणे तेमने कह्युम् ॥१॥

प्रह्‌लादजीए कह्युंःअमारा पिता ज्यारे तप करवाने मन्दराचळ तरफ गया त्यारे इन्द्रादि देवो दानवोनी सामे युद्ध करवानो भारे उद्योग करवा लाग्या ॥२॥

दैत्यशत्रुओ इन्द्रादि एवुं कहेवा लाग्या के जेम कीडीओ सर्पने खाई जाय तेम लोकने दुःख आपनार दैत्यने तेनां पाप ज खाई गयां छे ॥३॥

देवोनो अत्यन्त प्रबल प्रयास जोईने दैत्यसेनापतिओ देवोथी भय पाम्या अने मरता-मरता सर्व दिशामां दोडवा लाग्या ॥४॥

तेओ स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महेल, पशु अने घरवखरी न सम्भाळतां जलदी पोतानो प्राण बचाववाना प्रयत्नमां पड्या ॥५॥

जयनी इच्छावाळा देवो राजाना महेलनो नाश करवाने तैयार थया. राजा हिरण्यकशिपुनी स्त्री, मारी माताने पण इन्द्रे पकडी लीधी ॥६॥

भयभीत थई टिटोडीना पेठे रोती, ककळाट करती मारी माताने साथे लईने ए चालतो थयो त्यां मार्गमां दैवेच्छाथी देवर्षि नारदजी आवी मळ्या ॥७॥

ए बोल्याः‘‘हे सुरपते! आने लई जवी उचित नथी केमके ए अपराधी नथी. वळी ए सती साध्वी परनारी छे. हमणाञ्ज तेने छोडीदो’’ ॥८॥

त्यारे इन्द्रे कह्युंःआना गर्भमां देवद्रोही हिरण्यकशिपुनुं अत्यन्त प्रभावशाळी वीर्य छे. प्रसूति पर्यन्त एने मारी पासे राखीश, बालक थतां तेने मारी हुं आने छोडी दईश ॥९॥

नारदजीए कह्युं - एना गर्भमां भगवानना साक्षात्‌ परम प्रेमी भक्त अने सेवक, अत्यन्त बळवान अने निष्पाप महात्मा छे. तमारामां एने मारवानी शक्ति नथी ॥१०॥

देवर्षि नारदजीनी आ वात साम्भळी मारी माताने इन्द्रे मानपूर्वक छोडी दीधी. अने वळी एना गर्भमां भगवद्भक्त छे ए भावथी तेमणे मारी मातानी प्रदक्षिणा [[२७०]] करी अने पोताना लोकमां चाल्या गया ॥११॥

त्यारबाद मारी माताने नारदजी पोताना आश्रममां लाव्या अने एनुं सान्त्वन करी कह्युं, ‘‘हे पुत्री! तारो पति आवे त्यां सुधी तुं अर्ही ज रहे’’ ॥१२॥

‘जेवी आज्ञा’ एम कही मारी माताए कबूल कर्युं अने पछी निर्भय थईने ज्यां सुधी दैत्येन्द्र घोर तपथी निवृत्त थई पाछा आवे त्यां सुधी आश्रममां रहेवानो निश्चय कर्यो ॥१३॥

गर्भनुं कुशळ थाय अने इच्छित समये (मारा पिताना आव्या बाद) प्रसव थाय ए माटे गर्भवती मारी माता परम भक्तिवडे ऋषिनी सेवा करवा लागी ॥१४॥

देवर्षि नारदजी बहु दयाळु अने सर्व समर्थ छे. तेमणे मारी माताने भागवत धर्मनुं रह्स्य अने विशुद्ध ज्ञान बन्नेनो उपदेश कर्यो! उपदेश करती वखते तेमनी दृष्टि मारा उपर पण हती ॥१५॥

घणो समय थई जवाथी अने स्त्री होवाथी पण मारी माताने तो ए ज्ञाननुं स्मरण रह्युं नहि परन्तु देवर्षिनी विशेष कृपा होवाथी मने एनुं विस्मरण थयुं नहि अने जेवुं अने तेवुं बधुं याद छे ॥१६॥

जो तमे पण मारा वचनमां श्रद्धा राखो तो ए ज्ञान मारी मारफत मेळवी शको छो. जेम मने श्रद्धा हती तो गर्भावस्थामां मळेलुं ज्ञान स्थिर थयुं तेम तमने पण श्रद्धा हशे तो ए ज्ञान स्थिर रहशे एवुं ज स्त्री बाळक वगेरेनुं समजवुम् ॥१७॥

जेम वृक्षने अस्ति, जायते, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, नश्यति (होवुं, जन्म, वृद्धि, फेरफार, घसारो अने नाश) एवा छ भाव फळमां थाय छे तेम आत्मावाळा देहमां ए छ भावविकार काळे करीने देखाय छे ॥१८॥

केवळ आत्माने भावविकार नथी; ए तो नित्य, निर्विकार, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय अने निर्विकार, स्वप्रकाश, सर्वनुं कारण, सर्वव्यापक, असङ्ग अने आवरण रहित छे ॥१९॥

आत्मानां ए बार उत्कृष्ट लक्षणो छे. एने मनमां उतारीने देहमां मोहथी थयेल ‘‘हुं अने मारुं’’ एवो भाव छोडी दो ॥२०॥

जेवी रीते सुवर्णनी खाणोमां पथ्थरो साथे मळेला सुवर्णने तेने अलग करवानी विधि जाणनार सुवर्णकार ए विधिओथी तेने प्राप्त करी ले छे तेवी ज रीते अध्यात्म तत्त्वनो जाणकार आत्मप्राप्तिना उपायो द्वारा पोताना शरीररूप क्षेत्रमां [[२७१]] सोनारूपी ब्रह्मपदनो साक्षात्कार करी ले छे ॥२१॥

कपिल भगवान्‌ वगेरे आचार्योए मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पाञ्च तन्मात्रा -आ आठ तत्त्वोने प्रकृति तरीके ओळखाव्यां छे. एमना त्रण गुण छे- सत्त्व, रज अने तम. तेमना विकार सोळ छे. दस इन्द्रियो एक मन अने पञ्च महाभूत. ए बधामां एक पुरुषतत्त्व अनुगत छे ॥२२॥

आ बधानो समुदाय ज देह छे. ए बे प्रकारनो छे. स्थावर अने जङ्गम एमां ज अन्तःकरण इन्द्रिय वगेरे अनात्म वस्तुओने ‘‘आ आत्मा नथी’’ ए प्रकारे छोडतां-छोडतां आत्मानी शोध करवानी छे ॥२३॥

आत्मा बधी वस्तुओमां व्यापीने रहेलो छे पण ते बधाथी पृथक्‌ छे. आ प्रमाणे शुद्ध बुद्धिथी धीरे-धीरे संसारनी उत्पत्ति, स्थिति अने तेना प्रलय विषे विचार करवो जोईए, उतावळ न करवी जोईए ॥२४॥

ए वृत्तिओनो जे द्वारा अनुभव थाय छे ते ज बधाथी अतीत बधाना साक्षी परमात्माछे ॥२५॥

जेम पुष्पनी सुगन्धनी एना आश्रयरूप वायुने जाणवामां आवे छे तेम क्रियाथी उत्पन्न थता त्रिगुणात्मक बुद्धिनां परिणामोथी पुरुषरूप आत्माने जाणवो ॥२६॥

गुणो अने कर्मोने कारणे थतुं जन्म-मृत्युनुं आ चक्र आत्माने शरीर अने प्रकृत्तिथी अलग न करवाथीज छे. ते अज्ञान मूलक अने मिथ्या छे. छतां स्वपननी जेम जीवने तेनी प्रतीति थई रहे छे ॥२७॥

तेथी तमारे सौथी पहेलां आ त्रिगुणात्मक कर्मोना बीजनो ज नाश करी नाखवो जोईए. एने ज बीजा शब्दोमां योग अथवा परमात्मानुं मिलन कहेवामां आवे छे ॥२८॥

आम तो आ त्रिगुणात्मक कर्मोना बीजने ज बाळी नाखवामाटे अथवा बुद्धिवृत्तिओनो प्रवाह बन्ध करवामाटे हजारो साधन छे; परन्तु जे उपायथी अने जेवी रीते सर्व शक्तिमान भगवाननां स्वाभाविक निष्काम प्रेम थई जाय ते ज उपाय उत्तम छे ॥२९॥

भक्तिपूर्वक गुरुनी सेवा, जे कांई मळे ते प्रभुने निवेदन करी देवुं, भगवत्प्रेमी भगवदीयोनो सङ्ग करवो अने ईश्वरनुं आराधन करवुम् ॥३०॥

[[२७२]] एनी कथामां श्रद्धा राखवी, एना गुण अने लीला नुं कीर्तन करवुं, एना चरणकमळनुं ध्यान करवुं, एना स्वरूपनुं पूजन करवुम् ॥३१॥

भगवान्‌ हरि ईश्वर होवाथी सर्वभूतमां रहे छे एम धारी सर्वजीवमां भगवानने जाणी यथाशक्ति एनी इच्छा पूर्ण करीने एने हृदयथी मान आपवुं ॥३२॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद अने मत्सर आ छ शत्रुओ उपर विजय प्राप्त करी जे लोको आ प्रमाणे भगवाननी साधन भक्तिनुं अनुष्ठान करे छे एमने श्रीकृष्ण भगवानना चरणोमां अनन्य प्रेमनी प्राप्ति थई जाय छे ॥३३॥

रतिवाळो भक्त भगवाननी लीलाविग्रह-शरीरवडे जे अतुल्य पराक्रमो करवामां आव्या होय तेने याद करी अत्यन्त हर्षथी रोमाचिन्त थाय छे एने आङ्खमां प्रेमनां आंसु आवे छे ए मुक्त कण्ठे गावा लागे छे, शब्द करे छे अने नाचवा लागे छे॥३४॥

क्यारेक ते भूतग्रस्त पागलनी जेम क्यारेक हसे छे, क्यारेक करुण क्रन्दन करवा लागे छे, क्यारेक ध्यान करे छे तो क्यारेक लोकोने भगवद्भावथी वन्दना करवा लागे छे; ज्यारे ते भगवान्‌मां ज तन्मय थई जाय छे, वारंवार लाम्बा श्वास ले छे अने सङ्कोच छोडी दे ‘‘हे हरे! हे जगत्पति! हे नारायण!’’ कही कहीने पोकारवा लागे छे त्यारे भक्तियोगना महान भगवद्भावनी ज भावनां करतां-करतां तेनुं हृदय पण तदाकारभगवन्मय थई जाय छे. ए वखते एना जन्म-मृत्युनां बीजोना मूळ ज बळीने नष्ट थई जाय छे अने ते पुरुष श्री भगवानने प्राप्त करी ले छे ॥३५-३६॥

भगवानने हृदयमां मळवाथी रागादिवाळा पुरुषनो पण संसार मटे छे. डाह्या पुरुषो एने ज मोक्ष सुख के निर्वाण जाणे छे. माटे तमे तमारा हृदयमां हृदयना ईश्वर-भगवाननेभजो ॥३७॥

हे असुर बाळको! आकाशनी पेठे आपणा हृदयमां वसता आपणा आत्माना अने सामान्य सर्व प्राणीना मित्र एवा भगवानने भजवामां शो मोटो प्रयास करवानो छे? तेथी एने ज भजो. विषयनुं उत्पादन तो तुच्छ छे तेथी छोडो. एनाथी कंई ज पण सिद्ध थवानुं नथी ॥३८॥

पैसो, स्त्री, पशु, पुत्रादि, घर, पृथ्वी, हाथी, खजाना, समृद्धि आ बधां साधनो क्षणवारमां नाश थाय तेवां अने चलित छे ते क्षणभङ्गुर प्राणीनुं शुं भलुं करी शके? ॥३९॥

[[२७३]] यज्ञोद्वारा तमे स्वर्गादि मेळवो तो ए पण नाशवन्त, सापेक्ष-एक बीजाथी नाना-मोटा, ऊञ्चा-नीचा छे वळी ए पण जोईए तेटला निर्दोष नथी; निर्दोष एक मात्र परमात्मा छे. तेथी परमात्मानी प्राप्तिमाटे परमात्मानेज भक्तिपूर्वक भजो ॥४०॥

तदुपरान्त पोतानी जातने खूब विद्वान अने बुद्धिमान्‌ माननार पुरुष आ लोकमां जे हेतुथी वारंवार घणां-घणां कर्मो करे छे ते हेतुनी सिद्धिनी वात तो जवा दो, ऊलटुं तेने तेनाथी विपरीतज फळ मळे छे अने चोक्कस मळे छे ॥४१॥

कर्म करनारने सङ्कल्प दुःख दूर करवानो अने सुख प्राप्त करवानो होय छे; परन्तु प्रवृत्तिथी सदा दुःख अने निवृत्तिथी सदा सुख थाय छे ॥४२॥

पुरुष जे देहमाटे काम करे छे ते तो पारको छे, क्षणभङ्गुर छे अने आव-जा करवावाळो छे ॥४३॥

ज्यारे देहनुं ज ठेकाणुं नथी तो पछी शरीरथी जुदां एवां पुत्र, स्त्री, घर, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजानां, हाथी, घोडा, मन्त्री, नोकर-चाकर, मित्र, गुरुजन अने बीजा पोताना कहेवडावनारानी तो वात ज शी? ॥४४॥

ए तुच्छ विषयो शरीरनी साथेज नाश पामे छे. ए जणाय तो छे पुरुषार्थ जेवा परन्तु छे वास्तवमां अनर्थरूप ज. आत्मा स्वयं अनन्त आनन्दनो महासागर छे. तेने माटे आ वस्तुओनी शी जरूरछे ॥४५॥

हे असुरो! जराक विचार तो करो जे जीव गर्भाधानथी शरू थई मृत्यु सुधी बधी अवस्थाओमां पोताना कर्मोने आधीन थई कलेश ज भोगवतो रहे छे तेनो आ संसारमां स्वार्थ ज शुं छे? ॥४६॥

आ जीव सूक्ष्म शरीरने ज पोतानो आत्मा मानी ते द्वारा अनेक प्रकारनां कर्मो करे छे अने कर्मोने कारणे ज फरी शरीर ग्रहण करे छे. आ प्रमाणे कर्मथी शरीर अने शरीरथी कर्मनी परम्परा चाल्ये जाय छे. आम अविवेकने लीधे थायछे ॥४७॥

माटे आत्मारूप, दुःख हरनार अने प्रभुरूप, भगवान्‌, जेने धर्म, अर्थ अने काम आधीन छे एवा भगवानने कामना छोडीने भजो ॥४८॥

भगवान्‌ आत्मा सर्व प्राणी मात्रना मूळरूप छे तेथी ज ए अत्यन्त प्रिय छे. सर्वना अन्तरमां रही ए नियन्त्रण करे छे तेथी ईश्वर छे. भूतने पण पोते ज करे छे अन्ते एमां ए स्वयं अन्तर्यामीपणाथी रहे छे ॥४९॥

[[२७४]] देव, मनुष्य, असुर, यक्ष अथवा गन्धर्व कोई हो, मोक्ष आपनार मुकुन्द भगवानना चरणनुं भजन करवाथी ज ए अमारी पेठे कल्याण मेळवी शके छे ॥५०॥

हे दैत्य बालको! भगवानने प्रसन्न करवामाटे ब्राह्मण, देवता अथवा ऋषि होवुं, सदाचार अथवा विविध प्रकारना ज्ञानथी सम्पन्न होवुं तथा दान, तप, यज्ञ शारीरिक अने मानसिक शौच अने भारे-भारे व्रतोनुं आचरण पूरतुं नथी. भगवान्‌ मात्र निष्काम प्रेम भक्तिथी ज प्रसन्न थाय छे बीजुं बधुं तो विडम्बन छे; देखाव मात्र छे ॥५१-५२॥

तेथी हे दानवो! समस्त प्राणीओने पोतानी समान ज समजी सर्वत्र बिराजमान्‌, सर्वात्मा, सर्व शक्तिमान्‌ भगवाननी भक्ति करो ॥५३॥

दैत्यो, यक्षो, राक्षसो, स्त्रीओ, शूद्रो, जङ्गलमां रहेनारा, पक्षी, पशु अने बीजा घणा पापी जीवो पण भगवद्भावने प्राप्त थई गया छे ॥५४॥

एतावानेव लोकेऽस्मिन्‌ पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः। एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्‌ सर्वत्र तदीक्षणम्‌ ॥५५॥

आ संसारमां अथवा मनुष्य शरीरमां जीवनो महानमां महान पुरुषार्थ कोई होय तो ते भगवान्‌ श्रीकृष्णनी अनन्य भक्ति करवी ते छे. सर्वदा, सर्वत्र बधी वस्तुओमां भगवाननुं दर्शन करवुं ए भक्तिनुं स्वरूप छे ॥५५॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (बीजा सद्वासना प्रकरणनो ‘प्रह्‌लाद तथा असुर कुमारोनो संवाद’ नामनो बीजो) ‘‘में माताना गर्भमां नारदजी पासेथी ज्ञान मेळव्युं हतुं एवो प्रह्‌लादजीए कुमारोने आपेलो उत्तर’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भाव गुप्त रहे तो ज वधे. तेथी पोताना आश्रमधर्मोनी पछवाडे पोताना भगवद्‌भावोने गुप्त राखीने भगवत्सेवा करवी जोईए. जेना हृदयमां प्रभु नथी बिराजता ते ज पोताना भावोने खुल्लेआम प्रदर्शित करतो होय छे. जो प्रभु हृदयमां बिराजता होय तो भावोनुं उघाडे छोगे प्रदर्शन सम्भव नथी. (श्रीमहाप्रभुजी, अणुभाष्य) अध्याय-७,

ईं उं ईं उं

सप्तमस्कन्ध २७५

अध्याय ८

भगवान्‌ श्रीनृसिंहरूपे प्रकट थया अने हिरण्यकशिपुने मार्यो

विशेष - हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रोधथी पुत्रने मारवा जतां ज पोते ज मर्यो. राजानी सभामां नृसिंह प्रकट थया तेमनी ब्रह्मादि देवोए स्तुति करी. नृसिंह बहारथी क्रोधपूर्ण छतां अन्दरथी कृपापूर्ण होईने दुश्मन (वेर) भावथी भजता दैत्येन्द्रने मारी अने विषमभावने एमणे निवृत्त कर्यो ए कथा आ अध्यायमां छे. अथ दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम्‌ ॥ जगृहुर्निरवधत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम्‌ ॥१॥

नारदजीए कह्युं - प्रह्‌लादजीनुं कहेलुं साम्भळी ए दैत्यपुत्रोए एना कथनने निर्दोष जाणी ए बोधने पकडी लीधो. गुरुए भणावेला दूषित ज्ञाननी सामे पण तेमणे जोयुं नहि ॥१॥

आम बधा दैत्यकुमारोनी बुद्धि भगवद्‌धर्ममां निष्ठावाळी जोई आचार्यपुत्र प्रथम तो भयभीत थयो पण पछी जलदीथी राजा पासे जईने परिस्थिति एणे विस्तारथी कही ॥२॥

प्रह्‌लादजीनी आ अप्रिय अने असह्य अनीति साम्भळी राजाने अत्यन्त क्रोधने लीधे एना शरीरमां कम्प थयो; अने एणे पोताना पुत्रने पोताने हाथे ज मारी नाखवानो निश्चय कर्यो ॥३॥

पग नीचे दबातां जेम सर्प छञ्छेडाय तेम स्वभावथी ज निर्दय हिरण्यकशिपु फूम्फाडो मारी विनयथी नम्र, इन्द्रिय निग्रहवाळो अने हाथ जोडी सामे उभेलो पोतानो पुत्र प्रह्‌लाद जे अपमान करवा योग्य न होतो तेनुं कठोरवाणीवडे अपमान करवा लाग्यो अने क्रोधवाळां कुटिल नेत्रोथी एनी तरफ जोई धमकाववा लाग्यो ॥४-५॥

हिरण्यकशिपु बोल्यो - अरे मुर्ख! तुं घणो उद्धत थई गयो छे तुं पोते तो नीच छे ज, हवे तुं अमारा कुलना बीजा बाळकोने पण बगाडवा बेठो छे! तें घणी जिद्‌ करी मारी आज्ञानुं उल्लङ्घन कर्युं छे. आजे ज तने यमराजने घेर पहोञ्चाडी दईश ॥६॥

[[२७६]] हुं सहेज क्रोध करुं छुं तो त्रणेय लोक अने लोकपालो थरथरी जाय छे तो मूर्ख तुं कोना बळथी निडरनी जेम मारा हुकम विरुद्ध काम करे छे? ॥७॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - हे दैत्यराज! ब्रह्माजीथी लई तरणां सुधी बधां नानामोटा चर-अचर जीवोने भगवाने ज पोताने वश करी राख्या छे. मारुं अने आपनुं ज नहि परन्तु संसारना समस्त बलवानोनुं बल केवल ते ज छे ॥८॥

ए ज महा पराक्रमी, ईश्वर सर्व शक्तिमान्‌ काळ छे तथा इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल अने देह तथा इन्द्रियोना आश्रयरूप छे. ए ज पोतानी शक्तिवडे आ जगतने सरजे छे, रक्षण करे छे अने संहार करे छे. पोते गुणना अधिपति छतां निर्गुण छे ॥९॥

आप आपनो आ आसुरभाव छोडी दो. अवळे मार्गे चालनार अने नहि जितायेला मन सिवाय आपणो बीजो कोई दुश्मन नथी. ए मनमां बधां प्रत्ये समभाव राखवो ए ज भगवद्‌ आराधन छे ॥१०॥

जे लोको पोतानुं सर्वस्व लूण्टनारा आ इन्द्रियरूपी शत्रुओने तो जीतता नथी अने एम माने छे ‘‘में दश दिशा जीती’’ ते मूर्ख छे. जो मनने जीती बधा प्राणीमां समानता राखे अने ‘‘हुं तथा मारुं’’ शा कारणथी थाय छे ए कारणने जाणे तो एवा सज्जनने शत्रु ज क्यान्थी होय? शत्रु तो मोह ने लीधे ज थाय छे. विद्वानने मोह न होवाथी शत्रु पण न ज होई शके ॥११॥

हिरण्यकशिपुए कह्युं - स्पष्ट रीते तुं मरवा ज तैयार थयो छे केमके तुं अत्यन्त असम्बद्ध, बोले छे. हे मन्दबुद्धि मरवाने तैयार थयेला माणसनी वाणी सम्बन्ध विनानी होय छे ॥१२॥

हे मन्द भागी! तें जगतने मारा सिवायनो जे ईश्वर कह्यो ते क्यां छे? ठीक, सर्वत्र छे एम कहेतो हो तो आ स्तम्भमां केम नथी देखातो? ॥१३॥

तेथी तुं असम्बद्ध प्रलाप करनारो छे. तारुं माथुं हुं शरीरथी जुदुं करुं छुं. जेने ते तारो रक्षक मान्यो छे ते हरि भले आजे तारी रक्षा करे ॥१४॥

एवां दुर्वचनोवडे ए महाअसुर महाभगवद्भक्त पुत्र प्रह्‌लादने दुःख आपतो, श्रेष्ठ आसन उपरथी ऊठी खड्‌ग हाथमां लई अत्यन्त बळवान होवाथी खड्‌गवडे एणे स्तम्भमां प्रहार कर्यो ॥१५॥

ते ज वखते स्तम्भमां एक अत्यन्त भयङ्कर धडाको थयो. एवुं लाग्युं के जाणे [[२७७]] आ ब्रह्माण्ड फूटी गयुं होय. ए अवाज ज्यारे लोकपालोना लोकोमां पहोञ्च्यो त्यारे तेने साम्भळी ब्रह्मा वगेरेने एवुं लाग्युं के एमना लोकोनो प्रलय थई रह्यो छे ॥१६॥

हिरण्यकशिपु प्रह्‌लादजीने मारी नाखवामाटे पूरी ताकातथी तूटी पड्यो हतो, परन्तु दैत्य सेनापतिओने पण भयथी कम्पावी देनारा ए अपूर्व अने अद्‌भुत भयङ्कर कडाकाने साम्भळी ते गभरायेला जेवो थईने जोवा लाग्यो के आ अवाज करनारो कोण छे? परन्तु तेने सभामां तो कोई पण देखायुं नहि ॥१७॥

ए ज वखते पोताना सेवक प्रह्‌लादजी अने ब्रह्माजी नुं वचन सत्य करवा अने समस्त पदार्थोमां पोते व्यापीने रहेला छे ते सिद्ध करवा सभानी अन्दर ते ज स्तम्भमां घणुं ज विचित्र रूप धारण करीने भगवान्‌ नृसिंह रूपे प्रकट थया. ते रूप न तो पूरेपूरुं सिंहनुं हतुं के न मनुष्यनुम् ॥१८॥

ज्यारे हिरण्यकशिपु धडाको करनारनी आम-तेम शोध करतो हतो ते ज वखते स्तम्भनी अन्दर नीकळतां ए अद्‌भुत प्राणीने तेणे जोयुं ते विचार करवा लाग्यो, ‘‘ओहो! आ नथी तो मनुष्य के नथी पशु; तो पछी आ नृसिंहरूपमां कयुं अलौकिक प्राणी छे!’’ ॥१९॥

जे वखते हिरण्यकशिपु आ मुञ्झवणमां हतो ए वखते बराबर एनी सामे ज नृसिंह भगवान्‌ आवीने ऊभा. एमनुं स्वरूप बहु भयानक हतुं. तपावेल सोनाना जेवी पीळी-पीळी भयङ्कर तो आङ्खो हती. बगासुं खावाथी गरदनना वाळ आमतेम विखराई गयेला हता ॥२०॥

दाढो घणी विकराल हती. तलवारनी जेम चमक्ती अने अस्तरानी धार जेवी तीखी जीभ हती. टेडी भ्रमरथी एमनुं मुख वधारे दारुण लागतुं हतुं. कान निश्चल अने टटार हता. फुलेली नासिका अने खोलेलुं मुख पहाडनी गुफा जेवुं अद्‌भुत लागतुं हतुं. उघाडेला जडबांओथी तेनी भयङ्करता बहु ज वधी पडी हती ॥२१॥

विशाल शरीर आकाशने अडकतुं हतुं. गरदन कंईक टूङ्की अने जाडी हती, छाती पहोळी अने कमर बहुज पातळी हती. चन्द्रमानां किरणो जेवा सफेद रूंवाडा आखा शरीर उपर चमकी रह्यां हतां. सेङ्कडो भुजाओ चारे तरफ फेलायेली हती. जेमना मोटा-मोटा नख आयुध जेवा धारदार हता ॥२२॥

एनी पासे जवानी पण कोईनी हिम्मत नहोती. चक्र वगेरे पोतानी निज [[२७८]] आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोद्वारा तेमणे सर्व दैत्य-दानवोने नसाडी मूक्या. नृसिंहना रूपने ए दैत्ये जोयुं. घणुं करीने महा मायावाळा हरि भगवाने मने मारवा आ रूप लीधुं छे. पण एमना आ उद्यमथी शुं थवानुं छे? ॥२३॥

आ प्रमाणे कहेतो अने सिंहना जेवी गर्जना करतो दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमां गदा लई नृसिंह भगवान्‌ उपर तूटी पड्यो. परन्तु जेवी रीते पतङ्गियुं आगमां पडी अदृश्य थई जाय छे तेमज ते दैत्य भगवानना तेजमां पड्यो अने एमां अञ्जाई गयो, अदृष्ट थई गयो ॥२४॥

प्रकाशमान्‌ भगवान्‌ पासे आवतां अन्धकाररूप ए दैत्य अदृष्ट थाय एमां कांई आश्चर्य जेवुं नथी केमके प्रथम पण आ जगत्‌ तमोगुणरूपी अन्धकारथी ढङ्कायेलुं हतुं त्यारे स्वप्रकाशथी ए भगवाने अन्धकारने दूर कर्यो हतो. एमान्थी पाछो नीकळी महाअसुरे क्रोध युक्त थईने गदा जोरथी फेरवी नृसिंह भगवान्‌ उपर प्रहार कर्यो ॥२५॥

जेम गुरुड सर्पने पकडी ले तेम गदा सहित पराक्रम करता ए दैत्यने पकडी पाडी, गरुड सर्पने रमाडे तेम, दैत्यने पण रमाडवा लाग्या त्यारे जेम गम्मत करता गरुडनी पकडमान्थी साप नीकळी जाय तेम दैत्य तेमनी पकडमान्थी छटकी गयो ॥२६॥

हे युधिष्ठिर! ए वखते बधा लोकपालो वादळांओमां छूपाईने आ युद्ध जोई रह्या हता. एमनुं स्वर्ग तो पहेलां ज हिरण्यकशिपुए झूण्टवी लीधुं हतुं ज्यारे तेओए जोयुं के ते भगवानना हाथमान्थी छटकी गयो त्यारे तो तेओ वधारे गभराई गया, हिरण्यकशिपु पण एम मानी बेठो के नृसिंहे मने मारा बलवीर्यथी डरी जई छोडी दीधो छे. आ विचारथी एनो थाक पण जतो रह्यो अने ते ढाल-तलवार लई भगवाननी सामे सङ्ग्राममां आवी लाग्यो ॥२७॥

ते वखते बाजनी जेम ते झपाटा बन्ध उपर-नीचे ऊछळी-कूदी ढालतलवारना एवा दाव बदलवा माण्ड्यो के जेथी तेना उपर घा करवानो मोको ज न मळे. त्यारे भगवाने घणे मोटे अवाजे प्रचण्ड अने भयङ्कर अट्टहास्य र्क्युं जेथी हिरण्यकशिपुनी आङ्खो ज र्मीचाई गई. पछी साप जेम उन्दरने पकडी ले तेम भगवाने तेने वेगथी पकडी लीधो. जे हिरण्यकशिपुनी चामडी इन्द्रना वज्रना प्रहारथी पण भेदाई नहोती ते हवे एमना पञ्जामान्थी बहार नीकळवा घणा जोरथी प्रयत्न करतो हतो. भगवाने तेने सभाना दरवाजा उपर लई जई एने पोतानी [[२७९]] गोद (खोळा) उपर राख्यो अने रमतां-रमतां, गरुड जेम महाविषधर सर्पने चीरी नाखे तेम पोताना नखोथी तेने चीरी नाख्यो ॥२८-२९॥

नृसिंहना नेत्र क्रोधथी एवां भयङ्कर थई गयां हता के तेमनी सामे जोई शकातुं न हतुं ए उघाडेला मोढाना छेडाने जीभथी चाटता हता, लोहीना छाण्टा मुख अने केशवाळीमां पड्या हता तेथी जेम सिंह हाथीने मारी एना आन्तरडानी माळाथी शोभे तेम ए शोभवा लाग्या ॥३०॥

ज्यारे नृसिंहे नखना अग्र भागथी दैत्यना हृदयने चीरी नाखी एने छोडी दीधो त्यारे हजारो दैत्य-दानव आयुध उठावी लडवा आव्या. ए समये नखरूपी शस्त्र जेमां छे तेवा हाथथी एमणे हजारोने मारी नाख्या ॥३१॥

एमणे केशवाळी हलावी तेथी मेघो ऊञ्चेथी नीचे पड्या. एमना नेत्रना तेज आगळ ग्रहोनां तेज झाङ्खां पडी गयां. एमना श्वासवडे समुद्रो क्षुब्ध थया. एमनी गर्जनाथी भय पामेला दिशाओना हाथी चीसो पाडवा लाग्या ॥३२॥

एमनी गरदनना वाळ साथे टकराईने देवताओनां विमानो अस्त व्यस्त थई गयां. स्वर्ग हचमची गयुं. एमना पगना धमकाराथी धरतीकम्प थई गयो. एमना वेगथी पर्वतो पडी गया. एमना तेजना झळहळाटथी आकाश अने दिशाओ नी शोभा ओछी थई गई ॥३३॥

नृसिंह भगवाननो सामनो करनार हवे कोई देखातुं नहतुं. छतां एमनो क्रोध हजु वध्ये ज जतो हतो. आप हिरण्यकशिपुनी राजसभामां ऊञ्चा सिंहासन उपर जईने बिराज्या. ए वखते एमनो अत्यन्त तेजस्वी अने क्रोध भर्यो चहेरो जोईने कोई एमनी पासे जई शकया नहि ॥३४॥

ज्यारे त्रिलोकना मस्तकना रोगरूप दैत्येन्द्र भगवानना हाथथी मरायो छे एवुं स्वर्गनी देवीओए साम्भळ्युं त्यारे एमनां मुख हर्षथी खीली उठ्यां अने आकाशमार्गेथी ए वारंवार पुष्पवृष्टि करवा लागी ॥३५॥

ए समये देवोनां विमानोथी आकाश भराई गयुं. देवनां ढोल अने दन्दुभि वाग्यां. गन्धर्वो नाचवा लाग्या. अप्सराओ गावा लागी ॥३६॥

त्यां देवो, ब्रह्मा, इन्द्र, शिव वगेरे देवता, ऋषिओ, पितर, सिद्धो, विद्याधरो, मोटा सर्पो, मनुओ, प्रजापतिओ, गन्धर्वो, अप्सराओ, चारणो, यक्षो, किम्पुरुषो, वेतालो, सिद्धो अने किन्नर लोको आव्या ॥३८॥

[[२८०]] सुनन्द अने कुमुद वगेरे विष्णुना बधा पार्षदो श्रीनृसिंहजीने नजीकथी मस्तक नमावी हाथ जोडी जुदा-जुदा स्तुति करवा लाग्या ॥३९॥

ब्रह्माजीए कह्युं - अनन्त अने अपार शक्तिवाळा, पवित्र कर्म अने विचित्र पराक्रमवाळा, पोते निर्गुण छतां गुणोवडे जगतनां सर्ग, स्थिति अने संयमने लीलावडे करनार अने छतां अव्यय एवा आपने हुं नमुं छुम् ॥४०॥

श्रीरुद्रे कह्युं - आपे कोप करवानो समय तो सहस्रयुगना अन्तमां होय छे, आ असुरने मार्यो ते तो तुच्छ हतो; आपना कोपनो विषय नहोतो. हे भक्तवत्सल! एनो पुत्र आपने शरणे आव्यो छे तेनी रक्षा करो. आपनो भक्त छे ॥४१॥

इन्द्रे कह्युं - हे पुरुषोत्तम! अमने बचावी आपे अमारा यज्ञना भागो सारी रीते अमने पाछा अपाव्या छे. दैत्योथी घेरायेला सङ्कुचित अमारां हृदयकमलने आपे विकसाव्युं. ते पण आपनुं निवास स्थान छे. आजे स्वर्गादिनुं राज्य अमने फरी मळ्युं छे ते तो बधुं कालनो कोळियो छे. जे आपना सेवको छे तेमने माटे तो शुं ज हिसाब होय? जेमने आपनी सेवानी चाहना छे ते मुक्तिनो पण आदर नथी करता, पछी बीजा भोगोनी तो एने जरूर ज शी? ॥४२॥

ऋषिओए कह्युं - तप श्रेष्ठ छे एवुं आपे अमने कह्युं छे. तपवडे आदि पुरुष पोताना स्वरूपमान्थी ए जगतने उत्पन्न करे छे. हे शरणे आवनारना पालक! ए तप आ दैत्ये कुठिन्त कर्युं हतुं ते तपनी रक्षामाटे आपे प्रकट थई विघ्नने दूर कर्युं अने तप करवानी पाछी आज्ञा करी एवा आपने अमे नमन करीए छीए ॥४३॥

पितृओए कह्युं - अमारा पुत्रोए श्रद्धाथी करेल पिण्ड दानने आ दैत्य बळात्कारे खाई जतो हतो. ज्यारे ते पवित्र तीर्थमां अथवा सङ्क्रान्ति आदि प्रसङ्गे नैमित्तिक तर्पण करता अथवा तिलाञ्जलि देता त्यारे ए पण आपी जतो. ए दैत्यना पेटने चीरीने एमान्थी आपे मज्जा वगेरे काढी ते बधुं जाणे के अमने पाछुं आपी दीधुं. ते ठीक कर्युं केमके बधा धर्मना रक्षक आपज छो; तेथी हे नृसिंह! आपने अमारा नमस्कारहो ॥४४॥

सिद्धोए कह्युं - जे दुष्ट अमारी योग सिद्धिओने पोते योग अने तप ना बळथी पडावी अने अनेक प्रकारनो गर्व करतो हतो तेने आपे नखथी फाडी नाख्यो ए ठीक कर्युं; तेथी हे नृसिंहप्रभु! आपने अमे नमन करीए छीए ॥४५॥

विद्याधरोए कह्युं - बळ अने पराक्रम ना गर्ववाळो दैत्य जुदी-जुदी धारणाथी [[२८१]] अमे सम्पादन करेली अन्तर्धानादि विद्याने अजमाववा नहोतो देतो ते दैत्यने आपे युद्धमां यज्ञ पशुनी जेम मार्यो. लीलाथी नृसिंहरूप धारण करेल आपने अमे प्रणाम करीए छीए ॥४६॥

नागोए कह्युं - जे पापीए अमारां रत्नो अने स्त्रीरत्नो बळात्कारे लई लीधां हतां तेनुं हृदय चीरीने ए स्त्रीओने आनन्द आपनार आपने अमारा नमस्कार हो ॥४७॥

मनुओए कह्युं - हे प्रभु! अमे आपना आज्ञाकारी मनुओ छीए. आ दैत्ये अमारी धर्म मर्यादा लोपी नाखी हती. ए दुष्टने आपे मारी घणो उपकार कर्यो. तेथी हे प्रभो! आपना दासरूप अमने आप आज्ञा आपो ए प्रमाणे अमे आपनी सेवा करीए ॥४८॥

प्रजापतिओए कह्युं - हे परमेश्वर! आपे अमने प्रजापति बनाव्या हता. जे दैत्ये अमने प्रजानी सृष्टि करता अटकाव्या हता तेनी आपे छाती फाडी नाखी अने ते कायमने माटे जमीन उपर सूई गयो-मरी गयो. हे सत्त्वमूर्ति! आपनुं आ लोकमां पधारवुं ए जगतनुं मङ्गळ करनार छे ॥४९॥

गन्धर्वोए कह्युं - हे विभो! अमे आपनी समक्ष नृत्य करनारा, अभिनय करनारा अने सङ्गीत सम्भळावनारा आपना सेवको छीए, आ दैत्ये पोतानां शौर्य, शक्ति अने प्रभाववडे अमने पोताना ताबेदार बनावी दीधा हता तेनी आपे आ दशा करी; तेथी जेओ कुमार्गे चाले तेमनुं कयां भलुं थाय? न ज थाय. ॥५०॥

चारणोए कह्युं - हे हरे! संसार मान्थी मुक्ति आपनार आपना चरणोनो अमे आश्रय करीने रह्या छीए. आ असुर साधुओना हृदयनो सन्ताप हतोतेने आपे मार्यो. आपने अमे नमन करीए छीए ॥५१॥

यक्षोए कह्युं - सुन्दर कार्य करवाथी आपना सेवकोमां अमे मुख्य हता तेओने आ दैत्ये पालखी उपाडनार बनाव्यां हतां. एणे लोकोने दुःख आप्युं तेने आपे पञ्चत्वने पमाड्यो. हे नरहरि! हे चोवीस तत्त्वना नियामक! आपने अमारां नमनहो ॥५२॥

किम्पुरुषोए कह्युं - आप महा पुरुष ईश्वर छो. आ कुपुरुष साधुपुरुषना धिक्कारथी नष्ट थयो ए सारुं थयुम् ॥५३॥

वैतालिको बोल्या - सभाओ अने सत्रोमां तमारो निर्मळ यश गाईने अमोए [[२८२]] घणां पूजा अने सत्कार सम्पादन कर्यां तेवा अमने आ दैत्ये ताबे कर्या. ए दुष्ट मर्यो ते शरीरना रोग जेवो हतो तेने आपे मार्यो ए लोकोना सौभाग्यनी वात छे ॥५४॥

किन्नरोए कह्युं - हे ईश! अमे किन्नरो आपना सेवको छीए तेमने आ दैत्ये वेठिया बनावी दीधा हता. हे हरे! आ दुष्टने आपे मार्यो. हे नाथ! आप अमने आज प्रमाणे सुख समृद्धिने आपता रहो ॥५५॥

अद्यैतद्धरिनररूपमद्‌भुतं ते दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म। सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्तः तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥५६॥

विष्णुपार्षदो बोल्या - हे शरणागत वत्सल! हे सर्वलोकने सुख आपनार! सिंह अने मनुष्य नुं आ रूप अमे जोयुं. जेने आपे मार्यो ते प्रथम आपनो सेवक हतो. ब्राह्मणना शापथी ए दैत्य थयो तेना उपर आपे अनुग्रह करी उद्धार कर्यो छे एम अमे समजीए छीए ॥५६॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (बीजा सद्वासना प्रकरणनो नृसिंहप्रादुर्भाव नामनो त्रीजो) ‘‘भगवान्‌ श्रीनृसिंह रूपे प्रकट थया अने एमणे हिरण्यकशिपुने मार्यो’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं.(श्रीहरिरायजी)

अध्याय ९

प्रह्‌लादजी नृसिंहजी पासे जई नम्या; नृसिंहजी शान्तथयात्यारेएमनीस्तुति करी

विशेष - ब्रह्माजीने नृसिंहजी पासे जतां बीक लागी तेथी प्रह्‌लादजीने मोकल्या. तेमणे नृसिंहजीना कोपने शान्त पाड्यो त्यारे प्रह्‌लादजीए एमनी स्तुति करी. आ नृसिंहजी उग्र छे छतां पोताना भकत पासे सरळ छे. जेम सिंह उग्र छे छतां पोताना बाळकनी पासे ए उग्र अध्याय-९,

ईं उं ईं उं

सप्तमस्कन्ध २८३ नथी होतो तेम ए वात आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्रपुरःसराः ॥ नोपैतुमशकन्मन्युसंरम्भं सुदुरासदम्‌ ॥१॥

नारदजी बोल्या - ब्रह्मा, रुद्र वगेरे देवो जेनी पासे जई शकाय नहि तेवा अने क्रोधना आवेशवाळा नृसिंहजी पासे जवाने शक्तिमान थया नहि ॥१॥

त्यारे देवोए साक्षात्‌ लक्ष्मीजीने मोकल्यां, परन्तु कोई दिवसे नहि साम्भळेलां के जोयेलां अद्‌भुत रूपथी भय पामीने ए पण एमनी पासे जई शक्यां नहि ॥२॥

त्यारे ब्रह्माजी पासे *उभेला प्रह्‌लादने आगळ करीने कहेवा लाग्यो ः‘‘हे तात! तमे नृसिंहजी पासे जाओ. एमने शान्त करो केमके ए तमारा पितानी उपर तमारा माटे आटला बधा कुपित थया छे तेथी तमे ज एमने शान्त करो’’. ‘‘ब्रह्माजीना कहेवाथी महाभगवद्भकत’’ प्रह्‌लादजीए नजेवी आज्ञाथ कही धीमे- धीमे पासे गया अने हाथ जोडी शरीरथी पृथ्वी उपर दण्डवत्‌ प्रणाम कर्या ॥३-४॥

विशेष - प्रह्‌लादने ब्रह्माजीए आगळ राख्यो अने ब्रह्माजी पाछळ रह्या. ब्रह्माजीए भगवानना क्रोधथी बचवा भकत प्रह्‌लादने ढालरूप बनाव्यो. रजोगुणमय संसारनां कष्टो निवारवामां भगवद्भकत ढाल छे. (विश्वनाथ चक्रवर्ती) पोतानां चरणमां पडेला नानकडा बाळकने जोईने श्रीनृसिंहजी कृपाथी आर्द्र थई गया. कालरूपी सर्पना भयथी त्रास पामेलाने अभय आपनार एमणे श्रीहस्तवडे प्रह्‌लादने उठाड्यो अने ए ज श्रीहस्तने एना मस्तक उपर धारण कर्यो ॥५॥

भगवानना श्रीहस्तना स्पर्शथी एनां बधां पाप धोवाई गयां. एना हृदयमां परमात्मानुं प्रकट दर्शन थयुं अने ए अत्यन्त सुखी थयो. प्रभुना चरणकमळने हृदयमां धारण करतो प्रह्‌लाद स्पर्श मात्रथी पुलकित थयो हृदयमां प्रेमनी धारा वहेवा लागी. अने नेत्रोमान्थी आनन्दाश्रु पडवा लाग्याम् ॥६॥

प्रह्‌लादजी भावभीनां हृदय अने अपलक नयनोथी भगवाननां दर्शन करी रह्यां हतां. एकाग्र मनथी भगवद्‌गुणोनुं चिन्तन करता प्रेम गद्‌गद वाणीथी स्तुति करी ॥७॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - सत्त्वमां निष्ठायुकत बुद्धिवाळा ब्रह्मादि देवो, मुनिओ अने सिद्धो बहु गुणवाळा छतां आपनुं आराधन करवाने समर्थ थता नथी तो घोर [[२८४]] असुर जातमां उत्पन्न थयेलो हुं आपनी स्तुति करवाने केम लायक थई शकुं? ॥८॥

धन, कुळ, रूप, तप, शास्त्र श्रवण, इन्द्रिय सामर्थ्य, कान्ति, प्रताप, उद्यम, बुद्धि, प्रज्ञा अने अष्टाङ्ग योग एबार गुणो भगवानने प्रसन्न करावी शकता नथी एवुं मारुम्मानवुं छे केमके गजेन्द्रने तो भगवान्‌ भक्तिवडे ज प्रसन्न थयाहता ॥९॥

आ बार गुणवाळा ब्राह्मण होय छतां भगवाननां चरणकमळथी विमुख होय तो एवा ब्राह्मण करतां मन, वचन, कर्म, धन अने प्राण ने भगवान्‌मां राखनार चाण्डाळ उत्तम छे एम हुं मानुं छुं केमके चाण्डाळ पोतानी दीनताथी भगवच्चरणमां रहीने कुळने पवित्र करे छे त्यारे ब्राह्मण कुलाभिमानवडे भगवद्‌विमुख थईने पोताने पण पावन करी शकतो नथी ॥१०॥

प्रभु पोताना स्वरूप लाभवडे पूर्ण छे ए अज्ञानी लोक तरफथी सत्कारनी इच्छा करता नथी, छता दयाळु छे. एथी एना उपचारने स्वीकारे छे. जेम दर्पणमां देखाता मुखने सुन्दर बनाववुं ए पोताना मुखनी सुन्दरतामाटे छे तेम माणस भगवानने जे-जे उपचारोथी सेवे छे ते बधा एने पोताने माटे ज फलित थाय छे ॥११॥

तेथी मनमां कलेश दूर करी, हुं सर्व प्रकारे ईश्वरना महिमाने गाउं के जेनाथी नीच अने माया ना योगथी संसारमां पडेलो पुरुष पण पवित्र थाय ॥१२॥

सत्त्वमां स्थिति करी रहेला अने भय पामता बधा ब्रह्मादि देवो आपनी आज्ञा उठावनार छे; अमारी पेठे वेर करनार नथी. आपना रुचिर अवतारोनी क्रीडा लोकनां कल्याण समृद्धि अने आत्मसुख माटे छे ॥१३॥

माटे हे नृसिंह! आपे असुरने मार्यो ए सारुं कर्युं. र्वीछी के सर्प ने मारवाने सत्पुरुष पण अनुमोदन आपे. आपे बधा लोकने सुखी कर्या छे तेथी हवे आप क्रोधनुं नियमन करो. लोकोने भयथी मुक्त थवाने आपनुं स्मरण पुरतुं छे. आवा भयानक रूपनी हवे जरूर नथी ॥१४॥

हे अजित! तमारां अति भयानक मुख, जिह्‌वा, सूर्य सरखां नेत्र, भ्रूकुटी अने उग्र दाढोवाळा, आन्तरडान्नी माळवाळा, लोहीना छाण्टणांवाळी केशवाळीवाळा, ऊभा कानवाळा अने शब्द करवाथी दिग्गजोने भय पमाडता अने शत्रुने भेदनार नखवाळा स्वरूपथी हुं भय पामतो नथी ॥१५॥

परन्तु, हे कृपणवत्सल! दुःसह एवा उग्र संसारचक्रना मारथी हुं डरुं छुं. आपना सिवाय बधानो नाश करे एवा असुर कुळमां कर्मोथी बन्धायेला एवा मारा [[२८५]] उपर प्रसन्न थई सुन्दर मोक्षरूप आपनां चरणमां मने क्यारे बोलावशो? ॥१६॥

प्रियना वियोगथी, अप्रियना संयोगथी तथा शोकवडे संसार सकळ योनिना जीवोने बाळे छे. एना दुःखने मटाडवानो उपाय शोधतां अने उपाय पण दुःखरूप होय छे. हे भूमन्‌! देहाभिमानवडे मूञ्झातो हुं संसारमां भटकुं छुं तेने आप दास भावनुं दान क्यारे करशो ए कहो ॥१७॥

हे नृसिंह! आप अमारा प्रिय, सुहृद अने परम दैवत छो. ब्रह्मादिथी आपनी लीलारूपी जे कथाओ गवायेली छे ते गाईने तथा आपना परम भक्तरूपी हंसनो सङ्ग करीने, गुणोथी मुक्त थईने आपनी पासे आवतां जे-जे मुश्केलीओ नडती होय तेने न गणतां तुरत तरवाने हुं तत्पर छुम् ॥१८॥

तप्तने शान्त थवाना आपे जे उपाय बताव्या छे. ते क्षणिक छे. वळी आपे जेनी उपेक्षा करी होय तेने माटे ए नकामा छे. हे नृसिंह! बाळकनुं रक्षण करनार माता-पिता नथी केमके क्यारेक माता-पिताथी ज बाळकनुं अनिष्ट थई जाय छे. रोगीने औषध बचावनार नथी, समुद्रमां डूबताने नौका रक्षण करनार नथी, परन्तु आपनो अनुग्रह ए ज आ संसारने तरवानो उपाय छे ॥१९॥

आपना अनुग्रहथी आपनुं नित्य दासत्व श्रेष्ठ छे. कोई कदाचित्‌ बीजाथी रक्षित जणाय तो एना पण रक्षक आप ज छो केमके आप सर्वरूप छो. जेनामां, जे काळे, ज्यारे, जेनावडे, जेनुं, जेनाथी, जेने माटे, जेवुं आ लोकमां माता-पिता के ब्रह्मादिथी जे कांई थाय छे के विपरीत बने छे के कोईनी प्रेरणाथी थाय छे ए बधुं आपनुं ज स्वरूप छे ॥२०॥

पुरुषनी अनुमतिथी गुणने प्रेरनारी माया कर्ममय अने बळवाळा मनने उत्पन्न करे छे. ए मन वेदमां कहेला कर्म करनार तथा अविद्याथी षोडश विकारवाळुं छे. आवा संसारना चक्ररूप मनने, हे अजन्मा! आपना भक्त सिवाय बीजो कोण तरी शके? ॥२१॥

माटे जेणे पोताना प्रकाशवडे नित्य आत्मगुणोने जीत्या छे, बधी जीव शक्तिओने वश करनारा तथा काळरूप हे ईश्वर! मायाए षोडश आरावाळा चक्रमां नाखवाथी एमां पिलातो हुं आपने शरणे आव्यो छुं. आप समर्थ होवाथी ए चक्रथी बचावी मने आपनी पासे लो ॥२२॥

हे विभु! सर्व लोकपाळोनां आयुष्य लक्ष्मी अने वैभव जे में जोयां अने जेने [[२८६]] मनुष्यो इच्छे छे ते वैभवो मारा पितानी भ्रूकूटी चडवा मात्रथी नाश पामता जणाया; एवा मारा पिताने आपे दूर कर्यो ॥२३॥

तेथी हुं प्राणीओना वैभवना परिणामने जाणुं छु; माटे ब्रह्मलोक सुधीनां आयुष्यनी, इन्द्रियोथी भोगवातां सुखोनी अने लक्ष्मीनी हुं इच्छा करतो नथी ज तेमज महापराक्रमी आपनी काळमूर्तिथी नाश पामती सिद्धिओ पण हुं इच्छतो नथी पण मने तो आप आपना दासोनी पासे लई जाओ ॥२४॥

कानने सारा लागता मृगतृष्णा जेवा विषयो क्यां? सर्व रोगना घर जेवुं आ शरीर क्यां? मनुष्य आ सघळुं जाणे छे छतां दुःखथी प्राप्त थतां सुखोथी कामाग्निनुं शमन करी विरक्त थतो नथी ॥२५॥

हे ईश! रजोगुणथी थनारो तेमज जे असुरकुळमां तमोगुण वधारे होय छे तेमां उत्पन्न थयेलो हुं क्यां अने आपनी कृपा क्यां? आपे आपनो श्रीहस्त ब्रह्मा, रुद्र अने लक्ष्मी नी उपर धरेलो नहि ते पद्म सरखो श्रीहस्त मारा उपर धर्यो एने ज हुं आपनो प्रसाद मानुं छुम् ॥२६॥

आ ‘पर’ अने आ ‘अवर’ एवी बुद्धि आपने न होय केमके आप जगतना आत्मा अने मित्र छो तो पण कल्पवृक्षनी पेठे आपनी सेवा करनारने एना प्रमाणमां फळ मळे एमां आपने विषमता नथी ॥२७॥

हे भगवन्‌! आपे जेम मारा उपर दया करी ते प्रमाणे संसाररूपी सर्पवाळा कूवामां पडेला विषयमां पडता विषयभोगनी इच्छावाळा विषयी पुरुषना प्रसङ्गथी मने देवर्षि नारदे पोतानो करीने मान्यो छे ते हुं आपना सेवकनी सेवाने केम छोडीशकुं? ॥२८॥

हे अनन्त! जे वखते मारा पिताए अन्याय करवा कमर कसी हाथमां तलवार लई कहेवा लाग्या, जो मारा सिवाय कोई ईश्वर होय तो तने बचावी ले, हुं तारुं माथुं उडावी दउं छुं; ए वखते आपे मारा प्राणोनी रक्षा करी अने मारा पितानो वध कर्यो, हुं तो समजुं छुं के आपे आपना प्रेमीभक्त सनकादि ऋषिओनी वाणी सत्य करवाने माटेज एम कर्युं हतुम् ॥२९॥

आ सर्व जगत्‌ रूपे आप एक ज छो केमके जगतना आदि अन्तमां जगतथी जुदा एवा आप बाकी रहो छो. तेथी मध्यमां पण आप ज छो. आप ज आपनी मायाना गुणोवडे आ जगतने उत्पन्न करी पछी एमां प्रवेशनी लीला करो छो एथी [[२८७]] जुदा जणाता छतां आप एक ज ते-ते रूपे देखाओ छो ॥३०॥

हे ईश! आ सद्‌ अने असद्‌ रूप जगत्‌ आपनुं रूप छे, छतां आप ए जगतथी जुदा छो. ‘‘आ पोतानो अने आ पारको’’ एवी बुद्धि थवी ए ज माया. जेनां जेमान्थी उत्पत्ति, प्रकाश अने नाश ए ते रूप गणाय, (जेमके पृथ्वीमां बीज पृथ्वीमय छे, पछी एमान्थी प्रकाशरूप वृक्ष थाय छे अने पछी एनो नाश पृथ्वीमय थाय छे ते एक पृथ्वीमय छे) बधुं आपथी थाय छे तेथी भगवद्रूप छे ॥३१॥

आप आ जगतने आत्मामां धारण करी प्रलयना जळमां शेषशय्यामां पोढो छो अने योगवडे नेत्रो र्मीची आत्मस्वरूपना प्रकाशथी निद्राने जीतीने जाग्रत, स्वप्न अने सुषुप्तिथी पर एवी चतुर्थ अवस्थामां स्थिति करो छो, परन्तु ए स्थितिमां पण सुषुप्तनी पेठे अज्ञाननो के जाग्रत स्वप्ननी पेठे गुणोनो स्वीकार करता नथी ॥३२॥

आपे आपनी काळ शक्तिवडे प्रकृतिना धर्मोने प्रेर्या छे. तेथी आ ब्रह्माण्ड आपनुं श्रीअङ्गरूप ज छे. प्रलयना जळमां अनन्तनी शय्यामान्थी समाधि छोडीने ज्यारे आप ऊठ्या त्यारे, वडना बीजमान्थी वड थाय तेम, आपनां आ नाभिकमळमान्थी मोटुं ब्रह्माण्ड-कमळ थयुं जे आपमां गुप्त रहेलुं हतुम् ॥३३॥

एमान्थी सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी उत्पन्न थया. एमणे आम तेम जोयुं तो कांई पोतानुं कारण जोयुं नहि; त्यारे जे कमळमां पोते बेठा हता तेनी नाळमां सो वर्ष सुधी जळमां नीचे जतां पण कांई जोयुं नहि केमके अङ्कुर फूट्या पछी बीज क्यान्थी मळे? ॥३४॥

ए ब्रह्माजी अत्यन्त विस्मय पामी कमळमां बेसी तीव्र तप करवा लाग्या तेथी काळे करीने एनो भाव शुद्ध थयो त्यारे पृथ्वीमां गन्धनी पेठे एमणे आपने भूमात्मक शरीरमां व्याप्त जोयाम् ॥३५॥

विराट पुरुष हजारो मुख, हजारो मस्तक, हजारो हाथ, ऊरु, नासिका, कर्ण, नेत्र आभरण अने आयुधवाळा हता. चौद लोक एना जुदा-जुदा अङ्गोना रूपमां शोभता हता. ते भगवाननी एक लीलामयी मूर्ति हती एने जोईने ब्रह्माजीने घणो आनन्द थयो ॥३६॥

ए ब्रह्माजीमाटे हयग्रीव रूप धरीने आपे रजस्तमोरूप महाबळवाळा मधुकैटभ नामना दैत्यने मार्यो अने वेदने एनी पासेथी लावीने आप्या. ए सत्वरूप आपनी [[२८८]] प्रिय तनु छे एम वेदादि कहेछे ॥३७॥

हे महापुरुष! ए प्रमाणे आप मनुष्य, पशु, पक्षी, ऋषि, देव तथा मत्स्य आदि अवतार धारण करीने विश्वनी रक्षा करो छो अने जगतनो द्वेष करनारा पापी लोकोनो नाश करो छो. आ अवतारोद्वारा युग-युगथी चाल्या आवता धर्मोनुं पालन करो छो, परन्तु कलियुगमां आप गुप्त रहो छो तेथी आप ‘त्रियुग’ना नामथी प्रसिद्ध छो ॥३८॥

हे वैकुण्ठनाथ! हुं पापवडे दूषित थयेलो बहिर्मुख, अस्थिर, कामनाथी आतुर अने हर्ष, शोक, भय अने तृष्णाथी पीडित छुं. मारुं आ मन तमारी कथावडे प्रसन्न थतुं नथी तो हुं दीन तमारी गतिने मारा मनमां केवी रीते विचार करी शकुं? ॥३९॥

हे अच्युत! एक तरफ तृप्ति पामेली जिह्‌वा मने खेञ्चे छे तो बीजी तरफ कामेच्छाथी शिश्न खेञ्चे छे तो त्रीजी तरफ त्वचा इन्द्रियना स्पर्शसुखमाटे खेञ्चे छे, पेट आहारमाटे एक बाजुए खेञ्चे छे तो कान साम्भळवामाटे अने घ्राणेन्द्रिय सुगन्धमाटे खेञ्चे छे; चपळ नेत्र सुन्दररूप जोवामाटे खेञ्चे छे; आ प्रमाणे कर्मेन्द्रियो पोतपोताना विषय तरफ मने खेञ्चे छे. जेम घणी स्त्रीओ एक धणीने आमतेम पोतानी तरफ खेञ्चे तेम इन्द्रियो शोक्यना पतिना जेवी मारी दशा करे छे ॥४०॥

हे महाराज! हुं ज आम दुःखी छुं एम नथी, समस्त जनता दुःखी छे; आप एनी रक्षा करो. कर्मवडे संसाररूपी वैतरणीमां पडेलो अने अन्यान्य जन्म, मरण, अशन अने भयथी दुःखी थतो मनुष्य पोताना स्वार्थने माटे वेर, लडाई अने मैत्री करे छे तेथी हे मुक्त प्रभो! आवा मूढ मनुष्य उपर कृपा करीने संसाररूपी वैतरणीमान्थी एने बहार काढी एनी रक्षा करो ॥४१॥

हे समग्रना पूज्य गुरु! आपने सर्वनो उद्धार करतां शो प्रयास करवो पडे तेम छे? केमके एने आप उत्पन्न करो छो अने स्वरूपमां लीन करो छो. हे आर्तबन्धो! मूढ मनुष्यना उपर अनुग्रह करवो एमां ज मोटाई समायेली छे तो पछी तमारा भक्तजनोनी सेवा करनारा अमारा जेवा लोकोनो आप उद्धार करो एमां तो नवाईज शी होईशके? ॥४२॥

हे परमात्मन्‌! आपना पराक्रमना गायनरूप आपना गुणामृतमां मारुं मन डूबेलुं छे तेथी न तरी शकाय तेवी वैतरणीथी पण हुं दुःख मानतो नथी, परन्तु जेमनुं मन तमारी कथाथी विमुख छे, जेओ मिथ्या इन्द्रियोना सुखमाटे कुटुम्बनो [[२८९]] भार वह्या करे छे तेवा मूढ लोकोनो हुं शोक करुं छुम् ॥४३॥

हे देव! कदाच आप कहो के ‘‘तुं मुक्ति लई ले, बीजाने तो तत्व जाणनार मुनिओ उपदेश आपशे’’ तो एना उत्तरमां मारे एटलुं ज कहेवुं छे के घणुं करीने तो मुनिओ पोतानी मुक्ति करवानी इच्छाथी वनमां एकान्त देशमां तपश्चर्या करे छे माटे एओ बीजानुं कार्य सिद्ध करवामां तत्पर नथी. हुं आ कृपण लोकोने छोडी एकलो मुक्ति मेळववानी इच्छा राखतो नथी. आ भवाटवीमां भटकता लोकोने आपना सिवाय कोई बीजो उद्धारक हुं जोतो नथी ॥४४॥

गार्हस्थ्यमां मैथुनादि सुख तुच्छ होय छे. हाथमां खरज आवतां एने खजवाळतां एक दुःख मटाडतां बीजुं दुःख उत्पन्न थाय छे एवुं ए मैथुनसुख छे. कृपणो बहु दुःख भोगवे छे, छतां संसारना विषयसुखथी धराता नथी. आपनी कृपावाळो कोईक ज धैर्यवाळो मनुष्य नीकळे जे विषयसुखने पण खरजनी पेठे सहन करे ॥४५॥

मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्रश्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्माचरण, युक्तिओथी शास्त्रोनी व्याख्या एकान्तनिवास, जप तथा समाधि ए मोक्षनां दश साधन छे पण ए साधनो घणुं करीने जेनी इन्द्रियो वश नथी तेवा मनुष्यने आजीविकामां उपयोगी थई पडे छे. दाम्भिक मनुष्यने तो ए उदरपोषणनुं साधन बने छे कोई वखत एने मोक्षमां उपयोगी थई शक्तान्नथी ॥४६॥

बीजमान्थी अङ्कुर अने अङ्कुरमान्थी बीज एम चालता प्रवाहरूपे कार्य कारणरूपे वेदे आपना बे स्वरूप प्रकट करेलां छे, वास्तवमां आप प्राकृतरूप रहित ते आपनां ज रूप छे, आपनाथी जुदां नथी. जेम मथन करवाथी लाकडामान्थी अग्नि बहार आवे छे तेम योगी पुरुषो भक्तियोगनी साधनाथी आपने कार्य कारण बन्नेमां साक्षात्‌ जोई शके छे. (कार्य कारणभाव आप सिवाय बीजा प्रधानादिथी थतो नथी) ॥४७॥

हे व्यापक देव! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जळ, शब्दादि विषयो, प्राणेन्द्रियो, मन, चित्त, अहङ्कार, स्थूळ, सूक्ष्म ए सर्व आप छो तेमज मन अने वचन वडे जे कंई निरूपण करवामां आव्युं छे ते बधुं आपथी जुदुं नथी ॥४८॥

आ गुणो अने गुणीओ, ब्रह्मादि महत्तत्वादि देवताओ अने मनुष्यो वगेरे आदिअन्तवाळां छे. हे महाकीर्तिवाळा ईश्वर तेओ आदि अन्तरहित आपना स्वरूपने जाणता नथी. आम विचार करीने बुद्धिशाळी पुरुषो केवळ आपने ज शरणे [[२९०]] आवी आपनुं आराधन करे छे ॥४९॥

माटे हे पूज्यतम! नमस्कार, स्तुति, सर्वकर्मोनुं समर्पण, सेवापूजा, चरणकमलोनुं स्मरण अने कथाश्रवण, आ छ अङ्गवाळी सेवा कर्या वगर मनुष्य परमहंसप्राप्त भगवाननी भक्ति केम करी शके? मुक्ति मळे नहि अने सेवा विना भक्ति केम सिद्ध थाय? आप तो पोताना परम प्रिय भक्तजनोनुं, परमहंसोनुं सर्वस्व छो. तेथी मने आपनी भक्ति आपो ॥५०॥

नारदजी बोल्या - आ प्रमाणे भक्त प्रह्‌लादजीए भक्तिथी निर्गुण भगवानना गुणोनुं वर्णन कर्युं ते पछी क्रोधने नियममां राखी प्रसन्न थईने नृसिंह भगवान्‌, प्रणाम करता प्रह्‌लादने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥५१॥

श्रीभगवाने कह्युं - परम कल्याण स्वरूप प्रह्‌लाद तारुं कल्याण हो. दैत्य श्रेष्ठ! हुं ताराउपर अत्यन्त प्रसन्न छुं, मरजीमां आवे ते मागी ले, हुं जीवोनी इच्छा पूर्ण करनारो छुम् ॥५२॥

हे आयुष्यमन्‌! जे मने प्रसन्न करतो नथी तेने मारुं दर्शन दुर्लभ छे. परन्तु मारुं दर्शन थया पछी प्राणी फरी दुःखी थतो नथी ॥५३॥

एथी कल्याणनी कामनावाळा महाभाग्यशाळी तथा सद्‌गुणी धीर पुरुषो सर्व सुखना स्वामी एवा मने सर्वात्म भाववडे प्रसन्न करे छे ॥५४॥

एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः रू। एकान्तित्वाद्‌ भगवति नैच्छत्‌ तानसुरोत्तमः ॥५५॥

नारदजी बोल्या - आ प्रमाणे ललचावनारा वरदानथी प्रह्‌लादने बहु लोभाव्यो तो पण ए असुरश्रेष्ठ प्रह्‌लाद भगवाननो निष्काम भक्त होवाथी एणे वरदान लेवानी इच्छा करी नहि ॥५५॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (बीजा सद्वासना प्रकरणनो चोथो) ‘‘प्रह्‌लादजी नृसिंहजी पासे जई नम्यां, नृसिंहजी शान्त थया त्यारे एमनी स्तुति करी’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (हवेली-मन्दिर खोलीने ठाकोरजीना दर्शन-मनोरथ-भेट-सामग्रीना माध्यमथी) पैसा कमाववा माटे सेवा करनारनो आलोक-परलोक सहित सर्वनाश थयो समजवो. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)

ईं उं ईं उं

[[२९१]]

अध्याय १०

श्रीनृहरिए प्रह्‌लादउपर तथा भगवाने त्रिपुरने मारता रुद्र उपर करेलो अनुग्रह

विशेष - प्रह्‌लादजी उपर प्रभुए अनुग्रह कर्यो अने पछी पोते दर्शन देता बन्ध थया. त्यारबाद प्रसङ्गथी त्रिपुरासुरने मारवामां भगवाने रुद्रना उपर पण अनुग्रह कर्यो; आटली वात आ दशमा अध्यायमां आवे छे. भक्तियोगस्य तत्‌ सर्वमन्तरायतयार्भकः ॥ मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह ॥१॥

नारद बोल्या - बाळक प्रह्‌लादजीए बधुं भक्तियोगमां अन्तरायरूप छे एम मान्युं तेथी ए जरा स्मित करी इन्द्रियोना प्रेरक भगवानने कहेवा लाग्या ॥१॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - हुं जन्मथी ज कामासक्त छुं तेवा मने आप वरदानवडे लोभावो नहि. हुं ए भोगादिना सङ्गथी डरुं छुं तेथी उदास थई मोक्षनी इच्छाथी ज आपने शरणे आव्यो छुम् ॥२॥

हे प्रभु! कामना ए हृदयनी ग्रन्थिरूप छे अने संसारवृक्षना बीजरूप छे ते तरफ भक्तने प्रेरता आप सेवकनां लक्षण मारामां छे के नहि एनी कसोटी करवानी इच्छाथी ज आप मने वरदान मागवा प्रेरो छो ॥३॥

हे जगद्‌गुरु! परीक्षा सिवाय आवुं कहेवामां कोई कारण देखातुं नथी कारण के आप बहु ज दयाळु छो. (पोताना भक्तोने भोगोमां फसावनार वरदान आप केवी रीते आपी शके?) आपनी पासे जे सेवक पोतानी कामनाओ पूर्ण करवा चाहे छे ते सेवक नहि पण वाणियो छे ॥४॥

स्वामीनी पासेथी आशा राखनार सेवक ते सेवक न कहेवाय; चाकर पासेथी सेवा लईने पछी एने द्रव्य आपनार ए स्वामी पण न कहेवाय ॥५॥

हुं तो आपनो निष्काम सेवक छुं. आप मारा निरपेक्ष स्वामी छो. जेवी रीते राजा अने तेना नोकरोनो प्रयोजनवश स्वामी-सेवकनो सम्बन्ध होय छे तेवो आपनो अने मारो सम्बन्ध नथी ॥६॥

छतां हे वरदाताओना शिरोमणि स्वामी! जो आप मने वरदान आपवा मागताज हो तोहुंए मागुं छुं के मारा हृदयमां कामनानो अङ्कुर फूटेजनहि ॥७॥

[[२९२]] कारण के हृदयमां कामना उत्पन्न थतां ज इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, लक्ष्मी, तेज, स्मृति तथा सत्य नाश पामे छे ॥८॥

ज्यारे मनुष्य मनमां रहेली कामना छोडे छे त्यारे ज, हे कमलनयन! ते भगवत्स्वरूपने प्राप्त करी ले छे ॥९॥

हे भगवन्‌! आपने नमस्कार हो. आप बधानां हृदयमां बिराजमान्‌, उदार शिरोमणि, स्वयं परब्रह्म परमात्मा छो. अद्‌भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिनां चरणोमां प्रणाम ॥१०॥

श्रीनृसिंह भगवाने कह्युं - हे प्रह्‌लाद! तारा जेवा अनन्य भक्तो आ लोक तेमज परलोक सम्बन्धी कोई पण वस्तुमाटे क्यारेय पण कामना करता नथी. तो पण तुं मारी प्रसन्नतामाटे वधारे नहि फक्त एक *मन्वन्तर सुधी दैत्येश्वरना आ वैभवनो भोग कर ॥११॥

विशेष - एक मन्वन्तर=७१ ३/८ चतुर्युगी (चोकडी)=३०, ८५, ७१, ४२८ ४/७ वर्ष थाय. तारे मारी प्रिय कथा साम्भळवी, सर्वना आत्मामां रहेला मने मनमां राखवो अने सर्व भूतना आधिदैविक तेमज ईश्वररूप एवा मारुं कर्मफळ छोडीने यजन करवुं ॥१२॥

त्यारबाद भोगथी पुण्यने, निष्काम पुण्य कर्मोवडे पापने अने समय थये शरीरने छोडीने सुरलोकमां गवाय तेवी पवित्र कीर्तिनो विस्तार करी तुं बन्धनथी मुक्त थई मने प्राप्त थईश ॥१३॥

तें करेली मारी आ स्तुतिनुं जे कोई कीर्तन करशे अने साथे मारुं अने तारुं स्मरण पण करशे ते समय थतां कर्मोना बन्धनथी छूटी जशे ॥१४॥

प्रह्‌लादजीए कह्युं - आप वरदान आपनाराओना स्वामी छो. आपनी पासे हुं एक वर मागुं छुं. हे महेश्वर! आपना ऐश्वर्यरूप तेजने नहि जाणनार मारा पिताए आपनी निन्दा करी अने साक्षात्‌ सर्वलोकना गुरु एवा आपने क्रोधमां आवी ‘‘आ मारा भाईने मारनार छे’’ एम जाणी आपना भक्त एवा मारी साथे वेरबुद्धिथी वर्तन कर्युम् ॥१५-१६॥

हे दीनबन्धु! जो के आपनी दृष्टि पडतां ज ते पवित्र थई चूक्यां छतां हुं आपने प्रार्थना करुं छुं के जलदी नाशन थनारा ते दुस्तर दोषमान्थी मुक्त थई जई ते [[२९३]] पवित्र थईजाय ॥१७॥

श्रीनृसिंह भगवाने कह्युं - हे साधो! कुळने पवित्र करनार तुं एना कुळमां जन्म्यो छे तेथी तारा पिता एकला ज नहि पण एना आगळ-पाछळना दश-दश तथा तेओ पोते एम एकवीस पुरुषो पवित्र थया एम तुं समजी ले ॥१८॥

समान दृष्टिवाळा मारा भक्तो ज्यां-ज्यां शान्त अने शुद्ध आचारयुक्त थईने फरे छे ते देश अपवित्र होय तो पण ए भक्तोना प्रचारथी पवित्र थाय छे. जो अतिघोर वंशमां मारो भक्त जन्मे तो ए वंश पण हलको होय छतां पवित्र थाय छे ॥१९॥

हे दैत्येन्द्र! प्राणी मात्रमां, नाना-मोटामां मारो भाव राखनार अने निःस्पृहताथी फरता भक्तो कोईनी हिंसा करता ज नथी केमके एम करवानुं एमने प्रयोजन नथी ॥२०॥

तारा पगले चालनारा केटलाक भक्तो आ लोकमां पण छे, परन्तु ए सर्व भक्तोमां तुं मुख्य छे. ए बधा तारी भक्तिनुं अनुकरण करे एवा गुणो तारामां होवाथी तुं ज ए बधाना उपमानरूप छे ॥२१॥

हे अङ्ग! मारा स्पर्शथी तारो पिता पवित्र थई चूक्यो छे तेनी उत्तर क्रिया कर. तारा पिता तारा जेवा पुत्रने लीधे उत्तम लोकमां जशे ॥२२॥

तुं तारा पिताना स्थान उपर बेसीने ब्रह्मवादीओना कह्या प्रमाणे मारामां मन राखी, ‘‘हुं ज मुख्य प्राप्य वस्तु छुं’’ ए निश्चय करी, हे तात! तारे बधां काम करवा ॥२३॥

नारदजीए कह्युं - भगवाननी आज्ञानुसार प्रह्‌लादजीए पितानी उत्तरक्रिया करी. पछी ब्राह्मणोए एनो राज्याभिषेक कर्यो. पछी ए एमनी आज्ञा प्रमाणे राज्यनुं कामकाज करवा लाग्या ॥२४॥

प्रसन्न मुखवाळा श्रीनृसिंहजीने जोईने देवो अने ऋषिओ साथे ब्रह्माजी पवित्र वाणीथी एमनी स्तुति करीने कहेवालाग्या।२५। ब्रह्माजीए कह्युं - हे देवना देव! सर्वना अध्यक्ष! प्राणीमात्रने उत्पन्न करनार अने सर्वना पूर्वज आपे लोकोने त्रास देनार असुरने मार्यो ए घणा सौभाग्यनी वात छे ॥२६॥

ए दैत्ये मारा उत्पन्न करेला कोई पण प्राणीथी तेनो वध न थाय एवुं वरदान [[२९४]] मारी पासेथी मेळवी लीधुं अने बळथी गर्विष्ठ थईने एणे शास्त्रनी बधी मर्यादाओ छोडी दीधी ॥२७॥

ए पण घणा सौभाग्यनी वात छे के आ पुत्र प्रह्‌लाद एनो बाळक छतां मोटो भगवद्भक्त थयो. एने आपे मृत्युना मुखमान्थी छोडावी लीधो तेथी ए आपने शरणे आव्यो छे ॥२८॥

हे भगवन्‌! आपना नृसिंहरूपनुं कोई ध्यान करे तो मारवा आवता मृत्युना त्रासथी पण ए छोडावे तेवुं छे ॥२९॥

श्रीनृसिंहजीए कह्युं - हे पद्मसम्भव! असुरोने तमारे आवुं दान न आपवुं. स्वभावथी जे क्रूर छे तेमने आपेलुं वरदान तो सापने दूध पावा जेवुं छे ॥३०॥

नारदजी बोल्या - हे राजन्‌! एम बोली भगवान्‌ हरिनी ब्रह्माए पूजा करी के त्यां ज तुरत सर्वना देखतां अन्तर्धान थई गया ॥३१॥

पछी मस्तक नमावी प्रह्‌लादजीए ब्रह्मानी पूजा करी. एणे भगवाननी कलारूप बीजा देवो तथा प्रजाना पतिओनी साथे शिवजीनी पूजा करी तेमने मस्तक नमावी प्रणाम कर्या ॥३२॥

त्यां शुक्राचार्य वगेरे मुनिओनी सम्मतिथी ब्रह्माजीए प्रह्‌लादजीने समस्त दानव अने दैत्यो ना अधिपति बनाव्या ॥३३॥

ए बधुं थयुं एने देवोए अभिनन्दन आपी शुभ आशीर्वाद आप्या. हे राजन्‌! ब्रह्मादि सहित बीजा देवोनी पूजा कर्या पछी ए देवो पोतपोताना स्थान तरफ पधार्या ॥३४॥

एम ए विष्णुना पार्षद जय अने विजय दितिना पुत्ररूपे जन्म लई हृदयमां रहेला हरि भगवानने वेरभावथी भजवालाग्या त्यारे भगवाने वाराह अने नृसिंहरूप धारण करी तेमनेमार्या ॥३५॥

ऋषिओना शापने लीधे फरी ए बीजा जन्ममां राक्षसकुळमां कुम्भकर्ण अने रावणरूपे जन्म्या त्यारे श्रीरामचन्द्रजीए मार्या ॥३६॥

रामना बाणथी जेनां हृदय फाटी गयां छे तेवा ए बन्ने भाईओए युद्धभूमिमां सूतां-सूतां राममां चित्त राखीने पूर्वनी जेम देह छोड्यो. आ एमना बीजा जन्मनी वात थई ॥३७॥

ए देहने छोडीने फरीने तेओ आ युगमां शिशुपाल अने दन्तवक्‌त्र थया. [[२९५]] भगवान्‌मां वेरभाव होवाथी ए बन्ने तमारी सामे ज श्रीकृष्णमां समाई गया ॥३८॥

ए बन्ने भगवच्चरणने पाम्या एटलुं ज नहि पण कृष्णना वेरी राजाओ जेमणे भगवाननी साथे शत्रुता करेली ते बधा जेम कीडो भमरीने याद करी भमरीरूप थई जाय छे तेम, भगवानने याद करतां तद्रूप थई जईने पोतानां पूर्वकृत पापोथी सदाने माटे मुक्त थई गया ॥३९॥

जेम भगवानना भक्त भेदभाव रहित परमभक्तिवडे एकरूप थई जाय छे तेम शिशुपाल वगेरे पण भगवानना निरन्तर वेरभावयुक्त अनन्य चिन्तनथी भगवद्भावने प्राप्त थया ॥४०॥

शिशुपाल वगेरे पण भगवाननो द्वेष करता हता छतां ए भगवद्रूप केम थया ए तमारो प्रश्न हतो. में एनो विस्तारथी उत्तर आपी दीधो ॥४१॥

आ कथा ब्राह्मणनुं सदाहित करनार अने परमात्मा श्रीकृष्णनी अवतार कथा छे तेमां आदि दैत्यो हिरण्याक्ष एन हिरण्यकशिपुनो वध कहेवामां आव्यो छे ॥४२॥

आमां महाभक्त प्रह्‌लादनुं अनुचरित छे. भक्ति ज्ञान वैराग्य अने भगवत्तत्त्व पण आ आख्यानमां कहेवामां आव्युञ्छे।४३। जगतनां जन्म, पालन अने स्वरूपमां लय जेनाथी थाय छे तेवा भगवाननां गुणकर्मोनुं वर्णन तथा देवो अने दैत्यो ना स्थानोना फेरफार आ बधुं आ आख्यानमां कहेवायुम् ॥४४॥

जेनाथी भगवान्‌ मेळवी शकाय तेवा भगवद्भक्तोना धर्मो अने अध्यात्म सम्बन्धमां पण बधी जाणवा जेवी वातो आ आख्यानमां कहेवाई ॥४५॥

आ आख्यान विष्णुना पराक्रमथी पूर्ण अने पवित्र छे. श्रद्धाथी एनुं जे कीर्तन करे छे अने साम्भळे छे ए कर्मबन्धनथी मुक्त थाय छे ॥४६॥

आदि पुरुष एवा नृसिंहजीनी आ लीला अने दैत्ययूथना पति हिरण्यकशिपुनो वध ए बे वस्तुनो प्रयत्नपूर्वक मोढेथी पाठ करे अने सत्पुरुषमां श्रेष्ठ दैत्यपुत्र प्रह्लादजीना पवित्र अनुभवने साम्भळे ते निर्भय एवा भगवानना लोकने पामेछे ॥४७॥

लोकोने पवित्र करनारा मुनिओ तमारा घर तरफ चोतरफथी आवे छे तेथी मनुष्य लोकमां तमे मोटा भाग्यवान्‌ छो कारण के तमारा घरमां साक्षात्‌ श्रीकृष्ण [[२९६]] परब्रह्म मनुष्यनुं रूप धारण करीने गुप्त रीते बिराजे छे ॥४८॥

ए श्रीकृष्णने तमे तमारा मामाना पुत्र तरीके मानो छो, परन्तु ए मोटाओने शोधवा लायक कैवल्य मोक्षरूप, सुखरूप, प्रिय, सुहृद, आत्मा, पूज्य अने हुकम करनार छे एम तमे जाणो ॥४९॥

एमनुं रूप एवुं छे के शिव ब्रह्मादि पण पोतानी समग्र बुद्धिथी वस्तुरूपे एमने साक्षात्‌ वर्णवी शक्ता नथी. ए स्वयं प्रसन्न थाय छे. अमारा जेवा तो मौन राखी भक्ति अने इन्द्रियनिग्रहवडे एमनी पूजा करे छे. ए भक्तना पति आप ज स्वतः प्रसन्न हो ॥५०॥

हे युधिष्ठिर! आ ज एक मात्र आराध्य देव छे. प्राचीन कालमां महान मायावी मयासुर ज्यारे रुद्रदेवनी कीर्तिमां कलङ्क लगाडवा तैयार थयो हतो त्यारे आ ज भगवान्‌ श्रीकृष्णे फरी एमना यशनी प्रतिष्ठा अने विस्तार करेल ॥५१॥

राजा बोल्या - जगतना ईश शिवजीनी कीर्तिने मयदानवे केवी रीते नष्ट करी हती अने श्रीकृष्ण भगवाने एनी कीर्तिने केवी रीते वधारे हती? ए कृपा करीने मने कहो ॥५२॥

नारदजी बोल्या - कृष्णे वधारेला देवोए रणसङ्ग्राममां असुरोने हराव्या त्यारे मायावीना आचार्य मयनी पासे ए बधा असुर पहोञ्ची गया अने एनी पासे रक्षणनी मागणी करी ॥५३॥

मायावी मये सोनानी, रूपानी अने लोढानी एम त्रण नगरी बनावी केमके ए मायामां समर्थ हतो. ए नगरीनो नाश केम करवो ए कोई जाणतुं न हतुं एम एने कोई जोई शके तेवी नहोती तेमज कोईने एनी माहिती पण नहोती ॥५४॥

ए त्रण नगरीमां बेसी कोई जाणी न शके एम छुपाईने ए दैत्य सेनापतिओ पूर्व वेरनुं स्मरण करीने त्रण लोकनो नाश करवा लाग्या ॥५५॥

तेथी देवपति इन्द्र सहित बधा लोकपालो अने प्रजा शिवजी पासे गया ने कहेवा लाग्या के ‘‘हे विभो! अमे आपना छीए, अमारुं रक्षण करो केमके त्रिपुरमां रहेनार असुरो अमारो नाश करी रह्या छे’’ ॥५६॥

त्यारे समर्थ शिवजीए देवनी वाणी साम्भळीने एमनाउपर अनुग्रह करी क्ह्युं के भय न पामशो.पछी एमणे धनुष्यमां बाण चडावी त्रणे पुरउपरछोड्युम् ॥५७॥

त्यारे सूर्यमण्डळमान्थी नीकळतां किरणोनी जेम अग्निवर्णवाळां बाण पडवा [[२९७]] लाग्यां तेनाथी पुरो ढङ्काई गया ॥५८॥

जेने-जेने बाण वाग्यां ते बधा प्राण छोडी नीचे ढळी पड्या. महामायावी मय घणा उपायो जाणतो हतो ते ए दैत्योने उठावी लाव्यो अने पोते बनावेल अमृतना कूवामां नाखी दीधा ॥५९॥

ए सिद्ध अमृत रसनो स्पर्श थतां ज ए मरेला दैत्यो, वज्र सरखा देहवाळा मोटा बळवान्‌ मेधने फाडी वीजळी नीकळे तेम ए अमृतकुण्डमान्थी बेठा थई गया ॥६०॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णे जोयुं के वृषध्वज भगवान्‌ शिवजी तो उदास थई गया छे केमके पोते एक बाणथी उडावी देवानो सङ्कल्प करेलो तेमां कांई बन्युं नहि त्यारे भगवान्‌ विष्णु त्यां आवी पहोञ्च्या अने मरेला दैत्यो पाछा पेदा न थाय एनो उपाय एमणे शोधी काढ्‌यो ॥६१॥

ब्रह्मा वत्स थया, विष्णु पोते गाय थया. अने त्रिपुरमां आव्या अने लाग मळ्यो त्यारे जे रसना कूवामां अमृत भरेलुं हतुं ते पीवा लाग्या ॥६२॥

जो के एना रखेवाळ दैत्यो ए बन्नेने जोई रह्या हताछतां भगवाननी मायाथी तेओ एटला बधा मोहित थई गयाहता के तेओ तेमने अटकावी न शक्यां. ज्यारे उपायोना जाणकारोमां श्रेष्ठ मायासुरने आ वातनी जाण थई त्यारे भगवाननी आ लीलाने याद करतां एने कंई शोक न थयो. शोक करनारा अमृतना रक्षकोने तेणे कह्युं, ‘‘भाई देवतां! असुर, मनुष्य अथवा कोई पण प्राणी पोतानां, बीजानां के बन्नेनां प्रारब्धनां विधानमां फेरफार करी शक्तो नथी. बनवानुं हतुं ते बनी गयुं. शोक करवाथी शुं सरवानुं छे?’’ पछी तो भगवान्‌ श्रीकृष्णे पोतानी शक्तिओ द्वारा भगवान्‌ शङ्करना युद्धनी सामग्री तैयार करी ॥६३-६५॥

आपे धर्मथी रथ, ज्ञानथी सारथि, वैराग्यथी ध्वजा, ऐश्वर्यथी घोडा, तपस्याथी धनुष, विद्याथी कवच, क्रियाथी बाण अने पोतानी बीजी शक्तिओथी बीजी घणी वस्तुओनुं निर्माण कर्युम् ॥६६॥

आ सामग्रीथी सज्ज थई भगवान्‌ शङ्कर रथ उपर सवार थया अने धनुष बाण धारण कर्यां. भगवान्‌ शङ्करे अभिजित मुहूर्तमां धनुष उपर बाण चडाव्युं अने त्रणेय दुर्भेद्य विमानोने भस्म करी दीधां. हे युधिष्ठिर! ए ज वखते आकाशमां विमाननी भीड थईने विमानमान्थी देवोना दुन्दुभि वाग्याम् ॥६७-६८॥

[[२९८]] देवो, ऋषिओ, पितृओ अने सिद्धेशो ‘जय जय’ ना नाद करता शिवजी उपर पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या अने अप्सराओ गान करती नाचवा लागी ॥६९॥

एम पुरनो नाश करनार भगवान्‌ शिवजीए त्रिपुरारि, पुरारि वगेरे पदवीओ प्राप्त करी, ब्रह्मादि देवोनी स्तुति साम्भळता पोताना धाम; कैलास पधार्या ॥७०॥

एवंविधान्यस्य हरेः स्वमायया विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः ॥ वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्‌गुरोर्लोकान्‌ पुनानान्यपरं वदामि किम्‌॥७१॥

आत्मस्वरूप जगद्‌गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ प्रमाणे पोतानी मायाथी मनुष्योना जेवी जणाती जे लीलाओ करे छे ते अनेक लोकपावन लीलाओनुं गान ज ऋषिओ कर्या करे छे. हवे तमारे बीजुं शुं साम्भळवुं छे? ॥७१॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (बीजा सद्वासना प्रकरणनो पाञ्चमो) ‘‘श्रीनृहरिए प्रह्‌लाद उपर तथा भगवाने त्रिपुरने मारता रुद्रउपर करेलो अनुग्रह’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? पारसमणिने वाटके (=भागवत), भटजी (कथाकार) मागे भीख भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! त्रीजुं सदसद्वासना प्रकरण

अध्याय ११

वर्णधर्मो तथा स्त्रीओना धर्म

विशेष - प्रथम दश अध्यायवडे ज्ञान अने भक्तियोग कह्यो, हवे पाञ्च अध्यायथी कर्मयोग कहेवाय छे. तेमां प्रथम मनुष्यना ‘‘साधारण धर्म’’ कहेवामां आवे छे. विशेषे करीने वर्णाश्रमधर्म तेमज स्त्रीओना धर्म पण आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. श्रुत्वेहितं साधुसभासभाजितं महत्तमाग्रण्य उरुक्रमात्मनः ॥ युधिष्ठिरो दैत्यपतेर्मुदा युतः पप्रच्छ भूयस्तनयं स्वयम्भुवः ॥१॥

ईं उं ईं उं

[[२९९]] श्रीशुकदेवजी बोल्या - मोटाओमां मुख्य अने भगवद्रूप प्रह्‌लादजीनुं चरित्र भगवद्भकतोनी सभामां सन्मानित छे, ते साम्भळीने युधिष्ठिर बोल्याःहे भगवान्‌! वर्ण अने आश्रमना आचारवाळो सनातन धर्म साम्भळवानी इच्छा राखुं छुं के जे धर्मवडे मनुष्य परम पुरुषने मेळवे छे ॥१-२॥

आप साक्षात्‌ ब्रह्माजीना पुत्र छो एटलुं ज नहि, परन्तु बधा पुत्रोमां तप, योग अने समाधि वडे श्रेष्ठ छो ॥३॥

नारायण परायण ब्राह्मणो गुह्य धर्म जाणे छे एटलुं ज नहि पण जेओ तमारा जेवा दयाळु, शान्त अने सज्जन होय छे तेओ जेवा धर्मो जाणे छे तेवा बीजा जाणता होता नथी ॥४॥

नारदजीए कह्युं ःभगवान्‌ अजन्मा नारायणने नमन करी नारायणना मुखथी साम्भळेला धर्म लोकहितने माटे हुं कहीश ॥५॥॥ ए भगवान्‌ पोताना अंश नरनी साथे दक्षनी पुत्री मूर्तिमां धर्मथी प्रकट थईने लोकना कल्याणने माटे बदरिकाश्रममां तप करी रह्या छे ॥६॥

हे युधिष्ठिर! सर्व वेद स्वरूप भगवान्‌ श्रीहरि एमनुं तत्त्व जाणनारा महर्षिओनी स्मृतिओ अने जेनाथी आत्मग्लानि विना आत्मप्रसादनी प्राप्ति थाय ते कर्म, धर्मनुं मूल छे ॥७॥

*सत्य, दया, तप, शौच, तितिक्षा (योग्य अयोग्यनो विवेक), शम, दम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, आर्जव (सरलता), सन्तोष, सर्व प्राणीमा समभाव, महात्माओनी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगोनी चेष्टाथी निवृत्ति, मनुष्यना अभिमान पूर्ण प्रयत्नोनुं फल ऊलटुं आवे छे एवोविचार, मिथ्या भाषण न करवुं ए मौन, आत्मा देहादिथी जुदो छे एवुं सतत भान, अन्नमान्थी बीजां प्राणीओ माटे यथायोग्य भाग काढवो एमनामां खास करीने मनुष्योमां पोताना आत्मा तथा इष्टदेवनो भाव, भगवान्‌ श्रीकृष्णनां नाम, लीला, गुण वगेरेनुं श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा, पूजा, नमस्कार, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन आ त्रीस धर्म ए सर्व मनुष्यनो परम धर्म छे; एना पालनथी सर्वात्मा प्रभु प्रसन्न थाय छे ॥८-१२॥

विशेष - प्राणीओनुं हित करवुं ए सत्य, स्वार्थ छोडी पर दुःख दूर करवानी इच्छानुं नाम दया, व्रतादि करवां ए तप. स्नानादि बाह्य अने निष्कामत्वादि आन्तरशौच. ठण्डी, ताप, वृष्टि [[३००]] वगेरे सहन करवुं एनुं नाम तितिक्षा. आन्तर इन्द्रियनो निग्रह दम, बहारनी इन्द्रियनो निग्रह शम. लोभने छोडवो एत्याग. हे धर्मराज! जेमना वंशमां अखण्डरूपथी संस्कार थता आव्या छे अने जेमने ब्रह्माजीए संस्कारने योग्य स्वीकार कर्या छे तेमने *द्विज कहेवामां आवे छे. जन्म अने कर्म थी शुद्ध द्विजोने माटे यज्ञ, अध्ययन, दान अने ब्रह्मचर्य वगेरे आश्रमोना

विशेष कर्मोनुं विधान छे ॥१३॥

विशेष - सृष्टिनां आरम्भमां ब्रह्माजीए जेने छन्दोथी उत्पन्न कर्या तेज ‘द्विज’ कहेवाय, बीजा न कहेवाय, नहि तो विवाहसंस्कार शूद्रने पण थाय छे तेथी ए द्विज गणाय. पण एम नथी तेथी ‘‘अजो य जगाद’’ एम कह्युं छे. ‘‘तथा च श्रुतिः, गायत्र्या ब्रह्माणमसृजत्‌ त्रिष्ढुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं, न केनचिच्छूद्रमिति’’ तेथी शूद्रने द्विजत्व सम्भवतुं नथी. अध्ययन (विद्या भणवी), अध्यापन (विद्या भणाववी), दान लेवुं, दान देवुं अने यज्ञ करवा, कराववा-आ *छ कर्म ब्राह्मणनां छे. क्षत्रियोए दान न लेवुं जोईए. प्रजानी रक्षा करनार क्षत्रियनो जीवन निर्वाह ब्राह्मण सिवाय बीजा बधा पासेथी यथायोग्य कर तथा दण्ड आदि द्वारा थाय छे ॥१४॥

विशेष - भणवुं भणाववुं, दान देवुं लेवुं, यज्ञ करवो कराववो ए छ कर्म ब्राह्मणनां. अध्ययन करवुं कराववुं ए क्षत्रिय वैश्य अने ब्राह्मणने समान छे. बीजां चार ए फकत ब्राह्मणने आजीविकामाटे छे. क्षत्रियोने ब्राह्मण सिवायना लोको पासेथी कर लेवो जकात लेवी ए आजीविकानुं साधन छे. वैश्ये कृषि गोरक्षा वाणिज्यादिथी आजीविका चलाववी. वैश्ये सदा ब्राह्मण वंशना अनुयायी रही गोरक्षा, खेती अने व्यापार द्वारा पोतानो निर्वाह चलाववो जोईए. शूद्रनो धर्म द्विजातिओनी सेवा छे एनी जीविकानो प्रबन्ध एनो मालिक छे ॥१५॥

ब्राह्मणमाटे जीवननिर्वाहना साधन चार प्रकारनां छेः*वार्ता, शालीन, यायावर अने शिलोञ्छन. एमां दरेक पाछळनी वृत्ति दरेक आगली करतां श्रेष्ठ छे ॥१६॥

विशेष - वार्ता - यज्ञ, अध्यापन वगेरे करावी धन लेवुं. शालीन - वगर माग्ये जे कंई मळी जाय तेनाथी निर्वाह करवो. यायावर - रोज धान्य वगेरे मागी लाववुं. शिलोञ्छ - खेडूत खेतरमान्नो पाक लणी घरे लई जतो होय त्यारे पृथ्वी उपर जे कण पड्या रही जाय छे ते शिल अने बजारमां पडेला दाणान्ने ‘उछ’ कहे छे. आ शिल अने उछ ने वीणीने पोतानो [[३०१]] निर्वाह करवो ए शिलोञ्छ वृत्ति छे. नीचेनां वणनो पुरुष आपत्ति काल सिवाय उपला वर्णनी वृत्ति न करे. क्षत्रिय दान लेवा सिवाय ब्राह्मणनी बाकी पाञ्चेय वृत्तिओनुं अवलम्बन लई शके छे. आपत्तिकालमां बधा बधी वृत्तिनो स्वीकार करी शके छे ॥१७॥

ऋत, अमृत, मृत अने प्रमृत तथा सत्य-अनृतथी जीविका करवी पण श्वानवृत्तिथी कोई दिवस जीविका करवी नहि ॥१८॥

खेतरमां उपाडतां वधेला के अनाजनी दुकान पासे पडेला कण वीणी शिलोञ्छ वृत्ति करवी ए ‘ऋत’ कहेवाय; वगर माग्युं मळे ए शालीन ‘अमृत’ कहेवाय; निरन्तर माग्या करवुं अर्थात्‌ यायावर ए ‘मृत’ कहेवाय; खेती वगेरेथी निर्वाह करवो ए ‘प्रमृत’ कहेवाय ॥१९॥

सत्य अने अनृत बन्ने जेमां होय ते ‘वाणिज्य’ कहेवाय;आपणाथी नीचा वर्णनी नोकरी करवी ए ‘श्वानवृत्ति’ कहेवाय; ब्राह्मण अने क्षत्रिय ए ‘श्वानवृत्तिने’ प्रयत्नपूर्वक छोडे केमके ए निन्द्य छे. ब्राह्मण सर्व वेदमय छे जयारे क्षत्रिय (राजा) सर्व देवमय छे ॥२०॥

शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता अने सत्य- आ ब्राह्मणनां लक्षणो छे ॥२१॥

युद्धमां उत्साह, वीरता, धैर्य, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणो प्रत्ये भक्तिभाव, अनुग्रह अने प्रजा रक्षण आ क्षत्रियनां लक्षणोछे ॥२२॥

देवता, गुरु अने भगवानना प्रत्ये भक्ति, अर्थ, धर्म अने काम आ त्रणेय पुरुषार्थोनी रक्षा करवी, आस्तिकता, उद्योगशीलता अने व्यावहारिक निपुणता ए वैश्यनां लक्षण छे ॥२३॥

नमन करवुं, पवित्रता राखवी, निष्कपट रीते मालिकनी सेवा करवी, मन्त्र वगरनो याग करवो, चोरी न करवी, सत्य बोलवुं, गाय-ब्राह्मणनी रक्षा करवी ए शूद्रोनां लक्षण छे ॥२४॥

पतिने अनुकूळ रहेवुं, पतिए कहेला व्रतने पाळवुं, एनी सेवा करवी, पतिना सगाने अनुकूळ रहेवुं ए स्त्रीना मुख्य धर्म छे ॥२५॥

घरमां बुहारी करवी, एने लीपवुं, घरना उपकरणने साफ करवां, पोते पण स्नानादि शुद्धि करी वस्त्रालङ्कारथी सौभाग्य चिह्‌नयुकत रहेवुम् ॥२६॥

[[३०२]] पतिनी नानी-मोटी इच्छाओने समयानुसार पूर्ण करे. विनय, इन्द्रिय संयम, सत्य अने प्रियवाकय थी पतिव्रता स्त्रीए प्रेमथी पतिनी सेवा करवी ॥२७॥

सन्तोष राखे, लोभ न राखे, चतुराई राखी धर्मने समजी प्रिय अने सत्य भाषण करे , पोताना कार्यमां गाफेल न रहे, पवित्रता राखे, स्नेह राखे, पति पतित न थाय त्यां सुधी छोडी न दे. (पतित थयेल पतिने छोडी दे) ॥२८॥

लक्ष्मीजीनी पेठे जे स्त्री पोताना पतिने भगवद्भावथी भजे ते स्त्री जेम लक्ष्मी विष्णु साथे रहे छे तेम, पोताना पतिरूप भगवान्‌ साथे भगवानना लोकमां रही आनन्द करेछे ॥२९॥

सङ्कर जातिमां एना कुळनी वृत्ति होय तो ते प्रमाणे वर्तवुं पण चोरी के पाप न करवां. अन्त्यज धोबी, नाई वगेरेए एना कुळनी वृत्ति करवी ॥३०॥

हे राजन्‌! मनुष्यने सत्त्वादि स्वभावथी जे-जे धर्म युगयुगमां कह्यां छे ते प्रायः आ लोक अने परलोकमां एनुं श्रेय करनार छे एम वेद जाणनार कहे छे ॥३१॥

सत्त्वादि स्वभाववडे माणस पोतानी स्वभाविक आजीविका प्रमाणे चाली स्वधर्मनुं पालन करे तो ए मनुष्य काळे करीने गुणातीत थई जाय छे ॥३२॥

हे महाराज! जेवी रीते वारंवार खेतरमां बी वाववाथी खेतर स्वयं शक्तिहीन थई जाय छे अने एमां अङ्कुर ऊगवां बन्ध थई जाय छे त्यां सुधी के तेमां वावेलुं बी पण नाश पामे छे ए ज प्रमाणे आ चित्त जे वासनाओनो भण्डार छे, विषयोनुं अत्यन्त सेवन करवाथी स्वयं ज कण्टाळी जाय छे. परन्तु आम थोडा भोगोथी थतुं नथी. जेवी रीते एक एक टीपुं घी नाखवाथी आग ओलवाती नथी पण एकी साथे घणुं घी पडी जाय तो ते ओलवाई जाय छे ॥३३-३४॥

यस्य यल्लक्षणं प्रोकतं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्‌ ॥ यदन्यत्रापि दृश्येत तत्‌ तेनैव विनिर्दिशेत्‌ ॥३५॥

जे पुरुषना वर्ण बतावनारां जे लक्षण कह्यां छे ते जो बीजा वर्णना माणसमां पण देखाय तो तेने पण ते ज वर्णनो समजवो जोईए ॥३५॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (त्रीजा सदसद्वासना प्रकरणनो पहेलो) ‘‘वर्णधर्मो तथा स्त्रीओना धर्म’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[३०३]]

अध्याय १२

ब्रह्मचारी तथा वानप्रस्थोना धर्म

विशेष - ब्रह्मचारी अने वानप्रस्थना धर्म अने चार आश्रमना साधारण केटलाक धर्म आ बारमा अध्यायमां कहेवामां आवे छे. ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्‌ ॥ आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः ॥१॥

नारदजी कहे छे - हे धर्मराज! गुरुकुलमां रहेता ब्रह्मचारीए इन्द्रियनो संयम करी रहेवुं, गुरुनुं हित करवुं, दासनी पेठे गुरु पासे वर्तवुं, ने दृढ स्नेह राखवो ॥१॥

सायङ्काल अने प्रातःकाल गुरु, अग्नि, सूर्य देवाधिदेव पुरुषोत्तमनी उपासना करे, एकाग्रताथी अने मौन राखी गायत्रीना जप साथे बन्ने समय सन्ध्या करे ॥२॥

गुरुजी बोलावे त्यारे एमनी पासेथी शिस्तपूर्वक वेदाध्ययन करवुं. पाठना प्रारम्भ अने अन्तमां गुरुना चरणमां मस्तक नमावी प्रणाम करवा ॥३॥

शास्त्रमां कह्या प्रमाणे मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु अने उपवीत धारण करे अने हाथमां दर्भराखे ॥४॥

साञ्ज सवार भिक्षामाटे फरे. जे भिक्षा आपे ते गुरुने आपी दे. एमनी आज्ञा मळ्येथी भोजन करे. जो आज्ञा न करे तो उपवास करी ले ॥५॥

पोतानुं चारित्र्य राखे, थोडुं खाय. पोताना कामो कुशळताथी करे. श्रद्धा राखे. इन्द्रियो काबूमां राखे, स्त्री अने स्त्रीओने वश रहेनाराओनी साथे खप पूरतो ज व्यवहार करे ॥६॥

जे गृहस्थ नथी अने ब्रह्मचर्यनुं व्रत जेणे लीधुं छे तेणे स्त्रीसम्बन्धी तमाम चर्चाथी दूर रहेवुं. इन्द्रियो बहु बलवान छे. प्रयत्नपूर्वक साधन करनाराओना मनने पण ते क्षुब्ध करी खेञ्ची ले छे ॥७॥

युवान ब्रह्मचारीए युवती गुरुपत्नीओ पासे केश ओळाववा, शरीरे मर्दन कराववुं, स्नान कराववुं, उबटन लगावडाववुं वगेरे कार्य न कराववाम् ॥८॥

स्त्रीओ आग समान छे अने पुरुष घीना घडा जेवो छे. एकान्तमां पोतानी पुत्री साथे पण न रहेवुं जोईए. बीजा समयमां पण सर्व समक्षमां कार्यमात्र जेटलो [[३०४]] ज व्यवहार राखवो ॥९॥

ज्यां सुधी आ जीव आत्मसाक्षात्कार द्वारा आ देह अने इन्द्रियोने प्रतीतिमात्र निश्चय करीने स्वतन्त्र नथी थई जतो त्यां सुधी ‘‘हुं पुरुष छुं अने आ स्त्री छे’’ आ द्वैत नथी मटतुं अने त्यां सुधी ए पण नक्की छे के एवा पुरुषो जो स्त्रीना संसर्गमां रहेशे तो तेमनी तेमां भोग्य बुद्धि थई ज जशे ॥१०॥

आ बधा शील रक्षा वगेरे गुण गृहस्थ अने सन्न्यासीने पण एटला ज लागु पडे छे. गृहस्थने माटे गुरुकुलमां रहीने गुरुसेवा करवी के नहि ए तेनी इच्छानो विषय छे कारण के ऋतुगमनने कारणे तेने त्यान्थी अलग पण थवुं पडे छे ॥११॥

जे ब्रह्मचर्यनुं व्रत ले ते आङ्ख न आञ्जे, तेल न लगावे तेमज उबटन पण न वापरे. स्त्रीने के एना चित्रने जोवुं नहि. मांस अने मद्यनी पोताना उपर छाया पण न पडवा दे, फूलोना हार, अत्तर, फूलेल, चन्दन अने आभूषणोनो त्याग करवो ॥१२॥

आ प्रमाणे गुरुकुलमां निवास करी द्विजातिए पोतानी शक्ति अने आवश्यकता अनुसार वेद, तेनां अङ्ग, शिक्षा, क्ल्प आदि अने उपनिषदोनुं अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्ति करवुं जोईए. ॥१३॥

एनो अर्थ समज्या पछी जो शक्ति होय तो गुरुनी आज्ञा प्रमाणे गुरुने इच्छित दक्षिणा आपी पोताने घेर जवुं अथवा वनमां जवुं अथवा सन्न्यासी थवुं अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचर्यनुं पालन करी गुरुने त्यां ज रहेवुम् ॥१४॥

जो के भगवान्‌ स्वरूपथी सर्वत्र एकरस स्थित छे तेथी तेमनो कयांय प्रवेश करवो अथवा बहार नीकळी जवुं शकय नथी छतां पण अग्नि, गुरु, आत्मा अने समस्त प्राणीओमां पोताना आश्रित जीवोनी साथे ते विशेष रूपे बिराजमान छे. सदा तेवी दृष्टि राखी प्रभुनुं चिन्तन करवुम् ॥१५॥

ब्रह्मचारी वानप्रस्थ सन्न्यासी अने गृहस्थ उपर प्रमाणे वर्तन करे तो ते विज्ञान सम्पन्न थई परब्रह्मने मेळवे छे ॥१६॥

हवे हुं तमने मुनिओए मान्य करेला वानप्रस्थना नियम कहुं छुं. ए नियमोनुं पालन करवाथी मुनि विना महेनते महर्लोकमां पहोञ्चे छे ॥१७॥

वानप्रस्थ आश्रमीए हळ चलावीने उत्पन्न करातां अनाज जेवा के चोखा, घउं वगेरे खावां नहि. हळ चलाव्या वगर पण असमयमां पाकेलुं होय तो ते पण न [[३०५]] खावुं, अग्निथी रान्धेलुं अथवा काचुं अन्न पण न खाय. मात्र सूर्यना तापथी पाकेलां कन्द, मूल, फल आदिनुं सेवनकरे ॥१८॥

जङ्गलोमां पोतानी मेळे उत्पन्न थयेलां धान्यथी नित्यनैमित्तिक चरु अने पुरोडाशनुं हवन करे ज्यारे नवां-नवां अन्न, फल, फूल आदि मळतां थाय त्यारे पहेलां एकत्रित करेला अन्ननो त्याग करी दे ॥१९॥

घर पर्णकूटि अथवा पहाडनी गुफानो आश्रय पण ते अग्निहोत्रना अग्निने जाळवी राखवा पूरतोज ले, स्वयं ठण्डी, वायु, अग्नि, वरसाद अने सूर्यनो ताप वगेरे सहनकरे ॥२०॥

शिर पर जटा, रोम, दाढी, मूछ, नख वगेरे वधवा देवां. शरीरना मेलने पण रहेवा देवो. दण्ड, कमण्डलु, मृगचर्म, वल्कल, वस्त्र अने अग्निहोत्रनी सामग्री पोतानी पासे राखे ॥२१॥

आवी रीते बार, आठ, चार, बे के एक वर्ष वनमां फरवुं; वधारे पडती उग्र तपस्याना कलेशथी बुद्धि बगडी न जाय तेनुं विचारवान्‌ पुरुषे ध्यान राखवुं ॥२२॥

ज्यारे वृद्धावस्थाथी के रोगथी पोतानां कर्म करवाने अशकत थाय अने वेदान्त विचार करवानुं पण सामर्थ्य न रहे त्यारे अनशन आदि व्रत करे ॥२३॥

पछी अग्निने आत्मामां दाखल करी ‘‘हुं ने मारुं’’ ए भावो छोडी दई जे जेमान्थी थयुं होय तेनो तेना कारणमां लय करे ॥२४॥

जितेन्द्रिय पुरुष पोताना शरीरना छिद्रना आकाशनो आकाशमां, प्राणोनो वायुमां, गरमीनो अग्निमां, रक्त, कफ, परु आदि जलतत्त्वोनो जलमां अने अस्थि (हाडकां) आदि कठण वस्तुओनो (पृथ्वीनो) पृथ्वीमां लय करे ॥२५॥

वाणी तथा एना कर्मरूप बोलवानो अग्निमां, हाथ तथा कर्मशिल्पनो इन्द्रमां, पगनो तथा एना कर्मरूप गतिनो विष्णुमां, उपस्थ तथा एना कर्म रतिनो प्रजापतिमां लय करवो ॥२६॥

पायु तथा एना कर्म मळत्यागनो मृत्युमां, कर्णेन्द्रिय तथा एना कर्म शब्दोनो दिशामां त्वचा तथा एना कर्म स्पर्शनो वायुमां लय करवो ॥२७॥

हे राजन्‌! नेत्र तथा एना कर्म रूपनो तेजमां, जिह्‌वा तथा वरुणनो रसरूप जलमां, ध्राणेन्द्रिय अने एना विषयोनो गन्धवाळी पृथ्वीमां लय करवो ॥२८॥

[[३०६]] मन तथा मनोरथो नो चन्द्रमामां, समजमां आवता पदार्थो सहित बुद्धिनो ब्रह्मामां तथा अहन्ता अने ममतारूप क्रिया करनार अहङ्कारने तेना कर्मोनी साथे रुद्रमां लीन करी दे. आ ज प्रमाणे चेतना सहित चित्तने क्षेत्रज्ञ (जीव)मां अने गुणोने लीधे विकारी जेवा जणाता जीवने परब्रह्ममां लीन करीदे ॥२९॥

पृथ्वीनो जलमां, जलनो तेजमां, तेजनो वायुमा, वायुनो आकाशमां, आकाशनो अहङ्कारमां, अहङ्कारनो महत्तत्त्वमां, महत्तत्त्वनो प्रकृतिमां अने प्रकृतिनो अविनाशी परमात्मामां लय करवो ॥३०॥

इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम्‌ ॥ ज्ञात्वाद्वयोऽथ विरमेद्‌ दग्धयोनिरिवानलः ॥३१॥

आ प्रमाणे अविनाशी परमात्माना रूपमां बाकी बचेल जे चिद्वस्तु छे ते आत्मा छे ते हुं छुं-एम जाणी अद्वितीय भावमां स्थिति करवी जेवी रीते पोतानो आश्रय काष्ठ वगेरे भस्म थई जतां अग्नि शान्त थईजई पोताना स्वरूपमां स्थित थई जायछे ॥३१॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (त्रीजा सदसद्वासना प्रकरणनो बीजो) ‘‘ब्रह्मचारी तथा वानप्रस्थोना धर्म’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिभक्तिने लजावीए छीए जोद्ग -अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए -(हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी)देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए -प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए

अध्याय १३

सन्न्यासीना तथा सिद्ध पुरुषोना धर्म

विशेष - यतिना तथा सिद्ध लोकोना धर्म कहेवा उपरान्त अवधूतनो इतिहास आपीने सिद्धनी अवस्थानुं वर्णन आ तेरमा अध्यायमां आवे छे. कल्पस्त्वेवं परित्यज्य देहमात्रावशेषितः ॥

ईं उं ईं उं

[[३०७]] ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्‌ महीम्‌ ॥१॥

नारदजी बोल्या - हे धर्मराज! वानप्रस्थीमां जो ब्रह्म विषे विचार करवानुं सामर्थ्य होय तो शरीर सिवाय तमाम वस्तुने छोडी दईने ते सन्न्यास लई ले तथा कोई पण व्यक्ति, वस्तु, स्थान अने समयनी अपेक्षा राख्या विना एक गाममां एक ज रात रहेवानो नियम करी पृथ्वी पर फर्या करे ॥१॥

जो ए कपडुं पहेरवानो विचार राखे तो गुह्यभागने ढाङ्कवा पूरतुं ज राखे; दण्ड तथा बीजा सन्न्यासनां चिह्‌न तरीके वपराता पदार्थो सिवाय छोडेली वस्तुमान्थी कोई पण वस्तुनो आपत्तिना समय वगर सङ्ग्रह करवो नहि ॥२॥

पोताना आत्मानी साथे रमतो कोईना आश्रय वगरना सर्व प्राणीनो मित्र थईने शान्त तथा भगवत्परायण थईने ए एकलो फर्या करे ॥३॥

कार्यकारणथी पर एवा आत्माने विशे आ जगतने जुए कार्यकारणात्मक आ जगतमां परमात्माने सर्वत्र जुए ॥४॥

साञ्ज सवार आत्मानुं अनुसन्धान करी पोतानी गतिनो विचार करे अने बन्ध तथा मोक्ष बन्ने केवल माया छे, वस्तुतः कंई नथी एम समजे ॥५॥

मृत्यु निश्चित छे तेने वखाणे नहि, जीवन अस्थिर छे तेने पण वखाणे के निन्दे नहि परन्तुजे काळथी प्राणीनां जन्म-मरण थाय छे तेनी प्रतीक्षा करे ॥६॥

असत्‌ शास्त्रमां आसकत थाय नहि कोई पण धन्धाथी जीविका चलावे नहि, वाद-विवादमां तर्क करे नहि अने आग्रहथीकोई पण पक्ष लईने लडे नहि ॥७॥

घणा शिष्यो करे नहि, बहु ग्रन्थनो अभ्यास न करे, ग्रन्थोनी व्याख्या करी तेनो विस्तार न करे, आश्रम बान्धी एनो मालिक न बने केमके एम करतां कोईनुं भलुं-बूरुं करवानो प्रसङ्ग आवेछे ॥८॥

जो शान्त, समदर्शी अने महात्मा सन्न्यासीने आश्रमना धर्मोनी इच्छा होय तो ए आश्रम राखे अने इच्छा न होय तो छोडे; एम करवामां एने कोई वान्धो नथी ॥९॥

एनी पासे कोई आश्रमनां चिह्‌न न होय पण आत्मानुसन्धानमां मनने वश राखीने व्याख्यानमां समर्थ छतां पोते उन्मत्त अने बाळक नी पेठे ज्ञानी होवा छतां पोताने मूङ्गा जेवो देखाडी, लोकमां छूपो फर्या करे ॥१०॥

आ विषयमां लोको प्रह्‌लाद तथा दत्तात्रेय मुनिना संवादवाळो एक जूनो [[३०८]] इतिहास उदाहरण तरीके कहे छे ॥११॥

सह्याद्रिना शिखर नजीक कावेरीना तीरे पृथ्वी उपर ए मुनि सूता हता. एमना शरीरे रज लागी हती. पोतानुं आत्मतेज मलिनताथी छुपाई गयुं हतुम् ॥१२॥

लोकतत्त्व जाणवानी इच्छाथी फरता भगवानना कृपापात्र प्रह्‌लादजी अमात्यो साथे ए जग्या उपर आव्या ॥१३॥

वर्ण के आश्रमना चिह्‌न उपरथी के एनां कर्म अने वाणी थी कोई एमने जाणी शके एम न होवाथी ‘‘आ अमुक छे’’ एम लोको कही शके एम न हतुम् ॥१४॥

भगवानना परम प्रेमी भकत प्रह्‌लादजीए एमनी विधिपूर्वक पूजा करी, मस्तकवडे एमना चरणोनो स्पर्श करी जाणवानी इच्छाथी महाभगवद्भकत असुर प्रह्लादजी एमने पूछवा लाग्या ॥१५॥

‘‘हे भगवन्‌! आपनुं शरीर उद्योगी अने भोगी पुरुषोना जेवुं हृष्टपुष्ट छे. संसारनो नियम छे के पैसो तो उद्योगवाळाने मळे छे. पैसावाळो भोग भोगवी शके छे अने एवा भोग भोगवनारनुं शरीर स्थूळ होय छे ॥१६॥

आप तो सूता रह्या छो तेथी उद्योग वगरना देखाओ छे. आपने द्रव्य न होय तो भोग कयान्थी ज होय? अने जो आप भोगी न हो तो आ आपनो देह स्थूळ छे ते केम सम्भवे? आ बाबतमां मने सन्देह छे. एने उत्तर आपवानुं आपने योग्य लागे तो, हे बह्मन्‌! आप आपो ॥१७॥

आप विद्वान्‌ छो, समर्थ छो, चतुर छो. आपनी वातो घणी विचित्र अने प्रिय लागे एवी होय छे, लोको कर्म करे छे तेने जोवा छतां आप कांई न करतां सूता छो तेथी हुं आ पूछुं छुं’’ ॥१८॥

नारदजी बोल्या - एम ज्यारे दैत्यराज प्रह्‌लादजीए मुनिने पूछ्‌युं त्यारे एमनी अमृतरूप वाणीने वश थई एमणे जरा मन्दहास्य कर्युं अने एमने उत्तर आपवो शरू कर्यो ॥१९॥

दत्तात्रेयजीए कह्युं - हे दैत्यराज! बधा श्रेष्ठ पुरुषो तमारुं सन्मान करे छे. मनुष्योनी कर्मोनी प्रवृत्ति अने निवृत्ति नुं शुं फळ मळे छे. ते वात तमे तमारी ज्ञान दृष्टिथी जाणो ज छो ॥२०॥

तमारी अनन्य भक्तिने लीधे तमारा हृदयमां नारायण भगवान्‌ सदा बिराजे छे, भगवान्‌ हरि शुद्ध भकितवडे जेम सूर्य अन्धकारने मटाडे तेम तमारा हृदयमां [[३०९]] बिराजी तमारा हृदयना अज्ञानने दूर करतां रहे छे ॥२१॥

तो पण तमे मने पूछो छो तो में जेवुं जाण्युं छे तेवुं जणावुं छुं एनुं कारण एटलुं ज छे के आत्म शुद्धिनी इच्छावाळाने माटे पण तमे सन्मानने पात्र छो. एवा तमारा जेवानी साथेनी वातथी मोटो लाभ मळे छे ॥२२॥

तमे मने पूछयुं के लोक प्रवृत्ति करे छे त्यारे हुं केम सूतो छुं. एना उत्तरमां कहेवानुं के संसारने चलावनारी तृष्णा छे ते इच्छानुसार भोगो मळवा छतां पूर्ण थती नथी. ए तृष्णाए मने पण प्रवृत्ति करावेली; अने घणा जन्मादि पण लेवडाव्या ॥२३॥

कर्मोनो भमाव्यो अनेक योनिमां भमतो-भमतो हुं आ मनुष्य योनिमां मारा कर्मोथी आवी पहोञ्च्यो. एमां पण कर्मोना प्रभावथी मनुष्य जन्म प्राप्त थयो. जो ए जन्ममां पुण्य करे तो स्वर्ग, निष्काम धर्म करे तो ज्ञानादि द्वारा मोक्ष, ने अधर्म करे तो पशुयोनि प्राप्त थाय; अने बीजा प्रकारना कर्म करे तो फरी मनुष्य योनि मळे एवा आ लोकमां हुं आव्योछुम् ॥२४॥

आ मनुष्यजन्ममां पण स्त्री-पुरुष सुख मेळववानो ने दुःख टाळवानो यत्न करे छे छतां एमां विपरीत फळ मळे छे एवुं जोईने हुं कार्यथी निवृत्त थयो छुं ॥२५॥

सुख ए आत्मानुं स्वरूपज छे. समस्त चेष्टाओनी निवृत्ति थतां ए सुख स्वतः प्रकाश पामे छे. तेथी तमाम भोगोने मनोराज्य मानी हुं जाते निवृत्त थई प्रारब्ध भोगवतो उद्योग छोडी सूतोछुम् ॥२६॥

ए आत्मारूप साक्षात्‌ पुरुष पोताने माटे पोतानी पासे ज रहेल छे. एने भूलीने पुरुष असत्य एवा द्वैतभावमां विचित्र अने घोर संसारने प्राप्त थाय छे ॥२७॥

जेम पाणी पीवानी इच्छावाळो पुरुष जळनी शोध करवा जाय अने शेवाळथी ढङ्कायेला जळने छोडीने झाञ्झवान्नां जळ तरफ दोडे तो एनाथी एने तृप्ति थती नथी तेम पोतानी पासे रहेला आत्माने सुखरूप नहि जाणी सुखनी शोध करे तेने ए सुख मळतुं नथी पण क्लेश थाय छे ॥२८॥

देहादि बधुं आपणे अधीन नथी पण दैवाधीन छे. देहवडे सुखने शोधनारना वारंवार आरम्भेला प्रयत्नो निष्फळ जाय छे ॥२९ ॥ [[३१०]] सुधी कदाच माणसने प्रयत्नथी धन के सुख मळे तो पण एनाथी एने शो लाभ थाय? ॥३०॥

जेनुं मन वश नथी, जे लोभियो छे कोई पैसा लई जशे एवी शङ्काथी निद्रानो त्याग करनार छे, सर्वथी शङ्काशील छे तेवा पुरुषने पैसाथी क्लेश विना बीजो लाभ शो छे? ॥३१॥

पैसावाळाने ‘‘राजा तो मारा पैसा लई नहि ले?’’ एवी शङ्काथी राजानो भय रहे छे; ‘‘हाथी, घोडा वेगरेना निर्वाहमां पैसा खवाई तो नहि जाय?’’ एम एने पशुथी भय रहे छे; ‘‘पक्षी खेतरमां पाकने खाई तो नहि जाय?’’ एम एने पक्षीनो भय रहे छे; ‘‘हमेशां पैसो भोगमां वपराशे तो काळे करीन नाश पामशे’’ एम काळथी भय रहे छे; ‘‘कोईने आपेलुं धन भुलाई जशे के भोगमां व्यय थई जशे तो धन नर्ही रहे’’ एवो पोतानी जातनो पण भय रहे छे; अर्थवाळाने प्राण जवानो पण भय रहे छे ॥३२॥

शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, नपुंसकपणुं, श्रम वगेरेनुं मूळ प्राण अने अर्थ छे. प्राणवाळा अने पैसावाळा ने शोकादि थाय छे माटे डाह्यो पुरुष प्राण अने अर्थ नी स्पृहा छोडी दे ॥३३॥

आ लोकमां मने मधमाखी अने अजगर ए बे गुरु मळ्या; ते बन्नेथी में वैराग्य अने सन्तोष मेळव्याम् ॥३४॥

एमां सर्व कामना प्रत्ये वैराग्य हुं मधमाखी पासेथी शीख्यो. मधमाखीनुं द्रव्य मध छे. ते मध, मधमाखीने उडाडीने बीजो ज लई जाय छे तेम धनवाळाने मारी एनुं धन बीजो लई जाय छे ॥३५॥

अजगर कांई पण धन्धो नथी करतो, जे कांई मळे एनाथी सन्तोष पामे छे तेम हुं पण कांई न करतां जे मने मळे तेमां सन्तोष मानुं छुं. जो कांई न मळे तो हुं अजगरनी जेम घणा वखत सुधी धैर्य धारण करी सूतो रहुं छुम् ॥३६॥

कोई वार बहु, कोई वार थोडुं, कयारेक स्वादिष्ट तो कयारेक नीरस-बेस्वाद अन्न हुं जमुं छुं. कयारेक घणा पौष्टिक गुणवाळुं तो कयारेक एवा गुण वगरनुं जमुं छुम् ॥३७॥

कवचित्‌ श्रद्धाथी आपेलुं, तो कवचित्‌ मान वगर मेळवेलुं, कवचित्‌ दिवसे, तो कवचित्‌ रात्रे अने कवचित्‌ दैवइच्छाथी मळे त्यारे लउं छुम् ॥३८॥

[[३११]] मने मारा प्रारब्ध भोगमां ज सन्तोष छे; तेथी कयारेक रेशमी वस्त्र, सुतराउ, मृगचर्म, चीथरां, झाडनी छाल, जे कांई आवी मळे ते पहेरी लउं छुम् ॥३९॥

कयारेक पृथ्वी उपर घास, पान्दडां, पथ्थर के राखना ढगला उपर पड्यो रहुं छुं तो कयारेक बीजानी इच्छाथी मोटा महेलमां पलङ्ग उपर मोटी तळाई उपर सूई लउं छुम् ॥४०॥

हे दैत्यराज! कवचित्‌ स्नान अने चन्दन वगेरेनुं लेपन करुं छुं. सुन्दर वस्त्र, माळा अने घरेणां पहेरी रथ हाथी घोडा उपर सवारी करुं छुं. कयारेक भूतनी पेठे नागो फरुञ्छुम् ॥४१॥

स्वाभावथी जे विषयतावाळा लोकने हुं निन्दतो नथी तेम वखाणतो पण नथी पण ए बधुं परमात्मानी साथे ऐक्य थाय अने तेओनुं कल्याण थाय एम इच्छुं छुम् ॥४२॥

सत्यनुं अनुसन्धान करनारो मनुष्य नाना प्रकारना पदार्थ अने तेमना भेदविभेद देखाई रह्या छे तेमनो मननी वृत्तिमां होम करी दे चित्तवृत्तिनो होम आ पदार्थना सम्बन्धमां विविध भ्रम उत्पन्न करवावाळा मनमां करी दे. मननो होम सात्त्विक अहङ्कारमां करी दे अने सात्त्विक अहङ्कारनो होम महत्तत्त्वद्वारा मायामां करी दे. आ प्रमाणे आ बधा भेद-विभेद अने एमनुं कारण माया ज छे एवो निश्चय करी ए मायाने आत्मानुभूतिमां स्वाहा करी दे. आ प्रमाणे आत्म साक्षात्कारद्वारा आत्मस्वरूपमां स्थिति करी निष्क्रिय अने उपरत थई जाय ॥४३-४४॥

लोकशास्त्रथी जुदुं एवुं आ मारुं व्रत घणुं गुप्त हतुं छतां भगवत्परायण एवा तमे पूछयुं तेथी में कह्युम् ॥४५॥

धर्मं पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वा सुरेश्वरः ॥ पूजयित्वा ततः प्रीत आमन्त्र्य प्रययौ गृहम्‌ ॥४६॥

नारदजीए कह्युं - असुरेश्वर! परम हंसोना धर्मने दत्तात्रेय मुनि पासेथी साम्भळीने प्रसन्न थया पछी एमनी पूजा करीने एमनी विदाय लईने प्रह्‌लादजी पोताना घर तरफ गया ॥४६॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (त्रीजा सदसद्वासना प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘सन्न्यासीना तथा सिद्ध पुरुषोना धर्मो’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[३१२]]

अध्याय १४

गृहस्थोने मोक्ष आपनार धर्मोनुं वर्णन

विशेष - देश अने काल ना भेदथी करे तो विशेष मोक्षने आपनारा गृहस्थोना धर्म छे ते आ चौदमा अध्यायमां कहेवामां आव्या छे. गृहस्थ एतां पदर्वी विधिना येन चाञ्जसा ॥ याति देवऋषे ब्रूहि मादृशो गृहमूढधीः ॥१॥

युधिष्ठिरे कह्युं - हे देवर्षि! मारा जेवो मूढबुद्धिवाळो गृहस्थाश्रमी गृहमां ज होय ते मोक्षनी पदवीने जलदी प्राप्त करी शके एवो रस्तो बतावो ॥१॥

नारदजी बोल्या - हे राजन्‌! गृहस्थ घरमां रहेतो होय छतां गृहस्थनां कर्म करतो ए कर्मनां फळने ए वासुदेव भगवान्‌मां अर्पण करी महामुनिओनी सेवा करे ॥२॥

निरन्तर भगवाननी कथारूपी अमृतने साम्भळे. एमां श्रद्धा राखी विरक्त पुरुषोनी साथे रहे ॥३॥

जेम स्वप्नमान्थी जाग्या पछी अने ए मिथ्या समजी स्वपनमां जोयेली वस्तुमान्थी ममता छोडी दे छे तेम सत्सङ्ग करतो-करतो धीरे-धीरे शरीर, स्त्री, पुत्रादिने अन्ते छोडवा पडशे ज एम जाणी एमान्नी आसक्ति स्वयं छोडी दे॥४॥

बुद्धिमान्‌ पुरुष शरीर तथा घरनो जेटलो उपयोग होय तेटलो ज करे; गृहादिमां वैराग्य राख्या छतां रागी पुरुषनी पेठे घरना काममां पुरुषार्थ बतावे॥५॥

ज्ञातिजनो, पितृ आदि मोटाओ, पुत्र आदि नानाओ, भाईओ, मित्रो अने बीजाओ जे-जे कहे तथा इच्छा करे तेमां पोते ममता न राखतां बधाने अनुमोदन आपे ॥६॥

बधाने अनुमोदन आपतां वित्तनाशनो भय न राखवो केमके वृष्टिथी थतां धान्य, पृथ्वीमान्थी थतां सुवर्ण आदि तथा अकस्मात्‌ मळेला धनना, सर्वना कर्ता भगवान्‌ ज छे एम जाणी मळे तेनो उपयोग करे. जेटलुं देहोपयोगी होय तेटलामां स्वत्व स्वीकारे ॥७॥

दैव इच्छाथी वधारे मळे तो पण एमां अभिमान न राखे. माणसे पोताना पेटमां भरी शकाय तेटलामां स्वत्व राखवुं एनाथी वधारेमां अभिमान करे ते चोर दण्डने लायक छे एम जाणवुम् ॥८॥

[[३१३]] तेथी हरिण, ऊण्ट, गधेडो, वान्दरो, उन्दर, सर्प, पक्षी अने माखी वगेरेने पोताना पुत्र जेवां गणे कारण के जे उपर गणाव्यां तेमां अने पुत्रादिकमां शो फेर छे? कांईपण नथी ॥९॥

देश काळ अने भगवदिच्छा ने योग्य जे मळे ते वडे गृहस्थ, अति कष्ट न पडे तेम, धर्म, अर्थ अने कामनुं सेवन करे ॥१०॥

पोताने जे भोग्य छे तेमान्थी कूतरां अने पतित तथा चाण्डाल वगेरेनो भाग पाडे. बीजुं तो शुं पण जेमां लोकोनी *अहन्ता दृढ होय छे तेवी पोतानी स्त्रीने पण अतिथिनी सेवा करवाने मोकले. (स्त्रीने यथायोग्य सेवा करवाने कहेलुं तेथी अर्ही अनिष्ट व्यवहारनो सम्बन्ध न समजवो) ॥११॥

विशेष - ‘‘स आत्मानं द्वेधापातयत्‌ पतिश्च पत्नी चाभवताम्‌’’ पहेलां पुरुषाकार आत्मा एक ज हतो. तेणे रमण करवानी इच्छा करी. जे रीते परस्पर आलिगिन्त स्त्री पुरुष होय छे तेवुं ज एनुं परिणाम आव्युं; तेणे आ पोताना देहनां बे भाग करी नाख्या तेथी पति अने पत्नी थयां तेथी आ शरीर ‘अर्धबृगल’ ना समान छे, द्विदल कठोळ चणा वगेरेनी बे फाडनी जेम पुरुष अने स्त्री छे एक फाड (दल) पुरुष अने बीजी फाड स्त्री. ‘बृगल’=द्विदल कठोळ ‘‘बृहदारण्यक उप. अ. १, ब्रा. ४’’ तेथी मूळमां ‘‘नृणामैक्यभ्रमो यतः’’ एम कह्युं छे. जे स्त्रीने माटे माणस पोताना प्राण आपी दे, मोटाओने तेमज पिता वगेरने माटे ते स्त्रीमां जेणे स्वत्व छोड्युं ते अजित भगवान्‌ पण जीती जाय छे ॥१२॥

अन्ते कृमि, विष्ठा के भस्मरूप थनारो देह कयां अने देहने माटे प्रिय लागती स्त्री कयां अने आकाशनी पेठे व्यापक आत्मा कयां एमआत्म अनात्म नो विचार करी स्त्री देहादिनो आग्रह छोडे ॥१३॥

यज्ञना उच्छिष्ट, सिद्ध अन्नथी देह निर्वाह करे. देहने अनुपयोगी होय तेमां स्वत्व छोडे तो मोटाओनी गतिने प्राप्त थाय ॥१४॥

वर्णाश्रम विहित पोतानी वृत्तिथी प्राप्त थयेला द्रव्यथी देव, ऋषि, पितृ, मनुष्य अने भूत तथा पोताना आत्मानुं पूजन करे. आम करवुं ए एक ज परमेश्वरनी भिन्न-भिन्न रूपमां आराधना छे ॥१५॥

जो पोतानो अधिकार होय अने यज्ञने लायक सम्पत्ति होय तो मोटा-मोटा यज्ञ या अग्निहोत्र आदि द्वारा भगवाननी आराधना करे ॥१६॥

ब्राह्मणना मुखमां होमवाथी आ भगवान्‌ जेवा प्रसन्न थाय छे तेवा सर्व [[३१४]] यज्ञना भोकता भगवान्‌ अग्निरूप मुखमां हविषना होमवाथी प्रसन्न थता नथी ॥१७॥

माटे ब्राह्मण देव अने मनुष्य जेने जे लायक होय एवी रीते तेनुं यजन करे. एम करवाथी अन्तर्यामी भगवान्‌ प्रसन्न थाय छे ॥१८॥

भादरवा मासना कृष्ण पक्षमां द्विज, द्रव्यनी अनुकूळता प्रमाणे माता-पितानुं श्राद्ध करे, पैसानी सगवड होय तो पिताना सम्बन्धीओ, पितामह, मातामह आदिनां पण श्राद्धकरे ॥१९॥

ए सिवाय अयन (कर्क अने मकर सङ्क्रान्ति), विषुव (तुला अने मेष सङ्क्रान्ति) व्यतीपात; दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण समये, द्वादशीना दिवसे, श्रवण, घनिष्ठा अने अनुराधा नक्षत्रोमां, वैशाख शुकल तृतीया (अक्षय तृतीया) कार्तिक सुदि नवमी (अक्षय नवमी), मागशर, पोष, माघ अने फागण आ चार महिनाओनी अन्धारी आठम, माघ सुदि सातम, माघनी मघा नक्षत्रवाळी पूर्णिमा अने प्रत्येक महिनानी ए पूर्णिमा जे पोतानी मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, जयेष्ठा आदि युकत होय भले चन्द्रमा पूर्ण होय के अपूर्ण; द्वादशीनुं अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुन, उत्तराषाढा अने उत्तराभाद्रपदानी साथे योग, एकादशी तिथिनो त्रणेय उत्तरा नक्षत्रोथी योग अथवा जन्मनक्षत्र अथवा श्रवणनक्षत्र नो योग, आ बधा दिवसो पितृगणोनुं श्राद्ध करवामाटे योग्य अने श्रेष्ठ छे. आ योग फकत श्राद्धने माटे ज नहि पण बधां पुण्यकर्मोने माटे उपयोगी छे. ए कल्याणना साधनमाटे उपयोगी अने शुभनी अभिवृद्धि करनारा छे. आ अवसरो उपर पूरी शक्तिथी शुभकर्म करवां जोईए. एमाञ्ज जीवननी सफलता छे ॥२०-२४॥

उपर कह्या ते योगोमां स्नान, जप, होम, व्रतो, देव ब्राह्मणनुं पूजन, पितृ, देव, मनुष्य, भूत वगेरेने अपाय तेनुं फळ अक्षय थई जाय छे ॥२५॥

हे युधिष्ठिर! ए प्रमाणे स्त्रीना पुंसवन आदि, सन्तानना जातकर्म आदि तथा पोताना यज्ञ दीक्षा वगेरे संस्कारो वखते, शब दाहने दिवसे अथवा वार्षिक श्राद्धना निमित्ते अथवा बीजा माङ्गलिक कर्मोमां दान आदि शुभ कर्म करवां जोईए ॥२६॥

हवे हुं ए स्थानोनुं वर्णन करुं छुं जे धर्म आदि कल्याणनी प्राप्ति करावनारा छे. सौथी पवित्र देश ए छे ज्यां सत्पात्र मळी जाय ॥२७॥

जेमां आ बधुं चर-अचर जगत्‌ स्थित छे ते भगवाननी प्रतिमा जे देशमां [[३१५]] बिराजती होय, ज्यां तप, विद्या अने दया वगेरे गुणो युकत ब्राह्मणोना परिवार निवास करता होय, ज्यां-ज्यां भगवाननी पूजानो प्रवाह चालु रहेतो होय (दा.त. पाण्डुरङ्ग श्रीविट्‌ठलनाथजी, श्रीरङ्गजी, द्वारिकाजी, जगन्नाथपुरी) अने पुराणोमां प्रसिद्ध श्रीयमुनाजी, श्रीगङ्गाजी आदि नदीओ वहेती होय ते बधां स्थान परम कल्याणकारक छे ॥२८-२९॥

पुष्कर आदि तळावो, भगवद्भकत रह्या होय तेवां क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्राम क्षेत्र) अने ज्यां-ज्यां भगवानना अर्चावतार छे ए बधा ज देश अत्यन्त पवित्रछे ॥३०॥

नैमिषारण्य, फल्गुनदी, सेतुबन्ध रामेश्वर, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दु सरोवर ए देश पवित्र गणाय ॥३१॥

नारायणनो आश्रम, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, चित्रकूट आदि सीता अने रामना आश्रमो, महेन्द्र, मलय वगेरे मोटा पर्वतो ए बधा भगवाननी मूर्तिथी पूजायेला पवित्र देशो छे ॥३२॥

श्रेयनी इच्छावाळो ए देशोनुं वारंवार सेवन करे. ए देशोमां जे धर्मो करे छे तेनुं हजारोगणुं विशिष्ट फल मळेछे ॥३३॥

हे धराधीश! पात्रने जाणनारमां श्रेष्ठ विद्वानोए एकमात्र भगवानने सत्पात्र क्ह्या छे. आ चर अने अचर जगत बधुं ज भगवन्मय छे ॥३४॥

ज्यां ब्रह्मा अने एमना पुत्रो, देवो, ऋषिओ वगेरे हता त्यां पण प्रथम पूजाने लायक कोण एनो विचार तमारा पितामहने यज्ञमां थयो हतो त्यारे श्रीकृष्ण प्रथम पूजाने लायक ठर्या हता ॥३५॥

जीवोथी भरेला ब्रह्माण्ड कोशरूप वृक्षनुं मूळ भगवान्‌ छे. ए भगवान्‌रूपी मूळनुं सिञ्चन करवाथी पत्र पुष्प फळरूप सर्व प्राणीने तृप्ति थाय छे ॥३६॥

एमणे मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि अने देवता आदिनां शरीर रूप पुरोनी रचना करी छे. तथा तेज आ पुरोमां जीव रूपथी शयन पण करे छे. तेथी ज आपनुं एक नाम ‘पुरुष’ पण छे ॥३७॥

हे युधिष्ठिर! एकरस रहेवा छतां पण भगवान्‌ आ मनुष्य आदि शरीरोमां तेमनी विभिन्नताने लीधे न्यूनाधिक रूपथी प्रकाशमान छे. तेथी पशु-पक्षी आदि शरीरो करतां मनुष्य ज श्रेष्ठ पात्र छे अने मनुष्योमां पण जेमां भगवानना अंश [[३१६]] तप, योग वगेरे जेटला अधिक होय ते एटलोज श्रेष्ठ छे ॥३८॥

प्रथम भगवाननुं मनुष्यमां पूजन थतुं पण त्रेतायुगथी लोकमां परस्पर अवज्ञा जोवामां आवी तेथी मूर्तिमां श्रद्धाथी केटलाक पूजा करवा लाग्या ॥३९॥

परन्तु जो ए मूर्तिमां श्रद्धाथी केटलाक पूजा करे अने बीजानो द्वेष करे तो ए उपासनानुं फळ एने मळतुं नथी ॥४०॥

हे राजन्‌! पुरुषोमां पण ब्राह्मणने खास सुपात्र जाणवो केमके ए तप विद्या अने सन्तोषआदि गुणोथी भगवानना वेदरूप शरीरने धारण करे छे ॥४१॥

नन्वस्य ब्राह्मणा राजन्‌ कृष्णस्य जगदात्मनः। अनन्तः पादरजसा त्रिलोर्की दैवतं महत्‌ ॥४२॥

हे महाराज! अमारी अने तमारी तो वात ज शी, आ जे सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण छे एमना पण इष्टदेव ब्राह्मण ज छे. कारण के एमना चरणोनी रजथी त्रणेय लोक पवित्र थता रहे छे ॥४२॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (त्रीजा सदसद्वासना प्रकरणनो चोथो) ‘‘गृहस्थोने मोक्ष आपनार धर्मोनुं वर्णन’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु(श्रोता) अहि(नाग=कथाकार) मणि (भागवत)अजवाळे, त्यम तें उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे

अध्याय १५

वर्णाश्रमना साररूप धर्मोनो सङ्ग्रह तथा मोक्षनुं लक्षण

विशेष - सर्व वर्ण अने आश्रमना धर्मोनो साररूप सङ्ग्रह तथा मोक्षनुं लक्षण आ पन्दरमां अध्यायमां कहेवामां आवे छे. कर्मनिष्ठा द्विजाः केचित्‌ तपोनिष्ठा नृपापरे ॥

ईं उं ईं उं

[[३१७]] स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने ये केचिजज्ञानयोगयोः ॥१॥

नारदजी बोल्या - हे युधिष्ठिर! केटलाक ब्राह्मणोनी निष्ठा कर्ममां, केटलाकनी तपस्यामां, केटलाकनी वेदोना स्वाध्याय अने प्रवचन मां केटलाकनी आत्मज्ञान मेळववामां तथा केटलाकनी योगमां होय छे ॥१॥

कर्मनुं अक्षय फळ प्राप्त करवा गृहस्थे श्राद्ध अने देवपूजाना प्रसङ्गे ज्ञाननिष्ठ पुरुषने ज श्राद्ध निमित्तनुं दान करवुं. ज्ञाननिष्ठ ब्राह्मण न मळे तो योगी, प्रवचन करनार वगेरेने यथायोग्य अने यथाक्रम आपवुं जोईए ॥२॥

श्राद्धमां बे ब्राह्मण विश्वदेवना अने त्रण पितृना, अथवा तो देवपितृ बन्नेमां एक-एक ब्राह्मणने भोजन कराववुं. अत्यन्त धनवान होवा छतां श्राद्ध कर्ममां बहु विस्तार न करवो ॥३॥

देश काळने योग्य श्राद्ध, द्रव्य, पात्र, पूजा, साधन वगेरे वधारवाथी अने स्वजनने आपवाथी बराबर थई शकतां नथी; (जेमके जमाईने कह्युं तो एना भाईने कहेवुं जोईए; विद्वानने कह्युं तो बीजाने केम छोडाय? आम विस्तार वधतां श्राद्धनुं स्वरूप नष्ट थई जाय) ॥४॥

योग्य देश अने काळ कह्या छे तेमां मुनिनां अन्न सामा वगेरे भगवानने धरीने शास्त्रोक्त विधिथी सुपात्रने भोजन करावे तो एनुं फळ अक्षय्य थाय छे अने कामनाने पूर्ण करे छे ॥५॥

देवो, ऋषिओ, पितृओ, प्राणीओ, पोते अने पोतानां सगां ए बधान्ने अन्न वहेञ्ची आपवुं अने ए बधाने भवगद्रूप ज जाणवाम् ॥६॥

धर्मनुं तत्त्व जाणनारे श्राद्धमां ब्राह्मणने मांस जमाडवुं नहि तेमज पोते पण खावुं नहि. पितृओ ऋषिमुनिओने योग्य हविष्यान्नथी जेवा प्रसन्न थाय छे तेवा पशु हिंसाथी प्रसन्न थता नथी ॥७॥

सद्धर्मने इच्छनार पुरुष मन, कर्म अने वचनथी कोई पण प्राणीने कोई प्रकारनुं कष्ट न पहोञ्चाडे एना जेवो कोई बीजो धर्म नथी ॥८॥

केटलाक ज्ञानी पुरुषो यज्ञना खरा स्वरूपने समजीने कर्ममय यज्ञोनो आत्म संयममां प्रज्वलित अग्निमां होम करी दे छे. कर्मो परमात्माना स्वरूपमां अन्तरायरूप होवाथी तेओ एनो त्याग करे छे केमके ए स्वर्गादि फळनी इच्छा राखता नथी ॥९॥

[[३१८]] पशु पुरोडाश आदि द्रव्यथी यज्ञ करनारने जोईने प्राणी भय पामे छे केमके ए समजे छे के प्राणने पोषनार आ यजमान निर्दय थईने स्वर्गनी लालचे मन मारशे ॥१०॥

माटे धर्मने जाणनार दैवेच्छाथी मळेल मुनिने अन्नवडे सन्तुष्ट करी हम्मेशां नित्य नैमित्तिक कर्म कर्या करे ॥११॥

अधर्मरूपी वृक्षने विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा अने छल एवी पाञ्च शाखाओ छे. धर्मने जाणनारे ए पाञ्चनो अधर्मना जेम ज त्याग करी धर्माचरण करवुम् ॥१२॥

जे कार्यने धर्मबुद्धिथी करवा छतां पोताना धर्मने बाध आवे ते विधर्म; क्षत्रियने कहेवामां आवेलो धर्म ब्राह्मणने परधर्म; बीजाने छेतरवा पाखण्डथी करेलो धर्म उपधर्म अथवा उपमा छे. शास्त्रना वचनोनां बीजा ज प्रकारनो अर्थ करी करेलो धर्म छल छे ॥१३॥

शास्त्रे न कह्युं होय छतां पोतानुं मनमान्युं करवुं ए धर्माभास; आ पाञ्च अधर्मना भेद दुःखकारक छे. साचो धर्म कोने शान्ति न आपे? ॥१४॥

निर्धन मनुष्य होय छतां पोतानी आजीविका के तीर्थादि माटे धर्म करी द्रव्य मेळववानी इच्छा न राखे. निवृत्तिवाळा पुरुषने अजगरनी पेठे निवृत्तिथी बधुं मळी रहे छे ॥१५॥

सन्तोषी अने निवृत्तिवाळा ने जे सुख मळे छे तेवुं सुख धननी इच्छाथी दिशाओमां दोडनारने मळतुं नथी ॥१६॥

जेम पगमां जोडा पहेनारने काण्टा काङ्करानुं दुःख थतुं नथी तेम सन्तोषीने सर्व दिशाओ सुखमय होय छे ॥१७॥

सन्तोषी माणस जल मात्रथी पण चलावी ले छे ज्यारे तृष्णावाळो माणस जिह्‌वा अने उपस्थने पोषवामां दीन बनी कूतरा जेवुं आचरण करेछे ॥१८॥

इन्द्रियनी लालसाने लीधे असन्तोषी ब्राह्मणनां तेज, विद्या, तप अने यश स्रवी जाय छे. एनाथी ज्ञान पण नष्ट थाय छे ॥१९॥

भूख अने तरस मटी जतां खावापीवानी कामनानो अन्त आवी जाय छे. क्रोध पण पोतानुं काम पूरुं करी शान्त थई जाय छे. परन्तु मनुष्य पृथ्वीनी तमाम दिशाओने जीती ले अने भोगवी ले तो पण लोभनो अन्त आवतो नथी ॥२०॥

[[३१९]] हे राजन्‌! बहु जाणनार अने संशय टाळनार मोटा पडिन्तो पण असन्तोषथी पतित थई जाय छे अने नीचे पडे छे ॥२१॥

कामना थाय एवा सङ्कल्पनो त्याग करी कामने, कामनाना त्यागथी क्रोधने, धनने अनर्थरूप जाणी लोभने तथा तत्त्वनो विचार करी भयने जीतवो ॥२२॥

शोक अने मोह ने आत्मविद्यावडे जीतवां; मोटानी सेवा करीने दम्भने जीतवो, मौनवडे योगनां विघ्नोने जीतवां; कायानी चेष्टाने रोकीने हिंसाने जीतवी ॥२३॥

आधिभौतिक दुःखने दयाथी, आधिदैविक दुःखने मननी समाधिथी, आध्यात्मिक दुःखने प्राणायामादिथी अने सात्त्विक पदार्थोना सेवनथी निद्राने जीतवी ॥२४॥

सत्त्वगुणवडे रजोगुण तथा तमोगुणने जीतवो, शान्तिवडे सत्त्वगुणने जीतवो; उपर जीतवाना जे बधा उपाय कहेवामां आव्या छे ते बधा एक गुरुभक्ति मात्रथी साधक आ बधा दोषो उपर सुगमताथी विजय प्राप्त करी शके छे ॥२५॥

हृदयमां ज्ञाननो दीपक प्रगटावनार गुरुदेव साक्षात्‌ भगवान्‌ज छे. जे पुरुष एने मनुष्य समजे छेतेनुं बधुं शास्त्र श्रवण हाथीना स्नाननी जेम व्यर्थछे ॥२६॥

श्रीकृष्ण प्रकृति अने पुरुष ना साक्षात्‌ ईश्वर छे. योगेश्वरो पण समाधिवडे एने ज शोधे छे. एवी ज रीते गुरु पण साक्षात्‌ परब्रह्म होवा छतां लोको एने माणस जेवा माने छे ॥२७॥

शास्त्रोमां जेटली पण नियम सम्बन्धी आज्ञाओ छे तेमनुं एक मात्र तात्पर्य ए ज छे के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद अने मत्सर आ छ शत्रुओ उपर विजय मेळवी शकाय, अथवा पाञ्च इन्द्रियो अने मन ए छ वश थई जाय. आम थवा छतां जो ए नियमोद्वारा भगवाननुं ध्यान, चिन्तन, स्मरण न थई शके तो एने केवळ श्रमरूप ज समजवो ॥२८॥

जेम खेती वगेरे उद्यमो योगना फळरूप मोक्षने अपाववाने समर्थ नथी पण एथी जीवन निर्वाह थाय छे तेम वाव, कूवा, धर्मशाळा बन्धाववी वगेरे धर्मो संसार आपनार छे, मोक्ष आपवा समर्थ नथी ॥२९॥

जे मनुष्यने पोतानुं चित्त वश करवुं होय तेणे आसक्ति अने परिग्रहनो त्याग करी सन्न्यास ग्रहण करवो. एकान्तमां एकलो ज रहे अने भिक्षावृत्तिथी मात्र [[३२०]] शरीर निर्वाह करवा पूरतुं स्वल्प आहार करे ॥३०॥

हे राजन्‌! सरखी अने पवित्र जग्यामां पोतानुं आसन बिछावी एनी उपर सुखथी सरखी रीते स्थिरताथी बेसी ॐकारनो जप करवो ॥३१॥

पछी पूरक, कुम्भक अने रेचक वडे प्राण अने अपान ने पण रोकवा अने पोताना नाकना अग्र भाग उपर दृष्टि राखी मन कामनाने छोडे त्यां सुधी एम करवुं ॥३२॥

कामने वश थयेलुं मन जे-जे विषयोने छोडे तेमान्थी एने अलग करी डाह्या पुरुषे एने हृदयमां रोकवुम् ॥३३॥

एवो अभ्यास करतां-करतां थोडा ज वखतमां यतिनुं मन विषय न मळवाथी जेम काष्ठ न मळतां अग्नि शान्त थाय तेम, शान्त थई जाय छे ॥३४॥

ज्यारे मन कामादिथी र्वीधातुं नथी अने एनी बधी वृत्तिओ शान्त थई जाय छे त्यारे एने ब्रह्म सुखनो स्पर्श थवाथी कोई काळे ए चित्त एमान्थी उखडतुं नथी ॥३५॥

धर्म, अर्थ अने कामने वधारनार घरमान्थी नीकळीने सन्न्यासी थया पछी जो ए कामादिनुं सेवन करे तोए निर्लज्ज अने उल्टी-ओकेलुं खानारो छे ॥३६॥

पोतानो देह मरणधर्मवाळो छे कृमि, विष्टा अने भस्मरूपे परिणमे तेवो छे एवुं जाण्या छतां जे बीजा माणसो पासे फरी ए ज देहनी स्तुति करावे छे ते अति दुष्ट छे एम जाणवुम् ॥३७॥

गृहस्थाश्रममां रह्या छतां जो गृहस्थ तेनां कर्तव्य छोडी दे, ब्रह्मचर्यावस्थामां होवा छतां ब्रह्मचारी पोतानी अवस्थामां व्रत छोडे, तपस्वी थईने गाममां वसे अने सन्न्यासी थईने इन्द्रियोना विषयोमां आसक्ति राखे तो ए चारे आश्रमवाळामां अधम गणाय छे; ए तो केवळ आश्रमनो डोळ करनार कहेवाय. एवाने मायामां मोहित थयेलो छे एम जाणी दया लावी एनी उपेक्षा करवी ॥३८-३९॥

ज्ञानवडे अन्तःकरणने शुद्ध करीने भगवानना स्वरूपने जाणी ले तो पछी कई इच्छाथी के कया कारणथी ए देहने पोषण आपे? देहने बहु मान न ज आपवुं ॥४०॥

उपनिषदोमां कह्युं छे के आ शरीर रथ छे, इन्द्रियो घोडा छे, इन्द्रियोनो स्वामी [[३२१]] मन लगाम छे, शब्दादि विषयो रथने चालवाना मार्गो छे, बुद्धि सारथि छे अने चित्त ज भगवान्‌द्वारा निर्मित मोटी रस्सी (बन्धन) छे ॥४१॥

दशा प्राण धरी छे, अधर्म अने धर्म बे पैडां छे अने एमनो अभिमानी जीव रथी छे, ॐकार ज ए रथीनुं धनुष छे, शुद्ध जीवात्मा बाण छे अने परमात्मा लक्ष्य छे. (आ ॐकारद्वारा अन्तरात्माने परमात्मामां लीन करी देवो जोईए) ॥४२॥

राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, बीजाना गुणोमां दोष जोवा, छल, कपट, हिंसा, बीजानी उन्नति जोई दुःखी थवुं, तृष्णा, प्रमाद, भूख अने निद्रा आ बधा अने एवा ज बीजा जीवोना घणा-घणा *शत्रुओ छे. एमां रजोगुण अने तमोगुणप्रधान वृत्तिओ विशेष प्रमाणमां छे. कयाङ्क-कयाङ्क कोई-कोई सत्त्वगुणप्रधान पण होय छे ॥४३-४४॥

विशेष - साधक कोई वार तमोगुण आवे अने ए कोईने शापादि आपे अथवा रजोगुण वधतां ए कोई विषयमां बन्धाय तो ए एना मार्गमां विघ्नरूप थाय छे. तेमज सत्त्वगुण वधतां परोपकार आदि करवानुं मन करे तो ए पोतानुं लक्ष्य चूके छे तेथी ते-ते प्रकृतिओने शत्रुरूप कही छे. ज्यां सुधी इन्द्रियादि सामानथी भरेलो आ कायारूपी रथ पोताने वश होय छे त्यां सुधी भगवाननो आश्रय करी गुरुनी सेवाथी सिद्ध करेली ज्ञानरूपी तलवारथी कामादि शत्रुओनो नाश करवो अने शान्त थई स्वस्वरूपानन्दथी प्रसन्न थई देहादि सामग्रीनो त्याग करवो ॥४५॥

अच्युतनो आश्रय कर्या वगर इन्द्रियोरूपी बहिर्मुख घोडा तथा बुद्धिरूपी सारथि गाण्डा बनीने विमार्गे लई जाय छे अने विषयरूपी लुटारा ए रथने मृत्युना भयवाळा गाढ अन्धकारवाळा संसाररूपी मोटा कूवामां फेङ्की दे छे ॥४६॥

वेदे प्रवृत्ति अने निवृत्ति वाळां बे प्रकारनां कर्मो कह्यां छे तेमां प्रवृत्तिवाळां कर्म करतां मनुष्य जन्ममरणने पामे छे अने निवृत्तिवाळां कर्म करवाथी मोक्षने प्राप्त करे छे ॥४७॥

हिंसावाळां श्येनयागादि, द्रव्यमय कामनावाळां जेवा के अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग अने सोमयज्ञ, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यथी थतां कर्म ‘इष्ट’ कहेवाय छे. देवमन्दिर, बागबगीचा, कूवा वगेरे बन्धाववा ‘पूर्तकर्म’ कहेवाय छे. आ बधां प्रवृत्तिपरक कर्म छे अने ते सकामभावथी करवामां आव्यां होय [[३२२]] त्यारे अशान्तिनुं कारण बने छे ॥४८-४९॥

प्रवृत्तिपरायण पुरुष मर्या पछी चरु, पुरोडाशादि यज्ञसम्बन्धी द्रव्योना सूक्ष्मभागथी बनेलुं शरीर धारण करी धूमाभिमानी देवताओनी पासे जाय छे. पछी क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष अने दक्षिणायन ना अभिमानी देवताओनी पासे जई चन्द्रलोकमां पहोञ्चे छे. भोग समाप्त थतां त्यान्थी अमावास्याना चन्द्रमानी जेम क्षीण थई वृष्टिद्वारा क्रमशः औषधि, लता, अन्न अने वीर्य ना रूपमां परिणत थई पितृयान मार्गथी फरी संसारमां ज जन्म ले छे ॥५०-५१॥

हे युधिष्ठिर! गर्भाधानथी लईने अन्त्येष्टि पर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जेना थाय छे ते ‘द्विज’ कहेवाय छे. (एमान्थी केटलाक पूर्वोकत प्रवृत्तिमार्गनुं अने केटलाक हवे कहेवानारा निवृत्तिमार्गनुं अनुष्ठान करे छे) निवृत्ति परायण पुरुष इष्ट, पूर्त वगेरे कर्मोथी थता समस्त यज्ञोने विषयोनुं ज्ञान करावनार इन्द्रियोमां हवन करी दे छे ॥५२॥

ए इन्द्रियोने सङ्कल्प विकल्पवाळा मनमां होमे छे, वैकारिक मनने परा वाणीमां होमे छे, परा वाणीने अक्षर समुदायमां, अक्षर समुदायने ॐकारमां, ॐकारने बिन्दुमां, बिन्दुने नादमां, नादने सूत्रात्मारूप प्राणमां अने प्राणने परब्रह्ममां होमे छे ॥५३॥

आ प्रमाणे निवृत्ति निष्ठज्ञानी पुरुष प्रथम अग्नि देवता पासे जाय छे त्यान्थी दिवसाभिमानिनी देवता पासे, त्यान्थी शुकलपक्षाभिमानिनी देवता पासे, त्यान्थी उत्तराभिमानिनी देवता पासे अने त्यान्थी ब्रह्माजी पासे जाय छे; त्यां ब्रह्म लोकना भोग भोगवे छे. ए स्थूळ शरीरना अभिमानवाळो अने विश्वनामधारी होय छे. ए पोताना शरीरने सूक्ष्म उपाधिमां होमे छे अने तैजस नामवाळो थाय छे. पछी ए सूक्ष्म शरीरनो कारण शरीरमां लय करे छे अने एमां लय करीने कारणोपाधिवाळो प्राज्ञ थाय छे. पछी कारण शरीरने विश्व, तैजस, प्राज्ञ शरीरमां व्यापक एवा साक्षी स्वरूपमां लय करीने चतुर्थ थाय छे, अर्थात्‌ दृश्य पदार्थोनो लोप थतां शुद्ध आत्मा रहे छे ॥५४॥

वैदिक लोको आ मार्गने ‘देवयान’ कहे छे. परमात्मानी उपासना करनार क्रमशः अर्चिरादि मार्गवडे शान्ति मेळवे छे अने परमात्मामां स्थिति करे छे. आवो माणस पाछो आ संसारमां आवतो नथी ॥५५॥

[[३२३]] वेदे कहेलां आ पितृयान अने देवयान मार्गने शास्त्र दृष्टिथी जाणी ले ते आ लोकमां रहेतो होय छतां मोह पामतो नथी ॥५६॥

आ शरीरनी पहेलां, शरीरनी पछी, बहार, अन्दर, उत्कृष्ट, अपकृष्ट, जाणवानुं साधन, जाणवानो पदार्थ, तमस अने प्रकाश ए बधुं आ भगवान्‌ पोते छे ॥५७॥

*भगवान्‌ बधुं छे. एना अवतारोमां आपणा जेवा श्रीअङ्ग एने पण जोवामां आवे छे. भगवान्‌मां देह, इन्द्रिय वगेरे देखातुं यथार्थ नथी पण आभास मात्र छे ॥५८॥

विशेष - अबाधित ए श्लोकनी घणी टीकाओमां जुदां-जुदा अर्थ आपेलां छे. कोई एने ‘आभास’ तर्कथी विरुद्ध होवा छतां वस्तुरूपे इन्द्रियना विषयरूपे देखाय छे तेथी ए मिथ्या छे एवो अर्थ करे छे. आ चार श्लोकमां सर्वनुं मिथ्यात्व बताव्युं छे ते नारदजीए युधिष्ठिरने वैराग्य थवा माटे कह्युं छे. युधिष्ठिरनो अधिकार उत्तम नथी. तेथी जो एने बधुं मिथ्या कहे तो एमान्थी एनी ममता छूटी वैराग्य थाय. वस्तुतः तो जे बधुं देखाय छे ते मिथ्या नथी पण भगवद्रूप छे. पञ्चम स्कन्धमां जडभरते ‘‘अयं जनो नाम’’ इत्यादि श्लोकमां नास्तिकनो परमाणु पुञ्जवाद रहूगणने बताव्यो छे ते पण वैराग्यमाटे छे. आ वात विस्तारथी जाणवी होय तो अणुभाष्यनां प्रकाश अने रश्मि मां एनो विस्तार छे. (जुओ व्याससूत्र द्वितीयाध्याय द्वितीयपादनो नासतो दृष्टत्वात्‌ ए सूत्रनो प्रकाश अने एनां रश्मिजी) आ भगवद्‌ विग्रहमां पाञ्च भौतिकनी छाया नथी. जेम एक वृक्षने खेञ्चवाथी वन खेञ्चातुं नथी तेम देहमां एक अवयवने खेञ्चवाथी अवयवीनुं कर्षण थाय छे पण तेथी सङ्घातभाव घटतो नथी. एमां विकार पण सम्भवतो नथी. परिणाम तो प्राकृतनां सम्भवे, भगवान्‌ तो अप्राकृत छे ॥५९॥

सच्चिदानन्द विग्रहमां धातुओनो सम्भव पण नथी. धारण करे ते ‘धातु’ कहेवाय. ए धातुओ महाभूत सूक्ष्मरूप शब्दादि विषयो विना रहे नहि. शब्दादि अवयव छे, आकाशादि अवयवी छे. ए न होवाथी अवयवो पण न ज होय तेथी ज देखाय छे ते मिथ्या छे ॥६०॥

जेम स्वपन मात्र स्थितिमां योग्य छे, याण एमान्थी जाग्या त्यारे बधुं खोटुं छे तेम जेने अविद्या गई तेने अविद्या, विधि अने निषेध ए बधुं खोटुं छे. ए न गई होय त्यां सुधी बधुं साचुं छे. *एवी रीते विधि निषेधनी व्यवस्था छे ॥६१॥

[[३२४]]

विशेष - जाग्रदादि त्रण अवस्था न ले तो वस्तुभेदबुद्धि एक स्वप्न, कर्मभेदबुद्धि बीजुं स्वपन अने आ में करेला कर्मनो हुं ज एकलो भोग करुं. में ज कर्मवडे आ फळ मेळव्युं छे ए जातनो त्रीजो भेद; ए त्रणे भेदने छोडी दे. विचारशील पुरुष स्वानुभूतिथी आत्माना त्रण प्रकारनां अद्वैतनो साक्षात्कार करे छे. ते जाग्रत, स्वपन, सुषुप्ति अने दृष्टा, दर्शन तथा दृश्यना भेदरूप स्वपनने मिटावी दे छे. आ अद्वैत त्रण प्रकारनां छेः भावाद्वैत, क्रियाद्वैत अने द्रव्याद्वैत. (वस्तु-भेदबुद्धि एक स्वपन, कर्म-भेदबुद्धि बीजुं स्वपन, कर्मनो हुं ज कर्ता छुं अने में मारा कर्मवडे फळ मेळव्युं; एवी कर्तृकर्मबुद्धि ए त्रीजुं स्वपन आ त्रणे भेद छोडी दे) ॥६२॥

जेवी रीते वस्त्र सूतर रूप ज होय छे तेवी ज रीते कार्य पण कारण मात्र ज छे कारण के भेद तो खरेखर छे ज नहि. आ प्रमाणे बधानी एकतानो विचार भावाद्वैत छे ॥६३॥

युधिष्ठिर, मन, वाणी अने शरीरथी थता बधां कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामां ज थई रह्यां छे तेमां ज अध्यस्त छे ए भावथी बधां कर्मोने समर्पण करी देवां ए नक्रियाद्वैतथ छे ॥६४॥

आत्मा, स्त्री, पुत्र वगेरे अने बधां देहधारी मनुष्योना देह पञ्चमहाभूतनिर्मित छे तेथी ए एक ज छे. भोकता परमात्मा पण एक छे. एना अर्थ अने काम पण एक ज होय एम विचारवुं ए द्रव्याद्वैत कहेवाय ॥६५॥

जेने, जेमां, जेनावडे, जेनाथी जे कर्म करवानुं विधान अथवा न करवानुं कह्युं तेणे ते प्रमाणे अनापत्तिना समयमां करवुं; ए कर्म बीजाए न करवुम् ॥६६॥

हे राजन्‌! उपर कह्यां ते तथा बीजा नहि कहेलां वेदोक्त कर्मवडे श्रीकृष्णमां भक्तिवाळो थईने माणस घरमां रह्या छतां उत्तम गतिने पामे छे ॥६७॥

हे नरदेव! श्रीकृष्णना आश्रयथी तमे न तरी शकाय तेवी आपत्ति तरी गया. वळी तमे जे श्रीकृष्णना चरणारविन्दनी सेवा करीने यज्ञ कर्या ते ज श्रीकृष्णनी भक्ति करो अने संसार पण एनी कृपाथी तरी जाओ ॥६८॥

हुं पहेंलाना जन्ममां आ पहेलान्ना महाकल्पमां गन्धर्वोनो मानीतो उपबर्हण नामनो गन्धर्व हतो ॥६९॥

रूप, सुकुमारता, मधुरता, सुगन्धयुकत अने प्रिय दर्शन तेम ज, स्त्रीने अत्यन्त [[३२५]] प्रिय होवाथी अत्यन्त लम्पट हतो ॥७०॥

एक वखते देवना यज्ञमां बधा गन्धर्वोने भगवाननां गीत गावामाटे निमन्त्रण हतुं तेमां प्रजापतिओनी साथे हुं पण भगवद्‌गुण गातो-गातो त्यां गयो. मारी साथे स्त्रीओ हती तेनाथी र्वीटाईने हुं गातो हतो तेमां प्रजापतिओए पोतानुं अपमान मान्युं अने मने शाप दीधो. एओ बोल्यो - ‘‘ते अमारुं अपमान कर्युं छे तेथी तुं शोभा वगरनो निर्द्रव्य था अने शुद्रपणाने प्राप्त था’’ ॥७१-७२॥

एटलुं कहेतां ज मारो दासीमां जन्म थयो. ए शूद्रजीवनमां पण ब्रह्मवादी ब्राह्मणोनी में सेवा करी तेथी एमना सत्सङ्गथी हुं पाछो ब्रह्माजीनो पुत्र थयो ॥७३॥

धर्मवडे आगळ वधतो सन्न्यासनी पदवीने पामे एवो अने पापने नाश करनार गृहस्थनो धर्म में तमने कह्यो ॥७४॥

आ लोकमां तमे बडभागी छो केमके तमारा घरमां साक्षात्‌ परब्रह्म परमात्मा मनुष्यनुं रूप धारण करी गुप्त रीते बिराजी रह्या छे. तेथी ज सम्पूर्ण जगतने पवित्र करी देनारा ऋषिमुनिओ फरी फरी एमनां दर्शन करवा दशेय दिशामान्थी तमारी पासे आव्या करे छे ॥७५॥

मोटाओए शोधवा योग्य केवळ सुखरूप, मोक्षसुखना अनुभवरूप, ए कृष्ण जे तमारा प्रिय सुहृद मामाना पुत्र अने तमारी आज्ञाने उठावनार छे ते ज आत्मा, पूज्य अने गुरु छे ॥७६॥

एना साक्षात्‌ स्वरूपने ब्रह्मादि देवो बुद्धिवडे खरेखरी रीते वर्णन करी शकता नथी. मौनथी, भक्तिथी अने शान्तिथी जेनी पूजा थई शके छे तेवा भकतना पति आ श्रीकृष्ण प्रसन्न हो ॥७७॥

श्रीशुकदेवजी कहे छे - देवर्षि नारदनुं प्रवचन साम्भळी युधिष्ठिर राजा अत्यन्त प्रसन्न थया अने प्रेमथी विह्‌वल बनी तेणे श्रीकृष्णनी अने नारदजीनी पूजा करी ॥७८॥

देवर्षि नारदजी! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अने राजा युधिष्ठिरनी विदाय लई अने तेमनी द्वारा सत्कार पामी त्यान्थी पधार्या. भगवान्‌ श्रीकृष्ण ज परब्रह्म छे ए साम्भळी युधिष्ठिरना आश्चर्यनी कोई सीमा ज न रही ॥७९॥

इति दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशाः प्रकीर्तिताः ॥ [[३२६]] देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचराः ॥८०॥

हे परीक्षित! ए प्रमाणे दक्षनी पुत्रीओना देव, असुर, मनुष्य वगेरे जुदां-जुदां वंशो में तमने कह्या. ए ज वंशोमां स्थावर जङ्गम जगत आखानी सृष्टि थई छे ॥८०॥

इति श्रीभागवत सप्तमस्कन्धमां (त्रीजा सदसद्वासना नामना त्रीजा प्रकरणनो पाञ्चमो) ‘‘वर्णाश्रमना साररूप धर्मनो सङ्ग्रह तथा मोक्षनुं लक्षण’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सप्तमस्कन्ध सम्पूर्ण पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌ । वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवा-मनोरथोना नामे वैष्णवो पासेथी भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

ईं उं ईं उं