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षष्ठस्कन्ध-पुष्टिलीला पुष्टि-पोषण अध्याय१९ नाम (रूप) ध्यान अर्चन अध्याय१-३ अध्याय४-१७ (कुल१४) अध्याय१८-१९ श्रवण कीर्तन स्मरण बाह्य आभ्यन्तर पञ्चज्ञानेन्द्रिय पञ्चकर्मेन्द्रिय चतुर्वृत्तिअन्तःकरण
५ + ५ + ४=१४ आ पहेला अध्यायमां विष्णुना दूतो नामनुं सामर्थ्य जणाववामाटे पापीने छोडावे छे पछी एनुं पाप जणाववाने तेओ धर्म वगेरेनुं लक्षण आपे छे. अजामिल पापात्मा हतो एम प्रसिद्ध छे. वास्तविक रीते तो एनो उद्धार करवानी प्रभुनी इच्छा हती तेथी ज. अजामिल भक्त हतो परन्तु एनो गर्व दूर करवामाटे एने परस्त्रीमां आसक्त कर्यो. ज्यारे विष्णुदूतो अने यमदूतो वच्चेनो संवाद एणे श्रवण कर्यो त्यारे एने भान थयुं. जो प्रभुने एनो उद्धार करवानी इच्छा न होत तो एने मृत्यु समये ‘‘नारायण’’ नामनो उच्चार पण करवानी [[१३०]] स्फुरणा न थवा देत. प्रभुए एने गर्वमुक्त करी अपनाव्यो ए ज प्रभुनो अनुग्रह के पुष्टि छे. गमे तेवा पापीनो प्रभु उद्धार करी शके. प्रभु विना बीजु कोण उगारे? (आ स्थळे समाधिभाषा नथी पण मतान्तरी भाषा छे. कारण के भक्तनो गर्व दूर करवा एनाथी पापाचरण कराववुं अने पछी अनुग्रहथी एनो उद्धार करवो एनो अनुभव व्यासजीने समाधिमां थयो नथी. केमके नामलीलानी स्वतन्त्रता छे तेथी आ भाग समाधिभाषा नथी पण मतान्तरी भाषा छे) पहेलुं नाम प्रकरण

अध्याय १

अजामिलनुं आख्यान निवृत्तिमार्गः कथित आदौ भगवता यथा । क्रमयोगोपलब्धेन ब्रह्मणा यदसंसृतिः ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - जे मार्गथी अनुक्रमे ब्रह्मानी प्राप्ति थईने ब्रह्मानी साथे मोक्ष थाय, तेवो निवृत्तिमार्ग आपे पहेलां (द्वितीय स्कन्धमां) यथार्थ रीते कह्यो छे ॥१॥

हे मुनि! जेथी स्वर्गादिक सुख मळे तेवो प्रवृत्तिमार्ग पण (तृतीय स्कन्धमां) कह्यो छे. आ प्रवृत्तिमार्गमां अविद्यावाळा पुरुषने वारंवार भोगने माटे देहनी प्राप्ति थया करे छे ॥२॥

अधर्मथी मळनारां अनेक नरको (पञ्चम स्कन्धमां) अने स्वायम्भुव मनुनो पहेलो मन्वन्तर पण (चोथा स्कन्धमां) कह्यो ॥३॥

प्रियव्रत तथा उतानपाद राजानो वंश, एमां थयेला राजाओनां चरित्रो, अने द्वीप, खण्ड, समुद्र वगेरे नदीओ, बगीचा तथा वृक्षो विशे पण (चोथा अने पाञ्चमां स्कन्धमां)वर्णन आवीगयाम् ॥४॥

विभाग, लक्षण अने प्रमाण सहित भूमण्डळनी स्थिति पण जेवी रीते परमेश्वरे करी छे ते प्रमाणे आप कही गया ॥५॥

हवे हे महाभाग! हवे हुं ते उपाय जाणवा मागुं छुं जे करवाथी मनुष्योने अनेक भयङ्कर यातनाओ वाळां नरकमां जवुं न पडे. कृपा करीने तेनो *उपदेश करो ॥६॥

विशेष - राजाए सर्ग, विसर्ग अने स्थान एम विराट्‌ भगवानना ध्यानना अङ्गभूत त्रण [[१३१]] लीलाओ श्रवण करी, तेमां स्थान लीलाना श्रवणमां भगवान्‌ प्राणीना कर्मने अनुसरी नरकादिमां स्थापन करे छे एम जाणीने पोते पण ब्राह्मणनी अवज्ञा करेली छतां तेनुं प्रायश्चित करेलुं न होवाथी ‘‘न ब्रह्मदण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च। नारकाश्चानुगृह्‌णन्ति यां-यां योनिमसौ गतः’’ ब्राह्मणना दण्डथी दग्ध थयेलो अने सर्वने भय पमाडनारो जे-जे योनिमां जाय ते-ते योनिमां पण तेने नरकना वासीओ पण महेरबानी बतावता नथी. इत्यादि वाक्योने अनुसरीने नरक यातना अवश्य भोगववी पडशे एम आशङ्का करीने तेथी भय पामीने पोतानो नरकथी उद्धार थवानो उपाय पूछे छे. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - माणस पाप करे छे मन, वाणी अने शरीरथी, ते जो एनुं बराबर प्रायश्चित (निवारण) आ ज जन्ममां न करे तो मरण पछी ए अवश्य नरकमां पडे छे, जे दारुण दुःखवाळां नरको विशे हुं तमारी पासे (पाञ्चमां स्कन्धना अन्तमां) कही गयो छुम् ॥७॥

एटलामाटे पापना निवारणनो यत्न मरतां पहेलां ज करवो जोईए. ए पण ज्यारे देहमां विपत्ति न होय त्यारे सावधान मनथी तुरत ज करवो जोईए. रोगनी गुरुता के लघुता जोई वैद्य जेम तेनी जलदी चिकित्सा करे तेम पापनी गुरुता-लघुता जोईने अनुकूळ आवे तेवुं प्रायश्चित्त करवुं जोईए ॥८॥

परीक्षिते पूछ्‌युं - भगवन्‌! राज्यदण्डादिक प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे, शास्त्रोनुं श्रवण करीने नरकपातादि उपरथी ए पापने दुश्मन तरीके जाणे छे, तो पण प्रायश्चित्त कर्या पछी पण पाछुं पाप वासनाओने विवश थई पाप करे छे, तो प्रायश्चित्त करवुं ए खरुं निवारण छे एम शी रीते कही शकाय? ॥९॥

पाप निर्मूळ तो थतुं नथी; निर्मूळ थतुं होय तो पाछुं उत्पन्न थवुं न जोईए. जेम हाथी नाह्या पछी पण धूळ नाखीने पोताना शरीरने मेलुं करे छे, तेम माणस पण एकवार प्रायश्चित्त करीने वळी पाछुं पाप करे छे. कर्ममार्गथी करेलुं प्रायश्चित्त हाथीना स्नान जेवुं छे, तेथी प्रायश्चित्तने हुं व्यर्थ मानुं छुं. (राजा पोते उत्तम अधिकारी होवाथी प्रायश्चित्त व्यर्थ छे एम शङ्का करे छे) ॥१०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - साचुं पूछो तो कृच्छ्र, चान्द्रायणादि प्रायश्चित्त रूप कर्मथी कर्मनो समूळगो नाश नथी थतो; कारण के कर्मनो अधिकारी अज्ञानी (भगवान्‌थी विमुख) अज्ञान होय त्यां सुधी पाप वासना सर्वथा दूर थई शकती नथी, तेथी साचुं प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ज छे ॥११॥

[[१३२]] जेम पथ्य अन्न खानारो माणस व्याधिनी हरकतथी नहि पीडातां स्वस्थ रहे छे तेम हे राजा! नियमो पाळनारो माणस पण रागद्वेषादिक निवृत्त थतां धीरे-धीरे कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान मेळववामां समर्थ थाय छे ॥१२॥

त्रिविध दुःख सहन करीने विधियुक्त एकादशी आदि उपवासो, ब्रह्मचर्य,१ मननो निग्रह, ब्राह्येन्द्रियोनो निग्रह, दान, सत्य, पवित्रता, अहिंसा वगेरे यम अने जप, अर्चन आदि नियमोथी श्रद्धावाळा अने धर्म जाणनारा धीर पुरुषो पोतानां देह, वाणी अने बुद्धिथी थयेलां मोटां पापने पण, जेम अग्नि वांसना समूहने बाळी नाखे तेम, बाळी२ नाखे छे ॥१३-१४॥

विशेष - १.स्त्रीनुं स्मरण, कीर्तन, क्रीडा, दर्शन, छानी वात करवी, सङ्कल्प करवो, निश्चय करवो अने सम्भोग करवो ए आठ प्रकारनुं मैथुन अने एथी ऊलटुं ते ब्रह्मचर्य कहेवाय छे.
२. तप वगेरे साधनो घणा वखत सुधी कर्या होय तो ज्ञानाग्नि सर्व पापोने बाळी नाखे छे; तथापि भस्म तो अवशेष रहे छे. तेम पाप पण थोडुं अवशेष रहे छे, ज्ञाननो तिरोभाव थवाथी फरीथी विषयासक्त थवाय छे तेथी बीजुं प्रायश्चित कहे छे. केटलाक भगवानने ज शरणे रहेनारा विरल पुरुषो जेम सूर्य झाकळनो नाश करी नाखे तेम एकली भक्तिथी ज पोताना सघळां पापोने नाश करी नाखे छे ॥१५॥

हे राजा! ज्ञानमार्गथी पण भक्तिमार्ग श्रेष्ठ छे. वैष्णवोनी सेवाथी भगवान्‌मां ज पोतानी इन्द्रियोने तत्पर राखनार माणस पापथी जेवो मुक्त थाय छे तेवो तप वगेरे करवाथी थतो नथी ॥१६॥

जगतमां आ भक्तिमार्ग ज सुखरूप होवाथी तथा विघ्नादिक भयथी रहित होवाथी घणो उत्तम छे. ए मार्गे दयाळु, कामना वगरना अने नारायणमां परायण रहेनार भगवद्भक्तो चाले छे ॥१७॥

हे राजा! जेम नदीओ मदिराना घडाने पवित्र करी शके नहि तेम वारंवार करातां मोटां-मोटां प्रायश्चित्तो भगवान्‌थी विमुख माणसने पवित्र करी शकतां नथी(पण भक्ति तो थोडी छतां पण पवित्र करे छे) ॥१८॥

जेओए पोताना भगवद्‌गुणानुरागी मन-मधुकरने भगवान्‌ श्रीकृष्णना चरणारविन्दना मकरन्दनुं एक वखत पण पान करावी दीधुं, एमणे बधां प्रायश्चित्त करी लीधां, तेओ स्वपनमां पण यमराज अने तेमना पाशधारी दूतोने नथी जोता पछी नरकनी तो वात ज शी? ॥१९॥

[[१३३]] आ विषयमां विष्णु अने यमना (यमनुं नाम साम्भळीने बधा लोको हरिनुं स्मरण करे छे) दूतोना संवादवाळो एक प्राचीन इतिहास महात्मा लोक कहेता होय छे, ते मारी पासेथी साम्भळो ॥२०॥

कनोज शहेरमां एक दासी (कलिनी शक्ति समजवी) नो *पति अजामिल नामनो ब्राह्मण हतो. दासीना संसर्गथी खराब थवाने लीधे एनो सदाचार नष्ट थई चूक्यो हतो. बान पकडवां, जुगार रमवो, ठगाई अने चोरी करवी वगेरेथी नीच आजीविका चलावतो अपवित्रताथी कुटुम्बनुं पोषण करतां ए अजामिल प्राणीओने त्रास आपतो ॥२१-२२॥

विशेष - अजामिलनो गर्व दूर करवा भगवाने एनी पासे पाप कराव्युं. आ दासी कलिनी शक्ति समजवी. ए प्रमाणे रहेता अने दासीना पुत्रोने लाड लडावता अजामिलना आयुष्यनां अठ्यासी वर्ष जेटलो लाम्बो काळ वीतीगयो ॥२३॥

ए बूढाने दश दीकरा हता तेमां जे सौथी नानो हतो तेनुं नाम नारायण हतुं, ते मा-बापने बहु ज प्यारो हतो ॥२४॥

वृद्ध अजामिले अत्यन्त मोहने लीधे पोतानुं सम्पूर्ण हृदय पोताना बालक नारायणने सोम्पी दीधुं हतुं. ते पोताना पुत्रनी बोबडी बोली साम्भळी-साम्भळी तथा बाल-सुलभ रमत जोई-जोईने फूल्यो समातो न हतो ॥२५॥

अजामिल बालकना स्नेह-बन्धनमां बन्धाई गयो हतो, ज्यारे ते खातो त्यारे तेने पण खवडावतो, ज्यारे पाणी पीतो त्यारे तेने पण पातो. आ प्रमाणे ते भानभूलाने ए वातनुं पण स्मरण न रह्युं के मारा माथे मृत्यु सवार थई चूक्युं छे ॥२६॥

ए प्रमाणे रहेनारा ए अज्ञानी अजामिलनुं मन मरण समये नारायण नामना छोकरानो विचार करवा लाग्युं. (छोकरानुं नाम नारायण हतुं तेना महिमाने लीधे ए छोकराने लाड लडावतो ए पण भक्तिरूप ज थयुं) ॥२७॥

एटलामां अजामिले जोयुं के अत्यन्त दारुण, वाङ्कामुखा अने ऊभा केशवाळा त्रण पुरुषो हाथमां पाश लईने पोताने लेवाने आवेला छे. अजामिल व्याकुळ थई गयो त्यारे एणे ऊञ्चा अने लाम्बा सादथी दूर रमता पोताना छोकराने बोलाव्यो, ‘नारायण!’ ॥२८-२९॥

भगवानना पार्षदोए जोयुं के आ मरती वखते अमारा स्वामी नारायणनुं [[१३४]] नाम लई रह्यो छे, एमना नामनुं कीर्तन करी रह्यो छे; तेथी तेओ झपाटाबन्ध त्यां आवी पहोञ्च्या ॥३०॥

एमणे जे यमदूतो ए दासीना पति अजामिलना शरीरमान्थी एना सूक्ष्म शरीरने खेञ्चता हता तेमने जोरावरीथी अटकाव्या ॥३१॥

अटकावेला ए यमना दूतोए एमने कह्युं के यमराजनी आज्ञानो निषेध करनार तमो कोण छो? ॥३२॥

तमो कोना दूत छो, क्यान्थी आव्या छो अने आने लई जवानी शामाटे मनाई करो छो? शुं तमे कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ छो? ॥३३॥

तमे सघळा कमळदल जेवी आङ्खोवाळां, पीळां रेशमी वस्त्रो धारण करनारा, मस्तक उपर किरीट पहेरनारा, कानोमां कुण्डळ पहेरनारा, गळामां कमळनी माळाओथी शोभता युवान अने सुन्दर चार भुजावाळा छो. धनुष्य, भाथा, तलवार, गदा शङ्ख, चक्र अने कमळ थी तमे शोभी रह्या छो. अमे धर्मनुं रक्षण करनार यमराजाना किङ्कर छीए तेमने तमे शामाटे मनाई करो छो? ॥३४-३६॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे यमदूतोनुं बोलवुं साम्भळी ए भगवानना आज्ञाकारी पार्षदो हस्या अने एमणे मेघना नाद सरखी गम्भीर वाणीथी नीचे प्रमाणे कह्युंः ॥३७॥

भगवानना पार्षदो बोल्या - जो तमे खरेखर धर्म राजाना आज्ञाकारी हो तो धर्मनुं जे लक्षण होय ते अमने कहो ॥३८॥

कया नियमथी शिक्षा करवामां आवे छे? दण्डने पात्र कोण छे? मनुष्यमां बधा पापाचारी दण्डने योग्य छे के तेओमान्थी केटलाक ज? ॥३९॥

यमदूतोए कह्युं - वेदे जे करवानी आज्ञा करेली होय ते ‘धर्म’; वेदे जे करवानी मनाई करी होय ते ‘अधर्म’ वेद साक्षात्‌ नारायणना निःश्वासथी पोतानी मेळे ज उत्पन्न थयेलां छे, एटलामाटे वेद साक्षात्‌ नारायण स्वरूप ज छे, एवुं अमे साम्भळ्युं छे ॥४०॥

ए नारायणे पोताना स्वरूपमां ज आ त्रिगुणमय प्राणीओने, शान्ति वगेरे गुणो, सुब्राह्मण वगेरे नामो, अध्ययन वगेरे क्रियाओ, अने वर्णाश्रम वगेरे रूपोथी व्यवस्थित रीते जुदां पाडेलां छे, ते नारायण वेद ज छे ॥४१॥

सूर्य अग्नि आकाश, वायु, गायो, चन्द्रमां, सन्ध्या, रात, दिवस, दिशाओ, [[१३५]] जळ, पृथ्वी, काळ अने धर्म जीव जे अधर्म करे छे तेना साक्षीओ छे ॥४२॥

आ साक्षीओद्वारा अधर्मनो पत्तो लागी जाय छे अने आम दण्डना पात्रनो निर्णय थई जाय छे. पाप कर्म करनाराओथी पुण्य पण थाय छे. अने पाप पण थाय छे, केमके एमने गुणोनो सङ्ग लागेलो छे. जो कोई अकर्ता होय तो एनाथी पाप न थाय. परन्तु, देहधारी तो कर्म कर्या वगर रहेतो ज नथी. कर्म करनारथी पाप पण अवश्य थाय छे.माटे सर्व प्राणीओ शिक्षाने योग्य छे. जे व्यक्तिए अर्ही जेटलो अने जेवो धर्म के अधर्म करेल होय ते मरण पछी परलोकमां तेटलुं अने तेवा प्रकारनुं फळ भोगवे छे ॥४४-४५॥

हे देवशिरोमणिओ! सत्त्व, रज अने तम आ त्रण गुणोना भेदथी आ लोकमां पण त्रण प्रकारनां प्राणीओ जोवामां आवे छे पुण्यात्मा, पापात्मा, अने पुण्य पाप बन्ने करनारां; अथवा सुखी, दुःखी अने सुख-दुःख बन्ने भोगवतां. ए ज प्रमाणे परलोकमां पण एमनी त्रिविधतानुं अनुमान करी शकाय छे ॥४६॥

जेम वर्तमानकाळनी वसन्तादिक ऋतु भूतकाळ सम्बन्धी वसन्तादिकना अने भविष्यकाळ सम्बन्धी वसन्तादिकना फूलफळ वगेरे गुणोने जणावे छे, एटले के वर्तमान वसन्त ऋतुमां जेवां फूलफळ देखाय छे तेवां ज भूत वसन्तमां हशे एवुं अनुमान थाय छे, तेवी रीते जे प्राणी वर्तमान जन्ममां शान्त, सुखी अने धार्मिक छे ते भूतजन्ममां अने भविष्य जन्ममां पण एवो ज थशे एवुं अनुमान थाय छे. वर्तमान जन्म उपरथी पण प्राणीओना गया जन्मनी अने थनारा जन्मनी परीक्षा थई शके छे ॥४७॥

धर्म-अधर्म जाणवानी आ रीत बीजाओमाटे छे. यमराजा तो पोतानी नगरीमां बेठा-बेठा जीवना पूर्वजन्मनी तेमज थनारा जन्मनी स्थितिने मनथी ज बराबर जाणी शके छे ॥४८॥

तमथी युक्त जीव व्यक्त देहने ज जाणी शके छे, केमके ए अज्ञानथी मोहित छे. एनी स्मृति नाश पामेली होय छे तेथी ए पूर्व-पर जन्मने जाणी शकतो नथी ॥४९॥

कर्म करवानी पाञ्च कर्मेन्द्रियो, पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो, ज्ञानेन्द्रियोथी जाणवाना पाञ्च विषयो, अने मन, ए सोळमां रहेलो पोते सत्तरमो एक ज ज्ञानेन्द्रिय अने एना विषयोने पामे छे ॥५०॥

जीवनुं आ सोळ कला अने सत्त्व वगेरे त्रण गुणवाळुं लिङ्गशरीर अनादि छे. ए [[१३६]] ज जीवने वारंवार हर्ष, शोक, भय अने पीडा देनारा जन्म-मृत्यु नां चक्करमां नाखे छे ॥५१॥

जे जीव अज्ञानवशात्‌ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आ छ शत्रुओ उपर विजय नथी मेळवी लेतो तेनी पासे एनी मरजी नहि छतां पण ए लिङ्गशरीर कर्म करावे छे. जीव पोते रेशमना कीडानी पेठे कर्मथी पोताना स्वरूपने ढाङ्की दईने पाछो एमान्थी नीकळवाने उपाय जाणतो नथी ॥५२॥

कोई प्राणी क्षण मात्र पण कर्म कर्या वगर कदी रहेतो नथी. पूर्व कर्मना संस्कारथी रागद्वेषादिक गुणो प्रकट थाय छे अने बळात्कारथी ए परतन्त्र जीवनी पासे कर्म करावे छे. एनां कर्मोने लीधे जीवने जुदा-जुदा देहो आवे छे ॥५३॥

जीव पोताना पूर्व जन्मोना पाप पुण्यमय संस्कारने लीधे स्थूल अने सूक्ष्म शरीर प्राप्त करे छे. एनी स्वाभाविक अने प्रबल वासनाओ क्यारेक एने माताना जेवो (स्त्रीरूप) छे तो क्यारेक पिताना जेवो (पुरुषरूप) बनावी दे ॥५४॥

प्रकृतिना संसर्गथी पुरुष पोताने पोताना वास्तविक स्वरूपथी विपरीत लिङ्ग शरीर मानी बेठो छे. आ मिथ्या ज्ञान भगवानना भजनथी तरत ज दूर थई जाय छे ॥५५॥

देवताओ! आप जाणो ज छो के आ अजामिल शास्त्रोनो सारो जाणकार हतो. शील, सदाचार अने सद्‌गुणोनो तो ए खजानो ज हतो. ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यपरायण मन्त्रवेत्ता अने पवित्र पण हतो ॥५६॥

तेणे गुरु, अग्नि, अतिथि अने वृद्ध पुरुषोनी सेवा करी हती. अहङ्कारनुं तो एनामां नाम पण न हतुं. ते बधां प्राणीओनुं हित इच्छतो, उपकार करतो, खप पूरतुं ज बोलतो अने कोईना गुणोमां दोष जोतो नहि ॥५७॥

एक दिवस आ ब्राह्मण पोताना पितानी आज्ञानुसार वनमां गयो अने त्यान्थी फल, फूल, समिध तथा कुश लईने घरे पाछो आव्यो ॥५८॥

पाछा वळतां तेणे जोयुं के एक भ्रष्ट शूद्र, जे घणो ज कामी अने निर्लज्ज छे ते शराब पीने कोई वेश्यानी साथे विहार करी रह्यो छे. वेश्या पण शराब पीने चकचूर बनी रही छे. नशाने लीधे एनी आङ्खो नाची रही छे अने तेनी स्थिति अर्धनग्न थई रही छे. ते शूद्र ते वेश्यानी साथे क्यारेक गातो, क्यारेक हसतो अने क्यारेक तरहतरहनी चेष्टा करी तेने प्रसन्न करे छे ॥५९-६०॥

[[१३७]] शूद्रनी भुजाओमां अङ्गरागादि कामोद्वीपक वस्तुओ लगाडेली हती अने तेनाथी ते कुलटाने आलिङ्गन करी रह्यो हतो. तेने आ अवस्थामां देखी अजामिल एकदम मोहित अने कामवश थई गयो ॥६१॥

एणे धैर्य अने ज्ञानवडे पोताना मनने रोकवानो खूब प्रयत्न कर्यो, पण कामदेवे एना मनने एवुं विह्‌वल बनाव्युं हतुं के एने काबूमां राखी शक्यो नहि ॥६२॥

ए शूद्र अने वेश्याने जोवाथी एने कामदेवरूपी झूडे पकड्यो हतो तेथी ए स्मृतिभ्रष्ट थयो अने मनथी ए वेश्यानुं ज चिन्तन करवा लाग्यो अने स्वधर्म पाळतो अटक्यो ॥६३॥

एनी पासे बापनुं जेटलुं धन हतुं ते सघळुंये आपीने ते एने ज राजी करवा लाग्यो, एटलुं ज नहि पण एना मनने गमे तेवा सारा-सारा पदार्थ आपीने तेने जेम-तेम करी राजी करवा लाग्यो ॥६४॥

आ अजामिल ए पापी अने कुलटानी तीरछी नजरथी एवो र्वीधाई गयो हतो के एणे पोतानी ब्राह्मण जातिनी कुळवान नवयुवती विवाहिता स्त्रीनो पण त्याग कर्यो ॥६५॥

न्याय के अन्यायथी ज्यां त्यान्थी धन लावीने आ मन्दबुद्धिवाळा अजामिले आ वेश्याना ज कुटुम्बनुं पोषण कर्युम् ॥६६॥

आ पापीए शास्त्रोनी आज्ञानोनुं उल्लङ्घन करी स्वच्छन्द आचरण कर्युं छे. सत्पुरुषोए तेनी निन्दा करी छे. घणा दिवसो सुधी वेश्याना मळ समान अपवित्र अन्नथी तेणे पोतानुं जीवन वीताव्युं छे, एनुं आखुं आयुष्य ज पापमय छे ॥६७॥

तत एनं दण्डपाणेः सकाशं कृतकिल्बिषम्‌। नेष्यामोऽकृतनिर्वेशं यत्र दण्डेन शुद्‌ध्यति ॥६८॥

अत्यार सुधी तेणे करेलां पापोनुं प्रायश्चित्त पण नथी कर्यु. तेथी हवे अमे आ पापीने दण्डपाणि भगवान्‌ यमराजनी पासे लई जईशुं. त्यां पोतानां पापोनो दण्ड भोगवी शुद्ध थई जशे ॥६८॥

इति श्रीभागवत षष्ठ स्कन्धमां (पहेला नाम प्रकरणमां वृत्तान्त श्रवण निरूपण नामनो) ‘‘अजामिलनुं आख्यान’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१३८]]

अध्याय २

नामनो महिमा

विशेष - आ बीजा अध्यायमां विष्णुना पार्षदोए यमना दूतोने भगवानना नामनो अद्‌भुत महिमा कह्यो अने अजामिलने फळ (मोक्षनी) प्राप्ति थई ए कथा कहेवामां आवशे. एवं ते भगवद्‌दूता यमदूताभिभाषितम्‌ ॥ उपाधार्याथ तान्‌ राजन्‌ प्रत्याहुर्नयकोविदाः ॥१॥

शुकदेवजीए कह्युं - ए भगवानना दूतो न्याय तथा धर्मना मर्मने जाणनारा छे. एमणे ए प्रमाणे यमना दूतोनुं भाषण साम्भळी एमने आम कह्युम् ॥१॥

श्रीविष्णुना दूतो बोल्या - अहो! अफसोस छे के न्याय करनाराओनी सभाने अधर्मे अभडावी दीधी छे, केमके ए सभामां शिक्षाने योग्य नहि तेवा निष्पाप लोकोने वृथा शिक्षा करवामां आवे छे ॥२॥

न्यायाधीशो प्रजानां माता-पिता तुल्य छे; एओ सज्जन अने समदृष्टि राखनारा होवा जोईए. जो ए लोको निरपराधीने शिक्षा करवा लागे तो प्रजाए कोने शरणे जवुं? ॥३॥

मोटा पुरुषो जे काम करे छे ते प्रमाणे बीजाओ पण करे छे; मोटा पुरुषो जे वातने प्रमाणे माने तेने बीजाओ पण माने छे ॥४॥

आम जनता पशुओनी माफक धर्म अने अधर्म ना स्वरूपने जाण्या विना कोई सत्‌ पुरुष उपर विश्वास मूकी दे छे. एनी गोदमां माथुं ढाळी दई निर्भय अने निश्चिन्त सूई जाय छे ॥५॥

लोकोना विश्वास पात्र दयाळु न्यायाधीश जेओ अज्ञानपणे भरोसाथी पोताना शरीरने सोम्पी बेठेला होय तेमनो द्रोह तो केम ज करे? ॥६॥

यमदूतो, आ अजामिल करोडो जन्मोनां पापोनुं पण प्रायश्चित्त करी चूक्यो छे केमके महामङ्गलरूप भगवाननुं नाम एणे लीधुं छे. भलेने पछी ते विवश थईने होय* ॥७॥

विशेष - ‘‘यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु, न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्‌’’. जेनुं स्मरण करवाथी अने नाम उच्चारवाथी तप, यज्ञ अने क्रियाओ वगेरेमां जे न्यूनता रही जाय ते पूर्ण थाय छे तेवा अच्युत भगवानने हुं नमुं छुं. आ वाक्य कर्मनी [[१३९]] पूर्ति भगवानना नामथी बतावे छे पण पापनी निवृत्ति कहेतुं नथी, एम शङ्का करवी नहि, कारण के शास्त्रमां - ‘‘अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः, पुमान्‌ विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्तमृगैर्यथा’’ पर वश थईने पण जो माणस भगवाननुं नाम ले तो, सिंहना त्रासथी वनमान्थी जेम मृगो नासी जाय छे, तेम एनां सर्व पाप निवृत्त थाय छे; वगेरे वाक्योथी प्रायश्चित्त कह्युं छे. वळी ‘‘नाम्नोस्ति यावती शक्तिः पापनिर्हरणे हरेः, तावत्‌ कर्तुं न शक्‌नोति पातकं पातकी जनः’’ भगवानना नाममां पाप दूर करवानी जेटली शक्ति छे तेटलुं पाप पापी करी शकतो ज नथी वगेरे वाक्यो पापनिवृत्तिमां प्रमाण छे. जे वखते ‘हे नारायण’, ए चार अक्षरवाळुं भगवाननुं नाम ते बोल्यो ते ज वखते, एटलाथी ज आ पापीनां समस्त पापोनुं निवारण थई चूक्युम् ॥८॥

चोर, मदिरा पीनार, मित्रनो द्रोह करनार, ब्रह्महत्या करनार, सावकी मानो सङ्ग करनार, स्त्री, राजा, पिता अने गाय ने मारवावाळो गमे तेवो अने गमे तेवडो मोटो पापी होय, बधाने माटे आ ज आटलुं ज सौथी मोटुं प्रायश्चित्त छे के भगवान्‌ नामनुं उच्चारण करवामां आवे, कारण के भगवन्‌ नामोना उच्चारणथी मनुष्यनी बुद्धि भगवानना गुण, लीला अने स्वरूपमां लागी जाय छे अने स्वयं भगवाननी एना प्रत्ये आत्मीय बुद्धि थई जाय छे ॥९-१०॥

भगवाननुं नाम लेवाथी जेवी पापीनी शुद्धि थाय छे तेवी शुद्धि महात्माओए कहेलां चान्द्रायणदिक प्रायश्चित्तोथी पण थती नथी. भगवाननुं नाम पाप मटाडवा उपरान्त भगवानना गुणने पण जणावनारुं छे ॥११॥

प्रायश्चित्त पापोनां मूळने मटाडतां नथी. प्रायश्चित्त कर्या पछी मन पाछुं पापना मार्गमां दोडे छे. एटलामाटे पापोनो समूळगो नाश करवानी इच्छा धरावनाराओने माटे तो भगवानना गुणोनुं वर्णन ज प्रायश्चित्त छे केमके भगवानना गुणोनुं वर्णन करवाथी अन्तःकरण शुद्ध थाय छे ॥१२॥

तो हवे सघळां पापोनुं प्रायश्चित्त करनार अजामिलने तमे लई जाओ नहि केमके मरती वखते तेणे पूरा अक्षरथी भगवाननुं नाम लीधुं (भगवाननुं नाम करवा समये लेवानुं कह्युं. तेथी पाछळथी बीजा पाप थवानो सम्भव नथी एम जणाव्युं छे) छे ॥१३॥

सङ्केतथी, पुत्रादिकनां नाम उपरथी, मश्करीथी, गावानो आलाप करतां अथवा गाळ दईने पण भगवाननुं नाम लेवाय तो ए नाम सघळां पापोने मटाडे छे एवो [[१४०]] सिद्धान्त छे ॥१४॥

पडतां, ठेस वागतां, हाडकां भाङ्गतां, सर्प वगेरे करडतां, ताव वगेरेनी पीडा थतां, अथवा आगमां बळतां अथवा लाकडी वगेरे वागतां पण जे माणस पर वश पणाथी भगवाननुं नाम ले छे ते यमपुरीनां कष्ट भोगववाने योग्य नथी ॥१५॥

खूब विचार करीने मोटा ऋषिओए मोटा पापोने माटे मोटां अने नानां पापोने माटे नानां एवां प्रायश्चित्त करवानी व्यवस्था करी छे, परन्तु भगवाननां नामने ए व्यवस्था लागु पडती नथी ॥१६॥

तप, दान, जप वगेरेथी करेलां पापोनुं प्रायश्चित्त थाय छे पण पापोथी मलिन एनुं हृदय पवित्र थतुं नथी ए तो प्रभुना चरणकमळनी सेवाथी ज थाय छे ॥१७॥

जेम जाणे के अजाणे अग्निनो स्पर्श इन्धनने थई जाय तो पण ए काष्ठना समूहने बाळी नाखे छे, तेम जाणतां के अजाणतां लेवायेलुं भगवाननुं नाम माणसनां सघळां पापने बाळी नाखे छे* ॥१८॥

विशेष - ‘‘हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः, अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः’’ भगवानने दुष्ट हृदयनां माणसो सम्भारे तो पण ए पापोनुं हरण करे छे, जेम इच्छा विना अग्निने स्पर्श कर्यो होय तो पण ए बाळे छे. वळी ‘‘आश्चर्यथी, भयथी, दुःखथी, शरीरमां वागी जवाथी के कपटथी पण जे भगवाननुं नाम ले छे, ते पण परम गति पामे छे’’. ‘‘अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा, यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः’’ ‘‘अपवित्र होय, पवित्र होय, के गमे ते स्थितिमां होय पुण्डरीकाक्ष भगवाननुं नाम लेवाथी बहार अने अन्दरथी पवित्र थाय छे’’. हे राजन्‌! भगवाननुं नाम लेवामां देशनो के काळनो नियम नथी. यज्ञमां, दानमां, तीर्थ स्नानमां अथवा विधिपूर्वक जपमां शुद्ध काळ आवश्यक छे पण भगवन्नामना कीर्तनमां काळ शुद्धिनी कोई आवश्यकता नथी. चालतां, ऊभा रहेतां, सूतां, खातां, पीतां, ‘कृष्ण कृष्ण’ एम बोलनार पापथी छूटे छे. वगेरे अनेक वाक्यो नामनुं माहात्म्य प्रतिपादन करे छे. जेम कोई अत्यन्त जोरूका (शक्ति शाळी) अमृतने तेनो गुण जाण्या वगर अणजाणमां पी ले तो पण ते अवश्य पीनारने अमर बनावी दे छे, तेवी ज रीते अजाणे उच्चारण करवा छतां भगवाननुं नाम पोतानुं फल दईने ज रहे छे.(वस्तुशक्ति श्रद्धानी अपेक्षा नथी राखती) ॥१९॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! एवी रीते ए विष्णुना पार्षदोए भगवान्‌ [[१४१]] सम्बन्धी धर्मनो निर्णय करी ए अजामिल ब्राह्मणने यमदूतना पाशथी छोडावतां मरणथी पण छोडाव्यो ॥२०॥

हे शत्रुने वश करनार! भगवानना दूतोए यमना जे दूतोने काढी मूकेला तेओ यमराजनी पासे गया अने एमने सघळी हकीकत कही ॥२१॥

ए अजामिल, जे पाशमान्थी छूट्यो हतो अने निर्भय थई स्वस्थतामां आव्यो हतो, ते दर्शनथी परम आनन्द पामी भगवानना पार्षदोने मस्तक झुकावी पगे लाग्यो ॥२२॥

निष्पाप परीक्षित! एने कांई बोलवानी इच्छा थई छे एम जाणी भगवानना पार्षदो अजामिलना देखतां तुरत अन्तर्धान थई गया ॥२३॥

एणे यमना दूतो पासेथी वेदमां प्रति पादन करेलो सगुण (प्रवृत्ति विषयक) धर्म अने भगवानना पार्षदो पासेथी भगवाने प्रतिपादन करेलो शुद्ध निर्गुण धर्म साम्भळ्यो हतो. आवी रीते भगवानना महिमानुं श्रवण करवाथी अजामिलने तुरत भगवान्‌मां भक्ति उत्पन्न थई अने पोतानुं पाप सम्भारीने भारे पश्चात्ताप थयोः ॥२४-
२५॥

(अजामिल मनमान्ने मनमां विचारवा लाग्यो) ‘‘ओहो! मनने नहि जीतनार एवा में भारे भूण्डुं कर्युं. शूद्र जातिनी स्त्रीमां सन्तान उत्पन्न करीने में मारुं ब्रह्मत्व गुमाव्युम् ॥२६॥

सत्‌ पुरुषोवडे तिरस्कारने पात्र बनेला पापी अने कुळमां काजळरूप एवा मने धिक्कार हो. में नानी अवस्थानी पतिव्रता स्त्रीनो त्याग कर्यो. में मदिरा पीनारी आ व्यभिचारीणीमां गमन कर्युम् ॥२७॥

अहो! में वृद्ध अनाथ, दुःखित अने जेमने बीजो कोई पुत्रादिक नथी तेवां माबापने नीचनी पेठे त्यजी दीधां अने एमना उपकारने सम्भार्या पण नहि ॥२८॥

खरे! हुं महादारुण नरकमां जरूर पडीश. नरकमां धर्मनो नाश नरनारा कामी लोको अनेक यातनाओ भोगवे छे ॥२९॥

अहो! आ ते मने स्वपन थयुं के आ अद्‌भुत वात में जागतां दीठी? ॥३०॥

जे सुन्दर दर्शनवाळा लोकोए मने पाशथी बान्धीने नरकमां लई जवातां छोडाव्यो, ते चार सिद्ध पुरुषो कयां गयां? ॥३१॥

जो के आ जन्ममां हुं दुर्भागी अने पापी छुं, तो पण पूर्व जन्मनुं कांईक मोघुं [[१४२]] पुण्य होवुं जोईए, नहितर ए मोटा देवोनुं दर्शन के जेनाथी मारुं अन्तःकरण निर्मळ थयुं, ते केम ज थाय? पूर्व जन्मनुं पुण्य न होय तो हुं, जे अपवित्र दासीनो पति छुं, तेथी जीभमान्थी भगवाननुं नाम नीकळवुं ज सम्भवे नहि; महाकपटी, पापी, ब्रह्मत्वने खोई बेठेलो अने निर्लज्ज हुं कयां अने महामङ्गळरूप भगवाननुं ‘नारायण’ नाम कयां? (खरेखर, हवे तो हुं कृतार्थ ज थई गयो). हवे चित्त, इन्द्रिय तथा प्राण वायुने जीतीने हुं एवो यत्न करीश के जेथी मारो आत्मा फरीवार महामोहमां डूबे नहि ॥३२-३५॥

हुं अविद्या, तृष्णा अने कर्मथी उत्पन्न थयेलां आ बन्धनने तोडी नाखीश अने सर्व प्राणीओ प्रत्ये स्नेही, शान्त, दयावान, मित्रतावाळो अने संयमी थईने स्त्रीरूपी भगवाननी माया, जे आत्माने गळी गई छे, तेमान्थी मुक्त थईश. ए स्त्रीए मने क्रीडामृगनी पेठे खराब रीते नचावेलो छे. साची वातमां ध्यान राखी देहादिकमां ‘‘हुं अने मारुं’’ एवा अर्थ भाववाळी बुद्धिने छोडी दई, हुं भगवाननां कीर्तनादिकथी शुद्ध थयेला मारा मनने भगवान्‌माञ्ज लगावीश’’ ॥३६-३८॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे साधु पुरुषोना क्षण मात्रना सङ्गथी अजामिलने परम वैराग्य उत्पन्न थयो अने ए पुत्रादिकना स्नेहरूप सर्व बन्धनमान्थी छूटो पडी हरिद्वारमां गयो ॥३९॥

ए हरिद्वार देवलोकना स्थानकरूप छे. त्यां बेसीने तेणे योगमार्गनो आश्रय कर्यो अने तमाम इन्द्रियोने विषयोमान्थी हटावी, मनमां लीन करी अने मनने बुद्धिमां लीन करी दीधुम् ॥४०॥

त्यारबाद आत्मचिन्तनद्वारा तेणे बुद्धिने विषयोथी अलग करी दीधी तथा भगवानना धाम अनुभव स्वरूप परब्रह्ममां जोडी दीधी ॥४१॥

आ प्रमाणे ज्यारे अजामिलनी बुद्धि विगुणमयी प्रकृतिथी पर थई जई भगवानना स्वरूपमां स्थिर थई गई त्यारे तेणे जोयुं के तेनी सामे ए ज चारेय पार्षद, जेमने तेणे पहेलां जोया हता, ऊभा छे. अजामिले मस्तक नमावी तेमने प्रमाण कर्या ॥४२॥

पार्षदोनुं दर्शन कर्या पछी गङ्गाजीमां अजामिलनो देह छूटी गयो अने एने तुरत भगवानना पार्षदोना जेवुं ज रूप प्राप्त थयुं. पछी ए भगवानना पार्षदोनी साथे सुवर्णना विमानमां बेसी आकाशमार्गे ज्यां लक्ष्मीजीना पति नारायण रहे छे [[१४३]] ते वैकुण्ठमां गयो ॥४३-४४॥

परीक्षित, अजामिल दासीनो सहवास करी तमाम धर्म-कर्म नो नाश करनार हतो, ते तेना निन्दित कर्मने कारणे पतित थई गयो हतो. नियमोथी भ्रष्ट थई जवाथी तेने नरकमां नाखवामां आवी रह्यो हतो. पण भगवानना एक नामनो उच्चार करवा मात्रथी ते तेमान्थी तत्काल मुक्त थई गयो ॥४५॥

जे लोको आ संसार बन्धनमान्थी मुक्ति इच्छे छे. एमनेमाटे, पोताना चरणोना स्पर्शथी तीर्थोने तीर्थ बनाववावाळा भगवानना नामथी चडियातुं कोई बीजुं साधन नथी; कारण के नामनो आश्रय लेवाथी मनुष्यनुं मन फरी कर्ममां लागतुं ज नथी. भगवानना नाम सिवाय बीजा कोई प्रायश्चित्तनो आश्रय लेवाथी मन रजोगुण अने तमोगुण थी ग्रस्त ज रहे छे तथा पापोनो पूरेपूरो नाश पण नथी थतो॥४६॥

जे माणस आ परम गुह्य, पापोने मटाडनार इतिहासने श्रद्धा सहित साम्भळे अने भक्तिथी कही सम्भळावे, तो भले ए पापी होय तो पण नरकमां क्यारेय जतो नथी. यमराजना दूतो तो आङ्ख ऊञ्ची करी तेनी सामे पण जोई शकता नथी. तेनुं जीवन भले पापमय होय, वैकुण्ठमां एनी पूजा थाय छे ॥४७-४८॥

म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन्‌ पुत्रोपचारितम्‌। अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः श्रद्धया गृणन्‌ ॥४९॥

मरती वखते अजामिले पुत्रना बहाने भगवाननुं नाम लीधुं तो पण ए भगवानना धामे पहोञ्ची गयो; त्यारे जो श्रद्धाथी भगवाननुं नाम लेवामां आवे तो ए नाम लेनार माणस भगवानना धामने पामे एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥४९॥

इति श्रीभागवत्‌ षष्ठस्कन्धमां (पहेला नाम प्रकरणमां नाम कीर्तन निरूपण नामनो) ‘‘नामनो महिमा’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘दाने हि न स्वविनियोगः’’ प्रभुने दान-भेटस्वरूपे अर्पण करेल वस्तु देवद्रव्य बनी जाय छे. देवद्रव्यनो उपयोग (प्रसाद स्वरूपे पण) पोतानाथी करी शकातो नथी. परन्तु पोताना माथे बिराजता प्रभुनी सेवामां समर्पित कराती वस्तु देवद्रव्य बनती नथी तेथी महाप्रसाद तरीके पोताना उपयोगमां लई शकायछे. (नवरत्न, श्रीप्रभुचरणकृत विवृ.पर श्रीपुरुषोत्तमजीनी विवृति) अध्याय-२,

ईं उं ईं उं

षष्ठस्कन्ध १४४

अध्याय ३

यमराजाए कहेलो सिद्धान्त

विशेष - आ त्रीजा अध्यायमां यमराजाए भक्तिमार्गमां थता सन्देह मटाडीने कहेलो सिद्धान्त कहेवाशे. निशम्य देवः स्वभटोपवर्णितं प्रत्याह किं तान्‌ प्रति धर्मराजः ॥ एवं हताज्ञो विहतान्मुरारेः नैदेशिकैर्‌ यस्य वशे जनोऽयम्‌ ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - भगवन्‌ बधा जीव देवाधिदेव धर्मराजने वश छे अने भगवानना पार्षदोए एमनी आज्ञानो भङ्ग कर्यो तथा तेना दूतोए यमपुरीमां जई एमने अजामिलनुं वृत्तान्त कही सम्भळाव्युं, त्यारे ते बधुं साम्भळीने तेमणे पोताना दूतोने शुं कह्युं? ॥१॥

हे महाराज! यमराजानी आज्ञानो भङ्ग कोई ठेकाणे पण थयो होय एवुं में साम्भळ्युं नथी; एटलामाटे आ बाबतमां लोकोने संशय थशे, तो ए संशय आप विना बीजो कोई दूर न करी शके एवो मारो निश्चय छे ॥२॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! भगवानना पार्षदोए जेमनो प्रयत्न निष्फल बनाव्यो छे, तेवा यमदूतोए पोताना यमपूरीना स्वामी यमराजाने नीचे प्रमाणे विज्ञप्ति करी ॥३॥

यमदूतोए कह्युं - हे प्रभु! सात्त्विक, राजस अने तामस (अथवा पाप, पुण्य अने मिश्र) कर्म करनारा जीवलोकने कर्मनां फळ आपनार न्यायधीशो आ जगतमां केटला छे? ॥४॥

जगतमां जो दण्ड देनारा शासको घणा होय तो कोने सुख मळे अने कोने दुःख एनी व्यवस्था एक सरखी न होई शके ॥५॥

कर्म करनारा घणा लोकोना शासको पण घणा होय तो पछी तेमनुं शासकपणुं नाम मात्रनुं ज रहे, जेवी रीते एक सम्राटने आधीन घणा नाम मात्रना सामन्त होय छे ॥६॥

तेथी अमे तो एम समजीए छीए के एकला आप ज बधां प्राणीओ अने तेमना स्वामीओना पण अधीश्वर छो. आप ज मनुष्योनां पाप अने पुण्यना निर्णायक, दण्ड देनारा अने शासक छो ॥७॥

[[१४५]] प्रभो! अत्यार सुधी संसारमां क्याय पण आपे नक्की करेल दण्डनी अवगणना थई नहोती; पण हमणां चार अद्‌भुत सिद्ध पुरुषोए आपनी आज्ञानुं उल्लङ्घन करी दीधुं छे ॥८॥

अमे पापी अजामिलने तमारी आज्ञाथी नरकमां लावता हता त्यां ए चार सिद्धोए बळात्कारथी अमारा पाश कापी नाखी एने छोडाव्यो ॥९॥

ए वात जाणवा जो अमे अधिकारी होईए तो ए कोण हता ए अमे जाणवा इच्छीए छीए. अजामिल ‘नारायण’ एटलुं बोल्यो, त्यां तो ‘‘बीश नहि, बीश नहि’’ एम बोलता एओ तुरत ज त्यां आवी पहोञ्च्या ॥१०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे दूतोए पूछ्‌युं त्यारे प्रजाओने शिक्षा करनार भगवान्‌ यमराजा प्रसन्न थई भगवानना चरणारविन्दनुं स्मरण करता कहेवा लाग्या ॥११॥

यमराजाए कह्युं - स्थावर अने जङ्गमनो स्वामी माराथी जुदो ज छे. ब्रह्मा, विष्णु अने रुद्र ए एना अंशरूप छे अने एमनावडे आ जगत्‌नां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय थाय छे. सर्व लोको नाकमां नाथेला बळदनी पेठे ए ईश्वरने वश छे. सर्वना स्वामी ए परमेश्वरमां तान्तणामां लूगडान्नी पेठे आ आखुं जगत ओतप्रोत थई रह्युं छे ॥१२॥

जेवी रीते खेडूत पोताना बळदोने पहेलां नानी-नानी रस्सीओमां बान्धी पछी ए रस्सीओने एक जाडां दोरडाम्मां बान्धी दे छे, तेवी ज रीते जगदीश्वर भगवाने पण ब्राह्मण वगेरे वर्ण अने ब्रह्मचर्य वगेरे आश्रमरूपी नामनी नानी- नानी रस्सीओमां बान्धी पछी बधां नामोने वेदवाणीरूप जाडां दोरडामां बान्धी राख्यां छे. आ प्रमाणे बधा जीव नाम अने कर्मरूप बन्धनमां बन्धायेला भयभीत थई एने ज पोतानुं सर्वस्व भेट करी रह्या छे ॥१३॥

हुं, इन्द्र, निऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शिव, पवन, सूर्य, ब्रह्मा, बारेय आदित्य, विश्वेदेवता, आठ वसु, साध्य, ओगणपचास मरुत्‌, सिद्ध, अगियार रुद्र अने बीजा भृगु वगेरे प्रजापतिओ अने देवोना स्वामीओ जेओने रजोगुण अने तमोगुण नो स्पर्श पण नथी अर्थात्‌ जेमनामां सत्त्वगुण प्रधान छे तेओ पण मायाने अधीन होवाने लीधे ए परमेश्वर क्यारे, शुं, केवी रीते करवा मागे छे ते जाणी शकता नथी त्यारे बीजानी तो वात ज शी? ॥१४-१५॥

[[१४६]] जेवी रीते घट, पट आदि रूपवान पदार्थ पोताना प्रकाशक नेत्रने जोई शकता नथी तेम प्राणीओ पण ए परमेश्वर, जे सर्व जीवोना अन्तर्यामी अने द्रष्टा छे, तेने इन्द्रियोथी, मनथी, प्राणथी, हृदयथी के वाणीथी जाणी शकतां नथी ॥१६॥

स्वतन्त्र, सर्वोत्कृष्ट, महात्मा अने माया ना अधिपति एवा ए परमेश्वर भगवानना मनोहर पार्षदो जगतमां फरे छे, तेओनां रूप, गुण अने स्वभाव घणुं करीने भगवानना जेवां ज होय छे ॥१७॥

देवो जेमनी पूजा करे छे तेवा ए महा अद्‌भूत भगवानना पार्षदो के जेमनुं दर्शन थवुं ज घणुं दुर्लभ छे तेओ भगवाननी भक्ति करनारा मनुष्योनुं शत्रुओथी, माराथी अने अग्नि वगेरे उपद्रवोथी पण रक्षण करे छे ॥१८॥

स्वयं भगवाने ज धर्मनी मर्यादानुं निर्माण कर्युं छे, तेने ऋषिओ जाणता नथी. देवता अथवा सिद्धगण पण जाणता नथी तो पछी आवी स्थितिमां मनुष्यो, असुरो, विद्याधरो अने चारणो वगेरे तो क्यान्थी जाणे? ॥१९॥

ब्रह्माजी, नारदजी, सदाशिव, सनत्कुमार, कपिलमुनि, मनु, प्रह्‌लाद्‌, जनकराजा, भीष्मपितामह, बलिराजा, शुकदेवजी अने अमे (विशेष - भगवाननी भक्ति होवाथी पोताने भाग्यशाळी मानीने ‘अमे’ एम बहुवचन आपेलुं छे.) (धर्मराज) ए बार व्यक्ति ज गुप्त, शुद्ध अने घणा परिश्रमथी जणाय तेवा भगवद्‌धर्मने जाणीए छीए के जे धर्मने जाणवाथी मुक्ति थाय छे ॥२०-२१॥

नाम कीर्तन वगेरेथी भगवाननी भक्ति करवी, ए ज आ लोकमां मनुष्योनो सर्वोत्तम धर्म छे ॥२२॥

हे पुत्रो! भगवानना नामना उच्चारणनुं माहात्म्य (आ विषय तमोए प्रत्यक्ष जोयेलो छे तेथी एमां बीजुं प्रमाण आपवानी जरूर नथी, एम कहे छे.) तो जुओ; एनाथी अजामिल जेवो पापी पण काळना पाशमान्थी छूटी गयो ॥२३॥

भगवानना गुण, लीला अने नामोनुं सारी रीते करायेल कीर्तन मनुष्योना पापोनो सर्वथा विनाश करी नाखे ए कोई एनुं बहु ज मोटुं फल नथी; कारण के अत्यन्त पापी अजामिले मरती वखते चञ्चल चित्तथी पोताना पुत्रना नाम ‘नारायण’ नो उच्चार कर्यो, आ नामना आभास मात्रथी एनां बधां पाप तो बळी गयां, मुक्तिनी पण प्राप्ति थई गई ॥२४॥

मोटा-मोटा विद्वानोनी बुद्धि क्यारेक भगवाननी मायाथी मोहित थई जती [[१४७]] होय छे. तेओ कर्मोनां मीठा-मीठा फलोनुं वर्णन करनारी अर्थवादरूपी वेदवाणीमां ज मोहित थई जाय छे अने यज्ञयागादि मोटां-मोटां कर्मो करवामां ज रच्या-पच्या रहे छे तथा आ सुगममां सुगम, सहेलामां सहेलो भगवद्‌ नामनो महिमा जाणता नथी ए केटला अफसोसनी वात छे ॥२५॥

जेओ बुद्धिमान मनुष्यो छे तेओ तो आवा विचारथी सर्व प्रकारथी भगवाननी भक्तिरूप ज उपाय करे छे. ए माणसो मारा तरफथी शिक्षाने योग्य ज नथी केमके पहेली वात तो ए के तेओ पाप करता ज नथी, परन्तु जो कदाचित्‌ संयोगवश कोई पाप थई पण जाय तो भगवाननुं गुणगान तेनो तत्काल नाश करी दे छे ॥२६॥

जे समदृष्टिवाळा साधु पुरुषो भगवानने ज पोताना साध्य अने साधन मानी तेमना उपर निर्भर होय तेमनी पवित्र कथाओने देवो अने सिद्ध लोको पण गाय छे. तेमनी रक्षा भगवाननी गदा-सदा करती ज रहे छे तेमनी पासे पण तमारे भूल्ये चूक्ये पण जवुं नहि केमके एमने शिक्षा करवाने हुं के काळ पण समर्थ नथी ॥२७॥

भगवाननां चरणकमळना मकरन्दरूपी रसने जे निष्िङ्कचन अने रसज्ञ परमहंस लोको निरन्तर सेवे छे तेनाथी जेओ विमुख होय अने नरकना मार्गरूपी घरमां तृष्णा बान्धी बेठेला होय, तेवा दुष्ट लोकोने ज अर्ही लावजो ॥२८॥

जेमनी जीभ भगवानना गुणनुं उच्चारण करती न होय, जेमनुं चित्त भगवाननां चरणारविन्दनुं स्मरण करतुं न होय, जेमनुं मस्तक एकवार प्रभु चरणमां नमतुं न होय तेमने अर्ही लावजो ॥२९॥

आज मारा दूतोए भगवानना पार्षदोनो अपराध करी खुद भगवाननो ज तिरस्कार कर्यो छे. आ मारो ज अपराध छे. पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायण अमारो आ अपराध क्षमा करे (उपर प्रमाणे दूतोने कहीने हवे भगवाननी क्षमा मागे छे.) अमे अज्ञानी होवा छतां एमना निज सेवक छीए अने तेमनी आज्ञा प्राप्त करवा अञ्जलि बान्धी सदा उत्सुक रहीए छीए. तेथी परम महिमावाळा भगवाननेमाटे तो ए ज योग्य छे के आप अमने क्षमा करी दे. हुं एसर्वना अन्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुने नमस्कार करुञ्छुम् ॥३०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! एटलामाटे जगत्‌मां महामङ्गळरूप भगवाननुं ज नाम मोटा पापोने पण निर्मूळ करनारुं प्रायश्चित्त छे एम समजी लो ॥३१॥

[[१४८]] जे लोको वारंवार भगवाननां उदार अने कृपापूर्ण चरित्रोना श्रवण कीर्तन करे छे, एमना हृदयमां प्रेममयी भक्तिनो उदय थई जाय छे. ते भक्तिथी जेवी आत्मशुद्धि थाय छे तेवी कृच्छ्र चान्द्रायण वगेरे व्रतोथी थती नथी ॥३२॥

जे मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रना चरणारविन्द-मकरन्दरस नो लोभी भमरो छे ते स्वभावथी ज मायाना आपातरम्य (देखावमां ज रम्य), दुःखद अने पहेले थी ज छोडी दीधेल विषयोमां फरी आसक्त थतो नथी. परन्तु जेओ आ दिव्य रसथी विमुख छे, कामनाओए जेमनी विवेकबुद्धि उपर पाणी फेरवी नाख्युं छे, तेओ पोतानां पापोने धोवामाटे फरी प्रायाश्चित्त रूप कर्म ज करे छे. एथी बने छे एवुं के एमनां कर्मोनी वासना मटती नथी अने तेओ फरी एवाज दोष करी बेसे छे ॥३३॥

राजन्‌! ज्यारे यमदूतोए पोताना स्वामी धर्मराजना मुखथी आ प्रमाणे भगवाननो महिमा साम्भळ्यो अने तेनुं स्मरण कर्युं, त्यारे तेमना आश्चर्यनी कोई सीमा ज न रही, त्यारथी तेओ धर्मराजनी वात उपर विश्वास फरी पोताना नाशनी शङ्काथी भगवानना आश्रित भक्तोनी पासे जता नथी बीजुं तो ठीक पण तेओ एमनी तरफ आङ्ख उठावीने जोतां पण डरे छे ॥३४॥

इतिहासमिमं गुह्यं भगवान्‌ कुम्भसम्भवः। कथयामास मलय आसीनो हरिमर्चयन्‌ ॥३५॥

प्रिय परीक्षित! अजामिलनो आ गुह्य इतिहास महात्मा अगस्त्य मुनिए मलयाचलमां बेसी भगवाननुं पूजन करतां मने सम्भळाव्यो हतो ॥३५॥

इति श्रीभागवत षष्ठ स्कन्धमां (पहेला नाम प्रकरणमां अजामिल उपाख्यानमां सिद्धान्त निरूपण नामनो) ‘‘यमराजाए कहेलो सिद्धान्त’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च। स्पृष्ट्‌वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद्‌॥ मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे पोताना सेव्यस्वरूपनी सेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं जोईए. अध्याय-३,

ईं उं ईं उं

षष्ठस्कन्ध १४९ प्रकरण २जुं - रूपनिरूपण

अध्याय ४

हंसगुह्यस्तोत्रथी भगवाननी स्तुति

विशेष - त्रण अध्यायवडे नामप्रकरण पूर्ण करीने हवे चौद अध्यायथी रूपनुं तत्त्वनिरूपण करे छे. आ चोथा अध्यायमां प्रचेताओए भगवाननी हंसगुह्य स्तोत्रवडे प्रार्थना करी छे. देवासुरनृणां सर्गो नागानां मृगपक्षिणाम्‌ ॥ सामासिकस्त्वया प्रोक्तो यस्तु स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - आपे स्वायम्भुव मन्वन्तरमां देव, असुर, नर, नाग, मृग अने पक्षीओनी सृष्टि सङ्क्षेपथी कही ॥१॥

हवे हुं तेनो ज विस्तार जाणवा मागुं छुं. प्रकृति आदि करणोना परम कारण भगवान्‌ पोतानी जे शक्तिथी जे प्रमाणे त्यार पछीनी सृष्टि करे छे, तेने जाणवानी पण मारी इच्छा छे ॥२॥

सूतजीए कह्युं - शौनकादि ऋषिवर्यो! ज्यारे परम योगी व्यासनन्दन शुकदेवजीए राजानो सुन्दर प्रश्न साम्भळ्यो त्यारे एमनो सत्कार करीने नीचे प्रमाणे बोल्या ॥३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - (चतुर्थस्कन्धना अन्तमां जे कथा अधूरी मूकेली तेने अर्ही पूर्ण करे छे). ज्यारे प्राचीनबर्हि राजाना पुत्र प्रचेताओ समुद्रमान्थी बहार नीकळ्या, त्यारे तेओए जोयुं के अमारा पिता निवृत्ति परायण थई जवाथी समग्र पृथ्वी वृक्षोथी छवाई गई छे ॥४॥

तपथी एमनामां क्रोध तो वध्यो हतो तेथी सर्व झाडने बाळी नाखवानी इच्छाथी ए प्रचेताओए झाड उपर क्रोध कर्यो अने पोतानां मोढामान्थी वायु अने अग्नि थी झाड बळवा लाग्यां ए जोई वनस्पतिना राजा चन्द्रमाए एमनो क्रोध शमाववा आ प्रमाणे कह्युंः ॥६॥

‘‘हे महा भाग्यवान्‌ प्रचेताओ! राङ्क झाड उपर आपे क्रोध करतो बराबर नथी. आप तो प्रजानी वृद्धिने इच्छनार प्रजापतिओ ठरेला छो ॥७॥

प्रजापतिओना पति, अविनाशी अने सर्वव्यापक भगवाने प्रजाओने अन्ननी सगवड करी देवाने सारु ज वनस्पति अने औषधिओने उत्पन्न करेली छे ॥८॥

[[१५०]] संसारमां पाङ्खोथी ऊडी शकनार चर प्राणीओनुं भोजन फलपुष्पादिक पदार्थ छे. पगथी चालनार प्राणीओनुं वगर हाथवाळा वृक्ष, लता आदि भोजन छे. बे पगवाळा मनुष्य वगेरेने माटे धान्य, घउं आदि अन्न भोजन छे. चार पगवाळा बळद, उण्ट वगेरे खेती इत्यादि द्वारा अन्ननी उत्पत्तिमां सहायकछे ॥९॥

निष्पाप प्रचेताओ, आपना पिता अने ब्रह्मा ए आपने प्रजानी सृष्टि करवानी आज्ञा करेली छे, एम छतां प्रजाना अन्नरूप वृक्षोने बाळी नाखवां ए कई रीते उचित छे? ॥१०॥

प्रदीप्त थयेला क्रोधने आप शान्त करो अने आपना दादा तथा परदाओए शान्तिनो जे मार्ग सेवेलो छे ते ज मार्गे चालो ॥११॥

बाळकोनां रक्षक माता-पिता छे, आङ्खोनी रक्षक गृहस्थाश्रमी छे, अज्ञानीओनो रक्षक ज्ञानी छे अने प्रजाओनो रक्षक राजा छे ॥१२॥

सर्व प्राणीओमां अन्तर्यामीरूपे भगवान्‌ रह्या छे माटे आ सघळुं जगत्‌ भगवानना स्थानरूप छे एम जाणो. एम जाणवाथी तमे भगवानने प्रसन्न करी शकशो ॥१३॥

जे पुरुष हृदयमां ऊकळता भयङ्कर क्रोधने आत्मविचारद्वारा शरीरमां ज भण्डारी दे छे, बहार नीकळवा देतो नथी, ते कालक्रमथी त्रणेय गुणो उपर विजय प्राप्त करी ले छे ॥१४॥

राङ्क वृक्षोने बाळी नाखवानुं हवे बन्ध करो. बाकी रहेलां वृक्षोनुं अने तमारुं कल्याण थाओ. आ वृक्षोए पाळेली उत्तम कन्याने पत्नी रूपमां स्वीकार करो’’ ॥१५॥

हे राजा! ए प्रमाणे चन्द्रमाए एमने शान्त कर्या अने (प्रम्लोचा) अप्सरानी ए सुन्दरी कन्या आपीने ए त्यान्थी विदाय थया पछी ए प्रचेताओ धर्मनी रीति प्रमाणे ए कन्याने परण्या ॥१६॥

ए प्रचेताओथी ए स्त्रीमां प्राचेतस दक्ष नामनो पुत्र उत्पन्न थयो, जेणे करेली प्रजानी सृष्टिथी त्रणे लोक भराई गया छे ॥१७॥

हवे पुत्रीओ उपर प्रीति राखनार ए दक्ष प्रजापतिए वीर्य तेमज मनथी जेवी रीते प्रजासरजी ए वात मारी पासेथी सावधान थईने साम्भळो ॥१८॥

प्रथम ए दक्ष प्रजापतिए देव, असुर अने मनुष्य वगेरे आकाश, पृथ्वी अने [[१५१]] जळमां रहेनारी प्रजाने सङ्कल्पथी ज उत्पन्न करी ॥१९॥

परन्तु ज्यारे तेमणे जोयुं के ते सृष्टिनी वृद्धि थई रही नथी त्यारे प्राचेतस दक्ष विन्ध्याचळनी पासेना पर्वतोमां जई अत्यन्त घोर तपश्चर्या करवा लाग्या ॥२०॥

त्यां पापनो नाश करनार उत्तम ‘अघमर्षण’ नामनुं तीर्थ छे. समये-समये स्नान करीने ए प्रजापति तपथी भगवानने प्रसन्न करवा लाग्या ॥२१॥

जे स्तोत्रथी एणे इन्द्रियातीत भगवाननी स्तुति करी अने जेथी भगवान्‌ प्रसन्न थया ते ‘हंसगुह्य’ नामनुं स्तोत्र तमारी पासे कहुं छुम् ॥२२॥

दक्ष प्रजापति स्तुति करे छे - भगवन्‌! आपनी अनुभूति, आपनी चित्‌ शक्ति अमोघ छे आप जीव अने प्रकृतिथी पर, एना नियन्ता एने सत्ता-स्फूर्ति देनारा छो. जे जीवोए त्रिगुणमयी सृष्टिने ज वास्तविक सत्य समजी लीधुं छे तेओ आपना स्वरूपनो साक्षात्कार करी शक्या नथी कारण के आप सुधी कोई पण प्रमाणनी पहोञ्च नथी आपनी कोई अवधि, कोई सीमा नथी, आप स्वयं प्रकाश तथा परात्पर छो. हुं आपने नमस्कार करुं छुम् ॥२३॥

आम तो जीव अने ईश्वर एक बीजाना सखा (मित्र) छे तथा आ ज शरीरमां साथे ज रहे छे; परन्तु सर्वशक्तिमान आपना सख्यभावने जीव नथी जाणतो, जेवी रीते रूप, रस, गन्ध वगेरे विषय पोताने प्रकाशित करवावाळां नेत्र, नाक आदि इन्द्रियवृत्तिओने नथी जाणतां; कारण के आप जीव अने जगत ना द्रष्टा छो, दृश्य नहि. महेश्वर! हुं आपनां श्रीचरणोमां नमस्कार करुं छुम् ॥२४॥

देह, प्राण, इन्द्रियो, अन्तःकरण, पञ्चभूत अने पञ्चभूत ना विषयो पोते जड होवाथी पोताने, जणावनारी इन्द्रियोने अने एमना नियन्ता देवताओने जाणतां नथी, ज्यारे जीव ए त्रणेने तथा एमना मूळ गुणोने पण जाणतो होवा छतां आपनुं स्वरूप के जे सर्वज्ञ अनन्त छे तेने ए जाणतो नथी, तेथी प्रभु! हुं तो आपनी स्तुति करुं छुम् ॥२५॥

मन, नाम अने रूप ने पेदा करे छे. ज्यारे समाधि अवस्थामां संसारनां दर्शन तथा स्मरण नो नाश थाय त्यारे ए मन शान्त थाय छे अने परमात्मा जे केवळ पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे. प्रभो! आप शुद्ध छो अने शुद्ध हृदय-मन्दिर ज आपनुं निवासस्थान छे. आपने मारा नमस्कारछे ॥२६॥

जेम यज्ञ करनाराओ ‘सामिधेनी’नामना पन्दर मन्त्रोथी काष्ठमां रहेला गूढ अग्निने [[१५२]] अरणीमान्थी प्रकट करे छे, तेम ज्ञानी पुरुषो पोताना गूढ आत्माने विचारथी हृदयमां स्थिर करीने प्रकृति, पुरुष, महत्तत्व, अहङ्कार, पाञ्च विषय, त्रण गुण, अगियार इन्द्रियो अने पाञ्च महाभूत पोतानी शक्तिओमां गूढभावथी छूपायेला आपने शोधी काढे छे ॥२७॥

सर्व प्रकारनी मायानो निषेध करीए त्यारे जे कैवल्यसुखमां जणाय छे. सर्व नाम रूप अने अचिन्त्य (माया प्रभुनी बार शक्तिओ पैकीनी एक शक्ति छे.) शक्तिशाळी मायाथी पण जेनुं निरूपण थई शकतुं नथी तेवा आप प्रसन्न हो ॥२८॥

जे कांई वचनथी कहेवामां आवे छे, जेनो बुद्धिथी निश्चय करवामां आवे छे, जे इन्द्रियोथी ग्रहण करवामां आवे छे अने मनथी जेनी कल्पना थई शके छे, ते भगवाननुं स्वरूप नथी केमके ए सघळुं गुणोनुं ज स्वरूप छे, आप तो गुणोना तिरोभावथी तथा आविर्भावथी जाणवामां आवो छो ॥२९॥

जेमां जगत्‌ रह्युं छे ते आप छो. जेमान्थी जगत्‌ नीकळे छे ते आप छो. जे साधनथी जगत्‌ थाय छे ते आप छो. जेनुं जगत्‌ थाय छे ते आप छो जेने सारुं जगत्‌ थाय छे ते आप छो. जे करवामां आवे छे ते आप छो. जे करे छे ते आप छो. क्रियाने सारु कोईथी पण जे प्रेराय छे ते आप छो. उपरान्त पण जे कांई रहे छे ते आप ज छो. आप सर्वनुं कारण छो. सर्वथी पहेलां आप प्रसिद्ध छो. प्रथमथी अने पछीथी उत्पन्न थयेलान्नुं आप मूळ छो आपथी जुदी जातनुं कांई ज नथी; आपनी समान पण कांई नथी ॥३०॥

विवाद करनारा लोकोनी जे कांई तकरार होय छे, जे कांई एकपणुं छे, ते सर्व विवाद अने संवाद नुं कारण आप परब्रह्मनी माया अने अविद्या रूपी शक्तिओ छे. ए वारंवार एने मोह पमाडे छे. एवा परब्रह्म स्वरूप आपने हुं नमस्कार करुं छुं ॥३१॥

भगवन्‌! भक्तो कहे छे के अमारा प्रभु हस्तपाद वगेरेवाळा साकारविग्रह छे. साङ्ख्यवादी कहे छे के भगवान्‌ हस्तपादादि विग्रह विनाना निराकार छे. आवी तकरार भगवानना अवयवो विषे ज छे पण भगवानना स्वरूप विषे नथी. तकरारना विषय जुदा-जुदा होय पण तकरार एक तत्त्वमां ज समाय छे. हा पाडवामां आवे छे ए पण भगवानना अवयवोनी. भगवान्‌ विषे तो कांई तकरार ज नथी. भगवान्‌ (आत्मा) नथी एवुं तो ए बन्ने शास्त्रमान्थी कोई पण कहेतुं नथी. ए [[१५३]] तकरार भगवानने पहोञ्चती ज नथी केमके एनो विषय अवयवो ज छे. भगवाननुं स्वरूप ए तकरारनो विषय नथी पण तकरारना विषयोनुं अधिष्ठान न होय तो अवयवोनी कल्पना के एनो निषेध थई शके नहि. माटे जे स्वरूप ए बन्नेने तकरारोनो आश्रय आपनार छे, बन्नेने अनुकूळ छे, बन्नेथी जुदुं अने बन्ने ने सरखुं छे ते ज ब्रह्म छे ॥३२॥

जे अनन्त भगवान्‌ नामरूपरहित छे छतां पण पोताना चरणनी भक्ति करनाराओनी उपर अनुग्रह करवा सारुं जुदा-जुदा जन्म धरीने अने कर्म करीने नामरूपनुं ग्रहण करे छे ते परमेश्वर मारा उपर प्रसन्न थजो ॥३३॥

वायु एक ज छे तो पण जेम जुदा-जुदा पुष्पादिक सम्बन्धने लीधे अनेक गन्धवाळो जणाय छे, जुदा-जुदा रङ्गनी धूळना सम्बन्धने लीधे जुदा-जुदा रूपवाळो जणाय छे, तेम जे अन्तर्यामी भगवान्‌ एक ज छे तो पण जुदी-जुदी उपासनाओना मार्गोथी अने तेवा-तेवा प्रकारनी वासनाओना अनुसारथी लोकोने ए जुदा-जुदा देवरूपे जणाय छे ते ईश्वर मारा मनोरथ पूर्ण करे ॥३४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! ए प्रमाणे जे भक्तवत्सल भगवाननी स्तुति करवामां आवी छे तेवा भगवाने ए अघमर्षण तीर्थमां दक्ष प्रजापतिने प्रत्यक्ष दर्शन दीधुम् ॥३५॥

भगवान्‌ गरुडजी उपर बिराज्या हता. एमने लाम्बी आठ भुजाओ शोभती हती. एमां चक्र, शङ्ख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष्य, पाश अने गदा धारण कर्या हताम् ॥३६॥

वर्षाकालना मेघना जेवा श्यामल श्रीअङ्ग उपर पीताम्बर फरहरी रह्युं हतुं. मुख मण्डल प्रफुल्लित हतुं. नेत्रोमान्थी कृपानी वर्षा थई रही हती. अङ्गमां वनमाळा र्वीटाई रही हती. श्रीवत्स अने कौस्तुभमणि शोभी रह्यां हतां. एमणे बहुमूल्य मुकुट अने कडां धर्यां हतां. मकर जेवी आकृतिवाळां कुण्डळ झळकतां हतां, कटिमेखला, र्वीटीओ, र्वीछिया, झाञ्झर अने बाजूबन्ध पोत-पोताना स्थाने शोभी रह्यां हतां ॥३७-३८॥

त्रैलोक्यने मोह पमाडे तेवुं पुरुषोत्तम स्वरूप धर्युं हतुं. नारद अने नन्द वगेरे पार्षदो अने इन्द्र वगेरे मोटा देवोथी ए र्वीटायेला हतां. सिद्ध, गन्धर्व अने चारणो भगवानना गुणोनुं गान करी रह्याहताम् ॥३९॥

[[१५४]] एवुं त्रैलोक्यनाथ भगवाननुं महा आश्चर्यमय रूप जोईने दक्ष प्रजापति कंईक गभराई गया ॥४०॥

प्रजापति दक्षे आनन्द-मग्न थईने भगवानना चरणोमां साष्टाङ्ग प्रणाम कर्या. जेवी रीते झरणाना जलथी नदीओ छलकाई जाय छे तेवी रीते ज परमानन्दना पूरथी एनी एक-एक इन्द्रिय भराई गई अने आनन्दपरवश थई जवाथी ते कंई बोली न शक्या ॥४१॥

परीक्षित! प्रजापति दक्ष अत्यन्त दीनताथी नमीने भगवाननी सामे ऊभा रही गया. भगवान्‌ बधाना हृदयनी वात जाणे ज छे. आपे दक्ष प्रजापत्तिनी भक्ति अने प्रजावृद्धि नी कामना जोईने आ प्रमाणे कह्युम् ॥४२॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे भाग्यशाळी प्रचेताना पुत्र! तुं तप करवाथी सिद्ध थयो छे; परिपूर्ण श्रद्धाथी मारामां तारी परम भक्ति थई छे. हे प्रजापति! तारुं तप जगतनी वृद्धि करवामाटे छे, एटलामाटे हुं प्रसन्न थयो छुं. प्राणीओनी वृद्धि थाय ए मारी इच्छा छे ज ॥४३-४४॥

ब्रह्मा, सदाशिव, तमारा जेवा प्रजापति, मनुओ अने मोटा देवो, जेओ जगतने उत्पन्न करनारा छे ते मारी विभूतिरूप ज छे ॥४५॥

हे राजन्‌! तपस्या मारुं हृदय छे, विद्या मारा देहरूप छे, कर्म मारी आकृति छे, यज्ञो मारुं अङ्ग छे, धर्म मारुं मन छे अने देवो मारा प्राण छे ॥४६॥

सृष्टिनी पहेलां हुञ्ज हतो; अन्दर के बहार बीजुं कांईपण न होतुं. इन्द्रियोथी न जणाय तेवुं, चारे बाजूएथी जाणे सूई रहेलुं होय तेवुं चैतन्य (ज्ञान)मात्र मारुं ए स्वरूपहतुम् ॥४७॥

हुं अनन्त गुणोनो आधार अने स्वयं अनन्त छुं. ज्यारे गुणमयी मायाना क्षोभथी आ ब्रह्माण्ड शरीर प्रकट थयुं त्यारे तेमां स्वयम्भू आदि पुरुष ब्रह्माजी उत्पन्न थया ॥४८॥

ज्यारे में एमनामां शक्ति अने चेतना नो सञ्चार कर्यो त्यारे देवशिरोमणि ब्रह्माजी सृष्टि करवा तैयार थया. परन्तु एमने सृष्टि रचवानी पोतानी शक्तिमां ऊणप जणाई ॥४९॥

ए वखते में तेमने आज्ञा आपी के तप करो. त्यारे तेमणे घोर तपस्या करी अने ए घोर तपस्याना प्रभावथी पहेल प्रथम तमने नव प्रजापतिओने उत्पन्न [[१५५]] कर्या ॥५०॥

हे दक्ष प्रजापति! आ पञ्चजन प्रजापतिनी पुत्री असिक्‌नीने तुं तारी पत्नीना रूपमां स्वीकार कर ॥५१॥

हवे तुं गृहस्थने उचित स्त्री सहवासरूप धर्मनो स्वीकार कर. आ असिक्‌नी पण ए ज धर्मने स्वीकार करशे. त्यारे तुं एनीद्वारा घणी प्रजा उत्पन्न करी शकीश॥५२॥

हवे तारा पछीनी बधी प्रजा मारी मायाना प्रभावने लीधे स्त्री-पुरुष ना संयोगथी ज उत्पन्न थशे अने मारी पूजा करशे ॥५३॥

इत्युक्त्वा मिषतस्तस्य भगवान्‌ विश्वभावनः। स्वपनोपलब्धार्थ इव तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥५४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - विश्वनुं पालन करनार भगवान्‌ ए प्रमाणे कही दक्ष प्रजापतिना देखतां ज स्वपनमां दीठेला पदार्थनी पेठे त्यां ज अन्तर्धान थई गया ॥५४॥

इति श्रीभागवत षष्ठ स्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां ‘दक्षप्रसाद निरूपण’नामनो पहेलो) ‘‘हंसगुह्य स्तोत्रथी भगवाननी स्तुति’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे

अध्याय ५

दक्षपुत्रोनो आनन्द अने नारदजीने दक्षे आपेलो शाप

विशेष - पाञ्चमा अध्यायमां दक्षना पुत्रोने नारदजीए उपदेश आपी एओने प्रसन्न कर्या अने एना कोपथी दक्षे नारदजीने शाप आप्यो ए कथा कहेवामां आवशे. तस्यां स पाञ्चजन्यां वै विष्णुमायोपबृंहितः ॥ हर्यश्वसञ्ज्ञानयुतं पुत्रानजनयद्‌ विभुः ॥१॥

अध्याय-५,

ईं उं ईं उं

षष्ठस्कन्ध १५६ श्रीशुकदेवजी बोल्या - भगवाननी मायाथी उत्तेजन पामेला दक्ष प्रजापतिए पञ्चजन प्रजापतिनी पुत्री असिक्‌नीमां हर्यश्व नामना दश हजार पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥१॥

दक्षना ए बधा पुत्रो एक आचार तथा एक स्वभाव ना हता. पिताए आज्ञा करवाथी एओ प्रजानी सृष्टि करवा सारु पश्चिम दिशामां गयाम् ॥२॥

ए दिशामां ‘नारायणसर’ नामनुं मोटा मुनि अने सिद्ध लोकोए सेवेलुं तीर्थ छे. अर्ही सिन्धु नदीनो एने समुद्रनो सङ्गम थाय छे. ए तीर्थमां नहावानी साथे ज एमना मनना मेल मटी गया अने एमनी बुद्धि परमहंसना धर्ममां थई ॥३-४॥

पितानी आज्ञाथी उग्र तप अने प्रजा नी वृद्धि करवाने माटे उद्योग करता ए हर्यश्वोने नारदजीए दीठा ॥५॥

पछी नारदजीए एमने कह्युं ः‘‘हे हर्षश्वो! तमे प्रजापति होवा छतां मूर्ख छो. पृथ्वीनो अन्त जोया विना तमे प्रजानी सृष्टि केम करशो? ॥६॥

जुओ एक एवो देश छे जेमां एक ज पुरुष छे जेमान्थी नीकळवानो मार्ग जोवामां आवतो नथी तेवी गुफा, घणां रूपवाळी स्त्री, अभिचारिणीनो पति-पुरुष, बन्ने तरफ वहेनारी नदी, पचीस पदार्थोनी अद्‌भुत लागतुं घर, कोई समये विचित्र कथा करतो एक हंस. पोतानी मेळे फर्या करतुं तथा अस्त्रो अने वज्रो थी बनेलुं एक तीक्ष्ण चक्र अने पोताना सर्वज्ञ पितानी योग्य आज्ञा एटला पदार्थोने जाण्या विना तमे मूर्ख लोको शी रीते सृष्टि रचवाना छो? ॥७-९॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - परीक्षित! हर्यश्व जन्मथी ज बहु बुद्धिशाळी हता. तेओए देवर्षि नारदजीए पूछेली समस्या साम्भळी पोतानी बुद्धिथी पोते ज विचार करवा लाग्या ॥१०॥

(देवर्षि नारदजीनुं कहेवुं छे तो साचुं) अनादि अने आत्मा ने जन्म आपनारुं जे लिङ्गशरीर छे तेने ज पृथ्वी समजवी. ए जीव नामना लिङ्गशरीरनो अन्त (नाश) जोया विना मोक्षमां उपयोगी न थाय एवां खोटां कर्म करवाथी शुं वळे? ॥११॥

सर्वना साक्षी, स्वाश्रयी अने सर्व थी पर एक ज ईश्वर कर्तुम्‌ अकर्तुम्‌ अन्यथाकर्तुम्‌ समर्थ छे. ए विश्व, तैजस्‌ अने प्राज्ञ ए त्रणथी भिन्न होवाथी चोथा छे. ईश्वर आ ब्रह्माण्ड अथवा देह रूपी देशमां कह्यो छे. नित्यमुक्त ए पुरुषने जोया विना एने नहि अर्पण करतां खोटां कर्म करवाथी शुंवळे? ॥१२॥

[[१५७]] जेम पाताळरूपी गुफामां गयेलो माणस पाछो आवे नहि तेमज स्वयम्प्रकाश अक्षर ब्रह्ममां पहोञ्चीने पुरुष पाछो आवतो नथी. ए अक्षर ब्रह्मरूप गुफाने जाण्या विना नाश पामनार स्वर्गादिकना साधनरूप खोटां कर्म करवाथी शुं वळशे? ॥१३॥

अनेक प्रकारनां रूप अने गुण वाळी पोतानी ज बुद्धि व्यभिचारिणी स्त्री छे तेना विवेकने जाण्या विना अशान्तिने वधारी मुकनारां कर्म करवाथी शुं वळशे? ॥१४॥

आ बुद्धि ज कुलटा स्त्री समान छे. एना सङ्गथी जीवरूप पुरुषनुं ऐश्वर्य एनी स्वतन्त्रता नाश पामी छे. कुलटा स्त्रीना पतिनी माफक एनी ज पाछळ-पाछळ खबर नहि कयां-कयां भटकी रह्यो छे. एनी जुदी-जुदी गतिओ, चालबाजी जाण्या विना ज विवेकरहित कर्मोथी शी सिद्धि मळशे? ॥१५॥

बन्ने तरफ वहेनारी नदी कही ए माया समजवी. ए माया सृष्टि अने प्रलय बन्ने काम करे छे. जे लोको एमान्थी नीकळववामाटे तपस्या, विद्या आदि तटनी सहाय ले छे एमने रोकवामाटे क्रोध, अहङ्कार वगेरे रूपे ते उलटानी वधारे वेगथी वहेवा लागे छे. माटे ए मायाने नहि जाणनार गाफेल माणसोनुं मायिक खोटां कर्म करवाथी शुं वळे? ॥१६॥

कार्य अने कारणोथी बनेलो शरीरनो अधिष्ठाता अन्तर्यामी पुरुष ज पचीश तत्त्वोना आश्रयरूप अद्‌भुत घर छे तेने जाण्या विना खोटी स्वतन्त्रता मानीने करवामां आवतां कर्मथी शुंवळे? ॥१७॥

शास्त्र ईश्वरनुं प्रतिपादन करनार छे तेने ज हंस समजवो. जेम हंस दूध अने पाणी ने जुदां पाडे छे तेम ए शास्त्र जड अने चैतन्य ने जुदां पाडे छे अने बन्ध तथा मोक्ष सम्बन्धी अद्‌भुत वातो कहे छे तो एमां शास्त्रनो अभ्यास कर्या विना बहिर्मुख खोटां कर्म करवाथी शुं वळे? ॥१८॥

आ काळ ज एक चक्र छे. ते सदा फरतुं रहे छे. एनी धार अस्तरा अने वज्र जेवी तीक्ष्ण छे अने आखा जगतने पोतानी तरफ खेञ्ची रह्युं छे. एने रोकी शकनार कोई छेज नहि. ते बिलकुल स्वतन्त्र छे आ वात समज्या विना कर्मोनां फलने नित्य समजी जे लोको सकाम भावथी कर्मोनुं अनुष्ठान करे छे तेमने ए अनित्य कर्मोथी शुं लाभथाय? ॥१९॥

शास्त्र ज पिता छे, कारण के बीजो जन्म शास्त्रद्वारा ज थाय छे अने तेनी [[१५८]] आज्ञा कर्मोमां लागवानी नथी, कर्मोमान्थी निवृत्ति लेवानी छे. जे आ जाणतो नथी ते गुणमय शब्द वगेरे विषयो उपर विश्वास करी बेसे छे, आ संयोगोमां ते कर्मोथी निवृत्त थवानी शास्त्रोनी आज्ञानुं पालन भला केवी रीते करी शके? ॥२०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित राजा! ए प्रमाणे सर्वानुमतिथी निश्चय करीने हर्यश्वो नारदजीने प्रदक्षिणा करी मुक्तिना मार्गे चाल्या ॥२१॥

अने नारदजी पण नाद ब्रह्ममां प्रत्यक्ष जणाता भगवानना चरणारविन्दमां अखण्ड चित्त राखीने लोक-लोकान्तरोमां फरवा गया ॥२२॥

परीक्षित! दक्षप्रजापति खबर पड्या के मारा सदाचारी पुत्रो नारदजीना उपदेशथी कर्तव्यच्युत थई गया छे त्यारे ते शोकथी व्याकुळ थई गया. तेमने घणो पश्चात्ताप थयो. खरेखर, सारा सन्ताननुं होवुं पण शोकनुं ज कारण छे ॥२३॥

पछी ब्रह्माजीए एने शान्त पाड्या. एटले दक्ष प्रजापतिए पोतानी स्त्री पञ्चजनीना गर्भथी फरी ‘सबलाश्व’ नामना १००० पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥२४॥

प्रजानी सृष्टिने सारु पिताए आज्ञा करवाथी ए सबलाश्वो पण तप करवा ज्यां पोतानां भाईओ सिद्ध थया हतां ते नारायण सरोवरे गया ॥२५॥

नारायणसरमां नहावाथी ज एमनां अन्तःकरण निर्मळ थई गयां अने तेओ ‘ॐकार’ मन्त्रनो जप करतां महान तप करवामां लागी गया ॥२६॥

तेओ केटलाक महिना सुधी जळ पीने ज रह्या, केटलाक महिना सुधी वायुनो आहार करीने रह्या अने नीचेना मन्त्रनो जप करतां भगवाननी आराधना करवा लाग्याः ॥२७॥

‘‘ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने, विशुद्धसत्त्वधिष्ण्याय महाहंसाय धीमहि’’ अमे नमस्कार पूर्वक ओङ्कारस्वरूप भगवान्‌ नारायणनुं ध्यान करीए छीए, जे विशुद्ध चित्तमां निवास करे छे, बधाना अन्तर्यामी छे तथा सर्वव्यापक अने परमहंसस्वरूप छे. (आ मन्त्रनो अभ्यास करतां-करतां मन्त्राधिपति भगवाननी आराधना करी) ॥२८॥

आवी रीते सृष्टि रचवानी इच्छा राखता सबलाश्वो पासे पण नारदजी आव्या अने आगळनी पेठे ज कूटवचन कह्यांः ॥२९॥

‘‘दक्षपुत्रो! मारी पासेथी उपदेशनां वचन साम्भळो. तमे तो भाईओ उपर प्यार राखनारा छो माटे भाईओना ज मार्गने अनुसरो ॥३०॥

[[१५९]] धर्मने जाणनारो जे भाई मोटा भाईओना श्रेष्ठ मार्गने अनुसरे छे ते पुण्यवान पुरुष परलोकमां मरुतदेवनी साथे आनन्द भोगवे छे’’ ॥३१॥

हे राजा! नारदजी एटलुं बोलीने त्यान्थी गया अने सबलाश्वो पण पोताना भाई हर्यश्वोना मार्गने ज अनुसर्या कारण के नारदजीनुं दर्शन क्यारेय व्यर्थ जतुं नथी ॥३२॥

अत्यन्त उत्तम अने अन्तवृत्ति थी मळे तेवा परब्रह्मना मार्गना ए पथिक गयेली रातनी पेठे हजु सुधी पण पाछा आव्या नथी तेम आवशे पण नहि॥३३॥

दक्षप्रजापतिए जोयुं के आजकाल अपशुकन बहु थई रह्यां छे. एमना चित्तमां पुत्रोना अनिष्टनी आशङ्का थई आवी. एटलामाञ्ज एने खबर मळ्याके पहेलान्नी माफक फरीथी नारदजीए मारा पुत्रोने बगाड्या छे ॥३४॥

पुत्रोनां शोकथी घेरायेला अने क्रोधथी जेमना होठ फरकता हता तेवा दक्ष प्रजापति नारदजीने मळ्या अने बोल्या ॥३५॥

दक्षे कह्युं - हे ढोङ्गी! तें साधुओना जेवो बनावटी वेश धारण कर्यो छे पण तें सारा मार्गमां चालनारा अमारा भोळाभाला पुत्रोनुं खराब करी एमने तें भिक्षुकनो मार्ग देखाड्यो ॥३६॥

मारा पुत्रो त्रण *ऋणथी छूट्या नहोता अने एमणे कर्मसम्बन्धी विचार सुध्धां कर्यो नथी तेवा मारा पुत्रोना बन्ने लोकनां सुखनो तें नाश करी नाख्यो॥३७॥

विशेष - ब्रह्मचर्य पाळी वेदनुं अध्ययन करे त्यारे ऋषिओना ऋणथी छूटे, यज्ञ करे त्यारे देवोना ऋणथी छूटे अने पुत्र उत्पन्न करे त्यारे पितृओना ऋणथी छूटे; आ त्रणे ऋणमान्थी न छूटे त्यां सुधी मोक्ष मेळवाय नहि.(मनुस्मृति) खरेखर तारा हृदयमां दयानो छाण्टोये नथी अने आ प्रमाणे बाळकोनी बुद्धि बगाडतो फरे छे. भगवानना पार्षदोमां रहीने भगवाननी ज कीर्तिने कलङ्क ज लगाड्युं. खरेखर तुं बेशरम छो ॥३८॥

हुं जाणुं छुं के भगवानना पार्षदो सदा सर्वदा दुःखी प्राणीओ उपर दया करवाना कार्यमां तत्पर रहे छे परन्तु तुं प्रेमभावनो विनाश करनारो छे. तुं एवा लोकोनी साथे पण वेर करे छे जेओ कोईनी साथे वेर करता नथी ॥३९॥

जो तुं एम धारतो होय के स्नेहरूपी पाशने अर्थात्‌ विषयासक्तिने कापनार तो वैराग्य ज छे तो तुं ज्ञानी नहि पण ज्ञानीओनो खोटो वेश धरनारो छे. कारण के [[१६०]] तारा जेवा वैराग्यनो बनावटी स्वाङ्ग धरनाराना उपदेशथी पुरुषोने वैराग्य थाय ज नहि ॥४०॥

विषयोनो अनुभव कर्या विना विषयो दुःखरूप छे एम माणस जाणी शके ज नहि; माटे विषयो भोगव्या पछी ए खराब छे एवुं जाणीने जेवो वैराग्य थाय तेवो वैराग्य बीजाओना भमाववाथी थाय नहि ॥४१॥

अमे कर्मनी मर्यादा पाळनारा सज्जन गृहस्थो छीए. ते पहेला पण एकवार अमारो भारे अपकार कर्यो हतो ते अमे सही लीधो ॥४२॥

तें तो अमारी वंशपरम्परा उपर ज कुहाडो मारवा कमर कसी छे. ते फरीथी अमारी साथे ए ज दुष्टतानो व्यवहार कर्यो. तेथी हे मूढ! जा लोक-लोकान्तर मां भटकतो रहे, क्यांय पण तारेमाटे ठेरववानुं ठेकाणुं न रहे ॥४३॥

प्रतिजग्राह तद्‌ बाढं नारदः साधुसम्मतः। एतावान्‌ साधुवादो हि तितिक्षेतेश्वरः स्वयम्‌ ॥४४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - परीक्षित! सन्तशिरोमणि देवर्षि नारदजीए ‘‘बहु सारुं’’ कहीने दक्षना शापने माथे चडाव्यो. संसारमां, बस, सज्जनता आनुं ज नाम के बदलो लेवानी शक्ति होवा छतां बीजाए करेलो अपकार सहन करी लेवामां आवे ॥४४॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां दक्ष पुत्र प्रसाद निरूपण अने नारदजीने शाप नामनो बीजो) ‘‘दक्षपुत्रोनो प्रसाद अने नारदजीने दक्षे आपेलो शाप’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय ६

दक्षनी कन्याओउपर प्रसाद अने विश्वरूपनो जन्म

विशेष - छठ्ठा अध्यायमां प्रभुनी कृपाथी दक्षनी कन्याओना वंशनो देव अने असुर एवा अध्याय-५,

ईं उं ईं उं

षष्ठस्कन्ध १६१ विभागथी थयेलो विस्तार कहेवाशे. ततः प्राचेतसोऽसिक्‌न्या-मनुनीतः स्वयम्भुवा ॥ षष्टिं सञ्जनयामास दुहिटैंःपितृवत्सलाः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए क्ह्युंः ए पछी ब्रह्माजीए दक्ष प्रजापतिने समजाव्या अने एमणे पोतानी स्त्री असिक्‌नीना गर्भथी पिता उपर स्नेह राखनारी साठ पुत्रीओ उत्पन्न करी ॥१॥

ए पैकी एणे दश पुत्रीओ धर्मने आपी तेर कश्यपने आपी, सत्तावीश चन्द्रमाने आपी अने भूत, अगिंरा तथा कृशाश्व ने बब्बे आपी, बाकी जे चार वधी ते ‘तार्क्ष्य’ नामथी ओळखाता कश्यपने ज आपी ॥२॥

दक्षनी ए दीकरीओना पुत्रपौत्रादिक वंशथी त्रणे लोक भराई गया.एमनां तथा एमनां सन्तानोनां नाम मारी पासे साम्भळो ॥३॥

भानु, लम्बा, ककुभ्‌, जामि, विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता अने सङ्कल्पा एटली धर्मनी स्त्रीओ हती. एमना पुत्रोनां नाम आ प्रमाणे छेः ॥४॥

भानुने देवऋषभ नामनो पुत्र थयो तेनो इन्द्रसेन थयो. लम्बाने विद्योत नामनो पुत्र थयो तेने स्तनयित्नु नामना पुत्रो थया ॥५॥

ककुभ्‌नो सङ्कट नामनो पुत्र थयो तेनो कीकट थयो अने एना दुर्ग (पृथ्वी उपरना किल्लाओना देव) पुत्र थया. जामिनो स्वर्ग नामनो पुत्र थयो अने एनो नन्दि थयो॥६॥

विश्वाना विश्वदेवो नामना पुत्रो थया तेओ प्रजारहित छे एम कहेवाय छे. साध्याना साध्यदेवताओ थया अने एमनो अर्थसिद्धि थयो ॥७॥

मरुत्वतीना मरुत्वान अने जयन्त नामना बे पुत्रो थया. एमां जयन्त भगवाननो अंश हतो, जेनुं ‘उपेन्द्र’ एवुं बीजुं नाम कहेवाय छे ॥८॥

मुहूर्ताना मौहूर्तदेव (मुहूर्तोना स्वामी) थया, जे प्राणीओने पोत-पोताना मुहूर्तमां कर्मानुसार फळ आपे छे ॥९॥

सङ्कल्पानो सङ्कल्प नामनो पुत्र थयो अने एनो पुत्र कामदेव थयो. वसुना पुत्र आठ थया तेमनां नाम मारी पासेथी साम्भळोः ॥१०॥

द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु अने विभावसु ए आठ वसु कहेवाय छे. एमां द्रोणनी स्त्री अभिमतिथी हर्ष, शोक अने भय वगेरेना अभिमानी देवता उत्पन्न थया ॥११॥

[[१६२]] प्राणनी ऊर्जस्वती नामनी स्त्रीथी सह, आयु अने पुरोजव नामना पुत्रो थया. ध्रुवनी धरणी नामनी स्त्रीथी अनेक प्रकारनां पुरनां अभिमानी देवताओ उत्पन्न थया ॥१२॥

अर्कनी वासना नामनी स्त्रीथी तर्ष (तृष्णा) आदि पुत्रो उत्पन्न थया, अग्नि नामना वसुनी पत्नी धाराना गर्भथी द्रविणक वगेरे घणा पुत्रो उत्पन्न थया॥१३॥

अग्निने स्कन्द नामनो पुत्र थयो जेने कृत्तिकाओए धवरावी उछेर्यो. ए स्कन्दने विशाख वगेरे पुत्रो थया. दोष नामना वसुनी शर्वरी नामनी स्त्री हती तेने शिल्पकळाना अधिपति विश्वकर्माजी नामना पुत्र थया. विश्वकर्माजीनी कृति नामनी स्त्रीथी चाक्षुस नामनो पुत्र मनु थयो तेना विश्वदेव अने साध्यगण नामना पुत्रो थया ॥१५॥

विभावसु नामना आठमा वसुनी उषा नामनी स्त्री हती तेना व्युष्ट, रोचिष्‌ अने आतप नामना पुत्रो थया. आतपनो पञ्चयाम नामनो (दिवसनो देव) पुत्र थयो, के जेथी बधा प्राणीओ पोत-पोताना काममां लाग्या रहे छे ॥१६॥

भूत नामना दक्षना जमाईनी सुरूपा नामनी स्त्री हती तेनाथी करोडो रुद्र थया. एमां रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपि, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, बहुरूप अने महान ए अगियार मुख्य रुद्र छे एमना पार्षदो पण रुद्र गणाय छे. भूतनी बीजी स्त्री भूताथी भयङ्कर भूत अने विनायको उत्पन्न थया. ए बधा अगियारमां प्रधान रुद्र महानना पार्षद थया ॥१७-१८॥

दक्षना जमाई अगिंरा प्रजापतिनी स्त्री स्वधाथी पितृओ उत्पन्न थया; एनी सती नामनी बीजी स्त्रीए ‘अथर्वागिंरस’ नामना वेदनो ज पुत्ररूपमां स्वीकार करी लीधो ॥१९॥

दक्षना जमाई कृशाश्वे पोतानी अर्चि नामनी स्त्रीमां धूम्रकेश नामनो पुत्र अने धिषणा नामनी बीजी स्त्रीथी वेदशिरा, देवल, वयुन अने मनु ए नामना चार पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥२०॥

दक्षना जमाई तार्क्ष्य नामना कश्यपनी विनता, कद्रू, पतङ्गी, यामिनीए नामनी चार स्त्रीओ हती तेमां पतङ्गीए पतङ्गिया तथा पक्षीओ उत्पन्न कर्या, यामिनीए तीड उत्पन्न कर्या, विनताए भगवानना वाहनरूप गरुडजीने तथा सूर्यना सारथि अरुणने उत्पन्न कर्या अने कद्रूए अनेक नागो उत्पन्न कर्या॥ परीक्षित, सत्तावीस नक्षत्रोनी अभिमानीनी कृत्तिका वगेरे देवीओ चन्द्रमानी [[१६३]] पत्नीओ छे. रोहिणी उपर विशेष प्रेम राखवाने कारणे चन्द्रमाने दक्षे शाप आपी दीधो के जेथी तेने क्षयरोग थई गयो हतो. तेने कंई सन्तान थयुं नहि ॥२३॥

चन्द्रमाए दक्षने फरी प्रसन्न करी लई कृष्णपक्षनी क्षीण कलाओ शुकलपक्षमां पूर्ण थवानुं वरदान तो मेळवी लधुं.(परन्तु नक्षत्रोनी अभिमानिनी देवीओथी एने कंई सन्तान थयुं नहि). हवे लोकमाता कश्यपनी पत्नीओनां शुभ नाम साम्भळो जेमान्थी आ जगत्‌ थयुं छे; ॥२४॥

अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा अने तिमि ए कश्यपनी तेर पत्नीओ हती ॥२५॥

तेमां तिमिना पुत्र जलचर जन्तु थया, सरमानां सिंह, वाघ वगेरे फाडी खानारां जानवर थयां, सुरभिना पाडा, बळदो अने बीजां बे खरीवाळां पशुओ थयां॥२६॥

हे राजा! ताम्राना बाज, गीध वगेरे थया, मुनि नामनी पत्नीथी अप्सराओ थई ॥२७॥

क्रोधवशाना पुत्र सर्प, र्वीछी वगेरे झेरी जन्तुओ थया. इलाथी वृक्ष, लता वगेरे पृथ्वीमां उत्पन्न थनारी वनस्पतिओ अने सुरसाथी राक्षसो थया ॥२८॥

अरिष्ठाना गन्धर्वो थया, काष्ठानां घोडा वगेरे एक खरीवाळां जानवर थयां. दनुना पुत्र एकसठ दानवो थया तेमां मुख्य-मुख्यनां नाम साम्भळोः ॥२९॥

द्विमूर्द्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शङ्कुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण, पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, विप्रचित्ति अने दुर्जय ॥३०॥

स्वर्भानुनी पुत्री सुप्रभाने नमुचि परण्यो हतो. वृषपर्वानी पुत्री शर्मिष्ठाने नहुष राजानो महाबली पुत्र ययाति परण्यो हतो ॥३१॥

उपदानवी हयशिरा, पुलोमा अने कालका ए दनुना पुत्र वैश्वानरनी सुन्दर कन्याओ हती ते पैकी उपदानवीने हिरण्याक्ष अने हयशिरा ने क्रतु परण्यो हतो. ब्रह्माजीनी आज्ञाथी प्रजापति भगवान्‌ कश्यपे ज बाकीनी बे पुत्रीओ पुलोमा अने कालकानी साथे विवाह कर्यो ॥३२-३३॥

ए पुलोमा अने कालका ना पौलोम अने कालकेय नामना साठ हजार बळवान दानवो थया हता. यज्ञमां विघ्न करनारा ए दानवोने तमारा दादा अर्जुने स्वर्गमां जईने इन्द्रनुं प्रिय करवा सारु एकलाए ज मारी नाख्या हता ॥३४-३६॥

[[१६४]] विप्रचित्तिनी पत्नी सिंहिकाना गर्भथी एक सो एक पुत्रो उत्पन्न थया. एमां सौथी मोटो हतो राहु, जेनी गणना ग्रहोमां थई गई. बाकीना सो पुत्रोनुं नाम हतुं केतु ॥३७॥

परीक्षित! हवे क्रमशः अदितिनी वंशपरम्परा साम्भळो, आ वंशमां सर्वव्यापक देवाधिदेव नारायणे पोताना अंशथी वामन स्वरूपे अवतार लीधो हतो ॥३८॥

विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता वरुण, मित्र, शक्र (इन्द्र) अने उरुक्रम (वामनजी) ए अदितिना बार पुत्रो थया हता. आ ज बार आदित्य कहेवाया ॥३९॥

एमां विवस्वाननी स्त्री सञ्ज्ञाने श्राद्धदेव (वैवस्वत) नामनो मनु तथा यम अने यमुना ए जोडलुं आव्युं. ए ज सञ्ज्ञा घोडीनुं रूप धरी पृथ्वी उपर गई हती त्यां तेने विवस्वानना (सूर्यना) बीजथी अश्विनीकुमार नामना बे पुत्र थया ॥४०॥

सूर्यनी बीजी पत्नी छायाने शनैश्वर, सावर्णि नामनो मनु अने तपती नामनी (तापी नदी) कन्या थई. ए कन्या संवरण राजाने वरी हती ॥४१॥

अर्यमानी स्त्री मातृका हती तेने चर्षणी नामना पुत्र थया. ए चर्षणीओने आत्मविचार हतो तेथी एओने ब्रह्माजीए मनुष्य जातना ठराव्या छे ॥४२॥

पूषाने कांई सन्तान ज थयुं नहि. प्राचीन कालमां दक्ष प्रजापति उपर सदाशिवे कोप कर्यो ते वखते ए पूषाए पोताना दान्त देखाडीने सदाशिवनी मश्करी करी हती तेथी एना दान्त वीरभद्रे तोडी नाख्या हता त्यारथी ए पीसेलुं अन्न ज खाय छे ॥४३॥

त्वष्टानी रचना नामनी स्त्री हती ते दैत्योनी नानी बहेन हती तेने सन्निवेश अने विश्वरूप नामना बे पुत्र थया तेमां विश्वरूप पराक्रमी हतो ॥४४॥

तं वव्रिरे सुरगणाः दौहित्रं द्विषतामपि ॥ विमतेन परित्यक्ता गुरुणाऽऽगिंरसेन यत्‌ ॥४५॥

देवोए अपमान करवाथी जे समये बृहस्पतिजीए देवोनो त्याग कर्यो ते समये देवोए ए विश्वरूप जो के ए पोताना शत्रु दैत्योनो दौहित्र हतो तो पण एने ज पोतानो पुरोहित बनाव्यो हतो ॥४५॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां(बीजा रूपप्रकरणमां त्रीजो) ‘‘दक्षनी कन्याओ उपर प्रसाद अने विश्वरूपनो जन्म’’नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१६५]]

अध्याय ७

विश्वरूप उपर भगवत्कृपा

विशेष - आ सातमा अध्यायमां विश्वरूप उपर कृपा करीने एने देवोए पुरोहित बनाव्यो ए कहेवाशे. कस्य हेतोः परित्यक्ता आचार्येणात्मनः सुराः ॥ एतदाचक्ष्व भगवञ्छिष्याणामक्रमं गुरौ ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - हे भगवान्‌! बृहस्पतिजीए पोताना शिष्य देवोनो शामाटे त्याग कर्यो? ए शिष्योए पोताना गुरुनो शो अपराध कर्यो हतो ए मने कहो ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजन्‌! इन्द्रने त्रिलोकीनुं ऐश्वर्य मळतां घमण्ड थई गयो हतो. आ घमण्डने लीधे ते धर्ममर्यादा अने सदाचार नुं उल्लङ्घन करवा लाग्या हता. एक दिवस एवुं बन्युं के ते भरी सभामां पोतानी पत्नी शची साथे ऊञ्चा सिंहासन उपर बेठा हता ॥२॥

ओगणपचास मरुद्‌गण आठ वसु, अगियार रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण अने बन्ने अश्विनीकुमार एनी सेवामां उपस्थित हता सिद्धो, चारणो, गन्धर्वो, वेद जाणनारा मुनिओ, विद्याधरो, अप्सराओ, किन्नरो, पक्षी अने नाग ए इन्द्रदेवनी सेवा अने स्तुति करता हता अने सुन्दर रीते तेनी कीर्तिगान करता हता. उपर चन्द्रमाना मण्डळ जेवुं श्वेत छत्र शोभी रह्युं हतुं; बीजां पण चामर, पङ्खा वगेरे चक्रवर्तीनां चिह्‌नो यथास्थान मोजुद हतां. आ दिव्य धाममां अर्ध आसनउपर बेठेल इन्द्राणी साथे देवराज खूब शोभी रह्याहता ॥३-६॥

ए समये देवोना तेमज पोताना पण परम आचार्य बृहस्पतिजी सभामां आव्या त्यारे सामा ऊठी ऊभा थईने के आसन वगेरे आपीने इन्द्रदेवे एमनो सत्कार कर्यो नहि ॥७॥

बृहस्पतिजीने देव अने दैत्यो, बन्ने प्रणाम करे छे एवा ए महामुनि छे. इन्द्रे एमने सभामां आवता जोया तो पण ए पोताना आसन परथी जरा हाल्या-चाल्या पण नहि ॥८॥

त्यारे ‘‘एने लक्ष्मीनो मद थयो छे’’ ए जाणी त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजी [[१६६]] ए सभामान्थी तुरत ज नीकळी गया अने चूप-चाप पोताने घेर गया ॥९॥

पोतानाथी गुरुनो अपराध थयो छे एम भान थतां ए वखते ज इन्द्र सभा वच्चे ज पोतानी मेळे पोताने धिक्कारवा लाग्याः ॥१०॥

अरेरे! अल्प बुद्धिवाळा में ऐश्वर्यना अभिमानने लीधे सभामां गुरुनुं अपमान कर्युं ए खराब कर्युम् ॥११॥

जे लक्ष्मी सत्त्वगुणी देवोना स्वामी एवा मने आसुरी बनावी दे तो त्रैलोक्यना राज्यनी ए लक्ष्मीने पण कयो पडिन्त इच्छे? ॥१२॥

जेओ एम कहे छे के ‘‘सिंहासन उपर बेठेला राजाए कोई पण आवे तो पण ऊभुं थवुं नहि’’ तेओ खरा धर्मने जाणता नथी ॥१३॥

ए लोकोनां वचन अवळो मार्ग बतावनारां छे; अने ए लोकोनां वचनने जेओ माने तेओ पथराना वहाणमां बेठेलाओनी पेठे डूबी जाय छे ॥१४॥

एटलामाटे हुं शठता छोडी दई तथा मारा मस्तकथी एमनां चरणनो स्पर्श करी ए अगाध बुद्धिवाळा मारा गुरुने प्रसन्न करीश ॥१५॥

इन्द्र देवे ए प्रमाणे विचार कर्यो एटलामां तो बृहस्पतिजी पोतानी मायाना प्रभावथी घरमान्थी पण योगबलथी अदृश्य थई गया ॥१६॥

इन्द्रदेवे घणी तपास करी तो पण गुरुनो पत्तो मळ्यो नहि एथी ए घणी चिन्तामां पडी गया अने देवोने जरापण सुख मळ्युं नहि ॥१७॥

बृहस्पतिजी अने इन्द्र ना अणबनावनी वात साम्भळतां ज मदोन्मत्त सघळा असुरो शुक्राचार्यनी सलाहथी हथियार उपाडीने देवो उपर चडी आव्या ॥१८॥

दैत्योए नाखेलां तीक्ष्ण बाणोथी देवोनां माथां, साथळ अने हाथ भेदाई गयां अने इन्द्र सहित तेओ माथां नीचां करीने ब्रह्माजीने शरणे गया ॥१९॥

स्वयम्भू अने समर्थ ब्रह्माजीने देवोने ए प्रमाणे पीडाता जोई घणी दया आवी अने तेओने धीरज आपतां ए नीचे प्रमाणे बोल्या ॥२०॥

ब्रह्माजीए कह्युं - अहो! अफसोस छे के हे उत्तम देवो! तमे ऐश्वर्यना मदथी ब्रह्मवेता अने जितेन्द्रिय ब्राह्मण नुं अपमान कर्युं ए बहु खराब कर्युम् ॥२१॥

तमे समृद्धिवाळा हता अने तमारा शत्रु दैत्यो निर्बल हता छतां एमना हाथथी आजे तमारो पराभव थयो ए अनीतिनुं ज फळ छे ॥२२॥

हे इन्द्र! जुओ, पहेलां तमारा शत्रुओ एमना गुरु शुक्राचार्यनो अपराध [[१६७]] करवाथी अत्यन्त निर्बल थई गया हता पण अत्यारे पाछा भक्तिपूर्वक शुक्राचार्यने पोताना इष्टदेव मानी सेवा करी तेओ हवे तो मारुं स्थान ब्रह्मलोक पण लई ले एवा शक्तिमान बन्या छे ॥२३॥

भृगुवंशीओए एमने अर्थशास्त्रनुं पूरे-पूरुं शिक्षण आप्युं छे. तेओ जे कंई करवा धारे छे एनी बातमी तमने मळी शकती नथी. एमनी मन्त्रणा बहु गुप्त होय छे. आम होवाथी स्वर्गनी तो विसात शी तेओ इच्छे ते लोकने जीती लई शके एम छे. साची वात तो ए छे के जे श्रेष्ठ मनुष्यो ब्राह्मण गोविन्द अने गायो ने पोतानुं सर्वस्व माने छे अने जेमनापर एमनी कृपा होय छे एमनुं क्यारेय अमङ्गल थतुं नथी ॥२४॥

एटलामाटे तमे त्वष्टाना पुत्र विश्वरूप जे तपस्वी, धीरजवाळा खरेखरा ब्राह्मण छे तेनी सेवा करो. जो तमे तेनो सत्कार करशो अने ए कोई दैत्योनो पक्षपात करे तो ए सहन करी लेशो तो ए तमारां सघळां काम करी देशे ॥२५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एवी रीते ब्रह्माजीनुं वचन साम्भळी देवोनी चिन्ता दूर थई ए विश्वरूप ऋषिनी पासे आव्या अने एमने हृदय सरसा लगावी नीचे प्रमाणे बोल्या ॥२६॥

देवोए कह्युं - तमारुं कल्याण थाओ. अमे तमारा आश्रममां आज अतिथि थया छीए. हे वत्स! एक रीते अमे तमारा वडीलो छीए. आ समये तमे अमारुं काम करी आपो ॥२७॥

जेमने त्यां सन्तान थई गयां होय ए सत्पुरुषोनो पण सौथी परम धर्म ए ज छे के तेओ पोताना पिता तथा अन्य गुरु जनोनी सेवा करे तो पछी जे ब्रह्माचारी छे एमने माटे तो कहेवानुं शुम् ॥२८॥

आचार्य (अतिथिओनी अने वडीलोनी प्रशंसाने सारु कहे छे.) वेदनी मूर्ति छे, पिता ब्रह्माजीनी मूर्ति छे, भाई इन्द्रनी मूर्ति छे, मा साक्षात्‌ पृथ्वीनी मूर्ति छे ॥२९॥

ए ज प्रमाणे बहेन दयानी मूर्ति छे, अतिथि पोते धर्मनी मूर्ति छे, अभ्यागत अग्निनी मूर्ति छे अने सर्व प्राणीओ भगवाननी मूर्ति छे ॥३०॥

वत्स! अमे तमारा पितर छीए. अत्यारे शत्रुओए अमने जीती लीधा छे. अमे बहु दुःखी थई रह्या छीए. तमे तमारा तपोबलथी अमारां आ दुःख, दारिद्रय अने पराजय दूर करी दो. वत्स! तमारे अमारी आज्ञानुं पालन करवुं जोईए॥३१॥

[[१६८]] तमे ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण छो तेथी जन्मथी ज अमारा गुरु छो, अमे तमारू आचार्य रूपमां वरण करी तमारी शक्तिथी अनायास ज शत्रुओ उपर विजय प्राप्त करी लईशुम् ॥३२॥

जरूर पड्ये पोतानाथी नानो होय तेना चरणमां झूकवुं पण निन्दनीय नथी. बीजी बाबतोमां अवस्था मोटाईनुं कारण गणाय पण विद्यानी बाबतमां अवस्थाथी मोटाई गणाती नथी, (अर्थात्‌ विद्यावान्‌ अवस्थामां नानो होय तो पण सन्मानने पात्र छे) ॥३३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे पुरोहित थवाने सारु प्रार्थना करी त्यारे महातपस्वी विश्वरूपे प्रसन्न थई मधुर वाणीथी एमने नीचे प्रमाणे कह्युं ॥३४॥

विश्वरूपे कह्युं - गुरुपणुं (पुरोहितपणुं) ब्रह्मतेजने क्षीण करनारुं छे. तेथी धर्मशील महात्माओए तेनी निन्दा करी छे. पण आप मारा स्वामी होवा उपरान्त लोकेश्वर पण छो. आप जेवा आप ज्यारे मने पुरोहितनुं कार्यमाटे प्रार्थना करी रह्या छो त्यारे मारा जेवी व्यक्ति आपने ना शी रीते पाडी शके? हुं तो आप लोकोनो सेवक छुं. आपनी आज्ञानुं पालन करवुं ए ज मारो स्वार्थ ॥३५॥

हे देवगण! अमे अकिञ्चन छीए. शीलोञ्छ करवुं ए ज अकिञ्चन पुरुषोनुं धन छे. (शील=खेतरमां धणीए मूकी दीधेलां कणसलां लाववां ए. ऊञ्छ=हाट आगळ वेराई जतां पड्या रहेला कण वीणीने लाववा ए) ए ज धनथी हुं घरमां रही साधु पुरुषोनो सत्कार, देवकार्य अने पितृकार्य करी लउं छुं. माटे हे स्वामीओ! आ प्रमाणे ज्यारे मारी आजीविका चाल्ये जाय छे त्यारे जे पुरोहितपणुं निन्दित छे अने जेथी दुर्बुद्धि पुरुष राजी थाय छे ते हुं शी रीते करुं? ॥३६॥

तो पण हुं आपने ना पाडतो नथी. आप वडीलोए माग्युं छे केटलुं? तेथी आपनो मनोरथ तन, मन, धन थी हुं पूरो करीश ॥३७॥

श्रीशुकदेवजी कह्युं - जेनी देवोए प्रार्थना करेली छे ते महातपस्वी विश्वरूप ए प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने अत्यन्त लगन-पूर्वक पुरोहितपणुं करवा लाग्या ॥३८॥

दैत्योनी लक्ष्मी शुक्राचार्यनी विद्याथी रक्षित हती. तो पण विश्वरूपे विष्णुना ‘नारायण कवच’ रूप विद्याना प्रभावथी दैत्यो पासेथी झूण्टवी लईने इन्द्रने अपावी दीधी ॥३९॥

[[१६९]] यया गुप्तः सहस्त्राक्षो जिग्येऽसुरचमूर्विभुः। तां प्राह स महेन्द्राय विश्वरूप उदारधीः ॥४०॥

उदार बुद्धिवाळा विश्वरूपे इन्द्रने जे विद्या आपी तेना प्रभावथी रक्षण अने शक्ति पामेला इन्द्रे दैत्योनी सेनाओने जीती लीधी ॥४०॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां विश्वरूप प्रसाद निरूपण नामनो चोथो) ‘‘विश्वरूप उपर भगवत्कृपा’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? दूझणी गायने गोतूं माण्डीने पय जेम पर लई जाय, तेम तुं बोध करी पूजा पामे आप धावे कंई थाय (दयाराम)

अध्याय ८

इन्द्रने नारायण कवचनी प्राप्ति

विशेषः आ आठमां अध्यायमां भगवाननी प्रेरणाथी विश्वरूपे इन्द्रने ‘नारायण कवच’ आप्युं ए कथा कहेवाशे. यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान्‌ रिपुसैनिकान्‌ ॥ क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्‌ ॥१॥

परीक्षित राजाए कह्युं - हे महाराज! विद्याथी रक्षण पामेला इन्द्रदेवे रमत मात्रमां सर्वस्वनुं हरण करनारा शत्रुओनी चतुरगिण्णी सेनाने युद्धमां जीती लीधी अने त्रैलोक्यनुं राज्य भोगव्युं ते ‘नारायण कवच’ रूप विद्या मने कहो ॥१॥

साथे ए पण बतावो के तेणे तेनाथी सुरक्षित थईने रणभूमिमां केवी रीते आक्रमणकारी शत्रुओ उपर विजय मेळव्यो ॥२॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - पुरोहित बनेला विश्वरूपे प्रश्न पूछनार इन्द्रदेवने जे नारायण कवच कहेलुं ते हवे एकाग्र मनथी साम्भळो ॥३॥

विश्वरूपे कह्युं - देवराज इन्द्र! भयनो प्रसङ्ग आवी पडे त्यारे नारायण अध्याय-७,

ईं उं ईं उं

षष्ठस्कन्ध १७० कवच पहेरी लई पोताना शरीरनी रक्षा करी लेवी जोईए. एनी विधि आ प्रमाणे छे के पहेलां हाथपग धोई आचमन करवुं. पछी हाथमां कुशनी पवित्री (र्वीटी) धारण करी उत्तर तरफ मुख राखी बेसी जवुं. पछी कवच धारण पर्यन्त बीजुं कंई पण न बोलवानो निश्चय करी पवित्रताथी मन्त्रोद्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि-करन्यास करवा. पहेलां अष्टाक्षर मन्त्रना ॐ वगेरे आठ अक्षरोना क्रमशः बेपग, बे गोठण, बे साथळ, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख अने मस्तक मां न्यास करवा. अथवा पूर्वोक्त मन्त्रना ‘य कार’थी शरू करी ‘ॐ कार’ पर्यन्त आठ अक्षरोना मस्तकथी आरम्भ करी ते ज आठ अङ्गोमां ऊलटा क्रमथी न्यास करवा ॥४-६॥

पछी द्वादशाक्षर मन्त्रना ॐकारथी सम्पुट करेला एक-एक अक्षरनो आङ्गळीओमां अने अङ्गूठानी अणीओमां न्यास करवो. जमणा हाथनी तर्जनीथी माण्डी डाबा हाथनी तर्जनी सुधीनी आठ आङ्गळीओमां आठ अक्षरोनो अने बे अङ्गूठाना उपरना तथा नीचेना चार सान्धाओमां बाकी रहेला चार अक्षरोनो न्यास करवो॥७॥

पछी मन्त्रना ‘ॐ’कारनो हृदयमां, ‘वि’कारनो मस्तकमां, ‘ष’कारनो भ्रुकुटीना मध्यमां, ‘ण’कारनो शिखामां, ‘वे’कारनो बन्ने नेत्रमां अने ‘न’कारनो सर्व साधाओमां न्यास करवो, बाकी रहेला ‘म’कारनो दिग्बन्ध जोडवो. आ प्रमाणे न्यास करवाथी आ विधिने जाणववावाळो पुरुष मन्त्र स्वरूप थई जाय छे ॥८-१०॥

त्यार पछी समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान अने वैराग्य थी परिपूर्ण इष्टदेव भगवाननुं ध्यान करवुं अने पोताने पण तद्रूप ज समजे. पछी विद्या, तेज अने तप स्वरूप आ कवचनो पाठ करवो ॥११॥

ॐ गरुडजीनी पीठ पर चरण धरीने रहेला, अणिमादि आठ सिद्धिओथी सेवित आठ बाहुवाळा शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष अने पाश ने धारण करता हरि भगवान्‌ मारी सर्व प्रकारनी रक्षा करजो ॥१२॥

जळमां जळ-जन्तुओ थी तथा वरुणना पाशथी मत्स्यावतार रक्षा करजो. मायाथी बटुक बनेला वामनजी स्थळमां रक्षा करजो, सघळुं ब्रह्माण्ड जेना रूपमां समायुं छे तेवा त्रिविक्रम आकाशमां रक्षा करजो ॥१३॥

किल्ला वन तथा रणभूमि वगेरे सङ्कटना स्थळोमां मोटा दैत्योना सेनापतिओना शत्रु नृसिंह भगवान्‌ रक्षा करजो. ए भगवान्‌ ज्यारे मोटा शब्दथी खडखड हस्या हता त्यारे दिशामां गर्जना ऊठी हती अने दैत्य पत्नीओना गर्भो पडी गया हता ॥१४॥

[[१७१]] पोतानी दाढवडे पृथ्वीने धारण करनार अने यज्ञोरूपी अवयववाळा वराह भगवान्‌ मार्गमां रक्षा करजो. पर्वतोनां शिखरो उपर परशुराम रक्षा करजो. प्रवासमां भरतना मोटा भाई रामचन्द्रजी लक्ष्मण सहित मारी रक्षा करजो ॥१५॥

मारण-मोहन आदि भयङ्कर अभिचारो अने गफलत मान्थी नारायण रक्षा करजो. गर्वथी नर भगवान्‌ रक्षा करजो. योगभ्रंशथी योगेश्वर दत्तात्रेय रक्षा करजो. गुणोना स्वामी कपिलदेवजी कर्मनां बन्धनथी रक्षा करजो ॥१६॥

भगवान्‌ सनत्कुमार कामदेवथी रक्षा करजो अने मार्गमां देवोने नमस्कार न करवा रूपी अपराधथी हयग्रीव भगवान्‌ रक्षा करजो. नारदजी सेवामां थता अपराधोथी रक्षा करजो. सर्व प्रकारना नरकथी कच्छपावतार भगवान्‌ मारी रक्षा करजो ॥१७॥

कृपथ्यमान्थी धन्वन्तरि रक्षा करजो. जितेन्द्रिय ऋषभदेवजी सुख-दुःख, शीतउष्ण, आदि भयङ्कर द्वन्द्वोथी रक्षा करजो. लोकापवादथी यज्ञावतार रक्षा करजो. मनुष्यकृत विघ्नोथी बलभद्रजी रक्षा करजो. ‘क्रोधवश’नामना सर्पोना गणथी शेषनाग रक्षा करजो ॥१८॥

अज्ञानथी वेदव्यास भगवान्‌ रक्षा करजो. पाखण्डीओथी अने प्रमादथी बुद्धावतार रक्षा करजो. धर्मरक्षाने माटे महान अवतार धारण करवावाळा भगवान्‌ कल्कि पापबहुल कलिकालना दोषोथी मारी रक्षा करजो ॥१९॥

सवारमां भगवान्‌ केशव गदाथी मारुं रक्षण करजो. वेणुधारी गोविन्द भगवान्‌ थोडो दिवस चढी आवे त्यारे रक्षा करजो. बरछीधारी नारायण पूर्वाहण काळमां रक्षा करजो, भगवान्‌ विष्णु चक्रराज सुदर्शन लई मध्याह्‌न काळमां रक्षा करजो ॥२०॥

उग्र धनुष्यधारी मधुसुदन भगवान्‌ त्रीजा पहोरे रक्षा करजो. ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ए त्रण मूर्तिवाळा माधव भगवान्‌ सायङ्काळे रक्षा करजो. सूर्यास्त पछी हृषीकेश अने मधराते तथा मधरात पहेलां एकला पद्मनाभ भगवान्‌ रक्षा करजो ॥२१॥

श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि भगवान्‌ पाछली राते रक्षा करजो. खड्‌गधारी जनार्दन भगवान्‌ उषाकाल वखते रक्षा करजो. दामोदर भगवान्‌ सूर्योदय पहेलां रक्षा करजो. काळमूर्ति विश्वेश्वर भगवान्‌ बधी सन्ध्याओ वखते रक्षा करजो ॥२२॥

सुदर्शन! आपनो आकार चक्र (रथना पैडा) जेवो छे. आपनी किनारीनो भाग प्रलयकाळना अग्नि जेवो अत्यन्त तीव्र छे. आप भगवाननी प्रेरणाथी चोतरफ घूम्या करो छो. जेवी रीते आग वायुनी सहायथी सूका घासफूसने बाळी नाखे छे तेवी [[१७२]] ज रीते आप अमारी शत्रु सेनाने धडधडाट बाळी नाखो, बाळी नाखो ॥२३॥

कौमोदकी गदा, आपमान्थी छूटती चिनगारीओनो स्पर्श वज्रना जेवो असह्य छे. आप भगवान्‌ अजितनी प्रिया छो अने हुं छुं एमनो दास. तेथी आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत अने प्रेतादि ग्रहो ने सडसडाट कचरी नाखो, कचरी नाखो तथा मारा शत्रुओने चूर्ण करी नाखो ॥२४॥

शङ्खश्रेष्ठ! आप भगवान्‌ श्रीकृष्णनी फूङ्कथी भयङ्कर अवाज करी मारा शत्रुओनां दिल ध्रुजावी दो अने यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस वगेरे भयानक प्राणीओने अर्हीथी झटपट भगाडी मूको ॥२५॥

भगवाननी प्यारी तलवार! आपनी धार अत्यन्त तीक्ष्ण छे. आप भगवाननी प्रेरणाथी मारा शत्रुओने छिन्न-भिन्न करी दो. भगवाननी प्यारी ढाल, आपमां सेङ्कडो चन्द्राकार मण्डल छे. आप पाप दृष्टिवाळा पापात्मा शत्रुओनी आङ्ख बन्ध करी दो अने एमने सदाने माटे अन्ध बनावी दो ॥२६॥

सूर्य वगेरे ग्रह, धूमकेतु वगेरे केतु, दुष्ट मनुष्यो, सर्प वगेरे पेटे चालनारां जन्तुओ, दाढवाळां हिंसक पशु भूत-प्रेत वगेरे तथा पापी प्राणीओथी अमने जे-जे भय होय अने जे-जे अमारा मङ्गलना विरोधी होय ते बधा भगवानना नाम, रूप तथा आयुध ना कीर्तन करवाथी तत्काल नाश पामे ॥२७-२८॥

बृहद्‌, रथन्तर आदि सामवेदनां स्तोत्रोथी जेमनी स्तुति करवामां आवे छे ते वेदमूर्ति भगवान्‌ गरुड अने विष्वक्‌सेनजी पोताना नामोच्चारणना प्रभावथी अमने बधा प्रकारनी विपत्तिओथी बचावे ॥२९॥

श्रीहरिनां नाम, रूप, वाहन, आयुध अने श्रेष्ठ पार्षद अमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन अने प्राणोने बधा प्रकारनी आपत्तिओथी उगारी ले ॥३०॥

नित्यानित्य जणातुं सघळुं जगत्‌ खरी रीते भगवाननुं ज स्वरूप छे. आ सत्यथी अमारा सघळा उपद्रव नाश पामो ॥३१॥

अभेद दृष्टिवाळाओने भगवान्‌ भेद रहित छे तो पण ए पोतानी मायाथी भूषण, आयुध अने लिङ्गस्थ नामनी शक्तिओने धारण करे छे ए वात निश्चित रूपथी खरी छे ॥३२॥

तो ए सत्य अनुसार सर्वज्ञ सर्व व्यापक भगवान्‌ श्रीहरि सर्व स्वरूपोवडे सर्वकाळमां अने सर्वदेशमां अमारी रक्षा करो ॥३३॥

[[१७३]] चारेय दिशाओमां, खूणाओमां, उपर-नीचे, अन्दर-बहार बधे बधा लोकोना भयने पोतानी गर्जनाथी दूर करनारा अने पोताना तेजथी बीजा बधाना तेज- प्रभावनो नाश करनारा नृसिंह भगवान्‌ अमारी रक्षा करो ॥३४॥

विश्वरूपे कह्युं - हे इन्द्र! में तने आ ‘नारायण कवच’ कह्युं ते धारण करी ले. पछी तुं मोटा-मोटा दैत्योने वगर परिश्रमे जीती शकीश ॥३५॥

आ कवचने धारण करनार पुरुष जेनी पण सामु जुए के जेनो पगथी स्पर्श करे ते पण समस्त भयथी मुक्त थई जाय छे ॥३६॥

आ वैष्णवी विद्या धारण करनारा पुरुषने राजा, चोर, ग्रह के वाघ आदि हिंसक पशुओथी कदी पण भय थतो नथी ॥३७॥

प्राचीन काळमां आ विद्याने धारण करनार कोई कौशिक गोत्रना ब्राह्मणे आ विद्या धारण करी योग धारणाथी निर्जन देशमां (मारवाडमां) पोतानो देह छोडेलो ॥३८॥

एक दिवसे पोतानी स्त्रीओ साथे गन्धर्वोनो अधिपति चित्ररथ विमानमां बेसीने आकाशमां जतो हतो ते ज्यां ब्राह्मणनो देह पड्यो हतो त्यां उपर आवतां तुरत विमान सहित ऊन्धे माथे पृथ्वी पर पड्यो. आ घटनाथी एना आश्चर्यनी सीमा न रही, ज्यारे वालखिल्य मुनिओए एने समजाव्युं के आ नारायणकवच धारण करवानो प्रभाव छे. त्यारे चित्ररथे ए ब्राह्मणनां अस्थिने उपाडी प्राची-सरस्वतीमां वहावी दीधां अने पछी ए स्नान करी पोताना लोकमां गयो॥३९-४०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जे माणस आ ‘नारायण कवच’ ने योग्य समयमां आदर सहित साम्भळे के धारण करे तेनी सामे बधां प्राणीओ आदरथी नमी पडे छे अने ते बधी जातना भयथी मुक्त थई जाय छे ॥४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः। त्रैलोक्‌यलर्क्ष्मी बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान्‌ ॥४२॥

परीक्षित, विश्वरूप पासेथी आ विद्याने प्राप्त करी इन्द्रदेवे युद्धमां दैत्योने जीती लई त्रैलोक्यनुं राज्य भोगव्युम् ॥४२॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां नारायणकवच नामनो पाञ्चमो) ‘‘इन्द्रने नारायण कवचनी प्राप्ति’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१७४]]

अध्याय ९

विश्वरूपनो वध, त्वष्ठाथी वृत्रासुरनी उत्पत्ति, वृत्रासुरथी देवताओनी हार अने भगवाननी प्रेरणाथी देवताओनुं दधीचि ऋषिनी पासे जवुं

विशेषः आ नवमां अध्यायमां गुरुनो वध करनार इन्द्र उपर भगवाने अनुग्रह कर्यो अने ब्रह्महत्याना विभाग कर्या ए कथा कहेवाय छे. तस्यासन्‌ विश्वरूपस्य शिरांसि त्रीणि भारत ॥ सोमपीथं सुरापीथमन्नादमिति शुश्रुम ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! अमे साम्भळ्युं छे के *विश्वरूपने त्रण मस्तक हतां तेमां एक मुखथी सोमपान करता, बीजाथी सुरापान करता अने त्रीजाथी अन्न खाता ॥१॥

विशेष - विश्वरूपने त्रण माथां हतां. तेमां एक मनुष्यनुं, बीजुं देवनुं तथा त्रीजुं दैत्यनुं देवोना गुरु थया पहेलां ए मनुष्य हतो. गुरु थया पछी ए देव थयो. अन्ते यज्ञमां दैत्यनो पक्षपात करवाथी ए दैत्य थयो. आम सत्त्व, रज अने तम ए त्रणे गुण एनामां हतां. जो के ए भगवाननो मर्यादापुष्टि भक्त हतो, छतां भगवान्‌ दैत्यनो थोडो अंश पण सहन करी शकता नथी माटे एनो नाश कराव्यो. आ उपरथी समजवानुं छे के पुष्टिमार्गमां रही कोईनो द्वेष के पक्षपात करवो नहि पण केवळ हरिभक्ति करवी. ए विश्वरूपना पिता त्वष्टा आदि बार आदित्य देवता हता तेथी ए पोते यज्ञमां देवोने भाग देवाना मन्त्र प्रत्यक्ष रीते विनय सहित ऊञ्चास्वरथी बोली तेमने आहुति आपता हता ॥२॥

एनी माता दैत्योनी नानी बहेन रचना असुर कुलनी हती तेथी मातृस्नेहने वश थई ए यज्ञ करती वखते ते प्रमाणे असुरोने भाग पहोञ्चाड्या करता हता ॥३॥

धर्मना कपटरूप एनो ए अपराध जोईने दैत्योथी भय पामेला इन्द्रदेवे क्रोधथी तुरत एनां माथां कापी नाख्याम् ॥४॥

जे सिर सोमपान करतुं हतुं तेमान्थी पपैयो (चातक) पक्षी थयो, सुरापान करतुं हतुं तेमान्थी जलचर काळी चकली थई अने अन्न खावानुं हतुं तेमान्थी तेतर पक्षी थई [[१७५]] गयुम् ॥५॥

जो के इन्द्र धारत तो ब्रह्म हत्यानुं निवारण करवाने शक्तिमान हता तो पण एणे एक वर्ष सुधी ब्रह्म हत्या धारण करी. पछी एक वर्ष सुधी ब्रह्म हत्या धारण करी. पछी एक वर्ष पूरुं थतां लोकापवादने टाळवाने एणे ए हत्याने चार भागे वहेञ्ची पृथ्वी जळ, वृक्ष अने स्त्रीओ ने आपी ॥६॥

पृथ्वीए एक भाग एवा वरदानने बदले लीधो के मारामां जे खाडो पडे ते एनी मेळे पुराई जाय. जेटलो खारो भाग जोवामां आवे छे ते पृथ्वीमां ब्रह्महत्यानुं रूप छे ॥७॥

एक भाग वृक्षोए लीधो ए एवुं वरदान मागीने लीधो के अमने काप्या छतां अमे फरीथी ऊगी आवीए, वृक्षोमां जे गुन्दर देखाय छे ते ब्रह्महत्यानुं स्वरूप छे ॥८॥

एक भाग स्त्रीओए लीधो ते एवी शरते के तेओ सर्वदा पुरुष सहवास करी शके. महिने महिने रज आवे छे ते स्त्रीओमां ब्रह्महत्यानुं स्वरूप देखाय छे ॥९॥

एक भाग जळे लीधो ए एवा वरदानना बदलामां के अमने कूवा वगेरेमान्थी उलेची नाखवामां आवे तो पण पाछां एटलां ज थई रहीए. जळमां परपोटा अने फीण देखाय छे ते ब्रह्महत्यानुं स्वरूप छे. तेथी मनुष्यो तेने हटावी जळ ग्रहण करता होय छे ॥१०॥

विश्वरूपना मृत्यु पछी एना पिता त्वष्टादेवे इन्द्रनो शत्रु उत्पन्न करवा सारु ‘‘हे *इन्द्रशत्रो वृद्धि पाम अने जलदी शत्रुने मार’’ एवा अर्थनो मन्त्र बोलीने अग्निमां होम करवा लाग्या ॥११॥

विशेष - ए शब्दनो उच्चार करतां त्वष्टानी, आदि उदात्त स्वर बोलवानी भूल थई गई तेथी व्याकरणनी रीत प्रमाणे बहुव्रीहि समासनुं लक्षण थवाथी इन्द्र ज एनो शत्रु थयो एम शिक्षामां लख्युं छे. यज्ञ समाप्त थतां ए होमना प्रभावने लीधे दक्षिणाग्निमान्थी एक भयङ्कर रूपवाळो दैत्य प्रलयकाळमां लोकोना काळनी जेम प्रकट थयो ॥१२॥

फेङ्केलुं बाण जेटला हाथ दूर पडे तेटला हाथ ए दररोज चारे बाजू वधतो जतो हतो; ए बळी गयेला पर्वत जेवो काळो अने महाकाय हतो; अने सन्ध्यासमयनां अनेक वादळां जेवुं एनुं तेज हतुम् ॥१३॥

[[१७६]] एनी मूछो अने मस्तक ना केशनी लटो तपावेला त्राम्बा जेवी हती; आङ्खो मध्याह्‌नकाळना सूर्य जेवी प्रचण्ड हती ॥१४॥

एणे जाणे पोताना अत्यन्त प्रकाशवाळा अणीओना त्रिशूळमां पृथ्वी अने अन्तरिक्ष ने परोवी लीधां होय एम लागतुं हतुं ए नाचतो हतो, गर्जना करतो हतो अने पगथी धरतीने ध्रुजावतो हतो ॥१५॥

गुफा जेवडा मोटा अने ऊण्डा मोढाथी जाणे ए आकाशने पी जतो होय जीभथी नक्षत्रोने चाटतो होय अने मोटी दाढोथी त्रैलोक्यने गळी जतो होय एवो लागतो हतो. ए प्रमाणे वारंवार बगासां खाता ए पुरुषने जोईने त्रास पामेला सर्वे लोको दशे दिशाओमां नासभाग करवा लाग्या ॥१६-१७॥

ए त्वष्टाना तमोगुणी पुत्रे आ सघळा लोकोने र्वीटी लीधा तेथी ए अत्यन्त क्रूर अने पापी पुरुष नुं ‘वृत्र’ एवुं नाम पड्युम् ॥१८॥

पोताना सैन्य सहित मोटा-मोटा देवो एना उपर तूटी पड्या अने पोत- पोतानां दिव्य अस्त्रशास्त्रोथी एने मारवा लाग्या पण ए वृत्रासुर ए सघळां हथियारोने गळी गयो ॥१९॥

हवे तो देवताओना आश्चर्यनी सीमा न रही. एमनो प्रभाव चाल्यो गयो. तेओ बधा दीन-हीन अने उदास थई गया तथा एकाग्र चित्तथी पोताना हृदयमां बिराजता आदिपुरुष श्रीनारायणने शरणे गया ॥२०॥

देवो स्तुति करे छे - वायु, आकाश, अग्नि, जळ, पृथ्वी आ पञ्च महाभूत एनाथी बनेला त्रणेय लोक एना अधिपति ब्रह्मादि तथा अमे बधा देवता जे काळथी डरीने एमने पूजा-सामग्री भेट धर्या करे छे ते ज काळ भगवान्‌थी भयभीत रहे छे. तेथी हवे तो ते भगवान्‌ ज अमारा रक्षक छे ॥२१॥

अहङ्कार रहित, शान्त, स्वरूपना लाभथी ज पूर्णकाम अने उपाधिरहित छे तेवा परमेश्वरने छोडी दईने जे पुरुष बीजानुं शरण ले छे ते मूर्ख कूतरान्नुं पूछडुं पकडीने समुद्रने तरवा इच्छे छे ॥२२॥

पाछला कल्पना अन्तमां वैवस्वत मनु जेना मोटा शिङ्गडामां पृथ्वीरूप वहाणने बान्धीने अनायास सङ्कटने तरी गया हता ते मत्स्यावतार भगवान्‌ आ वृत्रासुररूपी अपार भयथी अमो आश्रितोनी अवश्य रक्षा करशे ॥२३॥

प्राचीन काळमां भारे पवनना झपाटाथी खळभळी रहेलां मोजाना शब्दोथी [[१७७]] विकराळ प्रलयना जळमां कमळ उपरथी गबडी पडेला ब्रह्माजी एकला हता तो पण ए जे ईश्वरनी सहायताथी सङ्कटमुक्त थया हता ते ईश्वर आ सङ्कटमान्थी अमने तारजो ॥२४॥

जेणे एकलाए ज पोतानी मायाथी अमने उत्पन्न कर्या छे, जेना अनुग्रहथी अमे सृष्टिकार्यनुं सञ्चालन करीए छीए, जे स्वामी अमारा पहेलां ज अन्तर्यामीपणाथी काम करे-करावे छे तो पण अमे जुदा-जुदा स्वामित्वनुं अभिमान धरावता होवाथी एना स्वरूपने जाणता नथी ॥२५॥

ते स्वामी प्रत्येक युगमां पोते नित्य छतां देव, ऋषि, पशु, पक्षी तथा मनुष्यो मां पोतानी मायाथी अवतार धरीने ए अवतारोद्वारा अमने पोताना लेखी, शत्रुओनी पीडाथी अमारुं रक्षण करे छे ॥२६॥

ते ज बधाना आत्मा अने परम आराध्य देव छे. ए ज प्रकृति अने पुरुषरूप थी विश्वनुं कारण छे ते विश्वथी पृथवक पण छे अने विश्वरूप पण छे. अमे बधा ए ज शरणागतवत्सल भगवान्‌ श्रीहरिनुं शरण ग्रहण करीए छीए. उदारशिरोमणि प्रभु अवश्य निजजन अम देवताओनुं कल्याण करशे ॥२७॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! ए प्रमाणे देवोए स्तुति करी त्यारे शङ्ख, चक्र, गदा अने पद्म ने धरनार भगवान्‌ पश्चिम दिशामां (अन्तर्देशमां) प्रकट थया ॥२८॥

भगवानना नेत्रो शरदऋतुना कमलना जेवां खीलेलां हतां. श्रीवत्स अने कौस्तुभमणि सिवाय बाकी सघळी भगवानना सरखी ज निशानीवाळा सुनन्दादिक सोळ पार्षदो ए भगवानने चारे बाजुएथी सेवता हता ॥२९॥

भगवानना दर्शनथी आनन्दथी विह्‌वळ थयेला सघळा देवो प्रथम पृथ्वी उपर दण्डवत्‌ प्रणाम करी पगे लाग्या अने पछी धीरे-धीरे ऊठीने स्तुति करवा लाग्या ॥३०॥

देवो (फरीवार)स्तुति करे छे - हे यज्ञनुं फल आपवाना सामर्थ्यवाळा! एना फलनी सीमा नक्की करवावाळा, यज्ञमां विघ्न करवावाळा दैत्योने आप चक्रथी छिन्न- भिन्न करी नाखो छो तेथी आपनां नामोनी कोई सीमा नथी. अमे आपने वारंवार प्रणाम करीए छीए ॥३१॥

हे विधाता! सत्त्व, रज, तम-आ त्रण गुणो अनुसार जे उत्तम, मध्यम अने [[१७८]] निकृष्ट गतिओ प्राप्त थाय छे तेना नियामक आप ज छो. आपना परमपदनुं आ कार्यरूप जगतनुं-वास्तविक स्वरूप कोई आधुनिक प्राणी जाणी शकतुं नथी ॥३२॥

हे भगवान्‌! हे नारायण! हे वासुदेव! हे आदिपुरुष! हे महापुरुष! हे मोटा प्रभाववाळा! हे परम मङ्गळरूप! हे परम कल्याण स्वरूप! हे परम दयाळु! हे जगतना एकला ज आधाररूप!, हे लोकना अधिपति! हे सर्वेश्वर! हे लक्ष्मीपति!, प्रभु!, परमहंस!, परिव्राजक!, विरक्त! महात्मा ज्यारे आत्मसंयमरूप परम समाधिथी आपनुं एकाग्र चिन्तन करे छे त्यारे एमना शुद्ध हृदयमां परमहंसोनो धर्म वास्तविक भगवद्भक्तिनो उदय थाय छे तेथी एमना हृदयना अज्ञानरूप बारणां खुली जाय छे अने तेमना आत्मलोकमां आप आत्मानन्दना रूपमां कंई आवरण विना प्रकट थई जाओ छो अने तेओ आपनो अनुभव करी न्याल (कृतार्थ) थई जाय छे. अमे आपने वारंवार प्रणाम करीए छीए ॥३३॥

आपनी लीलानो प्रकार समजी शकाय एवो नथी केमके आप आश्रयरहित, शरीररहित अने निर्गुण छो अने अमारी सहायतानी इच्छा न राखतां निर्विकार स्वरूपथी ज आ जगतने सरजो छो, पाळो छो अने संहारो छो ॥३४॥

प्राकृत पुरुष जेम घर बान्धीने पोते करेला शुभ अशुभनुं फळ भोगवे छे तेम आप सृष्टि बनावी एमां जीवरूपथी पडीने परतन्त्रताथी पोते करेलां पाप-पुण्यनां फळ भोगवो छो के आत्माराम, शान्तिशील अने अखण्ड चैतन्यरूप रहीने साक्षीपणाथी वर्तो छो ए अमे बराबर जाणी शकता नथी ॥३५॥

परन्तु आपना स्वरूपमां ए बन्ने वातनो विरोध आवतो ज नथी. अनन्त गुणवाळा अने अति गम्भीर महिमावाळा आपना ईश्वर-स्वरूप मां संशय अने विचार थी उत्पन्न कल्पित प्रमाण अने एनुं समर्थन करनारा कुतर्कोथी भरेलां शास्त्रोथी जेमनां अन्तःकरण व्याकुळ थयेलां छे अने एने लीधे जेओ दुराग्रहथी प्रेराई वाद करे छे तेमना विवादने अवकाश ज नथी. जो के आपनुं स्वरूप सर्व प्रपञ्चथी रहित अने केवळ छे तो पण जो तेमां मायाने वचमां राखीए तो कई बाबत अघटित जेवी रहे? वास्तविक रीते कर्तापणुं होय तो विरोध आवे, परन्तु स्वरूपमां भेद नहि होवाथी एवुं कांई छे ज नहि ॥३६॥

जेम एक ज दोरीनो कटको जुदा-जुदा जोनाराओने सर्प, माला वगेरे जुदाजुदा रूपमां जणाय पण जाणकारने रस्सीना रूपमां जणाय तेम आप एक ज छो [[१७९]] ते भ्रान्त बुद्धिवाळाओने अनुग्रह करनार के निग्रह करनार एम भिन्न-भिन्न रूपे अने ज्ञानीने शुद्ध सच्चिदानन्दना रूपमां आप जणाओ छो. आप बधानी बुद्धिनुं अनुसरण करो छो ॥३७॥

अनेक रूपथी देखाता आप एक ज छो; सर्व वस्तुओमां सत्‌ स्वरूप छो, सर्वना ईश्वर छो, सर्व जगतना कारणोना कारणरूप छो, सर्वना अन्तर्यामीपणाने लीधे आप सर्व विषयोनो प्रकाश करो छो तेथी ज श्रुतिओ आप एकने ज सर्वना अवशेषरूप गणे छे ॥३८॥

मधुसूदन! आपना अमृतमय महिमा रसनो अनन्त समुद्र छे. तेनी नानी शी छाण्टनो पण, वधारे नहि एकवार पण स्वाद चाखी लेवाथी हृदयमां परमानन्दनी अखण्ड धारा वहेवा लागे छे. एने लीधे अत्यार सुधी जगतमां विषयभोगोना जेटला लेश मात्र सुखनो अनुभव थयो छे अथवा परलोक वगेरेना विषयमां साम्भळवामां आव्युं छे ते बधुं ज जेओ भूली गया छे, समस्त प्राणीओना परम प्रियतम हितैषी, सुहृद अने सर्वात्मा आप ऐश्वर्य निधि परमेश्वरमां जे पोताना मनने नित्य-निरन्तर लगाडी राखे छे अने आपना स्मरणनुं ज सुख लूट्या करे छे ते आपना अनन्य प्रेमी परमभक्तो ज पोताना स्वार्थ अने परमार्थ मां कुशळ छे. मधूसूदन! आपना ए लाडका अने सुहृद भक्तो भला आपना चरणकमलोनुं सेवन केवी रीते छोडी शके, जेनाथी चोरासीना फेरामान्थी सदाने माटे छुटकारो मळी जाय छे? ॥३९॥

हे त्रैलोक्यना आत्मा अने आश्रय रूप! हे त्रिविक्रम! हे दण्ड देनार! जो के दैत्य अने दानवो आपनी विभूतिरूप छे तो पण एमनी उन्नतिनो आ समय नथी एम मानी जेम आपे पूर्वे मायावडे सुर, नर, पशु, मिश्रित तेमज मत्स्य आदि जळचरोना अवतार धरी एमने दण्ड दीधो छे तेवी रीते हमणां पण जो आपने योग्य लागे तो आ वृत्रासुरनो नाश करी नाखो ॥४०॥

हे पिता! हे पितामह! हे निर्दोष! अमारां नमेलां हृदयमां आपना चरणारविन्दना ध्यानरूपी बन्धनथी अमे बन्धाई गया छीए; आपे आपनुं स्वरूप प्रकट करी अमने अपनाव्या छे. अमारां अन्तःकरणना तापने दयावडे आपनी स्वच्छ, सुन्दर अने शीतळ हास्ययुक्त दृष्टिथी तेमज मुखमान्थी नीकळेली मधुर रसमय वाणीरूप अमृतनी कळाथी शमावो ॥४१॥

[[१८०]] प्रभो! जेवी रीते अग्निनी ज अंशभूत चिनगारीओ अग्निने प्रकाशित करवामां असमर्थ छे तेवी ज रीते अमे पण आपने अमारो कोई पण स्वार्थ के परमार्थ निवेदन करवामां असमर्थ छीए. आपने भला, कहेवानुं ज शुं होय? कारण के हे भगवान्‌! सर्व जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना काळमां निमित्तरूप बनी दिव्य मायावडे आप विनोद करो छो. सघळा जीवना समूहोनो अन्तःकरणमां ब्रह्मरूप तथा अन्तर्यामी स्वरूपवडे तेमज बहार प्रधानरूपवडे सर्वना मूळ कारणरूप होवाथी आप देश, काळ तथा देह नी अवस्थाओनो अनुभव करनार छो तथा बुद्धि वगेरे सघळा पदार्थोना साक्षी निरञ्जन स्वरूप परमात्मा अने परब्रह्म छो ॥४२॥

एटलामाटे शरणागतोनां अनेक प्रकारनां पापोना फलस्वरूप जन्म मृत्यरूप संसारमां भटकवाना परिश्रमोने मटाडनारी, अमारा परमगुरु एवा आपना चरणारविन्दनी छायामां जे कार्यनी इच्छाथी अमे आवेला छीए ते कार्यने आप पोते ज करी आपो ॥४३॥

हे परमेश्वर! त्रैलोक्यने गळी जता आ वृत्रासुरने हवे तुरत मारो; ए अमारां तेज, अस्त्रो अने आयुधो ने गळी गयो छे ॥४४॥

आप शुद्ध हृदयाकाशमां वास करीने रहेला छो, बुद्धि वगेरेना साक्षी छो, सत्य, आनन्दरूप अने मनोहर कीर्तिवाळा छो, अनादि छो अने संसाररूप मार्गना पथिक जे सत्पुरुषो घूमता-घूमता आपने शरणे आवे छे तेनो स्वीकार करी तेने अन्ते उत्तमफळ आपवावाळा छो; एवा आप ईश्वरने अमे प्रणाम करीए छीए ॥४५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एवी रीते देवोए आदर सहित स्तुति करी तेनाथी प्रसन्न थयेला भगवाने एमने आ प्रमाणे कह्युम् ॥४६॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे उत्तम देवो! मारी स्तुति सहित ब्रह्मविद्याथी पुरुषोने पोताना ब्रह्मपणानुं स्मरण थाय छे अने एमनामां मारी भक्ति उत्पन्न थाय छे. तमारी स्तुतिथी हुं प्रसन्न थयो छुम् ॥४७॥

अने हुं प्रसन्न थाउं त्यारे कई वस्तु दुर्लभ रहे? तो पण मारो अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मारा सिवाय बीजुं कांई पण इच्छतो नथी ॥४८॥

जे पुरुष विषयसुखोने साचां जाणे छे ते अज्ञानी पुरुषने एना खरा कल्याणनी खबर नथी. तेथी विषयसुखोनी इच्छावाळाने जो एनो इष्ट देव एमां सुख आपे तो ए देवने अज्ञानी समजवो ॥४९॥

[[१८१]] जे खरा कल्याणने जाणनारो विद्वान छे ते अज्ञानी पुरुषने कर्म करवानो उपदेश करे ज नहि; जे सारो वैद्य होय ते कुपथ्य खावाने इच्छता रोगीने कुपथ्य आपे ज नहि ॥५०॥

देवराज इन्द्र! तमारुं कल्याण हो. हवे ढील न करो. हाल तमारा अभिप्रायने अनुसरीने कहुं छुं के दधीचि मुनि सर्व ऋषिओमां श्रेष्ठ छे तेमनी पासे तमे जाओ अने विद्या, व्रत अने तप थी दृढ थयेला एमना शरीरने मागी लो ॥५१॥

ए दधीचि मुनि शुद्ध अने निर्विकार ब्रह्मने जाणी चूक्या छे. एमणे घोडाना माथावडे *अश्विनीकुमारने ते ब्रह्म विद्यानो उपदेश करेलो, जेनाथी अश्विनीकुमार जीवन मुक्त थया ॥५२॥

विशेष - दधीचि मुनि ब्रह्मविद्यामां प्रवीण छे एम जाणी अश्विनीकुमारे आवीने एमने कह्युं के अमने ब्रह्मविद्या आपो. दधीचिए कह्युं के हमणां हुं काममां छुं माटे पछी आवजो. ए साम्भळी अश्विनीकुमार त्यान्थी जतां इन्द्रे आवीने ए ऋषिने कह्युं के ए वैद्योने तमे विद्या आपशो नहि अने आपशो तो हुं तमारुं माथुं कापी नाखीश. एम कहीने इन्द्र जतां पाछा अश्विनीकुमार त्यां आव्या. मुनिनी वात साम्भळी ए बोल्या के अमे प्रथम तमारुं माथुं कापीने घोडानुं माथुं सान्धीशुं. ए मोढाथी तमारे विद्यानो उपदेश करवो अने ए माथुं इन्द्र कापी नाखशे एटले पछी तमारुं मूळ माथुं अमे पाछुं सान्धी दईशुं. पछी ऋषिए ए प्रमाणे घोडाना मोढाथी उपदेश कर्यो अने ए माथुं इन्द्रे कापी नाखतां अश्विनीकुमारे पाछुं प्रथमनुं माथुं सान्धी आप्युं एवी कथा छे. हे इन्द्र! ए अथर्ववेदने जाणनारा दधीचि मुनि अभेध अने मारा रूप ज ‘नारायण कवच’ ने पण जाणे छे. दधीचि मुनिए ज पहेल पहेलां ए ‘नारायण कवच’ त्वष्टाने आप्युं हतुं त्वष्टाए विश्वरूपने आप्युं हतुं अने विश्वरूप पासेथी तमने मळ्युं छे ॥५३॥

तमे मागशो एटले धर्मने जाणनार दधीचि मुनि अश्विनीकुमारनी उपर प्रीतिने लीधे तमने पोतानां अस्थि आपशे ते अस्थिमान्थी विश्वकर्मा वज्र नामनुं उत्तम हथियार बनावी आपशे अने मारी शक्तिथी युक्त थई तमे ए हथियारथी वृत्रासुरनुं माथुं कापी नाखशो ॥५४॥

तस्मिन्‌ विनिहते यूयं तेजोऽस्त्रायुधसम्पदः। भूयः प्राप्स्यथ भद्रं वो न हिंसन्ति च मत्परान्‌ ॥५५॥

[[१८२]] वृत्रासुर हणाया पछी तमने तेज, अस्त्रशस्त्र अने सम्पत्ति पाछां मळशे तमारुं कल्याण थवानुं चोक्कस छे, कारण के मारा शरणागत भक्तोने कोई सतावी शकतुं नथी ॥५५॥

इति श्रीभागवत षष्ठ स्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां इन्द्रानुग्रह नामनो छठ्ठो) ‘‘विश्वरूपनो वध, त्वष्टाथी वृत्रासुरनी उत्पत्ति, देवताओनी हार, भगवाननी प्रेरणाथी देवताओनुं दधीचि पासे जवुं’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु पापी बीजो कोण!!! ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु (श्रोता) अहि (नाग=कथाकार) मणि (भागवत) अजवाळे त्यम तें उदर पोखी लीधुं!!! (दयाराम)

अध्याय १०

इन्द्र अने वृत्रासुर ना युद्धमां वृत्रासुरनुं धैर्य

विशेष - दशमां अध्यायमां दधीचिनां अस्थिमान्थी बनेलुं वज्र लईने देव सहित इन्द्रे वृत्रासुर अने एना सम्बन्धना दैत्यो साथे युद्ध कर्यानी कथाकहेवाशे. इन्द्रमेवं समादिश्य भगवान्‌ विश्वभावनः ॥ पश्यतामनिमेषाणां तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जगतनुं रक्षण करनार भगवान्‌ ए प्रमाणे इन्द्रने आज्ञा करी देवोना देखतां ज अन्तर्धान थई गया ॥१॥

पछी देवोए उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषिनी भगवानना कहेवा प्रमाणे प्रार्थना करी. त्यारे प्रसन्न थयेला ए ऋषि हसतां-हसतां नीचे प्रमाणे बोल्या ॥२॥

दधीचिए कह्युं - देवताओ! आप लोकोने कदाच ए वातनी खबर नथी के मरती वखते प्राणीओने बहु ज कष्ट थाय छे. एमने ज्यां सुधी चेतना रहे छे त्यां सुधी

ईं उं ईं उं

[[१८३]] भारे असह्य पीडा सहन करवी पडे छे अने अन्ते तेओ मूर्छित थई जाय छे ॥३॥

जीववानी इच्छावाळा जीवोने संसारमां सौ करतां पोतानो देह वहालो होय छे; एवा देहने विष्णु पोते मागवा आवे तो पण एने आपी देवानुं कोण साहस करे? ॥४॥

देवोए कह्युं - हे महाराज! आपना जेवा उदार ज अने प्राणीओ उपर दया करनारा महात्माओना कर्मोनी यशस्वी लोको प्रशंसा करता होय छे तेमनेमाटे कई वस्तु त्याग करवाने अशक्य होय? ॥५॥

ए वातमां सन्देह नथी के मागवावाळा लोको स्वार्थी होय छे. तेओमां देवावाळानी कठणाईनो विचार करवानी बुद्धि नथी होती जो होय तो तेओ मागे ज केम? ए ज प्रमाणे दाता पण मागवावाळानी तकलीफ नथी जाणता होता, जो जाणता होय तो तेओना मोढेथी ना नीकळे नहि. (तेथी आप अमारी विपत्तिनो ख्याल करी अमारी याचना पूर्ण करवानी कृपा करो) ॥६॥

दधीचिए कह्युं - आटली धर्मनी वात साम्भळवा सारु ज में तमने ना कही हती. आ देह कोई दिवसे तो मने मूकीने चाल्यो जवानो ज छे तो लो हुं पोते ज तमारा प्रियने माटे त्याग करुं छुम् ॥७॥

हे देवो! प्राणीओ उपर दया राखीने जे पुरुष आ अध्रुव देहथी मुख्यतः धर्मनुं अने गौणतः यशनुं सम्पादन न करे ते पुरुष जड-झाड-झाङ्खरां थी पण धिक्कारवा योग्यछे ॥८॥

मोटा-मोटा महात्माओए आ अविनाशी धर्मनुं सेवन कर्यु छे. एनुं स्वरूप आटलुं ज छे के बीजाना दुःखे दुःखी अने बीजाना सुखे सुखी थवुम् ॥९॥

अहो! पोताना उपयोगमां न आवता कूतरां, कागडा वगेरेने काम आवे एवां क्षणभङ्गुर धन, पुत्रादिक अने शरीर थी जो लोको परायो उपकार न करे तो ए ज मोटामां मोटी कृपणता अने अफसोस नी वात छे ॥१०॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युंः ए प्रमाणे निश्चय करी अथर्ववेदी दधीचि ऋषिए परब्रह्म भगवान्‌मां पोताना आत्माने एक करी दईने देह, छोडी दीधो ॥११॥

तेनां इन्द्रियो, प्राण, मन अने बुद्धि नियममां हतां. दृष्टि तत्त्वमयी हती. बधा बन्धन कपाई गया हतां तेथी तेनो उत्तम योगना आश्रये देह छूटी गयो एनी खबर पण पडीनहि ॥१२॥

[[१८४]] हे राजा! पछी मुनिनां अस्थिओमान्थी विश्वकर्माए वज्र बनाव्युं तेने उपाडी वृद्धि पामेल भगवत्तेज युक्त इन्द्रदेव ऐरावत हाथी पर बेठो ॥१३॥

सर्व देवो आसपास ऊभा रह्या अने मुनिओ एमनी स्तुति करवा लाग्या. त्रैलोक्यने जाणे हर्षित करतो तेवो एइन्द्र क्रोध करीने शोभतो हतो. जेम रुद्र काळनी उपर दोड्या हता तेम मोटा दैत्योथी र्वीटायेला वृत्रासुरउपर ए जोरथीधस्यो ॥१४-
१५॥

अत्यारे जे वैवस्वत मन्वन्तर चाली रह्यो छे एनी पहेली चोकडीनो त्रेतायुगनो हजु आरम्भ ज थयो छे. ते समये नर्मदाजीने काण्ठे देवो अने दैत्यो वच्चे महादारुण सङ्ग्राम थयो ॥१६॥

रुद्र, वसु, आदित्य, बन्ने अश्विनीकुमारो, पितृओ, अग्निओ, वायु, ऋभु, साध्यो अने विश्वदेवो साथे पोतानी कान्तिथी शोभता वज्रधारी इन्द्रने युद्धमां सामे आवेला जोईने वृत्रासुर तथा दैत्यो वधारे चिडाई गया ॥१७-१८॥

नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्द्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति, उत्कल, बीजा पण दैत्यो दानवो यक्षो अने सुमाली तथा माली वगेरे हजारो राक्षसो जेओए सोनानां बखतर धारण कर्या हतां तेओ मृत्युमाटे पण अजेय तेवी इन्द्रनी मुख्य सेनाने आगळ वधती रोकवा लाग्या ॥१९-२१॥

जरा पण सम्भ्रममां नहि पडतां सिंहनाद करीने ए मदोन्मत्त दैत्यो गदा, परिध, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर,शूल, फरसी, तलवार शतध्नी(तोप) अने भुशुडिं वगेरे शस्त्रोतथा अस्त्रो चारे बाजूएथी देवोउपर झडी वरसावी तेमने ढाङ्की दीधा ॥२२-२३॥

एक पछी एक एटलां बाण चारेय तरफथी आवी रह्या हतां के बाणोना समूहथी ए देवो चारे तरफथी ढङ्काई गया अने वादळान्थी ताराओ अदृश्य थई जाय तेम एमां अदृश्य थई गया ॥२४॥

ते अस्त्रशस्त्रोथी देव-सौनिको नो वाळ पण वाङ्को थयो नहि. तेमणे पोतानी हाथ-चालाकीथी आकाशमां ज ए अस्त्रशस्त्रोना हजारो टुकडा करी नाख्या ॥२५॥

अस्त्र अने शस्त्रना समूह खूटी जतां दैत्यो देवोनां सैन्य उपर पर्वतोनां शिखरो, झाड अने पथराओ नो वरसाद करवा लाग्या. देवोए ए शिखरोने पण आगळनी पेठे कापी नाख्याम् ॥२६॥

[[१८५]] परीक्षित! ज्यारे वृत्रासुरना अनुयायी असुरोए जोयुं के एमना असङ्ख्य अस्त्रशस्त्र पण देवसेनाने कंई न करी शक्यां. वृक्षो, पथराओ अने पहाडोनां मोटां- मोटां शिखरोथी पण नहि घवायेल जोईने तेओ बहु त्रासी गया ॥२७॥

पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ज्यारे पोताना भक्तोनी रक्षा करता होय त्यारे पामर पुरुषोनी कठोर अने अमङ्गलमय वाणीनी तेमना भक्तो उपर कंई असर थती नथी. तेमज दैत्यो-देवताओ ने हराववा जे-जे प्रयत्न करता ते बधा निष्फळ थई जता ॥२८॥

शत्रुओनी धीरज खूटी गई. भगवानना अभक्त एवा तेमनो युद्ध करवानो उत्साह खूटी गयो. तेओ पोतानो परिश्रम व्यर्थ गयो छे एम मानी लडाईमां पोताना स्वामीने मूकी दईने नासवानो विचार करवा लाग्या ॥२९॥

ज्यारे ए मोटा मनना महावीर वृत्रासुरे पोताना पक्षना दैत्योने नासी जता जोया त्यारे तीव्र भयथी सघळां सैन्यने अस्त-व्यस्त अने भागा-भाग करतुं जोई, वीरलोकोने प्रिय लागे तेवुं अने समयने अनुकूळ वचन हसीने बोल्योःहे विप्रचित्ति! हे पुलोमा! हे मय! हे अनर्वा! हे शम्बर! भागो नहि, मारी एक वात साम्भळो ॥३०-३१॥

जन्मेला प्राणीने एक वखत मरवुं तो छे ज; मृत्युमान्थी बचवानो कोई पण उपाय शोधायो नथी. पण मरवाथी आ लोकमां यश अने परलोक मां स्वर्ग मळतुं होय तो एवा योग्य मरणने कोण न आवकारे? ॥३२॥

द्वौ सम्मताविह मृत्यू दुरापौ यद्‌ ब्रह्मसन्धारणया जितासुः। कलेवरं योगरतो विजह्याद्‌ यदग्रणीर्वीरशयेऽनिवृत्तः ॥३३॥

संसारमां बे प्रकारनां मोत परम दुर्लभ अने श्रेष्ठ गणवामां आव्यां छे एक तो योगी पोताना प्राणोने वश करी भगवत्‌ चिन्तनद्वारा शरीरनो परित्याग करे ते अने बीजुं युद्धभूमि उपर दुश्मननी साथे सामी छातीए लडतां-लडतां मरी जवुं.(तमे भला, आवो शुभ अवसर केम खोई रह्या छो?) ॥३३॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां वृत्रधैर्य निरूपण नामनो सातमो) ‘‘इन्द्र अने वृत्रासुरना युद्धमां वृत्रासुरनुं धैर्य’’ नामनो दसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१८६]]

अध्याय ११

युद्धमां वृत्रासुरने भक्तिप्रसादनी प्राप्ति

विशेष - अगियारमां अध्यायमां इन्द्रनी साथे युद्ध करतां वृत्रासुरने ज्ञानथी भरेला भक्तिप्रसादनी प्राप्ति थई ए कथा कहेवाशे. त एवं शंसतो धर्मं वचः पत्युरचेतसः ॥ नैवागृह्‌णन्‌ भयत्रस्ताः पलायनपरा नृप ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा!वृत्रासुर ए प्रमाणे धर्म वचन बोलतो हतो तो पण त्रास पामेला अने नासी जता ए मूर्ख दैत्योए ए वचन स्वीकार्युं नहि ॥१॥

वृत्रासुरे जोयु के समयनी अनुकूळताने लीधे देवतालोक आसुरोनी सेनानो नाश करी रह्या छे अने ते जाणे नायक वगरनी होय ए प्रमाणे छिन्न-भिन्न थई रही छे ॥२॥

आ जोईने वृत्रासुरने तो असहिष्णुता अने क्रोध नी झाळ लागी गई. तेणे बळ करीने देवसेनाने आगळ वधती रोकी दीधी अने तरछोडी आ प्रमाणे बोलवा लाग्योः ॥३॥

‘‘जेओ रणभूमि छोडी भागी रह्या छे तेवा मातानी विष्ठारूप दैत्योने पाछळथी मारवामां तमारो शो पुरुषार्थ छे? जेओ पोताने शूरवीर माने छे तेमने डरपोक लोकोने मारवानुं काम प्रशंसा आपे एवुं नथी तेम स्वर्ग आपे तेवुं पण नथी ॥४॥

हे क्षुद्र लोको! जो तमने युद्ध करवामां प्रीति होय अने हृदयमां धैर्य होय अने संसारमां सुखोनी इच्छा न होय तो मारी सामे एक क्षण मात्र उभा रहो’’ ॥५॥

एवी रीते बोली क्रोध पामेला शरीरथी देवोने बिवरावता ए महा बळवान वृत्रासुरे गर्जना करी तेथी लोको मूर्छित थई गया ॥६॥

वृत्रासुरनी भयङ्कर गर्जनाथी जाणे वीजळी पडी होय तेम सघळा देवो मूर्छा खाईने धरती पर पडी गया ॥७॥

युद्धरूपी अखाडामां मदोन्मत्त वृत्रासुर धरतीने ध्रुजावतो त्रिशूळ उगामीने ऊभो हतो. थाकेलां अने आङ्खो र्मीचीने पडेलां देवसैन्यने जेम गाण्डो हाथी घासना वनने कचरी नाखे तेम ए जोरथी कचडवा लाग्यो ॥८॥

एने जोई अत्यन्त क्रोध पामेला अने वज्रने धरनारा इन्द्रे ए दोडता आवता [[१८७]] पोताना शत्रुनी उपर मोटी गदा फेङ्की. वृत्रासुरे ए चाली आवती असह्य गदाने लीला मात्रथी डाबा हाथमां पकडी लीधी ॥९॥

हे राजा! अत्यन्त कोप पामेला अने भयङ्कर पराक्रमवाळा ए वृत्रासुरे युद्धमां गर्जना करीने ए गदाथी इन्द्रना हाथीना कुम्भस्थळमां प्रहार कर्यो. वृत्रासुरना आ कामने लोकोए वखाण्युम् ॥१०॥

वृत्रासुरनी गदा वागतां मोढुं भाङ्गी जवाथी ए ऐरावत हाथी घूमरी खाई लोही ओकतो वज्रथी तोडेला पर्वतनी पेठे बहु ज पीडातो इन्द्रसहित अठ्ठावीस हाथ पाछो हठी गयो ॥११॥

वाहनने पीडा थयेली जोई इन्द्र मूञ्झाई गयो एवा मूञ्झाई गयेला इन्द्रनी उपर ए महात्मा वृत्रासुरे फरीवार गदा मारी नहि. एटलामां अमृतने झरनारा पोताना हाथना स्पर्शथी घवायेला हाथीनी पीडा मटाडी इन्द्र सामो आवी ऊभो ॥१२॥

हे राजा! ए प्रमाणे युद्धनी इच्छाथी ऊभेला वज्र धरनारा अने पोताना भाईने मारनारा ए शत्रुने एना अत्यन्त पापकर्मने सम्भारी शोक तथा मोह थी घेरायेला वृत्रासुरे हसीने कह्युंः ॥१३॥

वृत्रासुरे कह्युं - आज मारामाटे महान सौभाग्यनो दिवस छे के तारा जेवो शत्रु, जेणे विश्वरूपना रूपमां ब्राह्मण, पोताना गुरु अने मारा भाई नी हत्या करी छे, मारी सामे ऊभो छे. अरे दुष्ट! हवे जोत-जोतामां हुं तारा पथ्थर जेवा कठोर हृदयना मारा शूलथी टुकडे-टुकडा करी नाखी भाईना ऋणथी मुक्त थईश. ओहो! एमाटे केटला आनन्दनी वातहशे ॥१४॥

जेम स्वर्गनी इच्छा राखनारो निर्दय यजमान खड्‌गथी पशुनां माथां कापी नाखे छे तेम तें पण विश्वासघात करीने ब्राह्मण, गुरु, आत्मवेत्ता, निर्दोष अने यज्ञमां दीक्षा लई बेठेला मारा मोटा भाईनां माथां कापी नाख्यां छे ॥१५॥

दया, लज्जा, लक्ष्मी अने कीर्ति ए तने छोडी दीधो छे. तें एवां-एवां धिक्कारवा जेवा कार्यो कर्या छे के जेनी निन्दा मनुष्यो तेमज राक्षसो पण करे छे. आज मारा त्रिशूलथी तारा शरीरना टुक-टुक थई जशे. महामहेनते तारुं मृत्यु थशे. तारा जेवा पापीने बाळतां आग पण अभडाई जशे तने तो गीध चून्थी-चून्थीने खाशे ॥१६॥

तारा जेवा पापीने अनुसरी हथियारो उपाडीने जे मूर्ख लोको मारा पर घा करे [[१८८]] छे ते बधानां गळा हुं त्रिशूळथी कापी नाखीश अने आजे भैरव वगेरे उग्र देवोने एमना पार्षदो सहित बलिदान आपीश ॥१७॥

हे इन्द्र! सम्भव छे के जोर करीने तुं ज अर्ही वज्रथी मारुं माथुं कापी नाखीश तो पण हुं तो कर्मबन्धनथी छूटीने प्राणीओने मारा देहनुं बलिदान आपी महापुरुषोनी चरणरजनो आश्रय ग्रहण करीश जे लोकमां महापुरुषो जाय छे त्यां पहोञ्ची जईश ॥१८॥

हे देवोना राजा! तारी सामे हुं शत्रु ऊभो छुं तेना उपर तारा अमोघ वज्रने शामाटे चलावतो नथी? जेम कृपणनी पासे मागणी व्यर्थ जाय तेम गदा व्यर्थ गई पण ए उपरथी तारुं वज्र व्यर्थ जशे एवी शङ्का करीश नहि ॥१९॥

निश्चय आ तारुं वज्र भगवानना तेजथी अने दधीचि मुनिना तपथी तीक्ष्ण थयेलुं छे अने तेने भगवाने प्रेरणा करी छे तेथी ज आ वज्रवडे तुं मने मारी नाख कारण के जे पक्षमां भगवान्‌ होय त्यां ज विजय, लक्ष्मी अने बधा गुणो निवास करे छे ॥२०॥

मारा स्वामी सङ्कर्षण भगवाने जे उपदेश कर्यो छे ते प्रमाणे एमनां चरणारविन्दमां मनने राखी तारा वज्रना वेगथी विषय भोगरूपी पाश तूटी जतां हुं देहनो त्याग करीश अने योगीनी गति पामीश ॥२१॥

सङ्कर्षण भगवान्‌ मने स्वर्गादिक सम्पत्ति आपी देशे एवी शङ्का तारे राखवी नहि. परमेश्वर पोताना अनन्य भक्तोने स्वर्गनी, पृथ्वीनी के पाताळनी सम्पत्तिओ आपता ज नथी केमके सम्पत्तिओथी द्वेष, उद्‌वेग, मननी पीडा, मद, कजियो, व्यसन अने परिश्रम ज थाय छे ॥२२॥

हे इन्द्र! अमारा स्वामी पोताना भक्तना धर्म, अर्थ अने काम सम्बन्धी प्रयासोने निष्फळ बनावी दीधा करे छे अने साचुं पूछो तो एनाथी ज भगवाननी कृपानुं अनुमान थाय छे कारण के एमनो एवो कृपा प्रसाद अकिञ्चन भक्तोने माटे अनुभव गम्य छे, बीजाओना माटे अत्यन्त दुर्लभज छे ॥२३॥

(वृत्रासुरनी प्रेममयी अनन्य भक्तिथी वश थई भक्तवत्सल भगवान्‌ त्यां युद्धना मेदान उपर ज वृत्रासुरने दर्शन आपे छे. वृत्रासुर लडवुं बन्ध करी प्रभुनी स्तुति करे छे. आ वृत्रासुर चतुःश्लोकी श्लोको २४-२७मां पुष्टिमार्गीय चार पुरुषार्थोनुं धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष नुं निरूपण करवामां आव्युं छे). [[१८९]] वृत्रासुर-चतुःश्लोकी अहं हरे तव पादैकमूलदासानुदासो भवितास्मि भूयः। मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते गृणीत वाक्‌ कर्म करोतु कायः ॥२४॥

हे सर्व दुःखो दूर करनार हरि! आप मारा उपर एवी कृपा करी दो के अनन्यभावथी आपना चरणकमलोना आश्रित सेवकोनी सेवा करवानो अवसर मने आवता जन्ममां मळे, हे प्राण वल्लभ! मारुं मन आपना मङ्गलमय गुणोनुं स्मरण कर्या करे, मारी वाणी आपना गुणोनुं गान करे अने शरीर आपनी सेवामां लाग्युं रहे ॥२४॥

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्‌यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्‌। न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्क्षे ॥२५॥

हे सकल-ऐश्वर्यना भण्डार भगवान्‌! हुं आपने छोडीने नथी तो इन्द्रासननी इच्छा करतो के नथी करतो ब्रह्मासननी; नथी मारे पृथ्वी उपरनुं साम्राज्य जोईतुं के नथी जोईतुं (भोगप्रचुर) रसातलादिक पातालनुं आधिपत्य. अरे! योगनी सिद्धिओ अने मोक्षनी पण आपना विना इच्छा राखतो नथी ॥२५॥

अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः। प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्‌ ॥२६॥

जेवी रीते पङ्खीओनां पाङ्खवगरनां बच्चां पोतानी मानी वाट जुए छे, जेवी रीते भूख्यां वाछरडां पोतानी मानुं दूध पीवा आतुर रहे छे अने जेवी रीते वियोगिनी पत्नी पोताना परदेश गयेला प्रीतमने नीरखवा आतुर होय छे तेवी ज रीते हे कमलनयन प्रभु! मारुं मन आपना दर्शनने माटे आतुर बन्युं छे ॥२६॥

ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः। त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात्‌ ॥२७॥

हे नाथ!पोतानां कर्मोने लईने आ संसारचक्रमां भ्रमण करता मने उत्तम कीर्तिवाळा भगवद्‌ भक्तोनी ज मित्रता थाओ; परन्तु जेओ आपनी मायाथी शरीर, पुत्र, स्त्री अने घर मां ज आसक्तिवाळा होय तेमनी साथे मारो सम्बन्ध कदापि न थाओ ॥२७॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा रूपनिरूपण प्रकरणमां वृत्रने भक्तिप्रसादनी प्राप्ति नामनो आठमो) ‘‘युद्धमां वृत्रासुरने भक्तिप्रसादनी प्राप्ति’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१९०]]

अध्याय १२

इन्द्रे करेलो वृत्रासुरनो वध

विशेष - आ बारमा अध्यायमां अत्यन्त मूञ्झायेला अने पछी वृत्रासुरे हिम्मत आपेला इन्द्रे मोटा युद्धमां वृत्रासुरनो मोक्ष कर्यानी कथा कहेवाशे. एवं जिहासुर्नृप देहमाजौ मृत्युं वरं विजयान्मन्यमानः ॥ शूलं प्रगृह्याभ्यपतत्‌ सुरेन्द्रं यथा महापुरुषं कैटभोऽप्सु ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परिक्षित राजा! ए प्रमाणे युद्धमां देह छोडवाने इच्छतो अने जीववा करतां मरणने सारुं मानतो वृत्रासुर, प्रलयना जळमां जेम कैटभ दैत्य विष्णु उपर प्रहार करवा दोड्यो हतो तेम, इन्द्र उपर त्रिशूळ लईने तूटी पड्यो ॥१॥

प्रलयकाळनां अग्नि सरखी भयङ्कर जवाळावाळुं त्रिशूळ इन्द्र उपर वेगथी फेङ्कतां महावीर वृत्रासुरे गर्जना करी अने ‘‘हे पापी! हवे तुं बची नहि शके’’ एम ए क्रोधथी बोल्यो ॥२॥

आकाशमां चाल्युं आवतुं ए त्रिशूळ फरतुं हतुं अने ग्रह तथा उल्कानी पेठे एनी सामुं जोई न शकाय एवुं हतुं; एने जोई जरा पण गभराया विना इन्द्र सो गाण्ठवाळा वज्रथी त्रिशूळने तेमज वासुकि सर्पना जेवी एनी विशाळ भुजाने पण कापी नाखी ॥३॥

कपाई गयेली एक भुजावाळो वृत्रासुर क्रोधथी पासे गयो अने वज्र धरनारा इन्द्रनी दाढीमां भोगळ मारी एना हाथीने पण एवो प्रहार कर्यो के जेथी इन्द्रना हाथमान्थी वज्र पडी गयुम् ॥४॥

वृत्रासुरना आ अत्यन्त अद्‌भुत कार्यने सूर, असुर, चारण अने सिद्ध लोकोए वखाण्युं पण इन्द्रनुं सङ्कट जोई लोको हाहाकार करवा लाग्या ॥५॥

लाजना मार्या शत्रुना समक्ष पोताना हाथथी पडी गयेलुं वज्र इन्द्रे पाछुं लीधुं नहि त्यारे वृत्रासुर बोल्यो - ‘‘हे इन्द्र! वज्र लईने मने मार. आ मूञ्झावानो समय नथी ॥६॥

उत्पत्ति, स्थिति तथा नाश ना स्वामी, सर्वज्ञ अने सनातन आदिपुरुषना सिवाय युद्ध करवानी इच्छा करनारा पराधीन आततायी पुरुषोनो हम्मेशां जय थतो [[१९१]] नथी तेओ क्यारेक जीते छे तो क्यारेक हारे छे ॥७॥

लोकपाळ साहत आ लोको जाळमां फसायेलां पक्षीओनी पेठे जेने परवश थयेला छे अने जेना स्वाधीनमां जीवे छे ते काळ ज जय-पराजयनुं कारण छे ॥८॥

शरीरनी शक्ति, मननी शक्ति, इन्द्रियोनी शक्ति, प्राण, अमरपणुं, मरण ए बधानुं कारण काळ ज आ लोक ए नहि समजतां पोताना जड देहने ज एना कारणरूप माने छे ॥९॥

हे इन्द्र! जेम लाकडानी पूतळी अने यन्त्र नो मृग एने नचावनार तन्त्रीने स्वाधीन छे एमज बधां प्राणीओने भगवानने आधीन समजो ॥१०॥

ईश्वरनी कृपा विना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्व, अहङ्कार, पञ्च महाभूतो, इन्द्रियो, मन, बुद्धि तथा चित्त ए कोईपण जगतने सरजवामां समर्थ नथी ॥११॥

एवुं नहि जाणनारो माणस ज परतन्त्र जीव स्वतन्त्र कर्ता भोक्ता छे एवुं माने छे. वस्तुतः ईश्वर पोते ज प्राणीओद्वारा प्राणीओने उत्पन्न करावे छे अने प्राणीओद्वारा ज प्राणीओने मरावे छे ॥१२॥

जेवी रीते इच्छा न होवा छतां पण समय विपरीत होवाथी मनुष्यने मृत्यु, अपयश आदि मळे छे तेवी ज रीते समयनी अनुकूळता थतां इच्छा न होवा छतां एने आयु, लक्ष्मी, यश अने ऐश्वर्य आदि भोग पण आवी मळे छे ॥१३॥

माटे पुरुषे अपकीर्ति, अपयश, जय, पराजय, सुख, दुःख, मरण तथा जीवन सर्व स्थितिमां समान ज रहेवुम् ॥१४॥

सत्त्व, रज अने तम ए प्रकृतिना गुण छे. आत्माना नथी. आत्मा तो गुणोनो साक्षी छे एम जाणनारो माणस एमना गुणदोषथी बन्धातो नथी ॥१५॥

हे इन्द्र! हुं हारी गयो छुं, मारां हाथ अने हथियार कपाई गयां छे तो पण तारा प्राण लेवानी इच्छाथी यथाशक्ति प्रयत्न करुं छुं ए तुं जो ॥१६॥

आ युद्ध तो एक जुगार जेवुं छे. एमां बाणरूपी पासा छे, वाहनरूपी चोपाट छे, प्राणरूपी बाजी छे; एवा आ जुगारमां कोनो जय थशे? अने कोनो पराजय थशे? ए आगळथी जाणी शकातुं नथी ॥१७॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे वृत्रासूरनां सत्य अने कपटरहित वचन साम्भळी इन्द्रे एने मान आप्युं. पछी वज्र हाथमां लई आश्चर्य रहित थईने एने हसते मोढे कह्युंः ॥१८॥

[[१९२]] देवराज इन्द्रे कह्युं - ‘‘अहो! हे दानव! तुं जीवन्मुक्त छे, जगतना ईश्वर तथा प्रिय आत्मा भगवाननो सर्व प्रकारे भक्त छे केमके तारी बुद्धि आवी छे॥१९॥

तुं लोकोने मोह करनारी भगवाननी मायाने तरी चूक्यो छे अने तेथी असुरपणुं मूकीने महापुरुषपणाने पाम्यो छे ॥२०॥

रजोगुणी स्वभाववाळो होवा छतां सत्त्वगुणमय वासुदेव भगवान्‌मां तारी दृढ बुद्धि थई छे ए खरेखर मोटुं आश्चर्य छे ॥२१॥

जेने मोक्षना स्वामी भगवान्‌मां भक्ति होय तेने स्वर्ग वगेरेनां क्षुद्र सुखोनुं शुं प्रयोजन होय? जे अमृतना समुद्रमां विहार करतो होय तेने खाबोचियाना पाणीनुं शुं काम होय?’’ ॥२२॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! ए प्रमाणे परस्पर धर्म जाणवानी इच्छाथी वातो करता महापराक्रमी अने योद्धाओमां श्रेष्ठ इन्द्रने वृत्रासुर युद्ध करवा लाग्या ॥२३॥

शत्रुने मारनार वृत्रासुरे डाबा हाथथी गजवेलनी भयङ्कर भोगळ फेरवीने इन्द्र उपर र्झीकी ॥२४॥

त्यारे इन्द्रे सो गाण्ठवाळा पोताना वज्रथी एनां भोगळ अने हाथीनी सूण्ढ जेवो लाम्बो हाथ बन्ने एकी साथे कापी नाख्याम् ॥२५॥

जेना कपाई गयेला हाथोना मूळमान्थी लोही वही जतुं हतुं तेवो वृत्रासुर, इन्द्रवडे पाङ्खो कपाई जतां जेम आकाशमान्थी पडेलो पर्वत शोभे तेम, शोभवा लाग्यो ॥२६॥

पछी वृत्रासुर पोतानो उपलो होठ आकाशमां अने हडपची धरती पर राखी आकाश जेवा ऊण्डा मोढाथी, सर्प जेवी भयङ्कर जीभथी अने काळ जेवी दाढोथी जाणे त्रैलोक्यने गळी जतो होय तेवो अति ऊञ्चो मोटी कायावाळो थयो अने वेगथी पर्वतोने पाडी नाखतो, पगे चालता पर्वत जेवो अने पगवडे धरतीने धमधमावतो, ज्यां इन्द्र हतो त्यां तुरत पहोञ्ची गयो अने ऐरावत हाथी सहित इन्द्रने गळी गयो ॥२७-२९॥

अजगर जेम हाथी गळी गयो होय तेम महाभळ अने मोटा प्रभाववाळो ए वृत्रासुर इन्द्रने गळी गयो छे एवुं जोई प्रजापतिओ, देवो अने मोटा ऋषिओ खेद पाम्या अने ‘‘हाय खराब थयुं’’ एम चीसो नाखवा मण्ड्या ॥३०॥

[[१९३]] जो के इन्द्र वृत्रासुरना पेटमां गळायेलो हतो छतां ‘नारायण कवच’ नी रक्षाथी तथा पोतानी योगमायाना बळथी ए मरण पाम्यो नहि ॥३१॥

पछी महासमर्थ इन्द्रे वज्रथी वृत्रासुरनुं पेट चीरी नाख्युं अने ए बहार आव्यो अने जोरथी पर्वतना शिखरनी पेठे एणे शत्रुनुं माथुं उडावी दीधुम् ॥३२॥

मोटा वेगवाळा वज्रे वृत्रासुरने मारवा सारुं चारे बाजूएथी फरी-फरीने एना माथाने वहेरवा माण्ड्युं; अने एवी रीते वहेरातां-वहेरातां ए वृत्रासुरने माथुं सूर्यादि ग्रहोनी उत्तरायण-दक्षिणायनरूप गतिमां जेटलो समय लागे छे एटला दिवसोमां अर्थात्‌ एक वरसे नीचे पड्युम् ॥३३॥

ए समये आकाशमां दुन्दुभि वाग्यां अने जेमां वृत्रासुरने मारवानुं वर्णन आवे छे तेवा मन्त्रोथी स्तुति करतां गन्धर्व, सिद्ध अने मोटा ऋषिओ नां समूहो आनन्दथी फूलनी वृष्टि करवा लाग्याम् ॥३४॥

वृत्रस्य देहान्निष्क्रान्तमात्मज्योतिररिन्दम। पश्यतां सर्वलोकानामलोकं समपद्यत ॥३५॥

हे परीक्षित राजा! वृत्रासुर मरण *पामतां एना देहमान्थी नीकळेलुं आत्मज्योति इन्द्रादि बधाना देखतां ज नारायणमां मळी गयुम् ॥३५॥

विशेष - वृत्रासुर पूर्वजन्ममां चित्रकेतु गन्धर्व हतो. ए समये नारदजीए एने पञ्चरात्रनो बोध कर्यो हतो. तेथी ए ज्ञानी हतो एटलुं ज नहि पण ते तपस्वी हतो तेमज भगवाननो पुष्टिमार्गीय भक्त हतो; एम त्रणे आध्यात्मिक तत्त्व एनामां हतां. ज्ञान अने तप बन्ने अभिमाननां कारण होवाथी मुक्ति थती नथी; केवळ नामथी ज प्रभुनुं भजन करवाथी मुक्ति थाय छे. ज्यारे युद्धमां वृत्रासुरे भगवाननी भक्तिने सम्भारी त्यारे एनाथी एनो मोक्ष थयो. इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यान प्रकरणमां वृत्रमोक्ष निरूपण नामनो) ‘‘इन्द्रे करेलो वृत्रासुरनो मोक्ष’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? दूझणी गायने गोतूं माण्डीने पय जेम पर लई जाय, तेम तुं बोध करी पूजा पामे आप धावे कंई थाय (दयाराम)

ईं उं ईं उं

[[१९४]]

अध्याय १३

ब्रह्महत्याथी थयेलो इन्द्रनो मोक्ष

विशेषः तेरमा अध्यायमां वृत्रासुरने मारवाथी इन्द्रने ब्रह्महत्या लागतां एनी बीकथी घणा दिवस सुधी छूपायेला इन्द्रनी विष्णुए रक्षा करी ए कथा कहेवाशे. वृत्रे हते त्रयो लोका विना शक्रेण भूरिद ॥ सपाला ह्यभवन्‌ सद्यो विज्वरा निर्वृतेन्द्रियाः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे दानवीर परीक्षित! वृत्रासुर मरतां एक इन्द्र सिवाय त्रण लोक अने लोकपाळ देवोनो तत्काळ सन्ताप मटी गयो अने एमने परम शान्ति मळी अने एमनो भय एमनी चिन्ता जती रही ॥१॥

देव, ऋषिओ, पितृ, भूत, दैत्यो अने देवोना अनुचरो गन्धर्वो आदि पोतपोताना लोकमां गया अने पछी ब्रह्मा, सदाशिव अने इन्द्रादिक पण गया ॥२॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - हे मुनि! इन्द्रने शान्ति न मळ्यानुं कारण साम्भळवाने इच्छुं छुं. देवोने सुख मळ्युं त्यारे इन्द्रने दुःख केम थयुं? ॥३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - वृत्रासुरना पराक्रमथी उद्वेग पामेला बधा देवोए ऋषिओनी साथे वृत्रासुरने मारवा सारु इन्द्रने प्रार्थना करी त्यारे ब्रह्महत्या लागवानी बीकथी इन्द्र एने मारवा मागता नहता ॥४॥

देवराज इन्द्रे कह्युं - विश्वरूपनो वध करवाथी मने ब्रह्महत्या लागेली ए तो मारा उपर अनुग्रह करी पृथ्वी, स्त्री, जळ अने वृक्षो ए एने वहेञ्ची लीधी, परन्तु वृत्रासुरने मारवाथी ब्रह्महत्या मारे शी रीते टाळवी? ॥५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - इन्द्रनुं बोलवुं साम्भळी ऋषिओए कह्युंःतमने अश्वमेध यज्ञथी परमात्मा नारायणनुं पूजन करवाथी ब्रह्महत्या तो शुं पण आखा जगतना वधना पापथी पण छूटी जशो ॥७॥

भगवानना नामकीर्तन मात्रथी ज ब्रह्महत्या, पितृहत्या, गोहत्या, मातृहत्या अने गुरुहत्या करनारो महापापी, चाण्डाल, कसाई, कुत्तानुं मांस खानार के गमे तेवो पापी होय तो पण ए पवित्र थाय छे ॥८॥

अमे तमने अश्वमेध यज्ञ करावीए तेनाथी तमे भगवाननुं श्रद्धापूर्वक पूजन करो तो ब्रह्मा सहित स्थावर जङ्गमने हणवानुं पाप पण तमने नहि लागे तो पछी [[१९५]] दुष्टने शिक्षा करवानुं पाप तो केम ज लागे? ॥९॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ब्राह्मणोए ए प्रमाणे प्रेरणा करी त्यार पछी इन्द्रे वृत्रासुरने मार्यो अने एने मार्या पछी ब्रह्महत्या इन्द्रनी पाछळ पडी ॥१०॥

तेने लीधे इन्द्रने घणो क्लेश, अपार वेदना सहन करवी पडी. साचुं छे के ज्यारे कोई सङ्कोचशील सज्जनने कलङ्क लागी जाय छे त्यारे एना धैर्य वगेरे गुणो पण तेने सुखी नथी करी शकता ॥११॥

चण्डालणी जेवी, बुढापाथी ध्रुजती, क्षयरोगथी लेवाई गयेली अने लोहियाळां लूङ्गडांवाळी ए ब्रह्महत्या पछवाडे दोडती जोवामां आवी ॥१२॥

सफेद वाळ छूटा मूकीने ए ब्रह्महत्या ‘‘ऊभो रहे, ऊभो रहे’’ एम हाकल करती हती अने तेना श्वासमान्थी नीकळती माछलान्ना जेवी दुर्गन्धथी मार्गने पण दूषित करती हती ॥१३॥

हे राजा! इन्द्रदेव आकाश अने सघळी दिशाओ मां फरी वळ्यो छतां ज्यारे ब्रह्महत्याए एनो केडो मूक्यो नहि त्यारे ए ईशान खूणा तरफ गया अने एणे तुरत मानसरोवरमां प्रवेश कर्यो ॥१४॥

देवराज इन्द्र मानसरोवरना कमल-नालना तन्तुओमां एक हजार वर्ष सुधी छुपाईने निवास करता रह्या अने विचारता रह्या के ब्रह्महत्याथी मारो छुटकारो केम थाय. ए समय दरमियान एने भोजन पण कंई मळी शक्युं नहि कारण के ते अग्नि देवताना मुखथी भोजन करे छे अने अग्नि देवता जलनी अन्दर कमल तन्तुओमां जई शकता नहोता ॥१५॥

ज्यां सुधी इन्द्रदेव कमळमां रह्या त्यां सुधी विद्या, तप अने बळ सामर्थ्यथी नहुष राजाए स्वर्गनुं राज्य कर्युं; पण अन्ते सम्पत्ति अने ऐश्वर्य ना मदथी अन्ध बनीने एणे इन्द्राणीना अनुचित सहवासनी मागणी करी एथी इन्द्राणीए एनाद्वारा ऋषिओनो अपराध करावी एने शाप अपावी अजगरनो *अवतार अपाव्यो ॥१६॥

विशेष - इन्द्रना आसन पर आवेला नहुष राजाए कोई एक दिवसे इन्द्राणीने कह्युं केःहाल इन्द्र तो हुं छुं माटे तारे मारुं सेवन करवुं. पछी ए वातनुं बृहस्पतिनी पासे निवेदन करतां बृहस्पतिए सलाह आप्या प्रमाणे इन्द्राणीए नहुषने कह्युं के, ‘‘ब्राह्मणोए उपाडेली पालखीमां बेसीने तुं आवीश तो हुं तने पति करीश’’. पछी नहुष राजा अगस्त्य वगेरे ऋषिओनी पासे पालखी उपडावीने एमां बेसी जतो हतो त्यां मार्गमां सर्प-सर्प (चाल चाल) एम कही पग अडाडतां [[१९६]] अगस्त्ये शाप दीधो के, ‘‘तुं सर्प थई जा’’ तेथी ते राजा अजगर थयो हतो. पछी सत्यना पोषक भगवानना ध्यानथी जेणे पोताना पापनुं निवारण कर्युं हतुं तेवा इन्द्रदेव ब्राह्मणोना बोलववाथी स्वर्गमां गया. मानसरोवरमां रह्या एटला दिवस तो ईशान खूणाना देव रुद्रे अने लक्ष्मीए एनी रक्षा करी हती एथी ब्रह्महत्या एनो पराभव करी शकी नहि ॥१७॥

हे भारत! ब्रह्मऋषिओए आवीने जेमां भगवाननुं आराधन थाय छे तेवा अश्वमेध यज्ञनी एने विधि सहित दीक्षा आपी ॥१८॥

ब्रह्मवादी ब्राह्मणोए करावेला ए अश्वमेधमां सर्व वेदमय परमात्मानुं इन्द्रे पूजन कर्यु. जो के ए ब्रह्महत्या पापना भारे पूञ्जरूप हती तो पण, जेम सूर्यथी झाकळ टळी जाय तेम ए पूजनथी देवराज इन्द्रनो पापपुञ्ज बळीने भस्म थई गयो ॥१९-२०॥

मरिचि वगेरे ऋषिओए विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराव्यो तेथी यज्ञना स्वामी पुरुष भगवाननुं पूजन करवाने लीधे इन्द्रनुं पाप मटी गयुं अने फरी ए पूजनीय थई गया ॥२१॥

हे परीक्षित! आ उत्तम आख्यानमां इन्द्रनो विजय एमनी पापमान्थी मुक्ति अने भगवानना वहाला भक्त वृत्रासुरनुं वर्णन आव्युं छे. एमां तीर्थोने पण तीर्थ बनाववा समर्थ भगवानना पुष्टि (अनुग्रह) आदि गुणोनुं सङ्कीर्तन छे. ए बधां पापोने धोई नाखे छे अने भक्ति वधारे छे ॥२२॥

पठेयुराख्यानमिदं सदा बुधाः शृण्वन्त्यथो पर्वणि पर्वणीन्द्रियम्‌ ॥ धन्यं यशस्यं निखिलाधमोचनं रिपुञ्ज्यं स्वस्त्ययनं तथायुषम्‌ ॥२३॥

बुद्धिमान पुरुषोए आ इन्द्र सम्बन्धी आख्याननुं सदा सर्वदा पाठ अने श्रवण करवां जोईए. खास करीने पर्वो (एकादशी, अष्टमी, पूर्णिमा, अमास) ना अवसर उपर तो अवश्य आनुं सेवन करवुं जोईए ए धन अने यश वधारे छे, बधां पापोथी छोडावे छे, शत्रु उपर विजय प्राप्त करावे छे अने आयु तथा कल्याणनी अभिवृद्धि करे छे ॥२३॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यानप्रकरणमां ब्रह्महत्याथी इन्द्रनो मोक्ष ए नामनो दसमो) ‘‘ब्रह्महत्याथी इन्द्रनो मोक्ष’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१९७]]

अध्याय १४

पुत्रना मरणथी चित्रकेतुने थयेलो वैराग्य

विशेष - चौदमां अध्यायमां घणा परिश्रमथी प्राप्त थयेलो पुत्र तुरत मरी जतां चित्रकेतु राजाने घणा स्नेहने लीधे बहु ज वैराग्य तथा शोक थया ए कथा कहेवाशे. रजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन्‌ वृत्रस्य पाप्मनः ॥ नारायणे भगवति कथमासीद्‌ दृढा मतिः ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - हे महाराज! पापी वृत्रासुरनी बुद्धि तो रजोगुण अने तमोगुण रूपी स्वभाववाळी हती तो ए नारायण भगवान्‌मां अविचळ शा माटे थई? ॥१॥

घणुं करीने शुद्ध सत्त्ववाळा देवो अने निर्मळ अन्तःकरणवाळा ऋषिओने पण भगवानना चरणनी भक्ति उत्पन्न थती नथी ॥२॥

धरतीउपर जेटला रजना कण छे तेटला आ संसारमां जीव छे. ए पैकी केटलाक मनुष्यो वगेरे श्रेष्ठ जीवोज कंईक धर्मनुं आचरण करे छे तेमां पण केटलाक उत्तम द्विजो ज मोक्षनी इच्छा राखे छे. एवी मोक्षनी इच्छा राखनाराओ पैकी हजारोमां कोईकज गृहासक्ति छोडे छे अने तत्त्वने जाणे छे ॥३-४॥

जीवन्मुक्ति पामेला करोडो सिद्ध लोकोमान्थी पण भगवान्‌मां परायण अने शान्त अन्तःकरणवाळा होय तेवा तो कोई माण्ड-माण्ड मळे ॥५॥

तो पछी पापी अने सर्व लोकोने सन्ताप आपनार वृत्रासुरनी बुद्धि भयङ्कर सङ्ग्रामना समयमां पण भगवान्‌मां दृढ शा कारणथी रही? ॥६॥

हे महाराज! आ विषयमां अमने मोटो संशय छे अने साम्भळवानो उत्साह छे केमके वृत्रासुरे तो युद्धमां पोताना पराक्रमथी इन्द्रने पण राजी कर्यो हतो ॥७॥

सूतजीए कह्युं - ए प्रमाणे श्रद्धावाळा परीक्षित राजानो प्रश्न साम्भळी एमनो सत्कार करी श्रीशुकदेवजी नीचे प्रमाणेबोल्या ॥८॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! वेदव्यास नारद अने देवल ना मुखथी में जे इतिहास साम्भळेलो ते तमे मारी पासेथी सावधान थईने साम्भळो ॥९॥

शूरसेन नामना देशमां चित्रकेतु नामे प्रख्यात चक्रवर्ती राजा थई गया. पृथ्वी एमनी सघळी इच्छाओने परिपूर्ण करती ॥१०॥

[[१९८]] ए राजाने एक करोड राणीओ हती. राजा पोते शरीरादिथी सन्तान उत्पन्न करवा समर्थ हता छतां एमने कांई सन्तान थयुं नहि ॥११॥

ए रूप, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य अने लक्ष्मी वगेरे सर्व गुणोथी सम्पन्न हता तो पण स्त्रीओ सन्तान वगरनी हती तेथी एने चिन्ता उत्पन्न थई ॥१२॥

ए चक्रवर्तीने सघळी सम्पत्तिओ, सुन्दर स्त्रीओ तथा पृथ्वी थी कांई पण आनन्द मळतो न हतो ॥१३॥

एक दिवस अगिंरा ऋषि लोकोमां फरता भगवद्‌ इच्छाथी एना महेलमां आवी चड्या ॥१४॥

ए राजाए सामे ऊभा थई विधिपूर्वक पूजा करी एमनो सत्कार अने आतिथ्य कर्या अने पछी एमने योग्य आसने बेसाडीने पोते सावधान चित्तथी एमनी सामे बेठो ॥१५॥

पासे धरती उपर बेठेला अने विनयथी विनम्र थयेला ए राजानो आदर करी अगिंरा ऋषिए एने आ प्रमाणे सम्बोधन कर्युम् ॥१६॥

अगिंरा ऋषिए कह्युं - राजा! तमे तमारी प्रकृतिओ-गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, किल्ला, खजानो, सेना अने मित्रो साथे कुशल तो छो ने? जेवी रीते जीव महत्तत्वादि सात आवरणोथी रक्षित छे तेम राजा पण आ सात प्रकृतिओथी घेरायेला रहे छे एमनी कुशळमां ज राजानुं कुशळ छे ॥१७॥

जेम राजानुं सुख उपरनी सात प्रकृतिने अधीन छे तेम प्रकृतिओनुं सुख पण राजाने अधीन छे ॥१८॥

तमारी राणीओ, प्रजा, मन्त्रीओ, नोकरो, वेपारीओ, सलाहकारो, शहेरीओ, ग्राम जनता, ताबाना राजाओ अने पुत्रो तमारी इच्छा प्रमाणे चाले छे ने? ॥१९॥

साची वात तो ए छे के जेनुं मन स्वाधीन होय तेने उपर कहेलां सर्वे वश रहे छे; एटलुञ्ज नहि पण सघळा लोको अने लोकपाळो पण घणी सावधानीथी कर आप्या करे छे ॥२०॥

पण हुं जोई शकुं छुं के तमे स्वयं सन्तुष्ट नथी. तमारी कोई कामना अपूर्ण छे. तमारुं मुख कोई आन्तरिक चिन्ताथी मलिन देखाय छे. तमारा आ असन्तोषनुं [[१९९]] कारण कोई बीजुं छे के तमे पोते ज? ॥२१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जो के अगिंरा ऋषि पोते सर्वज्ञ छे तो पण ज्यारे एमणे ए प्रमाणे पूछ्‌युं त्यारे विनयथी नम्रपणे सन्ताननी इच्छावाळा राजाए एमने आ प्रमाणे कह्युम् ॥२२॥

चित्रकेतु राजाए कह्युं - हे महाराज! जे योगीओ तप, ज्ञान अने समाधिथी पापरहित थयेला होय तेमने प्राणीओनां मनने अने बहारनी शी वात अजाणी होय? ॥२३॥

हे ब्रह्मन्‌! तो पण मारा मनमां शी वात छे एवुं आप मने पूछो छो तेथी आपनी आज्ञा अने प्रेरणाथी निवेदन करुं छुम् ॥२४॥

जो के मारे चक्रवर्ती राज्यनुं ऐश्वर्य अने सम्पत्तिओ एवी छे के लोकपाळ देवो पण एनी इच्छा करे तो पण सन्तान न होवाथी जेम कोई भूख्या अने तरस्या माणसने चन्दनादि अन्य पदार्थोथी आनन्द थाय नहि. तेम मने पण ए ऐश्वर्य वगेरेथी आनन्द मळतो नथी ॥२५॥

हुं तो दुःखी छुं ज, पिण्डदान न मळवानी आशङ्काथी मारा पितर पण दुःखी थई रह्या छे. तो आप मने सन्ताननुं दान करी परलोकमां मळनारा घोर नरकथी बचावो अने एवी व्यवस्था करवानी कृपा करो के मारा लोक-परलोक सुधरी जाय ॥२६॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राजाए ए प्रमाणे प्रार्थना करी त्यारे दयाळु, समर्थ अने ब्रह्मपुत्र अगिंरा मुनिए त्वष्टा देवोनो चरु तैयार करी एनाथी त्वष्टा देवनुं पूजन कर्यु ॥२७॥

पछी राजानी सघळी राणीओमां सौथी मोटी अने श्रेष्ठ कृतिद्युति नामनी पटराणीने ए पूजनमान्थी अवशेष प्रसाद लेवडाव्यो ॥२८॥

एमणे राजाने कह्यु के ‘‘हे राजा! आथी तने पुत्र थशे ते तने हर्ष तथा शोक बन्ने आपशे’’. आटलुं कही ब्रह्माना पुत्र अगिंरा त्यान्थी चाल्या गया ॥२९॥

पछी कृतद्युति राणीने ए यज्ञनो अवशेष प्रसाद खावाना प्रभावने लीधे चित्रकेतु राजाथी, कृत्तिकाने जेम अग्निथी गर्भ रह्यो हतो तेम तुरत ज गर्भ रह्यो ॥३०॥

हे राजा! शूरसेन देशना स्वामी चित्रकेतुना वीर्यथी रहेलो ए कृतद्युतिनो गर्भ शुकलपक्षना चन्द्रमानी पेठे धीरे-धीरे रोज-रोज वधवा लाग्यो ॥३१॥

समय आव्यो त्यारे कुंवरनो जन्म थयो. ए साम्भळी शूरसेन देशना लोकोने [[२००]] अत्यन्त आनन्द थयो ॥३२॥

राजी थयेला राजाए स्नान करी, पवित्र थई, वस्त्राभूषणो धारण करी ब्राह्मणो पासे स्वस्तिवाचन सहित जातकर्म संस्कार कराव्यो ॥३३॥

राजाए ए ब्राह्मणोने सोनुं, रूपुं, वस्त्र आभूषण, गाम, घोडा, हाथी अने साठ करोड गायो दानमां आप्याम् ॥३४॥

कुमारनां धन, यश अने आयुष्य नी वृद्धिने माटे उदार मनना राजाए मेघनी पेठे बीजा लोकोने पण मनगमती वस्तुनुं दान कर्यु ॥३५॥

निर्धन माणसने माण्ड-माण्ड धन मळवाथी एने एमां जेवो स्नेह वधे तेम ए राजाए पण महामहेनते मळेल कुंवर उपर रोजने रोज स्नेह वधवा लाग्यो ॥३६॥

कृतद्युति माताने पण पुत्रमां मोह उत्पन्न करे तेवी जातनो भारे स्नेह हतो पण एनी शोक्योने सन्ताननी इच्छाथी भारे सन्ताप थयो ॥३७॥

रोज बाळकने रमाडता चित्रकेतु राजाने ए दीकरानी मा कृतद्युति उपर जेवो स्नेह हतो तेवो बीजी राणीओ उपर रह्यो नहि ॥३८॥

आम एक तो ते राणीओ सन्तान न होवाथी दुःखी हतीज तेमां वळी राजा चित्रकेतु तेमनो अनादर करवा लाग्या. तेथी ईर्षाथी पोतानी जातने धिक्कारवा लागी अने मनमां बळवालागी ॥३९॥

‘‘अहो! सारी प्रजावाळी शोक्यो आपणो दासीनी माफक तिरस्कार करे छे तथा सन्तान न थवाथी घरमां पतिनी अणमानीती थयेली छीए, अमो पापणी स्त्रीओने धिक्कार हो? ॥४०॥

स्वामीओनी सेवाथी हम्मेशां मान मेळवनारी दासीओने पण सन्ताप होतो नथी, परन्तु आपणे तो दासीनी-दासीओनी पेठे भाग्यरहित थई छीए’’ ॥४१॥

हे परीक्षित! ए प्रमाणे ते राणीओ पोतानी शोकनी गोद भरेली जोईने बळती रहेती हती अने राजा पण तेमनामां रस लेता बन्ध थई गया तेथी तेमना मनमां कृतद्युतिना प्रत्ये द्वेषनो भडको थयो ॥४२॥

द्वेषने लीधे एओनी बुद्धि नाश पामी अने क्रूरताए तेमना चित्तनो कबजो करी लीधो. राजा प्रत्ये असहनशीलवृत्तिने लीधे तेमणे बालुडा कुंवरने झेर दई दीधुं ॥४३॥

महाराणी कृतद्युतिने शोकोना आ घोर पापमय करतूतनी बिलकुल जाण नहोती. [[२०१]] दूरथी कुंवरने जोई तेणे तो एम ज मान्युं के ते सूई रह्यो छे. एथी ए तो महेलमां आम-तेम फरती हती ॥४४॥

बुद्धिमान राणीए जोयुं के कुंवर क्यारनोय सूई रह्यो छे त्यारे धावने कह्युं के कल्याणी! पुत्रने लाव ॥४५॥

धावे सूतेला बाळकनी पासे जईने जोयुं के एनी आङ्खनी पूतळीओ ऊलटी थई गई छे, प्राण, इन्द्रिय अने जीवात्मा ए पण तेना शरीरमान्थी विदाय लई लीधी छे. ए जोतां ज ‘‘हाय हाय, हुं मरी गई’’ आ प्रमाणे चीस पाडी धरती उपर पछडाई पडी ॥४६॥

ए धावने बहु ज छाती कूटती अने अत्यन्त आर्त स्वरोथी आक्रन्द करती साम्भळीने कृतद्युति राणी उतावळी-उतावळी कुंवर पासे गई तो त्यां एने अकस्मात मरी गयेलो जोयो ॥४७॥

शोक वधी जतां ए मूर्छित थई धरती पर पडी गई अने एनां केश तथा लूङ्गडां अस्त-व्यस्त थई गयां एनी पण एने खबर रही नहि ॥४८॥

धावनुं रुदन साम्भळीने राजाना अन्तःपुरमां रहेनारां लोको स्त्रीओ अने पुरुषो त्यां आवी पहोच्यां अने दुःखथी रोवा लाग्यां; अपराध करनारी ए शोक्यो पण खोटुं-खोटुं रोवानो ढोङ्ग करवा लागी ॥४९॥

ज्यारे राजा चित्रकेतुने खबर पड्या के मारा पुत्रनुं अकारण ज मृत्यु थई गयुं छे त्यारे अत्यन्त प्रेमना आवेगने लीधे तेने आङ्खे अन्धारा आवी गयां. धीरे-धीरे मन्त्रीओ अने ब्राह्मणो साथे मार्गमां पडता-आखडता मृत बालकनी पासे पहोच्या अने मूर्छा खाईने एना पग आगळ ढळी पड्यां. एनां वस्त्रो तथा केश आम-तेम विखराई गयां. श्वासनी तो धमण चालवा लागी. आंसुना ऊभराथी गळुं रून्धाई गयुं अने ते कंई पण बोली शक्या नहि ॥५०-५१॥

एकनो एक दीकरो मरी गयेलो जोई तथा पतिने घणा ज शोकथी व्याप्त थयेलो जोई राणी कृतद्युति विचित्र विलाप करवा लागी. एनुं आ दुःख जोई मन्त्री वगेरे बधा हाजर रहेलां माणसो शोकग्रस्त थई गयाम् ॥५२॥

महाराणीनां नेत्रोमान्थी एटला आंसु वही रह्या हतां के ते तेनी आङ्खोनुं अञ्जन लई केसर अने चन्दनथी चर्चित वक्षःस्थलने र्भीजववा लाग्या ए चोटलामान्थी फूलनी माळाओ खसी गई हती तेवा चोटलाने छूटो मूकी ए टिटोडीनी पेठे ऊञ्चे सादे [[२०२]] अनेक प्रकारे शोक करवा लागी ॥५३॥

ते कहेवा लागीः‘‘अरे विधाता! खरेखर तुं महान मूर्ख छो जे पोतानी सृष्टिनी विरुद्ध चेष्टा करे छे. घणी नवाईनी वात छे के घरडां बूढां तो बेठा रहे अने बाळक मरी जाय. जो तारा स्वभावमां आवुं विपरीतपणुं होय तो-तो तुं जीवोनो अमर शत्रु छे ॥५४॥

जो संसारमां प्राणीओनां जीवन-मरणमां कोई क्रम न रहे तो तेओ पोताना प्रारब्ध प्रमाणे जन्मशे अने मरशे. पछी तारी जरूर ज शी छे? ते सगा सम्बन्धीओमां स्नेहनुं बन्धन तो एटला माटे उत्पन्न कर्युं छे के तेओ मारी सृष्टिनो वधारो करे? परन्तु आ प्रमाणे बाळकोने मारी नाखीने पोताना हाथे ज तुं ते कापी रह्यो छे’’ ॥५५॥

पछी ते पोताना मृत पुत्र तरफ जोई कहेवा लागी ‘‘बेटा! हुं तारा विना अनाथ अने दीन थई रही छुं. मने छोडी आ प्रमाणे तुं चाल्यो जाय ए योग्य नथी. जरा आङ्खो खोली जो तो खरो तारा पिताजी तारा वियोगमां केवा शोकथी तपी रह्या छे. बेटा! जे घोर नरकने सन्तानहीन पुरुष घणी मुश्केलीथी तरी शके छे तेने अमे तारी सहायथी सहेलाईथी ज पार करी लईशुं. अरे लाल! तुं आ यमराजानी साथे दूर न जा. ए तो बहु ज कठण काळजानो छे ॥५६॥

मारा लाडला लाल! तुं ऊभो था. हे राजकुमार! आ मित्रो तने रमवाने बोलावे छे. तुं घणीवारथी सूतो छे तेथी तने भूख लागी हशे माटे स्तनपान कर अने अमारा शोकने दूर कर ॥५७॥

हे पुत्र! प्रसन्न नेत्रवाळुं तथा सुन्दर भोळा हास्यवाळुं तारुं मुख हुं जोती नथी तेथी मारुं मङ्गळ नाश पाम्युं छे एम हुं समजुं छुं. हाय-हाय हजु पण मने तारी मधुरी तोतडी बोली सम्भळाती नथी. शुं खरेखर निष्ठुर यमराजा तने ए परलोकमां लई गया के ज्यान्थी कोई पाछुं आवतुं ज नथी? ॥५८॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे विचित्र विलापवडे मरेला पुत्र पासे आक्रन्द करती पोतानी राणीने जोई चित्रकेतु राजा अत्यन्त सन्ताप करतो मुक्त कण्ठे रोवा लाग्यो ॥५९॥

एम राजा-राणीने विलाप करतां जोईने एनां दास-दासीओ वगेरे बधां स्त्री- पुरुषो पण दुःखी थई रोवा लाग्यां अने बधुं जडवत्‌ बनी गयुम् ॥६०॥

[[२०३]] एवं कश्मलमापन्नं नष्टसञ्ज्ञमनायकम्‌। ज्ञात्वागिंरा नाम मुनिराजगाम सनारदः ॥६१॥

हे राजा! महर्षि अगिंरा अने देवर्षि नारदजीए जोयुं के राजा चित्रकेतु पुत्र शोकने लीधे चेतना वगरना थई रह्या छे त्यां सुधी के एमने समजाववावाळुं पण कोई नथी त्यारे ते बन्ने त्यां आव्या ॥६१॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यान प्रकरणनो चित्रकेतुना आख्यानरूप अगियारमो) ‘‘पुत्रना मरणथी चित्रकेतुने थयेलो वैराग्य’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिभक्तिने लजावीए छीए जोद्ग अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी)देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए

अध्याय १५

पुत्रशोकवाळा चित्रकेतुने नारद-अगिंराए समजावेलुं तत्त्व

विशेष - आ पन्दरमां अध्यायमां अगिंरानी साथे नारद मुनि त्यां आवी चित्रकेतु राजाने तत्त्वोपदेशवडे शोकमुक्त करे छे ए वात आवशे. ऊचतुर्मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम्‌। शोकाभिभूतं राजानं बोधयन्तौ सदुक्तिभिः ॥१॥

शुकदेवजीए कह्युं - मरेला पुत्रनी पासे शोकथी खिन्न अने मृत्यु परायण जेवा थई गयेला राजाने सुन्दर दाखला दलीलोथी बोध करता मुनि कहेवा लाग्या ॥१॥

‘‘हे राजन्‌! जेनो तमे शोक करो छो ते आ जन्ममां अने पहेलान्ना जन्ममां तमारे शुं थाय? कई सृष्टिमां तमे एना केवी जातना सम्बन्धमां हता अने हाल छो? हवे पछी तमारो अने एनो शो सम्बन्ध रहेशे? ॥२॥

जेम जलप्रवाहना सम्बन्धथी रेतीना कण भेगा थाय अने छूटा पडे तेम कालप्रवाहमां प्राणीओना संयोग-वियोग थता रहे छे ॥३॥

ईं उं ईं उं

[[२०४]] जेम धान्य पृथ्वीमां पडे तो एमान्थी अङ्कुरद्वारा बीज थाय छे कदाच बीज थतुं पण नथी तेम ईश्वरनी मायावडे प्राणीओथी अन्य प्राणीओ उत्पन्न थाय छे अने नष्ट थई जाय छे ॥४॥

अमे, तमे अने बीजाओ जन्म पहेलां नहोता अने मरण पछी नहि रहीए तेम जो वर्तमानमां पण न रहीए तो एनो शोक शो करवो? ॥५॥

भगवान्‌ ज बधां प्राणीओना अधिपति छे. एमनामां जन्म-मृत्यु वगेरे विकार बिलकुल होता नथी. एमने नथी कोईनी इच्छा के नथी अपेक्षा. जेवी रीते बाळको घर, रमकडां बनावी-बनावीने बगाडतां होय छे तेम भगवान्‌ पोते ज परतन्त्र प्राणीओनी सृष्टि करी ले छे अने एमनीद्वारा बीजा प्राणीओनी रचना, पालन अने संहार करे छे ॥६॥

हे राजा! जेवी रीते एक बीजथी बीजुं बीज उत्पन्न थाय छे तेवी ज रीते पिताना देहद्वारा माताना देहथी पुत्रनो देह उत्पन्न थाय छे. पिता-माता अने पुत्र जीवना रूपमां देही छे अने बाह्य दृष्टिथी मात्र शरीर. एमां देही जीव घट आदि कार्योमां पृथ्वीनी जेम नित्य छे ॥७॥

जेवी रीते एक ज माटीरूप वस्तुमां घटत्व वगेरे जाति अने घट वगेरे व्यक्तिओनो विभाग केवल कल्पना मात्र छे तेमज आ देही अने देहनो विभाग पण अनादि अने अविद्या-कल्पित छे. अनित्य होवाने लीधे शरीर असत्य छे अने शरीर असत्य होवाने लीधे तेना जुदा-जुदा अभिमानी पण असत्य छे. त्रिकालाबाधित सत्य तो एक मात्र भगवान्‌ ज छे. तेथी शोक करवो कोई प्रकारे योग्य नथी ॥८॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे देवर्षि नारदजी तथा महर्षि अगिंरानां वचन साम्भळी राजाने कांईक आश्वासन मळतां एणे पोताना हाथवडे आन्तर चिन्ताथी करमाई गयेलुं पोतानुं मुख लूछ्‌युं अने मुनिने कहेवा लाग्या ॥९॥

‘‘मोटामां मोटा अने ज्ञाननी सम्पत्तिवाळा आप कोण छो? आपनो वेश अवधूत जेवो छे. आप कोई गुप्त वेशथी पधार्या हो एम जणाय छे ॥१०॥

हुं जाणुं छुं के मारा जेवा विषयासक्त जीवोने बोध आपवाने माटे गाण्डाना जेवो वेश धारण करी भगवानना प्रिय भक्त ब्राह्मणो पृथ्वीमां फर्या करे छे ॥११॥

सनकादि कुमार, नारद, ऋभु, अगिंरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान्‌ परशुराम, कपिल देव, शुकेदवजी, दुर्वासा, [[२०५]] याज्ञवल्क्य, जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतञ्जलि, वेदशिरा, बोध्य मुनि, पञ्चशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव, ऋतध्वज अने बीजा सिद्धेश्वरो ज्ञान आपवामाटे पृथ्वीपर फर्या करेछे ॥१२-१५॥

माटे हे प्रभु! ग्राम्य पशुतुल्य अने मूढ बुद्धिवाळा तेमज अन्धतममां बुडेला एवा मने आप ज्ञानरूपी दीवो बतावो ॥१६॥

अगिंरा मुनि बोल्या - हे राजन्‌! ज्यारे प्रथम तमने पुत्रनी इच्छा थई त्यारे पुत्रने आपनार ए अगिंरा ते हुं छुं. आ साक्षात्‌ ब्रह्माना पुत्र नारद ऋषि छे ॥१७॥

ज्यारे तमने पुत्रशोकथी दुस्तर तपमां डूबेला जोया त्यारे भगवानना भक्त होवाथी तमे आवो शोक करवाने योग्य नथी एम जाणी तमारा उपर अनुग्रह करवाने अर्ही आव्या छीए. तमे ब्रह्मण्य अने भगवद्भक्त छो माटे तमारी आवी स्थिति न ज होवी जोईए ॥१८-१९॥

प्रथम हुं तमारी पासे तमने ज्ञान आपवा ज आवेलो पण ए वखते तमारो अन्य अभिनिवेश होवाथी में तमने ज्ञान न आपतां पुत्र ज आप्यो ॥२०॥

पुत्रवाळाने जे दुःख थाय छे तेनो अनुभव हवे तमने थयो. आवी ज रीते स्त्री, घर, लक्ष्मी अने नाना प्रकारनी सम्पत्ति पण तापक छे, सुखद नथी एम जाणो. शब्दादि विषयो अने राज्यवैभव पण चल छे; तेमज हे शूरसेन! पृथ्वी, राज्य, सेना, खजानो, चाकरो, कारभारीओ, सगां-वहालां अने मित्रो सर्व; शोक, मोह, भय अने आर्ति ने आपनार छे. ए सर्व गन्धर्वनगर जेवां स्वपनवत्‌ छे; न होवा छतां देखाय छे. ए केवळ मनोमात्र छे. कर्मनुं ध्यान करतां नाना प्रकारनां कर्म थाय छे तेवा ए छे. जीवने आ देह जे प्राप्त थाय छे ते द्रव्य, ज्ञान अने क्रियात्मक छे. एमां अहम्भाव थतां जीवने नाना प्रकारना सन्तापनुं ए कारण थाय छे. तेथी मनने स्थिर करी आत्मानी गतिनो विचार करी द्वैतभावमां तमने जे निश्चय थयो छे ते छोडीने शान्तिनो आश्रयकरो ॥२१-२६॥

नारदजीए कह्युं - तमने हुं मन्त्रोपनिषद्‌ आपुं छुं तेने तमे धारण करशो तो सात रातमां सङ्कर्षण प्रभुनुं तमने दर्शन थशे ॥२७॥

यत्पादमूलमुपसृत्य नरेन्द्र पूर्वे शर्वादयो भ्रममिमं द्वितयं विसृज्य। सद्यस्तदीयमतुलानधिकं महित्वं प्रापुर्भवानपि परं नचिरादुपैति ॥२८॥

[[२०६]] नरेन्द्र! प्राचीन कालमां भगवान्‌ शङ्कर आदिए श्रीसङ्कर्षण देवना ज चरणकमलनो आश्रय लीधो हतो. एथी एमणे द्वैतभ्रमनो परित्याग करी दीधो अने एवा महिमाने तेओ प्राप्त थया के तेनाथी वधारे महान तो कोई छे ज नहि तेनी समान पण कोई नथी. तमे पण बहु ज जलदी भगवानना ए परमपदने प्राप्त करी लेशो ॥२८॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यानप्रकरणमां चित्रकेतुना आख्यानरूप बारमो) ‘पुत्र शोकवाळा चित्रकेतुने नारद अगिंराए समजावेलुं तत्त्व’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्‌वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं

अध्याय १६

नारदजीए चित्रकेतुने सङ्कर्षण विद्यानो उपदेश कर्यो

विशेष - बाळकने जीवतो करी एना मुखथी बोलावी राजाने शोकमुक्त कर्यो अने पछी नारदजीए शेषजीने प्रसन्न करनारी विद्यानो चित्रकेतुने उपदेश आप्यो ए वात सोळमां अध्यायमां आवे छे. अथ देवऋषी राजन्‌ सम्परेतं नृपात्मजम्‌ ॥ दर्शयित्वेति होवाच ज्ञातीनामनुशोचताम्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - परीक्षित! पछी देवर्षि नारदजीए मरेला राजकुमारना जीवात्माने शोकथी आकुल स्वजनोनी सामे प्रत्यक्ष बोलावी कह्युम् ॥१॥

नारदजी बोल्या - ‘‘हे जीवात्मा! तारुं कल्याण हो. आ तारां माता-पिता, सुहृदो, बान्धवो वगेरे तारा अकाळ मरणना शोकथी अत्यन्त दुःखी थई रह्यां छे; माटे तुं पाछो तारा शरीरमां आव अने तारुं बाकी रहेलुं आयुष्य होय ते तारा सुहृदोनी साथे रहीने भोगव. तारा पिताए आपेला भोगो भोगव अने राज्यासन उपर आरोहण करीने माता-पिताने सुख आप’’ ॥२-३॥

ईं उं ईं उं

[[२०७]] जीव कहेवा लाग्यो - ‘‘कया जन्ममां आ मारां माता-पिता हतां? हुं तो मारां कर्मोवडे देव, मनुष्य अने पशुयोनिमां केटलाय वखतथी फरुं छुं. बन्धु, ज्ञाति, शत्रु, मध्यस्थ, मित्र, उदासीन अने द्वेषी आ भावो सर्व प्राणीमां क्रमे करीने थया करे छे. जेम खरीद-वेचाणना सुवर्णादि पदार्थो एक पासेथी बीजा पासे जाय छे तेम माणसोनो जीव पण पोतानी वासना प्रमाणे अनेक प्रकारनी योनिमां फरे छे ॥४-
६॥

आ प्रमाणे विचार करवाथी समजाय छे के माणस करतां वधारे वखत रहेनारी वस्तुओ सुवर्ण, मकान वगेरेनो सम्बन्ध पण मनुष्यो साथे स्थायी-कायमी नहि, क्षणिक ज होय छे अने ज्यां सुधी जेनो सम्बन्ध जेनी साथे रहे त्यां सुधी तेनी ते वस्तुमां ममता रहे छे ॥७॥

जीव नित्य अने अहङ्कार रहित छे. ते गर्भमां आवी ज्यां सुधी जे शरीरमां रहे छे त्यां सुधी ते शरीरने पोतानुं समजे छे ॥८॥

त्यां सुधी एने पिता पुत्र आदिक भाव हता ते देह-सम्बन्ध छूट्या पछी पिता कोण अने पुत्र कोण? तेथी शोक करवो अस्थाने छे. आ जीव ईश्वरनो अंश छे. ईश्वर नित्य, अव्यय, सूक्ष्म (जन्मादि रहित), सर्वनो आश्रय अने सर्वने जोनार समर्थ प्रभु छे. ए पोतानी सर्वभवन मायावडे गुणे करीने आ विश्वने सरजे छे ॥९॥

एने कोई प्रिय के अप्रिय नथी, पोतानो के पारको एवो भेद नथी. ए एक होवा छतां सर्वनी बुद्धिनो अने कर्ताना गुणदोषनो द्रष्टा छे. ए सर्वनो आत्मा होवाथी कोईना गुणदोष के क्रियाना फळने ग्रहण करतो नथी पण उदासीननी पेठे रहेतो छतां पर अने अवर ने कारण कार्यत्मक जगतने जोनार ईश्वर छे’’ ॥१०-११॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - एटलुं बोली जीव चालतो थयो त्यारे साम्भळनार एनां सगा-सम्बन्धी विस्मय पाम्या अने एनी साथेना स्नेहरूपी बन्धनने छोडी एना मृत्युना शोकथी मुक्तथयाम् ॥१२॥

पछी जातिवाळाओए ए बालकना देहने संस्कार कर्यो अने जे कांई उत्तरक्रिया करवी घटे ते करीने शोक, मोह, भय अने दुःख ने आपनार दुस्त्यज स्नेहने छोडीने दुःखथी मुक्त थयाम् ॥१३॥

हे परीक्षित! जे राणीओए बालकने झेर आप्युं हतुं ते बालहत्याने लीधे [[२०८]] श्रीहीन थई गई हती अने शरमनी मारी आङ्ख पण ऊञ्ची करी शकती नहोती. अगिंरा ऋषिना उपदेशने याद करी (ईर्ष्या छोडी दई) यमुनाजीना तट पर ब्राह्मणोना कहेवा प्रमाणे बालहत्यानुं तेमणे प्रायश्चित कर्युम् ॥१४॥

जेम तळावनां कीचडमां खूम्पी गयेलो हाथी बहारनां माणसोना प्रयत्नथी एमाथी नीकळी आवे तेम चित्रकेतु राजा शोकसागरमां डूबी गया हता ते नारदजीना उपदेशथी आत्मबोध थतां एमान्थी एटले गृहस्थाश्रमरूप अन्धकूपमान्थी बहार नीकळीआव्या ॥१५॥

पछी एमणे कालिन्दीमां विधिपूर्वक स्नान कर्यु अने पवित्र जळवडे तर्पणादि करी, मौनवडे प्राणायामादि करी शुद्ध थया अने ब्रह्माना पुत्रोनी वन्दना करी ॥१६॥

भगवान्‌ नारदजीए जोयुं के चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त अने शरणागत छे. तेथी बहु प्रसन्न थई तेने नारदजीए आ विद्यानो उपदेश कर्यो ॥१७॥

‘‘भगवान्‌ वासुदेव! आपने मारा नमस्कार हो. प्रद्युम्नरूप अनिरुद्धरूप अने सङ्कर्षणरूप आपने मारा नमस्कार हो ॥१८॥

विज्ञानमात्र आप छो, आप परमानन्द मूर्ति छो, आत्माराम छो, शान्त छो, जेनो द्वैतभाव लुप्त थयो छे तेवा आप छो. आपने मारा नमस्कार हो ॥१९॥

पोताना स्वरूपभूत आनन्दनी अनुभूतिथी ज आपे माया जनित ऊर्मिओ (शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा अने पिपासा) नो तिरस्कार करी दीधो छे. हुं आपने प्रणाम करुं छुं. आप बधानी इन्द्रियोना प्रेरक, परम महान अने विराट्‌स्वरूप छो. हुं आपने नमस्कार करुं छुम् ॥२०॥

वाणी ज्यां नहि पहोञ्चतां विराम पामी जाय छे, मन पण जेने मळ्या वगर पाछुं फरे छे ए उपरत थई जता नाम के रूपरहित केवळ चैतन्यघन छे अने कार्य कारणथी जे पर छे ते अमारा रक्षक हो ॥२१॥

आ कार्यकारणरूप जगत्‌ जेमान्थी उत्पन्न थाय छे, जेमां रहेलुं छे अने जेमां लय पामे छे तथा जे माटीनी वस्तुओमां व्याप्त माटीनी जेम बधामां ओतप्रोत छे ते परब्रह्मस्वरूप आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२२॥

जो के आप आकाशनी जेम अन्दर-बहार बधे सरखी रीते व्याप्त छो तो पण आपने मन, बुद्धि अने ज्ञानेन्द्रियो पोतानी ज्ञानशक्तिथी जाणी शकती नथी अने प्राण तथा कर्मेन्द्रियो पोतानी क्रियारूप शक्तिथी स्पर्श पण करी शकती नथी. हुं [[२०९]] आपने नमस्कार करुं छुम् ॥२३॥

आपनी सत्तावडे ज इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि वगेरे पोत-पोतानां कार्य करवाने समर्थ थाय छे; एनी सत्ता विना समर्थ थतां नथी. जेम तपावेलुं लोढुं ज बाळी शके छे, ठण्डु लोढुं बाळी शके नहि तेम जीव पण जाग्रदादि अवस्थामां भगवद्‌ शक्तिवडेज द्रष्टापणुं पामे छे, सुषुप्ति अने मूर्छानी अवस्थामां नथी पामतो ॥२४॥

ॐकार स्वरूप भगवान्‌, महापुरुष, मोटा अनुभाववाळा, महाविभूतिना पति, श्रेष्ठ भक्तोना समुदाय, पोताना करकमलोनी कळीओथी जेमना चरणारविन्दनी सेवा करे छे तेवा परम स्थानमां स्थिति करनार आपने मारा नमस्कार हो ॥२५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - नारदजी ए प्रमाणे पोताना शरणागत भक्त चित्रकेतुने विद्या आपीने अगिंरा साथे ब्रह्माजीना धाम तरफ पधार्या ॥२६॥

चित्रकेतु राजाए जलमात्रथी निर्वाह करी सात दिवस सुधी मनने स्थिर करीने नारदजीए आपेली विद्यानुं तेमना कह्या प्रमाणे अनुष्ठान कर्यु ॥२७॥

हे राजन्‌! सात रात सुधी ए विद्यानुं अनुष्ठान करतां विद्याधरोनां अखण्ड आधिपत्यने चित्रकेतुए सम्पादन कर्यु ॥२८॥

पछी केटलाक दिवस ए विद्यावडे एनुं मन वधारे शुद्ध थई गयुं. हवे चित्रकेतु देवना देव एवा शेष भगवानना चरणनी पासे गया ॥२९॥

कमलना नाल जेवा गौर, नीलवस्त्रवाळा, किरीट, केयूर, कन्दोरा अने कङ्कणवडे शोभता, प्रसन्न मुख अने अरुण नेत्रवाळा तथा सिद्वेश्वरना गणथी सेवायेला, सङ्कर्षण भगवाननां चित्रकेतु राजाने दर्शन थयाम् ॥३०॥

भगवान्‌ शेषना दर्शनमात्रथी ज एमनां बधां पाप दूर थई गयां अने एमनुं अन्तःकरण अति स्वच्छ अने निर्मळ थई गयुं. हृदयमां भक्तिनुं पूर आव्युं. नेत्रोमां प्रेमनां आंसु छलकाई आव्यां. शरीरनुं एक-एक रोम खीली ऊठ्युं. एवी स्थितिमां चित्रकेतु राजाए आदिपुरुष एवा सङ्कर्षण भगवानने नमन कर्या ॥३१॥

उत्तम पुरुषो जेनुं गुणगान करे छे तेवा सङ्कर्षणनां चरणचोकीने हर्षाश्रुवडे भीजावी देता चित्रकेतुनो कण्ठ प्रेमना वेगथी रून्धाई गयो अने ए प्रेमना आवेगने लीधे एक पण शब्द बोली शक्या नहि. केटलीय वार सुधी भगवाननी स्तुति पण न करी शक्या ॥३२॥

[[२१०]] पछी मननुं बुद्धिवडे समाधान करी चित्रकेतु राजाए सर्व इन्द्रियोनी बाह्य वृत्तिने रोकी. पछी भक्तोए पञ्चरात्र वगेरे भक्ति शास्त्रमां भगवाननुं जेवुं स्वरूप वर्णव्युं छे तेवा जगद्‌गुरु सङ्कर्षण भगवाननी आ प्रमाणे स्तुति करी ॥३३॥

चित्रकेतुए कह्युं - हे अजित! समदर्शी अने जितेन्द्रिय पुरुषोए आप अजित होवा छतां आपने जीती लीधा छे. आप अत्यन्त दयाळु होवाथी जेओ निष्कामपणे आपनी सेवा करे छे ते भक्तोने आप आत्मानुं दान करो छो तेथी आपे एमने पण जीती लीधा छे ॥३४॥

हे भगवान्‌! आ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ए आपनो ज लीला विलास छे. विश्वनिर्माता ब्रह्मादि आपना अंशना पण अंश छे छतां पोताने ज जगत्कर्ता मानी पृथक्‌ अभिमानवडे मांहो-माहे खोटे-खोटी स्पर्धा करे छे ॥३५॥

परमाणुथी लईने परम महत्तत्व सुधीनी बधी ज वस्तुना आदि, अन्त अने मध्य मां आप रह्या छो अने छतां आप आदि, अन्त अने मध्य रहित छो. वस्तुना आदि अने अन्त मां जे होय ते वच्चे पण चोक्कस होय ज ॥३६॥

पृथ्वी वगेरे एक-एकथी दशगणा सात आवरणोथी आ ब्रह्माण्डनो कोश र्वीटायेलो छे. ते ब्रह्माण्डकोश पोताना ज जेवा बीजा करोडो ब्रह्माण्डो सहित आपमां एक परमाणुनी माफक घूमतो रहे छे छतां तेने आपनी सीमानो पत्तो ज लागतो नथी तेथी आप अनन्त कहेवाओ छो ॥३७॥

विषयनी तृष्णावाळा नरपशुओ आपनी विभूति इन्द्र वगेरेने आराधे छे पण आपनुं आराधन करता नथी. तेओ, जेम राजानी सेवा करनारा राजाना मरण पछी आश्रयदाता न रहेतां तेमना अनुयायीओनी आजीविका पण चाली जाय छे तेम क्षुद्र उपास्य देवोनो दास थतां एमनां आपेला भोग पण नाश पामी जाय छे॥३८॥

हे परमात्मा! जेम शेकेलां बीज ऊगतां नथी तेम आपमां कामबुद्धि राखनार भक्तने आपनी कामना होवाथी एने कामादिनुं तुच्छ फळ मळतुं नथी कारण के जीवने सत्त्व वगेरे गुणथी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व थाय पण आप तो निर्गुण होवाथी आपनी कामनानुं फळ सुख-दुःखथी पर होय छे अने तेथी ए एने धीमे- धीमे निष्काम करे छे ॥३९॥

हे अजित! जे वखते आपे विशुद्ध भागवत धर्मनो उपदेश कर्यो हतो ते ज वखते आपे बधाने जीती लीधा; कारण के पोतानी पासे कंई सङ्ग्रह-परिग्रह न [[२११]] करनारा, कोई पण चीजमां अहन्ता-ममता न राखनार, आत्माराम सनकादि मोटा-मोटा ऋषिओ पण परम समता अने मोक्ष प्राप्त करवामाटे ए ज भागवत धर्मनो आश्रय ले छे ॥४०॥

भागवतधर्ममां बीजा धर्मोनी पेठे ‘तुं’ अने ‘हुं’ अथवा ‘तारुं’ अने ‘मारुं’ एवी विषम बुद्धि नथी, जे धर्ममां विषम बुद्धि होय छे ते ज अशुद्ध, क्षयवाळो अने बहु अधर्मवाळो होय छे ॥४१॥

जेमां स्व अने पर एवो भेद होय त्यां कुशळ क्यान्थी होय? पोतानो के पारको द्रोह थतो होय एवा धर्ममां शो अर्थ होय? जो तप वगेरेवडे पोते ज आत्माने दुःख दे तो आपनो कोप थाय छे. जो बीजाने दुःखी करे तो अधर्म थाय छे ॥४२॥

आपनो सङ्कल्प क्यांय व्यर्थ जतो नथी. ए दृष्टिए ज आपे भागवतधर्म कह्यो छे. ते धर्मने आर्यलोको स्थावर-जङ्गममां भेद राख्या वगर सेवे छे ॥४३॥

वळी आपनां दर्शनथी मनुष्यनां सर्व पापनो क्षय थाय छे ए कांई अघटित नथी ज. अरे! जे आपना नामनुं एकवार श्रवण ज करे ते नीच, चण्डाळ होय तो पण संसारथी मुक्त थई जाय छे ॥४४॥

हे भगवान्‌! आपना कृपा-कटाक्षथी अमारा मनना मेल धोवाई गयां कारण के आपना अनन्य प्रेमी भक्त देवर्षिए जे कह्युं हतुं ते अन्यथा केम थाय? ॥४५॥

हे अनन्त! आप जगतना आत्मा छो एटले बधाना मननी वात जाणो छो तेथी पतङ्गियुं जेम सूर्यने प्रकाशित न करी शके तेम हुं आपने विनन्ति करी शकुं नहि ॥४६॥

आप सकळ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने लय करवामां समर्थ छो. भेददृष्टिने लीधे कुयोगी (अभक्त) ने आपनां स्वरूपनुं ज्ञान थतुं नथी. परमहंसरूप आपने नमस्कार हो ॥४७॥

आपनी चेष्टाथी शक्ति प्राप्त करीने ज ब्रह्मा वगेरे लोकपालगण चेष्ठा करवामां समर्थ थाय छे. आपनी दृष्टिथी जीवित थईने ज ज्ञानेन्द्रियो पोतपोताना विषयो ग्रहण करवामां समर्थ थाय छे. आ पृथ्वी आपना मस्तक उपर सरसवना एक दाणा जेवी लागे छे. आप सहस्त्र मस्तकवाळा भगवानने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुं॥४८॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - विद्याधरोना अधिपति चित्रकेतुए ज्यारे आ प्रमाणे अनन्त भगवाननी स्तुति करी त्यारे भगवान्‌ अनन्त प्रसन्न थया अने तेने हे [[२१२]] कुरूद्वह! आ प्रमाणे कह्युम् ॥४९॥

श्रीभगवाने कह्युं - हे राजन्‌! देवर्षि नारद अने महर्षि अगिंराए तने जे उपदेश आप्यो हतो तेथी तथा एणे आपेली विद्यावडे तथा मारा दर्शनथी तुं सिद्ध थई गयो छे ॥५०॥

हुं ज सर्वभूतरूप छुं. सर्वभूतनो आत्मा पण हुं छुं. तेमनुं पालन करनार पण हुं छुं. शब्दब्रह्म अने परब्रह्म ए बन्ने मारां सनातन रूप छे ॥५१॥

आत्मा कार्य कारणात्मक जगतमां व्याप्त छे अने कार्य कारणात्मक जगत्‌ आत्मामां रहेलुं छे तथा ए बन्नेमां हुं अधिष्ठानरूपथी व्याप्त छुं. अने मारामां ए बन्ने कल्पित छे ॥५२॥

जेम गाढ निद्रामां सूतेलो पुरुष आत्माने विशे विश्वने जुए छे अने स्वरूपमान्थी जाग्या बाद पोताने घरना एक खूणामां पडेलो जुए छे तेम जीवनी जागरणादि अवस्थाओने परमेश्वरनी माया मात्र जाणी ए अवस्थाना द्रष्टा मायातीत भगवानने एनाथी जुदा जाणी एनुं स्मरण करे ॥५३-५४॥

सूतेलो पुरुष ऊङ्घमां जेनी सहायथी बधुं जुए छे अने सुखनो अनुभव करे छे ते ज हुं निर्गुण ब्रह्म छुं एम तुं जाण ॥५५॥

पुरुष निद्रा अने जागृति आ बन्ने अवस्थाओनो अनुभव करवावाळो छे. ते-ते अवस्थाओमां अनुगत होवा छतां खरेखर ते अवस्थाओथी पृथक्‌ छे. ते बधी अवस्थाओमां रहेवावाळुं अखण्ड एकरस ज्ञान ज ब्रह्म छे ते ज परब्रह्म छे ॥५६॥

ज्यारे जीव मारा स्वरूपने भूली जाय छे त्यारे ते पोताने अलग मानी बेसे छे. तेथी ज तेने संसारना चक्करमां पडवुं पडे छे अने जन्म उपर जन्म अने मृत्यु उपर मृत्यु प्राप्त थाय छे ॥५७॥

जे ज्ञान अने विज्ञाननो मूलस्त्रोत छे ते मनुष्य योनिमां आवीने पण जे पोताना आत्माने जाणी शकतो नथी तेने क्यांय पण कोई पण योनिमां सुख मळतुं नथी ॥५८॥

हे राजा! संसारनां सुखने माटे जे प्रवृत्तिओ करवामां आवे छे तेमां श्रम छे, क्लेश छे अने जे परम सुखना हेतुमाटे ते करवामां आवे छे एनाथी बिलकुल ऊलटुं परम दुःख दे छे; पण कर्मोथी निवृत्त थई जवामां कोई जातनो भय नथी एम [[२१३]] विचारीने बुद्धिमान पुरुषे कोई प्रकारना कर्म अथवा तेनां फलोनो सङ्कल्प न करवो जोईए ॥५९॥

जगतना तमाम स्त्री-पुरुषो दुःख टाळवाने तथा सुख भोगववाने प्रयत्न करे छे, परन्तु ते कर्मोथी तेमनुं दुःख टळतुं नथी अने सुख मळतुं नथी ॥६०॥

जे मनुष्यो पोताने बहु बुद्धिमान मानी कर्मो करवामां पडेला छे; एमने विपरीत फल मळे छे आ वात समजी लेवी जोईए. साथे ए वात पण समजी लेवी जोईए के आत्मानुं स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म छे, अर्थात्‌ जाग्रत्‌, स्वपन सुषुप्ति आ त्रणे अवस्थाओथी तथा तेना अभिमानीओथी विलक्षण छे ॥६१॥

आटलुं जाणी आ लोकमां देखेला अने परलोकना साम्भळेला विषयभोगोथी विवेक बुद्धिद्वारा पोतानी जातने अलग करी दई ज्ञान अने विज्ञानमां ज सन्तोष मानी मारो भक्त थई जाय ॥६२॥

योगमां जेमनी बुद्धि निपुण छे तेवा पुरुषोए परमात्मानुं दर्शन करवुं एने ज साचो स्वार्थ कहेलो छे ॥६३॥

आ मारां वचनने तुं सावधानथी अने श्रद्धाथी धारण करीश तो ज्ञान अने विज्ञान थी सम्पन्न थई थोडा ज समयमां सिद्ध थई जईश ॥६४॥

आश्वास्य भगवानित्थं चित्रकेतुं जगद्गुरुः ॥ पश्यतस्तस्य विश्वात्मा ततश्चान्तर्दधे हरिः ॥६५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे जगतना गुरु अनन्त भगवान्‌ चित्रकेतुने आश्वासन आपीने एना देखतां ज विश्वात्मा हरि अन्तर्धान थया ॥६५॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यानप्रकरणनो चित्रकेतुना आख्याननो तेरमो) ‘‘नारदजीए चित्रकेतुने सङ्कर्षण विद्यानो उपदेश कर्यो’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीएछीए (ठेरावेल के ठेराव्या विनानी) दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए.

ईं उं ईं उं

[[२१४]]

अध्याय १७

पार्वतीजीना शापथी चित्रकेतु वृत्रनामक असुर थयो.

विशेष - चित्रकेतु विमानमां बेसी फरतो हतो तेणे महादेवजीने जोया अने एने जोईने हस्यो तेथी पार्वतीए शाप आपवाथी ए पृथ्वीमां वृत्रासुररूपे उत्पन्न थयो ए वात सत्तरमां अध्यायमां आवशे. यतश्चान्तर्हितोऽनन्तस्तस्यै कृत्वा दिशे नमः ॥ विद्याधरश्चित्रकेतुश्चचार गगनेचरः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जे दिशामां अनन्त भगवान्‌ अन्तर्धान थया ते दिशामां नमन करीने विद्याधर चित्रकेतु आकाश मार्गे फरवा लाग्या ॥१॥

चित्रकेतुनी मुनिओ, सिद्ध अने चारणो स्तुति करता रहेता. एनां बळ अने इन्द्रियो नी शक्ति करोडो वर्ष सुधीए अकुठिन्त रह्यां. ए ज्यां सङ्कल्प सिद्ध थाय छे तेवा सुमेरुं पर्वतनी खीणोमां विद्याधरनी स्त्रीओ साथे भगवाननां यशोगान करतो अने करावतो फरवा लाग्या ॥२-३॥

एक वखत ज्यारे भगवाने आपेला तेजस्वी विमानमां फरता हता त्यारे चित्रकेतुए सिद्धो अने चारणो थी र्वीटायेला शिवजीने जोया ॥४॥

मुनिओनी सभामां खोळामां बेसाडेलां देवीने एक हाथथी आलिङ्गन करेला शिवजीने जोई चित्रकेतु एमनी पासे गया अने अत्यन्त हासपूर्वक पार्वतीजीना साम्भळतां कहेवा लाग्या ॥५॥

चित्रकेतुए क्ह्युं - अरे! आ आखा जगतना धर्मशिक्षक अने गुरुदेव छे? समस्त प्राणीओमां तेओ श्रेष्ठ छे. तेमनी आ दशा छे के भरी सभामां पोतानी पत्नी साथे बेठा छे ॥६॥

आ शिव जटाने धारण करे छे तीव्र तप करे छे, ब्रह्मज्ञाननो उपदेश करे छे, ब्रह्मवादीओना सभापति छे, छतां निर्लज्ज प्राकृत पुरुषनी जेम खोळामां स्त्रीने लईने बेठा छे ॥७॥

घणुं करीने साधारण पुरुषो पण एकान्तमाञ्ज स्त्रीनी साथे बेसे छे; परन्तु आ शिव मोटा व्रतधारी होवा छतां भरीसभामां स्त्रीने लईने बेठाछे ॥८॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - राजन! अगाध बुद्धिवाळा भगवान्‌ शिवजी पण [[२१५]] चित्रकेतुनां कटाक्ष वचन साम्भळीने सभामां हसीने चूप रह्या तेमज सभामां बेठेला शिवना बीजा अनुचरो पण कांई बोल्या वगर ज बेसी रह्या ॥९॥

परन्तु शिवना प्रभावने नहि जाणनार होवा छतां बहु असम्बद्ध बोलनार अने ‘‘हुं जितेन्द्रिय छुं’’ एवुं घमण्ड राखनार धृष्ट चित्रकेतुने देवी पार्वतीजी कोप करीने कहेवा लाग्याम् ॥१०॥

पार्वतीजी बोल्यां - ओहो! अमारा जेवा दुष्ट अने *निर्लज्जने दण्डना बल उपर शासन अने तिरस्कार करवावाळो प्रभु आ संसारमां हालमां नवो थयो छे शुं? ॥११॥

विशेष - अर्ही पार्वतीजी एम कहे छे के अमारा जेवा निर्लज्ज अने दुष्टने दण्ड आपनारो आ नवो प्रभु कोण नीकळ्यो? आ भावने साहित्यमां उपालम्भ कहेवामां आवे छे. एम लागे छे के ब्रह्माजी एमना पुत्रो भृगु, नारदजी वगेरे तेमज कपिलदेव, सनत्कुमारादि, मनु कोई पण धर्मने जाणता नथी त्यारे तो धर्मनुं उल्लङ्घन करनार शिवजीने अधर्म करतां तेओ अटकावता नथी ॥१२॥

ब्रह्माजी आदि समस्त महापुरुष जेमना चरणारविन्दोनुं ध्यान करता रहे छे ए मङ्गळमां पण मङ्गळरूप साक्षात्‌ जगद्‌गुरु भगवाननो अने तेमना अनुयायी महात्माओनो आ अधम क्षत्रिये तिरस्कार कर्यो छे अने शासन करवानी चेष्टा करी छे तेथी आ धृष्टने सर्वथा दण्ड करवो जोईए ॥१३॥

पोताना मनथी डाह्यो माननार आ माणस अभिमानी छे तेथी ते भगवाननां चरणकमळनी पासे रहेवाने लायक नथी केमके ए चरणारविन्दना सेवननो अधिकार तो भक्तोने ज होई शके ॥१४॥

(चित्रकेतुने सम्बोधन करीने) माटे हे दुष्टबुद्धि तुं आसुर अने पापयोनि मां जा ज्यां जवाथी हे पुत्र! तुं बीजी वार मोटाओने अपराध न करी शके ॥१५॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - हे भारत! ए प्रमाणे पार्वतीजीए चित्रकेतुने शाप आप्यो त्यारे विमानमान्थी उतरी पार्वतीजीने नम्रताथी मस्तक नमावी चित्रकेतु सतीने प्रसन्न करवानो प्रयत्न करवा लाग्योः ॥१६॥

‘‘हे अम्बिके! मनुष्यने माटे जे देव कहे ते एनुं पूर्वनुं भाग्य ज समजवुंःमाटे आपे मने शाप आप्यो तेनो हुं बे हाथ जोडी स्वीकार करुं छुम् ॥१७॥

आ संसाररूपी चक्रमां अज्ञानथी मोहित थयेलो जीव पडे छे अने एमां ज [[२१६]] फरतो सुख-दुःखनो अनुभव करे छे ॥१८॥

सुख-दुःखनो कर्ता आत्मा नथी तेमज बीजो कोईपण नथी, परन्तु मूर्ख माणस पोताने अथवा बीजाने कर्ता मानेछे ॥१९॥

आ जगत्‌ सत्त्वगुण, रजोगुण अने तमोगुण नो स्वाभाविक प्रवाह छे. एमां शुं शाप अने शुं अनुग्रह! शुं स्वर्ग अने शुं नरक? शुं सुख अने शुं दुःख? ॥२०॥

आत्ममायावडे भगवान्‌ एकला ज कोईनी सहाय विना भूतोनां बन्धमोक्ष अने सुख-दुःख सरजे छे अने छतां पोते निर्गुण छे ॥२१॥

एने कोई प्रिय के अप्रिय नथी, कोई पोतानो के पारको नथी, सर्वत्र सम छे. ए कोईमां लेपाता नथी. एने सुखमां पण राग नथी तो रागजन्य रोष तो क्यान्थी ज होय? ॥२२॥

तो पण ए भगवाननी मायाशक्तिनुं कार्य पाप-पुण्य ज प्राणीओना सुखदुःख, हित-अहित, बन्ध-मोक्ष तथा जन्म मृत्युरूप संसार ऊभो करे छे ॥२३॥

हे भामिनी! आपे मने शाप आप्यो छे तेमान्थी छूटवानी मागणी हुं करतो नथी, परन्तु आपने जे मारी वात अनुचित लागी होय तेमाटे हुं माफी मागुं छुं’’ ॥२४॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रमाणे शिव-पार्वतीजीने प्रसन्न करीने पोताना विमानमां सवार थई एमनां जोतां ज चित्रकेतु त्यान्थी रवाना थयो तेथी ए लोकोने घणुं आश्चर्य थयुम् ॥२५॥

त्यारे देवर्षि अने सिद्ध तथा पार्षदोना साम्भळतां भगवान्‌ शिवजीए पार्वतीजीने आ वात कही ॥२६॥

श्रीरुद्र बोल्या - हे सुन्दरी! अद्‌भुतकर्मवाळा भगवान्‌ हरिना भक्तो महात्मा छतां केवा निःस्पृह होय छे एनुं माहात्म्य तें पोते जोयुम् ॥२७॥

नारायण-परायण लोको क्यांय भय पामता नथी कारण के स्वर्ग, मोक्ष के नरक मां पण समानताथी केवल भगवाननां ज तेमने दर्शन थाय छे ॥२८॥

ईश्वरनी लीलावडे देहना संयोगथी मनुष्यने सुख-दुःख, मृत्यु-जन्म अने शाप-अनुग्रह वगेरे द्वन्द्व प्राप्त थया करे छे ॥२९॥

जेवी रीते स्वपनमां भेदभ्रमथी सुख-दुःख आदि जणाय छे अने जाग्रत अवस्थामां भ्रमथी मालाने ज सर्प मानी ले छे तेवी ज रीते मनुष्य अज्ञानथी [[२१७]] आत्मामां देवता, मनुष्य वगेरेना भेद तथा गुणदोष वगेरेनी कल्पना करी ले छे॥३०॥

परन्तु वासुदेव भगवान्‌मां भक्ति करनार अने ज्ञान वैराग्यना बळवाळा लोकोने कांईपण आ संसारमां ग्रहण करवा योग्य अथवा त्याग करवा योग्य देखातुं नथी॥३१॥

हुं, ब्रह्माजी, सनक वगेरे, नारदजी, ब्रह्माजीना पुत्र भृगु आदि मुनिओ अने मोटा-मोटा देवताओ कोईपण, भगवान्‌ कये वखते शुं करवा धारे छे तेनुं रहस्य जाणी शकता नथी तो पछी जे एना नानामां नाना अंश छे अने पोताने ज एनाथी अलग ईश्वर मानी बेठा छे ते एमना स्वरूपने जाणी ज केवी रीते शके? ॥३२॥

एने तो कोई प्रिय नथी, कोई अप्रिय नथी, कोई पोतानो नथी, कोई पारको नथी, परन्तु भगवान्‌ बधां प्राणीओना आत्मा होवाथी सर्व प्राणीओने प्रिय छे ॥३३॥

आ परम भाग्यवान चित्रकेतु एमना प्रिय अनुचर छे अने हुं पण भगवान्‌ श्रीहरिनो ज प्रिय छुम् ॥३४॥

तेथी तेने भगवानना वहाला भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषोना सम्बन्धमां कंई आश्चर्य न थवुं जोईए ॥३५॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - देवीए ज्यारे शिवजीनुं आ भाषण साम्भळ्युं त्यारे एनो विस्मय जतो रह्यो अने ए शान्त थयाम् ॥३६॥

जो के भगवद्भक्त चित्रकेतु देवी पार्वतीजीने सामे शाप आपवाने समर्थ हता छतां एणे मस्तक नमावीने देवीए आपेला शापनो स्वीकार करी लीधो! साधुनुं आ ज लक्षण छे. (कोई कोप करे तेनी सामे एना जेवुं न थवुं) ॥३७॥

ए पार्वतीजीना शापथी चित्रकेतु त्वष्टाना यज्ञमां दक्षिणाग्नि थकी वृत्र नामथी, प्रसिद्ध दानव होवा छतां ए भगवत्स्वरूपना ज्ञान अने भक्तिथी परिपूर्ण ज रह्या ॥३८॥

तें मने पूछ्‌युं हतुं के भगवान्‌मां बुद्धिवाळा वृत्रासुरनो असुर जातिमां जन्म शामाटे थयो ए बधुं में तने कही दीधुम् ॥३९॥

महात्मा चित्रकेतुनो आ पवित्र इतिहास मात्र एमनुं ज नहि, समस्त विष्णु भक्तोनुं माहात्म्य छे. एने जे साम्भळे छे ते तमाम बन्धनोथी छूटी जाय छे॥४०॥

य एतत्प्रातरुत्थाय श्रद्धया वाग्यतः पठेत्‌ ॥ [[२१८]] इतिहासं हरिं स्मृत्वा स याति परमां गतिम्‌ ॥४१॥

जे पुरुष प्रातःकालमां उठीने, मौन रही, श्रद्धा सहित, भगवाननुं स्मरण करतां-करतां आ इतिहासनो पाठ करे छे एने परमगतिनी प्राप्ति थाय छे ॥४१॥

इति श्री भागवत षष्ठस्कन्धमां (बीजा ध्यान प्रकरणनो चित्रकेतुना आख्याननो चौदमो) ‘‘पार्वतीजीना शापथी चित्रकेतु वृत्रनामक असुर थयो’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणिने वाटके (भागवत), भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम) त्रीजुं अर्चन प्रकरण

अध्याय १८

दितिना गर्भना इन्द्रे करेला टुकडा ते ४९वायुरूपे देवना पक्षपाती थया

विशेष - बार आदित्यमां चोथा त्वष्टाना वंशना प्रसङ्गने लईने वृत्रासुर अने इन्द्र ना युद्धनी कथा कही. आ अढारमां अध्यायमां इन्द्रे दितिना गर्भमां जई ए गर्भना सात भाग कर्या. ते न मर्या तेथी फरी एकेकना सात टुकडा कर्या ए कथा आवशे तथा बीजा पण देवोना वंशनी कथा आ अध्यायमांआवशे. पृश्निस्तु पत्नी सवितुः साविर्त्री व्याहृतिं त्रयीम्‌ ॥ अग्निहोत्रं पशुं सोमं चातुर्मास्यं महामखान्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सवितानी पत्नी पृश्निए आठ सन्तानोने जन्म आप्यो. सावित्री, व्याहृति अने त्रयी नामनी त्रण कन्या तथा अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य तथा पञ्चमहायज्ञ नामना पाञ्च पुत्रो हता ॥१॥

भगनी स्त्री सिद्धिए, महिमा, विभु अने प्रभु नामना त्रण पुत्र तथा सारा

ईं उं ईं उं

[[२१९]] शीलवाळी अने सुन्दर आशिष नामनी कन्याने जन्म आप्यो ॥२॥

धाताए कुहूथी सायम्यपुत्रने, सिनीवालीथी दर्शने, राकाथी प्रातरने अने अनुमतिथी पूर्ण मासने आ चार पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥३॥

धाताना नाना भाई विधाताए क्रिया नामनी पत्नीथी पूरीष्य नामना पाञ्च अग्निने उत्पन्न कर्या. वरुणजीनी पत्नीनुं नाम चर्षणी हतुं. तेने त्यां भृगुजीए फरी जन्म लीधो. ए पहेलां ए ब्रह्माजीना पुत्र हता ॥४॥

महायोगी वाल्मिकीजी पण वरुणना पुत्र हता. वल्मीक(राफडा) थी जन्म थवाने कारणे ज एनुं नाम वाल्मिकी पड्युं हतुं. उर्वशीने जोईने मित्र अने वरुण बन्नेनुं वीर्य स्खलित थई गयुं हतुं. तेने तेओए घडामां मूकी दीधुं. तेनाथी ज मुनिवर अगस्त्य अने वसिष्ठजीनो जन्म थयो. मित्रनी पत्नी हती रेवती. एना त्रण पुत्रो थया-उत्सर्ग, अरिष्ट अने पिप्पल ॥५-६॥

इन्द्रे पुलोमनी पुत्री शशीमां त्रण पुत्रो उत्पन्न कर्या. जयन्त, ऋषभ अने मीढुष ए नामे थयानुं अमे साम्भळ्युञ्छे ॥७॥

कपटवडे वामनरूप धरनार त्रिविक्रमदेवे कीर्ति नामनी स्त्रीथी बृहच्छलोक नामनो पुत्र उत्पन्न कर्यो तेनाथी सौभग वगेरे घणां सन्तान थया ॥८॥

कश्यपनां पुत्र उरुक्रम, अदितिना गर्भथी प्रकट थयां तेणे जे पराक्रम कर्या ते हवे पछीथी (अष्टम स्कन्धमां) कहेवाशे ॥९॥

प्रिय परीक्षित! हवे हुं कश्यपजीनी बीजी पत्नी दितिथी उत्पन्न थनार ए सन्तान परम्परानुं वर्णन करुं छुं जेमां भगवानना प्रिय भक्त श्रीप्रह्‌लादजी तथा बलिनो जन्म थयो ॥१०॥

दैत्यो अने दानवने नमन करवा लायक हिरण्यकशिपु अने हिरण्याक्ष नामना बे पुत्रो दितिने कश्यपथी थया एम सङ्क्षेपमां त्रीजा स्कन्धमां हुं कही गयो छुम् ॥११॥

जम्भ दानवने कयाधू नामनी पुत्री हती ते हिरण्यकशिपुनी पत्नी हती तेने चार पुत्रो थया ॥१२॥

एने संह्‌लाद, अनुह्‌लाद, ह्‌लाद अने प्रह्‌लाद एम चार पुत्रो थया तथा सिंहिका नामनी कन्या थई जेने विप्रचित्ति नामनो दानव परण्यो अने एनाथी एने राहू नामनो पुत्र थयो ॥१३॥

आ ए ज राहु छे जेनुं शिर अमृतपान वखते मोहिनी रूपधारी भगवाने चक्रथी [[२२०]] उडावी दीधुं हतुं संह्‌लादनी स्त्री कृतिए पञ्चजन नामना पुत्रने जन्म आप्यो ॥१४॥

प्रह्‌लादनी स्त्री धमनीने वातापि अने इल्लव नामना बे पुत्रो थया. इल्वले अगस्त्यने जमवा बोलावीने वातापिने (बोकडो बनावी एने) रान्धी खवडावी दीधो ॥१५॥

अनुह्रादने सूर्म्या नामनी स्त्रीथी बाष्कल अने महिषासुर थया. प्रह्‌लादथी विरोचन थयो; तेने देवी नामनी स्त्रीथी बलिराजा थयो ॥१६॥

बलिने अशना नामनी स्त्रीथी सो पुत्रो थया जेमां बाण सौथी मोटो हतो, दैत्यराज बलिनो प्रताप साम्भळवा जेवो छे पण ए पछी कहीशुम् ॥१७॥

बाणे शिवनुं आराधन कर्यु तेथी ए शिवना गणमां मुख्य थयो. आज पण भगवान्‌ शङ्कर एना नगरनी रक्षा करवा तेनी पासे ज रहे छे ॥१८॥

दितिने हिरण्यकशिपु अने हिरण्याक्ष उपरान्त ओगणपचास मरुद्‌गण नामना पुत्रो थया ते निःसन्तान हतां एटले इन्द्रे पोताना करीने तेमने देवोमां दाखल कर्या ॥१९॥

राजा परीक्षिते पूछ्‌युं - मरुद्‌गणे एवुं कयुं सत्कर्म कर्यु हतुं जेने लईने तेओ जन्मजात आसुरी भाव छोडी शक्या अने देवराज इन्द्रद्वारा तेमने देवता बनावी लेवामां आव्या? ॥२०॥

मारी साथे आ ऋषिओ पण ए वात साम्भळवानी श्रद्धा राखे छे; माटे हे ब्रह्मन्‌! आप कृपा करीने विस्तारथी एनुं रहस्य बतावो ॥२१॥

सूतजी बोल्या - हे शौनक! परीक्षितना एवा टूङ्का छतां सारगर्भित वाक्यने साम्भळी एने अभिनन्दन आपीने सर्वज्ञ शुकदेवजी, प्रसन्न अन्तःकरणथी राजाने कहेवा लाग्या ॥२२॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - इन्द्रनो पक्ष करीने विष्णु भगवाने दितिना पुत्रोने मार्या त्यारे शोकनी आगथी सळगी जई अने क्रोधथी बळती दिति विचार करवा लागीः ॥२३॥

‘‘खरेखर, इन्द्र अत्यन्त विषयी, क्रूर अने निर्दय छे. अरेरे!तेणे पोताना हिरण्यकशिपु अने हिरण्याक्ष बन्ने भाईओने ज मरावी नाख्या! हुं पण ए पापीने मरावी नाखीने सुखथी क्यारे निद्रा करुं? ॥२४॥

[[२२१]] अहो! जे शरीरने बे दिवस राखो तो कृमि थई जाय, श्वान भक्षण करे तो विष्ठा थाय, बाळी दो तो राख थाय तेवा शरीरना सुखमाटे प्राणीनो द्रोह करनार राजाओ शुं स्वार्थने समजी शके छे के प्राणीओनो द्रोह करवाथी नरकरूपी फळ मळे छे? ॥२५॥

‘‘शरीरने नित्य मानवावाळा इन्द्रनो मद उतारी दे एवो मने पुत्र थाय’’ एवी आशाथी दिति पोताना पतिनी वारंवार सेवना करती, अनुराग दाखवती, नम्रता तथा इन्द्रियदमन करीने सेवा करवा लागी ॥२६-२७॥

हे राजन! सुन्दर अने मनोहर वाणीवडे मुनिना भावने जाणनारी दितिए स्मित अने कटाक्षोवडे पतिना मनने वश करी लीधुम् ॥२८॥

कश्यपजी महाराज भारे विद्वान होवा उपरान्त विचारशील हता, छतां चतुर दितिनी सेवाथी मोहित थई गया अने विवश थईने स्वीकार करी लीधुं के हुं तारी इच्छा पूरी करीश. स्त्रीने वश थयेलो होय ते स्त्रीनुं कह्युं करे एमां कांई आश्चर्य न कहेवाय ॥२९॥

कारण के ज्यारे ब्रह्माजीए प्राणीओने उत्पन्न कर्या त्यारे बधां निःसङ्ग रह्यां तेथी ब्रह्माजीए पोताना अर्धदेहथी स्त्रीने करी जेणे पुरुषोनी बुद्धिने हरी लीधी ॥३०॥

ज्यारे दितिए कश्यपनी एवी सेवा बजावी त्यारे कश्यप दिति उपर परम प्रसन्न थई एनी सेवानां वखाण करी हसीने एने कहेवा लाग्या ॥३१॥

कश्यपजीए कह्युं - हे अनिन्द्य सुन्दरी प्रिये! हुं तारी उपर प्रसन्न थयो छुं तेथी इच्छा होय ते वरदान मागी ले केमके स्त्री उपर ज्यारे पति प्रसन्न थाय त्यारे स्त्रीने माटे आ लोक परलोकमां कई अभीष्ट वस्तु दुर्लभ छे? ॥३२॥

शास्त्रोमां आ वात स्पष्ट करवामां आवी छे के पति ज स्त्रीओना आराध्य इष्टदेव छे. सर्व जीवना मनमां रहेनार वासुदेव भगवान्‌ जे लक्ष्मीना पति छे ते ज स्त्रीओने पतिरूपे दर्शन दे छे ॥३३॥

जुदा-जुदा देवताओनां रूपमां नाम अने रूप ना भेदथी एमनी ज कल्पना थई छे. बधा पुरुषो कोई पण देवतानी उपासना करता होय एमनी ज उपासना करे छे. बराबर एवी ज रीते स्त्रीओने माटे भगवाने पतिनुं रूप धारण कर्युं छे. तेओ एमनी ए ज रूपमां पूजा करे छे ॥३४॥

[[२२२]] तेथी हे सुमध्यमे! पतिना व्रतवाळी स्त्रीओ पोताना श्रेयने माटे अनन्यभाववडे आत्मरूप तथा पतिरूप ईश्वरने भजे छे ॥३५॥

हे भद्रे! तें पण मने भगवद्भाववडे अने प्रेमवडे आराध्यो छे तेथी असतीने दुर्लभ तारी बधी अभिलाषाओ हुं पूर्ण करुम् ॥३६॥

दिति बोली - जो आप वरदान देवाने तैयार हो तो हुं एवुं वरदान मागुं छुं के हे ब्रह्मन्‌! जेणे मारा पुत्रोने मराव्या छे तेवा इन्द्रने मारे छतां पोते न मरे तेवो पुत्र मने आपो ॥३७॥

दितिनुं आ वचन साम्भळीने कश्यपजी उदासीन थया अने मनमां ताप करवा लाग्या के ‘‘आजे मारा जीवनमां मोटा अधर्मनो अवसर ऊभो थयो ॥३८॥

अहो! जुओ तो खरा, स्त्रीरूपी मायावडे ईन्द्रियोमां आराम मानीने आजे हुं एना मोहमां पड्यो छुं. आज हुं केवी दीन-हीन अवस्थामां छुं! तेथी जरूर हुं नरकमां पडीश ॥३९॥

आ स्त्रीनो कोई वाङ्क नथी कारण के ए तो एना जन्मजात स्वभाव प्रमाणे ज वर्ती छे. दोष मारो छे जे हुं मारी इन्द्रियो उपर काबू न राखी शक्यो, मारा साचा स्वार्थ अने परमार्थने हुं न ओळखी शक्यो. मने मूढने धिक्कारछे? ॥४०॥

स्त्रीओना चरित्रने कोण पार पामी शके? एमनुं मुख तो एवुं होय छे के जाणे शरद्‌ऋतुनुं खीलेलुं कमल. एमनी वाणी एवी मीठी होय छे जाणे तेमां अमृत घोळी राख्युं होय. परन्तु हृदय ए तो एटलुं तीक्ष्ण होय छे के जाणे अस्त्राथी धार॥४१॥

पोताना स्वार्थने आत्मारूप गणती स्त्रीओने कोई प्रिय होतुं नथी. स्वार्थमां आडे आवता पति, भाई, पुत्रने पण ए तुरत मारी नाखवामां के मरावी नाखवामां लेश पण खचकाती नथी ॥४२॥

परन्तु में ‘माग’ एम कह्युं ए मारुं वचन वृथा न जवुं जोईए. साथे-साथे इन्द्र पण न मरवो जोईए एमाटे आ युक्ति करुं’’ ॥४३॥

आम विचार करीने मरीचिना पुत्र कश्यप कांईक कोप करीने पोतानी जातने ठपको आपी दितिने कह्युम् ॥४४॥

कश्यपजीए कह्युं - हे भद्रे! जो तुं एक वर्ष सुधी मारा क्ह्या प्रमाणे व्रत धारण करे तो इन्द्रने मारनार पुत्र तने थशे पण एमां कंई त्रुटि थई जशे तो ते देवताओनो मित्र बनी जशे ॥४५॥

[[२२३]] दितिए कह्युं - हुं व्रत करवा तैयार छुं माटे आप कहो के मारे शुं करवुं के जेनाथी व्रत सिद्ध थाय अने शुं न करवुं के जेनाथी व्रतमां बाध न थाय ॥४६॥

कश्यपजीए कह्युं - प्राणी मात्रनी मन, वाणी के कर्म थी हिंसा न करवी; कोईने गाळ के शाप न देवो; खोटुं न बोलवुं; नख, केश न कापवा; कोई पण अमङ्गळ वस्तुने अडकवुं नहि; ॥४७॥

जलमां पडीने स्नान न करवुं; कोप न करवो; दुष्ट साथे भाषण न करवुं; धोया वगरनुं वस्त्र पहेरवुं नहि; कोईनी पहेरेली माळा पहेरवी नहि; ॥४८॥

एठुं, चडिङ्काने धरेलुं, मांसवाळुं, शूद्रे लावेलुं अने रजस्वलाए जोयेलुं अन्न पण खावुं नहि; हाथनी अञ्जलिवडे जळ पीवुं नहि ॥४९॥

खाईने मोढुं धोया वगर, आचमन कर्या वगर, सन्ध्या समये, खुल्ले माथे, शृङ्गार कर्या विना, वाणीनो संयम राख्या विना, वस्त्र पहेर्या वगर घरनी बहार न नीकळवुम् ॥५०॥

पग धोया वगर, अपवित्र अवस्थामां भीने पगे, उत्तर ओशीके, पश्चिम ओशीके, बीजानी साथे तथा वस्त्र वगर तथा बन्ने सन्ध्याकाळे सूवुं नहि ॥५१॥

धोयेलुं वस्त्र पहेरवुं; पवित्र रहेवुं; सौभाग्यनां बधां चिह्‌नो धारण करवां; सवारे जम्या पहेलां गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मी तथा नारायण नी पूजा करवी ॥५२॥

सुवासिनी स्त्रीओनी माळा, चन्दन तथा आभरण थी पूजा करवी; पतिनी सेवामां तत्पर रहेवुं; एवी भावना करती रहे के पतिनुं तेज मारी कूखमां छे ॥५३॥

आ व्रतनुं नाम छे पुंसवन व्रत. तेने एक वर्ष सुधी भूलचूक वगर तुं धारण करीश तो इन्द्रने मारनार पुत्र तने थशे ॥५४॥

त्यारे मनस्विनी अने दृढ निश्चयवाळी दितिए मुनिने शरतो पाळवानी कबूलत आपी अने कश्यप थी एने गर्भ रह्यो के तुरत उपर कहेला नियमोनुं अनायास पालन करवा लागी ॥५५॥

हे निरपेक्ष सेवाभावी परीक्षित! देवराज इन्द्र पोतानी मासी दितिनो आशय पामी जई घणी होशियारीथी वेशपलटो करी दितिना आश्रमे आव्या अने तेनी सेवा करवा लाग्यो ॥५६॥

ते रोज समये-समये वनमान्थी फल, फळ, मूळ, समिध, दर्भ, पत्र, अङ्कुर अने माटी तथा जल तेनेमाटे तैयार राखवा लाग्यो ॥५७॥

[[२२४]] हे नृप! व्रत करनार दितिना व्रतनी त्रुटिने पकडी पाडवा इन्द्र जेम पारधी जेम हरिणनो वेश करीने हरिणने मारे तेम कपटथी सेवा करवा लाग्यो ॥५८॥

सतत बारीक नजर राखवा छतां पण ज्यारे इन्द्रने तेना व्रतमां कंई ज त्रुटि न जणाई त्यारे तेने भारे चिन्ता थई के कया उपायथी मारुं कल्याण थाय ॥५९॥

व्रतना नियमोनुं पालन करतां-करतां दिति बहु दूबळी थई गई हती. दैवथी मूढ बनी एक दिवस सन्ध्या समये एठे मोढे आचमन कर्या वगर अने पग धोया वगर ज सूई गई ॥६०॥

त्यारे अवकाश मळ्यो छे एम जाणी इन्द्र ए निद्रा लेती दितिना उदरमां योगमायावडे प्रविष्ट थयो ॥६१॥

त्यां जई सुवर्ण सरखा गर्भना वज्रवडे तेणे सात ककडा कर्या त्यारे ते रोवा लाग्या एटले ‘‘रो नहि, रो नहि’’ एम कही एक एकना फरी सात सात ककडा कर्या ॥६२॥

ज्यारे इन्द्रए गर्भने चीरवा लाग्यो त्यारे ए हाथ जोडीने बोल्या के अमे तो तारा भाईओ मरुद्‌गण छीए ॥६३॥

त्यारे इन्द्रे पोताना भावी अनन्य प्रेमी पार्षद मरुद्‌गणने कह्युं, ‘‘ठीक छे तमे मारा भाई छो, हवे डरो नहि’’॥ ॥६४॥

जेम अश्वत्थामाना अस्त्रवडे तमारो (परीक्षितनो) नाश न थयो तेम भगवाननी दयावडे इन्द्रे वज्रवडे दितिना गर्भना टुकडे-टुकडा करी नाख्या तो पण ए न मर्यो ॥६५॥

आमां जरा पण आश्चर्य जेवुं छे ज नहि कारण के जे मनुष्य एकवार पण आदिपुरुष नारायणनी आराधना करी ले छे. ते तेनी समान थई जाय छे; तो पछी दितिनी आराधानामां तो वर्ष पूरुं थवामां थोडो ज समय बाकी रह्यो हतो ॥६६॥

हवे इन्द्र साथे गणतां ते देवो पचास थया. इन्द्रे पण सावकी माना पुत्रो साथे दुश्मनी नहि राखतां तेमने सोमपान करता देवो बनावी दीधा ॥६७॥

दितिए ऊठीने जोयुं तो अग्नि जेवा तेजस्वी पुत्रो इन्द्रनी साथे छे एथी सुन्दर स्वभाववाळी ए घणी राजी थई ॥६८॥

अने इन्द्रने कहेवा लागी के ‘‘हे तात! हुं देवोने भयरूप थाय तेवो पुत्र इच्छती हती अने एनेमाटे दुष्कर व्रत करती हती. में तो एक ज पुत्रनो सङ्कल्प कर्यो हतो [[२२५]] त्यां ओगणपचास क्यान्थी थया? हे पुत्र! ए जो तारा जाणवामां होय तो तुं सत्य वात मने कहे खोटुं बोलीश नहि ॥६९-७०॥

इन्द्र कह्युं - हे अम्ब! हुं तमारो विचार जाणीने तमारी पासे आव्यो पण एमां मारी स्वार्थबुद्धि हती तेथी में धर्मनो विचार न कर्यो अने मोको मळ्यो के तरत ज तमारा उदरमां जईने गर्भना सात टुकडा कर्या तो ते सात कुमारो थई गया. फरीने एक एकना सात टुकडा कर्या ए पण मर्या नहि ॥७१-७२॥

एवुं आश्चर्य जोईने हुं एवा निर्णय उपर आव्यो के परम पुरुष भगवाननी उपासनानी आ अवर्णनीय स्वाभाविक सिद्धि छे ॥७३॥

भगवाननी निष्काम आराधना करनार जे भगवान्‌ सिवाय बीजी वस्तुने इच्छता नथी-मोक्षने पण नहि ते ज स्वार्थमां कुशळ छे ॥७४॥

भगवान्‌ जगदीश्वर बधाना सेव्य अने पोताना आत्मा ज छे. ते प्रसन्न थाय त्यारे पोतानी जातने पण आपी दे छे. भला एवो कयो बुद्धिमान होय जे एमनी आराधना करीने विषयभोगोनुं वरदान मागे? ए विषयभोग तो नरकमां पण मळी शके छे ॥७५॥

मारी स्नेहमयी मासीबा! तमे बधी रीते मारामाटे पूज्य छो. मूर्खता वश हुं भारे नीच काम करी बेठो. मारां ए अपराधने तमे क्षमा करी दो. ए घणा आनन्दनी वात छे के तमारा गर्भना टुकडे-टुकडा थई जवाथी एक रीते मरी जवा छतां फरीथी जीवन्त थई गयाम् ॥७६॥

इन्द्रनी पारदर्शक निष्ठाथी दितिने सन्तोष थई गयो. तेनी आज्ञा लई, देवराज इन्द्रे मरुद्‌गणो साथे तेने प्रणाम कर्या अने ते स्वर्गे पधार्या ॥७७॥

एवं ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। मङ्गलं मरुतां जन्म किं भूयः कथयामि ते ॥७८॥

हे परीक्षित! मने तमे जे पूछ्‌युं हतुं ते मङ्गळरूप, मरुतोना पवित्र जन्मनी कथा में तमने सविस्तर कही. हवे तमारे शुं साम्भळवानी इच्छा छे ए बोलो एटले हुं कहुं ॥७८॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धनो (त्रीजा अर्चन प्रकरणनो पहेलो) ‘‘दितिना गर्भना इन्द्रे करेला टुकडा ते ४९ वायुरूपे देवना पक्षपाती थया’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[२२६]]

अध्याय १९

पुंसवन व्रत क्यारे अने केम करवुं एनो सविस्तार विधि व्रतं पुंसवनं ब्रह्मन्‌ भवता यदुदीरितम्‌ ॥ तस्य वेदितुमिच्छामि येन विष्णुः प्रसीदति ॥१॥

राजा बोल्या - हे ब्रह्मन्‌! आपे हमणां पुंसवन व्रत कह्युं के जेनाथी विष्णु प्रसन्न थाय छे तेनो विधि जाणवानी हुं इच्छा राखुं छुम् ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मागसर मासनी शुक्ल प्रतिपदाथी स्त्री पोताना पतिनी आज्ञा मागी सर्व कामना पूर्ण करनार आ व्रतनो आरम्भ करे ॥२॥

पहेलां मरुद्‌गणना जन्मनी कथा श्रवण करी ब्राह्मणोनी आज्ञा मागे, पछी दान्त साफ करे, स्नान करी बे सफेद वस्त्र धारण करी आभूषण पण धारण करी ले. सवारे कंई पण खाधा पहेलां लक्ष्मी सहित नारायण भगवाननुं पूजन करे ॥३॥

आ प्रमाणे प्रार्थना करेः‘‘आप निरपेक्ष अने पूर्णकाम छो तेथी आपने कोईनी पासे कंई अपेक्षा नथी. आपने हुं नमुं छुं. लक्ष्मी वगेरे महाविभूतिना स्वामी अने सकळ सिद्धिना दाता आपने मारा नमस्कार हो ॥४॥

आप कृपा, ऐश्वर्य, तेज, महिमा अने वीर्य वगेरे समस्त विभूतिवडे युक्त छो. ए ईश्वरी गुणोथी नित्य युक्त होवाथी ज आप सर्वनी उपर सत्ता भोगवो छो ॥५॥

हे विष्णुपत्नी! हे महामाया! भगवानना बधा गुण आपमां निवास करे छे. महाभाग्यवती लोकमाता, मारा पर प्रसन्न थाओ. हुं आपने नमुं छुम् ॥६॥

‘‘ओङ्कार स्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतिओना स्वामी भगवान्‌ पुरुषोत्तमने अने आपनी महाविभूतिओने हुं नमस्कार करुं छुं अने आपने पूजा- उपहारनी सामग्री अर्पण करुं छुं’’. आ मन्त्रथी रोज स्थिर चित्तथी विष्णु भगवानना आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, जनोई, आभूषण, गन्ध पुष्प, धूप, दीप नैवेद्यादि उपचारथी पूजा करे अने शेष रहेला हविषवडे अग्निमां बार आहुति ‘‘महान ऐश्वर्योना अधिपति भगवान्‌ पुरुषोत्तमने नमस्कार हो. हुं एमने माटे आ हविष्यनुं हवन करी रही छुं’’. आ मन्त्र बोली अग्निमां बार आहुतिओ आपे ॥७-८॥

[[२२७]] सर्व कामनाने पूर्ण करनार लक्ष्मी अने विष्णु बन्नेने प्रेमवडे सारी रीते पूजे जेथी सर्व सम्पत्तिनी इच्छा होय ते सफळ थाय ॥९॥

भक्तिथी नम्र अन्तःकरणवडे पृथ्वी उपर दण्डवत्‌ प्रणाम करे कारण के मात्र ते बन्ने समस्त मनोरथोने पूर्ण करवावाळा अने श्रेष्ठ वरदानी छे. दश वार पूर्वोक्त मन्त्रनो जप करीने पछी फरी आ स्तोत्रनो पाठ करे ॥१०॥

हे लक्ष्मी नारायण! आप बन्ने सर्व व्यापक अने चराचर जगतनुं परम कारण छो, आ लक्ष्मीजी आपनी मायाशक्ति छे. ते स्वयं अव्यक्त प्रकृति पण छे. कोईथी न जिताय तेवी मायाशक्ति छे ॥११॥

एना अधीश्वर साक्षात्‌ परम पुरुष आप छो. आप सर्व यज्ञरूप छो तो आ छे यज्ञक्रिया. आप फलना भोक्ता छो तो आ छे एने उत्पन्न करनारी क्रिया ॥१२॥

माता लक्ष्मीजी त्रणेय गुणोनी अभिव्यक्ति छे अने आप एने व्यक्त करवावाळा अने एना भोक्ता छो, आप समस्त प्राणीओना आत्मा छो अने लक्ष्मीजी शरीर, इन्द्रिय अने अन्तःकरण छे. माता लक्ष्मीजी नाम अने रूप छे अने आप नाम अने रूप बन्नेना प्रकाशक तथा आधार छो ॥१३॥

प्रभो! आपनी कीर्ति पवित्र छे. आप बन्ने त्रिलोकी के वरदानी परमेश्वर छो. तेथी मारी मोटी-मोटी आशा-अभिलाषाओ आपनी कृपाथी पूर्ण हो ॥१४॥

हे परीक्षित! एवी रीते लक्ष्मी सहित भगवाननी स्तुति करी धरेल भोगने त्यान्थी खसेडी देवने आचमन करावी बाकी रहेल सेवा करवी ॥१५॥

पछी भक्तिभाववडे मनने नम्र करवुं. पछी एनी स्तोत्रवडे स्तुति करवी. यज्ञना उच्छिष्टने सूङ्घी फरी भगवाननी पूजा करवी ॥१६॥

महापुरुषनुं चित्तमां ध्यान करी पतिने साक्षात्‌ भगवान्‌ समजी परम प्रेमथी एने मनगमती वस्तुओ तेनी सेवामां हाजर करे. पति पण पत्नीमां प्रेम राखी एनुं मन जेम प्रसन्न थाय तेम करे अने नानां-मोटां कर्ममां पत्नीने साथे राखे अने तेने मनगमती नानी-मोटी वस्तुओ लावी आपे ॥१७॥

हे परीक्षित! पति-पत्नीमान्थी एक पण कोई काम करे तो एनुं फल बन्नेने मळे छे तेथी जो पत्नी (रजो धर्म आदि समये) आ व्रत करवा अयोग्य होय तो ते खूब एकाग्रता अने सावधानी थी पतिए ज एनुं अनुष्ठान करवुं जोईए ॥१८॥

आ भगवान्‌ विष्णुनुं व्रत छे. एनो नियम लई वचमां क्यारेक छोडी देवुं न [[२२८]] जोईए. जे कोई आ व्रत ले ते रोज ब्राह्मण तथा सौभाग्यवती स्त्रीओनी पुष्प, माळा, गन्ध, भोजन तथा आभूषण वगेरेथी स्नेहपूर्वक पूजा करी एक वर्ष नियमित रहे ॥१९॥

देवने एने स्थाने पधरावी दे, विसर्जन करी दे पछी नैवेद्य एनी पासेथी लईने सर्व कामनानी पूर्णता तथा आत्मानी विशुद्धिमाटे एनुं भक्षणकरे ॥२०॥

उपर कह्या तेवा विधिथी बार मास एटले एक वर्ष सुधी मागसरनी सुद एकमथी आरम्भीने कार्तिक वद अमास सुधी पतिनुं व्रत राखी स्त्री उद्यापन सम्बन्धी उपवास तथा पूजन आदि करे ॥२१॥

बीजे दिवसे प्रथमनी पेठे स्नान करी कृष्णनी पूजा करी दूधमां रान्धेला घीवाळा हविषवडे स्त्रीनो पति बार आहुतिनो होम करे ॥२२॥

ब्राह्मण प्रसन्नताथी आशिष आपे तेनो आदर करे. भक्तिभाव पूर्वक मस्तक नमावी एमना चरणोमां प्रणाम करी एमनी आज्ञा लई भोजन करे ॥२३॥

त्यार बाद पहेला आचार्यने भोजन करावी, पछी मौन धारण करी भाईबन्धुओनी साथे पोते भोजन करे त्यार पछी हवनमान्थी बचेली धृत्त-मिश्रित खीर पोतानी पत्नीने आपे. ए प्रसाद स्त्रीने सत्पुत्र अने सौभाग्यनुं दान करनार होय छे ॥२४॥

आ व्रत विधि सहित करे तो पुरुष इच्छित फळने अर्ही ज मेळवे छे. स्त्री आ व्रत करवाथी सौभाग्य, लक्ष्मी, सन्तान अने पति नुं दीर्घायुष्य, यश, घर वगेरेने प्राप्त करे छे ॥२५॥

आ व्रतनुं आचरण करनारी कन्याने समस्त शुभ लक्षणवाळो पति मळे छे अने विधवा आ व्रतथी निष्पाप थई वैकुण्ठ जाय छे. जेनां बाळको मरी जतां होय ते स्त्री आना प्रभावथी चिरायु पुत्र प्राप्त करे छे. धनवती पण अभागिणी स्त्रीने सौभाग्य प्राप्त थाय छे. कुरूप स्त्रीने श्रेष्ठ रूप मळी जाय छे. रोगी आ व्रतना प्रभावथी रोगमुक्त थई जाय छे एटलुं ज नहि पण एनुं शरीर अने इन्द्रियो सुदृढ अने सुगठित बने छे. जे मनुष्य माङ्गलिक श्राद्ध कर्ममां आनो पाठ करे छे एना पितर अने देवताने अपार तृप्ति मळे छे ॥२६-२७॥

तुष्टाः प्रयच्छन्ति समस्तकामान्‌ होमावसाने हुतभुक्‌ श्रीर्हरिश्च राजन्‌ महन्मरुतां जन्म पुण्यं दितेर्व्रतं चाभिहितं महत्ते ॥२८॥

[[२२९]] अग्नि, लक्ष्मी अने भगवान्‌ हरि होम थया पछी प्रसन्न थई व्रतवतीनी सर्व कामनाने पूर्ण करे छे. हे राजन्‌! आ मरुतोनो आदरणीय जन्म अने पवित्र एवुं दितिनुं व्रत तमे पूछेलां ते में तमने कही सम्भळाव्याम् ॥२८॥

इति श्रीभागवत षष्ठस्कन्धमां (त्रीजा अर्चन प्रकरणनो बीजो पुंसवन व्रतविधि नामनो) ‘‘पुंसवन व्रत क्यारे अने केम करवुं एनो सविस्तार विधि’’ नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. षष्ठस्कन्ध सम्पूर्ण कुल्याः पौराणिकाः प्रोक्ताः पारम्पर्ययुता भुवि। क्षेत्रप्रविष्टास्ते चापि संसारोत्पत्तिहेतवः॥ पोताना कुटुम्बनुं पोषण, धन के यश नी कामनाथी जेओ पुराणनी कथा कहे छे तेओ खेतरमां पाणी पहोञ्चाडनारी नीक जेवा होय छे. नीक वाटे पाणी मळतां जेम खेतरमां अनाज उगतुं होय छे तेम रूपीआ स्वीकारीने कथा करनाराओना मुखे कथा साम्भळनार श्रोताओमां भक्तिभावने ठेकाणे अधोपात करनार अहन्ता-ममताज वधे छे. भक्तिमार्गीओए एवाना मुखे कथा न साम्भळवी. (श्रीवल्लभाचार्य) ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!! प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो.(श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! [[२३०]]