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[[३]] पञ्चम स्कन्ध स्थानलीला (दक्षिण साथळ) पहेलुं स्वरूपस्थिति प्रकरण

अध्याय १

प्रियव्रत राजानुं राज्य

विशेष - १. आ पाञ्चमां स्कन्धमां स्थानलीलानुं निरूपण छे प्रभुना विजयने स्थानलीला कहे छे. ‘विजय’ एटले स्वाधीन करवुं - पदार्थोने पोतपोतानी मर्यादाथी स्थापवा एनुं नाम स्थानलीला. प्रथमना रूढ अर्थ अनुसार प्राकृत पदार्थ उपर २४ प्रकारे विजय मेळव्यो, कारण प्राकृत पदार्थ २४ छे. आत्मानो जय बे प्रकारे छे; एक जीव अने बीजुं ब्रह्म. आ रीते प्राकृत २४ अने बे अप्राकृत मळी २६ अध्याय छे. बीजी रीते आवो यौगिक अर्थ पण थाय - देश त्रण लोकात्मक तेना त्रण अध्याय; बार मास, पाञ्च ऋतु, त्रण लोक, एक आदित्य, जीवात्मा अने परमात्मा मळी कुल २६ अध्याय थाय छे. त्रणेमां भगवान्‌ एकी वखते स्थिति करी शके छे माटे स्थान भगवल्लीलारूप छे. स्थूळ विचारे बे प्रकरण छे - स्वरूप स्थिति अने देश स्थिति १.‘‘स्वरूप स्थितिना’’ त्रण प्रकार छेःपहेला १.प्रकरणमां भगवान्‌नी स्वरूप स्थिति-१ थी ६ अध्याय सुधी.
२.प्रकरणमां श्रीकृष्ण षड्‌गुणयुक्त छे-८ अध्याय. ३.प्रकरणमां ज्ञानथी स्वरूप स्थिति-१ अध्याय (पन्दरमो). आ प्रमाणे प्रथम भाग पूरो थाय छे. ‘‘द्वितीय देश स्थितिमां’’ भूर्‌ भुवर्‌ अने स्वर्‌ आवा त्रण भेद छे तेथी अध्याय (अवान्तर). ४.प्रकरणमां भूमिमां पञ्चमहाभूत प्रधान ५ अध्याय (१६ थी २०). ५.भुवर्‌ लोकमां-त्रण गुणोनुं प्राधान्य होय छे.(२१ थी २३) अध्याय. ६.स्वर्‌लोकमां त्रण गुणोनुं प्राधान्य छे. (२४ थी २६) ३ अध्याय. आ प्रकारे पञ्चम स्कन्धनो अर्थ समजवो.
२. आ पहेला अध्यायममां प्रियव्रत राजाए भगवद्‌भक्तिना योगे जे वीर्य अने ऐश्वर्य मेळव्युं ते कहेवाय छे. प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने ॥ गृहे रमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ॥१॥

अध्याय-१,४ पञ्चमस्कन्ध परीक्षित राजाए पूछयुं*ः हे मुनि! आत्मामां रमनार प्रियव्रत राजा तो भगवानना भक्त हता तेनी गृहस्थाश्रममां रुचि केवी रीते थई? गृहस्थीमां फसावाथी मनुष्यने पोताना स्वरूपनी विस्मृति थाय छे अने ते कर्मबन्धनमां बन्धाई जायछे॥१॥

विशेष - चतुर्थ स्कन्धना एकत्रीसमा अध्यायमां कहेवामां आव्युं छे के प्रियव्रत राजाए प्रथम आत्मविद्या मेळवी, पछी गृहस्थाश्रम कर्यो अने पछी सर्व आसक्तिनो त्याग करीने भगवत्प्राप्ति करी. आ कथाना सन्दर्भमां राजा विस्मित थईने पूछे छे. हे द्विज श्रेष्ठ! प्रियव्रत राजा जेवा वैराग्यवान्‌ पुरुषोने घरमां आसक्ति थाय ए उचित नथी ॥२॥

ए वातमां कोई प्रकारनी शङ्का छे ज नहि के जेमनां चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिना चरणोनी शीतल छायानो आश्रय करी शान्त थई गयां छे ए महापुरुषोनी कुटुम्ब वगेरेमां कदी आसक्ति होई शके ज नहि ॥३॥

हे महाराज! स्त्री, घर अने पुत्र वगेरेमां आसक्त थयेला प्रियव्रत राजाने वळी भगवान्‌मां अविचल भक्ति अने मुक्ति केवी रीते थई? ए वातमां मने मोटो संशय छे ॥४॥

श्रीशुकदेवजीए* कह्युं - राजन्‌! तमारी वात तो तद्‌दन साची छे. पण ए प्रियव्रत राजाने घर वगेरेमां आसक्ति थई ज न होती. जे महात्मा पुरुषो भगवानना चरणारविन्दना मधुर मकरन्द रसमां मनने लगाडी राखे छे ते भगवद्‌भक्तो परमहंसोने प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्‌ना कथा श्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गने घणे भागे छोडता नथी ॥५॥

विशेष - आ स्कन्धमां श्लोको बहु ज ओछा, नहि जेवा छे. गद्यखण्डो ज सर्वत्र जोवामां आवे छे. एनुं कारण श्रीमहाप्रभुजी एम बतावे छे के पञ्चमस्कन्धमां प्रभुनो जय वर्णव्यो छे. प्रभुनो जय अखण्ड छे अने बीजी लीलाओनी अपेक्षाए विशिष्ट छे तेथी अत्रे अखण्ड गद्यखण्डोवडे ज भगवान्‌नो जय वर्णव्यो छे. अथवा पुरुषरूप श्रीभागवतनो आ स्कन्ध कटि भागरूपे होवाथी अने ए भाग चरणादि अङ्गोनी पेठे सखण्ड-सान्धावाळो-नथी पण अखण्ड- सान्धा वगरनो ज छे तेथी बीजा स्कन्धोनी पेठे आ स्कन्धमां श्लोक नहि पण अखण्ड गद्यखण्डो ज छे एम जाणवुं. बीजुं, मनुष्यना जयनी जेम भगवान्‌नो जय मर्यादित नथी तेथी श्रीशुकदेवजीए कहेलां वाकयो छन्दोनी मात्राना चोकठामां बन्धायेलां नथी अर्थात्‌ पञ्चमस्कन्धनां शुक वाक्यो अमर्यादित छे. [[५]] ए राजकुमार प्रियव्रत महान भगवद्‌ भक्त हता. नारदजीना चरणनी सेवाथी ज्यारे एमने तत्काळ भगवद्‌भजन रूप तत्त्व सहित ब्रह्मज्ञान थई गयुं हतु; त्यारे बीजुं बधुं छोडी दई ब्रह्म विचारमां ज जीवन वीताववानो नियम लेवाना ज हता एटलामां एमना पिता स्वायम्भुव मनुए राज्यकर्ता तरीकेना शास्त्रोमां कहेला उत्तम गुण सघळा एमनामां छे एम धारी एमने राज्य करवानी आज्ञा करी. पण प्रियव्रत अखण्ड समाधि योगद्वारा पोतानी बधी इन्द्रियो अने क्रियाओ ने भगवान्‌ वासुदेवनां चरणोमां ज समर्पण करी चूकया हता. तेथी जो के पितानी आज्ञानो भङ्ग न करवो जोईए तो पण राज्यनो अधिकार प्राप्त करीने मारुं आत्मस्वरूप स्त्री पुत्रादि असत्‌ प्रपञ्चथी छवाई जशे. राज्य अने कुटुम्ब नी जञ्जाळ अने कावादावामां अटवाई जई परमार्थ तत्त्वने घणुं करीने हुं भूली जईश एम मानी एमणे राज्य करवानो स्वीकार कर्यो नहि ॥६॥

आदिदेव स्वयम्भू भगवान्‌ ब्रह्माजीने सदाय आ गुणमय प्रपञ्चनी वृद्धिनो ज विचार रह्यो करे छे. ते समग्र संसारना जीवोना अभिप्राय जाणता रहे छे. ज्यारे तेमणे प्रियव्रतनी आवी प्रवृत्ति देखी त्यारे तेओ मूर्तिमान चारेय वेद अने मरीचि आदि पार्षदोने साथे लई पोताना लोकथी ऊतर्या ॥७॥

ब्रह्माजी चन्द्रमानी पेठे शोभता आकाशमां चाल्या आवता हता त्यारे चोतरफ विमानमां बेसी फरनारा इन्द्रादि प्रधान देवो एमनी पूजा करता हता. मार्गमां टोळे वळी सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण अने मुनि ओ स्तुति करता हता. गन्धमादन पर्वतनी गुफा, जेमां नारदजी, स्वायम्भुव मनु अने प्रियव्रत बेठा हता त्यां अजवाळुं करी देता ब्रह्माजीने नारदजीए दूरथी दीठा. हंसना वाहन उपर पोताना पिता छे एम ओळखी स्वायम्भुव प्रियव्रतनी जोडे हाथ जोडी ऊभा थया अने पूजन कर्या पछी स्तुति करी ॥८-९॥

हे परीक्षित राजा! नारदजीए पूजन कर्या पछी अने एमनां अनेक गुण, अवतार अने उत्कर्षोनी स्तुति करी त्यारे ब्रह्माजीए मन्दहास्य सहित एमनी प्रत्ये जोयुं अने आ प्रमाणे क्ह्युं - ॥१०॥

भगवान्‌ ब्रह्माजीए कह्युं - हे भाई! आ वात साम्भळ. हुं साचुं कहुं छुं. आ तारो पिता, नारदजी, अमे, सदाशिव कल्पनामां पण न आवी शके तेवा परमेश्वरनी *आज्ञा परतन्त्रपणाथी माथे चढावीए छीए ॥११॥

अध्याय-१,६ पञ्चमस्कन्ध

विशेष - संसारमां प्रवृत्ति करवानी मारी वात ऊलटी मानीने मारा उपर द्वेष लावशे एवी शङ्काथी हुं आ वात कहेतो नथी पण मारा मोढा द्वारा भगवान्‌ ज एने आज्ञा करे छे एवा आशयथी ब्रह्माजी प्रवृत्ति अने निवृत्ति ना रहस्यनी वात करेछे. ए ईश्वरे जे धार्युं होय तेने तपथी, विद्याथी, योगथी, बुद्धिबळथी, धनथी, धर्मथी, स्वयं के कोईनी सहायथी फेरवी नाखवा कोई पण प्राणी समर्थ नथी ॥१२॥

हे पुत्र! ईश्वर जेवो देह आपे छे तेवो ज देह धारण करी जीव जन्म ले छे, मरण पामे छे, कर्म करे छे तथा निरन्तर शोक, मोह, भय, सुख अने दुःख भोगवे छे. एमां फेरफार करी शक्तो नथी ॥१३॥

वत्स, जेवी रीते रस्सीथी नथायेल पशु मनुष्योनो भार वहन करे छे ते ज प्रमाणे परमात्मानी वेदवाणी रूपी मोटी रस्सीमां सत्त्व वगेरे गुण, सात्त्विक वगेरे कर्म अने एमनां वेदादिमां वदेलां वाकयोनी मजबूत दोरीथी जकडायेला आपणे बधा एमनी इच्छा प्रमाणे कर्ममां लाग्या रहीए छीए अने ए द्वारा एमनी पूजा करता रहीए छीए ॥१४॥

आपणा गुण अने कर्मो प्रमाणे प्रभुए आपणने जेयोनिमां धकेली दीधा छे एनोज स्वीकार करीने ते जेवी व्यवस्था करे छे ते ज प्रमाणे आपणे एनी इच्छानुं जेम कोई अन्ध देखता पुरुषनुं अनुसरण करे एज प्रमाणे करवुं पडे छे ॥१५॥

आ बधुं अज्ञानीने माटे छे, ब्रह्मवेत्तामाटे नथी एमपण न समजवुं. जीवन मुक्त पुरुषने पण प्रारब्ध कर्म होय त्यां सुधी देह धारण करवो पडे छे, परन्तु फरक एटलो के जागेल माणसने स्वपननुं स्मरण रहे छे तेम जीवनमुक्तने जो के देहनुं स्मरण रहे छे छतां ए एमां अभिमान बन्धातो नथी तेमज वासनाथी बीजा देहने आपनारां कर्म पण करतो नथी ॥१६॥

घरनो त्याग करी वनमां जवाथी मोक्ष थाय छे एम पण न समजवुं. जेणे इन्द्रियोने नाथी नथी एवो गाफेल माणस वनमां भटकतो होय तेम छतां इन्द्रियोरूपी शत्रुओ साथे होवाथी तेने विषयोनो सङ्ग थाय छे. ऊलटुं, विद्वान्‌ माणस जितेन्द्रिय तथा आत्माराम बनीने घरमां रहे तो गृहस्थाश्रम पण एनुं शुं बगाडवानो हतो? ॥१७॥

जेने इन्द्रियोरूपी छ शत्रुओने जीतवानी इच्छा होय तेणे प्रथम घरमां रहीने ते वातनो यत्न करवो जोईए; केमके किल्लाना आश्रयमां रही लडनार राजा पोताना [[७]] प्रबल शत्रुओने पण जीती ले छे. इन्द्रियोने विषयोमां जती एकदम रोकीए तो एमां घणी अडचण पडे पण अनुक्रमथी रोकीए तो सुगम पडे. ए अनुक्रमथी रोकवुं घरमां रहीने ज बनी शके माटे घरमां रही धीरे-धीरे इन्द्रियोने वश करतां ए परिपूर्ण रीते वश थई जाय एटले पछी शत्रुओ क्षीण थई जतां राजा जेम इच्छामां आवे त्यां फरे तेम विद्वान्‌ माणस पण लोकोमां अथवा वनमां गमे त्यां विचरे ॥१८॥

तुं तो भगवान्‌ना चरणारविन्दनी कळीरूपी किल्लाओना आश्रयथी इन्द्रियरूपी छये शत्रुओने जीती चूक््यो छे; तो पण अत्यारे तो ईश्वरे आपेला वैभव भोगवी पछी आसक्ति मात्रनो त्याग करजे अने स्वरूपमां स्थित थई जजे ॥१९॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे त्रैलोक्यना गुरु ब्रह्माजीए आज्ञा करी एटले परम भगवदीय प्रियव्रते पोते नाना होवाथी शिर झूकावी दीधुं. अने ‘जेवी आज्ञा’ एम कही आदरपूर्वक एमनो आदेश शिरोधार्य कर्यो ॥२०॥

त्यारबाद स्वायम्भुव मनुए प्रसन्न थई भगवान्‌ ब्रह्माजीनी विधिवत्‌ पूजा करी. पछी ते मन अने वाणी ना अविषय, पोताना आश्रय तथा सर्व व्यवहारथी अतीत परब्रह्मनुं चिन्तन करता-करता पोताना लोकमां चाल्या गया. आ वखते प्रियव्रत अने नारदजी सरल भावथी एमनी तरफ जोई रह्या हता ॥२१॥

ए रीते ब्रह्माजीए स्वायम्भुव मनुनो मनोरथ सिद्ध करी आप्यो. पछी एमणे नारदजीनी सम्मतिथी पोताना पुत्र प्रियव्रतने, अभिषेक करी सर्व भूमण्डळनी रक्षा करवानुं कार्य सोप्युं अने पोते पण अत्यन्त दुःखदायी विषयोरूप झेरना जळाशयनी भोगेच्छाथी निवृत्त थई गया. (संसारनां सुख भोगववानी सघळी तृष्णा मूकी दीधी) ॥२२॥

हवे पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान्‌नी इच्छा राज्यशासनना कार्यमां निमाया आदि पुरुषो भगवान्‌नुं प्रभाव समस्त जगत्‌ने बन्धनमान्थी छोडाववा अत्यन्त समर्थ छे. एमना चरणारविन्दना निरन्तर ध्यानना प्रभावथी जो के प्रियव्रतना राग द्वेषादिक सघळा मनना मेल नाश पामी गया हता एमनुं हृदय पण विशुद्ध हतुं तो पण मोटाओनुं मान राखवाने सारु ए पृथ्वीनुं राज्य करवा लाग्या ॥२३॥

पछी ए प्रजापति विश्वाकर्मानी बर्हिष्मती नामनी पुत्रीने परण्या. एनाथी एमने दश पुत्रो थया. जे एमना जेवा ज चारित्र्यवान्‌, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान्‌ अने पराक्रमी हता. छेल्ले एमनाथी नानी ऊर्जस्वती नामनी एक कन्या पण थई ॥२४॥

अध्याय-१,८ पञ्चमस्कन्ध पुत्रोनां नाम आग्नीध्र, ईध्मजिह्‌व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ट, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र अने कवि हतां. ए बधां नाम अग्निनां पण छे ॥२५॥

एमान्थी कवि, महावीर अने सवन ए त्रण तो बाळ ब्रह्मचारी रह्या. तेमणे तो बाळपणथी ज ब्रह्मविद्यानो अभ्यास करतां-करतां अन्ते सन्न्यास आश्रम ज स्वीकारी लीधो ॥२६॥

आ निवृत्ति परायण महर्षिओए सन्न्यासाश्रममां रहीने समस्त जीवोना अधिष्ठान (निवास) अने भवबन्धनथी डरेला लोकोने आश्रय देनार भगवान्‌ वासुदेवना सोहावनां चरणारविन्दनुं अखण्ड चिन्तन कर्युं. ए अखण्डस्मरणथी मळेल परमभक्तियोगथी एमनां हृदय शुद्ध थई गयां अने एमां श्रीभगवाननो आविर्भाव थयो. त्यारे देहादिनी उपाधि निवृत्त थई जवाथी एमना आत्मानुं सम्पूर्ण जीवोना आत्मस्वरूप प्रत्यगात्मामां-प्रभुमां ऐकय(सायुज्य) थईगयुम् ॥२७॥

प्रियव्रत राजाने बीजी स्त्रीथी उत्तम, तामस अने रैवत नामना बीजा पण त्रण पुत्रो थया हता जे पोतान नामवाळा मन्वन्तरना (आनी कथा अष्टमस्कन्धमां कहेवाशे) अधिपति थया ॥२८॥

आ प्रमाणे कवि वगेरे त्रण पुत्रो निवृत्ति परायण थई, सन्न्यासी थई जतां राजा प्रियव्रते अगियारे अर्बुद (एकसो दस करोड) वर्ष सुधी पृथ्वी उपर राज्य कर्युं. जे वखते ते पोतानी अखण्ड, पुरुषार्थमय, वीर्य वान्‌, भुजाओथी धनुषनी पणछ खेञ्ची टङ्कार करता ते वखते बधा धर्मद्रोही डरना मार्या कयां छुपाई जता ए खबरेय न पडती. प्राण प्रिया बर्हिष्मतीना दररोज वधता जता आमोद-प्रमोद, ऊभा थईने स्वामीनुं स्वागत करवा सामे जवुं, क्रीडा तथा स्त्रीजन-उचित हावभावथी, लज्जाथी सङ्कुचित मन्दहास्ययुक्त दृष्टि अने मनभावता विनोद आदिथी महामति प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्तिनी माफक जाणे के सूधबूध खोई बेसीने बधा भोगो भोगववा लाग्या. पण वास्तवमां ए एमां आसक्त न हता ॥२९॥

एकवार एमणे ज्यारे जोयुं के मेरु पर्वतने प्रदक्षिणा करता सूर्यदेव पृथ्वीमां लोकालोक पर्वत सुधी अजवाळुं करे छे पण एमां वारा फरती अर्धामां अजवाळुं अने अर्धामां अन्धारुं रहे छे. आ वात नहि गमतां, भगवान्‌नी उपासनाने लीधे एमनो अलौकिक प्रभाव बहु वधी गयो हतो तेथी रातने दिवस बनावी देवाना [[९]] विचारथी प्रियव्रत राजाए सूर्यरथना वेगवाळा तेजोमय रथमां बेसी सूर्यनी पाछळ जाणे बीजो सूर्य होय तेम पृथ्वीपरिक्रमा करी नाखी ॥३०॥

ते वखते रथनां पैडान्नी धारथी जे चीला पड्या ते सात समुद्र थया. एने लीधे पृथ्वीमां सात द्वीप थया छे ॥३१॥

एमनां नाम क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मलि द्वीप, कुश द्वीप, क्रौञ्च द्वीप, शाक द्वीप अने पुष्कर द्वीप छे. ए द्वीपोमां पहेलां करतां पछी, पछीनो द्वीप बमणा-बमणा विस्तार वाळो छे. अने ए समुद्रना बहारना भागमां पृथ्वीनी चारे तरफ फेलायेला छे ॥३२॥

सात समुद्र क्रमशः क्षारोद (खारा पाणीनो), इक्षु रसोद (शेरडीना रसनो), सुरोद (मदिरानो), घृतोद (घीनो), क्षीरोद (दूधनो), दधिमण्डोद (दर्हीना रसनो) अने शुद्धोद (मीठा पाणीनो) ए सात समुद्र सात द्वीपनी खाईओ जेवा छे. दरेकनो विस्तार पोतपोतानी अन्दर आवेला द्वीप जेवडो छे. एमान्थी एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातेय द्वीपोने बहारथी घेरी रहेलो छे. *बर्हिष्मतीना पति प्रियव्रत राजाए पोताने अनुसरनारा सात पुत्रो आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ट, मेधातिथि अने वीतिहोत्रने क्रमशः एक-एकने उपर जणावेला जम्बू आदि द्वीपोमान्थी एक-एकना राजा बनाव्या ॥३३॥

विशेष - १. पहेलो जम्बूद्वीप छे. एनी चारे तरफ खारा पाणीनो समुद्र छे. जम्बूद्वीपनी आसपास २. प्लक्ष द्वीप छे. एनी चारे तरफ शेरडीना रसनो समुद्र छे. प्लक्ष द्वीपनी चारे तरफ ३. शाल्मलि द्वीप छे. एनी चारे तरफ मदिरानो समुद्र छे. पछी ४. कुश द्वीप छे. ते घीना समुद्रथी घेरायेलो छे. एनी बहार ५. क्रौञ्चद्वीप छे. एनी चारे तरफ दूधनो समुद्र छे. पछी ६. शाक द्वीप छे. एनी चारे तरफ दर्हीना रसनो समुद्र छे. एनी चारे तरफ ७. पुष्कर द्वीप छे. एनी आसपास मीठाजलनो समुद्र छे. एमणे ऊर्जस्वती नामनी पोतानी पुत्री शुक्राचार्यने परणावी हती, जेने देवयानी नामनी पुत्री थई ॥३४॥

वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनिमां जन्मेलो पुरुष पण जेनुं नाम एक वार ले तो तेनां संसारनां बन्धन तत्काल छूटी जाय तेवा भगवान्‌ना चरणारविन्दनी रजना प्रभावथी भगवद्‌भक्तो मन सहित पोतानी इन्द्रियोने तेमज भूख-तरस, शोक-मोह, जरा-मृत्युने जीती ले छे तेवा आवो पुरुषार्थ करे एमां आश्चर्य समजवुं अध्याय-१,१० पञ्चमस्कन्ध नहि ॥३५॥

आ प्रमाणे अतुल बल-पराक्रमथी युक्त महाराज प्रियव्रत एकवार पोते देवर्षि नारदजीना चरणोना शरणमां जईने पण पुनः दैववशात्‌ आवी मळेल प्रपञ्चमां लपटाई जवाथी खिन्न आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥३६॥

‘‘अहो में केवुं भूण्डुं कर्युं के जेथी इन्द्रियो अने अविद्याजनित विषम विषयोरूपी अन्धकूपमां धकेली दीधो. बस! बस! बहु थई गयुं! स्त्रीनी पासे वान्दरानी जेम नाचनार मने धिक्कारछे’’ आ प्रमाणे तेणे पोतानी जातनी झाटकणी काढी ॥३७॥

परम आराध्य प्रभुनी कृपाथी जे विवेक थयो तेने लीधे एणे आ पृथ्वीनुं राज्य पोतान पुत्रोने भाग प्रमाणे वहेञ्ची आपी, पछी भगवद्‌लीलाना ध्यानना प्रभावथी हृदयमां उत्पन्न थयेला वैराग्यने लीधे प्रियव्रत राजाए बर्हिष्मती राणी, जेनी साथे तेणे अनेक भोग भोगव्या हता अने साम्राज्य लक्ष्मीने मूएला शरीरनी पेठे त्यजी दीधां अने पाछा नारदजीए उपदेशेला मार्गने अनुसरवा लाग्या ॥३८॥

महाराज प्रियव्रतने विषे निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध छे. ‘‘वैष्णवो उपर प्रीति राखता प्रियव्रत राजाए काम कर्युं तेवुं काम ईश्वर विना बीजा कोनाथी बनी शके?’’ ए प्रियव्रते जगत्‌मान्थी अन्धारुं मटाडवाना प्रयत्न करतां पैडान्नी धारना खाडाओथी ज सात समुद्र बनावी दीधा ॥३९॥

द्वीपोनी रचनाथी पृथ्वीनी व्यवस्था करी, लोकोमां तकरार न थाय ए सारु दरेक द्वीपमां अलग-अलग नदीओ, पर्वतो, वनवगडा अने सीमाडा नककी करी आप्या ॥४०॥

भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम्‌ ॥ यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः ॥४१॥

ते (प्रियव्रत) भगवद्‌भक्त नारदादिना प्रेमी भक्त हता. तेमणे पाताल लोकना, देव-लोकना, मृत्युलोकना तथा कर्म अने योग नी शक्तिथी प्राप्त थयेल ऐश्वर्यनी पण गणत्री नरक जेटली ज करी हती ॥४१॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेला स्वरूप स्थिति प्रकरणमां प्रियव्रतनुं ऐश्वर्य-वीर्य निरूपण नामनो) ‘‘प्रियव्रत राजानुं राज्य’’नामनो प्रथम अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[११]]

अध्याय २

आग्नीध्र राजानुं चरित्र

विशेष - प्रियव्रत राजाना पुत्र आग्नीध्रे श्रीकृष्णनी कृपाथी श्रीमेळवी एनुं वर्णन आ बीजा अध्यायमां थशे. एवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान आग्नीध्रो जम्बूद्वीपौकसः प्रजा औरसवद्धर्मावेक्षमाणः पर्यगोपायत्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे पिता प्रियव्रत तपस्यामां लागी गया पछी एमनी शिखामण प्रमाणे चालतो एमनो मोटो पुत्र आग्नीध्र राजा धर्मानुसार जम्बूद्वीपमां रहेनारी प्रजानुं औरस पुत्रनी पेठे पालन करवा लाग्यो ॥१॥

एक वखत आग्नीध्र राजा पितृलोकनी कामनाथी सत्पुत्रनी प्राप्तिमाटे देवोनी स्त्रीओने विहार करवाना मन्दराचळनी गुफामां गयो अने पूजननी सर्व सामग्री एकठी करी एकचित्त थईने प्रजापतिओना पति ब्रह्माजीनुं तपश्चर्या पूर्वक आराधन करवा लाग्यो ॥२॥

ए वात जाणी आदि पुरुष ब्रह्माजीए पोतानी सभामां गायन करती पूर्वचित्ति नामनी अप्सराने एनी पासे मोकली ॥३॥

ए अप्सरा आग्नीध्र राजाना आश्रम पासेना अति रमणीय उपवनमां फरवा लागी. एमां अनेक प्रकारनां धाटां वृक्षोनी अनेक शाखाओ उपर सोनेरी वेलो फेलायेली हती अने एनी उपर मयूरादि अनेक प्रकारनां स्थलचारी पक्षीओनां जोडां मधुर कलरव करी रह्यां हतां. एनाथी जागी जईने जळकूकडी, कारण्डव अने कलहंस वगेरे जळनां पक्षीओए पण कमळनी खाण जेवां निर्मळ जळाशयोमां भारे धून मचावी मूकी हती ॥४॥

ठमकती चालथी चालती अने हावभाव करती ए पूर्वचित्ति अप्सरानां झाञ्झरना झमकारने साम्भळी राजकुमार आग्नीध्रे समाधिथी मीचेलां कमलनी कळी जेवां सुन्दर नेत्रो खोली जराक जोयुं तो एमणे त्यां ए अप्सराने भमराओनी पेठे फुल सुङ्घती आवती दीठी. एनां चाल, विहार, लज्जा, विनयी दृष्टि, सुमधुर वाणी, शरीरना अवयवोथी पुरुषोना हृदयमां कामदेवने प्रवेश करवामाटे जाणे बारणुं बनावी देती हती. मुखमान्थी अमृत जेवुं मीठुं अने मदिरा पेठे मद आपनारुं भाषण नीकळतां अध्याय-२,१२ पञ्चमस्कन्ध एना श्वासनी सुगन्ध लेवाने मदान्ध भमराओ चारे बाजुए आडा आवता हता. एमनी बीकथी उतावळे चालतां एनां स्तनरूपी कळशो, केशपाश अने कटिमेखला अत्यन्त मनोहर रीते हालतां हता. ए अप्सराने जोतांवेत ज कामदेवने आग्नीध्रना मनमां प्रवेश करवानी तक मळी गई अने ते राजा जडनी* पेठे नीचे प्रमाणे बोल्योः ॥५-६॥

विशेष - जडवत्‌ बोलवाथी ज स्त्रीओमां रस उद्‌भवे छे. अने तेथी तेओ वश थाय छे. माटे ज अर्ही पण जडतानुं अनुकरण कर्युं छे, नहि के ते वास्तविक रीते जड हतो. हे मुनिवर्य! तमे कोण छो?* आ पर्वत उपर तमे शुं करवा धारो छो? तमे परम पुरुष नारायणनी कोई माया तो नथी? हे मित्र! (ए अप्सरानी बे भ्रमर जोईने कहे छे) आ दोरी वगरनां बे धनुष्य तमारा पोताना काममाटे छे के वनमां फरता अमारा जेवा मतवाला मृगोने वश करवा राख्यां छे? ॥७॥

विशेष - स्त्रीने ‘हे मुनिवर्य’ कहीने सम्बोधन करवानुं कारण जडतानुं अनुकरण छे, सम्भ्रम मति विपर्यय छे. (कटाक्षो तरफ जोईने) तमारां आ बे बाण तो खूब सुन्दर अने धारदार छे, ओहो! एने कमलदलनां पीछां छे, देखावमां खूब शान्त छे अने छे पण *पुङ्ख विनानां(अथवा वाजवगरनां). वनमां फरता तमे एने कोना उपर छोडवा मागो छो? अर्ही तमारो सामनो करनार कोई देखातुं नथी. तमारुंआ पराक्रम अमारा जेवा जड बुद्धिवाळाओमाटे कल्याण कारीहो ॥८॥

विशेष - नेत्रने र्पीछारूप ठराव्यां तेथी ए पछी पुङ्खनो भाग नहि रहेवाथी पुङ्ख विना शोभतां एम कह्युं छे. पुङ्ख=बाणनो र्पीछावाळो पाछलो भाग. आ आपना शिष्यो (अप्सना शरीरनी सुगन्धना लोभथी पछवाडे आवता भमराओने कहे छे. भमराओ) चारे बाजुए भण्या करे छे अने रह्स्य सहित सामवेदना मन्त्रोथी निरन्तर परमेश्वरने गाया करे छे. जेम ऋषिओ वेदनी शाखाओनुं सेवन करे तेम आ आपना शिष्यो आपनी वेणीमान्नी फूलनी वृष्टिओनुं सेवन करे छे ॥९॥

हे महाराज! आपना चरणरूपी पाञ्जरां१ मान्थी तेतरनो चोख्खो अवाज नीकळे छे ते अवाज तो अमे साम्भळीए छीए पण बोलनारां तेतर पक्षी जोवामां आवतां नथी. आ २सुन्दर नितम्बमण्डळमां कदम्बनां फूल जेवी कान्ति कयान्थी आवी गई? ए कान्ति उपर बळतां ३अङ्गाराए (सोनानी कटि मेखलाए) जाणे आण्टो [[१३]] लीधो छे. तमारां वल्कल वस्त्र कयां छे?४ हे बाह्मण! तमारां ५आ बे सुन्दर शिङ्गडां(स्तन) मां शुं भर्युं छे? तमारी पातळी केडउपर तमे ए शिङ्गडांओने घणा श्रमथी धरी रह्यां छो. मारी नजर त्यान्थी तो जाणे हटतीज नथी. अवश्य एमां अमूल्य रत्नो भर्यां होवां जोईए, आ शिङ्गउपर लाल-लाल अने सुगन्धी कीच६ केम लगावी राख्यो छे? हे सुभाङ्गी! एनाथी तमे आ आश्रमने महेकावी मूकयो छे ॥१०-११॥

विशेष - १. झाञ्झरनो शब्द साम्भळीने कहे छे. २. एणे पहेरेला पीळा वस्त्रने नितम्ब कल्पीने कहे छे. ३. सोनानी कटिमेखला जोईने कहे छे. ४. वस्त्रमां नितम्बनी कान्तिनी कल्पना करीने ए न ज देखातो होय एवी ढबथी पूछे छे. ५. स्तन जोईने कहे छे. ६. स्तन उपर चोपडेलुं केसर जोईने कहे छे. हे मित्रवर! मने तो तमे तमारो देश देखाडी दो, ज्यान्ना रहेवासीओ पोताना वक्षःस्थळ उपर आवा अद्‌भुत अवयव धारण करे छे, जेणे अमारा जेवा प्राणीओनां चित्तोने हचमचावी मूकयां छे तथा मुखमां विचित्र हाव-भाव मधुर भाषण अने अधरामृत (मन्दहास्य अने परिहास-वाकय इत्यादि.) जेवी अनूठी वस्तुओ राखे छे ॥१२॥

हे मित्र! तमे आहार१ शुं करो छो के जे खावाथी तमारा मुखमान्थी हवन सामग्रीना जेवी सुगन्ध आवे छे? तमे विष्णुना अंशरूप जणाओ छो. तमारा कानमां चळकतां२ अने आङ्खो जेनी र्मीचाती नथी तेवां बे मत्स्य छे; तमारुं मुख तळाव जेवुं छे, जेमां बे मत्स्य ३(नेत्र) ऊछळ्या करे छे. हंसोनी ४पङ्क्ति शोभी रही छे. आसपास भ्रमरो-केश५ फेलाई रह्या छे ॥१३॥

विशेष - १. चावेलुं पान जोईने कहे छे. २. कुण्डळमां माछलान्नी अने एमनां रत्नोमां माछलान्नी आङ्खोनी कल्पना करीने कहे छे. ३. नेत्र ४. दान्तनी पङ्क्ति. ५. केशनो समूह हस्त कमळथी उछाळेलो अने चारे बाजूए जतो रहेतो ए दडो मारी आङ्खोने तो चञ्चळ करी नाङ्खे छे पण मारां चित्तने पण खळभळावी मूके छे तमारी वाङ्की जटा (केशपाश) छूटी गई छे तेने तमे सम्भाळतां नथी? अरे, आ धूर्त पवन केवो दुष्ट छे के ते तमारां नीवी-वस्त्रने उडाडी मूके छे? ॥१४॥

हे तपोधन! तपस्वीओना तपनो पण नाश करे तेवुं अनुपरूप तमे कया तपना प्रतापे प्राप्त कर्युं छे! हे मित्र!हवे मारी साथे रहीने तप करो अथवा संसारनो अध्याय-२,१४ पञ्चमस्कन्ध विस्तार करवानी इच्छाथी खुद ब्रह्माजीए तो मारा उपर कृपा नथीकरी? ॥१५॥

साचे ज तमने ब्रह्माजीएज मोकल्या छे; हवे हुन्तमनेछोडी शकुं एम छुं ज नहि. तमारामां तो मारां मन अने नयन एवां अटवाई गयां छे के ते बीजे जवा ज नथी मागतां, सुन्दर शिङ्गळी तमारुं ज्यां मन होय त्यां मने पण लई जाओ. हुं तमारो अनुचर छुं; अने तमारी आ मङ्गलमय सखीओ पण आपणी साथे ज रहे. (शिङ्गळुं-शिङ्गडांवाळुं) ॥१६॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राजन्‌! आग्नीध्र देवताओ जेवा बुद्धिशाळी हता अने स्त्रीओने प्रसन्न करी लेवामां बहु चतुर हता. एमणे विषयी पुरुषोना जेवी चतुराई भरेली वाणीथी ए अप्सराने घणुं मान आप्युम् ॥१७॥

वीर-समाजमां अग्रगण्य आग्नीध्र राजानां बुद्धि, शील, रूप, जुवानी, लक्ष्मी अने उदारता उपर ए अप्सरा वारी गई अने ए जम्बूद्वीपना राजा साथे हजारो वर्ष सुधी पृथ्वी अने स्वर्गना भोग भोगवती रही ॥१८॥

ए अप्सराथी ए आग्नीध्र राजाने नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्च अने केतुमाल नामना नव पुत्रो थया ॥१९॥

ए पूर्वचित्ति अप्सरा दर वर्षे एक एम नव पुत्रोने जन्म आपी अने एमने राजभवनमां ज मूकी ब्रह्माजीनी सेवामां हाजर थई गई ॥२०॥

आग्नीध्र राजाना ए नव पुत्रो पोतानी माताना अनुग्रहथी स्वभावथी ज सुडोल अने दृढ अङ्गवाळा हता. एमना पिताए जम्बूद्वीपना नव खण्ड पाडी प्रत्येक पुत्रने एक एक खण्ड वहेञ्ची आप्यो अने तेओ पोतपोताना विभाग प्रमाणे राज्य करवा लाग्या. एमना नामोथी ए खण्ड ओळखावा लाग्या ॥२१॥

महाराज आग्नीध्र रोज-रोज भोगो भोगवता रहेवा छतां तेमनाथी अतृप्त ज रह्या. ए अप्सराने ज परम पुरुषार्थ मानता हता तेथी तेमणे वैदिक कर्मोद्वारा ज्यां पितृगण पोताना सुकृतो प्रमाणे तरेह-तरेहना भोगोमां मस्त रहे छे ते ज लोकने प्राप्त कर्यो ॥२२॥

सम्परेते पितरि नव भ्रातरो मेरुदुहितृर्मेरुदेर्वी प्रतिरूपामुग्रदंर्ष्ट्री लतां रम्यां श्यामां नार्री भद्रां देववीतिमिति सञ्ज्ञा नवोद्वहन्‌ ॥२३॥

आग्नीध्र राजाना परलोक सिधार्या पछी एना नव पुत्रो मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा अने देववीति नामनी मेरु पर्वतनी नव [[१५]] पुत्रीओने परण्या ॥२३॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेला स्वरूपस्थिति प्रकरणमां आग्नीध्र श्रीप्राप्ति निरूपण नामनो) ‘‘आग्नीध्र राजानुं चरित्र’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भाव गुप्त रहे तो ज वधे. तेथी पोताना आश्रमधर्मोनी पछवाडे पोताना भगवद्‌भावोने गुप्त राखीने भगवत्सेवा करवी जोईए. जेना हृदयमां प्रभु नथी बिराजता ते ज पोताना भावोने खुल्लेआम प्रदर्शित करतो होय छे. जो प्रभु हृदयमां बिराजता होय तो भावोनुं उघाडे छोगे प्रदर्शन सम्भव नथी. (श्रीमहाप्रभुजी, अणुभाष्य)

अध्याय ३

नाभि राजाना यज्ञमां श्रीहरिनुं ऋषभदेव रूपे प्रकट थवुं

विशेष - आ त्रीजा अध्यायमां नाभि राजानो परम मङ्गळरूप यश कहेवाशे, के जेना यज्ञमां प्रत्यक्ष देखायेला भगवान्‌ एने घेर पुत्ररूपे अवतर्या अने एनुं ‘ऋषभ’ नाम पड्युं. नाभिरपत्यकामोऽप्रजया मेरुदेव्या भगवन्तं यज्ञपुरुषम्‌ अवहितात्मायजत्‌ ॥१॥

शुकदेवजीए क्ह्युं - नाभिराजाए प्रजारहित मेरुदेवी साथेअन्तःकरण सावधान राखी सन्ताननी इच्छाथी यज्ञपुरुषनुं यजन कर्युम् ॥१॥

ए राजाए श्रद्धापूर्वक शुद्ध भावथी यज्ञ करतां प्रवर्ग्य नामनां कर्म चालु कर्या. (जो के सुन्दर अङ्गोवाळा भगवान्‌ यज्ञनां साधनो जेवा के) द्रव्य, देश, काळ, मन्त्र, ऋत्विज अने दक्षिणारूप उपायोनी सारी सम्पत्ति होय छतां सहजमां तो न मळे एवा छे तो पण पोताना भक्तो उपर तो कृपा करे ज छे तेथी मन अने नेत्रोने आनन्द आपे तेवा रमणीय अवयवो युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक पोताना स्वरूपनुं दर्शन दीधुम् ॥२॥

ए स्वरूपने आठ भुजाओ हती अने कान्ति सोना जेवी हती. एमणे पीळां रेशमी वस्त्र धारण कर्या हतां. एमनां वक्षःस्थलमां सुमनोहर श्रीवत्सनुं चिह्‌न

ईं उं ईं उं

अध्याय-३,१६ पञ्चमस्कन्ध शोभतुं हतुं अने एमनां हाथमां शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, गळामां वनमाळां, कौस्तुभ मणि वगेरे प्रकाशी रह्यां हतां, सम्पूर्ण श्रीअङ्ग अङ्ग-प्रत्यङ्गनी कान्तिने वधारी देनार किरण जाल मण्डित मणिमय मुगट, कुण्डल, कङ्कण, कन्दोरो, हार, बाजुबन्ध अने नूपुर आदि आभुषणोथी विभुषित हतुं. जेम निर्धन पुरुषने अपार भण्डार मळवाथी फूल्यो न समाय तेम ए स्वरूपथी प्रसन्न थयेला यजमान, ऋत्विज तथा सभासदोए घणां मानथी पोतानां मस्तक नमाव्यां अने एमनी पूजा अने स्तुति करी ॥३॥

ऋत्विजोए कह्युं - पूज्यतम! अमे आपना अनुगत भक्त छीए, आप अमारा पुनः-पुनः पूजनीय छो. पण अमे आपनी पूजा करवी शुं जाणीए? अमे तो आपने वारंवार नमस्कार करीए छीए. आटलुं ज अमने महापुरुषोए शिखवाड्युं छे. आप प्रकृति अने पुरुष थी पण पर छो. तो पछी प्राकृत गुणोना कार्यभूत आ प्रपञ्चमां बुद्धि फसाई जवाथी, आपना गुणगान करवामां सर्वथा असमर्थ एवो कयो मनुष्य छे के जे प्राकृत नाम-रूप-आकृति वडे तमारा स्वरूपनुं निरूपण करी शके? आप साक्षात्‌ परमेश्वर छो. आपना परम मङ्गलमय गुण, सम्पूर्ण, जनताना दुःखोनुं दमन करी नाखनारा छे. अगर कोई एमनुं वर्णन करवानुं साहस करे तो पण केवल एक अंशनुं ज वर्णन करी शके ॥५॥

पण प्रभो! जो आपना भक्त प्रेम-गद्‌गद वाणीथी स्तुति करतां-करतां सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी अने दूब ना अङ्कुर वगेरे सामग्रीथी ज आपनी पूजा करे तो पण आप बधी रीते सन्तुष्ट थई जाओ छो ॥६॥

अमने तो प्रेम सिवाय आ द्रव्य, काल वगेरे अनेक अङ्गवाळा यज्ञोथी पण आपने कंई प्रयोजन होय एवुं लागतुं नथी ॥७॥

कारण के आपमान्थी स्वतः ज क्षणे-क्षणे जे सम्पूर्ण पुरुषार्थोना फल स्वरूप परमानन्द स्वभावतः ज निरन्तर प्रकट थतो रहे छे. आप साक्षात्‌ एनुं स्वरूप ज छो, आ प्रमाणे जो के आपने आ यज्ञादिथी कंई प्रयोजन के स्वार्थ नथी तो पण अनेक प्रकरनी कामनाओनी सिद्धि इच्छनारा अमारे माटे तो मनोरथ सिद्धिनुं पूरतुं साधन आ ज होवुं जोईए ॥८॥

आप ब्रह्मादि परम पुरुषो करतां पण परम श्रेष्ठ छो. अमने तो अमारुं परम कल्याण शामां छे एनुं पण भान नथी तेम ज अमाराथी आपनी यथोचित पूजा [[१७]] पण थई शकी नथी तो पण जे प्रमाणे तत्त्वज्ञ पुरुष बोलाव्या विना पण मात्र करुणाथी ज अज्ञानी पुरुषो पासे जाय छे तेवी ज रीते आप पण अमने मोक्ष नामनुं आपनुं परम पद अने अमारी इच्छित वस्तुओनुं दान करवामाटे बीजा साधारण यज्ञ जोनारानी जेम अर्ही प्रकट थया छो ॥९॥

पूज्यतम! अमने सौथी मोटुं वरदान तो आपे ए ज आप्युं के ब्रह्मादि बधा वरदायकोमां श्रेष्ठ होवा छतां आप राजर्षि नाभिनी आ यज्ञशाळामां साक्षात्‌ अमारी आङ्खो सामे प्रकट थई गया; हवे अमे बीजुं वरदान मागीए शुं? ॥१०॥

वैराग्यथी प्रकट थयेला ज्ञानाग्निथी जेमना सघळा मेल बळी गया छे तेवाओने तेमज आपना जेवा शान्त स्वभाववाळा आत्माराम मुनिओने पण आपना मङ्गळरूप गुणोनुं वर्णन करवानुं सुभाग्य मळे छे पण आपनुं प्रत्यक्ष दर्शन मळतुं नथी, जेथी लोको आपना गुणगान ज कर्या करे छे ॥११॥

आम तो अमे आपनां दर्शन मात्रथी कृत-कृत्य थई ज गया छीए पण तोय एक वरदान मागवानी लालच रोकी रोकाती नथी के पडी जवुं, ठेंस लागवी, र्छीक आववी अथवा बगासुं आववुं अने सङ्कट आदिना समये तेमज ज्वर अने मरण आदि अवस्थाओमां आपनुं स्मरण न थई शके तो पण कोई रीते आपना बधा ज कलिमलना दोषोनो नाश करनारा ‘भक्त वत्सल’, ‘प्रणतपाल’, ‘दीन बन्धु’, ‘अधम उद्धारक’, ‘अशरण शरण’, आदि गुणज्ञापक नामोनो उच्चार अमे करी शकीए ॥१२॥

जीभ झलाई जाय छे, कहेवा योग्य नथी छतां एक बीजी वस्तु पण मागवानी छे. आ नाभि राजा आप जेवा पुत्रनी इच्छा राखे छे. जेओ आ लोकमानां सर्व सुखो, स्वर्ग तथा मोक्ष ना स्वामी आपने भजे छे तो पण जेम कोई कङ्गाल माणस कोई धन लुण्टावी देनार परम उदार पुरुषनी पासे जईने पण तेनी पासे फोतरां ज मागे एना जेवुं छे तो पण एनो ए मनोरथ परिपूर्ण थवो जोईए ॥१३॥

आ कोई आश्चर्यनी वात नथी. आपनी मायानो तो कोई पार पामी शक्तुं नथी अने ते कोईना वशमां आवती नथी. जे लोकोए महापुरुषोना चरणोनो आश्रय नथी कर्यो, एमां एवो कोण छे जे एने वश नथी होतो, एनी बुद्धि उपर एनो पडदो नथी पडी जतो अने विषयरूप विषनो वेग तेना स्वभावने दूषित नथी करी देतो? ॥१४॥

अध्याय-३,१८ पञ्चमस्कन्ध देवाधिदेव! आप भक्तोनां मोटां-मोटां कामो करी दो छो. अमे ओछी बुद्धिवाळाए कामना वश आ तुच्छ कार्यने माटे आपनुं आवाह्‌न कर्युं ए आपनुं अपमान ज छे. पण आप समदर्शी छो तेथी अमारा जेवा अज्ञानीओनी आ धृष्टता दरगुजर करो ॥१५॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे नाभि राजाना पूज्य ऋत्विजोए गद्योथी स्तुति करी अने चरणमां प्रणाम कर्या त्यारे सर्व देवश्रेष्ठ भगवान्‌ करुणावश आ प्रमाणे बोल्या ॥१६॥

श्रीभगवाने कह्युं - अहो! ऋषिओ, सत्य वाणी बोलनारा तमे एवुं वरदान माग्युं के आ राजाने मारो जेवो पुत्र थाय पण ए सुलभ नथी केमके हुं एक अने अद्वितीय होवाथी मारा जेवो तो हुञ्ज छुं तो पण उत्तम ब्राह्मणोनुं कुळ मारुञ्ज मुख छे तेथी ब्राह्मणोनुं वचन मिथ्या थवुं जोईए नहि ॥१७॥

एटलामाटे मारा जेवो बीजो कोई न मळतां हुं पोते ज अंशथी आ राजाने घेर अवतार धरीश ॥१८॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मेरुदेवीना साम्भळतां पति नाभि राजाने ए प्रमाणे कही भगवान्‌ अन्तर्धान थई गया ॥१९॥

बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान्‌ परमर्षिभिः … ऋषीणाम्‌ उर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ॥२०॥

पछी हे परीक्षित राजा! ए यज्ञोमां मोटा ऋषिओए जे भगवानने प्रसन्न कर्या हता ते नाभिराजानुं प्रिय करवानी इच्छाथी अने दिगम्बर सन्न्यासीओ अने ऊध्वरेता मुनिओनो धर्म प्रकट करवा सारुं महाराणी मेरुदेवीने पेटे शुद्धसत्त्वमय मूर्तिथी प्रकट थया ॥२०॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेला स्वरूपस्थिति प्रकरणमां नाभिराजानुं यश निरूपण नामनो) ‘‘नाभिराजाना यज्ञमां श्रीहरिनुं ऋषभदेव रूपे प्रकट थवुं’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही [[१९]]

अध्याय ४

ऋषभदेवजीना सो पुत्रोनी उत्पत्ति अने प्रजानो आनन्द

विशेष - नाभि राजाथी मेरु देवीमां प्रकट थयेला कृपानिधि ऋषभ देवजीनुं धर्माचरण चतुर्थाध्यायमां निरूपाय छे. अथ ह तमुत्पत्त्यैव अभिव्यज्यमानभगवल्लक्षणं …अवनितलसमवनायातितरां जगृधुः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए पुत्रना जन्मथी ज वज्र, अङ्कुश वगेरे सघळां भगवान्‌नां चिह्‌न एना अवयवोमां जोवामां आव्यां. समता, शान्ति, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि सर्वसम्पत्तिनी साथे एनो प्रभाव रोज-रोज वधतो चाल्यो; तेथी हवे ए राजय करे तो ठीक, एम मन्त्री वगेरे कारभारीओ, प्रजा, ब्राह्मणो अने देवो अत्यन्त इच्छा करवा लाग्या ॥१॥

एनुं सुन्दर अने सुडोल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बळ, लक्ष्मी, यश, पराक्रम अने शौर्य जोईने नाभिराजाए ए पुत्रनुं नाम ‘ऋषभ’(श्रेष्ठ)पाड्युम् ॥२॥

एना पर इर्ष्या करी इन्द्र महाराजे एना खण्डमां एकवार वृष्टि न करी. ए वात जाणी योगेश्वर भगवान्‌ ऋषभदेवजीए इन्द्रनी मूर्खता उपर हसीने पोतानी योगमायाना प्रभावथी अजनाभ नामना पोताना खण्डमां पोते ज खूब जल वरसाव्युम् ॥३॥

नाभि राजा पोताने जेवी जोईती हती तेवी सारी प्रजा प्राप्त थवाथी अत्यन्त आनन्दना भारथी विह्‌वल बन्या अने पोतानी इच्छाथी ज मनुष्यरूपे अवतरेला पुराण पुरुष भगवानने एमना ज लीलाविलासथी मुग्ध थई ‘हे पुत्र’ ‘हे तात!’ एवी रीते स्नेहपूर्वक लालन करता परम सुखने पाम्याम् ॥४॥

एमणे जोयुं के मन्त्रीमण्डल, नागारिक आम जनता ऋषभदेवजी उपर खूब प्रेम राखे छे एटले लोकोना मतने प्रमाण राखता नाभि राजाए धर्मनी मर्यादाओनुं रक्षण करवाने ए ऋषभदेवजीनो राज्याभिषेक कर्यो; अने एमने ब्राह्मणोना हाथमां सोम्पी दीधा. पछी नाभिराजा महाराणी मेरुदेवी साथे बदरिकाश्रममां चाल्या गया अने त्यां अहिंसा वृत्तिथी, जेथी कोईनेय उद्वेग न थाय एवी कौशलपूर्ण तपस्या तथा समाधि द्वारा नरनारायण भगवान्‌नी उपासना करतां-करतां काळे करीने जीवन अध्याय-४,२० पञ्चमस्कन्ध मुक्ति पाम्या ॥५॥

हे परीक्षित राजा! ए नाभिराजानी कीर्ति विशे आ लोकोक्ति प्रसिद्ध छे के राजर्षि नाभिराजाए जे कामो कर्याते काम बीजो कयो पुरुष करी शके? एनां शुद्ध कर्मो जोई सन्तुष्ट थई भगवान्‌ श्रीहरि पोते एना पुत्र बनी गया हता. नाभिराजा जेवो ब्राह्मणोने मान आपनार पण बीजो कयान्थी होय? एना यज्ञमां दक्षिणा वगेरेथी सन्तुष्ट ब्राह्मणोए एने पोताना मन्त्रबळथी साक्षात्‌ श्रीविष्णु भगवाननां दर्शन करावी आप्याम् ॥६-७॥

ऋषभदेवजी पोताना देश अजनाभ खण्डने पोतानी कर्मभूमि मानी लोक सङ्ग्रहमाटे केटलोक समय गुरुने घेर वास कर्यो. पछी गुरुदक्षिणा आपी गुरुओनी रजा लई लोकोने गृहस्थाश्रमना धर्म शीखववा सारु देवराज इन्द्रे दानमां आपेली तेनी कन्या जयन्तीने परण्या. श्रौत अने स्मार्त बन्ने प्रकारना शास्त्रोक्त कर्मोनुं आचारण करता तेना गर्भथी पोताना जेवा ज सो पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥८॥

ए सो पुत्रोमां अवस्थाथी तेमज गुणथी भरतजी सौथी मोटा हता. एना ज नाम उपरथी लोको आ अजनाभ खण्डने ‘भारतवर्ष’ कहेवा लाग्या ॥९॥

भरत पछीना कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, इन्द्रस्पृक्‌ भद्रसेन, विदर्भ अने किकट ए नव पुत्रो बाकीना नेवुन्थी मोटा तथा श्रेष्ठ हता ॥१०॥

एमनाथी नाना कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पालयन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस अने करभाजन ए नव राजकुमार (नव योगेश्वरो) भागवत धर्मोनो प्रचार करनारा महान भगवद्‌भक्त हता. एमनुं चरित्र भगवान्‌ना महिमाथी महिमान्वित अने परम शान्तिथी पूर्ण छे, जे आगळ वसुदेव अने नारदजी ना संवादरूपे (एकादश स्कन्धमां) कहेवामां आवशे ॥११-१२॥

आमनाथी नाना जयन्तीना एकाशी पुत्रो पितानी आज्ञा माननारा अने घणा नम्र स्वभावना हता. तेओ वेदज्ञ अने यज्ञादिक कर्म करनारा हता. पुण्यकर्मोनुं आचरण करवाथी शुद्ध थई तेओ ब्राह्मण थई गया हता ॥१३॥

भगवान्‌ ऋषभदेव परम स्वतन्त्र होवाथी स्वयं सर्वदा ज बधा प्रकारनी अनर्थ परम्पराथी रहित हता. तेओ केवल आनन्दानुभव स्वरूप अने साक्षात्‌ ईश्वर ज हता तो पण अज्ञानीओनी जेम कर्म करतां एमणे कालने अनुसार प्राप्त धर्मनुं आचरण करी, एनुं तत्त्व न जाणनारा लोकोने तेनुं शिक्षण आप्युं. साथोसाथ सम, [[२१]] शान्त, सुहृद (मित्र)अने कारुणिक रहीने धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग-सुख अने मोक्षनो सङ्ग्रह करतां-करतां गृहस्थाश्रममां लोकोने नियमित बनाव्या ॥१४॥

केमके महान्‌ पुरुषो जे मार्गे चाले छे ते मार्गने लोको अनुसरे एवी रीत छे ॥१५॥

जेमां सघळा धर्मोनुं निरूपण करेलुं छे तेवा वेदनुं रहस्य जो के ए पोते जाणता हता तो पण राज कार्योनी बाबतमां ब्राह्मणोने पूछी एमणे दर्शावेला मार्ग प्रमाणे साम, दाम वगेरे *नीतिवडे ए लोकोनुं पालन करता हता ॥१६॥

विशेष - साम, दाम, भेद अने दण्ड ए चारेनो प्रयोग कोई उपदेशके पोताना पुत्र उपर कर्यो हतो, ए नीचे प्रास्ताविक श्लोकथी समजतां राजाए प्रजा उपर तेमनो शी रीते उपयोग करवो ए पण जणाशे. ‘‘अधीष्व पुत्रकाधीष्व मोदकं प्रददामिते, अन्यथास्मै प्रदास्यामि कर्णमुत्पाटयामि ते’’ हे बेटा! भण-भण! (ए साम थयुं) भणीश तो तने लाडु आपीश, (ए दाम थयुं) नहि भणे तो आ लाडु बीजा छोकराने हुं आपी दईश; (ए भेद थयो). तुं नथी मानतो माटे तारो कान उखेडी नाखुं छुं (ए दण्ड थयो). एमणे शास्त्र अने ब्राह्मणोना उपदेश प्रमाणे भिन्न-भिन्न देवताओने निमित्ते द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा अने ऋत्विज आदिथी सुसम्पन्न दरेक प्रकारना सो-सो यज्ञ कर्या ॥१७॥

ज्यां सुधी आ खण्डमां ऋषभदेवजीए राज्य कर्युं त्यांसुधी जेम आकाशपुष्पनी कोईने इच्छा थती नथी तेम कोई माणसने कोई रीते बीजा माणस पासेथी कशी वस्तु लेवानी इच्छा थती नहोती. लोकोनी इच्छा मात्र एटली ज हती के पोताना स्वामी ऋषभदेवजी प्रत्ये एनो स्नेह दरेक पळे केम वधे ॥१८॥

स च कदाचिद्‌ अटमानो भगवानृषभो ब्रह्मावर्तगतो … प्रश्रय- प्रणयभर-सुयन्त्रितानपि उपशिक्षयन्‌ इति होवाच ॥१९॥

ए भगवान्‌ ऋषभदेवजी एकवार फरता-फरता ब्रह्मावर्त देशमां पधार्या. त्यां मोटा-मोटा ब्रह्मर्षिओनी सभामां सघळी प्रजाना साम्भळतां जो के पोताना पुत्र जितेन्द्रिय हता अने विश्वास तथा नम्रता थी नियमित हता छतां एमने शिखामण देवा आ प्रमाणे क्ह्युम् ॥१९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेलां स्वरूपस्थिति प्रकरणमां ऋषभाना चरितमां धर्मनिरूपण नामनो) ‘‘ऋषभदेवजीनां सो पुत्रोनी उत्पत्ति अने प्रजानो आनन्द’’ नामनो चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण थयो. अध्याय-४,२२ पञ्चमस्कन्ध

अध्याय ५

ऋषभदेवजी पुत्रोने मोक्षधर्मनो उपदेश आपीने परमहंस थया

विशेष - आ पाञ्चमा अध्यायमां ऋषभदेवजीए मोक्षधर्मना उपदेशथी पुत्रोने शिखामण आपी अने पोते सुख-दुःखादिकने सहन करी परमहंस थया, ए कथा कहेवामा आवशे. नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान्‌ कामानर्हते विड्‌भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध्येद्‌ यस्माद्‌ ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्‌ ॥१॥

ऋषभदेवजीए कह्युं - पुत्रो! आ मर्त्यलोकमां आ मनुष्यशरीर दुःखमय विषयभोग भोगववामाटे ज नथी. ए दुःखदायी विषयो तो विष्ठा खानारां भूण्डोने पण मळे छे. हे पुत्रो! आवा मनुष्य देहथी तो दिव्य तप करवुं ए ज श्रेष्ठ छे जेनाथी अन्तःकरण शुद्ध थाय कारण के एथी ज अनन्त ब्रह्मानन्दनी प्राप्ति थाय छे ॥१॥

महात्मा पुरुषोनी सेवा ए मोक्षनुं द्वार छे, स्त्रीओना सङ्गीओनो (विषयी जीवोनो) सङ्ग ए नरकनुं द्वार छे, एम शास्त्रो कहे छे. महात्मा ते ज छे जे परम शान्त, समदृष्टिवाळा, क्रोधरहित, सर्वना हितचिन्तक अने सदाचारवाळा होय॥२॥

अथवा मारा-परमात्मा प्रत्ये प्रेमने ज जे एक मात्र पुरुषार्थ मानता होय, फक्त विषयोनी चर्चा करनारा लोकोमां तथा स्त्री, पुत्र, धन वगेरे सामग्रीथी सम्पन्न घरमां जेने अरुचि होय अने जे लौकिक व्यवहारमां फक्त शरीर निर्वाह करवा पूरती ज प्रवृत्ति करता होय ॥३॥

ज्यारे इन्द्रियोने सन्तोषवाने कोई पण कर्म करवामां आवे छे त्यारे गफलतथी पाप थया वगर रहेतुं ज नथी. हुं आने ठीक नथी मानतो कारण के एने लीधे ज आत्माने आ असत्‌ अने दुःखदायी देह प्राप्त थाय छे ॥४॥

ज्यां सुधी जीवने आत्मानुं तत्त्व जाणवानी जिज्ञासा न थाय त्यां सुधी अज्ञानथी थयेली स्वरूपनी विस्मृति रहे छे; ज्यां सुधी मन कर्ममां फसायेलुं रहे छे त्यां सुधी मनमां कर्मनी वासनाओ रहे ज छे. अने तेनाथीज देहरूपी बन्धन प्राप्त थाय छे ॥५॥

आ प्रमाणे अविद्याथी स्वरूप ढङ्काई जतां मन कर्म वासनाने वश थई जाय छे अने मन पुरुषने कर्ममां ज प्रवृत्त करे छे. ज्यां सुधी एने मारा वासुदेवमां प्रीति [[२३]] थाय नहि त्यां सुधी एनुं देह बन्धन कदी पण छूटी शके नहि ॥६॥

स्वार्थमां पागल जीव ज्यां सुधी विवेक दृष्टिनो आश्रय लई इन्द्रियोनी चेष्टाओने खोटी नथी समजतो त्यां सुधी आत्मस्वरूपनी स्मृति खोई बेसवाथी ते अज्ञानथी मैथुन प्रधान गृह वगेरेमां गळा डूब रहे छे अने अनेक प्रकारना तापमां शेकाया करे छे ॥७॥

स्त्री अने पुरुष ए बन्नेनो परस्पर दाम्पत्य भाव छे एने ज पण्डितो एमना हृदयनी बीजी स्थूल अने अतूट ग्रन्थि(गाण्ठ) कहे छे. देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो एमनामां पहेलेथी छे ज. एने ज लीधे जीवने देहेन्द्रियादि सिवाय घर, खेत, पुत्र, स्वजन अने धन वगेरेमां पण ‘हुं’ अने ‘मारुं’ अहन्ता अने ममता नो मोह थई जाय छे ॥८॥

ज्यारे माणसनी अन्दर कर्म-वासनाओथी बन्धायेली मननी ए मजबूत गाण्ठ ढीली पडे त्यारेज ए माणस दाम्पत्य भावथी निवृत्ति पामे छे अने पछी संसारना कारणरूप अहङ्कार मूकी दई बधी जातनां बन्धनोथी मुक्त थई ए परमपदने पामेछे ॥९॥

पुत्रो! संसार सागरने तरी जवामां कुशल तथा धैर्य, उद्यम अने सत्त्वगुण युक्त पुरुषनुं कर्तव्य छे के ए अहङ्काररूप पोताना लिङ्ग शरीरने छोडी दे. ए अहङ्कारनो त्याग करवानां साधन छेःईश्वरनी भक्ति, गुरुसेवा, तृष्णानो त्याग, सुखदुःखादि सहन करवां, जीवने बधी ज योनिओमां दुःख वेठवानुं छे एवो विचार, तत्त्व जिज्ञासा (ज्ञान मेळववानी इच्छा), तप, सकाम कर्मनो त्याग, ईश्वर अर्थे कर्म करवां, नित्य मारी कथा साम्भळवी, मारा गुणगावा, मारा भकतोनो सङ्ग करवो, वैरनो त्याग, समता, शान्ति, शरीर अने घर मां अहन्ता-ममता नो त्याग करवानी इच्छा, अध्यात्म शास्त्रनो सारो अभ्यास, एकान्तनुं सेवन, प्राण, इन्द्रिय अने मननो संयम, शास्त्र अने सत्पुरुषोना वचनमां उत्तम श्रद्धा, निरन्तर ब्रह्मचर्य, कर्तव्य कर्मोमां निरन्तर सावधानता, मिथ्याभाषणनो त्याग, सर्व ठेकाणे भगवद्भावना करवी, अनुभवज्ञान सहित तत्त्वविचार, प्रयत्न अने विवेक, ए २५साधनोथी चतुर पुरुषे अहङ्कारनो त्याग करवो ॥१०-१३॥

ए हृदयनी गाण्ठ कर्मोने रहेवाना स्थानकरूप छे अने अविद्याथी प्राप्त थयेल छे तेने शास्त्रोमां कह्या प्रमाणेनां साधनोवडे सावधानपणाथी तोडी नाखवी, कारण के अध्याय-५,२४ पञ्चमस्कन्ध कर्म संस्कारोने रहेवानुं स्थान ए ज छे. पछी साधनो करवानो परिश्रम पण छोडी देवो ॥१४॥

जेने मारो लोक प्राप्त करवानी इच्छा होय अथवा जे मारा अनुग्रहनी प्राप्तिने ज परम पुरुषार्थ मानतो होय ते राजा होय तो पोतानी ना समज प्रजाने, गुरु पोताना शिष्योने अने पिता पोताना पुत्रोने आवी ज शिक्षा आपे. अज्ञानने लीधे जो तेओ ए शिक्षा प्रमाणे न चाले अने कर्मोने ज परम पुरुषार्थ मानता फरे तो पण एमना उपर गुस्से न थतां एमने समजावी, कर्ममां प्रवृत्त न थवा दे. एमने विषयासक्ति युक्त काम्य कर्ममां जोडवा ए तो कोई अन्ध व्यक्तिने जाणी बूजीने खाडामां धकेली देवा जेवुं छे. आथी भला, कया पुरुषार्थनी सिद्धि थई शके छे?॥१५॥

पोतानुं खरुं कल्याण शेमां रहेलुं छे ए जोवामां माणस आन्धळो होय छे. घणी-घणी तृष्णाओथी ए धन इच्छे छे, मूढ बनीने एक बीजा साथे वैर राखे छे, परन्तु जराक सुख मेळववा जतां एने अनन्त दुःख आवी पडे छे ए जाणतो नथी ॥१६॥

समजु पुरुष तो ए वातने जाणे छे अने दयाळु होय छे. ए एवी रीते अज्ञानमां भटकता कुबुद्धि माणसने जोई एने पाछो संसारना मार्गमां ज केम जोडे? अन्ध माणस खोटे रस्ते चडी जवाथी खाडामां पडवानी तैयारीमां होय त्यारे देखतो माणस जेम एने नथी पडवा देतो तेवी ज रीते अज्ञानी मनुष्यने अविद्यामां फसाई दुःखोनी खाईनी दिशामां जता जोई कोण एवो दयाळु अने ज्ञानी पुरुष हशे जे जाणी जोईने एने ए रस्ते जवा दे अथवा जवानी प्रेरणा आपे? ॥१७॥

संसारमां पडेला पुत्रने भक्तिमार्गनो उपदेश आपी एने संसारमान्थी छोडाववानी शक्ति न होय तेणे पिता के माता पण थवुञ्ज जोईए नहि. एवा माणसे पुत्र उत्पन्न करवानो यत्न ज करवो नहि. पोताना सम्बन्धीने मृत्युनी फांसीमान्थी छोडाववानी जेनी शक्ति न होय तेणे सम्बन्धी नहि थवुं जोईए, शिष्यने मुक्ति आपवानी शक्ति न होय तो गुरु न थवुं; भक्तने छोडाववानी शक्ति न होय तो देव बनी एनी पासेथी पूजा न लेवी; स्त्रीनो उद्वार करवानी शक्ति न होय तो पति न थवुम् ॥१८॥

मारा आ अवतार शरीरनुं *रहस्य साधारण लोकोमाटे न समजाय तेवुं छे. [[२५]] शुद्ध सत्त्वगुण ज मारुं हृदय छे अने एमां ज धर्म वसे छे. में अधर्मने दूर काढी मूकयो छे तेथी सत्पुरुषो मने ‘ऋषभ’ कहे छे ॥१९॥

विशेष - ए प्रमाणे मोक्ष सम्बन्धी धर्मोनो उपदेश करी पोताना पुत्रमां कुसम्प, ईर्ष्या वगेरे उत्पन्न न थाय एटला माटे मोटाभाईनी सेवा करवारूप धर्मनो उपदेश करे छे. हे पुत्रो! तमे पण मारा शुद्ध सत्त्वमय शरीरथी उत्पन्न थया छो; तेथी मत्सर छोडी तमे तमारा आ सहोदर मोटा भाई भरतनी सेवा करो. एनी सेवा करवी ए मारीज सेवा करवा बराबर छे अने एज प्रजाना पालनरूप पण छे ॥२०॥

बीजां बधां भूतो करतां वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ* छे, एथी चालवावाळा जीव श्रेष्ठ छे अने एमां पण कीटादि करतां ज्ञानयुक्त पशु वगेरे श्रेष्ठ छे. पशुओथी मनुष्य, मनुष्यथी प्रमथगण, प्रमथोथी गन्धर्व; गन्धर्वोथी सिद्ध अने सिद्धोथी देवोना अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ छे ॥२१॥

विशेष - ब्राह्मणोनी सेवा करवी जोईए एवा अभिप्रायथी ब्राह्मणोनी श्रेष्ठता कही देखाडे छे. किन्नरोथी देवो श्रेष्ठ छे; देवोथी इन्द्र श्रेष्ठ छे; इन्द्रथी ब्रह्माजीना पुत्र दक्षादि प्रजापतिओ श्रेष्ठ छे; ब्रह्माजीना पुत्रोमां सदा शिव श्रेष्ठ छे. ते ब्रह्माजीथी उत्पन्न थयेल होवाथी सदाशिवथी ब्रह्माजी श्रेष्ठ छे; ब्रह्माजी माराथी उत्पन्न थया छे अने ते मारी उपासना करे छे तेथी ब्रह्माथी हुं श्रेष्ठ छुं; अने माराथी ब्राह्मणो श्रेष्ठ छे केमके एमने हुं पण पूजु छुम् ॥२२॥

(सभामां उपस्थित ब्राह्मणोने उद्‌देशीने) हे ब्राह्मणो! बीजा कोई पण प्राणीने हुं ब्राह्मणो समान पण गणतो नथी त्यारे ब्राह्मणोथी श्रेष्ठ तो केम ज लेखुं? लोकोए ब्राह्मणोना मुखमां ज श्रद्धापूर्वक होम्युं होय ते पदार्थने हुं जेटलो प्रसन्नताथी स्वीकारुं छुं तेवी रीते अग्निहोत्रमां होमेला पदार्थने स्वीकारतोनथी ॥२३॥

जे ब्राह्मणोए मारी सुन्दर अने प्राचीन देहरूप वेद मूर्तिने धारण करी छे, जेमनामां परम पवित्र सत्त्वगुण, शम (मननो निग्रह), दम (इन्द्रियोनो निग्रह), सत्य, दया, तप, सहनशीलता अने ज्ञान ए आठ गुणो होय छे तेमनाथी हुं कोने श्रेष्ठ गणुं? ॥२४॥

हुं स्वर्ग अने मोक्ष नो अधिपति छुं, अनन्त अने ब्रह्मा नो पण ब्रह्मा छुं; पण मारा अकिञ्चन भक्तो एवा निःस्पृह होय छे के तेओ क्यारेय मारी पासे कंई चाहता नथी होता तो पछी एओने राज्यादिकनी तो इच्छा केमथाय? ॥२५॥

अध्याय-५,२६ पञ्चमस्कन्ध हे पुत्रो! सघळां (ए प्रमाणे ब्राह्मणोनुं सन्मान करवानुं कही सर्व जगत्‌नुं सन्मान राखवानुं कहे छे.) स्थावर जङ्गम प्राणीओने मारा निवासरूप समजवां अने मत्सर रहित दृष्टिथी तमारे एनुं प्रतिक्षणे सन्मान करवुं ए ज मारुं ज पूजन छे ॥२६॥

मने *अर्पण करवुं ए ज मन, वचन, दृष्टि अने बीजी इन्द्रियोनी चेष्टाओनुं फळ छे. मने अर्पण कर्या विना मनुष्य महामोहरूप काळपाशमान्थी छूटवा समर्थ थतो नथी ॥२७॥

विशेष - ए सघळां कर्म ईश्वरने अर्पण करवानुं कहे छे. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - जो के पोताना पुत्रो स्वयं सुशिक्षित हता तो पण लोकोने शिखामण देवासारु महाप्रतापी अने सर्वना परम मित्र ऋषभदेवजीए तेमने आ प्रमाणे उपदेश कर्यो. ऋषभदेवजीना सो पुत्रोमां भरत सौथी मोटा हता. ते भगवान्‌ना परम भक्त तो हता ज, भगवद्‌ भक्तोना पण परम भक्त हता. पृथ्वीनुं पालन करवा तेमणे एमने राजगादी पर अभिषेक करी दीधो अने पोते शान्त, निवृत्तिपरायण महामुनिओने भक्ति, ज्ञान अने वैराग्य रूप परमहंसने उचित धर्मोनुं शिक्षण आपवाने माटे बिलकुल विरक्त थई गया. मात्र शरीर राख्युं, बीजुं बधुं घेरे रहेतां ज छोडी दीधुं. हवे वस्त्रोनो पण त्याग करी तद्‌दन दिगम्बर थई गया. ए वखते एना केश विखरायेला हता. पागल जेवो वेश हतो आ हालतमां तेमणे आहवनीय (अग्निहोत्रना) अग्निओने पोतानामां ज लीन करी दई सन्न्यासी थई गया अने ब्रह्मावर्त देशनी बहार नीकळी गया ॥२८॥

अवधूतना जेवो वेश धारण करी लोकोमां जड, अन्ध, बहेरा, गूङ्गा पिशाच अने पागलना जेवी चेष्टा करता ऋषभदेवजी बोलावे तो पण न बोलतां मौनव्रत धरीने साव चूप रहेवा लाग्या ॥२९॥

कयारेक शहेरो अने गामडां मां चाल्या जता तो कयारेक खाणो, किसानोनी वसति, बगीचा, पहाडी गाम, सेनानी छावणीओ, गौशाळा, अहीरोनी वसति अने धर्मशाळा मां रहेता. कयारेक पहाडो, जङ्गलो अने आश्रमो वगेरेमां विचरता, कोई पण रस्ते तेओ नीकळता तो जेवी रीते वनमां फरता हाथीने माखीओ सतावे छे तेवी रीते मूर्ख अने दुष्ट लोको लागु थई जता अने तेमने हेरान करता. कोई धमकी देता, कोई मारता, कोई पेशाब करी देता, कोई थूङ्कता, कोई ढेखाळा मारता, कोई विष्ठा अने धूळ फेङ्कता, कोई अधोवायु छोडता अने कोई गाळ दई एमनो [[२७]] तिरस्कार करता. पण तेओ कोई पण बाबत उपर जरा पण ध्यान देता नहि कारण के भ्रमथी सत्य कहेवाता आ मिथ्या शरीरमां एमनी लगीर पण ममता नहोती. तेओ कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपञ्चना साक्षी थई पोताना परमात्म-स्वरूपमां स्थित हता तेथी अखण्ड चित्तवृत्तिथी एकला ज पृथ्वी उपर विचरता रहेता हता ॥३०॥

एमनां हाथ, पग अने वक्षःस्थळ बहु ज सुकुमार हतां. बाहु अने खभा मोटा हता. गळुं, मुख वगेरे अवयवोनी रचना घणी ज घाटीली हती. एमनुं मुख स्वभावथी ज मनोहर हतुं अने सहज मलकाटथी अत्यन्त शोभतुं हतुं. नेत्र नवीन कमलदलनां जेवां अत्यन्त सुहावन, विशाल अने लालिमायुक्त हतां. कीकीओ शीतल अने सन्तापहारिणी हती. गाल, कण्ठ, कर्ण अने नासिका नानां-मोटां नहि पण सरखां अने सुन्दर हतां. एमना गुप्त हास्यवाळा मुखनी छटा जोईने चतुर स्त्रीओना मनमां कामदेवनो सञ्चार थई जतो हतो तो पण एमना मुखनी आगळ जे भूरा रङ्गनी लाम्बी-लाम्बी वाङ्कडी लटो लटकतीहती एना भारी बोज अने अवधूतोना जेवा धूलि-धूसरित देहने लीधे तेओ तेमने भूतप्रेतनो वळगाड होय तेवा जणाता हता ॥३१॥

एमने लाग्युं के ज्यां सुधी लोको केडो नहि मूके त्यां सुधी योग बराबर साधी शकाशे नहि. लोकोनो समागम योगमां विघ्नरूप छे तेथी एमणे अजगर व्रत राख्युं. एक ज ठेकाणे पडी रहेवा माण्ड्युं; खावुं, पीवुं, मूतरवुं अने मळत्याग करवो ए बधुं सूतां-सूतां ज करवा माण्ड्युं. अने पोतानी विष्ठामां लोटी-लोटीने आखुं शरीर तेनाथी खरडी नाङ्ख्युम् ॥३२॥

एमनी विष्ठामान्थी एवो सुगन्धी पवन नीकळतो के एनाथी चोतरफ दश योजन सुधीमां सघळो प्रदेश सुगन्धथी महेकी उठतो ॥३३॥

ए ज प्रमाणे बळद, मृग अने कागडानी पेठे कयारेक चालतां, कयारेक ऊभां- ऊभां, कयारेक बेठां-बेठां, कयारेक सूतां-सूतां ज पीता, खाता अने मळत्याग करता हता ॥३४॥

इति नानायोगचर्याचरणो … हृदयेन अभ्यनन्दत्‌ ॥३५॥

परीक्षित, परमहंसोने त्यागना आदर्शनो उपदेश देवामाटे आ प्रमाणे मोक्षपति भगवान्‌ ऋषभदेवे अनेक प्रकारनी योगचर्याओनुं आचरण कर्युं. तेओ निरन्तर सर्वश्रेष्ठ परमानन्दनो अनुभव करतां रहेता हता. एमनी दृष्टिमां निरुपाधिकरूपथी अध्याय-५,२८ पञ्चमस्कन्ध सम्पूर्ण प्राणीओना आत्मा पोताना आत्मस्वरूप भगवान्‌ वासुदेवथी कोई जातनो भेद नहोतो तेथी तेना बधा पुरुषार्थो पूर्ण थई गया हता. एमनी पासे आकाश गमन, मनोजवित्व (मननी गतिनी जेम शरीरनुं पण इच्छा करतां ज सर्वत्र पहोञ्ची जवुं) अन्तर्धान, परकाय प्रवेश (बीजाना शरीरमां प्रवेश करवो), दूरनी वात साम्भळी लेवी अने दूरनी वस्तु जोई लेवी वगेरे बधी ज जातनी सिद्धिओ आपो आप ज सेवा करवा आवी; पण एमणे एमनो मनथी आदर अथवा स्वीकार न कर्यो ॥३५॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेला स्वरूप स्थिति प्रकरणमां ऋषभदेव चरितमां ज्ञान निरूपण नामनो) ‘‘ऋषभदेवजी पुत्रोने मोक्षधर्मनो उपदेश आपीने परमहंस थया’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. … … श्रीभागवतमादरात्‌।पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकमदम्भतः॥ प्रयत्न पूर्वक जातेज, कोई पण लौकिक (पैसा-टका कमाववा, फण्ड-फाळा)- पारलौकिक (मृतकनो उद्धार, पितृदोषनुं निवारण) हेतु के ढोङ्ग विना आदर पूर्वक श्रीभागवतनोनो पाठ करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)

अध्याय ६

ऋषभदेवे दावानळमां करलो देहत्याग

विशेष - आ छठ्ठा अध्यायमां ऋषभदेवजीनुं देहाभिमान मटी गयुं. बाळी देता दावानळने दीठो तो पण एनी मनमां कांई असर थई नहि अने एवा क्रमथी देहत्याग कर्यो ए कथा कहेवाशे. न नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरित…कर्मबीजानाम्‌ ऐश्वर्याणि पुनः क्लेशदानि भवितुम्‌ अर्हन्ति यदृच्छयोपगतानि ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - हे महाराज! आत्माराम लोकोनां रागद्वेषादिक कर्मबीज योगथी प्रदीप्त थयेला ज्ञानाग्निथी बळी गयां होय तेवाओने दैववश अणिमादि सिद्धिओ आपोआप प्राप्त थई जाय तो ते एमने माटे रागद्वेषादि क्लेशोनुं कारण तो कोई प्रकारे होती नथी तो पण ऋषभदेवजीए सिद्धिओनो अनादर शा माटे [[२९]] कर्यो? ॥१॥

श्रीशुकदेवजी कह्युं - हे राजा! तमे सत्य कह्युं छे. संसारमां जेम चालाक पारधी पोते पकडेला मृगनो विश्वास नथी करतो होतो ते ज प्रमाणे बुद्धिमान लोको आ चञ्चल चित्तनो भरोसो नथी करता ॥२॥

एवुं ज कह्युं पण छे के चञ्चळ मननी कदी पण भाईबन्धी करवी नहि. एनो विश्वास करवाथी ज मोहिनीरूपमां फसाई जई महादेवजीनुं चिरकालनुं सञ्चित तप क्षीण थई गयुं हतुम् ॥३॥

जो योगी मननो विश्वास करे तो जेम व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषोने अवसर आपे छे अने तेमना द्वारा पोतानामां विश्वास राखनार पतिनो नाश करी नाखे छे तेम योगीनुं मन पण पोताना शत्रु एवा काम अने तेना साथी क्रोधादिक शत्रुओने आक्रमण करवानो अवसर आपी तेने नष्ट-भ्रष्ट करी नाखे छे ॥४॥

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, भय अने कर्मबन्धन वगेरेनुं मूळ जोईए तो ए मन ज छे; माटे क्यो समजु पुरुष एम माने के मन मारे स्वाधीन छे? ॥५॥

सर्व लोकपाळोना शिरोमणि होवा छतां जड जेवां वेश, भाषा तथा आचरणथी ऋषभदेवजी पोतानो ईश्वरी प्रभाव छुपावी राखता हता. पछी (प्रसङ्गोपात्त वात पूरी करी पाछी चालती वात कहे छे.) एमने योगीओए केवी रीते देहत्याग करवो ए शीखववानी इच्छा थई त्यारे पोतानुं शरीर छोडवानो विचार कर्यो. ते पोताना अन्तःकरणमां अभेदरूपथी बिराजता परमात्माने अभिन्नरूपथी जोतां-जोतां वासनाओनी अनुवृत्तिथी छूटा थई जई लिङ्गदेहना अभिमानथी पण मुक्त थई उपराम थई गया ॥६॥

जेम कुम्भारनो चाकडो फेरववो मूकी दीधा पछी पण वेगना संस्कारथी थोडीक वार फर्या करे तेम जीवन्मुक्तनो देह अभिमाननो मनथी त्याग कर्या छतां, प्रारब्धना संस्कारथी थोडाक समय सुधी हाले चाले छे. ऋषभदेवजीनो स्थूळ देह योगमायानी वासनाथी आ पृथ्वीमां फरतो हतो ते देववश, कोङ्क, वेङ्क, कुटक अने दक्षिण कर्णाटक देशमां चाल्यो गयो. त्यां कुटकाचळना उपवनमां मोढामां पथ्थरनो कोळियो राखी घेलानी पेठे छूटा केशथी दिगम्बर ज फरतो हतो ॥७॥

एटलामां वायुना वेगथी एक बीजा साथे घसाता वांसमान्थी भयङ्कर दावानळ ए वनने चारे तरफथी बाळतो आवतो हतो तेमां ए वननी साथे ऋषभदेवनो देह अध्याय-५,३० पञ्चमस्कन्ध पण बळी गयो ॥८॥

कळियुगमां ज्यारे अधर्म वृद्धि पामशे त्यारे कोङ्क, वेङ्क अने कुटक देशनो अर्हत नामनो मूर्ख राजा ऋषभदेवनुं आश्रमातीत चरित्र साम्भळी तथा पोते तेनो स्वीकार करी लोकोना पूर्वसचिन्त पापफलरूप भवितव्यता (भावी) ने वश थई भयरहित स्वधर्म पथ, वेदमार्गनो त्याग करी पोतानी बुद्धिथी अनुचित अने पाखण्डपूर्ण कुमार्गनो प्रचार करशे ॥९॥

एथी कळियुगमां देवमायाथी मोहित अनेक अधम मनुष्यो पोताना शास्त्रविहित शौच अने आचार ने छोडी देशे. अधर्म प्रचुर कळियुगना प्रभावथी बुद्धिहीन थई जवाथी तेओ स्नान न करवुं, आचमन न करवुं, अशुद्ध रहेवुं, वाळ चूण्टी नाखवा वगेरे ईश्वरनो तिरस्कार करता पाखण्डधर्मोनो मनमानी रीते स्वीकार करशे अने प्रायः वेद, ब्राह्मण अने भगवान्‌ यज्ञ पुरुषनी निन्दा करवा लागशे ॥१०॥

तेओ पोतानी आ नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत (मनस्वी) प्रवृत्तिमां अन्ध परम्पराथी विश्वास मूकी मतवाला रहेवाने कारणे पोते ज घोर नरकमां पडशे ॥११॥

भगवाननो आ अवतार रजोगुणी माणसोने मोक्षमार्गनो उपदेश देवामाटे ज थयो हतो ॥१२॥

ऋषभदेवजीना चरित्र सम्बन्धमां लोको केटलाक एक श्लोक गाता रहे छे. जेवा के ः अहो! सात समुद्रवाळी पृथ्वीना सघळा द्वीपोमां अने सघळा खण्डोमां आ भारतवर्ष ज अधिक पुण्यवान्‌ छे. एमां जन्मेला लोको भगवानना अवतारोमां मङ्गलमय अवतार चरित्रोनुं गान करे छे ॥१३॥

प्रियव्रत राजानो वंश बहु ज उज्वल अने यशस्वी छे, जेमां आदि पुरुष भगवाने ऋषभ अवतार धारण करी परमहंसना धर्मनुं पालन कर्युं हतुम् ॥१४॥

अहो! आ जन्मरहित भगवान्‌ ऋषभदेवना मार्गे कोई बीजो योगी मनथी पण कयान्थी चाली शके? कारण के योगी लोक तो जे सिद्धओने माटे लालायित थई निरन्तर प्रयत्न करे छे ते सिद्धिओ पोतानी पासे आववानो प्रयत्न करती हती तेने मिथ्या समजी एनो त्याग कर्यो हतो ॥१५॥

आ प्रमाणे में तमने सर्व वेदो, लोक, देवो, ब्राह्मणो अने गायो ना परम गुरु ऋषभदेव भगवाननुं आ पवित्र चरित्र कही सम्भळाव्युं. ए चरित्र मनुष्यनां सघळां पाप मटाडनार अने उत्तम क्ल्याणनुं स्थान छे. जे मनुष्य आ परम मङ्गलमय [[३१]] पवित्र चरित्रने एकाग्र चित्तथी श्रद्धापूर्वक निरन्तर साम्भळे के सम्भळावे छे ए बेउने श्रीभगवान्‌ वासुदेवनी अनन्य भक्ति प्राप्त थई जाय छे ॥१६॥

हमेशां अनेक प्रकारनां संसारनां दुःखोथी जळ-जळता हृदयने समये-समये भक्ति सरितामां नवरावीने भगवदीयपणाथी जे विद्वान पुरुष कृतार्थ थाय छे तेओ तो भक्तिमां ज परमानन्द पामे छे. तेवाओने परम पुरुषार्थ रूप मोक्षनुं दान वगर माग्ये करवामां आवे तो पण तेओ एमां प्रीति धरावता नथी. भगवानना निजजन (भगवदीय) थई जवाथी ज एमना बधा पुरुषार्थो सिद्ध थई जाय छे ॥१७॥

राजन्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डवलोकोना तथा यादवोना रक्षक, गुरु, ईष्टदेव, सुहृद (मित्र) अने कुलपति हता; अरे त्यां सुधी के कयारेक-कयारेक तो तेओ आज्ञाकारी सेवक पण बनी जता हता. ए ज प्रमाणे भगवान्‌ बीजा भक्तोनां पण अनेक कार्यो करी शके छे अने एमने मुक्ति पण आपी दे छे, परन्तु मुक्तिथी पण चडी जाय एवो भक्तियोग छे ते सहेजमां नथी देता ॥१८॥

नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः। लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥१९॥

निरन्तर विषयभोगोने माटे वलखां मारतां पोताना खरा कल्याणनी बाबतमां लाम्बा समयथी भानभूलेला लोकोने जेमणे दया करी निर्भय आत्मलोकनो उपदेश कर्यो अने जे स्वयं निरन्तर अनुभवमां आवता आत्मस्वरूपनी प्राप्तिथी बधी ज तृष्णाथी मुक्त हता ए भगवान्‌ ऋषभ देवने नमस्कार हो ॥१९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पहेला स्वरूपस्थिति प्रकरणमां ऋषभदेव चरितमां वैराग्य निरूपण नामनो) ‘‘ऋषभदेवे दावानळमां करेलो देहत्याग’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे. अध्याय-६,

ईं उं ईं उं

३२ पञ्चमस्कन्ध

अध्याय ७

प्रकरण बीजुं - योगथी स्वरूपस्थिति भरतजीए करेलुं भगवाननुं भजन

विशेष - आ प्रकारे छ अध्यायथी स्वरूपस्थितिनुं निरूपण कर्युं. हवे आठ अध्यायथी योगवडे स्थिति कहेवाय छे. योगमार्गमां योग विना बीजां बधां साधन निष्प्रयोजन होय छे. ए सर्व साधनोनी निष्प्रयोजनता भरत चरित्रथी सिद्ध थाय छे. तेथी योगवडे स्वरूपस्थितिनुं प्रकरण शरू थाय छे. आ अध्यायमां भरते चारेय धर्मनुं निरूपण करेलुं छे एमां प्रजानुं रक्षण मुख्य रहेलुं छे. भरतस्तु महाभागवतो यदा भगवता अवनितलपरिपालनाय सचिन्न्तितः तदनुशासनपरः पञ्चजर्नी विश्वरूपदुहितरम्‌ उपयेमे ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे पिता ऋषभदेवजीए महान भगवद्‌ भक्त भरतजीने राज्याधिकार आप्यो त्यारे भरत विश्वरूपनी पुत्री पञ्चजनीने परण्या॥१॥

जेम तामस अहङ्कार शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्धने उत्पन्न करे छे तेम भरतजीए ए स्त्रीमां सर्व रीते सरखा एवा सुमति, राष्ट्रभृत्‌, सुदर्शन, आवरण अने धूमकेतु नामना पाञ्च पुत्रो उत्पन्न कर्या ॥२॥

आ खण्ड पुर्वे ‘अजनाभ’ नामथी ओळखातो हतो ते भरतना समयथी ‘भारत वर्ष’ नामथी ओळखावा लाग्यो ॥३॥

ते बहुज्ञ हता. पोताना बाप दादाओने अनुसरता भरत स्वधर्ममां स्थित रही, पोतपोताना कर्ममां लागी रहेली प्रजानुं वात्सल्य भावथी पालन करवा लाग्या ॥४॥

समये-समये चातुर्होत्रना१ प्रकारथी नाना-मोटा यज्ञरूप२यह तरबरूू३ भगवाननुं श्रद्धाथी पूजन कर्युं. अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग अने सोमयाग अने एनी प्रकृतिओ४ अने विकृतिओ५ (पशुसहित अने पशु वगरनी) बन्ने कर्यां हता ॥५॥

विशेष - १. होता, अध्वर्यु, उद्‌गाता अने ब्रह्माए चार, यज्ञमां ब्राह्मणोनी पदवी छे. ए पदवीवाळा ब्राह्मणो जे कर्म करे तेने चातुर्होत्र कहे छे. २. पशुरहित यज्ञ. ३. पशुसहित यज्ञ.
४. सर्व अङ्ग जेमां परिपूर्ण होय ते प्रकृति कहेवाय छे. ५. जेमां अङ्ग ओछां होय ते विकृति [[३३]] कहेवाय छे. ए प्रमाणे एना अङ्ग अने क्रियासहित अनेक यज्ञोना अनुष्ठान समये थता धर्मना अपूर्व१ फळने भरतजी वासुदेव भगवानने अपर्ण करी देता केमके ए अपूर्व फळ यजमानमां रहे छे. २एम मानीए तो पण यजमान होवाथी एमने अपर्ण करी देवुं घटे छे. अने ए अपूर्वफळ यज्ञना देवोमां३ रहे छे एम मानीए तो पण वेदना मन्त्रोमां जणावेला इन्द्रादिक देवोना नियन्ता भगवान्‌ होवाथी ते एमने ज अर्पण करी देवुं घटे छे. हकीक्तमां ए परब्रह्म ज इन्द्रादि बधा देवताओना प्रकाशक, मन्त्रोना वास्तविक प्रतिपाद्य तथा ते देवताओना पण नियामक होवाथी मुख्य कर्ता अने प्रधान देव छे. आ प्रमाणे पोतानी भगवदअर्पण बुद्धिरूप कुशळताथी हृदयना रागद्वेषादि मळनुं मार्जन करतां-करतां ते सूर्य वगेरे बधा यज्ञभोक्ता देवताओनुं भगवानना नेत्र वगेरे अवयवोना रूपमां चिन्तन करता हता ॥६॥

विशेष - १.‘अपूर्व’ एटले कर्म करती वखते ज जे सूक्ष्म फळ उत्पन्न थाय छे ते एम केटला एक मीमांसको माने छे; अने केटला एक मीमांसको एम पण माने छे के ‘अपूर्व’ एटले बीजा समयमां फळ उत्पन्न करनारी कर्ममां जे शक्ति छे ते.
२. देवताओ कर्मना अङ्गभूत छे. अने कर्म प्रधान छे ए सिद्धान्त प्रमाणे कर्मनुं फळ कर्तामां एटले यजमानमां रहे छे एम मानवामां आवे छे.
३. कर्म अङ्गभूत छे अने देवताओ प्रधान छे ए सिद्धान्त प्रमाणे कर्मनुं फळ देवताओमां रहे छे एम मानवामां आवे छे. एवी रीते यज्ञपुरुष भगवानने कर्मनां फळ अर्पण करी देवाथी भरतजीना रागद्वेषादि दोषो टळी गया हता. ए प्रमाणे ईश्वरार्पणरूप कर्म शुद्धिथी एमनुं हृदय शुद्ध थयुं हतुं अने एमने भगवान्‌मां भक्ति उत्पन्न थई; अने श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाळा, चन्द्र, शङ्ख अने गदा वगेरेथी शोभी रहेला तथा नारदादि निजजनोना हृदयोमां चित्रनी माफक निश्चल भावथी स्थित रहेता परब्रह्म भगवान्‌ एमना हृदय आकाशमां दर्शन देता ॥७॥

ए प्रमाणे एक करोड वर्ष वीती जतां पोताना राज्यभोगना प्रारब्धनो अन्त आव्यो छे एवुं जाणी बापदादानुं परम्पराथी ऊतरी आवेलुं राज्य पोताना पुत्रोने वहेञ्ची आप्युं अने पोते सर्व सम्पत्तिओथी भरेलो राजमहेल छोडी दईने तप करवामाटे हरिहर क्षेत्रमां चाल्या गया ॥८॥

अध्याय-७,३४ पञ्चमस्कन्ध ए हरिहर क्षेत्रमां रहेता त्यान्ना भक्तजनोउपर प्रेमने लीधे आज पण भगवान्‌ भक्तोनी इच्छा प्रमाणे दर्शन आपे छे ॥९॥

त्यां चक्रनदीगण्डकी नामनी प्रसिद्ध नदी चक्राकार शालिग्राम-शिलाओथी, जेनी उपर नीचे बन्ने बाजु नाभिनां जेवां चिह्‌न होय छे, चारे तरफथी ऋषिओना आश्रमोने पवित्र करती रहे छे ॥१०॥

ए पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र)ना बगीचामां भरतजी एकान्त स्थानमां एकलाज रही अनेक प्रकारनां पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल, कन्दमूळ आदि वडे भगवाननुं आराधन करता हता. आथी एमनुं अन्तःकरण समस्त विषयोनी अभिलाषाओथी मुक्त थई जई शान्त थई गयुं अने एमने परम आनन्दनी प्राप्तिथई ॥११॥

एवी रीते नित्य भगवाननुं पूजन करवाथी भगवान्‌ उपर स्नेह वधतां एमनुं हृदय पीगळी जई शिथिल थई जतुं अने आनन्दना प्रबल वेगथी शरीरमां रुवाडां ऊभां थई जतां. उत्कण्ठाने लीधे वारंवार आवतां स्नेहनां आंसुथी नेत्रथी जोवानी शक्ति रोकाई जती. आप कुम्पळियां, तुलसी, जळ अने कन्दमूळनां नैवेद्योथी तृप्त थनारा भगवाननां अरुण चरणारविन्दना ध्यानथी वधेला भक्तियोगने लीधे परमानन्दथी तरबोळ हृदयरूप गम्भीर सरोवरमां बुद्धि डूबी जवाथी करवामां आवती भगवतपूजानुं पण एमने बराबर स्मरण रहेतुं नहिम् ॥१२॥

ए प्रमाणे भगवत सेवाना नियमो पाळता अने मृगचर्मथी तथा त्रण वखत स्नान करवाने लीधे एना केशनी भूरी-भूरी वाङ्कडी लटो थई गई हती. जेनाथी ए खूब सुहावना लागता हता. भरतजी प्रातःकाळमां सूर्योदय थतां सुवर्णसरखा ज्योतिर्मय परम पुरुष *नारायण भगवाननी नीचे आपेला सूर्य सम्बन्धी ऋचाओद्वारा स्तुति करता हता ॥१३॥

विशेष - सूर्यमां रहेला नारायणना ध्याननो एक नीचे लखेलो श्लोक बोलवामां आवे छे तेना अर्थने मळतुं आ वर्णन आप्युं छे - ‘‘ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः, केयूरवान्‌ मकरकुण्डलवान्‌ किरीटी हारी हिरण्मयवपुर्धृतशङ्खचक्रः’’ कमळरूप आसनपर बिराजता, बाजूबन्ध, मकराकृति कुण्डळ, किरीट अने हारने धरनार, सुवर्ण सरखा शरीरवाळा तथा शङ्खचक्रने धरनार जे नारायण सूर्य मण्डळमां रहे छे तेनुं सदाय ध्यान करवुं. परोरजः सवितुर्जातवेदो देवस्य भर्गो मनसेदं जजान ॥ [[३५]] सुरेतसादः पुनराविश्य चष्टे हंसं गृध्राणं नृषद्रिगिंरामिमः ॥१४॥

‘‘प्रकृति थी पर, कर्मोनां फळ आपनार, बुद्धिने गति आपनार, मनथी ज जगतने सर्जनार अने सर्जेला जगत्‌मां अन्तर्यामी रूपथी प्रवेश करी तृष्णावाळा जीवने चैतन्य शक्तिथी पाळनार, जे सूर्यदेवना आत्मारूप भगवान्‌ छे *तेमनुं अमे शरणुं लईए छीए’’ ॥१४॥

विशेष - आ श्लोकनो अर्थ गायत्री मन्त्रना अर्थने मळतो छे. केटलाक विद्वानो आने मध्यनुं मङ्गलाचरण पण माने छे. इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजो योगवडे स्वरूपस्थिति प्रकरणमां भरतचरितमां ‘‘प्रजा पालनादि धर्मनिरूपण’’ नामनो पहेलो) ‘‘भरतजीए करेलुं भगवाननुं भजन’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो.(श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

अध्याय ८

मृगना बच्चानी रक्षा करतां भरतजीनुं मृग जातिमां अवतरवुं

विशेष - आ आठमा अध्यायमां भरतराजा भगवाननी भक्ति करतां वचमां प्रारब्ध योगरूपी विघ्नथी मृगनी रक्षा करवाना काममां लागी गया अने तेथी एमने मृगनो अवतार आव्यो ए कथा कहेवाशे. एकदा तु महानद्यां कृताभिषेकनैयमिकावश्यको ब्रह्माक्षरम्‌ अभिगृणानो मुहूर्तत्रयम्‌ उदकान्त उपविवेश ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोल्या - एक वार शौचादिथी परवारी, स्नान कर्या बाद नित्यअध्याय-८,

ईं उं ईं उं

३६ पञ्चमस्कन्ध नैमित्तिक तथा अन्य आवश्यक कृत्योथी निवृत्त थई भरतजी ॐकारनो जप करता छ घडी सुधी नदीना काण्ठे बेठा रह्या ॥१॥

ए ज समये हे राजा! एक मृगली तरसथी व्याकुल थई नदीनी पासे एकली ज आवी ॥२॥

ए मृगली घणी आतुरताथी पाणी पीती ज हती तेटलामां नजदीकना एक सिंहे लोकोने त्रास उपजावे एवी गर्जना करी ॥३॥

हरणनी जात स्वभावथी ज डरपोक होय छे. पहेलेथी ज सजाग थई आम तेम जोती जती हती. हवे जेवी एना काने ते भयानक गर्जना सम्भळाई के तरत ज डरथी एनुं काळजुं कम्पवा लाग्युं अने आङ्खो चकर-वकर थवा लागी. तरस हजु छिपाई नहोती पण आ तो प्राणसङ्कट हतुं. तेथी तेणे भयवशात्‌ सडडड करीने छलाङ्ग मारी ॥४॥

ए मृगली गर्भिणी हती तेथी ठेकती वेळाए बीकने लीधे एनो गर्भ चलायमान थयो अने योनिद्वारमान्थी नीकळी पडी प्रवाहमां पडी गयो ॥५॥

गर्भपात थवो, ठेकवुं अने बीकना संयोगथी पीडा पामवी-एवी स्थितिमां पोताना टोळाथी छूटी पडेली ए मृगली कोई पर्वतनी गुफामां जई पडी अने त्यां ज मरी गई ॥६॥

ए मृगलीनुं बच्चुं पाणीमां तणातुं हतुं तेने जोईने मा-बापे रझळता मूकेला छोकराने कोई एनो बन्धु उपाडी ले तेम राजर्षि भरते पण ए अनाथ बच्चानी माने मरेली जाणी दयाने लीधे ए बच्चाने उपाडी लीधुं अने पोताना आश्रममां लाव्या ॥७॥

ए बच्चुं पोतानुं ज छे एवुं दृढ अभिमान बन्धाई जवाने लीधे ए ओ रोज रोज घास वगेरे खवरावी एने उछेरवा लाग्या अने वाघ वगेरे जानवरोथी रक्षा करवा लाग्या एटलुं ज नहि पण पुचकारी वगेरेथी लाड लडाववा तथा खञ्जवाळवा वगेरेथी राजी करवा लाग्या. आम करवाथी एमने एमां आसक्ति बन्धाई गई. एमना स्नान भगवद्‌सेवा अने अहिंसा वगेरे यमनियमो रोज-रोज एक पछी एक छूटी गया ॥८-९॥

भरतजीना मनमां एवो विचार रहेवा लाग्यो ‘‘अहो! आ बापडुं मृगशाव (बच्चुं) काळ बळे पोताना टोळाअने सगां सम्बन्धीओथी जुदुं पडी गयुं छे. अने [[३७]] हवे ए मारा आश्रये रहे छे; मने ज ते पोतानां मा-बाप, भाई, सम्बन्धी अने यूथनो साथीदार माने छे अने बीजा कोईने ओळखतुं नथी; मारा उपर एनो विश्वास पण बहु छे; एटला माटे आने लीधे मारा स्वार्थने हानि पहोञ्चे छे एवी कृदृष्टि मारे राखवी जोईए नहि. मारे आश्रये आवेलनुं पालन पोषण करवुं, लाड लडाववुं अने राजी करवुं जोईए केमके शरणागतनो अनादर करवाना दोषने हुं जाणुं छुं. शान्त स्वभाववाळा अने दीनदयाळु महात्मा पुरुषो जो आवी बाबतमां पोताना मोटा-मोटा स्वार्थ जता रहेता होय तो पण एनी परवा करता होता नथी’’ ॥१०॥

आवी रीते आसक्ति दृढ थई जवाथी भरत राजा बेसतां, सूतां, फरतां, ऊभा रहेतां अने खातां-पीतां पण एनुं चित्त एना स्नेह पाशमां बन्धायेलुं रहेतुं हतुं ॥११॥

दर्भ, फूल, समिध, पत्र, फळ अने पाणी लाववा जवुं होय त्यारे, रखेने पछवाडेथी कोई वाघ, वरु के कूतरां एनेफाडी खाय एवी धास्तीथी ए बच्चाने साथे लईने ज वनमां जता ॥१२॥

वनमां जता ए बच्चुं अणसमजणुं होवाथी मार्गमां कोमळ घास इत्यादि जोईने अटकी जतुं त्यारे स्नेहथी एमनुं हृदय भराई दयावश ए एने पोताना खभा उपर ऊञ्चकी लेता ॥१३॥

ए प्रमाणे कयारेक गोदमां लईने तो कयारेक छाती साथे लगाडतां एमने अत्यन्त अनान्द थतो ॥१४॥

नित्य-नैमित्तिक कर्मो पर राज-राजेश्वर भरत वच्चे-वच्चे ऊठीने ते मृगबाळने जोता अने ज्यारे एना उपर एनी दृष्टि पडती त्यारे ज एनां चित्तने शान्ति वळती. ए वखते एने माटे मङ्गलकामना करतां कहेता ‘‘हे बेटा! तारुं सर्वत्र कल्याण थजो’’ ॥१५॥

कयारेक ए बच्चुं आघुं-पाछुं थई गयुं होय त्यारे जेम नाणुं जतुं रहेवाथी कञ्जूस माणसने उद्वेग थाय तेवो भरतजीना मनमां उद्वेग थतो. विरहथी व्याकूळ हृदयमां तपी जईने करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित अने मोहाविष्ट थई जता अने शोकमां डूबी जई आ प्रमाणे बोलता - ‘‘अहो! शुं कहेवुं? शुं ए मातृहीन, दीन हरणबाळ दुष्ट पारधी जेवी बुद्धिवाळा मारा पुण्यहीन अनार्यनो विश्वास करी अध्याय-८,३८ पञ्चमस्कन्ध अने मने पोतानो मानी में करेला अपराध सज्जननी जेम भूली जई फरी पाछुं आवशे खरुं? ॥१६॥

शुं हुं फरी एने आ आश्रमना उपवनमां भगवाननी कृपाथी सुरक्षित रही निर्विध्ने लीलुं-लीलुं घास चरतुं जोईश? ॥१७॥

एवुं न हो के कोई वरु, कूतरुं, जूथमां रहेनारा सूकरादि अथवा एकला फरवावाळा व्याघ्र, सिंह एने खाई जाय ॥१८॥

अरेरे! ऊगीने सर्व जगतनुं कल्याण करनार वेदत्रयीरूप आ सूर्यनारायण आथमवा आव्या छतां हजु सुधी मृगलीनी थापणरूप बाळक मारी पासे आवतुं नथी ॥१९॥

ए हरिण राजकुमार अनेक प्रकारना सुन्दर अने दर्शनीय पोताना मृगबालोचित स्नेहीओना खेदने मटाडनार, मारा जेवा अभागी पासे आवी सुख देशे? ॥२०॥

अहो ज्यारे पण हुं प्रयणकोपथी गम्मतमां समाधिने बहाने आङ्ख र्मीची जवानो ढोङ्ग करी बेसी जतो त्यारे ते चक्ति चित्तथी मारी पासे आवी जल बिन्दुना जेवी कोमल अने नानकडी शिङ्गडीओनी अणीओथी मारां अङ्गोने केवी रीते खजवाळतुं हतुं? ॥२१॥

कयारेक हुं दर्भो उपर हवन करवानी सामग्री राखी देतो अने एने ए दान्तोथी खेञ्चीने आडुं अवळुं करी नाखतो त्यारे हुं एने धमकावतो त्यारे ते अत्यन्त भयभीत थई जईने तत्काल कूदाकूद छोडी देतो अने ऋषिकुमारनी माफक बधी इन्द्रियोने रोकी दईने चुपचाप स्थिर थईने बेसी जतो ॥२२॥

(पछी जमीन उपर ते मृग शावक-हरण बाळनी खरीनां चिह्न जोई कहेता) अहो! आ तपस्विनी धरतीए एवुं ते कयुं तप कर्युं छे के जेथी ए अत्यन्त नम्र कृष्णसार किशोरनां नानां-नानां सुन्दर, सुखद, सुकोमल खरीवाळां चरणोनां चिह्नोथी मने, जे हुं पोतानुं मृगधन लूण्टाई जवाथी अत्यन्त व्याकुल अने दीन थई रह्यो छुं ते द्रव्यनी प्राप्तिनो मार्ग बतावी रही छे अने पोते पोताना शरीरने पण सर्वत्र ए पदोचिह्‌नोथी१ विभूषित करी स्वर्ग अने मोक्ष ना इच्छुक द्विजोने (ब्राह्मण, क्षत्रीय अने वैश्य.) माटे यज्ञ स्थल बनावी रही छे. (शास्त्रोमां उल्लेख आवे छे के जे भूमि उपर कृष्ण मृग होय ते अत्यन्त पवित्र अने यज्ञ अनुष्ठानमाटे योग्य होय छे) ॥२३॥

विशेष - १. उपर प्रमाणे प्रलाप करी, ऊठीने बहार आव्या त्यां धरती उपर ए बच्चानां पगलां ऊठी रहेलां जोई गभराईने बोले छे. [[३९]] (वळी चन्द्रमामां हरणना आकारनुं श्याम चिह्‌न जोई एने पोतानुञ्ज हरण मानी कहेता) आ दीन वत्सल भगवान्‌ नक्षत्रनाथ रखेने मारा आश्रमथी भूला पडेला मारा दीकरा उपर दया लावी एने पोताना खोळामां लईने सिंहना भयथी रक्षा करता नहि होय! ॥२४॥

(वळी एना शीतल किरणोथी आनन्द पामी कहेता) अथवा मारुं हृदयरूप स्थळ कमळ* पुत्रोना वियोगना सन्तापरूप दावाग्निनी विषम ज्वालाथी हृदय कमल बळी गयेलुं होवाथी में एक मृग बालकनो सहारो लीधो हतो. हवे एना चाल्या जवाथी मारुं हृदय फरी बळी रह्युं छे. तेथी ते पोताना शीतळ, शान्त अने स्नेहसभर अने वदनवारिरूपी अमृतमय किरणोथी मने शान्त करी रह्या छे!’’ ॥२५॥

विशेष - जळनुं कमळ तो जळना आश्रयथी ताप खमी शके पण स्थळनुं कमळ तो खमी शके नहि तेथी हृदयने स्थळ कमळनुं रूप आप्युं छे. राजन्‌! आ प्रमाणे जेनुं सफल थवुं सर्वथा अशक््य हतुं एवा विविध मनोरथोथी भरतनुं चित्त चकडोळे चडी गयुं. पोताना मृग जायाना रूपमां प्रतीत थता प्रारब्ध कर्मने लीधे तपस्वी भरतजी भगवद्‌ पूजन अने योगानु-ष्ठानथी चलित थई गया. नहितर जेमणे मोक्ष मार्गमां साक्षात्‌ विघ्नरूप समजी पोतानाथी ज उत्पन्न, दुस्त्यज पुत्र वगेरेने छोडी दीधा हता एमनी ज अन्य जातीय हरिणबाळमां आवी आसक्ति केवी रीते होई शके? आ प्रमाणे राजर्षि भरत विघ्नोने वश थई योग साधनथी भ्रष्ट थई गया अने आ मृगबाळना पालन पोषण अने लाड प्यारमां ज खूञ्ची जई आत्मस्वरूपने भूली गया. आ ज वखते जे टाळ्यो टाळी शकातो नथी ते प्रबल वेगशाळी कराल काळ, उन्दरना दरमां जेम सर्प घूसी जाय तेम तेने माथे चढी बेठो ॥२६॥

मरण समये पण ए मृगनुं बच्चुं एमना पडखामां बेठुं हतुं अने दीकरानी पेठे शोकातुर थई रह्युं हतुं. एने जोतां- जोतां राजानुं मन एमां ज रह्युं एथी शरीरनो मृगनो सम्बन्ध छूटी गयो हतो छतां सामान्य माणसनी पेठे एमने मृगनो सम्बन्ध मळ्यो पण ए अवतारमां एमने पूर्व जन्मनुं स्मरण कायम रह्युं हतुं॥२७॥

पूर्व जन्ममां एमणे भगवाननी जे आराधना करेली तेना प्रभावथी पोतानो मृगनो अवतार आववानुं कारण सम्भारीने ए घणा ज पस्ताया अने मनमां आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२८॥

अध्याय-८,४० पञ्चमस्कन्ध ‘‘अहो! भूण्डुं थयुं. हुं संयमशील महानुभावोना मार्गमान्थी भ्रष्ट थई गयो! धैर्यपूर्वक बधी आसक्तिनो त्याग करी एकान्तमां ए पवित्र वनमां रह्यो अने योगमार्गनी रीतिथी सर्व प्राणीओना आत्मा भगवान्‌ श्रीवासुदेवनुं भजन करतो हतो. भगवाननां श्रवण, मनन, कीर्तन, आराधन अने स्मरणमां लागी रहेवाथी मारी कोई पळ व्यर्थ जती नहोती. मारुं मन एकाग्र बनीने भगवान्‌मां ज लागी रह्युं हतुं. पण ए सघळुं मारी मूर्खाईथी मृगना बच्चानी पछवाडे लक्ष्य चूकी गयुं’’ ॥२९॥

आ प्रमाणे मृग बनेला राजर्षि भरतना हृदयमां जे वैराग्य भावना जाग्रत्‌ थई तेने गुप्त राखी एमणे पोतानी माता हरिणीनो त्याग करी दीधो अने पोतानी जन्मभूमि कालञ्जर पर्वतथी तेओ फरी शान्त स्वभाववाळा मुनिओने प्रिय ते ज शालिग्रामतीर्थमां, जे भगवाननुं क्षेत्र छे, पुलस्त्य अने पुलहऋषिना आश्रममां चाल्या गया ॥३०॥

तस्मिन्नपि कालं प्रतीक्षमाणः सङ्गाच्च भृशम्‌ उद्विग्न … मृगशरीरं तीर्थोदकक्लिन्नम्‌ उत्ससर्ज ॥३१॥

आ क्षेत्रमां रहीने पण ए काळनी वाट जोया करता हता. रखेने कोईमां पण आसक्ति थई जाय ए बीकथी ए एकला ज फरता हता; सूकां पान, घास तथा लतानो आहार करी रहेता हता. ए प्रमाणे केटलाक दिवस सुधी रह्या पछी एमणे गण्डकी नदीना प्रवाहनी वचमां ऊभा रही मृगना शरीरनो त्याग करी दीधो ॥३१॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा योगवडे स्वरूप स्थिति प्रकरणमां भरत चरितमां मननी चञ्चलता निरूपण नामनो बीजो) ‘‘मृगना बच्चानी रक्षा करतां भरतजीनुं मृग जातिमां अवतरवुं’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी (भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं.(श्रीहरिरायजी) [[४१]]

अध्याय ९

भरतजीनो ब्राह्मणने त्यां जडरूपे जन्म

विशेषः आ नवमा अध्यायमां भरत जड ब्राह्मण थया; अने ए अवतारमां राग द्वेषादिक नहि रहेवाथी एमने भद्रकाळी आगळ मारवा लई जतां पण कोई जातनो विकार उत्पन्न थयो नहि ए कथा कहेवाशे. अथ कस्यचिद्‌ द्विजवरस्य ….यवीयस्यां भार्यायाम्‌ ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हवे शम१ , दम,२ तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि वगेरेने अन्न देवुं), सन्तोष, सहनशीलपणुं, नम्रता, कर्म करवानी विद्या, अनसूया (बीजा ना गुणोमां दोष न जोवो), देहादिकथी आत्मा भिन्न छे एवुं ज्ञान अने आनन्द (स्वधर्म पालनथी थतुं सुख) एवी धर्मसम्पत्ति सम्पन्न अगिंराना कुळमां एक ब्राह्मण हतो तेनी मोटी स्त्रीथी एना जेवा ज शास्त्राभ्यास, शील, आचार, रूप अने उदारता आदि गुणोवाळा नव पुत्रो थया अने एनी नानी स्त्रीथी पुत्र-पुत्रीनुं एक जोडकुं आव्युम् ॥१॥

विशेष - १. मननो निग्रह. २. ईन्द्रियोनो निग्रह. ए जोडकामां जे पुत्र हतो ते परम भागवत राजर्षि शिरोमणि भरत ज हता. (भागवत=भगवद्‌ भकत) ॥२॥

बीजा जन्ममां मृग थया अने त्रीजा अने छेल्ला जन्ममां मृगनुं शरीर छोडी ब्राह्मणने त्यां जन्म्या एम महापुरुषोनुं कहेवुं छे. आ जन्ममां पण भगवाननी कृपाथी पोताना पूर्व जन्मोनी परम्परानुं स्मरण होवाथी तेओ एवी आशङ्काथी के रखेने फरी कोई विघ्न न आवी पडे, पोताना स्वजनोना सङ्गथी बहु डरता हता, हर समय जेनुं श्रवण, स्मरण अने गुणकीर्तन कर्म बन्धनने मटाडनार छे एवा भगवानना चरणारविन्दनुं ध्यान करता हता अने भगवानना अनुग्रहथी रखेने पोताने कोईना सङ्गनुं बन्धन थाय एवी शङ्काथी लोकोने पोते जाणे उन्मत्त, जड, आन्धळा अने बहेरा होय एवुं देखाडता हता ॥३॥

आ पुत्र जड होवाथी एने गृहस्थाश्रमनो अधिकार नथी आम छतां समावर्तन१ पर्यन्त विवाह पहेलान्ना सघळा संस्कारो शास्त्रविधि प्रमाणे करवा जोईए

विशेष - १. गुरुने घेर विद्याभ्यास करीने आववुं. अध्याय-९,४२ पञ्चमस्कन्ध एवा विचारथी पुत्रना स्नेहबन्धनने लीधे एने जनोई देवामां आवी हती पण शौचादि कर्मना नियम ए जड भरतने गमता नहोता, छतां बापे दीकराने शीखववुं जोईए एवा आग्रहथी ए एने शीखववा लाग्यो ॥४॥

बापे केमे करीने एने शीखववानो आग्रह छोडी दे ए हेतुथी जडभरत पोताना बापना देखतां ज आचार वगेरेमां गडबडगोटा वाळवा लाग्यो. वेद भणाववाना आरम्भमां ज जडभरतने एना बापे व्याहृति (भूः भुवः स्वः ए त्रण व्याहृतिओ कहेवाय छे.) ओङ्कार अने शिर (प्राणायाम करतां गायत्री मन्त्र पछी जे मन्त्र बोलाय छे तेने गायत्रीनुं शिर कहे छे.) सहित गायत्री भणाववां माण्ड्यां ते भणावतां-भणावतां उनाळां अने वसन्तना चार महिना चैत्र, वैशाख, जेठ अने आषाढ; वीती गया तो पण ए एने बराबर भणावी शकयो नहि ॥५॥

एवुं होवा छतां पिताने तो जडभरत उपर घणो स्नेह हतो. तेथी एनी ए दिशामां प्रवृत्ति न होवा छतां, ‘‘पुत्रने सारी केळवणी आपवी जोईए’’ एवा अनुचित आग्रहथी एने शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु अने अग्निनी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमना आवश्यक नियमोनुं शिक्षण देता ज रह्या. पण हजु पुत्रने सुशिक्षित जोवानो एनो मनोरथ पूरो थई शकयो नहोतो अने पोते पण भगवद्‌ भजनरूपी पोताना पायाना मुख्य कर्तव्य प्रत्ये असावधान रही केवल घरना धन्धानी हायहोयमां व्यस्त हता के सदाय सजाग रहेनारा काळ भगवान्‌ एने हडप करी गया ॥६॥

त्यारे ए ब्राह्मणनी नानी स्त्रीए पोताना बन्ने बाळकोनी भलामण शोक्यने करी अने पोते सती थई पतिना लोकने पामी ॥७॥

पिता मरी गया पछी जडभरतना भाईओ, जेओ जडभरतना प्रभावने जाणता नहोता अने ब्रह्मविद्यामां नहि पण कर्म विद्यामां ज पोतानो पुरुषार्थ समजता हता तेमणे भरतने केवळ मूर्ख जाणी शीखववानो आग्रह छोडी दीधो॥८॥

ज्यारे साधारण नरपशु भरतने ‘‘हे पागल, हे मूर्ख, हे बहेरा’’ एवा नामोथी बोलावता त्यारे भरत पण एमनी पासे पोतानुं काम करावे तो बीजानी इच्छाथी ज करता. वेठना रूपमां, मजुरीना रूपमां, मागवाथी अथवा वगर माग्ये ज कंई एमने थोडुं घणुं, सारुं नरसुं अन्न मळतुं ते केवळ प्राणना निभाव अर्थे खाता, इन्द्रियोने राजी करवा कांई खाता नहि. बीजी कोई पण रीते उत्पन्न न थई शकतुं [[४३]] स्वतः सिद्ध केवल ज्ञान-आनन्दरूप आत्मज्ञाननी एमने प्राप्ति थई हती तेथी एमने मान मळे के अपमान, सुख मळे के दुःख एनाथी एमने कशी पण देहाभिमाननी स्फूर्ति थती नहि ॥९॥

टाढ, तडको, वायु के वरसादमां साण्ढनी पेठे खुल्ला शरीरे पड्या रहेता. एमनी अङ्ग पुष्ट अने मजबूत हतां. धरती उपर सूवाथी स्नानादि नहि करवाथी, साफ नहि करेला अमूल्य मणिनी पेठे एमनुं ब्रह्मतेज स्पष्ट जणातुं नहोतुं. तेओ केड उपर एक गन्दु गोबरुं कपडुं लपेटी राखता. घणी मेली जनोई उपरथी अज्ञानी लोको एमने ब्रह्मबन्धु (ब्राह्मणोमां अधम) कही एमनो तिरस्कार करी बेसता, परन्तु तेनी आ टीकानी परवा कर्या विना मस्त रहीने फर्या करता ॥१०॥

बीजानी मजूरी करी पेट भरता भरतजीने एना भाईओए जोया त्यारे तेमणे तेमने खेतरमां कयारानुं ध्यान राखवानुं काम सोप्युं. भरतजी ए कार्य पण करवा लाग्या. परन्तु एमने ए वातनो ख्याल न रहेतो के कयारानी भूमि सरखी छे के ऊञ्ची-नीची, अथवा कयारो नानो छे के मोटो. एना भाईओ एने चोखानी कणकी, खोळ, फोतरा, सळी गयेला (सडीगयेला नहि) अडद अथवा वासणमां चोण्टी रहेली दाझ जे कंई आपता एने ज अमृत मानी खाई लेता हता ॥११॥

एवामां एक दिवसे चोर लोकोना एक सरदारे पोताने सन्तान थवानी इच्छाथी भद्रकाळी माताने माणसनुं बलिदान देवानो सङ्कल्प कर्यो ॥१२॥

ए माटे एक माणस पकडायेलो पण ए दैव गतिथी बन्धनमान्थी छूटीने भागी गयो हतो तेने शोधी लाववा सरदारे माणसो चारे तरफ दोडाव्या हता. मधरातनो समय हतो. रात भारे अन्धारी हती, आवे समये पेला माणसोने भागी गयेला माणसनो पत्तो लाग्यो नहि. दैव-इच्छाथी हरण अने सूवर वगेरेथी खेतरनी खडी चोकी करता आङ्गीरस गोत्रना ब्राह्मणकुमार वीरासनथी बेठेला एमनी नजरे पड्या ॥१३॥

एना शरीरनां लक्षण निर्दोष जाणी एनाथी पोताना धणीनुं काम अवश्य थशे एम मानी दोरडान्थी बान्धीने राजी थता-थता एमने चण्डिकाना मन्दिरमां लाव्या ॥१४॥

पछी ए चोर लोकोए पोतानी रीत प्रमाणे ए जडभरतजीने नवराव्या, नवुं वस्त्र पहेराव्युं. घरेणां, चन्दन, माळा अने तिलक वगेरेथी शणगार्या, जमाड्या अने अध्याय-९,४४ पञ्चमस्कन्ध गायन, स्तुति तथा मृदङ्ग अने ढोलना मोटा अवाज करतां पुरुष पशुने भद्रकाळीने सामे बेसाड्या ॥१५॥

धूप, दीप, माला, धाणी, पत्ता, अङ्कुर, कुम्पळियां, जवारां, फळ वगेरे नैवेद्य सहित बलिदाननी विधि थई गई एटले सरदारना गोरे ए पुरुष-पशुना लोही रूप आसवथी भद्रकाळीने तृप्त करवा सारु देवीना मन्त्रथी मन्त्रेली अने महाविकराळ धारदार तलवार उपाडी ॥१६॥

चोर स्वभावथी तो रजोगुणी-तमोगुणी हता ज. धनना मदथी एमनुं चित्त

विशेष उन्मत्त थई गयुं हतुं, हिंसामां पण एमनी स्वाभाविक रुचि हती. आ वखते तो तेओ भगवानना अंशस्वरूप ब्राह्मण कुलनो तिरस्कार करी स्वच्छन्दताथी कुमार्ग उपर जई रह्या हता. आपत्ति कालमां पण जे हिंसानी रजा आपवामां आवी छे एमां पण ब्राह्मण वधनो सर्वथा निषेध छे तो पण तेओ साक्षात्‌ ब्रह्मभावने प्राप्त, वैररहित अने समस्त प्राणीओना मित्र एक ब्रह्मर्षिकुमारनुं बलिदान देवा मागता हता, आ भयङ्कर कुकृत्य जोई जडभरतना असह्य ब्रह्मतेजथी भद्रकाळी देवीनुं शरीर बळवा लागतां पोतानी मूर्ति फाडीने ए तरत ज एमान्थी प्रकट थयाम् ॥१७॥

क्रोधवश माताजी ए लोकोनो अपराध सही शकयां नहि. झाडनी डाळो जेवी एमनी भ्रमरो छेक कपाळमां चढी गई, कराल दाढो अने लालचोळ चडी गयेली आङ्खोथी एमनुं मोढुं एवुं भयङ्कर लागतुं हतुं के जाणे पोते आखा जगत्‌नो प्रलय करी नाखशे, क्रोधथी खडखडाट हसवा लाग्या. एमणे गोरना हाथमान्थी तलवार झूण्टवी लीधी अने ए ज तलवारथी ए चोर लोकोनां माथां कापी नाख्यां अने एमनां गळाम्मान्थी नीकळतुं अत्यन्त ऊना लोही रूप शरबत एमणे पोताना पार्षदोनी साथे पीधुं. पीधा पछी अत्यन्त पानना मदथी विह्वळ थईने एमणे पार्षदोनी साथे बहु ऊञ्चा स्वरथी गान अने नृत्य कर्यां. माथांरूप दडाओथी रमत करवा लाग्यां ॥१८॥

ए वात तद्‌दन साची ज छे के महापुरुषोनो करेलो अत्याचार रूप अपराध आ ज प्रमाणे जेमनी तेम अपराध करनार उपर ज पडे छे ॥१९॥

न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्‌भुतं यदसम्भ्रमः…भयम्‌ उपसृतानां भागवतपरमहंसानाम्‌ ॥२०॥

[[४५]] परीक्षित! जेमनी देहाभिमानरूप सुदृढ हृदयग्रन्थि छूटी गई छे, जे समस्त प्राणीओना मित्र, आत्मारूप तथा वैररहित छे, साक्षात्‌ भगवान्‌ ज भद्रकाली वगेरे जुदां-जुदां रूप धारण करी पोतानी कदी न चूकनार कालचक्र रूप श्रेष्ठ शस्त्रथी जेमनी रक्षा करता रहे छे अने जेमणे भगवानना निर्भय चरणकमलोनो आश्रय लई लीधो छे; ए भगवद्‌ भकत परमहंसोने माटे पोतानुं मस्तक कपावानो प्रसङ्ग आवे तो पण व्याकुल न थवुं-ए कोई मोटा आश्चर्यनी वात नथी ॥२०॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा योगवडे स्वरूपस्थिति प्रकरणमां भरत चरितमां ‘‘हरि भक्ति बधा जातना भयथी छोडावे छे’’ नामनो त्रीजो) ‘‘भरतजीनो ब्राह्मणने त्यां जडरूपे जन्म’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ से’ज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)

अध्याय १०

रहूगण अने जडभरत नो मेळाप

विशेष - भद्रकाळीना मन्दिरमां जडभरते जे निर्विकारपणुं देखाड्युं ते तो अज्ञान माणसमां पण होई शके; माटे भरतनी सर्वज्ञता बताववा सारु रहूगणनी कथा आ दशमा अध्यायमां कहेवाई छे. अथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य व्रजत इक्षुमत्याः तटे तत्कुलपतिना … सह गृहीतः प्रसभमतदर्ह उवाह शिबिकां स महानुभावः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी कह्युं - राजन्‌! एकवार सिन्धु अने सौवीर देशनो स्वामी रहूगण राजा कपिल मुनिना आश्रममां जतो हतो. वचमां इक्षुमती नदीने काण्ठे राजानी पालखी उपाडनारा भोई लोकोनो जमादार बीजा भोईने वेठे पकडी लेवानी तजवीज अध्याय-१०,

ईं उं ईं उं

४६ पञ्चमस्कन्ध करतो हतो तेटलामां एना हाथमां ए ब्राह्मणदेवता (जड भरत) आवी गया. ए हृष्ट-पुष्ट, जुवान अने तगडा होवाथी बळद के गधेडा नी पेठे भार उपाडवामां समर्थ छे एम धारीने बीजा वेठियाओनी साथे एमने पण जमादारे बलात्कारथी पकडी लीधा. जो के ए काम करवाने ए योग्य नहोता तो पण पोते महाज्ञानी होवाथी एमणे बीजा कहारो (भोईओ) नी साथे पालखी उपाडी ॥१॥

मार्गमां कोई जीव पगथी चगदाई जाय नर्ही एटला माटे जडभरत एक बाण जेटली जग्या जोई-जोईने चालता. आम थतां बीजा भोई लोकोनी चाल साथे एनी चालनो मेळ नर्ही खावाथी पालखी खाङ्गी थई जती. ए जोईने रहूगण राजाए कहारोने कह्युं ः‘‘अरे भोईओ बराबर चालो, पालखी ऊञ्ची-नीची केम थई जाय छे?’’ ॥२॥

आवुं राजानुं ठपका भरेलुं वचन साम्भळी दण्डनी बीकथी भोई लोकोए विज्ञप्ति करी के, ‘‘हे राजा! अमे गाफेल नथी; अमे तो तमारी आज्ञा प्रमाणे बराबर रीते चालीए छीए, परन्तु आ माणस, जेने हजु हमणां ज पकडी मङ्गाववामां आव्यो छे तो पण ए जलदी चालतो नथी. आनी साथे अमो पालखी लई जई शकीशु नर्ही’’ ॥३-४॥

आवुं ए राङ्क लोकोनुं वचन साम्भळी राजाए निश्चय कर्यो के ‘‘खरी वात छे. संसर्गनो दोष एक व्यक्तिमां होय तोय सघळा सोबतीओने लागे छे. तेथी तेना प्रतीकार करवामां नहि आवे तो ए एनी साथे सम्बन्ध राखनारा बधामां आवी शके छे. तेथी एनो प्रतीकार न थाय तो धीरे-धीरे आ बधा कहारो पोतानी चाल बगाडी नाखशे’’ एम विचारी राजा रहूगणनी आङ्ख कंईक लाल थई. जो के ए रहूगुण राजाए महापुरुषोनी सेवा करी हती तो पण क्षत्रिय स्वभाव वश रजोगुणी अने राजकीय बलात्कारथी एनी बुद्धि रजोगुणथी व्याप्त थई गई अने भारेला अग्निनी पेठे जेनुं ते ज स्पष्ट देखातुं नहोतुं तेवा द्विजश्रेष्ठ (जडभरत) ने मश्करीमां आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो ॥५॥

अरे भाई! घणा दुःखनी वात छे, अवश्य तुं बहु थाकी गयो छे. लागे छे के आ तारा साथीओए तने जराय टेको कर्यो नथी. आटले दूरथी तें एकलाए ज घणा समयथी पालखी उञ्चकता चालतो रह्यो छे. तारुं शरीर पण खास हृष्ट-पुष्ट अने मजबूत नथी अने मित्र तारी अवस्थाए पण तने भाङ्गी नाख्यो छे, आ प्रमाणे [[४७]] घणां महेणां टोणां मारवा छतां ते पहेलान्नी माफक ज चुपचाप पालखी उठावी चालता रह्या! कंई पण खोटुं लगाड्युं नहि; कारण के एनी दृष्टिमां तो पञ्चभूत, इन्द्रिय अने अन्तःकरणना सङ्घात ए पोताना अन्तिम शरीर अविद्यानुं ज कार्य हतुं. ते जुदां-जुदां अङ्गोवाळुं देखातुं होवा छतां पण हकीकतमां हतुं ज नहि तेथी एमां एना हुन्द्गमारा पणनो खोटो अध्यास नहोतो अने ते ब्रह्मरूप थई गया हता ॥६॥

वळी पाछी पोतानी पालखी हालम-डोलम थतां रहूगण राजा तडूकीने कहेवा लाग्या, ‘‘अरे, आ शुं? तुं जीवतो मरेलो छे? मने नहि गणकारतां तुं मारा हुकमनुं अपमान करे छे. जेम दण्डपाणि यमराजा प्राणीओने शिक्षा करे छे तेम हुं पण तने तारी गफलतमाटे शिक्षा करीश त्यारे तारी सान ठेकाणे आवशे’’ ॥७॥

रहूगणने राजा होवानो घमण्ड हतो तेथी तेणे आवी घणी फावे तेम वातो करी नाखी. ते पोतानी जातने पडिन्त मानता हता तेथी रज-तम-युक्त अभिमानने लीधे ए भगवानना अनन्य प्रीतिपात्र भक्तशिरोमणि भरतजीनो तिरस्कार करी बेठा. योगेश्वरोनी विचित्र रहेणी-कहेणीनो तो एने कंई पत्तो ज नहोतो. एनी एवी काची बुद्धि जोई ए प्राणीमात्रना प्रेमी अने आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मण देवता मुस्काया अने निराभिमान रहीने कहेवा लाग्या ॥८॥

ब्राह्मणे कह्युं - ‘‘हे राजन्‌! तमे जे कह्युं छे ते प्रमाणे ज छे. एमां तमे कंई मारी मश्करी करी नथी. जो भार नामनो कोई पदार्थ होय तो-तो ए मारी मश्करी कहेवाय. पण, भार शुं छे अने देह शुं छे एनुं निरूपण थई शक्तुं नथी. ए भार के देह नी साथे मारे कांई लागतुं वळगतुं नथी. तेम ज जो कोई चालीने पहोञ्चवानुं स्थळ अथवा चालवानो मार्ग होय अने एनी साथे मारे कशो सम्बन्ध होय तो ए मारी मश्करी करी एम समजुं. परन्तु एमान्नुं कशुं ज नथी. तेथी तमे खरुं ज कह्युं छे एम समजुं छुं. आत्माने पुष्ट तो मूर्ख लोको ज कहे छे ॥९॥

जाडापणुं, दूबळापणुं, आधि, व्याधि, क्षुधा, तृषा, भय, कजियो, इच्छा, जरा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अहङ्कारथी थतो मद तथा शोक वगेरे देहाभिमानी साथे जन्मेल होय ते जीवने होय छे पण हुं जे देहाभिमाननी साथे जन्मेल नथी तेने एमान्नुं कंई ज नथी ॥१०॥

हे राजा! हुं एकलो जीवन्मृत नथी, आखुं जगत जीवतुं ज मरेलुं छे. धणीपणुं अध्याय-१०,४८ पञ्चमस्कन्ध अने नोकरपणुं जो अविचळ होय तो तारे आज्ञा करवी अने मारे काम करवुं ए घटे; परन्तु ए अविचळ नथी. जो तुं राज्यथी भ्रष्ट थाय अने मने राज्य मळे तो हुं आज्ञा करुं अने तारे काम करवुं पडे ॥११॥

आ राजा छे अने आ प्रजा छे एवी भेदबुद्धि व्यवहार सिवाय बीजे क्यांय लगार पण जोवामां आवती नथी. जो व्यवहार दृष्टि छोडी परमार्थ दृष्टिथी विचार करवामां आवे तो कोण राजा? अने कोण प्रजा? एवुं कांई छे तो नहि ज. तो पण जो तने राजापणानुं अभिमान होय ज तो हे राजा! हुं तारी शुं सेवा करुं? ॥१२॥

हुं जे उन्मत्त, घेला अने जडनी पेठे रहुं छुं अने ब्रह्मपणुं पाम्यो छुं तेने दण्डथी अथवा शिखामणथी शुं थवानुं छे? केमके जीवन मुक्तने अर्थ के अनर्थ एमानुं कांई पण नथी. कदाच हुं जीवनमुक्त न होउं पण घेलो अने अक्कड होउं तो पण दळेलाने दळवानी माफक मने दण्ड आपवो के शिखामण बधुं ज व्यर्थ छे ॥१३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - स्वभावथी ज शान्त अने देहाभिमान करावनारी अविद्याथी मुक्त थयेला जडभरत जे सुखदुःखादि भोगवी लईने प्रारब्ध कर्मनो क्षय करी रह्या हता ते रहूगणे कहेली सघळी वक्रोक्तिना उत्तर आपी मौन थई गया अने प्रथमनी पेठे पालखी उपाडी चालवा लाग्या ॥१४॥

हे परीक्षित राजा! सिन्धु अने सौवीर देशनो अधिपति रहूगण राजा उत्तम श्रद्धाने लीधे तत्त्वज्ञान मेळववानो अधिकारी हतो. देहाभिमानने तोडनारुं तथा योगना घणा ग्रन्थोथी समर्थित ए जडभरतनां वाक्य साम्भळी ए तरत ज पालखीमान्थी ऊतरी पड्यो अने राजमद छूटी जतां एमनां चरणमां माथुं मूकी ए क्षमा मागतां बोल्यो ॥१५॥

‘‘आप गुप्त पणे फरनार कोण छो? कया मुनिवर छो? केमके आपे द्विजोना चिह्‌नरूप जनोई धरी छे. गुरु दत्तात्रेय वगेरे अवधूतो पैकीना कोई अवधूत छो? अर्ही शा माटे नीकळी आव्या छो? कोना पुत्र छो? कयां जन्मेला? अमारुं कल्याण करवाने अर्ही पधार्या हो तो शुं आप साक्षात्‌ सत्त्वमूर्ति कपिलदेवजी तो नथी? ॥१६॥

हुं इन्द्रना वज्रथी नथी डरतो के नथी डरतो श्रीमहादेवजीना त्रिशूळथी के यमना दण्डथी, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु के कुबेरना अस्त्र-शस्त्रथी पण बीतो नथी, परन्तु मात्र ब्राह्मणोना कुळनुं अपमान करवाथी डरुं छुम् ॥१७॥

[[४९]] पोताना विज्ञान अने शक्ति ने छुपावी मूर्खनी माफक फरता आप कोण छो? ए कृपा करीने जणावो, विषयोथी तो आप सर्वथा अलिप्त जणाओ छो, मने आपनो थाह मळतो नथी. हे साधो! आपनां योगयुक्त वाक्योनी आलोचना करवा छतां मारी शङ्काओ मटती नथी ॥१८॥

हुं पण महा योगेश्वर अने आत्मवेत्ता मुनिओना परम गुरु अने साक्षात्‌ श्रीहरिनी ज्ञानशक्तिना अवतार रूप कपिल भगवाननी पासे आ संसारमां एकमात्र शरण लेवा जेवुं कोण छे ते पूछवा सारु जाउं छुम् ॥१९॥

मने तो एवुं लागे छे के लोकोनी दशा जोवामाटे छूपा रूपथी फरता आप कपिलदेवजी तो नहि हो! भला, घरमां आसक्त रहेवावाळो विवेक हीन पुरुष योगेश्वरोनी गतिविधि केवी रीते जाणी शके? ॥२०॥

आपे क्ह्युं के श्रम ज नथी पण ए वात मारा मनमां ठसती नथी. कोई वखत हुं युद्ध वगेरे काम करुं छुं त्यारे थाकी जाउं छुं तेम भार उपाडवानो तथा चालवा वगेरेनो थाक आपने पण लागवो ज जोईए एवुं अनुमान करुं छुं. आप व्यवहारना मार्गने खोटो कहो छो, छतां जेम मिथ्या घडाथी पाणी वगेरे लाववानुं काम थाय नहि तेम जो व्यवहार पण खोटो होय तो एथी कशुं काम थवुं जोईए नहि. पण व्यवहार (संसार) थी सघळुं काम थाय छे तो तेने खोटो शी रीते कहेवो? ॥२१॥

(आपे कह्युं के सुख-दुःख वगेरे देहना धर्म छे, आत्माना नहि. ए विशे पण मने शङ्का छे) जेम तपेलीने ताप लागतां एनी अन्दरना दूधने ताप लागे छे अने दूधने ताप लागतां चोखानी अन्दरना भागने ताप लागे छे एम उपरना भागने ताप लागवाथी अन्दरना भागने ताप लागे छे ज. आमां कांई पण खोटुं नथी. एवी ज रीते देहने दुःख थवाथी एनी अन्दरनी इन्द्रियोने दुःख थाय छे, इन्द्रियोने दुःख थतां प्राणने थाय छे, प्राणने थतां मनने थाय छे तो मनने थतां आत्माने थवुं जोईए ॥२२॥

आपे कह्युं के स्वामीपणुं अने सेवकपणुं अविचळ नथी. परन्तु जे वखते ए राजा होय ते वखते ए प्रजानुं पालन अने शासन करे एमां शुं खोटुं छे? जे राजा भगवाननो भक्त रहीने योग्य रीते पोतानो अधिकार भोगवतो होय अने अपराधी लोकोने शिक्षा करतो होय ते दळेलाने दळवा जेवुं निष्फळ केम कहेवाय? ॥२३॥

हुं तो धारुं छुं के राजा पोताना धर्म पालनरूपी भगवाननी भक्ति करवाथी पोताना पापना समूहनो नाश करे छे. एथी आपे जे कह्युं ते मने ऊलटुं लागे छे अध्याय-१०,५० पञ्चमस्कन्ध एटला माटे हे दीनबन्धु! में राजात्वना अभिमानथी आप जेवा महात्मानो तिरस्कार कर्यो. मारा उपर आप एवी कृपादृष्टि करो, जेथी महात्मानो तिरस्कार करवारूप पापमान्थी हुं मुक्त थई जाउम् ॥२४॥

न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्य साम्येन वीताभिमतेस्तवापि। महद्विमानात्‌ स्वकृताद्धि मादृन्नङ्क्ष्यत्यदूरादपि शूलपाणिः ॥२५॥

आपने देहाध्यास नथी एटलुं ज नहि पण आप विश्वबन्धु श्रीहरिना अनन्य भक्त छो. तेथी बधाम्मां समान दृष्टि होवाथी आ मान-अपमानने लीधे आपमां तो कोई विकार सम्भवतो नथी तो पण एक महापुरुषना अपराध करवाने कारणे मारा जेवो अदनो आदमी, साक्षात्‌ त्रिशूलपाणि महादेवजी समान प्रभावशाळी होय तो पण, पोताना अपराधथी जोत-जोतामां नष्ट-भ्रष्ट थई जाय ॥२५॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा योगवडे स्वरूपस्थिति प्रकरणमां भरतचरितमां प्रश्ननिरूपण नामनो चोथो) ‘‘रहूगण अने जडभरत नो मेळाप’’नामनो दसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (हवेली-मन्दिर खोलीने ठाकोरजीना दर्शन-मनोरथ-भेट-सामग्रीना माध्यमथी) पैसा कमाववा माटे सेवा करनारनो आलोक-परलोक सहित सर्वनाश थयो समजवो. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)

अध्याय ११

भरतजीए रहूगण राजाने करेलो ब्रह्मज्ञाननो उपदेश

विशेष - आ अगियारमां अध्यायमां रहूगण राजाए प्रश्न करतां जडभरते एने उत्तम ब्रह्मज्ञाननो उपदेश कर्यो. ए कथा कहेवामां आवशे. अकोविदः कोविदवादवादान्‌ वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठः ॥ न सूरयो हि व्यवहारमेनं तत्त्वावमर्शेन सहामनन्ति ॥१॥

जडभरते कह्युं - तुं अज्ञानी छतां विद्वान्‌ जेवी उपर छली तर्क-वितर्क युक्त वातो करे छे; पण तेटलाथी श्रेष्ठ ज्ञानीओमां तारी गणतरी थई शके नहि. तत्त्वज्ञानी पुरुष आ अविचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहारने तत्त्वविचारने [[५१]] समये सत्यरूपी स्वीकार करता होता नथी ॥१॥

हे राजा! जेम लोक व्यवहार सत्य नथी तेम वेदमां कहेलो कर्मव्यवहार पण सत्य नथी. घरमां रहीने करवाना यज्ञो सम्बन्धी विद्याओने वेदवचनो बहुधा लागु पडे छे तेनाथी राग द्वेषादिथी रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानी वात घणुं करीने प्रकाशती नथी ॥२॥

तत्त्वज्ञान हिंसादिक दोषथी रहित छे; कर्मकाण्डनी विद्यामां हिंसादिक दोष रहेला छे. तत्त्वज्ञानमां राग द्वेषादिक रहेता नथी, कर्मकाण्डमां रहे छे. जेम स्वप्ननुं सुख मिथ्या छे तेम गृहस्थाश्रमनुं सुख मिथ्या छे. वेदान्तना वचन जो के तत्त्वज्ञानने सारुं घणाञ्ज सारां छे तो पण ए यथार्थ तत्त्वज्ञान आपी शक्तां नथी ॥३॥

ज्यां सुधी मन सत्त्व, रज अने तमो गुणने वश रहे छे त्यां सुधी माणस निरङ्कुशपणे ज्ञानेन्द्रियथी तेम ज कर्मेन्द्रियथी शुभ-अशुभ कर्मो कर्या करे छे ॥४॥

आ मन वासनामय, विषयासक्त, गुणोथी प्रेरित, विकारी अने पाञ्च महाभूत अने अगियार इन्द्रियरूप सोळ कलाओमां मुख्य छे. ए ज जुदां-जुदां नामोथी देवता अने मनुष्यादिरूप धारण करीने शरीररूप उपाधिओना भेदथी जीवनी उत्तमता अने अधमतानुं कारण बने छे ॥५॥

आ मायामय मन संसारचक्रमां छळवावाळुं छे. ए ज पोताना देहना अभिमाननी जीवनी साथे मळी जईने तेने कालक्रमथी आवी पडेल सुखदुःख अने एनाथी अलग मोहरूप अवश्य भावी फलोनी अभिव्यक्ति करे छे ॥६॥

एवी रीते जाग्रत अने स्वप्नवत्‌ आखो संसार मननी कल्पनाथी ज ऊभो थयो छे अने मनना प्रमाणमां प्रकाश्या करे छे. आत्मा तो मनथी पेदा थयेला संसारनो द्रष्टा छे. वास्तविक रीते ए एनी साथे बीजो कशो सम्बन्ध धरावतो नथी तो पण ‘‘ए मन हुं छुं’’ एवा खोटा अध्यासथी पोताने उच्च नीच माने छे. जो के आवी रीते मन ज आत्माने देहाभिमानरूप अधमता आपे छे तो पण एमान्थी छोडावनारुं पण ए ज छे ॥७॥

जेम दीवो घीवाळी वाटने खाधा ज करे त्यां सुधी एमान्थी धुमाडावाळी शिखाओ नीकळ्या करे छे अने ज्यारे घी अने वाट सघळुं बळी जाय त्यारे ठरी जईने तेजरूप थई जाय छे तेम ज्यां सुधी मन विषयो तथा कर्मोमां लागी रहेलुं होय त्यां सुधी एमां अगियार वृत्तिओ देखाय छे; विषयो तथा कर्मोथी छूटा पडतां ते ब्रह्माकार थई जाय छे ॥८॥

अध्याय-११,५२ अध्याय-११, पञ्चमस्कन्ध हे वीर वर! मननी वृत्तिओ अगियार छे तेमां पाञ्च क्रियारूप छे अने पाञ्च ज्ञानरूप छे अने एक अभिमानरूप छे. हे राजा! पाञ्च विषय, पाञ्च कर्म अने एक शरीर ए अगियार पदार्थो उपर कहेली अगियार वृत्तिओना आधारभूत स्थान छे ॥९॥

एमां गन्ध, रूप, स्पर्श, रस अने शब्द ए पाञ्च ज्ञानेन्द्रियोना विषय समजवा; ज्ञानेन्द्रियरूप द्वारथी मननी वृत्तिओनी ए जग्याओ छे. मलत्याग, मैथुन, गति, भाषण अने लेती-देती ए पाञ्च कर्म समजवां; कर्मेन्द्रियरूप द्वारथी मननी वृत्तिओनी ए जग्याओ छे. अगियारमुं जे शरीर कह्युं ते अभिमानरूप मननी वृत्तिनुं स्थानक छे; शरीरने ए स्थानक समजवुं. केटलाक विद्वानो अहङ्कार नामे मननी एक बारमी वृत्ति पण छे एवुं कहे छे तेनुं स्थान उपर कहेलुं शरीर ज छे ॥१०॥

*जो के ए प्रमाणे मुख्यत्वे मननी वृत्तिओ अगियार गणाय छे तो पण पदार्थो, स्वभाव, संस्कार, कर्म अने काळने लीधे ते वृत्तिओ पेटा भेदोथी सेङ्कडो, हजारो अने करोडो थवा जाय छे. परन्तु एमनी सत्ता (अस्तित्व) क्षेत्रज्ञ आत्मानी सत्ताथी ज छे, स्वतः अथवा परस्पर मळीने नथी ॥११॥

विशेष - विवेकी पुरुषो शरीरने ‘मारुं’ करी जाणे छे. पण मूढ पुरुषो शरीरने ‘हुं’ करी माने छे माटे अहङ्कारने बारमी जुदी वृत्ति गणी छे. एवुं होवा छतां मननी साथे क्षेत्रज्ञ (आत्मा) नो कोई सम्बन्ध नथी. ए तो जीवनी ज माया रचित उपाधि छे ए घणुं करीने संसार बन्धनमां धकेली देनार अविशुद्ध कर्मोमां ज प्रवृत्त रहे छे. एनी उपर कहेली वृत्तिओ प्रवाहरूपथी नित्य छे; जाग्रत अने स्वप्नना समये ते प्रकट थई जाय छे अने सुषुप्तिमां छुपाई जाय छे, आ बन्ने अवस्थाओमा क्षेत्रज्ञ, जे विशुद्ध चिन्मात्र छे ते मननी आ वृत्तिओने साक्षीरूपथी जोतो रहे छे ॥१२॥

आ क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत्‌नुं आदि कारण परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयम्प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादिना पण नियन्ता अने पोताने आधीन रहेनारी मायाद्वारा बधाना अन्तःकरणमां रहीने जीवोने प्रेरित करनार समस्त प्राणीओना आश्रयरूप भगवान्‌ वासुदेव छे ॥१३॥

जेम वायु सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणीओमां प्राणरूपे प्रवेश करी तेमने प्रेरितपञ्चमस्कन्ध ५३ करे छे. तेम क्षेत्रज्ञ भगवान्‌ वासुदेव पण सर्व साक्षी आत्मस्वरूपथी सम्पूर्ण विश्वमां ओतप्रोत छे ॥१४॥

हे राजन्‌! ज्यां सुधी मनुष्य ज्ञानना उदयद्वारा आ मायानो तिरस्कार करी, बधान्नी आसक्ति छोडी तथा कामक्रोध वगेरे छ शत्रुओने जीती लईने आत्मतत्त्वने जाणी नथी लेतो अने ज्यां सुधी ते आत्मानी उपाधिरूप मनने संसारनां दुःखोनुं क्षेत्र नथी समजतो त्यां सुधी ते आ लोकमां एम ज व्यर्थ ज भटक्तो रहे छे, कारण के ए चित्त एना शोक, मोह, रोग, राग, लोभ अने वेर वगेरेना संस्कार तथा ममता नी वृद्धि करतुं रहे छे ॥१५-१६॥

भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्यम्‌ उपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः ॥ गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम्‌ ॥१७॥

आ मन ज तमारो प्रबळ शत्रु छे. तमे तेनी उपेक्षा करेली होवाथी तेनी शक्ति

विशेष वधी गई छे. जो के ते पोते स्वयं तो सर्वथा मिथ्या छे तो पण तेणे तमारा आत्मस्वरूपने ढाङ्की दीधुं छे. तेथी तमे सावधान थई श्रीगुरु अने श्रीहरिनां चरणोनी उपासनाना अस्त्रथी एने मारी नाखो ॥१७॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा योगवडे स्वरूप स्थिति प्रकरणमां भारत चरितमां योगानुसारी ज्ञान निरूपण नामनो पाञ्चमो) ‘‘भरतजीए रहूगण राजाने करेलो ब्रह्मज्ञाननो उपदेश’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे

अध्याय १२

जड भरते रहूगणना सन्देह दूर कर्या

विशेष - आ बारमा अध्यायमां रहूगण राजाए सन्देहने लीधे फरी वार पूछतां ए महान योगी जडभरते एना सघळां सन्देह मटाड्या ए कथा कहेवाशे. अध्याय-१२,

ईं उं ईं उं

५४ पञ्चमस्कन्ध नमो नमः कारणविग्रहाय स्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ॥ नमोवधूत द्विजबन्धुलिङ्गनिगूढनित्यानुभाव तुभ्यम्‌ ॥१॥

रहूगण राजाए कह्युं - हे योगेश्वर! तमे ईश्वरना ज शरीररूप छो, परमानन्दना प्रकाशथी देहादिने तुच्छ गणो छो अने सामान्य ब्राह्मणना वेशथी पोताना स्वतन्त्र अनुभवने गुप्त राखो छो; एवा तमने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुम् ॥१॥

जेम तावना रोगथी पीडायेलाने ओसड अमृतरूप होय, गरमीथी तपी गयेलाने शीतळ जल अमृतरूप होय तेम हे महाराज! हुं आ अधम देहना अभिमानरूप सर्प करडवाथी अन्ध थयेलो छुं. पालखीमां आत्मबुद्धिरूप अभिमान करवाथी ‘‘हुं सिन्धु देशनो राजा छुं’’ एवा प्रबल मदथी अन्ध थई रह्यो छुं. मने आपनां वचन अमृतमय औषधरूप छे ॥२॥

एटलामाटे मारा मनमां जे कांई संशय छे ते तो हुं पाछळथी आपनी पासे निवृत्त करावीश पण हमणां तो आपे मने अध्यात्म ज्ञान योगमय जे वात करी ते माराथी जरा वधारे सारी पेठे समजाय एवुं व्याख्यान करो; मने ए साम्भळवानी घणी उत्कण्ठा छे ॥३॥

हे योगेश्वर! आपे जे एम कह्युं के भार उपाडवानी क्रिया तथा एनाथी जे श्रमरूप फल थाय छे ए बन्ने प्रत्यक्ष होवा छतां केवल व्यवहार मूलक छे, हकीक्तमां सत्य नथी ए तत्त्वविचारनी दृष्टिए टकी शक्तुं नथी तो आ बाबतमां अक्कल काम नथी करती, आपना आ कथननो मर्म मारे गळे उतरतो नथी ॥४॥

जड भरते कह्युं - पृथ्वीमान्थी बनेलो पदार्थ कोई कारणथी पृथ्वी उपर चाले छे. एने आपणे ‘भोई’ ना नामथी जाणीए छीए; जे पदार्थ एवी रीते चालतो नथी तेने आपणे ‘पथरा’ वगेरे कहीए छीए. बाकी भोई अने पथरमां कशो भेद नथी. जेम पथराने जडपणाने लीधे भार के परिश्रम नथी तेम भोईने पण भार के परिश्रम न ज होवो जोईए. जेने परिश्रम लागे छे तेनुं जो निरूपण थई शक्तुं होय तो कदाच आपणे परिश्रम मानवानी वात साची मानीए; परन्तु ए थई शक्तुं नथी. अवयवो सिवाय अवयवीनुं निरूपण थई शक्तुं नथी. हवे आपणे जोईएःवारु एक भोईना पग उपर घूण्टी छे, घूण्टी उपर र्पीडीओ छे. र्पीडी उपर गोठण छे, गोठण उपर साथळ छे, साथळ उपर केड छे, केड उपर छाती छे, छाती उपर डोक, डोक [[५५]] पछी खभो आवे छे, खभा उपर लाकडानी पालखी छे. पालखीमां सौवीर देशनो राजा एवा नामथी ओळखातु आ माटीनुं ओठुं बेठुं छे; (हवे आ बधा कटकाओमां कया कटकाने भार के परिश्रम छे? कटकाओने छोडी देतां शरीर नामनो पदार्थ रहेतो नथी. माटे भार के परिश्रम कोने लागे छे एनुं कांई निरूपण थई शक्तुं नथी) ॥५-६॥

पालखीमां बेठेला माटीना ओठामां (शरीरमां) हुं एवुं अभिमान धरी तुं सिन्धु देशना राजापणाना मदथी आन्धळो बनेलो अने आ महाकष्टथी दीन दुःखी बिचारा भोईओने वेठे पकडे छे माटे खरेखर तुं निर्दय छे, घातकी छे. आम तुं घातकी होवा छतां निर्लज्जपणे बके छे के हुं तो मनुष्योनी रक्षा करनार छुं. आ वलण तने शोभा देतुं नथी. (उपरना अवयवोनो भार नीचेना अवयवोने लागे छे एम पण कही शकाय नहि केमके अवयववाळा एक पदार्थनुं निरूपण थई शक्तुं नथी तेम अवयवोनुं पण थई शक्तुं नथी. स्थावर अने जङ्गम सघळा जगत्‌नां उत्पत्ति अने नाश पृथ्वीमान्थी ज थाय छे.) ॥७॥

आपणे जोईए छीए के सम्पूर्ण चराचर भूत सदा पृथ्वी (माटी) मान्थी ज उत्पन्न थाय छे अने पृथ्वीमां ज लीन थाय छे. तेथी एनी क्रियाना भेदने लीधे जे जुदां-जुदां नाम पडी गया छे, बताव तो व्यवहार सिवाय एनुं शुं मूल छे? ॥८॥

आ उपरथी अन्ते पृथ्वी सत्य छे एम मानवुं नहि. वास्तविक विचार करतां पृथ्वी मिथ्या ठरे छे. पृथ्वी ए पोताना कारणरूप परमाणुओमां लय पामे छे तेथी ए परमाणुओ सिवाय बीजो पदार्थ नथी. अने परमाणुओना समूहथी पृथ्वीनी कल्पना करवामां आवी छे तेओ पण सत्य नथी केमके सघळा प्रपञ्चनी पेठे परमाणुओ पण एमना खरा कारणना अज्ञानथी ज कल्पाया छे ॥९॥

ए प्रमाणे बीजुं पण पातळुं, जाडुं, नानुं, मोटुं, कारण कार्य, चेतन अने जड अने सघळुं द्वैत मात्रमायाथी (अज्ञानथी) ज बनेलुं छे. द्रव्य, स्वभाव, संस्कार, काळ अने अदृष्ट ए सघळां मूळ तत्त्व मायानां ज नाम छे, अर्थात्‌ अज्ञानथी ज कल्पित छे एम जाण ॥१०॥

त्यारे साचुं शुं छे ए जाणवुं होय तो जाण के ए एक ज्ञानस्वरूप परब्रह्म ज छे. एना अज्ञानथी दोरीना सर्पनी पेठे आ मिथ्या भूत जगत्‌नी कल्पना थई छे. ए परब्रह्म शुद्ध छे एक छे एनी बहार के अन्दर बीजुं कंई नथी. ए पोते ज परिपूर्ण छे. ए सर्वव्यापी अने सर्वथा निर्विकार छे. एनुं ज नाम ‘भगवान्‌’ छे अध्याय-१२,५६ पञ्चमस्कन्ध अने एने ज पडिन्तजनो ‘वासुदेव’ कहे छे ॥११॥

हे रहूगण राजा! आ परमात्मज्ञाननी प्राप्ति कांई तप करवाथी थती नथी, वेदोक्त कार्य करवाथी थती नथी, प्राणीओने अन्नादिकनुं दान करवाथी थती नथी, अतिथि सेवा, दीन सेवा वगेरे गृहस्थोचित धर्मोनुं पालन करवाथी थती नथी, वेदनो अभ्यास करवाथी थती नथी तेम जळ, अग्नि के सूर्यनी उपासना वगेरे कोई पण साधनथी थई शक्ती नथी; मात्र महात्मा पुरुषना चरणनी रजथी पोतानी जातने नवडावी देवाथी ज थाय छे ॥१२॥

आनुं कारण ए छे के महापुरुषोना समाजमां सदा पवित्र कीर्तिवाळा श्रीहरिनां गुणोनी चर्चा थती रहेती होय छे, जेथी विषयोनी वात तो पासे फरकी पण शक्ती नथी. अने ज्यारे भगवत्कथानुं रोज-रोज सेवन करवामां आवे छे त्यारे ते मोक्षनी इच्छावाळा पुरुषनी बुद्धिने भगवान्‌ वासुदेवमां लगाडी दे छे ॥१३॥

(विषयनो सङ्ग तो योगथी भ्रष्ट करनार छे ए वात मने पण पूरी रीते वीतेली छे). हुं पूर्वे भरत नामनो राजा हतो, आ लोक तेम ज परलोक सम्बन्धी तमाम तृष्णा छोडी दईने भगवाननुं आराधन करतो हतो तो पण एक मृगमां आसक्ति थवाथी परमार्थथी भ्रष्ट थई जई पछीना जन्ममां एक मृग बनवुं पड्युम् ॥१४॥

पण भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आराधनाना प्रभावथी ए मृगयोनिमां पण पूर्वजन्मनी मारी स्मृति गई नहि. तेथी ज लोकोनो सङ्ग थई जवानी धास्तीने लीधे छानो अने आसक्ति रहित रहीने गुप्त फरुं छुम् ॥१५॥

तस्मान्‌ नरोऽसङ्ग-सुसङ्गजातज्ञानासिनेहैव विवृक्‌णमोहः ॥ हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः ॥१६॥

(तारामाटे गागरमां सागर भरी दईने सार कही दउं छुं के) विरक्त भगवदीयोना सत्सङ्गथी प्राप्त ज्ञानरूप खडग (तलवार) द्वारा मनुष्ये अर्ही अने अत्यारे ज पोताना मोह बन्धनने कापी नाखवुं जोईए, पछी तो श्रीहरिनी लीलाओनां कथन अने श्रवणथी भगवत स्मरण चालु रहेवाथी ते सहेलाईथी ज संसारमार्गने पार करी प्रभुने प्राप्त करी शके छे ॥१६॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा, योगवडे स्वरूप स्थिति प्रकरणमां भरत चरितमां वैराग्य निरूपण नामनो छठ्ठो) ‘‘जडभरते रहूगणना सन्देह दूर कर्या’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५७]]

अध्याय १३

रहूगणने दृढ वैराग्य थवामाटे जडभरते करेलुं भवाटवीनुं वर्णन

विशेष - आ तेरमा अध्यायमां वैराग्य वगरना माणसने ब्रह्मतत्त्वनो उपदेश करवो वृथा छे. एम जाणी रहूगणने दृढ वैराग्य उत्पन्न करवाने सारु जडभरत संसारने वगडानुं रूपक आपी वर्णन करेछे. दुरत्ययेऽध्वन्यजया निवेशितो रजस्तमःसत्त्वविभकतकर्मदृक्‌ ॥ स एष सार्थोऽर्थपरः परिभ्रमन्‌ भवाटर्वी याति न शर्म विन्दति ॥१॥

जडभरते कह्युं - आ दुस्तर प्रवृत्तिमार्गमां मायाए रजोगुण, तमोगुण अने सत्त्वगुण थी जुदां-जुदां कर्मोने जन्म आप्यो छे. जीवसमूह सङ्घ आ कर्मोने पोतानां कर्तव्यरूप जाणी जेम कोई वाणियाओनो सङ्घ धन कमाववानी इच्छाथी भटकतो-भटकतो संसाररूप वगडामां नीकळी गयो छे, परन्तु एने जराय सुख मळतुं नथी ॥१॥

हे राजा! ए सङ्घनो नायक१ दुष्ट होवाथी ए वगडामां२ छ चोर३ बळात्कारथी एने लूण्टी४ ले छे, जेम वरुं घेटान्नां टोळामां घूसी जईने५ एमने खेञ्ची जाय तेम शियाळियां६ ए टोळामां धूसी जईने गाफेल रहेनारां सङ्घनां माणसोने आम-तेम खेञ्ची लई जाय छे ॥२॥

विशेष - १. बुद्धि २. आ तेरमा अध्यायमां वर्णवेला पदार्थोनुं व्याख्यान जो के चौदमा अध्यायमां शुकदेवजीए ज आपेलुं छे तो पण आ प्रकरण वाञ्चता सहेलाईथी समजाई शके एटलामाटे थोडुं-थोडुं नीचे व्याख्यान आपेलुं छे; अने एमां वगडाना तथा संसारना पक्षमां समानता होवाथी ज्यां बीजो अर्थ लखवानी जरूर नथी जणाई तेथी त्यां लख्यो नथी.
३.इन्द्रियो ४. धर्ममां उपयोग न थाय तेवा धनने उपयोगद्वारा लूण्टी लेशे ५. स्त्री, छोकरां वगेरे. ६. तुं मारो धणी अने तुं मारो बाप एवी ढबथी घूसी जईने. अतिशय लता, खड अने झाङ्खरान्थी भरेली दुर्गम घाढी जग्यामां भयङ्कर डांस अने मच्छरो एमने भारे पीडा१ करे छे. कोई ठेकाणे ए सङ्घ गन्धर्व नगरने साचुं मानी२ मोटा वेगथी जता आगिया वेताळने३ लेवानुं मन करे छे ॥३॥

विशेष - १. तृष्णा अने कर्म वगेरेथी गाढ गृहस्थाश्रममां दुर्जनो पीडा करे छे. २. अध्याय-१३,५८ पञ्चमस्कन्ध गन्धर्वपुरनी पेठे मिथ्या छतां देखवामां आवतां देहादिकने सत्य माने छे. ३. आगियो वेताल=जेना मोढामान्थी आगना भडका नीकळता होय तेवुं भूत. भूतना भडका जेवुं सोनुं. उताराना जग्या, जळ अने धननी लालचथी ए वणजार ए वगडामां आम तेम दोड्या करे छे.१ कोई ठेकाणे आङ्खोमां धूळ२ भराई जतां ए सङ्घ वण्टोळियाना३ पवनने लीधे ऊडेली धूळथी४ छवाई गयेली दिशाओने५ जाणतो नथी ॥४॥

विशेष - १. आ विषय वगडो अने संसार बन्नेमां सरखोज छे. २. रजोगुण ३. स्त्री
४. रागादिक ५. कर्मना साक्षीरूप दिशानादेवो. तमरां१ एमने नजरे देखाता नथी पण एमना अवाजथी कानने पीडा थाय छे. घुवडना२ घुघवाटथी एमना अन्तःकरणमां व्यथा थाय छे. भूखनो मार्यो ए अपवित्र झाडने३ सेवे छे तो कोई वखत तरसथी व्याकुल थई झाञ्झवान्नां४ पाणी पीवाने दोडे छे ॥५॥

विशेष - १. परोक्ष अप्रिय बोलनार २. प्रत्यक्ष अप्रिय बोलनार लोको ३. अधर्मी लोको
४.खोटा विषयो. कोई वखत पडी जवाथी शरीर भाङ्गी जाय अने दुःख थाय तथा पाणी वगरनी नदीओमां१ जाय छेतो कोई वखत अन्न खूटी जतां बीजाओ२ पासेथी लेवाने इच्छे छे. कोई वखत दावानळमां३ घूसी अग्निथी४ दाझी जतां अकळाई जाय छे तो कोई वखत यक्षलोको५ एमना प्राण६ खेञ्चवा लागे छे तेथी ते अकळाई ऊठेछे ॥६॥

विशेष - १. आ लोक अने परलोक मां दुःखदायी पाखण्डोमां मळे छे. २. पुत्रो अने भाईओ वगेरे पासेथी ३. घर ४. शोक ५. यक्ष जेवा राजाओ ६. धन. बीजा जोरावर लोको धन हरी ले छे तेथी तेओ खेद करे छे, मूञ्झाय छे अने मूर्छित थई जाय छे; तो कोई वार *गन्धर्वपुरमां पेसीने बधुं दुःख भूली जई सुखियानी पेठे थोडो समय आनन्द पण माणी ले छे ॥७॥

विशेष - गन्धर्वपुरनी पेठे खोटा बाप-दीकरा वगेरेना समाजमां. कयारेक वळी ते पर्वतो उपर चडवा मागे छे तो काण्टा अने काङ्करां पगमां वागवाथी१ मननी मनमां२ रही जाय छे, गमगीन बनी जाय छे. कुटुम्ब-निर्वाहनुं साधन न होवाथी भूखनी अगनमां३ सीझता पोताना ज कुटुम्बीजनोने करडवा दोडे छे (वृथा क्रोध करे छे) ॥८॥

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विशेष - १. विघ्नो नडे छे २. मोटुं काम करवानी इच्छा ३. जठराग्नि-भूख. कयारेक वळी अजगरनो कोळियो१ बनी जई वनमां फेङ्की दीधेल मुडदानी जेम पड्यो रहे छे. ए वखते कंई सूध बुध होती नथी. तो कयारेक वळी बीजां झेरी जानवर२ करडवा३ लागे छे तो एना विषना प्रभावथी अन्ध४ थई जई कोई अन्धारिया कूवामां५ पडी जाय छे. अने घोर दुःखमय अन्धकारमां बेहोश पड्यो रहे छे ॥९॥

विशेष - १. निद्रा २. दुर्जनो ३. पीडा करतां ४. विवेक हीन ५. मोह. कयारेक मध१ लेवा जाय छे तो मध माखीओ२ तेने करडे छे३ अने एनुं बधुं अभिमान ओगळी जाय छे. महा महेनते कदाच ते मळी पण जाय तो बीजा लोको बळजबरीथी ते पडावी ले छे ॥१०॥

विशेष - १. पर स्त्री वगेरे २. एमना मालिको ३. मारवा लागवाथी. कोई वखते टाढ, तडको, वायु अने वरसादथी बचवानो उपाय नहि बनतां ए एम ने एम ज बेसी रहे छे तो कोई वखते थोडी घणी लेवड-देवड करतां धननी बाबतमां ठगाई करवाथी द्वेषनुं पात्र बने छे ॥११॥

कोई-कोई ठेकाणे धन खूटी जतां ए वगडामां पथारी, आसन, रहेवाने माटे स्थान के सेर सपाटा मारवामाटे वाहन कशुं ज मळतुं नथी तेथी बीजा पासे मागे छे पण जोईती वस्तु न मळवाथी पारकी वस्तु लई लेवानी इच्छा करे छे अने तेथी अप मानित थाय छे ॥१२॥

एकबीजा साथे चीजवस्तुओनी लेवड-देवड करतां वैर वधी जाय छे. परस्परमां विवाह वगेरेना सम्बन्धो करे छे. घणां कष्ट, परिश्रम, धन हानि, द्वेष वगेरेने लीधे ते वगडामां मूएला जेवो थई जाय छे ॥१३॥

वगडाना मार्गमां जे कोई मरी जाय छे तेने त्यां ज मूकी देवामां आवे छे. जेओ नवा जन्मे छे तेमने साथे लई ए सङ्घ आगळ चाल्या करे छे. वीरवर एमान्थी कोईपण प्राणी नथी तो आज सुधीमां पाछुं आव्युं के न तो कोईए आ सङ्कटमय मार्गने पार करी परमानन्दमय योगनुं शरण लीधुम् ॥१४॥

शूरवीरो, दिग्विजय करनारा पुरुषो पण ‘‘आ पृथ्वी मारी छे’’ एम पृथ्वीने सारु ज वैर बान्धीने लडी मरे छे तो पण निवैर्रपणाथी रहेनारो सन्न्यासी जे अविनाशी विष्णुपदने पामे छे ते स्थानकने तो कोई पामी शक्तुं नथी ॥१५॥

अध्याय-१३,६० पञ्चमस्कन्ध आ भवाटवीमां१ भटकता आ वणजारानुं दल कयारेक कोई लतानी२ डाळीओनो३ आश्रय ले छे. अने एना उपर रहेतां मधुरभाषी पक्षीओना मोहमां फसाई जाय छे, कयारेक, वळी क्याङ्क तो सिंहोना४ यूथथी डरी जई बगला, समडी अने गीधोनी५ साथे प्रेम करे छे ॥१६॥

विशेष - १. सिंहावलोकननी रीतथी पाछुं संसाररूपी वगडानुं ज वर्णन करे छे २. स्त्रीओ
३.शाखाना जेवा कूणा कूणा हाथ ४. काळचक्रथी थतां जन्ममरणादिक ५. बगलाना जेवा ठग, कागडाना जेवा क्षुद्र अने गीध जेवा क्रूर पाखण्डीओनाण्टोळां. ए बगला वगेरे एने ठगी ले छे तेथी एना सङ्गमां कांई फळ नथी एम जाणी ए हंसोनां१ टोळामां पेसे छे अने हंसोनी रीत भात पसन्द नहि आवतां वान्दराने२ मळे छे. ए वान्दरान्नी रमत गमतथी तथा एक बीजानां३ मोढां जोवामां ए पोताना जीवननी अवधिने भूली जाय छे ॥१७॥

विशेषः १. ब्राह्मणो २. प्रायश्चित्त पूर्वक पुनःसंस्कार कराववा वगेरे ब्राह्मणोनी रीत भात पसन्द नहि पडतां वान्दराना जेवा आचारभ्रष्ट (मार्गी साधु वगेरे.) लोकोने मळे छे
३.स्त्री पुरुषो. ए वृक्षोमां१ रमवानी इच्छा करतां पुत्र अने स्त्रीना स्नेहपाशमां बन्धाई जाय छे. मैथुननी वासना तो एटली बधी जोर करे छे. जात जातना दुर्व्यवहारथी राङ्क बनी जवा छतां विवश थईने पोताना बन्धनने तोडवानुं साहस पण करतो नथी. कयारेक गफालतथी पर्वतनी गुफामां२ पेसी जाय छे अने गुफाना हाथीथी३ भय पामी एक लताने४ लटकी रहे छे ॥१८॥

विशेष - १. घर २. भयङ्कर रोग वगेरे दुःख ३. मृत्यु ४. प्रारब्धकर्म. जो केमेय करीने आ आफतमान्थी छूटे तो पाछो सङ्घमां (प्रवृत्ति मार्ग.) ज जई मळे छे ॥१९॥

आ वगडाना मार्गमां मायाए नाङ्खी दीधेला अने भटकया करता कोई पण माणसने ठेठसुधी पोताना परम पुरुषार्थनो पत्तो ज लागतो नथी. हे रहूगण राजा! तुं पण ए सङ्घमान्नो ज छे. दण्डनो त्याग करी, प्राणीओनी साथे मित्रता करी अने विषयोमान्थी आसक्ति छोडी दईने भगवाननी सेवाथी सज्ज करेली ज्ञानरूप तलवार लई आ मार्गनो पार पामी जा ॥२०॥

रहूगण राजाए कह्युं - अहो! सघळा जन्मोमां माणसनो जन्म ज सौ करतां [[६१]] उत्तम छे. स्वर्गादिकमां देवताओना अवतारो आवे पण एने पण शुं करवुं? केमके ए बीजा अवतारोमां भगवानना यशथी चित्तने शुद्ध करनारा आप जेवा महात्माओनो अधिकाधिक समागम मळतो नथी ॥२१॥

आपनां चरणारविन्दनी रजनुं सेवन करवाथी बधांय पाप-ताप नष्ट थई जाय अने भगवाननी निर्मळ भक्ति थाय एमां कंई आश्चर्य नथी. आपना बे धडीना सत्सङ्गथी ज मारुं कुतर्क मूलक अज्ञान नाश पाम्युं छे ॥२२॥

ब्रह्मज्ञानीओमां जे वयो वृद्ध छे एमने नमस्कार करुं छुं; जे बाळक होय एमने नमस्कार, जे युवा होय अने एमने नमस्कार अने जे क्रीडारत बालक होय१ तेमने पण नमस्कार करुं छुं, जे ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण२ अवधूतना वेषमां पृथ्वी उपर फरता रहे छे एमना द्वारा अमारा जेवा ऐश्वर्यथी उन्मत्त राजाओनुं कल्याण हो ॥२३॥

विशेष - १. ब्रह्मवेत्ताओ केवां रूपथी विचरे छे ए नहि जाणवामां आववाथी सघळाओने नमस्कार करे छे.
२. पोताना दाखला उपरथी राजाओ तरफथी महात्माओनुं अपमान थतुं जाणीने कहे छे. श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे परीक्षित राजा! ए प्रमाणे परम प्रभावशाली ब्रहर्षि पुत्र जडभरते पोतानुं अपमान करनारा रहूगण राजाने पण करुणाथी ब्रह्म विद्यानो उपदेश कर्यो. (वन्दन कर्युं) पछी *तेओ परिपूर्ण समुद्रनी माफक शान्तचित्त थई, इन्द्रियोनो निरोध करी पृथ्वी उपर फरवा लाग्या ॥२४॥

विशेष - आनो मोक्ष एकादश स्कन्धमां कहेवाशे. एमना सत्सङ्गथी परमात्मतत्त्वनुं ज्ञान मेळवीने रहूगणे पण अन्तःकरणमां अविद्याने लीधे घर करी बेठेली देहात्मबुद्धिने छोडी दीधी. राजन्‌ जे लोको भगवदाश्रित अनन्य भक्तोनुं शरणुं लई ले छे एमनो आवो ज प्रभाव होय छे- एमनी पासे अविद्या ठरी शक्ती नथी ॥२५॥

यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत त्वयाभिहितः … समवेतानुकल्पेन निर्दिश्यतामिति ॥२६॥

*राजा परीक्षिते कह्युं - महाभागवत मुनि श्रेष्ठ! आप परम विद्वान छो. आपे रूपक वगेरे द्वारा परोक्षरूपथी (आडकतरी रीते) जीवोना आ जे संसाररूप मार्गनुं वर्णन कर्युं छे ते विषयनी कल्पना (रचना,सर्जन) विवेकी पुरुषोनी बुद्धिए अध्याय-१३,६२ पञ्चमस्कन्ध करी छे; अल्प बुद्धिवाळा पुरुषोनी समजमां ए सुगमताथी ऊतरे एवी नथी. तेथी मारी विनन्ती छे के आ कठिन विषयना रूपकनुं स्पष्टी करण करता शब्दोथी फोड पाडीने समजावो ॥२६॥

विशेष - अधिकारी स्कन्ध निरूपणमां परीक्षितने उत्तमाधिकारी बताव्यो छे. आवा उत्तमाधिकारी पण उपरनुं वर्णन न समजी शके अने उदाहरण साथे समजाववा प्रार्थना करे अने जेनी गणना उत्तमाधिकारीमां नथी तेवा रहूगणने आ कथा समजाई जाय एनुं कारण एम समजवुं के रहूगण मार्यादामार्गीय होवाथी एमां व्यवहारिक संस्कारो उद्‌भुत होवाथी समजी शके अने परीक्षित जन्मथी ज प्रभुनी लीलाओमां परायण चित्तवाळो होवाथी ए न समजी शके ए स्वभाविक छे, कारण के उत्तम भक्तो केवळ प्रभुनी लीलाओ ज सारी पेठे समजे छे. इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा, योगथी स्वरूपस्थिति प्रकरणमां परोक्ष व्याख्यान नामनो सातमो) ‘‘रहूगणने दृढ वैराग्य थवामाटे जडभरते करेलुं भवाटवीनुं वर्णन’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेमाटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय १४

भवाटवीनुं स्पष्टीकरण

विशेष - आ चौदमां अध्यायमां, संसारने वगडानुं रूपक आप्युं छे. एनुं व्याख्यान करतां संसारना पक्षमां शियाळियां अने मच्छर वगेरेना अर्थनी कल्पना कहेवामां आवशे. य एष देहात्ममानिनां सत्त्वादिगुणविशेषविकल्पित… अवरुन्धेयस्यामु हवा एते षडिन्द्रयनामानः कर्मणा दस्यव एव ते ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राजन्‌! सत्त्व वगेरे जुदां-जुदां गुणोना भेदथी सारां, [[६३]] नरसां अने मिश्र कर्मोथी बनेला जुदां-जुदां प्रकारना अनेक अवतारोमां *देहने आत्मा करी माननाराओनां जन्ममरणादिक थाय छे अने तेओ मन सहित छ इन्द्रियोरूपी द्वारथी जन्ममरणादिक अनादि संसारने भोगवे छे. परमेश्वरने अधीन रहेनारी मायाने लीधे आ संसाररूपी वगडाना विषम मार्गमां आ जीवलोक आवी पड्यो छे. जेम वाणियाओनो सङ्घ धन कमावानी इच्छाथी परदेश जतां वगडामां चाल्यो जाय तेम स्मशान जेवा अमङ्गळरूप संसाररूपी वगडामां ए चाल्यो जाय छे अने पोताना देहथी बनावेलां कर्मोनां फळ भोगव्या करे छे. उद्योग करे छे तेमां पण घणाखरा उद्योगो व्यर्थ जाय छे; केटलाकमां घणां विघ्नो नडे छे. एटलुं छतां भक्ति ए संसारना तापने मटाडनारो एवो भगवान्‌ श्रीहरि अने गुरुनां चरणकमळने भ्रमरनी पेठे सेवनारा भक्त लोकोनो मार्ग छे तेमां जे मने शरणे आवे छे ते ज मारी मायाने तरी शके छे. परन्तुं एने ए अद्यापि पामतो नथी. ए वगडामां छ इन्द्रियो चोरनुं काम करे छे ॥१॥

विशेष - ‘‘स्थानाद्‌ बीजादुपष्टम्भान्‌ निष्पन्दान्निधनादपि, कायमाधेयशौचत्वात्‌ पडिन्ता ह्यशुचिं विदुः’’ पञ्चमहाभूतो पृथ्वी आदिथी, वीर्य आदिथी बीमारी अने मृत्यु आदिथी अने मात्र उपरथी ज पवित्र थता देहने सुज्ञपुरुषो अपवित्र कहे छे. माणसे घणां कष्टथी धन मेळवेलुं छे तेनो उपयोग पर लोकने सारु भगवाननी आराधनाना कर्मरूपी धर्मना कार्यमां लेवुं योग्य छे, परन्तु ए एनो जोवुं, स्पर्श करवो, साम्भळवुं, सूङ्घवुं, स्वाद लेवो, सङ्कल्प-विकल्प करवो अने निश्चय करवो; आ वृत्तिओद्वारा घर सम्बन्धी तुच्छ सुखो भोगववामां उपयोग करे छे. चोर लोको जेम खराब भोमियावाळा अने गाफेल सङ्घनुं धन लूण्टी जाय तेम खराब बुद्धिवाळा अने अजितेन्द्रिय माणसना धनने लूण्टी जाय छे ॥२-३॥

ए ज नहि ते संसार वनमां रहेनारा एना कुटुम्बीओ पण जे नामथी तो स्त्री- पुत्रादि कहेवाय छे पण जेमनां कामो साक्षात्‌ वरुओ अने शियाळवा जेवा होय छे. तेओ अत्यन्त लोभिया माणसे घणा यत्नथी साचवी राखेला धनने एनी मरजी नहि छतां जोत जोतामां जेम घेटान्ने वरु लई जाय तेम लई जाय छे. खेतर वरसो- वरस खेडातुं होय छतां जो धरतीमां रहेलां बीजने बाळी नाङ्खवामां न आवे तो ए खेतर फरी वार वावती वेळा जाळां घास अने वेलाओथी गहन थई जाय छे तेम आ गृहस्थाश्रम पण कर्मभूमि छे. एमां पण कर्मोनो सर्वथा उच्छेद कदी थतो नथी कारण अध्याय-१४,६४ पञ्चमस्कन्ध के ते वासनाओनो करण्डियो छे ॥४॥

आ संसारमां आवी पडेला माणसना धनरूप बहारनां प्राणने डांस अने मच्छर जेवा नीच माणसोथी तेम ज तीड, पक्षीओ, चोर अने उन्दर वगेरेथी उपद्रव थया ज करे छे. ए आ मार्गमां कयान्नो कयां भटकया करे छे. जो के गन्धर्व नगरीनी पेठे तमाम मिथ्या छे. तो पण आ मनुष्यलोक अज्ञान, वासना अने कर्म थी दूषित मनथी दृष्टिदोषने लीधे एने साचो करी माने छे ॥५॥

ए खान, पान अने स्त्री प्रसङ्ग वगेरे व्यसनोमां लम्पट थईने कोई वखते झाञ्झवान्नां पाणी जेवा विषयोनी पाछळ दोडे छे ॥६॥

कयारेक वळी बुद्धि रजोगुणथी प्रभावित थतां, बधां ज अनर्थोना मूळ अग्निना मलरूप सोनाने (वितलना वर्णनमां सुवर्ण अग्निनी विष्ठा छे एम कहेवाशे.) ज सुखनुं साधन समजीने ते मेळववामाटे लालायित थई एवी रीते आन्धळी दोट मूके छे. जेम वनमां ककडती ठण्डीथी थथरतो माणस अग्निने मानी एनी पाछळ दोडे छे तेम ते दोट मूके छे ॥७॥

कोई वखते निवासनी जग्या, पाणी, धन वगेरे पोतानां निर्वाहनां साधन मेळववानी लालचथी आ संसाररूप वगडामां चारे बाजुए दोड्या करे छे ॥८॥

कयारेक आन्धीनी माफक आङ्खोमां धूळ र्झीकनारी स्त्री गोदमां बेसाडी दे छे त्यारे तत्काल रागान्ध जेवो थई जई सत्पुरुषोनी मर्यादाने पण अभराई उपर चडावी दे छे. ए वखते आङ्खोमां रजोगुणनी धूळ भराई जवाथी बुद्धि एवी मलिन थई जाय छे के कर्मोना साक्षी दिशाओना देवताओने पण ते भूली जाय छे ॥९॥

कोई-कोई वार विषयो व्यर्थ छे एवुं एनी मेळे मनमां आवी जाय छे तो पण अनादि कालथी देहमां आत्मबुद्धि थई गयेल होवाथी भूलाई जवाय छे अने वळी पाछुं झाञ्झवान्नां पाणी जेवा ए विषयोनी पाछळ भूलथी दोडे छे ॥१०॥

कयारेक प्रत्यक्ष अवाज करनारा घुवड जेवा शत्रुओनी माफक अने परोक्षरूपे बोलनारां तमरान्नी माफक राजानी अति कठोर अने फफडावी नाखनारी भयङ्कर धमकीओथी एना कान अने मन ने त्रास पहोञ्चे छे ॥११॥

पूर्व जन्मनां पुण्य खवाई गयां होय छे त्यारे जीवते मूएलो पोते जेमनुं धन कारस्कर अने काकतुण्ड वगेरे झेरी फलवाळां पाप वृक्षो अने एवी ज लता अने झेरी [[६५]] कूवानी पेठे आलोक के परलोक ना प्रयोजन रहित छे तेवा जीवता ज मरेला लोकोनी पासे जाय छे ॥१२॥

कोई वखत नीच लोकोना प्रसङ्गथी ठगाईने पाणी वगरनी नदीमां पडतो होय तेम आलोक-परलोकमां दुःख देनारा पाखण्ड धर्ममां फसाई जाय छे ॥१३॥

ज्यारे बीजाने सताववाथी एने अन्न पण नथी मळतुं त्यारे तो पोताना सगा पितापुत्रोने अथवा पितापुत्रोनुं एक तणखलुं पण जेमनी पासे जुए छे एमने फाडी खावामाटे तैयार थई जाय छे ॥१४॥

कोई वखते प्रिय विषयो वगरना अने परिणामे दुःखमय दावानळनी पेठे ए घर पामे छे अने पछी ईष्टजनोना वियोग आदिथी एना शोकनी आगळ सळगी ऊठे छे अने ते बहु ज खेद पामे छे ॥१५॥

कोई वखते काळगतिने लीधे राजकीय लोकोरूपी राक्षसो प्रतिकूळ थई एना धनरूप प्राणने हरी ले छे त्यारे हर्ष जतो रहेतां ए मडदा जेवो थई बेसी रहे छे ॥१६॥

कोई वखते मनोरथोना पदार्थ समान तद्‌दन असत्‌ साचा मानी ए स्वपनना जेवा क्षणिक आनन्दनो अनुभव करे छे ॥१७॥

गृहस्थाश्रमने माटे जे कर्म विधिनो महान विस्तार करवामां आव्यो छे तेनुं अनुष्ठान कोई पर्वतना कराळ चढाण जेवुं ज छे. लोकोने ए दिशामां प्रवृत्त थयेल जोई एमनी देखादेखी करी ज्यारे ते पण ए आचरवा मथे छे त्यारे जातजातनी मुश्केलीओथी हेरान थई, काण्टा अने काङ्कराथी छवायेली जमीन उपर आवी चडेली कोई व्यक्तिनी माफक दुःखी-दुःखी थई जाय छे ॥१८॥

कोई वखते ए सहन न थाय एवा जठराग्नि (भूख) थी अधीरो थई जाय छे अने पोताना कुटुम्ब उपर ज क्रोध करे छे ॥१९॥

ज्यारे ए ज माणसने पाछो निद्रारूप अजगर गळी जाय छे त्यारे ए भारे अन्धारामां डूबी जाय छे अने जाणे उज्जड वगडामां सूतो होय तेवो थई जाय छे अने वगडामां फेङ्की दीधेला शबनी पेठे ए बीजुं कशुं जाणतो नथी ॥२०॥

कोई वखते ज्यारे दुर्जनरूप घातकी प्राणीओ एना गर्वरूप दान्त जेनाथी ए बीजाने करडतो हतो ते तोडी नाखे छे. (मानभङ्ग करे छे) त्यारे एने क्षण मात्र पण निद्रा आवती नथी, मनमां व्यथाने लीधे ज्ञानक्षय पामतां आन्धळानी पेठे अध्याय-१४,६६ पञ्चमस्कन्ध नरकरूप अन्धारां कूवामां पडे छे ॥२१॥

कोई वखते ए विषय सुखरूप मधनां टीपां शोधतां परस्त्री अने परद्रव्य ने झडपे छे त्यारे एना स्वामी अथवा राजा एने मारी नाखे छे अने तरतज ए अपार नरकमां पडेछे ॥२२॥

तेथी ज एम कहेवाय छे के प्रवृत्तिमार्गमां रहीने करवामां आवता लौकिक अने वैदिक बन्ने प्रकारनां कर्मजीवनी संसारनी ज प्राप्ति करावे छे ॥२३॥

कदाच उपर कहेला मारमान्थी ए छूटी जाय तो एनी पासेथी ए पदार्थने देवदत्त (बीजो माणस) लई ले छे. अने देवदत्त पासेथी पण विष्णुमित्र (त्रीजो माणस) लई ले छे. आम ए ओ कोई एने भोगवी शक्ता नथी ॥२४॥

कोई वखते टाढ अने तडका द्वारा आधिदैविक, बीजा आधिभौतिक अने आध्यात्मिक दुःखोनुं निवारण करवामां अशक्त होवाथी ए अपार चिन्तामां मूञ्झाई बेसी रहे छे ॥२५॥

कोई वखते परस्पर लेवड-देवड करतां थोडुं घणुं, अरे कोडी जेटलुं अल्प धन पण अत्यन्त लोभने लीधे बीजाओ पासेथी ठगी ले छे एम करवाथी ए द्वेषनुं पात्र थाय छे ॥२६॥

आ संसाररूप मार्गमां राजन्‌! पूर्वोक्त विघ्नो उपरान्त सुख-दुःख, राग-द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद-उन्माद, शोक-मोह, लोभ, मत्सर, ईर्ष्या, अपमान, भूख-तरस, मन-देहनी पीडा, जन्म, जरा अने मरण वगेरे बीजी अनेक अडचणो छे ॥२७॥

कोई वखते भगवाननी मायारूप स्त्री पोतानी हाथरूप लताथी आलिङ्गन करे छे त्यारे विवेकज्ञानथी भ्रष्ट थईने आकुळ थाय छे, स्त्रीने विहार करवाना घरनो आरम्भ करवामां आकुळ थाय छे. एने ज आश्रित पुत्र अने पुत्री अने अन्य स्त्रीओना मीठा-मीठा बोलथी, दृष्टिथी तथा चेष्टाओथी एनुं मन हराई जाय छे अने एवी रीते ए इन्द्रियोनो गुलाम पोताना आत्माने अपार अने घाटा अज्ञानमां धकेली दे छे ॥२८॥

कालचक्र साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णुनुं आयुध छे. ते परमाणुथी लईने बे परार्ध (वर्ष) पर्यन्त क्षण, घटिका आदि अवयवोवाळुं छे. ते निरन्तर सावधान रहीने घूम्या करे छे. जलदी-जलदी बदलाती अवस्थाओ बालपण, जुवानी, घडपण ज [[६७]] एनो वेग छे. एनी मारफत ते ब्रह्माथी लई तुच्छमां तुच्छ तणखलां सुधी बधां भूतोनो निरन्तर संहार करतुं रहे छे. कोई पण एनी गतिमां हरकत पहोञ्चाडी शक्तुं नथी. एनाथी डरीने पण जेनुं आ कालचक्र निजी आयुध छे ए साक्षात्‌ भगवान्‌ यज्ञपुरुषनी आराधना छोडी आ मन्दगति मनुष्य पाखण्डीओना ज चक्करमां पडी एमना कागडा, गीध, बगला अने वट पक्षी जेवा आर्य शास्त्र-बहिष्कृत देवताओनो आश्रय ले छे, जेमनो मात्र वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमोए ज उल्लेख कर्यो छे ॥२९॥

आ पाखण्डीओ तो पोते ज ठगाईने बेठा छे; ज्यारे आ पण एमनी ठगाईमां सपडाई दुःखी थाय छे त्यारे ते ब्राह्मणोनुं शरणुं ले छे. पण यज्ञोपवीत संस्कार पछी श्रौतस्मार्त (वेदो अने स्मृतिओमां कहेलां) कर्मोथी भगवान्‌ यज्ञपुरुषनी आराधना करवी वगेरे जे एमनो शास्त्रोक्त आचार छे ते एने सारो नथी लागतो तेथी वेदोक्त आचारने अनुकुल पोतानामां शुद्धि न होवाथी ते कर्महीन शूद्रकुलमां प्रवेश करे छे, जेनो स्वभाव वानरोनी जेम मात्र कुटुम्बपोषण अने स्त्री सेवन करवानो ज छे ॥३०॥

त्यां रोकटोक विना बेलगाम (निरङ्कुश) विहार करवाथी एनी बुद्धि अत्यन्त दीन थई जाय छे अने एकबीजानुं मों जोवुं के विषय भोगोमां लपटाई एने पोताना मृत्यु समयनुं पण भान रहेतुं नथी ॥३१॥

लौकिक सुख ज जेमनुं फल छे एवां वृक्षो (द्रूम=गतिरहित-शरणागति रहित जड पदार्थ) जेवां घरोमां ज सुखमानी वानरोनी माफक स्त्रीपुत्रादिमां आसक्त थई जई ते पोतानो बधो ज समय मैथुनादि भोगोमां ज वेडफी नाखे छे ॥३२॥

ए प्रमाणे प्रवृत्तिमार्गमां पडी आ संसाररूप वगडाना मार्गमां सुखदुःखादिक भोगवतां रोगरूप पर्वतनी गुफामां फसाई जई मृत्युरूप हाथीथी डरतो रहे छे ॥३३॥

कयारेक-कयारेक ठण्डी, वायु वगेरे अनेक प्रकारना आधिदैविक, आधिभौतिक अने आध्यात्मिक दुःखोनी निवृत्ति करवामां ते निष्फळ थई जाय छे त्यारे अपार विषयोनी चिन्ताथी ते खिन्न थई जाय छे ॥३४॥

कयारेक परस्पर खरीद-वेचाण आदि सोदा करवाथी बहु कञ्जूसाई करवाथी एने थोडुं घणुं धन मळी जाय छे ॥३५॥

अध्याय-१४,६८ पञ्चमस्कन्ध कोई वखते धन खूटी जवाथी एने पथारी, आसन अने अन्न वगेरे उपभोग मळता नथी. ए जे कांई मनोरथ करे छे ते व्यर्थ जाय छे तेथी ए जती रहेली वस्तु पाछी मेळववानो निश्चय करे छे तेथी चारे बाजूएथी लोकोना अपमानने पात्र थाय छे ॥३६॥

ए प्रमाणे धननी आसक्तिथी परस्पर वेर वधी जवा छतां ते पोतानी पूर्व वासनाओने वश थई आपसमां विवाहादि सम्बन्ध जोडतो अने तोडतो रहे छे ॥३७॥

आ संसारमार्गमां चालतो आ जीव अनेक प्रकारना कलेश अने विघ्न- बाधाओथी हेरान थवा छतां मार्गमां जेना उपर ज्यां आपत्ति आवे छे के कोई मरी जाय छे तेने त्यां छोडी दे छे अने नवा जन्मेलाओने साथे राखे छे; कयारेक कोईने माटे शोक करे छे, कोईनुं दुःख जोई मूर्छित थई जाय छे, कोईनो वियोग थवानी आशङ्काथी बीए छे, कोईनी साथे विवाद करे छे, कोई आपत्ति आवे तो चीसो पडे छे, कयारेक कांई धार्या प्रमाणे थाय तो फूलाई जाय छे, कयारेक गावा माण्डे छे अने कयारेक एमने ज माटे बन्धनमां जकडातां पण सङ्कोच नथी करतो, साधु पुरुषो एनी पासे क्यारेय नथी आवता, परिणामे भगवदीयोनो सङ्ग तो तेने मळतो ज नथी जयान्थी एनी यात्रा शरू थई अने जेने आ मार्गनी अन्तिम अवधि कहेवाय छे ए परमात्मानी पासे ए आज सुधी पाछो फर्योनथी ॥३८॥

परमात्मा सुधी तो योगशास्त्रनी पण गति नथी. जेमणे बधी ज जातना दण्ड- शासननो त्याग करी दीधो छे ते निवृत्ति परायण संयमी मुनिजनो ज एमने प्राप्त करी शके छे ॥३९॥

जो के मोटा-मोटा राजर्षिओ दिग्विजय अने यज्ञ करी गया छे तो पण तेओ सघळा लडाईमां ज मरी गया छे. तेओए आ पृथ्वीमां ज ममताने लीधे अनेक- अनेक वैर कर्यां हतां तो पण छेवट पृथ्वीने मूकीने तेओ चाल्या गया छे. आ संसारने तेओ पण नथी तरी शक्ता ॥४०॥

कदाच कर्मरूप वेलने पकडी ए कोई प्रकारे नरकनी आपदामान्थी छूटे तो पण पाछो संसारना मार्गमां भटकतां-भटकतां आ जनसमुदायमां ज मळी जाय छे. ए ज दशा स्वर्ग वगेरे ऊर्ध्व लोकोमां जनारानी पण छे ॥४१॥

राजन्‌! पडिन्त लोको ए भरतचरित्रने नीचे प्रमाणे कहे छे. ‘‘जेम माखी [[६९]] गरुडनी बराबरी मनथी पण करी शके नहि तेम ऋषभदेवजीना पुत्र ए महात्मा भरतजीना मार्गने कोई राजा मनथी अनुसरवाने समर्थ नथी ॥४२॥

ए भरते पुण्य कीर्ति भगवान्‌मां आसक्तिने लीधे जुवानीमां ज मनोरम स्त्रीओ, दीकरा अने दुस्त्यज सम्बन्धीओ अने राज्यनो, विष्ठानी पेठे त्याग करी दीधो हतो ॥४३॥

जेनो त्याग करवो घणो ज कठण छे तेवा पृथ्वी, पुत्र, स्वजनो, सम्पत्ति अने स्त्रीओने तथा देवताओ पण जेने मागे छे तेवी अने पोतानी कृपादृष्टिने इच्छती लक्ष्मीने पण भरतजीए लेश मात्र इच्छी नहोती. ए वात महात्मा पुरुषोने घटे छे, कारण के जेमनुं चित्त भगवाननी सेवामां अनुरक्त थई गयुं होय तेओ मोक्षने पण तुच्छ गणे छे ॥४४॥

हरणनुं शरीर छोडवानी इच्छा थतां एमणे उच्च स्वरथी कह्युं हतुं के धर्मना पति (राखणहार) धर्मानुष्ठानमां निपुण, योग गम्य, साङ्ख्यना प्रतिपाद्य, प्रकृतिना स्वामी, यज्ञमूर्ति सर्वना अन्तर्यामी श्रीहरिने नमस्कार करुं छुं’’ ॥४५॥

य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो राजर्षेः भरतस्य अनुचरितं … आशास्ते न काञ्चन परत इति ॥४६॥

राजन्‌! राजर्षि भरतना पवित्र गुण अने कर्मो नी भक्त जनो पण प्रशंसा करे छे. एमनुं आ चरित्र घणुं कल्याण कारक आयुष्य वधारनार, धन, यश, स्वर्ग अने मोक्ष ने आपनार छे. जे माणस एनुं श्रवण करे, वर्णन करे अने प्रशंसा करे तेनी बधी कामनाओ स्वतः ज पूर्ण थई जाय छे; बीजाओ पासे एने कंई मागवुं पडतुं नथी ॥४६॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (बीजा, योगवडे स्वरूप स्थिति नामना प्रकरणमां भरत चरितमां आठमो) ‘‘भवाटवीनुं स्पष्टीकरण’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे(श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवी गटर जेवी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनारा श्रोताओने श्रीमहाप्रभुजी शुं समजता हशे? अध्याय-१४,

ईं उं ईं उं

७० पञ्चमस्कन्ध त्रीजुं ज्ञानवडे स्वरूपस्थिति प्रकरण

अध्याय १५

भरतवंशना राजाओनुं वर्णन

विशेष - एवी रीते आठ अध्यायथी भरतजीनुं चरित्र कह्युं. हवे आ पन्दरमा अध्यायमां ज्ञानवडे स्वरूपस्थिति कहेवामाटे एमना वंशना राजाओनुं वर्णन कहेवामां आवशे. भरतस्यात्मजः सुमतिर्नामाभिहितो यमु ह वाव केचित्‌ … स्वमनीषया पापीयस्या कलौ कल्पयिष्यन्ति ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भरतजीनो पुत्र सुमति नामनो थयो ए पहेला कहेवाई गयुं छे. ए सुमति ऋषभदेवजीना मार्गने अनुसर्या; तेने लीधे कळीयुगमां केटलाएक अनार्य पाखण्डी लोको पोतानी दुष्ट बुद्धिथी जो के वेदमां एने देव गण्यो नथी तो पण ए देव हतो एम मानशे ॥१॥

ए सुमतिने वृद्धसेना नामनी स्त्रीथी देवताजित नामे पुत्र थयो ॥२॥

देवताजितने असुरी नामनी स्त्री हती तेनाथी एने देवद्युम्न थयो. देवद्युम्नने धेनुमती नामनी स्त्रीथी परमेष्ठी नामे पुत्र थयो. परमेष्ठीने सुवर्चला नामनी स्त्रीथी प्रतीह नामनो पुत्रथयो ॥३॥

ए प्रतीहे घणा लोकोने ब्रह्मविद्यानो उपदेश करी शुद्धचित्त थई पोते पण परब्रह्मनो साक्षात्कार कर्यो हतो ॥४॥

प्रतीहने सुवर्चला नामनी स्त्रीथी प्रतिहर्ता, प्रस्तोता अने उद्‌गाता नामे त्रण पुत्रो थया. तेओ कर्मकाण्डमां कुशळ हता. प्रतिहर्ताने स्तुति नामनी स्त्रीथी अज अने भूमा नामना बे पुत्र थया ॥५॥

भूमाने ऋषिकुल्या नामनी स्त्रीथी उद्‌गीथ नामे पुत्र थयो. उद्‌गीथने देवकुल्या नामनी स्त्रीथी प्रस्ताव अने प्रस्तावने नियुत्साना गर्भथी विभु नामनो पुत्र थयो. विभुने रति नामनी स्त्रीथी पृथृषेण नामे पुत्र थयो पृथृषेणने आकूति नामनी स्त्रीथी नक्त नामे पुत्र थयो. नक्तने द्रूति नामनी स्त्रीथी महान राजर्षि अने उत्तम कीर्तिवाळो गय नामनो पुत्र थयो. गयने जगत्‌नी रक्षा माटे सत्त्वगुणनो स्वीकार करनार साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णुना अंश मानवामां आवे छे. संयम वगेरे अनेक गुणोने लीधे एमनी (गयनी) महापुरुषोमां गणना थाय छे ॥६॥

[[७१]] महाराज गये प्रजानां पालन, पोषण, रञ्जन, लाड-प्यार अने शासन वगेरे करी तथा अनेक प्रकारना यज्ञो करी निष्काम भावथी मात्र भगवत प्रेमने माटे पोताना धर्मनुं आचरण कर्युं तेथी एनां बधां ज कर्मो सर्वश्रेष्ठ परम पुरुष परमात्मा श्रीहरिने अर्पण थवाथी परमार्थरूप बनी गयां हता. तेथी तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषोना चरणोनी सेवाथी एमने भक्तियोगनी प्राप्ति थई, पछी तो अखण्ड भगवत स्मरण करी तेमणे पोतानुं चित्त शुद्ध कर्युं अने देहादि अनात्म वस्तुओमान्थी अहं भाव हटावी पोताना आत्मानो ब्रह्मरूपे अनुभव करवा लाग्या. आटलुं होवा छतां ते निराभिमान रहीने पृथ्वीनुं पालन करता रह्या ॥७॥

हे परीक्षित राजा! इतिहासवेत्ताओ एनुं चरित्र नीचे प्रमाणे वर्णवे छेः ॥८॥

‘‘गय राजाना जेवां काम बीजो कयो राजा करी शके? भगवानना अंशरूप गय राजा विना विधिवत्‌ यज्ञ करनार, सर्वलोकने मानपात्र, घणुं जाणनार, धर्मनुं रक्षण करनार, लक्ष्मीना प्रिय पात्र तथा सत्पुरुषोना शिरोमणि सत्पुरुषोनो साचो सेवक बीजो कयो राजा होई शके? ॥९॥

सती अने साचां आशीर्वचन आपती श्रद्धा, मैत्री अने दया वगेरे दक्षनी कन्याओए एनो गङ्गा वगेरे नदीओनां जळथी अभिषेक कर्यो हतो. जो के ए राजाना मनमां कशी आश नहोती तो पण पृथ्वीए, गायने जे प्रमाणे वाछरडा उपरना स्नेहथी पासो मूकी दूध दे छे ते ज प्रमाणे एमना गुणो उपर प्रसन्न थई प्रजाने धन, रत्न आदि बधा इच्छित पदार्थो आप्या हता. ए पोते निष्काम हता तो पण वेदोक्त कर्मोए एने बधी जातना भोग आप्या ॥१०॥

युद्ध स्थलमां एमना बाणोथी सत्कार पामी अनेक प्रकारनी भेटो राजाओए आपी अने ब्राह्मणोए दक्षिणा वगेरे धर्मथी सन्तुष्ट थई एमने पर लोकमां मळनार पोताना धर्म फलनो छठ्ठो भाग आपता हता* ॥११॥

विशेष - जे राजा धर्ममार्गथी प्रजापालन करतो होय तेने प्रजाना पुण्यमान्थी छठ्ठो भाग मळे छे एम धर्म शास्त्रमां लख्युं छे. पुण्यषड्‌ भागमादत्ते न्यायेन परिपालयन्‌। एना यज्ञमां इन्द्रने घणुं सोमपान करवाथी घेन चडी गयुं हतुं तथा एना अत्यन्त श्रद्धा अने शुद्ध अविचळ भक्तिथी अर्पण करेला यज्ञफळने यज्ञस्वरूप भगवाने प्रत्यक्ष प्रकट थईने ग्रहण कर्युं हतुम् ॥१२॥

जेमना तृप्त थवाथी ब्रह्माजीथी माण्डी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष अने अध्याय-१५,७२ पञ्चमस्कन्ध तृण पर्यन्त बधा जीव तत्काल तृप्त थई जाय छे ते विश्वात्मा श्रीहरि नित्यतृप्त होवा छतां राजर्षि गयना यज्ञमां तृप्त थई गया हता. तेथी तेनी बराबरी कोई बीजी व्यक्ति केवी रीते करी शके?’’ ॥१३॥

ए गय राजाने गयन्ती नामनी राणीथी चित्ररथ, सुगति अने अवरोधन ए नामना त्रण पुत्रो थया. चित्ररथने ऊर्णा नामनी स्त्रीथी सम्राड नामे पुत्र थयो ॥१४॥

सम्राडने उत्कला नामनी स्त्रीथी मरीचि नामे पुत्र थयो. मरीचिने बिन्दुमती नामनी स्त्रीथी बिन्दुमान नामनो पुत्र थयो. बिन्दुमानने सरघा नामनी स्त्रीथी मधु नामे पुत्र थयो. मधुने सुमना नामनी स्त्रीथी वीरव्रत नामनो पुत्र थयो. वीरव्रतने भोजा नामनी स्त्रीथी मन्थु अने प्रमन्थु नामना बे पुत्र थया. मन्थुने सत्या नामनी स्त्रीथी भौवन नामे पुत्र थयो. भौवनने दुषणा नामनी स्त्रीथी त्वष्टा नामे पुत्र थयो. त्वष्टाने विरोचना नामनी स्त्रीथी विरज नामनो पुत्र थयो. विरजने विषूची नामनी स्त्रीथी सो पुत्र थया हता, जेमा शतजित सौथी मोटो हतो. एने एक क्या पण थई हती ॥१५॥

प्रैयव्रतं वंशमिमं विरजश्वरमोद्‌भवः। अक्ररोदत्यलं कीर्त्या विष्णुः सुरगणं यथा ॥१६॥

विरजना विषयमां नीचे प्रमाणे श्लोक प्रसिद्ध छेः‘‘जेम विष्णु पोतानी कीर्तिथी देवोना समूहने बहु ज शोभावे छे तेम छेल्ला उत्पन्न थयेला विरज राजाए आ प्रियव्रतना वंशने पोतानी कीर्तिथी बहु ज शोभाव्यो हतो’’ ॥१६॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (त्रीजा ज्ञानवडे स्वरूपस्थिति प्रकरणमां भरत वंशनी उत्तमता नामनो पहेलो) ‘‘भरतना वंशना राजाओनुं वर्णन’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!! [[७३]] प्रकरण४ः भूमिनी देशस्थिति

अध्याय १६

जम्बूद्वीपना नव खण्डोनुं वर्णन तथा मेरुपर्वतनी स्थिति

विशेष - पन्दर अध्यायवडे स्वरूप स्थितिनुं वर्णन थयुं, हवे अगियार अध्यायवडे देश स्थितिनुं वर्णन आरम्भाय छे. तेमां पहेला पाञ्च अध्यायवडे भूमिनुं निरूपण करवामां आवशे. आ सोळमा अध्यायमां जम्बूद्वीपना नव खण्ड अने नीचे उपर फरता घेरावाथी पृथ्वीरूप कमळनी डाण्डी जेवी मेरु पर्वतनी स्थिति कहेवाशे. उक्तः त्वया भूमण्डलायाम्‌ अविशेषो यावदादित्यः तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - जेटलामां सूर्य प्रकाशे छे अने नक्षत्रोना गण सहित चन्द्रमा ज्यां देखाय छे तेटलो भूमण्डळनो विस्तार छे एम आप कही गया छो ॥१॥

तेमां पण प्रियव्रतना रथनां पैडान्नी सात लोकोथी सात समुद्रो थया छे ते समुद्रो उपरथी आ पृथ्वीमां सात द्वीपनी रचना थई छे एम आपे जणाव्युं छे. हे समर्थ भगवन्‌! हवे हुं ए सघळी बाबतने एनां प्रमाण अने लक्षण साथे जाणवा इच्छु छुम् ॥२॥

कारण के जे मन भगवानना आ गुणमय स्थूल विग्रह (शरीर) मां लागी शके छे ते ज एमना वासुदेव नामना स्वयं प्रकाश, निर्गुण, ब्रह्मरूप, सूक्ष्मतम स्वरूपमां पण लागे एवो सम्भव छे. तेथी गुरुदेव! आ विषयनुं विशद रूपथी वर्णन करवानी आप कृपा करो ॥३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा! भगवाननी मायाना गुणोनो विस्तार एटलो अनन्त छे के देवोना आयुष्य जेटलो काळ जाय तो पण न तो ए माणसना मनमां आवी शके के न तो वचनथी वर्णवी शकाय. माटे अमे मुख्य-मुख्य बाबतो लई भूगोळनी रचनानुं नाम एना रूप परिमाण अने लक्षणनी विशेषताओनुं व्याख्यान करीशुम् ॥४॥

आ जम्बूद्वीप-जेमां आपणे रहीए छीए-भूमण्डळरूप कमलना कोश स्थानीय जे सात द्वीप छे. एमां सौथी अन्दरनो कोश छे. एनो विस्तार एक लाख योजन अध्याय-१६,७४ पञ्चमस्कन्ध छे अने ते कमलपत्रना जेवा गोळाकार छे ॥५॥

आ द्वीपमां नव खण्ड छे ते प्रत्येकनो विस्तार नव-नव हजार *योजननो छे. ए खण्डोनी सीमा आठ पर्वतो तेमनी चोक्कस हद बान्धी विभक्त करे छे ॥६॥

विशेष - भद्राश्च अने केतुमाल खण्ड सिवाय बाकीना खण्डो नव-नव हजार योजनना छे. एम समजवुं केमके ए बे खण्डो तो चोत्रीश चोत्रीश हजार योजनना विस्तारवाळा छे. एना मध्यमां इलावृत नामनो दशमो खण्ड छे. ए इलावृतना मध्यमां कुल पर्वतोनो राजा मेरु पर्वत छे. ए मेरु पर्वत आखो सोनानो छे, लाख योजन ऊञ्चो छे अने भूमण्डळरूप कमळनी डाण्डीरूप छे. ए मेरुनो विस्तार शिखर उपर बत्रीस हजार योजन अने तळेटीमां सोळ योजन छे. धरतीमां एनो पायो पण सोळ हजार योजन ऊण्डो छे. अर्थात्‌ पृथ्वीना बहार एनी ऊञ्चाई चोरासी हजार योजन छे ॥७॥

ईलावृतनी उत्तरमां अनुक्रमे नीलश्वेत अने शृङ्गवान्‌ नामना त्रण रम्यक्‌, हिरण्मय अने कुरु नामना खण्डोनी सीमा बान्धे छे. ए पूर्वथी पश्चिम तरफ खारा समुद्र सुधी विस्तरेला छे, बब्बे हजार योजन पहोळा छे. ए पर्वतोमां पहेला करतां पछीनो पर्वत क्रमशः एक एकथी दसमा भागथी कांईक वधारे लम्बाईमां ओछो छे ॥८॥

एवी रीते इलावृत खण्डनी दक्षिण तरफमां निषध, हेमकूट अने हिमालय नामना त्रण पर्वतो छे. नीलादि पर्वतोनी जेम ए पण पूर्व पश्चिममां फेलायेला छे अने दश दश हजार योजन ऊञ्चा छे एनाथी क्रमशः हरिवर्षः, किं पुरुष अने भारतवर्षनी सीमाओ जुदी पडे छे ॥९॥

एवी रीते ज इलावृतनी पूर्व अने पश्चिम तरफ माल्यवान्‌ अने गन्धमादन नामना पर्वतो छे. ए उत्तरमां नीलपर्वत अने दक्षिणमां निषध सुधी लाम्बा छे अने बब्बे हजार योजन पहोळा छे. ए पर्वतो केतुमाल अने भद्राश्च खण्डनी सीमा निश्चित करे छे ॥१०॥

ए सिवाय मन्दर, मेरु मन्दर, सुपार्श्च अने कुमुद नामना दश दश हजार योजन ऊञ्चा अने तेटला ज पहोळा पर्वतो मेरु (मेरुं पर्वत सुवर्णमय छे अने एनी आकृति मन्थन दण्डना जेवी छे. आ कथा अष्टम स्कन्धमां कहेवाशे.) पर्वतनी चार दिशाओमां आधारभूत स्तम्भ जेवा आवेला छे ॥११॥

[[७५]] आ चारे पर्वतोनी उपर एमनी ध्वजाओ जेवा अनुक्रमे आम्बो, जाम्बु, कदम्ब अने वडनां चार मोटा झाड छे तेमान्नुं दरेक अगियार सो योजन ऊञ्चुं छे; शाखाओनो विस्तार पण एवडो ज छे अने सो-सो योजन जाडुं छे ॥१२॥

ए पर्वतोनी उपर दूधनो, मधनो, शेरडीनो अने मीठा पाणीनो एम अनुक्रमे चार सरोवरो छे. तेमनुं सेवन करनार यक्ष किन्नरादि उपदेवोने योगसिद्धिओ स्वभावथीज प्राप्त छे ॥१३॥

ए पर्वतो उपर अनुक्रमे नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक अने सर्वतोभद्र नामना दिव्य चार बगीचा पण छे ॥१४॥

एमां मुख्य-मुख्य देवगण अनेक सुरसुन्दरीओना नायक बनी साथे विहार करे छे ए वखते गन्धर्वादि उपदेवगण एमना महिमानी स्तुति करता रहे छे ॥१५॥

मन्दर पर्वतनी गोदमां अगियारसो योजन ऊञ्चा देवताओना आम्बामान्थी पर्वतना शिखर जेवडां मोटा अने अमृत जेवां स्वादिष्ट फळ पडे छे ॥१६॥

ए फळो नीचे पडीने फाटी जतां एनी अत्यन्त मधुर स्वभाविक सुगन्धी अने लाल-लाल रङ्गनो पुष्कळ रस वहेवा लागे छे ते ज अरुणोदा नामनी नदीमां परिणत थाय छे. ते नदी मन्दराचलना शिखर परथी पडे छे अने पूर्व तरफ इलावृत खण्डने र्भीजवी दे छे ॥१७॥

ए रसनुं सेवन करनारी यक्षलोकोनी स्त्रीओ, जेओ पार्वतीनी दासीओ छे तेमना अवयवोना स्पर्शथी सुगन्धी थयेलो वायु दश दश योजन सुधी चारे तरफ सुगन्ध फेलावे छे ॥१८॥

एवी ज रीते मोटे भागे ठळिया वगरनां अने हाथी जेवडां जाम्बु ऊञ्चेथी पडी फाटी जतां एना रसमान्थी जम्बू नदी वहे छे. ए दश हजार योजन ऊञ्चा मेरुमन्दर पर्वतना शिखर उपरथी पडी इलावृतनी दक्षिण भूभागउपर वहेछे ॥१९॥

एना बन्ने काण्ठानी माटी ए जम्बूना रसथी र्भीजाई छे अने वायु तथा सूर्यना संयोगथी सुकाई जाय छे त्यारे ते ज जाम्बुनद नामनुं सोनु बनी जाय छे जे देवलोकने विभूषित करे छे ॥२०॥

ए सोनाने देवो, गन्धर्वो वगेरे पोतानी तरुणी स्त्रीओ साथे मुकुट, कडां अने कटिमेखला वगेरे आभूषणरूपे धारण करे छे ॥२१॥

सुपार्श्च पर्वत उपर ऊगेलुं जे मोटुं कदम्बनुं झाड छे तेनां कोतरोमान्थी पाञ्चअध्याय-१६,७६ पञ्चमस्कन्ध पाञ्च वाम जाडी पाञ्च मधनी धाराओ नीकळ्या करे छे ते सुपार्श्चना शिखर उपरथी पडीने पश्चिम तरफ इलावृत खण्डने पोतानी सुगन्धथी सुवासित करे छे ॥२२॥

ए मधनी धाराओनो उपयोग करनारा लोकोना श्वासथी सुगन्धित थयेलो वायु चारे बाजुए सो-सो योजन सुधी एनी सुगन्ध फेलावी दे छे ॥२३॥

आ ज प्रमाणे कुमुद पर्वत उपर जे शतवल्श नामनुं वडलानुं वृक्ष छे एनी जटाओमान्थी नीचे वहेता अनेक नद नीकळे छे. ए बधा इच्छा प्रमाणे भोग देनारा छे. एमान्थी दूध, दर्ही, मध, घी, गोळ, अन्न वगेरे वस्त्र, शय्या, आसन अने आभूषण आदि बधाज पदार्थ मळी शके छे ए बधां कुमुदना शिखरना उपरथी पडी इलावृत्तना उत्तरना भागने र्सीचे छे ॥२४॥

एमना आपेला पदार्थोनो उपभोग करवाथी त्यान्नी प्रजानी चामडीमां करचलीओ पडवी, वाळ सफेद थई जवा, थाक लागवो शरीरमां पसीनो थवो तथा दुर्गन्ध नीकळवी, घडपण, रोग, मृत्यु, शरदी गरमीनी पीडा, शरीरनुं निस्तेज थई जवुं, अङ्गो तूटवां वगेरे पीडाओ कदी सतावती नथी अने एमने जीवन पर्यन्त पूरेपुरुं सुख मळे छे ॥२५॥

राजन्‌! कमलनी कर्णिकानी चारे बाजु जेवी रीते केसर होय छे तेवी ज रीते मेरुना मूलदेशमां चारे तरफ कुरङ्ग कुरर, कुसुम्भ, वैकङ्क, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शङ्ख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालञ्जर अने नारद वगेरे बीजा वीश पर्वत छे ॥२६॥

ए सिवाय पूर्वमां जठर अने देवकूट नामना बे पर्वतो छे, जे अढार हजार योजन उत्तर तरफ लाम्बा छे अने बब्बे हजार योजन पहोळा तथा ऊञ्चा छे. एवी रीते मेरुनी पश्चिम दिशामां पवन तथा पारियात्र, दक्षिण दिशामां कैलास अने करवीर नामना बब्बे पर्वतो पूर्व तरफ लाम्बा छे. उत्तर तरफ त्रिशृङ्ग-मकर नामना बे पर्वतो छे. ते आठ पर्वतोथी घेरायेलो सोनानो *मेरुपर्वत अग्निनी पेठे चारे बाजुएथी झळहळे छे ॥२७॥

विशेष - मेरु पर्वत पर नव पुरीओ छे. तेनां नाम अनुक्रमे मनोवती, अमरावती, तेजोवती, संयमिनी, कृष्णाङ्गना, श्रद्धावती, गन्धवती, महोदया अने यशोवती. कहे छे के मेरुपर्वतना शिखरउपर बराबर वचमां भगवान्‌ ब्रह्माजीनी [[७७]] सुवर्णमयी पुरी छे जे आकारमां समचोरस अने करोड योजन विस्तारवाळीछे ॥२८॥

तामनु परितो लोकपालानामष्टानां यथादिशं यथारूपं तुरीयमानेन पुरोऽष्टावुपक्‌लृप्ताः ॥२९॥

एनी नीचे पूर्वादि आठ दिशा अने उपदिशाओमां एना अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालोनी आठ पुरीओ छे. ते पोत पोतना स्वामीने अनुरूप ते-ते दिशाओमां ज छे तथा मापमां ब्रह्माजीनी पुरीनी चोथाई-चोथो भाग छे ॥२९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (चोथो भूमिनी देशस्थिति नामना प्रकरणमां पहेलो) ‘‘जम्बुद्वीपना नव खण्डोनुं वर्णन तथा मेरुपर्वतनी स्थिति’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्‌।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवामनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे!

अध्याय १७

गङ्गाजीनुं दिशाओमां गमन तथा सदाशिवे करेली सङ्कर्षणनी सेवा

विशेष - आ सत्तरमां अध्यायमां चार दिशाओमां गङ्गाजीनां वहेणनी अने इलावृत खण्डमां सदाशिवे करेला सङ्कर्षणना सेवननी कथा कहेवाशे. तत्र भगवतः साक्षाद्यज्ञलिङ्गस्य विष्णोर्‌ विक्रमतो … कालेन युगसहस्त्रोपलक्षणेन दिवो मुर्द्धन्यवततार यत्तद्विष्णुपदम्‌ आहुः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - साक्षात्‌ वामन भगवाने बलि राजाना यज्ञमां विराट अध्याय-१७,

ईं उं ईं उं

७८ पञ्चमस्कन्ध स्वरूप धारण करी जमणा चरणथी पृथ्वीने दबावी, पोताना डाबा चरणने ऊञ्चुं कर्युं त्यारे ए चरणना अङ्गूठाना नखथी ब्रह्माण्डनो उपलो भाग फूटी गयो तेना छिद्रमान्थी ब्रह्माण्डना बहारना (आवरणना) जळनी धारा जे अन्दर आवी ते धारा हजारयुग जेटला लाम्बा काळ पछी स्वर्गने माथे ध्रूवलोकमां प्रवेशी. ए धाराथी भगवाननुं चरण धोवातां चरण उपरनां रातां केसरथी ए धारा रङ्गाई गई एने लीधे ते धारानो मात्र स्पर्श सर्व जगत्‌ना पापरूप मेलने मटाडे छे छतां पोते पापना सम्बन्धथी रहित निर्मल ज रहे छे. पहेलां तो एने बीजा कोई नामथी न ओळखावतां एने ‘भगवत्पदी’ ज कहेवामां आवती परन्तु, पाछळथी ते-ते प्रसङ्गो उपरथी जाह्‌नवी अने भागीरथी वगेरे नामोथी ओळखावा लागी. हजारो युगो वीती गया पछी ए धारा स्वर्गना शिरो भागमां आवेल ध्रुवलोकमां उतरी, जेने ‘विष्णुपद’ पण कहेवामां आवे छे ॥१॥

वीरव्रत परीक्षित ए ध्रुवलोकमां उत्तानपादना पुत्र परम भगवदीय ध्रुवजी रहे छे. ते रोज-रोज ऊभराता भक्ति भावथी ‘‘आ अमारा कुळ देवतानुं चरणोदक छे’’ एम मानी आज पण ए जलने अत्यन्त आदरपूर्वक मस्तक उपर चढावे छे. ते वखते प्रेमावेशने लीधे एमनुं हृदय अत्यन्त गद्‌गद थई जाय छे. उत्कण्ठाथी विवश थई र्मीचेला बेउ नेत्र कमलोमान्थी निर्मल अश्रुधारा वहेवा लागे छे अने शरीरमां रोमाञ्च थई जाय छे ॥२॥

त्यार पछी आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण एमनो प्रभाव (माहात्म्य) जाणता होवाथी आ ज तपस्यानी आत्यन्तिक (उत्तमोत्तम) सिद्धि छे एम मानी एने आज पण आदरपूर्वक पोताना जटा-जूटउपर एवीज रीते धारण करे छे के जेवी रीते मुमुक्षुओ प्राप्त थयेली मुक्तिने. आम तो तेओ सरासर निष्काम छे; सर्वात्मा भगवान्‌ वासुदेवनी निश्चल भक्तिनेज पोतानुं परमधन मानी एमणे बीजी बधी कामनाओने त्यजी दीधी छे. त्यां सुधी के आत्मज्ञानने पण तेओ ए (भक्ति)नी आगळ तृणवत्‌ लेखेछे ॥३॥

त्यान्थी गङ्गाजी करोडो विमानोथी घेराएला आकाशमां थईने ऊतरे छे अने चन्द्रमण्डलने र्भीजवती मेरुना शिखर उपर ब्रह्माजीनी नगरीमां पडे छे ॥४॥

त्यां ए सीता, अलकनन्दा, चक्षु अने भद्रा नामथी चार धाराओमां वहेञ्चाई जाय छे तथा अलग-अलग चार दिशाओमां वहीने अन्तमां नद-नदीओना पति [[७९]] समुद्रमां भळी जाय छे ॥५॥

एमां सीता नामनी धारा ब्रह्माजीना स्थानकमान्थी केसराचल वगेरे पर्वतनां सर्वोच्च शिखरो उपर थईने नीचे अने नीचे उतरतां गन्धमादन पर्वतनां शिखरो उपर पडे छे अने भद्राश्व खण्डमां थईने पूर्व दिशामां खारा समुद्रने मळे छे ॥६॥

ए प्रमाणे चक्षु नामनी धारा माल्यवान्‌ पर्वतना शिखर उपरथी खळखळाट केतुमाल खण्ड तरफ जाय छे अने त्यान्थी पश्चिम दिशामां समुद्रने मळे छे ॥७॥

भद्रा नामनी धारा मेरु पर्वतना शिखरेथी उत्तर तरफ पडतां नील पर्वतना शिखरथी श्वेत पर्वतना शिखर उपर अने श्वेत पर्वतना शिखर ऊपरथी शृङ्गवान्‌ पर्वतना शिखर उपर पडीने नीचे चाली जाय छे ते उत्तर कुरुखण्डमां वहीने उत्तर दिशामां समुद्रने मळे छे ॥८॥

अलकनन्दा ब्रह्मपुरीथी दक्षिण तरफ पडी अनेक गिरिशिखरो उपर ठेकडा मारती हेमकूट पर्वत उपर आवे छे. त्यान्थी अत्यन्त प्रचण्ड वेगथी हिमालयनां शिखरोने चीरती-चीरती भारतवर्षमां आवे छे अने पछी दक्षिण तरफ समुद्रमां समाई जाय छे. एमां स्नान करवा आवनारा पुरुषोने डगले-डगले अश्वमेध अने राजसुय आदि यज्ञोनुं फल पण दुर्लभ नथी ॥९॥

प्रत्येक खण्डमां मेरु वगेरे पर्वतोमान्थी नीकळती बीजी पण सेङ्कडो नद-नदीओ छे ॥१०॥

ए सघळा खण्डमां भरतखण्ड ज कर्मभूमि छे, बीजा आठ खण्ड तो देवोने स्वर्गमां भोगवातां बाकी रहेलां पुण्योना भोग भोगववानां स्थान छे तेथी तेमने पृथ्वी उपरना स्वर्ग पण कहेवामां आवे छे ॥११॥

त्यान्ना देवतुल्य मनुष्योनुं माणसनी गणतरी प्रमाणे दस हजार वर्षनुं आयुष्य होय छे. तेमनामां दस हजार हाथीओनुं बळ होय छे तथा तेमनां वज्र जेवां शरीरोमां जे शक्ति, यौवन अने उल्लास होय छे एने लीधे तेओ लाम्बा समय सुधी मैथुन आदि विषयो भगोवता रहे छे. अन्तमां जयारे भोग समाप्त थतां एमनुं आयुष्य फकत एक ज वर्ष बाकी रहे छे त्यारे तेमनी स्त्रीओ एक गर्भ धारण करे छे. आ प्रमाणे त्यां सर्वदा त्रेतायुगना जेवो समय रहेतो होय छे ॥१२॥

पोतपोताना मुख्य सेवकोथी उत्तम रीते पूजायेला ए देव लोको आश्रम, भवन, खण्ड, पर्वतनी गुफाओमां अने निर्मळ जळाशयोमां जळक्रीडा करे छे तेम ज विचित्र अध्याय-१७,८० पञ्चमस्कन्ध क्रीडाओ करी स्वच्छन्द रीते ए खण्डोमां विहार करे छे. सर्व ऋतुओमां फूल, गुच्छ, फळ अने नवां कुम्पळियान्नी समृद्धिथी बहु ज नमी रहेली शाखाओ अने लतावाळां वृक्षोथी ए आश्रमो अने पर्वतोनां सुन्दर वन बहु ज शोभी रह्यां छे. उघडेलां अने नवां अनेक प्रकारनां कमळोनी सुगन्धीथी प्रसन्न थयेलां राजहंस, जळकूकडी, कारण्डव, सारस अने चक्रवाक वगेरे पक्षीओ तथा जातजातना अनेक भ्रमरो जळाशयोमां गुञ्जार करे छे, अत्यन्त सुन्दर देवाङ्गनाओना कामोन्माद सूचक विलास, हास अने लीला कटाक्षथी विहार करनारा देवलोकोनां मन अने नेत्र आकर्षायछे ॥१३॥

नवे खण्डोमां महापुरुष भगवान्‌ नारायण पोताना भक्तो उपर अनुग्रह करवाने माटे आजे पण पोतानी विभिन्न मूर्तिओथी बिराजी रह्या छे ॥१४॥

ईलावृत खण्डमां तो सदाशिव एक ज पुरुष छे. बीजो कोई पण पुरुष एमां जतो नथी. जे पुरुष ए खण्डमां जाय छे ते पार्वतीना शापने लीधे स्त्री बनी जाय छे; ए प्रसङ्ग हवे पछी (नवमां स्कन्धमां) कहीश ॥१५॥

ए इलावृतमां पार्वती अने तेनी अबजो दासीओ सदाशिवनी सेवा करे छे. पोते सदाशिव शेषनागनी भक्ति करे छे. वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न अने अनिरुद्ध नामनी चतुर्व्यूह मूर्तिओवाळा महापुरुष भगवान्‌ सङ्कर्षण (शेषनाग) नामनी चोथी पोताना कारणरूप तमःप्रधान मूर्ति तेनुं मनमां ध्यान करी पोते नीचेना मन्त्रथी जप करतां भजे छे ॥१६॥

भगवान्‌ शङ्कर कहे छे - ‘‘ॐ जेमान्थी बधां गुणोनो प्रकाश थाय छे ते अनन्त अने अव्यकत मूर्ति ॐकार स्वरूप परम पुरुष श्रीभागवानने नमस्कार छे’’ ॥१७॥

हे भजवा योग्य परमेश्वर! आप स्वयं सर्व प्रकारनां ऐश्वर्यना परम आश्रयरूप छो, भक्तोने पोताना अत्यन्त दयाळु स्वरूपनुं दर्शन करावो छो, संसारने मटाडो छो, आपनुं चरणारविन्द शरणरूप छे एवा आपने हुं भजुं छुं ॥१८॥

जगत्‌ने नियममां राखवामाटे आप जोया करो छो, छतां जेम क्रोधना वेगने नहि जीतनार एम लोकोनी दृष्टि लेपाई जाय छे एना विषयोथी अने इन्द्रियोथी आपनी दृष्टि जरा पण लेपाती नथी. आवी स्थितिमां पोताना मनने वशमां करवानी इच्छावाळो कयो पुरुष आपने न भजे? ॥१९॥

[[८१]] खोटी दृष्टिवाळा पुरुषने आप मायाने लीधे जाणे भयङ्कर हो, मदिरा के आसवथी राती आङ्खोवाळा हो एवा जणाओ छो केमके आपना चरणस्पर्शथी कामातुर थयेली नागणीओ लज्जाने लीधे आपनुं पूरुं पूजन पण करी शकती नथी ॥२०॥

वेदमन्त्रो आपने आ जगत्‌नां उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयथी रहित कहे छे. आपनां हजार मस्तकोमां एक माथा उपर सरसवनी पेठे आखुं भूमण्डळ रह्युं छे. आपने तो ए पण खबर नथी के ए कयां रहेलुं छे ॥२१॥

सत्त्वगुण ए महत्तत्त्वना आश्रयरूप छे ते आपना गुणना सम्बन्धने लीधे थयेलो प्रथम देह छे. ए देहमान्थी ब्रह्मा उत्पन्न थाय छे. ब्रह्मामान्थी थयेलो हुं त्रिगुणात्मक अहङ्कारथी देवता पाञ्च भूतो अने इन्द्रियोना वर्गने उत्पन्न करुं छुम् ॥२२॥

अने महत्तत्त्व, अहङ्कार, देवताओ, पाञ्चभूत तथा इन्द्रियो जेम पक्षीओ दोरीथी बन्धाई रहे तेम आपनी क्रियाशक्तिथी बन्धाई आप महात्माना वशमां रहेतां आपना ज अनुग्रहथी आ जगत्‌ने उत्पन्न करीए छीए ॥२३॥

यन्निर्मितां कर्ह्यषि कर्मपर्वर्णी मायां जनोऽयं गुणसर्गमोहितः ॥ न वेद निस्तारणयोगमञ्जसा तस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥२४॥

संसारमां मोह पामेलो आ जन, माया जे कर्मरूप बन्धनवडे बन्धन करे छे तेने कदाचित्‌ जाणी पण ले पण एमान्थी सरळताथी छूटवाना उपायने जाणतो नथी. आ जगत्‌नी उत्पत्ति अने प्रलय पण आपनाञ्ज रूप छे, आपने प्रणाम करुं छुं ॥२४॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां(चोथा भूमिनी देशस्थिति प्रकरणमां गङ्गाजलना सम्बन्धथी आगन्तुक कर्मोनो उत्कर्ष नामनो बीजो) ‘‘गङ्गाजीनुं दिशामां गमन तथा सदाशिवे करेली सङ्कर्षणनी सेवा’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!! अध्याय-१७,

ईं उं ईं उं

८२ पञ्चमस्कन्ध

अध्याय १८

छ खण्डना ईष्ट देवो तथा एना भक्तो

विशेष - आ अढारमा अध्यायमां भद्राश्चादि खण्डोमां प्रभुनुं निरूपण अने ए वडे भूमिनो उत्कर्ष कहेवाशे. भद्राश्व एटले भारतवर्ष. तथाच भद्रश्रवा नाम धर्मसुतः तत्कुलपतयः पुरुषा… हयशीर्षाभिधानां परमेण समाधिना सन्निधाप्येदम्‌ अभिगृणन्त उपधावन्ति ॥१॥

श्रीशुकदेवजी कहे छे - ए प्रमाणे ज भद्राश्व खण्डमां धर्मनो पुत्र भद्रश्रवा अने एना कुळनामुख्य पुरुषो अने सेवको वासुदेवनी हयग्रीव नामनी धर्ममयी प्रिय मूर्तिने अत्यन्त समाधिनिष्ठाद्वारा हृदयमां स्थापी नीचे प्रमाणे मन्त्र बोले छे अने स्तुति करे छे ॥१॥

भद्रश्रवाओ (ए लोकोमां भद्रश्रवा मुख्य होवाथी सघळाओने भद्रश्रवा एवुं नाम आपेलुं छे.) बोले छे - ओङ्कार स्वरूप भगवान्‌ अने अन्तःकरणने शुद्ध करनार धर्मने प्रणाम करीए छीए ॥२॥

अहो! भगवाननी *लीला घणी विचित्र छे, जेने लीधे आ जीव सम्पूर्ण लोकोना संहार करनारा काळने जोवा छतां जोतो नथी. पापमय अने तुच्छ विषयोनुं सेवन करवामाटे विचारोनी लायमां पोतानेज हाथे पोताना पुत्र अने पितादिनी लाशमां आग चाम्पीने पण पोते जीवता रहेवानी इच्छा राखे छे ॥३॥

विशेष - भगवद्‌ भजननी इच्छाथी जीववुं ए पाप नथी पण ‘विकर्म’ एटले खराब कर्म करवानी इच्छावडे जीववाथी नरकमां ज पतन थाय छे. विद्वान्‌ लोको जगत्‌ने नाशवन्त कहे छे अने सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी पुरुषो एवुं ज जुए पण छे तो पण हे जन्मरहित! लोको आपनी मायाथी मोह पामी रह्या छे. आपनुं ए कार्य अत्यन्त विचित्र छे. माटे बीजुं बधुं मूकी दई, आप अनादिनुं अमे नमस्कार (जीव प्रभुने नमन ज करी शके, नमन सिवाय एनाथी बीजुं कांई पण प्रभुने प्रसन्न करवा बनी शक्तुं नथी.) करीए छीए ॥४॥

आप अकर्ता अने आवरण रहित छतां जगत्‌नां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयनां कार्य करो छो एम वेदे स्वीकार्युं छे ए ठीक ज छे एमां कांई आश्चर्यनी वात नथी. कारण के सर्वात्मरूपथी आप ज तमाम कार्योना कारण छो अने आपना शुद्ध [[८३]] स्वरूपमां कार्यकारण भावथी सर्वथा अतीत-पर छो ॥५॥

प्रलयकाळमां तमः प्रधान दैत्यगण वेदोने (महाभारतना शान्ति पर्वमां मोक्षधर्ममां आ कथानो विस्तार छे.) चोरी गया हता त्यारे आपे ब्रह्माजीनी प्रार्थनाथी हयग्रीव(घोडाना माथावाळा पुरुष) नो अवतार धरी पाताळमान्थी ए वेदने लावी आप्या हता एवा सत्य सङ्कल्प आपने नमस्कार (आ चतुश्लोकीवडे ‘‘जन्माद्यस्य…’’आ मङ्गलाचरणना अर्थनो सङ्ग्रह कर्यो छे.) करीए छीए ॥६॥

हरिवर्ष खण्डमां पण नृसिंहरूपथी भगवान्‌ बिराजी रह्या छे ए अवतार लेवानुं कारण हवे पछी (सप्तम स्कन्धमां) कहीश. महापुरुषो चित्तना गुणोथी सम्पन्न महावैष्णव अने जेमणे पोतानां शील अने आचरण थी दैत्य अने दानवोनां कुलने पवित्र करी दीधां छे तेवा प्रह्‌लादजी आ खण्डना पुरुषोनी साथे निष्काम अने अनन्य भक्तिथी ए भगवानना प्रियरूपनी उपासना करे छे. ए आ मन्त्र अने स्तोत्र ना जप-पाठ करे छेः ॥७॥

ओङ्कार स्वरूप भगवान्‌ श्रीनरसिंहजीने (नृसिंह अवतारनुं प्रयोजन सप्तम स्कन्धमां कहेवाशे.) नमस्कार हो. आप सूर्य, अग्नि वगेरे तेजोनां पण तेज छो, आपने नमस्कार. हे वज्रनख! हे वज्रदृष्ट्र! आप अमारी सामे प्रकट थाओ, प्रकट थाओ; अमारी कर्म वासनाओने बाळी नाखो, बाळी नाखो, अमारा अज्ञानरूपी अन्धकारने चीरी नाखो, चीरी नाखो. ॐ स्वाहा अमारा अन्तःकरणमां अभयरूप थाओ ॥८॥

विश्वनुं कल्याण थाओ. खल पुरुषोनी बुद्धि शुद्ध हो. बधां परस्पर कल्याण इच्छो. मन शुभ मार्गमां प्रवृत्त हो. अने अमारी बुद्धि निष्काम थईने भगवान्‌मां प्रवेश करो ॥९॥

अमने कोईनो सङ्ग थशो नहि. जो कदाच थाय तो घर, स्त्री, पुत्र, धन अने सम्बन्धीओनो सङ्ग थशो नहि पण भगवानना प्रेमी भक्तोनो सङ्ग थजो, मात्र शरीर निर्वाह पूरता अन्न वगेरेथी संयमी पुरुषने जेटली जलदी सिद्धि प्राप्त थाय छे तेटली जलदी इन्द्रियोनो आळ-पम्पाळ करनारने थती नथी ॥१०॥

ते भगवद्‌ भक्तोना सङ्गथी भगवानना तीर्थ तुल्य पवित्र चरित्र साम्भळवा मळे छे, जे एमनी अद्‌भुत शक्ति अने प्रभावनां सूचक होय छे. एमनुं वारंवार सेवन करवावाळाना कानने रस्ते भगवान्‌ हृदयमां प्रवेश करी ले छे अने एमना बधी अध्याय-१८,८४ पञ्चमस्कन्ध जातना दैहिक अने मानसिक मलनो नाश करी दे छे. पछी भला ए भगवद्‌ भक्तोनो सङ्ग करवो कोने न गमे? ॥११॥

जे माणसने भगवान्‌मां निष्काम भक्ति होय ते माणसमां सघळा देवता धर्मज्ञानादि सम्पूर्ण सद्‌गुणोनी साथे सदा वास करे छे. परन्तु भगवानना भक्त ज नथी तेमां महापुरुषोना ते गुण आवी ज कयान्थी शके? ते तो हवामां ज किल्ला बान्धतो निरन्तर तुच्छ बहारना विषयोनी पाछळ दोड्या करे छे ॥१२॥

जेम माछलान्ने पाणी अत्यन्त प्रिय एना जीवननो आधार आत्मा छे तेम साक्षात्‌ भगवान्‌ समस्त प्राणीओना प्रियतम आत्मा छे माटे एमने छोडी जो कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घरमां आसक्त रहेतो होय तो ए अवस्थामां स्त्री- पुरुषोनी मोटाईमात्र आयुष्यनी दृष्टिए गणाय छे, गुणोनी दृष्टिए नहि ॥१३॥

एटला माटे हे असुरगण! तमे तृष्णा, राग, खेद, क्रोध, अभिमान, स्पृहा, भय, दीनता अने मननी पीडाओनुं मूळ घर जेने लीधे जन्म मरण चाल्या करे छे तेनो त्याग करी नृसिंहजीनां निर्भय चरणारविन्दने ज भजो’’ ॥१४॥

केतुमाल खण्डमां लक्ष्मीजीनुं तथा संवत्सर नामना प्रजापतिनी पुत्रीओ (रात्रिओनुं अभिमान धरावनारी देवताओ) तथा पुत्रो (दिवसनुं अभिमान धरावनारा देवो) नुं प्रिय करवानी इच्छाथी भगवान्‌ कामदेवना स्वरूपथी बिराजे छे. ए रात्रिनी अभिमानी देवतारूप कन्याओ अने दिवसना अभिमानी देवतारूप पुत्रोनी सङ्ख्या, मनुष्यना सो वर्षना आयुना दिन अने रात नी बराबर एटले के छत्रीस-छत्रीस हजार वर्ष छे अने तेओ ज ए खण्डना अधिपति छे. भगवानना चक्रना तेजथी उद्वेग पामती ए प्रजापतिनी पुत्रीओना गर्भो वर्षने अन्ते चक्रथी हणाईने प्राणरहित थई पडी जाय छे ॥१५॥

भगवान्‌ पोताना अत्यन्त मनमोहक गतिविलासथी सुशोभित मीठी-मीठी मन्द मुसकानथी मनोहर लीला सभर चारु चितवनथी कंईक ऊञ्चा थयेल सुन्दर भ्रूमण्डलनी छबीली छटाद्वारा वदनारविन्दनुं अफाट (अपार) सौन्दर्य उलेची सौन्दर्य देवी लक्ष्मीजीने अत्यन्त आनन्दित करता स्वयं पण आनन्दित थता रहे छे ॥१६॥

श्रीलक्ष्मीजी परम समाधियोगद्वारा भगवानना ए मायामय स्वरूपनी, रात्रे [[८५]] प्रजापति संवत्सरनी कन्याओ सहित अने दिवसे एमना पतिओ सहित आराधना करे छे अने ते मन्त्रनो जप करतां भगवाननी स्तुति करे छे ॥१७॥

लक्ष्मीजी बोले छे - जे इन्द्रियोना नियन्ता अने बधी ज श्रेष्ठ वस्तुओनी खाण छे, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति अने सङ्कल्प, अध्यवसाय आदि चित्तना धर्मो तथा तेमना विषयोना अधीश्वर छे, अगियार इन्द्रिय अने पाञ्च विषय-आ सोळ कलाओथी युक्त छे, वेदोक्त कर्मोथी प्राप्त थाय छे तथा अन्नमय, अमृतमय अने सर्वमय छे ए मानसिक ऐन्द्रियिक (इन्द्रियोना) अने शारीरिक बलस्वरूप परम सुन्दर भगवान्‌ कामदेवने बीज मन्त्रो सहित चारे तरफथी नमस्कार छे ॥१८॥

आप इन्द्रियोना स्वामी छो. व्रतथी आपनी ज आराधना करी स्त्रीओ लोकमां बीजा पतिने इच्छे छे. परन्तु ए बीजा पतिओ स्वयं परतन्त्र होवाथी ए स्त्रीओनां सन्तानने, प्रियवस्तुने, धनने के आयुष्यने बचावी शक्ता नथी ॥१९॥

साचो पति (रक्षा करनार अथवा ईश्वर) ए ज छे के जे पोते सर्वथा निर्भय होय अने बीजा भयभीत लोकोनी बधी रीते रक्षा करी शके एवा पति एकमात्र आप ज छो. जो एकथी वधारे ईश्वर छे एम मानवामां आवे तो एमने एक बीजाथी भय थवानी सम्भावना छे. तेथी आप आपनी प्राप्तिथी अधिक बीजा कोई लाभने मानता नथी ॥२०॥

जे स्त्री केवळ आपना चरणारविन्दनी पूजाने इच्छे पण बीजुं कंई न इच्छे ते स्त्री पोतानी मेळे ज सघळां ईष्ट सुखोने पामे छे. पण जे स्त्री कोई एक कामनाथी आपनी पूजा करे तेने जेटलुं तेणे धार्युं होय तेटलुं ज फळ आप आपो छो. परन्तु आवा फळनो भोग थई गया पछी नाश थई जतां ए स्त्रीने पाछुं दुःख पामवुं पडे छे ॥२१॥

हे अजित! जेमनुं मन इन्द्रिय सुखमां लागी रह्युं छे तेवा ब्रह्मा,शिव, सुर अने असुर वगेरे लोको मने पामवामाटे घोर तप करे छे. परन्तु आपना चरणनुं शरण लीधेला भक्तो सिवाय बीजुं कोई मने पामी शक्तुं नथी केमके मारुं हृदय तो आपमां ज लाग्युं रहे छे ॥२२॥

अच्युत! भक्त लोकोने मस्तक पर आपनुं जे हस्तकमळ आप धरो छो ते मारा मस्तक उपर पण धरो. वरेण्य, आप मने मात्र श्रीवत्सना चिह्‌नरूपथी आपश्रीना श्रीअङ्गमां धारण करो छो तेथी जो के मारे विशे आपनो अनादर नथी तो पण भक्त अध्याय-१८,८६ पञ्चमस्कन्ध लोको करतां मारा उपर आपनी कृपा ओछी जणाय छे, परन्तु एनुं खरुं कारण तो केम जाणी शकाय? आप ईश्वरनी मायाने लीधे आपे करवा धारेला निश्चयने जाणवाने कोण समर्थ छे?’’ ॥२३॥

रम्यक खण्डमां भगवान्‌ पोताना अत्यन्त मत्स्यावतारना रूपथी रहे छे. खण्डना मुख्य पुरुष मनुने ए रूप पूर्वकालमां देखाड्युं हतुं. ए मनु अत्यारे पण घणी भक्तिभावपूर्वक ए स्वरूपनी उपासना करे छे अने नीचे प्रमाणे बोले छेः ॥२४॥

मनु बोले छे - सत्त्व प्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल अने शरीरबल अने ओङ्कार पदना अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान्‌ महामत्स्यने वारंवार नमस्कार ॥२५॥

प्रभो! नट जेवी रीते कठपुतलीओने नचावे छे ते ज प्रमाणे आप ब्राह्मण, विधि, निषेध आदि नामोनी दोरीथी सम्पूर्ण विश्व आपने आधीन राखी तेने नचावो छो. तेथी आप ज बधाना प्रेरक छो. आपने ब्रह्मादि लोक पालगण पण जोई शक्ता नथी तो पण आप समस्त प्राणीओनी अन्दर प्राणरूपथी अने बहार वायुरूपथी निरन्तर सञ्चार करता रहो छो. वेदो ज आपनो महान शब्द छे ॥२६॥

एकवार इन्द्रादि इन्द्रियादि अभिमानी देवताओने प्राणस्वरूप आपनी ईर्ष्यानो ताव चड्यो. त्यारे आपना अलग थई जवाथी तेओ अलग-अलग अथवा आपसमां जूथमां पण मनुष्य-पशु, स्थावर-जङ्गम आदि जेटला शरीर देखाय छे एमान्थी कोईनी तूटी पडवा छतां रक्षा करी शकयां नहि ॥२७॥

अजन्मा प्रभो! जेमां ऊञ्चां-ऊञ्चां मोञ्जा ऊछळतां हतां तेवा प्रलयकाळना समुद्रमां, औषधि अने लताओना सहित पृथ्वीने अने एनी साथे मने पण धारण करीने आपे उत्साहथी खूब विहार कर्यो हतो. एवा सर्व जगत्‌ना प्राणना नियन्ता आपने प्रणाम करुं छुम् ॥२८॥

हिरण्मय खण्डमां कच्छपावतारना स्वरूपथी भगवान्‌ बिराजे छे. ए भगवानना अत्यन्त प्यारा स्वरूपने पितृओना अधिपति अर्यमा ए खण्डना निवासीओनी साथे भजे छे अने नीचेनो मन्त्र बोले छेःअर्यमा बोले छेः ॥२९॥

सम्पूर्ण सत्त्व गुणोवाळा अने जलमां विहार करता होवाने कारणे जेना स्थाननो कोई चोक्कस निश्चय करी शकातो नथी तेवा कच्छप स्वरूप आपने नमस्कार करुं छुं. काळथी एने परिच्छेद (माप) थतो नथी एवा आपने नमस्कार करुं छुं. सर्व [[८७]] व्यापक आपने नमस्कार करुं छुं. सर्वना आधाररूप ओङ्कार स्वरूप आपने वारंवार नमस्कार करुं छुम् ॥३०॥

आपनी मायाथी प्रकाश अने अनेकरूपोमां प्रतीत थतुं आ दृश्य प्रपञ्च जगत्‌ वगेरे आपनुं ज स्वरूप छे एवा आपने नमस्कार करुं छुम् ॥३१॥

एकमात्र आप ज जरायुज, स्वेदज, अण्डज अने उद्‌भिज्ज, स्थावर, जङ्गम, देव, ऋषि, पितृ, भूत, इन्द्रियोनी सृष्टि, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वतो, नदीओ, समुद्र, द्वीप ग्रह अने नक्षत्र एवां विभिन्न नामोथी प्रसिद्ध छो ॥३२॥

असङ्ख्य नाम, रूप अने आकृतिओ थी आप युक्त छो एवा आपना स्वरूपमां कपिलजी वगेरे विद्वानोए कल्पेली चोवीश तत्त्व वगेरेनी सङ्ख्या जे तत्त्वज्ञानथी मटी जाय छे ते साङ्ख्य सिद्धान्त स्वरूप आपने नमस्कार करुं छुं’’ ॥३३॥

उत्तर कुरु खण्डमां यज्ञपुरुष भगवान्‌ वराहनुं रूप धरीने बिराजी रह्या छे. आ पृथ्वी देवी त्यान्ना लोकोनी साथे ते वराहावतारने अविचल भक्तिथी भजे छे अने नीचेना परमोत्कृष्ट मन्त्रनो जप करतां-करतां स्तुति करे छे ॥३४॥

जेमनुं तत्त्व मन्त्रोथी जाणी शकाय छे, जे यज्ञ अने क्रतुरूप छे तथा मोटामोटा यज्ञो जेमनां अङ्ग छे ते ओङ्कार स्वरूप शुकल कर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान्‌ वराहजीने वारंवार नमस्कार छे ॥३५॥

ऋत्विज गण जेवी रीते अरणिरूप काष्ठमां छुपाएला अग्निने मन्थनथी प्रकट करे छे बहार काढे छे ते ज प्रमाणे कर्मासक्ति अने कर्मफल नी कामनाथी छुपाएला जेना रूपने जोवानी इच्छाथी परम प्रवीण पडिन्त लोको पोताना विवेकयुक्त मनरूप मन्थन काष्ठथी शरीर अने इन्द्रियो ने वलोवी नाखे छे. आ प्रमाणे मन्थन करतां जे पोतानुं स्वरूप करे छे तेवा आपने प्रणाम हो ॥३६॥

विषयो, इन्द्रियोना व्यापारो, इन्द्रियोना देवताओ, देह, काळ अने अहङ्कारए मायानां कार्य छे तेना उपरथी आपनुं खरुं स्वरूप जोवामां आवे छे. विचार तथा यमनियमादिक साधनोथी निश्चय पामेली बुद्धिवाळा लोको जेमना स्वरूपमान्थी नाम अने रूप काढी नाखे छे ते आपने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुम् ॥३७॥

जेवी रीते लोढुं जड होवा छतां, लोह चुम्बकनी हाजरीमां हलन-चलन करवा लागे छे ते ज प्रमाणे ज सर्वना साक्षी प्रभुनी इच्छा मात्रथी जे पोतानेमाटे नथी होती पण समस्त प्राणीओमाटे होय छे. प्रकृति पोताना गुणो सत्त्व-रजस्‌- अध्याय-१८,८८ पञ्चमस्कन्ध तमस्‌द्वारा जगत्‌नी उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय करती रहे छे एवा सम्पूर्ण गुणो अने कर्मोना साक्षी आपने नमस्कारहो ॥३८॥

प्रमथ्य दैत्यं प्रतिवारणं मृधे यो मां रसाया जगदादिसूकरः ॥ कृत्वाग्रदृंष्ट्रे निरगादुदन्वतः क्रीडन्निवेभः प्रणतास्मि तं विभुमिति ॥३९॥

आप जगत्‌ना कारणभूत आदि सूकर छो जेवी रीते एक हाथी बीजा हाथीने पछाडी दे छे ते ज प्रमाणे गजराजनी जेम रमत करतां-करतां ज आप युद्धमां पोताना प्रतिस्पर्धी हिरण्याक्ष दैत्यने रमतां-रमताञ्ज मारी नाखी मने(पृथ्वीने)पोतानी दाढोनी अणी उपर मूकी रसातलमान्थी प्रलयपयोधिनी बहार पधार्या हता. आप सर्वशक्तिमान प्रभुने वारंवार प्रणाम करुं छुम् ॥३९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (चोथो, भूमिनी स्वरूप स्थिति प्रकरणमां त्रीजो) ‘‘छ खण्डना ईष्टदेवो तथा एना भक्तो’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय १९

भरतखण्डना ईष्टदेव तथा एना सेवको

विशेष - आ ओगणीसमा अध्यायमां किं पुरुष अने भरतखण्डमां स्वामी अने सेवक नुं निरूपण थशे अने भरतखण्डनुं श्रेष्ठ पणुं कहेवाशे. किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तम्‌ आदिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं … अविरतभक्तिरुपास्ते ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - किम्पुरुष खण्डमां लक्ष्मणना मोटा भाई आदि पुरुष, सीताजीना मनने अत्यन्त आनन्दित करनारा भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीने [[८९]] महावैष्णव हनुमानजी जे रामचन्द्रजीना चरणना ध्यानमां रम्या करे छे. ते त्यान्ना रहेवासी किं पुरुष लोकोनी साथे अविचल भक्ति भाव पूर्वक भजे छे ॥१॥

त्यां बीजा गन्धर्वोनी साथे आर्ष्टिषेण पोताना स्वामी भगवान्‌ रामनी परम कल्याणमयी गुणगाथा गाया करे छे. श्रीहनुमानजीए साम्भळे छे अने पोते पण आ मन्त्रनो जप करतां-करतां आ प्रमाणे एमनी स्तुति करे छे ॥२॥

अमे ॐ कारस्वरूप, पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीरामने नमस्कार करीए छीए. आपमां सत्पुरुषोनां लक्षण, शील अने आचरण विद्यमान (मोजुद) छे; आप अत्यन्त संयमी तमाम लोकोने प्रसन्न करवामां तत्पर (अथवा जेनी लोको आराधना करे छे तेवा) सज्जनतानी परीक्षाने माटे कसोटी समान अने अत्यन्त ब्राह्मण भक्त छो. एवा महापुरुष महाराज रामने अमारा पुनः-पुनः प्रणाम हो ॥३॥

भगवन्‌! आप शुद्ध अनुभव स्वरूप, अद्वितीय, पोताना प्रकाशथी गुणोना कार्यरूप जाग्रत वगेरे अवस्थाओनुं निराकरण करनारा, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, शुद्धचित्तथी जणाय एवा, नामरूपथी अने अहङ्कारथी रहित छो. हुं आपने शरणे छुम् ॥४॥

आपे जे मनुष्यावतार लीधेलो ते केवळ राक्षसोने मारवामाटे ज नहोतो, मनुष्योने स्त्री सङ्गादिकथी थयेलुं दुःख वारी शकातुं नथी एम जणाववाने माटे पण लीधो हतो नहितर पोताना स्वरूपमां ज रमण करनार, जगत्‌ना आत्मा, परमेश्वरने सीताना वियोगमां आटलुं दुःख सम्भवे ज केम? ॥५॥

आप धीर पुरुषोना आत्मा अने प्रियतम भगवान्‌ वासुदेव छो. त्रैलोक्यमां कोईमां पण आप आसक्त नथी तेथी आपने नथी तो सीताजी माटे मोह थई शक्तो के नथी तो आप लक्ष्मणजीनो *त्याग करी शक्ता ॥६॥

विशेष - एकवार रामचन्द्रजी पासे छानी वात करवा देवदूत (मृत्यु) आव्या हता त्यारे लक्ष्मणजी पहेरा उपर हता, भगवाने लक्ष्मणजीने कह्युं हतुं के जे अन्दर आवशे तेने हुं मारी नाखीश. एटलामां दुर्वासा आवी चड्या. एनी खबर देवामाटे लक्ष्मणजी अन्दर आवतां रामचन्द्रजी एने मारी नाखवा तैयार थई गया त्यारे वसिष्ठजीए कह्युं के लक्ष्मणजीना प्राण न लेता एमनो त्याग करी देवो जोईए; कारण के पोताना प्रियजननो त्याग मृत्युदण्ड समान ज छे. ए कथा वाल्मीकीय उत्तरकाण्डमां छे. (पण ए प्रमाणे थयुं हतुं तेथी ए सघळुं लोकोने उपदेश देवामाटे ज हतुं एम निश्चय अध्याय-१९,९० पञ्चमस्कन्ध थाय छे). महात्मा पिताथी जन्म, सुन्दरता, वाक्‌चातुरी तीक्ष्ण बुद्धि अने श्रेष्ठ योनि-आमान्थी कोईपण गुणथी आप प्रसन्न थता नथी ए सिद्धान्त जणाववाने माटे ज आपे आ बधा गुणो विनाना एवा वनवासी वानरोनी साथे मित्रता करी छे. (एटला माटे भक्तिथी ज ए प्रसन्न थाय छे बीजा कोई पण साधनथी नहि एवो निश्चय छे) ॥७॥

देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य; कोई पण होय तेणे हर प्रकारे श्रीरामरूप आपनुं भजन करवुं जोईए; कारण के आप नररूपमां साक्षात्‌ श्रीहरि ज छो अने थोडुं कर्युं घणुं मानो छो. आश्रित-वत्सल तो आप एवा छो के ज्यारे आप दिव्यधामे पधार्या हता त्यारे तमाम उत्तर कोसलवासीओने पण आपनी साथे ज लई गया हता’’ ॥८॥

भरतखण्डमां पण नर-नारायण भगवान्‌ अप्रकट स्वरूपथी बिराजे छे. ए दयाने लीधे कल्प पूरो थतां सुधी संयमी पुरुषो उपर अनुग्रह करवा सारु एवी तपस्या करे छे के जेथी धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति अने उपरतिनी उत्तरोत्तर वृद्धि थई अन्ते आत्म स्वरूपनी प्राप्ति करावे छे ॥९॥

त्यां भगवान्‌ नारदजी स्वयं श्रीभगवाने उपदेशेला साङ्ख्य अने योगशास्त्र सहित भगवन्‌ महिमाने प्रकट करनारा पाञ्चरात्र दर्शननो सावर्णि मुनिने उपदेश करवामाटे भारतवर्षनी वर्णाश्रम धर्मवाळी प्रजा सहित अत्यन्त भक्ति भावथी भगवान्‌ श्रीनर-नारायणनी उपासना करे छे अने आ मन्त्रनो जप तथा स्तोत्रनुं गान करी तेमनी स्तुति करे छे ॥१०॥

नारदजी बोले छे - ओङ्कार स्वरूप, अहङ्कार रहित, निर्धनोनुं धन अने निर्धनो ज जेनुं धन छे एवा, शान्त स्वभाववाळा, ऋषिप्रवर, भगवान्‌ नर-नारायणने नमस्कार हो. ते परमहंसोना परम गुरु अने आत्मारामोना अधीश्वर छे एमने वारंवार नमस्कार हो’’ ॥११॥

ए प्रमाणे मन्त्र बोलीने पछी आ प्रमाणे स्तुति करे छे ः‘‘आप पोते आ जगत्‌नी सृष्टि वगेरेना कर्ता छो, छतां हुं कर्ता छुं एवुं अभिमान धरावता नथी; देहमां रहेलां छतां पण क्षुधा पिपासा वगेरे देहना दृश्य पदार्थोना गुणदोषथी खरडाती नथी तेवा आसक्ति रहित, विशुद्ध अने सर्वना साक्षी भगवानने नमस्कार करुं छुम् ॥१२॥

[[९१]] हे योगेश्वर! मरणना समये आ दुष्ट देहनुं अभिमान छोडी दई आपना निर्गुण स्वरूपमां भक्तिपूर्वक मन परोववुं एज ब्रह्माजीए योग साधननी सौथी मोटी कुशळता बतावीछे ॥१३॥

आलोक अने परलोकनां सुखोमां लम्पट मूढ पुरुष जेवी रीते पुत्र, स्त्री अने धननी चिन्ता करी आ निन्दनीय देहना मरणथी बीए छे तेम जो विद्वान्‌ पण आ देहना मरणथी बीतो होय तो एणे ज्ञान प्राप्तिमाटे करेलो बधो प्रयत्न केवळ परिश्रम ज छे ॥१४॥

तेथी अधोक्षज (इन्द्रियोनी पकडमां न आवनार) आप अमने आपमां स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोगनुं दान करो, जेथी हे प्रभो! आ निन्दनीय शरीरमां आपनी मायाने लीधे दृढ थई गयेल दुर्भेद्य अहन्ता ममताने अमे तुरत तोडी नाखीए’’ ॥१५॥

आ भरतखण्डमां पण नदीओ अने पर्वतो घणा छे, जेमके मलय, मङ्गलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेङ्कट, महेन्न्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान, पारियात्र (सातपुडो), द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रेवतक (गिरनार), ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील, कामगिरि अने बीजा पण सेङ्कडो-हजारो पर्वतो छे. एमना प्रदेशमान्थी उत्पन्न थयेलां नद अने नदीओ पण असङ्ख्य छे ॥१६॥

नाम लेवाथीज पवित्र करनारी ए नदीओनां जळनो भरतखण्डनी प्रजाओ देहथी पण स्पर्श करे छे ॥१७॥

एमां मुख्य-मुख्य नदीओ आ छेःचन्द्रवशा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुङ्गभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निविन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु अन्ध अने शोण नामना नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमां, सतलज, चन्द्रभागा, मरुद्‌वृधा, असिक्‌नी अने विश्वा ए मोटी नदीओ छे ॥१८॥

आ खण्डमां जन्मेला पुरुषोने ज पोते करेलां सात्त्विक, राजस अने तामस कर्मो प्रमाणे क्रमशः स्वर्ग, पृथ्वी के नरक सम्बन्धी अनेक जन्मो आवे छे. वर्णाश्रमना अध्याय-१९,९२ पञ्चमस्कन्ध धर्मना आचरण पूर्वक मोक्षने सारु जुदां-जुदां अनेक साधनो थवानो सम्भव अने साधनोद्वारा मोक्ष आ खण्डमां ज छे ॥१९॥

अनेक योनिओमां जन्म आपनार देहाभिमान छूटी जतां सर्व भूतना आत्मा भगवान्‌ वासुदेव जे रागादिकथी रहित छे, वाणीथी अगोचर छे अने स्वाश्रय परमात्मा छे तेनी निष्काम भक्ति ए ज आ मोक्ष छे. आ भक्तिभाव त्यारे ज मळे छे ज्यारे अनेक प्रकारनी गतिओने प्रकट करवावाळी अविद्यारूप हृदयनी ग्रन्थि कपाई जतां भगवानना प्रेमी भक्तोनो सङ्ग मळे ॥२०॥

देवता पण भारतवर्षमां जन्मेला मनुष्योनी आ प्रमाणे महिमा गाय छेः‘‘अहो! जे जीवोए भारतवर्षमां भगवाननी सेवाने योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त कर्यो छे. एमणे एवां तो कयां पुण्य कर्यां हशे? अथवा एमना उपर साक्षात्‌ श्रीहरि ज प्रसन्न थई गया छे? ए परम सौभाग्यने माटे तो निरन्तर अमे पण तरसता रहीए छीए ॥२१॥

कोईनाथी थई शके नहि तेवा यज्ञो, तप, व्रत अने दानादिकथी आ तुच्छ स्वर्गलोक अमने मळ्यो छे तेमां शुं वळ्युं? आ स्वर्गमां नारायणनां चरणादिकनुं स्मरण थतुं नथी, कारण के अर्ही तो इन्द्रियोना घणां ज विषय भोगने लीधे स्मरणशक्ति ज छीनवाई जाय छे ॥२२॥

आ स्वर्गनी वात तो जवा दो, ज्यान्ना निवासीओनुं आयुष्य एक-एक कल्पनुं होय छे पण ज्यान्थी फरी संसारचक्रमां पाछुं फरवुं पडे छे ए ब्रह्मलोक वगेरे करतां पण भारत भूमिमां थोडा आयुष्यवाळां थई जन्म लेवो वधारे सारो छे, कारण के अर्ही धीर पुरुष आङ्खना एक पलकारामां ज पोताना आ मर्त्य शरीरथी करेलां सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवानने अर्पण करी एमनुं अभय पद प्राप्त करी शके छे ॥२३॥

ज्यां भगवाननी कथारूपी अमृतनी नदीओ नथी, ज्यां भगवानना आश्रयथी ज रहेता सज्जन वैष्णवो नथी, ज्यां नृत्य-गीत आदि सहित मोटा उत्सव वाळी भगवाननी पूजाओ थती नथी ते ब्रह्मानो लोक होय तो पण एने सेववो जोईए नहि ॥२४॥

ज्ञान, ज्ञानमाटे क्रियाओ अने क्रियाओने जोईता पदार्थोथी परिपूर्ण मनुष्य अवतारने आ भारतवर्षमां पाम्या छतां जे लोको मोक्षने माटे यत्न करता नथी ते [[९३]] लोको पारधीथी छूटेलां पक्षीओ जेम पाछां ए ज वृक्षमां गाफेल थईने विहार करवाथी फरी वार पण बन्धन पामे छे तेम बन्धाई जाय छे ॥२५॥

भरतखण्डना लोको भाग्यशाळी छे केमके तेओ श्रद्धा सहित विधिपूर्वक मन्त्रथी अने ते-ते वस्तुना भेदथी अग्निमां ते-ते देवताओना उद्‌देशथी भाग प्रमाणे होमे छे अने ‘न मम’ एम कही पोताना स्वामित्वथी जुदां-जुदां पाडेला पदार्थोने भगवान्‌ जे एक छे छतां जेने इन्द्रादिक जुदां-जुदां नामोथी बोलाववामां आवे छे ते पोते पूर्णकाम छतां पण स्वीकारे छे ॥२६॥

ए वात खरी छे के भगवान्‌ सकाम पुरुषोने तेमना अभीष्ट पदार्थो आपे छे पण आ भगवाननुं वास्तविक दान नथी कारण के ए वस्तुओ मळी जतां छतां मनुष्यना मनमां नवी-नवी कामनाओ थती ज रहेती होय छे एथी ऊलटुं जे एमनुं निष्काम भावथी भजन करे छे तेमने तो भगवान्‌ साक्षात्‌ पोतानां चरणकमल ज दान करी दे छे. जे बीजी बधी कामनाओने समाप्त करी दे छे ॥२७॥

तेथी अर्ही अमे आटलुं स्वर्गनुं सुख भोगवी लीधुं ते उपरान्त यज्ञ, व्याख्यान के बीजा सत्कर्ममान्थी कांई पुण्य बाकी रह्युं होय तो ए पुण्यना प्रभावथी अमने आ भारतवर्षमां भगवाननी स्मृतियुक्त मनुष्य जन्म मळजो केमके पोतानी भक्ति करनाराओनुं भगवान्‌ हर प्रकारे कल्याण करे छे’’ ॥२८॥

श्रीशुकदेवजी कहे छे - हे परीक्षित राजा! केटला एक विद्वानो जम्बूद्वीपना बीजा आठ उपद्वीप छे एम कहे छे. सगर राजाना पुत्रो यज्ञनो घोडो शोधवा गया हता ते वखते चारे तरफ धरती खोदी नाखतां एमणे आठ उपद्वीप करेला छे ॥२९॥

स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुकल अने आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल अने लङ्का ए आठ उपद्वीपनां नाम छे ॥३०॥

एवं तव भारतोत्तम जम्बूद्वीपवर्षविभागो यथोपदेशमुपवर्णित इति॥३१॥

हे परीक्षित राजा! आ प्रमाणे में गुरुमुखथी श्रवण कर्युं हतुं तेवुं जम्बूद्वीपना वर्षोनुं वर्णन में तमने सम्भळावी दीधुम् ॥३१॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (चोथा भूमिनी देशस्थिति प्रकरणमां चोथा)‘‘भरतखण्डना इष्टदेवो तथा एना सेवको’’नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अध्याय-१९,९४ पञ्चमस्कन्ध

अध्याय २०

प्लक्षादि छ द्वीपो सात समुद्रो अने लोकालोक पर्वतनुं माप

विशेष - आ वीसमा अध्यायमां समुद्रनी साथे प्लक्ष वगेरे छ द्वीपोनी स्थिति अने अन्दर तथा बहारना भाग वगेरेना प्रमाणथी लोकालोक पर्वतनी स्थिति कहेवामां आवशे. अतः परं प्लक्षादीनां प्रमाणलक्षणसंस्थानतो वर्षविभाग उपवर्ण्यते ॥१॥

श्रीशुकदेवजी कहे छे - हवे प्लक्षादि अन्य द्वीपोना खण्डोना विभाग एनां प्रमाण, लक्षण तथा स्थिति सहित वर्णन करवामां आवे छे ॥१॥

आ जम्बूद्वीप लाख योजननो छे अने ए लाख योजनना खारा समुद्रथी र्वीटायेलो छे. जेम लाख योजननो ऊञ्चो मेरुं पर्वत लाख योजनना विस्तारवाळा जम्बूद्वीपथी र्वीटायेला छे तेवी रीते जम्बूद्वीप पण पोताना जेवडा खारा जलना समुद्रथी र्वीटायेलो छे. खारो समुद्र पण पोतानाथी बमणा विस्तारना प्लक्षद्वीपथी बहारना बगीचानी खाईनी पेठे र्वीटायेलो छे. जम्बूद्वीपमां जेवडुं जाम्बूनुं वृक्ष छे तेवडुं ज ए द्वीपमां लाख योजन ऊञ्चुं, सोना जेवुं पीळुं, पीपळनुं वृक्ष छे. ए उपरथी ए द्वीपनुं नाम प्लक्षद्वीप पड्युं छे. त्यां सात जिह्‌वावाळा अग्निदेव बिराजे छे. ए द्वीपनो अधिपति प्रियव्रत राजाना पुत्र इध्मजिह्‌व पोताना द्वीपना सात खण्ड करी खण्ड जेवा नामवाळा पोताना सात पुत्रोमां वहेञ्ची आपी पोते अध्यात्म योगनो आश्रय करी परलोक सिधार्या ॥२॥

आ वर्षोनां नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत अने अभय छे. ए खण्डोमां पण सात पर्वतो अने सात नदीओ प्रसिद्ध छे ॥३॥

त्यां मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्‌, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव अने मेघमाल-ए नामना सात सीमा पर्वतो छे. अरुणा, नृम्णा, आगिंरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा अने सत्यम्भरा नामनी सात महानदीओ छे. ए द्वीपमां हंस, पतङ्ग, ऊर्ध्वायन अने सत्याङ्ग नामना चार वर्णो छे. ए लोकोना रजोगुण अने तमोगुण ए नदीओना जळमां स्नान करवाथी क्षीण थता रहे छे. एमनुं आयुष्य एक हजार वर्षनुं होय छे. एमनां शरीरमां देवताओनी माफक थाक, पसीनो वगेरे होता नथी अने सन्ताननी उत्पत्ति पण तेमना प्रमाणे थाय छे. तेओ त्रण वेदमय भगवान्‌ सूर्यनारायण, जे स्वर्गना द्वाररूप छे तेनुं पूजन आ [[९५]] मन्त्रथी करे छेः ॥४॥

तेओ कहे छे के ‘‘जे सत्य (अनुष्ठान योग्य) धर्म अने ऋत (प्रतीत थतो) धर्म शुभ फळ अने अशुभ फळना अधिष्ठाता जे सूर्य नारायण पुराण पुरुष विष्णुनुं रूप छे तेमने अमे शरणे जईए छीए’’ ॥५॥

प्लक्ष वगेरे पाञ्च द्वीपोना बधां मनुष्योने आयुष्य, इन्द्रिय सुख, शरीरनुं बळ, मननुं बळ, इन्द्रियोनुं बळ, बुद्धि अने पराक्रम समानरूपथी स्वाभाविक रीते सरखी प्राप्त होय छे ॥६॥

जे प्लक्षद्वीप पोताना जेवडा ज शेरडीना रसना समुद्रथी र्वीटायेलो छे तेवी रीते ए पछीनो एनाथी बमणा विस्तारनो शाल्मल द्वीप पण पोताना जेवडाज मदिराना समुद्रथी र्वीटायेलो छे ॥७॥

ए द्वीपमां उपर लखेला पीपळाना जेवडुं शेमळानुं झाड छे तेमां पक्षीओना राजा गरुडजी, जे पोतानी वेदमय पाङ्खोथी भगवाननी स्तुति कर्या करे छे तेनुं निवास स्थान छे एम कहेवाय छे ॥८॥

ए शाल्मल अर्थात्‌ शेमळा उपरथी ज ए द्वीपनुं शाल्मल द्वीप नाम पडेलुं छे. ए द्वीपना अधिपति प्रियव्रतना दीकरा यज्ञबाहुए पोताना सात पुत्रोने तेमना ज नामना सात खण्ड वहेञ्ची आप्या हता ॥९॥

सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन अने अविज्ञात ए सात खण्डोनां नाम छे. एमां पण सात सीमा पर्वतो अने सात नदीओ प्रसिद्ध छे. पर्वतोमां नाम स्वरस, शतशृङ्ग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष अने सहस्त्र श्रुति छे. अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा अने राका ए सात नदीनां नाम छे ॥१०॥

श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर अने ईषन्धर नामना चार वर्णो वेदमय आत्मस्वरूप चन्द्रमारूपी भगवानने वेद मन्त्रोथी उपासना करतां कहे छेः ॥११॥

शुकल अने कृष्ण पक्ष मां पोतानां किरणोथी विभाग करी देवताओ, पितृओ अने बधां प्राणीओने अन्न आपे छे ते चन्द्रदेव अमारा राजा (रञ्जन करवावाळा) हो ॥१२॥

एवी रीते मदिराना समुद्रथी आगळ एनाथी बमणो अने उपर प्रमाणे घीना समुद्रथी र्वीटायेलो कुशद्वीप छे. ए द्वीपमां भगवाने रचेलुं एक कुश (दर्भ) नुं वृक्ष छे अध्याय-२०,९६ पञ्चमस्कन्ध ते उपरथी ए द्वीपनुं नाम कुशद्वीप पड्युं छे. ए दर्भनुं थूम्मडुं जाणे बीजो अग्नि ज होय एवा तेजवाळुं छे. एनी कोमळ शिखाओनी कान्तिथी ए दिशाओने प्रकाशित करतुं रहे छे ॥१३॥

राजन्‌! ए द्वीपनो अधिपति प्रियव्रतनो पुत्र महाराज हिरण्यरेता पोताना सात पुत्रोने विभाग प्रमाणे द्वीपना सात खण्ड करी वहेञ्ची आपी पोते तप करवा गया. पुत्रोनां नाम वसु, वसुदान, दृढरुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त अने वामदेव हतां तेमान्ना दरेकने ते-ते नामनो खण्ड वहेञ्ची आप्योहतो ॥१४॥

ए खण्डोमां सीमां नक्की करनारा सात पर्वतो अने सात नदीओ छे. सात पर्वतोनां नाम चक्र, चतुःशृङ्ग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा अने द्रविण छे. नदीनां नाम छे रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता अने मन्त्रमाला ॥१५॥

कुशद्वीपवासी अने नदीओनां जळमां स्नान करी कुशल, कोविन्द, अभियुक्त अने कुलक नामना चार वर्णो अग्निरूप भगवानने यज्ञादि कर्म कौशलद्वारा पूजे छे अने मन्त्र बोलेछे ॥१६॥

हे अग्नि! आप साक्षात्‌ परब्रह्म भगवानने हवि पहोञ्चाडनार छो; एटला माटे भगवानना अङ्गभूत देवताओनां नामथी करेली पूजा भगवानने पहोञ्चाडजो’’ ॥१७॥

एवी रीते ज कुशद्वीपथी आगळ एनाथी बमणा विस्तारनो क्रौञ्च द्वीप छे. जेम ए द्वीप घीना समुद्रथी र्वीटायेल छे तेम आ कौञ्चद्वीप पोताना जेवडा दूधना समुद्रथी फरतो र्वीटायेल छे. ए द्वीपमां क्रौञ्च नामनो मोटो पर्वत छे ते उपरथी एनुं क्रौञ्चद्वीप एवुं नाम पड्युं छे ॥१८॥

पहेलान्ना समयमां कार्तिकेय स्वामीना शस्त्र प्रहारथी एना काण्ठा अने कुञ्ज- निकुञ्जो खेदान-मेदान थई गया हता पण दूधना समुद्रथी र्सीचवाने लीधे अने वरुणदेवताए रक्षा करवाथी ए निर्भय थई गया ॥१९॥

ए द्वीपना अधिपति प्रियव्रतना पुत्र घृतपृष्ठ पण पोताना द्वीपनां सात खण्ड करी दीकराओनां नाम प्रमाणे ज एनां नाम पाडी उत्तराधिकारी पुत्रोने राज्य आप्या पछी सर्वना आत्मा अत्यन्त कल्याणरूप कीर्तिवाळा भगवान्‌ श्रीहरिना पावन चरणारविन्दने शरणे गया ॥२०॥

[[९७]] आम मधुरुह, मेधपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण अने वनस्पति ए नामना ए घृतपृष्ठना सात पुत्रो हता. ए खण्डोमां पण सात सीमा निश्चित करनारा पर्वतो अने सात नदीओ छे. शुकल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन अने सर्वतोभद्र ए सात पर्वतो छे. अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, पवित्रवती अने शुकला ए नामनी सात नदीओ छे ॥२१॥

ए नदीओनां पवित्र अने निर्मळ जळनो उपयोग करता पुरुष, ऋषभ, द्रविण अने देवक नामना ए खण्डोनां चार वर्णो जळथी भरेली अञ्जलिथी जलना देवतानुं पूजन करे छे अने आ मन्त्र बोले छेः ॥२२॥

हे जलना देवता! आपने परमात्मा पासेथी सामर्थ्य प्राप्त थयुं छे. आप भू, भुव अने स्व त्रणेय लोकोने पवित्र करो छो, कारण के स्वरूपथी ज पापोनो नाश करवावाळा छो. अमे अमारा शरीरथी आपनो स्पर्श करीए छीए. आप अमारां अङ्गोने पवित्र करो’’ ॥२३॥

एवी ज रीते दूधना समुद्रथी आगळ तेनी चारे तरफ शाकद्वीप छे. तेनो विस्तार बत्रीश लाख योजननो छे. ए द्वीप पोताना जेवडा ज मठा-दर्हीना रसना समुद्रथी र्वीटायेलो छे. ए द्वीपमां शाक नामनुं वृक्ष छे ते उपरथी एनुं शाकद्वीप नाम पडेलुं छे. ए वृक्षनी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध ए द्वीपने सुगन्धित करी मुके छे ॥२४॥

ए द्वीपना अधिपति प्रियव्रतना पुत्र मेधातिथि ए पोताना द्वीपना सातखण्डो पाडी एने पुत्रना सरखां ज नाम पाडी आप्यां. पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप अने विश्वाधार नामना पोताना पुत्रोने अधिपति नीमी मेधातिथि भगवान्‌ अनन्तमां दत्तचित्त थई तपोवनमां चाल्या गया ॥२५॥

आ खण्डोमां पण सात सीमा पर्वतो अने सात नदीओ ज छे. ईशान, उरुशृङ्ग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल अने महानस ए नामना सात पर्वतो छे. अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पञ्चपदी, सहस्रस्रति अने निजघृति नामनी सात नदीओ छे ॥२६॥

ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत अने अनुव्रत नामना चार वर्णो छे तेओ प्राणायामथी पोताना रजोगुण तथा तमोगुणने खेरवी नाखी घणी ज एकाग्रताथी वायुरूप भगवाननी भक्ति करे छे. अने आ मन्त्र बोले छेः ॥२७॥

अध्याय-२०,९८ पञ्चमस्कन्ध साक्षात्‌ अन्तर्यामी ईश्वररूप वायु जे सर्वमां अन्दर प्रवेश करीने प्राण अने अपान वगेरे पोतानी वृत्तिओथी प्राणीओनुं रक्षण करे छे अने जेने अधीन आ सघळुं जगत्‌ छे ते वायु भगवान्‌ अमारी रक्षा करो’’ ॥२८॥

ए ज प्रमाणे दर्हीना समुद्र पछी फरतो एथी बमणा विस्तारनो पुष्पकर द्वीप छे. ए द्वीप चोतरफ पोताना जेवडा ज मीठा जलना समुद्रथी र्वीटायेलो छे. त्यां अग्निनी ज्योतना समान देदीप्यमान लाखो सुवर्णमय पाङ्खडीओवाळुं एक अत्यन्त विशाळ कमल छे. जेने ब्रह्माजीना आसन तरीके निश्चित करवामां आव्युं छे ॥२९॥

ए द्वीपनी वचमां एना पूर्व अने पश्चिम विभागोनी सीमा आङ्कतो मनसोत्तर नामनो एक ज पर्वत छे, जे दश हजार योजन ऊञ्चो अने लाम्बो छे. ए पर्वत उपर चार दिशाओमां इन्द्रादिक लोकपालोनी चार पुरी छे. एना उपर मेरुपर्वतनी चारे तरफ फरतुं सूर्यना रथनुं संवत्सर (वर्ष) रूप पैडुं देवताओना दिन अने रात अर्थात्‌ उत्तरायण अने दक्षिणायनना क्रमथी सर्वदा फर्या करे छे ॥३०॥

प्रियव्रतनो पुत्र वीतिहोत्र ए द्वीपनो अधिपति हतो. ते रमणक अने धातकि नामना पोताना बे पुत्रोने ए खण्डमां राज्य आपी पोते मोटाभाईनी पेठे भगवत सेवामां ज तत्पर रहेवा लाग्यो हतो ॥३१॥

त्यान्ना निवासी लोको ब्रह्मारूप भगवान्‌ हरिनी ब्रह्म सालोकयादिनी प्राप्ति करावनारां कर्मोथी आराधना करतां आ प्रमाणे स्तुति करे छे ॥३२॥

कर्मना फळरूप, परब्रह्मने जणावनार परब्रह्ममां ज समाप्तिवाळा, अद्वैत अने शान्त एवा जे स्वरूपने लोको पूजे छे ते भगवानने नमीए छीए’’ ॥३३॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए मीठा पाणीना समुद्र पछी लोकालोक नामनो एक पर्वत छे. ते पृथ्वीनी बधी बाजुए सूर्य वगेरे द्वारा प्रकाशित अने अप्रकाशित प्रदेशोनी वचमां एमना विभाग करवा माटे स्थित छे ॥३४॥

मानसोत्तर अने मेरुपर्वतनी वच्चे जेटलुं अन्तर छे तेटला प्रमाणथी ज (दोढ करोड अने साडा सात लाख योजननी) बीजी भूमि मीठा समुद्र पछी आवे छे तेमां प्राणीओ पण रहे छे. ए पछी सोनानी धरती आवे छे ते आठ करोड अने ओगणचाळीश लाख योजननी अने अरीसा जेवी छे. एमां पडी गयेली वस्तु पाछी हाथ आवती नथी; एटला माटे प्राणीओए एने त्यजी दीधेली छे. हा, [[९९]] देवताओ त्यां रहे छे खरा ॥३५॥

लोकालोक पर्वतनुं नाम पाडवानुं कारण ए छे के लोक एटले सूर्यथी प्रकाशित अने अलोक एटले सूर्यथी अप्रकाशित भूभागोनी वचमां ते छे ॥३६॥

एने परमात्माए त्रिलोकीथी बहार एनी चारे तरफ सीमाना रूपमां स्थापित कर्यो छे. ते एटलो ऊञ्चो अने लाम्बो छे के एनी एक तरफथी त्रणे लोकोने प्रकाशित करवावाळां सूर्यथी लईने ध्रुव सुधी समस्त ज्योतिर्मण्डळनां किरणो बीजी तरफ नथी जई शक्ताम् ॥३७॥

प्रमाण, लक्षण अने स्थिति अनुसार सम्पूर्ण लोकनी रचना विद्वानोए ए प्रमाणे ज बतावी छे. ए समस्त भूगोल पचास करोड योजन छे. ए भूमण्डळनो चोथो भाग अर्थात्‌ साडाबार करोड योजन आ लोकालोक पर्वत पूरो थाय त्यां आवे छे. एटले मेरुथी सघळी तरफ साडा बार बार करोड योजन दूर छे ॥३८॥

ए पर्वतनी उपर चारे दिशाओमां सर्व जगतना गुरु ब्रह्माजीए ऋषभ, पुष्करचूड, वामन अने अपराजित नामना चार दिग्गजो नीमेला छे तेनाथी सर्व लोकनी स्थिति रहे छे ॥३९॥

ए दिशाओना हाथीओनी अने पोतानी विभूतिरूप इन्द्रादिक लोकपालोनी अनेक प्रकारनी शक्तिओ आबाद राखवा सारु परम ऐश्वर्यना अधिपति अन्तर्यामी परम पुरुष भगवान्‌ सर्वलोकना कल्याणना उद्‌देशथी ए मोटा पर्वत लोकालोकमां सर्व तरफ बिराजे छे. आप पोताना विशुद्ध सत्त्व (श्री विग्रह) ने जे धर्म, ज्ञान, वैराग्य अने ऐश्वर्य वगेरे आठ महासिद्धिओथी सम्पन्न छे, धारण करी रह्या छे. विश्वक्‌सेन वगेरे पोताना पार्षदोथी ए र्वीटायेला छे अने पोतानां शङ्ख, चक्र वगेरे उत्तम आयुधोथी भुजदण्डो शोभी रह्या छे ॥४०॥

आ प्रमाणे योगमायाथी रचायेला अनेक लोकनी व्यवस्थानुं रक्षण करवामाटे भगवान्‌ कल्प पूरो थतां सुधी त्यां बिराजेछे ॥४१॥

लोकालोकनी अन्दरना भागना भूभागनो जेटलो विस्तार छे एना उपरथी ज एनी सामी बाजुना अलोक प्रदेशना परिमाण (लम्बाई, पहोळाई, ऊञ्चाई)नुं पण निरूपण समजी लेवुं जोईए. एथी आगळ तो मात्र योगेश्वरोनी ज पूरेपूरी पहोञ्च छे एम विशेषज्ञो कहे छे ॥४२॥

राजन्‌! स्वर्ग अने पृथ्वी नी वचमां ब्रह्माण्डनुं जे केन्द्र छे त्यां ज सूर्य छे. सूर्य अध्याय-२०,१०० पञ्चमस्कन्ध अने ब्रह्माण्ड-गोलकनी वच्चे चोतरफ पचीस करोड योजननुं अन्तर छे ॥४३॥

सूर्य आ ‘मृत’ अर्थात्‌ मरेलां (अचेतन) अण्डमां वैराजरूपथी बिराजे छे तेथी ज एनुं नाम ‘मार्तण्ड’ पड्युं छे. ते हिरण्यमय (जयोतिर्मय) ब्रह्माण्डथी प्रकट थया छे तेथी तेने ‘हिरण्यगर्भ’ पण कहेवाय छे ॥४४॥

दिशाओ, आकाश, उपरना लोक, पृथ्वी, स्वर्गनी जग्या, मोक्षनी जग्या, नरक, पाताळो अने बीजा पण सघळा विभागो सूर्यथी ज थाय छे ॥४५॥

देवतिर्यम्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम्‌ ॥ सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः ॥४६॥

देव, पशु, पक्षी, मनुष्यो, सापोलियां अने लताओ वगेरे सघळा जीवोना समूहना आत्मा अने नेत्रना अधिष्ठाता सूर्यछे ॥४६॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (चोथा भूमि देशस्थिति प्रकरणमां पाञ्चमो) ‘‘प्लक्षादि छ द्वीपो, सात समुद्रो अने लोकालोक पर्वतनुं माप’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. साधनाने क्यारे पण धर्मप्रचार, प्रदर्शन के कमाई नुं साधन बनावी न शकाय. साधना हम्मेशा व्यक्तिगतपणे अने एकान्तमां ज थई शके. भगवत्सेवा ए गुरु अने शिष्य बन्नेनी भक्तिमयी साधना छे. पोताना घरना एकान्तमां ज भगवत्सेवा गुरु तेमज शिष्ये करवी जोईए. हवेली-मन्दिरमां दर्शन-मनोरथना माध्यमथी तेने सार्वजनिक बनावी न शकाय. प्रकरण ५ - ऊर्ध्वस्थान-देशस्थिति

अध्याय २१

सूर्यनारायणनुं राशिमां फरवुं अने जगतनी मर्यादा

विशेष - आ प्रकारे पाञ्च अध्यायवडे भूमि स्थाननुं निरूपण थयुं. हवे त्रण अध्यायवडे ऊर्ध्वस्थाननुं निरूपण थाय छे. आ एकवीसमा अध्यायमां ज्योति-श्चक्रनी गति मन्द-शीघ्र वगेरेनुं निरूपण करवामां आवे छे. [[१०१]] एतावानेव भूवलयस्य सन्निवेशः प्रमाणलक्षणतो व्याख्यातः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - शास्त्रकारोए भूमण्डळनी रचना प्रमाण अने लक्षणथी ए प्रमाणे ज कहेली छे ॥१॥

अने खगोळनुं प्रमाण पण एटलुं ज छे एम ए विषयने जाणनाराओ कहे छे. जेम चणा, चोळा वगेरे कठोळना बे दलमान्थी एकनुं स्वरूप जाणी लेवाथी बीजानुं स्वरूप पण जणाई जाय छे ते ज प्रमाणे भूलोकना परिमाणथी ज द्युलोकनुं परिमाण जाणी लेवुं जोईए. ए बेनी वच्चे अन्तरिक्ष लोक छे. ए आ बन्नेनुं सन्धिस्थान छे ॥२॥

ए अन्तरिक्षना मध्यमां रहेला ग्रहो अने नक्षत्रो ना पति सूर्यनारायण पोताना तापथी त्रैलोक्यने तपावे छे अने पोताना प्रकाशथी प्रकाश आपे छे. ए सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन अने विषुववृत्त नामनी क्रमशः मन्द, शीघ्र अने समान गतिथी ऊञ्चे चढाववाना, नीचे ऊतरवाना अने समान रहेवाना स्थळमां समय प्रमाणे आवीने मकर वगेरे राशिओमां दिवस-रात्रीओने लम्बाई-टूङ्काईने समानता आपे छे ॥३॥

ज्यारे सूर्य मेष के तुला राशिमां आवे छे त्यारेदिवस अने रात्रिओ समान थाय छे. ज्यारे वृष मिथुन कर्क सिंह अने कन््‌या ए पाञ्च राशिओमां फरे छे त्यारे दिवसो वधेछे अने रात्रिओमां महिने महिने एक एक घडी ओछी थती जाय छे ॥४॥

ज्यारे वृश्विक, धन, मकर, कुम्भ अने मीन ए पाञ्च राशिओमां फरे छे त्यारे दिवस टूङ्का अने रात्रिओ लाम्बी थाय छे ॥५॥

दक्षिणायनमां आवतां सुधी दिवसो वधे छे. अने उत्तरायणमां आवतां सुत्री रात्रिओ वधे छे ॥६॥

एवी रीते मानसोत्तर पर्वतने फरतां सूर्यने नव करोड अने एकावन लाख योजननो रस्तो कापवो पडे छे. एम पण्डितजनो कहे छे. ए मानसोत्तर उपर मेरुथी पूर्वमां देवधानी नामनी इन्द्रनी पुरी छे, दक्षिणमां यमराजनी संयमनी नामनी पुरी छे; पश्चिममां वरुणनी निम्लोचनी नामनी पुरी छे अने उत्तरमां चन्द्रनी विभावरी नामनी पुरी छे. ए पुरीओमां मेरुनी चारे तरफ समय प्रमाणे सूर्य आवतां उदय, मध्याह्‌न, अस्त अने मध्यरात्रि ए चार काळ जे प्राणीओनी प्रवृत्तिमां कारण छे ते, थाय छे ॥७॥

अध्याय-२१,१०२ पञ्चमस्कन्ध राजन्‌! मेरुमां रहेनाराओने निरन्तर मध्याह्‌न काळनो सूर्य ज तपाव्या करे छे. अश्विनी आदि नक्षत्रो तरफ पोतानी गतिथी फरता सूर्य जो के मेरुने डाबी तरफ राखी चाले छे. तो पण सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डलने घुमावनार निरन्तर जमणी तरफ वाता (फुङ्काता) प्रवह वायुद्वारा घुमावाई जवाथी ते एने जमणी बाजु राखीने चालता होय तेम लागे छे ॥८॥

जे पुरीमां सूर्य भगवाननो उदय थाय छे तेनी बराबर सामेनी पुरीमां ते अस्तत थता जणाशे. ज्यां ते लोकोने पसीनाथी रेबझेब करी नाखी तपावता हशे तेनी बराबर सामे मधरात होवाथी ते एमने निन्द्रावश करी देता हशे. जे लोकोने मध्याह्‌न समये ते स्पष्ट देखाता हशे ते लोकोज ज्यारे सूर्य सौम्यदिशामां पहोञ्ची जाय त्यारे तेना दर्शन न करी शके ॥९॥

सूर्य इन्द्रनी पुरीथी चालीने पन्दर घडीमां यमनी पुरीमां आवे छे तेटलामां सवा बे करोड साडा बार लाख अने पचीश हजार योजननो मार्ग एणे कापवो पडे छे ॥१०॥

ए प्रमाणे यमनी पुरीथी अने वरुणनी पुरीमां अने वरुणनी पुरीथी सोमनी पुरीमां अने सोमनी पुरीथी फरी इन्द्रनी पुरीमां जतां सूर्यने तेटलीज वार लागे छे अने तेटलोज मार्ग कापवो पडेछे ॥११॥

एवी रीते चन्द्र वगेरे बीजा ग्रहो पण ज्योतिश्चक्रमां बीजां नक्षत्रोनी साथे- साथे उदय अने अस्त पामे छे. आ प्रमाणे सूर्यनो ए वेदमय रथ चारे पुरीओमां फरे छे एमां एक मुहूर्तमां (मुहूर्त=४८मिनिट) ए चोत्रीश लाख अने आठसो योजननो मार्ग कापे छे ॥१२॥

सूर्यना रथनुं संवत्सर (वर्ष) रूप एक पैडुं बताववामां आवे छे. तेना बार (मास) आरा छे, छ (ऋतु) पाटा छे अने त्रण (शियाळो, उनाळो अने चोमासुं) नाभिओ (नाभि=पैडानो मध्यभाग ज्यां आराओ मळे छे) एम कहेवाय छे. आ रथनी धरीनो एक छेडो मेरु पर्वतना शिखर उपर छे अने बीजो छेडो मानसोत्तर पर्वत छे एमां लागेलुं अने तेलनी घाणीना चक्रनी पेठे फरतुं सूर्यना रथनुं पैडुं मानसोत्तर पर्वत उपर फर्या करे छे ॥१३॥

ए धरीमां जेनुं मूळ अचल छे तेवो अने एनाथी चोथा भागना प्रमाणनी बीजी धरी छे तेनो उपरनो भाग घाणीनी धरीनी जेम ध्रुवमां आवेलो छे ॥१४॥

[[१०३]] रथमां बेसवानी जग्या छत्रीश लाख योजन लाम्बी अने नव लाख योजन पहोळी छे ॥१५॥

सूर्यना रथनी धोंसरी पण छत्रीस लाख योजन लाम्बी छे. एमां अरुण नामना सारथिए गायत्री वगेरे छन्दोना नामवाळा सात घोडाओ जोड्या छे जे सूर्यना रथने खेञ्चे छे. सूर्य देवनी आगळ एमनी ज तरफ मुख राखीने बेठेला अरुण एमनुं सारथिनुं कार्य करे छे ॥१६॥

अङ्गूठाना अणीना जेवडा वालखिल्य नामना साठ हजार ऋषिओ सूर्यना मुख आगळ स्वस्ति वाचन स्तुति करवाने वास्ते नियुक्त छे अने तेओ स्तुति करता जाय छे ॥१७॥

तदुपरान्त ऋषिओ, गन्धर्वो, अप्सराओ, नागो, यक्षो, राक्षसो अने देवताओ, जे एक-एक लेखतां चौद छे. पण बब्बे साथे रहेता होवाथी सात गण कहेवाय छे. तेओ प्रत्येक मासमां जुदां-जुदां नामवाळा थईने पोतानां भिन्न- भिन्न कर्मोथी प्रत्येक मासमां भिन्न-भिन्न नाम धारण करता आत्मस्वरूप भगवान्‌ सूर्यनी बब्बे मळी उपासना करे छे. ॥१८॥

लक्षोत्तरं सार्धनवकोटियोजनपरिमण्डलं भूवलयस्य क्षणेन सगव्यूत्युत्तरं द्विसहस्रयोजनानि स भुङ्क्ते ॥१९॥

आ प्रमाणे भगवान्‌ सूर्य भूमण्डलना नव करोड एकावन लाख योजन लाम्बो मार्ग, प्रत्येक क्षणे बे हजार अने बे योजनने हिसाबे कापता रहे छे ॥१९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पाञ्चमां उर्ध्वस्थान देशस्थिति प्रकरणमां सूर्य गतिनिरूपण नामनो पहेलो) ‘‘सूर्यनारायणनुं राशिमां फरवुं अने जगतनी मर्यादा’’ नामनो एकवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय २२

चन्द्र शुक्रादिक गृहोनी गति प्रमाणे मनुष्योनुं शुभाशुभ

विशेष - आ बावीसमा अध्यायमां चन्द्र अने शुक्र वगेरेनां उत्तरोत्तर ठेकाणां अने ए ग्रहोनी गति उपरथी मनुष्योनां शुभ अशुभ कहेवाशे. यदेतद्‌ भगवत आदित्यस्य मेरुं ध्रुवं च प्रदक्षिणेन परिक्रामतो राशीनाम्‌ अध्याय-२२,१०४ पञ्चमस्कन्ध … अमुष्य वयं कथम्‌ अनुमिमीमहि इति ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - भगवन्‌! आपे जे कह्युं के, जो के भगवान्‌ सूर्य राशिओ तरफ जती वखते मेरु अने ध्रुव ने जमणी तरफ राखी चालता देखाय छे पण खरेखर एनी गति दक्षिपवर्त नथी होती आ विषय अमे केवी रीते समजीए? ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राजन्‌! जेवी रीते कुम्भारना फरता चाक उपर बेसी एनी साथे घूमती कीडी वगेरेनी पोतानी गति ‘चाक’ नी गतिथी जुदी ज छे कारण के ते भिन्न-भिन्न समये ते चाकना भिन्न-भिन्न भागो उपर देखाय छे ते ज प्रमाणे नक्षत्र अने राशिओथी उपलक्षित कालचक्रमां ध्रुव अने मेरुने जमणा हाथ तरफ राखी भ्रमण करता सूर्य आदि ग्रहोनी गति वास्तवमां एनाथी जुदी ज छे; कराण के ते जुदे-जुदे समये जुदी-जुदी राशि अने नक्षत्रोमां देखाय छे ॥२॥

वेद अने विद्वान्‌ लोको पण जेनी गति जाणवामाटे उत्सुक रहे छे ते साक्षात्‌ आदि-पुरुष भगवान्‌ नारायण ज लोकना कल्याण अने कर्मोनी शुद्धि माटे पोताना वेदमय विग्रह (शरीर) कालने बार मासमां वहेञ्ची नाखी वसन्त वगेरे ऋतुओमां एमने योग्य गुणोनुं विधान करे छे ॥३॥

आ लोकमां वर्णाश्रमना आचारने अनुसरनारा लोको वेदमां क्ह्या प्रमाणे नानां-मोटां कर्मोथी अने योगना अङ्गोथी एनी श्रद्धापूर्वक ए सूर्यनुं पूजन करे छे तेथी एमनुं अनायासे क्ल्याण थाय छे ॥४॥

भगवान्‌ सूर्य सम्पूर्ण लोकना आत्मा छे. स्वर्ग अने पृथ्वीनी वचमां जे अन्तरिक्ष छे तेनी अन्दर काळचक्रमां स्थित ए सूर्य वर्षना अवयवोरूप अने राशि उपरथी जेनां नाम पडेलां छे तेवा बार महिना भोगवे छे. एमान्थी प्रत्येक मास चन्द्रमानथी शुकल अने कृष्ण बे पक्षनो, पितृमानथी एक रात अने दिननो अने सौरमानथी सवा बे नक्षत्रोनो कहेवाय छे. जेटला समयमां सूर्यदेव आ संवत्सरनो छठ्ठो भाग भोगवे छे ते अवयव ‘ऋतु’ कहेवाय छे ॥५॥

जेटला समयमां भगवान्‌ सूर्य आकाशना अर्ध भागमां फरे छे तेटलामां समयने ‘अयन’ कहे छे ॥६॥

स्वर्ग अने पृथ्वी ना मण्डळनी वच्चे रहेला आखा आकाश मण्डळमां जेटलामां काळमां फरी ले छे तेटला काळने ‘वर्ष’ कहे छे. एक वर्षमां मन्द, शीघ्र अने समान [[१०५]] एवी त्रण प्रकारनी सूर्यनी गति थाय छे. संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर वर्षना अवान्तर *भेद छे ॥७॥

विशेष - शुकल पक्षनी प्रतिपदाने दिवस सङ्क्रान्ति बेसे त्यारे सौरमास अने चान्द्रमास ए बन्नेनी साथे शरूआत थाय छे; अने एवी रीते चालेलुं वर्ष ‘संवत्सर’ कहेवाय छे. पछी सूर्यने हिसाबे वर्षमां छ दिवस वधे छे अने चन्द्रना हिसाबे छ दिवस घटे छे; एटले बार दिवसनुं अन्तर पडतां सौरमास अने चान्द्रमास आगळ पाछळ थई जाय छे. एम करतां पाञ्च वर्ष जाय तेमां बे मळ मास आवे छे; अने छठ्ठा वर्षमां पाछी शुकल पक्षनी प्रतिपदाने दिवस सङ्क्रान्ति बेसवाथी ते पाछुं संवत्सर गणाय छे. ए पाञ्च वर्षमां पहेलुं संवत्सर, बीजुं परिवत्सर, त्रीजुं इडावत्सर, चोथुं अनुवत्सर अने पाञ्चमुं वत्सर छे. ए प्रमाणे चन्द्रमां सूर्यनां किरणोनी उपर लाख योजनने छेटे छे. सूर्य एक वर्षमां जेटलुं महिनामां चाले तेटलुं चन्द्रमा सवा बे दिवसमां चाले छे अने सूर्य जेटलुं पखवाडियामां चाले चन्द्रमा एक दिवसमां चाले छे केमके चन्द्रमानी चाल एटली झडपी छे ॥८॥

ते कृष्ण पक्षमां क्षीण थती जती कलाथी पितृगणना अने शुकल पक्षमां वधती जती कलाथी देवताओना दिनरातनो विभाग करे छे तथा त्रीस-त्रीस मुहूर्तोमां एक-एक नक्षत्रने पसार करे छे. अन्नमय तथा अमृतमय होवाथी ते ज समस्त जीवोना प्राण अने जीवन छे ॥९॥

ए जे सोळ कळावाळा मनोमय, अन्नमय, अमृतमय, पुरुषस्वरूप भगवान्‌ चन्द्रमा छे, ते ज देव, पितृ, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सापोलियां अने वृक्षादि समस्त प्राणीओना प्राणोनुं पोषण करे छे तेथी ते सर्वमय कहेवाय छे ॥१०॥

चन्द्रमान्थी त्रण लाख योजन उपर अभिजित आदि अठ्ठावीस नक्षत्रो छे. काळचक्रमां ईश्वरे योजेलां ए नक्षत्रो मेरुने जमणी बाजु राखी प्रदक्षिणा करे छे ॥११॥

नक्षत्रोनी उपर बे लाख योजन दूर शुक्र जोवामां आवे छे. ए शुक्र सूर्यनी शीघ्र, मन्द अने समान गति अनुसार तेनी माफक फरे छे. ए शुक्र वर्षा लावनारो ग्रह छे माटे ते लोकोने माटे घणुं करीने निरन्तर सारो छे. जे ग्रह वृष्टिने रोकी बेठो होय तेने पण ए शान्त करी दे छे एम एनी गति उपरथी जणाय छे ॥१२॥

शुक्रनी गतिनी साथे-साथे बुधनी पण व्याख्या थई गई. शुक्रनी गति जेवी ज अध्याय-२२,१०६ पञ्चमस्कन्ध बुधनी गति पण समजी लेवी. चन्द्रमानो पुत्र बुध शुक्रनी उपर बे लाख योजनने अन्तरे छे. ए घणुं करीने लोकोनुं भलुं करे छे. परन्तु ज्यारे ते सूर्यनी गतिनुं उल्लङ्घन करीने चाले छे त्यारे भयङ्कर आन्धी, वादळां अने अनावृष्टि थवानी सूचना मळे छे ॥१३॥

बुधनी उपर बे लाख योजनने छेटे मङ्गळ छे. जो ते वक्रगतिमां न होय तो त्रण-त्रण पखवाडिये एक-एक राशि भोगवी बारेय राशिओने पार करे छे. ए अशुभ अने अमङ्गल सूचवनार छे ॥१४॥

मङ्गळनी उपर बे लाख योजनने छेटे भगवान्‌ बृहस्पतिजी छे. ए वक्रगति न होय तो घणुं करीने एक-एक वर्षे एक-एक राशिने भोगवे छे अने घणुं करीने ब्राह्मणोना कुळने अनुकूळ रहे छे ॥१५॥

बृहस्पतिजीनी उपर बे लाख योजन दूर शनैश्वर छे ते एक-एक राशिमां त्रीस-त्रीस महिना ले छे तेथी तेने बधी राशिओने पार करवामां त्रीस वर्ष लागी जाय छे ए घणुं करीने बधाने माटे अशान्तिकारक छे ॥१६॥

तत उत्तरस्माद्‌ ऋषय एकादशलक्षयोजनान्तर उपलभ्यन्ते य एव …भगवतो विष्णोः यत्‌ परमं पदं प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति ॥१७॥

एना उपर अगियार लाख योजन दूर कश्यपादि सप्तर्षि देखाय छे. बधा लोकोनी मङ्गलकामना करतां ए भगवान्‌ विष्णुना परमपद ध्रुव लोकनी प्रदक्षिणा कर्या करे छे ॥१७॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पाञ्चमा उर्ध्वस्थान देशस्थिति प्रकरणमां चन्द्रादिकस्थान निरूपण नामनो बीजो) ‘‘चन्द्र-शुक्रादिक ग्रहोनी गति प्रमाणे मनुष्योनुं शुभाशुभ’’ नामनो बावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाना श्रोता-आयोजको! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! (फण्डफाळा-मृतकोद्धार-आजीविका वगेरे) कोइ पण प्रकारना (लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परार्थ)हेतु विना भक्तिभावथी आदरपूर्वक श्रीभागवतनो पाठ करवो. दक्षिणा लईने कथा करनारना मनोभाव गटरना पाणी जेवा गन्धारा जाणी तेनो सङ्ग छोडवो. [[१०७]]

अध्याय २३

ध्रुवनुं स्थान

विशेष - आ त्रेवीसमा अध्यायमां ज्योतिश्चक्रना आश्रयरूप ध्रुवनुं स्थान अने बळदना स्वरूपथी भगवाननी स्तुति कहेवाशे. अथ तस्मात्‌ परतः त्रयोदशलक्षयोजनान्तरतो यत्‌ तद्विष्णोः परमं पदम्‌ … उपास्ते तस्य इह अनुभाव उपवर्णितः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सप्तर्षिओथी तेर लाख योजन उपर ध्रुवलोक छे. अने भगवान्‌ विष्णुनुं परम पद कहे छे. त्यां उत्तानपाद राजाना पुत्र परम भगवद्‌भक्त ध्रुवजी बिराजमान छे. हजु पण कल्प सुधी जीवनाराओना ते आधाररूप छे. (गगन सेतु अथवा पितृयान मार्ग.) एनो प्रभाव पहेला (चतुर्थ स्कन्धमां) कहेवाई गयो छे. (नक्षत्र रूपे रहेला) अग्नि, इन्द्र, प्रजापति, कश्यप अने धर्म हजु सुधी पण एकी साथे अत्यन्त आदरपूर्वक तेनी प्रदक्षिणा फर्या करे छे ॥१॥

सदा जाग्रत रहेनारा अव्यक्त गति भगवान्‌ काळद्वारा जे ग्रह, नक्षत्रादि ज्योतिर्गणने निरन्तर घुमाववामां आवे छे ते भगवाने ध्रुवलोकने ज ए बधाना आधारस्तम्भ रूपे निर्माण करेल छे. तेथी ते एकज स्थाने अचल रही सदा प्रकाशे छे ॥२॥

जे प्रमाणे हालरुं चलावती वखते अनाजने खुन्दनार पशु नानी, मोटी के मध्यम दोरडे बन्धाई क्रमशः नजीक दूर अने मध्यमां रही थाम्भलानी चारे तरफ गोळ-गोळ फर्या करे छे ते ज प्रमाणे बधां नक्षत्रो अने ग्रहो बहार-अन्दरना क्रमथी आ काळ चक्रमां जोडायेला ध्रुवलोकनो ज आश्रय करी वायुनी प्रेरणाथी कल्पना अन्त सुधी फरता रहे छे. जेम वादळां अने बाज वगेरे पक्षीओ पोते पोतानां कर्मोनी सहायताथी वायुने आधीन रही आकाशमां फर्या करे छे अने पडतां नथी तेवी रीते प्रकृति पुरुषना संयोगथी गोठवायेला अने पोतपोतानां कर्मो प्रमाणे निश्चित मार्गे फर्या करे छे. अने ताराओ धरती पर पडता नथी ॥३॥

ए ज्योतिश्चक्र भगवाननी योग धारणामां बळदना आकारथी रह्युं छे एम केटलाक विद्वानो वर्णन करे छे ॥४॥

ए ज्योतिश्चक्ररूप बळद माथुं आडुं करी कुण्डळी वाळीने बेठेलो छे अने एना अध्याय-२३,१०८ पञ्चमस्कन्ध पूञ्छडानी अणीमां ध्रुव छे. अणीथी नीचेना भागमां प्रजापति, अग्नि, इन्द्र अने धर्म रहेल छे. पूञ्छडाना मूळमां धाता अने विधाता रह्या छे, केडमां सप्तर्षिओ छे, जमणी तरफ कुण्डळी वाळीने बेठेला ए बळदना जमणा पडखामां अभिजितथी पुनर्वसु सुधीमां चौद नक्षत्रो छे, जे उत्तरचारी छे. डाबा पडखामां पुष्यथी उत्तराषाढा सुधीमां चौद नक्षत्रो दक्षिण चारी छे. अजवीथिमां गणातां नक्षत्रो पीठमां छे. आकाशगङ्गा उदरमां छे ॥५॥

पुनर्वसु अने पुष्य जमणा अने डाबा नितम्बमां छे. आर्द्रा अने आश्लेषा जमणा तथा डाबा पाछला पगोमां छे. अभिजित अने उत्तराषाढा जमणी तथा डाबी नासिकामां छे. श्रवण अने पूर्वाषाढा जमणी तथा डाबी आङ्खमां अनुक्रमथी छे. धनिष्ठा अने मूळ जमणा तथा डाबा कानमां छे. मघा वगेरे आठ दक्षिणचारी नक्षत्रो डाबा पडखानां अस्थिओमां छे. मृगशिर वगेरे उत्तरचारी नक्षत्रो पोतानी दिशाथी ऊलटां एटले जमणा तथा डाबा खभामां छे ॥६॥

उपला होठमां अगस्ति छे. नीचेना होठमां यम छे. मोढामां मङ्गळ छे. उपस्थमां शनैश्वर छे. कण्ठमां बृहस्पति छे. वक्षःस्थळमां सूर्य छे. हृदयमां नारायण छे. मनमां चन्द्रमा छे. नाभिमां शुक्र छे. स्तनमां अश्विनी कुमार छे. प्राण अने अपानमां बुध छे. गळामां राहु छे. सर्व अङ्गोमां केतुओ छे. अने रुवाडांओमां सर्वे ताराओना समूह छे ॥७॥

दररोज सन्ध्याकाळे सावधानपणाथी मौन रहीने भगवानना ज्योतिश्चक्ररूप सर्व देवतामय रूपनुं दर्शन करतां नीचेना मन्त्रथी स्तुति करवीः तेजना आश्रयरूप अने देवताओना स्वामी महापुरुषने नमीए छीए अने एनुं ध्यान करीए छीए ॥८॥

ग्रहर्क्षतारामयमाधिदैविकं पापापहं मन्त्रकृतां त्रिकालम्‌ ॥ नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं नश्येत तत्कालजमाशु पापम्‌ ॥९॥

ग्रह, नक्षत्र अने तारामय सर्वदेवरूप अने त्रणे काळमां उपर कहेल मन्त्रनो जप करनाराओनां पाप मटाडनारा आ शिशुमार चक्रने त्रणे समयमां जे माणस नमस्कार करे अथवा सम्भारे ते माणसनुं ते-ते समयनुं पाप तरत नाश पामे ॥९॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (पाञ्चमा उर्ध्वस्थान देशस्थिति प्रकरणमां शिशुमार निरूपण नामनो त्रीजो) ‘‘ध्रुवनुं स्थान’’ नामनो त्रेवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[१०९]] प्रकरण ६ - अधःस्थान देशस्थिति

अध्याय २४

सूर्यनी नीचेना ग्रहो तथा सात पाताळोनुं वर्णन

विशेष - आ चोवीसमा अध्यायमां सूर्यनी नीचे अनुक्रमथी राहु वगेरेनी स्थिति अने अतल वगेरे सात पाताळोनी मर्यादाओनुं वर्णन करवामां आवशे. अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्भानुर्नक्षत्रवच्‌ चरतीत्येके… ह्यतदर्हः तस्य तात जन्मकर्माणि च उपरिष्टाद्‌ वक्ष्यामः ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - सूर्यनी नीचे दश हजार योजन दूर नक्षत्रनी पेठे राहु फरे छे एम केटलाक कहे छे. दैत्योमां अधम ए सिंहिकानो पुत्र छे. भगवाननी कृपाथी ज योग्य नहि छतां ए अमरपणाने पाम्यो छे. ए राहुनां जन्म अने कर्म विशे आगळ (अष्टम स्कन्धमां) कहीशुम् ॥१॥

अत्यन्त तपतुं सूर्यनुं मण्डळ दश हजार योजननुं छे, चन्द्रमानुं मण्डळ बार हजार योजननुं छे अने राहुनुं तेर हजार योजननुं छे एम कहे छे. अमृतपान वखते राहु देवताना वेषमां सूर्य अने चन्द्र नी वचमां आवीने बेसी गयो हतो ए वखते सूर्य अने चन्द्रे एनी चालाकी खुल्ली पाडी दीधी हती ते वेरने याद करीने ए अमावास्या अने पूनम ने रोज सूर्य अने चन्द्रमा उपर आक्रमण करे छे ॥२॥

ए जोईने भगवाने बन्नेनुं रक्षण करवाने पोतानुं प्रिय आयुध सुदर्शनचक्र राखेलुं छे. ते सतत फरतुं रहे छे तेथी राहु एना असह्य तेजथी अकळाई ऊठी आश्चर्यचक्ति थई तेनी सामेथी मुहूर्तमां ज एकदम पाछो फरी जाय छे. जेटली वार राहु तेमनी सामे ऊभो रहे छे तेटला समयने लोको ‘ग्रहण’ कहे छे ॥३॥

ए राहुथी दश हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण अने विद्याधर लोकोनां स्थानक छे ॥४॥

एनी नीचे ज्यां सुधी वायुनी गति छे अने वादळो देखाय छे त्यां सुधी अन्तरिक्ष लोक छे. ते यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत अने भूतोनुं विहारस्थल छे ॥५॥

एनी सो योजन नीचे आ पृथ्वी छे. हंस, गीध, शकरा अन गरुड वगेरे मुख्यमुख्य पक्षीओ ज्यां सुधी ऊडी शके छे त्यां सुधी एनी सीमा छे ॥६॥

पृथ्वीनो विस्तार अने स्थिति वगेरेनुं वर्णन तो आवी ज गयुं छे. एनी नीचे अध्याय-२४,११० पञ्चमस्कन्ध अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल अने पाताळ नामना सात भूविवर (भूगर्भ स्थित बिल अथवा लोकी) छे ते एकेकनी नीचे दस-दस हजार योजनने अन्तरे आवेल छे अने दरेकनी लम्बाई-पहोळाई पण दस-दस हजार योजन ज छे ॥७॥

भूमिनां आ विवर पण एक प्रकारनां स्वर्ग ज छे. एमां स्वर्गथी पण विशेष विषय भोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान सुख अने धन सम्पत्ति छे. त्यान्ना वैभवपूर्ण, भवन, बगीचा अने क्रीडा स्थलोमां दैत्य, दानव अने नाग जात जातनी मायामयी क्रीडा करता रहे छे. ते बधा गृहस्थ धर्मनुं पालन करे छे. एमनां स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव अने सेवक एमना उपर खूब प्रेम राखे छे अने तेओ सदा प्रसन्न चित्त रहे छे एमना भोगोमां विघ्न करवानुं इन्द्र वगेरेमां पण सामर्थ्य नथी ॥८॥

हे परीक्षित राजा! ए पाताळोमां मायावी मयदानवे बनावेली अनेक सूशोभित नगरीओमां जात जातनां भवन, गढ, दरवाजा, सभाभवन, मन्दिर, मोटा-मोटा आङ्गणा अने घरोथी सुशोभित छे तथा जेनी फरस उपर नाग अने असुर लोकोनां जोडां, पारेवां, पोपट अने मेना आदि पक्षीओ किलकिलाट कर्या करे छे एवा पाताळना अधिपतिनां भव्य भवन ते पुरीओनी शोभा वधारी मूके छे ॥९॥

त्यान्ना बगीचा पण पोतानी शोभाथी देवलोकना बगीचानी शोभाने हठावी दे छे. एमां अनेक वृक्षो छे जेमनी सुन्दर डाळीओ फलफूलोना झूमखाओ अने कोमल कुम्पळोना भारथी लची रहेती होय छे तथा जेने तरेह-तरेहनी लताओ पोताना अङ्गपाशथी बान्धी राखेल छे. त्यां निर्मल जलथी भरेलां अनेक जलाशयो छे जेमां अनेक प्रकारनां पक्षीओनां जोडां विलास कर्या करे छे. ए वृक्षो अने जलाशयोनी सुषमा (सौन्दर्य) थी ते बगीचाओ अत्यन्त शोभी रह्या छे. ए जलाशयोमां रहेती माछलीओ ज्यारे गेल गम्मत करती ऊछळे छे त्यारे जल खळभळी ऊठे छे. साथे ज जलनी उपर ऊगेलां कमळ, कुमुद, कुवलय, कह्‌लार, नीलकमळ, लालकमळ अने शतपत्र कमळ वगेरेनां वनोमां रहेनारां पक्षीओना अखण्ड विहारमां अनेक इन्द्रियोने आनन्द मळे छे. ए वखते बधी इन्द्रियोमां उत्सव छवाई जाय छे ॥१०॥

ए पाताळोमां सूर्य नहि होवाथी अहो रात्र वगेरे काळना विभागोनी बीक होती नथी ॥११॥

[[१११]] त्यां मोटा-मोटा नागोना मस्तक उपरना मणिओ ज अन्धाराने मटाडे छे ॥१२॥

ए पाताळोमां रहेनाराओने औषधि, रस, रसायण, अन्न, पान अने स्नान ए बधुं दिव्य होवाथी आधि, व्याधि, अवस्थाओ अने विवर्णपणुं, दुर्गन्ध, पसीनो, थाक के ग्लानि पण थतां नथी. तेओ सदा सुन्दर, स्वस्थ अने जुवान रहे छे ॥१३॥

ए भाग्यशाळी लोकोनुं मृत्यु भगवानना तेजरूपी सुदर्शनचक्र सिवाय बीजा कोई साधनथी थतुं नथी ॥१४॥

सुदर्शन चक्र तो आवतां ज दैत्यनी स्त्रीओने घणुं करीने गर्भस्त्राव अने गर्भपात थई जाय छे ॥१५॥

अतल नामना पहेला पाताळमां मयदानवनो पुत्र ‘बल’ नामनो असुर रहे छे तेणे अर्ही ९६प्रकारनी माया उत्पन्न करेली छे, जेमानी केटली आज सुधी मायावी लोकोमां जोवा मळे छे. ए बलासुरना एक बगासु खावाथी तेना मुखमान्थी स्वैरिणी (पोतान ज वर्णना पुरुषमां प्रीति राखनारी), कामीनी (अन्य वर्णना पुरुषमां प्रीति राखनारी) अने पुंश्चली (अत्यन्त चञ्चल स्वभाववाळी) त्रण प्रकारनी स्त्रीओ उत्पन्न थई. तेओ ते लोकमां वसनारा पुरुषोने स्त्रीओ उत्पन्न थई. तेओ ते लोकमां वसनारा पुरुषोने हाटक नामनो रस पाई सम्भोग करवा शक्तिशाळी बनावी दे छे अने पछी एमनी साथे पोतानी हावभाव वाळी दृष्टि, प्रेम नीङ्गळतुं हास्य, प्रेमालाप अने आलिङ्गनादि द्वारा यथेष्ट रमण करे छे. ए हाटक रस पीने मनुष्य मदान्धशो बनी जाय छे अने पोताने दस हजार हाथीओ जेवो बळवान समजी ‘‘हुं ईश्वर छुं’’,‘‘हुं सिद्ध छुं’’ एम अभिमानथी बके छे ॥१६॥

अतल पाताळनी नीचे वितल पाताळमां पोताना पार्षदरूप भूतनां टोळान्थी र्वीटायेला साक्षात्‌ हाटकेश्वर महादेव ब्रह्मानी सृष्टि वधारवाने सारु पार्वतीनी साथे विहार करे छे. ए महादेव अने पार्वतीना तेजमान्थी हाटकी नामनी एक श्रेष्ठ नदी त्यां नीकळी छे. पवनथी प्रज्वलित अग्नि ए जलने होंशे-होंशे पी जाय छे अने पीने पाछुं काढी नाखे छे तेमान्थी हाटक नामनुं सोनुं बने छे. ए सोनाने मोटा-मोटा दैत्योनां अन्तःपुरोमां पुरुषो अने स्त्रीओ आभूषणरूपे धारण करे छे ॥१७॥

वितलनी नीचे सुतल पाताळमां पवित्र कीर्तिवाळो विरोचननो पुत्र बलिराजा अध्याय-२४,११२ पञ्चमस्कन्ध रहे छे. इन्द्रनुं प्रिय करवानी इच्छाथी भगवाने अदितिना उदरथी अवतार लई बटुक वामनजीना रूपथी त्रणे लोकनुं राज्य हरी लई पाछो भगवाननी कृपाथी एने सुतल पाताळमां राख्यो छे. तेनी पासे इन्द्रादिकनी पासे पण नथी तेवी उत्कृष्ट सम्पत्ति छे. ए पूज्यतम भगवाननी भक्ति स्वधर्म पूर्वक कर्या करे छे अने निर्भयपणे हजु सुधी त्याञ्ज रहे छे ॥१८॥

सर्व जीवोना नियन्ता, आत्माराम, सर्वना जीवरूप अने स्वरूपभूत परमात्मा भगवान्‌ वासुदेव जेवा पूज्यतम, पवित्रतम दाननुं पात्र मळतां आदरथी सावधान चित्तवडे ए बलिराजाए पृथ्वीनुं दान आप्युं तेनुं मुख्य फल कंई ए नथी के बलिने सुतल लोकनुं ऐश्वर्य प्राप्त थई गयुं. आ ऐश्वर्य तो थोडाक समयमाटेज छे पण ए भूमिदान तो साक्षात्‌ मोक्षनुं द्वार छे ॥१९॥

केमके कर्मनुं बन्धन तो जेने तोडवानो मुमुक्षु पुरुषो योग अने साङ्ख्यनां साधन करी अनेक दुःख भोगवे छे तेने जो माणस र्छीक खावी, पडी जवुं, ठेस वागवी जेवी परवश स्थितिमां पण एक वार भगवाननुं नाम ले तो तोडी शके छे ॥२०॥

तेथी पोताना संयमी भक्त अने ज्ञानीओने स्वस्वरूपनुं दान करी देनारा अने समस्त प्राणीओना आत्मा श्रीभगवानने आत्मभावथी करेल भूमिदाननुं फल आ न होई शके ॥२१॥

वास्तविक विचार करीए तो भगवाने बलिराजानी उपर अनुग्रह कर्यो ज नथी केमके एमणे एने मायामय भोग अने ऐश्वर्य, जे पोताने भूलावी देनारुं छे ते आप्युम् ॥२२॥

बीजो कोई उपाय नहि मळतां भगवाने याचनानुं छल करी एनुं मात्र शरीर राखी बाकीनुं सघळुं त्रैलोक्यनुं राज्य हरी लीधुं, वरुणपाशथी बान्ध्यो अने पर्वतनी गुफा जेवा पाताळमां फेङ्की दीधो ए समये बलिराजाए नीचे प्रमाणे कह्युं हतुम् ॥२३॥

‘‘अफसोसनी वात छे के आ ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान्‌ होवा छ्‌तां पोतानो साचो स्वार्थ सिद्ध करवामां कुशल नथी, सलाह लेवामाटे तेणे अनन्यभावथी बृहस्पतिजीने पोताना मन्त्री बनाव्या, छतां तेनो तिरस्कार करी तेणे श्रीविष्णु भगवान्‌ पासे दास्य नहि मागतां एमना द्वारा मारी पासेथी पोताने माटे भोग ज माग्या, आ त्रण लोक तो फकत एक मन्वन्तर सुधी ज रहे छे, जे अनन्त काळनो एक भाग मात्र छे. भगवानना दास्य आगळ भला, आ तुच्छ भोगोनी शी [[११३]] विसात (मूल्य) छे ॥२४॥

भगवानने हाथे पोताना पिता हिरण्यकशिपु मराया त्यारे अमारा पितामह प्रह्‌लादजीए प्रभुनी सेवानुं ज वरदान माग्युं हतुं. भगवान्‌ देवा मागता हता तो पण तेमनाथी दूर फेङ्की देनार समजीने एमणे पोताना पितानुं निष्कण्टक राज्य लेवानो स्वीकार कर्यो नहि ॥२५॥

प्रह्‌लादजी अत्यन्त महानुभाव हता. मारा उपर तो नथी भगवाननी कृपा के नथी तो मारी वासनाओ क्षीण थई. पछी मारा जेवो कयो पुरुष एमनी पासे पहोञ्चवानुं साहस करी शके?’’ ॥२६॥

राजन्‌! आ बलिराजानुं चरित्र अमे आगळ (आठमा स्कन्धमां) विस्तारथी कहीशुं. सर्व जगतना गुरु अने भक्तो उपर कृपा करनार नारायण भगवान्‌ हाथमां गदा राखीने ए बलिराजा दरवाजामां निरन्तर ऊभा रहे छे. जे समये दश माथावाळो रावण दिग्विजय करतां सुतल पाताळमां आव्यो ते समये ए नारायण भगवाने पोताना पगना अङ्गुठाथी एने लाखो योजन दूर फेङ्की दीधो हतो ॥२७॥

सुतल नीचे तलातल पाताळमां त्रण पुरनो अधिपति ‘मय’ नामनो दानवराज रहे छे. पहेलां त्रणे लोकने सुख करवानी इच्छाथी सदाशिवे एना त्रण पुर बाळी नाख्यां अने पछी कृपाने लीधे एने ए स्थानक आप्युं. ए मयदानव मायावी लोकोनो आचार्य छे. एना उपर महादेव रक्षक होवाथी अने सुदर्शन चक्रनी पण बीक नथी; ए तलातल पाताळमां लोको तेनो बहु आदर करे छे ॥२८॥

तलातलनी नीचे महातल पाताळमां कद्रूना पुत्रो अनेक मस्तकवाळा सर्प लोकोनुं ‘क्रोधवश’ नामनो एक समुदाय रहे छे तेमां कुहक, तक्षक, कालिय अने सुषेण वगेरे सर्पो मुख्य गणाय छे. मोटी-मोटी फेणवाळा ए सर्पो भगवानना वाहन गरुडजीथी निरन्तर डरता रहे छे; तो पण कोई समये पोतानी स्त्रीओ, सन्तान, सम्बन्धी अने कुटुम्बना सङ्गथी प्रमत्त थईने विहार करवा लागे छे ॥२९॥

महातलनी नीचे रसातल पाताळमां *पणि नामना दैत्य अने दानव रहे छे. ए निवात कवच, कालेय अने हिरण्यपुर वासी कहेवाय छे. एमने देवताओनी साथे विरोध छे. जन्मथी ज तेओ भारे बळवान्‌ अने साहसिक होय छे पण जेमनो प्रभाव सम्पूर्ण लोकमां फेलायेलो छे ते श्रीहरिना तेजथी एमना बळनुं अभिमान हणाई गयेलुं होवाथी तेओ जेम सर्प राफडामां रहे तेम रसातल पाताळमां रहे छे. अध्याय-२४,११४ पञ्चमस्कन्ध इन्द्रनी दूती एक कूतरी मन्त्रवर्ण वाकयने लीधे ए लोको इन्द्रथी बीए छे ॥३०॥

विशेष - पणि नामना दैत्योए सन्ताडी राखेली गायोने शोधी काढवा सारु इन्द्रे देवलोकोनी कूतरी सरमाने त्यां मोकली; तेने पणिओ सन्धि करवानी इच्छाथी ‘‘तारी शी मरजी छे इत्यादि’’ पूछे छे त्यारे सन्धिने नहि इच्छती ए कूतरी इन्द्रनां वखाण सहित एमने कठण वचन कहे छे के - ‘‘हता इन्द्रेण पणयः शयध्वम्‌’’ हे पणिओ! इन्द्रना हाथथी मार खाईने तमे मरण पामो ए वचन साम्भळीने ए लोको बी जाय छे एम ऋग्वेदमां लख्युं छे. ततो अधस्तात्‌ पाताले नागलोकपतयो वासुकिप्रमुखाः. … पातालविवरतिमिरनिकरं स्वरोचिषा विधमन्ति ॥३१॥

रसातलनी नीचे पाताळ नामना सातमा पाताळमां मोटी फणावाळा भारे क्रोधी मोटा नाग रहे छे तेमनो राजा वासुकि नाग छे. शङ्ख, कुलिक, महाशङ्ख, श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, शङ्खचूड, कम्बल, अश्वतर अने देवदत्त वगेरे नागो एमां मुख्य गणाय छे. एमान्थी कोईने पाञ्च, कोईने सात, कोईने दश, कोईने सो अने कोईने हजार माथां छे. ए नागोनी फेणो उपर झगझगता मणि पोतानी कान्तिथी पाताळमान्ना घाटा अन्धकारने दूर करे छे ॥३१॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (छठ्ठा अधःस्थान देशस्थिति प्रकरणमां तलपद निरूपण नामनो पहेलो) ‘‘सूर्यनी नीचेना ग्रहो तथा सात पाताळोनुं वर्णन’’ नामनो चोवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च। स्पृष्ट्‌वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद्‌ ॥ मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे पोताना सेव्यस्वरूपनी सेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं (द्रव्यशुद्धि, गो.श्रीपुरुषोत्तमजी)

अध्याय २५

शेषनागनी स्थिति-रुद्रोनी उत्पत्ति

विशेष - आ पचीसमा अध्यायमां सातमा पाताळनी नीचे शेषनागनी स्थिति कहेवाशे, के जे [[११५]] ठेकाणे प्रलय समये आ जगतनो संहार करवाने इच्छता शेषनागथी रुद्रो उत्पन्न थाय छे. तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतः तामसी समाख्यातानन्त …अहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्षते ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - पाताळनी नीचे त्रीस हजार योजनने अन्तरे शेषनाग रह्या छे ते भगवाननो तमोगुणी अंश कहेवाय छे. ए अहङ्कारना अधिष्ठाता छे. अहङ्काररूप होवाथी द्रष्टा अने दृश्य ने खेञ्चीने एक करी दे छे तेथी पञ्चरात्रना सिद्धान्तवाळा लोको एमने ‘सङ्कर्षण’ नाम आपे छे ॥१॥

अनन्त मूर्तिओवाळा अने हजार मस्तकवाळा शेषनागना एक ज मस्तक उपर आ भूमण्डळ रहेलुं छे पण ए सरसवना दाणा जेवुं देखाय छे ॥२॥

प्रलयकाळमां ज्यारे ए शेषनाग आ जगतनो उपसंहार करवा धारे छे त्यारे तेनी क्रोधथी वाङ्की करेली अने फरती मनोहर भ्रमरोना मध्यमान्थी त्रण-त्रण आङ्खोवाळा सङ्कर्षण नामनां अगियार रुद्रो त्रण शिखावाळां शूल सहित नीकळेछे ॥३॥

भगवान्‌ सङ्कर्षणना चरणकमलोना गोळ-गोळ, स्वच्छ अने रक्त वर्ण नख मणिओनी पक्‌तिन्नी माफक झगमगे छे. ज्यारे बीजा मुख्य-मुख्य भक्तो साथे अनेक नागराज अनन्य भक्तिभावथी एमने प्रणाम करे छे त्यारे एमने ए नख मणिओमान्थी पोताना कुण्डलोनी कान्तिथी शोभता कमनीय कपोलयुक्त मनोहर मुखारविन्दोनी मन मोहिनी झाङ्खी थाय छे अने एमनां मन आनन्दथी भराई जाय छे ॥४॥

शेषनागना चान्दीना स्तम्भ जेवा स्वच्छ, लाम्बा, श्वेत अने अत्यन्त सुन्दर भुज-कङ्कणथी शोभे छे. नागलोकनी कुमारिकाओ अनेक कामनाओथी तेना उपर अगरु, चन्दन अने केशरना पङ्कथी लेपन करे छे. लेपन करतां अङ्ग स्पर्शथी मथित थयेलां तेमनां हृदयमां कामदेवनो सञ्चार थई जाय छे. त्यारे तेओ एमना मदविह्‌वल, सकरुण, अरुण नयनकमलोथी सुशोभित तथा प्रेममदथी मुदित मुखारविन्दनी तरफ मधुर मनोहर मलकाट पूर्वक शरमाई जई निहाळवा लागे छे ॥५॥

अनन्त गुणोना समुद्र ए आदिदेव शेषनाग भगवान्‌ अनन्त असहनशीलता तथा क्रोधना वेगने रोकी त्यां समस्त लोकना कल्याणने सारु बिराजमान छे ॥६॥

अध्याय-२५,११६ पञ्चमस्कन्ध देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर अने मुनिलोको एमनुं ध्यान धर्या करे छे. एमनां नेत्र निरन्तर प्रेममदने लीधे मुदित, चञ्चल अने विह्‌वल रहे छे. ए ओ सुन्दर वचनामृतथी पोताना पार्षदो देवलोकोना अधिपतिओने आनन्द आप्या करे छे. एमनां अङ्ग उपर नीलवस्त्र अने कानोमां फक्त एक कुण्डल झगमगतुं होय छे तथा एमनो सुभग अने सुन्दर हस्त हळनी मूठ उपर राखेलो होय छे. ए उदार लीलामय भगवान्‌ सङ्कर्षणे गळामां वैजयन्तीमाला धारण करेली होय छे, जे साक्षात्‌ इन्द्रना हाथी ऐरावतना गळामां पडेली सुवर्णनी साङ्कळ जेवी लागे छे. जेनी कान्ति कदीपण फिक्की पडती नथी तेवी नवीन तुलसीनी गन्ध अने मधुर मकरन्दथी उन्मत्त भमराओ निरन्तर मधुर गुञ्जार करी ते वनमाळानी शोभा वधारता रहे छे ॥७॥

आ प्रमाणे माहात्म्य श्रवण करवाथी तथा ध्यान धरवाथी मुमुक्षु जनोना अन्तःकरणमां ए शेषनाग आवे छे अने एमनुं देहाभिमान जे सत्त्व, रज अने तमोगुणथी बनेलुं छे तथा अनादिकाळनी कर्मनी वासनाओथी गून्थायेलुं छे तेने तत्काल दूर करे छे. ब्रह्माजीना पुत्र नारदजीए एमना प्रभाव विशे तुम्बुरु गन्धर्वनी साथे ब्रह्माजीनी सभामां नीचे प्रमाणे श्लोकोनुं गान कर्युं हतुंः ॥८॥

‘‘जेनी दृष्टि पडवाथी आ जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय ना कारणरूप सत्त्वादि मायाना गुणो पोतपोतानुं काम करवामां समर्थ थाय छे, अनन्त तथा अनादिरूप पोते एक होवा छतां जेणे पोतानामां अनेक प्रकारनो कर्म प्रपञ्च उत्पन्न कर्यो छे तेवा ए परब्रह्म शेषनागना तत्त्वने लोको केम ज जाणी शके? ॥९॥

भक्तोनां अन्तःकरणोने वश करवा सारु करेली जेनी उत्तम लीलाने सिंह पण शीखे छे तेवा उदार पराक्रमवाळा अने जेना स्वरूपमां ज आ कार्य कारणरूप जगत्‌ देखाय छे तेवा शेषनागे आपणा उपर मोटी कृपा करी शुद्ध सत्त्वगुणरूप मूर्ति धरी छे ॥१०॥

अकस्मात्‌ कानमां पडी गयेलां जेमना नामनो कोई दीनदुःखी अथवा पतित पुरुष अकस्मात्‌ अथवा हांसीमां पण उच्चार करी दे तो ते पुरुष बीजा एवा शेष भगवानने छोडी मुमुक्षु पुरुष बीजा मनुष्योनां पण तमाम पापोने तत्काल नाश करी दे छे एवा शेष भगवानने छोडी मुमुक्षु पुरुष बीजा कोनो आश्रय ले? ॥११॥

अनन्त होवाथी अनन्त पराक्रमवाळा अने हजार मस्तकवाळा ए शेषनाग [[११७]] भगवाने पोताना एक मस्तकनी उपर पर्वतो, नदीओ, समुद्रो अने प्राणीओ सहित पृथ्वीने रजकणनी माफक धारण करेली छे तेमनां पराक्रमोने हजार जीभोथी पण कयो माणस गणी शके?’’ ॥१२॥

एवा प्रभाववाळा, अनन्त, अपार बळवाळा, स्वतन्त्र अने घणा गुण तथा प्रतापवाळा ए शेषनाग भगवान्‌ पाताळना मूळमां रहीने जगतनी रक्षा करवा सारु लीलाथी धरतीने धारण करी रह्या छे ॥१३॥

संसार सम्बन्धी सुखोने इच्छनार मनुष्यो पोतपोताना कर्म प्रमाणे जे-जे गतिने पामे छे तेनुं में जे प्रमाणे गुरु मुखथी साम्भळ्युं हतुं. ते प्रामणे तमारी पासे वर्णन करी सम्भळाव्युं छे ते गतिओ आटली ज छे ॥१४॥

एतावतीर्हि राजन्‌ पुंसः प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य विपाकगतय उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं व्याचख्ये किमन्यत्‌ कथयाम इति ॥१५॥

हे राजा! पुरुषोने प्रवृत्तिरूप धर्मथी प्राप्त थती जे परस्पर विलक्षण उच्चनीच गतिओ जेटली छे तेनुं वर्णन में तमारा पूछवा उपरथी आप्युं. हवे हुं बीजी शी कथा कहुं? ॥१५॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (छ्‌ठ्ठा अधःस्थान देशस्थिति प्रकरणमां शेष स्थिति निरूपण नामनो बीजो) ‘‘शेषनागनी स्थिति, रुद्रोनी उत्पत्ति’’ नामनो पचीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ कथा-कीर्तननी दक्षिणा स्वीकार नारा नीच लोकोना मनोभावो गटरना गन्धाता पाणी जेवा गन्दा होय छे (श्रीवल्लभाचार्य, जलभेद) आवा अधम वक्ताओनी वाणीने साम्भळवामां आनन्द अनुभवनाराओने शुं समजवा!!!

अध्याय २६

पृथ्वीनी नीचे आवेलां नरकोनुं वर्णन

विशेष - आ छव्वीसमां अध्यायमां पृथ्वीनी नीचे नरकोनी स्थिति कहेवाशे के जे नरकोमां यमदूतो पापी लोकोने यथायोग्य दुःख आपे छे. अध्याय-२६,

ईं उं ईं उं

११८ पञ्चमस्कन्ध महर्ष एतद्वैचित्र्यं लोक्स्य कथमिति ॥१॥

परीक्षित राजाए पूछ्‌युं - हे महाराज!आवी रीते सुख-दुःखना भोगनी विचित्रता शा कारणथी छे? ॥१॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - राजन्‌! कर्म करनारा पुरुषो सात्त्विक, राजस अने तामस ए त्रण प्रकारना होय छे. तथा तेमनी श्रद्धाओमां पण भेद होय छे. आ प्रमाणे स्वभाव अने श्रद्धा ना भेदथी एमनां कर्मोनी गतिओ पण जुदी-जुदी होय छे अने वत्ता ओछा प्रमाणमां ए बधी गति बधा कर्ताओने प्राप्त थती होय छे ॥२॥

ए ज प्रमाणे निषिद्ध कर्मरूप पापाचरण करनाराओने पण एमनी श्रद्धानी असमानताने कारणे समान फल नथी मळतुं तेथी अनादि अविद्याने लईने कामना पूर्वक करवामां आवेलां ए निषिद्ध कर्मोना फलरूपे हजारो जातनी जे नारकी (नरकनी) गति थाय छे एमनुं विस्तारथी वर्णन करीशुम् ॥३॥

परीक्षिते पूछ्‌युं - हे भगवन्‌! जेने नरक कहेवामां आवे छे ते शुं पृथ्वी उपरनो कोई चोक्कस देश छे के त्रिलोकीनी बहारनो देश छे के तेनी अन्दर ज कोईक स्थळे? ॥४॥

श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ए नरको त्रैलोक्यनी अन्दर ज छे. ए दक्षिण दिशामां पृथ्वीनी नीचे अने जळनी उपर छे. ए दिशामां अग्निष्वात्त वगेरे पितृगणो अत्यन्त एकाग्रता पूर्वक पोताना वंशजोनी मङ्गलकामना करता रहे छे ॥५॥

यमराजा पितृओना अधिपति छे. भगवाने जे नियम बान्धी आप्यो छे तेने अनुसरी, मरण पामेलां प्राणीओने पोताना दूतो लावे छे ते सौने चित्रगुप्त वगेरे पोताना फल-दण्ड आपे छे ॥६॥

केटलाक विद्वानोना मत प्रमाणे नरक एकवीस छे. एना नाम, रूप अने लक्षण अनुसार क्रमशः अमे कही सम्भळावीए छीए. ए तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टक-शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि अने अयःपान ए एकवीस नरक गणवामां आवे छे. क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रेत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन अने सूचीमुख नामनां बीजा पण सात नरको गणवामां आव्यां छे. ए अठ्ठावीस नरको [[११९]] अनेक प्रकारनी यातना भोगववानां स्थान छे ॥७॥

जे माणस पारकां धन, सन्तान के स्त्रीनुं हरण करे छे तेने अत्यन्त भयानक यमदूतो काळपाशथी बान्धीने बळात्कारथी तामिस्र नामना नरकमां नाखे छे. ए नरकमां खावा न देवुं, पाणी पीवा न देवुं, डण्डाथी प्रहार करवो अने घुरकियां करवां इत्यादिक अनेक प्रकारना उपायोथी यमदूतो जीवने पीडा आपे छे तेथी ए अन्धकारमय तामिस्र नरकमां एकदम मूर्च्छा पामे छे ॥८॥

ए प्रमाणे जे माणस बीजाने छेतरीने एनी स्त्री आदिनो उपभोग करे छे ते अन्धतामिस्र नामना नरकमां पडे छे. ए नरकमां नङ्खाता पीडा पामता ए जीव वेदनाने लीधे सुधबुध खोई बेसे छे अने तेने कंई सूझतुं नथी. मूळ कपातां झाडनी जेवी दशा थाय तेवी ए जीवनी दशा थाय छे. एटला माटे ए नरकने ‘अन्धतामिस्र’ नाम आपेलुं छे ॥९॥

जे माणस ‘‘आ शरीर ज हुं छुं अने आ स्त्री, धन वगेरे मारां छे’’ एम मानीने बीजा प्राणीओनो द्रोह करी केवळ पोताना कुटुम्बनुं ज पोषण करे छे ते माणस कुटुम्बने अर्ही ज मूकीने पोते एकलो ज ए पापने लीधे रौरव नामना नरकमां पडे छे ॥१०॥

ते माणसे जे जीवोने अर्ही जे रीते कष्ट पहोञ्चाड्युं होय ते जीवो रुरु नामनां प्राणी (कूतरा) बनीने कष्टमां आवेला ए माणसने ए स्थानमां तेवी रीते ज कष्ट पहोञ्चाडे छे. एटला माटे ए नरकनुं नाम रौरव कहेवाय छे, (‘रुरु’ ए सर्पना करतां पण अत्यन्त क्रूर प्राणी (कूतरा) नुं नाम छे) ॥११॥

आवुं ज महारौरव नरक छे. आमां ते व्यक्ति जाय छे जे बीजा कोईनी परवा कर्या विना मात्र पोताना ज शरीरनुं पालन-पोषण करे छे. त्यां काचे काचुं मांस खानारा रुरु (नामना कूतरा) एने मांसना लोभथी फाडी खाय छे ॥१२॥

जे क्रूर माणस पोतानुं पेट भरवा पशुने के पक्षीने जीवतां ज रान्धी नाखे छे ते हृदयहीन माणस तो राक्षसथी पण खराब छे. तेने कुम्भीपाक नरकमां यमना दूतो ऊकळता तेलमां रान्धी नाखे छे ॥१३॥

जे माणस माता-पिता, ब्राह्मणो अने वेद नो द्रोह करे छे ते माणसने यमदूतो कालसूत्र नामना नरकमां नाखे छे. ए नरकनो घेरावो दश हजार योजननो छे. एनी भूमि साव त्राम्बानी ऊनी अने सपाट छे; ते भूमि उपर सूर्यथी अने नीचे अध्याय-२६,१२० पञ्चमस्कन्ध अग्निथी तप्या करे छे. ए नरकमां पडेलो पापी जीव भूख अने तरस थी बहार अने अन्दर बळ्या करे छे. एनी बेचेनी एटली बधी वधी जाय छे के ते कयारेक बेसे छे, कयारेक लोटे छे, कयारेक तरफडवा माण्डे छे, कयारेक ऊभो रही जाय छे अने कयारेक आमतेम दोडवा लागे छे. आम ए नरपशुना शरीरमां जेटलां रोम होय छे एटलां हजार वर्षो सुधी एनी एवी दुर्गति थती रहे छे ॥१४॥

जे माणस आपतकाळ न होवा छतां पोतानो वेद मार्ग छोडी दईने पाखण्डपूर्ण धर्मोनो आश्रय लीधो होय तेने असिपत्रवन नामना नरकमां नाखीने चाबखाथी मारे छे. ए नरकमां मारथी बचवा ते चारे तरफ दोडता ए प्राणीनी उपर तालवननां बन्ने तरफ धारवाळां तरवार जेवा पान्दडां पडे छे तेथी सघळां अङ्ग कपाई जाय छे; ‘हाय मूओ’ ‘हाय मूओ’ एवी चीसो नाख्या करे छे; भारे वेदनाथी मूर्च्छा पामीने पगले-पगले ते पडी जाय छे अने मूर्छित थई जाय छे. स्वधर्मने त्यजी देनारो माणस पाखण्ड मार्गमां मळवानुं एवुं फळ भोगवे छे ॥१५॥

आ जगतमां कोई निरपराध होय तेने जे राजा अथवा राज कर्मचारी शिक्षा करे अने ब्राह्मणने देहनी शिक्षा करे छे ते महापापी मरण पाम्या पछी सूकरमुख नामना नरकमां पडे छे. ए नरकमां मोटा बळवाळा यमदूतो एना शरीरना अवयवोने चिचोडामां पिलाती शेरडीना साण्ठानी जेम पीले छे. जेवी रीते आ लोकमां तेणे सतावेला निर्दोष प्राणी चीसो पाडतां तेवी रीते ते कयारेक आर्त स्वरथी चिचियारीओ पाडे छे तो कयारेक बेभान थई जाय छे ॥१६॥

मनुष्यनी आजीविका भगवाने विधि-निषेधपूर्वक नक्की करी आपी छे तथा मनुष्यने बीजाने थती पीडानुं ज्ञान पण छे, छतां ते जो माङ्कड वगेरे प्राणीओने पीडा करे तो मरण पछी एवा पापने लीधे ते अन्धकूप नामना नरकमां पडे छे. (कारण, माङ्कड वगेरे प्राणीओने माणसनुं लोही पीवुं वगेरे आजीविका ईश्वरे ज बनावी छे अने तेमने एने लीधे बीजाने दुःख थायछे तेवुं भान नथी). आ अन्धकूप नरकमां पशु, पक्षी, मृग, सापोलियां, मच्छर, जू, माङ्कड अने माखी ओ जेने माणसोए दुःख दीधुं होय ते तेमने चारे बाजूएथी दुःख देवा माण्डे छे. निद्रानुं के शान्तिनुं सुख एमने मळतुं नथी. जेम रोगग्रस्त शरीरमां जीव तरफड्या करे छे तेम अन्धकारमय नरकमां ते तरफड्या करे छे ॥१७॥

जे कांई खावानुं आव्युं होय ते बीजाओने वहेञ्ची दीधा विना खाय अने [[१२१]] वैश्वदेवादिक पञ्चयज्ञ न करे ते माणसने कागडा जेवो कह्यो छे. मरण पछी ते कृमिभोजन नामना अधम नरकमां पडे छे. कीडाओना कुण्डरूप ए नरक एक लाख योजन लाम्बुं पहोळुं छे. एमां कीडो थईने पडेला जीवने बीजा कीडा खाय छे अने पोताने पण कीडा खावा पडे छे. वहेञ्ची दीधा वगर अने होम कर्या वगर खानारो अने एनुं प्रायश्चित नहि करनारो माणस ज्यां सुधी ए पापनुं शोधन सारी रीते न थई जाय त्यां सुधी वेदना भोगव्या करे छे ॥१८॥

जे माणस चोरीथी के बळात्कारथी ब्राह्मणनां सोनां अने रत्न नुं हरण करे, कष्ट पड्युं न होय तेवा समयमां पण बीजानां सोना वगेरेनुं हरण करे ते माणस मरण पछी सन्दंश नामना नरकमां पडे छे. त्यां एनी चामडीने यमदूतो लोढाना धगावेला गोळाथी दझाडे छे अने चीपियाओथी चामडी उतारी ले छे ॥१९॥

आ लोकमां जे पुरुष अगम्या स्त्रीनी साथे सम्भोग करे अने जे स्त्री अगम्य पुरुषनी साथे व्यभिचार करे ते बन्ने तप्तसूर्मि नामना नरकमां पडे छे. त्यां यमदूतो एमने चाबखाथी मारे छे. पुरुषने धगावेली लोढानी स्त्रीनी मूर्तिने साथे अने स्त्रीने एवी ज पुरुषनी मूर्ति साथे आलिङ्गन करावे छे ॥२०॥

जे पुरुषमां आ लोकमां पशु वगेरे बधान्नी साथे व्यभिचार करे छे तेने मरण पछी यमदूतो वज्रकण्टक-शाल्मली नामना नरकमां नाखे छे. त्यां यमदूतो एने वज्र जेवां काण्टावाळा शेमळाना झाड पर चढावीने पछी नीचे खेञ्चे छे ॥२१॥

जे राजाओ अथवा राजपुरुषो पोते सारा कुळमां उत्पन्न थयेला छतां धर्मनी मर्यादाओने तोडी नाखे छे तेमने नरकनी खाईरूप वैतरणी नदी नामना नरकमां र्झीकवामां आवे छे. त्यां मर्यादा तोडनारा ए लोकोने जलचर जीव चारे बाजूएथी र्पीखी नाखे छे पण तेथी एमना प्राण जता नथी अने पापने परिणामे प्राण टकी रहेवाथी ए नदीमां तणाये जाय छे; पोते ज करेलां पापकर्मनुं आ फल छे एम समजी बहु ज परिताप पामे छे; विष्ठा, मूत्र, परु, लोही, वाळ, नख, हाडकां, मेद, मांस अने चरबीनी ए नदीमां ए सिजाया करे छे ॥२२॥

लाज शरमने त्यजी देनारा पवित्र आचार नियमनो नाश करी कुलटाओनी साथे प्रेम करी जे लोको पशुनी पेठे यथेष्ट आचरण करे छे ते मरण पछी पूयोद नामना नरकमां पडे छे. ए नरक, परु, विष्टा, मूत्र, र्लीट, बळखा अने मळथी भरेला दरिया जेवुं छे. एमां पडीने ए ज घृणित पदार्थो एने खावा पडे छे ॥२३॥

अध्याय-२६,१२२ पञ्चमस्कन्ध आ लोकमां जे ब्राह्मणादि उच्च वर्णना लोको कूतरा अथवा गर्दभ पाळे छे अने शिकार वगेरेमां लाग्या रहे छे तेमने मर्या बाद प्राणरोध नामना नरकमां नाखवामां आवे छे अने तेमने लक्ष्य बनावी यमदूतो बाणोथी वीन्धी नाखे छे ॥२४॥

जे पाखण्डी लोको पाखण्डपूर्ण यज्ञोमां पशुओने कापी नाखे छे ते मरण पछी विशसन नामना नरकमां पडे छे. त्यां नरकना अधिपतिओ एने बहु पीडा पहोञ्चाडी कापे छे ॥२५॥

जे द्विजवर्णनो पुरुष कामातुर थई पोतानी सवर्ण स्त्रीने वीर्यपान करावे छे ते मरण पछी लालाभक्ष नामना नरकमां पडे छे. त्यां एने वीर्यनी नदीमां नाखीने यमदूतो वीर्य ज पाय छे ॥२६॥

जे चोर लोको, राजाओ के राजाओनां अधिकारी आ लोकमां कोईना घरने आग लगाडे छे, कोईने झेर दे छे, गाम के सङ्घोने लूण्टे छे तेओ मरण पछी सारमेयादन नामना नरकमां पडे छे. त्यां यमना दूतरूप अने वज्र जेवी दाढवाळा सातसो अने वीस कूतरा एने आङ्खो र्मीचीने फाडी खाय छे ॥२७॥

जे माणस साक्षी आपवामां, धननी लेवड-देवडमां अने दानमां कोई पण रीते खोटुं बोले छे ते माणस मर्या पछी आश्रय वगरना अवीचिमान नामना नरकमां पडे छे. त्यां सो योजन ऊञ्चा पर्वतोना शिखर उपरथी ऊन्धे माथे एने नीचे पाडे छे. ए नरकमां पथ्थरनी जग्या पाणी जेवी लागे छे एटला माटे एनुं नाम ‘अवीचिमान’ कहेवाय छे. ए स्थळमां पडवाथी तिलतिल जेटला शरीरना कटका थई जाय छे तो पण ए मरतो नथी एटले एने पाछो शिखर पर चढावीने पाडे छे ॥२८॥

जे ब्राह्मण, ब्राह्मणी के बीजो कोई व्रत लीधेल माणस गफलतथी मदिरा पीए छे, जे क्षत्रीय के वैश्य सोमपान करे छे ते अयःपान नामना नरकमां पडे छे. त्यां यमदूतो नरकथी बीधेला ए लोकोनी छातीने पगथी दबावी एमना मोढामां अग्निथी ओगाळेल लोढानो रस रेडे छे ॥२९॥

जे पुरुष आ लोकमां निम्न कक्षानो (हलकी श्रेणीनो) होवा छतां पोतानी जातने महान मानवाने लीधे जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण अथवा आश्रममां पोतानाथी महान पुरुषोनो सत्कार नथी करतो ते जीवतो मरेला जेवो छे ज तो पण मर्या पछी तेने क्षारकर्दम नामना नरकमां उन्धे माथे फेङ्कवामां आवे छे अने त्यां एने [[१२३]] अपार पीडा भोगववी पडे छे ॥३०॥

जे पुरुषो आ लोकमां नरबलिद्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदिनुं यजन करे छे अने जे स्त्रीओ पशुनी माफक पुरुषोने खाई जाय छे तेमने ते पशुओनी माफक मारी नाखवामां आवेला पुरुषो यमलोकमां राक्षस थई अनेक प्रकारनी यातना आपे छे अने रक्षोगणभोजन नामना नरकमां कसाईओनी जेम कुहाडीथी कापी-कापीने तेनुं लोही पीए छे, नाचे छे अने गाय छे. माणसोने मारीने तेओ जेवा आ लोकमां राजी थता तेवा ए राक्षसो राजी थाय छे ॥३१॥

जे माणसो वगडामां के गाममां निरपराधी अने जीववाने इच्छता प्राणीओने विश्वास उपजावी पछी शूळीमां के रस्सी वगेरेथी बान्धी रमत करतां-करतां दुःख दे छे तेओ मरण पछी शूलप्रोत नामना नरकमां पडे छे; त्यां यमदूतो एमने शूळीथी वीन्धी नाखे छे, भूख तरसथी पीडा आपे छे तीखी चाञ्चवाळा कागडा अने वटपक्षी वगेरे एमने चारे बाजूएथी ठोली नाखे छे जेथी ते पापीओ पोताना पापने याद करे छे ॥३२॥

सर्पादिकनी पेठे क्रूर स्वभाववाळा जे लोको अर्ही प्राणीओने उद्वेग आपे छे ते मरण पछी दन्दशूक नामना नरकमां पडे छे. त्यां पाञ्च मोढांवाळा अने सात मोढांवाळा सर्पो उन्दरनी माफक एमने हडप करी जाय छे ॥३३॥

जे लोको अर्ही ऊण्डा, खाडा, कोठीओ, गुफा वगेरेमां प्राणीओने रून्धी मूके छे तेओ मरण पछी अवटनिरोधन नामना नरकमां पडे छे. त्यां यमदूतो एमने एवा ज खाडाओमां रून्धी मूकीने झेरवाळा अग्निना धुमाडाथी मूञ्झवे छे ॥३४॥

जे गृहस्थ अतिथि के अभ्यागतोनी उपर वारंवार क्रोध करे छे, जाणे एमने बाळी नाखवा धारतो होय तेम क्रूर आङ्खथी जुए छे ते पर्यावर्तन नामना नरकमां पडे छे; त्यां वज्र जेवी चाञ्चवाळा गीध, कङ्क, कागडा अने बटेर वगेरे पक्षीओ बळात्कारथी ए क्रूर दृष्टिवाळा माणसनी आङ्खोने चूण्टी नाखे छे ॥३५॥

धननुं अभिमान सेवतो, पोताने ज श्रेष्ठ मानतो, टेडी नजरथी जोनारो, सर्व उपर शङ्का राखनारो, धन खरचाई जशे के खूटी जशे ए बीकथी जेनुं हृदय तथा मोढुं सुकाया करे छे तेवो माणस जम्पीने बेसतो नथी पण यक्षनी पेठे धननी रक्षा करे छे. आवो माणस मरण पछी सूचीमुख नामना नरकमां पडे छे. त्यां धनना पेदा करवानुं अने वधारवानुं पाप ज लाग्युं छे तेना सर्व अङ्गोने यमना दूतो दरजीओनी पेठे अध्याय-२६,१२४ पञ्चमस्कन्ध सोई दोराओ वडे सीवी ले छे ॥३६॥

हे राजा! यमपूरीमां आवां सेङ्कडो अने हजारो नरको छे. ए सर्वमां पापी लोको, जे पैकी केटलाकनुं में वर्णन आप्युं छे अने केटलाकनुं नथी आप्युं, वाराफरती पडे छे. एवी रीते ज धर्मने अनुसरनारा लोको स्वर्गादिक लोकमां जाय छे. पुण्य अने पाप बन्नेना बाकी रहेला भाग लई तेओ अर्ही मनुष्यलोकमां पुनर्जन्मने माटे आवे छे ॥३७॥

आ धर्म अने अधर्म थी विलक्षण निवृत्तिमार्ग तो पहेलां (द्वितीय स्कन्धमां) कहेवाई गयो छे. हे राजा! आ ब्रह्माण्ड जेना पेटा भेद पुराणोमां चौद प्रकारना कहेवाया छे. ते आटलुं ज छे, साक्षात्‌ महापुरुष भगवान्‌ नारायणनुं मायाना गुणथी बनेला स्थूळ ब्रह्माण्डनुं वर्णन हुं तमारी पासे करी चूक्यो. जे माणस आदरभावथी आ प्रकरणनो पाठ करे, साम्भळे के सम्भळावे तेनी बुद्धि श्रद्धाथी अने भक्तिथी शुद्ध थाय छे. एम थवाथी परमात्मानुं सत्य स्वरूप जे अत्यन्त गूढ छे तेने पण ते जाणी शके छे ॥३८॥

भगवानना स्थूळ सूक्ष्मरूपनुं श्रवण करी सन्न्यासीए प्रथम स्थूळरूपना ध्यानमां मनने स्थिर करवुं, पछी धीरे-धीरे बुद्धिवडे सूक्ष्म स्वरूपमां मनने लई जवुं ॥३९॥

भूद्वीपवर्षसरिदद्रिनभः समुद्र-पातालदिन्नरकभागणलोकसंस्था । गीता मया तव नृपाद्‌भुतमीश्वरस्य स्थूलं वपुः सकलजीवनिकायधाम ॥४०॥

हे राजा! पृथ्वी तेमां आवेलां द्वीप, खण्ड, नदीओ, पर्वतो, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशाओ, नरक, ज्योतिश्चक्र अने बीजा पण केटलाक लोकोनी स्थिति जे सघळां प्राणीओना समूहना स्थानरूप ईश्वरना अद्‌भुत अने स्थूळ शरीररूप छे ते में तारी पासे कही देखाडी ॥४०॥

इति श्रीभागवत पञ्चमस्कन्धमां (छठ्ठा अधःस्थान देशनिरूपण प्रकरणमां त्रीजो) ‘‘पृथ्वीनी नीचे आवेलां नरकोनुं वर्णन’’ नामनो छव्वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पञ्चमस्कन्ध सम्पूर्ण [[१२५]] षष्ठस्कन्ध-पुष्टिलीला (डाबी साथळ)

विशेष - पञ्चमस्कन्धमां छवीस अध्यायवडे स्थान लीलानुं निरूपण करवामां आव्युं, हवे षष्ठ स्कन्धमां ओगणीस अध्यायथी पुष्टिलीलानुं निरूपण करवामां आवे छे.
१. ‘‘पुष्टिलीला भाव’’ - पुष्टिलीला काळ, कर्म अने स्वभावनो बाध करनारी छे. ए श्रीकृष्णना अनुग्रहरूप छे. ‘‘पोषणं तदनुग्रहः’’ प्रभुनो अनुग्रह एटले पुष्टि. अनुग्रह, प्रसाद, कृपा वगेरे शब्दो एना पर्यायवाचक छे. पुष्टिलीलारूप भगवद्धर्म ज काळ, कर्म अने स्वभावनो नाश करे छे. एमां काळ द्वादश मासात्मक छे, तेमज ‘‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌। विविधाश्च पृथक्‌चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌’’ ए वाक्य अनुसार अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाओ अने दैव एम पञ्चात्मक कर्म छे अने स्वभाव दैव अने आसुरभेदथी बे प्रकारनो छे. एवी रीते १२.५.२ मळीने कुल ओगणीस प्रकारनी पुष्टिलीला पण थाय छे अने तेथी ज छठ्ठा स्कन्धना ओगणीस अध्याय छे.
२. प्रकरणभाव - अ.‘‘त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म च’’ आ श्रुतिमां उक्त नाम, रूप अने त्रणे भगवत्स्वरूप छे एम दर्शाववा नाम, ध्यान अने अर्चन ए त्रण प्रकरण छे. आ प्रकारे नाम कीर्तनथी ज प्रभु कालादिनो बाध करे छे, नहि के पुष्टिथी, एवी शङ्का न करवी कारण के नामादि भगवद्‌रूपविशेष छे. (तेथी ज नामात्मक वेदने भगवत्स्वरूप कहे छे). एनी कृपा विना एनुं सङ्कीर्तन पण असम्भवित ज छे कारण के ज्यारे भगवत्प्रसाद थाय त्यारे ज नामादिनो उच्चार पण कराय छे, नहि तो नहि. तेमांये नाम पण श्रवण, किर्तन अने स्मरण एवा भेदथी त्रण प्रकारनुं छे, माटे नाम प्रकरणमां एना त्रण अध्याय छे. ब.ध्यानमां रूप ज मुख्य छे. निबन्धमां बताव्या प्रमाणे रूप चौद प्रकारनुं छे. रूप प्रकरणमां चौद अध्याय छे. रूपना चौद प्रकार निबन्धमां आ प्रकारे छे ः रूपं चतुर्दशगुणं प्रत्येकं हृदि भावितम्‌ । फलत्येवेति तावद्‌भिरध्यायैर्विनिरूपणम्‌ ॥ रूपेण मोक्षदः प्रोक्तो रसेनानन्ददायकः । गन्धेन भक्तिदः प्रोक्तः स्पर्शेना खिलपापनुत्‌ ॥ मनोहरस्तु नादेन योगेनात्मप्रवेशदः । कालमोक्षप्रदो द्विष्टः स्वामी सर्व सुखप्रदः । [[१२६]] हीनभावाद्‌ दुःखदश्च केवलः सकलार्थदः ॥ मितो योगप्रदः प्रोक्तो भिन्नो मृत्युप्रदः स्मृतः । यथास्थितो ज्ञानदश्च स्नेहाद्वश्यो भवेद्‌ ध्रुवम्‌ ॥ बीजा ध्यान प्रकरणमां १४ अध्याय छे कारण के रूप चौद गुणवाळुं छे. प्रत्येक गुणयुक्त भगवत्स्वरूपनुं हृदयमां ध्यान करवामां आवे तो भगवान्‌ जीवनुं हित करे छे. ते चौद गुण आ प्रमाणे छे - पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो, पाञ्च कर्मेन्द्रियो अने चार अन्तःकरण. दक्षना तपथी प्रकट थयेलां (स्व) रूपे दक्षनो शिवजीनी अवज्ञारूप दोष निवृत्त करी, ते सृष्टिकर्म करवामां प्रवृत्त होवा छतां तेने मोक्षनुं दान कर्युं. सर्व इन्द्रियो अने अन्तःकरणथी अनुभवी शकाय एवो भगवद्रस आनन्द रूप छे. हर्यश्व अने शबलाश्व ने नारदजीना उपदेशथी गूढ वाक्योनो अर्थ समजायो, जेथी तेओए संसाररसनो त्याग कर्यो. दक्षने ते रसनो अनुभव न थयो अने तेथी नारदजीनी साथे बोलाबोली थई अने शाप थया. त्रीजा अध्यायमां विश्वरूपमां कीर्तिरूप, भगवानना प्रताप प्रभावरूप भगवद्‌गन्धनुं निरूपण छे. गन्ध एटले कीर्तिनी सुवास. चोथा अध्यायमां ‘‘ऋषिं त्वाष्टम्‌ उपव्रज्य परिष्वज्येदमब्रुवन्‌’’ त्वष्टामां आविष्ट भगवाननो स्पर्श थवाथी देवताओना बधा ताप दूर थई गया. पाञ्चमां अध्यायमां देवोने दधीचि ऋषि पासेथी भगवन्नाद रूप कवच प्राप्त थयुं. भगवन्नाद त्रिलोकीनुं मन हरी ले छे तेथी ज दैत्यना अंशवाळो विश्वरूप वैष्णव थयो. इन्द्रने कवच आपवामां आवतां भगवन्नादनुं दैत्य सम्बन्धित्वनुं निवारण करवा हरिए ज विश्वरूपने मार्यो. छठ्ठा अध्यायमां ‘‘योगेनात्मप्रवेशदः’’ नुं निरूपण आ प्रमाणे छे. मूर्तिमान देवरूप भक्ति तो वृत्रना उदरमां रहेली छे, तेनाथी भगवान्‌ प्रसन्न थाय छे ए साचुुं पण ते भक्ति वृत्रनो वध कर्या विना बहार आवी शके नहि. देवो मूञ्झाया छतां भगवन्नारूप कवच इन्द्र पासे होवाथी, तेनाथी ज देवोना हृदयमां भगवाननी स्तुति करवानी स्फूरणा थई, ते स्तुतिथी प्रभु प्रकट थया. देवोनी साथे वात करी अने आम देवोने अपनाव्या, अने वृत्रना वधनो उपाय बताव्यो. सातमा अध्यायमां ‘‘कालमोक्षप्रदोद्विष्टः।’’ युद्धनुं मूळ द्वेष छे. दैत्यो भगवाननो द्वेष करे छे अने भगवान्‌ तेमने कालद्वारा मोक्ष आपे छे, जेथी फरीथी तेमने कालनो ग्रास थवुं न पडे. सेवामां हस्तनी प्रवृत्ति परस्पर बन्ने पक्षे नथी होती, युद्धमां बन्ने पक्षे प्रवृत्ति होय छे. [[१२७]] आठमा अध्यायमां ‘‘स्वामी सर्वसुखप्रदः’’ आ प्रमाणे वृत्रना उदरमां रहेली मूर्तिमती भक्ति भगवानने पोताना स्वामी पति माने छे. पति पोतानी भार्याने जेम बधी रीते सुखी करे छे तेम भगवान्‌ पण भक्तोने बधी रीते सर्व स्वकीय सुख आपे छे. आ वृत्र चतुःश्लोकीमां स्पष्ट छे. नवमां अध्यायमां ‘‘हीनभावाद्‌ दुःखदश्च’’ वृत्रे इन्द्रने ज्ञान, भक्ति, बल जणाव्यां छतां इन्द्रपदनी प्राप्तिमाटे युद्ध ज कर्युं, पण वृत्रने भक्त समजी भगवत्प्रीतिनेमाटे शरणागति न स्वीकारी, इन्द्र वृत्रने शरणे गया होत तो भगवत्प्राप्ति जलदी थात अने भगवत्कृपाथी अनायासे सौ रूडां वानां थात. अर्ही ते न करतां प्रभुमां हीनभावनाथी त्याग छतो थयो अने पछी तो भगवाने पण इन्द्रनो त्याग करवाथी आधिदैविक वृत्रहत्या रूपी दुःख मळ्युं. दशमा अध्यायमां ‘‘केवलः सकलार्थदः’’ ईशान खूणामां मानस सरोवरमां श्रीलक्ष्मीनारायण केवल पार्षदविहोणा बिराजे छे. त्रणे लोकमां इन्द्र शरणमाटे भम्या. क्यांय पण शरण न मळवाथी मानस सरोवरमां, इन्द्रने शरणुं मळ्युं, योग्य न होवा छतांय भगवाननो स्वभाव तो एवो छे के कोई जीव भगवत्समीपे एक डग माण्डे तो भगवान्‌ ते जीवनी दिशामां ओगणीस डग चाले छे एटले भगवाननी साथे त्यां इन्द्र गया. आगला अध्यायमां इन्द्रनो भगवान्‌मां हीनभाव हतो, तेथी भगवत्समीप आववा पण ते योग्य नहोता छतां आ वृत्रनी हत्या, सर्व लोकोमां भक्तिना प्रचारमाटे अने वृत्रना दोषनुं निवारण करवा भगवानने भावती वात हती. एटलुं ज नहि, ते भगवत्कार्य हतुं, कार्य थयुं एटले हीनभावनुं फल भोगवाई जतां फरीथी उत्तम बुद्धि थई. ध्यानथी भक्ति, हत्याथी मोक्ष, यज्ञोथी धर्म, तथा महेन्द्रपणाथी अर्थ अने काम आप्या. ध्यानथी आधिदैविक हत्या, श्रीरुद्रथी आध्यात्मिक हत्या अने यज्ञोथी भौतिक हत्या निवृत्त थई गई. अगियारमां अध्यायमां ‘‘मितो योगप्रदः’’ भगवान्‌ अने भगवदानन्द अनन्त होवाथी तोल-जोख-मापना छाबडाम्मां समाई शकता नथी. पण भगवान्‌ सिवाय बधान्नो तोल-जोख थई शके छे. तेनो निर्णय करी ते बधाथी भगवान्‌ अने भगवदानन्द क्यांय उत्तम छे एम समजवुं ए ज भगवान्‌ अने भगवदानन्दनुं माप. सागर अने आकाश अनन्त छे एम समजवुं ए ज एमनुं माप अथवा ज्ञान. अङ्गिरा ऋषि चित्रकेतु राजाने उपदेश आपवा ज आव्या हता तो पण चित्रकेतुए तो एम ज कह्युं के पुत्र विना पोतानी अने पोताना पितरोनी गति ज नथी माटे पुत्र आपो ज आपो, आम तेने भगवान्‌मां उत्कृष्ट बुद्धि न थई. भगवान्‌ [[१२८]] परमानन्द स्वरूप छे एवुं उत्तम ज्ञान पण न थयुं अने परिणामे तेने भगवाननी अप्राप्ति रूपी अयोग ज मळ्यो ‘‘भिन्नोमृत्युप्रदः’’ एक सर्वात्मक अद्वितीय आत्मस्वरूप भगवाननुं विदारण करी, अहङ्कार जीवात्माने अलग करे छे. पछी जुदो पडेलो जीव ममताथी जडने भगवान्‌थी पृथक्‌ करे छे, तेथी भगवान्‌ पण ए विदारणकर्मनुं दुःखरूप ज फल आपे छे. त्यां जडजीवरूपथी शोक, मोह अने आर्तिरूप दुःख थाय छे, अने मूलरूपथी पोतानामां कालस्वरूपनुं सम्पादन करी मृत्युरूप दुःख आपे छे. ‘‘यथास्थितो ज्ञानप्रदः’’ आ अध्यायमां पोताना योगबलवडे नारदजीए बोलावेलो चित्स्वरूप ज्ञानधर्मवाळो जीव यथास्थित आवे छे अने मोह दूर करनारुं ज्ञान चित्रकेतुने आपे छे. ‘‘स्नेहाद्‌ वस्यो भवेद्‌ ध्रुवम्‌’’ स्नेह एटले भक्ति. आ अध्यायमां सङ्कर्षण भगवाने चित्रकेतुने उपदेश आप्यो अने ए उपदेशथी चित्रकेतुने भक्ति थई. पण पोताने सम्पत्तिनी प्राप्ति थई छे ते पोताना साधनबलथी थई छे तेवुं तेने अभिमान हतुं, तेथी तेनी भक्ति दीनता विहोणी हती. ओछामां पूरुं विद्याधरपणामां तेने आसक्ति हती. आ बन्ने बाबतो भक्तोमां शोभे नहि तेथी ते दूर करवा अने दीनतानुं तेने दान करवा भगवाने ज तेने पार्वतीद्वारा शाप अपाव्यो. सामो शाप आपी शकवाने समर्थ चित्रकेतुए सामो शाप न आप्यो एटलुं ज नहि पण खेलदिली पूर्वक शाप स्वीकार्यो. आम चित्रकेतुने आसुर योनि प्राप्त थई ते वृत्रासुर थयो, पण तेना भक्तिना संस्कार एम ज रह्या. एटले ज तो खूनखार जङ्गमां प्रभुए प्रकट थई तेने दर्शन आप्यां अने तेणे दीनताभाव पूर्वक परमभक्ति बोधक चतुःश्लोकी ‘‘अहं हरे तव…’’ द्वारा स्तवन कर्यु. तेना देहत्याग समये प्रभु त्यां पधार्या अने तेनो (वृत्रनो) प्रवेश बधानां देखतां प्रभुमां थयो ते प्रभुनुं स्नेहने लीधे वश थवुं. क. त्रीजा प्रकरणमां अर्चननुं वर्णन आवे छे. ए बाह्यान्तर भेदवडे बे प्रकारनुं छे, माटे एनुं निरूपण बे अध्यायवडे करवामां आव्युं छे. आ प्रमाणे ओगणीस अध्यायना षष्ठ स्कन्धनो अर्थ समजवो. प्रभुनां नाम, रूप अने क्रिया आ त्रणे वस्तुमां जो प्रभु प्रसन्न होय तो ज मोक्ष आपे छे. स्कन्धार्थ विचारमां पुष्टिलीलाना १९ अध्यायो नीचे प्रमाणे थाय छे. पुष्टिस्थिति कर्म, काल अने स्वभाव नो बाध करे छे. आ त्रणेने दूर करी पुष्टि पोतानो अमल करे छे. तेथी कर्मना पाञ्च प्रकार छे - १. अधिष्ठान(शरीर) २. कर्ता(जीव) ३. करण(बाह्य अने आभ्यन्तर) ४. चेष्टा(प्राण विगेरे वायुनी चेष्टा) अने ५.दैव(काल, कर्म, भगवदिच्छा, अन्तर्यामी, मुख्य प्राणना सहायक इन्द्रियोना अधिष्ठाता देवताओ आदि) आ प्रमाणे पाञ्च अध्याय प्रथम [[१२९]] प्रकरणना थाय छे. काळ बार मासनो होवाथी बीजा प्रकरणना बार अध्याय छे. स्वभाव दैव अने आसुर एम बे प्रकारनो होवाथी त्रीजा प्रकरणना बे अध्याय छे. आ प्रमाणे पुष्टि (अनुग्रह) दरेकनो बाध करनार होवाथी तेने काळ, कर्म, स्वभावथी दूर राखनार तरीके स्कन्धविचारनी दृष्टिए आ स्कन्धना १९ अध्याय थाय छे, प्रकरण विचारनी दृष्टिथी पण जे प्रकारे १९ अध्यायनी सङ्कलना करी छे, तेने कोष्ठकमां दर्शावी छे.