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[[३८५]] चतुर्थ स्कन्ध विसर्गलीला (दक्षिण बाहु) पहेलुं यज्ञात्मकधर्म-प्रकरण

अध्याय १

स्वायम्भुव मनुनी कन्याओना वंश तथा एमां थयेला भगवानना यज्ञादि अवतार

विशेष - चोथा स्कन्धमां विसर्ग एटले विशिष्ट सर्ग देवतारूपे निरूपाय छे. एना देवता वसु, रुद्र अने आदित्यरूपी छे. भगवाननी लीला विपरीत होवाथी अन्तमां वसुनुं निरूपण आवे छे, मध्यमां रुद्रनुं आवे छे अने आदिमां आदित्यनुं आवे छे. आचार्यचरण विसर्गनुं लक्षण ‘‘सर्व युक्तरजा अजः एवुं आपे छे. मूळ भागवत्‌मां विसर्गः पौरुषः स्मृतः’’ एवुं लक्षण आवी अमोध लीलावाळा तथा अद्‌भुत कर्मवाळा प्रभुनुं वर्णन आवे छे. तेथी आ विसर्ग लीला अलौकिक छे. चतुर्थ स्कन्धमां चार प्रकरण छे. प्रथम प्रकरणमां यज्ञात्मक धर्मनुं बीजामां अर्थनुं, त्रीजामां कामनुंअने चोथामां मोक्षनुं वर्णन छे. यज्ञात्मक धर्मना वर्णनमां अग्निष्टोम (अत्यग्निष्टोमां, उक्‌थ्य, षोडशी, अतिरात्र, अप्त, अर्याम अने वाजपेय, आ सात संस्थाओ यज्ञात्मक धर्मनी छे. तेने अनुसरीने अर्ही सात अध्यायवडे धर्मनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. बीजा प्रकरणमां पाञ्च अध्यायवडे अर्थनुं-ध्रुवना अर्थनुं निरूपण कर्यु छे. त्रीजा प्रकरणमां अगियार अध्यायवडे पृथु राजाना कामनुं वर्णन आवे छे. चोथा प्रकरणमां आठ अध्यायवडे पुरञ्जन, प्राचीनबहिं अने प्रचेताओनो मोक्ष वर्णव्यो छे. आम आ चोथो स्कन्ध जीवनो चार प्रकारनो पुरुषार्थ सिद्ध करे छे. आ प्रकारे एकवीश अध्यायवडे विसर्गलीला वर्णवी छे. आ अध्यायमां सतीना देहना परित्यागनुं निरूपण करवामां आव्युं छे, जो के ए दक्षनो अनर्थ छे तथापि सतीना देहना परित्यागद्वारा दक्षनो गर्व दूर करवामां आवेलो होवाथी ए धर्मरूप पुरुषार्थ सिद्ध करे छे; प्रारम्भमां वंशकथा कहेवामां आवी छे ते प्रसङ्गनी सङ्गतिमाटे छे; ए वंशकथा कंई अध्यायार्थ नथी. मनोस्तु शतरूपायां तिस्रः कन्याश्च जज्ञिरे ॥३८६ अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति विश्रुताः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - स्वायम्भुव मनुने शतरूपा राणीथी आकूति, देवहूति अने प्रसूति ए नामनी त्रण कन्याओ थई ॥१॥

ए पैकी आकूति रुचि ऋषिने आपी हती. जो के मनुने पुत्र हता तेम छतां सगपण करती वखते राणीना कहेवाथी मनुए एवी शरत करी हती के आ कन्याने जे पुत्र जन्मे तेने हुं मारो पुत्र करी राखीश ॥२॥

पछी प्रभुना अनन्य चिन्तनथी ब्रह्मतेजवाळा ए रुचि ऋषिने ए आकूतिथी जोडकुं आव्युम् ॥३॥

एमां जे पुत्र हता ते साक्षात्‌ यज्ञावतार विष्णु हता, जे कन्या हती तेनुं नाम ‘दक्षिणा’ हतुं अने ए सदा विष्णु पासे ज रहेनारां लक्ष्मीजीना अंशरूपी हती॥४॥

ए घणी कान्तिवाळा दीकरीना दीकराने स्वायम्भुव मनु आनन्दथी पोताने घेर लाव्या अने दक्षिणाने रुचिए साचवी ॥५॥

ए दक्षिणाने लग्न लायक उमर थतां यज्ञ भगवान्‌ एने परण्या अने ए प्रसन्न थयेली स्त्रीमां पोते प्रसन्न थई बार पुत्र उत्पन्न कर्या ॥६॥

एमनां नामःतोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वहून, सुदेव अने रोचन हताम् ॥७॥

स्वायम्भुव मन्वन्तरमां तेओ ‘तुषित’ नामना देवता थया. ए मन्वन्तरमां मरीचि वगेरे ‘सप्तर्षि’ हता अने यज्ञ भगवाने ज इन्द्रनी पदवी भोगवी ॥८॥

मनुना प्रियव्रत अने उत्तानपाद नामना महा तेजस्वी पुत्र हता. तेमना पुत्रो, पौत्रो अने प्रपौत्रो ना वंशोना राजाओथी ए मन्वन्तर छवाई गयो ॥९॥

हे तात! स्वायम्भूव मनुए कर्दम प्रजापतिने देवहूति नामनी पोतानी पुत्री आपी हती. तेना सम्बन्धनी कथा तो तमे मारी पासेथी घणीखरी साम्भळी ॥१०॥

मनुए पोतानी प्रसूति नामनी त्रीजी पुत्री ब्रह्माना पुत्र दक्ष प्रजापतिने आपी हती तेनी सृष्टि त्रिलोकमां बहु ज विस्तार पामी छे।११॥

कर्दम ऋषिनी नव दीकरीओ मरीचि वगेरे ब्रह्मर्षिओनी स्त्रीओनुं वर्णन थई चूक््युं छे. तेमना वंशनो विस्तार हवे मारी पासेथी साम्भळो ॥१२॥

कर्दमनी पुत्री अने मरीचिनी स्त्री कलाने कश्यप अने पूर्णिमान्‌ नामना बे पुत्र थया. एमना वंशथी आ आखुं जगत्‌ भरपूर थई गयुं छे ॥१३॥अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध ३८७ हे परन्तप! पूर्णिमाने विरज अने विश्रग नामना बे पुत्र थया अने देवकुल्या नामनी कन्या थई. आ ज कन्या भगवानना चरणारविन्दने धोवाथी पछीना जन्ममां गङ्गा थई ॥१४॥

अत्रिनी स्त्री अनसूयाए दत्त, दुर्वासा अने चन्द्र नामना (अनुक्रमे) विष्णु, शिव अने ब्रह्माना अंशथी उत्पन्न थयेला परम यशस्वी पुत्रोने जन्म आप्यो॥१५॥

विदुरजीए पूछ्‌युं - हे गुरु! जगतनां स्थिति, उत्पत्ति अने संहार करनारा त्रण मोटा देव अत्रि ऋषिने घेर कयुं कार्य करवा प्रकट थया ए मने कहो ॥१६॥

मैत्रेये कह्युं - ब्रह्माजीए सृष्टि करवानी आज्ञा करवाथी ब्रह्मज्ञानीओमां उत्तम अत्रि ऋषि तप करवानो निश्चय करी पोतानी स्त्री साथे ऋक्ष नामना मोटा पर्वतमां गया ॥१७॥

ए पर्वतमां फूलना गुच्छोवाळा खाखरा अने अशोक वृक्षोनुं वन छे तेमां वगर अटकये वहेतां निर्विन्ध्या खळखळ करतां नदीनां पाणी चारे बाजूए वहे छे॥१८॥

ए ठेकाणे प्राणायामथी मननो निग्रह करी सुख-दुःख, शरदी-गरमी नी परवा कर्या विना मात्र वायुनो आहार करी ए सो वर्ष सुधी एक पगे ऊभा रह्या ॥१९॥

‘‘जे कोई सम्पूर्ण जगतना ईश्वर छे तेने हुं शरणे जाउं छुं. ते मने पोताना जेवी प्रजा देजो’’ एवुं ए चिन्तन करवा लाग्या ॥२०॥

ए मुनिना मस्तकमान्थी नीकळेला अने प्राणायामथी प्रदीप्त थयेला अग्निथी त्रण लोक तपवा लाग्या ए जोईने जेओनी कीर्तिने अप्सराओ, मुनिओ, सिद्ध, गन्धर्व अने नाग गाया करे छे तेवा त्रणेय जगत्पति ब्रह्मा, विष्णु अने महादेव मुनिना आश्रममां आव्या ॥२१-२२॥

एमना प्रकट थवाथी मुनिनुं मन प्रकाश पाम्युं अने एक पगथी ऊभेला ए मुनिने ए त्रणे महान देवोनां दर्शन थयाम् ॥२३॥

पछी जमीन पर दण्डवत्‌ प्रणाम करी, हाथमां फळ वगेरे पदार्थो लई एमणे नन्दी, हंस अने गरुड उपर बेठेला अने पोतपोतानां कमण्डलु, चक्र, त्रिशूल आदि चिह्‌नवाळा ए देवोनी पूजा करी. तेओ कृपाना कटाक्ष अने हसतां मुखोथी प्रसन्न जणाता हता. तेओना तेजथी अञ्जाई गयेली आङ्खोने पछी मीचीने एओमां मन जोडता अत्रि ऋषि हाथ जोडीने मधुर वाणीथी सर्वलोकमां मोटा ए देवोनी स्तुति करवा लाग्या ॥२४-२६॥३८८ अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध अत्रि बोल्या - प्रत्येक कल्पना आरम्भमां जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने लयने माटे जे मायाना सत्त्वादि त्रण गुणोनो विभाग करी अलग-अलग शरीर धारण करे छे ते ब्रह्मा, विष्णु अने महादेव आप ज छो. हुं आपने प्रणाम करुं छुं. कहो त्यारे आपमान्थी में जेने अर्ही बोलवेल ते कोण? में तो अर्ही सन्तानने माटे घणा-घणा उपचारोथी चित्तमां एक ज ईश्वरनुं ध्यान धर्यु हतुं. तो जेमने प्राणीओनां मन पण पहोञ्ची शके नहि तेवा आप बधा अर्ही केम पधार्या छो? आ विषयमां मने घणुं आश्चर्य थयुं छे. आप कृपा करीने मने आनुं रहस्य बतावो ॥२७-२८॥

मैत्रेये कह्युं - हे विदुरजी! ए प्रमाणे एनुं वचन साम्भळी हसीने त्रणे देवोए मधुर वाणीथी ऋषिने कह्युम् ॥२९॥

देवोए कह्युं - ब्रह्मन्‌! तमे जेवो सङ्कल्प करो ते प्रमाणे ज थाय; एमां फरक पडे नहि. तमारो सङ्कल्प सत्य छे. तमे जे तत्त्वनुं ध्यान धर्युं हतुं ते* अमे छीए ॥३०॥

विशेष - जगत्‌ने नियममां राखनार त्रिगुणात्मक स्वरूप छे एक-एक गुणना अधिष्ठाता ब्रह्मादिरूपे छे तेथी जगदीश्वराख्य तत्त्व त्रिगुणात्मक होवाथी त्रणे देवो एकी साथे आव्या. पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ गुणातीत छे. हवे अमारा अंशथी उत्पन्न थयेला अने जगत्‌मां प्रख्याति, पामेला त्रण पुत्रो तमने थशे तेओ तमारी कीर्तिमां वधारो करशे अने तमारुं कल्याण थशे ॥३१॥

मैत्रेये कह्युं - पति-पत्नी बन्नेथी ए प्रमाणे सारी रीते पूजायेला ए त्रण देवो वरदान आपी जोतजोतामां त्यान्थी पोतपोताना लोकमां चाल्या गया ॥३२॥

पछी एमने घेर ब्रह्माना अंशथी चन्द्रमा, विष्णुना अंशथी योग जाणनार दत्तात्रेय अने सदाशिवना अंशथी दुर्वासा एम त्रण पुत्रो थया. हवे अगिंरानो वंश साम्भळो ॥३३॥

अगिंरानी स्त्री श्रद्धाने सिनीवाली, कुहू, राका अने अनुमति* एवां नामथी चार कन्याओ थई ॥३४॥

विशेष - अमावास्यामां चन्द्रमां थोडो देखाय ते सिनीवाली अने बिलकुल न देखाय ते ‘कुहू’ कहेवाय छे. तेमज जे पूनममां चन्द्रमां जराक ओछो होय ते अनुमति अने सम्पूर्ण होय ते ‘राका’ कहेवाय छे.अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध ३८९ स्वारोचिष मन्वन्तरमां प्रख्यात साक्षात्‌ भगवान्‌ उतथ्य अने बृहस्पति नामना बे बीजा पुत्र पण थया. पुलस्त्य मुनिने हविर्भू नामनी स्त्रीथी महातपस्वी अगस्त्य अने विश्रवा नामना बे पुत्र थया तेमां अगस्त्य बीजा जन्ममां जठराग्नि थया. विश्रवाने इडविडा नामनी स्त्रीथी यक्षोनो अधिपति कुबेर नामनो पुत्र थयो. बीजी स्त्री केशिनीथी रावण, कुम्भकर्ण अने विभीषण त्रण पुत्रो थया ॥३५-३७॥

हे विदुरजी! पुलह ऋषिनी स्त्री परम साध्वी गतिने कर्मश्रेष्ठ, वरीयान अने सहिष्णु त्रण पुत्र थया ॥३८॥

कतुऋषिनी स्त्री क्रियाने ब्रह्म तेजथी प्रकाशता वालखिल्य नामना साठ हजार पुत्रो थया ॥३९॥

हे शत्रुतापन विदुरजी! वसिष्ठ मुनिने ऊर्जा(अरुन्धती) नामनी स्त्रीथी चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान अने द्युमान नामना सात निर्मळ अने महात्मा पुत्रो थया; ए सिवाय बीजी स्त्रीथी शकित वगेरे बीजा अनेक पुत्रो थया ॥४०-४१॥

अथर्वा ऋषिनी स्त्री चित्तिने दध्यञ्च नामे तपस्वी पुत्र थयो. तेनुं बीजुं नाम अश्वशिरा पण हतुं. कारण के पाछळथी तेने घोडानुं माथुं चोण्टाडवामां आव्युं हतुं ॥४२॥

हवे भृगुनो वंश साम्भळो. भृगु ऋषिने ख्याति नामनी स्त्रीथी त्रण सन्तान थयां तेमां धाता अने विधाता ए बे पुत्रो हता अने लक्ष्मी नामनी एक भगवत्परायण कन्या हती ॥४३॥

ए धाता अने विधाताने मेरु पर्वते अनुक्रमे आयति अने नियति नामनी पुत्री आपी हती तेमां धाताना मृकण्ड अने विधाताना प्राण नामे पुत्र थया. मृकण्डना मार्कडेय अने प्राणना वेदशिरा थया ॥४४॥

भृगुना कवि नामे एक पुत्र पण हता. तेमना पुत्र भगवान्‌ शुक्राचार्य थया ॥४५॥

हे विदुरजी! ए प्रमाणे मुनिओए सृष्टि उत्पन्न करी लोकनुं कल्याण कर्यु. कर्दमनी दीकरीओना वंश तमारी पासे कही देखाड्या. जे उत्तम छे अने श्रद्धाथी साम्भळनारनां पापने तुरत हरी ले छे ॥४६॥

ब्रह्माना पुत्र दक्ष प्रजापति स्वयम्भुव मनुनी दीकरी प्रसूतिने परण्या हता३९० अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध तेनाथी एमने सुन्दर नेत्रवाळी सोळ पुत्रीओथई ॥४७॥

एमान्थी धर्मने तेर, अग्निने एक, समस्त पितृगणने एक अने संसारनां बन्धन कापनारा सदाशिवने एक आपीहती ॥४८॥

श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री अने मूर्ति ए तेर धर्मनी पत्नीओछे ॥४९॥

एमां श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मुद, पुष्टिने स्मय(अहङ्कार) ॥५०॥

क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बुद्धिने अर्थ, मेधाने स्मृति, तितिक्षाने क्षेम अने ह्रीने प्रश्रय(विनय) नामना पुत्रोथया ॥५१॥

सर्व गुणसम्पन्न मूर्तिने नर अने नारायण नामना पुत्र थया* एमना जन्म समये सर्व जगत्‌ने अत्यन्त सुख अने आनन्द प्राप्त थयां; ॥५२॥

विशेष - नारायण भगवाननो अवतार छे अने नर आवेशावतार छे, आ बेउनो एक ज अवतार मानवामां आव्यो छे तथापि पुष्टि अने मर्यादा एम बेउ कार्यने सम्पादन करवामाटे बे स्वरूपे प्रगट्या छे. मनुष्योनां मन, दिशाओ, नदीओ अने पर्वतो प्रसन्न थई गयां; ॥५३॥

स्वर्गमां दुन्दुभि वागवा लाग्यां; फूलनी वृष्टिओ थई; प्रसन्न थयेला मुनिओ स्तुति करवा लाग्या; गन्धर्व किन्नरो गावा लाग्या; ॥५४॥

अप्सराओ नाचवा लागी; आ प्रमाणे ए वखते महा मङ्गळ वरती रह्युं; ब्रह्मा वगेरे देवो भगवाननी स्तुति करवा लाग्या; ॥५५॥

देवोए कह्युं ः‘‘स्वरूपभेदनी पेठे निज स्वरूपमां पोतानी माया (इच्छाशक्ति)वडे आ जगत्‌ रचायुं छे. ते परम पुरुष के जे आज धर्मना घरमां ऋषिरूपे पोताना१ स्वरूपनो उपदेश तपश्चर्या वगेरेथी प्रकाश करवाने प्रकट२ थया छे तेमने अमे नमस्कार करीए छीए ॥५६॥

विशेष - १. दिशानी प्रसन्नता थवाथी दूर रहेला पदार्थनां दर्शन थाय तेवो प्रकाश थाय छे. वायुनी प्रसन्नताथी एना स्पर्शथी सुखनो अनुभव थाय छे. नदीनी प्रसन्नताथी कमलादिनो विकास थाय अने जल स्वच्छ थाय; अने पर्वतोनी प्रसन्नताथी एमना अन्तर्गर्भमां रहेला मणिओ प्रकट थाय छे.
२. आपनी उपासना करीने शुद्ध अन्तःकरणवाळा थया पछी, भूतभौतिकादि अनेकअध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध ३९१ सृष्टिरूप, मनवडे पण जेनी कल्पना न करी शकाय तेवुं विश्व आपना स्वरूपमां स्थित छे तेनो प्रकाश आपना उपदेशद्वारा ज थई शके तेम छे. आपना स्वरूपमां रहेला विश्वने जाणीने परम्पराओ आपना माहात्म्यने जाण्या पछी यथाधिकार आपना स्वरूपने जाणी शकाय छे. ‘‘एमना स्वरूपनो विचार शास्त्रोना आधारे मात्र अनुमानथी थई शके छे. एवा भगवान्‌ जगतनी मर्यादा जाळववा सत्व गुणथी सरजेला पुत्रो-देवो-प्रत्ये घणी करुणा भरी अने लक्ष्मीने रहेवाना कमळ करतां पण सरस दृष्टिथी* जोजो’’ ॥५७॥

विशेष - भक्तो भगवाननी कृपादृष्टि विना बीजुं कांई पण चाहता नथी. ए प्रमाणे दर्शन थतां देवोए जेमनी स्तुति अने पूजा करेली छे तेवा नर अने नारायण बन्ने भाईओ गन्धमादन पर्वतमां चाल्या गया ॥५८॥

भगवान्‌ श्रीहरिना अंशस्वरूप ए ज नर अने नारायण आ पृथ्वीनो भार उतारवामाटे यदुकुळ भूषण श्रीकृष्ण तेमज कुरुकुळतिलक अर्जुन अर्ही अवतर्या हता ॥५९॥

अग्निनी पत्नी स्वाहाए अग्निना अभिमानी पावक, पवमान अने शुचि नामना त्रण पुत्रोने जन्म आप्यो ॥६०॥

ए त्रणना पिस्ताळीस प्रकारना अग्नि बीजा वधारे थया. तेओ ज एक पितामह, त्रण पिता साथे ओगणपचास अग्नि कहेवाया ॥६१॥

एमना नामथी यज्ञसम्बन्धी कर्ममां वेदज्ञ ब्राह्मणो ‘आग्नेयी’ नामनी इष्टिओ करे छे; ए सघळा ‘अग्नि’ आ ज छे ॥६२॥

अग्निष्वात्त,* बर्हिषद, सोमप अने आज्यप ए नामना चार पितर छे तेओ पैकी जेमने श्राद्धमां ‘अग्नौकरण’ करवामां आवे छे तेओ साग्नि (=अग्निवाळा) अने अनग्नि (=अग्निविनानां) कहेवाय छे. ए सघळा पितरो वच्चे दक्षनी पुत्री स्वधा नामनी एक ज पत्नी छे ॥६३॥

विशेष - अग्निमां पक्व पुरोडाशादिनो जेओ स्वाद ले छे ते अग्निष्वात्त पितरो कहेवाय छे. दैत्यो, दानवो अने यक्षना पितरो बर्हिषद कहेवाय छे. अग्निष्टोमादि कर्मना देवतारूप पितरो सोमप अथवा सौम्य कहेवाय छे. आधार अने आज्य भाग ग्रहण करनारा पितरो आज्यप कहेवाय छे. पितरोथी स्वधाने वयुना अने धारिणी नामनी बे पुत्रीओ थई ते ब्रह्मविचार३९२ अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध करनारी अने ज्ञान तथा विज्ञानना पारने पामेली थई ॥६४॥

महादेवनी पत्नी सती गुण अने शीलथी पोताना सरखा ज महादेवनी सेवामां संलग्न हती तेने पुत्र थयो ज नहि ॥६५॥

पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा। अप्रौढैवात्मनाऽऽत्मानमजहाद्योगसंयुता ॥६६॥

महादेवनो कांई अपराध नहि, छतां पण पोतानो पिता दक्ष प्रजापति एमनाथी उलटा चाल्या तेथी सतीए युवावस्थामाञ्ज क्रोधवश योगद्वारा स्वयं पोताना शरीरनो त्याग करी दीधोहतो ॥६६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां (पहेला धर्म प्रकरणनो) ‘‘स्वाम्भुव मनुनी कन्याओना वंश तथा एमां थयेला भगवानना यज्ञादि अवतार’’ नामनो प्रथम अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे

अध्याय २

महादेव अने दक्ष वच्चे द्वेषनुं कारण

विशेष - पहेला अध्यायमां सतीना देहना परित्यागथी दक्षनो अनर्थ सूचव्यो छे हवे आ बीजा अध्यायमां उपर कहेला महादेव अने दक्ष वच्चेना द्वेषनुं कारण के जे प्रजापतिओना यज्ञमां उत्पन्न थयुं हतुं ते अने दक्षनां शापादि कहेवाशे. भवे शीलवतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृवत्सलः। विद्वेषमकरोत्‌ कस्माद्‌ अनादृत्यात्मजां सतीम्‌ ॥१॥

विदुरजीए पूछ्‌युं - सारा स्वभाववाळाओमां महादेव उत्तम छे. दक्षने पण दीकरीओ उपर प्रीति हती. छतां दक्षे पोतानी सती नामनी दीकरीनो अनादर करी महादेवनो द्वेष शामाटे कर्योहतो? ॥१॥

चराचरना गुरु निर्वैर शान्त मूर्ति आत्माराम अने जगतना परम आराध्य

ईं उं ईं उं

[[३९३]] सदाशिवनो द्वेष कोण करे? ॥२॥

हे महाराज! ए जमाई अने ससरा वच्चेना विद्वेषने लीधे सतीए पोताना दुस्त्यज प्राणनो त्याग कर्यो ए कथा मने कहो ॥३॥

मैत्रेये कह्युं - पहेलां एक वार प्रजापतिओना यज्ञमां मोटा-मोटा ऋषिओ, परिवार सहित सर्वे देवो, मुनिओ अने अग्निओ एकठा थया हता ॥४॥

ए वखते क्रान्तिथी सूर्यनी माफक शोभता अने त्यान्ना अन्धकारने उलेची नाखता दक्ष प्रजापति सभामां आव्या ॥५॥

एमने जोतां एमनी क्रान्तिथी प्रभावित सभासदो अने अग्निओ सुद्धा पोतपोताना आसन उपरथी ऊभा थई गया. मात्र महादेव अने ब्रह्मा ज बेसी रह्या ॥६॥

सभासदोए एमनो सारी रीते सत्कार कर्यो त्यार पछी दक्ष प्रजापति जगतना पिता ब्रह्माने प्रणाम करी एमनी आज्ञाथी पोताना आसन उपर बेठा ॥७॥

परन्तु महादेव पहेलेथी ज बेसी रह्या हता तेथी दक्षे पोतानुं अपमान थयेलुं मान्युं. ए अपमान सहन न थवाथी, जाणे भस्म करी नाखवा मागता होय तेवी रीते टेडी नजरथी जोई दक्ष प्रजापति बोल्या ॥८॥

देवो अने अग्निओ? सहित ब्रह्मर्षिओ मारी वात साम्भळे. हुं अण समज के द्वेष वश नथी कहेतो पण शिष्टाचारनी वात करुं छुम् ॥९॥

आ निर्लज्ज महादेव बधा लोकपाळोनी कीर्तिनो नाश करनार छे. पोताना घमण्डथी सज्जनोना मार्गने दूषित कर्योछे ॥१०॥

आम तो एक प्रकारे आ मारो शिष्य थाय छे केमके सावित्री जेवी मारी दीकरीनो हाथ अग्निनी समक्ष सुपात्रनी पेठे एणे ग्रहण कर्यो छे ॥११॥

वान्दराना जेवी आङ्खो वाळो आ मारी मृगनयनी कन्याने परणी गयो छे. औचित्य तो एमां हतुं के ऊठीने मारो आदर करे. ए तो वात जाणे जवा दो पण एणे वाणीथी पण मारो योग्य आदर कर्यो नहि ॥१२॥

आ महादेव सत्क्रियाओनो लोप करनार छे, अभिमानी छे, अपवित्र अने मर्यादानुं उल्लङ्घन करनार छे. मारी इच्छा न होती छतां जेम शूद्रने वेद भणाववामां आवे तेम मारी दीकरी में एने आपी छे ॥१३॥

ए भयङ्कर मशाणमां प्रेत अने भूतनां टोळान्नी साथे चितानी भस्मथी स्नान३९४ अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध करे छे, माणसोनी खोपरीओनी माळा पहेरे छे, माणसोनां हाडकान्नां घरेणां धारण करे छे, छूटा केश मूकी नङ्गधडङ्ग पागलनी जेम भटके छे, घडी वारमां रडे छे तो घडी वारमां हसे छे; ए तमोगुणी स्वभाववाळां भूत प्रेतोनो अधिपति छे; एने मदोन्मत्त लोको ज वहाला होय छे; नाम मात्रनो ए शिव छे. खरुं जोतां छे ए नखशिख ‘अशिव’ अमङ्गलरूप ॥१४-१५॥

दुष्ट मनना, अपवित्र अने भूत प्रेतादिना अधिपति तेवा एने ब्रह्माजीनी भोळवणीथी में मारी भोळीभाली दीकरी आपी दीधी ॥१६॥

मैत्रेये कह्युं - दक्षे आ प्रमाणे महादेवजीने तीखां तमतमतां वचन कह्यां तो पण एमणे एनो कोई उत्तर न वाळ्यो. तेओ पूर्ववत निश्चलभावथी बेसी रह्या, आथी दक्षनो क्रोध वधारे ऊञ्चे चढ्‌यो अने हाथमां जल लई एमने शाप आपवा तैयार थई गया ॥१७॥

‘‘आ देवोमां अधम छे तेने यज्ञोमां इन्द्र अने विष्णु वगेरे देवोनी साथे भाग नहि मळे’’ ॥१८॥

हे विदुरजी! मोटा-मोटा सभासदोए रोक््या छतां आ प्रमाणे महादेवने शाप आपी क्रोध वधी जतां दक्ष प्रजापति ए यज्ञसभामान्थी ऊठी पोताने घेर चाल्या गया ॥१९॥

ए प्रमाणे दक्षे शाप दीधो छे एवुं जाणी क्रोधे भरायेला, महादेवना मुख्य अनुचर नन्दीश्वरे पण दक्षने तथा एणे करेली निन्दाने अनुमोदन आपनार ब्राह्मणोने पण शाप आप्यो ॥२०॥

‘‘आ मरणाधीन शरीरने उत्तम गणी जे अज्ञानी मनुष्य कोईनो पण द्रोह न करनारा महादेवजीनो द्रोह करे छे ते परमार्थथी विमुख थजो ॥२१॥

आ दक्ष ‘‘चातुर्मास्य यज्ञ करवावाळाने अक्षय पुण्य प्राप्त थाय छे’’ वगेरे अर्थवादरूप वेदवाक््योथी मोहित अने विवेकभ्रष्ट थई विषय सुखनी इच्छाथी कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममां आसक्त थई कर्मकाण्डमां ज लाग्यो रहे छे. एनी बुद्धि देहादिमां आत्मभावनुं चिन्तन करवावाळी छे. एथी ए आत्म स्वरूपने भूली बेठो छे ए साक्षात्‌ पशु समान ज छे तेथी ते अत्यन्त स्त्रीलम्पट थई जाओ अने एनुं मोढुं तत्काल बकरानुं थई जाओ! ॥२२-२३॥

‘‘अर्ही महादेवनुं अपमान करनार दक्षनी हामां हा भणनार जे लोको छे तेओ३९५ अध्याय-२,चतुर्थस्कन्ध पण जन्म-मरण पाम्या करजो. वेदनां वाक््यो जे फळनी पेठे मात्र मनने राजी करनारां छे तेवां प्रेरोचक वाक््योथी मोह पामी मूर्ख बनेला ए लोको कर्ममां ज आसक्त रहेजो. अने भक्ष्याभक्ष्यना विचार वगरना, पेट भरवा अर्थे ज विद्या तप अने व्रतोने धारण करनार अने इन्द्रियोमां ज रमनारा ए ब्राह्मणो भिखारी थईने जगतमां फर्या करजो’’ ॥२४-२६॥

नन्दिकेश्वरे ब्राह्मणना कुळने उपर प्रमाणे शाप आप्यो ए जोई भृगु ऋषिए मटाड्यो मटे नहि तेवो ब्रह्मदण्डरूप शाप आप्यो ॥२७॥

‘‘जेओ शिवभक्तो छे अने एमने जे अनुसरे छे तेओ पाखण्डी अने सत्‌शास्त्रोथी विरुद्ध चालनारा अने पाखण्डी थजो ॥२८॥

जे लोको शौच अने आचारने दूर मूकी मन्दबुद्धि तथा जटा राख अने हाडकांओ धारण करनारा छे तेओज शैव सम्प्रदायमां दीक्षित हो जेमां सुरा अने आसव ज देव छे ॥२९॥

तमे वर्णाश्रमना आचारोने साचवी राखनार मर्यादारूप वेदनी अने ब्राह्मणोनी निन्दा करो छो एटलामाटे ज तमे पाखण्डनो आश्रय करेलो छे ॥३०॥

वेदमार्ग ज लोकोनुं कल्याण करनारो सनातन मार्ग छे, जेने पूर्वना ऋषिओ अनुसर्या छे अने जेने मूळे तो भगवाने स्थाप्यो छे ॥३१॥

सत्पुरुषोनो वेदरूप मार्ग अत्यन्त शुद्ध अने सनातन छे तेनी निन्दा करवाथी तमे पाखण्ड मार्गमां जाओ के भूतप्रेतना राजा तमारो इष्टदेव निवास करे छे’’ ॥३२॥

मैत्रेय कह्युं - ए प्रमाणे भृगु ऋषिए शाप दीधो तेथी जाणे थोडा खिन्न थया* होय तेम महादेवजी पोताना परिवार सहित त्यान्थी ऊठी चाली नीकळ्या॥३३॥

विशेष - द्वैत उत्पन्न थवाथी अने पाखण्डनुं प्राचुर्य थवाथी थोडाक उदास थया एम कहेवायुं छे. तेमां पोतानी भूल ओछी थवाथी ‘थोडाक’ एम कहेवायुं छे तेथी कांईक एमनी इच्छा प्रमाणे पण थयुं एम सूचवाय छे, कारण के पाखण्ड शास्त्रोना प्रणेता पोते होवाथी एनी प्रवृत्ति पण एमने इष्ट ज हती. पद्मपुराणना उत्तर खण्डमां गुणत्रय विवरणाध्यायमां पार्वती प्रत्ये महादेवजी कहे छे के ‘‘शृणु देवि प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम्‌, येषां श्रवणमात्रेण पातित्यं ज्ञानिनामपि, प्रथमं हि मया प्राप्तं शैवं पाशुपतादिकम्‌, मच्छकत्यावेशितैश्चित्तैः सम्प्राप्तानि ततः परम्‌’’ इत्यादि.३९६ अध्याय-३, चतुर्थस्कन्ध आप्लुत्यावभृथं यत्र गङ्गा यमुनयान्विता ॥। विरजेनात्मना सर्वे स्वं स्वं धाम ययुस्ततः ॥३५॥

विष्णुना यजनरूप ए प्रजापतिओए करेला ए यज्ञनी समय मर्यादा एक हजार वर्षनी हती अने पछी ए सम्पूर्ण करी प्रयागमां अवभृथस्नान (यज्ञान्त स्नान)* करी शुद्ध थईने त्यान्थी पोतपोताने ठेकाणे गया ॥३४-३५॥

विशेष - यज्ञना अन्तमां जे स्नान करवामां आवे छे तेने अवभृथ (यज्ञान्त) स्नान कहे छे. इति श्रीभागवत्‌ना चतुर्थस्कन्धमां(पहेला धर्मप्रकरणमां) ‘‘महादेव अने दक्ष वच्चे द्वेषनुं कारण’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय ३

सदाशिवे सतीने दक्षना यज्ञमां जतां अटकाव्यां

विशेष - आ अध्यायमां महादेवजीना वाकयथी सतीनुं यज्ञमां जवानुं अटकाववामां आव्युं छे अने अनर्थनुं कारण द्वेष केवी रीते स्थिर करवामां आव्यो ए कहेवाय छे. सदा विद्विषतोरेवं कालो वै ध्रियमाणयोः। जामातुः श्वशुरस्यापि सुमहानतिचक्रमे ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे जमाई अने* ससराने निरन्तर परस्पर द्वेष करवामां अने परस्पर समोवडिया थई रहेवामां घणो समय वीती गयो ॥१॥

विशेष - दक्ष जीव होवाथी एमां द्वेष सम्भवे छे. दक्ष द्वेषी थयो पण महादेवजी इश्वरकोटिमां होवाथी एमणे द्वेष कर्यो नथी. प्रथम तो तेओ कांई पण बोल्या नहि अने पाछळथी पण तेओ जलदी प्रसन्न थाय छे. परन्तु *एमांय ज्यारे ब्रह्माजीए दक्षने सघळा प्रजापतिओना अधिपति तरीके पट्टाभिषेक कर्यो त्यारे एने भारे गर्व थयो ॥२॥

ईं उं ईं उं

[[३९७]]

विशेष - द्वेषनो निर्वाह गर्वथी थाय छे अने गर्व महत्त्वनी प्राप्ति थाय तो थाय छे. ब्रह्माए पट्टाभिषेक कर्यो तेथी दक्षने महत्त्व प्राप्त थयुं अने तेथी गर्व थवाथी ए द्वेषनो निर्वाह करी शक्यो. तेथी एणे भगवान्‌ शङ्कर आदि ब्रह्मनिष्ठोने यज्ञ भाग न आपीने एमनो तिरस्कार करी पहेलां वाजपेय यज्ञ करी *‘बृहस्पतिसव’ नामना उत्तम यज्ञनो आरम्भ कर्यो ॥३॥

विशेष - ब्राह्मणे ‘बृहस्पतिसव’ नामनो यज्ञ कराववो जोईए. आ यज्ञ ब्राह्मणोमाटे मुख्य छे. वाजपेय आ यज्ञनुं पूर्वाग छे. ‘‘वाजपेयेनेष्ट्‌वा बृहस्पतिसवेन यजेत’’ एम श्रुति आज्ञा करे छे. निबन्धमां आनो निर्णय आचार्यचरणकरेछे. ए यज्ञमां सघळा ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितृ अने देवताओ तथा तेओनी पत्नीओ पण आवी हती अने ए सघळानो स्वागत सत्कार करवामां आव्याम् ॥४॥

ते समये आकाश मार्गथी जता देवताओ आपसमां ए यज्ञनी चर्चा करता जता हता. तेओना मुखे दक्षनी पुत्री सतीए साम्भळ्युं के पोताना पिता दक्षने घेर यज्ञनो महोत्सव थवानो छे. गन्धर्वो वगेरेनी चपळ नेत्रवाळी स्त्रीओ चमकतां कुण्डळ, पदक तथा भभकाबन्ध वस्त्रो पहेरीने पोताना पतिओनी साथे विमानमां बेसी कैलास पासे थईने जती हती. तेमने जोईने एमणे पोताना पति सदाशिवने उत्साहथी कह्युंः ॥५-७॥

सती बोल्यां - साम्भळ्युं छे के आपना ससरा दक्ष प्रजापतिने घेर अत्यारे यज्ञनो महोत्सव चाली रह्यो छे. माटे हे स्वामी! आपनी इच्छा होय तो आपणे पण त्यां जईए ॥८॥

आ देवो जाय छे. सम्बन्धीओने जोवा मारी बहेनो पण पोत पोताना पतिओनी साथे ए यज्ञमां जरूर आवशे तो आपनी साथे हुं पण त्यां जई मारां मा-बापे आपेली पहेरामणी इच्छुं छुम् ॥९॥

हे सदाशिव! घणा दिवस थयां मारा मनमां उत्कण्ठा छे के त्यां जई मारी बहेनोनां तथा एमना योग्य पतिओनां अने मारी मासीओनां अने स्नेहार्द्र चित्तवाळी मारी मातानां तथा मोटा यज्ञने सम्पन्न करता महर्षिओना दर्शन करीश ॥१०॥

हे अजन्मा! मायाए आश्चर्यरूप त्रिगुणात्मक जगत्‌ आपमां ज रचेलुं जणाय३९८ अध्याय-३, चतुर्थस्कन्ध छे तेथी जो के आपने तो कांई आश्चर्य लागतुं नहि होय तो पण आपना तत्त्वने नर्ही जाणनारी हुं तो दीन स्त्रीजाति छुं. तेथी मारुं मन तो मारी जन्मभूमिनां दर्शन करवा ऊञ्चु-नीचुं थई रह्युं छे ॥११॥

हे नीलकण्ठ! जुओ आ बीजी स्त्रीओ पण शणगार धरीने पोतपोताना स्वामीओनी साथे टोळेटोळां वळी जाय छे तेमनां हंस जेवा श्वेत विमानोथी आकाश शोभी रह्युं छे ॥१२॥

हे सुरवर्य! पिताने घेर उत्सव थाय एवुं साम्भळी दीकरीनुं मन चलायमान थया विना केम ज रहे? मित्र, पति, गुरु अने पिता ने घेर वगर बोलाव्ये पण जवानी रीति छे ॥१३॥

माटे हे देव! मारा उपर प्रसन्न थाओ. आप दयाळु छो. आप मारी आ इच्छा परिपूर्ण करो. आप महाज्ञानी छो तो पण मारा उपर दया करीने मने आपना अडधा देहमां स्थान आप्युुं छे तेथी मागी लउं छुं के मारा उपर आटलो अनुग्रह करो ॥१४॥

मैत्रेय कह्युं - ए प्रमाणे प्रियाए प्रार्थना करी. त्यारे दक्षे प्रजापतिओनी रूबरूमां दुर्वचनरूप मर्मभेदी जे बाण मारेलां ते महादेवने साम्भरी आव्यां, छतां पवित्र लोकोना प्रिय सदाशिव हसीने प्रेमथी बोल्या ॥१५॥

सदाशिवे कह्युं - हे सुन्दरी! ते कह्युं के सम्बन्धीओने त्यां वगर बोलाव्ये पण जवानी रीत छे ए वात छे तो साची पण क्यारे? जो आ सम्बन्धीओनी दृष्टि भारे देहाभिमान अने क्रोधनी मारी द्वेष-दोषथी खरडायेली न होय ॥१६॥

विद्या, तप, धन, सारुं शरीर, युवावस्था अने कुळ* ए छ वस्तु सत्पुरुषोमां तो गुण रूप छे, ज्यारे ए नीच पुरुषोमां दोषरूप थई जाय छे. ज्यारे विवेक नष्ट थई जाय छे त्यारे अभिमानथी अन्ध बनेला अभिमानी लोको महात्माओना तेजने पण जोता नथी ॥१७॥

विशेष - विद्यादि छ गुणोवडे सत्पुरुषो क्रमशः ज्ञान, वैराग्य, यश, श्री, वीर्य अने ऐश्वर्य मेळवे छे. तेमां विद्याथी शास्त्रीय ज्ञान मळे छे. प्रह्‌लादादि भगवन्माहात्म्यना ज्ञान पूर्वक ज शरणे गया. पण असत्पुरुष हिरण्यकशिपु वगेरे प्रभुथी विमुख थया. तप एटले शरीरनुं आकर्षण करी चित्तने एकाग्र करवुं ब्रह्माए तपवडे सृष्टि करी अने हिरण्यकशिपुए तप कर्युं तेथी तेनो नाश थयो. वित्त-धन ते बलि, अम्बरिष वगेरेने प्राप्त थयुं तेथी एमणे एनो३९९ अध्याय-३,चतुर्थस्कन्ध भगवत्सेवामां विनियोग कर्यो अने नलकूबर वगेरे धनथी जड थया. वपुः-शरीर, वय-यौवन, कुल-ब्राह्मरत्वादि अधिकारीना कुलमां जन्म थवो, आ पण सत्पुरुषमां होय तो ए धर्म, अर्थ अने मोक्ष मेळवी शके अने असत्पुरुमां होय तो एनी दुराचारमां प्रवृत्ति थाय अने तेथी नरकमां पात थायछे. एवा अस्थिर चित्तवाळा लोकोने सगां समजी एमना घर सामुं पण जोवुं जोईए नहि. ए लोको एवा होय छे के एमने घेर जेओ आवेला होय तेमना तरफ कुटिल बुद्धिथी अने क्रोध भरेलां भवां चडावेली आङ्खोवडे जुए छे ॥१८॥

एवा कुटिल बुद्धिवाळा सम्बन्धीओनां दुष्ट वचनथी जेवी पीडा थाय छे तेवी पीडा शत्रुओए बाण मारी अङ्ग र्वीधी नाख्यां होय तो पण थती नथी. कारण के बाणोथी शरीर छिन्न-भिन्न थतां तो जेम-तेम करीने निद्रा आवी जाय छे पण कूवाक्योथी मर्मस्थान र्वीधातां तो माणस मनोद्‌भव व्यथाथी रात दहाडो बेचेन रहे छे ॥१९॥

हे सती! ऊञ्ची स्थिति भोगवता ए प्रजापतिने दीकरीओमां तमे सौथी वहालां छो ए वात खरी छे पण तमारा ए पिता तरफथी तमे मान पामशो नर्ही. कारण के तमे मारां आश्रित छो अने ए माराथी बळी रह्या छे ॥२०॥

जीवनी चित्तवृत्तिना साक्षी अहङ्कारविहोणा महापुरुषोनी समृद्धिने जोईने जेना हृदयमां सन्ताप अने इन्द्रियोमां अकळामण थाय छे ते पुरुष एना पदने तो सहेलाईथी प्राप्त नथी करी शकतो पण दैत्यो जेम श्रीहरिनो द्वेष करे छे तेम तेमनो द्वेष ज कर्या करे छे ॥२१॥

समजदार लोको परस्पर ऊठी ऊभा थई विनय दर्शावे छे अने नमस्कार करे छे ए सारी रीत छे. परन्तु ए अन्तर्यामी परमात्माने उदेशीने ज अन्तःकरणथी करवामां आवे छे, देहाभिमान धरावनारा पुरुषने उदेशीने ए नथी थतुम् ॥२२॥

‘वसुदेव’ नाम ज विशुद्ध अन्तःकरणने लागु पडे छे तेवा अन्तःकरणमां ज इन्द्रियोथी अगोचर एवा भगवान्‌ वासुदेव वसे छे; हुं एमने ज नमस्कार करतो रहुं छुम् ॥२३॥

यदि व्रजिष्यस्यतिहाय मद्वचो भद्रं भवत्या न ततो भविष्यति। सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवो यदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥२५॥

एटलामाटे हे सुन्दरी! जो के दक्ष तमारा शरीरने उत्पन्न करनार पिता छे तो४०० अध्याय-४, चतुर्थस्कन्ध पण मारो शत्रु छे माटे एने तथा एना पक्षपातीओने तमारे जोवा पण न जोईए, कारण के प्रजापतिओना यज्ञमां हुं निरपराध हतो छतां एणे दुर्वचनोथी मारो तिरस्कार कर्यो छे. जो तमे मारुं वचन नहि मानो अने त्यां जशो तो तमारुं सारुं नहि थाय जे प्रतिष्ठित होय तेनुं सम्बन्धी तरफथी अपमान थाय तो एमान्थी झट मरण ज नीपजे अथवा मरण समान कष्ट आपनार बने ॥२४-२५॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (पहेला धर्मप्रकरणमां) ‘‘सदाशिवे सतीने दक्षना यज्ञमां जतां अटकाव्यां’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ ‘‘प्रभुनी कता-कीर्तन करीने आजीविका चलावनार अधम वक्ताओना मनोभावो गटरना गन्दा पाणी जेवा होय छे’’. (जलभेद, श्रीवल्लभाचार्य) आवा अधम वक्ताओना मुखे भागवत कथा-कीर्तन साम्भळवा ए गटरनुं पाणी पीवा जेवी बीभत्स रुचि छे.

अध्याय ४

दक्षद्वारा सदाशिवनुं अपमान थतां सतीए यज्ञमां देहत्याग कर्यो

विशेष - आ चोथा अध्यायमां पतिने मूकीने गयेलां अने पिताए अपमान करेलां सतीए क्रोधथी यज्ञमां दक्षनो तिरस्कार करी देहत्याग कर्यानी कथा कहेवामां आवशे. एतावदुक्त्वा विरराम शङ्करः पत्न्यङ्गनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन्‌ ॥ सुहृददिदृक्षुः परिशकिन्ता भवान्निष्क्रामती निर्विशती द्विधास सा ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - एटलुं कही भगवान्‌ शङ्कर मौन थई गया एमणे जोयुं के दक्षने त्यां जवा देवाथी अथवा जतां रोकवाथी बेउ अवस्थामां सतीना प्राण त्यागनी सम्भावना छे. अर्ही, सतीजी पण स्वजनोने मळवा जवानी इच्छाथी क्यारेक बहार आवे छे तो वळी भगवान्‌ शङ्कर नाराज न थई जाय ए शङ्काथी फरी पाछां अन्दर आवे छे, आम कोई एक वातनो निर्णय न करी शकवाने कारणे एना चित्तनी

ईं उं ईं उं

[[४०१]] स्थिति डामाडोळ थई गई ॥१॥

सम्बन्धीओने जोवानी इच्छामां अडचण थवाथी मनमां कचवातां, स्नेहथी रोतां, आंसुओथी विकळ थयेलां अने थरथर ध्रूजतां सती, जेमनी समान बीजो कोई नथी तेवा सदाशिवने एटला क्रोधथी जोवा लाग्यां के जाणे तेने बाळीने भस्म करी नाखशे ॥२॥

पछी शोक अने क्रोधथी पीडायेला मनवडे ऊण्डो निसासो मूक्यो अने जे सत्पुरुषोना प्रिय महादेवे प्रेमथी पोतानुं अर्धु शरीर आप्युं छे तेमनो त्याग करी स्त्री स्वभावनी मूढताथी सती पोतानां मावतरने घेर चालतां थयाम् ॥३॥

सतीने एकलां ज झपाटाबन्ध जतां जोई खेद पामेला मणिमान, मद वगेरे महादेवना हजारो अनुचरो नन्दीने आगळ करी, पार्षदो अने यक्षो सहित निर्भयता पूर्वक एमनी पाछळ नीकळी पड्या ॥४॥

सतीने नन्दी उपर बेसाडी, मेना, दडा, अरीसा, कमळ वगेरे खेलनी सामग्री, धोळुं छत्र, चमर अने माळा वगेरे राजचिह्‌न वगेरेथी शोभता महादेवना अनुचरो दुन्दुभि, शङ्ख अने वेणु वगाडता चालवा लाग्या ॥५॥

सती समस्त सेवकोनी साथे दक्षनी यज्ञशाळामां पहोच्यां. त्यां वेदध्वनि करता, ब्राह्मणोमां परस्पर होड बकवामां आवी हती के सौथी ऊञ्चो घाण्टो कोनो नीकळे छे! चारे तरफ ब्रह्मर्षि अने देवताओ बिराजता हता अने ज्यां त्यां माटी, काष्ठ, लोखण्ड, सोनुं, डाभ अने चर्मनां पात्रो राखेलां हताम् ॥६॥

तेवा यज्ञमां सती आवी पहोच्यां पण यजमान दक्षनी बीकथी सतीनी बहेनो तथा मा सिवाय बीजा कोईए पण एमनुं सन्मान कर्यु नहि. हा एमनी माता तथा बहेनो बहु ज प्रसन्न थई अने प्रेमथी गद्‌गद थई सतीने उमळकाभेर बाझी पड्यां ॥७॥

परन्तु पिताथी अपमानित थयेलां सतीए पोतानी बहेनोए पूछेला कुशल समाचार सहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप काने पण धर्या नहि अने मा तथा मासीओए आपवा माण्डेली पूजा तेमज आसन पण स्वीकार्या नहि ॥८॥

सर्वलोकेश्वरी देवी सतीनो यज्ञमण्डपमां तो अनादर थयो ज हतो एमणे ए पण जोयुं के ए यज्ञमां भगवान्‌ शङ्करने कोई भाग आपवामां आव्यो नथी अने पिता दक्ष एमनुं भारे अपमान करी रह्या छे. आथी एना अङ्गेअङ्गमां लाय लागी४०२ अध्याय-४, चतुर्थस्कन्ध गई एम लागतुं हतुं के समस्त लोकोने ते भस्म करी देशे ॥९॥

ए समये भूत, प्रेत वगेरे पार्षदो दक्षने मारवा ऊठ्या तेमने पोताना तेजथी रोकी, शिवजीना द्वेषी अने कर्ममार्गना अभ्यासथी घमण्डी थयेला दक्षने सघळुं जगत्‌ साम्भळे ते रीते क्रोध करी लथडती वाणीथी सती देवीए निन्दा करतां कह्युम् ॥१०॥

*सती बोल्यां - आ जगत्‌मां प्राणी मात्रना प्रिय अने आत्मारूप सदाशिवना करतां कोई श्रेष्ठ नथी. एमने नथी कोई प्रिय के नथी कोई अप्रिय. एवा सर्वरूप अने वैर रहित सदाशिवनी साथे आपना विना बीजो कोण वेर करे? ॥११॥

विशेष - अर्हीथी आरम्भी तेर श्लोकवडे निन्दावाक्यो कहेवामां आवशे. हे द्विज! आपना जेवा पुरुषो तो बीजाना गुणोमां पण दोष ज जुए छे एमना गुणने नहि. पण कोई सज्जन एम नथी करता. केटलाक वचला लोको गुणने गुण अने दोषने दोष तरीके समजे छे, साधु पुरुषो मात्र गुणनुं ज ग्रहण करे, दोषने ग्रहण न करे. अने महात्मा पुरुषो तो पारका दोषनुं ग्रहण नहि करतां थोडा गुण होय तेने पण घणा करी माने. एवा महात्मा पुरुषोनो आपे अपराध कर्यो छे ॥१२॥

आ शबरूप जड देहमां आत्मबुद्धि राखनारा दुष्ट पुरुषो सर्वदा ईर्ष्याथी महात्माओनी निन्दा करे एमां आश्चर्य नथी केमके महापुरुष तो एमनी आ चेष्टाने गणकारता नथी परन्तु तेमना चरणनी रज दुष्ट लोकोनो तेजोवध करी नाखे छे. तेथी महापुरुषोनी निन्दा जेवुं अधम कार्य ए दुष्ट पुरुषोने ज छाजे छे ॥१३॥

जो ‘शिव’ एवुं बे अक्षरनुं नाम प्रसङ्गवशात्‌ एकवार पण वाणीथी बोलायुं होय तो मनुष्योनां बधा पापने तुरत मटाडे छे; एवा पवित्र कीर्तिवाळा अने जेमनी आज्ञा कोईथी लोपी शकाय नहि तेवा सदाशिवनो आपे द्वेष कर्यो छे तेथी आप ज अमङ्गलरूप छो ॥१४॥

ब्रह्मरसरूपी मकरन्दनी इच्छा करनारा महात्माओना मनमधुक एमना चरणारविन्दने सेवे छे. एमना चरणारविन्द सकाम लोकना मनोरथ पण पूर्ण करेछे एवा विश्वबन्धु सदाशिवनो आप द्वेष करो छो? ॥१५॥

स्मशानमां जटा छूटी मूकीने त्यान्नां हाडकां तथा खोपरीओनां घरेणां पहेरी पिशाचोनी साथे निवास करनारा सदाशिवने आपना सिवाय बीजा कोई ब्रह्मादिक पण अमङ्गळरूप जाणता नथी; ऊलटुं एमनां चरणमान्थी पडी गयेलां निर्माल्य४०३ अध्याय-४,चतुर्थस्कन्ध जल वगेरे ब्रह्मा आदिदेवता पोताने माथे चडावे छे ॥१६॥

ज्यां निरङ्कुश माणसो निन्दा करता होय अने ज्यां पोताने मरवा के सामाने मारवानी शक्ति न होय त्यान्थी कान ढाङ्कीने नीकळी जवुं जोईए, अथवा तो शक्ति होय तो बकवाद करनार दुष्ट जीभने खेञ्ची काढी जरूर लागे तो पोते पण मरी फीटवुं जोईए ए ज धर्म छे ॥१७॥

एटलामाटे सदाशिवनी निन्दा करनार एवा आपनी उत्पन्न थयेला आ देहने हुं राखी शकीश नहि केमके भूलथी पण निन्दित अपवित्र वस्तु खवाई गई होय तो ओकीने ते काढी नाखवी ए ज शुद्धि कहेवाय छे ॥१८॥

पोताना स्वरूपानन्दमां ज मग्न रहेता महात्मा पुरुषनी बुद्धि वेदनी विधिनिषेधनी आज्ञाने अनुसरती नथी केमके जेम देवोनी गति आकाशमां अने मनुष्योनी गति पृथ्वीमां ज होय छे तेम निवृत्ति अने प्रवृत्ति वाळानी स्थिति जुदी-जुदी ज होय छे. (एटलामाटे स्वधर्ममां रहीने कोई धर्मनी अथवा पुरुषनी निन्दा न करवी जोईए) ॥१९॥

प्रवृत्तिधर्म अने निवृत्तिधर्म बन्ने साचा छे; बन्नेनो वेदे स्वीकार कर्यो छे. रागवाळाए प्रवृत्तिकर्म यज्ञयज्ञादि करवुं अने वैराग्यवाळाए निवृत्तिकर्म (शम दमादि) करवुं. ए बन्ने कर्मने एक ज गणी एकी वखते करवा लागे तो विरोध आवे छे. परन्तु परब्रह्म सदाशिवने तो ए बेमान्थी कोई पण कर्म करवानी जरूर नथी ॥२०॥

पिताजी! अमारुं ऐश्वर्य अव्यक्त छे, आत्मज्ञानी महापुरुषो ज एनुं सेवन करे छे. आपनी पासे ए ऐश्वर्य नथी. यज्ञशाळाओमां यज्ञान्नथी तृप्त थई धूमाडाथी प्राणपोषण करनारा एनी प्रशंसा पण नथी करता ॥२१॥

आप सदाशिवना अपराधी छो. आपथी उत्पन्न थयेला देहनुं मारे काम शुं छे? केमके आपनी साथेनो मारो सम्बन्ध अमारेमाटे नीचा जोवुं छे. महात्माओनो जे अपराध करनार होय तेनाथी थयेला जन्मने धिक्कार छे ॥२२॥

ज्यारे भगवान्‌ शिव आपनी साथे मारो सम्बन्ध दर्शावता मने हांसीमां ‘दाक्षायणी (दक्षकुमारी)’ ना नामथी बोलावशे त्यारे मारी बधी हांसी बन्ध थई जशे अने मने लज्जा अने खेद थशे. तेथी ए पहेलां ज आपना अङ्गथी उत्पन्न आ शब तुल्य शरीरनो त्याग करी दईश ॥२३॥

मैत्रेये कह्युं - हे शत्रुतापन विदुरजी! ए प्रमाणे यज्ञमां दक्षने उत्तर आपी,४०४ अध्याय-४, चतुर्थस्कन्ध मौनधारण करी पीळां वस्त्र पहेरी सती उत्तर दिशामां पृथ्वी उपर बेठां अने जळनुं आचमन लई आङ्खो र्मीचीने शरीर छोडवा योग मार्गमां स्थित थई गया ॥२४॥

दृढ आसन वाळी, प्राण तथा अपान वायुने नाभिचक्रमां स्थिर करी त्यान्थी उदान वायुने उठावी बुद्धिनी साथे हृदयमां अने त्यान्थी अनिन्दित सतीए धीरे-धीरे कण्ठना मार्गथी भ्रुकुटिना मध्यमां लाव्याम् ॥२५॥

ए प्रमाणे महापुरुषोना पण पूज्य सदाशिव जेमने प्रेमथी वारंवार पोताना खोळामां बेसाडेलां एवा देहने दक्षनी उपरना क्रोधथी त्याग करवाने इच्छतां मनस्विनी सती देवीए पोतानां गात्रोमां वायु अने अग्निनी धारणा करी ॥२६॥

पछी जगद्गुरु अने पोताना स्वामी सदाशिवनुं चरणकमल मकरन्दनुं ध्यान करतां-करतां सतीने बीजुं कांई देखायुं नहि अने एमनो निष्पाप देह समाधिना अग्निथी तुरत बळीगयो ॥२७॥

ते समये त्यां आवेला देवता वगेरेए आ महान आश्चर्यमय चरित्र जोतां आकाश अने पृथ्वीमां मोटा हाहाकार थई गयो. हाय हाय! परम पूज्य सदाशिवनां प्रिया सतीए दक्षना दुर्व्यवहारथी प्राणत्याग कर्यो ॥२८॥

अहो! स्थावर-जङ्गम बधुञ्ज जेनी प्रजा छे तेवा आ दक्षप्रजापतिनी अधमता तो जुओ; एना अपमान करवाथी एनी पुत्री सतीए प्राण छोडी दीधां. ए महोदार सती तो निरन्तर मानने योग्य छे ॥२९॥

असहनशील अने ब्राह्मणद्रोही दक्षने जगत्‌मां मोटी काळीटीली लागी जशे केमके महादेवजीनो द्वेष करनारा दक्षे पोताना अपराधथी मरवा तैयार थयेली पुत्रीने एम करतां रोकी पण नहि’’ ॥३०॥

ए प्रमाणे सतीनो अद्‌भूत प्राणत्याग जोई लोको वातो करवा लाग्या त्यां तो पार्षदो हथियारो उठावीने दक्षने मारवा ऊठ्या ॥३१॥

आवता पार्षदोनो वेग जोई भृगु ऋषिए यज्ञमां विध्न करनाराओने नाश करे तेवा यजुर्वेदना ‘अपहतं रक्ष’ इत्यादि मन्त्रथी दक्षिणाग्निमां होम कर्यो ॥३२॥

अध्वर्यु भृगुए होम कर्यो के एमान्थी तत्काल ऋभु नामना हजारो देवो जेओए तप करीने चन्द्रलोक प्राप्त कर्यो छे. तेओ यज्ञना अग्निमान्थी धडाधड प्रकट थया ॥३३॥

तैरलातायुधैः सर्वे प्रमथाः सहगुह्यकाः ॥४०५ अध्याय-५,चतुर्थस्कन्ध हन्यमाना दिशो भेजुरुशद्भिर्ब्रह्मतेजसा ॥३४॥

ब्रह्मतेजथी सम्पन्न ए ऋभु देवोए भूत, प्रेत अने यक्ष वगेरे महादेवना पार्षदोने बळतां लाकडान्थी मारवा माण्डतां तेओ आम तेम नासी छूट्या ॥३४॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां(पहेला धर्मप्रकरणमां) ‘‘दक्षे सदाशिवनुं अपमान करवाथी यज्ञमां सतीए देहत्याग कर्यो’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’ शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.

अध्याय ५

सदाशिवना कोपथी उत्पन्न थयेला वीरभद्रे दक्षना यज्ञनो भङ्ग कर्यो

विशेष - आ पाञ्चमां अध्यायमां दक्षना अति उग्र पापोनो विपाक थवाथी एनो परिवार सहित विनाश निरूपवामां आवेछे. भवो भवान्या निधनं प्रजापतेरसत्कृताया अवगम्य नारदात्‌ ॥ स्वपार्षदसैन्यं च तदध्वरर्भुभिर्विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - दक्षे अपमान कर्यु तेथी सतीनुं मरण थयुं अने यज्ञना ऋभु देवोए पोताना पार्षदोनुं सैन्य नसाडी दीधुं ए वात सदाशिवे नारदजी पासेथी जाणी त्यारे तेओ क्रोधथी भभूकी ऊठ्या ॥१॥

क्रोध पामेल पोताना होठ करडता महादेवे वीजळीनी जवाळा जेवी अने भयङ्कर कान्तिवाळी पोतानी एक जटा विखेरी नाङ्खी अने तुरत ऊभा थई अटहास सहित गम्भीर गर्जना करीने जटाने धरती उपर पछाडी ॥२॥

ए जटामान्थी वीरभद्र उत्पन्न थयो. एनुं शरीर आकाश जेटलुं ऊचुं हतुं. एने हजार हाथ हता. एनी कान्ति मेघ सरखी हती. एने सूर्य जेवी त्रण आङ्ख हती.

ईं उं ईं उं

[[४०६]] एनी दाढो विकराळ हती. एना केश सळगता अग्नि जेवा हता. एणे खोपरीओनी माळा पहेरी हती. एणे अनेक प्रकारनां हथियार धारण कर्या हताम् ॥३॥

आ वीरभद्रे हाथ जोड्या अने विज्ञप्ति करी के ‘‘मारे शुं काम करवानुं छे?’’ महादेवे आज्ञा करी के ‘‘मोटा योद्धा, मारा पर्षदोनो अग्रणी थई यज्ञ सहित दक्षनो नाश करी नाङ्ख केमके तुं मारा अंशरूप छे’’ ॥४॥

हे विदुरजी! ए प्रमाणे क्रोधथी सदाशिवे आज्ञा करतां वीरभद्रे देवोना देव समर्थ महादेवनी प्रदक्षिणा करी ए वखते एने एम लाग्युं के मारा वेगनो सामनो करी शके एवो संसारमां कोई नथी अने हुं महानमां महान बळवाननो मुकाबलो करवा समर्थ छुं. एवुं मानता ए वीरभद्रे भयङ्कर सिंह गर्जना करी अने मृत्युने पण मारी नाखे एवुं त्रिशूल उपाडी पगना घूघरा खूब खडखडे एवी दोट दीधी अने एनी पछवाडे अत्यन्त गर्जना करता पार्षदो चाल्या ॥५-६॥

अर्ही ऋत्विजोए, बीजा ब्राह्मणोए, दक्षे पोते, सभासदोए अने ब्राह्मणोनी स्त्रीओए उत्तर दिशामां धूळ ऊडती जोई. तेओ आ अन्धारुं केम थई गयुं अने धूळ कयान्थी उत्पन्न थई छे एनो विचार करवा लाग्याम् ॥७॥

तेओ बोलवा लाग्यां - ‘‘अत्यारे क्यांय आन्धीनां एन्धाण नथी अने उग्रदण्ड देनारो प्राचीनबर्हि राजा जीवे छे तेथी चोरनो के गायोनुं हरण थवानो सम्भव नथी, छतां आ धूळ क्यान्थी?’’ शुं अत्यारे ज लोकनुं प्रलय थवा बेठो छे के शुं? ॥८॥

उद्वेग पामेली प्रसूति (दक्षनी स्त्री) वगेरे स्त्रीओ बोली ः‘‘दक्ष प्रजापतिए पोतानी बीजी दीकरीओनी सामे निरपराधी दीकरी सतीनुं अपमान कर्युं ए पापनुं आ फळ छे ॥९॥

(अथवा मानो या न मानो संहारमूर्ति भगवान्‌ रुद्रना अनादरनुं ज आ परिणाम छे) प्रलयनो समय थतां ज्यारे ए पोताना जटाजूटने विखेरी नाङ्खी, शस्त्रास्त्रोथी सुसज्जित पोतानी भुजाओने ध्वजानी माफक फेलावी ताण्डव नृत्य करे छे त्यारे एमना त्रिशूलनी अणीओथी दिग्गजो र्वीधाई जाय छे अने तेमना मेघगर्जन जेवा भयङ्कर अट्टहासथी दिशाओ चीराई जाय छे ॥१०॥

ए वखते तेमनुं तेज असह्य होय छे, पोतानी भ्रुकुटि त्रांसी करवाथी अत्यन्त दूर्घर्ष जणाय छे अने एमनी विकराल दाढोथी तारा गण अस्तव्यस्त थई जाय छे. ए छञ्छेडायेला भगवान्‌ शङ्करने वारंवार कुपित करवावाळा पुरुष साक्षात विधाता ज४०७ अध्याय-५,चतुर्थस्कन्ध केम नथी. शुं एनुं कदापि कल्याण थई शके खरुं?’’ ॥११॥

यज्ञमण्डपमां भयग्रस्त दृष्टिवाळा लोको अध्धर जीवे तरेह-तरेहनी वातो करतां हतां एटलामां दक्ष प्रजापतिना यज्ञमां हजारो भयङ्कर उत्पात आकाशमां, पृथ्वीमां अने चारे बाजु थवा लाग्या ॥१२॥

हे विदुरजी! जोतजोतामां तो अनेक हथियारोवाळा, ऊञ्चा आयुध धरनारा, र्ठीगणा, पिङ्गळां, पीळा, मगर सरखां पेट अने मोढांवाळा तथा चारेबाजू दोडता, महारुद्रना अनुचरोथी ए मोटो यज्ञ घेराई गयो ॥१३॥

केटलाक पार्षदोए यज्ञशाळाना पूर्व-पश्चिम स्तम्भ उपरनुं काष्ठ, केटलाके पत्नीशाळा, केटलाके सभामण्डप, केटलाके हविर्धान, केटलाके आग्नीध्रशाळा, केटलाके दक्षनुं घर अने केटलाके रसोडुं भाङ्गी नाख्युम् ॥१४॥

केटलाके यज्ञनां पात्रो भाङ्गी नाख्यां, केटलाके यज्ञनो नाश करी नाङ्ख्यो, केटलाके अग्निना कुण्डोमां लघुशङ्का करी, केटलाके वेदी अने मेखला तोडी-फोडी नाख्या ॥१५॥

केटलाक मुनिओने मारवा लाग्या, केटलाके स्त्रीओने दबडावी नाखी अने केटलाके हडफेटमां आवेला नासता अने न नासता देवोने पकडी लीधा ॥१६॥

वीरभद्रे दक्षप्रजापतिने, मणिमाने भृगुने, चण्डीशे पूषादेवने अने नन्दीश्वरे भगदेवने पकडी लीधा ॥१७॥

ए पार्षदोए जोई जोईने अत्यन्त पथ्थर मारवा मण्ड्या तेथी पीडाईने सघळा ऋत्विजो, सभासदो अने देवो कोई कयां अने कोई कयां एम नासवा लाग्या॥१८॥

वीरभद्रे भृगु ऋषि, जे सरवो हाथमां लई होम करता हता, तेमनी दाढी-मूछ खेञ्ची काढ्‌यां केमके एणे मूछपर हाथ देतां-देतां महादेवजीनी मजाक करी हती॥१९॥

भगदेवने जमीन पर पछाडी क्रोधथी एनी आङ्खो काढी लीधी केमके भरी सभा वच्चे ज्यारे दक्षे शिवजीनी निन्दा करी हती त्यारे एने भगदेवे आङ्खना इशाराथी पानो चडाव्यो हतो ॥२०॥

अनिरुद्धना लग्न प्रसङ्गे जेम बळभद्रे कलिङ्ग देशना राजाना दान्त पाडी नाङ्ख्या हता तेम वीरभद्रे पूषा देवना दान्त पाडी नाङ्ख्या केमके तेओ सभा वच्चे दान्त देखाडीने हस्या हता ॥२१॥

पछी तो वीरभद्रे दक्षनी छाती उपर चढी बेसी तेज तलवारथी एनुं माथुं कापवा माण्ड्युं तो पण कापी शकायुं नहि ॥२२॥४०८ अध्याय-६, चतुर्थस्कन्ध कोई प्रकारना शस्त्रास्त्रथी एनी चामडीने उझरडो सरखो पण पड्यो नहि; त्यारे घणो विस्मय पामीने घणीवार सुधी वीरभद्रे विचार कर्यो ॥२३॥

पछी यज्ञमां पशुने गळुं दाबी केवी रीते मारी नाङ्खवामां आवे छे ए उपर विचार करीने ए प्रमाणे ज दक्षरूप पशुनुं माथुं वधेरी लीधुम् ॥२४॥

ए समये वीरभद्रना ए कार्यने वखाणता भूत, प्रेत अने पिशाचो ‘‘शाबाश, शाबाश’’. एम बोलवा लाग्या त्यारे बीजा ब्राह्मणो वगेरे ‘‘हाय-हाय, गजब थई गयो’’ एम बोलवा लाग्या ॥२५॥

जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्‌ दक्षिणाग्रावमर्षितः ॥ तद्‌देवयजनं दग्ध्वा प्रातिष्ठद्‌ गुह्यकालयम्‌ ॥२६॥

क्रोध पामेला विरभद्रे दक्षनुं ए माथुं दक्षिणाग्निमां होमी दीधुं अने यज्ञना ए स्थानने सळगावी मूकी खेदान-मेदान करी (पार्षदो साथे) कैलास पर्वतमां चाल्यो गयो ॥२६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां (पहेला धर्मनिरूपण प्रकरणमां) ‘‘सदाशिवना उत्पन्न थयेला वीरभद्रे दक्षना यज्ञनो भङ्ग कर्यो’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ, वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजी(भागवत,श्रीयमुनाजीनीलोटी वगेरे)ना नामे (भेट-सामग्री-पोथीसेवा के न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्तःजेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं. (श्रीहरिरायजी)

अध्याय ६

ब्रह्माजीए सदाशिवनी पासे जई दक्षादिने सजीवन करवाने स्तुति करी

विशेष - आ अध्यायमां दक्षने जीवतो करवा सारुं यज्ञने सिद्ध करवानी कामनावाळा देवो

ईं उं ईं उं

[[४०९]] ब्रह्माजी पासे गया. ब्रह्माजीए शिवनुं सान्त्वन कर्युं तेमां गमन, बोधन, स्थान वर्णन, स्तवन अने प्रार्थना एम पाञ्च प्रकरणो अनुक्रमे त्रण, चार, तेवीश, आठ अने चार श्लोकवडे कहेवामां आव्यां छे. अथ देवगणाः सर्वे रुद्रानीकैः पराजिताः ॥ शूलपट्टिशनिस्त्रिंशगदापरिधमुद्गरैः ॥१॥

मैत्रेय कह्युं - पछी ज्यारे रुद्रना सैन्यथी हारी गयेला सर्वे देवो, जेमनां अङ्गेअङ्ग त्रिशूळ, पट्टिश, खड्‌ग, गदा, भोगळ तथा मुद्‌गळोथी कपायेलां अने घवाई गयेलां हतां तेओ पोतानी साथे ऋत्विज अने सभासदोने लईने ब्रह्माजी पासे गया अने नमस्कार करी सर्व वातनुं निवेदन कर्यु ॥१-२॥

ब्रह्मा अने जगतना आत्मा नरायण आ भविष्य प्रथमथी ज जाणता हता तेथी दक्षना यज्ञमां गया ज न हता ॥३॥

देवोनी वात साम्भळी ब्रह्मा बोल्याःदेवताओ, परम समर्थ तेजस्वी पुरुषथी कोई दोष थई पण जाय तो पण एना बदलामां अपराध करवावाळा मनुष्योनुं कल्याण नथी थई शकतुम् ॥४॥

वळी तमे तो यज्ञमां भागना हक्कदार सदाशिवनो बहिष्कार कर्यो छे; तो हवे तमे शुद्ध हृदयथी ए देवना पगमां पडी एमने प्रसन्न करो; ए देव तरत प्रसन्न थाय तेवा छे ॥५॥

जो यज्ञ पाछो सन्धाय एवी तमारी इच्छा होय तो ए देव, जेमनुं हृदय दुष्ट वचनथी र्वीधाई गयुं छे अने जेओ स्त्रीरहित थयेला छे तेमनी क्षमा मागो. एमनो क्रोध थवाथी तो लोकपालो सहित सर्व लोकोनो नाश थई जाय ॥६॥

यज्ञ स्वरूप देवराज इन्द्र, तमे, मुनिओ के बीजा कोई प्राणीओ अरे खुद हुं पण जेमना तत्त्वने, जेमना बळ के भक्तिना प्रमाणने जाणता नथी ते स्वतन्त्र देवने शान्त करवानो उपाय कोण करी शके? ॥७॥

मैत्रेये कह्युंः ए प्रमाणे देवोने आज्ञा करी ब्रह्माजी देवो, पितृ तथा प्रजापतिओने साथे लई ब्रह्मलोकमान्थी सदाशिवना प्रिय धाम पर्वतश्रेष्ठ कैलास गया ॥८॥

ए कैलास पर्वतने जन्म, औषधि, तप, मन्त्र अने योगथी सिद्ध थयेला देवो, किन्नरो, गन्धर्वो अने अप्सराओ निरन्तर सेवे छे ॥९॥

एनां शिखरो मणिमय छे जे अनेकविध धातुओथी रङ्ग-बे-रङ्गी देखाय छे.४१० अध्याय-६, चतुर्थस्कन्ध एना उपर अनेक प्रकारनां वृक्षो, लता अने झाडीओ आवेलां छे जेमां जङ्गली पशुओनां झुण्डनां झुण्ड विचरतां रहे छे ॥१०॥

एमां अनेक निर्मळ झरणां वह्या करे छे. एमां बहु ज ऊण्डी गुफाओ छे अने ऊचां शिखरो छे जेने कारणे पोताना प्रियतमोनी साथे विहार करती सिद्धलोकोनी स्त्रीओनुं ए अत्यन्त प्रिय क्रीडास्थल छे ॥११॥

चोतरफ मयूरोनो केकारव, मतवाला भमरोनो गुञ्जारव, कोयलोना टहुका तथा बीजां अनेक पक्षीओना कलरवथी ते गुञ्जी रह्यो छे ॥१२॥

ऊञ्चां अने मनोरथ पूरनारां वृक्षरूप हस्तोवडे जाणे पक्षीओने बोलावतो होय, हाथीओना धमकाराथी जाणे चालतो होय, झरणान्ना कलकल अवाजथी जाणे के वातचीत करतो होय तेवो ए कैलास पर्वत देखाय छे. मन्दार, पारिजात, देवदार, तमाल, शाल, ताल, कोविदार, असन, आञ्जणिया आम्बा, कदम्ब, लीमडा, नाग, पुन्नाग, चम्पक, गुलाब, अशोक, बोरसली, कुन्द, कुरबक, सोनेरी कमळो, एलची अने मालतीनी मनोहर लताओ कुब्जक, मोगरा अने वासन्तीनी वेलो पण एनी शोभामां वधारो करे छे ॥१३-१६॥

फणस, उम्बरा, पीपळा, पीपर, वड, हिङ्ग, भूर्ज, ए औषधिओ, सोपारी, वाङ्कडी सोपारी, जाम्बु, खजूरी, आम्बळा, आम्बा, रायण, महूडा, इडोरिया, पोला वांस अने बीजी पण अनेक वृक्षनी जातोथी ए पर्वत शोभी रह्यो छे. तळावोमां कुमुद, उत्पल, कह्‌लार अने बीजां शतपत्र कमळोनां वन खीलेलां होवाथी तेमना पर मुग्ध पक्षीओनां टोळां मधुर कलरव करी तेनी मनोहरता वधारी रह्यां छे. मृग, वान्दरां, सुवर, सिंह, र्रीछ, शेळा, रोझ, शरभ(आठ पगवाळुं सिंह करतां पण वधारे बलवान प्राणी), वाघ, कृष्णमृग, पाण्डा, कर्णात्र, एकपद, अश्वमुख, वरु अने कस्तुरीमृग, घूमतां रहे छे. त्यान्ना सरोवरोना किनारा केळोनी पक्तिन्थी शोभता हता. ए कैलास पर्वतने सतीना नहावाथी थयेल सुगन्धीत जलवाळी गङ्गानदीए आण्टो लीधो छे. आवा कैलास पर्वतने जोई देवो विस्मय पाम्या ॥१७-२१॥

एमणे ए पर्वतमां सुन्दर अलकापुरी अने सौगन्धिक वन, जेमां सौगन्धिक नामनां कमळ थाय छे ते, जोयाम् ॥२२॥

अलकापुरीनी बहार भगवाननां चरणारविन्दनी रजथी अत्यन्त पवित्र थयेली नन्दा अने अलकनन्दा नामनी नदीओ आवेली छे, जेमां हे विदुरजी! रतिथी४११ अध्याय-६,चतुर्थस्कन्ध श्रमित थयेली देवोनी स्त्रीओ पोतानां विमानोमान्थी ऊतरीने क्रीडा करे छे अने पोताना पतिओने पाणी उडाडी र्भीजवे छे ॥२३-२५॥

देवोनी स्त्रीओना नहावाने लीधे एनां पाणी एमनां अङ्ग उपरना केसरथी रङ्गाई गयां होय छे तेथी तरस न होवा छतां हाथीओ ए पाणी पीए छे अने हाथणीओने पाय छे ॥२६॥

वीजळी अने वादळछाया आकाशनी पेठे रूपा, सोना अने मोटां रत्नोनां सेङ्कडो विमानोथी अने यक्षोनी स्त्रीओथी ए अलकापुरी शोभी रही छे ॥२७॥

यक्षराज कुबेरनी राजधानी ए अलकापुरीने वटावी देवताओ सौगन्धिक वनमां आव्या ए वन रङ्ग-बे-रङ्गी फल, फूल अने पत्तावाळां अनेक कल्पवृक्षोथी सुशोभित हतुम् ॥२८॥

एमां कोयल वगेरे पक्षीओनुं कूजन अने भमराओनो गुञ्जार थई रह्यो हतो तथा राजहंसोने परमप्रिय कमलना कुसुमोथी मडिन्त अनेक सरोवर हताम् ॥२९॥

ते वन जङ्गली हाथीओना शरीरनो रगड लागवाथी घसायेला हरिचन्दन वृक्षोना स्पर्श करी वातो सुगन्धी पवन यक्षपत्नीओना मनने वारंवार विशेषरूपथी मथी नाखतो हतो ॥३०॥

वैदूर्यमणिनां पगथियांवाळी तथा कमळनी पक्तिंवाळी वावो आवेली हती. तेमां घणां कमल खीलेलां रहेतां. त्यां अनेक किम्पुरुषो जीव बहेलाववानेमाटे आव्या हता. आ प्रमाणे ए वननी शोभा जोतां-जोतां देवो आगळ गया. त्यां दूरथी एक वड तेमना जोवामां आव्यो ॥३१॥

ए वड सो योजन ऊञ्चो, पोणो सो योजनना घेरावावाळो, फरती अचळ छाया करनारो, पक्षीओना माळाविनानो अने तापरहित हतो ॥३२॥

ए विशाळकाय योगमय वडनी नीचे मुमुक्षुओना शरणरूप अने रोषने अळगो मूकीने जाणे साक्षात्‌ काळ ज बेठो होय तेवा सदाशिव बिराजमान हता तेमने जोया ॥३३॥

ए शान्तस्वरूप महादेवने शान्तिने वरेला सनकादिक, मोटा सिद्धो, यक्ष अने राक्षसोना अधिपति कुबेरजी जे एमना मित्र छे तेओ तेमनी सेवा करी रह्या हता ॥३४॥

विश्वना वहाला महादेवजी सारा संसारना सुहृद छे; स्नेहवश बधान्नुं कल्याण४१२ अध्याय-६, चतुर्थस्कन्ध करनार छे. लोकहितनेमाटे ज उपासना, चित्तनी एकाग्रता अने समाधि आदि साधन कर्या करे छे ॥३५॥

सन्ध्या कालीन मेघना जेवी कान्तियुक्त शरीर उपर तेओ तपस्वीओना चिह्‌न भस्म, दण्ड, जटा अने मृगचर्म एवं मस्तक पर चन्द्रकला धारण करी रहेल छे॥३६॥

अनेक सत्पुरुषोना साम्भळतां जिज्ञासु नारदजीने ब्रह्मविद्यानो उपदेश करता, सदाशिव जमणी साथळ उपर डाबो पग अने डाबा पग उपर हाथ राखी तथा काण्डामां बेरखो पहेरी तर्कमुद्रा*करीने दर्भना आसन उपर बिराज्या हता ॥३७-
३८॥

विशेष - तर्जनी अने अङ्गूठाना अग्रने भेळा करी तथा बाकीनी आङ्गळीओ लाम्बी राखी हाथ लाम्बो करवो ए ‘तर्कमुद्रा’ कहेवाय छे. ब्रह्मानन्दमां एकाग्र थयेला अने योगपट्ट (काष्ठनुं टेकण) राखी बेठेला ए मुख्य ज्ञानी सदाशिवने लोकपाळो सहित मुनिओए हाथ जोडीने प्रणाम कर्या ॥३९॥

मोटा-मोटा देवदैत्यो जेमनां चरणमां नमे छे ते सदाशिवे ब्रह्माजीने पोताने घेरे आवेला जोई ऊभा थईने; जेम वामनजी कश्यपने प्रणाम करे तेम प्रणाम कर्या ॥४०॥

ए प्रमाणे ज बीजा सिद्ध लोको तथा मोटा ऋषिओ जेओ सदाशिवनी आसपास बेठेला हता तेओए पण ब्रह्माजीने प्रणाम कर्या; एवी रीते बधाए ब्रह्माजीने प्रणाम करी लीधा त्यारे ब्रह्माजीए हसतां-हसतां कह्युम् ॥४१॥

ब्रह्माजीए कह्युं - हुं जाणुं छुं के आप सम्पूर्ण जगतना स्वामी छो; कारण के विश्वनी योनि शक्ति (प्रकृति) अने एनुं बीज शिव (पुरुष) थी पर जे एक रस ब्रह्म छे ते आप ज छो ॥४२॥

हे भगवान्‌! आप विभाग वगर रहेलां प्रकृति पुरुषमां क्रीडा करता लीलाथी ज तमेज करोळियानी माफक आ जगत्‌ने सरजो छो, रक्षो छो अने प्रलय करो छो. आपे ज धर्म अने अर्थनी प्राप्ति करावी आपनार वेदनी रक्षानेमाटे दक्षने निमित्त बनावी यज्ञने प्रकट कर्यो छे ॥४३॥

आपनी ज बान्धेली आ वर्णाश्रमनी मर्यादाओ छे जेनुं पालन नियम निष्ठ ब्राह्मणो श्रद्धा पूर्वक करे छे ॥४४॥४१३ अध्याय-६,चतुर्थस्कन्ध हे मङ्गलस्वरूप! सारां काम करनाराओने स्वर्ग के मोक्ष आपनार तथा दुष्ट काम करनाराओने भयङ्कर नरक आपनार पण आप ज छो; तो पछी कोई-कोई व्यक्तिने ए नियमथी ऊलटुं फळ केम थई जाय छे? ॥४५॥

आपना चरणमां चित्त राखनार सर्व प्राणीओमां आपने ज जोनार अने सर्व भूतने पोताथी अभिन्न जोनारा सत्पुरुषोने पण घणुं करीने अज्ञानीओनी पेठे क्रोध पराभव करतो नथी ॥४६॥

एटलामाटे भेदबुद्धिवाळा, कर्ममां दृष्टि राखनारा, दुष्ट वासनावाळा अने पारकी सम्पत्ति जोईने हृदयमां निरन्तर बळनारा मर्मभेदी पुरुषो अन्य लोकोने दुर्वचनथी पीडे तो पण ए लोकोने आप जेवाए मारवा नहि जोईए कारण के बापडा ए लोकोने तो विधाताए मारी नाखेला ज छे ॥४७॥

भगवाननी अपार मायाना मोहथी लोको भेदबुद्धि करे तो पण महात्मा पुरुषो पोताना परदुःखकातर स्वभावने लीधे एना पर कृपा ज करे छे. भगवदिच्छाथी जे कंई बनी जाय छे तेने रोकवानो प्रयत्न नथी करताम् ॥४८॥

आप तो भगवाननी अपार मायाथी मोह नहि पामेला एवा सर्वज्ञ छो; माटे हे प्रभु! मायाथी दुर्बुद्धिवाळा थयेला अने कर्ममां ज लागी रहेला लोकोथी अपराध थई जाय तो पण आपे तो अनुग्रह करवो जोईए ॥४९॥

हे देव! यजन करनारा मूर्ख लोकोए यज्ञनुं फळ आपनारा आपने ज भाग नहि आपवाथी आपे ज आ यज्ञने तोडी नाङ्खीने भङ्गाण पाड्युं छे एनुं समाधान करो ॥५०॥

यजमान दक्ष जीवता थाय, भग देवताने आगळना जेवी ज आङ्खो थाय, भृगुने दाढीमूछ ऊगी आवे, पूषा देवना पूर्ववत्‌ दान्त ऊगी आवे; अने हे मन्यु! हथियार अने पथराओथी घवायेला देवो अने ब्राह्मणो साजासमा थई जाय एवो अनुग्रहकरो ॥५१-५२॥

एष ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै ॥ यज्ञस्ते रुद्रभागेन कल्पतामध यज्ञहन्‌ ॥५३॥

हे यज्ञने हणनारा रुद्र!यज्ञ सम्पूर्ण थतां यज्ञमां जे कंई अवशेष रहेशे ते सर्व आपनो भाग छे एम ठरावीए छीए. ए भाग आपवाथी आज आ यज्ञ पूरो थाय ॥५३॥४१४ अध्याय-७, चतुर्थस्कन्ध इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (पहेला धर्मप्रकरणमां) ‘‘ब्रह्माजीए सदाशिवनी पासे जई दक्षादिने सजीवन करवाने स्तुति करी’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ ‘‘प्रभुनी कता-कीर्तन करीने आजीविका चलावनार अधम वक्ताओना मनोभावो गटरना गन्दा पाणी जेवा होय छे’’. (जलभेद, श्रीवल्लभाचार्य) आवा अधम वक्ताओना मुखे भागवत कथा-कीर्तन साम्भळवा ए गटरनुं पाणी पीवा जेवी बीभत्स रुचि छे.

अध्याय ७

सजीवन थयेला दक्षे तथा महादेवे भगवाननी स्तुति करी अने यज्ञ पूरो कर्यो

विशेष - आ सातमा अध्यायमां भगवान्‌ प्रकट थतां दक्ष अने सदाशिव वगेरेए एमनी स्तुति करी अने एमणे दक्षनी पासे यज्ञ चालु कराव्यो अने प्रभुए प्रकट थईने दक्षनो धर्म सिद्ध कर्यो ए कथा कहेवामां आवशे. इत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता। अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ब्रह्माजीए प्रार्थना करी तेनाथी प्रसन्न थयेला महादेवजी हसीने बोल्याः साम्भळो ॥१॥

महादेवजी बोल्या - हे ब्रह्माजी! भगवाननी मायाथी मोह पामेला ए दक्ष जेवा बाळकोना अपराधनी नथी तो हुं चर्चा करतो के नथी एनी याद करतो. आतो मात्र तेमने सावधान करवा थोडो दण्ड दई दीधो ॥२॥

दक्ष प्रजापति, जेनुं माथुं बळी गयुं छे तेने बकरानुं माथुं लगाडी दो; भग देवता पोताना यज्ञभागने मित्र देवतानी आङ्खोथी देखे ॥३॥

लोट फाकता पूषा देव यजमानना दातोथी खाय. जे देवोए मने उच्छिष्ट भाग आप्यो तेमनां अङ्ग सन्धाई जाओ ॥४॥

ईं उं ईं उं

[[४१५]] अध्वर्यु वगेरे याज्ञिकोमान्थी जेमनी भुजाओ तूटी गई छे तेओ अश्विनी कुमारनी भुजाओथी अने जेमना हाथ नष्ट थई गया छे तेओ पूषाना हाथोथी काम करे अने भृगुजीनी दाढीमूछ बकरानी दाढी-मूछ जेवी थई जाय ॥५॥

हे विदुरजी! ए प्रमाणे महादेवजीनुं बोलवुं साम्भळी ए समये सर्वे प्राणीओ प्रसन्न थईने ‘धन्य-धन्य’ कहेवा लाग्याम् ॥६॥

पछी देवो अने ऋषिओ महादेवजीनी आज्ञा लई, महादेवजी अने ब्रह्माजीने साथे पधरावी पाछा ए यज्ञना स्थानकमां आव्या ॥७॥

महादेवजीए जे प्रमाणे कह्युं हतुं ते प्रमाणे बधुं करी दक्षना धडनी साथे यज्ञ पशुनुं माथुं जोडी दीधुम् ॥८॥

माथुं सन्धातां दक्ष उपर महादेवजीनी दृष्टि पडी के जेम कोई सूतो ऊठे तेम ए ऊठ्या अने सामे महादेवजीने जोया ॥९॥

दक्षनुं शङ्करद्रोहनी कालिमान्थी कलुषित हृदय एमनां दर्शन करवाथी शरत्कालीन सरोवरना जेवुं स्वच्छ थई गयुम् ॥१०॥

मरण पामेली पुत्री साम्भरी आवतां दक्ष प्रजापति महादेवजीनी स्तुति करवा तैयार थया पण स्नेह अने उत्कण्ठाने लीधे आङ्खोमां आंसु ऊभराई आववाथी ए कही शक््या नहि ॥११॥

प्रेमथी विह्‌वल परम बुद्धिमान दक्ष प्रजापतिए जेम-तेम करी पोतानुं मन स्थिर कर्युं अने विशुद्ध भावथी भगवान्‌ शिवनी स्तुति करवी शरू करी ॥१२॥

दक्ष बोल्या - हे महाराज! जो के में आपनुं अपमान कर्युं हतुं तो पण आपे मने जतो न करतां दण्ड दीधो ए मोटो अनुग्रह कर्यो. आप अने विष्णु नाम मात्रना आचार विहोणा ब्राह्मणोनी पण उपेक्षा करो नहि त्यारे मारा जेवा यज्ञयागादि करनार ब्राह्मणनी तो केम ज करो? ॥१३॥

हे परमश्रेष्ठ! वेद अने ब्रह्मविद्यानी रक्षा करवाने तप अने व्रत धरावनार ब्राह्मणोने प्रथम आपे ज पोताना श्रीमुखमान्थी उत्पन्न कर्या छे; एटलामाटे हे प्रभु! जेम गोवाळ हाथमां लाठी लइने गायोनी रक्षा करे छे तेम आप सर्व विपत्तिओथी ब्राह्मणोनी रक्षा करो छो ॥१४॥

हुं आपना तत्त्वथी अणजाण हतो. तेथी ज तो भरी सभामां वचनरूपी बाणोथी में आपने र्वीधी नाख्या हता तो पण ए अपराधने नहि गणकारतां,४१६ अध्याय-७, चतुर्थस्कन्ध आपे महात्मानी निन्दाथी नरकमां पडता मने आपनी कृपादृष्टिथी बचावी लीधो. बस आप आपना उदारतापूर्वक वर्तनथी मारा उपर प्रसन्न हो. एनो बदलो आपवानी मारामां शक्ति नथी ॥१५॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे महादेवजीनी क्षमा मागी ब्रह्माजीनी आज्ञा लई दक्ष प्रजापतिए उपाध्यायो, ऋत्विजो अने अग्निओथी यज्ञ कार्यनो आरम्भ कर्यो॥१६॥

भूत, प्रेत वगेरेना संसर्गथी थयेलो दोष मटाडवा यज्ञनी प्रवृत्ति करवाने ब्राह्मणोए त्रण कपाल उपर रन्धायेलो पुरोडाश नामनो चरु विष्णु भगवानना उदेशथी होम्यो ॥१७॥

हे विदुरजी! हवि हाथमां लई ऊभेला अध्वर्युनी साथे दक्ष प्रजापतिए शुद्ध बुद्धिथी श्रीहरिनुं ध्यान धर्युं एटले जेवा प्रकारनुं ध्यान कर्युं तेवा स्वरूपथी भगवान्‌ प्रकट थया ॥१८॥

‘बृहत्‌’ अने ‘रथन्तर’ नामना सामस्तोत्र जेमनी पाङ्खो छे एवा गरुडजी उपर बिराजी पधारेला भगवाने दसे दिशाओने झळाम्मळां करती पोतानी अङ्गकान्तिथी बधा देवताओने निस्तेज बनावी दीधा एमनी समक्ष बधानी कान्ति फीकी पडी गई ॥१९॥

श्याम स्वरूप, पीताम्बरधारीए कटिमां सुवर्णनी मेखला धारण करी हती. सूर्य सरखा किरीटवाळा, भमरा जेवा श्याम केशथी कान्तिमय कुण्डलयुक्त मुखारविन्द शोभतुं हतुं. आठ भुजाओमां शङ्ख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्‌ग अने ढाल धारण कर्या हतां. दासोनी रक्षा करवामां तत्पर रहेला, सोना जेवा हाथोथी फूलेलां करेणनां वृक्षोनी पेठे शोभता, वक्षःस्थळमां लक्ष्मी अने वनमाळाने धरनारा, उदार हास्ययुक्त दृष्टिथी जगत्‌ने रमाडता, चन्द्र जेवा धोळा छत्रथी सुशोभित अने जेनी पडखे राजहंस जेवां चमर अने र्वीजणो ढोळाय छे तेवा भगवान्‌ पधार्या ॥२०-२२॥

एमने जोई ब्रह्मा, इन्द्र अने सदाशिव वगेरे सर्व अने बीजाओए पण तुरत ऊभा थई एमने प्रणाम कर्या. प्रभुनी आभाथी बधान्नी कान्ति फीकी पडी गई, जीभ लथडियां खावा लागी, बधा ज दङ्ग थई गया अने मस्तक उपर अञ्जलि बान्धी भगवाननी सन्मुख ऊभा थई रह्या ॥२३॥

जो के ब्रह्मादिकनी मति भगवानना महिमाने पहोञ्ची शके एम नथी तो पण४१७ अध्याय-७,चतुर्थस्कन्ध तेओए अनुग्रहने माटे दिव्य साकार रूप धरी त्यां पधारेला भगवाननी बुद्धि अनुसार स्तुति करी ॥२४॥

यज्ञोना ईश्वर, जगत्‌ने सरजनारा ब्रह्मादिदेवोना परम गुरु, सुनन्द तथा नन्द वगेरे पार्षदोथी र्वीटायेला भगवान्‌ पासे दक्ष प्रजापति पूजननुं पात्र लई गया. ए पात्र भगवाने पोताना श्रीहस्तथी लई लीधुं तेथी आनन्दित थई हाथ जोडी दक्ष प्रजापति सावधानपणे स्तुति करता शरणे गया ॥२५॥

दक्ष स्तुति करे छे - ‘‘जाग्रत आदि अवस्थाथी रहित, अद्वितीय, भय रहित अने स्वरूपमां ज रहेनार शुद्ध चैतन्य एक आप ज छो. मायानो पराभव करी स्वतन्त्र छतां मायाथी मनुष्यदेहनुं नाटक धरी ए मायामां रहो छो तेथी जाणे आपमां रागद्वेष वगेरे आव्यां होय एम जणाय छे’’ ॥२६॥

ऋत्विजो स्तुति करे छे - ‘‘हे उपाधिरहित, नन्दिश्वरना शापथी कर्ममां ज दुराग्रह धरनारा एवा अमे धर्मने उत्पन्न करनार अने वेदे प्रतिपादन करेल आ यज्ञरूप आपनुं स्वरूप, जेनेमाटे भिन्न-भिन्न देवोना नियम थाय छे तेने ज जाणीए छीए, परन्तु आपना परम तत्त्वने जाणता नथी’’ ॥२७॥

सदस्योए कह्युं - ‘‘जीवोना आश्रयदाता प्रभु! जे अनेक प्रकारना कलेशोने कारणे अत्यन्त दुर्गम छे, जेमां कालरूप भयङ्कर काळोतरो ताकीने ज बेठो छे, सुखदुःख रूप अनेक खाडाओ छे, दुर्जन रूपी जङ्गली जानवरोनो भय छे तथा शोकरूपी दावानळ भडभडी रह्यो छे आवा विश्रामग्रह विहोणा संसार मार्गमां जे अज्ञानी जीव कामनाओथी पीडित थई, विषयरूप मृगतृष्णा जलने माटे ज देह-गेहनो काळजातूट भारो माथा पर लई जई रह्या छे ते भला आपना चरण कमलोनी शरणमां आवे क््यारे?’’ ॥२८॥

रुद्रजीए कह्युं - ‘‘वरदायक प्रभुजी! आपनां उत्तम चरण आ संसारमां सकाम पुरुषोने बधा ज पुरुषार्थोनी प्राप्ति कराववावाळां छे; अने जेने कोई पण वस्तुनी कामना नथी ते निष्काम मुनिजन पण तेमनुं आदरपूर्वक भजन करे छे. मारुं चित्त तेमां लाग्युं छे छतां अज्ञानी लोको मने आचार भ्रष्ट कहे छे तो भले कहे, मने एमना कहेवा साम्भळवानी कोई परवा नथी’’ ॥२९॥

भृगु स्तुति करे छे - ‘‘गहन मायाथी अज्ञान निद्रामां सूतेला ब्रह्माजी वगेरे प्राणीओ पण आपनुं तत्त्व पोतामां ज रह्या छतां हजु सुधी जाणी शकता नथी एवा४१८ अध्याय-७, चतुर्थस्कन्ध होवा छतां आप शरणागत भक्तोना तो प्रियबन्धु अमारी उपर कृपा करो’’ ॥३०॥

ब्रह्माजी स्तुति करे छे - ‘‘पदार्थोने भिन्न-भिन्न रूपे जोनारी इन्द्रियोवडे पुरुषना जाणवामां जे कांई आवे छे ते आपनुं स्वरूप नथी केमके ज्ञान, पदार्थ अने इन्द्रियोना अधिष्ठानरूप आप मायाना पदार्थोथी जुदा छो’’ ॥३१॥

इन्द्र स्तुति करे छे - ‘‘हे अच्युत! जगत्‌ने पाळनार! अने दैत्योनो नाश करनार, ऊञ्चां आयुधवाळुं आठ भुजावाळुं जे आ आपनुं स्वरूप छे ते अमारा मन तथा नेत्रोने परम आनन्द देनारुं छे’’ ॥३२॥

ऋत्विज ब्राह्मणोनी स्त्रीओ स्तुति करे छे - ‘‘हे यज्ञरूप, ब्रह्माजी द्वारा आपना ज पूजनमाटे आ यज्ञनुं आयोजन करवामां आव्युं हतुं. पण दक्ष उपरना क्रोधने लीधे महादेवजीए आजे ए यज्ञ नष्ट करी नाखवाथी उत्सव हीन थई गयो छे; माटे कमळ जेवी दृष्टिथी एने निहाळी पावन करो’’ ॥३३॥

ऋषिओ स्तुति करे छे - ‘‘हे भगवान्‌! आपनी लीला अनूठी छे. आप पोते कर्म करो छो तो पण एथी लेपाता नथी. बीजा लोको वैभवने माटे वलखां मारता जेनुं भजन करे छे ते लक्ष्मीजी स्वयं आपनी सेवा कर्या ज करे छे. छतां पण आप तेना प्रत्ये आग्रह करता नथी’’ ॥३४॥

सिद्ध लोको स्तुति करे छे - ‘‘असङ्ख्य कलेशोरूपी दावानलथी दाझेलो आ अमारा मनरूपी हाथी घणो तरस्यो थवाथी आपनी कथारूपी विशुद्ध अमृतमयी सरितामां घूसी जई डूबकी मारी गयो छे. त्यां जाणे के ब्रह्मानन्दमां लीन थई गयो होय तेम नथी तो तेने संसाररूपी दावानलनुं भान के नथी ए नदीमान्थी बहार नीकळतो’’ ॥३५॥

दक्षनी स्त्री स्तुति करे छे - ‘‘हे लक्ष्मीना निवासरूप परमेश्वर! आप आपना प्रिय लक्ष्मीजीनी साथे भले पधार्या. कृपा करो. अमे आपने प्रणाम करीए छीए. आप अमारी रक्षा करो. जेम माथा विनानुं धड शोभतुं नथी तेम बीजां अङ्गोथी पूर्ण यज्ञ पण आपना विना शोभतो नथी’’ ॥३६॥

लोकपाळो स्तुति करे छे - ‘‘दृश्य मात्रने जाणनार आप प्रत्यगात्मारूप छो एवा खोटा पदार्थने जाणनारी अमारी इन्द्रियो आपने देखती ज (जाणती ज) नथी केमके पाञ्च भूतथी बनेला देहमां छठ्ठा जीवरूपे जे आप जणाओ छो ते तो आपनी माया ज छे’’ ॥३७॥४१९ अध्याय-७,चतुर्थस्कन्ध योगेश्वरो स्तुति करे छे - ‘‘आप ज परब्रह्म छो. एनाथी जे पुरुष पोतानी जुदाई न लेखे ते पुरुष करतां बीजो कोई आपने वहालो नथी; तो पण हे भक्तवत्सल प्रभु! अनन्य भक्तिथी भजनारा अम लोको उपर अनुग्रह करो. जगत्‌नां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयमां जीवनां अदृष्टने लीधे एना गुणोनो अनेक प्रकारे भेद थाय छे. मायाए ज एना स्वरूपमां ब्रह्मा, विष्णु अने रुद्र वगेरे भेद रच्या छे पण स्वरूपनी खरी स्थिति जोतां एमां भेदनी भ्रान्ति गुण के एनुं कारण कांई पण नथी; एवा आप परब्रह्मने अमे नमस्कार करीए छीए’’ ॥३८-३९॥

वेदो स्तुति करे छे - ‘‘सत्त्व गुणनो स्वीकार करनार धर्मादिकने उत्पन्न करनार. निर्गुण के जेना तत्त्वने हुं के ब्रह्माजी वगेरे बीजा पण कोई जाणता नथी तेने नमस्कार करुं छुं’’ ॥४०॥

अग्नि देव स्तुति करे छे - ‘‘भगवन्‌! आपना ज तेजथी प्रजवलित थई हुं श्रेष्ठ यज्ञोमां देवताओने धृतमिश्रित हवि पहोञ्चतुं करुं छुं, आप साक्षात्‌ यज्ञपुरुष अने यज्ञना रक्षक छो. अग्निहोत्र, दर्श, पौर्ण मास, चातुर्मास्य अने पशु सोम आ पाञ्च प्रकारनां यज्ञ आपनां ज स्वरूप छे. तथा ‘आश्रावय’, ‘अस्तु श्रौषट्‌’, ‘यजे’,‘ये यजामहे’ अने ‘वषट्‌’ आ पाञ्च प्रकारना यजुर्मन्त्रोथी आपनुं ज पूजन करवामां आवे छे. हुं आपने प्रणाम करुं छुं’’ ॥४१॥

देवो स्तुति करे छे - ‘‘पूर्वे प्रलयकाळमां पोताना बनावेला जगत्‌ने उदरमां लीन करी प्रलयनां जळमां शेषनागरूप उत्तम शय्या उपर जे पोढ्‌या हता ते जे आप आदिपुरुष छो, सिद्ध लोको ज्ञानमार्गनो हृदयमां विचार करे छे ते आज अमने प्रत्यक्ष थया छो अने भक्तोनी रक्षा करो छो’’ ॥४२॥

गन्धर्वो स्तुति करे छेः हे देव! आ मरीचि वगेरे ऋषिओ, ब्रह्मा इन्द्र अने रुद्रादिक देवो आपना अंशना पण अंश छे. आ सम्पूर्ण विश्व जेना खेलनी सामग्री छे तेवा आपने निरन्तर नमस्कार करीए छीए’’ ॥४३॥

विद्याधरो स्तुति करे छेः ‘‘मानव देह आ सर्व पुरुषार्थने आपनारो छे. आपनी मायाथी मोहित मनुष्य देह मळ्या छतां जीव ‘मारुं’ अने ‘हुं’ एवुं अभिमान करे छे. पुत्र वगेरे ए दुर्बुद्धिनो तिरस्कार करे छे तेम छतां दुर्बुद्धिथी खोटा विषयोनी तृष्णा राखनार आवो पुरुष जो आपनी कथारूप अमृतनुं सेवन करे तो एनो सघळो ‘‘मोह मरी जाय छे’’ ॥४४॥४२० अध्याय-७, चतुर्थस्कन्ध ब्राह्मणो स्तुति करे छे - ‘‘भगवान्‌! आप ज यज्ञ छो, आप ज हवि छो, आप ज अग्नि छो, स्वयं आप ज मन्त्र छो, आप ज समिध, कुशा अने यज्ञपात्र छो. एवं आप ज सदस्य, ऋत्विज, यजमान अने तेनी धर्मपत्नी, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमरस, धृत अने पशु छो ॥४५॥

हे वेदमूर्ति!आप ज यज्ञकर्ता अने तेनेमाटेनुं प्रेरक बल आप ज छो. पूर्वकालमां आपे ज विशाळकाय वराह स्वरूप धारण करी घरघर करता जेम हाथी कमलिनीने लई आवे तेम पृथ्वीने पाताळमान्थी दाढ उपर रमतां-रमतां लई आव्या. आ अलौकिक चरित्रनां दर्शन करी योगीगण आपनी स्तुति करता जता हता ॥४६॥

हे यज्ञेश्वर! ज््यारे लोको आपना नामनुं कीर्तन करे छे त्यारे यज्ञनां बधां विघ्नो दूर थई जाय छे. अमारुं आ यज्ञरूप सत्कर्म नष्ट थई चूक््युं हतुं अने तेथी आपना दर्शननी अमे इच्छा करी रह्या हता. तो आप अमारा उपर प्रसन्न थाओ. आपने प्रसन्न करवानुं साधन अमारी पासे नमस्कार सिवाय कंई नथी’’ ॥४७॥

मैत्रेये कह्युं - भाई विदुरजी! ए प्रमाणे सर्वे लोको यज्ञनी रक्षा करनार भगवान्‌ हृषीकेशनी स्तुति करतां, वीरभद्रे धूळमां मेळवेला यज्ञने चतुर दक्ष प्रजापतिए फरी शरू कर्यो ॥४८॥

सर्वना अन्तर्यामी श्रीहरि आम तो बधाना भागोनां भोक्ता छे तो पण त्रिकपाल पुरोडाशरूप पोताना भागथी जाणे वधारे प्रसन्न थई दक्षने कह्युम् ॥४९॥

श्रीभगवाने कह्युं - जगत्‌नुं परम कारण हुं ज ब्रह्मा अने महादेव छुं. हुं बधानो आत्मा, इश्वर, साक्षी, स्वयम्प्रकाश अने उपाधि रहित छुम् ॥५०॥

हे विप्रवर! हुञ्ज मारी त्रिगुणात्मक मायानो स्वीकार करी जगत्‌नां सृष्टि स्थिति अने प्रलय करवा ते-ते कार्यने घटे तेवां ब्रह्मा, विष्णु अने शङ्कर जुदां-जुदां नाम धारण करुं छुम् ॥५१॥

केवळ अद्वितीय परमात्मा परब्रह्म जे हुं छुं तेमां अज्ञानी लोक ब्रह्मा, रुद्र अने प्राणीओने भिन्न-भिन्न लेखे छे ॥५२॥

जेम माणस पोताना माथा के पग वगेरे अवयवोने पोताथी जुदा लेखतो नथी तेम मारो भक्त कोई प्राणीओने माराथी जुदा गणतो नथी ॥५३॥

हे ब्रह्मन्‌! सर्व प्राणीओना आत्मा अने एकरूप एवा अमे त्रणे देवमां जे पुरुष भेदबुद्धि न राखे तेने ज शान्ति मळे छे ॥५४॥४२१ अध्याय-७,चतुर्थस्कन्ध मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे भगवाने उपदेश करतां प्रजापतिओना नायक दक्षे भगवाननुं एमना भागथी पूजन कर्युं अने पछी बीजा देवोनुं पण अङ्गकार्य अने प्रधान कार्यथी पूजन कर्यु, पछी चित्तने सावधान राखी यज्ञना अवशेष भागथी रुद्रनुं पूजन कर्युं, पछी कर्मनी समाप्तिमां करवामां आवतां उध्वसान नामक कर्मथी बीजा सोमनुं पान करनारा तथा अन्य देवतओनुं यजन करी यज्ञनो उपसंहार कर्यो अने अन्तमां ऋत्विजो सहित अवभृथस्नान कर्यु ॥५५-५६॥

जो के दक्षने पोताना प्रभावथी सर्व सिद्धिओ मळेली छे तो पण देवो एने धर्ममां बुद्धि रहे एवुं वरदान आपी स्वर्गमां गया ॥५७॥

ए प्रमाणे दक्षनी पुत्री सती पोताना प्रथम शरीरनो त्याग करी पाछां हिमाचळनी स्त्री मेनकाना उदरथी जन्म्यां एवुं साम्भळ्युं छे ॥५८॥

जेम प्रलयकाळमां सूई गयेली शक्ति सृष्टिना आरम्भमां ईश्वरने प्राप्त थाय तेम, फरीवार पण पोताना एकमात्र आश्रय अने प्रियतम भगवान्‌ शङ्करनुं ज, अनन्य परायण अम्बिकाजीए, वरण कर्यु ॥५९॥

दक्षना यज्ञनो विध्वंस परमेश्वर सदाशिवनुं आ चरित्र में बृहस्पतिना शिष्य अने भगवद्‌भक्त उद्धवजी पासेथी साम्भळ्युं हतुम् ॥६०॥

इदं पवित्रं परमीशचेष्टितं यशस्यमायुष्यमधौधमर्षणम्‌ ॥ यो नित्यदाऽऽकर्ण्य नरोऽनुकीर्तयेद्‌ धुनोत्यधं कौरव भक्तिभावतः ॥६१॥

हे विदुरजी! जे माणस आ पवित्र, उत्तम यश आपनार, आयुष्य वधारनार अने पापपुञ्जने नष्ट करनार सदाशिवना आ चरित्रने भक्तिभावथी साम्भळी निरन्तर पाठ करे तेना पापनो नाश थायछे ॥६१॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (पहेला धर्मप्रकरणमां) ‘‘सजीवन थयेला दक्षे तथा महादेवे भगवाननी स्तुति करी’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो, धर्म प्रकरण समाप्त. (शरणागति-सेवारूपी) साधना शरू करवानी तत्परता जाण्या विना गमेतेने दीक्षा आपनार गुरु अयोग्यने दीक्षा आपवाना पापे पोतानो, दीक्षा लेनारनो तेमज सम्प्रदायनोपण विनाश नोन्तरे छे.

ईं उं ईं उं

[[४२२]] बीजुं अर्थ प्रकरण

अध्याय ८

सावकी मातानां कठोर वचनोथी ध्रुवे वनमां जईने तप करीने भगवानने प्रसन्न कर्या

विशेष - हवे पाञ्च अध्यायथी अर्थप्रकरण निरुपाय छे. ज््यारे बाळकनी पण प्रभु प्रत्ये प्रीति थाय त्यारे अर्थ सिद्ध थाय छे. आ अध्यायमां सावकी मानां दूर्वचनथी क्रोध चढवाने लीधे गाममान्थी नीकळेला ध्रुवे तप कर्यु अने भगवानने प्रसन्न कर्या ए कथा कहेवामां आवे छे. सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्हंसोरुणिर्यतिः ॥ नैते गृहान्‌ ब्रह्मसुता ह्यावसन्‌ ऊर्ध्वरेतसः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - सनकादिक, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि अने यति एटला ब्रह्माना पुत्रो नैष्ठिक ब्रह्मचारी रह्या; एटले एमणे गृहस्थाश्रम कर्यो ज नहि तेथी तेमने कंई सन्तान थयुं नहि ॥१॥

ब्रह्माजीना एक पुत्र अधर्मनी स्त्री मृषाए असत्य अने माया नामनी कन्या एम बे सन्तान उत्पन्न कर्या एमने सन्तान वगरना निर्‌ऋति (मृत्यु) ए राख्यां ॥२॥

ए दम्भ अने मायामान्थी लोभ अने शठता उत्पन्न थयां. ए बेमान्थी क्रोध अने हिंसा उत्पन्न थयां. क्रोध अने हिंसामान्थी ‘कलि’ (झघडो) अने ‘दुरुक्ति’ (गाळ) ए नामना भाई-बहेन उत्पन्न थयाम् ॥३॥

कलिए दुरुक्तिमां भय अने मृत्यु नामनां बे सन्तान उत्पन्न कर्या. ए बेथी नरक अने तीव्र वेदना ए बे सन्तान उत्पन्न थयाम् ॥४॥

हे निष्पाप विदुरजी! आ अधर्मनो वंश तमारी पासे में सङ्क्षेपमां कह्यो, जे त्रण वार साम्भळवाथी पुरुषनां मननी मलिनता मटे छे केमके ए साम्भळी एनो त्याग करवानी मरजी थाय ॥५॥

हे विदुरजी! हवे ब्रह्माजीना पुत्र पवित्र कीर्तिवाळा स्वायम्भुव मनुनो वंश कहुं छुम् ॥६॥

स्वायम्भुव मनु अने राणी शतरूपाना पुत्रो थया प्रियव्रत अने उत्तानपाद. तेमनामां भगवाननो अंश होवाने लीधे तेओ जगत्‌नी रक्षा करवामां तत्पर रहेता४२३ अध्याय-८,चतुर्थस्कन्ध हता ॥७॥

उतानपाद राजाने सुनीति अने सुरुचि नामनी बे पत्नीओ हती. तेमां सुरुचि पतिने वधारे वहाली हती, ध्रुवनी मा सुनीति एटली वहाली नहोती ॥८॥

एक दिवस उतानपाद राजा सुरुचिना पुत्र उत्तमने खोळामां बेसाडी रमाडता हता ए ज वखते सुनीतिना पुत्र ध्रुवने पण खोळामां बेसवानी इच्छा थई; तो पण राजाए एने आदर आप्यो नहि ॥९॥

त्यारे अत्यन्त गर्वीली सुरुचिए राजाना साम्भळतां ईर्ष्याथी ध्रुवने कह्युम् ॥१०॥

हे बाळक! तुं राजसिंहासन उपर बेसवाने अधिकारी नथी. तुं राजकुमार छे तेथी शुं थई गयुं? तें मारी कूखे तो जन्म लीधो नथी ॥११॥

तुं हजु नादान छे तने भान नथी के तें बीजी स्त्रीना पेटे जन्म लीधो छे. तेथी तो आवी दुर्लभ बाबतनी इच्छा सेवी रह्यो छे ॥१२॥

जो तने राज््यासननी इच्छा होय तो तपथी भगवानने प्रसन्न कर अने तेनी कृपाथी मारा गर्भमां अवतार ले ॥१३॥

मैत्रेये कह्युं - डण्डो पडे अने काळोतरो जेम फूम्फाडो मारे तेम सावकी मानां कठोर वचनोथी घायल थयेल ध्रुवजी क्रोधने लीधे लाम्बा-लाम्बा श्वास लेवा लाग्या. एना पिता आ बधुं चुपचाप जोता रह्या एमणे एक पण शब्द काढ्‌यो नहि. त्यारे पिताजी पासेथी ध्रुवजी रोतारोता पोतानी माता पासे आव्या ॥१४॥

निसासा नाखता अने होठ फफडावता पोताना बाळकने खोळामां लई गामना कोई माणस पासेथी शोक््यना बोल साम्भळी सुनीतिना काळजाना कटका थई गया ॥१५॥

दावानळथी वननी वेल जेम मूरझाई जाय तेम शोक््यना बोल साम्भळी, धीरज खोईने सुनीति सन्ताप अने विलाप करवा लागी. एनी कमळ जेवी आङ्खोमान्थी दडदड आंसु पडवा लाग्याम् ॥१६॥

लाम्बा निसासा मूकती पोताना कष्टनो अन्त न जोतां ए बाळकने कहेवा लागी; ‘‘मारा तात (बाळ) तुं बीजा कोईनुं अमङ्गल इच्छीश नहि. जे मनुष्य बीजाने दुःख दे छे तेने पोताने ज तेनुं फल भोगववुं पडे छे ॥१७॥

केमके तु मुज दुर्भागीना पेटे अवतर्यो छे अने एनुं दूध पीने ऊछर्यो छे. राजा मारो स्त्री तो शुं दासी तरीके पण स्वीकार करतां शरमाय छे ॥१८॥४२४ अध्याय-८, चतुर्थस्कन्ध माटे हे तात (बाळ), सावकी माए जे साचेसाची वात कही छे ते उपर कांई पण द्वेष नहि राखतां ए प्रमाणे ज कर. जो तने उत्तमनी पेठे राज््यासननी इच्छा होय तो भगवाननां चरणारविन्दनुं आराधन करवामां लागी जा ॥१९॥

जगत्‌ना पालनने माटे सत्त्वगुण स्वीकारी रहेला भगवाननां चरणनुं सेवन करवाथी तारा परदादा ब्रह्माजी पण सर्वश्रेष्ठ स्थान पाम्या छे. पोतानां मन अने प्राणने वश करनारा योगीओ माटे पण ए वन्दनीय छे तारा दादा स्वयम्भुव मनुए पण अनन्य बुद्धिथी घणी दक्षिणावाळा यज्ञोवडे भगवाननुं पूजन करी बीजा कशाथी मळे नहि तेवुं पृथ्वीनुं सुख, स्वर्गनुं सुख अने मोक्षनुं सुख मेळव्युं छे. हे पुत्र! मोक्ष इच्छनारा पुरुषो जेमनां चरणारविन्दना मार्गनी निरन्तर शोध करतां ज रहे छे ते भक्तवत्सल भगवाननो ज आश्रय ले. धर्मथी शुद्ध अने एकाग्र करेला मनमां ए भगवानने बिराजमान करी एमनी भक्ति कर ॥२०-२२॥

बेटा! ए कमलदल लोचन श्रीहरि सिवाय मने तो तारा दुःखने दूर करनार कोई देखातुं नथी. जो, जेने प्रसन्न करवा ब्रह्माजी वगेरे बीजा बधा देवता ढूण्ढता फरे छे ए श्रीलक्ष्मीजी पण दीवानी जेम हाथमां कमल लईने निरन्तर ए ज श्रीहरिनी शोध करतां रहे छे’’ ॥२३॥

मैत्रेये कह्युं - पोतानी अभीष्ट वस्तुनी प्राप्ति करावी आपे तेवां मातानां वचन साम्भळी बुद्धिथी मनने स्थिर करी ध्रुव पिताना नगरमान्थी नीकळी पड्यो ॥२४॥

ए वात साम्भळीने एनो कर्तव्यनिर्धार जाणी नारदजीने अचम्बो थयोः ‘‘ओहो! पोताना मानभङ्गने सहन नहि करनार क्षत्रियोनुं तेज केवुं अद्‌भुत छे! हजु छे तो ए बालुडो तो पण एना काळजामां तेनी सावकी माना कडवां वेण घर करी गयां छे. एवा विस्मयथी तेओ त्यां आव्या अने पोतानो पवित्र हाथ ध्रुवजीना माथा उपर मूकीने कहेवा लाग्या ॥२५-२६॥

नारदजीए कह्युं - हे पुत्र! हजु तो तुं रमत-गमतमां गुलतान बाळक छे. आ उम्मरमां तारुं अपमान के मान थई शके एवुं अमारे तो गळे ज उतरतुं नथी ॥२७॥

मान अपमान प्रत्ये तुं सभान हो तो पण पुरुषने असन्तोषनुं कारण पोताना मोह सिवाय बीजुं कंई नथी होतुं जगत्‌मां मान-अपमान, सुख-दुःख पोतानां कर्मथी ज आवी मळे छे ॥२८॥४२५ अध्याय-८,चतुर्थस्कन्ध ईश्वरनी गति अटपटी छे! तेथी तेना उपर विचार करी अक्लमन्द आदमीए दैववशात्‌ जेवी परिस्थितिनो मुकाबलो करवो पडे तेवीनो मुकाबलो करी ज सन्तोष मानवो ॥२९॥

तारी माए जे उपाय बतावेलो तेनाथी तुं कृपा मेळववा इच्छे छे पण ए प्रभुने प्रसन्न करवानुं पुरुषोमाटे घणुं कठण छे एम हुं धारुं छुम् ॥३०॥

केमके मुनिओ घणा जन्मो सुधी वैराग्य सहित तीव्र योग अने समाधिथी एना मार्गने शोध्या ज करे छे तो पण एओ ते मार्ग जाणवा समर्थ थता नथी ॥३१॥

माटे तुं आ नकामी जिद छोडी दे अने पाछो घेरे जा. ज््यारे उम्मर थाय अने परमार्थनुं साधन करवानो समय आवी मळे त्यारे महेनत करी छूटजे ॥३२॥

‘‘देव दुःख आपे तो पाप मटे छे अने सुख आपे तो पुण्य मटे छे’’ एम मानी जे माणस पोताना अन्तःकरणने सन्तुष्ट राखे छे तेने मोक्ष मळे छे ॥३३॥

पोताना करतां वधारे गुणवानने जोई प्रसन्न थनार, ओछा गुणवानने जोई दया करनार अने समान गुणवाळा साथे मैत्री करनार माणसने कदी पण उचाट थतो नथी ॥३४॥

ध्रुवे कह्युं - अमारा जेवाने घणी मुश्केलीथी पण न मळे अने सुख-दुःखथी अडचण पामता पुरुषोने माफक आवे तेवो आ शान्तिनो मार्ग आपे कृपा करीने बताव्यो ॥३५॥

तदुपरान्त मने वारसामां मळ्यो छे क्षत्रियोनो कातिल मिजाज तेथी हुं विनयहीन छुं. सुरुचिए कटु वचनरूपी बाणोथी मारुं हैयुं चीरी नाख्युं छे तेथी आपनो आ उपदेश एमां ठरतो नथी ॥३६॥

हे महाराज! त्रणे लोकमां मारा पूर्वजो के बीजा कोई पण पाम्या नथी तेवो उत्तम पद पर अधिकार प्राप्त करवानी मारी मरजी छे; तो ए मळे एवो कोई सरस मार्ग बतावो ॥३७॥

आप ब्रह्माजीना पुत्र छो; जगत्‌ना हितने माटे ज आप वीणा वगाडता, सूरजनी पेठे त्रिलोकीमां फर्या करो छो ॥३८॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे एनुं बोलवुं साम्भळी प्रसन्न थयेला नारदजीए दया करीने ए बाळकने शुभ उपदेश आप्यो ॥३९॥४२६ अध्याय-८, चतुर्थस्कन्ध नारदजीए कह्युं - तारी माताए भगवाननुं भजन करवानुं बताव्युं छे ए ज कल्याणनो मार्ग छे; माटे एकाग्र चित्त राखीने भगवाननी भक्ति कर ॥४०॥

धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षमान्ना कोई पण पुरुषार्थनी इच्छा होय तो ए केवळ भगवाननां चरणनुं सेवन करवाथी ज मळे छे ॥४१॥

माटे हे तात (बाळ)! श्रीयमुनाजीना पवित्र काण्ठा पर ज््यां पावनकारी मधुवन छे त्यां तु जा केमके ए वनमां श्रीहरिनो नित्य निवास छे ॥४२॥

त्यां यमुनाजीना पवित्र जळमां समयसर नहावुं अने नित्य कर्म करी आसन बिछावी स्थिर थईने बेसवुम् ॥४३॥

रेचक, कुम्भक अने पूरक एम त्रण प्रकारना प्राणायामथी धीरे धीरे प्राण इन्द्रिय तथा मननी चञ्चलता मटाडवी अने धीर मनथी परम गुरु भगवाननुं आ प्रमाणे ध्यान करवुम् ॥४४॥

भगवानना नेत्र अने मुख सदैव प्रसन्न होय छे. एमनां दर्शन करवाथी एम जणाय के प्रसन्नतापूर्वक भक्तने वरदान देवाने माटे ऊञ्चा-नीचा थई रह्या छे. आपनी नासिका, भ्रमर अने कपोलोमान्थी नमणाई नीतरती होय छे. बधाय देवोमां परम सुन्दर छे ॥४५॥

अवस्था तरुण छे. बधां अङ्गो सुडोल छे. लाल-लाल होठ अने रत्नाळां नेत्र छे, आप काया, वाणी अने मनथी दीन भक्तोना अवलम्बन छो. अत्यन्त सुखदायक, शरणागतवत्सल अने दयाना सागर छो ॥४६॥

(आपना वक्षःस्थलमां श्रीवत्सनुं चिह्न छे) आपनुं श्रीअङ्ग सजल जलधरना जेवुं श्याम वर्णनुं छे. श्यामसलूणा ए परम पुरुषे कण्ठमां वनमाळा धारण करेली होय छे अने आपनी चार भुजाओमां शङ्ख,चक्र, गदा अने पद्म शोभी रह्यां होय छे॥४७॥

आपनां अङ्गप्रत्यङ्गमां किरीट, कुण्डल, केयूर अने कङ्कणादि आभूषणो सुशोभित छे. गळुं कौस्तुभमणिनी शोभामां वधारो करी रह्युं छे अने श्रीअङ्गउपर रेशमी पीताम्बर धारण कर्युं छे ॥४८॥

आपना कटिप्रदेशमां काञ्चननो कन्दोरो अने चरणोमां सुवर्णनां नूपूर शोभे छे. आपनुं स्वरूप अत्यन्त दर्शनीय, शान्त तथा मन अने नेत्रोने आनन्ददायक छे॥४९॥

जे लोको प्रभुनी मानसी सेवा करता होय छे एमनां अन्तःकरणमां आप हृदयकमलनी कळी उपर पोताना नखमणि मडिन्त मनोहर पदकमलने स्थापित करी४२७ अध्याय-८,चतुर्थस्कन्ध बिराजे छे ॥५०॥

आ प्रमाणे ध्यान करतां-करतां ज््यारे चित्त स्थिर अने एकाग्र थई जाय त्यारे ए वरदायक प्रभुनुं मनमां अने मनमां ए प्रमाणे ध्यान करे के जाणे आप मारा तरफ अनुरागभरी दृष्टिथी निहाळता मारा उपर मलकाटनो छण्टकाव करी रह्या छे॥५१॥

भक्त लोकोना मनमां रहेनार, हसता, प्रेम सहित जोता अने वर देनाराओमां उत्तम, पुरुषाकृति भगवाननुं एकाग्र चित्तथी ध्यान करवुं. भगवाननी मङ्गलमयी मूर्तिनुं आ प्रमाणे निरन्तर ध्यान करवाथी मन तत्काल परमानन्दमां डूबी जई तल्लीन थई जाय छे. अने फरी त्यान्थी पाछुं फरतुं नथी ॥५२॥

हे राजपुत्र! (आ ध्याननी साथे-साथे जे परम गुह्य मन्त्रनो जप करवो जोईए ते पण बतावुं छुं. साम्भळ) मन्त्रनो रात-दिवस सतत जप करवाथी पुरुषने आकाशमां विचरता सिद्धो अने देवोनुं दर्शन थाय छे ॥५३॥

ए मन्त्र छे ‘‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’’. आ मन्त्रथी देशकाळनो विभाग जाणनार समजु माणसे पवित्र जळ, पुष्पमाला, फूल अने वनमां उत्पन्न थयेलां मूळ तथा भगवाननी प्रिया तुलसी, वल्कल वगेरे विविध पदार्थोथी भगवाननी मूर्तिनी पूजा करवी ॥५४-५५॥

मळी शके तो शिला वगेरेनी मूर्तिनी पूजा करवी. नहि तो पृथ्वी अने जळ वगेरेमां ज भगवाननी पूजा करवी. शान्ति राखवी, नकामुं बोलवुं नहि; वनमां थयेला पदार्थोनो थोडो आहार करवो (खावा) ॥५६॥

पोतानी अगाध मायाथी इच्छा प्रमाणे अवतार धरीने भगवान्‌ जे-जे मनोहर चरित्र करवाना छे तेनुं एकाग्र चित्तथी ध्यान करवुम् ॥५७॥

मन्त्र मूर्ति भगवाननी पूजाओ माटे जे-जे उपचारोनुं विधान करवामां आव्युं छे ते उपर कहेला बार अक्षरोना मन्त्रथी करवी ॥५८॥

ए प्रमाणे अन्तःकरणपूर्वक काया, मन अने वचनथी भक्ति सहित सेवा करवाथी भगवान्‌ निष्कपटभावे एमने भजनारा पुरुषोना भावने वधारे छे अने धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षमान्नुं जे कांई भक्तने प्रिय होय ते आपे छे ॥५९-६०॥

परन्तु, घणा भक्तियोगथी विषयोमां वैराग्य राखीने अभेदभाववडे साक्षात्‌ मुक्तिने माटे एमनी अविच्छिन्न भावपूर्वक भक्ति करवी वधु योग्य छे ॥६१॥

ए प्रमाणे नारदजीनो उपदेश ग्रहण करी एमने प्रदक्षिणा अने प्रणाम कर्या.४२८ अध्याय-८, चतुर्थस्कन्ध नारदजीनो उपदेश ग्रहण करी एमने प्रदक्षिणा अने प्रणाम कर्या अने पछी ध्रुवजी भगवाननां चरणथी शोभता पवित्र मधुवनमां गया. ध्रुवजी तपोवनमां गया त्यार पछी नारदजी उतानपादना महेलमां आव्या. उत्तानपाद राजाए एमनी यथायोग्य उपचारोथी पूजा करी अने पछी सारी रीते बेठा पछी नारदजी बोल्या॥६२-६३॥

नारदजी बोल्या - तमारुं मों करमाई गयुं छे. तमे लाम्बो-लाम्बो शो विचार करो छो? धर्म, अर्थ अथवा काममां कंई हानि थई छे के शुं? ॥६४॥

राजा बोल्या - हे महाराज! में स्त्रीने वश थई दयाहीन बनीने मारा पाञ्च वर्षना भारे समजदार पुत्रने काढी मूक््यो छे अने एनी मानो पण अनादर कर्यो छे ॥६५॥

थाकीने सूतेला अने भूखथी करमाई गयेला मुखकमलवाळा मारा अनाथ पुत्रने वनमां कोई नहार खाई तो नहि जाय! ॥६६॥

स्त्रीने वश थयेला एवा मारी दुष्टता तो जुओ! प्रेमथी पुत्र खोळामां बेसवा मागतो हतो. तेने में जराय मोम्म न आप्युं नहि ॥६७॥

नारदजी बोल्या - हे राजा! जगत्‌मां जेनी कीर्ति व्यापी रही छे. तेवा तमारा पुत्रनो प्रभाव जाण्या विना शोक करो नहि. भगवान्‌ एने पोतानो गणीने एनी रक्षा करे छे ॥६८॥

लोकपाळ देवोथी पण थई शके नहि तेवुं मोटुं काम करी तमारी कीर्तिनो विस्तार करतो ए ध्रुव थोडा दिवसमां अर्ही आवी पहोञ्चशे ॥६९॥

मैत्रेय कह्युं - ए प्रमाणे नारदजीनुं बोलवुं साम्भळी, उत्तानपाद राजा राजलक्ष्मीनी कशी सम्भाळ नहि राखतां पुत्रना ज विचार करवा लाग्या ॥७०॥

अर्ही ध्रुवे तो मधुवनमां जई, श्रीयमुनाजीमां स्नान करी, रात्रिनो उपवास करी सावधानपणाथी नारदजीना कह्या प्रमाणे भगवाननी पूजा शरू करी दीधी. शरीर निर्वाहने माटे त्रण-त्रण दिवसे पोताने रुचे तेटलां कोठां अने बोर खाईने पहेलो महिनो श्रीहरिनी उपासनामां पसार कर्यो ॥७१-७२॥

बीजा महिनामां छठ्ठे-छठ्ठे दिवसे सूकां घास अने पान्दडां वगेरेनो आहार करी भगवाननी पूजा करी ॥७३॥

त्रीजो महिनो नवमे-नवमे दिवसे मात्र पाणीनो आहार करी समाधि योगथी भगवाननी भक्ति करी व्यतीत कर्यो ॥७४॥४२९ अध्याय-८,चतुर्थस्कन्ध चोथो महिनो श्वासने जीती ध्रुवे बारमे-बारमे दिवसे वायुनुं भक्षण करीने प्रभुनुं ध्यान करतां विताव्यो ॥७५॥

पाञ्चमा महिनामां श्वास जीतीने भगवाननुं ध्यान करता ध्रुवजी एक पगथी थाम्भलानी माफक निश्चल ऊभा रह्या ॥७६॥

ए वखते शब्द वगेरे विषयो अने इन्द्रियोना नियामक मनने सर्व ठेकाणेथी खेञ्ची लई भगवानना स्वरूपनुं ध्यान करतां ध्रुवने भगवान्‌ विना बीजुं कांई पण जोवामां आव्युं नहि ॥७७॥

एवी रीते ध्रुवे महत्तत्त्व वगेरेना आधार अने प्रकृति पुरुषोना नियन्ता परमात्मानुं ध्यान करवाथी (एनुं तेज सहन न थई शकवाथी) त्रणे लोक कम्पी ऊठ्या ॥७८॥

ए राजकुमार एक पगे ऊभो रह्यो त्यारे एना अङ्गूठाथी दबायेली पृथ्वी, हाथीने जेमां चढाव्यो होय तेवा वहाणनी पेठे क्षणे-क्षणे डाबी जमणी डगमगवा लागी ॥७९॥

ध्रुवजीनी पोतानी इन्द्रियोनां द्वार अने प्राणोने रोकी अनन्य बुद्धिथी विश्वात्मा श्रीहरिनुं ध्यान करवा लाग्या. आ प्रमाणे समष्टि प्राणनी साथे एमनी एकता थई जवाथी बधां ज प्राणीओना श्वासप्रश्वास रुन्धाई गया आथी तमाम लोको तथा लोकपालो हेरान-हेरान थई गया अने बधा गभराईने श्रीहरिना शरणे गया ॥८०॥

देवोए भगवानने कह्युं - हे महाराज! आखा ब्रह्माण्डनां तमाम स्थावर जङ्गम जीवोनो आ प्रमाणे श्वास रोकायो होय एवुं अमे कोई दिवस जाण्युं नथी माटे आ कष्टथी अमारो छुटकारो करो. आप शरणागतनुं रक्षण करनार छो तेथी अमे आपने शरणे आव्या छीए ॥८१॥

मा भैष्ट बालं तपसो दुरत्ययान्निवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ॥ यतो हि वः प्राणनिरोध आसीदौत्तानपादिर्मयि सङ्गतात्मा ॥८२॥

भगवाने कह्युं - डरशो नहि, उत्तानपादनो पुत्र ध्रुवे पोताना चित्तने मारा विश्वात्मामां लीन करी दीधुं छे. अत्यारे एनी मारी साथे अभेद धारणा सिद्ध थई गई छे तेथी ज एना प्राण निरोधथी तमारा बधाना श्वास पण रुन्धाई गया छे. ए बाळकने हुं दुष्कर तपमान्थी निवृत्त करुं छुं; माटे पोतपोताना स्थान पर जाओ ॥८२॥४३० अध्याय-९, चतुर्थस्कन्ध इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (बीजा अर्थप्रकरणनो साधननिरूपण नामे पहेलो) ‘‘सावकी मातानां कठोर वचनोथी ध्रुवे वनमां जईने तप करीने भगवानने प्रसन्न कर्या’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ ‘‘प्रभुनी कता-कीर्तन करीने आजीविका चलावनार अधम वक्ताओना मनोभावो गटरना गन्दा पाणी जेवा होय छे’’. (जलभेद, श्रीवल्लभाचार्य) आवा अधम वक्ताओना मुखे भागवत कथा-कीर्तन साम्भळवा ए गटरनुं पाणी पीवा जेवी बीभत्स रुचि छे.

अध्याय ९

ध्रुवे भगवाननी स्तुति करी; वरदान प्राप्त करी पाछा आवी राज्य कर्युं

विशेष - आ नवमा अध्यायमां ध्रुवे भगवाननी स्तुति करी अने भगवान्‌ पासे वर पामीने पाछा आवी, बापे आपेलुं राज्य कर्युं ए कथा कहेवामां आवशे. त एवमुच्छिन्नभया उरुक्रमे कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम्‌ ॥ सहस्त्रशीर्षापि ततो गरुत्मतामधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे भगवाने देवोनो भय टाळ्यो त्यारे तेओ एमने प्रणाम करी स्वर्गमां गया अने भगवान्‌ पण ध्रुवने जोवा गरुड पर बेसीने मधुवनमां पधार्या ॥१॥

तीव्र योगाभ्यासथी एकाग्र थयेली बुद्धिने लीधे ध्रुवने पोताना हृदयकमळमां* भगवानना वीजळी सरखा जे देदीप्यमान स्वरूपनुं दर्शन थतुं हतुं ते एकाएक अन्तरहित थई गयुं ते जोई ए चोकी ऊठ्या अने समाधिमान्थी ऊठीने बहार जोयुं तो एमने एज भगवाननुं दर्शन थयुम् ॥२॥

ईं उं ईं उं

[[४३१]]

विशेष - हृदयमां देखाता स्वरूपनो तिरोभाव थाय त्यारे ज बाह्य अनुसन्धान थाय तेथी प्रभुस्वरूपनुं हृदयमां अनुसन्धान तिरोहित थवाथी मुख्य प्राणनो कारणमां लय थयो. प्राणनो लय थवाथी मरण थाय तेथी प्राणरूपे प्रभुनुं स्वरूप आविर्भाव पाम्युं त्यारे सर्व बाह्य दृश्यमान स्वरूपथी थया. प्रभुनां दर्शन थतां बालक ध्रुवजीने घणुं कुतुहल थयुं; प्रेमथी अधीरा थई गया. पृथ्वी उपर दण्डनी माफक लेटी प्रणाम कर्या. पछी ए प्रमाणे प्रेम नीगळती दृष्टिथी ते प्रभु तरफ जोवा लाग्या के जाणे नेत्रोथी आपने पी जशे, मुखथी चूमी लेशे अने भूजाओमां भीडी लेशे ॥३॥

एना तेमज सर्वना हृदयमां वास करी रहेला भगवाने जोयुं के ए हाथ जोडी ऊभेलो बाळक स्तुति करवा माङ्गे छे पण केम करवी ए जाणतो नथी. तेथी दया लावी एना गालने पोतानो वेदरूप शङ्ख अडाड्यो ॥४॥

वेदरूप वाणी मळवाथी जीवात्मा अने परमात्मानो निर्णय तरत ज एना जाणवामां आवी गयो अने ध्रुवजी भक्तिभावथी विश्वविख्यात कीर्तिवाळा भगवाननी धैर्यपूर्वक स्तुति करवा लाग्या ॥५॥

ध्रुवजी बोल्या - सर्व शक्ति सम्पन्न आप मारा हृदयमां प्रवेश करी बन्ध पडी गयेली मारी कुण्ठित वाणीने तथा बीजी हाथ, पग, कान अने त्वचा वगेरे इन्द्रियोने पण पोतानी चैतन्यशक्तिथी जाग्रत करो छो तेवा अन्तर्यामीरूप आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥६॥

हे भगवान्‌! आप एक ज छो छतां घणा गुणवाळी आपनी मायारूप शक्तिथी आ महत्तत्त्व वगेरे सर्व जगत्‌ने उत्पन्न करो छो अने पछी एमां प्रवेश करवाथी जुदा-जुदा लाकडामान्ना अग्निनी पेठे इन्द्रियादि असत्‌ गुणोमां एना अधिष्ठाता देवताओना रूपमां स्थित रहीने अनेकरूप आप देखाओ छो ॥७॥

हे नाथ! आपने शरणे आवेला ब्रह्माजीने पण ज््यारे आपे ज्ञान आप्युं त्यारे सूईने ऊठेला पुरुषनी जेम आ जगत्‌ जोवामां आव्युं हतुं. एटलामाटे हे दीनबन्धु! आपनां चरणारविन्द मुक्त लोकोने पण शरणरूप छे तेने कोई पण कृतज्ञ पुरुष तो भूले ज केम! ॥८॥

प्रभो! आ शब समान शरीरथी भोगवातां इन्द्रियो अने विषयोना संसर्गथी उत्पन्न थतां सुख तो मनुष्योने नरकमां पण मळी शके छे. जे लोको आ विषयसुखने४३२ अध्याय-९, चतुर्थस्कन्ध माटे लालायित रहे छे अने जे जन्म मरणनी जञ्जाळथी छोडावनार कल्पतरुस्वरूप आपनी भक्ति भगवत्प्राप्ति सिवाय बीजा हेतुथी करे छे एमनी बुद्धि चोक्क्‌स आपनी मायाद्वारा ठगाई गई छे ॥९॥

आपना चरणारविन्दना ध्यानथी के आपना भक्तोनी कथा साम्भळवाथी प्राणीओने जे सुख थाय छे ते सुख आनन्दरूप परब्रह्ममां पण मळतुं नथी तो पछी काळनी तलवार जेने कापी नाखे छे ते स्वर्गीय विमानोमान्थी गबडी पडता पुरुषोने तो ते सुख मळी शके ज क््यान्थी? ॥१०॥

हे अनन्त! मने तो निर्मळ अन्तःकरणवाळा अने निरन्तर आपनी भक्ति करता महात्मा भक्तोनो सङ्ग मळजो. एमना सत्सङ्गमां आपना गुणो अने लीलाओनी कथासुधानुं पान करी-करीने हुं उन्मत्त थई जईश अने सहजमां घणां कष्टथी भरेला भयङ्कर संसाररूप समुद्रनो पार पामीश ॥११॥

हे कमलनाभ प्रभु! आपना चरणारविन्दनी सुगन्धमां जे भक्तो लुब्धाया होय तेमनो सङ्ग सेवनारा पोताने अत्यन्त प्रिय एवा आ मनुष्यदेहनुं अने एने वळगेलां पुत्र, सम्बन्धी, घर, धन तथा स्त्रीओनुं स्मरण पण करता नथी ॥१२॥

हे अजन्मा! पशु, झाड, पर्वत, पक्षी, सापोलियां, देव, दैत्य अने मनुष्य वगेरेथी परिपूर्ण महत्तत्त्वादि अनेक कारणवाळुं अने सदसद्‌ अनेक भेदवाळुं जे आपनुं स्थूल विश्वरूप छे तेने ज जाणुं छुं, परन्तु एनाथी पर परब्रह्मस्वरूप जेमां वाणीनी पण गति नथी तेने हुं जाणतो नथी ॥१३॥

भगवान्‌! कल्पना अन्ते योगनिद्रामां स्थित जे परमपुरुष आ सम्पूर्ण विश्वने पोताना उदरमां लीन करी शेषजीनी साथे एमनी ज गोदमां शयन करे छे तथा जेना नाभिसमुद्रथी प्रकट थयेल सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमलथी परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न थया ते भगवान्‌ आप ज छो. हुं आपने प्रणाम करुं छुम् ॥१४॥

नित्यमुक्त, शुद्ध अने ज्ञानस्वरूप आत्मा अविनाशी आदिपुरुष भगवान्‌ अने त्रणे लोकना अने त्रणेय गुणोना अधीश्वर आप जीवथी जुदा प्रकारना ज छो. द्रष्टा रहीने आप ते-ते बुद्धिनी अवस्थाओ ए अखण्डित चैतन्यशक्तिवडे जाणो छो. आप ज पालन करवामाटे विष्णुरूप थया छो ॥१५॥

जेमान्थी एक बीजाथी विरुद्ध जनारी विद्या अने अविद्या वगेरे अनेक शक्तिओ क्रमे करी निरन्तर प्रकट थती रहे छे. ते एक जगत्‌ने उत्पन्न करनार एक अखण्ड४३३ अध्याय-९,चतुर्थस्कन्ध अनादि, अनन्त, आनन्दमय, निर्विकार ब्रह्मस्वरूप छो. हुं आपने शरणे आव्यो छुं ॥१६॥

आप ज पुरुषार्थरूप छो एम जाणी जो सर्व पुरुषार्थरूप कोईनुं चरणारविन्द निष्कामपणे भजन अर्थे होय तो खरेखर राज््यादि वैभव अने ऐश्वर्य करतां फलरूप आपनुं ए चरणारविन्द ज छे. तेनी पण हे स्वामी! ताजी वियायेली गाय जेम वाछडाने धवडावे छे अने व्याघ्रादिथी रक्षा करे तेम अनुग्रहथी परवश थईने अम दीन लोकनी आप रक्षा करो छो ॥१७॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे शुभ सङ्कल्पवाळा अने बुद्धिमान ध्रुवे स्तुति करी त्यारे भक्तवत्सल भगवाने एने अभिनन्दन आप्या अने आ प्रमाणे बोल्या ॥१८॥

भगवाने कह्युं - हे उत्तम व्रतनुं पालन करनार राजकुमार! तारुं कल्याण थाओ. ते मनमां जे धार्यु छे ते हुं जाणुं छुं. जो के ए अति दुर्लभ छे तो पण हुं तने ए आपुं छुम् ॥१९॥

भद्र! हुं तने जे तेजोमय अविचळ स्थितिवाळुं अने बीजाओए हजु सुधी प्राप्त नहि करेलुं तेवुं स्थानक आपुं छुं. ए स्थानकमां हालरामां बळदो बन्धाई फरे तेम ग्रह नक्षत्र अने ताराओनुं चक्र बन्धाई रहेलुं छे ॥२०॥

धर्म अग्नि, कश्यप, इन्द्र अने ताराओ सहित सप्तर्षिओ एनी प्रदक्षिणा करता फर्या करे छे अने ए त्रण लोकना प्रलय वखते पण नाश पामतुं नथी ॥२१॥

अर्ही पण तारा पिता तने राज्य आपी वनमां जशे त्यारपछी तुं छत्रीश हजार वर्ष सुधी धर्मनी मर्यादापूर्वक पृथ्वीनुं पालन करीश. तारी इन्द्रियोनी शक्ति जेमनी तेम अकबन्ध रहेशे ॥२२॥

आगळ उपर एक वखत तारो भाई उत्तम मृगयामां मरण पामतां तारी सावकी मा एने शोधवा वनमां जई पुत्रप्रेममां पागल थई दावाग्निमां प्रवेश करशे ॥२३॥

यज्ञ मारी मूर्ति छे. घणी दक्षिणावाळा यज्ञोथी मारुं पूजन करी अने मनुष्यलोकमां उत्तम-उत्तम भोग भोगवी अन्ते तुं मारुं स्मरण करीश ॥२४॥

आथी सर्व लोको जेने नमस्कार करे छे अने जे सप्तर्षिओनी उपर रहेलो छे ते मारा निजधामने तुं पामीश. त्यां गया पछी संसारनो फेरो रहेतो नथी ॥२५॥४३४ अध्याय-९, चतुर्थस्कन्ध मैत्रेय कह्युं - ए प्रमाणे गरुडध्वज भगवाने ए बाळकने पोतानुं स्थानक आप्युं, पछी ए ध्रुव जोई रह्या एवी रीते पोते पोताना धाममां पधार्या ॥२६॥

भगवानना चरणनी सेवाथी सघळी तृष्णानी जेमां समाप्ति छे तेवो मनोरथ पामीने पण ध्रुवजी अत्यन्त राजी थया नहि अने ए पोताना पुर तरफ गया ॥२७॥

विदुरजीए पुछ्‌युं - जे मायापति भगवाननुं परम पद तो घणुं ज दुर्लभ छे तेने ध्रुवे एक जन्ममां ज एमनां चरणनी पूजाथी मेळव्युं, आम छतां जाणे पोते अकृतार्थ होय एवुं एणे शामाटे मान्युं? ॥२८॥

मैत्रेये कह्युं - सावकी मानां वचनरूपी बाणोथी ध्रुव र्वीधाया हता अने ए बाणोनुं स्मरण करतां-करतां भगवान्‌ पासेथी ए मुक्ति मागी शक््या नहि; वर मागती वखते ए अवमान स्मरणमां हतुं. प्रभुना दर्शनथी मनोमालिन्य मरी परवार्यु तो तेने पोतानी भूल समजाई तेथी एने पस्तावो थयो ॥२९॥

ध्रुव मनमां बोल्या - सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारीओ पण अनेक जन्मोमां समाधि करी एमना पदने प्राप्त करी शके छे ते भगवानना चरणोनी छाया हुं छ महिनामाञ्ज पाम्यो छतां चित्तमां बीजी वासना वसेली होवाथी हुं पुनः दूर फेङ्काई गयो ॥३०॥

अररर! हुं खरेखर हतभागी छुं. मारी जडसाई तो जुओ, हुं पहोञ्च्यो तो ठेठ प्रभुनां पादपद्मो सुधी जे पादपद्मो संसारनी बेडीओ झट दईने तोडी नाखे छे पण मागी में नाशवन्त वस्तु ज ॥३१॥

देवताओने स्वर्गभोग पछी फरी नीचे पटकावानुं होय छे तेथी मारी भगवत्प्राप्तिरूप उच्चतर स्थान तेओनी आङ्खमां खूञ्च्युं अने माटेज तेओए मारी बुद्धिने भ्रष्ट करी दीधी. तेथी तो में मूर्खाए नारदजीनी साची वातने पण नकारी काढी ॥३२॥

भगवाननी मायामां सूता पडेलानी पेठे हुं बीजुं सघळुं स्वपनवत्‌ मिथ्या छे एवुं देखु छुं तो पण भाईने शत्रु गणवारूप हृदय रोगथी बळी रह्यो छुम् ॥३३॥

मरवा पडेलानी चिकित्सानी पेठे आ मारुं मागवुं नकामुं गयुं, कारण के घणा तपथी पण प्रसन्न न थाय तेवा, संसारने छेदनार परमेश्वरने प्रसन्न कर्या छतां पण कमनसीबने लीधे में संसार ज माग्यो ॥३४॥

जेम कोई कङ्गाळ माणस चक्रवर्ती सम्राटने प्रसन्न करी तेनी पासे फोतरांवाळी४३५ अध्याय-९,चतुर्थस्कन्ध चोखानी कणकी मागे तेवी रीते ओछा पुण्यवाळाए मोक्ष आपनार भगवान्‌ पासेथी मूर्खपणाने लीधे अभिमान वधारनार उच्चपदादि ज माग्युम् ॥३५॥

मैत्रेये कह्युं - हे विदुरजी! तमारी माफक जे लोको श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्दना ज मधुकर छे, जे निरन्तर प्रभुनी चरणरजनुञ्ज सेवन करे छे अने जेनुं मन पोतानी मेळेआकार लेती बधी परिस्थितिओमां सन्तुष्ट रहे छे ते भगवाननी पासे एमनी सेवा सिवाय पोताने माटे कोई चीज मागता नथी ॥३६॥

मर्या पछी कोई पाछो आवे ते वात जेम मानवामां न आवे तेम पुत्रने आवेलो साम्भळी प्रथम तो उत्तानपाद राजाना मान्यामां आव्युं नहि. एणे कह्युं के मारा जेवा अभागियानुं एवुं भाग्य क््यान्थी? ॥३७॥

पण पछी नारदजीनां वचन याद आव्यां त्यारे विश्वास आव्यो. आनन्दथी अधीरा राजाए वधामणी लावनारने प्रीतिथी महामूलो हार आप्यो ॥३८॥

पुत्रने जोवाने थनगनी रहेला राजा उत्तानपाद सुवर्ण जडित पाणीदार घोडावाळा रथमां बेठो अने ब्राह्मणो, कुळना वृद्ध पुरुषो, मन्त्रीओ अने बन्धुओनी साथे शङ्ख, दुन्दुभि अने वेणु आदि मङ्गलवाद्योना घोष साथे धडाकाबन्ध नगरमान्थी नीकळ्या ॥३९-४०॥

राजानी राणीओ सुनीति अने सुरुचि पण सुवर्णमय शृङ्गार सजी उत्तमकुमारनी साथे पालखीमां बेसी सामैयामां गई ॥४१॥

ध्रुवने वाडीनी पासे आवेला जोई प्रेमथी विह्‌वल थयेला अने लाम्बा दिवसनी उत्कण्ठावाळा राजा झटपट रथमान्थी नीचे उतरी पड्या अने हाम्फतां-हाम्फतां पासे जईने हाथवडे एणे एने बाथमां घाली लीधा ॥४२-४३॥

राजा उत्तानपादनो एक बहु ज मोटो मनोरथ साकार थयो, फरी-फरी पुत्रनुं सिर सूङ्घ्युं अने ठण्डां-ठण्डां प्रेमाश्रुओथी एमने नवडावी दीधा ॥४४॥

सत्कार पामेला अने सज्जनोमां अग्रणी ध्रुवे पिताने प्रणाम कर्या अने एमना आशीर्वाद लई तथा एमनी साथे वातचीत करी बन्ने माताओने प्रणाम कर्या ॥४५॥

सुरुचिए पगमां पडेला ए बाळकने हृदय सरसो चाम्प्यो अने आंसुथी गद्‌-गद वाणीवडे ‘‘चिरं जीव! चिरञ्जीवी रहो’’ एम कह्युम् ॥४६॥

जेना उपर मैत्री वगेरे गुणोथी भगवान्‌ प्रसन्न थया होय तेने, जेम जळ४३६ अध्याय-९, चतुर्थस्कन्ध नीची जग्यामां वहे तेम, सर्व प्राणीओ पोतानी मेळे ज नमे छे ॥४७॥

बीजी बाजु प्रेमथी विह्‌वल थयेला उत्तमकुमारे अने ध्रुवे एकबीजाने आलिङ्गन कर्युं त्यारे एक-बीजानो स्पर्श थतां बन्नेनां रुवाडां ऊभां थई गयां अने वारंवार आंसुनी धारा चालवा लागी ॥४८॥

पोताना प्राणथी पण प्यारा ध्रुवनी माता सुनीतिए पुत्रने गळे लगाव्यो. एना अङ्गना स्पर्शथी परम सुख पामी अने एनी सघळी चिन्ता चूर थई गई॥४९॥

वीरवर विदुरजी! वीरमाता सुनीतिनां स्तन एनां नेत्रोमान्थी ददडतां मङ्गलमय आंसुओथी र्भीजाई गया अने तेमान्थी वारंवार दूध स्रववा लाग्युम् ॥५०॥

ए वखते नागरिको एमनी प्रशंसा करतां कहेवा लाग्या, ‘‘महाराणीजी, आपना लाल घणा दिवसोथी गुम थई गया हता. सौभाग्यवश ए पाछा आव्या. ते अमारां दुःख दूर करनारा छे. बहु वर्षो सुधी ए पृथ्वी उपर राज करशे ॥५१॥

आपे अवश्य शरणागत भयभञ्जन श्रीहरिनुं पूरुं पूजन कर्युं छे के जेनुं ध्यान करनारा, वीर पुरुषोथी जीती शकाय नहि तेवा मृत्युने पण जीती ले छे’’ ॥५२॥

एवी रीते लोको जेने लाड-लडावता हता ते ध्रुवने तथा उत्तमकुमारने हाथणी उपर बेसाडी राजी थयेला अने प्रशंसा पामता उत्तानपाद राजा पोताना नगरमां पधार्या ॥५३॥

नगरमां चारे बाजु मगरना आकारना सुन्दर दरवाजा बनाव्या हता. फळ अने माञ्जरवाळा केळना थम्भ तथा नानां-नानां सोपारीनां झाड शोभी रह्यां हताम् ॥५४॥

प्रत्येक द्वारे आम्बानां पान, वस्त्र, फूलनी माळा, मोतीनी माळाओथी शणगारेला जळना कुम्भो अने दीपको शोभी रह्यां हताम् ॥५५॥

विमानोनां शिखरोनी माफक शोभतां अने सोनानी सामग्रीवाळां गढ, दरवाजा अने मकानो बधी बाजूए झळाम्मळां थई रह्या हताम् ॥५६॥

नगरना चोक, गलीओ, मार्गो अने अटारीओ स्वच्छ हतां. चन्दन, धाणी, चोखा, फूल, फळ, जव अने बीजी भेटनी वस्तुओ साजी राखी हती ॥५७॥

राजमार्गे स्थळे-स्थळे नगरनी स्त्रीओ ध्रुव उपर सफेद सरसव, अक्षत, दर्ही, जव, ध्रो, फूल अने फळोनी वर्षा करवा लागी अने प्रेमथी तेने आशीर्वाद देवा लागी. ए स्त्रीओनां सुन्दर गीत साम्भळतां ध्रुवे पिताना महेलमां प्रवेश कर्यो ॥५८-५९॥

पिताए अत्यन्त लाड लडावेला ध्रुवजी अनेक मोटा मणिओथी जडेला ए४३७ अध्याय-९,चतुर्थस्कन्ध उत्तम महालयमां स्वर्गना देवनी पेठे निवास करी रह्या ॥६०॥

त्यां दूधना फीण जेवी सफेद अने कोमल शय्याओ, हाथी दान्तना पलङ्ग, सोनेरी बुट्टादार पडदा, बहुमूल्य सिङ्घासन, चोकी, आसन्द अने घणो सुवर्णनो सामान हतो ॥६१॥

मोटा मरकतमणिओथी जडेली स्फटिकमणिनी भीतोमां उत्तम स्त्रीओनी पूतळीओ उपर मूकेला मणिना दीवा झळहळी रह्या हता ॥६२॥

रमणीय बगीचाओमां विवित्र दिव्य वृक्षो उपर पक्षीओनां जोडां कलरव करी रह्यां हतां. मदोन्मत्त भमरा गुञ्जारव करी रह्या हता ॥६३॥

बगीचाओमां वैदुर्यमणिनां पगथियांवाळी अने जातजातनां कमळोवाळी वावडीओमां हंस, कारण्डव, चकवाक अने सारस पक्षीओ कल्लोल करी रह्यां हतां॥६४॥

राजर्षि उत्तानपादे पोताना पुत्रना अत्यन्त अद्भुत प्रभावनी वात देवर्षि नारदजीना मुखेथी साम्भळी तो हती ज; हवे ए प्रत्यक्ष जोई एमने खूब आश्चर्य थयुम् ॥६५॥

पछी तरुण थयेला ध्रुवनी उपर मन्त्रीओनो आदर अने प्रजानो अनुराग जोई उत्तानपाद राजाए एनो राज््याभिषेक कर्यो ॥६६॥

आत्मानं च प्रवयसमाकलय्य विशाम्पतिः ॥ वनं विरक्तः प्रातिष्ठद्विमृशन्नात्मनो गतिम्‌ ॥६७॥

पछी पोताने वृद्ध अवस्था आवेली जोईने वैराग्य पामता उत्तानपाद राजा आत्मस्वरूपनो विचार करवा वनमां चाली नीकळ्या ॥६७॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (बीजा अर्थप्रकरणनो साध्यनिरूपण नामे बीजो) ‘‘ध्रुवे भगवाननी स्तुति करी वरदान प्राप्त करी पाछा राज्य कर्युं’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दीक्षा आपनाराओ! सावधान!! दीक्षा लेवा आवनारनी योग्यतानो सोवार विचार कर्या पछी योग्य (पुष्टि)जीवनेज दीक्षा आपजो. अविचारित पणे (टकेशेर भाजी टकेशेर खाजा नी माफक) दीक्षा आपनारनो सर्वनाश थाय छे (श्रीगुसांईजी).

ईं उं ईं उं

[[४३८]]

अध्याय १०

पोताना भाईने मारनार यक्षोनो ध्रुवजीए नाश कर्यो

विशेष - आ दशमा अध्यायमां ध्रुवे एकला ज अलका पुरीमां जईने पोताना भाईने मारनारा यक्षोनो वध करी पराक्रम कर्यानी कथा अने राज्य करवाथी अनेक अनर्थो करवा पडे छे तेनुं निरूपण छे. प्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै धुवः ॥ उपयेमे भ्रमिं नाम तत्सुतौ कल्पवत्सरौ ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ध्रुवजी शिशुमार प्रजापतिनी पुत्री भ्रमिने परण्या हता तेने कल्प अने वत्सर नामना बे पुत्र थया; महाबली ध्रुवजीनी बीजी स्त्री हती वायुपुत्री ईला. तेनाथी उत्कल नामनो पुत्र अने एक रत्न जेवी कन्या थयाम् ॥१-२॥

उत्तमनो हजु विवाह तो थयो न हतो. त्यां ज एक वखत शिकार करता तेने हिमालय पर्वतमां कोई बळवान यक्षे मारी नाख्यो तेथी एनी मा सुरुचि पण एनी पाछळ सिधारी गई ॥३॥

भाईनो वध थयो छे एवुं साम्भळी ध्रुवजीने कोप, उद्वेग अने शोक व्यापी ऊठ्यां अने ए विजयरथमां बेसीने अलकापुरी जई पहोञ्च्या ॥४॥

उत्तर दिशामां जईने हिमालयनी खीणमां रुद्रना अनुचरो यक्षोने रहेवानी अलकापुरी नगरीने एणे जोई ॥५॥

त्यां महापराक्रमी ध्रुवे आकाश अने दिशाओने गजवी मूके तेवो शङ्खनाद कर्यो; एनाथी स्त्रीओ चोङ्की ऊठी अने तेमनी आङ्खो चकर-वकर थवा लागी ॥६॥

पछी बळवान यक्षो ए नादने सहन नहि करतां नगरीमान्थी बहार हथियारो उपाडी युद्ध करवाने धसी आव्या ॥७॥

अने ध्रुवजी उपर तूटी पड्या. तरत ज प्रचण्ड धनुर्धर महारथी ध्रुवे ए सघळाओमान्ना प्रत्येक जणने एकी वखते त्रण-त्रण बाण मार्या ॥८॥

ललाटमां लागेला बाणोथी ए बधा यक्षो पोतानो पराजय थयो मानी ध्रुवजीना पराक्रमनां वखाण करवा लाग्या ॥९॥

जेम सर्पो पगनो स्पर्श सहन न करे तेम ध्रुवना पराक्रमने सहन नहि करता अने बदलो वाळवाने इच्छता ए यक्षोए एकदम ध्रुवजीने छ-छ बाणथी र्वीधी४३९ अध्याय-१०,चतुर्थस्कन्ध नाख्या ॥१०॥

ए पछी एक लाख अने त्रीस हजार यक्षोए कोप करी ध्रुव, ध्रुवना रथ अने सारथि उपर भोगळ, खड्‌ग, प्रास, त्रिशूळ, फरशी, साङ्ग, ऋष्टि, भुशुण्डी अने विचित्र पाङ्खोवाळां बाणोनी झडी वरसावी ॥११-१२॥

ए समये, जेम वरसादथी सूर्य देखातो बन्ध थई जाय तेम, घणां अस्त्रोना वरसादथी ध्रुवजी ढङ्काई जईने देखाता बन्ध थई गयाम् ॥१३॥

आकाशमां सिद्धगण जोवाने ऊभेला हता तेओ हाहाकार करवा लाग्या - ‘‘आ मानव सूर्य जेवा आ ध्रुव यक्षरूप समुद्रमां डूबीने अस्त थई गया’’ ॥१४॥

युद्धमां पोताना विजयनी घोषणा करता यक्षो गर्जवा लाग्या एटलामां तो जेम झाकळमान्थी सूर्य भगवान्‌ नीकळी आवे तेम बाणोनी जाळमान्थी एनो रथ बहार नीकळी आव्यो ॥१५॥

दिव्य धनुषनो टङ्कार करता अने शत्रुओने खेद आपता ध्रुवे, आन्धी जेम वादळांओने वेरण-छेरण करी नाखे तेम, प्रचण्ड बाणोनी वर्षा करी यक्षोनां अस्त्रोना समूहने र्वीखी नाख्यो ॥१६॥

ध्रुवजीना धनुषमान्थी नीकळेलां तीक्ष्ण बाण यक्षोनां घणां बखतरोने तोडी नाङ्खी, जेम वज्र पर्वतोमां पेसे तेम एओनां शरीरमां घूसी गयाम् ॥१७॥

महाराज ध्रुवजीना बाणोथी कपाई गयेल यक्षोनां सुन्दर कुण्डळवाळां माथां, सोनेरी ताड सरखी साथळ, कङ्कणथी शोभता हाथ, हार, बाजुबन्ध, मुकुट अने घणा मूल्यवाळी पाघडीओए पृथ्वीने ढाङ्की दीधी अने ए पृथ्वी शूर पुरुषोने प्रिय लागे एवी रीते शोभवा लागी ॥१८-१९॥

जे यक्षो जेम-तेम करीने जीतवा रही गया तेओ, ध्रुवजीनां बाणोथी अङ्ग कपाई जवाने कारणे जेम सिंहना पराक्रमथी हाथीओ त्रासीने नासी जाय तेम रणभूमिमान्थी नासी छूट्या ॥२०॥

त्यारे नररत्न ध्रुवे मोटा सङ्ग्राममां कोई पण शस्त्रधारीने जोयो नहि अने ‘‘कपटीओना कर्तव्यनी कोईने खबर न पडे’’ एम होई पोताना सारथि पासे वात करवा लाग्या. एमने शत्रुओनी नगरी जोवानुं मन थयुं तोपण ए नगरीमां गयो नहि ॥२१॥

ए प्रमाणे ध्रुवजी सावधान हता अने शत्रुओ फरीवार आक्रमण करशे एवी४४० अध्याय-१०, चतुर्थस्कन्ध शङ्का राखता हता तेटलामां ज एमने समुद्रनी गर्जना जेवो आन्धीनो भयङ्कर धडाका सम्भळाया अने दिशाओमां ऊडती धूळ पण देखाई ॥२२॥

एक क्षणमां ज वादळान्नी घटाथी चारे बाजुए आकाश घेराई गयुं, वीजळीओ चमकवा लागी. अने चारे तरफ भयङ्कर गडगडाट थवा लाग्या ॥२३॥

हे निष्पाप विदुरजी! रुधिर, कफादिक विष्ठा, मूत्र, परु अने मांसनो वरसाद थवा लाग्यो, आकाशमान्थी माथां विनानां धड ध्रुवजीनी सामे पडवा लाग्याम् ॥२४॥

आकाशमां एक पर्वत देखायो, भोगळ, गदा, खड्‌ग, मुशळ अने पथरानी वृष्टि पडवा लागी ॥२५॥

वज्र जेवा फूम्फाडा मारता अने आङ्खोमान्थी अग्निनी झाळो काढता सर्पो, मदोन्मत्त हाथीओ, सिंह अने वाघोनां टोळेटोळां दोडतां आवी रह्यां छे ॥२६॥

प्रलयकाळनी पेठे ऊञ्चा-ऊञ्चा मोजान्थी चारेकोर धरतीने डूबाडी देतो अने घू-घू करतो भयङ्कर समुद्र एमनी तरफ आगळ वधी रह्यो छे ॥२७॥

ए प्रमाणे क्रूर स्वभाववाळा यक्षोए आसुरी मायाथी कायर पुरुषोने त्रास करनारा अनेक कुतूहल उत्पन्न कर्या ॥२८॥

ध्रुव उपर यक्ष लोकोए जे ए अति दुस्तर माया चलावी हती ते साम्भळीने त्यां केटलाक मुनिओए आवी अने एनेमाटे मङ्गल कामना करी ॥२९॥

मुनिओ बोल्या - हे उत्तानपादना लाल! शांर्गधनुष्यना धरनार अने भक्तजननी पीडा हरनार भगवान्‌ तमारा शत्रुओनो नाश करजो, भगवाननुं तो नाम ज एवुं छे जे श्रवण अने कीर्तन करवा मात्रथी मनुष्य दुस्तर मृत्युना मुखमान्थी अनायासे ज बची जाय छे ॥३०॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (बीजा अर्थप्रकरणमां बीजो) ‘‘पोताना भाईने मारनार यक्षोनो ध्रुवे नाश कर्यो’’ नामनो दसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्‌वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं.

ईं उं ईं उं

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अध्याय ११

यक्षनो नाश करनार ध्रुवजीने स्वायम्भुव मनुए करेलो तत्त्वोपदेश

विशेष - आ अगियारमां अध्यायमां यक्षोनो क्षय थतो जोई स्वायम्भुव मनु आव्या अने एमणे तत्त्वनो उपदेश करी ध्रुवजीने वार्या अने गर्वनो दोष कह्यो ए कथा कहेवामां आवशे. निशम्य गदतामेवमृषीणां धनुषि ध्रुवः ॥ सन्दधेऽस्त्रमुपस्पृश्य यन्नारायणनिर्मितम्‌ ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ऋषिनां वचन साम्भळी आचमन करी ध्रुवजीए नारायणास्त्र पोताना धनुष्य उपर चडाव्युम् ॥१॥

हे विदुरजी! धनुष्य उपर नारायणास्त्र चडावतां ज ज्ञाननो उदय थतां जेम अविद्या जनित कलेश मात्र नाश पामे तेम, यक्षोए रचेली माया तुरत नाश पामी गई ॥२॥

ध्रुवे ऋषिवर नारायणे आविष्कृत ए अस्त्रने धनुष पर चढाव्युं के एमान्थी सुवर्णनी, अणीवाळा अने हंसनी पाङ्खोवाळां बाण सुसवाटा मारतां छूटवा लाग्यां अने जेम मोर वनमां पेसे तेम शत्रुओनां सैन्यमां घूसवा लाग्याम् ॥३॥

ए तीखी धारवाळां बाणोथी उपद्रव पामेला यक्ष लोको जेम सर्पो फेणो ऊञ्ची करी गरुड उपर दोडे तेम हथियारो सम्भाळी युद्धमां चारेबाजुथी ध्रुवजी उपर तूटी पड्या ॥४॥

ज््यारे ए लोको युद्धमां चडी आव्या त्यारे ध्रुवे पोतानां बाणोथी एनां हाथ, साथळ, डोक अने उदर कापी नाखीने एमने परलोकमां मोकली दीधा के ज््यां ऊर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डलने भेदीने जाय छे ॥५॥

ध्रुवे घणा यक्षोने अपराध वगर मारवा माण्ड्यां ए जोईने यक्षो उपर दया आववाथी दादा स्वायम्भुव मनु ऋषिओ सहित त्यां आव्या अने ध्रुवजीने समजाववा लाग्या ॥६॥

मनु बोल्या - बेटा! बस-बस, अधिक क्रोध करवो ठीक नहि ए पापी (क्रोध) नरकनुं द्वार छे. एने वश थई तमे आ निर्दोष यक्षोनो वध कर्यो छे ॥७॥

हे तात (बाळ)! आ निरपराधी यक्षोने मारवानुं काम सत्पुरुषोए धिक्कारेलुं४४२ अध्याय-११, चतुर्थस्कन्ध छे; आपणा कुळने ए शोभतुं नथी ॥८॥

हे बेटा! तारो तारा भाईउपर अपार प्रेम हतो एतो ठीक छे, परन्तु जो एना वधथी ऊकळी ऊठी तें एकयक्षना अपराधना बदलामां प्रसङ्गवश केटलानो कच्चरघाण काढी नाख्यो? ॥९॥

आ जड देहने आत्मा मानी पशुनी पेठे प्राणीओनो संहार करवो ए भगवानने अनुसरनारा साधु लोकोनो मार्ग नथी ॥१०॥

प्रभुनी आराधना करवी घणी ज कठण छे. पण तें तो बचपणमां ज सम्पूर्ण प्राणीओना आश्रयस्थान श्रीहरिनी सर्वभूतात्मभावथी आराधना करी एमनुं परम पद प्राप्त करी लीधुं छे ॥११॥

तने तो प्रभु पण पोतानो लाडीलो भक्त माने छे अने भक्तजनो पण तारो आदर करे छे. साधुजनो माटे तो तुं दीवादाण्डी छो. तो पण तें आवुं निन्दनीय कार्य केम कर्युं ? ॥१२॥

सर्वात्मा श्रीहरि तो पोतानाथी मोटेराओ प्रत्ये सहनशीलता, नानेराओ प्रत्ये दया, बराबरिया साथे मित्रता अने समस्त जीवोनी साथे समता बताववाथी ज प्रसन्न थाय छे ॥१३॥

अने ज््यारे भगवान्‌ प्रसन्न थाय त्यारे इन्द्रियोथी तेमज देहाभिमानथी मुक्त थाय छे अने एने परम सुखरूप ब्रह्मनी प्राप्ति थाय छे ॥१४॥

देहादिमां परिणाम पामेलां पञ्च महाभूतमान्थी ज स्त्री-पुरुष उत्पन्न थाय छे तेमना पारस्परिक समागमथी बीजां स्त्री-पुरुष उत्पन्न थाय छे ॥१५॥

ए प्रमाणे परमात्मानी मायाथी थयेला त्रण गुणोना न्यूनाधिकभाव थवाथी जेम सर्जन चाल्या करे छे ॥१६॥

तेम पञ्चभूतोथी प्राणीओनी स्थिति अने प्रलय थया करे छे; एमां निर्गुण परमात्मा तो हे पुरुष श्रेष्ठ! निमित्त मात्र छे. एना आश्रयथी आ कार्यकारणात्मक जगत्‌ ए ज प्रमाणे फरतुं रहे छे(जेवी रीते लोहचुम्बकना आश्रयथी लोढुं)॥१७॥

कालशक्तिद्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणोमां क्षोभ थवाथी लीलामय भगवाननी शक्ति पण सृष्टि वगेरे रूपमां वहेञ्चाई जाय छे तेथी भगवान्‌ अकर्ता होवा छतां जगतनी रचना करे छे अने संहारक न होवा छतां एनो संहार करे छे. साचुं पूछो तो ए अनन्त प्रभुनी लीला सर्वथा अचिन्तनीय छे ॥१८॥४४३ अध्याय-११,चतुर्थस्कन्ध अविनाशी अने भगवत्शक्तिरूप ए काळ अनन्त छे अने सर्वनो अन्त आणे छे. पोते अनादि (कारण रहित) छे अने सर्वना आदि (कारण)ने उत्पन्न करे छे. ए ज एक जीवद्वारा बीजा जीवने उत्पन्न करी संसारनी सृष्टि करे छे अने मृत्युद्वारा मारवावाळाने पण मरावीने एनो संहार करे छे ॥१९॥

सर्व प्रजाओमां एकरूपे प्रवेश करता ए मृत्युरूप काळने कोई पोतानो के कोई परायो नथी. फूङ्काता पवन साथे जेम धूळ ऊडे छे तेमज बधा ज जीव पोताना कर्मोने अधीन थईने कालनी गतिने अनुसरे छे पोतपोतानां कर्म प्रमाणे सुखदुःखादि फल भोगवे छे ॥२०॥

सर्व समर्थ श्रीहरि कर्मबन्धनमां बन्धायेला जीवना आयुनी वृद्धि अने क्षयनी व्यवस्था करे छे, परन्तु पोते ए बेउथी रहित अने पोताना स्वरूपमां ज स्थित छे ॥२१॥

राजन्‌! आ परमात्माने ज मीमांसक लोको कर्म कहे छे, चार्वाक स्वभाव कहे छे, वैशेषिक मनवाळा काळ कहे छे, ज््योतिषी दैव अने कामशास्त्री काम कहे छे ॥२२॥

ए ईश्वर जाणवामां के मापवामां आवी शके एवा नथी. महदादि सर्व पदार्थ एमान्थी ज प्रकट थयेल छे. ए शुं करवा धारे छे ए कोई पण जाणी शकतुं नथी त्यारे पोताना मूल कारण ए ईश्वरने तो कोण ज जाणी शके? ॥२३॥

हे पुत्र! आ यक्षलोको तारा भाईने मारनार छे एम समजवुं नहि केमके माणसना जन्म-मरणनुं कारण दैव (ईश्वर) ज छे ॥२४॥

ए ईश्वर ज जगतने सरजे छे, पाळे छे अने मारे छे तो पण निरहङ्कार होवाथी एना सम्बन्धना गुणथी अने कर्मथी लेपाता नथी ॥२५॥

ए निरहङ्कार रहे छे एनुं कारण ए छे के लोकोना अन्तर्यामी, नियन्ता, रक्षक ईश्वर ज पोतानी माया शक्तियुक्त सृष्टि, स्थिति अने प्रलय करे छे ॥२६॥

हे तात! (पुत्र) भक्तोने पाळनार, अभक्तोने काळरूप अने जगतना आश्रयरूप ए ईश्वरनुं ज शरण ले. एणे पोताना नियमोथी बान्धी लीधेला प्रजापतिओ पण नाथेला बळदनी पेठे एणे करायेलुं काम करे छे ॥२७॥

एनुं आराधन करवुं तमारेमाटे तो सुगम छे. तमे पाञ्च ज वर्षना हता त्यारे सावकी माताना वाग्बाणोथी घायल थई मानी गोदने छोडी वनमां जई तपश्चर्याथी भगवानने प्रसन्न कर्या अने तेम करी त्रैलोक््यनी उपरनुं ध्रुवपद पाम्या छो ॥२८॥४४४ चतुर्थस्कन्ध हे पुत्र! कलेशरहित, निर्गुण, एक, अविनाशी अने मनमां वास करी रहेल ए ईश्वरने ज तुं मुक्त अने अन्तर्द्रष्टा थईने शोध. ए ईश्वरमां भेदभावमय प्रपञ्च न होवा छतां देखाय छे ॥२९॥

शोधती वखते ज जो अनन्त, आनन्दमय, सर्वशक्तियुक्त अने अन्तर्दृष्टि थी जणाय तेवा ए ईश्वरनी परम भक्ति थाय तो ‘हुं’ अने ‘मारुं’ एवा प्रकारे जामी गयेली अज्ञाननी गाण्ठ धीरे-धीरे तूटी जशे ॥३०॥

हे राजा! जेम ओसडथी रोगनुं निवारण करवामां आवे तेम में कहेलुं साम्भळी तेना उपर विचार करी कल्याणना वेरीरूप क्रोधनुं शमन कर; तारुं मङ्गल थशे ॥३१॥

क्रोधे जेनो कबजो लीधो छे तेवा माणसथी लोकोने बहु उद्वेग थाय छे; माटे जे समजु पुरुष पोताने निर्भय करवा इच्छतो होय तेणे क्रोधने वश थवुं जोईए नहि ॥३२॥

यक्षोए मारा भाईने मार्यो छे एम समजी क्रोधने लीधे यक्षोने मार्या ए तें महादेवजीना सखा कुबेरजीनो अपराध कर्यो छे ॥३३॥

माटे हे लाल! ए महात्मानुं तेज आपणा कुळने आक्रान्त करी दे ए पहेलां नम्रताथी अने विनयनां वचनोथी एमने तुरत प्रसन्न करी ले ॥३४॥

एवं स्वायम्भुवः पौत्रमनुशास्य मनुर्ध्रुवम्‌ ॥ तेनाभिवन्दितः साकमृषिभिः स्वपुरं ययौ ॥३५॥

ए प्रमाणे पोताना पौत्र ध्रुवने शिखामण दीधा पछी ध्रुवे एमने नमस्कार कर्या अने स्वयम्भुव मनु ऋषिओनी साथे पोताना पूरमां चाल्या गया ॥३५॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (बीजा अर्थ प्रकरणमां चोथो) ‘‘यक्षनो नाश करनार ध्रुवजीने स्वायम्भुव मनुए करेलो तत्त्वोपदेश’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘जलार्थमेव गर्तास्तु नीचा गानोपजीविनः’’ ‘‘प्रभुनी कथा-कीर्तन करीने आजीविका चलावनार अधम वक्ताओना मनोभावो गटरना गन्दा पाणी जेवा होय छे’’. (जलभेद, श्रीवल्लभाचार्य) आवा अधम वक्ताओना मुखे भागवत कथा-कीर्तन साम्भळवा ए गटरनुं पाणी पीवा जेवी बीभत्स रुचि छे.

ईं उं ईं उं

अध्याय-११,४४५ चतुर्थस्कन्ध

अध्याय १२

यज्ञोथी भगवाननुं पूजन करी ध्रुवजी विष्णुपद पाम्या

विशेष - आ बारमा अध्यायमां कुबेरजीए सत्कार करेला अने पोताना नगरमां आवेला ध्रुव यज्ञोथी भगवाननुं पूजन करी. पोताना स्थान विष्णुपदने पाम्या; ए कथा कहेवाशे. ध्रुवं निवृत्तं प्रतिबुद्धय वैशसादपेतमन्युं भगवान्‌ धनेश्वरः ॥ तत्रागतश्चारणयक्षकिन्नरैः संस्तूयमानोऽभ्यवदत्कृताञ्जलिम्‌ ॥१॥

मैत्रेय कह्युं - ध्रुवनो क्रोध ऊतरी गयो. एमणे यक्षोने मारवानी प्रवृत्ति बन्ध करी एवुं जाणी. चारण, यक्ष तथा किन्नरो जेमनी स्तुति करता हता तेवा कुबेरजी त्यां आव्या अने एमणे हाथ जोडी ऊभेला ध्रुवने कह्युम् ॥१॥

कुबेरजीए कह्युं - हे शुद्ध हृदय क्षत्रियकुमार! तमे दादानी आज्ञाथी कट्टर वेर मूकी दीधुं. तेथी हुं तमारी उपर बहु ज प्रसन्न थयो छुम् ॥२॥

वास्तवमां नथी तो तमे यक्षोने मार्या के नथी यक्षोए तमारा भाईने. प्राणीओनां जन्म-मरणनुं कारण तो समर्थ काळ ज छे ॥३॥

आ हुं तुं आदि मिथ्या बुद्धि तो जीवने अज्ञानवशात्‌ स्वपननी समान शरीर वगेरेने ज आत्मा मानी लेवाथी उत्पन्न थाय छे. एनाथी ज मनुष्यने बन्धन अने दुःखादि विपरीत अवस्थाओनी प्राप्ति थाय छे ॥४॥

एटलामाटे हे ध्रुव! हवे तमे जाओ. भगवान्‌ तमारुं मङ्गल करे. तमे संसारपाशथी छूटवामाटे बधा जीवोमां समदृष्टि राखी, सर्व प्राणीमां बिराजी रहेला भगवान्‌ श्रीहरिनुं भजन करो. ए संसारपाशने छेदी नाखनारा छे तथा संसारनी उत्पत्ति आदिने माटे पोतानी त्रिगुणात्मिका मायाथी युक्त थईने पण वास्तवमां एनाथी रहित छे. एमनां चरणकमळ ज बधाम्माटे भजन करवा योग्य छे ॥५-६॥

हे उत्तानपादना पुत्र! तमारा मनमां जे इच्छा होय ते निसङ्कोच अने निःशङ्क थईने मागी लो. तमे भगवानना चरणनी निकटमां रहेनार छो एवुं अमे साम्भळ्युं छे. तेथी वरदान देवाने योग्य छो ॥७॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे यक्षराज कुबेरजीए वर मागवानो आग्रह कर्यो. त्यारे महावैष्णव महामति ध्रुवे भगवाननुं स्मरण अविचळ रहे एवुं माग्युं. जेनाथी अनायासे दुस्तर संसाररूप घोर सागरने तरी जवाय छे ॥८॥

अध्याय-१२,४४६ चतुर्थस्कन्ध ईडविडाना पुत्र कुबेरजी प्रसन्न अन्तःकरणथी एने ए प्रमाणे वरदान आपी एना देखतां अन्तर्धान थई गया अने ध्रुव पोतानी राजधानीमां आव्या ॥९॥

राजधानीमां आवी ध्रुवे घणा दक्षिणावाळा यज्ञोथी भगवाननी पूजा करी. भगवान्‌ ज यज्ञना पदार्थ. क्रिया. देवोना फळरूप कर्म अने कर्मनां फळ आपनार छे ॥१०॥

सर्वरूप अने सर्व उपाधि रहित भगवाननी तीव्र भक्ति करवाथी ध्रुवने भगवान्‌ पोतामां अने सर्वमां बिराजी रहेला जोवामां आव्या ॥११॥

ए प्रमाणे सुशील. ब्राह्मणोनो सत्कार करनार. दीन उपर प्रीति राखनार अने धर्मनी मर्यादाओनी रक्षा करनार ध्रुवने सघळी प्रजा साक्षात्‌ पोताना पितारूप मानती हती ॥१२॥

ध्रुवे तरेहदार ऐश्वर्य भोगथी पुण्यनो अने भोगोना त्याग पूर्वक यज्ञादि कर्मोना अनुष्ठानथी पापनो क्षय कर्यो अने एम करतां-करतां छत्रीश हजार वर्ष सुधी पृथ्वीनुं राज्य कर्युम् ॥१३॥

ए रीते जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुवे घणो काळ धर्म. अर्थ अने कामना उपयोगमां गाळ्यो अने पछी पोताना पुत्र उत्कलने राज्यासन आपी दीधुम् ॥१४॥

आ सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्चने अविद्यारचित स्वपन अने गन्धर्वनगरनी माफक मायाथी पोतामां ज कल्पित मानीने अने एम समजीने के शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भर्या-भादर्या खजाना, जनानी महेल, सुरम्य विहारभूमि अने समुद्रपर्यत भूमण्डलनुं राज्य आ बधुं कालनो एक ज कोळियो छे एम समजीने ते बदरिकाश्रम तरफ चाली नीकळ्या ॥१५-१६॥

त्यां पवित्र जळमां नाही, इन्द्रियोने निर्दोष(शान्त) करी, आसन वाळी, प्राणायाम करी तथा मनवडे इन्द्रियोने विषयमां जती रोकीने ए भगवानना स्थूळ विराट स्वरूपनुं ध्यान करवा लाग्या. अने ध्यानद्वारा ध्याता अने ध्येय ना भेदथी शून्य निर्विकल्प समाधिमां लीन थई गया अने अन्ते स्थूळ रूपना ध्याननो पण त्याग कर्यो ॥१७॥

निरन्तर भगवान्‌मां भक्तिनो प्रवाह वहेतां आनन्दथी आवतां अश्रुने लीधे वारंवार द्रवीभूत थई जतां शरीरमां रोमाञ्च थतो अने देहाभिमानथी मुक्त थयेला ध्रुवने पोताना शरीरनुं पण ‘‘हुं ध्रुव छुं’’ एवुं स्मरण सुध्धां न रह्युम् ॥१८॥

अध्याय-१२,४४७ चतुर्थस्कन्ध ए ध्रुवे पूर्णिमाना ऊगेला चन्द्रमानी पेठे दशे दिशाओने झाकझमाळ करतुं एक उत्तम विमान आकाशमान्थी ऊतरतुं दीठुम् ॥१९॥

पछी एमणे तरत ज चार भुजावाळा, श्याम, कीर्तिवाळा, युवान, रातां कमळ सरखां नेत्रवाळां, गदानो टेको लईने ऊभेला, सुन्दर वस्त्रवाळा; अने किरीट, हार, बाजुबन्ध अने कुण्डलो थी शोभता बे पार्षदोने जोया ॥२०॥

एओ भगवानना सेवको छे अने वळी पार्षदोमां पण मुख्य छे एम जाणी ध्रुव हाथ जोडी ऊभा थया अने सम्भ्रमथी पूजानो क्रम भूलाई जतां केवळ भगवाननां नाम लेता एमने प्रणाम कर्या ॥२१॥

ध्रुवजीनुं मन भगवानना चरणकमलोमां तल्लीन थई गयुं अने ते बे हाथ जोडी अत्यन्त नम्रताथी मस्तक नीचुं राखीने ऊभा थई रह्या. त्यारे श्रीहरिना प्रिय पार्षदसुनन्दे अने नन्दे मुस्कातां-मलकातां एनी पासे जई क्ह्युम् ॥२२॥

सुनन्द अने नन्द बोल्या - हे राजा! आपनुं कल्याण थाओ. सावधान थईने अमारुं वचन साम्भळो. आपे पाञ्च वर्षनी वये ज तप करी जे देवने प्रसन्न करेला ते सर्व जगतना नियन्ता भगवानना अमे पार्षदो छीए अने आपने विष्णुधाममां लई जवा अर्ही आव्या छीए ॥२३-२४॥

आपे कोईने न मळे तेवुं विष्णुपद मेळव्युं छे. सप्तर्षिओ पण त्यां सुधी पहोञ्ची न शकवाथी नीचे रहीने एने फक्त जोया करे छे. चन्द्र सूर्य वगेरे ग्रह, नक्षत्र अने ताराओ एनी प्रदक्षिणा कर्या करे छे तेवा ए विष्णुधाममां पधारो ॥२५॥

सर्व जगत्‌ने वन्दनीय तेवा ए विष्णुपदने आपना पूर्वजो के बीजा कोई पण कदी पामी शक्या नथी. त्यां आप पधारी विराजमान हो ॥२६॥

हे आयुष्मान पुण्यश्लोक शिखामणि भगवाने आ उत्तम विमान आपने माटे मोकल्युं छे तेमां आप बिराजो ॥२७॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे भगवानना पार्षदोनी मधुरवाणी साम्भळी ध्रुवे नाही- धोई नित्यकर्म कर्या. शणगार धर्या अने बदरिकाश्रममां रहेता मुनिओने प्रणाम करी तेओना आशीर्वाद मेळव्या ॥२८॥

त्यार पछी ए श्रेष्ठ विमाननी पूजा अने प्रदक्षिणा कर्या. पार्षदोने प्रणाम कर्या अने सुवर्ण समान कान्तिमान दिव्य रूप धारण करी एमां चढवामाटे तैयार थया ॥२९॥

[[४४८]] एटलामां ज ध्रुवजीए जोयुं के मृत्यु मूर्तिमान थईने एमनी सामे ऊभुं छे. त्यारे ते मृत्युना मस्तकउपर पग मूकी ए अद्भुत विमान उपर चढी गया ॥३०॥

ए वखते आकाशमां दुन्दुभि, मृदङ्ग, पणव वगेरे वाजां वागवा लाग्यां. श्रेष्ठ गन्धर्वो गावा लाग्या अने पुष्पनी वृष्टिओ थवा लागी ॥३१॥

स्वर्गलोक उपर चढतां ध्रुवने पोतानी मा सुनीतिनुं स्मरण थयुं - ‘‘मारी बचारी माताने मूकीने हुं एकलो स्वर्गमां जईश?’’ ॥३२॥

ए प्रमाणे एमना मनमां विचार थयो एम जाणी जई पार्षदोए सुनीतिने एमनी पहेलां ज बीजा विमानमां बेसीने जती देखाडी ॥३३॥

एमणे क्रमशः सूर्य आदि बधा ग्रहो जोया. मार्गमां ठेक-ठेकाणे विमानो उपर बिराजेला देवो एनी प्रशंसा करतां-करतां फूलोनी वृष्टि करता जता हता ॥३४॥

ए दिव्य विमानद्वारा त्रैलोक्य अने सप्तर्षिओ ने पाछळ मूकी एनी उपर आवेला विष्णुपदना स्थानकने-अविचल गतिने-ध्रुवजी पाम्या. ए दिव्य धाम पोताना प्रकाशथी ज प्रकाशित छे. एना ज प्रकाशथी त्रणे लोक प्रकाशे छे. प्राणीओ उपर निर्दय रहेनार लोको आ लोकने पामता नथी; त्यां तो तेमनी ज पहोञ्च होय छे जे अहर्निश प्राणीओनां कल्याणने माटे शुभ कर्म ज करता रहे छे ॥३५-३६॥

जे लोको शान्त, समदृष्टि राखनारा, शुद्ध, सर्व प्राणीओने राजी राखनार, भगवद्‌भक्तोने ज पोताना साचा सुहृद माननारा होय छे तेओ ए विष्णुपदने अनायासे ज पामे छे ॥३७॥

ए प्रमाणे महावैष्णव उत्तानपाद राजाना पुत्र ध्रुव जाणे त्रण लोकना मस्तक उपरना निर्मळ मणिनी माफक बिराजमान थईने रह्या ॥३८॥

हे विदुरजी! ध्रुवमां ज परोवायेलुं आ गम्भीर वेगवाळुं ज्योतिष्चक्र हालरामां बळदोनी माफक निरन्तर फर्या करे छे ॥३९॥

भगवान्‌ नारदजीए ए ध्रुवनो महिमा जोईने प्रचेताओनी यज्ञ शाळामां वीणा वगाडतां एना सम्बन्धना ज आ त्रण श्लोक गाया हता ॥४०॥

नारदजीए कह्युं - पतिव्रता सुनीतिना पुत्र ध्रुवने तपना प्रभावथी ज जे गति मळी ते गतिने ब्रह्मर्षिओ अनेक उपाय विचारीने पण पामी शकता नथी. त्यारे राजाओ तो क्यान्थी ज पामी शके? ॥४१॥

ए ध्रुव पाञ्च वर्षनी अवस्थामां सावकी मानां वचनरूप बाणोथी भेदायेला [[४४९]] अकळाई ऊठी वनमां गया अने मारा उपदेश प्रमाणे चाली भगवान्‌ के जे अजित छतां भक्तना गुणथी हारी जाय छे तेमने वश करी लीधा ॥४२॥

ध्रुवजीए तो पाञ्च-छ वर्षनी अवस्थामां थोडा ज दिवसोमां भगवानने प्रसन्न करी लई एमनुं परम पद प्राप्त करी लीधुं. परन्तु तेने मेळवेल ए पदने भूमण्डलमां कोई बीजो क्षत्रिय वर्षो सुधीनी साधनाथी पण मेळवी शके के? ॥४३॥

मैत्रेये कह्युं - सत्पुरुषोने प्रिय एवुं मोटी कीर्तिवाळा ध्रुवनुं चरित्र तमे मने पूछ्‌युं हतुं ते आखुं तमने कही सम्भळाव्युम् ॥४४॥

प्रशंसनीय अने महापवित्र आ भगवद्‌भक्त ध्रुवनुं चरित्र धन यश आयुष्य कल्याण स्वर्ग अविचलपदवी अने आनन्द आपनार अने पापने मटाडनारुं छे ॥४५॥

जे ए वारंवार श्रद्धाथी साम्भळे तेने भगवाननी भक्ति प्राप्त थाय छे जेनाथी बधां दुःखो टळी जाय छे ॥४६॥

आ चरित्र साम्भळवाथी जेओ मोटाई इच्छनारा छे तेओने एनो उपाय हाथ लागे छे. सुशीलपणुं वगेरे गुण प्राप्त थाय. अने जेओ तेजस्वीपणुं इच्छे छे तेमने तेज मळे छे. अने मोटा मनना पुरुषोने मान मळे छे ॥४७॥

द्विजलोकोनी सभामां पवित्र कीर्तिवाळा ध्रुवनुं आ महान चरित्र सवार-साञ्झ सावधानपणाथी कीर्तन करवुं जोईए ॥४८॥

जेओ पूनम, अमावास्या, बारश, श्रवण नक्षत्रवाळो दिवस, तिथिनो क्षयदिवस, व्यतीपातनो दिवस, सङ्क्रान्ति बेसवानो दिवस अने रविवार एटला दिवसोमां निष्कामपणे अने भगवद्भक्ति सहित आ चरित्र श्रद्धावाळाओने सम्भळावे तेओ स्वयं आत्मामां सन्तुष्ट रहेवा लागे छे अने सिद्ध थई जाय छे ॥४९-५०॥

आ साक्षात्‌ भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान छे जे भगवन्मार्गना तत्त्वथी अजाण छे एमने जो कोई आ ज्ञान आपे ए दीनवत्सल कृपालु पुरुष उपर देवताओनी कृपा ऊतरे छे ॥५१॥

इदं मया तेऽभिहितं कुरूद्वह ध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मणः ॥ हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातुर्गृहं च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥५२॥

ध्रुवजीनां कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध अने परम पवित्र छे. ते पोताना बचपणमां ज [[४५०]] माताना घर अने रमकडान्नो मोह छोडी दईने श्रीविष्णु भगवानने शरणे गया हता. कुरुनन्दन! एनुं आ पवित्र चरित्र में तमने सम्भळाव्युम् ॥५२॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां (बीजा अर्थप्रकरणनो फलनिरूपण नामनो पाञ्चमो)‘‘यज्ञोथी भगवाननुं पूजन करी ध्रुवजी विष्णुपद पाम्या’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणा मार्गमां भगवत्सेवा घरमां रह्या सिवाय सम्भव नथी. तेथी घरमां कराती सेवाना प्रकार सिवाय भगवत्सेवानो बीजो कोई (जाहेरमन्दिर-हवेलीमां) सेवा करवानो प्रकार मार्गमां मान्य नथी. तेथी भगवत्सेवा करवामाटे अनुकुळ होय तेवा घरमां रहीने श्रीकृष्णनी सेवा करवी. (भक्तिवर्धिनी टीका, श्रीगोकुलनाथजी) चोथुं कामप्रकरण

अध्याय १३

वेनराजानी दुष्टताथी एना पिता अङ्ग वनमां जतारह्या

विशेष - हवे अगियार अध्यायोवडे पृथुराजाना कामनुं निरूपण करवामां आवशे. एकादश इन्द्रियोवडे काम सिद्ध थाय छे. तेथी अर्ही अगियार अध्यायोवडे कामप्रकरणनुं निरूपण कर्युं छे. तेमां आ तेरमा अध्यायमां कामनो हेतु कहेवामां आवे छे. निशम्य कौषारविणोपवर्णितं ध्रुवस्य वैकुण्ठपदाधिरोहणम्‌ ॥ प्रवृद्धभावो भगवत्यधोक्षजे प्रष्टुं पुनस्तं विदुरः प्रचक्रमे ॥१॥

सूते कह्युं - मैत्रेय मुनिए ध्रुवने विष्णुपद केवी रीते प्राप्त थयुं ए कथा कही. ए साम्भळी भगवान्‌मां भाव वधतां विदुरजीए फरी एमने प्रश्न पूछवानो आरम्भ कर्यो ॥१॥

विदुरजीए पूछ्‌युं - हे मुनि! प्रचेताओ कोण हता? कोना पुत्र हता? कोना वंशना हता? अने कये ठेकाणे यज्ञ करवा बेठा हता? नारदजीनुं दर्शन देवना सरखुं छे. मोटा वैष्णव छे एम हुं मानुं छुं. केमके एमणे भगवाननी पूजारूप क्रियानो [[४५१]] प्रकार पञ्चरात्र ग्रन्थमां कह्यो छे ॥२-३॥

जे वखते प्रचेतागण स्वधर्मनुं आचरण करतां-करतां भगवान्‌ यज्ञेश्वरनी आराधना करी रह्या हता. ए ज वखते भक्त प्रवर नारदजीए ध्रुवना चरित्रनुं गुणगान कर्युं हतुम् ॥४॥

तो नारदजीए एमनी पासे जे-जे भगवत्कथानुं वर्णन कर्युं होय ते बधी ज भगवत्‌कथा साम्भळवानी मने ईच्छा छे; माटे हे मुनि! ए मने कहो ॥५॥

मैत्रेये कह्युं - ध्रुव *वनमां गया पछी एमना पुत्र उत्कले पितानी सार्वभौम लक्ष्मी अने राज्यासननो अस्वीकार कर्यो ॥६॥

विशेष - ध्रुवना वंशमां ज ए प्रचेताओ थया एम कहेवामाटे ध्रुवनो वंश कहेवानो आरम्भ करे छे. ए जन्मथी ज शान्त, आसक्ति शून्य, समदृष्टिवाळो अने सर्व लोकने पोताना आत्मामां तथा पोताना आत्माने सर्व लोकमां जोतो हतो ॥७॥

ए सुखरूप. सर्वकलेश रहित. ज्ञानमय. आनन्दमय अने मोक्षस्वरूप परमात्मा ब्रह्मने जाणतो हतो. अखडिन्त योगरूप अग्निथी एनी सघळी वासनाओ बळी गई हती ॥८॥

तेथी एना जोवामां पोताना स्वरूपथी जुदुं बीजुं कांई पण आवतुं नहोतुं. जवाळा वगरना अग्निनी पेठे महाविद्वान ए उत्कल अज्ञानी लोकोने मार्गमां ज जड अन्ध बहेरो घेलो अने मुङ्गा जेवो जणातो हतो. वास्तवमां एवो हतो नहि ॥९-१०॥

तेथी कुळना वृद्ध पुरुषो अने मन्त्रीओए एने जड अने उन्मत्त सरखो मान्यो. तेथी एओए एनाथी नाना अने भ्रमिना दीकरा वत्सरने राज्य आप्युं ॥११॥

ए वत्सरनी प्रयसी स्त्री स्वर्वीथिने पुष्पार्ण. तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु अने जय ए नामना छ पुत्रो थया ॥१२॥

पुष्पार्णने प्रभा अने दोषा नामनी बे स्त्रीओ हती; तेमां प्रभाने प्रातर, मध्यन्दिन अने सायं ए नामना त्रण अने दोषाने प्रदोष, निशीथ अने व्युष्ट ए नामना त्रण पुत्रो थया. व्युष्टने पुष्करिणी नामनी तेनी स्त्रीमां सर्वतेजा नामनो पुत्र थयो ॥१३-१४॥

[[४५२]] सर्वतेजाने आकूति नामनी स्त्रीमां चक्षु नामनो पुत्र थयो. चाक्षुष मन्वन्तरमां ए ज मनु थया. ए चक्षुनी स्त्री नड्‌वलाने पुरु कुत्स त्रित द्युम्न सत्यवान्‌ ऋत व्रत अग्निष्टोम अतिरात्र प्रद्युम्न शिबि अने उल्मुक नामना बार सत्त्वगुणी पुत्रो थया ॥१५-१६॥

उल्मुकने पुष्करिणी नामनी स्त्रीथी अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरा अने गय नामना छ उत्तम पुत्रो थया ॥१७॥

अङ्ग राजानी स्त्री सुनीथाए वेन नामना दुष्ट पुत्रने जन्म आप्यो. ए वेननी दुष्टताथी कायर थई ए अङ्गराजा पोताना नगरमान्थी नासी गया हता ॥१८॥

हे विदुरजी! मुनिओनी वाणी वज्रना जेवी अमोघ होय छे. एमणे गुस्से थई वेनने शाप आप्यो. तेमना शापथी वेन मरी गयो. पछी मुनिओए वेनना शबना जमणा हाथनुं पाछुं मथन कर्युम् ॥१९॥

ए समयमां पृथ्वीनो कोई राजा न हतो. तेथी प्रजाओने लुटाराओ तरफथी भारे त्रास थतो हतो; तेथी वेनना हाथमान्थी नारायणना अंशरूप आदि सम्राट पृथु प्रकट थया ॥२०॥

विदुरजीए पूछ्‌युं - अत्यन्त शीलवान, सज्जन, ब्राह्मणोना भक्त अने महात्मा ए अङ्गराजाने एवो दुष्ट पुत्र शा कारणथी थयो जेने लीधे त्रासी जई राजाने जतुं रहेवुं पड्युं? ॥२१॥

ए राजदण्डधारी वेननो कयो अपराध थयो हतो. जे जोईने धर्म जाणनारा मुनिओए. राजाने शाप दीधो? ॥२२॥

प्रजानुं कर्तव्य छे के राजाथी पाप थई जाय तो पण प्रजाए एनो तिरस्कार करवो नहि. केमके राजा पोताना सामर्थ्यथी आठ लोकपालोनी शक्ति धारण करे छे ॥२३॥

हे सर्वज्ञोमां उत्तम मैत्रेय मुनि! ए सुनीथाना पुत्र वेननुं चरित्र मने सम्भळावो केमके ए साम्भळवानी मने श्रद्धा छे अने वळी हुं आपनो भक्त छुम् ॥२४॥

मैत्रेये कह्युं - एक वखत राजर्षि अङ्गे महान अश्वमेध यज्ञ कर्यो तेमां वेद जाणनारा ब्राह्मणोए देवोने बोलाव्या. छतां तेओ पोतानो भाग लेवा आव्या नहि ॥२५॥

तेथी आश्चर्य पामीने ब्राह्मणोए राजाने कह्युं - ‘‘हे राजा! तमे श्रद्धाथी [[४५३]] यज्ञमाटे यज्ञ सामग्री आपेली छे तेमां दोष नथी. तेमज नियम पाळनारा अमे जे मन्त्र भणीए छीए ते पण कोई पण प्रकारे बलहीन नथी. छतां तमारा हवि पदार्थो होमवामां आवे छे ते देवो स्वीकारता नथी ॥२६-२७॥

अमने एवी कोई चीज देखाती नथी के आ यज्ञमां देवताओनो जरा पण तिरस्कार थयो होय; तो पण कर्माध्यक्ष देवता लोक पोतानो भाग स्वीकारता केम नथी?’’ ॥२८॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे यजमान अङ्ग राजाए ब्राह्मणोनुं वचन साम्भळ्युं त्यारे ए बहु ज कचवाया अने ब्राह्मणोनी रजा लई मौन व्रत मूकीने सभासदोने ए वात पूछी - ‘‘हे सभासदो! देवोनुं आवाहन करवा छतां पण अर्ही आवता नथी तो एवो में कयो अपराध कर्यो छे ए कहो’’ ॥२९-३०॥

सभासदो बोल्या - हे राजा! आ जन्मनुं तो तमारुं जरा पण पाप नथी; परन्तु पूर्व जन्मनो एक अपराध अवश्य छे जेथी तमे गुणवान छतां पण सन्तान रहित छो ॥३१॥

एटलामाटे आप पोते सुपुत्रवान थाओ एवो प्रयत्न करो. जो तमे पुत्रनी इच्छाथी भगवाननुं पूजन करशो तो भगवान्‌ यज्ञेश्वर आपने अवश्य पुत्र आपशे ॥३२॥

एम थशे तो देवो पोताना भाग लेशे. केमके सन्तानमाटे भगवाननुं पूजन करीशुं. तेमां भगवाननी साथे देवो पण आवशे ज. लोकोने जे वस्तुनी इच्छा होय ते-ते भगवान्‌ तेने आपे छे. केमके पुरुषो जे भावथी एमनी आराधना करे तवुं फळ तेमने प्राप्त थाय छे ॥३३-३४॥

आ प्रमाणे राजा अङ्गने पुत्र प्राप्ति कराववानो निश्चय करी ऋत्विजोए पशुमां यज्ञरूपथी रहेनार श्रीविष्णु भगवानना पूजनने माटे पुरोडाश नामनो चरु समर्पण कर्यो ॥३५॥

अग्निमां आहुति नाखतां ज अग्निकुण्डमान्थी सोनाना हार अने शुभ्र वस्त्रोथी विभूषित एक पुरुष प्रकट थया. तेमना हाथमां एक सुवर्णना पात्रमां सिद्ध करेली खीर हती ॥३६॥

आनन्द पामेला उदारबुद्धि राजा अङ्गे ब्राह्मणोनी सम्मतिथी ए दूधपाक ए पुरुष पासेथी पोतानी अञ्जलिमां लीधो अने सूङ्घीने प्रसन्नता पूर्वक पोतानी [[४५४]] राणीने आप्यो ॥३७॥

पुत्र आवे ए उद्देशथी पुत्रप्रद दूधपाक सुनीथा राणीए खाधो. तेथी एने पोताना पतिना सहवासथी गर्भ रह्यो अने पूरो समय थतां पुत्र अवतर्यो ॥३८॥

ए पुत्र बाल्यावस्थाथी ज पोतानी मा सुनीथानो पिता जे मृत्यु-अधर्मना अंशथी उत्पन्न थयेलो छे तेने अनुसरवाथी (एटले मोसाळ उपर पडवाथी) ते पण अधार्मिक ज थयो ॥३९॥

ए दुष्ट राजकुमार धनुष उपाडी शिकार करवा वनमां जतो त्यां भोळाभालां पशुओनी ए हत्या करतो. तेने जोईने ज नागरिको ‘‘वेन आव्यो, वेन आव्यो’’ एम कही बराडी ऊठता ॥४०॥

ए एवो निर्दय अने क्रूर हतो के मेदानमां रमतां पोताना सरखी अवस्थानां बाळकोने पशुनी पेठे बलात्कारथी रहेंसी नाङ्खतो ॥४१॥

ए खल पुत्रने जोई राजाए एने घणी-घणी शिखामणो देवा माण्डी. तो पण ए ज्यारे एने सन्मार्ग उपर लावी शक्या नहि त्यारे अङ्गराजा बहु ज खेद पाम्या अने मनमां कहेवा लाग्या के जे गृहस्थाश्रमीओ सन्तान वगरना छे तेओए भगवानने पूरा पूज्या छे. केमके एमने कपूतनां करतूतोथी थनार अकथ्य कलेश सहन करवा पडता नथी ॥४२-४३॥

एवा सन्तानने लीधे ज अपकीर्ति, मोटो अधर्म, सर्वनी साथे विरोध अने अनन्त पीडा थाय छे. अने एनेमाटे ज दुःखदायी घरमां रहेवुं पडे छे ॥४४॥

आवी नाममात्रनी प्रजामाटे कयो समजदार माणस ललचाय? ए तो आत्माने माटे एक प्रकारनो मोहमय फासो ज छे ॥४५॥

हुं तो सपूत करतां कपूतने ज वधारे सारो गणुं छुं. कारण के सपूतने छोडवामां घणो कलेश थाय छे; ज्यारे कपूत घरने नरकमां फेरवी नाखे छे तेथी एनाथी सहेजमां ज छूटको थई जाय छे ॥४६॥

ए प्रमाणे वैराग्य पामेला अने उजागरा करता अङ्गराजा मध्यरात्रिए ऊठी अने वेननी माने सूती मूकीने समृद्धिवाळा घरमान्थी चुपचाप नीकळी गया ॥४७॥

पोताना स्वामीने वैराग्य पामी जता रहेला जाणी घणा शोकथी विह्‌वळ थईने. जेम काचा योगीओ पोताना ज हृदयमां बिराजी रहेला परमात्माने बहार शोधे तेम मन्त्री अने सम्बन्धी लोको तथा प्रजा एने पृथ्वीमां शोधवा लाग्याम् ॥४८॥

[[४५५]] अलक्षयन्तः पदर्वी प्रजापतेर्हतोद्यमाः प्रत्युपसृत्य ते पुरीम्‌ ॥ ऋषीन्‌ समेतानभिवन्द्य साश्रवोन्यवेदयन्पौरव भर्तृविप्लवम्‌ ॥४९॥

हे विदुरजी! राजा दूर गया नहोता. तो पण एनो पत्तो नहि मळवाथी एमनो उद्यम नकामो गया अने ए लोको पाछा गाममां आव्या अने ऋषिओनी सभामां प्रणाम करी रडतां-रडतां राजा मळ्या नहि एवा समाचार आप्या ॥४९॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणनो कामहेतुनिरूपण नामनो पहेलो)‘‘वेन राजानी दुष्टताथी एना पिता अङ्ग वनमां जता रह्या’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. साधना विनानी कोरी दीक्षा अर्थहीन होय छे. पोतानी योग्यता मुजब सेवा-गुणगान के शरणागतिरूपी साधना न करी शकनार पुष्टिमार्गी आरूढपतितनी माफक दीक्षाना भारथीज नष्ट थई जायछे.

अध्याय १४

ब्राह्मणोए वेनने राज्य आप्युं अने पछीथी दोषथी एने मारी नाख्यो

विशेष - आ चौदमां अध्यायमां वेननो राज्याभिषेक अने पछी एनो नाश थयो ए कथा कहेवामां आवी छे. भृग्वादयस्ते मुनयो लोकानां क्षेमदर्शिनः ॥ गोप्तर्यसति वै नॄणां पश्यन्तः पशुसाम्यताम्‌ ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - लोकोना कल्याणनो विचार करनारा ब्रह्मवादी भृगु वगेरे मुनिओए कोई राजा नहि होवाथी मनुष्योनी पशुना जेवी उच्छ्रङ्खल स्थिति जोई; तेथी एमणे वेननी मा सुनीथाने बोलावी. जो के मन्त्रीओने वेन गमतो न हतो तो पण सुनीथानी सम्मती लई वेननो राज्याभिषेक कर्यो ॥१-२॥

अत्यन्त भयङ्कर शिक्षा करनारो वेन राज्यासन पर बेठो छे ए साम्भळी जेम सर्पनी बीकथी उन्दर छुपाई जाय तेम डाकुओ अर्ही-तर्ही छुपाई गया ॥३॥

[[४५६]] राज्यासन पर बेसतां वेन आठेय लोकपाळना जेवी पोतानी सत्ताथी छकी गयो. अक्कड रहेनार अने पोते ज सौथी महान छे एम मानतो ए महात्माओनुं अपमान करवा लाग्यो ॥४॥

ऐश्वर्यथी मदान्ध बनी गाण्डा निरङ्कुश हाथीनी पेठे जाणे आकाश अने पृथ्वीने ध्रुजावतो होय तेम रथमां बेसीने ए सर्वत्र फरवा लाग्यो ॥५॥

ए वेन राजाए ‘‘द्विजलोकोए यज्ञ करवा नहि, दान देवुं नहि, होम करवो नहि’’ एवो ढण्ढेरो पोताना राज्यमां पिटाव्यो अने धर्म-कर्म बन्ध करावी दीधाम् ॥६॥

ए दुष्ट वेननो आवो अत्याचार अने तेथी थतुं लोकोनुं दुःख जोईने दयाने लीधे सर्व मुनिओ भेगा थया अने विचार करवा लाग्या के ‘‘अहो! जेम कोई लाकडुं बन्ने बाजुएथी सळगतुं होय अने वचमां कीडी आवी गई होय तो कीडीने जेवुं दुःख थाय तेवुं चोर अने राजाए बन्ने तरफथी लोको उपर महान आफत आवी पडी ॥७-८॥

अराजकताथी खराबी थाय एम जाणी जो के आ वेन राज्यने लायक नथी तो पण अमे एने राजा बनाव्यो तो एना तरफथी पण त्रास उत्पन्न थयो तो हवे प्राणीओनुं शी रीते कल्याण थाय? ॥९॥

सर्पने दूध पाईने उछेरवो ए उछेरनारने ज अनर्थकारी थाय छे. सुनीथानो दीकरो जे स्वभावथी ज दुष्ट छे तेवा वेनने प्रजाओए राजा बनाव्यो तो ए प्रजाओने ज मारी नाखवा धारे छे ॥१०॥

तो पण एने राजा बनाववानुं पाप आपणने न लागे एटलामाटे आपणे एने समजावीए. जाणता छतां आपणे वेनने राजा बनाव्यो छे तो हवे आपणे एने समजाववा जईए; छतां जो अधर्मी नहि माने तो लोकना धिक्कारथी बळी चूकेला ए दुष्टने आपणे आपणा तेजथी भस्म करी दईशुं. ए प्रमाणे निश्चय करीने क्रोधने छानो राखी मुनिओ एनी पासे गया अने त्या जईने प्रिय वचनोथी एने ठण्डो पाडी बोल्या ॥११-१३॥

मुनिओ बोल्या - हे महाराज! आपनां आयुष्य, बळ, लक्ष्मी अने कीर्ति वधे एवी अमे विनन्ति करीए. आप साम्भळो ॥१४॥

जो वाणी मन काया अने बुद्धि थी धर्म पाळ्यो होय तो ए धर्मथी ज्यां शोक नथी तेवा स्वर्गादि लोकनी प्राप्ति थाय छे अने जेओ निष्काम होय तेमने तो मोक्ष [[४५७]] पण मळे छे ॥१५॥

माटे प्रजानी रक्षा करवी ए जे आपनो राजधर्म छे ते नाश पामवो जोईए नहि. ए धर्मनो नाश थतां राजा पण ऐश्वर्यथी च्युत थई जाय छे ॥१६॥

जे राजा दुष्ट कर्मचारीओथी तेमज चोर वगेरेथी प्रजानुं रक्षण करे छे अने न्यायथी कर ले छे ते आ लोक तेमज परलोकमां सुख प्राप्त करे छे ॥१७॥

जे राजाना देशमां अने नगरमां वर्णाश्रमनी मर्यादा पाळनारा लोको स्वधर्मथी भगवाननुं पूजन करे छे ते राजा ‘‘मारी आज्ञामां रह्यो छे’’ एम जाणी सर्व लोकोमां रक्षक विश्वात्मा भगवान्‌ एना उपर प्रसन्न थाय छे ॥१८-१९॥

भगवान्‌ ब्रह्मादि जगदीश्वरोना पण ईश्वर छे. ए प्रसन्न थाय तो शुं दुर्लभ होई शके? त्यारे तो इन्द्रिदि लोकपालो सहित समस्त लोक अत्यन्त आदरपूर्वक एमने पूजा-उपहार समर्पण करे छे ॥२०॥

हे राजा! सर्व लोक, देवो अने यज्ञो ना नियन्ता ए वेदमय, द्रव्यमय अने तपोमय भगवानने आपना मङ्गलमाटे आपना देशना नागरिको अनेक प्रकारना यज्ञोथी पूजा करे तेमने आपे अनुकूळता करी आपवी जोईए ॥२१॥

हे महावीर! आपना देशमां द्विजलोको यज्ञो करे छे. तेथी प्रसन्न थईने भगवानना अंश स्वरूप देवो मनोवाञ्छित फळ आपे छे; माटे यज्ञ-यागादि धर्मानुष्ठान बन्ध करावी देवताओनो तिरस्कार करवो आपने योग्य नथी ॥२२॥

वेन बोल्या - घणा ज खेदनी वात छे के तमोए अधर्ममां ज धर्मबुद्धि करी राखी छे. तमो मूर्ख छो त्यारे तो तमे आजीविका देनार मने, साक्षात्‌ पतिने, ठोकरावीने कोई बीजा जारपतिनी उपासना करो छो ॥२३॥

जे मूर्ख लोको राजारूप ईश्वरनी अवज्ञा करे तेओ आ लोकमां के परलोकमां कोई ठेकाणे सुख पामता नथी ॥२४॥

अरे! जेमां तमारी आटली बधी भक्ति छे ए यज्ञपुरुष वळी कोण छे? आ तो एवी वात थई जेम कुलटा स्त्रीओ पोताना विवाहित पति उपर प्रेम न करतां कोई परपुरुषनी भक्ति करे! ॥२५॥

विष्णु ब्रह्मा सदाशिव इन्द्र वायु यम सूर्य पर्जन्य कुबेर चन्द्र पृथ्वी अग्नि अने वरुण अने ए सिवाय बीजा पण जेओ वर अने शाप बन्ने दई शके छे तेओ बधा राजाना देहमां ज छे तेथी राजा सर्व देवमय छे. अने देवता एना अंशमात्र छे [[४५८]] ॥२६-२७॥

एटलामाटे हे ब्राह्मणो! मत्सर मूकी दईने यज्ञादिक कर्मथी मारुं ज पूजन करो अने मने ज बलिदान समर्पण करो भला मारा सिवाय बीजो कयो पुरुष अग्रपूजानो अधिकारी होई शके? ॥२८॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे अवळी बुद्धिवाळा अने अवळे मार्गे चालनारा ए पापी वेनने ए मुनिओए विनयपूर्वक समजाववा माण्ड्यो तो पण मन्दभाग्य होवाथी एणे एमनुं मान्युं नहि ॥२९॥

हे विदुरजी! पण्डितनुं अभिमान धरावता वेन राजाए ब्राह्मणोनुं अपमान कर्युं अने पोतानी मागणी नकामी जतां ब्राह्मणोने क्रोध उत्पन्न थयो ॥३०॥

ए लोकोए विचार कर्यो के ‘‘आ स्वभावथी ज दुष्ट पापीने मारी नाखवो. केमके जीवतो हशे तो अवश्य आखा जगत्‌ने तुरत भस्म करी नाखशे ॥३१॥

आ दुराचारी राजसिंहासनने माटे बिलकुल लायक नथी केमके आ निर्लज्ज साक्षात्‌ यज्ञपति श्रीविष्णु भगवाननी निन्दा करी रह्यो छे ॥३२॥

जेणे अनुग्रह करीने आवुं ऐश्वर्य आप्युं छे ते भगवाननी निन्दा आवा एक दुष्ट वेन विना बीजो कोण करे?’’ ॥३३॥

ए प्रमाणे क्रोधथी व्याप्त थयेला अने मारी नाखवाना निश्चय पर आवेला ब्राह्मणोए भगवाननी निन्दाथी ज मरी गयेला ए वेनने हुङ्कारथी ज हणी नाख्यो ॥३४॥

वेनने मारी नाखीने ब्राह्मणो पोतपोताना आश्रममां गया. पछी शोकातुर तेनी माता सुनीथा, मन्त्र अने औषधिनी मुक्तिथी वेनना शबनी रक्षा करवा लागी ॥३५॥

एक दिवसे सरस्वतीना जळमां स्नान करी अग्निहोत्र करीने ए मुनिओ नदीना काण्ठे बेठा-बेठा हरिचर्चा करी रह्या हता ॥३६॥

ए गाळामां लोकोमां त्रास फेलाववावाळा घणा उपद्रवो जोईने तेओ आपसमां कहेवा लाग्या ‘‘आज काल पृथ्वीनो रक्षक कोई नथी; तेथी चोर डाकुओने कारणे एनुं कंई अमङ्गल तो नथी थवानुं ने?’’ ॥३७॥

एवी रीते ऋषिओ विचार करता ज हता तेवामां तो चोर लुटाराओनी धाड पडवाथी अने दोडा-दोड थवाथी चारेकोर ऊडती धूळ जोवामां आवी ॥३८॥

आ देखतां ज तेओ समजी गया के राजा वेननां मरी जवाथी देशमां [[४५९]] अराजकता फेलाई गई छे. राज्य नबळुं थई गयुं छे अने चोर-डाकुओ वधी पड्या छे. आ बधो उपद्रव लोकोनी माल मिलकत हडप करवा मागता तथा एक बीजाना लोही तरस्या लुटाराओनो ज छे. पोताना तेजथी अथवा तपोबलथी लोकोनी आ कुप्रवृत्ति रोकवा समर्थ होवा छतां एम करवामां हिंसा वगेरे दोष थाय एम समजी एमणे एनुं कंई निवारण कर्युं नहि ॥३९-४०॥

वळी विचार आव्यो के ब्राह्मण शान्त अने समदृष्टिवाळो होवा छतां जो दीन- हीन लोको तरफ बेदरकारी राखे तो जेवी रीते फूटेला वासणमान्थी पाणी जतुं रहे छे तेम एनुं तप खलास थई जाय छे ॥४१॥

आपणे आ सघळी गडबडनुं निवारण करवाने समर्थ छीए. वळी राजर्षि अङ्गना वंशनो नाश पण न थवो जोईए. कारण के ए वंशमां महान पराक्रमी अने भगवत्परायण राजाओ थई गया छे अने थशे एवो सम्भव छे ॥४२॥

ए प्रमाणे निश्चय करीने ए ब्राह्मणो मरण पामेला वेन राजानी साथळनुं बहु ज जोरथी मथन करवा लाग्या तो एमान्थी एक र्ठीगणो पुरुष उत्पन्न थयो ॥४३॥

ए पुरुष कागडा जेवो काळो हतो. एनां बधां अङ्ग तथा खास करीने पग नाना हता. भुजाओ घणी टूङ्की हती, दाढी मोटी हती अने नाक चीबुं हतुं. आङ्खो लाल हती अने वाळ पण ताम्बाना रङ्गना लाल हता ॥४४॥

ए पुरुष राङ्कपणे ‘‘मारे शुं करवुं?’’ एम बोलतां मुनिओए कह्युं के ‘निषीद’ (बेसी जा) ए उपरथी ए ‘निषाद’ कहेवायो ॥४५॥

तस्य वंश्यास्तु नैषादा गिरिकाननगोचराः ॥ येनाहरज्जायमानो वेनकल्मषमुल्बणम्‌ ॥४६॥

एणे जन्म लेतां ज राजा वेनना भयङ्कर पापोने पोताना उपर लई लीधां. तेथी ज एना वंशना नैषाद पण हिंसा, लूटफाट, मारपीट आदि पापकर्मोमां ज खूपेला होय छे; माटे तेओ गाम के नगरमां न रहेता वन अने पर्वतोमां ज वसे छे ॥४६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणमां अधर्म स्थापनरूप कार्यनिरूपणे बीजो) ‘‘ब्राह्मणोए वेनने राज्या आप्युं अने पछीथी दोषथी एने मारी नाख्यो’’ नामनो १४मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४६०]]

अध्याय १५

ब्राह्मणोए वेनना हाथनुं मथन करीने पृथुराजाने उत्पन्न कर्या अने राज्याभिषेक कर्यो

विशेष - आ पन्दरमां अध्यायमां वेनना हाथनुं ब्राह्मणोए मथन करतां एमान्थी उत्पन्न थयेला पृथु राजाना राज्याभिषेक अने सत्कार वगेरेनी कथा कहेवामां आवशे. अथ तस्य पुनर्विप्रैरपुत्रस्य महीपतेः ॥ बाहुभ्यां मथ्यमानाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - पछी ए ब्राह्मणोए अपुत्र वेन राजाना बे हाथनुं मथन कर्युं तो एमान्थी एक स्त्री-पुरुषनुं युगल प्रकट थयुम् ॥१॥

युगलने जोईने तथा ए भगवानना अंशरूप छे एम जाणीने ए ब्रह्मवादी मुनिओ बहु ज प्रसन्न थई बोल्या ॥२॥

ऋषिओ बोल्या - आ युगलमां जे पुरुष छे ते जगत्‌नी रक्षा करनार भगवाननो अंश छे अने जे स्त्री छे ते भगवान्‌ पासेथी खसे नहि एवां लक्ष्मीजीनो अवतार छे ॥३॥

आ पुरुष पोताना सुयशनुं प्रथन-विस्तार करवाने कारणे परम यशस्वी ‘पृथु’ नामना सम्राट थशे, राजाओमां ए ज सौथी पहेला थशे ॥४॥

अने आ सुन्दर दान्तवाळी, गुण अने आभूषणोने पण शोभा आपनारी सुन्दरी ‘अर्चि’ नामथी ओळखाशे अने पृथु राजाने ज वरशे ॥५॥

पृथुना रूपमां साक्षात्‌ श्रीहरिना अंशे ज संसारनी रक्षा करवामाटे अवतार लीधो छे अने अर्चिना रूपमां निरन्तर भगवाननी सेवामां रहेवावाळां एमनी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मीजी ज प्रकट थयां छे ॥६॥

मैत्रेये कह्युं - ए समये ब्राह्मणो पृथु राजानी स्तुति करवा लाग्या, गन्धर्वो गावा लाग्या, सिद्ध लोको फूलनी वृष्टि करवा लाग्या, अप्सराओ नाचवा लागी, आकाशमां शङ्ख तूरी मृदङ्ग अने दुन्दुभि वगेरे वाजां वागवा लाग्यां. अने देवो ऋषिओ अने पितृओ पोतपोताना लोकोमान्थी त्यां आव्या ॥७-८॥

जगद्‌गुरु ब्रह्माजी देवोने साथे लई त्यां पधार्या. पृथु राजाना जमणा हाथमां भगवान्‌ विष्णुनी हस्तरेखाओ तथा चरणमां कमळनुं चिह्न जोईने ‘‘ए भगवाननो [[४६१]] अंश छे’’ एवो एमणे निश्चय कर्यो केमके जेना हाथमां बीजी रेखाओथी छेदाया विनानुं चक्रनुं चिह्‌न चोख्खुं होय ते भगवाननो ज अंश होय छे ॥९-१०॥

वेदवादी ब्राह्मणोए एना अभिषेकनुं आयोजन करतां सर्वे लोको चारे बाजूएथी अभिषेकनी सामग्री लाव्या ॥११॥

ए वखते नदीओ, समुद्रो, पर्वतो, सर्प, गायो, पशु-पक्षीओ, स्वर्ग, पृथ्वी अने सर्व प्राणीओ तरेह-तरेहनी भेट लाव्याम् ॥१२॥

सुन्दर वस्त्रो अने आभूषणोथी अलङ्कृत महाराज पृथुनो विधिपूर्वक राज्याभिषेक थयो. ए वखते अनेक अलङ्कारोथी शोभतां महाराणी अर्चिनी साथे ते बीजा अग्निदेव जेवा लागता हता ॥१३॥

हे विदुरजी! कुबेरजी एमने माटे सुवर्णनुं उत्तम सिंहासन लाव्या; वरुणदेव चन्द्रना जेवुं धोळुं अने प्रकाशमय छत्र लाव्या जेमान्थी निरन्तर जलनी फरफर झरती हती ॥१४॥

वायु बे चमर लाव्या, धर्मे कीर्तिरूप माळा आपी, ईन्द्रे उत्तम मुकुट आप्यो, यमराजा शिक्षा करवानो दण्ड लाव्या ॥१५॥

ब्रह्माजीए वेदमय बखतर, सरस्वतीए उत्तम हार, विष्णुए सुदर्शन चक्र अने लक्ष्मीजीए अविनाशी सम्पत्ति आपी ॥१६॥

रुद्रे दस चन्द्राकार चिह्‌नोवाळी तलवार, अम्बिकाजीए सो चन्द्राकार चिह्‌नोवाळी ढाल आपी; चन्द्रमाए अमृतमय घोडा, त्वष्टाए अत्यन्त सुन्दर रथ, ॥१७॥

अग्निए बकरा तथा बळदनां र्शीगडाम्मान्थी बनेल सुदृढ धनुष्य अने सूर्ये तेजोमय बाण आप्यां. पृथ्वी धारेला स्थळे तुरत पहोञ्चाडनारी योगमय चाखडी लावी, आकाशना अभिमानी द्यौ देवताए नित्य नूतन फूलना हार आपवा माण्ड्या ॥१८॥

आकाशमां फरनार सिद्ध लोकोए नाच, गायन, वाजां वगाडवां अने अन्तर्धान थवानी कळा आपी; ऋषिओए अमोघ आशीर्वाद दीधा; समुद्रे पोतामान्थी उत्पन्न थयेलो शङ्ख दीधो ॥१९॥

समुद्र पर्वत अने नदीओए एमने रथ चालवाना मार्ग आप्या. त्यार बाद सूत, मागध अने बन्दीजन एमनी स्तुति करवा उपस्थित थया ॥२०॥

त्यारे ए स्तुति करवावाळानो अभिप्राय समजीने वेनपुत्र परम प्रतापी महाराज पृथुए हसतां-हसतां मेघना जेवी गम्भीर वाणीथी कह्युम् ॥२१॥

[[४६२]] पृथु राजा बोल्या - हे भला माणसो! सूत, मागध अने बन्दीजनो हजु मारा कोई गुणो जगतमां प्रकट थयेला जणाता नथी तो पछी तमे मारी बाबतमां तमारी वाणी व्यर्थ न थवी जोईए. तेथी मारा सिवाय बीजा कोईनी स्तुति करो ॥२२॥

हे मधुर वाणी बोलनाराओ! जो मारी स्तुति करवी होय तो मारा गुण प्रसिद्ध थया पछी अने ए पण मारी परोक्षमां करजो, ज्यां वर्णन करवा योग्य पवित्र कीर्ति भगवानना गुण होय त्यां शिष्ट पुरुषो बीजा कोई तुच्छ माणसनी स्तुति करता होता नथी ॥२३॥

पोतामां मोटा गुण सम्पादन करवानी शक्ति होय, छतां एवा काम कर्या न होय ए पहेलां स्तुति करनारा लोको अने स्तुति करनारा पोते पण मनमां तो मश्करी करे के ‘‘शुं आ माणसमां एवा गुणो छे? अथवा कांई थवाना छे?’’ आवी रीते मश्करी करे तो पण एनी मूर्ख माणसने खबर पडे नहि ॥२४॥

पोते प्रख्यात होवा छतां महात्मा पुरुषो पोतानां वखाणने पण भूण्डां कामनी पेठे धिक्कारे छे ॥२५॥

वयं त्वविदिता लोके सृताद्यापि वरीमभिः ॥ कर्मभिः कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत्‌ ॥२६॥

हे स्तुति करनारा लोको! अमे तो हजु सुधी कोई श्रेष्ठ कार्य करीने लोकमां प्रख्यात थया नथी तो ए पहेलां बाळकनी माफक शी रीते पोताना गुणनुं गान करावीए? ॥२६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणमां राज्याभिषेक निरूपण नामनो त्रीजो) ‘‘ब्राह्मणोए वेनना हाथनुं मथन करी पृथुराजाने उत्पन्न कर्या अने एनो राज्याभिषेक कर्यो’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! [[४६३]]

अध्याय १६

सूत मागध तथा बन्दीजनोए पृथु राजानी करेली स्तुति

विशेष - आ सोळमां अध्यायमां सर्वलोकपाल देवताओए सत्कार करेला स्त्री सहित पृथु राजानी मुनिओए प्रेरेला सूत, मागध अने बन्दीजनोए स्तुति कर्यानी कथा कहेवामां आवशे. इति ब्रुवाणं नृपतिं गायका मुनिचोदिताः ॥ तुष्टुवुस्तुष्टमनसः तद्वागमृतसेवया ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे पृथुराजानां वचनामृतना आस्वादथी सूत वगेरे गायको बहु प्रसन्न थया अने मुनिओनी प्रेरणाथी राजानी इच्छा नहि छतां एमनी स्तुति करवा लाग्या ॥१॥

‘‘आप साक्षात्‌ देवप्रवर श्रीनारायण ज छो जे पोतानी मायाथी अवतीर्ण थया छो, अमे आपना महिमानुं वर्णन करवा असमर्थ छीए आपे जन्म तो राजा वेनना मूतक शरीरथी लीधो छे पण आपनां पराक्रमोनुं वर्णन करवामां साक्षात्‌ ब्रह्माजी वगेरेनी पण बुद्धि पहोञ्चती नथी ॥२॥

तो पण महाउदार कीर्तिवाळा अने भगवानना कलावतार आपनी कथारूप अमृतमां अमने आदर होवाथी मुनिओना कहेवाथी मुनिओए आपनां उत्तम कर्म विशेनुं जे ज्ञान योगबळथी आप्युं छे तेनुं अमे वर्णन करीशुम् ॥३॥

आ पृथुराजा धर्म पाळनाराओमां श्रेष्ठ, लोकोने धर्ममार्गमां चालावनारा, धर्मनी मर्यादाओनुं रक्षण करनार, धर्मना शत्रुओने दण्ड देनार थशे ॥४॥

ए एकला ज समये-समये प्रजानुं पालन, पोषण, अनुरञ्जन आदि कार्यानुसार पोताना देहमां भिन्न-भिन्न लोकपालोनी मूर्तिने धारण करशे तथा यज्ञ वगेरेना प्रचारथी स्वर्गलोक अने वृष्टिनी व्यवस्था द्वारा पृथ्वीबेउनुं हित करशे ॥५॥

आ प्रतापी राजा सर्व प्राणीओ प्रत्ये समान वर्तन राखशे. जेम सूर्य आठ महिनामां जळनुं शोषण करे अने चोमासामां पाछुं जळ छूटुं मूके तेम ए कर लेवाना समयमां लोको पासेथी धन लेशे अने दुष्काळ वगेरेमां प्रजाना हितमाटे ए धननुं वितरण करी देशे ॥६॥

दुःखी प्राणीओ उपर ए निरन्तर दया राखशे. पृथ्वी जेम सर्वनुं सहन करे छे तेम आ पृथुराजा कोई दुखियो एमना मस्तक उपर पग पण मूकी देशे तो पण एनो [[४६४]] ए अनुचित व्यवहार सदा सही लेशे ॥७॥

राजानुं शरीर धरनार आ विष्णु (पृथुराजा) कदाच वरसाद न थाय अने प्रजानां प्राण सङ्कटमां आवी पडे तो इन्द्रनी माफक वृष्टि करीने एनुं अनायासे रक्षण करशे ॥८॥

ए पोताना अमृतस्त्रावी मुखचन्द्रनी मनोहर मुस्कान अने अमी भरी नजरथी तमाम लोकोने आनन्दमग्न करी देशे ॥९॥

एनी गतिने कोई कळी नहि शके. एनां कार्यो गुप्त हशे अने ए कार्यो करवानो अभिगम-प्रणाली पण बहु ज गम्भीर हशे. एमनुं धन सदा सुरक्षित रहेशे ए अनन्त माहात्म्य तथा गुणोना एकमात्र आश्रय हशे. आ प्रमाणे मनस्वी पृथु साक्षात्‌ वरुणना ज जेवा हशे ॥१०॥

महाराज पृथु वेनरूप अरणिथी जाणे अग्नि ज उत्पन्न थयो होय तेवा छे. प्रतापने लीधे पासे छतां घणा दूर लागे छे. आ राजा एवा छे के एमने शत्रुओ मनथी पण पहोञ्ची शकता नथी तो एमना पराक्रमने शी रीते सहन करी शके के एमनो पराभव क्यान्थी ज करी शके? ॥११॥

जेवी रीते प्राणीओनी अन्दर रहेनार प्राणवायु शरीरनी अन्दर बहारनी बधी ज प्रवृत्तिओ जोवा छतां उदासीन रहे छे ए ज प्रमाणे जासूसो (गुप्तचरो) द्वारा प्रजाना गुप्त तेमज प्रकट बधी ज जातना व्यवहार जोवा छतां पोतानी निन्दा अथवा स्तुति प्रत्ये उदासीन (तटस्थ) रहेशे ॥१२॥

शत्रुनो पुत्र होय छतां जो ते दण्डने पात्र न होय तो धर्ममां रहेनार आ राजा तेने शिक्षा नहि करे ऊलटुं, पोतानो ज दीकरो होय छतां जो ए अपराधी होय तो एने शिक्षा करशे ॥१३॥

आ राजानी सेना अने एनी आज्ञानी आण मानसोत्तर पर्वत सुधी (जेटलामां सूर्यनो प्रकाश पडे छे तेटले सुधी)वर्ताशे ॥१४॥

मनने रञ्जन करनारां पोतानां कार्योथी ए लोकोने राजी करशे. तेथी लोको पृथुने ‘राजा’ कहेशे ॥१५॥

आ राजा दृढ व्रत पाळनार, साची प्रतिज्ञावाळा, ब्राह्मण भक्त, वृद्धोनी सेवा करनार, सर्व प्राणीओनां शरणरूप, बधाने मान आपनार अने राङ्क उपर प्रेम राखनार थशे ॥१६॥

[[४६५]] ए परस्त्रीओमां माताना जेवी भक्ति राखशे, पत्नीने पोतानुं अडधुं अङ्ग मानशे, प्रजा उपर पिताना जेवो प्रेम राखशे अने ज्ञानीओना सेवक थईने रहेशे ॥१७॥

बीजां प्राणीओ एने एटलुं चाहशे जेटलुं पोताना शरीरने ए मित्रोना सुखने वधारशे. ए विरक्तोनो विशेष सङ्ग करनार अने दुष्ट लोकोने यमनी माफक दण्ड देवा सदा तैयार रहेशे ॥१८॥

सर्व लोकोना स्वामी अविनाशी भगवान्‌ ज पोताना अंशथी आ पृथुराजा रूपे अवतरेला छे एमना स्वरूपमां जोवामां आवता द्वैत पदार्थने ज्ञानी लोको मायाए बनावेला होवाथी व्यर्थ माने छे ॥१९॥

ए अजोड वीर अने एक छत्र सम्राट्‌ थई एकला ज उदयाचल पर्यन्त समग्र पृथ्वीनी रक्षा करशे अने पोताना जयशीलरथ उपर बिराजी, हाथमां धनुष लई सूर्यनी जेम सर्वत्र प्रदक्षिणा करशे ॥२०॥

ए वखते आ राजा ज्यां-ज्यां फरशे त्यां-त्यां राजाओ अने लोकपाळ देवो एमने कर अने सारा-सारा पदार्थो भेट तरीके समर्पण करशे. राजाओनी स्त्रीओ आ आदि राजाने विष्णुरूप मानी एमनी कीर्तिनुं गान करशे ॥२१॥

प्रजाने आजीविका आपनार आ चक्रवर्ती राजा गोरूपधारी पृथ्वीनुं दोहन करशे; इन्द्रनी पेठे पोताना धनुषनी अणीथी पर्वतोने तोडी-फोडी नाखीने रमतां-रमतां पृथ्वीने समतल करी देशे ॥२२॥

युद्धना मेदानो उपर तेनो सामनो कोई करी शकशे नहि. जे वखते ते, जङ्गलमां पूछ ऊचुं करीने महालता सिंहनी माफक पोताना आजगव* धनुषनो टङ्कार करता पृथ्वी उपर विचरशे ए वखते दुष्टो बधा अर्ही-तर्ही छुपाई जशे ॥२३॥

विशेष - आजगव धनुष एटले बकरा अने बळदना र्शीगडाम्मान्थी बनावेल धनुष. जे ठेकाणे सरस्वती नदी प्रकट थयेल छे ते ठेकाणे आ राजा सो अश्वमेध यज्ञ करशे तेमां छेल्ला यज्ञ दरमियान इन्द्र एमना घोडाने हरी जशे ॥२४॥

पोताना महालयना बगीचामां राजानी महात्मा सनत्कुमारनी साथे मुलाकात थशे. एकली एमनी भक्ति करी अने ते भक्तिथी ए निर्मळ ज्ञान पामशे जे ज्ञानथी परब्रह्मनी प्राप्ति थायछे ॥२५॥

आ प्रमाणे ज्यारे एनां पराक्रम जनतानी समक्ष प्रकट थई जशे त्यारे-त्यारे [[४६६]] परम पराक्रमी महाराज ज्यां-त्यां पोतानां पराक्रमोनी ज कथा साम्भळशे ॥२६॥

दिशो विजित्याप्रतिरुद्धचक्रः स्वतेजसोत्पाटितलोकशल्यः ॥ सुरासुरेन्द्रैरुपगीयमानमहानुभावो भविता पतिर्भुवः ॥२७॥

दिग्विजय करी आ राजा पोतानी शक्तिथी लोकोनां दुःख उखेडी नाखशे अने अखडिन्त आज्ञाथी आखी पृथ्वी उपर राज्य करशे; ए एटले सुधी के एमना प्रतापनुं मोटा-मोटा देवो अने दैत्यो पण गान करशे’’ ॥२७॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (कामप्रकरणमां आविष्टगुणवर्णन नामनो चोथो) ‘‘सूत, मागध तथा बन्दीजनोए पृथु राजानी करेली स्तुति’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही

अध्याय १७

लोकोनुं दुःख मटाडवाने पृथ्वीने मारवा माण्डतां एणे पृथुनी करेली स्तुति

विशेष - पृथ्वी बीज मात्र गळी गई हती, पृथु महाराजे लोकोनी भूख मटाडवा एने त्रास आपतां पृथ्वीए करेली स्तुति कर्यानी कथा कहेवामां आवे छे. एवं स भगवान्वैन्य; ख्यापितो गुणकर्मभिः ॥ छन्दयामास तान्‌ कामैः, प्रतिपूज्याभिनन्द्य च ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ज्यारे चारणोए महाराज पृथुना गुणो अने कर्मोनी बिरदावली गाई त्यारे तेमणे पण एमनी प्रशंसा करीने तथा एमने मनपसन्द वस्तुओ आपी राजी कर्या ॥१॥

एमणे ब्राह्मणादि चार वर्णो, सेवको, मन्त्रीओ, पुरोहितो, पुरजनो, [[४६७]] ग्रामजनो, जुदा-जुदा धन्धादारीओ तथा वसवायाओनो पण सत्कार कर्यो ॥२॥

विदुरजीए पूछ्‌युं - जे पृथ्वीने पृथु राजाए दोही तेने बीजां घणां रूप छतां तेणे गायनुं रूप शा कारणथी धर्यु? अने दोहवाना काममां वाछडो कोण अने वासण कयुं हतुं? ॥३॥

पृथ्वी स्वभावथी ज ऊञ्ची-नीची होय छे तेने पृथु राजाए शी रीते सपाट करी? अने राजाना यज्ञ सम्बन्धी घोडानुं इन्द्रे शामाटे हरण कर्युं हतुं? ॥४॥

हे महाराज! ब्रह्मवेत्ताओमां उत्तम महात्मा सनत्कुमार पासेथी ज्ञान-विज्ञान मेळवीने ए राजर्षि पृथु कई गतिने पाम्या? ॥५॥

पवित्र कीर्तिवाळा भगवान्‌ कृष्णे ज पृथु राजानुं रूप धरीने आ पृथ्वीने दोही हती तो आपना अने भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रना भक्त तथा स्नेही एवा मने ए पृथु अवतार सम्बन्धी जे बीजां पण पवित्र चरित्र होय ते बधां कहो ॥६-७॥

सूतजी बोल्या - ए प्रमाणे विदुरजीए भगवाननी कथा कहेवानी प्रेरणा करी त्यारे प्रसन्न थयेला मुनि मैत्रेयजी एमनां वखाण करीने बोल्या ॥८॥

मैत्रेये कह्युं - हे विदुरजी! ज्यारे ब्राह्मणोए अभिषेक करीने पृथुने प्रजाना पालक तरीके जाहेर कर्या त्यारे पृथ्वी उपर अन्न तो क्यांय जोवाय मळे नहि. प्रजा- जनो हाडकान्ना माळा जेवा थई गया हता. ते सर्व प्रजाए आवीने पृथुने कह्युम् ॥९॥

झाडनी बखोलमां रहेला अग्निथी जेम झाड बळी रह्या होय तेम, पेटना भीषण अग्निथी अमे बळी रह्यां छीए. शरणागतनुं रक्षण करनार आपने अमे शरणे आव्यां छीए केमके ब्राह्मणोए आप अन्नदाताने स्वामी तरीके मेळवी आप्यां छे ॥१०॥

एटलामाटे हे राजाधिराज! भूखथी टळवळता अमे अन्न विना मरी जईए ए पहेलां अमने अन्न आपवानो आप प्रबन्ध करो केमके राजानी पदवी उपर जे आवे तेणे सर्व लोकने आजीविका मेळवी आपवी जोईए ॥११॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे प्रजानुं करुण क्रन्दन साम्भळीने लाम्बो विचार करतां एमना जाणवामां आव्युं के अन्ननां सघळां बीज पृथ्वी चोरी गई छे ए ज एनुं कारण छे ॥१२॥

एवी रीते बुद्धिवडे निश्चय करी, जेम त्रिपुरारि महादेवनी माफक अत्यन्त क्रोध करीने पृथ्वीने लक्ष करी बाण चाढाव्युम् ॥१३॥

[[४६८]] हथियार लई तैयार थयेला पृथुने जोई पृथ्वी थरथर ध्रुजवा लागी अने जेम पारधी पाछळ पडवाथी हरणी जेम भागे तेम बीकथी गायनुं रूप धरीने भागी ॥१४॥

पृथुनी आङ्खो क्रोधथी लाल-लाल थई गई हती. पृथ्वी ज्यां-ज्यां भागीने गई त्यां-त्यां पृथु महाराजे धनुष उपर बाण चढावीने ज एनो पीछो पकड्यो ॥१५॥

दिशा, खूणा, स्वर्ग, पृथ्वी अने अन्तरिक्षमां ज्यां पण ए दोडीने जती त्यां महाराज पृथु उगामेला हथियार साथे पोतानी पाछळ देखाता हता ॥१६॥

जेम मनुष्यने मृत्युथी बचावनार कोई न मळे तेम त्रिलोकमां पोतानी रक्षा करनार कोई पण न मळतां पृथ्वी त्रास पामी अने दुखित चित्तथी पाछी वळीने तेणे पृथु राजाने कह्युं - ॥१७॥

‘‘हे धर्मना तत्त्वने जाणनार शरणागत वत्सल राजन! आप मारी पण रक्षा करो केमके बधां ज प्राणीओनुं रक्षण करवा आप तत्पर छो’’ ॥१८॥

हुं अत्यन्त दीन अने निरपराधी छुं तेने आप शामाटे मारी नाखवा मागो छो? तदुपरान्त आप तो धर्मज्ञ तरीके प्रख्यात छो तो आप मने स्त्रीजातिने मारशो केम? ॥१९॥

स्त्रीओ अपराधमां आवी होय तो साधारण पुरुषो पण एमना उपर हाथ उठावता नथी तो आपना जेवा दयाळु अने दीनवत्सल पुरुषो केम मारे? ॥२०॥

हुं तो एक मजबूत होडी जेवी छुं. आखुं जगत्‌ मारा ज आधारे स्थिति करी रह्युं छे. मने तोडी-फोडीने आप पोताने तथा प्रजाने जलनी उपर केम राखशो? ॥२१॥

पृथु बोल्या - हे पृथ्वी! तुं मारी आज्ञा नथी मानती तेथी हुं तने मारी नाखीश. पृथ्वीरूपे तुं यज्ञमां भाग तो ले छे छतां वळतर रूपे धान्यादि आपती नथी अने गायरूपे रोज लीलुञ्छम घास खावा छतां थानमान्थी दूध देती नथी एटले तारा जेवी दुष्टाने एना अपराधने लीधे दण्ड देवो ए अयोग्य कहेवाय नहि ॥२२-२३॥

पूर्वे ब्रह्माए सरजेलां अन्ननां बीज हालमां ते तारा शरीरमां सङ्घरी मूकेलां छे अने मूर्खतावश हजुपण मारी परवा कर्या विना आपती नथी तेथी बाणथी तने कापी नाखी, आ प्रजा जे भूखथी पीडाय छे अने विलाप करे छे तेने तारुं मांस [[४६९]] खवरावी एमनी भूखने मटाडीश ॥२४-२५॥

पुरुष, स्त्री के नपुंसक गमे ते होय पण जे दुष्ट पोतानुं ज पेट भरी लई पेट पर हाथ फेरवे छे एवा निर्दयने मारी नाखवाथी राजाने पाप लागतुं नथी ॥२६॥

अत्यारे मायाथी गायरूप बनेली तुं गर्वीली अने मदोन्मत्त छे; बाणवडे तारा ककडे-ककडा करी नाखी मारी योगशक्तिथी आ प्रजाने हुं धारण करीश ॥२७॥

आ प्रमाणे बोलता अने काळनी पेठे क्रोधनी मूर्तिरूप बनेला पृथुराजाने पृथ्वीए थरथरतां हाथ जोडी प्रणाम करी कह्युम् ॥२८॥

‘‘हे परमपुरुष! मायाथी अनेक अवतार धरनार, सगुण स्वरूपवान देखावा छतां स्वरूपज्ञानने लीधे जेमां देहाभिमाननां रागद्वेषादिक मोजां शमी गयां छे तेवा आपने हुं प्रणाम करुं छुम् ॥२९॥

आप ज सम्पूर्ण जगत्‌ना विधाता छो. आपे ज आ त्रिगुणात्मक सृष्टि घडी छे अने मने बधा जीवोनो आश्रय बनावी छे. बधा जीवो मारा उपर रहे एवी व्यवस्था करी छे. आप सर्वथा स्वतन्त्र छो. प्रभो! आप ज ज्यारे अस्त्र-शस्त्र लई मने मारवा तैयार थई गया तो हुं बीजा कोने शरणे जाउं? ॥३०॥

आपनी अन्दर रहेनारी अने जीव साथे सम्बन्ध राखनारी मायावडे आपे आ चराचर जगत्‌ प्रथम रच्युं अने आप ज ए ज मायावडे हाल जगत्‌नुं रक्षण करवाने अवतरेला छो. आप धर्ममां निष्ठा राखनार छो छतां गोरूपधारिणी मने मारी नाखवाने शी रीते तैयार थया छो? ॥३१॥

आपनी अन्दर रहेनारी अने जीव साथे सम्बन्ध राखनारी मायावडे आपे आ चराचर जगत्‌ प्रथम रच्युं अने आप ज ए ज मायावडे हाल जगत्‌नुं रक्षण करवाने अवतरेला छो. आप धर्ममां निष्ठा राखनार छो छतां गोरूपधारिणी मने मारी नाखवाने शी रीते तैयार थया छो? ॥३१॥

आपनी माया एवी छे के ए कोईथी जीती शकाय तेम नथी. एने लीधे अजितेन्द्रिय पुरुषो पोतानुं कर्तव्य शुं छे ए जाणी शकता नथी. आप ईश्वरे ब्रह्माजीने सरजी एनी पासे जगत्‌ने उत्पन्न कराव्युं. आम आप पोताथी एकरूप अने मायाथी अनेकरूप छो ॥३२॥

पञ्चभूत, इन्द्रियो, इन्द्रियोना देवता, बुद्धि अने अहङ्कार ए बधी आपनी शक्तिओ छे. एनावडे आ जगत्‌नी उत्पत्ति, स्थिति अने संहार करो छे. जुदां- [[४७०]] जुदां कार्योमाटे समय-समय आपनी शक्तिओनो अविर्भाव अने तिरोभाव थया करे छे. सर्व-नियन्ता परम पुरुष, आपने हुं प्रणाम करुं छुम् ॥३३॥

हे अजन्मा! ए ज पञ्चमहाभूत, इन्द्रियो अने अन्तःकरणरूप जगत्‌ने पोते बनावी अने एने सारी रीते स्थापवाने माटे आदिवराहनो अवतार धारण करी मने रसातलमान्थी बहार लाव्या हता. ते ज आप आजे हुं जे पाणी पर वहाण जेवी छुं तेमां रहेली प्रजानुं रक्षण करवानी इच्छाथी पृथुराजारूपे अवतर्या छो ॥३४॥

आ प्रमाणे एक वार तो मारो उद्धार करीने आपे ‘धराधर’ नाम धारण कर्युं. आज ए ज आप वीरमूर्तिथी, जलनी उपर रहेली नौकानी जेम रहेली मारा ज आश्रये रहेल प्रजानी रक्षा करवाना आशयथी तीखां-तीखां बाण चढावी दूध न देवाना अपराधमाटे मने मारी नाखवा ईच्छो छो ए मोटुं आश्चर्य कहेवाय ॥३५॥

नूनं जनैरीहितमीश्वराणाम्‌ अस्मद्विधैस्तद्‌गुणसर्गमायया ॥ न ज्ञायते मोहितचित्तवर्त्मभिः तेभ्यो नमो वीरयशस्करेभ्यः ॥३६॥

आ त्रिगुणात्मक सृष्टिनी रचना करवावाळी आपनी मायाथी मारा जेवा साधारण जीवोनां चित्त मोहग्रस्त थई रह्यां छे. मारा जेवा लोको तो आपना भक्तोनी लीलाओनो आशय पण नथी समजी शकता तो पछी आपना कोई कार्यनो उद्‌देश न समजे तो एमां आश्चर्य ज शुं? तेथी इन्द्रियसंयमादि द्वारा वीरोचित यज्ञनो विस्तार करे छे. तेवा आपना भक्तोने पण हुं प्रणाम करुं छुम् ॥३६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणनो क्रियानिरूपण नामनो पाञ्चमो) ‘‘लोकोनुं दुःख मटाडवाने पृथ्वीने मारवा माण्डतां एणे पृथुनी करेली स्तुति’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय १८

पृथु राजाए पृथ्वीनुं दोहन कर्युं

विशेष - आमां पृथ्वीना कहेवा उपरथी पृथु राजा वगेरेए जुदा-जुदा वाछडाओ अने वासणोनी कल्पना करी, पृथ्वी पासेथी जोईतुं दूध दोही लेवानी वात करीने कामपूर्तिरूपी फळनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. आखी कथा आलङ्कारिक भाषामां समजवानी छे. पृथु राजाए पोताना पराक्रमथी आखी पृथ्वीने ध्रुजावी नाखतां दुष्ट लोको नाश पाम्या अने पृथ्वी गरीब [[४७१]] गाय जेवी थई तेथी योग्य व्यक्तिने योग्य कार्यभारनी सोम्पणीरूपी सुन्दर आयोजनथी सारी पेदाश थवा लागी. इत्थं पृथुमभिष्टूय रुषा प्रस्फुरिताधरम्‌ ॥ पुनराहावनिर्भीता संस्तभ्यात्मानमात्मना ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे क्रोधथी जेना होठ फरकता हता तेवा पृथुथी भय पामेली पृथ्वीए स्तुति करी अने पछी धैर्य धरी मनने स्थिर राखी ए फरीथी बोलीः ॥१॥

‘‘हे प्रभु! क्रोधने शान्त करो अने मारी प्रार्थना साम्भळो. समजुं पुरुष भमरानी पेठे सर्व ठेकाणेथी सार ले छे ॥२॥

आ लोकमां तेमज परलोकमां पुरुषार्थ सिद्ध करवाने तत्त्ववेत्ता मुनिओए कृषि, अग्निहोत्र आदि उपाय शोध्या छे अने आचर्या छे ॥३॥

ए प्राचीन ऋषिओए बतावेला उपायोनो आ समयमां पण जे पुरुष श्रद्धापूर्वक सारी रीते आचरण करे तेने सहेलाईथी इच्छित फल मळे छे ॥४॥

परन्तु जे तर्कशील मनुष्य उपायोनो अनादर करी मनःकल्पित उपायोनो आश्रय ले छे तेवा बधा उपाय अने प्रयत्न वारंवार निष्फळ थाय छे ॥५॥

हे राजा! जे राजाओनुं काम लोकोनुं पालन करवानुं छे ते ज राजाओए मारुं पण पालन करवानुं छे. मारा उपर प्रीति छोडी देवाथी लोकोमां चोरनो घणो वधारो थयो छे. ब्रह्माजीए पूर्वे जे औषधिओ सरजेली ते, यम-नियम वगेरे व्रतोनुं पालन न करनारा दुराचारी लोकोज खाई जई रह्या छे ते जोईने हुं ए औषधिओने यज्ञने सारुं गळी गई छुम् ॥६-७॥

एटलामाटे हे लोकपालक वीर! जो आपने जोईता अने पौष्टिक अन्ननी इच्छा होय तो मने दोहनार, दोहवानुं योग्य पात्र अने योग्य वाछडानी व्यवस्था करो; जेथी वाछडा उपरना प्रेमने लीधे पाहो मूकी हुं आपने जोईता पदार्थोरूप दूध काढी आपीश. अत्यारे घणो समय थई जवाथी अवश्य ए धान्यो मारा उदरमां सारहीन थई गयां छे. आप एने पूर्वाचार्योए बतावेला उपायोथी बहार काढी लो ॥८-१०॥

एक बीजी वात. आप मने सपाट बनावो, जेथी चोमासुं वीती जतां पण वरसादनुं पाणी मारी उपर चारे कोर सरखुं रहे अने मारा अन्दरनो भेज सुकाई न [[४७२]] जाय’’ ॥११॥

ए प्रमाणे पृथु राजाए पृथ्वीनुं प्रिय अने हिताकारी वचन स्वीकार्युं अने स्वायम्भुव मनुने वाछडो करी पोताना हाथमां ज सघळां धान्योने दोही लीधां ॥१२॥

जेम पृथु राजाए सार-सार लई लीधो तेम बीजा पण समजदार पुरुषो सर्व ठेकाणेथी सार ज ले छे पछी पृथु राजाए वश करेली पृथ्वी पासेथी पोतपोताने जोईता पदार्थो तेमणे दोही लीधा* ॥१३॥

विशेष - आ पृथ्वीने दोहवानुं वर्णन आलङ्कारिक छे तेथी एमां एटलुं ज समजवानुं छे के कोई राजा नहि होवाथी पृथ्वीमां घणी अव्यवस्था थई गई हती ते पृथु राजाए पोताना बळथी मटाडीने सौ मण्डलीओने सौ सौना उपरी मारफत जोईता पदार्थो मेळववा वगेरेनी सगवड करी आपी तथा सर्वनुं पोषण अने अभिवर्धन थाय एम कर्युं. अथवा पृथ्वीमां रहेला पञ्चभूतोने क्रियाशील बनावी ए प्रकारे पृथ्वीनुं दोहन कर्युं. ऋषिओए बृहस्पतिने वाछडो करी पोतानी इन्द्रियो-वाणी, मन अने कर्ण- रूप वासणमां वेदरूप पवित्र दूधने दोही लीधुम् ॥१४॥

देवोए इन्द्रने वाछडो करी सोनाना पात्रमां मननी, इन्द्रियनी अने शारीरिक बलरूपी दूध दोही लीधुम् ॥१५॥

दैत्य अने दानवोए असुरमां उत्तम एवा प्रह्‌लादने वाछडो करी लोढाना पात्रमां मदिरा अने आसवरूप दूध दोह्युम् ॥१६॥

गान्धर्व अने अप्सराओए विश्वासु नामना गन्धर्वने वाछडो करीने कमळना पात्रमां सङ्गीत, माधुर्य, गायन अने सौन्दर्यरूप दूध दोह्युम् ॥१७॥

श्राद्धना अधिष्ठाता महाभाग पितृगणे अर्यमा नामना पितृओना स्वामीने वाछडो करी काची माटीना पात्रमां कव्य(पितृओने अपातुं अन्नादि) दोही लीधुम् ॥१८॥

सिद्ध लोकोए कपिलमुनिने वाछडो करी आकाशरूप पात्रमां अणिमा वगेरे आठ सिद्धिओ दोही लीधी. विद्याधर लोकोए ए ज वाछडाथी अने ए ज पात्रमां आकाशगमन इत्यादि विद्याओ दोही लीधी ॥१९॥

किम्पुरुष वगेरे बीजा मायावी पुरुषोए मय दानवने वाछडो करी सङ्कल्प मात्रथी अन्तर्धान थई जवुं, विचित्र रूप धारण करवुं वगेरे अद्‌भूत माया दोही लीधी ॥२०॥

[[४७३]] यक्ष, राक्षस, भूत अने पिशाच वगेरे मांसाहारीओए रुद्रने वाछडो करी खप्परमां रुधिरासरूपी दूध दोह्युम् ॥२१॥

अहि१ सर्प२ नाग३ अने र्वीछी वगेरेए तक्षक नागने वाछडो करी पोताना मुखरूप पात्रमां झेररूप दूध दोही लीधुम् ॥२२॥

विशेष - १. फेणवगरना २. फेणवाळा नाग ३. कद्रूनी सन्ततिमां थयेला. पशुओए नन्दिश्वरने वाछडो करी वनरूप वासणमां घासरूप दूध दोही लीधुं. फाडी खानारां हिंसक प्राणीओए सिंहने वाछडो करी पोताना शरीररूप पात्रमां काचा मांसरूप दूध दोही लीधुम् ॥२३॥

पक्षीओए गरुडने वाछडो करी कीडा पतङ्गियां वगेरे चर अने फळ वगेरे अचर पोताना भक्ष्यरूप दूध दोह्युम् ॥२४॥

अने पर्वतोए हिमालयने वाछडो करी पोतानां शिखरोरूप पात्रमां अनेक प्रकारनी धातुरूप दूध दोह्युम् ॥२५॥

पृथुए वश करेली अने सर्व वस्तु पूरी पाडनारी पृथ्वीनी पासेथी सघळाओए पोतपोताना वर्गना अग्रेसरने वाछडो करी पोतपोतानां पात्रमां भिन्न-भिन्न पदार्थोने दूधना रूपमां दोही लीधा ॥२६॥

ए प्रमाणे पृथु राजा वगेरे बधा अन्नाहारीओए जुदां-जुदां पात्र अने वाछडाद्वारा पोतपोतानां भोग्य अन्नरूप जुदां-जुदां दूध दोही लीधाम् ॥२७॥

एथी पृथु राजा एटला बधा राजी थया के सर्व पदार्थ पूरा पाडनारी पृथ्वीने पुत्री मानी एना उपर पुत्री जेवो ज प्रेम राख्यो. पछी तो राजाधिराज पृथुए पोताना धनुषनी अणीथी पर्वतोनां शिखरो अने टेकराओने तोडी नाख्या अने आखा भूमण्डळने लगभग सपाट करी नाख्युं* ॥२८-२९॥

विशेष - धनुषनी अणीथी पृथ्वीने सपाट करी एनो अभिप्राय एवो समजाय छे के धनुषना जोरथी लोकोने वश करी एओनी पासे पृथ्वीने सपाट करावी अथवा समय पृथ्वीनुं खेडाण कराव्युं. पछी प्रजाओने आजीविका आपनार पितातुल्य पृथु राजाए सघळी जग्याए जोईए तेवी वसवाटनी सगवड सौने करी आपी ॥३०॥

प्राक्पृथोरिह नैवैषा पुरग्रामादिकल्पना ॥ यथासुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः ॥३२॥

[[४७४]] गामडां, कसबा, नगर, अनेक प्रकारना किल्ला, आहीरनां स्थानक, गायोना नेस, फोजना उतारानां ठेकाणां, खाणो, खेडु लोकोनी वस्तीनां गाम अने डूङ्गरनी तळेटीमां गाम वसाव्यां. पृथुराजानी पहेलां पृथ्वी उपर आवां नगर के गाम वगेरेनी रचना कांई पण नहोती. बधा लोको जेने जेम फावे तेम निर्भय रीते छूटा-छवाया रहेता हता ॥३१-३२॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणमां फलनिरूपण नामनो छठ्ठो) ‘‘पृथुराजाए पृथ्वीनुं दोहन कर्युं’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.

अध्याय १९

यज्ञनो घोडो हरी जनार इन्द्रनो वध करता पृथु राजाने ब्रह्माजीए वार्या

विशेष - उपला छ अध्यायोमां प्रजाना कामनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. हवे पाञ्च अध्यायवडे पृथु राजाना कामनुं वर्णन करवामां आवशे. आ पाञ्च अध्यायोमां शुद्धि, कृष्णप्रसाद, स्वधर्म ज्ञान अने मोक्ष एम विभाग पाड्या छे. अथादीक्षत राजा तु हयमेधशतेन सः ॥ ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - पछी पृथुराजाए महाराज मनुना ब्रह्मावर्तमां ज्यां सरस्वती नदी पूर्व दिशामां वहे छे त्यां सो अश्वमेध यज्ञ करवानी दीक्षा लीधी ॥१॥

‘‘ए काम करवाथी पृथुराजा मारा करतां पण घणा वधी जशे’’ एम धारी भगवान्‌ इन्द्र पृथुराजानो ए यज्ञमहोत्सव सही शक्या नहि ॥२॥

महाराज पृथुना यज्ञमां बधाना अन्तरात्मा सर्वलोक पूज्य जगदीश्वर भगवान्‌ हरिए यज्ञेश्वररूपमां साक्षात्‌ दर्शन दीधां हताम् ॥३॥

[[४७५]] एमनी साथे ब्रह्माजी, सदाशिव पोतपोतानां परिवार सहित लोकपाल गण पण पधार्या हता. ए समयमां गन्धर्वो, मुनिओ अने अप्सराओ एमनां चरित्रनुं गान करतां हताम् ॥४॥

सिद्धो, विद्याधरो, दैत्यो, दानवो, यक्षो वगेरे सुनन्द अने नन्द वगेरे प्रमुख पार्षदो, कपिल, नारद, दत्तात्रेय, सनकादि योगेश्वरो अने सेवा करवानी उत्कण्ठावाळा बीजा पण भक्तो भगवाननी साथे ज आव्या हता ॥५-६॥

हे विदुरजी! ए यज्ञमां वस्तु पूरी पाडनारी पृथ्वी गायनुं रूप धरीने यजमानने जोईता पदार्थो पूरा पाडती हती ॥७॥

नदीओ द्राक्ष, शेरडी वगेरे बधी जातना रसो वहावी लावती. जेमान्थी मधु चूवे एवां मोटां-मोटां वृक्षो, दूध, दर्ही, अन्न, घी वगेरे जात-जातनी वस्तुओ समर्पण करतां हताम् ॥८॥

समुद्रोए ढगलाबन्ध रत्नो आप्यां; पर्वतोए भक्ष्य, भोज्य, लेह्य अने चोष्य* चार प्रकारनां अन्न आप्यां अने लोकपाळ सहित सर्वे लोको भात-भातनी भेटो लाव्या ॥९॥

विशेष - जे अन्न सारी पेठे चावीने खावा जेवुं होय ते ‘भक्ष्य’ कहेवाय छे; दाळ भात वगेरे ‘भोज्य’ कहेवाय छे; कढी वगेरे चाटवानुं होय ते ‘लेह्य’ कहेवाय छे अने चूसवानुं होय ते ‘चोष्य’ कहेवाय छे, जेम के शेरडी. ए प्रमाणे भगवान्‌ ज जेना स्वामी छे तेवा पृथुराजानी भव्य उन्नति थयेली जोई इन्द्रे इर्ष्याथी एना यज्ञमां भङ्ग पाड्यो ॥१०॥

ज्यारे छेल्ला अश्वमेधद्वारा भगवान्‌ यज्ञपतिनुं पूजन करवानुं शरू करवामां आव्युं त्यारे इर्ष्याना मार्या इन्द्रे गुप्त रीते यज्ञना घोडानुं हरण कर्युम् ॥११॥

इन्द्रे पोताना रक्षणमाटे कवचरूपे पाखण्डवेश धारण करी लीधो हतो, जे अधर्ममां पण धर्मनो भ्रम उत्पन्न करनारो छे अने जेनो आश्रय लई पापी पुरुष पण धर्मात्मा जेवो लागे छे ॥१२॥

अत्रि ऋषिनी प्रेरणाथी महा पराक्रमी पृथुनो पुत्र इन्द्रने मारी नाखवा एनी पछवाडे दोड्यो अने क्रोधथी ‘‘ऊभो रहे ऊभो रहे’’ एवो पडकार कर्यो ॥१३॥

पण इन्द्रे मस्तक उपर जटाजूट धारण करेली होवाथी तथा तेना शरीर उपर भस्म लगावेली होवाथी ‘‘ए साक्षात्‌ धर्मनुं स्वरूप छे’’ एम मानी एणे एना [[४७६]] उपर बाणनो घा कर्यो नहि ॥१४॥

वध करतां अटकी गयेला ए कुमारने जोई अत्रि ऋषिए फरी वार आज्ञा करी ः ‘‘हे राजकुमार! ए यज्ञमां विघ्न करनार अने देवोमां अधम इन्द्र छे तेने मारी नाख’’ ॥१५॥

एवी आज्ञा थता जेम रावण पाछळ जटायु दोडेलो तेम, पृथुनो पुत्र आकाशमार्गमां उतावळथी जता इन्द्रनी पछवाडे क्रोध करीने दोड्यो ॥१६॥

स्वर्गपति इन्द्र एने पाछळ पडेलो जोई घोडाने तथा पोताना पाखण्ड वेशने पडतो मूकी अन्तर्धान थई गयो अने पृथुनो पुत्र पोताना यज्ञपशु घोडाने लईने पितानी यज्ञशाळामां पाछो आव्यो ॥१७॥

हे विदुरजी! ए कुमारनुं अद्‌भुत पराक्रम जोईने मोटा ऋषिओए एने ‘‘विजिताश्व’’ एवुं नाम आप्युम् ॥१८॥

घोडाने चषाल* अने यूपे बान्धी दीधो हतो. शक्तिशाळी इन्द्रे घोर अन्धकार फेलावी दीधो अने एमां ज छूपाईने फरीथी ए घोडाने तेनी सोनानी साङ्कळ सहित लई गया ॥१९॥

विशेष - यज्ञमण्डपमां यज्ञपशुने बान्धवाने माटे जे खम्भ होय छे तेने ‘यूप’ अने यूपनी आगळ रखाता गोळ काष्ठने चषाल कहेवामां आवे छे. अत्रि ऋषिए फरी एने आकाश मार्गे नासी जतो जोई पृथुना पुत्रने एनी पछवाडे मोकल्यो, परन्तु इन्द्रे माणसोनां माथानी खोपरीओ तथा खट्‌वाङ्ग धारण कर्या हतां तेथी ‘‘ए कोई भेख छे’’ एम जाणी पृथुना पुत्रे प्रहार कर्यो नहि॥२०॥

आ वेळा पण, अत्रि ऋषिना कहेवाथी एणे क्रोध करीने बाण चढाव्युं तेथी घोडाने तथा पाखण्डी रूपने मूकी इन्द्र त्यां ज अन्तर्धान थई गयो ॥२१॥

पृथुनो पुत्र विजिताश्व घोडो लई पिताना यज्ञमां आव्यो; त्यारथी इन्द्रे ग्रहण करेलां दुष्ट निन्दित वेषने मन्दबुद्धि लोकोए ग्रहण करी लीधो ॥२२॥

घोडाने हरी जवानी इच्छाथी इन्द्रे जे-जे रूप लीधां ते सघळा पाखण्ड कहेवाय छे केमके ‘पा’ एटले पाप अने ‘खण्ड’ एटले (निशानी) चिह्‌न एवो एनो शब्दार्थ छे ॥२३॥

ए प्रमाणे पृथुना यज्ञनो भङ्ग करवा सारुं घोडानुं हरण करतां, इन्द्र जे-जे रूप लईने मूकी दीधां हतां ते नग्न, रक्ताम्बर, कापालिक वगेरे पाखण्डपूर्ण पन्थ उत्पन्न [[४७७]] थया. आ पाखण्डप्रचुर आचारोमां मनुष्योनी बुद्धि प्राय - मोहित थई जाय छे, कारण के आ नास्तिक मत देखावमां सुन्दर छे अने मोटी-मोटी युक्तिओ (तर्को)थी पोताना पक्षनुं समर्थन करे छे, हकीकतमां ए उपधर्म-नास्तिकवादी छे. लोको एने धर्म मानी एमां आसक्त भ्रमवश थई जाय छे ॥२४-२५॥

इन्द्रनी आ कुचाल वात जाणी पृथुराजा गुस्से थया अने इन्द्रने मारवा सारंु धनुष्य उपाडीने हाथमां लई बाण चढाव्युम् ॥२६॥

पृथुराजा इन्द्रनो वध करवा तैयार थया त्यारे एमनो एवो असह्य वेग हतो के एमनी सामुं जोई शकाय नहि. इन्द्रने मारी नाखवा तैयार थयेल पृथुराजाने जोई यज्ञना ब्राह्मणोए एमने वार्या अने कह्युं - ‘‘आ यज्ञमां शास्त्रमां कहेल पशुना वध सिवाय बीजा कोईनो वध करवो ए आपनेमाटे योग्य नथी ॥२७॥

आ यज्ञनो नाश करनार अने आपनी कीर्तिथी निस्तेज थई गयेला ए इन्द्रने ज अमोघ आवाहन-मन्त्रो द्वारा अर्ही बोलावी लईए छीए अने बलात्कारथी अग्निमां होमी दईए छीए’’ ॥२८॥

हे विदुरजी! ए प्रमाणे यजमाननी रजा लई एना ऋत्विजोए क्रोधपूर्वक इन्द्रनुं आवाहन कर्यु. तेओ स्रुवाद्वारा आहुति आपवा ज जाय छे त्यां तो ब्रह्माजीए एमने अटकाव्या अने कह्युंः ॥२९॥

तमे जेने मारवा धारो छो ते आ यज्ञ सञ्ज्ञक इन्द्र भगवाननी ज मूर्ति छे. यज्ञ करीने पूजवामां आवता देवो एना अङ्गरूप तो छे; माटे एनो वध करवो ए योग्य नथी ॥३०॥

हे ब्राह्मणो! (बळवान साथे विरोध करवामां साधारण लोकोनी पण घणी खराबी छे) जुओ, राजाना आ यज्ञने तोडवानी इच्छाथी इन्द्रे केटला बधा मोटा पाखण्डना मार्ग उत्पन्न कर्या! (माटे हजु पण एमनी साथे समाधान नहि करो तो हजु पण पाखण्डने ज पेदा करशे) ॥३१॥

परम यशस्वी पृथु राजाना सो यज्ञोमां एक ओछो रहे तो पण शी हरकत छे? हे राजा! यज्ञनी क्रिया बन्ध करो. आप मोक्षधर्मना सारा जाणकार छो तेथी आपने यज्ञानुष्ठाननी जरूरज नथी ॥३२॥

आपनुं मङ्गल हो. इन्द्र अने आप बन्ने भगवाननाज स्वरूप छे. एना उपर क्रोध लाववो आपनेमाटे योग्य नथी ॥३३॥

हे महाराज! आ यज्ञमां भङ्ग पड्यो एवुं धारी ए विशेनी आप कांई पण चिन्ता [[४७८]] करशो नहि. मारी वात ध्यान दईने साम्भळो. जुओ दैवनी ज एनी इच्छा होय के अमुक काम थवा देवुं नहि. तेम छतां ए काम करवानी जे पुरुष चाहना राखे तेनुं मन क्रोधमां आन्धळुं बनीने मोहग्रस्त थई जाय छे, (एने कदी शान्ति मळती नथी) ॥३४॥

बस, आ यज्ञने बन्ध करो एने ज लीधे इन्द्रे चलावेला पाखण्डोथी धर्मनो नाश थई रह्यो छे कारण के देवताओमां अत्यन्त दुराग्रह होय छे ॥३५॥

जरा जुओ तो जे इन्द्र घोडो चोरी जईने आपना यज्ञमां विघ्न करी रह्या हता एमणे ज रचेला आ मनोहर पाखण्डो प्रत्ये सारी जनता खेञ्चाती जई रही छे ॥३६॥

हे वेन पुत्र! वेदशास्त्रथी सिद्ध थयेला लोकोनो धर्म वेनना अन्यायथी नाश पामी गयो हतो तेनुं पुनरुत्थान करवा एना देहमान्थी अंशरूपे आप अर्ही अवतर्या छो ॥३७॥

तेथी हे प्रजापालक पृथु राजा! आपना अवतारना उद्‌देश्य उपर विचार करी आप भृगु आदि विश्वरचिता मुनीश्वरोनो सङ्कल्प साकार करो. आ प्रचण्ड पाखण्डमार्गरूप इन्द्रनी माया अधर्मनी जनेता छे, आप एनो अन्त-नाश करी दो ॥३८॥

मैत्रेयेकह्युं - ए प्रमाणे लोकगुरु ब्रह्माजीए आज्ञा करी ए उपरथी पृथु राजाए यज्ञनो आग्रह पडतो मूक्यो अने इन्द्रनी साथे प्रेमपूर्वक समाधान कर्युम् ॥३९॥

घणा यज्ञो करनार पृथु राजाए यज्ञनुं अन्त-स्नान करी लीधुं त्यारे यज्ञोथी तृप्त थयेला देवोए एमने अभीष्ट वरदान आप्यां. हे विदुरजी! श्रद्धा सहित दक्षिणा मळवाथी राजी थयेला अने सत्कार पामेला वचन सिद्धिवाळा ब्राह्मणोए आदि राजा पृथुने आशीर्वचन आप्या ॥४०-४१ ॥ त्वयाऽऽहूता महाबाहो सर्वएव समागताः ॥ पूजिता दानमानाभ्यां पितृदेवर्षिमानवाः ॥४२ ॥ तेमणे कह्युं ः‘‘हे महाबाहु! आपना बोलाववाथी जे पितृओ, देवो, ऋषिओ अने मनुष्यो आव्या हता ते बधानो दान अने मानथी यथायोग्य सत्कार करवामां आव्यो छे’’ ॥४२॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धना (त्रीजा कामप्रकरणमां शुद्धिनिरूपण नामनो सातमो) ‘‘यज्ञनो घोडो हरी जनार इन्द्रनो वध करतापृथु राजाने ब्रह्माजीए वार्या’’ नामनो १९मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[४७९]]

अध्याय २०

यज्ञमां भगवाने पृथुने करेलो उपदेश तथा एमनी परस्परनी प्रीति

विशेष - कर्मद्वारा प्रभुए चित्तशुद्धि करावी, पछी प्रभुनी पृथुए स्तुति करी. आ अध्यायमां एनुं वर्णन आवे छे. भगवानपि वैकुण्ठः साकं मघवता विभुः ॥ यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुक्‌ तमभाषत ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - यज्ञोना पति, यज्ञभोक्ता अने यज्ञोथी प्रसन्न थयेला भगवाने इन्द्रनी समक्ष पृथु राजाने आ प्रमाणे कह्युं - ॥१॥

‘‘आ इन्द्रे तमारा सो अश्वमेध करवाना सङ्कल्पनो भङ्ग कर्यो छे; पण हवे ए तमारी पासे एमाटे क्षमा मागे छे. तो तमारे एने क्षमा आपवी जोईए ॥२॥

हे राजा! सुबुद्धिवाळा अने भला स्वभाववाळा उत्तम मनुष्यो कोई प्राणीनो द्रोह करे ज नहि केमके तेओ देहने आत्मा मानता नथी ॥३॥

जो तमारा जेवा पुरुषो पण मारी मायाथी मोह पामे तो समजी लेवुं के घणा दिवसो सुधी करेली ज्ञानी जनोनी सेवा केवळ श्रमरूप ज हती ॥४॥

आ देह अज्ञान, कामना अने कर्मनुं पूतळुं ज छे एवुं जाणी ज्ञानी पुरुष देहने विशे आसक्ति राखतो न होय ते देहे उत्पन्न करेलां घर, सन्तान अने धनमां वृथा ममता राखे खरो? ॥५-६॥

आत्मा देहथी जुदो छे. आत्मा एक छे-देह अवस्थाने लीधे अनेक प्रकारनो छे. आत्मा शुद्ध छे, देह मलिन छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे-देह जड छे. आत्मा निर्गुण छे-देह सगुण छे, आत्मा गुणोनो आश्रय छे, देह मपाय छे. आत्मा कोईथी ढङ्कातो नथी-देह वस्त्रोथी ढङ्काय छे. आत्मा द्रष्टा छे-देह दृश्य छे . आत्मा स्वतःसिद्ध छे-देह आत्माने लईने सिद्ध थाय छे. आ प्रमाणे देहमां रहेला आत्माने जे पुरुष देहथी जुदो जाणे ते देहमां रह्या छतां, देहना विकारोथी लेपातो नथी केमके एनी स्थिति मारा (परमात्मा)माञ्ज रहेली छे ॥७-८॥

हे राजा! जे पुरुष निष्कामपणे अने श्रद्धापूर्वक स्वधर्मथी मारी भक्ति करे छे तेनुं मन धीरे-धीरे शुद्ध थाय छे ॥९॥अध्याय-२०, चतुर्थस्कन्ध ४८० चित्त शुद्ध थतां एने विषयो साथे सम्बन्ध रहेतो नथी अने तेने तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति थई जाय छे, पछी तो ए सारी समतारूप स्थितिने प्राप्त थई जाय छे. आ ज परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य छे ॥१०॥

जे पुरुष एम जाणे छे के शरीर, ज्ञान, क्रिया अने मननो साक्षी होवा छतां कुटस्थ आत्मा एमनाथी निर्लिप्त ज रहे छे ते कल्याणमय मोक्षपदने प्राप्त करी ले छे ॥११॥

राजन गुण प्रवाहरूप आवागमन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी, देवता अने चिदाभास आ बधाना समुदायरूप परिच्छिन्न लिङ्ग शरीरनुं ज थया करे छे. सर्वसाक्षी आत्मानी साथे एने कंई सम्बन्ध नथी. मारामां जेने प्रीति लागी छे ते बुद्धिमान पुरुष सम्पत्ति अने विपत्ति प्राप्त थतां क््यारेय हर्षशोकादि विकारोने वश थता नथी होता ॥१२॥

वीर एटलामाटे ज तमे सुख-दुःखमां तथा उत्तम, मध्यम, कनिष्ठमां समान भाव राखी इन्द्रियो तेमज अन्तःकरणने वश करो. में आपेला सघळा कारभारी लोकोनी सहायथी सर्वजगत्‌नुं रक्षण करो ॥१३॥

राजानुं कल्याण प्रजापालनमां ज छे. केमके प्रजाए करेला पुण्यमान्थी छठ्ठो भाग राजाने परलोकमां मळे छे. परन्तु जो राजा प्रजानी रक्षा करे नहि अने छतां प्रजा पासेथी कर ले तो एनुं बधुं पुण्य तो प्रजा पडावी ले छे अने वधारामां राजाने प्रजाना पापना भागीदार पण थवुं पडे छे ॥१४॥

एम विचार करी जो तमे उत्तम ब्राह्मणोनी सम्मति अने पूर्वपरम्पराथी प्राप्त थयेल धर्मने प्राधान्य आपी, अपनावी लई अने क््यांय पण आसक्त थया विना आ पृथ्वीनुं न्यायपूर्वक पालन करता रहो तो तमे बधी प्रजानो प्रेम प्राप्त करशो अने थोडां ज दिवसोमां घेर बेठां सनकादि सिद्ध पुरुषोनां तमने दर्शन थशे ॥१५॥

हे राजा! मारी पासेथी कांई वरदान मागो केमके तमारां गुण अने शीले मने वश करी लीधो छे. क्षमा आदि गुणो रहित यज्ञ, तप अथवा योगथी मने प्राप्त करवो सरल नथी. हुं तो एना ज हृदयमां रहुं छुं जेना चित्तमां समता रहे छे ॥१६॥

मैत्रेये कह्युं - जगद्‌गुरु भगवाने ए प्रमाणे आज्ञा करी ते विश्वविजयी पृथुराजाए माथे चढावी ॥१७॥

पोताना कृत्यथी लजायेलो इन्द्र एमना पगमां पडवा जतो ज हतो त्यां तोअध्याय-२०,चतुर्थस्कन्ध ४८१ एने प्रेमथी आलिङ्गन करी, राजाए एना प्रत्येनो द्वेष काढी नाख्यो ॥१८॥

पछी महाराज पृथुए विश्वात्मा भगवाननुं पूजन कर्युं अने क्षण-क्षणमां छलकाई जता भक्तिभावमां निमग्न थई प्रभुनां पादारविन्द पकडी लीधाम् ॥१९॥

सत्पुरुषोनी साथे मैत्री राखनारा भगवान्‌ तो ए राजानी सामे पोते कमलदल समान नेत्रोथी जोई ज रह्या अने पोतानी पधारी जवानी इच्छा हती छतां एना उपर अनुग्रह करवा सारु रोकाया अने पधार्या नहि ॥२०॥

पृथुराजा हाथ जोडी उभा हता; एमनी आङ्खोमां आंसु ऊभराई जतां हतां तेथी ए भगवाननी सामुं जोई शकता नहोता आंसुथी व्याकुळ थयेला ए चूप उभा रह्या अने हृदयमां भगवानने ध्यानथी पधरावी हाथ जोडी जेमना तेम उभा ज रह्या ॥२१॥

देवोनां चरण भूमिनो स्पर्श करतां नथी तो देवाधिदेव भगवाननां चरण तो भूमिनो स्पर्श करे ज क््यान्थी? छतां भक्तवश्यता बतावता भगवान्‌ भूमि उपर चरण कमलो स्थिर करी उभा हता. एमनो श्रीहस्त गरुडजीना ऊञ्चा खभा उपर हतो. महाराज पृथु नेत्रोनां आंसु पोञ्छी अतृप्त दृष्टिथी एमनी तरफ जोता आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥२२॥

पृथुराजाए कह्युं - हे मोक्षपति प्रभु! आप वरदाननुं दान करनार ब्रह्मादि देवोने पण वरदान देवा समर्थ छो. विषयना सुख तो देहाभिमानीओए भोगववा जेवां छे. ए तो नरकनां प्राणीओने पण मळे छे. आप जेवा सर्वेश्वर पासेथी एवां सुखोने कयो समजु पुरुष मागे? माटे हे मोक्षपति! हुं एवां सुखोने मागतो नथी ॥२३॥

मोक्षमां पण जो महा पुरुषोना हृदयमान्थी आपना चरणारविन्दनो मकरन्द (कथारस) मुखद्वारा मळतो न होय तेवा मोक्षने पण हुं मागतो नथी. परन्तु, आपनी कीर्ति कथाना श्रवणने सारु मने दश हजार कान करी आपो एवो हुं वर मागुं छुं जेनाथी हुं आपनी लीला अने चरित्रो साम्भळ्या ज करुम् ॥२४॥

पुण्यकीर्ति प्रभो! आपना चरणकमल,मकरन्द रूपी अमृतकणोने लईने महापुरुषोना मुखमान्थी जे वायु नीकळे छे एमां ज एटली ताकात होय छे के ते तत्त्वने भूलेला अमारा जेवा कुयोगीओने फरी तत्त्वज्ञान करावी दे छे. तेथी अमारे बीजा कोई वरदानोनी आवश्यकता नथी ॥२५॥अध्याय-२०, चतुर्थस्कन्ध ४८२ हे शुभ कीर्तिवाळा! सत्पुरुषोना समागममां जो एक वार पण आपना यशने कोई मनुष्य अकस्मात्‌ पण साम्भळी ले अने जो ए गुणज्ञ होय तो पछी ए एने छोडे ज नहि; हा, पशु होय तो एनी वात अलग छे. स्वयं लक्ष्मीजी पण पोताना बधी जातना पुरुषार्थोनी सिद्धिमाटे आपना सुयश श्रवण करवा झङ्खे छे ॥२६॥

आप पुरुषोत्तम अने सर्व गुण निधान छो. हुं एने लक्ष्मीजीनी पेठे अत्यन्त उत्साह राखीने भजुं छुं. एकी वखते एक ज स्वामीनी एक ज प्रकारनी सेवा करवानी स्पर्धा राखनाराओमां झघडो थवानो सम्भव छे ॥२७॥

जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मीजीना हृदयमां मारा प्रत्ये विरोध थवानी सम्भावना तो छे ज; कारण के जे आपनी सेवामां एनो अनुराग छे तेने ज माटे हुं पण इच्छुं छुं. परन्तु आप दीनवत्सल होवाथी अमारी सेवाने आप घणी मोटी मानशो. आप तो आपना स्वरूपमां ज रमण करो छो. तेथी आप लक्ष्मीजीनी कशी जरूर मानता नथी ॥२८॥

एटलामाटे ज मायाना गुणोथी रहित एवा आपने निष्काम पुरुषो ज्ञान मळ्या पछी पण भजे छे. ए महात्मा पुरुषोने आपनां चरणनां स्मरण सिवाय बीजुं कशुं प्रयोजन होय एवुं अमने लागतुं नथी ॥२९॥

हुं कोई पण कामना विना ज आपनुं भजन करुं छुं. आपे मने आज्ञा करी के, ‘वर माग’ तो आपनी ए वाणीने तो हुं संसारने मोहमां नाखवावाळी ज मानुं छुं. एटलुं ज नहि पण आपनी वेदरूप वाणीए जगत्‌ बन्धायेल न होत तो लोको सकाम कर्म करे ज केम? ॥३०॥

हे परमेश्वर! आपनी मायाए लोकोने आपना सत्यस्वरूपथी विमुख कर्या छे केमके एओ मूर्ख बनीने स्वरूपानन्द सिवाय बीजां पुत्रादिक सुख मागे छे. हुं पण ए पैकीनो एक छुं. एने वरदानरूप भुलाववामां न नाखतां जेम पिता स्वयं वगर माग्ये बाळकनुं हित करे तेम आप मारुं हित करो ॥३१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे पृथुराजाए स्तुति करी त्यारे सर्वसाक्षी भगवाने कह्युंः‘‘हे राजा! तमने मारी भक्ति होजो. तमे मारी भक्ति करवानो विचार कर्यो ए घणुं सारुं कर्युं केमके एवा विचारथी मनुष्य सहजमाञ्ज मारी ए मायाने तरी जाय छे, जेने छोडवी अथवा जेना बन्धनथी छूटवुं अत्यन्त कठिन छे ॥३२॥अध्याय-२१,चतुर्थस्कन्ध ४८३ हे राजा! हवे तमे सावधान रही मारी आज्ञा प्रमाणे चालजो. प्रजापालक नरेश! जे पुरुष मारी आज्ञा प्रमाणे करे छे. तेनुं सर्वत्र कल्याण थाय छे’’ ॥३३॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे भगवाने पृथुराजाना सारगर्भित वचननो सत्कार कर्यो अने एना उपर अनुग्रह करी त्यान्थी पधारवानो विचार कर्यो ॥३४॥

देव, ऋषि, पितृ, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अप्सराओ, मनुष्यो, पक्षीओ अने बीजां पण अनेक प्राणीओ अने भगवानना पार्षदोनो पृथुराजाए भगवद्‌बुद्धिथी भक्तिभाव सहित वाणी, धन अने नमस्कारथी सत्कार कर्यो, पछी तेओ बधां त्यान्थी पोतपोताने स्थाने गयाम् ॥३५-३६॥

भगवान्‌ पण जाणे ए राजा अने ब्राह्मणोनुं मन हरी जता होय तेवी रीते पोताना स्थानक (राजाना हृदय)मां पधार्या ॥३७॥

अदुष्टाय नमस्कृत्य नृपः सन्दर्शितात्मने ॥ वासुदेवाय देवानां देवाय स्वपुरं ययौ ॥३८॥

आत्मस्वरूपनो उपदेश करनारा, मोक्ष आपनार वासुदेवअने देवोना पण देव भगवान्‌ त्यान्थी अन्तर्धान थतां पृथु राजाए एमने नमस्कार कर्या अने पछी पोतानी राजधानीमां पधार्या ॥३८॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणनो भगवत्प्रसाद निरूपण नामनो आठमो) ‘‘यज्ञमां भगवाने पृथुने करेलो उपदेश तथा एमनी परस्परनी प्रीति’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय २१

यज्ञमां देवो वगेरेनी सभामां पृथु राजाए प्रजाने करेलो उपदेश

विशेष - पृथुराजाए पोताना अने प्रजाना धर्मनो निर्धार कर्यो एनुं वर्णन आ अध्यायमां आपे छे. मौक्तिकैः कुसुमस्रग्भिर्‌ दुकूलैः स्वर्णतोरणैः। महासुरभिभिर्धूपैर्‌ मडिन्तं तत्र-तत्र वै ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - पृथु राजा नगरमां पधार्या ते वखते नगर मोती तथा फूलनीअध्याय-२१, चतुर्थस्कन्ध ४८४ माळाओथी तथा रङ्गबेरङ्गी वस्त्र अने सोनानां तोरणोथी शणगारेलुंहतुं. अत्यन्त सुगन्धिवाळा धूप चोतरफ महेकी रह्या हता ॥१॥

गलीओ, चौटां अने राजमार्गोमां चन्दन अने अगरुवाळां पाणी छाण्टवामां आव्यां हतां. नगर फूल, अक्षत, फळ, जवारा, शाळ अने दिवाओथी शोभी रह्युं हतुम् ॥२॥

ठेक-ठेकाणे राखवामां आवेला फळफूलोना गुच्छायुक्त केळना स्तम्भ अने सोपारीना छोडवाओथी ते (शहेर) अत्यन्त सुन्दर लागतुं हतुं. वळी चारे बाजूए आम्बा वगेरे वृक्षोना पल्लवोनां तोरणोथी विभूषित हतुम् ॥३॥

ज््यारे महाराजे नगरमां प्रवेश कर्यो त्यारे दीपक भेट अने अनेक प्रकारनी माङ्गलिक सामग्री लईने प्रजाजनो अने मनोहर कुण्डळोथी शोभती सुन्दर कन्याओ एमने वधाववाने सामे गई ॥४॥

शङ्ख अने दुन्दुभिना नाद तथा ब्राह्मणोना वेदघोष चारे बाजूए थई रह्या हता अने बन्दीजनो स्तुति करता जता हता. ए प्रमाणे बधुं जोवा साम्भळवा छतां जेनां मनमां जरापण अभिमान नथी तेवा वीर पृथुराजा पोताना महेलमां पधार्या ॥५॥

चारे तरफथी सत्कार पामेलां, परम यशस्वी पृथु राजाए पुरजनो अने ग्रामजनोनो अभीष्ट वर दईने सत्कार कर्यो ॥६॥

महाराज पृथु महापुरुषो तथा बधाना पूजनीय हता. तेमणे आ प्रमाणे निर्दोष पद्धतिवडे अनेक मोटां-मोटां काम करतां पृथ्वीनुं राज्य कर्युं अने अन्ते पोतानी विपुल कीर्तिनो पृथ्वी उपर विस्तार करी पोते परमपद पाम्या ॥७॥

सूतजीए कह्युं - हे सभापति शौनक! ज््यारे वैष्णव विदुरजीए सघळा गुणोथी सम्पन्न अने सद्‌गुणी लोकोए वखाणेली आदिराजा पृथुनी कीर्ति साम्भळी त्यारे ए कीर्तिने कहेनारा मैत्रेयमुनिनो सत्कार कर्यो अने विदुरजी बोल्या ॥८॥

विदुरजी बोल्या - ज््यारे ब्राह्मणोए अभिषेक कर्यो त्यारे सघळा देवोए पृथुराजाने उत्तम भेटो आपी अने भुजाओमां वैष्णव तेज धारण करी एमणे पृथ्वीनुं दोहन कर्युम् ॥९॥

आवा पृथुराजानी कीर्तिने कयो समजदार पुरुष न साम्भळे? केमके एमणे करेलाअध्याय-२१,चतुर्थस्कन्ध ४८५ पृथ्वीना दोहन रूपी पराक्रमना उच्छिष्टरूप विषयभोगोथी ज आज पण बधा राजा लोकपालो सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवननिर्वाह करे छे. तेथी आप हजु मने एमनां कंईक बीजा पण वधारे पवित्र चरित्र सम्भळावो ॥१०॥

मैत्रेये कह्युं - जे देश गङ्गा अने यमुनानी वचमां आवेलो छे तेमां रहेता पृथुराजा आसक्तिथी नहि पण केवळ करेलां पुण्य कर्मोनो क्षय करवानी इच्छाथी प्रारब्ध कर्मने लीधे मळेलां सुख भोगववा लाग्या ॥११॥

ब्राह्मणवंश अने भगवानना सम्बन्धी विष्णुभक्तो सिवाय एमनुं सातेय द्वीपोना बधा लोको उपर अखण्ड अने अबाध शासन हतुम् ॥१२॥

हे सन्तशिरोमणि! एक वखत पृथुराजाए मोटा यज्ञनी दीक्षा लीधी हती,ते समये देवो, ब्रह्मर्षिओ अने राजर्षिओनी त्यां सभा मळी हती ॥१३॥

बधा पूज्य पुरुषोनी पूजा थई गया पछी ए सभामां ताराओमां चन्द्रमानी पेठे ए पृथुराजा सभासदोमां ऊभा थया ॥१४॥

ए शरीरे ऊञ्चा हता. एमना हाथ भरावदार अने लाम्बा हता अने वर्ण गौर हतो. एमने कमळ सरखां सुन्दर लाल नेत्र हतां. नासिका सुघड अने मुख मनोहर हतां एमनुं स्वरूप सौम्य, खभा ऊञ्चा अने मन्द हास्ययुक्त दन्तपङ्क्ति सुन्दर हती ॥१५॥

एमनी छाती पहोळी अने कटिनो पाछळनो भाग स्थूल हतां. त्रण वलिथी शोभतुं अने पीपळानां पान जेवुं उदर हतुं एमनी नाभि ऊण्डी हती, साथळ सोनाना जेवी झगझगती हती. एमना पगना फणा ऊञ्चा हता अने एमना केश झीणा वाङ्कळिया, श्याम अने स्निग्ध हता. एमनी गरदन शङ्खना जेवी उतार चढाववाळी अने रेखायुक्त हती. कीमती बे दुकूल वस्त्रोमान्नुं एक पहेर्युं हतुं अने एक ओढ्‌युं हतुं. यज्ञ सम्बन्धी व्रत ग्रहण करवाथी नियमानुसार एमणे घरेणां उतारी मूक््यां हतां तेथी एमनां सर्व अङ्गोथी स्वाभाविक शोभा स्पष्ट झलकती हती. काळा मृगनुं चर्म धारण कर्युं हतुं, हाथमां दर्भ हतो. तेथी शोभा विशेष खीली ऊठी हती. तेमणे पोतानुं नित्यकर्म यथाविधि करी लीधुं हतुम् ॥१६-१८॥

एवा पृथुराजाए पोतानी शीतळ अने स्नेहभरी आङ्खोवडे चोतरफ जोयुं. जाणे सभाने राजी करता होय एवी रीते एमणे सुन्दर, शुद्ध अने गम्भीर अर्थवाळुं भाषण खूब धीरजथी करवा माण्ड्युम् ॥१९॥अध्याय-२१, चतुर्थस्कन्ध ४८६ एमनुं भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र शब्दोनी गून्थणीवाळुं, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर अने निर्भय हतुं, जाणे के ते वखते तेओ बधा उपर उपकार करवामाटे पोताना अनुभवनो अनुवाद करी रह्या होय ॥२०॥

पृथुराजाए कह्युं - सज्जन सभासदो! आपनुं कल्याण थाओ. आप महानुभाव जे अर्ही पधार्या छो ते मारी प्रार्थना साम्भळो. जेओने धर्म जाणवानी इच्छा होय तेओए पोताना विचार सज्जनो समक्ष कहेवा ज जोईए ॥२१॥

प्रजानी रक्षा करवी एमने आजीविका आपवी, जुदा-जुदा, योग्य नियमोमां सर्वने चलाववा अने अपराधीओने शिक्षा करवी एटलां काम करवाने सारुं अर्ही (आ जगतमां) हुं राज्यना अधिकार उपर नीमायो छुम् ॥२२॥

जेना उपर ईश्वर प्रसन्न थाय तेने तथा ब्रह्मवादीओए आ प्रमाणे जेनुं अनुष्ठान कर्युं होय तेने सर्व मनोरथ पूरनारां जे स्थानक प्राप्त थाय छे. ते स्थान मने तेनुं यथावत्‌ पालन करवाथी प्राप्त थवुं जोईए ॥२३॥

जे राजा प्रजाओने धर्मनुं शिक्षण आपतो नथी छतां एमनी पासेथी कर वसूल करवामां समजे छे ते पोतानुं ऐश्वर्य खोई बेसे छे अने ए उपरान्त प्रजाना पापनो भागी थायछे ॥२४॥

एटलामाटे हे प्रिय प्रजाजन! मारुं (तमारा भर्ता) राजानुं परलोकमां कल्याण करवाने सारुं दोषदृष्टि छोडी ईश्वरार्पण बुद्धिथी तमे स्वधर्म पाळो. तमारुं पोतानुं कल्याण पण एमां ज छे तेथी जो तमे एम करशो तो हुं मानीश के तमे मारा उपर अनुग्रह कर्यो छे ॥२५॥

हे निर्मळ मनवाळा पितृ! देव अने ऋषिओ, आप पण मारी आ वातने आपनुं अनुमोदन आपो केमके धर्मनी वातमां कर्ता, उपदेश करनार अने सम्मति आपनारने परलोकमां सरखुं फळ मळे छे ॥२६॥

हे महात्मा पुरुषो! केटलाक एवुं माने छे के कर्मोनुं फल आपनार भगवान्‌ यज्ञपति ज छे केमके आ लोकमां तेमज परलोकमां केटलाकने घणां तेजोमय शरीर मळेलां होय छे ॥२७॥

मनु, उत्तानपाद राजा, ध्रुवराजा, राजर्षि प्रियव्रत, अमारा पितामह, अङ्गराजा, ब्रह्मा, सदाशिव, प्रहलाद, बलिराजा अने एवा ज बीजा पण विद्वान अने महात्माओना मतमां तो धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ तथाअध्याय-२१,चतुर्थस्कन्ध ४८७ स्वर्ग, अपवर्गना स्वाधीन नियामक कर्म फलदाता रूपमां भगवान्‌ गदाधरनी आवश्यकता ज छे. आ बाबतमां तो फक्त मृत्युना दौहित्र वेन वगेरे केटलाक शोचनीय अने धर्मविमूढ लोकोनो ज मतभेद छे. तेथी एनुं कोई खास महत्व न होई शके ॥२८-३०॥

रोज-रोज वधती प्रभुचरणसेवानी प्रीति एमनां चरणमान्थी नीकळेली गङ्गानी पेठे संसारना अग्निथी सन्तप्त मनुष्योनी बुद्धिना जन्मोजन्मना सतिं मेलने तुरत नष्ट करी दे छे ॥३१॥

जेना मनना मेल पूरेपूरा धोवाई गया छे तेवा पुरुष जो असङ्गरूपी वैराग्यथी तत्त्व साक्षात्कार रूप बल प्राप्त करे तो ए प्रभुनां चरणकमळमां निवास करतो होवाथी एने क्लेश आपनारो संसार फरीथी प्राप्त थतो नथी ॥३२॥

जेनां चरणकमल बधा ज प्रकारनी कामना पूर्ण करवावाळां जे ए प्रभुने आप बधा पोतपोतानी आजीविकाने उपयोगी वर्णाश्रम उचित अध्यापनादि कर्मो तथा ध्यान, स्तुति, पूजादि मानसिक, वाचिक अने शारीरिक कर्मोद्वारा भजो. हृदयमां कोई जातनुं कपट न राखशो अने एवो विश्वास राखजो के अमने पोतपोताना अधिकार प्रमाणे फल अवश्य मळशे ॥३३॥

भगवान्‌ स्वरूपथी तो विशुद्ध विज्ञानघन अने तमाम विशेषणोथी रहित निर्गुण छे; पण आ कर्ममार्गमां जळ, चोखा आदि द्रव्य शुकलादि गुण, खाण्डवुं वगेरे क्रिया तेमज मन्त्रोद्वारा अने अर्थ, आशय (सङ्कल्प), लिङ्ग (पदार्थ शक्ति) तथा ज््योतिष्टोम आदि नामोथी सम्पन्न थवावाळा अनेक विशेषयुक्त यज्ञना रूपमां प्रकाशित थाय छे ॥३४॥

जेवी रीते एक ज अग्नि जुदां-जुदां काष्ठोमां एमना ज आकारादिना जेवो जणाय छे ते ज प्रमाणे ए, सर्वव्यापी प्रभु परमानन्द स्वरूप होवा छतां पण प्रकृति, काल, वासना अने अदृष्टथी उत्पन्न थयेल शरीरमां विषयाकार बनेली बुद्धिमां रहीने ए यज्ञयागादि क्रियाओना फलरूपथी अनेक प्रकारना जणायछे ॥३५॥

आ पृथ्वीमां जे मारी प्रजा दृढ नियम राखीने यज्ञभोक्ताओना अधीश्वर, देवना देव अने सर्वना गुरु भगवानने निरन्तर स्वधर्मपूर्वक भजे छे ते मारा उपर अनुग्रह करे छे एम हुं धारुं छुम् ॥३६॥अध्याय-२१, चतुर्थस्कन्ध ४८८ हे राजाओ! समृद्धि नहि होय छतां ब्राह्मणो तेमज वैष्णवोनां जे कुळ सुखदुःखने सहन करी तप अने विद्याथी स्वभावथी ज उज्जवल छे तेना उपर समृद्धिथी प्राप्त करेलो तमारो प्रभाव कदी पण चलावशो नहि ॥३७॥

ब्रह्मादि समस्त महापुरुषोमां अग्रणी, ब्राह्मणभक्त, पुराणपुरुष श्रीहरिए पण निरन्तर एमनां चरणोमां वन्दना करीने ज अविचल लक्ष्मी अने संसारने पवित्र करवावाळी कीर्ति प्राप्त करी छे ॥३८॥

आप भगवानना लोकसङ्ग्रहरूप धर्मनुं पालन करनारा छो तथा सर्वना अन्तर्यामी, स्वयम्प्रकाश, ब्राह्मणप्रिय श्रीहरि विप्रवंशनी सेवा करवाथी ज परम सन्तुष्ट थाय छे तेथी आप बधाए दरेक प्रकारे विनयपूर्वक ब्राह्मण कुलनी सेवा करवी जोईए ॥३९॥

एमनी निरन्तर सेवा करवाथी आपोआप ज्ञान, अभ्यास वगेरे विना ज अन्तःकरण शुद्ध थाय छे अने माणसने मोक्ष मळे छे; तेथी लोकमां ए ब्राह्मणो करतां वधारे बीजो कोण छे जे हविष्यभोजी देवताओनुं मुख होई शके? ॥४०॥

ब्राह्मणो भगवाननी सचेतन मूर्ति छे एम समजीने देवोनां नामथी ब्राह्मणोना मुखमां जे कांई पवित्र पदार्थो होमवामां (खवराववामां) आवे तेनो अन्तर्यामी अने ज्ञानात्मा भगवान्‌ जेटला हेतथी स्वीकार करे छे; तेटला हेतथी अचेतन अग्निमां होमेला पदार्थोने स्वीकारता नथी ॥४१॥

हे आर्य लोको! वेदो, नित्य, दोषरहित अने सनातन वेदो सर्व पदार्थो जोवाना अरीसा जेवा छे एने ब्राह्मणो श्रद्धा, तप, सदाचरण, मौन (स्वाध्याय विरोधी वातोनो त्याग)अने जितेन्द्रियपणाथी निरन्तर धारी रह्या छे. एओ एना अर्थनो एकाग्र चित्तथी विचार करे छे. आवा ब्राह्मणोनी चरणकमलनी रजने हुं जीवतां सुधी मारा मुगट उपर चढावुं एवी मारी ईश्वर पासे प्रार्थना छे केमके ए रजने निरन्तर धारण करनारनां पाप तत्काल नाश पामे छे अने सघळां शुभ प्राप्त थायछे ॥४२-४३॥

जे माणस गुणवान, शीलसम्पन्न, कृतज्ञ अने गुरुजनोनी सेवा करनार होय ते माणसने समृद्धिओ पोतानी मेळे ज वरती आवे छे. एटलामाटे हुं मागुं छुं के ब्राह्मणो, गायो, भगवान्‌ अने भगवानना भक्तो मारा उपर सदा प्रसन्न रहे ॥४४॥अध्याय-२१,चतुर्थस्कन्ध ४८९ मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे पृथुराजाए भाषण कर्युं ते साम्भळी पितृओ, देवो, ब्राह्मणो अने बीजा पण सज्जनो प्रसन्न थईने ‘‘धन्य छे, धन्य छे’’ एम कही वखाण करवा लाग्या ॥४५॥

एमणे कह्युं, ‘‘पुत्रद्वारा पिता पुण्य लोकोने प्राप्त करी ले छे’’ ए श्रुति यथार्थ छे; पापी वेन ब्राह्मणोना शापथी हणाई चूक््यो हतो छतां आना (पृथुराजाना) पुण्य प्रतापथी एनो नरकमान्थी निस्तार थई गयो ॥४६॥

ए ज प्रमाणे भगवाननी निन्दा करवाथी हिरण्यकशिपु दैत्य पण नरकमां पडवानो ज हतो पण पोताना पुत्र प्रह्‌लादना प्रतापथी तरी गयो हतो ॥४७॥

हे पृथ्वीना पिता महावीर राजा! आप अनन्त वर्षो सुधी जीवित रहो केमके आपनी सर्व लोकना एक मात्र स्वामी भगवान्‌मां आवी अविचल भक्ति छे ॥४८॥

हे पवित्र कीर्तिवाळा! अहो! आप अमारा स्वामी छो तेथी साक्षात्‌ भगवान्‌ ज अमारा स्वामी छे एम अमे मानीए छीए केमके आप उदार कीर्तिवाळा अने ब्रह्मण्यदेव भगवाननी कथाओनो प्रचार करो छो ॥४९॥

स्वामी! पोताना आश्रित लोकोने आ प्रकारनो उत्तम उपदेश आपवो आपनेमाटे बिलकुल आश्चर्यनी वात नथी. कारण के पोतानी प्रजा उपर प्रेम राखवो ए तो दयाळु महापुरुषोनो स्वभाव ज होय छे ॥५०॥

अमे प्रारब्धवश विवेकहीन थई संसार रूपी जङ्गलमां भटकी रह्या छीए; तेथी प्रभु, आज आपे अमने आ अज्ञानरूपी अन्धकारने पार पहोञ्चाडी दीधा ॥५१॥

नमो विवृद्धसत्त्वाय पुरुषाय महीयसे। यो ब्रह्म क्षत्रमाविश्य बिभर्तीदं स्वतेजसा ॥५२॥

आप शुद्ध सत्त्वमय परमपुरुष छो जे ब्राह्मण जातिमां प्रवेश करीने क्षत्रियोनी अने क्षत्रिय जातिमां प्रवेश करीने ब्राह्मणोनी एम बेउ जातिओमां प्रवेश करीने समस्त जगतनी रक्षा करो छो. अमे आपने प्रणाम करीए छीए ॥५२॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमा ं(त्रीजा कामप्रकरणनो स्वधर्मनिरूपण नामनो नवमो) ‘‘यज्ञमां देवो वगेरेनी सभामां पृथु राजाए प्रजाने करेलो उपदेश’’ नामनो २१मो अध्याय सम्पूर्ण थयो.अध्याय-२२, चतुर्थस्कन्ध ४९०

अध्याय २२

सनत्कुमारोए पृथुने ब्रह्मज्ञान आप्युं

विशेष - भगवद्‌भक्तियुक्त पृथुराजाने प्रभुनी प्रेरणाथी सनत्कुमार पासेथी ज्ञानप्राप्तिनुं निरूपण आ बावीसमा अध्यायमां कहेवाशे. जनेषु प्रगृणत्वेवं पृथुं पृथुलविक्रमम्‌ ॥ तत्रोपजग्मुर्मुनयश्वत्वारः सूर्यवर्चसः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ज््यारे प्रजाजन परम पराक्रमी पृथ्वीपाल पृथुनी प्रशंसा करता हता त्यारे सूर्य जेवा तपस्वी चार मुनिओ (सनकादि) त्यां आव्या ॥१॥

जेमनी कान्तिथी लोको निष्पाप थाय छे एवा अग्निरूप सिद्धेश्वरने आकाशमान्थी ऊतरता जोई राजाए तथा एमना अनुचरोए आ सनकादि छे एम ओळख्या ॥२॥

राजाना प्राण* सनकादिकोनां दर्शन करतां ज, जेम विषयी जीव विषयो तरफ दोडे छे तेम एमना तरफ दोडी गया, जाणे के तेमने रोकवाने माटे ज पोताना सदस्यो अने सेवको साथे एकाएक ऊभा थई गया ॥३॥

विशेष - श्रुतिमां कह्युं छे के वृद्ध आवे त्यारे जुवानना प्राण चढवा माण्डे छे पण सामा ऊभा थवाथी अने प्रणाम करवाथी ए प्राण पाछा प्राप्त थाय छे. ज््यारे ते मुनिओ अर्ध्यनो स्वीकार करी आसन उपर बिराज््या त्यारे शिष्ट शिरोमणि पृथुए एमना गौरवथी प्रभावित थई विनयथी माथुं नीचुं नमावी एमनी विधिपूर्वक पूजा करी ॥४॥

एमना चरण पखाळी एमनुं चरणोदक पोताना केश उपर छीरक््युं. आ प्रमाणे संस्कारी जनोने शोभे एवुं आचरण तथा पालन करी एमणे ए ज बताव्युं के बधा सज्जनोए आवो व्यवहार करवो जोईए ॥५॥

कुण्डोमां अग्निओनी पेठे सुवर्णनां आसनो पर बेठेलो सदाशिवना ए मोटा भाईओने श्रद्धा सहित जितेन्द्रिय पृथु राजाए अत्यन्त श्रद्धा, संयम अने प्रीतिथी नीचे प्रमाणे कह्युम् ॥६॥

पृथु बोल्या - हे मङ्गलमूर्ति मुनीश्वरो! योगीओने पण दुर्लभ आपनां दर्शनअध्याय-२२,चतुर्थस्कन्ध ४९१ मने थयां एमाटे एवुं ते कयुं पुण्यदायी कर्म में कर्युं हशे? ॥७॥

जेना पर ब्राह्मणो अथवा सेवको सहित शिव अथवा विष्णु प्रसन्न थाय ते पुरुषने आ लोकमां तेमज परलोकमां कई वस्तु दुर्लभ रहे? ॥८॥

आप जगतमां फर्या करो छो तो पण जेम दृश्य प्रपन्ना कारण महतत्त्व वगेरे पदार्थो जो के सर्वगत छे छतां सर्वना दृष्टा आत्माने जोई शकता नथी तेम आप समस्त लोकमां विचरो छो छतां आपने लोको जोई शकता नथी ॥९॥

जे गृहस्थाश्रमीओना घरनां जळ, आसन, भूमि अने गृहस्वामी अने सेवक वगेरे कोई चीजनो आपना जेवा महात्मा पुरुषो स्वीकार करे तेओ निर्धन होय तो पण धन्य छे ॥१०॥

जे घर सघळी सम्पत्तिओथी भरपूर होय छतां जो एमां वैष्णवोनां चरणनी रज मिश्रित जल छण्टायु न होय तो ए घरो एवां वृक्षो समान छे जेमां साप रहे छे ॥११॥

हे मुनीश्वरो! हुं आपनुं स्वागत करुं छुं. आपे तो बाल्यावस्थाथी ज मुमुक्षुओना मार्गनुं अनुसरण करतां एकाग्र चित्तथी ब्रह्मचर्यादि कठिन व्रतोने जीवनमां वणी लीधां छे ॥१२॥

स्वामीओ, अमे अमारां कर्मोने वशीभूत थई विपत्तिओथी भरेला आ संसारमां पडेला केवळ इन्द्रियोना भोगोने ज परम पुरुषार्थ मानी रह्या छीए तो शुं अमारां निस्तारनो पण कोई उपाय छे खरो? ॥१३॥

आप जेवा आत्मारामनी बुद्धिमां कुशळ के अकुशळ एवो भेद ज होतो नथी; एमने आपनी कुशळता तो पूछवी घटे ज नहि ॥१४॥

आप संसारना अग्निथी प्रजळता लोकोना रक्षण करनार सुहृद छो एथी सम्पूर्ण श्रद्धा साथे पूछुं छुं के आ संसारमां कया प्रकारथी मनुष्यनुं सुगमताथी क्ल्याण थाय? ॥१५॥

एक वात तो दीवा जेवी स्पष्ट छे के भगवान्‌ जे धीर लोकोने प्रिय छे अने तेथी जे एमने पोतानुं स्वरूप देखाडे छे ते भगवान्‌ पोताना भक्तो उपर अनुग्रह करवाने आप जेवा सिद्ध लोकोना स्वरूपे पृथ्वी उपर फरता रहेता होय छे ॥१६॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे न्याययुक्त, गम्भीर, परिमित अने प्रिय लागे तेवुं पृथु राजानुं उत्तम प्रवचन साम्भळी, जाणे प्रीतिथी हसता होय एम जणाताअध्याय-२२, चतुर्थस्कन्ध ४९२ सनत्कुमार बोल्याः ॥१७॥

सनत्कुमार बोल्या - हे राजा! आप बधुं जाणो छो. छतां सर्व प्राणीओने जणाववामां आवे तो एनाथी एमनुं हित थाय ए आशयथी आ घणी सरस वात पूछी. साधु पुरुषोनी बुद्धि एवी ज होय ॥१८॥

सज्जनोनो समागम वक्ता अने श्रोता बन्नेमाटे सारो छे केमके एमना प्रश्नोत्तरथी सर्वनुं कल्याण थाय छे ॥१९॥

राजन! श्रीमधुसूदन भगवानना चरणकमलोना गुणानुंवादमां अवश्य आपनी गाढ प्रीति छे. हरकोईने ए प्राप्त थवी घणी ज कठण छे अने प्राप्त थतां हृदयमां जामेला वासनाना मलने सर्वथा नाश करी नाखे छे, जे बीजा कोई पण उपायथी दूर थतो नथी ॥२०॥

शास्त्रोए जीवोना कल्याणमाटे खूब विचार कर्यो छे; एणे आत्मा सिवाय बीजा देह वगेरे पदार्थोमां वैराग्य सेववो अने निर्गुण ब्रह्ममां दृढ प्रीति राखवी शास्त्रोमां जीवोना कल्याणनुं आज साधन छे एवो निर्णय करवामां आव्यो छे ॥२१॥

शास्त्रोनुं एम पण कहेवुं छे के गुरु अने शास्त्रोना वचनोमां श्रद्धा राखवाथी, योगेश्वर श्रीकृष्णनी सेवाथी, पुण्यकीर्ति भगवाननी पवित्र कथा नित्य साम्भळवाथी, धन अने इन्द्रियोना भोगोमां ज जे रच्या-पच्या रहेता तेमनी गोष्ठीमां प्रेम न राखवाथी धन अने विषयोनो आसक्तिपूर्वक आग्रह न करवाथी भगवद्‌गुणामृतना पान करवा सिवायना अन्य समयमां आत्मामां ज सन्तुष्ट रही एकान्त सेवनमां ज प्रेम राखवाथी कोई पण जीवने कष्ट न आपवाथी, निवृत्ति निष्ठाथी, आत्महितनुं अनुसन्धान करता रहेवाथी, श्रीहरिना पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृतनो आस्वाद लेता रहेवाथी, निष्काम भावथी यम-नियमो नुं पालन करवाथी, कदी कोईनीय निन्दा न करवाथी, योग-क्षेम नेमाटे प्रयत्न न करवाथी, शीत-उष्ण-सुख-दुःख वगेरे द्वन्द्वो सहन करवाथी, भक्तजनोना कानोने सुख देवावाळा श्रीहरिना गुणोनुं वारंवार वर्णन करवाथी अने वधता जता भक्तिभावथी मनुष्यने कार्यकारणरूप सम्पूर्ण जड प्रपम्मां वैराग्य थई जाय छे. अने आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्ममां अनायासे ज एने प्रेम थई जाय छे ॥२२-२५॥

गुरुनी सेवा करनार पुरुषने परमात्मामां सुदृढ प्रीति थाय त्यारे काष्ठथी उत्पन्नअध्याय-२२,चतुर्थस्कन्ध ४९३ थता अग्निनी पेठे ज्ञान अने वैराग्यना वेगथी एनुं पञ्चभूतरूप अने अविद्या वगेरे *पाञ्च क्लेशरूप लिङ्गशरीर (जेम पाछो काण्टो फूटे नहि एम)बळी भस्मीभूत थई जाय छे ॥२६॥

विशेष - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अने अभिनिवेश ए पाञ्च क्लेश कहेवाय छे. स्वरूपनुं विस्मरण थवुं ए अविद्या. देहने हुं एम मानवुं ए अस्मिता. देहाभिमानथी देहने अनुकूळ पदार्थोमां प्रीति ते राग. प्रतिकूळ पदार्थो उपर अप्रीति ते द्वेष. अनुकूळ पदार्थोनो नाश थतां पोतानो नाश मानी बेसवानुं अभिमान ते अभिनिवेश. आ प्रमाणे लिङ्ग शरीरनो नाश थतां एना कर्तापणुं, भोक्तापणुं वगेरे सघळा गुण छूटी जाय छे. दृश्य अने द्रष्टानो जे भेद प्रथम जणातो हतो ते मटी जाय छे एटले पछी जेम कोई जागेलो पुरुष स्वपन अवस्थाना पदार्थोने देखे नर्ही तेम पोतानी बहारनां घटादिक पदार्थोने तेमज अन्दरना सुख दुःखादिक पदार्थोने पण देखतो नथी ॥२७॥

दृष्टा अने दृश्यनो भेद अन्तःकरण होवाथी पोते जोनार, जोवाना पदार्थो अने एनी साथे सम्बन्ध धरावनार अहङ्कार जोवामां आवे छे; परन्तु सुषुप्तिमां अन्तःकरण न होवाथी एने एना जोवामां कशुं ज आवतुं नथी ॥२८॥

जगतमां पण जो पाणी के अरीसो, होय तो ज बिम्ब अने प्रतिबिम्ब नो भेद जोवामां आवे छे, परन्तु जो पाणी के अरीसो न होय तो एवो भेद जोवामां आवतो नथी ॥२९॥

जेओ विषयोनुं आसक्तिपूर्वक स्मरण करे छे तेमनी इन्द्रियो विषयोमां फसाई जाय छे. इन्द्रियो मनने पण विषयो तरफ खेञ्ची लई जाय छे अने बुद्धिनी विचारनी शक्तिने हरी ले छे. जेम काण्ठा पर ऊगेलो दर्भ पोताना मूलद्वारा जळाशयमान्थी पाणीने खेञ्चतो जाय छे पण जेम अविवेकी माणसने एनी खबर पडती नथी तेम इन्द्रियना खेञ्चाणनी खबर पडती नथी ॥३०॥

बुद्धिमान्थी विचार शक्ति हणाई जवाथी पूर्वापरनी स्मृति जती रहे छे; ए स्मृति जती रहे एटले ज्ञाननो पण नाश थई जाय छे. आ ज्ञानना नाशने ज पडिन्तजनो ‘‘पोते ज पोतानो नाश करवा’’ कहे छे ॥३१॥

आत्मा उपरना प्रेमने लीधे ज बीजुं बधुं प्रिय लागे छे. जो ए आत्मानी पोताने हाथे ज खराबी करवामां आवे तो एनाथी स्वार्थनी जेवी हानि थाय तेवीअध्याय-२२, चतुर्थस्कन्ध ४९४ भारे हानि जगतमां बीजा कशाथी थती नथी ॥३२॥

धन अने इन्द्रियोना विषयोनुं चिन्तन मनुष्यना बधाय पुरुषार्थोनो नाश करी नाखे छे एम समजवुं. एनी तृष्णा राखवाथी शास्त्रनुं ज्ञान अने स्वरूपनो अनुभव भ्रष्ट थई जतां स्थूळता आवे छे ॥३३॥

संसारना घोर अन्धकारने पार पामवाने इच्छनारा पुरुषे सङ्ग-विषयोमां आसक्ति कदी न राखवी जोईए कारण के ए धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष नी प्राप्तिमां महान बाधक छे ॥३४॥

आ चार पुरुषार्थोमां मोक्ष सर्वोत्तम पुरुषार्थ छे केमके बाकीना त्रणमां निरन्तर काळनो भय रह्या करे छे ॥३५॥

प्रकृतिमां गुणक्षोभ थया पछी जेटला उत्तम अने अधम भाव पदार्थ प्रकट थया छे, शुं कीडी के शुं कुञ्जर, शुं आपणे के शुं ब्रह्मा तेमना मनोरथने काळ नाश करी नाखे छे तेथी कोईने पण खरुं सुख नथी ॥३६॥

जड (अनात्म) वस्तुमां आसक्ति राखवाथी अनर्थ थाय छे. एटलामाटे हे राजा! देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि अने अहङ्कारथी वीटायेला स्थावर जङ्गममां अन्तर्यामीरूपे जे (जे प्रत्यक्ष देश, काळ अने वस्तुना मापथी रहित छे) प्रकाशे छे अने अन्तर्वृत्तिथी जणाय छे ते ब्रह्म हुं छुं (अहं ब्रह्मास्मि) एम जाणो ॥३७॥

जेवी रीते मालानुं ज्ञान थतां एमां सर्पबुद्धि नथी रहेती तेवी ज रीते, विवेक थतां जेनो क््यांय पत्तो ज लागतो नथी एवो आ मायामय प्रपञ्च जेमां कार्य कारणरूपथी जणाई रह्यो छे अने जे पोते तो कर्मफलथी दूषित प्रकृतिथी पर छे एवा नित्ययुक्त, निर्मल अने ज्ञानस्वरूप परमात्माने हुं शरणे जाउं छुम् ॥३८॥

भक्तो जेना चरणकमलोनी अङ्गुलिकाररूपी पाङ्खडीओथी छण्टाती छटानुं स्मरण करीने अहङ्काररूपी कर्मोथी गण्ठायेली हृदयग्रन्थिने ए प्रमाणे छिन्न-भिन्न करी नाखे छे के तमाम इन्द्रियोने विषयोमां जती रोकी पोताना अन्तःकरणने विषयविहोणुं करनारा सन्न्यासी पण ए नथी करी शकता. तमे ए सर्वरक्षक भगवान्‌ वासुदेवनी भक्ति करो ॥३९॥

सागरमां मगरो होय छे. संसाररूपी सागरमां मन अने इन्द्रियोरूपी मगरो होय छे. जे लोको योग वगेरे कठण साधनोथी आ संसारसागरने पार करवा मागे छे तेमनो सामे पार पहोञ्चवानो प्रयत्न घणुं करीने अशक््य छे अथवा तेमने घणो जअध्याय-२२,चतुर्थस्कन्ध ४९५ श्रम पडे छे, कारण के एमने कप्तानरूप श्रीकृष्णनो आश्रय नथी.माटे तमे तो भगवानना सुसेव्य चरणकमलोने नाव बनावी रमत मात्रमां आ दुस्तर समुद्रने पार करी लो ॥४०॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे पृथुराजाए ब्रह्माना पुत्र अने ब्रह्मवेत्ता सनत्कुमार पासे आत्मतत्त्वनो उपदेश प्राप्त करी प्रशंसा करीने एमने आ प्रमाणे कह्युं ॥४१॥

पृथुराजाए कह्युं - हे महाराज! पूर्वे दीनदयाळ भगवाने मारा उपर अनुग्रह कर्यो हतो ते परिपूर्ण करवाने आप पधार्या छो अने आपे दया करीने सघळुं काम परिपूर्ण कर्यु ॥४२॥

मारुं राज्य, आ शरीर अने शरीर साथे सङ्कळायेलुं बधुं ज महात्माओनो ज प्रसाद छे माटे गुरुदक्षिणा तरीके शुं आपुम् ॥४३॥

प्राण, स्त्री, पुत्रो, हरप्रकारनी सामग्रीथी भरेलुं भवन, राज्य, सैन्य, पृथ्वी अने भण्डार ए बधुं महात्माओनुं ज छे. ए बधुं तो मारुं न होवाथी दक्षिणारूपे अपाई शके एम नथी; तेथी नोकर जेम राजानी ज चीज राजाने निवेदन करे तेम ए सघळुं आपना ज श्रीचरणोमां निवेदन करुं छुम् ॥४४॥

वेद अने शास्त्रने जाणनार ब्राह्मण ज सेनापति, न्यायधीश अने सर्व लोकोना अधिपतिना पदने योग्य छे ॥४५॥

ब्राह्मण पोतानुं ज जमे छे, पोतानुं ज पहेरे छे, पोतानुं ज (अन्यने) आपे छे केमके बधुं ब्राह्मणोनुञ्ज छे. बीजा क्षत्रियादिक तो ब्राह्मणोनी दयाथी तेओए आपेलुं अन्नज खाय छे तेथी तेओ सौ आपी देवामां स्वतन्त्रनथी ॥४६॥

आप लोक वेदना जाणनारा छो. आपे अध्यात्मतत्त्वनो विचार करी अमने निश्चितरूपथी समजावी दीधुं के भगवाननी आ प्रकारनी अभेदभक्ति ज एने प्राप्त करवानुं मुख्य साधन छे. आप परम कृपालुं छो तेथी पोताना दीनजन-उद्धाररूप कर्मथी ज आप सन्तुष्ट हो. आपना आ उपकारनो बदलो कोई आपी शके खरो के? ए आपणने माटे प्रयत्न करवो ए पण पोतानी मश्करी कराववा जेवुं छे ॥४७॥

मैत्रेये कह्युं - पृथुराजाए ए प्रमाणे ए ब्रह्मज्ञानी सनकादिनी पूजा करी एमना स्वभावनां वखाण करतां तेओ सर्व लोकोना देखतां आकाशमार्गथी चाल्या गया ॥४८॥अध्याय-२२, चतुर्थस्कन्ध ४९६ एमनी पासेथी प्राप्त करेला ब्रह्मज्ञानथी महात्माओमां अग्रणी पृथुराजा चित्तनी एकाग्रताथी आत्मामां ज स्थिर थई जवाथी पोतानी जातने कृतकृत्यशा (=कृतकृत्य जेवा) मानवा लाग्या ॥४९॥

ते भगवद्‌ अर्पण बुद्धिथी समय, स्थान, शक्ति, न्याय अने धनने अनुसार बधां कर्म करता हता ॥५०॥

तेओ कर्मनां फळ परमात्माने अर्पण करता हता, कर्ममां बिलकुल आसक्ति राखता न होता; आत्माने सर्व कर्मना साक्षीरूप तथा प्रकृतिथी पर मानता होवाथी सर्वथा निर्लिप्त रह्या ॥५१॥

जेवी रीते सूर्य भगवान्‌ बधेय प्रकाश पाथरता होवा छतां पण वस्तुओना गुणदोषथी निर्लेप रहे छे तेवीज रीते सार्वभौम लक्ष्मीथी सम्पन्न अने गृहस्थ आश्रममां रहेवा छतां पण ‘हुं’ भावने खङ्खेरी नाख्यो होवाथी पृथुराजा इन्द्रियोना विषयोमां आसक्त न थया ॥५२॥

ए प्रमाणे अन्तःकरणमां ज्ञाननिष्ठा राखी लोकसङ्ग्रहने वास्ते कर्म करता पृथुराजाने अर्चि नामनी राणीथी पोताना जेवा ज विजिताश्व, ध्रुमकेश, हर्यक्ष, द्रविण अने वृक नामना पाञ्च पुत्र थया ॥५३॥

महाराज पृथु भगवानना अंश हता. ते समये-समये ज््यारे-ज््यारे जरूर जणाती त्यारे-त्यारे जगतना प्राणीओनी रक्षा करवामाटे एटला ज बधा लोकपालोनां गुणो धारण करी लेता. उदार मन, प्रिय अने हितकर वाणी, मनोहर मूर्ति अने सौम्य गुणोने लीधे पृथुराजा जाणे बीजा चन्द्रमा होय तेम प्रजानुं रञ्जन करता तेथी तेमनुं ‘राजा’नाम सार्थक थयुम् ॥५४-५५॥

जेम सूर्य पृथ्वीना जलने आठ महिना खेचें छे अने चोमासामां पाछुं वरसावी दे छे. तेम समय प्रमाणे पृथुराजा प्रजा पासेथी करना रूपमां धन लेता हता अने दुष्काळ जेवा समये पाछुं आपता हता. वळी सूर्य जेम पोताना किरणोथी बधाने ताप पहोञ्चाडे छे तेम पृथुराजाए पण पोतानी धाक सर्वत्र जमावी दीधी हती ॥५६॥

ए तेजमां अग्नि जेवा दुर्धर्ष, इन्द्र जेवा अजेय अने पृथ्वी जेवा क्षमाशील हता. ए स्वर्गनी माफक मनुष्योने मनवाञ्छित फळ आपनारहता ॥५७॥

समये-समये प्रजाजनोने तृप्त करवामाटे मेघनी जेम एमनी इच्छितअध्याय-२२,चतुर्थस्कन्ध ४९७ वस्तुओ खुल्ले हाथे लुटावता रहेता हता. ते समुद्रना जेवा गम्भीर अने पर्वतराज सुमेरुना जेवा धैर्यवान पणहता ॥५८॥

महाराज पृथु दुष्टोनुं दमन करवामां यमराज जेवा, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओनो सङ्ग्रह करवामां हिमालयना जेवा, खजानानी समृद्धिमां कुबेरना जेवा अने धनने गुप्त राखवामां वरुणना जेवा हता ॥५९॥

शारीरिक बल, इन्द्रियोनी पटुता तथा पराक्रममां सर्वत्र गतिशील वायुना जेवा अने तेजनी असह्यतामां भगवान्‌ शङ्कर जेवा हता ॥६०॥

सौन्दर्यमां कामदेव जेवा तो हिम्मतमां सिंह जेवा हता. मनुष्यो उपर प्रीति राखवामां मनु जेवा, मनुष्यनां आधिपत्येमां सर्वसमर्थ ब्रह्मा जेवा, ब्रह्मविचारमां बृहस्पति जेवा, जितेन्द्रियपणामां विष्णु सरखा हता. गाय, गुरु, ब्राह्मणो तथा वैष्णवोनी भक्ति करवामां, लज्जामां, विनयमां, शीलमां अने परोपकारमां पोतानाज जेवा(अनुपम)हता ॥६१-६२॥

कीर्त्योर्ध्वगीतया पुम्भिस्त्रैलोक््ये तत्र-तत्र ह॥ प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेषु स्त्रीणां रामः सतामिव ॥६३॥

लोको त्रणेय लोकमां सर्वत्र उच्च स्वरथी एमनी कीर्तिनुं गान करता हता तेथी ते स्त्रीओ सुद्धान्ना कानमां एवो ज प्रवेश पाम्या हता जेवो सत्पुरुषोना हृदयमां श्रीराम ॥६३॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (त्रीजा काम प्रकरणमां ज्ञाननिरूपण नामनो दसमो) ‘‘सनत्कुमारोए पृथुने ब्रह्मज्ञान आप्युं’’ नामनो बावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात्‌ सेव्य प्रभुनी सेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनार अधम माणसने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! [[४९८]]

अध्याय २३

पृथुराजानुं वैकुण्ठ गमन

विशेष - आ त्रेवीसमां अध्यायमां स्त्री सहित अने वनमां निरन्तर समाधिमां रहेला पृथुराजा विमानमां बेसीने वैकुण्ठमां गयानी कथा कहेवामां आवशे. दृष्ट्वाऽऽत्मानं प्रवयसमेकदा वैन्य आत्मवान्‌ रू। आत्मना वर्धिताशेषस्वानुसर्गः प्रजापतिः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे महामनस्वी प्रजापति पृथुराजाए स्वयं उत्पन्न अन्नादिकनी तथा गामडां तथा नगर वगेरेना निर्माणनी व्यवस्था करी. ए स्थावर जङ्गमोने आजीविकानी अनुकूळता करी आपी तथा सत्पुरुषोना धर्मनुं खूब पालन कर्यु. एक दिवसे एमने लाग्युं के ‘‘हवे मारुं शरीर वृद्ध थयुं छे; अने जेनेमाटे में आ लोकमां जन्म लीधो हतो ते प्रजारक्षणरूप ईश्वरनी आज्ञानुं पण पालन थई गयुं छे. तेथी हवे मारे अन्तिम पुरुषार्थ मोक्षने माटे प्रयत्न करवो जोईए’’ आम विचारी पोताना विरहमां रोती होय तेवी पुत्री रूप पृथ्वीने एमणे पोताना पुत्रोने स्वाधीन करी अने प्रजाना करुण आक्रन्दने नहि गणकारतां पोतानी स्त्री सहित ए एकला ज तपोवनमां चाली नीकळ्या ॥१-३॥

पृथुराजा वनमां दृढ निश्चय राखीने रहेता हता. जेवो एमणे गृहस्थाश्रममां अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वीनो जय करवामां भगीरथ यत्न कर्यो हतो तेवो ज वानप्रस्थ आश्रमना नियम प्रमाणे उग्र तप करवानो यत्न माण्ड्यो ॥४॥

केटलाक दिवस ए केवळ कन्द, मूळ अने फळ खाईने रह्या तो केटलोक समय सूकां पान्दडां खाईने रह्या पछी केटलाक पखवाडियां मात्र जल पीने ज रह्या. अने पछी फक्त वायुभक्षण करीने निर्वाह करवा लाग्या ॥५॥

उनाळामां पञ्चाग्नितापनुं सेवन कर्युं. वर्षाऋतुमां खुल्ला मेदानमां रही पोताना शरीर उपर जलनी धाराओ सहन करी अने शियाळामां गळाबूड पाणीमां ऊभा रहेवा लाग्या अने मुनिव्रतनुं धारण करता पृथुराजा सर्वदा माटीनी वेदी उपर ज सूता हता ॥६॥

टाढ-तडको वगेरे द्वन्द्व सहन करता, वृथा वचन बोलता नहि. जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी अने प्राणायाम करता ए पृथुराजाए भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आराधना [[४९९]] करवा सारुं कठोर तप कर्यु ॥७॥

आ क्रमथी तप सिद्ध थयेली कर्ममलनो नाश थई गयो. एथी एमनुं अन्तःकरण निर्मळ थयुं अने प्राणायामथी सघळी इन्द्रियोने विषयोमां जती रोकवाथी ए वासना जनित बन्धन दूर थयां. एवी रीते भगवान्‌ सनत्कुमारे ब्रह्मप्राप्तिनो जे उपाय बताव्यो हतो ते उपायथी महापुरुष पृथुराजा भगवाननी भक्ति करवा लाग्या ॥८-९॥

आ प्रमाणे भगवत्परायण थईश्रद्धापूर्वक सदाचारनुं पालन करतां निरन्तर साधन करवाथीए महात्मा राजाने परमात्मामां अनन्यभक्ति उत्पन्न थई॥१०॥

भगवाननी अनन्य भक्तिथी एमनुं अन्तःकरण, शुद्ध सात्त्विक थयुं अने साथे-साथे वैराग्य भरेलुं ज्ञान पण थयुं. एवी रीते भगवानना स्मरणथी एमनी भक्ति वधवा लागी अने जीवनी उपाधिरूप ‘हुं’ भावनी गाण्ठ एमणे ज्ञानवडे कापी नाखी केमके एनाथी ज हृदयमां अनेक प्रकारना संशय थवानो सम्भव छे ॥११॥

पछी तो देहात्मबुद्धि दूर थई गई अने परमात्मा-स्वरूप श्रीकृष्णनो अनुभव थतां बीजी बधी जातनी सिद्धि वगेरे तरफथी मन फेरवी लीधुं (उदासीन थई गया). हवे एमणे ए तत्त्वज्ञानने माटे प्रयत्न पण पडतो मूक््यो के जेनी सहायथी पहेलां तेमणे पोताना जीवकोशनो नाश कर्यो हतो; कारण के ज््यां सुधी साधकने योगमार्गद्वारा श्रीकृष्ण कथामृतमां लगन नथी लागती त्यां सुधी मात्र योग साधनाथी एनो मोहथी उत्पन्न थयेल प्रमाद दूर थतो नथी भ्रम भाङ्गतो नथी ॥१२॥

पछी ज्यारे अन्तकाल आव्यो त्यारे वीरवर पृथुए पोताना चित्तने दृढतापूर्वक परमात्मामां स्थिर करी ब्रह्मभावमां स्थित थई पोतानुं शरीर छोडीदीधुम् ॥१३॥

र्पीडीओथी गुदाने दबावी, मूळाधारथी धीरे-धीरे प्राण वायुने ऊञ्चो चढावता एने नाभिमां अने पछी हृदय, उरस्थळ, कण्ठ अने मस्तकमां लावीने तेनाथी पण उपर लई जई क्रमशः ब्रह्मरन्ध्रमां चढावी दीधो ॥१४॥

ए पछी निःस्पृह थयेला पृथुराजाए देहमान्ना प्राणवायुने समष्टि वायुमां, पार्थिव शरीरने पृथ्वीमां अने शरीरना तेजने समष्टि तेजमां लीन करी दीधुम् ॥१५॥

हृदय-आकाश वगेरे देहावच्छिन्न आकाशने महा-आकाशमां अने शरीरमां रहेल रुधिर वगेरे जलना अंशने समष्टिजलमां लीन कर्यु. ए ज प्रमाणे वळी पृथ्वीने जलमां, जलने तेजमां, तेजने वायुमां अने वायुने आकाशमां लीन कर्या ॥१६॥

[[५००]] पछी मनने (सविकल्प ज्ञानमां जेने अधीन ते रहे छे ते) *इन्द्रियोमां इन्द्रियोने एमना करणरूप तन्मात्राओनी अने सूक्ष्मभूत (तन्मात्रा) ने कारण अहङ्कार द्वारा आकाश, इन्द्रिय अने तन्मात्राओने ए ज अहङ्कारमां लीन करी, अहङ्कारने महत्तत्वमां लीन कर्या ॥१७॥

विशेष - इन्द्रियोथी मननुं आकर्षण थाय छे तेथी मननो लय इन्द्रियोमां रह्यो छे पण ए उपरथी मन इन्द्रियनुं कार्य छे एम समजवुं नहि. पछी बधा गुणोनी अभिव्यक्ति करवावाळा ए महत्तत्वने मायोपाधिक जीवमां स्थिर कर्यु. त्यार बाद ए मायारूप जीवने उपाधिने पण एमणे ज्ञान अने वैराग्यना प्रभावथी पोताना शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमां स्थित रही छोडी दीधी* ॥१८॥

विशेष - एक तत्त्वनो बीजा तत्त्वमां लय करी देवानुं कह्युं. एमां एम समजवुं नहि के लय एटले तत्त्वनो नाश थई जतो हशे; पण एटलुं समजवानुं छे के, कार्य कारणथी जुदुं नथी एम पाको निश्चय करवो ए ज लय कहेवाय छे; अने ए प्रमाणे प्रत्येक कार्यनो पोतपोतानां कारणोमां लय करतां सर्वनुं मूळ कारण माया अथवा अज्ञान छे एम निश्चय थाय अने ए अज्ञान स्वरूपमां कल्पित छे. एम समजवाथी मोक्ष थाय. एमनां महाराणी अर्चि, जे अत्यन्त सुकुमार हतां अने पगथी पृथ्वीनो स्पर्श करवाने अयोग्य हतां छतां ए पण एमनी पाछळ वनमां गयां हतां अने पति जे धर्म पाळता ते ज धर्ममां रहेवाथी एमनी सेवाथी, कन्दमूळ वगेरे खाईने रहेवाथी ए अत्यन्त दुर्बळ थई गयां, परन्तु प्रियतमना करस्पर्शथी सम्मानित थई एमां ज आनन्द मानवाने लीधे एमने कोई प्रकारे कष्ट थतुं न हतुम् ॥१९-२०॥

सुखथी ए सतीए पृथ्वीना पति अने पोताना प्रियतम पृथुराजाना शरीरने शबरूप थयेलुं जोई केटलोक समय विलाप कर्यो अने पर्वतना शिखर उपर चिता खडकी शरीरने एना उपर मूक््युम् ॥२१॥

पछी पोते पण ए समयनी योग्य क्रिया करी नदीमां स्नान करी एमणे पोताना परम पराक्रमी पतिने जलाञ्जलि आपी, आकाशमां ऊभेला देवोए नमस्कार कर्या, चितानी त्रण प्रदक्षिणा करी अने स्वामीना चरणनुं ध्यान करतां अग्निमां प्रवेश कर्यो ॥२२॥

पोताना पति वीरवर पृथुराजानी पाछळ परम पतिव्रता अर्चिने सती थयेलां जोई हजारो वरदान देनारी देवीओए पोतपोताना पतिओनी साथे एमनी स्तुति [[५०१]] करी ॥२३॥

ए मन्दराचळना शिखरमां पुष्पनी वृष्टि करती देवाङ्गनाओ, ज््यारे देवताई वाजां वागी रह्यां हतां त्यारे परस्पर नीचे प्रमाणे वातो करवा लागी ॥२४॥

देवपत्नीओ वातो करे छे - अहो! आ स्त्री महाभाग्यशाळी छे. जेम लक्ष्मीजी भगवानने सेवे छे तेम एणे पोताना पति महाराजाधिराजनी मन-वाणी-शरीरथी सेवा करी ॥२५॥

जुओ, आ अर्चि पोताना अचिन्त्य कर्मना प्रभावथी आ सती आपणने पण पाछळ मूकी दई पोताना पति साथे वधारे उच्च लोकमां जई रही छे ॥२६॥

आ लोकमां अल्प आयुष्यवाळुं जीवन होवा छतां जे लोको भगवाननी प्राप्ति थाय एवुं आत्मज्ञान मेळवी ले तो एमने पछी बीजी कई वस्तु दुर्लभ होय? ॥२७॥

मोक्ष आपे एवो दुर्लभ मनुष्यनो जन्म घणी मुश्केलीथी मळ्यो छे, छतां जो माणस विषयोमां आसक्त रहे तो एने ठगायेलो अने आत्मद्रोही जाणवो ॥२८॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे देवोनी स्त्रीओ स्तुति करती हती त्यारे ब्रह्मज्ञानीओमां अग्रणी अने भगवद्‌भक्त पृथुराजा जे लोकने पाम्या ते ज लोकने अर्चि पण पाम्याम् ॥२९॥

परम भगवद्‌ भक्त पृथुराजा आवा ज प्रभाववाळा हता. तेमनुं अत्यन्त उदार चरित्र में तमने कही सम्भळाव्युम् ॥३०॥

जे माणस आ पवित्र अने महान चरित्र श्रद्धापूर्वक (निष्काम भावथी) सावधानपणे साम्भळे, सम्भळावे के पाठ करे तेने पृथुराजानुं पद-भगवान्‌ नुं परमधाम मळे ॥३१॥

आ चरित्रनो सकामभावथी पाठ करवाथी ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करे छे, क्षत्रिय पृथ्वीपति थई जाय छे, वैश्य व्यापारीओमां प्रधान थई जाय छे अने शूद्रमां सज्जनता आवी जाय छे ॥३२॥

पुरुष होय के स्त्री आदर सहित जे आ चरित्र त्रण वार साम्भळे ते जो एने सन्तान न होय तो तेने सारां सन्तान प्राप्त थाय, निर्धन होय तो तेने धन मळे, प्रसिद्ध न होय तो कीर्तिथी प्रसिद्ध थाय अने मूर्ख होय तो पडिन्तथाय ॥३३॥

धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष सारी रीते प्राप्त थायएवी जेनी इच्छा होय तेमणे [[५०२]] कल्याण करनारुं, अमङ्गळ मटाडनारुं, धन आपनारुं, यश देनारुं, आयुष्य वधारनारुं, स्वर्गनी प्राप्ति करावनारुं अने कळियुगना दोषोनो नाश करनारुं आ आख्यान श्रद्धाथी साम्भळवुं जोईए. केमके ए चारे पुरुषार्थनुं मोटुं साधन छे ॥३४-३५॥

जो जय मेळववा तैयार थयेलो राजा आ आख्यान साम्भळी, राजाओ उपर चढाई करे तो, जेम पूर्वना राजाओ पृथुने भेट आपता तेम ए राजाओ एने भेट आपे ॥३६॥

बीजा बधामान्थी आसक्ति अळगी करी अने भगवान्‌मां ज विशुद्ध निष्कामभक्ति राखीने आ पवित्र पृथुराजानुं चरित्र साम्भळवुं, सम्भळाववुं अने भणवुम् ॥३७॥

हे विचित्रवीर्यना पुत्र विदुरजी! भगवाननुं माहात्म्य सूचवनारा आ आख्यानमां जे माणस प्रीति राखे तेने पृथुराजा जे लोकमां गया ते लोकनी प्राप्ति थाय ॥३८॥

अनुदिनमिदमादरेण शृण्वन्‌ पृथुचरितं प्रथयन्‌ विमुक्तसङ्गः। भगवति भवसिन्धुपोतपादे स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ॥३९॥

जे पुरुष आ पृथुचरित्रनुं रोज आदरपूर्वक निष्कामभावथी श्रवण अने कीर्तन करे एनो, जेनां चरण संसारसागरने पार करी जवामाटे नौका समान छे ते, श्रीकृष्ण भगवान्‌मां सुदृढप्रेम थई जाय छे ॥३९॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां (त्रीजा कामप्रकरणमां मोक्ष निरूपण नामनो अगियारमो) ‘‘पृथुराजानुं वैकुण्ठ-गमन’’ नामनो त्रेवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सेवा-मनोरथोनुं जाहेर प्रदर्शन करनाराओ वाञ्चो! भाव गुप्त रहे तो ज वधे. तेथी पोताना आश्रमधर्मोनी पछवाडे पोताना भगवद्‌भावोने गुप्त राखीने भगवत्सेवा करवी जोईए. जेना हृदयमां प्रभु नथी बिराजता ते ज पोताना भावोने खुल्लेआम प्रदर्शित करतो होय छे. जो प्रभु हृदयमां बिराजता होय तो भावोनुं उघाडे छोगे प्रदर्शन सम्भव नथी. (श्रीमहाप्रभुजी, अणुभाष्य) [[५०३]] चोथुं मोक्षप्रकरण-अध्याय २४ प्रचेताओनी उत्पत्ति अने एओने भगवान्‌ शङ्करे करेलो रुद्रगीतनो उपदेश

विशेष - आ प्रकारे अगियार अध्यायमां कामप्रकरणनुं निरूपण कर्यु, हवे आठ अध्यायमां मोक्षप्राप्ति कहेवाय छे, मोक्ष बे प्रकारनो छेःएक ब्रह्ममां लय थवो अने बीजो प्रभुमां सायुज्य. अन्तःकरणाध्यास, प्राणाध्यास, इन्द्रियाध्यास, देहाध्यास अने स्वरूप विस्मरण आ पञ्चपर्वा अविद्यारूप छे तेनी निवृत्तिथी मोक्ष थाय छे. वैराग्य, साङ्ख्य, योग, तप अने भक्ति आ पाञ्च प्रकारनां साधनोथी पञ्चपर्वा विद्यानो उदय थाय छे अने ए मोक्षमां कारणरूप बने छे. एमां विशेष आयास होवाथी पाञ्च अध्यायायोवडे प्राचीनबर्हिषोनो लय कहेवाय छे. भगवत्सायुज्यमां प्रबळ भक्ति कारणरूपे होवाथी प्रचेताओनुं भगवत्सायुज्य कहेवाय छे. एमां आ अध्यायमां रुद्रे प्रचेताओने सायुज्यनुं साधन उपदेश्युं छे एनुं वर्णन करवामां आवे छे. आ प्रचेताओ केटला हता एओ कोना पुत्र हता एवो प्रश्न थवाथी पृथुचरित्रनी समाप्ति करी वंशवर्णन पण करवामांआव्युञ्छे. विजिताश्वोऽधिराजाऽऽसीत्पृथुपुत्रः पृथुश्रवाः। यवीयोभ्योऽददात्काष्ठा भ्रातृभ्यो भ्रातृवत्सलः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - ए पछी पृथुराजानो पुत्र परम यशस्वी विजिताश्व चक्रवर्ती राजा थयो. एणे भाईओ उपरनी प्रीतिथी पोताना चार नाना भाईओने एक-एक दिशानो अधिकार सोम्पी दीधो ॥१॥

हर्यक्षने पूर्व, ध्रुम्रकेशने दक्षिण, वृकने पश्चिम अने द्रविणने उत्तर दिशा आपी ॥२॥

ए विजिताश्व पृथुराजाना अश्वमेधमां इन्द्र पासेथी घोडो लाव्यो हतो. ए वखते इन्द्रे एने अन्तर्धान थवाथी गति आपी हती तेथी ए ‘अन्तर्धान’ एवा नामथी पण ओळखातोहतो ॥३॥

ए राजाने शिखडिन्नी नामनी स्त्रीमां पावक, पवमान अने शुचि ए नामना त्रण सुपुत्रो थया. पूर्वे त्रणे अग्निओने वसिष्ठ मुनिनो शाप लागेलो तेथी विजिताश्वने घेर पुत्ररूपे अवतर्या हता पण पाछा योगमार्गथी ए अग्निनी पदवीने पाम्या छे ॥४॥

[[५०४]] अन्तर्धान (विजिताश्व) राजा जाणतो हतो के इन्द्रे घोडानी चोरी करी छे, छतां एमणे एने मार्यो न हतो ॥५॥

एमने नभस्वती नामनी बीजी स्त्री हती, जेनाथी एमने हविर्धान नामनो पुत्र थयो हतो, राजाओ कर, दण्ड अने दाण वगेरे ले छे तेथी बीजाओने एमनी आजीविका पीडा करनारी थाय छे एवी एनी मान्यता होवाथी विजिताश्व राजाए एक लाम्बा काळनो यज्ञ करवानुं बहानुं करी एवा प्रकारनी आजीविका छोडी दीधी हती ॥६॥

यज्ञ कार्यमां लाग्या रहेवा छतां ए आत्मज्ञानी राजाए भक्त भयभञ्जन पूर्णतम परमात्मानी आराधना करी सुदृढ समाधि द्वारा भगवानना दिव्य लोकने प्राप्त कर्यो ॥७॥

हे विदुरजी! विजिताश्वना पुत्र हविर्धानने हविर्धानी नामनी स्त्रीथी बर्हिषद, गय, शुकल, कृष्ण, सत्य अने जितव्रत नामना छ पुत्र थया ॥८॥

हे कुरुश्रेष्ठ! ए छ मां सौथी मोटो बर्हिषद राजा भाग्वशाळी हतो. ए कर्मकाण्ड तेमज योगविद्यामां निष्णात हतो. एणे प्रजापतिनुं पद प्राप्त कर्यु हतुम् ॥९॥

आखी पृथ्वीमां एणे कोई पण स्थळने यज्ञ कर्या वगरनुं राख्युं न हतुं. उगमणी (पूर्व) दिशा एना अणीवाळा दर्भोथी पथराई गई हती. (तेथी ज आगळ उपर ए प्राचीन बर्हि नामथी प्रख्यात थया) ॥१०॥

ए राजा ब्रह्माजीना कहेवाथी समुद्रनी ‘शतद्रुति’ नामनी कन्याने परण्या हता. सर्वाङ्गे ए जुवान अने शणगारेली शतद्रुति अग्निनी प्रदक्षिणा फरती हती. त्यारे जेम अग्नि पोपटी उपर आसक्त थयेलो तेम, प्राचीन बर्हि राजा एनापर* आसक्तथयो ॥११॥

विशेष - सप्तर्षिओना यज्ञमां अग्निदेव सप्तर्षिओनी स्त्रीओने जोई कामातुर थई गया. ए जाणीने अग्निनी स्त्री स्वाहाए सप्तर्षिओनी स्त्रीनुं रूप धरी पोताना पतिने रमाड्या हता; अने एनुं वीर्य पोपटीना रूपथी उपाडी लई, कांसना थूम्बडामां नाङ्खी स्वाहा जती रही हती एवी पुराणान्तरमां कथा छे. ए नववधू शतद्रुतिए पोतानां झाञ्झरना झङ्कारथी चोतरफ देवो, देत्यो, गन्धर्वो, मुनिओ, सिद्धो, मनुष्यो अने नागोने मुग्ध करी दीधा हता ॥१२॥

प्राचीन बर्हि राजाने शतद्रूतिथी दश पुत्रो थया तेओ बधा ‘प्रचेता’ एवा एक [[५०५]] ज नामथी ओळखाता हताम् ॥१३॥

एओ धर्मना मर्मज्ञ हता. तेमज तेमनुं आचरण पण एक सरखुं हतुं. प्राचीन बर्हि राजाए एमने सृष्टि करवानी आज्ञा करी त्यारे तेओए तप करवा सारुं समुद्रमां* प्रवेश कर्यो. एमणे जळमां रही दश हजार वर्ष पर्यन्त तपनुं फल देनारा भगवाननी आराधना करी ॥१४॥

विशेष - अत्यन्त अगाध जलमां जलचरो होतां नथी त्यां दुःसङ्ग पण लागे नहि अने प्रलय थतां पृथ्वीनो नाश थवाथी भजनमां विघ्न पडे नहि माटे जलमां तप कर्यु. मुख्य साधन स्तोत्र छे तप नहि. भगवत्प्राकट्य थाय एटला माटे स्तोत्र(स्तुति) करवामां आवे छे, भगवत्प्रादुर्भाव प्रेमथी ज थाय छे, बीजा कशायथी नहि. अने प्रेम अति सुन्दर स्वरूपना निरन्तर चिन्तन-कीर्तनथी ज थाय छे तेथी आ प्रकारना स्तोत्रनो उपदेश करवामां आव्यो छे. (तत्त्वार्थदीपनिबन्ध) घेरथी तपस्या करवा जती वखते मार्गमां एमने सदाशिवनुं दर्शन थयुं. सदाशिवे प्रसन्न थईने एमने जे मन्त्र अने तत्त्वनो उपदेश कर्यो हतो ते प्रमाणे एओ एकाग्रचित्तथी तेमज जितेन्द्रियपणाथी जप, ध्यान अने पूजन करता रह्या ॥१५॥

विदुरजीए पूछ्‌युंः हे महाराज! प्रचेताओने सदाशिवनी साथे मार्गमां जेवी रीते समागम थयो अने प्रसन्न थईने सदाशिवे एमने उपदेश कर्यो तेमां घणो सार हशे माटे ए सघळुं मने कहो ॥१६॥

हे महाराज! बीजानी वात जवा दो, वैराग्ययुक्त मुनिओ पण जेमनुं ईष्टदेव तरीके मात्र ध्यान करे छे पण तेमने पामी शकता नथी तो एमनो समागम थवो ए प्राणीओमाटे दुर्लभ कहेवाय ॥१७॥

जो के भगवान्‌ शङ्कर आत्माराम छे एमने पोताने माटे नथी कंई करवानुं, के नथी कंई मेळववानुं; तो पण आ लोकसृष्टिनी रक्षाने माटे तेओ पोतानी घोररूप शक्ति-शिवानी साथे सर्वत्र फरता रहे छे ॥१८॥

मैत्रेये कह्युं - सज्जन प्रचेताओ पितानी आज्ञाने माथे चढावी तप करवानो निश्चय करीने आथमणी दिशामां चाली नीकळ्या ॥१९॥

ते समये एमणे एक समुद्रना जेवुं घणुं ज मोटुं तळाव जोयुं. ए तळाव महात्माओना मननी पेठे निर्मळ हतुं. एमां माछलां वगेरे जीव पण प्रसन्न [[५०६]] जणाता हता ॥२०॥

एमां नीलकमल, लालकमल, राते-दिवसे तेमज साञ्जे खिलता कमल तथा ईन्दीवर वगेरे अनेक प्रकारनां कमल सुशोभित हतां. तेना तट उपर हंस, सारस, चकवा अने बतको गुञ्जारव करी रह्या हता ॥२१॥

एनी चारे तरफ जातजातनां वृक्षो अने लताओ उपर मतवाला भमरा गुञ्जारव करी रह्या हता. एना मधुर गुञ्जनथी हर्षित थई मानो तेमने रोमाञ्च थई आव्यो हतो. कमल कोशना परागपुञ्ज वायुनी लहेरथी चारे तरफ ऊडी रह्या हता जाणे के त्यां कोई उत्सव थई रह्यो होय ॥२२॥

ए तळावमां मृदङ्ग अने पणव वगेरे वाजान्ना नादनी साथे दिव्य मनोहर गायननो मधुर ध्वनि साम्भळी राजकुमारोने आश्चर्य थयुम् ॥२३॥

ए ज समये सदाशिव पोताना पार्षदोनी साथे ए तळावमान्थी नीकळता हता तेमनां एमने दर्शन थयां. ए महादेवनी पासे गन्धर्वो गायन करता हता. एमनुं शरीर तपावेला सुवर्ण राशि जेवो कान्तिमान हतुं. नीलकण्ठ, त्रण नेत्रवाळा अने प्रसन्न मुखवाळा ए सदाशिवने जोईने घणुं आश्चर्य थुयुं अने तेमणे प्रणाम कर्या ॥२४-२५॥

धर्मवत्सल अने शरणागतनी पीडा हरनारा सदाशिवे ए धर्मज्ञ सद्‌स्वभाववाळा अने पोताना दर्शनथी प्रसन्न थयेला प्रचेताओने प्रीतिथी नीचे प्रमाणे कह्युम् ॥२६॥

सदाशिवे कह्युं - तमे राजा प्राचीन बर्हिना पैो तमारुं कल्याण थाओ तमे जे करवा इच्छो छो ते पण मने खबर छे. तमारा उपर अनुग्रह करवा ज में आ प्रमाणे तमने अत्यारे दर्शन आप्युं छे ॥२७॥

जे व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसञ्ज्ञक पुरुष आ बन्नेना नियामक भगवान्‌ वासुदेवनुं शरणुं ले छे ते मने बहु ज वहाली लागे छे ॥२८॥

पोताना वर्णाश्रम धर्मनुं सारी रीते पालन करनार पुरुष सो जन्म पछी ब्रह्माजीनी पदवीने पामे छे. ए करतां पण जो तेनुं पुण्य वधारे होय तो ए मने पामे छे. परन्तु जे भगवाननो भक्त होय ते मरण पाम्या पछी सीधेसीधा निर्विकार विष्णु पदने पामे छे, जेनी प्राप्ति रुद्ररूपमां रहेल अने बीजा अधिकारी देवताओने पोतपोताना अधिकारनी समाप्ति बाद ज थाय छे ॥२९॥

[[५०७]] एटलामाटे मने भगवान्‌ जेवा वहाला छे तेवा ज तमे वैष्णवो वहाला छो. वैष्णवोने पण मारा जेवो बीजो कोई वहालो कदी पण होतो नथी ॥३०॥

हवे हुं तमने एक पवित्र, परम मङ्गळरूप मोक्ष आपनार स्तोत्र कहुं छुं एनो तमे शुद्ध भावथी जप करजो ॥३१॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे बोली नारायण-परायण करुणार्द्रहृदय भगवान्‌ शिवे हाथ जोडी ऊभेला ए राजकुमारोने आ स्तोत्र सम्भळाव्युम् ॥३२॥

सदाशिव बोल्या - भगवन्‌! आपनो उत्कर्ष उच्चकोटिना आत्मज्ञानीओना कल्याणमाटे निजानन्दनी प्राप्तिमाटे छे एनाथी मारुं पण कल्याण हो. आप सर्वदा पोताना निरतिशय परमानन्द रूपमां ज स्थिति करो छो एवा सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपने हुं प्रणाम करुं छुम् ॥३३॥

आप ज पद्मनाभ समस्त लोकोनुं आदिकारण छो. आप ज पञ्चभूत विषयो अने इन्द्रियोना नियन्ता छो; शान्त, एकरस अने स्वयम्प्रकाश वासुदेव (चित्तना अधिष्ठाता) छो. आपने नमस्कार हो ॥३४॥

सङ्कर्षण रूपे अहङ्कारना नियन्ता छो; आप ज सूक्ष्म, अनन्त अने मुखाग्निथी जगतने पलकमां बाळी नाखो छो. प्रद्युम्नरूपे आप बुद्धिना नियन्ता छो अने जगतना प्रकृष्ट ज्ञानना उद्‌गम स्थान छो. आपने नमस्कार हो ॥३५॥

अनिरुद्धरूपे आप इन्द्रियोना स्वामी अने मनना नियन्ता छो; एवा आपने हुं वारंवार प्रणाम करुं छुं. आप पोताना तेजथी सूर्यरूपे जगतमां व्यापी रहेला छो; पूर्ण होवाथी आप क्षय अने वृद्धिथी रहित छो; आपने नमस्कार हो ॥३६॥

आप स्वर्ग तथा मोक्षना द्वाररूप छो; तथा निरन्तर पवित्र अन्तःकरणमां वास करी रहो छो एवा आपने नमस्कार करुं छुं. आप ज सुवर्णरूप वीर्यथी युक्त चातुर्होत्र कर्मना साधन अने विस्तार करनार अग्निदेव छो. आपने नमस्कार करुं छुं ॥३७॥

चन्द्ररूपे पितृ तथा देवोना पोषक छो, त्रण वेदना अधिपति छो, आपने प्रणाम हो. पति अने यज्ञरूप वीर्यवाळा छो; एवा आपने नमस्कार करुं छुं. जळरूपे आप जीवोनी तृप्ति करो छो अने सर्व रसमय छो; आपने हुं नमस्कार करुं छुं ॥३८॥

पृथ्वीरूपे आप सर्व प्राणीओना देह पृथ्वी अने विराट रूप छो; एवा आपने [[५०८]] नमस्कार करुं छुं. आप त्रिलोकना पालक छो. मन, इन्द्रिय अने देहनी शक्ति स्वरूप वायु (प्राण) छो; आपने नमस्कार करुं छुम् ॥३९॥

आकाशरूपे पोताना शब्द गुणथी सर्वने नाम आपो छो; अन्दर अने बहारनो भेद करनारा आश्रयरूप छो; एवा आपने नमस्कार करुं छुं. आप ज महान पुण्यथी प्राप्त थनारा परम तेजोमय स्वर्ग वैकुण्ठादि लोक छो. आपने पुनः-पुनः नमस्कार हो ॥४०॥

प्रवृत्तिकर्मथी पितृलोक देनारा तथा निवृत्तिकर्मथी देवलोक देनारा तथा अधर्मना फलरूप, दुःखदायी मृत्युरूप छो; एवा आपने नमस्कार करुं छुम् ॥४१॥

हे ईश्वर! आप सर्वकर्मना फळ आपनार छो; सर्वज्ञ अने मन्त्ररूप छो; परम धर्मरूप छो; अखण्ड ज्ञानवाळा छो; पुराणपुरुष, साङ्ख्य अने योग ना ईश्वर कृष्ण छो एवा तमने नमस्कार करुं छुम् ॥४२॥

सद्रूपे आप गोलक, इन्द्रिय अने एनां देवताओने उत्पन्न करनार छो; (अथवा आपज कर्ता, करण अने कर्म त्रणेय शक्तिओना एक मात्र आश्रय छो) ज्ञान तथा क्रियारूप छो; आपथी ज परा, पश्यन्ती, मध्यमा अने वैखरी चार प्रकारनी वाणीनी अभिव्यक्ति थाय छे, आप ज अहङ्कारना अधिष्ठाता रुद्र छो. एवा आपने नमस्कार करुं छुम् ॥४३॥

आपनुं स्वरूप भक्तोने अतिप्रिय छे. गुणोथी सर्व इन्द्रियोने राजी राखनार छो. वैष्णवोए पूजेला आपना स्वरूपनुं अमने दर्शन आपो. अमे ए दर्शनने झङ्खीए छीए ॥४४॥

आपनी कान्ति वर्षाऋतुना घेरा वादळ जेवी स्निग्ध, श्याम अने सम्पूर्ण सौन्दर्योना सारसर्वस्व छे. आपने सुन्दरअने लाम्बा चार हाथ छे. आपनुं मुखारविन्द अत्यन्त मनमोहक छे ॥४५॥

आङ्खो कमळनी पान्दडी सरखी छे; भ्रमर सुन्दर अने नासिका सुघड छे. मनमोहिनी दन्तपक्तिं, अमोल-कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल अने शोभीता समान कर्णो छे ॥४६॥

प्रेमपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तीरछी नजर, काळी-काळी अलकलट, कमल कुसुमनां केसरनी माफक फरहरतुं पीताम्बर, झळहळतां कुण्डल, झाकमझोळ मुगट, कङ्कण, हार, नूपुर अने मेखला वगेरे विचित्र आभूषण तथा शङ्ख, चक्र, गदा अने पद्म, [[५०९]] वनमाला अने उत्तम मणिओ झळझळ प्रकाशे छे ॥४७-४८॥

सिंहना जेवी भरावदार कान्धो छे, जेना उपर हार, केयूर अने कुण्डलादिनी कान्ति झलझली रही छे तथा कौस्तुभ मणिना प्रकाशथी शोभीती मनोहर ग्रीवा छे. एमनुं श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्‌नना रूपमां लक्ष्मीजीनुं नित्य निवास स्थान होवाथी कसोटी उपर पाडेली सुवर्णरेखानी शोभाने मात करे छे फिक्की पाडी दे छे ॥४९॥

पीपळाना पान जेवुं उदर श्वास अने उच्छ्‌वासने लीधे हालती त्रण वलिओथी मनोहर लागे छे. पाणीनी घूमरी जेवी गम्भीर नाभि एटली ऊण्डी छे के जाणे एमान्थी नीकळेला विश्वने ते पाछुं पोतानी अन्दर समावी लेवा मागती होय तेवी लागे छे ॥५०॥

श्याम वर्णनी कटि उपर आपे पीताम्बर धारण कर्यु छे अने एनी उपर सोनानी कटिमेखळा पहेरी छे; आपनां चरण सरखां अने सुन्दर छे; तेमज र्पीडीओ तथा साथळथी तथा नमेला गोठणथी दृष्टिने दिव्य आनन्द मळे छे; एवा आपना स्वरूपनुं आप अमने दर्शन आपो ॥५१॥

हे गुरु! आपनां चरण शरद्‌ऋतुमां खीलेलां कमळनी पाङ्खडीना जेवां शोभावाळां छे तथा ए नखनी कान्ति जीवोना अज्ञानने मटाडनारां छे अने भक्तोना भयने टाळनारां छे तो ए अमने देखाडो ॥५२॥

अमारा जेवा अज्ञानीओने आपनी प्राप्तिनो मार्ग देखाडनार गुरु आप ज छो. जे पुरुषो पोताना चित्तने शुद्ध करवा मागता होय तेमणे आवा स्वरूपनुं ध्यान करवुं जोईए केमके स्वधर्म पाळनाराओने भक्तियोगद्वारा ज अभय मळे छे॥५३॥

स्वर्गनां राज्यकर्ता इन्द्र पण आपनी प्राप्तिनी ज इच्छा करे छे; आप सर्व प्राणीओने प्राप्त थवा दुर्लभ छो तथा विशुद्ध आत्मज्ञानीओनी गति आप ज छो. भक्तिमान पुरुषोने ज आप प्राप्त थाओ छो ॥५४। आपनी अनन्य भक्ति सत्पुरुषोमाटे पण दुर्लभ छे. आपनी प्रसन्नता अनन्य भक्ति सिवाय बीजा कोई साधनथी दुःसाध्य छे. एवो कोण हशे के जे अनन्य भक्तिथी आपने प्रसन्न करी आपना चरणतल सिवाय बीजुं कंई चाहे? ॥५५॥

जे काल पोताना अदम्य उत्साह अने पराक्रमथी फरकती भ्रमरना ईशाराथी [[५१०]] आखा जगतनो संहार करी नाखे छे ते पण आपना चरणोना शरणे गयेल प्राणी उपर पोतानी सत्ता मानतो नथी ॥५६॥

आवा भगवानना प्रेमी भक्तोनो सत्सङ्ग अडधी क्षणने माटे पण जो थई जाय तो एनी आगळ हुं स्वर्ग अने मोक्षनी पण कंई विसात समजतो नथी तो पछी मर्त्यलोकना तुच्छ भोगोनी तो वात ज शी? ॥५७॥

आपनां चरणारविन्द पापने माटाडनार छे. एना यशनी सेवा करवाथी तथा तीर्थ (गङ्गा)स्नानथी अन्दर अने बहार पापरहित थवाथी जे वैष्णवो प्राणीओउपर दया राखे छे अने निर्मळ अन्तःकरणवाळा होवाथी जेओ जीवमात्र उपर दया, रागद्वेष रहित चित्त, सरलता आदि गुणोथी युक्त छे ते आपना भक्तोनो सङ्ग अमने प्राप्त थाय एज आपनी कृपाहो ॥५८॥

जे साधकनुं चित्त भक्तियोगथी अनुग्रहीत अने विशुद्ध थवाथी, नथी तो बहारना विषयोमां भटकतुं के नथी अज्ञानगुहा रूप तमो गुणमां लीन थतुं ते सहेजे आपना स्वरूपनां दर्शन करी ले छे ॥५९॥

जे स्वरूपमां आ सघळुं जगत्‌ देखाय छे अने सघळा जगतमां जे स्वरूप देखाय छे ते स्वयम्प्रकाश, आकाशना जेवा व्यापक परब्रह्म आपज छो ॥६०॥

भगवन्‌ आपनी माया अनेक प्रकारनां रूप धारण करे छे. एना द्वारा ज आप आ प्रमाणे जगतनी रचना, पालन अने संहार करो छो जाणे के ए कोई सद्वस्तु होय पण तेनाथी आपनां कोई ज प्रकारनो विकार थतो नथी. मायाने लीधे बीजा लोकोमां ज भेद बुद्धि उत्पन्न थाय छे आप परमात्मा उपर पोतानो (मायानो) प्रभाव कंई पडतो नथी. आपने तो अमे परम स्वतन्त्र समजीए छीए ॥६१॥

जो के आप निराकार छो तो पण पञ्चभूत इन्द्रिय अने अन्तःकरणथी जाणवामां आवता आपना साकाररूपनुं जे योगीओ श्रद्धापूर्वक अनेक कर्मोवडे मुक्तिमाटे सारी पेठे पूजन करे छे तेओ वेद अने शास्त्रोना साचा मर्मज्ञ छे ॥६२॥

आप ज अद्वितीय आदिपुरुष आपनी मायाशक्ति सृष्टि पहेला सुप्त रहे छे ए सृष्टिकाळमां जागीने सत्त्व, रज अने तमोगुणना विभाग करे छे. ए विभागोमान्थी महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवो, ऋषिओ अने बीजा प्राणीओना समूहरूप आ जगत्‌ थयुं छे ॥६३॥

जरायुज, अण्डज, स्वेदज अने उद्भिज* एवा प्रकारनुं आ जगत्‌ पोतानी [[५११]] मायाथी बनावी ए जगत्‌रूप पुरमां पोताना अंश (जीवरूप)थी आप प्रवेश करी लो छो अने जेवी रीते मधमाखीओ पोते ज उत्पन्न करेल मधनो आस्वाद ले छे ते ज प्रमाणे ते आपनो अंश ते पुर-शरीरमां रही इन्द्रियो द्वारा ए तुच्छ विषयो भोगवे छे. आपना ते अंशने ज पुरुष अथवा जीव कहेवामां आवे छे ॥६४॥

विशेष - ओरमान्थी उत्पन्न थया ते माणस वगेरे ‘जरायुज’ कहेवाय छे; इण्डामान्थी उत्पन्न थाय ते पक्षी वगेरे ‘अण्डज’ कहेवाय छे; पसीनामान्थी उत्पन्न थाय ते माङ्कड वगेरे ‘स्वेदज’ कहेवाय छे; अने धरतीने फोडीने उत्पन्न थनारां झाड वगेरे ‘उद्‌भिज’ कहेवाय छे. ए ज आप सहन न थाय तेवा प्रचण्ड काळरूपे, जेम वायु द्वारा एक वादळान्ने बीजा वादळनो धक्को लागे अने चलायमान करी खेञ्ची जाय तेम पृथ्वी आदि भूतोने बीजा भूतो द्वारा चलायमान करी खेञ्ची जाओ छो; एवा सर्वने खेञ्चनारुं (नाश करनारुं) आपना काळ स्वरूपनुं अनुमान कोईथी थई शकतुं नथी ॥६५॥

आ काम आम करवुं अने फलाणुं काम एम करवुं एवी-एवी अनेक चिन्ताओथी जीव गाफेल रहे छे. जीवना लोभने थोभ नथी अने विषयोनी लालसा तो तेने सदा लागेली ज होय छे. पण आप सदा सजाग छो. जेम भूखथी गलोफां चाटतो सर्प उन्दरने हडप करी जाय छे तेम कालरूपे आप एने तुरत झडपी लो छो ॥६६॥

आपनो अनादर करवाने लीधे पोतानुं आयखुं (आयुष्य) व्यर्थ मानवावाळो एवो कोण समजदार मनुष्य हशे जे आपनां चरणकमलोने भूली जाय? एनी पूजा तो कालनी धाकथी अमारा पिता ब्रह्माजी तथा स्वायम्भुव वगेरे चौद मनुओए पण कंईपण बीजो विचार कर्या विना केवल श्रद्धाथी ज करी हती ॥६७॥

ब्रह्मन्‌! आ प्रमाणे आखुं जगत्‌ रुद्ररूप काळना त्रासथी फफडे छे. तेथी हे परमात्मा! आ साची परिस्थिति जाणनार अमारेमाटे तो अत्यारे आप ज सर्वथा अभय आश्रय छो ॥६८॥

पछी महादेवजीए कह्युं - ‘‘हे राजकुमारो! शुद्ध रही स्वधर्म पाळो अने भगवान्‌मां चित्त राखी आ स्तोत्रनो जप करो. भगवान्‌ तमारुं भलुं करशे ॥६९॥

तमारामां अने सर्व प्राणीओमां रहेला ए ज परमात्मा भगवाननुं वारंवार पूजन करो, स्तुति करो अने ध्यान करो ॥७०॥

आ ‘योगादेश’ नामनुं स्तोत्र में तमने कह्युं तेनो मननपूर्वक पाठ करी सावधान [[५१२]] चित्तथी मुनिना जेवा नियम पाळी एकाग्रताथी आदर पूर्वक अभ्यास करो’’॥७१॥

प्रजापतिओना पति ब्रह्माजीए एमना पुत्र भृगु वगेरे अमने, पूर्वे ज््यारे ब्रह्माजीने सृष्टि करवानी इच्छा थई हती त्यारे आ स्तोत्र शीखव्युं हतुम् ॥७२॥

प्रजाओनी सृष्टि करवा सारुं ब्रह्माजीए आज्ञा करी त्यारे आ स्तोत्रनो अभ्यास करी अमारुं अज्ञान मटाडी अमे अनेक प्रकारनी प्रजा उत्पन्न करी हती ॥७३॥

अत्यारे पण भगवानना जे भक्तो सावधान अने एकाग्रचित्त थईने रोज आ स्तोत्रनो जप करशे तेमनुं तरत कल्याण थशे ॥७४॥

आ जगतमां कल्याण करनारां बधां साधनोमां मोक्षदायक ज्ञान सर्वश्रेष्ठ छे. ज्ञानरूप नौका मळे तो संसाररूप अपार अने दुःखमय समुद्रने सहेजे तरी जवाय छे ॥७५॥

(जो के भगवाननी आराधना बहु कठण छे पण) जे पुरुष में कहेला आ स्तोत्रनो श्रद्धापूर्वक पाठ करशे ते पुरुष सुगमताथी ज भगवाननी प्रसन्नता प्राप्त करी लेशे ॥७६॥

भगवान्‌ ज सम्पूर्ण कल्याण साधनोना एकमात्र प्यारा-प्राप्तव्य छे. तेथी में गायेल आ स्तोत्रना गानथी एमने प्रसन्न करी एनी पासेथी जे कंई चाहशे ते तेने तत्काल प्राप्त करी लेशे ॥७७॥

जे माणस उषःकालमां ऊठी हाथ जोडी श्रद्धापूर्वक आ स्तोत्र साम्भळे के सम्भळावे ते कर्मना बन्धनथी छूटी जाय छे ॥७८॥

गीतं मयेदं नरदेवनन्दनाः परस्य पुंसः परमात्मनः स्तवम्‌ ॥ जपन्त एकाग्रधियस्तपो महत्‌ चरध्वमन्ते तत आप्स्यथेप्सितम्‌ ॥७९॥

हे राजकुमारो! आ में रचेली परम पुरुष परमात्मानी स्तुतिनो जप करतां एकाग्रबुद्धि राखी महान तप करशो तो तपस्या पूर्ण थतां आनाथी ज तमने मनवाञ्छित फळ मळशे ॥७९॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां (चोथा मोक्षप्रकरणमां सायुज्य साधननिरूपण नामनो पहेलो) ‘‘प्रचेताओनी उत्पत्ति अने एओने भगवान्‌ शङ्करे करेलो रुद्रगीतनो उपदेश’’ नामनो चोवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५१३]]

अध्याय २५

पुरञ्जननुं आख्यान

विशेष - प्राचीनबर्हिनुं चित्त कर्ममां आसक्त छे तेने दयाळु नारद मुनिए आत्मविद्यानो उपदेश कर्यो. आ पचीसमां अध्यायमां बुद्धियोगवडे आत्मानी विषयथी असङ्ग श्रुति अने जाग्रत अवस्थानुं निरूपण करवामां आव्युं छे. जो के आ अध्यायमां रुद्रनुं अन्तर्धान थवुं अने प्रचेताना तपनुं निरूपण करवुं योग्य हतुं, छतां प्राचीनबर्हिष यज्ञादि कर्ममां सकाम होवाथी एद्वारा शुद्धिनो सम्भव नथी. तपना प्रभाववडे ज बुद्धि थाय छे एवुं सूचन करवाने ज पूर्वाध्यायनी समाप्ति करी आ अध्यायना उपक्रममां एनुं अनुसन्धान करे छे. इति सन्दिश्य भगवान्‌ बार्हिषदैरभिपूजितः। पश्यतां राजपुत्राणां तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - एप्रमाणे सदाशिवे उपदेश कर्या पछी प्रचेताओएएमनी पूजा करी अने पछी एमनां देखतां शिवजी अन्तर्धान थईगया ॥१॥

पछी बधा प्रचेताओ सदाशिवे कहेला भगवानना स्तोत्रनो जळमां ऊभां-ऊभां जप करवा लाग्या अने एम करतां दश हजार वर्ष वीती गयाम् ॥२॥

प्रचेताओ पाछा आव्या नहोता ते दिवसोमां एमना पिता प्राचीनबर्हि राजा, जेमनुं मन यज्ञ वगेरे कर्म काण्डमां चोटेलुं हतुं तेमने अध्यात्मविद्या विशारद अने दयाळु नारदजीए उपदेश आप्यो ॥३॥

‘‘हे राजा! आ यज्ञो करीने तारे तारुं कयु कल्याण करवुं छे? दुःखनो आत्यन्तिक नाश अने परमानन्दनी प्राप्तिनुं नाम कल्याण छे ते तो कर्मोथी नथी मळतुम् ॥४॥

प्राचीनबर्हि राजाए कह्युं - हे महाराज! मारी बुद्धि कर्मकाण्डमां ज लागेली छे तेथी हुं परम कल्याणथी अणजाण छुं तो हुं कर्म बन्धनमान्थी छूटी जाउं एवुं विशुद्ध ज्ञान मने कहो’’ ॥५॥

मूढ पुरुष कपट धर्ममय गृहस्थाश्रममां ज स्त्री, पुत्र अने धनने ज पुरुषार्थ करी माने छे अने संसारना मार्गोमां भटके छे एने मोक्ष मळतो नथी. (राजाए यज्ञोमां जेटलां पशुओने मार्या हता ते सघळां नारदजीए प्रत्यक्ष देखाड्यां) ॥६॥

नारदजीए कह्युं - हे राजा! ते यज्ञमां निर्दयपणे हजारो पशुओनो बलि आपी मार्या छे तेने नजरे जो. जे पशुओने तें पीडापहोञ्चाडेली ते पीडाने याद करी-करी ते [[५१४]] सघळां तारी वाट जोई रह्या छे. ज््यारे तु मरी जईश त्यारे एओ क्रोधथी लोखण्डना हथियारवडे तने कापशे ॥७-८॥

हा, तो आ प्रसङ्गे हुं तने पूरञ्जन राजानुं प्राचीन उपाख्यान कहुं छुं ते तुं साम्भळ ॥९॥

हे राजा! महायशस्वी पुरञ्जन१ नामनो राजा हतो. एनो अविज्ञात नामनो एक सखा२ हतो. तेनी चेष्टाओने कोई समजी शकतुं नहोतुम् ॥१०॥

विशेष - १. आ इतिहासमां पुरञ्जन वगेरे जे पात्रो लख्यां छे तेमना खरा अर्थ ओगणत्रीसमां अध्यायमां नारदजी पोते ज कहेवाना छे. तो पण वाञ्चनाराओने आ प्रकरण समजवुं सुगम पडे एटलामाटे जरूरी जेटला थोडा-थोडा अर्थ अत्रे आप्या छे - पुरञ्जन एटले जीव; केमके पोताना कर्मथी ‘पुर’ एटले शरीरने ‘जन’ एटले उत्पन्न करनार छे. २. ईश्वर. ए पुरञ्जन राजा राजधानी करवामाटे स्थान *शोधवाने आखी पृथ्वीमां फर्यो, परन्तु पोताने जेवुं जोईए तेवुं स्थान मळ्युं नहि तेथी ए उदासीन थई गयो ॥११॥

विशेष - विषय भोगववाना स्थानरूप शरीर. ए राजाने जातजातनुं सुख भोगववानी तीव्र इच्छा हती. एने पृथ्वीमां जेटलां नगर छे ते पैकी कोई पण नगर सुखनी प्राप्ति करावी शके तेवुं जणायु नहि* ॥१२॥

विशेष - मनुष्य सिवाय पशु अने पक्षी वगेरे जे-जे शरीर छे. तेमान्ना कोईमां पण सघळां सुख भोगववानी सगवड नथी तेथी एवो कोई अवतार एने गम्यो नहि. एक दिवसे फरतां-फरतां हिमालय पर्वतनी दक्षिण दिशानां शिखरो उपर कर्मभूमि भारतखण्डमां एक नव दरवाजावाळी तेमज कोई पण जातना दोष विनानी नगरी* एना जोवामां आवी ॥१३॥

विशेष - मनुष्य शरीर, ए शरीरमां मोढुं, बे कान, बे आङ्खो, बे नाक, शिश्न अने गुदा ए नव छिद्र छे ते नव दरवाजा समजवा. अने सघळी इन्द्रियो सम्पूर्ण हती; तेथी आन्धळापणुं के लूलापणुं वगेरे कोई दोष पण न हता एम समजवुं. ए नगरी हिमालयना दक्षिण तरफनां शिखरोमां छे एम कहेवानुं कारण ए छे के हिमालयथी दक्षिणमां भरतखण्ड ते कर्मभूमि छे एटले एमां उत्पन्न थयेलुं मनुष्य शरीर कर्म करवाने योग्यछे. [[५१५]] किल्ला१ बगीचा, अगाशीओ, खाइओ, गोख अने राजद्वारोथी ए नगरी शोभती हती.२ ए सोना, रूपा अने लोढाना शिखरवाळां विशाल भवनोथी खीचोखीच भरेली हती ॥१४॥

विशेष - १. आ विषयमां कांईक-कांईक मळतापणुं लईने वातमां शोभा लाववाने माटे किल्ला वगेरेनुं वर्णन कर्युं छे तेथी शरीरना अवयवोने किल्ला वगेरेनुं रूपक आप्युं छे एम समजवुं.
२. शरीरमां छ चक्र छे ते घरने ठेकाणे अने राजस, तामस वगेरे स्वभावने मेडीओने ठेकाणे समजवां. ए नगरना महेलनी जग्या नीलमणि, स्फटिकमणि, वैदूर्यमणि, मोती, मरकत अने माणेकोनी बनेली हती. *नागलोकोनी राजधानी भोगवती नगरीना जेवी ए आखी नगरी पोतानी अनूठी छटाथी प्रकाशी रही हती ॥१५॥

विशेष - महेलनी जग्या एटले हृदय अने नाडीओ अथवा ते जुदा-जुदा विषयोनी वासनाओने मणिरूप समजवी. एमां सभा भवन, चोक, राजमार्ग, रमतगमतनां मेदान, बजार, लोकोमाटे विश्रामस्थानो, ध्वजा, पताकाओ तथा परवाळान्ना चबूतरा वगेरेनी उत्तम सगवडो हती ॥१६॥

ए नगरीनी बहार एक बगीचो हतो. १तेमां दिव्य झाड अने लताओ २लागी रह्यां हतां. जळाशयोमां पक्षीओना कलरव अने भमराओना गुञ्जारनो कोलाहल थई रह्यो हतो ॥१७॥

विशेष - १. विषयोमां लागी रहेली बुद्धिना योगथी जीवने देहनो सम्बन्ध थयो छे एम कहेवानी मतलबथी विषयोना वर्गने बहाने बगीचो ठरावेल छे. २. माळा, चन्दन वगेरे पदार्थोने झाड अने लतारूप समजवां अने बीजुं केटलुं एक वातने शणगारवाने वास्ते पण लख्युं छे. एमां फलना समूहोमां थईने तथा ठण्डा झरणान्ना जळकणोने उडाडतो पवन वातो हतो तेनाथी तळावडीओना काण्ठा पर ऊगेलां वृक्षोनी शाखाओ अने पान डोलतां हतां एथी त्यां भारे शोभा जामी रही हती. अहिंसानो नियम पाळतां होवाथी अनेक प्रकारनां वगडाउ जानवरो एकबीजाने कशीये हरकत करतां नहोतां. कोयलोना टहुकारथी वटेमार्गु लोकोने एवो भ्रम थतो हतो के आ बगीचो अमने पोतानी पासे आवी आराम करवामाटे बोलवी रह्यो छे ॥१८-१९॥

[[५१६]] ए बगीचामां एक सुन्दरी१ अकस्मात२ आवी चढेली ते पुरञ्जन राजाना जोवामां आवी ए स्त्रीनी साथे एना दश नोकरो३ चाल्या आवता हता. अने प्रत्येक नोकर सो-सो नायिकाओनो पति४ हतो ॥२०॥

विशेष - १. जुदा-जुदा विषयोना विवेक करनारी बुद्धि. २. जीवनो अने बुद्धिनो सम्बन्ध शा कारणथी अने शी रीते थयो ए वातनुं निरूपण थई शकतुं नथी तेथी यदृच्छाथी आवी एम कह्युं छे. ३. दश इन्द्रियो. ४. अनन्त वृत्तिओ. एक पाञ्च माथावाळो नाग* ए सुन्दरीनी चारे बाजूए चोकी करतो हतो. पोतानी इच्छा प्रमाणे रूप धरनारी ए भोळीभाली किशोरी श्रेष्ठ पतिनी शोधमां हती ॥२१॥

विशेष - प्राण, अपान, समान, व्यान अने उदान ए पाञ्च वृत्तिवाळो प्राण छे तेने बुद्धिनी रक्षा करनार नाग समजवो. ए स्त्रीनां१ नाक, दान्त, कपोल, मुख, कटिनो पाछलो भाग, बधुं ज बहु सुन्दर हतुं. तेना बे सरखा कानमां कुण्डळ झबकी रह्यां हतां. एणे पीळां वस्त्र अने सोनानी कटिमेखळा पहेरी हती. एनो रङ्ग शामळो२ हतो. झाञ्झरना झमकारावाळा पगथी ए देवाङ्गनानी पेठे चालती हती ॥२२-२३॥

विशेष - १. गन्धनुं ज्ञान इत्यादिक. २. मन अन्नमान्थी बने छे अने अन्ननुं रूप श्याम छे एम वेदमां लख्युं छे तेथी अर्ही बुद्धिनो रङ्ग श्याम कह्यो छे. ए गजगामिनी बाला किशोर अवस्थानी सूचना देनारां पोतानां गोळगोळ सरखां अने एक बीजाने अडकेलां स्तनोने लज्जाथी वारंवार पोताना अञ्चलथी ढाङ्कती जती हती ॥२४॥

एनी प्रेमथी मटकती भ्रूकुटि अने अनुराग भरी तीरछी नजरना बाणथी घायल थयेल वीर पुरञ्जने लज्जायुक्त हास्यथी वधारे सुन्दर लागती ए देवीने मधुर वाणीथी कह्युं* ॥२५॥

विशेष - जीव अने बुद्धिना सम्बन्धनी मजबूती देखाडवा वास्ते तेओ वच्चे वातचीतनो बन्दोबस्त थवानुं कह्युं छे. ‘‘हे कमलदल नयनी! तुं कोण छो? कोनी छे? अर्ही क््यान्थी आवी छे? हे सती! आ नगरी पासेना बगीचामां तुं शुं करवा मागे छे?’’ ए मने कहे ॥२६॥

हे सुन्दर भ्रम्मरवाळी युवती! तारी साथे आ अगियारमां महान शूरवीर* अने [[५१७]] तेने अधीन वीर दश सौनिको कोण छे? आ साहेलीओ अने आगळ-आगळ चालतो आ सर्प कोण छे? ॥२७॥

विशेष - मोटो योद्धो एटले मन समजवुं. आनुं ‘बृहद्‌बल’ एवुं नाम आगळ कहेवाशे आ ठेकाणे मनने बुद्धिथी जुदुं लेखवानुं कारण ए छे के, बुद्धिनी सेवा करनारी इन्द्रियोने ते मदद आपे छे तेथी ते पण बुद्धिनी सेवा करनार छे एम कहेवानुं छे. सुन्दरी! एकान्त वनमां पोताना पतिधर्मने शोधवा नीकळेली तुं एनी (धर्मनी) स्त्री लज्जा छे अथवा उमा, रमा अथवा ब्रह्माणी मान्थी कोई छे? अर्ही वनमां मुनिओनी माफक एकान्तवास करी पोताना पतिदेवने शोधी रही छे? तारा प्राणनाथ तो तुं एना चरणनी कामना करे छे एटलाथी ज पूर्णकाम थई जशे. ठीक भला, तुं साक्षात्‌ लक्ष्मीजी हो तो तारा हाथनुं क्रीडाकमल क््यां पडी गयुं? ॥२८॥

हे सुन्दरी! उपर वर्णवेली स्त्रीओ पैकीनी कोई तुं जणाती नथी केमके ए सर्वे देवाङ्गनाओ छे तेमने धरतीनो स्पर्श घटे नहि. एटलामाटे जेम लक्ष्मी विष्णुनी साथे रही वैकुण्ठ लोकने शोभा आपे छे तेम वीरवर अने पराक्रमी* मारी साथे रही तुं पण आ नगरीने शोभा आप ॥२९॥

विशेषः हुं जो के एकलो कर्मरहित छुं, तो पण तारा सङ्गथी अनेक कर्मवाळो थयो छुं एम बताववानुं छे. परन्तु आज तारा कटाक्षोए मारा मनने बेकाबू बनावी दीधुं छे. तारी लज्जाळ अने रतिभावथी सभर हास्य साथे भृकुटिना सङ्केत मळतां आ शक्तिशाळी कामदेव मने पीडी रह्यो छे. तेथी सुन्दरी, हवे तारे मारा उपर कृपा करवी जोईए ॥३०॥

हे सुन्दर हास्यवाळी! सुन्दर भ्रुकुटि अने सुघड नेत्रोथी सुशोभित तारुं मुखकमल आ लाम्बी-लाम्बी अलक लटोथी घेरायेलो छे. तारा मुखमान्थी नीकळेल वाक््य मधझरन्ता अने मनहरन्ता छे. पण ए मुख तो लज्जाने लीधे मारा तरफ तो फरतुं ज नथी. जरा ऊञ्चुं करी तारां आ सुन्दर मुखडान्नी मने झाङ्खी तो कराव ॥३१॥

नारदजीए कह्युं - ए प्रमाणे अधीरनी पेठे पुरञ्जन राजाने मागणी करतो जोई एमां मोह पामेली ए स्त्री हास्य साथे सत्कार करीने बोलीः ॥३२॥

‘‘हे पुरुषोमां उत्तम! अमने अने तमने बन्नेने जेणे उत्पन्न करेल छे अने जेणे आपणां नाम पड्या छे अने वंश स्थाप्यो छे तेनो अमने पूरो पतो नथी ॥३३॥

[[५१८]] हे वीर! मने एटली ज खबर छे के हमणां हुं अर्ही छुं. ते सिवाय मने कंई खबर नथी. आपणा रहेवामाटे आ नगरी कोणे बनावी एनी पण खबर नथी ॥३४॥

हे मानद! आ पुरुषो मारा सखा छे अने स्त्रीओ मारी सखीओ छे. हुं सूई रहुं छुं त्यारे आ नाग जागतो रही आ नगरीनी चोकी कर्या करे छे ॥३५॥

हे शत्रुओने मारनार राजा! आप अर्ही आव्या ए मारेमाटे सौभाग्यनी वात छे. आपने विषय भोगोनी इच्छा छे ते सघळां सुख हुं अने मारा साथीओ आपने आपीशुम् ॥३६॥

आप आ नव दरवाजावाळी नगरीमां मारी साथे रहो अने हुं आपने जे विषयसुखो आपुं ते वर्षो * सुधी भोगवो ॥३७॥

विशेष - मनुष्य शरीरना आयुष्यनुं प्रमाण सो वर्षनुं छे. तेथी सो वर्ष सुधी सुख भोगववानुं कह्युं छे. आपना सिवाय भला बीजा क््या पुरुषनी साथे हुं रमण करीश? बीजा पुरुषो तो रतिसुखने जाणता नथी; १शास्त्रो जेने मञ्जूर करे छे तेवां सुखनो पण त्याग करी बेठा छे; २नथी तेओ ३अपरलोकनो विचार करता; आवती काले शुं थशे एनुं पण ध्यान राखता नथी ४तेथी तेओ पशु जेवा ५ छे ॥३८॥

विशेष - १. नैष्ठिक ब्रह्मचारीओने स्त्री सम्बन्धी सुखनी खबर ज होती नथी. २. सन्न्यासीओने विषयसुखनो त्याग करनारा समजवा. ३. नर्या कामी पुरुषोने परलोकनी चिन्ता ज होती नथी. ४. वैराग्यवाळाओने आ लोकनी चिन्ता होती नथी. ५. मूर्ख लोकोने पशु जेवा समजवा केमके एमने आ लोकनी के परलोकनी कांई पण चिन्ता होती नथी. आ गृहस्थाश्रमथी धर्म, अर्थ, काम, पुत्रादि सुख, मोक्ष, सुयश अने स्वर्गादि दिव्य लोकनी प्राप्ति थाय छे. संसारत्यागी यतिजन* तो आ बधान्नी कल्पना पण नथी करी शकता ॥३९॥

विशेष - सन्न्यासीओने ब्रह्मज्ञानने लीधे मोक्ष ज मळवानो तेथी एओने बीजा लोकनी प्राप्ति थती नथी. महापुरुषोनुं कहेवुं छे के आ संसारमां पितृ, देवता, ऋषि, मनुष्यो, बीजां प्राणीओ अने पोताना कल्याणनो आश्रय होय तो ते गृह्स्थाश्रम ज छे ॥४०॥

हे वीर! आपना जेवो विख्यात, उदार, सुन्दर पति मळतो होय तो मारा जेवी [[५१९]] कई स्त्री न वरे? ॥४१॥

हे दीर्घबाहु! दयाने लीधे मन्द-मन्द हास्यवडे अनाथ लोकोनी पीडा मटाडवा सारुं ज आप सर्व ठेकाणे फरो छो. आपना सर्प जेवा सुकोमल गोळाकार हाथमां कई स्त्रीनुं मन न ललचाय?’’ ॥४२॥

नारदजीए कह्युं - हे प्राचीनबर्हि राजा! ए प्रमाणे ए स्त्रीपुरुषे एकबीजानी वातनुं समर्थन करीने ए पुरीमां प्रवेश करी सो वर्ष सुधी मोझमजा माणी ॥४३॥

पुरञ्जन राजानी कीर्तिने ठेकाणे-ठेकाणे गवैया गाता हता.१ घणी स्त्रीओथी र्वीटाईने उनाळामां२ ए तळावमां जलक्रीडा करतो. जुदा-जुदा देशोमां जवाने ए नगरीमां सात दरवाजा उपर अने बे नीचे हता.३ ए नगरनो जे कोई राजा थतो तेने जुदा-जुदा देशोमां जवामाटे ए दरवाजा बनाववामां आव्या हतां. हे राजा! पाञ्च, दरवाजा पूर्व तरफ एक दक्षिण तरफ एक उत्तर तरफ अने बे पश्चिम तरफ हता. तेनो खरो मालिक ४कोण छे ए बराबर जाणवामां आवतो न हतो ॥४४-
४५॥

विशेष - १. आमां सङ्क्षेपथी जाग्रत अवस्था कही छे. २. तळावमां पेसतो एटले सुषुप्ति अवस्था पामेलो एम कहेवानुं छे. ३. आमां जाग्रत अवस्थानुं विस्तारथी वर्णन आवे छे.
४. आ शरीरनो खरो मालिक आत्मा ते बराबर जाणवामां आवतो नथी; केमके अनात्म पदार्थोने आत्मा मानवामां आवे छे. हुं एनां नाम तारी पासे कहुं छुं. खद्योता १अने अविर्मुखी २ए नामना बे दरवाजा पूर्व तरफ एक ज स्थळे रचेला हता. ए दरवाजाओथी पुरञ्जन राजा विभ्राजित ३देशमां जतो ते वखते द्युमान ४नामनो एक मित्र एनी साथे रहेतो ॥४६-४७॥

विशेष - १. खद्योता एटले डाबी आङ्ख केमके तेनो खद्योत एटले पतङ्गियानी पेठे थोडो प्रकाश छे. २. आविर्मुखी एटले जमणी आङ्ख केमके एनुं मोढुं प्रकट छे एटले प्रकाश झाझो छे, डाबा अङ्ग करतां जमणां अङ्गमां शक्ति वधारे होय छे एम वेदमां लख्युं छे अने आपणा अनुभवमां पण आवे छे. ३. विभ्राजित देशरूप. ४. द्युमान एटले असुइन्द्रिय. नलिनी१ अने नालिनी२ नामना बे दरवाजा उगमणी तरफ हता तेनाथी पुरञ्जन राजा सौरभ३ देशमां जतो ॥४८॥

विशेष - १. नलिनी एटले डाबुं नाक. २. नालिनी एटले जमणुं नाक. नाक नळीओ जेवां [[५२०]] होय छे तेथी नलिनी अने नालिनी एवां नाम आप्यां छे. ३.सौरभ देश एटले गन्ध. ते वखते अवधूत१ नामनो एक मित्र एनी साथे रहेतो. ए नगरीने मुख्या२ नामनो पाञ्चमो दरवाजो हतो ते पण उगमणी दिशामां हतो. ते दरवाजेथी ए पुरीनो राजा पुरञ्जन आपण३ अने बहूदन४ नामना देशमां जता. ज््यारे ए आपण देशमां जतो त्यारे विपण५ नामनो मित्र एनी साथे रहेतो अने ज््यारे बहूदन नामना देशमां जतो त्यारे रसज्ञ६ नामनो मित्र एनी साथे रहेतो ॥४९॥

विशेष - १.अवधूत एटले ध्राणइन्द्रिय. २. मुख्या एटले मोढुं. ३. आपण देश एटले भाषण. ४. बहूदन देश एटले अनेक प्रकारनुं अन्न. ५. विपण एटले वाणी इन्द्रिय.
६.रसज्ञ एटले रसना (जिह्‌वा) इन्द्रिय. हे प्राचीनबर्हि राजा! ए नगरीमां दक्षिण तरफ पितृह्‌१ नामनो दरवाजो हतो ते दरवाजेथी पुरञ्जन राजा दक्षिण पञ्चाळ२ नामना देशमां जतो; ते वखते श्रुतिधर३ नामनो मित्र एनी साथे रहेतो. एमां उत्तर तरफनो देवहू४ दरवाजो हतो ते दरवाजेथी ए उत्तर पञ्चाळ५ देशमां जतो; ते वखते पण श्रुतिधर६ मित्र एनी साथे रहेतो. ए नगरीमां आथमणी बाजूए आसुरी७ नामनो दरवाजो हतो ते दरवाजेथी पुरञ्जन राजा ग्रामक नामना देशमां८ जतो; ते वखते एनी साथे दुर्मद९ नामनो एक मित्र रहेतो ॥५०-५२॥

विशेष - १. पितृह्‌ जमणो कान. ए कान बळवान छे अने शास्त्रोमां प्रथम साम्भळवानुं कर्मकाण्डशास्त्र छे तेथी एनुं श्रवण जमणा कानथी थतां ए शास्त्रोमां लखेलां कर्म करे तेथी पितृलोकनी प्राप्ति थाय छे. अने ए लोकमां जतां पितृओ बोलाववा आवे छे एटली बधी वात मनमां राखी जमणा काननुं पितृहू एवुं नाम आप्युं छे. २. दक्षिण पञ्चाळ देश एटले प्रवृत्तिमार्गवाळुं कर्मकाण्ड वगेरेनुं शास्त्र. तेमां जाय छे एटले ए विषय साम्भळे छे. एवा शास्त्रोमां शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध ए पाञ्च प्रकारना विषयोनुं सारी रीते निरूपण करेलुं होय छे अने जमणा कानथी एटले रुचिपूर्वक सम्भळाय छे एथी तेनुं दक्षिण पञ्चाळ एवुं नाम आप्युं छे. ३. श्रुतिधर एटले शब्द साम्भळनार श्रोत्र इन्द्रिय. ४. देवहू एटले डाबो कान केमके डाबा काननी शक्ति ओछी छे अने शास्त्रोमां छेल्ले साम्भळवानुं निवृत्ति शास्त्र एटले निवृत्तिमार्गमां रुचि करावनारुं वेदान्तशास्त्र छे; तेथी एनुं श्रवण डाबा कानथी एटले प्रथम अरुचिथी थाय अने ए थतां ए शास्त्रोमां लख्या प्रमाणे ज्ञाननां साधन करवा लागे ते जो काचां रही जाय तो मोक्षनी प्राप्ति न थतां उत्तमोत्तम देवलोकनी प्राप्ति थाय छे अने ए लोकमां जता देवो सामा बोलाववा आवे छे. एटली बधी वात मनमां [[५२१]] राखी डाबा काननुं देवहू एवुं नाम आप्युं छे. ५. उत्तर पञ्चाळ एटले निवृत्तिमार्गनुं शास्त्र. ६. श्रोत्र इन्द्रिय. ७.आसुरी एटले लिङ्गद्वार. केमके आसुर एटले कामी पुरुषोनी साथे ते वधारे सम्बन्ध राखे छे. ८. ग्रामक एटले गाममां रहेनारा लोकोनुं मैथुन सुख. ९. दुर्मक एटले मदोन्मत्त थई जती शिश्न इन्द्रिय. एमां आथमणी बाजूए निऋति१ नामनो एक बीजो दरवाजो हतो ते दरवाजे थईने पुरञ्जन राजा वैशस२ नामना देशमां जतो; ते वखते एनी साथे लुब्धक३ नामनो मित्र रहेतो ॥५३॥

विशेष - १. निऋति एवुं मृत्युनुं नाम छे अने गुदा मृत्युनुं द्वार छे तेथी. २. मळत्याग.
३.लुब्धक एवुं पारधीनुं नाम छे अने गुदामान्थी पायु इन्द्रिय पण पारधी जेवी छे केमके त्यान्थी प्राण नीकळी जे माणस मरण पाम्यो होय तेने महान दुःख थाय छे अने तेथी ज पायुने लुब्धक नाम आप्युं छे. आ नगरना नागरिकोमां निर्वाक्‌१ अने पेशस्कृत्‌२ नामना बे नागरिक अन्ध३ हता. राजा पुरञ्जन आङ्खवाळा, नागरिकोनो अधिपति होवा छतां आ बे अन्ध नागरिकनी सहायथी बधे स्थळे जतो अने बधी जातनां कार्य करतो हतो ॥५४॥

विशेष - १. निर्वाक्‌ एटले पग. २. पेशस्कृत्‌ एटले हाथ केमके पेशस्‌ एटले सारी कारीगरी तेनो कृत्‌ एटले करनार छे. ३. पग अने हाथमां छिद्र नथी तेथी एमने कमाड भीडेला दरवाजा कह्या छे. ए राजा विषूचीन१ नामना एक प्रधान सेवकने साथे लई ज््यारे जनानामां जतो त्यारे एने स्त्री२ अने पुत्रोने३ लीधे थता मोह,४ प्रसन्नता५ अने हरखनो६ अनुभव थतो ॥५५॥

विशेष - १. विषूचीन एटले चारे कोरे फरतुं मन. २. बुद्धि. ३. इन्द्रियोनां परिणाम.
४.तमोगुणनुं कार्य. ५. सत्त्वगुणनुं कार्य. ६. रजोगुणनुं कार्य. ए प्रमाणे अनेकविध कर्म करवामां फसाएलो, विषयोमां लालचु, छेतराई गयेलो अने मूर्ख पुरञ्जन राजा१ पोतानी स्त्रीनी२ मरजी प्रमाणे ज नाचवा लाग्यो ॥५६॥

विशेष - १. जीव. २. स्त्री एटले बुद्धिनी मरजी प्रमाणे चाल्यो. आमां एम समजवानुं छे के जीव वास्तविक रीते पोते अकर्ता छे, तो पण बुद्धिना अध्यासथी पोतामां जे कर्तापणुं मानी बेसे छे तेथी बुद्धिने दुःख थयुं होय तो हुं दुःखी छुं एम माने छे; अने बुद्धिने सुख थयुं होय तो हुं सुखी छुं एम माने छे; इत्यादि. [[५२२]] ज््यारे ए स्त्री मदिरा पीए त्यारे पोते पण मदिरा पीतो अने नशाथी चकचूर थई जतो ज््यारे ते जमती त्यारे ते पण जमतो* ॥५७॥

विशेष - दाळभात वगेरेनुं कहेवाय अने दाळिया वगेरेनुं खावुं कहेवाय. एवी ज रीते ए स्त्री गावा बेसती तो पोते पण गातो ए रोती तो पोते पण रोवा लागतो, हसती तो हसतो, बोलती तो बोलतो ॥५८॥

दोडती तो दोडतो, ऊभी रहेती तो ऊभो रहेतो; ते सूती तो पोते पण तेनी साथे ज सूई जतो; अने बेसती तो बेसतो ॥५९॥

क््यारेक ए साम्भळती त्यारे पण साम्भळतो, जोती त्यारे जोतो, सुङ्घती त्यारे सुङ्घतो, कोई चीजनो ते स्पर्श करती त्यारे ते पण स्पर्श करतो ॥६०॥

क््यारेक ते शोक करती त्यारे राङ्कनी पेठे पोते पण शोकथी अत्यन्त दीननी जेम व्याकुल थई जतो; ते प्रसन्न थती त्यारे ते पण प्रकुल्लित थई जतो ॥६१॥

विप्रलब्धो महिष्यैवं सर्वप्रकृतिवञ्चितः ॥ नेच्छन्ननुकरोत्यज्ञः कलैब्यात्क्रीडामृगो यथा ॥६२॥

राजा पुरञ्जन (आ प्रमाणे) पोतानी सुन्दरी राणीद्वारा ठगाई गयो. ए पोताना सारा स्वभावने* खोई बेठो अने एवी रीते मूर्ख पुरञ्जन राजा विवश थईने पोतानी इच्छा न होवा छतां खेलने माटे घेरे पाळेला वानरनी माफक स्त्रीनुं अनुकरण करतो रह्यो ॥६२॥

विशेष - निर्लेपपणुं, शुद्धपणुं अने निर्विकारपणुं वगेरे जे पोताना स्वभाव छे ते देह अने बुद्धि वगेरे जड पदार्थना अध्यासथी खोई बेसे छे. वास्तविक रीते जीव परमात्मानो अंश छे तेथी एना स्वरूपमां कांई पण फेरफार थतो नथी, तो पण कल्पित अज्ञानथी पोतानामां सघळी विपरीतता माने छे. वास्तविक रीते बन्युं होय तो एनो नाश क्रियाथी थाय पण अज्ञानथी मानी लीधुं होय तेनो नाश ज्ञानथी थायःएटले जीव जो अहं ब्रह्मास्मि (हुं ब्रह्मनो अभिन्न-अंश छुं) एवुं यथार्थ रीते समजे तो क्षण मात्रमां सघळी विपरीतता मटी जाय छे एम शास्त्रकारोनो सिद्धान्त छे. इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां पुरञ्जन उपाख्यानमां (चोथा मोक्ष प्रकरणमां जाग्रदादि अवस्था निरूपण नामनो बीजो) ‘‘पुरञ्जन आख्यान’’ नामनो पचीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५२३]]

अध्याय २६

पुरञ्जननी सांसारिक स्थितिनुं चित्र

विशेष - आ छवीशमां अध्यायमां किञ्चित्‌ प्रौढनी स्वपन अवस्थानुं निरूपण करवामां आवशे. स एकदा महेष्वासो रथं पञ्चाश्वमाशुगम्‌। द्वीपं द्विचक्रमेकाक्षं त्रिवेणुं पञ्चबन्धुरम्‌ ॥१॥

नारदजीए१ कह्युं - राजन्‌! एक दिवस राजा पुरञ्जन पोतानुं विशाळ धनुष२, सोनानुं३ कवच अने अक्षय भाथो४ लई पोताना दश सिपाईओ५ अने अगियारमा सेनापति६ साथे पाञ्च७ घोडाना उतावळथी८ चालता सोनाना साजवाळा९ रथमां बेसी पञ्चप्रस्थ१० नामना वनमां गयो ए रथमां बे डाण्डा११ (ईषा दण्ड सं, बम्ब हिं.) बे पैडां१२, एक धरी१३, त्रण ध्वज दण्ड१४, पाञ्च दोरी१५, एक लगाम१६, एक सारथि१७, बेसवानुं एक आसन१८, धुंसरी बान्धवानां बे स्थान१९, पाञ्च आयुध२० अने सात आवरण२१ हतां, पाञ्च प्रकारनी एनी चाल२२ हती अने एनो बधो साज सोनेरी हतो ॥१-३॥

विशेष - १.ए प्रमाणे आत्माने उपाधिने लीधे सुषुप्ति अने जाग्रत अवस्थानुं वर्णन आपी हवे स्वप्न अवस्थानुं वर्णन आपेछे. २.हुं ज कर्ता छुं, एवो अभिनिवेश ३. रजोगुण. ४.अखूट भाथो एटले अनन्तवासनाथी भरेलो अहङ्कार. ५.इन्द्रियो.
६.मनने लगामरूप गणेल छे ते वासनामय मन समजवुं; अने आ जमादाररूपे कह्युं ते सङ्कल्पविक्ल्परूपसमजवुं. ७.पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय. ८.स्वपननो देह जाग्रतना देहनी पेठे घणी वार रहेतो नथी तेथी उतावळो चालनार कह्यो छे. ९.रथ एटले स्वपन अवस्थाना देहने सोनाना सामानवाळो एटलामाटे के सोना जेवा रजोगुणथी थयेला पदार्थोथी भरेलो छे. १०.पञ्च-प्रस्थवान एटले पर्वतनां शिखर जेवा शब्द वगेरे पाञ्च विषयोवाळी जग्या. ११.अहन्ता-ममता. १२.पुण्य अने पाप. १३.माया अथवा भगवान्‌नी शक्ति. १४.सत्त्व, रज अने तम. १५.पाञ्च प्राण. १६. मन १७. बुद्धि
१८. हृदय १९. शोक-मोह. २०.शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध ए पाञ्च विषय.
२१.चामडी, मांस, लोही, मेद, चरबी, हाडकां अने वीर्य ए साथ धातुओ. २२. हाथ, पग, वाणी, शिश्न अने गुदा ए पाञ्च कर्मेन्द्रियो. धनुष-बाणथी सज्ज थयेला ए अभिमानी पुरञ्जन राजाए त्याग करवा [[५२४]] योग्य न हती तेवी पोतानी राणीनो त्याग कर्यो अने मृगोने मारवानी घणी उत्कण्ठा थवाथी वनमां जई शिकार करवा लाग्यो. क्रूर अने निर्दय राजाए आसुरी वृत्तिथी सजावेलां बाणोवडे वगडामां जनावरोने मारी नाख्याम् ॥४-५॥

जेनी मांसमां अत्यन्त आसक्ति होय ते राजा* फ्क्त शास्त्र प्रदर्शित कर्मोने माटे वनमां जई जरूर प्रमाणे अनिषिद्ध पशुओनो वध करे; व्यर्थ पशु-हिंसा न करे. शास्त्रो आ प्रमाणे उच्छृङ्खल प्रवृत्ति उपर लगामने तङ्ग राखे छे, छुटोदोर नथी आपताम् ॥६॥

विशेष - कल्पित इतिहासनी वात करतां वचमां प्रसङ्ग आववाथी उपदेशना सारु थोडा शास्त्रना नियम सम्बन्धी वात पण करी ले छे. ए एवी रीते के जो जनावर मारवामां बहु ज प्रीति होय तो श्राद्ध वगेरे प्रसङ्गे ज मारवां तेमां पण प्रख्यात श्राद्धादिकमां मारवां पण नित्य श्राद्ध वगेरेमां नहि; ए पण राजाए ज मारवां पण बीजा कोईए न मारवां; ए सघळां जानवरोने नहि पण जेमनुं मांस धर्मशास्त्रमां पवित्र गण्युं छे तेमने ज मारवां; अने ए पण वगडामां ज पण बीजे ठेकाणे नहि; अने एमां पण जेटलानो उपयोग होय तेटलां ज पण ते करतां वधारे नहि. आवी रीते छ नियमोथी शास्त्रोमां हिंसानो केटलोक सङ्कोच ज कर्यो छे माटे हिंसा करवानी आज्ञा आपी छे एम समजवुं नहि. जे छोकरानुं मन रमतमां बहु लागेलुं होय तेने एकदम रमतमान्थी बिलकुल अटकावीए तो एमान्थी सारुं परिणाम आवे नहि. पण जो ‘‘तारे रमवुं होय तो आटलो पाठ तैयार कर्या पछी रमजे’’ अने रमजे ते पण सारा छोकरानी साथे ज. तेमां अमुक वखते ज रमजे एवी केटलीक शिस्त पळावीए तो छोकरो केटलेक दिवसे जाते ज रमत करवी मूकी दे. ए प्रमाणे शास्त्र जो लोकोने एकदम हिंसाथी अटकावत तो लोको मानत नहि अने एमान्थी सारुं परिणाम नीपजे नहि; एटलामाटे शास्त्रे केटलाक नियम लखी हिंसामां सङ्कोच नाख्यो छे के जेथी लोको केटलेक दिवसे पोतानी मेळे ज हिंसा करता अटके. उपर जणावेला छ नियमोने विषय भोगववामां पण लागु पाडी शकाय छे. ए एवी रीते के मैथुन करवामां ज बहु ज प्रीति होय तो स्त्री साथे ज मैथुन करवुं तेमां पण अमुक दिवसोमां ज पण श्राद्ध वगेरेना दिवसोमां नहि. ए पण गृहस्थाश्रमवाळाए पण सन्न्यासी वगेरेए नहि. स्त्री साथे करवुं ते पण पोतानी परणेली साथे ज, बीजी साथे नहि. ए पण रात्रिमां ज पण दिवसे नहि; अने एमां पण प्रजा उत्पन्न थाय त्यां सुधी पण जीवतां सुधी नहि. आवी रीते खानपान वगेरेमां पण योग्य कल्पना करी लेवी. हे राजेन्द्र! जेम हिंसामां तेम बीजां कर्मोमां पण शास्त्रोए तो नियम कर्या छे. [[५२५]] ए नियमो समजी जे माणस नियमसर कर्म करे ते माणसने ज्ञान थाय छे अने ज्ञान थतां ए कोईपण प्रकारनां कर्मथी लिप्त थतो नथी ॥७॥

नियमोनुं उल्लङ्घन करी कर्म करे तो अन्तःकरण शुद्ध थाय नहि. ए शुद्ध नहि थवाथी ‘‘हुं कर्ता छुं’’ एवुं अभिमान थाय छे. अभिमान थतां बुद्धि नाश पामे छे अने बुद्धि नाश पामतां जन्ममरणना प्रवाहमां पडी अधम योनिओमां जन्म थाय छे ॥८॥

ए* वनमां विचित्र पाङ्खवाळा बाणोथी कपाई मरतां अने टळवळतां प्राणीओनो एवो नाश थयो के दयाळु पुरुषोथी ते सहन थई शक्युं नहि ॥९॥

विशेष - प्रसङ्गमां आवेली वात पूरी करी पाछी पुरञ्जनना इतिहास सम्बन्धी वात चलावे छे. ससलां, सुवर, पाडा, रोझ, मृग, शेळा अने बीजां अनेक पवित्र* प्राणीओने मारतां-मारतां पुरञ्जन राजा थाकीने लोथपोथ थई गयो ॥१०॥

विशेष - जेमनुं मांस धर्मशास्त्रोमां पवित्र गणेलुं छे ते पशुओ. पछी* भूख, तृषा अने थाकथी कण्टाळेलो राजा त्यान्थी पाछो फरी घेर आव्यो अने स्नान अने भोजनथी परवारी आराम करी थाक दूर कर्यो. निद्राथी एनो परिश्रम मटी गयो अने पछी जागीने एणे धूप, चन्दन तथा माळा वगेरेथी एना शरीरने सुगन्धी अने सुशोभित कर्युं अने पछी एणे पोतानी स्त्री पासे जवानुं मन कयुम् ॥११-१२॥

विशेष - उपर प्रमाणे स्वपन अवस्थानुं वर्णन कर्युं; हवे पाछो जाग्रतमां आवी विवेकवाळी बुद्धिनी साथे रमण करतां एने पुत्र वगेरे सन्तति थयानुं वर्णन आपवानुं छे ते प्रसङ्गमां वातने उठाव अने ओप आपवाना आशयथी राणी रिसायानुं अने पुरञ्जने कालावाला करीने पाछी मनाववानुं वर्णन आपे छे. ए भोजनादिथी तृप्ति पामेला, हृदयमां प्रसन्न थयेला अने मदथी अभिमानवाळा पुरञ्जन राजानुं मन कामदेवे खळभळावी मूक्युं हतुं. तेथी ए राणीवासमां गयो तो त्यां गृहस्थाश्रम चलावनारी एनी सुन्दरी भार्या जोवामां आवी नहि ॥१३॥

हे प्राचीनबर्हि राजा! कंईक गमगीन थई तेणे राणीवासनी स्त्रीओने पूछ्‌युंःतमारी स्वामिनी साथे तमे पहेलान्नी माफक कुशळ तो छो ने? ॥१४॥

शा कारणथी आजे आ घरनी समृद्धि पहेलान्ना जेटली सोहावनी नथी [[५२६]] लागती? जे घरमां माता अथवा पतिव्रता पत्नी न होय ते घर पैडां वगरना रथ जेवुं ज छे. एवा घरमां राङ्कनी पेठे क्यो समजु पुरुष बेसी रहे? ॥१५॥

ए मारी प्यारी स्त्रीए मने डगले अने पगले मारी विवेक-बुद्धिने जाग्रत करी मने दुःखरूपी समुद्रमां डूबतां बचाव्यो छे, तो ए क्यां छे? ॥१६॥

सखीओए कह्युं - हे नरनाथ! आपनी प्यारीए शुं करवा धार्युं छे एनी अमने खबर नथी पण हे शत्रुदमन! ए पथारी वगर भोंय पर पडेली छे ते आप जुओ ॥१७॥

नारदजीए कह्युं - स्त्रीनी आसक्तिथी राजाना विवेके विदाय लई लीधेली हती. तेणे पोतानी राणीने बेहाल अवस्थामां धरती पर पडेली जोईने ए बहु ज खेद पाम्यो ॥१८॥

तेणे दुःखी दिलथी अने मधुर वाणीथी तेनी सान्त्वना करवा माण्डी पण पोतानी प्रियतममां पोताना प्रत्ये प्रणयकोपनुं कोई चिह्न तेने जणायुं नहि ॥१९॥

पछी मनाववामां चतुर पुरञ्जन राजा एने धीरे-धीरे समजाववा लाग्यो. एने पोताना खोळामां लई एना पग चाम्पतां ए बोल्यो - ॥२०॥

सुन्दरी! सेवको वाङ्कमां आवे त्यारे स्वामीए एमना पोताना गणी शिखामणने सारुं दण्ड देवो ज जोईए. जो दण्ड न दे तो ए सेवको भाग्यहीन छे एम समजवुम् ॥२१॥

स्वामी सेवकोने दण्ड दे ए एणे मोटो अनुग्रह कर्यो एम समजवुं. मालिक शिक्षा करे अने चाकर मनमां कचवाईने रीस करे तो एने मूर्ख जाणवो केमके शिक्षा करी मालिके हितेच्छुनुं काम कर्युं छे एवुं ए समजतो नथी ॥२२॥

मोहक दन्तपङ्क्ति अने मनोहर भम्मरथी शोभीती तरङ्गी स्त्री. हवे आ क्रोधने दूर कर अने एकवार मने पोतानो समजी प्रणय भार तथा लज्जाथी झूकेलां अने मधुर हास्ययुक्त दृष्टिथी सुशोभित तारां मुखडान्नी झाङ्खी करावी दे. ओहो! भ्रमरपङ्क्तिना जेवी काळी अलकावली, उन्नत नासिका अने सुमधुर वाणीने लीधे तारुं ए मुखकमल केवुं मोहक लागे छे? ॥२३॥

वीरपत्नी! ब्राह्मण सिवाय बीजा कोईए पण तारो अपराध कर्यो होय तो मने बताव तो हुं एने हमणां ज दण्ड दउं. मने तो त्रणलोकमां अथवा तेनाथी बहार, भगवान्‌ना भक्त सिवाय एवो कोई ज देखातो नथी जे तारो अपराध करी [[५२७]] निर्भय अने सुखचेनथी रही शके ॥२४॥

प्रिये! में आज सुधी तारुं मुख क्यारेय चान्दला वगरनुं, उदास, करमायेलुं, क्रोधने लीधे, डरामणुं, कान्तिहीन अने स्नेहशून्य जोयुं नथी अने कदी तारां सुन्दर स्तनोने शोकाश्रुओथी र्भीजाएलां तथा घोलां जेवो अधर अने स्निग्ध केसरनी लाली विहोणा जोया नथी ॥२५॥

तन्मे प्रसीद सुहृदः कृतकिल्बिषस्य स्वैरं गतस्य मृगयां व्यसनातुरस्य ॥ का देवरं वशगतं कुसुमास्त्रवेग विस्त्रस्तपौस्नमुशती न भजेत कृत्ये ॥२६॥

तने पूछया विना व्यसनवश हुं शिकार करवा चाल्यो गयो तेथी हुं तारो गुनेगार छुं ए चोक्कस. तो पण पोतानो जाणीने तुं मारा उपर प्रसन्न थई जा. कामदेवथी अधीर थई जे हम्मेशां पोताने अधीन रहेतो होय ए पोताना प्रिय पतिने उचित कार्यमाटे भला कई कामिनी स्वीकार न करे? ॥२६॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां पुरञ्जन उपाख्यानमां (चोथा मोक्ष प्रकरणमां स्वपन अवस्था निरूपण नामनो त्रीजो) ‘‘पुरञ्जननी सांसारिक स्थितिनुं चित्र’’नामनो छवीसमो अध्याय सम्पूर्ण. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही

अध्याय २७

पुरञ्जननुं पोताना स्वरूपनुं वीसरी जवुं

विशेष - २६मा अध्यायमां स्वपन अवस्थानुं निरूपण करवामां आव्युं. हवे जराजवरने कालादिनो सम्बन्ध दर्शावीने विनश्यत्‌ दशानुं निरूपण करवामां आवे छे. आवी दशा देहादि विषयमां दृढ आसक्ति थया पछी थनारा, देह ज आत्मा छे एवी बुद्धि थवाथी अने इन्द्रियमां परिणाम पामे त्यारे इन्द्रियमां परिणाम पामेली बुद्धिथी वृत्तिना विषय भोगवडे सम्पादन करवामां आवे छे. अन्यथा देहादिमां जेने आसक्ति नथी एवा योगनिष्ठने वृद्धावस्था वगेरेनो सम्बन्ध न थाय. अध्याय-२७,

ईं उं ईं उं

[[५२८]] इत्थं पुरञ्जनं सम्यग्‌ वशमानीय विभ्रमैः। पुरञ्जनी महाराज रेमे रमयती पतिम्‌ ॥१॥

नारदजीए कह्युं - *हे प्राचीनबर्हि राजा! ए प्रमाणे पोताना अनेक विलासथी राणीए पुरञ्जनने खूब वश बनावी एने आनन्दित करती एनी साथे विहार करवा लागी ॥१॥

विशेष - स्त्री पासे कालावाला करी एने समजाववा वगेरे वातना शणगारथी ‘‘जीव अत्यन्त उपाधिने वश थई गयो’’ ए वात करीने, हवे ए जीवने ए उपाधि अने जन्ममरण वगेरे थयानी वात कहेवा सारु नारदजी कहे छे. आ प्रकरणमां जो के दरेक बाबत कोई-कोई रीते ज्ञानपक्षमां पण लगाडी शकाय एम छे तो पण ओगणत्रीसमा अध्यायमां नारदजी पोते ज खुलासो आपशे ते उपरथी एम जणाय छे के, जीवने स्त्रीपुरुषनी वासनाओ दृढ थई जवाथी विचित्र प्रकारना अवतार आवे छे एटलुं ज आ कथानुं तात्पर्य छे. तेमां प्रथम त्रण अध्यायमां पुरुषपणाथी जीवने संसार प्राप्त थवानुं कह्युं छे अने पछी एक अध्यायमां स्त्रीपणाथी संसार थवानुं देखाडी छेल्ले एने इश्वरनी कृपाथी ज्ञान मळतां मोक्ष थयो एम कह्युं छे. ओगणत्रीसमां अध्यायमां खुलासो आप्यो छे ते पण उपयोग जेटलो ज आप्यो छे तेथी दरेक पदनी ज्ञानपक्षमां योजना प्रयोजन विनानी छे एम धारीए छीए अने वळी ए मुश्केल पण छेः माटे लाम्बी कडाकूटमां नहि पडतां अमे पण जेटलुं उपयोगनुं छे तेटलानो ज खुलासो आपीशुं. स्नानथी शुद्ध थयेली तथा माङ्गलिक अलङ्कारोथी शोभती अने भोजनादिथी तृप्त थयेली सुन्दर मुखवाळी ए राणीने पोतानी पासे आवतां पुरञ्जन राजाए उमळकाभेर आवकारी ॥२॥

आलिङ्गन करती ए राणीने गळे लगावी एकान्तमां एना सुन्दर वचनोथी मोहित बनेलो ए राजा राणीने ज सर्वस्व मानवा लाग्यो अने एनामां ज चित्त लागेलुं रहेतुं होवाथी काळना प्रचण्ड वेगथी दिवस-रात केवी रीते चाल्यां जतां हतां एनुं पण एने भान रह्युं नहि ॥३॥

मदथी छकेलो, मनस्वी राजा पुरञ्जन कीमती शय्यामां प्यारीना हाथनुं ओशीकुं करी सूई रहेतो. अज्ञानने लीधे राणीने ज पोताना परम पुरुषार्थरूप मानवा लाग्यो अने पोताना खरा स्वरूपने (परब्रह्म) भूली गयो ॥४॥

हे प्राचीनबर्हि राजा! ए प्रमाणे निरन्तर कामातुर रहीने साथे रमण करतां- करतां पुरञ्जन राजानी जुवानी अरधा क्षणनी जेम जती रही ॥५॥अध्याय-२७,चतुर्थस्कन्ध ५२९ पुरञ्जने पोतानी राणीमां अगियारसो पुत्रो (अगियार सो दीकरा एटले अगियार इन्द्रियोनां परिणामो.) उत्पन्न कर्या तेटलामां तो एनुं अरधुं आयुष्य पण चाल्युं गयुम् ॥६॥

एने एकसो दश(बुद्धिनी वृत्तिओ. गृहस्थाश्रमनी शोभा देखाडवा सारुं दीकरा घणा अने दीकरीओ थोडी कही छे) पुत्रीओ पण थई हती. ए सघळी कीर्ति वधारनारी, शील, उदारता अने गुणवाळी हती ॥७॥

पञ्चाळ देशनां १अधिपति पुरञ्जन राजाए पोतानो वंश वधारनार दीकराओने बीजी स्त्रीओ साथे२ परणाव्या अने दीकरीओने एमने जोईए तेवा वरोनी३ साथे परणावी ॥८॥

विशेष - १. पञ्चाळ देश एटले शब्द, स्पर्श वगेरे पाञ्च विषयो. २. हित अने अहितनी चिन्ताओ. ३. जोईता विषयभोग. पुरञ्जनना दीकराओने प्रत्येकने सेङ्कडो (अनेक प्रकारना कर्म) दीकरा थया जेमने लीधे पुरञ्जननो वंश आखा पञ्चाळदेशमां बहुज वधी गयो ॥९॥

आ पुत्र, पौत्र, गृह, खजानो, सेवक, मन्त्री आदिमां दृढ ममता थई जवाथी ए आ विषयोमां ज फसाई गयो ॥१०॥

हे प्राचीनबर्हि राजा! ए पुरञ्जन राजाए पण तारी जेम ज अनेक प्रकारनी कामनाओथी पशुओनी हिंसावाळा घोर यज्ञोथी देव, पितृ अने भूतपतिओनुं पूजन कर्युम् ॥११॥

ए प्रमाणे कल्याण करनारां कामोमां पुरञ्जन राजा गाफेल थयो अने कुटुम्बमां आसक्त बन्यो अने पछी वृद्धावस्थानो समय आवी (घडपण समय अने) पहोञ्च्यो, जे स्त्रीलम्पट पुरुषोने कडवो लागे छे ॥१२॥

चण्डवेग१ नामनो गन्धर्वनो राजा छे तेनी पासे त्रण सो साठ बळवान गन्धर्वो२ अने त्रणसो साठ गन्धर्वीओ३ छे. ए स्त्रीओ गन्धर्वोना जेवी ज बळवाळी हती. ए पोताना पतिओनी४ साथे ज रहेनारी अरधी श्याम अने अरधी गौर५ छे. ए गन्धर्वो अने एमनी स्त्रीओ वाराफरती (भोगविलासनी साधन सामग्रीथी भरीभादरी) नगरीओने लूण्टी लेछे ॥१३-१४॥

विशेष - १. चण्डवेग एटले वर्ष केमके ते घणा वेगथी चाल्युं जाय छे. २. वर्षना त्रणसो साठ दिवस. ३. रात्रिओ. ४. दिवसो. ५. कृष्णपक्षनी काळी, शुक्ल पक्षनी धोळी.अध्याय-२७, चतुर्थस्कन्ध ५३० गन्धर्वराज चण्डवेगना सेवको ज््यारे पुरञ्जन राजानी नगरीने लंूटवा लाग्या त्यारे ए नगरीनी चोकी करनारा पाञ्च मान्थावाळा नागे(प्राण) एमने आन्तर्या ॥१५॥

ए नाग पुरञ्जन राजानी नगरीनो चोकीदार हतो. ए सात सो अने वीस गन्धर्व-गन्धर्वीओ साथे एकले हाथे सो वर्ष सुधी झझूम्यो ॥१६॥

घणा वीरो साथे लडनार एकलवीर पोतानो एक मात्र सम्बन्धी प्रजागरने बलहीन थयेलो जोई मूञ्झायेलो पुरञ्जनराजा पोताना देश, नगर अने बान्धवोनी साथे मोटी चिन्तामां पड्यो ॥१७॥

आम छतां, पञ्चाळ देशनी ए नगरीमां विषय सुखो भोगववामां मस्त पोताना नोकरो जे कर लावी आपता ते ग्रहण करता अने स्त्रीने वश थयेला ए पुरञ्जन राजाने पोताने माथे मोटो भय आवी रह्यो छे एनो विचार सुद्धां न थयो ॥१८॥

हे राजा! (एटलामां) काळनी कोई दीकरी१ हती ते वर शोधवाने त्रैलोकमां फरती हती, परन्तु एनो कोईए स्वीकार कर्यो नहि. ए काल कन्या एवी दुर्भागणी होवाथी जगत्‌मां ए दुर्भगाना नामथी जाणीती हती. पूर्वे एने पुरु राजा वर्यो हतो तेथी प्रसन्न थईने एणे ए राजाने राज्य प्राप्तिनुं वरदान आप्युं हतुं२ पछी चारे दिशामां फरती ए काळकन्या एक दिवसे ज््यारे हुं ब्रह्मलोकमान्थी पृथ्वी उपर आव्यो हतो त्यारे ते मने मळेली ॥१९-२१॥

विशेष - १. जरावस्था (घडपण). २. भागवत्‌ना नवमा स्कन्धमां कथा छे के ययाति राजाने शुक्राचार्यना शापथी जरा आवतां एणे पोताना पुत्रोने कह्युं के तमे आ मारी वृद्धावस्था लो पण ए वातनी मोटेरा चार पुत्रोए ना पाडतां सौथी नाना पुरुए एनी जरा लीधी हती तेथी ययाति राजाए प्रसन्न थईने ए पुरुने पोतानुं राज्य आप्युं हतुं; एटलामाटे ए राज्य जराए ज आप्युं हतुं एम आ ठेकाणे कह्युं छे. ए जाणती हती के हुं नैष्ठिक ब्रह्मचारी छुं तो पण कामातुर होवाथी ए मने वरवा आवी त्यारे में एने ना पाडी तेथी मारा उपर कोप करी एणे मने एवो शाप दीधो के ‘‘हे मुनि! तमे मारी मागणी स्वीकारता नथी तेथी तमे क््यांय एक ठेकाणे रही शकशो नहि. १मने वरवानो एनो मनोरथ सफल न थतां मारा कहेवाथी ए काळकन्या२ भय नामना यवनोना राजाने वरवा गई ॥२२-२३॥

विशेष - १. नैष्ठिक ब्रह्मचारीने घडपण नडे नहि ए वात अनुभवसिद्ध छे. जेने जरानीअध्याय-२७,चतुर्थस्कन्ध ५३१ हरकत न होय ते माणस एक ठेकाणे बेठो रहे नहिःएटले चारे कोण फरेहरे ए वात पण जाणीती ज छे. ए वात शापना आकारमां अर्ही नारदजीए गोठवी छे. २. जरा(वृद्धावस्था) एणे भयने कह्युं - ‘‘हे शूरवीर! आप यवनो (अनेक प्रकारना रोगो)ना राजा छो. हुं आपने खूब ज चाहुं छुं अने आपने मारा पति बनावमां मागुं छुं. आपने उद्‌देशीने करेल जीवोना सङ्कल्प कदी निष्फळ थतो नथी’’ ॥२४॥

(लोकमां भयनी आशा कोई दिवस पण पूरी थाय छे?) लोक अने शास्त्र प्रमाणे जे वस्तु ग्रहण करवा योग्य होय अने ए वस्तु कोई आपवा माण्डे तो पण जो न लेवामां आवे तो ए बन्ने जण दुराग्रही अने मूर्ख छे अने तेमने उद्वेगज हाथ आवे छे ॥२५॥

‘हे भद्र! अत्यारे हुं आपनी सेवामां उपस्थित छुं. आप मारो स्वीकार करी मारा उपर कृपा करो. दीन-दुःखीनां दुःखडां दूर करवां ए पुरुषनो सौथी मोटो धर्म छे’॥२६॥

ए प्रमाणे काळकन्यानुं वचन साम्भळी यवनराजे (भये), विधातानुं एक गुप्त कार्य कराववानी इच्छाथी एक वात (मरण केमके एनी देवताओने पण खबर पडती नथी) करवा हसीने कह्युंः ॥२७॥

‘‘में ज्ञानदृष्टिथी जोईने तारे सारुं एक पति नक्की करी मूक््यो छे. तुं बधान्नुं अनिष्ठ करवावाळी छो तेथी कोईने तुं गमती नथी अने तेथी ज लोको तने अपनावता नथी. तेथी आ कर्मजनित १सर्वलोकोने तुं तेमना जाणवामां न आवे तेम बलात्कारथी भोगव. तुं मारी सेना२ लईने जा. एनी सहायथी तुं तमाम प्रजानो नाश करी शकीश. कोई तारो सामनो नहि करी शके ॥२८-२९॥

विशेष - १. सर्वशरीर. २. अनेक प्रकारना रोगो भयनी फोजगणायछे. प्रज्वारोऽयं मम भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ॥ चराम्युभाभ्यां लोकेऽस्मिन्नव्यक्तो भीमसैनिकः ॥३०॥

आ प्रजवार (काळज्वर.) मारो भाई छे अने तुं मारी बहेन बनी जा. मारी सेना भयङ्कर छे ज. आ जगत्‌मां कोई प्रथमथी जाणी जाय नहि एवी रीते तमारी बन्नेनी साथे फरतो रहीश’’ ॥३०॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां पुरञ्जन उपाख्यानमां (मोक्ष प्रकरणमां विनश्यदवस्थानिरूपण नामनो चोथो) ‘‘पुरञ्जननुं पोताना स्वरूपनुं वीसरी जवुं’’ नामनो सत्तावीसमो अध्याय सम्पूर्ण.अध्याय-२८, चतुर्थस्कन्ध ५३२

अध्याय २८

स्त्रीनी चिन्ताथी पुरञ्जननो थयेलो स्त्रीनो अवतार तथा मोक्ष

विशेष - आमां विषयासक्तनो विनाश तथा नरकनी प्राप्ति कहेवाय छे. साथे-साथे विरक्तने सत्सङ्गथी भक्ति अने मुक्ति प्राप्त थाय छे एम पण कहेवामां आवे छे. सैनिका भयनाम्नो ये बर्हिष्मन्‌ दिष्टकारिणः ॥ प्रज्वारकालकन्याभ्यां विचेरुरवनीमिमाम्‌ ॥१॥

(हवे पुरुषनो देह छूटी जतां पुरञ्जननो स्त्रीनो अवतार आववानो प्रकार कहे छे.) नारदजीए कह्युं - हे प्राचीनबर्हि राजा! भय नामना यवनराजना सिपाईओ प्रजवार अने काळकन्यानी साथे पृथ्वीमां बधेय फरवा लाग्या ॥१॥

एक दिवस पृथ्वीना दरेक प्रकारना वैभवोथी परिपूर्ण अने बुढ्ढा नागथी रक्षाएली पुरञ्जननी नगरीने तेमणे घेरी लीधी ॥२॥

जेने काळकन्या दबावे ते पुरुष जलदी निर्माल्य थाय छे. ए काळकन्या पण बळात्कारथी पुरञ्जननी नगरीनी प्रजाने भोगववा लागी ॥३॥

ए आखी नगरीने काळकन्या भोगववा लागी ते समये यवनो चोतरफथी दरवाजामान्थी घूसी गया अने एने अत्यन्त पीडवा लाग्या ॥४॥

ए प्रमाणे पोतानी नगरी पीडावा लागी त्यारे कुटुम्बीओनी ममताने लीधे आकुळ-व्याकुळ थयेलो पुरञ्जन राजा अनेक प्रकारनां दुःख पामवा लाग्यो ॥५॥

पुरञ्जन राजाने काळकन्याए पोतानी बाथमां लीधो हतो. ए विषयोमां आसक्त थवाथी कङ्गाल थई गयो हतो अने सत्ता१ खोई बेठो हतो. एनी लक्ष्मी अने बुद्धि नाश पामी हती. एणे जोयुं तो गन्धर्व अने यवनोए एनी नगरीने र्पीखी नाखी हती. दीकरा, पौत्रौ, चाकरो२ अने कारभारीओ३ एनाथी प्रतिकूल४ थईने एनो अनादर५ करवा लाग्या. राणीए पण स्नेह६ करवो छोडी दीधो. काळ कन्याए एनो पराभव कर्यो अने पञ्चाळ७ देश शत्रुओए८ पायमाल करी नाख्यो हतो. ए सघळुं जोई पुरञ्जन अपार चिन्तामां डूबी गयो अने ए दुःख मटाडवाने कोई पण उपाय एने जड्यो नहि ॥६-८॥

विशेष - १. ऊठवा बेसवा वगेरेमां अशक्त थई गयेलो. २. इन्द्रियो. ३.इन्द्रियोना देवताओ. ४. जोईता विषयो नहि आपवाथी अने नहि जोईता आपवाथी. ५. स्वाधीन नहिअध्याय-२८,चतुर्थस्कन्ध ५३३ तेथी. ६. कोई जातनो विश्वास थई शके नहि तेथी बुद्धिए स्नेह छोडी दीधानुं कह्युं छे. ७. विषयो. ८. विघ्न वगेरे, जो के सघळा विषयो काळकन्याने लीधे निःसार थई गया हता. तो पण ए एनी लालसा करतो हतो. ए लालसाथी बापडो परलोकनां कल्याण तथा बन्धुजनोना स्नेहथी वञ्चित थई गयो होवा छतां एनुं चित्त स्त्री अने पुत्रोना लालन-पालनमां ज लागेलुं रहेतुम् ॥९॥

ए नगरीने गन्धर्व अने यवनोए घेरो घाल्यो हतो अने काळकन्याए जीर्ण- शीर्ण करी नाखेली होवाथी पुरञ्जन राजा पोतानी मरजी नहि छतां तेने मूकी देवानी तैयारी करवा लाग्यो ॥१०॥

एटलामां ज यवनराज, भयनो मोटो भाई प्रजवार आवी पहोच्यो. पोताना भाईनुं प्रिय करवानी इच्छाथी एणे ए आखी नगरीने आग चाम्पी दीधी ॥११॥

ए नगर बळवा लागतां कुटुम्बमां आसक्त थयेलो पुरञ्जन राजा नागरिको, सेवकादि, पुत्रादिक तथा स्त्रीओ साथे परिताप करवा लाग्यो ॥१२॥

काळकन्यानो कबजो नगर उपर थई गयेलो जोई एनी रक्षा करनार सर्पने पण अत्यन्त दुःख थयुं कारण के एना निवास स्थान उपर पण यवनोए अधिकार जमावी दीधो हतो अने प्रजवार पण एना उपर आक्रमण करी रह्यो हतो ॥१३॥

ज््यारे ए नगरनी रक्षा करवामां तद्‌दन असमर्थ थयो त्यारे जेम कोई नाग सळगता झाडना कोतरमान्थी नीकळी जवा इच्छे तेम महान कष्टथी काम्पतां तेणे नगरीमान्थी नीकळी जवानी इच्छा करी ॥१४॥

पुरञ्जन राजाना अवयव शिथिल थई गया. गन्धर्वोए एनुं बधुं पराक्रम हरी लीधुं हतुं अने दुश्मन थयेला यवनोए तेने भागी जतां रोकी पाड्यो त्यारे ए रोवा लाग्यो.(कफथी गळुं रोकातां गळामां घरघराट थवा लाग्यो.) ॥१५॥

गृहासक्त पुरञ्जन देहगेहादिमां अहन्ता-ममता राखवाथी अत्यन्त बुद्धिहीन थई गयो हतो. स्त्रीना प्रेमपाशमां फसावाथी ते बहु ज दीन थई गयो हतो. हवे ज््यारे पुत्रीओ, पुत्रो, पौत्र, पुत्रवधू, जमाई, नोकरो, अहन्तात्मक (भोग थई शकतो न हतो तेथी घर वगेरेमां मात्र पोतानापणुं एटले ममता ज बाकी रही हती एम कह्युं छे.) घर, एना भण्डार अने सामान ने जे-जे पदार्थोमां एनी ममता ज बाकी हती (एमनो उपभोग तो क््यारनोय छूटी गयो हतो) ए बधान्ने छोडवानो वारो आव्योअध्याय-२८, चतुर्थस्कन्ध ५३४ त्यारे आ प्रमाणे चिन्ता करवा लाग्यो ॥१६-१७॥

‘‘हुं मरी जईश त्यारे पछवाडे आ अनाथ, वस्तारी अने बाळबच्चान्ने सारु दिलगीर थती मारी स्त्री शी रीते जीवी शकशे? ए एवी पतिपरायण हती के मने जमाड्या विना जमती नहि, मने नवराव्या विना नहाती नहि. हुं क्रोध करतो त्यारे बहु ज गभराई जती, हुं धमकावतो त्यारे बीकथी कांईपण बोलती नहि’’ ॥१८-१९॥

हुं मूञ्झातो त्यारे मार्गे चडावती; परदेशमां गयो होउं त्यारे विरहव्यथाथी दूबळी थई जती ॥२०॥

आम तो ए वीर पुत्रोनी मा छे पण मारी पाछळ ए घर वहेराव चलावी शकशे? मारुं मृत्यु थया पछी, मारे ज सहारे रहेवावाळा आ दीकरा अने दीकरीओ केवी रीते जीवी शकशे? मधदरिये नाव तूटी जतां हळफली ऊठेला मुसाफरोनी माफक तेओ तो ककळी ऊठशे ॥२१॥

ए प्रमाणे जो के एने शोक करवो योग्य न हतो छतां (परब्रह्मरूप तेथी.) दीन बुद्धिथी पुरञ्जन राजा शोक करतो हतो. एटलामां एने पकडवा यवनराज भय आवी पहोच्यो ॥२२॥

ज््यारे पुरञ्जन राजाने ढोरनी माफक बान्धी यवन लोको पोताना स्थान तरफ लई चाल्या त्यारे एनां कुटुम्बीओ बहु ज आतुरताथी शोक करतां एनी पाछळ दोड्यां ॥२३॥

ज््यारे यवनोए रोकेलो नाग पण नगरीने छोडी भागी गयो त्यारे ए नगरी तरत ज विखेराई पोताना कारणमां लीन थई गई पञ्चभूतरूप थई गई ॥२४॥

बळवान यवन पुरञ्जन राजाने बळात्कारथी खेञ्चतो हतो. छतां ए अज्ञानथी एवो घेरायेलो हतो के एने पोतानो हितेच्छु अने भव-भवनो सखा पण साम्भळ्यो नहि. पुरञ्जने यज्ञ वगेरे कर्मोमां जे पशुओने निर्दयपणे मार्या हतां ते सघळां पशु एना ए अपराधनुं स्मरण करी क्रोधथी कुहाडाओ वडे तेने त्यां कापवा लाग्याम् ॥२५-२६॥

स्त्रीनी आसक्तिथी बेहाल थयेलो, अपार अन्धारामां डूबेलो अने जेनी स्मृति जती रही छे तेवा ए पुरञ्जन राजाए घणां वर्षो सुधी नरकनी पीडा भोगवी ॥२७॥अध्याय-२८,चतुर्थस्कन्ध ५३५ अन्त समये मनमां स्त्रीनुं ज१ ध्यान रहेलुं होवाथी ए विदर्भ२ नामना कोई३ महाराजाने त्यां सुन्दरी कन्यारूपे अवतर्यो ॥२८॥

विशेष - १. हवे पछी आ प्रकरणमां उपयोगी एटलुं ज कहेवानुं छे के ‘‘स्त्रीना ध्यानथी स्त्रीनो अवतार आव्यो तो पण पतिव्रताना ध्यानथी अने पूर्वना धर्मने लीधे एनो सदाचारी विदर्भ राजाने घेर पुत्रीरूपे जन्म थयो अने एने धार्मिक पिताना सत्सङ्गथी शुद्धि मळतां मलयध्वज नामना वैष्णवनो सङ्ग मळ्यो तेथी विष्णुभक्ति थई अने तेथी वैराग्य उत्पन्न थयो. ए विष्णुनी भक्ति अने वैराग्यने लीधे ए ज पतिरूप गुरुनी पतिव्रताना धर्मथी सेवा करतां भगवान्‌नी कृपाथी ज्ञान मळवाने लीधे स्त्रीना अवतारमां आवेला पुरञ्जननो मोक्ष थयो’’. आटला मर्म सिवाय बाकीनुं बधुं जो के वातना अलङ्कारने वास्ते छे तो पण थोडा घणा साम्य उपरथी बाकीनी वातने पण ज्ञानपक्षमां योजी शकाय तेटली योजवी जोईए.
२. विदर्भनो उपयोग करनार एटले घणा दर्भनो, अर्थात्‌ शास्त्रमां कहेलां सत्कर्म करनार एम पण समजवुं.
३. प्रजानुं पालन करवाथी अने यज्ञ वगेरे सत्कर्म करवाथी शोभा पामनार क्षत्रियोमां मोटो. ज््यारे आ वैदर्भी-विदर्भ नन्दिनी विवाहने योग्य थई त्यारे विदर्भराजे जाहेर कर्युं के सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर पुरुष ज एने परणी शकशे. त्यारे शत्रुओनां शहेरोने जीतनार१ पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वजे युद्धमेदानमां सौथी विशेष पराक्रम बतावीने वैदर्भी२ साथे लग्न कर्युम् ॥२९॥

विशेष - १. पण्डा = डहापण, समज, विद्या, विज्ञान, जेनामां बहु होय ते पाण्ड्य. पण्डित शब्द पण पण्डा उपरथी ज आव्यो छे. दक्षिण देशमां विष्णुनी भक्ति सहेज होय छे तेथी ते देशमां उत्तम एटले मोटो वैष्णव एम समजवुं.
२. वैदर्भीरूपे अवतरेला पुरञ्जनने भगवद्‌भक्तनो सङ्ग थयो. तेनाथी महाराज मलयध्वजने एक१ श्यामलोचना कन्या अने पछी सात पुत्रो२ थया जे आगळ उपर ३द्रविड देशना सात राजा थया ॥३०॥

विशेष - १. आत्मजाम्‌ असितेक्षणाम्‌. असितस्य कृष्णस्य भगवतः इक्षणं ज्ञानं यया इति असितेक्षणा. ताम्‌ असितेक्षणाम्‌. भगवान्‌ कृष्णनुं ज्ञान जेनाथी थाय ते असितेक्षणा. ए छे कथारुचि. श्याम नेत्रवाळी कन्या एटले कथारुचि.
२. तेना सात पुत्रो ते १श्रवण २कीर्तन ३स्मरण ४पादसेवन ५अर्चन ६वन्दन ७दास्य –आ सात पुत्रो कन्या (कथारुचि)थी नाना एटलामाटे के सौथी पहेलां कथारुचि थाय; पछी प्रेमअध्याय-२८, चतुर्थस्कन्ध ५३६ पाङ्गरे अने प्रेम थतां आ सात प्रकारनी भक्ति थाय. सख्य अने आत्मनिवेदन तो प्रभु प्राकट्य थया पछीनी वात छे. असित=श्याम=कृष्ण. इक्षण=नेत्र=ज्ञान, (निबन्ध.) वळी ‘‘एकैकस्याभवत्तेषां राजन्नर्बुदमर्बुदम्‌’’ ए सातमान्ना दरेक पुत्रने दस-दस करोड (अर्बुद) पुत्रो थया. आनुं रहस्य ए छे के ‘‘कोटिशः आवृत्तानामेव श्रवणादीनां पुरुषार्थसाधकत्वं, न सकृत्कृतानामिति भावः’’ श्रवण, कीर्तन, स्मरण वगेरेनी करोडो वखत आवृत्ति करवामां आवे त्यारे पुरुषार्थनी सिद्धि-प्रभु प्राकट्य, साक्षात्‌ अनुभव - सेवाफल ग्रन्थमां कहेल थाय एक ज वखत करवाथी नहि. माटे भक्तिमार्गमां निराशाने स्थान नथी अने सेवाकथामां शिथिलता न आववा देवाय. जो के वास्तविक रीते भक्तिना प्रकार नव छे एटले सातने बदले नव पुत्रो होवा जोईए, परन्तु एमान्ना सख्य अने आत्मनिवेदन ए बे प्रकार आत्मा देहादिकथी भिन्न छे एवुं शुद्ध ज्ञान थया पछी थाय छे; अने एवुं ज्ञानप्राथमिक अवस्थामां प्राप्त थयेलुं नहि होवाथी आ प्रकरणमां सातज पुत्रो कह्या छे.
३. श्रवण वगेरे भक्तिथी ज द्रविडभूमिनुं सारी रीते रक्षण थयेलुं छे तथा भक्तिमार्गना आचार्यो द्रविडना हता ए वात सुप्रसिद्ध छे. हे राजन्‌! ए सात पुत्रो पैकी दरेकने अबज-अबज पुत्रो१ थया जेमना वंशजो२ आ पृथ्वीनुं पालन३ मन्वन्तरना अन्त सुधी अने त्यार पछी पण करशे ॥३१॥

विशेष - १. श्रवण वगेरे भक्तिना सात्त्विक, राजस अने तामस वगेरे अनेक प्रकार.
२. अनेक प्रकारना असङ्ख्य सम्प्रदाय. ३. अज्ञान वगेरेमान्थी बचावशे. पाण्ड्य राजाए एनी सारां व्रत नियम१ पाळनारी दीकरी२ अगस्त्य मुनिने३ आपी हती तेनाथी ए स्त्रीने दृढच्युत४ नामनो पुत्र अने दृढच्यतने मुनि ईध्मवाह५ नामनो पुत्र थयो हतो ॥३२॥

विशेष - १. शमदमादिक नियमो. २. भगवत्कथामां रुचि. ३. मन. ४. दृढच्युत एटले वैराग्य. वैराग्य दृढ थतां विषयोमान्थी मुक्त थवाय छे तेथी वैराग्यनुं ‘दृढच्युत’ नाम राख्युं छे. दृढच्युत थयो एटले आ लोक तथा परलोकनां सुखोमां वैराग्य पाम्यो एम समजवुं.
५.इध्मवाह एटले ब्रह्मवेत्ता गुरुने शरणे जवुं. ए वखते समिध हाथमां राखवानुं वेदमां कह्युं छे. एटलामाटे ‘इध्म’ काष्ठ (समिध) तेने ‘वाह’ एटले उपाडनार एवो अर्थ छे. ए गुरुने शरणे जवाय छे तेथी वैराग्यने अने ईध्मवाहने पितापुत्रनो सम्बन्ध कह्यो छे; एवो वैराग्यनो पिता अगस्त्य एटले मन तथा भगवत्कथामां रुचि ते वैराग्यनी माता कही.अध्याय-२८,चतुर्थस्कन्ध ५३७ राजर्षि पाण्ड्य राजाए पोताना पुत्रोने पृथ्वीनी वहेञ्चणी (श्रवण वगेरे भक्तिना प्रकारोरूप पुत्रोने एमना पेटा प्रकारो करी आप्या छे एम समजवुं.) करी आपी अने पोते भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आराधना करवा सारु मलय पर्वत पर गया ॥३३॥

एनी राणी मदिराक्षी-वैदर्भी (हवे स्त्रीपणुं पामेलो पुरञ्जन सघळा विषयोमां वैराग्य पामीने पतिरूप गुरुनी सेवामां लाग्यो. स्त्रीओने पति ए ज गुरु छे एम शास्त्रोमां लख्युं छे.) चन्द्रमानी पाछळ जेम चान्दनी जाय तेम, घर, पुत्रो अने वैभवोने तिलाञ्जलि आपी पतिनी पाछळ गई ॥३४॥

ए मोटा पर्वतमां चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी अने वटोदका नामनी त्रण नदीओ हती. तेमनां पवित्र जळमां स्नान करी ए एना अन्तःकरण तेमज शरीरने निर्मळ करता हता ॥३५॥

त्यां रही ए कन्द, बीज, मूळ, फळ, फूल, पत्तां, घास तथा पाणीथी निर्वाह चलावतो अने ए रीते पाण्ड्यराजा धीरे-धीरे शरीरने सूकवी नाखे तेवुं कठोर तप करवा लाग्यो ॥३६॥

समदृष्टि राखनारा ए राजाए टाढ-तडको, वर्षा-वायु, भूख-तरस, प्रियअप्रिय, सुख-दुःख वगेरे बधां द्वन्द्वोने जीती लीधाम् ॥३७॥

यम, नियम, तप अने उपासनाथी एनी वासनाओने बाळी नाखी. एवी रीते इन्द्रियो, मन तथा चित्तने वश करी ए राजाए पोतानुं चित्त परब्रह्ममां जोडी दीधुम् ॥३८॥

पछी ए त्यां देवताओनां सो वर्ष (देवताओनुं एक वर्ष=मनुष्यनां ३६० वर्ष. देवताओनो दिवस=मनुष्यनुं वर्ष) सुधी थाम्भलानी जेम स्थिर एक ठेकाणे ऊभो रह्यो अने वासुदेव भगवान्‌माञ्ज प्रीति राखवाथी एने कंई देहादि बाह्य वस्तुनुं भान रह्युं नहि ॥३९॥

आवी रीते पाण्ड्य राजाए व्यापकताना भावथी आत्माने सर्वमां, सर्व प्रकारनी भिन्नता जे स्वपन जेवी मिथ्या छे तेने आत्मामां भ्रमना साक्षीरूप आत्माने विराम पमाडी दीधो ॥४०॥

जेनुं निरूपण साक्षात्‌ भगवान्‌ रूप गुरुए वेदमां कर्युं छे तेवा शुद्ध ज्ञानरूप दीवानो चारे दिशाओमां अखण्ड प्रकाश थयो तेथी ‘‘जे ब्रह्म छे ते हुं छुं अने हुं छुं ते ज ब्रह्म छे’’१ एवुं आत्मानुं यथार्थ स्वरूप एना जाणवामां आव्युं. अन्ते एवुंअध्याय-२८, चतुर्थस्कन्ध ५३८ यथार्थ ज्ञान पण एवी जातनी अन्तःकरणनी वृत्ति होवाथी तेनो पण उपरम२ थई जतां ते अद्वैतरूपे ज रह्यो, (तेने विदेह मुक्ति प्राप्त थई) ॥४१-४२॥

विशेष - १.जे ब्रह्म छे ते हुं छुं; एवो निश्चय करवाथी शोक वगेरेनी निवृत्ति थाय छे अने हुं छुं ते ज ब्रह्म छे एवो निश्चय करवाथी ब्रह्मनुं परोक्षपणुं मटे छे.
२. अग्निथी लाकडां बळी रहेतां अग्नि जेम पोतानी मेळे ज ठरी जाय तेम अविद्या अने एनां कार्योनो ज्ञानथी नाश थतां ज्ञान पण पोतानी मेळे ज मटी जाय छे ‘‘हुं ब्रह्म छुं’’ एवी वृत्ति पण कांईक द्वैतनुं स्वरूप छे एवो उपनिषदनो सिद्धान्तछे. विदर्भ राजानी पुत्री पतिव्रता होवाथी सघळां भोगोनो त्याग करी ब्रह्मवेत्ता पति मलयध्वजनी सेवामां प्रेमपूर्वक लागेली रहेती ॥४३॥

एनां वस्त्र फाटी गयां हतां; व्रत नियम पाळवाथी ए दूबळी थई गई हती; चोटलाना वाळ वणाई गया हता; अने निर्धूम थयेला अग्निनी पासे एनी ज्वाळा पेठे ए एना पतिनी सन्निधिमां एना जेवीज शान्त थई रहेती हती ॥४४॥

एना पति परलोक सिधारी गया हता पण पूर्ववत्‌ स्थिर आसनथी बिराजमान हता. आ रहस्यने जाणती न होवाथी ते तेनी पासे जई पहेलान्नी जेम सेवा करवा लागी ॥४५॥

परन्तु, चरणसेवा करतां ज््यारे पतिना पगमां गरमी देखाई नहि त्यारे झुण्डथी विखूटी पडेली मृगलीनी जेम ते चित्तमां बहु ज उद्वेग पामी ॥४६॥

घोर वनमां पोतानी जातने एकली अने दीन दशामां जोई ते भूख शोकाफल थई गई. आंसुओनी धाराथी तेना स्तनो भीजाई गयां अने ऊञ्चा सादथी विलाप करवा लागी ॥४७॥

तेणे कह्युंः‘‘हे राजर्षि! ऊठो-ऊठो, समुद्रथी घेरायेली आ पृथ्वी लुटारा अने अधार्मिक राजाओथी बीए छे तेनी आप रक्षा करो’’ ॥४८॥

पतिनी साथे वनमां गयेली ते अबला आ प्रमाणे विलाप करती एना पगमां पडीने आंसु सारवा लागी ॥४९॥

पछी रुदन करती ए वैदर्भीए लाकडान्नी चित्ता खडकी एमां पतिनुं शरीर पधरावी चित्ताने सळगावी पोते पण एनी साथे सती थवानो विचार कर्यो ॥५०॥

ए वखते, हे प्राचीनबर्हि राजा! एना कोई जूना अने आत्मज्ञानी सखाए (अनादि ईश्वर) ब्राह्मणना रूपथी एनी पासे आवी प्रिय वचनथी एनी सात्त्वनाअध्याय-२८,चतुर्थस्कन्ध ५३९ करतां आ प्रमाणेकह्युम् ॥५१॥

ब्राह्मण बोल्या - हे वैदर्भी तुं कोण छे? कोनी पुत्री छे? अने जेनेमाटे तुं शोक करी रही छे ते आ सूतेलो पुरुष कोण छे? तें मने न ओळख्यो? हुं ए ज तारो मित्र छुं. जेनी साथे पहेलां तुं फर्या करती हती ॥५२॥

हे मित्र!१ तुं मने तो नहि ओळखतो होय पण हुं तारो अविज्ञात नामनो सखा हतो एटलुं तो तने याद छे के नहि? मने२ छोडी दई पृथ्वी उपरना विषयभोगनी लालचथी विषय भोगववानुं ठेकाणुं शोधवाने सारुं तुं चाल्यो गयो ॥५३॥

विशेष - १. पूर्व जन्मनुं स्मरण आपवामाटे नरजातिनुं सम्बोधन आप्युं छे.
२. पोताना वियोगथी थयेला अनर्थ कही देखाडे छे. हे आर्य! तुं अने हुं बन्ने मानस१ सरोवरमां रहेनारा हंसो२ छीए. हजारो वर्ष सुधी३ आपणे घर वगर ज४ रह्या हता ॥५४॥

विशेष - १. हृदयमां. २. शुद्ध. ३. महाप्रलय थयो त्यां सुधी ४. महाप्रलयमां कोईनां शरीर नहि होवाथी हृदय पण होय नहि तेथी घर विना ज रह्या हता एम कह्युं छे. हे मित्र! मने मूकी दई ग्राम्य विषयसुखनी लालचथी तुं पृथ्वीमां गयो त्यारे त्यां कोई स्त्रीए (मायाए.) बनावेलुं स्थान तारा जोवामां आव्युम् ॥५५॥

ए नगरमां पाञ्च बगीचा, नव दरवाजा एक चोकी करनार, त्रण किल्ला, छ वेपारीओ अने पाञ्च बजार हतां. तेनां उपादान कारण पाञ्च हतां अने एनी मालिक एक स्त्री हती ॥५६॥

महाराज! शब्द,(उपर जे वात पोते ज गुप्त रीते करी तेनो पोते ज खुलासो आपे छे.) स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध ए पाञ्च ज्ञानेन्द्रियोना विषयोना पाञ्च बगीचा समजवा. शरीरमां जे नव छिद्रो छे ते नव दरवाजा समजवा. प्राणने चोकी करनार समजवो. अन्न, जळ अने तेज ए त्रण किल्ला समजवा, श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना अने प्राण ए पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो अने छठ्ठुं मन ए छ वेपारीओ समजवा. हाथ, पग, वाणी, शिश्न, गुदा ए पाञ्च कर्मेन्द्रियोने पाञ्च दुकानो समजवी. पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने आकाश ए पाञ्च महाभूतने नगरीनां कदी क्षीण न थनारां मूळ कारण समजवां; बुद्धिने मालिक समजवी; आ बुद्धिने वश थवाथी एनो पति आत्मा पोताना स्वरूपने भूली जाय छे. ए नगरमां जईने तुं एनी मालिक स्त्रीनोअध्याय-२८, चतुर्थस्कन्ध ५४० ताबेदार थयो अने एनी साथे रमवा लाग्यो अने तारा स्वरूपने भूली गयो. हे प्रिय मित्र! ए स्त्रीना फन्दामां पडी तुं आवी विशेष पापभरी दुर्दशामां आवी पड्यो ॥५७-५९॥

जो तुं नथी तो विदर्भराजनी पुत्री अने नथी तो आ वीर मलयध्वज तारो पति जेणे तने नवद्वारनी नगरीमां बन्ध करी हती ते पुरञ्जनीनो पति पण तुं नथी ॥६०॥

तुं पहेलान्ना जन्ममां पोताने पुरुष समजतो हतो अने हवे सती स्त्री माने छे. आ बधी मारी ज फेलावेली माया छे. खरी रीते तुं नथी पुरुष के नथी स्त्री. आपणे बन्ने तो हंस छीए, आपणुं जे साचुं स्वरूप छे तेनो अनुभव कर ॥६१॥

मित्र, जे हुं (ईश्वर) छुं ते ज तुं (जीव) छे तुं माराथी जुदो नथी अने विचार पूर्वक जो, हुं पण ते ज छुं जे तुं छे. ज्ञानी पुरुषो आपणा बेमां क््यारेय जरा पण जुदाई जोता नथी ॥६२॥

एक ज शरीरनुं प्रतिबिम्ब अरीसामां जोईए तो मोटुं, निर्मळ अने स्थिर देखाय; ए ज प्रतिबिम्ब कोई बीजानी आङ्खमां जोईए तो नानुं, मेलुं अने चञ्चळ देखाय. वास्तविक रीते आपणे बन्ने एकज एटले परब्रह्मरूप छीए ॥६३॥

नारदजीए कह्युं - आ प्रमाणे ज््यारे हंसे (ईश्वरे) एने सावधान कर्यो त्यारे ते मानस सरोवरनो हंस (जीव) पोताना स्वरूपमां स्थिर थई गयो अने एने पोताना मित्रना विछोह (वियोग)थी भूलाई गयेलुं आत्मज्ञान फरी प्राप्त थई गयुं ॥६४॥

बर्हिष्मन्नेतदध्यात्मं पारोक्ष्येण प्रदर्शितम्‌। यत्परोक्षप्रियो देवो भगवान्‌ विश्वभावनः ॥६५॥

हे प्राचीनबर्हि राजा! जो में तने साक्षात्‌ आत्मज्ञाननी वात सीधी रीते कही होत तो ए वात तारा मनने समजवामां आवत नहि; एटलामाटे पुरञ्जन राजाना इतिहासना विषे ए वात में तने कही देखाडी छे. एवी रीते परोक्ष रीते वात करवी ए जगतना रक्षक नारायण भगवानने प्रिय छे ॥६५॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां पुरञ्जन उपाख्यानमां (चोथा मोक्षप्रकरणमां सार्थकविनाशादिनिरूपण नामनो पाञ्चमो) ‘‘स्त्रीनी चिन्ताथी पुरञ्जननो थयेलो स्त्रीनो अवतार तथामोक्ष’’ नामनो २८मो अध्याय सम्पूर्ण थयो.अध्याय-२९,चतुर्थस्कन्ध ५४१

अध्याय २९

स्त्रीसङ्गथी जन्म-मरण; प्रभुना सङ्गथी मोक्षप्राप्ति ए पुरञ्जनोपाख्याननुं तात्पर्य

विशेष - आ ओगणत्रीसमा अध्यायमां परोक्ष करेली वातनुं व्याख्यान आपीने स्त्रीना सङ्गथी (अहन्ता-ममतात्मक) संसार थाय छे अने प्रभुना सङ्गथी मुक्ति थाय छे ए वातनी स्पष्टता करवामां आवे छे. भगवंस्ते वचोऽस्माभिर्न सम्यगवगम्यते ॥ कवयस्तद्विजानन्ति न वयं कर्ममोहिताः ॥१॥

प्राचीनबर्हि राजाए पूछ्‌युं - हे भगवान्‌ नारद मुनि! आपनी वाणी अमाराथी बराबर समजाती नथी. एवी गूढ वात ज्ञानी लोको समजी शके पण अमे तो कर्मकाण्डमां मोह पामेला छीए तेथी अमाराथी ए समजी शकाय एवी नथी ॥१॥

नारदजीए कह्युंः में जे पुरञ्जन (पुरञ्जन=‘पुर’ एटले नगर, शरीर. ‘जन’ एटले निर्माता) कह्यो ते जीव समजवो. जीव पोताना अदृष्टरूपद्वारथी पुर (शरीरोने) प्रकट करे छे. ए शरीरमां केटलाङ्क एक पगवाळां, केटलाङ्क बे पगवाळां केटलाङ्क त्रण पगवाळां, केटलाङ्क चार पगवाळां, केटलाङ्क घणा पगवाळां अने केटलाङ्क पग वगरनां पण शरीररूप पुर होय छे ॥२॥

ए जीवने अविज्ञात नामनो सखा छे एवुं कहेलुं छे ते ईश्वर समजवो. ईश्वर नाम, क्रिया के गुणथी कोईना जाणवामां आवी शकतो नथी, (कारण के ए गुणातीत छे) ॥३॥

ज््यारे जीवने सघळा विषयो भोगववानी ईच्छा थई त्यारे एणे ए शरीरोमान्थी नव द्वार अने बब्बे हाथ पगवाळा मनुष्य शरीरने विशेषे सारुं गण्युं ॥४॥

में पुरञ्जनी स्त्री कही ते बुद्धि समजवी. एने लीधे ज देह, इन्द्रिय वगेरेमां ‘‘हुं अने मारुं’’ एवी समज ऊभी थाय छे. अने आ शरीरमां जीव (अधिष्ठान) अध्यासने लीधे इन्द्रियोवडे विषयो भोगवे छे ॥५॥

इन्द्रियो बुद्धिना मित्रो समजवा. एमान्थी केटलीक इन्द्रियोथी विषयोनुं ज्ञान थाय छे अने केटलीकथी फक्त कामक्रिया ज थाय छे. इन्द्रियोनी वृत्तिओ ए बुद्धिनीअध्याय-२९, चतुर्थस्कन्ध ५४२ सखीओ समजवी अने पाञ्च माथांवाळो सर्प एटले पाञ्च वृत्तिवाळो प्राण* समजवो ॥६॥

विशेष - प्राण, अपान, समान, उदान अने व्यान ए पाञ्च प्राणनी वृत्तिओ गणाय छे; हृदयमां जे वायु छे ते प्राण कहेवाय छे; गुदानो वायु ‘अपान’ कहेवाय छे; नाभिमां रहेलो वायु समान कहेवाय छे; कण्ठमां रहेलो वायु उदान कहेवाय छे; अने आखा शरीरमां व्यापी रहेलो वायु व्यान कहेवायछे. ए बन्ने प्रकारनी इन्द्रियोनो सेनापति महाबली योद्धो (बृहदबल) मन समजवुं. मन पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय अने पाञ्च कर्मेन्द्रियना नायकरूप छे. पञ्चाळ देश एटले शब्दादि पाञ्च विषयो जेमां नव दरवाजावाळां पुर (शरीर) वसेलुं छे ॥७॥

बे आङ्ख, बे नाक, बे कान, मुख, शिश्न अने गुदा ए नव दरवाजा समजवा ए दरवाजाओथी ते-ते इन्द्रियोने साथे लई जीव बहार जाय छे.(विषयोने भोगवे छे) ॥८॥

बे आङ्ख, बे नाक अने मुख ए पाञ्च पूर्व तरफना दरवाजा, जमणो कान ते दक्षिण तरफनो अने डाबो कान ते उत्तर तरफनो दरवाजो समजवो ॥९॥

गुदा अने शिश्न ए बे हेठलां द्वार; ते पश्चिम तरफना दरवाजा समजवा; खद्योता अने आविर्मुखी नामनां बे द्वार जे एक ठेकाणे बताववामां आव्यां हतां ते नेत्रो तथा रूप विभाजित नामनो देश छे जेनो अनुभव आ द्वारोद्वारा जीव नेत्र इन्द्रियनी सहायथी करे छे. (नेत्र इन्द्रियने ज पहेलां द्युमान नामनो मित्र कह्यो छे) ॥१०॥

नलिनी अने नालिनी नामना बे दरवाजा एटले नाक. अवधूत एटले घ्राणेन्द्रिय अने सुगन्ध एटले सौरभ देश. मुख्य दरवाजो एटले मुख एमां रहेनार विपण एटले वाणी अने रसज्ञ एटले रसना (जिह्‌वा) इन्द्रिय समजवी ॥११॥

आपण देश एटले भाषण (व्यवहार) समजवो. बहूदन देश एटले घणा प्रकारनुं अन्न. ‘पितृहू’ एटले जमणो कान अने देवहू एटले डाबो कान समजवो ॥१२॥

दक्षिण पञ्चाळ देश एटले प्रवृत्तिशास्त्र अने उत्तर पञ्चाळ देश एटले निवृत्तिशास्त्र. श्रुतिधर कह्यो ते श्रोत्र इन्द्रिय समजवी, जेणे करेला शास्त्रश्रवणथी पितृलोक अने देवलोक प्राप्त थाय छे ॥१३॥अध्याय-२९,चतुर्थस्कन्ध ५४३ आसुरी नामनो हेठलो दरवाजो एटले लिङ्ग नामनो मित्र स्त्री प्रसङ्ग ग्रामक नामनो देश छे अने लिङ्गमां रहेनार उपस्थ-इन्द्रिय दुर्मद नामनो मित्र छे. गुदा निऋति नामनुं पश्चिमनुं द्वार छे ॥१४॥

लुब्ध एटले गुदामान्थी पायु इन्द्रिय अने वैशस देश एटले नरक समजवुं. आ सिवाय बे पुरुषो अन्ध बताववामां आव्या छे तेनुं रहस्य साम्भळ. ते छे हाथ अने पग; एमनी सहायथी जीव क्रमशः बधा काम करे छे अने ज््यां त्यां जाय छे ॥१५॥

अन्तःपुर (जनानखानुं) एटले हृदय अने एमां विषूची नजर कहेवामां आव्यो ते मन. सत्त्व, रज अने तम ए मनना गुण छे अने एनाथी हृदयमां प्रसन्नता, हर्ष अने मोह उत्पन्न थाय छे ॥१६॥

बुद्धि (राजमहिथी-पुरञ्जननी) जे-जे प्रकारे स्वपन अवस्थामां विकारने प्राप्त थाय छे अने जाग्रत अवस्थामां इन्द्रियादिने विकृत करे छे तेना गुणोथी लिप्त थई आत्मा (जीव) पण ते-ते रूपमां एनी वृत्तिओनुं अनुकरण करवा विवश बने छे जो के खरेखर तो ते एनो निर्विकार साक्षीमात्र ज छे ॥१७॥

रथ एटले स्वपन अवस्थानो देह, घोडा एटले ज्ञान-इन्द्रियो. ए रथनी चाल उतावळी छे एवुं कह्युं ए एटलामाटे के संवत्सरना वेगनी पेठे एनो वेग कोई ठेकाणे अटकतो नथी. (वास्तविक रीते स्वपन अवस्थाना पदार्थ बुद्धिमां ज पेदा थाय छे तेथी स्वपनदेहनी बीजे ठेकाणे गति नथी तेम देह पण हकीकतमां तो गतिहीन छे) बे पैडां एटले पाप अने पुण्य; त्रण ध्वजा ते त्रण गुण अने पाञ्च बन्धन ए पाञ्च प्राण समजवा ॥१८॥

लगाम ते मन; सारथि ते बुद्धि, बेसवानी जग्या ते हृदय, धूंसरी ते इन्द्रियोना सुख-दुःख वगेरे द्वन्द्वो अने पाञ्च आयुध एटले पाञ्च कर्म, (शब्दादि) विषयो. सात पडदा ते सात (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा अने वीर्य) धातु समजवी ॥१९॥

स्वपन अवस्थामां बहार फरवा जवुं एटले झाञ्झवान्नां पाणी जेवा पदार्थो पाछळ कर्मेन्द्रियोनुं दोडवुं. एनी साथे सेना कही ते अगियार इन्द्रियो अने मृगया (शिकार) ते पाञ्च ज्ञानेन्द्रियोथी अन्यायपूर्वक विषयोनुं ग्रहण करवुं ए ॥२०॥

चण्डवेग गन्धर्व एटले उतावळथी जतुं रहेतुं वर्ष. वर्ष उपरथी काळनुं माप थायअध्याय-२९, चतुर्थस्कन्ध ५४४ छे. त्रणसो साठ गन्धर्वो एटले वर्षना दिवसो अने त्रणसो साठ गन्धर्वी एटले वर्षनी रात्रिओ समजवी ॥२१॥

ए दिवसो अने रात्रिओ वारंवार चक्कर लगावतां आयुष्यनुं हरण करे छे. काळकन्या एटले जरा अवस्था तेने कोई पसन्द करतुं नथी. यवनोनो राजा एटले मृत्यु; एणे लोकोनो क्षय करवाने जराने बहेन करीने राखी छे ॥२२॥

ए मृत्युना पायदळ सौनिको एटले आधि (मननी पीडा) अने व्याधि (शरीरनी पीडा). प्राणीओने परेशान करी धडाधड (सपाटमां) मृत्युना मोम्मां धकेली देनार शीत अने उष्ण बे प्रकारनो ताव ज प्रजवार नामनो एनो भाई छे ॥२३॥

अनावृष्टि अर्थात्‌ दैवे करेलां, सिंह वगेरे प्राणीओथी थएलां अने शरीरमान्थी उत्पन्न थयेलां एवां घणां दुःखोथी पीडातो, अज्ञानथी घेरायेलो अने पोते निर्गुण छतां पण प्राण इन्द्रिय तथा मनना धर्मोवडे धरी क्षुद्र विषयोनी तृष्णा राखतो प्राणी अहन्ता-ममताथी कर्म करतो-करतो देहमां सो वर्ष सुधी पड्यो रहे छे ॥२४॥

खरेखर तो ते निर्गुण छे; पण प्राण, इन्द्रिय अने मनना धर्मोनो पोतानामां आरोप करी अहन्ता-ममताना अभिमानमां बन्धाई क्षुद्र विषयोना लेशमात्रनुं चिन्तन करतो अनेक प्रकारनां कर्म करतो रहे छे ॥२५॥

जो के ए स्वयम्प्रकाश छे तो पण ज््यां सुधी बधाना परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवानना स्वरूपने नथी जाणतो त्यां सुधी प्रकृतिना गुणोमां ज बन्धायेलो रहे छे ॥२६॥

सत्त्व, रज अने तमो गुणनो ते अभिमानी होवाथी लाचार थईने सात्त्विक, राजस अने तामस कर्मो करे छे अने ते कर्मो प्रमाणे जुदी जुदी योनिओमां ते जन्म ले छे ॥२७॥

ए क््यारेक तो सात्त्विक कर्मोद्वारा प्रकाश बहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करे छे, क््यारेक राजसी कर्मोद्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकोमां जाय छे. ज््यां भातभातना कर्मोनो क्लेश उठाववो पडे छे. अने क््यारेक तमो गुणी कर्मो द्वारा शोकसभर तमोमयी योनिओमां जन्म ले छे ॥२८॥

ए मन्द बुद्धिवाळो जीव पोताना कर्म अने गुण प्रमाणे कोई वखते पुरुषनो तो कोई समये स्त्रीनो तो कोई समय नपुंसकनो तो कोई समये देवतायोनि तो कोईअध्याय-२९,चतुर्थस्कन्ध ५४५ समये मनुष्ययोनिमां अने कोई समये पशुपक्षी योनिमां जन्म ले छे ॥२९॥

जेम भूखथी व्याकुल कूतरो घेर-घेर फरतो फरे; एने कोई ठेकाणे भात मळे तो कोई ठेकाणे प्रारब्धशात्‌ डण्डो पण पडे; एवी रीते विषयनी वासनावाळो जीव स्वर्ग, पाताळ अने मध्यना लोकोमां ऊञ्चा-नीचा मार्गथी प्रारब्ध अनुसार भटक््या करे छे अने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगवतो रहे छे ॥३०-३१॥

आधिदैविक, आधिभौतिक अने आध्यात्मिक आ त्रण प्रकारनां दुःखोमान्थी कोईपण एकमान्थी जीवनो सर्वथा छुटकारो थई शकतो नथी. जो क््यारेक छुटकारो थयो छे एवुं लागे तो ते मात्र थोडा समयमाटे ज होय छे ॥३२॥

जेम माथा उपर भारे बोजो उपाडीने कोई माणस चाल्यो जतो होय अने एनुं माथुं तपी जाय एटले ए बोजाने खभा उपर ले पण एम करवाथी बोजो टळी गयो एम कहेवाय नहि तेवी रीते दुःख मटाडवाना जे-जे उपायो छे ते पण दुःखरूप ज छे; वळी एक दुःखमान्थी छुटकारानो दम खेञ्च्यो न खेञ्च्यो त्यां तो बीजुं दुःख शिर पर सवार थाय छे माटे प्राणी दुःखमान्थी बिलकुल तो छूटी शकतो नथी.(दुःखनां) मूळ तो कर्म ज छे. ए कर्मो बीजा कर्मथी मटे नहि. कर्म अने कर्मफलभोग अविद्यायुक्त छे तेथी एक कर्म पोतानां जेवां ज बीजां कर्मने खरेखर टाळी शके नहि. जेम एक स्वपनमां बीजुं स्वपन देखाय ते पहेलान्ना स्वपनने खरेखर टाळी शकतुं नथी तेम एक कर्म अने एने टाळवाने करवामां आवेलुं बीजुं कर्म ए बन्ने अज्ञान मूलक होवाथी सरखां ज छे. एमान्नुं एक कर्म बीजा कर्मने टाळी शके नहि ॥३३-३४॥

जेम स्वपन खोटुं छे तो पण उपाधिरूप मननी स्वपन अवस्था होय त्यां सुधी ए मटतुं नथी तेवी रीते संसार खोटो छे तो पण मनमां विषयोनुं ध्यान होय त्यां सुधी ए टळतो नथी. अविद्याने लीधे ज परम पुरुषार्थरूप आत्माने (अनर्थना अखण्ड प्रवाहरूप जन्म-मरणरूप) संसार थयो छे. ए अविद्यानो नाश गुरुद्वारा प्राप्त भगवाननी भक्तिथी ज थाय छे ॥३५-३६॥

वासुदेव भगवान्‌मां दृढ करेलो भक्तिभाव वैराग्य अने ज्ञाननो आविर्भाव करी आपे छे ॥३७॥

हे राजर्षि प्राचीनबर्हि राजा! ए भक्तियोगनो मुख्य आश्रय भगवाननी कथा ज छे. माटे श्रद्धाथी भगवाननी कथानुं श्रवण करवाथी तथा निरन्तर अभ्यासअध्याय-२९, चतुर्थस्कन्ध ५४६ करवाथी भक्तियोग बहु ज जलदी प्राप्त थाय छे ॥३८॥

राजन्‌! ज््यां भगवद्गुणोना कथन अने श्रवण माटे तत्पर विशुद्धचित्तवाळा भक्तो रहेता होय छे ए सन्तसमाजमां चोतरफ महापुरुषोना मुखथी नीकळेल श्रीमधुसूदन भगवानना चरित्ररूप शुद्ध अमृतनी अनेक नदीओ वहेती रहे छे. जे लोको अतृप्त चित्तथी श्रवण करवामां तत्पर पोताना कर्णपुटद्वारा ते अमृतनुं छाकमछोळ पान करे छे तेमने भूख-प्यास भय शोक मोह वगेरे कंई पण नडी शकतां नथी ॥३९-४०॥

अफसोसनी वात छे के स्वाभाविक रीते भूख-प्यास, भय, शोक वगेरे विघ्नोथी त्रासी गयेलो जीवसमुदाय श्रीकृष्णना कथामृत सिन्धु उपर स्नेह नथी करतो ॥४१॥

साक्षात्‌ प्रजापतिओना पति ब्रह्माजी, भगवान्‌ सदाशिव, स्वायम्भुव मनु, दक्ष वगेरे प्रजापतिओ, सनकादिक नैष्टिक ब्रह्मचारीओ, मरीचि, अत्रि, अगिंरा, पुलस्त्य, पुलह, भृगु, वसिष्ठ अने हुं, अमे बधा ब्रह्मवादीओ साक्षात्‌ वेदवाणीना अध्यक्ष होवा छतां तप, विद्या अने समाधिद्वारा शोधी-शोधी ने हारी गया तो पण ए सर्वना साक्षी परमेश्वरनां अत्यार सुधी दर्शन न करी शक््या ॥४२-४४॥

वेद पण घणा विस्तारवाळा छे. एनो पार पामवो ए कांई सहेलुं नथी. अनेक महानुभावो एनी आलोचना करी मन्त्रोमां बतावेल वज्रहस्तत्वादि* गुणोवाळा इन्द्रादि देवताओना रूपमां, जुदां-जुदां कर्मोद्वारा, जो के ए परमात्मानुं यजन करे छे तो पण एना स्वरूपने तेओ पण नथी जाणता ॥४५॥

विशेष - वेदमां कह्युं छे के ‘‘वज्रहस्तः पुरन्दरः’’ (इन्द्रना हाथमां वज्र नामनुं हथियार छे). आ मन्त्रमां इन्द्रनी निशानी वज्र लखी छे, इत्यादि. भगवाननुं अखण्ड स्मरण करवामां आवतां भगवान्‌ जे समये जे जीव उपर कृपा करे छे ते ज पळे ते जीवनी लौकिक व्यवहार अने वैदिक कर्ममार्ग मान्थी आसक्ति दूर थाय छे ॥४६॥

बर्हिष्मन्‌, आ कर्मोमां तुं परमार्थबुद्धि न कर, कर्मो स्वतः पुरुषार्थरूप छे एवुं न मान. ए साम्भळवामां ज प्रिय लागे छे, परमार्थनो तो ए स्पर्श पण नथी करतां. ए परमार्थ जेवां देखाय छे एनुं कारण मात्र अज्ञान ज छे ॥४७॥

जे लोको एम कहे छे के कर्म करवां एवो वेदनो अभिप्राय छे तेमनी बुद्धि यज्ञनाअध्याय-२९,चतुर्थस्कन्ध ५४७ धुमाडाथी मलिन थयेली छे तेथी एओ आत्मस्वरूप जे वेदनुं तात्पर्य छे अने जेमां परमात्माथी भिन्नता नथी तेने एओ जाणता नथी; (वेदनो खरो अर्थ समजता नथी)* ॥४८॥

विशेष - जैमिनिकृत पूर्वमिमांसाना सूत्रमां स्पष्ट लख्युं छे के वेदनो अभिप्राय कर्म कराववा उपर ज छे. ए सूत्रमां प्रथम शङ्का उठावी छे के ‘‘आम्नायस्य क्रियार्थत्वाद्‌ आनर्थक््यम्‌ अतदर्थानां’’ (सघळा वेदनो अभिप्राय कर्मकाण्ड कराववा उपर ज छे एम मानीशुं तो वेदमां केटलाएक वाक््योमां कर्म कराववानी वात नथी तो ए वाक््योने व्यर्थ गणवां पडशे). पछी ए शङ्कानुं समाधान कर्युं छे केः‘‘तद्‌भूतानां क्रियार्थत्वेन समन्वयः’’ (जे वाक््योमां कर्म कराववानो अर्थ नथी ते वाक््योने कर्म कराववाना अर्थवाळां वाक््यो साथे जोडी देवां) जेम के ‘‘वायुर्वैक्षेपिष्ठा देवता’’ (वायु ए मोटा वेगवाळो देव छे). ए वाक््यमां कर्म कराववानी वात नथी आवती पण ए वाक््यने ‘‘वायव्यं श्वेतमालभेत’’ (वायुदेवने सारु धोळा पशुने मारवो) ए वाक््य साथे जोडी देवुं, अर्थात्‌ आ कर्म कराववामां जे वायु देव लखेल छे तेनुं स्वरूपादिक बताववाने वास्ते ज पहेलुं वाक््य छे एम समजवुं. इत्यादिक उपनिषदोनां वाक््य पण यजमानने ईश्वर ठरावी तेनां वखाण करवाने सारु छे एम जैमिनिनो सिद्धान्त छे. हे राजन्‌! तुं तो मोटो मूर्ख छे. तें तो उगमणी तरफ अणीवाळा दर्भोथी आखी धरती ढाङ्की दीधी छे अने यज्ञोमां घणां जानवर कापी नाखी अभिमानथी अक्कड बन्यो छे अने कर्मने तेमज खरी विद्याने जाणतो नथी; (जेनाथी भगवान्‌ प्रसन्न थाय ए खरुं कर्म अने जेथी भगवान्‌मां मन लागे ए ज खरी विद्या) ॥४९॥

भगवान्‌ ज सर्व देहधारीओना आत्मा, स्वतन्त्र (बीजा पदार्थोनी गरज नहि राखनार.) कारण अने नियामक छे. एमनुं चरणारविन्द लोकोनुं शरण छे. एनाथी ज मनुष्योनुं परम कल्याण थाय छे ॥५०॥

आत्मा जे आपणने अत्यन्त प्यारो छे ते ज भगवान्‌ छे. एने भजवाथी लेश मात्र पण दुःख के भय रहेतां नथी. जे पुरुष आ प्रमाणे जाणे ते ज विद्वान गणाय अने जे विद्वान होय ते ज गुरु अने भगवान्‌ छे एम समजवुम् ॥५१॥

नारदजीए कह्युं - में तने जे इतिहासरूप वार्ता कहेली अने जेनो तें मने खुलसो पूछेलो ते में तने कह्यो. हे राजा! हवे अत्यन्त निश्चित थयेल एक गूढ साधन मारी पासेथी सावधान थईने साम्भळ* ॥५२॥

विशेष - ए प्रमाणे पुरञ्जनना इतिहासथी आत्माने बन्ध तथा मोक्षनो प्रकार कह्यो. तो पणअध्याय-२९, चतुर्थस्कन्ध ५४८ प्रबळ वैराग्य नहि ऊपजवाथी ए प्राचिनबर्हिराजाने दीकरानी वाट जोई रह्यो जाणी एने मोटी धास्ती देखाडी, आखा शरीरमां ध्रुजावी दई ए वखते ज घरमान्थी बहार काढवा सारु नारद मुनि एक हरणनुं रूपक कहे छे. एक हरिण पोतानी हरिणी साथे फलवाडीमां दूब वगेरे कूणां-कूणां अङ्कुरो चरतो मस्त थईने फरी रह्यो छे. एना कान भमराओना गुञ्जारवमां लुब्ध बनी गया छे. एनी सामे ज बीजा जीवोने मारी पोतानुं पेट भरनारा ताकीने उभा छे तेने नहि गणकारतां ए आगळ अने आगळ चाल्यो जाय छे अने पाछळथी तेना उपर ताकीने पारधीए बाण छोड्युं छे अने ते हरिण बाणथी भेदाई गयो छे. पण ए हरिण एटलुं अज्ञान छे के एने एनुं भान पण नथी. एकवार आ हरिणनी दशानो विचार कर ॥५३॥

हे प्राचीनबर्हि राजा! तने जे मृग कह्यो ते तुं पोते ज छे. विचारी जो. तुं फूलवाडी एटले फूलनी पेठे परिणामे रस वगरनी स्त्रीओवाळां घरमां फूलना मधुर सुगन्धनी पेठे अत्यन्त क्षुद्र एटले जिह्‌वा अने उपस्थने आ सुखो सकाम कर्मोना फळथी मळे छे तेने शोध्या करे छे. स्त्रीओनी साथे मळी एमनामां ज मन राखे छे. भमराओना गुञ्जारवनी पेठे स्त्री वगेरेनां अत्यन्त मनोहर भाषणोमां तारा कान लुब्ध बनेला छे. सामे ज नहाररूपी काळना अंश दिन अने रात तारा आयुष्यने हरी रह्या छे तेने तुं गणकारतो नथी पण गृहस्थीना सुखोमां चकचूर छे. आ काळ गूपचूप रीते तारी पछवाडे लागेलो छे अने पोतानां छुपावी राखेलां बाणथी तने दूरथी ज र्वीधी नाखवा मागे छे. बाणथी हृदयमां भेदाई गयेला आ तारा आत्मानो विचार कर ॥५४॥

आ प्रमाणे पोतानी जातने हरिणनी स्थितिमां मूकी तुं पोताना चित्तनो निरोध हृदयमां कर अने नदीनी माफक वहेती रहेती काननी बहारनी वृत्तिने चित्तमां स्थापन कर (अन्तर्मुखी कर). ज््यां कामी पुरुषोनी चर्चा थती रहेती होय छे ए गृहस्थाश्रमनो त्याग करी परम हंसोना आश्रय श्रीहरिने प्रसन्न कर अने क्रमशः बधा विषयोथी मुक्त थई जा ॥५५॥

प्राचीनबर्हि राजाए पूछ्‌युंः हे महाराज! आपे जे कह्युं ते में साम्भळ्युं तेनो विचार पण कर्यो. आ वातनी मारा उपाध्यायोने खबर ज नथी. जो खबर होय तो एओ आज दिवस सुधी केम न बोले? ॥५६॥चतुर्थस्कन्ध ५४९ विप्रवर! आ विषयमां उपाध्यायोए मारामां जे महान संशय करी दीधेलो ते आपे तद्‌दन दूर कर्यो. आ बाबतमां इन्द्रियोनी वृत्तिओ पहोञ्ची शकती नथी. तेथी मन्त्रद्रष्टा ऋषिओने पण मोह थाय छे ॥५७॥

वेदवादीओनुं कहेवुं ज््यां-त्यां साम्भळवामां आवे छे के पुरुषे जे देहथी कर्म कर्या होय ते देहने अर्हीज मूकी दईए परलोकमां कर्मोथी बनेला बीजा *देहथी कर्मोना फळने भोगवे छे ॥५८॥

विशेष - एटले आ देहनुं करेलुं कर्म बीजा देहथी भोगवाय छे. एवुं वेद जाणनार लोको चारे कोर बोले छे; अने आप कही गया के पुरञ्जने जे अकर्म कर्या तेनां फळ मर्या पछी एने बीजा जन्ममां मळ्यां तो आ विषय विवादास्पद लागे छे; केमके जे करे तेणे ज कर्म फळ भोगववुं वाजबी छे पण एक देहे करेला कर्मने बीजो देह भोगवे ए वात सम्भवती नथी. जे देह कर्म करे तेने ए कर्मनुं फळ कांई पण भोगववाने नहि मळतां जेणे नथी कर्युं तेने एनुं फळ मळे छे ए वात न्यायविरुद्ध छे. पण आ वात बनी शी रीते शके? (कारण के ते कर्मोनुं करनारुं स्थूळ शरीर तो अर्ही ज नाश पामे छे), वळी जे-जे कर्म अर्ही करवामां आवे छे ए तो बीजी ज क्षणमां अदृश्य थई जाय छे. ए परलोकमां फळ देवाने माटे फरीथी कई रीते प्रकट थई शके?* ॥५९॥

विशेष - मनुष्य वेदना कह्या प्रमाणे जे कर्म करे छे ते कर्म थोडी वार पछी ज अदृश्य थई जाय छे. जेमके आपणे होम करवा बेठा होईए त्यां होम करीए तेटली वार ज होम थतो जोवामां आवे छे पण होम करी रह्या पछी तरत ज ए होम अदृश्य थई जाय छे. एटले जे कर्म अदृश्य थई गयुं अथवा नष्ट थई गयुं तेनो भोग पाछळथी मळे ए वात पण सिद्ध थवी मुश्केल छे. तात्पर्य के एक देहे करेलां कर्मनुं फळ बीजो देह भोगवतो नथी एम आप कहो छो. नारदजीए कह्युं - (स्थूल शरीर तो लिङ्ग शरीरने आधीन छे तेथी कर्मोनी जवाबदारी एना उपर ज छे) जे मनःप्रधान लिङ्ग शरीरथी मनुष्य कर्म करे छे ते तो मर्या पछी पण एनी साथे रहे ज छे तेथी ते परलोकमां अपरोक्षरूपथी स्वयं एनाद्वारा एनां फळ भोगवे छे ॥६०॥

*स्वपन अवस्थामां मनुष्य आ जीवित शरीरनुं अभिमान तो छोडी दे छे पण एना ज जेवुं अथवा एनाथी जुदा प्रकारना पशुपक्षी वगेरे शरीरथी ते मनमां संस्काररूपथी स्थित कर्मोनां फल भोगवतो रहे छे ॥६१॥

[[५५०]]

विशेष - कर्तापणुं अने भोक्तापणुं स्थूळ देहने नथी पण लिङ्गदेहने एटले मन जेमां मुख्य छे ए अन्तःकरणने छे. अन्तःकरण स्थूळ देहनी साथे नाश पामतुं नथी एटले एक स्थूळदेहनो नाश थई बीजो जे स्थूळदेह आवे तेमां अन्तःकरण एनुं ए रहे छे. आ मननाद्वारा जीव जे स्त्रीपुत्रादिकने ‘‘आ मारो छे’’ अने देहादिने ‘‘आ हुं छुं’’ एम कही माने छे एमनां करेलां पाप-पुण्यादि रूप कर्मने पण ते पोते पोताना उपर लई ले छे अने एने लीधे तेने फरीथी जन्म लेवो पडे छे ॥६२॥

जेवी रीते ज्ञानेन्द्रिय अने कर्मेन्द्रिय बन्नेनी प्रवृत्तिओथी एना प्रेरक चित्तनुं अनुमान थाय छे तेवी रीते चित्तनी जातजातनी वृत्तिओथी पूर्वजन्मना कर्मोनुं पण अनुमान थाय छे तेथी कर्म अदृष्टरूपी फल देवामाटे कालान्तरे बीजा समये पण मोजूद होय छे ॥६३॥

क््यारेक-क््यारेक एवुं देखाय छे के जे वस्तुनो आ शरीरथी क््यारेय अनुभव नथी कर्यो जेने नथी तो क््यारेय जोई के नथी साम्भळी तेनो स्वपनमां ते जेवी होय छे तेवो ज अनुभव थई जाय छे ॥६४॥

हे राजा! तुं निश्चय मान के लिङ्ग देहना अभिमानी जीवने एनो अनुभव पूर्व जन्ममां थई चूक््यो छे कारण के जे वस्तुनो अनुभव पहेलां थयेलो होतो नथी एनी मनमां वासना पण होवी शक््य नथी ॥६५॥

तारुं कल्याण थाओ. मन ज मनुष्यनां पूर्व रूपो तथा भावी शरीरादिने पण बतावी दे छे; अने जेमनो हवे पछी जन्म थवानो ज नथी ए तत्त्ववेताओनी विदेहमुक्तिनी जाण पण एमनां मनथी ज थई जाय छे ॥६६॥

आ वर्तमान काळना देहथी अनुभवमां न आवी होय तेवी वस्तु कोई वखते स्वपनमां अने मनोरथमां आवे छे ए उपरथी अवश्य मानवुं रह्युं के पूर्व देहमां एनो अनुभव थयो हतो. आ उपरथी पूर्व देहना कर्मना संस्कार मनमां लागी रहे छे एवो निश्चय थाय छे ॥६७॥

इन्द्रियोथी अनुभव करी शकाय एवा पदार्थो ज भोगरूपमां वारंवार मननी सामे आवे छे अने भोग पूरो थतां चाल्या जाय छे एवो कोई पदार्थ नथी आवतो जेनो इन्द्रियोथी अनुभव ज न थई शके. आनुं कारण ए छे के बधा जीव मन सहित छे ॥६८॥

साधारण रीते तो बधा पदार्थोनुं क्रमशः ज भान थाय छे; पण जो कोई वखते [[५५१]] भगवद्‌चिन्तनमां लागेलुं मन विशुद्ध सत्त्वमां स्थिर थई जाय तो एने भगवाननो संसर्ग थवाथी एकी साथे समग्र विश्वनुं पण भान थई शके छे. जेवी रीते राहु रोज जोई शकातो नथी पण प्रकाशात्मक चन्द्रना संसर्गथी देखावा लागे छे ॥६९॥

राजन्‌! ज््यां सुधी गुणोनो परिणाम अने बुद्धि, मन, इन्द्रिय अने शब्दादि विषयोनो सङ्घात आ अनादि लिङ्गदेह मोजूद छे त्यां सुधी जीवमां स्थूल देहना प्रत्ये ‘‘हुं-मारुं’’भावनो अभाव थई शकतो नथी, अहन्ता-ममता मटतीनथी ॥७०॥

सुषुप्ति, मूर्च्छा, महादुःख(पुत्रमरण वगेरे.), मृत्यु अने तीव्र जवरादि वखते इन्द्रियोनी व्याकुळताने लीधे ‘हुं’ अने ‘मारापणा’ नी स्पष्ट प्रतीति थती होती नथी परन्तु ए समये पण एनुं अभिमान तो एमज होय छे ॥७१॥

गर्भमां अने बाळपणमां पण इन्द्रियोनो पूर्ण विकास थयेलो न होवाथी जुवानीमां जेवुं स्थूळ देहाभिमान अगियार इन्द्रियोथी स्पष्ट देखाय छे तेवुं देखातुं नथी. एटले अमावस्यामां जेम चन्द्रमान्नुं बिम्ब होवा छतां पण देखातुं नथी तेम गर्भादिक अवस्थामां स्थूळ देहनुं अभिमान हयात होवा छतां पण देखातुं नथी ॥७२॥

जे प्रमाणे स्वपनमां कोई पण पदार्थ विद्यमान नथी तो पण जाग्या विना स्वपन जनित अनर्थनी निवृत्ति थती नथी ए ज प्रमाणे सांसारिक वस्तुओ जो के असत्‌ छे तो पण अविद्यावश जीव एनुं चिन्तन करे छे तेथी एनो जन्ममरणरूप संसारथी छुटकारो थई शकतो नथी ॥७३॥

पाञ्च तन्मात्रा,१ त्रण गुण,२ अने सोळ३ विकाररूपे विस्तार पामेला लिङ्गदेहमां जे चैतन्य परमात्मानो आभास छे ते जीव कहेवाय छे ॥७४॥

विशेष - १. शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध. २. सत्त्व, रज तम. ३. अगियार इन्द्रियो तथा पाञ्च महाभूत. ए जीव लिङ्गशरीरथी ज केटलाङ्क शरीरने ले छे अने केटलाङ्क शरीरने मूकी दे छे एटले लिङ्गशरीर जे स्थूळ देहने मूकी दे छे ते स्थूळ शरीरनुं मरण थयेलुं कहेवाय छे अने जे बीजा स्थूळ शरीरने ले छे ते स्थूळ शरीरनो जन्म थयो कहेवाय छे. हर्ष, शोक, भय, दुःख अने सुखनो अनुभव पण लिङ्गशरीरने लीधे ज जीवने प्राप्त थाय छे ॥७५॥

[[५५२]] जेम खडमाङ्कडी ज््यां सुधी बीजा खडने न पकडी ले त्यां सुधी पहेला खडने मूकती नथी. तेम मरती वखते पण जीवने ज््यां सुधी पूर्व देहनुं प्रारब्ध पूरुं थईने बीजो स्थूळ देह न मळ्यो होय त्यां सुधी पहेला स्थूळ देहनुं अभिमान मटतुं नथी. राजन आ मनःप्रधान लिङ्ग शरीर ज जीवना जन्म वगेरेनुं कारण छे ॥७६-
७७॥

जीव ज््यारे इन्द्रियोथी भोगवाता भोगोनुं चिन्तन करतां-करतां वारंवार एने जमाटे कर्म करे छे त्यारे ए कर्मो थतां रहेवाथी अविद्यावश ते देहादिना कर्मोमां बन्धाई जायछे ॥७८॥

तेथी ए कर्म बन्धनमान्थी छुटकारो मेळववो होय तो समस्त विश्वने भगवद्रूप जोई सर्वात्मभाव-पूर्वक ए श्रीहरिनुं भजन कर जेनाथी आ विश्वनी उत्पत्ति- स्थिति अने जेमां एनो लय थायछे ॥७९॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे भक्त श्रेष्ठ श्रीनारदमुनिए प्राचीनबर्हिराजाने जीव तथा ईश्वरनां स्वरूपोनो उपदेश कर्यो अने राजानी रजा लई त्यान्थी सिद्ध लोकमां चाल्या गया ॥८०॥

पछी राजर्षि प्राचीनबर्हि प्रजापालननी जवाबदारी पोताना पुत्रोने सोम्पी तप करवा कपिल मुनिना आश्रममां एटले ज््यां गङ्गा अने सागरनो सङ्गम छे त्यां गया ॥८१॥

त्यां ए वीरवरे समस्त विषयोनी आसक्ति छोडी दई एकाग्र मनथी भक्ति पूर्वक श्रीहरिनां चरणकमलोनुं चिन्तन करतां सारूप्य पद प्राप्त कयुम् ॥८२॥

हे निष्पाप विदुरजी! नारदजीए परोक्षरूपथी कहेल आ आत्मज्ञानने जे पुरुष सम्भळावे के साम्भळे ते लिङ्गशरीरथी मुक्त थई जाय छे ॥८३॥

भगवाननी कीर्तिथी त्रिलोकीने पवित्र करनार, अन्तःकरणने शुद्ध करनार, नारदजीना मुखमान्थी नीकळेलुं आ आख्यान जे माणस साम्भळे ते सर्व बन्धनमान्थी छूटी जई आ संसारमां भटके नहि ॥८४॥

अध्यात्मपारोक्ष्यमिदं मयाधिगतमद्भुतम्‌ ॥ एवं स्त्रियाऽऽश्रमः पुंसश्छिन्नोऽमुत्र च संशयः ॥८५॥

गृहस्थाश्रमी पुरञ्जनना रूपकथी परोक्षरूपे कहेल आ अद्‌भुत आत्मज्ञान मने गुरुजीनी कृपाथी प्राप्त थयुं हतुं. एनुं रहस्य समजी लेवाथी बुद्धि युक्त जीवनुं [[५५३]] देहाभिमान निवृत्त थई जाय छे तथा परलोकमां जीव केवी रीते कर्मोनां फळ भोगवे छे ए शङ्का पण मटी जाय छे ॥८५॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थ स्कन्धमां पुरञ्जन उपाख्यानमां (चोथा मोक्षप्रकरणमां मुक्तिनिरूपण नामनो छठ्ठो) ‘‘स्त्रीसङ्गथी जन्ममरण अने प्रभुसङ्गथी मोक्षप्राप्तिए पुरञ्जन पाख्याननुं तात्पर्य’’ नामनो ओगणत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! भागवत भणीने शुं कीधुं? पारसमणिनुं पात्र (भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे

अध्याय ३०

प्रचेताओनां वृक्षनी कन्या साथे लग्न अने राजकार्य

विशेष - आ प्रकारे प्राचीन बर्हिषनी मुक्ति कहेवाई. हवे प्रचेतानो वृत्तान्त कहेवामां आवे छे. आमां पचीसमां अध्यायमां सन्तुष्ट थई प्रकट थयेला प्रभुने शरणे गयेला प्रचेताओने प्राप्त थयेल भगवत्कृपानुं वर्णन छे. पचीसमां अध्यायमां प्रचेताओए करेल तपनी वात अधूरी मूकी मैत्रेये वचमां प्रसङ्गोपात्त प्राचीन बर्हिनी कथा कही. मूळनुं अनुसन्धान सान्धतां ए पूरी थई रहेतां विदुरजी मैत्रेयने पाछी प्रचेताओनी वात पूछे छे. ये त्वयाभिहिता ब्रह्मन्‌ सुताः प्राचीनबर्हिषः। ते रुद्रगीतेन हरिं सिद्धिमापुः प्रतोष्य काम्‌ ॥१॥

विदुरजी पूछे छे - हे मैत्रेय! तमे प्राचीन बर्हिराजाना पुत्र प्रचेताओनी वात कही गया तो एओ भगवानने प्रसन्न करी कई सिद्धि पाम्या? ॥१॥

हे बृहस्पतिना शिष्य! (मैत्रेय मुनि बृहस्पति पासेथी कोई एक विद्या शीख्या हता तेथी तेओ बृहस्पतिना शिष्य कहेवाय छे.) सदाशिव भगवान्‌ नारायणना अत्यन्त प्रिय छे; प्रचेताओ यदृच्छाथी एमने मळी एमनो अनुग्रह पाम्या तो अवश्य एओ मुक्ति तो पाम्या हशे ज, परन्तु मुक्ति थतां पहेलां एमने आ लोक अथवा [[५५४]] परलोकमां शुं प्राप्त थयुं हतुं? ॥२॥

मैत्रेये कह्युं - पितानी आज्ञा पाळनारा प्रचेताओए समुद्रनी अन्दर ऊभा रही रुद्रगीतना जपरूप यज्ञथी तथा तपथी भगवानने प्रसन्न कर्या ॥३॥

तप करतां-करतां दश हजार वर्ष वीती गयां त्यारे पुराण पुरुष नारायण पोतानी कान्तिथी तपस्याथी थयेल एमनो क्लेश शान्त करता सौम्य श्रीविग्रह (श्रीअङ्ग) थी एमनी सामे प्रकट थया ॥४॥

गरुडजीना खभा उपर बिराजमान श्रीभगवान्‌ एवा लागता हता. जाणे सुमेरु पर्वतना शिखर उपर कोई अद्‌भुत श्याम घटा छाई रही होय. आपना श्रीअङ्ग उपर पीताम्बर अने कण्ठमां कौस्तुभमणि सुशोभित हतो. पोतानी अलौकिक आभाथी बधी दिशाओना अन्धकारने दूर करी रह्या हता. सुवर्णनां झाकमझोळ आभूषणोथी एमनां कमनीय कपोल अने मनोहर मुखकमल शोभतां हतां. किरीट दीपी रह्यो हतो. एमणे आठ भुजाओमां आठ आयुध धर्या हतां. पार्षदो, मुनिओ अने देवताओ सेवामां हाजर हता. किन्नरनी पेठे गरुडजी पोतानी साममय पाङ्खोना फडफडाट(शब्द) थी तेमनी कीर्ति गाता हतां. वनमाळानी शोभा पुष्ट अने लाम्बी आठ भुजाओना मध्यमां(वक्षःस्थळमां) रहेली लक्ष्मीनी साथे स्पर्धा करती हती. दया भरेली दृष्टिथी ए आदि पुरुषे श्रीनारायणे पोताने शरणे आवेला प्रचेताओने मेघना नाद सरखी गम्भीर वाणीथी आ प्रमाणे कह्युम् ॥५-
७॥

भगवाने कह्युं - हे राजकुमारो! तमारुं कल्याण थाओ. मारी पासेथी वरदान मागो. स्नेहने लीधे तमे बधा एक ज धर्म पाळो छो; एक बीजा उपरनो तमारो आदर्श स्नेह जोई हुं प्रसन्न थयो छुम् ॥८॥

जे पुरुष प्रतिदिन सवार-साञ्ज तमारुं स्मरण करशे तेनुं भाईओमां आत्मसाम्य तथा प्राणीओमां सौहार्द थशे ॥९॥

साञ्जे अने सवारे सावधान थई जे लोको रुद्रगीतथी मारी स्तुति करशे तेओने हुं मनवाञ्छित वर अने सद्‌बुद्धि आपीश. (त्यारे तमने आपुं एमां तो कहेवुं ज शुं?) ॥१०॥

तमे पितानी आज्ञा खुशीथी माथे चढावी लीधी छे तेथी तमारी पवित्र कीर्ति समस्त लोकमां फेलाई जशे ॥११॥

[[५५५]] तमने एक एवो विख्यात पुत्र (दक्ष नामनो) थशे, जे गुणोमां ब्रह्माना करतां कोई रीते ओछो नहि होय. ए पुत्र पोतानां सन्तानोथी त्रैलोक््यने भरी देशे ॥१२॥

हे राजपुत्रो!* कण्डु ऋषिना सङ्गथी प्रम्लोचा नामनी अप्सराने एक कमळ सरखा नेत्रवाळी पुत्री थई हती, जेने प्रम्लोचाए त्यजी दीधी. तेथी वृक्षोए एने पोतानी पासे राखीछे ॥१३॥

विशेष - तपनो भङ्ग करवा सारु इन्द्रे मोकलेली प्रम्लोचा अप्सरा साथे कण्डु ऋषि घणा काळ सुधी रम्या हता तेमान्थी अप्सराने गर्भ रहेतां ए गर्भने झाड नीचे मूकी गई ए अप्सरा जती रही हती. ए कन्या भूखथी व्याकुळ थई रोती हती त्यारे वृक्षोना अधिपति चन्द्रमाए दया लावीने एना मोढामां पोतानी तर्जनी आङ्गळी के जेमान्थी अमृत झरतुं हतुं ते आपी हती ॥१४॥

तमारा पिता आजकाल मारी भक्ति करवामां लागेला छे. तेमणे तमने प्रजानी सृष्टि करवानी आज्ञा करी छे तो ते आज्ञानो अमल करवा ए *दिव्य-देव सरीखडी कन्यानी साथे तमे जलदी लग्न करी लो ॥१५॥

विशेष - अप्सराना गर्भमान्थी उत्पन्न थई छे अने अमृतनो आहार कर्यो छे तेथी ते कन्या दिव्य छे; एटले अत्यन्त रूपाळी; अने एना शरीरमां दुर्गन्ध, परसेवो वगेरे नथी एम समजवुं. तमे बधा एक ज धर्म अने एक स्वभावना छो तेथी तमारा ज जेवा धर्म अने स्वभाववाळी ते सुन्दर कन्या तमारा बधानी पत्नी थशे अने तमारा बधानी उपर तेनो सरखो ज प्रेम रहेशे ॥१६॥

मारा अनुग्रहथी दस लाख दिव्य वर्ष सुधी तमे सम्पूर्ण बलवान पृथ्वीना तेमज स्वर्गना दिव्य भोगो भोगवशो ॥१७॥

अन्तमां मारी अविचल भक्तिथी हृदयना समस्त वासनारूप मेल बळी जवाथी तमे आ लोकना तथा परलोकना नरक तुल्य भोगोथी उपरत थई मारा परम धाममां जशो ॥१८॥

जे लोकोनां कर्म भगवदर्पण बुद्धिथी थतां रहे छे अने जेमनो बधो ज समय मारी कथावार्तामां ज पसार थाय छे. तेओ ग्रहस्थाश्रममां रहे तो पण घर एमनां [[५५६]] बन्धननां कारण थतां नथी ॥१९॥

तेओ दररोज मारी लीलाओ साम्भळता रहे छे तेथी ब्रह्मवादी वक्ताओद्वारा हुं ज्ञान स्वरूप परब्रह्म एमना हृदयमां नित्य नूतनपणे प्रकट थाउं छुं अने मने प्राप्त करी लीधा पछी जीवोने मोह, शोक अने हर्ष पण थई शकतो नथी ॥२०॥

मैत्रेये कह्युं - भगवाननां दर्शनथी प्रचेताओना रजोगुण-तमोगुणनो मेल धोवाई गयो हतो. ज््यारे एमने बधाय पुरुषार्थोना आश्रय अने अविद्यानो नाश करनार श्रीहरिए आ प्रमाणे कह्युं त्यारे तेओ हाथ जोडी गद्‌गद वाणीथी कहेवा लाग्या ॥२१॥

प्रचेताओ स्तुति करे छे - आप क्लेशने मटाडनार छो, मन अने वचनना वेगथी पण आपनो वेग वधारे (मन के वचन जेने नथी पहोञ्ची शकतां एवां) छे. वेदमां सघळी इन्द्रियोनी वृत्तिओवडे आपनां ज नाम अने गुण गवाय छे; आपने नमस्कार करीए छीए ॥२२॥

आपना स्वरूपमां स्थित रहेता होवाथी आप शुद्ध छो, शान्त छो; मनरूप निमित्तने लीधे अमने आपमां आ मिथ्या द्वैत देखाई रह्युं छे. आपने अमे नमस्कार करीए छीए. वास्तवमां जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलय करवाने मायाना गुणोनो स्वीकार करी आप ब्रह्मा, विष्णु अने महादेव स्वरूप धारण करो छो. अमे आपने नमस्कार करीए छीए ॥२३॥

आप विशुद्ध सत्त्वस्वरूप छो, आपनुं ज्ञान संसार बन्धनने दूर करी दे छे, आप ज समस्त भक्तोना निर्वाहक वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण छो; आपने नमस्कार करीए छीए ॥२४॥

नाभिमां ब्रह्माण्डरूप कमळने धारण करनारा, कमळनी माळा पहेरनारा, कमळ सरखां चरणवाळां कमळ सरखां नेत्रवाळां, कमळतन्तु सरखा पीळां निर्मळ वस्त्रने धारण करनारा, सर्व जगत्‌नां निवासरूप अने साक्षी आप छो; आपने अमे नमीए छीए ॥२५-२६॥

भगवन्‌! आपनुं आ स्वरूप बधा ज क्लेशोने दूर करनारुं छे. अमे (अविद्या, अस्मिता, रागद्वेषादि) क्लेशोमां दुःखी थई रह्या छीए. अमारी सामे आ स्वरूप प्रकट कर्युं एनाथी विशेष कृपा अमारा उपर कई होई शके? ॥२७॥

दुर्भाग्य मात्रनो नाश करनार, दीनदयाळ, दीन-हीन उपर दया करनारा समर्थ [[५५७]] पुरुषोए एटली ज कृपा करवी जोईए के समये-समये ए दीन जनोने ‘‘आ अमारा छे’’ आ प्रमाणे याद कर्या करे ॥२८॥

आथी ज एमना आश्रित जनोनां चित्त शान्त थई जाय छे.(आप तो तुच्छमां तुच्छ प्राणीओना अन्तःकरणमां अन्तर्यामीरूपथी बिराजी रहो छो) तो पछी आपना उपासक अमे जे-जे कामनाओ सेवीए ते कामनाओने आप केम नहि जाणी लो? ॥२९॥

जगदीश्वर! आप मोक्षनो मार्ग देखाडी आपनार अने स्वयं पुरुषार्थरूप छो. आप अमारा उपर प्रसन्न छो. एनाथी वधारे अमारे जोईए शुं? बस अमारुं अभीष्ट वरदान तो आपनी प्रसन्नता ज छे ॥३०॥

तो पण, नाथ, अमे आपनी पासे एक वरदान अवश्य मागी लईए. प्रभो आप प्रकृति आदिथी पर छो अने आपनी विभूतिओनो कोई अन्त नथी तेथी आप ‘अनन्त’ कहेवाओ छो ॥३१॥

जेम अनायासे कल्पवृक्ष मळ्या पछी भमरो कोई बीजा वृक्षने सेवे नहि तेम साक्षात्‌ आपनां चरणारविन्द पामी हवे अमे शुं-शुं मागीए? ॥३२॥

एटलामाटे आपनी पासे अमे आटलुं ज मागीए छीए के आपनी मायाथी घेरायेला अमे ज््यां सुधी अमारां कर्मोने लई आ संसारमां भटकता रहीए त्यां सुधी जन्मो-जन्म आपना उत्तम भक्तोनो अमने समागम थजो ॥३३॥

अमे तो भगवद्‌भक्तोना क्षणभरना सङ्गनी सरखामणीमां स्वर्ग अने मोक्षने पण कंई लेखता ज नथी; तो पछी मनुष्योना भोगोनी तो विसात ज शी? ॥३४॥

भगवद्‌भक्तोना समाजमां सदा सर्वदा भगवाननी मधझरती कथाओ थती रहे छे, जेना श्रवण मात्रथी भोगतृष्णा शान्त थई जाय छे, कोई ज प्रकारना वेरविरोध-उद्वेग त्यां प्राणीओनी पासे फरकता ज नथी ॥३५॥

सुन्दर-सुन्दर कथा प्रसङ्गोद्वारा निष्कामभावथी सन्न्यासीओना एकमात्र आश्रय साक्षात्‌ श्रीनारायण भगवानना गुणगान थतां रहे छे ॥३६॥

एवा आपना भक्तो तीर्थोने पण पवित्र करवाने जगतमां पगपाळा ज फर्या करे छे. एमनो समागम भला संसारथी भयभीत थयेलां पुरुषने केम न गमे? ॥३७॥

[[५५८]] भगवन्‌! आपना लाडीला सखा भगवान्‌ शङ्करना क्षणभरना सत्सङ्गथी ज आज अमने आपनां साक्षात्‌ दर्शन थयां छे. जन्म मरणरूप दुःसाध्य रोगना आप सौथी मोटा निष्णात वैद छो तेथी अमे आपनुं ज शरणं लीधुं छे ॥३८॥

अमे एकाग्र चित्तथी जे कंई अध्ययन कर्युं छे, निरन्तर सेवा-शूश्रुषा करी गुरु, ब्राह्मण अने वृद्धजनोने प्रसन्न कर्या छे तथा दोषबुद्धि छोडी दई श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्‌गण, बन्धुवर्ग अने समस्त प्राणीओने वन्दन कर्युं छे अने अन्नादिक छोडी लाम्बा समय सुधी जलमां ऊभा रही तपस्या करी छे ए बधुं आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तमना सन्तोषनुं कारण हो आ ज वरदान मागीए छीए ॥३९-४०॥

मनु, ब्रह्मा, सदाशिव तथा तप सहित ज्ञानथी शुद्ध अन्तःकरणवाळा बीजा महात्माओ पण आपना महिमानो पार न पामी शकवाथी पण पोतानी बुद्धि पहोञ्चे ते प्रमाणे आपनी स्तुति करता रहे छे. तेथी अमे पण अमारी बुद्धि प्रमाणे आपनां यशोगान करीए छीए ॥४१॥

आप सर्वमां समान, शुद्ध परम पुरुष छो. आप सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेवने अमे नमस्कार करीए छीए ॥४२॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे प्रचेताओए स्तुति करी त्यारे शरणागत उपर प्रीति राखनार भगवाने प्रसन्न थई कह्युं, तथास्तु.प्रचेताओने दर्शन करतां हजु नेत्रने तृप्ति नहि थयेली होवाथी भगवान्‌ त्यान्थी पधारी जाय एवुं इच्छता नहोता तो पण महाप्रतापी भगवान्‌ पोताना धाममां पधारी गया ॥४३॥

पछी प्रचेताओए समुद्रना जळमान्थी बहार नीकळी जोयुं तो वृक्षो जाणे आकाशनो मार्ग रोकी देवा सारुं ज ऊञ्चा थयां होय एवां जणातां हताम् ॥४४॥

वृक्षोथी पृथ्वीने ढङ्काई गयेली *जोई एमने वृक्षो उपर भारे क्रोध उत्पन्न थयो. ए क्रोधने लीधे प्रलयमां कालाग्नि रुद्रनी पेठे पृथ्वीने झाड वगरनी करी नाखवामाटे प्रचेताओए पोताना मुखमान्थी अग्नि अने पवन छोड्याम् ॥४५॥

विशेष - आ वखते प्राचीनबर्हि राजा वनमां जवाथी कोई पृथ्वी उपर राजा रह्यो न हतो; तेथी खेड वगेरे बन्ध पडी जवाने लीधे आखी धरती झाडथी ढङ्काई गई हती. ए अग्निथी सघळां वृक्षोने बळी जतां जोई ब्रह्माजी त्यां आव्या अने एमणे नीतिनां वचनोथी प्रचेताओने शान्तकर्या ॥४६॥

ए अग्निथी जे कंई वृक्षो बची गयां तेमणे प्रचेताओनी बीकथी अने [[५५९]] ब्रह्माजीना कहेवाथी पोतानी कन्या लावी प्रचेताओने आपी. प्रचेताओ ब्रह्माजीनी आज्ञाथी ए उत्तम कन्याने परण्या ॥४७॥

प्रचेताओए पण ब्रह्माजीनी आज्ञाथी ए मारीषा नामनी कन्या साथे लग्न करी लीधुं. एना गर्भथी ब्रह्माजीना पुत्र दक्षे, श्रीमहादेवजीना तिरस्कारने कारणे पोतानुं पहेलान्नु शरीर छोडी दई, जन्म लीधो ॥४८॥

चाक्षुष मन्वन्तर आवतां आ ज दक्षे, ज््यारे कालक्रमथी पहेलान्नी सृष्टि नाश पामी त्यारे भगवाननी प्रेरणाथी इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न करी ॥४९॥

जन्मतावेन्त ज ए दक्षे पोतानी कान्तिथी तेजस्वी पुरुषोनां तेज हरी लीधां. ए कर्म करवामां बहु दक्ष (प्रवीण) हता एथी ज एमनुं नाम दक्ष थयुम् ॥५०॥

तं प्रजासर्गरक्षायामनादिरभिषिच्य च ॥ युयोज युयुजेऽन्यांश्च स वै सर्वप्रजापतीन्‌ ॥५१॥

ब्रह्माजीए ए दक्षनो प्रजापतिओना अध्यक्षपदे अभिषेक करी सृष्टिनी रक्षामाटे निमणूक करी अने तेणे मरीचि वगेरे बीजा प्रजापतिओनी ते-ते कार्यमाटे निमणूक करी ॥५१॥

इति श्रीभागवत चतुर्थस्कन्धमां प्रचेतसोपाख्यानमां (चोथा मोक्षप्रकरणमां भगवत्प्रसाद नामनो सातमो) ‘‘प्रचेताओनां वृक्षनी कन्या साथे लग्न अने राजकार्य’’नामनो त्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.

अध्याय ३१

नारदजीना उपदेशथी प्रचेताओनो मोक्ष अने दक्षने राज्यप्राप्ति

विशेष - आ एकवीसमां अध्यायमां राज्यनुं काम दक्षने सोम्पी वनमां गयेला प्रचेताओने नारदजीए कहेला मार्गथी मुक्ति थयानी कथा कहेवामां आवशे. तत उत्पन्नविज्ञाना आश्वधोक्षजभाषितम्‌। स्मरन्त आत्मजे भार्या विसृज्य प्राव्रजन्‌ गृहात्‌ ॥१॥

मैत्रेये कह्युं - संसारमां सुख भोगवतां दस लाख वर्ष थई गया पछी [[५६०]] प्रचेताओमां विवेक जाग्यो अने एमने भगवाने कहेली वातनुं स्मरण थयुं तेथी पोतानी भार्या मारीषा पुत्रने सोम्पी एओ जलदी घरनो त्याग करी नीकळी पड्या ॥१॥

एओ पश्चिम दिशामां समुद्रकिनारे ज््यां जाजलि ऋषिए सिद्धि मेळवी हती त्यां गया अने जेनाथी ‘‘सर्व भूतोमां एकज आत्मतत्त्व बिराजमान छे’’ एवुं ज्ञान थाय छेते आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्रनो सङ्कल्प करी पलाण्ठी मारी बेसी गया ॥२॥

प्राण, मन, वाणी अने दृष्टिने वश करी दृढ आसन करी तथा शरीरने निश्रेष्ट- स्थिर अने सीधुं राखी विशुद्ध परब्रह्ममां चित्त लगाडी बेठा हता. आवी स्थितिमां तेमणे देवता अने असुर बन्नेना वन्दनीय श्रीनारदजीने जोया ॥३॥

नारदमुनिने पधारेला जोई एओ ऊभा थई गया अने प्रणाम करी आदरसत्कार करी एमनी देश कालानुसार विधिवत्‌ पूजा करी. ज््यारे नारदजी सुखपूर्वक बेसी गया त्यारे तेओ कहेवा लाग्या ॥४॥

प्रचेताओ कहे छे - हे देवर्षे! आपनुं अमे स्वागत करीए छीए, आज महान भाग्यथी अमने आपनुं दर्शन थयुं. ब्रह्मन्‌ सूर्यनी पेठे आप पण जगतनो भय मटाडवाने माटे फरोछो ॥५॥

पूज्य सदाशिवे तथा विष्णुए अमने जे ज्ञान आपेलुं ते गृहस्थीमां आसक्त रहेवाथी अमे प्रायः भूली गया छीए ॥६॥

तेथी आप अमारा हृदयमां ते परमार्थतत्त्वनो साक्षात्कार करावनार अध्यात्मज्ञानने फरी प्रकाशित करी देवानी कृपा करो. जेथी अमे आ दुस्तर भवसागरने अनायासथी तरी जईए ॥७॥

मैत्रेये कह्युं - भगवन्मय श्रीनारदजीनुं मन सर्वदा भगवान्‌ श्रीकृष्णमां ज लागेलुं होय छे. प्रचेताओए आ प्रमाणे पूछ्‌युं त्यारे तेओ तेमने कहेवा लाग्या ॥८॥

आ लोकमां मनुष्यना ते ज जन्म, ते ज कर्म, ते ज आयु, ते ज मन अने ते ज वाणी सफल छे जेनाद्वारा सर्वात्मा, सर्वेश्वर, श्रीहरिनुं सेवन करवामां आवे छे ॥९॥

जेमनाद्वारा पोताना स्वरूपनो साक्षात्कार करावी देवावाळा श्रीहरिने प्राप्त न [[५६१]] करी शकाय ए माता-पितानी पवित्रता (शौकल जन्म) थी,१ यज्ञोपवीत संस्कार (सावित्र जन्म) थी२ अने यज्ञदीक्षाथी प्राप्त थनारा (याज्ञिक)३ ए त्रण प्रकारना श्रेष्ठ जन्मोथी, वेदोक्त कर्मोथी, देवताओना जेवा दीर्घ आयुष्यथी, शास्त्रज्ञानथी, तपथी, वाणीनी चतुराईथी अनेक जातनी वातो याद राखी शकवानी शक्तिथी, तीव्र बुद्धिथी, बलथी, इन्द्रियोनी चतुराईथी, योगथी, साङ्ख्य ज्ञान(आत्मा-अनात्म विवेक) थी,४ सन्न्यास अने वेदोना अभ्यासथी तथा व्रत-वैराग्यादि कल्याणनां बीजां साधनोथी पण पुरुषने शुं लाभ थवानो छे? ॥१०-१२॥

विशेषः १. शुद्ध माता-पिताथी जे जन्म थाय ते शौकल जन्म कहेवायछे.
२. जनोई देवाथी जे बीजो जन्म थयो मनाय छे ते सावित्र जन्म कहेवाय छे.
३. यज्ञनी दीक्षा लेवाथी जे त्रीजो जन्म थयो गणाय छे ते याज्ञिक जन्म समजवो.
४. जड पदार्थोथी आत्मा जुदो छे एम समजवुं. ए साङ्ख्य ज्ञान कहेवाय छे. जो के आ ज्ञान उत्तम छे तो पण जे आत्मा छे ते ब्रह्म छे एम जाण्या विना ते रद छे. वास्तवमां समस्त कल्याणोनी अवधि आत्मा ज छे अने आत्मज्ञान प्रदान करवावाळा श्रीहरि ज तमाम प्राणीओना प्रिय आत्मा* छे ॥१३॥

विशेष - वेदमां लख्युं छे के ‘‘न जायायाः कामाय जाया प्रिया भवति किन्तु आत्मनः कामाय जाया प्रिया भवति’’ स्त्रीने राजी राखवा सारु स्त्री उपर प्रेम थतो नथी. पण आत्माने राजी राखवा सारु स्त्री उपर प्रेम थाय छे. ए प्रमाणे ज पुत्र के धन वगेरेने राजी राखवा सारु एओना उपर प्रेम थतो नथी पण आत्माने राजी राखवा सारुं एओना उपर प्रेम थाय छे इत्यादि. जेम झाडना मूळने पाणी पावाथी एनां थड, शाखा, उपशाखा, फूल, पान्दडां वगेरे तृप्त थाय छे अने जेम प्राणने भोजन आपवाथी सघळी इन्द्रियोने तृप्ति मळे छे तेम भगवाननुं पूजन ए ज बधानुं पूजन छे ॥१४॥

सर्वनुं मूळ भगवान्‌ ज छे. जेम वर्षाऋतुमां पाछुं सूर्यना तापथी उत्पन्न थाय छे अने ग्रीष्म ऋतुमां पाछुं सूर्यना किरणोमां ज प्रवेश करी जाय छे; जेम स्थावर जङ्गम पदार्थो पृथ्वीमान्थी पेदा थाय छे अने पाछा पृथ्वीमां ज लय पामे छे. तेवी रीते चेतन-अचेतनात्मक आ जगत्‌ भगवान्‌मान्थी उत्पन्न थयुं छे अने भगवान्‌माञ्ज लय पामे छे ॥१५॥

साचुं पूछो तो आ विश्वात्मा श्रीभगवाननुं ते शास्त्र प्रसिद्ध सर्व उपाधि रहित [[५६२]] स्वरूप ज छे. जेवी रीते सूर्यनो प्रकाश तेनाथी जुदो नथी होतो तेवी ज रीते क््यारेक- क््यारेक गन्धर्वनगरनी माफक जणातुं आ जगत्‌ भगवान्‌थी जुदुं नथी; तथा जेवी रीते जाग्रत अवस्थामां इन्द्रियो क्रियाशील रहे छे पण निद्रामां एमनी शक्तिओ लीन थई जाय छे ते ज प्रमाणे आ जगत्‌ सर्ग समये भगवान्‌मान्थी प्रकट थई जाय छे अने कल्प (ब्रह्माजीनो दिवस) नो अन्त थतां तेमां ज लीन थई जाय छे. स्वरूपतः तो भगवान्‌मां द्रव्य, क्रिया अने ज्ञानरूपी त्रिविध अहङ्कारनां कार्योनी तथा तेमनाथी नीपजता भेदभ्रमनी हयाती छे ज नहि ॥१६॥

नृपतिगण, जेवी रीते वादळ, अन्धकार अने प्रकाश ए क्रमशः आकाशथी प्रकट थाय छे अने एमां ज लीन थई जाय छे; पण आकाश एनाथी लिप्त थतुं नथी ते ज प्रमाणे आ१ सत्त्व, रज२ अने तमोमयी३ शक्तिओ क््यारेक परब्रह्मथी उत्पन्न थाय छे अने क््यारेक एमां ज लीन थई जाय छे. आ ज प्रमाणे एमनो प्रवाह चालतो रहे छे; पण एनाथी आकाशनी माफक असङ्ग परमात्मामां कंई विकार थतो नथी ॥१७॥

विशेष - १. सत्त्वगुणथी जगतनी स्थिति रहे छे. २. रजोगुणथी जगतनी सृष्टि थाय छे.
३. तमोगुणथी जगतनो प्रलय थाय छे. तेथी तमे ब्रह्मादि बधा लोकपालोना पण अधीश्वर श्रीहरिने पोतानाथी जुदा नथी एम मानीने नीडर थईने भजो, कारण के ते ज समस्त देहधारीओना एक मात्र आत्मा छे. ते ज जगतनुं निमित्त कारण काळ, उपादान कारण प्रधान अने नियन्ता पुरुषोत्तम छे तथा पोतानी काळशक्तिथी ते ज आ गुणोना प्रवाहरूप प्रपञ्चनो संहार करी नाखे छे ॥१८॥

सर्व प्राणीओ उपर दया राखवाथी, जे कांई मळे तेमां सन्तोष मानवाथी अने सर्व इन्द्रियोने विषयोमां जती रोकी शान्त करवाथी भक्तवत्सल भगवान्‌ तरत ज प्रसन्न थाय छे ॥१९॥

लोकनी पूजानी अने धननी तृष्णा मरी जतां निर्मळ थयेला अन्तःकरणमां निरन्तर वधती जती भक्तिथी बोलवेला भगवान्‌ भक्तोना हृदयमान्थी हृदयना आकाशनी पेठे हटता नथी ॥२०॥

भगवानने ज धनरूप माननारा निर्धन भक्तो उपर ज भगवान्‌ प्रेम राखे छे केमके ए परम रसज्ञ छे. ए अकिञ्चन भक्तोनी अनन्य अहैतुकी भक्तिमां केटली [[५६३]] मधुरप-मीठाश छे एने प्रभु बराबर जाणे छे. जेओ शास्त्राभ्यास धन, कुळ अने कर्मना अभिमानथी निष्किञ्चन महात्मा पुरुषोनो तिरस्कार करे छे तेवा दुर्बुद्धिवाळा लोकोनी पूजानो तो भगवान्‌ स्वीकार ज करता नथी ॥२१॥

भगवान्‌ स्वरूपानन्दथी ज परिपूर्ण छे. एमने पोतानी सेवामां निरन्तर रहेवावाळां लक्ष्मीजी तथा तेनी इच्छा करनारा राजाओ अने देवताओनी पण कंई ज परवा नथी. आम होवा छतां ते पोताना भक्तोने तो अधीन ज रहे छे. ओहो! एवा दरियादिल-दया सागर-श्रीहरिने कोई पण कृतज्ञ पुरुष थोडो समयमाटे पण केम विसारी शके? ॥२२॥

मैत्रेये कह्युं - ए प्रमाणे ब्रह्माजीना पुत्र नारद मुनि प्रचेताओने ध्रुवनां चरित्र तेमज बीजी घणी-घणी भगवद्‌वार्ता श्रवण करावी ब्रह्मलोकमां गया ॥२३॥

नारदजीना मुखथी सम्पूर्ण जगतनां पापरूपी मलने दूर करनारी भगवाननी कीर्ति साम्भळी प्रचेताओ पण भगवानना चरणनुं ध्यान करता भगवद्‌ धामने पामी गया ॥२४॥

हे विदुरजी! प्रचेताओ तेमज नारदजीना भगवत्‌ कथा सम्बन्धी संवादरूप आ आख्यान तमे मने पूछ्‌युं हतुं ते में तमने कही सम्भळाव्युम् ॥२५॥

शुकदेवजीए परीक्षित राजाने कह्यु ंः हे राजाओमां उत्तम! अर्ही सुधी स्वायम्भुव मनुना पुत्र उत्तानपाद राजाना वंशनुं वर्णन थयुं. हवे प्रियव्रत राजानो वंश पण साम्भळो ॥२६॥

प्रियव्रत राजाए नारदजी पासेथी ब्रह्मविद्या प्राप्त कर्या पछी पण पृथ्वीनुं राज्य कर्युं हतुं अने अन्ते ए पृथ्वी दीकराओमां वहेञ्ची आपी ईश्वरनुं परमधाम पाम्या ॥२७॥

मैत्रेय मुनिए कहेली भगवानना चरित्रनी पवित्र कथा साम्भळी विदुरजी प्रेममग्न थई गया. भक्तिभाव आखा शरीरमां व्यापी जवा छतां न समावाथी छलकाई जई नेत्रोद्वारा आंसुरूपे ददडवा लाग्यो. हृदयमां भगवानना चरणारविन्दनुं चिन्तन करता विदुरजीए पोतानुं मस्तक मुनिवर मैत्रेयजीना चरणोमां ढाळी दीधुं ॥२८॥

विदुरजीए कह्युं - हे महायोगिन्‌! करुणा करीने आजे आपे मने अज्ञान- अन्धकारने सामे पार उतारी दीधो छे ज््यां निःसाधन भक्तो ज जेने पामी शके [[५६४]] एवा श्रीहरि बिराजी रह्या छे ॥२९॥

शुकदेवजीए कह्युं - ए प्रमाणे विदुरजीने अन्तःकरणमां शान्ति वळी. पछी एमणे मैत्रेय मुनिने प्रणाम कर्या अने एमनी आज्ञा लई पोताना सम्बन्धीओने मळवा हस्तिनापुर गया ॥३०॥

एतद्यः शृणुयाद्राजन्‌ राज्ञां हर्यर्पितात्मनाम्‌ ॥ आयुर्धनं यशः स्वस्ति गतिमैश्वर्यमापनुयात्‌ ॥३१॥

आ भगवान्‌मां ज मन राखनार राजाओनुं चरित्र जे माणस साम्भळे तेने आयुष्य, धन अने कल्याण मळे अने सारी रीते ऐश्वर्यनी प्राप्ति थाय ॥३१॥

इति श्रीभागवत्‌ चतुर्थस्कन्धमां प्रचेतसोपाख्यानमां (चोथा मोक्षप्रकरणनो ‘‘प्रचेताओना फळनुं निरूपण’’ नामनो आठमो) ‘‘नारदजीना उपदेशथी प्रचेताओनो मोक्ष अने दक्षने राज्य प्राप्ति’’ नामनो एकत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चतुर्थस्कन्ध सम्पूर्ण जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? एवुं करे त्यारे तो सेवा-कथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवाकथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोक ज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति) [[१]] पञ्चमस्कन्ध स्थानलीला अध्याय २६ रूढअर्थ-प्रथमपक्ष प्रकरण.१ प्रकृतपदार्थोनो जय प्रकरण.२ आत्मानो जय अध्याय १-२४ जीव अ.२५ ब्रह्म अ.२६ पञ्चमस्कन्ध अध्यायनी सङ्ख्यामां यौगिकार्थ; द्वितीयपक्ष देश काल स्व (आत्मा) भूः भुवः स्वः जीवात्मा परमात्मा
१२ मास ५ ऋतु ३ लोक १ आदित्य अध्याय-१,२ पञ्चमस्कन्ध स्थान स्वरूपस्थिति देशस्थिति भगवानथी योगथी ज्ञानथी प्रकरण१ प्रकरण१ प्रकरण३ अ.१-६ अ.७-१४ अ.१५ भूः भुवः स्वः प्रकरण ४ प्रकरण ५ प्रकरण ६ अ.१६-२० अ.२१-२३ अ.२४-२६ जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? (प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) एवुं करे त्यारे तो सेवा-कथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवा-कथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोक ज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पणज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)

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