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२०० तृतीयस्कन्ध तृतीयस्कन्ध सर्गलीला (वाम बाहु) प्रथम अधिकार प्रकरण
अध्याय १
बदरिकाश्रम तरफ जता उद्धवजीने गङ्गाजी पर विदुरजीनो मेळाप
विशेष - तृतीयस्कन्धथी लईने द्वादश स्कन्ध सुधी सर्गादि दशविध लीलानुं वर्णन क्रमथी
कहेवाशे. तृतीय स्कन्धमां ३३ अध्यायवडे अभिप्राय अने एमां रहेला विशेषनी साथे
भगवाननी सर्गलीलानुं वर्णन कहेवाशे. एनाथी भगवानना माहात्म्यनुं सूचन थाय छे.
लोकमां कहेवाय छे तेवा सर्ग-विसर्ग अर्ही नथी. अर्ही तो बन्ने भगवल्लीलारूपी छे.
भूत (पञ्च महाभूतो), मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध अने रस) इन्द्रियो (ज्ञानेन्द्रियो अने
कर्मेन्द्रियो) अने बुद्धि नो जन्म एनुं नाम ‘सर्ग’. ब्रह्म ज्यारे गुणक्षोभवडे विषयताने पामे
छे त्यारे सर्ग थाय छे.
३३ अध्याय आ रीते थया - ५ भूत, ५ मात्रा, १० इन्द्रियो, ४ बुद्धि, ३ गुण अने
१ ब्रह्म एम २८ तत्त्वोनो सर्ग कहेवाय. सर्ग बे प्रकारना छे - प्रत्येक सर्ग अने समुदाय सर्ग.
सर्गनी चार प्रकारनी विषयता छे. ए गुणो समुदायथी विषय छे. प्रत्येक विषय पण होवाथी
२८+४+१ एम तेत्रीस के चोत्रीस भेदथी तेत्रीस अध्यायनी सङ्ख्या छे. एवुं तात्पर्य
जाणवुं.
अर्ही सर्गमां बे अर्थो विवक्षित छे -
१. एक सर्ग ब्रह्मथी थाय छे
२. बीजो सर्ग ब्रह्ममाटे थाय छे.
जे सर्ग ब्रह्मथी थाय छे तेमां भूत, मात्रा, इन्द्रियो अने धी ए सत्वादि गुण त्रण
प्रकारना होवाथी एना वर्णननां बार अध्याय छे; एमां तद्युक्तरूप ब्रह्मनुं वर्णन छे. गुणनी
विषमताना वर्णनमां छ अध्याय छे. जो कर्मादि मार्गनुं फळ स्थिर होय तो अर्ही सर्गनी जरूर
ज नथी. तेथी सर्ग लीला थवी ज न जोईए. ए लीला तो अर्ही थाय छे. तेथी कर्म, ज्ञान
अने भक्तिनी प्रणालीनुं वर्णन छे. एमां कामथी कर्मनो नाश थाय छे ए बताववा कश्यपनुं
उदाहरण, क्रोधथी ज्ञाननो नाश थाय छे ए बताववा सनकादिनुं उदाहरण, ऐश्वर्य अथवाअध्याय-१, तृतीयस्कन्ध २०१
लोभ थी भक्तिनो नाश थाय छे ए बताववा जय-विजय नुं उदाहरण आप्युं छे एम
समजवुं. ए पछी एक अध्यायथी गुणनी विषमतानुं वर्णन छे. एनी त्रण सङ्ख्या मळी १९
अध्याय थया, आ भगवत्कर्तृक सर्गना समजवा.
भगवानने माटेनो सर्ग एनुं वर्णन १४ अध्यायथी छे. एमां भगवानने भोग सिद्ध
करवामाटेनो एक, भगवानने देहथी भोग करवामाटे गुणनी विषयताथी भूतादि चारना जन्मना
वर्णनमाटे चार अने नव अध्यायथी त्रण गुणोनुं वर्णन अने १४ अध्याय भगवदर्थक सर्गना
छे.
अर्ही कथामां अधिकार तो चार अध्यायथी छे. बाकीना अध्याय एना साधनरूप समजवा.
उत्तम अधिकारी होय तो ए मात्र एक लीला साम्भळे तो पण कृतार्थ थाय तो पछी
दश लीला साम्भळनार थाय एमां तो शुं कहेवुं? ए जणाववा ज विदुरजीनी कथा
कहेवामां आवी छे. ए अधिकारमां प्रथम अध्यायमां संस्कृत भूतथी विशिष्ट देह कारण छे.
एमां संस्कृत भूतो त्रण छे. वायु अने आकाशने संस्कारनी अपेक्षा नथी. त्रण प्रकार अगर
विरजा होमना मन्त्रथी वायु तथा आकाशने पण शुद्ध करवानी प्रार्थना छे तेथी पाञ्च तीर्थसर्ग
अने गुणस्मृतिथी पाञ्च प्रकारना कहेवामां आव्या छे. एमां भक्तने भगवत्कथा ए तीर्थरूप
समजवी. जेम मर्यादा मार्गमां शूद्रने देहपात प्राप्त थाय पछी उत्तम देह प्राप्त थाय त्यारे
वेदाधिकारादि प्राप्त थाय छे तेम अर्ही भागवत्शास्त्रमां आवश्यकता नथी. भक्तिना सर्व
अधिकारी छे. संस्कार मात्रथी ए शुद्ध थई शके छे.
तृतीय स्कन्धमां ३३ अध्याय छे, तेमां छ प्रकरण छे. एनो क्रम आ प्रमाणे छेः
१अधिकार, चार अध्याय; २गुणातीत प्रकरण, बे अध्याय; ३सगुण प्रकरण, त्रण अध्याय;
४काळ प्रकरण, बे अध्याय; ५जीव प्रकरण, नव अध्याय; ६तत्त्व प्रकरण, चार अध्यायथी
पुरुषमुक्ति अने नव अध्यायथी स्त्रीमुक्ति.
एवमेतत् पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ॥
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्धिमत् ॥१॥
शुकदेवजीए कह्युं - ज्यारे विदुरजीए पोतानुं समृद्धिवाळुं घर छोडीने वनमां प्रवेश कर्यो त्यारे एमणे ए प्रश्न भगवान् मैत्रेयने पूछेलो ॥१॥
ए तो ज्यारे पाण्डवोनुं समाधान करवाने भगवान् हस्तिनापुर पधारेला त्यारे राजा दुर्योधनना घरने छोडीने विदुरजीना घरने पोतानुं घर मानी एमां पोते बिराजेला; आवा लायक घरने ज्यारे एमां भगवान् बिराजता नहोता त्यारे२०२ अध्याय-१, तृतीयस्कन्ध छोडी दीधुम् ॥२॥
राजा परिक्षिते पूछ्युं - मैत्रेय साथे विदुरजीनो मेळाप कयां थयेलो? एमनी साथे आ बाबतनी वातचीत कयारे थयेली? हे प्रभो! ए बधुं मने कहो ॥३॥
पवित्र मनवाळा विदुरजीनो आ उत्कर्ष जेवो तेवो न कहेवाय. ज्ञानीओमां श्रेष्ठ एवा मैत्रेय मुनिने आवो प्रश्न करवामाटे आपणे एमना जेटलां वखाण करीए तेटलां ओछा कहेवाय ॥४॥
सुते कह्युं - ज्यारे राजा परीक्षिते ऋषिओमां श्रेष्ठ एवा श्रीशुकदेवजीने पूछ्युं. त्यारे बहु जाणनारा शुकदेवजी परीक्षित राजा उपर प्रसन्न थई तेने कहेवा लाग्या के न साम्भळो ॥५॥
शुकदेवजी बोल्या - राजा धृतराष्ट्र* पोते अन्ध होवाथी ए पोताना अधर्मवडे पुत्रोने पोषवा लाग्या ए पुत्रोए भाई पाण्डुना पुत्रो के जेमना पिता गत थया छे तेमने लाक्षाभवनमां प्रवेश करावी बाळी मूक््या ॥६॥
विशेष - अर्ही शुकदेवजी विदुरजीने घर छोडवानुं कारण दस श्लोकथी कहे छे. चार श्लोकथी ए कौरवोना अपराधनुं वर्णन करे छे. एक श्लोकथी विदुरजी धृतराष्ट्रनो समागम कहे छे. त्रण श्लोकथी एनी विचारणा कहे छे. बीजा श्लोकमां विदुरजीने जीवतां नीकळी जवानुं दुर्योधन वर्णन करे छे. एम दशश्लोकीनुं तात्पर्य छे. एमां धर्मशास्त्र विरुद्ध, लोकशास्त्र विरुद्ध, नीतिविरुद्ध अने ईश्वरवचननुं उल्लङ्घन ए अपराधो छे. जो के धृतराष्ट्र नथी बोल्या, पण दुर्योधन बोल्यो तेने रोक््यो नहि तेथी ‘अप्रतिषिद्धम् अनुमतं भवति’ (रोकवामां न आवे तो ए कबूलात छे) ए न्यायथी धृतराष्ट्र अपराधी थया. एना पुत्रो कुरुदेव युधिष्ठिरनी राणी द्रौपदीने भर सभामां केश खेचीने लाव्या. अने जो के धृतराष्ट्रे पोतानी ए पुत्रवधुना नेत्रमान्थी आंसु चाल्यां जतां हतां अने एमना कुच उपर पडतां एना उपरनुं कुचकुङ्कुम धोवाई जतुं हतुं एवी हालतमां एने जोई तो पण आवुं अधम, कृत्य करतां एणे पोताना पुत्रोने अटकाव्या नहि ॥७॥
युधिष्ठिर वगेरे सज्जनो छे. ए बधाने अधर्म्य द्युतथी जीतीने वनमां मोकल्या. समय थतां एओए घेर पाछा आवी पोतानो भाग माग्यो. एमने एवो भाग माङ्गवानो हक हतो, छतां युधिष्ठिरने मोहथी वश थयेला धृतराष्ट्रे भाग आप्यो नहि ॥८॥
पाण्डवोए जगद्गुरु श्रीकृष्णने समाधानमाटे मोकल्या. श्रीकृष्ण सभामां आवीअध्याय-१, तृतीयस्कन्ध २०३ धृतराष्ट्र पासे अमृतरूप वचनो बोल्या छतां जेनुं पुण्य क्षीण थई गयुं छे तेवा ए धृतराष्ट्रे, ‘‘आप कहो छो ते उत्तम छे’’ एवुं बोली वचनमात्रथी पण मान आप्युं नहि ॥९॥
पछी मोटा भाई धृतराष्ट्रे विदुरने बोलाव्या अने पाण्डवोनुं शुं करवो ए विशे पूछ्युं त्यारे विचारकोमां श्रेष्ठ एवा विदुरे जे वाक््य कह्यां ते आजे पण ‘विदुरनीति’ एवा नामथी प्रसिद्ध छे ॥१०॥
एणे कह्युं के आजातशत्रु युधिष्ठिरनो तमे न सहन थई शके तेवो अपराध कर्यो छे. एने एनो भाग पाछो आपो कारण के अत्यन्त भयङ्कर अने क्रोधथी फूम्फाडा मारतो वृकोदर रूप सर्प जेनाथी तुं बहु डरे छे ते एमना नानाभाईओनी साथे छे ॥११॥
एटलुं ज नहि पण बधा राजाओना मूर्धन्य एवा मुकुन्द भगवानने पाण्डवोए पोताना कर्या छे ते बधा राजाओने जीतीने भक्तनी पुरीमाञ्ज बिराजे छे ॥१२॥
तमारो पुत्र आ दुर्योधन जे भगवाननो द्वेष करे छे ते तमारा घरमां पुत्ररूपे शत्रु आवीने रहेलो छे. ए श्रीकृष्णथी विमुख छे. आम छतां तमे पुत्रबुद्धिथी एनुं पोषण करो छो. जो तमारे तमारां कुळनुं कुशळ इच्छवुं होय तो एने तत्काल छोडी दो ॥१३॥
विदुरजीए ज्यारे उपर प्रमाणे कह्युं त्यारे दुर्योधनना होठ कोपथी फफडवा मण्ड्या अने कर्ण, दुःशासन तथा सुबल ना पुत्र शकुनि सहित एणे जेनुं शील सत्पुरुषने इच्छा करवा लायक छे तेवा विदुरजीने अनादरपूर्वक आ प्रमाणे कह्युम् ॥१४॥
‘‘आ कुटिल दासीना पुत्रने अर्ही बोलाव्यो छे कोणे? जेनुं खाईने ए पुष्ट थयो छे तेनाथी ए विरुद्ध चाले छे अने शत्रुनुं काम करे छे माटे एने जीवतो शहेरमान्थी काढी मूको’’ ॥१५॥
उपर प्रमाणेना अति तीक्ष्ण बाण जेवा दस वाक््य दस प्राणमां भाईनी समक्ष मार्या तो पण एना भाई धृतराष्ट्र कांई पण बोल्या नहि त्यारे मायाना बळने अधिक मानी एमणे मनमान्थी दुःखने दूर कर्युं अने पोताना धनुषने द्वारमां मूकी विदुरजी त्यान्थी चाली नीकळ्या ॥१६॥
खरुं जोतां तो ए विदुरजी कौरवोना पुण्यथी ज कौरवकुळमां आव्यां छे. ए२०४ अध्याय-१, तृतीयस्कन्ध पुण्यने साथे लईने ए हस्तिनापुरथी नीकळ्या अने भगवानना चरणरूप तीर्थो के ज्यां भगवान् हजारो स्वरूपवडे बिराजे छे तेवा स्थळोमां पुण्य करवानी इच्छाथी ए विदुरजी पृथ्वीमां फरवा लाग्या ॥१७॥
नगरोमां, पवित्र उपवननी कुञ्जोमां, पर्वतोमां, कादव वगरना जळवाळा तळाव अने नदीओमां, ज्यां-ज्यां अनन्त भगवाननी मूर्तिवाळां देवालय छे त्यां तीर्थोमां विदूरजी एकला विचरवा लाग्या ॥१८॥
पवित्र रीते एकान्तमां रहेवा लाग्या. सदा स्नान करता, नीचे भोंय उपर शयन करता कोई पोताना पण न जाणी शके तेवा अवधूतवेशमां रही भगवानने प्रसन्न* करे तेवां व्रते फरवा लाग्या ॥१९॥
विशेष - अर्ही आ प्रमाणे क्रम छे. भगवानने शोधवामाटे प्रथम घर छोडी फरवुं, पछी आन्तर अने बाह्य नियमो पाळवा तेथी उत्तम व्रतो करवां, पवित्र एकान्त स्थानमां प्रभुना ध्यानने माटे रहेवुं, एक दिवसने अन्तरे आहार करवा वगेरे जीविका करवी, त्रण वखत स्नान करवुं. पृथ्वी उपर शयन करवुं, अभ्यङ्गादिनो त्याग करवो, प्रतिबन्ध निवृत्तिनेमाटे अवधूतवेश करवो, चार व्रतो भगवानने प्रसन्न करनार छे. एकादशीनो उपवास, सर्वप्राणी उपर दया, जे मळे तेमां सन्तोष तथा सर्व इन्द्रियोने नियममां राखवी ए चार व्रतथी भगवान् प्रसन्न थाय छे. एवी रीते ज्यारे भारतवर्षमां फरतां-फरतां काळे करीने ए प्रभासमां आव्यां त्यारे पृथ्वी उपर एक चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर राज्य करतां हता ॥२०॥
त्यां एमणे साभळ्युं के बधा सुहृदो नाश पाम्या छे. जेम वांसनुं वन पवनथी परस्पर घसातां अन्दरथी अग्नि उत्पन्न करी पछी एनाथी ज नाश पामे तेम स्पर्धाथी सुहृदोनो नाश थयो छे. एवुं साम्भळी शोक करता विदुरजी सरस्वती नदी उपर चूपचाप आव्या ॥२१॥
त्यां त्रित, शुक्र, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु अने सुदास ना तथा गोसत्र अने कार्तिकस्वामी तथा वैवस्वतमनुनां तीर्थोनुं एमणे सेवन कर्यु ॥२२॥
ब्राह्मणो अने देवताओए करेलां अनेक प्रकारनां विष्णुनां देवालयो, जेमां सुदर्शनादि आयुधोनां चिह्न छे तेमां देवालयोमां पण श्रीकृष्णनुं स्मरण करतां विदुरजीए सेवन कर्यु ॥२३॥
एवी रीते तीर्थ करतां-करतां भगवानना बिराजवाथी समृद्ध थयेला सुराष्ट्र,सौवीर, मत्स्य, कुरु-जाङ्गलदेश वगेरेनां तीर्थोमां फरतां-फरतां योग्य समये ज्यारे एओ श्रीयमुनाना तीरना प्रदेशमां आव्या त्यारे एमणे त्यां भगवाननां भक्त उद्धवजीने जोया ॥२४॥
वासुदेव भगवाननां भक्तिवाळा अत्यन्त शान्त, बृहस्पतिनी पासेथी नीति शीखेल एवा उद्धवजीने विदुरजीए गाढ आलिङ्गन कर्युं अने भगवाननी प्रजारूप पोताना सुहृदोनुं कुशळ प्रेमथी पूछवा लाग्या ॥२५॥
खरेखर ब्रह्माजीनी प्रार्थनाथी साक्षात् बेउ पुराणपुरुष भूतळउपर प्रकट थया छे ए पृथ्वीनुं कुशळ करी कृष्णने बळदेवरूपे शूरनां घरमां हेमखेम बिराजे छे?॥२६॥
कुरुओना परम सुहृद अने अमारा बनेवी वसुदेव सुखी छे? दानशील पिताना जेवां ए पोतानी बहेनोना मनोरथ पूर्ण करवा वरदानने आपे छे? ॥२७॥
भाई, यादवोना सेनापति वीरवर प्रद्युम्नजी जे पूर्वजन्ममां कामदेव हता तथा जेने देवी रुकिमणीजीए ब्राह्मणोनी आराधना करीने प्राप्त कर्या हता ते आनन्दमां छे ने? ॥२८॥
उग्रसेन राज्यनी आशा छोडीने बेठेला हता; कमळलोचन भगवाने सात्त्वत, भोज, दाशार्ह वगेरेना अधिपति कंसने मारी ए उग्रसेननो राज्याभिषेक कर्यो; शुं ए सुखी छे? ॥२९॥
हे सौम्य! भगवानना पुत्र अने महारथीओना अग्रणी एवा भगवानना जेवा साम्ब सुखी छे शुं? आ साम्बने जाम्बुवती व्रत करीने प्राप्त करी शकेलां अने जेने अम्बिकाए प्रथम कार्तिकेयरूपे पुत्र तरीके उत्पन्न करेला ॥३०॥
अर्जुन पासेथी धनुषना रहस्यने जाणनार युयुधान (सात्यकि) मजामां छे? आ सात्यकि भगवान् अधोक्षजनी सेवा करीने यतिओ पण जे गतिने प्राप्त करी शके नहि तेवी गतिने प्राप्त करी शकेला ॥३१॥
भगवानने शरणे गयेला श्वफल्कना पुत्र अक्रूर निरोगी छे? आ अक्रूर प्रेमयुकत थई धीरज छोडी भगवाननी चरणरजने मार्गमां जोतां एमां लोटी पड्या हता ॥३२॥
विष्णु देवकनी पुत्री देवकीजीना पेटे पुत्ररूपे प्रकटेला एवां देवनी माता जेवां देवकनां पुत्री देवकीजी आनन्दमां छे? जेम वेदत्रयी यज्ञना विस्तारने धारण करे छे [[२०५२०६]] अध्याय-१, तृतीयस्कन्ध तेम देवकीजीए पोताना गर्भमां भगवानने धारण कर्या हता ॥३३॥
अनिरुद्ध भगवान्! जे तमारा सात्त्वत् भक्तोनी कामनाओने पूर्ण करनार छे अने जे मनोमयरूप तेमज अन्तःकरणना चोथा तत्त्वरूप छे ए सुखमां बिराजे छे? ॥३४॥
सौम्य स्वभाव उद्धवजी, पोताना हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्णना अनन्य भक्तो हृदीक, सत्यभामाना पुत्रो, प्रद्युम्नना भाई चारुदेष्ण अने गद वगेरे बधा आनन्दमां छे? ॥३५॥
वळी युधिष्ठिर राजा, जेने अर्जुन अने भगवान्रूप बे भुजाओ छे अने जेनी (सुधर्मा) सभामां अनेक प्रकारना जयोनी परम्पराथी चक्रवर्तित्वनी लक्ष्मीने जोईने दुर्योधन दुःखी-दुःखी थई गयो हतो तेओ मर्यादापूर्वक प्रजानुं पालन करे छे? ॥३६॥
अपराधीओ प्रत्ये अत्यन्त असहिष्णु भीमसेने सर्पनी माफक दीर्घ कालना क्रोधने छोडी दीधो? गदायुद्धमां ज्यारे तरह-तरहना पेन्तरा बदलतां त्यारे एना पगनां धमकाराथी धरती ध्रुजी उठती हती ॥३७॥
वळी लडाईमां सेनापतिओना विजयने धारण करनार अर्जुन शत्रुने मारी नाखी निःशत्रुताथी सुखमां छे? मायावडे भील बनेला शिवजी एना बाणोथी ढङ्काई जईने एना उपर प्रसन्न थया हता ॥३८॥
पाम्पणो जेम आङ्खोनी रक्षा करे छे तेम पृथा (कुन्ताजी)ना पुत्रो सहदेव अने नकुळ नी रक्षा करता. ए माद्रीना पुत्र नकुल अने सहदेव पण जेम अमृतपान करतां इन्द्रना मोम्मान्थी गरुडजी अमृत लई ले तेम लडीने के बळात्कारथी शत्रु पासेथी धन लावी आपनार छे ते बन्ने भाईओ आनन्दमां छे शुं? ॥३९॥
अहो राजर्षिवर्य! एवा पोताना पति पाण्डु, जे असहाय एक वीर हता अने मात्र धनुषनी सहायताथी चार दिशाने जीती शक्या हता तेमनी गेरहाजरीमां कुन्तीजी बाळकोमाटे पोते प्राणने राखी रह्यां छे ॥४०॥
हे सौम्य! ए मरेला भाईनो द्रोह करी अधोगतिने पहोञ्चेला एवा धृतराष्ट्रनो हुं शोक करुं छुं जेणे पोताना भाई एवा मने पोतानी नगरीमान्थी दूर कर्यो ॥४१॥
ए हुं मनुष्यनाट्यने अनुसरता अने मनुष्यनी दृष्टिए मोहमां नाखता भगवाननी पेठे बीजा न जाणे तेम भगवाननी कृपाथी विस्मय रहित थईने एमनीज कृपाथी आ लोकमां फरुं छुम् ॥४२॥
पृथ्वीने पोताना सैन्यथी वारंवार ध्रुजावता अने विद्या, धन अने उच्चकुळ एवा त्रण प्रकारना मदथी जे राजाओ उन्मार्गे चालता हता तेमने भगवाने मार्या पण कौरवोने न मार्या. ते तो एटलामाटे ज के भीम वगेरे पोताने शरणे आवेला होवाथी भगवानने एमनी प्रतिज्ञा पूर्ण करवी हती. तेथी ज ईश्वर छतां पोते एना अपराधनी उपेक्षा करी ॥४३॥
भगवान् अजन्मा छे छतां जगतमां पोते जन्म ले छे ए उन्मार्गे चालनाराओनो नाश करवामाटे ज. जो एम न होय तो गुणोथी पर होवा छतां कर्माधीन देहने कोण स्वीकारे? ॥४४॥
तस्य प्रपन्नाखिललोकपानाम् अवस्थितानामनुशासने स्वे ॥ अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य वार्ता सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥४५॥
एवा ए अखिललोकपति, इन्द्रादि जेने शरणे आवेला छे अने एवा शरणागतने माटे ज जे यदुकुळमां पधारेल छे तेवा ए ज भगवाननी कीर्ति तीर्थनी पेठे पवित्र करनारी छे; तो हे सखे! ए सम्बन्धी जे वार्ता होय ते तमे अमने कहो ॥४५॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां(पहेला अधिकारप्रकरणनो) ‘‘बदरीकाश्रम तरफ जता उद्धवजीने गङ्गाजी उपर विदुरजीनो मेळाप’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो. इदं नामात्मकं भगवतो रूपं तत् स्वविक्रेतरी विक्रयातिरिक्तं फलं न प्रयच्छति भगवानना नामात्मक स्वरूप एवी भागवत कथाने (कथानी दक्षिणा, पोथीभेट वगेरे रीते) जे वेचे छे तेने भागवत तेना वेचाणना बदलामां मळतां दान- दक्षिणाथी वधु बीजुं कंई पण फळ आपतुं नथी –श्रीमहाप्रभुजी
अध्याय २
भगवाननुं सङ्क्षिप्त चरित उद्धवजीए विदुरजीने कह्युं
विशेष - पूर्व अध्यायमां भूतनी सृष्टि कहेवामां आवी कारण के अधिकारने माटे सर्ग कहेवानो [[२०७]]
ईं उं ईं उं
ईं उञ्छे. बीजा अध्यायमां विषयनो सर्ग कहेवानो छे, क्रिया अने ज्ञानना भेदवडे भक्तिना मुख्य अधिकारीने अलौकिक चरित्रवडे महात्म्यरूप विषय होय छे. एमां क्रिया भगवान्मां ज होय छे, बीजे होती नथी ए वात अर्ही छ श्लोकथी कहेवाय छे. मन अने पाञ्च कर्मेन्द्रियवडे षड्गुण ऐश्वर्यवाळा एक भगवाननुं ज एमां वर्णन छे. पछी सत्तावीस श्लोकथी भगवानना गुणो कहेवामां आवे छे. जे तत्त्वरूप विषयो छे ते बधा तत्त्वरूप देवो छे. प्रश्नोत्तरात्मक संवादमां आनो त्रण अध्यायवडे हमणां उत्तर आपवामां आवे छे. प्रथम अध्यायमां सामान्य कुशळ, विशेष कुशळ अने भगवच्चरित्र एम क्रमवडे पूछवामां आव्युं छे. एमां सामान्य कुशळनो उत्तर अढार श्लोकथी त्रण प्रकारे आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे; तेथी बाकी रहेला दश श्लोक भगवच्चरित्र तथा बीजा प्रश्ननां उत्तररूप जाणवा. यादवो लोकद्वयमां अने भक्तिमां भाग्यहीन छे. एम उत्तरमां कहेवाय छे. भक्तिनो प्रादुर्भाव थवाथी उद्धवजी उत्तर आपी शकता नथी. भक्तिनुं चिह्न अशक्ति छे. एना कारणने पण अर्ही साधनपणे कहेवामां आवे छे. सर्व व्यापार रहित थवुं ए ज भक्तिनुं चिह्न छे. तो पण कृष्णनुं माहात्म्य कहेवा माटे विदुरजीना प्रश्ननो उत्तर आपवाने उद्धवजी प्रयत्न करे छे. श्रीशुक उवाच इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्ता प्रियाश्रयाम् ॥ प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात् स्मारितेश्वरः ॥१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्या - ए प्रकारे ज््यारे विदुरजीए भगवद्भक्त उद्धवजीने प्रिय भगवान् सम्बन्धी वातो पूछी त्यारे अति उत्कण्ठा पूर्वक भगवाननुं स्मरण थई आवतां उत्तर आपवानी हिम्मत करी न शक््या ॥१॥
उद्धवजी ज््यारे पाञ्च वर्षना हता. त्यारे बाल्यावस्थामां पण भगवाननी सेवा करता; ए एटले सुधी के माता प्रातर्भोजन माटे बोलावती तो पण सेवामां लीन होवाथी भोजन लेवानी पण परवा करता नहि ॥२॥
ए उद्धव भगवाननी सेवा करतां-करतां हवे वृद्ध थया छे तेमने भगवाननां चरणकमलनुं स्मरण आवतां भगवत्सम्बन्धी उत्तर केम आपी शके? ॥३॥
प्रथम तो कृष्णचरणनी सुधामां डुबेला उद्धवजी बे घडी बोल्या वगर बेसी रह्या अने तीव्र भक्तियोगवडे भगवानना स्वरूपमां आनन्दमग्न थई गया ॥४॥
रोमाञ्चथी एमनां सर्वे अङ्ग प्रफुल्लित थयां. बन्ध नेत्रमान्थी हर्षाश्रु वहेवा लाग्यां अने स्नेहनां प्रवाहमां डूबतां पूर्णार्थ होय एम देखावा लाग्या ॥५॥
[[२०८]] पछी धीमे-धीमे भगवल्लोकमान्थी ए मनुष्यलोकमां आव्यां, नेत्रमान्थी आंसु लई हास्य सहित विदूरजीने कहेवा लाग्या ॥६॥
उद्धवजीए कह्युं - ज्यारे कृष्णरूपी सूर्य बीजा लोकने प्रकाशित करवाने अर्हीथी अस्त पाम्यो, ज्यारे अन्धकाररूपी अजगर जगतने गळी गयो अने बधां घर लक्ष्मी वगरनां थई गयां त्यारे ए बधानुं हवे तमे कुशळ पूछो छो तो हुं तमने शुं कहुं? ॥७॥
आ लोकमां अने खास करीने यादवोनां ज दुर्भाग्य के माछलां साथे रहेता चन्द्रने जेम माछलां ओळखी शक्यां नहि तेम एओ भगवाननी साथे रहेता होवा छतां एमने पिछाणी शक्या नहि ॥८॥
ए यादवो भगवाननो अभिप्राय जाणता हता, महा गम्भीर हता एओ भगवाननी साथे ज खेलनारा हता तेथी एओ जे भगवान् सर्वभूतना सञ्चालक छे तेमने यादवश्रेष्ठ मानवा लाग्या, परन्तु भगवान्पणे एमनुं स्वरूप जाणी एमने मोक्षादि सिद्धिओ सम्पादन करवी जोईए ए तेओ करी शक्या नहि. ए ज एओनुं दुर्भाग्य कहेवाय ॥९॥
वळी शिशुपाळ जेवा केटलाके तो असत्नो आश्रय करेलो होवाथी तेओ भगवाननो द्वेष करता हता अने एमनाथी दूर रह्या. बीजा केटलाक पाखण्डी थया. परन्तु जेओ भक्तो हता तेमनी बुद्धि भगवान्मां आरूढ थयेली होवाथी एमना कहेवा छतां कदापि ऊलटी रीते थती नहि ॥१०॥
पूर्वे तप नथी कर्युं तेवां मनुष्योने नेत्रनी तृप्ति थाय ए पहेला तो लोकना ज्ञानरूप पोतानुं स्वरूप लईने पोते तिरोहित थई गया ॥११॥
पोतानी योगमायानो प्रभाव देखाडवामाटे भगवाने मनुष्योना जेवी लीलामां उपयोगी जे दिव्य-अलौकिक-श्रीविग्रह* प्रकट कर्यो हतो ए एटलो तो सुन्दर हतो के एने जोईने सारुं जगत् तो मोहित थई ज जतुं हतुं, आप पोते पण विस्मित थई जता हता. सौभाग्य अने सुन्दरतानी पराकाष्ठा हती ए रूपमां. एनाथी आभूषण पण विभूषित थई जतां हतां पहेरेला दागीना पण दीपी ऊठता हता! ॥१२॥
विशेष - आ श्लोकमां भगवाननां सच्चिदानन्द एम त्रण रूपमां सद्रूपनो उत्कर्ष कहेवामां आवे
छे. ए पाञ्च भूतना जेवुं छतां एनाथी विशेष छे. मर्त्यलीलौपयिक कहेवाथी मर्त्य होय ते
लीला योग्य न होय, अमर्त्य होय ते मर्त्यलीला न करे तेथी अलौकिक सद्रूपथी ज लीलानी
[[२०९]] योग्यतावाळी पोतानी मायाने बतावतां ग्रहण करेलुं तेथी जलरूप भूतनी शुद्धि कही, पोताने
विस्मय करावनार एमां एमनो उत्कर्ष कह्यो. सौभगर्द्धिनुं परमपद रूप कहेवाथी वायुनो उत्कर्ष
कह्यो. भूषणभूषणाङ्ग कहेवाथी नभनी उत्कृष्टता बतावी. एम पञ्चभूतोनी अलौकिकता बतावतां
भगवाननी सद्रूपतानी शुद्धि बतावी छे. तेरमां श्लोकमां भगवानना चिद्धर्मनो उत्कर्ष बताववामां
आव्यो छे केमके चिद्रूप विना केवळ सत्त्वमां आवुं रूप सम्भवे नहि तेथी चैतन्य रूप छे.
१४मा श्लोकमां आनन्दरूपतानुं वर्णन छे.
युधिष्ठिर राजाना राजसूय यज्ञमां मनुष्यना नेत्रनुं कल्याण करनार भगवाननुं
रूप जोईने त्रणे लोक ब्रह्माजीना कौशल्यने मनुष्यसृष्टिमां सर्वोपरि तरीके बिरदाववा
लाग्या ॥१३॥
रासलीला समये भगवाने हास्य सहित व्रजस्त्रीओ प्रत्ये दृष्टि करवाथी व्रजस्त्रीओने मान प्राप्त थयुं अने दृष्टि साथे बुद्धि पण भगवान्मां जवाथी घरनां कामकाजने लटकतुं ज राखीने एओ भगवाननी सामे कठपूतळीनी माफक स्थिर थई जती हती ॥१४॥
ज्यारे भगवाननां शान्त रूपोने बीजां अशान्त रूप पीडा करे छे त्यारे एने जोईने लोकोनी उपर दया आववाथी स्वयं ‘अजन्मा’ छतां, जेम अग्निनो प्रादुर्भाव काष्ठमां थाय छे तेम भगवान् पण महद् अंशवडे एटले प्रकृति पुरुषने पोताना स्वरूपमां लईने आप प्रकट थाय छे ॥१५॥
अजन्मा होवा छतां वसुदेवजीना घरमां जन्म लेवानुं जे नाटक कर्युं त्यान्थी शत्रुना भयथी व्रजमां पधारवुं, अनन्तवीर्य छतां मथुरा नगरी छोडीने भागी छूटवुं, आ बधी लीला मने हचमचावी मूकेछे ॥१६॥
वळी पोते पिताना चरणमां वन्दन करी कहे छे के ‘‘हे पिता! हे अम्ब! अमे कंसथी घणा भयभीत थयेला होवाथी आपनी कंई सेवा करी शक्या नथी माटे आप अमारीउपर प्रसन्न थाओ’’. एनुं स्मरण थतां मारुं मन दुःखी-दुःखी थई जाय छे ॥१७॥
आ भगवानना चरणकमळनी सुगन्धने एक वार सूङ्घनार एवो कयो पुरुष छे जे भगवानने भूली शके? अर्ही ए भगवान् भ्रूभङ्गमात्रथी काळथी उत्पन्न थयेल पृथ्वीनो भार दूर करे छे ॥१८॥
राजसूय यज्ञमां कृष्णनो द्वेष करतां शिशुपाळने जे सिद्धि प्राप्त थई ते तमे
[[२१०]] जोई, अरे! एवी सिद्धिनी तो योगी लोक योगसमाधिवडे उत्कण्ठापूर्वक इच्छा करे छे.
आवा भगवानना विरहने कोण सहन करी शके ॥१९॥
तेवी ज रीते मनुष्यलोकमां चोतरफथी आङ्खने आनन्द आपनार कृष्णना मुखारविन्दने पोताना नेत्रथी नीरखता अने अर्जुनना अस्त्रवडे पवित्र थता वीरपुरुषो परम पदने पाम्या ॥२०॥
ए भगवाननो नथी कोई बरोबरियो के नथी कोई एनाथी अधिक. वळी ए त्रण लोकना अधिपति छे. जेनी सर्व कामनाओ पूर्ण थयेली छे तेवां लोकपालो स्वाराज्यलक्ष्मीथी भगवानने भेट धरता पोताना किरीटना मणिओवडे एमनी चरणपीठिकाने पूजता होवाथी ए पीठिका स्तुतिपात्र थई छे ॥२१॥
राज्यासन उपर बेठेला उग्रसेन पासे जई पोते उभा रही, ‘‘हे देव! आ हुं आव्यो छुं, आपने नमस्कार करुं छुं. मारी उपर दृष्टि करो’’ एवुं भगवाने कह्युं हतुं. हे अङ्ग! अमे के जे एमना सेवक छीए तेवा अमारा हृदयने एमनी ए दासभावनी लीलाग्लानि उत्पन्न करे छे ॥२२॥
अहो, पूतना के जे खराब चरित्र वाळी असती हती ते भगवानने मारवानी मुरादथी आवी अने एणे पोताना स्तनमां रहेलुं झेर भगवानने पायुं, छतां भगवाने एने माता जेवी गति आपी, कारण के कंई नहि तो एनी आकृति अने क्रिया माताना जेवी हती तो पछी आवा दयाळु भगवान् सिवाय बीजा कोना शरणे जईए? ॥२३॥
जे असुरोए* क्रोधवडे पोताना चित्तने त्रण लोकना अधीश्वर एवा भगवान्मां लगाडेलुं तेमने हुं भगवद्भक्त मानुं छुं, कारण के एओ रणसङ्ग्राममां पोताना प्राण छोडतां भगवाननां चक्रने धारण करता गरुडने जोता हता ॥२४॥
विशेष - असुरो बे प्रकारना छे - ‘‘माम् अप्राप्यैव कौन्तेय’’ इत्यादिमां कहेलां असुर जे भगवानने नेत्रादिकथी पण मळी शके छे ते भगवानने पामी मुक्त थाय छे. अने ‘‘मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तः’’ इत्यादिथी कहेल असुरो भगवानना साक्षात् सम्बन्धमां आवता नथी. पण जगद्रूप भगवाननो द्वेष करनारा छे. एवा असुरोनी मुक्ति थती नथी. साक्षात् भगवाननो द्वेष करनारा कोई पण अन्तःकरणना धर्मथी भगवत्सम्बन्धवाळा होवाथी, उद्धवजी कहे छे के, हुं एवा असुरोने भगवद्भक्त मानुं छुं. जे सहज दानवो छे ते वैष्णवतन्त्रमां कहेल छे. वेदमां पण एनुं देवप्रतिपक्ष तरीके कवचित् वर्णन आवे छे. तेथी [[२११]] जेनी मुक्ति थाय छे तेवां पूतना वगेरे सहज असुर नहि पण आसुरावेशवाळां समजवां. तेओनो आसुरावेश भगवानना सम्बन्धथी चाल्यो जाय छे. तेथी तेओ मुक्त थाय छे. तेथी आनी मुक्ति अने अमुक्तिने माटे भेदवाद अथवा वैनाशिकी प्रक्रियानो स्वीकार करनार बहु वाक्योनो विरोध आवतो होवाथी एमनो विचार शङ्कास्पद छे. वळी एनी मुक्तिमां युक्ति कहे छे के जेम ज्ञान, इच्छा अने प्रयत्ननो विषय भगवान् छे तेम क्रोध विषय पण भगवान् छे. भगवानने परमदयाळु मानो तो क्रोध पण मुक्तिनुं कारण थई शके; एम न मानो तो भगवान् दयाळु न गणाय; माटे वैष्णवे एम मानवुं - कां तो दैत्योनी मुक्ति न मानवी, कां तो भगवाननी दया मानवी. एमां पण दयानुं बळ विशेष छे. दैत्यो युद्धमां मरवामाटे भगवाननी सामे आवे छे. भगवाननी एओ उपर दया न होयतो कोई बीजा पासे एने मरावे, पण पोते न मारे; अथवा ए वखतेपोते दर्शन न आपे, दर्शन आपे छे माटे दयाळु छे. त्यारे भक्तमां अने द्वेषीमां भेद शो? एना उत्तरमां कहे छे के भक्तो सदा गरुडारूढ भगवानने युद्धमां तथा युद्ध वगर पण जोई शके छे; दैत्यो तो भगवाननुं दर्शन युद्धमां ज करी शके. पण भगवान्युक्त गरुडने मुख्य देखे छे, कारणके गरुड कालात्मक छे; तेथी प्रथम कालने पामीने पछी भगवानने पामे छे. जीवतां भगवानने पामता नथी एटलो ज दैत्य अने भक्त नो भेद छे. भक्त सदा भगवानने सर्वरूपे जोई शके छे. आ भगवाननुं प्राकट्य ब्रह्मानी प्रार्थनाथी पृथ्वीने सुख करवामाटे वसुदेवनी स्त्री देवकीमां कंसना कारागृहवासमां थयुम् ॥२५॥
त्यां वसुदेवजी कंसथी भय पाम्या तेथी आप कारागारमान्थी व्रजमां पधार्या त्यां व्रजमां आप अगियार वर्ष सुधी बळदेवजी साथे तेजने गुप्त राखीने बिराज्या ॥२६॥
त्यां कल्लोल करतां पक्षीओवाळां वृक्षोथी यमुनाजीना किनारा परनां जे उपवनो शोभी रह्यां छे तेमां वत्सपालक तरीके वाछडान्नुं चारण करता भगवान् विहार करतां हता ॥२७॥
ए व्रजवासीओने दर्शन करवा लायक कुमारलीलाने बताववा क्यारेक जाणे रोता होय तो क्यारेक हसता होय एम मुग्ध लीला करे छे के सिंहशावकनी जेम जुए छे ॥२८॥
लक्ष्मीना धामरूप धोळी गायो तथा आखलाओवाळा गोधनने चरावता तेज भगवान् वेणुवादन करी सेवक गोपोने राजी करता ॥२९॥
[[२१२]] एमणे भोजराज कंसे मोकलेला अने मायिक तथा मनमां आवे तेवां रूप धारण करनार दैत्योने बाळक जेम रमकडान्ने तोडी-फोडी नाखे तेम तेमनी कचुम्बर ज करी नाखी ॥३०॥
ज्यारे गायो गोवाळ वगेरे यमुनाजीनुं झेरवाळुं जळ पीने मृत्यु पाम्यां त्यारे त्यां पधारी कालीय नागने त्यान्थी दूर कर्यो अने ए कालीय हृदनुं जळ सुन्दर बनावी मरेलाने जीवतां कर्या अने ए जळ पाछुं एमने पायुम् ॥३१॥
वळी भारे भाररूप धननो सद्व्यय करवानी इच्छावाळा शक्तिमान् प्रभुए उत्तम ब्राह्मणो पासे नन्दबाबाद्वारा गोवर्धनपूजारूप गोयज्ञ कराव्यो ॥३२॥
हे भद्र! मान खण्डित थवाथी विह्वळ बनी इन्द्रे व्रजनो नाश करवा अतिवृष्टि करी त्यारे भक्तोपर अनुग्रह करी भगवाने गोवर्धनपर्वतने लीलारूपी छत्र करीने व्रजनुं रक्षण कर्युम् ॥३३॥
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् ॥ गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डनः ॥३४॥
वळी शरदऋतुना चन्द्रनां किरणोथी उज्वल थयेली सन्ध्याने मान आपी, सुन्दर पदोवाळुं गान करी, स्त्रीओना मण्डलने शोभारूप थई ए एमनी साथे रम्या ॥३४॥
इति श्रीभागवत तृतीयस्कन्धमां पहेला अधिकार प्रकरणनो ‘‘भगवाननुं सङ्क्षिप्त चरितं उद्धवजीए विदुरजीने कह्युं’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च,स्पृष्ट्वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद् मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे देवसेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं. (द्रव्यशुद्धि)
अध्याय ३
मथुराथी द्वारका पधारेला भगवाननी लीलानुं वर्णन
विशेष - आ अध्यायमां कृष्णनुं मध्य चरित्र वर्णवाय छे; अर्थात् अधिकारपोषक इन्द्रियोनो [[२१३]]
ईं उं ईं उं
सर्ग कहेवाय छे. भगवान् पोते प्रकट थई तत्त्वोने प्रवर्तावे छे अने एनावडे सृष्टिनो विस्तार करे छे. तेथी अर्ही आ त्रीजा अध्यायमां भगवानना गुणोनुं वर्णन अठ्ठावीश श्लोकथी आपवामां आवे छे. दस इन्द्रियो, चार-मन, बुद्धि, चित्त अने अहङ्कार अने एना चौद देवता बधां मळी कुल अठ्ठावीश तत्त्वो थयां ते बधान्नुं आ अध्यायनां निरूपण करवामां आवे छे. शास्त्रमां क्षत्रियोमाटे बे प्रकारनां विवाह मुख्य गणवामां आव्या छे तेथी भगवाने बन्ने विवाहथी अर्ही लग्न कर्युं छे - गान्धर्व अने राक्षस. रुक्मिणीथी गान्धर्वपणुं छे, बधानी साथे लडाई करवामां राक्षसत्व छे. उद्धव उवाच ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रोश्चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ॥ निपात्य तुङ्गाद्रिपुयूथनाथं हतं व्यकर्षद् व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥१॥
उद्धवजी बोल्या - पिताने सुख करवानी इच्छाथी भगवान् गोकुळथी बलदेवजी साथे मथुरामां पधार्या. त्यां शत्रुसमुदायना नाथ एवा कंसने ऊञ्चा सिंहासन उपरथी नीचे पाडी एने मार्यो अने पछी मरेला कंसने बळवडे पृथ्वी उपर खेञ्च्यो ॥१॥
सान्दीपनि गुरुए एक वार कहेला वेद विस्तार साथे भणीने एमना मरेला पुत्रने पञ्चजन दैत्यना पेटमान्थी पाछो लावी आप्यो अने एवी रीते गुरुदक्षिणा आपी ॥२॥
भीष्मकनी पुत्री रुक्मिणीनो विवाह करवाने माटे लक्ष्मीना भाई रुक्मीए* राजाओने बोलावेला ए बधानां देखतां गान्धर्व विवाहथी, जेम गरुड अमृत लाव्या तेम, बधा राजाओने माथे पग मूकीने भगवान् रुक्मिणीने लई गया ॥३॥
विशेष - श्रियः सवर्णेन = ‘श्री’ एटले रुक्मिणी ते वर्णो-अक्षरो (रु अने क्मि) छे जेना नाममां ते अर्थात् रुक्मी. सात साण्ढने एकी साथे नाथी स्वयम्वरमां भगवान् नाग्नजितीने परण्या. साण्ढोए जेनो मानभङ्ग कर्यो छे तेवा मूर्ख राजाओ नाग्नजितीने पडावी लेवानी इच्छा करी शस्त्र लईने लडवा आव्या ए बधाने पोते शस्त्रवडे संहार्या अने पोते अक्षत रह्या ॥४॥
भगवान् समर्थ होवाथी जेम कोई विषयी पुरुष मर्यादानो भङ्ग करीने प्रियानुं
प्रिय करे तेम सत्यभामानो मनोरथ पूर्ण करवाने पारिजात वृक्ष स्वर्गमान्थी पृथ्वी
उपर लावी पोताना बगीचामां रोप्युं. त्यारे इन्द्र क्रोधान्ध थई देवताओने लईने
[[२१४]] लडवा आव्यो. कारण के इन्द्र स्त्रीओनो पाळेलो वान्दरो छे ॥५॥
युद्धमां नरकासुर आकाशने पोताना शरीरवडे गळी जतो हतो एवुं जोई भगवाने सुदर्शनथी एनो नाश कर्यो त्यारे पृथ्वीए प्रार्थना करी एथी एनुं राज्य एना पुत्र भगदत्तने आप्युं अने एने उपयोगी नहि तेवा पदार्थो स्वीकारवा पोते एना जनानामां पधार्या ॥६॥
त्यां नरकासुरे राजाओने जीती तेओनी कन्याओने एकठी करी हती ए बधीए भगवाननां दर्शन कर्यां के तरत ज बधी ऊभी थई अने आर्तना बन्धु एवा भगवानने ए कन्याओए प्रहर्ष, लज्जा अने प्रेमपूर्वक निहाळतां ज पति तरीके वधावी लीधा ॥७॥
आ बधीनां जुदां-जुदां घर करी पोतानी मायाथी पोते अनेक रूपे प्रकट थया अने बधी साथे एक ज मुहूर्तमां लग्न कर्याम् ॥८॥
प्रकृतिनी विशेषतावाळी ए बधी स्त्रीओमां जन्मनी इच्छा थवाथी एकेकमां पोताना जेवा दस-दस पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥९॥
कालयवन, जरासन्ध, शाल्व वगेरेए आवी शहेरने घेरो घाल्यो त्यारे पोतानुं तेज पोताना भक्तोमां मूकी ए बधानो नाश कर्यो ॥१०॥
शम्बर, द्विविद, बाण, मुर, बल्वल अने बीजा दन्तवक्त्र वगेरे पैकी केटलाकने पोते मार्या अने केटलाकने बीजा पासे मराव्या ॥११॥
वळी तमारा भाई धृतराष्ट्रना पुत्रो पाण्डवोने पोतपोताना पक्षमां आवी मळेला राजाओनी सेनाओथी कुरुक्षेत्ररूप पृथ्वी धणधणी ऊठी हती. त्यारे ए बधाने पण भगवाने मरावी नाख्या ॥१२॥
कर्ण, दुःशासन अने शकुनि नी खोटी सलाहथी जेनां लक्ष्मी अने आयुष परवारी गयां हतां अने जेनी साथळ भाङ्गी गई हती. तेवा दुर्योधनने एना अनुचर सहित रणमां रगदोळायेलो जोईने पण भगवान् राजी थया न हता ॥१३॥
‘‘द्रोण, भीष्म, अर्जुन, भीम वगेरेए अढार अक्षौहिणीसेनानो भूमिनो भार उतार्यो ए भार केटलो?’’ मारा अंशरूप अने कोईथी पण सहन न थई शके तेवुंय यादवनुं कुळ तो हजु अकबन्ध ज छे ॥१४॥
मदिराना मदथी लालाचोळ नेत्रवाळा (यादवा) एमनामां ज परस्पर झघडो थाय ए ज एमना वधनो उपाय छे. आ सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. (कारण [[२१५]] के बीजो उपाय तो) हुं तैयार थतां जाते ज नाश पामे छे. (जेम अन्धारूं सूर्यने ढाङ्कवा जतां पोते ज नाश पामे छे एम) ॥१५॥
एवुं विचारी पोताना राज्यमां धर्म राजाने स्थापन करी सुहृदोने, सत्पुरुषोना मार्गे वेद धर्मादि यज्ञादिनुं पालन करवानुं छे एम लोकप्रवाहने बतावता आनन्दित करवा लाग्या ॥१६॥
अभिमन्युए उत्तरामां पुरुनो वंशधर मूकेलो तेने अश्वत्थामाए ब्रह्मास्त्रथी बाळ्यो, जेने भगवाने पाछो सजीवन कर्यो ॥१७॥
युधिष्ठिर राजा पासे समर्थ भगवाने त्रण अश्वमेध यज्ञ कराव्या. राजा पण पोताना नाना भाईओनी साथे पृथ्वीपालन करता कृष्णने अनुसरीने आनन्दथी रह्या ॥१८॥
विश्वरूप अने आत्मारूप भगवान् लोक अने वेदमार्गने अनुसरीने द्वारकामां रह्या अने साङ्ख्यनो आश्रय करी अनासक्तिथी काम-भोगादि भोगववा लाग्या ॥१९॥
स्नेह अने हास्य युक्त दृष्टिथी जोता, अमृतमय वाणी बोलता, शुद्धचरित्र आचरता, लक्ष्मीना धामरूप आनन्दयुक्त देहवडे आ लोक तेम ज परलोकमां यादवोने रमाडता, स्त्रीओना सुखमां प्रीतिवाळा भगवान् रात्रिमां रमणनो अवसर प्राप्त थतां रमण करतां हता ॥२०-२१॥
आ प्रमाणे घणां वर्षो सुधी रमण करतां तेमने घरमां बुद्धि करावनार उपायोमां वैराग्य थयो ॥२२॥
इच्छेलो पदार्थो दैवने आधीन होय एने पुरुष पण दैवने आधीन होय त्यां भगवानने योगवडे अनुसरनार कयो डाह्यो पुरुष काममां श्रद्धा राखे? ॥२३॥
एक वखत द्वारकामां यदु-भोजना बाळको रमता हता त्यां थईने भगवाननो अभिप्राय जाणनार मुनिओ नीकळ्या. बाळकोए ए मुनिओने कोपाव्या तेथी एओए एमने शाप आप्यो ॥२४॥
शापना प्रभावथी केटलाक मास पछी वृष्णि, भोज, अन्धक वगेरे आनन्दमां आवी रथमां बेठा अने देवे जेमने मोह कराव्यो छे तेवा एओ बधा प्रभास गया ॥२५॥
त्यां जई स्नान कर्युं. तीर्थोदकथी पितृ, देव, ऋषि वगेरेनुं तर्पण कर्युं ब्राह्मणोने
[[२१६]] बहु गुणवाळी गायोनुं दान कर्युम् ॥२६॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ॥ गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥२८॥
सोनुं, रूपुं, शय्या, वस्त्रो, मृगचर्म, कामळा, घोडा, रथ, हाथी, कन्या अने जेनाथी निर्वाह थई शके तेवी जमीन, बहु रसवाळुं अनाज वगेरे ब्राह्मणोने भगवद्बुद्धिथी आप्यां अने गायो तथा ब्राह्मणोने माटे जेमना प्राण छे तेवा ए शूर पुरुषोए पृथ्वी उपर मस्तक नमावी ब्राह्मणोने प्रणाम कर्याम् ॥२७-२८॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (पहेला अधिकार प्रकरणनो) ‘‘मथुराथी द्वारका पधारेला भगवाननी लीलानुं वर्णन’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? (प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) एवुं करे त्यारे तो सेवा-कथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवाकथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोकज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी,सिद्धान्तमुक्तावलीविवृति)
अध्याय ४
उद्धवजीए भगवद्ज्ञानमाटे मैत्रेयने मळवानुं विदुरजीने कह्युं; विदुर-मैत्रेयनो मेळाप
विशेष - आ चोथा अध्यायमां अधिकारने माटे भगवान् बुद्धिनुं निरूपण करे छे पञ्चपर्वना अधिकारीने बुद्धि पाञ्च प्रकारनी छे. बुद्धिनां स्वरूप अने गुण कहेवामां आव्यां. हवे अर्ही [[२१७]]
ईं उं ईं उं
एनुं फळ कहेवाय छे. एवा पुरुषमां ज्यारे भगवान् आविष्ट थाय छे त्यारे एमां रहेला सर्व पदार्थ प्रबुद्ध थाय छे; नहि तो थता नथी. माटे भगवानना सर्गमां आ बुद्धिने पण हेतुपणुं छे. उद्धव उवाच अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ॥ तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥१॥
उद्धवजीए कह्युं - त्यार पछी ए यादवो ब्राह्मणोनी आज्ञा लईने भोजन करवा बेठा. एमणे खाई पी मदिरापान कर्युं. तेथी एमनुं ज्ञान* नष्ट थयुं तेथी एओ दुर्वचनोवडे एक बीजाना हृदयने भेदवा लाग्या ॥१॥
विशेष - भागवत शास्त्रमां ज्ञान स्थिर छे. मात्र त्रण ज क्षण रहेनार ज्ञान बीजा माने छे तेवुं
आ नथी. जेम नासिकाथी गन्धनुं स्फूरण थाय छे. तेम मनवडे एनुं ग्रहण थाय छे. ए ज्ञान
भगवान्मां नित्य छे. बीजाओमां ए ज्ञान जन्य छे. शरीरने जेम अन्नथी पोषण मळे तेम
ए ज्ञाननां पोषक लोकशास्त्रादि छे. इन्द्रियो ए ज्ञाननी उत्पन्न करनारी छे. अभ्यासवडे ए
ज्ञान दृढ थाय छे. ए सात्त्विकादि भेदवडे त्रण प्रकारनुं छे. निषिद्ध देशादि पदार्थो ते ज्ञाननो
नाश करनारा छे अने शास्त्रमां विहित एवा देशादि छ पदार्थो अन्तःकरणनी शुद्धिना हेतु
होवाथी ज्ञानना पोषक छे. ए ज्ञान जीवनना प्रयत्नथी अन्तःकरणमां रहे छे. जेम प्रयत्नथी
स्थापित पदार्थो घरमां रहे छे. जनित ज्ञानना उद्दीपको शब्द अने विषयो छे अने अजनित
ज्ञानने उत्पन्न करवामां सामग्रीरूप छे. ए ज ज्ञान बुद्धि, चेतना वगेरे शब्दोथी ओळखाय
छे. ए एक अने भगवद्रूप छे. एनी उत्पत्ति अनेकधां छे. अनन्त लीलानां छतां दश भेद छे
तेम ज्ञान पण अनन्त छतां दश भेदवाळां छे. ते आश्रयरूप छे, मुख्य छे, अविकृत छे,
सर्वोपास्य अने सर्वात्मरूप छे. ए ज प्रकाशक धर्मरूपे थाय छे त्यारे ए अविकृतरूपे ज
भगवद्गुणरूप ज्ञान कहेवाय. ए ज ज्ञान सृष्टिने माटे वेदशरीरने धारण करे छे. ए वेदरूप ज्ञान
विराट्नी जेम अनन्त छे. पछी बीजने पामे छे. शरीरविशिष्ट थाय त्यारे विराट्मां व्यष्टिरूपे
विकारवाळा बधा शब्द थाय छे ते शब्दो प्रमाता अने प्रमेयनो आश्रय करे छे. एमां
प्रमेयाश्रित ज्ञान अनन्तविध प्रमेयने लईने अनन्त प्रकारनुं छे, परन्तु प्रमेयत्वरूपे एक
प्रकारनुं छे तेमां अन्तःकरणमां चार प्रकारनुं ज्ञान अने इन्द्रियमां एक प्रकारनुं. एना विशेष
तो विषय अने आश्रय एम ज्ञाननो बे भेदथी पुष्ट थाय छे. जे ज्ञान मनथी थाय ते संशयवाळुं
थाय छे. एमां विषयकृत विषयो रहे छे. बुद्धि सहित अहङ्कार स्वापने देखे छे तेथी
[[२१८]] स्वप्नज्ञान अहङ्कार स्वापने देखे छे. तेथी स्वप्नज्ञान अहङ्काराश्रित छे. शरीराभिमति तो
अहङ्कारे करेली बुद्धिनो आश्रय करीने थाय छे. चित्त सुषुप्तिमां स्वात्माने जुए छे. पछी
चित्त लीन रहे छे. तेथी चित्ताश्रित ज्ञान निर्षिषयक छे. एनी स्थितिशास्त्रादिथी कही छे; तेथी
एनो नाश पण विशेषरूपे कहेवामां आवे छे. पुर्वोक्त मर्यादानो अभाव ए ज एनो नाश. ए
नाशनुं कारण माया. ए माया ज्ञानने तिरोहित करनारी छे. एना आश्रय कालादि छे. कलिङ्ग,
मगधादि देश, काळ, मद्यादि द्रव्य, दैत्यादि कर्ता, निषिद्ध कर्म शाक्तादि मन्त्रो ए छ स्वरूपथी,
स्थानथी अने गुणथी ज्ञाननो अंशथी नाश करे छे. जेमां ज्ञान थाय छे तेमां ज नाश पामे छे.
ए अर्ही जेमां पहेलां ज्ञान हतुं ते ज्ञाननो मदिराए नाश कर्यो तेथी तया विभ्रंशितज्ञानाः
एम मूळमां कह्युं छे. माया अविद्यमान पदार्थोने बुद्धिमां लावे छे. ए विषय सहित ज्ञान
बुद्धिनो आश्रय करे ते स्मृतिरूप थाय छे. ए विषय सम्बन्धी वाक्यो दुरुक्त थाय छे ते दुरुक्तो
मर्मनो स्पर्श करे छे. जेने जे योग्य न होय छतां प्रमादथी ए बनी जाय तेनुं नाम मर्म
कहेवाय छे. ए मर्ममां अल्प उपघात थाय तो एनाथी मरण थाय छे. मृं प्राणत्यागे
धातुमान्थी डन् प्रत्यय करवाथी मर्म शब्द सिद्ध थाय छे. एथी मर्मनो स्पर्श करवानुं अर्ही
लख्युं छे, कारण के आघात थाय तो ज मरण थाय. तेथी दुरुक्तिरूप शब्दो मर्ममां लाग्या एम
कह्युं छे.
जेमनां चित्तस्नेहवडे समान हतां, मद्ये तेमनां चित्त विषम करी नाख्यां तेथी
सूर्यास्त समये जेम अरणी परस्पर घर्षणथी पीडाय तेम यादवो पण परस्पर दुष्ट
वचनोथी नाशनी तैयारीमां आवी पहोञ्च्या ॥२॥
पोतानी मायानी आ गतिने भगवाने जाणी सरस्वती नदीमां आचमन करी वृक्षना मूळमां आवीने बिराज्या ॥३॥
शरणागतना दुःखने टाळनार तेम ज पोताना कुळनो संहार करवानी इच्छावाळा भगवाने मने आज्ञा करी के तुं बदरिकाश्रमां जा; ॥४॥
तो पण हे अरिन्दम! हुं भगवानना अभिप्रायने जाणतो हतो छतां माराथी एमना चरणनो वियोग थई शके तेम नहोतुं तेथी हुं एमनी पाछळ गयो ॥५॥
त्यां भगवाननी शोध करतां एकला, आसन ग्रहण करी बिराजेला, लक्ष्मीजीना स्थानरूप सरस्वतीमां स्थान करी रहेला, स्वरूपमां स्थिति करी रहेला, श्याम अने उज्जवळ, रजोगुणरहित, प्रशान्त अने कांईक लाल नेत्रवाळा, चार भुजाथी प्रसिद्ध, पीताम्बरथी प्रथित थयेल डाबी साथळ उपर जेमणे जमणुं चरण टेकवेलुं छे तेवा, [[२१९]] नाना पीपळाना मूळनो जेमणे आश्रय लीधो छे तेवा, जेमनुं ज्ञान सङ्कुचित नथी तेवा, कर्मना कुळने नहि ग्रहण करनारा, सोळ* कळावाळा भगवाननां में दर्शन कर्यां; ए समये व्यासजीना परममित्र अने सिद्ध अवस्थाने पामेला, भगवानना महाभक्त मैत्रेय लोकमां फरतां-फरतां भगवदिच्छाथी त्यां ज आवी पहोञ्च्या ॥६-९॥
विशेष - सोळ विशेषणो भगवाननां अर्ही कह्यां ते सोळ कळावाळा भगवानने उद्धवजीए जोया. आ सोळ विशेषणो अणुभाष्यना त्रीजा अध्याय गुणोपसंहारपादना सोळ अधिकरणमां वर्णव्यां छे अने श्रीपुरुषोत्तमजीए एनो प्रकाशमां निर्देश कर्यो छे. विशेष जिज्ञासुने त्यां जोवां विनन्ति छे. भगवान्मां अतिशय प्रेमने लीधे शुद्धभाववडे जेमनी डोक जरा नीचे गई छे तेवा मैत्रेयना साम्भळतां प्रेम अने हास्यपूर्वक मारी सामे जोई मारा श्रमने मटाडता प्रभु मने कहेवा लाग्या; श्रीभगवाने कह्युंः ‘‘हे वसु! विश्वने उत्पन्न करनारा वसुओना यज्ञमां तमे प्रथम मारुं यजन करेलुं तेथी तमारा मनमां जे छे ए वस्तु हुं जाणुं छुं अने ते अद्यापि बीजाने तो मळी शके तेम नथी तो पण तमे तो मारुं यजन करनार होवाथी तमने हुं ए आपुं छुम् ॥१०-११॥
वळी शुद्ध सेवाथी तमे मने नृलोकने छोडती वखते एकान्तमां जोयो माटे मारा अनुग्रहथी तमारो छेल्लो जन्म छे एम समजो ॥१२॥
पहेलां आदिसर्गमां मारा नाभिकमळमां बेठेला ब्रह्माने में मारा महिमाने प्रकाशित करनार ज्ञान कहेलुं ए ज्ञान भगवत् सम्बन्धी होवाथी विद्वान लोको एने ‘‘श्रीभागवत्’’ कहे छे. ते ज्ञान हुं तमने आपुं छुम् ॥१३॥
परम पुरुषना प्रतिक्षण अनुग्रहने प्राप्त थयेलो हुं ज्यारे आम आदरथी भगवानना सत्कारने पाम्यो त्यारे भगवान्मां मारो अने मारामां भगवाननो स्नेह थयो. मारा उपर तो ए परम पुरुषनी कृपा वरस्या ज करती हती. अत्यारे एमणे आ प्रमाणे मने कह्युं त्यारे स्नेहवशात् मारां रुवाण्टां ऊभां थई गयां, शब्दो अने वाकयो कहेवानी वात तो दूर रही, अक्षरो (न खरे ते अक्षर) पण बोलतां-बोलतां खरी पड्या, तूटी गया, नेत्रोथी दडदड आंसुओ वहेवा लाग्यां. ए वखते हाथ जोडीने एमने कह्युम् ॥१४॥
हे ईश! आपना चरणकमळने भजनारने आ लोकमां चार पुरुषार्थमां शुं दुर्लभ
होई शके? तो पण हे भूमन्! हुं तो आपना चरणकमळनी सेवामां उत्सुक होवाथी
[[२२०]] मारे कशुं पण मागवुं नथी ॥१५॥
आप निःस्पृह छो. छतां आपनां कर्मो जेवां के शत्रुना भयथी मथुरा छोडी समुद्रदुर्गवाळी द्वारकामां पधारवुं, आत्माराम छतां हजारो प्रमदानो आश्रय करवो वगेरे जोवामां आवे छे त्यारे एमां डाह्या पुरुषनी बुद्धि पण चक्करमां पडी जाय छे ॥१६॥
वळी आपने ज्यारे जरासन्धना वधमाटे राजाओनो सन्देशो मळ्यो अने यज्ञ करवामाटे युधिष्ठिरनो सन्देशो मळ्यो त्यारे जो के आप अखडिन्त अने नित्य आत्मबोधवाळा छो छतां मने बोलाव्यो अने आप सारी रीते जाणता होवा छतां भोळा माणसनी माफक मने, हे प्रभो! आप सावधानीथी पूछवा लाग्या. हे देव! एम करी ए विषयमां आप अमारा मनने मोहमां नाखता हो एम लागे छे॥१७॥
हे स्वामी! स्वात्माना रहस्यने प्रकाश करतुं ज्ञान जे आपे ब्रह्माने कह्युं हतुं ते ज्ञान अमारे ग्रहण करवा योग्य होय तो कहो, जेथी अमे दुःखोने तरी शकीए’’ ॥१८॥
एवी रीते में ज्यारे भगवानने मारा हृदयनो अभिप्राय कह्यो त्यारे ए कमळनेत्र भगवान् आत्मानी परम स्थितिनो मने उपदेश करवा लाग्या ॥१९॥
में जेमना तीर्थरूप चरणकमळनी आराधना करी छे तेवा भगवान्थी आत्मतत्त्वना
विशेष बोधरूप मार्गने हुं शीख्यो. पछी में एमना चरणकमळमां दण्डवत्प्रणाम कर्या अने ए देवनी परिक्रमा करी एना विरहथी व्यथित हुं अर्ही आव्यो छुम् ॥२०॥
एमना दर्शनथी आनन्द थयेलो पण अत्यारे विरहमां झूरतो हवे हुं भगवानने प्रिय एवा बदरिकाश्रममां जईश ॥२१॥
त्यां नर अने नारायण नामना देव ऋषिरूपे लोकनी आबादी माटे कोमळ, तीव्र अने दीर्घ तप करे छे ॥२२॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एवी रीते उद्धवजीना मुखथी ज सहन न थई शके तेवो सुहृदोनो वध साम्भळी विदुरजीने शोक थयो. तो पण ए विद्वान होवाथी ज्ञानवडे एमणे शोकने शान्त कर्यो ॥२३॥
कृष्णना सेवको पैकी उद्धवजी मुख्य महाभगवद्भक्त छे ते ज्यारे जवा लाग्या त्यारे हे कौरवश्रेष्ठ! विदुरजीने भगवद्भक्तमां विश्वास होवाथी ए एमने आ प्रमाणे पूछवा लाग्या ॥२४॥
[[२२१]] विदुरजी बोल्या - जे ज्ञान आत्माना रहस्यनो प्रकाश करनार छे अने योगेश्वर ईश्वरे जे तमने आप्युं छे ते आप अमने कहेवाने योग्य छो, कारण के भगवानना सेवको पोताना सेवकोने माटे फरे छे ॥२५॥
उद्धवजी बोल्या - तत्त्वज्ञानने माटे तमारे मैत्रेयनुं आराधन करवानुं छे, कारण के ज्यारे साक्षात् भगवाने मर्त्य-लोकने छोड्यो त्यारे तमने कहेवानुं ज्ञान एमणे मैत्रेयने कह्युं छे; तमने ए कहेवानी मैत्रेयने आज्ञा पण करी छे ॥२६॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम विदुरजी साथे भगवद्गुणनी कथाथी जे मोटा ताप थयेलो ते उद्धवजीए शान्त कर्यो अने यमुनाजीना तट पर एक क्षणनी पेटे रात्रिने व्यतीत करीने (सवारे बदरिकाश्रम तरफ) गया ॥२७॥
राजाए पूछयुं - वृष्णि तथा भोज वगेरे बधा मृत्यु पाम्या, त्रण लोकना अधीश पण पोताना स्वरूपने छुपावी गया तो पछी अधिरथ यूथपतिओमां मुख्य उद्ववजी केम बाकी रह्या?॥२८॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ब्राह्मणना शापना बहानेथी पोताना कुळनो संहार करता अने पोताना देहने छोडतां जेनी इच्छा क्यारेय व्यर्थ नथी थती तेवा भगवाने विचार कर्यो के ज्यारे हुं आ लोकमान्थी चाल्यो जईश त्यारे हालमां आत्मज्ञानीओमां श्रेष्ठ एवा एकला उद्ववजी ज छे, जे मारुं ज्ञान धारण करी शके तेवा छे. ए माराथी अणुमात्र पण न्यून नथी. ए गुणोवडे खळभळता नथी तेथी मारुं ज्ञान लोकने आपवा माटे मारी पछी ए ज आ लोकमां रहे ॥२९-३१॥
एवुं त्रण लोकना गुरु अने वेदना कर्ता भगवाने उद्धवजीने कह्युं हतुं तेथी उद्ववजी बदरिकाश्रममां जई समाधि वडे भगवाननुं यजन करवा लाग्या ॥३२॥
धीरना धैर्यनी वृद्धि करे तेवा एमना देह त्यागनो प्रकार, जे धीरजरहितने तेमज, पशु अर्थात् भावी हित के अहित सम्बन्धी विवेकना अनुसन्धान विनाना अने पोचा काळजावाळा मनुष्योमाटे दुष्करमां दुष्कर छे तेवा केवळ क्रीडाने माटे देह धारण करनार कृष्णपरमात्मानां वखाणवा लायक कर्मोने उद्धवजी पासेथी साम्भळ्यां अने कृष्णे पोताने पण अन्तिम समये याद कर्यो ए ध्यानमां लीधुं अने उद्धवजीना गया पछी प्रेममां विह्वल बनी विदुरजी रोवा लाग्या अने मूर्छित थई गया ॥३३-३५॥
कालिन्द्याः कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभः ॥
[[२२२]] प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥३६॥
हे भरतश्रेष्ठ! पछी केटलाक दिवसे विदुरजी सिद्ध थई कालिन्दीथी गङ्गाजी उपर आव्या ज्यां मित्राना पुत्र मैत्रेय एमने मळ्या ॥३६॥
इति श्री भागवत् तृतीयस्कन्धमां (पहेला अधिकार प्रकरणनो) ‘‘उद्धवजीए भगवद् ज्ञानमाटे मैत्रेयने मळवानुं विदुरजीने कह्युं विदुर मैत्रेय मेळाप’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चितिं च चितिकाष्ठं च पूयं चण्डालमेव च, स्पृष्ट्वा देवलकं चैव सवासा जलमाविशेद् मडदा, तेने बाळवा वपरायेल लाकडां, रुधिर-मांस, मरेला प्राणिओनी खाल काढीने वेचनार तेमज धन कमाववामाटे देवसेवा करनार ने अडकी जवाय तो पहेर्या कपडे स्नान करवुं. (द्रव्यशुद्धि) गुणातीतप्रकरण
अध्याय ५
मैत्रेय विदुरजीने कहेल सृष्टिनो क्रम
विशेष - भगवत्सर्गनां अधिकारमां भूत, मात्रा, इन्द्रिय अने बुद्धि ए चारनी उत्पत्ति गया चार अध्यायमां कहेवामां आवी. हवे कृष्ण ज पुरुष छे. एम कहेवामाटे चारथी सर्गलीला कहे छे. उपर कह्यो तेवो अधिकारी होय ते ज तत्त्वथी कृष्णनी लीलाना श्रवणने योग्य छे; बीजो पोताना अधिकारवडे लीलामां अन्यथा माने. कृष्णार्थ सृष्टिमां पण भूतो थयां छे. वेदमां आ कृष्णनी पुरुषपणानी कथा आकाशादि पाञ्चवडे कही छे ते पाञ्चे बहुधा व्यस्त होवाथी ए तत्त्व छे. भोग ब्रह्माण्डात्मक शरीरनो होवाथी एने मात्रा कही छे. भगवाननां मन तथा इन्द्रियो कहेवामां आव्यां. ब्रह्मा भगवाननी बुद्धिरूप छे. एनुं कर्म अर्ही कहेवाय छे. स्तुति अने प्रसन्नता नवमां अध्यायमां कहेवाशे. भूत तथा कार्यो एनां शरीर ते ज भगवानना विषय छे. काळ ज एने इन्द्रियो छे. ए इन्द्रियोमां आसक्ति राखे ते मरे. मनु वगेरे महात्माओ एनी बुद्धि छे. तेमां कहेला (वेद वगेरे) ए जे कहेलुं छे ते योग्य होई ते एना हितने माटे कहेल छे. कार्योपयोगी तत्त्वो आ अध्यायमां कहेवाय छे. जेनाथी कार्यनी उत्पत्ति थाय तेनो भाव अर्ही [[२२३]] ईं उं ईं उङ्कहेवामां आवे छे. भगवाननी कृतिमां सर्वत्र प्रश्न अने एनुं अभिनन्दन ते अङ्ग छे. माटे अर्ही भगवत्सम्बन्धी प्रश्नथी छ विद्या कहेवामां आवी छे. वैराग्यादि भगवानना छ धर्मोनो विपरीतपणाथी अर्ही वैराग्य, ज्ञान, श्री, यश, वीर्य वेगरे प्रवेश समजवो. द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ॥ क्षत्तोपसृत्याच्युतभक्तिशुद्धः पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥१॥
श्रीशुक उवाच - कुरुवंशमां श्रेष्ठ संयमी विदुरजी गङ्गाजीना द्वार उपर बेठेला अगाध ज्ञानवाळा मैत्रेयनी पासे गया. एना सुशीलता वगेरे गुणोथी बधी रीते तृप्त थई अच्युत भगवाननी भक्तिथी शुद्ध थयेलो विदुरजीए पूछ्युम् ॥१॥
विदुरजी बोल्या - लोको सुख (प्राप्त करवा) माटे कर्म करे छे पण ए कर्मथी सुख थतुं नथी अने दुःख मटतुं नथी, ऊलटुं ए कर्मथी ज फरी दुःख देखे छे आ प्रश्नना उत्तरमां (आप) जे योग्य लागे ते कहो ॥२॥
भगवान् कृष्णथी विमुख अने दैव गतिथी अधर्म शीलवाळा माणस उपर अनुग्रह करवामाटे अविद्याने मटाडनारा भगवानना भव्य तेवा आपना जेवा भक्तो खरेखर लोकनुं कल्याण करवाने आ लोकमां फर्या करे छे ॥३॥
माटे हे साधुवर्य! अमने एवो कल्याण मार्ग बतावो के जे मार्ग वडे आराधन करवाथी पुरुषना हृदयमां रहेला भगवान् हृदयने भक्तिथी पवित्र करी तत्त्वबोधना ज्ञान साथे पुराणना ज्ञाननुं दान करे ॥४॥
ईश्वर त्रण गुणना नियन्ता छे. ए षड् गुणथी युक्त छे. ए पोते पोताने वश रहीने अर्ही पधारी कर्मो करे छे. पोते चेष्टारहित छतां आ जगतने उत्पन्न करे छे तेने सारी रीते स्थापन करे छे अने एनी आजीविका पण करी आपे छे ॥५॥
पाछुं वळी जगतने पोतानी हृदयरूपी गुफामां दाखल करीने निवृत्तिपरायण थई पोढे छे. एवा योगेश्वरना ईश्वर पोते एक छतां जगतमां अनुप्रवेश करी बहुरूपे जे प्रकारे थता होय छे ते आप मने कहो ॥६॥
अवतारना भेदवडे क्रीडा करतां ए भगवान् गाय, ब्राह्मण अने देवताना कुशळने माटे कार्यो करे छे. ए उत्तम कीर्तिवाळा भगवाननां चरित्र साम्भळतां अमारा मनने तृप्ति थती नथी ॥७॥
जेमां सर्व प्राणीओनो समूह पोतपोताना अधिकारने अनुसारे काम करवाने समर्थ थाय छे. तेवां कयां काम तत्त्वभेदथी लोक तथा अलोकने सर्वलोकना नाथ एना पालक सहित करे छे? ॥८॥
[[२२४]] जे नारायणे कर्म, रूप अने नामवडे जे कारणथी प्रजाना भेद कर्या होय ते नारायण पोते ज आ सर्वनुं कारण छे तो एने आवा भेदनुं प्रयोजन शुं? ए हे विप्रवर्य तमे मने कहो ॥९॥
में व्यासजीना मुखथी ब्रह्माथी स्थावर पर्यतना नक्की थयेला धर्म साम्भळ्या छे. नक्की थयेलाधर्मोक्षुल्लक सुख आपनार होवाथी कृष्णकथारूप अमृत सिवायनुं बीजुङ्कंई साम्भळतां अमने तृप्ति थतीनथी ॥१०॥
भगवाननां चरणमां बधां ज तीर्थो छे. जेमनी स्तुति ऋत्विजो यज्ञमां करी गया छे तेवा भगवाननां नामथी कोण तृप्त थाय? जो भगवान् पुरुषनी कर्णनाडीमां प्राप्त थाय तो संसारने आपनार घरमां प्रीतिने कापी नाखे छे ॥११॥
भगवद्गुण कहेवानी इच्छावाळा तमारा मित्र कृष्ण नामना मुनिए (कृष्णद्वैपायन व्यासे) ‘भारत’ नामनुं आख्यान कर्युं तेमां ग्राम्यसुखनो अनुवाद करीने मनुष्यनी बुद्धिने भगवाननी कथामां जोडी छे ॥१२॥
श्रद्धावाळा मनुष्यमां आस्तिक बुद्धि वधे छे. त्यारे एनामां भगवान् सिवायना बीजा विषयमां विरक्ति उत्पन्न करे छे. एथी भगवानना चरणमां एने सुख थाय छे अने एनां बधां दुःखोनो जलदीथी नाश करी शके छे ॥१३॥
पोतानां पापथी जेओ भगवत्कथाथी विमुख होय छे तेवा मूर्खाओ शोक करवा लायक विषयमां सौथी वधारे शोचनीय छे एनो मने शोक थाय छे, कारण के सावधान काळ एमनां आयुष्य, वृथावाद, गति अने स्मृतिनो नाश करे छे ॥१४॥
माटे हे कुशारुना पुत्र मैत्रेय! सुख आपनार हरि भगवाननी कथा ज बधी कथनीय वस्तुमां साररूप छे. तेथी जेम भ्रमर पुष्पमान्थी मकरन्दनुं पोते ज पान करी जाय छे तेम नहि पण मधमाखी पुष्पोमान्थी मध चूसी बहार राखे छे अने आम परोपकार करे छे तेम ए तीर्थरूप कीर्तिवाळा भगवाननी कथाने बधी जग्याएथी खेञ्ची अमारा कल्याणने माटे आप अमने कही बतावो ॥१५॥
ए भगवान् जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने लयने माटे पोतानी शक्तिनो स्वीकार करी अवतार धारण करे छे अने अर्ही पधारी पुरुषनी शक्तिथी न बने तेवां अलौकिक अतिपुरुष कर्मो ईश्वर करे छे. ते कर्मोनी कथा अमने आप कहो ॥१६॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - ज््यारे विदुरजीए एम कौशारवि मुनिने कह्युं त्यारे विदुरजीने बहु मान आपता मैत्रेय पुरुषोना कल्याणने माटे ए प्रश्नोना उत्तर [[२२५]] कहेवा लाग्या ॥१७॥
मैत्रेय बोल्या - हे साधो! लोकनी उपर अनुग्रह करतां अने आत्मारूप अधोक्षज भगवाननी कीर्तिनो लोकमां फेलावो करता तमे बहु सारो प्रश्न कर्यो ॥१८॥
हे संयमी!, व्यासना वीर्यथी उत्पन्न थयेला आप लोकहितार्थ एवो प्रश्न करो ए कांई आश्चर्यकारक नथी कारण के आपे अनन्य भाववडे हरि अने ईश्वर एवा भगवाननो आदर कर्योछे ॥१९॥
आप प्रजाने दण्डदेवावाळा साक्षात् यम ज छो. माण्डव्य* ऋषिनो शाप थवाथी ज आपे श्रीव्यासजीना वीर्यथी एमना भाई विचित्रवीर्यनी भोगपत्नी दासीना गर्भथी जन्म लीधोछे ॥२०॥
विशेष - कोई राजाना राज्यमां चोरी थतां. चोरने पकडनारे चोरनी साथे तपश्चर्या करतां माण्डव्य ऋषिने पण पकड्या अने ए चोरनी साथे मुनिने पण शूळी उपर चडाव्या तपास करतां ब्राह्मण जाणी शूळी उपरथी उतार्या के ए मुनि यमराजा पासे गया अने पोताने शूळीरोपनुं कारण पूछ्युं एणे बाल्यावस्थामां कोई जीवने शूळी उपर चढावेल तेथी आम थयुं एवुं कह्युं. एना उपर क्रोध करीने यमराजाने कह्युं के बाळपणमां करेल पाप तो मा-बापने भोगववुं पडे पण मने ते दण्ड आप्यो ए तें अन्याय कर्यो छे तेथी तुं शूद्र थईश एम शाप आप्यो. ए शापने लईने विचित्रवीर्य स्त्री तरीके राखेली दासीना उदरथी जन्मीने यमराजा सो वर्ष सुधी शुद्र तरीके रह्यां ते ज विदुरजी. सेवक सहित तमे भगवानना मानीता छो. जती वखते भगवाने तमने ज्ञान आपवामाटे मने आज्ञा करी छे ॥२१॥
भगवल्लीला जेमां योगमायावडे विश्वनां उत्पत्ति, स्थिति अने अन्त केवी रीते वृद्धि पामे छे ए वर्णवेलुं छे ए हुं तमने क्रमथी कहीश ॥२२॥
सृष्टिनी पहेला आत्मपणे एक रहेता भगवान् एक ज हता. एवा बधा जीवोना आत्मारूप समर्थ भगवान् पोतानी इच्छा प्रमाणे बहुरूप थवाने अनेक प्रकारनी भेदसृष्टि करे छे ॥२३॥
ए भगवान् तो बधुं ज जोई शके. पण जोवानी कांई वस्तु न होवाथी पोते एकला ज शोभता हता अने एमनी शक्तिओ सूती हती अने पोतानामान्थी ज्ञान गयुं नथी एवा हता, छतां पोते पोताने कांईक अपूर्ण मानवा लाग्या ॥२४॥
[[२२६]] हे महाभाग! जीवना द्रष्टारूप भगवान् पोताने असत् जेवा मानवा लाग्या. ए सारी रीते जोनारनी सद् अने असद्रूप शक्ति जे माया नामथी ओळखाय छे तेनावडे ए समर्थ भगवान् आ जगतने उत्पन्न करे छे ॥२५॥
इन्द्रियोथी पर भगवाने काळवृत्तिवडे गुणमयी मायामां पोताना अंशरूप पुरुषथी वीर्यनुं आधान कर्युम् ॥२६॥
ए वीर्यने काळे प्रेरणा करी त्यारे एमान्थी महतत्त्व थयुं. ए विविध ज्ञानरूप थवाथी पुरुषरूप थयो अने आत्मदेहमां रहेला विश्वने बनावीने अन्धकारने दूर करनार थयो ॥२७॥
ए पुरुष पण अंशरूप गुण अने काळात्मा थईने चतुर्मूति थयो. आ विश्वने उत्पन्न करवामाटे एणे पोताना आत्माने अनेक प्रकारना व्यापारयुक्त कर्यो ॥२८॥
महतत्त्व विकृत थतां एमान्थी अहन्तत्त्व थयुं ए अध्यात्मादि त्रण भेदवाळो थईने भूतो, इन्द्रियो अने मनोमय थयो ॥२९॥
ए अहङ्कार राजस, सात्त्विक अने तामस एवा भेदथी त्रण प्रकारनो थयो. सात्त्विक अहङ्कारमां विकार थवाथी एमान्थी सात्त्विक देवताओ थया, जे अर्थनी अभिव्यक्ति करे छे ॥३०॥
राजस अहङ्कारमान्थी ज्ञानेन्द्रिय अने कर्मेन्द्रिय थई अने तामस अहङ्कारमान्थी भूत अने मात्राओ थयां, जेमां तन्मात्रावाळुं आकाश ए आत्मानुं बोधक छे ॥३१॥
काळ अने मायाना योगथी आकाशमान्थी भगवाने जोयेल एवो स्पर्शगुणवाळो वायु उत्पन्न थयो ॥३२॥
वायु पण आकाशथी बळ प्राप्त करी तेजने उत्पन्न करनार थयो. रूप के जेनावडे जोई शके छे ते एनी तन्मात्रा छे ॥३३॥
भगवाननी दृष्टिथी वायुनां बळने लईने ए ज काळ अने मायाना अंशना योगे रस जेनी तन्मात्रा छे तेवा जळने उत्पन्न कर्युम् ॥३४॥
ब्रह्मनी दृष्टिए वधारेला ए जळे काळ अने मायाना अंशना योगे विकार पामीने गन्धगुणवाळी पृथ्वीने उत्पन्न करी ॥३५॥
आकाश वगेरे भूतोमां उत्तरोत्तर अधिक गुणो होय छे, कारण गुणने अनुसरीने एनी सङ्ख्याना अनुसार एना गुण जाणवा. जेम के आकाशमां एक ‘शब्द’, [[२२७]] वायुमां एक आकाशनो अने एक एनो पोतानो मळी बे शब्द अने स्पर्श तेजमां एक आकाशनो एक वायुनो अने पोतानो मळी त्रण शब्द, स्पर्श अने रूप एम जळमां चार शब्द, स्पर्श, रूप अने रस अने पृथ्वीमां पाञ्च गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध जाणवा ॥३६॥
काल, माया अने जीवना चिह्नवाळा आ देवो विष्णुनी कळाओ अर्थात् गुणो छे. जुदा-जुदा होवाथी पोतानुं कार्य करवानी शक्तिरहित तेओ बे हाथ जोडी भगवानने कहेवा लाग्या ॥३७॥
देवो बोल्या - शरणे आवेला जीवना तापने मटाडनार छत्ररूप आपनां चरणकमळने अमे नमन करीए छीए, जे सन्न्यासीओ जेना मूळनो अवलम्बन ले छे तेओ संसारना भारे दुःखने सहेलाईथी फगावी दे छे ॥३८॥
हे धाता! हे ईश! संसारना जीवो त्रण प्रकारना तापथी दुःखी होवाथी सुखने पामी शकता नथी; माटे अमे विद्यायुक्त आपना चरणनी छायानो आश्रय करीए छीए ॥३९॥
आपनुं मुखारविन्द* वेदरूप गरुडना घररूप छे. ऋषिओ एकान्तमां बेसी एद्वारा आपना चरणने शोधे छे. आपना चरणमां बधाञ्ज तीर्थ वास करीने रहेलां छे. पापनो नाश करनार गङ्गानुं जळ जे आपना चरणरूप छे तेने अमे शरणे छीए ॥४०॥
विशेष - भगवानना मुखारविन्दमां वाणीरूपी वेद छे ए वेदने सुपर्ण कहेल छे. सुपर्ण एटले गरुड पक्षी ए वृत्तिमाटे गमे त्यां फरे तो पण एनो मुख्य निवास तो पोताना घरमां होय तेम वेदरूपी ज्ञानादि मार्गो लोकनी कामनाने लईने वर्णवे तो पण ए वेदरूप पक्षीनुं मूळ स्थान तो एनो माळो छे; तेम अर्ही मुखपद्मनीड एटले मुखरूपी माळो छे; तेम वेदनुं तात्पर्य भगवन्मुखारविन्दरूप भक्तिमां छे. ए तात्पर्य बताववामाटे, मुखपद्मनुं माळारूपे अने छन्दस्नुं सुपर्णरूपे वर्णन कर्युं छे. धीर पुरुषो आपनामां श्रद्धा राखी श्रवणादिथी पुष्ट थती भक्तिवडे तथा वैराग्ययुक्त ज्ञानवडे आपना चरणने प्राप्त करे छे. तेवा चरणारविन्दनी चोकीने अमो प्राप्त थया छीए ॥४१॥
आप विश्वनां उत्पत्ति, स्थिति तथा संयमने माटे अवतार धारण करो छो.
एवा आपना चरणारविन्दने अमे शरणे जईए छीए. हे ईश! आपनुं चरण एवुं
[[२२८]] छे के ए जीवने स्मरण अने अभयपदनुं दान करे छे ॥४२॥
देहमां रहेल छतां जे जीवने पुत्रादिमां तथा घरमां ‘हुं अने मारुं’ एवो दुराग्रह दृढ थयो छे. तेनान्थी आप अत्यन्त दूर रहो छो. हे भगवान्! एवा आपनां चरणारविन्दनुं अमे भजन करीए ॥४३॥
हे परेश!१ हे उरुगाय!२ खोटी वृत्तिवाळी इन्द्रियोवडे जे पुरुषनां अन्तःकरण पराभव पाम्यां छे तेवाओ आपना भक्तोने के आपना चरणारविन्दना न्यासनी शोभाने कदी जोई शकता नथी ॥४४॥
विशेष - १. परेश - ब्रह्माजी जेवा मोटा देवोनां पण स्वामी.
२. उरुगाय = इन्द्रिदि मोटा देवो जेनुं गुणगान करे छे तेवा.
हे देव! आपनी कथारूपी सुधानुं पान करीने जेमनी भक्ति वृद्धि पामी छे अने
ज्ञानना साररूप वैराग्यथी जेमनुं अन्तःकरण निर्मळ थयुं छे तेओ अचळ एवा
आपना वैकुण्ठने पामे छे ॥४५॥
बीजाओ आत्माना समाधियोगना बळवान प्रकृतिने जीतीने आपना पुरुषरूपमां आपमां प्रवेश करे छे तेमने आप प्राप्त तो थाओ छो पण जेवा सेवाथी सुखरूपे प्राप्त थाओ छो तेवा प्राप्त थता नथी, कारण के मनना निग्रहादिमां एमने श्रम थाय छे ॥४६॥
लोकने उत्पन्न करवाने आपे अमने त्रण प्रकारे जन्म आप्यो छे, परन्तु अमे सर्व जुदा-जुदा होवाथी अमारुं पोतानुं कर्तव्य करवाने असमर्थ छीए ॥४७॥
अमे आपनी सेवा बजावीए, समय उपर अमे पण अन्न खाईए, वळी आ लोक अमने तेम ज आपने बलि आपी पोते पण अन्न खाई शके एवी बुद्धि अमने आपो ॥४८॥
आप परिकर साथे देवोना मूळ पुरुष छो. पुराण पुरुष ते आप छो. हे देव! आपे गुण अने कर्म जेनावडे थाय तेवी अजा शक्तिमां वीर्यने प्रथम धारण कर्यु ॥४९॥
ततो वयं सत्प्रमुखा यदर्थे बभूविमात्मन् करवाम किं ते ॥ त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥५०॥
एनाथी सात्त्विक अहङ्काररूपे अमे थया छीए; ते अमे आपनी शी सेवा करीए? आप अमने अमारा कर्तव्यनुं ज्ञान थाय तेवी कृपा करो आपे अमारा उपर [[२२९]] अनुग्रह कर्यो छे; माटे आप अमने स्वक्रिया साथे स्वज्ञाननुं दान करो, जेथी अमे कार्य करवामां समर्थ थईए ॥५०॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (बीजा गुणातीतप्रकरणनो पहेलो) ‘‘मैत्रेये विदूरने कहेल सृष्टिक्रम’’नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘यस्तु स्वार्थं भगवन्तं सेवते सो अधमः इति’’ जे स्वार्थ (आजीविका,प्रतिष्ठावगरे माटे)भगवत्सेवा करतो होय तेने अधम (अर्चक) जाणवो. (श्रीवल्लभाचार्य सुबो.२.९.१९)
अध्याय ६
भूतोमां भगवच्छक्तिनो प्रवेश तेथी भूतादिनी उत्पत्ति
विशेष - पूर्व अध्यायमां भगवत्सर्गमां भूतनी उत्पत्ति कही, आ अध्यायमां काळनी उत्पत्तिमाटे ब्रह्माण्ड थयुं एम कहेवाय छे. आवुं कही एवुं बताववामां आवे छे के एमां भगवाने स्वशक्तिनुं दान कर्युं छे अने ए एना भोगनी बाबत छे. ए एना ज विषय छे. ए विषयो अनन्त होवाथी ए भगवानना महात्म्यने बतावनार थाय छे एवी रीते भगवानना विषयना चार प्रकार छे तेमां स्पर्श विषय ज भगवान्मां नथी, जेम भगवान् भावपणाथी ब्रह्माण्डमां व्याप्त छे तेम भगवान् स्पर्शमां व्याप्त होवाथी भावपणाथी भोग सम्भवे पण बीजी रीते भगवान्मां स्पर्श नथी. ‘‘ये हि संस्पर्शजा भोगाः’’ इत्यादिथी गीतामां एने दुःखरूप वर्णव्या छे. भगवान्मां दुःख न होवाथी एपण नहोत. इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ॥ प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - भगवाने जोयुं के पोतानी जुदी-जुदी शक्तिओने लोकनी रचना करवी एनुं ज्ञान नथी तेथी ‘काळ’नामनी दैवी शक्तिने उरुक्रम भगवाने धारण करी अने त्रेवीश तत्त्वनो समुदाय जे कांई पण काम करवाने असमर्थ हतो तेमां एमणे प्रवेश कर्यो ॥१-२॥
ईं उं ईं उं
[[२३०]] तत्त्वो जे जुदां-जुदां हता तेमां भगवाने चेष्टारूपे प्रवेश करी एने भेगां कर्या अने तत्त्वोमां रहेलुं जीवनुं कर्म जे सुषुप्त हतुं तेने काळशक्तिवडे जाग्रतकर्युम् ॥३॥
आवी रीते त्रेवीश तत्त्व समुदायमां दैवेयोगे कर्मो प्रबुद्ध थयेथी एमणे पोतानी मात्राओवडे ब्रह्माण्डने उत्पन्न कर्युम् ॥४॥
ज््यारे भगवाने प्रवेश कर्यो त्यारे विश्वने उत्पन्न करनार तत्त्वनो गुण कांईक अंशे क्षोभ पाम्यो तेथी एमान्थी एक ब्रह्माण्ड थयुं. ज््यारे ए तत्त्वो अन्योन्य मळ्यां त्यारे एमान्थी चराचर लोक थया अने व्यक्तिमां पण सर्व तत्त्वोनो प्रवेश थयो ॥५॥
ए सुवर्णात्मक ब्रह्माण्डरूप पुरुष ए आण्डकोशमां सर्व तत्त्वथी वृद्धि पामतो हजार वर्ष सुधी रह्यो ॥६॥
कर्मे प्रेरेली काळशक्तिथी विश्वने सर्जनार तत्वनो गर्भ दैवी शक्तिवाळो थयो. एणे पोताना आत्माना एक, त्रण अने दश विभाग कर्या ॥७॥
समग्र प्राणी मात्रनी अन्दर परमात्मानो आ अंश छे ते परमात्मानो प्रथमावतार छे. एमां आ भूत मात्रानो समुदाय देखाय छे. अने अध्यात्म, अधिदैव अने अधिभूत एम त्रण प्रकारनो छे विराट प्राणथी दश प्रकारनो छे. अने हृदयथी एक प्रकारनो छे ॥८-९॥
विश्व सरजनाराओना ईश एवा भगवाने तत्त्वोनी विवृत्तिनुं स्मरण कर्यु अने एनुं इच्छित करवाने विराट्ने पोताना तेजवडे तपाववा लाग्या ॥१०॥
ए विराट्ना तपवाथी एमां केटलाङ्क स्थान छिद्ररूपे प्रकट थयां ए हुं तमने कहुं छुं. ए तमे साम्भळो ॥११॥
ए विराट्ने प्रथम मुख थयुं तेमां अग्नि ए पोताना अंश वाणी साथे प्रवेश कर्यो. तेथी ए जे कांई पोतानां अंश वाणीवडे कहेवानुं होय ते देवताथी अधिष्ठित इन्द्रियद्वारा कही शके छे ॥१२॥
एने ताळवुं नीकळ्युं तेमां वरुणे देवतारूपे प्रवेश कर्यो. जीभवडे ए रसना ज्ञानने सम्पादन करे छे ॥१३॥
विष्णुनो प्रवेश थतां बे नासिका देखाई तेमां अश्विनीकुमारो देवता थया. ध्राण इन्द्रियवडे गन्धनुं ज्ञान थाय छे ॥१४॥
एने बे आङ्खो नीकळी. तेमां सूर्य देव तरीकेप्रवेश्या. अनेचक्षुस् इन्द्रियथी [[२३१]] एनेरूपनुं ज्ञान थायछे ॥१५॥
एने चर्म इन्द्रियो थई तेमां लोकने पावन करनारा वायुए देव तरीके प्रवेश कर्यो. प्राण इन्द्रियवडे ए सारी पेठे स्पर्शनो अनुभव करी शके छे ॥१६॥
एमान्थी बे कर्ण नीकळ्या तेमां दिशारूप देवे प्रवेश कर्यो.ए श्रोत्रेन्द्रियवडे शब्दने श्रवण करवारूप सिद्धिने प्राप्त करेछे ॥१७॥
एने त्वक् इन्द्रिय प्रकटी तेमां ओषधि नामनी देवता पेठी. ए रोमरूप इन्द्रियद्वारा खञ्जवाळ (कण्डूति) ने जाणी शके छे ॥१८॥
ए विराट् पुरुषने लिङ्ग नीकळ्युं तेमां ब्रह्माजीए पोतानुं स्थान कर्युं. इन्द्रियवडे ए आनन्दने जाणी शके छे ॥१९॥
पुरुषने गुदा नीकळी तेमां मित्र देवताए स्थिति करी. पायु नामनी इन्द्रियवडे मलत्याग करी शके छे ॥२०॥
आ पुरुषने बे हाथ नीकळ्या तेमां स्वर्गनां पति इन्द्रे प्रवेश कर्यो. बळरूप इन्द्रियवडे ए कर्मने करी शके छे ॥२१॥
ए पुरुषने बे पग जुदा थया तेमां विष्णु देवतारूपे पधार्या. गतिरूप इन्द्रियथी ए पुरुषने ज््यां जवुं होय त्यां जई शके छे ॥२२॥
पछी एने बुद्धि उत्पन्न थई तेमां ब्रह्मा देवतारूपे बिराज््या. बोधरूप इन्द्रियवडे जे जाणवुं होय तेने ए जाणी शके छे ॥२३॥
आ पुरुषने हृदय प्रगट्युं तेमां चन्द्रमाए पोतानुं स्थान कल्प्युं. मन इन्द्रियवडे ए पुरुष विकृतिने पामवा लाग्या ॥२४॥
ए पुरुषने अन्तःकरण उत्पन्न थयुं तेमां रुद्रे देवता तरीके प्रवेश कर्यो. अहम्बुद्धिरूपी इन्द्रियवडे ‘में कर्युं’ एवुं ए माने छे ॥२५॥
आ पुरुषने सत्त्व उत्पन्न थयुं तेमां महान देव थया. चित्त इन्द्रियवडे ए चेतनने पामवा लाग्या ॥२६॥
आ विराट पुरुषनां मस्तकथी स्वर्गलोक थयो, पगथी पृथ्वी उत्पन्न थई, नाभिथी आकाश थयुं एमां गुणनी वृत्तिओ तथा देवो वगेरे प्रतीत थाय छे ॥२७॥
अधिक सत्त्वने लईने देवो स्वर्गने पाम्या. रजोगुणी स्वभाववडे माणसो पृथ्वीने पाम्या. गायो वगेरे पशु तामस छे ते माणसोनी पाछळ जन्म लेनारां छे अने माणसने उपकार करनारां छे तेथी पृथ्वी उपर आव्याम् ॥२८॥
[[२३२]] तामस स्वभावने लईने भगवाननी नाभिनो आश्रय करनारा रुद्रना पार्षदोए एमना गुणोने लईने शून्य स्थानने स्वीकार्यु ॥२९॥
हे कुरूद्वह! पुरुषना मुखथी ब्रह्म उत्पन्न थाय छे. जेनामां ए ब्रह्म जाय ते ‘ब्राह्मण’ वर्णमां मुख्य होवाथी ए ब्राह्मणने गुरु पण थयो ॥३०॥
बाहुथी क्षत्र थयुं, जेमां ते प्रवेश करे ते क्षत्रिय, बाकीना त्रण वर्णोने कण्टकना क्षतथी रक्षा करतो होवाथी ‘क्षत्रिय’ थयो. पौरुषयुक्त होवाथी ए पौरुष कहेवाय छे ॥३१॥
लोकने वृत्ति आपनारी विश् नामनी देवता एनी बे साथळमान्थी थई तेनाथी ‘वैश्य’ थया. ए मनुष्यनी वृत्तिने चलावे छे ॥३२॥
भगवानना चरणथी शुश्रूषाधर्म सिद्ध करवाने शूद्र थयो. सेवारूप एनी वृत्ति होवाथी भगवान् एवी वृत्तिथी सन्तोष पामे छे ॥३३॥
ए वर्णो पोतानी वृत्ति* सहित उत्पन्न थया छेःएओ आत्मानी शुद्धिमाटे गुरु हरिने श्रद्धावडे भजे छे ॥३४॥
विशेष - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र ए चारनेमाटे चार पुरुषार्थ नक्की करेला छे. ब्राह्मण मोक्षने माटे छे; क्षत्रिय कामने माटे छे; वैश्य अर्थ सम्पादन करवाने माटे छे; अने शूद्र धर्म सिद्ध करवाने माटे छे. ते-ते त्रिवर्णनी सेवा करे तेथी एनो धर्म सफळ थाय छे. ब्राह्मण मोक्ष सम्पादन करे, क्षत्रिय, वैश्य काम तथा अर्थने सम्पादन करे तेमां भगवान् विशेष प्रसन्न न थाय पण त्रण वर्णने भगवत्स्वरूप जाणी शूद्र सेवा करे छे. तेथी शूद्रने भगवान् प्रसन्न थाय छे. माटे मोटा भगवद्भक्तनो जन्म शूद्रमां विशेषे करीने जणाय छे. ते-ते स्वधर्म तथा भगवद्धर्म बन्ने सेवा छे तेथी भक्तिनो मुख्य अधिकारी छे. हे संयमी!, देव, कर्म अने आत्मारूपे एकांशथी भगवान् अनेक रूपे थया. भगवाननी योगमायाना बळना उदयवाळा आ (चरित्र) नो आरम्भ करवानी श्रद्धा कोण सेवी शके? ॥३५॥
अन्यमां वाणीनो विनियोग थवाथी मारी वाणी असती बनेली होय तेने भगवान् सत्कारे एमाटे हुं मारी बुद्धि अनुसार जेवुं मे साभळ्युं छे तेवुं भगवाननी कीर्तिनुं, हे अङ्ग! वाणीवडे हुं जन्म्यो त्यारथी ते आ पळ सुधी कीर्तन करुं छुं ॥३६॥
भगवानना गुणोनुं गान करवुं ए वाणीनो मोटामां मोटो लाभ छे. वळी [[२३३]] विद्वानोए आरम्भ करेली कथारूपी सुधामां काननो विनियोग करवो ए पण मोटामां मोटो लाभ छे ॥३७॥
हे वत्स! आदिकवि ब्रह्माए देवताओना एक हजार वर्ष गया पछी ज््यारे एमनी बुद्धि, योगथी परिपक्व थई त्यारे एटलो निश्चय कर्यो के भगवानना महिमानुं श्रवण करवुम् ॥३८॥
माटे भगवाननी माया तो एवी छे के मायावीने पण मोहमां नाखे, अरे! भगवान् पोते पोताना मार्गने नथी जाणता तो बीजा तो ए मार्गने क््यान्थी ज जाणी शके? ॥३९॥
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त, वाचश्च मनसा सह ॥ अहं चाऽन्य ईमे देवास्तस्मै भगवते नमः ॥४०॥
वाणी अने मन जेने पहोच्या वगर ज पाछां फरे छे तेमज हुं एटले अहङ्कार अने तत्त्वरूप इन्द्रियोनी देवताओ पण आ भगवानना स्वरूपने जाण्या वगर पाछी फरे छे ते भगवानने जाणवानो प्रयास न करतां एमने नमन करुं छुम् ॥४०॥
इति श्रीभागवत तृतीयस्कन्धमां(बीजा गुणातीत प्रकरणना बीजो) ‘‘भूतोमां भगवत्शक्तिनो प्रवेश तेथी भूतादिनी उत्पत्ति’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. त्रीजुं सगुणप्रकरण
अध्याय ७
स्वयं निर्गुण ब्रह्मने मायानो सम्बन्ध केम थयो वगेरे विदुरजीनी शङ्काओ
विशेष - मन द्वारा सर्व इन्द्रियोनुं निरूपण आ अध्यायमां करवामां आवे छे तेथी भगवाननी
इन्द्रियोरूप मननो सर्ग अर्ही कहेवामां आवे छे. मन सङ्कल्प-विकल्पना भेदवडे बे प्रकारनुं छे.
सङ्कल्प सन्देहवाळो होय छे. अर्थात् अन्यथाज्ञानरूप सन्देह थाय ते सङ्कल्प-विक्ल्प. ए
अनेक प्रकारना अर्थवाळो होय छे एनुं अर्ही निरूपण छे. भगवाननां कर्म जाणवाने बधां
कर्मोनो प्रश्न उपस्थित करवामां आव्यो छे, कृति एटले कर्म, प्रथम मन होय तो सिद्धी थती
[[२३४]] होवाथी मननुं निरूपण कृतिथी थाय छे. तेथी कार्यनी पहेला मनने कहेवामां आवे छे, ‘‘एवं
ब्रुवाणं मैत्रेय’’ ए शरूनो श्लोक घणुं करीने क्षेपक छे एम श्रीपुरुषोत्तमजी माने छे. तेनो
अर्थ - ‘‘श्रीशुकदेवजी बोल्या - आ प्रमाणे कहेता मैत्रेयने द्वैपायनना पुत्र डाह्या विदूरजी
वाणीथी खुश करता होयतेम कहेवा लाग्या’’.
ब्रह्मन्! कथं भगवतश्चिन्मात्रस्याऽविकारिणः ॥
लीलया चाऽपि युज्येरन्निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥१॥
विदुरजीए कह्युं - ब्रह्म तो केवळ चैतन्यमात्र, निर्गुण अने अविकारी छे तेनामां लीलावडे पण गुणो अने कर्म केम सम्भवे? ॥१॥
बाळकमां क्रीडा करवानी प्रवृत्ति थाय ते पण बीजानी साथे रमवानी प्रथम एने इच्छा थाय त्यारे ज बने. भगवान् तो जाते ज तृप्त छे अने बीजो कोई होतो नथी तेथी एमां कोई निमित्त पण नथी; तो पछी बाळकनी पेठे लीला केम घटे?॥२॥
भगवान् ए विश्वने गुणवाळी आत्ममायावडे उत्पन्न करे छे, मायावडे ए एनुं सारी पेठे रक्षण करे छे, वळी पाछो एनो ए पोतामां उपसंहार करे छे ॥३॥
परन्तु देश, काळ, अवस्था, स्व अने पर एवा कशाथी जेमनुं ज्ञान लोपातुं नथी तेवा ज्ञानरूप परब्रह्मने मायानो सम्बन्ध केवी रीते थाय? ॥४॥
सर्व शरीरोमां एक ज भगवान् रह्या छे तेमने जन्मवडे दुर्भगपणुं अने कलेश केम सम्भवे? ॥५॥
ज्ञानना आ सङ्कुचित मार्गमां मारुं मन मूञ्झाय छे तो हे विभो! समर्थ एवा आप मारा मनना खेदने दूर करो ॥६॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - तत्त्व जाणवानी इच्छावाळा विदुरजीए ए प्रकारे मुनि मैत्रेयने पूछ्युं त्यारे भगवान्मां चित्त राखी जेनो गर्व चाल्यो गयो छे तेवा मुनि मन्द हास्य करी उत्तर आपवा लाग्या ॥७॥
मैत्रेय बोल्या - ईश्वर विमुक्त होवा छतां एमां कृपणता अने बन्धन वगेरे जोवामां आवे ए ज भगवाननी माया, मायाने लीधे ज तमे कह्यो तेवो तर्कनो विरोध भगवान्मां देखाय छे ॥८॥
जीवने बन्धन करनार कोई नथी छतां एने लीधे ज ‘‘हुं बन्धायेलो छुं’’ एवो ऊलटो भाव देखाय छे. स्वपनमां पोतानुं माथुं कपायेलुं जोवामां आवे पण ए माथामां ज आङ्ख रहेली होवाथी एवुं जोई शकाय नहि छतां एवुं देखाय छे तेम [[२३५]] पासे जोनार द्रष्टाने आत्माथी जुदी रीते स्वस्वरूप देखाय छे ॥९॥
जेम जळमां चन्द्रमान्ने विशे कम्पादि देखाय पण ए कम्प चन्द्रमामां होतो नथी तेम देहादिना गुणो आत्मामां न होवा छतां देखाय छे ए मायाथी ॥१०॥
ए मायानो सम्बन्ध अनर्थ बतावनार छे. भगवान् कृपा करे अने निवृत्तिमार्गना धर्म आचरवामां आवे तो भगवद्भक्तियोगवडे धीमे-धीमे ए निवृत्त थाय ॥११॥
परमात्मा हरि द्रष्टा छे. एमनामां बधी इन्द्रियोनो उपराम थाय त्यारे जेम सूई रहेनारना बधा कलेश निवृत्त थाय छे तेम एना बधा कलेश निवृत्त थई जाय ॥१२॥
मुरारि भगवानना गुणोनुं जो श्रवण करवामां आवे तो ए बधां दुःखोनो नाश करे छे तो पछी पोतानी मेळे प्राप्त थती भगवानना चरणारविन्दनी रजनी सेवामां प्रीति करवामां आवे तो ए कलेशने मटाडे एमां तो शुं कहेवुं? ॥१३॥
विदुरजी बोल्या - हे विभो! तमारी सदुक्तिरूपी खड्गथी मारो सन्देह कपाई गयो; पण हे भगवन्! सन्देह मट्या छतां भगवाननी स्वतन्त्रता जीवनी परतन्त्रता अने ज्ञान अने मायानो सम्बन्ध एम बन्ने बाबतमां मारुं मन सारी रीते अत्यन्त प्रवेश करे छे ॥१४॥
हे विद्वन्! भगवाननी आत्ममाया-जीवमाया मोह करनारी छे तेनावडे ब्रह्ममां जडता अने अनात्मामां आत्मतानुं स्फुरण थाय छे एवुं आपनुं कहेवुं बराबर छे, कारण के जे न होय, जेनुं मूळ ज न होय ते देखाडवुं ए मायानुं कार्य छे. तेथी जे मायाकृत वच्चेनो सर्ग छे ते खोटो छे, मिथ्या छे, निर्मूळ छे. विश्वनुं मूळ ब्रह्म छे, बहारना विषयो विश्वमूळ नथी ॥१५॥
लोकमां जे मूढतम छे अने जे बुद्धिना पारने पाम्यो छे ते बे ज सुखी छे; परन्तु थोडुं ज्ञान अने थोडी भक्तिवाळाने एक निश्चय होतो नथी तेथी बे नौकामां एक-एक पग मूकनार जेम कलेश पामे तेम ए वचमां रहेवाथी कलेश पामे छे॥१६॥
‘‘आत्मैवेदं सर्वम्’’ ‘‘आ बधुं आत्मा ज छे’’ एवुं श्रुति कहे छे तेथी आनात्मामां कांई अर्थ नथी ए निश्चय छे तेथी जे प्रतीत थाय छे ते तद्रूपे एटले अनात्मरूपे थतुं होवाथी अनर्थरूप छे. अर्थरूप तो ब्रह्म छे. एनी प्रतीति थती नथी. प्रतीति थाय छे ए ब्रह्म नथी. तो पण आपना चरणनी सेवा वडे हुं ए खोटी प्रतीतिने दूर करीश ॥१७॥
[[२३६]] मधुदैत्यनो द्वेष करनार दानवने मारनार कूटस्थ भगवाननां चरणविशे रतिविलास करवाथी बधा दुःख मटी जाय छे. अने आ एमनी सेवा वडे थाय छे ॥१८॥
जेओ अल्प तपवाळा छे तेमने भगवानना मार्गमां रहेता भगवद् भक्तोनी सेवा दुर्लभ छे. ए भगवद्भक्तो देवना देव अने अविद्या दूर करनार भगवाननुं नित्य गान करे छे ॥१९॥
समर्थ भगवाने विकारयुक्त महदादिने अनुक्रमे उत्पन्न करीने एनाथी विराट्नो उद्धार करी पोते एमां प्रवेश कर्यो ॥२०॥
ए ज आदि पुरुष कहेवाय छे. एना हजारो पग, साथळ, बाहु छे. एनामां विश्व तथा आ लोको सारी रीते रही शके छे ॥२१॥
दशविध प्राण, इन्द्रियो, एना अर्थो, इन्द्रिय प्राण अने एनुं त्रैविध्य, तमे कहेला वर्णो, भगवाननी विभूति आ बधुं जेमां आवेलुं छे ते बधानुं वर्णन करीने मने कहो ॥२२॥
ते विभूतिओमां पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र अने गोत्रजोनी साथे विचित्र आकृतिओवाळी प्रजा थई के जेनावडे आ जगत् भराई गयुम् ॥२३॥
प्रजापतिना पतिए कोने प्रजापति तरीके नक्की कर्या? वळी सर्ग, अनुसर्ग, मनु अने मन्वन्तर, एमनां वंशो तथा एमना वंशमां थयेलानां चरित्रो, भूमि उपरना तेमज नीचेना लोक, हे मैत्रेय! जेमां आ सर्व रहे छे तेनुं प्रमाण तथा तेनुं स्थान तथा भूलोक ए सर्वनुं आप वर्णन करो ॥२४-२५॥
तिर्यक्, मानुष, देव, मृग, पक्षी, सर्पो एमनी उत्पत्तिनो समूह, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अने उद्भिज्जना सर्गनुं पण वर्णन करो ॥२६॥
श्रीहरिए सृष्टि करती वखते जगतनी उत्पत्ति, स्थिति अने संहारने माटे पोताना गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु अने महादेवरूपथी जे क्ल्याण करनारी लीलाओ करी एनुं पण आप वर्णन करो ॥२७॥
रूप, शील अने स्वभाववडे वर्णो अने आश्रमोनो विभाग तथा ऋषिओनां जन्म तथा कर्म तथा वेदनी शाखारूपी विभाग कहो ॥२८॥
हे प्रभो! यज्ञना विस्तार, योगना मार्गो, निवृत्तिमार्ग, साङ्ख्यतन्त्र तथा वैष्णवशास्त्रो कहो ॥२९॥
पाखण्ड मार्गनुं विषमपणुं, प्रतिलोम चाण्डलादिनो उपयोग, अथवा उत्पत्ति [[२३७]] अने जीवनी गुण अने कर्मोवडे थती जे-जे गतिओ होय ते आप मने कहो ॥३०॥
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ए चार पुरुषार्थनो विरोध न आवे तेवां साधनो, जीविकाना अधिकारना भेदवडे थयेला प्रकार, राजधर्मना प्रकार, अधिकारभेदथी वेदाध्यायनना विधिओ, श्राद्धना विधिओ, पितृओनी सृष्टि, ग्रहो, नक्षत्रो अने ताराओनी-ज््योतिश्वक्रनी स्थिति अने दाननां, तपनां, वाव, कूवा, तळाव वगेरे यज्ञादिनां फळ, प्रवासना धर्म आपत्तिना धर्म आप कहो ॥३१-३३॥
भगवान् धर्मना कारणरूप छे; ते जेनाथी सन्तुष्ट थाय ते कहो, हे अनध! भगवान् जे अधिकारी उपर प्रसन्न थई वरदान आपवाने तैयार थाय ते कहो ॥३४॥
हे उत्तम ब्राह्मण! जे शिष्यो अने पुत्रो आज्ञाकारी सेवा करनारा होय छे तेमने दीन वत्सल एवा गुरुओ वगर पूछये पण बधुं कहे छे ॥३५॥
ए बधां ज तत्त्वोनो प्रलय केटला प्रकारे थयो? प्रलय वखते भगवाननी उपासना कोण करे छे? अने एना स्वरूपमां कोण लीन थाय छे? ॥३६॥
विराट पुरुषनुं तिरोधान, व्यष्टिनुं स्वरूप तथा वेदमां कहेलुं ज्ञान ते बधु मने कहो. गुरु अने शिष्य आवश्यक होवानुं प्रयोजन कहो ॥३७॥
हे निष्पाप! वळी ए ज्ञाननां साधकबाधको जे विद्वानोए कह्यां होय ते कहो तथा गुरु वगर पण ज्ञान केम थाय ए तथा भक्ति वैराग्यना पण उपाय मने कहो ॥३८॥
कर्मने हृदयमां धारण करवा माटे, अथवा मनमां एनुं चिन्तन करवा माटे, में आपने आ बधा प्रश्न पूछ्या छे. मोह करनारी मायावडे मारुं ज्ञान नाश पाम्युं छे एवो हुं अणजाण छुं तेथी ए बधुं आप कहो ॥३९॥
हे अनध! भण्या भणाव्यां वेद, यज्ञ, दान, तप वगेरे बधां मळीने पण जीवने मोक्ष आपनार ज्ञानना अंशने पण पहोञ्ची शकतां नथी ॥४०॥
स इत्थमापृष्टपुराणकल्पः कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ॥ प्रवृद्धहर्षो भगवत्कथायां सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाऽऽह ॥४१॥
श्रीशुकदेवजी बोल्याः कुरुओमां प्रधान एवा विदुरजीए मुनिओमां प्रधान
एवा मैत्रेयने पूछ्युं त्यारे भगवाननी कथा कहेवामां प्रेरावाथी एमनो हर्ष वधी गयो
[[२३८]] अने प्रसन्न मुखवडे हसता होय तेम मैत्रेय कहेवा लाग्या ॥४१॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (त्रीजा सगुणप्रकरणनो पहेलो) ‘‘स्वयं निर्गुणब्रह्मने मायानो सम्बन्ध केम थयो वगेरे विदुरजीनी शङ्काओ’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवानना नामे भीख मागनाराओ श्रीहरिरायजीनी आज्ञा वाञ्चो!!! अपराध३६मो - श्रीठाकोरजीना नामे (भेट- सामग्री-न्योछावर) माङ्गवुं. फळ - सेवा सर्वथा निष्फळ बनी जाय छे. प्रायश्चित्त - जेटलुं माङ्ग्युङ्के भेगुं कर्युं होय तेनाथी पाञ्चगणा नैवेद्यनुं दान करवुं.
अध्याय ८
नाभि-क-म-ळमां रहेला ब्रह्मा-जीने भय लागतां भग-वा-ननी स्तुति करवा लाग्या.
विशेष - आठमा अध्या-यमां भग-वा-ननी बुद्धिनुं वर्णन कराय छे अने बुद्धिना आधा-रने आधे-य-रूप विष-योनो उद्गम कहे-वाय छे. स्वरू-पमां भग-वा-ननी ए बुद्धिना छ प्रकार छे. स्वरू-पमां प्रीति-वाळी, जग-तना सम्ब-न्ध-वाळी अने कृति-वाळी ए मलीने बुद्धिना त्रण भेद छे. लौकिक उपा-यथी जन्म पामती ते बुद्धि बे प्रका-रनी छे. तर्क अने क्रिया एना भेदक छे. एमां क्रिया-त्मक बुद्धि वैदिकी छे. त्रीजो साक्षा-त्कार छे. ए छमां बधुं आवी जाय छे. अर्ही सामान्य रीतिथी श्रीभा-ग-वत् पुराण ग्रन्थ-रू-पिणी बुद्धि कहे-वाय छे. सर्गो-प-यो-गिनी बुद्धि ताम-सथी उत्पन्न थयेल छे. तेथी भाग-व-त्नी प्रवृत्ति अनेक प्रकारे थाय छे. ए प्रवृत्ति दस लीला-वाळी छे तेनी व्यवस्था क्ल्पभेदथी कराय छे ए भग-वद्-बुद्धि आ बन्ने सर्गनी लीलामां विस्ता-रथी कहे-वाय छे. सत्से-व-नीयो बत! पुरुवंशो यल्लो-क-पालो भग-व-त्प्र-धानः ॥ बभू-वि-थे-हा-ऽ-जि-त-की-र्ति-मालां पदे-पदे नूत-न-य-स्य-भी-क्ष्ण-म्- ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - पुरुरा-जानो वंश सत्पुरु-षने सेवा करवा लायक छे; ते वंशमां उत्पन्न थये-लमां मुख्य लोक-पाळ एवा तमे यम (विदुर-रूपे) थया छो अने भग-वा-ननी कीर्ति-रूप माळाने वारं-वार पदे-पदे नवीन करो छो ॥१॥
[[२३९]] ईं उं ईं उम्मनुष्यो क्षुद्र सुख-माटे मोटुं दुःख भोगवे छे ते दुःख मटा-ड-वा-माटे हुं तमने ‘भा-ग-वत्’ नामनुं पुराण कहुं छुं. ए श्रीभा-ग-वत् साक्षात् भग-वाने ऋषि-ओने कहेलुं छे ॥२॥
आदि भग-वान् सं-क-र्षण, अप्र-ति-हत बळ-वाळा छे. ए पृथ्वी उपर बिरा-जता हता त्यारे वासुदे-वनुं तत्त्व जाण-वानी इच्छा-वाळा सन-त्कु-मा-रादि मुनिओ ए सं-क-ष-र्णने पूछवा लाग्या ॥३॥
वासुदे-वने पोताना आश्र-य-रूप मानता ते सं-क-र्षण भग-वा-ननुं ध्यान घर-वाथी अन्दर प्रेरेलां नेत्र-क-म-ळनो कांईक विकास करी देव-ता-ओना भला-माटे पूछवा लाग्या ॥४॥
गं-गा-ज-ळथी पोतानी जटा र्भीजा-येली छे ते जटाना समू-हथी सं-क-र्ष-णना चर-ण-पी-ठि-का-रूपी पद्मने सिञ्चन करता ए सन-कादि मुनिओ पूछवा लाग्या. सं-क-र्ष-णनुं चर-ण-पद्म एवुं छे के वरदान लेवा वासुकि वगेरे नागोनी कन्याओ प्रेम-स-हित नाना प्रका-रनां पूजानां साध-नोथी एमनी पूजा करे छे ॥५॥
जेमनी हजारो फणा हजारो किरी-टोना मोटा मणि-ओना तेजथी प्रका-शती हती तेवा सं-क-र्षण भग-वा-नना स्वरू-पने पोते जाणता होवाथी अनु-रा-गने लीधे पूरुं बोली शकातुं नथी एवी भाषाथी ए सन-कादि मुनिओ सं-क-र्ष-णनी लीलाने वारं-वार गावा लाग्या ॥६॥
भग-व-त्तम एवा सं-क-र्षणे निवृ-त्ति-ध-र्ममां अभिरु-चि-वाळा सन-त्कु-मा-रने श्रीभा-ग-वत् कह्युं हे अङ्ग! पूछ-वामां आव्याथी सन-त्कु-मारे व्रत धारण करेला सां-ख्या-य-नने आ श्रीभा-ग-वत् कह्युम् ॥७॥
सां-ख्या-यन पार-म-हंस्य धर्ममां मुख्य छे. भग-वा-ननी विभूति कहेवा इच्छता हता तेथी अमारा गुरु जिज्ञासु परा-शर मुनिने अने बृह-स्प-तिने सां-ख्-या-यने आ कह्युम् ॥८॥
पुल-स्त्य-ना* कहे-वाथी परा-शर मुनिए ए आदि-पु-राण मने सारी रीते कह्युं. हे वत्स! श्रद्धा-वाळा अने नित्य सेव-क-प-णाथी अनु-स-र-नारा एवा तमने हुं हवे कहुं छुं ॥९॥
विशेष - परा-शर मुनिनी गेर-हा-ज-रीमां एमना पिता शक्तिने कोई राक्षस खाई गयो त्यारे
परा-शर मुनिए राक्ष-स-सत्रो करी एमां अनेक राक्ष-सोने मारी नाख्या त्यारे पुलस्त्ये एमान्थी
[[२४०]] बचवा प्रार्थना करीने सत्र बन्ध करवा विन्तति करी एटले परा-शरे सत्र बन्ध कर्यो. पुलस्त्ये
प्रसन्न थई परा-श-रने पुरा-णना आचार्य थवानुं वरदान आप्युं तेथी परा-श-रने भाग-व-त्नी
प्राप्ति थई.
ज््यारे आ विश्व जळमां डूब्युं हतु त्यारे ननिद्राथना-मनी भग-व-त्श-क्तिए
जेमनुं ज्ञान नष्ट कर्युं नथी तेवा ए भग-वान् शेष-रूपी शय्यामां आत्म-र-मण करता
निश्चेष्ट थईने एकला नेत्र र्मीचीने रह्या हता ॥१०॥
जेम लाक-डामां अग्निनुं वीर्य छुपा-ईने रहे छे तेम पोताना स्वरू-पमां भूत अने मात्राओ ने समा-वीने काला-त्मक शक्ति प्रेरता ए भग-वान् पोताना स्थान-रूप जळमां केट-लोक वखत रह्या ॥११॥
चार युगो एक हजार वार गया तेटलो वखत एमणे जलमां निवास कर्यो. ज््यारे एमणे काळ नामनी शक्तिने जाग्रत करी त्यारे लोक रच-वानां साधन प्राप्त थतां एमणे पोताना शरी-रमां रहेला अमुक्त लोकोने जोया ॥१२॥
ए भग-वा-नने जीवना भोग्य पदार्थमां दृष्टि जतां ए रजो-गु-ण-वडे अति सूक्ष्म-रूप थई गया त्यारे रज-वडे ज प्रसव पामता नाभिदे-शथी ए पोते ज सूक्ष्म-रूप नीकळ्या ॥१३॥
ज््यारे विष्णु भग-वान् सर्व गुणनो भास करता ए पद्म-को-शमां दाखल थया त्यारे काळे कर्मनो प्रबोध कर्यो अने पोतानी कान्ति-वडे जळने प्रकाश करतो ए सूर्यनी पेठे पोते आत्म-रूपे प्रकट थयो; ए वेदमय अने सर्वनो कर-नार होवाथी लोको एने ‘स्वयं भू’ कहे छे ॥१४-१५॥
कम-ळनी खीलेली कळीमां रहीने जोतां एणे लोकने न जोया तेथी परि-क्र-मण करी एणे आकाश तरफ नेत्र खोल्युं तेथी चार दिशामां एने चार मुख थयाम् ॥१६॥
ए जळ युगा-न्तनां वायुथी खळ-भ-ळाट पामतुं हतुं अने एना तर-ं-गोना चक्र-मान्थी कमळ उत्पन्न थयुं हतुं; ए कम-ळनो आश्रय करीने रहेला ए आदिदेव, ब्रह्मा ‘‘हुं कोण छुं अने आ कमळ शुं छे?’’ एनो विचार करतां कांई जाणी शक््यानहि ॥१७॥
एमणे विचार कर्यो के ‘‘आ कमळ उपर रहेलो हुं कोण छुं. आ जळमां कोई नथी तो आ कमळ क््यान्थी? आनो कोई आधार होवो जोईए के जेनाथी ए स्थिति करी रह्युं छे. एथी एनी नीचे कांई पण होवुं जोईए?’’ एम विचार फरी एमणे कम-ळनी नाळना छिद्रमां प्रवेश कर्यो. ब्रह्मा पोते ए कम-ळ-ना-ळना छिद्रमां गया तो [[२४१]] पण नाळ सिवाय त्यां बीजुं कांई ए जोई शक््या नहि. अपार अन्ध-का-रमां पोताना पिताने जोतां-जोतां घणो काल चाल्यो गयो आ काल ज भग-वा-ननुं चक्र छे जे प्राणी-ओने भय-भीत करतुं रहे छे अने तेमना तथा ब्रह्माना आयु-ष्यनो नाश करे छे ॥१८-२०॥
पोताना मनो-रथ सिद्ध न थतां ए काम करवुं छोडी दईने ब्रह्मा पाछा कम-ळमां आव्या अने धीरे-धीरे श्वासने जीती, चित्तने एकाग्र करी अर्थनुं चिन्तन करता समाधि करीनेबेठा ॥२१॥
एक सो वर्ष जेटला काळ सुधी ब्रह्माए योग कर्यो त्यारे ब्रह्मा-जीने विशेष ज्ञान थयुं. एमना हृदयमां कोई दिवस नहि देखा-येलुं एवुं शेषना क्ण-रूपी हजारो छत्रोना मणिनी कान्तिथी युगान्त जळनुं अन्धारुं नष्ट करतुं स्वरूप जळमां समा-धिमां जोवामां आव्युम् ॥२२॥
ए स्वरूप कम-ळ-तन्तु जेवुं गौर अने विस्ता-र-वाळा शेषना शरीर उपर सूतेलुं अने पुरुष-रूप जोवामां आव्युम् ॥२३॥
मरक-त-म-णिनां पर्व-तनी कान्तिने टक्कर मारतुं, सन्ध्या सम-यनां वादळा-रूपी कटी-व-स्त्र-वाळुं, घणा सुवर्ण मुकु-टो-युक्त मस्त-क-वाळुं, रत्ननी कान्ति-रूप जळनी धाराओ तेज-स्विनी औष-धिओ, पुष्पोना समूहो अने वननी माळाओ युक्त, वेणु-रूप भुजा अने वृक्ष-रूपी चर-ण-वाळा भग-वा-नना स्वरू-पने ब्रह्मा-जीए जोयुम् ॥२४॥
जेटली लम्बाई-पहोळाईमां त्रण लोक सारी रीते रही शके तेटला विस्ता-र-वाळो एमनो देह हतो. विचित्र दिव्य आभ-रण अने वस्त्रोनी शोभाथी सुशो-भित एवो एमनो देह हतो ॥२५॥
पोतानी काम-नाने पूर्ण कर-वा-माटे अनेक मार्गो-वडे भजन करता लोकोने ते-ते कामना पूर्ण करता नख-रूपी चन्द्रनां किर-णथी जेमना चर-ण-क-म-ळनी पान्दडी सं-कु-चित छे तेवा चर-ण-क-म-ळनुं कृपा करीने दर्शन आपता हता ॥२६॥
चोत-रफ झळ-कता कुण्ड-ळथी शोभता अने लोकनी पीडाने मटा-ड-नार स्मित-वाळा अध-र-बि-म्बनी कान्तिथी लाल देखाता सुन्दर नासिका अने भृकु-टी-वाळा मुखा-र-वि-न्द-वडे तेओ सेवक लोकोनो सत्कार करता हता ॥२७॥
कदम्ब-पु-ष्पना तन्तु जेवा पीळां वस्त्रथी शोभित, नितम्ब उपर कटि-मे-ख-लाथी
भूषित, अनन्त धन-वाळा अने दक्षि-णा-वर्त हृदयस्थ रोम-रा-जी-रूप ‘श्री-वत्स’ जेमाञ्छे
[[२४२]] तेवा वक्षःस्थ-ळमां हार-वडे तेओ प्रीति करा-वताहता ॥२८॥
अमूल्य बाजू-ब-न्धना मोटा मणि-ओथी युक्त हजारो हाथो-रूपी शाखा-वाळा, जेमनुं मूळ कोईना जाण-वामां नथी तेवा, सर्प-रा-जना शरी-रथी व्यापेला स्कन्ध-वाळा, भुव-न-रूपी वृक्ष-रा-जना स्वरू-पने धारण करता हता ॥२९॥
अथवा चरा-च-रनी स्थितिना आधा-र-रूप अर्हीद्र (शेष) ना बन्धु, जळमां रहेलाहजारो किरी-ट-रूप सुव-र्णना शिख-र-युक्त अने कौस्तुभ मणिथी रत्न-गर्भ एवा पर्व-त-रूपे देखाता हता ॥३०॥
वेदरूप भ्रम-रोनी शोभा-वाळी कीर्ति-मय वन-माळा जेमना श्रीक-ण्ठमां छे तेवा, सूर्य, चन्द्र, वायु अने अग्निनी पण ज््या गति नथी तेवा, चोत-रफ रहेता मृत्युना साध-न-रूप चक्रादि पण जे स्वरू-पनी पासे जई शकतां नथी तेवा, सर्वना दुःखने हर-नार हरिने ब्रह्माए जोया ॥३१॥
ते ज क्षणे ब्रह्मा-जीए नाभिथी प्रक-टेला कम-ळने पोताने, जळने, वायुने अने आका-शने जोयां ते जगत् रच-नार थया. हवेथी (उत्पन्न थयेला) न हता. ब्रह्मा-जीनी नजर लोक रच-वामां पडी ॥३२॥
स कर्म-बीजं रज-सो-प-रक्तः प्रजाः सिसृ-क्ष-न्नि-यदेव दुष्ट्वा ॥ अस्तौ-द्वि-स-र्गा-भि-मु-ख-स्त-मी-ड्य-म-व्य-क्त-व-र्त्म-न्य-भि-वे-शि-ता-त्मा- ॥३३॥
रजो-गु-णथी रङ्गा-येला अने प्रजाने उत्पन्न कर-वानी इच्छा-वाळा ब्रह्मा आटलुञ्ज कर्मनुं बीज छे एम जोईने अस्पष्ट मार्गमां अन्तःक-रण परोवी स्तुति कर-वा-योग्य भग-वा-ननी स्तुति करवालाग्या- ॥३३॥
इति श्रीभा-ग-वत् तृती-य-स्क-न्धमां (बीजा सगु-ण-प्र-क-र-णनोबीजो) ‘‘ना-भि-क-म-ळमां रहेला ब्रह्मा-जीने भय लागतां भग-वा-ननी स्तुति करवा लाग्या’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पा-र-स-मणि(भा-ग-वत)ने वाटके, भटजी(क-था-कार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्ता-मणि हरिनुं!! सकळ मनो-रथ सेथज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दया-राम) [[२४३]]
ईं उं ईं उं
अध्याय ९
तपथी प्रसन्न थतां भग-वाने वर आपतां ब्रह्मा-जीए सृष्टिनो करेलो आरम्भ
विशेष - जीव-स-र्गमां जे भूत-सृष्टि ते कहे-वानी छे. एमां भूत-ज-न्यत्वे ब्रह्म-ज्ञान कहे-वामां आवे छे. पचीश तत्त्वना स्वरू-पना ज्ञानथी जे ज्ञान थाय ते ‘भू-त-जन्य’ कहे-वाय. तेथी आ नवमां अध्या-यमां प्रथम ब्रह्मा-जीनी स्तुति छे. ए पछी प्रार्थना छे. पछी भग-वान् ब्रह्मा-जीने सर्वो-पदेश करे छे. ब्रह्मा-जीनी स्तुतिमां स्फुट रीते ज्ञान-मा-र्गनो निर्धार छे. एमां सात श्लोकथी ज्ञाननो विषय, छ श्लोकथी एनां साधन, आठ श्लोकथी भग-व-त्स्व-रूप तथा विघ्नोनो अभाव चारथी तदुप-योगी बीजुं प्रकीर्ण छे. आथी विदुर मैत्रे-यना संवादनी सं-गति स्पष्ट थाय छे. ज्ञातो-ऽसि मेऽद्य सुचि-रा-न्ननु देह-भाजां न ज्ञायते भग-वतो गति-रि-त्य-व-द्यम्। नाऽ-न्य-त्त्वदस्ति भग-व-न्नपि तन्न शुद्धं माया-गु-ण-व्य-ति-क-रा-द्यदुरु-र्वि-भा-सि- ॥१॥
ब्रह्माजी बोल्या - हे भग-वन्! घणा काळे हुं आपनुं स्वरूप आजे जाणी शक्यो. भग-वा-ननी गति देह-धा-री-ओथी जाणी शकाती नथी ए दोष ज पुरुषमां मुख्य छे. आ सर्व जे कांई देखाय छे ते आपथी भिन्न नथी अने छतां जे लौकिक दृष्टिथी देखाय छे ते शुद्ध नथी. मायाना गुण पर-स्पर मळ-वाथी आप बहु-रूपे देखाओ छे ॥१॥
अज्ञान जेमान्थी निर-न्तर निवृत्त थई गयुं छे ए आपनुं आ ज्ञान-रूप स्वरूप छे. आपे आर-म्भमां सत्पुरु-षोना उपर अनु-ग्रह कर-वा-माटे सेङ्कडो अव-ता-रना बीज-रूप जे रूप ग्रहण कर्युं ते ज स्वरू-पना नाभि-क-म-ळ-रूप भग-वा-न्-मान्थी हुं प्रकट थयोछुम् ॥२॥
हे परम आन-न्द-मात्र! विकार रहित, कोईथी जेनुं तेज तिरो-हित थतुं नथी तेवा तेज-वाळा, जग-तने पेदा कर-नार, एक, ब्रह्म-रूप तेवा हुं आपने जोउं छुं. हे आत्मन्! आप भूते-न्द्रि-यना आत्मा-रूप छो. हुं आपने शरणे छुम् ॥३॥
हे भुव-न-म-ं-गळ! आ निश्चय ते (स्वरूप) छे, आपनी उपा-सना कर-नारा एवा अमने आपे ध्यानमां अमारा कल्या-ण-माटे आपनुं रूप बताव्युं तेने अमे नम-स्कार करीए छीए, तेनुं अमे अनु-वि-धान करीए छीए, अस-त्पुरु-षोना दुःस-ं-गथी जे नर-कमां जना-राओ आपना रूपनो अनादर करे छे तेवा आपनी आज्ञामां अमे रहीए ॥४॥
[[२४४]] जे कोई आपना चर-ण-क-म-ळनी कळीना वेदरूपी वायुना वहन करेला सुग-न्धने काननां छिद्र-द्वारा सूङ्घे छे, तेने प्रेम-ल-क्षणा भक्ति थवाथी ए आपना चर-णने ग्रहण करे छे. हे नाथ! एना हृदय-मान्थी आप कोई दिवस खसता नथी ॥५॥
धन, देह, सगाओनो भय, शोक, इच्छा, पराभव, वधारे पडतो लोभ अने दुःखनुं मूळ ‘‘हुं अने मारुं’’ एवो खोटो आग्रह छे. एमाटेनो मिथ्या आग्रह त्यां सुधी ज रहे छे के ज्यां सुधी लोक आप अभयना चरणकमळनुं वरण करता नथी ॥६॥
आपनी कथा सर्व अशुभने मटाडनार छे. जेनी इन्द्रियो एना श्रवणथी विमुख छे तेनी बुद्धि दैवयोगे नष्ट थयेली छे एम जाणवुं, जेनां मन लोभथी पराभव पामी लौकिक कामसुखना अल्प भोगने माटे दीन थई जाय छे तेओ निरन्तर पापाचरण करे छे ॥७॥
हे अच्युत उरुक्रम! क्षुधा, तृषा, वात, पित्त, कफ, ठण्डी, गरमी, वायु, वरसादथी अने एक बीजाथी कामाग्नि, दुःसह क्रोध वगेरेथी वारंवार दुःखी थती आ प्रजाने जोईने मारुं दिल सीझी जाय छे ॥८॥
हे ईश! भगवाननी माया इन्द्रियोना अर्थरूप छे. एना बळने लीधे ज्यांसुधी मनुष्य आत्मानी जुदाईने जुए छे, त्यां सुधी एनो आ व्यर्थ संसार क्रियारूप अने अने अर्थरूप जणाय छे. एनो सामनो थई शकतो नथी अने संसार कोई दिवस निवृत्त थतो नथी ॥९॥
दिवसे जेनी इन्द्रियो गृहव्यापारथी थाकी जाय छे, रात्रिमां खूब निद्रा लेतां अनेक प्रकारना मनोरथवाळां स्वपनोथी जेनी निद्रानो क्षणमां भङ्ग थाय छे अने दैवयोगे जेनी अर्थरचना भाङ्गी गई छे तेवा ऋषिओ पण जो आपनी कथाथी विमुख रहे तो एओ पण आ संसारमां भम्या करे छे ॥१०॥
हे नाथ! आपनी श्रवणभक्तिथी जेने आपना मार्गनां दर्शन थयां छे, प्रेमभक्तिनी भावनाथी जेनुं हृदयकमळ आपने बिराजवा लायक थयुं छे, तेवानां हृदयमां आप पधारो छो अने हे उरुगाय! पछी ए जेवा-जेवा रूपनी पोतानी बुद्धिमां भावना करे छे तेवो-तेवो देह अबाधित अनुग्रहवडे आप ए भक्तोने माटे प्रकट करो छो ॥११॥
कामनाओथी जेमनुं हृदय बन्धाई गयुं छे तेवा देवो उचित उपचारोथी आपनी [[२४५]] आराधना करतां होय तो पण आप एमनाथी एवा प्रसन्न थता नथी जेवा आप दुष्टोने प्राप्त न थाय तेवी सर्व प्राणीओ उपरनी दयाथी थाओ छो. आप एक छतां बधां प्राणीओमां सुहृद अने अन्तरात्मारूपे एक ज रह्या छो. (तेथी सर्वभूतदया ए पण सर्वात्मानी ज सेवा छे) ॥१२॥
जो अनेक प्रकारनां यज्ञादि कर्मोवडे, दानवडे, उग्र तपवडे अने व्रताचरणवडे भगवाननुं आराधन सिद्ध थाय तो ए सारी क्रियावाळो अर्थ गणाय, परन्तु जे धर्म आपने अर्पण थाय ए धर्मनो ज कोई काळे नाश थतो नथी ॥१३॥
विशेष - बीजा क्षरणधर्मवाळा पण धर्मो छे तेनुं फळ सद्रूप न गणाय. ‘‘धर्मःक्षरति कीर्तनात्’’ ‘‘अब्दपुण्यं विनश्यति’’ ‘‘हन्ति पुण्यं पुरा कृतम्’’ (‘‘धर्म करुं छुं तेवुं गाया करवाथी धर्म नाश पामे छे’’ ‘‘वर्षभरनुं पुण्य नाश पामे छे’’ ‘‘पूर्वे करेला पुण्यनो नाश करे छे’’). इत्यादि वचनोनो विचार करतां धर्मोनो पण नाश सम्भवित छे. पण भगवानने अर्पण करायेला धर्मनो नाश थतोनथी. जेणे निरन्तर स्वरूपप्रकाशवडे मोह अने भेदनो नाश कर्यो छे, जेनी बुद्धि ज्ञानमां ज छे अने विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने लयना निमित्त बनेली लीलाथी जे क्रीडा करे छे तेवा आपने हुं आ सर्व जीवो सहित नमन करुं छुम् ॥१४॥
जेओ आपनां नाम, अवतार, गुणो अने कर्मोनुं अन्तकाळे पराधीन अवस्थामां पण अनुकरण करतां नामोनो उच्चार करे छे, तेओ अनेक जन्मोनां पापोमान्थी मुक्त थई जेनां द्वार खुल्लां छे तेवा सत्यरूप ब्रह्मने पामे छे. एवा अजन्मा भगवानने हुं शरणे जाउं छुम् ॥१५॥
हुं ब्रह्मा, महादेव अने विष्णु एवा त्रण देवो जगतनां उत्पत्ति, नाश अने पालन करनार छीए. ए त्रणेना मूळरूप आत्मा एवी प्रकृतिने भेदीने महदादि रूपे जे एक होवा छतां अनेक रूपे थया तेवा, भुवनवृक्षरूप भगवत्स्वरूपने हुं नमन करुं छुम् ॥१६॥
मन्मना भव मद्भक्तः वगेरे आपना वचनामृतोद्वारा आपे आपनी पूजा रूप कर्मोने ज लोकोमाटे कल्याणकारी धर्म बताव्यो छे. पण लोको ए स्वधर्म प्रत्ये असावधान-उदासीन रहे छे अने निषिद्ध आचरणमां आसक्त छे. एमनी जीवन- आशाने जे सदा सावधान रही झटपट कापी नाखे छे ते कालने नमस्कार हो ॥१७॥
अविचळ अने सर्व लोकने नमस्कार करवा योग्य ब्रह्मलोकमां हुं बे परार्ध वर्ष
[[२४६]] सुधी स्थिति करी रहुं छुं छतां पण जेनाथी भय पामुं छुं अने जोडे भगवाननी
समीप जवाने में तपश्चर्यादि अनेक यज्ञो कर्या छे छतां अद्यापि तपश्चर्या करुं छुं,
तेवा ए यज्ञना अधिष्ठाता एवा आपने हुं नमुं छुम् ॥१८॥
पशु, मनुष्य, देवादि जीवयोनिमां पोते करेली जगतनी मर्यादाने जाळववामाटे आत्मानी इच्छावडे पोताने इच्छा नथी, देह नथी, छतां आनन्दमय क्रीडा करवाने लीलाविग्रह धारण करे छे, तेवा पुरुषोत्तम भगवानने मारा नमस्कार हो ॥१९॥
पञ्चपर्ववाळी अविद्याने अधीन न होव छतां लोकयात्राने पोताना उदरमां स्थापन करी भयङ्कर तरङ्गथी शोभता जळनी अन्दर शेषरूप गमता स्पर्शवाळी शय्यामां सूई रही ‘‘मारी पेठे रहो तो ज सुख छे’’ एम जाणे लोकने सुखनुं ज्ञान करावता हो एम मनुष्यना सुखने विस्तारी रहो छो ॥२०॥
आपना अनुग्रहने लीधे त्रण लोक जेनी साधन सामग्री छे तेवो हुं ब्रह्मा हे स्तुतिपात्र! आपना नाभिकमळमान्थी थयो छुं. आपना उदरमां आखुं विश्व रह्युं छे; आपनां नेत्र योगनिद्राने अन्ते विकास पामे छे; तेवा आप भगवानने हुं नमुं छुम् ॥२१॥
समस्त जगतना आत्मा सुहृद अने एक रूप भगवान् छे ते आ छे. ए पोताना ऐश्वर्यादि षड्गुण रूप सत्त्ववडे ए समस्तनी रक्षा करे छे. ए प्रणत जनोनी उपर प्रीति राखनार भगवान् मारी तरफ एवी कृपा करे, जेथी हुं प्रथमनी पेठे जगतने उत्पन्न करी शकुम् ॥२२॥
शरणे आवेलाने वरदान आपनार गुणावतार भगवान् पोतानी शक्ति लक्ष्मीवडे जे-जे चरित्र करे ते-ते चरित्रमां आ जगतनो सर्जनार एवा मारूं चित्त जोडाय छतां, जो के सृष्टि करवाना कर्ममां पापनो सम्बन्ध न थाय ए वस्तु अशक्य छे पण ए न सम्भारता मारा भगवत्प्रवण चित्तथी ए पापने दूर करे छे; ॥२३॥
जेनी अनन्त शक्तिओ छे, आ जळमां जे सद्रूपे बिराजी रह्या छे, तेवा पुरुषना नाभिकमळमान्थी विज्ञानशक्तिवाळो हुं प्रकट थयो छुं; तेवो हुं आ विचित्र जगतने सरजुं एमां मने वेदनुं विस्मरण न थाय एटलुं मागुं छुम् ॥२४॥
घणी दयावाळा, वधता प्रेमथी मन्द-मन्द हास्य करता, ऊठीने विश्वनो विजय करवामाटे पोताना नेत्रकमळने खोलता ए पुराण पुरुष भगवान् पोतानी मीठी वाणीवडे अमारो खेद दूर करो ॥२५॥
[[२४७]] मैत्रेय कह्युं - आ प्रमाणे तप, विद्या अने समाधिवडे पोताना पितानुं वाणीथी जेटलुं बने तेटलुं स्तवन करीने खिन्ननी पेठे ब्रह्मा विराम पाम्या ॥२६॥
पछी ब्रह्माजीनी इच्छाने मधुसूदन भगवान् जाणी गया अने कल्पना नाश समये जळना प्रलयथी जे लोक खेद पामता हता तेओनी स्थिति देहमां सारी रीते केम थाय एनेमाटे खेद करता, जाणे ब्रह्मानां बधा दुःखने दूर करता होय एम अगाध वाणीवडे भगवान् बोल्या ॥२७-२८॥
श्रीभगवाने कह्युं - हे वेदगर्भ! (ब्रह्मा), तमे आळस न करो अने सर्गनो उद्यम करो. तमे जेमाटे मने प्रार्थना करो छो ते मे आगळथी ज सम्पादित करी मूक्युं छे ॥२९॥
तमारे फरीथी तप करवुं अने उपासनामाटे मारा सम्बन्धवाळुं ज्ञान प्राप्त करवुं. आ बे करवाथी हे ब्रह्माजी! तमे लोकने हृदयमां आवरण विनाना जोई शकशो ॥३०॥
जो एम करशो तो आत्मामां तेमज लोकमां भक्तिभाववाळा तेमज समाधियुक्त थई तमे ‘‘हुं ए लोकमां केवी रीते व्यापी रहेलो छुं तथा मारामां लोको केवी रीते रहेला छे’’ ए तमे जोई शकशो ॥३१॥
लाकडामां जेम अग्नि रहेलो छे तेम सर्व भूतोमां हुं रहेलो छुं एवी रीते लोको जुए छे त्यारे ज एना पापथी एओ मुक्त थाय छे ॥३२॥
आत्मा जे भूत, इन्द्रिय, सत्त्वादि गुण अने चार प्रकारना अन्तःकरणथी रहित छे अने चिद्रूप छे, तेने मारी साथे जुए त्यारे ज एमने स्वरूपानन्दनो अनुभव थई शके छे ॥३३॥
अनेक प्रकारना विस्तारने लईने एने लायक तमे बहु प्रजाने उत्पन्न करशो तो पण तमारा आत्मामां खेद नहि थाय ए तमारा उपर मारो मोटो अनुग्रह छे ॥३४॥
प्रजाने उत्पन्न करतां पण तमे तमारुं मन मारामां राखेलुं हशे माटे आदि ऋषि एवा तमने पामी रजोगुण बन्धनकारक नहि थाय ॥३५॥
हुं भूत, इन्द्रिय, गुण अने अन्तःकरणथी युक्त छुं एम तमे प्रथम मानता हता. देहधारीओने मारुं ज्ञान न थई शके तेवो हुं छुं छतां आज तमे मने जाणी गया छो ॥३६॥
[[२४८]] कमळना नाळना मूळमां पेसीने शोध करतां तमने मारा स्वरूपमां सन्देह थयो त्यारे जळने विशे में तमने मारां स्वरूपनां दर्शन कराव्यां नहि ॥३७॥
हे पुत्र! तमे मारी कथा अने मारा ऐश्वर्यना लक्षणवाळी जे स्तुति करी अने तमारी तपमां निष्ठा छे ए मारी कृपानुं परिणाम छे ॥३८॥
हुं प्रसन्न छुं. (तेम) थाओ. तमारुं कल्याण (हो), कारण के लोको उपर विजय (प्राप्त करवा) नी इच्छाथी निर्गुण (छतां) अनन्त गुणवाळा तरीके मारुं वर्णन करतां तमे मारी स्तुति करी. (चित्त भगवानना चरित्रमां त्यारे ज परोवायेलुं रहे, ज्यारे भगवान् प्रसन्न थाय, भगवान् प्रसन्न थया छे ए केम खबर पडे? भगवान् ज्यारे शुभ इच्छा प्रकट करे त्यारे ते प्रसन्न छे एम समजवुं. सौथी प्रिय होय ते शुभ इच्छा प्रकट करे. सर्वथा सेवा करवामां आवे त्यारे प्रभु प्रिय थाय)॥३९॥
जेओ नियम पूर्वक आ स्तोत्रथी मारी स्तुति करीने मारुं भजन करशे, तेमनी उपर सर्व इच्छित पदार्थोनो ईश्वर एवो हुं तरत ज प्रसन्न थाउं छुम् ॥४०॥
तत्त्वज्ञानीओनो एवो मत छे के तळाव, कूवा वगेरे करवाथी, तपश्चर्या करवाथी, यज्ञथी, दानथी योग तथा समाधिथी मोक्ष वगेरे फल प्राप्त थतुं होय तो एवुं फळ मारी प्रीतिवडे ज थाय छे ॥४१॥
हे ब्रह्मन्! हुं आत्माओनो आत्मा छुं. घणा ज प्रिय पदार्थो करतां पण अधिक प्रिय छुं. (एटले देह, स्त्री, पुत्रादिमां प्रेम न करतां मारामां ज प्रेम करवो) माटे मारामां प्रीति करवाने लोको देहादिमां प्रीति करे छे ॥४२॥
तमे वेदमय छो, तमे आत्मयोनि छो माटे जेम पहेलां तमे आत्मावडे ज आत्मरूप प्रजाने उत्पन्न करी हती तेम उत्पन्न करो. जे मारी साथे गाढ सम्बन्धवाळी प्रजाओ छे ते भगवदीयोने पण उत्पन्न करो ॥४३॥
तस्मा एवं जगत्स्त्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ व्यज्येदं स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥४४॥
मैत्रेय कह्युं - पोताना स्वरूपवडे जगतना उत्पन्न करनार ब्रह्माजीने एवी रीते जणावी प्रकृति अने पुरुषना नियामक प्रभु अन्तर्धान थया ॥४४॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (बीजा सगुणप्रकरणनो त्रीजो) ‘‘तपथी प्रसन्न थतां भगवाने वर आपतां ब्रह्माजीए सृष्टिनो करेलो आरम्भ’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो [[२४९]] त्रीजुं कालप्रकरण
अध्याय १०
प्रथम काळनी उत्पत्ति तथा विसर्गसृष्टि
विशेष - जगतनां भूतसर्गरूप ब्रह्माजीनुं वर्णन करवामां आव्युं. ए ब्रह्मा भगवाननी
कृपावाळा छे. आ ब्रह्माजीने कार्य करवामां ए कृपा ज कारणरूप छे. आ दसमां अध्यायमां
कालवडे मात्रापणुं कहेवाय छे. आवां महाभूतोनो सम्बन्ध छे एम कहेवामाटे प्रथमनी कृति छे.
ए कृति ब्रह्माजीनी छे. मैत्रेये बे प्रकारनी मात्रा होवानुं कहेलुं छे. ते बे प्रकार - १. भोक्तापणुं
२. द्रव्यरूपशक्ति.
अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः ॥
प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः ॥१॥
विदुरजी बोल्या - भगवानना अन्तर्धान थया पछी समर्थ अने लोकना पितामह ब्रह्माजीए पोताना देहथी अने मनथी केटला प्रकारनी प्रजाने उत्पन्न करी? ॥१॥
हे भगवन्! हे जाणनाराओमां श्रेष्ठ! में आपने जे प्रश्न पूछ्या छे तेओना जवाब आप अनुक्रमे कही मारा सन्देहने दूर करो ॥२॥
सूतजीए कह्युं - ए प्रमाणे विदुरजीए कुशारुना पुत्र मैत्रेयने पूछ्युं त्यारे ए अत्यन्त प्रसन्न थया. हे भार्गव शौनक! ए तथा पूर्वे पूछेलाजे प्रश्न एमना हृदयमां रहेला हता तेमना उत्तर ए कहेवालाग्या ॥३॥
मैत्रेय कह्युं - ब्रह्माजीए भगवानने मनमां पधरावी देवताना* सो वर्ष सुधी तप कर्यु. अजन्मा भगवाने ज आवुं तप करवानुं कह्युं हतुम् ॥४॥
विशेष - पृथ्वी परनुं एक वर्ष=दिव्य (देवोनो) एक अहोरात्र. दिव्य १ वर्ष=आपणां लगभग ३६० वर्ष. तप करतां ब्रह्माजीए जे पद्ममां पोते बेठा हता ते पद्मने अने जळने ते समयना काळे करेल बळवाळा वायुथी कम्पतां जोया ॥५॥
त्यारे एमना वृद्धि पामता तपवडे तेमज मनमां रहेली विद्यावडे के जेनुं बळ घणुं वध्युं हतुं, ते ब्रह्माजी जळनी साथे कम्प करनार वायुनुं पान करी गया ॥६॥
जे पद्म उपर ब्रह्माजी पोते बेठा हता ते आकाशमां व्यापीने रहेलुं हतुं. एने
जोईने पोते विचार करवा लाग्यां के प्रथम लीन थयला लोकोने हुं आ कमळवडे
[[२५०]] उत्पन्न करीश ॥७॥
तेम भगवाननी कृतिथी प्रेरायेला ब्रह्माजीए एक कमळने अनेकरूपे विभक्त कर्यु. गुणवडे एमणे त्रण भाग कर्या अने पछी लोकवेदथी एना चौद भाग कर्या॥८॥
जीवने रहेवाना स्थानरूप लोकने एटलो चौद भुवनरूप विभाग छे. आमां सर्वलोक सारी रीते रही शके छे. आ ब्रह्मा सो जन्ममां सिद्ध करेला हजार निष्काम अश्वमेघ यज्ञना फलरूप छे ॥९॥
विदुरजीए पूछ्युं - हे ब्रह्मन्! आपे अद्भुत कर्मवाळा अने सर्व दुःखने दूर करनार भगवाननुं काळरूप लक्षण कह्युं ते काळना स्वरूपने आप यथार्थरूपे अमने वर्णवी बतावो ॥१०॥
मैत्रेये कह्युं - जेनावडे गुणो परस्पर मळे छे, जे कोई पण जातना विशेष रहित छे, जेनो छेडो नथी, तेवो पुरुष लीलावडे उपादान रूप आत्माने (काळने) उत्पन्न करे छे ॥११॥
विश्व बधुं ब्रह्मोपादानक छे. विष्णुनी मायावडे एनो उपसंहार थाय छे. अस्पष्ट काळरूप ईश्वरवडे जगतनी हद बन्धाय छे ॥१२॥
आ जगत् जेवुं अत्यारे देखाय छे तेवुं ज पहेलां पण हतुं अने पछी पण आवुं ज रहेशे ॥१३॥
(एम काळनुं आधिदैविक स्वरूप कहीने हवे आधिभौतिक कहे छेः) काळ, द्रव्य अने गुणवडे ए काळनो प्रतिसङ्क्रम थाय छे. अर्थात् काळवडे पदार्थ प्रवृत्तिने पामे छे. एटले के द्रव्य अने गुणे पूर्वावस्थाने छोडी विकृतावस्था थाय छे. तेथी छ प्रकारनो प्राकृत अने आध्यात्मिकादि त्रण प्रकारनो वैकृत मळी नव प्रकारनो सर्ग थाय छे ॥१४॥
प्रथम सृष्टि महत्तत्वनी छे. आमां आत्मामान्थी गुणमां विषमभाव थाय छे. बीजी सृष्टि अर्ही अहङ्कारनी छे, जेमां द्रव्य, ज्ञान अने क्रियानी उत्पत्ति थाय छे ॥१५॥
त्रीजी सृष्टि महाभूतोनी उत्पत्तिनी छे. आमां आकाशादि तन्मात्राथी भूतोत्पत्तिरूप सृष्टि आवे छे. ए द्रव्यशक्ति एटले परिणामवाळी छे. चोथी सृष्टि ज्ञान अने क्रियारूप इन्द्रियोनी छे ॥१६॥
इन्द्रियोनी देवताओनो पाञ्चमो सर्ग सात्त्विक छे. क्रियाज्ञानात्माक मन पण [[२५१]] देवरूप छे. ए समर्थ भगवाननो छठ्ठो सर्ग तामस छे, जे सर्ग अज्ञानरूप छे ॥१७॥
आ छ प्रकारना सर्ग ‘प्राकृत सर्ग’ कहेवाय छे. हवे हुं ‘वैकृत सर्ग’ कहुं छुं ए तमे साम्भळो. रजोगुणने सेवनार, सर्व दुःख दूर करवानी बुद्धिवाळा भगवाननी आ लीला छे ॥१८॥
१. वनस्पति* २. औषधि ३. लता ४. त्वकसार ५. विरुध् अने ६.वृक्षो ए छ प्रकारनो स्थावरनो सर्ग छे. सातमो मुख्य सर्ग प्राणीना अन्नरूप छे ॥१९॥
विशेष - १. पीपळो, वडलो वगेरे जे मोर आव्या विना ज फळे छे. २. डाङ्गर घउं, चणाफळ पाकतां ज नाश पामे छे. ३. कोळां वगेरेना वेला, कोईनो आश्रय लईने वधे छे. ४. वांस वगेरे, जेनां बीनो उपयोग अन्न तरीके थाय छे. ५. सोम वगेरे वेला, घासना भेदो विरुद्ध शब्दथी कहेवाय छे. ६.आम्बो वगेरे. आ सर्गने मुख्य कहेवानुं कारण छे. ए मुखमां भक्ष्य तरीके उपयोगी छे; खानारनी स्थितिने दृढ करनार होवाथी मुख्य छे. ए बधां ज्ञान रहित छे, अन्तःस्पर्शवाळा छे. एमां कोई पण जातनुं विशेष ज्ञान होतुं नथी ॥२०॥
तिर्यक् (पशुपक्षीओनो) सर्ग आठमो सर्ग कहेवाय छे. ए अठ्ठावीस प्रकारनो छे एमां चार धर्मो मुख्य लक्षणरूप छे. अज्ञान, अत्यन्त तमोगुणवाळां, ध्राणेन्द्रियथी जाणनार अने अनुभवेलुं भूली जनारा १. अज्ञान-शुं करवुं अने शुं नहि तेनुं ज्ञान नथी होतुं, पारलौकिक ज्ञान पण नथी होतुं २. अत्यन्त तमोगुण-सत्सङ्ग होय तोय ज्ञान न थाय तेवा. ३. ध्राणज्ञ-बधी इन्द्रियो होवा छतां खास करीने नाकथी ज पदार्थोने ओळखे छे. ४. हृद्यवेदी-पहेलां अनुभवेलुं भूली जनारा, चिन्ता रहित थाय, गाय, बकरी, पाडा, काळियार मृग, भूण्ड, रोझ, साबर, घेटां अने ऊण्ट आ नव पशुओ हे उत्तम पुरुष! बे खरीवाळा (सात्त्विक) छे; गधेडो, घोडो, खच्चर, गौरमृग, आठपगवाळो शरभ (सिंहने पण मारी नाखी शके एवुं आठ पगवाळुं आ शरभ अत्यारे तो नामशेष ज छे) तथा चमरी ए बधा एक खरीवाळा छे. हे विदुर! हवे पाञ्च नखवाळा साम्भळो, कूतरो, शियाळ, वरू, वाघ, बिलाडो, ससलो, शेढाई, सिंह, वान्दरो, हाथी, काचबो, घो, मगर वगेरे; कङ्क, गीध, वट, शकरो, भास, भल्लूक अने मोरलो, हंस, सारस, चक्रवाक, कागडो, घूड वगेरे आकाशमां फरनारां आ बधां आठमा सर्गमां आवे छे ॥२१-२५॥
[[२५२]] नवमी सृष्टि छे मनुष्योनी ए एक ज जातनी छे. एनां आहारनो प्रवाह उपरथी-मोढाथी-नीचे जाय छे. मनुष्यो रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण अने दुःखरूप विषयोमां ज सुख माने छे ॥२६॥
हे सत्तम! आ त्रण सर्ग ‘वैकृत’ छे. देवनो सर्ग पण ‘वैकृत’ छे. कौमार सर्ग देव पण होय अने मनुष्य पण होय एम उभयात्मक होवाथी जुदुं निरूपण कर्युं नथी ॥२७॥
दसमा देव सर्गना आठ भेद छेः १. देवो २. पितर अने असुर ३. गन्धर्व अने अप्सरा ४. सिद्धो ५. यक्षराक्षस अने चारण वगेरे आ देवसर्गमां छे; ॥२८॥
६. भूत, प्रेत अने पिशाच ७. विद्याधर ८. किन्नर वगेरे. आ प्रमाणे हे विदुरजी! ब्रह्माजीना करेला दस सर्ग में तमनेकह्या ॥२९॥
एवं रजःप्लुतः स्त्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः ॥ सुजत्यमोधसङ्कल्पः आत्मैवाऽऽत्मानमात्मना ॥३०॥
हवे हुं तमने वंशो अने मन्वन्तरो कहीश. आवी रीते प्रकट थयेला हरि रजोगुणमां व्याप्त थईने अमोध सङ्कल्पवाळा होवाथी तथा पोताना स्वरूपमान्थी उत्पन्न करनार होवाथी ए ज बधाना स्त्रष्टा छे ॥३०॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (त्रीजा कालप्रकरणनो पहेलो) ‘‘प्रथम काळनी उत्पत्ति तथा विसर्गसृष्टि’’ नामनो दशमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय ११
कालना स्थूलसूक्ष्म रूपनुं वर्णन
विशेष - आमां कारणनुं स्वरूप देखाडवामां आवे छे. एमां सर्गनी इन्द्रियो ते पण एक काळनुं रूप छे. एनुं आध्यात्मिक रूप त्रण प्रकारनुं छे. तेथी ज काळ ए पण भगवाननुं ज [[२५३]]
ईं उं ईं उं
एक रूप छे एम कहेवामां आवे छे, काळ धर्मरूपे गति करे छे; ए ब्रह्माने पामे छे. सूर्य ए पण एक काळनुं स्वरूप छे. ए सूर्य ऊगे छे ने जळमां प्रवेश करे छे. ज्यारे ए आकाशमां होय छे, त्यारे देखाय छे; जळमां प्रविष्ट देखातो नथी. एटले देखावाथी अने न देखावाथी दिवस अने रात्रि एम भेद थाय छे. चरमः सद्विशेषाणामनेकोऽसंयुतः सदा। परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः ॥१॥
मैत्रेये कह्युं - जेनो भाग पडी न शके के कोईनी साथे पण न जोडाय तेवी सद्वस्तुनुं नाम ‘परमाणुं’ मनुष्योने (आत्मासाथे देहना) एक पणानो भ्रम थाय छे ॥१॥
स्वरूपमां रहेला सत् पदार्थनी ज जे एकता. जेना सम्बन्धमां ‘‘आ अमुक पदार्थ छे’’ एवी बुद्धि थती नथी (अने) जे भेदरहित छे ते परम महान ॥२॥
हे उत्तम पुरुष!ए परमाणु अने परम महानथी काळनी स्थूलता अने सूक्ष्मतानुं अनुमान करी लेवुं. भगवान् सर्वरूप छे तेथी परमाणु अने परम महान एनाथी भिन्न नथी, छतां पदार्थ भेदथी काळनो विभाग थई शके छे. तेथी सूक्ष्मकाळ, महान काळ एवो व्यवहार थाय छे (ए काळ १अव्यक्त हतो ते २व्यक्तने भोगवनार थाय छे) ॥३॥
विशेष - १. अव्यक्त=न जणाय तेवो. २. व्यक्त=जणाय तेवो. जे परमाणुपणानो मात्र भोग करे ते समय खरेखर परमाणु, जे आखा ब्रह्माण्डने भोगवे ते काळ परम महान कहेवाय. सूर्य जेटला समयमां परमाणु जेटलो चाले ते काळ ‘परमाणु’ कहेवाय; बे परमाणु काळने ‘त्रसरेणु काळ’ कहेवाय. त्रसरेणु बारीमान्थी आवेलां सूर्यनां किरणोना प्रकाशमां उडतुं देखाय छे. आ त्रसरेणुओ आकाशमां ज रहे छे, पृथ्वी उपर पडता नथी ॥४-५॥
त्रण त्रसरेणु भोगवे तेटलो काळ ‘त्रुटि’; सो त्रुटिने भोगवे ते ‘वेध’; त्रण वेधने भोगवे ए ‘लव’; त्रण लवने ‘निमेष’; त्रण निमेषने ‘क्षण’; पाञ्च क्षणने ‘काष्ठा’; पन्दर काष्ठाने ‘लघु’; पन्दर लघुने ‘नाडिका’; बे नाडिकाने एक ‘मुहूर्त’; अने छ नाडिकाने एक ‘प्रहर’ अथवा याम कहेवाय छे, माणसो आने ‘पहोर’ कहे छे ॥६-८॥
पाञ्च चणोठी अने सोळ मासानो एक ‘सुवर्ण’; चार सुवर्णनो एक ‘पल’;
[[२५४]] एवा छ पल त्राम्बानुं पात्र बनावीने चार मासा सोनानो चार आङ्गळनो तार थाय
तेटला अवकाशनुं छिद्र करवामां आवे अने एने जळमां तरतुं मूकवामां आवे तो ए
भराय अने जळमां डूबी जाय एटला समयने ‘नाडी’ के ‘घडी’ कहेवामां आवे छे
॥९॥
हे मानद! चार प्रहरनी रात्रि अने चार प्रहरनो दिवस मळी एक ‘दिवस’ थाय छे. एवा पन्दर दिवसनुं ‘पखवाडियुं’ कहेवाय. एना शुकल अने कृष्ण एवा बे भेद छे ॥१०॥
ए बे पक्षनो एक ‘मास’ थाय छे. आ बे पक्ष कह्या ते पितृओना दिवस अने रात्रिरूप* छे. बे मासनी एक ऋतु कहेवाय; छ मासनुं ‘अयन’. आवां अयन दक्षिण अने उत्तर बे प्रकारनां छे ॥११॥
विशेष - चन्द्रनी पन्दर कलामां ज्यारे सूर्य प्रवेश करे त्यारे रात थाय छे, कारण के सूर्यनी आडे चन्द्र आवी जाय छे. सूर्य न देखाय ते ज रात कहेवाय छे. जेम आपणे पृथ्वीनुं व्यवधान मानीए छीए, तेम पितृओ जलनुं व्यवधान माने छे. जेम आपणे चन्द्र देखातो होय के न देखातो होय एनी दरकार नहि पण सूर्यना उदय अने अस्त उपर आधार राखीए, तेम पितृओने सूर्य होय के न होय एनी दरकार नथी पण चन्द्रना उदय अस्त उपर एमने स्वनिर्वाहनो आधार छे. सूर्य चन्द्रनी कलामां प्रवेश करे त्यारथी चन्द्रनी कला वधवा लागे, सूर्य तेमान्थी नीकळतो जाय तेम चन्द्रनी कला क्षीण थती चाले. सूर्य नीकळे त्यारथी दिवस. अमावस्यानी रात अने दिवस एना भोजननो काळ छे. पूर्णिमाए तो ए तृप्त थईने सूई रहे छे. आ प्रमाणे पितृओनां रातदिवसनी व्यवस्था छे. कृष्णपक्ष अने शुक्लपक्षने पितृओना अहोरात्र कह्या छे. अयन देवोना रात्रिदिवसरूप छे. बार मासनो एक ‘वत्सर’ गणाय छे. आ प्रमाणे सो वर्ष थाय ए मनुष्यनुं परम आयुष गणाय छे ॥१२॥
ग्रह, नक्षत्र अने ताराओना चक्रमां रहेल समर्थ, (सूर्य) सावधान रही एक वर्ष पूरुं थतां परमाणुथी आरम्भी (चक्रनी) आसपास फरे छे अने जगतनो भोग करे छे ॥१३॥
ए संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अने वत्सर एवा हे विदुर! वर्षना पाञ्च भेद छे ॥१४॥
ए संवत्सरात्मक काळ पोतानी शक्तिवडे बीजमान्थी अङ्कुरादिने अनेक रूपे उत्पन्न [[२५५]] करे छे. पृथ्वादि भूतोना भेदोने पाडे छे. यज्ञादिवडे स्वर्गादिने आपे छे. एवा सूर्यनारायणात्मक काळनी पूजा करो, कारण के पृथ्वीमान्थी अन्नादि औषधि वगेरे आपीने ए ज पोषण करे छे. यज्ञादि स्वर्गादिने आपनार पण ए ज छे. एने भूलवाथी कृतघ्नता थाय; माटे एने प्रसन्न करवा ॥१५॥
विदुरजीए कह्युं - हे मैत्रेय! आपे पितृ, देव अने मनुष्यनुं आयुष्य कह्युं, परन्तु जे कल्पना अन्तमां रहे छे तेनी केवी गति थाय छे ए आप कहो ॥१६॥
भगवान् काळनी गतिने जाणनार आप ज छो. वळी जेओ धीर पुरुषो छे तेओ पोतानी योगसिद्ध ज्ञानदृष्टिवडे आखा विश्वने निःसन्देह जोई शके छे ॥१७॥
मैत्रेय कह्युं - सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग अने कळियुग ए चारे युग सन्ध्या अने सन्ध्याश सहित देवतानां बार हजार वर्षो कहेवाय छे ॥१८॥
एमां चार हजार वर्षनो सत्ययुग, त्रण हजारनो त्रेता, बे हजारनो द्वापर अने एक हजारनो कलियुग छे अने हजारनी सङ्ख्याथी बमणा-सो सन्ध्या अने सन्ध्यांशना गणावाथी बार हजार वर्ष सम्पूर्ण थाय छे* ॥१९॥
विशेष - सत्ययुगमां ४००० दिव्य वर्ष युगनां अने ८०० सन्ध्या अने सन्ध्यांशनां आ प्रमाणे ४८०० वर्ष थाय छे. आ ज प्रमाणे त्रेतामां ३६००, द्वापरमां २४०० अने कलियुगमां १२०० दिव्य वर्ष थाय छे. मनुष्योनुं एक वर्ष देवताओनो एक दिवस होय छे, तेथी देवताओनुं एक वर्ष मनुष्योनां ३६० वर्ष बराबर थयुं, आ प्रमाणे, मनुष्योनां मापथी कलियुगमां ४,३२,००० वर्ष थयां एनाथी बमणां-८,६४,००० वर्ष द्वापरमां, त्रण गणा-१२,९६,०००-वर्ष त्रेतामां अने चार गणां १७,२८,००० वर्ष सत्ययुगनां थयां. चतुर्युगी चारेय युगनां कुल मानवी (मनुष्योनां) वर्ष, ४३,२०,००० थयां. सन्ध्या अने सन्ध्यांश ए बेउनी वच्चेनो काळ ए ‘युग’ कहेवाय छे. युगने कहेवडावनार धर्म छे. ते-ते धर्मोनी उपाधिथी ते-ते युगनुं नाम पडे छे ॥२०॥
सत्ययुगमां चार पगवाळो धर्म मनुष्यने अनुसरे छे. बीजा युगोमां अधर्म वधवाथी एक-एक चरण क्षीण* थतो चालेछे ॥२१॥
विशेष - कालनी प्रेरणाथी धर्म प्रवर्ते छे. ए कृत(सत्य) युगमां सम्पूर्ण प्रवर्त्यो त्यारे चारे
वर्णो रह्या. त्रेतायुग आव्यो एमां अधर्मनी प्रवृत्तिथी एक पाद धर्मनो क्षीण थयो एटले चार
वर्णो हता तेमान्थी ब्राह्मणवर्णनी क्षति थई. द्वापर युगमां क्षत्रियो न रह्या अने कळियुगमां
वैश्यो न रह्या. कळिमां केवळ शूद्रो ज रह्या. ज्यारे धर्म कमजोर थाय छे त्यारे वर्णमां अधर्म
[[२५६]] प्रवेश करी धर्मथी च्युत करे छे. त्यारे ए वर्ण अधर्म करवाथी वर्णच्युत थाय छे. तेथी ज
कलिदावानलेनैव साधनं भस्मतां गतम् (कळियुगरूपी दावानळथी साधन नाश पाम्या
छे) एम कह्युं छे; त्यारे भक्तिथी ज जीवनी कृतार्थता थई शके, वैदिक धर्मो तो अधर्म
वधवाथी शुद्ध न रह्या, तेथी फल आपवामां समर्थ नथी. ज्यां ब्राह्मण सिवाय कोईने मुक्ति
नथी ए ब्राह्मण ज बीजा युगथी नष्ट थयो त्यां मुक्तिनी आशा केवी?
चार युग एक हजार वार जाय त्यारे ए काळ त्रण लोकनी बहार रहेनारनो
एटले के महर्लोकथी ब्रह्मलोक सुधीमां रहेनारनो एक दिवस गणाय. एवी रीते
एटला समयनी एक रात्रि. भाई, आवी रातमां जगतने उत्पन्न करनार ब्रह्माजी
शयन करे छे ॥२२॥
अरुणोदयथी ब्रह्माजी लोकने सरजे छे. दिवस पूरो थाय त्यां सुधी सृष्टि चाले
छे. ब्रह्माजीना एक दिवसमां १४मनुओथाय छे. अर्थात् धर्मना रक्षकपणाथी लोको
१४मनुओनो स्वीकार करेछे ॥२३॥
चार युग एकोतेर वार जाय एटलो काळ एक मनु अधिकार भोगवे छेःदरेक मन्वन्तरमां जुदा-जुदा मनु, एना पुत्रो, ऋषिओ, देवो अने इन्द्र अने तेमना अनुयायी गन्धर्व वगेरे पण साथे-साथे पोतानो अधिकार भोगवे छे, अंशावतार थाय छे पण ए बधानी साथे नथी थतो ॥२४॥
त्रण लोकमां तो ब्रह्माना एक दिवसमां सृष्टि थाय छे अने रात्रिमां शयन करे छे त्यारे ए नाश पामे छे माटे ए ‘दैनन्दिन सर्ग’ कहेवाय छे. एमां पशु माणस पितृ अने देवतानी उत्पत्ति कर्मोवडे थाय छे ॥२५॥
मन्वन्तरोमां भगवान् पोतानां स्वरूपोवडे शुद्ध सत्त्वने धारण करे छे अने मन्वादिमां पोतानुं पराक्रम राखीने एनीद्वारा विश्वनी रक्षा करे छे ॥२६॥
ज्यारे भगवान् संहारनी इच्छा करे छे त्यारे ए तमोगुणने ग्रहण करीने शयन करे छे तमवडे पराक्रमने रोकतां बधुं काळवडे भगवान्मां आवी जाय छे, त्यारे भगवान् सांयकळ समये कांई बोल्या वगर उदासीन रहे छे ॥२७॥
भू आदि त्रण लोको बळी जाय छे, त्यारे सूर्यचन्द्र वगरनी रात्रि प्रवर्ते छे ॥२८॥
पछी सङ्कर्षणना मुखना अग्निवडे त्रण लोक बळी जाय छे. ए अग्निनो ताप महर्लोकने लागतां त्यां रहेनार भृगु आदि मुनिओ महर्लोकथी जनलोकमां जाय छे [[२५७]] ॥२९॥
काळथी प्रेरायेला अने प्रचण्ड पवनने लीधे जेना तरङ्गो ऊछळी रह्या छे तेवा कल्पना अन्ते वृद्धि पामेला समुद्रो त्रण लोकने डुबाडी दे छे ॥३०॥
ए जलनी अन्दर अनन्तनी शय्या उपर हरि भगवान् पोढे छे, त्यारे जनलोकना निवासीओ एमनी स्तुति करे छे. भगवान् योगनिद्रावडे आङ्खोने बन्ध करीने पोढे छे ॥३१॥
आवी रीते काळनी गतिथी जणातां रात्रि अने दिवसो जतां आ ब्रह्माजीने सो वर्षनुं पूर्ण आयुष्य पण ओछुं लागे छे. एने थाय छे के जो वधारे वार जीवुं तो कांईक विशेष कार्य करुम् ॥३२॥
ए ब्रह्माजीनुं अडधुं आयुष्य एटले परार्ध जेटलो काळ, तेमां प्रथम परार्ध गयो छे. हाल बीजो परार्ध जाय छे ॥३३॥
पूर्वपरार्धमां पहेलो ‘ब्राह्म’कल्प थयेलो त्यारे भगवान्स्वयं ब्रह्मा थया हता माटे एने ‘ब्राह्मकल्प’कहेवामां आवे छे. ए परार्धना अन्तमां जे कल्प थयो ते ‘पाद्मकल्प’कहेवाय छे. ए समये भगवानना नाभिकमळमान्थी लोकरूपी कमळ थयुंहतुं।३४-३५। हे भारत! आ बीजा परार्धनो प्रथम कल्प छे ते ‘वाराहकल्प’ कहेवाय छे. ए कल्पमां भगवाने वराहरूप धारण कर्युं हतुम् ॥३६॥
जे कोई रीते कही शकतुं नथी, जेनो आदि के अन्त नथी, जे जगतना आत्मारूपे छे, तेवा अक्षरनो ए द्विपरार्ध काळ ‘निमेष’ मनाय छे ॥३७॥
परमाणुथी लईने बे परार्ध सुधीनो काळ बधा देहाभिमानीनो ईश्वर छे; तो पण ए काळ अक्षरने पोतानुं पराक्रम बतावी शकतो नथी. जेमां काळनुं बळ चाले नहि ते ज ईश्वर, बीजो ईश्वर गौण ॥३८॥
दस इन्द्रियो, मन अने पाञ्च तन्मात्रा एम सोळ विकार सहित आ ब्रह्माण्डरूप कोश बहारथी पचास करोड योजनना विस्तार वाळो छे ॥३९॥
घडामां जेम परमाणु होय तेम भगवानना रोमकूपमां रहेलो आ अण्ड अनेक अण्डो साथे रहेवाथी परमाणु जेवो देखाय छे ॥४०॥
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ॥ विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः ॥४१॥
[[२५८]] जेना रोमकूपमां एवां अनन्त ब्रह्माण्ड ऊड्या करे छे तेवुं आ अक्षरब्रह्म छे. ए सर्वना कारणोनुं कारण छे. महात्मा एवा साक्षात् पुरुष विष्णु (व्यापक) छे तेनुं ते धाम छे ॥४१॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (त्रीजा कालप्रकरणनो बीजो) ‘‘काळना स्थूळसूक्ष्म स्वरूपनुं वर्णन’’ नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. चोथुं जीवप्रकरण
अध्याय १२
ब्रह्माजीए सनकादिने उत्पन्न कर्या तेनुं वर्णन
विशेष - आ बारमां अध्यायमां बुद्धिनुं निरूपण छे. आ बुद्धि आठ प्रकारनी छे. पहेली प्राकृत बुद्धि तमिस्त्रादि प्रकारनी छे; बीजी बुद्धि ज्ञाननिष्ठा छे; तेमां सनकादिके आज्ञानो भङ्ग कर्योमाटे ए बुद्धि सदोष छे; त्रीजी बुद्धि अहंरूपा छे. ए जो कृष्णनी आज्ञानुं पालन करवामां होय तो श्रेष्ठ गणाय. चोथी बुद्धि दोषवाळी छे; पाञ्चमी बुद्धि लोकमां व्यामोह करनार छे; वेदना अभ्यासरूप बुद्धि छठ्ठी छे; कर्म देवतारूपी बुद्धि सातमी छे; ए योग अने उपासनाना विषयरूप होवाथी श्रेष्ठ छे; आठमी बुद्धि सौथी उत्तम छे. एना देखतां मनु ए हरिनी क्रीडाथी इच्छाने पूर्ण करनारी छे. एम भूत, मात्रा, इन्द्रियो अने बुद्धिथी उत्पत्तिमां उपयोगवाळी बुद्धिनुं आ अध्यायमां वर्णन छे. ज्ञानमां बे कोटी छे; एक विषय अने बीजो पुरुष. पुरुषमां बोधक नेत्र अने विषयमां व्याप्त तेज जोईए. ए बन्ने न होय ते अन्धतामिस्त्र. आत्मामां नहि पण विषयमां मोह ते तामिस्त्र. वस्तुनुं स्वरूप जाण्या छतां एमां ऐक््य-बुद्धि एटले ‘‘देह हुं छुं’’ एवी समजण राखवी एनुं नाम ज महामोह. मोह ‘‘एटले आ मारुं छे’’ एवी ममता. ‘‘हुं कोण छुं’’ ए न जणाय एनुं नाम ज तम. अज्ञाननी पाञ्च वृत्तिओ छेःतम, अविवेक, मोह, अन्तःकरण विभ्रम अने महामोह. इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः ॥ महिमा वेदगर्भोऽथ यथास्त्राक्षीन्निबोध मे ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - हे विदुर! ए प्रमाणे परमात्मानुं काळरूप माहात्म्य में तमने कही बताव्युं हवे ब्रह्माजीए सृष्टि शी रीते करी एनो प्रकार तमने कहुं ए तमे मारी [[२५९]] पासेथी जाणो ॥१॥
ब्रह्माजीए प्रथम पाञ्च अज्ञाननी वृत्तिओ उत्पन्न करीःएनी अधिष्ठात्री देवतारूप अन्धतामिस्त्र, तामिस्त्र, महामोह, मोह अने तम छे ॥२॥
आवी पापी सृष्टिने जोईने ब्रह्माजी पोते खुश न थया. पापथी आवी ज सृष्टि थाय एम जाणी एमणे भगवाननुं ध्यान करीने मनने शुद्ध कर्युं अने शुद्ध मनवडे बीजी सृष्टिकरी ॥३॥
सनक, सनन्दन, सनातन अने सनत्कुमार एवा चार कुमारोने एमणे उत्पन्न कर्या. ए ब्रह्मचारी, मौन धारण करनारा अने क्रियारहित हता ॥४॥
ब्रह्माजीए कुमारोने आज्ञा करीः‘‘हे पुत्रो! प्रजा उत्पन्न करो’’.परन्तु ए कुमारो भगवत्परायण अने मोक्षधर्मवाळा होवाथी एमणे ब्रह्माजीनी आज्ञा प्रमाणे करवानी इच्छा न करी. एथी आज्ञा न उठाववामाटे ब्रह्माजीए पोतानुं अपमान थयेलुं मान्युं. एनाथी एमने क्रोध थयो. एने रोकवानो एमणे आरम्भ कर्यो ॥५-६॥
एमणे बुद्धिथी क्रोधने रोक््यो, छतां ब्रह्माजीनी भ्रुकुटिमान्थी तत्काळ कांईक काळो अने रातो एवो कुमाररूपे क्रोध प्रकट थयो ॥७॥
आधिदैविक देवोमां ए प्रथम थयेल होवाथी ए ‘भव’ कहेवाया. ए रोवा लाग्या अने ब्रह्माजीने कहेवा लाग्या ः‘‘हे धाता! मारुं नाम पाडो; मने रहेवानुं स्थळ आपो; आप जगतना गुरु होवाथी आपनी पासे हुं आ मागुं छुं तो ए मने आपो’’ ॥८॥
भवनां एवां वचन साम्भळी पद्ममान्थी थयेला भगवान् ब्रह्माजी एना वचननुं परिपालन करीने सुन्दर वाणीवडे ‘‘हुं ए बधुं करुं छुं तुं रुदन न कर’’ एम बोल्या॥९॥
हे देवमां श्रेष्ठ तुं दुःखी बाळकनी पेठे रोयो एथी लोको तने ‘रुद्र’ कहेशे ॥१०॥
हृदय, इन्द्रियो, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जळ, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र अने तप एटलां तारेमाटे में स्थान प्रथमथी ज नक्की करी राख्यां छे ॥११॥
तेथी मन्यु, मनु, महेशान, महान, शिव, क्रतुध्वज, उग्रेरेता, भव, काळ, वामदेव अने धृतव्रत तारां नाम थशे. हे रुद्र! धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुतसर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा, दीक्षा अने रुद्राणी ए अगियार तारी स्त्रीओ थशे ए नाम अने ए स्त्रीओ अने उपर कहेलां स्थानोने तुं ग्रहण कर. तुं प्रजापति होवाथी बहु प्रजाने उत्पन्न कर ॥१२-१४॥
[[२६०]] नीललोहित रुद्रने गुरु ब्रह्माजीए आज्ञा करी त्यारे भगवान् नीललोहिते पोतानां बळ, आकार अने स्वभावने अनुसरीने पोताना जेवी प्रजा उत्पन्न करी ॥१५॥
रुद्रे उत्पन्न करेली रुद्रप्रजा जगतने गळवा लागी. एवा असङ्ख्य रुद्रगणोने जोईने प्रजापतिने शङ्का थई ॥१६॥
ब्रह्माजीए कह्युं, हे देवोत्तम! आवी प्रजा उत्पन्न करवानुं बस करो, कारण के भयङ्कर आङ्खोथी ए दिशाओ साथे मने पण बाळी मूके छे ॥१७॥
तारुं कल्याण थाओ. सर्वने सुख थाय एवुं तप करवानो विचार राखो. जो तमे धारता हो के प्रथम जेवुं हतुं एवुं ज जगत् करवुं छे तो-तो ए तपथी ज थई शकशे ॥१८॥
परम तेजोमय अने सर्व भूतना हृदयाकाशमां बिराजे छे अने जे इन्द्रियोथी पर छे तेवा भगवानने मेळववा होय तो पुरुष ए तपवडे ज आसानीथी मेळवी शके छे ॥१९॥
मैत्रेय बोल्या - ज््यारे ब्रह्माजी एवुं बोल्या त्यारे ‘‘हे वाणीना पति! आप कहो छो ए योग्य छे. आप कहो छो तेम ज हुं करीश’’. एम कही नीललोहिते ब्रह्माजीनी परिक्रमा करी तपश्चर्या करवा वनमां प्रवेश कर्यो ॥२०॥
भगवान्मां सरजवानी जे शक्ति छे ते ज शक्ति पुत्र होवाथी ब्रह्माजीमां आवी छे. एमणे सृष्टि करवानो विचार करतां लोकनी परम्पराना कारणरूप दस पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥२१॥
मरीचि, अत्रि, अगिंरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष अने नारदए नामना दस पुत्रो थया ॥२२॥
नारदजी खोळामान्थी, दक्ष अङ्गूठामान्थी, वसिष्ठ प्राणमान्थी, भृगु त्वचामान्थी, क्रतु हाथमान्थी, पुलह नाभिमान्थी, पुलस्त्य बेउ कानमान्थी, अगिंरा मुखमान्थी, अत्री आङ्खमान्थी अने मरीचि मनमान्थी मनमान्थी एम दश पुत्रो ब्रह्माजीना शरीरना अवयवोमान्थी उत्पन्न थया ॥२३-२४॥
जेनाथी स्वयं नारायण प्रकट थाय छे तेवो धर्म जमणा स्तनथी उत्पन्न थयो. लोकने भय करनार मृत्यु जेनाथीथाय तेवो अधर्म पीठमान्थी उत्पन्नथयो ॥२५॥
हृदयथी काम, भृकुटिथी क्रोध, नीचला होठथी लोभ, मुखथी वाणी, इन्द्रियथी समुद्रो अने अस्थिर स्वभाववाळी अने तेथी आश्रय विनानी गुदामान्थी विनाश [[२६१]] उत्पन्न थयो ॥२६॥
देवहूतिना समर्थ पति कर्दम छायामान्थी उत्पन्न थया. ज््यारे ब्रह्माजी* विश्व उत्पन्न करवा लाग्या त्यारे एमनां मन अने देहथी आ जगत् उत्पन्न थयुं॥२७॥
विशेष - ब्रह्माजी सृष्टि करे छे. तेमां प्रथम पाञ्च प्रकारनी अविद्यानी सृष्टि कही; त्यार बाद अभिमाननी सृष्टिमां रुद्रनी उत्पत्ति कही. हवे सरस्वतीरूपे वाणीनी उत्पत्ति कहे छे. सामान्य रीते एम बधा धारे छे के, ब्रह्माजीने सरस्वती नामनी पुत्री हती; तेमां एमने कामभावना थई अने एनी पाछळ ए दोड्या त्यारे एमनी लोकमां निन्दा थई. आ वात मानवा जेवी नथी; पण श्रीवल्लभाचार्यजी तो एने प्राकृत वाणी कहे छे. यज्ञात्मक ब्रह्माजी देवरूप अलौकिक वाणीनो उपयोग करे ए अनुचित गणाय एम ब्रह्मपुत्रोनुं कहेवुं थतां ब्रह्माजीए ए वाणी कर्यो. आ प्रसङ्गमां मात्र कहेवानुं रूपक, कामी पुरुष जेम कोई नायिकामां प्रवृत्त थतो होय तेवुं छे. निरुक्तकार यास्क मुनिनो पण आवो मत छे. वळी वाणीने अङ्गो होतां नथी. तेथी अर्ही लौकिक कामनो सम्भवज नथी; एम श्रीमहाप्रभुजीनो अभिप्रायज अर्ही मानवोयोग्य छे. कोमळ अङ्गवाळी, मनने हरण करती एवी कामना वगरनी पुत्रीरूप वाणीमां हे विदुर! ब्रह्माजी कामनावाळा थया अने एमां भोगनी इच्छा करी एम अमे साम्भळ्युं छे ॥२८॥
ब्रह्माजीने अधर्ममां बुद्धि थई ए जोईने, मरीचि वगेरे मुनिओ ‘‘अमे कहीशुं तो मानशे’’ एवा विश्वासथी पिताने बोध करवा लाग्या ॥२९॥
‘‘तमे जे काम करवा धारो छो तेवुं आज सुधी बीजा कोई ब्रह्माए कर्युं नथी, हवे पछी कोई करशे पण नहि. हे प्रभो! एवुं ते कयुं काम होय जे तमे रोकी शको नहि अने पुत्रीनी साथे गमन करवानी इच्छा करो? ॥३०॥
आवुं काम तेजस्वी पुरुषने पण यश आपनार नथी. हे जगद्गुरु! मोटा पुरुषे करेलां कामोने अनुसरवाथी लोक पोतानुं श्रेय करी शके छे ॥३१॥
स्वरूपमां रहेला जगतने जे पोताना तेजवडे बहार प्रकट करे छे ते ज धर्मनुं रक्षण करवाने समर्थ भगवानने अमारा नमस्कार हो ॥३२॥
पोताना पुत्रोने आ प्रमाणे बोलता जोई प्रजापतिना पति एवा ब्रह्माजी लज्जित थया अने एमणे देहनो त्याग कर्यो ते दिशाओए तेने स्वीकार्यो. ए घोर देहने लोको ‘नीहार’ (झाकळ) रूप तम कहे छे ॥३३॥
एक वखत ब्रह्माजी ध्यान करता हता के पहेलान्नी माफक हुं सुव्यवस्थित लोकोने
[[२६२]] केवी रीते रचीश तेवामां तेमना चार मुखोमान्थी वेदो प्रकट थया ॥३४॥
चातुर्होत्र कर्म, एनो विस्तार, आयुर्वेदादि उपवेदो, नीतिशास्त्रो, सत्य, तप, दया, दान ए धर्मना चार चरणो चार आश्रमो तथा तेनी वृत्तिओ ब्रह्माजीना मुखथी प्रकट थयाम् ॥३५॥
विदुरजी बोल्या - लोकपालना पति ब्रह्माजीए वेदादि सामग्री मुखद्वारा उत्पन्न करी ए वात में जाणी, परन्तु हे तपोधन! जे-जे पदार्थो जे-जे मुखद्वारा उत्पन्न कर्या ए बधी वात आप मने कहो ॥३६॥
मैत्रेये कह्युं - *ऋग्वेद, यजुर्वेद, साम अने अथर्ववेद, शस्त्र, इज््या, स्तुति स्तोम अने प्रायश्चित ए बधुं ब्रह्माजीना पूर्वादि मुखथी ब्रह्माजीए प्रकट कर्यु ॥३७॥
विशेष - चातुर्होत्रमां होता, अध्वर्यु, उद्गाता अने ब्रह्मा ए चार मुख्य छे; तेमां ऋग्वेदनुं कर्म शस्त्र ते होता करे; यजुर्वेदनुं यजन ते अध्वर्यु करे; सामवेदनुं कर्म स्तुति ते उद्गाता करे अने प्रायश्चित्त ब्रह्माजी करे. प्रायश्चित्ते ब्रह्माणम् एम आश्वलायन सूत्रमां आव्युं छे. ब्रह्माजीनां चार मुखथी आ चार पदार्थ प्रकट थया. मुख चार, वेद चार, होता उद्गाता वगेरे चार, शस्त्र-इज््या वगेरे एमनां कर्म चार तेनी उत्पत्ति पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर ए क्रमथी समजवी. इतिहास अने पुराण ए पाञ्चमो वेद छे. ब्रह्माजीए विचार्यु के ‘‘स्त्री शूद्रादि अने द्विजबन्धुने पण उपयोगी थाय तेवुं कांई करुं’’. एम धारी सर्व मुखोथी ए इतिहास अने पुराणोने प्रकट कर्या ॥ ३८॥
पूर्व मुखथी षोडशी अने उक्थ तथा पुरीषी अने अग्निष्टुत, आप्तोर्याम, अतिरात्र अने गोसव सहित वाजपेय ए क्रमथी उत्पन्न कर्या ॥३९॥
विद्या, दान, तप अने सत्य ए धर्मना चार चरणो, आश्रमो तथा एनी वृत्तिओ ए बधां पूर्वादि मुखथी ब्रह्माजीए उत्पन्न कर्या ॥४०॥
सावित्र्य (यज्ञोपवीत संस्कार पछी गायत्रीना अभ्यासमाटे धारण करवमां आवतुं ब्रह्मचर्य व्रत). प्रजापत्य (पछी एक वर्ष वेदनुं व्रत लेवुं). ब्राह्म्य (वेद ग्रहण करवा भणवा) अने बृहत् (नैष्टिक ब्रह्मचर्य पाळवुं) ए चार कर्मो तथा वार्ता (खेती, वेपार, गायो राखवी, व्याज वटाव). सञ्चय (अध्यापनद्वारा प्राप्त धननो सङ्ग्रह, शालीन(चपटी मागवी). शिलोञ्छ (खळुं थई गया पछी ते जगाएथी पडेला [[२६३]] अनाजना दाणा वीणी लावी निर्वाह करवो) ए गृहस्थनी चार वृत्तिओ पण पूर्वादि मुखथी उत्पन्न करी ॥४१॥
वानप्रस्थमां वैखानस, वालखिल्य, औदुम्बर अने फेनप ए चार जात छे. ए अने सन्न्यासमां पहेलो कुटिचर, बह्वोद, हंस अने निष्क्रिय ए चार प्रकार ब्रह्माजीए उत्पन्न कर्या ॥४२॥
आन्वीक्षिकी, त्रण वेदो, दण्डनीति तेमज व्याहृतिओ पण ब्रह्माजीना मुखथी थई. हृदयमान्थी प्रणव थयो ॥४३॥
उष्णिक् छन्द ब्रह्माजीना रोमथी थयो त्वचाथी गायत्री, समर्थ ब्रह्माजीना मांसथी त्रिष्टुव, स्नायुमान्थी अनुष्टुप, प्रजापतिनां हाडकान्थी जगती छन्द थया. मज्जाथी पक्तिं छन्द अने प्राणथी बृहती छन्द उत्पन्न थया ॥४४॥
(क थी म)स्पर्श अक्षरो एनो जीव थयो स्वर एनो देह थयो. (य-र-ल-व) अन्तस्थो बळ थयुं. (षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत, निषाद आ सात स्वरो एनी गति लीलारूप थया. आथी शब्दब्रह्म अने ब्रह्मनो अभेद प्रतीत थाय छे ॥४५॥
जेनुं स्वरूप* स्पष्ट अने अस्पष्ट देखाय छेतेवा ए शब्दब्रह्मनुं अनेक प्रकारनी शक्तिओथी वृद्धि पामतुं आ विस्तारवाळुं जगत्रूप कार्य ब्रह्मदेखायछे ॥४६॥
विशेष - शब्दब्रह्म जगतनुं जनक केम थई शके? त्यां कहे छे के, अर्थात्मक जगत् पण शब्द
एटले नाम वगर प्रकाशित न थाय; तेथी आ जगत् बधुं विस्तारवाळुं ब्रह्म देखाय छे. जो के
परब्रह्म स्वप्रकाश छे तो पण ए शब्दब्रह्मथी ज प्रकाशित थाय छे माटे ज तं त्वौपनिषदं पुरुषं
पृच्छामि (उपनिषदथी जेमनुं ज्ञान छे तेवा पुरुष विशे पूछुं छुं) वगेरेमां उपनिषद्वेध ब्रह्म कह्युं
छे. यतो वाचो निवर्तन्ते (ज््यान्थी मनसहित वाणी पाछी फरे छे). इत्यादि श्रुतिओनुं तात्पर्य
लौकिक इन्द्रियो तथा तेनां साधनो एने ग्रहण नथी करी शकतां ए ज छे. जो एम न मानीए तो
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत् (कोई धीर पुरुषे सामे ज आत्मानुं ईक्षण कर्युं). ए श्रुतिनो
विरोध आवे; माटे ए परब्रह्म पण एनी इच्छाथी ज्ञेय थई शके छे. एम मानवाथी ज सर्व
श्रुतिनो समन्वय थाय छे; केवळ सर्वथी अवेद्य कहेवाथी श्रुतिने बाध थाय छे.
विदुरजी, ब्रह्माजीए पहेलुं (कामासक्त) शरीर जेनाथी झाकळ बनी हती छोडीने
बीजुं शरीर धारण करीने विश्वनो विस्तार करवानो विचार कर्यो. एमणे जोई लीधुं
हतुं के मरीचि वगेरे महान शक्तिशाळी ऋषिओथी पण सृष्टिनो विस्तार न थयो तेथी
[[२६४]] मनमां अने मनमां फरी चिन्ता करवा लाग्या. अहो! नवाईनी वात छे के हुं प्रजानी
वृद्धि करवामाटे सतत उद्योग करतो होवा छतां प्रजानी वृद्धि नथी थती ते नथी ज
थती. खरेखर! आ विधिनी ज वक्रता छे ॥४७-४८॥
आम भगवाननी सृष्टि करवानी आज्ञानो योग्य रीते विचार करतां ब्रह्मा दैवनी प्रतिकूळतानो विचार करे छे तेटलामां ज ब्रह्मानुं शरीर एक हतुं तेनां बे विभाग थई गया एने काय कहेवामां आवेछे ॥४९॥
आ बे विभाग एक ज रूपना थया. ए बन्ने मळी एक जोडकुं थयुं. एमां जे पुरुष हता ते पोतानी मेळे थवाथी सम्राट ‘स्वायम्भुव मनु’ कहेवाया ॥५०॥
जे स्त्री हती तेनुं नाम ‘शतरूपा’ ए महात्मा स्वायम्भुवनी महाराणी थई त्यारथी परस्पर मिथुनधर्मवडे प्रजा वधवा लागी ॥५१॥
हे भारत! ए स्वायम्भुव मनुने ‘शतरूपा’ नामनी स्त्रीथी प्रियव्रत अने उत्तानपाद ए बे पुत्रो अने त्रण कन्याओ एम पाञ्च बाळक थयां. हे सत्पुरुषमां श्रेष्ठ! ए कन्याओनां ‘आकूति’, ‘देवहूति’ अने ‘प्रसूति’ एवां नाम पड्याम् ॥५२॥
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम् ॥ दक्षायाऽदात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत् ॥५३॥
रुचि नामना प्रजापतिने आकूति नामनी कन्या आपी, वचली देवहूति तो कर्दमने आपी. अने दक्षने प्रसूति नामनी कन्या परणावी. एमनी प्रजाओथी आ जगत् भराई गयुम् ॥५३॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां(मुक्त जीवसृष्टि प्रकरणनो पहेलो) ‘‘ब्रह्माजीए सनकादिने उत्पन्न कर्या तेनुं वर्णन’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ‘‘प्राण कण्ठ सुधीपण केम न आवी जाय परन्तुआजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो’’.(श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो जो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री पडावनारा अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! [[२६५]]
ईं उं ईं उं
अध्याय १३
यज्ञात्मा वराह भगवाननो प्रादुर्भाव
विशेष - ए प्रकारे बार प्रकारनी सृष्टि कही ते त्रण गुणवाळी छे. वराह सर्ववेदोना अर्थरूप छे. वैदिक सृष्टिमां ए वराह ज कारण छे. जो एम न होय तो सृष्टि स्वपन जेवी प्राकृत थाय तेथी आ सृष्टि प्राकृत नथी पण वैदिक छे ए जणाववाने माटे भगवाने वराहपणुं स्वीकार्य छे. ए वराहजीनां रोम ए दर्भ थयां अने एमना सर्व अवयवो यज्ञनां पात्र थयां तेथी आ अध्यायमां यज्ञ भगवान् वराहनुं वर्णन थाय छे. ए वैदिक सृष्टिने माटे प्रकट्या छे. मनुने ब्रह्माजी साथे संवाद थयो ए वात बीजा कल्पनी छे. प्रथम रसातळ पर्यन्तनी पृथ्वीने उपर लाव्या छे. ब्रह्माजीए पाञ्च अङ्गुलिवडे पाञ्च लोकनो उद्धार कर्यो अने ए पृथ्वीने यज्ञभूमि बनाववाने माटे पुष्करपत्र उपर तेने पाथरी ए तैत्तिरीय संहितामां कह्युं छे; पण वाराह कल्पनी वात नथी तात्पर्य के पाद्म कल्पना प्रलय समये सर्वनाश थयो. पछी वाराह कल्पनो ज््यारे आरम्भ थयो त्यारे पाताळ, रसातळ अने सत्यलोकनुं निर्माण ब्रह्माजीए कमळना सारवाळा भागमान्थी कर्यु. बाकीना कमळना भागमां मृतिका रही तेने पोतानी पाञ्च आङ्गळीथी लीधी. ए मृत्तिकाथी अतळ वगेरे लोकनुं निर्माण कर्युं. ए बधुं करतां जे मृत्तिका कमळमां रही ते यज्ञनी भूमिने माटे ब्रह्माजीए राखी. पोते सत्यलोकमां रही बीजा स्वर्ग वगेरे लोकने करी अविद्याथी आरम्भी मनु सुधीनी सृष्टिने बनावी पछी ब्रह्माजी निद्रावश थया त्यारे मनु, कश्यप वगेरेनी स्थिति उपर हती, दिति वगेरेनी स्थिति रसातळमां हती. बीजानो नाश थयेलो. ज््यारे आदि वाराह कल्पनी प्रथमनी रात्रि पूरी थईने वाराह कल्पनो प्रातःकाळ थयो त्यारे ब्रह्माजीने पृथ्वी डूब्यानुं ज्ञान न होवाथी मनुने प्रजा उत्पन्न करवानी आज्ञा करी. त्यारे साञ्जे भूमि डूबी गई हती ते मनुने खबर होवाथी तेणे स्थानमाटे प्रार्थना करी त्यारे ब्रह्माजीने चिन्ता थई. चिन्ता करता ब्रह्माजीथी भगवान् वराहनुं प्राकट्य थयुं. वराह भगवान् समुद्रमां प्रवेश करी हिरण्याक्षने युद्धमां मारी पृथ्वी उपर लाव्या. आमां जुदा-जुदा कल्पनी वात एक साथे करी छे. पण पुराणमां एवां ज वर्णन आवे छे; माटे ए कथामां कोई प्रकारना विरोधनी शङ्काने अवकाशनथी. श्रीशुक उवाच निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप! ॥ भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - हे राजा परीक्षित! विदुरजीए अत्यन्त पवित्र वाणी
[[२६६]] बोलतां मुनिनां वचन साम्भळ्यां तेथी कथामां अत्यन्तआदर थयो अने एमणे
फरीथी पूछ्युम् ॥१॥
विदुरजीए पूछ्युं - हे मुनि! ब्रह्माना पुत्र स्वायम्भुव मनु पोतानी पत्नी शतरूपाने फरी प्राप्त करीने ए बनेए शुं कर्यु. ए वात आप अमने कहो ॥२॥
हे सत्तम! आदिराजा मनु भगवानना दृढ आश्रयवाळा हता एनुं चरित्र मने कहो केमके एमना श्रवणमां मने अति श्रद्धा छे ॥३॥
जेना हृदयमां भगवाननां चरणकमळ बिराजे छे तेवा भगवदीयोना यशनुं श्रवण करवुं ए ज श्रवणने विद्वानोए अर्थरूप कह्युं छे. बाकी तो अत्यन्त श्रम लईने अन्य श्रवण कर्युं होय तो पण ए फळ आपनारुं न होवाथी श्रवणरूप गणातुं नथी ॥४॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - भगवानना चरणना आसनरूप अने विनयवाळा विदुरजीनुं ए प्रमाणेनुं बोलवुं साम्भळीने मैत्रेय मुनि रोमाचिन्त थया अने भगवत्कथा कहेवाने प्रेराया अने हृदयमां ऊतरे तेवी रीते भगवाननी उत्तम कथा कहेवा लाग्या ॥५॥
मैत्रेय बोल्या - ज््यारे पोतानी स्त्री साथे स्वायम्भुव मनु प्रकट थया त्यारे ब्रह्माजीने मस्तक नमावी बे हाथ जोडीने ए आ प्रमाणे विनन्ति करवा लाग्या ॥६॥
मनु बोल्या - आप अमारा पिता छो एटलुं ज नहि पण आप सर्व प्राणी मात्रने जन्म आपनार छो तथा आप एनी आजीविकानो साधन पण पुरु पाडनार छो. तो आपनी प्रजारूप अमे आपनी सेवामां केवी रीते तैयार थई शकीए? ॥७॥
आपने अमारा नमस्कार छे. हे स्तुतिपात्र! आपे अमारामां जे शक्ति मूकी छे तेनो आप एवो उपयोग बतावो के जेनावडे आ लोकमां यश अने परलोकमां मोक्ष मळे ॥८॥
ब्रह्माजीए कह्युं - हे तात! हुं तमारा उपर प्रसन्न थयो छुं. हे पृथ्वीपति! तमारुं बन्नेनुं कल्याण थाओ. ‘‘मने आज्ञा करो’’ एम जे तमे तमारो आत्मा निष्कपट भावथी अर्पण कर्यो ए ज तमारो धर्म छे तमारीउपर मारी प्रीति थवानुं ए कारणछे ॥९॥
हे वीर! शरीरथी उत्पन्न थयेल पुत्रोने मारी सेवा ते ज मुख्य कर्तव्य छे. [[२६७]] पितानी आज्ञा सावधान थई. मत्सररहित बनी आदरपूर्वक उठाववी ए पुत्रनो मुख्य धर्म छे ॥१०॥
तमे आ शतरूपामां गुणोथी पोताने योग्य प्रजा उत्पन्न करीने धर्मपूर्वक पृथ्वी उपर राज्य करो तथा यज्ञो करीने यज्ञपुरुषनुं यजन करो ॥११॥
प्रजानी रक्षा करवाथी तमे मारी उत्तम सेवा करी गणाशे. तमे प्रजानी रक्षा करनार थशो; तेथी इन्द्रियोना पति भगवान् तमारा उपर प्रसन्न थशे ॥१२॥
यज्ञरूप भगवान् जेमना उपर प्रसन्न थएला नथी तेमनो करेलो श्रम व्यर्थ छे, कारण के आत्मारूपे भगवाननो तेमणे पोतानी मेळे आदर करेलो नथी ॥१३॥
मनुए कह्युं - हे पापनाशक! आपनी आज्ञा हुं उठावीश पण हुं जे प्रजा उत्पन्न करुं तेने माटे तथा मारे माटे स्थान जोईए. हे प्रभो! आप मने स्थान बतावो केमके आप समर्थ छो ॥१४॥
प्राणी मात्रने रहेवाने माटे पृथ्वी हती ते प्रलयना जळमां डूबी गई छे. हे देव! देवी रूपी ए पृथ्वीने जळमान्थी बहार काढवानो आप यत्न करो ॥१५॥
मैत्रेय बोल्या - ब्रह्माजी तो पृथ्वीने नीचे जळमां डूबेली जाणीने हवे आ पृथ्वीने बहार केम लाववी एनेमाटे घणी वार सुधी बुद्धिथी विचार करवा लाग्याः ॥१६॥
‘‘मे इन्द्रियो अने वाणीवडे प्रजा उत्पन्न करी ए प्रजाना भारथी पृथ्वी रसातळ गई. प्रजा करवानी प्रभुनी आज्ञावाळा अमारे पृथ्वीना आधार विना शुं करवुं जोईए? ॥१७॥
जेमना हृदयथी हुं उत्पन्न थयो छुं तेवा ईश मारुं कार्य करो. ए अधोक्षज भगवान् दयाना समुद्र छे, पवित्र कीर्तिवाळा छे तथा इन्द्रियोथी अगोचर स्वरूपवाळा छे’’ ॥१८॥
ब्रह्माजी एवी रीते चारे तरफथी ध्यान करता हता तेवामां एमनी नासिकानां छिद्रोमान्थी तत्काळ ज हे विदुर! वराहनुं अङ्गूठा जेवडुं एक नानकडुं बच्चुं नीकळ्युं ॥१९॥
ब्रह्माजी चारे तरफ जोता हता तेवामां तो ए मोटा हाथी जेवडुं वधी गयुं ए मोटी आश्चर्यनी वात थई ॥२०॥
ए सूकरनुं रूप जोई मरीचि वगेरे ब्राह्मणो तेमज कुमारोनी साथे मनु अनेक
[[२६८]] प्रकारे तर्क करवा लाग्याः ॥२१॥
‘‘वराहना आकारमां ए कयुं दिव्य प्राणी छे? ब्रह्माजीए कह्युं के ‘‘प्राणी विचित्र होय; पण ए मारा नाकमान्थी नीकळ्युं ए आश्चर्यजनक छे ॥२२॥
प्रथम तो आपणे एने अङ्गूठाना टेरवा जेवडुं जोयुं - त्या तो ए एक क्षणमां ज पर्वतनी शिला जेवडुं थई गयुं. चोक्कस मारा मननो खेद जोईने आ यज्ञ भगवान् जन्म्या छे’’ ॥२३॥
एम ब्रह्मा पोताना पुत्रोनी साथे विचार करे छे तेटलामां तो यज्ञ भगवान् पर्वतराज जेवा थईने गर्जना करवा लाग्या ॥२४॥
दिशाओमां पडघा पाडती पोतानी गर्जनाथी समर्थ हरिए ब्रह्माजी तथा उत्तम द्विजोने राजी करी दीधा ॥२५॥
मायामय सूकर भगवाननो घरघर अवाज साम्भळी जनलोक, तपलोक अने सत्यलोकना निवासीओ ए भगवाननी वेद अने पवित्र पवमानादि सूक्तोथी स्तुति करवा लाग्या ॥२६॥
वराह भगवान् वेदविस्ताररूप स्वरूपवाळा छे. ए मुनीश्वरोनी स्तुतिने वेदरूप मानीने देवताओना अभ्युदयमाटे एमणे फरीवार गर्जना करी गजेन्द्र लीला करतो होय तेम एओ जळमां दाखल थया ॥२७॥
उच्च पृच्छवाळा ए पोतानी केशवाळीने आमतेम हलवता हता. एमनी चामडी वाळवाळी अने कठण हती. वादळमां खरीनी ठोकर मारता, सफेद दाढवाळा, चळकती आङ्खोवाळा पृथ्वीने धारण करनार ए भगवान् शोभवा लाग्या ॥२८॥
पोते ध्राणवेदी होवाथी ए पोतानी नासिकावडे पृथ्वीनो मार्ग सूङ्घता हता; पोते यज्ञात्मक होवा छतां ए सूकरनुं बहानुं करी रह्या हता. एमनी दाढो भयङ्कर हती, छतां स्तुति करता ब्राह्मणो प्रत्ये कोमळ दृष्टिथी जोता एमणे जळमां प्रवेश कर्यो ॥२९॥
वज्रना समूह जेवी एमनी काया हती. एना पडवाथी समुद्रनुं पेट चीराई गयुं अने ए शब्द करवा लाग्यो. मोटा तरङ्ग रूपी हाथोने लम्बावतो अने पोतानी दुःस्थितिने बतावतो ए समुद्र, हे यज्ञेश्वर! ‘‘मारी रक्षा करो’’ एवुं उच्च स्वरे कहेवा लाग्यो ॥३०॥
समुद्रना ए अपार जळने पोतानी खरीओवडे चीरता, बब्बे पग अने एक [[२६९]] मोढुं एम त्रण पर्ववाळा ए वराह भगवाने रसातळमां रहेली ‘जीवधानी’ कहेवाती ए पृथ्वीने जोई. अने तेना उपर भविष्यमां शयन करवानी इच्छाथी तेनो उद्धार कर्यो ॥३१॥
रसातळमां पडेली ए पृथ्वीने पोतानी दाढ उपर चडावीने वराह ऊभा थया अने पृथ्वीवडे शोभवा लाग्या. एटलामां असह्य पराक्रमवाळो हिरण्याक्ष गदा लई सामे आव्यो अने भगवानने मार्गमां रोकवा लाग्यो; त्यारे तीव्र क्रोध करीने भगवाने सुदर्शन चक्रवडे सिंह, हाथीने जेम सहेलाईथी मारी नाखे तेम एने मारी नाख्यो. रुधिरथी एना गाल अने मोढुं लाल बनी गयां. एवी रीते सिंहना सरखुं पराक्रम करता भगवान् जेम कोई गजेन्द्र प्राणीने चीरी नाखतो तेना लोहीना कादवथी खरडायेला गाल अने मुखवाळो थाय तेवा वराह थया. कमळना कन्दने जेम गजेन्द्र लई ले तेम एना देहमान्थी सार खेञ्ची उपर पधार्या ॥३२-३३॥
तमाल सरखा श्याम स्वरूपवाळा अने हाथीनी पेठे लीला करता भगवान् वराह ज््यारे पोतानी सफेद दाढ उपर पृथ्वीने धारण करीने उपर पधार्या त्यारे, हे अङ्ग! ब्रह्मादि देवो एमनां दर्शन करी वेदमन्त्रोवडे एमनी स्तुति करवा लाग्या ॥३४॥
*हे अजित! हे यज्ञ उत्पन्न करनार, त्रण वेदरूप र्श्रीअङ्गने धृणावता आपने अमारा नमस्कार हो. आपना रोमरूपमां यज्ञो समायेला छे. कारण वराहरूप आपने अमारा नमस्कार हो ॥३५॥
विशेष - ऋषिओ १२ श्लोकथी कर्मनुं स्वरूप बतावे छे; तेथी आ स्तुति १२ श्लोकथी करवामां आवे छे. कर्म उत्तम अने साधारण एवा भेदथी बे प्रकरनुं छे. एनुं निरूपण प्रमाणथी अने प्रमेयथी एम बे प्रकारे करवानुं छे. एमां प्रथम प्रमाणरूपाथी छ श्लोकथी स्तुति करे छे. भगवत्स्वरूप ते प्रमेयरूप गणाय. ए प्रमाणानुरोधी प्रमेय केवळ प्रमेय एवा बे भेद स्वरूपमां समजवा. केवल प्रमेय सातमा श्लोकथी शरू थशे; तेथी प्रथम प्रमाणानुरोधी प्रमेयनुं वर्णन छे. जेमना देह पाप संस्कारवाळी भूमिना अवयवमान्थी बनेला छे तेवा दुष्टोने खरेखर हे देव! आपनुं यज्ञात्मक आ स्वरूप पण मुश्केलीथी देखाय तेवुं छे. आपनी त्वचामां सात छन्दो छे, आपनां रोममां गर्भ छे, आपनां नेत्रमां आज्य(घी) अने चार चरणमां चातुर्होत्र कर्मो छे ॥३६॥
आपना मुखमां सुक् छे. हे ईश! आपनी नासिकामां सुव छे; उदरमां इडापात्र
[[२७०]] छे. कानना छिद्रमां चमस छे. मुखमां प्राशित्र छे. आपना गळाना मूळमां सर्व
ग्रहो छे. हे भगवान्! आपनी चाववानी क्रिया अग्निहोत्र छे ॥३७॥
आपना वारंवार थता अवतार ए दीक्षा छे. उपसद् ए आपनी ग्रीवा छे. प्रायणीय अने उदयनीय इष्टिओ ए आपनी दाढ छे. प्रवर्ग्य ए आपनी जिह्वा अने यज्ञ ए शिर छे. सभ्य अने आवसथ्य अने चितिओ ए आपना प्राण छे ॥३८॥
सोम तो आपनुं वीर्य छे. त्रण सवन ए आपनी जाग्रत्, स्वपन अने सृषिप्ति त्रण अवस्था छे. अग्निष्टोम वगेरे त्रण, पाञ्च अथवा सात संस्थाओसोम यज्ञोना प्रकार आपना देहनी धातुओ छे. सर्व सत्रो आपना शरीरना सान्धारूप छे. सर्व यज्ञ अने क्रतु इष्टिओ आपना स्नायुओ छे ॥३९॥
आप ज सर्व देवतारूप, मन्त्ररूप, द्रव्यरूप, सर्व क्रतुरूप तथा कर्मरूप छो. एवा आपने अमारा वारंवार नमस्कार हो. वैराग्य, भक्ति अने अन्तःकरणना जयथी अनुभव करतां विद्याना गुरुरूप आपने अमारा नमस्कार हो ॥४०॥
हे भूधर! वनमान्थी नीकळता मद झरता हाथीना दान्तना छेडा उपर पान्दडा साथे कमलनी वेल धारण करी होय तेवी आपनी दाढना छेडा उपर रहेली पृथ्वी शोभी रही छे ॥४१॥
आपना दान्तो उपर रहेल आ भूमण्डल सहित आपनो आ वेदमय वराहविग्रह एवो सुशोभित थई रह्यो छे जेवो सुशोभित शिखरो उपर छवायेली मेघमालाथी कुलपर्वत-मेरुपर्वतथाय ॥४२॥
स्थावर अने जङ्गम प्राणीओनी उन्नतिमाटे आप आपनी पत्नी आ जगन्मातानुं स्थापन करो. आप पिता छो. जेम अरणिमां आपे अग्नि मूकेलो छे तेम जेनी अन्दर पोतानुं तेज आपे मूकेलुं छे तेवी आने आपनी साथे अमे नमन करीए छीए ॥४३॥
रसातळमां गयेली आ पृथ्वीने उठावीने लावे एवो आपना सिवाय बीजो कयो पुरुष होई शके? हे प्रभु! मायावडे आप आ विश्वने रचो छो ए ज महाविस्मय करावनार छे तो पछी आप आ पृथ्वीने लावो एमां कांई विस्मय थवा जेवुं नथी ॥४४॥
आपनुं आ स्वरूप वेदमय छे. ज््यारे आप तेने धुणावो-हलावो छो त्यारे [[२७१]] केशवाळीना अग्र भागथी जे जळबिन्दु खरे छे तेनाथी अमो के जे जन, तप अने सत्यलोक मां रहीए छीए तेओ एना सम्बन्धथी पवित्र थईए छीए. हे ईश! तेथी अमने पवित्र करनार आप ज छो ॥४५॥
आपनां कर्म अपार छे. ‘‘एवा अवर्णनीय गुणोने हुं गाई शकीश’’ एवुं कहेनार भ्रष्ट मतिवाळो कहेवाय केमके आपनी योगमायावडे आ जगत् मोहित थई पोताना स्वरूपने भूली जाय छे तो पछी आपने कयान्थी जाणी शके? माटे हे भगवान्! आप दया करो; मायामोहित आ बधा जीवोने सुखी करो एओनुं पालन करो ॥४६॥
मैत्रेय बोल्या - ब्रह्मवादी मुनिओए आ प्रमाणे स्तवन कर्युं त्यारे प्रभुए पोतानी खरीओथी आक्रमण करेला जळ उपर पृथ्वीने मूकी, कारण के भगवान् ज सर्वना रक्षक होवाथी ए पोते पृथ्वीने स्थिर करे तो ज सर्व रक्षा थाय तेथी एने स्थिर करी ॥४७॥
जेनी चोतरफ सेना छे अने जे प्रजाना पतिरूप छे तेवा भगवाने रसातळमान्थी पृथ्वीने रमत मात्रमां लावीने जळ उपर राखी कारणके बीजाना दुःखने हरनारा पोते हरि छे अने पछी त्यान्थी पोते पधार्या ॥४८॥
भगवाननां लीलामय चरित्रो अत्यन्त कीर्तनीय छे अने एमां लागेली बुद्धि बधी जातनां पाप-तापोने दूर करी दे छे. जे कोई एमनी आ मङ्गलमय मञ्जुल कथाने प्रेमपूर्वक श्रवण करे छे अथवा बीजाने श्रवण करावे छे एना उपर अविद्यानो नाश करनार भगवान् अन्तःस्तलथी बहु जलदी प्रसन्न थई जाय छे ॥४९॥
भगवान् तो बधी कामनाओ पूर्ण करवा समर्थ छे. ए प्रसन्न थाय त्यारे शुं दुर्लभ छे? पण ए क्षुल्लभ कामनाओनी जरूर ज शी छे? भगवानने माटे ज भगवाननी भक्ति करवी एवी जेमनी अनन्य दृष्टि छे तेमने तो भगवान् पोतानी उत्तम गति प्राप्त करावे छे, पोताना जेवो तेने करे छे, पोताना भोगमां जेम कंई उणप नथी तेम तेना भोगमां पण कंई उणप भगवान् रहेवा देता नथी कारण के आप बधाना हृदयनो अभिप्राय जाणे ज छे ॥५०॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित् पुरा कथानां भगवत्कथासुधाम् ॥
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहाम् अहो! विरज्येत विना नरेतरम् ॥५१।
अरेरे! संसारमां पशुओ सिवाय पोताना पुरुषार्थनो सार जाणनार एवो कयो
[[२७२]] पुरुष हशे जे, आवा गमन-जन्ममरणमान्थी छोडावनार भगवाननी कथारूप अमृतनुं
कर्णपुटथी एकवार पान करी, पछी एनाथी मन हटावी ले?(भगवाननी कथा जेने न
गमे ते घणुं करीने नरज न होय, वानर अथवा बीजुं कोई पशु होय) ॥५१॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (मुख्य जीवसृष्टि प्रकरणनो बीजो) ‘‘यज्ञात्मा वराह भगवाननो प्रादुर्भाव’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय १४
दितिने कश्यपथी अकालमां गर्भाधान अने तेथी दैत्योनी उत्पत्ति
विशेष - काम, क्रोध अने लोभ ए त्रण दोषो छे. ए अनुक्रमे कर्म, ज्ञान अने भक्तिना नाशक छे तेथी अर्ही मुक्तोनी पण उत्पत्ति कहेवाय छे. एनो जन्म एनां स्थिति अने अन्त छ अध्यायथी कहेवामां आवे छे. ए सर्गलीलानां उपोद्धातरूपछे. शिवनो उत्कर्ष तथा ब्राह्मणोनो उत्कर्ष भक्तिशास्त्रमां नहि पण मतान्तरमां छे. आ छ(१४.१९) अध्यायमां कहेवामां आवेली लीला ‘मतान्तर भाषा’ छे तेथी विष्णुभगवान् तथा सनकादि भक्तोनी मोह करनारी लीला अर्ही कहेवामां आवे छे. जो त्रण मार्गनो नाश न थाय तो भगवान् भूतळ उपर अवतरे नहि; अवतरीने जीवने मोह थाय एवी लीला न करे; मुक्तोनी उत्पत्ति न थाय; जो मुक्तो न अवतरे तो सर्ग कर्मजन्य थई जाय; तो पछी ए भगवाननी लीलारूप अलौकिक सर्ग न कहेवाय ए बन्नेने माटे उपोद्घातनी जरूर छे. अर्ही १४ मा अध्यायमां कामवडे कर्मनो नाश कहेवाय छे. प्रथम (दिति) आधार अने पछी जीवनुं तेमां (गर्भमां) आववुं कहेवाय छे. आ तामस काम छे तेथी शिवजीनी कथा आ अध्यायमां आवे छे. सनकादिने क्रोध थयो ते पण कामजन्य छे. भगवाने प्रसन्नता बतावी ए भक्तिनो प्रताप छे. आ पहेलान्ना तेरमां अध्यायमां वराहनो प्रादुर्भाव कहेवायो तेमां हिरण्याक्षना वधनी वात सूक्ष्म रूपे कही.अर्ही एनुं विस्तारपूर्वक वर्णन छे. तेथी सामान्य विशेष-रूप अध्यायसङ्गति समजवी. श्रीशुक उवाच निशम्य कौषारविणोपवर्णितां हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ॥ पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिर्न चाऽतितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - कोई अगम्य कारणथी वराहनुं स्वरूप धारण करनारा [[२७३]] दुःखने हरनार भगवाननी कथा ज््यारे विदुरजीए मैत्रेय पासेथी साम्भळी त्यारे कथाश्रवणनां व्रतने धारण करनार विदुरजी हाथ जोडीने बहु तृप्ति न बतावता फरीथी पूछवा लाग्या ॥१॥
विदुरजी बोल्या - हे मुनिश्रेष्ठ! ए ज यज्ञमूर्ति भगवान् हरिए आदिदैत्य हिरण्याक्षने मार्यो ए तो में श्रवण कर्यु ॥२॥
लीलावडे पोताना दान्तना छेडा उपर पृथ्वीने धरीने उपर लावता ए यज्ञ भगवानने दैत्यराजनी साथे शाकारणथी लडाई थई? ॥३॥
मैत्रेये कह्युं - हे वीर! जेमां भगवानना अवतारनी कथा आवे तेवुं तमे पूछ्युं माटे तमारो ए प्रश्न उत्तम छे अने मनुष्यना मृत्युरूप बन्धनने छोडावनार होवाथी ए वखाणवा योग्य छे ॥४॥
नारदजीए ध्रुवजीने भगवाननी जे कथा कहेली तेना प्रभावथी मृत्युना मस्तक उपर ज पग मूकी ध्रुव भगवानना चरणने प्राप्त थया हता ॥५॥
हवे अर्ही एक इतिहास छे, जे देवोना देव ब्रह्माजीए देवोना पूछवाथी कहेलो मारा साम्भळवामां आवेलो ते इतिहास हुं तमने कहुं छुम् ॥६॥
हे संयमी! दक्ष प्रजापतिनी पुत्री दिति कामातुर थई मरीचिना पुत्र अने पोताना पति कश्यपनी पासे सन्तान प्राप्त करवानी इच्छाथी गई. यजुर्वेदना पति यज्ञनारायण के जेनी जिह्वा अग्नि छे. तेमां दूधवडे होम करीने मुनि सन्ध्यासमये अग्निघरमां समाधिमां बेठा हता त्यारे दिति पोतानुं कामपीडानुं निवेदन करवा एमनी पासे गई ॥७-८॥
दिति बोली - हे विद्वन्! जेम कोई हाथी केळने चोळी नाखे तेम कामदेव पोतानुं धनुष चडावी दीन एवी मारापर पोतानुं पराक्रम बतावतो मने पीडी रह्यो छे ॥९॥
मारी सोक्योने पुत्रसम्पत्ति छे ए जोई हुं बळी रही छुं. एवी आपनी आ स्त्री उपर अनुग्रह करो. आपनुं कल्याण थाओ ॥१०॥
जेने आपना जेवो पति प्रजारूपे उत्पन्न थाय छे तेवी स्त्रीओने यश लोकमां वधे छे. गर्भाधानादिमां स्त्री पतिनी साथे बेसीने कर्म करे छे. ते एने यश आपनार छे ॥११॥
अमारा पिता सर्व शक्तिमान दक्षने दीकरीओ वहाली छे. एमणे पहेलां अमने पूछेलुं के पुत्रीओ तमारे कोने वरवुं छे? एम एमणे प्रत्येकने पूछेलुम् ॥१२॥
[[२७४]] एमने प्रजावृद्धिनी भावना हती तेथी अमारो विचार जाणीने आपना शीलने अनुसरनारी एवी तेर पुत्रीओ एमणे आपने पत्नीरूपे आपी छे ॥१३॥
तेथी हे कल्याण! हे कमलनयन! मारी कामना पूर्णकरीआपो. कोई दुःखी मोटा पासे जाय तो एनो फेरो सफळ थायछे ॥१४॥
मैत्रेये कह्युं - हे वीर! दिति कामना वेगथी अत्यन्त बेचेन अने बेकाबु थई रही हती. एणे आ प्रमाणे घणी एवी वात कहेती दीन थईने कश्यपजीने प्रार्थना करी. तेने समजावतां कश्यपे उत्तर आप्यो ॥१५॥
कश्यप बोल्या - हे भीरु! तुं जे प्रिय इच्छे छे ते तारुं काम हुं करीश. धर्म, अर्थ अने काम ए त्रणे पुरुषार्थ जेनाथी सिद्ध थाय छे ते स्त्रीनी कामना कोण पूरी न करे? ॥१६॥
जेम नावथी समुद्र तरी शकाय छे तेम स्त्रीवाळो पुरुष गृहस्थाश्रमवडे बधां दुःख तरी जाय छे. एवी रीते गृहस्थाश्रम ज सर्व आश्रमोमां श्रेष्ठ छे ॥१७॥
हे मानिनी! कल्याणनी इच्छावाळा पुरुषना आत्मानो स्त्री अर्ध भाग छे. एनी उपर घरनो बधो भार राखीने पुरुष निश्चिन्त थई फर्या करे छे ॥१८॥
बीजा आश्रमीओ पोताना इन्द्रियरूप शत्रुओने महा मुश्केलीए जीती शके छे, परन्तु एने गृहस्थाश्रमीओ स्त्रीनी सहायताथी, जेम किल्लावाळो शत्रुने सहेजमां जीती शके तेम, सहेजमां जीती ले छे ॥१९॥
हे गृहेश्वरी! अमारा उपर तमारा एटला बधा उपकार छे के अमे आखी जिन्दगी सुधी एनो बदलो वाळवा इच्छीए तो पण एक पण उपकारनो बदलो वाळी शकवा समर्थ नथी. देवताओ पण एटला ज असमर्थ छे ॥२०॥
तारी कामना पूर्ण तो करीश पण, बीजा लोकोमारी निन्दा न करे तेवी रीते मारे तारी कामना पूर्ण करवी छे; माटे थोडो वखत धीरज राख ॥२१॥
आ (सन्ध्यानो) समय अत्यन्त घोर छे. (आखा दिवसमां सन्ध्या रजस्वलारूप छे. आकाशमां रताश प्रत्यक्ष देखाय छे) ए वखत घोर प्राणीओ- राक्षसो वगेरेनो छे. आ वखते भगवान् भूतनाथ श्रीमहादेवजीना गण भूतप्रेतादि फरता होय छे ॥२२॥
हे साध्वी! आ सन्ध्यासमये भूतनी मण्डळीने लईने भूतना राजा शिवजी नन्दीउपर बेसीने लोकरक्षार्थे फरे छे ॥२३॥
[[२७५]] जेनी जटा श्मशान भूमिमां चडी आवेल वण्टोळियानी रजथी घूसर (भूखरी) थई प्रकाशी रहेल छे तथा जेना सुवर्णकान्तिमय गौरशरीरमां भस्म लागेली छे ते तमारा दियर महादेवजी पोताना त्रण नेत्रो(यज्ञना त्रण अग्निओ गार्हपत्य, आहवनीय अने दक्षिण)थी बधुं जुए छे ॥२४॥
जेमने कोई पोतानो के पारको नथी, कोई अत्यन्त माननीय के तिरस्कार करवा जेवो नथी; एमना चरणोथी लात मारी फगावी देवायेली, भोगवाई चूकेली, समृद्धिना दोष देखावाथी त्याग करावेली समृद्धिनी व्रतो करीने आपणे बधां आशा करीए छीए ॥२५॥
अविद्यानो पडदाने दूर करवाने बुद्धिमान पुरुषो एमना निर्मल चरित्रनुं गान करे छे. एमनाथी अधिक तो कोई नथी पण कोई एमना ऐश्वर्यने पहोची शके एम पण नथी आम छतां ए पिशाचचर्यानुं आचरण करे छे. एवा ए सत्पुरुषने गतिरूप हो ॥२६॥
आत्माराम महादेवजीना चरित्रने केटलाक भाग्यहीन लोको हसी काढे छे. ए हसनाराओ वस्त्रो, माला, घरेणां, चन्दनादिथी देहने शणगारे अने तेने आत्मा माने छे, परन्तु खरी रीते देह तो श्वानने भोजन करवा लायक छे. जेओ आ जाणता नथी तेओज महेदेवजीनी निन्दा करवामां प्रवृत्त थायछे ॥२७॥
एनी कहेली मर्यादानुं पालन ब्रह्माजी सुद्धां करे छे. आ विश्वनुं कारण माया छे. माया पण एनी आज्ञा उठावनारी दासी छे. ए पिशाचना जेवुं आचरण करे ए तो आ मोटान्ना चरित्रनुं अनुकरण मात्र गणाय ॥२८॥
मैत्रेये कह्युं - एवी रीते कश्यपे सारी रीते समजावी छतां कामे एना अन्तःकरणने वलोवी नाख्युं हतुं तेथी दितिए शूद्र स्त्रीनी माफक लाज छोडी कश्यपना वस्त्रने पकडी लीधुम् ॥२९॥
पोतानी स्त्री कर्मनो नाश करवामां आवो आग्रह करे छे ए जोई कालने नमस्कार करी एना कामने शान्त करवा ऋषि एकान्तमां मळ्या ॥३०॥
पछी मौन धारण करी जलथी स्नान करी सनातन, स्वयम्प्रकाश अने रजोगुण रहित ब्रह्मनो ध्यान सहित जप करवा लाग्या ॥३१॥
हे भारत! निन्दितकर्म करवाथी दिति लज्जायुक्त थईने मुनिनी पासे आवी अने नीचुं मो राखीने मुनिने कहेवालागी ॥३२॥
[[२७६]] दिति बोली - हे ब्रह्मन्! भूतपति रुद्र मारा गर्भने न मारे एटली मारी मागणी छे, कारण के भूतोमां श्रेष्ठ रुद्रनो में अपराध कर्यो छे ॥३३॥
रुद्र, उदार, देव, उग्र, कामना पूर्ण करनार, कल्याण स्वरूप, (दक्षने मारवाथी उपद्रव थतां)जेणे दण्ड देवानुं छोडीदीधुं छे पण दुष्टोमाटे दण्ड धारण करनार, (ब्रह्मना)क्रोधस्वरूपने नमस्कार ॥३४॥
घणो ज अनुग्रह करनार, स्त्रीओना देव, सतीना पति, मारा बनेवी मारा उपर प्रसन्न हो, कारण के स्त्रीओ उपर तो शिकारी पण दया राखे छे.शिकारी अर्थ- धनमाटे प्राणीओनी हिंसा करे छे. काम करतां अर्थ मोटो पुरुषार्थ छे अने काम स्त्री होय त्यारे ज सिद्ध थाय छे ॥३५॥
मैत्रेय कह्युं - सर्व लोकमां प्रसिद्ध आशिषोने पोताना गर्भने माटे इच्छती अने ध्रूजती दितिने प्रजापति कश्यप पोतानो सन्ध्यानियम पूरो करी कहेवा लाग्या ॥३६॥
कश्यप बोल्या - हे अभद्रे! तें आत्मसंयम न राख्यो, सन्ध्यासमयनो दोष कर्यो, मारी आज्ञानुं पालन न कर्युं अने देवोनी अवगणना करी, आ चार अपराधोने लईने तारा पेटमां रहेला बन्ने गर्भ अधम थशे एटलुं ज नहि एओ लोकपालो सहित त्रण लोकने वारंवार आक्रमण करी रडावशे ॥३७-३८॥
एओ निरपराधी अने गरीब प्राणीओने मारशे, स्त्रीओने उठावी पोताना घरमां केद करशे अने महात्माओना कोपना पात्र थशे ए समये ‘क्रोधायमान’ विश्वना ईश्वर भगवान् लोकनुं रक्षण करवाने, जेम पर्वतोने इन्द्र तोडी पाडे तेम तारा पुत्रोने मारवा अवतार धारण करी पृथ्वी उपर पधारशे ॥३९-४०॥
दिति बोली - एवा चक्रधारी भगवानना हास्त्री मारा पुत्रो मरे एवुं हुं इच्छुं छुं. परन्तु हे प्रभु! मारा पुत्रो ब्राह्मणना क्रोधथी नमरे एवी कृपाकरो ॥४१॥
ब्राह्मणना शाप पामेलाओ अने प्राणीने भय करनाराओ जे-जे योनिमां जाय छे. त्यां-त्यां नरकना लोको पण एमनो स्पर्श करतां नथी ॥४२॥
कश्यपे कह्युं - तें तारा कामनो शोक अने पश्चात्ताप कर्यो तरत ज अपराधनी क्षमा मागी, भगवानना हाथे मरवामां खुशी बतावी अने एम कही तें भगवानना प्रत्ये तथा मारा प्रत्ये आदर छे एम बताव्युं तेथी तारा पुत्रो तो में कह्युं तेवा थशे पण तारो ए पौत्र सत्पुरुषोमां सन्मान पामशे. भगवाननी पेठे एनो यश त्रण [[२७७]] लोकमां गवाशे ॥४३-४४॥
जेम अग्निवडे हलका सुवर्णने तपावी शुद्ध करवामां आवे तेम आत्माने शुद्ध करता निवैंर बनी भक्तो प्रह्लादना शीलने अनुसरशे ॥४५॥
जे भगवाननी कृपाथी भगवदात्मक आ विश्व प्रसन्न थाय छे, पोताना ज स्वरूपने जोनार ते भगवान् तारा पौत्र उपर अनन्य* दृष्टिथी प्रसन्न थशे॥४६॥
विशेष - प्राणीने सोळ, दृष्टि होय छे. दश इन्द्रियो, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्काररूप चार रूप ज अन्तःकरण, आत्मा, देह अने प्राणने गणो तो सत्तर. ए १७ आन्तर; पुत्रादि बाह्य गणीए तो ३४ दृष्टि थाय छे. ए दृष्टि भगवान् विना विषयने ग्रहण न करे. ए भक्त अनन्यदृक् कहेवाय. प्रह्लाद अनन्य होवाथी भगवान् एनी उपर प्रसन्न थई मर्यादाने छोडी स्तम्भमान्थी प्रकट्या. तारो पौत्र महा भगवद्भक्त थशे, महात्मा थशे, महानुभाव थशे. यशस्वीओमां सौथी यशस्वी थशे, वृद्धि पामती भक्तिनुं सेवन करी पोताना हृदयमां भगवानने धारण करी ए पोताना देहनो त्याग करशे ॥४७॥
विषयाशक्तिथी रहित, सारा स्वभाववाळो गुणनो भण्डार पारकी सम्पत्ति जोई राजी थनार, दुःखवाळानां दुःख जोई दुःखी थनार, अजातशत्रु ए जेम चन्द्र ग्रीष्मनो ताप मटाडे तेम, जगतनो शोक मटाडशे ॥४८॥
भक्तनी इच्छा प्रमाणे स्वरूपने धारण करनार, जे अन्दर अने बहार निर्मळ छे,जेमनां नेत्र कमळ जेवां छे, जेमनुं मुखारविन्द प्रकाशतां कुण्डळोवडे शोभे छे, श्रीना चिह्नरूप लक्ष्मीजीथी सुन्दर तेवा भगवान् तारा पौत्रने निरन्तर दर्शन देशे॥४९॥
श्रुत्वा भागवतं पौत्रं मुमोदत दितिर्भृशम् ॥ पुत्रयोश्च वधं कृष्णाद् विदित्वाऽऽसीन्महामनाः ॥५०॥
(प्रभुनुं स्वरूप सर्व भाग्यरूप होवाथी तेनां दर्शन थतां बीजुं कांई प्राप्त करवानुं बाकी रहेशे नहि) मैत्रेये कह्युंः पोतानो पौत्र भगवाननो मोटो भक्त थशे ए जाणी दिति अत्यन्त प्रसन्न थई अने पोताना बे पुत्रोने भगवान् मारशे ए जाणीने पण मोटा मनवाळी थई ॥५०॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (मुख्य जीवसृष्टिप्रकरणनो त्रीजो)
‘‘दितिने कश्यपथी अकालमां गर्भाधान अने तेथी दैत्योनी उत्पत्ति’’
नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[२७८]] अध्याय १५
जयविजयने सनत्कुमारनो थयेल शाप
विशेष - आ पन्दरमां अध्यायमां क्रोधवडे ज्ञाननो नाश शी रीते थाय छे ए कहेवाय छे; अर्थात् बीजमां जीवनो प्रवेश थाय तेमाटे जय-विजयने शाप थयो ए वात कहे छे. वैकुण्ठमां वृक्ष, पक्षी के स्त्रीओ ए बधाने परोत्कर्षनी असहिष्णुता थती नथी, कारण के एनुं मूळ दोष छे. वैकुण्ठस्थ बधा निर्दोष छे, छतां त्यां पण ए दोष देखायो ए भगवदिच्छाथी छे ए वात प्रसिद्ध करवामाटे वैकुण्ठनुं वर्णन छे. प्राजापत्यं हि तत्तेजः परतेजो हनं दितिः ॥ दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - प्रजापति कश्यपनुं तेज जे बीजा तेजोनो नाश करनारुं छे ते देवताओ तेने पीडा करशे एवी शङ्का करी दितिए ए तेजने पोताना गर्भमां सो वर्ष पर्यत धारण कर्यु ॥१॥
ए गर्भमां तेज दाखल थयुं तेनाथी लोको अने लोकपालो निस्तेज बनी गया; दिशाओमां अन्धकार थई गयो. ब्रह्माजी समक्ष जई लोकपालोए ए बधुं निवेदन कर्युम् ॥२॥
देवोए कह्युं - हे विभु! जेनाथी अमे अत्यन्त दुःखी थई रह्या छीए ते अन्धकार आप जाणो छो. आपनो मार्ग काळथी अस्पृष्ट होई, आपने आवुं केम थयुं छे एनी खबर होवी जोईए केमके आप भगवान् छो ॥३॥
हे देवना देव! जगतना धाता, लोकनाथोना शिखामणि, आप अमारा ऊञ्चा तेमज नीचा-पर अने अपरना-हृदयने जाणनार छो ॥४॥
विज्ञान ब्रह्मनो अनुभव आपनुं बळ छे. आप मायावडे शरीर धारण करो छो, गुणना भेदने ग्रहण करी आप अव्यक्तना कारणरूप थया छो, एवा आपने मारा नमस्कार हो ॥५॥
जेओ पोताना (जीवोना) देहने उत्पन्न करनार, पोतानी अन्दर भुवनोने परोवी राखनार, नियन्ता, प्रलयकर्ता (सदसदात्मक) एवा आपनुं अनन्यभावथी चिन्तन करे छे ते पकव थयेल योगवाळा, श्वास, इन्द्रियो अने अन्तःकरण उपर विजय मेळवेला अने तेथी आपना कृपापात्रोनो कोईथी पण पराभव थई शकतो नथी ॥६-७॥
[[२७८]] जेम कोई बळद नाथवडे बन्धाय तेम वाणीवडे सर्व प्रजा बन्धाई रही छे एने अधीन थई आपने बलिनुं अर्पण करे छे; एवा मुख्य (देव) ने नमस्कार ॥८॥
अन्धकारथी जेनां कर्म लुप्त थई गयां छे ते अमे आपनी पासे हाजर थया छीए. अत्यन्त दयादृष्टिवडे दुःखी तेवा अमारी सामुं आप जुओ अने हे भूमन्! अमने सुखी करो ॥९॥
हे देव! दितिना गर्भमां गयेली कश्यपनी शक्ति बधी दिशाओमां अन्धारुं करे छे; लाकडामां अग्नि वधतो जाय तेम ए अन्धकार वधतो जाय छे ॥१०॥
मैत्रेये कह्युं - हे महाबाहु विदुर! देवोनी स्तुति साम्भळी वेदोथी जेनुं ज्ञान थाय छे तेवा भगवान् ब्रह्माजी घणुं हस्या. पछी एमने आनन्दायक सुन्दर वाणीवडे एमणे उत्तर आप्यो ॥११॥
ब्रह्माजी बोल्या - सनकादि चार भाईओ ए तमारा पूर्वजो अने मारा मानस पुत्रो छे; तेओ लोकोमां स्पृहारहित थईने आकाशमार्गे बधा लोकमां फरता हता ॥१२॥
एक वखत ते सनत्कुमारो सर्व लोक जेने नमस्कार करे छे तेवा निर्मल स्वरूपवाळा वैकुण्ठ भगवानना लोकमां गया ॥१३॥
त्यां सर्व भगवानना जेवा स्वरूपवाळा पुरुषो वसे छे अने भक्तो कोई पण जातना फळनी आशारहित थई धर्मवडे हरिनुं आराधन करे छे ॥१४॥
त्यां भक्तोना स्वामी, वेदोथी जाणी शकाय तेवा भगवान् पुरुषोत्तम, रजोगुणरहित सत्त्वने स्थिर करी आपणने आनन्द आपता बिराजे छे ॥१५॥
एमां निःश्रेयस नामनुं वन छे. एमां इच्छा पूर्ण करे तेवां वृक्ष आवेलां छे. एनाथी तथा सर्व ऋतुनी शोभाथी जाणे साक्षात् मोक्ष होय एवुं ए वन लागे छे ॥१६॥
त्यां गन्धर्वो पोतानी ललनाओ साथे विमानमां बेसी लोकनां पाप दूर करनारा भगवद्यशनुं गान करे छे. एओ वसन्त ऋतुमां जळमां खीलती मालती लताना सुगन्धवाळा पवनने पण गणकारता नथी अने एम करी एओ पोतानी भक्तिनुं प्राबल्य बतावे छे ॥१७॥
ए वनमां ज््यारे भ्रमरराज ऊञ्चा स्वरथी, हरि कथानुं गान करतो होय तेम
गुञ्जारव करे छे त्यारे थोडी वार तो कबूतर, कोकिल, सारस, चक्रवाक, बपैया, हंस,
[[२८०]] पोपट, तेतर अने मोर वगेरेनां शब्दनो कोलाहल शान्त थई जाय छे. (आम भ्रमर
भगवान् समीप रहेतो होवाथी, भगवानना केशोनो रङ्ग भ्रमर जेवो होवाथी तेओ
जाणे के तेनुं आधिपत्य स्वीकारी एना कीर्तनना आनन्दमां सूधबूध खोई बेसे छे)
॥१८॥
तुलसी (नी वनमाला धारण करनार भगवान् तुलसी) नो अधिक आदर करे छे ए जोईने त्यान्ना मन्दार, कुन्द, कुरबक, चम्पो, अर्ण, पुन्नाग, बोरसली, कमळ अने पारिजात जे बधां सुगन्धवाळां छे ते बधां तुलसीना तपने पोताना करतां
विशेष मानेछे ॥१९॥
ए वैकुण्ठ, वैदूर्य, मरकतमणि अने सोनानां विमानोथी व्यापेलुं छे. एने भगवानना चरणमां नमन करनाराओ श्रवणथी दास्य सुधीनी भक्ति करनारा ज जोई शके छे. विमानोमां बेठेली मोटा नितम्बवाळी मन्द हास्यथी शोभती सुमुखी देवस्त्रीओ पण वैकुण्ठमां वसनाराओमां पोतानां हास्यदिवडे काम उत्पन्न करी शकती नथी ॥२०॥
लक्ष्मीजीए त्यां साक्षात् स्वरूप धारण कर्युं होय छे. पोताना चरणारविन्दवडे झङ्कार करती अने हाथमां कमळने धारण करी, पोताना चाञ्चल्य दोषने दूर करती ए ज््यां स्फटिकनी र्भीतोमां कुन्दन जडेल छे. तेवा वैकुण्ठमां बुहारी (साफसूफ्)करती देखाय छे. जे लक्ष्मीना अनुग्रहने माटे बीजाओ यत्न करता रहे छे ते लक्ष्मी वैकुण्ठमां साधारण स्त्रीनी माफक वर्ते छे ॥२१॥
वैकुण्ठमां अमृत जेवा जळवाळी अने प्रवाळना काण्ठा बान्धेली वावडीओ आवेली छे. लक्ष्मी ज््यारे पोतानी दासीओ साथे वनमां फरती-फरती तुलसीथी पोताना स्वामीनुं अर्चन करती ए वावडीओना जळमां सुन्दर केश अने सुन्दर नासिकावाळुं पोतानुं मुख प्रतिबिम्बित थयेलुं जुए छे त्यारे, हे अङ्ग! एने एटलो सन्तोष थाय छे के आ मुख भगवान्थी चुम्बितछे ॥२२॥
भगवाननी कथा सिवायनी बीजी कुकथा बुद्धिनो नाश करनारी छे. जे ए साम्भळे छे ते वैकुण्ठमां जई शकतो नथी. हतभागी ज एवी कुकथा साम्भळे छे. अरर! एवी सार वगरनी कुकथा साम्भळनार नरकगामी थाय छे. मनुष्यपणुं तो ब्रह्माजी पण मागी रह्या छे, कारण के एमां तत्त्वज्ञान सहित धर्म पण सिद्ध थई शके छे. एवा मनुष्यत्वने पामीने जो मनुष्योए भगवाननुं आराधन न कर्युं तो हे देवो! [[२८१]] तेओ भगवाननी मायाथी मोहित थयेला छे एम ज समजवुं रह्युम् ॥२३-२४॥
हे इन्द्र! जेमनो अहङ्कार दूर थयो छे तेओ निरन्तर भगवानने अनुसरे छे. एवाओने पोताना स्वामीनी कथामां अनुराग होय छे एथी कथा कहेवा मात्रथी एमने विकळता थाय छे एमनां नेत्रमां जळ आवी जाय छे अने एमने रोमाञ्च थाय छे. आवा भक्तो जेना जेवा शीलस्वभावनी अमे पण इच्छा करीए छीए तेओ आपणी उपर रहेला वैकुण्ठमां जाय छे ॥२५॥
जेमां विश्वना गुरु अध्यक्षरूपे बिराजे छे, जे भुवनोने मात्र वन्दन करवा योग्य छे, (पग मूकवा योग्य नथी) देवताओनां विचित्र विमानोनी कान्तिथी शोभायमान छे तेवा वैकुण्ठमां *योगमायाना बळवडे सनकादि पहोञ्च्या अने परम हर्ष पाम्या ॥२६॥
विशेष - हकीकतमां योगमायाए भगवाननी आज्ञाथी सृष्टि रची. पोते रचेली सृष्टि जोवामाटे भगवानने कहेवा जवानी योग मायानी हिम्मत चाली नहि. भगवानना बे द्वारपालो केमेय करीने पृथ्वी उपर आवे अने पृथ्वीनुं पालन करनारा थाय तो भूमि भगवाननुं द्वार थाय. त्यारे भूमिनुं द्वारपणुं सिद्ध थाय तेमाटे भगवान् भूमि उपर प्रकट थाय अने मायानी सृष्टि रचवानी कला भगवान् जुए. आमाटे मायाए सनत्कुमारोने बलात्कारे वैकुण्ठमां लावी मूकवानी युक्ति रची. वैकुण्ठमां दाखल थईने आसक्ति रहित एओ छ दोढी सुधी तो चाल्या गया, परन्तु सातमी दोढी उपर आवतां कीमती बाजूबन्ध, कुण्डळ किरीट तथा सुन्दर वेशथी शोभता अने हाथमां गदावाळा समान वयना बे देवोने एमणे जोया ॥२७॥
चार श्यामल बाहुओनी मध्यमां रहेला कण्ठमां एओए मदोन्मत्त भमराओथी र्वीटायेली वनमाळा पहेरी हती. एमनी भ्रुकुटि वाङ्की हती; नेत्रो लाल हतां अने एमनुं नाक फरकतुं हतुं; एवा कंईक क्रोधवाळा देखाता बे देवोने एमणे जोया ॥२८॥
बन्ने देवो जोई रह्या हता छतां तेओने पूछ्या विना हीराथी जडेला सोनानां कमाडवाळा ए दरवाजानी अन्दर सनकादि दाखल थया कारण के एमने विषमदृष्टि न होवाथी तेओ भयरहित थई सर्वत्र फरे छे ॥२९॥
वस्त्ररहित, वृद्ध१ दशानी२ अर्ध उमरवाळा (एक परार्ध वर्षनी वयवाळा)
आत्मतत्त्वने जाणनार ए कुमारोने जता जोई, भगवानना स्वभावथी विरुद्ध
[[२८२]] जईए जय-विजये कुमारोना तेजने पाखण्ड गणी काढी अणछाजती रीते तेमना
आडी छडी राखी तेमने अटकाव्या.३ ॥३०॥
विशेष - १. ब्रह्मकल्पमां तेमनो जन्म थयेलो तेथी ब्रह्माजीनी सृष्टिमां सौथीवृद्ध.
२. दशा=बे परार्ध वर्षनी मनुष्यनी दशा. ३. मुनिओ आसक्तिरहित हता तेथी छ
द्वार (ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य) तो वटाव्यां पण भक्ति नहि
होवाथी, सातमा द्वारे रुकावट आवी.
अत्यन्त पूजनीय होवा छतां सनकादिने देवोना देखतां भगवानना पार्षदोए
अटकाव्या. एवी रीते सुहृत्तम भगवाननां दर्शननो अभिलाष अटकतां, स्हेज क्रोध
थतां आङ्खो चडावी तेओ बोल्याःभगवाननी उत्तम प्रकारे सेवा करवाथी वैकुण्ठमां
आवनार बधा भगवानना जेवा धर्मवाळा होय, छतां तमारा स्वभावमां आवी
विषमता केम देखाय छे? भगवानना तो बधा ज पुरुषो शान्त होय छे, भगवान्मां
नथी कलह, नथी आग्रह के नथी देह तो पछी एमनी पासे रहेला, पोतानी जेम
बीजाने जोनार, कपटनी शङ्का करनार तमे कोण छो? ॥३१-३२॥
जेम आकाशथी आकाशने तथा आत्माथी आत्माने भेद नथी होतो तेम भगवान् के जेमना उदरमां सर्व जगत् छे तेमने धीर पुरुषो भेदरहित गणे छे. देवोनो वेश धारण करीने रहेला तमे कोण छो के जेमने अमारी अने वैकुण्ठवासीनी वच्चे अन्तर करावनारो भय देखाय छे? ॥३३॥
भगवान् सर्वना स्वामी छे. एमनी खातर अमने विचार थाय छे के मन्द बुद्धिवाळा होवाथी तमे भेदभाववाळा छो तेथी ज््यां काम, क्रोध अने लोभरूपी पाप करावनारा शत्रुओ वसता होय तेवा नीच लोकमां तमारे जवुम् ॥३४॥
सनकादिनुं बोलवुं साम्भळतां, मोटा अस्त्रना समुदायथी पण जेनो सामनो न थई शके तेवो आ ब्रह्मदण्डरूप शाप थयो एम जाणी अत्यन्त भयथी दीन बन्या अने एमने भगवानना भक्त जाणी एमना पग पकडी चरणमां पड्या ॥३५॥
आपे अमो पापीओने दण्ड आप्यो ए योग्य कर्यु केमके ए अमे करेल देवना अपराधना सर्व दोषने हरनार छे. परन्तु अर्हीथी अमे नीचे जईए त्यारे त्यां पश्चात्तापने लईने अमने भगवाननुं विस्मरण करनारो मोह न थाय एवी आप कृपाकरो ॥३६॥
ए समये भक्तो जेने वहाला छे तेवा अने जेमना नाभिमां कमळ छे तेवा [[२८३]] भगवान् लक्ष्मीने साथे लई, पोताना सेवकोए भगवद्भक्तोनो अपराध कर्यो छे ए जाणीने जेमानां चरणारविन्द परमहंसो तथा मुनिओए पण शोधवा लायक छे तेनावडे चालता त्यां पधार्या ॥३७॥
पोताना सेवकोए जेमना उपयोगमाटे पादुका वगेरे तैयार राख्यां छे तेवा, जेमनुं दर्शन केवळ भाग्यवाळा ज समाधिमां करी शके छे तेवा, हंस जेवा श्वेत चामरना ऊडवाथी पवित्र पवनने लीधे श्वेत छत्रनी झालरनी मोतीनी हारो चन्द्रकिरणमान्थी पडता जळबिन्दुनी शीतळतानो जेने अनुभव करावी रही छे तेवा भगवान् त्यां पधार्या त्यारे सनकादि कुमारोए प्रत्यक्ष दर्शनकर्या ॥३८॥
जेमनुं मुखरविन्द जोई सर्वे प्रसन्न थाय छे. जेमनी सुन्दर क्रान्ति जोई लोको जेमनी स्पृहा करे छे, स्नेहपूर्वक जोवा मात्रथी जे हृदयमां चोण्टी जाय छे, जेमना श्याम विशाळ वक्षःस्थळमां लक्ष्मी शोभी रहेलां होवाथी जेमणे स्वर्गना मुकुटमणिरूप वैकुण्ठने सौभाग्यनुं धाम बनाव्युं छे तेवा भगवाननां दर्शन थयाम् ॥३९॥
एमणे विस्तृत नितम्ब उपर पीताम्बर धारण कर्युं छे अने एना उपर कटिमेखला झळकी रही छे. एमना गळामां गुञ्जारव करता भमरोवाळी अने चरणारविन्द सुधी लटकती माळा शोभी रही छे. एमणे सुन्दर कडांवाळो एक श्रीहस्त गरुड उपर राख्यो छे तो बीजा श्रीहस्तथी कमळ फेरवी रह्या छे तेवा भगवाननां दर्शन थयाम् ॥४०॥
वीजळीना प्रकाशनी पण हांसी करनार, मकराकृत कुण्डळोना आभूषणने योग्य गण्डस्थळ अने ऊञ्ची नासिकायुक्त सुन्दर मुखारविन्द अने मणिमय मुकुट तथा चार हाथनी वच्चे शोभता अमूल्य हार अने कण्ठमां पहेरेला कौस्तुभथी मनने हरता भगवानने तेओए जोया ॥४१॥
एमनुं दर्शन थतां लक्ष्मीने पोताना सौदर्यनो गर्व पण गळी जाय छे. एमना अवयवोनुं सौष्ठव अवर्ण्य छे. अने भक्तो जेवा रूपनुं ध्यान धरे तेवा रूपने ए धारण करे छे ते भगवान् ज मारा, शिवना अने तमारा सेव्य छे तेवा भगवानने जोई जेमनां नेत्रोनी तृषा मटी नथी तेवा सनकादि पोतानुं मस्तक नमावी आनन्दमग्न थवाथी भगवानने नमी पड्या ॥४२॥
ए कमळनेत्र भगवानना पदारविन्दना केशरथी मिश्र थयेलो तुलसीना सुगन्धीवाळो
वायु नासिकाद्वारा हृदयमां जतां, जो के सनकादि ब्रह्मरूप हता तो पण एमनां मन
[[२८४]] अने शरीरने ए सुगन्धी वायुए खळभळावी दीधां. (जेथी एमने भगवानना
चरणनी स्पृहा थई) ॥४३॥
श्याम कमळना कोश जेवा, अत्यन्त सुन्दर अधर अने कुन्दना पुष्प जेवा हास्ययुक्त, मुखारविन्दने नीरखीने ए कुमारो पोताना सर्व मनोरथो सिद्ध थया एम मानवा लाग्या एटलुं ज नहि पण भगवाननां नखरूपी लाल मणिओवाळां बे चरणारविन्दनुं ध्यान करवा लाग्या ॥४४॥
आ लोकमां मुमुक्षुओ, योगद्वारा ध्यानमां जे आदर करवा योग्य, नेत्रने चारे तरफथी सुन्दर देखातुं अने अन्यमां जोवामां आवतुं नथी तेवुं उत्पत्तिसिद्ध आठ भोगवाळुं जे पुरुषशरीर जुए छे ते ज शरीरने जोई कुमारो सुन्दर स्तुति करवा लाग्या ॥४५॥
कुमारो बोल्या - हे अनन्त! आप दुष्ट पुरुषना हृदयमां तो बिराजो छो छतां एने दर्शन देता नथी ते आप आजे ज अमारा नेत्र समक्ष पधारेला छो. आपथी उत्पन्न थयेला अमारा पिता ब्रह्माजीए आपना स्वरूपनो परिचय कराव्यो हतो त्यारे ज कानद्वारा आप हृदयमां पधार्या हता ते आपनो आजे अमे नेत्रथी साक्षात्कार करीए छीए ॥४६॥
हे भगवान्! अमे जाणीए छीए के परम आत्मतत्त्वरूप तेवा आ वैकुण्ठमां वसता भक्तोने, सत्त्वशरीर धारण करी आप हमणां एमां प्रीति करावी रह्या छो. जेमणे तप अने दृढ भक्तियोगवडे, राग अने अहङ्कारथी मुक्त मुनिओ आपनुं स्वरूप जाणी शके छे ॥४७॥
हे अङ्ग! जेओ आपना चरणनो आश्रय करनारा छे तथा कीर्तन करवा लायक अने तीर्थनी जेम पवित्र करनारी कथारसना रसिया छे तेवा कुशळ पुरुषो आत्यन्तिक मोक्षने पण विशेष गणता नथी तो पछी आपनी स्हेज टेडी भ्रमर ज जेने भयभीत करी दे छे तेमनी ए इन्द्रपद वगेरे अन्य भोगोनी बाबतमां तो कहेवुं ज शुं? ॥४८॥
जो अमारुं चित्त भमरानी पेठे आपना चरणकमळमां रम्या करे तुलसीनी पेठे अमारी वाणी आपना चरणने शोभावनारी थाय अने अमारा काननां छिद्र आपना गुणगानथी भराय तो पछी भलेने अमारां पापवडे अमारो जन्म नरकोमां थाय ॥४९॥
[[२८५]] प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूतरूपं तेनेश! निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः। तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान्प्रतीतः ॥५०॥
हे यज्ञस्वरूप प्रभो! आपे आ जे स्वरूप प्रकट कर्युं तेनाथी अमारी आङ्खो खूब ठरी छे. बहिर्मुखता वगेरेथी जेओए पोताना आत्मानो ज नाश करी नाख्यो छे तेओने माटे आप दुरुदय छो अत्यन्त दुर्लभ छो. आ प्रमाणे स्पष्ट रूपथी प्रकट थयेल आप साक्षात भगवान् छो. आपने शास्त्रीय विधि प्रमाणे नमन करवानुं तो अमारुं गजुं नथी पण प्रमाण जेवुं कंईक करीए! ॥५०॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (मुख्य जीवसृष्टिप्रकरणनो चोथो) ‘‘जय-विजयने सनत्कुमारनो थयेल शाप’’ नामनो १५मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के पापी मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय १६
कोप पामेला कुमारोनुं सान्त्वन करी तेमनी उपर प्रभुए करेली कृपा
विशेष - आ अध्यायमां भक्तोनी कृति सत्य छे, ब्रह्मवादिओनी वाणी सत्य छे अने भगवाननुं मन सत्य छे एनो निर्णय करवामां आव्यो छे. जय-विजय भक्त छे. एमणे मुनिओने वैकुण्ठमां जता रोक््या अने भगवाने दरवाजा उपर पधारी एमने दर्शन आप्यां पण ए अन्दर जवा न पाम्या. ब्रह्मवादी मुनिनो शाप सत्य कर्यो अने भगवाननी इच्छा सत्य थई. भगवाननुं मन प्रबळ होवाथी मुनिओए बीजो विरोध न दर्शाव्यो एटले भगवाननी इच्छा विरुद्ध ए न बोल्या; माटे भगवाननी सर्ग-लीलामां प्रीति ओछी होवानुं जणाय छे. इति तद्गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम्। प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥१॥
ब्रह्माजीए कह्युं - योगधर्मवाळा सनकादि एवी रीते बोल्या ए मुनिओना
[[२८६]]
ईं उं ईं उं
वक्तव्यने समर्थ वैकुण्ठस्थ भगवाने आवकार्यु अने आ प्रमाणे भगवाने कह्युम् ॥१॥
श्रीभगवान् बोल्या - मारी आज्ञानो अनादर करीने आ जय अने विजये तमारो भारे अपराध कर्यो छे ॥२॥
मारो मत जाणीने तमे एओने दण्ड आप्यो छे. हे मुनिओ! ब्राह्मणदेवनो अपराध थयो तेथी जे दण्ड आपवामां आव्यो छे तेने हुं सम्मत थाउं छुम् ॥३॥
तेथी हुं आजे आपनी क्षमा याचुं छुं. कारण के ब्राह्मणो मारुं परम दैवत छे. मारा माणसे कर्युं ते में ज कर्युं होवानुं हुं मानुं छुम् ॥४॥
जेम कोढ चामडीने बगाडे तेम जो नोकर खराब काम करे तो लोको एना स्वामीने दोषित गणे छे एवो दोष स्वामीनी कीर्तिनो नाश करे छे ॥५॥
मारी निर्मल सुयश सुधामां डूबकी मारवाथी चाण्डाल पर्यन्त बधी सृष्टि तरत ज पवित्र थई जाय छे. एथी ज हुं ‘विकुण्ठ’ कहेवाउं छुं. पण आ पवित्र कीर्ति मने लाधी छे आप लोक पासेथी ज. तेथी जो कोई आपनी विरुद्ध आचरण करे, पछी ते मारो ज हाथ केम नथी होतो एने तत्काल कापी नाखुम् ॥६॥
ब्राह्मणोनी सेवा करवाथी मारा चरणनी रज पवित्र थई छे तेथी तत्काळ बधां पापने निवृत्त करनार हुं थयो छुं. बधा सारा गुण एनाथी ज प्राप्त थया छे. लक्ष्मीना कटाक्षना लेशनी कामनाथी ब्रह्मा वगेरे अनेक नियमो पाळी एनी आराधना करे छे ते लक्ष्मी प्रत्ये हुं उदासीन छुं छतां ते मने क्षण पण छोडती नथी ॥७॥
घी टपकता होमद्रव्यनुं अग्निद्वारा भक्षण करी हुं जेटलो प्रसन्न थाउं छुं तेना करतां ब्राह्मणना मुखमां जता एक-एक कोळियाथी वधारे प्रसन्न थाउं छुं, कारण के पोताना कर्मथी एने प्राप्ति थाओ के न थाओ छतां निर्विषय पण ए केवळ मारी प्राप्तिथी ज प्रसन्न थाय छे ॥८॥
अखण्ड अने अकुठिन्त योगमाया मारी विभूति छेःमारा चरणक्षालननुं जळ शिवजीनी साथे त्रण लोकने पवित्र करे छे अने हुं विप्रोनी चरणोनी पवित्र रज मारा मुकुट उपर धारण करुं छुं. तो एमनी आज्ञा कोण न उठावे? ॥९॥
उत्तम ब्राह्मणो, दूध देती गायो तथा अनाथ प्राणीओ ए मारा शरीररूप छे. जेओ सर्प जेवी क्रोधी तथा भेददृष्टिथी एमनी प्रत्ये जुए छे ते पापथी नाश पामेली विवेक बुद्धिवाळानी आङ्खोने दण्ड देनार यमना दूतरूपी गीधो फोली खाय छे ॥१०॥
[[२८७]] ब्राह्मणो तिरस्कार करता होय तेनी पण भगवद्भावथी पूजा करी जेओ मनमां सन्तोष पामे, जेम गुस्से थयेला छोकराने बाप स्नेहथी शान्त करे तेम मन्द हास्य रूप अमृतथी सिञ्चायेला कमल जेवा मुखथी स्नेहनी कलाओवाळी वाणीथी मारी पेठे एओनी स्तुति करे तेओ मने वश करी शके छे ॥११॥
आ जय-विजय पोताना स्वामीनो(मारो) अभिप्राय जाणता न होवाथी तमारा शापने पात्र थयेला छे. तेओ जलदीथी मारी पासे आवे अने एमने मारो वियोग ओछो थाय एम हुं इच्छुं छुम् ॥१२॥
ब्रह्माजीए कह्युं - ऋषिना कुळने उचित अने सुन्दर तेवी भगवानना श्रीमुखनी वाणी ए क्रोध पामेला सनकादिए साम्भळी. क्रोधीने बीजानुं बोलवुं गमे नहि, छतां भगवाननी सुन्दर वाणी साम्भळतां एमने तृप्ति थई नहि ॥१३॥
शब्दो थोडा हता, छतां ए अर्थगम्भीर अने सत्य होवाथी ए साम्भळीने एथी भगवान् शुं करवा मागे छे ए तेओ समजी शक््या नहि ॥१४॥
योगमायावडे परम ऐश्वर्यने प्रकट करता भगवानने विप्रो प्रसन्न थई रोमाञ्च साथे भगवानने कहेवा लाग्या ॥१५॥
मुनिओ बोल्या - आपने शुं करवानी इच्छा छे ए अमे जाणी शकता नथी केमके जो आपना सेवकोने अमे शाप आप्यो छे छतां मोटा होवा छतां आप कहो छो के ‘‘तमे मारा उपर अनुग्रह कर्यो छे’’ ॥१६॥
हे प्रभो! आप ब्राह्मणनुं हित करनार छो. आप ब्राह्मणने परम दैवत मानो छो. वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवोना देव ब्रह्माजी वगेरेना पण आपज आत्मा तथा आराध्य देवछो ॥१७॥
निर्विकार परम गुह्य धर्मनी उत्पत्ति आपनाथी छे. अनेक अवतारोवडे ए सनातन धर्मनी रक्षा आप ज करो छो ॥१८॥
समाधिमां आपनो योग करनार मुनिओ आपना अनुग्रहथी ज मृत्युने तुरत तरी जाय छे. एवा आपना उपर बीजो कोण भला अनुग्रह करी शके? ॥१९॥
धन्य पुरुषो सुगन्धमां मुग्ध थनार भमराना स्थानरूप तुलसीनी माळा आपना चरणमां अर्पण करे छे ते चरणनी कामनावाळी अने अर्थी लोको जेनी रज पोताना मस्तक उपर हम्मेशां चडावे छे तेवा चरणनी सेवार्थे लक्ष्मी कामनाथी पोते आवे छे ॥२०॥
[[२८८]] ए लक्ष्मी एकान्तमां आपनी सेवा करवाने आवे छे छतां आप एनो बहु आदर करता नथी, कारण के आप आपना परम भक्तोमां ज विहरो छो; एवा आप ऐश्वर्यादि षड्गुणना स्थानरूप छो छतां ब्राह्मणना पगनी रजथी पवित्र थयानुं कहो छो अने भृगुलाञ्छन शामाटे धारण करता हशो ए कांई अमारी बुद्धिमां आवतुं नथी ॥२१॥
हे त्रियुग! आप त्रण युगमां अवतार धारण करनार छो. धर्मना त्रण पगने असाधारण तप शौचादिथी सिद्ध करी एनावडे रजोगुण अने तमोगुण दूर करी ब्राह्मणो तथा देवोने माटे आ जगतनी रक्षा करो छो ॥२२॥
हे श्रेष्ठ! जो एवा द्विजोना कुळनी आप आ लोकमां सत्कार करनारी वाणी साथेना सारा पूजनथी रक्षा न करो तो आ पवित्र वेदमार्ग नष्ट थाय अने धर्मनो नाश थाय. (केमके मोटा जे करे ते लोकमां प्रमाण गणाय) ॥२३॥
हे त्रिलोकपति! सत्त्वना निधि होवाथी आप लोकनुं कल्याण करवानी इच्छा करो छो अने एटलामाटे आपनी शक्तिरूप राजा वगेरे द्वारा शत्रुनो उद्धार करो छो. विभु छतां ब्राह्मणने नमन करो छो पण एथी आपना स्वरूप-प्रभावने हानि थती नथी. केमके मोटा नम्रता देखाडे ए पण तेमनो एक विनोदछे ॥२४॥
हे अधीश! जय-विजयने आपेला शापमां आपने जे कांई ओछुं आदकुं करवुं होय तेनो अमे शुद्ध निष्ठापूर्वक आवकार करीए छीए. वळी ए बन्नेने शाप आप्यो एम अपराध न होय अने छतां अमे शाप आप्यो होय तो अमारो जे दण्ड करो ते अमे सहन करीशुम् ॥२५॥
श्रीभगवाने आज्ञा करी - हे ब्राह्मणो! आ जय-विजय दैत्यपणाने पामी मारी साथे क्रोधयुक्त थईने मारामां मन राखी थोडा काळमां पाछा अर्ही आवशे. तमे शाप आप्यो छे ते में ज आप्यो छे एम हे विप्रो! तमे जाणी लो ॥२६॥
ब्रह्माजी बोल्या - नेत्रने आनन्दना समुद्र जेवां भगवाननां दर्शन करी ए मुनिओए स्वप्रकाशरूप वैकुण्ठलोकने पण त्यान्थी ज जोई भगवानने नमस्कार कर्या ॥२७॥
एमनी परिक्रमा करी अने आज्ञा मागी; पछी भगवाननी तथा एमना लोकनी शोभानी वाह-वाह करता प्रसन्नता पूर्वक ए त्यान्थी पाछा फर्या ॥२८॥
श्रीभगवाने जय-विजयने कह्युं - जाओ, कोई प्रकारनो भय न राखशो [[२८९]] तमारुं कल्याण हो. ब्राह्मणना तेजनो पराभव करवाने हुं समर्थ छुं पण एमकरवा हुं इच्छतो नथी तेथी में एमनो शाप फेरव्योनथी* ॥२९॥
विशेष - अर्ही मयापवारितांए श्लोक प्रक्षिप्त होवाथी घणाए एनुं व्याख्यान नथी कर्यु. श्रीवल्लभाचार्यजीए नथी कर्यु एटले एनो अर्थ अत्रे आप्यो नथी. मारी साथे तमारो योग *क्रोधवडे थवाथी मारा स्मरणवडे तमे ब्राह्मणना अपराधथी मुक्त थशो अने थोडा काळमां मारी पासे पाछा आवशो ॥३०॥
विशेष - ब्रह्माजीए कामथी सरस्वतीने शाप आप्यो तेथी भगवानने ए गोपीरूपे प्रकटी कामभावथी मळ्यां. शुक्राचार्ये भयथी कालनेमिने शाप आप्यो तेथी कालनेमि कंस थयो अने भयद्वारा भगवानने प्राप्त थयो. जय-विजयने क्रोधथी सनकादिनो शाप थयो तेथी ए हिरण्याक्षादिरूपे थई भगवानने क्रोधद्वारा त्रण जन्मे प्राप्तथया. एम द्वारपाळोने आज्ञा करी विमानोनी पङ्क्तिओना भूषणरूप तथा सर्वश्रेष्ठ शोभायुक्त वैकुण्ठस्थानमां पोते पधार्या ॥३१॥
ते बे उत्तम देवो तो, पार न करी शकाय तेवा हरिना लोकथी निरभिमान थई ब्राह्मणोना शापने लीधे शोभाहीन थई गया ॥३२॥
ज््यारे ए बन्ने वैकुण्ठ स्थानमान्थी पड्या त्यारे हे पुत्रो! विमानमां बेठेलाओए हाहाकार कर्यो ॥३३॥
हरिना ते बे उत्तम पार्षदोज हमणां दितिना जठरमां प्रवेश करेल कश्यपना उग्र तेजरूप थयेलाछे ॥३४॥
ए बे असुरोना तेजथी स्वर्गनुं तेज हणाई गयुं छे. अत्यारे भगवानने तेवुं करवानी इच्छा छे ॥३५॥
विश्वस्य यः स्थितिलयोद्भवहेतुराद्यो योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः॥ क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीशः तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहाऽर्थः ॥३६॥
भगवान्, जे जगतनां स्थिति, नाश अने उत्पत्ति करनारा छे जेमनी योगमायानो योगेश्वरो पण पार पामी शकता नथी, जे त्रण लोकना ईश छे ते आपणुं कल्याण करशे; आ विषयमां आपणे विशेष विचार करीए एनाथी शुं फायदो? ॥३६॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां(मुख्य जीवसृष्टिप्रकरणनो पाञ्चमो)
‘‘कोप पामेला कुमारोनुं सान्त्वन करी तेमनी उपर प्रभुए करेली कृपा’’
नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
[[२९०]] अध्याय १७
दितिना गर्भथी
हिरण्याक्ष अने हिरण्यकशिपुना जन्मनुं वर्णन
विशेष - कामादिथी कर्मनो नाश थाय छे ए वात आ अध्यायना उपोद्घातरूपे कहेवामां आवी, सृष्टिमां एनुं फळ अशुभ छतां अर्ही शुभ फळ कहेवाय छे. उत्पत्ति तामसी, स्थिति राजसी अने नाश सात्त्विक छे. तेमां जय-विजयने क्रोधथी विपरीत फळ थवुं जोईए पण फळ परिणामे लाभ कारक थयुं छे. ज््यां सुधी ए वध्या त्यां सुधी जन्मनुं वर्णन छे. एमनो जन्म सर्वने क्लेश आपवामाटे छे. ए बे छतां शाप एक ज थयो तेथी आ अध्यायमां हिरण्याक्षनुं ज वर्णन छे. शापथी बन्नेनो नीच योनिमां जन्म कहेल छे पण एनां स्थिति अने नाश तो भगवान्मां छे. कृष्णनी साथे एनी युद्धलीला ए स्थिति. एनुं मृत्यु पण भगवानने हाथे थवानुं छे. तेथी जय-विजय वैकुण्ठमां गया त्यारे भगवाने अस्तु शम् (भलुं थाओ) कह्युं छे. निशम्याऽऽत्मभुवा गीतं कारणं शङ्कयोज्झिताः ॥ ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः ॥१॥
मैत्रेय कह्युं - ब्रह्माजीए कहेली हकीकत साम्भळी देवताओनी बधी शङ्का दूर थई. पछी तेओ बधा स्वर्गमां पाछा गया ॥१॥
दितिए कश्यपनुं कथन साम्भळ्युं हतुं तेथी आ उपद्रवनुं कारण पोतानो गर्भ छे ते जाणी (मनुष्यना) सो वर्ष पूरां थयां त्यारे ए सतीए बे पुत्रोने साथे जन्म आप्यो ॥२॥
एमनो जन्म थयो त्यारे स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्तरिक्षमां अत्यन्त भय करावनारा उत्पातो थया ॥३॥
पर्वतो साथे पृथ्वीखण्डो कम्पवा लाग्या. बधी दिशाओ दझाडवा लागी. अन्तरिक्षमान्थी उल्का अने वीजळी पडवा लाग्यां. अनिष्ट सूचक धूमकेतुओ देखाया ॥४॥
वारंवार सुसवाटा मारतो, मोटां-मोटां वृक्षोने उखेडी नाखतो, अत्यन्त खोक्पाक (गजबनाक, भयङ्कर) असह्य पवन फूङ्कावा लाग्यो ए वखते आन्धी एनी सेना अने ऊडती धूळ ध्वजा जेवी लागती हती ॥५॥
[[२९१]] वादळान्नी घटाथी उत्पन्न थयेला अन्धारामां वीजळी चमकवा लागी. आकाशमां अन्धारुं व्यापी जतां बधुं ज देखातुं बन्धथयुम् ॥६॥
दुःखी दरियो तेमां रहेता मगर इत्यादि प्राणीओना उद्वेगथी, आक्रन्द करवा लाग्यो. एमां मोजां ऊछळवा लाग्यां. नदी अने अन्य जलाशयोमां खळभळाट मची गयो अने कमळो करमाई गयाम् ॥७॥
चन्द्र, सूर्यनो वारंवार राहुद्वारा ग्रास थवा लाग्यो. एमनी आसपास मोटां कूण्डाळा देखायां, गिरिनी गुफाओमान्थी रथना घरघराट सम्भळावा लाग्या ॥८॥
गामोमां शियाळो अने धुवडो भयानक अवाज करवा लाग्यां एटलुं ज जाणे के पूरतुं न होय तेम शियाळवीओ मोढामान्थी आग ओकवा लागी ॥९॥
ठेक ठेकाणे क््यारेक गातां होय, क््यारेक रोतां होय तेम माथाने ऊञ्चा राखी कूतरां अनेक प्रकारना शब्द करवा लाग्याम् ॥१०॥
कठोर शब्द करतां एक नहि पण टोळाबन्ध गधेडा भूङ्कता-भूङ्कता पागलनी जेम भूङ्कथी आमतेम दोडवा लाग्या. विदुरजी, गद्धाओ पोतानी कठोर खरीओथी धरती खोदता, भूङ्कता-भूङ्कता मतवाला थई आमतेम दोडवा लाग्या ॥११॥
गधेडाओनी भूङ्कथी फफडी गयेलां माळामां बेठेलां पक्षी ऊठीने आमतेम ऊडवा लाग्याम् ॥१२॥
पशुशाळामां तेमज जङ्गलमां पशुओनां मळ मूत्र छूटी गयां. गायो एटली बधी डरी गई के तेमने दोहतां एमनां आञ्चळमान्थी लोही नीकळवा लाग्युं, वादळोमान्थी परुनो वरसाद थयो. देवोनी मूर्तिओनी आङ्खोमान्थी आंसु वहेवा लाग्यां अने आन्धी-तुफान वगर ज वृक्षो ऊखडी-ऊखडीने पडवा लाग्याम् ॥१३॥
शुक्र वगेरे सौम्य ग्रहो उपर शनि वगेरे क्रूर ग्रहो पड्या अर्थात् तेमने पीड्या. बधांय नक्षत्रोने जाणे के कोईए सळगावी मूक््यां होय तेम प्रजवलित थई ऊठ्यां ॥१४॥
सनकादि चार ब्रह्मपुत्रो सिवाय आ उत्पातनुं खरुं कारण लोको नहि जाणता होवाथी जगतनो प्रलय थशे एम तेओ मानवा लाग्या ॥१५॥
पथ्थर जेवी सुदृढ कायावाळा एकाएक पोतानुं पराक्रम बतावता बेउ आदि दैत्यो मेरु पर्वतनी पेठे वधवा लाग्या ॥१६॥
सोनाना किरीटना छेडाथी आकाशने अडकता, बाजूबन्धथी शोभता बाहुओवडे
[[२९२]] दिशाओने थम्भावता, पृथ्वीने कम्पावता, जाणे सुन्दर कान्तिवाळी कटिमेखला सूर्यनी
उपर आवे तेटला मोटा तेओ थई गया ॥१७॥
उत्पत्ति समये जेनो गर्भमां प्रथम प्रवेश थयो हतो अने जन्ममां जे पाछळ रहेल तेनुं नाम ब्रह्माजीए ‘हिरण्यकशिपु’ पाड्युं; गर्भमां बीजरूपे जे पाछळ रहेलो अने प्रथम जन्म पाम्यो तेनुं नाम ‘हिरण्याक्ष’ पाड्युम् ॥१८॥
कोईथी मृत्यु नथी एवुं वरदान ब्रह्माजीथी पामी हिरण्यकशिपृ उद्धत थयो अने बाहुबलथी एणे त्रणे लोकने ताबामां करी लीधा ॥१९॥
एनो नानो भाई हिरण्याक्ष निरन्तर एने प्रसन्न करनार थयो. युद्ध करवानी ईच्छाथी हाथमां गदा लईने सङ्ग्रामनी शोधमां रोज ए स्वर्गमां जतो ॥२०॥
असह्य वेगवाळो, पगमां शब्द करता सोनाना नेपूरवाळा खभा उपर मोटी गदा लई, वैज्यन्ती माला पहेरी, मनथी, पराक्रमथी अने मदथी उद्दण्ड तथा निरङ्कुश हिरण्याक्षने जोईने, जेम सर्पो गरुडने जोईने पोबारा गणी जाय तेम देवो एने जोईने छुपाई गया ॥२१-२२॥
देवताओने पोताना तेजथी सन्ताई गयेला जाणीने पोताना तेजथी शोभतो हिरण्याक्ष ईन्द्रादिने नपुंसक गणी गर्जना करवा लाग्यो ॥२३॥
स्वर्गमान्थी पाछा फरी क््याङ्क क्रीडा करवाना विचारथी मोटा बळवाळो ए भयङ्कर शब्द करवा लाग्यो अने जेम कोई मदवाळो हाथी जळमां प्रवेश करे तेम घूघवाता समुद्रना जळमां पेठो ॥२४॥
जेवो ए समुद्रमां पेठो के तरत ज वरुणना जलचर सैनिको पोताना ज घर दरियामां होवा छतां फफडी ऊठ्या अने तेमने वताव्या न होता छतां एनी धाकथी ज गभराईने घणे दूर नासी गया ॥२५॥
पोताना श्वासना पवनथी उत्पन्न तरङ्गोने मूर्वीनी गदाथी प्रहार करतो ए महाबली हिरण्याक्ष समुद्रमां कल्पना अन्त सुधी रह्यो. पछी हे तात!त्यान्थीए वरुणनी विभावरी नामनी नगरीमां दाखल थयो ॥२६॥
त्यां ए जलचरोना वडा अने असुर लोकना पालक वरुणदेव पासे जई तेनुं टीखळ करतां प्रणाम कर्या अने नीच मनुष्यनी माफक कह्युं, ‘‘महाराजा! मने युद्धनी भिक्षा आपो’’. ॥२७॥
ए कहेवा लाग्यो के आप मोटी कीर्तिवाळा लोकपाल छो; जेओ पोताने शूरवीर [[२९३]] कहेवरावे छे तेमना पराक्रमनो नाश करनार छो. प्रथम आपे दैत्य-दानवोने जीती राजसूययज्ञवडे यजन करेलुं छे ॥२८॥
मैत्रेये कह्युं - मदोन्मत्त शत्रुए पोतानो उपहास करवाथी वरुणने क्रोध तो घणो थयो; परन्तु पोताना क्रोधने शमावीने बुद्धिथी विचार करीने एणे कह्युं ‘‘हे भाई! अमे तो शस्त्रत्याग कर्यो छे. तेथी तारी साथे लडवानी अत्यारे अमारी अभिलाषा नथी ॥२९॥
रणमां निष्णात तमोने सन्तोष आपे तेवो पुराण पुरुष विष्णु सिवाय बीजो कोई हुं जोतो नथी, हे असुरश्रेष्ठ! ए तमारो मनोरथ पूर्ण करशे ए पुराण पुरुष एवो छे के तमारा जेवा मनस्वी लोको लडतां-लडतां हारीने पण एनी वाह-वाह करे छे ॥३०॥
तं वीरमारादभिपद्य निर्भयः शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ॥ यस्त्वद्विधानामसतां प्रशान्तये रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥३१॥
जे वीर तमारा जेवा दुष्टोनो नाश करवा अने सत्पुरुषो उपर कृपा करवानी इच्छाथी अवतारो ले छे तेमने थोडा ज समयमां प्राप्त करी तमे निर्भय थशो अने रणमेदान उपर वीरने योग्य शय्या उपर कूतराओथी र्वीटायेला तमे पोढशो ॥३१॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (मुक्तजीव प्रकरणनो छठ्ठो) ‘‘दितिना गर्भथी हिरण्याक्ष अने हिरण्यकशिपुना जन्मनुं वर्णन’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ (भगवत्कथाएदिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धोनर्ही)
अध्याय १८
वराह भगवाननी साथे हिरण्याक्षनुं युद्ध
विशेष - आ अध्यायमां हिरण्याक्ष भगवाननी पासे पहोच्यो ए वात आवे छे. एने
[[२९४]]
ईं उं
ईं उम्ब्राह्मणनो शाप थयेलो होवाथी भगवाननी साथे रूक्ष वाणीनो प्रयोग कर्यो छे. आ अध्याय
स्थिति-अध्याय छे, कारण के शापथी एनी उत्पत्ति छे ने युद्ध-समये स्थिति तथा छेवटे
मरण छे. ब्रह्माजीना कहेवाथी भगवाने एने मार्यो छे. भगवाननी एनी साथे फक्त युद्ध
करवानी इच्छा हती. ए इच्छा काया, मन अने वाणीथी हती. बन्नेना परस्पर संवाद
उपरथी मनमां बन्नेनो युद्ध करवानो विचार जणातो हतो. तेथी आ अध्यायमां मानस युद्ध
अने आगला अध्यायमां कायिक युद्ध कहेवाशे; मध्यना अध्यायमां मध्यम युद्ध छे.
तदैवमाकर्ण्य जलेशभाषितं महामनास्तद्विगणय्य दुर्मदः ॥
हरेर्विदित्वा गतिमङ्ग! नारदाद् रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥१॥
मैत्रेय कह्युं - जो के ए दैत्य मदवाळो हतो छतां मोटा मनवाळो हतो. वरुणनुं कथन साम्भळी एणे एटलो सार काढयो के मारुं मृत्यु हरिथी थवानुं छे. तेथी हरि कयां छे ए नारद पासेथी जाणी उतावळथी ए रसातळमां पेठो ॥१॥
चोतरफ जय करनार पृथ्वीने पोतानी आगली दाढथी उठावी धारण करी हती. लाल नेत्रवडे पोतानी कान्तिने झाङ्खी पाडता भगवानने दैत्ये दीठा. तेमने जोईने खडखडाट ते हसी पड्यो अने कह्यु, ‘‘अरे! आ जङ्गली पशु अर्ही पाणीमां कयान्थी आव्युं?’’ ॥२॥
ए कहेवा लाग्यो, हे अज्ञ! आव. ब्रह्माजीए आ पृथ्वी अमने रसातलना वासीओने आपी छे; माटे एने छोडीने तुं चाल्यो जा, नहि तो हे सूकररूपधारी सुराधम! पृथ्वीने मारी पासेथी लईने कुशळताथी जई शकीश नहि ॥३॥
तुं मायाथी छुपाईने ज (परोक्ष रीते) दैत्योने जीती ले छे अने मारी नाखे छे. अमारा शत्रुओए अमारो नाश कराववा ज तने पाळ्यो छे. मूढ तारुं बळ तो योगमाया ज छे. बीजी कोई बहादुरी तारामां थोडी ज छे? आज तने पूरो करी हुं मारा बन्धुओनो शोक दूर करी हुं ऋणमुक्त थईश ॥४॥
मारां हाथथी छुटेली गदाथी तारुं मस्तक चूर्ण थशे त्यारे तुं समाप्त थई जईश. जे ऋषी देवो वगेरे तारो पक्ष करनार छे तेओ बधा निराधार थवाथी खलास थई जशे, कारण के तुं ज बधानुं मूळ छे ॥५॥
दैत्यना दुरुक्तिरूपी बाणोथी भगवान् व्यथित थया. दाढनी अणी उपर रहेली पृथ्वी पण डरवा लागी. तेथी दुरुक्तिरूपी एना बाणने सहन करता जेम झूडे पकडेल हाथी हाथणी साथे बहार नीकळे तेम भगवान् जळमान्थी बहार पधार्या ॥६॥
[[२९५]] ज््यारे भगवान् जळथी बहार पधार्या त्यारे जेम हाथीने पकडवा मगर आवे तेम बहार आवी पीळा वाळ अने धारदार दाढवाळा दैत्ये वज्रनी जेम धडूकीने कह्युं, भागी जतां शरम नथी आवती? साचुं छे के असत् पुरुषोमाटे वळी न करवा जेवुं शुं होय? ॥७॥
शत्रुना देखतां वराह भगवाने जळ उपर आवी ज््यां निर्भय जग्या हती त्यां पृथ्वीने पोतानी शक्तिना बळवडे स्थिर करी अने तैयार थया; त्यां तो ब्रह्माजीए स्तुति करी अने देवोए पुष्पनी वृष्टि करी ॥८॥
त्यारे श्रीहरिए, मोटी गदा लईने पोतानी पाछळ आवता हिरण्याक्षने जेणे सोनानां आभूषण अने अद्भुत कवच धारण कर्युं हतुं तथा पोताना क्टु वचनोथी एमने सतत मर्माहत करी रह्यो हतो तेने अत्यन्त क्रोधपूर्वक हसतां-हसतां कह्युं. (बीजो अर्थ - परानुषक्त =परब्रह्ममां आसक्ति युक्त. तपनीयोपकल्प= जेने देह, इन्द्रियो वगेरे बधी सामग्री घणा तपथी प्राप्त थई हती तेवो, महागद = सर्व रोगोने दूर करनारी उत्तम भक्ति रूपी महा औषध जेणे प्राप्त करेल छे. काञ्चनचित्रदंश = मुनिओना शाप रूप. अलौकिक भक्ति प्राप्त करावनार विचित्र चिह्न जे देहमां रहेल अयोग्य तत्त्वोने दूर करे छे जेने प्राप्त थयुं छे. प्रचण्डमन्युःप्रकृष्टा चण्डिका यस्य स महादेवः (महादेव) अथवा प्रचण्ड छे मन्यु जेनो तेवा भगवान्. मन्युः = शिव, क्रोध, क्रोधाग्नि, हिरण्याक्ष, परब्रह्ममां आसक्तिवाळो तपयोग्य सामग्रीवाळो, महान औषधवाळो, दिव्य भक्तिना विचित्र चिह्न युक्त अने मर्मोने वारंवार घणुं पीडतो हतो. दुर्वचनोने लीधे प्रचण्ड मन्यु (क्रोध, शिव) वाळा भगवाने घणुं हसतां तेने उत्तर आप्यो ॥९॥
श्रीभगवान् बोल्या - अरे! अमे खरेखर जङ्गली पशु छीए परन्तु अमे तारा जेवा श्वानने शोधीए छीए. हे दुष्ट! मृत्युना पाशथी बन्धायेलो सन्निपातवाळो लवारो करे एने वीरपुरुषो गणता नथी ॥१०॥
हा! आ अमे रसातळवासीओनी पृथ्वीरूपी थापणने हरी जनारा छीए. तारी गदाथी ते भगाड्या छतां केटलाक समय सुधी सङ्ग्राममां सामे उभा छीए, ऊभा रहेवुं जोईए केमके बळवान् साथे बाखडी बान्धीने हवे अमे बीजे कयां जवाना हता? ॥११॥
तुं पायदळ तथा रथीओनो सरसेनापति छो तेथी हवे कल्याण अकल्याणना
[[२९६]] लेखां, जोखां कर्या विना अमारुं अनिष्ट करवानो प्रयत्न कर अने अमने मारीने तुं
तारा भाईबन्धुओनां आंसु लूछ. जलदी कर, जे पोतानी प्रतिज्ञानुं पालन करतो
नथी ते असभ्य छे ॥१२॥
ज््यारे भगवाने क्रोधपूर्वक दैत्यनो आ प्रमाणे उपहास अने तिरस्कार कर्यो त्यारे पकडीने रमाडवामां आवता सर्पराजनी माफक ते आग ओकवा लाग्यो ॥१३॥
खीजाईने क्रोधथी खळभळेली इन्द्रियोवाळा दैत्ये घणा वेगथी भगवान् पासे आवी तेमना उपर गदा झीकी ॥१४॥
जेम योगमां निष्णात पुरुष मृत्युने चुकावे तेम भगवाने तो शत्रुए छाती उपर फेकेली गदाना वेगने त्रांसा थई जईने चुकावी दीधो ॥१५॥
पछी पोतानी गदा फेरवीने क्रोधथी होठने दान्तवडे पीसता भगवान् एनी सामे आव्या ॥१६॥
समर्थ भगवाने शत्रुनी जमणी भ्रुकुटी उपर गदाथी घा कर्यो एनो ए दैत्ये पोतानी गदाथी प्रतीकार कर्यो ॥१७॥
एवी रीते भगवान् अने दैत्य परस्पर गदायुद्ध करता एक बीजाने प्रहार करवा लाग्या ॥१८॥
तेओ एक बीजाने जीतवानी स्पर्धा करता हता. प्रचण्ड गदाथी एमनां अङ्ग भागी जवाथी एनी उपर लोही चाल्युं जतुं हतुं. ए लोही सूङ्घवाथी एमनो क्रोध वधतो गयो. बन्ने जात-जातना पेन्तरा बदलता हता. जाणे पृथ्वीमां बे आखला लडता होय तेम ए शोभवा लाग्या ॥१९॥
भगवाने मायाथी वराहशरीरने धारण कर्यु छे. एमना अवयवो यज्ञरूप छे. हे परीक्षित! पृथ्वी निमित्त करवामां आवेला दैत्यना युद्धने जोवाने ब्रह्माजी ऋषिओ साथे त्यां आव्या ॥२०॥
ब्रह्माजी पोते तो हजारो योद्धाओने नेतृत्व पूरुं पाडे एवा समर्थ हता. ज््यारे तेमणे जोयुं के दैत्यमां साहसनो उत्साह अखूट छे, भयनुं तो नामनिशान पण तेनामां नथी, मुकाबलो बराबर करी रह्यो छे अने एना पराक्रमने पहोञ्ची वळाय एवुं नथी त्यारे भगवाने (ब्रह्माजीए) आदिवराह नारायणने (नीचे प्रमाणे) कह्युं ॥२१॥
ब्रह्माजी बोल्या - देवो! ब्राह्मणो अने कोईने ईजा न करे तेवी गायो आपना [[२९७]] चरणने आशरे आवेली छे. आ दुष्ट दैत्य अमारी पासेथी वरदान लईने बधान्नो अपराध करनार, भय करनार अने दुःख करनार थयो छे. एनी सामे टक्कर लई शके एवो कोई योद्धो एने हजु मळ्यो नथी तेथी तेनी शोधमां आ महा कण्टक मुकाबलो करी शके तेवा वीरनी शोधमां समस्त लोकमां घूमी रह्यो छे ॥२२-२३॥
हे देव! आ दैत्य मायावी छे. गर्ववाळो होई कोईना दाबमां रहे तेवो नथी. अत्यन्त दुष्ट छे.जेम बाळक छञ्छेडायेला सर्पने रमाडे तेम आने रमाडोनहि ॥२४॥
हे देव! पोताना समयने पामी ए वधे नहि ए पहेलां हे अच्युत! देवमायानो स्वीकार करी आप पापीने पूरो करो ॥२५॥
हे प्रभो! लोकोनो नाश करनारी आ घोर सन्ध्यानो समय चाल्यो आवे छे. हे सर्वात्मा! आ दैत्यने मारीने आप देवोने जय प्राप्त करावो ॥२६॥
हमणां आ अभिजित नामनो बे घडीनो योग गयो. आपना सुहृदनुं भलुं करवामाटे आ दुस्तर दैत्यने मारीने तत्काल दूर करो ॥२७॥
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युमयमासादितः स्वयम् ॥ विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकानाधेहि शर्मणि ॥२८॥
आ दैत्य पण सद्भाग्ये आपना हास्त्री मरवाने ज आपनी पासे आवेलो छे. एनी साथे पराक्रम करी सङ्ग्राममां एने मारी लोकोने सुखी करो ॥२८॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (मुख्य जीवसृष्टिप्रकरणनो सातमो) ‘‘वराह भगवान् साथे हिरण्याक्षनुं युद्ध’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ (भगवत्कथा ए दिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका के धन्धो नर्ही)
अध्याय १९
भगवान् वराहे युद्धमां हिरण्याक्ष दैत्यनो करेलो नाश
विशेषः पूर्वाध्यायमां दैत्यनी स्थितिनो विचार कर्यो. आ अध्यायमां एनो प्रलय
[[२९८]]
ईं उं
ईं उङ्कहेवामां आवे छे. एनो प्रलय करनार भगवान् छे. मोटा अर्थने सिद्ध करवामाटे
मोटा असुरने जाणे क्रीडा करता होय तेम रमत करतां मार्यो ए वात कहेवामां
आवे छे.
अवधार्य विरञ्च्यस्य निर्व्यलीकामृतं वचः ॥
प्रहस्य प्रेमगम्भीरं तदपाङ्गेन सोऽग्रहीत् ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - ब्रह्मानां सत्य अने अमृत तुल्य वचननो ख्याल करी प्रेमपूर्ण कटाक्षथी हसीने भगवाने स्वीकार कर्यो ॥१॥
पछी सामे निर्भय रीते फरता शत्रुनी हडपची उपर भगवाने गदा मारी ॥२॥
दैत्ये सामी गदा मारवाथी भगवाननी कौमोदकी गदा एमना हाथमान्थी चक्करचक्कर फरती जमीन उपर पडी गई ए बहु आश्चर्य जेवुं थयुम् ॥३॥
ज््यारे भगवानना हाथमान्थी गदा पडी गई त्यारे शत्रुने लडवानो मोको मळ्यो; तो पण सङ्ग्रामनी शिस्त साचवनारो ए दैत्य ए वखते न लडतां मात्र निःशस्त्र भगवानने क्रोध कराववा लाग्यो ॥४॥
भगवाननां हाथमान्थी गदा पडी गई त्यारे लोकमां हाहाकार मची गयो. समर्थ एवा भगवाने पण ए वखते तेनी धर्म बुद्धिनी प्रशंसा करी अने सुदर्शनचक्रनुं स्मरण कर्युम् ॥५॥
भगवानना पार्षदमां श्रेष्ठ! पण दितिपुत्रोमां अधम एवा ए दैत्य उपर भगवान् चक्र चलावे छे एवुं जोई, भगवानना प्रतापने न जाणनार देवो, जे आकाशमां फरता हता ते ‘‘आपनो जयथाओ, आ दैत्यनो वध करो’’ एवा शब्दो बोलवा लाग्या ॥६॥
ए हिरण्याक्ष पण चक्रधारी भगवाननां कमळना पुष्प जेवां नेत्र जोई क्रोधथी लालपीळो थई गयो अने पोताना होठ दान्तोथी करडवा लाग्यो ॥७॥
एनी दाढो भयङ्कर हती, नेत्रथी जाणे बळतो होय तेवो ए देखातो हतो; एणे पोतानी गदा हाथमां लीधी अने ‘‘आ तुं मरी गयो’’. एम बकवाद करता एणे भगवान् उपर पोतानी गदानो घा कर्यो ॥८॥
हे विदुरजी! यज्ञरूप भगवाने पवनना वेगवाळी गदाने पोताना डाबा पगथी प्रहार करी नीचे फेङ्की दीधी ॥९॥
ज््यारे भगवाने ‘‘आयुध हाथमां लई तैयार थई जा; जो जीतवानी तारी [[२९९]] इच्छा होय तो पड मेदाने;’’ एम कह्युं त्यारे असुर गदाने र्वीझतो भगवान् उपर धसी आव्यो अने ताडूक््यो ॥१०॥
सामे रही भगवाने पोतानी सामे आवती गदाने जेम गरुड सापणीने पकडे तेम आसानीथी पकडी लीधी ॥११॥
पोतानुं पराक्रम आ प्रमाणे विफल थयेलुं जोई ए महा दैत्यनो घमण्ड ओगळी गयो अने तेज नाश पाम्युं. भगवाने आपवा छतां तेणे गदा लेवानी इच्छा न करी ॥१२॥
पछी बळता अग्निनी पेठे नाश वेरनार त्रण फणावाळुं शूळ लईने, ब्राह्मणनी उपर मारण प्रयोग करे तेम ए यज्ञतनुं भगवानने (हणवा)माटे तैयार थयो ॥१३॥
आकाशमां प्रकाशता अने अनेक किरणोने प्रतिफलित करता ए शूळना तीक्ष्ण धारवाळा चक्रवडे, जेम इन्द्रे वज्र मारवाथी गरुडनुं एक ज र्पीछ खरी* पड्युं हतुं तेम भगवाने चूरेचूरा करी नाख्या ॥१४॥
विशेष - वज्र ज््यां जाय त्यां कार्य कर्या वगर न रहे. गरुड जो जाय तो एने वज्र कांई करी शके नहि. ए बन्नेने सत्य करवा गरुडे एक पीछुं उडाडी वज्रनुं मान राख्युं तेम भगवाननुं चक्र अमोध छे अने शिवनुं शूळ पण तेवुं छे छतां त्रिशूलने भगवाने चक्रवडे दूर कर्युं. एवी रीते ज््यारे चक्रवडे त्रिशूलनो चूरो गई गयो त्यारे दैत्य सामे आव्यो ने रोष करी कठोर मूठीवडे भगवानना लक्ष्मीवाळा वक्षःस्थळमां प्रहार कर्यो अने पछी गर्जना करतो अन्तर्धान थई गयो ॥१५॥
हे संयमी! जो के दैत्ये ए रीते भगवानने छातीमां मूकी मारवामां कांई मणा राखी न हती तो पण जेम हाथी उपर माळानो प्रहार करे अने ते न खसे तेम अच्युत भगवान् त्यान्थी जरा पण चलित थया नहि ॥१६॥
पछी योगमायाना ईश्वर भगवान् उपर दैत्ये मायाना अनेक प्रयोग कर्या, जे जोईने आ जगतनो प्रलय थशे एम लोको मानवा लाग्या ॥१७॥
प्रचण्ड आन्धी ऊठी. तेनाथी रज ऊडी अने बधे अन्धकार छवाई गयो. जेम
कोई गोफणमान्थी पथ्थरो फेङ्कतो होय तेम दिशाओमान्थी पथ्थर पडवा लाग्या. वीजळीना
झबकारा अने कडाका सहित वादळो चडी आववाथी आकाशमां सूर्य, चन्द्र वगेरे ग्रहो
देखाता बन्ध थया. तेमान्थी परु, केश, लोही, विष्ठा, मूत्र अने हाडकां नी वृष्टि वारंवार
[[३००]] थवा लागी ॥१८-१९॥
हे अनध! अनेक प्रकारना आयुधने छोडनार पर्वत देखावा लाग्या. नागी राक्षसीओ हाथमां त्रिशूल लई वाळ विखेरी फरवा लागी ॥२०॥
बेशुमार पायदळ, घोडेस्वार, रथी अने हाथीओ उपर सवार थयेला सैनिको सहित यक्षराक्षसोनी, ‘‘मारो, कापो, जेर करो’’ वगेरे क्रूर अने खूङ्खार चीसो सम्भळावा लागी ॥२१॥
यज्ञ भगवाने दैत्ये प्रकट करेली मायानो नाश करवा पोतानुं अत्यन्त प्रिय सुदर्शन चक्र छोड्युम् ॥२२॥
ए वखते पोताना पति कश्यपजीए कहेली वात याद आववाथी दितिना पेटमां एकदम तेल रेडायुं अने स्तनमान्थी रुधिर वहेवा लाग्युम् ॥२३॥
ज््यारे बधी माया नाश पामी त्यारे दैत्य पाछो भगवान् पासे आव्यो अने रोषथी भगवाने बे भुजाओ वच्चे जकडी लीधा पण जोतजोतामां भगवान् एना बे बाहुमान्थी नीकळी गया अने दैत्ये भगवानने सामे जोया ॥२४॥
हवे ते भगवानने वज्रना जेवा कठोर मुक्काओथी मारवा लाग्यो त्यारे इन्द्रे जेवी रीते वृत्रासुर उपर प्रहार कर्या हता तेम भगवाने तेनी कानपटी उपर एक तमाचो मार्यो ॥२५॥
अवज्ञाथी मारेली ए मूठीथी एनुं शरीर भ्रमित थई गयुं एनी आङ्खो बहार नीकळी पडी अने एनां बाहु, चरण अने मस्तक जुदां पडी गयां अने जेम वावाझोडाथी मोटुं वृक्ष ऊखडी पडे तेम ए ढळी पड्यो ॥२६॥
कराळ दाढोवाळो, अणहणायेला तेजवाळो अने दान्तवडे होठने भीसतो ए दैत्य ज््यां पृथ्वी उपर पडेलो हतो त्यां ब्रह्मादि देवो आव्या अने ‘‘आवी गतिने कोण पामे’’ एम एनी स्तुति करवा लाग्या ॥२७॥
मोक्षनी इच्छावाळा योगी लोको जेमने एकान्तमां जोता नथी पण जेमनुं एओ मात्र ध्यान करे छे ते भगवानना चरणथी आ दैत्य हणायो अने एणे भगवानना मुखकमळने जोतां-जोतां पोतानुं शरीर छोड्युम् ॥२८॥
आ दैत्य भगवाननो पार्षद छे ए शापथी दैत्य थयो छे ए केटलाक जन्म पछी पाछो भगवानना लोकमां जशे ॥२९॥
देवो बोल्या - समग्र यज्ञनी उत्पत्तिना कारणरूप स्थितिने माटे शुद्ध सत्त्ववडे [[३०१]] मूर्तिने धरनार आपे आ जगतने दुःख आपनार दैत्यने मार्यो ए अमारां भाग्यनी वात छे. हे ईश!एम करी आपे आपनी भक्ति करनार अमोने बचाव्या छे, सुखी कर्या छे ॥३०॥
मैत्रेय कह्युं - ए प्रमाणे आदिसूकर हरि असत्य पराक्रमवाळा दैत्यने मारीने ज््यां अखण्ड उत्सव छे तेवा पोताना लोकमां पधार्या त्यारे ब्रह्माजी वगेरे देवोए एमनी सारी रीते स्तुति करी ॥३१॥
हे सुमित्र! जेमां हिरण्याक्षने मोटा सङ्ग्राममां भगवाने रमकडानी पेठे उडावी दीधो तेवुं भगवाननुं अवतारचरित्र में गुरुमुखथी जे प्रमाणे साम्भळ्युं छे ते प्रमाणे तमने कही बताव्युम् ॥३२॥
सूतजी बोल्या - मैत्रेये कहेली कथा साम्भळी महाभागवत विदुरजी परमानन्द पाम्या. हे द्विज! ए महाभगवद्भक्त होवाथी भगवद्यशमां एमने आनन्द आवे ज ॥३३॥
पवित्र कीर्तिवाळुं अने निर्मर्याद जेनो यश छे तेवुं भगवद्भक्तनुं चरित्र साम्भळतां आनन्द थाय तो पछी श्रीवत्साङ्क भगवानना चरित्रमां थाय एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥३४॥
गजेन्द्रने झूडे पकडवाथी एनी चारे तरफ हाथणीओ चीसो पाडी रही हती अने कोईपण प्रकारे कोई एने छोडावे एवुं जणातुं न हतुं तेवे समये एणे भगवाननुं ध्यान धर्यु तो हरि भगवाने एने दुःखथी मुक्त कर्या ॥३५॥
जे चारे तरफथी निराश थई पोताने शरणे आवेल सरल हृदयना भक्तोथी सहजमां ज प्रसन्न थई जाय छे पण असाधु (शिश्नोदर परायण) पुरुषोमाटे घणा दुराराध्य छे एमना उपर जलदी प्रसन्न थता नथी एवा प्रभुना उपकारो जाणवावाळो एवो कोण पुरुष हशे जे एमनुं सेवन न करे? ॥३६॥
हे द्विजो! प्रयोजनमाटे वराहनो (पण) देह धारण करनार श्रीहरिनी हिरण्याक्ष वध नामनी परम अद्भुत् लीला जे कोई साम्भळे, गान करे अने तेनुं अनुमोदन करे ते ब्रह्महत्याना पापथी पण सहजमां मुक्त थाय छे ॥३७॥
एतन् महापुण्यमलं पवित्रं धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम् ॥ प्राणेन्द्रियाणां युधि धैर्यवर्धनं नारायणोऽन्ते गतिरङ्ग! शृण्वताम् ॥३८॥
आ आख्यान अत्यन्त पवित्र छे, सम्पूर्ण शुद्ध करनार छे, धन अने यश
[[३०२]] आपनार छे, आयुवर्धक अने कामनाओने पूर्ण करनार छे, युद्धमां प्राण अने
इन्द्रियोना धैर्यने वधारनार छे. ते साम्भळे तेने हे अङ्ग! अन्ते नारायण रूप फल
प्राप्त थाय छे ॥३८॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (जीवप्रकरणनो सातमो) ‘‘भगवान् वराहे युद्धमां हिरण्याक्षदैत्यनो करेलो नाश’’ नामनो १९ मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे. छठ्ठुं तत्त्वसृष्टि प्रकरण
अध्याय २०
ब्रह्माजीथी अनेक प्रकारनी सृष्टि थतां मनु थया एनुं वर्णन
विशेष - सर्ग बे प्रकारना छे - भगवाने करेलो अने भगवानने माटे करवामां आवेलो. ओगणीस अध्याय सुधी भगवाने करेलो सर्ग कहेवामां आव्यो. हवे भगवानने माटे करवामां आवेल सर्गनुं वर्णन आवे छे. आना चौद अध्याय छे. पहेला प्रकारना सर्गमां गुणनी विषमता हती. आ बीजा प्रकारना सर्गमां गुणवैषम्यभाव छे. ए बे प्रकारनो छे. अर्ही आधिदैविकभाव नथी माटे बे भावनुं कथन छे. बीजा सर्गमां प्रथम भूत, मात्रा, इन्द्रियो अने बुद्धि जे भगवानना ज्ञानमां उपयुक्त थाय छे ते कहेवामां आवे छे. क्रम आवो छे; एक अध्यायथी आधिभौतिक वैषम्य अने चारथी भगवदुपयुक्त वैशम्य छे. उपर कह्यां ते भूतादि चार ज्ञानमां उपयोगी छे. ए उपयोगी थाय ए एनो जन्म. पुष्टिमार्गीय गुणो जे भूतादिने संस्कार करनार छे ते कपिलदेवजीए कहेला छे. एनुं चार अध्यायथी वर्णन छे ए आधिदैविकनुं छे, बीजा चार अध्यायथी आध्यात्मिक गुणोनुं अने त्रीजा एक अध्यायथी आधिभौतिकनुं एम नव अध्यायथी वर्णन छे. पाञ्च अध्याय प्रथम क्ह्या ते मळी कुल चौद थया. (१९+१४=३३) आधिदैविक प्रकरणमां चार अध्याय छे. तेमां भूतसंस्कारक गुणो, भक्ति, साङ्ख्य आत्मविज्ञान अने योग [[३०३]]
ईं उं ईं उं
वडे कपिलदेवजी कहे छे. आध्यात्मिक चार अध्यायमां काल, माहात्म्य, मुक्तसङ्गस्वरूप मुख्य साधन अने एने बधुं अधीन छे एवी बुद्धि ए सर्व आ चार अध्यायमां समजाववामां आव्युं छे. एक अध्यायमां भगवानने माटे भूतत्वे जो कोई उपयोगी थतो होय तो ए मुक्त ज थई शके छे एम बतावी आप्युं छे. त्यां स्त्रीनी मुक्ति कहेवामां आवी छे. आ चौद अध्यायनो अर्थ बीजी रीते पण घटावी शकाय छे; धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष ए चार जो सर्गमां उत्पन्न न थाय तो धर्मादिमार्गो सर्गमां न कहेवाय. सर्ग बे प्रकारनो होवाथी पुरुषार्थ पण बे प्रकारना छे. एटले आठ अध्याय तो एना थया. एमां २१ थी २४ सुधी जीवचिन्तित अने २५ थी २९ सुधी भगवद्-चिन्तित पुरुषार्थ. पछीथी बाकी रह्युं ते बधुं कालकृत छे. कालकृत पुरुषार्थ पण चारथी; पहेलो अने छेल्लो अध्याय बद्ध अने मुक्तनो ते बधा मळी १४ अध्यायनो बीजो सर्ग कहेवामां आवे छे. आ वीसमा अध्यायमां सङ्कीर्ण सर्ग कहेवाय छे ते हरिने माटे छे अने छ प्रकारवाळो छे केमके भगवान् ऐश्वर्यादि षड्गुणयुक्त छे. विदुरजीए ए प्रकारनो सर्ग समजीने विसर्गनो प्रश्न कर्यो, परन्तु मैत्रेयने तो अर्ही शास्त्र मात्र कहेवानुं छे तेथी भगवदुपयोगी सर्गनुं कथन करे छे. एमां शौनक आ अध्यायमां बे प्रश्न पूछे छेःपहेलो प्रश्न विसर्गनो अने बीजो भक्त सम्बन्धी छे. एक श्लोक अने पाञ्च श्लोकथी एनो आरम्भ छे. मनुए पृथ्वी मळ्या पछी शुं कर्यु अने भक्त विदुरजीए मैत्रेयने ए प्रश्न अवश्य पूछ्यो होवो जोईए तेने मैत्रेये जे कह्युं होय ते अमने कहो ए प्रश्न बीजो. आ बे प्रश्न शौनकसूतनो अधिकारभेद बतावनार छे. परीक्षित अने शुकने आवी वात पूछवानी जरूर नथी तेथी अर्ही शौनकनो प्रश्न प्रश्न छे. शौनक उवाच मर्ही प्रतिष्ठामध्यस्य सौते! स्वायम्भुवो मनुः ॥ कान्यन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गायाऽवरजन्मनाम् ॥१॥
शौनक बोल्या - हे सूत! स्वायम्भुव मनु पृथ्वी उपर राज्य करवा लाग्या त्यारे एना पछी थनारने माटे एणे शुं कर्युं तथा मनु थया पछीनी सृष्टि केम थई ए कहो ॥१॥
महाभागवत्* अने कृष्णना खास मित्र विदुरजीए पुत्रो साथे पोताना मोटा भाईने छोडी दीधा छे केमके ए पुत्रो रूपी पापनो पक्षकार छे ॥२॥
विशेष - जे असिधाराव्रतनुं पालन करनार होय ए महाभागवत् कहेवाय. पुराणान्तरमां
युधिष्ठिरने ए व्रत भगवाने कह्युं छे ते अर्ही जाणवामाटे लख्युं छे. ‘‘स्वयं पुष्टश्च तरुणः
[[३०४]] सकामी निकटं स्त्रियाः। नित्यं स्थितोपि मनसा विकारं यो न गच्छति॥ स्त्रियः
सर्वागसंहृद्याः सर्वाभरणभूषिताः। अप्राप्तकामास्तं प्राप्य साभिलाषा अपि
स्वयम्। स्वकीयासु तथान्यासु स्वभार्यास्वपि कुत्रचित्। पञ्चाग्निमध्यवत्तिष्ठेद्
असिधाराव्रतं तु तत्’’ पोते पुष्ट, तरुण, स्त्रीओनी निकट सकाम हम्मेशां होय छतां मनमां
विकार नथी पामतो; सर्वाङ्गसुन्दर, बधां धरेणाथी शणगारेली स्त्रीओना काम पूर्ण न थाय
तेवी आवा पुरुषने पामी अभिलाषा करे पोतानी तेम ज बीजी अने पोतानी स्त्रीओमां पण
जेने विकार नथी ए असिधाराव्रत. बीजुं पण महाभागवत्नुं लक्षण जुदा प्रकारनुं छे ते पण
अर्ही प्रसङ्गथी आप्युं छे - ‘‘स्वामिकार्य प्रसङ्गानां तथात्वेपि यतो दृढः। यः केवलं
हरेरर्थे सर्वथा यत्नवान् स्वतः। प्रसङ्गादपि न स्वार्थे महाभागवत्स्तु सः’’ स्वामीनां
कार्योना प्रसङ्ग करवाना होय त्यां जे केवळ प्रभुने माटे प्रयत्न करनारो होय, पोताना अर्थमां
नहि ज ए महाभागवत् छे.
विदुरजीनुं ज्ञान व्यासना करतां कोई रीते ओछुं नथी. व्यासतुल्य होवा छतां ए
एमना देहथी उत्पन्न थया छे.एसर्वात्मा थी कृष्णनो आश्रय करनार तथा
भगवद्भक्तने अनुसरनार छे ॥३॥
तीर्थसेवनथी रजोगुणरहित थयेला विदुरजीए कुशावर्त्त देशमां जई त्यां बेठेला तत्त्वज्ञानीओमां उत्तम एवा मैत्रेयने शुं पूछ्युं? ॥४॥
हे सूत! ए बन्ने ज्यां मळ्या त्यां जेम भगवानना चरणमान्थी नीकळेलो गङ्गाप्रवाह पापने दूर करे छे तेम ए बन्नेना मुखथी नीकळेल कथाप्रवाह पण पापने दूर करे तेवो थयो हशे ॥५॥
तमारुं कल्याण थाओ! ए उदार कर्मवाळा भगवाननां चरित्र कीर्तन करवा योग्य होय छे. ते चरित्रो अमने कहो. भगवाननी लीलारूपी अमृतनुं पाननो करवावाळो ए रसनो कयो रसिक हशे के जेने तृप्ति थाय? ॥६॥
नैमिशारण्यमां रहेता मुनिओ रोमहर्षणना पुत्र उग्रश्रवाने उपर प्रमाणे पूछवा लाग्या त्यारे भगवान्मां बुद्धि, मन सर्व अर्पण करीने ए ऋषिओने उदेशीने सूत बोल्या, ‘‘साम्भळो’’ ॥७॥
सूते कह्युं - पोतानी मायाथी वराहनुं स्वरूप धारण करीने पृथ्वीनो रसातळमान्थी केवी रीते उद्धार कर्यो तथा हिरण्याक्षने अवज्ञाथी मार्यो ए बन्ने भगवल्लीला साम्भळीने अत्यन्त राजी थयेला विदुरजी मैत्रेयने पूछवा लाग्या ॥८॥
[[३०५]] विदुरजी बोल्या - ब्रह्मन्! आप परोक्ष विषयोने पण जाणो छो माटे ए बतावो के प्रजापतिओना पति ब्रह्माजीए मरीचि वगेरे प्रजापतिओने उत्पन्न करी पछी सृष्टि वधारवामाटे शुङ्कर्युम् ॥९॥
मरीचि वगेरे ब्राह्मणो तथा मनु पण्डे प्रकट्या. ए बन्नेए ब्रह्मानी आज्ञा लईने आ देखाता जगतने केवी रीते उत्पन्न कर्युं? ॥१०॥
तेओए भार्याओना सहकारथी आ जगत् उत्पन्न कर्युं के पोतपोताना कार्यमां स्वतन्त्र रहीने के बधाए एकी साथे मळीने आ जगतनी रचना करी? ॥११॥
मैत्रेये कह्युं - १. कोईथी* कळी न शकाय तेवा दैव (भगवदिच्छा, काम), २. पर पुरुष (अथवा अक्षर ब्रह्म) अने ३. काल आ त्रण गुणोथी क्षोभ पामेला भगवानना त्रण गुणोमान्थी (सत्, चित्, आनन्दमान्थी) महत्तत्वनी उत्पत्ति थई ॥१२॥
विशेष - अर्ही सृष्टिना अनेक प्रकार बतावे छे. प्रथम महत्तत्व, अहङ्कार, अण्ड, नारायण, पद्म अने ब्रह्मा ए छ प्राकृत सर्ग अने अगियार वैकृत सर्ग; तेमां त्रण गुणमान्थी नव सर्ग; एक मनुनो सर्ग अने ऋषिसर्ग एम अगियार सङ्ख्या मळीने सत्तर सर्ग; सत्तर यज्ञ होवाथी ते केवळ भगवदर्थ सर्ग छे. तेमां प्रथम महतत्त्वनो सर्ग कहेवाय छे; ते महत्तत्व प्रकृतिमान्थी उत्पन्न नथी थतुं पण भगवान्थी ज थाय छे तेथी ‘‘दैवेन दुर्वितकर्येण’’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेमां दैव एटले भगवाननी इच्छा समजवी ‘‘सोऽकामयत’’ एम श्रुतिमां कह्युं छे. ‘पर’ एटले अक्षर अथवा पुरुष; ए राजस छे तथा अनिमिष काळ ते तामस छे. ए सत्त्व, राजस अने तामस गुण प्रकृतिना नहि पण सच्चिदानन्द पुरुषोत्तमना सत्थी सत्त्व गुण, चित्थी रजोगुण अने आनन्दथी तमोगुण थाय. एनाथी इच्छा थई अने ए थतां अक्षरथी अथवा पुरुषोत्तमथी कालक्षोभरूप व्यापारथी महत्तत्व थयुं. आ सर्ग प्रकृतिजन्य नथी एम कहेवामाटे प्रथम महत्तत्वनी सृष्टि कही छे. ए सृष्टि भगवद्रूप छे माटे भगवदर्थक सर्ग छे. कर्म, स्वभाव वगेरे सामग्री काळमां आवी जाय छे तेथी जुदी जणावी नथी. ए महान त्रिगुणात्मक छे, छतां ए सृष्टिनो कर्ता थाय छे. रजोगुण प्रधान थतां एनी उपर वीक्षा (विशेष प्रकारनी इच्छा) थई त्यारे एणे भूतना आदि अहङ्कारने उत्पन्न कर्यो. एणे भूत, मात्रा अने इन्द्रियो तथा एना देवोने उत्पन्न कर्या॥१३॥
ए बधा जुदा होवाथी सृष्टि करवामां असमर्थ थया. पछी भगवाननी इच्छाथी
भूत मात्रा अने इन्द्रियो वगेरेएकठां थयां ते बधांए घणा प्रकाशयुक्त सुवर्णना
[[३०६]] अण्डने उत्पन्न कर्युम् ॥१४॥
कमळना कोश जेवो ए आण्डकोश थयो. ए कोश समुद्रना जळमां हजार वर्ष सुधी रह्यो. उत्पन्न थया पछी एमां भगवाने प्रवेश कर्यो. पोते ईश्वर छे तेथी एमां ए केम रह्या. एवी शङ्का करवाने अवकाश नथी. कमळ कोशमां रह्या ते ज नारायण ॥१५॥
ए नारायणनी नाभिमां कमळ थयुं. ए हजारो सूर्यथी वधे एवा तेजवाळुं अने सर्व जीवोना निवासरूप हतुं. ए कमळमां (भगवान्) पोते ब्रह्माजी थया ॥१६॥
ए ब्रह्माजीमां समुद्रना जलमां पोढेला भगवान् नारायणनो आवेश थयो त्यारे एणे पहेलां(ना कल्पना) जेवां आकृति, जाति, गुण वगेरे हतां तेवा ज प्रकारनी सृष्टि फरीथी करी, अर्थात् भगवान् पोतेज पहेलान्नी सृष्टि जेवा रूप- गुणवाळा थया ॥१७॥
ब्रह्माजीए प्रथम छायाथी पाञ्च पर्ववाळी अविद्या उत्पन्न करीए तामिस्त्र१ अन्धतामिस्र२ तम३ मोह४ अने महातम५ ए नामना पाञ्च पर्व थयाम् ॥१८॥
विशेष - १. प्रथम तृतीय स्कन्धना बारमा अध्यायमां ‘‘ससर्जान्धतामिस्रम्’’ वगेरे
श्लोकथी पाञ्च पर्ववाळी अविद्यानी उत्पत्ति कही छे तेनाथी आ अविद्या जुदा प्रकारनी छे.
भगवान्थी विमुख थई महाभोगनी इच्छा ए भक्तिमार्गमां बाधक होवाथी अविद्याना पर्वमां
मुख्य प्रथम पर्वरूप तामिस्रने गणेल छे.
२. अन्धतामिस्र एटले भोगववानी इच्छा; ए तामिस्र करतां कांईक ठीक केमके एमां भगवान्थी
विमुख थईने भोगनी इच्छा करवानो क्रम नथी.
३. अज्ञान ए त्रीजुं पर्व; तेने तम कह्युं छे. एमां भोगोनी इच्छा मात्र छे; भगवद्वैमुख्य
नथी. ए उत्तम.
४. पुत्रादि सारां होय तो पोताने सुख अने एना दुःखमां पोते दुःख मानवुं ए अविद्यानुं चोथुं
पर्व मोह नामथी प्रसिद्ध छे. ए पूर्वे त्रण कह्यां तेना करतां उत्तम छे केमके पुत्रादि पण
भगवत्सेवामां उपयोगी छे तेनी सकलता-विकलतामां पोते सकलता राखे तेमां भगवत्सम्बन्धनी
उत्तमता छे.
५. देहनो अभिमान ए महामोह नामनुं पाञ्चमुं पर्व; ते पण सेवामां उपयोगी होवाथी
उत्कृष्ट छे. आ अविद्या सेवोपयोगी होवाथी उत्कृष्ट छे. बारमां अध्यायवाळी अविद्या भगवद्वैमुख्य
करावनारी छे. आ अविद्या भगवत्साम्मुख्य करावनारी होवाथी उत्तम छे.
[[३०७]] जे कायाथी आ पाञ्च प्रकारनी अविद्यासृष्टि थई ते कायानां वखाण न करतां
ब्रह्माए एने छोडी दीधी. ए तामसी काया हती. ए कायाने यक्षो अने राक्षसोए
स्वीकारी. ए रात्रिरूप अभिमानी देवता थई, जेमां भूख अने तृषानो उदय थयो
॥१९॥
यक्षो अने राक्षसोए ए रात्रिनी अभिमानी देवतारूप कायानो आश्रय कर्यो. जेथी क्षुधा अने तृषा बाधा करवा लागी ए वखते बीजो कोई पदार्थ न होवाथी एओ ब्रह्माजीने खावा तैयार थया अने कहेवा लाग्या के ‘‘आनी रक्षा न करतां एने खाई जाओ, कारण के भूख लागी छे’’ एम परस्पर बोलवा लाग्या ॥२०॥
त्यारे ब्रह्माजीए शोकातुर थई एओने कह्युंः ‘‘हे यक्षो! राक्षसो तमे तो मारी प्रजा छो माटे मने न खाओ पण मारी रक्षा करो’’ ॥२१॥
दीपमणि के सूर्य प्रकाशनी पेठे पोताना प्रकाशमान्थी ब्रह्माजीए जे-जे सृष्टि करी ते-ते सामे क्रीडा करवा लागी तेमां जो के दोष न देखायो पण ए भिन्न भाववाळी होवाथी ए प्रभाने पण ब्रह्माए छोडी त्यारे एने देवोए दिवसरूप जाणी ग्रहण करी ॥२२॥
अत्यन्त लम्पट एवा देवोने ब्रह्माजीए जघनथी उत्पन्न कर्या. लम्पट होवाथी ए ब्रह्माजीनी पाछळ मैथुन करवानी इच्छाथी दोड्या ॥२३॥
जेम मातृगमन निषिद्ध छे तेम पितृगमन पण निषिद्ध छतां एओए एवी बुद्धि करी तेथी एओनी निर्लज्जता जोई सभगवान् एटले भगवदाविष्ट ब्रह्माजी हस्या. ए असुरो तो लगभग ब्रह्माजीनी पासे आव्या त्यारे भय लागवाथी ब्रह्माजी त्यान्थी क्रोध करीने पलायन करी गया ॥२४॥
पछी शरणागतना दुःखने मटाडनार, इच्छित वरने आपनार जे भक्तने जेवो भाव होय तेवा दर्शन आपी अनुग्रह करनार हरि भगवाननी पासे ए ब्रह्माजी आव्या ॥२५॥
‘‘हे परमात्मन्! आपनी प्रेरणाथी हुं प्रजा सरजुं छुं ते पापी प्रजा मैथुन करवाने मारी पाछळ आवी, मारुं आक्रमण करवा तैयार थाय छे तेथी हुं आपने शरणे आव्यो छुं तो हे प्रभो! मारी रक्षा करो ॥२६॥
लोकने दुःख थाय ते मटाडनार आप एक ज छो. जेओ आपना चरणनो
आश्रय नथी करता तेओने क्लेश आपनार पण आप ज छो; तेथी आ लोकोथी मारुं
[[३०८]] रक्षण करो’’ ॥२७॥
भगवाने ब्रह्माजीनी दीनता जोई एकान्तमां सर्व पदार्थना स्वरूपने जोयुं अने ब्रह्माजीने ए घोर शरीरनो त्याग करवानुं कह्युं त्यारे भगवानना कहेवा प्रमाणे ए तनुनो त्याग कर्यो ॥२८॥
जे तनुनो ब्रह्माए त्याग कर्यो तेमा यक्षादिने स्त्रीनो भाव हतो. ए स्त्रीरूपा देखाई ए स्त्रीना चरणकमळमां नुपूर शब्द करतां हतां. मदवडे एनां लोचन तरल देखातां हतां. एणे कटिमेखलानी नीचे सुन्दर रेशमी वस्त्रथी केडने आच्छादित करी राखी हती. अन्योन्यने मळेलां अन्तर वगरनां एनां स्तन उन्नत हतां. सुघड नासिकावडे तथा दान्तवाळा हसता मुखवडे ए अन्तःस्नेहने सूचवती हती, लज्जावडे आत्माने गुप्त राखती हती. एवी काळा केशवाळी ए स्त्रीने जोई बधा असुरो एमां मोहित थई गया ॥२९-३१॥
‘‘अहो! शुं आनुं रूप छे? शुं आनुं अलौकिक धैर्य छे! शुं आनुं यौवन आनुं सुन्दर यौवन तो जुओ! आपणे बधा एनी कामना करीए छीए छतां आपणी वच्चे जाणे आ निष्काम होय तेवी फरे छे’’ ॥३२॥
सन्ध्याने प्रमदा जाणीने एनेमाटे अनेक तर्को करता ए कुबुद्धि आसुरो एनी स्तुति करता-करता विश्वासथी एनां नाम वगेरे पूछवा लाग्या ॥३३॥
‘‘सुन्दरी! तमे कोण छो? तमारां मातापिता कोण? अर्ही आववानुं तमारुं शुं प्रयोजन छे? रूपनी सम्पत्तिवडे दुर्भागी अमोने हे भामिनी! तमे तरसावो छो;’’ एम केटलाक बोल्या ॥३४॥
बीजा बोल्या - ‘‘तमे जे हो ते हो पण हे अबले! तमे अमने दर्शन आप्युं ए अमारां मोटां भाग्य समजीए छीए. तमे तमारी गेन्द उछाळी-उछाळीने तमने जोनारनां अमारां मनने वलोवी नाखो छो ॥३६॥
हे मनोहर स्त्री! ऊडता भमराओने हथेळीथी वारंवार प्रहार करतां तमारा चरणकमळनो सर्वत्र जय थाय छे. तमारो कटिप्रदेश स्थूल स्तनोना भारथी मानो श्रमित थयो छे अने तमारी दृष्टिमान्थी थकावट डोकियां करे छे. ओहो! तमारो केशपाश केवो सोहामणो छे? माटे तमारे आराम लेवानी जरूर छे. तेम थशे तो ज तमारा अवयोने शान्ति मळशे’’ ॥३६॥
सायङ्काळ-सन्ध्याने सुन्दरी समजता ए मूढ बुद्धिवाळा असुरो पोताने लोभावे [[३०९]] छे एम मानीने एने पकडवा लाग्या ॥३७॥
पछी पोताना शरीरने ज सूङ्घीने हास्य करवा लाग्या. पछी ब्रह्माजीए पोताना लावण्यमान्थी गन्धर्वो अने अप्सरागण ने उत्पन्न कर्या ते शरीरने पण ब्रह्माजीए छोडी दीधुं जे चन्द्रिका रूप थयुं. गन्धर्वो, जेमां विश्वावसु मुख्य छे तेमणे एनो प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर्यो ॥३८-३९॥
ब्रह्माजीए पछी पोतानां निद्रा अने आळसमान्थी भूत अने पिशाचोने उत्पन्न कर्या ते तो वस्त्ररहित अने छूटा केशवाळा हता. एने जोईने ब्रह्माजीए पोतानां नेत्र मीची दीधाम् ॥४०॥
ए शरीरने पण छोडी दीधुं. एमान्थी बगासुं थयुं तेथी निद्रा अने इन्द्रियोनो थाक वगेरे जे एनां कार्य छे. ते लोकमां जोवामां आवे छे ॥४१॥
ब्रह्माजीए पोताने इन्द्रियोनी शक्तिनुं सामर्थ्य प्राप्त थाय एवी इच्छा करी. ए प्रभुए पोतानी परोक्षमां साध्यगण अने पितृगणने उत्पन्न कर्या. पितृओए ब्रह्माजीए करेली ए सृष्टिने अने ए ब्रह्माजीनी कायाने ग्रहण करी, जेनेमाटे डाह्या पुरुषो, साध्यो अने पितृओने श्राद्ध वगेरेद्वारा हव्य अने कव्य (पिण्ड) अर्पण करे छे श्राद्धादि करे छे ॥४२-४३॥
ब्रह्माजीए सिद्धो अने विधाधरोने तिरोधानवडे उत्पन्न कर्या एमणे एने अन्तर्धान नामनी पोतानी काया आपी. आ अन्तर्धान विद्या आश्चर्य करावे तेवी छे ॥४४॥
पोताना प्रतिबिम्बमान्थी ब्रह्माजीए किम्पूरुषो अने किन्नरो ने उत्पन्न कर्या. पोताना शरीरने बहुमान आपीने अने पोताना जेवा जोवामाटे उत्पन्न कर्या ॥४५॥
ए ब्रह्माजीए पोताना प्रतिबिम्बरूपने छोडी दीधुं तेने किम्पुरुषोए ग्रहण कर्युं अने एने लईने सवारमां बन्ने साथे रहीने ए ब्रह्माजीनुं गान करवा लाग्या ॥४६॥
देहथी भोग करतां ए स्थूळ थयो तेथी सृष्टिनी वृद्धि थती बन्ध पडी गई. एनी चिन्तामां ब्रह्माजी सूई गया अने क्रोध करीने ए शरीरने छोडी दीधुम् ॥४७॥
ए शरीरना माथा उपरथी केश खरी पड्या ते सर्प थया. जे पड्या ते ‘अहि’
कहेवाया, जे क्रोधथी दोड्या ते ‘सर्प’ कहेवाया, जे क्रिया रहित थया ते ‘नाग’ मोटा
[[३१०]] फणा अने जाडा शरीर वाळा थया ॥४८॥
आ प्रमाणे पोताना आत्मानी नव प्रकारनी सृष्टि कर्या पछी ज्यारे मनुनी सृष्टि थई त्यारे ‘‘लोकने धर्मादिवडे मनुआदि पालन करशे’’ एम जाणीने ब्रह्माजी पोताना आत्माने कृतकृत्य मानवा लाग्या ॥४९॥
जेटलाने उत्पन्न कर्या. तेने पोताने रहेवामाटे ब्रह्माण्ड आप्युं. ए जोईने जे पहेला उत्पन्न थया हता ते ब्रह्माजीने वखाणवा लाग्या ॥५०॥
‘‘अहो! आ जगतना स्रष्टा! तमारुं पुण्य आमां प्रतिफलित थयुं. अमे आ स्थानमां रहीने स्थिर थईशुं अने सर्व पुरुषार्थ सिद्ध करीशुं’’ ॥५१॥
ज्ञान, कर्म अने भक्ति वडे इन्द्रियोना अधिष्ठाता भगवान् योगसमाधिवडे ऋषि वगेरेनी सृष्टि करवा लाग्या ॥५२॥
तेभ्यो ह्येकैकशः स्वस्य देहस्यांशमदादजः ॥ यत्तत्समाधियोगर्द्धि-तपोविद्याविरक्तिमत् ॥५३॥
जेना अंशथी जेने उत्पन्न कर्या तेनो अंश तेने आपवो एम विचार करी समाधि, योग, ऋद्धि तप, ज्ञान अने वैराग्य ए छए ऐश्वर्यो पोताने कांई इच्छा न होवाथी पोतानी सृष्टिने आप्याम् ॥५३॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (तत्त्वसृष्टि प्रकरणनो पहेलो) ‘‘ब्रह्माजीथी अनेक प्रकारनी सृष्टि थतां मनु थया एनुं वर्णन’’ नामनो वीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय २१
शतरूपा साथे मनु देवहूतिने लईने कर्दमना आश्रममां आव्या
विशेष - आ अध्यायमां धर्ममार्ग कहेवामां आवे छे. आ सर्ग भूतसर्ग कहेवाय छे, कारण ए भूतोनो संस्कार करनारो छे. आ सर्गनुं रूप पण छ प्रकारनुं छे. तेमां तप, दर्शन अने स्तुति [[३११]]
ईं उं ईं उं
ए त्रण प्रकार कारणमां कहेवामां आवे छे; त्रण प्रकार फळमां छे. वाकय, आगम अने समृद्धि ए त्रण प्रकार ऋषिना कथनमां होवाथी ए फळरूप छे. मनु कर्दमना आश्रममां जाय छे त्यां मनुनो अने मुनि कर्दमनो संवाद थाय छे. ए वात आ अध्यायनो विषय छे. पुम्मुक्ति अर्ही छे. स्वायम्भुवस्य च मनोर्वंशः परमसम्मतः ॥ कथ्यतां भगवन्! यत्र मैथुनेनैधिरे प्रजाः ॥१॥
विदुरजी बोल्या - हे भगवन्! अने स्वायम्भुव मनुनो वंश परम प्रशंसा पामेलो छे, जेमां प्रजानी वृद्धि मैथुन धर्मथी थई छे ए मने कहो ॥१॥
स्वायम्भुव मनुने प्रियव्रत अने उत्तानपाद ए नामना बे पुत्रो हता तेओ सात द्वीपवाळी पृथ्वीनुं रक्षण निश्चय धर्मनुं उल्लङ्घन कर्या विना करता हता ॥२॥
हे निष्पाप! एमने देवहूति नामनी एक पुत्री खरेखर प्रसिद्ध हती अने ए कर्दम प्रजापतिनी पत्नी हती एवुं आपे मने कहेलुं छे ॥३॥
ए योगना लक्षणवाळी हती. कर्दमे एमां पोतानुं वीर्य केटला प्रकारे आधान कर्युं ए साम्भळवानी मारी इच्छा छे; तो आप मने ए कथा कहो ॥४॥
हे ब्रह्मन्! रुचि प्रजापति पूर्व कल्पमान्थी बच्या हता तेमनाथी तथा ब्रह्माजीना पुत्र दक्षथी मनुनी पुत्रीमां जे सन्तानो थयां तेनी कथा पण आप मने कहो ॥५॥
मैत्रेय कह्युं - ब्रह्माजीए कर्दमने कह्युं के तमे प्रजा उत्पन्न करो त्यारे कर्दम तो एकला ज हता तेथी सरस्वतीना तीर उपर एमणे दस हजार दिव्य वर्ष सुधी तप कर्युम् ॥६॥
तप करतां क्रियायोगवडे, समाधिवडे तेमज भक्तिवडे, वरदान देनारा भगवान् एमना हृदयमां पधार्या ॥७॥
एनाथी कमळनेत्र भगवान् कर्दम उपर प्रसन्न थया अने आपे शब्दब्रह्म स्वरूपथी कर्दमने दर्शन दीधाम् ॥८॥
रजरहित (आसक्ति अने मलिनता विनाना) सूर्यना जेवा प्रकाशवाळा, श्वेत
कमळनी माळाने धारण करता, चीकणा अने श्याम केशयुक्त मुख कमळवाळा, श्वेत
वस्त्रवाळा, किरीटकुण्डल युक्त, शङ्ख, चक्र, गदाने धारण करता, श्वेत कमळने हाथमां
फेरवाता, मन चोरी ले तेवा हास्य अने नेत्र युक्त, गरुडना खभा उपर चरणारविन्द
राखीने आरूढ थयेल, आकाशमां बिराजता, वक्षःस्थळमां लक्ष्मीवाळा कण्ठमां कौस्तुभ
मणिवाळा भगवाननां दर्शन करीने हर्ष पामता ए मुनि भगवाननां चरणमां पड्या
[[३१२]] अने पोतानो मनोरथ पूर्ण थयो एम मानवा लाग्या अने जेमनो आत्मा भगवान्मां
प्रेमभावथी लीन थयो छे तेवा ए मुनिए वाणीवडे भगवाननी स्तुति करी ॥९-
१२॥
कर्दम बोल्या - समग्र सत्त्वराशिरूप आपनां दर्शन थतां मारां नेत्रोनी दिव्य शक्तिओनो मने अनुभव थयो. हे स्तुतिपात्र! घणा काळ सुधी योगनो अनुभव करी सत्पुरुषो घणा जन्मे आपनां दर्शन करवानी इच्छा करे छे केमके आपनां दर्शन तो आपनी कृपावडे ज सिद्ध थई शके छे. तेमां साधन बळथी तो मात्र एनी इच्छा ज करी शकाय ॥१३॥
आपनुं चरणारविन्द संसारसमुद्रने तरवामां नौकारूप छे; छतां जेओ केवळ कामसुखना लेशने माटे एनुं आराधन करे छे तेओ आपनी मायाथी हणाई गयेला छे एम समजवुं; तेओने आप नरकमां पण जे मळी शके तेवी अभिलाषाओ पूर्ण करो छो ॥१४॥
हुं पण एवा आराधकोमान्नो एक छुं, कारण के हुं पण गृहस्थाश्रमना काम आपनार धेनु जेवी स्त्रीने परणवानी कामनावाळो छुं; अने आपनुं चरणारविन्द जे कामनावाळाने कल्पवृक्षरूप छे. तेना मूलमां आव्यो छुम् ॥१५॥
हे अधीश! आप प्रजाना पति छो. आपनी वाणीरूप दोरडीथी आ जीवलोक काममां हणाईने बन्धायेलो छुं. हे विशुद्ध! हुं पण ए लोकने अनुसरीने आपनी आज्ञानुं पालन करुं अने आपने ए रीते सेवामां उपयोगी थाउं एमाटे कालस्वरूप आपने नमस्कार करुं छुम् ॥१६॥
आपना भक्तो तो एवा होय छे के तेओ लोकोनो तेमज पशुना जेवा लोकने अनुसरता भक्तोनो पण त्याग करी आपना चरणरूपी छत्रनो आश्रय करे छे अने परस्पर आपना गुणानुवादरूपी अमृतपानवडे देहना धर्म (भूख, तरस) पण वीसरी जाय छे ॥१७॥
विकार रहित अक्षरब्रह्मरूपी धरी उपर भरायेलुं तेर (अधिक मास साथे मासरूपी) आरावाळुं, त्रणसो साठ (दिवसोरूपी) सान्धावाळुं, छ (ऋतुओरूपी) नेमि (परिध) वाळुं, अनन्त पत्रोवाळुं, त्रण (शियाळो, उनाळो, चोमासुं) नाभिवाळुं, भयङ्कर प्रवाहवाळुं, जगतना आयुने कापतुं-फरतुं आपनुं चक्र ए भक्तोना आयुष्यनो ग्रास कर्या विना फरे छे ॥१८॥
[[३१३]] जेम करोळियो पोताना मोढामान्थी लाळ काढी एमां विहार करे छे अने वळी पोते पाछो ए लाळने पोताना स्वरूपमां लीन करे छे तेम आप एक होवा छतां आपनी योगमायावडे आ जगतने उत्पन्न करो छो अने प्रलय वखते ए बधुं पाछुं स्वरूपमां लीन करो छो. एम करवामां आपने बीजानी जरूर पडती नथी, आप केवळ स्वशक्तिथी बधुं करवा समर्थछो ॥१९॥
हे अधीश! अहङ्कारादि विषयो संसार आपनार छे आप भक्तने ए आपवानुं पसन्द करता नथी. आम छतां जो आप एवा कोई भक्त उपर एवो अनुग्रह करो तो मायावडे तुलसीथी शोभतां श्रीअङ्गनुं दर्शन आपो छो. (जो आप ज भक्तने संसारनुं दान करो,तो ए भक्त आपनां आपेला संसारथी बन्धातो नथी) एवो भक्त आपना स्वरूपमां आसक्तिथी संसारने तरी जाय छे ॥२०॥
पोताना आनन्दना अनुभव मात्रथी आपनी क्रिया मात्र निवृत्त थई छे, माया आपने स्वाधीन होवाथी आपनुं चरणकमळ लोकतन्त्रने चलावनार होवाथी वन्दनीय छे, आप थोडी नाम मात्रनी भक्ति करनार उपर पण समस्त अभिलाषित वस्तुओनी वर्षा करी रह्या छो. ए आपने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुम् ॥२१॥
मैत्रेय कह्युं - एम मुनि जेवुं पोताना हृदयमां हतुं तेवुं साचु बोल्या. ए प्रमाणे मुनिए स्तुति करी त्यारे गरुड उपर शोभता, प्रेम अने मन्दहास्य युक्त दृष्टिथी भ्रूकुटीने नचावता ए कमळनाभ प्रभु मुनिने उदेशीने आ प्रमाणे बोल्या ॥२२॥
श्रीभगवाने कह्युं - तमारा मनना विचार हुं जाणुं छुं. तमे आत्मसंयमवडे जेमाटे मारुं आराधन कर्युं छे तेनो में प्रथमथी ज बन्दोबस्त कर्यो छे ॥२३॥
हे प्रजाध्यक्ष! मारुं करेलुं पूजन कदापि नकामुं जतुं नथी. तेमांये जेणे मारामां पोतानो आत्मा अर्पण कर्यो छे तेवा तमारा जेवाए करेलुं आराधन तो व्यर्थ न ज जाय ॥२४॥
प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तमां रही सात समुद्रवाळी सारी पृथ्वी उपर शासन करे छे ॥२५॥
हे विप्र! ए धर्मज्ञ राजर्षि मनु पोतानी स्त्रीनी साथे तमने जोवाने परम दिवसे तमारी पासे आवशे ॥२६॥
एने वय-रूप गुणवाळी श्याम नेत्रोवाळी अने पतिने शोधनारी कन्या छे ते
[[३१४]] कन्याना पति थवाने तमे लायक छो. ए अर्ही आवी ए कन्या तमने आपशे
॥२७॥
जेमां तमारुं मन दस हजार वर्षथी लाग्युं हतुं ते राजकन्या तमारी इच्छा प्रमाणे तमने जलदी मळशे ॥२८॥
ए तमारा वीर्यने पोताना गर्भमां धारण करी एनाथी नव कन्याओ उत्पन्न करशे अने पछी ए कन्याओथी लोकरीति प्रमाणे मरीचि वगेरे ऋषिओ पुत्रो उत्पन्न करशे ॥२९॥
हे सुन्दरश्रेष्ठ! तमे तो मारी आज्ञानुं सारी रीते पालन करी मारामां सर्व कर्म फलने अर्पण करी कृतार्थ थशो अने मने प्राप्त थशो ॥३०॥
जीव मात्र उपर दया करी अने आत्मनिष्ठ थई तथा जीवने अभयनुं दान करी, जगतनी साथे तमारा आत्माने तमे मारामां जोई शकशो ॥३१॥
हे महामुनि! तमारा क्षेत्ररूप देवहूतिमां अंशकलावडे हुं प्रकट थईश अने ‘साङ्ख्यशास्त्र’ प्रकाशित करीश ॥३२॥
मैत्रेय बोल्या - अन्तर्दृष्टिथी देखता भगवाने कर्दमनी साथे ए प्रमाणे वात करी अने पछी सरस्वतीना किनारा उपर रहेला बिन्दुसरोवरथी पधार्या ॥३३॥
सर्व सिद्धेश्वरोए स्तुति करेला, पोताथी ज सिद्ध थता मार्गवाळा भगवान् गरुडनी पाङ्खोथी गवाता सामवेद, जेमां स्तुतिओना समूहनो उच्चार थतो हतो तेनुं श्रवण करता तेनां देखतां ज पधारी गया ॥३४॥
भगवानना पधार्या पछी भगवाने मनुनो आववानो जे दिवस कहेलो तेनी वाट जोता कर्दम मुनि बिन्दुसरोवर उपर पोताना आश्रममां रहेवा लाग्या ॥३५॥
मनु पोतानी पुत्री अने शतरूपा नामनी पत्नीने साथे लईने सोनाना साजवाळा रथमां बेसी वनमां मुनिनो आश्रम शोधता पृथ्वीमां फरता हता; ॥३६॥
हे वीरवर! भगवाने कह्यो हतो ते ज दिवसे पूर्ण थयेल व्रतवाळा मुनिना आश्रममां ए आवी पहोच्याम् ॥३७॥
पोताना शरणागत भक्तने आपी दीधेली अति कृपाने लईने भगवाननां नेत्रमान्थी ज्यां अश्रुबिन्दु पडेलां ते स्थळ ‘बिन्दुसर’ नामनुं तीर्थ कहेवातुं हतुं. ‘बिन्दु सरोवर’ सरस्वतीनी पासे ज हतुं. आ तीर्थना पवित्र आरोग्यकारक अने स्वादिष्ट जळनुं मुनिगणो निरन्तर सेवन करे छे ॥३८-३९॥
[[३१५३१६]] अध्याय-२१, तृतीयस्कन्ध पवित्र वृक्षो अने लताओमां पवित्र पशुपक्षीओ कल्लोल करी र्ह्यां हतां. सर्व कालमां जे-जे पुष्पो अने फळो थाय छे तेवां पुष्प फळोथी वनश्रेणी पण तेनी शोभा वधारी रही हती ॥४०॥
पक्षीओनां जूथ एने निरन्तर सेवी रह्या हतां. एमां विविध प्रकारनां भमराओ विलास करी रह्या हता. मदोन्मत्त मयुररूपी नृत्यकारो त्यां नाच करी रह्यां हतां. आथी एनी शोभामां वधारो थतो हतो. ज्यां कोयलो, टहुका करी रही हती एवां कदम्ब, चम्पो, आसोपालव, बोरसली, कणझी, मोगरो, मन्दार, कुटज तथा नानां- नानां आम्रवृक्षोनी घटाथी ए सुशोभित हतुम् ॥४१-४२॥
बतको, प्लवो, हंसो, टिटोडीओ, जलकूकडीओ, सारस पक्षी, चकला-चकली अने चकोर सुन्दर कुञ्जन करी रह्या हताम् ॥४३॥
हरिण, भूण्ड, शेढाई, रोझ, हाथी, काळां मोढानां वान्दरां, सिंह, लाल मोढानां वान्दरां, नोळिया अने कस्तूरी मृगोथी भरपूर ए वनमां आदिराजा मनु आव्या अने तीर्थराजनां दर्शन करी अग्निमां जेमणे होम करी लीधो छे तेवा कर्दम मुनिनां एमणे दर्शन कर्या ॥४४-४५॥
घणा काळ सुधी तप करवाथी कर्दमना शरीरनी कान्ति देदीप्यमान हती. वळी भगवाने अमृतरूपी वाणी सम्भळावी हती तेथी एमना अङ्गमां कृशता (दूबळापणुं) बहु न हती. एमना हाथ लाम्बा हता एमनां नेत्र कमळ जेवा हतां; एमणे चीरनां वस्त्र पहेर्या हतां अने माथे जटा हती; एथी पासा पाड्या विनानुं मोटुं रत्न पण जेम झाङ्खुं देखाय तेम कांईक मलिन देखाता मुनिने एमणे जोया ॥४६-४७॥
ज्यारे मनु पर्णकुटी पासे आव्या अने सामे आवी नमस्कार कर्या त्यारे एमने लायक पूजा करी कर्दम मुनिए हाथ पकडी एमने पर्ण शाळामां लईने बेसाड्या ॥४८॥
मुनिए पूजननो शिष्टाचार पूरो करी सावधान थई भगवाननी आज्ञानुं स्मरण करतां सुन्दर वाणीवडे प्रसन्न थईने मनुने आ प्रमाणे कह्युम् ॥४९॥
कर्दम बोल्या - हे देव! आपनुं पधारवुं सत्पुरुषोना रक्षण तथा दुष्टोना नाशमाटे छे, कारण के आप भगवाननी पालक शक्तिरूप छो ॥५०॥
जे भगवान् सूर्य चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म अने वरुण ए आठ देवोने एक स्थानमां राखीने राजारूपे ए भगवान् ज पृथ्वीनुं पालन करे छे. एअध्याय-२२, तृतीयस्कन्ध ३१७ शुकल भगवानने नमस्कार हो ॥५१॥
विजयशील मणिगणवाळा रथमां बेसीने हाथमां टङ्कार करता प्रचण्ड धनुषने लईने पापीओने त्रास करता अने सैन्यवडे पृथ्वीने खून्दता अने पृथ्वीने ध्रुजावता मोटी सेना साथे सूर्यनी माफक फरवानुं छोडी दो तो भगवाने जे वर्ण अने आश्रमनी मर्यादाओ बान्धी छे ते लोपाई जाय अने दुष्ट पुरुषो मर्यादानो नाश करे माटे रक्षा करवाने अर्थे आपने फरवानुं जरूरी छे ॥५२-५४॥
आप न फरो तो अधर्म वधी जाय, लोभियाओ अङ्कुशरहित थई धर्मनो नाश करे. जो तमे सूई रहो तो चोर लोको आ जगतनो नाश करी दे ॥५५॥
अथाऽपि पृच्छे त्वां वीर! यदर्थं त्वमिहागतः ॥ तद्द्वयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥५६॥
तेथी आपनुं फरवुं लोकना रक्षण अर्थे छे ए हुं जाणुं छुं. छतां हे वीर! आपने अर्ही पधारवानुं प्रयोजन पूछुं छुं. जो मारा सरखुं काम होय तो हुं निष्कपट भावे ए करवाने तैयार छुम् ॥५६॥
इति श्रीभागवत्तृतीयस्कन्धमां (तत्त्वसृष्टिप्रकरणनो बीजो) ‘‘मनु शतरूपा साथे देवहूतिने लई कर्दमना आश्रममां आव्या’’ नामनो २१मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे.
अध्याय २२
देवहूति कर्दमने आपी मनु राजधानीमां पहोञ्च्या
विशेष - आ अर्थाध्याय छे एमां कर्दमने स्त्रीरूपी धननी प्राप्ति थाय छे. भगवदृत्त अर्थ मळे त्यारे ज विषयो कृष्णार्थ थाय छे. ए अर्थनी उत्तमता बताववामाटे मनुना धर्मोनुं वर्णन छे. उत्तम अर्थनी प्राप्ति भगवत्कृपाथी ज थाय छे; नहि तो अर्थ अनर्थनुं मूळ गणाय छे. जे
ईं उं ईं उं
[[३१८]] मनुए पोतानी पुत्री आकूति पोतानी इच्छाथी पुत्रिकाधर्मवडे रुचि प्रजापतिने आपी ए ज पोते अत्यन्त दीनतापूर्वक देवहूति मुनिने आपे छे तेथी पोताना आत्माने मनु कृतार्थ माने छे. पछी लौकिक कार्य बाकी न रहेवाथी ते धर्मनुं सेवन करे छे. ए धर्म यज्ञात्मक अने श्रवणात्मक एम बे प्रकारनो छे. ए बेउ स्वरूपना धर्ममां मनु सदा तत्पर रहे छे. एवमाविष्कृताशेषगुणकर्मोदयो मुनिम् ॥ सव्रीड इव तं सम्राड् उपारतमुवाच ह ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - ओहो! एवी रीते जेमनां गुण अने कर्मनी समृद्धिनुं वर्णन करवामां आव्युं छे तेवा मनु चक्रवर्ती छे तो पण पोतानी कीर्तिना श्रवणथी कांईक शरमाता होय तेम, मुनि बोली रह्या पछी कहेवा लाग्या ॥१॥
मनुए कह्युं - वेदमय ब्रह्माजीए वेदने पूर्ण करवानी इच्छाथी मुखथी सर्ग कर्यो, वेदमय, तपोमय, योग करनार अने अत्यन्त आसक्तिरहित तमने ब्राह्मणोने उत्पन्न कर्या ॥२॥
तमारा लोकनुं रक्षण करवाने भगवाने हजार हा’’ी अमने क्षत्रियोने उत्पन्न कर्या छे. ब्राह्मण भगवाननुं हृदय छे अने क्षत्रिय एमनुं अङ्ग कहेवाय छे. जेम शरीरना अवयव वगर आत्मा कार्य करी शकतो नथी तेम क्षत्रिय वगर ब्राह्मण पण क्लेश पामे छे ॥३॥
आम ब्राह्मण अने क्षत्रिय परस्पर पोताना आत्मानुं रक्षण करे छे. ए अविकृत देव ज सदसदात्मक जगतनुं पालन करनार छे. तेथी अमारे तमारी अने तमारे अमारी कामना पूर्ण करवी ए आपणो वेदविहित धर्म छे ॥४॥
तमारुं दर्शन थतां ज मारा मनना बधा ज सन्देह निवृत्त थया छे केमके आपे पोते ज क्षत्रियोना धर्म मने प्रेमपूर्वक कह्या हता ॥५॥
ओछा पुण्यवाळा एवा मारा जेवाने आपनां दर्शन थया एने हुं मारुं भाग्य समजुं छुं. आपनां चरणनी रज में मारा माथे चडावी ए पण मारुं भाग्य ज छे, कारण के ए रज सर्व पापने दूर करनारी छे ॥६॥
वळी आपे मने मारा कर्तव्यनो बोध कर्यो ए मारा उपर मोटी कृपा करी छे. ए पण मारुं भाग्य ज समजो. आपना मुखनी एवी सुन्दर वाणी मारा खुल्ला कानवडे साम्भळवानुं सद्भाग्य मळे ए महत्तासूचक छे. ओहो! मारा भाग्यनां केटला प्रकारे वखाण करुं! ॥७॥अध्याय-२२, तृतीयस्कन्ध ३१९ हुं पुत्रीना स्नेहने लईने मनथी दुःखी छुं; तेथी ज हे मुनि! दीन बनेलो हुं आपने कांई कहेवा आव्यो छुं. आप मारुं कथन कृपया साम्भळो ॥८॥
प्रियव्रत अने उत्तानपाद नी बहेन अने मारी पुत्री आ देवहूति वय, शील अने गुणादिमां पोताने योग्य पतिनी शोधमां छे ॥९॥
ज्यारथी एणे नारदजीना मुखथी आपनां शील, शास्त्रज्ञान, वय अने गुणो साम्भळ्या त्यारथी ए आपनी साथे लग्न करवानो निश्चय करी बेठी छे ॥१०॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हुं श्रद्धावडे आपने देवहूति आपवाने अर्ही आव्यो छुं. गृहस्थाश्रमना कार्यमां ए आपने सर्व प्रकारे अनुकूळ थशे; माटे आप मारी कन्यानो स्वीकार करो ॥११॥
जेणे आसक्तिनो त्याग करेल छे ते पण सदा प्रवृत्त रहेता कामनो अनादर करी शकतो नथी तो पछी काममां आनन्द माननार तो तेनो अनादर क्यान्थी करी शके? ॥१२॥
एनी मेळे प्राप्त थयेली वस्तुनो अनादर करी पछी कृपणनी पासे याचना करवा जाय तो पछी एवा माणसनो यश शुद्ध होय छतां एनो नाश थाय छे. अवज्ञाथी माननी पण हानि थाय छे ॥१३॥
हे विद्वन्! तमे विवाह करवानो उद्योग करी रह्या छो एवुं मारा साम्भळवामां आव्युं छे; तो हुं मारी कन्या तमने आपवाने अर्ही आव्यो छुं; तो घेर बेठां मळती कन्यानो आप स्वीकार करो. विवाह करवा इच्छनार ब्रह्मचारी उपकार करनार छे॥१४॥
कर्दम बोल्या - तमारी कन्या तमे क्यांय बीजे आपी नथी. हुं पण प्रथम लग्न करवानोज विचार करुं छुं माटे तमारा कथनने स्वीकारुं छुं. अमाराबन्नेनुं प्रथम लग्न होवाथी ए योग्यज विवाहविधि थशे ॥१५॥
हे राजन! तमारी आ पुत्रीनो विवाहविधि समाम्नाय (समाम्नाय) विधिमां स्वीकारेलो यथेच्छ थाओ. पोतानी ज कान्तिथी जाणे के लक्ष्मीजीनी अवगणना करती होय तेवी तमारी पुत्रीनो कोण काळा माथानो मानवी आदर न करे? (समाम्नायविधि एटले वारंवार नाम लेवुं ते. जेम पहेलां बधाए करेल तेवा प्रकारना विधिमां स्वीकारायेल विधि. देवहूति भक्तिना चिह्नरूप होवाथी लक्ष्मीनी अवगणना करे तेवी कहेवामां दोष नथी) ॥१६॥
ए तमारी कन्या देवहूति एवी छे के महेलनी अगाशीमां झङ्कार करता नूपुरवाळा३२० अध्याय-२२, तृतीयस्कन्ध पगवडे रमत करती दडो उडाडती हती अने नेत्रोने तरलताथी आमतेम फेरवती हती तेवामां ए विश्वावसु गन्धर्वना जोवामां आवी. एने जोतां ए सुधबुध खोई बेठो अने पोताना विमानमान्थी गबडी पड्यो हतो ॥१७॥
स्त्रीओमां श्रेष्ठ! जेणे लक्ष्मीना चरण सेव्या नथी तेनी दृष्टिए पण नहि चडनारी मनुनी पुत्री अने उत्तानपादनी बहेन पोतानी इच्छाथी परणवा आवे तो कयो डाह्यो पुरुष एनो स्वीकार न करे? ॥१८॥
तेथी हुं आपनी आ साध्वी कन्यानो अवश्य स्वीकार करीश पण एक शरते, ज्यां सुधी एने सन्तान न थाय त्यां सुधी गृहस्थ धर्म प्रमाणे हुं एनी साथे रहीश. त्यार बाद भगवाने बतावेल सन्न्यासप्रधान हिंसारहित शम-दमादि धर्मोने ज हुं अधिक महत्त्व आपीश ॥१९॥
जेनाथी आ विचित्र विश्व थयुं छे, जेमां स्थिति करी रह्युं छे अने जेमां लीन थाय छे ते प्रजापतिना पति आ अनन्त भगवान् मारे प्रमाणरूप छे. (प्रभुनी आज्ञा अनुसार भक्तने चालवानुं होवाथी गृहस्थधर्म पाळ्या पछी स्त्रीनो त्याग न थाय एवो बाध भक्तने माटे नथी एम मुनिना कहेवानुं तात्पर्य छे) ॥२०॥
मैत्रेय बोल्या - हे उग्रधन्वन्! एटलुं बोली हृदयमां कमळनाभ भगवानने मानसिक आलिङ्गन करी मुनि बोलता बन्ध थया. देवहूतिना मुख उपर स्मित फरकी गयुं अने एनुं चित्त मुनिमां लुब्ध थयुं पोताने राखी अने पुत्रीना विचार जाणी लईने मनुए गुणना समूहथी समृद्ध थयेला कर्दमने लायक तेवी पोतानी कन्यानुं दान, हर्षपूर्वक कर्यु ॥२२॥
महाराणी शतरूपाए वरवधूने महामोलां वस्त्रो, आभरणो तथा घरवखरी वगेरे दायजामां आप्याम् ॥२३॥
पोतानी पुत्री योग्य वरने आपवाथी राजाने ए सम्बन्धीदुःख मटी गयुं. राजाए पुत्रीने पासे बोलावी प्रेमने लीधे विह्वळ थयेल अन्तःकरणवाळा चक्रवर्ती सम्राट् बे बाहुओथी भेट्या ॥२४॥
कन्यानो विरह सहन नहि करी शकता, वारंवार आंसु सारता ‘‘हे वत्से! हे अम्ब!’’ एम बोलता ए मनुए दीकरीनो अम्बोडो आंसुओथी र्भीजवी नाख्यो ॥२५॥
मनुए मुनिवर कर्दमनी रजा लई एमनी रजाथी पोतानी राणी तथा माणसोनेअध्याय-२२, तृतीयस्कन्ध ३२१ साथे रथमां बेसार्या अने पछी पोताना नगर तरफ प्रयाण कर्यु ॥२६॥
ऋषिना कुलने वसता योग्य एवी सरस्वतीना बन्ने तीर उपर उपशान्त ऋषिओना आश्रमनी सम्पत्तिने जोता-जोता एओ त्यान्थी चाल्या ॥२७॥
राजाने आवतो जाणीने ब्रह्मावर्त्त देशनी प्रजा गीत, स्तुति अने वाजिन्त्रो साथे एनी सामे गई ॥२८॥
यज्ञभगवाने ज्यां पोताना अङ्गने धुणावेलुं त्यां रुवाडाम्पडेलां तेना बर्हि(दर्भ) ऊगेला माटे ते स्थळ ‘बर्हिष्मती’ नगरी कहेवाती हती. ए राजधानी होवाथी सर्व रीते समृद्ध हती ॥२९॥
यज्ञना वाळ खरवाथी त्यां लीला रङ्गना दर्भ अने काश नामनुं घास थयेल छे. ऋषि लोको जे दर्भवडे यज्ञमां विघ्न करनारनो पराभव करीने यज्ञथी भगवाननुं यजन करे छे ते कुश तथा काश पृथ्वी उपर पाथरीने मनुए पृथ्वीनुं राज्य मळ्या पछी यज्ञपुरुषनुं आराधन कर्युं हतुम् ॥३०-३१॥
जे बर्हिष्मतीपुरीमां समर्थ मनुजी निवास करता हता त्यां जईने पोते पोताना त्रितापनो नाश करनार पोताना भवनमां पोते प्रवेश कर्यो ॥३२॥
त्यां पोतानी भार्या अने सम्तति सहित तेओ धर्म, अर्थ अने मोक्षने अनुकूल भोगो भोगववा लाग्या. प्रातःकाल थतां ज गन्धर्वगण पोतानी स्त्रीओ सहित एमना गुणगान करता हता, परन्तु मनुजी एमां आसक्त न थतां प्रेमपूर्ण हृदयथी श्रीहरिनी कथाओ ज श्रवण कर्या करता हता ॥३३॥
ते इच्छानुसार भोगोनुं निर्माण करवामां कुशल हता, परन्तु मननशील अने भगवत्परायण होवाथी भोगो एमने जराय विचलित करी शकता न हता ॥३४॥
तेमनो बधो ज समय विष्णुनी कथाओनुं श्रवण, ध्यान अने कथन करवामां (पोतानो मन्वन्तर) पसार थई गयो. तेमनो जरा पण समय व्यर्थ न गयो ॥३५॥
वासुदेव भगवान् मोक्ष आपनार छे. ते भगवान्मां ज मनुजीनी मानसिक, वाचिक अने कायिक आसक्ति हती, जेने लीधे ध्यान, कीर्तन, परिचर्या वगेरेनो प्रवाह अखण्ड वहेतो रहेतो. एथी त्रण गुणमान्थी उद्भवती ऊर्ध्व, अधः अने मध्य गतिनुं मनुजीए उल्लङ्घन करी धीधुं अने आम एकोतेर चतुर्युगीनो मन्वन्तर वासुदेवना प्रसङ्गमां पसार कर्यो. तेथी उपर नीचे अने मध्ये एम देव, असुर अने मनुष्यरूप३२२ अध्याय-२३, तृतीयस्कन्ध त्रण गतिने छोडी अने ऊर्ध्वलोकनी गति एमणे प्राप्त करी ॥३६॥
हे व्यासना पुत्र! ए मनुने शरीरना क्लेश, मनना तेमज देवकृत क्लेश बाधक थया नहि, तो पछी मनुष्यना अने भौतिक क्लेश तो एमने बाध करे ज क्यान्थी? ॥३७॥
मुनिओए आवीने मनुने धर्म पूछ्या त्यारे एमणे मनुष्यना, वर्णोना, आश्रमोना अनेक प्रकारना धर्मो सर्व प्राणीओनुं हित विचारीने कह्या ॥३८॥
एतत्ते आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम् ॥ वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं शृणु ॥३९॥
आ आदिराजा मनुनुं अद्भुत चरित्र वर्णन करवा लायक होवाथी में तमने कही सम्भळाव्युं. हवे हुं तमने एमना पुत्रोनो उदय कहुं छुं ते तमे साम्भळो ॥३९॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (तत्त्वमुक्तिप्रकरणमां त्रीजो) ‘‘देवहूति कर्दमने आपी मनु राजधानीमां पहोञ्च्या’’ नामनो बावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्रभु सेवा-मनोरथ-कथा-कीर्तन जेवा प्रभुभक्तिमय पवित्र अलौकिक कोई पण प्रकारोना नामे सामग्री-भेट-दक्षिणा-न्योछावर माङ्गनार तेमज स्वीकारनार ने पुष्टिभक्तिमार्गमां पापीमां पापी, दुष्टमां दुष्ट,अधममां अधम जाणवा.
अध्याय २३
कर्दमे योगप्रभावथी विमान तैयार कर्युं तेमां दम्पतीना गार्हस्थ्यनुं वर्णन
विशेष - आमां भगवदिच्छाथी कर्दमनो काम कहेवामां आवे छे ते वैराग्य सुधी कहेवाशे. भगवद्भोग्य सृष्टिमां प्रथम विषय कह्या, हवे आ अध्यायमां इन्द्रियोनुं कथन थशे. भगवत्कृत भोग अल्प सत्त्ववाळाथी भोगवाय नहि तेथी देवहूति पोतानी योग्यतामाटे पतिनी सेवा करवा लाग्यां. सेवाथी कर्दम प्रसन्न थया. देवहूतिनी विनन्तिथी भोगना साधनने माटे जेमां भोगनां
ईं उं ईं उं
[[३२३]] सम्पूर्ण साधन आवी जाय तेवुं विमान मुनिए बनाव्युं. मुनिए ए विमान हृदयमां रहेला भगवाननी सूचनाथी तैयार कर्युं. देवहूतिनी इच्छाथी मुनिए पोताना तपोबळथी एक हजार कन्याओ प्रकट करी. पछी विमानमां बेसी सर्व भाववडे अनेक प्रकारना विलासनो अनुभव कर्यो, जेना परिणामे बन्नेने वैराग्य उत्पन्न थयो. जेना अन्ते वैराग्य थाय एवी जातनो भोग तेनुं नाम ज काम. आ अध्यायमां एटली वात छे. पितृभ्यां प्रस्थिते साध्वी पतिमिगिन्तकोविदा ॥ नित्यं पर्यचरत् प्रीत्या भवानीव भवं प्रभुम् ॥१॥
मैत्रेये कह्युं - माता-पिताना गया पछी जेम पार्वती पोताना प्रभु शिवजीने सेवे छे तेम पतिव्रता अने पतिना अभिप्रायने जाणनारी देवहूति प्रीतिवडे पतिनी सेवामां तत्पर थई ॥१॥
देवहूति विश्वास, पवित्रता, आदर, इन्द्रियदमन सहित सेवा, सौहार्द अने मधुर वाणीवडे मुनिने रीझववा लाग्याम् ॥२॥
एमणे काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप अने मद ए दोषोने छोडी दीधा. प्रमादनो त्याग करी तत्परता बतावी ए देवहूतिए कर्दमने सेवावडे प्रसन्न कर्या ॥३॥
मुनिए जोयुं के देवहूति ‘‘मारी दुर्लभ कामनाने पण दैवथी पण मोटा मारा पति पूर्ण करशे’’ एवी आशाथी बहु अनुकूळ वर्तन दाखवतां हता ॥४॥
लाम्बो काळ वही जवा साथे क्षुधा, तृषा तथा व्रतना आचरणथी देवहूति दुर्बल देहवाळां थई गयां हता. एमने एवां जोई मुनिने कृपा उत्पन्न थई तेथी दुःखित थईने प्रेमपूर्वक कर्दम मुनि गद्गद वाणीथी देवहूतिने कहेवा लाग्या ॥५॥
कर्दम बोल्या - हे मनुनी पुत्री! तें मने मान आप्युं एनाथी हुं तारी उपर प्रसन्न थयो छुं. तारी परम सेवा अने उत्तम प्रेमे मने सन्तुष्ट कर्यो छे. माणस मात्रने पोतानो देह सर्वथी प्रिय होय छे. एवा देहने ते मारेमाटे क्षीण कर्यो पण एनी दरकार करी नहि ए जाणी हुं प्रसन्न थयो छुम् ॥६॥
तप, समाधि, विद्या अने आत्मयोगवडे में भगवाननी कृपा जीतेली छे. भगवाने प्रसन्न थई मने ए बधी सिद्धिओ आपी छे ते में मेळवी लीधी छे. ते मारी सेवा करी तेथी भय अने शोकरहित ए सर्व प्रसादरूप सिद्धिओ तने पण प्राप्त थाओ. हुं तने जे आ अदेय सिद्धिओ आपुं छुं ते ग्रहण कर एटलुं ज नहि पण साथे-साथे एने जोवानुं सामर्थ्य पण जे हुं आपुं छुं ते तुं जो. पृथ्वीनुं राज्य के३२४ अध्याय-२३, तृतीयस्कन्ध स्वर्गादिनी प्राप्ति थाय एने तुं फळरूप मानीश नहि, कारण के ए तो भगवाननी भ्रुकुटीना विलास मात्रथी नाश पामे छे. तुं हवे सिद्ध थई गई छे. विकारयुक्त थई अभिमानी राजाओ पण जे सिद्धिओ मेळवी शकता नथी तेवी सिद्धिओ तुं भोगव ए सिद्धओ भोगथी पण क्षीण न थाय तेवी छे ए तारा पातिव्रत्य वगेरेना धर्मने पण वधारनार छे ॥७-८॥
मैत्रेय बोल्या - समग्र योगमाया अने विद्यामां विचक्षण कर्दमने ए प्रमाणे बोलता जोईने देवहूतिना मननी पीडा शान्त थई गई. कांईक लज्जा अने मन्द हास्यवाळा मुखवडे विनय अने प्रेमथी घेली बनी देवहूति कहेवा लागी ॥९॥
देवहूति बोल्यां - हे उत्तम द्विज! विभो, आप अमोध योगमायाना अधिपति होवाथी, अहो! आ सिद्ध थएलुं छे ए हे स्वामिन! हुं जाणुं छुं. आपे जे प्रमाणे शरत करेली ते प्रमाणे एकवार अङ्गसङ्ग थाओ, कारण के ते ज पतिव्रताओना गुणोनो प्रसव छे ॥१०॥
तेथी आगामी समागममां जे कर्तव्य होय ते शास्त्र प्रमाणे जाणी लो. आपनी साथे रमणनी इच्छा करतां-करतां मारो देह अत्यन्त कृश थयो छे; जेनावडे ए रमणने लायक थाय अने आपने उदेशीने वधेला कामे मारो पराभव कर्यो छे ते पराभवने दूर करवाने हे ईश! आनेमाटे एक योग्य भवन पण जोईए तेनो पण विचार करी लो ॥११॥
मैत्रेये कह्युं - हे विदुर! प्रियानुं प्रिय करवामाटे इच्छा प्रमाणे ऊडतुं विमान मुनिए ए ज वखते योगप्रभावथी प्रकट कर्यु ॥१२॥
एमां बधी जातनी कामना पूर्ण करवानां साधन हतां. ए दिव्य अने सर्व रत्नयुक्त हतुं. एमां सर्व समृद्धिनी सीमा जोवामां आवती हती. अन्दर मणिना स्तम्भनी शोभा जोवा लायक हती ॥१३॥
सजावट बधी दिव्य हती. बधा समयमां सुख आपनार विविध प्रकारनी ध्वजा पताकाओथी ए शणगारेलुं हतुम् ॥१४॥
फूलनी माळाओमां भमरा गुञ्जारव करी रह्या हता. अनेक प्रकारनां कीमती बारीक सुतराउ अने रेशमी वस्त्रोथी ए सुशोभित हतुम् ॥१५॥
उपराउपरी एने अनेक माळ हता. ए बधामां सुन्दर पलङ्गो, पङ्खाओ अने आसनो वगेरे भोगनी वस्तुओ ज्यां जोईए त्यां गोठवेली हती ॥१६॥एमां अत्यन्त कारीगीरीवाळुं कोतरकाम जोवामां आवतुं हतुं. कोईक ठेकाणे मरकत मणिनां स्थळ हतां तो कोई ठेकाणे प्रवाळनी वेदीओ जोवामां आवती हती ॥१७॥
उम्बरामां प्रवाळ अने हीरानां कमाड हतां अने एनी उपरना भागमां इन्द्रनील मणिनां शिखरो उपर सोनाना कळश आवेला हता ॥१८॥
र्भीतो तेजस्वी पद्मराग मणिओ अने हीरा मोतीनी बनावेली हती. विचित्र चन्दरवा बान्धेला हता. सोनानां हार अने तोरण लटकी रह्यां हताम् ॥१९॥
ज्यां जुओ त्यां हंस पारेवां वगेरे पक्षीओ जाणे मणिनां बनावेलां होय तेम त्यां कूजन करी रह्या हतां, तो केटलाङ्क मणिनां बनावेलां कृत्रिम पक्षीओ साचा जेवां देखातां हताम् ॥२०॥
विहारनां स्थान, विश्राम स्थान, बेठक, आङ्गणां, चोक वगेरे एवां अवर्णनीय हतां के जेने जोईने खुद कर्दमजी पण विस्मित जेवा थई गया ॥२१॥
देवहूतिए आ भवन जोयुं छतां एनुं मन अति प्रसन्न न थयुं, त्यारे सर्व प्राणीना अभिप्रायने जाणनार मुनि बोल्याःहे भीरु! आ जळाशयमां डूबकी मारी आ विमान उपर चडी आवो. आ भगवाननुं बनावेलुं तीर्थ छे ते मनुष्यना मनोरथने पूर्ण करशे ॥२२-२३॥
कमलना जेवा नेत्रोवाळी देवहूतिए पोताना पतिनी वात मानी सरस्वतीना पवित्र जलथी भरेला ते सरोवरमां प्रवेश कर्यो. ए वखते तेणे घणी ज मेली साडी पहेरी हती; माथानां वाळ चोटी जवाथी गुञ्चवाई गया हता, शरीर उपर मेल जाम्यो हतो अने स्तनो शोभा रहित हताम् ॥२४-२५॥
जळमां प्रवेश करतां ज एमणे त्यां किशोर वयवाळी तथा कमळना सरखी सुगन्धवाळी एक हजार कन्या जोई ॥२६॥
देवहूतिने जोईने ए स्त्रीओ एनी पासे आवी अने हाथ जोडीने कहेवा लागी के अमे आपनी दासीओ छीए. आपनी आज्ञा होय ते कहो. अमे शुं करीए?॥२७॥
प्रथम तो ए किशोरीओए देवहूतिने नहावाना कीमती द्रव्योथी स्नान कराव्युं अने पछी एने बे दुकूल वस्त्र आप्यान्तथा श्रेष्ठ अने अमूल्य आभरणो आप्यां. एटलुञ्ज नहि सर्व रस-वाळुं अन्न अने स्वादिष्ट अने मादक पेय पण हाजरकर्युं ॥२८-२९॥
[[३२५]] एणे दर्पणमां जोयुं तो पोतानो देह शुद्ध वस्त्रो अने सुन्दर माळाथी अलङ्कृत थयो हतो. कन्याओए देहने शुद्ध करी मङ्गळ कर्युं अने बहु मान आप्युम् ॥३०॥
एणे माथे स्नान कर्या पछी सर्व आभरण धारण कर्या, कण्ठमां घरेणां पहेर्या तथा पगमां सोनानां नूपूर धर्या. ॥३१॥
एणे नितम्ब उपर सोनानो कन्दोरो पहेर्यो हतो जेमां अनेक रत्नो जडेलां हतां. कण्ठमां धारण करेला हारोमां मोटां-मोटां पदकोनी शोभा हती ॥३२॥
एना दान्त सुन्दर हतां, भ्रमरो सुन्दर हती, कटाक्षयुक्त स्निग्ध अने श्लक्ष्ण अपाङ्गथी पद्मना कोश जेवां नेत्र हतां; आम एनुं आखुं मुख सुन्दर हतुम् ॥३३॥
देवहूतिए मुनिओमां श्रेष्ठ एवा पोताना पति कर्दमने सम्भार्या के तरत ज एमने त्यां हाजर थयेला जोया अने स्त्रीओने पण त्यां ज जोई ॥३४॥
पोताना पतिनी साथे हजार दासीओ तथा आवी समृद्धि जोईने देवहूतिने प्रथम तो मोटुं आश्चर्य जेवुं लाग्युम् ॥३५॥
स्नानथी जेनुं शरीर अत्यन्त निर्मल थई गयुं छे तेवीदेवहूति पहेलां करतां जुदीज रीते शोभवा लागी. मनोहर स्तनोने चोलीमां ढाङ्केलां राखती ए उत्तम सौदर्ययुक्त दीपी रही हती ॥३६॥
सुन्दर वस्त्रवाळी एक हजार विधाधरी जेनी सेवामां हाजर हती. तेवी देवहूतिने जोईने मुनिने पण काम उत्पन्न थयो अने हे अमित्रहन तेमणे देवहूतिने विमानमां बेसाडी ॥३७॥
ए वखते पोतानी प्रियामां आसक्त होवा छतां कर्दमजीनो महिमा मन अने इन्द्रियो उपरनो काबू जेवो ने तेवो ज हतो. जाणे आकाशमां ताराओथी र्वीटायेलो अने नीचे विकसित कुमुदगणथी र्वीटायेलो चन्द्र शोभी रहे तेम विधाधरीओए जेमना शरीरने संस्कार कर्यो छे तेवा कमनीय कर्दम शोभवा लाग्या ॥३८॥
ए विमानमां निवास करी तेमणे लाम्बा समय सुधी कुबेरजीनी माफक मेरु पर्वतनी गुफाओमां विहार कर्यो. ए गुफाओ आठ लोकपालोनी विहारभूमि छे. एमां काम उत्तेजित करनार शीतल, मन्द अने सुगन्धी वायु वाय छे. अने तेनी कमनीय शोभामां वधारो करे छे, तथा श्रीगङ्गाजीना स्वर्गमान्थी पडवानो मङ्गलमय अवाज निरन्तर गुञ्जतो रहे छे. ते वखते पण विधाधरीओनुं वृन्द एमनी सेवामां हाजर हतुं अने सिद्ध पुरुषो तेमने वन्दन करी रह्या हता ॥३९॥
[[३२६]] वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र, मानस अने चैत्ररथ्य एवां लोकपाळने विहार करवानां छ स्थान छे तेमां रमाए रमण करावेला मुनिए रमण कर्युम् ॥४०॥
एमनुं विमान मोटुं देदीप्यमान अने इच्छा प्रमाणे गति करनारुं हतुं. एमां बेसीने ए मुनि वायुनी पेठे बधा लोकोमां विहार करता बीजा विमानविहारी देवताओथी आगळ नीकळी गया ॥४१॥
तीर्थो जेमनां चरणमां छे एवा भगवानना सर्व दुःखोनो नाश करनार चरणनो आश्रम जेमणे कर्यो छे. तेवा बन्धनरहित पुरुषोने माटे न प्राप्त थई शके तेवुं छे शुं? ॥४२॥
समग्र भूमण्डल उपर फरीने ज्यां जे वस्तु छे त्यां जई ते वस्तु बतावीने मुनि पोताना स्थाने पाछा आव्या ॥४३॥
पछी एमणे पोताने नव रूपमां विभक्त करी रतिसुखने माटे अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूतिने आनन्द आपता एनी साथे घणां वर्षो सुधी विहार कर्यो पण एटलो लाम्बो समय लाग्यो एक मुहूर्त जेटलो ज ॥४४॥
ते सुन्दर विमानमां पतिना सङ्गमां प्रीति करनारी एने सुन्दर शय्यामां रमण करतां-करतां केटलोय समय गायो छतां देवहूतिने एनी खबर पण न पडी ॥४५॥
एवी रीते योगना अनुभवथी विहार करतां पति-पत्नीने कामनी लालसामां सो वर्ष आङ्खना पलकारानी जेम चाल्यां गयाम् ॥४६॥
सर्वना सङ्कल्पने जाणनार, समर्थ आत्मवेत्ताए पोताना रूपना नव विभाग कर्या अने पोते पोतानी मेळे तेनुं चिन्तन करतां तेनामां वीर्यनुं स्थापन कर्यु ॥४७॥
तत्काळ देवहूतिने बधी स्त्री प्रजा थई. बधी कन्याओ सुन्दर अवयववाळी तथा लाल कमळना जेवी सुगन्धवाळी थई ॥४८॥
साऽहं भगवतो नूनं वचिन्ता मायया दृढम् । यत्त्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात ॥५७॥
समय पूरो थतां कर्दम गृहत्याग करी बहार नीकळवाने तैयार थया त्यारे हृदयमां दुःख थतुं होवा छतां उपर-उपरथी हसीने सती नीचुं मुख करीने पगना नखथी जाणे पृथ्वीने खणतां होय तेम आङ्खमां आंसु आवता रोकीने सुन्दर वाणीवडे कहेवा लाग्यां - देवहूतिए कह्युं - ‘‘लग्न वखते आपे जे शरतो करेली ते बधी पूरी करी छे, तो पण हुं आपने शरणे आवेली छुं तो आपे मने अभयनुं दान करवुं [[३२७]] उचित छे. हे ब्रह्मन्! तमारी आ पुत्रीओने माटे तमारे तेमने लायक जमाईनी शोध करवी घटे छे, पछी आप सन्न्यास ग्रहण करो त्यारे मारो शोक दूर करनार कोईक हो. (अर्थात् एक पुत्र आपता जाओ) हे प्रभो! आटलो काळ चाल्यो गयो ए पण इन्द्रियोना प्रसङ्गमां व्यर्थ ज गयो, कारण के तेमां कांई भगवत्सम्बन्धी तो थयुं नहि. इन्द्रियोना विषयोमां आसक्त थईने में आपनो घणो सङ्ग कर्यो छे, परन्तु आपनो उत्कृष्ट भाव में जाण्यो नहि. तो पण आपनो ए सङ्ग मने अभयने माटे थाय एवी कृपा करो. (जेम स्वादिष्ट भोगमाटे खाधेली साकर कोई नसीबदारने माटे औषधि रूप काम आपी जाय तेम) सङ्ग जो दुष्टपुरुषो साथे अज्ञानथी थाय तो ए संसारजनक छे; ए ज सङ्ग सत्पुरुषमां थाय तो ए निःसङ्ग (भगवद्गामी) थई जाय छे. जे कर्म धर्म के वैराग्य उत्पन्न करनार न थाय तथा भगवाननी सेवारूप जे कर्म न थाय तेवा कर्मनो करनारो जीवतां मूओ छे एम समजवुं. हुं खरेखर (आप) भगवाननी मायाथी छेतराई छुं. में मुक्तिने आपनार आपनी सेवा करी पण हुं बन्धनथी मुक्त न थई ॥४९-५७॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (तत्त्वमुक्ति प्रकरणनो चोथो) ‘‘कर्दमे योगप्रभावथी विमान तैयार कर्युं तेमां दम्पतिना गार्हस्थ्यनुं वर्णन’’ नामनो त्रेवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दक्षिणा स्वीकारीने, फण्ड-फाळा माटे के मृतकना उद्धार अर्थे योजाती भागवतकथाना आयोजननी गुरुए आज्ञा आपवी के तेमां हाजरी आपवी ते श्रीमहाप्रभुजीनो द्रोह छे, पाप छे.
अध्याय २४
कपिलदेवजीनुं प्राकट्य अने कर्दमनुं वनमां जवुं
विशेष - आ अध्यायमां मोक्ष अने बुद्धिनुं वर्णन आवे छेःकर्दमनो मोक्ष. भगवाननी बुद्धिरूप
कपिलदेवनुं प्राकट्य, कपिलनो उपदेश अने ए प्रमाणे कर्दमनुं भगवद्भजन. ब्राह्मणने जन्म
लेतां देव, पितृ अने मनुष्य एम त्रण जातनां ऋण थाय छे. ए त्रिविध ऋणमान्थी छूटवाने
मुक्तिमाटे वनप्रवेश करे छे.
[[३२८]]
ईं उं
ईं उन्निर्वेदवादिनीमेवं मनोदुहितरं मुनिः ॥
दयालुः शालिनीमाह शुक्लाभिव्याहृतं स्मरन् ॥१॥
मैत्रेय बोल्यां - मनुपुत्री देवहूति एवी रीते वैराग्ययुक्त वाणी बोलवा लाग्यां त्यारे दयाळु कर्दम मुनि भगवाननुं कहेलुं याद करी ए नम्र देवहूतिने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१॥
ऋषिए कह्युं - ‘‘हे निन्दा रहित राजपुत्री! तुं खेद न कर, अक्षर भगवान् तारा गर्भमां तुरतमां ज पधारशे; तेथी आज पर्यन्त विलास कर्यो तेनो खेद करवानी जरूर नथी ॥२॥
तारुं कल्याण थाओ, तारा व्रतधारणमां इन्द्रिसंयम तथा नियमनुं पण पालन करवामां आव्युं छे तेथी हवे तुं तप, दान अने द्रव्यवडे ईश्वरने भज. जो तुं एमनुं आराधन करीश तो ए निर्दोषपूर्ण कपिलदेवजी मारा यशने वधारशे अने तारा उदरमान्थी प्रकट थशे अने तारा हृदयमां बन्धायेली अहन्ता-ममतानी ग्रन्थिने कापी नाङ्खशे केमके ए पोते ब्रह्मनो अनुभव करनार अने करावनार छे’’ ॥३-४॥
मैत्रेय बोल्या - प्रजापति कर्दमनो आ सन्देश अति आदरपूर्वक तेमज विश्वासपूर्वक साम्भळीने सर्वना मूळरूप अन्तर्यामी गुरु, भगवाननुं देवहूति भजन करवा लाग्याम् ॥५॥
घणो काळ जतां जेम लाकडामान्थी अग्नि प्रकटे तेम कर्दमना वीर्यद्वारा मधुसूदन भगवान् कपिलरूपे प्रकट्या ॥६॥
ए समये गाढ मेघ वाजिन्त्रना जेवा शब्द करवा लाग्या, गानवडे गन्धर्वो अने नृत्य करती अप्सराओ आनन्दपूर्वक कपिलने प्रसन्न करवा लाग्याम् ॥७॥
आकाशमान्थी देवोए पुष्पनी वृष्टि करी. दिशाओ, जळाशयो अने मनुष्यनां मन प्रसन्न थयाम् ॥८॥
कर्दमनो आश्रम सरस्वतीना तीर उपर हतो त्यां ऋषिगणने लईने ब्रह्माजी, मरीचि वगेरे साथे आवी पहोच्याम् ॥९॥
तत्त्वसङ्ख्याने कहेवाने माटे परब्रह्म सत्त्वांशथी प्रकट थया छे ए वात ब्रह्माजी पोते स्वराट् होवाथी जाणीने त्यां भगवद्दर्शनमाटे आव्या ॥१०॥
ब्रह्माजीए प्रथम तो कर्दमे जे कांई कर्युं तेने अनुमोदन आपी तेनो आदर कर्यो. पछी शुद्ध चित्तवाळा कर्दमने जोईने सर्व इन्द्रियोथी प्रसन्नता प्रकट करता पिता [[३२९]] ब्रह्माजी आ प्रकारे कहेवा लाग्या ॥११॥
ब्रह्माजीए कह्युं - हे मान आपनार! तें मारी सेवा निष्कपट भावथी करी. में ‘‘प्रजा उत्पन्न कर’’ एवी आज्ञा करेली ते वाक्यने ते सम्पूर्ण मान आप्युं ए ज मारी सेवा छे एम हुं जाणुं छुम् ॥१२॥
पुत्रोए पितानी सेवा तमे करी तेवी ज करवी जोईए. पिताना वचनने आदरपूर्वक ‘‘आपना कह्या प्रमाणे हुं करीश’’ एम निष्कपट भावथी कहेवुं ए ज सेवा कहेवाय ॥१३॥
हे सभ्य! सुन्दर कटिवाळी आ तारी पुत्रीओ पोताना प्रभाववडे आ सृष्टिने अनेक प्रकारे वधारशे ॥१४॥
माटे जेवुं जेनुं शील होय तेवी रीते तुं आ तारी पुत्रीओ आ ऋषिओने आप अने पृथ्वी उपर तारा यशनो विस्तार कर ॥१५॥
आदि पुरुष भगवान् पोतानी मायावडे लोकना निधिरूप देहने धारण करी कपिलदेवरूपे तारे त्यां पधार्या छे ए मारा जाणवामां आव्युं छे ॥१६॥
हे मनुनी पुत्री! सोना जेवा केशवाळा, कमळ सरखां नेत्रवाळा, चरणमां पद्मनुं चिह्न धारण करनार, कैटभ दैत्यने मारनार, ज्ञान अने विज्ञानवडे कर्मनां मूळोने उखेडनार तारा गर्भमां पधार्या छे. ते तारी अविद्यारूपी गाण्ठने कापीने पृथ्वीउपर विचरशे ॥१७-१८॥
सिद्ध लोकोना अधीश्वर अने साङ्ख्याचार्योथी स्तुति करायेला भगवान् जे तारा गर्भमां पधार्या छे ते लोकमां नकपिलथ एवुं नाम राखशे अने तारी कीर्तिने वधारशे ॥१९॥
मैत्रेये कह्युं - क्षीरनीरना विवेकवाळा हंसरूप ब्रह्मा कर्दम अने देवहूतिने आ प्रमाणे आश्वासन आपी सनकादि तथा नारदनी साथे हंस वाहन उपर बेसी पोताना धाम सत्यलोकमां पधार्या ॥२०॥
हे विदुर! ज्यारे ब्रह्मा एम कहीने पोताना धाममां पधार्या त्यारे ते प्रमाणे कर्दमे एक-एक प्रजापतिने एक-एक पुत्री परणावी ॥२१॥
मरीचिने कला, अत्रिने अनसूया, अगिंराने श्रद्धा, पुलस्त्यने हविर्भू, पुलहने गति, क्रतुने सती क्रिया (ए क्रिया सती छे, असती नहि माटे सती कही छे), भृगुने ख्याति अने वसिष्ठने अरुन्धती आपी ॥२२-२३॥
[[३३०]] अथर्वाने शान्ति नामनी कन्या आपी, जेनावडे यज्ञनो विस्तार थाय छे. तेवा श्रेष्ठ ब्राह्मणो साथे, विवाह करी ए जमाईओनो कर्दमे बने तेटलो सारी रीते सत्कार कर्यो ॥२४॥
हे विदुर! पछी स्त्री परिग्रहवाळा ए मुनिओ कर्दमनी रजा लई आनन्द करता पोतपोताना आश्रम तरफ स्त्रीओनी साथे रवाना थया ॥२५॥
ज्यारे देवमां उत्तम अने ज्ञानावताररूप कपिल प्रकट थया त्यारे एकान्तमां एमना दर्शन करी कर्दम आ प्रमाणे बोल्या ॥२६॥
कर्दम बोल्या - पोतानां पापकर्मोवडे नरकमां रन्धाता माणसोने घणा काळे देवता खरेखर प्रसन्न थाय छे ॥२७॥
पण जेना स्वरूपने योगिजन अनेक जन्मोना साधनथी सिद्ध सुदृढ समाधिद्वारा
एकान्तमां जोवानो मात्र प्रयत्न करे छे, (पण जोई शकता नथी.) पोताना भक्तोनी
रक्षा करवा वाळा ए ज श्रीहरि अम विषय-लोलुप पुरुषोद्वारा थनारी पोतानी
अवज्ञानो कंई पण विचार कर्या विना आज अमारा घरोमां प्रकट थया छे ॥२८-
२९॥
पोतानुं वचन पाळवामाटे आप मारा घरमां पधार्या छो. भक्तनुं मान वधारवाने तथा भक्तोने ज्ञाननो प्रचार करवानी इच्छाथी आप प्रकट्या छो एम हुं मानुं छुं ॥३०॥
जो के आप प्राकृतरूप विनाना छो तो पण जे-जे रूप आपने रुचतुं होय अने जे-जे रूप भक्तने इच्छित होय ते चतुर्भुज वगेरे रूपने आप धारण करो छो, जेनुं वर्णन वेदमां करेलुं छे ॥३१॥
विद्वान् पुरुषो तत्त्वज्ञान प्राप्त करवानी इच्छाथी आपना चरणना आसनने सदा नमन कर्या करे छे. आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य अने लक्ष्मी ए छ भगथी पूर्ण छो. हुं आपने शरणे छुं. अक्षर, प्रकृति, तेना अधिष्ठाता पुरुष, महत्तत्त्व, काळ, महत्तत्त्वना अभिमानी ब्रह्मा, अहङ्कार, बधा देवो तथा पोताना ज्ञानथी जेमनामां प्रपञ्चनी उत्पत्ति थयेली छे तेवा स्वच्छन्द शक्तिवाळा आपने हुं वन्दन करुं छुं. आप प्रपञ्चरूप अने प्रपञ्चरहित स्वरूपवाळा छो ॥३२-३३॥
आपनी कृपाथी हुं त्रणेय ऋणोथी मुक्त थई गयो छुंअने मारा बधा मनोरथ पूर्ण थई गया छे. हवे हुं सन्न्यास स्वीकारी आपनुं स्मरण करतो शोक रहित थई [[३३१]] फरीश. आप समस्त प्रजाओना पति छो. तेथी एमाटे आपनी अनुज्ञा मागुञ्छुं ॥३४॥
श्रीभगवान् बोल्या - हे सत्य! लोकमां कहेलुं लोकने प्रमाण गणाय छे. हे मुनि! में तमने जे वात करी हती के हुं तमारे त्यां प्रकट थईश ते प्रमाणे हुं तमारे त्यां प्रकट थयोछुम् ॥३५॥
मोक्षनी इच्छावाळाओ माटे दुष्ट देहनो सम्बन्ध छोडाववाने, तत्त्वनी सङ्ख्या गणाववाने अने आत्मानुं योग्य दर्शन कराववाने हुं प्रकट थयो छुं एम समजो ॥३६॥
आत्मानो आ मार्ग घणा काळे करीने क्षीण थतो-थतो हालमां नाश थवा पाम्यो छे तेने पाछो प्रचलित करवाने माटे में आ शरीरनो स्वीकार कर्यो छे एम तमे जाणो ॥३७॥
तमने जवानी मारी आज्ञा छे. बधां कर्म मारामां अर्पण करशो तो कोईथीन जीताय तेवामृत्युने जीतशो. परमानन्दनी प्राप्तिमाटे मारुं भजन करो ॥३८॥
हुं सर्वनो आत्मा छुं, स्वयम्प्रकाश छुं एवा मने जो तमे सर्वमां जोशो तथा तमारा पोताना स्वरूपमां तमारी मेळे ज सर्वने जोशो तो शोकरहित थईने मोक्षने पामशो ॥३९॥
मारी माताने सर्व कर्मने शान्त करनारी आत्मविद्यानुं हुं दान करीश; एनावडे मारी माता भय अने शोकने तरी जई मोक्ष पामशे ॥४०॥
मैत्रेय बोल्या - अहो! प्रजापति कर्दमने कपिले सारी रीते ज्यारे ए प्रकारे कह्युं त्यारे कपिलनी रजा लई तथा एमनी प्रदक्षिणा करीने प्रसन्नताथी कर्दम वनमां गया ॥४१॥
त्यां एमणे मौनव्रत धारण कर्युं अने एक आत्माने ज रक्षक तरीके मानी अग्नि अने घरनो त्याग करी सङ्ग छोडी पृथ्वीमां पर्यटन करवा लाग्या ॥४२॥
(अग्निनो स्पर्श थयेलो पदार्थ खाता नहि अने कोई पण घरमां प्रवेश करता नहि) कार्य कारणथी पर एवा ब्रह्ममां एमणे पोताना मननो योग कर्यो अने जेनाथी गुणोनो आभास थाय छे छतां जे गुणरहित छे तेवा ब्रह्ममां एकान्त भक्तिवडे मनने एकाग्र कर्यु ॥४३॥
आत्मामां दृष्टि परोवी अहन्ता-ममता छोडी दीधी अने सुख-दुःख वगेरे
[[३३२]] द्वन्द्वोने त्यजी दई, तरङ्गो शान्त थतां जेमसमुद्र जणाय तेम ए धीर अने शान्त
थई अन्तर्दृष्टिवाळाथया ॥४४॥
एमणे सर्वज्ञ अने अन्तर्दृष्टिथी देखाता वासुदेव भगवान्मां परम भक्तिभाववडे पोताना आत्माने जोड्यो तेथी तेओ बधां बन्धनथी मुक्त थई गया ॥४५॥
पछी तेओ आत्मरूप भगवान् सर्व भूतमां रह्या छे तेमज सर्वभूत भगवद्रूप पोताना आत्मामां रहेलां छे एम जोवा लाग्या ॥४६॥
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा ॥ भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः ॥४७॥
एमणे इच्छा अने द्वेषने छोडी दीधां अने सर्वत्र समान चित्तवृत्ति करी दीधी अने प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त करी ए भगवद्गतिने पाम्या ॥४७॥
इति श्रीभागवत् तृतीय स्कन्धमां (तत्त्वमुक्तिप्रकरणनो पाञ्चमो) ‘‘कपिलदेवजीनुं प्राकट्य अने कर्दमनुं वनमां जवुं’’* नामनो चोवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अर्ही पुम्मुक्ति-ए अवान्तर प्रकरण ४अध्यायमां पूर्ण थाय छे. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धोबनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा लायक पण न गणाय. सातमुं कालसृष्टि प्रकरण
अध्याय २५
कपिलमुनिए देवहूतिने कहेलो भक्तियोग
विशेष - छेल्ला चार अध्यायमां कपिलदेवना प्राकट्यनी वात प्रसङ्ग साथे कहेवामां आवी. आ
१ अध्याय ‘सफलामुक्ति’ बतावे छे. हवे पछी नव अध्यायथी भगवाननुं ज्ञानरूप चरित्र
[[३३३]]
ईं उं
ईं उङ्कहेवामां आवशे. आ बधा प्रकार सगुण होवाथी त्रण गुण परस्पर मिश्र थतां एना नव भेद
थाय छे. जो आ नव प्रकारनुं ज्ञान थाय तो आगळ जतां एनो मोक्ष थाय. भगवद्रूपने सिद्ध
करवामां भक्तिनी मुख्यता छे. एमां भूतो, विषयो अने तत्त्वो नो भोग भगवान् हरि होवाथी
पोते ज करे छे. ए भगवान् इन्द्रियोवडे भोग करे पण एने तो आत्मा ज इन्द्रियरूप छे; ए
आत्मावडे ज बधुं जोई शके छे. ‘‘पश्यन् चक्षुः शृण्वन् श्रोत्रम्’’ ए श्रुति पण ए
वातनो स्वीकार करे छे. योग ए ज भगवाननी बुद्धि छे. बुद्धिवडे बधुं प्रकाशित थाय छे. आ
पच्चीसमा अध्यायमां भक्तियोग कहेवानो छे. ए भक्तिमां वितृष्णा ए मुख्य अङ्ग छे. तेथी
एना आत्मानुं विविक्त ज्ञान अने निवृत्ततृष्णता ए बेनी मुख्यता अङ्गपणाए छे. भक्ति
परम साधनरूपा छे. शास्त्रने उल्लङ्घन न करतां भक्त भक्ति करे तो ज ए मुक्तिमां साधक छे
तेथी ज्ञाननी वात न करतां मनुना वंशनो ज प्रथम प्रश्न करवामां आव्यो छे. शौनकना आ
प्रश्नथी मनुवंशना चरित्रनो बोध थाय छे.
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता भगवान् स्वात्ममायया ॥
जातः स्वयमजः साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥१॥
शौनक बोल्या - तत्त्व सङ्ख्या कहेनार भगवान् कपिलदेवजी अजन्मा छतां पोतानी आत्ममायावडे आत्मज्ञानने प्रसिद्ध करवानी इच्छाथी साक्षात् प्रकट थया ॥१॥
पुरुषोमां श्रेष्ठ योगीओने वरवा लायक, कीर्तिप्रिय एवाकपिल-मुनिना यशने साम्भळतां मारा प्राण पूरेपूरा तृप्त थता नथी ॥२॥
भक्तोनी इच्छाने अनुसरवाना स्वभाववाळा भगवान् आत्ममायावडे जे-जे करे छे ते बधी लीला कीर्तन करवा योग्य होय छे, जेमां हुं श्रद्धावाळो छुं. तेथी ए बधी लीला आप मने कहो ॥३॥
सूतजी बोल्या - विदुरे ज््यारे वेदव्यासना मित्र भगवान् मैत्रेयने आत्मविद्या विषे प्रश्न पूछ्यो त्यारे तेओ विदुरजीनी उपर प्रसन्न थईने आ प्रकारे कहेवा लाग्या ॥४॥
मैत्रेय बोल्या ःज््यारे कर्दम वनमां चाल्या गया त्यारे कपिलदेवजी माताजीने प्रसन्न करवा त्यां बिन्दुसरोवर उपर रह्या ॥५॥
पोताना पुत्र कपिल कोई पण कर्ममां रोकायेला न होवाथी तत्त्वोना समूहना
निर्णयना ज्ञानवाळा, बेठेला जोईने देवहूतिजीए ब्रह्माना वचननुं स्मरण करी कह्युं.
[[३३४]] देवहूति बोल्या - हे भूमन्! हुं दुष्ट इन्द्रियोने अत्यन्त तृप्त करवाथी कण्टाळी
गई छुं. हे प्रभो! इन्द्रियोने निरन्तर पूर्ण करवाथी महामोहमां पडी गई छुम् ॥६-
७॥
ए महामोहने छेडो नथी, परन्तु एनो अन्त लावी शके तेवा आपनो मारी उपर अनुग्रह थयो तेथी घणा जन्मने अन्ते आप मने हमणां प्राप्त थया छो ॥८॥
ब्रह्मादिमां पण आप ज आदि छो. पुरुषोना आप ईश्वर छो. अज्ञानथी आन्धळा बनेला लोकोने माटे आप सूर्यनी समान नेत्ररूप छो ॥९॥
माटे हे देव! मारा वधेला मोहने दूर करवाने आप योग्य छो. आपज आ शरीरमां अने एना परिकरमां नहुन्थ-स्त्रमारुन्थ एवो आग्रह करावनार छो ॥१०॥
आप आपना भक्तोना संसाररूप वृक्षमाटे कुहाडा समान छो. हुं प्रकृति अने पुरुषनुं ज्ञान प्राप्त करवानी इच्छाथीआप शरणागतवत्सलना शरणमां आवी छुं. आप भागवत् धर्म जाणवा वाळाओमां बधाथी श्रेष्ठ छो, हुं आपने प्रणाम करुं छुं ॥११॥
मैत्रेये कह्युं - आ प्रमाणे माता देवहूतिए पोतानी जे इच्छा जणावी ते परम पवित्र अने लोकोनो मुक्ति मार्गमां प्रेम वधारनारी हती. ए साम्भळीने आत्मज्ञ सत्पुरुषोनी गति श्रीकपिलजी एमनी मनमां ने मनमां प्रशंसा करवा लाग्या अने मृदु हास्यथी सुशोभित मुखारविन्दथी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥१२॥
श्रीभगवाने कह्युं - ज््यां दुःख अने सुखनो अत्यन्त नाश थाय छे तेवो आध्यात्मिक* योग पुरुषनुं श्रेय करनार छे एवो मारो मत छे ॥१३॥
विशेष - योगशास्त्रमां योगना अनेक भेद छे तेमां जे भगवाननो साक्षात्कार करावे ए योग आधिदैविक; जे पोताना आत्मानो साक्षात् अनुभव करावे ते आध्यात्मिक योग अने जे अणिमादि सिद्धिओ, शरीर अने प्राणने सिद्ध करावे ते योग आधिभौतिक; एम स्थूल रीते त्रण विभाग थाय छे. एमां प्रथम जे भगवत्साक्षात्कार योग ते जुदो छे. अर्ही तो आध्यात्मिक योग मुख्य कहेवानो छे. जे आत्मानुं रूप प्रकृतिथी जुदुं जाणे ते आत्मसाक्षात्कार के आध्यात्मिक योगना अधिकारी छे. ए योगथी तेओने आत्मसाक्षात्कार थाय छे. में प्रथम योगश्रवणनी इच्छावाळा ऋषिओने अनेक अङ्गोथी ज जेमां निपुणता प्राप्त थाय छे ए योग कह्यो हतो ते ज हुं तमने कहीश ॥१४॥
[[३३५]] जीवनां बन्धन अने मुक्तिमां खरेखर चित्त कारणभूत छे. ए चित्त जो विषयोमां आसक्त थाय तो जीवने बन्धन करे, जो भगवान्मां आसक्त थाय तो मुक्त करे ॥१५॥
ज््यारे मन ‘‘हुं अने मारुं’’ एवा अभिमानथी जागेला कामलोभादि मळोने छोडी दे छे त्यारे ज सुखदुःखनुं द्वन्द्व छोडी समानताने पामे छे ॥१६॥
त्यारे जीव ज्ञान, वैराग्य अने भक्तियुक्त हृदयथी आत्माने केवल (सङ्घातथी मुक्त), स्वभावनो नियन्ता, जीव अने ब्रह्मना विभाग शून्य, स्वयम्प्रकाश, अति सूक्ष्म, अखण्ड, उदासीन जुए छे अने प्रकृतिने शक्तिहीन अनुभव करे छे ॥१७-१८॥
योगी लोकोने ब्रह्मनी प्राप्तिमाटे भगवाननी भक्ति जेवो कल्याणकारी मार्ग नथी ॥१९॥
डाह्या पुरुष आसक्तिने न छेदी शकाय तेवुं बन्धन समजे छे. जो ए ज आसक्ति भगवद्भक्तोमां करवामां आवे तो एनाथी मोक्षनां द्वार खुल्लां थाय छे. (लोकमां स्नेह बन्धनकर्ता छे ते ज स्नेह भगवान्मां करे तो ए मुक्तिना कारणरूप बने छे) ॥२०॥
अपराध करे छतां एनी उपर दया करनार, सर्व प्राणीनुं यथाशक्ति हित करनार, कोई पण शत्रु वगरना, शान्तिरूप मोटा गुणवाळा, सदाचारवाळा, बीजाओने सुख थाय तेवा साधु आचरणवाळा, जेओ अनन्यभावथी मारी दृढ भक्ति करे, भगवत्सेवामाटे सर्व कर्मोने छोडनार, भगवान्माटे स्वजन, बन्धु वगेरेने छोडी देनार, भगवाननी उज्जवल कथाओ करनार तथा एवी कथा कहेनार मळे तो एनी पासेथी साम्भळनार भक्तोनुं चित्त मारामां रहेलुं होय छेतेथी संसारना अनेक तापो तेओने दुःख आपी शकतानथी ॥२३॥
हे साध्वी! आ उत्तम पुरुषो सङ्गदोषने मटाडनार होवाथी तारे तेओनो सङ्ग शोधवो कारण के तेओ काम वगेरे उत्पन्न करनार आसक्तिने दूर करनारा छे ॥२४॥
सत्पुरुषोनो सारी रीते सङ्ग थवाथी एने मारा प्रभावने प्रकाश करानारी, हृदय अने कर्णने आनन्ददायक कथानो लाभ थाय छे. एनाथी क्रमे-क्रमे मोक्षमार्गमां श्रद्धा, रति अने भक्ति थाय छे. (साम्भळतां श्रद्धा थाय, श्रद्धाथी वधारे साम्भळतां एमां रति थाय, रति वधतां स्नेह थाय. भक्तिनो क्रम आ छे) ॥२५॥
विषयो छूटी जाय तो पण वासनारूपे अन्तःकरणमां रहे छे. ज््यारे एनी
[[३३६]] उपर वैराग्य आवे त्यारे ज वासना निवृत्त थाय. जोयेला लौकिक राज््यादिक अने
साम्भळेला पारलौकिक स्वर्गादि इन्द्रियोना विषयोमां भक्तिथी जेने वैराग्य थयेल छे
तेवो पुरुष मारी अलौकिक रचनानां चिन्तनथी सावधान थई, भगवानना ध्यानरूपी
सरल (हठ, कलेश वगेरे रहित) उपायोथी समाहित थई मनना निग्रहमाटे यत्न
करशे ॥२६॥
प्रकृतिना गुणनुं सेवन छोडे, वैराग्य द्वारा ज्ञाननो विकास करे, योग करे, मारी भक्ति करे तो ए मने अन्तरात्माने अर्ही ज प्राप्त करे छे ॥२७॥
देवहूतिजी बोल्यां - जेनावडे हुं आपना निर्वाणधाम (व्यापि वैकुण्ठ)ने पामुं तेवी आपने प्रसन्न करनारी भक्ति केवी होय अने ए मारा अनुभवमां केम आवी शके ए आपकहो ॥२८॥
भगवान्रूपी लक्ष्यने र्वीधी शके तेवो बाणरूप योग आपे कह्यो ते केवो होय तेनां केटलां अङ्ग हशे, जेनाथी तत्त्वोनुं ज्ञान थई शके ॥२९॥
हे कपिल! हुं मन्द बुद्धिवाळी स्त्री छुं. आपना अनुग्रहथी हुं सुखथी आ न जाणी शकाय तेवुं हरिना सम्बन्धवाळुं जाणी शकुं एवी कृपा करो ॥३०॥
मैत्रेये कह्युं - मातानो अभिप्राय जाणी जे शरीरथी पोते प्रकट थया हता तेना उपर कपिलदेवजीने स्नेह थई आव्यो अने एओ तत्त्वोनी सङ्ख्यावाळुं ‘साङ्ख्यशास्त्र’ ‘भक्ति’ ‘योग’ अने ‘ज्ञान’ माताने उदेशीने कहेवा लाग्या ॥३१॥
जेमनाथी पदार्थोना गुण वगेरे जाणी शकाय तेवी दैवी सम्पत्तिवाळी अने
जेमनाथी वेदविहित कर्म करनार इन्द्रियो निर्गुण भगवान्मां स्वभाविक रीते बधा
करे तेवी मननी कुदरती निष्ठा ए ज भक्ति. जेम अग्नि खाधेला अन्ननुं पाचन करे
छे तेम अन्नमय वगेरे कोशोनो अथवा तो लिङ्ग देहनो ते भक्ति नाश करे छे ॥३२-
३३॥
केटलाक भक्तो मारी चरणसेवामां आसक्त थाय छे अनेमारी सेवामां तत्पर रहे छे. एवा भक्तो परस्पर मळीने मारा पराक्रमोनी चर्चा करे छे, मारा वखाण करे छे, स्तुति करेछे ॥३४॥
हे अम्ब! एवा पुरुषो मारा सुन्दर रूपने निहाळे छे एटलुं ज नहि पण सुन्दर मुकुट तथा लाल नेत्रयुक्त श्रीमुखवाळुं मारुं वरदरूप छे ते स्वरूपनी साथे मधझरती वाणीथी व्यवहार करे छे; जेम पोताना मित्रो परस्पर वार्तालाप करे छे तेम ॥३५॥
[[३३७]] भगवानना सोहामणा-लोभामणा अङ्ग-प्रत्यङ्ग, उदार विलास, हास तथा कटाक्षपूर्वक दर्शन, मनोहर वाणीवाळां स्वरूपोथी हरायेलां छे अन्तःकरण अने प्राणो जेमना तेओ न इच्छता होय छतां भक्ति तेओने मारुं सायुज्य प्राप्त करावे छे ॥३६॥
हुं छुं मायावी तेथी मारी प्रसिद्ध विभूति, आठ अङ्ग वाळां ऐश्वर्य, (भक्तिनी) पाछळ आवती सम्पत्ति, भगवाने करेली सम्पत्ति अथवा मोक्षरूप सम्पत्तिनी तेओ (एमां भोगववा जेवुं कंई छे ज नहि ए मृगजळ माया छे एम मानी) इच्छा न करे तो पण तेओने (उत्तम भक्तोने) मारा धाम व्यापि वैकुण्ठमां आवतां स्वयं प्राप्त थाय छे ॥३७॥
जेमनो एक मात्र हुं ज प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, बान्धव अने इष्टदेव छुं ते मारा ज आश्रममां रहेवावाळा भक्तजनो शान्तिमय वैकुण्ठधाममां पहोञ्ची कोईपण प्रकारथी आ दिव्य भोगोथी वचिन्त नथी होता तेमज तेमने मारुं कालचक्र स्पर्श करी शकतुं नथी ॥३८॥
जेओ आ लोक, परलोक, बन्ने लोकमां जनार चतुर्विध आत्मा अने शरीरनां सम्बन्धी लक्ष्मी, पशुओ, गृहो वगेरे बधान्नो त्याग करी (एटले बधाम्मान्थी स्नेह सङ्केली लई, जलकमलवत् निर्लेप रही, उदासीन रही) मने एकलाने ज अनन्य भावे भक्तिवडे भजे छे तेने हुं मृत्युथी पेले पार लई जाउं छुं. तेमनी मुक्तिय नहि अने मृत्युय नहि एवी सनकादि जेवी स्थिति थाय छे ॥३९-४०॥
हुं ज प्रकृति अने पुरुषनो नियामक छुं. हुं ज सर्व प्राणीओना आत्मारूप छुं. (मृत्युरूपी) तीव्र भय मारा सिवाय बीजा कोईथी निवृत्त थतो नथी ॥४१॥
जेना भयथी वायु वाय छे, जेना भयथी सूर्य तपे छे, इन्द्र वर्षे छे, अग्नि बाळे छे अने मृत्यु मारे छे ते हुं ज छुम् ॥४२॥
ज्ञान अने वैराग्य साथे भगवान्मां भक्तियोग करवाथी भक्तो पोताना आत्मश्रेयमाटे मारा अभय चरण कमलोनो आश्रय करे छे ॥४३॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ॥ तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥४४॥
जे पुरुषो परलोकने माटे यत्न करे छे तेमणे मारी भक्तिवडे पोतानुं मन मारामां
स्थिर करवुं. एम करवाथी ज कल्याणनो उदय थाय छे. भकितपूर्वक शरणागति वगर
[[३३८]] निःश्रेयसनो बीजो कोई ज मार्ग जगतमां नथी ॥४४॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (कालमुक्तिमां मुख्य भक्तिरूप पहेलो) ‘‘कपिलमुनिए देवहूतिने कहेलो भक्तियोग’’ नामनो पचीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे.
अध्याय २६
कपिल मुनि माताने साङ्ख्यतत्त्वो उपदेशे छे
विशेष - साङ्ख्यशास्त्र आत्मा अने अनात्मानी जुदाई जाणवामाटे छे. एमां तत्त्वोनी सङ्ख्या अने एनां लक्षण छे. एमां जीव अने ब्रह्मना भेद जाणवामां आवे तेमाटे बे प्रक्रियाओ कही छे. बन्धने पामे ते जीव, बन्धने न पामे ते ब्रह्म. प्रकृति संसारनुं कारण छे, ज््यारे मुक्तिनुं कारण पुरुष छे. साङ्ख्यसिद्धान्तनो आ सार छे. अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ॥ यद् विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ॥१॥
श्रीभगवाने कह्युं - जे तत्त्वोने जाणवाथी पुरुष प्राकृत गुणोथी मुक्त थाय तेवां तत्त्वोनां लक्षण जुदां करीने हुं तने कहीश ॥१॥
जे ज्ञानवडे आत्मानो साक्षात्कार थाय अने हृदयनी अहन्ता-ममतारूप ग्रन्थि तूटी जाय तेवो मोक्ष आपनारुं ज्ञान हुं तने कहुं छुम् ॥२॥
आत्मा अनादि छे. कोई काळे तेनी उत्पत्ति नथी. पुरुष गुण रहित छे अने प्रकृतिने वश राखनार छे. ए अन्तर्मुख स्फुरणावाळो छे, स्वयं प्रकाश छे, जेनो विश्वमां सारी रीते अन्वय छे (ए विश्वमां समवायि कारण रूपे ओतप्रोत छे) ॥३॥
ए पुरुषने दैवी इच्छाथी गुणमयी, सूक्ष्म, दैवी प्रकृति आवी मळी. पुरुषे एनो लीलावडे आदर कर्यो ॥४॥
[[३३९]]
ईं उं ईं उं
सत्त्वादि गुणोवाळी ए विचित्र प्रकृति पोताना जेवी प्रजाने उत्पन्न करवा लागी. एणे पुरुषना ज्ञानने ढाङ्की दीधुं. ज्ञान ढङ्काई जतां पुरुष एमां मोहित थयो ॥५॥
क्रिया करनारी शक्ति प्रकृतिमां छे; पुरुषमां ज्ञानशक्ति छे. पुरुषे प्रकृतिने स्वस्वरूपात्मक मानी तेथी (प्रकृति कर्त्री छे अने तेना गुणो कर्मो करे छे छतां) ए आत्मतत्त्वने लईने ‘‘हुं करुं छुं’’ एम मोहथी मानवा लाग्यो ॥६॥
‘‘हुं कर्ता छुं’’ एवुं जे जीव माने छे ए ज एने संसाररूप बन्धन छे. एनी परतन्त्रता एना कर्तापणाथीज थई छे. ईश्वर स्वयं अकर्ता छे. प्रकृति कर्म करे छे तेमां अभिमान न करतां ए एनो साक्षी छे. आम आनन्दरूप होवा छतां अभिध्यानथी विपरीत भावने स्वीकारे छे. तेथीज एने संसारना बन्ध अने पारतन्त्र्य भोगववां पडेछे ॥७॥
अधिभूत, अध्यात्म अने अधिदेव एटले कार्य, कारण अने कर्ता ए भावो प्रकृतिगत ज छे. सुख-दुःखना भोगनुं कारण पुरुष छे, कारण के ए प्रकृतिथी पर छे. भोग्य अने भोक्ता एक न होवाथी प्रकृति भोग्य अने पुरुष भोक्ता छे. भोगदशामां प्रकृतिनो नियामक पुरुष छे ॥८॥
देवहूतिए पूछ्युं - हे पुरुषोत्तम! प्रकृति अने पुरुष, जे आ जगतनां कारणरूप छे तेमनां लक्षण आप कहो. एनावडे ज कार्य अने कारणरूप आ बधुं थाय छे. ए तद्रूप पण देखाय छे. जो ए बेनुं ज्ञान थाय तो बधुं ज समजी शकाय ॥९॥
श्रीभगवाने कह्युं - त्रण गुणवाळी प्रकृति अव्यक्त कहेवाय छे. जगतनी रचनामां एनुं मुख्यपणुं होवाथी ए प्रधान पण कहेवाय छे. ए नित्य छे, कार्य- कारणरूप छे. पोते निर्विशेष छे छतां जे विशेष गुणो उत्पन्नथाय छे ते बधा एना होवाथी ए विशेषवत् कहेवाय छे ॥१०॥
पाञ्च महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), पाञ्च तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), चार अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार) दश इन्द्रियो आ चोवीस तत्त्वोना समूहने विद्वान् पुरुषो प्रकृतिनुं कार्य माने छे ॥११॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ए पाञ्च महाभूतो छे अने अमारा सिद्धान्त प्रमाणे शब्द, स्पर्श, रूप, रस अने गन्ध ए पाञ्च तन्मात्राओ (साङ्ख्यमां गन्धादि मात्राओ छे, ज््यारे बीजा मतमां ए गुणो) कहेवाय छे ॥१२॥
[[३४०]] त्वचा दृष्टि कान रसना नासिका ए पाञ्च ज्ञानेन्द्रियो, वाणी हाथ पग गुदा अने शिश्न ए पाञ्च कर्मेन्द्रियो एम बधी मळी दश इन्द्रियो छे ॥१३॥
मन, बुद्धि, चित्त अने अहङ्कार ए चार वृत्तिना भेदथी एक छतां चतुर्विध अन्तःकरण छे ॥१४॥
शास्त्रमां सगुण ब्रह्मनो सन्निवेश एटलो कहेलो छे. काळ ए २४थी जुदो होवाथी पचीसमो छे ॥१५॥
केटलाक, पुरुषना प्रभावने अर्थात् ईश्वरना संहारकारक सामर्थ्यने ‘काळ’ कहे छे. सर्वने काळनो भय होय छे, परन्तु ‘‘हुं करुं छुं’’ एवा अहङ्कारथी विशेष मूढ बने छे. ज््यारे विशेष मोह थाय छे त्यारे प्रकृतिनां कर्मने पोते स्वीकारे छे त्यारे एने ‘‘हुं करुं छुं’’ एवो मोह थाय छे ॥१६॥
हे मनुपुत्री! सत्त्व वगेरे त्रण गुणोनी साम्यावस्था एटले प्रकृति. काळनी चेष्टाथी ज आ साम्यावस्था चाली जाय छे ए काळना लक्षणरूप छे. ए भगवान् नथी पण भगवानना जेवो होई ए काळ भगवान् नथी ए काळ भगवान् तरीके ओळखाय छे ॥१७॥
भगवान् पुरुषरूपवडे सर्वनी अन्दर रहे छे तो काळरूपे सर्वनी बहार रहे छे. ए पोतानी मायावडे बन्ने रूपोथी लोकने भय अने अभय करी एनो समन्वय करीने रहे छे ॥१८॥
ज््यारे दैवथी प्रकृतिना धर्म खळभळी ऊठ्या त्यारे पुरुष पोतानी स्त्रीमां वीर्य दाखल करे तेम भगवाने प्रकृतिमां पोतानुं सच्चिदात्मक वीर्य दाखल कर्यु. तेणे सुवर्णमय महत्तत्त्वने जन्म आप्यो ॥१९॥
जगतना अङ्कुररूप ए महत्तत्त्वे पोताना स्वरूपमां स्थित विश्व दर्शाव्युं अने पोताना तेजवडे पोतानो लय करावनार अन्धकारने दूर कर्यु ॥२०॥
एनुं आधिदैविक रूप वासुदेव शुद्ध सत्त्वरूप छे, स्वच्छ छे, शान्त छे, भगवानने प्रकट थवाना स्थानरूप चित्त छे आने महत्तत्त्वरूप समजवुम् ॥२१॥
जेम जळनो उत्तम स्वभाव स्वच्छता छे तेम चित्तनुं लक्षण स्वच्छपणुं, अविकारीपणुं अने शान्तपणुं छे.एमां विकारो थाय छे ते तो बीजा सम्बन्धथी थाय छे, राजस वगेरे भावोवडे चित्तमां विकृति थाय छे. एनो सहज धर्म तो स्वच्छपणुं वगेरे छे ॥२२॥
[[३४१]] भगवानना वीर्यथी उत्पन्न थयेल महत्तत्त्व विकृत थतां एमान्थी त्रण प्रकारनी क्रियाशक्तिवाळो अहङ्कार उत्पन्न थायछे ॥२३॥
सात्त्विक, राजस अने तामस अहङ्कारथी मन, इन्द्रियो अने महाभूतो अने तन्मात्रा उत्पन्न थयाम् ॥२४॥
आ महाभूत, इन्द्रिय अने मनरूप अहङ्कारनेज पण्डितो साक्षात् सङ्कर्षण नामना सहस्र मस्तकवाळा अनन्त देव कहे छे ॥२५॥
प्राणीओमां रहेला सात्त्विक अहङ्कारनुं लक्षण कर्तापणुं छे, राजसनुं कारणपणुं अने तामसनुं कार्यपणुं छे; अथवा सात्त्विक अहङ्कारना स्वरूपनुं लक्षण शान्तपणुं, राजसनुं घोरपणुं अने तामस अहङ्कारना स्वरूपनुं लक्षण विमूढपणुं छे ॥२६॥
सात्त्विक अहङ्कार कार्य करवा तत्पर थतां एमान्थी मन थयुं; सङ्कल्प (इच्छा, कामना) अने विकल्प (संशय) ए एनुं लक्षण छे एनाथी कामनो सम्भव छे, अर्थात् काम ए एनुं कार्य छे अने सङ्कल्प-विकल्प ए एनुं लक्षण छे ॥२७॥
अनिरुद्ध ए एना अधिष्ठाता देव छे. ए इन्द्रियोना अधीश्वर छे. शरदऋतुना इन्दीवरना सरखा श्याम ए प्रभु योगी लोकोने सारी रीते आराध्य छे ॥२८॥
हे सती! राजस अहङ्कार कार्य करवा तत्पर थतां एमान्थी बुद्धि नामनुं तत्त्व थयुं. एमान्थी द्रव्यनी स्फूर्ति अने विशेष ज्ञान थाय छे. जो मन इन्द्रियोनुं प्रेरक छे तो बुद्धि इन्द्रियनी अनुग्राहक छे. बुद्धिनां अनुग्रहवडे इन्द्रियो पोताना कार्य करवामां समर्थ थाय छे तेथी ज इन्द्रियोना तारतम्यथी ज ज्ञान अने क्रियामां तारतम्य देखाय छे ॥२९॥
सन्देह, विपर्यास (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मरण अने स्वाप ए बुद्धिनी पाञ्च वृत्तिओथी बुद्धिनुं जुदुं लक्षण कहेलुं छे ॥३०॥
कर्म अने ज्ञान करावनार इन्द्रियो (कर्मेन्द्रियो अने ज्ञानेन्द्रियो) राजस समजवी. प्राणमां क्रियाशक्ति छे, बुद्धिमां ज्ञानशक्ति छे ॥३१॥
भगवानना वीर्यथी प्रेरायेला तामस अहङ्कारथी शब्दमात्रा थई; तेमान्थी आकाश उत्पन्न थयुं. कर्ण इन्द्रियथी तो शब्द ग्रहण थाय छे ॥३२॥
अर्थ शब्दनो आश्रय करीने रहे छे. शब्द द्रष्टाने शब्दमात्रथी वस्तुनो अनुभव करावे छे. शब्द आकाशनी तन्मात्रा छे. शब्द ए आकाशनुं सूक्ष्मरूप छे ॥३३॥
भूतोने अवकाश आपवो एटले के बहार अने अन्दर एवा भेदने करावनार
[[३४२]] आकाश छे. प्राण, इन्द्रिय अने आत्मानो आश्रय पण आकाश छे ॥३४॥
शब्द तन्मात्रानुं कार्य आकाश काळगतिथी विकृत थयुं. विकृत थतां एमां स्पर्श थयो. एनाथी वायु थयो अने त्वक् इन्द्रिय थई, जेनाथी सारी रीते ग्रहण थाय छे ॥३५॥
कोमळता, कठिनता, ठण्डु, गरम ए पारखवुं ए स्पर्शेन्द्रियनुं काम छे; ए ज वायुनी तन्मात्रा एटले सूक्ष्म स्वरूप छे ॥३६॥
(वृक्षनी शाखा वगेरेने) हलाववुं, तृण वगेरेने भेळां करवां, बधे पहोञ्चवुं, गन्धादि युक्त वस्तुने ध्राणादि इन्द्रियोनी पासे तथा अवाजने काननी पासे लाववो तथा बधी इन्द्रियोने कार्यशक्ति अर्पवी आ वायुनी वृत्तिओनां लक्षण छे ॥३७॥
स्पर्श तन्मात्रावाळा वायुने दैवी प्रेरणा थतां एमान्थी रूपने बतावनार तेज थयुं. पछी रूप थयुं; पछी एने बतावनार चक्षु इन्द्रिय थई ॥३८॥
द्रव्यनी आकृति होवी ए रूपनुं लक्षण छे; अर्थात् सर्वदा गौणभाव रहेवो. वस्तुनुं सापेक्षत्व ए ज तेजनो गौणभाव. व्यक्तिने पदार्थरूपमां देखाडनार पण तेज ज छे. रूप तन्मात्रा ए ज तेजनुं तेजपणुं छे ॥३९॥
एनां लक्षण आ प्रमाणे छेःप्रकाश करवो, पकवी देवुं, जळने सूकवी देवुं, टाढ मटाडवी, शोषण करवुं, भूख अने तरस ए तेजनां कार्यो छे ॥४०॥
दैवनी प्रेरणाथी रूप तन्मात्रा तेजमां विकृति थतां एमान्थी रस तन्मात्रावाळुं जळ अने रसने ग्रहण करावनार रसना थई छे ॥४१॥
कसाय (कडछो), मधुर, कडवो, तीखो अने खाटो एवो भेद एवा एक ज रसना भौतिक विकारने लईने छे ॥४२॥
पलाळी देवुं, पीण्डो बान्धवो, तृप्त करवो, जिवाडवुं, प्राणोनी तृप्ति करवी, वही जवुं, ताप मटाडवो, कूवा वगेरेमान्थी काढी लेवाय छतां फरी-फरी प्रकट थवुं अथवा जे वासणमां भरीए तेवो आकार लेवो ए जळनी वृत्तिओ छे ॥४३॥
रसमात्रवाळा जळमां कार्य करवा तत्पर थयेला अने दैवनी प्रेरणाथी विकृति थतां जळमान्थी गन्धमात्रावाळी पृथ्वी थई. गन्धने ग्रहण करनार घ्राणेन्द्रिय थई जेनाथी गन्धनो अनुभव लई शकायछे ॥४४॥
एक गन्ध द्रव्यना अवयवोना भेदने लीधे मिश्रगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, शान्त, उग्र, खाटो वगेरे उपाधिभेदथी भेद पडेला छे ॥४५॥
[[३४३१]] . आकार प्राप्त कराववो २. ब्रह्मनुं स्थान होवुं ३. धारण करवुं ४.तत्त्वोनो भेद जणाववो ५.सर्व प्राणीओना गुणोने प्रकट करवा ए पृथ्वीनुं कार्यथी थतुं लक्षण छे ॥४६॥
आकाशनो गुण शब्द; श्रोत्र एनो विषय छे. वायुनो गुण स्पर्श छे; त्वक्
एनो विषय छे. तेजनो गुण रूप; चक्षु एनो विषय छे. जळनो गुण रस; जिह्वा
एनो विषय छे. पृथ्वीनो गुण गन्ध; घ्राण; इन्द्रिय एनो विषय छे ॥४७-
४८॥
कारणनो गुण घणो सम्बन्ध होवाने लीधे कार्यमां जोवामां आवे छे. तेथी बधा महाभूतोनो गुण भूमिमां ज जोवामां आवे छे ॥४९॥
ज््यारे महत्तत्त्व, अहङ्कार अने पञ्चमहाभूत आ सात तत्त्व परस्पर मळी शक््यां नहि अलग-अलग ज रह्यां त्यारे जगतना आदिकारण श्रीनारायणे काल अदृष्ट अने सत्त्व वगेरे गुणो सहित तेमां प्रवेश कर्यो ॥५०॥
एमां परमात्माए प्रवेश करतां ज अचेतन अण्ड उत्पन्न थयुं, जेमान्थी आ विराट् पुरुष अभिव्यक्त थया ॥५१॥
आ अण्डनुं नाम छे विशेष. एनी ज अन्दर श्रीहरिना स्वरूप भूत चौद भुवननो विस्तार छे. ए चारे तरफ क्रमशः एक बीजाथी दस गणा जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहङ्कार अने महत्तत्त्व आ छ आवरणोथी घेरायेलुं छे. आ बधान्नी बहार सातमुं आवरण प्रकृतिनुं छे ॥५२॥
हिरण्यमय अण्डकोश जळमां पड्यो हतो तेमान्थी मोटा देव भगवाने ऊठीने एमां अनेक छिद्र कर्या ॥५३॥
प्रथम एमां मुख थयुं तेमां वाणी थई अने अग्नि एमां देवता थया. बे नासिका थई; तेमां ध्राणेन्द्रिय प्राणनी साथे रही ॥५४॥
प्राणमान्थी वायु; पछी बे आङ्ख थई. तेमां चक्षु नामनी इन्द्रिय थई. एमान्थी सूर्यदेवता प्रकट थया. कानमां बे छिद्र थयां. श्रोत्रेन्द्रिय, दिशाओ अने एना देवता ए त्रिपुटी सर्वत्रथई ॥५५॥
ए विराट् पुरुषने त्वचा उत्पन्न थई तेमां लोम इन्द्रिय (दाढी, मूछ वगेरे लोमना प्रकारो छे;) एना औषधि देवता थया. पछी शिश्न इन्द्रिय देखाई ॥५६॥
एमां वीर्ये प्रवेश कर्यो. अप् नामनी एनी देवता थई. ए थया पछी गुदा थई
[[३४४]] तेमां अपान वायु अने लोकने भय करनार मृत्यु एनो देव थयो ॥५७॥
पछी हाथ एमान्थी नीकळ्या. तेमां बळ थयुं. एना देव इन्द्र बन्या. पछी पग जुदा देखाया तेमां गति नामनी इन्द्रिय थई. ए चरणना देवता विष्णु थया ॥५८॥
आ विराट्नी नाडीओ प्रकट थई तेमां लोही थयुं. नदीओ नाडीओना देवता थई. पछीथी उदर जुदुं जोवामां आव्युं; ॥५९॥
तेमां क्षुधा अने तृषा थयां. समुद्र ए उदरनी देवता थया. हवे आ विराट भगवानने हृदय भिन्न थयुं; हृदयथी मन थयुं. चन्द्रमा ए मनना देवता थया. पछी हृदयथी ज बुद्धि अने त्यार पछी एना अभिमानी देवता ब्रह्मा थया. ए पछी अहङ्कार थयो. तेना अभिमानी देवता रुद्र थया. पछी चित्त थयुं. जीव तेनो देवता छे. आ मन, बुद्धि, चित्त अने अहङ्कार ए चार इन्द्रियनुं गोलक एक ज हृदय समजवुं. एना आधिदेवो चार जुदा समजवा ॥६०-६१॥
आटला देवो ते-ते गोलकथी ऊभा थया. परन्तु ए बधा आ विराट् देहने उठाडवामां समर्थ थया नहि त्यारे ए देवताओ पोतपोताना गोलकना ए देहने उठाडवामाटे ते-ते छिद्रोमां पुनः प्रविष्ट थया ॥६२॥
अग्निदेव वागिन्द्रिय साथे मुखमां प्रवेश्या तेनाथी विराट् ऊठ्या नहि. वायु घ्राणनी साथे नासिकामां प्रविष्ट थयो तो पण विराट् ऊभा थया नहि. सूर्य चक्षुनी साथे आङ्खमां दाखल थया तो पण ए विराट् ऊभा न थया. दिशाओ श्रोत्रनी साथे कानमां दाखल थतां पण विराट् एमना एम ज रह्या. त्वचामां रोमनी साथे औषधिओ दाखल थई तो पण विराट्मां कांई क्रिया न थई. जळे वीर्यनी साथे लिङ्गमां प्रवेश करतां पण विराट्नुं उत्थान थयुं नहि. मृत्यु अपानने साथे लई गुदामां दाखल थतां पण विराट् एमना एम ज रह्या. इन्द्र बळनी साथे हाथमां, विष्णु गतिनी साथे चरणमां, नदीओ लोही साथे नाडीओमां दाखल थतां पण विराट् जाग्रत न थया. क्षुधा, तृषा साथे सिन्धु पेटमां प्रविष्ट थतां पण विराट् जाग्या नहि; मननी साथे चन्द्र हृदयमां प्रविष्ट थया. बुद्धि साथे ब्रह्मा, अभिमान साथे रुद्र हृदयमां दाखल थया तो पण विराट् जाग्रत थया नहि. परन्तु ज््यारे चित्तनी साथे जीव हृदयमां दाखल थयो त्यारे विराट् पुरुष जळमान्थी बेठा थयां ॥६३-७०॥
[[३४५]] पुरुष सारी पेठे ऊङ्घतो होय त्यारे एनां प्राण, इन्द्रियो, मन अने बुद्धि जाग्रत होय छतां ए एने उठाडवामां समर्थ थतां नथी पण ज््यारे जीव चित्प्रदेशमान्थी बहार आवे छे त्यारे ज पुरुष जाग्रत थाय छे. तेम विराट् पुरुषने पण हृदय, इन्द्रियो वगेरे होवा छतां जीवे प्रवेश न कर्यो त्यां सुधी ए जळमान्थी ऊठवाने समर्थ न थया ॥७१॥
तमस्मिन् प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया ॥ भक्त्या विरक्त्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ॥७२॥
देहमां रहेला जीवने ए अन्दर रहेलो होवाथी बहारनी इन्द्रियो जोई न शके माटे जीवमां प्रवृत्त थती योगथी परिपक्व थती बुद्धिवडे भक्ति, वैराग्य अने ज्ञाननी सहायताथी पुरुष आत्मानुं चिन्तन करे अने बीजा कोई मायिक पदार्थने न देखे तो एने आगळ चालतां ब्रह्म साक्षात्कार थाय ॥७२॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (आठमा गुणातीतमुक्ति प्रकरणनो पहेलो) ‘‘कपिलमुनि माताने साङ्ख्यतत्त्वो उपदेशे छे’’ नामनो छवीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे
अध्याय २७
पुरुषनुं स्वरूप तथा एने जाणवाना उपाय
विशेष - पूर्व अध्यायमां तत्त्वोनी सङ्ख्याना विवेचन उपरथी पुरुष बीजा पदार्थोथी जुदो छे एम साबित थाय छे. आवी रीते आत्मानुं जुदापणुं सिद्ध थाय छे आ अध्यायमां आत्मा ब्रह्मरूप छे एम कहेवाय छे. ए ब्रह्मनुं चिन्तन शी रीते करवुं ए दर्शाववा एनुं स्वरूप तथा एने जाणवानां साधन कहे छे. खोटुं ज्ञान मटाडवामाटे अर्ही तर्कनो पण उपयोग कर्यो छे. प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाऽज्यते प्राकृतैर्गुणैः। अविकाराद् अकर्तृत्वान् निर्गुणत्त्वाज् जलार्कवत् ॥१॥
[[३४६]]
ईं उं ईं उं
श्रीभगवाने कह्युं - पुरुष (आत्मा) प्रकृतिनी साथे रहे छे छतां प्राकृत गुणोथी ए लेपातो नथी. पुरुष विकार, कर्ता पणाना अभिमान तथा सत्त्वादि गुणथी रहित छे. जळमां प्रतिबिम्बित थयेलो सूर्य जळना कम्पादिकने स्वीकारतो नथी ॥१॥
ए ज पुरुष प्रकृतिना गुणमां मोहित थाय छे. तेम थतां एने अहङ्कार थाय छे. अहङ्कारथीए मूढ बने छे तेथी ‘‘हुं करुं छुं’’एम अभिमान करेछे ॥२॥
ए कारणथी पराधीन थतां ए संसारने प्राप्त थाय छे. कर्मना फळमां एने तृप्ति थती नथी अने एवो प्रसङ्ग प्राप्त थतां कर्मना दोषोने लीधे सारा, नठारा, मिश्र एवा देव, पशु अने मनुष्यना देहने धारण करे छे ॥३॥
जेम विषयनुं ध्यान करनारा पुरुषने वस्तु विना पण अनर्थ थाय छे तेम विषयनुं ध्यान करवाथी पदार्थ न होय छतां एनो संसार निवृत्त थतो नथी ॥४॥
दुष्टोना मार्गमां अनादि काळथी चित्त आसक्त होवाथी ए एमान्थी एकदम नीकळी शकतुं नथी; छतां धीमे-धीमे वैराग्यद्वारा चित्तने संसारथी छूटुं करवा अने स्नेह,द्वारा चित्तने भगवद्वश करवा एणे अवश्य कर्तव्य करवाम् ॥५॥
श्रद्धावाळो थई यमनियमादि योगनां साधनोवडे अभ्यास करवो, वळी एणे मारामां भाव राखवो, सत्य बोलवुं अने मारी कथानुं श्रवण करवुम् ॥६॥
प्राणी मात्रमां समान दृष्टि राखवी, सर्व साथे निर्वेर भाव राखवो, कोईनो
विशेष सङ्ग न करवो, अष्टाङ्ग ब्रह्मचर्यनुं पालन करवुं, वृथालाप (नकामी वातचीत) छोडी मौननुं अवलम्बन करवुं, दृढ निष्ठावाळा थई स्वधर्मवडे जे कांई भगवदिच्छाथी आवी मळे तेमां सन्तोष मानवो, मिताहार करवो, मननपूर्वक एकान्तमां रहेवुं, परम शान्तिनुं सेवन करवुं, सर्वत्र मित्रता राखवीःबधा उपर दया राखवी अने अन्तःकरणने वश करवुं. आवो पुरुष आत्माने जोई शके छे ॥७-८॥
सन्तति साथे देहमां दुष्ट आसक्ति राखवी नहि. तत्त्वनुं ज्ञान थाय एवा प्रकृति तथा पुरुषना ज्ञानवडे बुद्धिनी अवस्था छोडी देवी अने आत्मा सिवायना दर्शनने दूर करवुं. जेम सूर्यवडे सूर्यने जोवामां आवे तेम मनथी ज आत्माने प्राप्त करी आत्मावडे आत्माने जोवो. (माणसने बीजी वस्तुमां प्रकाशनी जरूर पडे छे पण सूर्य जोवामां सूर्यवडे ज सूर्य देखाय तेम आ आत्मानुं समजवुं) ॥९-१०॥
आवी रीते मनमां भावना करतां ज््यारे आ सङ्घात (देह) असत् देखाय छे त्यारे आत्मानुं दर्शन थाय छे. आ आत्मा जे मूळ आत्मानो बन्धु छे ते असत् [[३४७]] देहनो जोनार थाय छे. देह अने जीव साथे जोडायेला छे, छतां ए जुदा नथी एक ज छे एवुं एने जोवामां आवे छे ॥११॥
जलमां पडेला (सूर्यनुं) प्रतिबिम्बनो स्थळमां आभास जोवामां आवे त्यारे बहार सूर्य छे एम ज्ञान थाय छे तेम आत्मामां देखाता आभासवडे मुख्य आत्मानो अनुभव थायछे ॥१२॥
एवी रीते महाभूतो, इन्द्रियो अने मनमां पडेला पोताना आभासोथी वैकारिक वगेरे त्रण प्रकारनो अहङ्कार जणाय छे अने आ सत्ना आभासथी सत्य(आत्मा)नुं ज्ञान थायछे ॥१३॥
पञ्च भूतो, तन्मात्राओ, इन्द्रियो, मन, बुद्धि वगेरेअर्ही निद्रामां लीन थाय छे त्यारे त्यां असतमां निद्रारहित थई जे अहङ्कारने पण छोडी दे छे ते ज आत्मा एम समजवुम् ॥१४॥
द्रव्याभिमानी पुरुष धननो नाश थतां पोताने खलास थई गयेलो माने छे तेम देहनो अभिमानी पुरुष देहनो नाश थतां पोतानो नाश थयेलो माने छे. आत्मा नष्ट थतो नथी छतां अहङ्कार नाश थतां आत्मानो नाश थयो एम माने छे. (स्वपनमां पोतानुं माथुं कपायुं एम ए जुए छे ए जो आत्मा एने जोनार न होय तो माथुं कपायुं ए कोण जोई शके? निद्रामां आत्मा निरहङ्कारावस्थामां होय छे) ॥१५॥
उपर प्रमाणे आत्मानो विचार करतां आत्मज्ञान थाय छे. सुषुप्तिमां सूतेलो माणस जाग्रत थई ‘‘हुं बहु सूतो’’ एम जाणे ए ज आत्मानो अनुग्रह कहेवाय ए प्रनाडीथी अहङ्कार जतां पुरुषने आत्मानुं ज्ञान थाय छे ॥१६॥
देवहूतिए कह्युं - हे प्रभो! पुरुषने प्रकृति क््यारे पण छोडती नथी. एने एक बीजानो आश्रय छे. वळी ए बन्ने नित्य छे ॥१७॥
जेम गन्ध अने पृथ्वी एक बीजाथी जुदां पडी शकतां नथी, जलने रसथी वियोग सम्भवतो नथी तेवो ज बुद्धि अने पुरुषनो सम्बन्ध छे ॥१८॥
पुरुषमां कर्तापणुं नथी छतां जेना आश्रयथी कर्तापणानो आरोप तथा कर्मनो बन्ध पुरुषने थाय छे ते प्रकृतिना गुण विद्यमान होय त्यां सुधी ए पुरुषनी मुक्ति केम सम्भवे? ॥१९॥
तत्त्वनो विचार करतां कदाच मोटो भय टळी जाय तो पण ए भयनुं निमित्त प्रकृति के प्रकृतिना गुण तो होवाना. तेथी पाछो भय थवानो सम्भवछे ॥२०॥
[[३४८]] श्रीभगवाने कह्युं - जेम अग्निने वधारनार अरणि बळी जतां अग्नि शान्त थई जाय तेम फलना अनुसन्धान रहित स्वधर्मना आचरणथी आदरपूर्वक निरन्तर श्रवण वगेरेथी पूर्णता पामेली मारा प्रत्ये तीव्र भक्तिथी अने तत्त्वोनो साक्षात्कार करावनार ज्ञानथी, धारदार वैराग्यथी तप सहित योगसाधन तेमज आत्मसमाधि थी चित्तनी एकाग्रता सिद्ध थाय त्यारे प्रकृति बळती-बळती अन्ते शान्तथई जाय छे, अर्थात् पुरुष प्रकृतिथी जुदो थई जायछे ॥२१-२३॥
वळी नित्य दोष देखावाथी, भोगवीने छोडी दीधेली ए प्रकृति पोताना स्वरूपमां स्थित अने स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) थयेल ए पुरुषनुं कंई पण बगाडी शकती नथी. प्रकृति पोताना दास बनेलाने पीडे छे पण वश राखनार (ईश्वर) ने नहि ॥२४॥
जेम निद्रित पुरुषने स्वपन अनेक अनर्थनो अनुभव करावे छे तेम जागता पुरुषने स्वपननो भय थतो नथी. स्वपननो सिंह एना देहनो नाशक थतो नथी, छतां स्वपन टळी न जाय त्यां सुधी ए भय मटतो नथी तेम आत्मामां रमनार तथा मारामां मनने लगाडनार प्रकृतिना स्वरूपने जाणतो होवाथी प्रकृति एने कांई पण करवाने समर्थ थती नथी ॥२५-२६॥
एवी रीते बहु जन्मवाळो काळे करीने आत्मज्ञानमां प्रीतिवाळो थाय छे त्यारे मननद्वारा वैराग्य थतां ब्रह्मलोक सुधीना बधा भोगोमां सर्वत्र उदासीन थई जाय छे ॥२७॥
ज््यारे मारो भक्त पुरुषार्थने जाणे छे त्यारे मारा आश्रयथी मारी कृपावडे सहेलाईथी आ (देह) मां परम कल्याणरूप पोतानुं स्थान कैवल्य नामनुं मारुं धाम प्राप्त करे छे ॥२८॥
त्यां धीर थई पोतानी दृष्टिथी सर्व संशयोनो नाश करे छे. अने पछी लिङ्ग देहनो नाश थतां एक मात्र मने ज आश्रित पोताना स्वरूपभूत कैवल्य नामना मङ्गलमय पदने सहजमां ज प्राप्त करी ले छे, ज््यां पहोञ्चीने योगी फरीथी पाछो आवतो ज नथी. मारो भक्त पण ए स्थानने मेळवे छे ॥२९॥
यदा न योगोपचितासु चेतो मायासु सिद्धस्य विषज्जतेङ्ग ॥ अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्यादात्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ॥३०॥
जो एवा सिद्ध थयेला योगीनुं चित्त मायामयी अणिमा वगेरे सिद्धिओमां जेने प्राप्त करवामाटे योग सिवाय बीजुं कोई साधन ज नथी, चोण्टतुं नथी तो हे [[३४९]] माताजी! एवो योगी आत्यन्तिक मुक्तिरूप गतिने पामे छे; एने जोई मृत्यु हसतुं नथी ॥३०॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (गुणातीतमुक्ति नामना आठमा प्रकरणनो बीजो ज्ञानाध्याय) ‘‘पुरुषनुं स्वरूप तथा एने जाणवाना उपाय’’ नामनो सत्तावीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’ शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी. नवमुं सगुणमुक्ति प्रकरण
अध्याय २८
भगवद्ध्यानरूप योग तथा एनां साधन
विशेष - भक्ति, ज्ञान अने वैराग्यवडे चित्त भगवानना सम्बन्धमां आवे तो ए शुद्ध चित्त कहेवाय. एवुं चित्त पुरुषना फळने सिद्ध करावी आपे. भगवानना सम्बन्धथी चित्त शुद्ध थाय तेम योगथी पण चित्त शुद्ध थाय तेथी आ अध्यायमां योगनुं निरूपण छे. आमां सर्व साधन सहित भगवद्ध्यानरूप योग कहेवामां आव्यो छे. जे वस्तुमां भगवदावेश जणाय ते वस्तु प्रमाणरूप जाणवी. प्रमेय, साधन अने ए ज वस्तु फळरूप पण समजवी. जेम वेद भगवदावेशथी शुद्ध छे पण योगमां भगवदावेश थाय छे तो एनो साधक योगथी पण शुद्ध थाय छे; तेथी भगवान् सिवाय बीजा कोई पदार्थ स्वतः शुद्ध नथी. भगवान्थी ज सर्वनी शुद्धि थाय छे एटले भगवान् सिवायना सर्व परतः शुद्ध, मात्र भगवान् ज स्वतः शुद्ध छे. योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ॥ मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम् ॥१॥
श्रीभगवान् बोल्या - हे राजकुमारी! हुं तने सबीज (ध्येय स्वरूपना
[[३५०]]
ईं उं ईं उं
आलम्बन युक्त) योगनुं लक्षण कहीश. तेना आचरवाथी मन प्रसन्न थई सन्मार्गमां गति करे छे ॥१॥
शक्ति प्रमाणे स्वधर्मनुं आचरण करवुं, विधर्मथी दूर रहेवुं, दैवथी जे मळी जाय तेटलाथी सन्तुष्ट रहेवुं अने आत्मज्ञानीनां चरणनी सेवा करवी अर्थात् तेमनुं दास्य करवुम् ॥२॥
विषयवासनाने भभकावनार कर्मोथी दूर रहेवुं, मोक्ष धर्मोमां प्रीति करवी, सदा पवित्र अने थोडुं भोजन करवुं, ज््यां कोई जातनो उपद्रव सम्भवितन होय अने एकान्त होय तेवा स्थळमां निवास करवो ॥३॥
हिंसा न करवी, सत्य बोलवुं, चोरी न करवी, जेटली जरूर होय तेटली वस्तु पासे राखवी, अष्टाङ्ग ब्रह्मचर्य पाळवुं, तप करवुं पवित्रता अने बहारनी तथा अन्दरनी शुद्धि राखवी, वेदादिनो अभ्यास नियमसर करवो, भगवाननी सेवा करवी ॥४॥
मौन राखवुं, सदा आसन जीतवुं, स्थिरता राखवी, धीमे-धीमे प्राणने जीतवो, इन्द्रियोना विषयो तरफ जती मननी वृत्तिओने आत्मामां पाछी खेञ्चवी, मूलाधार वगेरे स्थानोमां प्राणने एक ज जग्याए मननी साथे स्थिर करवो, भगवाननी लीलानुं ध्यान करवुं, सर्व परिस्थितिमां अव्यग्रता केळववी ॥५-६॥
उपर कह्या ते तथा ते विना बीजा उपायोवडे, खराब मार्गे जता मनने बुद्धिवडे रोकवुं अने आळस छोडीने धीमे-धीमे प्राणनो संयम करवो ॥७॥
आसनने जीती पवित्रस्थानमां आसन बिछावी ए उपर ‘स्वस्तिक’ नामना आसनथी बेसवुं अने शरीरने दुःख न थाय तेम बेसीने योगनो अभ्यास करवो ॥८॥
पूरक, कुम्भक अने रेचकथी अथवा उलटा क्रमथी प्राणना मार्गने शुद्ध करवो. चित्तनी चञ्चळता ओछी थाय अने ए स्थिर थाय एनेमाटे शास्त्रमां कहेला मार्गे चित्तशुद्धि करवी. (प्राणायामथी चित्त शुद्ध थाय छे माटे मनमां आवे तेवा उपाय न करवा. स्वेच्छाचार अशुद्धि पोषक छे) ॥९॥
योगी प्राणने जीते छे त्यारे चित्त रजोगुणरहित थाय छे. जेम वायु अने अग्निवडे तपावेल लोढुं पोतानो मळ छोडी दे छे तेम प्राणायामथी मनना मेल छूटे छे ॥१०॥
[[३५१]] प्राणायाम दोषोने दूर करवा. भगवत्स्वरूपना चिन्तनथी महापातकोने वासनासहित दूर करवां. इन्द्रियोना संसर्गथी थता दोषोने प्रत्याहारथी बाळी शकाय छे अने भगवद्ध्यानवडे संसारने आपनार नास्तिकता तथा अज्ञानादि दोष भस्म करवा. संसारदशामां ब्राह्मणादि शरीरने आपनार कर्मो पण भगवद्ध्यानथी भस्म थाय छे ॥११॥
ज््यारे मन रजोगुण-रहित थाय, योगवडे बराबर स्थिर थाय त्यारे पोतानी नासिकाना अग्र भाग उपर दृष्टि राखी हृदयमां भगवानना धामनी भावना करवी ॥१२॥
प्रसन्न वदनकमळवाळा, कमळना गर्भ सरखां लाल नेत्रवाळा, श्याम कमळना पत्र जेवा श्याम, शङ्ख, चक्र गदाने धरनार, कमळना पराग सरखुं रेशमी पीताम्बर धरनार, वक्षःस्थळमां श्रीवत्सना चिह्नवाळा, शोभता कौस्तुभयुक्त कण्ठवाळा, मदोन्मत्त भ्रमरपक्तिंवाळी, वनमाळा धारण करनार, अमूल्य हार, कडां, किरीट, बाजुबन्ध अने नूपुरने धरनार, कदोराथी शोभता नितम्बवाळा, हृदयकमळरूप आसन उपर बिराजनार, उत्तमोत्तम दर्शन करवा योग्य, शान्त, मन अने नेत्रने उल्लास करनार, सुन्दर देखाववाळा, निरन्तर सर्व लोकने नमन करवा योग्य, किशोर वयने अङ्गीकार करनार, सेवक उपर अनुग्रह करवामां आतुर, कीर्तन करवा लायक पवित्र यशवाळा, यशस्वीओना पण यशने वधारनार एटले पवित्र कीर्तिवाळा भक्तोने पोतानी बरोबर करी आपनार तथा एनो यश स्वसमान करी आपनार, देवनुं बधां अङ्गो साथे ध्यानमान्थी चलित न थाय त्यां सुधी मनवडे ध्यान धरवुं ॥१३-१८॥
चित्तमां शुद्ध भाव राखी उभेला, चालता, बेठेला अने पोढेला अने पोताना अन्तःकरणमां बिराजता प्रभुनुं ध्यान करे. भगवाननी लीला पण भगवाननी जेम दर्शन करवा योग्य छे तेनुं शुद्ध चित्तवडे ध्यान करवुम् ॥१९॥
एम करतां भगवानना सम्पूर्ण स्वरूपमां चित्त स्थिर थाय त्यारे मनन करतो साधक भगवानना एकेक अङ्गमां मनने योजे ॥२०॥
वज्र, अङ्कुश, ध्वज, कमळ वगेरे चिह्नोथी समृद्धिवाळुं तथा ऊञ्चा लाल नखोनी पक्तिन्नी कान्तिवडे महान पुरुषोना हृदयना अन्धकारने दूर करनार, भगवानना चरणकमळनुं सारी रीते चिन्तन करवुम् ॥२१॥
[[३५२]] जेमने धोवाथी नदीओमां श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट थयां हतां, जेनां पवित्र जळने मस्तक उपर धारण करीने स्वयं कल्याणरूप श्रीमहादेवजी वधारे कल्याणमय थई गया. ए पोताना ध्यान करनारना पापरूप पर्वत उपर छोडेला इन्द्रना वज्र समान छे. भगवानना आ चरणकमलोनुं दीर्घकाल सुधी चिन्तन करे ॥२२॥
समर्थ भवरहित विधाताना बे ढीञ्चणो जेमनुं कमल जेवां नेत्रोवाळी, देवोए वन्दन करेली, सर्व (जगत्) नी माता लक्ष्मीजीए (पोतानी) जाङ्घ उपर पधरावी करपल्लवोनी कान्तिथी लालन करेलुं तेमनुं हृदयमां चितन्त करवुम् ॥२३॥
गरुडनी बे भुजाओ उपर शोभता, प्रकाशना निधिरूप, अळसीना पुष्पना जेवी कान्तिवाळी बे साथळोनुं (अने) घणां लटकतां उत्तम पीताम्बर उपर रहेला सुवर्णना कन्दोरानी घूघरीओथी आलिगिन्त नितम्बबिम्बनुं ध्यान करवुम् ॥२४॥
जीवनरूप कमलनी कळीनां गुप्त स्थान रूप उदरमां रहेल नाभिरूप धरो, जेमां ब्रह्मा, (तेमनी) बुद्धि अने सर्व लोकरूप कमल हतां तेनुं, (अने) आमना मरकतमणि अने चिन्तामणिरूप बे स्वच्छ हारना किरणोथी गौर स्तनोनुं ध्यान करवुम् ॥२५॥
उत्तम (भगवान्) ना वक्षःस्थलनुं ध्यान करवुं, जे आ लोकना सर्वपुरुषार्थरूप लक्ष्मीनुं निवास छे अने पुरुषोनां मन अने नेत्रोने आनन्द करावनारुं छे; अने सर्व लोकोए नमस्कार करेल कण्ठनुं ध्यान करवुं जे कौस्तुभमणिने सुशोभित करवा ज तेने पोते धारण करे छे ॥२६॥
अने मन्दरपर्वतना धमकारथी जे बाहु उपरनां कडांओ चकचकित थयेलां अने जे समस्त लोकपालोना आश्रयरूप छे ते बाहुओनुं; तेमज असह्य तेजवाळां अने हजार आरावाळां सुदर्शनचक्रनुं अने करकमलमां विराजमान राजहंस समान शङ्खनुं ध्यान करवुम् ॥२७॥
शत्रुओना लोहीना कीचथी खरडायेली भगवाननी वहाली कौमोदकी गदानुं ए स्मरण करे, गुञ्जारव करता भमराओनी पक्तिंवाळी भगवाननी माळानुं ध्यान धरे, मनोहर व्रतवाळा-मधुव्रत वेदो छे. तेओ भगवाननुं ज्ञान करावे छे. तेमनी वाणी भगवाननी कीर्ति प्रकट करे छे. आ प्रभुना कण्ठमां रहेला जीवमात्रना तत्त्वरूप कौस्तुभमणिनुं ध्यान धरे ॥२८॥
सेवको उपर अनुकम्पा करवाना विचारथी भगवाने अर्ही अवतार धारण करेल छे. मकराकृति कुण्डलोनी झलकवडे जेना शुद्ध गाल प्रकाशित थया होय अने जेनी [[३५३]] नासिका उदार होय तेवा, भगवानना वदनारविन्दनुं ध्यान करे ॥२९॥
लक्ष्मीना, स्थानरूप, भमराओ तथा लक्ष्मी जेमनी सेवामां रह्यां छे तेवां वाङ्कडिया वाळना समूहयुक्त, मत्स्यनी शोभाने तुच्छ करनार कमळरूप नेत्रो जेमने छे तेवा, मनोमय (सावधानताथी विलास करती भ्रमरोवाळा) वदननुं ध्यान करवुम् ॥३०॥
कृपा करीने अत्यन्त भयङ्कर त्रण तापने शान्त करवाने जे नेत्रद्वारा प्रकट थाय छे, स्नेहयुक्त हास्य करता अत्यन्त कृपाने प्रकट करता, भगवानना कृपाकटाक्षनुं चिरन्तन भावनावडे हृदयरूपी गुहामां चिन्तन करवुम् ॥३१॥
नमन करनार लोकना तीव्र शोकना आंसुना समुद्रने सूकवता घणा उदार, मुनिजन उपर उपकार करवा, कामदेवने मोह करवा मायावडे जेणे पोतानुं भ्रुकुटीमण्डळ उत्पन्न कर्युं छे तेवा भगवानना हास्यनुं भ्रुकुटी मण्डळनुं ध्यान करवुम् ॥३२॥
आपणा शरीरनी अन्दर दर्शन आपता, ध्यानना आधाररूप अने अधरओष्टनी घणी कान्तिथी लाल देखाता उत्तमदन्तपक्तिंवाळा भगवानना खडखडाट हास्यनुं ध्यान करवुं. एमां अत्यन्त स्नेहवाळी भक्तिथी पोताना मनने रोके अने बीजुं कांई न जुए के न विचारे ॥३३॥
ए प्रकारे भगवान् हरिमां भाव प्राप्त करवो. पछी भक्तिथी हृदयने पिगाळतो तथा आनन्दथी रोमाञ्चयुक्त थतो, उत्कण्ठाथी ऊभराई आवतां नेत्रना जळथी दुःखी थता साधके धीरे-धीरे चित्तवडे भगवानने पकडवानुं पण छोडी देवुं (बडिश=माछलाने पकडवाना काण्टानी पेठे भगवानने पकडतां श्रम थाय तो एने पण छोडी दे) ॥३४॥
ज््यारे एवी रीते मन पोताना आश्रय अने विषय ध्यानमां कल्पित भगवाननी मूर्तिने छोडी दे त्यारे गुणप्रवाहथी विरक्त थई; जेम दीपकनी ज्वाला तेल खलास थतां, अथवा अग्नि लाकडां खलास थतां, ओलवाई जाय तेम ए पुरुष शान्त थईजाय ॥३५॥
जेणे मननी छेल्ली भूमिका प्राप्त करी छे. तेवो ए पुरुष सुख-दुःखथी पर पोताना महिमारूप अपवर्ग (मोक्ष) मां दृढ रहे छे. ज््यां सुधी चित्तनुं कर्तापणुं हतुं त्यां सुधी ज, सुख-दुःखना कारणरूप हतुं, हवे ए कर्तापणुं आत्मामां आवतां ए पराकाष्ठाने प्राप्त थतां कृतकृत्य थाय छे ॥३६॥
स्वरूप स्थितिने प्राप्त करवाथी ए सिद्ध पुरुषने एनो देह ऊभो छे के बेठो छे
[[३५४]] एनुं पण भान एने नथी होतुं. जेम मदिराथी गाण्डो बनेलो माणस शरीर उपर
वस्त्र छे के खसी गयुं छे ए जाणतो नथी तेम दैवथी ए देह आवे के जाय एनी एने
खबर पडती नथी ॥३७॥
खरेखर, दैवने वश एवो देह पण ज््यां सुधी पोतानुं आरम्भक कर्म होय त्यां सुधी ज जीवित रहे छे. जेम स्वपनमान्थी जागेलो स्वपननी वातने गणतो नथी तेम समाधिमां स्थिर थवाथी प्रपञ्च सहित ए देहनो साधक आदर करतो नथी॥३८॥
जे प्रमाणे अत्यन्त स्नेहने कारण पुत्र अने धनादिमां पण साधारण जीवोने आत्मबुद्धि रहे छे पण थोडो विचार करवाथी ज ते आत्माथी अलग देखावा लागे छे ए ज प्रमाणे जेने ए पोतानो आत्मामानी बेठो छे ए देहादिथी पण एनो साक्षी पुरुष अलग ज छे ॥३९॥
जेम पोतामान्थी उत्पन्न थयेल बळतुं काष्ठ तणखा अने धूमाडो जो के अग्नि तरीके मनायेल होवा छतां ते तेमज बळता काष्ठथी अग्नि जुदो छे तेम द्रष्टा आत्मा महाभूतोथी, इन्द्रियोथी, अन्तःकरणथी अने लिङ्ग शरीर तरीके ओळखाता प्रधानथी जुदो छे. ते ‘ब्रह्म’ कहेवातो भगवाननी प्रकृतिवाळो छे (तत्त्वोनी प्रकृतिवाळो नहि) ॥४०-४१॥
सर्व भूतोमां आत्माने जोवो अने आत्मामां सर्व भूतोने जोवां. भूतोमां पण अनन्य भाववडे आत्मानुं दर्शन करवुं. अग्नि एक छे, छतां पोताना उत्पत्तिस्थान काष्ठमां अनेक रूपे देखाय छे तेम कारणोनी विषमताथी प्रकृतिमां आत्मा पण भिन्न-भिन्न देखाय छे ॥४२-४३॥
तस्मादिमां स्वां प्रकृतिं दैर्वी सदसदात्मिकाम्। दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणाऽवतिष्ठते ॥४४॥
माटे कार्य कारणरूप आ प्रकृति भगवानना सम्बन्धवाळी छतां एमनी कृपा वगर दुःखे करीने पण न कही शकाय तेवी छे. कार्यकारणरूप प्रकृतिनो पराभव करी स्वरूपमां स्थिति करवी. (प्रकृति अने एना विकारनो विलय थतां स्व-स्वरूपावस्थान ए ज साङ्ख्यनो मोक्ष आ अध्यायमां कह्यो) ॥४४॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (नवमा सगुणमुक्ति प्रकरणमां योगनिरूपणे) ‘‘भगवद्ध्यानरूप योग तथा एना साधन’’ नामनो २८मो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[३५५]] दशमुं जीवमुक्ति प्रकरण
अध्याय २९
श्रीकपिलदेवजीए माताने वैराग्यमाटे बतावेलुं काळनुं स्वरूप
विशेष - ज्ञान प्रकरण एना अङ्ग साथे कहेवायुं. हवे पछीना चार अध्यायमां वैराग्यप्रकरण कहेवाय छे. सर्वनो विभाजक काळ वैराग्यनुं कारण छे. काळ भक्तिनुं कारण बे रीते थाय छेःमाहात्म्यज्ञानद्वारा तथा स्वतः तेथी लोकोने शास्त्रना भेदथी जीवनी गतिओ अनेक थाय छे. लोकना बे भेद छे; आ लोक अने परलोक. एमां वैदिक जे ब्रह्म सुधीनो काळ छे ते परलोक सम्बन्धी छे. एनी गति चार प्रकारनी छे तेथी चार अध्यायमां वैराग्यनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. जेटलुं प्रथम कहेवामां आव्युं ते बधुं काळनुं स्पर्शेलुं न हतुं. आगळ बधुं काळसाध्य छे. माटे आम काळनो विचार थतां ए काळ वैराग्यनुं कारण बने छे. काळ सर्वत्र समान छे, छतां ए स्वतन्त्र (पुरुषो) नो शत्रु छे. जेम भगवाने बधाने शिक्षा करवा यमने अधिकार आप्यो छे तेम काळने पण आप्यो छे. तेथी काळवश लोकोनी वार्ता आ अध्यायमां आवे छे. आ अध्यायमां साधनसहित काळथी थती भक्ति अने माहात्म्य विस्तारथी कहेवाय छे. जो सर्गलीलामां काळना माहात्म्यनी उत्पत्ति न थाय तो कोईने वैराग्य थाय ज नहि. आ बधां आधिभौतिक महाभूत छे एम पण आथी समजवानुं छे. लक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ स्वरूपं लक्ष्यतेमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥१॥
देवहूति बोल्या - हे प्रभो! आपे महत्तत्त्व, प्रकृति अने पुरुषनां लक्षण तथा स्वरूप के जेनाथी बधानुं खरुं स्वरूप जाणी शकाय ते कह्याम् ॥१॥
ए लक्षणो अने स्वरूपो साङ्ख्यमूलक छे. हवे आप मने भक्तियोगनो मार्ग विस्तारथी कहो ॥२॥
के जेनाथी हे भगवान्! पुरुष सर्व तरफथी आसक्ति रहित थाय छे. जीवलोक (ना प्राणी) ना जातजातना संसारना मार्गो मने कहो ॥३॥
ईश्वररूप काळ (ब्रह्मादि) मोटाओने पण वश राखनार छे. एना भयने लीधे लोको कुशळ कर्मो करे छे. ए काळनुं स्वरूप कहो ॥४॥
मिथ्याभिमानी, नेत्र वगरनो आन्धळो, रक्षण वगरनो, तमोगुणमां घणा
वखतथी सूतेलो, कर्ममां लागेली बुद्धिवडे थाकी गयेलो लोकोमाटे योगरूपी आप
[[३५६]] *सूर्य प्रकट थया छो ॥५॥
विशेष - आ श्लोकमां लोकने मिथ्याभिमानवाळो, आन्धळो, सूतेलो अन्धारामां अटवातो कर्म करीने थाकेलो, आश्रय वगरनो कह्यो. सूर्य वगरनी रात होय त्यारे लोक एवो थाय छे. योगरूपी सूर्य उदय पामे छे त्यारे प्रकाश करे छे, आङ्खने पण प्रकाश आपे छे. अन्धाराने दूर करे छे. आश्रयरूप थाय छे, जलदी कृतार्थ पण करे छे तेथी अष्टाङ्ग योगरूपी सूर्य सर्वोद्धारक छे एम कहेवानुं तात्पर्य छे; तेथी मूळमां योगभास्कर एवुं विशेषण भगवानने आप्युं छे. मैत्रेय बोल्या - मातानुं एवुं मनोहर वचननुं अभिनन्दन करी ए महामुनि कपिलदेवजी एमना उपर प्रसन्न थया अने दया करीने हे कुरुश्रेष्ठ! एमने कहेवा लाग्या ॥६॥
श्रीभगवाने कह्युं - हे भामिनी! पुरुषना स्वभावभेदने लईने मतभेदने लीधे भक्तियोग अनेक प्रकारनो छे. स्वभाव अने गुणना भेदथी प्राणीना भावमां पण भेद जणाय छे एने अनुसारे भक्तिमार्गो पण बहु छे ॥७॥
मनमां कोईने मारवानो विचार करवो अने दम्भ, के पारको उत्कर्ष न सहन थई शकतां क्रोध करी एनुं अनिष्ट विचारी भक्ति करवी ते भक्ति तामसी भक्ति समजवी ॥८॥
अनेक प्रकारना भोगनो लाभ विचारवो अने यश तथा ऐश्वर्यनो विचार मनमां राखी बीजानी अपेक्षाए पोतानो उत्कर्ष विचारवो अने एवा भावथी मूर्तिमां पूजा करवी एने राजस भक्ति समजवी ॥९॥
करेलां दुष्कृत्य निवारवानी बुद्धिथी तथा रोगादि थयां होय तो एने दूर करवाना उदेशथी जे कर्म करवामां आवे ते तामस सात्त्विक भाव जाणवो. कर्म करवुं पण एनुं फळ पोते न लेतां भगवानने अर्पण करवुं ए राजस सात्त्विक भाव छे. आपणो धर्म जाणीने कर्म करवुं ए सात्त्विक भाव जाणवो ॥१०॥
हुं सर्व प्राणीओना हृदयाकाशमां रहेलो छुं. एवा मारा गुण साम्भळतां ज जेम अनेक पर्वतोने भेदीने गङ्गानो प्रवाह समृद्रनी दिशामां निरन्तर वहे छे तेम मननी गति अविच्छिन्न प्रवाहरूपे मारामां वह्या करे तो ए लक्षण निर्गुणभक्तियोगनुञ्छे ॥११॥
१कोईपण फलनी आशा वगरनी, २अविरत, निरोधपूर्वकनी भक्ति पुरुषोत्तममां३ करवी ए आत्यन्तिक भक्तियोग कहेवाय छे ॥१२॥
[[३५७]] विशेष - १. कोई बीजा फळनो विचार करी ए मेळववामाटे भगवाननी भक्ति करवी ते
कारणवाळी भक्ति कहेवाय. एवा फळनो जेमां उदेश न होय ते अहैतुकी भक्ति कहेवाय. ए ज
भक्ति भगवत्प्राप्तिका थाय. बीजी तो ते-ते फळने सिद्ध करनारी होवाथी भगवान् सुधी
पहोञ्चाडी शकती नथी.
२. कोई तेने रोके, लोक वेद वगेरेनो बाध आवे तो एने पण न गणतां ए कर्या करे ते अथवा
काळनो के कर्मनो पण बाध आवे तेने पण न गणे ते भक्ति. एमां निद्रा, भोजन वगेरेनुं
व्यवधान न गणाय केमके ए तो भक्तिनां पोषण करनारां छे.
३. पुरुषोत्तममां ज भक्ति करवी; एटले अंश, कला, विभूति वगेरेमां स्नेह नहि पण
पुरुषोत्तममाञ्ज भक्तियोग करवो; एम होवाथी ‘पुरुषोत्तम’ नाम कह्युं छे.
वळी सालोक््य१ सार्ष्टि२ सामीप्य३ अने सारूप्य४ एवी चार प्रकारनी मुक्ति
आपतां छतां मारा भक्तो मारी सेवा विना बीजुं कांई लेता नथी ए आत्यन्तिक
भक्तियोग जाणवो. एनाथी त्रण गुणने छोडी जीव मारा भावने पामे छे ॥१३-१४॥
विशेष - १. वैकुण्ठमां वास करवो. २. भगवानना जेवुं ऐश्वर्य.३. भगवाननी पासे रहेवुं.
४. भगवानना जेवुं चतुर्भुजादिरूप थवुं.
जेमां हिंसा न थाय तेवां निष्काम उत्तम कर्म स्वधर्मना *निरन्तर सेवनपूर्वक
नित्य करतां, मारी मूर्तिनुं दर्शन करवुं, चरणस्पर्श करवो, पूजा करवी, स्तुति करवी,
अभिनन्दन करवुं, प्राणी मात्रमां मारी भावना करवी एटले के ए भगवद्रूप छे के
एनामां भगवान् बिराजे छे एवी भावना करवी, सत्त्ववृत्ति सेवी आसक्तिने
अळगी करवी. मोटाओने बहु मान आपवुं, दीन जन उपर दया करवी, सरखे
सरखानी मित्रता राखवी, बार प्रकारना यम अने बार प्रकारना नियम करवा,
आध्यात्मिक साङ्ख्यादि शास्त्रनुं गुरुना मुखथी श्रवण करवुं, मारा नामनुं कीर्तन करवुं,
सरळता राखवी, श्रेष्ठ पुरुषोनो सङ्ग करवो, अहङ्कारथी दूर रहेवुं आ बधा भक्तिने
उत्पन्न करनार मारा धर्म छे. एनुं सेवन करवाथी तथा मारा गुण मात्रनुं श्रवण
करीने पुरुष मने प्राप्त करे छे ॥१५-१९॥
विशेष - अन्तःकरण सोळ कलावाळुं छे; तेनी शुद्धिने माटे धर्मनां १६ विशेषण अर्ही कहेवामां आव्यां छे. एक-एक धर्म एक-एक अंशने शुद्ध करे छे. जेम वायुमां रहेली गन्ध नासिकाने प्राप्त थाय छे तेम योगमां आसक्तिवाळुं अविकारी मन आत्माने जई मळे छे ॥२०॥
[[३५८]] हुं प्राणी मात्रनो आत्मा होवाथी सर्व प्राणीमां ते-ते रूपे सदा रहुं छुं. तेथी जे लोको प्राणी मात्रमां रहेल मारो (परमात्मानो) अनादर करी मात्र मूर्तिना पूजनमां लाग्या रहे छे तेओनी ते पूजा स्वाङ्ग मात्र छे ॥२१॥
सर्व प्राणीओमां रहेल सर्वना आत्मारूप अने सर्वना नियामक एवा मने छोडीने मूर्तिनुं भजन करे ए भस्ममां होम करवा जेवुं करे छे. (जेम भस्ममां होमेलुं स्वर्गप्रापक नथी बनतुं तेम केवळ मूर्तिमां करेलो उपचार भगवत्प्रापक नथी) ॥२२॥
भेददृष्टि राखनारो अने अभिमानी पुरुष बीजाना शरीरमां रहेला मारा स्वरूपनो द्वेष करे छे अने प्राणीओ साथे वेर बान्धे छे तेवाना मनने क््यांय शान्ति मळती नथी ॥२३॥
हे निष्पाप माताजी! अनेक प्रकारनी नानी-मोटी सामग्रीवडे मूर्तिमां मारी पूजारूपी कर्म करे पण प्राणीओनो अपकार करे तेना उपर हुं प्रसन्न थतोनथी ॥२४॥
ज््यांसुधी नित्य कर्म करतो पुरुष सर्व प्राणीमां वास करीने रहेला ईश्वररूपी एवा मने न देखे त्यांसुधी भले मूर्तिमां ए मारी पूजा करे ॥२५॥
पोतानी अने पारकानी वच्चे भेद जोनार माणस भेदज्ञानवाळो कहेवाय. एवा माणसने हुं मोटो भय करुं छुं. एवो भेदभाववाळो भलेने मारी भक्ति करतो होय तेवाने भक्तिनुं फळ तो दूर रह्युं पण एने हुं काळरूपी महान भय प्राप्त करावुं छुं ॥२६॥
माटे सर्व प्राणीओमां वास करीने रहेला प्राणीना आत्मारूप एवा मने दान, मान, मैत्री अने अभेदभाववडे पूजवो, (अर्थात् सर्वमां आत्मभाव राखी जेने जे योग्य होय ते आपवुं, हलकाने दान, मोटाने मान, समानमां मैत्री एम सर्वत्र ब्रह्मभावथी वर्तवुं ए ज भगवाननुं पूजन ज्ञानीने मुख्य छे) निर्जीव पथ्थर वगेरे, प्राणवाळां वृक्षो वगेरे उत्तम एना करतां श्वास लेनार श्रेष्ठ अने एनाथी इन्द्रियोवडे विषयने ग्रहण करनार श्रेष्ठ गणाय. तेमां पण स्पर्शने जाणनार करतां रसने जाणनार उत्तम. तेमनाथी गन्धना ज्ञानवाळा श्रेष्ठ छे तेमनाथी शब्दना ज्ञानवाळां उत्तम छे; तेमनाथी रूपना भेद जाणनारा अने तेमनाथी बेवडी दान्तनी पङ्क्तिवाळाओ श्रेष्ठछे. एथी झाझा पगवाळा श्रेष्ठ एनाथी चार पगवाळाउत्तम ॥२७-३०॥
चार पगवाळाथी बे पगवाळा उत्तम छे. बे पगवाळा माणसमां पण चार वर्णो [[३५९]] ते पैकी ब्राह्मण उत्तम, ब्राह्मणोमां पण वेदने जाणनार उत्तम, वेद जाणतो होय तेनां करतां वेदनो अर्थ जाणनार श्रेष्ठ ॥३१॥
अर्थने जाणे पण बीजाना सन्देहने दूर न करे ते श्रेष्ठ न गणाय. बीजानी शङ्काने मटाडे ते उत्तम. शङ्का दूर करे पण शास्त्रमां कहेलां कर्म न करे तो-तो ए ठीक न कहेवाय माटे पोते ए धर्मनुं आचरण करे ते श्रेष्ठ. कर्म करनारमां पण जेने देहाभिमान न होय ते उत्तम. एना करतां पण निरभिमान थई आलोक-परलोकनी प्राप्तिमाटे कांई प्रयत्न तो न करे पण इच्छाए न करे ते उत्तम ॥३२॥
माटे बधां क्रिया अने अर्थ मारामां अर्पण करनार, नित्य पोताना आत्माने मारामां अर्पण करनार, कर्म न छोडतां जे कांई कर्म करे ते मारामां अर्पण करे ते ज अकर्ता अने समदर्शन कहेवाय छे. एनाथी आ जगतमां बीजा कोईने हुं उत्तम जोतो नथी ॥३३॥
उपर प्रमाणे समदर्शी होय तो पण बहु मानपूर्वक प्राणी मात्रने, ईश्वर ज जीवरूपे पोताना अंशवडे रह्या छे एम मानी, प्रणाम करे ॥३४॥
हे मनुपुत्री! भक्तियोग अने योग ए बे मार्ग में कह्या ते बेमान्थी एक मार्गे चालनारो पुरुष पण भगवानने प्राप्त करे छे. (ज्ञानी योगमार्गवडे भगवानने हृदयमां जोई शके छे, ज््यारे भक्त भगवाननो साक्षात् अनुभव करनार होवाथी उत्तम छे) ॥३५॥
आ सर्व जगत् भगवद्रूप छे. प्रकृति अने पुरुषना नियामक पर, प्रकृति भगवदिच्छा, अदृष्ट विविध चेष्टावाळो स्वभाव एवुं रूपना भेदवाळुं सर्व जगत्, आङ्खथी देखाता पदार्थो अने जेने नथी जोई शकाता ते बधुं काळ कहेवाय छे, जेनाथी भेददृष्टिवाळा महत् वगेरेने पण भय थाय छे ॥३६-३७॥
काळ जे महाभूतो साथे अन्दर प्रवेश करी सर्वना आधाररूपे रहीने सर्वनुं भक्षण करे छे. ए काळ यज्ञनो अधिदेव विष्णु तमाम प्रेरणा करनाराओनो नियामक छे॥३८॥
आ काळने कोई वहालो नथी के शत्रु नथी, के कोई एनो बन्धु नथी. पोते सावधान रही गाफेल पुरुषोमां पेसी जई एनो अन्त लावे छे ॥३९॥
जेना भयथी आ पवन वाय छे, जेना भयथी सूर्य तपे छे, जेना भयथी इन्द्र
वर्षे छे अने नक्षत्रोनो समूह प्रकाशे छे, जेना भयथी वनस्पतिओ, औषधिओ
साथे लताओ समयानुसार पुष्प अने फळने धारण करे छे, भय पामेली नदीओ वहे
छे, समुद्र मर्यादा छोडतो नथी, जेना भयथी अग्नि बळतो रहे छे, पर्वतो सहित
[[३६०]] पृथ्वी जळमां डूबती नथी; आ बधुं ए काळना भयने लीधे ज ॥४०-४२॥
सौने पोतपोतानी मर्यादामां राखवुं ए ज काळनुं कर्तव्य छे. जेने वश होवाने लीधे आकाश प्राणीओना प्रसिद्ध स्थानने धारण करे छे अने (प्रकृति, अहङ्कार अने पाञ्च महाभूतो) सातथी र्वीटायेल महत्तत्त्व पोताना लोकरूप देहने विस्तारे छे ॥४३॥
ब्रह्मा विष्णु अने रुद्र आदि देवो के जेमने स्थावर-जङ्गम आ सर्व प्रपञ्च वश छे अने जेओ काळनी आज्ञाथी एनां उत्पत्ति पालन अने नाश करे छे ते पण काळने वशछे ॥४४॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालोऽनादिरादिकृदव्ययः ॥ जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनाऽन्तकम् ॥४५॥
ए अविनाशी काळ स्वयं अनादि पण बीजानो आदिकर्ता (उत्पादक) छे. स्वयं अनन्त होवा छतां बीजानो अन्त करनार छे. ए पिताथी पुत्रनी उत्पत्ति करावी सारा जगतनी रचना करे छे. अने पोतानी संहार शक्ति मृत्युद्वारा यमराजने पण मरावी नाखी एनो अन्त करी दे छे ॥४५॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (दसमा जीवमुक्ति प्रकरणमां पहेलो अने योगनिरूपणमां बीजो) ‘‘श्रीकपिलदेवजीए माताने वैराग्यमाटे बतावेलुं काळनुं स्वरूप’’ नामनो ओगणत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. अर्ही मैत्रेयानुसारी योगशेषभक्ति बीजो अध्याय पूरो थयो. तमारुं वाञ्चन क्याङ्क एकडा वगरना र्मीडा जेवुं तो नथी!!! सत्सङ्ग-मण्डळमां होय, भगवद्वार्तामां होय के व्यक्तिगत होय षोडशग्रन्थ विनानुं वाञ्चन एकडा वगरना र्मीडा समान जाणवुं
अध्याय ३०
गृहस्थने काळथी थतां दुःख
विशेष - आम काळ पोतानुं अन्त लाववानुं काम चलावी रह्यो छे. एनो भय न गणतां जे घरमां बेसी रहे छे ते नदीना प्रवाहमां घरवाळानी जेम दुःखी कहेवाय छे. आत्मज्ञानी नहि [[३६१]] ईं उं ईं उम्पण बहिर्मुख ज काळनो कोळियो थाय छे तेथी बहिर्मुखने बन्ने लोकमां काळ दुःख दे छे. आ अध्यायमां गृहस्थने आ लोकमां अने स्वर्गादि परलोकमां जे मोटां दुःख पडे छे तेनुं फरी जन्म थतां सुधीनुं वर्णन छे. १८ श्लोकथी जन्मथी मरण सुधीनुं वर्णन छे. १६ श्लोकथी जन्मथी मर्या पछीथी पाछो जन्मे तेनी अन्दरनां दुःखनुं वर्णन छे. अर्ही वैराग्य प्रकरण होवाथी प्रपञ्च विस्मृतिमाटे आ बधुं कहेवानी जरूर छे. तस्यैतस्य जनो नूनं नाऽयं वेदोरुविक्रमम् ॥ काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥१॥
श्रीभगवाने कह्युं - बलवान वायु जेवी रीते मेघमाळाने भयजनक छे तेवी रीते ते काळ जीवने जुदी-जुदी योनिओमां अने अवस्थाओमां धकेली तेनी कचुम्बर करी नाखे छे पण तोय जीव तेना प्रबल पराक्रमने पिछाणतो नथी ॥१॥
मने सुख थशे एवा उदेशथी ए जे-जे पदार्थो मेळवे छे. ते बधाने (काळ) भगवान् उडावी दे छे, जेमना करेलान्नो पुरुष शोक करे छे ॥२॥
कारण के दुष्ट बुद्धिवाळो ए आ क्षणभङ्गुर देहना सम्बन्धवाळां घर, क्षेत्र, धन, पशु वगेरेने मोह वशात् नित्य माने छे ॥३॥
जन्ममां करतां जे-जे योनिमां माणस देहने धारण करे छे ते-ते योनिमां सुख (स्त्री, अन्न, निद्रा) प्राप्त करे छे पण एमां विरक्त थतो नथी ॥४॥
पुरुष नरकमां रहेतां पण नारकी देहने छोडवाने इच्छतो नथी केमके नारकी योनिमां पण देवमायाथी मोह पामी ते सुख माने छे ॥५॥
प्राकृत आत्मा देह, स्त्री, पुत्रो, घर, पशु, द्रव्य अने बन्धु ए छ अङ्गवाळो छे. एनी बुद्धि एमां चोटेली होवाथी एना भारथी ए दुःखी थाय छे; आम छतां ए पोताना आत्माने बहुसुखी माने छे. एने वैराग्य थवो जोईए एने बदले ए एमां प्रीति करतो जणाय छे ॥६॥
आमनुं पोषण वगेरे करवामां अङ्गे अङ्गमां लाय लागे छे तो पण ए दुष्ट अन्तःकरणवाळो मूढ आङ्खो मीची पेट भरीने पाप करे छे ॥७॥
बन्ने लोकनो नाश करनारी कुलटा स्त्रीओना कपटपूर्ण वचनोने ए एनो प्रेममानी पागल थई जाय छे. अने एनो आत्मा नानां बाळकोनी काली घेली बोलीमां आसक्त थई ए तरफ आकर्षाय छे ॥८॥
घर कपटधर्मवाळुं अने दुःख प्रधान होय छे तेमां सावधान थईने जे-जे दुःख
[[३६२]] आवे तेनो उपाय करे छे अने पोताने सुखी माने छे. माथे कमरतोड भार लादेलो
होय छतां माणस पाणी पीतां सुख माने अने माथा उपरना बोजानो विचार न करे
तेवो गृहस्थाश्रमीने जाणवो ॥९॥
ज््यां-त्यां करेली घणी हिंसाथी प्राप्त करेल धनथी पुरुष तेओनुं पोषण करे छे जेनाथी ते नरकमां जाय छे. पोते तो एमने खवडावतां-पीवडावतां बचेलुं अन्न खाईने ज निर्वाह करे छे ॥१०॥
पोतानी जीविकाने माटे वारंवार शरू करवा छतां आजीविका तूटी पडतां एनो लोभ घणो वधी पडे छे. एनाथी ए अधीर थई जाय छे अने पछी चोरी, कपट वगेरे कुमार्गोवडे कोई लखपति, गुरु अथवा देवमन्दिरना पैसा पडाववानी स्पृहा करे छे ॥११॥
एम करतां पण स्त्रीपुत्रादिनुं पोषण करवामां ए असमर्थ नीवडे छे. परन्तु भाग्य मन्द होवाथी उद्यम करवा छतां एने फळ मळतुं नथी अने एनो उद्यम नकामो जाय छे; लक्ष्मी चाली जाय छे अने ए रङ्क थई जाय छे. एवी स्थितिमां पण ए लक्ष्मीनुं ध्यान करतो श्वास ले छे अने परलोक तरफ दृष्टि करतो नथी॥१२॥
पछी तो जेम कोई खेडूत पोताना घरडा बळद तरफ अनादरपूर्वक उपेक्षावृत्ति सेवे तेम हवे एनामां स्त्रीपुत्रादिनुं पोषण करवानुं सामर्थ्य न होवाथी तेओ एनुं मान राखतां नथी पण एने एक जग्याए बेसाडी मूके छे ॥१३॥
आम छतां पण एने एमां वैराग्य थतो नथी. पोते जेनुं पोषण कर्युं हतुं तेवां पुत्र वगेरे द्वारा देह निर्वाह करतो घडपणथी बेडोळ बनेलो ए घरमां मरवानी तैयारीमां पड्यो रहे छे ॥१४॥
कूतरानी जेम अपमानपूर्वक आपवामां आवेल भोजनने स्वीकारतो रोगी थई जाय छे. एनी पाचनक्रिया मन्द थतां ए थोडुं खाई शके छे अने थोडुं हरीफरी शके छे ॥१५॥
वायुवडे एनी आङ्खो फाटी रहे छे, कफथी नाडी (नो मार्ग) रोकाई जाय छे अने एमां खांसी अने श्वासवडे कण्ठमां घरेडो थाय छे ॥१६॥
बन्धुओ एनी पथारी आसपास र्वीटाइने ए सूतेलानो शोक करे छे. पछी ज््यारे ए काळपाशने वश थाय छे त्यारे बन्धुओ एने बोलावे तो पण ए बोली शकतो नथी ॥१७॥
[[३६३]] इन्द्रियोने नहि जीतनारो, कुटुम्बना पोषण करवामां आजीवन आकाश-पाताळ एक करनारो, बन्धुओनी रोककळ वच्चे घणुं कष्ट भोगवतो, बुद्धि शून्य थई ए मरण पामे छे ॥१८॥
भयङ्कर अने क्रोधयुक्त नेत्रवाळा बे यमदूतो त्यां आवे छे तेने जोतां ज मळ मूत्र छूटी जाय छे ॥१९॥
देह छोडती वेळा एने दुःख भोगववानो यातना-देह मळे छे तेमां ए जीवने यमदूतो केद करीने दोरडाथी एना गळाने बान्धी राजाना सिपाईओ गुनेगारने लई जाय तेम लाम्बा रस्तामां चलावता लई जाय छे ॥२०॥
ए बे दूतोने जोतां एनी छाती फाटी जाय छे. एमना ताडूकवाथी एना शरीरमां कम्प थाय छे. रस्तामां कूतरा करडता जाय छे. दुःखी थतो पोते करेलां पापोने ए याद करे छे ॥२१॥
मार्गमां रेती तपवाथी ए सारी पेठे तप्त थाय छे. सूर्यनो, वनना बळता अग्निनो अने गरम वायुनो एम त्रिविध तापथी सन्ताप पामतो ए भूख अने तरसथी दुःखी थाय छे. पीठमां यमदूतना कोरडानां सटाका र्वीझाय छे ते सहन करतो ए जळ अने छाया वगरना रस्तामां शक्ति न होवा छतां चाले छे ॥२२॥
डगले अने पगले ए लथडिया खातो थाकी जाय छे अने एने मूर्छा आवी जाय छे. वळी ऊठे छे अने जेम कोई अपराधीने जल्लाद फांसीने माञ्चडे लई जाय तेम सपाटाबन्ध एने यमद्वारमां पहोञ्चाडे छे ॥२३॥
यमद्वार नव्वाणुं हजार योजन दूर छे. ए त्यां चार के छ घडीमां मार मारतां पहोञ्चाडे छे तेथी ए दुःखी-दुःखी थई जाय छे ॥२४॥
त्यां ए पोते ज पोताना शरीरने घास वगेरेथी वीटीने बाळे छे. एने पोताने हाथे पोताना ज शरीरनुं मांस कापीने खावुं पडे छे; अथवा बीजो एनुं मांस एना देहमान्थी छूटुं पाडीने खवरावे छे ॥२५॥
यमना द्वारमां कूतरां अने गीधडां रहे छे. ए यातना-देहमां रहेलो जीव जीवतो होवा छतां एनां आन्तरडां बहार काढी नाखे छे. सर्पो, र्वीछीओ अने डांस वगेरेने मारेला ते एना अपराधनुं स्मरण करावी एने करडे छे ॥२६॥
शेरडीना साण्ठानी पेठे एना सर्व अवयवोने यन्त्रमां पीले छे. हाथी, वाघ वगेरेनी पासे फेङ्के छे. पर्वतपरथी नीचे पटके छे. जळ-गुफामां पूरी मूके छे ॥२७॥
[[३६४]] तामिस्र अन्धतामिस्र,रौरव वगेरे नरकोमां जे दुःख थाय छे, जेनुं वर्णन आगळ करवामां आवशे, ते बधी यातनाओने ए जीव भोगवे छे. जे पुरुष के स्त्री परस्पर मळीने पाप करे छे तेने उपर कही ए यातनाओनो भोग करवो पडे छे ॥२८॥
हे माता! नरक अने स्वर्ग अर्ही ज छे एम कहे छे. राजाने सुख अने केदीने दुःख ए प्रत्यक्ष ज अनुभववामां आवे छे. नरकमां जेवी यातनाओ छे तेवी यातनाओनो अनुभव करता माणसोने अर्ही ज जोईए छीए. त्यान्नी स्थितिनुं अनुमान आ लोक उपरथी करी लेवुम् ॥२९॥
कुटुम्बने पोषनार अने पेटने भरनार ए बधाने छोडीने मरे छे. एणे कुटुम्बनुं पापथी पोषण कर्युं अनुं फळ एने एकलाने भेगववुं पडे छे. शरीर सहित आ लोकमां बधुं छोडीने ए नरकमां जाय छे ॥३०॥
ए पापरूपी भातुं साथे लई जाय छे, प्राणीओनो द्रोह करीने एणे पाप करेलुं ते मार्गमां भोगवतो जाय छे ॥३१॥
दैवथी एने करेलां बधां ज पाप आवी मळे छे ते बधान्ने नरकमां भोगवे छे. रागवाळो पैसा चाल्या जतां दुःखी थाय तेम देह अने कुटुम्ब जाय तो पण एनी वासना मोजुद होवाथी ए दुःख भोगवे छे ॥३२॥
केवळ अधर्मज करीने कुटुम्बने पोषतो माणस अन्धतामिस्र नामना छेल्ला नरकमां जाय छे. त्यां गयेलो पाछो आवतोनथी ॥३३॥
अधस्तान्नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः ॥ क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्राऽऽव्रजेच्छुचिः ॥३४॥
मनुष्यलोकथी नीचेना लोकमां जेटलां दुःख होय ते बधां क्रमशः भोगवीने एमान्थी नीकळी जाय त्यारे ए पवित्र थाय छे. एम शुद्ध थयेलो ए जीव पाछो आ लोकमां आवे छे ॥३४॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (दसमा जीवमुक्ति प्रकरणनो बीजो) ‘‘गृहस्थने काळथी थतां दुःख’’ नामनो त्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[३६५]] अध्याय ३१ जीवनुं गर्भमां आववुं तथा गर्भमां रहीने जीवे करेली भगवाननी स्तुति
विशेष - अध्यायमां जीवने गर्भमां जे दुःख थाय छे तेनो चितार आवे छे. जीवने आ बधान्नी खबर होय छे छतां एने मोह थवाथी ए बीजी वार गर्भमां आवे छे. ज्यां सुदी देहनुं भान छे. त्यां सुधी क्रिया मुख्य छे; देहनुं भान छे त्यां सुधी ज्ञाननुं प्राधान्य नथी, कारण के कृति करतां ज्ञान दुर्बळ होय छे. तेथी त्याग कर्तव्य छे. जो क्रिया विषम थाय तो ज्ञान एने सुधारी शकतुं नथी. जो ज्ञान ज क्रिया उत्पन्न करे तो ए ज्ञान उत्तम गणाय. गृहस्थाश्रममां रहेनार धर्म ओछो करे अने अधर्म वधारे करे तो एने घणा जन्मना विपाकथी गर्भमां (शुभ) मति थाय छे. ए धर्म तामस होवाथी भूमिमां के स्वर्गपाताळमां एनुं फळ एने न मळे. पण गर्भमां ए धर्मथी एने भगवद्ज्ञान थाय छे. ए ज्ञान एनुं हित करे छे. कर्मणा दैवतन्त्रेण जन्तुर्देहोनत्तये ॥ स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥१॥
श्रीभगवान् बोल्या - कर्म भगवाननी इच्छाने अधीन छे. तेनी प्रेरणाथी देह सिद्ध करवाने पुरुषना वीर्यकणमां रही एद्वारा स्त्रीना उदरमां जीव प्रवेश करे छे ॥१॥
एक राते ए वीर्य अने स्त्रीनुं रज ए बन्ने मिश्र थाय छे. पाञ्च रात जतां एनो परपोटो थाय छे. दश दिवस थाय त्यारे बोर जेवी गोळी थाय छे. त्यार पछी दिवसो जतां मासनी पेसी जेवो ए गर्भ थाय छे ॥२॥
एक मासना गर्भमां प्रथम तो माथानो घाट देखाय छे. बे मासे हाथ-पग आदि देखाय छे. त्रण मासे नख, रुंवाडां, अस्थि, त्वचा, लिङ्ग अने छिद्रो प्रकट थाय छे ॥३॥
चार मासे रस, रक्त, मांस वगेरे सात धातुओ थाय छे. पाञ्चमे मासे एने भूख अने तरस उत्पन्न थाय छे. छ मासे ए गर्भने चारे बाजू ओर थाय छे तेमां ए ओरथी र्वीटाइने जमणा पडखामां फरके छे ॥४॥
माताना खानपानथी गर्भ वधे छे. खराब विष्ठा अने मूत्रना खाडामां ए गर्भ शयन करे छे तेमां जन्तुओ होय छे तेनी साथे ए रहे छे ॥५॥
[[३६६]] ए जन्तुओ गर्भमां करडे छे. ए अत्यन्त सुकुमार होवाथी एने मूर्छा आवी जाय छे केमके ए जन्तुओने बीजुं कंई खावानुं न होता एने करडीने निर्वाह करे छे. तेथी एने गर्भावस्थामां पण अत्यन्त दुःख भोगववुं पडे छे ॥६॥
माता अति तीखुं, उग्र, गरम, खारुं, सूकुं, खाटुं वगेरे खाय तेनी असर गर्भने थाय छे तेथी सर्व अङ्गमां एने वेदना थाय छे ॥७॥
ए बहार आन्तरडां अने अन्दर ओरथी र्वीटायेलो मोढुं पेटमां राखीने टूण्टियुं वळीने पड्यो रहे छे ॥८॥
जेम पाञ्जरामां पक्षी ऊडी शकतुं नथी तेम ए पोताना शरीरने चलाववामां अशक्त थाय छे. त्यां दैवगतिथी एने सो जन्मोनुं स्मरण थाय छे तेने याद करीने ए शोक करी ऊण्डो निसासो नाङ्खताने स्मरण थतां शान्ति शानी? ॥९॥
सात मासनो थतां एने ज्ञान थाय छे, अत्यन्त चञ्चळ थाय छे, कम्पे छे. जेम विष्ठानो कीडो एक स्थाने रही शकतो नथी तेम प्रसूतिनो वायु एने एक ठेकाणे रहेवा देतो नथी ॥१०॥
अलौकिक ज्ञान थतां ए मन्त्रदर्शी थाय छे. जे भगवाने एने उदरमां दाखल कर्यो छे ते भगवाननी चामडान्नी बनेली सात दोरीओथी बन्धायेलो ए जीव हाथ जोडी विह्वळ वाणीथी स्तुति* करे छे ॥११॥
विशेष - दश प्राणनी रक्षामाटे गर्भमां रहेलो जीव दश श्लोकवडे स्तुति करे छे; तेथी एम कहेवानुं एनुं ताप्तर्य छे के जीवे भगवाननी भक्ति अथवा शरणागति करवी. पहेला श्लोकमां शरणागति कहे छे. पछी जीव अने ब्रह्मना भेदने बतावे छे. जीवनी हीनता छे तेथी तेणे सत्सङ्ग करवो तेथी ज भक्ति थाय छे. भगवान् ज जीवनुं हित करनार छे तेथी कृपाने माटे प्रार्थना करे छे. भगवान् कृपा करे; पण भगवाननो प्रत्युपकार करवानुं सामर्थ्य नथी. ज्ञानना दाता भगवान् छे एम कहे छे अने संसार अतिदुष्ट छे तेन थाय एवी प्रार्थना करे छे आ दश श्लोकना अर्थ क्रमथी जीवकृत स्तुतिमांआवेछे, (गर्भस्तुति) ‘‘पोते उत्पन्न करेला जगतनी रक्षा करवामाटे पोतानी इच्छावडे भगवान् अनेक प्रकारनां शरीरोनो स्वीकार करे छे. ज्यां कोईपण जातनो भय नथी तेवा एमना प्रकाशमान चरणारविन्दने हुं शरणे जाउं छुं. ए भगवाने मने गर्भमां बताव्युं के संसारासक्तनी गति आवी थाय ॥१२॥
जेम पाञ्जरामां पक्षी रहे तेम आ देहमां भूत, इन्द्रिय अने अन्तःकरणरूप [[३६७]] मायाने आधार तरीके स्वीकारी जीव कर्मवडे बन्धायेलो छे. एवा मारा तप्त हृदयमां ब्रह्म शुद्ध* विकाररहित अखण्ड ज्ञानवाळुं देखाय छे तेने हुं नमन करुं छुम् ॥१३॥
विशेष - जीव मायाना स्वीकारथी कर्ममां बन्धाई गयो छे अने ब्रह्म एनाथी जुदा गुणवाळुं छे, रूप रहित छे; छतां कृपा करे तो तप्त-हृदयमां दर्शन दे छे तेथी ए कृपा करनार होवाथी नमनीय छे. प्रपत्ति अने भक्ति सिवाय जीवभाव दूर करवानो बीजो उपाय नथी एम जीव सो जन्मनुं ज्ञान थवाथी जाणे छे. ए पाञ्च भूतना बनेला शरीरथी रहित छे, छतां चैतन्यना प्रकाशथी इन्द्रियो, गुणो अने भूतोने प्रकाशित करवाने चिद्रूपे ए देहमां प्रविष्ट थया छे एवा अकुण्ठित महिमावाळा, प्रकृति पुरुषथी पर एवा भगवानने देहमां बन्धायेलो हीन एवो हुं नमस्कार करुं छुम् ॥१४॥
भगवाननी मायाने लीधे आ संसारमार्ग गुणकर्मात्मक होवाथी बन्धनवाळो छे तेमां फरतां थाकवाथी पूर्वापरस्मरण नष्ट पामेलो जीव भगवद्भक्तोना अनुग्रह वगर संसारपारने केम पामीशके?।१५। जे भगवान् स्थावर जङ्गममां अन्तर्यामिरूपे रहे छे, जेमणे त्रण काळनुं ज्ञान अत्यारे मने आप्युं छे तेमने त्रण तापने शान्त करवाना हेतुथी जीवकर्मने अनुसरनारा एवा अमे नमन करीए छीए ॥१६॥
हे भगवन्! लोही, विष्ठा, मूत्रना कूवामां पडेलो, जठराग्निथी अति तपी गयेलो गर्भमान्थी छूटवाने मासनी गणना करतो, कृपण बुद्धिवाळो एवा मने आप क्यारे मुक्त करशो? ॥१७॥
हे ईश! दश मासना गर्भने आवुं ज्ञान आपनार आप अति दयाळु छो. जेम कादवमान्थी गायने काढी कोई दयाळु पोतानी महेनत सफळ थई माने तेम आप दीनानाथ होवाथी आपना कृत्यथी ज आप प्रसन्न थाओ. बे हाथ जोडी नमन सियाय जीव बीजो क्यो उपकार करी शके?१८॥
सात धातुना देहवाळो हुं भगवाने आपेली बुद्धिवडे मारा देहमां बीजा नियामकने जोई शकुं छुं. बहार अने अन्दर जीवनी पेठे प्रतीत थता ए पुराण पुरुषने हुं नमन करुं छुम् ॥१९॥
हे विभो! अर्ही गर्भमां रहेवुं ए बहु कष्टदायक छेतेम छतां अर्हीथी बहार नीकळी
अन्धकूवारूप संसारमां जवा हुं इच्छतो नथी. कारण के संसारमां आवतां जीवने
[[३६८]] देवमाया घेरी वळे छे अने संसारचक्रमां फेरवे छे माटे गर्भमां रहेवुं ठीक छे ॥२०॥
तेथी अर्ही ज रहीने विकलताने विदाय करी देहमां पडेला मारा आत्मानो भगवान्रूपी मित्रनी सहायथी उद्धार करीश. अर्ही सत्सङ्ग वगेरेनी पण जरूर नथी कारण के भगवान् ज बधुं सिद्ध करी आपशे. में विष्णुना चरणने प्राप्त कर्या छे जेथी करीने अनेक दोषवाळुं आ दुःख फरीथी मारे देखवानुं रहेशे नहि’’ ॥२१॥
कपिलदेव बोल्या - गर्भस्थ जीव एवी बुद्धि भगवान्मां राखीने मन्त्रनुं तेने ज्ञान थवाथी भगवाननी स्तुति करे छे त्यारे एने बहार लाववामाटे प्रसूतिनो वायु एने ऊङ्घे माथे नीकळवाना द्वार तरफ प्रेरे छे ॥२२॥
ए पवन एने जलदीथी नीचे फेङ्के छे. नीचा माथावाळो ए दुःखी थाय छे अने अत्यन्त कष्ट थतां स्मृति वगरनो तथा श्वास वगरनो थई गर्भद्वारमान्थी बहार नीकळे छे ॥२३॥
पृथ्वी उपर लोही मूत्र साथे पडे छे अने विष्ठाना कीडा पेठे तरफडे छे. ज्ञान नष्ट थतां अने विपरीत गतिने पामतां बहु रोवा लागे छे ॥२४॥
बाळकना मनमां शुं छे ए एनुं पोषण करनार जाणतां नथी. एनी इच्छा प्रमाणे न थतां ए दुःखी थाय छे, पण एनी इच्छा विरुद्ध करनारने एम न करवानुं कहेवाने ए समर्थ होतो नथी ॥२५॥
अपवित्र खाटला उपर सुवडाववामां आवे छे तेमां पसीनाथी उत्पन्न थता माङ्कड, मच्छर एने करडे छे, पण अङ्गोने खञ्जवाळवाने, बेसवाने, उभा थवाने के फरवाने ए समर्थ होतो नथी ॥२६॥
कीडो जेम बीजा कीडाने करडे तेम आ बाळकने पण क्रीडा जेवो जाणी डांस अने मच्छर एनी काची चामडीमां दंश करे छे त्यारे बाळक रुदन करे छे तेथी तेने प्रथम गर्भमां जे ज्ञान थयुं हतुं ते चाल्युं जाय छे ॥२७॥
एवी रीते बाळक-अवस्था अने पौगण्ड अवस्थानुं दुःख भोगवी, अज्ञानने लीधे इच्छा प्रमाणे न मळे तेनुं दुःख थतां क्रोध करे छे अने पछी एनो शोक करे छे ॥२८॥
जेम देह वधे छे तेम काम अने क्रोध वधे छे तेथी ते कामपरवश जीव पोतानो नाश नोतरवा बीजा कामीओनी साथे लडाई करे छे ॥२९॥
पञ्चभूते बनावेला शरीरमां रहीने अज्ञानी जीव ‘‘हुं अने मारुं’’ एवो खोटो [[३६९]] आग्रह करे छे तेथी ए कुबुद्धिवाळो थाय छे ॥३०॥
ए देहने माटे कर्म करे छे तेथी एमां बन्धाइने पाछो संसारमां आवे छे. अविद्या, काळ अने कर्मना बन्धनथी त्रण दोषवाळो थई कलेश आपनार देहनी पाछळ ए जीव फर्या करे छे ॥३१॥
जेओ इन्द्रिय अने उदरनां कर्मोमां रच्या-पच्या होय तेवा असत्पुरुषोनो संसारना मार्गमां ए सङ्ग करे छे. एवाओनी साथे ए मन, वचन अने कर्मथी रमे छे; तेथी पहेलां गयो हतो तेम ए पाछो नरकमां जाय छे ॥३२॥
आवो जीव जेनामान्थी सत्य, पवित्रता, दया, मौन, बुद्धि, लक्ष्मी, लज्जा, कीर्ति, क्षमा, मनोनिग्रह, इन्द्रियोनुं नियमन अने भाग्य एटला गुण तद्न नाश पाम्या होय तेवा दुष्टनो सङ्ग करे छे ॥३३॥
जीवे आवा असत्पुरुषोनो तेमज अशान्त, शास्त्रना अर्थज्ञानथी विमुख, विषयवासनावडे भ्रष्ट मनवाळा, अनाचारी, चार पुरुषार्थनो अनादर, करनार, शोचनीय अने स्त्रीओमां रमकडां जेवा असत्पुरुषोनो सङ्ग कदि न करवो ॥३४॥
स्त्रीना अने स्त्रीना सङ्गीना सङ्गथी जेवां बन्धन अने मोह थाय छे तेवां बीजा कोईना सङ्गथी थतां नथी. (स्त्रीनो अर्थ अर्ही विषय करवामां आव्यो होवाथी पुरुषना माटे स्त्री अने स्त्रीना माटे पुरुष बन्धन अने मोहनुं कारण बने छे एम समजवुं) ॥३५॥
ब्रह्माजीए पोतानी पुत्री (सरस्वती-वाणी) नुं रूप लावण्य जोईने विवेकने वेगळो करी दीधो. वाणीए रूपनो त्याग कर्यो अने र्रीछण थई तो ब्रह्माजी र्रीछनुं रूप धरी लाज नेवे मूकी एनी पाछळ दोड्या ॥३६॥
ए ज ब्रह्माजीए मरीचि वगेरे प्रजापतिओनी तथा मरीचि आदिए कश्यप वगेरेनी अने क्श्यपादिए देव, मनुष्य वगेरेनी सृष्टि करी. तेथी तेओमां ऋषिप्रवर नारायण सिवाय एवो कोण पुरुष होई शके के जेथी बुद्धि कामिनीना कामणथी मेहित न थई जाय? ॥३७॥
अहो! मारी आ स्त्रीरूपधारी मायानुं बल तो मा तुं जो, जे दशे दिशाओमां विजयनो डङ्को वगाडनार चमरबन्धीओना चमर वछोडी नाखे छे अने पोताना भ्रुकुटिविलास मात्रथी पग नीचे तेमनो छून्दो करी नाखे छे ॥३८॥
माटे योगना परम पारने पामवानी इच्छावाळाए मारी सेवा करवी अने ब्रह्मभावने प्राप्त करी नरकद्वाररूप प्रमदानो सङ्ग न करवो ॥३९॥
[[३७०]] स्त्रीरूपी माया धीरे-धीरे हृदयमां आवे तो पण घासथी ढङ्कायेला अन्धकूवानी पेठे एने मृत्युरूप जाणी दूरथी ज छोडी देवी; माटे हृदयमां आव्या पहेलां ज सावधान रहेवुम् ॥४०॥
स्त्रीपुरुषरूपे आचरती मारी मायाने जीव गृह, पुत्र अने स्त्रीरूपे माने छे. स्त्री पुरुषने मायारूप जुए छे, पुरुष स्त्रीने मायारूप जुए छे. (पुरुष तो एक ज छे. ज्यारे ए स्त्रीनुं ध्यान धरे छे त्यारे ए स्त्री थई जाय छे अने स्त्री पुरुषनुं ध्यान करवाथी पुरुष थाय; तेथी स्त्रीपुरुषपणुं मायिक छे) ॥४१॥
जेम पारधीनुं गान मृगने माटे आत्मनाशक छे तेम दैवयोगे मळेल पति, पुत्र अने घर आत्मानो नाश करनार होवाथी पोताना मृत्युरूप समजवाम् ॥४२॥
मनुष्य देहने ज जीवरूप मानवाथी एने एक लोकमान्थी बीजा लोकमां जवुं पडे छे. त्यां कर्मोनो भोग करी पाछो ए कर्म करी शके तेथी अर्ही आवे छे ॥४३॥
महाभूत, इन्द्रिय अने मनप्रचुर देह जीवनी पाछळ फरे छे. ए बन्ध थाय तेने ‘मरण’ अने ए पेदा थाय तेने लोको ‘जन्म’ कहे छे ॥४४॥
इन्द्रियगोलक द्रव्यनुं ग्रहण करतुं बन्ध थाय त्यारे एने ‘मरण’ अने ग्रहण करवाने लायक थाय त्यारे देहनी ‘उत्पत्ति’ समजवी. जीवने तो जन्म-मरण नथी. जीवना देह साथेना अध्यासरूप सम्बन्धथी एवुं दर्शन थाय छे ॥४५॥
ज्यारे आङ्खने वस्तुना अवयव जोवानी अयोग्यता आवे त्यारे चक्षु इन्द्रियने एना द्रष्टाना अभावथी एनो ‘नाश’ कहेवाय. ज्यारे ए देखावा लागे त्यारे चक्षु द्रष्टानो ‘आविर्भाव’ गणाय ॥४६॥
भय, लाचारी अने व्याकुळता रहित थई धीर पुरुषे जीवनी गति जाणी लई अर्ही फर्या करवुं. (एक स्थले रहेवुं नहि) ॥४७॥
सम्यग्दर्शनया बुद्धया योगवैराग्ययुक्तया। मायाविरचिते लोके चरेन्न्यस्य कलेवरम् ॥४८॥
योग अने वैराग्यवाळी सम्यग्दर्शनरूप बुद्धिवडे आत्माने स्थिर करवो अने मायारचित लोकमां शरीरने रोकीने पोते एनाथी उदासीन रही काळक्षेप करवो ॥४८॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (दसमा जीवमुक्ति प्रकरणनो त्रीजो) ‘‘जीवनुं गर्भमां आववुं तथा गर्भमां रही जीवे करेली भगवाननी स्तुति’’ नामनो एकत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[३७१]] अध्याय ३२ गृहस्थना धर्म
विशेष - काळ बाधक छे तेथी निषिद्धाचारथी केवुं फळ थाय ए कहेवामां आव्युं; हवे पुण्यनुं फळ कहे छे. त्रण प्रकारना धर्मोनुं अर्ही फळ कहेवामां आवे छे. एनुं मुख्य फळ ज्ञान छे. ए अत्रे साधन सहित छे. नरकादि लोकमां अधोगति अने भूलोकमां मध्यम गति ए बन्ने गतिओ विशे कहेवामां आव्युं; हवे उत्तम गति मोक्ष सुधीनी कहेवामां आवे छे. त्रिविध धर्म; मन्द, मध्यम अने विरागरूप फळ आपनार अने अधिकारीने मोक्ष आपनारछे. अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन् गृहे ॥ काममर्थं च धर्मान् स्वान् दोग्धि भुयः निर्ति तान् ॥१॥
कपिले कह्युं - जे गृहस्थ घरमां रही गृहस्थना धर्मोनुं आचरण करे छे तेनाथी ए अर्थ अने कामने प्राप्त करी फरीने एने पोषे छे ॥१॥
ते-ते कामनामां मूढ बनेलो जीव भगवद्धर्मथी विमुख रही यज्ञोवडे देवोनुं यजन करी श्रद्धायुक्त थई ए पितृओने भजे छे ॥२॥
ए श्रद्धामां जेनी बुद्धि चोटेली छे तेवो पितृओ अने देवोना व्रत करनार ए जीव चन्द्रलोकमां जाय छे अने सोमपान करी त्यान्थी पाछो आ लोकमां आवे छे ॥३॥
अनन्त (शेष)ना आसनवाळा भगवान् हरि सर्पराजनी शय्यामां शयन करे छे त्यारे ए गृहस्थाश्रमीओना लोकनो क्षय थई जाय छे ॥४॥
जे धीर पुरुषो कामनानी तृप्तिमाटे के अर्थनी प्राप्तिमाटे धर्मनो उपयोग नथी करता, पण धीर थई आसक्ति छोडी कर्मोनो त्याग करी प्रशान्त, शुद्धबुद्धिवाळा, निष्ठा राखी अहन्ता अने ममताने छोडी दास्य वगेरे स्वधर्म अने सत्त्व युक्त थई चित्तनुं शोधन करी निवृत्तिधर्मनुं आचरण करे छे ते जीवो अन्ते सूर्यमार्ग (अर्चिमार्ग अथवा देवयान) द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरिने ज प्राप्त थाय छे. जे कार्य कारणरूप जगतना नियन्ता, संसारनुं उपादान कारण अने एनां उत्पत्ति, पालन तेमज संहार करनारा छे ॥५-७॥
ब्रह्माजीना आयुष्य बे परार्धना अन्ते जे प्रलय थाय छे. त्यां सुधी पर
(एटले पुरुषनुं) पुरुषोत्तम तरीके चिन्तन करनारा तेओ ब्रह्माजीना सत्यलोकमां रहे
[[३७२]] छे ॥८॥
पृथ्वी, जळ, तेज, वायु, आकाश, मन, इन्द्रियो, विषयो, अहङ्कार वगेरेथी ब्रह्माण्ड घेरायेलुं छे. एनो संहार करवानी ज्यारे भगवाननी इच्छा थाय त्यारे ब्रह्मा बे परार्द्ध वर्ष पर्यन्त आयुष्यभोगवी प्रकृतिमां प्रवेश करे छे ॥९॥
ज्यारे ब्रह्मा प्रकृतिमां दाखल थाय त्यारे एनी नारद वगेरे अधिकारीओ अने प्राणवडे मननो निरोध करनार वीरक्त योगीओ, जेमणे प्राण अने मनने जीत्या छे (जेओ रागने छोडे छे पण अभिमानने छोडी शकता नथी) ब्रह्माजीनी साथे प्रधान पुराण पुरुष अने अमृतरूप ब्रह्मने ते प्राप्त करे छे ॥१०॥
हे भामिनी! भगवान् जे सर्व प्राणीओनी हृदयगुहामां बिराजमान छे अने जेमनो प्रभाव तें पण मारी पासेथी साम्भळ्यो छे. एने भक्तिपूर्वक शरणे जा॥११॥
स्थावर-जङ्गमना आदि कर्ता वेदगर्भ ब्रह्मा, मरीचि आदि ऋषिओ, योगेश्वर, सनकादि अने योग प्रवर्तावनार सिद्धोने भेददृष्टि अने अभिमान होवाथी निःसङ्ग तेओ कर्म करतां छतां सगुण ब्रह्मने पामे छे ॥१२-१३॥
ज्यारे काळथी गुणोमां पाछो क्षोभ थाय छे त्यारे त्यां भ्रमण करता ब्रह्मा वगेरे प्रथमनी माफक फरीथी प्रकट थायछे ॥१४॥
आ प्रमाणे पूर्वोक्त ऋषिगण पण पोतपोतानां कर्म प्रमाणे ब्रह्मलोकना ऐश्वर्यने भोगवी भगवदिच्छाथी गुणोमां क्षोभ थतां फरी संसारमां आवे छे ॥१५॥
जेमना मन आ संसारमां आसक्त छे; जेमने कर्ममां श्रद्धा छे; जेओ शास्त्रोमां मना न करेल अने नित्य करवानां कहेलां कर्मो पण सम्पूर्ण रीते करे छे; रजोगुणथी जेमनी बुद्धि कुण्ठित थई गई छे; जेमना मन उपर कामे कबजो जमावी दीधो छे; जेमनी इन्द्रियो बेकाबू, निरङ्कुश छे. बस, पोताना घरोमां ज आसक्त थई तेओ त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ अने काममां ज माननार पुरुषो रोज पितृओनुं पूजन करे छे. ज्यारे सर्वनां सर्व दुःख हरनारी बुद्धिवाळा, जेमना महान पराक्रम कीर्तनीय छे तेवा श्रीमधुसूदन भगवाननी कथाथी तो तेओ विमुख रहे छे ॥१६-१८॥
जेम भूण्ड अन्न छोडी विष्ठा खाय छे तेम भगवाननी अमृतरूप सुधा छोडी जे लौकिक विषय वार्ताओ साम्भळे छे तेमने जरूर दैवे प्रतिकूळ इन्द्रियो आपीने मारी नाख्या छे ॥१९॥
जेमनी गर्भाधानथी माण्डी स्मशान सुधीनी वैदिक क्रियाओ थयेली छे तेओ [[३७३]] यमना दक्षिण लोक तरफ थईने पितृलोकमां जाय छे अने पोतानी प्रजाने त्यां पाछा जन्मे छे ॥२०॥
हे सती! ज्यारे सुकृत क्षीण थाय छे त्यारे देवोए जेना बधा धन, ऐश्वर्य भ्रष्ट कर्या छे तेवा ए जीवो आ लोकमां फरी पडे छे ॥२१॥
तेथी जेमनां चरण कमल भजन करवा योग्य छे तेवा पुरुषोत्तमनुं तेमना गुणना आधारवाळी भक्तिथी तुं सर्वभावथी भजन कर. (सर्वभावः आ लोकना अने परलोकना साधनरूप, देहथी माण्डी ईश्वर सुधीनां जेटलां भजन करवा योग्य स्वरूपो छे अने जे-जे भावोथी तेओ भजन करवा योग्य छे. ते बधा भावो भगवान्मां ज करवा ते सर्वभाव. श्रीसुबोधिनीजी) ॥२२॥
वासुदेव भगवान्मां करेलो भक्तियोग तरतोतरत वैराग्य अने ज्ञानने उत्पन्न करे छे ॥२३॥
तेथी ज्यारे इन्द्रियोनी वृत्तिओ द्वारा पण भगवद्-भक्तनुं चित्त एमां प्रियअप्रिय रूप विषमतानो अनुभव नथी करतुं सर्वत्र भगवान् ज देखाय छे ए ज वखते ते सङ्गरहित, बधाम्मां समानरूपथी स्थित त्याग अने ग्रहण करवा योग्य दोष अने गुणोथी रहित होय तेवुं स्थान प्राप्त करेलो पोताना आत्मानो ब्रह्म स्वरूपे साक्षात्कार करे छे ॥२४-२५॥
ए ज ज्ञान स्वरूप छे, ए ज परब्रह्म छे, ए ज परमात्मा छे, ए ज ईश्वर छे, ए पुरुष छे, ए ज एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियो वगेरे अनेक रूपे देखाय छे ॥२६॥
सम्पूर्ण संसारमां आसक्तिनो अभाव थई जाय बस आ ज योगीओनी बधा प्रकारनी योग साधनानुं एक मात्र अभीष्ट फल छे ॥२७॥
ज्ञान* एक ज छे. ए ब्रह्मरूप अने निर्गुण छे. प्राकृत इन्द्रियोथी ग्रहण थता अर्थरूपे देखाय छे, पण प्राकृत इन्द्रियो जे वस्तु ग्रहण करे छे ते वस्तु सत् नथी. (शब्दादि धर्मवाळा अर्थो अन्तरासृष्टिवडे देखाय छे) ॥२८॥
विशेष - जेम अन्वय अने व्यतिरेकवडे सत् सिद्ध थाय छे तेम चित् पण अन्वय अने
व्यतिरेकवडे सिद्ध थाय छे. तेथी लौकिक के वैदिक व्यवहार बोधमां पर्यवसित थाय छे. जेम बधा
तरङ्गो समुद्रमां समाई जाय छे तेम एक ज ज्ञान व्यापक अने बृहद् होईने प्राकृत इन्द्रियोवडे
घटपटादि अर्थरूपे भ्रान्तिथी देखाय छे. तेथी ज छीपमां रूपानी जेम देखाय छे. तेथी वस्तुविचार
[[३७४]] करी देखाता पदार्थ भ्रान्तिमूलक होईने एमां आसक्ति न करवी ए इन्द्रियो प्राकृत होवाथी प्राकृत
बुद्धिवडे अर्थोने ग्रहण करे छे ते ए पदार्थोने एना एकदेशी स्वरूपमां ग्रहण करे छे ते ए पदार्थोने
एना एकदेशी स्वरूपमां ग्रहण करे छे. स्व-स्वभाव ग्रहण करे छे तेथी खरा स्वरूपमां ते ग्रहण
थता नथी, पण जुदी रीते ग्रहण थाय. ए इन्द्रियो पोताना धर्म एमां आरोपीने ए वस्तुने
ग्रहण करे छे; तेथी ज अनेक ख्यातिवादोनो जन्म थयो छे. धर्मनुं ज वस्तुगतिथी प्रतिभान ते
अन्यख्याति, आधारने आगळ करी एमां विशेष कल्पना करी ग्राहक धर्मनो सम्बन्ध एमां करतां
अन्यथा ख्याति थाय छे; तेथी जेम प्रतीति भ्रान्तिथी थाय छे तेम कल्पना पण भ्रान्तिथी थाय
छे तेथी एवा भ्रान्त ज्ञानथी ग्रहण थता पदार्थोमां अति आग्रह न करवो. आ अर्थ शब्दादि
धर्मवाळो छे. ए धर्मो अनादि वासनावडे स्फुरे छे; तेथी मिथ्यावादीओ पण एकदेशी वैराग्यमां
दाखल थाय छे; एमनो पण एकदेशीमां सङ्ग्रह थाय छे.
महत्तत्त्व, त्रण प्रकारनो अहङ्कार, पाञ्च प्रकारनां भूत, प्राण अने विषयो,
एकादश इन्द्रियो, एनी अन्दर स्वराट् एटले नारायण, एनो देह विराट्, एने
ढाङ्कनारुं ब्रह्माण्ड, एनी अन्दर रहेलुं कार्यरूप जगत् ए बधां ज्ञाननी प्रतीतिवडे धर्म
सहित आखुं देखाय छे ॥२९॥
आ (उपर कहेलुं) खरेखर विरक्त ज जोई शके छे कारण के वैराग्य ए भगवाननो छठ्ठो गुण छे अने वैराग्य सिद्ध करी आपनार छे पाञ्च साधनो - १.श्रद्धाभगवान्मां आस्तिक्य बुद्धि २. भगवाननी भक्ति ३. सदातन अष्टाङ्ग योग ४. एकाग्र चित्त ५. अनासक्ति. अविरक्त आ जोई शकतो नथी ॥३०॥
हे गुरु (स्वरूप माताजी)! में आ ब्रह्मनुं ज्ञान कह्युं तेनाथी प्रकृति अने पुरुषनुं तत्त्व जाणी शकाय छे. मारामां निष्ठावाळो ज्ञानयोग अने निर्गुण भक्तियोग ए बन्नेना फळरूप एक भगवान् ज छे तेथी बन्ने शास्त्रो एक ज छे.(बीजा छ शास्त्र एना अङ्गरूप छे) ॥३१-३२॥
इन्द्रियोना भेदथी जेम एक ज अर्थ जुदो देखाय नेत्रथी सफेद, जिह्वाथी मधुर, त्वचाथी शीतळ एम जेम बहु गुणनो आश्रय एक ज छे तेम शास्त्रोना मार्गोवडे एक ज भगवान् विविध प्रकारे ग्रहण कराय छे ॥३३॥
स्नानादि क्रियावडे, यज्ञोवडे, दानोवडे, तपोवडे, वेदाभ्यासवडे, विचारवडे, अन्तःकरण अने इन्द्रियोना संयमवडे, कर्मना सन्न्यासवडे,नानाविध योगोवडे, भक्तियोगवडे, प्रवृत्ति तथा निवृत्ति लक्षणवाळा धर्मोवडे, आत्मा अने तत्त्वोना [[३७५]] ज्ञानवडे (साङ्ख्यशास्त्रना चिन्तनवडे) अने दृढ वैराग्यवडे, आ बधां साधनोवडे भगवान् जे प्रथम सगुण देखाता हता ते ज भगवान् निर्गुण स्वदृक आत्मारूपे प्राप्त थाय छे ॥३४-३६॥
में तने चार प्रकारनो भक्तियोग कह्योःमनुष्यनी अन्दरजे रह्योछे छतां जेनुं स्वरूप जाणवामां आवतुं नथी; अने तेथी जे बहार जणातो नथी. ते कालनुं स्वरूप पण में तनेकह्युम् ॥३७॥
अविद्या अने कर्मथी उद्भवेलो जीवनो अनेकविध संसार कह्यो आवा संसारमां पडेलो जीव आत्मामां पोताना स्वरूपने जोई शकतो नथी ॥३८॥
आ साङ्ख्यशास्त्र जे में तने कह्युं छे ते तमे दुर्जनने अभिमानीने, मूढने बीजा मतमां रहेलाने, पाखण्डीने, लोभीने, घरमां आसक्तिवाळाने, अभक्तने अने मारा भक्तना द्वेषीने कदी पण कहेशो नहि ॥३९-४०॥
जे श्रद्धावाळो भक्त, विनयवाळो, बीजानो उत्कर्ष जोई खुशी थनारो, भूत मात्रमां मित्रता राखनार अने सेवामां आसक्तिवाळो होय, बाह्य पदार्थमां वैराग्यवाळो, शान्त चित्तवाळो, मत्सर रहित, पवित्र अने जेने सौथी प्रियमां प्रिय हुं होउं तेने ज मारुं ज्ञान आपवुम् ॥४१-४२॥
य इदं शृणुयाद् अम्ब! श्रद्धया पुरुषः स्वदृक् ॥ यो वाऽभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदर्वी च मे ॥४३॥
हे माताजी! जे पुरुष अन्तर्दृष्टि थई मारुं ज्ञान श्रद्धाथी साम्भळे तथा मारामां चित्त राखी बीजाने सम्भळावे ते ए मारी पदवी प्राप्त करे छे ॥४३॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (दसमा जीवमुक्तिनी अन्दर स्त्रीमुक्तिनो
पहेलो) ‘‘गृहस्थना धर्म’’ नामनो बत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
भगवत्सेवा अने भगवद्गुणगान ए भक्तिमयी पवित्र
जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमाञ्जाहेर
सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला,
मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला
‘भक्ति’ शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
[[३७६]]
ईं उं ईं उं
अध्याय ३३
कपिलदेवनुं पधारवुं, देवहूतिनी मुक्ति
विशेष - गया आठ अध्यायमां आठ मत कहेवामां आव्याःमुख्य भक्ति, साङ्ख्य, ज्ञान, योग अने चार अध्यायथी वैराग्यशेष चार मतो. ए बधानुं फळ मुक्ति छे. ए आ अध्यायमां कहेवाय छे. आमां स्त्रीनी मुक्ति कहेवाय छे. अर्ही सर्ग पूरो थाय छे. कारण के देवो लीलाने माटे प्रकट्या छे. नसर्गथ नामनी लीला तेत्रीस प्रकारनी छे. ए देवहितकारिणी छे. आठ वसु, अगियार रुद्र, इन्द्र, एक प्रजापति अने बार आदित्य तेमां इन्द्र, प्रजापति अने आदित्य ए चौद सात्त्विक छे; तेनाथी मुक्ति लीला कही छे. प्रथम १९ अध्यायमां बन्धलीला कही छे. मुक्ति तो साधनथी न मळेःए कृपाथी सिद्ध थाय. कृपा सम्बन्ध मात्रथी न थाय, आराध्य प्रसन्न थाय त्यारे ज थाय. माटे ज ए पहेलां अर्ही स्तुति छे. पछी कृपा अने एना फळरूप मुक्ति ए क्रम अर्ही आपेलो छे. आने सर्गपणुं छे ए बताववा वक्तानी स्थिति कही छे. ए भगवान् होईने एनी स्थितिमां सर्गनी प्रतिष्ठा छे. आवो शास्त्रार्थ जाणे त्यारे भगवानने प्रसन्न करवानो यत्नकरे. तेथी कपिलने प्रसन्न करवामाटे अर्ही देवहूतिनो यत्न कहेवामां आवे छे. एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ॥ विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य तुष्टावतत्त्वविषयाकिन्तसिद्धिभूमिम् ॥१॥
मैत्रेय बोल्या - कर्दमनां पत्नी अने कपिलनी माता देवहूति आवां वचन साम्भळी मोहरूपी अन्धार पछेडाथी मुक्त थयां. तत्त्वने कहेनार अने साङ्ख्यशास्त्रनी सिद्धिना क्षेत्ररूप कपिलदेवने सारी रीते प्रणाम करी एनी स्तुति करवा लाग्याम् ॥१॥
देवहूतिए कह्युंः जळमां सूतेलां, महाभूत, इन्द्रिय अने तन्मात्रा अन्तःकरणना सत्तत्त्वरूप, सर्वजगत्ना बीजरूप, जेना रूपमां गुणप्रवाह देखाय छे तेवा आपना स्वरूपनुं ब्रह्माजीए ध्यान धर्यु तो पण ए आङ्खथी जोई न शक्या तेज आपसाक्षात् मारा जठरथी प्रकट थया ए मोटा आश्चर्यनी वातगणाय ॥२॥
गुणप्रवाहवडे वहेञ्चीने (ब्रह्मा, विष्णु अने रुद्र-रूपे) आप ज जगत्ने उत्पन्न करो छो. ए पण कांई चेष्टा कर्या विना ज, कारण के आप सत्य सङ्कल्प छो. आप जेवी इच्छा करो तेवुं करवाने आपनी चेष्टानी जरूर नथी. ए इच्छा मात्रथी थई जाय छे. आप ईश्वर, आत्मा अने अतकर्य हजारो शक्तिवाळा छो; तेथी जे [[३७७]] कहीए ते बधुं ज आपमां सम्भवे छे ॥३॥
हे नाथ! पहेलां आखुं जगत् आपना उदरमां हतुं. पछी युगान्ते एकला मायाथी बालकरूप बनी वडना पत्रमां पगनो अङ्गूठो मोढामां चूसता रहो छो तेने में मारा उदरमां धारण कर्या ए पण बीजुं आश्चर्य कहेवाय ॥४॥
पापनो नाश करवाने तथा आज्ञाकारीओनी उन्नतिने माटे आप देहनो स्वीकार करो छो. हे विभो! जेवा आपना वराह वगेरे अवतारो छे तेवो आपनो आ अवतार पण आत्ममार्गने प्रकट करवामाटे ज छे ॥५॥
जेना नामनुं श्रवण कर्या पछी, कीर्तन करवाथी जे (ना नाम) ने नमन करवाथी के स्मरण करवाथी पण कोईवार चाण्डाल* पण तत्काल ए ज जन्ममां यज्ञ करवा लायक बने छे तो पछी हे भगवान्! आपना प्रत्यक्ष दर्शनथी पवित्र थाय एमां तो कहेवुं ज शुं? ॥६॥
विशेष - अर्ही अनुकीर्तन शब्दनो अर्थ मन्त्रोपदेश एम केटलाक करे छे अने वैष्णव दीक्षानां
प्रकारमां चाण्डालने उपदेश अपाय तो ते ए ज जन्ममां सोमाभिषवने योग्य थाय एम कोई
टीकाकार कहे छे. आ मत तत्वावलम्बीनो समजवो. श्रौतमतावलम्बीने मते तो पर्यग्निकरण
पर्यत एनी यज्ञमां योग्यता थाय. आ पक्ष श्रीआचार्यचरणने इष्ट जणातो नथी; तेथी कहे छे
के, अर्ही खरी वात पूछो तो नामनुं माहात्म्य बताव्युं छे तेमां लौकिकक्रमथी बधुं थाय तो एमां
लोको आश्चर्य न माने तेथी चाण्डालने सवनयोग्यता मळे एम साम्भळतां लोकोमां भगवन्नामनुं
माहात्म्य जोवामां आवे. अर्ही श्रीसुबोधिनीजीमां आम लखे छेःअधर्मसंस्कृतभूत विशेषथी
चाण्डालादि शरीरनो आरम्भ थाय छे, सर्वोत्कृष्ट संस्कार पामेला पञ्चमहाभूतथी ब्राह्मण शरीरनो
आरम्भ थाय छे. भगवाननुं नाम लेवाथी अथवा गुरुथी नामनी दीक्षा लेवाथी सर्व औत्पत्तिक
दोषो छूटीने उत्कृष्ट संस्कारो थाय छे. तेथी नामनुं माहात्म्य कहेवावुं योग्य छे. तेथी सर्व दोषने
दूर करी, सर्व गुणाधान करनारुं नाम छे. नमवाथी कोनुं श्रेय थयुं ते वात बाजु पर राखी
स्मरण करनारमां वाल्मीकि छे ते भील हतो. मार्गमां नीकळे तेने मारतो. एणे ऋषिना
उपदेशथी पहेलां महर्षिनी भावना करी; पछी रामनुं स्मरण करतां ए ज जन्ममां वाल्मीकि
थया. एटले प्रभुने करवुं होय तो कांई अशक्य नथी. पण एवुं सर्वत्र थतुं नथी, क्वचित ज
बने छे. ज्यां भगवान् नाम रूपमां सामर्थ्य पोते ज प्रकट करे त्यां सद्यःशुद्धि सम्भवित छे.
तेथी अति प्रसङ्गनुं पण वारण थाय छे. श्वाद ए चाण्डालमां पण अधम छे ते पण पवित्र
थाय तो पछी उत्तम वर्णवाळो शुद्धिथी भगवन्नाम ले तेने तो कैमुतिक न्यायथी ज उत्कृष्टता
[[३७८]] सिद्ध थाय ए देखीतुं जछे.
जेनी जीभ उपर निरन्तर भगवाननुं नाम रमे छे अने ते पण कोई पण
प्रकारना फळनी इच्छा वगर आपने माटे ज तो तेवो जीव श्वपच होय तो पण तेने
सर्व श्रेष्ठ समजवो. (प्रथम पूर्व जन्ममां तपश्चर्या करे; तपना प्रभावे ब्राह्मण थई
यज्ञ करे; यज्ञोना फलरूपे उत्कृष्ट योनिमां आवी तीर्थस्नानादि करे अने पछी वेदज्ञ
आर्य थाय; त्यार पछी ऋषिकुळमां जन्मे; त्यारे जेम व्यास, वाल्मीकि, शुक,
पराशर वगेरेए भगवाननुं नाम लीधुं तेम. तेथी आवुं नाम लेनार चाण्डाल होय तो
पण एवा जन्मोवडे सिद्ध थयो होय छे. पण थोडा पापने लीधे भगवदिच्छाथी
एने चाण्डालनो देह मळ्यो होय छे. आवो चाण्डाल सतत हरिनाम ले छे माटे एने
मोटामां मोटो कह्यो छे) ॥७॥
अन्तर्मुख चित्तवडे आत्मामां चिन्तन करवा योग्य आप ज परब्रह्म पुरुष छो. पोताना तेजवडे देहादि अध्यास छोडावनार आप छो. एवा वेदगर्भ, सर्वमां व्यापीने रहेनार विष्णुरूप कपिलने हुं नमन करुं छुम् ॥८॥
मैत्रेय बोल्या - परम पुरुष कपिलनी ए प्रमाणे स्तुतिकरी त्यारे गद्गद वाणीवडे माता उपर प्रेम करनार कपिलबोल्या ॥९॥
कपिले कह्युं - में कह्या प्रमाणे सारी रीते सेवी शकाय तेवा मार्गवडे जो माता तुं मारुं आराधन करीश तो जलदी परम-काष्ठारूप असम्प्रज्ञात समाधि अथवा भगवत्सायुज्यने तुं जरूर मेळवी शकीश ॥१०॥
मारो आ मत ब्रह्मवादी लोकोए स्वीकारेलो छे; तेमां सारी रीते श्रद्धा राखो. जेओ एमां श्रद्धा राखे छे तेओ अभयरूप मने पामे छे. में तने आ जे ज्ञान कह्युं छे तेने नहि जाणनारा ज जन्म-मृत्युना चक्करमां अटवाया करे छे ॥११॥
मैत्रेय बोल्या - ए प्रमाणे पोतानां माताजीने पामवा लायक सुन्दर मार्ग बतावी भगवान् कपिलदेवजी ब्रह्मवादिनी माताजीनी रजा लईने त्यान्थी पधार्या ॥१२॥
ए देवहूति पण पोताना पुत्रे कहेला योगरूप उपदेश प्रमाणे सरस्वतीना किनारा उपर आवेला आश्रमोना मुकुटरूप कर्दमना आश्रममां योगसमाधिमां प्रवृत्त थवा सावधान थयाम् ॥१३॥
वारंवार स्नान करवाथी, संस्कार न करवाथी तेना सुन्दर वाङ्कडिया वाळ जटा [[३७९]] जूटमां फेरवाई गया तथा देवहूतिनो र्चीथरेहाल देह तीव्र तपथी दूबळो थई गयो ॥१४॥
प्रजापति कर्दमना तप अने योगना फलरूप एमनो गृहस्थाश्रम एवो हतो के एनी कोईनी साथे सरखामणी थई शके एम नथी. ए एवो हतो के स्वर्गमां रहेनार अने विमानमां फरनार इन्द्रादि पण एनी प्रार्थना करे ॥१५॥
दूधनां फीण जेवी शय्याओ, सुवर्ण जटित हाथीदान्तना पलङ्गो, सोनानां आसनो, कोमल चादरो, मोटा मरकत मणिनी बनावेली अने निर्मल स्फटिक मणिनी बनावेली र्भीतोमां रत्नना बनावेल दीवाओ शोभता हता अने रत्नना अलङ्कारवाळी स्त्रीओ शोभती हती ॥१६-१७॥
घणां देववृक्षोथी शोभीता घरनी पासे बगीचा आवेला हता तेमां पक्षीनां जोडकां कूजन करी रह्यां हतां, मतवाला भमराओ गुञ्जारव करी रह्यां हताम् ॥१८॥
जे विमानमां कर्दम मुनिनी साथे देवहूति बेसे त्यारे देवना गन्धर्वो एमनी पासे एमना गुणनुं गान करता हता, विमानमां कमळना गन्धवाळी जळनी वावोमां कर्दमजी देवहूतिने लाड लडावता हता इन्द्राणीओने पण ललचावी मूके तेवा ए विमानने *पण छोडी देतां देवहूतिनुं मन दुःखी न थयुं, परन्तु पुत्रना वियोगे अवश्य एमना मुखने कंईक उदास बनावी दीधुम् ॥१९-२०॥
विशेष - अलौकिकने उत्कृष्ट मानीने, सर्व शोभाथी अमूल्य अने बगीचाथी मननुं आकर्षण करनार, मनने सुख आपनार घरमान्थी पोतानी ममताने छोडी दे, आनुं नाम वैराग्य कहेवाय. अविद्यमाननो त्याग एटले लोकमां घर न होय, खावानुं न होय, लाज आबरु न होय एटले देहनिर्वाहने माटे त्यागनो वेश करे तो ए बन्ने लोकोथी भ्रष्ट थाय छे, कारण के जेने आ लोक सिद्ध नथी तेणे परलोक मेळववो तो दुर्लभ छे. तो आ लोकनी वासना पूर्ण थईने छूटे त्यार बाद ज परलोकनो अधिकार प्राप्त थाय छे. बळथी त्याग करनारनी वासना वधे छे. पति तो पहेलो ज सन्न्यास लई वनमां गया हता, पुत्रनो वियोग हवे थयो. जो के पुत्र पासेथी ए आत्मज्ञान सम्पन्न थई गई हती. तो पण वाछडो जवाथी गायनी जेवी स्थिति थाय तेवी स्थिति देवहूतिनी थई ॥२१॥
ए पोताना पुत्र कपिलदेवनुं ध्यान करतां-करतां एवा सुन्दर घरमां पण ए
जलदी निःस्पृह थई गयां अने पुत्रे ध्यानमां प्रकट थतुं भगवाननुं जे स्वरूप कहेलुं
तेनुं समस्त रीते तेमज एना एक-एक अवयवमां चित्त लगाडी ए ध्यान करवा
[[३८०]] लाग्याम् ॥२२-२३॥
भक्ति प्रवाहना योगवडे, दृढवैराग्यवडे, योग अनुष्ठानवडे, ब्रह्मज्ञानवडे, आत्मावडे ज आत्मानी विशुद्धि करीने तथा एनाथी मायाना गुणोने दूर करीने, ध्यान द्वारा समाधिमां ब्रह्मने जोई एमां पोतानी बुद्धिने स्थिर करी. आवी रीते जीवभाव टळी जतां जे कलेश हतो ते जतो रह्यो अने आनन्द-आनन्द थई रह्यो ॥२४-२६॥
नित्य समाधिमां ज्यारे भगवान् नित्य दर्शन देवा लाग्या त्यारे गुणोए करेला भ्रम विषयो सत्य छे. एवा खोटा ख्याल जता रह्या. भगवान्मां मन राखवानो प्रयत्न पण छूटी गयो; जेम स्वपनमान्थी ऊठेला माणसने स्वपनदेहनुं स्मरण नथी रहेतुं तेम देवहूति पेताना देहने पण भूली गयाम् ॥२७॥
ए देहनुं बीजाओ पोषण करता हता, पण मननी आधि जती रहेतां पोताने देह दूबळो थयेलो लाग्यो नहि. पछी धूमवाळा अग्निनी पेठे एमनो देह मळयुक्त थई गयो, छतां सुन्दर देखावा लाग्यो ॥२८॥
बुद्धिनो प्रवेश भगवान्मां थवाथी एमने कपडान्नुं भान रह्युं नहि, केश छूटा लटकवा लाग्या. तप अने योगवाळुं अङ्ग पण दैवरक्षित होईने पोते एने पण जाणतां नहोताम् ॥२९॥
अहो! कपिलना कहेला मार्गे चाली देवहूति जलदी परमात्मा, ब्रह्मानन्द भगवानने प्राप्त थयाम् ॥३०॥
हे वीर! ज्यां देवहूति सिद्धिने प्राप्त थयां ते सिद्ध (पूर) नामथी त्रण लोकमां प्रख्यात अने अत्यन्त पवित्र क्षेत्र थई गयुम् ॥३१॥
हे सौम्य! जेमान्थी माटीनो अंश तपना प्रभावथी काढी नाखेलो ते तेनो देह सिद्धोए सेवेली सिद्धि आपनारी, नदीओमां उत्तम नदी थयो ॥३२॥
महायोगी भगवान् कपिल पण पोताना आश्रममां हता ते मातानी रजा लई ईशान दिशा तरफ चाली नीकळ्या ॥३३॥
सिद्धो, चारणो, गन्धर्वो, मुनिओ, अप्सराओ, सर्पो ए बधां तेमनी स्तुति करवा लाग्यां. ए ज्यां गयां हतां त्यां एमनी पूजा थई. समुद्रे पण एमनी पूजा करी एमने स्थान आप्युम् ॥३४॥
साङ्ख्याचार्यो जेमनी स्तुति करे छे तेवा ए कपिलदेवजी त्रणेय लोकमां शान्ति [[३८१]] थाय तेमाटे समाधि करीने रह्या छे ॥३५॥
हे तात! तमने में आ कपिलदेव तथा देवहूतिनो पवित्र करनारो संवाद कह्यो; हे निष्पाप! तमे मने प्रथम आ ज पूछ्यो हतो ॥३६॥
य इदमनुश्रुणोति योऽभिधत्ते कपिलमुनेर्मतमात्मयोगगुह्यम् ॥ भगवति कृतधीः सुपर्णकेतावुपलभते भगवत्पदारविन्दम् ॥३७॥
आ संवादमां गुह्य आत्मज्ञान छे ते जे श्रवण करे अने बीजाने बोध करे तेनी बुद्धि गरुडगामी भगवान्मां निष्ठावाळी थाय छे अने ए भगवाननां चरणकमळने पामे छे ॥३७॥
इति श्रीभागवत् तृतीयस्कन्धमां (छेल्ला दसमा जीवमुक्ति प्रकरणमां
स्त्रीमुक्तिनो बीजो) ‘‘कपिलदेवनुं पधारवुं, देवहूतिनी मुक्ति’’
नामनो तेत्रीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
तृतीयस्कन्ध सम्पूर्ण
आपणे पुष्टिमार्गी नथी ज जोद्ग
मृतकना उद्धारार्थे के फण्डफाळामाटे भागवतकथानुं आयोजन करीए छीए
(ठेरावेल के ठेराव्या विनानी) दक्षिणा लईने भागवत वाञ्चीए छीए
आवी भागवतकथा साम्भळवा के आशीर्वाद आपवा जईए छीए
[[३८२]]
[[३८३]]
चतुर्थस्कन्ध-विसर्गलीला
अध्याय - ३१
१. धर्मप्रकरण २. अर्थप्रकरण ३. कामप्रकरण ४. मोक्षप्रकरण
अ.१-७ अ.८-१२ अ.१३-२३ अ.२४-३१
धर्मप्रकरण
अध्याय १ - ७
अग्निष्टोम उक्थ्य षोडशी अतिरात्र अप्त अर्याम वाजपेय
अ.१ अ.२ अ.३ अ.४ अ.५ अ.६ अ.७
अर्थप्रकरण अध्याय
८-१२
साधनथी साध्यथी मनुनाउपदेशथी दोषनिवृत्तिथी फलप्राप्तिथी
अ.८ अ.८ अ.१० अ.११ अ.१२३८४ अध्याय-१,चतुर्थस्कन्ध
कामप्रकरण
अध्याय १३-२३
पृथुनोआविर्भाव सर्वकाम स्वकाम
मोक्षप्रकरण
अध्याय २४-३१
ब्रह्मभाव (अ.२४-२८) सायुज्य (अ.२९-३१)
जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय?
(प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) एवुं करे त्यारे तो सेवाकथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी
बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना
वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा
नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी
करेली सेवा-कथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण
करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोकज नर्ही परन्तु परलोक पण
नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी.
(श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)