ईं उंअध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध १२५ द्वितीयस्कन्ध-ज्ञानलीला (वामचरण) प्रथम तत्त्वध्यान प्रकरण
अध्याय १
दशलीलायुक्त हरिनुं साङ्ग श्रवण ए ज मनुष्यनुं कर्तव्य छे
विशेष - प्रथमस्कन्धमां त्रण प्रकारना अधिकारीओ कहेवामां आव्या जेवा के हीन, मध्यम अने उत्तम. द्वितीयस्कन्धमां अधिकारिओना कर्तव्यनो निर्धार करवामां आव्यो छे. एनो निर्धार थयेथी कृतिनुं कथन थशे. ते कर्तव्य स्कन्ध त्रीजाथी द्वादशस्कन्ध सुधी कहेवामां आवशे. ए ज उत्तम भगवद्लीला. वस्तुनिर्धारना त्रण अङ्गो छे - १. श्रद्धा २. विमर्श अने ३. वस्तुनिर्धार. आ त्रणे अङ्गो प्रमाण, प्रमेय, साधन अने फळ वडे कहेवाशे. एथी ‘वस्तुनिर्धार’ नामना प्रकरणना बे अध्याय छे. ‘श्रद्धा’ नामना बीजा प्रकरणमां श्रोता अने वक्ता ना भेदथी बे अध्याय छे. श्रवणना रूपमां श्रद्धा उपकारक छे तेथी तेनो उल्लेख अधिकारमां न करतां जुदो कर्यो छे. ‘विमर्श’ नामनुं त्रीजुं प्रकरण छे तेना बे प्रकार छे. उत्पत्ति अने उनत्ति. फरी ए दरेकना त्रण-त्रण भेदो छे तेथी एना छ प्रकार थाय छे ते एक-एक अध्यायथी कह्या छे. आम पूर्वना चार अध्यायने आ छ अध्याय मळी द्वितीय स्कन्धना कुल १० अध्याय थया. आमां पहेला अध्यायमां अधिकारीना कर्तव्यनो निर्धार कहेवाय छे. तेमां पण वस्तुना तत्त्वनो निर्धार करवानो छे, अर्थात् प्रमाण ने प्रमेयनो निर्धार कहेवामां आव्यो छे. प्रथम स्कन्धमां परीक्षितने उत्तम अधिकारी कह्या. आवा उत्तम अधिकारीने सत्पुरुषोनो सङ्ग थाय तो एणे सर्वतत्त्वने जाणवानी इच्छाथी प्रश्न करवो जोईए. तेथी परीक्षिते प्रथम स्कन्धना अन्तमां बे प्रश्नो पूछया छे - सर्वात्मपणाथी शुं कर्तव्य छे? अने मरतो होय तेनुं शुं कर्तव्य छे? सर्वात्मथी कर्तव्य कर्या वगर कोई पुरुषार्थ सिद्ध न थाय. मरनारना कर्तव्यनो निर्धार करवा बीजो प्रश्न छे - आ बे प्रश्नोना उत्तरमां ‘‘यच्छ्रोतव्यमथो जाप्यं यत् कर्तव्यं नृभिः प्रभो। स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्धा विपर्ययम्’’ (१.१९.३८)आ श्लोकमां पूछायेला पाञ्च प्रश्नोना उत्तर आवी जशे. माटे ज अर्ही उकत बे प्रश्नोने समजवाने१२६ अध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध माटे सर्व वस्तुनुं तत्त्व कहेवुं जोईए. तेमां श्रद्धाने विचार फळ-मुख छे एनां अङ्गरूप छे तेथी एनी आवश्यकतानुं वर्णन ते-ते प्रकरणमां करवामां आवशे. अर्ही सर्वात्मनां कर्तव्यनो उत्तर ‘‘वरीयानेष ते प्रश्नः’’ एम प्रश्नने अभिनन्दन आपी, १४मा श्लोक सुधी आपवामां आवे छे. अभिनन्दन आपवुं जोईए कारण के भूख्यो होय तो ज अन्नदान यथार्थ गणाय तेम जे आकाङ्क्षावाळो होय तेने ज कर्तव्य कहेवाय. ए कहेवामां अधिकारनो निश्चय पण कहेवामां आव्यो छे, कारण के जो माणसने विधि प्रवर्तावे एनुं फल न कहेवामां आवे तो ए कर्तव्यमां प्रत्यनवाळो न थाय तेथी फलनो निर्धार करवामाटे अधिकारी कहेवो जोईए तेमां त्रण दोष दूर करवामाटे ए वात त्रण श्लोकथी कहेवामां आवे छे. तेमां पहेला श्लोकमां शुकदेवजी परिक्षितना प्रश्नने वखाणे छे. श्रीशुक उवाच वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितो नृप ॥ आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥१॥
शुकदेवजी बोल्या - हे राजन्! तमारो प्रश्न श्रेष्ठ छे. आत्माने जाणनार पुरुषो एमां सम्मत थाय एटलुञ्ज नहि पण श्रवण करवा जेवा विषयोमां पण ए श्रेष्ठ होवाथी एनाथी लोकहित थाय तेवो छे ॥१॥
हे राजेन्द्र! घरमां बुद्धि राखवाथी आत्माना तत्त्वोने भूली जता गृहस्थो घरनी हजारो बाबतोमां खूम्पेला होय छे ॥२॥
गृहस्थ लोकोनी रात्रि निद्रामां के स्त्रीसङ्गमां अने दिवस धननी हाय हायमां के कुटुम्बनुं भरण-पोषण करवामां जाय छे ॥३॥
देह, स्त्री, पुत्रादि ए सर्व आत्मानी सेना छे, छतां ते असत् (दुष्ट) छे तेमां पागल बनेलो संसारी एने मरतां जुए छे छतां ए न मरेलां होय एवुं मानी कार्य करे छे ॥४॥
(कारिका - बुद्धि, आयुष्य अने दोषोनो अभाव ए आत्मानुं ज्ञान थवानां कारण छे. आ त्रण जेनामां न होय ते अधिकारी नथी) तेथी हे भारत! जेओ अभयने इच्छे छे. तेमणे सर्वना आत्मा भगवान् हरि जे ईश्वर छे तेनां *श्रवण, कीर्तन अने स्मरण करवाम् ॥५॥
विशेष - अग्निहोत्रादि कर्म करवाना विधिओ छोडी भगवाननुं श्रवण करवानो विधि अवैदिक नथी. प्रमाणबळ करतां प्रमेयबळ मोटुं छे. मोक्षनी इच्छा ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्यो ज करेअध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध १२७ एवो नियम नथी. जेणे पूर्वे बहु पुण्य कर्या होय तेवा अत्रैवर्णिकोने एटले के ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य सिवायनाने पण मोक्ष मेळववानी इच्छा थाय छे. एमने माटे वेदे कोई विधान करी अभय करवानो आदेश कर्यो नथी एने माटे साधन कहेवुं जोईए. आवा अत्रैवर्णिकने माटे पुराणे कहेल साधनथी जो त्रैवर्णिकनो पण पुरुषार्थ सिद्ध थतो होय तो ए अवश्य करवा जेवो अने सहेलाईथी बनी शकतो सर्वोपयोगी एक उपाय कहेवो जोईए. ए उपाय तो सर्वना आत्मा भगवान् होय तेथी भगवानना सम्बन्धवाळो उपाय कहेवो जोईए. ‘‘आत्मा वा अरे श्रोतव्यः’’ आत्मानुं निश्चय पूर्वक श्रवण करवुं. ‘आत्मा’ एटले सर्वनो आत्मा. सर्वात्मा अने शरीरमां रहेल आत्मा मां अंशांशिभावे अभेद होवाथी आत्मामां गौणता नहि आवे अने ब्रह्मसूत्रमां जणाव्या प्रमाणे ‘‘फलमत उपपत्तेः’’ फलरूप भगवान् छे. तेथी केवल ज्ञानथी मोक्ष थतो नथी. ज्यारे भगवानना गुण गाईए त्यारे भगवान् प्रसन्न थई एने मोक्षनुं दान करे. जो ए भगवान् निर्धर्मक होय वा शारीरात्मारूप होय तो फल न आपी शके. एटले गुणवाळा समर्थ भगवाननुं श्रवण करवानुं श्रुति कहे छे. आत्मानो अर्थ केवळ चितिशक्ति लेवानो नथी. वेदनो अर्थ पण ‘आत्म’शब्दथी छ गुणवाळो आत्मा एवो लेवो. फलमां ‘‘दुःख दूर थाय’’ अने ‘‘सुख मळे’’ ए बे गणाय छे. तेमां दुःख दूर करवामां बुद्धिनी प्रथम प्रवृत्ति थाय छे. श्रवण के श्रवणथी थता ज्ञानथी दुःख दूर थशे पण परमानन्द नहि मळे. माटे एवा भगवाननुं श्रवण करवुं जे दुःखने हरनार होय तेम ज सुखोनुं दान करनार पण होय. तेथी चार धर्मविशिष्ट एवा आत्मानुं श्रवण करवुं (सर्वात्मा, भगवान् हरिने ईश्वर). श्रीभागवत भक्तिफलक शास्त्र छे. ए श्रवण, कीर्तन ने स्मरण नां साधन प्रेम थाय एटला माटे कहे छे. पछी तो स्नेह ज आगळनी भक्ति करावशे. श्रवण, कीर्तन ने स्मरण ए त्रणेमां प्रत्येकनुं फल मोक्ष छे. मोक्ष एटले भगवान्मां प्रवेश. श्रवण, कीर्तन ने स्मरण करवां ते देहपात पर्यन्त करवां; तो ज ए मोक्ष आपे. त्रैवर्णिको वैदिक प्रकारथी अने भागवतोक्त प्रकारथी भगवत्प्रविष्ट थाय छे; ए सिवायना केवळ भागवतमां कहेला प्रकारथी भगवत्प्रविष्ट थई शके छे. मनुष्य जन्मनो आटलो लाभ ज छे के गमे ते प्रकारे साङ्ख्यथी, योगथी अथवा पोताना धर्मनी निष्ठाथी-जीवनने एवुं बनावी लेवाय के मृत्यु समये भगवाननुं स्मरण अवश्य थाय ॥६॥
हे राजा, घणुं करीने मुनिओ विधि-निषेधनो त्याग करी पोते निर्गुण भगवान्मां निष्ठा राखी भगवद्गुणना अनुकथनमां रच्या रहे छे ॥७॥
द्वापरयुगनां प्रारम्भमां हुं मारा पिता द्वैपायन पासे वेदतुल्य आ श्रीभागवत्१२८ अध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध पुराण भण्यो हतो ॥८॥
हुं निर्गुण ब्रह्ममां निष्ठावाळो हतो छतां भगवाननी लीलाए मारुं चित्त हरी लीधुं. तेथी हे राजर्षि! हुं आ श्रीभागवत् भण्यो ॥९॥
तमे महापुरुषना सम्बन्धी छो तेथी ए भागवत् तमने सम्भळावीश. जो एमां श्रद्धा राखवामां आवे तो एवी श्रद्धा राखनारनी बुद्धि तत्काळ मोक्षदाता भगवान्मां अनन्य थाय छे ॥१०॥
हे राजन्! जे योगीओ संसारथी विरक्त थयेला होय ने ब्रह्मानन्द मेळववानी इच्छावाळा होय तेमणे भगवन्नामनुं कीर्तन करवुं एज एमनुं कर्तव्य छे ए वात निर्णीत थयेली छे ॥११॥
जेने जीवननी किम्मत नथी तेवा माणसने घणां वर्षोनुं आयुष होय तो पण शुं? जो माणस आयुष्यनी किम्मत जाणतो होय तो बे घडी जेटला टूङ्का समयमां पण ए पोतानुं श्रेय करी शके छे ॥१२॥
खट्वाङ्ग नामना राजर्षिए जाण्युं के मारुं पृथ्वी उपर बाकी आयुष एक मुहूर्त (=४८ मिनिट) छे छतां एटला वखतमां बधुं छोडी ए भगवानना अभयधाममां पहोञ्ची गया ॥१३॥
हे कुरुकुलोत्पन्न! तमारे तो हजु सात दिवस जीववानुं छे; तेटला वखतमां परलोकमाटे जे साधन करवानुं होय ते तमे करी शको एम छो तो ए करी लो ॥१४॥
पुरुषने ज््यारे अन्तकाळ आवे त्यारे एणे भय छोडी देवो एटलुं ज नहि पण देह अने देहना सम्बन्धीओमां स्पृहारूप पाशने वैराग्यरूपी शस्त्रवडे छेदी नाङ्खवो. धीर बनीने गृहनो त्याग करवो. पवित्र तीर्थोमां स्नान करवुं. पवित्र एकान्त स्थानमां बेसी विधि प्रमाणे आसननी कल्पना करीने अ, उ अने म् (ॐकाररूप) त्रण अक्षरोवाळा परब्रह्मनो मनथी अभ्यास करवो. श्वासने जीतवो, मननुं नियमन करवुं, छतां ॐनुं विस्मरण थवा देवुं नहि. (१५.१६.१७) मनथी इन्द्रियोने रोकवामां विषयो दोषवाळा छे एवी बुद्धिनी सहाय लेवी अने इन्द्रियोने विषयो तरफ जतां अटकाववी अने कर्मोवडे चञ्चल थई गयेला मनने भगवान्रूप शुभ अर्थमां लगाडवुम् ॥१८॥
बधा अवयवोमां लागेला मनने एमान्थी छूटुं न करतां मूर्तिना एक अवयवमां लगाडी एनुं ध्यान करवुं, पछी एमां मनने लीन करीने कांई पण याद न करतांअध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध १२९ निर्विषय बनावनुं एनुं नाम ‘समाधि’ ॥१९॥
आवी रीते रोकेलुं मन ज््यां प्रसन्नतामां रहे छे ते विष्णुनुं परम पद कहेवाय. रजोगुण अने तमोगुण थी खेञ्चायेलुं मन मूढ बनी जाय छे. जो मनने धारणावडे निरुद्ध करवामां आवे तो ए धारणा धीर पुरुषना मनना मेलने दूर करे छे ॥२०॥
जे धारणा करतां योगीने जलदीथी भक्ति लक्षणवाळो योग सिद्ध थाय ते धारणाना मनोहर आश्रयरूप भगवाननुं ध्यान करवुम् ॥२१॥
राजाए कह्युं के ब्रह्मन्! आपे धारणा करवानुं कह्युं तो धारणा कयां करवी, केवी रीते करवी? जेवी धारणा करवाथी पुरुषना मननो मेल दूर थाय तेवी धारणा आप कहो ॥२२॥
शुकदेवजीए कह्युं - आसननो जय मेळववो, श्वासने जीतवो, सङ्गने जीतवो अर्थात् मनने वश करवुं, इन्द्रियोने जीतवी अने भगवानना स्थूळरूपमां बुद्धिवडे मनने सारी रीते धारण करवुम् ॥२३॥
जेमां आ आखुं विश्व थयुं, थशे अने थाय छे ए त्रिकाळयुक्त देखाय छे ते स्थूलमां पण स्थूलतर ए भगवाननो *देह छे ॥२४॥
विशेष - भगवाननो देह ए ज विशेष, ‘वेः’ एटले काळनो शेष ते विशेष. काळ भगवाननी चेष्टारूप छे. ए चेष्टानो आधार देह होय. देहने आत्मानो संयोग छे एम साङ्ख्यवादीओ कहे छे; देहमां आत्मानो अध्यास छे एम एकदेशी योगीओ कहे छे; देहमां आत्मानो आवेश छे एम केटलाक कहे छे; अहङ्कारथी हुं पणु आवे छे एम बीजा कहे छे. परन्तु भगवाननो अने जीवनो स्वस्वामिभाव सम्बन्ध छे. पोताना स्वरूपमां रही भगवान् सर्व करवाने समर्थ छे, छतां सर्वनुं पोषण करवाने स्वरूपथी वधारे सुख आपवाने पोते पुष्ट थईने सर्व कार्य करे छे. रूप भगवाननी धारणानो विषय छे. पोते एक ज स्थळमां देखाय छे, छतां बीजे होवानुं अनुमान एनाथी थई शके छे. वेदमां क्ह्युं छे के पृथनात् पृथिवी मोटी होवाथी स्थूळ छे, वधारे स्थूळ छे. विरल अवयव ते सूक्ष्म अने घणा अवयवो एकठा थाय ते स्थूळ; आकाश सूक्ष्म. पृथ्वी स्थूळ. घणा अवयवो अवयवीने उत्पन्न करे छे; तेम देहथी पण भगवान् प्रकट थाय छे एने स्थूळपणुं कह्युं छे. ए भगवान् बुद्धिमां प्रवेश करे तो बुद्धिने पण शुद्ध करे. ए स्थूळ बुद्धि सूक्ष्म विषयने न ग्रहण करे माटे एना रजोगुणने तमोगुण भगवान् दूर करे छे. तेथी ए भगवान् सुन्दर छे. ए सर्व विशेषना समवायरूप छे तेमां बुद्धि स्थिर थाय छे. आकाशादि स्थूळ करतांये भगवान् स्थूळ छे केमके एमना अवयवो वृद्धिने पाम्या छे. माटे ज१३० अध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध आकाश शरीर ब्रह्म छे. बधां रूपोनो आ भगवद्रूपमां सम्भव छे. माटे ज आ ध्याननुं स्थान थयुं छे. कार्यद्वारा काळ पण एमां प्रवेश करे छे. गुणना कार्योथी काळ पण त्रण गुणवाळो थाय छे. कार्य सहित काळ भगवच्चेष्टारूप छे तेथी ए भगवत्कार्य छे. पृथ्वी, जळ, तेज, वायु, आकाश, अहङ्कार ने महत्तत्त्व ए सात एनां आवरण छे. एवा ब्रह्माण्डकोशात्मक शरीरमां जे वैराज* पुरुष रहे छे ते भगवान् धारणाना आश्रयरूप छे, अर्थात् ए भगवाननी धारण करवानी छे ॥२५॥
विशेष - वैराज ध्याननो विषय नथी पण आश्रय छे. साक्षात् विषय भगवान् छे, आधाररूप विराट पुरुष छे. स्वात्मामां सिद्ध भगवद्रूप छे तेना करतां सिद्ध साधन दोष न होवाथी अने स्मरण मात्रना विषय भगवान् होवाथी, ध्यान सिद्ध थवा माटे आधाररूप भगवान् ध्याननो विषय थाय छे. वैराज विराट शरीरमां रहे छे ते कोई जीवविशेष नथी. जे वैराज पुरुष ते ज भगवान्. योगीओ एने प्रत्यक्ष करे छे. ए ज धारणाना आश्रयरूप छे. महेलमां रहेता राजानी पेठे शरणे आवनारने अवश्य फळ आपशे. पाताळलोक ए वैराज पुरुषना चरणनुं तळियुं छे. एडी अने पञ्जा रसातळ छे. महातल घूण्टी छे. तलातल खरेखर पुरुषनी पिण्डीओ छे. बे घूण्टण सुतळ छे. विश्वमूर्ति ते वैराजना बे साथळ. ए वितळ तथा अतळ छे. हे महीपति! महीतळ एनी केड छे. आकाश एनी नाभि छे. उरःस्थळ ते जयोतिःस्थान छे. महर्लोक एनी डोक छे. जनलोक एनुं खरेखर मुख छे. तपलोक आदिपुरुष वैराजनुं ललाट छे. सहस्र मस्तकवाळा वैराजनुं मस्तक सत्यलोक छे ॥२६-२८॥
इन्द्रादि देवो एना बाहुरूप छे. (ए लोकोने कर्मनां फळ आपनार छे) दिशाओ एना कान छे. एनो शब्द ते भगवाननी कर्णेन्द्रिय छे. बेउ अश्विनीकुमारो भगवाननी नासिकानां छिद्रो छे. गन्ध एनी घ्राणेन्द्रिय छे. प्रज्वलित अग्नि एनुं मुख छे. द्यौलोक (स्वर्ग) भगवाननां बे नेत्रो छे अने सूर्य एनी जोवानी शक्ति छे. रात अने दिवस ए विष्णु भगवाननी पाम्पणो छे. एनी भ्रुकुटीनो विलासए ब्रह्मानुं स्थान छे. जळ एनुं ताळवुं छे. रस एनी जिह्वा छे. छन्दो अनन्तना यशने गाय छे. भगवाननी दाढी यमरूप छे. एमना दान्तो स्नेहनी कला छे. जनोने उन्माद करावनारी माया भगवाननुं हास्य छे. नित्यप्रवाह सृष्टि भगवाननो कटाक्षपात छे. लज्जा उपलो होठ छे. नीचलो होठ लोभात्मक छे. एनुं स्तन धर्मनुं स्थान छे अने पीठ अधर्मनो मार्ग छे. ब्रह्मा एनी गुह्येन्द्रिय छे. मित्रअध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध १३१ अने वरुण एना अण्डकोश छे. समुद्रो एनुं पेट छे. पर्वतो एनां हाडकान्नो समुदाय छे. नदीओ एनी नाडीओ छे. हे राजन्! वृक्षो विश्व शरीरवाळां एनां रोम (रुवाडां) छे. अनन्त पराक्रमवाळा भगवाननो श्वास वायु छे. गति (गमन) ते आयुष छे. गुणनो प्रवाह ते भगवत्कर्म छे. एना केश मेघ छे. हे कुरुवर्य! एनुं वस्त्र बन्ने सन्ध्या छे. प्रकृति एनुं हृदय छे. चन्द्रमां एनुं मन छे, जे बधा विकारोनो खजानो छे. महत्तत्त्व एनी ज्ञानशक्ति छे. महादेव एनो अहङ्कार छे. घोडा, खच्चर, ऊण्ट, हाथी ए एना नख छे. बधां मृगोने पशुओ एनी श्रोणि (केडनो पाछलो भाग) छे. पक्षीओ एनुं कलाकौशल छे. मनु एनी इच्छा मनुष्य एनुं रहेवानुं स्थान छे. गन्धर्वो, विद्याधारो, चारणो अने अप्सराओ एना स्वर अने असुरोना समूहमां श्रेष्ठ प्रह्लाद एनी स्मृति छे. ब्राह्मण एनुं मुख छे. क्षत्रियो एनी भुजा छे. वैश्यो एनी साथळ छे. शूद्र एना चरण छे. नाना देवगणथी युक्त* जे द्रव्यनो समुदाय छे ते एनो यज्ञ छे ॥२९-३७॥
विशेषः देवो सर्व लोकमां फरे छे. ए इन्द्रियोना अधिदेवो छे. इन्द्रादि देवो कर्मना फळने आपनारां छे तेथी तेओ भगवानना बाहु कहेवाय छे. दिशाओ भगवानना कानरूप होवाथी श्रोत्रेन्द्रिय छे. अश्विनीकुमारो यज्ञ भगवाननां बे नाकरूप छे. आपणी इन्द्रियोना अधिष्ठाता ते भगवाननी इन्द्रियोना गोलक; आपणा विषयो ते भगवाननी इन्द्रियो. स्वर्गलोक शिशुमार स्थानरूप छे. एवी रीते भगवाननी इन्द्रियोनी बधी व्यवस्था समजवी. भगवान् विश्वरूप छे. ए ज अन्नाच्छादन-खावानुं ने शरीर ढाङ्कवानुं काम करे छे, अथवा ए रूप पोते थाय छे. ए अनन्तवीर्य भगवाननी नासिकामां चालतो वायु ते आ वायु छे. एनुं हलन चलन ते लोकनुं आयुष छे. सत्त्व, रजस अने तमसमान्थी देवो, पशुओ अने मनुष्योनो जे प्रवाह थयो छे ते भगवाननुं कर्म छे. मेघो एना केश छे. सवार साञ्जनी सन्ध्या एनुं वस्त्र पीताम्बर छे. प्रकृति एनुं हृदय छे. चन्द्रमां सर्व विकारना बीजरूप भगवाननुं मन छे. ए मन तो आधिदैविक छे. एना विकासथी बधाना मनना विचार उत्पन्न थाय छे. ज्ञानशक्ति ते महत्तत्त्व, अहङ्कार ते महादेव. ए सर्वात्मानो अहङ्कार तेथी एनी स्थिति सर्वत्र कही. भगवानने अवयव नथी तो पण बधां पशुओ एनी केडनी पाछळना भागरूप छे, पक्षीओ एनी हुन्नरकला छे. मनु एनी इच्छा छे. मनुष्य एनुं घर छे, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, अप्सरा एना रागविशेष स्वर छे. प्रह्लाद एना स्मरणरूप छे. असुरोनी सेना एना पराक्रमरूप छे. ब्रह्मभाव ए एक धर्म छे ते धर्म जेनामां विद्यमान होय ते ब्राह्मण, ब्राह्मणपणुं व्यक्ति रहेवा छतां दूर थाय छे, ब्राह्मण्यमां लक्षणा१३२ अध्याय-१, द्वितीयस्कन्ध सिवाय बीजी वृत्तिनी कल्पना करवी नहि. एमां नियतव्यञ्जकता (=चोकक्स जणावनारुं चिह्न) नथी माटे ए जाति नथी. जो ब्राह्मणथी उत्पन्न थयेल ब्राह्मण कहेवाय तो ब्रह्मामां तथा सनकादिमां ए लक्षण व्याप्त थई शकतुं नथी. ऋषभदेवना सो पुत्रोमान्थी ८१ब्राह्मणो थया ते जग्याए पण ए लक्षण व्यापक नथी. माटे ब्राह्मण्य ए कोई देवता विशेष छे. ए देवता जे देहमां प्रकट थाय ते देह ब्राह्मण कहेवाय. तेथी ज शापादिथी ब्राह्मण शूद्र थई जाय छे. चाण्डाळ बनी जाय छे; ने अनुग्रहथी ब्रह्मत्व आवे छे. ए ब्राह्मण्य उपनयन संस्कारथी देहमां आवे छे एम मानवामां आवे तो बहु वाकयोनी सङ्गति थई शके. आवी रीते क्षत्रत्व पण देवता समजो. प्रकटाग्नि ब्रह्मना मुखरूपे कह्यो छे ते वाणीना प्रकाश माटे कह्यो छे. वाणीना देवता अग्नि छे. इन्द्रादि हवि भोगवनार भगवानना बाहु छे. रसनी अधिष्ठात्री देवता वरुण छे. रसना भोक्ता ब्राह्मण्य छे; तेमज रक्षणकर्ता क्षत्र छे, वैश्यो ऊरु छे. ए अतळ ने वितळरूप छे. एने वैश्यपणुं छे. केमके ऊरु स्थितिस्थापक छे. आश्रय कर्यो छे कृष्णवर्णनो जेणे ए शूद्रत्व कहेवाय; अथवा वेद सिवायनी विद्या कहेवाय. कर्म बे प्रकारना छे - स्वाभाविक ने वैशेषिक, स्वार्थ कर्म अने परार्थ कर्म. स्वार्थ कर्म ते कर्मनो विस्तार एटले सप्ततन्तु (यज्ञ)नो विस्तार ते. सत्र अने अहीनादि यागमां भगवाननुं कर्म आवे छे तेनां बे अङ्ग छेःअग्नि, सूर्यादि देवगणो अने व्रीहि, यव वगेरे द्रव्य. ‘‘देवताने उद्देशीने द्रव्यनो त्याग’’ एनुं नाम ‘याग’. एवी रीते सर्व पदार्थो भगवद्रूप छे; सर्व पदार्थो भगवानना श्रीअङ्गमां रहे छे. में तमने जे विराट देहनो प्रकार कह्यो तेटलोज विराट देह छे. ए भगवाननुं स्थूळ रूप छे. ए सिवाय बीजुं कांई जुदुं नथी. ए भगवन्मूर्ति स्थूळ छे. एमां बुद्धिनी साथे मनने लगाडवुम् ॥३८॥
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व आत्मा यथा स्वपनजनेक्षितैकः ॥ तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥३९॥
स्वपनमां अनेक देहोनो जोनार आत्मा विराट एक छे तेम ए विराट सर्वात्मा होवाथी सर्वनी बुद्धिवृत्तिमां रही सर्वनो अनुभव करनार छे. ए सत्य छे, आनन्दनो निधि छे ए ज भजनीय छे. बीजे आसक्त थनारनो पात (संसार) थाय छे माटे एने छोडीने बीजामां आसक्त न थवुम् ॥३९॥
इति श्रीभागवत् द्वितीयस्कन्धनो (तत्त्वध्यान प्रकरणनो पहेलो) ‘‘दशलीलायुक्त हरिनुं साङ्गश्रवण ए ज मनुष्य कर्तव्य छे’’ नामनो पहेलो अध्याय सम्पूर्ण थयो.अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध १३३
अध्याय २
साधनथी वस्तुस्वरूपनो निर्णय
विशेष - भगवानना खरा तत्त्वने जाणवामाटे प्रथम अध्यायमां प्रमाण अने प्रमेयनो निर्धार कर्यो. अर्ही प्रमाण एटले श्रुतिमूलक युक्ति अने योग साधक मन अने प्रमेय एटले सर्व भूतनो अवयव विन्यास कर्यो ते प्रथम अध्यायमां प्रमाण अने प्रमेय साथे भगवाननुं बहारनुं स्वरूप कहेवायुं केमके आन्तर ज्ञान बहारना ज्ञानने अधीन छे. आवी रीते तत्त्वनो निर्धार आन्तर अने बहारना ज्ञानने अधीन होवाथी एम करवामां आव्युं छे, अन्दरनुं ज्ञान योगथी थतुंः ‘‘यन्न योगेन साङ्ख्येन’’ ते आन्तर भक्तिमार्गथी सिद्ध थाय छे. ए पण फल अने साधन जाणवाथी थाय छे.माटे प्रथम साधनथी अने पछी फलथी एनो निश्चय करे छे. तेथी कहेवामां आवनार साधन फलना शेषरूप तत्त्वज्ञान ए लौकिक बुद्धिना विषयरूप थशे. एम सर्व वस्तुनो निर्धार करवाने प्रथम अध्यायमां प्रमाणने प्रेमय कह्यां. जुदां देखातां छतां ब्रह्माण्डनो भगवान्मां प्रवेश छे. भगवान् एना द्रष्टा छे एम प्रसङ्गथी कह्युं. तो पण ए बहारनुं भगवाननुं रूप छे. तेथी एना खरा रूपनो निर्धार थई शकतो नथी. तेथी आ बीजा अध्यायमां क्या रूपथी ए साधनरूप बने छे तथा क्युं एनुं रूप फलद्रुप छे एनो विचार करवामां आवे छे ए सर्व त्याज्य छे, अर्थात् त्याग साधन छे; एटले अवान्तर फलपणाथी फलरूप परित्याग करनारुं जीवनुं स्वरूप ए साधन छे. ब्रह्मनुं स्वरूप एनुं फळ छे एवो एमान्थी निर्धार थाय छे पूर्वे कहेला फल अथवा साधननो आ आन्तर फळमां उपयोग कहेवामाटे एनो वैराग्य कराववामां उपयोग छे. श्रीशुक उवाच एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिर्नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ॥ तथा ससर्जेदममोघदृष्टिर् यथाप्ययात् प्राग् व्यवसायबुद्धिः ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - एम प्रथम ब्रह्माजीए भगवाननी *धारणा करी भगवानने प्रसन्न कर्या ने पोतानी नष्ट थयेली बुद्धिने पाछी सृष्टि करवाने प्राप्त करी अने उद्योग करवानी बुद्धिथी प्रलय पहेलां जेवुं जगत् हतुं तेवुं जगत् सर्जन कर्युं. केमके एमनुं ज्ञान सफळ छे ॥१॥
विशेष - भगवानना सन्तोषमां पहेलुं ज्ञान हतुं ते कारणरूप छे ए बाळक पासेनो पदार्थ बाप
छुपावी दे, परन्तु उपायवडे बाळक ए जाणी जाय तो बाप खुश थाय छे. सृष्टिनी पूर्वे ब्रह्मा१३४ अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध
भगवाननी पासे हता. ते भूमिना भोगनेमाटे पृथ्वीमां आव्या एथी ज्ञान नष्ट थयुं. एमणे ए
ज्ञान धारणारूप उपायथी सम्पादन कर्युं तेथी भगवान् सन्तुष्ट थई मित्र थया. एवी ज रीते
स्वरूपना दानमां धारणा प्रथम साधन छे. प्रसन्न थयेल भगवान्थी स्मरण थतां भगवान्मां
लीन थयेल ज्ञान प्राप्त थयुं.
शब्दब्रह्म एटले वेदप्रतिपादित मार्गनी रीति एवी छे के खोटां नामोथी साधननी
बुद्धि ध्यान कर्या करे तो तेथी ए साधनने एनाथी ते-ते फळनी वासना रह्या करे छे
अने ते-ते मार्गमां फरे छे छतां एने ते-ते अर्थो मळता नथी. अर्थात् ए मायामय
वासनामां सूतो रहे छे ए अज्ञानमां रह्या करे छे ने एमान्थी नीकळी शकतो नथी.
तेथी डाह्या माणसे वेदमार्गमां जेटलो अर्थ होय तेटलो ज सावधानीथी निश्चयात्मक
बुद्धिवडे करवो. बीजी रीते ए प्राप्त थतो होय एमां खोटी महेनत न करवी ॥२-
३॥
पृथ्वी सूवानेमाटे छे तो पछी शय्यानेमाटे महेनत शामाटे करवी? बे भुजाओ साबूत छे तो ओशीकानेमाटे कां प्रयास करवो? अजंलिरूपी पात्र छे तो पछी घणां थाळी वाडका शामाटे जोईए? (उनाळामां) दिशा अने (शियाळामां) वल्कल मळे छे तो पछी रेशमी वस्त्रोनुं शुं काम छे? ॥४॥
शुं लोकोए फेङ्की दीधेलां वस्त्रोना टुकडा, रस्तामां ओछा मळे छे? शुं पगथी जळ पीनार अने पारकानेमाटे देह धरनारां वृक्षो भिक्षा आपतां नथी? जळनुं काम पडे तो शुं नदीओ सुकाई गई छे? रहेवुं होय तो गुफाओमां द्वार पर शुं कोईए पहेरा राख्या छे? अरे भाई, उपरनुं होय के न होय पण शुं भगवाने पण पोताना शरणागत भक्तोनी रक्षा करवानुं माण्डी वाळ्युं छे? तो पछी बुद्धिमान लोको पण धनना नशामां चकचूर-घमण्डी धनीओनी चापलूसी केम करे छे? ॥५॥
भगवान् सर्वत्र व्याप्त होवाथी प्रीतिरूप षड्गुणयुक्त अने अनन्त आत्मा पोतानी मेळे चित्तमां प्रवेशे छे. जे नियमथी सुखरूप होय ते जो एने भजे तो संसारनां बधां कारण शान्त थई जाय छे ॥६॥
परमेश्वरनुं चिन्तन छोडीने पशु सिवायनो क्यो माणस एवी खोटी चिन्ता करे? केमके ए पोताना कर्मथी उत्पन्न थयेल दुःखोने भोगवता अने वैतरिणीमां पडेला लोकने जुए छे ॥७॥
केटलाक *पोताना देहनी अन्दर हृदयाकाशमां रहेता चार भुजावाळा, कमळ,अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध १३५ चक्र, शङ्खने गदारूप चार आयुधने पोताना हस्तमां धारण करता प्रादेश मात्र पुरुषनी धारणावडे स्मरण करे छे ॥८॥
विशेष - आमां सर्वनी सम्मति नथी. भगवाननी स्थूल धारणामां स्थूल रूपनी जग्या आनन्द
ले छे, कारण के आनन्दरूपनी धारणाथी आनन्दने प्रकट करे छे पण दोषोनी निवृत्ति करता
नथी; ए सहज पापने मटाडे छे, परन्तु ए सर्वभाव सम्पादक न होवाथी एनाथी रागादि दोषो
जता नथी.
१प्रसन्न मुखवाळा, कमळनी पान्दडी सरखा विशाळ नेत्रवाळा कदम्बना पराग
जेवा पीळा वस्त्रवाळा भुजाओमां महामोला रत्नजडित सोनाना बाजूबन्धनी
शोभावाळा, मस्तक उपर बहुमूल्य मुगट अने कानोमां रत्नजडित कुण्डलवाळा,
प्रफुल्ल हृदयरूप कमळनी मध्यमां योगेश्वरोए जेमने आसन आप्युं छे. तेवा
लक्ष्मीना चिह्नवाळा, कण्ठमां कौस्तुभमणिने धारण करनारा, कानथी पग सुधी
पहोचे तेवी लाम्बी फूलनी माळाथी पूजायेला, कटिमेखला अने र्वीटीओथी शोभता
अमूल्य नूपुरने कङ्कणो वगेरेथी शोभता, स्निग्ध निर्मल, वाङ्कडिया अने नील केशपाशथी
शोभायमान मुखमां हासनी सुन्दरता वेरता, उदारलीला हसवुं-जोवुं-भ्रुकटीक्षेपवडे
अति अनुग्रह स्थापन करता अने चिन्तनथी हृदयमां प्रकटेला ईश्वरने जोई एमनामां
मननी धारणा २करे, ज्यां सुधी मन एमां रहे त्यां सुधी तेने धारणाथी हृदयमां
रोके; पछी चरणथी लईने हास सुधी एक-एक अङ्गनी बुद्धिथी धारणा करे.
जीतेला स्थानने छोडता आगळ वधतो जाय. जेम-जेम बुद्धि शुद्ध थाय तेम
धारणा करे ॥९-१३॥
विशेष - केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् । चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्खगदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥८॥
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् । लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं स्फुरन्महारत्नकिरीटकुण्डलम् ॥९॥
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् । श्रीलक्ष्मणं कौस्तुभरत्नकन्धरमम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् ॥१०॥
विभूषितं मे खलयाङ्गुलीयकैर्महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः । स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैर्विरोचमानाननहासपेशलम् ॥११॥
अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्-भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।१३६ अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं यावन्मनो धारणयावतिष्ठते ॥१२॥
श्री सुबोधिनीजीमां अर्ही श्लोक ८ थी १२ ए पाञ्च श्लोकोमां अपायेलां २४ द्वितीयान्त
विशेषणो दर्शावीने चोवीश अवतारो दर्शाव्या छे. तेनो विस्तार आ प्रमाणे छेः
१. ‘प्रादेशमात्रम्’थी वराह अवतार-अर्थात् अङ्गूठो अने प्रथम आङ्गळीना टेरवा सुधीना
मापनुं दशाङ्गुल स्वरूपनुं ध्यान करवुं. (ध्याननुं स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म के अत्यन्त मोटुं नहि
राखतां प्रादेशमात्रना मापनां चित्रजी के स्वरूपनुं ध्यानकरवुं)
२.‘पुरुषम्’थी यज्ञावतार (ध्याननुं स्वरूप पुरुषाकारनुं लेवुं)
३. ‘वसन्तम्’थी श्रीकपिल अवतार(आ स्वरूपनुं ध्यान विवेक अने सदृबुद्धिआपे)
४. ‘चतुभुर्जम्’थी श्रीदत्तावतार (आ ध्यानथी चार पुरुषार्थ मळे)
५. ‘कञ्जरथाङ्गशङ्खगदाधरम्’थी श्रीसनत्कुमार अवतार प्रभुनां चार आयुधो चारेय सनत्कुमारोनो
अवतार छे. (चक्रथी अज्ञाननुं निवारण, शङ्खथी मङ्गल, गदाथी दुश्मनोने दूर करे छे
अने पद्मना ध्यानथी प्रेमनुं दान मळे छे)
६. ‘प्रसन्नवक्त्रम्’थी ननरनारायण अवतारथ(प्रभुना प्रसन्नमुखना ध्यानथी इच्छित
फल मळे छे)
७. ‘नलिनायतेक्षणम्’थी ध्रुव अवतार(प्रभुना कमलनयननुं ध्यान कृपानुं दानकरेछे)
८. ‘कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम्’थी पृथु अवतार (पीताम्बरना ध्यानथी वेदोनुं दान करे छे)
९. ‘अङ्गदम्’थी ऋषभदेवजी(बाजुबन्धना ध्यानथी संसारासक्तिनो नाश थाय छे)
१०. ‘किरीटकुण्डलं’थी हयग्रीवावतार(मुगट अने कुण्डलना ध्यानथी तत्त्वज्ञानमळेछे)
११. ‘पादपल्लवम्’थी मत्स्यावतार(चरणकमलना ध्यानथी अनन्याश्रय सिद्ध थाय छे)
१२. ‘श्रीलक्ष्मणम्’थी कुर्मावतार (श्रीवत्सचिह्नना ध्यानथी लक्ष्मी मळेछे)
१३. ‘कौस्तुभम्’थी नृसिंहावतार (कौस्तुभना ध्यानथी आत्मस्वरूपनुं भान आवे छे)
१४. ‘वनमालयाचितम्’थी श्रीहरि अवतार (वनमाळाना ध्यानथी कीर्ति मळे छे)
१५. ‘मेखलया’थी वामनावतार (कटिमेखलाना ध्यानथी मायाने पकडी राखे छे)
१६. ‘अङ्गुलीयाकैः’थी नारदादि अवतार(मुद्रिकाओना ध्यानथी प्रभु भक्ताधीन बने छे)
१७. ‘नूपुरकङ्कणादि’थी मनुअवतार (नूपुर अने कङ्कणना ध्यानथी धर्मनुं ज्ञान मळे छे)
१८. ‘स्निग्धामल’थी धन्वन्तरी अने मोहिनी अवतार (कोमलकेशना ध्यानथी स्नेह
मळे छे)
१९. ‘नीलकुन्तलैः’थी परशुराम अवतार(वाङ्का काळा वाळना ध्यानथी खल नाश थाय छे)अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध १३७
२०. ‘हासपेशलम्’थी रामावतार (प्रभुना हास्यना ध्यानथी शोक दूर थाय छे)
२१. ‘अदीनलीला’थी श्रीकृष्णावतार(अनन्तलीलाथीमनोनिरोधकरेछे)
२२. ‘भूर्यनुग्रहम्’थी बलभद्रावतार(भगवद्लीलानी स्फूर्ति थायछे)
२३. ‘चिन्तामयम्’थी व्यासावतार(संसारने हरिरसनो स्वाद आपेछे)
२४. ‘ईश्वरम्’थी कल्किअवतार (आ ध्यानथी अधर्मनो नाश करवा अवतार धारण करशे).
आम भगवानना सम्पूर्ण अङ्गमां, अलङ्कारोमां अने अवयवोमां तमाम अवतारोनो
समावेश छे. ते आनन्दमय अलङ्कारो अने श्रीअङ्गोमां चित्तनी धारणा करवाथी ‘‘सेवायां वा
कथायां वा’’मां प्रेम प्रगट थाय छे अने चित्त भगवद्रूप बने छे. २. भगवाननां चार रूप
ध्यान करवा योग्य छेःअङ्गूठा जेवडुं, प्रादेशमात्र, पुरुष जेवडुं अने विराट एमां पोतानी नजीक
तो प्रादेशमात्र छे. वैश्वानर विद्यामां ए रूपने सिद्ध करेलुं छे. जेने भक्ति थई होय तेने आ
धारणा थाय छे ज्यां सुधी भक्ति न थाय त्यां सुधी पहेला धारणा करवी.
ज्यां सुधी आ परावर (बीजा बधा जेनाथी हेठा-उतरतां छे. एवा श्रेष्ठ)
द्रष्टा विश्वेश्वरमां भक्ति योग *थाय नहि त्यां सुधी साधके नित्यकर्मो पूरां थये
एकाग्रता पूर्वक प्रभुना उपर जणावेल स्थूल स्वरूपनुं चित्तन करवुं जोईए ॥१४॥
विशेष - जेनाथी पर ने अवरनी स्फूर्ति थाय तेवो प्रेम ए भक्तिनुं अङ्ग छे. एने माहात्म्यज्ञान कहे छे. भक्तियोगमां योग भक्तिना साधन रूप छे. भक्ति स्थिर न थाय त्यां सुधी स्थूल रूपनुं स्मरण करवानुं कह्युं छे. ए नियमोथी युक्त सावधान थईने करवुं. ज्यारे स्थिर अने सुखरूप आसन उपर बेठेलो सन्न्यासी आ देह छोडवानी इच्छा करे त्यारे ए देशमां के काळमां मनने न लगावे, प्राणने रोके, बुद्धिवडे मनने रोकी, बुद्धिने क्षेत्रज्ञमां रोके एने आत्मामां रोके, आत्माने परमात्मामां जोडी धीर थई शान्ति मेळवतो कार्यथी विरमे ॥१५-१६॥
आ अवस्थामां सत्त्वगुण पण नथी तो पछी रजोगुण अने तमोगुणनी तो वात ज शी? अहङ्कार महत्तत्त्व अने प्रकृतिनुं पण त्यां अस्तित्व नथी. ए स्थितिमां देवताओनो पण कोळियो करी जनार काळ पण कंई करी शकतो नथी तो देवता अने तेमने अधीन रहेनारां प्राणीओ तो रही ज केवी रीते शके? ॥१७॥
‘‘आ नहि आ नहि’’ एवी असद्बुद्धिनो त्याग करी जेओ आ देहादिमां आत्मबुद्धिरूप दुष्टताने छोडे छे तेओ अनन्य सौहार्द राखनार विष्णुने क्षणे-क्षणे हृदयमां अलिङ्गन करे छे अने एओ ज ए वैष्णव पदने *सर्वश्रेष्ठ माने छे अने१३८ अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध कृतार्थ थाय छे ॥१८॥
विशेष - ए स्थान सर्वथी उत्कृष्ट छे. पद अक्षररूप छे, श्रीपुरुषोत्तमना चरणरूप छे.माटे ए वैष्णवपद कहेवाय छे. एना उत्तम अधिकारी सर्वदा देहादिमां आत्माने जोता नथी पण आत्माने देहथी जुदो जाणे छे. एमने भगवानना सिवाय बीजा पदार्थोमां सौहार्द नथी एओ भगवानना चरणने साधन माने छे अने मनथी चरणने आलिङ्गन करे छे. आ एक प्रकार थयो. बीजो प्रकार १९.२०.२१ मा श्लोकमां ‘मुनि’वाळो छे. एवा निश्चय वाळो मुनि विज्ञानदृष्टिथी अन्तःकरणने शुद्ध करे छे. ए पोतानी एडीवडे गुदाद्वारने दबावीने त्यान्थी पवनने उचे चडावे छे. एवी रीते चक्रोनां स्थानमान्थी बहार काढीने एने ऊञ्चे लेता क्लेश थाय छे. पण ए एवा क्लेशने गणतो नथी. ए पवनने नाभिमान्थी हृदयमां लई उदानना मार्गे एने उरःस्थळमां रोके छे. पछी मनस्वी थई बुद्धिवडे ए वायुने पोताना ताळवाना मूळमां रोके छे अने त्यान्थी उपाडी बे भ्रुकुटीनी वच्चे रोके छे अने त्यां सात छिद्र(बे आङ्ख, बेकान, नाकनां बे छिद्रो अने मोढुं) छे तेमान्थी पवन नीकळी न जाय एनी काळजी राखे छे, आवा योगीनुं ज्ञान परिपक्व थयेलुं गणाय. निरपेक्ष थई ए प्राणने एक घडी त्यां रोकी राखी, पवनने भगवान्मां लगाडी ब्रह्मरन्ध्रने भेदी देहनो त्याग करे छे ॥१९-२१॥
जो एवा योगीने ब्रह्माना स्थानमां जवुं होय, विमानमां बेसी आकाशमां फरता देवोनां विहारस्थान जोवा होय, ब्रह्माण्डमां अणिमादि आठ प्रकारना ऐश्वर्यनो भोग करवो होय तो मन अने इन्द्रियोने साथे राखीने त्यां ए जाय छे ॥२२॥
पवनमां जेनो लिङ्गदेह रहे छे तेवा योगीओनी गति विलोकीनी अन्दर ने बहार होय छे, कर्म करनाराओ एवी गति प्राप्त करी शकता नथी, कारण के योगीओ विद्या, तप, योग अने समाधिनी सहायवडे भगवद्भजन करनारा होय छे ॥२३॥
सुषुम्णा ए देहनी बहार पण छे. ए प्रकाशवाळी होय छे. ए मार्गे आकाश मार्गे चालता ते अग्निना अभिमानी देवताना लोकमां जाय छे. त्यां एना बच्चां खूच्चां पाप साफ थई जाय छे. त्यान्थी एनी उपर भगवान् श्रीहरिना शिशुमार चक्रमां पहोञ्चे छे ॥२४॥
विष्णुनुं चक्र विश्वनी नाभिरूप छे. त्यां रहेनार कल्पजीवीने ब्रह्मने जाणनार पण नमन करे छे. एवा चक्रने ओळङ्गी योगी त्यां महर्लोकमां सूक्ष्म लिङ्गशरीरथीअध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध १३९ एकलो जाय छे. ज्यां भृगु आदि रहे छे त्यां कल्पसुधी रह्या पछी प्रलयना समयमां अनन्तना मुखमान्थी नीकळेला अग्निथी त्रणलोक वळी जाय छे. तेने जोईने महर्लोकमां पण एनी गरमी लागवाथी ए पछी ब्रह्मलोकमां जाय छे, ज्यां बे परार्ध वर्ष सुधी रहे छे. आपरमेष्ठी- ब्रह्माजीनुं स्थान छे, ज्यां सिद्धेश्वरो निवास करे छे ॥२५-२६॥
आ ब्रह्मलोकमां शोक नथी, वृद्धावस्था नथी, मृत्युं नथी, मननी पीडा नथी, उद्वेग नथी, परन्तु त्यां रहेनाराने जो कांई दुःख होय तो ए भगवानने मेळवववानुं आ साधन तथा एना प्रकारने न जाणनार जीवने दूरन्त दुःख भोगववुं पडे छे एनुं मात्र दुःख मनमां होय छे, बीजुं नहि ॥२७॥
पछी ज्यारे ए सत्यलोकमान्थी चाले छे त्यारे प्रथम तो आवरणरूप पृथ्वीने मळे छे. पृथ्वीथी निर्भय रहीने पृथ्वीरूपे पृथ्वीमां रही पोते ज जलरूप थई जळमां जाय छे. त्यान्थी ते-ते भोग भोगवतो जाय छे, उतावळ करतो नथी. त्यान्थी जवानुं मन थाय छे त्यारे बीजे जाय छे. एटले के पछीए अग्निनुं रूप लई अग्निनुं उल्लङ्घन करी वायुरूप लई वायुमान्थी बहार नीकळी. आकाश के जे भगवाननुं शरीर कहेवाय छे तेने छोडतां भूतांशने छोडे छे. पछी विषयोने छोडे छे ॥२८॥
पछी ए योगी नासिकाद्वारा गन्ध गुणने पामे छे, रसनाद्वारा रसरूप थाय छे, दृष्टिद्वारा रूपने धारण करे छे त्वचाथी वायुरूप थाय छे. श्रोत्रद्वारा आकाशरूप थाय छे, पछी प्राणद्वारा क्रियावाचकरूप बनी ते-ते रूपोमां भोग करी ए बधाने छोडे छे ॥२९॥
पछी ए योगी त्रण प्रकारनां अहङ्कारने पामीने भूत-सूक्ष्म इन्द्रियोना देवोरूप थई एनी साथे महत्तत्त्वने पामे छे. पछी ज्यां गुणनो लय छे तेवा प्रधानने पामे छे. पछी आनन्दमय थईने आनन्दरूप भगवानने पामे छे ए बे गति तमे मने पूछी हती ते क्रममुक्ति अने सद्योमुक्ति में तमने कही ए रस्ते जनारो, हे अङ्ग! आ लोकमां आवतो नथी ॥३०-३१॥
हे नृपदेव! सद्योमुक्ति अने क्रममुक्ति नामना बे मार्गो जे अनादिथी चालता आव्या छे अने जे तमे मने पूछ्या हता ते मे तमने कह्यां हुं ज कहुं छुं एम नथी. प्रथम ब्रह्माए वासुदेवने पूछेला एनी आराधनाथी प्रसन्न थईने प्रभुए ब्रह्माने कहेला ते में तमने कह्या ॥३२॥१४० अध्याय-२, द्वितीयस्कन्ध संसारमां प्रवेश करनारमाटे बे मुक्तिमार्ग छे. *उपर कह्यो ते भक्तिमार्ग जेवो सुखरूप बीजो मार्ग नथी. आ मार्गे चालतां वासुदेव भगवान्मां भक्ति थाय छे ॥३३॥
विशेष - में कीर्तनरूपे जे बे मार्ग सद्योमुक्ति अने क्रममुक्ति कह्या ते सनातन छे, अनादि छे. ए ज मार्ग वासुदेवे ब्रह्माने कहेला. ए मार्गमां पहेलो भाग साधनरूप, मध्यभाग व्यापाररूप अने आगळ भगवानना सम्बन्धवाळो भाग फळरूप गणाय छे. एमां श्रवणादि अने स्थूळसूक्ष्म ध्यान ए क्रम छे. प्रीति बे चरणरूप छे. जो प्रीति त्यां सुधी चाली जाय तो ए भगवानने मेळवी दे. एम बुद्धिपूर्वक त्रण वार वेदने विचारीने ब्रह्माए निश्चय कर्यो के भगवान्मां प्रीति करवी एज वेदनो सार छे. समग्र वेदने बुद्धिपूर्वक त्रणवार वाञ्ची विचारीने निश्चल भगवान् ब्रह्माए एवो निश्चय कर्यो के जीवोने (भगवान्मां) प्रीति थाय ए वेदनो सार छे ॥३४॥
सर्वभूतोमां भगवान् हरिज लक्षित छे. *दृश्य बुद्धि वगेरेथी तेमज अनुमापक लक्षणोथी ए ज द्रष्टा जणाय छे ॥३५॥
विशेष - बधा शास्त्रोनी प्रवृत्ति प्रति पुरुषे अने प्रति विषयमां होवाथी ए निरर्थक नथी. एनो भगवान्मां परम्पराथी उपयोग छे. एवडे भगवान् सर्व प्राणीमात्रमां लक्षित थाय छे. नैयायिको भगवानने र्क्ता कहे छे, मीमांसको क्रियारूप माने छे, वेदान्तीओआत्मारूपे कहे छे, साध्यादि देवो असाधारण कारणरूपे कहे छे. बीजाओ ज्ञानरूपे, ज्ञातृरूपे के अधिष्ठानरूपे कहे छे. आम बधा भगवानने एकदेशथी कहे छे; आन्धळो हाथीने जुए तेम. परन्तु जे क्रियात्मक छे, परोक्ष ज्ञान करावनार छे, जे अनुमापक छे ते तर्कनी साथे ज्ञान करावनार छे. आम ते-ते बधां लक्षणावृत्तिथी भगवानने जणावे छे माटे सर्व दर्शनो भगवाननां अप्रयोजक छे. ए भगवानने बतावी शकतां नथी, केवळ लक्षणथी अनुमान बाधे छे. माटे श्रवणादिथी एनुं भजन करवुं ए उत्तम छे, कारण भजवामां देशकाळनो विचार करवानो नथी. भगवान् पोते फळ आपनार छे अने मनुष्य मात्रनो एमां अधिकार छे. एने साम्भळतां विषयवाळुं अन्तःकरण पवित्र थाय छे. तेथी हे राजन्! सर्वात्मावडे अर्थात् चित्तनी एकाग्रता करीने भगवान् सर्वदा सर्वत्र होवाथी एनां ज श्रवण, कीर्तन अने स्मरण करवाम् ॥३६॥
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ॥ पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥३७॥अध्याय-३, द्वितीयस्कन्ध १४१ सत्पुरुषना आत्मारूप एवा भगवाननुं कथामृत कानरूपी पडियामां भरी जे पान करे छे ते विषयथी दूषित थयेला अन्तः करणने पवित्र करेछे अने भगवानना चरणकमळने प्राप्त थाय छे ॥३७॥
इति श्रीमद्भागवत द्वितीयस्कन्धमां (पहेला तत्त्वध्यान प्रकरणनो बीजो) ‘‘साधनथी वस्तु स्वरूपनो निर्णय’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो.
अध्याय ३
भगवत्कथाना श्रवणमां साधन
विशेष - श्रवण करवाना विषयनो निर्णय पूर्व अध्यायमां कर्यो. आ त्रीजा अध्यायमां श्रवण विना साधनने कहे छे. साधन बे प्रकारनुं छेःअदृष्ट अने दृष्ट. इन्द्रियो दोषरहित होय अने साथे ईश्वरनी पण अनुकूळता होय तो आपणे जे साधवानुं होय ते पूर्ण थाय. तेथी आ प्रकरणमां बे वस्तुओ कहेवामां आवे छेःइन्द्रियदोषनो अभाव अने भगवाननी कृपा. एने लीधे श्रोता अने वकता नी श्रद्धा पण कहेवाशे. माटे साधनवाळाए भगवाननुं श्रवण करवुं. साधन न होय ते भगवाननुं श्रवण करे तो फळ मळे नहिःएनुं श्रवण वृथा छे. अर्थात् जेनामां त्रण प्रकारनां साधन होय, जेवां के भगवान्मां अनन्यता, इन्द्रियोनी शुद्धि अने भगवाननी कृपा तेणे श्रवण-कीर्तन करवुं. परन्तु श्रवणमां आटलुं मोटुं फळ होवा छतां एमां लोकोनी प्रवृत्ति जणाती नथी एनुं कांईक कारण होवुं जोईए. तेमां विषय भगवान् होय छे अने भगवान् तो निर्दोष पूर्णगुण छे तेथी जो कोई दोष होय तो ए इन्द्रियोनो या तो इन्द्रियोना अधिष्ठाता देवोनो दोष होवो जोईए. हवे जो आ देवो ज प्रतिबन्ध करता होय तो एवो प्रतिबन्ध तो एमनुं भजन करवाथी दूर थाय. एनो अर्थ तो ए थाय के ते-ते देवनुं भजन सिद्ध करवुं जोईए. जेथी इन्द्रियो शुद्ध थाय. परन्तु भगवान् सिवाय अन्य देवनुं भजन करवाथी बहिर्मुखता थाय ए सिद्धान्त छे. बहु तो एओ नक्की करेलुं फळ आपी शके. तेथी प्रतिबन्ध मटाडवाने एमनुं भजन करतां बीजा दोष पेदा थाय. माटे अर्ही प्रथम चालता प्रसङ्गनो उपसंहार करे छे; एनो अर्ही सम्बन्धनथी. श्रीशुक उवाच एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद् भवान् मम ॥१४२ अध्याय-३, द्वितीयस्कन्ध नृणां यन् म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ॥१॥
श्रीशुकदेवजीए कह्युं - मनुष्योमां जेओ बुद्धिवाळा होय अने मरवानी अणी उपर होय तेओनुं शुं कर्तव्य छे एवुं तमे मने पूछेलुं अने में बे अध्यायथी तमने ए उत्तररूपे कह्युम् ॥१॥
ब्रह्मतेजनी कामनावाळो तो ब्रह्माने पूजे. इन्द्रियकामनी कामनावाळो तो इन्द्रने पूजे अने प्रजानी कामनावाळो प्रजापतिओने पूजे ॥२॥
लक्ष्मीनी कामनावाळो मायादेवीने पूजे. तेजनी इच्छावाळो अग्निने पूजे. द्रव्यनी कामनावाळो वसु नामना देवोने पूजे. पराक्रमनी कामनावाळो रूद्रोने पूजे पछीज ते पराक्रमी थाय छे ॥३॥
अन्न वधारे खावानी इच्छा करनार तो अदितिने पूजे. स्वर्गनी कामनावाळो बार आदित्योने पूजे. राज्यनी कामनावाळो विश्वदेवोने पूजे. प्रजा उपर सत्ता जमाववा इच्छा राखनार साध्यदेवोने पूजे. दीर्घायुने इच्छनार अश्विनीकुमारोने पूजे. पुष्ट शरीरने इच्छनार पृथ्वीने पूजे. लोकमां प्रतिष्ठानी इच्छा करनार नर पृथ्वीने आकाशरूप लोकोनी माताओने पूजे. रूपनी इच्छावाळो गन्धर्वोने पूजे. स्त्रीनी कामनावाळो उर्वशीने पूजे. बधानी उपर आधिपत्य इच्छनारो ब्रह्माने पूजे. यशनी कामनावाळो यज्ञ करे. खजानानी इच्छा करनार वरुणदेवनी आराधना करे. विद्यानी कामनावाळो महादेवने भजे. पति-पत्नी वच्चे परस्पर प्रीतिने इच्छनार सती पार्वतीनी पूजा करे. धर्मने इच्छनार उत्तमश्लोक भगवानने भजे. वंशवृद्धि इच्छनार पितृओने पूजे. रक्षणनी इच्छावाळो ‘पुण्यजन’नामना यक्षोनुं यजन करे. इन्द्रियोने बळवाळी करवाने इच्छनार मरुद्गणने पूजे. राज्यनी कामनावाळो मनुओने पूजे. शत्रुने मारवा इच्छनार मृत्युदेवने पूजे. कामनी कामना करतो चन्द्रने पूजे. अने निष्काम थवाने इच्छतो माणस परमात्मानुं भजन करे ॥४-९॥
अकाम होय, सर्वकाम होय के मोक्षकाम होय ए उदार बुद्धिवाळो तीव्र भक्तियोगवडे परम पुरुषने भजे ॥१०॥
अर्ही जेटला उपासक छे ए बधानुं हित एमां ज छे के तेओ भगवानना प्रेमी भक्तोनो सङ्ग करी भगवान्मां अविचल प्रेम प्राप्त करी ले ॥११॥
जेना ज्ञानथी गुणनी ऊर्मिओनुं चक्र शान्त थाय छे, आत्मा प्रसन्न थाय छे अने आ लोक तेम ज परलोकना गुणोमां वैराग्य थाय छे. भगवत्प्राप्तिमां सर्वनेअध्याय-३, द्वितीयस्कन्ध १४३ सम्मत एवो केवळ *भक्तिमार्ग ज छे. एवो तो निवृत्तिने चाहनार कोण होय जे एमां प्रेम न करे! ॥१२॥
विशेष - हरिकथामां रति होय तेने भक्तोनो सङ्ग अने भगवत्प्रीति बन्ने सिद्ध थाय छे. एनाथी गुणोमां रागादि निवृत्त थाय छे, सर्व अविद्या दूर करनारुं ज्ञान थाय छे. अन्तःकरण प्रसन्न रहे छे. आ लोक=परलोकना फळरूप वैराग्य थाय छे, आवां अवान्तर फळनी प्राप्ति उपरान्त भगवान्मां प्रेम अने भक्तनो सङ्ग ए बे प्रधानफल मळे एवो ए सन्मार्ग छे. एमां य निवृत्तिमां चालनार तो कथानुं ज श्रवण करे शौनक बोल्या - शुकदेवजीनुं कथन साम्भळी भरतवंशश्रेष्ठ परीक्षित राजाए फरीने शुं पूछ्युं? शुकदेवजी व्यासना पुत्र छे, मन्त्रना द्रष्टा छे अने परम विद्वान छे. तेमणे जे कांई सारुं कह्युं होय तेकहो ॥१३॥
हे विद्वान! ए बधुं साम्भळवानी अमे इच्छा राखीए छीए तमे अमने ए सम्भळाववाने योग्य छो. हे सूत! ज््यां सत्पुरुषोनो समागम थाय छे. त्यां एवी कथाओ थाय छे के जेनुं फल भगवत्कथामां परिणमे ॥१४॥
ए पाण्डुना वंशमां उत्पन्न थयेला महारथी भगवद्भक्त राजा परीक्षित बाळकनां रमकडान्नी रमतमां पण कृष्णनी क्रीडा करता हता ॥१५॥
भगवान् व्यासपुत्र शुकदेवजी पण वासुदेव परायण हता. एवा सत्पुरुषोनो मेळाप थाय तो भक्तोए बहु गायेला भगवाननो गुणानुवाद अवश्य थाय छे ॥१६॥
जेओ भगवानना भजन वगर समय गुमावे छे तेमना आयुषने ऊगतो- आथमतो सूर्य हरी ले छे. जेओ उत्तमश्लोक भगवाननी वातोमां वखत गाळे छे. तेओना आयुष्यने ए एम लेतो नथी. ऊलटुं बीजानुं आयुष्य एमने आपी एने दीर्घायुषी करे छे ॥१७॥
वृक्षो शुं जीवतां नथी? धमणो शुं श्वास लेती नथी? गामनां बीजां पाळेलां पशु शुं मनुष्य पशुनी जेम ज खातां-पीतां के मैथुन नथी करतां? पण तेथी ए बधां कृतार्थ थतां नथी. भजन नर्ही करनार पण एओना जेवो छे ॥१८॥
जेना कानमां गदना मोटा भाई भगवान् श्रीकृष्णनी लीला कथा क््यारेय नथी पडी तेनी कूतरां, भूण्ड, ऊण्ट अने गधेडां, वाहवाह बोले छे. आ पशुओ भगवान्थी बहिर्मुख माणसने जोईने तेनो आभार माने छे के आने जोईने लोको कहे छे के१४४ अध्याय-३, द्वितीयस्कन्ध आना करतां तो कूतरां, भूण्ड, ऊण्ट अने गधेडां सारा! ए पशुओ स्वामीनुं खाईने तेनी सेवा तो करे छे. आ बहिर्मुख तो खाय छे खाण्डी पण भक्ति करीने खाधुं हकज करतोनथी ॥१९॥
जे माणसना कान उरुक्रम भगवानना पराक्रमने साम्भळता नथी ते सर्पना दर जेवा छे. हे सूत! जे जीभ भगवाननी कथा कहेती नथी ते असती देडकी जेवी छे. भले माथा उपर पट्ट अने किरीट धारण करवामां आवे पण जो ए मस्तक मुकुन्दने नमतुं न होय तो ए केवळ माथाना भाररूप छे. जे हाथ सेवा करता नथी तेने मडदान्ना हाथ जेवा समजवा, पछी भलेने एओना सोनाना कडा पहेरायेला होय जे आङ्खो विष्णु भगवाननां विग्रहनां दर्शन न करे ते मोरपीछना चान्दला कहेवाय, आङ्खो नहि. जो मनुष्यना पग मन्दिर तरफ जतां न होय तो ए वृक्षना जेवा जन्मवाळा गणाय. जे भगवद्भक्तना चरणरजनी इच्छा न राखतो होय छतां जीवतो होय तेने जीव वगरनो जाणवो. श्वास लेतो होय छतां जो ए भगवानना चरणमां धरतां तुलसीना गन्धने अनुभवतो न होय तो ए पण जीवतुं मुडदुं ज छे ॥२०-२३॥
भगवाननां नाम लेतां जेनां नेत्रोमां आंसु न भराय अने जेनां शरीरमां रोमाञ्च खडां न थाय ते माणसनुं हृदय चकमकना पथ्थर जेवुं जाणवुम् ॥२४॥
अथाभिधेह्यङ्गमनोनुकूलं प्रभाषसे भागवतप्रधानः ॥ यदाह वैयासकिरात्मविद्या विशारदो नृपतिं साधु कृष्टः ॥२५॥
माटे हे अङ्ग! राजाए आत्मविद्या परत्वे जे सारो प्रश्न पूछ्यो होय अने जेनो उत्तर निपुण व्यासपुत्रे आप्यो होय ते तमे मनने अनुकूल होय तेम कहो तमे पण भगवद्भक्तछो ॥२५॥
इति श्रीमद्भागवत द्वितीयस्कन्धमां (बीजा हृप्रसाद प्रकरणनो पहेलो) ‘‘भगवत्कथाश्रवणमां साधनप’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण थयो. (शरणागति-सेवारूपी) साधना शरू करवानी तत्परता जाण्या विना गमेतेने दीक्षा आपनार गुरु अयोग्यने दीक्षा आपवाना पापे पोतानो, दीक्षा लेनारनो तेमज सम्प्रदायनो पण विनाश नोन्तरे छे.
ईं उं ईं उं
[[१४५]]
अध्याय ४
परीक्षितनुं स्वरूप, शुकदेवजीनुं ज्ञान अने गुरुभक्तिनुं वर्णन
विशेष - शौनके प्रश्न कर्यो छे. तेना उत्तररूपे सत्सङ्ग कह्यो छे. एथी शौनक श्रोता छे ए सिद्ध थयुं. ए कार्यसिद्धि बे प्रकारनी छे. स्वरूप अने ज्ञानथी आयुर्हरति पुंसाम् एनो सार क्रियारूपे कह्यो अने शौनकने एनाथी भक्ति सिवाय अन्यमां व्यर्थता देखाई ए ज्ञान पण आवी रीते अध्यायमां साधन कह्युं. एवां चोथा अध्यायमां प्रथम परीक्षित अने शुकदेवजी मुख्य श्रोता छे ते बन्नेने साधन एक छे के जुदां एनो उत्तर आपवा प्रथम श्रोताना साधननो निर्देश करे छे. श्रोता सद्बुद्धिथी प्रश्न करे तो मनननो अधिकारी छे. वक्ता तरीके उत्तर आपता शुकदेवजी प्रथम देव अने गुरूने नमस्कार करे तो ए विमर्शना वक्ता कहेवाय. आम आ अध्यायमां बन्नेनो विचारमां अधिकार छे. श्रोतानी बुद्धि व्यवसाय युक्त जोईए. ममता छोडवी जोईए, कथाश्रवण करवामां श्रद्धा जोईए, सन्न्यास साथे ज्ञान जोईए, प्रश्ननो उत्तर आपतां पहेलां श्रोतानां आ चार अङ्ग कहेवामां आवे छे. वैयासकेरिति वचः तत्त्वनिश्चयमात्मनः ॥ उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेयः सर्ती व्याधात् ॥१॥
सूतजीए कह्युंः शुकदेवजी आत्मानो निर्णय करनार छे. परिक्षिते एमनां वचनोने हृदयमां राखी श्रीकृष्णमां पोतानी सन्मतिने धारण करी ॥१॥
देह, स्त्री, पुत्र, घर, पशु, द्रव्य, बन्धु अने सम्पूर्ण राज्यमां दृढ थयेली ममताने परीक्षित राजाए छोडी दीधी ॥२॥
हे उत्तम पुरुष! तमे मने जे प्रश्न पूछो छो ते ज अर्थवाळो प्रश्न मोटा मनवाळा परीक्षिते कृष्णनो महिमा साम्भळवामाटे श्रद्धापूर्वक शुकदेवजीने पूछेलो॥३॥
सातमे दिवसे पोतानुं मृत्युं छे ए जाणीने धर्म, अर्थ अने काम ए त्रिवर्गना कामोने एमणे छोडी दीधा अने भगवान् वासुदेवमां अन्तःकरणनी प्रीति दृढ करीने पूछवा लाग्या ॥४॥
राजा बोल्याः हे पापरहित! तमे सुज्ञ छो. तमारां वचनो सारा छे. हे ब्रह्मन्! तमे भगवाननी जे कथा कहो छो तेथी मारुं अज्ञान दूर थाय छे ॥५॥
भगवान् पोतानी मायाथी जीवोना मनमां न आवी शके एवुं जगत् शी रीते उत्पन्न करे छे, रक्षा करे छे अने संहार करे छे ए हुं फरीथी जाणवा मागुं छुम् ॥६॥१४६ अध्याय-४, द्वितीयस्कन्ध अनन्त शक्तिवाळो आ पुरुष पोतानी शक्तिओने पासे राखीने जीवने रमाडतो पोते रमे छे, कांईक करे छे अने छतां नथी पण करतो ॥७॥
हे ब्रह्मन्! अद्भुत कर्मवाळा ए हरिनुं आ काम डाह्या पुरुषनी पण बुद्धिमां न आवे एवुं लागे छे. ए पोते एक छे छतां तेवा-तेवा प्रकृतिना गुणने पोते धारण करे छे अने जन्मोवडे कर्मो कर्या करे छे; अर्थात् अनेक कर्मो करे छे ॥८-९॥
आप भगवान् छो माटे मारा सन्देहने मटाडो. वळी खरेखर शब्दब्रह्म(वेदविद्या) अने परब्रह्म मां आप निष्णातछो ॥१०॥
सूतजी बोल्याः ज्यारे राजाए शुकदेवजीने भगवान् हरिना गुण कहेवाने विनन्ति करी त्यारे भगवाननुं स्मरण करी शुकदेवजीए देवता अने गुरुने नमस्कार करी एमने कहेवानो आरम्भकर्यो।११। श्रीशुकदेवजीए कह्युंः जे परम पुरुष सद्रूप जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने नाशने माटे सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप त्रण शक्तिओने स्वीकारी ब्रह्मा, विष्णु अने शङ्कर ना रूप धारण करे छे अने प्राणीओनी अन्दर प्रकट थाय छे, जेनी गतिने कोई जाणतो नथी तेवी महिमावाळा भगवानने मारा नमस्कार हो! ॥१२॥
ए सत्पुरुषना पापने मटाडे* छे एना संसारने दूर करे छे अने एने फळ आपवाने सर्व सत्त्वमूर्तिने धारण करे छे तथा परमहंसाश्रमपदमां वसता सन्न्यासीओने जोईतुं तत्त्व आपे छे तेवा भगवानने हुं वारंवार नमन करुं छुं॥१३॥
विशेष - भगवान् भूतळ उपर सत्पुरुषनां दुःख दूर करवाना हेतुथी अवतार धारण करे छे. जो के बीजी रीते पण दुःख दूर करवाने भगवान् समर्थ छे. तो पण दुःख बिलकुल निवृत्त न थाय. ए दुःखनो प्रवाह भगवान्मान्थी छूटा पड्या त्यान्थी एमनामां प्रवेश करीए त्यां सुधी प्रकट के अप्रकटरूपे रहे ज छे एने दूर करवाने तो भगवाननो सम्बन्ध ज समर्थ थाय छे. तेथी मध्यमां प्रकट थई ए दुःख-परम्पराने दूर करे छे. ए सत्पुरुषने पुनर्जन्म शरू करवामाटे पधारे छे. सत्पुरुषो भगवानना सम्बन्धथी सत्वने प्राप्त थाय छेपण चिदानन्दने पामता नथी. फरीने जगतमां न आवे तो सत्त्वमां पण सन्देह रहे. केवळ भगवानने अधीन थईने रहेनारा भक्तोना स्वामी आपने नमस्कार. वळी जे एम माने छे के अमे योग वगेरे साधनो आचरीने भगवानने पामी शकीशुं एवा पृथ्वी उपरना योगिओ तो जेनी दिशा पण नथी जाणी शकता तेवा आपने प्रणाम. जेनी बराबर अथवा जेनाथी अधिक कंई छेज नर्ही एवी पोतानी सिद्धिअध्याय-४, द्वितीयस्कन्ध १४७ साथे पोताना अक्षरब्रह्मरूपी गृहमां ज रमण करनार आपने(प्रसन्न करवा आपने) कोटिकोटि प्रणामहो ॥१४॥
जेनुं कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण अने पूजन लोकना पापने तरत दूर* करे छे तेवा पुण्यकीर्ति भगवानने वारंवार नमन हो ॥१५॥
विशेष - कीर्तन कहेनार अने साम्भळनार बधाना पापने दूर करे छे. ए श्रवण करतां मोटुं छे. स्मरण तो एना मूळरूप छे तेथी जो कीर्तन अने स्मरण होय तो प्रेम उत्पन्न थाय. प्रेम थयेथी दर्शन थाय. एमां प्रेम होय तो भगवान् आवे, अथवा तो प्रेमनी प्रेरणाथी भक्त भगवान् पासे पहोञ्चे त्यारे दर्शन थाय. थोडी प्रीति भगवानने चळावी शके नर्ही एटले भगवान् चालीने न आवे तो बहारथी एनुं दर्शन थाय; अथवा तो अन्तःकरणमां भावनाथी दर्शन थाय. ए दर्शनथी आधिदैविक पाप निवृत्त थाय. वन्दनथी अपराधरूप दोष मटे छे. भगवदीयोना मुखथी भगवद्वाक्य साम्भळवाथी अज्ञानरूप मूळ पाप निवृत्त थाय एनुं माहात्म्य जाणी क्षणमां पूजन करवाथी भगवाननी मायाना मोहरूपी पाप निवृत्त थाय. आवुं पूजन शरणागतिरूप छे. आम छ प्रकारनी भक्ति छ प्रकारनां पापने दूर करे छे. चतुर पुरुषो जेना चरणनो आश्रय करी हृदयनी अन्दरथी अने बहारथी आसक्ति मोटा-मोटा तपस्वीओ, दानवीरो, यशस्वीओ, छोडी दे छे अने ग्लानी रहित थई ब्रह्मगतिने पामे छे तेवा पुण्यकीर्ति भगवानने वारंवार नमन हो ॥१६॥
मोटा-मोटा तपस्वीओ, दानवीरो, यशमाटे यत्न करनार, वाव-कूवा-धर्मशाळा वगेरे बन्धावनार, मन्त्र जाणनार, योगीओ तथा सदाचारथी चालनारा जेने अर्पण* कर्या वगर (तप आदिना) फळने मेळवी शकता नथी तेवा सुन्दर कीर्तिवाळा परमेश्वरने मारा वारंवार नमन हो ॥१७॥
विशेष - तप सन्ताप करनारुं छे ते जीवनो क्लेश जोईने फळ क्षेमरूप न समजवुं. भगवानने द्रव्यदान न करो तो अनेकविध उपयोग थाय तेथी जे उद्देशथी दान कर्युं होय ते फळने अपावी शके नहि. जो एनो भगवान्मां विनियोग करो तो घणानुं एमान्थी पोषण थाय. कूवा, बगीचा बनाववामां भगवाननी इच्छा प्रमाणे ए लोकने विश्राम आपे छे. धर्ममार्गमां ‘‘धर्मः क्षरति कीर्तनात्’’ धर्मनो कही बताववाथी नाश थई जाय छे तेथी जे करवुं ते भगवानने अर्पण करवुं ठीक छे. किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कङ्क, यवन, खस वगेरे नीच जातिओ तथा जे पापी लोको छे एओ पण भगवानना भक्तोनो आश्रय करवाथी१४८ अध्याय-४, द्वितीयस्कन्ध शुद्ध थाय छे ते सर्वशक्तिमान भगवानने हुं नमुं छुम् ॥१८॥
ए आत्मज्ञानीओना आत्मा छे, अधीश्वर छे, वेदमय छे, धर्ममय छे तथा तपोमय छे अने ब्रह्मा शङ्करादि कपट छोडीने तपास करतां केवळ एना लक्षण विषे तर्क मात्र करी शके छे तेवा भगवान् प्रसन्न थाओ ॥१९॥
लक्ष्मीना पति, यज्ञना पति, प्रजाना पति, बुद्धिनां पति, लोकना पति, पृथ्वीना पति, वृष्णि अन्धक तथा सात्वत-यादव कुलना पतिरूप तथा गतिरूप, सन्तोना सर्वस्व भगवान् मारा पर* प्रसन्न थाओ ॥२०॥
विशेषः कृपा मेळववाने भगवाननी प्रार्थना करवी, बीजाने बोलाववो नहि, बीजो प्रकार न करवो. भगवान् छ प्रकारना लोकोना पति छे; लक्ष्मीपति, स्त्रीओ लक्ष्मीना अंशरूप छे तेथी एणे तो भगवाननी प्रार्थना करवी. यज्ञपति, महापुरुषो कामना करे तो भगवान् क्रोध न करे, प्रजापति तेथी साधारण पण प्रार्थना करी शके. बुद्धिपति ज्ञान के क्रियामां बुद्धिने रोके, शब्दथी के अर्थथी ते पण प्रार्थना करे, लोकपति (स्वर्गादिना), स्वर्गमां जवानी इच्छा राखनारे पण भगवाननी प्रार्थना करवी; पृथ्वीपति, पृथ्वी उपर रहेनारे पण एवी प्रार्थना करवी. आम ज्यारे गुणथी व्यापेलां पण भगवाननी प्रार्थना करी एने पामे छे तो पछी आपणा जेवानी तो वात ज शी करवी?माटे ‘‘मने प्रसन्न थाओ’’ एम शुकदेवजी कहे छे. पतिरूप कहेवाथी फलरूप अने गतिरूप कहेवाथी ए पोते ज साधनरूप छे. जेना चरणना ध्यानरूप समाधिथी बुद्धि शुद्ध थतां लोक आत्माना स्वरूपने* जाणे छे. विद्वान पुरुषो जेना तत्त्वने यथारुचि कहे छे ते मुकुन्द भगवान् मारा उपर प्रसन्न थाओ ॥२१॥
विशेष - भगवानना चरणना ध्यान मात्रथी बुद्धि शुद्ध थाय छतां शुद्ध थयेली बुद्धिमां ए तत्त्व आवी शकतुं नथी. बुद्धि वस्तुनो प्रकाश करनारी छे. जो ए शुद्ध होय तो खरा स्वरूपने जोई शके. भगवानना चरणना ध्यानथी शुद्धि थाय छे. बीजी रीतोना संस्कारथी एना दोष जतां नथी. ध्यानथी विषय तो ब्रह्मरूप होवाथी एमां दोष नथी ज; तेमां पण भगवद्विषय अने आत्मविषय तो निर्दोषतम छे. चिन्तन करवाथी तदात्मक थवाय छे. आत्मतत्त्वने डाह्या पुरुषो पोतानी बुद्धि प्रमाणे कहे छे; तेथी लौकिक वाक्यथी खरी वस्तु जणाती नथी. मुकुन्द भगवान् मोक्ष आपनार छे. खरी वस्तुनी स्फुर्ति थवी ए मोक्षनुं अङ्ग छे, ज्यारे भगवान् मोक्ष करवानी इच्छा करे त्यारे ए समजाय माटे जे कोई कांई पण जाणवा इच्छे तेणे भगवाननी प्रार्थना करवी. केवळ ध्यान नहि पण ध्यान साथे प्रार्थना पण करवी.अध्याय-४, द्वितीयस्कन्ध १४९ सृष्टिना आरम्भमां प्रभुए ब्रह्माना हृदयमां सृष्टिसामर्थ्यनां स्मरणरूप पवित्र सारस्वतीनी प्रेरणा* करी एथी ब्रह्माना मुखथी भगवत्स्वरूप लक्षणवाळी सरस्वती नीकळी. ऋषिमां श्रेष्ठ ए भगवान् मने प्रसन्न थाओ ॥२२॥
विशेषः इन्द्रियोना व्यापार करतां अवश्य भगवाननी प्रार्थना करवी. ब्रह्माए भगवद्ध्यान करतां प्रार्थना करी त्यारे भगवाने एना हृदयमां प्रवेश कर्यो. भगवाने ज ब्रह्माना हृदयमां सती स्मृतिनो विस्तार कर्यो. तेथी योगथी नर्ही पण भगवानना ध्यानथी ब्रह्माने कार्यसिद्धि थई. पहेलां ब्रह्माए भगवानना अनुभवरूप स्मृतिने भगवदीय पदार्थना निर्माणनेमाटे करी त्यार पछी भगवात्प्रेरणाथी हृदयमां आवी मुखद्वारा वेदरूप वाणी नीकळी के वाणी भगवाननी स्त्री छे. ए वाणी एवी नीकळी के जेथी एनुं पण सत्यत्व, नब्रह्मथशब्दवाच्यत्व, अनन्तादि लक्षण थयुं. जे भगवान् पाञ्च महाभूतोमान्थी आ शरीरो उत्पन्न करे छे; वळी एमां रहीने पाञ्च भूत तथा अगियार इन्द्रियरूप थईने एनां रसने भोगवे छे ते भगवान् मारी वाणीने एना गुणोथी अलङ्कृत करी दो ॥२३॥
जेना मुखकमळमान्थी स्त्रवता ज्ञानरूप मादक आसवनुं सौम्यो (साधको) पान करे छे अने जे मोक्षनो उपाय कहेनार छे. हे भगवान् वासुदेव स्वरूप व्यासजीने हुं नमुं छुम् ॥२४॥
एतदेवात्मभू राजन नारदाय विपृच्छते ॥ वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः ॥२५॥
हे राजन् तमे जे पुछ्युं ते ज नारदजीए ब्रह्माजीने पूछेलुं अने ब्रह्माजीए नारदजीने ते कहेलुं के जे भगवानने ब्रह्माजीने कह्युं हतुं.(अने ते ज हुं तमने कही रह्यो छुं) ॥२५॥
इति श्रीभागवत द्वितीयस्कन्धमां (बीजा हत्प्रसाद प्रकरणनो बीजो) ‘‘परीक्षितनुं स्वरूप तथा शुकदेवजीनुं ज्ञान अने गुरुभक्तिनुं वर्णन’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण थयो. दीक्षा आपनाराओ! सावधान!! दीक्षा लेवा आवनारनी योग्यतानो सोवार विचार कर्या पछीयोग्य (पुष्टि) जीवनेज दीक्षा आपजो. अविचारित पणे (टके शेर भाजी टके शेर खाजा नी माफक) दीक्षा आपनारनो सर्वनाश थाय छे (श्रीगुसांईजी).
ईं उं ईं उं
[[१५०]] प्रकरण ३ - मनन
अध्याय ५
ब्रह्मा अन्तर्यामीना प्राकट्यनो प्रकार कहे छे
विशेष - विमर्श बे जातनो छेः एक उत्पत्तिथी विचार अने बीजो उपपत्तिथी विचार; तेमां उत्पत्तिना बे भेद छे - स्थूल अने अन्तर्यामी अथवा तो मूर्त अने अमूर्त. स्थूल-मूर्त एटले ब्रह्माण्ड एना विचारमां युक्ति सहित विराटनी उत्पत्तिनुं निरूपण आ पाञ्चमां अध्यायमां करवामां आव्युं छे. आ अध्याय स्थूळ मूर्तरूप कार्यनी कारणात्मकता बतावे छे. पुरुष क्रमशः सत्वादि त्रण शक्तिने ग्रहण करी उत्पत्ति, पालन अने लय करे छे. जगतना कर्ता तरीके ए केवळ निमित्तरूप नथी, अभिन्ननिमितोपादान कारणरूप छे. विराटस्वरूपनुं ज्ञान आत्मज्ञाननुं प्रयोजक छे एटले ए अन्तरङ्ग गणाय. तेथी अन्तरङ्ग बहिरङ्ग न्यायथी एनो उत्तर प्रथम आपवो ए योग्य छे. जगत् बहार अने अन्दरनुं एवा बे भेदवाळुं छे. तेथी एना बे अध्याय छे, अथवा स्थूल प्रपञ्च अने लिङ्ग प्रपञ्चथी एना बे भेद होवाथी बे अध्याय छे. प्रथमनो उत्तर सातमां अध्यायामां अन्तर्यामीना निरूपणमां कहेवाशे. पूर्व अध्यायमां परिक्षित अने शुकनुं फलमुख साधन कहेवामां आव्युं ते साधनना विचारने माटे हवे छ अध्याय कहेवामां आवशे. तेमां पाञ्चमा अध्यायथी स्थूळरूपनो उत्पत्तिथी निर्णय कहेवाय छे तेमां प्रथम तत्त्वनी दुर्ज्ञेयता कहेतां नारदजी वक्ताने वखाणे छे. श्रीनारद उवाच देवदेव नमस्तेस्तु भूतभावन पूर्वज ॥ तद् विजानीहि यज्ज्ञानम् आत्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥१॥
नारदजी बोल्या - हे पिता! हे प्राणीओनो जन्म आपनार, हे देवोना देव, आपने नमस्कार हो, आत्माना तत्त्वनो विचार होय तेवुं ज्ञान मने कहो ॥१॥
हे पिताजी! आ संसारनुं लक्षण क्युं? आनो आधार शुं? आनु निर्माण कोणे कर्युं? आनो प्रलय शामां थाय छे? आ कोने आधीन छे? अने हकीकतमां आ छे कई वस्तु? आप एनुं तत्त्व बतावो ॥२॥
आप तो आ बधुं जाणो छो केमके जे कंई बनी गयुं छे, थई रह्युं छे अने थशे एना स्वामी आप ज छो. आ आखुं विश्व हथेळी उपर राखेला आमळानी जेमअध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध १५१ आपनी ज्ञानदृष्टिनी अन्दर ज छे ॥३॥
पिताजी! आपने आ ज्ञान क्यान्थी लाध्युं? आप कोना आधार पर स्थित छो? आपना स्वामी कोण छे? आपनुं स्वरूप शुं छे? आप एकला ज पोतानी मायाथी पञ्च महाभूतोद्वारा प्राणीओनी सृष्टि करी लो छो, केटलुं अद्भूत छे!॥४॥
हे आत्मन्! आप ए बधानुं रक्षण आपनी शक्तिवडे एक करोळियानी पेठे करो छो अने एनो नाश करो छो; अने एटलुं करतां छतां तमे ग्लानि रहित छो ॥५॥
आपथी जुदुं, आपथी अधिक, आपथी ओछुं के आपनी समान बीजुं कंई होय एम हुं जाणतो नथी हे विभो! नाम, रूप गुणवडे आप सिवाय अन्यथी सारुं खोटुं, थतुं होय एम हुं जाणतो नथी ॥६॥
आप आवा छो छतां घोर तप करो छो ए जोई मने खेद तो थाय छे साथे एवी शङ्का पण थाय के आपथी मोटुं पण कोई छे के? ॥७॥
हे सर्वज्ञ! हे सर्वना नियामक! आ मारा बधा प्रश्नना* उत्तर आपो. विशेष विचार करीने कहो के जेथी तमारा कहेवाथी हुं बधुं जाणी शकुम् ॥८॥
विशेष - ज्ञाननो प्रश्न, आत्मानो प्रश्न, तत्त्वना छ प्रश्नो, ब्रह्मविषयक चार प्रश्नो ने आ छेल्लो एम १३ प्रश्नो पूछवामां आव्या छे. तेना उत्तर उनत्ति विमर्शमां कहेवामां आवशे. ब्रह्माजी छेल्ला प्रश्ननो उत्तर प्रथम आपे छे. एम करी एओ एवुं जणावे छे के प्रश्नोनो विषय एक छे. ब्रह्माजी बोल्या - हे वत्स! तारो सन्देह बराबर छे. हे साम्य! एम पूछीने ते मने भगवाननां पराक्रम कहेवानी प्रेरणा आपी छे ॥९॥
मारा पण आराध्य देव छे, जेने तमे नथी जाण्या.तमे मने जगतनो कर्ता मान्यो ए पण एक रीते कांई खोटुन्नथी ॥१०॥
जेम सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रो ताराओ प्रकाश आपे छे तेम भगवाने पोताना प्रकाशथी जगतने प्रकाशित कर्यु छे, हुं पण एना प्रकाशथी प्रकाशुं छुम् ॥११॥
एनी माया दुर्जय* छे. मायाथी जगत् मने जगतनो गुरु कहे छे. एवा भगवान् वासुदेवने हुं नमुं छुम् ॥१२॥
विशेष - सर्वने अज्ञान छे ते योग्य छे. ज्ञानरूप भगवाननी कोईक शक्तिनुं नाम माया छे. ए जगत्कर्तानी मायाथी जुदी छे. ए मायानुं कार्य जगतने मोह करवानुं छे. जगत्कर्तानी माया तो मोह करती नथी पण जगतने वधारे छे. भगवदाज्ञाथी ए कर्ता थाय छे, नहि तो कारणरूप रहे१५२ अध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध छे. आ मायाने कोई जीती शकतुं नथी. श्रुतिओ अजाञ्जहि एम ए मायाने मारवानी प्रार्थना करे छे. ए मायाना मोहने लीधे मने लोको जगतनो गुरु कहे छे. जे मायाना मोहमां पडेला जीवो पोतानी दुर्बुद्धिने लीधे ‘‘हुं अने मारुं’’ एम पोतानी बडाई करे छे. ते माया भगवाननी दृष्टिना मार्गमां आवतां पण लाजे* छे ॥१३॥
विशेष - भगवाननी माया छे एटले के स्त्री छे. ए पोते भगवाननी साथे रमण करवा इच्छे छे तेथी बीजाने मोह करे छे, भगवान् एना आ दोषने जाणे छे तेथी भगवाननी नजरे थतां पण ए लाजे छे. तेथी भगवत्सन्मुख जे जीवो होय तेने ए मोह करती नथी. एनाथी मोह पामेलाज हुं अने मारुं करे छे. कारण के एमनी बुद्धिनेज मोहित करी दे छे. हे ब्रह्मन्, द्रव्य (भूतादि), कर्म (जन्मनुं निमित्त), काल (गुणक्षोभक), स्वभाव (परिणामनो हेतु) अने जीव ए पाञ्चे वस्तु वासुदेव भगवान्थी जुदी नथी ॥१४॥
वेदो नारायण परायण छे. देवो नारायणना अङ्गथी१ उत्पन्न थया छे, लोको नारायण परायण२ छे, यज्ञो नारायणने प्रसन्न करवामाटे ज करवामां आवे छे. योगनुं तात्पर्य नारायणमां छे तप नारायण परायण छे. ज्ञाननी पराकाष्ठा नारायण छे, बधा साध्य अने साधनोनुं पर्यवसान नारायणमां ज छे ॥१५-१६॥
विशेष - १. वेदो शब्दोथी, अर्थोथी अने नामोथी भगवानने कहेनार छे. ए अर्थो विधि,
अर्थवाद, मन्त्र अने नामधेय एवा नामथी थाय छे. पुरुष प्रयत्नथी अभिव्यक्त थता
भावोमां विधिनुं तात्पर्य छे. विधेय अर्थनी स्तुतिमां अर्थवादनुं तात्पर्य छे. मन्त्रो देवताना
प्रतिपादनमां उपयोगी छे. नामधेय अर्थात् नामोमां पण तात्पर्य छे. आम वेद चाररूपे
प्रवर्तता यागमां उपयोगी छे. तेमां याग करण छे, स्वर्गादि साध्य छे. ए देवताप्रीतिने
सम्पादन करे छे.
२. परन्तु देवनी प्रीति अनित्य छे. अनित्य प्रीतिवाळा एने मरण वखते भूली जाय
तेथी स्वर्गादि न मळे. अने यागमां तो स्वर्ग फलरूप छे, केवळ देवतानो उद्देश नथी. देवताओ
भगवानना श्रीअङ्गमां रहेनारा होवाथी भगवत्परता छे. ज््यां देवता व्यापाररूप कहेवामां आवे
त्यां स्वर्गादि उदेश्य छे, पछी ए स्वर्गनो अर्थ लोक लो के आत्मसुख लो एनाथी भगवदीयपणुं
व्यभिचरित थतुं नथी केमके लोक पण भगवदवयव छे. एम स्वर्गादि लोक अवान्तर छे. वेदना
वाक्यार्थना कथनमां पण ए वाक्यो भगवत्पर छे. एमां विवाद नथी. योग चित्तवृत्तिना
निरोधरूप छे. तप भगवानने उपयोगी छे. ज्ञानीनुं ज्ञान ज्ञेयमां होय छे. ए ज्ञेय अर्हीअध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध १५३
नारायण छे केमके ए आत्मा छे, सर्व छे ने ब्रह्म छे. गति पण भगवत्पर छे. गतिनुं फल
ब्रह्मज्ञान छे.
ए भगवान् दृष्टा छे, ईश्वर छे, विकार विनाना छे, सर्वना आत्मरूप छे एनी
ज्ञानदृष्टिथी प्रेरणा पामेलो हुं एणे जे सरजवानुं कह्युं ते उत्पन्न थईने सरजुं
छुम् ॥१७॥
भगवान् पोते निर्गुण छे. तेम छतां जगतनां स्थिति, उत्पत्ति अने संहारनेमाटे मायावडे सत्त्व, रज अने तमोगुणने धारण *करे छे केमके एवी रीते ए गुणोनुं ग्रहण करवामां पोते समर्थ छे ॥१८॥
विशेष - भगवान् सच्चिदानन्द छे. सत्मान्थी सत्त्व थयुं, चिद्रुपमान्थी क्रिया शक्ति मुख्य होवाथी अने आनन्द न होवाथी रजस् थयुं आनन्द अंशथी नीकळेलुं तमस् कहेवाय छे. भगवद्रुप ज भगवाने उत्पन्न कर्या ए गुणो प्रथम भगवान्मां न हता; पहेलां होय तो भगवान्थी जुदा गणाय. कपासमान्थी दोरो प्रकट थाय तेम जेम-जेम काम पड्युं तेम-तेम गुणो थया; एटले भगवान् निर्गुण ठर्या, जगतनां उत्पत्ति, स्थिति अने लयमाटे पोते ए गुणो स्वस्वरूपमान्थी काढ्या अने एमनो स्वीकार पण मायाथी कर्यो. गुणो ए कार्यरूपे, कारणरूपे अने कर्तुत्वरूपे, द्रव्य, ज्ञान अने क्रियानो आश्रय करीने *मायाने वश थयेला नित्य अने मुक्त आत्माने बान्धे छे ॥१९॥
विशेष - आ माया जगत्कर्त्री छे, मोह करनारी नथी केमके ए विभुनी माया छे ए सर्वरूप भगवाननी शक्ति छे. सर्वरूपमां भगवानना सम्बन्धथी ए सर्वनी प्रतिकृतिरूपी माया छे, भगवान् जगत् करे एमां ए कारणरूप छे. करणांश मायानो छे तेथी करणरूपथी नीकळेला गुणो मायाए ग्रहण कर्या. ए गुणो एना पुत्रो होय तेम एने ताबे रहे छे; तेथी भगवानना अंशरूप जे जीव ते मायामां के मायाना कार्यमां रमवानी इच्छा करे तेने ए बान्धे छे. कार्य एटले अधिभूत देह ते द्रव्यात्मक छे, कारण ए अध्यात्म इन्द्रियोरूप छे ते क्रियात्मक छे; अने कर्ता आधिदैविक अन्तःकरणरूप ज्ञानात्मक छे. जीवने देहनुं ए निमित्त छे. जे केवळ जीव हतो ते आथी देहरूपवाळो थयो. अधिभूतादि त्रणना आश्रय एक-एकनो एक आश्रय छे. ए पोतपोताना आश्रयमां जीवने बान्धे छे. बान्धवामां कारण एटलुं ज छे के एने मायानो सम्बन्ध छे. परन्तु जो सम्बन्ध मात्र ज बन्धननुं कारण होय तो भगवानने पण सम्बन्ध छे तेथी एने बान्धे; पण ए गुणो तो ‘‘हुं छुं’’ एवुं अभिमान करे छे. तेथी एने बान्धे छे. जो एने साधनपणाथी कामनेमाटे ग्रहण करे तो माया एने न बान्धे. जे एमां स्वतन्त्रता१५४ अध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध देखाडी ‘‘हुं एनो पति छुं’’ एम वर्त्ते छे तेने ज ते बान्धे छे, कारणरूपे कार्यनेमाटे ग्रहण करनारने ए बान्धती नथी. तेथी गुणमां बन्धायो ते ताबेदार, गुणनो कर्ता ते नियामक एम एकमां बे रूप थयानुं कारण माया कही. भगवान् मायाने वश करनार छे पण एमना आ त्रण गुणोनी असरने लीधे कोई जाणी शकतुं नथी. हे ब्रह्मन्! एमने केवळ एमना भक्तो ज जाणी शके छे. ए भगवान् बधाना तेम ज मारा ईश्वर छे ॥२०॥
हे आत्मन्! मायापति भगवानने एकमान्थी बहु थवानी इच्छा थई त्यारे पोतानी मायाथी पोताना स्वरूपमां स्वयं प्राप्त काल, कर्म अने *स्वभावनो स्वीकार कर्यो ॥२१॥
विशेष - प्रथम मायाए गुणोने राख्या पछी काळादि त्यां आव्या. ए पण गुणोमां प्रविष्ट
थया तेथी काळने गुणोनो सम्बन्ध थयो. पछी स्वभावने सम्पर्क थयो त्यारे एनुं परिणाम
आव्युं. तेथी त्रण गुणना कार्यरूप जन्मरूपे परिणम्युं; तेथी त्रण गुणथी सृष्टि त्रण प्रकारनी
थई. काळनो सम्पर्क थतां भूत, भविष्य अने वर्तमान एवा भेद थया. एमां स्वभाव पेठो
त्यारे अधिक थवो जोईए तेथी जडादि वस्तुओ थई. ज््यारे एमां कर्म पेठुं त्यारे जीवने रहेवा
लायक देहादिनो जन्म थयो. ए बधां थयां तेमां पुरुषनुं अधिष्ठान समजवुं. एपण परिणाम
तो महत्तत्त्वना जन्ममां आव्युं तेथी एने ‘महत्’ कह्युं छे.
काळथी गुणनो सम्बन्ध थयो, स्वभावथी गुणनो सम्बन्ध थतां ए गुणो
परिणामवाळा गुणो थया, कर्मो अने गुणोने सम्बन्ध थतां महत्तत्त्वनो जन्म थयो.
०आ बधु ए बधाम्मां पुरुषे प्रवेश कर्यो त्यारे थयुम् ॥२२॥
ज््यारे महत्तत्त्वमां गुणोए प्रवेश कर्यो अने भगवाने प्रेर्या त्यारे महत्तत्त्व पण विकारवाळुं थयुं. तेमां रजोगुण, सत्त्वगुण गौण होय अने तमोगुण मुख्य होय तेवा द्रव्य, ज्ञान अने क्रियात्मक पदार्थ पेदा थया ॥२३॥
हे प्रभो! ज््यारे ए त्रणे पदार्थ एकरूपे थया त्यारे ए अहङ्कार कहेवायो. एमां विकार थतां सात्त्विक, राजस अने तामसना भेदथी द्रव्यशक्ति, क्रियाशक्ति अने ज्ञानशक्ति एवा एना भेद पड्या ॥२४॥
भूतादि एटले तामस अहङ्कार, विकृत थईने ए आकाश थयुं. एनो मात्रागुण शब्द थयो. शब्द द्रष्टा अने दृश्य ने कहेनारुं लिङ्ग छे. शब्दथी बन्ने जणाय छे ॥२५॥अध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध १५५ आकाशमां विकार थतां स्पर्शगुणवाळो वायु थयो. एनो प्रधान गुण स्पर्श छे. एना कारणरूप आकाशनो गुण शब्द एनामां आववाथी ए बे गुणवाळो थयो. ए वायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त अने धनञ्जय एम) दश प्रकारनो छे. इन्द्रियशक्ति ओजस, मननी शक्ति सह अने शरीरनी शक्ति बल ए बधां एनां कार्य छे ॥२६॥
काळ, कर्म अने स्वभावथी वायुमां विकार थयो. एम थतां एमान्थी तेज थयुं. एमां रूप, शब्द अने स्पर्श त्रण गुणो आव्या. तेजनो विकार थतां एमान्थी रसात्मक जळ उत्पन्न थयुं. रूप अने स्पर्श पण एमां आव्यां अने परान्वयथी शब्द आव्यो. जळमां विकार थतां गन्धवाळी पृथ्वी (विशेष) उत्पन्न थई तेमां कारणना गुण कार्यमां आवे छे ए (परान्वय) न्यायथी शब्द, स्पर्श, रूप अने रस ए चार गुण आव्या ॥२७-२९॥
सात्त्विक अहङ्कारथी मन उत्पन्न थयुं अने इन्द्रियोना दश देव उत्पन्न थया. दिशा, वायु, सूर्य, प्रचेता, अश्विनीकुमारो, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, मित्र अने ब्रह्मा ए दश इन्द्रियोना दश देवो छे. श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, ध्राण, वाक्, पाणि, पाद, पायु अने उपस्थना क्रमथी ए देवताओ समजवा ॥३०॥
राजस अहङ्कार विकृत थतां एमान्थी दश इन्द्रियो थई. ज्ञानशक्ति बुद्धि अने प्राण ए राजस अहङ्कारनुं कार्य छेःश्रोत्र, त्वक्, ध्राण, दृक्, जिह्वा, वाक्, हस्त, जननेन्द्रिय, अन्ध्रि अने गुदा ए दश इन्द्रियो छे ॥३१॥
ए भूतो इन्द्रियो मन अने गुणो ज््यां सुधी छूटां रह्यां त्यां सुधी हे ब्रह्मवित्तम! पोतानुं स्थान निर्माण करवामां समर्थ न थयां त्यारे एणे अन्योन्य मळीने भगवाननी शक्तिनी प्रेरणाथी सद्-असद्ने लईने ब्रह्माण्डने बन्ने रीते बनाव्युं - समष्टि- व्यक्ति(व्यष्टि)रूपे ॥३२-३३॥
हजारो वर्षो सुधी जळमां रहेल ए निर्जीव अण्डने *काल-कर्म-कर्म-स्वभावयुक्त, जीवथी जुदा एवा भगवाने जिवाडयुम् ॥३४॥
विशेष - ए अण्ड जळमां जीव वगरनुं रह्युं. एमां भोग करनार जीवे प्रवेश कर्यो नहोतो. हवे अण्ड जो वधारे वार जळमां रहे तो जळमां लीन थई जाय तेथी जीवथी व्यतिरिक्त भगवान् ए अण्डने जीवयुक्त कर्युं तेथी ए प्राणयुक्त थयुं. त्यारे भगवान् ए प्राणना अधिष्ठानवाळा विराट पुरुष कहेवा लाग्या; एटले के अण्डनुं रूप बदली ए पुरुषरूप थया अने जेम सुख थाय१५६ अध्याय-५, द्वितीयस्कन्ध तेम फरवा लाग्या. तेथी ‘‘सहस्त्रशीर्षा पुरुषः’’ ए पुरुषसूक्तना मन्त्रथी अर्थरूप थया. ए विराट पुरुष ए अण्डने भेदीने एमान्थी बहार नीकळ्या. एने हजारो साथळ पग बाहु आङ्खो मोढां अने माथां हताम् ॥३५॥
विद्वान पुरुषो ध्यानमाटे एना अवयवोमां लोकनी कल्पना करे छे. केडनी नीचे अतळ वगेरे लोक अने जघननी उपर भूः, भुवर्, स्वर्, महर्, जन, तप अने सत्यलोकनी कल्पना करवामां आवे छे ॥३६॥
आ पुरुषनुं मुख ब्राह्मण छे. एनी भुजाओ क्षत्रियो छे; साथळ वैश्यो छे अने बन्ने पगथी शूद्र उत्पन्न थयेल छे ॥३७॥
ए पुरुषना बेपगवडे *भूलोकनी कल्पना करवी एनी नाभिथी भुवर्लोकनी, हृदयथी स्वर्गलोकनी, उरःस्थळथी महर्लोकनी, ग्रीवामां जनलोकनी, बे नसकोरामां तपोलोकनी अने मस्तकवडे सनातन सत्यलोक जेने ब्रह्मलोक कहे छे तेनी कल्पना करवी ॥३८-३९॥
विशेष - पगथी केड सुधी भूलोक, नाभिमां भुवर्लोक, हृदय नीचे भाग-उपडतो भाग उरस्, (अर्हीथी ज्ञानीनो वास होवाथी महात्मनः पुरुषनुं विशेषण कह्युं छे), स्तनद्वय एटले बे नासिका, मस्तको उपर सत्यलोक लेवो. एनी केडमां अतळलोकनी, ऊरुमां वितळनी, जानुमां (घूण्टणमां) शुद्ध सुतळनी, जङ्घामां तळातळनी, घूण्टीमां महातळनी चरणना उपरना भागमां रसातळनी अने नीचेना भागमां पाताळनी कल्पना करवी. आ प्रमाणे विराट पुरुष *सर्वलोकमय छे. ॥४०-४१॥
विशेष - उपर सात लोक गणाव्या ते उत्तम छे. एमां भगवानना अवयवो कारणरूप छे. अतलमां यमनो पुत्र रहे छे तेमां मोहक बाहुल्य छे तेथी एमां तो भगवानना अवयव आधारमात्र छे. ए तामस वितलमां महादेव रहे छे. ए महादेवने सुखनुं दान करे छे. सुतलमां भगवान् रहे छे माटे एने शुद्ध कह्युं छे. आ कथन उपासनामाटे नथी, पुरुषनुं स्वरूप एवुं छे ए बताववा माटे छे. भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोस्य नाभितः ॥ स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥४२॥
विराट भगवाननां अङ्गोमां एवी पण लोकोनी कल्पना *करवामां आवे छे के एमनां चरणोमां पृथ्वी, नाभिमां भुवर्लोक अने मस्तकमां स्वर्गलोक छे ॥४२॥अध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध १५७
विशेष - केडथी पग सुधी पृथ्वी लोक, नाभिथी ग्रीवा सुधी भुवर्लोक, ग्रीवाथी ब्रह्मरन्ध्र सुधी स्वर्गलोक, अर्ही गुणथी, विद्याथी अने यज्ञथी कल्पना थयेली छे. सात्त्विको चौद लोकनी, राजसो सप्त लोकनी अने तामसो त्रण लोकनी कल्पना करे छे. इति श्रीमद् भागवत द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजा मनन प्रकरणनो पहेलो) ‘‘ब्रह्माजी अन्तर्यामीना प्राकट्यनो प्रकार कहे छे’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु(श्रोता) अहि(नाग=कथाकार) मणि(भागवत) अजवाळे, त्यम तें (कथाकार)उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र(भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गे
अध्याय ६
पुरुषसूक्तमां कहेला भगवानना विराट देहनुं वर्णन
विशेष - आ उत्पत्ति प्रकरण छे एमां एनो प्रकार बताववामां आवे छे. अनित्य पदार्थनो जन्म, नित्य अने परिच्छिन्न वस्तुनो समागम अने नित्य छतां परिच्छेद नथी एनुं प्राकट्य एटला उत्पत्तिना भेद छे. आ छठ्ठा अध्यायमां स्थूळ अमूर्तरूप स्थानना सम्बन्धरूप उत्पत्ति कहेवाय छे. एनुं रूप अभेदज्ञान छे. पूर्व अध्यायमां ‘‘नारायणपरा वेदाः’’ सामान्य रीते कह्युं छे एनो अर्ही विस्तार कर्यो छे. आ उत्पत्तिनो पुरुषसूक्तनी साथे निर्धार कर्यो छे. एटले वेदे क्ह्युं छे ते ज श्रीभागवत विस्तारथी कहे छे. अर्थात् कारण-कार्यनी अभिन्नता सिद्ध थाय छे. एनाथी भगवाननुं माहात्म्य कहेवाय छे. सर्वत्र अमूर्तरूपना साधर्म्यमां भगवाननुं रूप बृहत् अक्षर छे. तेथी वस्तुमां भेद नथी रहेतो. पाञ्चमा अध्यायमां मूर्त पदार्थनी उत्पत्ति कही, अर्ही अमूर्त (जीवो) नो मूर्त (देहादि) नी साथे सम्बन्ध कहेवाय छे. पहेलां जे देवादिनी उत्पत्ति कही छे ते पण विशिष्ट (देहादि साथे) उत्पन्न थया छे. एमां जे अमूर्त रूप छे तेने जुदुं करी स्थूळ रूपवाळा भगवान् अमूर्त विराटमां पेठा एनो सम्बन्ध बतावे छे. आ जीवनुं प्रकरण होवाथी एनां साधन तथा फळ उत्पत्तिथी कहेवाय छे.
ईं उं ईं उं
[[१५८]] भगवाननुं माहात्म्य अमूर्त छे ए पण अर्ही कहे छे. एमां प्रथम बधा जीवना लिङ्ग-शरीरनी सामग्री भगवानना लिङ्ग-शरीरमां सम्बन्धवाळी छे ए ब्रह्माजी बतावे छे. ब्रह्मोवाच वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ॥ हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च ॥१॥
ब्रह्माजीए कह्युं - वाणी अने अग्निनुं स्थान मुख* छे गायत्री आदि सात छन्दनुं स्थान त्वक्, चर्मादि सात धातुओ छे. हव्य (देवने आपवानुं अन्न), कव्य (पितृओने आपवानुं अन्न) अमृत, (ते बन्नेने आप्या पछी बचेलुं मनुष्य अन्न) ते बधां अन्न तथा मधुरादि सर्व रसनुं स्थान जिह्वा स्थान छे ॥१॥
विशेषः मुख एटले जेमां भोजननो कोळियो मूकवामां आवे ते. भगवानने बे मुख छेःइन्द्रियरूप एक अने गोलकरूप बीजुं. एमां गोलकने ब्राह्मणपणुं कह्युं छे. इन्द्रियरूप मुख वाणी अने अग्निनुं क्षेत्र छे तत्त्वोमान्थी भगवद्देह थयेलो छे. पातालादिनी पण भगवदवयवोथी उत्पत्ति छे अने भगवानमां स्थिति थाय छे; तेथी पातालादिरूप पण भगवान् छे. अर्ही भगवानने उद्देशी जगत् कहेवायुं; अर्थात् आधारपणाथी भगवान् कहेवाना छे. तेथी छन्दो अमूर्त छे. एमनुं स्थान भगवानना जे अमूर्त अवयवो छे ते छे. ए एमना क्षेत्ररूप छे. गायत्री, जगती, उष्णिक्, त्रिष्टुभ्, अनुष्टुभ्, पक्तिं अने बृहती, सात धातुओ जेवी के त्वचा, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा, स्नायु अने अस्थिरूप देवो छे. आवी रीते भगवन्मुखमां मुखसम्बन्धी सर्व पदार्थो शब्द अने अर्थना सम्बन्धवाळा छे. एमां रसना नामनी इन्द्रियनो शो सम्बन्ध छे? ह्व्य कव्य, अमृतरूप अन्ननुं स्थान रसनेन्द्रिय छे. हव्य एटले देवोनुं अन्न. आ अन्नमां ज मन्त्रथी हव्यनो आरोप थाय छे. एवुं ज कव्य पितृओनुं अन्न अमृत. अतिथि आदि जम्या पछी बचेलुं अथवा वगर माग्ये मळेलुं अन्न पण अमृत कहेवाय छे. ब्राह्मणभोजनथी बचेलुं अन्न पण अमृत कहेवाय छे. ए बधानुं स्थान भगवाननी जिह्वा छे. छ प्रकारना एटले मधुर, तिक्त(कडवो), लवण, कटु(तीखो), अम्ल अने कषाय ए रसनुं स्थान पण ए ज छे. हव्यमां पण ए रसो छे. आपणी इन्द्रियो अने अधिष्ठाता वरुणनुं स्थान पण ए ज छे. एथी हव्यादि सिवायना रसनुं स्थान भगवाननी जिह्वा नथी एवुं प्राप्त थाय छे, नासास्थान घ्राणसम्बन्धी सर्व क्षेत्र तरीके छे ते आपणा बधाना प्राणवायुना अधिष्ठाता तेनो वायुदेव छे. एना बे पुट छे ते आधिदैविक छे. बे नासाना पुट सर्वना स्थानरूप समजवा. एमां घ्राणेन्द्रिय अश्विनादिनुं क्षेत्र छे. व्रीहि वगेरे ओषधिनुं स्थान पणअध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध १५९ ए ज छे. मोद अने प्रमोद नामना सुगन्धि विशेषनुं पण ए ज स्थान छे. एमां दूरथी वातो होय ते मोद कहेवाय; प्रमोद तो बधा गन्धने नीचे राखी उपर आवे. अनेकविध रूपनुं स्थान भगवाननी गोलकरूप आङ्ख छे, स्वर्गने सूर्यनो स्थान पण आङ्खो इन्द्रियरूप समजवी. दिशाओ कालनी आधिदैविक छे. इन्द्रियरूप गङ्गादि तीर्थनुं कर्ण गोलकरूप स्थान मानो आकाश अने शब्दनुं स्थान श्रोत्र नामनी इन्द्रिय मानो. कानथी सात छन्दःगायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक, बृहती, पक्तिं अने जगती जे सम्भळाव तेना आधारनुं स्थान भगवाननी श्रोत्रेन्द्रिय समजवी. सोनुं, हीरा ए वस्तुना साररूप छे, अथवा उत्कृष्ट एटले परमार्थनी देवतारूप सौन्दर्य छे. एनुं भगवाननुं श्रीअङ्ग-स्थान छे. भगवाननी त्वक् इन्द्रिय स्पर्शादिना स्थानरूप समजवी. मेघ-पवित्रता. ए बधानी पवित्रता भगवाननी त्वग-इन्द्रियमां रहे छे. जळथी शुद्धि थाय छे. ए जळ अर्ही भगवानना पसीनारूप छे; तेथी भगवाननी पवित्रतामां सन्देह न करवो. बधा प्राण अने पवननुं विराट पुरुषनी नासिका स्थान छे. ओषधिओनुं, अश्विनीकुमारोनुं अने मोद, प्रमोदनुं नासिकामां रहेलुं घ्राणेन्द्रियनुं स्थान छे. रूप अने तेजनुं स्थान नेत्रमां रहेलुं चक्षु इन्द्रिय छे. स्वर्ग अने सूर्यनुं स्थान पुरुषनी आङ्खमां छे. दिशाओ अने तीर्थोनुं स्थान समष्टि पुरुषना कानमां छे. आकाश अने शब्दनुं स्थान श्रोत्रेन्द्रिय छे. वस्तुनां सार अने सौभाग्यनुं स्थान पुरुषनुं शरीर छे. स्पर्श अने वायुनुं स्थान एनी त्वचेन्द्रिय छे. सर्व पवित्रतानुं स्थान पण ए ज छे ॥२-४॥
वनस्पतिओ के जेनाथी यज्ञनी तैयारी थाय छे ते प्रभुनां रुवाडां छे. शिला, लोह, वादळ, वीजळीनां स्थान ए प्रभुना केश दाढी-मूछ अने नख छे. मोटे भागे कल्याण करनार लोकपालोनुं स्थान प्रभुना बाहुओ छे ॥५॥
भूः, भुवः, स्वर्ग भगवाननो विक्रम छे; (विक्रम=पग मूकवो ए.) क्षेम अने शरणनुं स्थान पण ए ज छे. सर्वकामना, आशिषो अने देवनी प्रसन्नता जणावनार वरदाननुं पण स्थान भगवाननुं चरण छे ॥६॥
जल, वीर्य, सृष्टि, वृष्टि, प्रजापति ए बधां पुरुषना शिश्नस्थाने छे. प्रजा अने आनन्दना सुखनुं स्थान एमां रहेल उपस्थ इन्द्रिय छे.(स्पर्शनुं सुख=आनन्द, कामनी शान्ति=निवृत्ति, प्रजापति=वीर्य पात ए त्रणनुं स्थान उपस्थ छे) ॥७॥
हे नारद! यम, मित्र अने मळत्यागनुं स्थान भगवाननी पायु इन्द्रिय छे.१६० अध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध हिंसा, निर्ऋति*, मृत्यु अने नरकनुं स्थान गुदा छे ॥८॥
विशेष - निर्ऋति=दिशाना पति देवता. पराजय, अधर्म, अज्ञान ए बधानो आश्रय विराट् पुरुषनी पीठ छे. नद-नदीओ भगवाननी नाडीओ छे. पर्वतो भगवानना हाडरूप छे. मूल प्रकृति, क्षारादि समुद्रो, पञ्चमहाभूतो अने प्रलयमां प्रवेश करवानुं स्थान भगवाननुं उदर छे. मननुं स्थान भगवाननुं हृदय छे. धर्मनुं, मारुं, तारुं, सनकादिकुमारो, शिव अने विज्ञाननुं स्थान परमात्मा पोते छे ॥९-११॥
(कयां सुधी गणावुं?) हुं, तुं, शिवजी अने बीजा तमारा मोटा भाईओ सनकादि तथा मरीच्यादि, सुर, असुर, नाग, नग, पक्षीओ, मृगो, पेटे चालनारां प्राणी, गन्धर्वो, अप्सराओ, वृक्षो, राक्षसो, भूतगणो, सर्पो, पशुओ, पितृओ, सिद्धो, विद्याधरो, चारणो, वृक्षो, बीजा नानाविध जीवो, जळचर, स्थळचर अने आकाशमां फरनारा ग्रहो, नक्षत्रो, धूमकेतुओ, ताराओ, वीजळीओ, मेघोनी गर्जनाए बधा विराट पुरुषरूप ज छे ॥१२-१४॥
जे थयुं हशे, थाय छे अने थशे ते बधुं पुरुषरूप छे. आ ब्रह्माण्ड एनाथी घेरायेलुं छे. एनाथी एक वेन्त पोते वधारे छे. ॥१५॥
जेम सूर्य पोताना मण्डळने प्रकाश आपतो बहार पण प्रकाश फेङ्के छे तेम आ पुरुष पण विराटने प्रकाश आपता अन्दर ने बहार पण प्रकाश करे छे ॥१६॥
ए पुरुष नित्यसुख अने मोक्षसुखना ईश्वर होवाथी विराट-शरीरथी पर छे. कोईथी पार न पामी शकाय एवो *महिमा ए विराटपुरुषनो छे ॥१७॥
विशेष - ए विरुद्ध धर्मना आश्रय छे ए भगवाननो महिमा छे. विरुद्ध धर्मो आश्रयनो भेद करी शकता नथी. एक आश्रयमां ज बन्ने थाय छे. धर्मनो परस्पर विरोध होय ते लोकनी पेठे कार्य न करी शके. ए ज पोताना आश्रयनो महिमा वधारे छे. जे सर्वत्र समर्थ होय ते जो कोई वाते समर्थ न थाय तो एनाथी एनो महिमा वधे छे के जेथी ए पोतानुं कार्य करवाने समर्थ थतो नथी एमां भगवानना विरुद्ध धर्माश्रयत्वनो महिमा रहेलो छे. ए धर्म भगवान्मां ज छे. बीजामां नथी. एनुं कार्यसाधकत्व नथी तेथी ए महिमानी कोई प्रतिबन्धकता नथी केमके धर्म एवो छे के कोई एनी समान के एथी वधे एम नथी, परन्तु एवो सवाल उपस्थित थाय के बन्ने धर्मो अविरुद्ध केम रही शके? पण आ विरोध तो बोलवा मात्रमां ज छे एवा विरुद्ध धर्मना आश्रयत्वथी तो भगवाननो महिमा छे. केमके ए अलौकिक छे. ए महिमानो छेडो नथी. ए लोकमां बन्ने कार्यो करे छे एवुं देखाय छे एटले एनी मोटाइथी एनुं माहात्म्य वधे छे एअध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध १६१ ज दुरत्ययार्थरूप छे तेथी प्रभु अमृत अने अभयरूप फलना स्वामी छे. पुरुषभेद अने फलभेदथी ए पोतानो महिमा प्रकट करे छे. ए स्थितिपात् (स्थिति एटले त्रण लोक.). भगवानना चरणमां बधा लोको छे. त्रिमूर्धना मूर्धरूप महर्लोकनी उपरना त्रण लोकमां अमृत, क्षेम अने अभय (जन, तप, सत्य) लोक रह्या छे ॥१८॥
आ भगवानना *त्रण पाद त्रण लोकनी बहार छे. ए ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ अने सन्न्यासीना आश्रम छे. त्रण लोकनी अन्दर एनाथी जुदो एवो गृहस्थाश्रमी रहे छे ॥१९॥
विशेष - भगवानना चार वर्णो ते चार पाद. एमां भगवान् रहे छे. एमां त्रण पाद ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ अने सन्न्यासी; ए त्रण लोकनी बहार रहे छे. ए त्रणमां एक मुदो समान छे एमने प्रजा नथी थती. ए अप्रज कहेवाय छे. आश्रमना धर्मथी एओ अपुत्र छे तेथी वाञ्झिया नथी, आ त्रण पाद त्रण लोकनी बहार छे. त्रण लोकनी अन्दर नीचा दरज्जानो गृहस्थाश्रम छे. एनी बुद्धि घरमां ज होय छे. ए बहारनो दोष छे. ब्रह्मचर्य पळातुं नथी ए अन्दरनो दोष छे. अबृहद्व्रत=मोटुं उच्च वीर्य राखवानुं जेने व्रत नथी ते. बे मार्गो चाले छेःएक मार्ग एवो जेमां कार्यनुं फळ भोगववामां आवे छे ते अने बीजो जेमां कर्मफलने छोडी देवामां आवे. एकने अविद्या कहे छे. बीजाने विद्या कहे छे. ए उभयनो *आश्रय भगवान् करे छे ॥२०॥
विशेष - कर्मनुं फळ भोगववापणुं होय तेवो अविद्यानो मार्ग ने कर्मनुं फळ छोडी देवापणुं होय तेवो अविद्यानो मार्ग एम बे मार्गोनो आश्रय भगवान् करे छे, भगवान् ए मार्गे चाले छे. आ मार्गो स्वभावथी एवा थया नथी. भगवान् ज बे मार्गे चाले छे. तेथी ज लोको पण एनुं अनुगमन करे छे. अविद्या अने विद्या ए भगवाननी बे शक्तिओ छे. जो भगवान् ए बेउ मार्गे न चाले तो ए बे भगवद् शक्ति कहेवाय छे ए न कहेवाय एमनां कार्यने सामग्री एमां ज रहेलां छे. ए भगवान्मान्थी अधिभूतादि भेदवाळुं, त्रिगुणवाळुं, भूत इन्द्रियवाळुं अण्ड उत्पन्न थयुं अने पोते जेम सूर्य पोताना मण्डळने तपावी बहार प्रकाश आपे तेम आखा प्रदेशने व्यापीने एनाथी बहार नीकळी रह्यो ॥२१॥
ज््यारे महात्माना नाभिकमळमान्थी हुं उत्पन्न थयो त्यारे एना *अवयवो सिवाय यज्ञमां उपयोगी होय तेवा पदार्थोने में जोया नहि ॥२२॥१६२ अध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध
विशेष - आ भगवाननी नाभिमान्थी कमळ थयुं, हुं पण ए कमळमां थयो. जेमान्थी हुं थयो ते मोटा छे; माटे मारे एमनुं आराधन करवुं जोईए पण एम केम करवुं? एने शुं आपीए तो ए राजी थाय? मे योगद्वारा जाण्युं के भगवान् यज्ञथी प्रसन्न थाय छे. पण यज्ञ करवो शी रीते? ए पण वेदथी जाण्युं के पशु अने पुरोडाशथी यज्ञ करवो; पण ए लाववां क्यान्थी? ए पण में योगद्वारा जाण्युं के भगवानना श्रीअङ्ग वगर पशु पुरोडाश वगेरे कांई नथी. त्यारे ए पुरुष यज्ञरूपे प्रकट थया. आम भगवान् पण साधनरूप छे. एमां यज्ञनां पशु, यूप, दर्भो, यज्ञभूमि श्रेष्ठ गुणवाळो काळ, पात्र वगेरे वस्तुओ, चोखा वगेरे औषधिओ, धृत वगेरे स्निग्ध पदार्थो, छ रस, लोह, माटी, जळ, ऋक्, यजुः, सामना मन्त्र, चातुर्होत्र, यज्ञोना नाम, मन्त्रल दक्षिणा, व्रत, देवतानो अनुक्रम, कल्प, सङ्कल्प, सूत्र, गति, विष्णुक्रम वगेरे देवतानां ध्यान आदि, मति, प्रायश्चित, समर्पण ए बधी यज्ञमां उपयोगी वस्तु पुरुषना अवयवोमान्थी में तैयार करी ॥२३-२६॥
आवी रीते यज्ञमाटे उपयोगी पदार्थो एकत्र करीने यज्ञरूप पुरुषना अङ्गमान्थी लीधा. ए यज्ञरूप पुरुष ईश्वर छे. एमनुं ए पदार्थोवडे यजन कर्युम् ॥२७॥
पछी तमारा मरीचि वगेरे नव भाईओए स्पष्ट तेम ज अस्पष्ट रीते एम बे प्रकारे यज्ञपुरुषनुं यजन कर्युं. एमणे ए काम चित्तने एकाग्रताथी सारीरीते कर्युं. पछी मनुए अने अन्य ऋषिओए एमना काळमां यज्ञो कर्यां. पितृओ, देवो, दैत्यो अने मनुष्योए यज्ञो करी विभु यज्ञेश्वरने प्रसन्न कर्याम् ॥२८-२९॥
आ जगत् भगवान् नारायणमां रह्युं छे. एमणे जो के सृष्टि करवामां मायाना मोटा गुणोने धारण कर्या छे छतां ए पोते निर्गुण छे ॥३०॥
हुं एमनी आज्ञाथी जगतने उत्पन्न करुं छुं. महादेवजी एमने अधीन रहीने जगतनो लय करे छे. एवा ए त्रण शक्तिवाळा भगवान् पुरुषरूपथी जगतनुं पालन करे छे ॥३१॥
बेटा! तमे मने जे पूछ्युं ते में तमने कह्युं. भाव अथवा अभाव, कार्य अथवा कारणना रूपमां एवी कोई चीज नथी जे भगवान्थी अलग होय ॥३२॥
हे अङ्ग! मारी वाणी खोटी पडती जणाती नथी. मारा मनमां कांई खोटी वात आवती नथी. मारी इन्द्रियो *खोटे रस्ते जती नथी. में प्रेममग्न हृदयमां हरिने धारण कर्या छे एने लीधे ज ए बधुं सामर्थ्य मारामां आव्युं छे ॥३३॥अध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध १६३
विशेष - हृदयमान्थी भगवान् तिरोधान पामे छे त्यारे ज ए खोटी बुद्धि उत्पन्न करे छे. में तो ऊछळता हृदयमां भगवानने प्रेमथी धारण कर्या छे. त्यां भरती पण छे ते भगवानने आलिङ्गन करी मारा मोढामान्थी नीकळे छे तेथी ए कोई दिवस खोटी पडती नथी. एटलुं ज नहि पण मारुं मन पण खोटे रस्ते जतुं नथी. माटे भगवाननो प्रेम चित्तमां करवो. प्रेमवाळुं चित्त सर्वत्र रहेता भगवानने खेञ्ची लावशे. जेम द्रव्योनो रस हवा खेञ्ची लावे छे तेम मन भगवानने प्रेमथी खेञ्चे छे. हुं वेदमूर्ति छुं. मारुं जीवन तपस्यामय छे. बडा-बडा प्रजापति मने वन्दन करे छे. अने हुं एमनो स्वामी छुं. पहेलां में एकनिष्ठाशी योगनुं सर्वाङ्ग अनुष्ठान कर्युं हतुं परन्तु हुं मारा मूलकारण परमात्माना स्वरूपने न जाणी शक्यो ॥३४॥
जेओ एने शरणे जाय छे तेमना संसारनो ए नाश करे छे तेमनुं श्रेय करे छे ने मङ्गल करे छे. हुं एमना चरणने नमुं छुं. जेम आकाश पोताना अन्तने जाणतुं नथी तेम जो भगवान् पोतानी मायाना वैभवना पारने पामता नथी तो बीजा तो केम ज पामे? ॥३५॥
हुं ने तमे एनी साची गतिने जाणता नथी. शिवजी मोटा खरा पण ए पण एनी गतिने जाणता नथी तो बीजा देवो तो एनी गतिने क्यान्थी जाणे? आपणे एनी मायामां मोहित थयेल बुद्धिवाळा छीए अने आ भगवाने बनावेला जगतने आपणी बुद्धि अनुसार जाणीए छीए ॥३६॥
आपणे बधा एनां अवतारोने कर्मोने *गाईए छीए अने छतां जेने यथार्थ रूपमां जाणी शकता नथी तेवा ते भगवानने हुं नमन करुं छुम् ॥३७॥
विशेष - साक्षात् भक्ति तो हालमां छे ज नहि. माटे परम्परा भक्ति कोई रीते करवी रही. परम्परा भक्तिमां गुणनुं कीर्तन उत्तम छे. तेथी आपणे बधा भगवदवतारनां कर्मोने गाईए छीए. ए ज आद्य पुरुष छे. पोते ए ज होवा छतां कल्प-कल्पमां आ जगतने उत्पन्न करे छे. ए पोते आत्मा(व्याप्त) छे. ए आत्माने आ आत्मामां मारे छे अने रक्षण करे छे ॥३८॥
आ आत्मा अत्यन्त शुद्ध, केवल (असहाय, एकलो) ज्ञानरूप, (देहनी) अन्दर रहेलो, (जेवो छे तेवो ज) सारो, अचल, सत्य (सदा एक रूप), पूर्ण, आदि अने अन्त वगरनो, निर्गुण (सत्त्व-रज-तमस्थी पर), नित्य, द्वैतरहित१६४ अध्याय-६, द्वितीयस्कन्ध छे ॥३९॥
हे ऋषि! ज््यारे मुनिओ पोताना अन्तःकरण, इन्द्रियो अने शरीरने तद्न शान्त करी दे छे त्यारे तेनो साक्षात्कार थाय छे तेने जाणी ले छे. पण असत्पुरुषोद्वारा तर्कनी जाळ बीछावी तेने ढाङ्की देवामां आवे छे के तरत ज तेनो नाश पामी ते गायब थई जाय छे ॥४०॥
पुरुष ए पुरुषोत्तम भगवाननो *प्रथम अवतार छे. काल, स्वभाव, सद् असद् कर्म, मन, द्रव्य अर्थात् पञ्चमहाभूत अहङ्कार, त्रण गुणो, इन्द्रियो, विराट्, स्वराट्, स्थावर, जङ्गम ए बधा भगवानना अवतार कहेवाय छे ॥४१॥
विशेष - परब्रह्म पुरुषोत्तमनो पहेलो अवतार पुरुष-प्रकृतिनो भर्ता, बीजो-काल. त्रीजो-
स्वभाव, चोथो-सद्असत् कर्म के प्रकृति, पाञ्चमो-मन (मन आधिदैविक छे. ए सङ्कल्प
विक्ल्पद्वारा कामने उत्पन्न करी सृष्टि करे छे. ए पछी बीजा अवतारो जेवा के पाञ्च भूतो,
अहङ्कारो, सत्त्वादि त्रण गुणो, पाञ्च विषयो, दश इन्द्रियो विराट् ब्रह्माण्डदेह, स्वराट् तेनो
अभिमानी, स्थावर जङ्गम ए सर्व भूमा-अति समर्थ नो अवतार छे. अवतार=मूळ
स्थानमान्थी अर्ही ऊतरवुं ए. भगवान् पूर्वे एक हता ते अर्ही सर्वरूपे पधार्या तेथी सर्व एना
अवताररूप छे. सेवको जेवा के ब्रह्मा, महादेव, यज्ञनारायण, मरीच्यादि प्रजापतिओ, सनकादि
ए बधा स्वभावथी उत्कृष्ट छे अने भगवानना अवतारो गणाय छे. अधिकारीओ-पृथ्वीलोकना
पालको, स्वर्लोकपालो, उपरना लोकना पालको, तललोकना पालको, नीचेना लोकपालको, गन्धर्वोना
ईशो, यक्षोना नाथो, ऋषिओमां श्रेष्ठ सात्त्विको, पितृओना सन्निपातो, दैत्येन्द्रो, प्रेतना उपरी
बधा अधिकारीओ गणाय छे.
हुं, शिवजी, यज्ञ, प्रजापतिओ दक्ष वगेरे तमे अने तमारा भाईओ सनकादि
भुलोकना पालक, अन्तरिक्ष लोकना पालक, स्वर्गलोकना पालक, पातालादिक लोक
पालो, गन्धर्वो, विद्याधरो, चारणोना ईशो, यक्षो, राक्षसो, सर्पो नागना नाथो,
ऋषिओमां श्रेष्ठो पितृओ, दैत्येन्द्रो, सिद्धेश्वरो, दानवेन्द्रो, बीजा प्रेत, पिशाच,
भूत, कूष्माण्ड, जलजन्तुओ, पशुओ, पक्षीओ, जे कांई ऐश्वर्ययुक्त, लोकमां इन्द्रिय
शक्तिवाळुं, मनःशक्तिवाळुं, बळवाळुं, क्षमाशक्तिवाळुं, शोभायुकत लाजाळुं, लक्ष्मीवान,
बुद्धिमान, अद्भुत रूपवाळुं, रूपवगरनां आकाशादि ते बधुं भगवद्रूप छे ॥४२-
४४॥
प्राधान्यतो यानृष आमनन्ति लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ॥अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १६५ आपीयतां कर्णकषायशोषान् अनुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥४५॥
हे ऋषि! भगवानना जे *अवतारोने लोक प्राधान्य आपेछेते अवतारो भूमाअन्तर्यामीरूप (द्वितीय ध्यानमां कहेल)छेतेना अवतारो कहेवायछे. ए सुन्दर अवतारोने हुं क्रमथी कहीश. ए काननां पातकोनो नाश करनारा छे. एनुं तमे श्रोत्रथी पानकरो ॥४५॥
विशेष - जो के भगवत्सृष्टिमां सर्व अवताररूप छे ए मुख्य पक्ष छे, परन्तु लोको एम कहेता नथी. लोको जेने अवतार कहे छे तेनुं नलीलावतारथ एवुं नाम छे. ए अवतारो भूमापुरुष एटले ब्रह्माण्डथी अधिक अन्तर्यामिरूप छे तेना आ बधा अवतार छे. सत्, चित् अने आनन्द-देह, जीव अने अन्तर्यामी एमां देह अने जीवनुं वर्णन सत् अने चिद्रूपे थई गयु; अन्तर्यामीना आनन्द अवताररूपनुं वर्णन हवे करवानुं छे. इति श्रीभागवत द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजो मनन प्रकरणनो बीजो) ‘‘पुरुष सूक्तमां कहेला भगवानना विराट् देहनुं वर्णन’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आपणे पुष्टिमार्गने लजावीए छीए जोद्ग अन्यना सेव्यस्वरूपना सेवा-मनोरथोमाटे भेट-सामग्री आपीए छीए (हवेली-मन्दिर वगेरेमान्थी)देवद्रव्यनो प्रसाद लईए छीए प्रभुसेवा-मनोरथोना नामे भेट-सामग्री स्वीकारीए छीए
अध्याय ७
अन्तर्यामीना अवतारोनी कथा
विशेष - आ सातमां अध्यायमां आत्मा हरिनो एना व्यापक रूपथी निर्णय एटले के एना
धर्मथी तथा एना मूलरूपी प्राकट्यरूप उत्पत्तिनो निर्णय युक्तिसहित कहेवामां आवे छे.
१. पूर्वे भगवाननुं सूक्ष्मरूप प्रादेशमात्रादि कह्युं छे. तेनुं अर्ही विस्तारथी वर्णन करवामां
आवे छे. ए प्रादेशादि धर्मो भगवान्मां कल्पित नथी पण खरा छे. एनी साथे धर्मीनो अभेद
छे ए कहेवामाटे अर्ही कह्या छे.
२. उपासनामां भगवानना धर्मो स्वरूपथी अने गुणथी जाणवा जोईए. एना धर्मो
ईं उं ईं उं
[[१६६]]
जाण्या पछी एनी उपासना करवी जोईए. तेथी धर्मरूप अवतारनुं स्वरूप तथा एना
गुणोनो निर्णय अर्ही आ अध्यायमां करवामां आव्यो छे.
३. एम कहेवाथी एवी पण सूचना करवामां आवी के मुख्य भक्तिमार्गमां तो स्नेह
प्रयोजक छे. तेमां गुणनी अपेक्षा नथी. अर्ही अवतारनुं महात्म्य कहेवाथी अवतारीनुं फळ
कह्युं एवो अर्थ करवो, अर्ही अवतारनुं महात्म्य छे ते अवतारीना अङ्गरूप छे. ए कहेवाथी
अवतारविशिष्ट अवतारीनुं विशिष्ट माहात्म्य सिद्ध थाय छे. पूर्वे जडने जीवनो निर्णय करवामां
आव्यो. अर्ही अन्तर्यामीना धर्म सहित खण्डथी उत्पत्ति कहेवाय छे आवी रीते एक-एक
धर्मनुं महात्म्य जाणवाथी ए धर्मविशिष्ट अवतारीनुं माहात्म्य कहेवाय छे. ‘‘प्रादेशमात्रं
पुरुषं वसन्तम्’’ इत्यादि श्लोकथी निरूपण करवामां आव्युं छे ते भगवानना स्वरूपना एकेक
पदना भिन्न अवतारे कहे छे. तेमां प्रथम प्रदेशमात्र भगवद् धर्म उत्पन्न थयो. तेनुं जे रूप
बन्युं तेनुं वर्णन ब्रह्माजी नारदजीने कहे छे.
ब्रह्माउवाच
यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत् क्रौर्डी तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः ॥
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं तं दंष्ट्रयाद्रिमिव वज्रधरो ददार ॥१॥
ब्रह्माजीए कह्युं - भगवान् ज्यां पृथ्वीनो उद्धार करवानुं विचारवा लाग्या त्यां एणे सकळ यज्ञमयी वराहना तनुने धारण कर्युं अने मोटा समुद्रमां आदिदैत्य हिरण्याक्षने इन्द्र जेम पर्वतने तोडे तेम दाढवडे चीरी नाख्यो ॥१॥
रुचि प्रजापतिथी आकृति नामनी स्त्रीमां सुयज्ञ नामना देवोने उत्पन्न कर्या. ए सुयज्ञे त्रण लोकनी पीडा मटाडी त्यारे एनी माना बाप मनुए हरि नामथी एने ओळख्या ॥२॥
हे द्विज! कर्दममुनिनी स्त्री देवहूतिमां नव कन्याओनी साथे भगवान् कपिलदेव उत्पन्न थया तेणे पोतानी माताने साङ्ख्यज्ञान आप्युं. एनाथी ए पोतानां गुणोना सङ्गना कादवरूप अन्तःकरणना पाप आ जन्ममां ज खङ्खेरी नाङ्खी कपिलनी गतिने प्राप्त थयाम् ॥३॥
प्रजानी इच्छाथी अत्रि तप करता हता त्यां भगवान् पधार्या. हुं मारुं स्वरूप तमने आपुं छुं एम कह्युं तेथी ए ‘दत्त’ भगवान् थया. एना चरणनी रजना प्रतापे जेना देह पवित्र थया छे तेवा यदु अने सहस्त्रार्जुन सद्योमुक्तिने क्रम मुक्तिरूप योग समृद्धिने पाम्या ॥४॥अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १६७ अनेक लोक सरजवानी इच्छाथी में पूर्वे तप करेल ते तप भगवानने अर्पण कर्युं एनाथी चार ‘सन’ थया (सनक, सनातन, सनन्द, सनत्कुमार). तेमणे पूर्व कल्पनां प्रलयमां नष्ट थयेल आत्मतत्त्वने सारी रीते कह्युं, जेना कथनमात्रथी मुनिओ आत्मामां एनो अनुभव करवा लाग्या ॥५॥
धर्मने दक्षनी कन्या मूर्तिमां स्वतपना प्रभाववाळा नारायण अने नर नामना बे रूपे अवतार थयो तेनी पासे कामनी सेनारूप अप्सराओ तपना भङ्गमाटे आवी पण ए भगवाननो नियम लोप करवाने समर्थ न थई, (अथवा पोताना नियमनो स्त्रीओने गर्व हतो ते गर्व न चाल्यो) ॥६॥
महादेवजी जेवा महापुरुषो कामने बाळी भस्म करे छे, रोषथी कामने बाळे छे पण क्रोध पोताने बाळनार असह्य दोष छे तेने ए बाळी शकता नथी. ए क्रोध अर्ही भगवानना अन्तःकरणमां आवतां अत्यन्त भय पामे छे तो एना मनमां काम तो क््यान्थी आवी शके? ॥७॥
उत्तानपाद राजानी पासे ध्रुव गयो त्यारे सुरुचिना वचनरूपी बाणथी ए र्वीधायो तेथी ए वनमां गयो. एनी स्तुतिथी प्रसन्न थयेल भगवानने ध्रुवने स्थिर स्थान आप्युं जे स्थाननी मुनिओ स्तुति करे छे अने एनी चारे तरफ उपर अने नीचे फरे छे ॥८॥
वेन राजाने वेदविरुद्ध रस्तो लीधो त्यारे ब्राह्मणोनां वाक््यरूपी वज्रोना प्रहारथी एना भाग्य अने पुरुषार्थ नष्ट थयां अने ए नरकमां पडवा लाग्यो ते वखते भगवाननी मुनिलोकोए प्रार्थना करी तेथी भगवान् एना पुत्रपदने पाम्या अने वसुधामान्थी बधा पदार्थ प्रभुए दोहीने पेदा कर्या ॥९॥
नाभिथी (मेरुदेवी) सुदेवीमां ऋषभदेव थया ते समानदृष्टिवाळा, ब्रह्मदृष्टिवाळा थया. एमणे जडनी माफक योगनुं आचरण कर्युं. आ योगने ऋषिओ पारमहंस्यज्ञान कहे छे. ए ब्रह्ममां स्थितिवाळा, शान्त इन्द्रियोवाळा अने मुक्तसङ्ग हता ॥१०॥
मारा यज्ञमां भगवान् हयग्रीव नामना साक्षात् यज्ञपुरुष सोना जेवी कान्तिवाळा, वेदमय, यज्ञमय, सकल देवतामय थया, जेनी नासिकाथी श्वास लेतां पवित्र वेदवाणी प्रकटीहती ॥११॥
सत्यव्रत राजाए सन्ध्यानुं जल लीधुं तेमां अञ्जलिमां युगान्तना वखते मत्स्य देखायो ते मोटो थतां पृथ्वीमय थयो अने समग्र जीवदेहना आश्रयरूप थयो.१६८ अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध प्रलयजलना भयने लीधे मारा मुखथी पडेला वेदने हयग्रीव दैत्य लई गयो तेने मारी वेदने पोतानी पासे राखी प्रलयजळमां विहर्या ॥१२॥
देवो अने दानवो अमृत मेळववामाटे क्षीरसागरनुं मथन करवा लाग्या त्यां आदिदेव भगवान् कूर्म प्रकट थया. डूबता मन्दराचळने पोतानी पीठ उपर धर्यो तेने फेरववाथी भगवाननी चेळ मटवा आवी एटले निद्राना सुखनो अनुभव कर्यो॥१३॥
देवोना महान भयने टाळवामाटे फरकती भमरथी अने दाढथी भयङ्कर मुखवाळा नृसिंह प्रभु प्रकट थया. गदा साथे लडवामाटे धसी आवता हिरण्यकशिपुने दूरथी खोळामां नाखीने एने नखोवडे चीरी नाख्यो ॥१४॥
अत्यन्त बळवान मगरे सरोवरमां गजेन्द्रनो पग पकडी लीधो. तेना यूथे (पत्नीओ, पुत्रो वगेरेए) खूब मथामण करी पण छूटी न शक््यो त्यारे थाकीने गभराईने, पोतानी सूण्ढमां कमल लईने टेर लगावी ‘‘हे आदिपुरुष! हे समस्त लोकोना स्वामी! हे तीर्थश्रव!(तीर्थोना जेटली पाप बाळी नाखवानी शक्ति जेनी र्कीतीमां छे एवा) श्रवण मङ्गलनामधेय (जेनुं नाम श्रवण करवा मात्रथी सर्व इच्छित शुभ पदार्थो प्राप्त करावी आपे एवुं मङ्गलमय छे)’’ ॥१५॥
वैकुण्ठमां हरिए पुकार साम्भळ्यो के कोई कारणथी याद करे छे. एटले चुपचाप, हाथमां सुदर्शन चक्र धारण करीने सरोवर पासे आवी गरुडजी उपरथी ठेकडो मारी, चक्रथी मगरनुं मोढुं चीरी नाख्युं. आम निःसाधन गजेन्द्रनी सूण्ढ पकडी बहार खेञ्ची काढी तेनो कृपापूर्वक उद्धार कर्यो ॥१६॥
भगवान् वामनजी अदितिना पुत्रोमां सौथी नाना हता पण गुणोनी दृष्टिए सौथी मोटा हता; कारण के यज्ञपुरुष भगवाने आ अवतारमां, बलिए सङ्कल्प कर्यो के तरत ज बधा लोकोने पोताना चरणोथी ज मापी लीधा. वामन बनीने तेमणे त्रण पगला पृथ्वीने बहाने बलि पासेथी सारी पृथ्वी लई तो लीधी, परन्तु ए वात सिद्ध करी दीधी के सन्मार्ग उपर चालनारा पुरुषोने याचना सिवाय बीजा कोई पण उपायथी समर्थ पुरुषो पण चलायमान करी शकता नथी ॥१७॥
हे अङ्ग! उरुक्रम भगवानना चरणामृतने पोताना मस्तक उपर लेनारा बलि राजाने इन्द्रनुं पद भावी तथा अत्यारे छे ते बन्ने आप्यां ए कांई वधारे नथी. जेणे त्रीजा पगने माटे पोतानुं मस्तक आप्युं. जेने गुरुए रोक््यो अने शाप आप्यो छतां पोतानी प्रतिज्ञाथी जे डग्यो नहि तेने आ आप्युं ते कांई हिसाबमां नथी अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १६९ ॥१८॥
हे नारद! तमारा वधता जता भावथी खूब सारी रीते सर्व तरफथी प्रसन्न थई भगवाने तमने योग* कह्यो, जीवना तत्त्व अर्थात् शुद्ध चैतन्य=स्वरूपनुं ज्ञान अने पुरुषोत्तमनुं दान पण तमने भगवाने आप्युं, जेओ वासुदेवने शरण सर्वथा छे तेवा भक्तो एने जलदीथी जाणे छे ॥१९॥
विशेष - योग=(जेनाथी भगवाननां दर्शन चोक्कस थाय ज एवो) उपाय. मन्वन्तरमां मनुवंशने धारण करे छे अने दश दिशामां पोतानी आज्ञारूपी सावधान चक्रने फेरवे छे, दुष्ट राजाओने दण्ड, आपे छे अने पोताना चरित्रोथी जन, तप, सत्यलोक सुधी पोतानी कीर्तिने प्रसिद्ध करी ए प्रजानुं परिपालन करे छे॥२०॥
धन्वतरि एवी मोटी कीर्ति छे के एनुं नाम लेवाथी महारोगीना रोगो नाबुद थाय. एनु नाम र्कीतिरूप ज छे. यज्ञमां एनो जे भाग अटकाववामां आवेलो ते एमणे मेळव्यो. एमणे लोकमां अवतार लई आर्युवेद शास्त्रनी प्रवृत्ति करी॥२१॥
दैववशात् क्षत्रियो खूब वधी गया. तेओ ब्राह्मणोनो द्रोह करवा लाग्या, कारण के नरकना दुःखनी इच्छा एमने थई आवी हती. वेदमार्गने वेगळो करी तेओ पृथ्वीना कण्टकरूप बन्या त्यारे महात्मा परशुरामजीए २१ वार तेमनो पोतानी धारवाळी फरशीथी नाश कर्यो ॥२२॥
अमारी उपर कृपा करवामां तत्पर तेवा मायाना पति रामचन्द्रजी सीताजी साथे प्रकट्या. पितानी आज्ञाथी सीता अने लक्ष्मणने साथे लई वनमां गया. एमनी साथे विरोध करीने रावणे पोताना सर्वस्वनो नाश कर्यो ॥२३॥
शिवजीनी पेठे शत्रुना पुर लङ्काने बाळी नाखवाने ज््यारे रामचन्द्रजी समुद्र किनारे आव्या त्यारे स्त्रीवियोगथी जेमनी आङ्ख लाल थई छे तेवा रामनी दृष्टि पडवा मात्रथी समुद्रनां मगरमच्छ, माछलां, मगर अने ग्रहोनो समूह तपवा लाग्यां अने भयथी समुद्रना अङ्गमां कम्प थयो अने एणे भगवानने रस्तो आप्यो ॥२४॥
इन्द्रनो हाथी ऐरावत रावणनी छातीमां दान्त मारवा गयो त्यारे एना दान्तना भूका ऊडी गया. दिशाओमां ए दान्तना ककडा पड्या. एनाथी ए धोळी थई गई. एवो रावण पोताना मनमां मारा जेवो कोण छे एवुं मानी हसे छे अने पोताना तेम ज सामाना सैन्यमां फरे छे. एवा रावणना प्राणनी साथे एना गर्वनो भगवान् रामचन्द्र धनुषना टङ्कारथी नाश करशे. ॥२५॥१७० अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध असुरोनी सेनाना पग-प्रहारथी भूमि कचडाएली हती. एथी एनो क्लेश दूर करवामाटे भगवान् *सफेद-काळा केशरूप प्रकट्या एना मार्गने कोई जाणी शकतुं नथी ए पोतानो महिमा वधारवानां कार्य करशे ॥२६॥
विशेष - १. ‘सितकृष्णकेशः’ एवुं भगवाननुं नाम छे, जेना श्याम अने श्वेत केश छे तेवा भगवान् वैकुण्ठमां बिराजे छे. २.एक एवी मान्यता पण प्रवर्ते छे के ‘सित’ शब्द श्रीबलरामजीमाटे अने कृष्ण शब्द श्रीकृष्णमाटे वपरायो छे. ३. ‘सित’ एटले देवताओ अने ‘कृष्ण’ एटले असुरो आम शुभाशुभ आचारवाळा देवोना ईश्वररूप भगवान् छे. ४. ‘सित’ एटले प्रकाशमान अने ‘कृष्ण’ एटले काळा केशवाळा ‘हिरण्यकेश’ भगवान् छे. ५. अथवा श्वेतवर्णना सङ्कर्षण अने कृष्णवर्णना श्रीनन्दकुमार-श्यामसुन्दरने भूमिनो भार ऊतारवो ए मस्तकना केश ऊतारवा बराबर छे. एवा भगवाननो आ अवतार छे एवो भाव छे. बाल्यावस्था एटले छ दिवसना थया त्यां तो एमणे पूतनाने मारी. त्रण मासना थतां एमणे गाडाने पगवडे ऊन्धुं वाळ्युं घूटणे चालतां-चालतां आकाशमां पहोञ्चे तेवां अर्जुन वृक्षोने उखेडी नाख्यां, आवां बधां काम भगवान विना बीजाथी बने एम नथी ॥२७॥
व्रजनां पशुओ कालिदीनुं झेरी जळ पीवाथी मरी गयां ते बधां पशु अने गोपबाळोने अनुग्रहनी दृष्टिमात्रथी जिवाड्यां. एटलुं ज नहि कालिदीजीने शुद्ध करवामाटे महाझेरी सर्पने एमान्थी दूर करवा कालीय ह्द (धुना) मां विहार करी एने त्यान्थी दूर करशे ॥२८॥
राते व्रज सुतुं हशे. पवित्र मुञ्जा वनमां दव लागशे. बधां मानशे के आ तो मोत ज आव्युं. बलभद्र साथे ते बधाने नेत्रो बन्ध करवानुं कहेशे अने अर्हीथी (गुञ्जावनमान्थी) बीजे (भाण्डिर वनमां) लई जशे. आ एमनी लीला अलौकिक हशे कारण के एमनी शक्ति अने पराक्रम आपणी बुद्धिथी पर छे ॥२९॥
माता यशोदाए कृष्णने बान्धवा जे-जे दोरडुं लीधुं ते-ते एने बान्धवा टूङ्कु ज पड्युं. बे आङ्गळ ओछुं थयुं. वळी ए कृष्णे बगासुं खाधुं एमां मुख खुल्लुं थतां यशोदाए ब्रह्माण्ड जोयुं एथी एने शङ्का थतां भगवाने ज एनो सन्देह दूर करी एने ज्ञान कराव्युम् ॥३०॥
नन्दबाबाने (सर्प गळी जशे ते) भयथी अने वरुणना पाशमान्थी श्रीकृष्ण छोडावशे. मयदानवना पुत्र व्योमासुर गोप बालकोनुं हरण करी जई गुफाओमां पूरीअध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १७१ देशे तेमने छोडावशे, दिवसे घरना काममां व्रज गळाडूब रोकायेलुं रहेशे. ज््यारे राते थाकीने लोथ-पोथ थई जवाथी घस-घसाट ऊङ्घी जशे. आम दिवसे अने राते परलोकनुं साधन कंई नथी करतां एवां व्रजवासीओने वैकुण्ठ सुधी जवानी महेनत न पडेमाटे व्यापिवैकुण्ठने ज अर्ही तेमनी पासे लावी मूकशे. आम करवानुं कारण के प्रभुए व्रजने पोताना तरीके अङ्गीकार कर्यो हतो ॥३१॥
हे निष्पाप! ज््यारे भगवाने इन्द्रनो याग बन्ध कराव्यो त्यारे व्रजनो नाश करवाने इन्द्रे व्रज उपर वृष्टि करी त्यारे जो के पोते सात वर्षना हता छतां भगवाने व्रजभक्तोना रक्षणनी इच्छा करी अने एक हास्त्री चोमासामां ऊगता टोपनी पेठे लीला मात्रवडे गिरिराज गोवर्धन पर्वतने धारण कर्यो ॥३२॥
चन्द्रना किरणोथी अजवाळी रातमां वनमां रासोत्सव करवामाटे क्रीडा करता अने अव्यक्त मधुरपदवाळी वेणुना तानथी व्रजसीमन्तिनीओना मनमां कामना रोगने फेलावता भगवान् गोपीजनोने हरण करनार कुबेरना नोकर शङ्कचूडना मस्तकने उडावी देशे ॥३३॥
प्रलम्ब, खर, दर्दूर, केशी, वृषभासुर, मल्लो, कुवलयापीड, कंस, कालयवन, नरकासुर, पौण्डुक अने बीजा शाल्व, द्विविध बल्वल, दन्तवकत्त्र, सात आखला, शम्बर, विदूरथ, रुक्मी जेमां मुख्य छे. तेओने भगवान् मारीने फळ आपे छे॥३४॥
लडाईमां हथियार हाथमां लईने युद्धथी शोभनारा बीजा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैक्य, पाञ्चाल, अर्ण देशनां राजाओने बलदेवजी, अर्जुन, भीम एवा नामना बहाना हेठळ भगवान् ज मारीने एमने पोताना धाममां लई जशे ॥३५॥
काळे करीने ज्ञान नष्ट थतां लोको टूङ्का आयुष्यवाळा थशे. एओ पोतानो वेद भणी शके एवा नहि होय एवा विचारथी दरेक युगमां सत्यवतीथी प्रकट थई वेदरूपी वृक्षोनी शाखाओनो विभाग व्यासरूपे करशे ॥३६॥
देवोना शत्रु दैत्योए वैदिक मार्गमां निष्ठा राखी मयदानव पासे नगरी करावी. आ मयदानव एवो छे के एनां वेगनी कोईने खबर पडती नथी ए नगरी करी लोकोने मारवा लाग्या. एमणे पाखण्ड वेशे करी एओनी मतिना मोह कराव्यो अने अतिलोभ उत्पन्न करी पाखण्ड, धर्मोनो (बुद्ध स्वरूपे) उपदेश कर्यो ॥३७॥
ज्यारे सत्पुरुषोनां घरमां भगवाननी कथाओ* बन्ध थशे, त्रैवर्णिको पाखण्डी थशे. राजाओ शूद्रो थशे, स्वाहा, स्वधा अने वषट् शब्दो साम्भळाशे नहि त्यारे१७२ अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध कलिना अन्तमां भगवान् बधाने सीधा करवामाटे (कल्कि स्वरूपे) प्रकट थशे ॥३८॥
विशेष - बीजा युगोमां भगवाननी कथाओ सर्वत्र घरनी बहार थती. द्वापर आव्यो त्यारे सत्पुरुषोना घरमां थवा लागी, कलि वधशे त्यारे सत्पुरुषोना घरमां पण कथा नहि थाय; त्यारे कळियुग ज लोकोने शिक्षण आपनार थशे. कळियुगना आरम्भमां ज भगवान् परीक्षित राजामां आविष्ट थया तेथी एमणे कलिनो निग्रह कर्यो; परन्तु ए जोईए तेवो पकडायो नहि केमके ए वखते भगवत्कथानो प्रचार हतो. तेथी कलिमळना समुदायने पहोञ्ची वळनार अथवा दूर करनार ए वखते बहु हता. कळियुगे केवळ धर्मनो अभाव कर्यो एटलुं ज नथी पण कलिना प्रभावथी वैदिकधर्म पण लोकमान्थी गयो. धर्मने उत्पन्न करनार ब्राह्मणो छे; एनुं पालन करी आपावनार क्षत्रियो छे; ए बन्ने तो कलिमां नष्ट थई गया त्रिवर्ण द्विजो पाखण्डी थया ते पाखण्ड धर्मो कहे छे ने बोध करे छे. राजाओ शूद्र थई गया. एओ पण धर्मनाशक थया. ए वृषलो कहेवाय. वृषल एटले म्लेच्छ, धर्मने एओ नाश करवामाटे ग्रहण करे छे. अथवा वेदनो नाश करवामाटे वैदिक कर्मो करे छे. ए मानुष देवो छे एथी पालन योग्य अने पाळनार बन्ने दोषवाळा छे. हवे तो धर्मनो देखाव हतो. ते पण गयो छे. सर्वत्र विधिनां सर थाय छे. अनुकरणना रूपमां विधिओ थाय छे. ए धर्माभासो थाय छेएमां देवो प्रत्यक्ष थता नथी तेथी ‘याग’ कहेवाय नहि. आम छतां स्वाहा सम्भळाय छे ए पण बन्ध थशे त्यारे भगवान् अवतरशे. घरमां अथवा देशमां आ शब्दो सम्भळाता बन्ध थशे त्यारे कल्किनो अवतार थशे. एटले धर्मनो अभाव, भक्तिनो अभाव, आभास धर्मनो अभाव अने वेदनो अभाव थशे. पाछो सत्ययुग थशे त्यारे एनी प्रवृत्ति थशे; ज्यारे भगवानना बधा धर्म प्रकट थशे. भगवान् अनेक शक्तिओ धारण करे छे, ज्यारे ए सृष्टि करे छे. त्यारे तमने अने मरीचि वगेरे प्रजापतिओने उत्पन्न करे छे. त्यारे ए धर्मने, यज्ञने, मन्वन्तरने, देवोने अने राजाओने उत्पन्न करे छे, ज्यारे ए जगतना संहारनो विचार करे छे त्यारे मन्युवश नामना सर्प देवोना प्रतिपक्षी असुरोने उत्पन्न करे छे. ए बधो एमनी मायानो वैभव कहेवाय छे ॥३९॥
कदाच कोई डाह्यो पुरुष पृथ्वीना कणने गणे पण विष्णुनां पराक्रमो एटला बधा छे के एनी गणना थई शके नहि. *वामनावतारमां ज्यारे विष्णु पग माण्डवा लाग्या त्यारे सत्यादि स्थानो लोकसहित एमना वेगथी बहु कम्पवा लाग्यां तेने पोते थोभी राख्याम् ॥४०॥
विशेष - जगतना पदार्थोमां सामर्थ्य छतां भगवाननो एक अंश जाणवामां पण सामर्थ्यअध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १७३ नथी देखातुं, कार्यसृष्टिमां समर्थ जीवोनी गणनामां ब्रह्मा मुख्य छे. एमने तत्त्वोनी सहायता मळी तेथी ए तत्त्वोए ब्रह्माण्ड कर्युं. रजो गुणना अधिष्ठाताए ब्रह्माण्डमां जीवो उत्पन्न कर्या. एना भोगना अदृष्टथी संसारवाळा परमाणुओनो ढगलो एमान्थी जुदो पाड्यो. एवा भगवानना* अन्तनो पार हुं पामी शकतो नथी. तमारा मोटा भाईओ सनकादि पण नथी पामता. ए प्रभु मायाना बळवाळा पुरुष छे तो एमनो बीजो तो पार क््यान्थी पामे? हजारो मुखथी शेष भगवद्गुण गाय छे तो पण ए आज सुधी एना गुणना पारने पामता नथी. तो एक जीभवाळो जीव तो शुं गाई शके? ॥४१॥
विशेष - हुं ब्रह्मा सर्वदा भगवद्गुणने जणावनार छुं, जगतनो करनार अने आखो जन्म सृष्टिनुं कार्य करुं छुं; केटलुङ्क कार्य उत्तरद्वारा पण करुं छुं. योग पण मारी अन्दर रहेला फलनो साधक छे. मारा पुत्रो अने सनकादि मारा अंशरूप होवाथी मारा करतां ओछुं करी शके. माया क्षणमात्रमां कोटि ब्रह्माण्डने उत्पन्न करवामां समर्थ छे; ए भगवानना बळथी एवी शक्तिवाळी छे केमके मायाना ए धणी छे. भगवान् एनामां जेटला तेजने स्थापे छे तेटला तेजने उत्पन्न करी शके छे. तो एनाथी ओछा पराक्रमवाळा कालादि तो एना महिमानो पार क््यान्थी पामी शके? शेष वेदनी अभिमानी देवता छे; हजार मुखवाळा छे ते आदिदेव छे. जेटला भगवान् छे तेमान्थी बाकी रह्युं ते बधुं शेष कहेवाय. एणे सृष्टिनो आरम्भ थयो त्यारथी गुण गणवानो आरम्भ कर्यो ते आज सुधी गण्या ज करे छे तो पण एना एक गुणनो पार ए पामी शक््या नथी. ए तो अनन्त छे. सृष्टिनी अगाउ पण ए छे. एवा भगवान् छे एनी धारणा करवी पण अशक्य छे. सर्वात्मभाववडे निष्कपट थई जे अनन्तना चरणनो आश्रय करे तेनी उपर भगवान् दया विचारे छे. ए भगवाननी माया जे अति दुस्तर छे तेने पण तरी जाय छे. कूतरां शियाळियान्ने खावा लायक एवा आ देहमां जेने ‘‘हुं अने मारुं’’ एवी बुद्धि न होय ते ज मायाने तरी ऊतर्या छे अने ए ज एने तर्यानुं लक्षण छे. जेनामां ते लक्षण जोवामां आवे ते माया तरे छे एम जाणवुम् ॥४२॥
हे अङ्ग! एनी योगमायाने हुं जाणुं छुं तमे नारद-सनकादि पण जाणो छो; भगवान् शिवजी जाणे छे; दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद जाणे छे; मनुनी स्त्री शतरूपा, मनु पोते, एमना पुत्रो प्रियव्रत वगेरे, प्राचीन बर्हिष राजा, ऋभु, वेननो पिता अङ्गराजा, ध्रुव, इक्ष्वाकु, पुरुरवा, मुचुकुन्द, जनकराजा, गार्गी, रघु, अम्बरीष,१७४ अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध सगर, गय, ययाति वगेरे एनी योगमायाने जाणे छे. मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरि, उत्तङ्क, शिबि, देवल, पिप्पलाद, दधीचि, उद्धव, पराशर, भूरिषेण अने बीजाओ विभीषण, हनुमान, परीक्षित, अर्जाुन, आर्ष्टिषेण, विदुर, श्रुतदेव वगेरे महात्माओ पण देवनी मायाने जाणे छे अने ए मायाना पारने पामे छे. स्त्री, शूद्र, हूण, भीलो वगेरे पापी जीवो पण जाणे छे. अद्भुत पराक्रमी प्रभुनां शील अने शिक्षाने पशुओ पण जाणे छे तो साम्भळेलुं याद राखनारां जाणे एमां तो शुं कहेवानुं होई शके? ॥४३-४६॥
परम पुरुष परब्रह्मनुं पदारविन्द नित्य छे, ज्ञानमात्र छे, शुद्ध, सम, कार्य कारणथी पर छे, आत्मानुं खरूं स्वरूप छे,ज्यां कारकवाळो शब्द पण पहोञ्चतो नथी, माया एनी सामे जोतां लजाय छे. परब्रह्मनुं ए पद शोक रहित सुखरूप छे. जेम इन्द्र कूवो गाळवानां साधनो जेवां के कोदाळी पावडो राखतो नथी केमके ते पोते जळनो राजा छे तेम यतिओ मनने भगवान्मां राखीने योग तप आदि साधनोने छोडी दे छे ॥४७-४८॥
ए समर्थ भगवान् श्रेय आपनार छे. भाव अने स्वभाववाळा जगतनी एनाथी प्रसिद्धि थई छे. ज्यारे देहनी धातुओ चाली जाय त्यारे देह पडे छतां एमां रहेलो आत्मा नाश पामतो नथी ॥४९॥
ए भगवान् विश्वनुं पालन करनार छे. हे तात! एनुं स्वरूप में तमने कह्युं. टूङ्कमां कहीए तो हरिथी पर बीजुं कांई नथी. तेथी भगवान् सर्वरूप छे, भगवान्थी सर्व छे. (कालपण ए ज छे. जे प्रसिद्ध ते एज छे) एनाथी पर बीजुं कांई नथी ॥५०॥
भगवाने कहेल* ते ‘श्रीभागवत’ नामनुं आ पुराण में तमने कह्युं. आमां भगवाननी विभूतिओनो सङ्ग्रह छे तेनो तमे विस्तार करो ॥५१॥
विशेष - में आ कह्युं ते श्रीभागवत भगवाने कहेलुं अथवा जेनुं फळ भगवान् छे तेनुं नाम श्रीभागवत आटलुं ज श्रीभागवत नथी, आ तो विभूतिनो सङ्ग्रह छे. सङ्क्षेप अने विस्तार अधिकारने अनुसार कहेवामां आवे छे. तमे उत्तम अधिकारी होवाथी तमे बीजाने कहो तो आने विस्तारथी कहेजो. सर्वात्मा, अखिलना आधार हरि भगवान्मां लोकोने भक्ति थाय एवो सङ्कल्प करीने तमे वर्णन* करो ॥५२॥अध्याय-७, द्वितीयस्कन्ध १७५
विशेष - माहात्म्यज्ञानपूर्वक सुदृढ अने सर्वथी अधिक स्नेहनुं नाम भक्ति. माहात्म्यज्ञान थया वगर भक्तिनो उदय थतो नथी. एमाटे विस्तारनी जरूर छे. लोकोने जेम भक्ति थाय तेम कहेवुं. आथी अधिकारने अनुसार पदार्थनुं वर्णन करवुं. परन्तु सम्बन्ध न थाय त्यां सुधी भक्ति क््यान्थी थाय? आत्मा परम प्रेमनो विषय छे. बीजे जे प्रेम देखाय छे ते एने लईने देखाय छे. तो भगवान्मां निरुपाधिक प्रेम केम सम्भवे? भगवान् सर्वात्मा छे, सर्व जगतना आत्मा छे. आत्मा होवाथी ए स्नेहना विषय छे. पुत्रादिक सर्व विषय स्नेह प्रतिवादन करवामाटे भगवाने करेला उपकारने बतावे छे. सर्वना आधाररूप भगवान् सर्व प्रकारे छे तेथी एमां स्नेह थवो योग्य छे. ज्यारे भगवानना गुण विस्तारथी कहेवा त्यारे बीजा फळनो उदेश मनमां न राखवो; भगवद्भक्तिनो ज विचार राखवो; ए पण सर्वने भक्ति थाओ एम मनमां निश्चय करी गुणो कहेवा. मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः ॥ शृण्वतः श्रद्धया नित्यं माययाऽऽत्मा न मुह्यति ॥५३॥
आ ईश्वरनी मायानुं* वर्णन करे अथवा तो वर्णन करतां होय तेने अनुमोदन आपे अने श्रद्धापूर्वक श्रवण करे तो एनो आत्मा मायाथी मोहित थशे नहि॥५३॥
विशेष - आ भगवाननी माया छे. दश प्रकारनी भगवाननी लीलाए पण भगवाननी शक्तिओ छे. ए मायानुं वर्णन कहे तेनो आत्मा मूञ्झाय नहि. मायानुं वर्णन करनारने आत्मामां मोह पेदा थाय. आ तो ईश्वरनी माया छे. तेथी मोह नहि करे एटलुं ज नहि पण बीजो मायानुं वर्णन करतो होय तेने अनुमोदन आपनारने मोह नहि थाय. जो के अर्ही मुख्यफल भक्तिए तो न थाय तो पण अन्तःकरणमां मायानो मोह तो नहिज थायतेथी लोकोना उपकारने माटे अने पोताना स्वार्थने माटे श्रवणादि करवुं. इति श्रीभागवत द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजा मननप्रकरणनो त्रीजो) ‘‘अन्तर्यामीना अवतारोनी कथा’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्। वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि भागवतनो पाठ प्रयत्न पूर्वक कृष्णभक्ति सिवाय अन्य कोई पण हेतु विनाज करवो जोईए. प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)
ईं उं ईं उं
[[१७६]]
अध्याय ८
राजाना प्रश्नो उपरथी प्राप्त थता विचार
विशेष - विराट् अने ब्रह्मना तत्त्वनो निश्चय करतां निर्धारपूर्वक भजन अने उत्पत्तिथी विचार ए बे सिद्ध थयां हवे त्रण अध्यायमां उनतिथी विचार कराय छे. त्रण अध्याय आक्षेप, सिद्धान्त अने फळ वडे कहेवामां आवे छे. आ आठमा अध्यायमां परीक्षितनो प्रश्न आक्षेपगर्भ छे. बीजा प्रश्नो पण आक्षेपमूलक छे. परीक्षितनो प्रश्नःनारदजीने गुणातीत भगवानना गुण कहेवामाटे ब्रह्माए प्रेर्या. तेणे (नारदजीए) जेने-जेने गुणो कह्या होय ते कहो. जेथी ए अद्भुत वीर्यवाळा कृष्णनुं तत्त्व जाणी मनने निःसङ्ग बनावी देहने छोडी दउं. भगवाननुं चरित्र एटलुं बधुं सरळ नथी केमके ए कहे छे बीजुं अने थाय छे बीजुं एवुं न समजाय तेवुं छे. भगवाननी कथा तो सर्वना मङ्गळनी सूचिका छे. मनोरथ एटलो ज छे के आ लोक परलोकना सर्व विषयोमान्थी मनने काढी एकत्र करी भगवान्मां राखीने पछी प्राणने छोडुं. आ जन्ममां आटलुं-कर्तव्य छे. श्रीकृष्णने जोया छे पण एमना स्वरूपने जाणता नथी. आपणे एमने परिच्छिन्न जाणीए छीए. पण ए सर्वना आत्मा छे. एवी रीते एने जाण्या होय ए जाण्या कहेवाय. सर्वात्मपणाथी एमनी उपासना करवाथी एवा जाणवामां आवे, परन्तु मन अशुद्ध होवाथी फळ पण अशुद्ध थाय तेथी मन निःसङ्ग थाय-असम्भावना, विपरीत भावना मटी जाय, हृदयमां सर्वात्मकता स्फुरे एवो उपाय बतावो. राजोवाच ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेगुणस्य च ॥ यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः ॥१॥
राजा बोल्या - हे ब्रह्मन्! देवना जेवा दर्शनवाळा नारदजीने गुणातीत भगवानना गुण कहेवामाटे ब्रह्माए प्रेर्या. एमणे जेने-जेने ए गुणो कह्या होय ए मने कहो ॥१॥
हे तत्त्वज्ञमां श्रेष्ठ! अद्भुत वीर्यवाळा श्रीकृष्णनुं तत्त्व जाणवानी हुं इच्छा राखुं छुं. एथी जगतनुं मङ्गळ करनारी कृष्णकथा आप मने कहो; जेथी हे महाभाग! हुं मारा मनने निःसङ्ग बनावी कृष्णमां लगाडी मारा देहने छोडी दउम् ॥२-३॥
जो श्रद्धाथी नित्य भगवानना गुणोनुं श्रवण करवामां आवे तेम ज एनी लीलाओनो उच्चार करवामां आवे तो बहु थोडा काळमां भगवान् हृदयमां जरूरअध्याय-८, द्वितीयस्कन्ध १७७ पधारे ॥४॥
पोताना भक्तोना भावरूप तळावमां प्रकट थयेला कमळरूप कानना छिद्र वाटे भगवान् हृदयमां प्रवेश करे छे. प्रविष्ट थई कृष्ण, जेम चोमासामां डोळायेला जळने शरद् शुद्ध करे तेम हृदयमां पधार्या पछी एने शुद्ध करे छे. ज्यारे आवी रीते जीवआत्मा भगवान्थी शुद्ध थाय छे त्यारे पछी ए कृष्णना चरणनां मूळने छोडतो नथी; जेम मुसाफरीना सर्व क्लेशथी मुकत थयेलो पथिक घरमां आव्या पछी घरने छोडतो नथी तेम ॥५-६॥
हे ब्रह्मन्! जीवमां धातुओ नथी छतां एने धातुओवडे घडायेलो देह थाय ते कोई कारणथी थाय छे के भगवद् इच्छाथी थाय छे ए आप जेवुं जाणता हो तेवुं कहो ॥७-८॥
आपे बताव्युं के भगवानना उदरथी जे कमळ थयुं तेमां लोकोनी उत्पत्ति थई. आ जीवमां जेटला जेवडा अवयवो छे तेटला तेवडा अवयववाळो ए परमात्मानो देह थयो. ए केम बने? आवां प्रकारना लोको-रूपी अवयववाळो आ पुरुष आवडो जाणे के छे; जे भगवाननी कृपाथी भूतात्मक ब्रह्माजी पोते अजन्मा रहीने भूतो उत्पन्न करे छे ॥९॥
जे भगवानना नाभिकमळमान्थी ब्रह्मा उत्पन्न थया अने जेमणे एना रूपने जोयुं ते भगवान्मान्थी ज विश्वमां उत्पत्ति स्थिति अने लय थाय छे. ब्रह्मा पोतानी मायाने छोडीने त्यां ज शयन करे छे. सर्वना हृदयमां रहेनार ए भगवान् मायाने छोडी शयन करे छे केमके ए मायानो त्याग करी शके छे; एथी ज ए मायाना ईश छे. पुरुषना अवयवथी आपे पहेलां लोको कह्या तेना पालको पण ए भगवानना ते-ते अवयवना देवो छे एम आपे क्ह्युं. बीजीवार आपे एम क्ह्युं के लोकोवडे आ ज पुरुषना अवयवोनी कल्पना करी छे. तो जेटला समयनो कल्प थाय तेनुं परिमाण कहो. विक्ल्प कोने कहेवो? एनो केटलो काळ थाय? थयुं, थशे अने थाय छे ए काळनुं स्वरूप कहो. पुरुषना आयुषनुं प्रमाण कहो. काळनी सूक्ष्म अने स्थूळ गति कहो. हे द्विजसत्तम! कर्मनी जेटली गतिओ थती होय ते बधी मने कही बतावो ॥१०-१३॥
सत्त्वादि गुणो अने गुणी जीवमां कर्मनो समुदाय जेवी रीते ग्रहण कराय छे अने जे-जे रूपे परिणमे छे ए कहो ॥१४॥१७८ अध्याय-८, द्वितीयस्कन्ध पृथ्वी, पाताळ, दिशाओ, आकाश, ग्रहो, नक्षत्रो, पर्वतो, सरित्, नदीओ, समुद्र, द्वीपो अने एनां स्थान वगेरे कहो ॥१५॥
अण्डकोशनुं केटलुं प्रमाण छे? बहारथी अने अन्दरथी एनुं माप कहो. मोटाओनां अनुचरितो कहो. वर्णाश्रमना धर्मोनो शो निश्चय छे? ॥१६॥
युगो केटला? एना माप शां? युग-युगनां धर्मो. ते-ते युगना अवतारोनां आश्चर्य करनारां चरित्रो पण कहो ॥१७॥
मनुष्योना साधारण धर्मो, विशेष धर्मो, ते-ते श्रेणीओथी जीवनारना धर्मो, राजर्षिओना धर्मो, आपत्काळना धर्मो ए बधा विस्तारथी कहो ॥१८॥
प्रकृत्यादि तत्त्वोनी सङ्ख्या कहो, स्वरूपलक्षण एना कारणथी लक्षणो सहित कहो. देवपूजाना प्रकार कहो. योगसाधनानो विधि बतावो ॥१९॥
योगेश्वरोनां ऐश्वर्य एनी अर्चिरादि गति कहो. लिङ्गशरीरनी निवृत्ति केम थाय ए कहो. वेदो, उपवेदो, आयुर्वेदादि, एना धर्मो, इतिहास-पुराणो केटलां वगेरे कहो ॥२०॥
सर्व भूतोनो नाश (अवान्तर प्रलय) केम थाय? स्थिति केम थाय? महा प्रलयमां पाछुं भगवान्मां जगत् केम आवी जाय? कामनाथी वाव कूवा, धर्मशाळा, यज्ञ, याग करवाथी शुं फळ मळे? धर्म, अर्थ अने कामनो विधि बतावो ॥२१॥
भगवान्मां सूतेला जीवो केम उत्पन्न थाय छे ए बतावो. अने पाखण्ड धर्म केम उत्पन्न थयो ए बतावो. जीवना बन्ध अने मोक्षनो क्रम बतावो ॥२२॥
पोताने स्वाधीन एवा भगवान् पोतानी मायावडे केवी क्रीडा करे छे. अने ए मायाने छोडीने उदास थई साक्षीनी जेम केम रहे छे ए कहो. ॥२३॥
हे महामुने! हे भगवान्! में आ पूछ्युं छे. एनां खरां स्वरूप क्रमथी मने कहेवाने आप योग्य छो केमके हुं आपने शरणे आव्यो छुम् ॥२४॥
भगवान्थी थयेल ब्रह्मा जेम जगतमां प्रमाणरूप गणाय छे तेम आ विषयमां आप ज प्रमाणरूप छो, बीजाओ तो पोतना पूर्वजोए कर्युं ए प्रमाणे करता चाल्या जाय छे ॥२५॥
हे ब्रह्मन्! आप मारी भूख-तरसनी चिन्ता न करो. कुपित ब्राह्मणना शाप सिवाय बीजो कोई कारणे मारा प्राण नहि जाय एनी मने श्रद्धा छे. कारण के आपना मुखकमलथी नीकळती भगवाननी अमृतमय लीलाकथानुं हुं पान करी रह्योअध्याय-८, द्वितीयस्कन्ध १७९ छुम् ॥२६॥
सूतजी बोल्या - एम ज्यारे परीक्षिते शुकदेवजीने प्रार्थना करी त्यारे भगवाननी कथामां प्रेरायेला शुकदेवजी सभामां अत्यन्त प्रसन्नताथी एने कहेवा लाग्या ॥२७॥
ब्रह्मकल्पमां भगवाने* कह्युं हतुं ए ‘श्रीभागवत’ नामनुं पुराण वेदनी तुल्य छे. ए श्रीभागवत पुराण शुकदेवजीए परीक्षितने सम्भळाव्युम् ॥२८॥
विशेष - बहु जग्याए जुदी-जुदी रीते श्रीभागवत कहेवाय छे. अर्ही भगवाने ब्रह्माजीने कह्युं ए श्रीभागवत समजवानुं छे. श्रीभागवत विषयात्मक तो अनेकधा छे; विचारत्माक बे प्रकारनुं छे; तेमां उत्पत्तिना प्रकारथी ब्रह्माजीने भगवाने कहेलुं. आ स्थूळ श्रीभागवतमां बधा ज प्रकार बताव्या छे, श्रीभागवतनी प्रवृत्ति अनेक प्रकारे थई छे तेथी एमां बीजाना प्रकारने तो ब्रह्माजी पोते जाणीले तेमां तो युक्ति ज बताववानी बाकी रहे, ब्रह्मकल्प आव्यो त्यारे ए कल्पमां शब्दब्रह्मथी सर्वेनी उत्पत्ति थई छे, जे उत्पत्ति भागवतमां कहेवामां आवी छे. यद्यत्परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति ॥ आनुपूर्व्येण तत्सर्वम् आख्यातुम् उपचक्रमे ॥२९॥
पाण्डुवंश शिरोमणि एवा परीक्षित राजाए जे-जे प्रश्नो कर्या ते बधा प्रश्नोना क्रम पूर्वक उत्तर कहेवानो शुकदेवजीए आरम्भ कर्यो ॥२९॥
इति श्रीभागवत द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजो मनन प्रकरणनो चोथो) ‘‘राजाना प्रश्नो उपरथी प्राप्त थता विचार’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. पठनीयं प्रयत्नेन सर्वहेतुविवर्जितम्।वृत्यर्थं नैव युञ्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि प्राण कण्ठ सुधी पण केम न आवी जाय परन्तु आजीविका अर्थे तो भागवतनो उपयोग न ज करवो. (श्रीवल्लभाचार्य) प्रभुना नामात्मक स्वरूपने कमाईनुं साधन बनाववा बाबत जो श्रीआचार्यजीनो आवो कठोर निषेध होय तो हवेली-मन्दिरोमां साक्षात् सेव्य प्रभुनी सेवा-मनोरथोना नामे वैष्णवो पासेथी भेट-सामग्री पडावनार अधम लोकोने तो श्रीमहाप्रभुजी धगधगतुं सीसुं पीने ईं आत्मघात करवानी ज आज्ञा न आपे! उं ईं उं१८० अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध
अध्याय ९
चतुःश्लोकी भागवत
विशेष - आ नवमा अध्यायमां जीव ब्रह्म-स्वरूपनो उत्तर कहेवामां आवे छे; अर्ही प्रथम स्थूळरूपादिनुं वास्तवरूप कहेवाय छे. शुक-परीक्षित, नारद-व्यास, ब्रह्माजी वगेरेनी कथा कहेवानुं तात्पर्य ए छे के जो श्रोता-वक्ता अधिक शुद्ध होय तो श्रीभागवत समजाय, बीजी रीते श्रीभागवतनी कथा समजाती नथी. बीजो सन्देह जीव ब्रह्म-सन्देहमूलक छे. तेथी प्रथम जीवसन्देहनुं वारण करे छे. प्रश्न आ छे - जीवने देहनो सम्बन्ध केम थयो? जीवत्व केम अन्य शब्दथी प्राप्त थयुं? तेमां जीवत्व थतां घणां हेतुओ देहना सम्बन्धमां थाय. तेथी प्रथम जीवपणुं सिद्ध करे छे. आत्ममायामृते राजन् परस्यानुभवात्मनः ॥ न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥१॥
शुकदेवजी बोल्याः हे राजन्! पर अने अनुभव रूप आत्मावाळा आ जीवने स्वपनद्रष्टानी पेठे देहनो सम्बन्ध एवी रीते घटतो नथी ॥१॥
बहुरूपवाळी मायावडे पोते बहुरूपवाळो देखाय छे. आ मायाना* गुणोमां रमतो पोते ‘हुं’ अने ‘मारुं’ एम माने छे ॥२॥
विशेष - ए माया आभासरूप छे पण घणा रूपोवाळी छे. एना सम्बन्धमां आवी जीव पण घणां रूपोवाळो थाय छे अने आनन्द मेळववा एना गुणोमां रमे छे. ए एना गुणोने स्वीकारे छे तेथी देहमां ‘हुं’ एवो भाव करे छे. ज्यारे काळ अने मायाथी पर एवा भगवान्मां *सन्देहरहित बनीने रमे छे त्यारे हुं अने मारुं छोडी दई, देहादि अने एने आपनारी मायाने पण छोडी दई ए उदास थईने रहे छे ॥३॥
विशेष - ज्यारे मूळ भगवानने मायाथी छोडाववानी इच्छा थाय छे त्यारे ए जीवने छोडावे छे. एमां भगवान् पोतानुं माहात्म्य बतावता नथी तेथी भगवानना स्वामित्वमां सन्देह न आवे तो सन्देह थता नथी अने ए काळ अने मोहिका मायाना सम्बन्धने छोडी दे छे अने देहेगेहादिमां उदासीन रहे छे. आत्मतत्त्वनी शुद्धिमाटे भगवाने जे सत्य स्वरूप ब्रह्माजीने बताव्युं ते एना खरा व्रतथी प्रसन्न थईने बताव्युं छे ॥४॥अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध १८१ जगतना परम गुरुए आदिदेव ब्रह्माजी पोताना ब्रह्मलोकमां बेसीने सृष्टि करवानी इच्छाथी जोवा लाग्या पण जेनाथी प्रपञ्च-संसारनुं निर्माण थाय तेवी बुद्धि एमने सूझी नहि ॥५॥
हे राजन्! ए ब्रह्माजी एक दिवस चिन्तन करता हता तेटलामां स्पर्शनो
१६मो अने २१मो ए बे अक्षर (तप) बे वार बोलाया ते पोते विभु होवाथी
साम्भळ्या. एमणे जे बे अक्षरो साम्भळ्या ते निष्किञ्चनोना धनरूप गणाय छे ॥६॥
ब्रह्माजीए ए साम्भळ्या पण ए बोलनार कोण? ए विचार मनमां आवतां चारे तरफ जोयुं. बीजुं कांई देखायुं नहि त्यारे पोताना स्थानमां आवी ‘‘ए पोताना हितनुं छे’’ एवो विचार करी ‘‘मने तप करवानो आमां उपदेश छे’’ एम नक्की करी ब्रह्माजीए तप करवानुं मन कर्युम् ॥७॥
सफळ दर्शनवाळा ब्रह्माजीए समाधि करी वायु अने मनने जीत्यां. ज्ञान क्रियारूप बन्ने इन्द्रियवर्गोने विशेष रूपे वश करीने तप करनारना मध्ये श्रेष्ठ एवा ब्रह्माजी देवतानां हजार वर्ष सुधी बधा लोकोनी जडता दूर करवामाटे उग्र तप करवा लाग्या एटले ब्रह्माजीए अनशनपूर्वक एवुं तप कर्युं जेथी बीजा लोको तपी ऊठ्या ॥८॥
भगवाने ब्रह्माजीने भगवल्लोक बताव्यो. ए उत्तम लोक छे. एमां क्लेश, मोह के भय नथी. त्यां ब्रह्मज्ञानी देवो स्तुति करी रह्या छे ॥९॥
ए वैकुण्ठमां रजोगुण अने तमोगुण नथी तेमज एनाथी मळेल सत्त्व पण नथी. त्यां माया पण नथी. त्यां देवो अने दैत्योथी पूजायेला भगवानना सेवको रहे छे ॥१०॥
भगवानना ए सेवको भगवानना जेवा श्याम अने शुद्ध छे. एमने कमळदल जेवां नेत्र होय छे एओ पीताम्बर धारण करे छे अने एमनी क्रान्ति मनोहर होय छे. एओ अति कोमळ, प्रवाल वैडूर्यमणि अने कमळना तन्तुना जेवी क्रान्तिवाळा छे. एमना कानमां कुण्डल लटके छे अने मस्तक उपर मुकुट शोभी रह्यो होय छे ॥११॥
महापुरुषोनां शोभा आपतां विमानोथी ए लोक देदीप्यमान देखाय छे. जेम वादळां अने वीजळीओ आकाशने शोभावे तेम उत्तम स्त्रीओनी क्रान्तिओ एनी शोभामां वधारो करे छे ॥१२॥
ज्यां साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप धरीने नाना वैभवोथी अनेक रीते *उरुगाय भगवानने१८२ अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध मान आपे छे. ज्यारे ए हिण्डोळामां बेसीने प्रियनुं कर्म गाय छे. त्यारे वसन्तऋतुना गायक भमरो ए लक्ष्मीनुं गान करे छे ॥१३॥
विशेष - उरुगाय = मोटाओ जेनी कीर्तिनुं गान करे ते भगवान्. ब्रह्माजीए व्यापिवैकुण्ठमां सर्ग भक्तना पति, यज्ञना पति, जगतना पति, सुनन्दनन्द प्रबळ, अर्हण वगेरे मुख्य पार्षदोथी सेवायेला भगवानने जोया, ब्रह्माजीए दास उपर कृपावाळा, मादक दृष्टिवाळा, प्रसन्न हास-सुन्दर लोचनवाळा, किरीटवाळा, कुण्डलवाळा, चार भुजा युक्त, पीताम्बर धरनार अने वक्षःस्थळमां लक्ष्मीने राखनार भगवाननेजोया ॥१४-१५॥
अत्यन्त पूज्य, आसन उपर बेठेला, चार, सोळ अने पाञ्च शक्तिओथी र्वीटायेला, ऐश्वर्यादिथी युक्त छतां स्वरूपमां रमनार ईश्वरने ब्रह्माजीए जोया.१ एमनां दर्शनथी ब्रह्माजीने एटलो बधो हर्ष थयो के एनुं अन्तःकरण आर्द्र थयुं. रोमाञ्च थई गयां अने प्रेमाश्रुओ२ नेत्रमां आवी गयां ब्रह्मविद्याना मार्गथी मळे एवां एनां चरणकमळमां विश्वस्रष्टा ब्रह्माजी नम्या ॥१६-१७॥
विशेष - १. बधानुं नियामक रूप छे ते अक्षरात्मक मुख्य छे. अक्षर लोकात्मक, चरणात्मक अने आसनात्मक छे. आधिभौतिक, आध्यात्मिक अने आधिदैविकरूप छे. एना अंशो २५ तत्त्वो छे. एमां चारःप्रकृति, पुरुष, महतत्त्व अने अहङ्कार ए प्रथम आवरणरूप छे. ए चार पाङ्खडीना कमळनी जेम रह्यां छे, पछी ११ इन्द्रियो अने पाञ्च विषयो मळीने १६ पाङ्खडीना कमळ जेवुं आवरण छे. पछी महाभूतोथी र्वीटायेलुं छे. एम एने त्रण आवरणो छे ए त्रणने उल्लङ्घन करीने भगवान्नी पासे जे पहोञ्चे ते एने मळे. आम सर्व तत्त्व सहित अक्षररूप भगवान्नुं आसन कह्युं. ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान अने वैराग्य ए छ ‘भग’ कहेवाय छे. ए स्वरूप ग्रहण करी भगवान्ने र्वीटाईने रहे छे. ए केवळ भगवान्मां ज रहे छे. बीजे जतां नथी, पार्षदादिमां रहे छे. पण कायम रहेता नथी. राजाओमां पण थोडीवार रहे छे. आम नित्य ऐश्वर्यादि धर्मो भगवान्मां रहे छे. अनित्य धर्मो अन्यत्र रहे छे. तेथी बीजानुं भगवान्पणुं नानुं-मोटुं गणाय एक सरखुं तो भगवान्नुं भगवत्त्व समजवुं. ए आनन्द छे अने आनन्दनुं धाम पण छे. ए पोते ज तेजरूप एटले प्रकाशक छे. जो के पोताने क््यांय पण रमवानी इच्छा नथी छतां ए बधानुं नियमन करनारा तो छे. २. स्वभावथी न स्त्रवे ते अश्रु. प्रजानां विसर्गमां पोतानी आज्ञाने योग्य एवा ब्रह्माजीने प्रसन्न जोईनेअध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध १८३ कांईक स्मितनां प्रकाशथी उज्वल वाणीवडे हाथमां हाथ लईने भगवान् ब्रह्माजीने कहेवा लाग्याम् ॥१८॥
भगवान् बोल्या - हे वेदगर्भ! सृष्टि रचवानी इच्छाथी तमे घणा काल तप करी मने सारी रीते सन्तोष आप्यो छे. कपटथी योग करनारने हुं प्रसन्न थतो नथी ॥१९॥
हे ब्रह्मन्! तमारुं कल्याण थाओ. इच्छित वरदान मागो. मारुं दर्शन न थयुं त्यां सुधी श्रेयने माटे परिश्रम उठाववानो रहे छे. मारुं दर्शन थया पछी श्रमनी जरूर नथी ॥२०॥
तमने मारा लोकनुं दर्शन थयुं ए तमारा तपनुं फल नथी पण ए मारी इच्छानो प्रताप समजो. वळी तमे एकान्तमां ‘तप’ ए शब्द साम्भळीने तप कर्युं ए पण मारी इच्छानो ज प्रताप समजो ॥२१॥
हे अनघ! तमे कर्ममां गुञ्चवाई गया त्यारे में तमने तप बताव्युं. तप ए मारुं साक्षात् हृदय छे. तपनो आत्मा हुं पोते छुम् ॥२२॥
आ जगतने हुं तपवडे उत्पन्न करुं छुं, तपवडे एनो नाश करुं छुं, तपवडे हुं एने धारण करुं छुं. दुःसह तप ए ज मारुं पराक्रम छे ॥२३॥
ब्रह्माजी बोल्या - हे भगवान्! आप सर्व भूतना हृदयाकाशमां रहीने कोई रोकी न शके तेवा ज्ञानवडे एमना इच्छित कर्तव्यने जाणो छो. हे नाथ! आपनी पासे हुं एटलुं मागुं छुं के आपना पर अने अपर एटले कार्य कारणरूपने हुं जाणुं एवी दया करो. आप अरूपने ए रूपो क्यान्थी आव्यां ए मने जणावो. आप अनेक प्रकारनी शक्तिवडे वधारेला आ प्रपञ्चने आत्ममायाना योगवडे उत्पन्न करो छो, रक्षण करो छो अने संहार करो छो अने आत्मावडे आत्माने आप धारण करो छो. जेम करोळियो पोताना मुखमान्थी लाळ काढी रमे तेम सफळ सङ्कल्पवाळा आप आ जगतमां क्रीडा करो छो. हे माधव! ए आपना विषयमां मारी बुद्धि प्रवेश करे एवी बुद्धि मने आपो, आपना मार्गदर्शन प्रमाणे हुं आ जगतने बनावुं एमां आळस न करुं अने जे प्रजासर्ग करुं एमां हुं बन्धाउं नहि एवो मारा उपर आप अनुग्रह करो ॥२४-२८॥
मित्र जेम मित्रनुं कृत्य करे तेम आपे मारी उपर कृपा करी छे तो हवे हुं ज्यां सुधी प्रजानी सृष्टि करुं एना भोगोना भाग पाडी दउं त्यां सुधी आपना कार्यमां१८४ अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध सावधान थईने प्रवर्तु एवी मने शक्ति आपो. वळी बधां काम करतां हुं अजन्मा* छुं. ए बाबतनो मने मद न थवो जोईए. एटली कृपा पण साथे-साथे करो ॥२९॥
विशेष - खरी रीते जोईए तो अर्ही चिदानन्दने समानता छे. एमां भगवान् आनन्द छे, ब्रह्माजी चित् छे. तेथी एना स्वरूपथी बन्नेने सख्य छे, छतां क्रियाज्ञानशक्ति तो भगवान्मां ज रही छे. ए पोतानी क्रियाज्ञानशक्ति भगवाने मने आपी पोतानी बरोबर मने कर्यो छे. त्रण पदार्थ भगवान् पासे ब्रह्माजीए माग्या - १.आप मित्रता करो एटले ए शक्तिओनो मने लाभ थाय; २.एनाथी प्रजानो विभाग करवानुं सामर्थ्य मारामां आवे; ३.आपनी सेवा करतां मने थाक न लागे. भगवान्थी आ गुणो मळ्या छे अने भगवान्थी हुं थयो छुं एवुं मारा मनमां न आवे एमाटे मारी प्रार्थना छे. ए रीते परावरज्ञान, क्रीडाज्ञान, शिक्षा अने गर्वाभाव ए चार वस्तुनी भगवान् पासे ब्रह्माजीए प्रार्थना करी. श्रीभगवाने कह्युं - मारुं पुरुषोत्तमनुं ज्ञान परम गुह्य छे. (मारा सिवाय बीजुं कोई ए जाणतुं नथी. कहेवामां आवे तो पण कृपा न होय तो ते प्राप्त थतुं नथी) एनुं विज्ञान* ए छे के भगवान् सात्वतो (=भगवत् सेवको-देवो, धर्मपरायण, सात्त्विको)ना पति छे, लक्ष्मीजीना पति छे, यज्ञपति छे अने जगत्पति छे. ए ज्ञाननु रहस्य भक्ति छे. बधा करतां भगवान्ने एमना भक्तो वधारे वहाला छे ए ज्ञाननुं अङ्ग छे. ए रहस्य अने अङ्ग साथेनुं ज्ञान हुं तमने आपुं छुं तमे ग्रहण करो ॥३०॥
विशेष - विज्ञान=विविध ज्ञान, रहस्य भक्ति, सुनन्दनन्दादिवेष्टित; अङ्ग=भृत्य उपर प्रसन्नता बतावनार, मारुं ज्ञान परमगुह्य छे. तमे जुओ छो तेवो ज हुं पुरुषोत्तम छुं. आ ज मारुं पहेलुं अने छेल्लुं रूप छे. भगवद्गुण अने ज्ञानना अवताररूप ए ज्ञान तमे लो. भगवान्नुं ज्ञान तो कोई कहे तो पण एमनी कृपा वगर हृदयमां आवतुं नथी. तत्त्वथी विशेष ज्ञान एटले जेवुं यथार्थ स्वरूप तेवुं एनुं ज्ञान तमारा हृदयमां स्फुरो. प्रथम श्लोकमां ‘पर’ ज्ञान कहेलुं छे. अने बीजा श्लोकमां ‘अवर’ ज्ञान छे. ए बे ज्ञान कही शकाय तेवां नथी; कदाच कहेवामां आवे तो ब्रह्माना हृदयमां ए ठरे नहि. तेथी भगवाने ज एने ‘वर’ तरीके आप्यां. त्रीजुं ‘क्रीडाज्ञान’ अनुग्रह विना प्राप्त न थाय तेथी भगवाने ‘गृहाण’ शब्द कहीने ब्रह्माजीने आ त्रणेय ज्ञान दानमां आप्या. हुं जेवडो छुं, मारां गुण, रूपो अने कर्मो जेवां छे तेवानुं तत्त्वविज्ञान मारा अनुग्रहथी तमने थाओ ॥३१॥अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध १८५ चतुश्लोकी भागवत, श्लोक ३२ थी ५३ हुं पूर्वे हतो ज. बीजुं कार्यकारणात्मक अथवा एथी पर कंई न होतुं. पछी पण हुं ज छुं.१ आ जे देखाय छे ते हुं छुं. प्रलय पछी जे बाकी रहेशे ते पण हुं ज छुं२ ॥३२॥
विशेष - १. हुं ज जगद्रूप थयो छुं. मारा सिवाय एमां जे देखाय छे ते मारी मायाथी देखाय
छे. एमां आधार-आधेय-भाव बाह्याभ्यन्तर भेदनुं कारण हुं पोते ज छुं. स्वरूपथी जगत्
मूळभूत छे. प्रतीतिथी मायारूप छे. पाछळथी एमां प्रवेश करनार जीव छे. ए सर्व जगत्
सर्व प्रकारे हुं ज छुं तेने एम जाणी पोतानुं स्वरूप पण एवुं समजवुं. माराथी पहेलां शुं?
एवी शङ्का न करवी. हुं कोई वखते न हतो एम ज नथी पण हुं तो सद्रूपे छुं ज, सत् अने
असत् पहेलां कह्या छे. पण ए तो ब्रह्मथी जुदां नथी, अभावो ए तिरोभावथी जुदा गण्या
नथी. ए आर्विभाव-तिरोभाव भगवान्नी शक्तिओ छे. शक्तिधर्मो पण त्यारे प्रकट थया नहि
होवाथी काळनां निरूपण वखते प्रकृति तुल्य गणाय तेथी ते भगवान्थी जुदा नथी. मारुं स्वरूप
ज सर्व भवनसमर्थ छे. तेमान्थी पाछळथी चेष्टावाळो काळ उत्पन्न थयो. पछी गुणरूपे, पछी
शक्तिरूपे अने पछी कार्यरूपे, पोते ज थाय छे. जड-जीवात्मक सर्व हुं छुं. आ शुद्ध
ब्रह्मवाद कह्यो. ज्यां बधां शुद्ध होय त्यां उपदेश कोने करवो? शास्त्र कोनुं शासन करे? हित
करवानो प्रसङ्ग पण कोईने क्यान्थी आवे? ज्यां प्रत्यक्ष न होय तेवी वस्तुमां श्रुतिए कहेला
परस्पर विरुद्ध धर्मो एक धर्मीमां मानवा जोईए. श्रुतिमां ज्ञान के कर्मनी मुख्यता नथी,
ब्रह्मनी मुख्यता छे. एमां ए धर्मोनो आरोप करो तो एक वाक्यता सुखेथी थशे. ए विरुद्ध
श्रुतिओना बळथी बन्नेने ब्रह्मलिङ्ग मानवा जोईए. जेम हाथ, पग पुरुषथी जुदा छे, छतां
ए पुरुषरूप गणाय छे तेम ब्रह्मथी जुदुं पुरुषोत्तमरूपे छे, बन्ने श्रुतिओ तुल्यबलवाळी
होवाथी ब्रह्म विरुद्धधर्माश्रय मानवुं इष्ट छे. बधा विरुद्ध पक्षो भगवान्मां शोभे छे. उत्पन्न
थयेलुं तिरोधान थतां जे तिरोधान न थाय ए वस्तु हुं छुं. अथवा तिरोधाननो जे आश्रय ते
हुं छुं.
२.भगवद्रुप प्रपञ्चमां जीवने जगतपणुं देखाय ए मोह करनारी मायानुं कार्य छे. मोहित
थयेली बुद्धि पदार्थोने ब्रह्मरूप न मानतां जगद्रूपे जुए छे. अर्ही साधन अने प्रमाण
बुद्धिनेमाटे छे. माया बे रीते भ्रम करे छे. जे छे तेनो प्रकाश करती नथी; जे नथी ते देखाडे
छे. एथी अर्थ प्रतीत थतो नथी. तेथी पदार्थनुं खरुं स्वरूप जाणवामाटे प्रमाणनी जरूर छे.
माया भगवान्नी शक्ति होवाथी निःस्वभाव नथी. बुद्धि चैतन्यनो विलास छे तेने माया मोह१८६ अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध
करे छे. भगवदीय पदार्थो भगवद्विषयक ज्ञानने उत्पन्न करे; तेथी विषयताए जे ज्ञान
उत्पन्न कर्युं ते भ्रमवाळुं होय छे; ज्यारे विषय(एटले भगवान्) जनित ज्ञान यथार्थ छे.
एम जेम जगतमां छे तेवुं आत्मामां पण समजवानुं छे. विषयता बे प्रकारनी छे - १.
विषयता विषयना रूपने ढाङ्की दे छे. २. विषयता रूपान्तरने बतावे छे. ए बन्नेने माया
उत्पन्न करे छे.
अर्थ वगर जेनी प्रतीति थाय छे अने आत्मामां जे देखातुं नथी तेने, जेम
‘तम’ अने ‘आभास’ देखाय छे तेवी आत्मानी माया जाणो ॥३३॥
जेम महाभूतो पाछळथी भूतोमां प्रवेश करे छे छतां एथी जुदां रहे छे तेम एमां हुं *रहुं छुं. छतां नथी पण रहेतो. (कारणरूप छुं, छतां जुदो छुं) ॥३४॥
विशेष - वेदमां बे प्रकारे पदार्थो निरूपण कर्या छे - साकार अने निराकार, सावयव अने निरवयव, पूर्ण अने परिच्छन्न, भूतादिक बधामां कारणरूपे रह्या छे छतां एमां पाछां प्रवेश करीने के प्रवेश कर्या वगर पण रहे छे तेम हुं सर्वत्र कारणरूप छुं सर्वत्र प्रवेश करुं छुं. छतां एना कारण रूप के अनुप्रविष्ट नथी. महाभूतमां पाञ्च प्रकारे कारणपणाए अने प्रवेशरूपे अने जुदा प्रवेशरूपे एम बे प्रकारनो प्रवेश होवाथी भगवान् दशधा सर्वमां प्रविष्ट छे; तेथी सर्व जगतमां भगवान् दश प्रकारनी लीलाथी दश प्रकारे जाणवा. तत्त्वजिज्ञासुए आत्मा सम्बन्धी एटलुञ्ज जाणवुं बस छे के जे *अन्वय अने व्यतिरेक थी सर्वत्र अने सर्वदा होई शके एनेज जाणवाथी बधुं जणाय ते आत्मा ॥३५॥
विशेष - प्रमेय एटले स्वरूप. ते ज्ञाननुं साधन छे, ज्ञाननो विषय छे, ज्ञाननस्वरूप ज छे अने तेथी तेनो उपयोग छे. प्रमाण एटले वेद, वेदो कर्मोनुं प्रतिपादन करे छे अने परोक्ष रीते तेनुं पर्यवसान वैराग्यमां आवे छे. विषय (श्रवण इत्यादि करवानो एटले के भगवान्) विरुद्ध धर्माश्रय होवाथी तेनुं पर्यवसान भक्तिमां आवे छे, आत्मामाटे तो आटलुं ज उपयोगी छे. बाकी तो देह वेगरेमाटे छे. अन्वय अने व्यतिरेकथी सर्व भगवान् छे सर्वत्र भगवान्नो अन्वय छे. जेमके ‘‘घडो छे’’द्ग‘‘भासे छे’’ एमां सत्तानो अन्वय छे. जो एमां भगवान्नो अन्वय न होय तो एक शब्दनी अनुवृत्ति अने प्रतीतिनी अनुवृत्ति न होई शके विशेषताथी जुदुं पडे ते व्यतिरेक. घडो घडाथी जुदो नथी, कपडुं कपडाथी जुदुं नथी पण सत् पदार्थ घडाथी जुदो पडे छे. कपडाथी जुदो पडे छे एम बधे ज समजवुं. जे सर्वरूप थईने जुदुं पडे ते ब्रह्म ज होय. जे सर्वत्र होय अथवा सर्वदा होय, देशकाळ जेनो परिच्छेद न करी शके तेमां अन्वयअध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध १८७ व्यतिरेकथी जे रहे ते ब्रह्म, टूङ्कमां कहीए तो हकारात्मक ज्ञान ए ‘अन्वय’ छे. अने नकारात्मक ज्ञान ए ‘व्यतिरेक’ कहेवाय छे. माया तो अन्वयथी परिच्छेदने पामे छे. मायाना विषयरूप आभास सत्नो अन्वय नथी. ए पोते असत् छे. भगवान् तो मायामां पण छे, मायातिरिक्तमां पण छे. एम काळमां पण भगवान् छे. विषयरूप घटमां सत्कारण छे. सत्कार्य छे, सदाधार छे, सत् आधेय छे सत् छतां घडो एनाथी अतिरिक्त पण छे. मृत्तिका घडो न कहेवाय. जो माटी घडो कहेवाय तो माटीना ढगलामां देखावो जोईए. एम कार्यमां सर्वदा पाञ्च प्रकारे भगवाननो अन्वय थाय छे. पाञ्च प्रकारे भगवान्नो कार्यमां व्यतिरेक छे. धट-पटथी व्यतिरिक्त छे, कारण थी पण व्यतिरिक्त छे, बीजा घडाथी पण व्यतिरिक्त छे, आविर्भाव-तिरोभावथी पण व्यतिरेक छे. घडानो आविर्भाव थाय छे, तिरोभाव थाय छे तेथी एक घडामां आविर्भाव-तिरोभावथी दश प्रकारे भगवान् रहे छे. एम सर्वत्र भगवान् दश लीलायुक्त छे. आथी स्वरूप ए भगवान् छे. देशनी प्रतीति तो मायिक छे, काळनी प्रतीति तो लीला उपरथी छे. ब्रह्मरूप जगतने जाणवुं. पण जगतथी जुदुं ब्रह्म छे तेथी जगतमां आसक्ति करवी नहि. एक पदार्थमां पण सर्व लीला सहित भगवान् छे ते देश-काळ वस्तुरूप छे छतां एनाथी जुदा पण छे. जो तमे आ मारो मत परम समाधिथी हृदयमां धारण करशो तो तमे कोई काळे कल्प-विकल्पमां मोहमां नहि पडो ॥३६॥
शुकदेवजी बोल्या - एवी रीते सारी पेठे परम धाममां बिराजता ब्रह्माजीने समजावी एना देखतां ज हरि भगवाने ए रूपने तिरोहित करी दीधुम् ॥३७॥
भगवान् इन्द्रियातीत छे. ब्रह्माजीए ए हरि भगवान्ने बे हाथ जोडी दण्डवतप्रणाम कर्या पछी ब्रह्माजीए पोते सर्व भूतमय थईने जेम प्रथम सृष्टि करी हती तेम आ जगतने बनाव्युम् ॥३८॥
एक दिवस धर्मना पति प्रजापति ब्रह्माजी पोताना स्वार्थनेमाटे प्रजानुं कल्याण इच्छता यम नियमोनुं अनुष्ठान करवा लाग्या ॥३९॥
ब्रह्माजी प्रचार करवा तैयार थया तेमनी एमनो प्रिय पुत्र नारद शील, इन्द्रियदमन अने विनय थी सेवा करवा लाग्यो ॥४०॥
हे राजन! महा भगवद्भक्त अने मोटा महा मुनि नारदजीए मायाना ईश्वर एवा भगवान् विष्णुनी माया जाणवामाटे पोताना पिता ब्रह्माजीने सेवा करीने प्रसन्न कर्या ॥४१॥१८८ अध्याय-९, द्वितीयस्कन्ध लोकना पितामह अने पोताना पिता ब्रह्माजीने प्रसन्न थया जाणीने देवमां ऋषिरूप एवा नारदजीए ब्रह्माजीने पूछ्युं. तमे जे मने पूछो छो ए ज ब्रह्माजीने नारदजीए पूछेलुम् ॥४२॥
भूतकृत ब्रह्माजीने प्रसन्न थईने भगवाने जे श्रीभागवत कहेवुं ते दश लक्षणवाळुं* श्रीभागवत पुराण ब्रह्माजीए प्रसन्नताथी पोताना पुत्र नारदजीने कह्युम् ॥४३॥
विशेष - पुत्रने सदुपदेश पण जरूर देवो जोईए, नारदजी तो मायाना ज्ञानमाटे आव्या हता तेमने माया न कहेतां भगवत्स्वरूप बताववानुं ए कारण छे के पुत्र मार्गे न चालतो होय तो पण एनुं अमार्गथी निवारण करी सन्मार्गनो उपदेश पिताए करवो जोईए, अथवा ब्रह्माजी सर्व भूतने पेदा करनार छे ते सर्वनो उपकार वामाटे एमणे नारदजीने आ सिद्धान्तरूप धन सोप्युं. एनो विस्तार थतां जगतनुं कल्याण थशे. हे राजन! नारदजीए ब्रह्माजीनी पासेथी श्रीभागवत सिद्धान्त लीधो ए सिद्धान्तनो उपदेश सरस्वतीना किनारा उपर पर ब्रह्मनुं ध्यान करता अतुल तेजवाळा व्यास मुनिने कर्यो ॥४४॥
यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात् पुरुषादिदम् ॥ यथाऽऽसीत् तदुपाख्यास्ये प्रश्नानन्यांश्च कृत्स्नशः ॥४५॥
तमे मने पूछ्युं के विराट पुरुषथी आ जगत् केम थयुं? ए तथा बीजा प्रश्न कह्या. ए बधा प्रश्नना उत्तर हुं तमने अनेक प्रकारे समजाय एम पुरा आपीश ॥४५॥
इति श्रीभागवत द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजा मनन प्रकरणनो पाञ्चमो) ‘‘चतुःश्लोकी भागवत’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ओ भाई रे! तें भागवत भणीने शुं कीधुं? मारे जन्तु(श्रोता) अहि(नाग=कथाकार) मणि(भागवत) अजवाळे, त्यम तें (कथाकार)उदर पोखी लीधुं!! पारसमणिनुं पात्र(भागवत) पाणिमां घेर-घेर भिक्षा माङ्गे! ईञ्ज्यां लगी वस्तुनुं ज्ञान ना त्यां लगी दुःख-दारिद्र्य ना भाङ्गेउं ईं उंअध्याय १० पुराणादिकनां लक्षण
विशेष - पूर्व अध्यायमां भगवान् अने जीवनां आक्षेप अने समाधाननुं निरूपण कर्युं. हरि अने जीवनां रूप अने देह युक्तिथी कहेवामां आव्यां एमां भगवाननुं रूप दश प्रकारनुं जणाय छे. बीजी जग्याए आध्यात्मिक आदि भेदवडे त्रण प्रकारनुं छे. एवुं पण कह्युं छे. गुण अने कर्मवडे बे प्रकारे छे एवुं पण कहेवामां आवेलुं छे, भगवाने ब्रह्माजीने उपदेश कर्यो तेमां चार पदार्थो कह्या. त्रण सिवायना पक्षो तो श्रुतिमां प्रसिद्ध छे. तेथी एनो विस्तार अर्ही न करतां एक पदार्थमां दश लीला छे ते स्वरूप अने लक्षणथी बतावे छे. जो के ए दश पदार्थो बीजां पुराणोमां बहिर्मुखताथी कह्या छे पण ए श्रीभागवत्मां नथी. श्रीभगवत्मां तो ए आ उपर कह्या प्रमाणे छे. अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ॥ मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥१॥
शुकदेवजी बोल्या - आ श्रीभागवत्मां सर्ग, विसर्ग स्थान पोषण, उति, मन्वन्तर; ईशानुकथा; निरोध, मुक्ति, आश्रय ए दश पदार्थ* कह्या छे ॥१॥
विशेष - शरीर वगरना विष्णु, पुरुष शरीरनो स्वीकार करे ए ‘सर्ग’ कहेवाय.
पुरुषथी ब्रह्मादिनी उत्पत्ति ते ‘विसर्ग’.
उत्पन्न थयेलुं मर्यादावडे पालन ते ‘स्थान’.
स्थिति करी रहेलान्नी अभिवृद्धिनु कार्य ते ‘पोषण’.
पोषण पामेलाओनुं आचरणा ते ‘ऊति’.
एमां सदाचार ते ‘मन्वन्तर’.
एमां विष्णु भगवान्नी भक्ति ते ‘ईशानुकथा’.
भक्तोने प्रपञ्च-जगतनो भाव न रहे ए ‘निरोध’.
एवाओने थतो स्वरूपनो लाभ ते ‘मुक्ति’.
मुकतोनुं ब्रह्मना स्वरूपमां रहेवुं ए ‘आश्रय’.
हवे तेने बीजी रीते जोईए ः
‘सर्ग’ = कारणपणाथी कार्यमां भगवान्थी स्थिति
‘विसर्ग’. कार्यपणाथी पहेलान्थी एमां भगवान्नुं रहेवुं.
[[१८९]] ‘स्थान’ = सर्व वस्तुमां वस्तुस्वरूपे अने मूळरूपे ते-ते मर्यादारूपपणुं.
‘पुष्टि’ = कार्यनी सिद्धिमाटे सर्वसमर्थ भगवाननो एमां प्रवेश.
‘ऊतिलीला’ = ब्रह्मज्ञानीने प्रतीति सिद्ध कराववा त्यां भगवान् एवी लीला करे ते.
(नोन्ध - आम पाञ्च प्रकारे अन्वयरूपे सर्व वस्तुमां भगवान्नी लीला उद्दिष्ट छे).
‘मन्वन्तर’ = कारणथी जुदी रीते, घटना रूपथी, जुदा भावथी, सत्पुरुषना धर्मनुं कारण
प्रापञ्चिक होवा छतां वेदना विधिनो विषय थाय ने भगवत्स्वरूपथी जुदो पडे.
‘ईशानुकथा’ = भगवत्सेवारूप धर्मवडे लोक-वेदथी जुदो पडी जाय त्यारे ईशानुकथा थाय.
‘निरोध’ = स्वरूपनी इच्छा करनार लौकिक-वैदिक भक्तो परित्याग रूप एक वस्तुमां चित्तने
रोके त्यारे भगवान् निरोधरूप थाय.
‘मुक्ति’ = निरोधरूप छतां आत्मा देहने छोडावीने पोते पण परित्यागरूप थाय ते घडा
वगेरेमां भगवाननी असङ्गोदासीनता.
‘आश्रय’ = नव प्रकारना स्वरूपनो आधार.
आना अज्ञानमां सर्व शास्त्रो व्याकुळ थाय छे माटे श्रीभागवत् शास्त्र सर्वनुं उद्धारक अने
सर्व शास्त्रवचनोनुं निर्वाहक छे. सर्व पदार्थमां भगवद्रूप दश धर्मो रह्या छे तेमान्थी एक ग्रहण
करवो, बीजा धर्मो छोडी देवा. एनो जेटले दूर सुधी गुणसम्बन्ध होय तेनो त्याग करवो. जो
ए सम्बन्ध राखो तो भगवदाश्रयमां ए व्यभिचार करे, अनन्याश्रयनो भङ्ग थाय. आ धर्मो
एक पछी एक आवे छे. जे छेवटमां रहे तेने ग्रहण करवो. ए आश्रयना आवरको छे अने
छोडवाथी आश्रय शुद्ध थाय छे.
अनुग्राहक प्रमाण अने प्रमेय नुं जेमां एकमां पर्यवसान कह्युं छे, जेमां ए त्रणनुं
पर्यवसान छे ते आश्रय. ए गुणो अन्योन्य मळवाथी नव भेद थाय छे. ए नव सर्ग, विसर्ग
वगेरे लक्षणरूप थाय छे. सर्गादिमां प्रमेय लक्षण छे. पुष्ट्यादिमां प्रमाण लक्षण छे. ईशानुकथादिमां
ज्योतिष लक्षणरूप छे. ए ज उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयरूप थाय छे. एमां उत्पत्ति
कारणथी, कार्यथी अने आधारथी; स्थिति पोषणथी, विलासथी अने धर्मथी; प्रलय पण
अहन्ता-ममतारूप ईशानुकथावडे लक्षणरूप थाय छे, सङ्घातनो प्रलय निरोध गणाय छे,
मुकत जीवोनो ब्रह्ममां प्रवेश थाय छे तेवो निरोध नथी.
दश लीलामां दशमी लीला आश्रय छे. एनी शुद्धि एटले तत्त्वज्ञानमाटे नव
लीलानां लक्षण कह्यां छे एम श्रुतिथी अने अर्थवडे सरलताथी महात्माओ कहे छे.
पाञ्च महाभूतो, पाञ्च विषयो, दश इन्द्रियो, चार अन्तःकरणरूप बुद्धि आम आ
[[१९०]] (२४ तत्त्वो) नो *जन्म एटले सर्ग. अर्थात् त्रण गुणो, महद् अहङ्कार अने
प्रकृति ए बधानो ब्रह्मथी विराट्रूपे जन्म थाय ए सर्ग कहेवाय. पुरुष (ब्रह्माथी)
जे सर्ग थाय ए विसर्ग कहेवाय. भगवान्नो विजय ए स्थानलीला. एनो
अनुग्रह ए पोषणलीला. सद्धर्म ए मन्वन्तर अने कर्मनी वासना ए ऊतिलीला
॥३-४॥
विशेष ः
तत्त्व (चोवीस) नुं कारण त्रण गुणो. एमना विषमपणाथी एमां गुणता आवी. एनुं
कारण ब्रह्म लईए तो परम्पराथी २८ तत्त्वो थाय; एना जन्मनुं नाम सर्गलीला. ‘सर्ग’ बे
प्रकारनो छे- प्रत्येकनो अने समुदायनो. गुणोनुं वैषम्य चार प्रकारनुं छे. ए प्रत्येक विषम छे
एम सर्ग ३३ के ३४ भेदथी भिन्न थाय छे.
जे पुरुषथी थया ते ‘विसर्ग’ कहेवाय छे. एनाथी त्रण लोकना भेद छे ए भेद ३१
थाय छे. ८ वसुओ, ११ रुद्रो, १२ आदित्यो, कुल ३१. (चोथो स्कन्ध).
वैकुण्ठनो विशिष्ट जय ज्यां होय ते स्थिति, प्राकृतमां २४ प्रकारे स्थिति छे. आत्मामां बे
प्रकारे छे - जीव अने ब्रह्म भेदथी - ए छव्वीश अध्याय ‘स्थानलीला’ (पाञ्चमां स्कन्ध)ना.
जीतेलाओनी उपर पुरुषोत्तमनो अनुग्रह ते ‘पुष्टि’. एमान्थी मर्यादाने माटे छने जुदा
करीने बाकीनानी उपर अनुग्रह छे. पञ्चभूतने आत्मामां अनुग्रह नथी, मर्यादा छे, बाकी रह्या
१९ तेटला अध्याय ‘पुष्टिलीला’ना (षष्ठ स्कन्ध).
‘ऊतिमां’ वासनापणुं छे. सद्धर्मने धर्मपणुं छे. धर्मजनित वासना होय तेथी
विपरीतताथी बतावे छे. (सप्तम स्कन्ध.) कर्मे उत्पन्न करेली वासना कर्मवासना. कर्मेन्द्रियोना
अने शरीरना धर्मो वासनाजनक थाय छे. ज्ञानेन्द्रियोना धर्मो तथा अन्तःकरणना धर्मो
वासनाजनक नथी होता. तेथी शरीरना धर्मो दश तथा कर्मेन्द्रियना पाञ्च आम पन्दर अध्याय
थया. (सप्तम स्कन्ध उतिलीलाना)
‘मन्वन्तर’ एटले सत्पुरुषोनो धर्म. ए काया, वाणी अने मन थी कहेलो त्रण प्रकारनो.
इष्टनुं चिन्तन आवाप अने उद्वापथी थाय. इष्ट आशंसा करे, हुं इष्ट करीश एवा भावथी
विचारे एम अन्तःकरणमां चार प्रकारे धर्म. सर्व इन्द्रियोथी पण सद्धर्म करवानुं, रेतः अने
पायुना निरोधथी ते बेनुं धर्मपणुं छे. ‘आश्रय’ (पाद), आदान (पाणी), तृप्ति (वाक्),
प्रजनन (शिश्न),जाड्य (पायु), ताप, निबन्धन, दूरीकरण अने शब्दादि दानथी ज शरीरमां
सद्धर्म दश प्रकारे रहे छे. पाञ्च तन्मात्रा पाञ्च शब्दादि विषयो, दश इन्द्रियो, चार अन्तःकरण
[[१९१]] मळी २४ भेद थया (अष्टम स्कन्ध).
भगवान्ना अवतारादिनां चरित्रो, भगवान्नां भक्तोनां चरित्रोनां अनेक
व्याख्यानोथी वृद्धिङ्गत थयेली *ईशानुं चरित लीला कहेवाय छे ॥५॥
विशेष - ‘ईशानुकथा’ बे प्रकारनी छे - ईश्वरनी अने एना भक्तानी. हरि एटले दुःख दूर करवुं अने सुख आपवुं. दुःखनुं निवारण करवामां गुणना भेदथी नव प्रकार थाय. ईशानुचरित्र पण कर्म, ज्ञान अने भक्तिथी त्रण प्रकारनुं होय छे. तदनुवर्ती भक्तोमां पण ज्ञानीओ एक प्रकारना होय छे. एम दुःख दूर करवामां तेर भेद थाय छे. सुख आपवाना प्रकार दश छे केमके दश इन्द्रियोथी सुख अपाय छे अने भगवान् एक छे. ए मळी ११ थया. प्रथम १३ कह्या ए सर्व मळी २४ थाय. (अष्टम अने नवम स्कन्ध) एमनुं प्रत्येक निरूपण करी बताववा जुदा-जुदा आख्यानथी ‘ईशानुकथा’ कही छे. पोतानी शक्तिओ साथे आ भगवान्नुं पाछळथी पोढवुं एनुं नाम ‘निरोध’ लीला१ बीजा प्रकारना रूपने२ छोडीने स्वस्वरूपमां आवी जवुं एनुं नाम ‘मुक्तिलीला’ ॥६॥
विशेष - १. आ भगवान्नुं पाछळथी शयन एटले शक्तिओनुं सुवडावीने एना भोगने माटे
पाछळथी एनी साथे शयन ए छे. ‘आ’ एटले आगळ उभेलो देह. देहनी शक्तिओना ७२
नाडीओना भेदो छे. भगवान्नी श्रीवगेरे १२ शक्तिओ छे एने शयन, जाग्रत, स्वपन,
सुषुप्ति एम त्रण प्रकारनुं एम ८७ भेदो थया.
(निरोधलीलाना दशमा स्कन्ध ८७ अध्याय)
२. अन्यथारूप एटले तत्त्वरूपने छोडवां ए एक. अवस्था बे जातनी छे - सामान्य
अने विशेष भेदवाळी. २८ तत्त्वो, २ जातनी अवस्था अने १ तत्त्वपरित्याग एम ३१
अध्याय थया. (एकादश स्कन्ध)
उत्पत्ति अने प्रलय जेनाथी थाय अने जेनाथी प्रकाशे छे ते *आश्रय. ए ज
पर ब्रह्म ए ज परमात्माना नामथी ओळखाय छे ॥७॥
विशेष - आश्रय बे जातना छे - शास्त्रमार्गे प्रपत्तिती अने ज्ञानमार्गे सायुज्यथी आश्राय
थाय छे, अथवा उत्पत्ति, स्थिति अने प्रलयथी आश्रय सिद्ध थाय छे. एमां क्रियाथी आश्रय
पाञ्च प्रकारनो छे, ज्ञानथी आश्रय आठ प्रकारनो छे. मन तो द्विस्वभाव छे तेथी एनो
सम्बन्ध क्रिया अने ज्ञान बन्नेमां छे. अहङ्कारनी अन्दर अहङ्कारने आश्रय नथी तेथी ए तेर
थाय छे. छतां ए बे रूपमां वहेञ्चाय छेः एक क्रियारूप अने बीजो ज्ञानरूप. क्रियावडे
[[१९२]] आश्रयपणुं कर्तृपणाथी छे एमां आभास अने निरोध एटले उत्पत्ति ने प्रलयना अर्थमां
लेवा. विकारो केवळ भगवान्थी थता ज नथी पण प्रकाश थाय छे. माटे अस्ति, भाति, प्रिय
ए त्रण भगवान्नां कार्य एना आश्रयपणाथी भगवान् आश्रय छे केमके भगवान् सत्, चित्
अने आनन्द छे.
जे आध्यात्मिक पुरुष ए ज नेत्र वगेरे इन्द्रियोना अभिमानी जीव छे ए ज
अधिदेव छे अने इन्द्रियोना देवो सूर्यादिना नियामक छे. ए बन्नेनो विभेद करनार
ए आधिभौतिक. देहस्थित गोलकादिरूप ए आधिभौतिक छे अने एने लीधे
आध्यात्मिकादि बे भेद थाय छे ॥८॥
ए त्रणमां बेमान्थी एक न होय तो ए जणाता नथी. जेम के आधिदेव विना बन्ने नकामां छे. कारण विना देव अने भूत नकामां छे. आने जे जाणे ए स्वाश्रयवाळो आश्रय समजवो ॥९॥
विराट पुरुष अण्डनो भेद करीने ज्यारे बहार नीकळ्या त्यारे पोताने रहेवानुं स्थान जोईए एनी इच्छा करतां पोते पवित्र थईने पवित्र जल उत्पन्न कर्युं. पोते बनावेला जळमां ए हजारो वर्ष रह्या. एथी एनुं ‘नारायण’ नाम थयुं केमके नरथी उत्पन्न थाय ए नार = जळ कहेवाय. ए जेनुं स्थान ए ‘नारायण’ कहेवाय; केमके पुरुषथी पहेलां जळ थयुञ्छे ॥१०-११॥
एना अनुग्रहथी द्रव्य, कर्म, काळ, स्वभाव अने जीव एवा पाञ्च पदार्थ थाय छे. एनी उदासीनतामां एनी उत्पत्ति थती नथी ॥१२॥
पोतानी योगशय्यामान्थी बेठा थईने भगवाने अनेक रूप करवानी इच्छा करी एथी पोतानी मायामां पोताना सुवर्णरूप वीर्यने त्रण भागमां वहेञ्च्युम् ॥१३॥
(विराट) पुरुषनुं एक ज वीर्य अधिदैव, अध्यात्म अने अधिभूत ए त्रण भागमां केवी रीते वहेञ्चायुं ते हुं तमने कहुं छुं ते साम्भळो ॥१४॥
शरीरनी अन्दर रहेला आकाशने लीधे पुरुषे चेष्टा करी एमान्थी ओज, बळ अने सह ए त्रणे बळ थयां. त्यार पछी प्राण थयो अने ए मोटो थयो. (ओज = इन्द्रियसामर्थ्य, सह=मानसिक सामर्थ्य, बळ=शारीरक सामर्थ्य) ॥१५॥
जेम राजानी पाछळ एना नोकरो जाय तेम जेनी इन्द्रियो काममां जोडाय के तरत ज जगतनी इन्द्रियो पण काम करवा लागे छे. जेनी इन्द्रियो निवृत्त थाय एज जगतनी इन्द्रियो पण निवृत्त थाय छे॥१६॥
[[१९३]] प्राणे मळ वगेरेने आम तेम फेङ्कया एनाथी अन्दरथी भूख अने तृषा उत्पन्न थई. ज्यारे एने पाणी पीवानुं अने खोराक खावानुं मन थयुं त्यारे प्रथम मोढुं नीकळ्युं. मोढामां ताळवुं थयुं तेमां जीभ थई. पछी अनेक रस थया जे जिह्वा जाणी शके छे ॥१७-१८॥
भगवाने बोलवानी इच्छा करी त्यारे मुखमां अग्निदेव थया, वाक् इन्द्रिय थई अने बोलवुं ए विषय थयो. ए पहेलां घणा वखत सुधी ए जळमां बोली शक्या न हता. पण ज्यारे वायु वध्यो त्यारे नासिका इन्द्रिय थई तेमां गन्धने वहन करनार वायु थयो. गन्ध ग्रहण करवामाटे घ्राण इन्द्रिय थई. गन्ध एनो विषय छे ॥१९-२०॥
ज्यारे तेणे जोवानी इच्छा करी त्यारे तेने बे नेत्र थयां तेमां सूर्य देवता थया, चक्षु इन्द्रिय थई, रूप विषय थयो. ऋषिलोकोनी स्तुति साम्भळवानी इच्छा थई त्यारे बे कान थया तेमां श्रोत्र इन्द्रिय, दिशा देवता अने श्रवण एनो विषय थयो ॥२१-२२॥
वस्तुनी कोमळता, कठिनता, हळवापणुं, उष्णत्व, शीतत्व वगेरे जाणवामाटे विराट पुरुषने त्वचा नीकळी तेमां लोम इन्द्रिय अने वृक्षो देवो थया. ए त्वक् इन्द्रियमां अन्दर अने बहार वायु रह्यो छे तेनाथी उपर जणाव्यां ते जणाय छे ॥२३॥
नाना प्रकारनां कार्य करवानी इच्छा थतां एमान्थी बेहाथऊगी आव्या ते बन्नेना बळवान इन्द्र देव थया. बन्नेनो विषय ग्रहण करवानो थयो. इच्छा होय त्यां जवानुं मन थतां बे पग ऊगी आव्या ते बन्नेना यज्ञ (विष्णु) देवता थया. माणसो पोते पगवडे आवी होमद्रव्य तैयार करवानी क्रिया करेछे ॥२४-२५॥
प्रजा अने आनन्दरूप अमृतनी इच्छा थतां जननेन्द्रिय उद्भवी तेमां उपस्थ इन्द्रिय थई. प्रजापति एना देवता थया. कामजन्य सुख ए बन्नेने(इन्द्रिय अने देवता ने) अधीन छे ॥२६॥
धातुओना मेल बहार काढवामाटे गुदा नामनी इन्द्रिय नीकळी. तेमां पायु नामनी इन्द्रिय थई. मित्र एना अधिष्ठाता थया. बन्ने मळीने मेल बहार काढे छे; ए विषय छे ॥२७॥
अपानमार्गद्वारा एक शरीरमान्थी बीजा शरीरमां जवानी इच्छा थई त्यारे
[[१९४]] नाभिद्वार प्रकट थयुं. एमान्थी अपान अने मृत्यु देवता प्रकट थया. आ बेना
आश्रयथी ज प्राण अने अपाननो विछोह थाय छे, अर्थात् जुदां पडे छे, मृत्यु
थाय छे. ए बन्नेने अधीन कह्युं छे. अन्न अने पानने लेवानी इच्छा थतां पेट
अने आन्तरडां थया. नदी अने समुद्रो एना देव थया. एने आश्रयमां तुष्टि अने
पुष्टि थयां. आत्ममायानुं ध्यान करतां हृदय थयुं तेनाथी मन अने चन्द्र थयां.
सङ्कल्प अने काम एनाथी उत्पन्न थाय छे ॥२८-३०॥
त्वक् (अन्दरनी चामडी), चर्म (बहारनी चामडी), मांस, रुधिर, मेद, मज्जा अने अस्थि ए सात धातुओ भूमि, जळ अने तेजरूप छे. प्राण, आकाश, जळ अने वायु ए त्रण रूप छे ॥३१॥
इन्द्रियो बधी त्रण गुणवाळी छे. अहङ्कारथी गुणो उत्पन्न थया छे, मन सर्व विकाररूप छे अने बुद्धि विज्ञानस्वरूप छे ॥३२॥
में तमने आ जे भगवान्नुं रूप कह्युं ते भगवान्नुं स्थूळरूप छे. तेने १पृथ्वी
२जळ ३तेज ४वायु ५आकाश ६अहङ्कार ७महत्तत्व अने ८प्रकृति ए आठ बहारना
आवरणो छे ॥३३॥
आ स्थूळरूप कह्युं तेनाथी बीजुं एक अतिसूक्ष्म रूप भगवान्नुं छे ते व्यक्त देखातुं नथी पण अव्यक्त छे. कोई विशेषणथी एने जुदुं पाडी शकाय तेवुं नथी. एनां आदि, मध्य के अन्त नथी. ए नित्य छे. वाणी अने मनथी पण ए पर छे ॥३४॥
में तमने स्थूळ अने सूक्ष्म एवां बे रूप वर्णन करीने बताव्यां ते मायानी सृष्टि छे एम जाणी विद्वान लोको ए बन्नेने ग्रहण करता नथी ॥३५॥
ए भगवान् अनामरूप हता ते वाच्यवाचकरूप थया. ए नामरूप क्रिया करे छे. ए सकर्मक अने अकर्मक अने सर्वना नियामक एनाथी जुदा पण थाय छे ॥३६॥
प्रजापतिओ, मनुओ, देवो, ऋषिओ, पितृगणो, सिद्धो, चारणो, गन्धर्वो, विद्याधरो, देवताओ, गुह्यको, किन्नरो, अप्सराओ, नागो, सर्पो, किम्पुरुषो, मातृकाओ, राक्षसो, पिशाच, प्रेत, भूतविनायक, कृष्माण्डल उन्माद, वेताळ, यातुधानो, ग्रहो, पक्षीओ, मृगो, पशुओ, वृक्षो, पर्वतो, पेटे चालनारां, बीजा स्थावर-जङ्गम भेदथी बे प्रकार अने जरायुज, अण्डज, स्वेदज अने उद्भिज् एम चार प्रकारनां जळ, स्थळ अने आकाशमां रहेनार प्राणीओमाटे भगवान् त्रण गुण धारण करे छे [[१९५]] ॥३७-३९॥
कर्मनी गति त्रण प्रकारनी छे - कुशळ, अकुशळ अने मिश्ररूप. सत्त्वगुणनी प्रधानताथी देवोनी, रजोगुणनी प्रधानताथी मनुष्योनी अने तमोगुणनी प्रधानताथी नारकी (नरक सम्बन्धी) योनि मळे छे. (पशुयोनिओनो समावेश नारकी योनिओमां थाय छे) ॥४०॥
आ त्रण गुणोमां पण ज्यारे एक गुण बीजा बे गुणोथी अभिभूत थाय छे त्यारे दरेक गतिना त्रण-त्रण भेद बीजा थई जाय छे. हे राजन्! ए त्रण प्रकारनी गति पण अनेक भेदवाळी थाय छे. ज्यारे एक बीजा बेथी दबावाय छे त्यारे तेमान्थी करोडो भेद थाय छे. सत्त्वनो रजोगुण तमोगुण पराज्य करे तो एना अनेक भेद थाय तेम आ भेदो छे ॥४१॥
ए ज धर्मना रूपने धारण करनार जगतनुं पोषण करनार भगवान् मत्स्य वगेरे हलकी योनिमां, राम वगेरे मनुष्ययोनिमां वामन वगेरे देवयोनिमां अवतार लई, उत्पत्तिथी माण्डी अन्त सुधी जगतनुं पोषण कर्या करे छे ॥४२॥
पछी भगवान् प्रलयकाळना अग्निरूप रुद्ररूप धारण करीने पोते बनावेला जगतनो नाश करे छे, जेम वादळान्ना दळोने पवन क्षणवारमां उडावी दे छे तेम॥४३॥
हे भगवत्तमो! भक्तो! राजाने समजाववामाटे अमे भगवान्ने आवी रीते कह्या पण विद्वान लोको भगवान्ने एवी रीते जोवाने योग्य नथी, भगवान् जन्म लईने कर्मादि करे छे ए तो अनुवाद मात्र छे; ए पण कर्तापणाना निषेधने माटे छे केमके ए कर्तापणुं भगवान्मां मायाए आरोप्युं छे ॥४४-४५॥
विकल्प सहित आ ब्रह्मकल्प कह्यो. आ ब्रह्मकल्पमां प्राकृत अने वैकृत सर्गो थया. अवान्तर कल्प विकल्प कहेवाय. ब्रह्मकल्प महाकल्प कह्यो. महाकल्पमां प्राकृत सर्गादि थाय छे. अवान्तरमां वैकृत थाय छे. ए उत्पत्तिनो प्रकार बीजा जेवो साधारण छे ॥४६॥
काळनुं परिमाण अने कल्पनुं लक्षण तथा एनुं स्वरूप ते आगळ कहीश. अत्यारे तो पाद्म कल्प साम्भळो ॥४७॥
शौनकजीए पुछ्युं - हे सूतजी! आपे अमने कह्युं हतुं के भगवानना परम भक्त विदुरजीए अत्यन्त दुस्त्यज पोताना कुटुम्बीओने पण छोडीने पृथ्वी उपरना विभिन्न तीर्थोमां परीभ्रमण कर्युं हतुम् ॥४८॥
[[१९६]] ए यात्रामां मैत्रेयऋषिनी साथे अध्यात्मना सम्बन्धमां एमनी वातचीत क्यां थई अने एमणे (विदुरजीए) प्रश्नो पूछतां मैत्रेयजीए कया तत्त्वनो उपदेश कर्यो? ॥४९॥
सूतजी! आपनो स्वभाव घणो ज सौम्य छे. आप विदुरजीनुं ते चरित्र अमने श्रवण करावो एमणे पोताना भाई-बन्धुओनो त्याग केम करवो पड्यो तथा फरीथी एमनी पासे केम आव्या? ॥५०॥
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यदवोचन्महामुनिः ॥ तद्वोऽभिधास्ये शृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥५१॥
सूतजीए कह्युं - राजा परीक्षिते (पण) आ वात पूछी हती. एना प्रश्नोना उत्तरमां श्रीशुकदेवजी महाराजे जे कह्युं हतुं ते हुं आपने कहुं छुं. सावधानताथी साम्भळो ॥५१॥
इति श्रीभागवत् द्वितीयस्कन्धमां (त्रीजा मनन प्रकरणनो छेल्लो छठ्ठो) ‘‘पुराणादिना लक्षण’’ नामनो दसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. द्वितीयस्कन्ध समाप्त जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? (प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) एवुं करे त्यारे तो सेवाकथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवा-कथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोकज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति) [[१९७]]
ईं उं ईं उं
१९८ तृतीयस्कन्ध तृतीयस्कन्ध सर्गलीला लौकिकसर्ग अने अलौकिकसर्ग अध्याय-३३ बन्धसृष्टि मुक्तसृष्टि अध्याय१-१९ अध्याय२०-३३ बन्धसृष्टि (अ.१-१९) गुणातीत सगुणसृष्टि कालसृष्टि/ मुक्तजीवसृष्टि- मुक्तजीवसृष्टि तत्त्वसृष्टि उपोदृघात (अ.१-६) (अ.७-९) (अ.१०-११) (अ.१२) (अ.१३-१९) प्रकरण.१ प्रकरण.२ प्रकरण.३ प्रकरण.४ प्रकरण.५ भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान् जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनो अनुगामी थईने श्रीमहाप्रभुजीनी ज आज्ञाथी विपरीत जई मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार गुरुद्रोही शिष्य, तेमाटे आज्ञा आपनार गोस्वामी गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार आ त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(!) श्रीवल्लभना द्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके. [[१९९]] मुक्तसृष्टि (अ.२०-३३) तत्त्वमुक्ति कालमुक्ति गुणातीमुक्ति सगुणमुक्ति जीवमुक्ति (अ.२०-२४) (अ.२५) (अ.२६-२७) (अ.२८) प्रकरण.६ प्रकरण.७ प्रकरण.८ प्रकरण.९ प्रकरण.१० पुरुष (अ.२९-३१) स्त्री (अ.३२-३३) जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? (प्रभुसेवा-मनोरथ माटे भेट-सामग्री स्वीकारे) एवुं करे त्यारे तो सेवाकथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवा-कथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोकज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)